Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 02
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/016144/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः / सकल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात् जिनागम कुञ्जी) द्वितीयो भागः ('आ' से 'ऊहापन्नत') मुनिराज दीपविजय-यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती -राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्करअनेकांत के जगप्रस्तोता-श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फीगंज, उज्जैन (M.P.)/ प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट : शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम: मोहनखेडा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन: 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014 सुकृत् सहयोगी श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताबर संघ सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग: श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था: खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुतः / / सधस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान ? // 1 // Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्र 2014 अनुक्रमणिका 7-11 1. प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय पट्टावली 3. प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन 5. प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरि नुमः श्रीअभिधानराजेन्द्रः-द्वितीयो भागः ॐ 12-13 14 01-1215 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प-प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था / अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था / ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवन-दर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिम पथ प्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ-सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञ था, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार-युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक बने। उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया / इसके अनुकरण और इसकी सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसने जैन-जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। इस ग्रन्थराज नेलुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है। आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं- अ, इ,उ, ऊ, ऋ, छ, झ, ठ, ड, ढ, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, ल, द्ध, द्व, व, क्त, ह्र। अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा-पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है। आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी 2 श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी 4 श्रीसय्यंभवस्वामी श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीभद्रबाहुस्वामी 7 श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवज्रस्वामीजी 14 श्रीवज्रसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17. श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि 24 श्रीविक्रमसूरि 25 श्रीनरसिंहमूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 28 श्रीविवुधप्रमसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 32 श्रीप्रद्युम्नसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीयशोभद्रसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि श्रीसोमप्रभसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 44 श्रीजगचन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 47 श्रीसोमप्रमसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 54 श्रीसुमतिसाधुसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि 56 श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि 61 श्रीविजयप्रभसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 6. श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि 66 श्री विजयभूपेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य श्री विजयजयन्तसेनसूरि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा, जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादिसे प्रवमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मा जब सम्यक्त्वगुण प्राप्त करती है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है, परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान आत्मग्राह्य हैं ; अतःये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो करलोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्धादुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जराभी आवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भावएवं कारण स्थिति से स्वंय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्धअथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदिकरते रहें। कर्म और आत्मा का अनादिसेघना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने में से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्व लता प्रकट कर देती है। कर्मकी आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारी जीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्मजीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतःजीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यहजीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्मस्वरूप मान लेता है। यही एकमात्र कारण है जीव के संसार परिभ्रमण का। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमत बादि।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रा के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्व जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हममोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितना घटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोह राजा के निर्देशन में ही कर्मसेना आगेकूच करती है।जीव को भेद विज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है। इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। ___ और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म। इसने जीव को शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है, जो अनादि से आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती है, तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधिपूरी हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता, इसी प्रकार जब तकजीव की जन्मजन्मकी कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक जीव मुक्ति का आनंदनहीं पा सकता। नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रपट पर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविध जीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य, तिर्यच और नरकगति में भ्रमण करता है। गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्रा कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्मधारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है- राजा के खजाँची के समान। खजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती दान, लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शनका कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करने वालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन् अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्व--स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवलजैन-धर्म-दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं। सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज।' बुद्धं शरणं गच्छामि ........... धम्मं सरणं गच्छामि। और केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि। इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्त धर्मदर्शनों में जीव को परमात्म प्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्मस्वरूप ही माना गया है। यह जैनधर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभंगी एवं स्याद्वादशैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाश रहे थे, जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्धत्यागवृद्ध तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वेदिव्य पुरुष थे उत्कृ ष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छा छाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोईग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्वजो 'अभिधान राजेन्द्र 'में है, वह अन्यत्र हो या न हो, पर जो नहीं है; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्वकाल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सबकोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल। जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का' शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का शिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्या उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का 'पाइयलच्छी नाम माला' 279 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 868 शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने' पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाममाला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द बनजाते हैं-जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्ज़े का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने ' अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि','अनेकार्थसंग्रह', निघण्टु संग्रह और देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा ' शिलोंछ कोश' 'नाम कोश' शब्द चन्द्रिका','सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह' ,शारदीय नाममाला',शब्द रत्नाकर','अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेषनाममाला,' शब्द सन्दोह संग्रह',' शब्द रत्न प्रदीप', विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश' पंचवर्ग संग्रह नाम माला', अपवर्ग नाममाला', एकाक्षरी नानार्थ कोश, 'एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश','एकाक्षर नाममाला',' द्वयक्षर कोश',देश्य निर्देश निघण्टु','पाइय सद्दमहण्णव', अर्धमागधी डिक्शनरी',जैनागमकोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश','जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी! 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोशग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 मर्म''कारादिक्रम से समझाया है, यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवेसन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थव्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ास्याही से तर कर देते थे और उसमें कलमगीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये ,प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संतापभी सहन किये। साथ-साथध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेव सूरिजी महाराज अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं -आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मानका भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआऔर इस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदि कोई मुझसे यह पूछेकि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौन सी है, तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबई चार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ।जो भी मिला उसने यही कहा कि अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुलर्भ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना नहो,तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमनें उन्हें आश्वस्त करते हए कहा कि त्रिस्तुतिकजैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है। अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये। तामिलनाडू राज्य की राजधानी है यह मद्रास / दक्षिण में बसे हुए दूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में 'अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाईगतिमान हुई, पर' श्रेयांसि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चत्राचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज तोताराम विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 // Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्यस्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था प्रकाशन को स्थगित करना सबके लिए दुःखद था, पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने .... .............! उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया / श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिकसकल संघको है। 'त्रिस्तुतिकसमाज की इस अनमोलधरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यकथा / ऐसा न करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्रीभाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघका विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ / संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्रीशान्तिविजयजी महाराज साहब आदिमुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस' अभिधान राजेन्द्र के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिलभारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिकसंघ केद्वारा यह कोशग्रन्थपुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबके लिए परम आनंद का विषय है। इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्रीगगलभाई अध्यक्ष अभा सौ.बृ.त्रिस्तुतिकसंघगुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई,मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता / इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्रीमफतलाल झवेरचन्दका स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है। वे सबधन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है। शुभम्। नेनावा (बनासकांठा) दिनांक 2-12-85 - आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार-प्रदर्शनम्। --0-- सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान--प्रातःस्मरणीय--परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्युपकारक-श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-भट्टारक श्री 1008 प्रभु श्रीमद् - विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1646 के आश्विनशुक्लद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी / इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1960 चैत्र शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार) हुआ। गवालियर-रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष-शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक–मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मर्हम--गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत्-निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र- कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए ! कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सोंपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1964 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1981 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय–श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्-महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज; साहित्यविशारद–विद्याभूषण--श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब Page #20 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ-रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बड़ा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद,मुंजाखेड़ी, कूकसी, मन्दसोर, खरसोद-बड़ी, आलीराजपुर, सीतामऊ चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेड़ा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरड़िया, पारां, उज्जैन, (भाट) पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरड़ाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्),ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, वासण, बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेंसवाड़ा, धानपुर, जोगापुरा, रमणिया, आकोली, भारंदा, मांकलेसर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, मांडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खुडाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतड़ा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरोड़ी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुड़ा, थलवाड़, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ, ड्रडसी, सूराणा, सेदरिया, थाँवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) // श्रीः॥ मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्योस्तिकः // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोधिबीजपदम् / सचरित्रनिधिं दयाभरविधि प्रज्ञावतामादिमम, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः॥१॥ धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्म दृढः संयमे, सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 2 // वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजजुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः / / 3 // य कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां, मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छ्रावकै स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः // 4 // लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वैरं मिथो देहिनां, __दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत्। मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरि नुमः // 5 // यो गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराट्, यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेघव्रतं योऽधरन्, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरि नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान विजित्य विविधैर्मानेस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु__स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त–वपुष राजेन्द्रसूरिः नुमः // 7 // लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्ध्या चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरि नुमः // 8 // गुरुवरगुणराजिम्राजितं सारभूतं, __ परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सर्वां सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः || -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः द्वितीयो भागः Page #24 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानो जयति। अभिधानराजेन्द्र: सिरिवद्धमाणवाणिं, पणमिअ भत्तीइ अक्खरक्कमसो। सद्दे तेसु य सव्वं, पवयणवत्तव्वयं वोच्छं ||1|| ____ आइ आकार "DDDDDDDDDD वा" ||8 2 105 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेणान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो वैकल्पिक: / प्रा। आअड्ड धा० (व्यापृ) वि-आ-पृ. / व्यापारे, तुदा, आत्म अनिट् / "व्याप्रेराअडः" / / 8 4 81 // इति हैमप्राकृतसूत्रेण वैकल्पिक आअडु इत्यादेशः / आअड्डेइ / वावारेइ / व्याप्रियत इत्यर्थ: / प्रा०। आअरिअ-पुं.आचार्य। गुरौ, वाच।"स्यादव्य-चैत्य-चौर्य-समेषु यात् " // 82 107 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण एकारात्पूर्व इकारः / प्रा०1"आचार्य चोऽच" ||173 // इति हैमप्राकृतसूत्रेण अत्। प्रा। आ-अव्य. (आ) आप् - क्विप् -पृषो. प्लोप: / वाक्ये, (पूर्वमित्थं नो अमंस्थाः, इदानीं त्वेवं मन्यसे इत्येवं वाक्यस्यान्यथात्वद्योतने,) स्मृतौ, | (आ एवं मन्यसे इत्येवं विस्मृततस्य स्मृतौ,), अडितो निपातत्वात् प्रगृहासंज्ञा। डितस्तु न।"निपात एकाजनाङ्' // 11 // 14 // इति सूत्रात्। अत एवोक्तम- "मर्यादायामभिविधौ, क्रियायोगेषदर्थयोः ।य आकार: स ङित् प्रोक्तो, वाक्यस्मरणयोरडित् / / 1 // " वाच / अभिविधौ० (व्याप्तौ,)"आगमसत्थग्गहण // 21 // आ-अभिविधिनासकलश्रुत व्याप्तिरूपेण मर्यादयावा। आ०म०१।"आडोऽभि विहीए." (1276) अभिविधौ, / विशे।"आगरा० // 8 // " मर्यादया अभिविधिना वा। ओघ / मर्यादायाम, (सीम्नि,) प्रज्ञा० 36 पद 46 सूत्र / आ०म० / प्रव० 1 विशे० / भ० / आघ01 सूत्र / समन्तादित्यर्थे, उत्त०१ अ.१३ गाथा। सारा० / सूत्र / अवागर्थे, (अधोभूमौ,), प्रज्ञा०२ पद४६ सूत्र। ईषदर्थे, // आङ: मद्विषदर्थत्वात्। विशे० 1234 गाथा। आचा० / एका० / सूत्र० / (अत्राऽडिल्लक्षण एव तात्पर्यम, डिदशे मर्यादायामित्यादयस्तूदाहरणभात्रमत एव अन्यत्रापि ङित्प्रयुज्यते) अमर्षे, आभिमुख्ये, रा० / अनुकम्पायाम् , समुचये, अङ्गीकारे, कोपे, पिडायाम, एका० / आ: किमेतदित्येवम विस्मये, स्था०५ ठा०३ उ० 394 सूत्र, एका०। सन्तोषे, सुखततौ, चिरे, लघुवस्तुनि, परितापे, विधौ, सलिले, क्षये, एका। स्वयंभुवि, पुं। एका। आचार्य च। सच नामैकदेशे नाममात्रग्रहणात् - ओमितिपदे आशब्द: आचार्य बोधयतीति ! गाल। आअ/आगअ त्रि. (आगत) / आयाते, उपस्थिते, प्राप्ते च। आगमने, न / वाच०।"व्याकरणप्राकारागते क-गो:" ||8 1 268 / / इति हैमप्राकृतव्याकरणसूत्रेण वैकल्पिको गकारस्य सस्वरस्य लुक् / प्रा०। आ(असं)अरिस-पुं. (आदर्श) / दर्पणे, वाचः / "श-र्ष-तप्त-वजे आइ- पुं. (आदि) आदीयते- (गृह्यते) इति आदि:- प्रथमः / प्रव०७१ द्वार 1 गाथा / आ-दा-कि आदि। "क ग च ज त द प य वां प्रायो लुक्" ||8 1977 / / इति लुक् / प्रथमे, प्रा० / यस्मात्परमस्ति, न पूर्वं स आदिः / अनु०७४ सूत्र / मूलकारणे, प्रज्ञा० 11 पद 165 सूत्र / मूलमादिरित्यनर्थान्तरमिति: आ. चू.१अ / प्रथमोत्पत्तौ, सूत्र०२ श्रु०५ अ.२ गाथा। प्राथम्ये, उत्त०१ अ०३३ गाथा। प्रधाने, आचा०२ श्रु०१ चू 104 उ०२२ सूत्र। उत्सेधाख्ये नाभेरधस्तते देहभागे, स्था०६ ठा०३ऊ 495 सूत्र / भेदे, (प्रकारे,) नि. चू 1 उ० / सामीप्ये, व्यवस्थायाम, अवयवे च / आह च "सामीप्ये च, व्यवस्थायां, प्रकारेऽवयवे तथा / चतुर्थेषु मेधावी, ह्यादिशब्दं तु लक्षयेत्॥१॥' प्रश्न०१आश्र द्वार 3 सूत्र। अस्य चतुर्विधो निक्षेप: नामस्थापना द्रव्यभावभेदात, तद्यथाणामादी ठवणादी, दव्वादी चेव होति भावादी। दव्वादी पुण दव्वस्स, जो सभावो सए ठाणे ||134 / / 'णामादी' त्यादि, आदेनिक्षेपं कर्तुकाम आह-आदेनामा दिकश्चतुर्धा निक्षेपः / नाम-स्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यादि दर्शयति-द्रव्यादिः पुनद्रव्यस्य परमाण्वादेर्य: स्वभाव:- परि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइ 02 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइक्खिय गतिविशेष: स्वकेस्थाने- स्वकीये पर्याये प्रथमम् - आदौ भवति स तच तन्मरणं चेति कर्मधारयः / भ०१२ श०६ उ०४९ सूत्र / तृतीये द्रव्यादिः द्रव्यस्य- दध्यादेर्य आद्यः परिणतिविशेषः क्षीरस्य मरणविशेषे, प्रक। विनाशकालसमकालीन एवमन्यस्यापि- परमाण्वादेर्द्रव्यस्य 'जो' य: आत्यन्तिकमरणमाहपरिणतिविशेष: प्रथममुत्पद्यते स सर्वोऽपि द्रव्यादिरेयमेव भवति। ननु च एमेव आइअंतिय- मरणं न वि मरइ ताणि पुणो / 23|| कथं क्षीरविनाशसमये एव दध्युत्पाद: / तथाहि- उत्पादविनाशी आर्षत्वादित्ययं निर्देश: / एवमेव-अवधिमरणवदात्यन्ति-कमरणमपि भावाभावरूपौ वस्तुधर्मो वर्तेते न च धर्मो धर्मिणमन्तरेण भवितुमर्हति, द्रव्यादिभेदतः पञ्चविधं, विशेष: पुनरयम् - 'न विमरइ ताणि पुणो' तिअत एकस्मिन्नेव क्षणे तद्धर्मिणोदधिक्षीरयोः सत्तामाप्रोत्येतच अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव तानिद्रव्यादीनि पुनर्मियन्ते / अयमर्थ:दृष्टेष्टवाधितमिति, नैष दोषः / यस्य हि वादिनः क्षणमात्रं वस्तु तस्यायं यानि नारकाधायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय मियन्ते मृताश्च न दोषो, यस्य तु पूर्वोत्तरक्षणानुगमतमन्वयि द्रव्यमस्ति तस्यायं दोष एवन पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यन्तीत्येवं यन्मरणं तद् द्रव्यापेक्षया भवति / तथाहि- तत्परिणामि द्रव्यमे कस्मिन्नेव क्षणे एके न अत्यन्त 'वित्वा-दात्यन्तिकमिति। एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यम्। प्रव०१५७ स्वभावेनोत्पद्यते परेण विनश्यत्यनन्तधर्मात्मकत्वाद्वस्तुन इति / द्वार। उत्त। सः यत्किंचिदेतत् / तदेवं द्रव्यस्य विवक्षितपरिणामेनापरिणमतो य आद्य: तज्दा यथासमय: स द्रव्यादिरिति स्थितं, द्रव्यस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति। आदितियमरणे णं, पुच्छा, गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तंजहासांप्रतं भावादिमधि कृत्याह दव्वादितियमरणे,खेत्तादितियमरणे. जाव मावादितिय-मरणे। आगम णोआगमओ, भावादी तं दुहा उवदिसंति। (सूत्र 4954) भ. 13 श०७ ऊ। गोआगमओ भावो,पंचविहो होइणायव्वो।।१३५ / / (एषां भेदाः 'मरण' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यन्ते) आगमओ पुण आदी, गणिपिडगं होइ वारसंगं तु। आइइल्ल-त्रि. (आदिम) आद्ये, अनु०*"डिल्ल-डुल्लौ मवे" गंथसिलोगो पदपा-दअक्खराइंच तत्थादी॥१३६ / / 2 153 // इति इल्ल। प्रा० / 'आगम' इत्यादि, भाव:-अन्त:करणस्य परिणतिविशेषस्तं वुद्धा: आइं- अव्य (आई)। वाक्यालङ्कारे, प्रश्न०३ संव, द्वार 26 सूत्र। 'आई' तीर्थकर--गणधरादयो व्यपदिशन्ति- प्रतिपादयन्ति। तद्यथा-आगमतो, ति निपातः। भ. १५श०१ उ०५५० सूत्र। 'तक्करं एवं वयासी-अवि-आई नोआगमतश्च / तत्र नोआगमत: प्रधानपुरुषार्थत याचिन्त्यमानत्वा अहं विजया!" (सूत्र 40x) अपि:' संभावने 'आई' ति भाषायाम्। ज्ञा० त्पञ्चविध:- पञ्चप्रकारो भवति / तद्यथा- प्राणातिपातविरमणादीनां १श्रु०२ अ। पञ्चानामपि महाव्रतानामाद्यः प्रतिपत्तिसमय इति / तथा- 'आगमओ' आइक डिल्ल- नं. (आदिकडिल्ल) आद्यगहने, तचादिक - इत्यादि, आगममाश्रित्य पुनरादिरेवं द्रष्टव्यः / तद्यथा-यदेत-गणिनआचार्यस्य-पिटकं- सर्वस्वमाधारो वा तद्-द्वादशाङ्गं भवति। तुशब्दात् डिल्लमुगमोत्पादनैषणारूपं ज्ञानादिरूपम्। वृ.१ उ.*।''कंटगमादीसु अन्यदप्युपाङ्गादिकं द्रष्टव्यम् / तस्य प्रवचनस्यादिभूतो यो जधा, आदिकडिल्ले तधा जयंतस्स" ||3134 | नि.चू.४ ऊ। ग्रन्थस्तस्याप्याद्यः श्लोकस्तस्याप्याद्यपदं तस्यापि प्रथममक्षरम् आइक्ख धा. (आङ्ख्या ) अदा, पर० सेट् / सामान्येन, कथने, एवंविधो बहुप्रकारो भावादिष्टव्य इति / तत्र सर्वस्यापि प्रवचनस्य "आइक्खइ।" समान्येन भाषते इत्यर्थ: / औ०२७ सूत्र। सामान्येनाचष्टे / सामायिकमादिस्तस्यापि करोमीति पदं तस्याऽपि ककार: / द्वादशानां विषा.२ श्रु०१०३३ सूत्र।। त्वङ्गानामाचाराङ्गम् आदिस्तस्यापि शास्त्र-परिज्ञाध्ययनमस्यापि च *आख्येय-त्रिः / कथनीये, स्था०४ ठा०२ उ०३९७ सूत्र। जीवोद्देशकस्तस्यापि 'सुयं ति पदं तस्यापि सुकार इति पदमादिरिति / आइक्खग(य)- पुं. (आख्यायक)। शुभाशुभमाख्याय जीविका कुर्वत्या अस्य च प्रकृताङ्गस्य समयाध्ययनमस्यापि आधुद्देशक- लोक- पाद- जीविकाविशेषे, जं.२ वक्ष०३० सूत्र। पद- वर्णादिष्टव्य इति / सूत्र०१ श्रु०१५ अ।"ओयम्मि उ गुणकारे, आइक्खण- न. (आख्यान) सामन्यत: कथेन, संहिताकर्ष-णपूर्वककथने अभिंतर मंडले हवइ आई। जुग्गम्मि य गुणकारे, बाहिरगे मण्डले च।औ०२७ सूत्र।"संहियकट्टणमादिक्खणंतु' ||87x // इह संहिवाया आई" // 4 // अस्यार्थ:- ओजोरूपेण-विषमलक्षणेन गुणकारो भवति अस्खलित पदोच्चारणरूपाया यदाकर्षणं तत् आख्यानमुच्यते, तचेदम्, तत: आदि: अभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्यः / युग्मे तु-समे तु गुणकारे आदि: व्रतसमितिकषायाणां धारणरक्षणविनिग्रहा: सम्यक् दण्डेभ्यश्चोपरमोधर्म: बाह्ये मण्डले अवसेयः / सू. प्र० 10 पाहु. 20 पाहु, पाहु०५६ सूत्र। पञ्चेन्द्रियदमश्चैवं भिक्षांगते गृहस्थानां धर्मकथनार्थ संहिताकर्षणं करोति। *आजि- स्त्री / अजन्त्यस्यामिति, अज - इण। संग्रामे, संथा०६७ गाथा। बृ.३ऊा समरभूमौ, मादायाम् वा डीप् / क्षणे, मार्गे, पुं०। भावे इण / आक्षेपे आइक्खमाण-त्रि (आचक्षाण) कथयति, "आइक्खमाणो' ||15+ll च / वाचा सूत्र.१ श्रु.१४ अ आति-पु.अत् इण् / शरारिपक्षिणि, सततगन्तरि, त्रि०ा वाच०। आइक्खिय न(आख्यायिक) पापश्रुतविशेषे, सा च मातङ्गविद्या आइ(दि)अंतियमरण न (आत्यन्तिकमरण) अत्यन्तं भवमात्यन्तिके | यदुपदेशादतीतादि कथयतीति। स्था९ठा०३ उ०६७८ सूत्र। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइक्खित्तए 03 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइच आइक्खित्तए- अव्य. / (आख्यातुम)- कथयितुमित्यर्थे, बृ०३ उ० 23 सूत्र। आइगर-त्रि (आदिकरे) आदि करोति अहेत्वादायपिटः / स्त्रियां डीप, / प्रथमकारके प्राक्सत्ताकर्तरि, वाच। "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे" (सूत्र-१०x) औला"ते सव्वे पावाउया आदिगरा धम्माणं" (सूत्र-४१४) / सूत्र. 2 श्रु० 2 अ / आदौप्रथमतः श्रुतधर्माचारादिग्रन्थात्मकं कर्म करोतितदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवं शीलः / भ०१ श.१ उ. 5 सूत्र ! आदि:- श्रुतधर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशील: / रा० / स्वस्वतीर्थापेक्षया धर्मस्येति / / कल्प०१ अधि०२ क्षण 15 सूत्र / जी / तत्करणहेतुर्वा / ध० 2 अधि०६१ श्लोक श्रुतधर्मस्य प्रथमप्रवृत्तिकारकेतीर्थकरे च / आव०५०१ गाथा। स०। "नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं" || रा०। इहाऽऽदौ करणशीला आदिकरा अनादावपि भवे तदा तदा तत्तत्कण्विादिसम्बन्धयोग्यतया विश्वस्यात्मादिगामिनो जन्मादिप्रपञ्चस्येति हृदयम्, अन्यथा अधिकृतप्रपञ्चाऽसंभवः, प्रस्तुतयोग्यता वैकल्ये प्रक्रान्तसंबन्धाऽसिद्धेः अतिप्रसङ्गदोषव्याघातात्, मुक्तानामपि जन्मादि प्रपक्षस्याऽऽपत्तेः / प्रस्तुतयोग्यताऽभावेऽपि प्रक्रान्तसम्बन्धाऽविरोधादिति परिभावनीयमेतत् / न च तत्तत्कर्माण्वादेरेव तत्स्वभाव-तयाऽऽत्मनस्तथा सम्बन्धसिद्धिः, द्विष्ठत्वेन अस्योभयोस्तथास्वभावापेक्षितत्वात्, अन्यथा कल्पना-विरोधात्, न्यायानुपपत्ते., न हि कर्माण्वादेस्तथा कल्पनायामप्यलोकाकाशेन, सम्बन्धः, तस्य तत्संबन्धस्व- भायत्वायोगात्, अतत्स्वभावे चाऽऽलोकाकाशे विरुध्यते कर्माण्वादेस्तत्स्वभावताकल्पनेति न्यायानुपपत्तिः, तत्स्वभाव-ताङ्गीकरणे चास्यास्मदभ्युपगतापत्तिः, न चैव स्वभावमात्रवादसिद्धिः, तदन्यापेक्षित्वेन सामग्या: फलहेतु- त्वात्, स्वभावस्य चतदन्तर्ग-तत्वे नेष्टत्वात् / निर्लोठितमेतदन्यत्र इति आदिकरत्वसिद्धिः // 3 // ल०। "यद्यप्येषा द्वादशाङ्गीन कदाचिन्नासीन्न कदाचिन्न भवति, न कदाचिन्न भवष्यिति। अभूच, भवति च, भविष्यति च" इति वचनात् नित्या द्वादशाङ्गी, तथाप्यथपिक्षया नित्यत्वं, शब्दापेक्षया तु स्वस्वतीर्थे श्रुतधर्मादिकरत्वमविरुद्धम्। ध०२ अधि०६० श्लोक। आइगुण- पुं (आदिगुण) आदौ गुण: सप्तमीतत्पुरुषः / सहभाविनि गुणे, आव 4 अ० 1273 गाथा / (सिद्धानामादिगुणा एकत्रिंशत्, ते च 'सिद्धाइगुण' शब्दे सप्तमभागे द्रष्टव्या:) आइग्घ-धा० (आघ्रा) आङ, घ्रा-भ्वा० पर अनिट्। गन्धोपादाने, तृप्तौ च० वाच / "आधे राइग्घः" 84 | 13 11 इति हैमप्राकृतसूत्रेणाऽऽजिघ्रते वैकल्पिक आइग्घाऽऽदेश: / आइग्धइ। आग्धाअइ / जिघ्रतीत्यर्थः / प्रा०। आइच-पुं० (आदित्य) / कृष्णराज्यवकाशान्तरस्थलोकान्तिकसंज्ञकार्चि लिविमानस्थे लोकान्तिकदेवविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु० 4 अ० 77 सूत्र।स्था० / भ, / गैवेयकविमानविशेषे, तन्निवासिनि वैमानिकदेवविशेषे च / प्रव० 267 द्वार / समयावलिकादीनामादौ भवे, बहुलवचनात् त्यप्रत्ययः / सू० प्र०२० पाडु 105 सूत्र / भ० / सूर्ये, आव०४ अ | सूर्य्यस्यादित्यसंज्ञा यथासे केणद्वेणं मंते! एवं बुच्चइ-सूरे आइचे? सूरे आइच्चे गोयमा! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइवा. जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ वा से तेणतुणं गोयमा।। जाव आइच्चे सूरे आइये सूरे। (सूत्र. 455) अथादित्यशब्दस्यान्वमिधानायाह- 'सेकेणमित्यादि' 'सूराइय' त्ति-सूर:- आदि:- प्रथमो येषां ते सूरादिका: के? इत्याह- 'समयाइव' त्ति-समया:-अहोरात्रादिकालभेदानां निर्विभागा-अंशाः, तथाहिसूर्योदयमवधिं कृत्वा अहोरात्रारम्भक: समयो गण्यते आवलिकामुहूर्तादयश्च 'सेतेणमि' त्यादि, अथ तेनार्थेन सूरः- आदित्य इत्युच्यते इति आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव: आदित्यः इति व्युत्पत्ते: / त्यप्रत्ययश्चेहाऽऽर्षत्वादिति। भ०१२ श०६ ऊ / सू० प्र०। चप्र०। आदित्यस्यास्तित्वमणाऽऽइचो उएइ, ण अत्थमेइ 117x || सर्वशून्यवादिनो-ह्यक्रियावादिन: सर्वाध्यक्षाभादित्योद्गमना- दिकामेव क्रियां तावनिरुधन्तीति दर्शयति- आदित्यो हि सर्वजनप्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी स एव तावन्न विद्यते, कुत्तस्तस्योगमनमस्तमयनं वा? यच्च जाज्वल्यमानं तेजोमण्डलं दृश्यते तद् भ्रान्तमतीनां द्विचन्द्रा- दिप्रतिभासमृगतृष्ण काकल्पं वर्तते / (सूत्र / ) अथैतन्मतस्य निराकरणम्-तथाहि-आगोपानागनादिप्रतीत: समस्तान्धकार- क्षयकारी कमलाकरोद्धा-टनपटीयानादित्योद्रम: प्रत्यहं भवन्नुपलक्ष्यते / तत्क्रिया च देशाद्देशान्तरावाप्स्याऽन्यत्र देवदत्तादौ प्रतीताऽनुमीयत इति। सूत्र०१ श्रु.१२ अ। सूर्याधिष्ठिते गगने दिवानिशं बम्भ्रम्यमाणे लोकप्रकाशकरे तेजोमण्डले, "अग्नौ प्रस्ताऽऽहुति: सम्य-गादित्यमुपतिष्ठते॥ आदित्याज्जायते वृष्टि-वृष्टेरनं ततः प्रजा:" // 1 // इति / मनुना अग्निहुतद्रव्याणां हविराज्यादीनां परमाणुमात्रतयाऽवस्थितानां दग्धशेषाणां सूर्यरश्मिकर्षणेन सूर्यलोकप्राप्त्या वृष्टिहेतुत्वमुत्कम्, तच मण्डलार्थपरत्व एव सम्भवति। वाच० / अर्कवृक्षे, पुं। आदित्यस्यापत्यम् ण्य: यलोप: आदित्यापत्ये, पुं. स्त्री० / वाच"आइचो य होई बोधव्वो" ||15 / / (भाष्यगा.)। आदित्यास्यायमादित्यः पत्युत्तरपदय-मादित्यदितेरिति ज्याऽपदवादस्त्यक् / आदित्यस्याऽयम् / आदित्यः / ("अनिदमि अणपवादे च दित्यदित्या दित्ययमपत्युत्तरपदात् ज्य:" // 6 // 1 / 15 / / एभ्यः प्रागजितीयेऽर्थे इदं वर्जे अपत्याद्यर्थे य: अणोऽपवाद: तद्विषये च ज्य: स्यात् / इति ज्य:*) "व्यञ्जनात्पञ्चमान्त-स्थायाः सरूपे वा" // 1 347 / / इति पाक्षिक एकस्य यकारस्य लोप: / आदित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्याऽदित्य: (व्य.)। आदित्यसम्बन्धिनि तचारनिष्पन्ने मासादौ, स चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा त्र्यशीत्यधिकदिनशत-प्रमाणस्यषष्ठभागमानः। यदि वा-आदित्यचारनिष्पन्नात्वादुपचारतो मासोऽप्यादित्यः / व्य. 1 उ.। "जस्स जओ आइचो, उएइ सा भवइ तस्स पुव्वदिसा" / (474) / आचा. 1 श्रु०१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइच आइञ्छ 04 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 अ.१ उा ('दिसा' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्या द्रष्टव्या) आइचगय-चि० (आदित्यगत) सूर्याऽऽक्रान्ते नक्षत्रादौ, "आइचगए अनिव्वाणी'' || रविगते नक्षत्रे शुभप्रयोजने प्रारभ्यमाणेऽसुखम् / बृ.१ उ.* आइञ्चजस- पुं०(आदित्ययशस) ऋषभदेववंशजे भरतात्मजे नृपभेदे, आ. चू, 1 अ०।"राया आइचजसे." / / 363 / / आ०म०१ अस्था० / स च पुण्डरीकशिखरे सिद्धः / ती०१ कल्प / आदित्ययश:प्रभृतयो भगवन्नाभेयवंशजा: त्रिखण्डभरता- र्द्धमनुपाल्य पर्यन्ते पारमेश्वरी दीक्षामतिगृह्य तत्प्रभावत: सकलकर्मक्षयं कृत्वा सिद्धिमगमन्निति / नं. 56 सूत्र। आइबपीढ- न. (आदित्यपीठ) गजपुरस्थे श्रेयांसेन कारिते आदितीर्थकरस्य रत्नमये पादपीठे, आ. म। तद्वक्तव्यता यथा'सेज्जसो वि तत्थ ठितो भयवं पडिलाभितो ताणि पयाणि पाएहिं मा अंक्कमिस्सामि त्ति भत्तीए तत्थ रयणमयं पीढं करेइ तिसंजं च पूएइ। पव्वदिवसे विसेसेण पूइऊण भुंजइ। लोगो पुच्छइ / किमेयं-सेज्जंसो भणइ-"आइतित्थयरमण्लं'' ततो लोगेण वि जत्थ जत्थ भयवं ठितो तत्थ तत्थ पीढं कय। कालेण य"आइचपीढ़' जायं।। (345 गाथाटी.) अक्षरगमनिका क्रियाध्याहारत: कार्या। यथा गजपुरं नगरमासीत्, तत्र श्रेयांस: सोमयशसो राज्ञः पुत्रः, तेनेक्षुरसदानं भगवते कृतम् / तत्रार्द्धत्रयोदशहिरण्यकोटी वसुधारा निपतिता। पीढमिति यत्र भगवता पारितं तत्र तत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं कार्षीदिति श्रेयांसेन भक्त्या रत्नमयं पीठं कारितं गुरुपूजेति तदर्धनं कृतवान् / अम०१ अ / आइचमास- पुं० (आदित्यमास) आदित्यस्यायमादित्यः / आदित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो वाऽऽदित्यः स चासौ मासश्च कर्मधारयसमासः / आदित्यचारनिष्पन्ने मासभेदे, स चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वा त्र्यशीत्यधिक शतदिनप्रमाणस्य षष्ठभागप्रमाण: / व्य.१ उ०४५ गाथा। आइचेणं मासे एक्कतीराइंदियाणं किंचि विसेसूणाईराइंदिग्गेणं पण्णत्ते / (सूत्र 314) / आदित्यमासो-येन कालेनादित्यो राशि भुक्ते 'किंचि विसेसूणाई' ति-अहोरात्रार्द्धन न्यूनानीति। स०३१ स०। आइयो खलु मासो, तीसं अद्धं च ||374 || आदित्यसंवत्सरसम्बन्धी खलु मासो भवति त्रिंशद्वात्रिंन्दिवानिएकस्य चरात्रिंदिवसस्यार्धम्। तथाहि-सूर्य संवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि षट्षष्ट्याधिकानि रात्रिंदिवानि, द्वादशभिश्चमासै: संवत्सरस्ततस्त्रयाणां शतानांषट्पष्टयधिकानांद्वादशभिर्भागे हृते यथोक्तंमासपरिमाणं भवति। ज्यो०२ पाहु। आइचवण्ण-त्रि (आदित्यवर्ण)। भास्वरे, षो०१५ विव० 14 श्लोक। आइबसंवच्छर-पुं. (आदित्यसंवत्सर)। प्रमाणसंवत्सराणांमध्ये चतुर्थे | संवत्सरविशेषे,यावता कालेन षडपि प्रावृडादय ऋतव: परिपूर्णा आवृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष आदित्यसंवत्सरः। उक्तं च-"छप्पि उऊ परियट्टा, एसो संवच्छरोउ आइयो'" तत्र यद्यपिलोकेषष्ट्यहोरात्रप्रमाण: प्रावृडादिक ऋतुः प्रसिद्धः; तथापिपरमार्थत: स एकषष्ट्यहोरात्रप्रमाणो वेदितव्य: तथैवोत्तरकाल-मव्यभिचारदर्शनात् अत एवास्मिन् संवत्सरे त्रीणि शतानि षट्षष्ट्याधिकानि रात्रिंदिवानां भवन्ति / चं. प्र. 10 पाहु. २०पाहु. पाहु, / तत्रत्र्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्र: प्रथमस्यषण्मासस्य पर्यवसानम् / षट्षष्ट्यधिकत्रिंशत्तमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानम्। एष एवंप्रमाण आदित्यसंवत्सरः। चंप्र.१पाहु। (एतस्य वक्तव्यता'अहोरत्त' शब्दे प्रथमभागे गता।) ('संवच्छर' शब्द सप्तमभागे च वक्ष्यते।) (अयमेव लक्षणप्रधानतया लक्षणसंवत्सरान्तर्गतोऽपि।) तल्लक्षणं यथापुढविदगाणं च रसं, पुप्फफलाणं च देइ आइयो। अप्पेण वि वासेण वि, सम्म निप्पज्जए सस्सं // 4 // पृथिव्या उदकस्य तथा पुष्पाणां फलानां च रसमादित्यसंवत्सरोददाति, तथा अल्पेनापि- स्तोकेनापि वर्षेण वृष्ट्या सस्यं निष्पद्यते, अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् सस्यं निष्पादयति किमुक्तं भवति- यस्मिन् संवत्सरे पृथिवी तथाविधोदकसंपर्कादतीव सरसा भवति / उदकमपि परिणामसुन्दररसोपेतं परिणमते / पुष्पाणां च मधूकादिसंबन्धिनां फलानां च चूतफलादीनां रस: प्रचुर: संभवति।स्तोकेनापि वर्षेण धान्य सर्वत्र सम्यक् निष्पद्यते तम् - आदित्यसंवत्सरं पूर्वर्षय: उपदिशन्ति / सू.प्र. 10 पाहु०२० पाहु, पाहु.। स्था। आइजिण-- पुं०(आदिजिण)। ऋषभदेवे, हेम०। वाचा "नमिऊण तमाइजिणं, जस्सीसे सोहए जडामउडो। कप्पाकप्पवियारं, पञ्चक्खाणे भणिस्सामि // 1 // " ल० प्र० / / आइ (दे) ज्ज- त्रि. (आदेय) / आ-दा-यत् / ठााह्ये, जं. 2 वक्षः। उपादेये, उत्त०१ अ०ी आइ (दे) ज्जमाण- त्रि. (आद्रयमाण) आर्दीक्रियमाणे, आचा०१ श्रु० ५०३ऊ। आइ (दे) ज्जवक्क त्रि. (आदेयवाक्य)। ठाह्यवाक्ये, "से सुद्धसुत्ते उवहाणवक्के, धम्मे च जे विन्दति तत्थ तत्थ || आदेज्जवक्के." ||274|| एतद्गुणसम्पन्नश्चादेयवाक्यो भवति। सूत्र०१ श्रु. 14 अा आइ(दे)ज्जवयण- त्रि. (आदेयवचन) सकलजनग्राह्यवाक्ये, दशा० 1 अ.। उत्त। स्था। आइ (दे) ज्जवयणया- स्त्री. (आदेयवचनता)। सकलजनग्राह्यवाक्यताया ग्राह्यवचनतारूपे वचनसम्पढ़ेदे, उत्त०१०। स्था०। आइञ्छ- कृष-धा।तुदा. आ. पाभ्वा. परअनिट्च आकर्षणे, विलेखने च. वाच.। "कृष: कड-साअड्डाधा- णच्छायञ्छाइञ्छा:" | | १८७॥इति वा कृषेराइञ्छादेश: आइञ्छ / पक्षेकरिसइ। कृषते कर्षति वा प्रा०। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइञ्छ 05 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइण्ण. *कर्ष पुं। भावे धञ्। आकर्षणे, विलेखने च। वाच / परिवज्जए" उत्त० 1 अ / पुरुषविशेषे च / स च विनयादिगुणोपेतः / आइट्ठ-न. (आतिष्ठ) अति-स्था-क-षत्वम्। अतिष्ठस्तस्यभाव: अण् / स्था०४ ठा०३ ऊ / जवादिगुणयुक्ते अश्वे, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ / स्था। अतिक्रम्य स्थिती, उत्कर्षे, वाच / विक्षिप्त च / वाच। *आदिष्ट-न। आ-दिश्। भावे, आज्ञायाम्, उपदेशे च। कर्मणि इक्तः / *आचीर्ण- त्रि. (आचर्यत) इति / कल्पनीये, नि० चू.१ उ / उपदिष्टे, व्याकरणप्रसिद्ध स्थानिजाते वर्णे च। त्रि.। यथा इकः स्थाने आसेविते, दर्श. 1 तत्त्व / आइण्णं णाम जं साहूहिँ आयरियं विणा वि यण आदिश्यते इति इको यणादिष्ट इत्युच्यते / आज्ञप्ते, उच्छिष्टे, ओमादिकारणेहिं गेण्हइ। नि, चू, 15 ऊ / आचीर्णम्- आसेवितं तच अनुशिष्टे, त्रि० / वाच / चोदिते, त्रि। सूत्र०२ श्रु०४ अ०१ऊ। आदेशे, भ. नामदि षोढा, तद् व्यतिरिक्तं द्रव्याऽऽचीर्ण सिंहादेस्तृणादिपरिहारेण 12 श०१० उ०। विशेषरूपेण निर्दिष्ट, त्रि० / यथाऽयं देवदत्तोऽयं यज्ञदत्त पिशितभक्षणम् क्षेत्राऽऽचीर्णं वाल्हीकेषु सक्तवः / कोङ्कणेषु पेया: / कालाचीर्णं त्विदम्- "सरसीचंदणपंका, अग्घइसरसा यगंधकासादी। इति। बृ. 4 उ.। आविष्टे, अधिष्ठिते, त्रि स्था०५ ठा०२ उ०। पाडलिसिरीसमिल्लय, पेयाई काले निदाहम्मि // 1 // " भावाचीर्णं तु आइट्ठि- स्वी० (आदिष्टि)। धारणायाम्, स्था० 7 ठा०३ऊ। ज्ञानादिपञ्चकं, तत्प्रतिपादकश्चाचारग्रन्थः / "आइण्णं जं पुण आइड्डि-स्त्री. (आत्मर्द्धि)। आत्मन ऋद्धिः षष्ठीतत्पुरुषः। स्वकीयशक्ती, अणुण्णायं / " आचा० 1 श्रु.१ अ०१ऊ / अनुज्ञाते, नि. चू०१५ उ / आत्मलब्धौ च। भ० 10 श०३ऊ। (आचीर्णलक्षणादि'जीयव्यवहार' शब्दे। चतुर्थभागे वक्ष्यते) आइड्डिय- पुं. (आत्मर्द्धिक) / आत्मान एव ऋद्धिर्यस्य 6 बहु / आइण्णजणमणुस्स- त्रि. (आकीर्णजनमनुष्य) मनुष्य- जनेनाकीर्ण:स्वकीयशक्तिसम्पन्न, स्वकीयलब्धिसम्पन्ने च। भ० / संकीर्ण इति मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादि (31 149 / हैम.) आइडीए णं मंते! देवे. जाव चत्तारि पंच देवावासंतराइं वीइक्कंते, दर्शनात्परनिपात: / मनुष्यजनसंकुले, ज्ञा०१ श्रु०१अ / औ०। तेण परं परिड्डीए? हंता गोयमा ! आइडीएणं तं चेव (जाव) एवं आइण्णट्ठाण- न. (आकीर्णस्थान) / हिरण्यादिवस्तुव्याप्ते स्थाने, असुरकुमारे वि, णवरं असुरकुमारावासंतराइं सेसं तं चेव, एवं "आइण्णादीणि वज्जए ठाणे।" (+424 गाथा) भिक्षार्थं प्रविष्ट: साधु: एएणं कमेणं जाव थणियकु मारेऽवि, एवं बाणमंतरजोइसिए आकीर्णादिस्थानं परिवर्जयेत् / यत्र हिरण्यादि / विक्षिप्तमास्ते वेमाणिए, जाव तेण परं परिड्डिए / (सूत्र 441+) तदाकीर्णस्थानं तच्च साधुना वर्जनीयम्। ओध। 'आइड्डीए णं' ति-आत्मा - स्वकीयशक्त्या। अथवाआत्मन: एव | आइण्णणायज्जयण- न. (आकीर्णज्ञाताध्ययन) / ज्ञातागस्य ऋद्धिः यस्याऽसौ आत्मर्द्धिकः / 'देवे' त्तिसामान्य:, 'देवावासंतराई' सप्तदशेऽध्ययेन, आ. चू०४ अ। आवासका ति-देवाऽऽवासविशेषान् / 'वीइक्कते त्ति-व्यतिक्रांत: लचितवान् / आइण्णमणाइण्णकल्प- पुं० (आचीर्णाऽनाचीर्णकल्प)। आसेवितेक्वचिद्-व्यतिव्रजतीति पाठः / भ०१३ उ / (अधिकम् 'इड्ढि' शब्दे) ऽनासेविते आचारे, पं. भा.।। ऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते। तवर्णनं यथाआइणाह- पुं. (आदिनाथ)। ऋषभदेवे, आ०म०१ अ। (वृत्तम्-'उसह' आइण्णमणाइण्णे, कप्पं तु गुरूवदेसेणं। शब्देऽ-स्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आहारचउकेकरण, फासणे खेत्तकालउवगरणे। आइणियंठ- पुं. (आदिनिर्ग्रन्थ)। प्रथमनिर्ग्रन्थे पुलाके प्रति / आइण्णे आइण्णं, तविवरीए अणाइण्णं / 'हिट्ठाणट्ठिओ वि, पावयणिगणिट्ठयाइ अधरे उ। आहारचउक्कं खलु, असणादीयं तु होति णायव्वं / कडजोगिजं णिसेवइ, आइणियंठु व्व सो पुज्जो॥१॥" करणं आयरणं तु, तस्स तु जं जत्थ आइण्णं। अस्यार्थ:- अधरे-आत्यन्तिकेकार्ये समुत्पन्ने कृतयोगी- कृताभ्यास: पिसितं सिंधूविसए, वातिं पुण उत्तरावहाऽऽइण्णं / आदिनिर्ग्रन्थ:- पुलाक: अधस्तनस्थानस्थितस्यैव पुष्टालम्बनेऽपि तंबोलं दमि (वि) ले (डे) सुं, एमादी खेत्तमाइण्णं / / वैक्रियाद्यधिकारित्वंनतु तत्करणप्रयोज्या-धस्तन स्थानस्थितिरिति काले दुब्मिक्खादिसु, व (प) लंबमादी तु सव्वमाइण्णं / परमार्थः / प्रति०८ श्लोक। उवगरणे आइण्णं, वोच्छामि अतो समासेणं / आइण्ण- त्रि. (आकीर्ण)। व्याप्ते (युक्ते) रा० / आकीर्णे, समाकुले, बृ०१ सिंधू आयलियाई, काला कप्पा सुरट्टविसयम्मि / उ / संकीर्णे, औ० / संकुले, आचा०२ श्रु.१ 51 अ०३ उ० 17 सूत्र / दुग्गुल्लादिपुंडबद्धण, महरडेसुं च जलपूरा। "आइण्णणोमाणविवज्जणा य' / आकीर्णावमान-वर्जना च एवं जत्थाऽऽइण्णं, तहियं तु कप्पतीति आयरि। विहारचा प्रशस्ता / दश.२ चूः / आकीर्यते व्याप्यते इतरत्थ कारणम्मि, फासणगहणं च परिभोगो।। विनयादिगुणैरिति / जात्ये अश्वविशेषे च। सचजवविनया-दिगुणैर्युक्तः / आइण्णे चउवग्गो,ण य पीलाकारओ पवयणस्स। स्था० 4 ठा०३ उ / "आइण्णवरतुरयसुसंपउत्ते' भ०७ श०८ उ० / णय मइलणा पवयणे, आइण्णं आयरे कप्पं / जात्यवरतुरगे, जी०३ प्रति०४ अधि / "कसं व दट्ठमाइन्ने पावगं आहार उवहिसेज्जा, सेहा चउदग्गों होति णायव्यो। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइण्ण. 06 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइधम्मिय पवयणपीलुवघातो, पिसिया ताइ मज्जया इत्ति / / चोदेइ का मइलणा, भण्णति परिसहियाणं जे सेवे। सा होति मइलणा तु, जो पुण सुपरिट्ठिओ चरणे / तण्हो तु सलाहेती, धणति गुणेहिं य एसु जुत्तो त्ति। सुट्टकरे तप्पहितं, जो पुण करणे अजुत्तो उ। तं दटुं संदेहो, उप्पज्जति किण्णु एस सच्छंदो। आऊणं उवएसो, एरिसओ देसिओ समए। आह जिणकप्पियाण वि, आइण्णं किंचि अस्थि अहणत्थि भण्णति णत्थि किं पुण, आयरियजिणकप्पिताऽऽण्ण // आहारउवहिदेहे, णिरविक्खो णवरि णिज्जरापेही। संघयणविरियजुत्तो, आइण्णं आयरति कप्पं पं भा०५ कल्प। इयाणि आइण्ण-मणाइण्णकप्पा समंचेवजंति।गाहा आहार चउक्के आहारो चउव्विहो जत्थाऽऽइण्णो तत्थ नऽस्थि दोसो। जहा- सिंधूएपोग्गलं / उत्तरावहे-वियडं / तंबोलं-दमिलेसु (द्रविडेषु)। फासुओ वत्थादि। आइण्णमणाइण्णे। एवं खेत्ते, काले वि. ओमोयरियाए सव्वाई आइण्णाई। उवगरणे जहा- सिंधूए-अलाउ। पोडवद्धणे दुकूला। सुरक्षाएकालकंबलीओ।महारट्ठाणं-जलपूरगा ! एवमाइजत्थाऽऽइण्णाणि तत्थ कप्पो। इयरथा कारणेण कप्पन्ति। गाहा- 'आइण्णे चउ' आइण्णे पुण 'चउवग्गो' त्ति-असणाइणा य पवयणपीला भवइ / विपरिणामेणअणाइण्हं पुण वियडाइ अणुयाइसु मइलणा। एए वियडमल्ला निहत्था वियरंति अप्पणा अणिवित्ता / तहा पोग्गले जत्थ ण चित्तं तत्थ भणइ लोगो- एएसिंनडपढियम्मिहत्थे वारेंति मा पोग्गलं खाह / अहिंसगाय होह / सव्वसेएसिं कैयवं / असज्जादियाणं एसा पीला / गाहा-का? मइलणा प्रवचने उच्यते सूत्रार्थ:- प्रतिषेधमाचरिते सा मइलणा। करणजुत्तेसु पुण एवं नो भवइ / अहो सुट्ठ एयं। साहू अकरणजुत्तो पुण संसओभवइ। किमेस अप्पच्छन्देण करेइ? उवएसो एरिसो। एवं संसओ भवइ / आहजिणकप्पे किंचि आइण्हमत्थि / गाहा- 'आहारोवहि / ' उचयते-आहारोवहिदेहेसु सो भयवं निरपेक्खो , न केवलं निज्जरा, मोक्खो वलविरियसंघयणजुत्तो आइण्हं कप्पमेव आयरइ / सइ वि आइण्हे जिणकप्पियपाउग्गं तं. आयरइ / एस आइण्हकप्पो। पं. चू.५ कल्प। आइण्णहय- पुं. (आकीर्णहय) / आकीर्णो- गुणौव्याप्त: स चासौ हयश्च आकीर्णहयः। क स / जात्येऽश्वविशेषे, स च जवविनयादिगुणोपेतः / / "आइण्णहय व निरुवलेवे" यथा जात्याऽश्वो मूत्रपुरीषाद्यनुपलिप्तगात्र: / जी. 3 प्रति० 4 अधिः। आइतित्थयर- पु. (आदितीर्थक) / ऋषभदेवस्वामिनि, "भगवओ उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स" ।नं.४३ सूत्र। आइतित्थयरमंडल- न. (आदितीर्थकरमण्डल) / श्रेयांसेन कारिते आदितीर्थकरस्य पीठे, आ०म० 1 अ० 345 गाथाटी / ('आइञ्चपीढ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विशेषो गत:) आइत्त-त्रि. (आदीप्त)। ईषद्दीप्ते, ज्ञा० 1 श्रु.१ अ / आइत्ता- त्रि. (आदाता) गृहीतरि, स्था०७ ठा० ३ऊ। आइत्तु- अव्य, (आदाय) गृहीत्वेत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०४ अ०१ उ. 127 सूत्र। आइद्ध- त्रि. (आविद्ध) आ-व्यध-क्त // प्रेरिते, दर्श०४ तत्त्व / ताडिते, विद्धे, छिद्रिते, क्षिप्ते च / वाच। *आदिग्ध-त्रि व्याप्ते। ज्ञा०१ श्रु० १अ०। आइदाण- नं. (आदान) ग्रहणे, प्रश्न / आइधम्मिय-' आंदिध(धार्मिक-। एतत्संज्ञया प्रसिद्ध अपुनर्बन्धकारपर्याय प्रथमारब्धस्थूलधर्माचारे, ध० / (धर्मसंग्रहे गृहस्थधमनुक्त्वैल्लक्षणादि प्रतिपादितम्।) अथ पूर्वोक्तगुणवत एव संज्ञाविशेषविधिं,तदवस्था विशेषविधिंचाऽऽहस आदिधार्मिकश्चित्र-स्तत्तत्तन्त्रानुसारतः। इह तु स्वागमापेक्षं, लक्षणं परिगृह्यते / / 17 / / स: पूर्वोक्तगुणैरुत्तरोत्तरगुणवृद्धियोग्यतावान् आदिधार्मिक:प्रथममेवारब्धस्थूलधर्माचारत्वेनादिधार्मिकसंज्ञया प्रसिद्धः, सच तानि तानि तन्त्राणि-शास्त्राणि तदनुसारतश्चित्रो- विचित्राचारो भवति / भिन्नाचारस्थितानामप्यन्त:शुद्धिमता- मपुनर्बन्धकत्वा- ऽविरोधात्, अपुनर्बन्धकस्य हि नानास्वरूपत्वात् तत्तत्तन्त्रोक्ताऽपि मोक्षार्था क्रिया घटते / तदुक्तं योगविन्दौ-"अपुर्बन्धकस्यैवं, सम्यग्नीत्योपपद्यते। तत्तत्तन्त्रोक्तमखिल- मवस्थाभेदसंश्रयाद् / / 251 // " इति (अस्य व्याख्या 'अणुट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 377 पृष्ठे गता) / इह तु प्रक्रमे स्वागमापेक्षं- स्वागमानुसारि 'लक्षणं' - व्यञ्जकं प्रक्रमादादिधार्मिकस्य परिगृह्यते' - आश्रीयते।यो ह्यन्यैः शिष्टबोधिसत्त्वनिवृत्तप्रकृत्यधि-कारादिशब्दैरभिधीयते स एवास्मभिरादिधार्मिकापुनर्बन्धकादिशब्दै-रिति भावः / लक्षणमित्यत्रैकवचनं जात्यपेक्षं, तल्लक्षणसंपादनविधि-श्चायमुक्तो ललितविस्त- रायाम्"परिहर्त्तव्योऽकल्याणमित्रयोगः / सेवितव्यानि कल्याणमित्राणि / न लङ्घनीयोचितस्थिति:, / अपेक्षितव्यो लोकमार्गः, / माननीया गुरुसंहतिः भवितव्यमेतत्तन्त्रेण, प्रवर्तितव्यं दानादौ, कर्तव्योदार पूजा भगवताम् ! निरूपणीयः साधुविशेषः / श्रोतव्यं विधिना धर्मशास्त्रम् / भावनीयं महायत्नेन / प्रवर्तितव्यम् - विधानतः / अवलम्बनीयं धैर्यम् / पर्यालोचनीया आयति: / अवलोकनीयो मृत्युः / भवितव्यं परलोकप्रधानेन / सेवितव्यो गुरुजनः / कर्त्तव्यं योगपटदर्शनम् / / स्थापनीयं तद्रूपादि चेतसि / निरूपयितव्या धारणा ॥परिहर्तव्यो विक्षेपमार्ग:। यतितव्यं योगसिद्धौ / कारयितव्या भगवत्प्रतिमाः / लेखनीयं भुवनेश्वरवचनम् / कर्तव्यो मङ्गलजापः / प्रतिपत्तव्यं चतु:शरणम् / गर्हितव्यानि दुष्कृतानि / अनुमोदनीयं कुशलम् / पूजनीया मन्त्रदेवताः / श्रोतव्यानि सचेष्टितानि / भावनीयमौदार्यम्।वर्तितव्यमुत्तमज्ञाने (ते) न॥ एवंभूतस्य येह प्रवृत्तिः सा सर्वध साध्वी। मार्गानुसारी ह्ययं नियमादपुनर्बन्धकादि:। तद Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइधम्मिय 07 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आइमगणहर स्यैवंभूतगुणसम्पदाऽ (दोऽ) भावात्, अत आदित आरभ्यास्य प्रवृत्ति: जायन्त इति / ध० 1 अधिः। ननु 'गलमच्छभवविभोअगविसन्नभोईण सत्प्रवृत्तिरेव नैगमानुसारेण चित्रापि प्रस्थक प्रवृत्तिकल्पा / जारिसो एसो। मोहासुहो वि असुद्दो, तत्फलओ एवमेसो त्ति // 1 // " तदेतदधिकृत्याहु:- "कुतरादिप्रवृत्तिरपि रूपनिर्माणप्रवृत्तिरेव'' श्रीहरिभद्रवचनानुसारेण विपर्यासयुक्तत्वान्मिथ्यादृशां शुभपरिणामोऽपि तद्वदादिधार्मिकस्य धर्मे कात्स्न्ये न तद्गामिनी न तद्वाधिनीति हार्दम् / फलतोऽशुभ एवेति कथमादिधार्मिकस्य देशनायोग्यत्वमित्यातत्त्वाविरोधकं हृदयमस्य, तत: समन्तभद्रता, तन्मूलत्वात्सकल- शङ्कायामाह-'मध्यस्थत्वात्' इतिराग-द्वेषरहितत्वात्पूर्वोत्कगुणयोचेष्टितस्य, एवमतोऽपि विनिर्गतं तत्तद्दर्शनानुसारत: सर्वमिह योज्यं गादेव माध्यस्थ्योपसंपत्तेरित्यर्थः। मध्यस्थस्यैव चागमेषुधर्मार्हत्वप्रतिसुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनादि / न ह्येवं प्रवर्त्तमानो नेष्टसाधक इति / पादनात्, यत:- "रत्तो 1 दुट्ठो२ मूढो 3. पुब्बिं बुग्गाहिओ 4 अचत्तारि। भग्नोऽप्येतद्यत्नलिङ्गोऽपुनर्बन्धक इति तं प्रत्युपदेशसाफल्यम् / एए धम्माऽणरिहा, धम्मे अरिहोउमज्झत्थो"||१||त्ति श्रीहारिभद्रवचन 'नानिवृत्ताधिकारायां प्रकृ ता-वेवंभूतः" इति कापिलाः / तुकदाग्रहग्रस्ताभिग्रहिकमाश्रित्येति न विरोधः / इदमत्र हृदयम्-य: खलु 'नाऽनवाप्तभवविपाक इति च सौगताः / अपुनर्बन्धकास्त्वेवंभूत्ता' इति मिथ्यादृशामपि केषांचित्स्वपक्षनिबद्धो दूरानुबन्धानामपि प्रवलमोहत्वे जैनाः इति / ध०१ अधि / ला सत्यपि कारणान्तरादुपजायमानो रागद्वेषमन्दतालक्षण उपशमो अथोक्तस्वरूपस्यादिधार्मिकस्य सद्धर्म भूयानपि दृश्यते स पापा-नुबन्धिपुण्यहेतुत्वात्पर्यन्तदारुण एवं, देशनायोग्यत्वं दर्शयति तत्फलसुखव्यामूढानां तेषां पुण्याभासकर्मोपरमे नरकादिपाताव श्यंभावादित्यस- त्प्रवृत्तिरेवायम् / यश्च गुणवत्पुरुषप्रज्ञापनार्हत्वेन स धर्मदेशनायोग्यो, मध्यस्थत्वाज्जिनैर्मतः / जिज्ञासादिगुण-योगान्मोहापकर्ष-प्रयुक्तराग-द्वेषशक्तिप्रतिघातलक्षण योगदृष्ट्युदयात्सार्थ, यद्गुणस्थानमादिमम्॥१८॥ उमशमः, सतु सत्प्रवृत्तिहेतु-रवाग्रहनिवृत्ते: सदर्थपक्षपातसारत्वादिति / स:-पूर्वोक्तगुणसम्पत्त्या प्रसिद्ध आदिधार्मिक: धर्मदेशनायोग्य: नन्वेवमपिस्वागमानुसारिण आदिधार्मिकस्योपपन्नं माध्यस्थ्यं परंतस्य लोकोत्तरधर्मप्रज्ञापनाह: जिनै:- अर्हद्भिर्मत:- उपदिष्टः / कालतश्चायं विचित्राचारत्वेन भिन्नाचारस्थितानां तेषां स्वस्वमतनिष्ठानां कथं चरमावर्तवयैवेत्यनुक्तमपि ज्ञेयम् / यत उक्तम् (हरिभद्रसूरिरचिते) तदुपपद्यते? तदभावे च कथं देशनायोग्यत्वमित्यत्राह-'योगे' त्यादिउपदेशपदे यद्यस्माद्धेतो:, तस्येति शेष:, 'योगदृष्ट्युद्यात्'- योगदृष्टिप्रादुर्भावात्। घणमिच्छत्तो कालो, एत्थ अकालो उ होइणायव्यो। 'आदिम' 'गुणस्थानं' 'सार्थम्' -अन्वर्थं भवति / अयं भाव:कालो उ अपुणबंधग, -पभिई धीरेहिं णिहिट्ठो // 1 // मिथ्यादृष्टयोऽपि परमार्थगवेषणपरा: सन्त: पक्षपातं परित्यज्याद्वेषाणिच्छयओ पुण एसो, विन्नेओ गंठिभेअकालम्मि। दिगुणस्था: खेदादिदोषपरिहारद्यदा संवेगतारतम्यमाप्नुवन्ति / तदा एयम्मि बिहिसयपा- लणाउ आरोग्गमेयाओ॥२॥ मार्गाभिमुख्यात्तेषामिक्षुर सकल्क (क्क) गुडकल्पा मित्रा तारा बला एतवृत्तिर्यथा- धनं-मिथ्यात्वं यत्र सतथा कालोऽचरमावर्त्त- लक्षण: दीपा चेति चतस्रो योगदृष्ट्य उल्लसन्ति, भगवत्पतञ्जलिभ'अत्र' वचनौषधप्रयोगे 'अकालस्तु' अनवरसर एव भवति दन्तभास्करादीनां तदभ्युपगमात् / (ध.) मिथ्यादृष्टिनामपि विज्ञेयश्वरमावर्त्तलक्षणस्तु तथाभव्यत्वपरिपाकतो बीजाधानबीजोद्भेद माध्यस्थ्यादि- गुणमूलकमित्रादिदृष्टि- योगेन तस्य गुणस्थानकत्वबीजपोषणादिषु स्यादपि काल इति / अत एवाह- 'कालस्तु' अवसर: सिद्धस्तथा प्रवृत्तेरनाभिग्रहिकस्य संभवादनाभिग्रहिकत्वमेव तस्य पुनरपुनर्बन्धकप्रभृतिस्तत्रादि-शब्दान्मार्गाभिमुखमार्गपतितौ गृह्यते। तत्र देशनायोग्यत्वे शोभन निबन्धनमित्यापन्नम्।। 'इत्थं चानाभोगतोऽपि मार्गः- चेतसोऽवक्रगमनं भुजङ्गनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुण मार्गगमनमेवपङ्ग- बन्धन्यायेनेत्यध्यात्मचिन्तका' इति ललितस्थाना-वाप्तिप्रवण: स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषो हेतुस्वरूपफल विस्तरा-वचनानुसारेण यद्यनाभोगवान् मिथ्यादृष्टिरपि मिथ्यात्वमन्दशुक्ष्यभिमुख इत्यर्थः, तत्र पतितो भव्यविशेषो मार्गपतित इत्युच्यते / तोद्भूतमाध्यस्थ्य तत्त्वजिज्ञासादिगुणयोगान्मार्गमेवानुसरति तर्हि तदादिभावापन्नश्च मार्गाभिमुख इति / एतौ चरमयथाप्रवृत्तकरणभाग तद्विशेषगुणयोगादनाभिग्रहिकेतु सुतरां धर्मदेशनायोग्यत्वमिति भावः / भाजावेवज्ञेयौ / अपुनर्बन्धकोऽपुनर्बन्धककाल: प्रभृतिर्यस्य स तथा, ध.१ अधि०१८ श्लोक। धीरैनिर्दिष्टो व्यवहारत इति // 1 // निश्चयतस्तु कालो ग्रन्थिभेदकाल आइबंभ- न० (आदिब्रहान्) / सकलजगदुत्पत्तिकारणे ब्रह्मणि, कल्प.१ एव, यस्मिन् कालेऽपूर्वकरणा-निवृत्तिकरणाभ्यां ग्रन्थिभिन्नो भवति ___ अधि०६ क्षण। तस्भिन्नेवेत्यर्थः / यतोऽस्मिन विधिनाऽवस्थोचितकृत्यकरण- लक्षणेन आइबं भद्धणि- स्त्री. (आदिब्रह्मध्वनि) / आदिब्रह्मणः शब्दे, सदा-सर्वकालंया पालना-वचनौषधस्य तया कृत्वाऽऽरोग्यं संसारख्या- "आदिब्रह्मध्वनि: किं वा, वीरवेदध्वनिर्बभौ" कल्प. 1 अधि० 6 धिरोधलक्षणम्, एतस्माद्- वचनौषधप्रयोगाद्भवति / अपुनर्बन्धक- क्षण / आइम-त्रि (आदिम)। आदौ भवः / आदि-डिमच्। आदिभवे, प्रभृतिषु वचनप्रयोग: क्रियमाणोऽपि न तथा सूक्ष्मबोधविधायकोऽना- वाच। "पश्चादाद्यन्ताग्रादिमः" / / 63 75 // इति सूत्रेण इमप्रत्यये भोगबहुलत्वात्तत्तत्कालस्य / भिन्न-ग्रन्थ्यादयस्तु व्यावृत्तमोहत्वेना- टिलोपः। प्रथमे, आव०५ अप्रक। कर्म। तिनिपुणबुद्धितया तेषु तेषु कृत्येषु वर्तमानास्तत्कर्मव्याधिसमुच्छेदका | आइमगणहर- पुं. (आदिमगणधर)। प्रथमगणधरे, प्रव०१ द्वार॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आइमज्झंतकल्लाण 08 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आईणग आइमज्जंतकल्लाण-त्रि (आदिमध्यान्तकल्याण) आदिम- एव तेऽवगन्तव्याः / इदमुक्तं भवति- सर्वाविनयास्पदभूत: स्त्रीप्रसङ्गो यैः ध्यावसानेषु सुन्दरे, धर्मप्रशंसामुपक्रम्योत्कम्-"सर्वागम- परिशुद्ध, परित्यक्तस्त एवादिमोक्षाः प्रधानभूतमोक्षस्य पुरुषार्थोद्यता यदादिमध्यान्तकल्याणम्" / षो०३ विव०। आदिशब्दस्य प्रधानवाचित्वात्। सूत्र० 1 श्रु.५अ / आइमुहुत्त-नं. (आदिमुहूर्त) प्रथमे मुहूर्त, स.। आइय-त्रि. (आचित)। आ-चि-क्त-आप्रोते, (व्याप्ते) ज्ञा०१ श्रु०९अ० / तत्प्रमाणं यथा गुम्फिते, ग्रथिते, "तुलापलशतं तासां, विंशत्याभार आचित'' अभिंतरओ आइमुहत्ते छण्णउइअंगुलच्छाए पणत्ते। इत्युक्तेभारात्मकेद्विसहस्रपलमाने, "आचितं दश भारा: स्यात्, शाकटो भार आचितः" इत्युक्ते दशभारमाने, नः / शाकटभारे, पुं०। (सूत्र-९६) परिमाणवाचकत्वात्तन्मितेऽपि। संगृहीते, छन्ने च / वाच / अभ्यन्तराद् - अभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्येत्यर्थः, आदिमुहूर्त: आइयण- न० (आदान) ग्रहणे, प्रश्न. 3 आश्र द्वाररावाच / षण्णवत्यङ्गुलच्छाय: प्रज्ञप्त: / अयमत्र भावार्थ:- सर्वाभ्यन्त- रमण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूर्तों द्वादशाङ्गुलमान आइयत्तिय- पुं. (आदियात्रिक) आदौ यात्राऽस्येति सार्थवाहादीशङ्कमाश्रित्य षण्णवत्यङ्गुलच्छायो भवति / तथा हि नामारक्षके बृ। तद्दिनमष्टादशमुहूर्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टादशभागो दिनस्य भवति, तस्याष्टौ भेदा यथाततश्च छायागणितप्रक्रिययता छेदेनाष्टादशल- क्षणेन द्वादशाङ्गुल: पुराणसावगसम्मतिट्टि, अहाभद्ददाणसद्धे य। शङ्कर्गुण्यत इति ततो द्वे शते षोडषोत्तरे भवतः- 216, अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अन्नतित्त्थी य||९२३ / / तयोरीकृतयोरष्टोत्तरशतं भवति-१०८, ततश्च शङ्कप्रमाणे द्वादशापनीते बृ.१ उ / (अस्या: व्याख्या 'सत्थवाह' शब्दे सप्तमभाग वक्ष्यत) षण्णवति:-९६ अङ्गुलानि लभ्यन्ते इति। स. 96 सम।। (एतस्याशीतिभङ्गका: सार्थवाहवत् ते च 'विहार' शब्दे षष्ठे भागे 32 आइमूल न. (आदिमूल)। प्रधानकारणे भावमूलभेदे, आचा। अधिकाराङ्के द्रष्टव्या:) यथा मोक्षस्याऽऽदिमूलं विनयः, संसारस्य विषय इति / तत्र | आइ (दि) यावण-न (आदापन) / ग्राहणे, "आदिया-ति' मोक्षस्यादिमूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतप: औपचारिक रूप: पञ्चधा आदापयन्तिग्राहयन्ति। सूत्र०२ श्रु०१०। विनयस्तन्मूलत्वान्मोक्षावाप्तेस्तथाचाह आइराय- पुं० (आदिराज)। ऋषभदेवे, स्था०६ठा.३ऊ। (अस्य वृत्तम् "विणया णाणं णाणाउ, दंशणं दंशणाहि चरणं तु। "उसह शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) चरणाहिंतो मोक्खो, मोक्खे सुक्खं अणावाहं // 1 // " आइल-त्रि०(आविल) आ-विल। भेदने,काअस्वच्छे, कालुष्ययुक्ते, "विनयफलं शुश्रूषा, शुश्रूषाया: फलं श्रुतज्ञानम्। सूत्र.१ श्रु०६ अ.1 अस्वच्छस्य हि जलादे: सम्यगदृष्टिप्रसारभेदज्ञानस्य फलं विरति:, विरते: फलं चाश्रवनिरोधः // 2 // नात्तथात्वम्। भेदके, त्रि० / वाच / संवरफलं तपोबल- मथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम्। आइल्ल-त्रि (आदिम)। आधे, श्रा०२८ गाथा! सः / सू०प्र० / तस्मात् क्रियानिवृत्ति:, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् // 3 // आइल्लचन्द- पुं, (आदिमचन्द्र)। उत्तरोत्तरद्वीपसमुद्रचन्द्रापेक्षया योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षय: संततिक्षयान्मोक्षः। पूर्वपूर्वद्वीपसमुद्रचन्द्रे, सू०प्र०। तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः॥४॥" तस्य तथात्वम्इत्यादि / संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषायाः / आचा०१ श्रु.२ अ०१ धातइसंडपभितिसु, उहिट्ठा तिगुणेत्ता भवे चंदा। उ.. आदिल्लचंदसहिता, अणंतराणंतरे खेत्ते // 33 // आइमोक्ख-पु. (आदिमोक्ष) आदि:- संसारस्तस्मान्मोक्ष: आदिमोक्षः / सू०प्र० 19 पाहु. 100 सूत्र। संसारविमुक्तौ, सूत्र / धर्मकारणानां शरीरं तावदादिभूतं तस्य मोक्ष: (अस्या: व्याख्या 'जोइसिय' शब्दे 4 भागे वक्ष्यते) तद्विमुक्तिर्यावज्जीवमित्यर्थः / शरीरपरित्यागे च / 'वियडे णं जीविज्ज य आदिमोक्खं (22+)" यावज्जीवम्। सूत्र०१ श्रु.७ अ आदौ-प्रथम आइल्लसूर- पुं. (आदिमसूर्य्य) / उत्तरोत्तरद्वीपसमुद्रसूर्यापेक्षया मोक्षोऽ- स्येति। मोक्षोद्यते साधौ, आदि-प्रधानमोक्षास्येति। मोक्षकताने पूर्वपूर्वद्वीपसमुद्रसूर्येसू प्र०१८ पाहु / (अस्य तथात्वमत्रैव'आइल्लचंद' साधौ च / सूत्र शब्दे गतम्।) इत्थीओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हि ते जणा ||9+II / आई (ती) (दी)ण-न. (आजिन)। मूषकादिचर्मनिष्पन्ने वस्त्रे, आचा० ये महासत्त्वा: कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारणतया स्त्रियः / २श्रु.२ अ६ उ / द्वीपविशेष, समुद्रविशेषेच। पुं। जी. 3 प्रति०४ अधिः / सुगतिमार्गाऽर्गला:- संसारवीथीभूताः सर्वाऽविनयरा-जधान्यः *आदीन नं / आ-समन्ताद्दीनम् / अत्यन्तदीनतायाम, सूत्र 1 श्रु०५ कपटजालशताकुला-महामोहनशक्तयो 'न सेवन्ते'- न तत्प्रसङ्गम- अ१ऊ। भिलषन्ति त एवंभूता जना:- इतरजनातीता: साधव आदौ- प्रथमं | आईणग- न. (आजिनक)। चर्ममयेवस्त्रविशेषे, रा / तच स्वभावादति-कमलं मोक्षोऽशेषद्वन्द्वोपरमरूपो येषां ते आदिमोक्षा: / हुवधारणे आदिमोक्षा | भवति। ज्ञा०११अापरिकर्मितकर्मणि, कर्म 2 कर्म / ज्ञा. आ. म. / निः। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आईणय 09 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ जी! "आईणगरूयवूरणवणीयतूलफासे" भ० 11 श० 11 उ० / आदीणवित्तीव करेति पावं, 'आईणाणि वा आईणपवराणिं वा." (सूत्र-१०-११-१२) आजिणं चम्म मंता उ एगंतसमाहिमाहु // 6 // तम्मि जे कीरति ते 'आईणाणि' त्ति। निचू० ७उ / 'आदीणवित्ती' त्यादि, आदीनवृत्तिरपि पापं कर्म करोतीत्येवं सत्वा आईणभद्द- पुं. (आजिनभद्र)। आजिने द्वीपे, आजिनभद्राजिन- एकान्तेन भावसमाधिमाहुः संसारोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः / सूत्र० महाभद्रौ / आजिनद्वीपस्थे देवे, जी०३ प्रति०४ अधिः / १श्रु०१० अ०। आई (दी) णभोइ (न)- (आदीनभोजिन)-पूं। पतितपिण्डोप- | आई (दी) णिय-पुं० (आदीनिक)। आ-समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते जीविनि, सूत्र। यस्मिन्स: / अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रये, सूत्र०। आदीणभोई विकरेति पावं, आदीणियं दुक्कडियं पुरत्था // 6x || मेता उ एगंतसमाहिमाहु // 6 // आदीनिकं दुष्कृतिक पुरस्तात्- पूर्वजन्मनि यन्नरकगमनयोग्यं चरित आदीनभोज्यपि पापं करोतीति / उत्तं च- "पिंडोलगेव दुस्सीले, कृतं तत्प्रतिपादयिष्ये। सूत्र.१ श्रु०५ अ। णरगाओ ण मुच्चई" सः कदाचित् शोभनमाहारमलभमानो आईरण- त्रि० (आजीरण)। आजि:- संग्रामस्तमीरयति-प्रेरयति क्षिपात ऽज्ञत्वादातरौद्रध्यानोपगतोऽध:- सप्तम्यामप्युस्पद्यते, तद्यथा- असावेव जयतीति यावत् / राज्यावस्थायां संग्रामजेतरि, संथा०६६ गाथा। राजगगृहनगरोत्सवनिर्गतजन समूहवैभारगिरि- शिलापातनोद्यत: स | आईल- पुं(आचील)। उद्गाले,ताम्बूलसंबन्धिनमुद्गालम्-आचीलं दैवात्स्वयं पतित: पिण्डोपजीवीति, तदेवमादीनभोज्यपि तत्र मुञ्चति / चीलस्य जिनमन्दिरे परित्यागे तीर्थकृदाशाताना भवति। पिण्डोलकादिवज्जनः पापं कर्म करोतीत्येवं मत्वाअवधार्य प्रव०३८ द्वार। एकान्ते नात्यन्तेन च यो भावरूपो ज्ञानादिस-माधिस्तमाहुः आईवमाण- त्रि. (आदीप्यत्) / प्रकाशमाने, महा०२ अ / संसारोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः / सूत्र. 1 श्रु०१० अा आउ-स्त्री. (अप)। बहुव आप्-क्विप्-हस्व:।वाच०।"गोणादयः" 18 आईणमहाभद्द-पुं. (आजिनमहाभद्र)। आजिनद्वीपस्थे देवे, जी.३ प्रति. 2 174 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण निपातित: / प्रा० / द्रवलक्षणे 4, अधि। महाभूतविशेषे, "आप्त्वयोगादापस्ताश्च रूपरसस्पर्शसंख्यापरिमाणआईणमहावर- पुं(आजिनमहावर)। आजिनसमुद्रस्थे देवे, पृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वस्वाभाविकद्रवत्वस्नेहवगवत्यस्तासु आजिनवरसमुद्रस्थे देवे च। जी०३ प्रति० 4 अधि)। च रूपंशुक्लमेव, रसोमधुर एव, स्पर्श:शीत एव'' इति वैशेषिका: सूत्र०)। "रसतन्मात्रादापो रसरूपस्पर्शवत्य" इति श्लेष्मासृगद्रवलक्षणा आप:" आईणवर-पु. (आजिनवर) / द्वीपविशेषे, समुद्रविशेषे च / इतिचसांख्या।सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ऊ। एतन्निराकरणं महाभूय-'शब्दे आजिनसमुद्रस्थे देवे, आजिनवरसमुद्रस्थे देवेचाजी०३ प्रति० 4 अधिक। षष्ठे भागे करिष्यते)"अपां स्थानं रसन" रसनेन्द्रियमिति। सूत्र०१ श्रु आईणवरभद्द- पुं० (आजिनवरभद्र)। आजिनवरद्वीपस्थे देवे, जी०३ 101 उ / तासां जीवत्वम्- "सात्मकमम्भौ भौम, भूमिखनेनं प्रति०४ अधि। स्वाभाविकसंभवाद, ददुस्वत्' / अथवा- "सात्मकमन्तरिक्षोदकं आईणवरमहाभद्द-पुं. (आजिनवरमहाभद्र)। आजिनवरद्वीपस्थे देवे, स्वभावतो व्योमसंभूतस्य पातात्, मत्स्यवत्" आह च-"भूमिक्खय जी०३ प्रति०४ अधिः। साभाविय- संभवआ दद्दुरो व्व जलमुत्तं / (सात्मकत्वेनेति) अहवाआईणवरोभास-पु. (आजिनवरावभास)। द्वीपविशेषे, समुद्रविशेषे च / मच्छो व्व सहा-ववोमसंभूय- पायाओ" // 1 // इति / स्था.१ ठा० / जी०३ प्रति० 4 अधि। "आऊ वि जीवा'' |7X || आपश्च- द्रवलक्षणा जीवाः / सूत्र०१ श्रु०७ अ / (7 गाथाया; व्याख्या 'कुसील' शब्दे 3 भागे 609 पृष्ठे करिष्यते) आईणवरोभासभद्द- पुं. (आजिनवरावभासभद्र)। आजिनवराव (अत्र यद्बहुवक्तव्यं तत् 'आउकाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्यम्) भासद्वीपस्थे देवे, जी. 3 प्रति० 4 अधि। जलनामकेदेवविशेषे, तदधिष्ठातृकेपूर्वाषाढानात्र च / आपो जलनामा आईणवरोभासमहाभद्द- पुं. (आजिनवरावभासमहाभद्र) / देवस्तेन पूर्वाषाढातोयमिति प्रसिद्धम्। जं.७ वक्ष स्था। "पुव्वासाढा आजिनवरावभासद्वीपस्थे देवे, जी०३ प्रति०४ अधिः / आउदेवताए" (सूत्र-४६४) / सू०प्र० 10 पाहु.१२ पाहु, पाहु / ननु आईणवरोभासमहावर- पुं. (आजिनवरावभासमहावर) / स्वस्वामिभावसम्बन्धप्रतिपादक- भावमन्तरेण कथं देवतानाना आजिनवरावभाससमुद्रस्थे देवे, जी०३ प्रति०४ अधिः / नक्षत्रनाम सम्पद्यते? उच्यते-अधिष्ठातरि अधिष्ठेयस्योपचाराद् आईणवरोभासवर- पुं० (आजिनवरावभासवर) / आजिनवराव - भवतीति / जं०७ वक्ष। "दो आऊ' (सूत्र-९०x) स्था०२ ठा०३ ऊ / भाससमुद्रस्थे देवे जी०३ प्रति०४ अधि। *आतु- पुं. अत् उण। भेलके उडुपे, वाचका आई (दी) णवित्ति- पुं. (आदीनवृत्ति)।आ-समन्ताद्दीना-करुणास्पदा *आतु (गु)-पुं. अभिलाषायाम्, आ.क.१ अ। वृत्ति:- अनुष्ठान यस्य कृपणवनीपकादेरित्यर्थः / अत्यन्तदीनवृत्तिके | ('इक्खाग' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽस्य व्युत्पत्ति:) कृपणवनीपकादौ, सूत्रा *आयुस्- न, प्रतिसमयं भोग्यत्वेनायातीत्यायुः / नि. चू, 11 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 10 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ ऊ। स्वकीयावसरे एतिच, आयाति चेत्यायुः / स्था०४ ठा०२ उ / उत्त। / (20) भविकजीवानां नैरयिकादिपूपपद्यमानानामायुष्कारणप्रतिसंवेदएति-गच्छस्यनेन गत्यन्तरमित्यायुः, यद्वाएति- आगच्छति नादि। प्रतिबन्धकतां स्वकृतकर्मावाप्सनरकादिदुर्गने- निष्क्रमितुमन- सोऽपि (22) अन्तरमुद्वोत्पद्यमाननैरयिकादीनामयुष्प्रति-संवेदनादि। जन्तोरित्यायुः / उभयत्राप्यौणादिकोऽ- णुस्प्रत्ययः / यद्वा-आयाति (1) तचायुर्नामादिभेदतो दशधा / तद्यथाभवाद्भवान्तरं संक्रमतां जन्तूनां निश्चयेनोदयमागच्छतीति पृषोदरादित्वादायुः शब्दसिद्धिः / यद्यपि च सर्व कर्मोदयमायाति "नाम ठवणा दविए, तथाप्यस्त्यायुषो विशेषो, यतः शेष कर्मबद्धं सत्किंचित्तस्मिन्नेव भवे ओहे भव तद्भवे य भोगे य। उदय-मायाति, किंचित्तु- प्रदेशोदयमुक्तं जन्मान्तरेऽपि स्वविपाकत संजमे जस अ कित्ती, उदयमाण्योरदेव इत्युभयथाऽपि व्यभिचार: आयुषि त्वयं नास्ति बद्धस्य जीवियं च तं भन्नई दसहा // 1 // " तस्मिन्नेव भवे वैदनात् जन्मान्तर संक्रान्तौ तु स्वविपाकतोऽवश्य वेदनादिति विशिष्टम्यैवोदयागमनस्य विवक्षितत्वात्तस्य वायुष्येव तत्र नामस्थापने क्षुण्णे / 'दविए' त्ति-द्रव्यमेव सचेतनादिभेदं सद्भावात्तस्यैवैतन्नाम / अथवा आयान्त्युपभोगाय तस्मिन्नुदिते सति जीवितव्यहेतुत्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितम् / ओघजीवितम् नारकातद्भवप्रायोग्यानि सर्वाण्यपि शेषकर्माणीत्यायुः / कर्म कर्म / प्रकका द्यविशेषनायुर्द्रव्यमानं सामान्यजीवितं भवति, नारकादिभवविशिष्टं अथवा-आ-समन्तादेति गच्छति भवागवान्तर- संक्रान्तौ जन्तूनां जीवितं भवजीवितं नारकजीवित मित्यादि, 'तद्भवेय' त्ति-तस्यैव विपाकोदयमित्यायुः / पं०सं० 2 द्वार / दशा० / जीवितविपाकवेद्ये पूर्वभवस्य समानजातीयतया सम्बन्धिजीवितं तद्भव-जीवितम, यथा भवोपग्राहिणि कर्मविशेषे, जं.४ वक्षः। उत्त / विश० / एतद्रूपंच-"दुक्खं मनुष्यस्य सतो मानुषत्वेनोत्पन्नस्येति, भोग-जीवितं चक्रवादीनाम्, न देइ आऊनविय सुहं देइ चउसु विगइसु।दुक्खसुहाणाऽऽधारं, धरेइ संयमजीवितं साधूनां, यशोजीवितं-कीर्तिजीवितं च यथा देहट्टियं जीवं // 1 // " इति। स्था०२ ठा०४ उ / आयुर्भवस्थितिहेतवः महावीरस्येति, जीवितञ्चायुरेवेति / स्था० 1 ठा० 1 सूत्र टी० / कर्मपुद्गला: आचा०१ श्रु.२०१ऊ / जीविते, स्था०८ ठा०३ उतष्व (2) आयुश्च सर्वेषामतिप्रियं तथैवोक्तम्विरकालं शरीरसंम्बन्धः। तं / स्था। "तृणायापिन मन्यते, पुत्रदारार्थसम्पदः। ___ विषयसूचनार्थमधिकाराङ्का: - जीवितार्थ नरास्तेन, तेषामायुरतिप्रियम्॥१॥" इति।स्था०१ठा० 1 (1) आयुषो नामादिभेदतो दशविधत्वम् / / सूत्र टी० / संस्था। (2) आयुष: अतिप्रियत्वम्।। सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला आप्पयवहा आयुष: पुष्टिर्गतायुष: पुनरनागमनं च॥ पियजीविणो जीविउकामा सव्वेसिंजीवियं पियं / (सूत्र-८०+) (4) सर्वेषामायुष: अल्पत्वमनित्यत्वंच॥ प्राणशब्देनात्राभेदोपचारात्तद्वन्त एव गृह्यन्ते सर्वे प्राणिनो जन्तवः (1) आयुष: सप्तधा भेदनं तदुदाहरणानि च / / प्रियायुषः प्रियमायुर्येषां ते प्रियायुष: / ननु च सिद्धेव्यभिचार:, न हि ते (6) आयुष: सोपक्रमनिरूपक्रमभेदाद् द्वैविध्यम्।। प्रियायुषस्तदभाव त्: नैष दोषो; यतो मुख्यजीवादिशब्दव्युदासेन (7) आयुषोऽल्पदीर्घशुभादिभेदाद्बहुविधत्वं, तत्कारणानि च // प्राणशब्दस्योपचरितस्य / ग्रहणं संसारिप्राण्युपलक्षणार्थमिति / यत्किञ्चिदेतत्। (आचा०) 'जीविउकामा' यत एव प्रियजीविनोऽत एव (8) आयुष्कर्मणो जीवितहेतुत्वम्॥ दीर्घकालं जीवितुकामादीर्घ काल्मायुष्काभिलाषिणो दुखाभिभूता (9) आयुषो द्विविधत्वं प्रकारान्तरेण // अप्यन्त्यां दशामापन्ना जीवितसेवाभिलषन्ति, उत्कञ्च-"रमइ विहवी (10) प्रत्याख्याना- प्रत्याख्यानतदुमयनिर्वर्तितायुष्कत्वं जीवानाम् / / विसेसे, ठिइमेत्तं थेव वित्थरो महइ मग्गइ सरीरमहणो, रोगी जीएचिव (11) जीवानामाभोगाऽनाभोगनिवर्तितायुष्कत्वमायु-पश्चातुर्विध्यं च // कयत्थो॥ 1 // " तदेवं सर्वोऽपि प्राणी सुखजीविता-भिलाषी। (आचा०) (12) अनन्तरोपपन्नकादीनां नैरयिकादीनामायुः / / कस्य कियदायुरिति जिवासायां चतुर्थभागस्थः / ठिइ' शब्दो वीक्षणीयः) (13) असंज्ञिजीवानामायुः। प्राणिनां जीवितमत्यर्थं दयितमित्यतो भूयो भूयस्तदेवापदिश्यत इत्यत आह-सव्वेसि-'मि' त्यादिसर्वेषामविगानेन'जीवितम्' असंयमजीवितं (14) एकान्तबालैकान्तपण्डितबालपण्डितानामायुः / प्रियं दयितम। आचा०१ श्रु०२ अ०३ऊा (15) क्रियावाद्यादिजीवानां सलेश्यादिजीवानां चायु:। जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खेत्तवत्थुममायमा णाणं (16) कृष्णपाक्षिका दिसम्यगदृष्ट्यादिक्रियावाद्या आरतं विरत्तं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाउ परिगिज्ज तत्थेव दिजावानामायुः। रत्ता ण एत्थ तवो वा दमो वा णियमो वा दिस्सइ संपुण्णं बाले (17) ज्ञानिनामज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनां सवेदकावेदक क्रिया- जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेति (सूत्र-७९+) याद्यादिजीवानां, क्रियावाद्यादिनैरयिकादीनां चाऽऽयुः / 'जीवितम्' - आयुष्कानुपरमलक्षणमसंयमजीवितं वा पृथगिति (18) अनन्तरोपन्नकाऽऽदिक्रियावाद्यादीनामायुः / प्रत्येकं प्रतिप्राणि प्रियं-दयितं वल्लभम् 'इहे' त्ति-आस्मिन् (19) भविकजीवानां नैरयिकादिषूपपद्यमानानां सायुष्कत्वम् / / संसारे एकेषाम् - अविद्योपहृतचेतसां मानवानामिति उपलक्ष Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 11 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ णार्थत्वात् प्राणिनां, तथाहि-दीर्घजीवनाथ तास्ता रसायना-दिका: | यः, सुप्तो वा विबुध्यत तच्चवम्" // 2 // पं. सू०३ सूत्र टी। सत्त्वोपघातकारिणी: क्रिया: कुव्वते / आचा० 1 श्रु. 2 अ० 3 उड़ा आयुष: अल्पत्वं यथा(३) आयु पुष्टिश्च यथा भवति तथा अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं।(सूत्र 62) णिद्धमधुरेहि आओ, च्छपति देहिंदिया मेहा। अल्पं-स्तोकं चशब्दोऽधिकवचन:, खलुरवधारणे, आयुरितिअत्थति जत्थ णत्थति, सट्टातिसुवीहगादीया / / 258 / / भवस्थितिहेतष: कर्मपुद्गलाः / 'इहे' ति-संसारेमनुष्यभवे वैकेषांचोदक आह- कथमायुषः पुष्टि:? आचार्य आह। यथा देवकुरोरुत्तरासु केषांचिदेव मानवानां-मनुजानामिति पदार्थो, वाक्यार्थ:- 'इह' अस्मिन् क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं सुषम-सुषमायां च कालस्य संसारे केषांचिन्मनुजानां, क्षुल्लकभवोपलक्षि- तान्तर्मुहूर्तमात्रमल्पं स्निग्धत्वाद् दीर्घत्वमायुषस्तथा- इहापि स्निग्धमधुराहारत्वात् स्तोकमायुर्भवति। चशब्दादुत्तरोत्तरसमया- दिवृद्धया पल्योपमत्रयावपुष्टिरायुषो भवति। सा च न पुद्गलवृद्धेः, किंतु-युक्तग्रासग्रहणात; क्रमेण सानेऽप्यायुषि तत्र खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्संयमजीवितभोगेनेत्यर्थः / नि. चू०११ ऊा मल्पमेवेति / तथा हिअन्तर्मुहूर्तादारभ्य देशोनपूर्वकोटि यावत्संयमा__गतं चायुर्न पुनरावर्तते। उक्तं च युष्कं तथाल्पमेवेति / अथवा- त्रिपल्योपमास्थितिकमप्यायुरल्पमेव, "भवकोटीभिरसुलभं, मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे। यतस्तदप्यन्तर्मुहूर्तमपहाय सर्वमपवर्त्तत। उक्तञ्चन च गतमायुर्भूय:, प्रत्येत्यपि देवराजस्य // 1 // "अद्धा जोगुक्कोसे, वंदित्तामोगभूमिए सुलहुँ। 'नो' नैव संसारे सुलभ-सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितं, यदि वा सव्वप्पजीविये व-ज्जइ तु उव्वट्टिपादोण्हं // 1 // " जीवितम्- आयु-त्रुटितं सत् तदेव संधातुं न शक्यते, इतिवृत्तार्थः / सूत्र अस्यायमर्थः- उत्कृष्ट योगे-बन्धावसायस्थाने आयुषो यो 1 श्रु०२ अ० १ऊ। बन्धकालोऽद्धा (समय:) उत्कृष्ट एव तं बध्या व भोगभूमिकेषु देवकुर्च (4) अल्पमनित्यं चायु: सर्वेषाम्। तत्रानिन्यत्वं यथा दिजेषु, तस्य क्षिप्रमेव सर्वाल्पमायुर्वजयित्वा द्वयो तिर्यग्मनुष्योग्पवृत्तिका अपवर्त्तनं भवति, एतचापर्याप्तकान्तदुमपत्तए पंडुरए, जह निवडइराइगणाण अच्चए। मुहूर्तान्तर्द्रष्टव्यं, ततऊर्ध्वमनपवर्त्तनमेवेति। (आचा.) उक्तञ्चएवं मणुआण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए।।१।। "स्वतोऽन्यत इतस्ततोऽभिमुखधावमानापदा(अस्या गाथाया व्याख्या 'जीविय' शब्दे चतुर्थभागे 156 पृष्ठे वक्ष्यते) महो निपुणाता नृणां क्षणमपीह यज्जीवितम्। उत्त० 10 अ०। मुखे फलमतिक्षुधा सरसमल्पमायोजितं, जीविशतब्देन शरीरमुच्यते। यदाह नियुक्तिकार: कियच्चिरमचर्वितं दशनसंकटाम्ये स्थितम् ? // 1 // परियट्टिय लावन्नं, चलंतसंधिं मुअंतबिंटग्ग। उच्छवोसावधय: प्राणाः, स चोच्छवासः समीरणात्॥ पत्तं च वसणं पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं // 307 / / समीरणं च चलनात्, क्षणमप्यायुग्द्भुतम्॥ 2 // " जह तुज्जे तह अम्हे, तुज्जे वि अ होहिहा जहा अम्ह। अप्पाहेइ पडतं, पंडुअपत्तं किसलयाणं // 308 / / इत्यादि / / येऽपि दीर्घायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभावे आयुःस्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादप्यधिकां जराभिभूत-विग्रहा न वि अत्थि न वि अ होही, उल्लावो किसलपण्डुपत्ताणं। जघन्यतरामवस्थामनुभवन्ति। आचा० 1 श्रु०२अ०१ उ०ा उवमा खलु एस कया, भवियजणविवोहणट्ठाए // 309 // वर्षशतायुष्कस्यायुषोऽल्पत्वमेव। तद्यथाउत्त, पाई. 10 अ! आउसो से जहानामए केहपुरिसे ण्हाए कयवलिकम्मे कयको (आसांगाथानां व्याख्या दुमपत्त' शब्दे चतुर्थभागे द्रष्टव्या।) यथा हि उयमंगलपायच्छित्ते सिरसि बहाए कंठ मालाकडे आविद्धकिशलयाणि पाण्डुपत्रेण अनुशिष्यन्ते तथा अन्योऽपि यौवनगर्विताऽ मणिसुवन्न अहयसुमहग्घबत्थपरिहिए चंदणोक्किन्नगायसरीरे नुशासनीयः। सरससुरहिंगधगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगवि-लेवणे अथाऽऽयुषोऽनित्यत्वमाह कप्पियहारद्वहारतिसरयपालंबपलंबमाणे कडिसुत्तयसुकयसोहे कु(कू) सग्गे जह ओसविंदुए, थोवं चिट्ठइ लंवमाणए। पिणद्धगे विज्जअंगुलिज्जलिलियं गयल लियकयाभरणे एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए // 2 // नाणामणिकणगरयणकडगतुडियथंमियमुए अहियरूवसस्सिरीए हे गौतम! समयमात्रमपि मा प्रमादी: / तत्र हेतुमाह / यथा- कुशस्याग्रे कुंडलुज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारुत्थयसुकयरइयवत्थे अवश्यायबिन्दुर्लम्बमान: सन् स्तोकं-स्तोक कालं तिष्ठति वातादिना पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे मुहिया पिंगलं गुलिए प्रेर्यमाण: सन्पतति तथा मनुष्याणां जीवितम्- आयुरस्थिरं ज्ञेयम्। एवं नाणामणिकणगरयणविमल-महरिहानउणोवियमिसमिसंतविरइ आयुषोऽनित्यत्वं ज्ञात्वा धर्मे प्रमादो न विधेय इत्यर्थः / उत्त, 1 अ। | यसुसिलट्ठ-विसिट्ठलट्ठ विद्धबीरबलए।किंबहुणा कप्परुक्खो "आयुषि बहूपसर्गे, वाताहतसलिलबुदबुदानितरं। उच्छ्वस्य निर्वासति विव अलं कियविभूसिए सुइपयए भवित्ता अम्मापियरो Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 12 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ अभिवादइज्जा / तए णं तं पुरिसं अम्मापियरो एवं बइज्जाजीव पुत्ता ! वाससयंति तं पियाई तस्स नो बहुयं भवइ कम्हा वाससयं जीवंतो वीसं जुगाइं जीवइ,वींस जुगाइं जीवंतो दो अयणसयाई जीवइ 2, दो अयणसयाई जीवंतो छ उऊपयाई जीवइ३, छ उऊसयाई जीवंतो वारसमाससयाई जीवइ 4, वारसमाससयाई जीवंतो चउवीसं पक्ख सयाइंजीवइ 5, चउवीसं पक्खसयाइंजीवंतोछतीसं राइंदिअसहस्साइंजीदति छत्तीसं राइंदियसहस्साइं जीवंतो दसअवीयाइं मुहूत्तसयसहस्साइं जीवइ 6, दस असीयाइं मुहत्तसयसहस्साई जीवंतो चत्तारि ऊसासकोडिसए सत्त य कोडिओ अडयालीसं च सयसहस्साइं चत्तालीसं च सहस्साई जीवइ७॥ (सूत्र-१६) अथ यदि तस्य पुत्रस्य वर्षशतप्रमाणमायु स्यात्तदा सजीवति; नाऽन्यथेति, तदाप च आयु: 'आई' ति-अलंकारे, तस्य वर्षशतायु पुरुषस्य न बहुक-वर्षशताधिकं भवात् कस्मात्? यस्माद्वर्षशतं जीवन् विंशातयुजानि एव जीवति, निरुपक्रमा-युष्कत्वात् 10 विंशतियुगानि जीवन् पुरुषो द्वे अयनशंत जीवति 20 वे अयनशते जीवन जीव: षऋतुशतानि जीवति 30 षऋतुशतानि जीवन जन्तु: द्वादश मासशतानि जीवति 40 द्वादश मासशतानि जीवन् प्राणी चतुर्विशतिपक्षशतानि 2400 जीवति 5 चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवन् षट्त्रिंशदहोरात्रसहस्राणि 36000 जीवति सत्त्व: 60 षट्त्रिंशदहोरात्रसहस्राणि जीवन् असुमान् दश मुहूर्तलक्षाणि अशीतिमुहूर्तसहस्राणि 1080000 जीवति 70 दशलक्षमुहूतानि अशीतिमुहूर्तसहस्राणि जीवन् देहधारी चत्वारि उच्छ्वासकोटिशतानि सप्तकोटि: अष्टचत्वारिंशच्छतसहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि च 4074840000 जीवति देहभृत् / / निया॑यन्ती तमवास्थात्, तन्मयत्वमिवेयुषी। अदृश्यत्वं गते लस्मि-स्तस्या: प्राणास्तमन्वगुः / / 5 / / " स्नेहाध्ययसानेनाप्यायु:क्षीयते"एकस्य वणिजो यून:, प्रेयसी प्रौढयौवना। द्वयोरपि तयोः स्नेहः, कोऽपि वाचामगोचरः / / 1 / / स वाणिज्याय गत्वाऽथ, प्रत्यावृत्त: समेष्यति। एकाहेन निजावासं, यावत्तावन्परस्परम् // 2 // वयस्याश्चिन्तयामासुः, स्नेह: सत्योऽनयोर्न वा। पूवमेकस्ततो गत्वा, तस्य कान्तामवोचत / / 3 / / मृतस्तव पतिर्भद्र!, श्रुत्वा वग्राहतेव सा। सत्ये सत्यमिदमिति, पृष्टठा वारत्रयं मृता // 4 // तत्स्वरूपंच वणिजे, कतिथं सोऽपि तत्क्षणात्। एकोऽपि प्राप पञ्चत्व-मेवे प्रेम्णायुषः क्षयः / / 5 / / " भयाध्यवसानेनाऽप्पायु:क्षीयते, यथा"नगरी द्वारवत्यासी-त्सर्वा स्वर्णमयालाग। अन्त:समुद्रमौर्वाग्नि-भेंज यत्प्रतिविम्वताम्॥१॥ जतुं पौराङ्गनास्येन्दून, यत्र स्वप्रतिपन्थिनः / स चन्द्र सेनश्चन्द्रोऽस्थात्, शालशीषावलीमिषात्॥२॥ वासुदेवोऽभवत्तत्र, वसुदेवनृपाङ्गज देवकीकुक्षिकासार-कलहंस: क्षितीश्वरः / / 3 / / द्विष पौरुषवन्तोऽपि, यदलैरवला: कृताः / सृष्टिव्यत्यासकरणा-ज्जिज्ञे सृष्टापितैः स्पुटम्॥४॥ सूनुं स्तनंधयं धाप-यन्ती स्त्री वीक्ष्य काञ्चन। अधृतिं देवकी चक्रे, पृष्टारिष्टारिणा क्षणात् / / 5 // अधृतिं किं विधत्सेऽम्ब!, तयोक्तं जात जातु मे। तनूजन न वक्षोज-पय: केनाप्यपीयत॥३॥ वायुदवोऽवदन्मात:!, मा कार्षीस्त्वमिहाधृतिम्। कारायष्यामि ते पुत्र-प्राप्तिमाराध्य देवताम् / / 7 / / देवताऽऽराधिताऽवादी-दिव्य: सूनुर्भविष्यति। अभूञ्च तनुभूस्तस्या, नान्यथा देवतावच: / / 8 / / गजसुकुमाल इति, नाम चक्रे कृतोत्सवम्। सुतां सोमिलविप्रस्य, स युवा पर्यणाय्यत // 9 // सोऽन्येद्यु: स्वामिनो नेमे:, श्रुत्वा धर्ममभूव्रती। विजह स्वामिना सार्द्ध, सेय॑स्तस्मिन्नभूद् द्विजः // 10 / / क्रमेण प्रभुमि: साकं, द्वारिका पुनरागमत्। प्रभुं पृष्टा पितृवने, कायोत्सर्गेण संस्थितः / / 11 / / तथास्यं तत्र दृष्टांतं, रुष्टो दुष्टा द्विजस्ततः। निवेश्य कण्टकं मूर्ध्नि, चिताङ्गारैरपूरयत्।।१२।। तत्कष्टं सहभानस्यो-त्पन्नं केवलमुज्ज्वलम्। अन्तकृत्केवलित्वेन, तदैव प्राप निर्वृतिम् / / 13 / / विष्णु: प्रात: प्रभुं नत्वा, साधूश्चापृच्छदच्छधीः / क्व मे बन्धु: प्रभु: स्माह, निश्वस्थात्प्रातमा बहिः / / 14 / / वासुदेवो गतस्तत्र, परासुमवलोक्य तम्। त। (5) आयुश्च सप्तधा भिद्यते। तद्यथाअज्जवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणापराघाए। फासे आणापाणू, सत्तविहं मिज्जए आउं / / 2041 || अतिहर्षविषादाभ्यामधिकमवसानं चिन्तनमध्यवसानं तस्मा द्भिद्यतेखण्ड्यते-उपक्रम्यते आयु: - अतिशयेन हृदयसंरोघात् / अथवारागस्नेहमयभेदादध्यवसानं विधा, तस्मादायुर्भिद्यते (विशे.) निमित्तं दण्डकशादिकं वक्ष्यति, तत्र च सत्यायुर्भिद्यते। तथा- आहारे समधिके अभ्यवहते, वेदनायां, चातिशयवत्यां, शिरोऽक्षिकुझ्यादिप्रभवायां, पराघाते च गतपातादिसमुत्थे, तथा-स्पर्श भुजङ्गादिसंबन्धिनि, तथाप्राणापानयोश्च निरोधे सत्यायुर्भिद्यत इति एवं सप्तविघं-सप्तभिः प्रकारैः प्राणिनामायुर्भिद्यते- उपक्रम्यते इति। विशे। एतेषां क्रमेणोदाहरणानि। तत्र रागाद्यध्यवसानेन क्षीयते आयु:"एकस्य कस्यचिद् गावो, ह्रियन्ते स्म मलिम्लुवैः / पालनाय गवां जग्मुः, पत्तयस्तस्कराननु // 1 // वालता वालयित्वा गा-स्तत्रैकस्तरुण: पुमान्। गृहीताङ्ग इवानङ्ग-स्तृषितो ग्राममध्यगात्।।२।। तत्रैका ग्रामतरुणी, तमपीप्यत्पयः परम्। शिरा धूनयतोऽप्यस्य, निवृत्त्यै नन्यवर्तत // 3 // स उत्थाय युषा यासी-त्सा तु तद्रूपमोहिता। अनुरागमहाधूर्त- क्षिप्तचूर्णेव तदशा // 4 // Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 13 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ कुपित: प्रभुमप्राक्षी-ल्केनामारि प्रभुर्जगौ // 15 // विशन्तं स्वां पुरीं दृष्ट्रा, यस्य शीर्ष स्फुटिष्यति। कुटुम्बं प्रेष्य विप्रोऽपि, स्वयं यावन्निरेति सः / / 16 / / तावद् दृष्टो विशन् विष्णु-स्ततोऽ तिभयसंभ्रमात्। ययौ पतितवत्कुम्भ-स्तन्मुण्ड शतखण्डताम्।।१७।। आक० 1 अ आ०म०। (विस्तरतो गजसुकुमारकथा- 'गजसुकुमाल' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते) निमित्तादप्यायु: क्षीयते, तच्चानेकधादंड-कस-सत्थ-रज्जू, अग्गी-उदगपडणं विसं वाला। सीउण्हं अरइ भयं, खुहा पिवासा य वाही अ॥७२५ / / मुत्तपुरीसनिरोहे, जिन्नाजिन्ने अभोअणे बहुसो। घसण घोलण पीलण, आउस्स उवक्कमा एए / / 726 / / दण्ड-कष शस्त्र रज्जव: अग्न्युदकयो: पतन विषं व्याला:- सर्पाः शीतोष्णम् अरतिभयं क्षुत्पिपासाच व्याधिश्च मूत्रपुरीषनिरोध: जीर्णाजीर्ण च भोजने बहुश: घर्षणं चंदनस्येव घोलनं अङ्गुष्ठाङ्गुलिभ्यां यूकाया इव पीडनमिक्ष्वादेरिव आयुष उक्र मरूपत्वादुपक्र मा एते / कारणे कार्योपचाराद् यथा तण्डु- लान्वषति पर्जन्य:, यथा च-आयुघृतम् / (आ.क. 1 अ.) कथं दण्डादय उपक्रमेहतव इति चेत्, उच्यते-दण्डेन गाढमभिधाते, कशयाशस्त्रखङ्गादिना, रचा गलादौ बन्धे, अग्निना परिदाहे, उदके सर्वस्रोतसामन्त: पूरणे, विषे भक्षिते, व्याला:सस्तैिर्दशने, शीतोष्णेन च संस्पर्शतः, अरत्या भयेन चान्तर्मनसि पीडासमुत्पत्तौ, क्षुधया अभक्षणे, पिपासया हृदयगल - तालुशोषणे, मूत्रपुरीषनिरोधे शरीरक्षो भत:, जीर्णाजीर्णं नाम अर्द्धजीर्ण तस्मिन् सति अनेकशो भोजने रसोपचयात्, घर्षणं- चन्दनस्येव घोलनम् - अङ्गुष्ठकाङ्गुलिगृहीतचाल्यमानयूकाया इव तस्मिन्, पीडनमिक्ष्वादेस्तस्मि नपि सति, भिद्यते आयुरि- त्येते सर्वेऽप्युपक्र महेतवः / (आ. म. 1 अ. ||725 / / गाथाटी.) नन्वध्यवसानादीन्यपि निमित्तान्येवायुषोऽपक्रमस्य तत्कोऽत्र भेद:? सत्यं, किं (न्त्वान्त) वितरेतरविचित्रोपाधिभेदेन भेदाद्विस्तरप्रियविनयानुग्रहार्थत्वाद्वानदोषः। विशे०२०४३ गाथाटी. आहारादिभिप्यायुर्भिद्यते"बटुरेको दिने कृत्वा, वारानष्टादशाशनम्। शूलेन म्रियते स्माशु, मृतश्चान्य: क्षुधा पुन: / / 1 / / दृग्वेदनादिभिर्जाता, भूयांसोऽपि गतायुषः / विद्युदाधुपघाताच, श्रूयन्ते बहवो मृता:॥२॥ स्पर्शाऽप्यायु:क्षयाय स्या-द्यथा त्वग्विषभोगिनः / स्त्रीरत्नस्येव संस्पर्शा, यदि वा चक्रवर्तिनः / / 3 / / ब्रह्मदत्ते मृति प्राप्ते, द्वादशे चक्रवर्तिनि। स्त्रीरत्नं तत्सुवोऽवादी-दोगान् भुड्क्ष्व मया सह॥४॥ तयोक्तं न मम स्पर्श:, सास्ते चक्रिणं विना। तं प्रत्याययितुं बाजी, मुखाद्यावत् कटिं तया // 5 // स्पष्ट: करण तत्कालं, गलद्रेत: क्षयान्मृतः। तथाऽप्यप्रत्यये तस्य, कृत्वा लोहमयं नरम्॥६॥ परिरेभे सरन्ते च, दैवादाशु व्यलीयत। ततोऽभूत्प्रत्ययस्तस्य, दृष्टं को वा न मध्यते / / 7 / / प्राणापानानुरोधेऽपि मृत्युर्भवति देहिनाम्। यज्ञाऽऽदौ मार्यमाणानां, छागानामिव याज्ञिकै // 8 // " आ.क. 1 अ॥ आहे- जाति आउयबंधो उवक्कमिज्जति / तेण कयविप्प- णासो, अकयभागमोय होइ। कहजेण वाससयं आउयं बद्धं सोतंसव्वं आउबंध न जति,जहा तेण कयविप्पणासोतस्सयतत्थमारिव्वएजें उरमउरति तेणं अकयब्भागमो भवति / एस यदि दोसो भवति तो णत्थि मोक्खो मोक्खगया वि पडतु। उच्यते नाणस्स कथमुपालंभ: एक्को वि दोसो न भवति / कहं जेण तं सव्वं वेदेति / कहं पलालवट्टिदिद्रुतसाहणा, जहापलालवट्टी हत्थसयदीहा अंते पदीविया चिरेण डज्जति / पुञ्जिया तक्खणा चेव डज्जति / एसो से उवणतो। अहवाअग्निकव्याधिनिदर्शनात् फलपाचननिदर्शनाचेति। आ.चू. 1 अायथा वर्षशतोपमोगाय कल्पितं धान्यं भेस्मक- व्याधिपीडितस्याल्पेनापि कालेनापि भुजानस्य न कृतनाशो, नाप्यकृताभ्यागमस्तद्वदनापीति / तथा चाह भाष्यकार:"कम्मोवक्कामिज्जइ, अपत्तकालम्भि जइ ततो पत्ता। अकयागमकयनासा, मोक्खाणासासया दोसा / / 2047 / / न यदीहकालियस्स वि, नासो तस्साणुभूइतो खिप्पं / बहुकालाहारस्स व, दुयमग्गियरोगिणो भोगो।।२०४८ / / सव्वं व पदेसतया, भुज्जइ कम्ममणुभावतो भइयं। तेणावसाणुभवे, केकयनासादयो तस्स / / 2049 / / किंचिदकाले वि फलं, पाविज्जइ पच्चए य कालेणं / तह कम्म पाइज्जइ, कालेण य पचए अन्नं // 2050 / / जह वा दीहा रज्जू, डज्जइ कालेण पुंजिया खिप्पं। विततोपडओ सुस्सइ, पिंडीभूतो उ कालेणं / / 2051 / / " (विशे०) (असांगाथानां व्याख्या उवक्कमकाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे करिष्यते) इत्यादि, ततो यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति / आ०म० 1 अ / आयुश्च सोपक्रमायुषामेव भिद्यते, न निरुपक्रमायुषाम् / आ.चू. 1 अ। आव०। (आयुर्हि द्विविधम्)-सोपक्रमायुषां सोपक्रमम, निरुपक्रमायुषां निरुपक्रमम्।यदा ह्यसुमान् स्वायुष- स्त्रिभागे त्रिभागत्रिभागे वा जघन्यत एकेन द्वाभ्यां चोत्कृष्टत: सप्तभिरष्टभिर्वा वर्षरन्तर्मुहूर्तप्रमाणेन कालेनात्मप्रदेशरचना- नाडिकान्तर्वर्त्तिन: आयुष्ककर्मवर्गणापुद्गलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्ते तदा निरुपक्रमायुर्भवतीति, अन्यदा तुसोपक्रमायुष्क इति / आचा० 1 श्रु.२ अ०१ उ०६३ सूत्र / (आयुष्कोपक्रमस्याऽपि यथायुष्कोपक्रमकालताम् 'उवक्कमकाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) (सोपक्रमायुषो निरुपक्रमायुपश्च यथा)जीवाणं भंते! किं सोवक्कमाउया, णिरुवक्कमाउया।गोयमा! जीवा सोकक्कमाउया वि, णिरुवक्कहाउया विणेरइया णं पुच्छा, गोयमा! जेरइया णो सोवक्कमाउया, णिरुवक्कमाउया वि। एवंजाव थणियकुमारा पुढवीकाइया जहा जीवा / एवं जाव मणुस्साबाणमंतरजोइसियवेमाणिया:जहाणेरइया। (सूत्र६८५) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 14 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ जीवाणमि' त्यादि- 'सोवक्कमाउय' त्ति- उपक्रमणमुपक्रमःअप्राप्तकालस्यायुषो निर्जरणं तेन सह यत्तत्सोपक्रमं तदेवं विधमायुर्येषां ते तथा। तद्विपरीतास्तु निरुपक्रमायुषः / इह गाथे- 'देवा नेरइया विय, असंखवासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरिमसरीरा य निरुवकमा / / 1 / / सेसा संसारत्था, हवेज्ज सोवक्कमा य इयरे य। सोवक्कमनिरुक्कम-भेओ भणिओ समासेणं // 2 // भ.२० श०१० उ०। नेरइया देवा असंखेज्जवासाउगा तिरिया मणुया य उत्तमपुरिसा 'चरिमसरीर' त्ति-सेसा भविया देवा णारया। 'असंखेज्जवासाउयाय' छम्माससेसाउया आउगाणि बंधति / परभविआयुआणि सेसतिभागे सेसाउया जे निरुवक्कमा जे ते सोवक्कमा मेत्ते सिय तिभागसेसाउया परभविआयुयं पकरेंति। सिय तिभागतिभागावसेसाउया सिय तिभाग 3 सेसाउया पकरेंति / कोऽनयोः प्रतिविशेषः / इमाणं संनिवायो तिव्वो इमाणं सो सिढिलो सोवक्कमस्स उववन्नमेत्तस्स आरद्धं जत्थ रुच्चति तत्थ उयहिज्जति / निरुवक्कमेणं अवस्सं तं ठाणं पावियव्वं तिभागा वीप्सार्थ: अणेगे तिभागा होंति,याव तिएहिं आयुयं भाग देति जो एगम्मि भाए वट्टति तत्थ अभावतो जे जीविअसंखज्जपविट्टे सव्वनिरुद्धो स आउतो स सव्वमहंतीए आउयबंधगट्ठाए तीसे णं आउयबंधगट्ठाए चरिमकालसमयम्मिवट्टमाणे जहट्टियं सोअपज्जत्तगनिव्यर्ति निव्वत्तेति / एयस्स भागस्स हट्ठा ण तरति आउयं / बधिउं तेण य सव्वजीवाणं आउबंधा। अणाभोगा-भिनिव्वित्तिउं तेण सो अंतोमुहुत्तिओ आवलियाए वि। आ. चूअ। (7) आयुषोऽल्पायुर्दीघीयुरशुभदीर्घायु: शुभदीर्घायुरिन्यादिका बहवो भेदास्तेषां कारणानि च। तत्राल्पायुष्कारणानि यथा कहं णं मंते! जीवा: अप्पाउयत्ताए कम्मं पगरेंति गोयमा! / (सूत्र 204) (भ.५ श०६ ऊ.) तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पा उअत्ताए कम्म पगरेंति, तं जहापाणे अइवाइत्ता भवइ, मुसंवइत्ता भवइ, तहारूवं स मणं वा माहणं वा अफासुरणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता भवइ, इचेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं पगरेंति। (सूत्र-१२५४) स्था० ३ठा.१उ। 'अप्पाउयत्ताए' त्ति-अल्पायुष्कतायै अल्पजीवितव्यनिबन्धनमित्यर्थः / (भ.) अथवा- अल्पमायु-र्जीवितं यस्यासावल्पायुष्कस्तद्भावस्तत्ता तथा कर्मायुर्लक्षणं प्रकुर्वन्ति बध्नन्तीत्यर्थः / तद्यथा-प्राणान्-प्राणिनोऽतिपातयितेति शीलार्थतन्नन्तमिति कर्मणि द्वितीयेति प्राणिनां विनाशनशील इत्यर्थः / एवम्भूतो यो भवति, एवं मृषावादवक्ता यश्च भवति, तथा-तत्प्रकारं रूपं-स्वभावो नेपथ्यादि वा यस्य स तथारूपो दानोचित इत्यर्थः / (स्था) ('समणा' दिपदानां व्याख्या स्वस्व शब्दे) प्रतिलम्भयितालाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो यश्च भवति / (स्था.) 'पडिलाभित्त' त्ति-प्रतिलभ्य लाभवन्तं कृत्वा (भ.) तेऽल्पायुष्कतया कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रम: इच्चएहिं ति-इत्येते: प्राणातिपातादिभिरुक्तप्रकारैस्त्रिभि: स्थानैर्जीवा अल्पायुष्कतया कर्म प्रकुस्तीति निगमनमिति। इह च प्राणातिपात-यित्रादिपुरुषनिर्देशेऽपि प्राणतिपातादीनामेवाल्पायुर्बन्धनत्वेन तत्कारणत्वमुक्तंद्रष्टव्यमिति। इयं चाम्य सूत्रस्य भावना अध्यवसायविशेषेण एतत्त्रयं यथोक्तफलं भवतीति (स्था.) अथवेहापेक्षिकी अल्पायुष्कता ग्राह्या, यत: किल जिनागमा- भिसंस्कृतमतयो मुनयः प्रथमवयसं भोगिनं कञ्चन मृतं दृष्ट्वा वक्तारो भवन्ति / नूनमनेन भवान्तरे किञ्चिदशुभं प्राणिघातादि चासेवितमकल्प्यं वा मुनिभ्यो दत्तं येनायं भोग्यप्यल्पायु: संवृत्तः इति। (भ.) अथ वा-यो हि जीवो जिनादिगुणपक्षपातितया तत्पूजाद्यर्थं पृथिव्याद्यारम्भेण न्यासापहारादिना च प्राणातिपातादिषु वर्तते तस्य सरागसंयमनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्टा समवसेयेति / अथ-नैतदेवं निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य अल्पायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहण- रूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद, अत: कथमभिधीयते सविशेषणप्राणातिपातादिवर्ती जीव आपेक्षिकी चाल्पायुष्कतेति? उच्यते- अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपातादेविशेषणमवश्यं वाच्यं यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एवाशुभदीर्घायुष्टां वक्ष्यति। न हि समानहेतो: कार्यवैषम्यंयुज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्। तथा-"समणावासयस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला- भमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ'' इति भगवती- वचनश्रवणादवसीयते। नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपाऽ-ल्पायुष्टा, न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबंधनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लक भवग्रहणनिमित्तता सम्भाव्यते जिनपूजाद्यनुष्ठानस्यापि तथा प्रसङ्गात् / अथाऽप्रासुकदानस्य भवतूक्ताल्पायुष्टा, प्राणातिपात- मृषावादयोस्तु क्षुल्लकभवग्रहणमेव फलमिति, नैतदेवमएका- योगप्रवृत्तत्वाद्, अविरुद्धत्वाचेति / अथ मिथ्यादृष्टिश्रमणब्रा- ह्यणानां यदप्रासुकदानं ततो निरुपचरितैवाल्पायुष्टा युज्यते, इतराभ्यां तुको विचार इति? नैवम्, अप्रासुकेनेति तत्र विशे- षणस्थानर्थकत्वात् / प्रासुकदानस्याप्यल्पायुष्कफलत्वाविरोधा- त्, उत्कञ्च- भगवत्याम्"समणोवासयस्सणं भंते! तहारूवं असंजय अविरय अप्पडिहय अप्पचक्खाय पावकम्मं फासुरण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ? गोयमा! एगंतसो पावे कम्मे कज्जइ नो से काइ निज्जरा कज्जइ'' त्ति / यच्च पापकर्मण एव कारणं तदल्यायुष्टाया अपि कारणमिति, नन्येवं-प्राणातिपातमृषावादावप्रासुकदानं च कर्त्तव्यमापन्नमिति? उच्यते-आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः / (स्था.) यतो यतिधर्माशक्तस्य गृहस्थस्य द्रव्यस्तवद्वारेण प्राणा नोट-१-(देवा नैरयिका अपि, चासंख्यवर्षायुपश्च तिर्यग्मनुजा उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीरश्च निरुपक्रमा : // 1 // शेषाः संसारस्था भवेयुः सोपक्रमायुष इतरे च सोपकमनिरुपक्रमभेदो भणित समासेन / / 2 / / १-भ० 5 श०६ उ० 203 सूत्रटी० / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 15 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ तिपातादिकमुक्तमेव प्रवचने (भ.) "अधिकारिवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः / व्याधिप्रतिक्रिया तुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः // 1 // " तथा च गृहिणं प्रति जिनभवनकारणफल-मुक्तम्। "एतदिह भावयज्ञः, सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् / / अभ्युदयाविच्छित्त्या, नियमादपवर्गवीजामिति // 1 // तथा- "भन्नइ जिणपूयाए, कायवहो जइ वि होइ उ कहिं वि। तह वि तहिं परिसुद्धा, गिर्हाणि कूवाऽऽहरणजोगा।।१।। असदारंभपवत्ता, जंच गिही तेण तेसि | विन्नेया। तन्निवित्ति फल चिय, एसा परिभावणीयमिदं" // 2 // इति, दानाधिकारे तु श्रूयते हि द्विविधाः श्रमणोपासका:- संविग्नभाविता, लुब्धकदृष्टान्त- भाविताश्चेति / यथोक्तम्- "संविग्गभावियाणं, लोद्धयदिठंतभावियाणं च / मुत्तूण खेत्तकाले, भावं च कहिंति सुद्धत्थं // 1 // इति / तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता यथा कथञ्चिद्ददति संविग्नभाविता-स्त्वौचित्येनेति। तच्चेदम्-"संथरणम्भि असुद्धं, दोण्ह वि गिण्हतंयाण हियं / आउरदिट्ठतेणं, तं चेय हियं असंथरणे" // 1 // इति / तथा- "नायगयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं दव्वाण देसकाल-सद्धासक्कारजम्मजुयं" इत्यादि क्वचित् "पाणे अइवाइत्ता मुसं वइत्ता" इत्येवं भवति शब्दवा वाचना, तत्रापि स एवार्थः, क्त्वाप्रत्ययान्तता व्याख्येया, प्राणानतिपात्य मृषोक्त्वा श्रमणं प्रतिलम्भ्य अल्पायुष्टया कर्म बध्नन्नीति प्रक्रमः / शेषं तथैव। (स्था.) अथ वेहाप्रासुकदानमल्पायुष्कतायां मुख्य कारणम्, इतरे तु सहकारिकारणे इति व्याख्येयं प्राणातिपातनमृषावादनयोदनिविशेषणत्वात्, तथाहि- (भ.) प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त्वा भोः साधो! स्वार्थसिद्धमिदम्भक्तादि कल्पनीयमकल्पनीयं वा न शङ्का कार्येत्यादि, ततः प्रतिलम्भ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रमः / इह च द्वयस्य विशेषणत्वेनैकस्य विशेष्यत्वेन त्रिस्थानकत्वमवगन्तव्यम् / गम्भीरार्थञ्चेदं सूत्रमता-ऽन्यथाऽपि भावनीयमिति / स्था०३ ठा.१ उ / भ०५ श०६ उ.। दीर्घायुष्कारणानि यथातिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति, तंज, हाखो पाणे अइवाइत्ता भवइ, णो मुसंवइत्ता भवइ, तहा रूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पमिलाभेत्ता भवइ, इओएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउअत्ताए / कम्मं पगरेंति। (सूत्र-१२८)। (स्था.३ठा० 1 उ.) अल्पायुष्कताकारणान्युक्तानि, अधुनैतद्विपर्ययस्यैतान्येव विपर्यस्ततया कारणान्याह- 'तिहिं' इत्यादि, प्राग्वदवसेयं, नवरं 'दीहाउअत्ताए' त्ति-शुभदीर्घायुष्टय शुभदीर्घायुष्टया वेति प्रतिपत्तव्यम्। (स्था.) 'कहन्नमि' त्यादि, भवति हिजीवदयादिमतो दीर्घमायुयेतोऽत्रापि तथैव भवन्ति दीर्घायुषं दृष्ट्रा वक्तारो जीवदयादि पूर्व कृतमनेन तेनायं दीर्घायुः संवृत्तस्तथा सिद्धमेव वधादिबिरतेर्दीर्घमायुः (भ.) प्राणातिपातविरत्यादीनां दीर्घायुषः शुभस्यैव निमित्तत्वात् / उक्तञ्च- "महव्वय अणुव्वएहिं, बालतवा कामनिज्जराए य। देवाउयं निबंधइ, सम्मचिट्ठी य जो जीवो" // 1 // तथा "पयईए तणुकसाओ, दाणरओ सीलसंयमाविहूणो।मज्जिमगुणेहिं जुत्तोमणुयाउयं बंधए जीवा" ||2|| देवमनुष्यायुषी च शुभे इति / तथा भगवत्यां दानमुद्धिश्योक्तम्'समणोवासयस्सणं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणं पाणं खाइमं साइमंपमिलामेमाणस्स किं कज्जइ, गोयमा! एगंतसो निज्जरा कज्जइ,णोत्से केइ पावे कम्मे कज्जइ'' ति। यञ्चनिर्जराकारणं तत् शुभदीघायुष्कारणतया न विरुद्ध महाव्रतवदिति।स्था०३ ठा० 1 उ० / अशुभदीर्घायुष्कारणानि यथातिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति? तं जहा-पाणे अइवाइत्ता भवइ, मुसंवइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलेसा निंदेत्ता खिसेत्ता गरिहित्ता अवमाणित्ता अन्नयरेणं अमणुनेणं अपीइकारएणं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिलाभेत्ता भवइ / इचेएहिं तिहि ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउअत्ताए कम्मं पगरे ति। (सूत्र-१२५) अन्तरमायुषो दीर्घताकारणान्युक्तानि, तश्च शुभाशुभमिति तत्रादौ तावदशुभायुर्दीर्धताकारणान्याह- 'तिहिं इत्यादि- प्राग्वद्, नवरम् / अशुभदीर्घायुष्टायै इति नारकायुष्कायेति भावः। तथाहि-अशुभंचतत् पापप्रकृतिरूपत्वात् दीर्घ च तस्य जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्रस्थितिकत्वादुष्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपत्वात् अशुभदीर्घ तदेवंभूतमायुर्जीवितं यस्मात्कर्मणास्तदशुभदीर्घायुस्तद्धावस्तत्ता तस्यै तया वेति प्राण न् प्राणिन इत्यर्थोऽपिपातयिता भवति मृषावादी च वक्ता भवति, तथा श्रमणब्राह्मणादीनां हीलनादि कृत्वा प्रतिलम्भयिता भवतीत्यक्षरघटना। हीलनातुजात्याधुट्टनतो निन्दनं मनसा खिसनं जनसमक्षं गर्हणं तत्समक्षम् अपमानन- मनभ्युत्थानादिभि: अन्यतरेणबहूनां मध्ये एकतरेण कृचित्त्वन्यतरेणेति न दृश्यते, अमनोज्ञेनस्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिना अत एवाप्रीतिकारकेण भक्तिमतस्त्वमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव तत्फलत्वादार्यचन्दनाया इव / / आर्यचन्दनया हि कुल्माषा: सूर्पकोणकृता भगवते महावीराय पञ्चोदनोनषाण्मासिककक्षपणपारणके दत्तास्तदैव च तस्या लोहनिगडानि हेममयनूपुरौ सम्पन्नौ केशाः पूर्ववदेव जाता: पञ्चवर्णविविधरत्नराशिमिगृहं भृतं सेन्द्रदेवदानवनरनाय- कैरभिनन्दिता कालेनावाप्तचारित्रा च सिद्धिसौधशिखरमुपगतेति / इह च सूत्रे अशनादिप्रासुकाऽप्रासुकत्वादिनान विशेषितंहीलनादिकर्तुः प्रासुकादिधिशेषणस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वान्मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव प्रधानतया तत्कारणात्वादिति। स्था०३ठा०१ऊ। (वीरस्य भगवत: पारणाकारणात् आर्यचन्दनया: कृतपुण्याहमित्यादिआर्यचन्दनाया: वृत्तम् 'अज्जचंदणा' शब्द प्रथमभागे गतम्) वाचनान्तरे तु-"अफासुएणं अणेसणिज्जेणं' ति-दृश्यते तत्र च प्रासुकदानमपि हीलनादिविशेषितमशुभदीर्घायुकारणम्, अप्रासुकादानं तु विशेषित इत्युपदर्शयता "अ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 16 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ फासुएणे'' त्याद्युक्तमिति प्राणातिपातमृषावादनयोनिविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेदृश्यमानत्वादिति / भवति च प्राणातिपातादेरशुभदीर्घायुस्तेषां नरकगतिहेतुत्वाद्, यदाह "मिच्छद्दिछिमहारंभपरिग्गहो तिव्वलोभनिस्सीलो / नरयाऽऽउयं निबंधइ, पाक्मई रोद-परिणामो'' // 1 // नरकगतौ च विवक्षया दीर्घमेवायु: / भ०५ श०६ उ. 204 सूत्र टी०। शुभदीर्घायुष्कारणानि यथातिहिं ठाणेहिं जीवा सुमदीहाउअत्ताए कम्मं पगरेति,तं जहाणोपाणो अइवाइत्ता भवइ,णो मुसंवइत्ता भवई तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्तानमंसित्ता सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेत्ता मणुन्नेणं पीइकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ, इचेएहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा सुहदीहाउअत्ताए कम्मं पगरेंति। (सूत्र-१२५) उक्तकविपर्ययेणाधुनेतरदाह / 'तिहिं ठाणेहिं' इत्यादि पूर्ववत् इहापि प्रासुकाऽप्रासुकतया दानंन विशेषितं पूर्वसूत्रविपर्य-यत्वादस्य पूर्वसूत्रस्य वा विशेषणतया प्रवृत्तत्वादिति। न च प्रासुकाऽप्रासुकदानयो: फलं प्रति न विशेषोऽस्ति पूर्वसूत्रयो - स्तस्य प्रतिपादितत्वात्तस्मादिह प्रासुवैषणीयस्य कल्पप्राप्ता- वितरस्य चेदं फलमवसेयम्। (स्था०३ ठा० १ऊ) वाचनान्तरे-तु'फासुएणमि' त्यादि दृश्यत एवेति (भ०५ श०६ ऊ सूत्र-२०४) अथवा- भावप्रकर्षविशेषादनेषणीयस्यापीदं फलं न विरुध्यते, अचिन्त्यत्वाच्चित्तपरिणतेः सा हि बाह्यस्यानुगुणतयैव न फलानि साधयति भरतादीनामिवेति। इह च प्रथममल्पायु:सूत्रं, द्वितीयं तद्विपक्ष:, तृतीयमशुभर्दार्घायु: सूत्र, चतुर्थंतद्विपक्ष इति;, नपुनरुक्ततेति। स्था०३ ठा०१ऊ। अत्राऽपर सूत्रम्समणोवासए णं भंते! तहारूवं समणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पमिलामेमाणे किं लब्भइ? गोयमा! समणोवासएणं तहारूवं समणं वा. जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा महाणस्सा वा समाहिं उप्पाएइ, समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ। समणोवासएणं भंते! तहारूवं समणं वा. जाव पडिलामेमाणे किं चयइ!, गोयमा! जीवियं चयइ, दुचयं चयइ, दुक्करं करेइ, दुल्लहं, लहइ बोहिं बुज्जइ, तओ पच्छा सिज्जइ, जाव अंतं करेइ। (सूत्र- 264) 'किंचयइ' 'त्ति-किं ददातीत्यर्थ: 'जीवियं चयइ' त्ति-जीवितमिव ददात्यन्नादि द्रव्यं यच्छन् जीवितस्यैव त्यागं करोतीत्यर्थः / जीवितस्येवान्नादिद्रव्यस्य दुस्त्यजत्वदेतदेवाह- 'दुच्चयं चयइ' त्तिदुस्त्यजमेतत्त्यागस्य दुष्करत्वादेवाहदुष्करं करोतीति / अथवा- किं त्यजति-किं विरहयति / उच्यते-जीवितमिव जीवितं कर्मणो दीर्घा स्थिति 'दुचयं' ति-दुष्टे कर्म द्रव्यसंचयम् 'दुक्करं' तिदुष्करमर्पूवकरणतो ग्रन्थिभेदं, ततश्च- 'दुल्लभं लभइ' तिअनिवृत्तिकरणं लभते॥ ततश्च- 'बोहिं बुज्जइ' त्ति-बोधि-सम्यग्दर्शनं बुध्यतेअनुभवति / / इह च श्रमणोपासक: साधूपासनामात्रकारी ग्राह्यस्तदपेक्षयैवास्य सूत्रार्थस्यघटमानत्वात्'तओपच्छ' त्ति-तदनन्तरं सिध्यतीति प्राग्वत्, अन्यत्राप्युत्कं दानविशेषस्य बोधिगुणत्वं, यदाह"अणुकंपकामणिज्जरबालतवेदाणविणए" त्यादि / तद्यथा- 'कोई तेणेव भवे-ण णिव्वुया, सव्वकम्मओ मुक्का / / केई तइयभवेणं, सिज्जिस्संति जिणसगासे // 1 // इति। भ०७ श. १ऊ। . मध्यमायुर्वलदेवादीनां यथातओ मज्जिममाउयं पालयंति, तं जहा- अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेववासुदेवा। (सूत्र-१४३४) 'मज्जिमे' त्ति-मध्यमायु: पालयन्ति वृद्धत्वाभात्। स्था०३ ठा० 1 उ.। (8) आयुष्कर्मणो जीवितहेतुत्वं यथा। यावदायुष्कर्म विजृम्भते तावदोषैरतिपीडितोऽपि जीवत्या- युष्कर्मक्षये च दोषाणामविकृतावपि म्रियते। नं.१ गाथा टी. "सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं" (23 गाथा) एतच्चाथुर्हडिसदृशं भवति / तत्र हडि:खोडकस्तेन सदृशं तत्तुल्यं, यथा हि राजादिना हडौ क्षिप्त: कश्चिच्चौरादिस्ततो निर्गमनमनोरथं कुर्चाणोऽपि विवक्षितं कालं यावत्तया ध्रियते तथा नारकादिस्ततो निष्क्रमितुमना अपि तदायुषा ध्रियते इति हडिसदृशमायुः / कर्म 1 कर्म। (अत्र विशेषतो व्याख्यानम्- 'आउकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे करिष्पते) आयाति स्वकीयावसरे इत्यायुः गतेनिस्सरितुमिच्छन्नपिजीवो निर्गन्तुंन शक्नोति यस्मिन्सति निगडबद्ध इव तिष्ठतीत्यायुष: स्वभाव: / उत्त० 33 अ० 2 गाथा। (9) द्विविधमायुर्यथादुविहे आउए पण्णात्ते, तंजहा-अद्धाउए चेव, भावाउचेव१९ / (सूत्र-८५४) 'दुविहे' त्यादि, अद्धा-काल: तत्प्रधानमायु:- कर्म-विशेषोऽद्धायु:, भवात्येयऽपि कालान्तरानुगामीत्यर्थः, यथा-मनुष्यायुः, कस्यापि भवात्यय एव नापगच्छत्यति तु सप्ताष्टभवमात्रं कालमुत्कर्षतोऽनुवर्तत इति, तथा- भवप्रधानमायुर्भवायुः, यद्भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति, यथा- देवायुरिति, 19 / स्था० 2 ठा० 3 उ / (यथायुष्कं पालयन्ति इति 'आउय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) यथायुष्कवक्तव्यता 'अहाउय' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्या) (द्वयोः अद्धायुष्कमिति'अद्धाउय' शब्दे प्रथमभागे गतम्) (द्वयो: भवायुष्कमिति 'भवाउय' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (द्वौ यथायुष्कं पालयन्ति इति 'अहाउय' शब्दे प्रथमभागे दर्शितम्) (द्वयोः आयुष्कंसर्वत: इति 'आउयसंवट्टय' शब्देऽस्मिन्नवे भागे द्रष्टव्यम्) जीवानामिह भविकायु:, परभविकायुर्यथा // तत्र कियति पूर्वभवायुषि शेषे पारभविकमायुर्बद्धमि ति संशयान: पृच्छतिनेरइया णं मंते! कइभागावसेसाऽऽउया परभवियाऽऽउयं पकरंति? गोयमा ! नियमा छम्मासाऽवसेसाउया परभ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 17 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ विआउयं, पकरंति। एवं असुरकुमाराऽवि०जाव थणियकुमारा वि / पुढवीकाइया णं भंते! कइ-भागावसे साऽऽउया परभवियाउयं पकरेंति? गोयमा ! पुढवीकाइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- सोवक्कमाउया य, निरुवक्कमाउया य। तत्थ णं जे ते निरुवक्कमाउया ते नियमा तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया ते सिय तिमागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति; सिय तिभागतिभागावसे साउया परभवियाउयं पकरेंति; सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवि-याउयं पकरेंति। आउ-तेउवाउ-वणस्सइकाइयाणं, बेइंदिय- तेइंदिय-चउरिदियाण वि एवं चेव || पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कइभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरंति? गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहासंखेज्जवासाउया य, असंखेज्जवासाउया या तत्थ णं जे ते असंखेज्जवासाउया ते नियमा छम्मासावसे साउया परभवियाउयं पकरेंति / तत्थ णं जे ते संखिज्जवासाउया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोवक्कमाउया य, निरुवक्कमाउया य / तत्थ णं जे ते निरुवक्कमाउया ते नियमा तिभागावसे साउया परमवियाउयं पकरंति / तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया ते णं सिय तिमागावसेसाउया परभवियाउयं पकरंति; सिय तिभागतिभागे परभवियाउयं पकरंति; सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परमवियाउयं पकरंति / एवं | मणुस्सा वि, वाणमंतर-जोइसिस-वेमाणिया जहा नेरइया / दारं / (सूत्र- 144) नेरइया णं भंते ! कइभागावसेसाउया परभवियाउयं बंधं (पकरें) ति' इत्यादि / पाठसिद्ध, तदेवं यद्भागावशेषऽनुभूयमानभवायुषि पारभविकमायुर्बध्नन्ति तत्प्रतिपादितम्। प्रज्ञा०६ पद / भ०। नैरयिकादीनां परभविकायुर्बन्धो यथाजेरइया णियमा छम्मासावसेसाऽऽउया परभवियाऽऽउयं पगरेंति। एवमसुरकुमाराऽवि, जाव थंणियकुमारा / असंखेज्जवासाउया सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिया णियमं छम्मासावसेसाउया परमवियाउयं पगरेंति / असंखेज्जवासाउया सन्निमणुस्सा णियमं जाव पगरेंति / वाणमंतरजोइसिया वेमाणिया जहाणेरइया / (सूत्र-१३६) 'नियम' ति-अवश्यभावादित्यर्थः। 'छम्मासावसेसाउय' त्ति-षण्मासा अवशेषा-अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्येषां ने षण्मासावशेषायुष्काः। परभवो विद्यते यस्मिंस्तत्परभविकै तच्च तदायुश्चेति परभविकायु: प्रकुर्वन्ति- बध्नन्ति / असंख्येयानि वर्षागयायुर्येषां ते तथा ते च ते संज्ञिनश्च समनस्का: पञ्चेन्द्रियति र्यग्यो निकाश्चेत्यसंख्येयवर्षायुष्क संज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका: / इह च संज्ञिग्रहणमसंख्येयवर्षायुष्का: संज्ञिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थं न त्वसंख्येयवर्षायुषामसंज्ञिनां व्यवच्छेदार्थ, तेषामसंभवादिति। इह च गाथे 'निरइसुरअसंख्याऊ, तिरिमणुया सेसए उछम्मासे। इगविगला निरुवक्कम- तिरिमणुया आउयतिभागे // 1 // अवसेसा सोवक्कम-तिभागनवभागसत्तवीसइमे। बंधति परभवाओ, निययभवे सव्वजीवा उ" ॥२॥इति। इदमेवान्यैरित्थमुक्तम्-इह निर्यग्मनुष्या आत्मीयायुषस्तृती- यत्रिभागे परभवायुषो बन्धयोग्या भवन्ति, देवनारका: पुन: षण्मासे शेषे / तत्र तिर्यग्मनुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्न बद्धं तत: पुनस्तृतीयत्रिभागस्य तृतीयत्रिभागे शेषे बध्नन्ति एवं तावत् संक्षिपन्त्यायुर्यावत्सर्वजघन्य आयुर्बन्धकाल उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति / इह तिर्यग्मनुष्या आयुर्बध्नन्त्ययं वा संक्षेपकाल उच्यते। तथा देवनैरयिकैरपि यदिषण्मासे शेषं आयुर्न बद्धं तत आत्मीयस्यायुषः षण्मासशेषं तावत्संक्षिपन्ति यावत्सर्वजघन्य आयुर्बन्धकाल उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते इह परभवायुर्देवनैरयिका बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकाल: / स्था०६ ठा०३ ऊ / (परभविकायुष्प्रकार: ‘उववाय' शब्देऽस्मिन्नवे भागे निरुपयिष्यते) (10) प्रत्याख्यायाऽप्रत्याख्यानतदुभवनिर्वर्तिताऽऽयुष्कत्वं जीवानाम्जीवा णं मंते! किं पञ्चक्खाणनिटवत्तियाऽऽउया, अपचक्खाणणिव्वत्तियाऽऽउया पचक्खाणाऽपचक्खाणणिव्वत्तियाउया? गोयमा ! जीवा य, वेमाणिया य, पचक्खाणणिव्वत्तियाउया। तिण्णि वि अवसेसा अपचक्खाणिनिव्वत्तियाउया। गाहा'पचक्खाणं जाणइ, कुव्वंति तेणेव आउनिव्वत्ती। सपएसुद्देसम्मिय, एमए दंडगा चउरो।।१।। (सूत्र-२४०) जीवपदे जीवा: प्रत्याख्यानादित्रअनिबद्धायुष्का वाच्या, वैमानिकपदे च वैमानिका अप्येवं प्रत्याख्यानादित्रयवतां तेषूत्पादात् 'अवसेस' त्तिनारकादयोऽप्रत्याख्याननिर्वृत्तायुषो, यतस्तेषु तत्त्वेनाविरता एवोत्पद्यन्त इति / उक्तार्थसंग्रहगाथा- 'पचक्खाण' मित्यादि, प्रत्याख्यानमिति एतदर्थ एको दण्डकः, एवम्- अन्ये त्रयः / भ०६ श०४ उ०। (11) जीवानामाभोगानाभोगनिर्वर्त्तितायुष्कत्वं यथाजीवाणं भंते ! किं आभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिवत्तियाउया? गोयमा! नो आभोगनिव्वत्तियाउया; अणाभोगनिव्वत्तियाउया। एवं नेरइया वि, एवं जाव विमाणिया। (सूत्र२८४)। भ०७ श०६ ऊ। तचतुर्विधम्चउविहे आउए पण्णत्ते, तं जहा-णेरइयाऽऽउए, जाव देवाऽऽउए। (सूत्र-२९४४) एति च; याति चेति आयु:- कर्मविशेष इति, तत्र येन निरयभ वे प्राणी घ्रियते तन्निरयायुरेवमन्यान्यपि। स्था.४ ठा०२ उ० / अस्यैता एवोत्तरप्रकृतय:नेरइय तिरिक्खाओ, मणुस्साओ तहेव य / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 18 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ देवाओ य चउत्थं तु, आउकम्मंचउव्विहं / / 12 / / उत्त०३३ अ / प्रव। (अस्या गाथाया व्याख्या कम्म' शब्दे तृतीयभागे 19 अधिकाराङ्के करिष्यते)। (12) अनन्तरोपपन्नकादीनां नैरयिकादीनामायुस्तद्वन्धश्च णेरइया णं भंते! किं अणंतरोववण्णगा, परंपरोववण्णगा, अणं तरपरंपरअणुधवण्णगा? गोयमा ! णोरइया णं अणंतरोववण्णगा वि, परंपरोववण्णगा वि, अणंतरपरंपरअणुववण्णगा वि / से के णऽटेणं मंते! एवं वुचइ जाव अणंतरपरंपरअणुववण्णगा वि? गोयमा ! जेणं णेरइया पढमसमओववण्णगा तेणं णेरझ्या अणंतरोववण्णगा / जेणं णेरइया अपढमसमओववण्णगा तेणं णेरइया परंपरोववण्णगा। जेणं णे रइया विग्गहगइसमावण्णगा तेणं णे रइया अणंतरपरंपरअणुववण्णगा। से तेणऽद्वेणं जाव अणुववण्णगा वि। एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया / अणंतरोववण्णगा णं भंते! णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खमणुस्सदेवाउयं पकरेंति? गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति / परंपरोववण्णगाणं भंते! णेरड्या किं णेरइयाउयं पकरेंतिजाव देवाउयं पकरेंति? गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरेंति, मणुस्साउयं पिपकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति। अणंतरपरंपरअणुववण्णगा णं भंते! णेरझ्या किं णेरझ्याउयं पुच्छा, गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंति, जाव णो देवाउयं पक रेंति एवं जाव वे माणिया / णवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववण्णगा चत्तारि वि आउयं (पकरेंति) बंधंति सेसं तं चेव / / 'नरेइया णमि' त्यादि, 'अणंतरोववण्णग' ति-न विद्यन्तेऽन्तरं समयादिव्यवधानमुपपन्ने- उपपाते येषां ते अनन्तरोपपन्नका: 'परंपरोववण्णग' त्ति-परम्परा-द्विवादिसमयता उपपन्ने- उपपाते येषां ते परंपरोपपन्नका: / 'अणंतरपरंपर-अणुववण्णग' त्ति अनन्तरमअव्यवधानं परंपरं च द्विवादिसमयरूपमविद्यमानम्- उपपन्नमउत्पादो येषां ते तथा / एते च विग्रहगतिकाः, विठाहगतौ द्विविधस्याप्युत्पादस्याविद्यमानत्वादिति / / अथानन्तरोपपन्नादीनाश्रित्याऽऽयुर्बन्धमभिधातुमाह- 'अणंतरे' त्यादि, इह चानन्तरोपपन्नानामनन्तरपरम्परानुपपन्नानां च चतुर्विधस्याप्यायुषः प्रतिषेधोऽध्येतव्यः / तस्यामवस्थायां तथाविधाध्य- वसायस्थानाभावेन सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात् स्वायुष- स्त्रिभागादौ च शेषे बन्धसद्भावात्परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः षण्मासे शेषे मतान्तरेणोत्कर्षत: षण्मासे जघन्यतश्चान्तर्मुहूर्ते शेषे भवप्रत्ययात्तिर्यमनुष्यायुषी एवं कुर्वन्ति; नेतरे इति ‘एवं जाव वेमाणिय' त्ति अनेनोक्तालापकत्रययुक्तवतुविंशतिदण्डको-ऽध्येतव्य इति सूचितम्॥ यश्चात्र विशेषस्तंदर्शयितुमाह'नवरं पंचिंदिए' त्यादि। अथानन्तरनिर्गतत्वादिना अपरं दण्डकमाहणे रइया णं भंते! किं अणं तरणिग्गया, परंपरणिग्गया,अणंतरपरंपरअणिग्गया ? गोवमा ! णेरइया णं अणंतरणिग्गया विजाव अणंतरपरंपरणिग्गया वि। से केणऽढे णं मंते! जाव अणिग्गया वि? गोयमा ! जे णं णेरइया पढमसमयणिग्गया ते णं णेरइया अणंतरणिग्गया। जे णं णेरइया अपढमसमयणिग्गया ते णं णेरइया परंपरणिग्गया। जे णं णेरइया विग्गहगइसमावणया ते णं अणंतरपरंपर- अणिग्गया। से तेणऽद्वेणं गोयमा ! जाव अणिग्गया वि, एवं जाव वेमाणिया 3 // "गेरइया णं' इत्यादि, तत्र निश्चित स्थानान्तरप्राप्त्या गतंगमनं निर्गतम् - अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादुद्वृत्तानां स्थानान्तरप्राप्तानां प्रथमसमयो वर्त्तते, तथा परम्परेणसमयपरपरया निर्गत येषां ते तथा, ते च येषां नरकादुद्वृत्तानामुत्पत्तिस्थानप्राप्तानां यादय: समयाः / अनन्तरपरम्परा निर्गतास्तु ये नरकादुद्वृत्ता: सन्तो विग्रहगतौ वर्तन्ते, न तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति तेषामनन्तर- भावेन; परम्परभावेन चोत्पादक्षेत्रप्राप्तत्वेन निश्चयेनानिर्गत- त्वादिति। अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाहअणंतरणिग्गया णं भंते ! णेरइया किं णेरइयाऽऽउयं पकरेंति जाव देवाऽऽउयंपकरेंति ? गोयमा ! णोणेरइयाउयं पकरेंतिजावणो देवाज्य पकरेंति / परंपरणिग्गया णं भंते! णेरड्या किं णेरइवाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा! णेरइयाऽऽउयं पकरेंति जाव देवाउयं पि पकरेंति। अणंतरपरअणिग्गया णं भंते! णेरइयपुच्छा, गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंतिजावणो देवाउयं पकरेंति / एवं निरवसेसं जाव वेमाणिया 4 // 'अणंतरे त्यादि, इह चपरम्परानिर्गता नारका सर्वाण्यायूंषि बध्नन्ति। यतस्ते मनुष्या: पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव च भवन्ति / ते च सर्वायुर्बन्धका एवेति / एवं सर्वेऽपि परम्परनिर्गता वैक्रियजन्मान:, औदारिकजन्मानोऽप्युद्वृत्ताः / केचिन्मनुष्य- पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्त्यतस्तेऽपि सर्वायुर्बन्धका एवेति अनन्तरं निर्गता उक्तास्ते च क्वचिदुत्पद्यमाना: सुखेनोत्पद्यन्तेदुःखेन वेति दुःखोत्पन्न-कानाश्रित्याह- 'नेरइये त्यादि। अनन्तरखेदोपपन्नकपरम्परखेदोपपन्नकानन्तरपम्परखेदोष- पन्नकाना नैरयिकादीनामायु: णेरड्या णं भंते ! किं अणंतरखेदोववण्णगा, परंपरखेदोववण्णगा, अणंतरपरम्परखेदाऽणुववण्णगा? गोयमा! णेरइया एवं एएणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दडंगा भाणियव्वा सूत्र५०२४) त एव पूर्वोक्ता उत्पन्नदण्डकादयः खेदशब्दविशेषिताश्चत्वारो दण्ड का मणितव्यास्तत्र च प्रथम: - खेदोपपन्नदण्ड को, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 19 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ द्वितीयस्तदायुष्कदण्डकः, तृतीयः खेदनिर्गतदण्डकः, चतुर्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति। भ, 14 श०१ऊ। (13) असज्ञिजीवनामायु:कइविहे गं भंते ! असण्णियाउए पण्णते ? गोयमा! चउविव्वहे असणियाउए पण्णत्ते, तं जहा- णेरइयअसण्णियाउए, तिरिक्खजोणियअसण्णियाउए, मणुस्सअसण्णियाउए, देवअसण्णिआउए / / असण्णि णं मंते! जीवे किं णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्सदेवाउयं पकरेइ? गोयमा! णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खमणुस्स्सदेवाउयं पक रेइ / णे रइयाउयं पक रेमाणे जहण्णेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पलिओवमस्स अमंखेज्जइभागं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं; उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पक रहे, मणुस्साउए विएवं चेव / देवाउए जहाणेरइयायाउए। एयरसणं भंते! णेरइय-असण्णिआउयस्स तिरिक्खजोणियअसण्णिआउयस्स मणुस्स्असाणिआउयस्स देवअसण्णिआउयस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णियाउए, मणुस्सअसण्णियाउए संखेज्जगुणे, तिरियअसण्णियाउए असंखेज्जगुणे,णेरइयअस-णिआउए असंखेज्जगुणे / (सूत्र-२६) 'कइबिहेणमि त्यादि, व्यक्तन्नवरं 'असन्निआउए' त्तिअसझी सन् | यत्परभवप्रायोग्यमायुर्बध्नाति तदसंड्यायु:।'नरेइयअस-ण्णिआउए' ति- नैरयिकप्रायोग्यमसंज्ञयायु रयिकासंज्ञया- युरेवमन्यान्यपि, एतचासंज्ञयायुः सम्बन्धमात्रेणापि भवति / यथा भिक्षोः पात्रमतस्तत्कृतत्वलक्षणसम्बन्धविशेषनिरूपणायाह- 'असण्णी' त्यादि, व्यक्तं नवरं 'पकरेइ' त्ति-बध्नाति' दसवाससहस्साई' तिरत्नप्रभाप्रथमप्रतरमाश्रित्य'उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभाग' ति-रत्नप्रभातचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमाश्रित्येति, कथं यत: प्रथमप्रस्तटे दशवर्षाणां सहस्त्राणि जघन्या स्थितिरुत्कृष्टा नवतिः सहस्त्राणि। द्वितीये तु दशलक्षाणि जघन्या इतरातुनवतिर्लक्षाणि। एषैव तृतीय जघन्याइतरा पूर्वकोटी। एषैव चतुर्थेजघन्या इतरातुसामरोषमस्य दशभागा / एवञ्चात्र पल्योपमाऽसंख्येयभागो मध्यमायु:स्थितिर्भवति। तिर्यक् सूत्रे यदुक्तम्- 'पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं ति' तन्मिथुनकतिस्श्वोऽधिकृत्येति 'मणुस्साउए वि एवं चेव' त्तिजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम; उत्कर्षत: पल्योप-मासंख्येयभाग इत्यर्थः, तत्र चासंख्येयभागो मिथुन-कनरानाश्रित्य। 'देवा जहा नेरझ्य' त्ति- 'देवा' इति असज्ञिविषयं देवायुरूपचारतया वाच्यम् 'जहा णेरइय' त्तियथा असज्ज्ञिविषयं नारकायुस्तच प्रतीतमेव, नवरं भवनपतिव्यन्तरानाश्रित्य तदवसेयमिति। भ०१ श०२ ऊ। प्रज्ञा०। (14) एकान्तबालैकान्तपण्डितबालपण्डितानामायुर्यथा एगंतबाले णं भंते! मणूसे किं नेरइयाउयं पकरेइ तिरिआउयं पकरेइ मणुयाउयं पकरेइ देवाउयं पकरेइ। नेरइयाउयं किया नेरइएसु उववज्जइ। तिरियाउयं किया तिरिएसु उववज्जइ। मणुयाउयं किबामणुएसु उववज्जइ। देवाउयं किया देवलोएसु उववज्जइ? | गोयमा! एगंतबाले णं मणुया नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरियाऽऽउयं पि पकरेइ, मणु याऽऽउयं पि पकरेइ,देवाउयं पि पकरेइ / नेरइयाउयं पि किया नेरइएसु उववज्जइ / तिरियाऽऽउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जइ / मणुयाऽऽउयं किचा मणुएसु उववज्जइ / देवाउयं किया देवलोएसु उववज्जइ। (सूत्र-६३) एगंतपंडिए णं भंते! मणुस्से किं नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किया देवलोएसु उववज्जइ? गोयमा! एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ; सिय णो पकरेइ / जइ पकरेइ णो णेरइयाउयं पकरेइ, णो तिरियाउयं पकरेइ, णो मणुयाउयं पकरेइ / देवाउयं पकरेइ, णो णेरइयाउयं किया णेरइएसु उववज्जइ, णो तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जइ, णो मणुयाउयं किचा मणुएसु उववज्जइ / देवाउयं किया देवेसु उववज्जइ / से केणऽटेणं जाव देवाउयं किया देवेसु उववज्जइ? गोयमा! एगंतपंडियस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गईओ पण्णायंति, तं जहा-अंतकिरिया चेव, कप्पोववत्तिया चेव / से तेणऽटेणं गोयमा! जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ। बालपंडिए णं मंते! मणूसे किं नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किचा देवेसु उववज्जइ? गोयमा! णो णेरइगाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ / से केणऽटेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ? गोयमा! बालपंडिए णं मणूसे तहारूवस्य समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म, देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ, देसं पञ्चक्खाइ, देसं णो पचक्खाइ, से तेणं देसोवरमइ, देसपचक्खाणेणं णो णेरझ्याउयं पकरेइ जाव देवाउयं किचा देवेसु उववज्जइ / से तेणऽटेणं जाव देवेसु उववज्जइ। (सूत्र-६४) 'एगंतबाले' त्यादि, एकान्तबालो मिथ्यादृष्टिरविरतो वा, एकांतग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति / यच्चैकान्तबालत्वे समानेऽपि नानाविधायुबन्धनं तन्महारम्भाद्युन्मार्गदेशनादितनुकषायत्वाऽऽधकामनिर्जरादितद्धेतुविशेषवशादिति, अत एव बालत्वे समानेऽप्यविरत सम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रकरोति:नशेषाणि, एकान्तबालप्रतिपक्षत्वादेकान्तपण्डित सूत्रं तत्र च एगन्तपण्डिए णं' ति एकान्तपण्डित: साधू:'मणुस्से'त्तिविशेषणं स्वरूपज्ञानार्थमेव, अमनुष्यस्यैकान्तपण्डितत्वायोगात्तदयोगश्च सर्वविस्तेरन्यस्याभावादिति / 'एगंतपंडिए Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 20 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ सिय नो पकरेइ' त्ति-सम्यक्त्व- सप्तके क्षपिते न बध्नात्यायुः साधुः, अर्वाक पुनर्बध्नातीत्यत उच्यते, स्यात्प्रकरोतीत्यादि केवलमेव 'दो गईओ पण्णगायति' त्ति-केवलशब्द: सकलार्थस्तेन साकल्येनैव द्वेगती प्रज्ञायेते-अवबुध्येते केवलिनातयोरेव् | सत्त्वादिति 'अंतकिरिय' त्ति-निर्वाणम् 'कप्पोववत्तिय' त्तिकल्पेषुअनुत्तरविमानान्तदेव- लोकेषूपपत्ति:- उत्पत्तिर्या सैव कल्पोपपत्तिका इह च कल्पशब्द: सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽवासाभिधायक इति / एकान्तपण्डितो द्वितीयस्थानवर्तित्वाद् बालपण्डितस्य बालपण्डितसूत्रम्। तत्र च- 'बालपंडिएणं"ति-श्रावक: 'दसं उवरमइत्ति-विभक्तिविपरिणामात् देशादुपरमते-विरतो भवति, ततो देशं स्थूलप्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति, वर्जनीयतया प्रतिजानीते। भ०१श०९ऊ। (15) क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथाकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं, मणुस्साउयं पकरेंति ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति / मणुस्साऽऽयं पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति / जइ देवाउयं पकरेंति / किं भवणवासिदेवाउयं जाव वेमाणियदेवाउयं पकरेंति? गोयमा ! णो मवणवासिदेवाउयं पकरेंति, णो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, णो जोइसियदेवाउयं, पकरेंति वेमाणियदेवाउयं पकरेंति।। अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख पुच्छा, गोयमा ! णेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव देवाउयं पिपकरेंति। एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। 'किरिये' त्यादि, 'मनुस्साउयं पिपकरेंति देवाउयं पिपकरेंति' त्तितत्र ये देवा नारका वा क्रियावाादिनस्तेमनुष्यायु: प्रकुर्वन्ति, ये तु मनुष्या: पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चो वा ते देवायुरिति। सलेश्यादीनां जीवानां क्रियाद्यादीनामायुर्यथासलेस्साणं भंते ! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा! णो णेरइयाउयं एवं जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि चउहिं वि समोसरणेहिं भाणियव्वा / कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति मणुस्साउयं पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति || अकिरियाअण्णाणिय-वेणइयवादी य चत्तारि वि आउयं पकरेंति / एवं णीललेस्सा वि। काउलेस्सा वि।। तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किं जेरइयाउयं पकरेंति? पुच्छा, गोयमा ! णो जेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति, जइ देवाउयं पकरेंति तहेव, तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं णेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पिपकरेंति / एवं अण्णाणियवादी वि वेणइयवादी वि जहा तेउलेस्सा। एवं पम्हलेस्सा वि।सुक्कलेस्सा विणेयव्वा / / अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी किंणेरइयाउयं पुच्छा? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति णो मणुस्साउयं पकरेंति णो देवाज्यं पकरेंति। 'कण्हलेस्सा णं भंते ! जीवा' इत्यादौ 'मणुस्साउयं पकरेंति' त्तियदुक्तं तन्नारकासुरकुमारादीनाश्रित्यावसेयम् / यतो ये सम्यग्दृष्टयो मनुष्याः पश्शेन्द्रियतिर्यशश्च ते मनुष्यायुन बध्नन्तीत्येव वैमानिकायुर्बन्धकत्वात्तेषामिति। अलस्सा णभंते! जीवा किरियावाई' इत्यादि, अलश्या:- सिद्धा: आयोगिनश्च ते चतुर्विधमप्यायुन बध्नन्तीति / भ० 30 श.१ऊा (16) कृष्णपाक्षिकादीनां क्रियावाद्यादीनां जीवानामायुर्यथाकण्हपक्खियाणं मंते ! जीवा अकिरियावादी किं णेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! णेरइयाउयं पि पकरेंति / एवं चउव्विहं पि। एवं अण्णाणियवादी वि, वेणइयवादी वि।सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। सम्यग्दृष्ट्यादिक्रियावाद्यादीनां जीवानामायुर्यथासम्मविट्ठीणं भंते! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख-जोणियाउयं पकरेंति / मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति / मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया / / सम्ममिच्छादिट्ठीणं भंते ! अण्णाणियावादी किं णेरइयाउयं पकरेंति जह अलेस्सा। एवं वेणइयवादी वि॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टिपदे.. 'जहा अलेस्स' त्ति-समस्तायूं षि न बध्नन्तीत्यर्थः / नारकदण्डके- 'किरियावाईणमि' त्यादौ यन्नैरयिकायुर्देवायुश्च न प्रकुर्वन्ति क्रियावादिनारकास्तन्नारकभवानुभावादेव / यच तिर्यगार्युन प्रकुर्वन्ति तरिक्रयावादानुभावादित्यवसेयम्।अक्रियावादादिसमवसरणत्रयं तु नारकाणां सर्वपदेषु तिर्यग्मनुष्यायुषी एव भवतः / सम्यग्मिम्यात्वे पुनर्विशेषोऽस्तीति तदर्शनायाहनवरं सम्मे' त्यादि, सम्यग्मिथ्यादृष्टिनारकाणां द्वेएवान्तिमे समवसरणे स्त: तेषां चायुर्बन्धो नास्त्येव गुणस्थानकस्वभावादतस्ते तयोर्न किंचिदपि आयु: प्रकुर्वन्तीति। (17) ज्ञानिनाम् ; अज्ञानिनां; विभङ्गज्ञानिनाञ्च क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथाणाणी आमिणिबोहियणाणी य, सुअणाणी य, ओहिणाणी य जहा सम्मद्दिट्ठी / / मणपज्जवणाणी णं मंते! पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णी तिरिक्खजोणिया ऽऽयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेंति / देवाउयं पकरेंति / जइ देवाउयं पकरेइ किं भवणवासी पुच्छा, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 21 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउ गोयमा ! णो भवणवासी देवाउयं पकरेंति, णो दाणमंतरदेवाऽऽउयं पकरेंति, णो जोइसियवेमाणियदेवाउयं पकरेंति। के वलणाणी जहा अलेस्सा / अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया / / सज्ञिकादीनां क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथासण्णासु चउसु वि जाव सलेस्सा णो सण्णोवउत्ता जहा मणपज्जवणाणी॥ सवेदकावेदकसकषाय्यकषायिसयोग्ययो गिसाकारोपयुक्ता- | नाकारोपयुक्तानां क्रियावाद्यादिजीवानामायुर्यथासवेदगा जाव णपुंसगवेदगा जहा सलेस्सा / / अवेदगा जहा अलेस्सा / / सकसाईजाव लोभकसाईजह सलेस्सा। अकसाई जह अलेस्सा / / सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा // अजोगी जहा अलेस्सा // सागारोवउत्ताय, अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा।। (सूत्र-८२४) क्रियावाद्यादिनरयिकादीनामायुर्यथाकिरियावादी णं भंते ! णेरइया किं णेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ / / अकिरियावादी णं मंते ! णेरइया पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पि पकरेइ, णो देवाउयं पि पकरेइ // एवं अण्णाणियवादी वि / / वेणइयवादी वि | सलेस्सा णं भंते ! णेरइया किरियावादी किं णेरइयाउयं, एवं सव्वेऽवि णेरइया, जे किरियावादी ते मणुस्साउयं एगं पकरेंति / जे अकिरियावादी अण्णणियवादी वेणइयवादी वि ते सव्वट्ठाणेसु वि णो णेरइयाउयं पकरेंति / तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति / णो देवाउयं पि पकरेंति, णवरं सम्मामिच्छत्ते उवरिल्लेहिं दोहिं समोसरणेहिं न किंचि विपकरेंति, जहेव जीवपदे / एवं जाव थणियकुमारा जहेव णेरइया। अकिरियावादी णं भंते ! पुढवीकाइया पुच्छा, गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेइ,तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ / / एवं अण्णाणियावादी वि / / सलेस्सा णं भंते! एवं जं जं पदं अत्थि पुढवीकाइयाणं तहिं तहिं मज्जिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चेव दुविहं आउयं पकरेंति, णवरं तेउलेस्साए किं पिपकरेंति॥ एवं आउकाइयाण वि, एवं वणस्सइकाइयाण वि, तेउकाइया वाउकाइया सव्वट्ठाणेसु मज्जिमेसु दोसु समोसरणेसु णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ,णो मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ-बेइंदिय- तेइंदिय- चउरिंदिया णं जहा पुढवीकाइया णं णवरं सम्मत्ते णाणेसु ण एक्कं पि आउयं पकरेंति / / किरियावादी णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं गेरइयाउयं पकरेंति, पुच्छा, गोयमा ! जहा मणपज्जवणाणी अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयावादीचउव्विहं पिपकरेंति।जहा ओहिया तहा सलेस्सा वि।। कण्हलेस्सा णं भंते ! किरियावादी पंचिंदियतिरिक्खजो-णिया किं णेरइयाउयं पुच्छा, गोयमा! णो णेरयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति। अकिरियावादी, अण्णाणियवादी, वेणइयावादी चउव्विहं पि पकरेंति। जहा कण्हलेस्सा। एवं णीललेस्सा वि। काउलेस्सा वि / तेउलेस्सा जहा सलेस्सा / णवरं अकिरियावादी; अण्णाणियवादी; वेणइयवादी णो णेरयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति ! एवं पम्हलेलेस्सा वि / एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा / कण्हपक्खिया तिहिं समोसरणेहिं चउव्विहं पि आउयं पकरेंति / सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। सम्मविट्ठीजहा मणमज्जवणाणीतहेव वेमाणियाउयं पकरेंति।। मिच्छट्ठिी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्ठी णं एक्कं पि आउयं पकरेंति जहेव, णेरइया णाणी जाव ओहिणाणी जहा सम्मविट्ठी अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया। सेसा जाव अणा-गारोवउत्ता, सव्वे जहा सलेस्सा तहाचेव भाणियव्वा।जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियव्वा, णवरं मणपज्जवणाणी णो सण्णो वउत्ता य जहा सम्मट्ठिी तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियट्वा / अलेस्से केवलणाणी अवेदकअकसाई अजोगी य एए एक्कं पि आउयं ण पकरेंति, जहा ओहिया जीवा। सेसंतंचेव। वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा। (सूत्र- 825) / 'पुढविकाइये' त्यादौ 'दुविहं आउय' त्ति-मनुष्यायुस्ति-र्यगायुश्चेति 'तेओलेस्साए न किं पि पकरेंति' त्ति-अपर्याप्तका-वस्थायामेव, पृथिवीकायकानां तद्भावात्तद्विगम एव चायुषो बन्धादिति 'सम्मत्तनाणेसु नएक्कं पि आउयं पकरेंति' त्ति-द्वीद्रियदीनां सम्यक्त्वज्ञानकालात्यय एवायुर्बन्धो भवत्यल्पत्वात्तत्कालस्येति नैकमप्यायुर्बध्नन्ति तयोस्ते इति / पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकदण्डके / कण्हलेस्साणमि' त्यादि, यदा पञ्चेन्द्रियातिर्यञ्च: सम्यगदृष्ट्य: कृष्णलेश्यात्रयपरिणता भवन्ति तदायुरेकमपि न बध्नन्ति सम्यग्दृशां वैमानिकार्युबन्धकत्वेन तेजोलेश्यादित्रय एव बन्धनादिति,'तेओलेस्साजहसलेस्सत्ति-अनेनच क्रियवादिनो वैमानिकायुरेव इतरे तु त्रयश्चतुर्विधमप्यायुः प्रकुर्वन्तीति प्राप्त Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउ 22 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउंचण सलेश्यानामेवंविधस्वरूपतयोक्तत्वादिह तु यदनभिमतं तन्नि- उववज्जित्तए से णं भंते ! किं इह गए नेरइयाउयं पकरेइ, षेधनायाऽऽह- 'नवरं अकिरियावाई' त्यादि, शेषं तु प्रतीतार्थत्वान्न उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, उववण्णे नेरइयाउयं व्याख्यातमिति / भ.३० श.१ उ पकरेइ ? गोयमा! इह गए नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववज्जमाणे (18) अनन्तरोपपन्नकादिक्रियावाद्यदीनामायुर्यथा नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने नेरइयाउयं पकरेइ / एवं किरियावादी णं भंते ! अणंतरोववण्णगा- णेरइया किं असुरकुमारेसु वि॥ एवं जाव वेमाणिएसु / जीवे णं भंते। जे णेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइयाउयं णो भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से भंते / ! किं इह गए नेरइयाउयं तिरिक्खजोणियाऽऽयं पकरेंति / मणुयाऽउयं पकरेंति / णो पडिसंवेदेइ, उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने देवाउयं पकरेंति / एवं अकिरियावादी वि। अण्णाणियवादी नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? गोयमा / ! नो इह गए नेरइयाउयं वि। वेणइयवादी वि / सलेस्सा णं भंते ! किरियावादी पडिसंवेदेइ, उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने वि अणंतरोववण्णगाणेरइया किं णेरझ्याउयं पुच्छा, गोयमा ! णो नेरझ्याउयं पडिसंवेदेइ, एवं जाव वेमाणिएसु / (सूत्र-२८३)। णेरइयाउयं जाव णो देवाउयं पकरेंति। एवं जाव वेमाणिया।। भ.७ श०६ ऊा एवं सव्वट्ठाणेसु अणंतरोववण्णगा णेरझ्या ण किंचि वि आउयं (21) अनन्तरमुद्वयोपपद्यमानानां नैरयिकादीनामायुष्प्रतिपकरेंति, जाव अणागारोवउत्तेत्ति। एवं०जाव वेमाणिया। णवरंजं संवेदनादि यथाजस्स अत्थितं तस्स भाणियव्वं / (सूत्र-८२६)1 भ. 30 श. 1 ऊ। णेरइया णं / ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिंदिय(१९) भविकजीवानां नैरयिकादिपूपपद्यमानानां सायुष्कत्वं यथा- तिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कयरं आउयं जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! पडिसंवेदेइ ? गोयमा / ! णे रइयाउयं पडि संवेदेइ / किं साऽऽउए संकमइ निराउए संकमइ / गोयमा ! साउए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ। एवं मणुस्से संकमइ, नो नेराउए संकमइ। से णं भंते ! आउए कहिं कडे, वि॥ णवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ / असुरकुमारा णं कहिं समाइण्णे। ? गोयमा / ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे भंते / / अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पुढवीकएसु उववज्जित्तए समाइण्णे, एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ। से णूणं भंते। ! जे पुच्छा, गोयमा ! असुरकु माराउयं पडि-संवेदेइ, जं भविए जोणिं उववज्जित्तए से तमाउयं पकरेइ, तं जहा- पुढवीकाइयाउए ते पुरओ कडे चिट्ठइ / एवं जो जहिं भविओ नेरइयाउयं वा जाव देवाउयं वा? हंता गोयमा ! जे जं भविए उववज्जित्तए तस्स तं पुरओ कडे चिट्ठति, तत्थ ठिओ तं जोणि उववज्जित्तए से तमाउयं पकरेइ। तं जहा-नेरइयाउयं पडिसंवेदेइल्जाव वेमाणिया, णवरं पुढवीकाइओ पुढवीकाइएसु वा; तिरियमणुयदेवाउयं वा / / नेरइयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं उववज्जति, पुढवीकाइयाउयं पडिसंवेदेइ अण्णे य से पकरेइ, तं जहा-रयणप्पभापुढवी- नेरइयाउयं वा जाव अहे पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठइ, एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे सत्तमापुढवीनेरइयाउयं वा तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे उववातेयव्वो परहाणे तहेव॥ (सूत्र-६२८) भ०१८ श.५ऊ। पंचविहं पकरेइ, तं जहा- एगिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा भेदो (चतुर्गत्यायुःस्थिति. 'कम्म' तृतीयभागे (26) अधिकाराङ्के सव्वो भाणियव्वो मणुस्साउयं दुविहं पकरेइ, देवाउयं चउव्विहं दर्शयिष्यते) (आयुषो गुणस्थानेषु बन्धोदयसत्तास्थानानां पकरेइ। (सूत्र-१८४) परस्परसंबन्धेन भङ्गाः "अट्ठछला." 47 गाथया'कम्म' शब्देतृतीयभागे 'जीवेणमि' त्यादि, 'सेणं भंते त्ति-अथ तद्भदन्त ! कहिं कडे' 'त्ति- दर्शयिष्यते) व भवे बद्धम्। 'समाइण्णे' त्ति-समाचरितं तद्धेतुसमाचरणात्' जे जं | #आहोस्वित्- अव्य आहो च स्विच / द्विं / विकल्पे, प्रश्ने च / भविए जोणि उववज्जित्तए' ति- विभक्तिविपरिणामाद्यो यस्यां "आहोस्वित् शाश्वतं स्थानं, तेषां तत्र द्विजोत्तम !" द्विपद-मित्येके। योनावुत्पत्तुं योग्य इत्यर्थः, 'मणुस्साउयं दुविहं' ति-संमूर्छिम- "किं देवाणं वयणं, गेज्ज आउ जिणवराणं' ||30|| 'आउ' त्तिगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदाद् द्विधा 'देवाउयं चउविहं' ति- आर्षत्वात्- आहोस्विदिति। उत्त. 1 अ भवनपत्यादिभेदात् / भ०५ श. 3 उ०। आउंचण- न. (आकुञ्चन) / संकोचात्मके क्रियाभेदे, जवादे: (20) भविक जीवानां नैरयिकादिषूपपद्यमानानामायुस्करण- सङ्कोचने, घ.२ अधिः / गात्रसंकोचने, आव०४ अ०। पश्चा। प्रतिसंवेदनादियथा ऋजु द्रव्यस्य कुटिलत्व कारणं च क म आकुशनं यथा रायगिहेजाव एवं वयासी-जीवेणं भंते ! जे भविए नेरासु ऋजुनोडल्यादिद्रव्यस्य येऽग्रावयवास्तेषामाकाशादिभिः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउंचण 23 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउंटणपसारण स्वसंयोगिभिर्विभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे सति येन कर्मणाङ्कल्यादिरवयवी कुटिल: संपद्यते तदाकुञ्चनम्। सम्म०३ काण्ड 49 गाथाटी०। आउंचणपट्टग-न. (आकुञ्चनपट्टक)। पर्यस्तिकापट्टे, बृ.। तच्च निर्गन्थीनां धारयितुं कल्पते (सूत्रम्)नो कप्पइ निग्यंथीणं आकुंचणपट्टगं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥३६॥ कप्पइ निग्गंथाणं आकुचणपट्टगंधारित्तए वा परिहरित्तए / वा 1 // 37 // एवं यावदारुदण्डकसूत्रम्। अथामीषां सूत्राणं सम्बन्धमाहबंभवयपालणऽट्ठा, तहेव पट्टायियाउ समणीणं। बिइयपएण जईणं, पीढगफलए विवज्जित्ता / / 285 / / यथा ब्रह्मव्रतपालनार्थमचेलत्वादीनि न कल्पन्ते / तथा ब्रह्मचर्यरक्षणार्थमेव श्रमणीनां पट्टादयोऽपि वा संदण्डकान्ता न कल्पन्ते। द्वितीयपदे तु यतीनां कल्पन्ते, परं पीठफलकानि वर्जयित्वा तानि साधूनामपवादमन्ते रणापि कल्पन्त एवेत्यर्थः / अत एतेषां सूत्राणामारम्भः / अनेन संबन्धेनायातानाममीषां (36) प्रथमसूत्रस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनामाकुञ्चनपढें- पर्यस्तिकापट्ट धारयितुं वा परिहतुं वा / / 36 / / कल्पते निर्ग्रन्थनामाकुञ्चनपट्ट धारयितु वा परिहर्तु वेति सूत्रार्थः // 37 // अथ भाष्यम्गव्यो अवाउडत्तं, अणुवधिपलिमन्थुपरिवाओ। पट्टमतोलियदोसा, गिलाणियाए उ जयणाए / / 286 / / पर्यस्तिकापट्ट परिदधानामार्यिकां दृष्ट्रा लोको ब्रूयात्- अहो अस्याः कियान् गर्यो यदेवं महिलाभवन्ती पर्यस्तिकां करोति अपावृता वा पर्यस्तिकां वा कुर्वाणा भवेत् / 'अणुबहि-त्ति' य उपकारे वर्तते स उपधिरुच्यते। सच तासामुपकारं नायातीति कृत्वा अनुपधिरुभयकालं प्रत्युपेक्ष्यमाणेचतस्मिन् सूत्रार्थपरिमन्थ: / शास्तुश्च-तीर्थकृत: परिवादो यथा नूनमसर्वज्ञोऽसौ येनेत: स पर्यस्तिकापट्टोन प्रतिषिद्धः / द्वितीयपदे य: संयती स्थविरोग्लानतया यतनया अल्पसागारिक-पर्यस्तिकापट्ट: परिधातव्य: उपरिचान्यत्प्रावरणीयं कारणे च गृहामाणे योऽजालिकोजालरहित: सगृहीतव्यो जालसदृशेषु चिरदोष: एवं निर्ग्रन्थानामप्यकारणे पर्यस्तिकां कुर्वाणानां चतुर्लघु गुर्वादयश्चतएव दोषाः / कारणे पुनरयं विधि:थेरे व गिलाणे वा, मुत्तकाउमुवरिं तु पाउरणं। वस्सए व चेट्टो पुव्व-कतमसारिए वाए।।२८७ / / सूत्रपौरुषीम्: उपलक्षणात्वादर्थपौरुषीं च कत्तु : शिष्याणां दातुमित्यर्थः / स्थविरो ग्लानो वाचनाचार्य: पर्यस्तिकां कृत्वा परिप्रावृणुयात् / उत्तरार्द्ध पश्चाद् व्याख्यास्यते। सच पर्यस्तिकापट्टः कीदृश इत्याह फल्लो अचित्तो अह आविओवा, चउरंगुलो वित्थडओ असंधिमो। विस्सामहेउंतु सरीरगस्स, दोसा अवटुंभगया य एवं / / 288 / / फलाज्जात: फाल:; सौत्रिक इत्यर्थः / अचित्र:- अकुर्वरः / अथ सौत्रिको न प्राप्यते तत आविको वा स च चतुरङ्गुलविस्तृतः / स्थूलोऽसंधिमश्वापान्तराले संधिरहित: एवंविध: पर्यस्तिकापट्ट: शरीरस्य विश्रामहेतोर्गृह्यते ये वाऽवष्टम्भगता: "अंबर-कुंथुद्देहिय" इत्यादिका दोषा: तथैवमाकुञ्चनपट्टे परिधीयमाने न भवन्ति / बृ.५ऊ। आउंच-(टोणा-स्त्री. (आकुचना) आकुचन-गात्रसंकोचनं तदेवाकुचना / सङ्कोचे, ध, 3 अधि! आउंटण- न० (आकुंचन) 'आर्षेऽन्यदपि दृश्यते' इति प्राकृतव्याकरणाचस्यट:संकोचने, आव०४ अ। आउंटणे गात्र-संखेवो।आ० चू० 4 अ / आवर्जने च। पञ्चा०७ विव०। आउंटणपसारण-न. (आकुश्चनप्रसारण)। आकुश्चनं जवादेः संकोचनं, प्रसारणं च तस्यैव जनादे: सङ्कुचितस्य ऋजुकरणं आकुचन-प्रसारणे च / जवादिसङ्कोचनाकुञ्चितजङ्गाजुकरण- योस्तदात्मके एकासनप्रत्याख्यानस्याकारविशेषे च / प्रव०। "अण्णत्थ आउंटणपसारणेणं" आकुञ्चन प्रसारणे चाऽसहिष्णुतया क्रियमाणे यत्किंञ्चिदासनं चलति ततोऽन्यत्र प्रत्याख्यानं तस्मिन् हि क्रियमाणेन प्रत्याख्यानभङ्गः / प्रव० ४द्वार। धा हत्थं वा पायं वा सीसं वापसारे आउंटेजवा पसारेज्जवा ण भज्जेति। आ. चू.६अ। आकुण्टनादिप्रस्तावादिदमाहदेवे णं भंते! महिडिए जाव महेसक्खे लोगते ठिचा पभू अलोगंति हत्थं वा जाव ऊरूं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? णो इणद्वे समढे, सेकेणऽट्टेणं मंते! एवं दुबइ देवेणं महिड्डिए जाव महेसक्खे लोगते ठिचाणोपभू अलोगंसि हत्थं वाजाव पसारेत्तए वा ? गोयमा ! जीवा णं आहारोवचिया पोग्गला वॉदिचिया पोग्गला कडेवरचिया पोग्गला पोग्गला चेद पप्प जीवाण य अजीवाण य गइपरियाये आहिज्जइ, अलोए णं णेवऽस्थिजीवाणेवऽत्थि पोग्गलासे तेणऽद्वेणं जाव पसारेत्तए वा सेवं मंते ! भंते त्ति। (सूत्र-१८६) 'देवे णमि' त्यादि, 'जीवा णं आहारोवचिया पोग्गल' त्ति-जीवानां; जीवानुगता इत्यर्थः / आहारोपचिता- आहाररूप- तयोपचिताः / 'वोदिचिया पोग्गल' त्ति-अव्यक्तावयवशरीर- रूपचिता: 'वोदिचिया पोग्गल' ति-अव्यक्तावयवशरीररूपतया चिता: 'कडेवरचिया पोग्गल' त्ति-शरीररूपतया चिता: उपलक्षणत्वाचास्योच्छ्वासचिता: पुद्गला इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् अनेन चेदमुक्तं-जीवानुगामिस्वभवा: पुद्रला भवन्ति ततश्चकत्रैव क्षेत्रेजीवास्तत्रैव पुद्रलानां गति: स्यात्तथा पोग्गलाचेव पप्प' त्ति-- पुगलानेव प्राप्यआश्रित्य जीवानां च 'अजी' वाण यत्ति- पुगलानां च गतिपर्यायो- गतिधर्म:'आइज्जइ' त्ति-आख्यातते। इदमुक्तं भवति-यत्र क्षेत्रेपुद्गलास्तत्रैव जीवानांपुद्गलानांचगतिर्भवति,एवं चालोकेनैवसन्तिजी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउंटणपसारण 24 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आउक्काय वा नैव च सन्ति पुरला इति तत्र जीवपुद्गलानां गतिर्नास्ति / (5) अप्कायशस्त्रनिरूपणम्। तदभावाचालोकेदेवो हस्ताद्याकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुः / भ०१६ सचित्ताऽप्कायपरिभोगविचारः / श०८ उ. अप्कायपरिभोगकारणानि। आउअकरण- न. (आयुष्करण) आयुष: करणमिति / जीवित (8) अप्कायसमारम्भव्यावृत्तस्यैव मुनित्वम्। विपाकवेद्यस्यायुष्कर्मविशेषस्य निर्वर्तने, 'आउअकरणं." (२०५४गा.) शाक्याऽऽदिमुनयो नियमत: अप्कायिकांस्तदाश्रित- जीवांश्च 'आयु:करणम्' इति-आयुष:- पञ्चमकर्मप्रकृत्या- त्यामकस्य करणं विहिंसन्ति। निर्वर्तनम्- आयु:करणम्। उत्त पाई.४ अ०। (अत्र विस्तर:' असंखय' शब्दे प्रथमभागे गतः।) (10) अप्कायविहंसननिषेधः। आउक्कम्म- नं. (आयुष्कर्मन्) एति-याति चेत्यायुस्तन्निबन्धनं (11) अप्कायस्पर्शनिषेधः। कर्मायुष्कर्म / कर्मविशेषे, उत्त०१ अ (तद्वक्तव्यता आउ शब्देऽस्मिन्नेव (12) शीतोदकाऽऽदिपसेवननिषेधः / भागे गता) (1) संप्रत्यप्कायिकप्रतिपादनार्थमाह-तेच द्विविधा:-- आउकम्मे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अद्धाउए चेव, भवाउए चेव। से किंतं आउक्का (का) इया? आउक्काइया दुविहा पन्नता। (सूत्र-९०५) स्था०२ ठा०४ उ.। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) तं जहा- सुहुआउक्काइया य, बादर आउकाइया य। से किं तं इदानीं पञ्चविधमायुष्कर्म व्याचिख्यासुराह सुहुमआउक्काइया ? सुहुमआउक्काइया दुविहा, पन्नंत्ता, तं सुरनरतिरिनरयाऊ, हडिसरिसं // 234 // जहा-पज्जत्तसुहुमआउक्काइया य, अपज्जत्तसुहुमआउ क्काइया य / सेत्तं सुहुमआउक्काइया / / से किं तं आयु: शब्द: प्रत्येकं योज्यते, ततश्च सुष्ठु राजन्ते इति सुराः / यद्वा बादरआउक्काइया? बादरआउक्काया अणेगविहा पण्णत्ता, तं 'सुरत्' ऐश्वर्यदीप्त्योः , सुरन्ति-विशिष्ट मैश्वर्यमनुभवन्ति जहा-ओसा, हिमए, महिया, करए, हरतणुए, सुद्धोदए, दिव्याभरणकान्त्या सहजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति सुराः / सीतोदए, उसिणोदए, खारोदये, खट्टोदए, अंविलोदए, यदिवसुष्ठरान्तिददति प्रणतानामीप्सितमर्थ लवणाधिपसुस्थित इव लवणोदए, वारुणोदए, खीरोदए, घओदए, खोदोदए, रसोदए, लवणजलधौ मार्ग जनाईनस्येति सुरा देवास्तेषामाय: सुरायुर्येन जेयावण्णे, तहप्पनारा / ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तं जहातेष्ववस्थितिर्भवति / / नृणन्तिनिश्चिन्वन्ति वस्तु- तत्त्वमिति नरा: पज्जत्तगा य, अपज्ज-त्तगा य / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते मनुष्यास्तेषामायुर्नरायुस्तद्भवावस्थितिहेतु: 2 / 'तिरि' तिप्राकृत- णं असंपत्ता / तत्थ णं जे ते पज्जत्ता एतेसि णं वण्णाऽऽदेसेणं त्वारतिरोऽचन्तिगच्छन्तीति तिर्यश्च: व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत्, गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, ततस्र्तिरश्चामा- संखेज्जाइं जोणिप्पमुहसयहस्साइं, पज्जत्तगणिस्साए युस्तियेगायुर्येनतेषु स्थीयते / नरान् उपलक्षणत्वात् तिरश्चोऽपि अपज्जत्तगा वक्कमंति। जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा। प्रभूतपापकारिण: कायन्तीवा- 5ऽह्वयन्तीवेति नरका:- नरकावासा: सेत्तं बादरआउक्काइया। सेत्तं आउकाइया। (सूत्र-१६) तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरका:, नरको वा विद्यते येषां ते 'उस्सा' इत्यवश्यायः त्रेह:, हिमं स्त्यानोदकं, 'महिका' गर्भमासेषु "अभ्रादिभ्यः" 17 246 // इत्यप्रत्यय नरकास्तेषामायुर्नरकायुर्येन सूक्ष्मवर्ष:, करको-घनोपल:, हरतनुर्यो भुवमुद्भिद्य गोधूमावरतृणाग्रादिषु ते तेषु ध्रियन्ते। "एतच्चायुर्हडिसदृशं भवति। कर्म०१ कर्म (हडिदृष्टान्त: बद्धो बिन्दुरुपजायते, 'शुद्धोदकम् अन्तरिक्षसमुद्भवं नद्यादिगतं च, तय 'आउ' शब्देऽस्मिन्नवेभागे (8) अधिकाराङ्के गत:) स्पर्शरसादिभेदादनेकभेदं तदेवानेकभेदत्वं दर्शयति-शीतोदकं. आउक्काइय- पुं(अप्कायिक) आपो- द्रवास्ताएव काय: शरीरंयस्येति नदीतडागाऽवट- वापीपुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामम्, उष्णोदकंस्वअप्काय एवाप्कायिक: स्वार्थं इकप्रत्ययः / एकेन्द्रियसंसारसमापन्न- भावत एव क्वचिन्निर्जरादावुष्णपरिणामक्षारोदकम्ईषल्लवणस्वभावं यथा जीवविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद / (अत्रस्था सर्वा वक्तव्यता 'आउक्काय' लाटदेशादौ केषुचिदवटेषु, खट्टोदकम्ईषदम्लपरिणामम्, अम्लोदकंशब्दादवगन्तव्या) स्वभावत एवाम्लपरिणाम काञ्जिकवत्, लवणोदकं लवणसमुद्रे, वारुणं आउक्काय- पुं. (अप्काय)। आप: कायो यस्सेति / एकेन्द्रियसंसा वारुणसमुद्रे, क्षीरोदकं क्षीरसमुद्रे, क्षोदोदकं इक्षुसमुद्रे, रसोदंक रसमापन्नजीवभेदे, षट्कायभेदे च जीविनि, प्रज्ञा० 1 पद। स०। पुष्करवरसमुद्रादिषु, येऽपि चान्ये तथाप्रकारा:- रसस्पर्शादिभेदभिन्ना घृतोदकादयो बादरा अप्कायिका: ते सर्व बादराप्कायिकतया विषय-सूची प्रतिपत्तव्याः, 'ते समासओ' इत्यादि प्राग्वत्, नवरं सङ्ख्येयानि (1) अप्कायिकानां द्वैविध्यम्। योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि इत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि / उक्त (2) अप्कायिकस्य शरीरादिवर्णनम्। अप्कायिकाः / प्रज्ञा० 1 पद। (3) सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रविवेकः / आउस्स वि दाराई, ताई जाइं हवंति पुढवीए। (4) तीव्रोदकस्याऽचित्तत्वम्। नाणात्तीउ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य॥१०६ / / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 25 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय अप्कायस्यापि तान्येव द्वाराणि भवन्ति: यानि पृथिव्या: प्रतिपादितानीति, नानात्वं भेदरूपं विधानपरिमाणोपभोग-शस्त्रविषयं द्रष्टव्यं, चशब्दाल्लक्षणविषयं च, तुशब्दोऽवधारणार्थ:, एतद्गतमेव नानात्वं; नाऽन्यगतमिति। तत्र विधानप्ररूपणा, तद्गतं नानात्वं प्रदर्शयितुमाहदुविहा य आउजीवा, सुहमा तह बायरा य लोयम्मि। सुहुमाय सव्वलोए, पंचेव य बायरविहाणा / / 107 / / स्पष्टा। तत्र पञ्च बादरविधानानि दर्शयितुमाहसुद्धोदए य ओसा-हिमे य महिया तरतणू चेव / बायरआउविहाणा, पंचविंहा वणिया एए॥१०८ / / शुद्धोदकं तडागसमुद्रनदीहदावटादिगतमवश्यायादिरहितमिति, अवश्यायो-रजन्यां यस्त्रहः पतति, हिमं तु-शिशिरसमये शीतपुगलसम्पर्काज्जलमेव कठिनीभूतमिति, गर्भमासादिषु सायं प्रातर्वा धूमिकापातो महिक्त्युच्यते, वर्षाशरत्कालयोर्हरिताङ्क- रमस्तकस्थितो जलबिन्दुर्भुमिरनेहसम्पर्कोद्भूतो हरतनुशब्देना- भिधीयते, एवमेते पञ्च बादरापकायविधयो व्यावर्णिता: / एते बादराप्काया: समासतो वधा पर्याप्तका, अपर्याप्तकाश्च / तत्रापर्याप्तकावर्णादीनाम, संप्राप्तपर्याप्तकास्तुवर्ण- गन्धरसस्पदिशैः सहस्राग्रशो भिद्यन्ते ततश्च संख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि भवन्ति भेदानामित्यवगन्तव्यम् / संवृतयोनयश्चैते सा च योनि: सचित्ताऽचित्त-मिश्रभेदात् त्रिधा / पुनश्च शीतोष्णोभयभेदात् त्रिधैव / एवं गण्यमाना: योनीनां सप्त लक्षा भवन्ति इति प्ररूपणानन्तरं परिमाणद्वारमाहजे बायरपज्जत्ता पयरस्स असंखभागमेत्ता ते। सेसा तिन्नि विरासी, वीसुलोगा असंखेज्जा / / 109 / / 'जे बायरे' त्यादि, ये बादराप्कायपर्याप्तकास्ते संवर्तितलोकप्रतरासख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणाः / शेषास्तुत्रयोऽपि विष्वक्पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणा इति / विशेषपश्चायम्बादरपृथिवीकायपर्याप्तवेभ्यो बादराप्काय- पर्याप्तका असंख्येगुणाः, बादरपृथिवीकायाऽपर्याप्तकेभ्यो बादरापकायिकाऽपर्याप्तका असंख्येयगुणा:, सूक्ष्मपृथिवी- कायाऽपर्याप्तकेभ्य: सूक्ष्माप्कायाऽपप्तिका विशेषाधिका:, सूक्ष्मपृथिवीकायपर्याप्तवेभ्य: सूक्ष्माप्कायपयप्तिका विशेषा-धिका: / आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। भौमान्तरिक्षभेदाद् द्विविधत्वम् / अप्कायद्वारमाहआउक्काओ दुविहो, भोमो तह अन्तलिक्खो य / / 28 / / अप्कायो द्विविध:-भौमः, आन्तरिश्च / इदानीं प्रत्यासत्तिन्यायादान्तरिक्षस्तावदुच्यते, तत्रान्तरिक्षमपि द्विविधम्मिहिया वासं पुण अं-तलिक्खिा / 29 / / सोऽन्तरिक्षजो द्विविध:-महिका- धूमिकारूपोऽपकाय: 'वास' तिवर्षारूपश्चाप्काय: / ओघा (भौमाप्कायिकव्याख्यानमग्रे 1757 गाथया करिष्यते) (2) अप्कायिकस्य शरीरादि यथातेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीया पणत्ता ?गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तं जहा-ओरालित्ते, तेयत्ते, कम्मत्ते, जहेव सुहमपुढविक्काइयाणं / नवरं थियुगसंठिया पण्णत्ता, सेसं तं चेव जाव दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्ण-त्ता। सेत्तं सुहमआउक्काइया / (सूत्र-१६४)। से किं तं बायरआउक्काइया ? बायरआउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-उसा हिमे जाव जे यावन्ने तहप्पगारा / ते समासओ दुविहा पण्णत्ता,तं जहापज्जत्ता य,अपज्जत्ता यातं चेव सव्वं / नवरंथिद्गसंठिया, चत्तारिलेसातो,आहारो नियमा छतिसिं, उववाओ तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेहिं, ठितीजहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई। सेसं तं चेवं / जहा-बायरपुढविकाइया णं जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता समणाउसो! / सेत्तं बायरआउक्काइया। सेत्तं आउक्काइया। (सूत्र-१७) 'ते समासतो' इत्यादि, प्राग्वद्, नवरं संख्येयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणीत्यत्रापि सप्त वेदितव्यानि तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ सरीरगा' इत्यादि, द्वारकलापचिन्तायामपि बादरपृथिवीकायिकगमोऽनुगन्तव्यो, नवरं संस्थान-द्वारेशरीरकाणि स्तिबुकसंस्थानसंस्थितानि वक्तव्यानि // स्थितिद्वारेजघन्यत: स्थितिरन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षत: सप्तवर्षसहस्राणि / / शेषं तथैव / / जी०१ प्रति०। अप्कायिकस्य जीवत्वं यथा-सांप्रतं परिमाणद्वारानन्तरं चशब्दसूचितलक्षणद्वारमाहजह हत्थिस्स सरीरं, कललाऽवत्थस्स अहुणोववन्नस्स। होइ उदगंडगस्स य, एसुवमा आउजीवाणं // 120 / / अथवा- पर आक्षिपति-नाप्कायो जीवः, तल्लक्षणायोगात्, प्रश्रवणादिवदित्यस्य हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थ दृष्टान्तद्वारेण लक्षणमाह'जहे' त्यादि, यथा हस्तिन: शरीरं कललाऽव- स्थायामधुनोत्पन्नस्य द्रवे, चेतनञ्च दृष्टमेवमप्कायोऽपीति / यथा वा-उदकप्रधानमण्डकमुदकाण्डकम्; अधुनोत्पन्नमित्यर्थः, तन्मध्यव्यवस्थितं रसमात्रमसंजातावयवमनभिव्यक्तचत्वादि- प्रविभागचेतनावद् दृष्टम् / एषा एवोपमाऽप्कायजीवानामपीति / हस्तिशरीरकललग्रहणश महाकायत्वात्तद् भवतीत्यत: सुखेन प्रतिपाद्यते। अधुनोपपन्नग्रहणं सप्ताहपरिग्रहार्थ, यत: सप्ताहमेव कललं भवति, परतस्त्वर्बुदादि / अण्ड केऽप्युदक ग्रहणमेवमेव, प्रयोगश्चायम्-सचेतना आप: शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात्, हस्तिशरीरोपादानभूतकललवत्, विशेषणोपादानात्प्र- श्रवणादिदिव्युदासः / तथा सात्मकं तोयम्, अनुपहतत्वादण्ड क मध्यस्थितक ललवदिति / तथा आपो जीवशरीराणि छेद्यत्वाद् भेद्यत्वादुत्क्षेप्यत्वाद्भोज्यत्वाद्भोग्यत्वाद् ज्ञेयत्वाद्रसनीयत्वात् स्पर्शनीयत्वात् दृश्यत्वात् द्रव्यत्वादेवं सर्वेऽपि शरीरधर्माः हेतुत्वेनोपन्यसनीया: गगनवर्जभूतधर्माः स्वरूपवत्त्वाकार वत्त्वादयः / सर्वत्रायं दृष्टांत:- सास्नाविषाणादिसंघातवदिति / ननु रूपवत्त्वाऽऽकारवत्त्वादयो भूतधर्मा: परमाणु - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउकाय 26 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय ष्वपि दृष्टा इत्येनकान्तिकता, नैतदेवं यदवछेद्यत्वादिहेतु- त्वेनोपन्यस्तं तत्सर्वमिन्द्रियव्यवहारानुपाति, न तथा परमाणयोऽत: प्रकरणादतीन्द्रियपरमाणुव्यवच्छेदः / यदि वानवासौ विपक्ष: सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य द्रव्यशरीराभ्युपगमात्, जीवसहिता- सहितत्वं तु विशेषः, उक्तञ्च"तणवो णब्भातिविगार- मुत्तजाइत्तउणिलं ता उ। सत्यासत्थहयाओ, निज्जीवसजीव- रूवाओ॥१॥' एवं शरीरत्वे सिद्धे सति प्रमाणम्। सचेतना हिमादयः, क्वचित् अप्कायत्वादितरोदकवत् इति। तथा सचेतना आप:, क्वचित् खातभूमिस्वभाविकसम्भवत्वाइर्दुरवत्।अथवा- सचेतना अन्तरिक्षोद्भवा आपः; स्वाभाविक- व्योमसंभूतसंपातित्वात्मत्स्यवत्, अत एते एवंविधलक्षण- भाक्त्वाज्जीवा भवन्त्यप्कायाः। आचा.१ श्रु. १अ०३ऊ। भौमाऽपकाय:भूमिक्खयसाभाविय-संभवओ ददुरो व्व जलमुत्तं / अहवा मच्छो व्व सभा-ववोमसंभूयपायाओ ||1757 / / विशे०। (अस्या गाथाया: व्याख्यानं 'सचेयण' शब्दे सप्तमे भागे करिष्यते) भौमजलं सचित्तं, भूमिखाते स्वाभाविकसंभवात्, दर्दुरवदिति प्रयोगः / यथा- दर्दुरस्य भूमिखनने स्वाभाविक: संभवो जायते, तथा जलस्यापि भूमिखते स्वाभाविकसंभव इति / अथवा-सात्मकमन्तरिक्षोदकं, स्वभावतो व्योमसंभूतस्य पातान्मत्स्यवत्, यथामत्स्यस्य स्वभावेन व्योनि संभूतस्य पातो दृश्यते तथाऽन्तरिक्षजलस्यापि, इति सिद्ध जीवत्वं जलस्य। ध०३अधि, 38 श्लोक। सूत्रा आउक्काइया, (दश.) आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं / (सूत्र-१) दश अा कललंऽडरसादीया, जह जीवा तहेव आउ जीवाऽवि 75 / / यथा कललं गर्भप्रथमाऽवस्थारूपम् अण्डरस: इत्येवमादयो जीवा अति प्रतिपत्तव्या:, प्रयोगः अप्कायिका जीवा अनुपहतत्वे सति द्रवत्वात् कललाण्डरसादिवद् / व्य. 10 जा इहं च खलु भो अण्णाराणं उदयजीवा वियाहिया (सूत्र-२४)। उदकरूपा जीवा: / आचा० 1 श्रु०१ अ०३ऊ। उदकाश्रिताश्च जीवा: सन्ति। तथा चाहसंति पाणा उदगणिस्सिया जीवा अणेगे। (सूत्र-२३) 'संति पाणा' इत्यादि, पूर्ववत्, कियन्तः पुनस्त इति दर्शयति- 'जीवा अणेगे' पुनर्जीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतजीवभेदज्ञापनार्थं, ततश्चेदमुक्तं भवति एकैकस्मिन् जीवभेदे उदकाश्रिता अनेके असंख्येया: प्राणिनो भवन्ति। आचा.१ श्रु.१ अ०३ऊ। यद्येवम्-उदकमेव जीवास्ततोऽवश्य तत्परिभोगे सति प्राणातिपातभाज: साधव इति, अत्रोच्यते- नैव तदेवं यतो वयं त्रिविधमष्कायमाचक्ष्महे-सचित्तं, मिश्रम्, अचित्तं च। आचा०१ श्रु.१ अ.३ऊ। (3) सचित्ताऽचित्तमिश्रविवेक:आउक्काओ तिविहो, सच्चित्तो मीसओय अचित्तो। सञ्चित्तो पुण दुविहो, निच्छय ववहारओ चेव।।१६।। अप्कायस्त्रिविधः, तद्यथा- सचित्तो, मिश्रः, अचित्तश्च / तत्र सचित्तो द्विधा-निश्चयतो, व्यवहारतश्च। एतदेव सचित्तस्य निश्चयव्यवहाराभ्यां दैविध्यमुपदर्शयतिघणउदही घणवलया, करगसमुद्दद्दहाण बहुमज्जे। अह निच्छयसचित्तो, ववहारनयस्स अवडाई // 17 // घनोदधयो-नरकपृथ्वीनामाधारभूताः कठिनतोया: समुद्राः, घनवलयास्तासामेव नरकपृथिवीनां पार्थवर्तिवृत्ताकारतोयां: ये च 'करका' धनोपलास्तथा समुद्रहदानां-लवणादिसमुद्रपद्यादिह्र- दानां बहुमध्यभागेऽप्काया: 'अह' त्तिएषु सर्वोऽपि अप्कायो निश्चयसचित्त:एकान्तसचित्त:, शेषस्तु अवटाऽऽदि: अवटवापी- तडागादिस्थः / इह अवटादिस्थोऽवटादिशब्देन उक्तस्तात्थ्येन तद्व्यपदेशप्रवृत्ते: यथा मञ्चा: क्रोशन्तीत्यादौ, तत्रावट:- कूपस्तदादिगतोऽप्कायो व्यवहारनयस्य व्यवहारनयमतेन सचित्त: / उक्त: सचित्तोऽप्कायः / सम्प्रति मिश्रमाहउसिणोदगमणुवत्ते, दंडे वासे य पडियमत्तम्मि। मोत्तूणाऽऽदेसतिगं, चाउलउदगं बहुपसन्नं / / 18 / / अनुवृत्ते दण्डे, अत्र च जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ:- अनुवृत्तेषु त्रिपु दण्डेषु उत्कालेषु य दुष्णोदकं तन्मिश्रमिति प्रस्तावादव- गम्यते, तथा हि-प्रथमे दण्डे जायमाने कश्चित्परिणमति कश्चिन्नेति मिश्रः, द्वितीये प्रभूत: परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठते, तृतीये तु सर्वोऽप्यचित्तो भवति / ततोऽनुवृत्तेषु त्रिषुदण्डेषु उष्णोदकं मिश्रमेव सम्भवति। तथा वर्षे-वृष्टी पतितमात्र यज्जलं ग्रामनगरादिषु प्रभूततिर्यग्मनुष्यप्रचारसंभविषु भूमौ वर्तते तद्यावन्नाद्याप्य-चित्तीभवति तावन्मिश्रमवगन्तव्यम् / ग्रामनगरादिभ्योऽपि बहिस्ताधदिस्तोक मेघजलं निपतति तदानीं तदपि पतितमात्र मिश्रमवसेयम् / पृथिवीकायसम्पर्कतस्तस्य परिणममानत्वात् यदाप्यतिप्रभूतं जलं मेघो वर्षति तदाऽपि प्रथमतो निपतत् पृथिवीकायसंपर्कत: परिणममानं मिश्र, शेषं तु पश्चान्निपतत्सचित्तमिति, तथा- मुक्त्वा -परिहृत्य आदेशत्रिकं- मतत्रिकं तदुक्ता मिश्रता न ग्राह्येति भावार्थ: / चाउलोदकम्- तण्डुलोदकम् अबहुप्रसन्न नातिस्वस्थीमूतं मिश्रमिति गाथार्थः / अबहुप्रसन्नमित्यत्रादावकारलोप आर्षत्वात्। (आदेशत्रिकम् 'चाउलोदग' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते।) ___ अचित्तमिश्राऽप्कायमाहसीउण्हखारखत्ते, अग्गीलोणूसअंबिले नेहे। बुक्कंतजोणिएणं, पओयणं तेणिमं होई // 22 / / इयं गाथा प्रागिव व्याख्येया! नवरं पृथिवीकायस्थाने अप्कायाभिलाप: कर्तव्यः / इह या स्वकायपरकायशस्त्रयोजना द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया वा अचित्तत्वभावना साऽपि प्रागिव यथा योगमप्कायेऽपि भावनीया। तथा यदा दधितैलादिसत्केषु घटेषु क्षिप्तस्य शुद्धजलादेरुपरि दध्याद्यवयवसत्का तरी जायते तदा सा यदि परिस्थूरा तर्हि एकया Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 27 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय पौरुष्या तत्परिणमति। मध्यमभावा चेत्तर्हि द्वाभ्यां पौरुषीभ्यां, स्तोका चेत्तर्हि तिसृभिः पौरुषीभिरिति। इह तावद्व्युत्क्रान्तयोनिकेनाप्कायेनेदंप्रयोजनमित्युक्तम्, अतस्तदेव दर्शयतिपरिसेयपियणहत्था-इधोवणं चीरधोवणं चेव। आयमणभाणधुवणं, एमाइपओयणं बहुहा ||23 / / परिषेको- दुष्टवणादेरुत्थितस्योपरि पानीयेन सेचनम् / पानमतृडपनोदाय जलस्याभ्यवहरणम् / हस्तादिधावनंकरचरणप्रभृतिशरीरावयवानां कारणमुद्दिश्य प्रक्षालनम्, चीवरधावनंवस्त्रप्रक्षालनम् / अस्य भिन्नविभक्तिनिर्देशो न सदैव साधुनोपधिप्रक्षालनं कर्तव्यमिति प्रदर्शनार्थ: / आचमनम्- पुरीषोत्सर्गानन्तरं शौचकरणम्, 'भाणधुवणं' तिपात्रकादिभाजनप्रक्षालनम् / एवमादिकमादिशब्दात्-ग्लानकार्यादिपरिग्रहः / अचित्तेना-प्कायेन प्रयोजनं बहुधा-बहुप्रकारं द्रष्टव्यम् / पिं। ओघा ध। (4) तीव्रोदकस्याचित्तत्वम्"तिव्वोदगस्स गहणं, केइ भायणेसु असुइपडिसेहो। गिहिभायणेसु गहणं, ठिअवासे मीसगं छारो / / 1 / / " (अस्या गाथाया व्याख्या 'अचित्त' शब्दे प्रथमभागे गता) ध.२ अ०। तत्रयोऽचित्तोऽप्कायस्तेनोपयोगविधि: साधूनां, नेतराभ्यां, कथं पुनरसौ भवत्यचित्तः, किं स्वभावाद्, आहोस्विच्छ- स्त्रसम्बन्धात्, उभयथापीति / तत्र यः स्वभावादेवाचित्तीभवतिन बाह्यशस्त्रसम्बन्धातमचित्तं जानाना अपि केवलमन:-पर्यायावधिश्रुतज्ञानिनोन परिभुञ्जते अनवस्थाप्रसङ्गभीरुतया / यतोऽनुश्रूयते भगवता किल श्रीवर्द्धमानस्वामिना विमलस- लिलसमुल्लसत्तरङ्गः शैवलपटलत्रसादिरहितो महाहृदो व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽचित्तवारिपूर्ण: स्वशिष्याणां तृड्बा- धितानामपि पानाय नानुजज्ञे / तथा अचित्ततिलशकटस्थ-ण्डिलपरिभोगानुज्ञा चाऽनवस्थादोषसंरक्षणाय भगवता न कृतेति श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञापनार्थश्च / तथाहिसामान्यश्रुतज्ञानी बाह्येन्धनसम्पक्कादुषितस्वरूपमेवाचित्तमिति व्यवहरति, जलं, न पुनर्निरिन्धनमेवेति / अतो यद्- बाह्यशस्त्रसम्प र्कात्परिणामन्तरापन्नं वर्णादिभिस्तदचित्तं साधुपरिभोगाय कल्पते। आचा० 1 श्रु०१ अ. 33024 सूत्रटी। (5) किम्पुनस्तच्छस्त्रमित्यत आहउस्सिंचणगालणधो-यणे य उवकरणकोसमंडे य। बायर आउक्काए, एवं तु समासओ सत्थं // 113 / / किंची सकायसत्थं, किंची परकायतदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं / / 114 // उस्सिंचणे' त्यादि, शस्त्रं द्रव्यभावभेदात् द्विधा। द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदात् द्विधैव / तत्र समासतो द्रव्यशस्त्रमिद- मूवंसेचनम् उत्सेचनकूपादे: कोशादिनोत्क्षेपणमित्यर्थः / गालनंघनमसृणवस्त्राद्धन्तेिन / धावनं-वस्त्राद्युपकरणचर्म- कोशघटादिभाण्डेकविषयम्, एवमादिकं बादराप्काये / एतत्पूर्वोक्तं समासत:- सामान्येन शस्त्रम्, तुशब्दो विभागापेक्षया विशेषणार्थ: / / 113 // विभागतस्त्विदम्-' किंची' त्यादि, किञ्चित् स्वकायशस्त्रं नादेयं तडागस्य / किञ्चित्परकायशस्त्रं मृत्तिकास्नेहकरादि / किंचिचोभयम्- उदकमिश्रा मृत्तिकोदकस्य / आचा० 1 श्रु.१० ३ऊ। सत्थं चेत्थं अणुवीइपासा पुढो सत्थं पवेइयं / (सूत्र-२५) शस्यन्ते -हिंस्यन्ते अनेन प्राणिन इति शस्त्रं तच्चोत्सेचनगालनोपकरणधावनादि स्वकायादि च वर्णाद्यापत्तयो वा पूर्वावस्थाविलक्षणा: शस्त्रम्। तथा हिअग्रिपुद्गलानु- गतत्वादीषत्पिङ्गलं जलं भवत्युष्णं गन्धोऽपि धूमगन्धि रसतो विरसं, स्पर्शत उष्णम् / तचोद्धृतत्रिदण्डमेवंविधावस्थं यदितत: कल्पते, नान्यथा / तथा कचवरकरीषगोमूत्रोपादीन्ध नसम्बन्धात्स्तोकस्तोकमध्यबहुभेदात्, स्तोकं स्तोकं प्रक्षिपतीत्यादिचतुर्भङ्गिकाभावना कार्या। एवमेतत्त्रिविधं शस्त्रं चशब्दोऽवधारणार्थ: / अन्यतमशस्त्रसम्पर्कविध्वस्तमेव ग्राह्य, नान्यथेति। एत्थं ति- एतस्मिन्नप्काये प्रस्तुते अनुविचिन्त्य-विचार्यइदमस्य शस्त्रमित्येवं ग्राह्यम् / पश्येत्यनेन शिष्यस्य चोदनेति / तदेवं नानाविधं शस्त्रमप्कायस्यास्तीति प्रतिपादितम्, एतदेव दर्शयति- 'पुढो सत्थं पवेदितं' पृथग्विभिन्नमुत्सेचना- दिकं शस्त्रं प्रवेदितम्-आख्यातं भगवता, पाठान्तरं वा- 'पुढोऽयासं पवेदितं' एवं पृथग्विभिन्न लक्षणेन शस्त्रेण परिणामितमुदकग्रहणमपाशं संप्रवेदितम्-आख्यातं भगवता, अपाश:-अबन्धनं शस्त्रपरिणामितोदकग्रहणमबन्धनमाख्या-समिति यावदेवं तावत्साधूनां सचित्तमिश्राप्काय-परित्यागेनाचित्तपयसा परिभोग: प्रतिपादित: / आचा.१ श्रु०१ अ०३ उछ। (6) सचित्ताप्कायपरिभोगविचारः / इच्छिज्जइ जत्थ सया, बीयपएणाऽवि फासुयं उदयं / आगमविहिणा निउणं, गोयम ! गच्छंतयं मणियं ||7|| इष्यते- वाञ्छ्यते यत्रगणे सदा-नित्यम् उत्सर्गपदापेक्षया द्वितीयपदम्अपवादपदंतेनापि किंपुनरुत्सर्गपदेनेत्यपिशब्दार्थ: / प्रगता असव:प्राणा यस्मात्तत्प्रासुकं, किम्? उदकं- जलं तच उत्कालत्रयोत्कलनादिप्रकारेण प्रासुकीस्यात्: न तु तप्तमात्रम्। यत उक्तं दशवैकालिके "गिहिणो वेयावडियं, जायआजीववत्तिया! तत्तानिवुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य॥१॥" ताप्तानिवृतभोजित्वं-तप्तंच तदनिर्वृतं चात्रिदण्डोद्धृतंच। उदकमि' ति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तद्भोजित्वं: मिश्रसचित्तोदकभोजित्वमित्यर्थः / आगमविधिनासिद्धान्तोक्त- प्रकारेण निपुणं यथा स्यात्तथा हे गौतम ! स गच्छो भणित: / ग.२ अधिक। सचित्तस्य तु विन्दुमात्रस्यापि परिभोगो न कल्पतेजत्थ य बाहिरपाणिअ, विंदूमित्तं पि गिम्हमाईसु। तिण्हासोसियपाणा, मरणे विमुनीन गिण्हति / / 77 // हे गौतमा यत्र- गच्छे बाह्यपानीयबिन्दुमात्रमपिसचित्तजललेशमात्रमपि ग्रीष्मादिषु कालेषु तृष्णया- द्वितीयपरीषहेण शोषिताग्लानि प्रापिता: प्राणाइन्द्रियादयोयेषां ते तृष्णाशोषितप्राणा: मरणान्तेऽपि मुनयः साधवो न गृण्हन्ति क्षुल्लकवत् / तथाहि- "उज्जेणी नयरी / तत्थ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 28 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय धणमित्तो नाम वाणियओ। तस्स पुत्तो धणसम्मा नाम / सो धणमित्तो पुत्तेण सह पव्वइओ। अण्णया य ते साहू विहरंता मजण्हसमये एलगच्छ (त्थ) पुरपहे पडिया। सो विखुड्डुओ तिसाए अभिभूओ सणिअंसणिअं | एइ, सोऽवि से खंतओ सिणेहाणुरागेण पच्छा उ एइ / साहुणो वि पुरओ वचंति। अंतर य नई समावडिया खंतएण भणियं- एहि पुत्ता ! पियसु पाणियं नित्थरसु आवई, पच्छा आलोइज्जासि, सोन इच्छति।खंतो नई उत्तिन्नो, चिंतेइ-अओ सरामि मणागं जावेस खुडगो पाणियं पियइ। मा ममासंकाए न पाही। एगते पडिच्छइ०जाव खुड्डो पत्तो नई दढव्वयाए सत्तसारयाए ण पीयं / अन्ने भणंति-अइवाहिओ हंत पिवामि पाणियं पच्छा गुरुमूले पायच्छित्तं पडिवज्जिस्सामि त्ति उक्खित्तो जलंजली। अह से चिंता जाया। कहमेए हलहलएजीवे पियाणि,जओ"एक्कम्मि उदगविंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहिँ पण्णत्ता। ते पारेवयमित्ता, जंबुद्दीवे न माएज्जा // 1 // जत्थ जलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ निच्छओ तेऊ। तेऊवाउसहगओ, तसा य पचक्खया चेव // 2 // ता हंतूण परपा-णे य अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं। अप्पाणं दिवसाणं, कएण नासेइ अप्पाणं' // 3 // (ग) एवं भावंतेण अइसंविग्गेण न पीयं उत्तिन्नो नई आसाए छिन्नाए नमोक्कारं जायंतो सुहपरिणमो कालगओ देवेसु उववन्नो। ओहिपउत्तो जाव खुड्डुगसरीरं पासइ तहिमणुपविठ्ठो खंतमणुगच्छइ खंतो वि एइत्ति पत्थिओ / पच्छा देवेण अणुकंपाए साहूणं गोकुलाणि विउव्वियाणि / साहू वितासु वइगासु तक्काईणि गिण्हंति वइया परंपरएण जणवयं पत्ता। पच्छिमाए वइयाए देवेण विंटिया पम्हुसाविया जाणावणनिमित्तं, एगो य साहू निवत्तो तयवत्थं पेच्छइ विटियं नऽत्थि वइया, आगंतूण समाहियं तेण, पच्छा नायं तेहिंसा दिव्वं ति। इत्थंतरे देवेण साहू वंदिया, खंतोन वंदिओ। तेहिं पुच्छिओ किमयं नवंदसि। तओ सव्वं परिकहेइ नियवइअरं, भणइय-अहं एएण परिचत्तो वयलोवेण दोग्मइभायणं कओ आसि तुममेयं पियाहिं जपतेण जइ तं पाणियं पियंतो तो संसारं भमंतो, देवोपडिगउ'' त्ति / हे गौतम ! स गच्छो ज्ञेय इति शेष: / गाथाछन्द: 1 ग.२ अधि। (7) अप्कायपरिभोगकारणानि यथाण्हाणे पियणे तह धो-यणे य भत्तकरणे य सेए य। आउस्स उ परिभोगो, गमणागमणे य जीवाणं / / 111 / / स्नान-पान- धावन-भक्त-करणसे कयानपात्रोडुपगमनाऽगमनादिरूपभोगः / एतत्परिभोगाभिलाषिणो जीवा एतानि कारणान्युद्धिश्याऽप्कायवधे प्रवर्त्तन्त इति दर्शयतिएएहि कारणेहिं, हिंसंति आउकाइए जीवे / सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरेंति / / 112 / / एभि:-स्नानावगाहनादिकै कारणैरुपस्थितैर्विषयविषमोहिता-त्मानो निष्करुणा अप्कायिकान् जीवान् हिंसन्ति-व्यापादन्ति, किमर्थमित्याह-सात-सुखं तदात्मानोऽन्वेषयन्तः- प्रार्थयन्त: हिताहितविचारशून्यमनस: कतिपयदिवसस्थायिरम्ययौवनदर्पाध्मातचेतसः सन्त: सद्विवेकरहितास्तथा विवेकिजनसंसर्गविक-ला: परस्यअवादेर्जन्तुगणस्य दु:खम्-असातलक्षणं तत् उदीर- यन्ति: सातवेदनीयमुत्पादयन्तीत्यर्थः / आचा०१श्रु०१ अ०३ ऊ। (8) अप्कायसमारम्भव्यावृत्तस्यैव मुनित्वम्से वेमि जहा अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे अमायं कुब्वमाणे विणाहिए। (सूत्र-२८) स यथा पृथिवीकायसमारम्भव्यावृत्त्युत्तरकालं सम्पूर्णाऽनगारव्यपदेशभाग् भवति तदहं ब्रवीमि / अपि: समुच्चये, स यथा चानगारो न भवति तथा च ब्रवीमि 'अणगारामो त्ति एगे पयवमाणे' त्यादि, नेति, न विद्यते अगारंगृहमेषामित्यनगारा इह च यव्यादिशब्दव्युदासेनानगारशब्दोपादानेनैतदाचष्टे - गृह- परित्यागः प्रधानं मुनित्वकारणं, तदाश्रयत्वात्सावद्यानुष्ठा- नस्थ, निरवद्यानुष्ठायीच मुनिरिति दर्शयति'उज्जुकडे' त्ति- ऋजु:- अकुटिल: संयमोदुष्प्रणिहितमनोवाक्कायनिरोध: सर्वसत्त्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वाद्दयैकरूप:- सर्वत्राकुटिलगतिरित यावत्। यदि वा-मोक्षस्थानगमनर्जुश्रेणिप्रतिपत्ति: सर्वसंचार-संयमात्। कारणे कार्योपचारं कृत्वा संयम एवं सप्तदशप्रकार ऋजुस्तं करोतीति ऋजुकृतः ऋजुकारीत्यर्थः। अनेन चेदमुक्तं भवति-अशेषसंयमानुष्ठायी सम्पूर्णानगार एवंविधश्चेदृग्भवतीति दर्शयति- 'नियागपडिवन्ने' त्तियजनं याग: नियतो निश्चितो वा यागो नियागो मोक्षमार्गः, सङ्गताऽर्थत्वाद्धातो: सम्यग्ज्ञानदर्शन-चारित्रात्मतया गतं सङ्गतमिति। तं नियागं सम्यग्दर्शन-चारित्रतात्मकं मोक्षमार्गं प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्न: / पाठान्तरं वा- "निकायप्रतिपन्नो' निर्गत: काय औदारिकादिर्यस्माद्यस्मिन्वा सति स निकायो मोक्ष: तं प्रतिपन्नो निकायप्रतिपन्नस्तत्कार-णस्य सम्यग्दर्शनादे: स्वशक्त्यानुष्ठानात स्वशक्त्यानुष्ठानं वा मायाविनो भवतीति दर्शयति- 'अमायं कुट्वमाण' त्ति- माया-सर्वत्र स्ववीर्यनिगूहनम्, न माया अमाया तां कुर्वाणोऽनिगृहितबलवीर्य: संयमानुष्ठानं पराक्रममाणोऽनगारो व्याख्यात इति, अनेन तज्जातीयोपादानादशेषकषायापगमोऽपि द्रष्टव्य इति। उक्तं च- "सोही य उज्जुपभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ''त्ति / तदेवमसावुद्धृतसकलमायावल्ली __ वियतान: किं कुर्यादित्याहजाए सद्धाए निक्खंतोतमेव अणुपालिज्जा विजहित्तु विसोत्तियं (पाठान्तरे)- पुव्वसंजोयं / (सूत्र-१९) 'जाए सद्धाए' इत्यादि, यया श्रद्धया प्रवर्द्धमानानुष्ठान करणरूपया निष्क्रान्त: प्रव्रज्यां गृहीतवाँस्तमेव श्रद्धामश्रान्तो यावज्जीवमनुपालयेद; रक्षेदित्यर्थः / प्रव्रज्याकाले च प्रायश: प्रवृद्धपरिणाम एय प्रव्रजाति, पश्चात्तु संयमश्रेणी प्रपन्नो वर्द्धमानपरिणामो वा हीयमानपरिणामो वा अवस्थित परिणामो वेति, तत्र वृद्धिकालो हानिकालो वा समयाद्युत्कर्षेणान्तर्मोहूर्तिकः, नाऽत: परंसंक्लेशविशुद्ध्यद्धे भवतः / उक्तं च-''नान्तर्मुहूर्तकालमतिवृत्य शक्यं हि जग Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 29 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय ति संक्लेष्टुम् / नापि विशोद्धं शक्यं, प्रत्यक्षो ह्यात्मन: सोऽर्थः // 1 // उपयोगद्वयपरिवृत्तिः, सा निर्हेतुकस्वभावत्वात्। आत्मप्रत्यक्षो हि स्वभावो व्यर्थात्र हेतूक्तिः।।२।।" अवस्थितिकालश्च द्वयोवृद्धिहानिलक्षणयोर्यवमध्यवज्रमध्ययोरष्टौ समयाः, तत ऊर्ध्वमवश्यं पातात् / अयं च वृद्धिहान्यवस्थितरूपपरिणाम: के वलिनां निश्चयेन गम्यो, न छद्मस्थानामिति / यद्यपि च-प्रव्रज्याभिगमोत्तरकालं श्रुतसागरमवगाहमानः संवेगवैराग्य-भावनाभावितान्तरात्मा कश्चित् प्रवर्द्धमानमेव परिणामं भजते / तथा चोक्तम्- "जह जह सुयमवगाहइ, अइ मयरसपसर- संजुयमउव्वं / तह तह पल्हाई मुणी, नवनवसंवेगसंघाते / / 1 / / " तथापि स्तोक एव तादृक् बहवश्व परिपतन्त्यतोऽभिधीयते- 'तामेवानुपालयेदिति' / कथं पुनः कृत्वा श्रद्धामनुपालयेदित्यत आह- 'विजहे' त्यादि, विहाय- परित्यज्य विस्रोतसिकां- शङ्काम् / सा च द्विधा-सर्वशङ्का, देशशङ्का च / तत्र सर्वशङ्का-किमस्त्याहतो मार्गों न वेति, देशशङ्का तु-किं विद्येन्तेऽप्कायादयो जीवा विशेष्यप्रवचनेऽभिहितत्वात् स्पष्टचेतनात्मलिङ्गाभावान्न विद्यन्ते इति वा, इत्येवमादिकामारेकां विहाय संपूर्णाननगारगुणान् पालयेत् / यदि वा-विस्रोतांसि द्रव्यभावभेदाद् द्विधा-तत्र द्रव्यविस्रोतांसि नद्यादिस्रोतसां प्रतीतापगमनानि भावविस्रोतांसि तु मोक्षं प्रति सम्यग्दर्शनादिस्रोतसा प्रस्थितानां विरूपाणि प्रतिकूलानि गमनानि भावविस्रोतांसि तानि विहाय संपूर्णानगारगुणभाग्भवति श्रद्धां वा अनुपालयेदिति / पाठान्तरं वा''विजहित्ता पुव्वसंयोग" पूर्वसंयोग:- मातापित्रादिरस्य चोपलक्षणार्थत्वात्पसंयोगोऽपि श्वशुरादिकृतो ग्राह्यस्तं विहायत्यक्त्वा श्रद्धामनुपालयेदिति मीलनीयम् / तत्र यस्यायमुपदेशो दीयते यथा 'विहाय विस्रोतांसि तदनु श्रद्धानुपालनं कार्यं स एवाभिधीयते-न केवलं भवानेवा-पूर्वमिदमनुष्ठानमेवंविधं करिष्यति, किं त्वन्यैरपि महासत्त्यैः कृतपूर्वमिति दर्शयितुमाहपणया वीरा महावीहिं (सूत्र-२०) प्रणता:- प्रहाः वीरा:- परिषहोपसर्गकषायसेनाविजयात् वीथि:- पन्था: महांश्चासौ वीथिश्च- महावीथि:- सम्यग्दर्शनादिरूपो मोक्षमार्गो जिनेन्द्रचन्द्रादिभिः सत्पुरुषैः प्रहतस्तं प्रति प्रह्वा-वीर्यवन्त: संयमानुष्ठानं कुर्वन्ति, ततश्चोत्तमपुरुषप्रहतोऽयं मार्ग इति प्रदर्श्य तज्जनितमार्गविश्रम्भो विनेय: संयमानुष्ठाने सुखेनैव प्रवर्तयिष्यते। उपदेशान्तरमाह- 'लोगं चे' त्यादि, अथ वा-यद्यपि भवतो मतिर्न क्रमतेऽप्कायजीवविषयेऽसंस्कृतत्वात्, तथापि भगवदा- ज्ञेयमिति श्रद्धातव्यमित्याहलोगं च आणाए अमिसमेचा अकुओभयं / (सूत्र-२१) अत्राधिकृतत्वादप्कायलोको लोकशब्देनाभिधीयते, तमप्कायलोकं चशब्दादन्यांश्च पदार्थान् आज्ञया-मौनीन्द्र-वचनेनाभिमुख्येन सम्यग् ज्ञात्वा, यथा-अप्कायादयो जीवा, इत्येवमवगम्य न विद्यते कुतश्विद्धेतो:- केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं यस्मात्सोऽयमकुत्तोभय: संयमस्तमनुपालयेदिति सम्बन्धः / यद्वा-अकूतोभयोऽप्कायलोको, यतोऽसौ न कुतश्चिद् भयमिच्छति, मरणभीरुत्वात्, तमाशयाऽभिसमेत्यानुपालयेत्; रक्षेदित्यर्थः / अप्कायलोकमाज्ञयाऽभिसमेत्य यत्कर्तव्यं तदाहसे वेमि णेव सयं लोग अब्मइक्खिज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अन्भाइक्खइ से अत्ताणं अन्माइक्खइ से लोयं अब्भाइक्खइ। (सूत्र-२२) 'से येमी' त्यादि, सोऽहं ब्रवीमि 'से' शब्दस्य युष्मदर्थत्वाद् त्वां वा ब्रवीमि, न स्वयम्-आत्मना लोकोऽप्कायलोकोऽभ्या ख्यातव्यः / अभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथा- अचौरं चौरमित्याह / इह तु जीवा न भवन्त्याप: के वलमुपकरणमात्रं घृततैलादिवत् / एषोऽसदभियोग: हस्त्यांदीनामपि जीवानामुपकरणत्वात् स्यादारेका, नन्तदेवाभ्याख्यानं यद्जीवानां जीवत्वापादनं नैतदस्ति, प्रसाधितमपां प्राक् सचेतनत्वम्। यथा ह्यस्य शरीरस्याहंप्रत्ययादिभिर्हेतु- भिरधिष्ठातात्मा व्यतिरिक्त: प्राक् प्रसाधित एवमप्कायोऽप्यव्यक्तचेतनया सचेतन इति प्राक् प्रसाधितः / न च प्रसाधि- तस्याभ्याख्यानं न्याय्यम्, अथापि स्थादात्मनोऽपिशरीरा-धिष्ठातुरभ्याख्यानं कर्त्तर्व्यम्, न च तक्रियमाणं घटामियीति दर्शयति- 'नेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा' नैवाऽऽत्मानंशरीरा- धिष्ठातारमहंप्रत्ययसिद्ध ज्ञानाभिन्नगुणं प्रत्यक्षं प्रत्याचक्षीतअपहवीत, ननुचैतदेव कथमवसीयते शरीराधिष्ठातात्मास्तीति, उच्यतेविस्मरणशीलो देवानांप्रिय उक्तमपि भाणयति। तथा ह्याहृतमिदं शरीरं केनचिदभिसंधिमता, कफरुधिराङ्गोपाङ्गा- दिपरिणतेरन्नादिवत्तथोत्सृष्टमपि केनचिदभिसम्बन्धिमतैव, आहृतत्वाद्, अन्नमलवदिति। तथा नज्ञानोपलब्धिपूर्वक: परिस्पन्दो भ्रान्तिरूप: परिस्पन्दत्वात्त्वदीयवचनपरिस्पन्दवत् / तथा विद्यमानाधिष्ठातृव्यापारभाञ्जीन्द्रियाणि, करणत्वाद्दात्रा- दिवत् / एवं कुतर्कमार्गानुसारिहेतुमालोच्छेद: स्याद्वादपरशुना कार्यः अत एवं विधोपपत्तिसमधिगतमात्मानं शुभाशुभफलभाजं न प्रत्यचक्षीत / एवं च सति यो ह्यज्ञ. कुतर्कतिमिरोपहतज्ञान- चक्षुरप्कायलोकमभ्याख्याति-प्रत्याचष्टे स सर्वप्रमाणसिद्ध- मात्मानसभ्याख्याति, यश्चात्मानमभ्याख्यातिनास्म्यहं स सामर्थ्यादप्काय लोकमभ्याख्याति / यतो ह्यात्मनि पाण्याद्यवय- वोपेतशरीराधिष्ठायिनि प्रस्पष्ट लिङ्गेऽभ्याख्याते सत्यव्यक्त-चेतनालिङ्गोऽप्कायलोकस्तेन सुतरामभ्याख्यातः / एवमनेकदोषोपपत्तिं विदित्वा नायमप्कायलोकोऽभ्याख्यातव्य: इत्यालोच्य साधवो नाप्कायविपयमारम्भं कुर्वन्तीति। (9) शाक्यादयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाहलज्जमाणा पुढोपासअणगारा मो त्ति एके पवयमाणा जमिणं विरूवरूवे हिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव उदयसत्थं समारंभति अण्णे हिं वा उदयसत्थं समा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 30 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय रंभोवेति अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति तं से / व्यापत्तिकारिणो द्रष्टव्या: / शाक्यादयस्तूदकाश्रितानेव द्वीन्द्रियादीन् अहियाए तं से अबोहीए। से तं संबुज्जमाणे आयाणीयं समुट्ठाए जीवानिच्छन्ति नादकम् इत्येतदेव दर्शयति- खलु शब्दोऽवधारणे, सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिंणाणं भवति- एस | इहैवज्ञातपुत्रीयप्रवचनेद्वादशाङ्गेगणिपिटकेअनगाराणांसाधूनामुदकरूपा खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए, इचत्थं जीवाश्चशब्दात्तदाश्रिताश्च पूतरकच्छेदन-कलोद्दणकभ्रमरकमगढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेणं त्स्यादयो जीवा व्याख्याता:, अवधारणफलंच नान्येषामुदकरूपा जीवा: उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ। प्रति पादिता: / आचा० 1 श्रु.१ अ०३ऊा जीवा: इति। 'लज्जमाणे त्यादि, लज्जमाना:- स्वकीयं प्रव्रज्याभासं कुवार्णाः, ये पुनः शाक्यादयोऽप्कायोपभोगप्रवृत्तास्ते नियमत एवाऽप्कार्य यदि वा-सावद्यानुष्ठानेन लज्जमाना:- लज्जां कुर्वाणा: पृथग्विभक्ताः विहिंसन्ति तदाश्रितांश्चान्यानिति। तत्र न केवलं प्राणाति-पातापत्तिरेव शाक्योलूककणभुक्कपिलादिशिष्याः / पश्येति शिष्यचोदना, तेषां किमन्यदित्यत आहअविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्ति, यथा- 'पश्य मृगो धावति' अदुवा अदिन्नादाणं। (सूत्र-२६) द्वितीयार्थे वा प्रथमा, सुप्व्यत्ययेन द्रष्टव्या। ततश्चायमर्थ:- शाक्यादीन् अथवेति- पक्षान्तरोपन्यासद्वारेणाभ्युच्चयोपदर्शनार्थः, अशस्त्रोगृहीतप्रव्रज्यानपि सायद्यानुष्ठानरतान् पृथग्विभिन्नान् पश्य, पहताप्कायोपभोगकारिणां न केवलं प्राणातिपातोऽपि किंतुकिंस्तैरसदाचरितं येनैवं प्रदर्शयन्त इति दर्शयति-"अनगारा वयम्" अदत्तादानमपि तत्तेषाम् / यतो यैरप्कायजन्तुभिर्यानि शरीराणि इत्ये के शाक्यादयः प्रवदन्तो यदिदं तदेतत्काक्का दर्शयति निर्वतितानि तैरदत्तानि, ते तान्युपभुञ्जन्ते, यथा कश्चित् पुमान् विरूपरूपैरुत्सेचनानिविध्यापनादिशस्त्रैः स्वकायपरकायभेद सचित्तशाक्यभिक्षुकशरीरकात् खण्डमुत्कृत्य गृहणीयाददत्तं हि तस्य भिन्नैरुदककर्म समारभन्ते / उदयकर्म समारम्भेण च उदके शस्त्रम् तत्परपरिगृहीतत्वात् / परकीयगवाद्यादानवत् / एवं तानि उदकमेव वा शस्त्रं समारभन्ते 1 तच समारभमाणोऽनेक शरीराण्यबजीवपरिगृहीतानि गृहिणतोऽदत्तादानमवश्यम्भावि / रूपान्वनस्पतिद्वीन्द्रियादीन्विविधं हिनस्ति। तत्र खलु भगवता परिज्ञा स्वाम्यनुस्वाम्यनुज्ञानाभावादिति ननु यस्य तत्तडागकूपादि तेनानुज्ञातं प्रवेदिता, ययाऽस्यैव जीवितव्यस्य परिवन्दमाननपूजनार्थ स्वकृत्तत्पय इति / ततश्च नाऽदत्तादानं, स्वामिनाऽनुज्ञातत्वात् जातिमरणमोचनार्थं दु:खप्रतिघातहेतुं यत् करोति-तद्दर्शयति-स परानुज्ञानपश्वादिधातवत् / नन्वेतदपि साध्यावस्थामेवोपन्यस्तं, यत: स्वयमेवोदकशस्त्र समारभते, अन्यैश्चोदकशस्त्रं समारम्भयति, पशुरपिशरीरप्रदानविमुख एव भिन्नार्यमर्यादैरुच्चैरारटन् विशस्थते, ततश्च अन्याश्चोदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीते। तच्चोदक-समारम्भणं कथमिव नाऽदत्तादानं स्यात् / न चान्यदीयस्यान्यः स्वामी दृष्टः तस्याऽहिताय भवति / तथा तदेवाबोधिलाभाय भवति / स परमार्थचिन्तायाम्।नन्वेवमशेषलोकप्रसिद्धगोदानादिव्यवहारस्वुट्यति, एतत्सम्बुध्यमान आदानीयं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थायअभ्युपगम्य त्रुट्यतुनामैवंविधः पापसम्बन्ध: तद्धि देयम्यद्धिदुःखितं स्वयंन भवति। श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वान्तिके इहैकेषां साधूनां ज्ञातं भवति दासीबलीवर्दादिवत् / न चान्येषां दुःखोत्पत्ते: कारणं हलखङ्गादिवत्। तदर्शयति-एषो-ऽप्कायसमारम्भो ग्रन्थ:- एष खलु मोहः, एष खलुमारः, एतद्व्यतिरिक्तं दातृपरिगृहीत्रोरेकान्तत एवोपकारकं देयं प्रतिजानते एष खलु नरक इत्येवमर्थं गृद्धो लोको यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः जिनेन्द्रमतावलम्बिन: / उत्कञ्च-"यत्स्वयमदुःखितं स्या-नच परदुःखे उदयकर्मसमा- रम्भेणोदकशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् निमित्तभूतमपि / केवलमुपग्रहकरं, धर्मकृते तद्भवेद्देयम् // 1 // इति / प्राणिनो विविधं हिनस्तीत्येतत्प्राग्वद् व्याख्येयम्। तस्म-दवस्थितमेतत्तेषां तददत्तादानमपीति। पुनरप्याह सांप्रतमेतद्दोषद्वयं स्वसिद्धान्ताभ्युपगमद्वारेण पर: परि-जिहीर्षुराहसे वेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे। (सूत्र-२३) कप्पइणे कप्पइणे पाउं अदुवार विभूसाए। (सूत्र-२७) इहं च खलु भो! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया। (सूत्र 24) अशखोपहतोदकारम्मिणो हि चोदिता: सन्त एवमाहुः- यथा 'से' शब्द आत्मनिर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्धानेकाऽप्का-यतत्त्ववृत्तान्तो नैतत्स्वमनीषिकातः समारम्भयामो वयं; किंवागमेनिर्जीवत्वेब्रवीमि, सन्तिविद्यन्ते प्राणिन उदकनिश्रिता:- पूतरकमत्स्यादयो नानिषिद्धत्वात् कल्पते-युज्यतेन:-अस्माकं पातुम्- अभ्यवहर्तुमिति यानुदकारम्भप्रवृत्तोहन्यादिति। अथवा-अपर सम्बन्ध: प्रागुक्तमुदक- वीप्सया च नानाविधप्रयोजनविषय: उपभोगोऽभ्यनुज्ञातो भवति / शस्त्रं समारभमाणोऽन्या नप्यनेकरूपान् जन्तून विविधं हिनस्तीति, तथाहि-"आजीविकभस्मस्नाय्यादयो वदन्ति पातुमस्माकं कल्पते, तत्कथ-मेतच्छक्यमभ्युपगन्तुमित्यत आह- 'संति पाणा' नस्नातुंवारिणा'' शाक्यपरिवा-जकादयस्तुस्नानपानावगाहनादि सर्व इत्यादिपूर्ववत्, कियन्त: पुनस्त इति दर्शयति- 'जीवा अणेगा' इति- कल्पते इति प्रभाषन्ते: एतदेव स्वनामग्राहं दर्शयति- अथवोदकं पुनर्जीवोपादानमुदकाश्रितप्रभूतजीवभेदज्ञापनार्थम् / ततश्वेदमुक्तं विभूषार्थमनुज्ञातं नसमये, विभूषाकरचरणपायूपस्थमुखप्रक्षालनादिका भवति-एकैकस्मिन जीवभेदे उदकाश्रिता अनेके असंख्येया: प्राणिनो वस्त्र- भण्डकादिप्रक्षालनात्मिका वा, एव स्नानादिशौचानुष्ठाायना भवन्ति, एवम्-अप्कायविषयारम्भाज: पुरुषास्तेतनिश्रितप्रभूतसत्त्व- / नास्ति कश्चिद्दोष इति। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 31 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्काय एवं ते परिफल्गुवचस: परिव्राजकादयो निजराद्धान्तो पन्यासेन मुग्धमतीन्विमोह्य किं कुर्वन्तीत्याहपुढो सत्थेहिं विउटुंति। (सूत्र-२८) पृथग्- विभिन्नलक्षणैर्नानारूपैरुत्सेचनादिशस्त्रैस्तेऽनगाराय- माणा: 'विउति' त्ति-अप्कायजीवान् जीवनाद् व्यावर्त्तयन्ति; व्यपरोपर्यन्तीत्यर्थः / यदि वा-पृथग् विभिन्नैः शस्त्रैरप्कायिकान् विविध कुट्टन्ति; छिन्दन्तीत्यर्थः, कुहेर्धातो: छेदनार्थत्त्वात्।। अधुनैषामागमानुसारिणामागमाऽसारत्वप्रदिपादनायाहएत्थ वि तेसिं नो निकरणाए / (सूत्र-२९) एतस्मिन्नपि- प्रस्तुते स्वागमानुसारेणाभ्युपगमे सति"कप्पइणे कप्पइ णे पाउं, अदुवा विभूसाए (26)" ति-एवं रूपस्तेषामयमागमो यद्गलादप्कायपरिभोगे ते प्रवृत्ता:स स्याद्वादयुक्तिभिरभ्याहत: सन् 'नो निकरणाए' त्ति-नो निश्चयं कर्तुं समर्थो भवति, न केवलं तेषां युक्तयो ननिश्चयाया- ऽलम्, अपित्वागमोऽपीत्यपिशब्दः / कथं पुनस्तेषामागमो निश्चयाय नालमिति, अत्रोच्यते-त एवं प्रष्टव्या:- कोऽयमागमो नाम? यदादेश: कल्पते भवतामप्कायारम्भः, त आहु:- प्रतिविशिष्टानुपूर्वीविन्यस्तवर्णपदवाक्यंसंघात आप्तप्रणीत आगम: नित्योऽकर्तृको वा ? ततश्चैवमभ्युपगते यो येन प्रतिपन्न आप्त: स निराकर्त्तव्यः / अनाप्तोऽसावप्कायजीवा-ऽपरिज्ञानात्तद्वधानुज्ञानाद्वा भवानिव। जीवत्वं चापां प्राक् प्रसाधितमेव / ततस्तत्प्रणीतागमोऽपि सद्धर्मधोदनायामप्रमाणम्, अनाप्तप्रणीतत्वत्, रथ्यापुरुषवाक्यवत्। अथ नित्यो- ऽकर्तृक: समयोऽभ्युपगम्यते ततो नित्यत्वं दुष्प्रतिपादम् / यत: शक्यते वक्तुंभवदभ्युपगत: समयः, सकर्तृको वर्णपदवा- क्यात्मकत्वात्, विधिप्रतिषेधात्मकत्वात्, उभयसम्मतसकर्तृ- कग्रन्थसन्दर्भवदिति / अभ्युपगम्य वा ब्रूम:-अप्रमाणमसौ, नित्यत्वादाकाशवत्, यच्च प्रमाणं तदनित्यं दृष्ट प्रत्यक्षादि- वदिति / तथा विभूषासूत्रावयवेऽपि पृष्टा न प्रत्युत्तरदाने क्षमाः, यतियोग्यं स्नानं न भवति, कामाङ्गत्वात्, मण्डनवत् / कामाङ्गता च सर्वजनप्रसिद्धा / तथाचोक्तम्- "स्नानं मददर्पकर, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम्। तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः" // 1 // शौचार्थोऽपि न पुष्कलो वारिणा बाह्यमलापनयनमात्रत्वात् ह्यन्तर्व्यवस्थितकर्ममलक्षालनसमर्थ वारि न दृष्टं, तस्माच्छरीरवाड्नसामुकुशलप्रवृत्तिनिरोधो भावशौचमेव कर्मक्षयायाऽलम् / तचवारिसाध्यं न भवति, कुतः? अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात्सर्वभावानाम्। न हि मत्स्यादय: तत्र स्थितामत्स्यत्वादि कर्मक्षयभाक्त्त्वे नाप्यभ्युपगम्यन्ते, विना च वारिणा महर्षयो विचित्रतपोभि: कर्म क्षपयन्तीति अत:स्थितमेतत्तत्समयो न निश्चयाय प्रभवतीति। तदेवं नि:सपत्नपां जीयत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रवृत्तिनिवृत्तिविकल्पफलप्रदर्शनद्वारणोपसंजिहीर्षुः सकलमुद्देशार्थमाह एत्थ सत्थं समारंभमाणस्सइओएआरंमा अपरिण्णाया भवंति।। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इचेते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिण्णाय मेहावी व सयं उदयसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहि उदयसत्थं समारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारंभंतेऽवि अण्णे ण समणुजाणेज्जाजस्सेते उदयसत्थसमारंभापरिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मेत्ति बेमि। (सूत्र-३०) एतस्मिन्नप्काये शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारभमाणस्यैते समारम्भा बन्धकारणत्वेनाऽपरिज्ञाता भवन्ति / अत्रैवाऽप्काये शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भा ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति / प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति, तामेव प्रत्याख्या-नपरिज्ञां विशेषतोज्ञपरिज्ञापूर्विकां दर्शयति-तदुदकारम्भणं बन्धायेत्येवं परिज्ञाय मेधावी- मर्यादाव्यवस्थितो नैव स्वयमुदकशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयेत् / नैवाऽन्यानुदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात्, यस्यैते उदकशास्त्र-समारम्भा द्विधापरिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा भवति। ब्रवीमीति पूर्ववत्। आचा.१ श्रु.१० ३ऊ। (10) अप्कायविहिंसननिषेध:आउक्कायं न हिंसंति, मणसा वयसों कायसा। तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिया // 29 // आउकायं विहिंसंतो, हिंसईओ तवस्सिए। तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे / / 30 / / तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवड्डणं / आउकायसमारंम्भ, जावजीवाइ वज्जए||३१|दश०६ अ / (11) अप्कायस्पर्शादिनिषेध:से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा संजयविरयपडि हयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसंवा हिमं वा महियं वा करगं वा हरितणुगं वा सुद्धोदगं वा उदउल्लं वा कायं उदउल्लं वा वत्थं ससणिद्धं वा कायं ससणिद्धं वा वत्थं न आमुसेज्जान संफुसेज्जा न विलेज्जा न पविलेज्जा न अक्खोडेज्जा न पक्खोडे ज्जा न आयाविज़्जा न पयाविज्जा, अन्नं न आमुसावेज्जान संफुसा वेज्जान विलावेज्जान पविलावेज्जा न अक्खोडावेज्जा न पक्खोडावेज्जा न आयावेज्जा न पयावेज्जा, अन्नं आमुसंतं वा संफुसंतं वा आविलंतं वा पविलंतं वा अक्खोडतं वा पक्खोडतं वा आयावंतं वा पयावंतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि / तस्स भंते! पडिक्कामामि निंदामिगरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। (सूत्र-११) 'से भिक्खू वा' इत्यादि, 'जावजागरमाणेव' त्ति-पूर्ववदेव 'से उदगं वेत्यादि, तद्यथा-उदकंवा अवश्यायवा हिमवामहिकांवा करकंवाहरतनुं शुद्धोदकंवा। (दश)(उदकादिपदानांव्याख्या अस्मिन्नेवशब्देआदौउक्ता) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्काय 32 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउक्खय तथा उदका वा कार्य उदकार्द्र वा वस्त्रम् उदकार्द्रता चेह गलद्विन्दुतुषारानन्तरोदितोदकभेदसम्मिश्रिता। तथा-सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वस्त्रम् अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्यय: स्निग्धेन सह वर्तते इति सस्निग्धं सस्निग्धता चेह विन्दुरहितान्तरोदितोदकभेदसम्मिश्रिता (अस्य सूत्रस्य संपूर्णा टीका महव्वय' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते) दश० 4 अ। (12) शीतोदकादिपरिषेवणनिषेधःसीओदकं न सेविज्जा, सिलावुन हिमाणिय। उसिणोदगं तत्तफासुयं,पडिगाहिज्ज संजए।।६।। शीतोदकं-पृथिव्युद्भवसचित्तोदकं न सेवेत! तथा-शिलावृष्ट हिमानि चन सेवेत / तत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते / वृष्ट-वर्षणं, हिम प्रतीतं, प्राय उत्तरापथे भवति। यद्येवं कथमयं वर्ततेत्याह-उष्णोदकंकथितोदक तप्तप्राशुकं तप्तं सत्प्राशुकं त्रिदण्डोद्वृत्तं नोष्णोदकमात्रं प्रतिगृह्णीयाद्वृत्त्यर्थ संयत:-साधुः / एतच्च सौवीराऽऽधुपलक्षणमिति सूत्रार्थः। तथा'उदउल्लं अप्पणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे। समुप्पेह तहाभूयं, नो णं संघट्टए मुणी // 7 // नदीमुत्तीर्णो भिक्षां प्रविष्टो वा वृष्टिहत: उदकाम् - उदकबिन्दुचितमात्मन: कायं-शरीरं स्निग्धं वा नैवपुञ्छयेत्- वस्त्रतृणादिभिर्न संलिखेत् पाणिना, अपितु-संप्रेक्ष्य- निरीक्ष्य तथाभूतमुदकार्दादिरूपं नैव कार्य संघट्टयेत् मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः / दश० 8 अ० (उदकतीरे निवासाऽऽदि- निषेध: 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) (अप्कायस्यबहु- वक्तव्यता 'पाणग' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (अप्कायस्य दर्पिका कल्पिका च 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते) (वस्त्र-धावनेऽप्कायप्रतिसेवनाया वक्तव्यता 'धावण' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) (उदकसन्तरणेऽप्कायप्रतिसेवनाया वक्तव्यता 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते) आउक्कायविहिंसग-त्रि (अप्कायविहिंसक) सचित्तजलवि- राधेक। ग०१ अधि। आउक्काल-पुं. (आयुष्काल) मृत्युकाले, आचा०१ श्रु० 8 अ ८ऊ। आउक्खय- पुं० (आयु:क्षय) / आयुष्कर्मपुद्गलनिर्जरणे, स्था० 8 ठा. 3 उ। आयुर्दलिकनिजरणे, नि०१ श्रु०५ वर्ग 1 अ। कर्मद्रव्यनिर्जरणे, विपा० 2 श्रु. 1 अ। कर्मणो दलिकनिजरणे, औ०। भ. (आयु:क्षयनिमित्तान्यध्यवसायादीनि 'आउ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतानि। ___क्षीणमायुर्जिनेन्द्रैरपि न वर्द्धयितुं शक्यम्, तथा चाहशक्रेण स्वामी विज्ञप्तो, यत् क्षणमायुर्वर्द्धयत येन भवत्सु जीवत्सु भवज्जन्मनक्षत्रं संक्रान्तो भस्मराशिग्रहो भवच्छासनं पीडयितुं न शक्नोति, ततोऽवश्यं प्रभुणोक्तम्-न खलु शक्र ! कदाचिदपीदं भूतपूर्व यत् क्षीणमायुजिनेन्ट्रैरपि वर्द्धयितुं शक्यते / कल्प. १अधि०२ क्षण। आयुष: क्षये चावश्यं जीवितनाश:("ताले जह" (6 गा.) इत्यादिकस्यार्थ: 'अणिचया' शब्दे प्रथमभागे विशेषतो दर्शित:) सूत्र०१ श्रु.२ अ०१ उ०। डहरा बुड्डा य पासह, गब्मत्था वि चयंति माणवा। सेणे जह वट्टयं हरे, एवमाउक्खयम्मि तुट्टती // 2 // डहरा- बाला एव केचन जीवितं त्यजन्ति / तथा- वृद्धाश्च गर्भस्था अप्येतत्पश्यत यूयं, केते? मानवा:- मनुष्यास्तेषामेवोपदेशदानार्हत्वात् मानवग्रहणम् बहपायत्वादायुषः; सर्वास्वप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्यजतीत्युक्तं भवति / तथाहि- त्रिपल्योपमायुप्कस्यापि पर्याप्त्यन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव कस्यचि- न्मृत्युरुपतिष्ठतीति / अपि चगर्भस्थम्- जायमानमित्यादि, अत्रैव दृष्टान्तमाह-यथा श्येन:पक्षिविशेषो वर्तकंतित्तिरजातीयं हरेत्- व्यापादयेदेवं प्राणिनः प्राणान् मृत्युरुपहरेत्, उपक्रमकारणमायुष्कमुपक्रामेत् / तदभावे वा आयुष्यक्षये त्रुठ्यति-व्यवच्छिद्यते:जीवानांजीवितमिति शेषः। सूत्र.१ श्रु२ अ०१ऊ। आयुष: क्षयमजानन्त आरम्भे प्रवर्त्तन्तेआउक्खयं चेव अबुज्जमाणे, ममेति से साहसकारि मंदे। अहोयराओ परितप्पमाणे, अढेसु मूढे अजरामरे व्व // 28 // आयुषो- जीवनलक्षणस्य क्षय आयुष्कक्षयस्तम्- आरम्भप्रवृत्त: छिन्नहृदमत्स्यवदुदकक्षये सत्यवबुध्यमानोऽतीव 'मम' इति ममत्ववानिदं मे अहमस्य स्वामीत्येवं स मन्द:- अज्ञ: साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारीति / तद्यथा- कश्चिद्वणि महाक्लेशेन महा_णि रत्नानि समासाद्योज्जयिन्या बहिरावासितः / स च राजचौरदायादभयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं च प्रवेशयिष्यामीत्येवं पर्यालोचनाऽऽकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान् अहन्येव रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुषै रत्नेभ्यश्च्यावित इति। एवमन्योऽपि किंकर्तव्यताकुल: स्वायुष: क्षयमबुध्यमान: परिग्रहेष्वारम्भेषु च प्रवर्तमान: साहसकारी स्यादिति। तथा कामभोगतृषितोऽह्नि रात्रौ च परि-समन्तात् द्रव्यार्थी परितप्यमानो 1 मम्मणवणिग्वदार्तध्यायी कायेनापि क्लिश्यते / तथा चोक्तम्-"अजरामरवद्वाल:, क्लिश्यते धनकाम्यया / शाश्वतं जीवितं चैव, मन्यमानो धनानि च // 1 // तदेवमार्तध्यानोपहतः "कइया वच्चइ सत्थो किं भंड कत्थ कित्तिया भूमी" त्यादि। तथा-"उक्खणइ खणइ णिहणइ, रत्तिं न सुयइ दिया वि य ससंको' इत्यादि। चित्तसंक्लेशात्सुष्ठु मूढो वणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहर्निशमारम्भे प्रवर्तते। सूत्र श्रु०१० अ० अहर्निशमायुष:क्षयमवबुद्धधर्मे यतितव्यम्पिच्छइ आउस्स खयं, अहोनिसं जिज्जमाणस्स।।१८।। (73) राइदिएण तीसंतु, मुहुत्ता नवसयाइँ मासेणं। 1- मम्मणवणिवृत्त 'मम्मण' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउक्खय 33 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउजीव हायंति पमत्ताणं, नय णं अबुहा वियाणंति / / 19 / / (74) तिन्नि सहस्से सगले, छच्च सए उडुवरो हरइ आउं| हेमंते गिम्हासु य, वासासु य होइनायव्वं // 20 / / (75) वाससयं परमाउं, इत्तो पन्नास हरइ निहाए। इत्तो विसए हायइ, वालत्ते वुड्डभावे य॥२९ / / (76) सीउण्हपंथगमणे, खुहा पिवासा भयं च सोगे य। नाणाविहाय रोगा, हवंति तीसाइ पच्छद्धे // 22 / / (7) एवं पंचासीई, नट्ठा पण्णरसमेव जीवंति। जे हुंति वाससइया, नयसुलहा वाससयजीवा // 23 / / (78) एवं निस्सारे मा गुसत्तणे जीविए अहिवडते। न करेह चरणधम्म, पच्छा पच्छाऽणुतप्पिह हा / / 24 / / (79) 'पिच्छह' ति-भो भव्या:! यूयं पश्यत- ज्ञानचक्षुषा वि लोकयत आयुष: क्षयमहोरात्र क्षीयमाणस्य समये समये आवीचीमरणेन त्रुट्यमानस्येति / / 18 / / 'राई' ति-अहोरात्रेण त्रिंशन्मूहूर्ता भवन्ति, मासेन नवशतानि 900 मुहूर्तानि, तानि प्रमत्तानां- मद्यादिप्रमादयुक्तानां 1 सुभूम- 2 ब्रह्मदत्तादीनामिव हीयन्ते न चाऽबुधा-मूर्खा विजानन्तीति / / 19 / / "तिन्नि' त्तित्रीणि सहस्राणि षट्शताधिकानि 3 सकलानि-संपूर्णानि मुहूर्तानि हेमन्ते -शीतकाले भवन्ति / एतत्प्रमाणमायुर्जीवानां हेमन्ते उडुवर:- सूर्यो हरति, एवं ग्रीष्मे वर्षासु च ज्ञातव्यं भवति / / 20 / / (तं.) 'वास' त्ति- सांप्रतं जीवानां परमायु:उत्कृष्टजीवितं वर्षशतं प्रवाहेण ज्ञातव्यम् / इतो वर्षशतात् निद्रया पञ्चाशद्वर्षाणि 50 हरति-गमयति, जीवः इत:शेषपशाशदर्षतः विंशतिवर्षाणि 20 हीयन्ते यान्ति-प्रमादिनाम् कथम् ?- बालत्वे दशकं 10. वृद्धत्वे दशकं 10 चेति // 21 / 'सीउ' त्ति-शीतोष्णपथगमनानि, तथा क्षुधा पिपासा भयंच शोकश्च नानाविधा रोगाश्च भवन्ति, त्रिंशत: पश्वार्द्ध त्रिंशत्पश्चा- पञ्चदशवर्षरूपं तस्मिन् को भावः? -शेषत्रिंशतः पशदश 15 वर्षाणि जीवानां शीतोष्णपथगमना-दिभिर्मुधा यान्तीति / / 22 / / एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पञ्चाशीतिवर्षाणि नष्टानि 85, धर्म विना विकथानिद्रालस्यवतां मुधा गतानि, कथम् ?- निद्रया पञ्चाशद्वर्षाणि (50), बालत्वे दश (10), वृद्धभावे दश (10), शीतादिभिः पञ्चदश (15) एवं सर्वाणि पञ्चाशीतिवर्षाणि (85), इति ये जीवा वर्षशतिका:- वर्षशतप्रमाणा भवन्ति ते जीवा पञ्चदश 15 वर्षाणि जीवन्ति, अन्यानि मृतप्रायत्वात्। न च वर्षशतजीविनो जीवा: प्राप्यन्ते। किंभूता: सुखेन- अनायासेन लभ्यन्ते इति सुलभाः; सर्वथा सुखिन इत्यर्थः / उक्तं च- "आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदद्ध गतं, तस्यार्द्धस्य परस्य चार्द्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः। शेषं व्याधिवियोगदु:खसहितं सेवादिभिर्नीयते, जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम्" / / 2 / 23 / / एवम्- उक्तप्रकारेण निस्सारे असारे मानुषत्वेमनुजत्वे तथा जीविते आयुषि रत्नकोटिको टिभिरपि अप्राप्ये अधिपतति; समये समयेक्षयंगच्छति सतीत्यर्थ: न कुरुत यूयं चरणधर्मज्ञानदर्शनपूर्वकं देशसर्वचारित्रं 'हा' इति- महाखेदे, पश्चाद्आयु:क्षयानन्तरम्- आयु:क्षयचरमक्षणे वा पश्चात्तापं कायवाङ्गनोभिर्महाखेदं करिष्यथ नरकस्थशशिराज्जवदिति // 24 / तं / / "समस्तसत्त्वसंघानां क्षयत्यायुरनुक्षणम् / आममल्लकवारीव, किं तथापि प्रमाद्यसि // 1 // पञ्चा०१ विवः / मरणे, प्रश्न.१ आश्रद्वार। उत्त आउक्खेम-न (आयु:क्षेम)। आयुष: क्षेममिति। आयुष: सम्यक्-पालने, जीविते च / आचा। जं किंचि वुक्कम जाणे, आउक्खेमस्स मप्पणो। तस्सेव अंतरऽद्धाए, खिप्पं सिक्खेज्ज पंडिए॥६॥ एतदुक्तं भवति- आत्मायुषो यत्क्षेमं- प्रतिपालनोपायं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षत्। (आचा.) यदिवा-आत्मन: आयुःक्षेमस्य- जीवितस्य / आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ। आउजीव- पुं. (अब्जीव) आप एव जीव:। स्थावरजीवविशेषे, अबाश्रितो वा जीव:। उदकाश्रिते जीवे च / सूत्र. 1 श्रु.११ अ। तद्भेदा यथादुविहा आउजीवाओ, सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ||84 || बायरा जे उपज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया। सुद्धोदये य उस्से य, हरितणु महिया हिमे // 5 // एगविहमनाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहुमा सव्वलोयम्मि, लोगदेसे य बायरा / / 6 / / तिसृणां गाथानामर्थ:- अब्जीवास्तु द्विविधा:- सूक्ष्माः, तथा बादरा अपि। पर्याप्ता, अपर्याप्ताश्च / एवमेते द्विविधा: पुनर्वर्तन्ते इति शेषः / / 84 // अथ पुनर्बादरा ये पर्याप्ता अब्जीवास्ते पञ्चधा प्रकीर्तिताः। (उत्त) तत्र सूक्ष्मा अप्कायजीवा एकविधा अनात्वात्तीर्थकरैव्याख्याताः। तत्र सूक्ष्मा अप्कायजीवा: सर्वस्मिन्- चतुर्दशरश्चात्मके लोके वर्तन्ते, बादरा अप्कायजीवा लोकस्यैकदेशे वर्तन्ते / / 6 / / , १-'सुभूम' वृत्तान्तं 'माण' शब्दे षष्ठे भागे विस्तरतो करिष्यते / २-ब्रह्मदत्तवृत्तं 'बंभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे करिष्यते / 3-3600 / / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउजीव 34 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउजियकरण संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया विय। ठिई पडुच साऽऽईया, सपज्जवसिया वि य / / 7 / / सन्तति- प्रवाहमार्गमाश्रित्य अप्कायजीवा अनादिका: पुनरपर्यवसिता अपि स्थिति- भवस्थिति, कायस्थितिं चाश्रित्य सादिकास्तथा सपर्यवसिता: अवसानसहिता अपिवर्तन्त / / 87 / / सत्तेव सहस्साइं, वासाणुक्कोसिया भवे। आउठिई आऊणं, अंतोमुहूत्तं जहन्नियं / / 8 / / अपाम्- अप्कायजीवानां सप्तैव सहस्राणि वर्षाण्युत्कृष्टा आयुष: स्थितिर्भवेत्, जघन्यत: अन्तर्मुहूर्तं भवेत्॥१८॥ असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहणिया। कायठिई आऊणं,तं कायं तु अमुचओ // 89 / / अपाम्-अप्कायजीवानां तं स्वकायमर्थात्-अप्कायममुञ्चता- मुत्कृष्टा कायस्थिति: असंख्यकालं भवति जघन्या कार्यस्थितिरन्तर्मुहूर्त भवति। अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं / विजढम्मि सएकाए, आउजीवाण अंतरं / / 9 / / अब्जीवानां स्वकीये काये त्यक्ते सति अपरस्मिन् काये उत्पद्य पुनः स्वकीये काये उत्पत्ति: स्यात्तदा उत्कृष्टमन्तरमनन्तकालं भवति / जघन्यकमन्तरम्- अन्तर्मुहूर्त भवति / वनस्पतिकाये जीवोऽनन्तकालं तिष्ठति तदा अनन्तकालमन्तरं भवति, इति भावः / एएसिं वन्नओचेव, गंधओ रसफासओ। संठाणाऽऽदेसओ वा वि, विहाणाइ सहस्ससो।।९।। एतषाम् - अप्कायजीवानां वर्णतो गन्धत: रसत: स्पर्शतः संस्थानाऽऽदेशतश्चापि- संस्थाननामतश्चापि सहस्रशो-बहवो भेदा भवन्ति / / 11 / / उत्त०३६ अ। अब्जीवानां च प्रत्येकशरीरिता।"पुढोसत्ता आउजीवा'' प्रत्येकशरीरत्वा त्पृथक्- प्रत्येकं सत्त्वा:- प्रत्येकशरीरिणोऽवगन्तव्याः / सूत्र०।१ श्रु.११ अ। आउज्ज- न० (आतोद्य) आ-समन्तात् तुद्यते। आतुदण्यत् / वीणादौ वाद्ये, आचा०१ श्रु०१ अ५ उ०। स्था.। अनु। आवाजी। तच द्विविधम्ततविततभेदात्। ततविते अपि द्विविधे-घन-शुषिरभेदात्। स्था०२ ठा. ३ऊ। चतुर्विधम्- ततविततघनशुर्षिरभेदात्। बृ.१ऊ। "ततं वीणादिकं ज्ञेयं !, विततं पटहादिकम् / घनं तु कांस्यता लादि, वंशादि शुषिर मतम् ||1|| इति विवक्षाप्राधान्याच न विरोधो मन्तव्य: / स्था०२ ठा० ३ऊा आचा। आतोद्यस्य 49 भेदा:तते णं से सूरियाभे देवे अट्ठसयं संखाणं विउव्वति। अट्ठ सयं संगाणं विउव्वइ / अट्ठसयं संखियाणं विउव्वइ / अट्ठसयं खरमुहीणं विउव्वइ / अट्ठसयं पेयाणं विउव्वइ / अट्ठसयं पिरिपिरियाणं विउव्वति / एवमाइयाणं एगोणवणं आउज्जविहाणाई विउव्वति। 'एवमाझ्याणं' ति-आदिशब्देन-* पणव 6 पटह७ भम्भा८होरम्भा९ भेरी 10 जल्लरी १९दुन्दुभी 12 मुरुज१३मृदङ्ग 14 नंदीमृदङ्ग१५आलिङ्ग 16 कुस्तुम्ब 17 गोमुखी 18 मईल 19 विपञ्ची 20 वल्लकी 21 भ्रमरी 22 भ्रामरी 23 परिवादिनी२४ चर्चसा 25 सुघोषा 26 नंदीधोषा 27 महती 28 कच्छपी 29 चित्रवीणा 30 आमोद 31 डण्डा 32 नकुल 33 तूणा 34 तुम्बवीणा 35 मुकुंद 36 हुडुक्क 37 विचिकी 38 करटी 39 डिण्डिम 40 किणित 41 कण्ड्या 42 दर्दरक 43 दर्दरिका 44 कुसुम्बर 45 कलशिका 46 तल 47 ताल 48 कांस्यताल 49 रिंगिसिका 50 मङ्गरिका 51 शुशुमारिका 52 वंश 53 चाली 54 वेणु 55 पिरिली 16 बद्धका: 57 प्रदर्शिता:*) अव्याख्यातास्तु भेदा: लोकत: प्रत्येतव्या: एवमादीनि बहून्यातोद्यानि विकुर्वन्ति सर्वसंख्यया तु मूलभेदापेक्षया अतोद्यभेदा एकोनपञ्चाशत्। शेषास्तुभेदास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति यथा वंशातोद्यविधाने चालीवेणुपिरिलीबद्धकाः / रा०। *'जट्ट' शब्दे 4 भागे विशेषः / *आवर्ज-पुं.(आवर्जनमावर्ज:)अभिमुखीकरणे, आवय॑तेऽभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति- शुभमनोवाक्कायव्या पारविशेषे च / उक्तञ्च"आवज्जणमुवओगो वावारो वा' (३०५१विशे.) इति, आवय॑तेअभिमुखीक्रियत, इति घञ्। अभिमुखीकर्तव्ये, त्रिका प्रज्ञा० 36 पद। *आवयं-त्रि आवद्युत इतिघ्यण। अभिमुखीकर्तव्ये, आ.म.१ अ / आउज्जण-न. (आवर्जन) अभिमुखीकरणे, शुभमनोवाक्काय- व्यापार च। प्रज्ञा० 36 पद। विशे। आउज्जसद्द-पुं. (आतोद्यशब्द) नोभाषाशब्दविशेषे, स्था०२ठा०३ऊ। सच वेणुवीणामृदङ्गादीनां यो शब्द: / जी०३ प्रति०४ अधिक। तद्भेदादिआउज्जसद्दे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा- तते चेव, वितते चेव। तते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-घणे चेव, सुसिरे चेव / एवं वितते वि। (सूत्र-८१) (ततविततादिकमातोद्यभेद: 'आउज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे प्रदर्शित:) तज्जनित: शब्दस्ततो घन: शुषिरश्चेति व्यपदिश्यते। स्था०२ ठा०३ उड़ा (अस्य चतुर्विधत्वम् चतुर्विधातोद्यजनि-तत्वात्। आतोद्यस्य बहवो भेदा: 'आउज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेव दर्शिता.)। आउज्जिय-पुं० (आयोगिक)। उपयोगवति ज्ञानिनि, भा२श५ उ०। *आवर्जित- त्रि. (आ.वृज् णिच् क्त)। अभिमुखीकृते तथा च लोके वक्तार:- आवजितोऽयं मया:, सम्मुखीकृत इत्यर्थः / प्रज्ञा० 36 पद। पं.सं.। दत्ते, त्यक्ते, निम्नीकृते च। वाच।। आउज्जियकरण- न. (आवर्जितकरण) / आवर्जितस्य करणमिति केवलिसमुद्घातात्पूर्वं क्रियमाणे शुभयोगव्यापारणे, तब भव्यत्वेनावर्जितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य शुभयोव्यापारणम् / प्रज्ञा० 36 पद। पं० सं०। (अत्रत्या वक्तव्यता आउज्जीकरण' शब्देऽग्रे वक्ष्यते) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउजिया 35 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि आउज्जिया-स्त्री. (आयोजिका) भावे वुञ् / व्यापारणे, आ०म०१ अ०। __ओघ / असंजएहिं सद्धं वसंताणं आउज्जो- वणवणियादिदोसा भवंति। आउज्जियाकरण- न. (आयोजिकाकरण) / आङ्- मर्यादया नि.यू.२ उ कचलिदृष्ट्या योजन-शुभानां योगानां- व्यापारणम्। भावे बुञ् / तस्य *आउट्ट- पुं (आउद्द) करणे, अयमेतादृश एव सैद्धान्तिको धातुः / कल्प० करणमिति / केवलिसमुद्घातात्पूर्व क्रियमाणे शुभव्यापा- रात्मके ३अधि० 1 क्षण। आउट्टन्ति णाम करेंति। निचू०३ उ० / क्रियाविशेषे, प्रज्ञा० 36 पद / आ. म०। पं.सं.। *आकुट्ट-पुं आकुट्टनमाकुट्टः आ-कुट्ट-घञ्। छेदने, हिंसायां च / सा आउज्जीकरण- न. (आवर्जीकरण) आवर्जनमावर्जः तस्य चात्र प्राण्यवयवानां छेदनभेदनादिरूपो व्यापारः। सूत्र०१ श्रु.१ अ०२ऊ। करणमिति विवक्षायां चिप्रत्यय: / केवलिसमुद्घातात्पूर्व क्रियमाणे *आतुष्ट-त्रि, सन्तुष्टे, नि चू१ऊ। आत्मानं प्रति मोक्षस्याभिमुखीकरणेनात्मनो मोक्षं प्रत्युपयोजनकरणे, *आवृत्त - त्रि, आ-समन्ताद् वृत्त इति। समन्ताव्यवस्थिते आचा. 1 आवय॑तऽभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति आवर्जस्तस्य करणमिति श्रु०७ अ.४ऊ, परावृत्ते, प्रतिनिवृत्ते च। वाच / 'आउट्टे" 0(21 गाथा) विवक्षायां विप्रत्ययः / के वलि- समुद्धातात्पूर्व क्रियमाणे आवृत्ते-आवृत्तपरिणामे साधाविति। पंचा०१६ विव०।। समन्तात् हिसायां शुभमनोवाक्कायव्यापारविशेषकरणे, प्रज्ञा, 36 पद / आवय॑ते प्रवृत्ते, 'आउट्टामो' प्रवर्तामहे। हिंसायाम्। आचा.१ श्रु०९अ०१ उा पुन: इत्यावर्ज: घञ्, तस्य करणमिति च्चि: / केचलिसमुद्धातात्पूर्व क्रियमाणे मोक्षे प्रत्यभिमुखीकर्त-व्यस्य करणे, तचान्तौहूर्त्तिक उदयावलिकायां पुनरभ्यासे, आवर्त्यमाने च। वाच।। कर्मपुद्रल- प्रक्षेपव्यापाररूप उदीरणाविशेषः / आम 1 अ। औ०। आउदृत-त्रि. (आउदृत) / कुर्वन्ति, कल्प०३ अधि०१ क्षण। नि. चूछ। स्था,। कर्म। पं, सं। आउट्टण-न०(आउट्टन)करणे, कल्प०३ अधिः 1 क्षण। नि, चूछ। आवर्जीकरणञ्च *आकुट्टन- न० (हिंसायाम्), सूत्र 1 श्रु०१ अ २ऊ। आ०म०। कइसमइए णं भंते ! आउज्जीकरणे पण्णत्ते, गोयमा ! *आवर्तन्- न अभिलाषायाम् आचा०२ श्रु०७अ०१ऊ। आराधनायाम्, असंखिज्जसमइए, अंतोमुहुत्तिए आउज्जीकरणे पण्णत्ते / व्य, 'कहणाऽऽउट्टण आगमण- पुच्छणं दीवणा य कज्जस्य" (सूत्र-३४६) (५१४गाथा)। आवर्तनम्- आकम्पनं राज्ञो भक्तीभवनम् / व्य, २ऊ। सर्वोऽपि केवली केवलिसमुद्घातं गच्छन् प्रथमत आवर्जीकरणम् नि० चू। आवर्जने, व्य० 10 ऊ / अभिमुखीभूय वर्त्तने, नं० 32 सूत्र / उपगच्छति। तथाच-केवलिसमुद्घातप्रक्रियां विभणिषुः समुद्घातशब्द- निवर्तने, सूत्र 1 श्रु०१० अ। आवर्तते पूर्वभावतो निवृत्त्यान्यभावव्याख्यानपुरस्सरमाह भाष्यकार: (प्रज्ञा० 36 पद।) प्रतिपत्त्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन स आवर्त्तः / पुं. तथावर्तने, तत्थाउयसेसा हिय-कम्मसमुग्घायणं समुग्घाओ। ईहातो निवृत्त्यापायभावप्रतिपत्त्यभिमुखीभूय वर्तनस्य हेतो, तं गंतुमणा पुव्वं, आउज्जीकरणमज्जेइ / / 3050 / / बोधपरिणामे च। नं.३२ सूत्र। आवज्जणमुवओगो, वावारो वा तदत्थमाईए। आउट्टणया- स्त्री. (आवर्तनता) आवर्ततेऽभिमुखीभूय वर्त्तते येन स तथा अंतोमुत्तमेत्तं, काउं कुए समुग्घायं / / 3051 / / तद्भावस्तत्ता। आभिनिबोधिकज्ञानावशेषस्यापायस्य नामधेयविशेषे, तत्रायु:शेषाणाम्-अधिकस्थितिकानां वेदनीयादिकर्मणां समुद्धातनं सा चेहातो निवृत्त्यापायभावप्रतिपत्त्यभिमुखी- भूय वर्त्तते, हेतुभूता समुद्धात:, तं च गन्तुमना:- प्रारिप्सुः पूर्वमावर्जी- करणमभ्यति बोधपरिणामता। नं.३२ सूत्र! विदधाति। कथंभूतं तदिति ? उच्यते-तदर्थम्- समुद्धातकरणार्थमादौ / आउट्टणा- स्त्री० (आवर्तना) आराधनायाम: नि.चू० 2 उ / आकम्पने, केचलिन उपयोगी मया अधुनेदंकर्तव्य- मित्येवंरूप उदयावलिकायां व्य.२ उा आवर्जने, "आउट्टऊण अत्तीकरेइ" आवय॑आवात्मीकर्मप्रक्षेपरूपो व्यापारो वा आवर्जनमुच्यते / तस्यैवं भूतस्य करोति। व्य. 10 उ.। करणमावीकरणं तदन्त-मुहूर्त्तमात्रं कालं कृत्वा तत: समुद्धातं कुरुत। आउट्टावण-न. (आवर्तन) अभिमुखीकरणे, आचा०२ श्रु.१ चू.२ अ०१ विशे। उ। आउज्जोवण- न० (अब्योजन)। अप्काययंत्रयोजने, ओघ। आउट्टि- स्त्री. (आउट्टि)। करणे,"आउट्टत्ति णाम करेंति'''आउट्टि' तेषां हि सशब्दं बृजतामेते दोषा: धातु: करणार्थे सैद्धांतिक: / कल्प, 3 अधि०१ क्षण। निचू।। आउज्जोवणवणिए, अगणि कुडुंबीकुकम्मकुमरीए। *आकुट्टि-स्त्री। (हिंसायाम्) आचा०१ श्रु०९अ० 1 उ। इदं करोमीत्येव तेणे मालागारे, उन्भामगपंथि एजंते / / 90 / / ब्रुध्वोपेत्य करणे, जीत।। सा ध०। प्रक। पं. व.। आव। 'आउट्टिया' ते हि यदि सशब्दं ब्रजन्ति ततश्च लोको विवुध्यते, विबुद्धश्च सन् नाम आभोगे जानान इत्यर्थः / बृ०३ उ०। (आकुट्यां धर्मरुचेरुदाहरणम्'आउज्जोवण त्ति-अप्काययन्त्राणि योज्यन्ते वहनाय सज्जीक्रियन्ते। | 'आता' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 36 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि आवृत्ति- स्त्री० (आ-वृत-क्तिन्)। समन्तात्प्रवर्तन, आचा०२ श्रु.१५०१ राशित्रयस्थापना- (183) (1) (1830) अत्रान्त्येन राशिना मध्यमस्य अ०३ उ। अभिलाषायाम्, आचा०२ श्रु२ चू, 60 अ। आराधनायाम, राशेर्गुणनम्, एकस्य च गुणेन तदेय भवतीति जातान्यष्टादशशतानि राज्ञो भक्तीभवनम् / व्य. २ऊ। नि० चू। आवर्जने, व्य. 10 उ० / त्रिंशदधिकानि (1830) तेषामायेन राशिना त्र्यशीत्यधिके न शतेन अभिमुखीभूय वर्तते, नं। निवर्त्तने, सूत्र०१ श्रु०१० अापुन:पुनरभ्यासे, भागहरणं, लब्धा दश 10 / आगतं युगमध्ये सूर्यस्य दश 10 अयनानि भूय एकजातीयक्रियाकरणे, "आवृत्ति: सर्वशास्त्राणां, बोधादपि भवन्तीति आवृत्तयोऽपि दश 10 // तथा यदित्रयोदशभिर्दिवसैश्चतुश्चागरीयसी" / प्रत्यावृत्तौ, पुनरागतो, वाचः / सूर्य्यस्य चन्द्रस्य च भूयो रिंशता च सप्तषष्टिभागैरेकं चन्द्रस्यायनं भवति ततोऽष्टादशभिर्दिवसभूयो दक्षिणोत्तरगमने, सू, प्र० 12 पाहु / चं. प्र.।ज्यो। आवृत्तयो द्विधा। शतैस्त्रिंशदधिकै कति चन्द्रायनानि भवन्ति? राशित्रयस्थापना-१३, 44 तद्यथा- एका: सूर्यस्यावृत्तयः, अपराश्चन्द्रमसः / तत्र युगे सूर्य्यस्यावृत्तयो 67(1) / (1830) / तत्राद्ये राशौ सवर्णनाकरणार्थ त्रयोदशाऽपि दिनानि दश भवन्ति, चतुस्विंशच्दछतमावृत्तीनां चन्द्रमसः / सू०प्र० 12 पाहु.। सप्तषष्ट्या गुणयित्वा चोपरितना: चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा: चं, प्र। प्रक्षिप्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (995) यनि तत्र (5 वर्षात्मकेयुगे) सूर्यस्य दशाऽऽवृत्तयः चाष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि- (1830) तान्यपि सवर्णनाकरणार्थ तत्थ खलु इमातो पंच वासिक्कीओ, पंच हेमन्तीओ सप्तषष्ट्या 67 गुण्यन्ते, जातानि द्वादश लक्षाणि द्वे सहस्रे षट् शतानि आउट्टीओ पण्णत्ताओ। (सूत्र-७६) दशोत्तराणि (1202610) तत्रैवंरूपेणानेन राशिना मध्यमस्य राशेरेककरूपस्य गुणनम्, एकस्य च गुणने तदेव भवतीत्येतावानेव 'तत्थ खलु' इत्यादि- तत्र युगे खलु इमा- वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च राशिर्जात:, तस्य नवभि: शतैः पञ्चदशोत्तर:- 915 भागो हियते लब्धं वार्षिक्य:, पञ्च हेमन्त्यः- शीतकालभाविन्य: सर्वसंख्यया दश आवृत्तयः चतुस्त्रिशं शतम् १३४एतावन्ति चन्द्रायनानि युगगध्ये भवति, एत्येतावत्य: सूर्य्यस्य प्रज्ञप्ताः / सू०प्र० 12 पाहु०। चं.प्र.। 134 चन्द्रमस आवृत्तयः / ज्यो०१२ पाहु। चं प्र०। सू.प्रा एतस्योपपत्तिं वक्तुकाम आह संप्रति का सूर्यस्यावृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति चिन्तायां एत्तो आउट्टीओ, वोच्छं जह य क्कमेण सूरस्स। यत्पूर्वाचार्यरूपदर्शितं करणं तदुपदर्श्यते (सू०प्र० 12 पाहु०)चंदस्य य लहुकरणं, जह दिटुं सव्वदंसीहिं / / 231 / / आउट्टीहिं एगुणियाहिँ, गुणियं सयं तु तेसीयं / इत:- अयनविभागप्रतिपादनान्तरं सूर्यस्य चन्द्रस्य च आवृत्ती यो जेण गुणियं तं तिगुणं, रूवहियं पक्खिवे तत्थ / / 239 / / भूयो दक्षिणोत्तरगमनरूपा यथाक्रमेण- परिपाट्या वक्ष्यामि, तासां चाऽऽवृत्तीनां प्रतिनियतप्रथमदिवसपरिज्ञानाय यथा दृष्टं सर्वदर्शिभि: पन्नरसलाइयम्मि उ, जं लद्धं तं तेसु होइ पव्वेसु / सर्व स्तथा करणम्-लघूपायं वक्ष्ये। जे अंसा ते दिवसा, आउट्टी एत्थ बोधव्वा / / 240 / / प्रतिज्ञातमर्थ निर्वाहयितुकाम: प्रथमत आवृत्ती: प्रतिपादयति अनयोाख्या- आवृत्तिभिरेकोनिकाभिर्गुणितं शतं त्र्य शीत्यधिकम्, / किमुक्तं भवति-या आवृत्तिर्विशिष्टतिथियुक्ता ज्ञातुमिष्टा सूरस्सय अयणसमा, आउट्टीओ जुगम्मि दस होति। तत्संख्या एकोनिका क्रियते / ततस्तयात्र्य- शीत्यधिकं शतं गुण्यते, चंदस्य य आउट्टी, सयं च चोत्तीसयं चेव // 232 / / गुणयित्वा व येनाऽथेन गुणितं त्र्यशीत्यधिकं शतं तदङ्कस्थानं त्रिगुणं सूर्यस्य- आदित्यस्य युगे च चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धित- चन्द्राभिवर्द्धित कृत्वा रूपाधिकं सत्तत्रपूर्वराशौ प्रक्षिप्यते, तत: पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते, संवत्सरपञ्चकपरिमाणे आवृत्तयः यथोदितस्वरूपा अयनसमा भवन्ति। हृतेच भागे यल्लब्धं तत्तेषु तावत्संख्याकेषु पर्वस्वतिक्रान्तेषु सा विवक्षिता अयनप्रथमप्रवृत्तेरावृत्तिशब्दवाच्यत्वात्, ताश्च कति संख्या:? इत्याह आवृत्तिर्भवति, येत्वंशा: पश्चादुर (द्ध) रितास्ते दिवसा: ज्ञातव्याः। तत्र दश। तेषु दिवसेषु मध्ये चरमदिवसे आवृत्तिर्भवतीति भावः, इहावृत्तीनामेवं तथा चन्द्रस्यावृत्तीनां शतं चतुस्त्रिंशदधिकम, 134 अयनानां हि प्रथमा: क्रमोयुगे-प्रथमा आवृत्तिः श्रावणे मासे, द्वितीया माघे मासे, तृतीया भूय: प्रवृत्तय आवृत्तिशब्दवाच्याश्चन्द्रस्य वा अयनान्येतावत्यो भवन्ति, श्रावणे मासे, चतुर्थी माघमासे, पुनरपि पञ्चमी श्रावणे, षष्ठी माघमासे, तदावृत्तयोऽप्येतावत्य एव / अथैकस्मिन् युगे सूर्यस्य दशायनानि भूय: सप्तमी श्रावणे, अष्टमी माघमासे, नवमी श्रावणमासे, दशमी माघमासे भवन्तीति, कथमवसीयते सूर्यस्याऽऽवृत्तयो युगे दश भवन्ति, इति। तत्र प्रथमा किल आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिज्ञासा तदा चन्द्रमसश्वाऽऽवृत्तीनां चतुरिंत्रशच्छतमिति 134, उच्यते-उक्तं नाम प्रथमावृत्तिस्थाने एकको ध्रियतेसा रूपोना क्रियते इतिन किमपि पश्चाद्रूपं आवृत्तयस्तयोर्दक्षिणोत्तरगमरूपाः तत: सूर्यस्य चन्द्रमसो वा प्राप्यते, तत: पाश्चात्ययुगभाविनी या दशमी आवृत्तिस्तत्संख्या दशकरूपा यावन्त्ययनानितावत्य आवृत्तयः, सूर्यस्य चायनानिदश, एतच्चावसीयते ध्रियते, तया त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि त्रैराशिकबलात, तथाहि-यदि दिवसेनत्र्यशीत्यधिकेन शतेन एकमयनं त्रिंशदधिकानि 1830, दशकेन किल गुणितं त्र्यशीत्यधिकं शतमिति / भवति ततोऽष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकै कति अयनानि लभ्यन्ते, / तत:ते दश 10 त्रिगुणीक्रियन्ते,जातात्रिंशत् 30 / सा रूपाधिका Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 37 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि विधेया, जाता एकप त्रिंशत्, सा पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातान्यष्टादश- द्वितिया- बहुलस्य- बहुलपक्षस्य सम्बन्धिनि त्रयोदशीरूपे दिवसे२, शतान्येकषष्ट्यधिकानि- १८६१,तेषां पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते लब्धं तृतीया-शुद्धस्य- शुक्लपक्षस्य दशम्याम् 3, चतुर्थी-बहुलपक्षस्य चतुर्विशतिशतं शेषं तिष्ठति एक रूपम् आगतम् चतुर्विंशत्यधिकपर्व- सप्तम्याम्४, शुद्धस्यशुक्लपक्षस्य चतुर्थ्यां प्रवर्त्तते पंञ्चमी-आवृत्ति: 5, शतात्मकेपाश्चात्ये युगे अतिक्रान्ते, अभिनवे युगे प्रवर्त्तमाने प्रथमावृत्ति: एता सर्वा अप्यावृत्तयः श्रावणे मासे वेदितव्याः / ज्यो०१२ पाहु। प्रथमायां तिथौ प्रतिपदि भवतीति / तथा कस्यां तिथौ द्वितीया अधुना माघमासे भाविन्य आवृत्तयो यासु तिथिषु भवन्ति ता माघमासभाविनी आवृत्तिर्भवतीति यदि जिज्ञासा ततो द्विको घ्रियते स अभिदधातिरूपोन: कृत इतिजात: एककस्तेन त्र्यशीत्यधिकं शतं गुण्यते, 'एकेन च बहुलस्स सत्तमीए, पढमा सुद्धस्स तो चउत्थीए। गुणितं दतेव भवति' इति जातंत्र्यशीत्यधिकमेव शतम् 183, एकेन गुणितं बहुलस्स य पाडिवए, बहुलस्स य तेरसी दिवसे / / 236 / / किल त्र्यशीत्यधिकं शतमिति / एक: त्रिगुणीक्रियते, जातस्त्रिक: स सुद्धस्स य दशमीए पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। रूपाधिक: क्रियते जाताश्चत्वारः 4, ते 4 पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातं एया आउट्टीओ, सव्वाओ माघमासम्मि॥२३७ / / सप्ताशीत्यधिकं शतम् 187, तस्य पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते लब्धा द्वादश, शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, आगतंयुगेद्वादशपर्वस्वतिक्रान्तेषु माघमासे बहुलपक्षे माघमासे प्रथमा आवृत्ति:- बहुलस्य- कृष्णपक्षस्य सप्तम्यां भवति 1, द्वितीया-शुद्धस्य-शुक्लपक्षस्य चतुर्थ्याम् 2, तृतीया- बहुलपक्षस्य सप्तम्यां तिथौ द्वितीया माधमासे- माघमासभावीनानां तु मध्ये प्रथमा प्रतिपदि 3, चतुर्थी:- बहुलपक्षस्य त्रयोदशीदिवसे भवति 4, पञ्चमी आवृत्तिरिति / तथा तृतीया आवृत्तिः कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां शुक्लपक्षस्य दशम्यां प्रवर्तते 5, एता: सर्वा अप्यावृत्तयो माघमासे त्रिको ध्रियते, स रूपोन: क्रियते इति जातो द्विकस्तेन त्र्यशीत्यधिक भवन्ति / ज्यो०१२ पाहु। शतं 183 गुण्यते जातानि षट्षष्ट्यधिकानि त्रीणि शतानि (366) द्विकेन किल गुणितंत्र्यशीत्यधिकशतमिति। द्विकस्त्रिगुणीक्रियते जाता: षट्ते एतासु सूर्यावृत्तिषु चन्दनक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमभिधिरूपाधिका: क्रियन्ते, जाता: सप्त, ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि त्सुस्तद्विषयं ध्रुवराशिमाहशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि-३७३ तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते पंचसया पडिपुण्णा, तिसुत्तरा नियमसो मुहुत्ताणं / लब्धाश्चतुर्विशतिः 24; शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोदश-१३ अंशाः, आगतं युगे छत्तीस विसट्ठिभागा, छच्चेव य चुण्णिया भागा ||241 / / तृतीयावृत्तिः श्रावणमासभाविनी नां तु मध्ये द्वितीया चतुर्विंशतिपर्वात्मके ज्यो०१२ पाहु.! प्रथमे संवत्सरेऽतिक्रान्ते श्रावणमासे बहुलपक्षे (ज्यो०१२ पाहु.) त्रयोदश्यां पञ्चशतानि त्रिसप्ततानि-त्रिसप्तत्यधिकानि परिपूर्णानि मुहूर्तानां तिथौ भवतीति, एवमन्यास्वप्यावृत्तिषु करणवशाद्विवक्षितास्तिथयः भवन्ति षट्त्रिंशच्च द्वाषष्टिभागाः / षट् चैव चूर्णिका भागा: एकस्य आनेतव्याः, ताश्चमा: युगे चतुर्थी माघमासभावनीनां तु मध्ये द्वितीया द्वाषष्टिभागस्य सत्का: षट्सप्तषष्टिभागा: इत्यर्थः एतावान् विवक्षितकरणे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां पञ्चमी / श्रावण मासभाविनीनां तु मध्ये ध्रुवराशिः। कथमस्योत्पत्तिरिति चेत्? उच्यते-इह यदि दशभिः सूर्यायनैः तृतीया, श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशम्या षष्ठी, माघमासभाविनीनां तुमध्ये सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तत एकेन सूर्याऽयनेन किं लभामहे? तृतीया माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपदि सप्तमी। श्रावणमासभाविनीनां तु राशित्रयस्थापना- (10) (17) (1) अत्रान्त्येन राशिना एककेन मध्ये चतुर्थी श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तम्यामष्टमी। माघमासभाविनीनां मध्यस्यराशेः सप्तषष्टिलक्षणस्य गुणने "एकेन च गुणितं तदेव लब्धं तु मध्ये चतुर्थी माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदश्यां नवमी / श्रावणमास- भवतीति" जाता सप्तषष्टिः (67) तस्य दशभिर्भागहारे लब्धा: षट्६ भाविनीनां तु मध्ये पञ्चमी, श्रावणमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यां दशमी। पर्याया:, एकस्य च पर्यायस्य सप्तदश 17 भागा ये च सप्तमस्य पर्यायमाधमासभाविनीनां तु मध्ये पञ्चमी माघमासे शुक्लपक्षे दशम्याम् तथा स्यसप्तदशभागा 17 तद्गतमुहूर्तप्रमाणमधिकृतगाथायामुपन्य-स्तम् / अथ चैता एव पञ्चानां श्रावणमासभाविनीनां पञ्चमीनां तु माघमासभाविनीनां कथमेतदवसीयते एतावन्तस्तत्र मुहूर्ता भवन्ति ? इति चेदुच्यतेतु तिथयोऽन्यत्राप्युक्ताः / चं०प्र० 12 पाहु. 76 सूत्रटी०। त्रैराशिककर्मचिन्ताबलात्तथा हियदि दशभिभगि: सप्तविंशतिदिनानिएकस्य सम्प्रति या सूर्यस्यावृत्तिर्यस्मिन् दिने भवति तां तथा प्रतिपादयति च दिनस्य एकविंशति: सप्तषष्टिभागालभ्यन्तेतत: सप्तभिर्भाग: किलभामहे? रात्रित्रयस्थापना- (10-27, 21-67 7) अत्रान्त्येन राशिना सप्तक 7 पढमा बहुलपडिवए, बिझ्या बहुलस्स तेरसीदिवसे। लक्षणेन मध्यस्य राशे: सप्तविंशति 17 दिनानि गुण्यन्ते जातं नवाशीसुद्धस्स य दसमीए, बहुलस्स य सत्तमीए उ॥२३३ / / त्यधिकं शतं (189) तस्याद्येन राशिना दशक 10 लक्षणेन भागे हृते लब्धा सुद्धस्स चउत्थीए, पवत्तए पंचमी उ आउट्टी। अष्टादश (18) दिवसास्ते च मुहूर्तानयनाय त्रिंशता 30 गुण्यन्ते जातानि एया आउट्टीओ, सव्वाओ सावणे मासे / / 234 / / पञ्चशतानिचत्वारिंशदधिकानि-५४०. मुहूर्तानां, शेषा उपरि तिष्ठन्ति नव इह सूर्यस्य दशावृत्तयो भवन्ति, एतच्चानन्तरमेव भावितं,तत्र पञ्च 9. ते मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते जाते द्विशते सप्तत्यधिके- 270, आवृत्तयः श्रावणे मासे भवन्ति, तासांमध्ये प्रथमा बहुलपक्षे प्रतिपदि१, / त्रयोदशभि१३र्भागे हृतेलब्धा सप्तविंशतिर्मुहूर्ता: 27, तेपूर्वस्मिन् मुहूर्तराशी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 38 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आउट्टि प्रक्षिप्यन्ते, जातानि पञ्चशतानि सप्तषष्ट्यधिकानि- 567, येऽपि च / एकविंशति: सप्तषष्टिभागा दिनस्य तेऽपि मुहूर्तभागकरणार्थ त्रिंशता 30 गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशदधिकानि-६३०, तानि सप्तभि 7 गुण्यन्ते जातानिदशोत्तराणि चतुश्चत्वारिंशच्छतानि-४४१०, तेषां दशभि 10 भागे हृते लब्धानि चत्वारि शतानि एकचत्वारिंशदधिकानि-४४१, तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागे हृते लब्धा: षट् 6 मुहूर्ताः, ते पूर्वमुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानां पञ्च शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि-५७३, शेषाश्चोद्वरिता एकोनचत्वारिंशत् 39, सा द्वाषष्ट्या 62 गुण्यते, जातानि चतुर्विशतिशतानि अष्टादशाधिकानि-२४१८, तेषां सप्तषष्ट्या६७ भागे हृते लब्धाः षट्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति षट् 6 / ते एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्का: सप्तषष्टिभागा, एते चातिश्लक्ष्णरूपा भागा इति चूर्णिका भागाइति व्यपदिश्यन्ते तदेवमुक्तो धुवराशिः / सू०प्र०१२ पाहु. 76 सूत्रटी०। चं. प्र०१२ पाहु। ज्यो। सम्प्रति करणमाहआउट्टीहि एगुणियाहिं, गुणिओ हविज्ज धुवरासी। एयं मुहूत्तगणियं, एत्तो वोच्छामि सोहणगं / / 242 / / ज्यो. 12 पाहु। 'आउट्टीहि' इत्यादि, यस्यां यस्यामावृत्तौ नक्षत्रयोगो ज्ञातुमिष्यते तया तया आवृत्त्या एकोनिकया- एकरूपहीनया गुणितोऽनन्तरोक्तस्वरूपो ध्रुवराशिर्भवत् यावान् एतन्मुहूर्त- गुणितं मुहूर्तपरिमाणम्, अत ऊर्ध्व वक्ष्यामि शोधनकम्॥२४२ / / / तत्र प्रथमतोऽभिजितो नक्षत्रस्य शोधनकमाह (सू.प्र.)अमिइस्स नव मुहुत्ता, विसट्ठिभागा उहाँति चउवीसं। छावट्ठीय समग्गा, भागा सत्तहिछेयकया ||243 / / उगुणटुं पोट्ठवया, तिसु चेव नवोत्तरेसु रोहिणिया। तिसुनवनउएसु भवे, पुणव्वसू उत्तराफग्गू // 244 / / पंचेव अउणपन्ना, सयाई एगुणत्तराई छच्चेव / सोज्जाइँ विसाहाणं, मूले सत्तेव चोयाला ||245 / / अट्ठसयमुगुणवीसा, सोहणगं उत्तराअसाढाणं / चउवीसं खलु भागा, छावट्ठी चुण्णिया भागा // 246 / / ज्यो०१२ पाहु। अभिइस्से' त्यादि, अभिजित:- अभिजिन्नक्षत्रस्य शोधनक नव 9 | मुहूर्ता:एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिद्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्का: सप्तषष्टिच्छेदकृता: समग्रा:- परिपूर्णाः षट्षष्टिभागा:६६ कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेदुच्यतेइहाभिजितोऽहोरात्रसत्का: एकविंशति: सप्तषष्टिभागाश्चन्द्रेण योग: / ततोऽहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ताः 30 इति मुहूर्तभागकरणा-र्थमेकविंशतिः 21, त्रिंशता 30 गुण्यते जातानि षट्शतानि त्रिंशदधिकानि (630) तेषां सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते लब्धा नवमुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः / ते द्वाषष्टि 62 भागकरणार्थ द्वाषष्ट्या 62 गुण्यन्ते, जातानि षोडशशतानि चतुः सप्तत्यधि-कानि (1674) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो हियते लब्धाश्चतुर्विंशतिषष्टिभागाः, शेषास्तिष्ठन्ति षट्षष्टिः (66) / ते च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः | सप्तषष्टिभागाः // 243 / / सम्प्रति शेषनक्षत्राणां शोधनकानि उच्यन्ते'उगुणट्ठमि' त्यादिगा- थात्रयम् / एकोनषष्टिमेकोनषष्ट्यधिकं शतं प्रौष्ठपदाउत्तरभाद्रपदा किमुक्तं भवति- एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनाभिजिदादी-न्युत्तरभाद्रपदान्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति। तथाहिनवमुहूर्ता अभिज्जित:, त्रिंशच्छ्वणस्य, त्रिंशद्धनिष्ठायाः, पञ्चदश शतभिषजः, त्रिंशत्पूर्वभाद्रपदाया:, पश्चचत्वारिंशदुत्तरभाद्रपदाया इति शुद्धयन्ति / एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनोत्तरभाद्रपदान्तानि नक्षत्राणि तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिकान्तानि शुद्ध्यन्ति / तथा कोनषष्टयनिकेनशतेनोत्तरभाद्रपदान्तानि शुद्ध्यन्ति / ततस्त्रिंशन्तमुहूर्त्तः 30 रेवती, त्रिंशता 30 अश्विनी, पञ्चदश- भिर्भरणी त्रिंशता कृत्तिका, पश्चचत्वारिंशता 45 रोहिणिकेति, तथा त्रिषु नवनवत्यधिकेषु शतेषु पुनर्वस्वन्तानि शुद्ध्यन्ति / तत्र त्रिभिः शतैर्नवोत्तरः रोहिणिकान्तानि शुद्ध्यन्ति, ततस्त्रिंशता 30 मुहूर्त: मृगशिरः, पञ्चदशभिरार्द्रा, पञ्चचत्वारिंशता 45 पुनर्वसू इति।तथा पञ्चशतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि उत्तरफाल्गुनी- पर्यन्तानि / किमुक्तं भवति-पञ्चभिः शतैरेकोनपञ्चाशदधि- कैरुत्तरफाल्गुन्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति / तथाहि-त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिक पुनर्वस्वन्तानि शुद्ध्यन्ति / ततस्विंशता 30 मुहूर्त: पुष्यः, पञ्चदशभिरश्लेषा त्रिंशता 30 मघा, त्रिंशता 30 पूर्वफाल्गुनी, पञ्चचत्वारिंशता- उत्तरफाल्गुनीति, तथा- षट्शतानि एकोनसप्ततानिएकोनसप्तत्यधिकानि विशाखाना-विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, तथाहि- उत्तर-फाल्गुन्यन्तानां पञ्चशतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि शोध्यानि। ततस्त्रिंशन्मुहूर्ता 30 हस्तस्य, त्रिंशत् 30 चित्राया., पञ्चदश 15 स्वाते:, पञ्चचत्वारिंशद्विशाखाया, इति / तथा मूले-मूलननक्षत्रे शोध्यानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि (744) तत्र षट् शतानि एकोनसप्त्यधिकानि (769) विशाखान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि, तत: त्रिंशन्मुहूर्ता: अनुराधाया:, पञ्चदश ज्येष्ठाया:, त्रिंशत् मूलस्येति, तथा अष्टौ शतानि समाहृतानि अष्टशतमेकोन विंशत्यधिकम् / किमुक्तं भवति-अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधि-कानि उत्तराषाढानाम्उत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकम। तथाहि- मूलान्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि (744) तत: त्रिंशन्तमुहूर्ता 30 पूर्वाषाढानक्षत्रस्यपञ्चचत्वारिंशदुत्तराषाढानामिति। तथा यथासंभवं सर्वेषामपि चामीषां शोधनकानामुपरि अभिजित: संबन्धिनः चतुर्विशतिद्वाषष्टिभागा: शोध्या: एकस्य च द्वाष-ष्टिभागस्य सत्का: षट्षष्टिश्चूर्णिका भागाः // 244 / / 245 / / 246 / / एयाइँ सोहइत्ता, सेसं तं हवेज्ज नक्खत्तं / चंदेण समाउत्तं, आउट्टीए उबोधव्वं // 247 / / 'एयाई' इत्यादि, एतानि- अनन्तरोदितानिशोधनकानि यथासंभवं शोधयित्वा यत् शेषमुद्वरति तत्र यथायोगमपान्त- रालवर्तिषु नक्षत्रेषु शोधितेषु यन्नक्षत्रं न शुद्ध्यति तन्नक्षत्रं चन्द्रेण समायुक्त विवक्षितायामावृत्तौ वेदितव्यम् / तत्र प्रथमायामावृत्तौ प्रथमत: प्रवर्त्तमानायां केन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्र इति यदि जिज्ञासा तत्प्रथमावृत्तिस्थाने एककोध्रियते स रूपोन: क्रियत इति न किमपि पश्चात् रूपमवतिष्ठते / तत: पाश्चात्ययुगभाविनीनामावृत्तीनां मध्ये या दशमी आवृत्तिस्तत्संख्या दशक 10 रूपा ध्रियते तया प्राचीन: सम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 39 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि स्तोऽपि धुवराशि: पञ्चशतानि त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशत् द्वाषष्ठिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् सप्तषष्ठिभागा: (173) (36626 67) इत्येवं प्रमाणो गुण्यते। तत्र मुहूर्तराशौ दशभिर्गुणिते जातानि सप्तपञ्चाशत् शतानि त्रिंशदधिकानि (5730) येऽपि च षट्त्रिंशद्-द्वाषष्टिभागास्तेऽपि दशभिर्गुणिते जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि (360) तेषां द्वाषष्ट्या भागे हृते लब्धाः पञ्च 5 मुहूर्तास्ते पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते जात: पूर्वराशि:- सप्तपञ्चाशच्छतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि (1735) शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्ठिभागा: पञ्चाशत् (50) येऽपि च षट्चूर्णिकाभागास्तेऽपि दशभि 10 गुणिता जाता षष्टिः 60. तत एतस्मात् शोधनकानि शोध्यन्ते / तत्रोत्तराषाढान्तानां नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि (819) एतानि किल यथोदितराशेः सप्तकृत्यः शुद्धिमाप्नुवन्तीति सप्तभिर्गुण्यन्ते जातानि सप्तपञ्चाशच्छतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि (1733) तानि पञ्चाशच्छतेभ्य: पञ्चत्रिंशदधिकेभ्य: पात्यन्ते स्थितौ पश्चात् द्वौ 2 मुहूर्तों द्वाषष्टिभागकरणार्थं द्वाषष्ट्या 62 गुण्येते जातं चतुर्विशत्यधिकं शतं (124) द्वाषष्टिभागानाम् तत: प्राक्तने पञ्चाशल्लक्षणे द्वाषष्टिभागराशौ प्रक्षिप्यते जातं चतुःसप्तत्यधिकं शतम् (174) द्वाषष्टिभागानां, तथापि ये अभिजित: संबन्धि नश्चतुर्विंशतिषष्टिभागा: शोध्यास्ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातमष्टषष्ट्यधिकं शतम् (168) तत्चतु:- सप्तत्यधिकात् शतात् शोध्यते स्थिता: शेषा षट् द्वाषष्टिभागाः / ते च चूर्णिकाभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च ये प्राक्तना: षष्टिः सप्तषष्टिभागा: ते तत्र प्रक्षिप्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि (462) ततो ये अभिजित: संबन्धिन षट्षष्टिश्चूर्णिकाभागा: शोध्या: ते सप्तभिर्गुण्यन्ते जातानि चत्वारि शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि (462) तान्यनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितं पश्चात् शून्यम् / तत आगत-साकल्येनोत्तराषाढानक्षत्रे चन्द्रेण भुक्ते सति तदनन्तरस्याभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युगे प्रथमा आवृत्ति: प्रवर्तते। ज्यो० 12 पाहु / चन्द्र०१२ पाहु। सू.प्र.। अथ श्रावणमासभाविनीनामावृत्तीनां चन्द्रनक्षत्रस्य संग्रहणीं गाथामाहपढमा होइ अभिइणा, संठाणाहि य तहा विसाहाहिं। रेवतीए उ चउत्थी, पुव्वहि फग्गुणीहि तहा / / 235 / / श्रावणमासभाविनीनामनन्तरोदितस्वरूपाणां पञ्चानामावृ-त्तीनांमध्ये | प्रथमा आवृत्तिरभिजिता नक्षत्रेण युता भवति, द्वितीया 'संठाणाहिं' तिमृगसिरसा, तृतीया विशाखाभिः, चतुर्थी रेवत्या, पञ्चमी पूर्वफाल्गुनीभिः / ज्यो०१२ पाहु। सम्प्रति वार्षिकीणामेवाऽऽवृत्तीनां नक्षत्रयोगं प्रश्नरीत्या प्रतिपादयतिता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ? ता अभिइणा, अमिजिस्स पढमसमएणं, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? तापूसेणं, पुस्सस्स एगूणवीसं मुहूत्ता तेतालीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्य वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता तेतालीसांचुणिया भागा सेसा, (सूत्र७६) "ता एएसिणमि' त्यादि, एतेषाम्- अनन्तरोदितानां पञ्चानां चन्द्रादीनां संवत्सराणां', मध्ये प्रथमां वार्षिकी- वर्षाकाल- संबन्धिनीं। श्रावणमासभाविनीमित्यर्थः। आवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति?- केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयति ? एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह- 'ता अभिजिणा' इत्यादि, अभिजिता नक्षत्रेण युनक्ति, एतदेव विशेषत आचष्टे- अभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये युनक्ति, तदेवं चन्द्रनक्षत्रमवबुध्य:, सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नमाह-"तं समयं च णमि' त्यादि, तस्मिंश्च समये णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः केन नक्षत्रेणा युनक्ति- केन नक्षत्रेण सह सूर्यो योगमुपागत: सन् तां प्रथमामावृत्तिं- प्रवर्तयनीति? भगवानाह- 'ता पूसेणमि' त्यादि, ता इति पूर्ववत्, पुष्येण युक्तस्तां प्रथमामावृत्तिं युनक्ति, एतदेव सविशेषमाचष्टेतदानींपुष्यस्य एकोनविंशति 19 मुहूर्तास्त्रिचत्वारिंशत् 43 च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशत् 33 चूर्णिकाभागाः शेषाः / कथमेतदवसीयत इति चेत्, उच्यते- त्रैराशिकबलात, तथाहि- यदि दशभिरयनै पञ्च सूर्यकृतान्न-क्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकेनायनेन किं लभामहे? राशित्रयस्थापना-१० 5 14 अत्रान्त्येन राशिना एकक ? लक्षणेन मध्यमस्य राशेः पञ्चक 5 रूपस्य गुणने जाता: पञ्चैव 5, तेषां दशभि 10 र्भागो ह्रियते लब्धमध पर्यायस्य तत्र नक्षत्रपर्याय: सप्तषष्टिभागरूपोऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (1830) तथाहि- षट् नक्षत्राणि शतभिषक् प्रभृतीनि अर्द्धक्षेत्राणि ततस्तेषां प्रत्ये कं सार्द्धत्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागास्ते सार्दास्त्रयस्त्रिंशत् षड्भिर्गुण्यन्ते जाते द्वे शते एकोत्तरे (201) षट् नक्षत्रास्युत्तरभाद्रपदादीनि व्यर्द्धक्षेत्राणि, ततस्तेषां प्रत्येकमेकं शतं सप्तषष्टिभागानामेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्ध एतत् षड्भिर्गुण्यतेजातानिषट्शतानि व्युत्तराणि-(६०३) शेषाणि पञ्चदश 25 नक्षत्राणि समक्षेत्राणि तेषां प्रत्येकं सप्तषष्टिभागा: तत: सप्तषष्टिः पञ्चदशभिर्गुण्यते जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम् (1005) एकविंशतिश्चाभिजित सप्तषष्टिभागा: सर्वसंख्यया सप्तषष्टिभागानामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि (1830) एष परिपूर्णः सप्तषष्टिभागात्मको नक्षत्रपर्याय: एतस्याः नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (915) तेभ्य एकविंशतिरभिजित: संबन्धिनी शुद्धा, शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टौ शतानि चतुर्नवत्यधिकानि (894) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो हियतेलब्धास्त्रयोदश (13) शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशति: 23, त्रयोदशभिश्च पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ये च शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशति: 23 भागा: ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता 30 गुण्यन्ते, जातानिषट् शतानि नवत्यधिकानि (690) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो हियते लब्धा दश (10) मुहूर्ता:, शेषास्तिष्ठन्ति विंशति: 20, सा 20 द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वाषष्ट्या 62 गुण्यते जातानि द्वादशशतानि चत्वारिंशदधिकानि (1240) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो ह्रियते, लब्धा अष्टादश द्वाषष्टिभागा: Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 40 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि शेषास्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागास्तत: आगतं सप्तषष्टिभागा: 18122-62 / 14-67 एतावता च मृगशिरो न शुद्ध्यति, पुष्यस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च तत:आगतं मृगशिरोनक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागेषु गतेषु एकोनविंशतौ च एकोनचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीयां श्रावणमासभाविनी- मावृत्तिं प्रवर्त्तयति / द्वाषष्टि भागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टि भागेषु शेषेषु प्रथमा 1 संप्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं चाह- 'तं समयं च णमि' श्रावणमासभाविन्यावृत्ति: प्रवर्तते इति / त्यादि, तस्मिंश्च समये सूर्य: केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतस्तां द्वितीयां अथ श्रावणमासमाविद्वितीयाऽऽवृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाह वार्षिकीमावृत्तिं युनक्ति? भगवानाह- 'ता पूसेणमि' त्यादि, ता इति ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोचं वासिक्किं आनुट्टि चंदे पूर्ववत्, पुष्येण युक्त; "तं चेव'' इति- वचनसामर्थ्यादिदं द्रष्टव्यम्केणं नक्खत्तेणं जोगं जोएति। पुच्छा, ता संठाणाहिं संठाणाणं "पुस्सस्स एगुणवीसं मुहुत्ता तेयालीसं च वावट्टीभागा मुहत्तस्स सो चेव अभिलावो-एक्कारसमुहुत्ते ऊताली संच वावट्ठिभागा वावट्ठिभागं च सत्तहिहा छेत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा'' इति इह मुहुत्तस्स वावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेपण्णं चेव चुण्णित्ता सूर्यस्य दशभिरयनै: पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते द्वाभ्यां भागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति चायनाभ्यामेकः, तत्रोत्तरायणं कुर्वन् सर्वदैवाभिजिता नक्षत्रेण सह पुच्छा , ता पूसेणं, पूसस्स णं तं चेव जं पढमाए, (सूत्र-७६) योगमुपागच्छति, दक्षिणायनं कुर्छन् पुष्येण, तस्य च पुष्यस्य एकोनविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च 'ता एएसि णमि' त्यादि, ता इति पूर्ववत्, एषाम- अनन्त रोदितानां द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तथा चोक्तम्। (चं.प्र. चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां वार्षिकी 12 पाहु.)श्रावणमासभाविनीमावृत्ति, चन्द्र: केा नक्षत्रेण युनक्ति-केन नक्षत्रेण युक्तः अमितराहिँ नितो, आइचो पुस्सजोगमुवगयस्स ! सन् चन्द्रो द्वितीयामावृत्तिं प्रारम्भयति? एवं प्रश्ने कृते सति भगवानाह सव्वा आउट्टीओ, करेइ सो सावणे मासे / / 248 / / 'ता संठाणाहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, संस्थानाभि:- संस्थानाशब्देन मृगशिरोनक्षत्रमभिधीयते। तथा प्रवचने प्रसिद्धेः, ततो मृगशिरोनक्षत्रेण श्रावणे मासे सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान् निष्क्रामन् सूर्य: सर्वा अप्यावृत्ती: युक्तश्चन्द्रमा द्वितीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति तदानीं च करोति पुष्येण सह योगमुपागम्य, नान्यथा, तत्रापि पुष्यस्य त्रयोविंशति मृगशिरोनक्षत्रस्य एकादश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशद् सप्त षष्टिभागान् भुक्त्वा , (ज्यो.) ते किल-"जं रिक्खं जावइए, वचइ द्वाषष्टिभागा एकस्य चद्वाषषिटभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागा: शेषाः / चंदेण भागसत्तट्ठी। तं पण भागे राइं-दियस्स सुरेण तावइए'' ||1|| इति तथा हि-इह या द्वितीया श्रावणमाभाविन्यावृत्ति: सा वचनप्रामाण्यात् सूर्यमधिकृत्य रात्रिंदिवस्य पञ्च 5 भागा द्रष्टव्या:, प्राक्प्रदर्शितक्रमापेक्षया तृतीया ततस्तस्त्थाने त्रिको ध्रियते स रूपोन ततस्त्रयोविंशते:२३ पञ्चभिर्भागो हियते, लब्धाश्चत्वारो दिवसास्वयश्च क्रियते इति जातो द्विक: 2, तेन 2 प्राक्तनो ध्रुवराशि: पञ्च शतानि पञ्च भागा रात्रिंदिवस्य, तत्रैकैकस्मिन् पञ्चभागे षट्मुहूर्ता लभ्यन्ते, त्रिसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागा अहोरात्रो हि त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणस्ततस्तस्य पञ्चमो भाग: षण्मुहूर्तप्रमाणो एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सप्तषष्टिः 573 / 36-62 / 6-67 भागा: भवतीति, त्रिभिश्च पञ्चभागैरष्टादश 18 मुहूत्र्ताः, त्रयाणां षट्काइत्येवंप्रमाणो गुण्यते जातानि एकादश शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि नामष्टादशप्रमाणत्वात् तत आगतं चतुर्पु दिवसेषु अष्टादशमुहूर्तेषु मुहूर्तानां (1146) द्वासप्तति: 72 एकस्य मुहूर्तस्य सत्का द्वाषष्टिभागा:, पुष्यनक्षत्रस्य भुक्तेषु सर्वाभ्यन्तरान् मण्डलादहिः सूर्यो निष्क्रामति। ज्यो० एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागा: 12-67 तत एतेभ्यो 12 पाहु। मुहूर्तानामष्टभिः शतैरे- कोनविंशत्यधिकैरेकस्य मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या तदेवाहद्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेक: परिपूर्णो अठारस य मुहुत्ते, चत्तारि य केवले अहोरत्ते। नक्षत्र-पर्याय: शुद्धः / स्थितानि पञ्चात् मुहूर्तानां त्रीणि शतानि पुस्सस्स विसयमइगतो, बहिया अभिनिक्खमइसूरो 250 / सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा, अष्टादश१८ मुहूर्तान् चतुरश्च४ कवलान् परिपूर्णान अहोरात्रान् एकस्य द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागा: 327 / ४७-६२।१३-६७तत पुष्यनक्षत्रस्य विषयमतिगत:- प्राप्त: सन् 'बहिया अभिनिक्खाइ' सूर्यः एतेभ्यस्त्रिभिर्मुहूर्तशतैर्नवोत्तरैरेकस्यचमुहूर्तस्य चतुर्विंशत्याद्वाषष्टिभाग: सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलदहिनिष्क्रामति / ज्यो० 12 पाहु। 62 एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभाग:६७ अभिजितदादीनि सम्प्रति श्रावणमासभावितृतीयावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहरोहिणिकापर्यन्तानिनक्षत्राणि शुद्धानि, तेषु चैव नवोत्तरेषु'"रोहिणिया" ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं वासिक्किं आउट्टि इत्यादि प्रागुक्तवचनात्, तत: स्थिता: पश्चाद्- अष्टादश मुहूर्ता एकस्यच चंदे केणं णक्खत्तेणं जोंगंजोएति? ता विसाहाहिं विसाहाणं मुहूर्तस्य द्वाविंशतिद्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश | तेणं चेव अभिलावेणं तेरस 13 मुहूत्ता चउप्पण्णं च Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 41 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि वावविभागा मुहत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता / चत्तालीसं 44 चुण्णिया भागा सेसा,तं समयं चण सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता पूसेणं, पूसस्स णं तं चेव। 'ता एएसिणमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह- 'ता विसाहाहिं' इत्यादि।। 'ता' इति पूर्ववत्, विशाखाभि:- विशाखानक्षत्रेण युक्तः सन् चंद्रमास्तृतीयां श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च तृतीयाऽऽवृत्तिप्रवर्तनसमये विशाखाना- विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदश 13 मुहूर्ता: एकस्य 1 च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशद् वाषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का-श्वत्वारिंशच्चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथा हि-तृतीया श्रावण-मासभाविन्यावृत्ति: पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया पञ्चमी 5, ततस्त-स्स्थाने पञ्चको 5 ध्रियते स रूपोन: कार्य इति जात-श्वतुष्क: 4 तेन 4 प्राक्तनो ध्रुवराशि:- 173 / 36-62 / 6-67 गुण्यते जातानि द्वाविंशनि शतानि द्विनवत्यधिकानि मुहूर्तानां चतुश्चत्वारिंशं शतं मुहूर्तगतानां द्वाषष्टिभागानामेकस्य च द्वाषष्टि- भागस्य चतुर्विशति: सप्तषष्टिभागा:- 2292 / 144 / 24-67 / तत एतेभ्य: षोडशभिर्मुहर्तशतैरष्टात्रिंशदधिकैरष्टाचत्वारिंशता चद्वाषष्टिभागैर्मुहर्तस्य द्वाषष्टिभागगतानां च सप्तषष्टिभागानां द्वात्रिंशेन शतेन द्वौ परि पूर्णी नक्षत्रपर्यायौ शुद्धौ, स्थितानि पश्चात् षट्शतानि चतु पञ्चाशदधिकानि मुहूर्तानां; मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां चतुर्नवतिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः-६५४।९४।२६ / तत एतेभ्यः पञ्चभिः शतैरेकोन-पञ्चाशदधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरे कस्य च द्वाषष्टि भागस्य षट्षष्ट्यासप्तषष्टि भागैरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि। स्थितम् पश्चात् पश्चोत्तरं मुहूर्त्तशतं मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागा- नामेकोनसप्ततिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टि -भागाः, तत्र द्वाषष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको 1 मुहूर्तो लब्धः, स्थिता: पश्चात् सप्तद्वाषष्टिभागाः, लब्धश्च मुहूर्तों मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यते, जातं षडुत्तरं मुहूर्तशतं 106 / 762 / 27-61 तत: पञ्चसप्तन्या मुहूर्त: हस्तादीनि स्वातिपर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः शेषा: एकत्रिंशन्मुहूर्ताः 31; आगतं विशाखानक्षत्रस्य त्रयोदशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य चतुःपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चन्द्रस्तृतीयां श्रावणमासभीविनीमावृत्ति प्रवर्त्तयति। सम्प्रति सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं चाह-'तं समयं च णमि' त्यादि। सुगमम् / चं०प्र० 12 पाहु। सम्प्रति श्रावणमासभावि (ज्यो.) चतुर्थ्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थिं 4 वासिक्किं आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएतिता, रेवतीहि रेवतीणं पणवीसं मुहुत्ता वासहिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता वत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्ख-त्तेणं जोएति ? ता पूसेणं पूसस्स णं तं चेव। (सूत्र-७६) / 'ता एएसि णमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह- 'ता रेवईहिं' इत्यादि, रेवत्या युक्तश्चन्द्र: चतुर्थी श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्तयति, तदानीं च रेवतीनक्षत्रस्य पञ्चविंशतिर्मुहूर्ता द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य एवं चद्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का: षड्विंशतिश्चूर्णिकाभागा: शेषा:, तथाहि- प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया श्रावणमासभाविनीचतुर्थ्यावृत्तिः, सप्तमी तत: सप्तको 7 ध्रियते, सरूपोन: कार्य इति जात: षट्क: 6, तेन 6 प्राक्तनो ध्रुवराशि: 573 36 6 / गुण्यते, जातानि चतुस्विंशच्छतानि अष्टात्रिंशदधिकानि (3438) मुहूर्तानां, मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्वे शते षोडशोत्तरे (216) एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षत्रिंश (36) त्सप्तषष्टिभागाः तत एतेभ्यो द्वात्रिंशता शतैः षट्सप्तत्यधिकैर्मुहूर्तानां, मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां षण्णवत्या द्वाषष्टिभागसत्कानां च सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यां चतुःषष्टिसहिताभ्यां चत्वारो नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितं पश्चादेकं द्वाषष्ट्यधिक मुहूर्त्तशते मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां षोडशोत्तरं शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा: (162) (196) 40 / तत्र एकोनषष्ट्यधिकेन मुहूर्तशतेन एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिाभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभाग: 159 24 66 / अभिजिदादीन्युत्त रभद्रपदपर्यन्तानि नक्षत्राणि भूयः शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् त्रयो मुहूर्ताः मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामेकनवतिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा: द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेका मुहूर्तो लब्धः, स मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यते, जाताश्चत्वारो 4 मुहूर्ताः- एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा: (एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा.)४ 29 ४१तत आगतंरेवतीनक्षत्रं पशविंशतौ मुहूर्तेष्वे कस्य च मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वाष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षड्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी श्रावणभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, 'तं समयं च णमि' त्यादि, सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद्भावनीयम्। साम्प्रतं पञ्चमं श्रावणमासभाविपञ्चमावृत्तिविषय प्रश्नसूत्रमाहता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमी वासिक्किं आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएत्ति ? ता पुव्वाहिं फग्गुणीहिं पुष्वाणं फग्गुणीणं वारस 12 मुहूत्ता सत्तालीसं च वावट्ठिभागा मुहूत्तस्य वावट्ठिभागं च संत्तट्ठिहा छेत्तातेरस 13 चुणिया भागासेसा, तं समयं च णं सूरे के णं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता पूसेणं पूसस्स णं तं चेव। (सूत्र-७६) || 'ता एएसि णमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह- 'ता पुव्वाहिं फग्गुणीहिं' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, पूर्वाभ्यां फाल्गुनीभ्यां युक्तश्चन्द्रः पञ्चमी 5 श्रावणमासभाविनीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति तदानीं च तस्य पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश 12 मुहुर्ता: एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् 47 द्वाषष्टिभागा: Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 42 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि 62 एकं च द्वाषष्टि६२ भागं सप्तषष्टिधा 67 छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयोदेश 13 , चूर्णिकाभागा: शेषाः / तथा हि-पञ्चमी श्रावणमासभाविन्यावृत्ति: प्राकप्रदर्शितक्रमापेक्षया नवमी 9 तत: तत्स्थाने नवको 9 ध्रियते। स रूपोन कार्य इति. जाता अष्टौ 8, तैः प्रागुक्तो ध्रुवराशि: 173 / 36-62, 6-67 गुण्यते जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्तानां, मुहुर्तगतानां च द्वाषष्टि 62 भागानां द्वे शते अष्टाशीत्यधिके एकस्यचद्वाषष्टिभागस्याष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा: 4584 288 48 / तत एतेभ्यश्चत्वारिंशता मुहूर्तशतैः पञ्चनवत्यधिकैर्मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां विंशत्यधिकेन शतेन एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानां त्रिंशदधिकैस्त्रिभिः शतैः पञ्च 5 नक्षत्रपर्याया: शुद्धा:, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चत्वरि शतानि एकोननवत्यधिकानि मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां शतं त्रिषष्ट्यधिकम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागा:- 489 163 53 / तत एतेभ्यो भूय: त्रिभिः शतैर्नवत्याधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य चद्वाषष्टिभागस्यं षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्रणि शुद्धानि स्थिता: पञ्चान्मुहूर्तानां नवतिः मुहुर्तगतानां द्वाषष्टिभागानामष्टा त्रिंशदधिकं शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागा: 90 138 54 / तत्र चतुर्विशत्यधिकेन द्वाष- ष्टिभागशतेन द्वौ मुहूर्ती लब्धौ पश्चात् स्थिता द्वाषष्टि भागाश्चतुर्दश, लब्धौ च मुहूर्ती मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते जाता मुहूर्तानां द्विनवतिः-९२ 14 54 / तत्र पञ्चसप्तत्या 75 मुहूर्त: पुष्यादीनि मघापर्यन्तानि त्रीणि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिता: पश्चात् सप्तदश मुहूर्ता:१७ 14 54 / न चैतावता पूर्वफाल्गुनी शुध्यति तत आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य द्वादश सु 12 मुहूर्तेष्वे कस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि 62 भागस्य त्रयोदशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु पञ्चमी 5 श्रावण-मासभाविनी आवृत्ति: प्रवर्तते। सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च प्राग्वद्भावनीयम्। चन्द्र०१२ पाहु।। सू०प्र०। ज्यो। तदेवं चन्द्रनक्षत्रयोगविषये, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च पश्चापि वार्षिकीरावृत्ती: प्रतिपाद्य, संप्रति हेमन्ती: प्रतिपिपादयिषुः (चं.प्र. 12 पाहु.) आदौ चन्द्रनक्षत्रविषयकसंग्रही गाथामाहहत्थेण होइ पढमा, सयमिसयाहि य ततो य पुस्सेण। मूलेण कत्तियाहि य, आउट्टीओ य हेमंते // 238 / / हेमन्ते- माघमासे प्रथमाआवृत्तिर्भवति हस्तेन- हस्तनक्षत्रेण युता, द्वितीया 2 शतभिषजा, तृतीया 3 पुष्येण, चतुर्थी 4 मूलेन, पञ्चमी 5 कृतिकाभिः / ज्यो० 12 पाहु। __ प्रथमावृत्ति:ता एसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमंतिं आउट्टिचंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता हत्थेणं, हत्थस्स णं पंच मुहूत्ता पण्णासंच बावट्टिभागा मुहूत्तस्य बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सहि चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूर केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ? उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए॥ 'ता एएसि ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषाम्- अन्तरोदितानां चन्द्रादीनां पञ्चानां संवत्सराणां मध्य प्रथमा हेमन्तीमांवृत्तिं चन्द्रः केन नक्षत्रेण युनक्ति? केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् प्रवर्त्तयतीति भावः, भगवानाह-'ता हत्थेणं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, हस्तेन- हस्तनक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रः प्रवर्त्तयति, तदानीं च हस्तनक्षत्रस्य पञ्च 5 मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा: एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का: षष्टिश्चूर्णिकाभागाः शेषाः, ताथहि- हेमन्ती प्रथमा आवृत्ति: प्रागुक्तक्रमापेक्षयां द्वितीया ततस्तत्स्थाने द्विको ध्रियते, सरूपोन: कार्य इति जात एककः 1 तेन 1 प्रागुक्तो ध्रुवराशि:- 573 / 36-62, 6-67 / गुण्यते, 'एकेन च गुणितं तदेव भवती' ति जातस्तावानेवध्रुवराशि:, तत एतस्मात् पञ्चमि: शतैरेकोनपञ्चाशदधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्यचद्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागरभिजिदादीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि स्थिताः पश्वाच्चतुर्विशतिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकादश द्वाषष्टिभागा: एकस्य च६२ भागस्य सप्त सप्तषष्टिभागा: 24 11 7 / तत आगतं हस्तनक्षत्रस्य पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमां हेमन्तीमावृत्तिं चन्द्र: प्रवर्तयतीति। सूर्यनक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रमाह- 'तं समयं च ण' मित्यादि, तस्मिंश्च समये सूर्य: केन नक्षत्रेण युक्तस्तां प्रथमां हेमन्तीमावृत्तिं युनक्तिप्रवर्त्तयति? भगवानाह-'ता उत्तराहिं' इत्यादि, उत्तराभ्यामाषाढाभ्यां तदानीं चोत्तराषाढायाश्वरमसमय:, समकालमुत्तराषाढानक्षत्रमुपभुज्याभिजिन्नक्षत्रस्य प्रथमसमये प्रथमां हेमन्तीमावृत्तिं सूर्यः प्रवर्त्तयतीति भावः, तथाहि- यदि दशभिरयनैः पञ्च सूर्यकृतान्नक्षत्रपर्यायान् लभामहे तत एकनायनेन किं लभामहे? राशित्रयस्थापना-१० 5 1 / अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्य पञ्चकरूपस्य राशेर्गुणनं जाता पश्चैव तेषां दशभिर्भाग हृते लब्धमेकमढे पर्यायस्य, अर्द्ध च पर्यास्य सप्तषष्टिभागरूपं नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 915, तत्र ये विंशतिः, सप्त 67 भागा: पाश्चात्ये अयने पुष्यस्य गताः शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागा: स्थिता: ते साम्प्रतमितो राशेः शोध्यन्ते स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि 871, तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रयोदश पश्चान्न किमपि तिष्ठति, त्रयोदशभिश्च-श्लेयादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि शुद्धानि, तत आगतम्- अभिजित: प्रथमसमये माघमासभाविनी। आवृत्तिः प्रवर्त्तते, एवं सर्वा अपि माघमासभाविन्य आवृत्तयः सूर्यनक्षत्रयोगमधिकृत्य वेदितव्याः , उक्तं च- "बाहिर ओ पविसंतो आइचो अभिइजोगमुवयगम्मि / सव्वा आउट्टीओ करेइ सो माघमासंमि // 1 // " द्वितीयहेमन्ताऽऽवृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एएसि णं पंचण्हं संवच्छ राणं दोचं हे मंतिं आउट्टि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 43 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि चंदे के णं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता सतभिसयाहिं, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्य बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छत्तालीसं चुण्णिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए२| 'ता एएसिण' मित्यादि सुगम भगवावाह'ता सयभिसयाहिं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, शतभिषजा युक्तश्चन्द्रो द्वितीयां हैमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानी च शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वौ मुहूर्तावकस्य च मुहूर्तस्याष्टीविंशतिषिष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का: षट्चत्वारिंशचूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि- प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया द्वितीया माघमासभाविन्यावृत्तिश्चतुर्थी ततस्तस्याः स्थाने चतुष्को 4 ध्रियते स 4 रूपोन: कार्य इति जातस्विक:-३ तन 3 प्राक्तनो ध्रुवराशि: 573 36 6 / गुण्यते जातानि सप्तदश शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामष्टोत्तरं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टादश सप्तषष्टिभागा: 1719 108 18 / तत एतेभ्य: षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिकैर्मुहूर्तानामेकस्यच मुहूर्त्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकद्वाषष्टिभागसत्कानां च सप्तषष्टिभागानां द्वात्रिंश- दधिके, नशतेन द्वौ नक्षत्रपर्यायौ शुद्धौ, स्थिता: पश्चादेकाशीति- मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टापञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशति: सप्तषष्टिभागा: 81 58 20 / ततो भूयो नवभिर्मुहूत्तरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य चद्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्र शुद्ध, स्थिताः पश्चाद् द्वासप्ततिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य- कविंशति: सप्तषष्टिभागा: 72 33 21 / ततस्त्रिंशता मुहूर्तः श्रवण: शुद्धस्त्रिंशता धनिष्ठा पश्चादवतिष्ठन्ते द्वादश 12 मुहूर्ताः, शतभिषक्नक्षत्रं चा नक्षत्रं, तत आगतं शतभिषजो नक्षत्रस्य द्वयोमुहर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीया 2 हैमन्ती आवृत्ति: प्रवर्तते / सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, प्रागेव भावितत्वात्। ___ अधुना तृतीयमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्रसूत्रमाह तेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तचं हेमंतिं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? तापूसेणं, पूसस्स एकुणवीसं मुहूत्ता तेतालीसंच बावट्ठिभागा मुहत्तस्सवावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा,तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए 3 // 'ता एएसिण' मित्यादि, सुगम, भगवानाह- 'ता पूसेण' मित्यादि, ता इति प्राग्वत् पुष्येण युक्तश्चन्द्रस्तृतीया माघमास - भाविनीमावृत्ति प्रवर्त्तयति, तदानीं च पुष्यस्य एकोनविंशति-मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कास्त्रयस्त्रिंशचूर्णि- काभागा: 'शेषाः, तथाहि- प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया तृतीया माघ- मासभाविन्यावृत्ति: षष्ठी ततस्तस्या: स्थानेषट्को ध्रियते सरूपोन: कार्य इति जातः पञ्चकस्तेन स प्राक्तनो ध्रुवराशि: 173 36 6 / गुण्यते जातान्यष्टाविंशति शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूतानां मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामशीत्यधिकं शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिंशत् सप्तषष्टिभागा: 2865 180 30 // तत एतेभ्य: सप्तपञ्चाशदधिकै चतुर्वि- शतिशतैर्मुहूर्तानामेकमुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विसप्तत्या एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कानां सप्तषष्टिभागानामष्टान- वत्यधिकेन शतेन 2457 72 198 / त्रयो नक्षत्रपर्याया: शुद्धाः, स्थितानि पश्चात् चत्वारि मुहूर्तशतान्यष्टोत्तराणि मुहर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां पञ्चोत्तरं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा: 408 105 34 / तत एतेभ्यस्त्रिभिः शतैर्नवनवत्यधिकै मुहूर्तानामे कस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चान्नव 9 मुहूर्ता मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानामशीति: एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा: द्वाषष्ट्या च द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्तो लब्धः स मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यते जाता दश मुहूर्ताः शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिभागा अष्टादश-१०।१८ ३४।तत आगतं-पुष्यस्यएकोनविंशतौ मुहूर्तेष्येकस्य च मुहर्तस्य त्रिचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीया माघमासभाविन्यावृत्ति: प्रवर्तते / सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगमम्। चतुर्थमाघमासभाव्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थिं हेमंतिं आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति ? ता मूलेणं, मूलस्य छ मुहूत्ता अट्ठावन्नं च बावट्ठिभागा मुहूत्तस्स बावट्टिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता वीसं चुणिया भागासेसा, तं समयं च णं सरे केणणक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए 4 // 'ता एएसिण' मित्यादि सुगमं भगवानाह'तामूलेण' मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, मूलेन युक्तश्चन्द्रः चतुर्थी 4 हेमन्तीमावृत्तिं प्रवर्त्तयति, तदानीं च मूलस्य-मूलनक्षत्रस्यषट्मुहूर्ता एकस्यच मुहूर्तस्याष्टापञ्चाशत्द्वाषष्टिभागा एकं चद्वाषष्टिभागंसप्त-षष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का विंशतिश्चूर्णिकाभागा: शेषाः, तथाहि- चतुर्थी माघमासभाविन्यावृत्तिः पूर्वप्रदर्शितक्रमापेक्षया अष्टमीतस्या: स्थाने अष्टको 8 ध्रियते स 8 रूपोन: कार्य इतिजात: सप्तक; 7 तेन 7 स प्राक्तनो ध्रुवराशि: 573 36-62 6-67 / गुण्यते जातान्येकादशोत्तरानि चत्वारिं शन्मुहूर्त्तशताणि मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशत् सप्त षष्टिभागा:-४०११ 252 42 / तत एतेभ्य: षट्सप्तत्यधिकैात्रिंशच्छतैर्मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां षण्ण Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 44 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टि वत्या द्वाषष्टिभागसत्कानां च सप्तषष्टिभागानां द्वाभ्यां शताभ्यामष्टषष्ट्यधिकाभ्यां चत्वारो४ नक्षत्रपर्यायाः शुद्धाः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्ताना सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि मुहूर्ताना, मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां द्विपञ्चाशदधिकं शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत्सप्तष्टिभागा:- 735 152 46 / तत एतेभ्यो भूयः षभिः शतैः मुहूर्तानामेकोनसप्तत्यधि- कैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यषट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि विशाखा- पर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिता: पश्चात् षट्षष्टिर्मुहूर्ता मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतम् एकस्य व द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः, चतुर्विशत्यधिकेन च द्वाषष्टिभागशतेन द्वौ मुहूर्तों लब्धौ, तौ 2 मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते जाता: अष्टषष्टिर्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिभागास्त्रय: 68 3 47 / तत: पञ्चचत्वारिंशता मुहूर्तेरनुराधाज्येष्टे शुद्धे, शेषा: स्थितास्त्रयोविंशतिमुहूर्त्ता: 23 3 47 / तत आगतं मूलस्य षट्सु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टापञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थी 4 माघमासभाविन्यावृत्ति: प्रवर्त्तते / सूर्यनक्षत्रयोगविषयं प्रश्रसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगमम्। इह तावद् माघमासभाविपञ्चम्यावृत्तिविषयं प्रश्नसूत्रमाहता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमं हेमंतिं आनुमि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोगं जोएति? ता कत्तियाहिं कत्तियाण अट्ठारस मुहुत्ता, छत्तीसं च वावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता छ चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सुरे केणं णक्खत्तेणं जोगंजोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए५।। (सूत्र-७७) 'ता एएसि णमि' त्यादि, सुगम, भगवानाह-'ता कत्तियाहिं' इत्यादि। / 'ता' इति पूर्ववत्, कृत्तिकाभिर्युक्तश्चन्द्र: पञ्चमी 5 हैमन्तीमावृत्ति प्रवर्त्तयति, तदानीं च कृत्तिकानक्षत्रस्याष्टादश 18 मुहूर्ता एकस्य 1 च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशद्वाषष्टिभागा एकंच द्वाषष्टिभागसप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का: षट् 6 चूर्णिकाभागाः शेषाः, तथाहि-पश्चमी 5 माघमासभाविन्यावृत्ति - प्रागुपदर्शितक्रमापेक्षया- दशमी 10, ततस्तस्या: स्थाने दशको 10 ध्रियते, स रूपोन: कार्य इति जातो नवक 9. तेन 9 प्राक्तनो धुवराशि:- 573 36 6 / गुण्यते जातान्येकपञ्चाशच्छतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि मुहूर्ताना, मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानं त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागा:- 5157 324 54 / तत एतेभ्य एकोन- पञ्चाशच्छतैमुहूर्त: चतुर्दशाधिकै मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां चतुश्चत्वारिंशदधिकेन शतेन द्वाषष्टिभागगताना च सप्तषष्टि-भागानां त्रिभिः शतैः षण्णवत्यधिक षल्छ नक्षत्रपर्याया: शुद्धाः, स्थिते पश्चान्मुहूर्तानां द्वे शते त्रिचत्वारिंशदधिके मुहूर्त्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां चतु:सप्तत्यधिकं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टि सप्तषष्टिभागा:- 243 17460 / ततएकोनषष्ट्यधिकेन मुहूर्त्तशतेनएकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां चतुरशीतिः; मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां शतमेकोनपञ्चाश-दधिकम् एकस्य च द्वाषष्टि- भागस्य एकषष्टिः सप्तषष्टिभागा:-८४ 149 61 / ततो द्वाषष्टिभागानां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन द्वौ मुहूतौ लब्धौ पश्चात् स्थिता: पञ्चविंशति: 25 द्वाषष्टिभागाः, लब्धौ च मुहूर्ती मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्येते जाता षडशीतिर्मुहूर्तानां ततः पञ्चसप्तत्या मुहूर्तानां रेवत्य-श्विनीभरण्य:शुद्धाः, स्थिता: पश्चादेकादश मुहूर्ताः, शेष तथैव 11 25 ६१तत आगतम्- कृत्तिकानक्षत्रस्याष्टादशसु मुहूर्तेष्वेकस्यच मुहूर्तस्यषत्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य चद्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टि भागेषु शेषषु पञ्चमी 5 हैमन्ती आवृत्तिः प्रवर्तते, सूर्यनक्षत्रयोगविषये च प्रश्रनिर्वचनसूत्रे सुगमे, तदेवमुक्ता: 10 दशापि नक्षत्रयोंग- मधिकृत्य सूर्यस्याऽऽवृत्तयः / / सम्प्रति चन्द्रस्य वक्तव्याः। तत्र यस्मिन्नेव नक्षत्रे प्रवर्त्तमान: सूर्यो दक्षिणा:, उत्तरा वा आवृत्ती करोति तस्मिन्नेव नक्षत्रे प्रवर्त्तमानश्चन्द्रोऽपि दक्षिणाउत्तरा वा आवृत्तीः कुरुते, ततो या उत्तराभिमुख्य आवृत्तयो युगे चन्द्रस्य दृष्टास्ताः सर्वा अपि नियतमभिजिता नक्षत्रेण सह योगे द्रष्टव्या:, यास्तु दक्षिणाभिमुखा: ता: पुष्येण चन्द्रयोगे, उक्तंच (ज्योतिष्करण्डकेद्वादशे 12 प्राभृते)- "चंदस्स विनायव्वा, आउट्टीओ जुगम्मि जा दिट्ठा / अभिईए पुस्सेण य, निययं नक्खत्तसेसेण'' // 252 / / अत्र- "नक्खत्तसेसेणं' ति-नक्षत्रा-र्द्धमासेन शेष सुगमम् / तत्राभिजित्युत्तराभिमुखा आवृत्तयो भाव्यन्ते, यदि चतुस्त्रिंशदधिकेनायनशतेन चन्द्रस्य सप्तषष्टिनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः प्रथमे अयने किं लभ्यते? राशित्रयस्थापना 134 ६७१।अत्रान्त्येन राशिना- एकक? लक्षणेन मध्यमस्य राशेः सप्तषष्टि६७रूपस्य गुणनं जाता सप्तषष्टिरेव ६७."ऐकेन गुणितंतदेव भवतीति वचनात्, तस्याश्च सप्तषष्टेः 67 चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन 134 भागे हृते लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य; तस्मिंश्चार्द्ध नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि सप्तषष्टिभागानां भवन्ति, तत्र त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु पुष्यनक्षत्रस्य भुक्तेषु दक्षिणाऽऽयनं चन्द्रः कृतवान्, तत: शेषाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागा अनन्तरोदितराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि शेषाणि अष्टौ शतान्येकसप्तत्यधिकानि- (871) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो ह्रियते, इह कानिचित् नक्षत्राण्यर्द्ध क्षेत्राणि तानि च सार्द्धत्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टि-- भागप्रमाणानि, कानिचित् समक्षेत्राणि तानि परिपूर्णसप्तषष्टिभागप्रमाणनि कानिचिच द्वयर्द्धक्षेत्राणि तान्यर्द्धभागाऽधिकशतसंख्यसप्तषष्टिभागप्रमाणानि गात्रं त्वधिकृत्य सप्तषष्ट्या शुद्धयन्ति इति तत: सप्तषष्ट्या भागहरणं लब्धास्त्रयोदश 13 राशिश्ोपरितनो निर्लेपत: शुद्धस्तैश्च त्रयोदशभिः१३ अश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि तत आगतमभिजितो नक्षत्रस्य प्रथमसमये चन्द्र उत्तरायणं करोति, एवं सर्वाण्यतिचन्द्रस्योत्तरायणानि वेदितव्यानि,उक्तंच-"प Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टि 45 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउट्टीकम्म नरसे उ मुहुत्ते, जोइत्ता उत्तराअसाढा उ / एकं च अहोरत्तं, पविसइ नवत्यधिकानि-६९० तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागे हृते लब्धादश 10 मुहूर्ता:, अभिंतरे चंदो ॥१॥"अधुना पुष्ये दक्षिणा आवृत्तयो भाव्यन्ते- यदि शेषास्तिष्ठन्ति विंशति: 20, आगतंपुनर्वसुनक्षत्रे सर्वात्मना भुक्तेपुष्यस्य चतुस्त्रिंशदधिके नायनशतेन सप्तषष्टिश्चन्द्रस्य पर्याया लभ्यन्ते तत दशसु 10 मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु भुक्तेषु एकनायनेन किं लभामहे? राशित्रयस्थापना- 134 67 १अत्रान्त्येन सर्वाभ्यन्तरान्मण्डला- दहिर्निष्क्रामति चन्द्रः / तथा चाह (चं. प्र. 12 राशिना एकक 1 लक्षणेन मध्यमस्य राशे: सप्तषष्टि 67 रूपस्य गुणनं पाहु.।)जाता: सप्तषष्टिरेव 67, तस्या: 67 चतुस्विंशदधिकशतेन 134 भागहरणं दस 10 य मुहूत्ते सगले, मुहुत्तभागे य वीसई 20 चेव / लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य तच सप्तषष्टिभागरूपाणि नवशतानि पुस्सस्स विसयमभिगओ, बहिया अभिनिक्खमइ चंदो // 253 / / पञ्चदशोत्तराणि- 915, तत एकविंशति: 21 अभिजित: संबन्धिन: दश 10 च सकलान्- परिपूर्णान् मुहूर्तान- मुहूर्तभागन् सप्तषष्टि 67 सप्तषष्टिभागा: शोध्यन्तेस्थितानिपश्चादष्टौ शतानि चतुर्नवत्याधिकानि रूपान् विंशति: 20 पुष्यविषयमभिगत: सन् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद८९४ तेषां सप्तष्ट्या भागो ह्रियते लब्धास्त्रयोदश 13 तैश्च त्रयोदशभिः हिनिष्क्रामति चन्द्रः / ज्यो० 12 पाहु / सू०प्र०। १३पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषा तिष्ठति त्रयोविंशति:२३, एते आउट्टि(न)- त्रि. (आकुट्टिन) / यो हि जानन्- अवगच्छन् प्राणिनो च किल सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य ततो मुहूर्तभागकरणार्थ त्रिंशता हिनस्ति स आकुट्टी। 'कुट्ट' छेदने। आकुट्टनमाकुट्टः स विद्यते यस्येति। गुण्यन्ते जातानि षट्शतानि नवत्यधिकानि-६९०। तेषां सप्तषष्ट्या 67 छेदनभेदानादिव्यापारवति, सूत्र "जाणं कायेण-ऽणाउट्टी' भागे हृते लब्धा दश 10 मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति विंशतिः सप्तषष्टिभागास्तत इदमागतं पुनर्वसुनक्षत्रे सर्वात्मना भुक्ते पुष्यस्य च (२५४गाथा) / सूप्र० 1 श्रु० 1 अ 2 उ / ज्ञान-पूर्वकव्यापारवति / दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु भुक्तेषु अनापद्यप्यकार्यकारके च / “आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्वहिर्निष्क्रामति चन्द्र: एवं सर्वाण्यपि दक्षिणायनानि सबले ॥१२॥"'आउट्टीति'- यो जानन करोत्यापद्रहितो वा करोति। भावनीयानि, उक्तंच ("ज्योतिष्करण्डकेद्वादशे 12 प्राभृते)-"दस 10 दशा.२ अ। सूत्र य मुहूत्ते सगले, मुहूत्तभागे य वीसई चेव / पुस्सत्रिसयमइगओ, बहिया *आवर्तिन्- त्रिआ.वृत्-णिनि पुन: पुनर्वर्तनशीले, वाचा। अभिनिक्खमइ चंदो" // 253 / / चं, प्र. 12 पाहु०। आउट्टिऊण आवर्त्य- अव्य (आवयेत्यर्थे), व्य. 10 उ०। साम्प्रतं येन नक्षत्रेण युक्तश्चन्द्रमा अभ्यन्तरं प्रविशन बहिर्वा निष्कामन् आउट्टिज्जमाण-त्रि. (आकोट्यमान)। संकोच्यमाने सूत्र०२ श्रु०१ अ। आवृत्ती: करोति तत्प्रतिपादनार्थमाह आउट्टित्तए (आउट्टितुम्)- अव्य कारयितुमित्यर्थे, 'आउट्टि' एतादृश चंदस्स विनायव्वा, आउट्टीओ जुगम्मि जा दिट्ठा। एवायं धातुस्सैद्धान्तिक: करणार्थ: / कल्प०१ अधि०९क्षण। अभिईए, पुस्सेण य, निययं नक्खत्तसेसेणं // 252 / / आउट्टिम-न० (आकोट्टिम)। उत्कीर्णे, "आउट्टिमं उक्किन्नं" (1674) यस्मिन्नेव नक्षत्रे वर्तमानस्य चन्द्रमसोऽपि नक्षत्रशेषेणनक्षत्रार्द्धमासेन आकोट्टिमं जधा रूवओ हेट्ठा वि उवरिं वि मुहं काऊण आउट्टिज्जति। या उत्तराभिमुखा आवृत्तयो युगे दृष्टास्ता नियतमभिजिता नक्षत्रेण युगे दश 2 अ द्रष्टय्या:, याश्च युगे दृष्टा दक्षिणाभिमुखा आवृत्तयस्ता: पुष्येण योगे, | आउट्टिय-त्रि. (आउट्टित) कृते, कल्प०३ अधि० ९क्षण। तत्राभिजित्युत्तरा-भिमुखा आवृत्तयो भाव्यन्ते-यदि चतुस्त्रिंशदधिके *आकुट्टित- त्रि छिन्ने, सूत्र 1 श्रु.१ अ०२ उ / ज्ञानपूर्वककृते, दशा० नायनशतेन चन्द्रस्य सप्तषष्टिनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ? तत: प्रथमे अयने 2 अ॥ किंलभ्यते, राशित्रयस्थापना- 134 67 १अत्रान्त्येन राशिना एकक आउट्टिया-स्त्री. (आउट्टिका)। करणे, कल्प.१ अधि०६क्षण। (एकक:१लाख) लक्षणेन मध्यमस्य राशे: सप्तषष्टि६७ लक्षणस्य गुणनम्, जाता सप्तषष्टिरेव 67, तस्या: 67 चतुस्त्रिंशदधिकशतेन भागहरणं आकु ट्टिका- स्त्री छेदनभेदनादिव्यापारे, सूत्र 1 श्रु.१ अ०२ उ० / लब्धमेकमर्द्ध पर्यायस्य, तच्च सप्तषष्टिभागरूपाणि नव शतानि ज्ञानपूर्वकव्यापारे, दशा. 2 अ०। जीतः। स. प्रव। आभोगे, पञ्चदशोत्तराणि- (915) तत एकविंशति: 21 अभिजित: संबन्धिन: नि. चू०१२ उ। सप्तषष्टिभागा: 67 शोध्यन्ते स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि *आवृत्तिका- स्त्री. समन्तात्प्रवर्त्तने, अभिलाषायां च। आचा०२ श्रु०१ चतुर्नवत्यधिकानि- (894) तेषां सप्तषष्ट्या 67 भागो हियते लब्धाः चू१०३ उ०। आराधनायाम, व्य०२ उ.। नि.चू। आवर्जने, व्य. 10 उ० / त्रयोदश 13, तैश्चत्रयोदशभिः 13 पुनर्वस्वन्तानि नक्षत्राणि शुद्वानि, अभिमुखीभूय वर्तन, नं०३२ सूत्र। निर्वतने, सूत्र०१ श्रु० 10 अ०। शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोविंशति: 23. एते च किल सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य:, | आउट्टीकम्म-न. आकुट्टीकर्मन् / आकुट्या कृतं कर्म आगमोक्त ततो मुहूर्तभागकरणार्थं ते त्रिंशता 30 गुण्यन्ते जातानि षट्शतानि ___ कारणमन्तरेणोपेत्य प्राण्युपमईनेन विहिते कर्मणि, आचा। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउट्टीकम्म 46 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउबहुलकंड आकुट्टीकृतकर्मणि तु यद्विधेयं तदाहजं आउट्टीकम्म, तं परिण्णाय विवेगमेइ। (सूत्र-१५८) 'जं आउट्टी' इत्यादि, यत्तु पुन: काऽऽकुळ्या कृतमागमोक्तकारणमन्तररेणोपेत्य प्राण्युपमर्दनेन विहितं तत्परिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया विवेकमेति- विविच्यतेऽनेनेति विवेक:- प्रायश्चित्तं दश 10 विधं तस्यान्तरभेदमुपैति तद्विवेकं वा- अभावाख्यमुपैति तत्करोति येन कर्मणोऽभावो भवति। आचा०२ श्रु.५० 4 उ० / आउड-स्त्री० (आवृत्त्) आ-वृत्- सम्पक्विपआवर्तने, भ्रामणे, पुन: पुनश्चालने, पुन:पुनरेकजातीयक्रियाकरणे, आधारे क्विपापरिपाट्याम, अनुक्रमे, इति कर्त्तव्यताप्रकारे, संस्कारे, तूष्णीम्भावे च / कर्तरि विप्। आवर्तमाने, त्रिः। वाच। *आवृत्त-त्रि। आ-वृ-क्त कृतावरणे, अप्रकाशावृते, आच्छादिते, स्था० ३ठा०३ऊ। संकीर्णवर्णभेदे, पुंस्त्री। स्त्रियां जातित्वात् डीप्। वाच / आउडावेइत्ता- अव्य (आखोट्य) प्रवेशयित्वेत्यर्थे, विपा०१ श्रु०६अ। आउडिज्जमाण- त्रि. (आजोड्यमान) सम्बध्यमाने, 'जुड' बन्धने इति वचनात्। भ०५श०४ ऊ 185 सूत्र। *आकुट्यमान- त्रिंपरस्परेणामिहन्यमानेभ.। "छउमत्थे णं भंते! | मणूसे आउडिज्जमाणाइं सद्दाई सुणेई" आउडिज्जमाणाई ति-जुड बन्धने इति वचनात्, आजोड्यमानेभ्य:- | सम्बध्यमानेभ्यो मुखहस्तदण्डादिना सह शङ्कपट- हजल्लयादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्य आकुठ्यमानभ्यो वा, एभ्य एव ये जाता: शब्दास्त आजोड्यमाना एव आकुट्यमाना एख वा उच्यन्ते, अतस्तानाजोड्यमानानाकुट्यमानान्वा, शब्दान् शृणोति। इहच प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य नपुंसकनिर्देशः / अथवा- 'आउ-डिज्जमाणा' इति- आकुट्यमानि परस्परेणाभिहन्यमानानि / भ०५ श०४ उ / आउडिय- त्रि. (आकुट्टित) अङ्किते; अनु: 148 सूत्र। आउडेमाण त्रि. (आकुट्टयत्) ताडयति, भ.६ श१ उ.। आउडु-धा. (मस्ज) स्नाने, तुदा. पर अकर्मक अनिट्।"मस्जेराउड णिउड्ड 1 चुड्डु 2 थुट्ट खुप्पा":८४ 101 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण मस्जे: आउड्डु इत्यादेश: / आउड्डुइ। मज्जइ। मज्जतीत्यर्थ: / प्रा०। आउत्त- त्रि. (आगुप्त) / संरक्षिते, स्था० 3 ठा. 1 उ / संयते, पुं०। संयतसम्बन्धिनि गभनादौ च / त्रि"आउत्तं गमणं' (सूत्र-८०२४) आगुप्तस्य- संयतस्य संबन्धि यत् तदागुप्तमेवेति / भ. 25 श०७ उ०। *आयुक्त- न आ युज क्त / उपयोगे, भ. "आउत्तं वत्थपडिगहकंवलपायपुंछणं गेण्हमाणस्स' / (सूत्र- 153) उपयोगपूर्वकमित्यर्थः / भ० 3 श०३ उ०। उपयोगवति, संथा। उपयुक्ते, स्था०२ ठा०१ऊ। ध०। सूत्र प्रशस्तकायविनयभेदानुद्दिश्योक्तम् आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं णिसीयणं, आउत्तं तुयट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं सव्विंदियजोगजुंजणया। (सूत्र-५८५४) आयुक्तं गमनम् आयुक्तस्य- उपयुक्तस्य संलीनयोगस्य। स्था०७ ठा०३ ऊ। भ०। समन्तादुपयुक्ते, आ.म.१ अ। प्रयत्नपरे, ओध० 807 गाथा। शिक्षिते च / त्रि.। "असिकंटकविसमादीसु, गच्छंतो सिक्खिओ वि जत्तेणं / चुक्केइ एमेव मुणी, छलिज्जती अप्पमत्तो वि" ||100 / / सिक्खिओ विआउत्तो वि छलिज्जति। निचू.१ऊ। संयमार्थिनि च। संजमट्ठाए त्ति वा, आउत्तो त्ति वा, अविधिपरिहारि ति वा, एगट्ठा इति। आ. चू०१ अ आ युज कर्मणि क्त: / सम्यग्व्यापारिते, भावे क्तः / सम्यग् - नियोजने, न०। आयुक्तमनेन / इष्टा, इनि: / आयुक्ती / सम्यगनियोजन-कर्तरि, त्रि. स्त्रियां डीप / वाचा आउपरिणाम- पुं० (आयु:परिणाम) आयुष:-कर्मप्रकृतिविशेष- स्य परिणाम:-स्वभावः / आयुष: स्वभावे स्था० 3 ठा० 1 उ० / तस्य भेदा:नवविहे आउपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा- गइपरिणामे :, गइबन्धणपरिणामे 2, ठिइपरिणामे 3, ठिइबन्धणपरिणामे 4, उड्ढगारवपरिणामे 5, अहेगारवपरिणामे 6, तिरियंगारवपरिणामे 7, दीहंगारवपरिणामे 8. हस्संगारवपरिणामे / (सूत्र-६८६) 'नवविहे' त्यादि, 'आउपरिणामे त्यादि, आयुष:कर्मप्रकृतिविशेषस्य परिणाम:-स्वभाव:-शक्तिर्द्धर्म- इत्यायुः परिणामः / तत्र गतिर्देवादिका तां नियतां येन स्वभावेनायुर्जीव प्रापयति स आयुषो गतिपरिणाम:२, तथा- येनायु:स्वभावेन प्रतिनियतगतिकर्मबन्धो भवति, यथा नारकायु: स्वभावेन मनुष्यतिर्यग्गतिनामकर्म बध्नाति न देवनारकगतिनामकर्मति सगतिबन्धनपरिणाम:२, तथा-आयुषो याऽन्तर्मुहूर्तादित्रयरिंवशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति स स्थितिपरिणाम: 3, तथा येन पूर्वभवायु:परिणामेन परभवायुषो नियतां स्थिति बध्नाति स स्थितिबन्धनपरिणाम:, यथातिर्यगायु: परिणामेन देवायुष उत्कृष्टतोऽप्यष्टादशसागरोपमाणीति, तथा-येन आयु:स्वभावेन जीवस्योर्ध्वदिशि गमनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति स ऊर्ध्वगौरवपरिणामः 5, इह गौरवशब्दो गमनपर्याय: / एवमितरौ द्वाविति / तथा यत आयु:स्वमावात् जीवस्य दीर्घ- दीर्घगमनतया लोकान्तात् लोकान्तं यावद्गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणाम:८, एवं च यस्मात् ह्रस्वंगमनं स हस्व-गौरवपरिणामः, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वार इति अन्यथाऽप्यूह्यमेतदिति। स्था, 9 ठा०३ उ। आउबहुल- त्रि० (अब्बहुल) प्रचुरजलोपेते, स. 80 समक। "नो चेवणं आउबहुले भविस्सइ' (सूत्र-२८८) बह्वप्कायमित्यर्थः / म०७ श०६ उ०। आउबहुलकंड-न. (अब्बहुलकाण्ड)। प्रचुरजलोपेते रत्नप्रभायास्तृतीये काण्डे, स.। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउबहुलकंड 47 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउयबंध तत्प्रमाणादिआउबहुले णं कंडे असीइजो यणसहस्साई 80000 वाहल्लेणं पण्णत्ते / (सूत्र-८०) रत्नप्रभाय अशीत्युत्तरयोजनलक्षबाहल्यायास्त्रीणि काण्डानि भवन्ति / तत्र प्रथमे रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यम्, द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिसहस्रमानम् / तृतीयमब्बहुलकाण्डमशीतिर्योजनसहस्राणीति। स. 80 सम / आउभेय- पुं. (आयुर्भेद)। आयुषो- जीवितस्य भेद- उपक्रमः आयुर्भेदः / स्था०७ ठा०३ ऊा आयुष उपघाते, आ. च. १अ आ मा (तन्निमित्तानि 'आउ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतानि) स च सप्तविधनिमित्तत्वात्सप्तविध:सत्त विहे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा "अज्जवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए। फासे आणापाणू, सत्तविधं भिज्जए आऊ // 1 // " (सूत्र 161) अध्यवसानं- रागस्नेहभयात्मकोऽध्यवसायो निमित्तं दण्डकशाशस्त्रादीति समाहारद्वन्द्वस्तत्र सति आयुर्भिद्यत इति संबन्धः, तथा आहारेभोजनेऽधिके सति, तथा वेदना- नयनादिपीडा पराघातोगर्तपातादिसमुत्थः, इहापि समाहारद्वन्द्व एव तत्र सति, तथा स्पर्शतथाविधभुजङ्गा-दिसंबन्धिनि सति, तथा' आणापाणु' त्तिउच्छ्वासनि: श्वासौ निरुद्धावाश्रित्येति एवं च सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति / अथवा अध्यवसानमायुरुपक्रमकारणमिति शेषः, एवं निमित्तमित्यादि यावत् 'आणापाणु' त्ति व्याख्येयं, प्रथमैवकचनान्तत्वाद् अध्यवसानादिपदानामेवं सप्तविधत्त्वा-दायुर्भेदहेतूनां सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयु: / स्था०७ ठा. ३ऊ। आउय- न. (आयुष्क) जीविते, उत्त०३ अ० / संथा० / आ.स. / भवस्थितिहेतौ, कर्मपुद्गले च। आचा. 1 श्रु०२ अ 1 ऊ / तओ अहाउयं पालेंति, तं जहा-अरहंता, चक्कवट्टी, वलदेववासुदेवा / 31 // (सूत्र-१४३४) स्था.३ठा०१उ। आयुषा कायति, कै। आयुषा प्रकाशमाने प्रशस्तायुष्क। वाच / *आवुक-पु. अवति- रक्षति। अत्-धा। उण संज्ञायां कन् / नाट्याक्ती, जनके वाच। स्था०२ ठा० ३ऊ। आउयपरिहाणि- स्त्री. (आयुष्कपरिहानि) प्रतिक्षणायुष्कक्षये, पञ्चा० / विव। आउयबंध- पुं० (आयुष्कबन्ध) आयुषो बन्ध इति / स्था, 6 ठा०३ उ / आयुषो निषेके स स च प्रतिसमयं बहुहीनही- नतरस्य दलिकस्यानुभवनाथ रचना। स तद्भेदा:कइविहे णं भंते ! आउयबंधे पण्णत्ते? गोयमा ! छविहे आउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा-जाइनामनिहत्ताऽऽउए१, गइनामनिहत्ताउएर, ठिइनामनिहत्ताउए३, ओगाहणानामनिहत्ताउए४, पएसनामनिहत्ताउएफ, अणुभागनामनिह-त्ताउए, दंडओ जाव वेमाणियाणं। (सूत्र-२५०) (जाइनामनिहत्ताउय त्ति 1) जातिरेकेन्द्रियजात्यादि: पञ्चधा, सैवं नाम इति- नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्तंनिषिक्तम्। भ०६ २०८ऊ / अनुभवनाथबह्वल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापित (स.) (यद् भ.) य आयुस्तज्जातिनामनिधत्तायु: (स०- 154 सूत्रटी.) निषेकश्च कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनाथ रचना। भ०६ श०८ उ / उक्तंच-'मोत्तूण सगमवाह, पढ़माएं ठिईए बहुतरं दव्व। सेसे विसेसहीणं, जावुक्कोस्संति सव्वासिं" // 1 // इति / स्था०६ ठा. 3 उ / (गइनामनिहत्ताउएत्ति२)- गति: नारकगत्यादिभेदाच्चतुर्धा- तल्लक्षणं नाम कर्मा तेन सह निधत्तं निषिक्तायुर्गतिनामनिधत्तायुः / स० 154 समः / (ठिइनामनिधत्ताउएत्ति३-स्थितिरिति यत्स्थातव्यं: केनचिद्विवक्षितभवे जीवेनायु:कर्मणा वा सैव नामपरिणामो धर्म: स्थितिनामस्तेन विशिष्ट निधत्तं यदायुर्दलिकरूपं तत्स्थितिनामनिधत्तायुः / अथवा-इह सूत्रे जातिनामगतिनामा- वगाहनानामग्रहणाज्जातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुत्तं, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्ताः, ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नामकर्मरूपा एवेति, नामशब्द: सर्वत्र कर्थोि घटत इति, स्थितिरूपं नामकर्मस्थितिनाम तेन निधत्तं यदायुस्तत्स्थितिनामनिधत्तायुः / स्था०६ठा०३ऊ। यत्-यस्मिन् भवे उदयमागमनमवतिष्ठते तद्गतिजातिशरीरप- कादिव्यतिरिक्त स्थितिनामावसे यमिति भावः, गत्यादीनां वर्जनं तेषां स्वपदैः 'गइनामनिहत्ताउए' (145 सूत्रटी.) इत्यादिभिरूपात्तत्वात् / प्रज्ञा०६ पद / (ओगाहणा-नामनिधत्ताउए त्ति 4) / अवगाहते यस्यां जीव: सा अवगाहना-शरीरम् औदारिकादि तस्या नाम औदारिकादिशरीरनामकर्मेत्यवगाह- नानाम / (अवगाहनारूपो वा, नामः परिणामोऽवगाहनानाम:) तेन सह यन्निधत्तमायुस्त- दवगाहनानामनिधत्तायुः / (पएसनामनिहत्ताउए ति५)- प्रदेशानाम्-आयु:कर्मद्रव्याण नामतथाविधा परिणति: प्रदेशनाम् प्रदेशरूपंवा, नामकर्मविशेष इत्यर्थः; प्रदेशनाम / भ. 6 श० 8 उ० / प्रदेशा: कर्मपरमाणवस्ते च प्रदेशाः सक्रमतोऽप्यनुभूयमाना: परिगृह्यन्ते, तत्प्रधानं नाम प्रदेशनाम, किमुत्तं भवति-यत्यस्मिन् भवे प्रदेशतोऽनुभूयते तत्प्रदेशनामेति अनेन विपाकोदयमप्राप्तमपिनाम परिगृहीतम्। प्रज्ञा०६पदा प्रदेशानां प्रमितपरिणामानामायु: कर्मदलिकानां नामपरिणामो य: तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनामो जातिगत्य-वगाहनाकर्मणां वा यत्प्रदेशरूपं नामकर्म तत्प्रर्दशनाम / स. 154 सम। तेन सह यन्निधत्तमायुस्तत्प्रदेशनामनिधत्तायुरिति / (अणुभागनामनिधत्ताउए त्ति 6) / अनुभाग आयुर्द्रव्याणामेव विपाक: / भ०३ श०८ उ / तीब्रादिभेदो रस: / स. 154 सम० / तल्लक्षण एव नाम / परिणामोऽनुभागनामोऽनुभागरूपं वा नामकर्मानुभागनाम। भ०६ श०८ उ.। स चेहप्रकर्षप्राप्त: परिगृह्यतेतत्प्रधानं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउयबंध 48 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउयबंध - - नाम अनुभावनाम यत् यस्मिन् भवे तीव्रविपाकं नामकर्मानुभूयते यथा नारकायुषि अशुभवर्णगन्धरसस्पर्शापघाताऽनादेयदुःस्वराऽयशोकीादिनामानि तदनुभावनाम / प्रज्ञा०६ पद / अथवा -गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागबन्धरूपो भेदोऽनुभागनाम / स. 154 सम / तेन सह निधत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति। अथ किमर्थ जात्यादिनामकर्मभिरायुर्विशिष्यते? उच्यते- आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थ यस्मानारका- द्यायुरुदये सति जात्यादिना-मकर्मणामुदयो भवति / भ.६ श०८ ऊ / नान्यथेति भवत्यायुषः प्रधानता / प्रज्ञा०६ पद। नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्मादुक्तमिहैव"नेरइए ण भंते ! नेरइएसु उववज्जइ, अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ? गोयमा ! नेरइए नेरएइसु उववज्जइ, नो अनेरइए नेरइएसु उववज्जई'' त्ति / एतदुक्तंभवति- नारकायु: प्रथमसमयसंवेदन एव नारका उच्यन्ते तत्सहचारिणाञ्च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति / इह चायुर्बन्धस्य षड्विधत्वे उपक्षिप्ते यदायुष: षड्विधत्त्वमुक्त तदायुषो बन्धाव्यतिरेकाद्वन्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति / 'दंडओ' त्तिनेरइयणं भंते! कइविहे आउयबंधे पन्नत्ते' इत्यादि: वैमानिकान्तश्चतुर्विशतिदण्डको वाच्योऽत एवाह- 'जाव वेमाणियाणं ति। भ. 6 श०८ उ. 250 सूत्रटी०। प्रज्ञा, / स०। स्था। अथ कर्मविशेषाधिकारात्तद्विशेषिताना जीवादिपदानां द्वादशदण्डकानाहजीवा णं भंते ! किं जाइनामनिहत्ता, जाव अणु - भागनामनिहत्ता? गोयना! जाइनामनिहत्ता वि जाव अणुभागनामनिहत्ता वि, दंडओ जाव वेमाणियाणं / जीवाणं भंते! किं जाइनामनिहत्ताउया जाव अणु भागनामनिहत्ताउया? गोयमा! जाइनामनिहत्ताउया विजाव अणुभागनामनिहत्ताउयावि, दंडओजाव वेमाणियाणं / एवं एए दुवालस 12 दंडगा भाणियव्वा / जीवा णं भंते / किं जाइनामनिहत्ता १,जाइनामनिहत्ताउया 2, जाइनामनिउत्ता३, जाइनामनिउत्ताउया 4, जाइगोयनिहत्ता 5, जाइगोय-निहत्ताउया 6, जागोयनिउत्ता 7, जाइगोयनिउत्ताउया ८,जाइनामगोयनिहत्ता९, जाइनामगोयनिहत्ताउय 10, जाइनामगोयनिउत्ता 11, जाइनामगोयनिउत्ताउया 12, जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउया? गोयमा ! जाइनाम- गोयनिउत्ताउयावि जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउयावि दंडओ जाव वेमाणियाणं / (सूत्र-२५०) 'जाइनामनिहत्त' त्ति- जातिनाम निधत्तं- निषिक्त विशिष्टबन्धं वा | कृतं यैस्ते जातिनामनिधत्ताः / एवं गतिनामनिधत्ता: / यावत्करणात्'ठि इनामनिहत्ता, ओगाहणानाम निहत्ता, पएसनामनिहत्ता, अनुभागनामनिहत्ता'' इति दृश्यम्। व्याख्या तथैव नवरं जात्यादिनाम्ना या स्थितिये च प्रदेशा यश्चानुभागस्तत्स्थित्यादिनाम अवगाहनानाम शरीरनामेति / अयमेको दण्डको वैमानिकान्त:, तथा-'जाइनामनिहत्ताउय' त्ति- / जातिनाम्ना सह निधत्तमायुयैस्ते जातिनामनिधत्तायुषः, एवमन्यान्ययि पदानि अयमन्यो दण्डक: 2, एवमेते 'दुवालसदंडग' त्तिअमुना प्रकारेण द्वादश दण्डका भवन्ति, तत्र द्वावाद्यौ दर्शितावपि संख्यापूरणार्थे पुनर्दर्शयति- जातिनामनिधत्ता इत्यादिरेक:, 'जाइनामनिहत्ताउया' इत्यादिर्द्वितीयः, जीवा ण भंते! किं जाइनामनिउत्ता इत्यादिस्तृतीयः, तत्र जातिनामनियुक्त नितरा युक्त सम्बद्धं निकाचितं वेदने वा नियुक्त यैस्ते जातिनामनियुक्ताः, एवमन्यान्यपि५. 'जाइनामनिउत्ताउया' इत्यादिश्चतुर्थः। तत्र जातिनाम्ना सह नियुक्त निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुर्यस्ते। तथा एवमन्यान्यपि ५'जोइगोयनिहत्ता' इत्यादि: पञ्चमः। तत्र जातेरेकेन्द्रियादिकाया यदुचित गोत्रं नीचैर्गोत्रादि तज्जातिगोत्रं तन्निधत्तं यैस्ते जातिगोत्रनिधत्तायुष एक्मन्यान्यपि 5 जाइगोयनिउत्ताउया' इत्यादिरष्टमः, तत्र जातिनामगोत्र च निधत्तं यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि 5, 'जाइगोयनिहत्ताउया' इत्यादिः, दशमः / तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निधत्तमायुर्चस्ते तथा एवमन्यान्यपि 5. 'जाइनामगोयनिउत्ता' इत्यादिरेकादशः। तत्र जातिनामगोत्रञ्च नियुक्त यैस्ते तथा एवमन्यान्यपि 5, 'जीवा णं भंते! किं जाइनामगोयनिउत्ताउया' इत्यादिद्वादशः। तत्र जातिनाम्रा गोत्रेण च सह नियुक्तमायुयैस्ते तथा एवमन्यान्यपि 5, इह च जात्यादिनामगोत्रयोरायुषश्च भवोपग्रहे प्राधान्यख्या-पनार्थ यथायोगं जीवा विशेषिता वाचनान्तरे चाद्या एवाष्टौ दण्डका दृश्यन्त इति। भ०६श०८ उ.। अथ जात्यादिनामविशिष्टमायुः कियद्भिराकर्बध्नातीति जिज्ञासुजींवादिदण्डक्रमेण पृच्छति अल्पबहुत्वं च जीवा णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसे हिं पकरंति? गोयमा ! जहन्नेणं एक्केण दोहिंवा तिहिं वा उक्कोसेणं अट्ठहिं, नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउयं कतिहिं आगरिसेहिं पकरंति? गोयमा ! (सूत्र-१४५) प्रज्ञा०६ पद। सिय 1 एकेणं सिय२ 3 4 5 6 7 सिय 8 अट्ठहिं,नो चेवं णं नवहिं। (सूत्र 1544) स. 154 सम / जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं अट्ठहिं / (सूत्र-१४४) प्रज्ञा० 6 पद / स.। एवं जाव वेमाणिया। एवं गतिनामनिहत्ताउए वि. ठितिनामनिहत्ताउए वि। ओगाहणानामनिहत्ताउएवि। पदेसनामनिहत्तउए वि / अणुभावनामनिहउत्ताउए वि / एतेसि णं भंते ! जीवाणं जातिनामनिहत्ताउयं जहन्नेणं एक्को वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं अट्ठहिं आगरिसे हिं पक रेमाणा णं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थो वा जीवा जातिनामनिहत्ताउयं अट्ठहिं आगरिसे हिं पकरे माणा, सत्तहिं आगरिसे हिं पकरेमाणा संखेज्जगुणा एएहिं आगरिसेहिं पकरेमाणा संखेज्जगुणा, एवं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउयबंध 49 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउरचिन्न पचहिं संखेज्जगुणा, तिहिं संखेज्जगुणा, चउहि संखेज्जगुणा, आउयसदव्वया- स्त्री. (आयुस्सद्रव्यता) आयु:- प्रदेशकर्म तस्य दोहिं संखेज्जगुणा, एगेणं आगरिसेणं पकरेमाणा संखेज्जगुणा। द्रव्यैस्सह मानता-आयुस्सद्रव्यता / जीवस्यायुष्कर्मद्रव्यसहचारिएवं एतेणं अभिलावेणं जाव अणुभावनिहत्ताउयं / एव एते छप्पि तायाम्, "आउयसदव्ययभवे ओघो" आयुस्स-द्रव्यता-ओघजीवितं अप्पा-बहुदण्डगा जीवादिया भाणियव्वा / (सूत्र-१४५) / सामान्यजीवितमिदं चसकल-संसारिणामविशेषेण सर्वदाभावीति।आ० 'आगरिसेहिं पगरंती' त्यादि, आकर्षो नाम तथाविधेन प्रयत्नेन म.१० कर्मपुद्गलोपादानं यथा गौ: पानीयं पिबन्ती भयेन पुन: पुनराघोटयति एवं आउयाय- पुं. (अपकाय) एकेन्द्रियसंसारसमापन्नजीवविशेषे, प्रज्ञा० 1 जीवोऽपि यदा तीव्रणायुर्वन्धाध्यवसायेन जातिनामनिधत्तायुरन्यद्वा पद / भ० / (एतस्य वक्तव्यता आउक्काय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) बध्नाति तदा एकेन / प्रज्ञा०६ पद। मन्देन द्वाभ्यामाकर्षाभ्यां मन्दतरेण आउर- त्रि. (आतुर) ईषदर्थे, आ-अत्-उरच्। वाचा ग्लाने, (रोगिणि) त्रिभिर्मन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षभिः सप्तभिरष्टाभिर्वा न पुनर्नवभिरेवं स्था० 10 ठा, 3 उ / बृ। विविधदु: खोपद्रुते, (रोगादिपीडिते) वृ०१ऊ२ शेषाण्यपि 'आउगणि' त्ति- गतिनामनिधत्तायुरादीनि वाच्यानि प्रक, / उत्तः / बुभुक्षादिभि: पीडिते, ज्ञा. 1 श्रु.१ अ / अस्वस्थमनसि, यावद्वैमानिका इति अयश्चैकाद्याकर्षनियमो जात्यादीनां "तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितावंति''तत्थ-तत्थे' त्यादि-तत्र कर्मणामायुर्बन्धकाल एव / स. 154 समः। आयुषा सह बध्यमाना- तत्र तेषु तेषु कारणे-पुत्पन्नेषु वक्ष्यमाणेषु शरीरचर्मशोणितादिषु च नामवसातव्यो न शेषकालंकासाचित्यप्रकृतीनां ध्रुवबन्धिनीत्वादपरासां पृथग्विभिन्नेषु प्रयोजनेषु पश्येति शिष्यचोदना किं तत्पश्येति दर्शयतिपरावर्त्तमानत्वात्। प्रभूतकालमपि बन्धसम्भवेनाकर्षानियमात् / प्रज्ञा मांसभक्षणादिगृद्धा: आतुरा:- अस्वस्थमनस: परिसमन्तात्तापयन्ति६ पद / आयुर्बन्धपरिसमाप्तेरुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येवैषां ध्रुव- पीडयन्ति। आचा। किंकर्तव्यतामूढ़े, "पासिय आतुरए पाणे अप्पमत्तो बन्धिनीना ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनिवृत्तिर्भवत्ये- परिव्वए" (सूत्र-१०५)। पासिय' इत्यादि, स हि भावजागरस्तैर्भाव: तास्तु परावृत्याबध्यन्ते / स. 154 समः / (नारक- तिर्यग्-मनुष्य- जागरस्वापजनितै: शारीरमानसैर्दु:खैरातुरान्-किंकर्तव्यतामूढान् देवायुर्बन्धकारणानि बहुप्रकारेण 'बन्धहेउ' शब्दे पञ्चमभागे विस्तरत: दु:खसागरा-वगाढान् प्राणान्-भेदोपचारात् प्राणिनो दृष्ट्वा ज्ञात्वा प्रतिपादयिष्यते) तथा देवनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेष आयुर्न बद्ध तत अप्रमत्त: परिव्रजेत्- उद्युक्त: सन् संयमानुष्ठानं विदध्यात्। आचा०१ श्रु० आत्मीयस्यायुषः षण्मासशेषं तावत्संक्षिपन्ति यावत्सर्वजघन्य 3 अ.१ऊ / आकुलतनौ, उत्त०२ अ / वचिदपि स्वास्थ्य- मलभमाने आयुर्बन्ध उत्तरकालश्वावशेषोऽवतिष्ठते / इह परभवा युर्देवनैरयिका सत्याकुले, जी०३ प्रति०१अधिक उत्सुके बृ.१ऊ.३प्रकाव्याकुले, ज्ञा० बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकाल इति श्रीस्थानांगषष्ठाध्ययनवृत्त्युपान्ते १श्रु.१ अ.1"आउर लोयमायाए" (सूत्र-२८१) आउरं' इत्यादि, प्रोक्तमस्तीति 'पारं बंधंति देवनारय- असंखतिरिनरछमाससेसाउ'' लोकं मातापितृपुत्रकलत्रादिकं तमातुरं स्नेहानुषङ्गतया इत्यादिवचसां कथं संवाद् इति प्रश्ने, अत्रोत्तरम् - 'बंधंति देवनारये' वियोगात्कार्यावसादेन वा / यदि वा-जन्तुलोक कामरोगातुरमादाय त्यादिवचनं प्रायिकं तेन केषांचिद्देवनारकाणां शेषेऽन्तर्मुहूर्तेऽप्यायुर्बन्धो ज्ञानेन परिगृहीत्वा परिच्छिद्य / आचा० 1 श्रु०६ अ०२ऊ। क्लिष्टे, " भवतीति मतान्तरमवसीयते इति न कोऽपि विसंवाद इति // 39 // सेन / केषाञ्चिद्विषयज्वराकुलमहो" केषाश्चिज्जीवानां चित्तं-मन: विषया(आयुषो बन्धकान्'कम्म' शब्देतृतीयभागेदर्शयिष्यते) (आयुर्बन्धकानां इन्द्रियाभिलाषा एव ज्वरस्तेन आतुरं- क्लिष्टं मनो यस्य / अष्ट. 32 कर्मप्रकृतिबन्ध: 'कम्मपयडि' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते) अष्ट / दुःस्थे, भ. 16 श. 4 उ. / प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्यां जिते, (आयुर्वन्धस्थितिरायुर्बन्धकाना कर्मवेदना आयुर्वेदकानां (क्षुत्पिपासापीडिते) चिकित्सा- क्रियाव्यपेते, मरणचिहान्युपलभ्याकुले कर्मप्रकृतिबन्धश्च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते) च। नं. व्य / पा०।"आउराण य अप्पेगइयाणं मच्छमंसाइं उवदिसई" आउयसंवट्टय- पुं. (आयुष्कसंवर्तक) संवर्तनम्-अपवर्तनं संवत: स एव (सूत्र-२८४) आउराण' तिचिकित्सायामविषयभूतानाम्। विपा०१ श्रु संवर्तकः; उपक्रम इत्यर्थः, आयुष: संवर्तक आयु:संवर्तकः / आयुष 7 अ / (एतस्य बहुवक्तव्यता 'गिलाण' शब्दे तृतीयाभागे करिष्यते) उपक्रमे, स्था। आतुरत्वे च / (क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूतत्वे)"संकिए सहसागारे, (आयु: संवर्तकमाह) उभयाउरे आवतीसु य" (100x) भाव-प्रधानश्चायं निर्देशस्ततोऽ यमर्थः / व्य. 1 उ.। 'संभमभया-उरावई' 'आउर' ति-भावदोण्हं आउयसंवट्टए पण्णत्ते, तं जहा-मणुस्साणं चेव, प्रधानत्वान्निद्देशस्यातुरपीडितत्त्वं क्षुत्पिपासाद्यैः / जीत / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव 24 / (सूत्र-८५) लुप्तभावप्रत्ययत्वाद्वा। स्था०९ठा०३ऊ। कार्याक्षमे, वाचा अशक्नुवति, स्था०३ठा०३ऊ। व्य०४ऊ! आउयसंवेदन-न० (आयु:संवेदन) आयु: कर्मोदयविपाकाऽनुभवने, भ. | आउरचिन्न-त्रि. (आतुरचीर्ण) आतुर:- चिकित्साया अविषय३५ श.1 भूतो रोगी तस्य मतु कामस्य पथ्यापथ्याविवे केन दीय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउरचिन्न 50 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउलि माने मनोज्ञाहारे, उत्त० 8 अ०। ('उरब्म' शब्दे भावयिष्यते) "किमिजालाउलसंसते'' (सूत्र-६७) कृमिजालैराकुलै:-वयाकुलैआउरपचक्खाण- न. (आतुरप्रत्याखान) आतुर:- क्रियातीतो राकुलं वा संकीर्णं तथा भवतीत्येवं संसक्तं यत्तथा / ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ / ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यानमातुरप्रत्याख्यानम् / चिकित्सकक्रिव्याव्य "अट्ठारसवंजणाउलं" (सूत्र-१०६४) चं, प्र. 20 पाहु / पेतस्य ग्लानस्य प्रत्याख्याने, नं० / आतुर:चिकित्स्यक्रियाव्यपेतस्तस्य राजगृहाङ्गणजनाकुलवदाकुल: / भावस्कन्धविशेषे च / अनु०। प्रख्याख्यानं यत्राध्ययने विधिपूर्वकमुपवर्ण्यते तदातुरप्रत्याख्यानम् / आउलतर- त्रि. (आकुलतर) अतिशयेनाकुले, तथा च षष्ठउत्कालिक श्रुतविशेषे च / विधिश्चातुरप्रत्याख्यानदानविषये पृथिवीनरकापेक्षया सप्तमपृथिवीनारकाणां वर्णनमुपक्रम्यो- क्तम्- "णो चूर्णिकृतैवमुपदर्शित:-"गिलाणं किरियातीय नाउंगीयत्था पच्चक्खावेंति आउलतरा चेव' (सूत्र-४७५४) आउलतरा चेव त्ति-अतिकर्तव्यतयाये दिणे दिणे दव्वहासं करेत्ता अंते य सव्वदव्वदायणाए भत्तेवरगं जाणि आकुला- नारकलोकास्तेषामतिशयेन योगादाकुलतरा: / भ. 13 श०४ उ०। (णे)त्ता भत्ते वि (नि) त्तिण्हस्स भवचरिमपञ्चक्खाणं कारवेंति" नं०४३ आउलमण- त्रि. (आकुलमनस्) आकुरळ्ययं मन:- अन्त:करणं यस्य सूत्र / पा०। स तथा। व्यग्रान्त:करणे, "तप्पडियाराउलमणस्स" तत्प्रतीकारेआउरपडिसेवणा- स्त्री. (आतुरप्रतिसेवना) प्रतिसेवनाविशेषे, "दप्प वेदनाप्रतीकारे चिकित्सायामाकुलं- व्यग्रं मनो यस्य स तथा। आव 4 अ / पमायऽणाभोगे, आउरे आवईसु य' / आतुरे-ग्लाने सति आउलमाउला- स्वी० (आकुलाऽऽकुला) निद्राप्रमादाभिभूतस्य तत्प्रतिजागरणार्थमिति भावः, / अथवा- आत्मन एवातुरत्वे सति मूलगुणानामुत्तरगुणानां वा या नानाविधोपरोधक्रिया तदात्मि-कायाम्, लुप्तभावप्रत्ययत्वादयमर्थः- क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूत: सन् यां अथवा-आकुलं-नानाविधरूपं विवाहसंगमादिषु दृष्टमाचरितं वा पुनरपि करोति। उक्तंच-"पढमवीयदुवाहिओवजं सेव आउराए साइत्ति" / आकुलास्तादृशा बहवो दृष्टा व्यापारास्तदात्मिकायां स्वप्नान्तिकस्था० 10 ठा० 3 ऊ / (विशेषत: व्याख्या 'पडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे क्रियायाम, आवा द्रष्टव्या) सुप्तस्य दैवसिकमतिचारमधिकृत्योक्तम्आउरभेसज्जीय- न० (आतुरभैषज्यीय) अवितर्कितसम्भवि- तुल्ये आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्थीविप्परियासिए यादृच्छिकन्याये, आचा. (यथा- आतुरभवनम्भैषज्योप- दिद्विविप्परियासियाए मणविप्परियासियाए पाणभोयकारश्चाबुद्धिपूर्विकैच, नाऽऽतुरस्य बुद्धिरस्तिमह्यम्भैषज्यमु- पकरिष्यति, णविप्परियासियाए जो मे देवसिओ अइयारोको तस्स मिच्छा नापि भैषज्यस्यैतादृशी बुद्धिरस्ति आतुरायोप- करिष्यामीति अथ मि दुक्कडं // (सूत्र) तत्तथैव भवत्येवं सर्व जातिजरामरणादिकं लोके यादृच्छिकमिति 'आउलमाउलाए' त्ति- आकुलाकुलया- स्यादिपरिभोगयदृच्छावादिनः)। आचा० 1 श्रु.१ अ०१उ। विवाहयुद्धादिसंस्पर्शननानाप्रकारया स्वप्नप्रत्ययया स्वप्ननिमित्तया आउरसरण-न. (आतुरशरण)दोषातुरस्याश्रयदाने, दश०३ अ। विराधनयायोऽतिचार: आव०४०।"आउलमाउलताए सोवणंतियाए *आतुरस्मरण- न / क्षुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरणे, दश० निद्दप्पमायाभिभूतस्स मूलगुणाणं उत्तरगुणाणं वा उवरोधकिरिया जा "आउरस्सरणाणि य'' // 6 // तथाऽऽतुरस्मरणानि च क्षुधा-द्यातुराणां णाणाविधा सोवणंतिया सा आउलमाउला।। अहवा-आउलं-णाणाविह पूर्वोपभुक्त स्मरणानि च अनाचरितानि / आतुरशरणानि वा रूवं विवाहसंगमादिसु दिट्ठ आयरितं वा पुणो वि आउला तारिसा बहवो दोषातुराश्रयदानानि। दश.३अ / रोगादिपीडितस्य हातात! हामात: ! वारा दिहाएसा आउलमाउला। केईपुण-आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्यादिरूपेस्मरणे च।"आउरे सरणं तिगिच्छियंचतंपरिणायपरिव्वए एतं आलावगं एत्थ जातो सेसाओ आउल-माउलाओ। सोमणंतियाओ स भिक्खू'"'आउरे सरणं' ति-सुब्व्यत्ययादातुरस्य रोगादिपीडितस्य इत्थी दिट्ठाओ निद्दापमादाभिभूतेण तस्स मिच्छा मि दुक्कडंति शरणं- स्मरणं हा तात! हा मात: ! इत्यादिरूपम्। उत्त०१५ अ० पुवमणित / आ.चू.४ अर आउल-त्रि० (आकुल) व्याप्ते, औ० / ज्ञा० / "कलुसाऽऽउलं चित्तं" | आउलवाय- पुं० (आकुलवाद) परस्परसंकीर्णवादे, आकुलवादे इति। कलुषयन्ति आत्मानमिति कलुषा:- कषायास्तैराकुलं - व्याप्त सदसत्त्वयो: परस्परसंकीर्णवादे, अने.१ अधिक। यत्तथोच्यते / आव० 4 अ / जनाऽऽकीर्णे, वृ० 1 उ / प्रचुरे, भ. 1 श.९ आउलि- स्त्री. (आतुलि) पीतपुष्पके (तडउडा) नामकेवनस्पतिजातिउ / क्षुब्धे, "जत्थऽत्थमिए अणाउले (144)" भिक्षुर्यत्रैवास्तमुमैति विशेषे, "तडउडाकुसमेइ वा'' तडउडाआउली। आ० म०१ अ / सविता; तत्रैव काकायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति / यत्रास्तमितस्तथा- आउलिविशेष इत्यर्थ: स्था० 4 ठा०१ऊ। एत-त्काष्ठनिष्पादिते दन्ते ऽनाकुल:- समुद्रवन्नक्रादिभिः परीषहोपसर्गरक्षुभ्यन्। सूत्र०१ श्रु.१अ / दोषा भवन्ति। आउलिसत्कन्द काष्ठे केचिद्रहु दोष वदन्ति तत्सत्यमसत्यं अभिभूते, "तह तिव्वकोहलोहाउलरस" तीव्रावुत्कटौ च तौ क्रोधलोभौ वा तथा बहरी-बब्बूलदन्तकाष्ठेभ्य आउलिदन्तकाष्ठे जीवा: किमल्पा च ताभ्यामाकुलोऽभिभूतस्तस्य। आव० 4 अ / व्याकुले, (विह्वले) आo बहवस्तुल्या वेति प्रज्ञापनायां प्रथमपदे गुच्छाधिकारे आउलिम.१ अ / व्यगे, आव० 4 अ / व्याप्ते, सूत्र. 1 श्रु.१ अ. 1 उ / संकीर्णे च / सत्कमूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखाप्रवालेषु प्रत्येकमसंख्येयजीवा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउलि 51 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आउसंत त्मकता प्रोक्ताऽस्ति तदनुसारेण वदरीबब्बूलयोरपिषट्स्वपि स्थानेष्वसंख्याता जीवा: संभाव्यन्ते; नतु न्यूनाधिकजीवा: ।।४शा सेनः / *आकुलि- पुं०आ कुल इन्। व्याकुलत्वे वाचा आउलीकरण- नं. (आकुलीकरण) प्रचुरीकरणे, भ०। जीवानां संसाराकुलीकरणकारणम् लधुत्वकारणम्प्रति-पाद्योक्तम्कह णं मंते ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति? गोयमा! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं एवं खलु गोयमा! जीवा लहुयत्तं हटवमागच्छंति एवं संसारं आउलीकरेंति / (सूत्र-७२४) 'एवं आउली करेंति' त्ति-इहैवंशब्द: पूर्वोक्ताभिलापसं-सूचनार्थ:, स चैवम्- "कहं णं भंते ! जीया संसारं आउली-करेंति ?गोयमा ! पाणाइवाएणमि'' त्यादि,। एवं उत्तरत्रापि, तत्र 'आउलीकरेंति' त्तिप्रचुरीकुर्वन्ति; कर्मभिरित्यर्थः। भ०१ श० 9 उ०। आउलीभूय-त्रि. (आकुलीभूत) आ-कुल-च्विा भूतेक्ता स्वयं तथाभूते, वाच, आम.१ अ०। आउवज्जिय-त्रि. (आयुर्वर्जित) आयुष्कर्मविरहिते, पञ्चा०१६ विक। आउविज्जा-स्त्री. (आयुर्विद्या) वैद्यकेपापश्रुतविशेषे, आ०व०४ अा आउविवागदसा-स्त्री. (आयुर्विपाकदशा) प्रतिसमय-भोगत्वेनायातीत्यायुः विपचनं विपाक:; आयुषोऽपरिहाणि-रित्यर्थः। अनुभागेन युक्तो विभागो दशा इत्युच्यते आयुर्विपाकस्य दशा आयुर्विपाकदशा। आयुर्विपाकविभागे, "जं जम्मि काले आउयं उक्कोसं दसधा विभत्तं दस आउविवागदसा भवन्ति'' ततो य दसाओ दसवरिसपमाणातो वरिससयाउसो भवन्ति। नि. चू११ उ०। (दशोभेदादिकम् 'दसा' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) आउटवेय- पुं. (आयुर्वेद)। आयु:-जीवितं तद्विदन्ति-रक्षितु-मनुभविन्त चोपक्रमरक्षणेन विदन्ति वा लभन्ते यथाकालं तेन तस्मात्तस्मिन्वेत्त्यायुर्वेदः। चिकित्साशास्त्रे, स्था०८ ठा०३ उ। वैद्यकशास्त्रे, विपा०१ श्रु०७ अा तचाऽष्टविधम्अट्टविहे आउटवेए पण्णत्ते, तं. जहा-कु मारभिच्चे, कायतिगिच्छा 2, सालाइयं 3, सल्लहत्ता 4, जंगोली 5, भूयविज्जा६, खारतंते 7, रसायणे / (सूत्र-६११) 'कुमारभिच्चे' ति-कुमाराणां-बालकानां भृतौ-पोणषे साधु: कुमारभृत्यं तद्धि तन्त्रं कुमारभरणक्षीरदोषसंशोधनार्थ दुष्टशून्यनिमितानां व्याधीनामुपशमनार्थ चेति / कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्साप्रतिपादकं तन्त्रं काय-चिकित्सातन्त्रं; तद्धि मध्यानसमाश्रितानां ज्वरातीसाररक्त-शोषोन्मादप्रमेहकुष्ठादीनां शमनार्थमिति / शलाकाया: कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादकं तन्त्रं शालाक्यं तद्धि ऊर्ध्वमनुगतानां रोगाणां श्रवणवदननयनघ्राणादिसमाश्रितानामुपशमनार्थमिति 3 / शल्यस्य हत्या-हननम् उद्धार: शल्यहत्या तत्प्रतिपादकं तन्त्रमपि शल्यहत्येत्युच्यते, तद्धि तृणकाष्ठपाषाणपां सुलोहलोष्ठास्थिनखप्रायोऽङ्गान्तर्गतशल्योद्धरणार्थमिति / 'जागौली' तिविषविधाततन्त्रम् : अगदतन्त्रमित्यर्थः तद्धि सर्पकीटलूतादष्टविषविनाशार्थ विविधविषसंप्रयोगोपशमनार्थ चेति / भूतादीनां निग्रहार्थ विद्यातन्त्रं भूतविद्या साहि देवाऽसुगन्धर्वयक्षराक्षसपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्म-बलिकरणादिग्रहोपशमनार्थमिति 6 क्षारतन्त्रमितिक्षरणं क्षार: शुक्रस्य तद्विषयं तन्त्रं यत् तत्तथा, इदं हि सुश्रुतादिषु वाजी- करणतन्त्रमुच्यते। स्था० 8 ठा० 3 उ। तथा च विपाकश्रुते-धन्वन्तरिवर्णने "अटुंगाऽऽउवेदपाढए-तंजहा-कोमारभिच्चं 1. सालागे, सल्लगहते 3, कायतिगिच्छा 4, जंगाले 5, भूयवेज्जे६, रसायणे 7. वाजीकरणे टा (सूत्र-२८) विपा.१ श्रु०७ अ. अवाजिनो वाजीकरणरेतोवद्ध्या अश्वस्येव करणामित्यनयोः शब्दार्थः सम एवेति तत्तन्त्रं हि अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन- प्रसादोपजनननिमित्त प्रहर्षजननार्थमिति 7 / रस: अमृतरसस्त-स्यायनंप्राप्ती रसायनं तद्धि वय:स्थापनमायुर्मेधाकरणं रोगापहरणसमर्थं च तत्प्रतिपादकं शास्त्र रसायनतन्त्रमिति कृतरसायनश्च देववन्निरुपक्रमायुर्भवति मा स्था०८ ठा०३ऊ आउस(स्स)- पुं. (आक्रोश) "मृतोऽसि त्वम्" इत्यादिभिरसभ्यवचनरूपैः शापैरभिशापे, "अप्पेगइए आउसिहिति। (सूत्र-१५९) आक्रोशान्दास्यति, भ०१५शा "भंते! अहंणं पुरिसं आउसेज्जा वा" (सूत्र-४२४ 'आउसेज्जा व' त्तिआक्रोशयामि वामृतोऽसि त्वमित्यादिभिः शापैरभिशपामि। उपा०७ अ० दण्डमुष्ट्यादिभि-हननव्यापारे च। सूत्र। परतीथिकानुदिक्ष्योक्तमरागदोसाभिभूऽयप्पा, मिच्छत्तेण अभिदुता। आउस्ससरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं // 18|| 'रायरोस्सा' इत्यादि, रागश्च प्रीतिलक्षणो द्वेषश्च तद्विपरीतलक्षणस्ताभ्यामभिभूत आत्मा येषां परतीथिकानां ते तथा मिथ्यात्वेन विपर्यस्तावबोधेनातत्त्वाध्यवसायरूपेणाभिद्रुता व्याप्ता: सधुक्तिभिर्वाद कर्तुमसमर्थाः क्रोधानुगा आक्रोशान् असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्ट्यादिभिश्च हननव्यापारंयान्ति आश्रयते। अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाद्य दृष्टान्तमाह यथा टङ्कणाम्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना स्वानीकादिनाभिद्रूयन्ते तदा तेनानाविधैरष्यायुधैर्यालूमसमर्थाः सन्त: पर्वतं शरणमाश्रयन्त्येवं तेऽपि कुतीर्थिका वादपराजिता: क्रोधाधुपहतदृष्टय आक्रोशादिकं शरणमाश्रयन्ते। न च ते इदमाकलय्य प्रत्याक्रोष्टव्या:, तद्यथा-"अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं। लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं अभावंमि"||१|| सूत्र.१ श्रु.३० ३उन आउसंत- त्रि. (आजुषमाण) प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययः / प्रीतिप्रवणमनसि, स.१ सम। "सुयं मे आउसंतेणं" श्रवणविधिमर्यादया गुरूनासेवमानेन / स्था० 1 ठा०। उत्ता दशा०l Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउसंत 52 अभिघानराजेन्द्रः भाग२ आएअवक *आयुष्मत्- त्रि. (आयुरस्यास्तीति) दशा० 1 अ। दशल। जीवति, | आउहरिय-पु. (आयुधगृहिक) आयुधाध्यक्षे,। "तएणसे आउहधरिए" (प्राणधारणधर्मवति) स्था.१ ठा। चिरजीविनि, उत्त०२ अ। आयु :- (सूत्र-४३) तत: चक्ररत्नोत्पत्तेरनन्तरं स:। आयुधगृहिको यो भरतेन जीवितं तत्संयमप्रधानतया प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मान्। राज्ञाऽऽयुधाध्यक्ष: कृतोऽस्तीति गम्यम्। जं.३ वक्षः। स्था.१ ठा०१। चिरप्रशस्तजीविते, भ०१६ श०९ऊ। चिरायु:-(दीर्घायु:) आउहागार-न. (आयुधागार) षष्ठी६ त / प्रहरणशालायाम, औला ज्ञा०। आचा०१ श्रु.१ अ.१ उठा लक्षणगुणवति च शिष्यादौ, स्था० ठा० / (प्रहरणकोशे), स्था०९ठा०३ उ। तच्च राज्ञां प्रहरणास्थापनार्थं गृहम्। सकलगुणाधारभूतत्त्वेनायुश्च प्रधानो गुण: सति तस्मिन्नव्य वाचा वच्छित्तिभावात्। दशा०१ अ।दश। एतच शिष्यामन्त्रणे पुत्रादेरामन्त्रणे च प्रयुज्यते। उत्त०२ आ दश०। दशाला "अयमाउसो' (सूत्र-१०७) आउहि (न)-त्रि (आयुधिन) आयुधं प्रहरणमस्त्यस्या शस्त्रधारके आयुष्मन्नितिपुत्रादेरामन्त्रणम्। भ०२ श०५ ऊा दशा। परार्थप्रवृत्त्यादिना वाच विशे० 1866 गाथा। प्रशस्तमायुर्धारयति; न तु मुक्तिमवाप्यापि तीर्थनिकारादिदर्शनात्पुन- आऊसिय-त्रि. (आयूषित) आ-यूष् क्त। वाच.1 प्रविष्टे, रिहायातेना-भिमानादिभावतोऽप्रशस्तमिति। तीर्थकरे, पुं०। उत्तर अ॥ "आऊसियवयणगंडदेसं" (सूत्र-६९४)'आऊसिय' त्तिप्रविष्टौ वदने दशा। स्था०। यथोच्यते कैश्चित् -"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः गण्डदेशौ-कपोलभागौ यस्य तत्तथा। संकुचिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। परमं पदम् / गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारत: ॥१॥"एवं "आऊसियअक्खचम्मओट्ठगंडदेसं" 'आऊसिय' त्ति-संकुचितं ह्यनुमूलितरागादिदोषत्वात्तद्वचसोऽप्रमाण्यमेव स्यान्नि:- शेषोन्मूलने हि यदक्षचर्म जलापकर्षणकोशस्तद्वत् 'उट्ठ' त्ति-अपकृष्टौ-अपकर्षवतौ रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव:। स्था०१ ठा०"सुयं मे आउसंतेणं संकुटितौ गण्डदेशौ यस्य स तथा तम्। ज्ञा०१ श्रु०८ अा भगवया एवमखायं" (सूत्र-१४)। आचा.१ श्रु०१ अ.१ उसहा दश०। *आभूषित-त्रि.संकुटिते, "आऊसियअक्खचम्मओहगंडदेसं' अन्ये दशा। विष्कुम्भाव-धिकेतृतीये योगे, पुं। विष्कुम्भ: प्रीतिरायुष्मान्। त्वाहुः आभूषितानि-संकुटितानि अक्षाणिइन्द्रियाणि चर्म ओष्ठौ च ज्योति / वाच। गण्डदेशौ च यस्य स तथा तम्। ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। आउसुह-न. (आयुःशुभ) तीर्थकरादिसम्बन्धिनि शुभे आयुष्क-मणि, गाहादश०१०॥ आउसोय- न. (अपशौच) अद्भिः शौचमप्रशौचम्। प्रक्षालनात्मकेशौचभेदे, रक्खाभूसणहेळं, भक्खणहेउं च मट्टियागहणं / "जलशौचं तु पञ्चमम्" इति। स्था०५ ठा०३ उ०। दीहाहिमक्खइए, इमाए जतणाए णायव्वं / / 270 / / आउस्सिय-न. (आवश्यक) अवश्यं भाव: मनोज्ञा। वुञ् अवश्यंभावे, दीहादिणा खइए मंतेणाभिमंतिऊण कडगबंधेणा रक्खा कज्जति, प्रज्ञा 36 पदा आ.म.। मट्टियं वा मुहे घोट्टडंको आऊसिज्जति-आलिप्पति वा। नि. चू, आउस्सियकरण-न. (आवश्यककरण) आवश्यकेन आवश्य-भावेन १ऊ। करणमावश्यककरणम् केवलिसमुद्धातात्पूर्वं केवलि-नामवश्यकर्त्तव्ये आए(दे)ज्ज त्रि. (आदेय) आ-दा-यत् / आकाङ्क्षणीये, जं०२ वक्षः। व्यापारविशेषे, तथादि समुद्धातकेऽपि कुवन्ति केचिच न कुर्वन्ति उपादेये, जी०३ प्रति 4 अधि. ग्राह्ये, सूत्र 1 श्रु०१४ अ०/ इदचावश्यककरणं सर्वेऽपि केवलिनः कुर्वन्तीति (अत्र विशेष: "आएज्जलढहसुविभत्तज्जायसोयसोभत्तरुइलरोमराई"। आदेया'आउज्जीकरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) प्रज्ञा० 36 पद / आ. म.। दर्शनपथप्राप्ता सती उपादेयासुभगा। जी०३ प्रति०४ अभि०। आदेयावाचका दर्शनपथमुपगता सती पुन: पुनराकाक्षणीया जं०२ वक्षः। आउह-न० (आयुध) आयुध्यतेऽनेनाराकाजीला आयुधकरणेधार्थेकः। | आए (दे) ज्जवक्क-पुं. (आदेयवाक्य) ग्राह्यवाक्ये, सूत्र से वाच, अक्षेप्येऽस्त्रे चा औ० ज्ञा०। प्रहरणे. विशे० 1866 गाथा। से सुद्धसुत्ते उवहाणवंच, "गहियाउहप्पहरणाण।" (31 सूत्र-) गृहीतान्यायुधानि खङ्गादीनि धम्मंच जे विंदति तत्थ तत्थ। प्रहरणाय यैस्ते तथा तेषाम्। अथवा-आयुधान्यक्षेप्याणि, प्रहरणानितु क्षेप्याणीति विशेषः। औ. ज्ञा०। शस्त्रमात्रे, तस्य भेदा: समासतस्विधा आदेज्जवक्के कुसले वियत्ते, प्रहरण-हस्तमुक्त- यन्त्रमुक्तभेदात्। तत्र हस्तस्थितैयैः प्रहियते तानि स अरिहइभासिउंतं समाहिं ||27|| प्रहरणानि यथा खशादीनि, हस्तमुक्तानि चक्रादीनि, यन्त्रमुक्तानि स-सम्यग्दर्शनस्यालूषको यथावस्थितागमस्य प्रणेताऽनु-विचिन्त्य शरादीनि, तेषां सर्वेषां युद्धसाधनत्वादायुधत्वम्।वाचा भाषक: शुद्धमवदातं यथावस्थितवस्तु-प्ररूपणातोऽध्ययनतश्च सूत्रप्रवचन आउहघर-न० (आयुधगृह) प्रहरणशालायाम् ,जं.३ वक्षः। यस्यासौ शुद्धसूत्रः। तथोपधानतपश्चरणं यद्यस्य सूत्रस्याभिहितमागमे आउहघरसाला-स्त्री० (आयुधगृहशाला) प्रहरणगृहशालायाम् , जं.३ // तद्विद्यते यस्यासावुपधानवान्,तथा धर्मं श्रुतचारित्राख्यं यः सम्यक्वक्षा वेत्तिविदन्ते वा सम्यक् लभते तत्र तत्रेति य आज्ञाग्राह्योऽ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएज्जवक्क 53 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आएस संवासेति तो ता इमे दोसा भवंति।। गाहा थः स आज्ञयैव प्रतिपत्तव्यो हेतुतस्तु सम्यग्घेतुना। यदि वास्वसमयसिद्धोऽर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीय: पर (समय) सिद्धश्व परस्मिन्। अथवा-उत्सर्गापवादयोर्व्यवस्थितोऽर्थस्ताभ्यामेव यथास्वं प्रतिपादयितव्य एतद्गुणसंपन्नश्चादयवाक्यो- ग्राह्यवाक्यो भवति। सूत्र 1 श्रु०१५ अा आए (दे) ज्जणाम-न. (आदेयनाम) नामकर्मभेदे, प्रव. 216 द्वार। तच-"आएज्जा सव्वलोयगिज्जवओ" (50) आदेयादादेयनामोदयेन सर्वलोकेन-समस्तजनेन ग्राह्यमांदेयं वचो-वचनं यस्य स तथा कर्म.१ कर्म। यथा यदुदयवशात् यचेष्टते भाषते वा तत्सर्वं लोक: प्रमाणीकरोति दर्शनसमनन्तरमेवच जनोऽभ्युत्थानादि समाचरति तदादेयनामा प.सं. 3 द्वारा श्रा, कर्म आए(दे)जवरण त्री० (आदेयवचन) ग्राह्यवचने, दशा०४ अा उत्त०। आए (दे) ज्जवयणया- स्त्री. (आदेयवचनता) सकलजनग्राह्यवाक्यतारूपे वचनसम्पर्दोदे, दशा०४ अास्था। आए (दे) स- पुं. (आदेश) आ-दिश्। भावेघा उपदेशे, आज्ञायाम्, वाचला आदिश्यते-आज्ञाप्यते संभ्रमेण परिजनो यस्मिन्नागते तदातिथेयाया तदासनदानादिव्यापारे, स आ देशः। सूत्र 2 श्रु.१ अा आचा। उत्ता आदितीत्यादेश:। आयासकरे, व्य०९ऊ। अभ्यर्हिते, उत्त ६अ। नायकादौ प्राधूर्णके, उत्त० ६अ। "आए सो पाहुणग''। आदेश करोतीत्यादेश:। नि. चू१ उ। ध। आचा। आ.म.। "सागरियस्स आएसे" (सूत्र 1-2-3-4-)" सागारिकपिंडस्य प्रतिपादकं यत् आदिमं सूत्रं तस्य संबन्धः, अनेन संबन्धेनायातस्यास्यव्याख्यासागरिको नाम शय्यातरस्तस्याऽऽदेश आयासकर आदेश:। यदिवा आदेशित: आदेश:। अथवा आदेशत इति शब्दसंस्कारस्तस्य व्युत्पत्तिमग्रे वक्ष्यामः। स च नायको मित्रं प्रभुः परतीर्थको वा द्रष्टव्यः। व्य०९ उ.। आदेशमनापृच्छ्य त्रिरात्रात्परं यतः प्रायश्चितं संवासवक्तव्यताजे भिक्खू वहियावासिय आएसं परं तिरायाउ अवकालेत्ता संवसावेइसंवसावंतं वा साइज्जइ|१४|| __ आगतो आदेशं करोतीति आएस:; प्राघूर्णकमित्यर्थः। सो य अण्णगच्छवासी बहियावासी। भण्णंति तमागतं परतो तिरायतो परतो 'तिण्हदिणाणां' तिअविफालियविप्फलणाणाम वियडणा किं णिमित्तं आगता अणवज्जंतो वा भदंत / कतो आगया, कहिं वा वचह, एवं अविफालेंतस्स चउत्थदिणे चउगुरुं भवति, आणादिणो यदोसा। गाहाबहिवासगच्छवासी, आदेसं आगयं तु जो संतं। तिण्हदिवसाण परतो,ण पुच्छती संवसाणादी।।१५७।। गताथां गतो आरतो अविफालेंतस्स दोसा। गाहापढमदिण विति, ततिए, लहुगुरुलहुगा य सुत्त तेण परं। संविग्गमणुणितरे, होतदपुढे इमे दोसा / / 158 / / पढमदिणे अविफालेंतस्स मासलहुँ। वितियदिणे मासगुरुं। ततियदिणे चउलहुं। तेण परं' ति-चउत्थदिणे सुत्तणिवातो; चउगुरुमित्यर्थः। संविग्गो उज्जमंतो मणुण्णा संभवति तो पासत्थदिणो वा एए जइ अपुच्छिते | उवचरगअहिमरे वा, छेवतितो तेणा मेधुणऽट्ठी वा। रायादवकारी वा, पउत्त अत्ता व तेणो वा / / 159|| कत्ताइ सो तेण वेसगाहणेणं उवचरो-भंडितो गच्छति, अहिमरो यदि गच्छति छेवति-असंविगो हि तो भण्णति संपक्ख परिक्खातेणितुमागतो तेणगो वा गच्छति, मेहुणं सेवेतुमागतो मेहुणट्टी वा गच्छति, रण्णो वा अवकारं काउमागतो, रण्णो वा अवकारकारणाए गच्छति, वा विकप्पे आयरियस्स वा उदाइ- मारकवत्। भावे 'तेणो' सिद्धं ताव हरणट्ठताए केणति पउत्तो आगतो, अप्पणा वा, गोविंदवाचकवत् / एवमादिदोसा भवति अपुढे पुच्छितो वा इमं भणे। गाहाउवसंपयावराहे, कज्जे कारणिऐं अट्ठजाते वा। बहिताउ गच्छवासि-स्साऽऽदीवण एवमादीहिं॥१६०।। कज्जे भत्तपरिण्णा, गिलाण राया य धम्मकहि वादी। छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वइक्कमे गुरुगा / / 16 / / तुभ चेव उवसंपज्जाणियव्वा आगतो, अवराहाऽऽलोयणं वा दायणं वा दाहामि त्ति आगतो कुलगणासंघकज्जेण वा आगतो, असिवादीहिं वा करणेहिं आगतो, अवजायणिमित्तेण वा आगतो, हंसो बहिया गच्छवासी विप्फालितो एवमादीकारणे दीविज्जा आयरिओवि विप्फालितो, एवमाइकारणे सुहं जाणति कारणे तिण्हदिणाणं परतोन विप्फाले आलोयणं वा न पडिच्छे, कुलगणसंघकज्जेण आयरिओ वा वडो न विप्फालेति, भत्तपरिभत्ती अणसणोवचिट्टो तत्थ वा वाउलो, गिलाणंकज्जेण वा वडो दिणं वा सव्वं, रन्नो धम्ममाइक्खति, परवादिणा वा सद्धिं वादं करेति, एवमादिकारणेहिं तिण्हदिणाणं परतो अविफालंतो विशुद्धो, उक्कोसेण जाव छम्मासा / छम्मासात-क्कमपढमदिणे अविफालंतस्स च गुरुगा। गाहाअण्णेण पडिच्छावे, तस्साऽमति संतं पडिच्छते रत्तिं। उत्तरवीमंसासुं, खिण्णो दणिसिं पिण पडिच्छो / / 16 / तिरातिक्कमे अण्णेण वि आलोयणं 'पडिच्छावे' ति-अण्णस्स वा आलायणारहियस्साऽसति सयमेव 'रातो' पडिच्छति अह एसो वि परवादुत्तरवींमसाएवा वडो दिवा वादकारणेण खिण्णो वीमसंता एतो वि ण पडिच्छति एवं छम्मासा पत्ता छम्मासंते वि अण्णे पडिच्छावति एसेव भावेत्यर्थः। गाहादोहिं तिहिँ व दिणेहिं, जतिअच्छति तो न होति पच्छित्तं / तेण परमणुण्णवणा, कुलाई रण्णो व दीवेंति ||16|| छह मासाणां परतो दोहिं तिहिं कज्जण समप्पेति तो कुलगणासंघस्स रण्णो वा णिवेदेति जेहिं वा वडो भविस्सामि तेण णागमिस्सं कारणेणा विप्फालेज्जा। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएस 54 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आएस गाहावितियपदमणप्पज्जे, अंतगणादागयं ण विष्फाले। अप्पज्जं च गिलाणं, अच्छितुकामं च वचंतं // 164|| अणवज्जो ण विफालेति, ण विफालिज्जति वा, अवज्जो गिलाणेण पुच्छिज्जति गिलाणं वा वडो वा सो वा आदेसो। गिलाणो ण पुच्छिज्जति गिलाणं वा वडो वा आएसोनपुच्छिज्जति। अहवा तेण अपुच्छिएण चेव कहियं, जहातुब्भ सगासे अच्छिउकामो आगतो, अहवा-अपुच्छिएण चेव कहियं इहाहं वसितुं इमिणो कारणेण गच्छामि चेव, एव अविफालतो सुद्धो। सूत्रमजे भिक्खू साहिगरणं अविउसवियं पाहुणगं अकडपायच्छित्तं परं तिरायाओ विप्फालियं अविप्फालियं संभुजइ संभुसृतं वा साइज्जइ // 15 // 'जति' णिवेसे, भिक्खू-पुव्वावणितो, 'सह'-अधिकरणे, कषायभावशुभभावाधिकरणसहितेत्यर्थः। विविधं विविधेहिं वा पगारेहिं उसवियं-उवसामियं किं तं पाहुडं; कलहमित्त्यर्थः। ण वि ओसवियं अविओसवियं पाहुडं तंमि पाहुडकरणे जं पच्छित्तं भंडं जेण सो कडपच्छित्तो अ, मा, नो, ना, प्रतिषेधे,। तत्कृतं प्रायश्चित्तमकृतप्रायश्चित्त-जो त संभुजणसभोएण सभुजोत। एगमडलीए सभुति त्ति वुत्तं भवति। अहवा-दाणग्गहेणं संभोएणं भुजति, तस्स चउगुरुगा, आणादिणोय दोसा। नि, चू. 10 उ०ा आज्ञापने, बृ.१७०३प्रका स्थान आज्ञायाम्, ज्ञा. 1 श्रु. 1 अ.आदेशिते, आदिश्यतेसत्कारपुरस्सरमाकार्य्यत इत्यादेश: इति व्युत्पत्तेः। व्य.९ उ.। आदेशनमादेश:। उपचारे, (व्यवहारे) स्था०४ ठा०२ उठा विशे। आ०म० उपचारेऽर्थे, (आदेशवक्तव्यता आएससव्व' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) उद्गम-दोषविशेषस्यौद्देशिकस्य तृतीये भेदे च। स च निर्ग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीविकानां श्रमणानां कृते चादेशाख्यमिति। आदिश्यते-ज्ञाप्यते इत्यादेश:। (कर्मकरादिक) य: कस्यांचित् क्रियायां नियोज्यते कर्मकरादि:। आचा०२ श्रु२ चू०६ अ प्रकारे, नि.चू.१ ऊका "गहियाऽगहियम्मि आदेसे" (824) गृहीतागृहीतविषये आदेश:प्रकारश्चतुर्भङ्ग्यात्मक:। व्य०२ उछा दवओ,खेत्तओ२, कालओ३, भावओहदवओणं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ, पासइ। खेत्तओ णं आमिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वखेत्तं जाणंइ, पासहा एवं कालओ, भावओ वि। (सूत्र-३२१+)। आदेश:-प्रकार: सामान्यविशेषरूपस्तत्रादेशेनोद्यतो द्रव्यमात्रतया नतु तद्गतसर्वविशेषापेक्षयेति भावः। अथवा-देशेन श्रुतपरिकर्मिततया सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते; ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात्। भ०८ श० 2 उ। आदेश:-प्रकार। स च द्विधा-सामान्यरूयो, विशेषरूपश्चेति।नं। कोऽयमादेश इत्याह आएसो त्ति पगारो, ओहादेसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थि आइयाई,जाणइ, न उसवभेदेण||४०३।। इह आदेशो नाम ज्ञातव्यवस्तुप्रकार:, स च द्विविध:-सामान्यप्रकारो, विशेषप्रकारश्च। तत्रौघादेशेन-सामान्यप्रकारेण; द्रव्यसामान्येनेत्यर्थः, सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति असंख्येयप्रदेशात्मको लोकव्यापकोऽमूर्त: प्राणिनां पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भहेतुर्द्धर्मास्तिकाय इत्यादिरूपेण कियत्पर्याय- विशिष्टानि षडपिद्रव्याणि सामान्येन मतिज्ञानी जानातीत्यर्थः। विशे। "अन्नो वि य आएसो" अन्योवाऽऽदेश: प्रकार:। बृ. 3 ऊा आदिश्यत इत्यादेश: आचार्यपारम्पर्यश्रुत्याऽऽयातो वृद्ध-वादोऽयमैतिहमाचक्षते, स आदेश:। वृद्धवादाऽऽयाते दृष्टान्ते, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ.। आदिश्यत इत्यादेश: निर्देशे, नि. चू.१ उ०आदिश्यत इत्यादेशः। व्यापारनियोजने, आचार श्रु०१ चू० 1 अ० 1 उड़ा प्रतिपादने, "धुयमादिसंति" धूतम् मोक्षम् आदिशन्ति-प्रतिपादयन्तिा सूत्र 1 श्रु.१ अ० प्रतिवचने विशे०। मते, "मोत्तूणादेसतिगं" मुक्त्वा परिहत्यादेशत्रिकं मतत्रिकम्। पिं. विकल्पे, "आदेसाइमे होति" आदेशा:-विकल्पा:। नि०चू.१ उ. आिितम यदिया विशेषरूपानतिक्रमात्मिकया आदिश्यते-कथ्यत इत्यादेश: विशेषे, उत्त ००००००००००००००००००आएसे चेवणास्से hoth आदिह्रो आएसं-मिबहुविहे सरिसणाणचरणगते। सामित्तपव्वयाई-मिचेव किंचित्तओ वोच्छं / / 47 / / आइिति-मर्यादया विशेषरूपानतिक्रमात्मिकया आदि-श्यतेकथ्यत इति आदेशो-विशेषस्तस्मिन् तदन्यस्त्वनादेश: सामान्यं पूर्वत्र चैवशब्दयोः। समुच्चयावधारणार्थयो-भिन्नक्रमत्वात्तस्मिंश्चैव तत्र क्षेत्रविषयोऽनादेशे यथा जम्बूद्वीपजोऽयम्, आदेशे तु-यथा भारतोऽयं, कालविषयोऽनादेशे यथादौष्यमिकोऽयम् आदेशे तु-वासन्तिकोऽयं, भावविषयोऽना देशे भाववानयम्, आदेशे त्वौदयिकादिभाववानिति। सामान्यावगमपूर्वकत्वाद्विशेषावगमस्यैवमुदाहियते। निर्युक्तौ तु विपर्ययाभिधानं जम्बूद्वीप इति सामान्यमपि लोकापेक्षया विशेषो भरतमिति, विशेषोऽपि मगधाद्यपक्षेया सामान्यमित्यादिरूपेण सर्वत्र सामान्यविशेष-योरनियतत्वख्यापनार्थम् / उत्त०१ अ.। आएसो पुण दुविहो, अप्पियववहारणप्पितो चेव। एक्कक्को पुण तिविहो, अप्पाणा परे तदुभए य / / 4 / / आदेशोऽभिहितरूप: पुन:शब्दो विशेषणे, द्विविधो-द्विभेदः, कथमित्याह- 'अप्पिअववहाराणप्पिओ चेव' तिव्यवहारशब्दोऽत्र डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र संबद्ध्यते, ततश्चार्पितो व्यवहारो यस्मिन्सोऽयमर्पितव्यवहारः, मयूरव्यंसकादित्वात्समास: अनर्पितव्यवहारस्तु तद्विपरीतस्तत्रार्पितो नाम क्षायिकादिर्भाव: स्वाधारे-भाववति ज्ञातोऽयमित्यादिरूपेण ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारण वक्त्रा स्थापित: अनर्पितस्तु वस्तुत: साधारत्वेऽपि निराधारप्ररूपणार्थ विवक्षितो यथा सर्व भावप्रधानः क्षायिको भा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएस 55 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आएसकारिन् वोऽनयोरपि भेदानाह-एकैक इति अर्पितव्यवहारः, अनर्पित-व्यवहारश्चा पुनस्त्रिविध:, कथमित्याह- 'अत्ताण' त्तिआकर्षत्त्वादात्मनि परस्मिन् तयोरात्मपरयोरुभयं तदुभयं तस्मिश्च विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषयत्रैविध्येनानयोस्त्रैविध्यम्। उत्तर अा (आदेशाऽनादेशयोर्बहुवक्तव्यता 'संजोग' शब्दे सप्तमभागे करिष्यते) व्यपदेशे, आचा। एओवम आएसो, वाए उसंतेऽविरूवंमि / / 167|| एतदुपमानो वायावपि भवति आदेशो-व्यपदेश:। आचा.१ श्रु.१०७ उ। केसिंचिय आएसो, सण, णाणेहि वट्टए तित्थ (15) वेषांचिद् दुर्विदग्धबुद्धीनां ज्ञानलवाध्मातचेतसां-कदाग्रहास्तमनसाम् आदेशो-व्यपदेश: गूरणेति यावत् दर्शनज्ञानाभ्यां वर्तते। दर्श०४ तत्त्व। श्रुतपरिकर्मिततायाम् , भ०८ श०२ ऊ। श्रुतपरिकर्मणायाम् / भ०८ श०२ उ०। सूत्रे च। "आदेशो ण उववज्जतीति अणवढ्डो होति'' भवति आदेश:; सूत्रादित्यर्थः। निचू.१ उ./ तत्थदव्वओणं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वाइंदव्वाई जाणइ, न पासइ। (सूत्र-३६) अथवा-आदेश इति-सूत्रादेशस्तस्मात्सूत्रादेशात्सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, नतु साक्षात्सर्वाणि पश्यति। नं०। आएसो त्ति व सुत्तं, सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं। पसरइतव्भावणया, विणा सुत्ताणुसारेणं 11405|| अथवा-आदेश: सूत्रमुच्यते, तेन सूत्रादेशेन सूत्रोपलब्धेष्वर्थेषु तस्य मतिज्ञानिन: सर्वद्रव्यादिविषयं मतिज्ञामं प्रसरति। विशे०। अङ्गोपाङ्गादिसूत्रेष्वबद्धा ये भावा:- पदार्था ज्ञानिभिः प्रकाशिताश्च ते कस्य तीर्थकरस्य समये कियन्त आदेशा उच्यतेएवं बद्धमबद्धं, आएसाणं हवंति पंच सया। जह एगा मरादेवा, अचंतंथावरा सिद्धा / / 1023 / / एवम्-अनन्तरोक्तप्रकारं सर्वं (वद्धं) लोकोत्तरं श्रुतम्। लौकिक त्यारण्यकादि द्रष्टव्यम् अबद्धं पुनरादेशानां भवन्ति पञ्चशतानि, किंभूतानीत्त्यत आह-यथैका-तस्मिन् समये अद्वितीया मरुदेवीऋषभजननी अत्यन्तस्थावरा-अनादिवनस्पतिराशेरुदत्य सिद्धानिष्ठितार्था संजाता। उपलक्षणमेतत् अन्येषामपि स्वयं भूरमणजलधिमत्स्यपद्मपत्राणां वलयव्यतिरिक्तसकल-संस्थानसंभवादीनामिति, लौकिकमप्यनिबद्धं वेदितव्यम् / अड्डिकाप्रत्यड्डिकादिकरणं ग्रन्थाऽनिबद्धत्वात्। अत्र वृद्धसंप्रदाय: "आरुहए पवयणे पंच आएससयाणि जाणि अणिबद्धाणि, तत्थेगं मरुदेवा णावि अंगेणा उवंगे पाढो अस्थि, जहा-अच्चंत थावरा होइऊण सिद्धत्ति, बिइयं सयंभुरमणे समुद्दे मच्छाणं पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि अत्थि वलयसंठाणं मोत्तुं, तइयं विण्हुस्स सातिरेगजोवणसयसहस्सविउव्वणं, चउत्थं करडओकुरुडा, दोसट्टियरुवज्जाया, कुणालाणयरीए निद्धणमूले वसही, वरिसासु देवयाणुकंपणं, नागरेहि निच्छुहणं, करडेण रूसिएण वुत्तं वरिस देव ! कुणालाए,' उक्कुरुडेण भणियं-'दस दिवसाणि पंच य' पुणरवि करडेण भणियं-'मुहिमेत्ताहिं धाराहिं' उक्कुरुडेण भणियं-'जहा रत्तिंतहा दिवं' एवं वोत्तूणमवक्कंता, कुणालाएविपण्णरसदिवसअणुबद्धवरिसणेणं सजाणवया (सा) जलेण उक्कतातओतेतइयवरिसे साएएणयरेदोऽविकालं काऊण अहे सत्तमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमट्टिईआ णेरइया संवुत्ता। कुणालाणयरीविणा-सकालाओतेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलणाणसमुप्पत्ती। एयं अनिबद्ध एवमाइपंचाऽऽएससयाणि अबद्धाणि एवं लोइयं अबद्धकरणं बत्तीसं अड्डियाओ बत्तीस पचड्डियाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाहे पंचट्ठाणाणि, तंजहा-आलीढं, पञ्चालीढं, वइसाहं मंडलं, समपया तत्थालीढं दाहिणं पायं अग्गओहुत्तं काउं वामपायं पच्छओहुत्तं ओसारेइ, अंतरं दोण्हवि पायाणं पंचपाया, एवं चेव विवरीयं पञ्चालीढं, वइसाहं पण्हीओ अभिंतराहुत्तीओ समसेढीए करेइ, अग्गिमयलो बहिराहुत्तो, मंडलं दोवि पाए दाहिणवामहुत्ता ओसारेत्ता ऊरुणोवि आउंटावेइ जहा मंडलं भवइ, अंतरं चत्तारि पया, समपायं दोवि पाए सम निरंतरं ठवेइ, एयाणि पंचट्ठाणाणि, लोगप्पवाए (हे) सयणकरणं छठे ठाणं, इत्यलं विस्तरेण। आव०१ अ.। (सूत्रस्यादेशत्वे बहुवक्तव्यता 'आभिणिबोहियणाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) *एष्य-त्रि०। आगमिष्यति, सूत्र०। 'आएसा वि भवंति सुव्वया' (204) आगमिष्यांश्च ये भविष्यन्ति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। *आवेश-पुं। आविशतीत्यावेश: यस्मिन् स्थाने प्रविष्टे सागारिकस्याऽऽयासो जन्यते स आवेश:। ज्ञातिके स्वजने, सुहृदि, प्रभौ, परतीर्थिक चा व्या भाष्यकृदादेशशब्दव्याख्यानमाहआयासकरो आए-सितो उ आवेसणं व आविसइ। सो नायगो सुही वा, पभूव परतित्थितो वाऽवि ||2|| आयासकर आदेश: आदिशतीत्यादेश इति व्युत्पत्ते:, आदिशितो वा आदेश:। आदेश्यते सत्कारपुरस्सरमाकार्यत इत्यादेशव्युत्पत्तेः। अथवाआवेश इति संस्कारस्तत्र व्युत्पत्तिमाह-आवेशनं वाशब्द: शब्दसंस्कारापेक्षया विकल्पने, आविशतीत्यावेश: आवेशनं नाम यस्मिन् स्थाने प्रविष्टेन सागारिकस्याऽऽयासो जन्यते, स आदेश:, आवेशो वा नाम ज्ञातिक:-स्वजन: सुहृदा-मित्रं प्रभु-नायक: परतीर्थिको वाऽपि। व्य०९ ऊ। आ-विश-धञ्। अहङ्कारभेदे, संरम्भे, अभिनिवेशे, आसङ्गे, अनुप्रवेशे, यथा भूताऽऽवेश:। ग्रहभये, भूताधावेशरोगे चा वाचा आएसकारिन्- पुं (आदेशकारिन) आज्ञाकारिणि, कौटुम्बिकादौ, "कोथुवियपुरिसे सद्दावेंति" (सूत्र-१२४) कौटुम्बिकपुरुषान् - आदेशकारिणः। ज्ञा०१ श्रु०१ अ० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आएसग(य) 56 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आओपगओ० आएसग (य)-त्रि. (आदेशक) आदिशति। आ-दिश् धाण्वुल। आदेशकारके, आज्ञाकारके, वाचन आदिश्यते यस्मिन्नागते संभ्रमेण परिजनस्तदासनदानादिव्यापारे स आदेशकः। प्राघूर्णके, सूत्र. 2 श्रु.१ अ॥ आएसग्ग- न. (आदेशाग्र) आदिश्यत इत्यादेशो-व्यापार-नियोजना। अग्रशब्दोऽत्र परिमाणवाची, तत्र च यत्र परिमितानामादेशो; दीयते तदादेशाग्रम्। (आचा.) आदिश्यते इत्यादशा निर्देश इत्यर्थ: आदेशेनाग्रं | आदेशाग्रम् / नि. चू.१ उ। परिमितानामादेशे, तद्यथा-त्रिभिः पुरुषैः कर्म कारयन्ति तान्वा भोजयति। आचा०२ श्रु०१ चू.१ अ.१ उ। गाहाआदेसगं पंचंगु-लादिजं पच्छिमं तु आदिसति। पुरिसाणा व जोयंते, भोयणाकम्मादिकज्जेसु ||13| आदिश्यते इति आदेशो; निर्देश इत्यर्थ: तेण आदेसेण अग्गं आदेशगं, तत्थुदाहरणं पंचंगुलादि; पंचण्हं अंगुलीदव्वाण कम्मट्टिताण जदिपच्छिमं आदिसतितंआदेसगंभवति आदेसकारणं इमभोयणकालेजहासत्तट्ठाणे बहुआण कम्मट्ठिताण इमं बहुयं भोजयसु ति (आदिसति) एवं कम्माइकज्जेसु वि नेया गयं आदसग्ग। नि० चू.१ उ०।। *आवेशन- ना आ-विश आधारे ल्युटा वाचा लोहकारादिशालायाम्। आचा०२ श्रु.१चू.२ अ 2 उा तानि चायस्कार कुम्भकारादिस्थानानि येषु लोका आविशन्ति। औला शिल्पशालायाम, तत्र हि मनोऽभिनिवेशेन च कार्य-करणात्तस्यास्तथात्वम्। भूतावेशादिरोगे, कोपादौ, वाचा आएसपर- त्रि. (आदेशपर)आदिश्यते-आज्ञाप्यते इत्यादेश:। यः कस्यांचित्क्रियायां नियोज्यते कर्मकरादि: स चासौ परश्वादेशपरः / कस्यांचित्क्रियायां नियुक्त कर्मकरादौ, आचा०२ श्रु२ चू.६अ। भोअणपिंसणमादी-सु एगखेत्तष्टियं तुजं पच्छा। आदिसह मुंजऊणसु, व आएसपरो हवइ तत्थ / / 583 / / / एतद्भाजनं प्रतीतं, पेषणं-व्यापारणं तदादिषु कारणेषु यं कञ्चन पुरुषमेकस्मिन् क्षेत्रे स्थितमपि पश्चात्पर्यन्ते आदिशतियथा, भुड्क्ष्वभोजन विधेहि, कुरु वा कृष्यादिकर्म, एष आदेशपरो भवति आदशआज्ञपनं तदाश्रित्य पर: पाश्चात्य आदेशपर:। बृ.१ उ.३ प्रका आएसभत्त- न. (आदेशभक्त) आएसो-पाहुणगो आगतों तस्स भत्तं आदेशभक्तम्। प्राघूर्णकभक्ते। नि, चू.९ऊ। ('एतद्वक्तव्यता' 'भत्त' शब्दे 5 पश्चमे भागे करिष्यते) आएससव्व-पु. (आदेशसर्व) आदेशनमादेश:- उपचारो व्यवहारः। सच बहुतरे प्रधाने वाआदिश्यते, देशेऽपि यथा- विवक्षितं घृतमभिसमीक्ष्य बहुतरे भुक्ते; स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते- "सर्व घृतं भुक्तं" प्रधानेऽप्युपचारः क्रियते, यथा-ग्रामप्रधानेषु गतेषु पुरुषेषु'"सर्वो ग्रामो गत" इतिव्यपदिश्यत इतिी आदेशत: सर्वमादेशसर्वमुपचारसर्वमित्यर्थः। स्था०४ ठा०२ उड़ा उपचारेण सर्वस्मिन् , स्था०४ ठा०२ उ०। आमा / आदेशसर्वस्य स्वरूपम् - आएसो उवयारो, सो बहुतरए पहाणतरए वा। देसे वि जहा सव्वं, भत्तं भुत्तं गओ गामो // 3488 / / आदेश:-उपचार: सच बहुतरेप्रधानतरेवा आदेशोऽपि सर्वतया प्रवर्तते, तद्यथा-परिगृहीतं भक्तमध्याद्रहुतरे भुक्ते सति आदिश्यते-सर्वमनेन भुक्तमिति। प्रधानेतराऽऽदेशे च कतिपयपुरुषेषु गतेषु शेषष्ववतिष्ठमानेष्वप्यादिश्यते, लोकेयथा-"गत: सर्वो ग्राम:'। विशे। आएसिन्-त्रि (आदेशिन) आदिशति आ-दिश् णिनि आदेशकारके, वाच०। अभिलाषिणि, "वण्णादेसी णारभेकंचण (सूत्र-१५४४) वर्ण:साधुकारस्तदादेशी वर्णादशी-वर्णाभिलाषी-सन्नारभते कञ्चन। आचा० १श्रु०५ अ०३ऊ। आएसिय-त्रि (आदेशिक) उपदेष्टरि, सूत्र / (सम्यग्ज्ञानवतामुपदेष्ट्रणां गुणानाविर्भावयन्नाह)लोयं विजाणंति ह केवलेणं, पुग्नेण णाणेण समाहिजुत्ता। धम्म समत्तं च कहति जे उ, तारंति अप्पाण परं च तिन्ना 14011 सूत्र. 2 श्रु.६ अ। (आस्या गाथाया व्याख्या 'अदृगकुमार' शब्दे 1 प्रथमभागे 559 पृष्ठे गता) आदेशितो वा आदेश: आदेशात्सत्कारपुरस्सरमाकार्यत इत्यादेश इति व्युत्पत्तेः। (व्य.) आदेशे, (नायकादौ प्राघूर्णक)। व्य०९ उ आओग-पुं. (आयोग) आयुज घञ् / गन्धमाल्योपहारे, व्यापारे, रोधे, सम्यक् सम्बन्धे चा वाचा द्विगुणादिलाभे, स्था. ठा० 3 उ०। द्विगुणादिवृद्ध्याऽर्थप्रदाने च। भ० 2 श० 5 उ० परिकरे, "भीमसंगामि आओगं" (सूत्र)। भीम:-सांग्रामिक आयोग:-परिकरो यस्या ज्ञा० श्रु. 16 अ आओगपओग-पुं॰ (आयोगप्रयोग) आयोगस्य अर्थला-भस्य प्रयोगाउपाया:। औला आयोगेन द्विगुणादिलाभेन द्रव्यस्य प्रयोगोऽधमानां दानम् / स्था०८ ठा.३ उ०। द्रव्योपार्जनोपाय- विशेषे, स्था०९ ठा.३ उ०। द्विगुणादिबुद्ध्याऽर्थप्रदाने कालान्तरे प्रयोगे च। भ०२ श०५ऊ। आओगपओगसंपउत्त- वि० (आयोगप्रयोगसम्प्रयुक्त) आवाहनविसर्जनकुशले, रा। आयोगो द्विगुणादिवृद्ध्यार्थप्रदानं प्रयोगश्च कालान्तरितौ सम्प्रयुक्तौ व्यापारितौ यैस्ते तथा। भ०२ श०५ उ०। आयोगप्रयोगा-द्रव्योपार्जनोपायविशेषाः सम्प्रयुक्ता:- प्रवर्तिता येन स तथा, स्था०१ ठा। आयोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगा- उपाया: संप्रयुक्ताव्यापारिता येन तेषुवा सम्प्रयुक्तो व्यापृतो य: सा ज्ञा. 1 श्रु.१ अा औ०। प्रवर्तितद्रव्योपार्जनोपायविशेषे स्था०९ ठा०३ उड़ा द्रव्योपार्जनोपायविशेषेषु प्रवृत्ते च / ज्ञा०१ श्रु.१ अ.। आयोगेन द्विगुणादिलाभेन द्रव्यस्य प्रयोगः अधमर्णानां दानम् तत्र संप्रयुक्तानि-व्यापूतानि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आओगपओ० 17 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आकिंचणियव्वय तेन वा संप्रयुक्तानि-संगतानीति। स्था० 8 ठा 3 उ.। द्विगुणादिलाभेन | आकम्हिय-त्रि. (आकस्मिक) अकस्मादित्यध्ययं कारणाभावे, कारणं द्रव्यप्रयोगेषु व्यापृते, द्विगुणादिलाभार्थम् द्रव्यप्रयोगेण संगते चा स्था०८ | विना भवः। विनया, ठक् टिलोपः। अकस्माद्भवे, स्त्रियां डीए। वाच। ठा.३ उ। अकस्मादेव यद्भवति तदाकस्मिकम्। विशे नियुक्तिके आचा०१ श्रु०८ आंवुरिग्गाम- पुं. (आंबुरिग्राम) अशीतितीर्थजिनान्तर्गतश्री मतिदेवजि- अ०१ उ०। अहेतुके विशे। नाधिष्ठिते ग्रामविशेषे, आंवुरिग्रामे श्रीमतिदेवः। ती०४३ कल्प। वज्जनिमित्ताभावा, जं भवमाकम्हियं तं ति।।३४५१|| आकंखा- स्री. (आकाक्षा) आ-काक्ष-अड़ा अभिलाषे, न्यायमते, यत्तु बाह्यनिमित्ताभावात् -अकस्मादेव भवति तदाकस्मिकम्। वाक्यार्थज्ञानहेतौ, यत्पदं विना यत्पदस्यानन्वय-स्तत्पदे तत्पदवत्त्वरूपे विशे। (एतद्वक्तव्यता'सभाव' शब्दे सप्तमभागे करिष्यते) संबन्धे, पदान्तरव्यतिरेकेणान्ययाभावे च। वाच०। वाञ्छायाम्, षो० 15 आकिइ-स्त्री. (आकृति) आ-कृ-क्तिन्।"इत्कृपादौ" 11811 / 128|| विव०। (अभिलाषायाम्) आचा. 1 श्रु०५ अ०६ऊ।"तत्तत्त्वं यदृष्ट्रा, इति हैमप्राकृतसूत्रेणेत्त्वम्। प्राकृतत्वात्त- कारलोपः। प्रा०ा आक्रियतेनिवर्त्तते दर्शनाऽऽ-काक्षा''||शा दर्शनाकाक्षा-दर्शनवाञ्छा। षो०१५ व्यज्यते जातिरनया। करणेक्तिन्। जाति-व्यज्जकेऽवयवसंस्थानभेदे, विव। "आकृतिग्रहणा जाति:' महाभा०। जात्याकृतिव्यक्तयस्तु पदार्थाः गौ० आकंदमाण-त्रि० (आक्रन्दत्) आकन्दशब्दं कुर्वति, विपा०१ श्रु०९ अ०। सूत।। वाचला आकारे, आ०म०१ अज्ञा। संस्थाने, नयो०। 'आगार त्ति वा आकंप-पु. (आकम्प) आवर्जन, स्था०१० ठा०३ ऊा व्यधा आराधने, आग त्ति वा संठाणं ति वा एगट्ठा' आ. चू.१ अ०। आकृतिशब्देन व्य.१ऊा आ-ईषदर्थे, कपिघञ्। ईषत्कम्पे वाचा प्राण्यबयवानां पाण्यादीनांतदवयवानांचाङ्गल्यादीनां संयोगोऽभिधीयते। आकंपइत्ता- अव्य (आकम्प्य) आराध्येत्यर्थे, व्य०१ उगा आवयेत्यर्थे, तथा च सूत्रम्-"आकृतिजोतिलिङ्गाख्या" (न्यायद अ०२ आ०२ सू० ध० 2 अधि। स्था०। (आकम्पालोचनो हि आलोचकस्य दशसु दोषेषु 67) इति अस्य भाष्यम्। (सम्म काण्ड 2 गाथाटी. ("सद्द' शब्दे प्रथमो दोष: 'आलोणा' शब्देऽग्रेऽस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्यः) सप्तमे भागे विस्तरत: प्रतिपादयिष्यते) (अस्याः शब्दार्थत्वविचार आकंपइत्तु-(आकम्प्य)अव्य। आवर्जेत्यर्थे, स्था०२० ठा०३ उ०। 'आगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे करिष्यते) रूपे, "यत्राकृतिस्तत्र आकंपण- न. (आकम्पन) आराधने, आवर्जने चा व्य०१ उा ध गुणावसन्ति" आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०ा आकम्पते, आ-कपि-युचा ईषत्कम्पनशीले, त्रिका भावे ल्युटा ईषत्कम्पे, आकिइमंत-त्रि. (आकृतिमत्) प्रशस्तस्वरूपोपेते, "जो वि अगीतो वि ना आ-कपि-णिच्-ल्यु। ईषचालके त्रि। तत एव भावे ल्युट्टा ईषचालने, आगइमंतो" (974) / अगीतार्थोऽपि आकृतिमान् - रूपेण न. वाचः। मकरध्वजतुल्य:स गणधरपदे निवेश्यते। व्य०३ उ०। आकड-पुं. (आकर्ष) अभिमुखमाकर्षणे, प्रश्न०१ आश्र द्वार। नि०चू०। आकिंचणिय-नं. (आकिंचन्य) अकिञ्चनस्य भाव:ष्यञ्। दरिद्रतायाम्। आकडण- न. (आकर्षण) अभिमुखं कर्षणमाकर्षणम्। अभिमुखकर्षणे, वाचला नाऽस्य किञ्चन द्रव्यमस्तीत्यकिञ्चनस्तस्य भाव आकिञ्चन्यम्। प्रश्न.१ आश्र द्वार / "आकड्ढणमाकसणं" अप्पणो तेण प्रव०६६ द्वार। षो। ध। कनकादिरहित- तायाम, पञ्चा० 11 विव०। आगट्टणमागसणं''। नि.चू.१८ऊ। आकिंचणियनत्थि जस्स किंचण सो अकिंचणों तस्सभावो आकिंचणियं, आकडविकड्ड- पुं० (आकर्षविकर्ष) द्वि. अभिमुखकर्षण- | कमनिज्जरढं सदेहादिसु विणस्समेण भवितव्या आ०चू.४ अ०। विपरीतकर्षणयो.."आकड्ढविकढ़" (सूत्र-४४) आकृष अभिमुखं आकिंचणियव्वय-न. (आकिञ्चन्यव्रत) पञ्चमे महाव्रते,धा कर्षणं कु। वि-कृष विपरीतं कर्षणं कुरु। प्रश्न. 1 आश्र द्वार। परिग्रहस्य सर्वस्य, सर्वथा परिवर्जनम्। आकविकड्डिया- स्त्री. (आकर्षविकर्षिका) अभिमुखमाकृष्टस्य आकिश्चन्यं व्रतं प्रोक्त-मर्हदभिदर्हितकाक्षिभिः||४|| विपरीतकर्षणे, प्रश्न०१ आश्रद्वार।"आकडविकड्डि करेमाणे" (सूत्र सर्वस्य-सचित्ताऽचित्तादिविषयस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयस्य वा 556+) भ०१५शा निचू। परिग्रहस्य-मूछभिावस्य सर्वथा त्रिविधे त्रिविधेन परिवर्जन- त्याग: आकण्णन- न. (आकर्णन) श्रवणे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ.ा धर० तत् आकिंञ्चन्यव्रतं, न विद्यते किंचन द्रव्यं यस्यासाव- किञ्चनस्तस्य (एतद्वक्तव्यता) 'सवण' शब्दे सप्तमे भागे दृष्टव्या) आ-कर्णल्युट् श्रवणे, भाव आकिञ्चन्यं तच तद्वतं चेति समासः; अपरिग्रहव्रतमित्यर्थः। "मुदा तदाकर्णनतत्परोऽभत्।" नैष०ा वाचा प्रोक्तप्रज्ञप्तं कैरहद्भि-र्जिनैः, किंविशिष्टस्तैर्हितकाक्षिभिर्हितेच्छुआकण्णिय- त्रि. (आकर्णित) श्रुते, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। भिरिति शब्दार्थः। ध०३ अधि। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकीलवास 58 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगइ आकीलवास- पुं. (आक्रीडावास) गौतमद्वीपस्थसुस्थित- | लवणाधिपतेरत्यर्थक्रीडावासे भौमेयविहारे, जी०। (तद्वक्तव्यता 'गोयमदीय' शब्दे तृतीये भागे वक्ष्यते)। जी०३ प्रति०४ अधि। आकुट्ठ- त्रि. (आक्रुष्ट)। आ-कुश-क्ता कृताक्रोशे, यं प्रति आक्रोश: कृतस्तस्मिन्, शब्दिते, निन्दिते च। भावे कुल पुरूपभाषणे, नका "मार्जारमूषिकास्पर्श आक्रुष्टे क्रोधसम्भवं"। कात्या,। आकुष्टे, परुषभाषणे, वाच। वाग्भिरागुष्ट, आचा०१ श्रु०६ अ३ उ। "आक्रुष्टन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मति: कार्या| यदि सत्यं क: कोपः, स्यादनृतं किं नु कोपेन।।१।।" सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। आकूय- न. (आकूत) आ-कू-भावे क्र०ा आशये, अभिप्राये, वाचः। अभिप्रेते वस्तुनि, विशे। भावे चा विशेष आवेवलिय-पुं. (आकेवलिक) न केवलमकेवलं तत्र भवा आवेचलिका: सद्वन्द्वे, (सप्रतिपक्षे) असम्पूर्णे च "आकेवलिएहिं" (सूत्र-२८२+) आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ आकोसायंत- त्रि. (आकोशायमान) आकोशायते इत्याकोशायमानम्। विकचीभवति कमलादौ, जी।''आकोसायेतपउमगंभीरवियडा" (सूत्र१४७x)। आकोशायते इत्याकोशायमानं, विकचीभवदित्यर्थः। पञ तद्वद्गम्भीरा विकटा च नाभिर्येषां ते। जी०३ प्रति०४ अधिः। आखंडल-पुं(आखण्डल) आखण्डयति भेदयति पर्वतान् आ-खडिडलच्डस्य नेत्त्वम्। इन्द्रे, वाचला "अ० (आखे) क्खंडलो सुरवइ, पुरंदरो वासवो सुणासीरो।" (23+) पाइ. ना. 23 गाथा (अस्य वक्तव्यता 'सक्क' शब्दे सप्तमभागे वक्ष्यते)। आगइ- स्वी० (आगति) आगमनमागति: नारकत्वादेरेव प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने प्रतिनिवृत्तौ, (आगमने) स्था० 1 ठा। कल्प। "गई च जो जाणइऽणागई च' (20+) / यश्च जीवानामागतिम्-आगतम् कुत: समागता नारकास्तिर्यचो मनुष्या देवाः। सूत्र०२ श्रु.१२ अका"एगस्स जंतो गतिरागती या" (18x) आगति. -आगमनं भवान्तरादुपजायते कर्म- सहायस्यैवा सूत्र०२ श्रु.१३ अ। उत्पत्तौ, स्था०७ठा०३ उ.। "एगा आगती' (सूत्र-४३+)। आगनम्- आगतिरिकत्वादेरेव प्रतिनिवृत्तिस्तदेकत्त्वं गतेरिवेति) स्था०१ ठा०। नैरयिकाणां दण्डकक्रमेण गत्त्यागतीनेरइया दुगइया दुयागइया पन्नत्ता, तं जहां-नेरइए नेरइए सु उववज्जमाणे मणुस्से हिंतो वा पंचिंदियतिरक्खजोणिएहिंतो वा उववज्जेज्जा। से चेव णं से नेरइए नेरइयत्तं विप्पजहमाणे मणुस्सत्ताए वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं असुमाराणं वि, णवरं चेव णं से असुरकुमारे असुरकुमारत्तं विप्पजहमाणे माणुस्सत्ताए वा तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं सव्वदेवा, पुढविकाइया दुगइया दुयागइया पन्नत्ता, तं जहा पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा णो पुढविकाइएहिंतो उववज्जेज्जा। से चेव णं से पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा णो पुठविकाइयत्ताए वा गच्छेज्जा, एवं जाव मणुस्सा। (सूत्र-७८)। दण्डकः कण्ठ्यो नवरं नैरयिकानारकाद्वयोः- मनुष्यगतितिर्यम्मतिलक्षणयोर्गत्यारधिकरणभूतयोर्गतिर्येषां ते तथा, द्वाभ्यामेताभ्यामेवाऽवधिभूतभ्यामागति: आगमनं येषां ते तथा, उदितनारकायु रक एव व्यपदिश्यते, अत उच्यते- 'नेरइए नेरइएसु' त्ति-नारकेषु मध्ये इत्यर्थः। इह चोद्देशक्रमव्यत्ययात् प्रथमवाक्येनागतिरुक्ता, 'से चेव णं से' त्ति-यो मानुषत्त्वादितो नरकं गतः स एवाऽसौ नारकोनाऽन्यः, अनेनैकान्ताऽनित्यत्वं निरस्तमिति। 'विप्पजहमाणे' त्तिविप्रजहन् - परित्यजन् , इह च भूतभावतया नारकव्यपदेश:, अनेन वाक्येन गतिरुक्ता, इत्थञ्च व्याख्यानं तेजस्कायिकाद्यागतयस्तिर्यमनुष्यापेक्षया एकगतयस्तिर्यगपेक्षयेति वाक्यमुपजीव्येति, 'एवं असुरकुमारावि' त्तिनारकवद्वक्तव्या इत्यर्थः, 'नवरं' ति-वेचलमयं विशेष:- तिर्यक्षु न पञ्चेन्द्रियेष्वेवोत्पद्यन्ते। पृथिव्यादिष्वपि तदुत्पत्तेरित्यत: सामान्यत आह-'से चेवणं से' इत्यादि जाव तिरिक्खजोणियत्ताए वा गच्छेज्ज' त्ति-'एवं सव्वदेव' त्तिअसुरवद् द्वादशाऽपि दण्डकदेवपदानि वाच्यानि तेषामप्ये-केन्द्रियेषूत्पत्तेरिति। 'नो पुढविकाएर्हितो' त्ति-अनेन पृथ्वीकायिकनिषेध-द्वारेणाष्कायिकादयः सर्वे गृहीता द्विस्थानकानुरोधादिति, तेभ्यो वानारकवर्जेभ्य: समुत्पद्यते। 'नोपुढविकाइयत्ताए' त्ति-देवनारकवर्जाऽष्कायादितया गच्छेदिति, 'एवं जाव मणुस्से' त्ति-यथा पृथ्वीकायिका "दुगइया'' इत्यादिभिरभिलाप्पैरुक्ताः, एवमेभिरेवाष्कायिकादयो मनुष्याऽवसाना: पृथ्वीकायिकशब्दस्थानेऽप्कायादिकव्यपदेशं कुर्वद्भिरभिधातव्या इति। व्यन्तरादयस्तु पूर्वमतिदिष्टा एवेति। स्था.२ ठा०२ उता ('उववाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे आगति: कुत्त उत्पद्यत इत्यादि वक्ष्ये) ___ एकेन्द्रियादीनां गत्यागतीएगिंदिया पंचगइया पंचाऽऽगइया पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिए एगिदिएसु उववज्जमाणे एगेंदिएहितो वा जाव पंचेंदिएहितो वा उववज्जेज्जा से चेवणं से एगेंदिए एगेंदियत्तं विप्पजहमाणे एगें दियत्ताए वा 0 जा पचेंदियत्ताए वा गच्छेज्जा। बेइंदिया पंचगइया पंचाऽऽगइया एवं चेवा एवं जाव पंचेंदिया पंच गइया, पंचाऽऽगइया पंण्णत्ता, तं जहा पंचेंदिया 0 जाव गच्छेज्जा। (सूत्र-४५८+) स्था०५ ठा०३ऊ। पृथ्वीकायिकादीनां गत्यागतीपुढविकाइया छ गइया, छ आगइया पन्नत्ता, तं जहापुटविकाइए पुढ विकाइएसु पुढ विकाइएहिंतो वा० जाव तसकाइएहिंतो वा गच्छेज्जा णो चेव णं से पुढ विकाइए पुढ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगड 59 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आगइ विकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा जाव तसकाइसयत्ताए वा गच्छेज्जा / (सूत्र-४८३४)। स्था०६ ठा.३ उ। अण्डजाऽऽदीनां गत्यागतिप्रतिपादनाय सूत्रम्। अंडगा सत्तगइया सत्ताऽऽगइया पण्णत्ता, तं जहा-अंडगे अंडगेसु उववज्जमाणे अंडगेहिंतो वा पोयएहिंतो वा जाव उन्मिएहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडयत्ताए वा पोययत्ताएवा जाव उम्भियत्ताए वा गच्छेज्जा। पोयया सत्तगइया सत्ताऽऽगइया एवं चेव सत्तण्ड वि गहरागई भाणियव्वा जाव उब्भियत्तिा (सूत्र-५४३)। 'अंडये' त्यादि सूत्रसप्तकम्, तत्र मृतानां सप्तगतयः अण्डजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्त गतय: सप्तभ्य एवाण्डजादियो निभ्य: आगतिरुत्पत्तिर्येषां ते सप्ताऽऽगतयः। ‘एवं चेव' त्ति-यथाऽण्डजानां सप्तविधे गत्यागती भणिते तथा पोतजादिभिः सह सप्तानामप्यण्डजादिजीवभेदानां गतिरागतिश्चभणितव्या। 'जाव उब्भिय' त्ति-सप्तमसूत्रं यावदिति, शेष सुगमम् / स्था०७ ठा०३ उ०। अंडया अट्ठगइया अट्ठाऽऽगइया पण्णत्ता, तंजहा-अंडए अंडएस उववज्जमाणे अंडएहिंतो वा. जाव उववाइएहिंतो वा उववज्जिज्जा से चेव णं से अंडए अंडगत्तं विप्पज्जहमाणे अंडगत्ताए वा पोयगत्ताए वा. जाव उववाइयत्ताए वा गच्छेज्जा। एवं पोयया वि। जराउया वि। सेसाणं गइरागई नऽत्थिा (सूत्र५९५+)। 'अट्टविहे' त्यादि, सूत्रचतुष्टयं सुगम, नवरमौपपातिका देवनारकाः, 'से साणं' ति-अण्डजपोतजजरायुजवर्जितानां रसजादीनां गतिरागतिश्च नास्तीत्यष्टप्रकारेति शेषः, यतो रसजादयां नोपपातिकेषु सर्वेषूत्पद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाणामेव तत्रोत्पत्तेः। नाप्यौपपातिका रसजादिषु सर्वेष्वप्युपपद्यन्ते पञ्चेन्द्रियैकेन्द्रियेष्वेव तेषामुपपत्तेरिति अण्डजपोतजजरायुजसूत्राणि त्रीण्ययेव भवन्तीति। स्था०८ ठा. 3 उ०। पृथ्वीकायिकादीनां पुनरपि गत्यागतीपुढविकाइया नवगइया नवआगइया पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जमाणे पुढविकाइएहिंतो वा. जावपंचिंदिएहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेवणं से पुढविक इए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए जाव पंचिंदियत्ताए वा गच्छेज्जाशा एवं आउकाइयाऽवि||३|| 0 जाव पंचिंदियत्ते||१०॥ (सूत्र-६६६४)। स्था०९ठा.३ उl ___ गत्यागतिपरिज्ञानेन कर्मक्षयम् - आगतिं गतिं परिण्णाय दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणेहिं से ण छिज्जति, ण मिज्जति, णा डज्जति,ण हण्णति कंचणं सव्वलोए। (सूत्र-१९६४)। आगमनमागति:, सा च तिर्यग्मनुष्ययोश्चतुर्दा चतुर्विधनरकादिगमन सद्भावाद्, देवनारकयोर्बिंधा-तिर्यड्मानुष्यगतिभ्यामेवागमनसद्भावादेवं देवगतिरपि मनुष्येषु तु पञ्चधा, तत्र मोक्षगतिसद्भावाद् अतस्तामागति गतिं वा परिज्ञाय संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायं वेत्त्य मनुष्यत्वे मोक्षगति- सद्भावमाकल्प्यान्त हेतुत्वादन्तौरागद्वेषौताभ्यां द्वाभ्यामन्ताभ्यामदृश्यमानाभ्यामनपदिश्यमानाभ्यां वा, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियागाह- 'से' इत्यादि 'से' -- आगतिगतिपरिज्ञता रागद्वेषाभ्यामनपदि धमानो न छिद्यते अस्यादिना, न भिद्यते कुन्तादिना, न दह्यते पावकादिना, न हन्यते नरकगत्यानु- पूर्यादिना बहुशः। अथवा राणद्वेषाभावात्सिध्यत्येव, तदवस्थस्य चैतानिछेदनादीनि विशेषाणानि, 'कंचण' मिति- विभक्तिविपरिणामात् केनचित् सर्वस्मिन्नपि लोकेन छिद्यते, नापि भिद्यते रागद्वेषोपशमादितितदेवमागतिगतिपरिज्ञानाद्रागदपपरित्यागः, तदभावाच्च छेदनादिसंसारदुःखाऽभावः। अपरे ग सांप्रतेक्षिणः कुतो वयमागता:? व यास्यामः? किं वा तत्र न संपत्स्यते? नैवं भावयन्त्यत: संसारभ्रमण पात्रतामनुभवन्तीति दर्शयितुमाइअवरेण पुट्विं न सरंति एगे, किमस्स तीयं तिवाऽऽगमिस्सं। भासाले एगे इह माणवाओ, जमस्स तीयं व तमागमिस्सं || नाऽईस रह न य आगमिस्सं, अहं नियच्छन्ति तहाऽऽगया उ। विहूयकापे एयाणुपस्सी. निज्जोसइत्ता खवगे महेसीश 'अवरेण' इत्यादिरूपकम् , अपरेण-पश्चात्कालमाविना सहपूर्वमतिक्रान्तं न स्मरन्ति अन्ये -मोहाज्ञानावृतबुद्धयो, यथा किमस्य जन्तोर्नरकादिभवोद्भूतं बालकुमारादिवयोपचितं वा दु:खाद्यतीतं किं वाऽऽगमिष्यति आगामिनि काले किमस्य सुखाभिलाषिणो दुःखद्विषो भावीति। यदि पुनरतीताऽऽगामि- पर्यालोचनं स्यान्न तर्हि संसारे रतिः स्यादिति, उक्च -"केण ममेत्थुप्पत्ती, कहं इओ तह पुणो वि गंतव्यं। जो एत्तियं पि चिंतइ, इत्थं सो को न निविण्णो"||२|| एकेपुनर्महामिथ्याज्ञा नेनो भाषन्ते- इहास्मिन्संसारे- मनुष्यलोकेवा मानवामनुष्या यथा यदस्य- जन्तोरतीतं- स्वीपुंनपुंसकसुभगदुर्भगश्वगोमायुब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रादिभेदावेशात्पुनरप्यन्यजन्मानुभूतं तदेवागमिष्यम्-आगामीति यदिवा-न विद्यतेपर:-प्रधानोऽस्मादि-त्यपर: संयमस्तेन वासितचित्ता: सन्त: पूर्व पूर्वानुभूतं विषयसुखोपभो-गादि न स्मरन्ति- न तदनुस्मृतिं कुर्वते, एके रागद्वेषविप्रमुक्ताः, तथा नाऽऽगतदिव्याङ्गनाभोगमपि नो काक्षन्ति, किंच-अस्य जन्तोरतीत सुखदुःखादि किं वाऽऽगमिष्यम्-आगामीति एतदपि न स्मरन्ति, यदि वा-कियान कालोऽतिक्रान्त: कियानेष्यति लोकोत्तरास्तु भाषन्ते एके रागद्वेषरहिता: क्वलिनश्च-तुर्दशपूर्वविदोवायदस्यजन्तोरनादिनिधनत्वा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगइ 60 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगंतारट्ठिय वक्ष्यते) त्कालशरीरसुखाद्यतीतमागामिन्यपि तदेवेति, अपरे तु पठन्ति- लक्षणविशेषे, विशे। यथा "देवो जीव'' इत्यत्र देवत्वमनूद्य जीवत्वं "अवरेणा पुव्वं किह से अतीतं, किह आगमिस्सं न स (म) रंति एगे। पृच्छ्यते इतीह प्रत्यावृत्त्या देवपदाज्जीवपदे आगतिः। विशे० 2156 गाथा। भासंति एगे इह माणवाओ, जह से अईयं तह आगमिस्स"||१|| (अस्याः आ०म०। (अस्या: भेदादिकम् 'गइरागइलक्खण' शब्दे तृतीयभागे १व्याख्या)- अपरेणा- जन्मादिना सार्द्ध पूर्वम्-अतिक्रान्तंजन्मादिन स्मरन्ति, कथं वा केन प्रकारेणाऽतीतं- सुखदुःखादिकथं चैष्यमित्येतदपि | आगइगइविण्णाण- न. (आगतिगतिविज्ञान)। शुभाशुभपूर्वजन्मानान स्मरन्ति, एकभाषन्ते- किमत्र ज्ञेयम्? यथैकस्य रागद्वेषमोहसमुत्थैः गतजन्मनां निर्णये, आगत्या- आगमनेनास्खलितेतरा- दियुक्तेन कर्मभिर्बध्यमानस्यजन्तोस्तद्विपाकांश्वानुभवत: संसारस्य यदतिक्रान्त- गतिविज्ञानम्, आगामिभवविज्ञानम्, आगतिविज्ञानम्। स्खलितास्खमागाम्यपि तत्प्रकारमेवेति। यदि वा-प्रमाद- विषयकषायादिना लितागमनेनागामिभवविज्ञाने च। पञ्चा०ा "आगइगइविण्णाणं' ||25|| कर्माण्युपचित्येष्टानिष्टविषयाननुभवत: सर्वज्ञवाक्सुधास्वादासंविदो यथा आगतिगतिविज्ञानंशुभाशुभ- पूर्व-जन्मानागतजन्मनां निर्णयेन कार्यम्, संसारोऽतिक्रान्तस्तथाऽऽगा- म्यपि यास्यति॥१॥ ये तु पुन: अथवा- गत्या- गमन-नाऽस्खलितेतरादियुक्तेन गतिविज्ञानम्, संसारार्णवतीरभाजस्ते पूर्वोत्तरवेदिन इत्येतद्दर्शयितुमाह-'नाऽईयमि' आगामिभवज्ञान- मागतिविज्ञानाम्, इह व्याख्याने समासितमपि त्यादि, तथैव- अपुनरावृत्त्यागतं गमनं येषां ते तथागता:-सिद्धाः, यदि गतिविज्ञान-मित्येतत्पदं प्राकृतत्वेनोत्तस्त्र संबन्धनीयम्। पञ्चा०२ विव०। वा- यथैव ज्ञेयं तथैव गतं-ज्ञानं येषां ते तथागताः सर्वज्ञा:, ते तु आगंतगार-पुं० न० (आगन्तागार)। आगन्तुकानां कार्पटिकादीनाभावानाऽतीतमर्थमनागतरूपतयैव नियच्छन्ति-अवधारयन्तिनाप्यनागतम- | सार्थे गृहे, सूत्रा"आगंतगारे आरामगारे,समणे उभीतेण उवेति वास।" तिक्रान्तरूपतयैव, विचित्रत्वात्परिणते:। पुन-रर्थग्रहणं पर्यायरूपार्थ, (25) / आगंतुकानां कार्पटिकादीनामगारमागन्तागाम्। सूत्र०२ श्रु०६ अ० द्रव्यार्थतया त्येकत्वमेवेति। यदि वा-नाऽतीतमर्थं विषयभोगादिकं, | आगंता- त्रि. (आगन्त) आसमंताद् गन्ता। आगन्ता। सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ नाऽप्यनागतं- दिव्याङ्गनासङ्गादिकं स्मरन्ति, अभिलषन्ति वा, के? उता आगमनशीले, स्था.३ ठा०३ उा "आगंतारो महब्भयं" (314) / तथागता:-राग-द्वेषाभावात्पुनरावृत्तिरहिता:, तुशब्दो विशेषमाह-यथा महाभयं पौन:पुन्येन संसारपर्यटनतया नारकादिस्वभावं मोहोदयादेके-पूर्वमागामि चाभिलषन्ति, सर्वज्ञास्तु नैवमिति, दु:खमागन्तार: - आगमनशीला भवन्ति। सूत्र०२ श्रु०११ अ०1 तन्मार्गानुयाय्यप्येवंभूत एवेति दर्शयितुमाह- 'विहूयकप्पे' इत्यादि, | आगंतार- पुं. न. (आगन्ताऽऽगार)। ग्रामवाह्याऽऽवासे, नि. चू० / विविधम्-अनेकधा धूतमपनीतमष्टप्रकारं कर्म येन स विधूत: कोऽसौ "आगंतारो जत्थ" आगत्य विहरतीति आगंतारो जत्थ आगारा आगंतुं कल्प:आचार:। विधूत: कल्पो यस्य साधो: स विधूतकल्प: स एतदनुदर्शी विहरंति तं. आगंतागारं गामपरिसट्ठाणति वुत्तं भवति। आगंतुगाण वा भवति, अतीतानागतसुखाभिलाषी न भवतीति यावत्, एतदनुदर्शी च कयं अगारं आगंतागारं बाहियावसो ति। नि. चू. 3 उ०। आगमा- रक्खा किं गुणो भवतीत्याह- "निज्जोसइत्ता' इत्यादि, पूर्वोपचितकर्मणां तेहिं कतं अगारं आगंतु जत्थ चिट्ठति आगारा तं आगंतागारं निर्जोषयिताक्षपकः, क्षपयिष्यति वा तृजन्तमेतल्लुङन्तं वा। परिसमंतागारणं गिहभावगतेत्यर्थ:1 पज्जायोपवज्जा सो य कर्मक्षपणायोद्यतस्य च धर्माध्यायिनःशुक्लध्यायिनो वा महायोगी- चरगपरिव्वायगसक्कआजीवगमादि- ऽणेगविधो। नि, चू.३ उ। श्वरस्य निरस्तसंसारसुखदु:खविकल्पाऽऽभासस्य यत्स्यात्तदर्शयति- ('अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे पृष्ठे 464 विस्तरोगत:) का अरई के आणंदे? इत्थं पि अग्गहे चरे। (सूत्र-१७४) *आगन्तार-पुं०i नका यत्र ग्रामादेवहिरागत्याऽऽगत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति इष्टाऽप्राप्तिविनाशोत्थो मानसो विकारो रतिः, अभिलषितार्थावा तान्यागन्तागाराणिा आचा०२ श्रु०१चू.२ अ०२ उता पत्तनादहिह आचा० तावान्द: योगिचित्तस्य तु धर्मशुक्लध्यानांवशावष्टब्धध्येयान्तराव 2 श्रु०१ चू. 1 अ०८ उ०। प्रसङ्गायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारं तत्पुनामान्तनेगरावहि: स्थानम्। आचा०९ श्रु०९ अ०२ उठा औ०। (तत्र काशस्यारत्यानंदयोरुपादानकारणाऽभावादनुत्थानमेव अन्ययूथिक-गृहस्थेभ्योऽशनादिदाननिषेध: 'अण्णउत्थिय' शब्दे इत्यतोऽपदिश्यते-केयमरति म को वाऽऽनन्द इति? नास्त्येवेतरजन प्रथमभागे गत:) क्षुण्णोऽयं विकल्प इति। एवं तहरतिरसंयमे संयमे चाऽऽनन्द इत्येतदन्यत्रानुमतमनेनाभिप्रायेण न विधेयमि-त्येतदनिच्छतोऽ आगंतारहिय-त्रि. (आगन्तुकागारस्थित)। आगन्तुकागारोषिते प्यापन्नमिति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् ; यतोऽत्राऽरतिरति प्राघूर्णकादौ, बृदा विकल्पाध्यवसायो निषिषित्सितो, न प्रस- ड्रायते अप्यरत्यरती, तदाह आगंतारट्ठियाणं, कज्जे आदेसमाइणा केइ। -'एत्थंपी' त्यादि। अत्राप्यर-तावानन्देवोपसजनप्रायेन विद्यते ग्रहो वसिउं विस्समिउंवा, छडिउंगया अणाभोगा / / 1071 / / गाद्ध्य तात्पर्य यस्य सो ग्रहः स एवंभूतश्चरेदवतिष्ठेत, इदमुक्तं भवति- इह यत्रागारिण आगत्याऽऽगत्य तिष्ठन्ति तदागन्तुकागारं शुक्लध्यनादरतौ रत्यानन्दौ कुतश्चिन्निमित्तादायातौ तदाग्रहग्रहरहि- तत्र कार्य कारणविशेषत: स्थितानां प्रकृतस्तत्र अवतरति, तस्ता- वप्यनुचरेदिति। आचा०१ श्रु०३ अ३ उ०। परस्परं द्यायो: कथमित्याह आदेशाप्राघूणकस्तथा क्वचित्पथिका आगन्तुपदयोर्यत्र विशेषणविशेष्यतया प्रत्यावृत्त्याप्रातिकूल्येन गमनमागतिः। | कागारे रजन्यां वा समुपगता यावद् भोजनाय विश्राम Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगंतारद्विय 61 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम कृतवन्त:तत उषित्वा विश्रम्य वा किंचित् द्रव्यजातमनाभोगात्परित्यज्य गता:। बृ. 3 उ०। (तत्र कर्तव्यता वसहि' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते।) आगंतु(ग) य-त्रि० (आगन्तुक) अन्यत आगते, बृ०४ उ। कार्पटिकादौ, सूत्र उपसर्गमधिकृत्यआगंतुगोय पीला-करो य जो सो उवस्सग्गो ||5|| अपरस्माद्-दिव्यादेरागच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गो भवति सच देहस्य संयमस्य वा पीडाकारी। सूत्र 1 श्रु०३ अ०१ उ. व्रणभेदमधिकृत्य "आगंतुको य नाव्वो" आगन्तुक:- कण्टकादिप्रभवः। आव०५०! आगच्छमाण- त्रि. (आगच्छत्) प्रतिनिवर्तिनि, भ० 12 शु०६ उ०/ आगम-पु. (आगम)। आ-गम्-घा आगती, प्राप्तौ चा वाचा 'जेण आगमो होइ''||३२४|| आगमो भवतिप्राप्तिर्भवति। दश०१ अ। उत्पत्ती, सामाधुपायेचा आगम्यते स्वत्वमनेना स्वत्वप्रापक्क्रयप्रतिग्रहादौ, वाच०। ज्ञाने, "आगमेत्ता आणवेज्जा " (सूत्र-१५९४)। ज्ञात्वाऽऽज्ञापयेत् / आचा०१श्रु०५अ०४ऊ।"लाघवं आगममाणा" (सूत्र-१८५४) लाघवम् आगमयन्-अवबुध्य-मान: आचा.१ श्रु०६ अ०३ उ०॥ नायं आगमियं ति, एगटुं जस्स सो परायत्तो। सो पारोक्खो दुबइ, तस्स पएसा इमे हुन्ति / / 208 / / ज्ञानमागमितमित्येकार्थमेवं च ज्ञानमागम इत्येकार्थमापतितम् , तत्र यस्य, स आगमोऽपराधीन: स प्रत्यक्ष उच्यते सचाऽवध्यादिरूपः। यस्य तु परायत्तः स परोक्ष उच्यते स च चतुर्दशपूर्वादि समुत्थस्तस्य परोक्षस्यागमस्य प्रदेशाः; प्रतिभागा भेदा इत्यर्थः। व्य.१ उ०। (ते च 'आगमववहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शयिष्यते) आप्तवचनादाविर्भूतवमर्थसंवेदनमागमः। उपचारादाप्तवचनं चेति। स्या. ३८श्लोकटी.। आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः इति ॥शा आप्त: प्रतिपादयिष्यमाणस्वरूप: तद्वचनाज्जातमर्थज्ञानमागमः। आगम्यन्ते-मर्यादयावबुध्यन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः। रत्ना०४ परिः / शब्दार्थपरिज्ञाने, नयो 86 श्लोक / आअभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण, मर्यादया वा यथा-वस्थितप्ररूपणारूपया गभ्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्थायेनस आगम:। पुन्नम्निघः।।१।३।१३०।। इति करणे घप्रत्यय:। आम०१ अ०२१ गाथा। आणज्जंति अत्थाजेण सो आगमो त्ति! आ.चू. 1 अ० 21 गाथा / केवलमन:--पर्यायावधिज्ञाने. स्था०५ ठा०२ उ० 421 / सूत्र। पञ्चा। आ. म. नं० व्या धा जी! आसमन्ताद् गम्यते वस्तुतत्त्वमनेनेत्यागमः। श्रुतज्ञाने, आ०म० अ०१ गाथा। आ.चू। सर्वज्ञप्रणीतोपदेशे, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ. 193 सूत्र। व्या प्रतिविशिष्टवर्णानुपूर्वीविन्यस्तवर्णपदवाक्यसंघातात्मके आप्तप्रणीते (आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०२९ सूत्रा) गणधरादिविरचिते (दर्श.३ तत्त्व९ गाथा) द्वादशाङ्गादिरूपे (सूत्र.१ श्रु०११ऊ) सिद्धान्ते, आ०म० अ० धर०। पञ्चा०। सूत्र०ा दर्श०। प्रश्न०। इहापारसंसारान्तर्गतेनाऽसुमताऽवाप्याऽतिदुर्लभं मनुजत्त्वं सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रियसामा याधुपेतेनाऽर्हद्दर्शनमशेष-कर्मोच्छित्तये यतितव्यम्। कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विवेक सव्य-पेक्षोऽसावप्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति, आप्तश्चात्यन्तिका-दोषक्षयात्, सचाहन्नेव, अतस्तत्प्रणीतागमपरिज्ञाने यत्नो विधेयः। आगमश्च द्वादशाङ्गादिरूपः, सोऽप्यार्यरक्षितमिरैरैदंयुगीनपुरुषानुग्रहबुद्ध्या चरणकरणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाञ्चतुर्धा अवस्थापितः। सूत्र०१श्रु.१ अ०१ उका आप्तवचनादाविभूतमर्थसंवेदनमागमः इति / रत्ना०४ परि०। (अस्य सूत्रस्य व्याख्याऽस्मिन्नेव शब्दे प्राग्गता) उपचारादाप्तवचने, रत्ना। ननु यद्यर्थसंवेदनमागम: तर्हि कथमाप्तवचनात्मकोऽसौ सिद्धान्तविदा सिद्ध इत्याशङ्याहुःउपचारादाप्तवचनं चेति॥शा प्रतिपाद्यज्ञानस्य ह्यप्तवचनं कारणमिति कारणे कार्योपचारात्तदप्यागम इत्यच्यते। रत्ना०४ परि० स्याका अनु। दर्शन। दशआ.चूछ। वचने, यो. बिंा सूत्रे, आगमश्च वन्दनकसूत्रादिकम् / आव० 4 अ० श्रुतिस्मृत्यादिके उत्त०२५ अ। आ-मर्यादा- भिविधिभ्यां परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः। चतुर्दशकदशक- नवमपूर्व च। पञ्चा०१६ विवः। शेषंश्रुतमाचारप्रकल्पादिकं श्रुतं नवादिपूर्वाणां श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थज्ञानहेतुत्त्वेनसाति-शयत्वादागमव्यपदेश: केवलवद्। स्था०५ ठा०२ उ०। आगमव्यवहारिणमधिकृत्योक्तम्केवलमणो हि चोहस, दस नव पुथ्वी उनायव्वो।।१३५|| व्य. १ऊ। (चतुर्दशक दशक नवमपूर्वस्यागमत्वं, तदितरस्य श्रुतत्वं) श्रुतव्यवहाराश्चाचाराङ्गदीनामष्टपूर्वान्तानामेव यदुक्तम्- 'आयारप्पकप्याई, सेसं सव्वं सुयं विणिट्ठिी" अत्राह कश्चित् किमष्टपूर्वान्तमेव श्रुतं, नवमपूर्वादीनां न श्रुतत्त्वम् , उच्यते आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया: पदार्था येन स आगम इति व्युत्पत्तेः, नवमपूर्वादीनां श्रुतत्वाविशेषे केवलज्ञानादि- वदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेश: शेषश्रुतस्य तु नाऽतीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽव- बोधस्ततोऽस्मिनश्रुतव्यवहारः। जीता व्यः। आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः। प्रमाणभेदे, स्था०। स च आप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः। उक्तञ्च"दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् , परमार्थाभिधायिना। तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं, मान शाब्दं प्रकीर्तितम्॥११॥ आप्तोपज्ञमनुल्लङ्ग्य-मद्दष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्थ, शास्त्र कापथघट्टनम्।शा इति। स्था०४ठा०३ उड़ा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 62 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम (4) विषयसूचनार्थमधिकाराङ्का:आगमभेदा:। आगमस्य स्वत: प्रामाण्यम्। आगमस्य पौरुषेयत्वम्। आगमश्चाऽऽप्तप्रणीत एवं प्रमाणम्। सम्भवद्रूपस्यैवाऽऽगमस्य प्रामाण्यं, न वेदस्यैव। मूलाऽऽगमप्रामाण्यम्, नेतराऽऽगमप्रामाण्यम् / प्रमाणान्तराविषय एवाऽऽगमविषयः। आगमप्रमाणस्यानुमानप्रमाणेऽन्तर्भावः / आगमप्रामाण्ये संवादित्वम्। (10) शब्दस्य बाह्यार्थप्रामाण्यम्। (11) अपोह: शब्दार्थ इति बौद्धाः। (12) अर्थ: किंस्वरूपः। (13) वाच्यवाचकभावः / वाचकरूपस्य शब्दस्य विचारः। (15) स्फोट: शब्द:। (इति'फोड' शब्दे 5 भागे वक्ष्यते) जैनानां वाचक: शब्दः। शब्दनित्त्यत्त्वविचार / (18) शब्दार्थयो: सम्बन्धः। (19) शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकभावः सम्बन्धः। (20) आगमद्वैविध्यम् हेतुवादाऽहेतुवादभेदात्। (21) आगमस्य सर्वव्यवहारनियामकत्वम्। आगमस्यैव प्रामाण्यम् धर्ममार्गे, मोक्षमार्गे च / जिनाऽऽगमस्यैव सत्यत्वम्। (24) जिनाऽऽगमपूजासत्कारः / (25) आगमशब्दस्य अर्थान्तराणि। (1) आगमभेदा:से किं तं आगमे ? आगमे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-लोइए अ, लोउत्तरिए आ से किं तं लोइए? लोइए जण्णं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठीएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं। तं जहा-भारहं, रामायणं जाव चत्तारि वेआ संगोवंगा। से तं लोइए आगमे। से किं तं लोउत्तरिए ? लोउत्तरिए जण्णं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयप- चुप्पण्णमणागयजाणएहिं तिलुक्कवहिअमहिअपूइएहिं सव्वण्णूर्हि सव्वदरसीहिं पणीअं दुबालसंगं गणिपिडगं, तं जहा- आयारो जाव दिद्विवाओ। (सूत्र 1474) / 'से किं तं आगमे' इत्यादि, गुरुपारंपर्येणागच्छतील्यागमः, आसमन्तादम्यन्ते ज्ञायन्ते जीवादय: पदार्था अनेनेति वा आगमः, अर्थ च द्विधा प्रज्ञप्त:। अनु. भ.। ज्ञा०। अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्ताऽऽगमे, अत्थाऽऽगमे, तदुभयाऽऽगमे। (सूत्र 147+) 'अहवा आगमे तिविहे' इत्यादि, तत्र सूत्रमेव सूत्रागमः, तदभिधेयश्च अर्थ एवाऽर्थागमः, सूत्रार्थोभयरूपस्तुतदुभयागमः। अहवा-आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्थाऽऽगमे 1, अणंतराऽऽगमे 2, परंपराऽऽगमे तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे। गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे। तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे, णो अंतरागमे, परंपरागमे। (सूत्र 147+) अथवा-अनेन प्रकारेणागमस्त्रिविध: प्रज्ञप्त: तद्यथा- 'आत्मागम' इत्यादि, तत्र गुरूपदेशमन्तरेणात्मन, एव आगम आत्मगमो-यथा, तीर्थकराणामर्थस्यात्मागमः, स्वयमेव केवलोपलब्धेः, गणधराणां तु सूत्रस्यात्मागम: स्वयमेव ग्रथितत्वात्, अर्थस्यानन्तरागमोऽनन्तरमेव तीर्थकरादाग-तत्त्वात्, उक्तंच'अत्थं भासइ अ (रि) रहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणमि' त्यादि। गणधरशिष्याणां जम्बूस्वामिप्रभृतीना सूत्रस्याऽनन्तरागम: अव्यवधानेन गणधरादेव श्रुते:, अर्थस्य परंपरागम:गणधरेणैव व्यवधानात्। तत ऊर्ध्व प्रभवादीनां सूत्रस्यार्थस्य च नात्मागमो नानन्तरागमस्तल्लक्षणायोगात; अपि तु परंपरागम एवा अनेन आगमस्य तीर्थकरादिप्रभवत्व-भणनेनैकान्ताऽपौरुषेयत्त्वं निवारयति। पौरुषताल्वादिव्या-पारमन्तरेण नभसीव विशिष्टशब्दानुपलब्धेस्ताल्वादि-भिरभिव्यज्यत एव शब्दोन तु क्रियते इति चेत्, ननु यद्येवं तर्हि सर्ववचसामपौरुषेयत्त्वप्रसङ्गस्तेषां भाषापुद्गलनिष्पन्नत्वाद् भाषापुद्रलानां च लोके सर्वदैवावस्थानतो पविक्रियमाणाता अयोगेन ताल्वादिरभिव्यक्तिमात्रस्यैव निर्वर्तनात्। न च वक्तव्यं वचनस्य पौद्गलिकत्वमसिद्ध महाध्वनिपटलपूरितश्रवणावा-धिर्यकुड्यस्खलनाद्यन्यथानुपपत्तेः, तस्मान्नकान्तेनाऽपौरुषयमागमवचस्ताल्वादिव्यापाराभिव्यङ्गयत्वाइववत्तादिवाक्य-वदित्याद्यन्यत्र बहुवक्तव्यं, तत्तु नोच्यते स्थानान्तरनिर्णीत-त्वादिति। 'सेत्तं लोगुत्तरिए' इत्यादि निगमनत्रयम् / अनु०। भर अङ्गा नि. चू। सूत्र। "आगमो दुविहो लोइतो, लोउत्तरिओ य / लोइतो चोद्दसविज्जाष्ट्ठाणाणि'' "अङ्गानि चतुरो वेदा, मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्याश्चैताश्चतुर्दश शा" (अस्य श्लोकस्य व्याख्या) तत्राऽङ्गानि षट् 6, तद्यथाशिक्षा १कल्पो 2, व्याकरणं 3, छन्दो 4, निरुक्तं 5, ज्योतिष 6, चेति।"लोउत्तरोदुवालस 12, अंगा, चोद्दस 14, पुव्वाणि य"|आ चू.१ अा आ०म०। ('सुय' शब्दे सप्तमे भागे प्रकारान्तरेण निक्षेप:) (2) आगमस्य च स्वत: प्रामाण्यम् - सिद्धं सिद्धट्ठाणं ठाणामणोवमसुहमुवगयाणं / कुसमयविसासणं सा-सणं जिणाणं भवजिणाणं ||1|| अस्याश्च समुदायार्थ एतत्पातनिकयैव प्रकाशित:, अवयवार्थस्तु प्रकाश्यते शास्यन्ते जीवादय: पदार्था यथावस्थितत्वेनानेनेति शासन द्वादशाङ्गम् ,तच सिद्धं प्रतिष्ठितं निश्चितप्रामाण्यमिति यावत् स्वमहिनेय नाऽत: प्रकरणात्प्रतिष्ठाप्यम् / सम्म०१ काण्ड। शब्दसमुत्थस्य त्वभिधे यविषयज्ञानस्य यदि प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तदा-अपौरुषेयत्वस्यासंभवाद् गुणवत्पुरुषप्र Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ६३अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम णीतस्तदुत्पादक: शब्दोऽभ्युपगन्तव्यः, अथ तत्प्रणीतत्वं नाऽभ्युपगम्यते | तदा तत्समुत्पन्नज्ञानस्य प्रामाण्यमपि न स्यादित्यभिप्रायवानाचार्य: प्राह-जिनानां रागद्वेषमोहलक्षणान् शत्रून् जितवन्त इति जिनास्तेषां शासनं तदभ्युपगन्तव्यमिति प्रसङ्कसाधनम् / नचाऽत्रेदं प्रेर्य-यदि जिनशासनं जिनप्रतीतत्वेन सिद्धं निश्चितप्रामाण्यमभ्युपगमनीयम्; अन्यथा प्रमाण्यस्या- प्यनभ्युपगमनीयत्वादिति प्रसङ्गसाधनमत्र प्रतिपाद्यत्वेनाभिप्रेतं तत्किमिति बौद्धयुक्तयाहत्तेन त्वया स्वत: प्रामाण्यनिरासोऽभिहित:? यतः सर्वसमयसमूहात्मकत्वमेवाऽऽचार्येण प्रतिपादयितुमभिप्रेतम्। यद्वक्ष्यत्यस्यैव प्रकरणस्य परिसमाप्तौ, यथा"भई मिच्छदसणसमूहमहयस्स अमयसारस्स! जिणवय- णस्स भगवओ, संविग्गसुहाहिगम्मस्स" | 7011 (अस्यैव ग्रन्थस्य तृतीय काण्डगाथेयम्) इत्यादि। अयमेवार्थो बौद्धयुक्त्युपन्यासेन समर्थित:, अन्यत्राप्यन्यमतोऽपक्षेपेणान्यमतनिरासेऽयमेवाभि-प्रायोद्रष्टव्यः, सर्वनयानां परस्परसापेक्षाणां सम्यगमतत्वेन, विपरीतानां विपर्ययत्वेनाचार्यस्येष्टत्वात्, अतएवोक्तमनेनैव (चतुर्थ) द्वात्रिंशिकायाम्- "उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदी-रणास्त्वयि नाथ! दृष्टयः / नचतासुभवान्प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः // 11 // " सम्म०१ काण्ड 1 गाथाटी। (3) आगमस्य पौरुषेयत्त्वम् -- स हि पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयो वा ? पौरुषेयश्चेत्सर्वज्ञकृत:, तदितरकृतो वा ? आद्यपक्षे-युष्मन्मतव्याहति: / तथा च भवसिद्धान्त:-"अतीन्द्रियाणामर्थानां, साक्षाद्रष्टा न विद्यते। नि-त्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः ||1||" द्वितीयपक्षे तु- तत्र दोषवत्कर्तृकत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः1 अपौरुषेयेयश्चेन्न सम्भव- त्येव स्वरूपनिराकरणात् ; तुरङ्गशृङ्गवत्। तथाहि-"उक्ति-वचनमुच्यते" इति चेतिपुरुषक्रियानुगत रूपमस्या एतत्क्रि-याभार्व कथं भवितुमर्हति। नचैतत्केवलं क्वचिदध्वनदुपलभ्यते उपलब्धावप्यदृश्यवक्त्राशङ्कासम्भवात् तस्माद्यद्वचनं तत्पौरु- षेयमेव, वर्णात्मकत्वात् कुमारसम्भवादिवचनवत्। वचना- त्मकश्च वेदः, तथाचाहुः - "ताल्वादिजत्मा न तु वर्णवर्गो, वर्णात्मको वेद इति स्फुटञ्च / पुंसश्चताल्वादि तत:कथं स्या दपौरुषेयोऽयमिति प्रतीति:"||१|| इति। श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररी- कृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदर्थव्याख्यानं पौरुषयमेवाङ्गीक्रियते। अन्यथा-" अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः" इत्यस्य स्वमांस भक्ष- येदिति किं नार्थो नियामकाभावात्, ततोऽवरं सूत्रमपि पौरुषेय- भ्युपगतम् / अस्तु वा अपौरुषेयस्तथाऽपि तस्य न प्रामाण्यम् आप्तपुरुषाधीना हि वाचां प्रमाणतेति। स्या० 11 श्लोक। जयइ सुयाणं पभवो, (2+ गाथा) श्रुतानां-स्वदर्शन-परदर्शनानुगतसकलशास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राणि अस्मादिति प्रभव:-प्रथममुत्पत्तिकारणं, तदुपदिष्टमर्थमुपजीव्य सर्वेषां शास्त्राणां प्रवर्तनात्, परदर्शन- शास्त्रेष्वपि हि यः कश्चित्समीचीनोऽर्थः संसारासारतास्वर्गापर्गा- दिहेतु: प्राण्यहिंसादिरूपः स भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्य एव समुद्भुतो वेदितव्यो, न खल्वतीन्द्रियार्थपरिज्ञानमन्तरेणातीन्द्रियः प्रमा- णाबाधितोऽर्थः पुरुषमात्रेणोपदेष्टुं शक्यते, अविषयत्वात्। नच-अतीन्द्रियार्थपरिज्ञानं परतीर्थिकानामस्तीत्येतदने वक्ष्यामः / ततस्ते भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्यो मौसमीचीनमर्थलेशमुपादाय पश्चादभिनिवेशवशत; स्वस्वमत्युनुसारेण तास्ता: स्वप्रक्रिया: प्रपञ्चितवन्त:। उक्तं च स्तुतिकारणं- "सुनिश्चितं न: परतन्त्रयुक्तिषु, स्फुरन्ति या: काश्चन सूक्तिसम्पदः। तवैव ता: पूर्वमहार्णवोत्थिताः, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्लु (पु) षः // 1 // " शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणी: स्वोपज्ञशब्दा-नुशासनवृत्तावादौ भगवत: स्तुतिमेवामाह- "श्रीवीरममृत्तं ज्योति-नत्वादि सर्ववेदसाम्" अत्रचन्यासकृतोव्याख्या-'सर्ववेदसा' सर्वज्ञानानांस्वपरदर्शनसंबंन्धिसकलशास्त्रानुगत- परिज्ञानानाम् 'आदिं' प्रभवं प्रथममुत्त्पत्तिकारणमिति। अत एव चेह श्रुतानामित्यत्र बहुवचनम्, अन्यथैकवचनमेव प्रयुज्यते प्राय: श्रुतशब्दस्य केवलद्वादशाङ्कमात्रवाचिन: सर्वत्रापि सिद्धान्ते एकवचनान्ततया प्रयोगदर्शनात्, सर्वश्रुतकारणत्वेनच भगवत:स्तुतिप्रतिपादनेइदमप्यावेदितं द्रष्टव्यम्सर्वाण्यपि श्रुतानि पौरुषेयाण्येव, न किमप्यपोरुषेयमस्ति, असंभवात्। तथाहि-शास्त्र वचनात्मकम्। वचनंचताल्वोष्ठपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्चयव्यतिरेकानुविधायि, ततस्तदभावे कथं भवति? न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनमाकाशं ध्वनदुपलभ्यते। अपिच-तदपौरुषेयं वचनमकारणत्वान्नित्यभ्युपगम्यते, 'सदकारण- वन्नित्य' मिति वचनप्रामाण्यात्। ततश्च-अत्र विकल्पयुग- लमवतेतीयते, तदपौरुषयं वच: किमुपलभ्यस्वभावम्: उताऽनुपलभ्यस्वभावं वा ? तत्र यद्यनुपलभ्यस्वभावं तर्हि तस्य नित्यत्त्वेनाभ्युपगमात्कदाचिदपि स्वभावाऽप्रच्युते: 'सर्वदैवोप- लम्भाभावप्रसङ्गः, अथोपलम्भस्वभावं तर्हि सर्वदानुपरमेणोपलभ्येत, अन्यथा-तत्स्वभावताहानिप्रसङ्कात, अथोपलभ्यस्वभावमपि सहकारिप्रत्ययमपेक्ष्योपलम्भमुप-जनयति तेन नसर्वदोपलम्भप्रसङ्ग। तदयुक्तम्, एकान्तनित्यस्य सहकार्यपेक्षया अयोगात्। ततो विशेषप्रतिलम्भलक्षणा हि तस्य तत्रापेक्षा, यदाह धर्मकीर्तिः- 'अपेक्षाया विशेषप्रतिलम्भ- लक्षणत्वात्' इति। न च नित्यस्य विशेषप्रतिलम्भोऽस्ति, अनित्यत्वापत्तेः। तथाहि- स विशेषप्रतिलम्भ: तस्यात्त्मभूतः, ततो विशेष जायमाने स एव पदार्थस्तेन रूपेण जातो भवति, प्राक्तनं च विशिष्टावस्थालक्षणं रूपं विनष्टमित्य-नित्यत्वापत्तिः। अथोच्येत-स विशेषप्रतिलम्भो न तस्यात्मभूत: किंतुव्यतिरिक्तः कथमनित्यत्वापत्ति:? यद्येवंतर्हि कथं स तस्य सहकारी न हि तेन सहकारिणा तस्य वचनस्य किमप्युपक्रियते, भिन्नविशेषकरणात्, अथ भिन्नोऽपि विशेषतस्तस्य संबंधी तेन तत्संबन्धिविशेषकरणात् तस्याप्युपकारी द्रष्टव्य इति सहकारी व्यपदिश्यते, ननु विशेषेणापि सह तस्य वचनस्य कः संबंधो न तावत् 'तादात्म्य' भिन्नत्वेनाभ्युपगमात, नापितदुत्पत्ति:, विकल्पद्वयानतिक्रमात, तथाहि-किं वचनेन विशेषो जन्यते? उत विशेषेण वचनं? तत्र न तावदाद्य: पक्षः; विशेषस्य सहकारिणोऽभावात्, नापि द्वितीयः- च Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 64 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम चनस्य नित्यतया कर्तुमशक्यत्वात्, अथ मा भूद् वचनविशेषयोर्जन्यजनकभाव:, 'आधाराऽऽधेयभावो' भविष्यति, तद्प्यसमीचीनम्, आधाराऽऽधेयभावस्यापि परस्परोपकार्योपकारकभावापेक्षत्वात्, तथाहि बदरं पतनधर्मकं सत्कुण्डेन स्वानन्तरदेशस्थायितया परिणामि जन्यते, ततस्तयोराधाराधेयभाव उपपद्यते; वचनेन तु विशेषो जन्यते, तस्यान्यतो भावात्, तत: कथमनयोराधाराधेयभाव:? अथ तेन विशेषेण वचनस्योपकार: कश्चित् क्रियते तत: स तस्य संबन्धी, न तु स उपकारस्ततो भिन्नः, अभिन्नो वेत्यादि तदेवावर्तते इत्यनवस्था। अपि च- कुत: प्रमाणाद्वचनस्यापौरुषयत्वाभ्युपगम:, कर्तुरस्मरणादितिचेत्, न, तस्याप्यसिद्धत्वात्, तथाहिस्मरन्ति-जिनप्रणीतागम-तत्त्ववेदिनो वेदस्य कर्तृन पिप्पलादप्रभृतीन् सकर्तस्मरण- वादस्तेषां मिथ्यारूप इति चेत्, क इदानीमेवं सतिपौरुषेय: सर्वस्याप्यपौरुषयत्त्वप्रसक्ते. तथाहि कालिदासादयोऽपि कुमारसंभवादिष्वात्मानमन्यं वा प्रणेतारमुपदिशन्त एवं प्रतिक्षेतुं शक्यन्ते मिथ्यात्वमात्मानमन्यं वा कुमारसंभवादिषु प्रणेतारेमुपदिशन्तीति। तत: कुमारसंभवादयोऽपि ग्रन्थाः सर्वेऽप्यपौरुषेया भवेयुः तथा च-क: प्रतिविशेषो वेदे ? येन स एव प्रमाणतयाभ्युपगम्यते; न शेषाऽऽगमाः। अपि चयौष्मा-कीणैरपि पूर्वमहर्षिभि: सकर्तृकत्वं वेदस्याभ्युपगतमेव, तथा च-तदग्रन्थ:-"ऋगिरावृचश्चक्रुः सामानि सामगिराविति' अथ तत्र करोति: स्मरणे वर्तते, न निष्पादने, दृष्टश्च करोतिर- र्थान्तरेऽपि वर्तमानो, यथा संस्कारे तथा च लोके वक्तार:- 'पृष्ठं मे कुरु पादौ मे कुर्विति' अत्र हि संस्कारे एव करोतिर्वर्तते, नापूर्वनिवर्त्तने संभवति अशक्यक्रियत्वात्, ततोऽन्यथानुपपत्त्या संस्कारे एव करोतिर्वर्त्तते, वेदविषये तु नान्यथानुपपन्नत्वं किमपि निबन्धनमस्ति। तत: कथं तत्र स्मरणे वर्तयितुं शक्यते? स्यादेतत् यदि वेदविषये करोति: स्मरणेन वर्तेत तर्हि वेदस्यं प्रामाण्यं न स्याद्, अथ च प्रामाण्यमभ्युपगम्येत, तथा-पौरुषेयत्वादेव, अन्यथा सर्वांगमानामपि प्रामाण्यप्रसक्तेः। ततोऽत्रापि करोति: प्रामाण्यान्यथानुपपत्त्या स्मरणे वर्त्य इति, तदेतदसत् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् , तथाहि प्रामाण्ये सिद्धे सति तदन्यथानुपपत्त्या करोते: स्मरणे वर्त्तनं, करोते: स्मरणे वृत्तौ चापौरुषेयत्वसिद्धितः प्रामाण्यमित्येकाऽसिद्धावन्यतरा- ऽसिद्धिः, अनैकान्तिकं च कर्तुरस्मरणं, 'वटे वटे वैश्रवणः' इत्यादिशब्दानां पौरुषेयाणामपि कर्तुरस्मृते: यत्नवान् तत्करिमुपलभत एवेति चेत्, नावश्यं तदुपलम्भसंभवः, नियमाभावात्, किं च-पौरुषेयत्वेनाभ्युपगतस्य वेदस्य कर्ता नैवास्ति कश्चित् पौरुषेयत्वेनाभ्युपगतस्य च वटे वटे वैश्रमणा इत्यादिरस्तीति न प्रमाणात् कुतश्चिद्विनिश्चयः, किंतु परोप-देशात्, स च भवतो न प्रमाणं, परस्य रागादिपरीतत्वेन यथावद्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, तत: कर्तृभावसदेह इति संदिग्धासिद्धोऽप्ययं हेतु:, एतेन यदन्यदपि साधनमवादीत् वेदवादी- 'वेदाध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकं वेदाध्ययनत्वाद, अधुनातनवेदाध्ययनवदिति। तदपि निरस्तमवसेयमा एवम-पौरुषेयत्वसाधनेसर्व्वस्याप्यपौरुषेयत्वप्रसक्त.. | तथाहि कुमारसंभवाध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकं, कुमारसंभवाध्ययनत्वात्, इदानींतनकुमारसंभवाध्ययनवादिति कुमारसंभवा दीनामध्ययनाऽमादितासिद्धेरपौरुषेयत्वंदुर्निवारम् , न च तेषामपौरुषेयत्वं स्वयं करणपूर्वकत्वेनापितदध्ययनस्य भावाद् एवं वेदाध्ययनमपि किंचित् स्वयं करणापूर्वकमपि भविष्यतीति वेदाध्ययनत्यादिति व्यभिचारी हेतु:, स्यादेतत् , वेदाऽध्ययनम् स्वयं करणापूर्वकं न भवति, वेदानां स्वयं कर्तुमशक्तेः। तथा चात्र प्रयोग:- पूर्वेषां वेदरचनायामशक्ति:, पुरुषत्वाद, इदानींतन-पुरुषवदिति, तदप्ययुक्तम् अत्रापि हेतोय॑भिचारात् , तथाहि-भारतादिष्विदानींतनपुरुषाणामशक्तावपि कस्यचित्पुरुषस्य व्यासादेः शक्तिः श्रूयते, एवं वेदविषयेऽपि, संप्रति पुरुषाणां कर्तुमशक्तावपि कस्यचित्प्राक्तनस्य पुरुषविशेषस्य शक्तिभविष्यतीति। अपि च यथाग्निसामान्यस्य ज्वालाप्रभवत्वमरणिनिर्मथनप्रभवत्वंच परस्परमबाध्यबाधकत्वान्न विरुध्यते, को ह्यत्र विरोध: अग्निश्च स्यात् कदाचिदरणिनिर्मथनपूर्वक: कदाचित् ज्वालान्तरपूर्वकश्च। ततो यथाऽऽद्योऽपि पथिककृतोऽग्निालान्तरपूर्वको नारणिनिर्मथनपूर्वक: पथिकाऽग्नित्वाद् आधानन्तराग्निवदित्ययं हेतुर्व्यभिचारी, विपक्षे वृत्तिसंभवात्तथा वेदाध्ययनमपि विपक्षे वृत्तिसंभवात् व्यभिचार्येव, तथाहि-वेदाध्ययने स्वयंकरणपूर्वकत्वमध्ययनान्तरपूर्वकत्वं, च परस्परमबाध्यबाधकत्वादविरुद्धं, ततश्च वेदाध्ययनमपि स्यात्किंचित् स्वयंकरणपूर्वकमपीति, यदा त्वेवं विशिष्यतेयस्तु तथाविध: स्वयं कृत्वा अध्येतुमसमर्थः तस्य वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वक मिति तदा न कश्चिद्दोषः, यथा यादशोऽग्निर्वालाप्रभवो दृष्ट: तादृश: सर्वोऽपिज्वालाप्रभव इति, अस्तु वा सर्व वेदाऽध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं तथा-ऽप्येवमनादिता सिद्धेद्वेदस्य; नापौरुषेयत्वम्, अथाऽत एवानादितामात्रादपौरुषेयत्वसिद्धिरिष्यते तर्हि डिम्भकपां-शुक्रीडादेरपि पुरुषव्यवहारस्याऽपौरुषेयतापत्तिः, तस्यापि पूर्वपूर्वदर्शनप्रवृत्तित्वेनाऽनादित्वात्। अपि च-स्युरपौरुषेया वेदा यदि पुरुषाणामादि: स्याद्वेदाध्ययन चानादि, तदाप्याद्यपुरुषस्याध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं न सिद्ध्यति, अध्यापयितुरभावात्, न च पुरुषस्य ताल्वादिकरण- ग्रामव्यापाराभावात् स्वयं शब्दाध्वनन्तिततो वेदस्य प्रथमोऽध्येता कर्तव वेदितव्य:, अपि चयवस्तु यद्धेतुकमन्वय- व्यतिरेकाभ्यां प्रसिद्धं तज्जातीयमन्यदप्यदृष्टहेतुकं ततो हेतोर्भवतीति संप्रतीयते, यथेन्धनादेको बह्निदृष्टस्ततस्तसमान- स्वभावोऽपरोऽप्यदृष्टहेतुक: तत्समानहेतुक: संप्रतीयते, लौकिकेन च शब्देन समानधर्मा सर्वोऽपि वैदिक: शब्दराशि:, ततोलौकिकवद्वैदिकोऽपिशब्दराशि: पौरुषेय:सम्प्रतीयतामा स्यादेतद्वैदिकेषु शब्देषु यद्यपि न पुरुषो हेतु:, तथापि पौरुषेयाभिमतशब्दसमानाsवशिष्टपदवाक्यरचना भविष्यति तत: कथं तत्समानधर्मातामवलोक्य पुरुषहेतुकता तेषामनुमीयते, तदेतद्द्वालिशजल्पितं पदवाक्यरचना हि यदि हेतु-मन्तरेणापीष्यतेतत आकस्मिकी साभवेत्ततश्चाकाशादावपि सा सर्वत्र संभवेत, अहेतुकस्य देशादिनियमायोगात, न च Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 65 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम सा सर्वत्राऽपि संभवति, तस्मात् पुरुष एव तस्या हेतुरित्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम्, अन्यच्च पुरुषस्य रागादिपरीतत्वेन यथावद् वस्तुपरिज्ञानाऽभावात् तत्प्रणीतं वाक्यमयथार्थमपि संभाव्यते इति संशयहेतु: पुरुषोऽपकीर्ण:, स च संशयोऽपौरुषेयत्वा- भ्युपगमेऽपि वेदवाक्यानां तदवस्थ एव, तथाहि-स्वयं तावत्पुरुषो वेदस्यार्थ नाऽवबुध्यते, रागादिपरीतत्वात्, नाऽप्यन्यत: पुरुषान्तरात् , तस्यापि रागादिपरीतत्वेन यथा तत्त्वमपरिज्ञानाद , अथ जैमि (म) निश्चिरतरपूर्वकालभावी पटुप्रज्ञः सम्यग्वेदार्थस्य परिज्ञातासीत् तत: परिज्ञानमभूदिति, न हि सर्वेऽपि पुरुषाः समाना: प्रज्ञामेधादिगुणैरिति वतुंशक्यं, संप्रत्यपि प्रतिपुरुष प्रज्ञादेस्तारतम्यस्य दर्शनात्, ननु स जैमि (म)नि: पुरुषो वेदस्यार्थ यथावस्थितमवगच्छति स्मेति कुतो निश्चय:? प्रमाणेन संवादादिति चेत् नन्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु न प्रमाणस्यावतारो यथाग्निहोत्रवचनस्य स्वर्गसाधनत्वे, बहवश्वातीन्द्रियार्था वेदेव्यावर्ण्यन्ते, तत्कथंतत्र संवाद:? अथ येष्वर्थेष्वस्मादृशां प्रमाणसंभव: तद्विषये प्रमाणसंवाददर्शनादतीन्द्रियाणामप्यर्थानां स सम्यक् परिज्ञातभ्युपगम्यते तदप्ययुक्तम, रागादिकलुषिततया तस्याऽतीन्द्रियार्थपरिज्ञानाऽसंभवाद, अन्यथा सर्वेषामप्यती- न्द्रियार्थदर्शित्वप्रसक्ति: ततस्तत्कृतातीन्द्रियार्थव्याख्या मिथ्यैव। अपिच आगमोऽर्थत: परिज्ञात: सन् प्रेक्षावतामुपयोगविषयो भवति, नापरिज्ञातार्थ शब्दगडुमात्र, ततोऽर्थः प्रधानः, सचेत्पुरुषप्रणीत: किं शब्द- मात्रस्याऽपौरुषेयत्वपरिकल्पनेन निरर्थकत्वात्, तन्नाऽन्यतोऽपि वेदार्थस्य सम्यगवग्रम:। नाऽपि वेदः स्वकीयमर्थमुपदेशमन्तरेण स्वयमेव साक्षादुपदर्शयति, ततो वेदस्येष्टार्थप्रतिपत्त्युपाया-ऽभावाद् 'अग्रिहोत्रं जुयात् स्वर्गकामः' इत्यत्र श्रुतौ यथा वेदप्रामाणिकैरयमर्थः परिकल्प्यते घृताऽऽद्याहुतिं प्रक्षिपेत् स्वर्गकाम इति। तथाऽयमप्यर्थः तै: किंन कल्प्यते-स्वादेत् स्वमांसं स्वर्गकाम: इति, नियामकाऽभावात्, उक्तंच"स्वयं रागाऽऽदिमान्नाऽर्थ, वेत्ति वेदस्य नाऽन्यत:। नवेदयति वेदोऽपि, वेदार्थस्य कुतो गति: // 1 // तेनाऽग्निहोत्रं जुहुयात् , स्वर्गकाम इति श्रुतौ॥ खादेत्स्वमांसमित्येष, नाऽर्थ इत्यत्र का प्रमा / / 2 / / " अथ य एव शाब्दा व्यवहारो लोके प्रसिद्धः स एव वेदवाक्यार्थनिश्चयनिबन्धनं, न च लोकेऽग्रिहोत्रशब्दस्य स्वमांसं वाच्यम्, नाऽपि जुहुयादित्यस्य भक्षणं, तत्कथमयमर्थ: परिकल्प्यते? तदयुक्त, नानाऽर्था हि लोकेशब्दा रूढ़ा यथा गोशब्द: / अपि च सर्वे शब्दा: प्रायः सर्वार्थानां वाचका देशादिभेदतो द्रुतविलम्बितादिभेदेन, तथाप्रतिदर्शनात्, तथाहि द्रविडस्यार्यदेशमुपागतस्य मारिशब्दात्-जगि(टि) तिवर्षविषया प्रतीतिरूपजायते विलम्बिता चोपसर्गविषया, यद्वाआर्यदेशो- त्पन्नस्य द्रविडदेशमधिगतस्य शीघ्रमुपसर्गविषया प्रतीति-विलम्बिता च वर्षविषया एवमनया दिशा सर्वेषामपि शब्दानां स-वार्थवाचकत्वं परिभावनीयम्। नच वाच्यम्एवं सति घटशब्दमात्रश्रवणादखिलार्थ- प्रतीतिप्रसङ्गगो, यथा क्षयोपशममवबोधप्रवृत्ते, क्षयोपशम-श्वसंकेताद्यपेक्ष इति तदभावे न भवति, ततोऽग्रिहोत्रादिशब्दस्य स्वमांसादिवाचकत्वेऽप्यवरोध इति लौकिकशाब्दव्यवहारानु- सरणेऽपि न वैदिकवाक्यानामभिलषितनियतार्थप्रतिपत्तिः। किं च-लोकप्रसिद्धेनैव शाब्देन व्यवहारेण वयं वेदवाक्यानां प्रतिनियतमर्थ निश्चेतुमुधुक्ताः, लौकिकश्च शाब्दो व्यवहारोऽनेकधा परितवमानो दृष्ट संकेतवशतः प्राय: सर्वेषामपि शब्दानां सर्वाथप्रतिपादनशक्तिसंभवात्, ततो लौकि केनैव शाब्देन व्यवहारेणास्माकमाशङ्कोदपादिकोऽत्रार्थ स्यात्? किं घृताद्याहुति प्रक्षिपेत् स्वर्गकाम इति उताहो स्वमांसं खादेदिति? तत्कथं तत एव निश्चयः कर्तुं बुध्यते? न हि योऽत्र संशयहेतु: स तत्र निश्चयमुत्पादयितुं शक्त इति। अपि च नै कान्तेन वेदे लौकिकशब्दव्यवहारानुसरणं स्वर्गोवश्यादिशब्दानामरूढार्थानामपि तत्र व्याख्यानात्, यथा स्वर्ग: सुखविशेष:, उर्वशी तु अणिरितिा तथा शब्दान्तरेष्वा-रूढार्थकल्पना किं न संभविनी? उक्त च- "स्वर्गोश्या-दिशब्दस्य, दृष्टो रूढार्थवाचकः। शब्दाऽन्तरेषु तादृक्षु, तादृश्येवाऽस्तु कल्पना |||" स्यादेतत् अग्निहोत्रादेवाक्यस्य स्वमांसभक्षणप्रसङ्गो न युक्तो, वेदे नैवान्यत्र तस्यान्यथा व्याख्यानात् तदयुक्तम, तत्राऽपि वाक्यार्थस्य निर्णयाभावा-द्यथोक्तं प्राक्-न हि अप्रसिद्धार्थस्य वाक्यस्याऽप्रसिद्धार्थमेव वाक्यान्तरं नियतार्थप्रसाधनायालं, तुल्यदोषत्वात्। अथेत्थमाचक्षीथाः यत्रार्थे न काचित्प्रमाणबाधा सोऽर्थो ग्राह्यो, न चाग्रिहोत्रादिवाक्यस्य घृताऽऽद्याहुतिप्रक्षेपरूपेऽर्थे प्रमाणबाधामुत्पश्यामः, तत्कथं तमर्थन गृणीम:। तदेतत्स्व-मांसभक्षणलक्षणेऽप्यर्थे समानं न हि तत्रापि काश्चित् प्रमाणबाधामीक्षामहे / अपि च-यदि प्रमाणवलात्प्रवृत्तिमीहसे तर्हि पौरुषेयमेव वचस्त्वयोपादेयं तस्य लोकप्रतीत्यनुसारितया संप्रदायतोऽधिगतार्थतया च प्रायो युक्तिविषयत्वात्, नाऽपौरुषेयम, विपरीततया तत्र युक्तरसंभवात्, तथाहि काऽत्र युक्ति:? यथा स्वमांसभक्षणात्स्वर्गप्राप्तिबर्बाध्यते, न घृताद्याहुतिप्रक्षेपादिति? घृताऽऽद्याहुतिप्रक्षेपादीनां स्वर्गप्रापणादिशक्तेरतीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षाद्यगोचरत्वात् संप्रदायस्य चार्थनैयत्यकारिणोऽसंभवात, एतचानन्तरमेव वक्ष्यामः। अथाऽऽगमार्थाऽऽश्रया युक्ति: स्वमांसभक्षणत: स्वर्गप्राप्ते-बर्बाधिका भविष्यति, तदयुक्तम, आगमार्थस्याऽद्याप्यनिश्चयात् / अनिश्चितार्थस्य च बाधकत्वाऽयोगात् , अथ संप्रदायादर्थनिश्चयो भविष्यति, तथा हि "प्रथमतो वेदेन जैमिनये स्वार्थ उपदर्शित: पश्चात्तेनास्मभ्यमुपदिष्ट" इति, तदप्यसत्, वेदस्य हि यदि स्वार्थोपदर्शनशक्तिस्ततोऽस्मभ्यमपि स्वार्थ किं नोपदर्शयति? तस्माज्जैमिनयेऽपि न तेन स्वार्थो दर्शित:, किन्तु-स वेदमुखेनात्मानमेवार्थनियमस्रष्टरमुपदर्शितवान, यथा कश्चित्के नचित्पृष्टः- 'को मार्ग: पाटलिपुत्रस्य?' स प्राह-एष स्थाणुर्दृश्यमानो वक्ति- 'अयं मार्गः पाटलिपुत्रस्य,' तत्र न स्थाणार्वचनशक्तिः, केवलं स्थाणुमुखेन स एवात्मानं मार्गोपदेष्टारं कथयति एवं वेदस्यापि न स्वाऽर्थोपदर्शनशक्ति: ततस्तन्मुखेन जैमि (म) निरात्मानमेवार्थनियमस्रष्टारमुपदर्शितवान, तन्नलौकिकशब्दव्यवहारानु Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ६६अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम सरणान्नापि युक्त पि च संप्रदायाद्वेदस्यार्थनिश्चयो, नापि तस्या- सैवेदानीमपीति प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षमक्षुण्णं लक्ष्यत एवास्याः अपौरुषेयत्वसाधकं किमपि प्रमाणमित्यसंभव्यपौरुषेयम्: उक्तं च सदात्वमवद्योतयदिति चेत्, नन्वसौ- "समुदयमात्रमिदं कलेवरम्" "बान्ध्येयखरविषाणतुल्यमपौरुषेयमि" ति। ननु यदि बान्ध्येय- इत्यादिलोकायता- गमेष्वष्येकरसैवास्तीतितेऽपितथा स्युः, तथा चखरविषाणतुल्यमपौरुषेयं भवेत्तहिं न वेदवचोऽपौरुषेयतया शिष्टा: तत्पठिता- नुष्ठाननिष्ठापटिष्ठतां विप्राणामपि प्राप्नोति, अन्यथा प्रतिगृह्णीयुः। प्रत्यवाय-संभवात्। अथात्रेयमभिधानानन्तरानुपलम्भेन बाध्यते, किं अथ च-सर्वेष्वपि देशेषु शिष्टाः प्रतिगृह्णन्तो दृश्यन्ते, तस्माना- न श्रुतावपि? अभिव्यक्त्यभावसंभवी तदानीमनुपलम्भः श्रुतौ त्रसंभव्यपौरुषेयं, तदत्र पृच्छाम:-केशिष्टा:? ननु किमत्र प्रष्टव्यम्? ये नाभावनिबन्धन इति चेत्, किंन नास्तिकसिद्धान्तेऽप्येवम्, इति सकलं ब्राह्मणीयोनिसंभविनो वेदोक्तविधिसंस्कृता: वेदप्रणीताचारपरिपाल- समानम्। नैकनिषण्णचेतसस्ते शिष्टाः तदेतदयुत्तं, विचाराक्षमत्वात्, तथा हि- किंच-अनुभवानुचरणचतुरं प्रत्यभिज्ञानम् अनुभवश्च प्रायेण प्रत्यभिज्ञां किमिंद नाम ब्राह्मणत्वं यद्योनि- संभवाच्छिष्टत्वं भवेत् ? ताद्भविकीं, जातिस्मृयादिमत: कस्यापि कतिपयभवविषयांचप्रभावयितुं ब्रह्मणोऽपत्यत्वमिति चेत् तथा हि ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मण इतिव्यपदिशन्ति मधुः इति कथमनादौ काले केनापिनेयं श्रुतिः सूत्रिता इतिप्रकटयितु पूर्वषय: न एवं सति चाण्डालस्यापि ब्राह्मणत्वप्रशक्तिः, तस्याऽपि पटीयसीयं स्यात् ? तत्र तत्र प्रत्यक्षं क्षमते / नाऽप्यनुमानं, तद्धि ब्रह्मतनो: समुत्पन्नत्वात्। उक्तं च "ब्रह्मणाऽपत्यतामात्रात्, ब्राह्मणोऽ- कर्वस्मरणं, वेदाध्ययनवाच्यत्वं, कालत्वंवा तत्रैतेषु सर्वेष्वपि प्रत्यक्षाऽनुतिप्रसज्यते। न कश्चिदब्रह्मतनो-रुत्पन्न: क्वचिदिष्यते।शायदप्युक्तम्- मानाऽऽगमबाधितत्वं तावत्पक्षदोषः। तत्र-प्रत्यक्षबाधस्तावत्। वेदोक्तविधिसंस्कृता वेदप्रणीताचारपरिपालनक- निषण्णचेतसः' इति तथाविधमठपीठिकाप्रतिष्ठशठवठराध्वद्रातृहोतृप्रायप्रचुर-खण्डिकेषु तदप्ययुक्तमः, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्। तथाहि-वेदस्य प्रामाण्ये सिद्धे यजु:सामर्च उच्चस्तरां युगपत्पूत्कुर्वत्सु कोलाहलममी कुर्वन्तीति प्रत्यक्ष सति तदुक्तविधिसंस्कृता-स्तदर्थसमाचरणाच्छिष्टा भवेयुः शिष्टत्वे च प्रादुरस्ति तेन चापौरुषेयत्वपक्षो बाध्यते। अभिव्यक्तिसद्भावादेवेयं तेषां सिद्धे सति तत्परिग्रहाद्वेदप्रामाण्यमित्येकाभावेऽन्यतरस्याऽ- प्रतीतिरिति चेत्, तर्हि हंसपक्षादि-हस्तकेष्वपि किं नेयं तथा? इति प्यभावः। तेऽपि नित्याः स्युः। वर्णयिष्यमाणवर्णव्यक्तिव्यपाकरणं आह च- "शिष्टैः परिगृहीतत्वा-चेदन्योऽन्यसमाश्रयः। वदार्थाचरणा- चेहाऽप्यनुसंधानीयम्। 'श्रुतिः पौरुषेयी' वर्णाद्यात्मकत्वात्, कुमारच्छिष्टा-स्तदाचाराच्चस प्रमा||१||" स्यादेतत् भवतोऽपि तत्त्वतोऽपौरुषेयं संभवादिवद् इत्यनुमानबाधः। पुरुषोहि परिभाव्याभिधेयभावस्वभावं वचनामिष्टमेव, तथाहि-'सर्वोऽपि सर्वज्ञो वचनपूर्वको भवतीत्येवेष्यते' तदनुगुणां ग्रन्थवीथीं ग्रथनाति, तदभावे कौतस्कुतीयं संभवेत्? यदि हि "तप्पुध्विया अरिहया" इति वचनप्रामाण्यात्, ततोऽनादित्वात्सिद्धं शङ्खसमुद्र- मेधादिभ्योऽपौरुषेयेभ्योऽपि कदाचित्तदात्मकं वचनस्यापौरुषे- यत्वमिति, तदयुक्तम, अनादितायामप्यपौरुषेय- वाक्यमुपलभ्येत, तदाऽत्राऽपि संभाव्येत, नचैवम्। अथवर्णाद्यात्मकत्वत्वायोगात्, तथाहि-सर्वज्ञपरम्पराप्येषाऽनादिरिष्यते, तत: पूर्वः पूर्वः मात्र हेतुचिकीर्षितं चेत्, तदानीमप्रयोजकं, बल्मीकरयकुलाल- पूर्वकत्वे सर्वज्ञ: प्राक्तसर्वज्ञप्रणीतवचनपूर्वकोऽभवन्न विरुध्यते, किंच-वचनं द्विधा साध्ये मृद्विकारत्ववद्। अथ लौकिकश्लोकादिविलक्षणं तत्तर्हि विरुद्धं; शब्दरूपम्, अर्थरूपं च। तत्र शब्दरूपवचनापेक्षया नायमस्माकं साधनशून्यं चकुमारसंभवादिनिदशेनं, तत्रैवसाध्ये विशिष्टमृद्विकारत्ववत् सङ्गरोयदुतं- 'सर्वोऽपि सर्वज्ञो वचनपूर्वक' इति, मरुदेव्यादीनां कुटदृष्टान्तवचेति चेत्। नैतच- तुरस्रम्। यतस्तन्मात्रमेव हेतुः; न तदन्तरेणाऽपि सर्वज्ञत्वश्रुतेः, किं त्वर्थरूपापेक्षया, ततः कथं चाऽप्रयोजकं विशिष्ट वर्णा- ऽऽद्यात्मकत्वस्यैव क्वाऽप्यसंभवाद्। शब्दाऽपौरुषेयत्वाभ्युपयमप्रसङ्गः। नन्वर्थपरिज्ञानमपि शब्दमन्तरेण दुःश्रवणादुर्भणत्वादिस्तु श्रुतिविशेषस्य। "नाष्टास्त्वाष्ट्रारिराष्ट्रेण, नोपपद्यते तत्कथं न शब्दरूपापेक्षायाऽपि सङ्गर, तद्सत्, शब्दमन्तरेणापि भाष्ट्रेणादंष्ट्रिणो जनाः। धार्तराष्ट्राः सुराष्ट्रण, महाराष्ट्रेतुनोष्ट्रिणः||१|| इत्यादी विशिष्टक्षयोपशमादिभावतोऽर्थ परिज्ञानस्य सम्भवात्, तथा हि दृश्यन्ते लौकिकश्लोके सविशेषस्य सद्भावाद् अभ्यर्थि (घि)ष्महि चतथाविधक्षयोपशम- भावतो मार्गानुसरिबुदेवचनमन्तरेणापि "यत्कौमारकुमारसंभवभवाद्वाक्यान्न किंचिद्भवे द्वैशिष्ठ्यं श्रुतिषु स्थितंतत तदर्थप्रतिपत्तिरिति कृतं प्रसङ्गेना नं.२ गाथाटी०। इमाः स्युः कर्तृशून्या: कथम् इति। "प्रजापतिर्वेदमेकमासीत्, न अहः ये तु श्रोत्रियाः शृतेरपौरुषेयत्वेऽपौरुषीं स्फो(र)टयांचक्रुः, ते कीदृशीं आसीत्, नरात्रि: आसीत्; सतपोऽतत्त्यत, तस्मातपनः; तपनाचत्वारो श्रुतिममूमास्थाय किं वर्णरूपाम आनुपूर्वीरूपां वा? यदि प्राचिकी, वेदा अजायन्त" इति स्वकर्तृप्रतिपादकागमबाधः। ननुनाऽयमागम: प्रमाणं तदस्पष्टम उपरिष्टाद् "अकारादि: पौगलिको वर्णः" इत्यत्र भूतार्थाभिधायकति, कार्ये एव ह्यर्थे वाचां प्रामाण्यम्, अन्वयव्यवित्रास्यमानत्वादस्याः। अथोदीचीना, तर्हि तत्र तत्प्रतीतौ प्रत्यक्षम्, तिरेकाभ्यां लोके कार्यान्वितेषु पदार्थेषु पदानां शक्त्यवगमादिति चेत् अनुमानम्, अर्थापत्तिः, आगमो वा प्रमाणं प्रणिगघेता न प्रत्यक्षम्, अस्य तदश्लीलं कुशलादर्कसंपर्ककर्कश: साधूपास्याप्रसङ्ग इत्यादेर्भूतार्थस्यापि तादात्विकभावस्वभावाऽवभासमात्रचरित्रप-वित्रत्वात् "संबद्धं वर्तमान शब्दस्य लोके प्रयोगोपलम्भात्। अथाऽत्रापि कार्यार्थतैव, तस्मादत्र च, गृह्यते चक्षुरादिना" इति वचनात् / यैव श्रुतिर्मया प्रागध्यगायि, | प्रवर्तिततव्यमित्यवगमादिति चेत्, स तहवगम औपदेशिक औ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 67 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम पदेशिकार्थकृतो वा भवेत्। न तावदाद्य: तथाविधोप-देशाऽश्रवणात्। द्वितीयस्तु स्यात्; न पुनस्तत्रोपदेशस्य प्रामाण्यम, अस्य स्वार्थप्रथामात्रचरितार्थत्वात्। प्रतिपादकत्वेनैव प्रमाणानां प्रामाण्याद्। अन्यथा प्रवृत्ताविव तत्साध्यार्थेऽपि प्रामाण्य-प्रसङ्गात् / प्रत्यक्षस्य च विवक्षितार्थवत्तत्साध्यार्थक्रियापि प्रमेया भवेत्, तस्मात्पुरुषेच्छाप्रतिबद्धवृत्तिप्रवृत्तिरस्तु।मा वा भूत्, प्रमाणेन पदार्थपरिच्छेदश्चेचकाण:, तावतैव प्रेक्षावतोऽपेक्षाबुद्धेः पर्यवसानात्, पुण्य प्रामाण्यमस्यावसेयम्। यता-अस्तु तस्मादत्र प्रवर्तितव्यमित्यवगमात्कुशलोदर्वेत्यादिवाक्यानां प्रामाण्यं किं तु तद्वदेव वेदे कर्तृ प्रतिपादकाऽऽगमस्यापि प्रामाण्यं पासाक्षीदेवेति सिद्ध आगमबाधोऽपि। यत्तु कर्चस्मरणं साधनम्, तद्विशेषणां सविशेषणं वा वयेत। प्राक्तनं, तावत्पुराणकूपप्रासादारामविहारदिभिर्व्यभिचारि, तेषां कर्वस्मरणेऽपि पौरुषेयत्वात्। द्वितीयं तु संप्रदायाव्यवच्छेदे सति कर्चस्मरणादिति व्य॑धिकरणाऽसिद्धम, कर्वस्मरणस्य श्रुते: अन्यत्राश्रये पुंसि वर्तनात्। अथाऽपौरुषेयी श्रुति:: संप्रादायावच्छंदे सत्यस्मऽर्यमाणकर्तृकत्वाद्, आकाशवद् इत्यनुमान-रचनायामनवकाशाव्यधिकरणासिद्धिः। मैवम्। एवमपि विशेषण संदिग्धाऽसिद्धताऽऽपत्तेः। तथाहि आदिमतामपि प्रासादादीनां संप्रदायो व्यवच्छिद्यमानो विलोक्यते, अनादेस्तु श्रुतेरव्यवच्छेदी संप्रदायोऽद्यापि विद्यत इति मृतकमुष्टिबन्धमन्यकार्षीत्; तथा च कथं न संदिग्धाऽसिद्ध विशेषणम्? विशेष्यमप्युभयाऽसिद्धं, वादिप्रतिवादिभ्यां तत्र कर्तुः स्मरणात् / ननु श्रोत्रियाः श्रुतौ कर स्मरन्तीति मृषोद्यं श्रोत्रियापसदा: खल्वमी इति चेत् ननु यूयमानायमाम्रासिष्ट तावत्तत:- "यो वै वेदाँश्च प्रहिणोति' इति, "प्रजापति: सोमं राजानमन्वसृजत्ततस्त्रयो वेदा अन्वसृजन्त' इति च स्वयमेव स्वस्य करि स्मारयन्ती श्रुतिं विश्रुतामश्रुतामिव गणयन्तो यूयमेव श्रोत्रियाऽपसदाः किन्न स्यात् ? किं च-कण्व माध्यन्दिनितित्तिरिप्रभृतिमुनिनामाङ्किता: काश्चन शाखास्तत्कृतत्वादेव मन्वादिस्मृत्य दिवत्। उत्सन्नानां तासां कल्पादौ तैर्दृष्टत्वात्, प्रकाशितत्वाद्वा तन्नामचिह्ने अनादौ कालेऽनन्त- मुनिनामाऽङ्कितत्वं तासां स्यात् / जैनाश्च कालाऽसुरमेतत्कर्तारम् स्मरन्ति। कर्तृविशेष विप्रतिपत्तेरप्रमाणमेवैतत्स्मरणमिति चेत् नैवम्। यतो यत्रैव विप्रतिपत्ति:, तदेवाऽप्रमाणमस्तु, न पुन: कर्तृमात्रस्मरणामपि / "वेदस्याऽध्ययनं सर्व, गुर्वध्ययनपूर्वकम्। वेदाध्ययनवाच्यत्वा-दधुनाऽध्ययनं यथा|१|| अतीताऽनागतौ कालौ, वेदकारविवर्जितौ / कालत्वात्तद्यथा कालो, वर्तमान: समीक्ष्यते // 2 // " इतिकारिकोक्ते: वेदाध्ययनवाच्यत्वकालत्वेऽपि हेतु:' कुरङ्ग- शृङ्गभड्डरं कुरङ्गाक्षीणां चेतः' इति वाक्याध्ययनं गुर्वध्य- यनपूर्वकम् एतद्वाक्याध्ययनवाच्यत्वाद, अधुनातनाध्ययनवद् अतीतानागतौ कालो प्रक्रान्तवाक्यकर्तृवर्जितौ कालत्वात्, वर्तमानकालवत्, इतिवदप्रयोजकत्वाद, अनाकर्णनीयौ सकर्णानाम्। अथाऽअर्थाऽऽपत्तेरपौरुषेयत्वनिर्णयो वेदस्य / तथाहि-संवाद विसंवाददर्शनाऽदर्शनाभ्यां तावदेष नि:शेषपुरुषैः प्रामाण्येन निरणायि। तत्रिर्णयश्चास्य पौरुषेयत्वे दुरापः। यत:"शब्दे दोषोद्भवस्ताव द्वक्तृधीन इति स्थिति:। तदभाव: क्वचित्तावद्, गुणवद्वक्तृकत्वतः||१|| तद्गुणैरपकृष्टानां, शब्दे संक्रान्त्यसंभवात। वेदे तु गुणावान् वक्ता, निर्णेनुं नैव शक्यते||२|| ततश्च दोषाभावोऽपि, निणेतुं शक्यतां कथम्। वक्तभावे तु सुज्ञानो, दोषाभावो विभाव्यते।।३।। यस्माद्वक्तुरभावेन, न स्युर्दोषा निराश्रया:'। तत: प्रामाण्यनिर्णायान्यथाऽनुपपत्तेरपौरुषेयोऽयमितिी अस्तुतावदत्र: कृपणपशुपरंपराप्राणव्यपरोपणप्रगुणप्रचुरोपदेशाऽपवित्रत्वादप्रमाणमेवैष: इत्यनुत्तरोत्तरप्रकारः। प्रामाण्यनिर्णयोऽप्यस्य न साध्यसिद्धिः, विरुद्वत्वाद, गुणवद् वक्तृकतायामेव वाक्येषु प्रामाण्यनिर्णयोपपत्ते:! पुरुषो हि यथा रागादिमान्मृषावादी, तथा सत्यशौचादिमान अवितथवचन: समुपलब्धः। श्रुतौ तुतदुभयाभावेनैरर्थक्यमेव भवेत्। कथं वत्तुर्गुणित्वनिश्चयश्छन्दसीति चेत्, कथं पितृपितामहप्रपितामहादेरप्यसौ ते स्यात्? येन तद्धस्तन्यस्ताक्षरश्रेणे: पारंपर्योपदेशस्य वाऽनुसारेण ग्राह्यदेयनिधानादौ नि:शङ्कः प्रवर्तेथाः। क्वचित्संवादाचेद् , अतएवान्यत्रापि प्रतीहि। कारीर्यादौ संवाददर्शनात्। कदाचित् वचित्संवादस्तु सामग्रीवैगुण्यात्त्वयाऽपि प्रतीयत एव, प्रतीताप्तमन्त्रीपदिष्टमन्त्रवत्। प्रतिपादितश्च प्राक् रागद्वेषाज्ञानशून्यपुरुषविशेषनिर्णयः। किं च अस्य व्याख्यानं तावत्पौरुषेयमेव, अपौरुषेयत्वे भावनानियोगादि-विरुद्धत्वाख्याभेदाभावप्रसङ्गात्,तथा चको नामाऽत्र विश्रम्भो भवेत? कथं चैतद् ध्वनीनामर्थनिर्णीति:? लौकिकध्वन्यनुसारेणेति चेत्, किं न पौरुषेयत्वनिर्णीतिरपि? तत्रोभय-स्याऽपि विभावनाद् / अन्यथा त्वर्द्धजरतीयम्। न च लौकिकाऽ-र्थानुसारेणा मदीयोऽर्थः स्थापनीय इति श्रुतिरेव स्वयं वक्ति, न च जैमिन्यादावपि तथा कथयति प्रत्यय इत्यपौरुषेयवचसामर्थोऽप्यन्य एव कोऽपि संभाव्येता पौरुषेयीणामपि म्लेच्छार्यवाचामैकार्थ्य नाऽस्ति, किं पुनरपौरुषेयवाचाम्। ततः परमकृपापीयूषप्लावितान्त:करण: कोऽपिपुमान् निर्दोषः प्रसिद्धार्थ: ध्वनिभिः स्वाध्यायं विधाय व्याख्याति, इदानींतनग्रन्थकारवत्, इति युक्तं पश्याम:। अवोचाम च- "छन्द: स्वीकुरुषे प्रमाणमथ चेत्तद्वाच्यनिश्चायकं, कंचिद्विश्वविदं नजल्पसि ततो ज्ञातोऽस्य मूल्यक्रयी" इति। आगमोऽपि नापौरुषेयत्वमाख्याति। पौरुषेयत्वाविष्कारिण एवास्योक्तवत्सद्भावात्। अपि च-इयमानुपूर्वी पिपीलिका- दीनामिव देशकृताङ्करपत्रकन्दलकाण्डादीनामिव कालकृता वा वर्णानां वेदे न संभवति तेषां नित्यव्यापकत्वात् / क्रमेणाऽभिव्यक्तेः सा संभवतीति चेत् , तर्हि कथमियमपौरुषेयी भवेद् , अभिव्यक्ते: पौरुषेयत्वात् इति सिद्धा पौरुषेयी श्रुति:। रत्ना०४ परि०। (4) आगमस्य चाप्तप्रणीतस्यैव प्रामाण्यं ; नतु विरुद्धार्थस्यआगमानां च येषां पूर्वापरविरुद्धार्थत्वं तेषामप्रामाण्यमेव Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 68 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम थस्त्वासप्रणीत आगमः स प्रमाणामेव कषच्छेदतापलक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात्। कषाऽऽदीनां च स्वरूपं पुरस्ताद्वक्ष्याम:। न च वाच्यम् अमाप्त: क्षीणसर्वदोषस्तथाविधं चाऽऽप्तत्वं कस्याऽपि नाऽस्तीति; यतो रागाऽऽदय: कस्यचिदत्यन्तं छिद्यन्ते अस्म-दादिषु तदुच्छेदप्रकर्षाऽपकर्पोपलम्भात् सूर्याऽऽद्यावारकजल-दपटलवत्। तथा चाऽऽहु:- "देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिल-नश्वराः। मेघपङ्क्त्यादयो यद्वदेवं रागाऽऽदयो मता:"||१|| इति यस्य च निरवयवतयैते विलीना: स एवाऽऽप्तो भगवान् सर्वज्ञः। अथाऽऽनादित्वाद्रागाऽऽदीनां कथं प्रक्षय इति चेत? न; उपायतस्तद्भावात्, अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पु-टपाकादिना विलयोपलम्भात्। तद्वदेवाऽनादीनामपि रागाऽऽदि- दोषाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाऽभ्यासेन विलयोपपत्तेः। क्षीणदोष-स्य च केवलज्ञानाऽव्यभिचारात् सर्वज्ञत्वम्। तत्सिद्धिस्तु ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तारतम्यत्वात् आकाशपरिमाणतार-तम्यवत्। तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाऽनु- मेयत्वात् क्षितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वजवत्। एवं चन्द्रसूर्योपरागादिसूचकत्योतिर्मानाविसंवादार्थानुपपत्ति- प्रभृतयोऽपि हेतवो वाच्यास्तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव; तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनं "रागाद्वा द्वेषाबा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते झनृतम्। यस्य तु नैते दोषा। स्तस्याऽनृतकारणां किं स्यात्"|१|| इति। स्था० 17 श्लोका न च आगमानां परस्परविरुद्धार्थतया सर्वेषामप्यप्रामाण्य-मभ्युपेयं, 'सर्वज्ञमूलस्याऽवश्यं प्रमाणत्वेनाभ्युपगमार्हत्वाद्, अन्यथा-सम्यक् प्रमाणाऽप्रमाणविभागाऽपरिणते: प्रेक्षावत्ता-क्षतिप्रसङ्गात्, अथ कथमेतत्प्रत्येयं यथाअयमागम: सर्वज्ञमूल इति? उच्यते यदुक्तोऽर्थः प्रत्यक्षेणाऽनुमानेन च न बाध्यते नाऽपि पूर्वाऽपरव्याहत: सोऽवसीयते। सर्वज्ञप्रणीतोऽन्यस्य तथारूपत्वा-ऽसंभवात्, ततस्तस्माद्यसिद्धम् तत्सर्व सुसिद्धम, उक्तं च-"दिद्वेणं इटेण य, जम्मि विरोहो नजुज्जइ कहिंचि। सो आगमो ततोज, नाणं तं सम्मनाणं ति॥१॥" (धर्म 519) आम.१ अ०६०० गाथाटी जैनाऽऽगमस्य च सर्वज्ञप्रणीतत्वम"सवण्णु विहाणम्मि वि, दिढेट्ठाबाहिया उ वयणाओ। सव्वण्णू होइ जिणो, सेसा सव्वे असव्वन्नू।।।।" एतेन यदुक्तं भवतु वावर्द्धमानस्वामी सर्वज्ञस्तथाऽपि तस्य सत्कोऽयमाचारादिक उपदेश इति कथं प्रतीयते इति, तदपि दूराऽपास्तम् अन्यस्येत्थंभूतदृष्टे ष्टाबाधितवचनप्रवृत्तेरसंभवात्, यदप्युक्तं भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथाऽयमाचारादिक उपदेशोवर्द्धमानस्वामिन इति, तथाऽपि तस्योपदेशस्याऽयमर्थो नाऽन्य इति न शक्यं प्रत्येतु-मित्यादि, तदप्युक्तं, भगवान् हि वीतरागस्ततो न विप्रतारयति विप्रतरणाहेतुरागाऽऽदिदोषगणाऽसंभवात्। तथा सर्वज्ञत्वेन विपरीतं सम्यग्वार्थमवबुध्यमानं शिष्यं जानाति ततो यदि विपरीतमर्थमवबुध्यते श्रोता तर्हि निवारयेत्, न च निवारयति न च विप्रतारयति, करोति च देशनां कृतकृत्योऽपि तीर्थकरनामक-र्मोदयात् ततो ज्ञायते एष एवाऽस्योपदेशस्याऽर्थ इति। उक्तंच "नाए वितदुपएसे, एसेवत्थो मओ त्ति से एवं। नज्जइ पवत्तमाणं, जैन निवारेइ तह चेव / / 1 / / अन्नह य पवत्तं तं, निवारइ नय तओ पवंचेइ। जम्हा स वीयरागो, कहणे पुण कारणं कम्मं // 2 // " एवं च भगवद्विवक्षायाः परोक्षत्वेऽपि सम्यगुपदेशस्यार्थनिश्चये जाते। यदुक्तम- 'गौतमादिरपि छद्मस्थ' इत्यादि, तदप्यसार- मवसेयं, छद्मस्थस्याऽप्युक्तप्रकारेण भगवदुपदेशार्थनिश्च- योपपत्तेः। तथा चित्रार्था अपि शब्दा: भगवते व समर्थितास्ते च प्रकरणाद्यनुरोधेन तत्तदर्थप्रतिपादका: प्रतिपादितास्ततो न कश्चिद्घोषः, तत्तत्प्रकरणाद्यनुरोधेन तत्तदर्थनिश्चयोपत्तेः। भगवताऽपि च तथा तथाऽर्थावगमे प्रतिषेधाऽकरणादिति एवं च तदानीं गौतमादीनां सम्यगुपदेशार्थस्यावगतावाचार्य परंपरात इदानीमपि तदर्थागमो भवति। नचाऽऽचार्यपरम्परा न प्रमाणम् अविपरीतार्थव्याख्यातृत्वेन तस्याः प्रामाण्यस्या-ऽपाकर्तुमशक्यत्वात् अपि च भवदर्शनमपि किमागममूलम्, अनागममूलं वा ? यद्यागममूलंतर्हि कथमाचार्यपरंपरामन्तरेणा? आगमार्थस्याऽवबोद्धमशक्यत्वात् , अथाऽनागममूलं तर्हि न प्रमाणम्, उन्मत्तकविरचितदर्शनवत्।नं। 46 सूत्रटी। (5) संभवद्रूपस्यैव वचनस्य प्रामाण्यं नत्वसंभवद्रूपस्येतिएवं पिण जुत्तिखमं, ण वयणमित्ताउ होइ एवमियं / संसारमोअगाण वि, - धम्मो दोसप्पसंगाओ / 1233 / / पं.व.। एतदपि न युक्तिक्षमं यदुक्तं परेण, कुत इत्याह- न वचनमात्रादनुपपत्तिकाद्भवत्येवमेतत्सर्वं, कुत इत्याह-संसार मोचका-नामपि वचनात् हिंसाकारिणां धर्मस्य, दु:खिनो हन्तव्या इत्यस्याऽदोषप्रसङ्गाददुष्टतापत्तेरित्यर्थः / / 124|| प्रति.। सिय तण सम्मवयणं, इयरं सम्मवयणंति किं माणं? अह लोगो चिय णेयं, तहा अपाढा विगाणा य||१२३४ा पंक। स्यात् 'तत् -'संसारमोचकवचनं, न सम्यग्वचनमित्याशङ्ख्याह'इतरद' वैदिकं सम्यग् वचनमिति किं मानम् ? अथ लोक एवं मानमित्याशङ्कथाह-नैतत्तथा, लोकस्य प्रमाणतया अपाठात्, अन्यथा प्रमाणस्य षट्संख्याविरोधात् / तथाविगानाच, नहि वेदवचनं प्रमाणमित्येकवाक्यता लोकानामिति // 125// प्रतिः। अह पाढोऽभिमओ चिय, विगाणमवि एत्थ थो (थे) वगाणं तु / इत्थं पिणप्पमाणं, सव्वेसि विदंसणाओ उ|१२३५।। पं.व.। अथा पाठोऽभिमत एव लोक स्य प्रमाणमध्ये, षण्णामुप Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 69 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम लक्षणत्वात्, विगानमप्यत्र-वेदववचनाप्रामाण्ये स्तोकानामेव ब्राह्मणमुख्यं पुरतो ननु चण्डिकाऽऽदीनां देवता-विशेषाणाम् // 131 // लोकानामित्येतदाशङ्कयाह-अत्राऽपि कल्पनायां न प्रमाणं, सर्वेषां | प्रति / लोकानामदर्शनाद्, अल्पबहुत्वनिश्चयाऽभावादित्यर्थः // 126 / / प्रतिः / ण य तेर्सि पि ण वयणां, किं तेसि दंसणेणं, एत्थ णिमित्तं तिजं न सव्ये उ। अप्पबहुत्तं जहित्थ तह चेव। तै तह घायंति सया, सव्वत्थ समवसेयं, अस्सुअतबोअणावक्का / / 1241|| पंवा णेवं वभिचारभावाओ / / 1236|| पं.व.। नचतेषामपिम्लेच्छानांनवचनमत्र निमित्तमिह द्विजधाते किंतुवचनमेव किं तेषां सर्वेषां लोकानां दर्शनेन? अल्पबहुत्वं यथा इह मध्यदेशाऽऽदौ कुत इत्याह-यत्र सर्व एवं म्लेच्छास्तं द्विजवरं घातयन्ति अश्रुतं वेदवचनप्रामाण्यं प्रति तथैव सर्वत्र क्षेत्रान्तरेष्वपि समवसे यं, तचोदनावाक्यं द्विजवरघातविधिवचनं यैस्ते तथा ॥१३२शा प्रतिक। लोकत्वादिहेतुभ्य:, इत्यत्राऽऽहनैवं, व्यभिचार-भावात्कारणात्॥१२७।। अह तं ण एत्थ रूद, एतदेवाह (प्रति.)। एयं पिण तत्थ तुल्लमेवेयं / अग्गाऽऽहारे बहुगा, अह तं थो (थे) वमणुचियं, दीसंति दिया तहाण सुद्धत्ति। इमम्मि एयारिसंतेसि // 1242|| पंवा ण य तहंसणओ चिय, अथ तन्म्लेच्छप्रवर्तकवचनं नाऽत्र रूढं लोकेइत्याशङ्कया-हइयमेतदपि सव्वत्थ इमं हवइ एवं / / 1237 / / पं.वा वैदिकं न तत्र भिल्लमते रूढ़मिति तुल्यमन्य-तरारूढवम्, अथ अग्राऽऽहारे बहवो दृश्यन्ते द्विजा-ब्राह्मणास्तथा न शूद्रा इति, तन्म्लेच्छप्रवर्तकं वचनं स्तोकमनुचितम-संस्कृतमित्याशङ्कयाहब्राह्मणवद्, बहवो दृश्यन्ते।नचतदर्शनादेवाग्राऽऽहारे बहुद्विजदर्शनादेव इदमप्येतादृशं तेषां म्लेच्छप्रवर्त्तकमेव वचनं वेदेऽस्ति न द्विजप्रवर्तकं सर्वत्र भिल्लपल्ल्यादावप्येतद्भवत्येव द्विज-बहुत्वमिति गाथार्थ:।।१२८।। श्रवणमात्रस्याऽतन्त्रत्वात् अश्रवण-स्योच्छिन्नशाखत्वेनोपपत्तेरिति तैरपि प्रति वक्तुं शक्यत्वादिति।।१३३॥ उपपत्त्यन्तरमाह अन्याऽपि कल्पना ब्राह्मणापरिगृहीतत्वादिरूपा भिल्लपरिणय बहुगाणा वि(ए)इत्थं, गृहीतत्वादितुल्यत्वेन दुष्टेत्याह (प्रति.)। अविगाणं सोहणं ति णियमोऽयं / अह तं वेगं खलु, नय णो थेवाणं पिहु, न तं पि एमेव इत्थ विण माणं / मूढेयरभावजोएणां / / 1238 / / पं.का अह तत्त्थाऽसवणमिणं, न च बहुनामप्यत्र-लोके अविगानम् एकवाक्यतारूपं शोभन-मिति सि एअमुच्छिण्णसाहं तु / / 1243|| नियम: न च स्तोकानामपि न शोभनं मूढेतरभावयोगेन मूढानांबहुनामपि ण य तब्बयणाओ चिय, नशोभनममूढस्य त्वेकस्यैवेतिभावः।।१२९।। प्रतिः। णय रागाऽऽइविरहिओ, तदुभयभावो त्ति तुल्लमणिईओ। को विपमाया विसेसकारित्ति। अण्णा वि कप्पणेवं, साहम्मविहम्मओ दुट्ठा।।१२४४|| जं सव्वे वि य पुरिसा, रागाऽऽइजुआ उ परपक्खे ।।१२३९||पंवा अथ तद्वेदाङ्ग खलु द्विजप्रवर्तकमित्याशङ्कयाह न तदपि म्लेच्छ प्रवर्तकमेवमेव वेदे इत्यत्रापि न मानम् , अथ तत्र वेदे अश्रवण-मिदम् न च रागादिविरहित: कोऽपि माता-प्रभाता विशेषकारी-विशेषकृत् मानम् , न हि तद् वेदे श्रूयत इत्याशङ्कयाह-स्यादेतत्-उत्स (च्छि) यत् सर्वेऽपि पुरुषा रागादियुताः परपक्षेपरनये मीमांसकस्य शाखमेवैतदपि सम्भाव्यतइति गाथार्थः।।१२४३।। न च तद्वचनाद् सर्वज्ञाऽनभ्युपगन्तृत्वात्॥१३०।। वेदवचनादेव तदुभयभावो-धर्मादोषभाव इति, कुत्त इत्याह भणिते:, दोषान्तरमाह (प्रति।) म्लेच्छवचनादेवैतदुभयमित्यपि वक्तुं शक्यत्वादित्यर्थः, एवं च वयणमित्ता, अन्याऽपिकल्पना ब्राह्मणपरिगृहीतत्वादिरूपा एवम् उक्तवत् धम्मादोसा ति मिच्छगाणं पि। भिल्लपरिगृहीतवादिना प्रकारेणा साधर्म्यवैधर्म्यत: कारणात् दुष्टेति घाएंताण दियवरं, गाथार्थ: // 1244 // पंवा पुरओ नणु चंडिगाऽऽईणं ।।१२४०।।पं.व.।। यस्मादेवम् (प्रति.)एवं चप्रमाणविशेषाऽपरिज्ञानं सतिवचनमात्रात् सकाशात् धर्माददोषी तम्हाण वयणमित्तं, प्राप्नुत, म्लेच्छादीनामपि-भिल्लादीनामपि घातयतां द्विजवरम् / सम्वत्थ विसेसओ बुहजणेणं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 70 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम एत्थ पखित्तिणिमित्तं, ति एय दट्ठव्वयं होइ॥१२४५।। पं.का तस्मान्न वचनमात्रमुपपत्तिशून्यं सर्वत्राऽविशेषत: कारणात् बुधजनेनविद्वज्जनेन अत्र लोकेप्रवृत्तिनिमित्तमेवे दृष्टव्यं भवति / / 16 / / प्रतिका किं पुण विसिट्टगं चिय, जं दिहिट्ठाहि णो खलु विरुद्ध / तह संभवंस (त) रूवं, वियारिउं सुद्धबुद्धीए।।१२४६पंव। किं पुन: विशिष्टमेव वचनं प्रवृत्तिनिमित्तमिह द्रष्टव्यं, किं भूतं यत् दृष्टेष्टाभ्यां न खलु विरुद्धंः तृतीयसंस्थानसंक्रान्तमित्यर्थः। तथा संभवत्स्वरूपं यत् , न पुनरत्यन्ताऽसंभवि विचाW शुद्धबुद्ध्या मध्यस्थेयेति गाथार्थः // 137 / / प्रति०। जिनागमस्यैव च सम्भवद्रूपत्वं, तदितरस्य चाऽसम्भवद्रूपत्वम्तह संभवंतरूवं, सव्वं सव्वन्नुवयणओ एयं। तं णिच्छियं हि आगम पउत्तगुरुसंपदाएहि // 1277 / / पं.क। तथा संभवद्रूपं सवं सर्वज्ञवचनत एतत्, तनिश्चिंत हिताऽऽगमप्रयुक्तगुरुसंप्रदायेभ्यः।।१६८।। प्रतिः। वेयवयणं तु णेवं, अपोलसेयं तु तं मयं जेणं। इयमचंतविरुद्धं, वयणंच अपोरिसेवं च / / 127811 पं.का वेदवचनं तु नैवं संभवत्स्वरूपम्, अपौरुषेयमेव तन्मतम् इदमत्यन्तविरुद्धं वर्त्तते, यदुत वचनं चाऽपौरुषेयं चेति गाथार्थ:।।१६|| एतद्भावनायाऽऽह (प्रति.)जंबुचइ त्ति वयणं, पुरिसाभावे उणेयमेयंति। ता तस्सेवाऽभावो, णियमेण अपोरुसेयत्ते / / 1279|| यत् - यस्मात् उच्यत इति वचनम इत्यन्वर्थसंज्ञा पुरुषाऽभावे तु नैवमेतत् ; नोच्यतेइत्यर्थः तत्तस्यैव वचनस्याऽभावो नियमेनाऽपौरुषेयत्वे सत्यापद्यते।।१७०! प्रति। तव्वावारविरहियं, णा य कत्थइ सुम्व इह तं वयणं / सवणे विय णाऽऽसंका, अदिस्सकत्तुभवाऽवेइ / / 1280|| पंवा तद्व्यापारविरहितंनच कदाचित् श्रूयते इह च लोके, श्रवणेऽपि च नाऽऽशङ्का अदृश्यकषुद्भवापैति, प्रमाणाभावादिति गाथार्थः ॥१७शाप्रति। अदिस्सकत्तिगंणो, अण्णं सुय्वइ कहं णु आसंका? सुव्वइ पिसायवयणं, कयाइ एयं तु ण सदेव / / 1281 / / पं.व.। अदृश्यकर्तृकम् 'नो' नैवान्यत् श्रूयते कथं चाशङ्केति विपक्षादृष्टरित्यर्थः। अत्राह-श्रुयते पिशाचवचनं,कथंचन कदाचित् लौकिकमेतत्तु वैदिकमपौरुषेयं न सदैव श्रूयते॥१७२।। यथाभ्युपगमदूषणमाह (प्रति.) वण्णा य पोरसेयं, लोइयवयणाण ऽवीह सव्वेसिं। वेयम्मि को विसेसो, जेण तहिं एसऽसग्गाहो ||१२८शा पं.व.। वर्णाद्यपौरुषेयं लौकिकवचनानामपीह सर्वेषां, वर्णात्वादिवा-चकत्यादे: पुरुषैरकरणात, वेदे को विशेषो येन तत्रैषोऽ-सद्ग्राहोऽपौरुषेयत्यासद्ग्रह इति / / 173 / / प्रति। णय णिच्छओ वि हुतओ, जुज्जइ पायं कहं चि सण्णाया। जंतस्सत्थपगासणा विसएह अइंदिया सत्ती||१२८३।। पं.का न च निश्चयोऽपि ततो वेदवाक्यात् युज्यते प्राय: क्वचिदवस्तुनि सन्नयायात् यद्-यस्मात्तस्य वेदवचनस्यार्थप्रकाशनविषयेहप्रक्रमेऽतीन्द्रियाशक्तिरिति गाथार्थः / / 174 / / प्रति०। णो पुरिसमित्तगम्मा, तदतिसओ विहु ण बहुमओ तुम्हें / लोइयवयणेहितो, दिटुंच कहिंचि वेहम्मं ||1284| पंक। न पुरुषमात्रागम्या एषा तदतिशयोऽपि न बहुमतो युष्माकम् अतीन्द्रियदर्शी लौकिकवचनेभ्यः सकाशाद् दृष्टं च कथेचिद्वैधयं वेदवचनानामिति गाथार्थ: / / 175 / / प्रति। ताणि हपोरुसेयाणि, अपोरसेयाणि वेयवयणाणि। सग्गुव्वसिपमुहाणं, दिट्ठो तह अत्थमेओऽवि ||1285|| पं.का तानीह पौरुषेयाणि लौकिकानि अपौरुषेयाणि वेदवचनानीति वैधर्म्य, स्वर्गोवंशीप्रमुखानां शब्दानां दृष्टः; स्तथार्थभेदोऽपि एव च 'य एव लौकिकास्त एव वैदिका:, स एवैषामर्थ' इति यत् किंचिदेतत् / / 176 / / प्रति। णाय तं सहावओ चिय, सत्थपगासणपरं पईओ व्व। समयविभेयाऽजोगा, मिच्छत्तपगासजोगा य॥२२८६|| पं.व.। न च तद्वेदवचनं स्वभावत एव स्वार्थप्रकाशनपरं प्रदीपवत् कु त ? इत्याह-समयविभेदाऽयोगात् संके तभेदाऽभावात् Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 71 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम मिथ्यात्वप्रकाशयोगाच, क्वचिदेतदापत्तेरिति भावः / / 177 / / तदाह (प्रति.)इंदीवरंमि दीवो, पगासई रत्तयं असंतं पि। चदो विपीयवत्थं, धवलं तिन णिच्छओ तत्तो // 1287 // पं.का इन्दीवरे दीपः प्रकाशयति रक्ततामसतीमपि चन्द्रोऽपि पीतवस्त्रं धवलमिति प्रकाशयति न निश्चयस्ततो वेदवचनाद् व्यभिचारिण इति गाथार्थ: / / 17 / / प्रति। एवं णो कहियाऽऽगम पओगगुरुसंपयायभावोऽवि। जुज्जइ सुहो इहं खलु, नाएणां छिन्नमूलत्ता 1|1288 / / पं.व.। एवं न कथिताऽऽगमप्रयोगगुरुसंभदायभावोऽपि प्रवृत्त्यङ्गभूतो युज्यते यत इह खलु वेदवचने न्यायेन, 'छिन्नमूलत्वात् ' तथाविधवचनासंभवादिति गाथार्थः // 179|| प्रतिका ण कयाइ इओ कस्सइ, इह णिच्छयमो कर्हि चि वत्थुम्मि। जाओ त्ति कहइ एवं, जं सो तत्तं स वामोहो / / 1289 / / पं.व.। न कदाचिदतो वेदवचनात् कस्यचिदिह निश्चय एव क्वचिद्वस्तुनि जात इति कथयति एवं सति यदसौ वैदिकस्तत्त्वं स व्यामोह: स्वतोऽप्यज्ञात्वा कथनात्॥१८०। प्रतिः। तत्तो अ आगमो जो, विणेयसत्ताण सो वि एमेव तस्स पओगो चेवं, अणिवारणगं च णियमेणं / / 1290 / / पं.व.।। ततश्च वैदिकादादागमो यो व्याख्यारूप: विनेयसत्त्वानां संबंधी सोऽप्येवमेव व्यामोह एव तस्याऽऽगममार्थस्य प्रयोगोऽष्येवमेव व्यामोह एव अनिवारणं च नियमेन व्यामोह एवेति गाथार्थ:।।८।। प्रति। णेवं परंपराए, माणं एत्थ गुरुसंपयाओ वि। रूवविसेसट्ठवणे, जह जचंधाण सवेसिं ||1292| पंव। नैवं परंपरायां मानम् , अत्र चव्यतिकरे गुरुसंप्रदायोऽपि निदर्शनमाहसितेतरादिरूपविशेषस्थापने यथा जात्यन्धानां सर्वेषामनादिमताम् / / 18 / / पराऽभिप्रायमाह (प्रति.)भवतो विय सव्वन्नू, सव्वो आगमपुरस्सरो जेणं। ता सो अपोरसेओ, इअरो वाऽणागमा जो उ॥१२९२।। पं.व.। भवतोऽपि च सर्वज्ञः सर्व आगमपुरस्सर: येन कारणेन स्वर्गक्वलार्थिना तपोध्यानादिकर्तव्यमित्यागम: अत: प्रवृत्ते-रिति, तदसावपौरुषेय:, इतरः अनादिमत् सर्वज्ञोऽनागमादेव कस्यचित्तमन्तरेणापि भावादितिगाथार्थ: / / 183 / / प्रति०। णोभयमवि जमणाई, बीयंऽकुरजीवकम्मजोगसमं / अहवऽत्थतो उएवं, ण वयणओ वत्तहीणं तं / / 1293|| अत्रोत्तरम् - 'नो' नैतदेवमुभयमप्यागमः सर्वज्ञश्च यद्यस्मादनादिबीजाङ्करजीवकर्मयोगसमंन पत्रेदं पूर्वमिदं नेति व्यवस्था ततश्च यथोक्तदोषाभावः, अथवा-अथत एव बीजाऽडरादिन्याय: सर्व एव कथंचिदागममासाद्य सर्वज्ञो जात:तदर्थश्च तत्साधक इति नवचनतोन वचनमेवाश्रित्य मरुदेव्यादीनां प्रकारान्तरेणापि भावात् / तद्वचनं वक्त्रधीनं, नत्वनाद्यपि वक्तारमन्तरेण वचनप्रवृत्तेरयोगात् / तदर्थप्रतिपत्तिस्तु क्षयोपशमादेरविरुद्धा, तथा दर्शनादेतत्सूक्ष्मधिया भावनीयम् / / 184|| प्रति। वेयवयणम्मि सव्वं. णाएणासंभवंतरूवं जा ताइयस्वयणसिद्धं, वत्थु कहं सिज्जई तत्तो / / 1294 / / पं.वि.। वेदवचने सर्वमागमादिन्यायेनाऽसंववद्रूपं यद् - यस्मात् तत् तस्मादितरवचनात्सिद्धं सद्रूपवचनसिद्ध वस्तु हिंसादोसादि कथं सिध्यति ततो-वेदवचनादितिगाथार्थः॥१८५ प्रति.। (आगमस्य च स्वरूपप्रतिपादकस्यापि प्रामाण्यम्)नच स्वरूपप्रतिपादकानामप्रामाण्यं, प्रमाणजनकत्वस्य सद्धा-वाता तथाहि-प्रमाजनकत्वेन प्रमाणस्य प्रामाण्यं न प्रवृत्तिनिवृत्तिजनकत्वेन तचेहास्त्येव प्रवृत्तिनिवृत्ती तु पुरुषस्य सुखदुःखसाधनत्वाध्यवसाये समर्थस्यार्थित्वाद्भवत इति। अथ विधावङ्गत्वादमीषां प्रमाण्यं न स्वरूपार्थत्वादिति चेत् तदसत्, स्वार्थप्रतिपादकत्वेन विध्यङ्गत्वात्, तथाहि स्तुते: स्वार्थप्रतिपादकत्वेन प्रवर्तकत्वं, निन्दायास्तु निवर्त्तकत्वमिति / अन्यथा हि तदर्थापरिज्ञाने विहितप्रतिविषिद्धेष्वविशेषेण प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा स्यात्तथाविधिवाक्यस्यापि स्वार्थप्रतिपादनद्वारेणेव पुरुषप्रेरकत्वं दृष्टम् एवं स्वरूपपरेष्वपि वाक्येषु स्यात्, वाक्यस्वरूपताया अविशेषात् विशेषहेतोश्वाऽभावादिति। तथा स्वरूपार्थानामप्रामाण्ये "मेध्या आपोदर्भाः पवित्रम्, अमेध्यमशुची" त्येवंस्वरूपापरिज्ञान विध्यङ्गतायामष्यविशेषणं, प्रवृत्तिनिवृत्तिप्रसङ्गः, न चैतदस्ति; मेध्येष्येव प्रवर्तते अमेध्येषु च निवर्त्तते इत्युपलम्भात्। तदेवं स्वरूपार्थेभ्यो वाक्येभ्योऽर्थस्वरूपावबोधेसति इष्टे प्रवृ-त्तिदर्शनात् अनिष्ट च निवृत्तेरिति ज्ञायते-स्वरूपार्थानां प्रमाजन-कत्वेन प्रवृत्ती निवृत्तौ वा विधिसहकारित्वमिति, अपरिज्ञानात्तु, प्रवृत्तावतिप्रसङ्गः। अथ स्वरूपार्थानां प्रमाण्ये "ग्रावाणां: प्लवन्ते' इत्येवामादीनामपि यथाऽर्थता स्यात्, न; Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 72 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम मुख्य बाधकोपपत्तेः / यत्र हि मुख्य बाधकं प्रमाणमस्ति तत्रोपचारकल्पना, तदभावे तु प्रामाण्यमेव / न चेश्वरसद्भावप्रतिपादनेषु किंचिदस्ति बाधकमिति स्वरूपे प्रामाण्यमभ्युन्तत्यम्। सम्म०१ काण्ड 1 गाथाटी। (मूलाऽऽगमैकदेशभूतस्य चाऽऽगमान्तरस्यापि प्रामाण्यम्)ऐदंपर्य शुध्यति, यत्रासावागम: सुपरिशुद्धः / तदभावे तद्देशः, कश्चित्स्यादन्यथा ग्रहणात्॥१शा एदंपर्य-तात्पर्य पूर्वोक्तं शुध्यति-स्फुटीभवति यत्राऽऽगमे असावागम: सुपरिशुद्ध:-प्रमाणभूतस्तदभावे-ऐदंपर्यशुध्यभावे तद्देश:- परिशुद्धाऽऽगमैकदेश: कश्चिद अन्य आगम: स्यानतु मूलागम एव अन्यथाग्रहणात् मूलाऽऽगमैकदेशस्य सतो विषयस्यान्यथा प्रतिपत्तेर्यत: समतामवलम्बमानास्तेऽपि तथेच्छन्ति। मूलाऽऽगमव्यतिरिक्ते तदेकदेशभूत आगमेऽन्यथा परिगृहीते द्वेषो / विधेयो न वेति, तदभावप्रतिपादनायाहतत्रापि च न द्वेषः, कार्यो विषयस्तु यत्नतो मृग्यः / तस्याऽपिन सद्वचनं, सर्वं यत्प्रवचनादन्यत्॥१३|| तत्रापि च तदेकदेशभूत आगमान्तरे न द्वेष: कार्यो न द्वेषो विधेयो विषयस्त्वभिधेयज्ञेयरूपो यत्नतो-यत्नेन मृग्य: अन्वेषणीयो यद्येवं सर्वमेव तद्वचनं किं न प्रमाणीक्रियत इत्याह तस्याप्यागमान्तरस्य न सत्-शोभनं वचनं सर्वम्-अखिलं यत्प्रवचनात्-मूलाऽऽगमादन्यत् यत्तु तदनुपाति तत्सदेवेति। कस्मात्पुनस्तत्राऽद्वेष क्रियत इत्याहअद्वेषो जिज्ञासा, शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसाः। परिशुद्धा प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाङ्गिकी तत्त्वे ||14|| अद्वैष:-अप्रीतिपरिहारस्तत्त्वविषयस्तत्पूर्विका ज्ञातुमिच्छा- जिज्ञासा तत्त्वविषया ज्ञानेच्छा तत्त्वजिज्ञासा सा पूर्विका बोधाम्भः श्रोतस: शिराकल्पा श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा तत्त्वविषयैवा तत्त्वशुश्रूषानिबन्धनं श्रयणम् -आकर्णनं तत्त्वविषयमेव बोधः - अवगमः परिच्छे दो विवक्षितार्थस्य श्रवणनिबन्धन-स्तत्त्वविषय एव मीमांसा सद्विचाररूपाबोधानन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव। श्रवणं च बोधश्च मीमांसा च श्रवणबोधमीमांसाः। परिशुद्धा-सर्वतो भावविशुद्धा प्रतिपत्तिर्मीमांसोत्तरंकालभाविनी निश्चयाकारा परिच्छित्तिरिदमिदमेवेति तत्त्वविषयैव। प्रवर्त्तनं प्रवृत्तिरनुष्ठानरूपा परिशुद्धाप्रतिपत्त्यनन्तरभाविनी तत्त्वविषयैव, प्रवृत्तिशब्दो द्विरावर्त्यते तेनायमर्थो भवति। तत्त्वे प्रवृत्तिरष्ट - भिङ्गैर्निर्वृत्ताष्टाङ्गिकी एभिरद्वेषादिभिरष्टभिरङ्गैस्तत्त्वप्रवृत्ति: संपद्यते तेनाऽऽगमान्तरे मूलाऽऽगमैकदेशभूते न द्वेष: कार्य इति। षो०१६ विव०। (7) प्रमाणान्तराविषय एव पदार्थो नाऽऽगमेन बोध्यते किन्तु प्रमाणान्तरविषयोऽपि "न ह्यागमसिद्धा: पदार्था'' इति, प्रत्यक्षस्यापि प्रतिक्षेपो युक्तः। यदपि प्रत्यक्षानुमानाविषये चार्थे आगमप्रामाण्यवादिभिस्तस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तदुक्तम्-" आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतद- | नाम्।" (जैमि०१-२-११) इति तद्प्युक्तम्, यतो यथाप्रत्यक्षप्रतीतेऽप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषयेऽनुमानमपि प्रवृत्ति-मासादयतीति प्रतिपादितम्। तथा प्रत्यक्षानुमानप्रतिपन्ने- ऽप्यात्मलक्षणेऽर्थे तस्य वा प्रतिनियतकर्मफलसंबंधलक्षणे किमि-त्यागमस्य प्रवृत्ति भ्युपगमस्य विषय:? नचाऽऽगमस्य तत्राप्रामाण्यमिति वत्तुं युक्तं, सर्वज्ञप्रणीतत्वेन तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्था पितत्वात्। सम्म०१ काण्ड 1 गाथाटी। आगमप्रमाणञ्च प्रमाणान्तरे नान्तर्भवति तथा चाऽत्र शङ्कितम्आगमोऽपि नाऽनुमानाद् भिद्यते, परमार्थतस्तस्याप्यनुमानत्वात्तथाहि- 'शाब्दं प्रमाणमागमः' उच्यते शब्दश्च द्विविधो- दृष्टार्थाविषयः, अदृष्टार्थविषयश्च। तत्र दृष्टार्थविषया शब्दाद् या प्रतीतिः, सा वस्तुतोऽनुमानसमुत्थैव यत: क्वचित्प्रथमं पृथुबुध्नोदरो_कुण्डलोष्ठायतवृत्तग्रीवादिमति घटपदार्थे घटशब्दं प्रयुज्यमानं दृष्ट्वा तदुत्तरकालं क्वापि घटमानयेत्यादिशब्दं श्रुत्त्वा पृथुबुध्नोदरादिमदर्थ एव घट उच्यते, तथाभूतपदार्थे एव घटशब्दप्रयोगप्रवृत्तेः, यथा पूर्वं कुम्भकारापणादौ घटशब्दश्चाय-मिदानीमपि श्रूयतेतस्मात्तथाभूतस्यैवपृथुबुध्नोदरादिमत: पदार्थस्य मया आनयनादिक्रिया कर्त्तव्या इत्यनुमानं विधाय प्रमाता घटानयनादिक्रियं करोति, इत्येवं दृष्टार्थविषयं शाब्दं प्रमाणं वस्तुतो नानुमानाद्भिद्यते। विशे० 1552 गाथाटी। (8) आगमप्रमाणस्यानुमानप्रमाणेऽन्तर्भाव:काणादा:- शब्दोऽनुमान व्याप्तिग्रहणबलेनार्थप्रतिपादकत्त्वाडूमवदिति। तत्र हेतोरामुखे कूटाऽकूटकार्षापणनिरूपण- प्रवणयप्रत्यक्षेण व्यभिचारस्तथाभूतस्यापि तत्प्रत्ययक्षस्यानु मानरूपताऽपायात्। आ: कथं प्रत्यक्षं नाम भूत्वा व्याप्ति-ग्रहणपुरस्सरं पदार्थ परिछिन्द्यात् ? उन्मीलितं हि चेल्लोचनं जातमेव परीक्षणकाणां कूटाकूट विवेकेन प्रत्यक्षमिति क्व व्याप्तिग्रहणावसर इति चेत्, तदेवान्यत्रापि प्रतीहि। तथाहि-समुच्चारितश्चेद्ध्वनि:, जातमेव जनस्य शब्दार्थसंवेदनमिति क्व व्याप्तिग्रहणावकाश इति। एवं तर्हि नालिकेरद्वीपवानोऽपिपनसशब्दात्तदर्थसंवित्तिः स्यादिति चेत् , किं ना परीक्षकस्यापि कार्षापणे कूटाकूटविवेक्न प्रत्यक्षोत्पत्ति:? अथ यावानेता-दृशविशेषसमाकलितकलेवर: कार्षापण: तावानशेष: कूटोऽकूटो वा निष्टङ्कनीयस्त्वया; इत्युपदेशसाहायकापेक्षं चक्षुरादि तद्विविके कौशलं कलयति; नचापरीक्षकस्यायं प्राक्प्रावर्तिष्टति चेत् तर्हि शब्दोऽपि यावान् पनसशब्दस्तावान् पनसार्थवाचक इति संवित्तिसहायस्तत्प्रतिपादने पटीयान् न च नालिकेरद्वीपवासिन: प्रागियं प्रादुरासीदिति कथं तस्य तत्प्रतीति: स्यात् ? / अथैतादृशसंवेदनं व्याप्तिसंवेदनरूपमेव, तदपेक्षायां च शब्दार्थज्ञानमनुमानमेव भवेदिति चेत्, कूटाकूटकार्षापणविवेकप्रत्यक्षमपि किंन तथा तत्रापि तथाविधोपदेशस्य व्याप्त्युल्लेखस्वरूपत्वात्। अथव्याप्ते: प्राक् प्रवृत्तावपि तदानीमभ्यासदशापन्नत्त्वेनानपेक्षणात्प्रत्यक्षमे वैतत्तदपेक्षायां तु भवत्येवैतदनुमानं, कूटोऽयं कार्षापण:, तथाविधविशेष- समन्वितत्वात्प्राक्प्रेक्षितर्काषापणवत्, इति चेत्, एतदेवसमस्तमन्यत्रापितुल्यं विदांकरोतुभवान्। नखल्वभ्यासदशायां कोऽपि व्याप्तिं शब्देऽप्यपेक्षते, सहसैव तज्ज्ञानोत्पत्तेः। अनभ्या Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 73 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम से तु को नाम नानुमानतां मन्यते, यथा कस्यचिद्वि- स्मृतसंकेतस्य कालान्तरे पनसशब्दश्रवणे, य: पनसशब्द: स आमूलफले ग्रहिविटपिविशेषवाचको, यथा यज्ञदत्तोक्तः प्राक्तनस्तथा चायमपि देवदत्तोक्त इति। एवं च पक्षैकदेशे सिध्यसाध्यता, शब्दोऽनुमानमित्यत्र सकलवाचकानां पक्षीकृता- नामेकदेशस्यानुमानरूपतया स्वीकृतत्वात्। यस्त्वागमरूपतया स्वीकृत: शब्दस्तत्राभ्यासदशापन्नत्वेन व्याप्तिग्रहणापेक्षैव नास्ति। अन्यथा कूटाऽकूटकार्षापणप्रत्यक्षेण व्यभिचारापत्तेः तथा च हेतोरसिद्धिः। एवं च (शब्दत्वस्य व्याप्तिग्रहणानपेक्षत्वे सिद्धे) विवादास्पदः शब्दो नानुमानं, तद्विभिन्नसामग्रीकत्वात्, कूटाsकूटकार्षापणविवेकप्रत्यक्षवदिति सिद्धम्।। किं च-वाचामनुमानमानतामातन्वानोऽसौ कथं पक्षधर्मतादिकमादर्शयते? चैत्र: ककुदादिमदर्थविवक्षावान् गोशब्दाच्चारण-कर्तृत्त्वात, अहमिव इतीत्थमिति चेत्, नन्वतो विवक्षामात्रस्यैव प्रतीति: स्यात, तथा च कथमर्थे प्रवृत्तिर्भवेत्? विवक्षातो- ऽर्थसिद्धिरिति चेत्। मैवम्। अस्या: तद्व्यभिचारात् नाप्तानाम- न्यथापि तदुपलब्धः। अथ यथाप्रोक्ताच्छब्दात्तथाप्तविवक्षातो- अक्षुण्णैवार्थसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्, सत्यम्। किं प्रतीतिपरा- हृतैवेयं परम्परा, शब्दश्रुतौ सत्यां प्रतीत्यन्तराव्यवहितस्यैवार्थस्य संवेदनात्, यथा लोचनव्यापारे सति रूपस्या अपिच-अप्राती-तिकैतादृक्कल्पनामहापातकं क्रियतां नाम, यदि नान्या गति: स्यात् अस्ति चेयं शब्दस्य स्वाभाविकवाच्यवाचकभावसंबन्ध-द्वारेणार्थप्रत्यायकत्वोपपत्तेः। एतच्च"स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामि' त्यादिसूत्रे निर्णेष्यते। उदाहरन्तिसमस्त्यत्र प्रदेशे रत्नंनिधानं, सन्ति रत्नसानुप्रभृतय इति।।३।। वक्ष्यमाणलौकिकजनकादिलोकोत्तरतीर्थकराद्यपेक्षया क्रमेणोदाहरणोभयी। रत्ना०४ परि। अत्राह मीमांसक:- "शब्दज्ञानादसन्निकृष्टेर्थे बुद्धिः शाब्दम्''- (11-4/ शाबरभा.) इति वचनात् "शब्दादुदेति यद् ज्ञान- मप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि। शाब्दं तदिति मन्यन्ते, प्रमाणान्तर- वादिनः"||२|| इतिलक्षणलक्षितस्य प्रमाणान्तरस्य सद्भावात्, कथं द्वे एव प्रमाणे ? न चास्य प्रत्यक्षप्रमाणता सविकल्प- कत्वात्, नाप्यनुमानता त्रिरूपलिङ्गाप्रभवत्वात् अनुमानगोचरा- विषयत्वाच्च। तदुक्तम्"तस्मादननुमानत्वं, शाब्दं प्रत्यक्ष-वद्भवेत्। त्रैरूप्यरहितत्वेन, तादृगविषयवर्जनात्" (श्लो, वा, शब्दप, 98) / तथाहि-न शब्दस्य पक्षधर्मत्वं धर्मिणोऽयोगात्। नचार्थस्य धर्मित्वं तेन तस्य संबन्धासिद्धेः। नचाप्रतीतेऽर्थे तद्धर्मतया शब्दस्य प्रतीति: संभविनी प्रतीते चार्थे न तद्धर्मताप्रतिपत्ति: शब्दस्योपयोगिनी तामन्तरेणप्यर्थस्य प्रागेव प्रतीते: अन्यथा तस्य तद्धर्मतया प्रतीत्ययोगात्। भवतु वाऽर्थो धर्मी तथाऽपि किं तत्र साध्यमिति वक्तव्यं ? सामान्यमितिचेत्, न तस्य धर्मिपरिच्छेदकाल एव सिद्धत्वात्। तदपरिच्छेिदे धर्मिपरिच्छेदाऽयोगाद् "नाऽगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति न्यायात्। न च सामान्यं धर्मि अर्थविशेषस्तत्र साध्यो धर्मः उक्तदोषानतिक्रमात् / विशेषस्य चानन्वयाद्। अथ-शब्दोधर्मी अर्थवानिति साध्यो धर्म: शब्द एव च हेतु:, न; प्रतिज्ञार्थ- कदेशत्वप्राप्तेः। अथ शब्दत्वं हेतुरितिन प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वं दोषः, न; शब्दत्वस्यागमकत्वात् गोशब्दत्वस्य च निषेत्स्यमानत्वेनासिद्धत्वात्। अत एवानुमानतुल्यविषयताऽपि न शाब्दे संभवति। तदुक्तम्"सामान्यविषयत्वं हि, पदस्य स्थापयिष्यते। धर्मी धर्मविशिष्टश्च, लिङ्गीत्येतच साधितम् / / न तावदनुमानं हि, यावत्तद्विषयं न तत्। अथ शब्दोऽर्थवत्त्वेन, पक्ष: कस्मान्न कल्प्यते। प्रतिज्ञार्थंकदेशो हि हेतुस्तत्र प्रसज्यते। पक्षे धूमविशेषे हि, सामान्य हेतुरिष्यते। शब्दत्वं गमकं नात्र, गोशब्दत्वं निषेत्स्यते। व्यक्तिरेव विशेष्याऽतो, हे तोश्चैका प्रसज्यते" इति (श्लो. वा, शब्दप०५५-५६-,६२-६४) शब्दस्य चार्थेन संबन्धाभावतो यथा न पक्षधर्मत्वंतथाऽन्ययोऽपि प्रमेयेण व्यापाराभावतोऽसङ्गत एव तदुक्तम् - "अन्वयो न च शब्दस्य, प्रमेयेण निरूप्यते। व्यापारेण हि सर्वेषा-मन्वेतृत्वं प्रतीयते। यत्र धूमोऽस्ति तत्राग्ने-रस्तित्वेनान्वय: स्फुटः। नत्वेवं यत्र शब्दोऽस्ति, तत्राऽर्थोऽस्तीति निश्चयः / न तावत् यत्र देशेऽसौ, न तत्कालेऽवगम्यते! भवेन्नित्यविभुत्वाचेत् , सर्वार्थेष्वपि तत्समम् / तेन सर्वत्र दृष्टत्वाद्, व्यतिरेकस्य चागतेः / सर्वशब्दैरशेषार्थ -प्रतिपत्ति: प्रसज्यते'' (श्लो, वा० शब्दप० 85-88) अन्वयाभावेव्यतिरेकस्याप्यभावः, उक्तंच-"अन्वयेन विना तस्मा व्यातिरेकः कथं भवेत्-?" इति तदेव-मनुमानलक्षणाभावात् शाब्दं प्रमाणान्तरमेवा सम्म०२ काण्ड 1 गाथाटी। अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावत् शाब्दस्य त्रैरूप्यरहितत्वेन तादृगविषयाभावाचानुमानान्तविप्रतिपादमभ्यधायि तद् युक्तमेव न ह्यप्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावो युक्तः। कुत: पुन: शब्दोद्भवस्य ज्ञानस्याप्रामाण्यं ? शब्दस्यार्थप्रतिबन्धाभावात्। न हिशब्दोऽर्थस्य स्वभाव: अत्यन्तभेदात् नापि कार्य तेन विनाऽपि भावात्। न च तादात्म्यतदुत्पत्तिव्यतिरिक्तः संबन्धो गमकत्वनिबन्धनमस्ति। न च सङ्केतबलाद्वास्तवप्रतिपक्तिशक्तियुक्तानां प्रदीपानामिवार्थप्रकाशकत्वं संभवति। न च व्यवस्थितैवार्थप्रतिपादनयोग्यता संकेतेन शब्दस्याभिव्यज्यत इति वक्तव्यं पुरुषेच्छावशादन्यत्रार्थे शब्दस्य समयादप्रवृत्ति-प्रसक्तः। दृश्यते च पुरुषच्छावशादन्यत्रापि विषये शब्दानां प्रवृत्ति:। न च पुरुषेच्छावृत्ति: समयो वस्तुप्रतिवद्धः तदभावेऽपि तस्य प्रवृत्ते:। न च संकेतमरन्तरेण शब्दस्य वस्तुप्रत्यायकत्वं संकेताभावप्रसक्तः। आप्तप्रणीतशब्दानां पुनरर्थाव्य- भिचारेऽप्याप्तप्रणीतत्वानिश्चयादेवाप्रामाण्यं न पुनराप्तस्यैवासंभवात् / तद्संभवबाधकप्रमाणाभावात्। ततो बाह्ये विषये शब्दानां प्रतिबन्धाभावत: प्रमाण्यमेव न संभवति Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 74 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम पक्षधर्मत्वाद्यसंभवादनुमानत्वाभावप्रतिपादनं युक्तमेवेति स्थितम्। यत्र तु वक्त्रभिप्रायसूचने प्रामाण्यमस्य तत्रानुमानलक्षणयुक्तस्यैव नान्यादृग्भूतस्येति न प्रमाणान्तरत्वम्। सम्म, काण्ड 1 गाथाटी।। (9) आगममधिकृत्योक्तम् - तस्य च जीवाऽजीवादिलक्षणं दृष्टविषये वस्तुतत्त्वे सर्वदा अविसंवादात् अदृष्टविषयेऽप्येकवाक्यतया प्रवर्तमानस्य च प्रामाण्यं प्रतिपत्तव्यम्। न च वक्त्रधीनत्वात् तस्य अप्रामाण्यं वक्त्रधीनत्यप्रमाणत्वयोविरोधाभावाद्वक्त्रधीनस्यापि प्रत्यक्षस्य प्रामाण्योपलब्धे: न चाक्षजत्त्वाद्वस्तुप्रतिबद्धत्वेन तत्र प्रामाण्यं न शाब्दस्य विपर्ययादिति वक्तव्यं शाब्दस्य अत एव प्रमाणान्तरत्वोपपत्ते: अन्यथा अनुमानादविशेषप्रसङ्गात्। तथाहि-गुणवद्वक्तृप्रत्युक्तशब्दप्रभवत्वादेव शाब्दम् अनुमान- ज्ञानाद्विशिष्यते अन्यथा बाह्यार्थप्रतिबन्धस्यात्रापि सद्भावात् नानुमानादस्य विशेष: स्यात्। यदा च परोक्षेऽपि विषयेऽस्य प्रामाण्यमुक्तन्यायात् तदा गुणवद्वक्तृप्रयुक्तत्त्वेनास्य प्रामाण्यम् अतश्च गुणवद्वक्तृप्रयुक्तत्वमितीतरेतराश्रयदोषोऽपि नाऽत्राऽवकाशं लभते यथोक्तसंवादादस्य प्रामाण्यनिश्चये / कुतोऽयमस्यात्र संवाद: इत्यपेक्षायाम् आप्तप्रणीतत्वादित्यवगमो न पुनः प्रथममेव तत्प्रणीतत्वनिश्चयादस्यार्थप्रतिपादकत्वं प्रतिबन्धनिश्चयादनु- मानस्येव नापि दृष्टविषयाविसंवादिवाक्यैकवाक्यतां विरहय्य अदृष्टार्थवाक्यैकदेशस्यान्यतः कुतश्चित्प्राक् संवादित्वनिबन्धनस्य प्रामाण्यस्य निश्चयोऽभ्यासावस्थायां तु आप्तप्रणीतत्वनिश्चयात् प्रवृत्तिरदृष्टार्थवाक्यान्न वार्यत इति कुत इतरेतराऽऽश्रया- ऽवकाश.? (ऐकान्तिकं वाच्यस्वरूपं निरसितुंलडादेरर्थविचारपक्षा:)एकान्तवादिवाक्यात्तु दृष्टार्थेऽपि विसंवादिन: सर्वथा अप्रवृत्तिरेव निश्चितविसंवादाङ्गुल्यग्रहस्तियथशतप्रतिपादक वाक्यादिवत् नोकान्तवादिवचनानां वाच्यं संभात्युक्तम् / यत: सामान्य वा तद्वाच्यं भवेत् , विशेषो वा, उभयम् , अनुभयं वेति विकल्पा:। न तावत्सामान्य तस्येतरच्यावृत्तप्रतिनियतैकवस्तुरूपत्वायोगात् / शब्दवाच्यत्वे घटाद्यानयनाय प्रेरित: सर्वत्र प्रवर्तेत न वा क्वचिद् भेदनिबन्धनत्वात् प्रवृत्ते: सामान्यस्य अनर्थक्रिया-कारितया च प्रवृत्तिनिबन्धनत्वायोगात्। अथापि स्याद्यदाऽयं प्रतिपत्ता वाक्यमश्रुतपूर्वं शृणोति तदा पदानां संकेतकालानुभूतानामर्थं सामान्यलक्षणमेव प्रतिपद्यते या तु वाक्यार्थप्रतिपत्ति: सा अपेक्षासन्निधानाभ्यां विशेषणविशेष्यभावात्पदार्थप्रतिपत्ति- निबन्धना न पुनस्ततो वाक्यात् तथाविधस्य तस्य स्वार्थेन सह संबन्धाप्रतिपत्ते: वाक्यमेव च प्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवहारक्षमं न पदं तस्यानर्थक्रियाकारिसामान्यप्रतिपादकत्वेनाऽप्रवृत्त्यगत्वाद् / अत एव न विवक्षाप्रतिभासनमप्यर्थं प्रतिपादयन्तः शब्दा अनुमानतामासादयन्ति अगृहीतप्रतिबन्धादपि वाक्यविशेषात् यथोक्तन्यायतो वाक्यार्थप्रतिपत्तेः। अनेनैवाभिप्रायेण सौगता वाक्यगतां चिन्तामनादृत्य पदमेवानुमाने अन्तर्भावितवन्तः। उक्तंचमीमांसकै"वाक्यार्थे तु पदार्थेभ्यः, संबन्धानुगमादृते। बुद्धिरुत्पद्यते तस्मा-दिन्ना साऽप्यक्षबुद्धिवत्॥" (श्लो. वा० शब्द प. श्लो. 109) तथा"वाक्येष्वदृष्टेष्वपि सार्थकेषु, पदार्थचिन्मात्रतया प्रतीतिम्। दृष्ट्वानुमानव्यतिरेकभीताः। क्लिष्टा: पदाभेदविचारणायाम् // " (श्लो. वा. शब्दप श्लो० 111) इति। असदेतत्; एवं कल्पनायां पदार्थानामपि वाक्यार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वासंभवात् / तथा हि- 'घट: पटः कुम्भः' इत्यादिपदेभ्यो यथाऽन्योन्याननुषक्तस्वतन्त्र सामान्यात्मकार्थप्रतिपत्तिस्तथासंबद्धपदसमूहश्रवणादपि किं न तथाभूतसामान्यप्रतिपत्तिर्भवेत् ? नहि तत: सामान्यमात्राऽधिगमे तत्परित्यागतो विशिष्टार्थप्रतिपत्तीनिमित्तमस्तिन वापेक्षा-सन्निधानादिकं पदार्थानांतत्प्रतिपत्तौनिमित्तं पदार्थस्य पदार्थान्तरं प्रत्युत्पत्तौ प्रतिपत्तौ वाऽपेक्षादेरयोगात् तस्य सामान्यात्मकत्वेनोत्पत्तेरसंभवात् स्वपदेभ्य एव प्रतिपत्तेस्तत्रापि पदार्थान्तरापेक्षाद्यनुपपत्तेः। अर्थशक्तित एव ततो विशेषप्रतिपत्तिरितिचेत् तर्हि पदार्थानामेकार्थसंभवा प्रतिपत्तिर्यस्य तस्यापिततस्तत्प्रति-पत्तिर्भवेत्। न च सामान्यत्यागे किंचिन्निबन्धनं बाधकाभावात् सत्यर्थित्वे उभयप्रतिपत्ति-प्रवृत्ती स्याताम्। न च वाक्यार्थप्रत्यय एव बाधकस्तेन तस्य विरोधाभावात् सामान्यविशेषयो: साहचर्यात् सामान्यप्रत्ययस्य च विशेषप्रतिपत्तिं प्रति निमित्तत्वाभ्युपगमात् निमित्तस्य च निमित्तिना अबाध्यत्वाद् अन्यथा तस्य तन्निमित्तत्वायोगाद्। अथ प्रागप्येवमयं व्युत्पादित: यत्र पदार्थानामेकद्रव्यसंभवस्तत्र पदार्थसामान्यत्यागाद्विशेष: प्रतिपत्तव्यो यथा नीलोत्पलादौ, नन्वेवं सर्ववाक्यान्यस्यव्युत्पादितान्येव भवन्ति। तथाहि- य: कश्चित् संभवदेकद्रव्यार्थनिवेश: पदसमूह: संकेतसमयावगतसामान्या-त्मकावयवार्थपरित्यागतस्तेषामेव विशेषणविशेष्यभावेन विशिष्टाऽर्थगोचरः प्रतिपत्तव्यो, यथा 'नीलोत्पल पश्य' इत्यादिपदसंघात:, तथा चायमपूर्ववाक्यत्मक: पदसमुदाय इति संकेतमनुसृत्य यदा ततस्तथाभूतमर्थ प्रत्येति तदा कथं न विशिष्टार्थवाचकं वाक्यम्? अनेनैव च क्रमेण शब्दविदां समयव्यवहार उपलभ्यते। यथा- 'धात्वादि: क्रियादिवचनः, कादिवचनश्च लडादि:' इति समयपूर्वकं 'प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह बूत' इति घ्युत्पादितोऽनर्थक्रियाकारित्वेन सामान्यमात्रस्य विशेषनिरपेक्षस्य प्रतिपादयितुमनिष्टेः तत्परित्यागेन व्यवहारकाले विशेषमवगच्छति व्यवहारी। नच प्रकृतिप्रत्ययाविवात्र पदार्थ प्रतिपादयतो न पदमिति मन्तव्यम्। "अशाब्दे वाऽपि वाक्यार्थे, न पदार्थेष्वशाब्दता। वाक्यार्थस्येव नैलेषां, निमित्तान्तर संभवः।।" (श्लो. वा. वाक्याधि, श्लो. २३०)इत्यस्य विरोधप्रसक्तेः। न च वाक्यस्य वाक्यार्थ संकेतकरणेऽनुमानात् शाब्दस्याऽविशेषप्रतिपत्तिः, विशेषस्य प्राक् प्रतिपादितत्वात् / केवलस्य च पदस्य प्रयोगानर्हत्वाद्वाक्यस्य तु प्रयोगार्हस्य सामान्यानभिधायकत्वात्कथं सामान्य शब्दार्थ: स्यात् ? यस्तु पूर्वपदाऽनुरञ्जितं पदमेव वाक्यं पदार्थ एव पदार्था Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 75 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम न्तरविशेषितो वाक्यार्थोऽभ्युपगतः / तथाहि-'दण्डी' 'छत्री' त्यादिव्यपदेशं यथा पुरुष एव समासादयति नान्यस्तद्व्यतिरिक्तः तथा 'अपाक्षीत्' 'पचति' 'पक्ष्यति' इत्याद्यतीतकालाद्यवच्छिन्न: क्रियाविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते- 'अपाक्षीद्' इत्यादिशब्दानां देवदत्तशब्देन सामानाधिकरण्यात्-न तु तद्व्यतिरिक्तोऽर्थः अथ यद्यंत्र कालाधवच्छिन्नपुरुष एव प्रतीयते तदा 'अग्निहोत्रं जुहुयात्' 'ग्रामं गच्छ' 'स्वाध्यायः कर्तव्य' इति लिट्-लोट्कृत्य- प्रयोगेषु कस्यार्थस्य प्रतीति:? अत्रापि कर्मणि नियुक्तः क्रियाविशिष्टोऽध्येषणादिविशिष्टश्च देवदत्त एव प्रतीयते केवलं वर्तमानादिकालो न विशेषणत्वेनाऽत्रावतिष्ठते। अथ यदि नात्रार्थातिरेकावगतिर्भावसंपादने कथं पुरुष: प्रवर्तते ? यथा हि देवदत्त: पचति इत्यादिवाक्यान्न प्रवर्तते तथा 'जुहुयाद्' इत्यस्मादपि नैद प्रवर्तेत प्रवृत्ति निमित्तस्यानवबोधात्, असदेतत् 'जुहुयाद्' इत्यादिवाक्यजनितविज्ञानस्यैव प्रवर्तक- त्वात् प्रवृत्तस्तद्भावभावित्वेनोपलम्भाद् एतद्वाक्यसमुत्थं ज्ञानं पुरुष स्वर्गादिसाधने नियोजयदुपलभ्यते न पचति' आदि-वाक्यसमुत्थम्। तथाहि-विध्यादिवाक्यजनितज्ञानान्तरमिच्छा तदनन्तरं प्रयत्न: तदनन्तरं च पुरुषस्य स्वर्गादिफलार्थ: परि-स्पन्दस्ततोऽपिफलपर्यन्ता स्वर्गफलावाप्ति: इत्यभिधानात् / तेऽपि अयुक्तिकारिण: एकान्तपक्षे विशेषण विशेष्ययोरत्यन्तभेदे अभेदे या विशेषणानुरागस्यपद-पदार्थेषु असंभवाद्वाक्यार्थ-कल्पनादेरनुपपत्ते: अतएव 'अपाक्षीदेवदत्तः' इत्यादी न काल-क्रियाविशिष्टपुरुषप्रतिपत्तिः क्रियादेः पुरुषाद्भेदे संबन्धाऽसिद्धितो व्यवच्छेदकत्वानुपपत्तेः अभेदेऽप्ये कस्य तात्विकविशेषणविशेष्यरूपतासंगतेः। अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। कल्पनार- चितस्य तद्रूपत्वस्य सर्वत्राविशेषात् विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेश्च अन्य- निमित्तत्वात् विरोधादिदोषस्य च तत्र प्रागेव प्रतिविहितत्वादेतेन लिड्दियुक्तवाक्यजनितविज्ञानस्य प्रवर्तकत्वमेकान्तवादिप्र- कल्पितं प्रतिक्षिप्त तद्भावभावित्वस्य अन्यथासिद्धत्वप्रति-पादनात्। सम्म०३ काण्ड६३ गाथाटी। (10) (शब्दस्य बाह्यार्थे प्रामाण्यं शास्त्रप्रयोजनम-धिकृत्योक्तम्)यदि प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ प्रयोजनप्रतिपादनायादिवाक्यमु- पादीयते तदा ते प्रेक्षापूर्वकारित्वादेवाप्रमाणके नैव प्रवृत्तिं विदधति। नच प्रयोजनप्रतिपादकमादिवाक्यं तत्प्रभवं वा ज्ञानं प्रमाणम् अनक्षजत्वेनाध्यक्षत्वायोगात्। नाऽप्यनुमानं स्वभावकार्यलिङ्गसमुत्थं तद्भावत्वेन तत्का- रणत्त्वेन वा तत्प्रत्याय्य प्रयोजनस्य प्रमाणतोऽप्रतिपत्ते: तदुत्था- पकस्य लिङ्गस्य तत्कार्यत्वानवगमाद, अन्यस्य चस्वसाध्या-प्रतिबन्धाद् अप्रतिबद्धस्य च स्वसाध्यव्यभिचारेणागमक त्वात्, तत्त्वे वाऽतिप्रसङ्गात्; तत्प्रतिबद्धत्वेऽप्यनिश्चितप्रतिबन्धस्याति- प्रसङ्गत एव अगमकत्त्वात्। न च वाक्यमिदं प्रवर्त्तमानं स्वमहिमेव स्वार्थ प्रत्यायतीति शब्दप्रमाणरूपत्त्वात्स्वाभिधेयप्रयोजनप्रतिपादने प्रमाणम्, शब्दस्य बाह्यऽर्थे प्रतिबन्धासंभवेनाप्रामाण्यात्; विवक्षायां प्रामाण्येऽपि तस्या | बाह्याविनामावित्वायोयात्। नाऽपि ये यमर्थ विवक्षन्ति ते तथैवं तं प्रतिपादयन्ति, अन्यविवक्षायामप्यन्य- शब्दोचारणदर्शनाद्विवक्षायाश्च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वानुपपत्तेरे- कान्ततः / तन्न शब्दादपि प्रमाणादादिवाक्यरूपात् प्रयोजन विशेषोपायप्रतिपत्ति: तदप्रतिपत्तौ च तेषां ततः प्रवत्तौ प्रेक्षा-पूर्वकारिताव्यावृत्तिप्रसङ्गात्। प्रयोजनविशेषोपायसंशयोत्पादकत्वेन प्रवृत्त्यङ्गत्वादादिवाक्यस्य सार्थकतत्त्वम् / तथाहिअर्थसंशयादि प्रवृत्तिरूपलभ्यते, यथा कृषीबलादीनां कृष्यादावनवगतशस्यावाप्तिफलानाम् / अथ अबीजादिविवे के नावधृतबीजादिभावतया निश्चितोपाया:। तदुपेयशस्यावाप्त्य-निश्चयेऽपितत्र तेषां प्रवृत्तिर्युक्ता न पुन: शास्त्रश्रवणा-दावुपेयप्रयोजनविशेषानिश्चयवत्तदुपायाभिमतादिवाक्य-प्रत्याय्योपायनिश्चयस्याप्यसंभवाद्, अयुक्तमेतत्; यतो यथा शस्यसंपत्त्यादौ फले कृषी बलादे: संदेह: तथा तदुपाया-भिमतबीजादावपि, अनिवर्तितकार्यस्य कारणस्य तथाभावनिश्चयायोगात्। तत्र यथाकृष्यादिकं संशय्यमानोपायर्भावं प्रवृत्तिकारणं तथा शास्त्रमप्यादिवाक्यादनिश्चितोपायभावं किं न प्रवृत्तिकारणमभ्युपगम्येत इति चेद्, असदेतत् आदि-वाक्योपन्यासः शास्त्रप्रयोजनविषयसंशयोत्पादनार्थ संशयोऽपि च निश्चयविरुद्धःअनुत्पन्ने च निश्चये तत्राप्रतिबद्धप्रवृत्तिहेतुतया प्रादुर्भवन् केन वार्यते आदिवाक्योपन्यासमन्तरेणापि ? अथाश्रुतप्रयोजनवाक्यानां प्रयोजनसामान्ये तत्सत्त्वेतराभ्यां संशयो जायते-'किमिदं चिकित्साशास्त्रवत्सप्रयोजनम् उत काकदन्तपरीक्षावनिष्प्रयोजनम् ततश्च संशयादनुपन्यरते प्रयोजनवाक्ये प्रयोजनसामान्यार्थिनः प्रवर्त्तन्तां प्रयोजनविशेषे तु कथमश्रुतप्रयोजनवाक्यानां संशयोत्पत्ति:? प्रायेण च प्रयोजनविशेषविषयस्येव संशयस्य प्रवृत्तिकारणत्वात् तदुत्पादनयादिवाक्यमुपादेयम् अतश्च प्रयोजनसामान्यविशेषेषुसंशयानाः 'किमिदं सप्रयोजन उत निष्प्रयोजन सप्रयोजनत्वेऽपि किमभिलषितेनैव प्रयोजनेन तद्वद् इति पक्षपरामर्श कुर्वाणा: प्रवर्त्तन्ते असदेतत् : कुत्रचिच्छास्त्रादनुभूतप्रयोजनविशेषं श्रोतारं प्रति प्रयोजनवाक्यस्यानुपयोगात्- स हि किंचिच्छास्त्रमुपलभ्य प्रागनुभूतप्रयोजनविशेषेण शास्त्रेणास्य वाक्यात्मकत्वेन साधर्म्यमवधार्येदमपि निष्प्रयोजनम् उत-अनभिमतप्रयोजनवद्उताऽभीष्टप्रयोजनवद्वा इत्याशङ्कमानः प्रयोजनवाक्यमन्तरेणापि प्रवर्त्तत एव अननुभूतप्रयोजनविशेषस्तु प्रयोजनवाक्यादपि नैव प्रवर्त्तते, तं प्रति तस्यापि तदुत्पादकत्वायोगात्-न हि प्रागननु-भूतशास्त्रप्रयोजनविशेष: 'प्रयोजनप्रतिपादकं वाक्यमेतदर्थमि' त्यपि प्रतिपत्तुं समर्थोऽपरयत्नमन्तरेणा नाप्यनुभूतविस्मृत- प्रयोजनविशेष: प्रयोजनवाक्यासंस्मृत्य तद्विशेष संशयानः प्रवर्तते, तद्रहितशास्त्रादपि तद्विशेषे स्मृतिसंभवात् नियमेन तु नोभाभ्यामपि तदनुस्मरणं भवति, तथाऽपि प्रयोजनवाक्यस्य तत: स्मृतिहेतुत्वत उपन्यासे अन्यस्यापि तद्धेतो: किं नोप-न्यास:? सामान्यविशेषयोश्च दर्शनाऽदर्शनाभ्यां विशेषस्मरणसहकारिभ्यां संशयाः, न च प्रयोजनवाक्यं प्रयोजनविशेषस्य भावाऽभावयो: सामान्यम्। अथ विवक्षापरतन्त्रत्वात् स्वार्थतथाभावाऽतथाभावयोरपि प्रयोगसंभवात्सामन्यमेव वाक्यं, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 76 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम शास्त्रमपि तर्हि शास्त्रान्तरसादृश्यात्प्रयोजननिर्वृत्त्युपायत्वाऽनु- | पायत्वयो: सामान्यम्- अन्यतरनिश्चयनिमित्ता-भावात्तत: संशयान: प्रवर्त्ततां किमकिंचित्करप्रयोजनवाक्येन ? न च सामान्यस्य विशेषस्य | च दर्शनाऽदर्शनाभ्यामेव यथोक्ताभ्यां संशयः, किं तु-साधकबाधकप्रमाणावृत्तावपि; सा च प्रयोज-नवाक्योपन्यासाऽनुपन्यासयोरपि संभवत्येव। मा भूत्संशयोत्पादनेन वाक्यस्स शास्त्रश्रवणादिप्रवृत्तौ सामर्थ्य, किं तु-प्रकरणारम्भप्रतिषेधाय 'नारब्धव्यमिदं प्रकरणम्, अप्रयोजनत्वात्, काकदन्तपरीक्षावद्' इति व्यापकानुपलब्धेर- सिद्धतोद्भावनाय तदुपन्यास इति चेत्, एतदप्यसत्; यत: शास्त्रप्रयोजनं, वाक्येनाप्रदर्शयता तदसिद्धिरुद्भावयितुम- शक्या, वाक्यस्याऽऽप्रमाणतया प्रयोजनविशेषसद्भावप्रकाशन- सामर्थ्याभावात्। न च सप्रयोजनत्वेतरयो: परस्परपरिहार- स्थितयो: कूतश्चित्प्रमाणादेक भावाप्रतिपत्तावितराभावप्रति-पत्तिः - अतिप्रसङ्गात्-येन वाक्यमात्रस्योपक्षेपेण हेतोरसिद्धिः स्यात् / नाऽपि कुतश्चित्प्रयोजनविशेषमुपलभ्यमानेन स्वयमुपलब्ध प्रयोजविशेषोपलम्भोपायमप्रदर्शयता कर्तुमशक्या असिद्धतोद्भावना वाक्यस्याप्रमाणस्य हेतुप्रतिपक्षभू- तार्थोपस्थापना अशक्तस्योपन्यासमात्रेणासिद्धेरयोगात् / नाऽप्यनिबन्धना प्रतिपत्तिः, अतिप्रसङ्गात्। अथ यद्यप्यप्रमाणत्वाद्विपरीतार्थोपस्थापनमुखेनासिद्धतामिदं नोद्भावयति। तथापि शास्त्रस्य निष्प्रयोजनता संदिग्धा अत:, संदिग्धनिष्प्रयोजनत्वम्य शास्त्रस्य प्रयोजनाभाव निश्चित प्रेक्षावदारम्भप्रतिषेधहेतुं प्रयुञ्जानोऽनेन वाक्येन प्रतिक्षेतुमिष्टः न पुन: प्रयोजनविषयनिश्चय एवोत्पादयितुमिष्टः, नहि प्रतिपक्षोपक्षेपेणेव साधनधर्माणामसिद्धिः अपि तु स्वग्राहिज्ञानविकलतायसंदिग्धधर्मिसंबन्धित्वमप्यसिद्धत्वमेव, तस्मात्संदिग्धसिद्धतोद्भावनाय वाक्यप्रयोग इति, तदप्यनुपपन्नम्; यथाहिसप्रयोजनत्वे संदेहोत्पादने वाक्य-स्यानुपयोगित्वं- शास्त्रमात्रादपि भावात्- तथा निष्प्रयोजन-त्वेऽपि; एवं ह्यनेन वाक्येन हेतोरसिद्धतोद्भाविता भवति यति तत्सत्तासंदेहनिबन्धनानि कारणान्यपि तदैव प्रकाशितानि भवन्ति। न च विपर्यस्तपुरुषसंदेहोत्पादने तद्वाक्यं प्रभवति, अदर्शनात्। नच प्रस्तुतशास्त्रस्य प्रयोजनवत् शास्त्रान्तरेण कथंचित्साम्यात्साधक-बाधकप्रमाणाप्रवृत्तितश्चान्यानि संदेहकारणानि संभवन्ति, वाक्यमप्येतावन्मात्रप्रकाशनपर हेतो: संदिग्धासिद्धतामुदावयेत्, तच्च तथाप्रकाश-नमनुपन्यस्तेऽपिवाक्ये शास्त्रमात्रादपि दर्शनात् प्रमाणद्वयावृत्तेश्च भवतीति कस्तस्योपयोग:? अनुपन्यस्ते कथं तदिति चेत्, उपन्यस्तेऽपि कथं नहि तदुप- न्यासाऽनुपन्यासाऽवस्थयो: संदिग्धत्त्वाप्रस्तुतात्कथंचन विशेषं पश्याम:? असिद्धतोद्भावनमनेन न्यायेन सर्वमेवासङ्गतमिति चेत्, नैतत्; नह्यनन प्रकारेणासिद्धतोद्धावनमेव प्रतिक्षिप्यते, किंतु प्रमाण-रहिताद्वायात्रादसिद्धता नोद्भावयितुं शक्येति प्रदर्श्यते। तन्न प्रयोजनवाक्यं हेत्वसिद्धतोद्भावनार्थमपि युक्तम् / नच परोपन्यस्ते साधने प्रयोजनवाक्येपासिद्धतामुद्भाव्य कथमसिद्धिः साधनस्येति प्रत्यवस्थानवन्तं शास्त्रपरिसमाप्तेः प्रयोजनमवगमयन् | शास्त्रं श्रावयति। ततः समधिगते प्रयोजने तदुपन्यस्तस्य साधनस्याऽसिद्धिरिति बक्तुं शक्यं, शास्त्र- श्रवणत: प्रयोजनायवगमे शास्त्रस्यादौ तद्वाक्योपन्यासस्य वै- यर्थ्यप्रसक्ते: / अत एव "शास्त्रार्थप्रतिज्ञाप्रतिपादनपर: आदि-वाक्योपन्यास:"() इत्याद्यपि प्रतिक्षिप्तम्, अप्रमाणादादि- वाक्यात्तदसिद्धेः। तथा-संबन्धाभिधेयप्रत्यायनपराण्यपि वाक्यानिशास्त्रादौ वामात्रेण निश्चयायोगान्निष्प्रयोजनानि प्रतिक्षिप्तान्येव, उक्तन्यायस्य समानत्वात्। तदयुक्तम् 'समय' इत्याद्यभिधेय- प्रयोजनप्रतिपादकं- (अस्य काण्डस्य द्वितीयं) गाथासूत्रम्। (उत्तरपक्ष:- आदिवाक्योपन्यासस्य सार्थकत्वसमर्थनम्) अत्र- प्रतिविधीयते- यदुक्तं न प्रत्यक्षमनुमानं वा शब्दः तत्र सिद्धसाध्यता, प्रत्यक्षानुमानलक्षणयोगात्तत्रा यच्च'नापि' शब्द: प्रमाणं बंहिरर्थे तस्य प्रतिबन्धवैकल्येन, विवक्षायां तु प्रति-बन्धेऽपि यथाविवक्षमथर्शसंभवात्, तदप्यसारम्, बाह्यार्थेन शब्दप्रतिबन्धस्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात् तत्रैव च प्रतिपत्तिप्रवृत्त्यादिव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वाबाह्यार्थे एव शब्दस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् प्रत्यक्षवत्। न चार्थाऽव्यभिचारित्व- प्रामाण्यनिश्चयवतां ततः प्रवर्त्तमानानां प्रेक्षापूर्वकारिताक्षतिः। न चाऽनाप्तप्रणीत 'सरित्तटपर्ययस्तगुडशकटं' पटुवाक्यविशिष्ट- तानवगमान्नात: प्रवृत्ति: प्रत्यक्षामासात्प्रत्यक्षस्येवानाप्तप्रणीत-वाक्यादस्य विशिष्टतावसायात्; यस्य तुन तद्विशिष्टावसायो नासावत: प्रवर्त्तते अनवधृतहेत्वाभासाविवेकाद्धेतोरिवानुमेयार्थक्रियार्थी। न चाप्तानां परहितप्रतिबद्धप्रयासानां प्रमाणभूतत्वात्स्ववाङ्गात्रेण प्रवर्त्तयितुं प्रभवतां प्रयोजनवाक्योपन्यासवैयर्थ्य सुनिश्चिताप्तप्रणीतवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनार्थिनां तदुपायानिश्चये तत्र प्रवृत्त्योगात्नच प्रयोजनविशेषप्रतिपादक वाक्यमन्तरेणाऽऽसप्रणीतशास्त्रस्यापितद्विशेषप्रतिपादकत्व- निश्चय: येन तत, एव तदर्थिनां तत्र प्रवृत्ति: स्यात् तदन-भिमतप्रयोजनप्रतिपादकानामपि तेषां संभवाद्। अत:-"यत्र खल्वाप्तै: 'इदं कर्त्तव्यम्' इति पुरुषा: प्रतीत-तदाप्तभावा नियुज्यन्ते तत्रावधीरिततत्प्रेरणाऽतथाभाव-विषयविचारास्तदभिहितं वाक्यमेव बहु मन्यमाना अनादृत- प्रयोजनपरिप्रश्ना: एव प्रवर्तन्ते विनिश्चिततदाप्तभावानां प्रत्यवस्थानासंभवात्" () इति निरस्तम्, आप्तप्रवर्तित- प्रतिनियतप्रयोजनार्थिजनप्रेरणावाक्यस्यैव प्रयोजनवाक्यत्व- निश्चयाद् अन्यथाऽभिमतफलार्थिजनप्रेरकवाक्यस्याप्तप्रयुक्त- त्वमेवानिश्चितं स्याद् अनभिमतार्थप्रेरकस्यावगताप्तवाक्यत्वे चातिप्रसङ्गः, न चाप्तवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनार्थिनस्तद- वगमे तत्र प्रवर्तितुमुत्सहन्ते, अतिप्रसङ्गादेवेति सुप्रसिद्धम्। अर्थसंशयोत्पादकत्वेन चादिवाक्यस्य प्रवर्तकत्वप्रतिक्षेपे सिद्धतासाधनम्, व्यापकानुपलब्धेस्त्वसिद्धतोद्भावनमादिवाक्यानिश्चितबाह्यार्थप्रामाण्यात्युक्तमेव, यथा च तत्र तस्या (तस्य) प्रामाण्यं तथा प्रतिपादयिष्यामः। अत एव- "आप्ताभिहितत्वासिद्धरविसंवाद कत्वायोगादप्रमाणत्वाभाव-निश्चयनिमित्ताभावदप्रवर्तकत्वं प्रयोजनवाक्यस्य प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रति" ( ) इति। यदुच्यते तदपि प्रतिव्यूढं दृष्टव्यम्। सम्म०१ काण्ड 2 गाथाटी०। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 77 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम (11) अपाह: शब्दार्थ इति बौद्धा:ननु च - 'समयपरमार्थविस्तर' - इत्यनेनाऽऽगमस्याकल्पितो बाह्योऽर्थः प्रतिपाद्यत्वेन शब्दार्थयोश्च वास्तव: संबन्धो निर्दिष्टः, द्वितयमप्येतदयुक्तं; प्रमाणबाधितत्वाद् इतिबौद्धाः। तथाहि- शब्दानां न परमार्थत: किंचिद्वाच्यं बस्तुस्वरूपमस्ति: सर्व एवं हि शाब्दप्रत्ययों भ्रान्त:, भिन्नेष्वर्थेष्वभेदाकाराध्यवसायेन प्रवृत्तेः। यत्र तु पारंपर्येण वस्तुप्रतिबंधस्तत्रार्थसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि, तत्र यत्तदारोषितं विकल्पबुद्ध्याऽर्थेष्वभिन्नं रूपं तदन्यव्या वृत्तपदार्थानुभवबलायातत्वात्स्वयं चान्यव्यावृत्ततया प्रतिभास-नाभ्रान्तैश्वाऽऽन्यव्यावृत्तार्थेन सहैक्येनाध्यवसितत्वात् अन्यापोढपदार्थाधिगतिफलत्वाच अन्याऽपोह इत्युच्यते। अत: अपोहः शब्दार्थ इति प्रसिद्धम्। ('विधिरेव शब्दस्यार्थः' इति विधिवादिमतस्य संक्षिप्य प्रतिस्थापनम्) अत्र विधिवादिनः प्रेरयन्ति- यदि भवतां द्रव्य-गुणकर्मसामान्यादिलक्षणानि विशेणानि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तानि परमार्थतां न सन्ति कथं लोके 'दण्डी' इत्याद्यभिधानप्रत्ययाः प्रवर्तन्ते द्रव्याधुपाधिनिमित्ताः, तथा हि- 'दण्डी' 'विषाणी' इत्यादिधीध्वनी लोके द्रव्योपाधिको प्रसिद्धौ, 'शुक्ल: 'कृष्णः' इति गुणौपाधिको, 'चलति' 'भ्रमति' इति कर्मनिमित्तौ, 'अस्ति' 'विद्यते' इति सत्तानिमित्तकौ, 'गौः' 'अश्वः' इति सामान्यविशेषोपाधी, 'इह तन्तुषु पटः' इति समवायनिमित्तः। (तौ)। तत्रैषां द्रव्यादीनामभावे 'दण्डी' इत्यादिप्रत्यय-शब्दौ निर्विषयौ स्याताम्। न चानिमित्तावतौ युक्तौ, सर्वदा तयोर- विशेषेण प्रवृत्तिप्रसङ्गात्। नचाविभागेन तयोः प्रवृत्तिरस्ति, तस्मात्सन्ति द्रव्यादय: पारमार्थिकाः प्रस्तुतप्रत्ययशब्दविषया:। प्रमाणयन्ति चात्र-ये परस्परासंकीर्णप्रवृत्तयस्ते सनिमित्ताः, यथा श्रोत्रादिप्रत्यया:, असंकीर्णप्रवृत्तयश्च दण्डी, इत्यादिशब्द-प्रत्यया इति स्वभावहेतुः। अनिमित्तत्वेसर्वत्राऽविशेषेण प्रवृत्तिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम्। (विधिवादिमतं सविस्तरं दूषयताम् अपोहवादिनां मतस्य निर्देश:)अत्र यदि पारमार्थिकबाह्यविषयभूतेन निमित्तेन सन्निमित्तत्त्व- मेषां साधयितुमिष्टं तदा अनैकान्तिकता हेतोः; साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात्। अथ येन केनचिन्निमित्तेन सन्निमित्तित्त्व- मिष्यते तदा सिद्धिसाध्यता। तथाहि-अस्माभिरपीष्यते एवैषामन्तर्जल्पवासनाप्रबोधो निमित्तं नतु विषयभूतम्, भ्रान्तत्वेन सर्वस्य शा(शब्द-प्रत्ययस्य निर्विषयत्वात्। तदुक्तम्-"येन येन हि नाम्नावै, यो यो धर्मोऽभिलप्यते। न स संविद्यते तत्र, धर्माणां सा हि धर्मता' () इति। नच शाब्दप्रत्ययस्य भ्रान्तत्वाऽविषयत्वयोः किं प्रमाणमिति वक्तव्यम्, भिन्नेष्वभेदाध्यवसायेन प्रवर्त्तमानस्य प्रत्ययस्य भ्रान्तत्वात्। तथाहिय: 'अतस्मिंस्तद्' इति प्रत्ययः स भ्रान्तः, यथा मरीचिकायां जलप्रत्ययः, तथा चायं भिन्नेष्वर्थेष्व-भेदाध्यावसायी शाब्द: प्रत्यय इति स्वभावहेतुः। न च सामान्य वस्तुभूतं ग्राह्यमस्ति येनासिद्धतास्य हेतो: स्यात्, तस्य निषिद्धत्वात्। सम्म.१ काण्ड गाथाटी०। (इतिऽग्रे'सह' शब्दे सप्तमे भागे 340 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) इतश्च-स्वलक्षणव्यपदेश्यं शब्दबुद्धौ तस्याः प्रतिभासनात्। यथाहिउष्णाद्यथेविषयेन्द्रियबुद्धिः स्फुटप्रतिभासानुभूयते न तथा उष्णादिशब्दप्रभवा नयुपहतनयनादयो मातुलिङ्गादिशब्दश्रवणात्तद्रूपाद्यनुभाविनो भवन्ति यथानुपहतनयनादयः अक्षबुद्ध्यानुभवन्तः। यथोक्तम्-"अन्यथैवाग्निसंबन्धाद्दाहंदग्धोऽभिमन्यते।अन्यथा दाहशब्देन, दाहार्थ: संप्रतीयते" (वाक्यप.द्वि. का. श्लो० 425) न च यो यत्र न प्रतिभाति स तद्विषयोऽभ्युपगन्तुं युक्त: अतिप्रसङ्गात्। तथा च प्रयोग:-यो यत् कृतप्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः यथा रूपशब्दजनिते प्रत्यये रस:, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यये स्वलक्षणम् इति व्यापकानुपलब्धिः। अत्र चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम् / तथाहिशब्दस्यतद्विषयज्ञानज-कत्वमेवतद्बाधकत्वमुच्यतेनान्यत्, नचयद्विषयं ज्ञानं यदाकारशून्यं तत्तद्विषयं युक्तमतिप्रसङ्गात्। न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्तिस्पष्टम् अस्पष्टं च येनाऽस्पष्टं वस्तुगतमेव रूपं शब्दैरभिधीयते-एकस्य द्वित्वविरोधाता भिन्नसमयस्थायिनां च परस्परविरुद्धस्वभावप्रतिपादनात् न शब्दगोचर: स्वलक्षणम्। सम्म०१ काण्ड 2 गाथाटी। (12) शब्दार्थविचार: अस्थो कि हुज्ज सुई, विण्णाणं वत्थुभेओ वा // 1600 / / जाई दव्वं किरिया, गुणोऽहवा संसओ तवो जुत्तो। अयमेवेति न वा यं, नवत्थुधम्मो जओ जुत्तो ! // 1602 / / सव्वं चिय सव्वमयं, सपरप्पजायओजओ निययं। सव्वमसव्वमयं पिय, विचित्तरूवं विवक्खाओ॥१६०२।। सामण्णविसेसमओ, तेण पयत्थो विवक्खया जुत्तो। वत्थुस्स विस्सरूवो, पज्जाया-वेक्खया सव्वो // 1603 // अर्थः श्रुति:- शब्दो भवेत, यथा भेरी-पटह-ढक्कादीनां शब्द- स्य शब्द एवार्थः; अथवा-यघटादिशब्दे समुच्चारिते तदभि- धेयार्थविषयं विज्ञानं भवद्-दृश्यते तत्तेषामर्थः; किं वा- घट- शब्द समुत्कीर्तिते 'पृथुबुध्नोदराद्याकारवान् घटलक्षणोऽर्थोऽने-केतो, नतु पटादिः' इत्येवं यो वस्तुभेद: प्रतीयते स एषामर्थः; यदिवा-किं जातिरमीषामर्थो, यथा गोशब्दे समुचारिते गोजा-तिरवसीयते; यदि वा-किं द्रव्यमेषामर्थो यथा दण्डीत्यादिषु दण्डादिमद् द्रव्यं किं वा धावतीत्यादीनामिव धावनादिक्रि या अमीषामर्थः; अथवा-किं शुक्लादीनामिव शुक्लादिगुण एतेषा-मर्थ इति? अयं च संशयस्तवाऽयुक्तो, यस्माद्'अयमेव, नैव वाऽयमि' त्येवं कस्यापि वस्तुनो धर्मोऽवधारयितुंन युक्तः। शब्दोऽपि वस्तुविशेष एव, तत: 'एवंभूतस्यैवार्थस्यायमभिधाय- को, नैव वा इत्थंभूतस्यार्थस्यायं प्रतिपादक:' इत्येवमेतद्धर्मस्याप्यवधारण-मयुक्तमेव / कुत:? इत्याह-'सव्वं चिये' त्यादि, यस्मात्सर्वमपि वाच्यवाचकादिकं वस्तु नियतं- निश्चितं स्व Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 78 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम परपर्यायैः सर्वात्मकमेव सामान्यविवक्षयेत्यर्थः। तथा-सर्वमसर्व मयमष्यस्ति विविक्तरूपं सर्वतो व्यावृत्तम् कया? इत्याह- विवक्षया, केचलस्वपर्यायापेक्षयेत्यर्थः, विशेषविषययेति तात्पर्यार्थः। तस्मात्सर्वेषामपि पदानां विवक्षावशत: सामान्यमयो विशेषमयश्च पदार्थो युक्तः, न पुनरेकान्तेनेत्थंभूत एव, अनित्थंभूत एव वेतिकुत्त:? इत्याहवत्थुस्सेत्यादि, यस्मात्सर्वोऽपि वाच्यस्य वाचकस्य वा वस्तुन: स्वभाव: पर्यायापेक्षया विश्वरूपो नानाविधो वर्तते। ततश्च सामान्यविवक्षायां घटशब्द: सर्वात्मकत्वासर्वेषामपि द्रव्यगुणक्रियाद्यर्थानां वाचक: विशेषविवक्षया तु प्रतिनियत-रूपत्वात् य एवास्येह पृथुबुध्नोदराद्याकारवानर्थो वाच्यतया रूढस्तस्यैव वाचकः / एवमन्योऽपि शब्दो विशेषविवक्षया यो यत्र देशादौ यस्यार्थस्य वाचकतया रूढः स तस्य वाचको द्रष्टव्य: / सामान्यविवक्षया तु'सर्व:सर्वस्य वाचक: सर्वं सर्वस्य वाच्यमि' त्यनया दिशा सकलं स्वधिया भावनीयमिति। विशे०। (13) अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मकवाच्यवाचकभावसमर्थनपुरस्सरं तीर्थान्तरीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवाच्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रतिभावैभवाऽभावमाहअनेकमेकात्मकमेव वाच्यं, द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् / अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लृप्ता वतावकानां प्रतिभाप्रमादः ||14|| व्याख्या-वाच्यम्-अभिधेयं चतनम् अचतनं च वस्तु एवकारस्याप्यर्थत्वात् सामान्यरूपतया एकात्मकमपि व्यक्तिभेदेन अनेकम्अनेकरूपम् / अथवा-अनेकरूपमपि एकात्मकम् अन्योन्यसंबलितत्वादित्थमपि व्याख्याने नदोषः / तथा च-वाचकमभिधायक शब्दरूपं तदप्यवश्यं निश्चितं द्वयात्मकं; सामान्यविशेषोभयात्मकत्वादेकानेकात्मकमित्यर्थः। (उभयत्र वाच्यलिङ्गत्वेऽप्यव्यक्तत्वानपुंसकत्वम्। अवश्यमिति पदं वाच्यवाचकयोरुभयोरप्यनेकात्मकत्वं निश्चिन्वत्तदेकान्तं व्यवच्छिनत्ति) अत उपदर्शितप्रकारादन्यथा सामान्यविशेषै कान्तरूपेण प्रकारेण 'वाचकवाच्यक्लुप्तौ' - वाच्यवाचकभावकल्पनायाम्, 'अतावकानाम्'- अत्वदीयानाम्अन्यथूथ्यानाम् 'प्रतिभाप्रमादः - प्रज्ञास्खलितम्, इत्यक्ष-रार्थः। (अत्र चाल्पस्वरत्वेन वाच्यपदस्य प्राग्निपाते प्राप्तेऽपि यदादौ वाचकग्रहणं तत्प्रायोऽर्थप्रतिपादनस्य शब्दधीनत्वेन वाचकस्याऽर्च्यत्वज्ञापनार्थम्)! तथा च शाब्दिका:- "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुविद्धमिव-ज्ञानं, सर्वे शब्देन भासते॥शाइति। भावार्थस्त्वेवम् एके तीर्थिका: सामान्यरूपमेव वाच्यतया शब्दार्थमभ्युपगच्छन्ति ते च द्रव्यास्तिकनयानुपातिनो मीमांसकभेदा, अद्वैतवादिनः, सांख्याश्च / केचिच विशेषरूपमेवं वाच्यं निर्बुवन्ति। तेच पर्यायास्तिकनयानुपारिण: सौगता: / अपरे च-परस्परनिरपेक्ष-पदार्थपृथग्भूतसामान्यविशेषयुक्त वस्तु वाच्यत्वेन निश्चिन्वते / ते च नैगमनयानुरोधिन: काणादा आक्षपादाश्च। स्था०१४ श्लोक! एवं वाचकमपि शब्दाख्यं द्वयात्मकम् (सामान्य विशेषा-त्मकम्)। / सर्वशब्दव्यक्तिष्वनुयायिशब्दत्वमेकं शाङ्कशाईतीव्रमन्दोदात्तानुदात्तस्वरितादिविशेषभेदादनेकम् / शब्दस्य हि सामान्यविशेषात्मकत्वं पौगलिकत्वाद्व्यक्तमेव, तथाहिपौद्रलिक: शब्दः; इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् यचास्य पौद्गलिकत्वानिषेधाय स्पर्शशू याश्रयत्वादतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात्पूर्वं पश्चाचावयवानुपलब्धे: सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वाद्गगनगुण-त्वाचेति पञ्च हेतवोयोगैरुपन्यस्तास्तेहेत्वाभासा:, तथाहि- शब्दपर्यायस्याश्रयो भाषावर्गणा न पुनराकाशं तत्र च स्पर्शी निर्णीयत एव। यथा शब्दाश्रयः स्पर्शवान् : अनुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणापलभ्यमानानुपलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात्तथाविघगन्धाऽऽद्याधारद्रव्यपरमाणुवत्। इत्यसिद्धः प्रथमः / द्वितीयस्तु गन्धद्रव्येण व्यभिचारादनैकान्तिक: वर्त्तमानजात्यकस्तूरिकादिगन्धद्रव्यं हि पिहितद्वारापवरकस्यान्तर्विशति, बहिश्व निर्याति। नचापौद्रलिकम्। अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभवा- नातिनिविडत्वम्। अतस्तत्र तत्प्रवेशनिष्क्रमौ कथमन्यथोद्घा-टितद्वारावस्थायमिव न तदेकार्णवत्वं? सर्वथा नीरन्ध्रे तु प्रदेशे नतयो: संभवः। इति चेत्तर्हि शब्दे ष्येतत्समानम्। इत्यसिद्धो हेतुः। तृतीयस्तु तडि (विद्युल्लतोल्कादिभिरनैकान्तिकः। चतुर्थोऽपि तथैव: गन्धद्रव्यविशेषसूक्ष्मरजोधूमादिभिर्व्यभि- चारात्। नहि गन्धद्रव्यादिकमपि नासायां निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्भिन्नश्मश्रुप्रेरकं दृश्यते। पञ्चम: पुनरसिद्धः / तथाहि-न गगनगुणः शब्दः; अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रपादिवद्। इति सिद्धः पौगलिकत्वात्सामान्यविशेषा-त्मक: शब्द इति / नच वाच्यम् - "आत्मन्यपौगलिके ऽपि कथं सामान्यविशेषात्मकत्वं निर्विवादमनुभूयते, इति; यत: संसार्यात्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्तकर्मपरमाणुभिः सह वह्नितापितघनकुट्टितनिविभागपिण्डीभूतसूचीकलापवल्लोलीभावमापन्नस्य कथंचित्पौगलिकत्वाभ्यनुज्ञानादिति! यद्यपि स्याद्वादवादिनां पौद्गलिकम् अपौद्रलिकं च सर्व वस्तु सामान्य- विशेषात्मकं तथाप्यपौद्रलिकेषु धर्माधर्माकाशकालेषु तदात्म- कत्वमर्वाग्दृशांन तथा प्रतीतिविषयमायाति पौद्रलिकेषु पुन-स्तत्साध्यमानं तेषां सुश्रद्धानम् / इत्यप्रस्तुतमपि शब्दस्य पौद्गलिकत्वं सामान्यविशेषात्मकत्वं साधनायोपन्यस्तमिति। अत्रापि नित्यशब्दवादिसंमत: शब्दैकत्वैकान्तोऽनित्यशब्दवाद्यभिमतः शब्दानैकत्वैकान्तश्च प्रारदर्शितदिशा प्रति-क्षेप्यः / अथवा-वाच्यस्य घटादेरर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वे तद्वाचकस्य ध्वनेरपि तत्त्वम् शब्दार्थयो: कथंचित्तादात्म्याभ्यु- पगमात्। यथाहुर्भद्रबाहुस्वामिपादा:"अभिहाणं अभिहेआउ, होइ भिन्नं अभिन्नं च। खुर अम्गिमोयगुचा-रणमि जम्हा दुवयणसवणाणं ||1|| न विच्छेओ न वि दाहो, न पूरणं तेण भिन्नं तु। जम्हा य मोयगुचा- रणमि तत्थेव पच्चओ होइ / / 2 / / णय होइ स अन्नत्थे, तेण अभिन्नं तदत्थाउ!" एतेन"विकल्पयोनयः शब्दा, विकल्पा: शब्दयोनयः। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 79 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम कार्यकारणता तेषां, नार्थं शब्दा: स्पृशन्त्यपि''||१ इति प्रत्युक्तम्"अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया" इति वचनात, शब्दस्य ह्येतदेव तत्वं यदभिधेयं याथात्म्येनासौ प्रतिपादयति। स च तत्तथा प्रतिपादयन् वाच्यस्वरूपपरिणाम- परिणत एव वक्तुं शक्तो नान्यथाऽतिप्रसङ्गात्, घटाभिधानकाले पटाद्यभिधानस्यापि प्राप्तेरिति। अथवाभङ्गयन्तरेण सकलं काव्यमिदं व्याख्यायते-वाच्यं वस्तु घटादिकमेकात्मक- मेवैकस्वरूपमपि सदनेकम् (अनेकस्वरूपम्) अयमर्थः। प्रमाता तावत् प्रमेयस्वरूपं लक्षणेन निश्चिनोति। तच सजातीयवि- जातीयव्यवच्छेदादात्मलाभ लभते। यथा घटस्य सजातीया मृन्मयपदार्था विजातीयाश्च पटादयस्तेषां व्यवच्छेदस्तल्लक्षणम् / पृथुबुध्नोदराद्याकार: कम्बुग्रीवो जलधारणाहरणादिक्रियासमर्थः पदार्थविशेषो घट इत्युच्यते / तेषां च सजातीयविजातीयानां स्वरूपं तत्र बुद्ध्या आरोग्य व्यवच्छिद्यते, अन्यथाप्रतिनियततत्स्वरूपपरिच्छेदानुपपत्ते: सर्वभावानां हि भावाऽभावात्मकं स्वरूपम् एकान्तभावात्मकत्वे वस्तुनो वैश्वरूप्यं स्याद् एकान्ताऽभावात्मकत्वे च नि:स्वभावता स्यात्, तस्मात्स्वरूपेण सत्त्वात्पररूपेण चाऽसत्त्वाद्भावाभावात्मकं वस्तु, यदाह- "सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च। अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात्, स्वरूपरयाप्यसंभवः"||११|| ततश्चैकस्मिन् घटे सर्वेषां घट व्यतिरिक्तपदार्थानामभावरूपेण वृत्तेरने कात्मकत्वं घटस्य सूपपादकम्। एवं चैकस्मिन्नर्थे ज्ञाते सर्वेषामर्थानां ज्ञानं; सर्वपदार्थपरिच्छेदमन्तरेण तन्निषेधात्मन एकस्य वस्तुनो विविक्ततया परिच्छेदासंभवात्। आगमोऽप्येवमेव व्यवस्थित:- "जे एणं जाणइ, से सव्वं जाणइ जे सव्वं जाणइ, से एणं जाणइ'। तथा- "एको भाव: सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावा: सर्वथा तेन दृष्टाः। सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टा, एको भाव: सर्वथा तेन दृष्टः "||सा येतु सौगता: परासत्त्वंनाङ्गीकुर्वते तेषां घटादे: सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः। तथाहि- यथा घटस्य स्वरूपादिना सत्त्वं तथा यदि पररूपादिनापि स्यात्तथा च सति स्वरूपादिसत्त्ववत्पररूपादिसत्त्वप्रसक्तेः कथं न सर्वात्मकत्वं भवेत् ? परासत्त्वेन तु प्रतिनियतोऽसौ सिद्धयति। अथन नाम नास्तिपरासत्त्वं किंतुस्वसत्त्वमेव तदितिचेदहो वैदग्धी न खलु यदेव सत्त्वं तदेवासत्त्वं भवितुमर्हति विधि-प्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरैक्यायोगात् / अथ युष्मत्पक्षेऽप्येवं विरोधस्तदवस्थ एवेति चेदहो वाचाटता देवानांप्रियस्य न हि वयं येनैव प्रकारेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वं येनैव चाऽसत्त्वं तेनैव सत्त्वमभ्युपेम:, किंतुस्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्त्वं पररूपद्रव्यक्षेत्रकालभावस्त्वसत्त्वम्। तदा व विरोधावकाशः? यौगास्तु प्रगल्भन्ते - "सर्वथा पृथगभूतपरस्परा-भावाभ्युपगममात्रेणैव पदार्थप्रतिनियमसिद्धेः किं तेषामसत्त्वा-त्मकत्वकल्पनया" इति, तदसत्, यदाहि-पटाद्यभावरूपो घटो न भवति तदा घट: पटादिरेव स्यात्। यथा च घटाभावाद्भिन्नत्वाद् घटस्य घटरूपता तथा पटादेरपि स्याद् घटाभावादिन्नत्वादेव इत्यलं विस्तरेण / / मूर्खस्या एवं वाचकमपि शब्दरूपं द्वयात्मकम् एकात्मकमपि सदनेकमित्यर्थः, यथोक्तन्यायेन शब्दस्यापि भावाऽभावात्मक- त्वात् अथवाएकविषयस्यापि वाचकस्याऽनेकविषयत्वोपपत्तेः। यथा किल घटशब्द: संकेतवशात्पृथुबुध्नोदराद्याकार-वति पदार्थे प्रवर्तते वाचकतया तथा देशकालाद्यपेक्षया तद्वशादेव पदार्थाऽन्तरेष्वपि तथा वर्तमान: केन वार्यत? भवन्ति हि वक्तारो योगिनः शरीरं प्रति घट: इति; संकेतानां पुरुषेच्छा-धीनतयाऽनियतत्वात्। यथा चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्यानाम्- ओदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्द: पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः, एवं कर्क टीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेयाः। कालापेक्षया पुनर्यथा जैनानां प्रायश्चित्तविधौ धृतिश्रद्धासंहननादिमति प्राचीनकालेषगुरु-शब्देन शतमशीत्यधिक मुपवासानामुच्यते स्म। सांप्रतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षशुरुशब्देनोपवासशत्रयमेव संकेत्यतेजीत-कल्पव्यवहारानुसारात्। शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी त्रिपुरार्णवे च अलिशब्देन मदिराभिषिक्ताऽन्ने च मैथुनशब्देन मधुसर्पिषाम्रहणमित्यादि नचैवं संकेतस्यैवार्थप्रत्यायने प्राधान्य; स्वाभाविकसामर्थ्यसाचिव्यादेव तत्र तस्य प्रवृत्ते: सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात् यत्र च देशकालादौ यदर्थप्रति- पादनशक्तिसहकारिसंकेतस्तत्र तमर्थ प्रतिपादयति / तथा च-निर्जितदुर्जयपरप्रवादा: श्रीदेवसूरिपादा:"स्वाभाविक- सामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्द:"! अत्र शक्तिपदार्थ-समर्थनं ग्रन्थान्तरादवसेयम्,'अतोऽन्यथे' त्यादि उत्तरार्द्ध पूर्ववत्। प्रतिभाप्रमादस्तु तेषां सदसदेकान्ते वाच्यस्य प्रतिनियतार्थविषयत्वे च वाचकस्योक्तयुक्त्या दोषसद्भावाद्व्यवहारानुपपत्तेः। तदयं समुदायार्थ: सामान्यविशेषात्मकस्य भावाऽभावात्मकस्य च वस्तुनः सामान्यविशेषात्मको भावा- भावात्मकश्च ध्वनिर्वाचक इति अन्यथा प्रकारान्तरैः पुनर्वाच्यवाचकभावव्यवस्थामातिष्ठमानानामन्धवादिनां प्रतिभैव प्रमाद्यति न तु तद्भणितयो युक्तिस्पर्शमात्रमपि सहन्ते। कानि तानि वाच्यवाचकभावप्रकारान्तराणि परवादिनामिति चेदेते ब्रूमः। अपोह एव शब्दार्थ इत्येके ''अपोहशब्दलिङ्गाभ्यां, न वस्तुविधिनोच्यते" इति वचनात्। अपरे सामान्यमात्रमेव शब्दानां गोचरः, तस्य क्वचित् प्रतिपन्नस्यैकरूपतया सर्वत्र संकेत-विषयतोपपत्ते:, न पुनर्विशेषा:, तेषामानन्त्यत: कास्न्येनोप-लब्धुमशक्यतया तद्विषयतानुपपत्ते: विधिवादिनस्तु विधिरेव वाक्यार्थोऽप्रवृत्तप्रवर्तनस्वभावत्वात्तस्येत्याचक्षते। विधिरपि तत्तद्वादिविप्रतिपत्त्याऽनेकप्रकार:, तथाहि-वाक्यरूपः शब्द एव प्रवर्तकत्वाद्विधिरित्येके तद्व्यापारो भावनाऽपरपर्यायो विधिः इत्यन्ये। नियोग इत्यपरे / प्रैषादय इत्येके तिरस्कृत- तदुपाधिप्रवर्तनामात्रमित्यन्ये / एवं फलतदभिलाषकर्मादयोऽपि वाच्या: एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपदं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयमिति काव्यार्थ: / स्या. 14 श्लोक। (इतोऽग्रे 'सह' शब्दे सप्तमभागे विशेष:) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 80 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम (14) (शब्दस्य वाचकताविचार:)('अत्र वैयाकरणा: प्राहुः' इत्याद्यारभ्य स्फोटविचार: ‘फोड' शब्दे 5 पञ्चमे भागे द्रष्टव्य:।) (15) अथगकाराद्यानुपूर्वीविशिष्टोऽन्त्यो वर्णों विशिष्टा-नुपूर्विका वारा गंकारौकारविसर्जनीया: शब्दाः। तथा च मीमांसका: प्राहु:-"यावन्तो यादृशा ये च, यदर्थप्रतिपादकाः। वर्णाः प्रज्ञातसामाा -स्ते तथैवाऽवबोधका:" (श्लो. वा. स्फोट वा० श्लो०६९)॥ इति। एतदपिन सम्यग् यत:। आनुपूर्वी यद्यनर्थान्तरभूतास्तदा वर्णा एव नानुपूर्वी, तेच व्यस्ता: समस्ता वा अर्थप्रत्यायका न भवन्तीत्यावेदितम् / अथार्थान्तरभूता तदा वक्तव्यं सा नित्या, अनित्या वा ? न तावदनित्या स्वसिद्धान्तविरोधात्-वैदिकानुपूर्व्या नित्यत्वेनाभ्युपगमात्।"वक्तान हि क्रम कश्चित्, स्वातन्त्रेण प्रपद्यते" (श्लो. वा. शब्दनित्य, श्लो०२८८) इत्याद्यभिधानात्। नापि नित्या स्फोटपक्षोदितसमस्तदोषप्रसक्तेः। नच वैदिकवर्णाद्यानुपूर्वी नित्या, लौकिकतदानुपूर्व्यविशेषात् / तथाहिवैदिकवर्णा- द्यानुपूर्वी अनित्या, वेदानुपूर्वीशब्दवाच्यत्वात् लौकिकवर्णाद्या- नुपूर्वीवत्। न च लौकिकानुपूर्या विलक्षणेयं, वैलक्षण्यासिद्धेः। तथाहिकिमपौरुषेयत्वमस्या: वैलक्षण्यम्, आहोस्विद्विचित्र रूपता? न-तावदाद्यः पक्ष: अपौरुषेयत्वस्य निरस्तत्वात् / नापि वैचित्र्यंतस्यानित्यत्वेनाविरोधा तत्सद्भावेऽपि नित्यत्वाप्रसाकवाल्लाकिकवाक्येष्वपि वैचित्र्यस्योपलब्धेश्च / नच वर्णानां नित्यव्यापिनामानुपूर्वी संभवति। देश-कालकृतक्रमानुपपत्तेः। नचाभिव्यक्तानुपूर्वी तेषां संभविनी / अभिव्यक्ते: प्राग्निरस्तत्वात्। 'पूर्ववर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसहित: तत्स्मृतिसहितो वा अन्त्यो वर्णः पदम्' इत्यभ्युपगमोऽपि न युक्तिसङ्गतः। संस्कारस्मरणादेरनुपलभ्यमानस्य तदा सहकारित्वकल्पनायां प्रमाणाभावात्। न चार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्तिस्तत्कल्पनायां प्रमाणं, तत्प्रतिपत्तेरन्यथासिद्धत्वात्। न चानुपूर्वीसं भवेऽपि परपक्षे वर्णा अर्थप्रतीतिहेतुतया संभवन्ति, तेषां तत्प्रतिपत्तिजननस्वभावत्वे सर्वदा तत्प्रतिपत्तिप्रसक्तेस्तज्जननस्वभावस्य सर्वदा भावात्। अतज्जननस्वभावत्वेन कदाचिदप्यर्थप्रतिपत्तिं जनयेयु: अनप-गताऽतज्जननस्वभावत्वात्। नच सहकारिसन्निधानेऽपि तेषामतज्ज-ननस्वभावता व्यपगच्छति अनित्यतासक्तिदोषापत्तेः / नित्याश्च परस्ते अभ्युपगता इत्यभ्युपगमविरोधश्च। (16) (वाच्यवाचकयोः संबन्धस्य नित्यत्वं निषिध्य तस्य कृतकत्वव्यवस्थापनम्) नच नित्यसंबन्धवादिनस्तदपेक्षा वण्र्णा अर्थप्रत्यायकाः संभवन्ति, नित्यस्यानुपकारकत्वेनापेक्षणीयत्वापोगात् / न नित्यः संबन्धः शब्दार्थयो: प्रमाणेनावसीयते। प्रत्यक्षेण तस्याननुभवात्। तदभावेनानुमानेनापि, तस्य तत्पूर्वकत्वाभ्युपगमात्। न च शब्दार्थयो: स्वाभाविकसंबन्धमन्तरेण गोशब्दश्रवणानन्तरं ककुदादिमदर्थप्रतिप त्तिर्नभवेद्अस्तिच साइतिशब्दस्यवाचिका शक्तिरवगम्यत इतिवाच्यम्, अनवगत संबन्धस्यापि ततस्तदर्थप्रतिपत्तिप्रसक्तेः। नच संकेताभिव्यक्त: स्वाभाविक: संबन्धोऽर्थप्रतिपत्तिं जनयतीति नायं दोष: संकेतादेवार्थप्रतिपत्ते: स्वाभाविक- संबन्धपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः। तथाहि-संकेताद् व्युत्पाद्या: 'अनेन शब्दनेत्थंभूतमर्थं व्यवहारिणः प्रतिपादयन्ति' इत्यवगत्य व्यवहारकाले पुनस्तथाभूतशब्दश्रवणात्। संकेतस्मरणे तत्सद्दशं तं चार्थं प्रतिपद्यन्ते न पुन: स्वाभाविक संबन्धमवगत्य पुनस्तत्स्मरणे अर्थमवगच्छन्ति। न च वाच्यवाचकसंकेतकरणे स्वाभाविकसंबन्धमन्तरेणानवस्थाप्रसक्ति: वृद्धव्यवहारात् प्रभूतशब्दानां वाच्यवाचक- स्वरूपावधारणात्। तथाहि-एको व्युत्पन्नव्यवहार: तथाभूताय गामभ्यज शुक्लां देवदत्त ! दण्डेन' इति यदाव्यपदिशति द्वितीयस्तुतद्व्यपदेशान्तरं तथैव विदधाति तदाअव्युत्पसंकेत: शिशुस्तं तथा कुर्वाणमुपलभ्यैवमवधारयति- 'अनेन गोशब्दा-द्रवार्थः प्रतिपन्न: अभ्याजाऽऽदिशब्दादभ्याजिक्रियादिक: अन्यथा कथमपरनिमित्ताभावेऽपि गोपिण्डाऽऽनयनादिकं वाक्यश्रवणान्तरं विदध्याद्' एवमपोद्धारकल्पनयाऽव्युत्पन्नानां संकेतग्रहणसंभवान्नानवस्थादोषः। न च प्रथमसंकेतविधायिन: स्वाभाविकसंबन्धव्यतिरेकेण वाच्यवाचकयो: कुतो वाच्यवाचकरूपावगतिरिति वक्तव्यम्, अनादित्वादस्य व्यवहारस्यापरापरसंकेतविधायिपूर्वकत्वेन निर्दोषत्वात। नच वाच्यवाचकसंबन्धस्य पुरुषकृतत्वे शब्दवदर्थस्यापि वाचकत्वम् अर्थवच्छब्दस्यापि वाच्यत्वं प्रसक्तमिति वक्तव्यम्। योग्यतानतिक्रमेण संकेतकरणात्। न च स्वाभाविकसंबन्ध- व्यतिरेकेण प्रतिनियतयोग्यताया अभाव:, कृतकत्वेऽपि प्रतिनियतयोग्यतावतां भावानामुपलब्धेः। तथाहि-यत्र लोहत्वं छेदिकाशक्तिस्तत्रैव क्रियमाणा दृष्टा; न जलादौ, यत्रैव तन्तुत्वमस्ति तत्रैव निष्पाद्यते पटोत्पादनशक्तिर्नतु वीरणादौ तत्र तन्तुत्वाभावाद् एवं च यद्यथोपलभ्यते तत्तथैवाभ्युपगन्तव्यम्। दृष्टाऽनुमितानां नियोगप्रतिषेधानुपपत्ते: तेन यत्रव वर्णत्वादिकं निमित्तं तत्रैव वाचिका शक्ति: संकेतेनोत्पाद्यते यत्र तुतन्नियतं निमित्तं नास्ति तत्र न वाचिका शक्तिरिति न नित्यवाच्यवाचक- संबन्धपरिकल्पनया प्रयोजनम्। एकान्तनित्यस्य तु ज्ञानजन- कत्वे सर्वदा ज्ञानोत्पत्ति: तदजननस्वभावत्वेन कदाचिद्विज्ञानो- त्पत्तिरिति प्राक् प्रतिपादितम्। समयबलेन तु शब्दादर्थप्रतिपत्तौ यथासंकेतं विशिष्टसामग्रीत: कार्योत्पत्ती न कश्चिद्दोषः। (अनुमानात् शब्दस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसाधनम्)अत एवानुमानात् प्रमाणान्तरं शाब्दम्। अनुमानं हि पक्षधर्म त्वान्वयव्यतिरेकवल्लिङ्गबलादुदयमासादयति। शाब्दं तु संकेतसव्यपेक्षशब्दोपलस्भातं प्रत्यक्षानुमानागोचरेऽर्थे प्रवर्तते / स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वमप्यनुमानस्य विरूपलिङ्गोद्भूतत्वेनैव निश्चीयते। शाब्दस्य त्वाप्तोक्तत्वनिश्चये सति शब्दस्योत्तर- कालमिति। किं च-शब्दो यत्र यत्रार्थे प्रतिपादकत्वेन पुरुषेण प्रयुज्यते तं तमर्थ यथासंकेतं प्रतिपादयति, नत्वेवं धूमादिकं लिङ्ग पुरुषेच्छावशेन जलादिकं प्रतिपादयतीत्यनुमानात् प्रमाणान्तरं सिद्धः शब्दः / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 81 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आगम न च शब्दादर्थप्रतिपत्तौ शब्दस्य त्रैरूप्यमस्तिा यतो न तस्य पक्षधर्मता यत्रार्थस्तत्र धर्मिणि शब्दस्यावृत्तेोपिण्डाधारण प्रदेशेन शब्दस्याऽऽश्रयाऽऽश्रयिभावस्य जन्यजनकभावनि- बन्धनस्याऽभावाद् अत:'गोपिण्डवानयं देशो गोशब्दवत्त्वात्' इति नाऽभिधातुं शक्यम्। नापि गोपिण्डे गोशब्दो वर्तते। आधाराधेयवृत्त्या जन्यजनकभावेन वा गोपिण्डाऽभावेऽपि गोशब्दस्य दर्शनात्। नच-गम्यगमकभावेन तत्रासौ वर्तते पक्ष-धर्मत्वाभावे तस्यैवानुपपत्ते: वाच्यवाचकभावेन वृत्तावनुमानात् प्रमाणान्तरत्वम्। तेन 'गोपिण्डो गोत्ववान् गोशब्दवत्त्वाद् अयमपि प्रयोगोऽनुपपन्न एव नापि गोत्वे गोपिण्डविशेषणे वर्तते। तत्सामान्येनाश्रयाश्रयिभावस्य जन्यजनकभावस्य वा अस्याभावाद्। अत: 'गोत्वं गोपिण्डत् गोशब्दवत्त्वाद्' इत्यपि वक्तुमशक्यम्। विशेषेच साध्येऽयन्वयश्चात्र पक्षे दोषः। नच- 'गोशब्दो गवार्थवान् गोशब्दत्वात्' इति प्रयोगो युक्तः तथा प्रतीत्यभावात् / नहि 'गौर्गच्छति' इत्युक्ते गमनक्रियोविशिष्ट- गवार्थप्रतीतिमन्तरेण गोपिण्डेन तद्वान् शब्दो लोकेनाऽवगम्यते। नच- गोशब्दो गवार्थवाचकत्वेन गोशब्दत्वादनुमीयत, किंतुगवार्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या गवार्थवाचकत्वं तस्य गम्यते / प्रतिनियतपदार्थनिवेशिनांतुदेवदत्तादिशब्दानां नान्वय: नापि पक्षधर्मता दृष्टान्तदान्तिकभेदं चानुमानप्रवृत्तेः / नच-शाब्दं स्वभावलिङ्गजमनुमानं शब्दस्यार्थस्वभावत्वासिद्धराकारभेदात् प्रतिनियतकरणग्राह्यत्वाद्वाचकस्वभावत्वाच तस्य / वाप्रि कार्यलिङ्गजम् अर्थाभावsपीच्छात: शब्दस्योत्पत्तेः। नच-न बाह्यार्थविषयत्वेन शब्दस्यानुमानता सौगतैरभ्युपगयते अपितु विवक्षाविषयत्वेनेति वक्तव्यम्, यतो यथा न तदर्थो विवक्षा तथा शब्दप्रामाण्यप्रतिपादनेऽभिहितं न पुनरुच्यते। (परिकल्पितां वर्णानां नित्यतां तत्पदादिप्रक्रियां च प्रदूष्यानेकान्तदृष्ट्या शब्द-तदर्थसंबन्धयोस्स्वरूपनिरूपणम्)नच-मीमांसकाभिप्रायेण वर्णानां वाचकत्वम् अभिव्यक्तानभिव्यक्त- | पक्षद्वयेऽपि दोषाद् अनभिव्यक्तानां ज्ञानजन-कल्वे सर्वपुरुषान् प्रति सर्वे सर्वदा ज्ञानजनकाः स्युः केनचित् प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावाद् / अभिव्यक्तानां ज्ञानजनकत्वे एकवर्णाऽऽवरणापाये सर्वेषां समानदेशत्वेनाभिव्यक्तत्वाधुगपत् सर्वश्रुतिप्रसक्तिरित्त्युक्तं प्राक् / इन्द्रियसंस्कारपक्षेऽपि पूर्वप्रति-पादितमेव दूषणमनुसतव्यम्। किं चयद्यनवगतसंबन्धा वर्णा अर्थप्रत्यायकास्तदा नारिकेरद्वीपवासिनोऽप्युपलभ्यमाना अर्थावगतिं विदध्युः। अर्थावगतसंबन्धास्तथा सति पदस्य स्मारकत्वमेव स्यान्न वाचकत्वं तथा चानधिगतार्थाधिगमहेतुवाभावान्न प्रमाणता भवेत्, तदुक्तम्- "पदं त्वभ्यधिकाभा- वात्, स्मारकान्न विशिष्यते। अथाऽऽधिक्यं भवेत्किंचित, स पदस्य न गोचरः"॥ (श्लो. वा. शब्दप श्लो. 107) इति, तन्न मीमांसकमतेनापि वर्णानां शब्दत्वम्। कथं तर्हि वर्णा: शब्दरूपतां प्रतिपद्यन्ते ? उक्तमत्र परिमितसङ्ख्यानां पुद्रल- द्रव्योपादानपरित्यागेनैव परिणतानामश्रावणस्वभावपरित्यागा- वाप्तश्रावणस्वभावानां विशिष्टानुक्रमयुक्तानां वर्णानां | वाचकत्वात् शब्दत्वम्; अन्यथोक्तदोषानतिवृत्तेः / वैशेषिकपरिकल्पितपदादिप्रक्रियात्वनुभवबाधितत्यादयुक्ता! न च- निरन्वयविनाशिनां विज्ञानहेतुता संभवतीत्यसकृत्प्रतिपादितम्। षट्क्षणावस्थायित्वलक्षणमप्यनित्यत्वं तत्परिकल्पितं निरन्वयविनाशपक्षे अर्थक्रियानिर्वर्तनानुपयोगितेषाम्। नच षट्क्षणावस्थानमपि संभवति, प्रथमक्षणसत्ताया द्वितीयक्षणसत्ताऽनुप्रवेशे तरक्षणसत्ताया अप्युत्तरक्षणसत्तानुप्रवेश- परिकल्पनायां क्षणिकत्वमेव। अननुप्रवेशेऽपि परस्परविविक्त- त्वान्। क्षणस्थितीनां तदैव क्षणिकत्वमिति कुत: षट्क्षणा- वस्थानमेकस्य? अक्षणिकत्वे चार्थक्रियाविरोध: प्रतिपादित एवेति। न पदादिपरिकल्पना वैशेषिकपक्षे युक्तियुक्तति स्थितम्। ननु भवत्पक्षेऽपिक्रमस्य वर्णेभ्यो व्यतिरेके न वर्णविशेषणत्यम् अव्यतिरेकेवर्णा एव केवलास्ते च न व्यस्तसमस्ता अर्थप्रतिपादका इति पूर्वमेव प्रतिपादितमिति न शब्द: कश्चिदर्थप्रत्यायकः, असदेतत्, वर्णव्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तस्य क्रमस्य प्रतिपक्षेः। तथाहि-न वर्णेभ्योऽर्थान्तरमेव क्रम: वर्णानुविद्धतया तस्य प्रतीते:। नापि वर्णा एव क्रम:। तद्विशिष्टतया तेषां प्रतिपत्तेः। नच तद्विशषणात्येन प्रतीयमानस्य क्रमस्याऽपणवो युक्तिसङ्गतो वर्णेष्वपि तत्प्रसक्तेः। नच-भ्रान्तिरूपा प्रतिपत्तिरियं, वर्णानां तद्विशिष्टतया बाधिताध्यक्षगोचरतया प्रसाधितत्वाद् अर्थप्रतिपत्तिकारणतो- ऽनुमितत्वाच्च। न चाऽभावः कस्यचिद्भावाध्यवसायि तया विशेषणं नाऽप्यर्थप्रतिपत्तिहेतुर्नच कमोऽप्यहेतु: तथात्मक- वर्णेभ्योऽर्थ- प्रतीतेः। ततो भिन्नाऽभिन्नानुपूर्वीविशिष्टा वर्णा विशिष्ट-परिणतिमन्तः शब्द: सच पदवाक्यादिरूपतया व्यवस्थित: तेन विशिष्टानुक्रमवन्ति तथाभूतपरिणलिमापन्नानि पदान्येव वाक्यमभ्युपगन्तव्यम्। तद्व्यतिरिक्तस्य तस्य पदवदनुपपद्यमान- त्वात्। सम्म०१ काण्ड 32 गाथाटी०। (17-18) शब्दस्य नित्यवाऽनित्यत्वविचारः, शब्दार्थतत्सम्बन्धविचारश्चअकारादि: पौगलिको वर्णः इति // 9 // पुद्गलै:- भाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौद्गलिकः। अत्र याज्ञिका: प्रज्ञापयन्ति-वर्णस्यानित्यत्वमेव तावद् दुरूपपादं कुतस्तरां पुद्गलारब्धत्वमस्य स्यात् ? तथाहि-स एवायंगकार इति प्रत्यभिज्ञा, शब्दा नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववद्इत्य-नुमानम् शब्दो नित्यः, परार्थं तदुधारणान्यथानुपपत्तेरित्यर्था-पत्तिश्चेतिप्रमाणानि दिनकरकरनिकरनिरन्तरप्रसरपरामर्शो पजातजृम्भारम्भोजानीव मन: प्रसादमस्य नित्यत्वमेव द्योतयन्तिा तदवद्यम्। यत: प्रत्यभिज्ञानं तावत्कथंचिदनित्य त्वेनैवाविनाभावमाभेजानम्, एकान्तैकरूपतायां ध्वने: सएवायमित्याकारोभयगाचरत्वविरोधात् / कथमात्मनि तद्रूपेऽपि स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञेति चेत्। तदशस्यम्। तस्यापि कथंचिदनित्यस्यैवस्वीकारात्। प्रत्यभिज्ञाभासश्चायम्, प्रत्यक्षा-नुमानाभ्यां बाध्यमानत्वात्, प्रदीपप्रत्यभिज्ञावत्। प्रत्यक्ष हि तावदुत्पेदे विपेदे च वागियमिति प्रवर्तते। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 82 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम नच-प्रत्यभिज्ञानेनैवेदं प्रत्यक्षं वाधिष्यत इत्यभिधानीयम्, प्रतिनियतावरणावार्य; तत्पृथग्देशे वर्तमानम्, अनेकेन्द्रियग्राह्यं च दृष्टं, अस्याऽनन्यथा सिद्धत्वात्। अभिव्यक्तिभावाभावभ्यामवेयं प्रतीतिरि- यथा घटपटौ, यथा वा रूपरसाविति। अपृथग्देश-वर्तमानैकेन्द्रियग्राह्यतिचेत् कुटकटकटाहकटाक्षादावपि किं नेयं तथा? कुम्भकारमुद्ग- त्वादेव च नास्य प्रतिनियतव्यञ्जकव्य-इयत्वमपि / अस्तु रादिकारणकलापव्यापारोपलम्भात्तदुत्पत्ति- विपत्तिस्वीकृती, वैतत्तथाप्ययमभिव्यज्यमान: सामस्त्येन, प्रदेशतो वा व्यज्येत। नाद्य: तालुवातादिहेतुव्यापारप्रेक्षणादक्षरेष्वपि तत्स्वीकारोऽस्तु। तालुवा- पक्ष: क्षेमङ्करः / सकलशरीरिणां युगपत्तदुपलम्भापत्तेः। द्वितीयविकल्पेतु तादेरभिव्यक्तथनभिव्यक्तिमात्रहेतुत्वे कुलालादेरपि तदस्तु। कथं सकर्णस्यापि संपूर्णवर्णाऽऽकर्णनं भवेत्? न खलु निखिलावृतानचाभिव्यक्तिभावाऽभावाभ्यां तथा प्रतीतिरुपापादि। दिनकरमरीचिरा- गराजाङ्गनानामपटु पवनापनीयमानवसनाचलत्वेन चलनाजीव्यज्यमाने, घनत-रतिमिरनिकराकीर्यमाणे च कुम्भादावुदपादि गुलिकोटिप्रकटतायां विकस्वरशिरीषकुसुमकुमारसग्राविग्रहव्यपादि चायमिति प्रतीत्यनुत्पत्तेः। तिमिरावरणवे लायामपि यष्टिनिष्टनं विशिष्टेक्षणानामपीक्ष्यते। प्रदेशाभिव्यक्तौ चास्यसप्रदेशत्वं स्पार्शनप्रत्यक्षेणा-स्योपलम्भान्न तथेयमिति चेत्, यदा तर्हि प्रसज्यते। ततो व्यञ्जकस्य कस्यचिच्छब्दे संभवा-ऽभावात्। तद्गता नोपलम्भस्तदा किं वक्ष्यसि? अथ क्वापि तिमिरादेस्तत्सत्त्वा- एव तीव्रतादय इति नासिद्धो हेतुः। यदपि श्रावणत्वादित्यनुमानं, तदपिविरोधित्वाव-धारणात्सर्वत्रानभिव्यक्तिदशायां तत्सत्त्वं निश्चीयते इति "कान्तकीर्तिप्रथाकाम:, कामयेत स्वमातरम् / ब्रह्महत्यां च कुर्वीत, चेत्, तत्किमावृतावस्थायां शब्दस्य सत्त्वनिर्णायकं न किंचित्प्रमाण- स्वर्गकामः सुरां पिबेत् ॥शा" इत्याद्यानुपूा सव्यभिचारम् / मस्ति? ओमिति चेत्तर्हि साधकप्रमाणाभावादसत्त्वमस्तु / अस्त्येव नित्यैवेयमिति- चेत् तर्हि प्रेरणावत्प्रामाण्यप्रसङ्गः, तदर्थानुष्ठानाश्रद्धाने प्रत्यभिज्ञादिकं तदिति चेत् / न / अस्य प्रत्यक्ष-बाधितत्येनोन्म- च प्रत्यवाया-ऽऽपत्तिः। उदात्तस्वरिततीव्रमन्दसुस्वरविस्वरत्वादिधम्मैश्च क्तुमशक्तेः। उन्मज्जनेऽपि व्यक्तिभावाभावयो: कुम्भादाविवात्राप्युदय- व्यभिचारः, तेषां नित्यत्वे सदाष्येकाकारप्रत्ययप्रसक्तः। नित्यवेऽप्यव्ययाध्यवसायो न स्याद्। अस्ति चायम्, तस्मादनन्यथासिद्धप्रत्यक्ष- मीपामभिव्यक्ति: कादाचित्कीतिचेत्, तदचारु। परस्परविरुद्धानामेकत्र प्रतिबद्ध एवेति निश्चीयते। अनिन्य:शब्दस्तीव्र-मन्दतादिधर्मोपेतत्वात्, समावेशासंभवात् प्रभाकरेण शब्दत्वाऽस्वीकारादुभयविकलश्चतं प्रत्यत्र सुखदुःखादिवदित्य-नुमानबाधः। व्यञ्जकाश्रितास्तीव्रतादयस्तत्रा दृष्टान्त:। भान्तीति चेत्, किंतत्र व्यञ्जकम्? कोष्ठवायुविशेषा ध्वनय इति चेत्कथं अथ भट्ट एवेत्थमनुमानयति / प्रभाकरस्तु देशकालभिन्ना तर्हि तद्धर्माणां तेषां श्रावणप्रत्यक्षे प्रतिभास: स्यात्? ध्वनी गोशब्दव्यक्तिबुद्धय एकगोशब्दगोचराः, गौरित्युत्पद्यमानत्वाद, नामश्रावणत्वेन तद्धर्माणामप्यश्रावणत्वात्। न खलु मृदुसमीर अद्योचारितगोशब्दव्यक्तिबुद्धिवदिति वदतीति चेत्। तदप्य- नवदातम्। लहरीतरङ्ग्यमाणनिष्पकपयोभाजनादौ प्रतिविम्बितमुखा- दिगतत्वेन अत्र प्रतिबन्धाभावात्, तडित्तन्तुनित्यत्वसिद्धावप्ये- वंविधानुमानस्य तरलत्वमिव माधुर्यमप्यचाक्षुषं चक्षुःप्रत्यक्षेण प्रेक्ष्यते। श्रोत्रग्राह्य एव 'कर्तुं शक्यत्वाता याऽप्यर्थाऽऽपत्ति: प्रत्यपादि, तत्रायमर्थ:- अनित्यत्वे कश्चिदर्थ: शब्दस्यव्यञ्जकः, स्तीव्रत्वादिधर्मवान् अनित्यश्चेष्यत इति / सति यो गृहीतसंबन्धः शब्दः, स तदैव दध्वंसे इति व्यवहारकालेऽन्य चेत् / न / तस्यैव शब्दत्वात् / श्रोत्रग्राह्यत्वं हि शब्दलक्षणे; | एवाऽगृहीतसंबन्धः कथमुचार्यत? उच्चार्यते च तस्मान्नित्य एवायमिति तल्लक्षणयुक्तस्य च तस्य ततोऽर्थान्तरत्वम-युक्तम्। तदयुक्तम्। अनेनन्यायेनार्थस्याऽपि नित्यतैकतापत्तेः, अन्यथा बाहुलेये किं च-कस्य किं कुर्वन्तोऽमी व्यञ्जका ध्वनयो भवेयुः? शब्दस्य, गृहीतसबन्धोऽपि गोशब्द: शाबलेयादिष्वगृहीतसबन्धः कथं प्रतिपत्ति श्रोत्रस्योभयस्य वा। संस्कारमिति चेत्, कोऽयं संस्कारोऽत्र रूपान्त- कुर्यात्? सामान्यस्यैव शब्दार्थत्वाददोष इति चेत्। ना लम्बकम्बल: रोत्पत्तिः: आवरणविपत्तिर्वा / आद्यश्चेत्, कथं न शब्दश्रोत्रयोरनित्यत्वं ककुयान, वृत्तशृङ्गश्चायं गौरिति सामानाधिकर-ण्याभावाप्रसक्तेः / तत: स्यात् ? स्वभावान्यत्वरूपत्वात्तस्या अथ रूपं धर्मः; धर्मधर्मिणोश्च सामान्यविशेषाऽऽत्वमैव शब्दार्थः, स च नैकान्तेनाऽन्वेतीति न भेदात्, तदुत्पत्तावपि न भावस्वभावान्यत्वमिति चेत्, ननु नित्यैकरूपोऽभ्युपेय: स्यात्। कथंचधूमव्यक्ति: पर्वते पावकं गमयेत्?' धर्मान्तरोत्पादेऽपि भावस्व-भावोऽजनयद्रूपस्वरूपस्तादृगेव चेत् तदा धूमत्वसामान्यमेवगमकमिति चेत्, वाचकमपिसामान्यमेवास्तुा अथशब्दत्वं, पटादिनेव श्रोत्रेण घटादेरिव ध्वनेर्नोपलम्भ: संभवेत्। तत्संबन्धिनस्तस्य गोशब्दत्वं, क्रमाभिव्यज्यमानगत्वौत्वादिक वा तद्भवेत् / आद्यपक्षे करणा-ददोष इति चेत्, स तावत्संबन्धो न संयोगः, तस्याऽद्रव्यत्वात्। प्रतिनियतार्थप्रतिपत्तिर्न स्यात्, सर्वत्र शब्दत्वस्याऽविशेषात्। गोशब्दत्वं तु समवायस्तु कथञ्चिदविष्वग्भावान्नान्यो भवितुमर्हतीति तदात्मकध- नाऽस्त्येव, गोशब्दव्यक्तरेकस्याः कस्याश्चित्त-दाधारभूताया असंभवात्, क्रमेण मोत्पत्तौ धर्मिणोऽपि कथञ्चिदुत्पत्तिरनिवार्या आवरणापगम: संस्कार: व्यज्यमानं हि वर्णद्वयमेवैतत्। क्रमाभिव्यज्यमाने-त्यादिपक्षोऽप्यसंभवी, क्षेमकार इति चेत्, स तर्हि शब्दस्यैव संभाव्यते, ततश्चैकत्रावरणविगमे गत्वाऽऽदिसामान्यस्या-विद्यमानत्वात्, सर्वत्र गकारादेरेकत्वात्। अत्रोच्यतेसमग्रवर्णाऽऽकर्णनं स्यात्। प्रतिवर्ण पृथगावरणमिति यस्यैवाऽऽव- | अस्तुतार्तीयीक: कल्पः; नच गकारादेरैक्यं, गर्गभर्गवर्गस्वर्गमार्गादिषु रणविरमणम्, तस्यैवोपलब्धिरितिचेत्, तन्नावितथम्। अपृथग्देशवर्तम- भूयांसोऽमी गकारा इति तद्भेदोपलम्भात्। व्यञ्जकभेदादयमिति चेद्, केन्द्रियग्राह्याणां प्रतिनियतावरणावार्यत्वविरोधात्। यत् खलु | अकाराद्यशेषवर्णेष्वप्येषोऽस्त्वित्येक एव वर्ण: स्यात् / अथय Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 83 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम था अयमपि गकारः, अयमपि गकारः, इत्येकाकारा प्रतीतिः, तथा नाकाराद्यशेषवर्णेषु अपीति चेत्। नैवम्। अयमपि वर्णः, अयमपि वर्ण:, इत्येकप्रत्यवमर्शोत्पत्तेः। सामान्यनिमित्तक एवायमितिचेत्, तर्हि गकारादावपि तथाऽस्तु। अथाकारेकारादौ विशेषोऽनुभूयते, नतु गर्गादिगकारेषु, तेषां तुल्यस्थाना- ऽऽस्यप्रयत्नादित्वादिति चेदेवं तर्हि "सहर्ष हेषन्ते हरिहरिति हम्मीरहरयः" इत्यादिहकारात्कण्ठ्यादह्निजिह्मादिहकारस्य, ह "उरस्यो वह्निजिह्यादौ, वर्गपञ्चमसंयुतः" इति वचनादुरस्य- त्वेन स्थानभेदप्रतीतेः। ततो भिन्नोऽयं वर्णो भवेत्। नच गकारे नास्ति विशेषावभासः, तीव्रोऽयं मन्दोऽयं गकार इति तीव्रतादिविशेषस्फुरणात् व्यञ्जकगतास्तीव्रतादयस्तत्र स्फुरन्तीति चेत्, कृतोत्तरमेतत्। अकारेकारादावप्यनुभूयमान: स विशेषस्तद्गत एवाऽस्तु, तथा चैक एव वर्ण: किन्न भवेत् ? मा भूद्वा विशेषावभासो गकारेषु भेदावभासस्तु विद्यत एव, बहवोऽभी गकारा इति प्रतीतेः। भवति च विशेषावभासं विनापि भेदस्फूर्तः, सर्षपराशौ गुरुलाघवादिविशेषावाभासं विनाऽपि तद्भेदप्रतिभासवद्। इति सिद्धो गकारभेद:। तथाचतदादिवर्णवर्तिसामान्यानामेव वाचकत्वमस्तु तत्त्वतस्तुगोशब्द- त्वमेव सदृशपरिणामात्मकं वाचकं क्रमाभिव्यज्यमानं वर्णद्वय- मेवैतत्, नैका गोशब्दव्यक्तिरिति च न वाच्यम्। नित्यत्वा-प्रसिद्धावद्याप्यस्योत्तरस्य कूपरकोटिसंटङ्कितगुडायमानत्वात्। तस्मात्क्रमोत्पदिश्नु तत्तद्गकारादिपर्यायोपहितभाषाद्रव्यात्मको गोशब्द एव सदृशपरिणामात्मा वाचकोऽस्तु। तथा च क्षीणा-ऽर्थाऽऽपत्ति:।। अस्तु अनित्यो ध्वनि:, किंतु-नाऽयं पौद्गलिक: संगच्छत इति यौगा: संगिरमाणा: सप्रणयप्रणयिनीनामेव गौरवार्हाः / यतः कोऽत्र हेतुः, स्पर्शशून्याश्रयत्वम्, अतिनिविडप्रदेशे प्रवेश-निर्गमयोरप्रतिघात:, पूर्व पश्चाचाऽवयवानुपलब्धिः / सूक्ष्म- मूर्तद्रव्यान्तराऽप्रेरकत्वं, गगनगुणत्वं वा? नाद्य पक्षः। यत: शब्दपर्यायस्याश्रये भाषावर्गणारूपे स्पर्शाभावो न तावदनुपलब्धिमात्रात्प्रसिध्यति, तस्य सव्यभिचारत्वात् / योग्यानुपलब्धि- स्त्वसिद्धा, तत्र स्पर्शस्यानुभूतत्त्वेनोपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वा- भावात्, उपलभ्यमानगन्धाऽऽधारद्रव्यवत् / अथ घनसारगन्ध- साराऽऽदौ गन्धस्य स्पर्शाव्यभिचारनिश्चयादत्रापि तन्निर्णयेऽ- प्यनुपलम्भादनुद्भूतत्वंयुक्तं, नेतरत्र, तन्निर्णायकाभावाद, इति चेत्, मा भूत्तावत्तन्निर्णायकं किंचित् / किंतु-पुद्गलानामुद्भूतानुभूतस्पर्शानामुपलब्धे: शब्देऽपि पौगलिकत्वेन परैः प्रणिगद्यमाने बाधकाभावे च सति संदेह एव स्यात्, नत्वभावनिश्चयः, तथा च संदिग्धाऽसिद्धो हेतुः। नच नास्ति तन्निर्णायकम् / तथाहिशब्दाश्रयः स्पर्शवान्, अनुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानानुपलभ्यमानेन्द्रिया-र्थत्वात्, तथाविधगन्धाऽऽधारद्रव्यवद्, इति। द्वितीयकल्पेऽपि गन्धद्रव्येण व्यभिचार: वर्तमानजात्यकस्तूरिकाकप्रकश्मीरजादिगन्धद्रव्यं हि 'पिहितकपाटसंपुटापवरकस्यान्तर्विशति, बहिश्व निस्सरति, नचापौगलिकम्। अथ तत्र सूक्ष्मरन्ध्रसंभवेनातिनिविडत्वा भावात्तत्प्रवेशनिष्काशौ; अत एव तदल्पीयस्ता, नत्वपावृतद्वारदशायामिव तदेकार्णवत्त्वं, सर्वथा नीरन्ध्रेतुप्रदेशे नैतौ संभवत इति चेद, एवं तर्हि शब्देऽपि सर्वस्य तुल्ययोगक्षेमत्वादसिद्धता हेतोरस्तु। पूर्व पश्चाचावयवानुपलब्धिः, सौदामिनीदामोल्कादिभिरनै कान्तिकी। सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वमपिगन्धद्रव्याविशेषसूक्ष्मरजोधूमाऽऽदिभियभिचारिश न हि गन्धद्रव्यादिकमपि मसि निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोदिन्नस्मश्रुप्रेरकं प्रेक्ष्यते। गगनगुणत्वं त्वसिद्धम्। तथाहि-न गगनगुण शब्द: अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात्, रूपादिवदिति। पौगलिकत्वसिद्धिः पुनरस्य, शब्द: पौगलिक: इन्द्रियार्थत्वात्, रूपादिवदेवेति। रत्ना० 4 परि। अथ संकेतमात्रेणैव शब्दोऽर्थ प्रतिपादयति; नतु स्वाभाविकसंबन्धवशादिति गदतो नैयायिकान्, समयादपि नायं वस्तु वदतीति वदत: सौगतांश्च पराकुर्वन्ति स्वाभाविक सामर्थ्य समयाभ्यामर्थबोधनिबन्धनं शब्दः इति||१|| स्वाभाविकम् - सहजम्। सामर्थ्य - शब्दस्यार्थ-प्रतिपादनशक्तिः योग्यतानाम्नी। समयश्च-संकेत: ताभ्यामर्थ-प्रतिपत्तिकारणं शब्द इति। तत्र नैयायिकान्प्रत्येवं विधेयानुवाद्यभावः, योऽयम् अर्थबोधनिबन्धनं शब्द: अभ्युपगतोऽस्ति, सस्वाभाविक सामर्थ्यसमयाभ्या-द्वाभ्यामपि, नपुन: समयादेव केवलात्। समयो हि पुरुषाऽऽयत्तवृत्तिः; नथपुरुषेच्छया वस्तुनियमो युज्यते। अन्यथा तदिच्छाया अव्याहतप्रसरत्वादर्थोऽपि वाचकः, शब्दोऽपि वाच्य: स्यात्। अथ गत्वौत्वादिसामान्यसंबन्धो यस्य भवति, स वाचकत्वे योग्य:, इतरस्तु वाच्यत्वे, यथा द्रव्यत्वाविशेषेऽप्यग्नित्वादिसा-मान्यविशेषवत् एव दाहजनकत्वं, न जलत्वादिसामान्यविशेषवत् इति चेत्। तदयुक्तम् / अतीन्द्रियां शक्ति विनाऽग्नित्वादेरपि कार्यकारणभावनिययामकत्वानुपपत्तेः। अग्नित्वं हि दाहवद्विजातीयकारणजन्यकार्येष्वपि तुल्यरूपम् / नहि दाह प्रत्येवाऽग्नेरग्नित्वं, यथा पुत्रापेक्षं पितुः पितृत्वम् / ततश्चाग्नि हवत्पिपासापनोदमपि विदध्यादिति नातीन्द्रियां शक्तिमन्तरेणाग्नित्वादीनां कार्यकारणभावव्यवस्थाहेतुत्वं, तद्वदेव च गत्वौत्वादिसामान्यानामपि न वाच्यवाचकभावनियम- हेतुत्वमिति नियामिका शक्तिः स्वीकर्तव्यैव / अथ किमनेनातीन्द्रियशक्तिकल्पनाक्लेशेन ? करतलानलसंयोगादिसहकारिकारणनिकरपरिकरितं कृपीटयोनिस्वरूपं हि स्फोटघटनपाटवं प्रकटयिष्यति, किमवशिष्टं यदनया करिष्यते। तथा च जयन्तः"स्वरूपादुद्भवत्कार्य, सहकार्युपबृंहितात्। नहि कल्पयितुं शक्तं,शक्तिमन्यामतीन्द्रियाम्।।१|" यत्तूक्तम्-अग्निहिवत्पिपासापनोदमपि विदट्यादिति। तन्न सता नहि वयमद्य कश्चिदभिनवं भावानां कार्यकारणभावमुत्थापयितुं शक्नुम: किंतु यथा प्रवृत्तमनुसरन्तो व्यवहराम:। नह्यस्मदिच्छया आप: शीतं शमयन्ति कृशानुर्वा पिपासा, किंतुतत्र दाहादावन्वयव्यतिरेकाभ्यां वा वृद्धव्यवहारादा ज्वलनादेरेव कारणत्वमवगच्छाम इति तदेव तदर्थन उपादध्महे, न जलादि। तदेतदतथ्यम् / यतो यथाभूतादेव विभावसोहोत्पत्ति: Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 84 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आगम प्रतीयते, तथाभूतादेव मणिमन्त्रयन्त्रतन्त्रौषधादिसन्निधाने सति न प्रतीयते। यदि हि दृष्टमेव रूपं स्फुटं स्फोट घटयेत्, तदा तदानीं तस्य समस्तस्य सद्भावात्तदनुत्पादो न स्याद्। अस्ति चासौ, ततो दृष्टरूपस्य व्यभिचारं प्रपञ्चयन्नतीन्द्रियायाः शक्तेः सत्त्वं समर्थ(प) यति। तथा च "स्वरूपात्वाऽप्यनुद्यत्तत्सह-कार्युपहितात्। किं न कल्पयितुं शक्तं, शक्तिमन्यामतीन्द्रियाम् // 12 // यत्तूक्तम्- "दाहादावन्धयव्यतिरेकाभ्यां वृद्धव्यवहाराद्वा ज्वलनादेरेव कारणत्वमवगच्छामः" इति। तदुक्तिमात्रमेव / यत एव हि दाह-दहनयो: कार्यकारणभावनियमः प्रसिद्धिपद्धति-प्रतिबद्ध एव, तत एव प्रसङ्ग प्रवर्तते। यदि कृशानु: स्वरूपमात्रादेव दाहमुत्पादयेत्, तर्हि तदविशेषादुदन्यापनोदमपि विदध्यादिति। अथ न मणिमन्त्रादिप्रतिबन्धकनैकट्ये सति स्फोटानुत्पत्तिर दृष्टं रूपमाक्षिपति, यथा ह्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामवधृतसामर्थ्यो दहनो दाहहेतुः, तथा प्रतिबन्धकाभावोऽपि। स च प्रतिबन्धक-योगे विनिवृत्त इति सामग्रीवैगुण्यादेव दाहस्यानुत्पत्तिः, नतु शक्तिवैकल्यादिति चेत् तदयुक्तम्। यतः प्रतिबन्धकाभावो भावादेकान्तव्यतिरिक्तः कथं किंचित्कार्य कुर्यात् ? कूर्मरोमराजीवत्। ननु नित्यानां कर्मणामकरणात्प्रागभावस्वभावात्प्रत्यवाय उत्पद्यते, अन्यथा नित्याऽकरणे प्रायश्चित्तानुष्ठानं न स्यात्, वैयर्थ्यात् / तन्न तथ्यम् / नित्याकरणस्वभावात्क्रियान्तरकरणा-देव प्रत्यवायोत्पत्तेभ्युपगमात्, त्वन्मतस्य तस्य तद्धेतुत्वाऽसिद्धेः। यदप्युच्यते- "सुखदु:खसमुत्पत्तिरभावे शत्रुमित्रयोः।। कण्टकाऽभावमालक्ष्य, पादः पथि निधीयते" ||1|| तत्राऽप्य-मित्रमित्रकण्टकाभावज्ञानानामेव सुखदु: खा िनिधानकार्यकारित्वं, नत्वभावानाम् / तज्ज्ञानमप्यमित्रमित्रकण्टकविविक्तप्रतियोगिस्त्वन्तरसंपादितमेव, नतुत्वदभिमताभावकृतम्। अथ भाववदभावोऽपि भावजननसमर्थोऽस्तु: को दोषः / न हि नि:शेषसामर्थ्यरहितत्वमभावलक्षणम् अपितुनास्तीति ज्ञानगम्यत्वम् / सत्प्रत्ययगम्यो हि भाव उच्यते, असत्य-प्रत्यगम्यस्त्वभाव इति चेत्। तदयुक्तम्। त्वदभ्युपगताभावस्य भावात्सर्वथा पार्थक्येन स्थितस्य भावोत्पादत्वविरोधात्। तथाहि- विवादास्पदीभूतोऽभावो भावोत्पादको न भवति, भावादेकान्तव्यतिरिक्तत्वात्, यदेवं तदेवं यथा तुरङ्गशृङ्गम्। तथा चायं तस्मात्तथा / प्रागभावप्रध्वंसाभावपरस्पराभावस्वभावो ह्यभावो वस्तुनो व्यतिरिक्तमूर्तिर्भावोत्पादक: परैरिष्टः, सोऽत्र विवादपदशब्दित: / अन्यथा-जैनस्य भावाविष्वग्भूताभावैर्भावोत्पादकत्वेनाङ्गीकृतैर्बाधा स्यात्। यौगस्य चात्यन्ताभावेन भावानुत्पादकेन सिद्धसाध्यता भवेत्। नन्वयं धर्मित्वे-नोपात्तोऽभावो भवद्भिः प्रतिपन्नो न वा! यदि प्रतिपन्नः; किं प्रत्यक्षाद्, अनुमानात्, विकल्पाद्वा; उपमानादेरत्रानुचितत्वात्। यदि प्रत्यक्षात्; तदा कथमभावस्य भावोत्पादनापवादस्सूपपाद: स्यात्? प्रत्यक्षस्यवोत्पादित्वात् / अथानुमानात्तत्प्रतिपत्तौ; तत्राप्यभावधर्मिणः प्रतीतिर-नुमानान्तरादेव, इत्यत्राऽनवस्थादौस्थ्यस्थेमा / विकल्पादपि तत्प्रतीतिः; प्रमाणमूलात्, तन्मात्रादेव वा / न प्रथमात्; प्रमाणप्रवृत्तेस्तत्र तिरस्कृतत्वात्। विकल्पमात्रात्तु तत्प्रतीति-रसत्कल्या, तत: कस्यापि प्रतिपत्तेरनुपपत्तेः / अन्यथा- प्रामाणिकानां प्रमाणपर्येषणमरमणीयं स्यात् / तथा चाश्रयासिद्धो हेतुः। अथाप्रतिपन्न:, तर्हि कथं धर्मितयोपादायि? उपात्ते चास्मिन्। हेतुराश्रयासिद्धएव। अत्रोच्यतेविकल्पमात्रादेव तत्प्रतिपत्तिं ब्रूमहे ! नचाश्रयासिद्धिः, अवस्तुनि विकल्पा-त्प्रसिद्धेरवश्याश्रयणीयत्वाद्। अन्यथा बन्ध्यास्तनन्धयादिशब्दानुयारणप्रसङ्गात्। नच-नोचार्यत एवायं मयेति वाच्यम् / बान्ध्येयोऽस्ति, नास्ति वेति / पर्यनुयोगे पृथ्वीपतिपरिषद्यवश्यं विधिनिषेधान्यतराभिधायिवचनस्यावकाशात् / तूष्णीं पुष्णतोऽस्याप्रतिपित्सितं, किंचिदुचारयतो वा पिशाचकित्व-प्रसङ्गात्। तथाविधवचनोच्चारणे च कथमेतदिति प्रमाणगवेषणे अनुमानमुच्चार्यमाणमाश्रयासिद्धिग्रस्तम्। समस्तं निष्प्रमाणकं वचनमात्रं प्रेक्षावता प्रश्नकृताऽनपेक्षितमेव। न चोभया-भावोऽभिधातुं शक्यः। विधिनिषेधयोर्भावाभावस्वभावत्वात्, एकनिषेधेनापरविधानात्। विधिप्रतिषेधो हि निषेधः, निषेधप्रतिषेधश्च विधिः। अस्तु वोभयप्रतिषेधप्रतिज्ञाहेतोस्तु तत्रोपादीयमानस्य नाश्रया सिद्धिपरिहारः / तदुक्तम्-"धर्मस्य कस्यचिदवस्तुनि मानसिद्धाबाधाविधिव्यवहृति: किमिहास्ति नो वा अस्त्येव चेत्कथमियन्ति न दूषणानि, नास्त्येव चेत् स्वक्चनप्रतिरोधसिद्धिः // 1 / / (अस्य व्याख्या)अवस्तुनि बाधाविधिव्यवहारो नास्तीत्येतदनेनैव स्ववचनेन प्रतिरुध्यते; नास्तीति प्रतिषेधस्य स्वयं कृतत्वाद्, इत्यन्त्यपादस्यार्थः। तुरङ्गशृङ्गदृष्टान्तोऽपि विकल्पादेव प्रसिद्धः स्वीकर्तव्यः। तत्र च वस्त्वेकान्तव्यतिरे के सति भावानुत्पादकत्वमपि प्रतीतम्, इति नास्य साध्यसाधनोभयवैकल्पम्। ननु जैनेर्भावादभित्रस्याभावस्याभ्युपगमात् वाद्यसिद्धो हेतुरिति चेत्, तदसत्। पराभ्युपगताभावस्य धर्मीकृतत्वात्, तस्य च भावादेकान्तेन पृथग्भूततया जैनैरपि स्वीकारात्। न खल्ववस्तु वस्तुभूतादावादभिन्नमिति मन्यन्ते जैनाः। ततो नाभावो भावोत्पादकस्तवास्तीति सिद्धम् / / किंच यदाप्रतिबन्धकाभावो विभावसुस्वरूपादेकान्तभिन्नोऽभ्युपागामि, तदा विभावसुः प्रतिबन्धकस्वभावस्स्वीकृत: स्यात्, प्रतिबन्धकाभावाह्यावर्त्तमानत्वान्मणिमन्त्रादिप्रतिबन्धकस्वरूपवत्। तथा च कथं कदाचिद्दाहादिकार्योत्पादो भवेत् ? विभावसोरेव प्रतिबन्धक-त्वात् / अथ कथं विभावसुः प्रतिबन्धक: स्यात्? तत्र प्रतिबन्धकप्रागभावस्य विद्यमानत्वात् / तदनवदातम् / एतावता हि तत्र वर्तमान: प्रतिबन्धकप्रागभाव एव प्रतिबन्धकस्वभावो मा भूत्, विभावसुस्वरूपं तु तदभावाव्यावर्तमान प्रतिबन्धकतां कथं न कलयेत्? यथाहि-प्रतिबन्धकः स्वभावाद्यावर्तमान: प्रतिबन्धकतां दधाति, तथा-तनूनपादपि प्रतिबन्धकाभावाव्यावर्त्तमानमूर्ति: कथं न प्रतिबन्धरूपता प्रतिपद्येत? स्याद्रादिनां तुभावाऽभावोभयात्मकं वस्त्विति प्रतिबन्धकाभावा-त्मन: कृष्णवर्मनी न प्रतिबन्धकरूपता। किं च-प्रतिबन्धकाभावस्य कारणत्वे, प्रतिबन्धकस्य कस्यचि-नैकठ्येऽपिप्रतिबन्धकाभावा-न्तराणामेकेषां भावात्कथं न कार्योत्पाद:? नहि कुम्भकारकारण: कुम्भः कुम्भकारस्यैकस्याभावेऽपि कुम्भकारान्तरव्यापारान्न भवति नचैक एव Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 85 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम कश्चित्प्रतिबन्धकाभावः कारणं, यदभावात्तदानींनकार्य जायते, तद्वदेव त्वन्मतेन सर्वेषामवधृतसामर्थ्यत्वात्। अथ सर्वे प्रतिबन्धकाभावा: समुदिता एव कारणं; न पुनरेकैकश: कुम्भकारवत्, तर्हि कदाचिदपि दाहांदिकार्योत्पत्तिर्न स्यात, तेषां सर्वेषां कदाथिदभावात्, भुवने मणिमन्त्रतन्त्रादिप्रतिबन्धकानां भूयसां संभवात्। अथ ये प्रतिबन्धकास्तं तनूनपातं प्रतिबद्धं, प्रसिद्धसामर्थ्याः, तेषामेवाऽभावा: सर्वे कारणं, नतु सर्वेषां, सर्वशब्दस्य प्रकारकास्न्ये वर्तमानस्य स्वीकारात्, इति चेत्। ननु प्रसिद्धसामा इति सामर्थ्यशब्दस्यातीन्द्रिया शक्ति:, स्वरूपं वा प्रतिबन्धकानां वाच्यं स्यात्। प्राच्यपक्षक क्षीकारे, क्षीणः क्षणेनावयोः कण्ठशोषः। अतीन्द्रियशक्तिस्वीकारात्। द्वितीयपक्षे तु त एव तं प्रति प्रतिबन्धका; नापरे, इति कौतस्कुती नीति:? स्वरूपस्योभयेषामपि भावात्। न खलु मणिमन्त्रादेः कश्चिदेव जातवेदसमाश्रित्य तत्स्वरूपं, न पुनर्जातवेदोऽन्तर-मिति। तथा न प्रतिबन्धकस्यात्यन्ताऽभावस्तावत्कारणतया वक्तुं युक्तः, तस्याऽसत्त्वाद, अन्यथाजगति प्रतिबन्धककथां प्रत्यस्तमयप्रसङ्गात्। अपरे पुन: प्रतिबन्धकाभावा एकैकश: सहकारितां धीरन्, द्वित्रा वा। प्रथमपक्षे; प्रागभावः, प्रध्वंसाऽभावः, परस्पराऽभाव:, य: कश्चिद्वा सहकारी स्यात् / न प्रथमः, प्रतिबन्धक प्रध्वंसेऽपि पावकस्य प्लोषकार्योपलम्भात्। न द्वितीय:, प्रतिबन्ध-कप्रागभावेऽपि दहनस्य दाहोत्पादकत्वात्।न तृतीय:, प्रतिबन्धकसंबन्धबन्धोरपि धनञ्जयस्य स्फोटघटनप्रसङ्गात्, तस्य तदानीमपि भावात्। न चतुर्थः, प्ररूपयिष्यमाणानियत-हेतुकत्वदोषानुषङ्गात्। द्विवप्रतिबन्धकाभावभेदे तु किं प्रागभा- वप्रध्वंसाऽभावौ, प्रागभावपरस्पराऽभावौ , प्रध्वंसाऽभावपरस्प- राऽभावौ, त्रयोऽपि वा हेतवो भवेयुः / नाद्य: पक्ष:, उत्तम्भकनैकट्ये तावन्तरेणापि पावकस्य प्लोषकार्याऽजनदर्शनात्। न द्वितीयतृतीयतुरीया:, प्रतिबन्धकपरस्पराऽभावस्य प्राक तदकारणत्वेन वर्णितत्वात्, भेदत्रयस्यापि चास्य परस्पराभावसंबलितत्वात्। अथ प्रागभावप्रध्वंसाभावोत्तम्भकमणिमन्त्र-तन्त्रायो यथायोगं कारणमिति चेत् / तदस्फुटम्। स्फोटादिकार्यस्यैवमनियतहेतुकत्वप्रसङ्गात् / अनियतहेतुकं चाऽहेतुकमेव / तथाहिअन्वयव्यतिरेकावधार्य: कार्यकारभावो भावानाम्, धूमधूमध्वजयोरिव / प्रस्तुते तु प्लोषादि यदेकदैकस्मादुत्पद्यनमामीक्षामासे, तदन्यदा यद्यन्यतोऽपि स्यात्, तर्हि तत्कारण-कमेव तन्न भवेदिति कथं नाऽहेतुकं स्यात् ? अथ गोमायात्, वृश्चिकाच वृश्चिकोत्पाद: प्रेक्ष्यते / न च तत्रानियतहेतुकत्वं स्वीकृतं त्वयाप्रीति चेत्। तदपि त्रपापात्रम्। सर्वत्र हि शालू कगोमयादौ वृश्चिक डिम्भारम्भशक्तिरेकास्ति इति यानि तच्छक्तियुक्तानि तानि तत्कार्योत्पादकानि, इति नायं न: कलङ्क: सङ्क्रामति / भवतां पुनरत्राप्ययं प्रादुर्भवन् दुष्प्रतिषेधः, येषां वृश्चिकगोमयसाधारणमेकं किंचिन्नास्तीति / नच प्रागभावप्रध्वंसाभावोत्तम्भकादीनामप्येकं किंचित्तुल्यं रूपं वर्त्तने / इति नानियतहेतुक त्वेन दुर्विधदैवेनेवाऽमी मुच्यन्ते / एतेन 'भावस्वभावोऽप्य भाव एवास्तु हेतुर्नत्वतीन्द्रियशक्तिस्वीकार: सुन्दर:' इत्यप्युच्यमानमपास्तम्। उक्ताभावविकल्पानामत्राप्य-विशेषात्। अथ शक्तिपक्षप्रतिक्षेपदीक्षिता"आक्षपादा" एवं साक्षेपमाचक्षते-ननुभवत्पक्षे प्रतिबन्धकोऽकिंचित्कर: किंचित्करो वा भवेत्। अकिंचित्करप्रकारेऽतिप्रसङ्गः, शृंङ्गभृङ्ग- भृङ्गाराऽऽदेरप्यकिंचित्करस्य प्रतिबन्धकत्वप्रसङ्गात्। किंचित्करस्तुकिंचिदुपचिन्वन् अपचिन्वन्वा स्यात्। प्राचिपक्षे, किं दाहकशक्तिप्रतिकूला शक्तिं जनयेत्, तस्या एव धर्मान्तरं वा / न प्रथमः, प्रमाणाभावात् / दाहाऽभावस्तु, प्रतिबन्धक - सन्निधिमात्रेणैव चरितार्थ इतिन तामुपपादयितुमीश्वरः। धन्तिरजनने तदभावे सत्येव दाहोत्पाद इत्यभावस्य कार- णत्वस्वीकारः, त्वदुक्ताशेषप्रागभावाऽऽदिविकल्पाऽवकाशश्च / अपचयपक्षे तु प्रतिबन्धकस्तां शक्तिं विकुट्टयेत, तद्धम वा / प्रथमप्रकारे-कुतस्त्यं कृपीटयोने: पुन: स्फोटघटनपाटवम्।तदानीमन्यैव शक्ति: संजातेति चेत्। ननु सा संजायमाना किमुत्तम्भकात्प्रतिबन्धकाभावात् देशकालादिकारकचक्रात् अतीन्द्रियार्थान्तरादा जायते। आद्यभिदायाम्, उत्तम्भकाभावे- ऽपि प्रतिबन्धकाभावमात्रात्कौतस्कुतं कार्याऽर्जनं जातवेदसः। द्वितीयभेदे-ततएव स्फोटोत्पत्तिसिद्धेः शक्तिकल्पनावैयर्थ्यम्। तृतीयेदेशकालादिकारकचक्रस्य प्रतिबन्धकालेऽपि सद्भावेन शक्त्यन्तरप्रादुर्भावप्रसङ्गः। चतुर्थे- अतीन्द्रियार्थान्तरनिमित्त- कल्पने तत एव स्फोट: स्फूट भविष्यति, किमनया कार्यम्? तन्न शक्तिनाश: श्रेयसः। तद्वदेव तद्धर्मनाशपक्षोऽपि प्रतिक्षेपणीयः। अत्राभिद्धमहे। एतेषु शक्तिनाशपक्ष एव कक्षीक्रियत इत्यपरविकल्पशिल्पकल्पनाजल्पाकता कण्ठशोषाशयैव व: संबभूवा यत्तूक्तम्- कुत: पुनरसावुत्पद्येतेति। तत्र शक्त्यन्तर- सहकृता कृपीटयोनेरेवेतिब्रूमः। ननु प्रतिबन्धकदशायां सा शक्तिरस्ति; न वा। नास्ति चेत् कुत: पुनरुत्पद्येता शक्त्यन्तरसहकृतादग्नेरेवेति चेत्, तर्हि साऽपि शक्त्यन्तरसध्रीचस्तस्मादेवोन्मज्जेदित्यनवस्था। अथाऽस्ति, तदानीमपि स्फोटो-त्पादिकां शक्तिं संपादयेत् ततोऽपि स्फोट: स्फुटं स्यादेवेति। अत्रोच्यतेप्रतिबन्धकावस्थायामप्यस्त्येव शक्त्यन्तरं, घटयति च स्फोटघटनलम्पटां शक्तिं तदापि। यस्तु तदा स्फोटानुत्पादः, स प्रतिबन्धकेनोल्पनोत्पन्नायास्तस्याः प्रध्वंसात्। प्रतिबन्धकापगमे तु स्फोट: स्फुटीभवत्येवेत्यतीन्द्रियशक्तिसिद्धिः। अत्रा- ऽऽशङ्कान्तरपरिहारप्रकारमौक्तिककणप्रचयावचाय: स्याद्वादर-त्नाकरात् तार्किकै कर्त्तव्यः। एवं च स्वाभाविकशक्तिमान् शब्द: अर्थबोधयतीति सिद्धम्, अथ तदङ्गीकारे तत एवार्थसिद्धेः संक्तकल्पनाऽनर्थिकैव स्यादिति चेत्, मैवम् / अस्य सहकारितया स्वीकाराद्; अङ्कुरोत्पत्तौ पय:पृथिव्यादिवत् / अथ स्वाभाविक-संबन्धाभ्युपगमे देशेभेदेन शब्दानामर्थभेदो न भवेत् भवतिचायम्, चौरशब्दस्य दाक्षिणात्यैरोदने प्रयोगादिति चेत् / तदशस्यम् / सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वात्। यत्र च देशे यदर्थप्रति-पादनशक्तिसहकारी संकेत:, स तमर्थ तत्र प्रतिपादयतीति सर्वमवदातम्। सौगतांस्तु प्रत्येवंविधेयानुवाद्यभाव: योऽयं शब्दो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 86 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम वर्णात्मा आवयोः प्रसिद्धः, स स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यां कृत्वा अर्थबोधनिबन्धनमेवेति। अथ स्वाभाविक सामर्थ्य समयाभ्यां शब्दस्यार्थे सामान्यरूपे, विशेषलक्षणे, तदुभयस्वभावे वा वाचकत्वं व्याक्रियेत। न प्रथम, सामान्यस्यार्थक्रियाकारित्वाभावेन नभोऽम्भोजसन्निभत्वात्। न द्वैतीयीके विशेषस्य स्वलक्षणलक्षणस्य वैकल्पिकविज्ञा-नागोचरत्वेन संकेतास्पदत्वाऽसंभवात् / तत्संभवेऽपि विशेषस्य व्यवहारकालाननुयायित्वेन संकेतनैरर्थक्याता तार्तीयीकेतु स्वतन्त्रयोः, तादात्म्यापन्नयोर्वा सामान्यविशेषयो स्तद्गोचरता संगीर्येत। नाद्यः पक्ष:, प्राचिकविकल्पोपदर्शितदोषानुषङ्गात्। न द्वितीयः, सामान्यविशेषयोर्विरुद्धधम्मध्यिासितत्वेन तादात्म्याऽयोगादिति नार्थो वाच्यो वाचाम, अपि तु परमार्थत: सर्वतो व्यावृत्तस्वरूपेषु स्वलक्षणेष्वेकार्थकारित्वेन, एक कारण-त्वेन चोपजायमानैक प्रत्यवमर्शरूपविकल्पस्याकारो बाह्यत्वे-नाभिमन्यमानो बुद्धिप्रतिबिम्बव्यपदेशभाक् अपोहः; शब्दश्रुतौ सत्यां तादृशोल्लेखशेखरस्यैव वेदनस्योत्पादात्। अपोहत्वं चास्य स्वाकारविपरीताकारोन्मूलकत्वेनावसेयम्। अपोह्यते स्वाकाराद्विपरीत आकारोऽनेनेत्यपोह इति व्युत्पत्तेः। तत्त्वतस्तुन किंचिद्वाच्यं वाचकं वा विद्यते, शब्दार्थतया कथिते बुद्धिप्रतिबिम्बात्मन्यपोहे कार्यकारणभावस्यैव वाच्यवाचकतया व्यवस्थापितत्वात्। ''अथ श्रीमदनेकान्त-समुद्घोषपिपासितः। अपोहमापिबामि प्राग, वीक्षन्तां भिक्षवः क्षणम् ॥शा इह तावद्विकल्पानां तथाप्रतीतिपरिहतविरुधर्माध्यासकथंचित्तादात्म्यापन्न-सामान्यविशेषस्वरूपवस्तुलक्षणाक्षणदीक्षादीक्षितत्वं प्राक्प्राक - ट्यता ततस्तत्त्वत: शब्दानामपि तत्प्रसिद्धमेवा यतोऽजल्पि युष्मदीयैः स एव शब्दानां विषयो यो विकल्पानाम्' इति कथम् अपोह: शब्दार्थ: स्यात्। अस्तु वा तथाप्यनुमानवत्किं न शब्द: प्रमाणमुच्यते। अपोहगोचरत्वेऽपि परंपरया पदार्थ प्रतिबन्धात्प्रमाणमनुमानमिति चेत्तत एव शब्दोऽपि प्रमाणमस्तु अतीतानागताम्बरसरोजादिष्वसत्स्वपि शब्दोपलम्भान्ना-त्रार्थप्रतिबन्ध इति चेत्, तीभूद् वृष्टिः, गिरिनदीवेगोपलम्भात्, भावीभरण्युदयः, रेवत्युदयात्, नास्ति रासभशृङ्गं समग्र प्रमाणैरनुपलम्भात् इत्यादेरर्थाभावेऽपि प्रवृत्तेरनुमाने-ऽपिनार्थप्रतिबन्ध: स्यात्। यदि वचोवाच्याऽपोहोऽपि पारंपर्येण पदार्थप्रतिष्ठ: स्यात्। तदानीम्-अलाबूनि मज्जन्तीत्या-दिविप्रतारकवाक्याऽपोहोऽपि तथा भवेदिति चेद्, अनुमेया-ऽपोहेऽपि तुल्यमेतत् प्रमेयत्वादिहेत्वनुमे याऽपोहेऽपि पदार्थप्रतिष्ठताप्रसक्ते / प्रमेयत्वं हेतुरेव न भवति, विपक्षासत्त्वतल्लक्षणाभावादिति कुत्तस्त्या तदपोहस्य तनिष्ठतेति चेत्, तर्हि विप्रतारक वाक्यमप्यागम एव न भवति आप्रोक्तत्वल्लक्षणाभावादित्यादि समस्तं समानम्। यस्तु "नाप्सोक्तत्वं वचसि विवेचयितुं शक्यम्' इति "शाक्यो' वक्ति स पर्यनुयोज्य / किमाप्तस्यैव कस्याप्यभावादेवमभिधीयेत, भावेऽप्यभावस्य निश्चयाभावात्, निश्चयेऽपि मौनव्रतिकत्वात्, वक्तृत्वेऽप्य- नाप्तवचनात्, तद्वचसो विवेकावधारणाभावाद्वा। सर्वमप्येतत् "चार्वाका'' दिवाचां प्रपञ्चात्। मातापितृपुत्रभ्रातृगुरुसुगतादिव-चसां विशेषमातिष्ठमानैरप्रकटनीयमेव नच-नाऽस्ति विशेषस्वीकारः, तत्पठितानुष्ठानघटनायामेव प्रवृत्तेर्निर्निबन्धनत्वाऽऽपत्तेः। अथानुमानिक्येवाप्तदशब्दादर्थ-प्रतीति:; कथम्? ''पादपार्थविवक्षावान्, पुरुषोऽयं प्रतीते। वृक्षशब्दप्रयोतृत्वात्, पूर्वावस्थास्वहं यथा''||१|| इति विवक्षामनुमाय, सत्या विवक्षेषयम, आप्तविवक्षात्वात, मद्विव- क्षावादिति वस्तुनो निर्णयादिति चेत्, तदचतुरस्त्रम्। अमूदृश- व्यवस्थाया अनन्तरोक्तवैशेषिकपक्षप्रतिक्षेपेण कृतनिर्वचन-त्वात्। किंच-शाखादिमतिपदार्थे वृक्षशब्दसंवेते सत्येतद्विवक्षानुमानमातन्येत्, अन्यथा वा न तावदन्यथा। केनचित्कक्षे वृक्षशब्द संकेत्य तदुच्चारणात्, उन्मत्तसुप्तशुकसारिकादिना गोत्रस्खलनवता चान्यथाऽपि तत्प्रतिपादनाच हेतोर्व्यभिचारा- पत्तेः। संकेतपक्षे तु यद्येष तपस्वी शब्दस्तद्वशाद्वस्त्वेव वदेत्तदा किंनाम खूणं स्यात्। न खल्येषोऽर्थाद्विभेति। विशेषलाभश्चैवं सति यदेवंविधाननुभूयमानपारंपर्यपरित्याग इति। यदकथि- 'परमार्थतः सर्वतोऽव्यावृत्तस्वरूपेषु स्वलक्षणेष्वेकार्थकारित्वेन' इत्यादि। तदवद्यम्। यतोऽर्थ स्य वाहदोहादेरेकत्वम्, अद्विरूपत्वं, समानत्वं वा विवक्षितम्। न तावदाद्यः पक्ष:- षण्डमुण्डादौ कुण्डकाण्डभाण्डादिवाहादेरर्थस्य भिन्नस्यैव संदर्शनात्। द्वितीयपक्षेऽपि सदृशपरिणामास्पदत्वम् अन्यव्यावृत्त्य-धिष्ठितत्वं वा समानत्वं स्यात्। न प्राच्यः प्रकारः, सदृशपरि- णामस्थ सौगतैरस्वीकृतत्वात्। न द्वितीयः, अन्यव्यावृत्तेर- तात्विकत्वेन बान्ध्येयस्येव स्वलक्षणेऽधिष्ठानासंभवात्। किंच- अन्यत: सामान्येन विजातीयाद्वा व्यावृत्तिरन्यव्यावृत्तिर्भवेत्। प्रथमपक्षे, न किंचिदसमानं स्यात्, सर्वस्यापि सर्वतो व्यावृत्तत्वात् द्वितीये तु विजातीयत्वं वाजिकुजरादिकार्याणां वाहादि-सजातीयत्वे सिद्धे सति स्यात्, तच्चान्यव्यावृत्तिरूपमन्येषां विजातीयत्वे सिद्धे सति, इतिस्पष्ट परस्पराश्रयत्वमिति। एवं च कारणैक्यं प्रत्यवमर्शक्यं च विकल्प्य दुषणीयम्। अपिच-यदिबुद्धिप्रतिबिम्बात्मा शब्दार्थ: स्यात्तदा कथमतो बहिरर्थे प्रवृत्तिः स्यात्?स्वप्रतिभासेऽनर्थेऽर्थाध्यवसायाचेत्। ननु कोऽयम-र्थाध्यवसायो नाम अर्थसमारोप इति चेत्, तर्हि सोऽयमर्थानर्थयोरग्निमाणवकयोरिव तद्विकल्पविषयभावे सत्येव समुत्पत्तुमर्हति नच समारोपविकल्पस्य स्वलक्षणं कदाचन गोचरतामञ्चति। यदि चाऽनर्थेऽर्थसमारोप: स्यात्, तदा वाहदोहाद्यर्थ-क्रियार्थिन: सुतरां प्रवृत्तिर्न स्यात् / नहि दाहपाकाद्यर्थी समारोपितपावकत्वे माणवके कदाचित्प्रवर्त्तते। रजतरूपतावभा-समानशुक्तिकायामिव रजतार्थिनोऽर्थक्रियार्थिनो विकल्पात्तत्र प्रवृत्तिरिति चेत्। भ्रान्तिरूपस्तॉयं समारोपः, तथा च कथं तत: प्रवृत्तोऽर्थक्रियार्थी कृतार्थ: स्यात्। यथा शुक्तिकायां प्रवृत्तो रजा- तार्थक्रियार्थीति। यदपि प्रोक्तं कार्यकारणभावस्यैव वाच्यवाचक-तया व्यवस्थापित्वादिति। तदप्ययुक्तम्। यतो यदि कार्यकारणभाव एव वावाच्यवाचकभावः स्यात्, तदा श्रोत्रज्ञाने प्रतिभासमान शब्द: स्वप्रतिभासस्य भवत्येव कारणमिति तस्याऽप्य सौ वा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 87 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम चकः स्यात्। यथा च विकल्पस्य शब्द: कारणम्, एवं परंपरया स्वलक्षणमपि, अतस्तदपि वाचकं भवेदिति प्रतिनियतवाच्यवाचकभावव्यवस्थानं प्रलयपद्धतिमनुधावेत्, तत: शब्द: सामान्यविशेषाऽऽत्मकार्थावबोधनिबन्धनमेवेति स्थितम्। स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनिबन्धने शब्द: इत्युक्तम् / अथ किमस्य शब्दस्य स्वाभाविक रूपं, किंच परापेक्षमिति विवेचयन्तिअर्थप्रकाशकत्वमस्य स्वाभाविकं प्रदीपवद्यथाऽर्थत्वाऽयथाऽर्थत्वे पुनः पुरुषगुणदोषावनुसरत: इति // 12|| अर्थप्रकाशकत्वम्-अर्थावबोधसामर्थ्यम्। अस्य-शब्दस्य स्वाभाविकम्- पराऽनपेक्षम्। प्रदीपवत्-यथा हि प्रदीप: प्रकाश- मान: शुभम् अशुभं वा यथासन्निहितं भावमवभासयति, तथा शब्दोऽपि वक्त्रा प्रयुज्यमान: श्रुतिवर्तिनीमवतीर्ण: सत्ये अनृतेवा, समन्धिते असमन्विते वा, सफले निष्फले वा, सिद्धे साध्ये वा; वस्तुनि प्रतिपत्तिमुत्पादयतीति तावदेवास्य स्वाभाविक रूपम्। अयं पुन: प्रदीपाच्छब्दस्य विशेष:-यदसौ संकेशव्युत्प- त्तिमपेक्षमाणः पदार्थप्रतीतिमुपजनयति, प्रदीपस्तु तन्निरपेक्ष:। यथाऽर्थत्वाऽयथार्थत्वे- सत्यार्थत्वाऽसत्यार्थत्वे पुन: प्रतिपाद-कनराधिकरणशुद्धत्वाऽशुद्धत्वे अनुसरतः; पुरुषगुणदोषापेक्षे इत्यर्थः। तथाहि-सम्यग्दर्शिनिशुचौ पुरुषे वक्तरियथार्था शाब्दी प्रतीति: अन्यथा तु मिथ्यार्थति। स्वाभाविक तुयाथायें मिथ्यार्थत्वे चाऽस्या: स्वीक्रियमाणे विप्रतारकेतरपुरुषप्रयुक्त- वाक्येषु व्यभिचाराऽव्यभिचारनियमोन भवेत्। पुरुषस्य च करुणादयो गुणा, द्वेषादयो दोषा: प्रतीता एव। तत्र च यदि पुरुषगुणानां प्रामाण्यहेतुत्वं नाभिमन्यते जैमिनीयैस्तर्हि दोषा-णामप्यप्रामाण्यनिमित्तता मा भूत / दोषप्रशमनचरितार्था एव पुरुषगुणा:, प्रामाण्यहेतवस्तु न भवन्तीत्यत्र च कोशपानमेव शरणं श्रोत्रियाणामिति / रत्ना०४ परि०। (19) (शब्दाऽर्थयोर्वाच्यवाचक भाव एव सम्बन्ध: इति 'णिद्देस' शब्दे चतुर्थभागे 1530 विशेषावश्यकगाथाच्याख्यावसरवक्ष्यते) संबन्धस्त्वभिधेयेन सह वाच्यवाचकभावलक्षण:शास्त्रस्यावश्यंभावी, इत्यनुक्तोऽपि अर्थात् गम्यते, इति संबन्धरहितत्वाऽऽशङ्कानुत्थानोपहतैवेति। रत्ना. 1 परि० 1 सूत्रटी (सम्मतितर्क - स्याद्वादमञ्जरी- रत्नाकरावतारिकादिग्रन्थेभ्यो विशेषोऽवगन्तव्यः)। (शब्दस्य पौद्गलिकत्वं नाऽऽकाश-गुणत्वमिति 'सद्द शब्दे७ सप्तमे भागे दर्शयिष्यते) (20) (आगमस्य हेतुवादाऽहेतुवादभेदेन द्वैविध्यम् 'अहेउवाय' शब्दे प्रथमभागे 891 पृष्ठे अहेतुवादस्वरूपं, तत्रैव हेतुवादल-क्षणमपि गतम्) "जीवाऽजीवाऽऽश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्" (तत्त्वार्थ सू०१४) इत्युभयवाऽऽदागमप्रतिपाद्यान् भावांस्तथैवा-संकीर्णरूपान् प्रतिपादयन् सैद्धान्तिक: पुरुषः, इतरस्तुतद्विराधक इत्याहजो हेउवायपक्ख-म्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो स समयपण्णवओ, सिद्धतविराहओ अन्नो ||4|| यो हेतुवादाऽऽगमविषयमर्थं हेतुवादाऽऽगमेन,तद्विपरीतागम-विषय चार्थमागममात्रेण प्रदर्शयति वक्ता स स्वसिद्धान्तस्य- द्वादशाङ्गभ्य प्रतिपादनकुशल:, अन्यथाप्रतिपादयश्च- तदर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तत्प्रतिपादके वचसि अनास्थाऽऽदि- दोषमुत्पादयन्सिद्धान्तविराधको भवति सर्वज्ञप्रणीतागमस्य नि:सारताप्रदर्शनात, तत्प्रत्यनीको भवतीति यावत्। तथाहि-पृथिव्यादेर्मनुष्यपर्यन्तस्य षड्विधजीवनिकायस्य जीवत्वमागमेनाऽनुमानादिना च प्रमाणेन सिद्धं तथैव प्रतिपादयन् स्वसमयप्रज्ञापकः, अन्यथा तद्विराधकः / यत: प्रव्यक्तचेतने त्रसनिकाये चैतन्यलक्षणं जीवत्वं स्वसंवेदनाध्यक्षत: स्वात्मनि प्रतीयते, परत्र तु अपरेण-अनुमानतः / वनस्पतिपर्यन्तेषु पृथिव्यादिषु स्थावरेषु त्वनुमानतश्चैतन्यप्रतिपत्तिः / तथाहि- वनस्पतयश्चेतना:, वृक्षायुर्वेदाभिहितप्रतिनियतकालायुष्क-विशिष्टौषधप्रयोगसंपादितवृद्धिहानिक्षतभनसंरोहणप्रतिनियतवृद्धिषड्भावविकारोत्पादनाशावस्थानियतविशिष्टशरीरस्निग्धत्वरूक्षत्वविशिष्टदौहृदबालकुमारवृद्धावस्थाप्रति-नियतविशिष्टरसवीर्यविपाकप्रतिनियतप्रदेशाहारग्रहणादिमत्त्वान्यथानुपपत्ते:, विशिष्टस्त्रीशरीरवदित्याद्यनुमानं भाष्यकृत्प्रभृतिभिर्विस्तस्त: प्रतिपादितं तचैतन्यप्रसाधक- मित्यनुमानतस्तेषां चैतन्यमात्र सिध्यति। साधारणप्रत्येक- शरीरत्वादिकस्तु भेद: (जीवविचारगाथा)"गूढशिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरगंच छिन्नरुहं। साहारणं सरीरं, तविवरीयं च पत्तेयं // 12 // " इत्याद्यागमप्रतिपाद्य एव। जीवलक्षणव्यतिरिक्तलक्षणा-स्त्वजीवा धर्माऽधर्माऽऽकाशपुद्गलभेदेन पञ्चविधाः / तत्र पुद्गलास्तिकायव्यति-- रिक्तानां स्वतो मूर्तिमद्रव्यसंबन्धमन्तरेणात्मद्रव्यवदमूर्त्तत्वादनुमानप्रत्ययावसेयता। तथाहि- "गतिस्थित्यवगाहलक्षणं पुद्गलास्तिकायादिकार्य" विशिष्टकारणप्रभवं, विशिष्टकार्यत्वात्, शाल्यडरादिकायवत्, यश्चासौ कारण विशेषः स धर्माऽधर्माऽऽकाशलक्षणो यथासंख्यमवसेयः। कालस्तु विशिष्टपरापरप्रत्ययादिलिङ्गानुमेयः। पुद्रलास्तिकायस्तु प्रत्यक्षानुमानलक्षणप्रमाणद्वयगम्यः यस्तेषां धर्मादीनां संख्ये-यप्रदेशात्मकत्वादिको विशेषस्तत्प्रदेशानां च सूक्ष्मसूक्ष्मतरत्वा- दिको विभाग: स:- "कालो य होइ सुहुमो" इत्याद्यागमप्रति- पाद्य एव नाऽऽगमनिरपेक्षयुक्त्यवसेयः। एवमाश्रवादिष्वपि तत्त्वेषु युक्त्या आगमगम्येषु युक्तिगम्यमंशंयुक्तितएव, आगमगम्यं केवलाऽऽगमत एव प्रतिपादयन् तु स्वसमयप्रज्ञापकः, इतरस्तुतद्विराधक इति प्रज्ञापकलक्षणमवगन्तव्यम्। सम्म. 3 काण्ड। (21) आगमस्य सर्वव्यवहारनियामकत्वम्आगमात्सर्व एवाऽयं,व्यवहारः स्थितो यतः। तत्रापि हाठिको यस्तु, हन्ताऽज्ञानां स शेखरः।।२३९|| आगमाद्- गुरुवचनप्रत्ययरूपात्सर्व एवनिखिलोऽ प्ययम्योगमार्गोपयोगी व्यवहारोहेयोपादेययोहानोपादानरूपः स्थित:प्रतिष्ठितो यत:- यस्मादतीन्द्रियफ लत्वात्तस्यातीन्द्रि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 88 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम यफलषु चानुष्ठानेषु शास्त्रस्यैव प्रतीतिहेतुत्वात् ततस्तत्राप्याग-माधीने व्यवहारे किं पुनरितररूपे इत्यपि शब्दार्थ: / 'हाठिकः' | स्वविकल्पप्रवृत्त्यागमनिरपेक्षत्वेन बलात्कारचारी। यस्तु- य: पुनर्योगी हन्तेति सन्निहितसभ्यामन्त्रणमज्ञानाम्-अबुद्धिमतां स शेखर:शिरोमणिवर्ततेऽनुपायप्रवृत्तत्वात्तस्य / किंचतत्कारी स्यात्स नियमात, तवेषी चेति यो जडः। आगमाऽर्थे तमुल्लझ्य, तत एव प्रवर्तते // 240 / / तत्कारी-तत्करणशील: स्याद्-भवेत्स नियमादवश्यंभावेन तद्वेषीचस्वयमेव क्रियमाणवस्तुद्वेषवांश्चेत्येतत्तद्रूप: संपद्यते य:-कश्चिज्जडोमन्दः, आगमार्थे- आगमविहिते चैत्यवन्दनादौ विधातुमिष्टे। तम्आगममुल्लङ्घय- अतिक्रम्य 'तत एव' - आगमादेव प्रवर्ततेआगमनिरूपितविधिनिरपेक्षितया आग-मार्थमनुतिष्ठन्नपि न तद्भक्तः / किंतु- तद्विष एव द्वेषमन्तरेण तदुल्लङ्घनाभावादिति भावः / यो बि। (अतीन्द्रियार्थप्रत्यायकस्त्वागम एव)"आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम्। अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये॥शा आगमो ह्याप्तवचन-माप्तं दाषक्षयाद्विदुः। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसंभवात्" ||2|| दश०४ अ.। अनु। तथा चशास्त्रस्यैवावकाशौ च, कुतर्काऽऽग्रहतस्ततः। शीलवान् योगवानत्र, श्रद्धावाँस्तत्त्वविद्भवेत् ||13|| अत्र- अतीन्द्रियार्थसिद्धौ शास्त्रस्यैवावकाशस्तस्यातीन्द्रियार्थसाधनसमर्थत्वाच्छुष्कतर्कस्यातथात्वात्, तदुक्तम्- "गोचरस्त्वागमस्यैव, ततस्तदुपलब्धितः। चन्द्रसूर्योपरागादि-संवाद्यागमदर्शनात्।।१।" द्वा० / 23 द्वा०। (श्लोकार्थ: 'कुतक्क' शब्दे तृतीयभागे 585 पृष्ठे करिष्यते) अस्थानं रूपमन्धस्य, यथा सनिश्चयं प्रति। तथैवातीन्द्रियं वस्तु, छद्मस्थस्यापि तत्त्वत: / / 25|| हस्तस्पर्शसमं शास्त्र, तत एव कथंचन। अत्र तन्निश्चयोऽपि स्या-त्तथाचन्द्रोपरागवत्।।६।। द्वा० 16 द्वा०। (अनयोरर्थः 'इस्सर' शब्देऽस्मिन्नेवभागे विस्तरत: दर्शयिष्यते) (आगमस्य परलोकादिसाधकत्वम्)आगमप्रमाणबलाद्धि सकलमपि परलोकादिपरस्वरूपं यथावदनुगम्यन्ते नान्यतस्तेन यदुच्यते प्रज्ञाकरगुप्तेन- "दीर्घकालसुखादृष्टा-विच्छा तत्र कथं भवेत्" इति तदपास्तमवसेयम् आगतौ दीर्घकालसुखस्य दर्शनात् / न चागमस्य न प्रामाण्यं तदप्रामाण्ये सकलपरलोकानुष्ठानप्रवृत्त्यनुपपत्ते: उपायान्तराऽ- भावात् / नं०३ गाथाटी। शास्त्रमासन्नमव्यस्य, मानमामुष्मिकेविधौ। सेव्यं यदिचिकित्सायां, समाधिप्रतिकूलता ||30|| द्वा० 14 द्वा०। (अस्य श्लोकस्यार्थ: 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1632 पृष्ठे दर्शयिष्यते) (22) धर्ममार्गे चाऽऽगमस्यैव प्रामाण्यम्, कुशीलानामागमाऽप्रमाण्यम्) जम्हा न धम्ममग्गे, मोत्तूणं आगमं इह पमाणं / विज्जइछउमत्थेणं, तम्हा एत्थेव जइअव्वं ||1707 / / यस्मान्न धर्ममार्गे-परलोकगामिनि मुक्त्वा आगममेकं परमार्थत इह प्रमाणं- प्रत्याख्यानादि विद्यते छद्मस्थानां प्राणिनां, तस्मादत्रैवागमे कुग्रहान्विहाय यतितव्यम् / जिज्ञासाऽश्रवणश्रवणानुष्ठाने यत्न: कार्यों नागीतार्थ-जनाचरणपरेण भवितव्यमिति गाथार्थः / प्रत्यपायप्रदर्शनद्वारेणैतदेवाहसुअबज्जायरणरया, पमाणयंता तहाविहं लो। मुअणगुरुणो वरागा, पमाणयं नावगच्छंति / / 1708 / / श्रुतबाह्याचरणरता:- आगमबाह्यानुष्ठानसक्ताः प्रमाणयन्त:- सन्त: के नचिचोदनायां क्रियमाणायां तथाविधं लोकं- श्रुतबाह्यमेवाऽगीतादिकं, किमित्याहभुवनगुरो:- भगवतस्तीर्थकरस्य वराकास्तेऽप्रमाणतामापत्तिसिद्धां नावगच्छन्ति, तथाहि- यदि ते सूत्रबाह्यस्य कर्तारः प्रमाणं भगवांस्तर्हि तद्विरुद्धस्त्रार्थवक्ता अप्रमाणमिति महामिथ्यात्वं बलादापद्यत इति गाथार्थः / अत एव प्रक्रमाद्धमानधिकारिणमाहसुत्तेण चोइओ जो, अण्णं उद्दिसिअतण्ण पडिवज्जे। सो तत्तवायबज्मो, न होइ धम्ममि अहिगारी।1१७०६।। सूत्रेण चोदित:- इदमित्थमुक्तम् एवं, य: सत्त्व; अन्य-प्राणिनं मुदिश्यात्मतुल्यमुदाहरणतया तन्न प्रतिपद्यते। सौत्रमुक्तं, स- एवंभूत:तत्त्ववादबाह्यः, परलोकमङ्गीकृत्य परमार्थवादबाह्यो, न भवति, धर्मे सकलपुरुषार्थहेतावधिकारी सम्यग्विवेकाभा- वादिति गाथार्थः / ___अत्रैव प्रक्रमे किमित्याहतीअबहुस्सुयणायं, तक्किरिआदरिसणा कह पमाणं। वोच्छिज्जंती अइमा, सुद्धा इह दीसई चेव / / 1710 / / तीतबहुश्रुतज्ञातम्, अतीता अप्याचार्या बहुश्रुता एव, तैः कस्मादिदं वन्दनं कायोत्सर्गादिनानुष्ठितमित्येवंभूतंकिमि-त्याह- तत्क्रियादर्शनाद् तीतबहुश्रुतसंबन्धिक्रियादर्शनात्का- रणात्कथं प्रमाणं; नैव प्रमाणं, न ज्ञायते ते कथं वन्दनादिक्रियां कृतवन्त इति / नचेदानींतनसाधुमात्रगतक्रियानुसारत: ततथातावगम इत्याहव्यवच्छिद्यमाना चेयं क्रिया शुद्धा आगमानुसारिणी इह लोकेसांप्रतमपि दृश्यत एव, कालदोषादिति गाथार्थ:। उपसंहरन्नाहआगमपरतंतेहि, तम्हा णिचं पिसिद्धिकंखीहिं। सव्वमणुट्ठाणं खलु, कायव्वं अप्पमत्तेहि / / 1711|| यस्मादेवम्-आगमपरतन्त्रैः- सिद्धान्तायत्तै: तस्मान्नित्यमपिसर्वकालमपि सिद्धिकाङ्किभि-भव्यसत्त्वैः सर्वमनुष्ठानं खलु वन्दनादि कर्तव्यमप्रमत्तै:- प्रमादरहितैरिति गाथार्थ: / पंव। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 89 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगम मोक्षमार्गे चाऽऽगमस्यैव प्रामाण्यम्जम्हा न मोक्खमग्गे, मोत्तूणं आगम इह प्रमाणं / विज्जइछउमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइयव्वं / / 37 / / यस्मान्न नैव मोक्षमार्गे- मोक्षे साध्ये; मोक्षागमशास्त्रं परित्य-ज्येत्यर्थः 'इहे' ति-धर्मविचारे प्रमाणम्-आलम्बनमित्यर्थः, विद्यते छद्मस्थानाम, अतिशयवतां हि कथं चेत्सेवातिशय- वशात्प्रवर्त्तमानानामपि निर्जरालाभ एवावसीयते, तद्वहितैः पुनः सर्वथा शास्त्रमेव प्रमाणीकर्तव्यम् / तस्मात्तत्रैव यतितव्यम्- उद्यम: कार्य इति गाथार्थः। दर्श.५ तत्त्व। "धर्माऽधर्मव्यवस्थायां, शास्त्रमेव नियामकम्। तदुक्तासेवनाद्धर्म-स्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात्॥शा" षो. टी. 1 विव। (आगमावलम्बनस्यैवैहिकामुष्मिकफलसिद्धिहेतुत्वम्) धर्मार्थिनाधर्ममार्गे प्रवर्त्तमानेन आगमावलम्बनेनैव प्रवर्तितव्यं तस्यैवैकस्यैहिकामुष्मिकफलसिद्धिहेतुतयोपादेयत्वात् अन्यस्य पुरुषमात्रस्यावलम्बने तदुच्छेद: स्यादित्येतद्दर्शयन्निदमाहकिं वा देइ वराओ, मणुओ सुछ वि धणी वि भत्तो वि। आणाअइक्कम पुण, तयं पि अणंतदुहहेऊ ||2|| किं वा न किंचिद्ददाति-प्रयच्छति वराक:- अत्यन्तशक्तिरहितो मनुजो-नर: सुष्ठपि-अतिशयेन धन्यपि- धान्यादिसंपदुपेतः भक्तोऽपिभक्तपानवस्त्रपात्रादिदानसमर्थ एवं स्यात; पुन: सुगते:, आज्ञातिक्रमणंभगवदाज्ञोल्लङ्घनं पुन: परापेक्षयापि तनुकमपिस्वल्पमपि आस्तां तावद् रहित्यपिशब्दार्थः, अनन्तदुखहेतुः; अनन्तसंसारनिबन्धनमित्यर्थः, अपेक्षया सर्वविदाज्ञाल्लङ्घनं क्रियतेस हि आहारादिदानमात्र एव समर्थ: न पुन: कुगति-रक्षाक्षम:, अत: किं तदपेक्षया भगवदाज्ञोल्लङ्घनेनान्त-संसारनिवर्त्तनेनेति गाथार्थः / दर्श 4 तत्त्वा (युक्त्युपपन्नस्यैव सदागमत्वम्) नाऽऽगममात्रमेऽर्थप्रति पत्ति हेतुर्भवतीति दर्शयन्नाहजुत्तीए अविरुद्धो, सदागमो साऽवि तयविरुद्ध त्ति। इय अण्णोण्णाऽणुगयं, उभयं पडिवत्तिहेउ ति ||4|| व्याख्या-युक्त्या-उपपत्त्याऽविरुद्धः-अबाधितः सदांगम:सत्सिद्धान्तो भवति। साऽपियुक्तिरपि, तदविरुद्धा-सिद्धान्ता- ऽविरुद्धा स्यात्तदन्या त्वयुक्तिरेव, इति: वाक्यार्थसमाप्तौ, इति- एवम् अन्योऽन्यानुगतं- परस्परानुयायि, उभयम्- युक्ति- सदागमरूपं द्वयं प्रतिपत्तिहेतु:- अर्थप्रतीतिकारणम, इतिशब्दः समाप्तौ, इति गाथार्थः / पञ्चा० 18 विव०। वचनाऽऽराधनया खलु, धर्मस्तदबाधया त्वधर्म इति। इदमत्र धर्मगुह्यं, सर्वस्वं चैतदेवाऽस्य ||1|| 'वचने त्यादिवचनाराधनया-आगमाराधनयैव खलुशब्द एवकारार्थः। धर्म:-श्रुतचारित्ररूप: संपद्यते / षो. 2 विव०। ('धम्मदेसणा' शब्दे चतुर्थभागेऽत्र 2722 पृष्ठे विशेष- व्याख्यानम्) (23) जिनाऽऽगामस्यैव सत्यत्वम्एकाऽप्यनाद्याखिलतत्त्वरूपा, जिनेशगीर्विस्तरमाप तर्कः। तत्राऽप्यसत्यं त्यज सत्यमनी, कुरु स्वयं स्वीयहिताऽभिलाषिन् !||1|| 'एकेति' एकापि जिनेशगी:- अर्हद्वाणी अर्हन्मुखान्निर्गच्छमाना अद्वितीया यथाभाषितं तथाश्रूयमाणा तथा अनाद्या-आदिरहिता एकेन तीर्थकृता यदुपदिष्टं तदनेकेषां पूर्वपूर्वतरतीर्थकृतामपि तथैव निरुप्यमाणत्वात् आदरहिता। पुनः कीदृशी- अखिलतत्त्वरूपासमस्ततत्त्वमपि वितर्क- विचारैर्विस्तरं- बहुभेदतां प्राप्य बहुप्रकारैर्बहुधा विस्तृता, यतो दिग्वाससां मतमपि जिनमतं धृत्वा एतादृशनयानाम् अनेकाकारतां प्रवर्त्तयति, अतस्तन्मतेऽपि यद्विमृश्यमानं सत्यं जायते तदेवाऽङ्गीकुरु, यचाऽसत्यं तत्सर्वमपि त्यज, स्वयम्- आत्मना हेस्वीयहिताभिलाषिन् !-निजहितकाक्षिन्! शब्दान्तरत्वेन तन्मतमपि न द्वेषविषयीकर्तव्यं सर्वमपि अर्थकत्वविवक्षया असमंजसमेवेति। द्रव्या. 1 अध्या। सेवं भंते सेवं भंते ! "तमेव सचं णिस्संकं, जंजिणेहि पवेइयं"। हंता जंबू !- "तमेव सच्चं निस्संकं, जं जिणेहिं पवेइयं"। कहं आगासमंडलाओ निवडिआ इव भासह / अम्मापिऊणं संजोए संताणे भवति। किं अन्नहावि भवति पवेइयं हंता जंबू!"तमेव सचं निरसंकं जंजिणेहिं पवेइयं"। अंग। से णूणं भंते !-"तमेव सचंनीसंकं,जं जिणेहिं पवेइयं / " हंता गोयमा !- तमेव सचं नीसंकं, एवं जाव पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। (सूत्र-३७)। भ. 1 श. 3 उ०ी (जिनागमस्य सिद्धत्वम्)"जिणवयण सिद्ध" 49 इत्यादिगाथया 'धम्म' शब्दे चतुर्थ- भागे 2684 पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते। (परप्रवादानां मत्सरित्वम् जिनागमस्यामत्सरित्वम्) अधुना परदर्शनानां परस्परविरुद्धार्थसमर्थकतया मत्सरित्वं प्रकाशयन् सर्वज्ञोपज्ञसिद्धान्तस्यान्यान्यानुगतसर्वनयमयतया मात्सर्याभावमाविर्भावयतिअन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात्, यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयाऽनशेषानविशेषमिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते ||30|| स्या. 30 श्लोक०। (श्लोकार्थः ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे 1896 पृष्ठे दर्शयिष्यते) (24) (जिनागमप्रशंसा) जिनागमो हि कुशास्त्रजनितसंस्कार विषसमुच्छेदनमन्त्रायमाणो धर्माऽधर्मकृत्याऽकृत्यभक्ष्याऽभक्ष्यपेयाऽपयगम्याऽगम्यसाराऽसारादिविवेचनाहेतु: सन्तमसे दीप इव, समुद्र द्वीपमिव, मेरौ कल्पतरुरिव, संसारे दुरापः, जिनादयोऽप्येतत्प्रामाण्यादेव निश्चीयन्ते यदूचुः स्तुतिषु श्रीहेमसूरय: Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 90 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आगमणी "यदीयसम्यक्त्वबलात्प्रतीमो, (आगमनिष्पन्नं नामाधिकृत्याह)भवादृशानां परमाप्तभावम्। से किंतं आगमेणं आगमेणं पद्मानिपयांसि कुण्डानिसेत्तं आगमेणा (सूत्र-कुचासनापाशविनाशनाय, 1254) नमोऽस्तु तस्मै जिनशासनाय / / 2 / / " आगच्छतीत्यागम: न्वागमादिस्तेन निष्पन्नं नाम यथा 'पद्मानी' त्यादि, "धुदस्वराद् धुटि नुः" (का. रु. 24) इत्येननात्र न्वागमस्य जिनागमबहुमानिनां च देवगुरुधर्मादयोऽपि बहुमता भवन्ति। किंच विधानाद् उपलक्षणमात्रं चेदं, संस्कार उपस्कार इत्यादेरपि केवलज्ञानादपि जिनागम एव प्रमाण्येनातिरिच्यते, यदाहु:- "ओहेसु सुडाद्यागमनिष्पन्नत्वदिति। अनु०। ('सत्थ' शब्दे सप्तमभागे विस्तारो उवउत्तो, सुअनाणी जइ हु गिण्हइ असुद्धा तं केवली वि भुंजई, अपमाणसुअं भवे इहरा।।२।।" एकमपि च जिनागमवचनं भविनां आगमकुसल-त्रि० (आगमकुशल) आगमनिपुणे,आतु।"आगमकुसला भवनाशहेतुः, यदाहु:- "एकमपि च जिनवचनाद्यस्मान्निर्वाहकं पदं भवति / श्रूयन्ते चानन्ता:, सामायिकमात्रपदसिद्धाः // 1 // ' यद्यपि च सदाररया // 464 / / " आगम:- श्रुतिस्मृत्यादि- रूपस्तस्मिन् कुशलावागमकुशलाविति। उत्त०२५ अ मिथ्यादृष्टिभ्य आतुरेभ्य इव पथ्याऽन्नं न रोचते जिनवचनं तथापि नान्यत्स्वर्गा-पवर्गमार्गप्रकाशनसमर्थमिति सम्यगदृष्टिभिस्तदादरेण आगमण- न. (आगमन)। आगम् भावे ल्युट् किञ्चिद्देशावधिकविभाजन क्रियायामागतो,। वाच / गमनं स्वस्थानादन्यत्र यानम् / आगमनश्च श्रद्धातव्यं, यत: कल्याणभागिन एव जिनवचनंभावतोभावयन्ति, इतरेषां तद्व्यत्यय:। ध०३अधि। अन्यत: स्थानात् प्रज्ञापकसम्मुखं यदागम्यते तु कर्णशूलकारितेनामृतमपि विषायते, यदि चेदं जिनवचनं तदागमनम्। बृ.१ उ.३ प्रक०। व्यक। उत्पत्तौ / वाचा प्राप्तौ, वाचः। नाभविष्यत्तदा धर्माऽधर्मव्यवस्थाशून्ये भवान्धकारे भुवनमपतिष्यत्, यथा च-"हरीतर्की भक्षयेद्विरेककामः" इति वचनाद्धरीतकीभक्ष आगमणगहियविणिच्छय- त्रि. (आगमनगृहीतविनिश्चय) आगमने णप्रभवविरेकलक्षणेन प्रत्ययेन सकलस्याप्यायुर्वेदस्य प्रामाण्य गृहीत:- कृतो विनिश्चयो- निर्णयो येन स तथा। आगमनाय कृतनिश्चये, भ.९श. 33 उ० मवसीयते, तथाऽष्टाङ्गनिमित्तकेवलिकाचन्द्रार्कग्रहचारधातुवादरसर-- सायनादिभिरप्यागमोपदिष्टै दृष्टार्थवाक्यानां प्रामाण्यनिश्चयेना आगमणगिह- न. (आगमनगृह)। पथिकादीनामागमनेनोपेतं, ऽदृष्टार्थानामपि वाक्यानां प्रामाण्यं मन्दधीभिर्निश्चेतव्यम्। ध, 2 अधि। तदर्थं वा गृहमागमनगृहम्। 602 उठा सभाप्रपादौ, सूत्रः।"आगमणगिहंसि (जिनागमलेखनफलम् 'पोत्थग' शब्दे पञ्चमभागे दर्शयिष्यते) वा" (सूत्र-१९१४) स्था० 3 ठा० 4 उ.। आगमनगृहमागन्तुकागारं यत्र कार्पटिकादय आगत्य वसन्तीतिी पञ्चा० 18 विव! (जिनागमलिखितपुस्तकानां दानफलम् 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे वर्णयिष्यते) "आगमं आयरंतेणं, अत्तणो हियकंखिणो। तित्थनाहो (आगमनगृहं व्याचष्टे)सयंबुद्धो सव्वे ते बहुमन्निया |शा" अष्ट. 24 अष्ट। "आगम चक्खू आगंतुऽगारत्थजणो जहिं तु, साहू" अष्ट. 24 अष्टा संठाइ जं वाऽऽगमणमि तेसिं। आगम्यते परिच्छिद्यतेऽर्थोऽनेनेत्यागमः। के वलमन:पर्याया तं आगमोकं तु विदू वयंति, वधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपे व्यवहारभेदे, स्था०५ ठा०२ समा-पवा-देउलमाइयं वा / / 193|| ऊा व्यवहारताचास्यव्यवहारहेतुत्वाद्। पञ्चा० 16 विव० तन्निबन्धनत्वात् आगन्तुक:-पथिक:'अगारस्थजनो' यत्र-आगत्य संतिष्ठते यच तेषां ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहार: स्था.५ ठा. 2 उ.। (विस्तरत पथिकादीनाम् आगमने वर्तते तदागमौक:- आगमनगृहं विद्वांसः-श्रुतधरा आगमव्यवहारस्य वक्तव्यता 'आगमववहार' शब्दोऽस्मिन्नेव भागे वदन्ति, तच सभा वा, प्रपा वा, देवकुलादिकं वा मन्तव्यम्। बृ०२ उ.। आगमिष्यति)। प्राप्तौ, दश०१ अ। (लाभे,) स्था०२ ठा०४ उ.। स्था.। (अत्रच निवसि दोषा'वसहि' शब्दे षष्ठभागे वर्णयिष्यते।) (25) आगमस्याऽर्थान्तराणि आगमणपह- पुं० (आगमनपथ) आगमनमार्गे, नि. चू। आगमआतो त्ति आगमो त्तिय,लाभो त्तिय होंति एगट्ठा।।९।। णपहंसिजणं पहेण पक्खियादिसु आगच्छति तंमि पहे। नि.चू 4 उ० / आय इति, आगम इति च, लाभ इति च, भवन्त्येकार्थिकाः। उत्त पाइं | (निर्ग्रन्थीनामागमनपथे दण्डादिस्थापने दोषा 'उवहि' शब्देऽस्मिन्नेव 1 अ।"आगमं" लाभम्। लाभे, बृ.३ऊ। पुरुषद्वासप्ततिकलान्तर्गते भागे दर्शयिष्यते) कलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। आगच्छति-प्रकृतिप्रत्ययावनुपहृत्य आगमणागमणपविभत्ति- न. (आगमनागमनप्रविभक्ति) नाट्यउत्पद्यते कर्तरि संज्ञायां ध: / व्याकरणोक्ते प्रकृतिप्रत्ययानुपधातकेअट् विधिविशेषे, रा.। "आगमणागमणपविभत्तिणामं दिव्यं णट्टविहिं इद इत्यादौ शब्दे, आगमादेशयोर्मध्ये बलीयानागमो विधिः" उवंदसेति' (सूत्र-४) राo! चन्द्रागमनप्रविभक्तियुक्तमागमनव्याकरणान्तर-परिभाषा"यदागमास्तद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते' प्रविभक्तिनाम सप्तमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति / रा०। "आगमशास्त्रमनित्यम्" इति च परिभाo! "आगमा: आधुदात्ता:" | आगमणीइ- स्त्री. (आगमनीति) आगमन्याये, पशा. "आगमा अविद्यमानवद्भवन्तीति", च। का वा। वाच।। "एसा पवयणणीई'' (सूत्र-१४) एषा- अनन्तरोक्ता प्रव Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमणी 91 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमवयणपरिणइ - चननीति:-आगमन्यायो वर्त्तते / पञ्चा०९ विक। सिद्धान्तभणिताऽऽचारे, "मग्गो आगमणीई" (co+)| आगमनीति:- सिद्धान्तभणिताचारः / ध, 03 अधि.१ लक्ष / ध। (तस्य मार्गत्वम् 'मग्ग' शब्दे६ षष्ठे भागे प्रतिपादयिष्यते) आगमतंत-त्रि (आगमतन्त्र) आगमपरतन्त्रे, आगमानुसारिणि, षो०। आगमतन्त्र: सततं, तनद्वक्त्यादिलिङ्गसंसिद्धः। चेष्टायां तत्स्मृतिमान्, शस्त: खल्वाशयविशिष्टः / / 13|| आगमतन्त्रः- आगमपरतन्त्रः; आगमानुसारी। षो०७ विक। (अत्र विशेषव्याख्या'चेइय' शब्देतृतीयभागे 1269 पृष्ठे दर्शयिष्यते) आगमतत्त- न. (आगमतत्त्व) आगमपरमार्थे, षो। आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षत सर्वयत्नेन / / 2 / / आगमतत्त्वं तु- आगमपरमार्थमिदं पर्यवरूपं बुधो- विशिष्टविवेकसंपन्न: परीक्षते-समीचीनमवलोकयति सर्वयत्नेन- सर्वादरेण धाऽधर्मव्यवस्थाया आगमनिबन्धनत्वात् यत उक्तम् "धर्माऽधर्मव्यवस्थायां, शास्त्रमेव नियामकम्। तदुक्ता-सेवनाद्धर्मस्त्वधर्मस्तद्विपर्यात्।।" षो. विव। (अत्रार्थे 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2694 पृष्ठे विशेषो दर्शयिष्यते) आगमदिद्वि- स्त्री. (आगमदृष्टि) आगम:- आप्तवचनं स एव दृष्टिर्हिताऽहितपदार्थप्रकाशकत्वादागमदृष्टिः। आप्तवचना- त्मिकायां दृष्टी, दर्श. 3 तत्त्व। आगमदिद्विदिट्ठसुन्नायमग्ग-पुं. (आगमदृष्टिदृष्टसुज्ञातमार्ग) आगम:आप्तवचनं स एव दृष्टिर्हिताऽहितप्रकाशकत्वात् आगमदृष्टिस्तया दृष्टम्- | अवलोकितमागमदृष्टिदृष्टं तेन शोभन-प्रकारेण ज्ञातो मार्गो ज्ञानादिको यैस्त आगमदृष्टिदृष्टसुज्ञात-मार्गाः। आगमदृष्टया सम्यगवलोकितदर्शनादिके दर्श०३ तत्त्व आगमपरतंत-त्रि. (आगमपरतन्त्र) सिद्धान्तपरतन्त्रे, पं००। एत्थ वि मूलं गेअं, एगतेणेव भव्वसत्तेहिं। सिद्धाइभावओ खलु, आगमपरतंतया णवरं / / 1706|| अत्रापि-आराधनायत्ने मूलं-कारणं ज्ञेयमेकान्तेनैव भव्य- सत्त्वैभव्यप्राणिभिः, किमित्यत्राहश्रद्धादिभावत: खलुश्रद्धादि- भावादेव कारणादागमपरतन्त्रता-सिद्धान्तपारतन्त्र्यं नवरं, नान्यन्मूलमिति गाथार्थ: / पं.०५ द्वार। आगमपह- पुं (आगमपथ) लाभमार्गे, स्था.२ ठा० 4 उ.। आगमबलिय- पुं. (आगमबलिक) आगमज्ञानविशेषवति केवल्यादिके भ.। "आगमबलिया समणा णिग्गंथा" (सूत्र-३४०+) आगमबलिका उक्तज्ञानविशेषबलवन्त: श्रमणानिन्था: केवलिप्रभृतयः / भ०८ श०८ उ०। आगममलारहियय- पुं० (आगममलारहृदय) आगमार्थप्रतिपत्त्यसमर्थहृदये, (आगमार्थकुण्ठितबुद्धौ) सम्म। समयपरमत्थवित्थर-विहाडजणपज्जुवासणसयहो। आगममलारहियओ, जह होति तमत्थमन्नेसु ॥शा सम्म.१ काण्ड। अत्र च- 'आगममलारहृदय इत्यनुवादेन समयपरमार्थाविस्तरहाटजनपर्युपासनसकों यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये' इति-विधिपरा पदघटना कर्तव्याः पदार्थस्तु मलमिवारा- प्राजनकविभागो यस्यासौ मलारोगौर्गली आगमे तद्वत्कुण्ठं हृदयं यस्य तदर्थप्रतिपत्त्यसामर्थ्यांदसौ तथा मन्दधी:, सम्यग् ईयन्ते- परिच्छिद्यन्तेऽनेनार्था इति समय:आगमस्तस्य परम:- अकल्पितश्चासावर्थ: समयपरमार्थस्तस्य विस्तरोरचनाविशेष: शब्दार्थयोश्च भेदेऽपि पारमार्थिकसंबन्धप्रतिपादनायाऽभेदविवक्षया 'प्रथने वावशब्दे (पाणि / 33 / 33 / ) इति घञ् न कृत: तस्य विहाट इतिदीप्यमानान् श्रोतृबुद्धौ प्रकाशमानानान् दीपयतिप्रकाशयति विहाटश्चासौ जनश्चचतुर्दशपूर्व-विदादिलोकः। तस्य पर्युपासनं-'कारणे कार्योपचारात्' सेवाजनिततद्व्याख्यानम्। तत्र सह कर्णाभ्यां वर्तत इति सकर्ण: तद्वयाख्यातार्थावधारणसमर्थः। यथा इतियेन प्रकारेण भवति तं तथाभूतमर्थम् उन्नेष्ये-लेशत: प्रतिपादयिष्ये। यथाभूतेनार्थेन प्रतिपादितेनातिकुण्ठधीरपि श्रोतृजनो विशिष्टागमव्याख्या-तृप्रतिपादितार्थावधारणपटुः संपद्यते / तमर्थमनेन प्रकरणेन प्रतिपादयिष्यामीति यावत्। सम्म० 1 काण्ड। आगममाण-त्रि. (आगमयत्) आपादयति, "लाघवियं आगम-माणे" (सूत्र-२१३+)। लाघविकमात्मानमागमयन्आपादयन्। आचा० 1 श्रु०८ अ०४ उता आगमयति, (अवबुध्यमाने)"लाघवं आगममाणा'' (1854) / आगमयन्-अवगमयन् अवबुध्यमानः / आचा.१ श्रु०६ अ०३ उ०। आगमलोयणीइ- स्त्री. (आगमलोकनीति) जिनप्रवचनन्यायलौकिन्याययोः, षो। जिणबिंबपइट्टाए, विहिमागमलोयणीतीएशा जिनबिम्बप्रतिष्ठाया; प्रतीताय विधि-विधानमागमलोक-नीत्याजिनप्रवचनन्यायेन; लौकिकन्यायेन चेत्यर्थः / लोक- ग्रहणेन चेदं दर्शयति- लोकनीतरपि क्वचिज्जिनमत-विरुद्धाश्रयणीया अत एव प्रासादादिलक्षण तदुक्तमप्याश्रीयत इति गाथार्थः / पञ्चा० 8 विव०। आगमवयणा-ना. (आगमवचन) आर्षवचने, षो। सर्वज्ञवचनमागम- वचनं यत् परिणते ततस्तस्मिन्। नासुलभमिदं सर्व, झुभयमलपरिक्षयात् पुंसाम् ॥१क्षा सर्वज्ञवचनम्- आगमवचनं यद्-यस्मात् परिणाते ततस्तस्मिन्आगमवचने नासुलभमिदं-न दुर्लभमिदं किंतु सुलभमेव भवति सर्व हिपूर्वोक्त मुभयमलपरिक्षयात् क्रि यामलभावमलपरिक्षयात् पुंसां पुरुषाणाम् / षो०५ विव। आगमवयणपरिणइ- स्त्री. (आगमवचनपरिणति) आगमवच- नस्य विषयविभागेन चेतसि व्यवस्थितौ, षो. किमित्यागमवचनपरिणाम: प्रशस्यत इत्याहआगमवचनपरिणति-भवरोगसदौषधं यदनपायम्। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमवयणपरिणइ 92 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमववहार तदिह पर: सदोध:, सदनुष्ठानस्य हेतुरिति||९|| व्यवहारं व्यवहरन्ति उक्तः प्रत्यक्षः / आगमवचनपरिणतिर्यथावत् तत्प्रकाशरूपा भवरोगसदौषधं - __ संप्रति परोक्षमाहभवरोगस्य-संसारामयस्य सदौषधं तदुच्छेदकारित्वेन यद्- यस्मात, पचक्खागमसरिसो, होति परोक्खोऽवि आगमो जस्स। अनपायम् - अपायरहितं-निर्दोषं वर्तते तदिह पर: सद्रोधस्तच्च चंदमुही विव सो विहु, आगाँ ववहारवं होइ / / 207 / / भवरोगसदौषधम्-आगमवचनपरिणत्याख्यं, पर:प्रधान: सद्बोधः यद्यपि पूर्वादिकं श्रुतं तथापि यस्याऽऽगमश्चतुर्दशपूर्वादिक: परोक्षोऽपि सम्यग्ज्ञानं वर्तते सदनुष्ठानस्य- सुन्दरानुष्ठानस्य हेतु:- कारणमिति प्रत्यक्षाऽऽगमसदृश:। प्रत्यक्षावध्यादितुल्यरूपो भवति सोऽप्यागमव्यकृत्वा! षो०५ विव०। वहारवान् वक्तव्यो भवति। यथा चन्द्रसदृशमुखी कन्या चन्द्रमुखीति, आगमववहार- पुं. (आगमव्यवहार) आ-मर्यादाऽ-भिविधिभ्यां एतदुक्तं भवति-यद्यपि पूर्वाणि श्रुतं नाऽऽगमतुल्यानीति (तदपि) गम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था येनासावागमः केवलमन:पर्यायाव- तैर्व्यवहरन् आगम-व्यवहारवानुच्यते इति / व्य० 10 उ०। (आगमस्य धिचतुर्दशदशनवपूर्वलक्षण व्यवहारभेदे, पञ्चा० / व्यवहारता चास्य व्याख्यानम् 'आगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे प्राग् गतम्) व्यवहारहेतुत्वाद् / पञ्चा० 16 विव०। स्था०। ध०। (एतेषां च आगमभेदा:यथा आगमत्वं तथा 'आगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुयधरा ववहरंति। आगमव्यवहारभेदा: चोद्दस दस पुष्वधरा, नवपुध्विय गंधहत्थी य / / 209|| आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपश्नत्तो। ये श्रुतधराश्चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूर्विणो वा गन्ध-हस्तिनोपचक्खो य परोक्खो,सोऽविय दुविहो मुणेयव्वो // 202|| गन्धहस्तिसमाना: ते आगमत: परोक्षं व्यवहारं व्यवहरन्ति। तत्र-आगमतो व्यवहारो यथा धीरुपुरुषैः प्रज्ञप्तस्तथा शृणुत, स अत्राक्षेपपरिहारावभिधित्सुराहआगमतो व्यवहारो द्विविधो ज्ञातव्य:, तद्यथाप्रत्यक्ष:, परोक्षश्च। किह आगमववहारी, जम्हा जीवाऽऽदयो पयत्था उ। पचक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो। उवलद्धा तेहिंतु, सय्वेहिं नयविगप्पेहि / / 210 / / इंदियपचक्खो विय, पंचसु विसएसु नेयव्यो / / 202|| कथं-केन प्रकारेण साक्षात् श्रुतेन व्यवहरन्त: आगमव्यवहा- रिण: प्रत्यक्षोऽपि द्विविधः, तद्यथा-इन्द्रियजो, नोइन्द्रियजश्च / तत्र इन्द्रियज: प्रोच्यन्ते, सूरिराह-यस्मात् जीवादयः पदार्थास्तैः चतुर्दशप्रत्यक्ष: पञ्चसु रूपादिषु विषयेषु ज्ञातव्यः / पूर्वधरादिभिः सर्वैः-नयविकल्पैः- नैगमादिनयभेदैरुपलब्धाः। नोइंदियपचक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो। एतदेव सविशेषमाहओहिमणपज्जवेया, केवलनाणे य पञ्चक्खे // 203 / / जह केवली वि जाणइ, दवं खेत्तं च कालभावं वा। यस्तु-नोइन्द्रियज: प्रत्यक्षो व्यवहार: स समासतस्त्रिविधः, तद्यथा- तह चउलक्खणमेवं, सुयनाणी चेव जाणाति / / 21 / / अवधिप्रत्यक्षं, मन:पर्यवप्रत्यक्ष, केवलज्ञानप्रत्यक्षम्। यथा केवली केवलज्ञानेन सर्वं द्रव्यं सर्व क्षेत्रं सर्वे कालं सर्व भावं च तत्राऽवधिप्रत्यक्षमाह सर्वात्मना स्वपरपर्यायभेदभिन्नं जानाति। एवं श्रुतज्ञान्यपि चतुर्लक्षणं ओही गुणपञ्चइए, जे वटुंती सुयंगवी धीरा। द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपं श्रुतबलेन जानाति। ओहिविसयनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे।।२०४|| तत एतेऽप्यागमव्यवहारिण उच्यन्ते, एतदेवं प्रस्तुतं प्रायश्चित्तअवधिधिा-भवप्रत्ययजो, गुणप्रत्ययजश्चा तत्र संयतानां गुणप्रत्ययज शुद्ध्यधिकारमधिकृत्य योजयतिएव; न भवप्रत्ययजः, तत आह-अवधौगुण- प्रत्यये येवर्तन्ते श्रुताङ्गविदो पणगं मासविवड्डी, मासगहाणी य पणगहाणीय। धीरास्तान् अवधिविषयज्ञानस्थान् जानीत व्यवहारशोधिकरान् एगाऽहे पंचाऽहं, पंचाहे चेव एगाऽहं ॥२१२शा शुद्धव्यवहारकारिणः। रागद्दोसविडि, हाणिं वा नाउंति पचक्खी। उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा। चोहसपुटवादी विहु, तह नाउंति हीणऽहियं / / 213 / / मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहरसोहिकरे / / 205 / / यथा प्रत्यक्षिण:प्रत्यक्षागमज्ञानिनस्तुल्येऽप्यपराधे पञ्चक-पञ्चकयोग्ये ये ऋजुमतौ विपुलमतौ वा मन:पर्यवज्ञाने श्रुताङ्गविदो धीरा वर्तन्ते एकस्य पञ्चकं ददति। अपरस्यरागद्वेषविवृद्धिमुपलभ्य मासेन मासाभ्या तान् मन:पर्यवज्ञानस्थान् जानीत व्यवहारशोधिकरान् मासैर्वा वृद्धिं प्रयच्छन्ति। उपलक्षणमेतत्-मूलम् अनवस्थाप्यं पाराञ्चितं शुद्धव्यवहारकारिण:। वा प्रयच्छन्ति। तथा तुल्येऽपि पाराश्चित-योग्याऽपराधे एकस्य आदिगरा धम्माणं, चरित्तवरनाणदसणसमरगा। पाराञ्चितम,अपरस्य अनवस्थाप्यं मूलंछेदमासेन मासाभ्यां मासैर्वा हान्या सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा / / 206 / / तपोवा चशब्दात्पञ्चकंयावदन्तेनमस्कारसहितंहा दुष्ठकृतं, हा दुटुकारितं, ये धर्मयो:- श्रुतधर्मस्य चारित्रधर्मस्य चादिकरा:- तत्प्रथम- तया | हादुष्ठ अनु-मोदितमित्येवं वैराग्यभावनातोरागद्वेषहानि भूयसीमअतिभूयप्रवर्तनशीलाश्चारित्रवरज्ञानदर्शनसमग्रास्ते जिना: सर्वत्र-गज्ञानेन | स्तरामुपलभ्य प्रयच्छन्ति,तथा कस्यचित् मासिकप्रतिसेवना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमववहार 93 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमववहार यामल्पां राग-द्वेषहानिमुपलभ्य पञ्चकहान्या मासिकं ददति; पञ्चविंशति दिनानि ददतीत्यर्थः। तथा एकाहं नाम- अभक्तार्थ प्रतिसेविते पञ्चाई ददति; पञ्चाहे वा प्रतिसेविते एकाहम्; उपलक्षणत्वाद्दाचाम्लम् एकाशनं पूर्वार्द्ध निर्विकृतं पौरुषीं नमस्कारसहितां वा प्रयच्छन्तिा एवं चतुर्दशपूर्वा दयोऽपि 'हु' निश्चितं रागद्वेषहानिवृद्धी उपलभ्य हीनमधिकं वा प्रायश्चित्तं ददति। अत्र परस्य प्रश्रमुदीरयतिचोयगपुच्छा पञ्च-क्खनाणिणो थोवं कह बहुं देंति। दिलुतो वाणियए, जिणचोदसपुट्विए धमए / / 214|| चोदकस्यात्र पृच्छा-प्रत्यक्षज्ञानिनो जिनादय: स्तोकेअपराधे कथं बहु प्रयच्छन्ति प्रायश्चित्तम् उपलक्षणमेतत् भूयसि वा अपराधे स्तोकम् ? अत्र सूरिराह- दृष्टान्तोऽत्र वणिजा द्रष्टव्य:, तथा भूय: परस्य पृच्छा ?जिनादयः केवलज्ञानादिवलेन परस्यभावंजानते चतुर्दशपूर्विणस्तुकथं येन स्तोकेऽपि बहु बलपि-स्तोकं ददतिा सूरिराह-अत्रधमको दृष्टान्तः / तत्र प्रथमतो वणिग्दृष्टान्तं भावयतिजंजह मोल्लं रयणं, तं जाणइ रयणवाणितो निउणो। थोवं तु महल्लस्य वि, कासइ अप्पस्स वि बहुं तु ||25|| यथा निपुणो रत्नवणिक् यत् रत्नं यथामूल्यं तत्तथा सम्मक् जानाति, ज्ञात्वा च कस्यचित् महतोऽपि रत्नस्य स्तोकं मूल्यं ददांति, कस्यचिदल्पस्याऽप्यद्भुतगुणोपेतस्य बहु। इमामेव तदृष्टान्तभावनां प्रकारान्तरेणाहअहवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स वि उ कागणी मोल्लं। वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं // 216 अथवेति- प्रकारान्तरे रत्नपरीक्षको वणिक् काचमणे: सुमहतोऽपि मूल्यम् काकिनी करोति, वज्रस्य तु-रत्नस्याल्प- स्यापि मूल्यं तेन क्रियमाणं शतसहस्रं भवति। अत्रोपनयमाहइय मासाण बहूण वि, रागद्दोसप्पयाएँ थोवं तु। रागद्दोसोवचया, पणगे वि उ तो बहुं देंति / / 217 / / इति'-अमुना दृष्टान्तप्रकारेण बहूनामपि-मासानां योग्ये अपराधे वैराग्यभावनाछलतो रागद्वेषाल्पतया स्तोकं प्रायश्चित्तं ददति। सिंहव्यापादकस्येव रागद्वेषोपचयात् पञ्चके ऽप्यपराधे बहु प्रायश्चित्तं पदति। अधुना "जिनचोद्दसपुविए धमए'' (214) इत्यस्य व्याख्यानमाहपञ्चक्खी पचक्खं, पासइ पडिसेवगस्स सो भावं। किह जाणइ पारोक्खी, नायमिणं तत्थ धमएणं / / 21 / / प्रत्यक्षी-जिनादि: प्रत्यक्ष प्रतिसेवकस्य भावं जानाति, परोक्षीचतुर्दशपूर्वादिः कथं जानाति येन सोऽपि तथैव व्यवहरति, सूरिराह-तत्र तस्मिन्विषये ज्ञातम्-उदाहरणमिदंवक्ष्यमाणं धमकेन-शङ्खध्मात्रा। तदेवदर्शयति नालीधमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खं / जह सो कालं जाणइ, सुएण सोहिं तहा सोउं ||21|| जिना:-तीर्थकृत: परोक्षे आगमे उपसंहारं नालीधमकेन- कुर्वन्ति, इयमत्र भावना-नाडिकायां गलन्त्यामुदकगलन- परिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलितयामो दिवसस्य रात्रेर्वा गत इति ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय शङ्ख धमति तत्र यथा सोऽन्यो जन: शङ्कस्य शब्देन श्रुतेन कालं यामलक्षणं जानाति, तथा परोक्षागमज्ञानिनोऽपि शोधिम्आलोचनां श्रुत्वा तस्य यथाऽवस्थितं भावं जानन्ति; ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददति / व्य०१० उ०। आगमतो ववहारं, परसोया संकियंमि उचरित्ते। आलोइयंमि आरा-हणा अणालोइए भयणा / / 22 / / आगमत: प्रत्यक्षज्ञानी वा परे-परस्मिन व्यवहारं करोतिा परस्यालोचनां श्रुत्वा नान्यथा तत्र यदि कलुषितचारित्रतया नसम्यगालोचयति, किंतु आलोचनामर्यादामतिक्रम्य वर्तत तदा शङ्कितमिति वा भिन्नमिति वा कलुषितमिति वा एकार्थ, चारित्रे सतिन सम्यगनेनालोचितमिति ज्ञात्वा तं ब्रूते- अन्यत्र गत्वा शोधिं कुरु, यदि पुन: सम्यगालोचयति तदा ददाति प्रायश्चित्तम्। अथ यदि प्रत्यक्षागमज्ञानिन: परोक्षाऽऽज्ञानिनोवा सर्वभावविषयपरिज्ञानात् ततः कस्मात्तस्य पुरत आलोच्यते। किंतुतस्य समीपमुपगम्य वक्तव्यम्- अपराधं से भवन्तो जानते तस्य शोधिं प्रयच्छत, तत आह-'आलोई त्यादि, आलोचिते बहुगुणसंभवत: सम्यगाराधना भवति, अनालोचिते आराधनाया भजना-विकल्पना कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति एतच्चाग्र भावयिष्यते। तत्र"आगमतो ववहारं, परसोचा" (222) इति व्याख्यानयतिआगमववहारी छ-विहो वि आलोयणं निसामेत्ता। देति ततो पच्छित्तं, पडिवज्जइ सारिओ जइय // 223|| आगमव्यवहारी षड्विधोऽपि परस्यालोचनां निशम्य तत: प्रायश्चित्तं ददाति, यदिच-कमप्यपराधं विस्मृतं स्मारित: सन् सम्यक् प्रतिपद्यते तदा स्मारयति चा अन्यथा तस्याऽऽलोचनामेव न ददाति। सांप्रतमुत्तरार्द्ध (222) व्याख्यानयतिआलोइय पडिक्कंत-स्स होइ आराहणा सुनियमेणं / अणालोइयंमि भयणा, किह पुण भयणा हवइ तस्स / / 224|| पूर्वमपराधजातमालोचितं ततस्तस्मात्प्रतिक्रान्तस्य अपुन: कारणतया प्रतिनिवृत्तस्य नियमेन पर्यन्ते सम्यगाराधना भवति / अनालोचिते पुनर्भजना / आहकथं पुनरनालोचिते तस्याराधनाविषये भजना भवति। अत्राऽऽह-- कालं कुवेज्ज सयं, अमुहो वा हुज्ज अहव आयरियो। अप्पत्ते पत्ते वा, आराहणों तह वि भयणेवं / / 22 / / कोऽपि आलोचनां ग्रहीष्यामीत्यालोचनापरिणामपरिणत आलोचनाग्रहणाय संप्रस्थित आलोचनाह समीपं, सच तमप्राप्त एवापान्तराले स्वयं कालं कु यात्, यदि वा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमववहार 94 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमववहार प्राप्तोऽपि रोगवशादमुखो जातः / अथवा-तस्याप्राप्तवत एव स आलोचनार्ह आचार्यः कालगतः, यदि वा- प्राप्तवतोऽष्यमुखो जात: ततः स एवमालोचनापरिणत: आलोचनाया: असंभवेऽपि कालं कुर्वन्नाराधकः, यदि पुनर्न सम्यगालोचनापरिणामपरिणतस्तदा सोऽनाराधकः, स च तथाकालगतो दीर्घसंसारी भवति / एवमाराधना आलोचना हि प्राप्ते अप्राप्ते वा भजनया भवति। संप्रत्यागमव्यवहारिणामपि पुरत आलोच नायां गुणानुपदर्शयतिअवराह बियाणंति, तस्स सोहिं च जद्दवि। तहावि आलोयणावुत्ता, आलोयंते बहू गुणा / / 226 / / यद्यप्यागमव्यवहारिणस्तथाप्यालोचकस्यापराधं विजानन्ति शोधिं च तथाऽपि तेषामपि पुरत आलोचमा दातव्या उक्ता तीर्थकरगणधरैर्यत आलोचयति (सति) बहवो गुणास्तथा ह्यालोचनाऽऽचार्येण स आलोचक: प्रोत्साह्यते यथा वत्स! त्वं धन्यस्त्वं सभाग्यः। यदेवं मानं निहत्याऽऽत्महितार्थतया स्वर- हस्यानि प्रकटयसि महादुष्करमेतत्, एवं स प्रोत्साहित: सन् प्रवर्द्धमानपरिणाम: सम्यग् निःशल्यो भूत्वा यथावस्थितमालो- चयति। शोधिं च सम्यक् प्रतिपद्यते / तत: पर्यन्ते आराधना स्तोककालेन च मोक्षगमनमिति। अथ च कथभागामनो व्यवहारं प्रयुञ्जते, तत आहदव्वेहि पज्जवेहि य, कम-खेत्त-काल-भावपरिसुद्धं / आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं पउंजति / / 227 / / द्रव्यैः सचित्तादिभिः, पर्याय:- तेषामेव सचित्तादिद्रव्याणामेव स्थानविशेषैः- परिणामविशेषैः, तथा क्रमत:, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च परिशुद्धामालोचनां श्रुत्वा ततस्तदनन्तरं व्यवहारशोधिव्यवहारं प्रयुञ्जते, नान्यथा, तत्र यदि सचित्तं सेवित्वा सचित्तमे वालोचयति तदा द्रव्यशुद्धा सा आलोचना, यदा तु सचित्तं प्रतिसेव्य अचित्तमालोचयति तदा द्रव्याऽशुद्धा / तथा यामवस्थामुपगतं सचित्तं प्रतिसेव्यतामेवावस्थागतं तदालोचयति तदा सा आलोचना पर्यायशुद्धा; यदा त्वन्यामवस्थामुपगतं प्रतिसेव्यान्यामवस्थामालोचयति तदा पर्यायाऽशुद्धा। तथा यदि प्रतिसेवनानुलोममालोचयति तदासा क्रमशुद्धा, उत्क्रमेणाऽऽ-लोचयत: क्रमाऽशुद्धा तथा यद्यत्र जनपदे अध्वनि वा प्रतिसेवितं तत्तथैवालोचयत: क्षेत्रशुद्धा आलोचना, जनपदे प्रतिसेवितमध्वनि कथयत: क्षेत्राऽशुद्धा। यथा यत् यदा दुर्भिक्षे सुभिक्षे वा दिवा रात्री वा प्रतिसे वितं तत्तदाऽऽलोचयत: कालशुद्धा, सुभिक्षे प्रतिसेव्य दुर्भिक्षे कथयतो रात्रौ वा प्रतितिसेव्य दिवसे कथयत: काला-ऽशुद्धा, तथा-येन अनाभोगादिना सेवितं तं भावं कथयतो भाव-शुद्धा, उपेत्य प्रतिसेव्याऽनाभोगादिना कथयतो भावाऽशुद्धा। संप्रति भावमेवोपदर्शयतिसहसा अन्नाणेण व, भीएण व पेल्लिएण व परेण / वसणेण पमादेण व, मूढेण व रागदोसेहिं / / 22 / / तेन-प्रतिसेयकेन सहसा अज्ञानेन वा परेण वा प्रेरितेन वा व्य-सनेन / वाधूतादिना प्रमादेन वा मूढेन वा रागद्वेषाभ्यां वा प्रतिसेव्य यदि तथैवाऽऽलोच्यते प्रायश्चित्ताय मे ददाति नान्यथेति वाक्यशेषः / संप्रति "सहसे" (228) त्यस्य व्याख्यानमाहपुटवं अपासिऊणं, (उ) च्छूढे पायमिजं पुणो पासे। नयतरह नियत्तेउं, पायं सहसाकरणमेयं / / 229 / / पूर्वम्-अग्रतनप्रदेशे कुलिङ्गिनमदृष्ट्वा उत्क्षिप्ते-उत्पादिते पादेयत्पुन: पश्यति कुलिङ्गिनं समापतितं न पादं निवर्तयितुं शक्नोति। तत एवं यस्तस्य व्यापादनमेतत्सहसाकरणम्। सांप्रतमज्ञानमाहअन्नयरपमाएणं, असंपउत्तस्स नोवउत्तस्य। इरियाइसुं भूयत्थे, अवट्टतो एयमण्णाणं / / 230 / / पश्चानां प्रमादानाम् अन्यतरेणाऽपि प्रमादेनाऽसं प्रयुक्तस्याऽऽक्रोडीकृत: स्यात्, एवम् ईर्यादिषु समतिषु भूतार्थन तत्त्वतो वर्तमानस्य यद्भवनम् एतदज्ञानम्॥ अधुना "भीएण व पेल्लिएण व परण' (2284) इत्यस्य व्याख्यानमाहभीतो पलायमाणो, अभियोगमएण वाऽवि जं कुज्जा। पडितो वाऽपडितो वा, पेल्लिज्जउपेल्लिओ पाणे / / 23 / अभियोगभयेन भीत: पलायमानो यत् कुर्यात्प्राणव्यपरोपणादि तत् भीतेनेति द्रष्टव्यं, तथा परेण प्रेरित: सन्पतितोऽपतितो वा प्राणान् द्वीन्द्रियाऽऽदीन् एकेन्द्रियादीन् वा प्रेरयेत। संप्रति व्यसनाऽऽदिपदानि व्याचष्टेजूयादि होइ वसणं, पंचविहो खलु भावपमादो उ। मिच्छत्तभावणा उ, मोहो तहरागदोसाय // 232 / / द्यूताऽऽदि भवति व्यसनं प्रमाद: खलु मद्यादिभेदाद्भवति पञ्चविध: मिथ्यात्वभावना मोह: रागद्वेषा: सुप्रतीताः / एएसिं ठाणाणं, अन्नयरे कारणे समुप्पन्ने / तो आगमवीमंसं, करेंति अत्ता तदुभयेणं / / 233|| एतेषामन्तरोदितानां सहसा प्रभृतीनां स्थानानामन्यतरस्मिन्कारणे समुत्पन्नं सति आलोचनायां प्रदत्तायामागमविमर्शमाप्ता उभयेन सूत्रार्थलक्षणेन कुर्वन्ति। यथाऽयं सहोऽयमसह: अयमेतावताशोत्स्यति अयं नेति। अथवा-किमनेन सम्य-गालोचितं, किंवा नेति। सांप्रतमागमविमर्शमेव व्याख्यानयतिजइ आगमो य आलो-यणा द दोणि वि समं तु निवयंति। एसा खलु वीमंसा, जो व सहो जेण वा सुज्जे // 234 / / यद्यागमश्चालोचना च एते द्वे अपि समकं- परस्परमविसंवादि- तया निपततो यथैव तस्याऽऽवमस्तथैवेतरस्याऽऽलोचना। यथैव तस्याऽऽलोचना तथैवागमिन आगमः। एष खलु आगमविमर्श उच्यते, अस्मिन् सति शोधिंददति नाऽन्यथा, यदिवा-यः सहोऽसहोवा येन वा य: शुद्ध्यति। एतत् परिभावनमागमविमर्श:। व्य. 10 उ०। ("नाणमादीणि अत्ताणि' (235) गाथा 'अत्त' शब्दे 1 प्रथमभागे गता तत्रैव व्याख्याता च) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमववहार 95 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमववहारि संप्रति 'उभय' शब्दव्याख्यानार्थमाहसुत्तं अत्थो उभयं, आलोयण आगमो वयति उभयं / जंतदुभयंति वुत्तं, तत्थ इमा होति परिभासा / / 236 / / सूत्रम्, अर्थः इत्युभयं तेनागमविमर्श कुर्वन्ति किमयं सह इत्यादि, अथवा-आलोचनमागमविमर्श विदधति। यथा किं यथावस्थिता:स्याऽऽलोचना, किं वा नेति। तत्र यत्तदुभयमि त्युक्तं तत्र इयं वक्ष्यमाणा परिभाषा भवति। तामेवाहपडिसेवणाइयारे, जइनाउट्ट जहक्कम सवे / न हु देंती पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ||237 / / यदि प्रतिसेवनातिचारान् यथाक्रमं सर्वान् यदि नाकुट्टयतिनाऽऽलोचयति तदा तस्यागमव्यवहारिण: प्रायश्चित्तं न ददति। यदि पुन: प्रतिसेवनातिचारान् यथाक्रमं सर्वान् आकुट्टयति- आलोचयति तदा तस्यागमव्यवहारिणः प्रायश्चित्तं ददति। कहे(हि)सु सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणोऽवि गृहति। नतस्स दिति पच्छित्तं, विंति अन्नत्थ सोहय / / 238 / / यान् सर्वानालोचयन् कथय सर्व मा निगृहय इति य उक्तः सन् जानानोऽपि गृहयति तस्य प्रायश्चित्तमागमव्यवहारिणो न ददति, किंतु ब्रुवते- अन्यस्य समीपे गत्वा शोधय-शोधिं गृहाण। न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य मायया। पचक्खी साहए ते उ, माइणो उन साहए / / 239|| यो दोषान् सद्भावतो न स्मरति न मायया तस्य प्रत्यक्षीप्रत्यक्षागमज्ञानी कथयति। जइ आगमतो आलो-यणा व दोऽवि विसमं निवइयाई। नहुति य पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स / / 240 / / यद्यागम आलोचना च एते द्वे अपि विषमं निपतिते यथा तेनालोचित्तं तथा गमज्ञानी तस्यातीचारं न प्रेक्षते किंत्वन्यादृशम्, ऊनमधिकं वा इत्यर्थः। तदा तस्याऽऽगमव्यवहारिण: प्रायश्चित्तं न ददति। जइ आगमो य आलो-यणा य दोन्नि वि समं निवडियाइं। देति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स / / 24 / / यद्यागम आलोचना च एते द्वे अपि समं निपतिते; यथाऽपराधमालोचनामागमज्ञानी पश्यतीत्यर्थः / ततस्तस्यागम- व्यवहारिणः प्रायश्चित्तं ददति व्य०१० ऊ। आलोचनार्हस्याष्टादश स्थानानि षट्त्रिंशत्स्थानान्युक्त्वा प्रतिपादितम्छत्तीसेयाणि ठाणाणि, भणियाणणुपुटवसो। जो कुसलो एएहि, ववहारी सो समक्खातो।।३२८।। एतानि अनन्तरोदितानि स्थानानिषट्त्रिंशत् आनुपूर्व्याक्रमशः; क्रमेण भणितानि यस्तेषु कुशल: स व्यवहारी-आगमव्यवहारी समाख्यातः / पुनरपि यादृशा आगमव्यवहारिणस्तादृशानाह अहहिं अट्ठारसहिं, दसहि य ठाणेहिं जे अपरोक्खा / आलोयणदोसेहिं, छहियं ठाणे हिंजे अपरोक्खा ||329|| आलोयणठाणेहि, छहियं ठाणेहिं जे अपरोक्खा। पंचहिं नियंठेहिं, पंचहि य चरित्तमंतेहिं अट्ठसु // 330 / / अष्टसु आचारवत्त्वप्रभृतिषु स्थानेषु अष्टादशसु वृतषट्कप्रमुखेषु दशसुचप्रायश्चित्तस्थानेषु ये अपरोक्षा:-प्रत्यक्ष- ज्ञानिन:, तथादशसु आलोचनादोषेषु वा ये अपरोक्षविज्ञाना:- प्रत्यक्षविज्ञानिन:, तथादशस्वालोचनागुणेषु षट्सु चस्थानेषु अनन्तरभाविषु ये अपरोक्षा:साक्षाज्ज्ञानिन:स्तथा पञ्चसु निर्ग्रन्थेषु पुलाकादिषु पञ्चसु चारित्रवत्सुसामायिकादिसंयम- वत्सु ये प्रत्यक्षज्ञानिनस्ते आगमव्यवहारिणः / व्य. 10 ऊा आगमव्यवहारिणश्च यावदार्यरक्षितमेवाऽभूवन्तो जाव अज्जरक्खिय, आगमववहारिणो वियाणित्ता। न भविस्सति दोसो त्ति, तो वायंती उछेदसुयं // 62|| यावदार्यरक्षितास्तावदागमव्यवहारिणोऽभूवन ते चाऽऽगमव्यवहारबलेन विज्ञाय यथा एतस्याश्छदश्रुतवाचनायां दोषो न भविष्यतीति संयतीमपि छेदश्रुतं वाचयन्ति स्मा आरेणागमरहिया, मा विद्याहिंति तो नवाएंति। तेण कहं कुर्वंतु, सोहिं तु अयाणमाणी ती // 63 / / आर्यरक्षितादारत: आगमरहितास्ततस्ते मा छेदश्रुताध्ययनत: संयत्यो विद्रास्यन्ति- विनझ्यन्तीति हेतोश्छेदश्रुतानि संयतीन वाचयन्तीति, अत्राह-तेन छेदश्रुताध्ययनाभावेन कथं ता: संयत्योऽजानाना: शोधि कुर्वन्तु,! अत्राऽऽचार्य आहतो जाव अज्जरक्खिय, सहाणे पगासयंसु वइणीतो। असतीए विवक्खंमि वि, एमेव य हॉति समणाऽवि ||6|| यत: पूर्वमागमव्यवहारिणः स्युश्छेदश्रुतं च संयत्य: अधीयेरन् ततो यावदार्यरक्षिनास्तावद् व्रतिन्य: स्वस्थाने -स्वपक्षे संयतीनां प्रकाशनामकार्युः, स्वपक्षाभावे विपक्षेऽप्यालोचितवत्य: श्रमण्य एवमेव श्रमणा अपि भवन्ति ज्ञातव्याः। किमुक्तं भवति- श्रमणाः, अपि स्वपक्षे आलोचितवन्तः, तदलाभे विपक्षेऽपि; श्रमणीनां पार्थे इत्यर्थः दोषाभावात्, आगमव्यवहारिभिर्हि दोषाभावमवबुध्य छेदश्रुतवाचना संयतीनां दत्ता नान्यथेति। आर्यरक्षितादारत: पुन: श्रमणानामेव समीपे आलोचयन्ति श्रमण्योऽपि: श्रमणा-नामागमव्यवहारच्छेदात्।व्य५ऊ। आगमववहारि(न)पुं.(आगमव्यवहारिन) प्रत्यक्षज्ञानिनि, व्य०। आगम-सुय ववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमववहारि 96 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगमाऽऽभास केवलिमणोहि चोद्दस, दस-नवपुव्वी उनायव्वो / / 135|| बैंति सुयनाणलंभ, तत्राऽऽगमतो व्यवहारी षड्विधः, तद्यथा-केवली-केवलज्ञानी तं पुव्वविसारदा धीरा ||183 / / (सूत्र 58+) 'मणोहि ति-पदैकदेशे पदसमुदायपचारात् मन:पर्याय-ज्ञानी, आ-अभिविधिना सकलश्रुतिविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा अवधिज्ञानी, 'चोद्दसदसनवपुवी ति-पूर्वि-शब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते यथाऽवस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते-परिछिद्यन्ते अर्था: येन स आगमः। चतुर्दशपूर्वी दशपूर्वी नवमपूर्वी च ज्ञातव्या एते चागमव्यवहारिण: नं.।"पुनाम्निघ:"।५।३१३०।। (सिद्धेहे.) इति करणेघ:। आ०म०१ अ. प्रत्यक्षज्ञानिन उच्यन्ते; चतुर्दशादिपूर्वबल- समुत्थस्यापि ज्ञानस्य 21 गाथा टी०। स चैवं व्युत्पत्त्या अवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति प्रत्यक्षतुल्यत्त्वात्। व्य० 1 उ। जी०। (विस्तरत: आगमव्यवहारिण: ततस्तद्व्यवच्छेदार्थं विशेषणान्तरमाह- शास्त्रेति- शिष्यतेऽनेनेति 'आगमक्वहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेवोक्ता:) शास्त्रम् आगमरूपं शास्त्रम् आगमशास्त्रम् आगमग्रहणेन षष्टितन्त्रादिआगमविहि-पु. (आगमविधि) आगमो- गणधरादिविरचित कुशास्त्रव्यवच्छेदः, तेषां यथावस्थितार्थप्रकाशनाभावतोऽनाग- मत्वात् शास्त्रपद्धतिस्तस्य विधिः। आगमन्याये, दर्शक। आगमशास्त्रस्य ग्रहणमागमशास्त्रग्रहणं यद् बुद्धिगुणै- वक्ष्यमाणैः जावज्जीवं आगम- विहिणा चारित्तपालणं पढमो।(९) कारणभूतैरष्टभिर्दृष्ट, तदेव ग्रहणं श्रुतज्ञानस्य लाभंब्रुवते पूर्वेषु विशारदा: तत्र यावज्जीवं- यावत्प्राणधारणं; नतु परपरिकल्पितन्यायेने-त्यर्थः। विपश्चित: धीरा-व्रतपालने स्थिरा:, किमुक्तं भवति-यदेव आगमो-गणधरादिविरचितशास्त्रपद्धतिस्तस्य विधिस्तेनआगमन्या- जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थत: श्रुतज्ञानं; न शेषमिति। येनेत्यर्थः। वयोरिक्तीकरणं चारित्रं तस्य पालनं यत्तत्सकलसमितिगुप्ति- नंगा विशेआ०म०। आ.चू। प्रत्युपेक्षणाद्यनुष्ठानकरणं, तत्किमित्याह- प्रथम:-आद्यस्तस्य / आगमसिद्ध- पं. (आगमसिद्ध) आगमो-द्वादशाङ्गं प्रवचनम् मुख्यवृत्त्यैव समस्तसमीहि-तप्रापकत्वेन प्रधानत्वात्। दर्श०३ तत्त्व।। तत्रासाधारणार्थावगमात् सिद्ध आगमसिद्धः। सिद्धभेदे, ध०२ अधिक। आगमवीमंस- पु. (आगमविमर्श) आगमपरिभावने, व्य. 10 आगमसिद्धो सव्वंड-गपारओ गोयमो व्व गुणरासी। उ०। (आगमविमर्शस्वरूपं विस्तरत: "जइ आगमो०।।२३४।।" इत्यादि आगमसिद्धः सर्वाङ्गपारगो-द्वादशाङ्गवित् अयं च महातिशय- वानेव, व्यवहारदशमोद्देशगाथया आगमववहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपद यत उक्तम्- "संखाता ते वि भवे साहइ," इत्यादि इयं, च गौतम! मेवोक्तम्) अवगुणराशिरवगन्तव्य: अत्र भूयांस: सातिशयवेष्टिता उदाहरणम्। आ. आगमसंपण्ण- पुं० (आगमसम्पन्न) विशिष्टश्रुतधरे, दशा 1 अ। म. 1 अा भावार्थः कथानकदिवसेयः, तच्चेदम्- "तत्थाऽऽगमसिद्धो आगमसज्जोग-पु. (आगमसद्योग) आगमनमागम:- सम्यक् - किर सयंभूरमणे विमच्छादीया। जं चिट्ठति स भयवं उवउत्तो जाण।" परिच्छेदस्तेन सद्योग:-सद्व्यापार: आगमसहितो वा य: सद्योग: आ.म. 1 अ सत्क्रिया। सम्यक् परिच्छेदात्मके सद्व्यापरे, आगमसहितायां आगमसुद्ध- त्रि. (आगमसुद्ध) आगम:- आप्तवचनं तेन शुद्धःसक्रियायाचा षो। तदुक्तार्थानुवादेन निर्दोष आगमशुद्धः। आगमाऽनुवादेन- निर्दोषे, पञ्चा० रागादयो मला: ख-ल्वागमसद्योगतो विगम एषाम् / स्तवविधिमधिकृत्यतदयं क्रियात एव हि, पुष्टिः शुद्धिश्च चित्तस्य ||3|| थवविहिमागमसुद्धं, सपरेसिमणुग्गहट्ठाए।शा षो०३ विका आगम:- स्तवपरिज्ञानादिकमाप्तवचनं तेन शुद्धः- तदुक्तानुवा देन (अस्य व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2669 पृष्ठे वक्ष्यते) निर्दोष आगमाशुद्धस्तं, किमर्थमित्याह- स्वपरयोरात्मतदन्ययोरनुग्रहःआगमसत्थ- न. (आगमशास्त्र) आ-अभिविधिना सकलश्रुति उपकारस्तल्लक्षणे, योऽर्थः- पदार्थ: प्रयोजनं वा सोऽनुग्रहार्थस्तस्मै विषयव्याप्तिरूपेण, मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणारूपया गम्यन्ते अनुग्रहार्थाय, तत्र स्वानुग्रह: प्रावचनिका-नुवादे निर्मलबोधभावात् परिच्छिद्यन्तेऽर्था येन स आगम:। नंता शिष्यते शिक्ष्यते-बोध्यतेऽनेनेति परोपकारद्वारायात-कर्मक्षयाप्तेश्वा परानुग्रहस्तु परेषां निर्मलबोध: शास्त्रम् आगमरूपं शास्त्रम् आगमशास्त्रम्। श्रुतज्ञाने, विशे। तत्पूर्वकक्रिया-संपादनात्परंपरया निर्वाणसंपादनाचेति गाथार्थः। पञ्चा. अत्र भाष्यम् 6 विवा सासिज्जइ जेण तयं, आगमाऽऽमास-पुं. (आगमाऽऽभास) अनाप्तवचनसमुत्थे ज्ञाने, रत्ना। सत्थं तं वा विसेसियं नाणं। आगमाऽऽभासमाहुःआगम एव य सत्थं, अनाप्तवचनप्रभवं ज्ञानमागमाभासमिति / / 3 / / आगमसत्थं तु सुयनाणं ||१५||विशे०। अभिधेयं वस्तु यथाऽवस्थितं यो जानीते, यथाज्ञानं चाभिधत्ते आगमसत्थग्गहणं, स आप्त उक्तः। तद्विपरीतोऽनाप्तः। तद्वचनसमुत्थं ज्ञानम्-आगमाऽऽभासं जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिटुं। ज्ञेयम्। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमाऽऽभास 97 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगय अत्रोदाहरन्ति यत्तदागमिष्यद्भद्रम्। आगमिष्यत्कालभाविनि कल्याणे, प्रश्नः 1 आश्र० यथा मेकलकन्याकाया: कूले तालहिन्तायोकूले सुलभाः द्वार / आगमिष्यद्भद्रं यस्येति / आगमिष्यत्काल-भाविकल्याणवति, पिण्डखजूरा: सन्ति, त्वरितं गच्छत गच्छत शावका: इति||४|| स्था। रागाऽऽक्रान्तो ह्यनाप्त: पुरुष क्रीडापरवश: सन् आत्मनो विनोदार्थ समणस्सणं भगवओ महवीरस्स अट्ठसया अणुत्त-रोववाइयाणं किञ्चन वस्त्वन्तरमलभमान: शावकरपि समं क्रीडाभिलाषेणेदं गइकल्लाणाणंजाव आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाक्यमुच्चारयति। रत्ना०६ परि०। वाइसंपया होत्था ||1|| (सूत्र-६५३) *आगमिय- त्रि० (आगमिक) आगमादागत: ठञ्। आगमप्राप्ते, वाचा आगमिष्यत्भद्रं- निर्वाणलक्षणं येषां ते तथा। स्था०८ ठा०३ ऊ। आगमगम्ये च / पं. वा "आगमिअमागमेणं / / 991||" आगमिक आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात्। कल्प.१ अधि०६क्षण / वस्त्वागमेन, यथा- स्वर्ग अप्सरस, उत्तरा: कुरव: इति। पं०व०४ द्वार। आगमिष्यद्भद्रकर्मकारणान्याहआगमित- त्रि० अधीते / वाच / गृहीते, "उववारो त्ति वा अहीतंति वा दसहि ठाणेहिं जीवा आगमेसिभहत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहाआगमियंति वा गृहीतंति वा एगट्ठा' नि.१ऊ। ज्ञाते, वाच।"नायं अनिदाणयाए 1. दिष्ठिसंपन्नयाए 2, जोगवाहियाए 3, आगमियं य एगटुं२०८४|| ज्ञातम् आगमितमित्येकार्थम्। व्य. 10 ऊ। खं तिखमणयाए 4, जिइंदियाए 5, अमाइल्लयाए 6, पठिते, प्रेरणे, णिच् क्ता यापिते, प्रापिते चा वाच०। अपासत्थयाए 7, सुसामन्नयाए 8, पवयणवच्छल्लयाए 9, आगमिस्स(त्)-- त्रि. (आगमिष्यत्) आगामिनि, "जे य आगमिस्सा पवयणउब्भावणयाए 10 / (सूत्र-७५८) अरहंता भगवंतो" (सूत्र-१२६+)। ये चागामिन: आचा० 1 श्रु०४०१ 'दसहिं' इत्यादि, आगमिष्यद-आगामिभवान्तरे भाविभद्रं-कल्याणं; उ.। आगामिनि काले,"किमस्सऽतीतं किंवाऽऽगमिस्सं."||| (सूत्र सुदेवत्त्वलक्षणमनन्तरं सुमानुषत्वप्राप्त्या मोक्षप्राप्ति- लक्षणं च येषां ते 197+) "किंवाऽऽगमिष्यति- आगामिनि काले सुखाभिलाषिणो आगमिष्यद्भद्रास्तेषां भाव: आगमिष्यद्भद्रता तस्यै आगमिष्यद्भद्रतायै; दु:खद्विषो भावीति। आचा०१ श्रु.३ ऊ। "सिजिस्सइ आगमिस्से णं" तदर्थमित्यर्थः, आगमिष्यद्भद्रतया वा-कर्म शुभप्रकृतिरूपं प्रकुर्वन्ति(सूत्र-६७२+) आगमिष्यति काले सेत्स्यति। स्था०९ठा०३ उठा "सो बध्नन्ति, तद्यथा-निदायते- लूयते ज्ञानाद्याराधनालता आनन्दरसोआगमिस्साए जिणो भविस्सइ'''आगमिस्साए' आयत्याम्। आगामिनि पेतमोक्षफला येन परशुनेव देवेन्द्रादिगुणद्धिप्रार्थनाऽध्यवसानन काले, आव. 3 अ"आगमिस्सा वि सुव्वया." (25+) आगामिनि तन्निदानम्- अविद्यमानं तद्यस्य सोऽनिदानस्तद्भावस्तत्ता तया चानन्ते काले तथाभूता: सत्संयमानुष्ठायिनो भविष्यन्ति। सूत्र०१ श्रु०१५ हेतुभूतया, निरुत्सुकतयेत्यर्थःश दृष्टिसम्पन्नतया-सम्यग्दृष्टितया। अ। "आगमिस्सं च पावगं," (214) आगामिनि काले यत्करिष्यते योगवाहितयाश्रुतोपधानकारितया, योगेन वा-समाधिना सर्वत्रानुत्सु कत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही तद्धावस्तत्ता तया।३। क्षान्त्या तत्सर्वमिति। सूत्र.१ श्रु०८ अ "हवइ पुणो आगमिस्साणं' (514) 'आगमिस्साणं' ति- एष्यत्काले इत्यर्थः, प्राकृतत्वादत्रापि क्षमते इति क्षान्तिक्षमण: क्षान्ति-ग्रहणमसमर्थताताव्यवच्छेदार्थ यत:विभक्तिव्यत्ययः / आतु। "आगमिस्सेण होक्खइ''|| (1+) (सूत्र असमर्थोऽपि क्षेमत इति क्षान्तिक्षमणस्य भावस्तत्ता तया।४। जितेन्द्रियतया- करणनिग्रहेणापा 'अमाइल्लयाए' त्ति-माइल्लो५५९+) आगमिष्यता कालेन हेतुना भविष्यतीत्यर्थ:। स्था०७ठा०३ऊ। उत्तरकालभाविनि च / 'पडिक्कर्म आगमिस्साणं' (1 // 42 / / +) मायावांस्त- त्प्रतिषेधेनामायावांस्तद्भावस्तत्ता तया।६। तथा-पाचे बहिर्ता- नादीनां देशत: सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:, (स्था.) आगमिष्याणाम्- उत्तरकालभाविनाम्। आतु,। (पार्श्वस्थलक्षणम् 'पासत्थ' शब्दे पञ्चमभागे दर्शयिष्यते) पार्श्वस्थस्य आग(म्म)मेत्ता- अव्य(आग(म्य)त्य) आ-गम-ल्यप् वा मोलोपेतुक्। भावः पार्श्वस्थता न सा अपार्श्वस्थता तया।७। तथा-शोभन: आगमनं कृत्वेत्यर्थे वाच। ज्ञात्वेत्यर्थे, "आगमेत्ता आणविज्जा" (सूत्र पार्श्वस्थादिदोषवर्जिततया मूलोत्तरगुणसम्पन्नतया च स चासौ श्रमणश्च 159+) ज्ञात्वाआज्ञापयेदिति! आचा.१ श्रु०५०४ ऊ।"आगम्मुक्कु साधु: सुश्रमणस्तद्रावस्तत्ता तयादा तथा-प्रकृष्ट-प्रशस्तं; प्रगतं वा डुओ संतो"||२२४|| आगत्योत्कुटुक: त्यक्तासन इति। उत्त० 1 अ०। वचनम्-आगम:-प्रवचन-द्वादशाङ्गं तदाधारो वा सङ्घस्तस्य वत्सलता आगमेयव्व-त्रि. (आगमयितव्य) आगमनम्- आगमनपरि- ज्ञानम् / हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनितिप्रवचनवत्सलता तया९तथातदगोचरत्वमानयितव्ये, बृ०१ उ०२ प्रका प्रवचनस्यद्वादशङ्गस्योद्भावनम्- प्रभावनं प्रावचनिकत्वधर्मकथावादाआगमेसि(त्)- त्रि. (आगमिष्यत्) आगामिनि, स्था०८ ठा०३ दिलब्धिभिर्वर्णवादजननं प्रवचनोद्भावन तदेव प्रवचनोदावनता तयेति। ऊ। कल्प। आगमिष्यति काले, प्रश्न. 1 संव, द्वार। २०ास्था०१० ठा०३ उ आगमेसिभद्द- न. (आगमिष्यद्भद्र) आगमिष्यति काले भद्रं कल्याणे | आगय-- त्रि. (आगत) आ-गम्-क्त / आयाते, / विशे०। मा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगय 58 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगर वाचला जाते, ज्ञा०१ श्रु०७ अ। उत्पन्ने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ० "गुणआमरं "||5+I{ गुणानां-ज्ञानदर्शन- चारित्राणामाकरं खनिमिति। आगयमिवागयं तं, तत्तो जत्तो समुद्भवो जस्स। उत्त. 19 अ। निधाने, "गुणसयाऽऽगरो संघो"||२४४+11 सपरंपरओ यजओ, तमागयमिओ तदुवयारो।।१०८४|| गुणशतानामनेकेषां गुणा-नामाकरोनिधानम् गुणशताकर: संघ: व्य०२ 'जत्तो' त्ति-यतो यस्मात् रूपकादेर्घटादेर्वा सकाशाद्यस्य भोजनादे: उ। बा मर्यादयाऽभिविधिनाऽऽक्रियन्ते वज्रादीनि तेष्विति। ओघ०। रूपादिविज्ञानस्य वा समुद्भवः-उत्पत्तिः 'तं' तितद्भोजनादिकं हिरण्याकरादौ, व्य. 1 ऊ / जी। प्रज्ञा०। आचा०। रा०। स च रूपादिज्ञानं वा वस्तु 'तत्तो' त्ति-ततो रूपकादेर्घटादेर्वा हिरण्याद्युत्पत्तिभूमिः। ज्ञा० 1 श्रु. 17 अा ओघउत्त०। सकाशादागतमिवागतमुच्यते; हिमवत: समागतगङ्गाप्रवाहस्येव तस्य ताम्रादेरुत्पत्तिस्थानम्। आचा०१ श्रु.१०.१०२ उठा लौहाद्युत्पत्तिभूमिः। तद्धेतुकत्वादित्यर्थः। (विशे) आगतशब्दश्वेहोत्पत्तिवचनो, बोधवचनो स्था० 2 ठा० 4 उ.! लौहाद्युत्पत्तिस्थानम्। अनु०। प्रश्न। भ०। मन्तव्य:- इदमत्र हृदयम्-यस्य वस्तुनो यस्माद्वस्तुनः लौहादिधातुजन्मभूमि:। ग०१ अघि। लवणाधु-त्पत्तिभूमिः। ज्ञा० 1 श्रु०१ सकाशात्समुद्भवस्तद्वस्तुन आगतमिवावगतं व्यपदिश्यते / यथा अा और लवणाद्युत्पत्तिस्थानमिति। प्रश्न०४ आश्र द्वारा यत्र सन्निवेशे कार्षापणरूपकादिभ्य: समुद्भूतं धान्यभोजनादि, घटादे: समुद्भूतं लवणाद्युत्पद्यते। स्था०९ ठा०३ उड़ा रूप्यसुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानम्। न०। रूपादिज्ञानं वा तत: समागतमित्युच्यते। विशे। उपस्थिते, वाच०। भ.। आकीर्य्यन्ते धातवोऽत्र कृ-अप) रत्नाद्युत्पत्तिस्थाने, वाच / "आगयसमए" (सूत्र-८२+) आसन्नीभूतोऽवसरो यस्य स इत्यर्थः / "अयमाइआगरा खलु''॥२८४४।। अयो-लोहं तदादय आकरा उच्यन्ते ज्ञा०१ श्रु.९ अज्ञाते, "अभिसमन्नागया" (सूत्र-१०६+) आचा० 1 श्रु० यत्र पाषाणं धातुधमनादिना लोहमुत्पाद्यते स अयआकार:, 3 अ 1 उठा प्राप्ते, वाच.। "सिरीअतुलमागया"||१६+।। (सूत्र-३०+) आदिशब्दात्- ताम्ररूप्याद्याकरपरिग्रहः। बृ०१ऊ२ प्रक०।"वइरे कणगे श्रीलक्ष्मीरतुलाऽसाधारणाऽऽगताप्राप्तेति / स. 30 समा भावे क्ता य रययलोहे या चत्तारि आगरा खलु"||८+|| वज्राणि-रत्नानि आगमने, न० वाच तेषामाकर:- खनिर्वजाकरः, "चिंतालोहागरिए'' त्ति इत्यतः आगयगंध-त्रि. (आगतगन्ध) जातसुरभिगन्धे, ज्ञा०१ श्रु०७अा सिंहावलोकितन्यायेनाऽऽकरग्रहणं संबध्यते एतेन कारणेन 'होइउत्तिआगयपण्ण- त्रि. (आगतप्रज्ञ)। आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावा इत्यस्माद्भवति क्रिया सर्वत्र मीलनीयेति, कनकंसुवर्ण तस्याऽऽकरो गतप्रज्ञः। संजातकर्तव्याऽकर्त्तव्यविवेके सूत्रा "समितीसु गुत्तीसु य भवति द्वितीय, रजतं-रूप्यं तद्विषय: तृतीय: आकारो भवति, चशब्द:, आगयपण्णे''||१४| सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। समुचये, अनेकभेदभिन्नं रूप्याकरं समुचिनोति, 'लोहे य' त्ति लोहमयस्तस्मिन्, लोहे लोहविषयश्चतुर्थ आकरो भवति, चशब्दो आगयपण्णाण- त्रि. (आगतप्रज्ञान)। आगत- स्वीकृतं प्रज्ञानम् मृदुकठिन-मध्यलोहसमुचायक:। चत्वार इति संख्या: आक्रियन्ते सदसद्विवेको यस्य स तथा स्वीकृतसदसद्विवेके "सया आगयपण्णाणे' एतेष्वित्याकरास्तथा च मर्यादया अमिविधिना वा क्रियन्ते (सूत्र-१२९+) आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०/"आगयपण्णाणाणं किसा बाहा वजादीनितेष्विति, खलुशब्दो विशेषणे। ओघ०। (एतेषां प्राधान्याऽभवंति" (सूत्र-१८६४)। आगतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावकं येषां ते तथा प्राधान्यविवेक: अणुओग' शब्दे१भागे 357 पृष्ठे गत:) तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परिषहातिसहनेन च कृशा बाहयो भुजा भवन्ति। यदि वा- सत्यपि महोपसर्गपरिषहादावागतप्रज्ञानत्वाद् बाधा: आकरशब्दस्य चतुर्धा निक्षेप:-नामादिस्तत्र व्यतिरिक्तो रजतादिः, पीडा: कृशा भवन्ति आचा.१ श्रु०६ अ०३ उ०। भावाऽऽकरोऽयमेव ज्ञानादिः, तत्प्रतिपादक श्वायमेव ग्रन्थो, निर्जरादिरत्नानामत्र लाभात्। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उठा उत्पत्तिभूमौ, आगयपण्हया- स्त्री. (आगतप्रश्रवा)। आयातप्रश्रवायाम्, "तएणं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया' (सूत्र-३८२४) आयातप्रश्रवा; अनु। "कमलाऽऽगरनलिणीखंडवोहए" (सूत्र-१९४) कमलानामापुत्रश्नेहादागतस्तनमुखस्तन्येत्यर्थः) भ० 9 20 23 ॐा अन्त.) करा-उत्पत्तिभूमयो हृदादिजलाशय- विशेषास्तेषु यानि नलिनीखण्डानि तेषां बोधको यः स तथेति। अनु। आगयभम-त्रि. (आगतभ्रम)। उत्पन्नभ्रमणे, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। अयाऽऽगरेइ वा, तंवागरेइ वा, तउआगरेइवा, सीसागरेइवा, आगयसमय- त्रि. (आगतसमय)। आसन्नीभूतोऽवसरो यस्य सः। रुप्यागरेइ वा सुवण्णागरेइ वा। (सूत्र-१९७४) आसन्नीभूतावसरे, ज्ञा०१ श्रु०९अ०। आगर-पुं० (आकर)। आकुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकरः। उत्त० 30 अा आगत्य अयआकरो-लोहाकरो यत्र लोहं ध्मायते। स्था० 8 ठा० 3 उ०। तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकरः। आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। (अस्यैकार्थिकानि तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य, सुवण्णागरा य, रयणागरा य, 'आयारंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) खनौ, "धाउमणिसिलप्पबल- वइरागरा या (सूत्र-१३२४) रयणागरे य साहिति' (सूत्र-७+)। धातुमणिशिलाप्रबालरत्ना- | __ हिरण्याऽऽकराँश्च, सुवणाकराँश्व, रत्नाकराँश्च, वैराकराँश्च; तत्तदुत्पत्तिनामाकरा:- खनयस्तान साधयतीति। प्रश्न 1 आश्र द्वारा भूमीरित्यर्थ: / ज्ञा० 1 श्रु०१७ अास्थानामात्रे च / व्यः। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगर 99 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगाह तत्थन कप्पइ वासो, गुणाऽऽगरा जत्थ नऽत्थि पंच इमे। आयरियउवज्जाए, पवत्तिथरे यगीयत्थे / / 324|| वणिज इव राजाद्यभावे साधोरपि तत्र गच्छे वासोन कल्पते, यत्र इमेवक्ष्यमाणा गुणानामाकरा:- स्थानानि गुणाकरा: पञ्च न सन्ति, केते इत्याह-आचार्य:, उपाध्याय:, प्रवृत्तिः, स्थविरो, गीतार्थश्वा व्य. 1 उ०। आकुळन्ति, संधीभूय कुर्वन्ति व्यवहारमत्र आ-कृ-घ। समूह, श्रेष्ठे च। वाचा अरघट्टादिसमीपस्थे प्रदेशे, अरघट्टादिसमीपे, प्रभूता यत्र तुषा भवन्ति स आकर उच्यते / बृ.५ ऊ। को पुण आगरो भण्णति- जत्थ घरट्टादिसमीवे सुवहं जवभुसुट्ट; सो, आगरो भण्णतिः नि. चू०१ऊ। भिल्लपल्ल्यादौ, यत्राऽलाबूनि भवन्ति। "आगरपल्लीमाई''|३४९४|| आकरो नाम-भिल्लपल्ली, भिल्लकोदंवा तत्र प्रायोऽलाबूनि प्राप्यन्ते। वृ०३ऊ। *आगर- पुं। आगीर्य्यते उदमितुमारभ्यते चन्द्रमा अत्र। आगृ आधारे अप् / अमावास्यायाम,वाचा आगरणिदेस-पु. (आकरनिवेश) आकरस्थाने, "आगररनि-वेसेसु" (सूत्र-३५४)। प्रज्ञा०१पद। आगरणी- स्त्री. (आकरणी) लोहकराम्बरीषायाम्, स्था० 8 ठा०३ऊ। आगरपल्ली- स्त्री. (आकरपल्ली)। स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थानस्थिते | वृक्षवंशादिगहनाश्रिते प्रान्तजनस्थाने, उत्त। 'निगमे य आगरे पल्ली||१६+|| आकर:- स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थानं तस्मिन् आकारे। पल्ली वृक्षवंशादिगहनाश्रिता प्रान्तजनस्थानम्। तस्यां पल्ल्याम्, उत्त०३० अ०। आगरमुत्ति- स्त्री. (आकरमुक्ति) चिक्कणिकायाम, सा च नो कर्मद्रव्यलोभः। आव 1 अाआ०म०। अण्णे भणंतिणो कम्मे आकरमोत्ती एवमादि आकरमोत्ति चिक्कणिकेत। आ.चू.१ अ॥ (एतद्वक्तव्यता'लोभ' शब्दे षष्ठभागे वक्ष्यते)। आमरि(न)- त्रि. (आकरिन्) आकर:- उत्पत्तिस्थान प्राशस्त्येनाऽस्त्यस्येति इनि स्त्रियां डीप। प्रशस्ताकरजाते, "दधतमाकरिभिः करिभि: क्षतैः" किराला वाच.1 आकरवति, प्रश्न. 2 आश्र द्वार। आगरिस- पुं. (आकर्ष) आकर्षणमाकर्ष: आ-कृष्घञ्।"श-र्ष- तप्तवजे वा'|२|१०|| इति हैमप्राकृतसूत्रेणेकार:। प्रा०। उदाने, आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानमिति। सका आकर्षो नाम-तथाविधेन प्रयत्नेन कर्मपुद्गलोपादानम् / प्रज्ञा०६ पद 7 द्वारे। (आयुष्कर्माकर्षा: 'आउबंध' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गताः) ग्रहणे, आ.म.१०। विशे। प्रथमतया ग्रहणे, मुक्तस्य ग्रहणे च। आ०म०१ अा विशे। ग्रहणमोचनयोः, आकर्षणमाकर्षः। ग्रहणमोचनमित्यर्थः। आ. चू. 1 अ / स च द्विविध:-एकभविको, नानाभविक श्चेति। प्रव० 122 द्वार / आ. चू। विशे। अनु०। / आ०म०। (सामायिकस्याकर्षाः 'सामाइय' शब्दे सप्तमभागे वक्ष्यते) प्राप्तौ, भ। पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता, जहण्णेणं एक्को, उक्कोसेणं तिणि / (सूत्र-७७८) आकर्षणमाकर्ष:- चारित्रस्य प्राप्तिरिति / भ. 25 श०६ उ / (वकुसाऽऽदीनामाकर्षा: 'णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2042 पृष्ठे वक्ष्यते) आगरिसग- पुं. (आकर्षक) आकर्षति सन्निकृष्टस्थं लौहम् आ- कृष्ण्वुल। (चुम्बक) इतिख्याते अयस्कान्ते, आकर्षणकर्त्तरि, त्रि.। आकर्षे नियुक्तः आकर्षादि, कन्। आकर्षनियुक्ते, "आकष: निकषोपल'' इति रेफरहित: पाठो युक्त: सिकौळा वाचला आ०म०१ अ। आगरिसण-त्रि. (आकर्षण) आ-कृष्ल्युट्। अन्यत्र स्थितस्य वस्तुनः बलेन अन्यत्र नयने, 'योषिदाकर्षणे चैत्र- विनियोग: प्रकीर्तितः।" आकृप्यते अनेन करणे ल्युट्। आकर्षणसाधने तन्त्रोक्तेषट्कर्मान्तर्गत विधानभेदे च / वाच / आकृष्यत-इति आकर्षणम्। द्रविणे, आकृष्यत इति आगरिसणं तं च दविणं। निचू 2 उा प्रेरणे, आकडणमाकरिसणं अप्पणो तेणा आघट्टणमागसण उदगगतेन प्रेरणमिति। ति, चू०१८ उछ। आगलण-न. (आकलन) अध्यवसाये, 'धणुबलं वा आगलंति' (सूत्र१४३४) 'आगलंति' त्ति-आकलयन्ति- जेष्याम इत्यध्ययस्यन्तीति। भ०३श०२ उ. आगलिय-त्रि (आगलित) निवारिते, ज्ञा.१ श्रु०९अ०। आगल्ल- त्रि. (आगल्ल) ग्लाने, "तेण एस आगल्लो" ||4364 / / तेनाऽयमागल्लो-ग्लान: संजात:। बृ. 4 उ। आगाढ- त्रि. (आगाढ) अत्यन्तदुर्भदे, व्य। "आगाढपण्हेसु य संथवेसु॥२६९+|| आगाढप्रश्नेषु चाऽत्यन्तदुर्भेदप्रश्नेषु परिचयेसु सत्स्विति। व्य०१ऊ। कर्कशे, बृ। "आगाढे अहिगरणे" ||5734 / / आगाढे-कर्कशेऽधिकरणे उत्पन्ने। बृ.१३०३प्रकला कारणे, निचू.६ ऊ। अद्धाणविवित्ताणं, आगाढं सेसऽणागाढंदा अद्धाणे विवित्ताणं आगाढकारणं। सेसं अद्धाणं तंमि उवगरणा-भावे आगाढंण भण्णइ। निचू.५ऊ। आगाढेहिं वा कारणेहिं बोलेंति। निचू० २ऊ।"आगाढकारणेहिं"||३५०+|| आगाढै:- कुलादिभि: कारणैः। वृक्ष 1302 प्रकला आगाढं- प्रत्यनीक-स्तेनादिरूपं यत्कारणम्। वृ०१ऊ३ प्रक०। अशिवादिकेकारणे,बृ. असिवे ओमोदरिए, रायहुढे भए अ आगाढे। गेलन उत्तिमढे, णाणे तह दंसणचरित्ते।।९१८।। आगाढशब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते, आगाढे-अशिवे, अवमौदर्ये, राज्यद्विष्टे, बोधिकस्तेनादिभये च यथा आगाढं नाम शैक्षसागारिकादिमन्यतमकारणं तदा ग्लान उत्तमार्थप्रतिपन्नो वा कृचिद्देशान्तरे श्रुत: अपान्तरालेच तत्र छिन्नः पन्था अतस्तत्परिचरणार्थ गन्तव्यम्, उत्तमार्थ वा प्रतिपित्सुः संविग्नगीतार्थसमीपछिन्नेनापि पथा गच्छति / Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढ 100 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगाढ ज्ञानमाचाराऽऽदि, दर्शनं दर्शनविशुद्धिकारकाणि शास्त्राणि तदर्थमध्वानं गच्छेत्, चारित्रार्थ नाम-यत्र देशे स्त्रीदोषा वा भवन्ति तं परित्यज्य देशान्तरं गन्तव्यम्। एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं। उवगरणपुव्वं गहिऊ-ण पडिलेहिएण गंतव्वं / / 929|| एतै:- अशिवादिभिः कारणैरागाढे रेव गम्यमानै:- प्राप्यमाणैः उपकरणमध्वप्रायोग्यं गृहीत्वा पूर्वं गमनात् प्राक् प्रत्युपेक्षितः सम्यक् शुद्धाऽशुद्धतया निरूपितोय: स सार्थस्तेन सह गन्तव्यम्। बृ.१ ऊ३ प्रक०। (ग्लानवैयावृत्यमधिकृत्योक्तम्)- आगाढे कारणजाते सति वैयावृत्त्यं कुर्यादपि, परित्यजेद्वा ग्लानं, किं पुनस्तत्कारण- जातम्। बृ० 1 उ०२ प्रकला इति 'गिलाण' शब्दे तृतीयभागे 893 पृष्ठे वक्ष्यते।) अणुवसमते निग्गमों, लिंगविवेगेण होइ आगाढे। देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी कुलिंगेणं / / 270 / / अनुपशमयति- उपशममकुर्वति राशि निर्गमो भवतिः कथमित्याहलिङ्गविवेकेन-लिङ्गपरित्यागेन; गृहस्थलिङ्गेने-त्यर्थः। अथ तथाऽपिन मुश्चति गाढकोपावेशात्, तत आह- अगाढम् अत्यन्तप्रकोपतो गाढममोक्षणे भिक्षुकादिलिङ्गेन देशान्तरसंक्रमणं कर्तव्यम्। अशिवाऽऽदौ वा कारणे समुपस्थिते देशान्तरगमनं किल कर्त्तव्यम्। व्य०१ उ.। ("असिवे," इत्यादिगाथाभि: 'आगाढ' स्वरूपं 'कालकप्प' शब्दे तृतीयभागे 489 पृष्ठे वक्ष्यते) आगाढे अन्नलिंग, कालक्खेवो य होति गमणं वा / 994 / आगाढे-राजद्विष्टा बृ.१ उ. 3 प्रक०। (आहारमधिकृत्याऽऽगाढस्य भेदा:) किं पुण आगाद, अणागाढं वा। तत्थिमं आगाढं समासतोचउविह। गाहाअद्धाणे ओमे वा, गेलण्ण-परिण-दुल्लभे दव्वे / आगाढं नायव्वं, मुत्तूण होतिऽणागाढा ||190 / / इमं खेत्ताऽऽगाढं अद्धाणपडिवण्णगाढं सव्वं जाहं असंथरणं तं गाढा इमं कालाऽऽगाढ ओमकाले जं असंथरणं तंगाढं। इमे गिलाणपरिना दोऽवि भावाऽऽगाढं गिलाणस्स तद्दिवसं पायोग्ग जति न लब्भंति तो गिलाणो गाद परिण्णस्स असमाधाणे उप्पण्णे दिया रातो वा परिणाऽऽगाढं गिलाणस्स तद्विवसं पायोग्गं इह राती अहिगारो। इमं दव्वाऽऽगाढं 'दुल्लभदव्वे ति-सतपागसहस्सपागं, घयं, तेल्लं तेण साहुणो कज्ज तमि अलभंते दुल्लभदव्वाऽऽगाढा एवंविधं आगाढं नायव्वा पडिपक्खे अणागाढं। नि.चू.११ऊ। (विस्तरेणाऽऽगाढस्य भेदा:)दव्वे खेत्ते काले, भावे पुरिसे तिगिच्छे असहाए। एतेहिं कारणेहिं, सत्तविहं होइ आगाढं। पं.मा.४ कल्प। निचू। दव्वे ताव वेज्जो पुछियव्यो। जाव इयाणिंदव्वाणि उवइसइताव इयाणिं न पडिसेविज्जति / जहा एवं अम्ह न कप्पइ / जाहे उवइट्टाणि, ताहे ओमत्थइ परिहाणीए भण्णइ / पं.चू। (द्रव्याऽऽगाढम्)एगादीयवड्डीए, एगुत्तरिया य होति दव्वाणं। ओमत्थगपरिहाणी, दव्वागाढं वियाणाहि॥ जंयेति पुणो वेज्जो, सचित्तं दुल्लभं च दव्वं वा। अप्पडिहणतो अच्छति, उद्दिसिउंजाव सो ठाति // जाहे उद्दिवाणी, ताहे ओमत्थहाणिए भणति / अम्हे करेमो जोग्गं, अलंमें एयस्स किं कुणिमो // एवं तु हावयंता, खेत्तं कालं च भावमासज्ज। ता जूहंती जाव उ, लंभे जेसिं तु दव्वाणं / / अह पुण भणेज्ज एवं, अवस्समेत्तेहि कज्जदव्वेहि। एतं दव्वाऽऽगाढं तहिं जए पणगहाणीए॥ पं.भा. एगाइयवड्डीए अम्हे करेमु जोगं मम्मसु तं चेव जाव कलमसाली। खेत्तकालगाहा। तहेव य जहिं लाभो तहिं ठायंति। अहवा-भणेज्जा अवस्सिमाणि दव्वाणि जाणि दव्वाणि दुल्लहाणि परित्ताणह स तेल्लमाईणि वा तहि तं दव्वाऽऽगाढं पणगपरिहाणीए जयंति जाव चउगुरुएण वि गेण्हति। पं.चू। खेत्ताऽऽगाढमियाहिं गाहाखेत्ताऽऽगाढं इणमो, असतीखेत्ताण मासज्जोग्गाणं। असिवं वा अन्नत्थ, णदीव यवा होज्ज सद्धा तु // आयरियादि अहारग, अहवा अन्नत्थ सावता होज्ज। अंतर जहिं च गम्मति, बाला ताहे ण खुत्तियं वा / / एतेहि कारणेहिं,खेत्ताऽऽगाढंमि पुरिसे य। तो अत्थंति असढभावा, एगखेत्ते चि जयणाए। पं.भा. खेत्तस्सवा अलंभे असइ मासपाउग्गाणं खेताणं एगत्थ अत्थंति असिवं वा अनत्थ नई वा तीरंति गंतूण अकारगंवा आयरियाणं अन्नत्थ सावया वा तत्थ अंतरा वा दिग्घजाइया वा अन्नंमि देसे अंतरा वा ताहे एगत्थ अत्थंति अहवा-खेत्ताऽऽगाढं। पंचू! (कालाऽऽगाढम्)कालस्स वाऽवि असती, वासावासे वियारणा णऽत्थि। एतेहि कारणेहिं, कालाऽऽगाढं वियाणाहि॥ वासाजोगं खेत्तं, पडिलेहे तं तु कालेणं बहुतो। वचंताण य अंतर-वासं तु णिवडितुं पव्वत्तं / / डहरं वंतरखेत्तं, ताहे तं चेव पुव्वखेत्तं तु / गंतू वसती वासं, समतीते वा ति दस रात।पं.भा.।। कालओ कालेण बहुत्तो वासावसपाउगं खेत्तं वचंताणं अंतरावासंपडियं तंच अंतराखेत्त। संनिसद्धगंताहेतंचेव पुवपडिलेहियं खेत्ता जतिउल्लंता वि अइत्थिरा वा वासावासे जइ वासइ मग्गसिरे दस राया तिण्णि होंति Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढ 101 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगाढमुसावाइ उक्कोसेण ओमोयरियाए वा जा जयणा आहाराइसु एयं कालाऽऽगाढं। एवमादिकमाशुधाति सर्वमप्यागाढम् / एतद्विपरीतं तु चिरघाति पं.चू। कुष्ठादिरोगात्मकम्- अनागाढम्। बृ० 1 0 2 प्रक०। नि. चूछ / ग० / इथाणिं भावाऽऽगाढं ('गच्छसारणा' शब्दे तृतीय भागेऽत्र विस्तरो वक्ष्यते) अवश्यकर्त्तव्ये अतिउक्कडं च दुक्खं,अप्पा वा वेदणा भये आसुं। कार्ये, ग। एतेहि कारणेहि, भावाऽऽगाढं वियाणाहि॥ अणगाढे आगाढं, करति आगाठे अणगाढं // 199|| अचुक्कडसूलादी, अहिडक्काई तु वेदणा अप्पा। आगाढम्-अवश्यकर्त्तव्यं ग्लानप्रतिजागरणादिकं न आगाढम् अनागाढं तत्थऽग्गि तावणादी, दाहच्छेदोवगाढादी|पं.भा.।। तस्मिन् अनागावे; कार्य इति शेषः / आगाढम्- अवश्यकर्त्तव्यमिति कृत्वा कुर्वन्तीत्यर्थः। तथा आगाढे- अवश्यकर्त्तव्ये कार्ये। अनागाढं कार्य येन 'अइउक्कड च' अइउक्कडंति- विसूइयाइ अहिदह्रविसं अप्पा वा कृतेन विनाऽपि सरति; तत्कार्यं कुर्वन्तीत्यर्थः / अथवावेयणा हिययसूलाइ तत्थ अम्गी कंदाइं वा परित्ताणं ताइ दायव्वं एयं अनागाढयोगानुष्ठाने वर्तमाने; आगाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति / तथाभावाऽऽगाढं / पं. चू। आगाढयोगानुष्ठाने अना-गाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति स्वच्छन्दा: / ग०३ (पुरुषाऽऽगाढम्) अधिः। औत्पत्तिकेकार्थे चा आगाढं तु किंचिदौत्पत्तिकं कार्यम् / बृ० जंमि विणढे गच्छ-स्स विणासो तह य णाणचरणाणं। 1 उ.३ प्रक। "आगाढमुसावाई"||३७२४|| आगाढे-कुलकार्ये एतेहि कारणेहिं, पुरिसाऽऽगाढं वियाणाहि।।। संघकार्ये वेति। व्य. 3 उ! तस्स तु सुद्धालंभे, जावज्जीवं पि होत सुद्धणं / करणे य विवचासं,करेइ आगढ्ऽणागाढं / / 7224|| कायव्वं तु य णियमा, पुरिसाऽऽगाढं भवे एतं // आगाढे-ग्लानादिकार्ये अनागाढं त्रिः कृत्वा परिभ्रमणा-दिलक्षणम्, जेण कुलं आतत्तं,तं पुरिसं आदरेण रक्खाहि। अनागाढं वा आगाढं सद्य: प्रतिसेवनात्मकं करोति। बृ.१ उ. 1 प्रक०। ण हु तुंबूमि विणढे, अरया साहारगा होति / पं. भा०। आगाढे- राजद्विष्टादिककार्थे। बृ१३प्रका अभिगृहीतमिथ्यादर्शने, पुरिसाऽऽगाढे-जंमि विणद्वेगच्छस्स विणासो नाणदरिसण-चरित्ताईणं पुं.। आगाढ:अभिगृहीतमिथ्यादर्शनः / बृ.१ उ.२ प्रक०। विणासो। न हु तुबुमि विणढे गाहा-ताहे तस्स असुद्धेणावि कीरइ जाव | आगाढजोग- पुं. (आगाढयोग) योगभेदे, नि. चू। जीवइ एयं पुरिसाऽऽगाढं / पं.चू. आगाठमणागाळे, दुविहे जोगे समासतो होति ||36+|| (चिकित्साऽऽगाढम्) जोगो दुविहो-आगाढोय, अनागाढो या आगाढंतु राजम्मि जोगेजतणा संजोगदिट्ठपाढी, फासुगउवदेसणासु जो कुसलो। सो आगाढो यथा "भगवती" त्यादि / नि. चू. 1 उ.। बृ०। (अत्र एतारिसस्स असती, णायव्वं तिगिच्छमागाढं॥ विशेषव्याख्यानम् 'अज्जा' शब्दे प्रथमभागे 220 पृष्ठे गतम्।) मज्जणतूलिविभासा, अरणे पाउरणए य पाणे य / आगाठपण्ण- न. (आगाढप्रज्ञ) शास्त्रे, व्या "आगाढपण्णेसु य केवडियाण पहाणे, अन्नध वत्तो गिलाणो तु / / पं.भा०।। भावियप्पा''||३७४|| आगाढप्रज्ञानिशास्त्राणि तेषु भावितात्मातात्पर्य्यसंयोगदिट्ठपाढी-वेज्जस्स वा संयोगदिट्ठपाढिस्स असइ गीयत्थ- ग्राहितया तत्रातीवनिष्पन्नमति: / व्य०३ उ०। संविग्गस्सा ताहे गीयत्थवेज्जस्स जा पाहुडिया कीरइपहाणभोयण- आगाढपण्ह-पुं०(आगाढप्रश्न) अत्यन्तदुर्भेदप्रश्रे, व्य०। चोयणाइतं सद्दहइा एवं तिगिच्छाऽऽगाढं। पं.चू। "आगाढपण्हेसु य संथवेसु"॥२७०+11 आगाढप्रश्श्रेषु वाऽत्यसहायाऽऽगाढम् न्तदुर्भेदप्रश्नेषु परिचयेषु सत्स्विति। व्य.१ उ०। हुज्ज व सहायरहितो, अव्वत्ता वाऽवि अहव असमत्था। आगाढपरियावण- न. (आगाढपरितापन) बहुतमपीडोत्पाद- नात्मके एय सहायाऽऽगाढं, तम्हाणु मुणी ण विहरेज्जा। पं.भा०४ परितापे,जीत।"आगाढपरियावणुहवणे"||३१४|बहुतमपीडोत्पादनं कल्प.1 चाऽऽगाढम् / जीत। होज्ज व सहायसहाया वासावासे नत्थि अवत्तव्वया सुत्तेण वा दोसाय | आगाढमुसावाइ-(न)त्रि. (आगाढमृषावादिन) आगाढे-कुलकायें, हिंडमाणस्स वा एगाणियस्स ताहे एगत्थ अत्थइ एगं अत्थंतो गणकार्ये, संजकार्य वा अनाभाव्यस्य आभाव्यस्य वा (नाभाव्यस्य वा) अपायच्छितो जाव सहाए न लभइ पाउग्गे, एयं सहायाऽऽगाढ़। पं.चू०४ ज्ञानतया रागद्वेषाज्ञानस्य वा भणनात् मृषावदतीत्येवंशील कल्प। आशुघातिनि अहिदशनादिकेकारणे च / वृक। आगाढमृषावादी। कार्ये सति मृषावादिनि। व्यः। अहिडक्कविसविसूइय-सज्जक्खयसूलमागाढं ||14|| आगाढमुसावादी, बितियतइए उलोवेति वएउ ||372+|| अहिना- सर्पणदष्टः कश्चित्साधुः, विषं वा केनचिद्भक्ता- दिमिश्रंदत्तं, आगाढे मृषावादी द्वितीयमृषावादादत्तादानविरतिरूपे व्रते लोपयति। विसूचिका दा कस्यापिजाता,सद्यःक्षयकारिवा कस्यापिशूलमुत्पन्नम् व्य. 3 उा ('उद्देस' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽत्र विस्तरं वक्ष्यामि) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढवयण 102 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगाढवयण आगाढवयण-न. (आगाढवचन) अत्यर्थ गाढम् आगाढम् / "गाढुत्तगृहणकर, गाहेउं व तेण आगाद" (3+) / गाढं उत्तं गाढुत्तं तं केरिसं गृहणकरं अन्यस्थाख्यातुं न शक्यते। अथवा- शरीरस्योष्मा येनोक्तेन जायते तमागाढम् इत्युक्त- लक्षणे वचने, नि. चू. 10 उ०। सूत्रम्जे भिक्खू भदंतं आगाढं वयइ वदंतं वा साइज्जइ ||1|| आगाढवचन-परुषवचना-ऽऽगाढपरुषवचननिषेधःमा मुंज रायपिंडं-ति चोदितो तत्थ मुच्छितो गिद्धो। खुज्जाती माल वचह,आगाढंच उप्पती दसमेशा गुरुणा वेतितो मुच्छियो गिद्धो एकार्थवचने, अहवा- तं भुंजतो संजमाऽसंजमेण जाणइ, मूर्च्छितवत् मूर्च्छितो अभिलाषमात्र- गृद्धः, अहवा-खुज्जादियाणमालयं वच्चहेति चोदितो आगाढ- वयण भणेज्जा एस उप्पत्ती आगाढवयणस्सदसमुद्देसगस्सएस संबंधो। (1 सूत्रव्याख्या). 'जे' इति णिद्देसे भिक्खू पुव्वव- पिणओ, 'भदि' कल्याणे, सुखे च। दीप्ति-स्तुति-सौख्येषु वा. मोहात्मस्य सिलोकः / भदंतो- आचार्या अत्यर्थम्- आगाढं, 'वद' व्यक्तायां वाचि, अण्णं वा वदति-अणुमोदति। णिज्जुत्तीगाहाआगाढं पिय दुविधं, होइ असूआए तह पसूयाए। एएसिं द्विविधम्-दोएहं पिपडूवणं वोच्छं॥शा आगाढंद्विविधम्-असूताये, सूताएवा। आगाढफरुसोभय-सुत्ताण तिण्ह वि इमं सई वा। गाहागादत्तगृहणकर,गाहेउं व तेण आगाढं। णेहरहितं तु फरुसं, उभए संजोयणा णवरं / / 3 / / गाढम् - उक्तं गाढुत्तं,तं केरिसं-गृहणकर- अन्यस्याख्यातुं न शक्यते। अहवा-शरीरस्योष्मा येनोक्तेन जायते तमागाढं, नेहरहियं णिप्पिवासं, फरुसं भण्णति / गाढफरुसं-उभयं ततियसुत्ते जोगो दोण्ह वि, सूयाऽसूयवयणाणं इमेहिं दारेहिं सरूवं जाणियव्वं / गाहाजातिकुलरूवभासा, धणबलपरियागजसत्तवेलामे। सत्तवयबुद्धिधारण, उम्गहसीले समायारी || अम्हे मोर जातिहीणा, जातीमंतेहिं को विरोहेण / एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो ||5|| लोकप्रसिद्ध उल्लिंधितवचनं तव अत्र तादृशं न गृहीतव्यम् / इह तुपरं दोषेण सूचयति; स्पष्टमेवदोष भासतीत्यर्थ: / परवत्थुणिद्देसो णाम-'भदंतं' चेव भण्णति, तुम जातिहीणो त्ति। गाहाअम्हे मोर कुलहीणा, को कुलपुत्तेहि सह विरोहेणं / एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो / / 6 / / अम्हे मोर रूवहीणा, सरूवदेहेसु को विरोहेण। एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो / / 7 / 1- 'मो' इत्यसात्मनिर्देशे, (6) गाथा विवरणे वक्ष्याते चूर्णिकारः / अम्हे मो अकतमुहा, अलं विवाएण णेकत्तमुहेहिं। एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो ll वाग्मीकृतमुखभासाए द्वितीयव्याख्यानम्। गाहाखरफरुसणिठुरंणे, वक्कं तुज्जं मो महुरगंभीरं / एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो / / 9 / / सरोसवणियमिअकंतं खरं प्रणयनं हणि तण्हं फरुसं-जगा- रादियं अणुवयारं णिरं। 'मो' इत्यात्मनिर्देशे, अक्खरेहिं मितं अत्थमभिधाणेहिं मधुरं सरेण गंभीरं। गाहाअम्हे मो धणहीणा, आसि अगारंमि इडिमं तुज्जे। एस असूया सूया, तु णवरं परवत्थुणिद्देसो / / 10 / / एमेव सेसएसु वि, जोएयव्वा असूय-सूयाओ। अत्तगता तु असूया, सूया पुण पागडं भणिया ||11|| अप्पणो दोसं भासति, ण परस्स, एसा असूया। ण अप्पणो परस्स फुडमेवदोसं भासतिएसा सूया। सूयतीवसूया। औरसबलयुक्तो बलवान् / परियाओ- प्रव्रज्याकालः / सक्तो वा सक्तः- प्रथमे वयसि वर्तमान:, त्रिदशवत् वयोवो वा जंमि वए ठितो तस्स तदा गुणवासंति उप्पत्तियादिबुद्धिजुत्तो बुद्धिमं धारणा दढस्मृति: बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रिता:- संदिग्धं बुवाणा उग्गहं करेंति, अक्कोहादिणा सालेवे चक्कबालसामायारीपज्जुत्तो कुसलो वा एते अत्था सव्ये सूयाऽसूएहिं भाणियव्वा। गाहाएक्केक्का सा दुविधा, संतमसंताय अत्तणि परे य। पचक्खपरोक्खाऽविय, असंतपञ्चक्खदोसयरा ||1|| आत्मगता असूया। परगता सूया। असूया-संता, असंता य / सूया विसंता, असंताय।जहत्थेण ठियं संतं अभूतार्थं अनृतं, असंतं- परस्स जं पभासति पचक्खं महंतदोसतरं भवति, अहवा- इमेहिं अप्पाणं, परं वा, पसंसति, जिंदति वा। गाहागणि वायते बहुसुते, सेहा वाऽऽयरियधम्मकहिवादी। अप्पकसाए थूले, तणुए दीहे य मडहे य||१३| अम्हे खमणा णगणी, को गणवसमेहिं सह विरोहेण / एस असूया सूया, तुणवरं परवत्थुणिद्देसो / / 14 / / अगणिं तु हासषादीहिँ अगणिं व गणिं पूयागणिं च / एवं सेसपएसु वि, सप्पडिपक्खं तु नेयव्वं / / 15 / / सेसा पादा बहुसुतादीया निवित्तं, बहुयं च सुयं बहुस्सुतो, तिविधोमेहावी- गहणधारणमेधावी य, आयरियोगच्छाहिवती, तत्थेवं भासति-अम्हे के? आयरियत्तस्स जे सामायारिं पि ण याणामो। अहवा-भणति तुम को आयरियत्तस्स जो सामायारि पिण याणसि, चतुविहाए अक्खेवणियमादियाए धम्मकहाए लखीए जुत्तो ससमय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगाढवयण 103 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगाढा परसमएसु गतागमो उप्पण्णपइतो वादी बहु अल्पकषायः क्रियासु दक्ष: स्थूर: तनुईक्ष: क्षमापूरदेहाको तणुदेहे हीणेण सह विरोधो घट्टेमो णिचं उवरिं मडहसरीरेहिं को विरोहण, णिदं च करेंति, थुतीय, परमप्पणो कहतरं णाउं परवयणपयोगवसा पुव्वुत्तरमप्पणो देति एतेसामन्नतरं आगाढं जो वदति तस्सिमा सोही। गाहाछेदादी आरोवण, नेयव्वा जाव मासियं लहुगं। आयरिए वसभमि य, भिक्खुंमि य खुडुए चेव / / 16 / / आयरिओ आयरियं, आगाढं वयति पावई छेयं / वसभे छग्गुरु भिक्खु-म्मि छल्लहू खुड्डुए गुरुगा / / 17 / / आयरिओ आयरियं आगाढं वदति- छेदो, आयरिओ वसभं ह, आयरिओ भिक्खुंह, आयरिओ खुत्ते ह। गाहावसमे छग्गुरुगाई, छल्लहुगा भिक्खुखुड़ें गुरुगाई। अंता पुण सिं चउ लहु, मासगुरू मासलहुओ य / / 1 / / वसभो आयरियं आगाढं वदति ह, खुत्तो वसभं हृ, खुत्तो खुत्तं, अहवा अन्यथा प्रायश्चित्तक्रमः। गाहापंचण्हापरियारइ, छेया एकेकहासणा अहवा। राइंदियवीसंऽतं, चउण्ह चत्तारि अविसिट्ठा ||19|| आयरियवसभभिक्खुंयरो खुत्तो यच्छेदादी वीसए रातिदियाई अंतेणं चेव वारणियप्पओगेणं वारेयव्वं, जत्थ जत्थ चउगुरुगं तत्थ तत्थ सुत्तणिवाओ दट्ठट्वो, अहवा-पुव्वुत्ताण चउण्हं चउगुरुगं तवकालविसेसियं, अहवा-सव्वेसिं अविसिटुंचउ। गाहाजंचेव परट्ठाणे, आसायंताण पावए ओम। तं चेव य ओमो विय, आसाइंतो विराइणियं / / 20 / / परद्वाणं परप्रधानं, ज्येष्ठमित्यर्थः। जसो ओमं आसादेंतोपावति ओमे वितंचेव जेटुं आसादेंतोपावति। गाहाएएसामन्नयर, आगाढं जो वदे भयंताएं। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||21|| असंखडादयो दोसा पक्खाऽपक्खगहणे य गच्छभेदा: कारणे भणेज्जाऽवि। नि.चू. 10 उ०। णय णिच्छयमावसिया, छटुंबल्ली फलाऽवि संबद्धा। इति हरिसगमणचोदण- आगाढं चोदितो भणति ||1|| कारणे-वासावासे भायं णाणं कसेणं कतेणं वसित्ता पासति। तं बीओ | जायपुत्तं भंडाओ ताहे सो हरिसितो भणति-ण णित्थयामो वसित्ता मम वादेसु अतीव बल्लीओ पसारिता ण केवलं पसरिता तो पभूता फलावि संबद्धा न केवलं संबद्धा प्रायशो निष्पन्ना। अभिस्समो पादेतं एवं भणंतं कोऽविसाधू पडिचोएज्जा। मा अज्जो ! एवं भणाहिण वट्टति। ततो सो पडिचोदणाएरुट्ठोफरुसंवदेज्ज। तत्प्रतिषधार्थमिदं सूत्रमारभ्यतेजे भिक्खू भिक्खूणं आगाढं वदइ वदंतं वा साइज्जइशा. जे भिक्खू भिक्खूणं फरुसंवदइ वदंतं वा साइज्जहाशा जे भिक्खू भिक्खूणं आगाढफरुसं- वदइ वदंतं वा साइज्जइ || आगाढ-फरुस-मीसग-दसमुद्देसंमि वणियं पुत्वं / तंचेव विवज्जंतो, सो पावति आणमादीणि||l नि चू, 15 उा जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढंवदइ वदंतं वा साइज्जइ||९|| जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा फरुसंवदइ वदंतं वा साइज्जइ ||1oll जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा आगाढफरुसंवदइ वदंते वा साइज्जइ ||19|| नि.चू-१३ उ०। आगाठफरुसमीसग-दसमुहेसंमि वण्णितं पुवं / गिहिअण्णतित्थिएहि व, ते चेव य हॉति तेरसमे // 25|| जहा दसमुद्देसे भदंतं प्रति आगाढफरुसमीसगसुत्ता भणिता, तह इह गिहत्थ अण्णउत्थियं प्रति वक्तव्या, इमेहिं जातिमत्तिएहिं गिहत्थं अण्णतित्थियं वा ऊणतरं परिभवंतो आगाढं फरुसंवा भणति। निचू. १३ऊ। आगाठसुय-न (आगाढश्रुत) श्रुतभेदे, नि.चू / आगाढसुयं भगवतीमाइ, अणागाढं आयारमाति ति। निचू.१ऊ1"आगाढे एवमत्थेवि''||२४+|| आगाढे तु-उत्तराध्ययन- भगवत्यादिकेश्रुते। जीत। प्रागाढाऽऽगाढकारण-न. (आगाढाऽऽगाढकारण) तथाविधे प्रयोजने, "अण्णत्थ आगाढाऽऽगादेहिं' (सूत्र-६६+) अन्यत्र-तथाविधप्रयोजनात्। आचा०२ श्रु०१ चू.२ अ 1 उ.। भिक्खू य बहुस्सुए बब्भागमे बहुआगाढाऽऽगाढेसु कारणेसु माई मुसावाई। (सूत्र-२३४) (इंद संपूर्ण सूत्रम् 'उद्देस' शब्दे अस्मिन्नेव भागे व्याख्या सहितं दर्शयिष्यते।) कुलप्राप्तं गणप्राप्तं संघप्राप्तं यत् सचितादिकं व्यवहारेण छेतव्यं कायं वा आगाढाऽऽगाढं कारणे तेषु आगाढाऽऽगाढेषु / व्य० 3 उ०। आगाढाऽऽगाढकारणदीनि पदानि व्याचिख्यासुराह (भाष्य-कृत)कुलगणसंघप्पत्तं, सचित्तादी तुकारणागाढं॥२८५४|| सचित्त निमित्तोऽचित्तनिमित्तो वा यो व्यवहार: कुले क्षिप्तो यथेदं सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं कुलेन छेत्तव्यमिति तत्कुलप्राप्त-मेवं गणप्राप्तं सङ्घप्राप्तं भावनीयम्, यत्र यत्सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं व्यवहारेण छेद्यतया कुलप्राप्तं वा गणप्राप्तं वा तत्कारणाऽऽगाढं कारणम्। व्य.३ऊ। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगामि 104 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगार आगामि (न)- त्रि. (आगामिन) आगन्तुके, भविष्यत्कालवृत्ती च। वाचा लब्धव्ये / स्था०२ ठा०४ उा आगामिपह-पु. (आगामिपथ) आगामिनो-लब्धव्यस्य वस्तुनः पन्थाः आगामिपथ: / लब्धव्यवस्तुमार्गे, स्था०२ ठा०४ उ०। आगामिय-त्रि. (आकामिक) अनभिलषणीये, स्था०५ ठा०२ उछ। *अग्रामिक-त्रि. ग्रामरहिते, स्था."अत्थेगइया णिग्गंथाय णिगंथीओ य एगमई आगामियं छिन्नावायं दीहमद्धमडविमणु- प्पविट्ठा" (सूत्र४१७+)। स्था०५ ठा०२ उ. आगार-पुं. (आकार) आ-कृ-घञ् / आकृतौ, आ. म०१ अ.। कल्प०। ज्ञा। स्था। भ०। रा। संस्थाने, और "सिंगारागारचारवेसाए" (सूत्र) शृङ्गारो-मण्डन-भूषणाटोपस्तत्प्रधान आकार:- आकृतिर्यस्याः सा तथा। तथा चारु वेशो- नेपथ्यो यस्याः सा तथा, तत: कर्मधारयः / रा०। और। सन्निवेशविशेषे, शृङ्गार:- शृङ्गाररसपोषक: आकार:सन्निवेशविशेषो यस्य / चं. प्र०२० पाहु।। "आगारविगारं तह प्पयासंति"||१२१+ आकार-मुखनयनस्तनाद्याकृतिः, विकारं च मुखनयनादिविकृति: / यद्वा- आकारस्य स्वाभावि- काकृतेर्विकारो विकृतिस्तं तथा प्रकाशयन्ति / ग.३ अधि। आगारो णाम-आगारो त्ति वा, आगति त्ति वा, संठाणं ति वा, एगट्ठा। आ.चू. 1 अा स्वरूपे, ध०३ अधिका"कइवागयस्स आगारा" (सूत्र-५५३+) आकारा-आकृतयः; स्वरूपाणीत्यर्थः / स्था०७ ठा०३ उ। रूपमाकारश्चक्षुर्विषयः। स्था.१ ठा०। प्रतिवस्तुनियते ग्रहणपरिणामे च। आगारो उ विसेसो," इति वचनादिति। जी०१ प्रति०। सह आकारेण वर्तत इति साकारं विशेषग्रहणप्रवणम्। दर्श५ तत्त्व! (सर्वस्य च वस्तुन आकारवत्त्वम्)आगारो त्रिय मइस-इवत्थुकिरिया फलाभिहाणाई। आगारमयं सव्वं, जमणागारं तयं नऽत्थि ||64|| न पराणुमयं वत्थु, आगाराऽभावओ खपुष्पं व / उवलंभववहाराऽ-भावाओ नाणऽऽगारं च ||6|| विशे०। (अनयोथियोरर्थ: 'ठवणाणय' शब्दे चतुर्थभागे वर्णयिष्यते) आक्रियते-आकल्प्यतेऽभिप्रेतं मनोविकल्पितं वस्त्वनेनेत्याकारः। आकृ-करणे घञ्। बाह्यचेष्टायाम्, विशे। आ.म. आकार:- स्थूलधीसंवेद्य: प्रस्थाना-दिभावाऽभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः / आह च"अवलोयणं दिसाणं, वियंभणं साडयस्स संठवणं। आसणसिढिलीकरणं, पट्ठियलिंगाइँ एयाई। उत्त, पाई.१अ / यदुक्तम"अवलोकनं दिशाना, विजृम्भणं शाटकस्य संवरणम्। आसनशिथिलीकरणं, प्रस्थितलिङ्गानि चैतानि।। उत्त० 1 अ। "आगारेहिँ सरेहि य||१४०x॥ आकारा:-शरीरगता भावविशेषाः / व्य०१ उ० (विस्तरोऽस्य आगारलक्खण' शब्दे-ऽसिमन्नेव भागेवक्ष्यते)। भावे घञ्। हृद्गतभावावेदने, इङ्गिते च / वाच.। आक्रियन्त इत्याकारा आगृह्यन्त इति भावना / सर्वथा कायोत्सर्गापवदे, आव०५ अ.। लक। कायोत्सर्गाकारानभिधायोक्तम्- 'एवमादिएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज्ज मे काउस्सगो" (सूत्र-३+)त्ति। ला आव. (तेच 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे वर्णयिष्यते)। आमादया मर्यादाख्यापनार्थम् आक्रियन्तेविधीयन्ते प्रत्याखान-भङ्गपरिहार्थमित्याकाराः। प्रत्याख्यानापवादहेतावनाभोगादिके स्था.१० ठा० ३ऊ। प्रक। पञ्चा०। आव।"आगारेहिँ विसुद्धं "||105+ll आकारैः- अनाभोगादिभिः। पं० व०२ द्वार। "गहणे आगारेसुं''||४+|| आकारेषु-प्रत्याख्यानापवादेषु। पञ्चा०५ विव०। "दो चेव नमुक्कारे आगारा"||५०८+।। आकारो हि नाम-प्रत्याख्यानाऽपवादहेतु: / पं.व.२ द्वार / (कस्य प्रत्याख्यानस्य कत्याकारा:)नवकारपोर (रि) (रु) सीए, पुरिमलेक्कासणेगठाणे / आयंबिलऽभत्तट्टे, चरिमे अ अभिग्गहे विगई / / 106|| दो छच सत्त अह य, सत्तट्ट य पंच छच पाणम्मि। चउ पंच अट्ट नवए, पत्तेअंपिंडए नवए / / 107|| 'नमस्कार' इति-उपलक्षणत्वात् नमस्कारसहिते पौरुष्यां पुरिमार्द्ध एकासने एकस्थाने च आयाम्ले अभक्तार्थे चरमे च अभिग्रहे विकृती, किं ?- यथासङ्ख्यमेते आकारा:, द्वौषट्सप्त अष्टौ च सप्त अष्टौ च पञ्च षट् (पाने) चतुः पश नवाऽष्टौ प्रत्येकं, पिण्डके नवक इति गाथाद्याक्षरार्थः // 106 / 107 / / भावार्थमाहदो चेव नमुक्कारे, आगारा छच पोरिसीए उ। सत्तेव य पुरिमड्डे, एकासणगम्मि अद्वेव |108ll सत्तेकट्ठाणस्स उ, अटेवाऽऽयंबिलस्स आगारा। पंच अभत्तहस्स उ, छप्पाणे चरिम चत्तारि।।१०।। पंच चउरो अभिग्गह, निव्विइए अट्ठ नव य आगारा। अप्पावरणे पंच उ, हवंतिसेसेसुचतारि||१०|| णवणी उग्गाहिमए, अहवदहि पिसिअघय गुले चेव। नव आगारा तेर्सि, सेसदवाणंच अटेव ||11|| द्वावेव नमस्कारे आकारौ, इह नमस्कारग्रहणात् नमस्कार-सहितं गृह्यते, तत्र द्वावेवाकारों, आकारो हि नामप्रत्याख्यानापवादहेतु:, इह च सूत्रम्-"सूरे उग्गए नमुक्कार-सहिअंपञ्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइभ, साइम, अण्णत्थणाभोगेणं सहसागारेणं वो सिरइ" सूत्रार्थः प्रकट एव, आकारार्थस्त्वयम्आभोगनमाभोग: न आभोगोऽनाभोगः; अत्यन्तविस्मृतिरित्यर्थः तेन, अनाभोगं मुक्त्वेत्यर्थः, अथ सहसा करणं सहसाकारः; अतिप्रवृत्त- योगानिवर्त्तनमित्यर्थः, 'षट्च पौरुष्यांतु' इह पौरुषीनाम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगार 105 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगार प्रत्याख्यानविशेषः, तस्यां षडाकारा भवन्ति इह चेदं सूत्रम्-"पोरुसिं पचक्खाइ सूरे उग्गए चउट्विहं पि आहारं असणमित्यादि, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरई'" अनाभोगसहसाकारौ पूर्ववत्, प्रच्छन्नकालादीनं त्विदं स्वरूपम्- "पच्छन्नाओ दिसाओ रएण रेणुना पव्वएण वा अंतरितो सूरो ण दीसइ, पोरुसी पुण्यत्तिकाउंव पारितो, पच्छा णायं ताहे ठाइयव्वं, न भग्गं,जइ भुंजइ तो भग्गं, एवं सव्वेहिऽवि, दिसामोहेण कस्सइ पुरिसस्स कम्हिवि खित्ते दिसामोहो भवइ, सो पुरिमं दिसं न जाणइ, एवं सो दिसामोहेणं अइरुग्गयंपि सूरं दटुं उसूरीहूयंति मण्णइ, नाए ठाति। 'साहुवयणेणं' साहुणो भणंति- उग्घाडा पोरुसी, ताहे सोपजिमितो, पारित्ता मिणइ, अण्णो वा मिणति, तेण से भुंजंतस्स कहियं ण पूरति, ताहे ठाइयव्वं। समाही णाम तेण पोरुसी पञ्चक्खाया आसुकारियं च दुक्खं जायं, अण्णस्स वा, ताहे तस्स पसमणनिमित्तं पाराविज्जइ ओसहं वा दिज्जइ, एत्थंतरा णाए तहेव विवेगो। सप्तैव तु पुरिमा॰, पुरिमार्द्ध- प्रथमप्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते तत्र सप्ताऽऽकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्रम्- 'सूरे उग्गए' इत्यादि पूर्वसदृशं 'मयहराऽऽगारेणं' ति विशेष:, अस्य चायमर्थ:- अयं च महान् अयं च महान् अयमनयोरतिशयेन महान् महत्तर: आक्रियत इत्याकार:, एतदुक्तं भवतिमहल्लं पयोयणं, तेण अब्भत्तहो पचक्खातो, ताहे आयरिएहिं मण्णइ- अमुगंगामं गंतव्वं, कहेइजहा मम अज्ज अब्भत्तट्ठो, जदि ताव समत्थो करेउ जाउ, य, ण तरइ अण्णो भत्तढिओ अभत्तडिओ वा जो तरइ सो वचाउ, णऽत्थि अण्णो तस्स कज्जस्स समत्थो ताहे तस्स चेव अब्भत्तट्ठियस्सगुरू विसज्जिति, एरिसस्सतंजेमंतस्स अणभिखासस्स अण्भत्तद्वियनिज्जरा जा सा से भवइ, एवमादिमयहरागारो। एकाशने अष्टावेव, एकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचालनेन भोजनं, तत्राष्टावाकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्रम्- एक्कासणगमित्यादि, तेच अण्णत्थणाभोगेणं? सहसागारेणं 2 सागारिआगारेणं 3 आउट्टणपसारणगारेणं 4 गुरुअब्भुट्ठाणेणं 5 पारिद्वावरियागारेणं 6 मयहरागारेणं 7 सव्वसमाहिवत्तियागारेणं 8 वोसिरति, अणाभोगसहसाकारा तहेव, सागारिअं अद्धसमुद्दिट्ठस्स आगयं, जइ बोलेइ पडिच्छइ, अह थिरं ताहे सज्जायवाघाउ त्ति उडेउं अण्णत्थ गंतूणं समुद्दिसइ, हत्थं वा पायं वा सीसं वा आउट्टिज्ज वा पसारिज्ज वा ण भज्जइ, अब्भुट्ठाणारिहो आयरितोपाहुणगोवा आगओ अब्भुट्टेयव्वंतस्स एवं समुद्दिस्सउठ्ठियस्स ण भज्जइ, पारिट्ठावणिया जइ होज्ज कप्पइ, मयहरागारसमाहीओ तहेव त्ति गाथार्थः।।१०८1। 'सप्तकस्थानस्य तु' एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं, तत्र सप्ताऽऽकारा भवन्ति, इहेदं सूत्रम्- 'एगट्ठाण' मित्यादि, एगहाणएजंजहा अंगोवंगठविअंतेण तहाठिएणचेव समुद्दिसियव्यं, आगारा से सत्त, आउंटपसारणा नऽस्थि, सेसं जहा एक्कासणए। अद्वैवाऽऽयामाम्लस्याऽऽकाराः, अणाभोगा.१ सहसागारेणं२ लेवालेवेणं | 3 उक्खित्तविवेगेणं 4 गिहत्थसंसट्टेणं 5 पारिठावणियागारेणं 6 मयहरागारेणं 7 सव्व-समाहिवत्तियागारेणं 8 वोसिरति, अणाभोगसहसक्कारातहेव, लेवालेदोवा, जइ भाणे पुत्वं लेवाडगं गहिअं समुद्दिलु संलिहिये च जइ तेण आणेतिण भज्जइ, उक्खेित्तविवेगो जइ आयंबिले पडइ विगतिमादि उक्खिवित्ता विकिंचउ, मा णवरि गलउ, अण्णं वा आयंबिलस्सअपाउगंजइ उद्धरितीरइउद्धरिएणउवहम्मइ, गिहत्थसंसद्धेऽवि जइ निहत्थोडोवलियं भायणंवा लेवालेवाडं कुसणाईहिं तेण इसित्ति लेवाडादीहि देति ण भज्जइ, जइ गसो आलक्खिज्जइ बहुओ ताहे ण कप्पइ, पारिट्ठावणियमयहरगसमाहीओ तहेव। पञ्चाऽमक्तार्थस्य तु, न भक्तार्थोऽभक्तार्थः, उपवास इत्यर्थः, तस्य पञ्चाऽऽकारा भवन्ति, इहेदं सूत्रम्- 'सूरे उग्गए' इत्यादि, तस्स पंच आगारा-अणाभोग-सहसाकार-पारिट्ठावण-मयहर-समाहि त्ति, जइ तिविहस्स पचक्खाइ तो विकिंचणिया कप्पई, जइ चउव्दिहस्स पचक्खाइ पाणगं च नऽत्थिन वट्टइ जइ पुण पाणगंपि उव्वरियं ताहे से कप्पइ, जइ तिविहस्स पच्चक्खाइ ताहे से पाणगस्स छ आगारा कीरंतिलेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहलेण या, ससित्थेण वा, असित्थेण वा, वोसिरई"प्रकटार्था एते छप्पि। एतेन षड्पान इत्येतदपि व्याख्यातमेव। 'चरमे चत्वार' इत्यत्र चरिमं दुविहं-दिवसचरिमं भवचरिमं च, दिवसचरिमस्स चत्तारि- अण्णत्थअणाभोगा सहस मयहर सव्वसमाहि, भवचरिमं- जावज्जीवियं, तस्सवि एए चत्तारि त्ति गाथार्थः / / 109 / / पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे निर्विकृतौ अष्टौ नव वाऽऽकारा: 'अप्रावरण' इत्यप्रावणाभिग्रहे पञ्चैवाकारा भवन्ति शेषेष्वभिग्रहेषुदण्डकप्रमाजनादिषु चत्वार इति गाथार्थ:।।११०।। भावार्थस्तु'अभिग्गहेसुअवाउडत्तणं कोइ पचक्खाइ तस्सपंच-अणाभोगा सहसा चोलपट्टगाऽऽगारा मयहर समाहि, सेसेसु चोलपट्टगागारो णत्थि, निव्विगईए अट्ठनवय आगारा' इत्युक्तं, अत्र विकृतय: पूर्वोक्ताः, अधुना प्रकृतमुच्यते- क्वाष्टौ व वा नवाऽऽकारा: ? इति, तत्र-नवनीते उद्गाहिमके अद्रवदनि:, गालित इत्यर्थः, 'पिशिते'- मांसे कृते गुडे चैव, अद्रवग्रहणं सर्वत्राभिसंबन्धनीयं, नवाकारा अमीषां विकृतिविशेषाणं भवन्ति, शेषाणं द्रवाणां- विकृतिविशेषाणामष्टावेवाकारा भवन्ति, उत्क्षिप्तविवेको न भवनीतिगाथार्थ:।।५११|| इह चेदं सूत्रम्-'निविगतीयं पचक्खाइ' इत्यादि, अण्णत्थ 1 सहसा 2 लेवालेव 3 गिहत्थसंसट्ठ उक्खित्तविवेग 5 पडुचमक्खिएणं 6 पारिट्ठावणिया 7 मयहर। सव्वसमाहिवत्तियागारेणं 9 वोसिरइ, तत्थ अणाभोग- सहसाकारा लेवालेवा तहेव दट्ठव्वा, गिहत्थसंसट्ठस्स उ इमो विहीखीरेण जइ कुसणिओ कूरो लब्भइ, तस्स जइ कुंडगस्स ओदणाउ चत्तारि अगुलाणि दुद्धं ताहे निविगइयस्स कप्पड़, पंचमं त्वारद्धं विगतीयं, एवंदहिस्सवि, वियडस्सवि, केसुवि विसएसुवियडेण मीसिज्जइओदणो ओगाहिमगोवा, फाणि-यगुलस्स तिल्लघयाण य एएहिं कुसिणिए जइ अंगुलं उवरिं अच्छइ तो वट्ठइ, परेण न वट्टइ, महुस्स पोग्गलरसगस्स य अद्ध-अंगुलेण संसट्ठे होइ, पिंडगुलस्स नवणीयस्स य अ(हा) मलमित्त संसट्ट, जइ वि बहूणि एतप्पमाणाणि कप्यंति, एग पि वढें न Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगार 106 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगारिय कप्पइ, उक्खि तविवेगोजह आयंबिलये उद्धरितीरइसेसुसुणऽत्थि, पडुच्च मक्खियं पुण जइ अंगुलिए गहाय मक्खेइ तिल्लेण वा घएण वा ताहे निव्विगइयस्स कप्पइ, अहधाराए छुभइ मणागपि न कप्पई, पारिट्ठावणियागारोउलेसओ भणिओएवइतिवृद्धसम्प्रदाय: कृतंप्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुम:-आह इह आकारा एव किमर्थमित्याहवयभंगे गुरुदोसो, थेवस्सऽवि पालणा गुणकरी अ। गुरुलाघवं चने, धम्मम्मि अओ उ आगारा 512|| व्रतभङ्गो गुरूदोष: भगवदाज्ञाविराधनात्, स्तोकस्यापि पालना व्रतस्य गुणकारिणीच, विशुद्धकुशलपरिणामरूपत्वाद्, गुरुलाघवं च विज्ञेयं धर्म, एकान्तग्रहस्य प्रभूतापकारित्वेनाशोभनत्वात्, यतएतदेवमत:- अस्मात् कारणादाकारा इतिगाथार्थः / / 512|| गृहे, आगमेहिं कतमागारं, आगमारुक्खा तेहिं कतं आगाररं ति। नि, च, ३ऊ। आगारगोवणा-स्त्री. (आकारगोपना) स्त्रीणां द्वासप्ततिक- लान्तर्गत कलामेदे, कल्प.१ अधि०७ क्षण। आगारचरित्तधम्म-पुं. (आगारचरित्रधर्म) अगारं गृहं तद्यो- गादागारागृहिणस्तेषां यश्चरित्रधर्म:- सम्यक्त्वमूलाणुव्रता- दिपालनरूप: स तथा / चारित्रधर्मभेदे, स्था०२ ठा. 1 उ.। आगारभाव- पुं. (आकारभाव) आकारस्य- आकृतेर्भावा:- पर्यायाः। भ. 6 श० 7 उ०। आकृतिलक्षणपाये, भ. 1 श०४ ऊ। आकारभाव: स्वरूपविशेष: / जी०३ प्रति०४ अधि। आगारभावपडोयार- पुं. (आकारभावप्रत्यवतार) आकारस्य आकृतेर्भावा:- पर्यावा: अथवा-आकाराश्च भावाश्च आकार-भावास्तेषां प्रत्यवतार:- अवतरणमाविभाव: आकारभाव-प्रत्यवतारः / भ०६ श०७ उ। आकारभावस्यआकृति- लक्षणपर्यायस्य प्रत्यवतार:अवतरणमाकारभावप्रत्यवतार:। भ.६श०७ उ आकृतिलक्षणपायस्याविर्भाव, जी। किमागारभावपडोयारा णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता।। (सूत्र- 123+) आकारभाव:-स्वरूपविशेष: कस्याऽऽकारभावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकारभावप्रत्यवतारा:, बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्येऽपि समासः / णमिति पूर्ववत्, द्वीपसमुद्रा: किंस्वरूपंद्वीपसमुद्राणामिति भावः / जी०३ प्रति०४ अधि०१ उ.। (अत्र विस्तर: 'दीवसमुद्द' शब्दे चतुर्थभागे 2543 पृष्ठे दर्शयिष्यते) आगारलक्खण- न. (आकारलक्षण) आक्रि यते- अभिप्रेतं ज्ञायतेऽनेने त्याकारो- बाह्यचष्टारूप: स एवान्तरोक्तगमकत्वाल्लक्षणमाकारलक्षणम् / लक्षणविशेषे, आन्तरोक्तगमकता चाकारस्य सुप्रसिद्धा। आ.म. 10 "आगारे" त्ति (2149) आकारलक्षणम् (भाष्यकार:) व्याचिख्यासुराहबाहिरचिट्ठागारो, लक्खिज्जइ तेण माणसाकृतं। आहारादिच्छाह- त्थवयणनेत्ताइसण्णाहि / / 2155|| आक्रियते-आकल्प्यते ज्ञायतेऽभिप्रत- मनोविक पिल्पतं वस्त्वनेनेत्याकारो-बाह्यचेष्टारूप:। तेनचमानसमावृतम्-अभिप्रेतं वस्तु लक्ष्यत इति लक्षणमसावुच्यते। तथाहि-राजादीनामाहारादीच्छाहस्तवदननेत्रादिसंज्ञाभिलक्ष्यत एव विचक्षणैः / उक्तंच-"आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च नेत्र-वक्त्रविकारैश्च, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः"|| इति / विशे। (तचानेकविधं दर्शितं यथा)"आगारलक्खणं अणेगविहं: गंतुमागारे देति, भोत्तुमागारं देति, सौतुमागारं देतिा एवं वक्तुं, द्रष्टुमित्यादि, कहंगतु।। "अवलोयणादिसाणं, वियंभणं साडगस्स सट्ठवणा / आसणसिढिलीकरणं, पडित्तलिंगाणि चत्तारि // 11 // भोत्तुं-मिच्छातिभोयणविधिं वदणं पस्संदते य से बहुसो दिट्ठीय भमति तत्थेव पडति छायस्स लिंगाणि तएणं विक्रियता ततो हुतं वा पुलोएति। सोतुंजहा उदीरतेय णिहाति तस्स वियसइसकागयतस्स दुहियस्स उमिलाइवमसत्थवीयरागस्स गाथा। द्रष्टुं जह आगारहिं सुणे मोणी वन्नेहिं चक्खुरागेहि जणमणुरत्तविरत्तं पहढचित्तं च पदुद्वं "आकारैरिङ्गितर्भावः, क्रियाभिर्भाषितेन चा नेत्रवक्त्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ||2|| अस्थीणि चेव जाणंति रूहस्स खरा दिट्ठीओ। उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स दुहियस्स उ गिलायंति गंतुमणस्सुस्सुया होति। आ.चू. 1 अा आगारविगार-पुं. (आकारविकार) आकृतेर्विकृतौ, ग०। गइविद्यममाइएहिं, आगारविगार तह पयासंति। स्वच्छन्द: श्रमणो गतिभ्रमादिकैः / 'आगारविगार' त्ति-अत्र विभक्तिलोप: प्राकृतत्वात् / तत आकार मुखनयनस्तनाद्या- कृति:, विकारं च मुखनयनादिविकृतिः। यद्वा-आकारस्य-स्वाभाविकाऽऽकृते: विकारो-विकृतिस्तम्, तथा प्रकाशयन्ति / ग०३ अधि०। आगारसुद्धि- स्त्री. (आकारशुद्धि) आकारशुद्धिस्तु राजाभियोगादिप्रत्ययाख्यानापवादमुत्कलीकरणात्मिका / शुद्धिभेदे, घ०२ अधिः। आगारिय-त्रि (आकारिक) आकारे कुशल: ठत्र, आकाररिकः / तत्र आगामी नियुक्ते, वाचा *आकास्ति-त्रि। उत्सारिते, "आरिओ आगारि आस्सारिओ वा एगटुं ति"। आव०४ा *आगारिक- न अगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहं तदस्यास्तीति मतुब्लोपादगारो गृहस्थस्तस्येदमागारिकम्। विशे०। दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चेव ||786|| अगा:-वृक्षास्तै: कृतत्वाद् आ-समन्तात् राजते इति अगारम् गृहम्, "वचित्।।११९१९७१ इति डप्रत्ययः, तदस्यास्तीति / "अभ्रादिभ्य: "||72 / 46 // इति मत्त्वर्थीय: आकारप्रत्ययः / अगार:गृही तस्मिन् भवम् आगारिकम्। "अध्यात्मादिभ्यः इकण" ||6378 / / इति इकणप्रत्ययः, चारित्रसामायिकभेदे, आ. म. 1 अ। विशे०। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगारेउण 107 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आगास आगारेऊण-अव्य, (आकार्य्य) रे क्यास्यसीदानीमित्येव-माहूयेत्यर्थे, आवा आगारेऊण परं, रणि व्व जइ सो करिज उस्सग्गं / / 14554|| 'आगारेऊण' त्ति- आकार्य रे रे क्व यास्यसीदानीम्, एवं परम्- अन्य कञ्चन 'रणि' व्व संग्राम इव यदिस: कुर्यात्कायोत्सर्गम्। आव०५ अ। आगाल- पुं. (आगाल) आगालनमागाल:। समप्रदेशावस्थाने, आचा०। सोऽपि चतुर्की-व्यतिरिक्त उदकादेर्निम्नप्रदेशावस्था- नम्, भावागालो ज्ञानादिक एव तस्यात्मनि रागादिरहितेऽव- स्थानमिति कृत्वा। आचा, १श्रु०५१०१ उ०। उदीरणाविशेषेचा प्रथमस्थितौ च। यत्पुनर्द्वितीयस्थिते: सकाशादुदीरणाप्रयोगेणैव दलिकं समाकृष्योदये प्रक्षिपति सा उदीरणाऽपि पूर्वसूरिभिर्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमागाल इत्युच्यते / कर्म, 5 कर्म। (अधिकम् 'उवसमसेढि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आगास- पुं. (आकाश) ना आकाशन्ते-दीप्यन्तेस्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र। तस्मिन्, दश. 1 अ। आ-समन्तात् सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते दीप्यन्ते अत्र व्यवस्थितानि। जी०१ प्रतिका आ-मदियाऽभिविधिना वा सर्वेऽर्था: काशन्ते- प्रकाशन्तेस्वस्वभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम्। भ० 2 श.१ उ०। आडिति मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्तेस्वरूपेण प्रतिभासन्तेऽस्मिन् व्यवस्थिता: पदार्था इत्याकाशम्, यदा त्वभिविधावाङ्तदा आडिति सर्वभावाभिव्याप्त्या काशते इत्याकाशम् / (सूत्र-टी०३) प्रज्ञा.१ पद। उत्त। सर्वभावाव-काशनादाकाशम्। आभदिया तत्संयोगेऽपि स्वकीय- स्वकीयरूपेऽवस्थानत: सर्वथा तत्स्वरूपत्वाप्राप्तिलक्षणया काशन्ते स्वभावलाभेनावस्थितिकरणेन च दीप्यन्ते पदार्थसार्था यत्र तदाकाशमिति / अथवा-अभिविधिना सर्वात्मना तत्संयोगा-नुभवलक्षणेन काशन्ते दीप्यन्त पदार्था यत्र तदाकाशम्। अनु०९७ सूत्रटीला सर्वद्रव्यस्वभावानाकाशयति-आदीपयति तेषां स्वभावलाभेऽवस्थानदानादित्याकाशम् / आङ्-मर्यादाऽभिविधिवाची, तत्र मादायाम् - आकाशे भवन्तोऽपि भावा: स्वात्मन्येवासतेनाकाशतां यान्तीत्येवं तेषामात्मसादकरणाद् अभिविधौ तु-सर्वभावव्यापनादाकाशमिति। स्था०२ ठा०१ उ०७४ सूत्रटीका आसमन्तात् काशतेऽवगाहदानतया प्रतिभासते इत्याकाशम्। कर्म४ कर्मः। लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशा-त्मकाऽमूर्तद्रव्यविशेषे, अनु० आकाशंतु जीवादिपदार्थानामा- धारान्यथानुपपत्तेरस्तीति श्रद्धेयम् / न च धम्मधिमास्ति-कायावेव तदाधारौ भविष्यत इति वक्तव्यं, तयोस्तद्गतिस्थितिसाधकत्वेनोक्तत्वात्, न चान्यसाध्यं कार्यमन्यः प्रसाधयत्यतिप्रसङ्गादिति। अनु / 97 सूत्रटी०। "जीवानां पुद्गलानांच, धर्माधर्मास्तिकाययो:। बादराणां घटादीना-माकाशमवकाशदम्॥१॥" इति। आव.४ अ।जीवानां पुद्गलानांधर्माधर्मास्तिकाययोर्बादरघटादीनां चोपग्रहवदवकाशदम्। दर्श.४ तत्त्व। अथाऽऽकाशद्रव्यस्य लक्षणमाविष्करोति यो दत्ते सर्वद्रव्याणां,साधारणावगाहनम्। लोकालोकप्रकारेण, द्रव्याकाश: स उच्यते / / यः आकाशास्तिकाय: सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहनम् - सामान्यावकाशं दत्ते स द्रव्याकाशो लोकालोकप्रकारेण उच्यते इति। यत: सर्वद्रव्याणां य: सर्वदा साधारणावकाशदाता स: अनुगत एक आकाशास्तिकाय: कथितः सर्वाऽऽधार इति। यथा पक्षिणां गगनमिवेति व्यवहारनयदेशभेदेन भवेत्, तद्देशीयानुगत आकाश एव पर्यवसन्न: स्यात्। तथा च-तत्तद्देशोर्ध्व- भागावच्छिन्नमू भावादिना तद्व्यवहारोपपत्तिरिति वर्द्धमाना- धुक्तं नाऽनवद्यम्। तस्याभावादिनिष्ठत्वेनानुभूयमानद्रव्या-धारांशापलपप्रसङ्गात्तावद्गतिसन्धानेऽपि लोकव्यवहारेणाकाशदेशप्रतिसंधतयोक्तव्यवहाराचा द्रव्या.१० अध्या! भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं / / 5 / यत्पुन: सर्वद्रव्याणां-जीवादीनां भाजनम्- आधाररूपंनभ:- आकाशम् उच्यते। तच नभः अवगाहलक्षणं अवगाढ़ प्रवृत्तानां जीवानां पुद्गलानां आलम्बो भवति इति / अवगाह:- अवकाश: स एव लक्षणं यस्य तत् अवगाहलक्षणं नम उच्यते। उत्त०२८ अ०। (आकाशस्य नित्यत्वं द्रव्यत्वञ्च)आकाशाख्यैकनित्य- द्रव्यप्रसिद्धये शब्दं गुणत्वाल्लिङ्गत्वेन प्रतिपादयन्ति। तथा च परेषां प्रयोग:- ये विनाशित्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्माध्यासितास्ते क्वचिदाश्रिताः, यथा घटादयः, तथा चशब्दास्तस्मादेभिराश्रितैः क्वचिद् भवितव्यं, यश्चैषामाश्रय: स पारिशेष्यादाकाश:, तथाहि-नायं शब्दः पृथिव्यादीनां वायु-पर्यन्तानां गुणः, अध्यक्षग्राह्यत्वेसत्यकारणगुणपूर्वकत्वात्, येतुपृथिव्यादीनां चतुर्णां गुणास्ते बाह्येन्द्रियाऽध्यक्षत्वे सति-अकारणगुणपूवका न भवन्ति, यथा रूपादयो, न च तथा शब्द: एवम्-'अयावद्रव्यभावित्वाद्' 'आश्रयाद्रेर्यादेरन्यत्रोपलब्धेश्व' इत्यादयो हेतवो द्रष्यव्या:। स्पर्शवतां यथोक्तविपरीता गुणा उपलब्धाः। 'प्रत्यक्षत्वे सति' इति च विशेषणं परमाणुगतै: पाकजैरनैकान्तिकत्वं मा भूदित्युपात्तम्। न च-आत्मगुण: अहंकारेण विभक्तग्रहणाबाह्येन्द्रियाध्यक्षत्वात् आत्मान्तरग्राह्यत्वाच्च, बुध्यादीनामात्मगुणानां तद्वैपरीत्योपलब्धेः। न दिक्-काल-मनसां श्रोत्रग्राह्य- त्वात्। अत: पारिशेष्यात् गुणो भूत्वा आकाशस्य लिङ्गम् आकाशं च शब्दलिङ्गाविशेषात् विशेषलिङ्गाभावच एकं विभु च सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् समवायित्वे सत्यनाश्रितत्वाच, द्रव्यम्, अकृतकत्वान्नित्यम्। सम्म०३ काण्ड 49 गाथाटी।। (आकाशस्य सावयवत्त्वम्)न च सावयवत्वमसिद्धं प्रदेशव्यवहारस्याऽऽकाशे दर्शनात् / न च'आकाशस्य प्रदेशाः' इति व्यवहारो मिथ्या, मिथ्या-त्वनिमित्ताभावात्। न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वनिमित्त: सावयवत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वकारणं निरवयवे अव्याप्यवृत्ति: संयोगाधारत्वस्याध्यारोपनिमित्तस्यैवानुपपत्तेः। यदि च-सावयवं नभो न भवेत् तदा श्रोत्राकाश Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगार 108 अभिधानराजेन्द्रः भाग आगार समवेतस्येव शब्दस्य ब्रह्मभाषितस्याप्युपलम्भोऽस्मदादि (दे) भवेत् निरवयवैकाकाशश्रोत्रसमवेतत्वात् / अथ धर्माधर्माभिसंस्कृतकर्णशष्कुल्यवरुद्धाकाशदेश एव श्रोत्रं तत्र न च ब्रह्मभाषितस्यासमवायान्नाऽस्मदादिभिः श्रवणम् / नन्वेवम्सैव सावयवत्वप्रशक्तिः श्रोत्राकाशप्रदेशात् ब्रह्मशब्दाधाराकाश- देशस्यान्यत्वात्। यदि चसावयवमाकाशं न भवेत, शब्दस्य नित्यत्वं सर्वगतत्वं च स्याद् आकाशैकगुणत्वात्तन्महत्त्ववत् / अथ क्षणिकैकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वस्य शब्दे प्रमाणत: प्रतिसिद्धेनयिं दोषः / नन्वेवमेकदेशवृत्तिविशेषगुणत्वाभ्युपगमे कथं न शब्दाधारस्याकाशस्य सावयवत्वप्रसिद्धिः? 'न हि निरवयवत्त्वे तस्यैकदेशे एव शब्दो वर्तते न सर्वत्र' इति व्यपदेश: संगच्छते। न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वनिबन्धनोऽयं यत आकाशं व्याप्य संयोगो नवर्तते इतितदेकदेशे वर्तते इत्यभ्युपगमप्रसक्ति:। व्याप्यवृत्तित्वं हि सामस्त्यवृत्तित्वं, तत्प्रतिषेधश्च पर्युदासपक्षे एकदेशवृत्तित्वमेव, प्रसज्यपक्षे तु वृत्तिप्रतिषेध एव:, नचासौ युक्त: संयोगस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात्। तदभावे च तदभावात्। न च निरवयवत्त्वे आकाशस्य सन्तानवृत्त्या आगसत्य शब्दस्य श्रोत्रेणाप्युपलब्धि: संभवति अन्याऽन्याकाशदेशोत्पत्तिद्वारेण तस्य श्रोत्रसमवेतत्वा- नुपपत्तेः। जलतरङ्गन्यायेनाऽपराऽपराऽऽकाशदेशादावपरापरशब्दोत्पत्तिप्रक-- ल्पनायां कथं नाऽऽकाशस्य सावयवत्वम् ? किंच-आकाशं शब्दोत्पत्ती समवायिकारणमभ्युपगम्यते, यच्च स मवायिकारणं तत्सावयवं, यथातन्त्वादि, समवायिकारणं च। परेण शब्दोत्पत्तावाकाशमभ्युपगतम्। न च परमाणवात्मादिना व्यभिचार: तस्यापि सावयवत्यात; अन्यथाव्यणुकबुद्ध्या-देस्तत्कार्यस्यसावयत्वंनस्यात् नचबुद्ध्यादे: सावयवत्वमसिद्धम् आत्मन: सावयवत्वेन साधित्वात् तद्विशेषगुणत्वेन बुद्ध्यादे: कथंचित्तादात्म्यसिद्धितः सावयवत्वोपपत्तेः / नच यत एव प्रमाणादणव: सिद्धास्तेषां निरवयवत्वमपि तत एव सिद्धमिति तदग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् सावर्यवत्वा-नुमानस्याप्रामाण्यं प्रमाणत: परमाणूनामसिद्धावाश्रयासिद्धित: सावयवत्वानुमानस्याप्रवृत्तिरिति वाच्यं, यत: सावयवकार्यस्य सावयवकारणपूर्वकत्वे साध्ये न पूर्वोक्तदोषावकाशः / न च कार्यकारणयोरात्यन्तिको भेद:, समवायनिषेधे हि हिमवद्-विन्ध्ययोरिव भेदे विशिष्टकार्यकारणरूपतानुपपत्तेः। ततो व्यणुकादे: परमाणुकार्यस्य सावयवत्वात् तदात्मभूताः परमाणव: कथं न सावयवा इति न परमाण्वादिभिर्व्यभिचारः / अपि च-सावयवमाकाशं तद्विनाशान्यथानुपपत्तेः। नचा-ऽऽकाशस्य विनाशित्वमसिद्धम्। तथाहि-अनित्यमाकाशं, तद्विशेषगुणाभिमतशब्दविनाशान्यथानुपपत्तेः। यतो न तावदा-श्रयविनाशाच्छब्दविनाशोऽभ्युपगतस्तन्नित्यवत्वाभ्युपगमविरोधात्; न विरोधिगुणप्रादुर्भावात्, तन्महत्त्वादेरेकार्थसमवायित्वेन रूपरसयोरिव विरोधिताऽसिद्धेः। विरोधित्वे वा श्रवण-समयेऽपि तद्भावप्रसङ्गः तदापि तन्महत्त्वस्य सद्भावात् / नापि संयोगादिविरोधिगुणस्तस्य तत्कारणत्वात्। नाऽपि संस्कार: तस्य गुणत्वेन शब्देऽसं भवात्संभवे वा शब्दस्य द्रव्यत्वप्रसक्तिः | आकाशस्य द्रव्यत्वेन तत्संभवेऽपितपस्याभावे आकाशस्याप्यभावप्रक्ति: तस्य तदव्यतिरेकात् व्यतिरेक वा 'तस्य' इति संबन्धायोगात्। नापिशब्दोपलब्धिप्रापकधर्माद्यभावात् तदभावः तस्य विभिन्नाश्रयस्यानेन विनाशयितुमशक्यत्ववात्। शक्यत्वे वा तदाधारस्यापि विनाशप्रसङ्गस्तस्य तदव्यतिरेकात् ततोऽम्बरविशेषगुणत्वे शब्दस्य तद्विनाशान्यथानुपपत्त्या तस्यापि विनाशितत्वं, ततोऽपि सावयत्वम्। न च बुद्ध्यादिभिर्व्यभिचार: उक्तोत्तरत्वत्! किंच- आश्रितविनाशे आश्रयत्वस्यापि विनाश: आश्रितत्वनिबन्धनत्वात् तस्य धर्मस्य च धर्मिणः कथंचिदव्यतिरेकात् / तथा आकाशस्य विनाशित्वात्सावयवत्वं घटादेरिवोपपन्नम् / किं च सावयवमाकाशम्, हिमवद्विन्ध्यावरुद्धविभिन्नदेशत्वात् तदवष्टब्धदेशभूभागवद्, अन्यथा तयोरूपरसयोरिवैकदेशा- कास्थितिप्रसक्तिः, न चैतदृष्टमितिसर्व वस्तूत्पादविनाश-स्थित्यात्मकत्वात्कथंचित्सावयवं सिद्धम्। सम्म०३ काण्ड 33 गाथाटी०। (आकाशस्य निरालम्बनत्वम्)-"आगासंचेव निरालंबे" (सूत्र-२९४) आकाशमिव निरालम्बो यथाऽऽकाशमनालम्बनं तथा साधुन किञ्चिदालम्बते। प्रश्न०५ संव द्वार! (आकाशं द्विविधम्)दुविहं आगासे पण्णत्ते, तंजहा-लोगागसे चेव, अलोगागासे चेवा (सूत्र-७४+) तत्र लोको यन्नाकाशदेशे धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां वृत्तिरस्ति स एवाकाशं लोकाकाशमिति / (स्था.) लोकाऽलोकभेदेनाऽऽकाशद्वैविध्यमुक्तम्। स्था०२ ठा० 1 उ०) (एनमेवार्थं मीमांसयन्नाह)धर्मादिसंयुतो लोको-ऽलोकस्तेषां वियोगतः। निरवधि : स्वयं तस्या-ऽवधित्वं तु निरर्थकम् // 9|| धर्मास्तिकायादिसंयुक्त आकाशो लोकः, तदितरस्त्वलोकः। स च पुनर्निरवधि:- अपार: अलोकः, तस्य- अलोकस्य स्वयम्-आत्मनाऽ-- वधित्वमन्तर्गडु इति। कश्चिदाहात्र- यथा लोकस्य पार्श्वे अलोकस्यापि पारोऽस्ति; तथैवाग्रेऽपि द्वितीयतटे पारो भविष्यतीति ब्रुवाणमुत्तरयन्तिलोकस्तुभावरूपोऽस्ति, तस्यावधित्वं घटते, परंतु अग्ने अलोकस्य केवलमभावात्मकस्याऽवधित्वं कथं कल्पतेशशशृङ्गवत् / यथा असद्अविद्यमानं शशशृङ्ग न कुत्रापि निरीक्ष्यमाणं विद्यमानवदाभाति तथैवैतस्याप्यलोकस्य अविद्यमानस्यावधित्वं न घटामाटीकते। अथ भावरूपात्मकत्वमङ्गीक्रियते तदा तु षडतिरिक्तमन्यद् द्रव्यं नास्तीति व्यवहारात् आकाशदेशरूपस्य तु तदन्तत्वं कथयतां बुद्ध्या धातो जायते। तस्मादलोकाकाशस्तुअनन्त एवं मन्तव्य इति। आकाशो यथा साऽन्तः शंसितो धर्माऽधर्मानुभावात् तस्य भावस्तदभावात्तदभावः। अलोकाकाशोऽपि सान्तो धर्माधर्मानुभावी भवन अतिरिक्तद्रव्यत्वमापत्स्यते। तस्माद्यथोक्तमेवन्याय्यम्। यावताआकाशेनतद्धर्माधर्मांव्याप्त स्थितीतावता Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगार 109 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आगास तत्परिमाणशालिना आकाशेनापि भवितव्यं तयोरभावात्त-स्याप्यभाव: सुपरिशीलनीय: इति। द्रव्या. 10 अध्या! (लोकाऽलोकाऽऽकाशौ विस्तरेण)कइविहें णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णते,तं जहा-लोयाऽऽगासे य, अलोयाऽऽगासेय। 'कतिविहे णं भंते!' इत्यादि, तत्र लोकाऽलोकाऽऽकाशयोर्लक्षणमिदम्"धर्मादीनां वृत्ति-द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् / तैर्द्रव्यै: सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम्"शा इति। लोयाऽऽगासे णं भंते ! किं जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? गोयमा! जीवा विजीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि। जे जीवा ते नियमा एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचिंदिया अणिदिया, जे जीवदेसाते नियमा एगिदियदेसाजाव अणिदियदेसा, जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा जाव अणिदियपदेसा।जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता,तं जहारूवीय, अरूवी य / जे रूवी ते चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा, परमाणुपोग्गला।जे अरूवी ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा। अधम्ममित्थकाए नो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पदेसा। अद्धासमए / (सूत्र-१२१) 'लोगागासेणमि' त्यादौ षट् प्रश्ना। तत्र लोकाकाशेऽधिकरणे 'जीव' त्ति-सम्पूर्णानि जीवद्रव्याणि 'जीवदेस' त्ति-जीवस्यैव बुद्धिपरिकाल्पता व्यादया विभागाः। 'जीवप्पएस' त्ति-तस्यैव बुद्धिकृता एव प्रकृष्टा देशा: प्रदेशा निर्विभागा; भागा इत्यर्थ: / 'अजीव' ति-धर्मास्तिकायादयः, ननुलोकाकाशे जीवा अजीवाश्चित्युक्तेतद्देशप्रदेशास्तत्रोक्ता एव भवन्ति, जीवाद्यव्यतिरिक्तत्वाद्देशादीनां, ततो जीवाजीवग्रहणे किं देशादिग्रहणेनेति? नैवम्- निरदयवा जीवादय इति मतव्यवच्छदार्थत्वादस्येति। अत्रोत्तरम्- 'गोयमा! जीवाऽवी' त्यादि, अनेन चाद्यप्रश्नत्रयस्य निर्वचनमुक्तम्। अथान्त्यस्य प्रश्नत्रयस्य निर्वचनमाह- 'रूवीय' त्तिमूर्ताः; पुद्गला इत्यर्थः, अरूवीय' ति-अमूर्त्ता; धर्मास्तिकायादय इत्यर्थः, 'खंध' त्ति-परमाणुप्रचयात्मका: स्कन्धा:स्कन्धदेशा व्यादयो विभागा: स्कन्धप्रदेशास्तस्यैव निरंशा अंशा: परमाणुपुद्गला: स्कन्धभावमनापन्ना: परमाणव इति, ततो लोकाकाशे रूपिद्रव्यापेक्षया 'अजीवा वि अजीवदेसावि अजीवप्पएसावि' इत्येतदर्थतः स्यादणूनां स्कन्धानाचाजीवग्रहणेन ग्रहणात्, 'जे अरूवी ते पंचविहे' त्यादिअन्यत्राप्यरूपिणो दशविधा उक्ता:, तद्यथा-आकाशास्तिकायस्तद्देशस्तत्प्रदेशश्चेत्येवं धर्माधर्मास्तिकायौ समयश्चेति दश इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वन विवक्षितत्वात्तदाधेया: सप्त वक्तव्या भवन्ति, नचतेऽत्र विवक्षिता: वक्ष्यमाणकारणात्,येतुविवक्षितास्तानाह पञ्चेति, कथमित्याह- 'धम्ममित्थकाये' त्यादि- इह जीवानां पुद्गलानां च बहुत्वादे कस्यापि जीवस्य पुद्गलस्य वा, स्थाने सङ्कोचादि तथाविधपरिणामवशाद्वहवो जीवा: पुद्गलाश्च तथा तद्देशास्तत्प्रदेशाश्च सम्भवन्तीति कृत्वा जीवाश्च जीवदेशाश्च जीवप्रदेशाश्व तथा रूपिद्रव्यापेक्षया अजीवाश्चाजीवदेशाश्चा- जीवप्रदेशाश्चेति सङ्गतम्, एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावात्। धर्मास्तिकायादौ तु द्वितयमेव युक्तं, यतो यदा सम्पूर्ण वस्तु विवक्ष्यते तदा धर्मास्तिकायादीत्युच्यते, तदंशविवक्षायां तु तत्प्रदेशा इति तेषामवस्थितरूपत्वात्, तद्देशकल्पना त्वयुक्ता, तेषामनवस्थितरूपत्वादिति। यद्यपि चानवस्थितरूपत्वं जीवादिदेशानामप्यस्ति तथापि तेषामेकत्राश्चयं भेदेन सम्भव: प्ररूपणाकारणम् इह तुतन्नअस्तिकायादेरेकत्वादसङ्कोचादिधर्मकत्वाचेति। अत एव धर्मास्तिकायादिदेशनिषेधायाह- "नो धम्मत्थिकायस्स देसे" तथा- "नो अधम्मत्थिकायस्स देसे" त्ति-, चूर्णिकारोऽप्याह- 'अरूविणो दव्या समुदयसदेणं भण्णंतिानीसेसा पएसेहिं वानीसेसा भणेज्जा, नो देसेणं तस्स अणवट्ठियपमाणत्तणओ, तेणं न देसेण निद्देसो, जो पुण देससद्दो एएसुकओ सो विसयगयववहारत्थं परदव्वपुसणादिगयववहारत्थं चेति, तत्र स्वविषये धास्तिकायादिविषये यो देशस्य व्यवहारो यथाधर्मास्ति-काय: स्वदेशेनोर्ध्वलोकाकाशं व्याप्नोतीत्यादि तदर्थ, तथा पर- द्रव्येण ऊर्ध्वलोकाकाशादिना य: स्वस्य स्पर्शनादिगतो व्यवहारो यथा ऊर्ध्वलोकाकाशेन धर्मास्तिकायस्य देश: स्पृश्यते इत्यादि: तदर्थमिति 'अद्धासमए' त्ति-अद्धाकालस्तल्लक्षण: समय:क्षणोऽद्धासमय:, स चैक एव वर्तमानक्षणलक्षणः, अतीताना-गतयोरसत्त्वादिति,। कृतं लोकाकाशगतप्रश्नषट्ककस्य निर्वचनम्। अथाऽलोकाऽऽकाशं प्रति प्रश्नयन्नाहअलो(गाऽऽ) याकासे णं भंते ! किं जीवा ? पुच्छा तह चेव, गोयमा! नो जीवाजाव नो अजीवप्पदेसा। एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुयलहुए अणंतेहिं अगरयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वाऽऽगासे अणंतभागूणे। (सूत्र-१२२) 'पुच्छा तह चेव' त्ति- यथा लोकाकाशप्रश्ने, तथाहि-'अलोकाकासे णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवप्पएस' त्ति- निर्वचनं त्वेषां षण्णामपि निषेधस्तथा- 'एगे अजीवदव्वदेस' त्ति- अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य भागरूपत्वात् 'अगरुअलहुए' त्ति- गुरुलघुत्वाव्यपदश्यत्वात् 'अणंतेहिं अगुरुयलहुयगुणेहिं ति-अनन्तैः स्वपर्यायपरपर्यायरूपैर्गुणैः, अगुरुलघुस्वभावैरित्यर्थः / 'सव्वागासे अणंतमागूणे' त्तिलोकाकाशस्यालोकाकाशा- पक्षयाऽऽनन्तभोगरूपत्वादिति। भ.२ श० 10 उ०। (एकेकस्या- काशप्रदेशस्यागुरुलघुपर्याया अनन्ता इति 'अगरुलहुय' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्यम्।) आकाशस्य पर्याया:- नभोव्योमा-5-न्तरिक्षाऽऽ-काशादयः। विशेआकाशंनभस्तारापथोध्यो Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगास 110 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आगासत्थिकाय माऽम्बरमित्यादि। अनु। स्था०। (अस्य बहवः पाया 'आगासत्थिकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वर्णयिष्यते) / अवगाह-दानलक्षणे सर्वद्रव्याधारमूतेमहाभूतविशेषे च। सूत्र०२ श्रु०१ अाशब्दतन्मात्रादाकाशं सुषिरलक्षणम् / सूत्र.१ श्रु०१२ अ.। "शब्दतन्मात्रादाकाशं गन्धरसरूपस्पर्शवर्जियमुत्पद्यत" इति च सांख्या:। सूत्र०१ श्रु०१२ अ। आकाशमिति पारिभाषिकी संज्ञा एकत्वात्तस्या तच्च-"संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोग-विभागाशब्दाख्य: षड्भिर्गुणैर्गुणवत् शब्दलिङ्गचे" ति। (वैशेषिका:।) सूत्र.१ श्रु०१अ०१ऊ। (शब्दस्याकाशगुण-त्वनिराकरणम् 'आगाम' शब्दे अस्मिन्नेव भागे गतम्) (आकाशस्य वर्णगन्धादि 'अत्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे द्रष्टव्यम्) अनावृते स्थानेचा आकाशमनावृतं स्थानम्। प्रश्न०४ सवं द्वार। छिद्रे, गणितादिप्रसिद्ध सूत्राङ्के च। वाच।। आगासग-त्रि. (आकाशग) आकाशगामिनि, वाच / स्वनामख्याते भूतविशेष, प्रज्ञा०१ पद। आगासगमा-स्त्री०(आकाशगमा) गमनं गम: आकाशेन गमो यस्या: सा आकाशगमा। विद्याविशेषे, आ.म०१ अ। तथा चार्य्यवजस्वामिकथायाम्- "पदानुसारिणा तेन, स्वामिना | प्रस्मृता सती। महापरिज्ञाध्ययना-द्विद्योद्दधे नभोगमा''||१|| आ.क. 1 अ. "तेण भगवया पयाणुसा- रित्तणओ पहुट्ठा महापरिन्नातो अज्जयणातो आगासगामिणी विज्जा उद्धरिया, तीएगमणलद्धिसंपन्नो भयवं ति। उक्तमर्थ सम्यगाधायाऽऽहजेणुद्धरिया विज्जा, आगासगमा महापरिण्णातो। वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयधराणं // 769 / / येनोद्धता विद्या आगासगम' त्ति-गमनंगम: आकाशेन गमो यस्यां सा आकाशगमा महापरिज्ञातो- महापरि- ज्ञानामकादध्य- यनात् तमार्यवज्रम् आरात्- सर्वहयधर्येभ्यो जात:-प्राप्तः सर्वैरूपादेयगुणैरित्यार्यः, सचासौ वज्रश्चेति आर्यवज्रस्तं वन्दे, अपश्चिमो यः श्रुतधराणम् दशपूर्वविदाम्। सांप्रतमन्येभ्योऽधिकृतयाञ्चानिषेधख्यापनाय प्रदान निराचिकीर्षुस्तदनुवादतावत्; इदमाहभणइय आर्हिडिज्जा, जंबुद्दीवं इमाइ विज्जाए। गंतूण माणुसनगं, विज्जाए एस मे विसओ 770 / / भणति च वर्त्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वत्। आहिण्डेत्। पाठान्तरं वा'आभणिंसुय हिंडिज्जा' इति, बभाण, हिण्डेत्- पर्यटेत् जम्बूद्वीपमनया विद्यया, तथा गत्वा च मानुषनगं- मानुषोत्तरपवत: तिष्ठेयमिति वाक्यशेषः, विद्याया एष मे विषयो-गोचरः।। भणइ य धारेयव्वा, नहुदायव्वा इमा मए विज्जा। अप्पद्धिया उमणुया, होहिंति अतो परं अन्ने / 771 / / 'भणति चे' ति पूर्ववत्। धारयितव्या प्रवचनोपकाराय, न पुनर्दातव्या इयं मय विद्या। हुशब्द: पुन:शब्दार्थ:, किमित्यत आह- अल्पद्धय एव, तुशब्द एवकारार्थ:, भविष्यन्त्यत: परमन्ये भविष्यत् कालभाविनः। आ. म.१ अ० आगासगय- त्रि. (आकाशक) प्रकाशके, स०३४ सम०। *आकाशगत-त्रि व्योमवर्तिनि, स०३४ समा औ"आगा-सागएणं चक्केणं आगासगरण छत्तेणं" (सूत्र-१०+) आकाशवर्तिना चक्रेण। औ०। बुद्धातिशेषानधिकृत्येत्याहआगासगयं चक्कं, आगासगयं छत्तं, आगासगयाओ सेयचामराओ। (सूत्र-३४४) आकाशगतं- व्योमवर्ति आकाशग (कं) तं वा; प्रकाशमित्यर्थः; च→ धर्मचक्रमिति षष्ठः // 6 // एवमाकाशगं छत्रम्: छत्रत्रयमित्यर्थः इति सप्तमः // 7 // आकाशकेप्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णकइत्यष्टमः / / 8 / / स० 34 समा अत्यर्थ तुङ्गे च। स०। आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामो इंदज्जओ पुरओ गच्छद। (सूत्र-३४+) 'आगासगओ' ति-आकाशगत:- अत्यर्थन्तुङ्गमित्यर्थः। स०३४ सम। आगासगामि-(न) त्रि. (आकाशगामिन) आकाशगे पक्ष्यादौ, आचा। "आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति' (सूत्र-१७७+) अपरे त्वाकाशगामिन:-पक्षिण इत्येवं सर्वेऽपि प्राणा:-प्राणिनोऽपरानप्राणिन आहाराद्यर्थं मत्सरादिना वाक्लेशयन्ति- उपतापयन्ति। आचा०१ श्रु०६ अ.१ऊ। सम्प्राप्ताकाशगमन-लब्धिषु, चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरवायुषु च / "आगासगामि य पुढोसिया जे||१३|| ये केचनाऽऽकाशगामिन:-संप्राप्त-गमनलब्धयश्चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरपक्षिवायवः। सूत्र०१ श्रु०१२ अ! आगासस्थिकाय-पुं०(आकाशास्तिकाय) असन्तयश्चेहप्रदेशा-स्तेषां काय:- सङ्घात: "गणकायनिकाए खंधेवग्गेतहेव रासीय" इतिवचनात्, अस्तिकायः; प्रदेशसंघात इत्यर्थः / प्रज्ञा० 1 पद / स०! कर्मः। उत्त० / आकाशं च तदस्तिकायश्चेत्या-काशास्तिकाय: / प्रज्ञा०१ पद / जी। लोकालोकव्याप्य- नन्तप्रदेशात्मकामूर्त्तद्रव्यविशेषे, अनु०। आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए|६|| आकाशम्- आकाशास्तिकाय; जीवपुद्गलयोरवकाशदाय्याकाशमिति सप्तमो भेदोऽरूप्यजीवस्येति। उत्त० 36 अ॥ (आकाशास्तिकायस्य पर्याया:)आगासत्थिकायस्सणं पुच्छा, गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता,तं जहा-आगासेइ वा आगासत्थिकाएति वा गगणत्ति वा नभेइ वा समेति वा विसमेति वा खहेति वा विहेति वा वीयीत्ति वा विवरेति वा अंबरेति वा अंबरसेति वा छिड्डेति वा जुसिरेति वा मग्गेति वा वि-मुहेति वा अ(हे)हति वा वियद्दे(दे)ति वा आधारेति वावोमेति वा भायणेति वा अंतररिक्खेति वा सामेति वा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगासात्थकाय 999 आमधानराजन्द्रः भाग 2 आगासाथग्गल 5541) उवासंतरेति वा अगमेति वाफलिहेति वा अणंतेति वा, जेयावण्णे यावच्छतमपि तेषां तत्र माति,तथौषाधिविशेषा-पादितपरिणामादेकत्र तहप्पगारा सवे ते आगासत्थिक, यस्स अभिवयणा / (सूत्र- पारदकर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति, पारदकर्षीभूतं च सदौषधिसाम६६४+) र्थ्यात्पुन: पारदस्य कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात्पुद्गल'आगासे' त्ति-आ-मर्यादया, अभिविधिना वा; सर्वेऽर्थाः काशन्ते- | परिणामस्येति, 'अव-गाहणालक्खणेणं' तिइहाऽवगा-हनाश्रयभावो प्रकाशन्ते स्वस्वभावं लभन्ते यत्र तदाकाशम्, 'गगणे' त्ति- 'जीवत्थिकाएण' मित्यादि, जीवास्तिकायेनेति अन्तर्भूतभावप्रत्ययअतिशयगमनविषत्वाद्गगनं निरुक्तिवशात्,'नभे' त्ति-न भाति-नदीप्यत त्वाज्जीवा-स्तिकायत्वेन; जीवतयेत्यर्थ: / भ० 13 श०४ उ०। इति नभः 'समे' त्ति-निम्नोन्नतत्वाभावा- त्समम्, "विसमे' त्ति- | आगासत्थिकायदेस-पुं०(आकाशास्तिकायदेश) आकाशादुर्गमत्वाद् विषमम्, 'खहे' त्ति-खनने भुवो हाने च त्यागे यद्भवति स्तिकायस्य बुद्धिकल्पिते व्यादिप्रदेशात्मके विभागे, प्रज्ञा०१ तत्वखहमिति निरुक्तिवशात्, "विहे' त्ति- विशेषेण हीयते- त्यज्यते पद। जी। अस्यारूप्यजीवत्वम्-"आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य तदिति विहायः, अथवा-विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विहम, आहिए।६+I" आकाशस्य देश: कतमो विभाग: आकाशास्तिकायदेश 'वीइ'त्ति- वेचनाद्विविक्तस्वभावत्वाद्वीचि: 'विवरे' त्ति-विगतवरणतया इत्यष्टमो भेदोऽरूप्यजीवस्या उत्त० 36 अ। विवरम्, 'अंबरे' त्ति-अंबेब-मातेव जननसाधादम्बा-जलं तस्य आगासत्थिकायप्पएस- पुं० (आकाशास्तिकायप्रदेश) आकाशाराणाद्- दानान्निरुक्तितोऽम्बरम्, 'अंबरसे'त्ति-अम्बा- पूर्वोक्तयुक्त्या स्तिकायस्य निर्विभागे भागे, प्रज्ञा०१ पद / जी०। अस्थारूप्यजलं तद्रुपो रसा यस्मान्निरुक्तितोऽम्बरसम्, 'छिडु त्ति- जीवत्वम् / "आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य आहिए''||६+ll छिदश्छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रम् 'जुसिरे' त्ति-जुषे: शुषेः शोषस्य तस्याकाशास्तिकायस्य निरंशोदेशस्तत्प्रदेश आकाशास्ति-कायप्रदेश दानाष्छु षिरम्, 'मग्गे'त्ति-पथिरूपत्वान्मार्गः 'विमुहे' त्ति- इति नवमो भेदोऽरूप्यजीवस्येति / उत्त० 36 अ। मुखस्यादेरभावाद्विमुखम्, 'अद्दे' त्ति-अद्यते-गम्यते, अअठ्यते वा आगासथिग्गल-न. (आकाशथिग्गल) शरत्कालिके मेघविनिर्मुक्त अतिक्रम्यतेऽनेनेति अई: अट्टोवा, "विय(हे) हे'त्ति-सएव विशिष्टोव्यो आकाशखण्डे, / कृष्णमणिवर्णनमाधिकृत्य-"आगासथिम्गलेइ वा' व्यहोवा। आहारे' ति-आधारणादाधार: 'वोमे त्ति-विशेषेणावनात् (सूत्र-१२६+) आकाशथिग्गलं-शरदि मेघविनिर्मुक्तमा-काशखण्डं तद्धि व्योम, 'भायणे' त्ति-भाजनात्-विश्वस्याश्रयणाद्भाजनम्, 'अंतलि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानम्। जी.३प्रात०४ अधि०१ऊाजं। क्खेत्ति- अन्त:- मध्ये ईक्षा-दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षम्, 'सामे'त्ति आ.मा श्यामवर्णत्वाच्छ्यामम्, "उवासंतरे' त्ति-अवकाशरूपमन्तरं न (तच्च केन स्पृष्टमित्याह)विशेषादिरूपमित्यवकाशान्तरम्, 'अगमे' त्ति-गमनक्रि यार आगासथिग्गले णं मंते ! किण्णा फुड़े कइहिं वा काएहि हितत्वेनागम्, 'फलिहे' त्ति-स्फटिकमिव स्वच्छत्वात्स्फटिकम्, फुडे किं धम्मत्थिकारणं फुड़े धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे 'अणंते' त्ति- अन्तर्वर्जितत्वात्। भ० 20 श. 2 उ०। (आकाशस्य धम्मत्थिकायस्स पदेसे हिं फुड़े , एवं अधममत्थिकारणं वर्णगन्धादिकम् 'अस्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे गतम्) आगासत्थिकारणं एएणं भेदेणं जाव पुढवीकाएक फुड़े जाव आकाशास्तिकायस्य जीवाजीवद्रव्याधारत्वम् तसकाएणं फुड़े अद्धा समएणं फुड़े ? हंता गोयमा ! आगासत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं, अजीवाणं य किं धम्मत्थिकारणं फुडे, नो धम्मत्थिकायस्स देसेहिं फुडे, पवत्तइ ? गोयमा ! आगासस्थिकाए णं जीवदवाण य धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे,एवं अधम्मत्थिकायेण विनो अजीवदव्वाण य भायणभूए-"एगेण विसे पुण्णे, दोहि विपुग्ने आगासत्थिकाएणं फुडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे सयं पि माएज्जा / कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं आगासस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे जाव वणस्सइकाएणं फुडे, पि माएज्जाशा" अवगाहणालक्खणेणं आगासत्थि- एवं तसकाइएणं सिय फुडे, सियनो फुडे, अद्धा समएणं देसेणं काए। (481+) फुडे 1 (188x) 'आगासत्थिकाए णभि' त्यादि।जीवद्रव्याणां चाजीवद्रव्याणां च भेदेन आगासथिगलेणं भन्ते! इत्यादि,आकाशथिग्गलमलोकः स हि महतोभाजनभूतः अनेन चेदमुक्तं भवति- एतस्मिन्सति जीवादीनामवगाह: बहिराकाशस्य विततपटस्य थिग्गलमिव प्रतिभाति, भदन्त! केन स्पष्टो प्रवर्तते एतस्यैव प्रश्नितत्वादिति, भाजनभावमेवास्यदर्शयन्नाह-'एगेण व्याप्त:, एतत् सामान्येन स्पृष्टमेतदेव विशेषत: प्रश्नयति- कतिभिः वी' त्यादि, एकेन परमाण्वादिना। 'से' त्ति-असौ आकाशास्ति- कियत्सख्याकै कायैः स्पृष्टः वाशब्द: पक्षान्तरद्योतनार्थ: प्रकारान्तरं च कायप्रदेश इति गम्यते, पूर्णो भृतस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यामसौ पूर्णः | सामान्याद्विशेषत:तान्कायान्प्रत्येकंपृच्छन्ति-'किंधम्मत्थिकारणफुडे कथम-तद् ? उच्यते - परिणामभेदात्, यथा- अपवरका- इत्यादि, सुगमं, भगवानाह-हे गौतम! धर्मास्तिकायेन स्पृष्टः ऽऽकाशमेकप्रदीपभापटलेनाऽपि पूर्यते, द्वितीयमपि तत्तत्र माति | धर्मास्तिकायस्यसर्वात्मनातत्रावगाढत्वात, अतएवनोधर्मास्तिकायस्यदेशेन Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगासथिग्गल 112 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आघअज्जयण स्पृष्टो यो हि येन सर्वात्मना व्याप्तो नासौ तस्यैव देशेन व्याप्तो भवति- | आगासमग्ग- पुं. (आकाशमार्ग) द्रव्यमार्गभेदे, सूत्र.१ श्रु०११ विरोधात्, प्रदेशैस्तु व्याप्तः। सर्वेषामपि धर्मा-स्तिकायप्रदेशानां अा आकाशमार्गो विद्याधरादीनाम्। सूत्र.१ श्रु०११ अा तत्रावगाढत्वात्, एवमधर्मास्तिकाय-विषयेऽपि, निर्वचनं वाच्यम्। तथा आगासातिवाइ (न)-पु.(आकाशतिपातिन) आकाशम्व्योम नो आकाशास्तिकायेन सकलेन द्रव्येण स्पृष्टः, आकाशास्तिकाय- अतिपततीति। आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा देशमात्रत्वाल्लोकस्य, किन्तु-देशेन व्याप्त:। प्रदेशैश्च पृथिव्यादयोऽपि आकाशमतिकामति, आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं सूक्ष्मा: सकललोकापन्ना वर्त्तन्ते ततस्तैरपि सर्वात्मना व्याप्त:, वा अतिशयेन पातयतीत्येवंशीले च। औ०१५ सूत्र। 'तसकाइएणं सिय पुढे इति, यदा वेचली समुद्धातंगत: सन्चतुर्थे समये *आकाशादिवादिन- पुं. (अमूर्तानामपि) पदार्थानां साधनवर्त्तते तदा तेन स्वप्रदेशै: सकललोकपूरणात् त्रसकायेन स्पृष्टः केवलि समर्थवादिनि, औ०। "अप्पेगइया विउलमइविउव्विणिड्डिपत्ता चारणा नस्त्रसकायत्वात्, शेषकालं तुन स्पृष्ट: सर्वत्र त्रसकाय-नामभावात्। विज्जाहरा आगासातिवाइणो" (सूत्र-१५+) 'आगासातिवाइ' त्तिप्रज्ञा०१५पदउा आकाशव्योमातिपतन्तिअतिक्रामन्ति। आकाशगामिविद्याप्रभावात् आगासपइट्ठिय-त्रि०(आकाशप्रतिष्ठित) आकाशं-व्योम तत्र प्रतिष्ठितो- पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशादा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्ट वा व्यवस्थितआकाशप्रतिष्ठितः / आकाशव्यवस्थिते, "आगासपइहिए अतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकाशातिपातिन: / आकाशादिवादिनो वाए" (सूत्र- 2864) / स्था० 3 ठा० 1 उ० भ०! "तप्पइट्ठिओ वा। अमूर्तानामपि पदार्थानां साधनसमर्थवादिन इति भावः / औ०। लोगो"||१२३+तत्प्रतिष्ठितो लोकस्तत्-इत्यनेनाकाशपरामर्शस्त- आगासिउं- अव्य. (आक्रष्टुम् ) हठात्समाकृष्यात्मन: समीपस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितसतत्प्रतिष्ठितः; प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थ: / दश. ___ मानेतुमित्यर्थे, विशे। 10ii आगासिय- त्रि. (आकर्षित) आकृष्टे, उत्पाटिते, और। आगासपंचम-पुं०(आकाशञ्चम) आकाशं-सुषिरलक्षणम्। तत्पञ्चमं यषां *आकाशित- त्रि. आकाशम्- अम्बरम् इत:- प्राप्त:। आकाशं गते, तानि। पृथिव्यादिके पञ्चमहाभूते, सूत्र। "पुढवी आउ तेऊ, वाउ "आगासियाहिं से अचामराहिं / (सूत्र-१०+) आकाशम्आगासपंचमा ||7|| सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अम्बरमिताभ्यां- प्राप्ताभ्याम, आकर्षिताभ्यां वा; आकृष्टा- भ्याम्आगासपय-न. (आकाशपद) सिद्धश्रेणिकपरिकर्मश्रुतभेदे, स. 147 सूत्र / उत्पाटिताभ्यामित्यर्थः / औ.! आगासप्पएस- पुं (आकाशप्रदेश) आकाशस्य निर्विभागे भागे, प्रज्ञा०१ | आगिइत्तिग-नं. आकृतित्रिका आकृतयः- संस्थानानि षट्संहन-नानि पद। षोडशाकाशप्रदेशा: / सूत्र.१ श्रु०१ 101 उ०। षट् जातयः पञ्चेत्येवं सप्तदशके आवृत्त्युपलक्षिते त्रिके, आगासफलिह (फालिय) पु. (आकाशस्फटिक) आकाशमिव कर्म.५ कर्मी यदत्यन्तमच्छं-स्फाटकमाकाशस्फटिकम्। स०३४ सम। अतिस्वच्छे | आगु-पुं. (आकु(गु)'अक' 'अग' कुटिलायां गतौ, उण अभिलाषायाम्, स्फटिकविशेषे / "आगासफलिहामएणं सपायपीढेणं सीहासणेणं" आव। "सक्को वंसठ्ठवणा इक्खुअगूतेण हुंति इकखागा'"'अक' 'अग' (सूत्र-५+टी.)। आकाशस्फटिकमतिस्वच्छं स्फटिकविशेषस्तन्म- कुटिलायां गतौ, अनेकार्थ-त्वाद्धातूनाम्। अकधातोरीणादिकेउणप्रत्यये येनोपलक्ष्यत इति गम्यम् / भ. 1 श०१ उ.1 जं। रातआकाशे भव: आगुशब्दे-ऽभिलाषार्थः; तत: स्वामी इक्षो: आकुना-अभिलाषेण करं, स्फटिक इव वर्षोपले काख्ये संहतजलखण्डे तदुत्पादविलयौ प्रासारयत् शक्र आर्पयत् तेन कारणेन भवन्ति इक्ष्वाकुवंशभवा श्रीपतिराह- "उद्भूतैः पांसुभिर्भूमेः, प्रचण्डपवनोचयात्। मेघमण्डल- ऐक्ष्वाका: / आ. क.१०॥ मानीतै-मालिन्य-परिवर्जितैः // 2 // मिश्रणाज्जलबिन्दूना, पिण्डभावो आग्धाण-त्रि (आघ्राण) आ-ध्रा-क्ता प्रहीतगन्धे पुष्पादौ, नासिकया भवेदिहा दृषद्वन्निपतन्त्येते, द्रवन्ते च पुन: क्षितौ // 2 // " वाचा यस्य गन्धज्ञानं जातम्।तस्मिन्, तृप्ते च। भावेक्त। गन्धग्रहणे, तृप्तौ च / आगास(फलिह)फालियसरिसप्पह- त्रि. (आकाशस्फ- नावाचा "आप्रेराइग्धः" |13|| इति आइग्घादेश: आइग्घइ। टिकसदृशप्रभ) आकाशस्फटिकयोराकाशरूपस्फटिकस्य वा सदृशी आग्घाइ। प्रा०1 प्रभा येषां तानि तथा / आकाशस्फटिकतुल्ये, औ०। आघ- त्रि. (आख्यातवत्) कथयितरि, सूत्र। "आघं मईमं अणुवीय आगास(फलिहा)फालियामय त्रि. (आकाशस्फटिकमय) धम्म''||१४|| आघं ति-आख्यातवान्। सूत्र०१ श्रु०१० अा अतिस्वच्छस्फटिकविशेषमये, भ.१श०१ऊ।"आगास-फालियामयं | आघअज्जयण- न. (आख्यातवदध्ययन) सूत्रकृताङ्गप्रथमसपायपीढं सीहासणं" (सूत्र-३४+) / आकाशमिव यदत्यन्तमच्छं श्रुतस्कन्धस्य समाध्यध्ययनापरनामधे ये दशमे ऽध्ययने, स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सपादपीठम्। स०३४ समा रा! आकाशतुल्यं सूत्र०। नियुक्ति कृ दाह-"आयाणपदेणाऽऽधं, गोणं णाम पुणो स्वच्छतआ यत् स्फटिकं तन्मयेन सपादपीठेन सिंहासनेनेति। औ०। समाहि ति" [19034|| आदीयते- गुह्यंत प्रथममादौ यत्त Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादानम् आदानंचतत्पदं च सुवन्तं तिङन्तं वा तदादानपदंतेनाऽऽधन्ति आघसंत-त्रि. (आघर्षण) ईषद्घर्षणं कुर्वति, नि, चू. 17 उ०। नामास्याध्ययनस्य यस्मादध्यानादाविदं सूत्रम् / सूत्र. 1 श्रु. 10 अ०। | आघसावण- न. (आघर्षण) ईषद्घर्षणे, नि.चू। (अत्र विशेष: दृष्टान्तश्च' समाहि' शब्दे सप्तमे भागे दर्शयिष्यते।) जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दंते अण्णउत्थिएण वा आघंसण- न. (आघर्षण) भावे ल्युट् मर्दने, वाचः। ईषत् घर्षणे, गारित्थएण वा आघसावेज्ज वा पघसावेज्ज वा आघसंतं वा "आघंसेज्जवा" (सूत्र-६७४)। ईषत्पुन: पुनर्वाधषयेद्। आचा०२ श्रु.१ पघसंतं वा साइज्जइ |13|| नि.चू, 17 उ.। चू०२ अ 1 उ.। आघाण- न. (आख्यान) कथने, -आचा. "आघाइ णाणी' जे भिक्खू अप्पणो दंते आघंसेज्जवा पघंसेज्ज वा आघसंतं (सूत्र 1314) / ज्ञानी आख्याति-आचष्टे। आचा०१ श्रु०४ अ. २ऊ। वा पघसंतं वा साइज्जइ ||17|| आघाय-त्रि. (आख्यात) आ-ख्या-कर्मणि क्ता कथिते, वाचा।''आघायं एक्कदिणं-आघसणं, दिणे दिणे पघंसणं ति। निचू.३ऊ। तु सोचा' (सूत्र-१८८४)| आख्यातमेवैतत् कुशीलविपाकादिकं श्रुत्वा आघवत्ता- त्रि. (आख्यातृ) आख्यायके (प्रज्ञापके) स्था० 4 ठा० 4 उ.। निशम्येति। आचा०१ श्रु०६ अ०४ ऊ। भावेक्ताआशये चा न.।"आघायं आघवण-न. (आख्यान) सामान्यविशेषाभ्यां कथने, "आघविज्जंति" पुण एगेसिं' (18+II) / नियतिवादिनां पुनरेकेषामेतदाख्यातम्, अत्र च-"अविवक्षितकर्मका अपि अकर्मका भवन्तीति ख्यातेर्घातो-र्भावे (सूत्र- 1374) / प्राकृतशैल्या- आख्यायन्ते सामान्यविशेषाभ्यां | कथ्यन्ते इत्यर्थः / स०। आव! आख्यापने, सामान्यविशेषरूपेण कथन्, निष्ठाप्रत्ययस्तद्योगे कर्तरि षष्ठी; ततश्चायमर्थ:- तैर्निय-तिवादिभिः "दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेइ" (सूत्र- 750x) / सामान्यविशेषरूपत पुनरिदमाख्यातं; तेषामयमाशय इत्यर्थः / सूत्र०१ श्रु.१०२ उ०। आख्यापयतीति। स्था० 10 ठा. ३ऊ। *आघात-पुं। आ-हन्-घञ्। वधे, आहनने, ताडने च। आधारे घञ्। वधस्थाने, वाच, आहन्यन्तेअपनयन्ति विनाश्यन्ते प्राणिनांदशप्रकारा *आग्रहण- ना आदाने, अनु०। आपे प्राणा यस्मिन् स आघात: / मरणे, सूत्र.१ श्रु.९ अ०। *आग्राहण- ना आदापने, भ.९श०३१ उ.। आघायकि ब-न (आघातकृत्य) अग्निसंस्कारजलाञ्जलि*अर्थापन- ना प्रतिपादनत: पूजाप्रापणे, भला ''वेचलिपण्णत्तं धर्म प्रदानपितृपिण्डदिकेमरणकृत्ये, सूत्रा। आघवेज्ज वा' (सूत्र-३६८४)। आग्राहयेच्छिध्याना- पयेद्वा आघायकिच्छमाहेरा, नाइओ विसएसिणो। प्रतिपादनत: पूजां प्रापयेदिति। भ०९श०३१ उ०। हरंति अन्ने तं वित्तं, ||4|| आघावणा-स्त्री. (आख्यापना) आख्याने, उपा०। "बहूहिं आघवणाहि आहन्यन्ते- अपनयन्ति; विनाश्यन्ते प्राणिनां दशप्रकारा अपि प्राणा य" (सूत्र-४४४)|"आधवणाहि य' त्ति-आख्यानैः / उपा०७ अ। तच्च यस्मिन् स आघातो मरणं, तस्मै तत्र वा कृतमग्निसंस्कारजलासामान्यत: प्रतिपादनम्- "आघवणाहि य" (सूत्र-२३+)। ञ्जलिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यं तदाधातुम् आघाय-कृत्वा आख्यापनाभिश्चसामान्यत: प्रतिपादनैः / ज्ञा० 1 श्रु.१ अ। निः। भ.। पश्चात् ज्ञातयः-स्वजनाः; पुत्र- कलत्रभ्रातृव्यादयः, किम्भूता: ? आघवित्तए- अव्य. (आख्यातुम्) भणितुमित्यर्थे, अन्त० 1 श्रु०३ वर्ग 8 विषयानन्वेष्टं शीलं येषांते, अन्येऽपि विषयैषिण: सन्तस्तस्य दु:खाऽर्जितं अभा वित्तं- द्रव्य-जातम्-अपहरन्ति-स्वीकुर्वन्ति। सूत्र०१ श्रु 9 अ। आघविय-त्रि० (आख्यात) आ-ख्या-कर्मणि-क्ता कथिते, वाचा आ (घ) घायण- न. (आघातन) वधस्थाने, वाच। "तत्थ णं महं एगं "भगवया महावीरेणं आघविए' (सूत्र-७७४)। 'आघविए' त्ति आघातणं पासंति' (सूत्र-८४) 'आघायणं ति-वध- स्थानम्। ज्ञा० 1 आषत्वादाख्यात इति। उत्त, 29 अ। श्रु०९।"आघायणपांडदुवारसंपाविया'' (सूत्र-१२४) आघातनस्य *आगृहीत- त्रिला आदत्ते, "आवस्सए त्ति पयं आघवियं पन्नवियं / वध्यभूमिमण्डलस्य प्रतिद्वारं संप्रापिता। प्रश्न०३ आश्र द्वार।"असिवो परूवियं" ग.२ अधिः। आधवियं ति-प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचगुरो: मा०"|१४५६ +|| आघायणति जत्थ वा महासंगाममया बहू। आ०चू०४. सकाशादागृहीतम्। अनु०। अ०f आवळा भावे ल्युट्। हनने, वाच०। *आग्राहित-त्रि०ा आदापिते, भ०९ श० 31 उ०। आधुम्मिय-त्रि. (आपूर्णित) आ-घूर्ण-क्ता "घूर्णेघुल-घोल-घुम्म*अर्थापित-त्रिका प्रतिपादनेन पूजां प्रापिते," केवलिपण्णत्तं धर्म | पहल्ला: "IA917 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेणैते चत्वार आदेशा: / प्रा०। आघवेज्ज वा" (सूत्र-३६८)। आग्राहयेच्छिष्यान्, अर्थापयेद्वा- चलिते, भ्रान्ते च। वाच। धुलइ। घोलइ। घुम्मइ। पहल्लइ। प्रा०४ पाद / प्रतिपादनत: पूजां प्रापयेद् / भ०९ श०३१ उ०। आघुलिस-त्रि. (आघूर्णित) आधुम्मिय' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। आघवेमाण-त्रि (आख्यात्) कथयति, आव० 3 अ। आघोलिय-त्रि. (आधूर्णित) आधुम्मिय' शब्दार्थे, प्रा०४ पाद। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचंदसूरिय 114 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आजीव आचंदसूरिय- न. (आचन्द्रसूर्य्य) यावचन्द्रसूर्योतावदित्यर्थे, पञ्चा। | आचन्दसूरियं तह, होइइमा सुप्पतिहत्ति / / 34|| आचन्द्रसूर्य- चन्द्रसूर्यो यावत्तावद् भवतु-अस्तु, इयम्- अधिकृता सुप्रतिष्ठा- शोभनावस्थानम्। पञ्चा०८ विक। आचेलक्क- त्रि० (आचेलक्य) न विद्यते चेलं-वस्त्रं यस्य स:अचेलकस्तस्य भाव आचेलक्यम् / विगतवस्त्रत्वे, कल्प, 1 अधि० 1 क्षण / तदात्मके कल्पभेदे च / आचेलक्यधर्मोपेतत्वा-दाचेलक्यः / चारित्रलक्षण धर्मे च। पुं।"आचेलक्को धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणस्स''||१२+|| पञ्चा० 17 विक। (भेदादिबहुवक्तव्यता 'अचेल (ग) शब्दे प्रथमभागे गता) आचोक्ख-पुं. (आचोक्ष) अष्टमे पिशाचनिकाये, प्रज्ञा० 1 पद। आजम्म- अव्य. (आजन्मन) यावज्जीवमित्यर्थे, "वसिज्ज तत्थ आजम्म, गोयमा ! संजए मुणी '19| आजन्म-जीवितकालमभिव्याप्य; यावज्जीवमित्यर्थः / ग.१ अधिः। आज (य) वंजवीभाव-पुं. (आजवंजवीभाव) पुन: पुनर्गमना- गमने, "आरंभसत्ता पकरंति संग" (सूत्र-६०+)। संगाच पुनरपि संसारआजवंजवीभावरूपः / आचा०१ श्रु.१ अ०७ उ.। "एस मरणा पमुच्चइ" (सूत्र- 1114) मरणाद् - आयु:क्षयलक्षणान्मुच्यते आयुषो बन्धनाभावात्, यदिवा-आजवंजवीभावात्, आवीचि-मरणाद्वा सर्व एव संसारो मरणं तस्मात्प्रमुच्यते। आचा०१ श्रु०३ अ० 2 ऊ। आजा(या)इ- स्त्री. (आजाति) आ-जन् तिन् / आजन-नमाजाति:। स्था. 10 ठा. 3 उ० / "आइण्णाऽऽजाइ'' |7x|| आजायन्ते तस्यामित्याजाति:। आचा.१ श्रु.१ अ १ऊ। (कतिविधा सा आजाति: इति 'आयारंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) आजनने, जन्मान, "ताडयित्वा तृणेनापि, संवादान्मतिपूर्वकम्। एकविंशतिमाजाती:, पापयोनिषु जायते" |||"साक्ष्येऽनृतं वदन्पाशै-वध्यते वारुणैर्भृशम् / विवश: शतमा जाती-स्तस्मात् साक्ष्ये वदेदृतम्' इति च मनुः / वाचा आजननमाजाति: / सम्पूर्छतगर्भोपपाततो जन्म। स्था०१० ठा०३ उा आजाति:-ततश्च्युतस्य मनुष्यजन्म।स्था०८ ठा०३ऊाआजायन्ते तस्यामित्याजाति:, साअपि चतुर्की-व्यतिरिक्ता, मनुष्यादिजाति:, भावाऽऽजातिस्तु, ज्ञानाद्याचार-प्रसूतरयमेव ग्रन्थ इति। आचा०१ श्रु.१ अ०१ऊ। *आयाति-स्त्री. आगतौ, आजाति-जन्म।आयाति:- आगतिः / स्था. 3 ठा० ३ऊ। आयाति:-गर्भान्निष्क्रम: / स्था०२ ठा. 3 उ०। आजीव-पुं०(आजीव) आजीवनमाजीव: / भावे घञ् / जीविका-याम, प्रव०६७ द्वार आजीवनार्थमालम्बने, वाचः। आसमन्ताज्जीवन्त्यनेनेति आजीव: / अर्थनिवये, सूत्र०१ श्रु०१३ अ। आजीविकायाम्, व्य. 1 उ०। आत्मवर्तनोपाय, सूत्र 1 श्रु०१३ अ०। वाचः। आजीवमेयं तु अवुज्जमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ||12| आजीवम् - आजीविकाम्; आत्मवर्तनापायं कुर्वाण: पुन: पुन: संसारकान्तारे विपर्यासं- जन्मजरामरणरोगशोकोपद्रवम् उपैतिगच्छति तदुत्तरणायाभ्युद्यतो वा तत्रैव निमज्जतीत्ययं विपर्यासः / सूत्र 1 श्रु०१३ अ। आजीवनं- जातिकुलगण-कर्मशिल्पानां गृहस्थसमानाभिधानत उपजीवनम्- आजीवाः। उत्पादनादोषविशेषे, पञ्चा० 13 विका जात्यादिकथनाद् आजीवनम् आजीव: / ग०१ अधि। आजीवस्य भेदादिकमाजीवपिण्डदोषस्य स्वरूपादिकञ्चजाई-कुल-गणकम्मे, सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा। सूयाएँ, असूयाए, व अप्पाणं कहेहि एक्कक / / 437|| आजीवना पञ्चविधा, तद्यथा- जातिविषया; जातिमाजीवनी करोतीत्यर्थः, एवं- कुलविषया, गणविषया, कर्मविषया, शिल्पविषया च। सा चाजीवना एकैकस्मिन् भेदे द्विधा, तद्यथा- सूचया आत्मानं कथयति। असूचया च, तत्र सूचा-वचनभङ्गिविशेषेण कथनम्, असूचा स्फुटवचनेन। तत्र जात्यादीनां लक्षणमाहजाई कुले विभासा, गणो उ मल्लाइ कम्म किसिमाई। तूणादि सिप्यणाव-ज्जगं च कम्मे य आवज्जे ||438| जातिकुले विभाषा-विविधं भाषणं कायं, तचैवम् - जाति:ब्राह्मणादिका, कुलम्- उग्रादि। अथवा- मातृसमुत्था जाति:, पितृसमुत्थं कुलम् / गणो- मल्लादिवृन्दम् / कर्म- कृष्यादि, शिल्पं- तूर्णादि: तूर्णनसीवनप्रभृति / अथवा- अनावर्जकम्- अप्रीत्युत्यादकं कर्म, इतरत्तु-आवर्जकं प्रीत्युत्पादकं शिल्पम्, अन्ये त्याहु:-अनाचार्योपदिष्टं कर्म, आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति। पिं.। (तत्र जातिलक्षणम्, तद्व्यवस्था च 'जाई' शब्दे चतुर्थे भागे दशेयिष्यते।) (कुललक्षणम्, तद्भेदा:, तद्-व्यवस्थाच'कुल' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते!) (आदिजिनो भगवान् प्रथमम् उग्र-भोग-राजन्य-क्षत्रियलक्षणानि चत्वारि कुलानि स्थापितवान् इति 'उसभ (ह) शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शयिष्यते।) (कुलकर्ताशेऽत्येऽपि सन्ती- 'कुलगर' शब्दे तृतीयभागे विस्तरतो दर्शयिष्यते।) (गणलक्षणम्, तद्व्यवस्था च 'गण' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यतो) (कर्मलक्षणम्, तदिस्तरश्च'कम्म' शब्दे 3 भागे दर्शयिष्यते। तत् प्रकृतयश्च'कम्मपयडि' शब्दे तस्मिन्नेव 3 भागे दर्शिता भविष्यन्तिा) (शिल्पलक्षणम्, तस्य पञ्च मूलभेदा:, पुनस्तेषां प्रत्येक विंशति: विंशति: भेदा: सन्तीति प्रतिपादनम् 'सिप्प' शब्दे सप्तमभागे वक्ष्यते / ) शिल्पशतभेदा: कालनिधौ. विस्तरत: 'भरह' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते।) तत्र यथा साधुः सूचया स्वजातिप्रकटनाज्जातिमुपजीवति तथा दर्शयतिहोमायवितहकरणे, नज्जइजह सोत्तियस्स पुत्तो ति। वसिओ वेस गुरुकुले, आयरियगुणे व सूइए / / 139|| Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीव 115 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आजीव साधुर्भिक्षार्थमटन् ब्राह्मणगृहे प्रविष्ट: सन् तस्य पुत्र होमादि-क्रिया: कुर्वाण दृष्टा तदभिमुख प्रति स्वजातिप्रकटनाय जल्पति होमादिक्रियाणामवितथकरण एष एव पुत्रो ज्ञायते- यथा श्रात्रियस्य पुत्र इति।यादवा-उषितएष सम्यग्गुरुकुले इतिज्ञापते। अथवा-सूचयतिएष तव पुत्र आत्मन आचार्य्यगुणान् ततो नियमदिप महानाचार्यो भविष्यतीति। तत एवमुक्त स ब्राह्मणो वदति साधो ! त्वमवश्य ब्राह्मणो येनेत्थं होमादीनामवितथत्वं जानासि, साधुश्च मौनेनाऽवतिष्ठते, एतच सूचया स्वजातिप्रकटनम्, अत्रच अनेकेदोषाः, तथाहि-यदि स ब्राह्मणो भद्रकस्तर्हि स्वजातिपक्षपातात्प्रभूत- माहारादिकं दापयति। तदपि च जात्युपजीवनानमित्तमिति भगवता प्रतिषिद्धम, अथ प्रान्तस्तर्हि भ्रष्टाऽयं पापाऽऽत्मा ब्राह्मण्यं परित्यक्तमिति विचिन्त्य स्वगृहनिष्काशनादि करोति, असूचया तु जात्या जीवनं पृष्टोऽपृष्टो वा आहा राद्यर्थं स्वजाति प्रकटयति- यथा- 'अहं ब्राह्मण' इति, तत्राऽप्यनन्तरोक्ता एव दोषा:, एवं क्षत्रियाऽदिजातिष्वपि, प्रविष्टोऽपि, एवं कुलादिष्वपि भावनीयम्। पिंछा प्रकला एतदेव किचिंव्यक्तीकुर्वन्नाहसम्ममसम्मा किरिया, अणेण ऊणाहिया च विवरीया। समिहामंताहुयट्ठा- जागकाले य घोसाई ||44011 साधुभिक्षार्थमटन क्वचित् ब्राह्मणगृहे प्रविष्टः सन् तस्य पुत्रं होमाऽऽदिक्रिया: कुर्वाणं दृष्ट्रा पितरं स्वजातिप्रकटनाय जल्पति अनेन तव पुत्रेण सम्यक् असम्यग्वा होमादिका क्रिया कृता, तत्राऽसम्यक् त्रिधा, तद्यथा- न्यूना, अधिका, विपरीता वा / सम्यक् समिधादीन्घोषादींश्च यथावस्थितानाश्रित्य तत्र समिधः- अश्वत्थादिवृक्षाणां प्रतिशाखाखण्डानि, मन्त्रा:- प्रणवप्रभृतिका अक्षरपद्धतयः, आहुति:- अग्नौ घृतादे प्रक्षेपः, स्थानम्- उत्कुटादि, यागः अश्वमेधादिः, काल:प्रभातादिः, घोषा: उदात्तादय:, आदिशब्दात्-हस्वदीर्धादिधर्मपरिग्रहः, एवं चोक्ते स साधुं ब्राह्मणं जानाति। तथा च सति भद्रे, प्रान्ते वा पूर्ववत् दोषा वक्तव्याः / उक्तं जातेरुपजीवनम्। अथकुलाद्यपजीवनमाहउग्गाइकुलेसु वि एवा- मेव गणिमण्डलप्पवेसाइ। देउलदरिसणभासा-उवणयणे दंडमाईया ||4|| एवमेव-जात्यादिवत्कुलादिष्वपि उग्रादिषूपजीवनभव- गन्तव्यम्, यथा कोऽपि साधुरुग्रकुले भिक्षार्थ प्रविष्टस्तत्र च तत्पुत्रं पदातीन् यथावदारक्षककर्मसु नियुञ्जानं दृष्ट्वा तत्पितरमाह- योऽयं 'ते' तव पुत्रोऽप्रवेदितोऽपि यथायोगं पदातीनां नियोजनेनोग्रकुले सम्भूत इति। तत: स जानात्येषोऽपि साधुरुग्रकुलसमुत्पन्न इति, इदं तु सूचया स्वकुलप्रकाशनम्, यदा तुस्फुटंवां चैप स्वकुलमावेदयतियथाहमुग्रकुलो भोगकुल इत्यादि / तदा असूचया प्रकटनं तेषा भद्रप्रान्तत्वे पूर्वोक्तानुसारेण दोषा वक्तव्याः। तथा-'गणे'-गणविषये मण्डलप्रवेशादि इहाङ्कखलकेप्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यल्लभ्यं भूखण्ड तन्मण्डलं तत्र वर्तमानस्य प्रतिद्वन्द्विनो मल्लस्य विबोधाय य: प्रवेशस्तदादिशब्दात्ग्रीवा ग्रहादिपरिग्रहः, तथा देवाकुलदर्शनं युद्धप्रदेशे चामुण्डाप्रति माप्रणमनं, भापोपनयनं प्रतिमल्लह्वानाय तथा तथा वचनढौकनं दण्डादिका: धरणि-पातच्छुप्ताङ्कयुद्धप्रभृतयः, एतान् गुणान् गृह प्रविष्ट: सन्तत्पुत्रस्य प्रशंसात, तथा च सति तेन ज्ञायते- ययैषाऽपि साधुर्मल्ल इत्यादि प्राग्वत्। कर्म-शिल्पयागजीवनमाहकतरि पओयणावे- क्खवत्थुबहुवित्थरेस एमेव। कम्मेसु य सिप्पेसु य, सम्ममसम्मेसु सू इयरा 442|| कर्मसु, शिल्पषुच एवमेव-कुलादाविवोपजीवनं वक्तव्यम्, कथमित्याह'कर्त्तरि' कर्मणां शिल्पानां च विधायके, उपलक्षणमेतद्विधायके च वणिजादौ, सप्तमी चात्र षष्ठ्यर्थे, ततोऽयमर्थ:- कर्तुः कारापकम्य च प्रयोजनापेक्षेषु भूमिविले- खनादिप्रयोजनननिमित्तं ध्रियमाणेषु हलादिषु वस्तुषु सूत्रे चात्र विभक्तिलोप अषित्वात्। बहुविस्तारेषु-प्रभूतेषु नानाविधोषु च सम्यक् असम्यगिति वा प्रोच्यमानेषु शोभनानि अशोभनानीति वा कथ्यमानेषु यदात्मनि कर्मणि शिल्पे वा कौशलज्ञापनं तत्तयोरुपजीवनम्, इयमत्र भावना- भिक्षार्थ प्रविष्ट: सन् साधुः कृष्पादेः कर्तुः कारापकस्य वा तत्प्रयोजनापेक्षणीयानि नानारूपाणि हलादीनि बहूनि वस्तूनि तानि दृष्ट्वा आत्मन: कर्मणि शिल्पे वा कौशलज्ञापनाय शोभनान्यशोभनानीति वा यत् वक्ति तत्कमशिल्पयागजीवनम् / अनेन च प्रकारण कौशलज्ञापनं, सूचा स्पुटवचनन च कौशलकथनम् असूचा। पिं०। नि.चू। __आजीविकपिण्डग्रहणे दोषा: सूत्रमजे भिक्खू आजीवियं पिंडं मुंजइ भुजंतू वा साइज्जइ ||6|| जातिमातिभाव उवजीवति त्ति आजीवणपिंडो। गाहाजे भिक्खू जीवपिंडं, गेण्हेज्ज सयंत अहवाँ सातिज्जे। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ||14ll स्वय हण्हति, अण्णं वा गेण्हावति, अणुजाणातिवा, तस्स आणादिया य दोषा, चउलहुं च पाच्छत्तं / नि०चू. 13 उछ। आजीवति, कर्तरि अच् / आजीवनकारिणि, कर्माजीवनृपाजीव इत्यादौ तु आजीव अण् उप, स० इति भेदः / वाच / कुशीलभेदे, प्रक०२ द्वार।व्या आजीवनम्- उपजीवन जांति-कुलगणशिल्पादिना करोतीति। दर्श. 4 तत्त्व। सच पञ्चविध:पंचविहे आजीवे पण्णत्ते,तं जहा-जाइआजीये, कुलाऽऽजीवे, कम्माऽऽजीवे, सिप्पाऽऽजीवे, लिंगाऽऽजीवे। (सूत्र-१०७) कुशीलभेदे, व्य। (अस्य सप्त भेदा:)जाती कुले गणे वा, कम्मे सिप्पे तवे सुए चेव। सत्तविहं आजीवं, उवजीवइ जो कुसीलो उ / / 213|| जातिमातृकी, कुले पैतृकं, गणो मल्लगणादिः, कर्मअना- चार्यकम्, आचार्योपदेशजं शिल्पम्। तप:- श्रुते, प्रतीते। एवं सप्तविधम् आजीवं य उपजीवति- जीवनार्थमाश्रयति, त Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीव 196 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आजीवियभय आजीववित्तिया-स्त्री.(आजीववृत्तिता)जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनमाजीवस्तेन वृत्तिस्तदभाव आजीववृत्तिता। जात्याद्याजीवनेनात्मपालनायाम्, "जा य आजीववित्तिया'' ||6|| इयं चानाचरिता / दश०३ अा आजीवि(न)- पुं. (आजीविन्) गोशालकशिष्ये, उपा०१०। आजीविय- पु. (आजीविक) नाग्न्यधारिणि पाखण्डिविशेष, अविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीन्या- जीवति, भ.१श.२ उ.। श्रमणभेदे, आचा०२ श्रु.२ चू. 1 अ०१ऊ। स्था। ते च गोशलकशिष्या: (स्था०। 4 ठा. 2 ऊ। उपा०।) गोशालकप्रवर्त्तिता आजीविका: पाखण्डिन: / नं.। "आजीवियाणं' (सूत्र-२५४) पाखण्डिविशेषाणां नाग्न्यधारिणां, गोसालकशिष्याणामित्यन्ते / आजीवन्ति वा ये अविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तश्वरणादीनि ते आजिविकास्तित्वेनाऽऽजीविका अतस्तेषाम् भ. 1 श. २उा द्यथा- जातिं कुलं चात्मीयं लोकेभ्य: कथयति / येन जाति-पूज्यतया कुलपूज्यतया व भक्तपानादिकं प्रभूतं लभेयमिति, अनयैव बुद्ध्या मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं कर्मशिल्पकुशलेभ्य: कर्मशिल्पकौशलं कथयति / तपस: उपजीवना तपः कृत्वां क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति श्रुतोपजीवना बहुश्रुतोऽहमिति स: कुशीलः / व्य०१ उ.। (कुशीलानां बहवो भेदा: ते च 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे विस्तरतो वक्ष्यते। आजीवस्य प्रायश्चित्तं च तत्रैव।) श्रमणभेदे च। ये गोशालकमतमनुसरन्ति भण्यन्ते तेतु आजीवका: इति। एते ऽपि लोके श्रमणा इति व्यपदिश्यन्त इति। प्रव० 94 द्वार। आजीवग-पु. (आजीवक) आ-जीव-कर्तरि ण्वुल। आजीवन- कतरि। वाच / श्रमणभेदे। प्रव. 95 द्वार / आचा *आजीवग- पुं. आ-समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीव:- अर्थनिचयस्तं गच्छति- आश्रयत्यसौ- आजीवग:। अर्थमदे, सूत्र।"आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से"||१५|| आ समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीवोऽर्थनिचयस्तं गच्छत्याश्रय-त्यसौ आवाजीग:- अर्थमदस्तं च चतुर्थ नामयेत् चशब्दाच्छेषानपि मदान्नामयेत् तन्नामनाचासौ पण्डित:- तत्त्ववेत्ता भवति। सूत्र०१ श्रु. 13 अ०। आजीवण-न. (आजीवन) आजीवत्यनेन, करणे ल्युटा वृत्त्युपाये, भावे ल्युट / वृत्त्यर्थमुपायग्रहणे, वाचा / जात्याद्या- जीवनेनोत्पादिते आहारशय्यादिके "वणीमगाऽऽजीवणनि- काए"||१६४+|आजीवन यदाहारशय्यादिकं जात्याद्याजीव- नेनोत्पादितम्। व्य, 3 उ। आजीवणा- स्त्री. (आजीवना) परोपजीवने, दर्श.१ तत्त्व। आजीवणापिंड-पु. (आजीवनापिण्ड) उत्पादनादोषविशेषस्पष्टे जातिकुलगणकर्मशिल्पैरात्मनो गृहस्थस्य च तुल्यरूपताख्या-पनने लब्धजीवनापिण्डे, जीता आजीवणाभय-न० (आजीवनाभय) आजीवना- परोपजीवनं सैव भयम् आजीवनाभयम्। भयभेदे, यथा राजामात्यादिपदाति- आजीवनाभयात्संग्रामादौ मरणमध्यवस्यति / दर्श. 1 तत्त्व। आजीवदिटुंत-पुं. (आजीवदृष्टान्त) आ-सकलजगदाभिव्याप्य जीवानां यो दृष्टान्तः- परिच्छेद: स आजीवदृष्टान्तः। सकल-जीवनिदर्शने, आह अमूलटीकाकार:- 'आजीव- दृष्टान्तेन- सकलजीवनिदर्शनेन। जी०३ प्रति, 2 अधि.१ उ। (आजीवदृष्टान्तेन तिर्यग्यो निकानां जातिकुलकोटिविचार: 'तिरिक्खजोणिय' शब्दे चतुर्थभागे करिष्यते)। आजीवपिंड-पु. (आजीवपिण्ड) जातिकुलगणकर्मशिल्पादि-प्रधानेभ्य आत्मनस्तद्गुणत्वारोपणं भिक्षार्थमाजीवपिण्ड इत्युक्तलक्षणे उत्पादनादोषभदे, ध.३ अधि। आचा०। पञ्चा। "जच्चाइना जीवे" - जात्यादिना जातिकुलगणकर्म- शिल्पादिकमाजीवेद्- उपजीवति यस्तस्य तत्कथनमुपजीवन चोत्पादनादोष:। पञ्चा० 13 विवः। (अस्य वक्तव्यता 'आजीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव गता।) आजीविका:-निह्ववा अनाराधका: तेषामुपपत्तिगतिस्थितयो यथासे जे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु आजीवका भवंति / तं जहा- दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलबेंटिया घरसमुदाणिया विज्जुअंतरिया उट्टिया समणा, ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे वहूइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किया उक्कोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तेहिं तेसिं गती वावीसं सागरोवमाई ठिती, अणाराहका सेसं तं चे व // 17 // (सूत्र-४१४) आजीविका- गोशालकमतानुवर्तिनः,'दुधरंतरिय' त्तिएकत्र गृहे भिक्षा गृहीत्वा येऽभिग्रहविशेषाद् गृहद्वयमतिक्रम्य पुनर्भिक्षां गृह्णन्ति; न निरन्तरमेकान्तरं वा ते द्विगृहान्तरिका: द्वे गृहे अन्तरं भिक्षाग्रहणे येषामस्ति ते द्विगृहान्तरिका: इति निर्वचनम् / एवं त्रिगृहान्तरिका: सप्तगृहान्तरिकाश्च 'उप्पलवेंटिय' त्ति-उत्पलवृन्तानि नियमविशेषात् ग्राह्यतया भैक्षत्वेनयेषां सन्तिते उत्पलवृन्तिका:। 'घरसमुदाणिय' त्तिगृहसमुदान-प्रतिग्रह भिक्षाया येषां ग्राह्यतयाऽस्ति ते गृहसमुदानिकाः। "विज्जुयंतरिय त्ति-विद्युति सत्याम् अन्तरं भिक्षाग्रहणस्य येषामस्ति ते विद्युदन्तरिका; विद्युत्सम्पाते भिक्षां नाटन्तीति भावार्थः / 'उट्टियासमण'त्ति- उष्ट्रिका-महान्मृण्मयो भाजनविशेषस्तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति तपस्यन्तीत्युष्ट्रिकाश्रमणा: / एषां च पदानामुत्प्रेक्षया व्याख्या कृतेति॥१७।। औ०। कुशीलभदे च। आव०३ अ०। (तस्य भेदादि 'आजीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शिता:।) सामायिककृत: श्रावकस्य कोऽपि भाण्डमपहरेत्तत्कस्येति आजीविकपृच्छा'सामाइयकथ' शब्दात्सप्तमभागावगन्तव्या। आजीवियभय- न. (आजीविकाभय) निर्द्धनः कथं दुर्भिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीत्येवंरूपे भयभेदे, आव 4 अ। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीवियभय 117 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आडंबर आजीवियभयगत्था, मूढा णो साहुणो णेया ||11|| तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहाआजीवनमाजीविका- निर्वाहस्तद्भावनया यद्भयंभीतिस्तदाजीवि ताले,तालपलंबे२, उविहे 3, संविहे 4, अवविहे 5, उदए६, काभयं तेन ग्रस्ता-अभिभूता ये तथा गृहस्धैर्विज्ञातनिर्गुण- नामुदए७, णमुदए८, अणुवालए९, संखवालए 10, अयंबुले 11, त्वादनादिविरहिता वा; कथं निर्वक्ष्याभ इत्यभिप्रायवन्त इत्यर्थः। मूढाः- कायरिए१२, इचेए दुवालस आजीवि-योवासगा अरहंतदेवयागा मुग्धा: परलोकसाधनवैमुख्ये- नेहलोकप्रतिबद्धत्त्वात्। 'नो' नैव साधवो अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफल-पडिक्कंता, तं जहा- उउंबरेहि ज्ञया-ज्ञातव्याः। पञ्चा० 17 विका बडेहिं वोरेहिं सतरेहि पिलक्खूहिं पलंडुल्हसुणकंदमूलविआजीवियसमय-पुं॰ (आजीविकसमय) गोशालकसिद्धान्ते, भला वज्जगा अणिल्लंछिएहिं अणक्क भिण्णे हि गोणे हिं तसपाणविवज्जिएहिं वित्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। एए वि आजीवियसमयस्सणं अयमढे पण्णत्ते, अक्खीण-पडिभोइणो ताव एवं इच्छंति किमंग ! पुण जे इमे समणोवासगा भवंति सव्वे सत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपित्ता उद्दवइत्ता तेसिंणो कप्पंति इमाइं पण्णरसकम्माऽऽदाणाई सयं करेत्तए आहारमाहरेंति। (सूत्र-३३०+) वा कारवेत्तए वा करतं वा अण्णं ण समणुजाणेत्तए, तं जहाआजीविकसमयस्य- गोशालकासिद्धान्तस्य 'अयमढे' तिइदमभि इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे धेयम्- 'अक्खीणपरिभोइणो सव्वसत्त'त्ति- अक्षीणम् अक्षीणायुष्कम् दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे के सवाणिज्जे रसवाणिज्जे अप्रासुकं परिभुज्यत इत्येवंशीला अक्षीणपरि- भोगिन:, अथवा विसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निल्लंछणक्कम्मे दवम्पिदावणया इन्प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरिभोगाः; अनपगताहाराभोगा सक्तयः सरदह-तलावपरिसोसणया असईपोसणया इच्चेएसमणोवासगा इत्यर्थः, सर्वे सत्या: असंयता: सर्वे प्राणिनोयद्येवंतत: किमित्याह- 'से सुक्का सुक्काभिजाइया भविया भवित्ता कालमासे कालं किया हंते' त्यादि, 'से' त्ति-तत:। 'हन्ते' त्ति-हत्वा लगुडादिनाऽभ्यवहार्य अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। (सूत्र-३३०+) प्राणिजातं छित्त्वा-असिपुत्रिकादिना द्विधा कृत्वा 'भित्त्वा' शलादिना 'तत्थ' त्ति-तत्र-एवं स्थितेऽसंयतसत्त्ववर्गे; हननादिदोषपरायणे भिन्नं कृत्वा 'लुप्त्वा' पक्ष्मादिलोपनेन 'विलुप्य' त्वचो विलोपनेन इत्यर्थः, आजीविक-समये वाऽधिकरणभूते द्वादशेति विशेषा'अपद्राव्य' विनाश्य आहारमाहारयन्ति। भ० 8 205 उ०। नुष्ठानत्वात् परिगणिता आनन्दादिश्रमणोपासकवदन्यथा बहवस्ते, आजीवियसुत्त-न. (आजीविकसूत्र) गोशालकप्रवर्तितपाखण्ड-सूत्र, 'ताले' ति-तालाभिधान एकः, एवं तालप्रलम्बा-दयोऽपि, स.। "आजीवियसुत्तपरिवाडीए" (सूत्र-१४७४) गोशालकप्रवर्त्तितपा 'अरहंतदेवयाग' त्ति-गोशालकस्य तत्कल्पन-माऽऽर्हत्वात् खण्डसूत्रपरिपाट्या। स०१४७ सम०। (एतद्वक्तव्यता विशेषत: 'सुत्त' शब्दे 'पंचफलपडिक्कंत' त्ति-फलपञ्चकान्निवृत्ता उदुम्बरादीनि च पञ्च पदानि सप्तमभागे वक्ष्यते। पञ्चमीबहुवचनान्तानि प्रतिक्रान्त-शब्दानुस्मरणादिति।' अनिल्लंछिआजीविया- स्त्री. (आजीविका)आजीवयति आ-जीव णिच-ण्वुल। तएहिं' 'त्ति- अवधिर्तकः, 'अणक्कभिन्नेहि' ति- अनस्तितैः 'एए वि जीविकायाम्, वृत्तौ, जीवनार्थे व्यापारे, वाच.। आजीवनमाजीविका / ताव एवं इच्छंति' त्ति-एतेऽपि तावत; विशिष्टयोग्यताविकला इत्यर्थः, निर्वाहे, पञ्चा० 17 विक। आजीविका च सप्तभिरुपायैः स्याद्-वाणिज्येण 'एवं इच्छंति' अमुना प्रकारेण वाञ्छन्ति धर्ममिति गम्यम्' किमंग! पुण' 1 विद्यया२ कृष्या ३शिल्पेन 4 पाशुपल्येन५ सेक्या६ भिक्षया 7 च। तत्र इत्यादि किं पुनर्ये इमे श्रमणोपासका भवन्ति ते नेच्छन्तीति गम्यम: वाणिज्येन वणिजाम्१, विद्यया वैद्यादीनाम् 2, कृष्या कौटुम्बिकादीनाम् इच्छन्त्येवेति विशिष्ट स्तरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रितत्वात्तेषाम्। 3, पाशुपाल्येन गोपालादीनाम् 4, शिल्पेन चित्रकारादीनाम् 5, सेक्या भ०८।०५ऊ। सवकानाम्६, भिक्षया भिक्षाचराणाम्।७।(६४श्लाकटा०)। आधा | आजुत्त- त्रि. (आयुक्त) अप्रमत्ते, "अचत्थं जुत्तो आजुत्तो वा" अप्रमत्त आजीवियादोस-पुं० (आजीविकादोष) चतुर्थे उत्पादनादोषे, इत्यर्थः। निचू १ऊ। उत्त०। यदा गृहस्थस्य ज्ञातिं कुलं ज्ञात्वा आत्मीयमपि साधु- स्तमेव आडंबर- पुं. (आडंबर) आडवि / क्षेपे, अरन / हर्षे, दर्प, तूर्यस्वने, ज्ञातिं तदेव कुल स्वकीयं प्रकाश्याऽऽहारं गृह्णाति तदाऽऽजीविका आरम्भे, संरम्भे, अक्षिलोम्नि, घनगजिते, आयोजनेच, मत्वर्थे इनि / दोषश्चतुर्थः / उत्त०२४ अ। आडम्बरिन्। तद्युक्ते, त्रि.। वाचा पटहे, "आडम्बरो धबइयं" (सूत्रआजीवियोपासग-पुं.(आजीविकोपासक) आजीविकागोशालकशिष्या- 153+) / स्था० 7 ठा० ३ऊ। अनु०। यक्षे, "पाणाडंबरे अरुद्दे पाणत्ति स्तेषामुपासक आजीवोपासकः / उत्त. 24 अ गोशालकशिष्यश्रावके, मायगा तेसिं आडम्बरोजक्खो हरिमिक्को वि भणंतीति। आव०४ अ। आ.चू / यक्षायतने, "आडंबरे य'' ||34+II आडम्बरे- आडम्बरआजीविकसमयमधिकृत्य दर्शिता: यक्षायतने, व्य०७ उ. भा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडहण 118 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आण आडहण- न० (आदहन) आ-दह भावे ल्युट आ-समन्तादहने, "थूलं / वियासे मुहे आडहति"||३४|| मुखे विकाशं कृत्वा स्थूलं बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ-समन्ताद्दहन्ति। सूत्र०१ श्रु०५ | अ.२ऊ। दाहे, हिंसायां, कुत्सनेचा आदह्यतेऽत्र आधारेल्युट्। श्मशाने वाचा आडोव- पुं (आटोप) आ-तुप्-घञ्-पृषो० टत्वम्। दर्प, संरम्भे, वाच०। आडम्बरे च / उपा०२ अ। स्फारतायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अा वातजन्ये उदरशब्दभेदे, वाचा आढई- स्त्री० (आढकी) आढौकते अच् पृषो. गौ० डीए। गुच्छात्मकं | वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। "आढकी तुवरी रक्षा, मधुरा शीतला लघुः / ग्राहिणी वातजननी, वा पित्तकफास्रजित्शा भावप्रा फले, अस्य पुंस्त्वमपि"आढकाश्च मधुरांश्च, कोद्रवान् लवणं त्यजेत्। काशी. स्त। वैश्वदेवे, वर्जने, वाचा आढग(य)-पु.(आढक) आढौकते आ-ढौक्-घन-पृ। चतुष्प्रस्थात्मके धान्यप्रमाणविशेषे, अनु।"चउपत्थमाढयं" (सूत्र-३८+ टी.)। औ। ज्यो. आ०म०। ज्ञा। उत्त। चतुर्भि: प्रस्थैराढक:। तं। "तंदुलाणाऽऽढयं कलमा"||५८४।। तन्तुलानां कलमा इति प्राकृतशैल्या कलमानाम् आढकम्- चतुःप्रस्थप्रमाणम्। आ.म.१ अ"आढकं तंडुलाणं सिटुं ति'। आ. चू. 1 अ।"अष्टमुष्टिर्भवत् कुचिः , कुञ्चयोऽष्टौ तु पुष्कलम्। पुष्कलानि च चत्वारि, आढक परिकीर्तितः" ||1|| वाचा। आढत्त-(आरद्ध)-त्रि०(आरब्ध) आ-रभ-क्त। "मलिनो भयशुक्तिछुप्तारग्धपदातेर्मइलावहसिप्पिछिक्काऽऽठत्तापाइक्कं"। 82138 इति हैमप्राकृतसूत्रेण आढत्त इत्यादेशो वा / पक्षे-आरद्ध। प्रा०। कृतारम्भणे, भावे क्ता आरम्भे, न०। अवरुद्धे, वाच। "सा दाउं आढत्ता"||१४|| सा संघाटं दातुं प्रवृत्ता; परावर्तयितुं, व्याख्यातुं च; प्रवृत्तेत्यर्थ: / व्य०५ऊा आढप्प-अव्य आरभ्य-"आरभेरावप्प"|||२५४।। इति हैमप्राकृतसूत्रेणापूर्वस्य रभे: कर्मभावे आढप्य इत्यादेशोव यक्लुक्च आढप्पइ। पक्षे-आढवीअइ / प्रा आढव- पुं० (आरंभ) आ-रभ-भावे घञ्। "आङो रभेः रम्भढवी"|||११|| इति हैमप्राकृतसूत्रेण रमे: रम्भढव इत्यादेशौ वा। प्रा०। आरम्भणे, वाचला आरम्भइ। आढवइ / आरभइ। प्रा०४ पाद। आढाइत्ता-अव्य (आदृत्य) आ-दृ-ल्यमा सम्मान्येत्यर्थे, वाचका"एयमढें णो आढाइ" (सूत्र-३८६४) नाद्रियते तत्रार्थेऽनादरवान् भवति / भ०९ श०३३ ऊा स्था। आढायमाण-त्रि (आद्रियमाण) आदरक्रिययाविषयीक्रिय- माणे, जी० ३प्रति 4 अधिक। "परं आढायमाणे" (सूत्र-१९७४) परम्-अत्यर्थमाद्रियमाण: इति अत्यर्थमादरवान्। आचा०१ श्रु०८ अ०१ऊ। आढिय- त्रि. (आदृत) आ-दृ-कर्तरि क्त। "आदृते: ढि:" | | 13|| इति हैमप्राकृतसूत्रेण ढिरादेशः / प्रा०। सादरे, कृतादरे | कर्मणि कायस्यादरः कृतस्तस्मिन्, वाच आदर-क्रियाविषयीकृते, जी०३प्रति०४ अधि। सम्मानिते, पूजिते च / वाच / आदरे, न०। आव० 3 अा आण-पुं(आण(न) उच्छ्वासक्रियायाम, प्रज्ञा०७ पद। सच नैरयिकादिदण्डकक्रमेण दर्शित:णेरड्या णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? गोयमा ! सततं संतया-मेव आणमं ति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा।(सूत्र-१४६+) 'नेरड्या णभंते!' इत्यादि, नैरयिका णमिति वाक्यालंकारे,'भदन्त ? केवइकालस्स' इति- प्राकृतशैल्या पञ्चम्यर्थे तृतीयार्थे षष्ठी, ततोऽयमर्थ:- कियत: कालात्- कियता वा कालेन आणमन्ति 'आनं'ति- 'अन' प्राणने इति धातुपाठात्, मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयम् 'पांणमंति वा'- प्राणन्ति वाशब्दौ समुच्चयार्थी, एतदेव पदद्वयं क्रमेणार्थत: स्पष्टयति- 'ऊससंति वा नीससंति वा' -यदेवोक्तम्-आनन्ति तदेवोक्तमुच्छ्वसन्ति तथा यदेवोक्तं प्राणन्ति तदेवोक्तं-नि:श्वसन्ति, अथवा- आनमन्ति प्राणमन्ति इति'णम्' प्रहत्वे शब्दे इत्यस्य दृष्टव्यम्; धातृनामनेकार्थतया श्वसनार्थत्वस्याप्यविरोधः। अपरे व्यावक्षते- आनन्ति प्राणन्तीत्यनेनान्त: स्फुरन्ति उच्छ्वासनि:श्वासक्रिया परिगृह्यते उच्छ्वसन्ति निःश्वसन्तीत्यनेन तु बाह्याः, एवं गौतमेन प्रश्रे कृते भगवानाह गौतम! सततम्- अविरहितं अतिदुःखिता हि नैरयिका:, दु:खितानां च निरन्तरमुच्छ्वासनि:श्वासौ, तथा लोके दर्शनात्, तच सततं प्रायो वृत्तयाऽपि स्यादत आह- "संतयामेव' -सततमेव- अनवरतमेव नैकोऽपि समयस्त-द्विरहकालो, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, आनमन्तीत्यादेः पुनरुचारणं शिष्यवचने आदरोपदर्शनार्थं गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तोषवन्तो भवन्ति, तथा च सति पौन:पुन्येन प्रश्नश्रवणार्थ निर्णयादिषु घटन्ते, लोके चादेयवचना भवन्ति एवं प्रभूतभव्योपकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्च। असुरकु मारा णं भंते के वइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तण्डं थोवाणं, उक्कोसेणं सातिरेगस्स पक्खस्स आणमंति वाजावनीससंति वा। नागकु मारा णं भंते ! के वइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तण्डं थोवाणां, उक्कोसेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स। एवं जाव थणियकुमारा णं / (सूत्र-१४६+) असुरकुमारसूत्रे' उक्कोसेणंसातिरंगस्स पक्खस्स' इति-इह देवेषु यस्य यावन्तिसागरोपमाणि स्थितिस्तस्यतावत्पक्षप्रमाण उच्छ्यासनि:श्वासक्रियाविरहकालः। असुर कुमाराणां चोत्कृष्टा स्थितिरेकं सातिरेकं सागरोपमम् "चमरबलिसारमहिय' मिति वचनात्, तत:- 'साति Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण 119 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आण रेगस्स पक्खस्स' इत्युक्तं सातिरेकात्पक्षादूर्ध्वमुच्छ्वसन्तीत्यर्थः। प्रज्ञा०७ पद। भ.।'सत्तण्हंथोवाणं' ति-सप्तानां स्तोकानामुपरीति गम्यते, स्तोक लक्षणं चैद्दमाचक्षते "हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासणीसासे, एस पाणु त्ति पुच्चइ''||१|| सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि वा लवे। लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए॥२॥" इति। इदं जघन्यमुच्छ्वासादिमानं तज्जघन्यस्थितिकानाश्रित्यावगन्त-व्यम्, उत्कृष्टं चोत्कृष्टस्थितिकानाश्रित्येति। भ.१श.१ उ०। 'मुहत्तपुहुत्तस्स' त्ति-मुहूर्त उक्तलक्षण एव, पृथक्त्वं तु द्विप्रभृ- तिरानवभ्य: संख्याविशेषः, समयो प्रसिद्धः / भ०१ श.१ उ। पुढवीकाइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! वेमायाए आणमंति वाजाव नीससंति वा। एवं जाव मणुस्सा। वाणमंतरा जहा नागकुमारा। (सूत्र-१४६+) पृथिवीकायिकसूत्रे 'वेमायाए' इति-विषमा मात्रा तथा, किमुक्तं भवतिअनियतविरहकालमात्रप्रमाणा तेषामुच्छ्- वासनि:श्वासक्रिया। प्रज्ञा०७ पद। जोइसियाणं भंते! केवइकालस्स आणमंतिवाजावनीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स उक्कोसेण वि मुहुत्तपुहुत्तस्स जाव नीससंति वा (सूत्र-१४६+) उच्छ्वासस्तेषां न नागकुमारसमानः, किंतु- वक्ष्यमाणः, तथा चाह'जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्से' त्यादि, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्यस्तत्र यज्जधन्यं मुहूर्त्तपृथक्त्वं तद् द्वित्रा मुहूर्ता:, यच्चोत्कृष्टं तदष्टौ नव वेति। भ०१ श०१ऊ। वेमाणियाणं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वाजावनीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। सोहम्मदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स उक्कोसेणं दोण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। ईसाणगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगस्स मुहुत्तपुहुत्त-स्स उक्कोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं पक्खाणं जावनीससंति वा। सणंकुमारदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं दोण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तण्हं पक्खाणं जावनीससंति वा। माहिंदगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगं दोण्हं पक्खाणं, उक्कोसेणं सातिरेगं सत्तण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। / बंभलोयदेवा णं मंते ! केवइकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तण्हं पक्खाणं, उक्कोसेणं दसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। लंतगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा! जहन्नेणं दसण्हं पक्खाणं, उक्कोसेणं चउदसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। महासुक्कदेवा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं चोदसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। सहस्सारगदेवा णं भंते ? केवलकालस्स आणमंति वाजाव मीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं अट्ठारसण्हं पक्खाणंजाव नीससंति वा। आणयदेवा णं भंते ! के वइकालस्स ०जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठारसण्हं पक्खाणं उक्कोसेणं एगूणवीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। पाणयदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं एगूणवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं वीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। आरणदेवा णं मंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं वीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं एक्कवीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। अधुयदेवा णं मंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं वावीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। हेटिमहेहिमोविज्जदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंतिवा? गोयमा ! जहन्नेणं बावीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं तेवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। हेट्ठिममज्जिमगे विज्जदेवा णं मंते केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं तेवीसाए पक्खा- उक्कोसेणं चउव्वीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। हेट्ठिमउवरिमगेविज्जगाणं देवा णं मंते ? केवइकालस्स जावनीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं चउथ्वीसाए पक्खाणं, उक्कोसेणं पणवीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। मज्जिमहेट्ठिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं पणवीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं छवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। मज्जिममज्जिमगे विज्जगाणं देवा णं भंते ! के वइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं छ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण 120 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आण ध्वीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं सत्तावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। मज्जिमउवरिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ? केवलकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं सत्तावीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। उवरिमहेट्ठिमगेविज्जगाणं देवाणं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा! जहन्नेणं अट्ठावीसं पक्खाणं उक्कोसेणं एगूणतीसाए पक्खाणं जावनीससंतिवा। उवरिममज्जिमगेविज्जगा णं देवा णं भंते ! केवइकालस्स / आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहन्नेणं एगूणतीसाए पक्खाणं उक्कोसेणं तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। उवरिमउवरिमगेविज्जगाणं भंते! देवाणं केवइकालस्स.जाव नीससंतिवा? गोयमा! जहन्नेणं तीसाए पक्खाणं, उक्कोसेणं एक्कतीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितविमाणेसु णं भंते ! देवा णं केवइकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहनेणं एक्कतीसाए पक्खाणं, उक्कोसे णं तेत्तीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। सव्वट्ठगसिद्धदेवा णं भंते ! केवइकालस्स जाव नीससंति वा? गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा (सूत्र-१४६४) तथा देवेषु यो यथा महायु: स तथा सुखी, सुखितानां च यथोत्तरं महान् उच्छ्वासनिःश्वासक्रियाविरहकालो, दुःखरूपत्वादुच्छ्वासनिःश्वासक्रियायास्ततो यथा यथाऽऽयुष: सागरो- पमवृद्धिस्तथा तथोच्छ्वासनि:श्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः / प्रज्ञा० 7 पद। (सागरादिविमानेषु देवतयोपपन्नानामानप्राणादि)जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना। (स.) ते णं देवा एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वानीससंति वा। (सूत्र-१+) ये देवासागरं-सागराऽभिधानम्, एवम्सुसागरम्, सागरकान्तम्, भवम्, मनुम, मानुषोत्तरम्, लोकहितम्, (स.) विमान-मदेवनिवासविशेषम् आसाद्येति शेषः, देवत्वेन (स.) उत्पन्ना: जाता: ते देवाः (स.) अर्द्धमासस्यान्त आनन्ति, प्राणन्ति, एतदेव क्रमेण व्याख्यानयन्नाहउच्छ्वसन्ति, नि:श्वसन्ति। स०१ समः। जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवणं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा (स.) तेणं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससन्ति वा। (सूत्र-२४) स०२ सम। जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकरंपभंकर चंदं चंदावत्तं चंदप्पमं चंदकं तं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्जयं चंदसिंग चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणंमति वा पाणमंति वा ऊससन्ति वानीससन्ति वा। (सूत्र-३x)| आभंकरम्, प्रभङ्करम्, आभङ्करप्रभङ्करम्, चन्द्रम, चन्द्रावर्तम्, चन्द्रप्रभम्, चन्द्रकान्तम्, चन्द्रवर्णम्, चन्द्रलेश्यम्, चन्द्रध्वजम्, चन्द्रशृङ्गम्, चन्द्रसृष्टम्, चन्द्रकूटम्, चन्द्रोत्तरा- ऽवतंसकं विमानम्। स०३ सम०। जे देवा किर्हि सुकिलुि किट्ठियावत्तं किट्टिप्पभं किट्ठिजुत्तं किट्ठिवण्णं किहिलेसं किट्ठिज्जयं किट्ठिसिंग किद्विसिट्ठ किट्टिकूडं किटुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा चउण्हद्धमासाणं आणमंति वा पाणमन्ति वा ऊससंति वा नीससन्ति वा / (सूत्र-४+) स. 4 समः। जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वायप्पमं वायकन्तं वायवण्णं वायसिंगं वायसिष्टुं वायकूडं वाउत्तरवडिंसर्ग, सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्जयं सूरसिंग सूरसिटुंसूरकूडं सूरुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा। (स.) तेणं देवा अद्धमासाणं आणमन्ति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। (सूत्र-५+) स०५ सम.। जे देवा सयंभु सयंभूरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्टि-घोसं वीरसुवीरं वीरगतं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्जयं वीरसिंगं वीरसिटुं वीरकूडं वीरुत्तरव-डिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा (स.) तेणं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा / (सूत्र-६+) स. 6 समः। जे देवा समं समप्पमं महापमं पभासं भासुरं विमलं कश्चनकूडं सर्णकुमारवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा। (स.) ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। (सूत्र-७+) स०७ समः। जे देवा अधि, अचिमालिं वइरोयणं पभंकर चंदाऽऽभं सूराऽऽभं सुपइट्ठाऽऽभं अग्गिचाऽऽभं रिट्ठाऽऽमं अरुणा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण 121 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ऽऽभं अरुणुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) जे देवा सिरिकं तं सिरिमहिअं सिरिसोमनसं लंतयं ते णं देवा अट्ठण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा | काविट्ठ महिंदकंतं महिंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / ऊससंति वानीससंति वा (सूत्र-८+) स. 8 समः। (स.) ते णं देवां चउद्दसहिं अद्धमासेहिं आणमंति व पाणमंति जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पमं पम्हकंतं पम्हवण्णं वा उस्ससंति वानीससंति वा। (सूत्र-१४+) स.१४ समः। पम्हलेसं पम्हज्जयं पम्हसिंगं पम्हसिटुं पम्हकू डं जे देवा णंदं सुणंदं गंदावत्तं णंदप्पमं णंदकं तं णंदवण्णं पम्हुत्तरवडिंसगं सुज्जं सुसुज्जं सुज्जवित्तं सुज्जपमं सुज्जकंतं णंदलेसं गंदज्जयं णंदसिंग णंदसिटुं णंदकूडं णंदुत्तरवडिंसर्ग सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सुज्जज्जयं सुज्जसिंगं सुज्जसिटुं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा पण्णरसण्हं सुज्जकूडं सुज्जुतरवडिंसर्ग (रुइल्लं) रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुइल्लज्जयं रुइल्लसिंगं वा। (सूत्र-१५+) स०१५ समः। रुइल्लसिटुं रुइल्लकूडं रुइल्लुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए जे देवा आवत्तं विआवत्तं नंदिआवत्तं महाणं दिआवत्तं उववण्णा (स.) ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा | अंकुसं अंकुसपलंदं भई सुभदं महाभई सव्वओ भई पाणमंति वा ऊससंतिवानीससंति वा। (सूत्र-९+) स.९मस.। भइत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसंनंदिघोसं सुस्सरं मणोरमं रम्म सोलसहिं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा रम्मगं रमणिज्जं मंगलाऽऽवत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देवत्ताए / नीससंति वा। (सूत्र-१६+) स. 16 समका उववण्णा। (स.) ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा / (सूत्र-१०+) स. 10 कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महार्पोडरीअं समा सुक्कं महासुक्कं सीहं सीहकतं सीहवीअंभाविअं विमाणं जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पमं बंभकंतं बंभवण्णं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा सत्तरसहि अद्धामासेहि बंभलेसंबंभज्जयं बंभसिंगं बंभसिटुंबंभकूडं बंमुत्तरवडिं-सगं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा। (सूत्रविमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा एकारसहं 17x) स. 17 सम। अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिटुं सालं समाणं वा। (सूत्र-११४) स. 11 समः। दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्म जे देवा महिंदं महिंदज्जयं कंदु कंबुरगीवं पुखं सुपुखं नलिणं नलिणगुम्म पुंडरीअं पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवडिंसगं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापुंडं नरिंदं नरिंदकंतं नरिंदुत्तरवडिं- विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा अट्ठारसेसिं सगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा (स.) ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा। (सूत्र-१८x) स. 18 सम०। वा। (सूत्र-१२x) स. 124 समः। जेणं देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं जे देवा वज्जं सुवज्जं वज्जावत्तं वज्जप्पमं वज्जकंतं इंदुत्तरवडिं सगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) वज्जवण्णं वज्जलेसं वज्जरूवं वज्जसिंगं वज्जसिटुं वज्जकूड ते णं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा वज्जुत्तरवर्डिसगं वइरं वइरावत्तं वइरप्पमं वइरकंतं वइरवणं उस्ससंति वा नीससंति वा। (सूत्र-१९+) स. 19 सम.) वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिटुं वइरकूडं वइरुत्तरवडिंसर्ग जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं लोगं लोगाऽऽवत्तं लोगप्पभं लोगकंतं लोगवण्णं लोगलेसं तिगिच्छं दिसासो वत्थियं पलंबं रुइलं पुप्फ सुपुप्फ लोगरूवं लोगसिंगं लोगसिट्ठ लोगकूडं लोगुत्तरवर्डिसगं विमाणं | पुप्फावत्तं पुप्फपमं पुप्फकंतं पुष्फवण्णं पुष्फलेसं पुप्फज्जयं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासे हिं पुप्फसिंगं पुप्फसिद्धं पुप्फुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा / आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा। (सूत्र- (स.) ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा 13+) स. 13 सम। उस्ससंति वा नीससंति वा। (सूत्र-२०+) स. 20 समः। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण 122 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आण जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मल्लं किट्टं चावोण्णतं किण्णं भंते ! णेरड्या आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा अरण्णवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा। (स.) ते णं निस्ससंति वा तं चेव जाव नियमाछद्दिसिं आणमंतिवापाणमंति देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा वा उस्ससंति वा नीवा, जीवा एगिदिया वाघाया निव्वाघाया उस्ससंति वा नीससंति वा / (सूत्र-२१४) स०२१ सम०। भाणियव्वा, सेसा नियमाछद्दिसिं। जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अचुतवडिंसगं "जीवेगिदिए' त्यादि, जीवा एकेन्द्रियाश्च 'वाघाय- निव्वाधाय' त्तिविमाणं देवत्ताए उववण्णा / (स.) ते णं देवा बावीसाए मतुब्लोपाद् व्याघातनिर्व्याघातवन्तो भणितव्या: इह चैवं पाठेऽपि अद्धामासएणं आणमंति वा पाणमंति उस्स-संति वानीससंति नियाघातशब्द: पूर्व द्रष्टव्यस्तदभिलापस्य सूत्रे तथैव दृश्यमानत्वात्, वा। (सूत्र-२२४) स.२२ समः। तत्रजीवा निर्व्याघाता: सव्याधाता:सूत्रे एव दर्शिता:, एकेन्द्रियास्त्वेवम्द्वीन्द्रियाऽऽदीनामानप्राणाद्यस्तित्वं यथा 'पुढविकाइया णं भंते ! कइ दिसिं आणमंति? गोयमा ! निव्वाधाए णं जे इमे मंते ! बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया। छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि' मित्यादि, एवमप्कायादिष्वपि तत्र जीवा एएसिणं आणामंवा पाणामं वा उस्सासंवा जिस्सासं वा निर्व्याघातेन षदिशं षड्दिशो यत्रानमनादौ तत्तथा / व्याघातं प्रतीत्य जाणामो पासामो, जे इमे पुढविकाइयाजाव वणप्फइकाइया स्यात् त्रिदिशं, स्याच्चतुर्दिशं, स्यात्पञ्चदिशं, आनमन्ति यतस्तेषां एगिंदिया जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा लोकान्त-वृत्तावलोकेन त्र्यादिदिक्षुछ्वासादिपुद्गलानां व्याघात: सम्भवनिस्सासं वा ण जाणामो, ण पासामो। एएसि णं मंते ! जीवा तीति 'सेसा निमया छदिसिं' इति- शेषा नारकादित्रसा: आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा? हंता षड्दिशमानमन्ति तेषां हि त्रसनाङ्यन्तर्भूतत्वात् षड्दिशमुछगोयमा ! एए वियणंजीवा आणमंति वा पाणमंतिवा उस्ससंति वासादिपुद्रलग्रहोऽस्त्येवेति / अथैकेन्द्रियाणामुच्छ्वासादिभावावा निस्ससंति वा। (सूत्र-८४४) दुच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानामप्युच्छ्चा- सादिना 'जे इमे' इत्यादि, यद्यप्येकेन्द्रियाणामागमादिप्रमाणाज्जीवत्व प्रतीयते वायुनैव भवितव्यम् ? उत अन्येन के नापि पृथिव्या-दीनामिव तथापि तदुच्छ्वासादीनां साक्षादनुपम्भाज्जीवच्छरीरस्य च तद्विलक्षणेनेत्याशङ्कायां प्रश्नयन्नाहनिरुच्छ्वासादेरपि कदाचिद्दर्शनात् पृथिव्या-दिपूच्छ्वासादिविषयाशङ्का वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव आणमंति वा पाणमंति स्यादिति तन्निरासायतेषा-मुच्छ्वासादिकमस्तीत्येतस्यागप्रमाण वा उस्ससंति वा नीससंति वा ? हंता गोयमा ! वाउयाए णं प्रसिद्धस्य प्रदर्शनपरमिदं सूत्रमवगन्तव्यमिति। जावनीससंतिवा। (सूत्र-८५) उच्छ्वासाद्यधिकाराज्जीवादिषु पञ्चविंशतौ पदेषुच्छ्यासा-दिद्रव्याणां 'वाउयाएणमि' त्यादि; अथोच्छ्वासस्यापि वायुत्वादन्येनोच्छ्वासस्वरूपनिर्णयाय प्रश्नयन्नाह वासवायुना भाव्यम्, तस्याप्यन्येनैवमनवस्था, नैवम-चेतनत्वात्तस्य, किण्णं भंते / एते जीवा आणमंति वा पाणमंति वा किञ्च-योऽयमुच्छ्वासवायु: स वायुत्वेऽपि न वायुसम्भाव्यौदारिकउस्ससंति वा निस्ससंति वा ? गोयमा ! दव्वओ णं वैक्रियशरीररूप: तदीयपुद्गलानामानप्राणसंज्ञितानामौदारिकअर्णतपएसियाई दवाई, खित्तओ असंखेज्जपएसोगाढाई, वैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्त-गुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतया एतच्छरीराव्यपकालओ अण्णयरहिइयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आणमंति वा पाणंमति वा उस्ससंति वा देशत्वात्, तथा च प्रत्युच्छ्वासादीनामभाव इति नाऽनवस्था। भ०२ श० निस्ससंति वा / जाई भावओ वण्णमंताई आणमंति 1 उ०। संख्येयावलिकाप्रमाणे एकोच्छ्वासात्मके कालविशेषे च / वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा ताई किं एगवण्णाई संख्येया आवलिका:-"आण त्ति" (सूत्र-११५+) आण:- एकउच्छ्वास आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा? इत्यर्थः, अनु०। जीका कर्म। ज्ञा। स्था०। भ०। आहारगमो नेयव्वो जाव पंचदिसं। पुढविकाझ्याणं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणमंति वा पाणमंति 'किण्णं भंते ! जीवे' त्यादि, किमित्यस्य सामान्य-निर्देशत्वात्कानिः | . वा ऊससंति वा नीससंति वा ? हंता गोयमा ! पुढवीकाइया किंविधानि द्रव्याणीत्यर्थः, 'आहारगमो नेयव्वो' त्ति; प्रज्ञापनाया पुढवीकाइयं चेव आणमंति वाजाव नीससंति वा। पुढवीकाइए अष्टाविंशतितमाहार पदोक्तसूत्र- पद्धतिरिहाध्येयेत्यर्थः, सा चेयम्- णं भंते ! आउकाइयं आण-मंति वाजाव नीससंति वा ? हंता "दुवण्णाई तिवण्णाई० जाव पंचवण्णाई पिजाई वण्णओ कालाई ताई गोयमा ! पुढवीकाझ्या णं आउकाइयं आणमंति वाजावनीससंति किं एगगुणकालाई जाव अणंतगुणकालाई पि" इत्यादिरिति। वा, एवं तेउकाइय-वाउकाइयं, एवं वणस्सइकाइयां आउकाइए Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आण 123 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद णं भन्ते ! पुढविकाइयं आणमंति वा पाणमंति वा ? एवं चेव, | आउकाइए णं भंते ! आउकाइयं चेव आणमंति वा, एवं चेव, एवं तेऊवाऊवणस्सइकाइय। तेऊकाइए णं भन्ते ! पुढवीकाइयं आणमंति वा एवं जाव वणस्सइकाइए णं भन्ते ! वणस्सइकाइयं चेव आणमंति वा तहेव। 'पुढविकाइया णं भंते!' इत्यादि, इह पूज्यव्याख्या। यथा वनस्पतिरन्यस्योपर्यन्त: स्थितस्तत्तेजोग्रहणं करोति एवं पृथिवीकायिकादयोऽप्यन्योन्यसम्बद्धत्वात्तत्तद्रूपं प्राणापानादि कुर्वन्तीति, तत्रैक: पृथिवीकायिकोऽन्यं स्वसम्बद्धं पृथिवी- कायिकम्, अनितितद्रूपमुच्छ्वासं करोति यथोदरस्थिकर्पूर: पुरुष: कर्पूरस्वभावमुच्छ्वास करोति एवमप्कायादिकानित्येवं पृथिवीकायिक सूत्राणि पक्ष एवमेवाप्कायादयः प्रत्यकं पञ्च सूत्राणि लभन्त इति पञ्चविंशतिः सूत्राण्येतानीति। पुढवीकारणं भंते! पुढवीकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमाणे वा कइकिरिए ? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। पुढवीकाइए णं भन्ते ! आउक्काइयं आणममाणे वा एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइयं, एवं आउकाइएण वि सम्वे वि भाणियव्वा, एवं तेउक्काइएण वि, एवं वाउक्काइएण वि, जाव वणस्सइकाइए णं मंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा पुच्छा, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। (सूत्र-३९२)। वाउक्काइएणं भन्ते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कइ-किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए / एवं कंदं एवं जाव मूलं वीयं पचालेमाणे वा पुच्छा? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय पंचकिरिए, सेवं भन्ते ! भंते त्ति। (सूत्र-३९३) क्रियासूत्राण्यपि पञ्चविंशतिस्तत्र 'सिय किरिए' त्ति-यदा पृथिवीकायिकादि: पृथिवीकायिकादिरूपमुच्छ्वासं कुर्वन्नपि न तस्य पीडामुत्पादयति स्वभावविशेषात्तदासौ कायिक्यादित्रि- क्रिय: स्यात्। यदा तुतस्य पीडामुत्पादयति तदा पारितापनिकक्रियाभावाचतुष्क्रियः, प्राणातिपातिसद्भावे तु पञ्चक्रिय इति। क्रियाधिकारादेवेदमाह'वाउकाइए णमि' त्यादि, इह च वायुना वृक्षमूलस्य प्रचलनं प्रपातनं वा तदा सम्भवति यदा नदीभित्त्यादिषु पृथिव्याऽनावृत्तं तत्स्यादिति। अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियात्वं परितापादे: सम्भवात्- उच्यते-अचेतनमूलापेक्षयेति। भ०९श० 34 ऊा आणंतरिय- न. (आनन्तर्य) अनन्तरमेव चतुर्व स्वार्थे ष्यत्र / अव्यवहिते, अनन्तरस्य भावे ष्यञ् / अव्यवधाने, वाच / अनुक्रमे, "आणंतरियं णाम-आणंतरियंति वा अणुपरिवाडि त्ति वा अणुक्कमेत्ति / वाएगट्ठा" आ.चू.१ अ आणंद- पुं. (आनन्द) आ-नन्द-घ / चित्ताहादे, और। सुखे, स्था०३ ठा०४ उ.। सुखविशेषे, पं.सू.५ सूत्र / हर्षे, दश 2 चूछ / अभिलषितार्थावाप्तिजन्ये मानसे विकारे, "के आणंदे'' (सूत्र-१९७+) अभिलषितार्थावातावानन्द:। आचा० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। (अत्र विशेषव्याख्यानम् 'आगइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) दु:खाभावे ब्रह्मणि, अर्शआदित्वादच्। आनन्दवति, त्रिला वाच। अहोरात्रभवे त्रिंशन्मुहूर्तान्तर्गत स्वनामख्याते षोडशे मुहूर्ते, ज्यो०२ पाहु,। कल्प। जं। चं. प्र० / (गणनया एकादशो मुहूर्त आनन्दः) स. 30 सम० / स्वनामख्याते षष्ठे बलदेवे, (4 गाथा) स. (159 सूत्रx)(तद्वक्तव्यता 'दसारमंडल' शब्दे चतुर्थभागे 2485 पृष्ठे दर्शयिष्यते) स्वनामख्याते शीतलजिनस्य प्रथमशेष्ये च। "पुण आणंदे, '1180+|| स०। (सूत्र१५८+) (तद्वृत्तम् 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2291 पृष्ठे दर्शयिष्यते) भगवत ऋषभदेवस्य शतपुत्रान्तर्गत स्वनामख्याते पुत्रे, कल्प.१ अधिक 7 क्षण। स्वनामख्याते भगवतो महावीर-स्यान्तेवासिनि, स्था०१० ठा. 3 उ.। "समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे णाम थेरे" (सूत्र-५४७४) भ. 15 श०। (तद्वक्तव्यता 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे दर्शयिष्यते) धरणस्य नागेन्द्रस्य नागराजस्य स्वनामख्याते स्थानीकाधिपतौ, (सूत्र-४०४४) स्था. 5 ठा० 1 उ.। गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्थे स्वनामख्याते देवे, जं. 4 वक्षः। पुष्करवरद्वीपार्द्धस्थितमानुषोत्तरपर्वतस्थे स्वनामख्याते सुवर्णकुमारे, दी। स्वनामख्याते पितृसेनकृष्णाङ्गजे, तद्वक्तव्यता प्रतिबद्धे निरयावलिकोपाङ्गे द्वितीयवर्गस्य कल्पावतंसिकाभिधस्य नवमेऽध्ययने च। नि० 1 श्रु०२ वर्ग९ अ। (तद्वक्तव्यता यथा पितृसेनकृष्णाङ्गजो नवम: वर्षद्वयं व्रतपा -यपरिपालनं कृत्वा प्राणतदेवलोकेदशमे उत्पद्य एकोनविंशतिसागरो-पमाण्यायुरनुपाल्य ततश्च्युतो विदेहे सेत्स्यतीति) वाणिजग्रामस्थे स्वनामख्याते श्रावके उया. 1 अनिः। संथा.। "अट्टय वीसाऽऽणन्दे / / 4964 / / आनन्दस्य गृहे, आ. म० 1 अभिः / आनन्दाभिधानोपासकवक्तव्यता प्रति-बद्धमध्ययनमानन्द: / उपा०३ अ / आनन्दो वाणिजग्रामा- भिधाननगरवासीमहर्द्धि को गृहपतिर्महावीरेण बोधित एका- दशोपासकप्रतिमां कृत्वोत्पन्नावधिज्ञानो मासिक्या संलेखनया सौधर्ममगमदिति वक्तव्यता प्रतिबद्धे उपासकदशाया: प्रथमेऽ- ध्ययने च। स्था० 10 ठा.३ उ०। (तद्वक्तव्यता यथा)पढमस्सणंभंते!जाव संपत्ते णं केअढे पण्णत्ते ? (सूत्र२४) एवं खलुजंबू! तेणं कालेणंतेणंसमएणं वाणियग्गामे णामणयरेहोत्था। वण्णओ। तस्सणं वाणि यग्गामस्सणयरस्स बहियाउत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए दूयपलासे चेइए / तत्थ णं वाणियग्गामे जिय Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद 124 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद सत्तू राया, वण्णओ। तत्थणं वाणियग्गामे आणंदे णामंगाहावई | रोएमिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! परिवसइ, अड्डेजाव अपरिभूए, तस्सणं आणंदस्स गाहावइस्स अवितहमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! चत्तारि हिरण्णकोडीओ णिहाणपत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! से जहेय / तुम्मे वयहत्तिक? जहा वुड्विपत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपत्ताओ, चत्तारि णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडंवया, दस गोसाहस्सीणं वएणं होत्था। से आणंदे गाहावई बहणं बियसेट्टि-सत्थवाहप्पमिइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं ईसर जाव सत्थवाहाणं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु पव्वइया जाव पव्वइत्ता / णो खलु तहा अहं संचाएमि मुंडे य कुटुंबेसु य गुज्जेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य जाव पव्वइत्तए, अहण्णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वयं आपुच्छणिज्जे पडिपुज्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुटुंबस्स सत्तसिक्खावयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि / मेढीभूए आहारे आलंबणं चक्खुमेढिभुये सव्वकज्जवट्टावए जहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेइ। (सूत्र-५) आवि होत्था / तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स"सिवाणंदा" तए णं से आणंदे गाहावइस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स णामं भारिया होत्था, अहीण जाव सुरूवा / आणंदस्स | अंतिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पञ्चक्खामि / (उपा.) गाहावइस्स इट्ठा आणंदेणं गाहावइणा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता (तत्स्वरूपम् 'पाणाइवायवेरमण' शब्दे 5 भागे. वक्ष्यते।) इट्ठा सद्द जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोए पचणुब्भवमाणी तयाणंतरं च णं थूलगं मुसावायं पञ्चक्खा (मि) इजावज्जीवाए विहं तिविहेणं-ण करेमि, ण कारवेमि, मणसा, वयसा, विहरइ / तस्स णं वाणियग्गामस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं "कोल्लागए" णामं सन्निवेसे होत्था / कायसा। (उपा.) (स्थूलमृषावादस्वरूपम् 'मुसावायवेरमण' शब्दे षष्ठेभागे दर्शयिष्यते।) तदाणंतरंच णंथूलगं आदिण्णादाणं रिद्धित्थमिए जाव पासादीए 4, तत्थ णं कोल्लागए सन्निवेसे आणंदस्स गाहावइस्स बहूए मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणे पञ्चक्खामि / (उपा.) (तत्स्वरूपम् 'अदत्तादाणवेरमण' शब्दे 1 भागे गतम्।) तयाणंतरं च णं सदारसंतोसिए परिमाणं करेइ परिवसइ। अड्ढे जाव अपरिभूए / तेणं कालेणं तेणं समएणं णण्णत्थ एकाए सिवाणंदाए भारियाए अवसेसं सवं मेहुणविहिं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए परिसा निम्गमा कोणिए पचक्खामि (तत्स्वरूपं प्रतिषेधरूपेण 'मेहुण' शब्दे षष्ठे भागे राया जहा, तहा जियसत्तू राया णिग्गछति निग्गच्छित्ता जाव 'हत्थकम्म' शब्दे सप्तमभागे च वक्ष्यते) (उपा.) तयाणंतरं च पज्जुवासइ, तए णं ते आणंदे गाहावई इमीसे कहाए लद्धडे णं इच्छापरिमाणं करेइ, हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ, समाणे एवं खलु समणे भगवंजाव विहरइ / तं महाफलं जाव णण्णत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं णिहाणपउत्ताहिं चउहिं गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि! एवं संपेहेइ संपेहित्ता, पहाये बुढिपउत्ताहिं चउहि पवित्थरमाणपत्ताहि अवसेसं सवं सुद्धप्णवेसाइं जाव अप्पमहग्घाभरणालंकिय-सरीरे / साओ हिरण्णसुवण्णविहिं पचक्खामि दुविहं ण करेमि, ण कारवेमि, गिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता स कोरंटमल्लदामेणं तिविहेणं मणसा वयसा, कायसा, तयाणंतरं च णं छत्तेणं धरिज्जमाणे णं माणुस्सवग्गुरा-परिक्खित्ते चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ चउहिं वएहिं पायविहारचारेणं वाणियग्गामं णयरं मज्ज मज्जेणं णिगच्छइ दसगोसाहस्सिएणं वएणं आसेसं सब्धं च(उ)तुप्पयविहिं णिग्गच्छित्ता जेणामेव दूयपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं पञ्चक्खामि, दुविहं तिविहेणंमण. 3 तयाणं तरं च णं महावीरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो खेत्तवत्थुपरिमाणं करेइ णण्णत्थ पंचर्हि हलसएहिं आयाहिणपयाहिणं करेइ आया. करित्ता वंदइ णमंसइ 0 णियत्तणसइएणं हलेणं अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थु पञ्चक्खामि, जाव पज्जुवासइ। (सूत्र-३) दुविहं तिविहेणं मण, 3, तयाणंतरं च णं सगडविहिपरिमाणं तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स तीसे य करेइ, णण्णत्थ पंचहिं सगडसएहिं दिसाजत्तिएहिं पंचहिं महइ महालियाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, रायाऽवि सगडीसएहिं संवाहणिएहिं अवसेसं सव्वं सगडविहिं पचक्खामि० य गओ। (सूत्र-४) तएणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ 3, तयाणंतरं च णं वाहणविहि-परिमाणं करेइ, णण्णत्थ चउहिं अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठजाव एवं वयासी-सद्दहामि वाहणेहिं दिसाजत्तिएहिं चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहिं अवसेसं णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामिणं भंते! णिग्गंथं पावयणं, सव्वं वाहण-विहिं पचक्खामि०३, (सूत्र०५)। तयाणंतरं च णं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद 125 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद उवभोगपरिभोगविहिं पचक्खामि (उपा०।) (अस्य विधेः स्वरूपम् 'उवभोगपरिभोगपरिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) तयाणंतरं च णं ण्हाणमाणे उल्लणियाविहिपरि-माणं करेइ, णण्णत्थ एगाए गंधकासाइए अवसे सं सवं उल्लणियाविहिं पचक्खामि दुविहं तिविहेणं मणसा, वयसा, कायसा। तयाणंतरं च णं दंतवणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं अल्ललट्ठीमहुएणं, अवसेसं दंतवणविहिं पचक्खामि०३, तयाणं तरं च णं फलविहिपरिमाणं करेइ णण्णत्थ एगेणं खीरामलएणं अवसेसं सव्वं फलविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं च णं अब्भङ्गणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ सयपागसहस्सपागे हिं तेल्लेहिं, अवसेसं अब्भंगणविहिं पचक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं उव्वट्टणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं सुरभिणा गंधवट्टएणं अवसेसं उवट्टणविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं च णं मज्जणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं उदगस्स घडएहिं अवसेसं मज्जणविहिंपच्चक्खामि०३, तयाणंतरं च णं वत्थविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं खोमयजुयलेणं अवसेसं वत्थविहि पचक्खामि०३, तयाणंतरं चणं विलेवणविहिपरिमाणं करेइ,णण्णत्थ अगरुंकुकुमचंदणमाइ-एहिं अवसेसं विलेवणविहिं पचक्खामि०३, तयाणंतरंच णं पुप्फविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मायिकुसुमदामेणं वा, अवसेसं पुप्फविहिं पचक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं आभरण-विहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ मट्टकण्णेज्जएहिं णाममुद्दिएहिं, अवसे सं आभरणविहिं पच्चक्खामि. 3, तयाणंतरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ अगरुतुरुक्कधूवमाइएहिं, अवसेसं धूवणविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे पेज्जविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगाए कट्ठपेज्जाए, अवसेसं पेज्जविहिं पञ्चक्खामि मण.३, तयाणंतरं च णं भक्खणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेहिं घयपुग्नेहिं खंडखज्जएहिं वा, अवसे सं भक्खणविहिं पचक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं ओयणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ कलमसालिओदणेणं, अवसेसं ओदणविहिं पञ्चक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं सूवविहिपरिमाणं करे इ, णण्णत्थ कलायसूवेण वा मुग्गमाससूवेण वा अवसेसं सूवविहिं पञ्चक्खामि०३, तयाणंतरं चणं घयविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ सारइएणं गोघयमंडेणं, अवसेसं घयविहिं पच्चक्खामि०३, तयाणंतरं च णं सागविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ वत्थुसाएणं वा सोतत्थियसाएण वा मंडुक्कियसाएणं वा, अवसे सं सागविहिं पचक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं माहुरयविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं पालंगामाहुरएणं, अवसेसं माहुरयविहिं पचक्खामि० 3, तयाणंतरं च णं जेमणविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ सेहंबदालियंबेहि अवसेसंजेमणविहिं पचक्खामि.३, तयाणंतरं च णं पाणियविहि- परिमाणं करेइ, णण्णत्थ एगेणं अंतलिक्खोदएणं अवसेसं पाणियाविहिं पचक्खामि०३, तयाणंतरं च णं मुहवास-विहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ पंचसोगंधिएणं तंबोलेणं, अवसेसं मुहवासविहिंपच्च०३, (सूत्रह) तयाणंतरं च णं चउव्विहं अणत्थदंडं पचक्खामि तं जहाअवज्जाणाचरियं पमायाचरियं हिंसप्पयाणं पावकम्मोवएसे दुविहं तिविहेणं मणसा, वयसा, कायसा (सूत्र७) इह खलुआणंदाइसमणोभगवं महावीरे आणंदं समणो-वासगं एवं वयासी- एवं खलु आणंदाइसमणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं उवलद्धपुण्णपावेणं आसवसंवर-निज्जरकिरियाअहिगरणबंधुमक्खुलेणं असहिज्ज दवासुरनागसुवन्नजक्खरक्खसकिंनरकिंपुरुसगरुलगंध-स्वमहोरगाइएहिं देवगणे हिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा- संका, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो। तदाणंतरं च णं थूलयस्स पाणाइवायवेरणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियय्वा, न समायरियव्वा, तं जहाबहे, वंधे, छविच्छेए अइभारे, भत्तपाणवोच्छेए, तयाणंतरं च णं थूलगस्स मुसावायवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्या न समायरियव्वा, तं जहा-सहसाऽन्मक्खाणे, रहस्साऽभक्खाणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे,कूडलेह-करणे यश (उपा.) (स्थूलकाऽदत्तादानास्य अतिचारा: 'अदिण्णादाणवेरमण' शब्दे 1 भागे गताः)। (स्वदारसंतोषविषयाऽतिचाराः 'परदारगमण' शब्दे पञ्चम-भागे दर्शयिष्यते।) (इच्छापरिमाणातिचारस्वरूपम् 'इच्छापरिमाण' शब्दे अस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) तयाणंतरं च णं दिसि विदिसि पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा- उबृदिसि परिमाणाइक्कमे अहोदिसि परिमाणाइक्कमे, चउदिसि परिमाणाइक्कमे, खेत्तबुड्डिस्स अंतरडा। (उपा.) (उपभोग-परिभोगपरिणामस्याऽतिचारा: 'उवभोगपरिभोग परिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) (अनर्थदण्डविरमण-विषयातीचाराः 'अणट्ठादंडवेरमण' शब्दे प्रथमभागे गताः।) (सामायिक विषयातिचारा: 'सा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद 126 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद माइय' शब्दे दर्शयिष्यते) (देशाऽवकाशिकविषयाऽतिचाराः 'देसाऽवगासिय' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) (पौषधोपवासविषयाऽतिचारा: 'पोसह' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (अतिथिसंविभागविषयातिचारा: 'अइहिसंविभाग' शब्दे प्रथमभागे गताः) (अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना-जोषणाऽsराधनताविषयाऽतिचारा: 'अपच्छिममारण-न्तियसंलेहेणाजूसणाऽऽराहणता' शब्दे प्रथमभागे गताः1) तएणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-णो खलु मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पभिइ अण्णउत्थिए वा अण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेइयाई वंदित्तए वा णमंसित्तए वा, पुट्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउंवा अणुप्पयाउं वा णण्णत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलामिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं, कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एस णिज्जेणं असणपाण- खाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं पीढफलग- सेज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए त्तिक / इमं एयाणुरुवं अभिग्गहं अभिगिणइ 2 त्ता, पसिणाई पुच्छइ पुच्छित्ता, अट्ठाई आइयइश्त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुर्ता वंदइ वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खपइश्त्ताजेणेव वाणियगामे णयरे जेणेव सइ गिहे तेणेव उवागच्छिइत्ता सिवाणंदं मारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, सेवि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए तं गच्छ णं तुभं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीर वंदाहि जाव पज्जुवासाहि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पंचाणुष्वतियं सत्तसिक्खावतियं दुवालसविहं गिहिधर्म पडिवज्जाहि। (सूत्र-८) तएणं सा"सिवाणंदा" भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ२ ता एवं वयासीखिप्पामेव लहुकरणं जाव पज्जुवासति। तए णं समणे भगवं महावीरे सिवाणंदाए भारियाए। तीसेय महइ०जाव धम्मं कहेइ, तण णं सा सिवाणदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सुचाणिसम्म हट्ठाजाव गिहिधम्म पडिवज्जइश्त्ता तमेव घम्मियं जाणपवरं दुरुहइश्त्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया(सूत्र-९) भंतेत्ति, भयवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ वंदित्ता एवं वयासी-पहू णं मंते ! आणंदे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे जाव पवइत्तए, णो इणढे समडे, गोयमा ! आणंदे णं समणोवासए बहूई वासाई समणोवासगपरियायं पाउणिहिइ 2 त्ता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / तते णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ बहिया / जाव विहरति। (सूत्र-१०) ततेणं से आणदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ। तए णं सा सिवाणंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव पडिलाभेमाणी विहरइ (सूत्र-११)।तएणं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स उबावरहिं सीलव्वयगुणवे रमणपचक्खाणपोसहोववासे हि अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दससंवच्छराई वीइक्कंताई पण्णरससंवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अण्णया कयाइ पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्जत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने- एवं खलु अहं वाणियग्गामे नयरे बहूणं ईसर-जाव सयसावियकुटुंबस्स जाव आधारे, तं एतेणं विक्खेवेणं अहं णो संचएमि समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा जहा पूरणो जाव जेहपुत्तं कुटुंबे ठवित्ता तं मित्तं जाव जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता कोल्लाए संनिवेसे णायकुलंसिा पोसहसालंपडिलेहित्ता समणस्स भगवओ महा-वीरस्स अंतियं धम्मपण्णति उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं विउलं तहेव जिमित भुत्तुत्तरा- गए तं मित्त जाव विउलेणं पुप्फ-पीढ-फलग-सेज्जा- संथारएणं सक्कारेइसंमाणेइश्त्तातस्सेव मित्त जाव पुरओजेट्टपुत्तं सदावेइ २त्ता, एवं वयासी- एवं खलु पुत्ता! अहं वाणियग्गामे बहूणं ईसर जहा चिंतियं 0 जाव विहरित्तए / तं सेयं खलु मम इयाणिं तुम सयस्स कुटुंबस्स आलंबणं०४ द्वावित्ता जाव विहरइ / तए णं जेहपुत्ते आणंदस्ससमणोवासगस्सतह त्ति एयमट्ट विणएणं पडि Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद 127 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद सुणेइ / तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त / जाव पुरओ जेहपुत्तं कुडुंबे ठवेइ २त्ता / एवं वयासी- मा णं देवाणुप्पिया! तुन्भे अज्जप्पमिई केइममं बहुसु कज्जेसुजाव आपुच्छउ वा पडिपुच्छउ वा ममं अट्ठाए असणं वा पाणं व खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उवकरेउ वा / तए णं से आणंदे / समणोवासए जेहपुत्तं मित्तणाइं आपुच्छइत्ता सयाओ गिहाओ पहिणिक्खमइत्ता वाणियग्गामणयरं मज्जमज्जेणं णिग्गच्छइ 2 त्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव नायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइत्ता पोसहसालं पमज्जइ२त्ता उच्चारपास-वणभूमि पडिलेहइ 2 त्ता दन्भसंथारं संथरइ २त्ता दध्वसंथा-रयं दूरू हइ 2 त्ता पोसहसालाते पोसहिते दब्भसंथारोवगये समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं / धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। (सूत्र-१२) तए णं से आणंदे समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / पढम उवासगपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं सम्मं कारणं फासेइ०जाव आराहेइ। तए णं से आणंदे समणोवासए दोचं उवासगपडिम, अहासु। एवं-तचं उवा, चउत्थं उ. पंचमं उछटुं उ. सत्तमं उ. अट्ठमं उ नवमं उ. दशमं उ एक्कारसमं ऊ जाव आराहेइ (सूत्र-१३)। तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पयाहित्तेणं तवोकम्मेणं सुक्के० ०जाव किसे धमणिसतते जाए / तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्ताजाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्जत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने एवं खलु अहं इमेणंजाव धमणिसंतए जाएतं अत्थिता मे उठाणे कम्मबल-वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे / तं जाव तामे अस्थि उट्ठाणे सद्धा धिई संवेगे जाव मे धममायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, ताव ता मे सेयं कल्लं जाव जलते अपच्छिममारणंतियसंलेहणाजूसणाजूसितस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए। एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं पाउ जाव अपच्छिम जाव कालं अणवकंखमाणे विहरहा तए णं | तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अण्णया कय इ सुभेणं अज्जवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं वि सुज्जमाणीहिं णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने पुरच्छिमे णं लवणसमुद्दे पंचोजयणसइयं खेत्तं जाणइ पासइ / एवं दक्खिणेणं पञ्चत्थिमेण य उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासघरपव्वतं जाणइ पासइ। उबंजाव सोहम्म कप्पं जाणइ पासइ अहे जाव इमी से रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयं अचुयं णरयं चउरासीइवाससहस्सद्वितियं जाणइपासइ (सूत्र-१४) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए परिसा निग्गया जाव पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूईणामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचतुरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कण-गपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गवते दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे महातवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोभे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे जाव तेयंसी छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं से भगवं गोयमे छडक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्जायं करेइ वीआए पोर (स) सीए जाणं जियाइ, तईयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभताए मुहपत्तियं पडिलेहेइ २त्ता। भायणवत्थाई पडिलेहेइ२त्ता। भायणवत्थाई पमज्जइ २त्ता भायणाई उग्गाहेइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ त्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ 2 ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाए छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे णयरे उचनीयमज्जिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया?मापडिबंधं करेह।तएणंगोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ 2 त्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपरिलोयणाए दिट्ठीए पुरओइरियं सोहमाणे जेणेव वाणियग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छह 2 त्ता वाणियग्गामे णगरे उच्चनीयमज्जिमाई कुलाइंघरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ / तए णं से भगवं गोयमे वाणियग्गामे नगरे जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए / जाव अडमाणे अहापज्जत्तं भत्तपाणं संमं पडिगाहेइ 2 त्ता वाणियगामाओ पडिनिग्गच्छह र त्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंते णं वीतीवयमाणे बहुजणसह णिसामेइ बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ.४ एवं खलु - देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद 128 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणंद आणंदे णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममार जाव अणवकंखमाणे विहरइ,तएणं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एतमढं सोचा णिसम्म अयमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने, तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि, एवं संपेहेइ संपेहित्ता जेणेव कोल्लाए संनिवेसे जेणेव आणंदे समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छा तण णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एज्जमाणं पासइ, पासेत्ता हट्ठजाव हियए, भगवं गोयमं वंदति णमसतिश्त्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव धमणिसंतते जाए, णो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउन्मवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुम्मे णं भंते ! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इतो चेव (एह) एवं जण्णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि णमंसामि। तए णं से भगवं गोयमे जेणेव आणंदे समणो-वासए तेणेव उवागच्छइ (सूत्र-१५)। तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदति णमंसति 2 त्ता एवं वयासीअस्थि णं भंते ! गिहिणो गिहिमज्जावसंतस्स ओहिणाणे णं समुपज्जइ / हंता अस्थि, जइ णं भंते ! गिहिणो . जाव समुप्पज्जइ / एवं खलु भंते ! मम वि गिहिणो गिहिमज्जावसंतस्स ओहिनाणे समुप्पण्णे पुरच्छिमेणं लवणसमुद्दे पंच जोयणसयाइंन्जाव लोलुयच्चुयं णरयं जाणामि पासामि / तए णं से भगवं गोयमे आणंदं समणो-वासयं एवं वयासी-अत्थि णं आणंदा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, णो चेवणं एव महालए तंणं तुमं आणंदा! एतस्स ठाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्म पडिवज्जहि। तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयम एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! जिणवयणे संताणं? तचाणं तहियाणं सब्भुयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जिज्जइ? णो इणढे समटे / जइ णं भंते ! जिणवयणे संताणं जाव भावाणं णो आलोएज्जइ जाव तवोकम्मं णो पडिवज्जिज्जा तंणं भंते! तुम्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह जाव पडि वज्जह / तए णं से भगवं गोयमे आणं देणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छासमावण्णे आणंदस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइत्ता जेणेव दुइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ 2 त्ता / एस णं समणे आलोएइ 2 त्ता भत्तपाणे पडिदंसेइ 2 त्ता समणं भगवं वहावीरं वंदइ नमसइ 2 त्ता। एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्हेहिं अब्भणुण्णाए तं चेव सवं कहेइजाव तए णं पडिदंसेइ / अहं संकिते कंखिए वितिगिच्छासमावण्णे आणंदसस्स समणोवासगस्स अंतिए पडिणिक्खामामि 2 त्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए तं णं भंते ! किं आणंदे णं समणोवासए णं तस्स ठाणस्स आलोएयव्यं जाव पडिवज्जेयव्वा उदाएमए? गोयमाइसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-गोयमा! तुम चेव णं तस्स ठाणस्स आलो एहि जाव पडिवज्जे हि, आणंदं समणोवासयं एयमटुं खामेहिा तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ 2 त्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवज्जइ / आणंदं च समणोवासयं एयमटुंखामेइरत्ता तएणं से समणे भगवं महावीरे बहिया अण्णया कयाइ बहिया जणवयविहारं विहरइ (सूत्र१६+)।तए णं से आणंदे समणोवासए बहूहिं सीलव्वएहिं जाव अप्पाणं भावेइ त्तावीसं वासाइंसमणोवासयपरियायं पाउणित्ता एकारस य उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता भासियाए संले हणाए अत्ताणं जूसित्ता सर्हि भत्ताई अणसणाए छे देत्ता आलोइयपडिक्कं ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरिच्छमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। आणंदे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चुओ चुइत्ता कहिं गच्छहिति कर्हि उववज्जिहिति / गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्जिहिति, णिक्खेवो। सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमं अज्जयणं सम्मत्तं / (सूत्र-१७) उपा० 1 अ आचू। आ. म. 1 भाविन्यामुत्सर्पिण्यामरकद्विकेव्यतिक्रान्ते तृतीयारकेआनन्दजीव: पेढालस्तीर्थकृद्- भविष्यति। ती०२० कल्प। भाविन्या उत्सर्पिण्योस्तृतीयारके, "पेढालं अट्ठमयं, आणंदजीयं नमसामि"||१६६|| पेढाल- मष्टमकन्न आनन्दजीवं नमस्यामि। प्रव 49 द्वार। अनुत्तरो- पपातिकदशाया: सप्तमेऽध्ययने च। एतच वाच्यन्तरापेक्षया ननूपलभ्यमानवाचनापेक्षया / स्था० 10 ठा०३ उा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंदअंसुपाय 129 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणण आणंदअंसुपाय-पुं. (आनन्दाऽश्रुपात) हर्षाश्रुमोक्षणे, "आणंद-अंसुपायं "श्रीहेमविमलसूरि-दूंरीकृतकल्पष: स सूरिगुणम्। कासि सिज्जंभवा तहिं थेरा"||३७१४|| आनन्दा-श्रुपातम्अहो ज्ञात्वा योग्यं तूर्णं, धर्मस्याभ्युदयसंसिद्धैः // 44 // आराधितमनेनेति हर्षाश्रुतिमोक्षणम् / दश०२ चू। सौभाग्यपूर्णसंवेग-तरङ्गनीरनिधिम्। आणंदकूड-न. (आनन्दकूट) आनन्दनाम्नो देवस्य कूटमानन्द-कूटम् / आनन्दविमलसूरिं, स्वपट्टे स्थापयामास ॥४५||युग्मम्। गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्थे कूटभेदे, जं.४वक्ष। धन्या नागरसंकाशा-स्तपोभिर्दुस्तपै शम्। आणंदचंदण-न. (आनन्दचन्दन) स्वरूपानुभवानन्दचन्दने, | स्थूलभद्रोपमा यस्य, ब्रह्मचर्यगुणैरपि ||6|| अष्ट.।"वेष्टनं भयसप्पाणां, नतदानन्दचन्दने"||५|| अष्ट. 17 अष्ट। श्रीमदानन्दविमल-प्रभवः शासनाद् गुरोः। आणंदजीव-पु. (आनन्दजीव) आनन्दस्यात्मनि, भाविन्या , शश्वत् शुद्धां क्रियां कर्तुमकुर्वं निश्चलं मनः // 47 // " उत्सर्पिण्यास्तृतीयारक्रे, पेढालम् अष्टकम् आनन्दजीवं नमस्यामि / ग.३ अधि। "आणंदजी(व)यं"॥१६६४|| प्रक०४९ द्वार। आणंदवीर-पु. (आनन्दवीर) श्राद्धप्रतिक्रमं भाष्यकृत: रत्नआणंदज्जयण- न. (आनन्दाध्ययन) आनन्दवक्तव्यताप्रतिबद्ध | शेखरसूरेगुरोरुदयवीरगणिनः परमगुरौ, जै. इ०। उपासकदशाया: प्रथमेऽध्ययने, उपा. 1 अ०१ स्था,। अनुत्तरोपपा- | आणंदसूरि- पुं. (आनन्दसूरि) नागेन्द्रगच्छीये सिद्धराजेन राज्ञा तिकदशाया: सप्तमेऽध्ययने, स्था० 10 ठा०३ उ। निरयावलिकोपाङ्ग- | ___व्याघ्रशिशुकेति नाम्ना प्रख्यापिते बृहद्गच्छीये स्वनामके आचार्य च / द्वितीयवर्गस्य कल्पावतंसिकाभिधस्य नवमेऽध्ययने च। नि.१ श्रु०२वर्ग जै.इ.। 2 अ०। (एतेषां वक्तव्यता आणंद' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमव गता) | आणंदहिययभाव- पुं० (आनन्दहृदयभाव) आनन्दलक्षणे भावे, आणंदण-न. (आनन्दन) आनन्दयत्यनेन आ-नदि-णिच् करणे ल्युट "आणंदहिययभावनंदणकरा" (सूत्र-१५+) आनन्दलक्षणो यो यातायातकाले, मित्रादे: आरोग्यस्वागतादिप्रश्ने, तत्कालिकालिङ्गने भावस्तस्य नन्दकरा:- वृद्धिकराये ते तथा। प्रश्न० 4 आश्र द्वार। चा भावे ल्युट्। सुखजनने, वाचः। भगवत ऋषभदेवस्य शतपुत्रान्तर्गतं आणंदा- स्त्री. (आनन्दा) आनन्दयति सेवनात् आनदि णिच् अच् / स्वनामख्याते पुत्रे, कल्प.१ अधि०७ क्षण / वक्षस्कारपर्वतस्थे विजयायाम्, (सिद्धि) राजनिः / वाचला पौरस्त्यायां स्वनामख्यातायां स्वनामख्याते देवे चा स्था०७ ठा०३ऊ। दिक्कुमा-म्, आ०म०१ अ जी। जंठा स्था०। ती! आoन्यूछ। आ.क.। आणंदणंदण- न. (आनन्दनन्दन) आनन्द:- आत्मानन्दस्तदेव लवणद्वीपस्थपौरस्त्यां जनकपर्वतस्थायां स्वनामख्यातायां नन्दनमानन्दनन्दनम्। आनन्दात्मकेनन्दनवने,"निर्भयः शक्रवद्योगी, / नन्दापुष्करिण्याम्, स्था०४ ठा०२ऊ। नन्दत्यानन्दनन्दने !|7 // " अष्ट०५ अष्टा आणंदिय-त्रि. (आनन्दित) आ-नदिक्त हर्षयुक्ते, वाचला प्रमोद प्राप्ते, आणंदणकू ड- न. (आनन्दनकूट) गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्थे जं.३ वक्षः। सुखिनि, आ-नदि-णिच्-क्त यस्यानन्दो जनितस्तस्मिन् स्वनामख्याते कूटभेदे, स्था०७ ठा०३ऊ। अभिनन्दिते, त्रि। वाच / स्फीतीभूते, 'टुनदि' समृद्धाविति वचनात्। आ. म. १अ / जी / रा! ईषन्मुखसौम्यतादिभावैस्यसमृद्धिमुपगते, आणंदपुर-न. (आनन्दपुर) स्वनामख्याते नगरे, "आणंदपुरं नगरं "हट्ठतुट्ठचित्त-माणदिए" (सूत्र-११४)। औला जितारी राया"। बृ०४ ऊ। (जितारिराज्ञ: वृत्तम् 'मूढ' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते।)"आणंदपुरे मरुओ" आम०१ अ०। बृ.। 'वीरात्रिनन्दाङ्क आणग्गहण- न. (आणग्रहण) प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादाने, "समयं (993) शरद्यचीकरत्वचैत्यपूर्त ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन्महै: संसदि आणग्गहणं"||९५+II (सूत्र-२६+) कल्पवाचना-माद्यां तदानन्दपुरं न क: स्तुते''||१| कल्प०१ अधि०६ समकंच प्राणापानग्रहणं- प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानम्। प्रज्ञा०१पदा क्षण। आणहाकिइ- त्रि. (आज्ञार्थाकृति) आज्ञाऽऽगमोऽर्थशब्दस्य आणंदमेरु-पुं. (आनन्दमेरु) राजमल्लाभ्युदयनाममहाकाव्य- कृतः हेतुवचनस्यापि दर्शनादर्थों-हेतुरस्याः सा तथाविद्याऽऽकृतिरपद्मसुन्दरस्य परमगुरोः पद्ममेरोगुरौ, जै. इ.! न्मुनिवेषात्मिका यत्र तदाज्ञार्थाकृति। उत्त। मुनिवेषाकृति- मति, उत्त। "आणट्ठाकिइ पव्वए" (49+II) आज्ञार्थाकृति यथाभवत्येवं आणंदरक्खिय-पुं. (आनन्दरक्षित)। स्वनामख्याते स्थविरे, "तत्थणं प्राव्राजीदिति। उत्त० 18 अ। आणंदरक्खिए नाम थेरे,"॥ (सूत्र-११०+) भ०२ श०४ ऊ। आणण- न० (आनन) अनित्यनेन / आअनकरणे ल्युट्ा मुखे, मुखेन हि आणंदविमलसूरि-पुं॰ (आनन्दविमलसूरि) स्वनामख्याते सूरिविशेषे, जलपानादिना प्राणादे: स्थितिरतस्तस्यतथात्वम्।'क्षितीश्वरः, नृपस्य "आनन्दन्दैविमलाभिधान-रिहोद्धता सूरिभिरु-ग्रचर्या "||6|| प्रतिः। कान्तं पिवत: सुताननम्" इति च रघु: / वाच.। "कुंडलउज्जोइयासच हेमविमलसूरेः शिष्यः। ऽऽणणे" (सूत्र-४३+) कुण्डलाभ्यामु-द्योतितम् आननं-मुखं यस्य स इतश्च तथेति / जं.३ वक्षा तारा है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणणकोडुंबिय 130 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा आणणकोडुंबिय- त्रि. (आननकौटुम्बिक) मुखस्य सहायके, कल्प०। "आणणकोडुबिएणं' (सूत्र-३६x)| आननस्य-मुखस्य कौटुम्बिकेनेव यथा राजा कौटुम्बिकै - सेवकै शोभते एवं श्रीदेव्याः आननं तेन शोभासमुदयेनेति। कल्प०१ अधि०२ क्षण। आणत्त- त्रि. (आज्ञप्त) आज्ञा-णिच् पुक्क्त ह्रस्वः। आदिष्टे, कृतादेशे, वाचा प्रश्न३ आश्र द्वार। निचू / आव। *आनर्त- पुं। आनृत्यत्यत्र-आधारे घञ्। नृत्यशालायाम्, युद्धे च। तत्र हि वीरैर्हर्षात् नृत्यमिव क्रियते इति तस्य तथात्वम्। सूर्यवंश्ये राजभेदे, "शातेमिथुनं त्वासीदानतॊ नामविश्रुत:'। हरिवं 10 अ०। तत्कृते देशेभेदे, वाच। तद्देश-वासिजनेषु, तद्राजेषु च / चन्द्रवंश्ये राजभेदे, पुं। आनृत्यतीति कर्तरि अच् / जलेन तस्य तरङ्गरूपेण नृत्यस्येव करणात्तथात्वम्। नर्तक, त्रि.। भवि घञ्। नर्तने, वाच।। *अन्यत्व- न. परस्परं भिन्नत्वे, "तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किं आणत्तं वा" (सूत्र-१९६+ )| प्रज्ञा०१५ पद१ऊ। आणत्ति- स्त्री. (आज्ञप्ति) आ-ज्ञा-णिच-पुक्-क्त ह्रस्वः। आज्ञायाम्, वाच / आदेशे, "आणत्तियं पचप्पिणह" (सूत्र-१२+) आज्ञप्तिम् आदेशं, प्रत्यर्पयता ज्ञा०१ श्रु.१ अ। प्रज्ञा आणत्तिकिंकर-पुं०(आज्ञप्तिकिङ्कर) यथादेशकारिणि, "आणत्तिकिंकरहिं" (सूत्र-१२+) आज्ञप्तिकिंकरैर्यथादेशकारि-किंकुर्वाणैः। प्रश्न.३ आश्र द्वार। आणत्तिया- स्त्री. (आज्ञप्तिका) आज्ञायाम्, "आणत्तिअं पचप्पिणह' (सूत्र-३०४) आज्ञाप्तिकाम्-आज्ञां प्रत्यर्य- सम्पाद्यः, मम निवेदयंत्यथ: / औ०।"एतभाणत्तिअंखिप्पमेव पञ्चप्पिणाहिइ" (सूत्र४६+) एतामाज्ञाप्तिकां क्षिप्रं प्रय॑पयतीति। जं.३ वक्षः। आणप्प-त्रि (आज्ञाप्य) आज्ञापनीये, सूत्र। "आणप्पा हवंति दासा वा' (||15||) स्त्रीणाम्पुरुषाः स्ववशीकृता दासा इव-क्रयक्रीता इव आज्ञाप्या-आज्ञापनीया भवन्ति। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। आणम(व)णी- स्त्री. (आज्ञापनी) असत्यामृषाभाषाभेद, आज्ञापनी कार्ये प्रवर्तनी (परस्य प्रवर्तनं- यथेदं कुर्विति) / भ. 10 श. 3 उ०। प्रज्ञा० / ध०। आणय- त्रि. (आनत) आनम्-क्ता कृतप्रणामे, अधोमुखे, विनयेन नते च / वाचा विमानविशेष, अनु / सकलविमान-प्रधानावतंसकविमानविशेषोपलक्षित आनत:। कल्पभेदे, ऊर्ध्वदेवलोकभेदे, अनुः। स व वैमानिकदेवलोक: / प्रव. 194 द्वार। विशे। स०। आनते भवा आनताः / कल्पोपगवैमानिक- देवभेदे,"आणया"||१३|| उत्त. 36 अ। *आनय- पुं. आनी-भावे अच। देशात् देशान्तरनयने, आनीयते वेदाद्यध्ययनायाऽत्र आधारे अच्। उपनयनसंस्कारे, हेम०। भावे ल्युट्। आनयनमप्युभयत्रा नका वाच। आणयण-न० (आनयन) विवक्षितक्षेत्रावहि:स्थितस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षेत्रे प्रापणे, "आणणं ||389 // प्रक० 6 द्वार / ध०। पञ्चा।। आनीयतेऽनेनेत्यानयनम् - आनयनसाधने, त्रि०ा उत्त, 36 अा आण(व) यणप्पओग- पुं. (आनयनप्रयोग) आनयने विवक्षितक्षेत्रादहिवत्तमानस्य सचेतनादिद्रव्यस्य विवक्षितक्षेत्रप्रापणे प्रयोग: आनयनप्रयोग: / देशावकाशिकदिनतस्यातिचारभेदे, स च स्वयं गमने व्रतभङ्गभयादन्यस्य संदेशकादिना व्यापारणम्। पञ्चा०१ विक। उपा० / धा प्रव। आणण- न० (आज्ञापन) आदेशे, स्था० 2 ठा० 1 उ। प्रतिबोधने, "आगमेत्ता आणवेज्जा '' (सूत्र-२१०+) आगम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत्प्रतिवोधयेदिति। आचा. 1 श्रु०८ अ० 4 उ० प्रवर्त्तने, "आणवयंति भिन्नकहाहिं''lix}| आज्ञापन्ति- प्रवर्त्तयन्ति स्ववशं ज्ञात्वा कर्मकरवादाज्ञां कारयन्ति। सूत्र.१ श्रु०४ अ०१ उ०। प्रा०। *आनायन- न. प्रापणे, स्था०२ ठा० 1 उ. आणवणिया- स्त्री. (आज्ञापनकी) (आनायनी) आज्ञापनस्यादेशनस्येयमाज्ञापनमेवेत्याज्ञापनी सैवाज्ञापनिका तज्ज: कर्मबन्ध आदेशनमेवेति, आनायनं वा। आनायनीक्रियाभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०। आणवणिया किरिया दुविहा। जीवआणवणिया, अजीवआणवणिया या जीवाऽऽणवणी जीवं आज्ञापयति परेण, अजीवं च आणवेइ / आव 4 अा जीवमाज्ञापयत आनायतो वा परेण जीवाज्ञापनी, जीवानयनी वा। एवमेवाजीवविषया अजीवाज्ञापनी, अजीवानायनी वा। स्था०२ ठा. 1 उ। आ. चू। आणा- स्त्री. (आज्ञा) आ-ज्ञा-अङ् / अनुष्ठाने / विशे० 164 गाथा। आदेशे, आदेशश्च निकृष्टस्य भृत्यादेः कृत्यादौ प्रवृत्त्यर्थो व्यापारभेदः / वाच। ज्ञा०१ श्रु.१ अापश्चाता "आणाउववायवयणनिद्देशे चिट्ठति' (सूत्र-१३७।१४०+) आज्ञा-कर्त्तव्यमेवेदमित्याद्यादेश: उपपात:- सेवा / वचनम्- अभियोगपूर्वक आदेश:, निर्देश:-- प्रश्निते कार्ये नियतार्थमुत्त- रम्। भ. 3 श. 1 उ०। विधिविषयक आदेश आज्ञा। स्था. 7 ठा. 3 ऊ! आज्ञायोगेषु प्रवर्तनालक्षणा। स्था० 5 ठा०२ उ०। आणाबलाभियोगो, निग्गंथाणं न कप्पए। आज्ञापनमाज्ञा भवतेदमित्येवंरूपा तथा विवक्षितं कार्यमाज्ञापि यस्याप्यकुर्चतो बलात्कारेण नियोजनं बलाभियोग: एतौ द्वावपि निर्ग्रन्थानां न कल्पेते कर्तुम्। आ० म०१ अ.। (अपवादतस्त्याज्ञाबलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ इति 'इच्छाकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) उपदेशे,"अणाणाए एगे सोवट्ठाणा" (सूत्र-१६६+)। आचा. 1 श्रु०५ अ०६ उ० / 'एसा आणा नियंठिता''||२६+I! एषाऽऽज्ञा अयमुपदेशो निर्ग्रन्थो भगवांस्तस्य। सूत्र 1 श्रु.९अाआज्ञाप्यत इत्याज्ञाहितप्राप्तिपरिहाररूपतयोपदेशे, आचा०१ श्रु०२ अ०२ऊ। कल्प। पञ्चाा तीर्थकर Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 131 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आणा गणधरोपदेशे। दश. 10 अ०। तीर्थकरोपदेशप्रणीते सदाचारे, "आणाए एगे निरुवट्ठाणा" (सूत्र-१६६) आचा. 1 श्रु०५ अ०६ उ.। निर्देशे (417 गाथाटी)"उववातो णिद्देसो, आणा विणओ अहोति एगट्ठा''। व्य०१ उ. वचने, पञ्चा०५ विक। आसामस्त्येनानन्तधमीविशिष्टतया ज्ञायन्तेअवबुध्यन्ते जीवादय: पदार्था यया सा आज्ञा। स्या० 21 श्लोक / आसमन्तात् ज्ञाप्यन्ते-बोध्यन्ते सुकृतकर्माणोऽनयेत्याज्ञा / आगमे, (प्रवचने) दर्श.४ तत्त्व / आङिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा / उत्त०१ अ। स्था। भगवदभिहितागमे, उत्त.१ अाआसप्रवचनं, स्था०४ ठा०१ ऊ। "आणाए अभिसमेचा" (सूत्र-१३०x) आज्ञया तीर्थकरप्रणीतागमेनेति। आचा.१ श्रु० 4 अ०२ उl आज्ञया-मौनीन्द्रप्रवचनेनेति। आचा० 1 श्रु०१ अ. 3 उ। "आणाए मामगं धम्म' (सूत्र- 184+) आज्ञायतेऽनयेत्याज्ञा तया मामकं धर्म सम्यगनुपालय तीर्थकर एवमाहेति। आचा०१ श्रु.६ अ०२ उ.। आज्ञाप्यते जन्तुगणो हितप्रवृत्ती यया साऽऽज्ञा। द्वादशाङ्गे नं०। मोक्षार्थमाज्ञाप्यन्त प्राणिनोऽनयेत्याज्ञा। श्रुते, अनु। विशे, सर्वज्ञवचने, स्था. 10 ठा०३ उ। उत्त० / बोधौ, (सम्यक्त्ये) "आणाए लंभोणऽत्थि" (सूत्र-१३८४) आज्ञायास्तीर्थकरोपदेशस्यलाभोनास्ति, यदि वा-आज्ञा-बोधिः; सम्यक्त्वम्। आचा. 1 श्रु०४ अ०३ उ। सूत्रार्थे, "आगमउवएसाऽऽणा'। आगम:सूत्रमेतदनुसारेण कथनमुपदेश आज्ञा त्वर्थ इति / आव० 1 अ / नियुक्त्यादिकेसूत्र व्याख्याने च / स्था०४ ठा०१ऊ। विषयसूचना(१) आज्ञानिक्षेपः। आज्ञामनुचिन्तयेत्। सदाऽऽज्ञाराधक: स्यात्। परलोकेआज्ञाया एव प्रामाण्यम्। आज्ञया प्रवर्त्तमानोऽप्यप्रवर्त्तमानः / अपुनर्बन्धकादिभ्या एव देयैषाऽऽज्ञा। तीर्थकराऽऽज्ञाऽन्यथाकरणे दोषाः / आज्ञाऽऽराधन-विराधने। आज्ञाऽऽराधकत्वे वज्राऽऽचार्य: आज्ञाभङ्गे प्रायश्चित्तम्। (11) आज्ञारहितस्य चारित्रमपि न भवति। (12) आज्ञाव्यवहारः। (1) आज्ञाया निक्षेप:कडकरणं दवे सा-सणं तु दवे व दव्वओ आणा। दव्दनिमित्तं भुवयं, दुन्नि वि भावे इमं चेव / / 187 / / नोआगमतो द्रव्यशासनं व्यतिरिक्तं कृतकरणं; मुद्रा इत्यर्थ: / आज्ञाऽपि द्रव्यतो नोआगमतां व्यतिरिक्त सैव मुद्रा। अथवा- द्रव्यनिमित्तंद्रव्योत्पादननिमित्तं यत् उभयं शासनम्- आज्ञा तद्रव्यशासनम्- सा द्रव्याज्ञा, द्वे अपि च शासनाऽऽज्ञे भक्त इदमेवाध्ययनम्, किमुक्तं भवति- | नोआगमतो भावशासनं भावाज्ञा च इदमेव कल्पाख्यमध्ययनं, तथाहियएतस्याऽऽज्ञां न करोति सोऽनेकानि मरणाऽऽदीनि प्राप्नोति। बृ.१ उ० २प्रकला दर्श (2) आज्ञामनुचिन्तयेत्सुनिउणमणाइणिहणं, भूयहियं भूयभावणमहग्छ / अमियमजियं महत्थं, महाणुभावं महाविसयं // 45 व्याख्या- सुष्ठ- अतीव निपुणा-कुशला सुनिपुणा ताम्, आज्ञामिति योगः, नैपुण्यं पुन: सूक्ष्मद्रव्याधुपदर्शकत्वात्तथा मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च, उक्तं च- 'सुयनाथमि नेउण्णं, केवले तयणंतरं / अप्पणो सेसगाणं च, जम्हातं परिभावगं ||1||" इत्यादि, इत्थं सुनिपुणां ध्यायेत्, तथा 'अनाद्यनिधनाम्' अनुत्पन्नशाश्वतामित्यर्थः, अनाद्यनिधनत्वं च द्रव्याद्यपेक्षयेति, उक्तं च-"द्रव्यार्थादेशादित्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासी'' दित्यादि, तथा भूतहिता' मिति इह भूतशब्देन प्राणिन उच्यन्ते तेषां हितां-पथ्यामिति भाव:, हितत्वंपुनस्तदनुपरोधिनीत्वातथा हितकारिणीत्वाच, उक्तं च- 'सर्वे जीवा न हन्तव्या' इत्यादि, एतत्प्रभावाच्च भूयांस: सिद्धा इति, 'भूतभावनाम्' इत्यत्र भूतंसत्यं भाव्यतेऽनयेति भूतस्य वा भावना भूतभावना, अनेकान्तपरिच्छेदात्मिकेत्यर्थः, भूतानां वा- सत्त्वानां भावना भूतभावना, भावना वासनेत्यनान्तरम्, उक्तं च- 'कू रावि सहावेणं, रागविसवसाणुगावि हाऊणी भावियजिणक्यणमणा, तेलुक्कसुहावहा होति ॥शा' श्रूयन्ते च चिलातीपुत्रादय एवंविधा बहव इति, तथा 'अनम्'ि इति सर्वोत्तमत्वाद-विद्यमानमूल्यामिति भावः, उक्तं च"सव्वेऽवि य सिद्धता, सदव्यवरयणासया सतेलोक्का। जिणावयणस्स भगवओ, न मुल्लमित्तं अणग्घेणं // 2 // " तथा स्तुतिकारेणाप्युक्तम्"कल्पद्रुमः कल्पितमात्रदायी, चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते / जिनेन्द्रधर्मातिशयं विचिन्त्य, द्वयेऽपि लोको लघुतामवैति / / 1 / / " इत्यादि, अथवा 'ऋणघ्ना' मित्यत्र ऋणं-कर्म तद्ध्नामिति, उक्तं च"जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिँ गुत्तो, खवेइ ऊसासमि- त्तेणं |" इत्यादि, तथा 'अमिताम्' इत्यपरिमिताम, उक्तंच-"सव्वनदीणं जा हो-ज्ज वालुया सव्वउदहीण जं उदयं / एत्तोवि अणंतगुणो, अत्थो एगस्स सुत्तस्सा / / " अमृतां वा मृष्टां वा पथ्यां वा, तथा चोक्तम्-"जिणवयणमोदगस्स उ, रत्तिं च दिवा य खज्जमाणस्स। तित्तिं बुहो न गच्छइ, हेउसहस्सो- वगूढस्स // 1 // नरनारयतिरियसुरगण- संसारिय- सव्वदुक्खरो- गाणं / जिणवयणमेगमोसह-मपवग्गसुद्दक्खयं फलयं // 2 // " सजीवां वाऽमृतामुपपत्तिक्षमत्वेनसार्थिका-मितिभाव:, नतुयथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः। प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वर-वाहिनी॥१॥' इत्यादिवन्मृ- तामिति, तथा 'अजिता' मिति शेषप्रवचनाज्ञाभिरपराजितामित्यर्थः, उक्तंच-'जीवाइवत्थुचिंतण-कोसल्ल-गुणेणऽणण्णसरिसेणं। सेसवयणेहिँ अजिय, जिणिंदवयणमहाविसय।।११॥ तथा'महार्थी' मिति, महान्-प्रधानोऽर्थो यस्याः सा तथाविधा तां, तत्र पूर्वापराविरोधित्वादनु-योगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भ-त्वाच्च प्रधानां, महत्स्थां वा अत्र महान्त:सम्यग्दृष्टयो भव्या एवोच्यन्ते ततश्च महत्सु Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 132 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा स्थिता महत्स्था तां च; प्रधानप्राणिस्थितामित्यर्थः, महास्थां वेत्यत्र महापूजोच्यतेतस्यां स्थिता महास्थातां, तथा चोक्तम्-'सव्वसुरासुर-- माणुसजोइसवंतरसुपूइयं णाणं ! जेणेह गणहराणं, छुहंति चुण्णे सुरिंदावि।।२।' तथा 'महानुभावा' मिति तत्र महान्- प्रधान: प्रभूतो वाऽनुभाव:- सामर्थ्यादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्राधान्य चास्याश्चतुर्दशपूर्वा विदः सर्वलब्धिसम्पन्नत्वात्, प्रभूतत्वं च प्रभूतकार्यकरणाद्, उक्तं च- 'पभू णं चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, एवमिहलोके परत्र तु जघन्यतोऽपि वैमानिकोपपात:, उक्तं च- 'उववाओ लंतगंमि, चोद्दसपुव्वीस्स होइ उजहण्णो। उक्कोसो सव्वद्वे, सिद्धिगमो वा अकम्मस्स ||1||' तथा 'महाविषया' मिति महद्विषयत्वं तु सकलद्रव्यादिविषयत्वाद्, उक्तं च- 'दव्वओ सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाईजाणई - त्यादि कृतं विस्तरेणेतिगाथार्थः / जाइज्जा निरवज्जं, जिणाणमाणं जगप्पईवणिं। अणिउणजणदुण्णेयं, नयभंगपमाणगमगहणं / / 6 / / व्याख्या- 'ध्यायेत्' चिन्तयेदिति सर्वपदक्रिया, 'निरवद्या' मिति अवयं- पापमुच्यते निर्गतमवद्यं यस्या: सातथा ताम्, अनृतादिद्वात्रिंशदोषावधरहितत्वात्, क्रियाविशेषणं वा, कथं ध्यायेत्? निरवद्यम् - इहलोकाधासंसारहितमित्यर्थः, उक्तं च- 'नो इहलोगट्ठयाए नो परलोगट्ठयाए नो परपरिभवओ अहं नाणी त्यादिकं निरवचं ध्यायेत्, 'जिनाना' प्राग्निरूपितशब्दार्थानाम् 'आज्ञा' वचनलक्षणां कुशलकर्मण्याज्ञाप्यन्तेऽनया प्राणिन इत्याज्ञा तां, किंविशिष्टा ? जिनाना- केवलालोकेनाशेष-संशयतिमिरनाशनाज्जगत्प्रदीपानामिति, आज्ञैव विशेष्यते- 'अनिपुणजनदु यां' न निपुण: अनिपुणः, अकुशल इत्यर्थ: जन:- लोकस्तेन दुर्जेयामिति- दुरवगमा, तथा 'नयभङ्गप्रमाण- गमगहनाम्' इत्यत्र नयाश्च भङ्गाश्च प्रमाणनिचगमाश्चेति विग्रहस्तैर्महना- गह्वरा तां, तत्र नैगमादयो नयास्ते चानेकभेदाः, तथा भङ्गा: क्रमस्थानभेदभिन्नाः, सत्र क्रमभङ्गा यथाएको जीव एक एवाजीव इत्यादि, स्थापना ||5155 ISISS 155 स्थानभङ्गास्तु यथा प्रियधर्मा नामैकः, नो दृढधर्मेत्यादि, तथा / प्रमीयते ज्ञेयमेभिरिति प्रमाणानिद्रव्यादीनि, यथा-ऽनुयोगद्वारेषु गमा:चतुर्विंशति-दण्डकादयः, कारणवशतो वा किञ्चिद्विसदृशाः सूत्रमार्गा यथा षड्जीवनिकाऽऽदाविति कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः / ननुयाएवंविशेषणविशिष्टा सा बोद्धमपि न शक्यतेमन्दधीभिः, आस्तां तावद्ध्यातुं, ततश्च यदि कथञ्चिनावबुध्यते तत्र का वार्तेत्यत आहतत्थ य मइदोब्बलेणं, तट्विहाऽऽयरियरिहओ वाऽवि। णेयगहणत्तणेण य, णाणावरणोदएणं च ||7|| व्याख्या-'तत्र' तस्यामाज्ञायां, चशब्द: प्रस्तुतप्रकरणानुकर्ष- णार्थ: किं? जडतया चलत्वेन वा मतिदौर्बल्येनबुद्धेः, सम्यगर्थानवधारणेनेत्यर्थ; तश'तनिशचार्यविरहतोऽपि तातदिध सम्यगविपरीततत्व प्रतिपादन कुशल: आचर्यतेऽसावि- त्याचार्य: सूत्रार्थावगमार्थ; मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः, तद्विध- श्वासावाचार्यश्च तद्विधाचार्य: तद्विरहत: तदभावतश्च, चशब्द: अबोधे द्वितीयकारणसमुचयार्थः, अपिशब्द: क्वचिदुभयवस्तू- पपत्तिसम्भावनार्थ: तथा'ज्ञेयगहनत्वेन च' तत्र ज्ञायत इति ज्ञेयं- धर्मास्तिकायादि तद्गहनत्वेन- गह्वरत्वेन, चशब्दोऽबोध एव तृतीयकारणसमुच्चयार्थः, तथा 'ज्ञानावरणोदयेन थ' तत्र ज्ञानावरणं प्रसिद्धं तदुदयेन तत्काले तद्विपाके न, चशब्दश्चतुर्थाबोधकारणसमुचयार्थः, अत्राह-ननु ज्ञानावरणोदयादेव मतिदौर्बल्यं तथा तद्विधाचार्यविरहो ज्ञेयगहनाप्रतिपत्तिश्च, ततश्च तदभिधाने न युक्तममीषाभिधानमिति, न, तत्कार्यस्यैव संक्षेपविस्तरत उपाधिभेदेनाभिधानादिति गाथार्थ:। तथाहेऊदाहरणासं-भवे य सइ सुटु जं न बुज्जेज्जा। सवण्णुमयमवितह, तहावितं चिंतए मइमं / / 4 / / व्याख्या- तत्र हिनोति- गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टाना- निति हेतु:- कारको व्यञ्जकश्च, उदाहरणं- चरितकल्पितभेदं, हेतुश्चोदाहरणं च हेतूदाहरणे तयोरसम्भवः, कञ्चन पदार्थ प्रति हेतूदाहरणासम्भवात्, तस्मिंश्च, चशब्द: पञ्चमषष्ठकार-णसमुच्चयार्थ:, 'सति विद्यमाने, किं ? 'यद्' वस्तुजातं'न सुष्ठु बुद्ध्येत' नातीवावगच्छेत् 'सर्वज्ञमतमवितथं तथापि तचिन्तयेन्मतिमा' निति तत्र सर्वज्ञा:- तीर्थकरास्तेषां मतं सर्वज्ञमतं- वचनं, किं? वितथम्- अनृतंन वितथम्- अवितथं; तथापि तदबोधकारणे सत्यनवगच्छन्नपि 'तत्' मतं वस्तु वा 'चिन्तयेत्' पर्यालोचयेत् 'मतिमान् बुद्धिमानिति गाथार्थः। किमित्येतदेवमित्यत आहअणुवकयपराणुग्गह-परायणाजं जिणा जगप्पवरा। जियरागदोसमोहा,यणण्णहावादिणो तेणं // 49|| आव० 4 अ। दर्श। (अस्या गाथाया व्याख्या जिण' शब्दे चतुर्थे भागे 1462 पृष्ठे वक्ष्यतो) (3) आज्ञाग्राहकेण च सदैव भवितव्यम् सयाऽऽणागाहगे सिया, सयाणाभावगे सिया, सया-णापरितंते सिया, आणा हि मोहविसपरममंतो, जलं रोसाइजलणस्स, कम्मवाहितिगिच्छासत्थं, कप्पपायवो सवफलस्स। (सूत्र 2+) सदाज्ञाग्राहक: स्यात्, अध्ययनश्रवणाभ्याम्, आज्ञाआगम उच्यते। सदाज्ञाभावक: स्यात्, अनुप्रेक्षादारेण सदाज्ञापरतन्त्र: स्यादनुष्ठानं प्रति / किमेवमित्याह-आज्ञा हि मोहविषयपरम- मन्त्र: तदपनयनेन। जलं, द्वेषादिज्वलनस्य, तद्विध्यापनेन कर्मव्यधिचिकित्साशास्त्रं, तत्ज्ञयकारणत्वेन कल्पपादप: सर्वफलस्य, तदबन्ध्यसाधकत्वेन। पं० सू.२ सूत्र। (आज्ञा-ग्राह्यार्थस्याज्ञयैवव्याख्यानमिति वक्खाण' शब्दे षष्ठेभागे वक्ष्यते) (यत्राऽऽज्ञा न स्खलति स एव गच्छ:)जत्थ य उसभाऽऽदीणं, तित्थयराणं सुरिंदमहियाणं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 133 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा कम्मऽहविप्पमुक्काणं, आणं न खलिज्जइ स गच्छो।। वचनात्-आगमवाक्यात्, तथाहि-"आणाए चिय चरणं तब्भंगे जाण महा० 1 अ किं न भग्गं ति। आणं च अइक्कंतो, कस्सा-एसा कुणइ सेसं''||१|| (मोक्षार्थिनाऽऽज्ञयैव सर्वत्र यतितव्यम् इति 'चेइय' शब्दे तृतीये भागे अथाज्ञारुचेरप्यनाभोगाचरणविघातो भविष्यतीत्याशङ्कयाह 'एतो' त्ति१२६८ पृष्ठे यक्ष्यते) इत: अस्मादाज्ञारु-चित्वात्प्रज्ञापनीयो भवतीति योग: / अनाभोगेऽपि अज्ञानेऽपि अनाभोगजनिते; सदसत्प्रवृत्तावपीत्यर्थः / अनाभोगस्तस्य (आज्ञास्थितानामेव साधुत्वम्) तीर्थकराज्ञास्थितानेवस्वरूपत आह प्रायोन संभवतीति ख्यापनार्थोऽपिशब्द: प्रज्ञापनीय:- सुखसंबोध्य:, ते पुण समिया गुत्ता, पियदधम्मा जिइंदियकसाया। अयमाज्ञारुचि:, भवति-स्यात्, ततश्चाज्ञारु- चित्वात्प्रज्ञापनीयत्वेगंभीरा धीमंता, पण्णवणिज्जा महासत्ता ||2011 नाऽस्य चरणं भवतीत्याज्ञासारं तदुक्तम् / इति गाथायर्थः / पञ्चा० 11 व्याख्या- तीर्थंकराज्ञास्थिताः, साधवः, पुनरिति विशेषणार्थः / विवा समिता: समितिपञ्चकेन गुप्ता- गुप्तित्रयेण, प्रिय: प्रीतिस्थानं दृढश्च स्थिरो (4) परलोकेचाऽऽज्ञाया एव प्रामाण्यम्विपत्स्वपि अविमोचनाधर्मः श्रुतचारित्राऽत्मको येषां ते प्रियदृढधाः / आणा इत्थ पमाणं, विण्णेआ सव्वहा उपरलोए / / 1384+ / / जितेन्द्रियकषाया:- न्यक्त करणकोपादिभावा: / गम्भीरा आज्ञा अत्र प्रमाणं विज्ञेया, सर्वथैव परलोके। पं०४द्वार। अलक्ष्यमाणहर्षदैन्यादि- भावाः / गाम्भीर्यलक्षणं चेदम्- "यस्य प्रभावादाकाराः, क्रोधहर्षभयादिषु / भावेषु नोपलभ्यन्ते, तद् धर्ममूलं चाऽऽजैवगाम्भीर्यमुदाहृतम् ||1||" इति। धीमन्तो- बुद्धिमन्त: प्रज्ञापनीया आणाभंगाउ चिय,धम्मो आणाएपडिबद्धो // 18 / / सुखावबो-द्ध्याः, महासत्त्वा:- अवैक्लव्याऽध्यवसायवन्तः।"आपत्सु आज्ञाभङ्गादेव- सवंविदामागमोल्लङ्घनादेव / (दर्श०) धर्म:द्रव्यअवैक्लव्यकरमध्यवसानकरं सत्त्वम्" इत्युक्ते: इति गाथार्थः / स्तवरूप: आज्ञायाम्- आप्तवचने प्रतिबद्ध:- नियमाद् वर्तते। दर्श. 1 उस्सग्गववायाणं, वियाणगा सेवगा जहासत्ति। तत्त्व। भावविसुद्धिसमेता, आणारुतिणो य सम्मं ति॥४॥ आज्ञोल्लङ्घनेऽपि कथंधाऽभाव इत्याहव्याख्या- उत्सर्गापवादयो:- सामान्योक्तविशेषोक्त विध्यो:, तित्थगराणामूलं, नियमा धम्मस्स तीऍ वा पाए। विज्ञायका:- विज्ञाः, तथा सेवका:- अनुष्ठानरताः, तयोरेव। यथाशक्ति किं धम्मो किमहम्मो, मूठा नेयं वियारिंति ||19|| शक्त्यनिगृहनेन, भावविशुद्धिसमेता:- परिणाम- विशुद्धितान्विता:, तीर्थकराव-सर्वविदुपदेश एव मूलं प्रथमारोहणरूपं नियमो-निश्चयो आज्ञारुचय: आगमबहुमानिनः, घशब्द: समुच्चये, सम्यग् नधर्मस्या महामहीसहस्याविकलसकलसुखफल-संसाधकस्य तस्याः अविपरीततया, न पुन: स्वाग्रहानुसारेण, इतिशब्द: समाप्तौ इति तीर्थकरस्याज्ञाया विधाते विनाशे किं धर्मः शुभस्वभाव: गाथार्थः / पञ्चा० 11 विवा सुखसंदोहसंपादको वा किम्, अथवा-धर्म: पुण्याभावस्वभाव: सदा (आज्ञासारमेव सम्यगनुष्ठानं साधुधर्म:) देहिसंदोहदु:खदानदुर्ललितः। मूढा-मिथ्यात्वमहामोहमोहितान्त:करणा हिताऽहितविवेकविकला नेदं विचारयन्ति नेदं पर्यालोचयन्ति यदुतधम्मो पुण एसस्सिह, संमाणुहाणपालणारूवो। विहिपडिसेहजुयं तं, आणासारं मुणेयव्वं ।दा सर्वविदुपदशोल्लङ्घनेन स्वबुध्या सुन्दरमप्यनुष्ठान विधीयमानं किं कर्माऽभावाय-कर्मबन्धाय भविष्यतीति गाथार्थः / व्याख्या- एष तावत्साधुरुक्तो धर्म: पुनर्दुर्गतिगमनधारण- स्वभाव: तर्हि तत्त्वपर्यालोचनेऽपि किं वृत्तमित्याहएतस्य साधोः इह- साधुधर्मविचारे, सम्यक्- समीचीनं, यदनुष्ठानं आराहणाए तीए, पुण्णं पावं विराहणाए उ। प्रत्युपेक्षादिक्रि या, तस्य या अनुपालना- सेवा सम्यग् वा एयं धम्मरहस्सं, विण्णेयं बुद्धिमंतेहिं / / 20 / / याऽनुष्ठानपालना सैवरूप-स्वभावो यस्यासौ सम्यगनुष्ठानपालनारूप:, सम्यगनुष्ठानमेव किमुच्यते? इत्याह-विधिप्रतिषेधयुक्तध्यानादिहिंसा आराधनया तस्याः-आज्ञायाः सर्वविदुपदेशस्य पुण्यं -शुभं दिष्वासेवापरिहारान्वितं, तत्सम्यगनुष्ठानम् आज्ञासारमाप्तवचनप्रधानम् सर्वज्ञाऽऽज्ञापक्षपातजनितशुभभावकुशलानुष्ठायिनो हि शुभ- भावादेव 'मुणेयव्वं' ति-विज्ञेयम्। इति गाथार्थः / पञ्चा०११ विव०। शुभानुबन्धि पुण्यबन्धो भवत्येव, पापमशुभवेद्यंविरा- धनया अथ कस्मादाज्ञासारमेव सम्यगनुष्ठानं साधुधर्म इत्युक्तमि सर्वविदाज्ञोल्लङ्घनेन, तुशब्द: पुनरर्थस्ततोऽयमर्थः स यद्यपि स्वाग्रहवशाद- गतानुगप्रवाहदर्शनाद्बोधकुशल-बुध्या धर्मादन्येषु प्रवर्तते त्याशङ्कयाह तथाऽपिजिनागमोक्तमार्गोल्लङ्घनजनितंपापमेव भवति, यत:-"धर्मार्थी आणरुइणो चरणं, आणाए चिय इमंति वयणाओ। खलु शुद्धबुद्धि-विभव:सर्वत्र कृत्येषु, प्राणित्राणविधावपीह सततं जैनेषु एतोऽणाभोगम्मि वि, पण्णवणिज्जो इमो होइ।।१२।। पूजादिषु।स्वाभिप्रायवशो गतानुगतिकप्रायप्रवाही सदा, दत्तेधर्माधियापि व्याख्या- आज्ञारुचे:- आप्तोपदेशाभिलाषयुक्तस्या न त्व(न्य) स्य / पापमतुलं तीर्थाधिपाज्ञां विना||१||" अन्यैरप्युक्तम्-"जिणाणाए कु चरणं चारित्रं भवतीति गम्यं, कुत एवं सिद्धमित्याह- 'आणाए चिय' णताणं, नूणं निव्वाणसाहणां सुंदरं पि सबुद्धीए, सव्वं भवनिबंधणं''||१|| त्ति-आज्ञयैव- आप्तोपदेशेनैव, नाऽन्यथा, 'इदं चरणं भवती' ति | | एतद्धर्म-रहस्यं धर्मसर्वस्वं विज्ञेयम्-अवबोद्धव्यम् / बुद्धिमद्भिः Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 134 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा हिताहितविवेकविकलैरिति गाथार्थः / दर्श०१ तत्त्व। (५)(आज्ञया प्रवर्त्तमानस्याऽप्रवर्त्तमानत्वम् सर्वज्ञवचन एवाज्ञाया: सर्वहितकारकत्वं च।)आणा परतंतो सो, सा पुण सव्वण्णुवयणओ चेव। एगंतहिया वेज्जग-णातेणं सव्वजीवाणं // 16|| व्याख्या- आज्ञापरतन्त्रः- आप्तवचनाधीन:, स-प्रस्तुतसाधुः, सा पुन:-आज्ञा पुन:,सर्वज्ञवचनत्वादेव-आप्तप्रणीतत्वादेव, इह भावप्रत्ययो लुप्तो द्रष्टव्यः / एकान्तहिता-सर्वथोपकारिणी, वैद्यकज्ञातेनआयुर्वेदोदाहरणेन, सर्वजीवानां विवक्षया- समस्ताङ्गिना, यथा हिवैद्यशास्त्र नैकस्य कस्यचिदेवातुरस्य स्वस्थस्य वा वैद्यस्य तत्पुत्रस्य तदन्यस्य वा उपकारकम्, एवमाज्ञापि न केषांचिदेवोपकारिणी। इति गाथार्थः / पञ्चा०१४ विव०। पं०व०। (६)(आज्ञा वा पुनर्बन्धकातिरिक्तेभ्यो न प्रदेया)एसा आणा इह भगवओ समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धीए अपुणबंधगाइगम्मा। एअप्पिअत्तं खलु इत्थ लिंग ओचित्तवित्तिविनेयं संवेगसाहगं निअमा / न एसाऽण्णे सिं देया। लिंगविवज्जयाओ तप्परिण्णा। तयणुगाहट्ठयाए आमकुंमोदग- | नासनाएणं एसा करुण त्ति बुचइ, एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेअसमाहिग त्ति। (सूत्र-५+) पं.सू.। (अस्य व्याख्या 'पवज्जा' शब्दे पचमभागे 760 पृष्ठे वक्ष्यते) ____ आज्ञायां च प्रमादो न विधेय:लखूण माणुसत्तं, संजमसारं च दुल्लभं जीवा। आणाएँ पमाएणं, दुग्गइभयवडणा होति / / 63|| लब्ध्वा- प्राप्य मानुषत्वं, तथा संयम एव सार:- प्रधानं मोक्षाङ्गं तंच दुर्लभं- महावारिधिनिमग्नानर्घ्यरत्नमिव दुष्प्रापं लब्ध्या ये जीवा भागवत्या आज्ञाया- विधिप्रतिषेधरूपाया प्रमादेन कालं गमयन्तिा ते 'दुर्गतिभयवर्धना भवन्ति'- आत्मनो देवादिटुंग-तिपरिभ्रमणजनितं भयं वर्द्धयन्तीति भावः / बृ०३ उा (7) (तीर्थकराऽऽज्ञाया अन्यथाकरणे दोषः)तित्थगराणं आणा, सम्म विहिणा उ होइ कायय्वा। तस्सऽण्णहा उ करणे, मोहादतिसंकिलेसो त्ति ||6| व्याख्या- तीर्थकराणां- जिनानामाज्ञोपदेशः सम्यग्भावत:-विधिना | तु-वक्ष्यमाणविधानेनैव भवति- स्यात् कर्तव्या, विधिविपर्यपदोषमाहतस्या-जिनाज्ञाया अन्यथा तु करणे-अविधिविधाने, पुन: कुत इत्याहमोहाद्- अज्ञानात्, कि- मित्याह- अतिसंक्लेशम् - आत्यन्तिकं चित्तमालिन्यं भवति। पञ्चा. 15 विक। (8) जिनाज्ञारहितस्य सुन्दरस्यापि स्वबुद्धिकल्पितस्य भवकारणत्वम्, यत उक्तम् "जिणाणाए कुणंताणं, नणं निव्वाणकारणं। सुन्दरं पि सबुद्धीए, सव्वं भवनिबंधणं / / 1 // " दर्श.३ तत्त्व। ___ आज्ञाराधन- विराधनयोर्दोषगुणौजह चेव उ मोक्खफल, आणा आराहिआ जिणिंदाणं / संसारदुक्खफलया, तह चेव विराहिया होइ।।११।। व्याख्या- यथैव तु मोक्षफला भवतीति योग:, आज्ञा आराधिताअखण्डिता सती जिनेन्द्राणां संबन्धिनीति। संसारदुःखफलदा तथैव च विराधिता-खण्डिता भवतीति गाथाऽर्थः / पं०व०१ द्वार। (आज्ञाराधकानाराधको तयोर्दोषाऽदोषौ वासाऽहमवासाऽहंगच्छमधिकृत्योक्तम्) से भयवं? किमेस वासेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगे जेण वासेज्जा, अत्थेगे जेणं नो वासेज्जा। से भयवं ? केणं अटेणं एवं वुचइ ? जहाणं गोयमा! अत्थेगे जेणं वासेज्जा, अत्थेगे जेणं नो वासज्जा / गोयमा ! अत्थेगे जेणं आणाएठिए। अत्थे()गे जेणं आणाविराहगे / जेणं आणाठिए। से णं सम्मइंसणनाणचरित्ताराहगे, जेणं सम्मइंसणनाणचरित्ताराहगे से णं गोयमा ! अचंतविऊ सुपवरकडुच्छुए मोक्खमग्गे / जे य उण आणाविराहगे से णं अणंताणुबंधी कोहे माणे अणंताणुबंधी माणे से णं अर्णताणुबंधा कइयावसेणं अणंताणुबंधी लोभे / जेणं अणंताणुबंधी कोहाइकसायचउक्के से णं घणराग दोसमोहमिच्छत्तपुंजे जेणं घणरागदोसमोहमिच्छत्तपुंजे से ण अणुत्तरघोरसंसारसमुद्दे / जेणं अणुत्तरघोरसंसार-समुद्दे से णं पुणो पुणो जंमे, पुणो पुणो जरा, पुणो पुणो मच्चू / जेणं पुणो पुणो जम्मजरामरणे से णं पुणो पुणो बहुभवंतरवत्ते। से णं पुणो पुणो चुलसीइजोणिलक्खमा-हिंडणं / जेणं पुणो पुणो चुलसीइलक्खजोणिमाहिंडणं से णं पुणो पुणो सुदूसहे घोरतिमिसंऽधयारे रुहिरविलि विलेवसवसपूयवंतपित्तसिंभचिक्खिल्लदुग्गंधाऽसुइ-विलीणजंबाल के यकिट्ठिसक्खरनपडिपुन्ने। अणि?-उचियणिज्जअइघोरचंडमहरोइदुक्खदारुण गब्म-परंपरापवेसे / जेणं पुणो पुणो दारुणो गब्मपरम्परापवेसे णं दुक्खो से णं केसे णं रोगाणं के सेयं सेयं सेणं सोगसंतादुब्वेगे से णं अण्णे वुत्ती जेणं अण्णे वुत्ती से णं जहट्ठिमणोरहाणं असंपत्ती। से णं नोवपंचप्पयारअणंतरायकंमोदए जत्थ णं पंचोपयारअंतराकं मोदए तत्थ णं सव्वदुक्खाणं / अग्गणीभूख पढमे ताव दरिद्दे जेणं दारिदे से णं अयसभक्खाणं अकित्तीकलंकरासीणं मेलावगामे / से णं सयलजणलज्जणिज्जनिंदणिज्जे गरहणिज्जे खिंसणिज्जे दुगुंछणिज्जे सवपरिभूए जीविए, जेणं सवपरिभूए जीविया से णं सम्मईसणनाणचरित्ताइगुणे हिं सुदूरयरेणं विप्प Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 135 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा मुक्के चेव मणुयजमे / अन्नहा वा सवपरिभूए चेव णं भवेज्जा / / जेणं सम्महंसणनाणचरित्ताइगुणेहिं सुदूरयरेणं विप्पमुक्के चेव णिभवो से णं अणिरुद्धा सदारत्ते चेव जेणं अणिरुद्धा सव्वचारित्ते चेव से णं बहूण लघूणं पावकम्मायणे जेणं बहूण लघूण पावकंमागमे से णं बंधी से णं वंदी से णं गुत्ती से णं चारगे से णं सव्वमकल्लाणममंगलजाले। दुविमोक्खे कक्खडघणबद्धपुट्ठनिगाइयकंमगंठी जेणं कक्खडघणबद्धपुट्ठनिगाइयकंमगंठी सेणं एगेंदियत्ताए बेइंदियत्ताए तेइंदियत्ताए चउरिंदियत्ताएपंचिंदियत्ताए नारयतिरिच्छकुमाणुसेसुं अणेगविहं सारीरमाणसं दुक्ख-मणुभवमाणं वेइयव्वे। एएणं अटेणं गोयमा ! एवं दुचइ-जहा अत्थेगे जेणं वासेज्जा से भयवं किमित्थ तेणं उच्छाइए केइ गच्छे भवेज्जा गोयमा! जेणं से आणाविराहगे गच्छे भवेज्जा से णं निच्छयओ चेव मिच्छत्तेणं उच्छाइयगच्छे भवेज्जा। से भयवं? कयराओ ण सा आणाजीविए गच्छे आराहगे भवेज्जा ? गोयमा ! संखाइएहिं ठाणंतरेहिं गच्छे से णं आणापन्नत्तीए ठिए गच्छे आराहगे भवेज्जा / से | भयवं ? किं तेसिं संखातीताणं गच्छमेरा ठाणंतराणं / अत्थि के ई अन्नयरे थाणंतरे णं जेणं उस्सग्गेण वा अववाएण वा कहं वि पमायदो सेणं असई अइक्क मेज्जा अइक्कं तेणं वा आराहगे भवेज्जा ? गोयमा ! णिच्छयओ नत्थि। ये भयवं ? केणं अटेणं एवं वुचइ जहा णं निच्छयओ नऽत्थि / गोयमा! तित्थयरेणं ताव तित्थयरे तित्थं पुण चाउवन्ने समणसंघे से णं गच्छे सुपइट्ठिए गच्छे सु पुण सम्मइंसणनाणचरित्तपइट्ठिएते य सम्मइंसणनाणचारित्ते परमपुज्जेणं परमपुज्जयरे। परमसरनाणं सरन्ने परमसचाणं सच्चयरे ताइंच जत्थ णं गच्छे अन्नयरे ठाणे कत्थइ विराहिज्जंति से णं गच्छे समग्गपणासए उम्मग्गदेसएजेणं गच्छे समग्गणासगे उम्मग्गदेसए से णं निच्छओ चेव अणाराहगे, एएणं अटेणं गोयमा! एवं वुचइ जहा णं संखादीयाणं गच्छमेरा ठाणंतराणं जेणं गच्छे एगण्णयरट्ठाणं अइक्कमेज्जा से णं एगतेणं चेव अणाराहगे / महा०५ अ॥ (आज्ञाऽऽराधन-विराधनयो: फलं'सुय' शब्दे सप्तम भाग-वक्ष्यते) (भगवदाज्ञाराधनकृतसेवादोषो भगवदाज्ञाखण्डनकृतमेव दोषं च इति 'आहाकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्यास्यते) एगंते मिच्छत्तं, जिणाण आणा य होइऽणेगंता। एग पि असदहाउ, मिच्छट्टिी जमालि व्व १२०२तिः। (सावधाचार्यकथा'सावज्जायरिय' शब्देसप्तमे भागे कथ-यिष्यामि) | तित्थयरसमो सूरी, हुज्ज य कम्मट्ठमल्लपडिमल्ले। आणं अइक्कमंते, ते कापुरिसे न सप्पुरिसे // भट्ठाऽऽयारो सूरी, भट्ठायाराणुसिक्खिओ सूरी। उम्मग्गट्ठिओं सूरी, तिण्णि वि मगं पणासेंति॥ उम्मग्गट्ठिए सूरि-म्मि निच्छयं भव्वसत्तसंघाए। जम्हातं मग्गमणु-सरंति तम्हा ण तं जुत्त। महा०६अ। (कीदृशेन गणिना भाव्यामिति 'गणि' शब्देतृतीयभागे 823 पृष्ठे वक्ष्यते) तम्हा गणिणं समस-स्तुमित्तपक्खेण परहियरएणं / कल्लाणकंखुणा-अ-प्पणो वि आणाणलंघेया॥ महा.६ अ॥ (जिनस्याऽऽचार्यादेश्वाऽऽज्ञाया अतिक्रमे आराधकाऽनाराध-कत्यं, वज्राऽऽचार्यदृष्टान्तश्च) से भयवं ! जइ णं गणिणो अचंतविसुद्धपरिणामस्स वि कइ दुस्सीले सच्छंदत्ताए जइगारवत्ताएइ वा जायाइमय- त्ताए वा आणं अइक्कमेज्जा से णं किमाराहगे भवेज्जा? गोयमा ! जे णं गुरुसमसत्तुमित्तपक्खो गुरुगुणेसु ठिए सयं सुत्ताणुसारेणं चेव विसुद्धासए विहरेज्जा तस्साऽऽणामइ-क्कंतेहिं णवणउएहिं चउहिं सरहिं साहूणं जहा तहा चेव अणाराहगे भवेज्जा / से भयवं ! कयरे णं ते पंचसए क्क- विवज्जिए साहूणं जेहिं च णं तारिसगणोववेयस्स महाणु-भागस्य गुरुणो आणं अइक्कमिय णाराहियं गोयमा! णं इमाए चेव उसमं चउवीसगाए अतीताए तेवीसइमाए चउवी- सगाए जाव णं परिनिव्वुडे चउवीसं इमे अरहा ताव णं अइ- क्कंतेण केवइ णं कालेणं गुणनिष्फन्ने कमसेलमसुसूरणे महायसे महासत्ते महाणुभागे सुग्गहियनामधिज्जे "वइरे" णाम गच्छाहिवई भूए, तस्स णं पंचसयं गच्छं निग्गंथाइं विणा निग्गंथीहिं समं दो सहस्से अहेसिं ता गोयमा ! ताओ निग्गंधीओ अचंतपरलोगभीरुयाओ सुविसुद्धनिम्मलंतक्क- रणाओ खंताओ दंताओ मुत्ताओ जिइंदियाओ अचंतभणि-रीओ नियसरीरस्सविवछक्कायवच्छलाओ जहोवइहअचंतघोरवीरतवचरणसोसिय-सरीराओ जहाणं तित्थयरेणं पन्नवियं तहाचेव अदीणमणसाओ मायामयमहंकारममकरे इतिहासखेडकंदप्पणादवायविप्पमु-क्काओ तस्साऽऽयरियस्स सगासमन्नमणुचरंति। ते य साहुणा सवे वि गोयमा ! न तारिसे भणगे अहन्नया गोयमा ! ते साहुणो तं आयरियं भणंतिजहाणंजइभणियं चतुम आणवेहित्ताणं अम्हेहिं तित्थयत्तं कारिया चंदप्पहसामियं वंदिता धम्मवक्कं गंतूण मा गच्छामो ताहे गोयमा ! अदीणमणसा अणुत्तालगंभीरमहुराए Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 136 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा भारतीए भणियं तेणाऽऽयरिएणं जहा इच्छायारेणं न | पन्नत्ताइते य सुओवउत्तेहिं विसोहिज्जंतिण उण अन्नोवत्तेहि कप्पइ तित्थयत्तं गंतुं सुविहियाणं ता जाव णं बोलेइ ता किमेयं सुन्नासुनीए अण्णोवउत्तेहिं गम्मइ इच्छायारेणं जत्तं तावणं अहं तुम्हे चंदप्पहं वंदावहामि, अन्नंच जत्ताए गएहि उवओगं देहि अन्नं इणमो सुत्तत्थं। किं तुम्हाणं वि असंजमे पडिज्जइ, एएणं कारणेणं तित्थयत्ता पडिसेहिज्जइ। समरिओ भवेज्जा। जं सारं सवपरमतत्ताणं जहा एगो वेदिये तओ तेहिं भणियं- जहा भयवं ! केरिसओ णं तित्थयत्ताए पाणी एग सयमेव / हत्थेण वा पाएण वा अन्नयरेण वा गच्छमाणाणं असंजमो भवइ, सो पुण इच्छायारेणं विइज्जवार- सलागाइअहिगरणभूओ चरणजाएणं णं केई संघट्टावेज्जा परिसंउलावेज्जा बहुजणेणं वाउलगो भन्निहिसि ताहे गोयमा! पासघट्टियं वा अपरं समणुजाणेज्जा से णं तक्कम्मं जया चिंतेणं तेणं आयरिएणं जहाणं मम वइक्कमिय निच्छयओ एए उदिण्णं भवेज्जा तया जहा उच्छु खंडाई जंते तहा गच्छिहिंति तेणं तुमए समयं च उत्तरेहिं चयंति अह अन्नया सुबई निपीडिज्जमाणो छम्मासेणं खवेज्जा, एवं गाढे मणसा संधीरेउ णं चेव भणियं तेणं आयरिएणं-जहा णं तुन्भे दुवालसेहिं संवच्छरेहिं तं कम्मं वेदेज्जा, एवं आगाढ-परियावणे किंचि वि सुत्तत्थं वियाणह णचियाण तारिसं तित्थजत्ताए वाससहस्सं, गाढपरियावणे दसवासहस्सं, एवं आगाढकिलावणे गच्छमाणाणं असंगम भवड़ा तारिसंसयमेव वा वियाणेह किंचि वासलक्खं, गाढकि लावणे दसवासलक्खाई, उद्दवणे एत्थ बहुविलंबिएणं अन्नं च चिंदियं तुम्हेहिं पि संसारसहावजी वासकोडी, एवं तेइंदियाइसु पिणेयं ता एवं च वियाणामाणो वाइपयत्थं तत्थं वा अहण्णया बहुउवाएहि णं विणिवारितस्स मा तुम्हे मुज्जह ति। एवं च गोयमा! सुत्ताणुसारेणं सारयंतस्सवि वि तस्साऽऽयरियस्स मन्नए चेव / तं साहुणो णं कुटेणं कयं तस्साऽऽयरियस्स ते महापावकम्मे गमगमहल्लफलेणं तेणं परिए तित्थयत्ताए तेसिं च गच्छसाणाणं कत्थइ सणं हल्लोहलीभूएणं तं आयरियाणं असेसपावकम्मट्ठदुक्खविमोयगे कत्थइ हरियकायसंघट्टणं कत्थइ वीयक्कमणं कत्थइ णो बहुकम्मट्ठदुक्खविमोयगे णो बहु मन्नंति ताहे गोयमा! पिवीलियादीणं तसाणं संघट्टएणं परितावेणोडवणाइं संभवं मुणियंते णाऽऽयरिएणं जहा निच्छियओ उम्मग्गपट्टिए कत्थइ वि इट्ठ-पडिक्कमणं कत्थहण कीरिए चेव बाउक्काइयं | सवपगारेहिं चेव इमे पावमई दुहसीसे ता किमहमहसज्जायं कत्थइ ण संपडिलेहेज्जा मत्तभंडोवगरणस्स विहीए मिमेसिं पट्ठीए लल्लीवागरणं करेमाणो अणुगच्छमाणो य उभयकालं पेहपक्खे जा ण पडिलेहणपडणं किं बहुणा सुक्खाए गयजलाए णदीए उज्जए गच्छदसदुवारे हिं। गोयमा ! कित्तियं भन्निहियं अट्ठारसण्डं सीलंगसहस्साणं अहयं तु तावाऽऽयहियमेवाऽणुचिट्ठेमो किमज्जपक्खएणं सुग्रहं तेणावि पुत्तपन्भरेणं थेवमवि किं वि परित्ताणं भवेज्जा सत्तरस्स वि सहस्साणं संजमस्स दुबालसविहस्स णं अपरक्कमेणं चेव आगजुत्ततवसंजमाणुट्ठाणेणं भवोयही सभिंतरबाहिरस्स तवस्सजावणं खंताइ अहिंसालक्खणस्स वयस्स दसविहसहस्साऽणगारधम्मस्स जत्थेके कपयं चेव तरेयव्वो एस उण तित्थयराऽऽएसो, जहासुबहुएणं पिकालेणं थिरपडिचिएण दुवालसंगमहासुयक्खंघेणं "अप्पहियं कायव्वं, जइ सक्का परिहयं च पयरेज्जा। बहुभंगसयं संघत्तणाए दुक्खनिरइयारं परिवालिऊणं / जे एवं अत्तहिय-परहियाणं, अत्तहियं चेव कायव्वं // 1 // " च सव्वं जहा मणियं निरइयारणुट्टेयंति एवं संभारिऊण चिंतियं अन्नंचतेण गच्छाहिवइणा जहाणं मे विप्परक्खेणं ते दुट्ठसीसे मज्ज "जह एते तवसंजम-किरियं अणुपालियं हॉति तओ। अणाभोगमविणएणं सुबहुं असंजमं का ति / तं च एएसिं ववसेयं, होइ जेहिंण करेहिंति शा" सव्वमपच्छंतियं होही। जओ णं हं तेसिं गुरू ताहं तेसिं पढ़िए तओ एएसिं चेव दुग्गइगमणमणुत्तरं हविज्जा / नवरं तहा गंतुणं पडिजागरामि जणाहमित्थपए पायच्छित्तेणं णो वि मम गच्छो समप्पिओ गच्छाहिवई अहयं भणामि। अन्नं संवज्जेज्जत्ति वियप्पिऊणं गओ सो आयरिओ तेर्सि पट्टीए चजे तित्थयरेहिं भगवंतेहिं छत्तीसं आयरियगुणे समाइटे। जाव ण दिढे तेणं असमंजसेणं गच्छमाणं ताहे गोयमा ! तेसिं तु अह य एक्कमविणाइक्कमामि। जइ वि पाणोवरमं सुमहुरमंजुलालावेणं भणियं तेणं गच्छाहिवइणा जह भो ! भो! | भवेज्जा जं वाऽऽगमे इहपरलोगविरुद्धं तं णाऽऽयरामि, ण उत्तमकुलनिम्म- लवंसविहूसणा ! असुगयसुग्गइमहासत्ता ! कारयामि, न कज्जमाणं समणु जाणामि / तमे रिसगुणसाहूउ पडि-वन्नाणं पंचमहव्वयाहिया ! तं णूणं महाभागाणं जुत्तस्सऽवि जइ भणियं ण करें ति ताहमिमे सिं साहूणं साहुणीणं सत्तावीसं सहस्साइंथंडिलाणं सव्वदंसीहिं वेसग्गहणा उद्दाले मि एवं समए पन्नत्ती, जहा जे के ई साहू Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 137 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा साहुणीवावायामित्तेणो वि असंजममणुचेद्वेज्जा। सेणं सारेज्जा से णं सारिजंते वा वारिज्जंते वा चोइज्जंते वा पडिचोडिज्जंते वा। जण्णं तं वयणमवमग्निय अतसाइमाणे वा अभिनिविटेइ वा तह त्ति पडिवज्ज इत्थं पउजित्ताणं तत्थ आणापडिक्कमेज्जा से णं तस्स वेसग्गहणं उद्दालेज्जा / एवं तु आगमुत्तणाएणं गोयमा! जाव तेणायरिए एगस्स सेहस्स वेसग्गहणं उहालियं ताव णं अवसेसे विदिसो दिसिं पणढे ताहे गोयमा ! सो आयरिओ सणियं सणियं तेसिं पट्ठिए जातुमारद्धोणोणं तुरियं तुरियं से भयवं किमढे तुरियं तुरियं णो पयाइ, गोयमा! खाराए भूमीण जामहुरं संकमज्जा महुराए खारं किण्हाए पीथं पीयाओ किण्हं जलाउ थलं थलाओ जलं संकमज्जा। तेणं विहीए पाए पमज्जिज्ज संकामियव्वं णो पमज्जेज्जा तओ दुवालससंवच्छरियपच्छित्तं भवेज्जा एएणमटेणं। गोयमा ! सो आयरिओ ण तुरियं तुरियं गच्छं अहन्नया सुयाउत्तविहीए थंडिलजलसंकमणं करेमाणस्स णं गोयमा! तस्सायरियस्स आगओ बहुवासरखुहापरिगय-सरीरे वियडदाढविकरालयं तं भासुरोपलयकालमिथ-घोररूवो केसरी / भणियं च तेण महाणुभागेणं गच्छाहिवइणा जहा जेयं दुग्गं गच्छेज्जा इमस्स णवरं दुग्गं गच्छमाणेणं अंसजमं ताव सरीरवोच्छे यं ण असंजमपवत्तणंति चिंतिऊण विहीए उवट्ठियस्स सहसा जमुद्दालियं वेसग्गहणं तं दाऊण ठिओ णिप्पडिकम्मपायपोवगमणाणं से एण सो विसोही तहेव अहऽनया अचंतविसुद्धतकरणे पंचमंगलायारे सुहज्जवसायत्ताए दुवियगोयमवाईए तेण सीहेणं अंतगडे केवली जाए। अट्ठप्पयारमलकलंकविप्पमुक्केसिद्धे य ते पुण गोयमा! एकूणे पंचसए साहूणं तक्कम्मदोसेणं जंदुक्खमणुभवमाणे चिट्ठति जं वाऽणुभूयं जं वाऽणुभविर्हिति अणंतसंसारसागरं परिभमंते तं कालं केवलिणं अणंतेणं भणिउं समत्थो / एते गोयमा ! एगूणे पंचसए साहूणं जहिं च णं तारिसगुणोववेयस्सणं महाणुभागस्स गुरुणो आणं अइक्कमिय णो आराहियं अणं तसंसारियं जाए, से भयवं ! किं तित्थयरसंतियं आणणाइक्कमेज्जा, उयाहु आयरियसंतियं ? गोयमा! चउविव्वहा आयरिया भवंति, तं जहा नामाऽऽयरिया, ठवणाऽऽयरिया, दवाऽऽयरिया, भावाऽऽयरिया, तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थपयर-समा चेव दट्ठव्वा, तेसिं संतियाऽऽणं माइक्कमेज्जा। महा. 4 अ.। (आज्ञाभङ्गे दण्डो यथा)तित्थकरआणाय एसा अणुपालियव्व त्ति जहा रण्णो अप्पणो रज्जे जं माणं प्रतिष्ठापितंजा ततो माणतो अतिरेगभूयाणं वा करेति सो अवराही डंडिज्जति, एवं जो तित्थकराणं आणं कोवेत्ति सो दीहसंसारी (186 गाथाचूर्णि:) नि.चू.२० ऊा व्य०१ उ.२ प्रक० 220 गाथाटी। "तंमिय आणाभंगे चउगुरुयं पच्छित्तं ति"। निचू.५ उ०९४ गाथा। (10) (प्रलम्बग्रहणमधिकृत्य)- भगवताप्रतिषिद्धं यत्प्रलम्ब-न कल्पतं तद्ग्रहणं कुर्वता भगवतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति, तस्मिंश्वाज्ञाभड्ने चतुर्गुरुका:। अत्र पर: प्राहअवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु / आणाए चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ||198 / अपराधे-चारित्रातिचारे लघुतरो दण्डो भवद्भिः पूर्वं भणितः, तथाहिअचित्ते प्रलम्बे मासलघु, इह पुनराशाभङ्गे चतुर्गुरु- कमिति गुरुतरो दण्डः, कथं-कस्मात् तुरिति वितर्के, अपि च-अपराधे जीवोपघातो दृश्यते, तेन तत्र गुरुतरो दण्डो युक्तियुक्तः, आज्ञायां पुनर्नास्ति जीवोपघात इति लघुतर एवात्र भणितुमुचित इति। आचार्य: आहआज्ञायामेव भागवत्यां चरणं-चारित्रं व्यवस्थितम् अतस्तद्ङ्गे- तस्या आज्ञाया भने किं तन्मूले उत्तरगुणादिकं वस्तुन भग्नम्; अपितु सर्वमपि भग्नमिति, अनाज्ञायां गुरुतरो दण्डः / उच्यते अस्यैवाचार्यस्य प्रसाधनार्थ दृष्टान्तमाहसोऊणय घोसणयं, अपरिहरंता विणासँ जह पत्ता। एवं अपरिहरंता, हियसव्वस्साउ संसारे।।११।। राज्ञा कारिता घोषणां श्रुत्वा घोषणायां च निवारितम-र्थमपरिहरन्तो यथा द्रव्यापहारलक्षणं विनाशं प्राप्ता एवं तीर्थकरनिषिद्धे प्रलम्बग्रहणमपरिहरन्तो हृतसर्वस्वा:- अपहृतसंयमरूपसर्वसारा: संसारे दु:खमवाप्नुवन्ति एषा"भद्रबाहुस्वामि' विरचिता गाथा। अथाऽस्या एवं भाष्यकारो व्याख्याने करोतिछप्पुरिसा मज्जपुरे, जो आसादेज्ज ते आजातो। तं दंडेमि अकंडे, सुणे तु पुरओ जणवया य ||120 / / आगामिय परिहरंता, निघोसा सेसगान निरोसा। जिणआणागमचारी, अदोस इयरे भवे दंडो||१२|| "जहा केइ नरवई सो छहिं पुरिसेहिं अन्नतरे कज्जे तोसितो इमेणऽत्थेण घोसणं करेइ-इमे छप्पुरिया। मज्जपुरि अप्पणो इच्छाए विहरमाणा महाजणेणं अदिट्ठपुव्वा अणुवलद्धविभवने- वत्था अच्छंति / जोते छिवइ वा पांडेइ वा मारेइ वा तस्स उगं दंडं करेमि, एअघोषणत्थं सोऊण ते पउरजवया यदंड भीता तेपुरिसेपयत्तेण वन्नरुवाईहिं विधेहिं आगमिऊण पीडापरिहारकयबुद्धी तेसिं छण्णं पुरिसाणं पीडं परिहरंति ते निघोसा। जे पुण अणायारमंता न परिहरंति घोसस्साऽवराहदंडेण दंडिया / एस दिट्ठतो / अयमत्थोवणओ-रायत्थाणीया तित्थयरा, पुरत्थाणीओ लोगो, छप्पुरिसत्थाणीया छक्काया, घोषणाथाणीया छक्कायरक्खण परूवणपराछज्जीवणियादओआगमा, विवण्णाइत्था Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 138 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा णीया संघट्टणादी, पउरजणवयत्थाणीया साहू, दंडत्थाऽऽणीओ संसारो, तत्थ जे पयत्तेण छण्हं कायाणं सरूवं रक्खणे वायं च आगमेऊण जहुत्तविहीए पीडं परिहरंति ते कम्मबंधदंडेणं न दंडिज्जंति, इयरे पुण संसारे पुणो पुणो सारीरमाणसेहिं दुक्खसयसहस्सेहिं दंडिज्जंति त्ति। अथाऽक्षरगमनिका-षट्पुरुषा ममपुरे वर्तन्ते यस्तानजानन्नपि आशातयेत् तमहं दण्डयाम्यकाण्डे-अकाले शृण्वन्तु एतत्पौरा:- पुरवासिनो जनपदाच-ग्रामवासिनो लोका, इति, राज्ञा कारितां घोषणां श्रुत्वा तान् पुरुषानागम्योपलक्ष्य परिहन्त: सन्तो निर्दोषाः शेषा: पुनर्ये पीडां न परिहरन्ति ते न निर्दोषा इति दण्डिताः / एवमत्रापि जिनाज्ञया य: षट्कायानामागम:- परिज्ञानं तत्पूर्व-कचारिण:- संयमाध्वगामिन: सन्तोऽदोषा:, इतरेषां भवेसंसारे शारीरमानसिकदुःखलक्षणो दण्डः / गतमाज्ञाद्वारम् / बृ. 1 उ०२ प्रक०। नि. चूछ। (अपराधपदमधिकृत्याऽपि उक्तम्)अपराधपदे वर्तमानस्तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गं करोति तत्र चतुर्गुरु-रिति। बृ.१ उ०२ प्रका अत्र नोदक: प्राहअवराहे लहुगयरो, किं णु हु आणाए गुरुरो दंडो। आणाए चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु ||351|| जधन्यकेअपरिगृहीतेवा तिष्ठति प्राजापत्यपरिगृहीतंजघन्यमसंनिहिततमदृष्टं प्रतिसेविते उभयत्रापि चतुर्लघु, एवं स्थानत: प्रतिसेवनेन यश्चापराधेलघुकतरो दण्ड उक्त आज्ञाभङ्गे चतुर्गु- रुकमित्यत: 'किमि' ति परिप्रश्ने, 'नुरि' ति वितर्के 'हुरि ति गुमन्त्रणे, किमेवं भगवदाज्ञायां भग्नायां गुरुतरो दण्डो दीयते। सूरिराह-आज्ञयैव चरणं व्यवास्थतंतस्य भङ्गे कृते सति किंन भग्नं; चरणस्य सर्वमपि भग्नमेवेति भावः / अपि चलौकिका अप्याज्ञाभड़े गुरुतरं दण्डप्रवर्तयन्ति। तथा चाऽत्र पूर्वोद्दिष्टं मौर्यदृष्टान्तमाहभत्तमदाणमडंते, अणवट्ठाणवं अंबच्छेतु वंसवती। गविसणपहदरिसिए, पुरिसवइबालडहणं च ||35|| "पाडलिपुत्ते नयरे चंदगुत्तो राया, सोय मोरपोसगपुत्तो त्ति जे खत्तिया अभिजाणंति ते तस्स आणं परिवभवंति / चाणक्कस्स चिंता जाया, आणाहीणे केरिसोराया। तम्हा जम्हा एयस्स आणाभिक्खा भवइतहा करेमि त्ति तस्स य चाणक्कस्स कप्पडियत्ते भिक्खं अडतस्स एगमि गामे भंतं न लद्धं तत्थ य गामे बहुअंबा, वंसा य अत्थिा तेउतस्स गामस्स पडिनिविट्टेणं आणाहवणानिमित्तं इमेरिसो लेहो पेसिओ- आम्रान् छित्वा वंशानां वृत्ति: शीघ्र कार्यते तर्हि गामेअगेहिं दुल्लिहियं ति काउं वंसे छेत्तुं अंबाण वई कया गवेसावियं चाणक्केणेक्किक्कयं तओ तत्थागंतूण उवालद्धा भेगामेयगाएतं वंसगा रोहगादिसु उवउज्जति कीस भेछिन्नत्ति दंसियं लेहवीरियं अन्नं संदिटुं, अन्नं चेव करेह ति, तओ पुरिसेहिं अधोसिरेहिं वयं काउंसो गामो सव्वो दड्डो। अथ गाथाऽक्षरगमनिका- चाणक्यस्य भिक्षामटत: क्वापि ग्रामे | भक्तस्यादानं; भिक्षा न लब्धेत्यथः / तत आज्ञास्थापना- निमित्तमयं / लेख: प्रेषित:- 'अम्ब छेत्तु वंसवइति आम्रान् छित्त्वा वंशानां वृत्तिः कर्तव्या ततो गवेषणे कृते ग्रामेण च पथिदर्शिते अन्यदादिष्टं मया, अन्यदेव च भवद्भिः कृतमित्यु- पालभ्य तैः पुरुषैः वृत्ति कारयित्वा सबालवृद्धस्य ग्रामस्य दहनं कृतम्। एष दृष्टान्तः। अर्थोपनयस्त्वेवम्एगमरणं तु लोए, आणत्तिअ उत्तरे अणंताई। अवराहरक्खणट्ठा, तेणाऽऽणा उत्तरे बलिया।॥३५३|| लोके आज्ञाया अतिचारे-अतिक्रमे एकमेव मरणमवाप्यते, लोकोत्तरे पुनराज्ञाया अतिचारे अनन्तानि जन्ममरणानि प्राप्यन्ते तेन कारणेन अपराधरक्षणार्थं लोकोत्तरे आज्ञा बलीयसी। बृ०१ उ०३प्रक०। (आज्ञाभड़े सति दण्डे दृष्टान्त: 'असज्जाइय' शब्दे प्रथमभागे 827 पृष्ठे गत:) (आज्ञाभङ्गस्य दुःखकारणत्वम्)ता जत्थ दुक्खविक्खिण्णं, एगंतसुहपावणं / सा आणा नो खंडेज्जा, आणाभंगे कओ? सुहो ।शा महा. 4 अ. (11) (आज्ञारहितस्य चारित्रमपि न भवति)दुप्पसहं तं चरणं, जं भणियं भगवया इहं खेत्ते। आणाजुत्ताणमिणं, न होइ अहुणो त्ति वामोहो / / 17 / / दर्श.४ तत्त्वा (गाथार्थः 'दुप्पसह' शब्दे चतुर्थभागे दर्शयिष्यते) (तीर्थकराऽऽज्ञानिन्दकस्य निन्दा)प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगि, स्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः / जिन! त्वदाज्ञामवमन्यते यः, सवातकी नाथ! पिशाचकी वा ||22| त्वदाज्ञा (आ-सामस्त्येनानन्तधर्माविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबु-द्धयन्ते जीवादय: पदार्था यया सा आज्ञा-आगम:, शासनं तवाऽऽज्ञा त्वदाज्ञा ता त्वदाज्ञा) भवत्प्रणीत "स्याद्वादमुद्रां," य:-कश्चिदविवेकी अवमन्यते-अवजानाति (जात्यपेक्षमेक- वचनमवज्ञया वा) स पुरुषपशु: वातकी, पिशाचकी वा / स्या०1 ('अस्य विशेषत: व्याख्यानम् 'अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 425 पृष्ठे गतम्।) (तीर्थकराऽऽज्ञारहितधर्मस्य फलाऽफलत्वविचार: "आणाखण्डण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) (जिनाऽऽज्ञास्थित्यवधिश्च)से भयवं ! केवइयं कालं जाव एस आणा पवेइगा ? गोयमा ! जाव णं महायसे महासत्ते महाणुभागे सिरिप्पभे अणगारे / से भयवं ! के वइएणं कालेणं से सिरिप्पभे अणगरे भवेज्जा / गोयमा! होही दुरंतपंतलक्खणे अदवे रोद्दे चंडे उग्गे पयंडदंडे निम्मिरे निक्कि वे निग्घिणे नितिंसे कूरयरपावमई अणारिए मिच्छट्ठिी"कक्की" नाम रायाणो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 139 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा (णे) से णं पावे पाहुडियं भमाडि उकामे सिरिसमणसंघं कयत्थेज्जा जाव णं कयत्थे ताव णं गोयमा ! जे केइ तत्थ सलिद्धो महाणुभागो अवलियसत्ते तवोवहाणे अणगारे। तेसिं च पाडिहेरियं कुज्जा सोहम्मे कुलिसपाणी एरावणगामी सुरवरिंदे एवं च गोयमा ! देविंदवं दिए दिट्ठपटवए णं सिरिसमणसंघेज्जा णिहिज्जा कुणए पासंड-धम्मे जाव णं गोयमा! एगे अविइज्जे / अहिंसालक्खणं खंतादिदसविहधम्मे। एगे अरहा देवाहिदेवे एगे जिणालये एगे वंदे पूए दक्खे सक्कारे संमाणे महाजसे महासत्ते महाणुभागे दढसीलयनियमधारए तवोवहाणे साहु तत्थणं चंदमिव सोमलेसे सूरिए इव तवतेयरासी पुढवी इव परिसहोवसम्गसहे मेरुमंदरधरे इव निप्पकंपे ठिए अहिंसालक्खणखंतादिदसविहे धम्मे / से णं सुसमणगणपरिवुडे / निरन्मगयणामलकोमुइजोगजुत्ते इव गहरिक्खपरिवारिए गहवई चंदे अहिययरं विराहेज्जा गोयमा ! से णं सिरिप्पभे / अणगारे भो गोयमा ! एवतियं कालं जाव एसा आणा पोइया से भयवं उड्ड मुच्छा गोयमा ! तओ परेणं उड्द हायमाणे कालसमये तत्थ णं जे के ई छक्कायसमारंभविवज्जए। सेणं धन्ने पुन्ने वंदे पुए पसंसणिज्जे। जीवियं सुजीवियं तेसिं / महा०४ अ। (12) आज्ञाव्यवहार:आज्ञायते-आदिश्यते इत्याज्ञा / व्यवहारभेदे, स्था०५ ठा०२ ऊ। भा व्य,। पञ्चा० / दशान्तरस्थितयोर्द्वयोर्गीतार्थयो-गूढपदैरालोचनानि जातिवारनिवे दनम्-आज्ञाव्यवहारः एतदुक्तं भवति-यदा द्वावप्याचार्यावासेवितसूत्रार्थतयाऽतिगीतार्थी क्षीण-जड़ाबलौ विहारक्रमानुरोधतो दूरतरदेशान्तरव्यवस्थितावत एव परस्य समीपे गन्तुमसमर्थावभूतां तदाऽन्यतरप्रायश्चित्ते समापतिते सति तथाविधयोग्यगीतार्थशिष्याऽभावे मतिधारणा-कुशलमगीतार्थमपि शिष्यं समयभाषया गूढार्थान्यतिचारासेवनपदानि कथयित्वा प्रेषयति, तेन च गत्वा गूढपदेषु कथितेषु स | आचार्यो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं च तत्राऽऽगमनं करोति, शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थ प्रज्ञाप्य प्रेषयति / तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थामतिचारशुद्धिं कथयतीति। प्रव० 126 द्वाराव्या (तथा च)पढमस्य य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छक्के अन्भि-तरं उ पढमं भवे ठाणं ॥शा अत्र प्रथमं कार्य दर्पः, तत्र प्रथमं पदं दर्शननिमित्त प्रथमं षट्कं व्रतषक्वं तत्राभ्यन्तरम्- अन्तर्गतं प्रथमस्थानं प्राणातिपात:। पढमस्स य कज्जस्सय, पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छक्के अन्भि-तरं तु बीयं भवे ठाणं शा अत्र द्वितीयं स्थानं मृषावाद:, एवमदत्तादानादिष्वपि भावनीयम्। / पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। बिइए छक्के अभिं-तरं तु पढमं भवे ठाणं ||3|| अत्र द्वितीयं षट्कं कायषट्कमित्यादि / एवं तेन कथितेन आचार्यों द्रव्यक्षेत्रकालभावसंहननधृतिबलादिकं परिभाव्य स्वयं वागमनं करोति / शिष्यं वा तथाविधं योग्यं गीतार्थं प्रज्ञाप्य प्रेषयति, तदभावे तस्यैव प्रेषितस्य गूढार्थमतिचारविशुद्धि कथयति! व्य०१ उ०। आणाए ववहार, सुण वच्छ जहक्कमंबुच्छं / / 609|| आज्ञया व्यवहारं यथाक्रमं यथा वक्ष्ये तं च वक्ष्यमाणं वत्स! श्रुणु। समणस्स उत्तमट्टे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया।।६१०।। श्रमणस्य उत्तमार्थे-भक्तप्रत्याख्याने व्यवसितस्य यत्किमपि सत्यमनुधृतमस्ति तदुद्धरणकरणे, अभिमुखस्य।'दूरत्था जत्थ भवे छत्तीसगुण' त्ति-यत्र प्रायश्चित्तव्यवहारे षट्त्रिंशद्गुणा आचार्या दूरस्था भवेयुस्तत्राऽऽज्ञया व्यवहारः। कथमित्याहअपरक्कमो सि जाओ, गंतुं जे कारणं च उप्पन्नं / अट्ठारसमन्नयरे, वसणगतो इच्छिमो आणं / / 611|| स आलोचयितुकामश्चिन्तयति- सांप्रतमहमपराक्रमो जातोऽस्मि ततस्तेषां समीपे गन्तुं न शक्नोमि। कारणं च मम तत्पार्श्व-गमननिमित्त समुत्पन्नम् / यतोऽष्टादशानां व्रतषट्कादीनाम् अन्यतरस्मिन्नतीचारे व्यसनगत:- पतितस्तस्मादिच्छा- म्याज्ञाव्यवहारमिति। एतदेव सविशेष भावयतिअपरक्कमो तवस्सी, गंतुं जो सोहिकारगसमीवं / आगंतुंन वाएई, सो सोहिकरो वि देसाउ |612|| स:-आलोचयितुकामस्तपस्वी शोधिकारकसमीपे गन्तुम अपराक्रमो यस्सशोधि: कर्तव्या सोऽपि देशादालोचयितुं समीपमागन्तुंन शक्नोति। अह पट्ठवेइ सीसं, देसंतरगमणनट्ठचेट्ठागो। इच्छामज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि||६१३| अथ-अनन्तरमालोचयितुकामो देशान्तरगमननष्टचेष्टक आलोचनाऽऽचार्यस्य समीपे शिष्यम्, आर्य: युष्माकं सकाशेशोधिं कर्तुमिच्छामीत्येतत्कथयित्वा प्रेषयति। सो वि अपरक्कमग-सीसंपेसेइ धारणाकुसलं। एयस्स दाणि पुरओ, करेहि सोहिं जहावत्तं // 614|| सोऽपि आलोचनाऽऽचार्योऽपराक्रमगतिर्न विद्यते पराक्रसो गतौ यस्येति विग्रहः / शिष्यं धारणाकुशलं प्रेषयति। यस्त्वालोच- यितुकामेन प्रेषितस्तस्य संदेशं कथयति, त्वमिदानीमेतस्य पुरतो यथावृत्तं शोधिं कुरु। अपरक्कमो असीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। रुक्खे य बीयकाए, सुत्ते वा मोहणाधारी॥६१५|| Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 140 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणा स:-आलोचनाचार्योऽपराक्रम: शिष्यमाज्ञापरिणामक परीक्षेत; किमेष आज्ञापरिणामक:, किंवा नेति? आज्ञापरीणामको नाम-यत् आज्ञाप्यते तत्कारणं न पृच्छति "किमर्थमेतदिति" किंत्वाज्ञया एव कर्त्तव्यतया श्रद्दधाति, यदत्र कारणं तत्पूज्या एव जानन्ते एवं य: परिणामयति स आज्ञापरीणामकस्तत्प- रीक्षा च वृक्षे बीजकाये च वक्ष्यमाणरीत्या कर्तव्या / आज्ञाप- रिणामित्वं परीक्ष्य; पुनरिदं परीक्षणीयं यथा किमेषोऽग्रहणे समर्थो धारणासमर्थश्च किंवा नेति। तत्राध्ययनादिपरीक्षया सूत्रे चशब्दात्- अर्थे वा अमोहनं-मोहरहितं समस्तम् आसमन्ताद्धारयतीत्येवं शील: अमोहधारी तं परीक्षेत। तत्र वृक्षणाऽऽज्ञापरिणामित्वपरीक्षामाहदट्ठमहं ते भक्खो, गणिओ रुक्खो विलग्गिउं डेव / अपरिणयं वेति तहिं, न वठ्ठइ रुक्खे वि आरोढुं / / 616|| किंवा मारेयय्वो, अहियंतो वेह रुक्खओ डेव। अतिपरिणामो भणति, इय हेऊ अम्ह वेसिच्छा।।६१७|| दृष्ट्वा महतो महीरुहान् गणिक:- आचार्यो ब्रूते- अस्मिन्नुचै- स्त्वेन तालप्रमाणे वृक्षे विलग्य तत आत्मानं (डिप) क्षिप्रपातंकुर्वित्यर्थः, एवमुक्ते तत्र- आज्ञापरिणामको ब्रूते-न वर्त्तते वृक्षे विलगिंतु साधो: सचित्तत्वादृक्षम्य प्रपाते च कुर्वन् आत्मविरा-धना भवति। साच भगवता निषिद्धा, किंतु-अमुनोपायेन मारयितव्योऽभिप्रेतो ब्रूथ वृक्षादात्मानं डेपेति / अतिपरिणामकः पुनरिदं भणति-इत्येव भवतु, करोमि प्रपातमिति भाव: अस्माकमप्येषा इच्छा वर्तते। वेइ गुरू अह तंतू, अपरिच्छियत्थे पभाससे एवं / किं च मए तं मणितो, आरुहरुक्खे(य) सबिते / / 618 / अथ-- अनन्तरं तमतिपरिणामकं ब्रूते--अपरीक्षिते- अपराभाविते मद्वचनस्यार्थं त्वमेवमुक्तप्रकारेण प्रभाषसे यथा करोमि प्रतापमस्माकमप्येषेच्छा वर्तते। अपरिणामक्रमधिकृत्य ब्रूते-त्वंवा मया किमेव भणितो यथा सचित्ते वृक्षे आरोहाय नोद्यते न वर्तते साधोः वृक्षे विलगितुमिति किंतुतन्मयोक्तम्। तदेवाऽऽहतवनियमनाणरुक्खं, आरुहिउं भवमहण्णवाऽऽपण्णं / संसारग(ङ)त्तकुलं, डेवे हंत मए भणितो / / 619|| तपोनियमज्ञानमयं वृक्षं भवार्णवापन्नं- भवसमुद्रमध्य- प्राप्तमारुह्य संसारग कूलं 'डिप' उल्लङ्ग्य इति मया भणित:। जो पुण परिणामो खलु, आरुह भणितो वि सो विचिंतेइ। नेच्छंति पावमेते, जीवाणं थावरा(दी)णं (पि)||६२०।। किं पुण पं.दीणं, तं भणियध्वेत्थ कारणेणं तु / आरहणववसियं तु, वारेइ गुरुववत्थंतो।।६२१|| यः पुनः खलु परिणाम:-आज्ञापरिणामक: स आरोहेति भणितश्चिन्तयति-नेच्छन्ति पापमेंतं मदीया नुरवो जीवानां स्थावराणामपि; किं पुन: पञ्चेन्द्रियाणां तस्मादत्र कारणेन भवितव्यम, एवं विचिन्त्य आरोहणे व्यवसितः / तमारोहण- व्यवसितं गुरुरवष्टभ्य- बाहौ धृत्वा वारयति / यदेवमुक्तं वृक्षे परीक्षणम्। ___ अधुना जीवेषु तदाहएवाऽऽणेह य बीयाई, मणितो पडिसेहे अपरिणामो। अइपरिणामो पोट्टल, बंधूणं आगतो तहियं / / 622|| एवम्-अमुना प्रकारेण बीजानि अनायत इत्युक्त अपरिणाम: प्रतिषेधयति-न कल्पयन्ते बीजानि गृहीतुमिति, यस्त्व-तिपरिणामक: स बीजानां पोट्टलं वद्ध्वा तत्र गुरुसमीपे समागतः / ते वि भणिया गुरूणं, भणिया नेह अमलिबीयाई। न विरोहसमत्थाई, सचित्ताई व भणियाई / / 623 / / तावत् य: अपरिणामको गुरुणा भणितो मया भणितमानय अम्लिकाबीजानिकाजिकिनीबीजानि, यदि वा-सचित्तानिविध्वस्तयोनिमयानि, यानि न विरोहसमर्थानि तान्यानयेति भणितानि / तत्थ वि परिणामो त, भणती आणेसि केरिसाईत। कत्तियमित्ताइवा, विरोहमविरोहजोग्गाइं // 624|| तत्रापि यः परिणामक: स भणति-कीदृशानि बीजान्यानयामि। विरोहयोग्यानि, अविरोहयोग्यानि वा, कियन्मात्राणि वा। सो वि गुरूहि भणितो, न ताव कज्जं पुणो भणीहामि। हसितो वमए तार्सि, वीमंसत्थं व भणितो सि / / 621|| स:-अप्याज्ञापरिणामको गुरुभिर्भणितो न तावदिदानी कार्य यदा तु कार्य भविष्यति तदा पुनर्भणिष्यामः / अथवा-हसितोऽसि मया तावदिदानी न पुनर्बीजै: प्रयोजनं, यदि वा-विमर्शार्थ तवविमर्शपरीक्षणार्थं त्वमेवं भणितोऽसि / संप्रत्यमोहनाधारिपरीक्षामाहपयमक्खरमुद्देसं, संघीसु तत्थ तदुभयं चेव। अक्खरवंजणसुद्ध,जह मणितं सो परिकहेइ 1626 / / पदमक्षरमुद्देशं सन्धिम्- अधिकारविशेषं सूत्रमर्थं तदुभयं च अक्षरव्यञ्जनशुद्धं पूर्वमवग्राहयति किमेष ग्रहणधारणायोग्य: किं वा नेति अवग्राह्य, ततो ब्रूते- उच्चारय प्रेक्षे किमपि गृहीतं न वा किं त्वगृहीतमपि किस्मृतं किंवा नेति। तत्र यदि यथा भणितं तथा सर्व परिकथयन्ति तदा ज्ञातव्य एष ग्रहणधारणे कुशल इति। एवं परिच्छिऊणं, जोग्गं नाऊण पेसये तंत। वाहितस्सगासं, सोहि सोऊण आगच्छ // 127 / / एवं परीक्ष्य-योग्यं ज्ञात्वा तं प्रेषयेत् संदिशति च व्रज तस्यसाधोरालोचयतुकामस्य शोधिम्- आलाचनां श्रुत्या पुनरत्राऽऽगच्छ। अह सो गतो उतहियं, तस्स सगासंमि सो करे सोहिं। दुगतिचउविसुद्ध,तिवेहे काले विगटभावो ||32|| अथ-प्रेषणानन्तरं यत्राऽऽलोचयतुकामो विद्यते। तत्र गतस्तस्वाऽऽगतस्य समीपे आलोचयितुकाम: प्रशस्तेषु द्रव्यादिषु शो धिम् आलो चनां करोति / कथमित्याह- द्विक दर्शना Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणा 141 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणाखंडण तिचारे; चारित्राचारमालोचयतीत्यर्थ:। दर्शनग्रहणं ज्ञान-ग्रहणमपीति ज्ञानातिचारं चेत्यपि द्रष्टव्यम् / चारित्रा-तिचारालोचनेऽपि च द्विभेदामूलगुणातिचारविषया, उत्तरगुणविषया च / तां करोति / पुनस्त्रिकाम्आहारोपधिशय्यां भेदत एकैकां त्रिप्रकाराम, चतुर्विशुद्धांप्रशस्तद्रव्यक्षेत्र- कालभावोपेतां, त्रिविधे काले-अतीते, प्रत्युत्पन्ने च यत्सेवितम्, अनागते च यत्सेविष्ये इत्यध्यवसितं विकटभाव:प्रकटभाव:; अप्रतिकुञ्चन इत्यर्थ: 1 व्य० 10 उ०। (आज्ञाव्यवहारसाधक:) दव्वे भावे आणा, खलु सुयं जिणवराणं। सम्मं ववहरमाणो, उतीऍ आराहओ होति / / 16 / / आज्ञा द्विविधा-द्रव्ये, भावे चा तत्र द्रव्याज्ञा-राजादीनामाज्ञा, भावाज्ञा खलु श्रुतं जिनवराणाम्। तत्र सम्यक् पञ्चविधान्यतमेन व्यवहारेणप्रागुक्तनीत्या व्यवहरन् तस्या:आज्ञाया आराधको भवति। व्य०३ऊ। आणाअविराहग-पुं. (आज्ञाऽविराधक) आज्ञाया आराधके पं. सू.२ सूत्र। आणाआराहण- न. (आज्ञाऽऽराधन) आप्तोपदेशानुपालने, पञ्चा० / "आणा आराहणाओ" (5+)|| आज्ञाऽऽराधनात्-आप्तोपदेशानुपालनान्निर्निदानतामेव हि जिना मन्यन्ते। पञ्चा०६ विव०। आणाआराहणजोग- पुं० (आज्ञाऽऽराधनयोग) आप्तोपदेशानुपालनसम्बन्धे, पञ्चा० 12 विव०। आणाइत्त- त्रि. (आज्ञावत्) आप्तोपदेशवर्तिनि, पञ्चा० 15 विक। आणाईसर- पुं० (आज्ञेश्वर)। आज्ञया आज्ञाया वा ईश्वर आ-ज्ञेश्वरः। जी.३ प्रति०४ अधि। आ०म०। आज्ञाप्रधाने ईश्वरे, जं. 1 वक्षः। औ०। आणाईसरसेणावच- न. (आज्ञेश्वरसेनापत्य) आज्ञाया ईश्वर आज्ञेश्वरः / (जी. 3 प्रति० 4 अधि० आ०म०l) सेनाया: पति: सेनापति: आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यम्।जी०३प्रति 4 अधिक। आज्ञाप्रधानो य: सेनापति:सैन्यनायक: तस्य भाव: कर्म वा आज्ञेश्वर-सेनापत्यम्। औ। स्वसैन्यं प्रत्यद्भते आज्ञाप्राधान्ये, जी०३ प्रति०४ अधिः। "आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे' ज्ञा 1 श्रु.१ अ विपा। स०। प्रज्ञा०। आणाकं खिन-पुं०(आज्ञाकाक्षिन्) आज्ञामाकाङ्क्षितुं शीलमस्येत्याज्ञाकाक्षी। सर्वज्ञोपदेशानुष्ठायिनि, आचा। "इह आणाकंखी पंडिए" (सूत्र-१५३४) इह-अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने व्यवस्थित: सन आज्ञां-तीर्थकृतोपदेशमाकाक्षितुं शीलम-स्येत्याज्ञाकाङ्क्षी आगमानुसारप्रवृत्तिक: कश्चैवंभूत: पण्डित:-सदसद्विचक्रज्ञ: आचा.. श्रु०५अ०३ऊ। आणाकरण-न०(आज्ञाकरण)आगमज्ञवचनासेवने, पञ्चाता सौत्रविधिसम्पादने, पं०व०। ता एअम्मि वि काले, आणाकरणे अमूढलक्खेहि। सत्तीए जइयव्वं, एत्थ विही हंदिएसो अ॥१00011 यस्मादेवं तस्मादेतस्मिन्नपि काले-दुःखमारूपे आज्ञाकरसौत्रविधिसम्पादने अमूढलक्ष:-सद्भिःशक्त्या यतितव्य- मुपसम्पदादौ, अत्र विधिरेष व्याख्यानकरणे हन्दीत्युपप्रदर्शने, एष च वक्ष्यमाणलक्षण:। इति गाथार्थः / प०व०४ द्वार। आणाका(गा)रि(न)-पु.(आज्ञाकारिन्) आप्तोपदेशव तिनि, पञ्चा०८ विव! आप्तोपदेशविधायिनि, पञ्चा! तथाचएयस्स फलं भणियं, इय आणाकारिणो उसडस्स ||44+|| एतस्स-समस्तजिनभवनविधानस्यफलम-प्रयोजनं भणितम्-उक्तम् इत्येवम्- उक्तनीत्या। आज्ञाकारिणस्तु- आप्तोपदेश-विधायिन एवं श्राद्धस्य-श्रद्धावतः; श्रावकस्येत्यर्थः / पञ्चा०७ विव० / आणाखंडण-न०(आज्ञाखण्डन) आज्ञाभङ्गे, "आणा नो खंडेज्जा, आणाभंगे कओ सुहो"। महा०४ अ। (आज्ञाखण्डनकरधर्मस्य विचारे पण्डितश्रीकल्याणकुशलगणितकृतप्रश्ना यथा)"आणाखंडणकरी य, सव्वं पि निरत्थयं तस्स। आणारहिओ धम्मो, पलालपूल व पडिहाइ||" "कलं नग्घइसोलसिमि" त्यादिवचनालम्बनेन सामयादिदर्शनान्तरेषु यद्वालतपःकष्टानुष्ठानं समाचरन्ति तत्सर्वं सर्वथा निष्फलमेव, न कापि कर्मनिर्जरा भवति केषांचित्संमतं, केषां- चित्तु तेषामपि तारतम्येन स्वल्पमपि फलं स्वीकार्य न तु निष्फलता। अत्राऽऽगम:-"जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाइँ वासकोडिहिं / तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं // 1 // " पं०भा०। "कलं नग्घइ सोलसिं पलालपूलु ब्व' इत्यादावपीदमेव तात्पर्यम्-"अविरयमाइसुराउं, बालतवोकामनिजरा जयई"- त्ति, "सरागसंजमेणं बालतवेणं' ति, "चरगपरिव्वा यगबंभलोगो जा''। इत्यपि अत एव बालतपस्विनामपि कोडिन्नदिन्नसेवालिनाम्नां स्वीयस्वीयतपोऽनुसारेणैव सोपान-प्राप्ति:, सर्वथा विफलतायां तु सर्वेषामप्राप्तिः प्रसज्यते कथं च कर्मलाघवमन्तरेण मिथ्यात्विन एव ग्रन्थिदेशं यावदागच्छन्ति न वा कामनिर्जरामात्रामेव तत्र हेतु: कारणान्तराणामपि विबाध: प्रज्ञप्तिवृत्तावुक्तत्वात्, तथाहि"अणुकंपकामनिज्जर-बालतवेदाणाविणयविभंगे। संजोगगविप्पओगे, वसणूसवइड्डिसक्कारे'' ||1|| दृश्यते चैतदर्थसंवाद: साक्षादेवं महानिशीथे नागिलाधिकारे, तद्यथा"अकामनिज्जराए वि किंचि कामक्खयं भवइ। किं पुण जं बालतवेणं, एवं सति निरत्थयं तस्स / " इत्यादीनां का गतिरिति चेत्सत्यम्, सर्वाणि चैतानि उत्सर्गसूत्राणि ततोऽत्र "उत्सर्गादपवादो बलीयान्' अयमेवन्यायोऽनुसतव्यः, तत: सिद्धतेषामपितारतम्येन किंचित्फलमिति समादधते 3 तथा केचित् महानिशीथगतम्" जे यावि निन्हगाण अनुकूलं भासिज्जा" इत्यादि प्रसिद्धालापकमुपष्टभ्ये वक्तारो भवन्ति / तथाहि-ये Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाखंडण 142 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणाऽणुग आणाजुत्त-त्रि. (आज्ञायुक्त) आगमोपेते, दर्श चारित्रमुदिश्य-"आणाजुत्ताणामिणं, न होइ अहुणो त्ति वामोहो''।१७।। आज्ञायुक्तानामपि न केवलमाज्ञाबाह्यानामिदं प्रस्तुतं चारित्रं न भवतिन जायते। दर्श. 4 तत्त्व। आणाजोग (य)- पु. (आज्ञायोग)। आज्ञा-नियोग: शासनं यथा राजाऽऽज्ञा-राजशासनम् तस्यां योग-उत्साह: तया वाऽऽज्ञया योग:सम्बन्धः / दत्ताया अविफलीकरणे, षो० 13 विवका आप्तवचनसम्बन्धे च / पञ्चा० 13 विका सूत्रव्यापारे, पं.वा पापं विसाइतुल्लं, आणाजोगो अमंतसमो।।९९९|| सर्वमपि पाप निन्द्यम, विषादितुल्यं, विपाकदारणत्वाद् आज्ञायोगश्चसूत्रव्यापारश्च अत्र मन्त्रसम: तद्दोषापनयनात्। पं०व०४ द्वार। आणाणिद्देस- पुं. (आज्ञानिर्देश) भगवतभिहितागमस्यो- त्सर्गापवादाभ्यामिदमित्थं विधेयमिदमित्थं चेत्येवमात्मकेप्रतिपादने, उत्त०१ अ। आणाणिद्दे सयर- त्रि. (आज्ञानिर्देशकर)। भगवदभिहितागमप्रतिपादनकरणशीले, भगवदभिहितागमानुलोमानुष्ठायिनि च / उत्त० पक्षान्तरीयविहितं पतज्जिनप्रासादादिपरित्राणमाचार्योपा ध्यायादीनामापन्निवारणं साधुमुद्दिश्य दानसत्कारादिकं चानुमन्यन्ते तेषां महत्पातकं जायते, सम्यक्त्वमपि प्रतिहन्यते, तेन मतान्तरायत्तं तं युगप्रधानाचार्यभक्त्यादिकमपि सर्वथा नानुमोदनीयमेवेति, केचित्तुतानपि प्रतिवदन्ति / यथा-- नयसाधनश्रेष्ठिसंगमादीनां मिथ्यात्वभाजामपि दानं बहुषु ग्रन्थेषु परंपरया चानुमोद्यमानं दृश्यते, तथा सर्वतीर्थकृत्सातिशय- साधुपारणासु पञ्चदिव्यावसरे अहा दानमहो दानमित्युद्घोषोऽपि यदनुमोदनीयं न तत्कार्यते, कथं दृश्यन्ते च भवदादयः सर्वेऽपि मार्ग प्रतिपन्नाः / कारयन्तो यथा देहि भो: किंचिदस्मभ्यं तव भूयान्लाभो भावीति, यदि च प्रदत्ते तदा सन्तुष्टिरपि जायते इति स्वयमनुभूयमानस्यार्थस्य विलोप: कर्तुं सतां नोचित इत्याशयतयैव सूत्रकारेणाभ्यधायि, "अहवा सव्वं वि य विअराये'' त्यादि अत्र सम्यग्दृष्टिपर्यन्तानां पूर्वमुक्तत्वान्मिथ्या- विनामपि किंचित्करणीयमनुमोदनीयमित्यापतितम्, तच विचार्यमाणं जिनजिनबिम्बजिनालयाचार्योपाध्यायसाधु- श्राद्धादीनां वास्तवाराध्यानामशनपानप्रदानादि भक्तिवर्णन- संज्वलनाऽऽपत्परित्राणादिकं दृश्यते चानुमोदितं साक्षा-दप्याचाराङ्गादौ, साधुना साग्निशकटीपुरस्करणे मम न कल्पते भवता! पुन: पुण्यप्राग्भारार्जनमकरीत्यादि कथंच जिनशासनप्रभावनाकारिणो म्लेच्छा अप्यनुमोद्यन्ते इत्याद्यनाग्रहबुद्ध्या पर्यालोचनीयमिति // 4aa ही। तथा तृतीय-चतुर्थप्रश्नप्रतिवचनं तु द्वाददशजल्पपट्टका- दवसेयं, किंच- "सव्वं पि निरत्थयं तस्स" इत्यादिवचन- स्यापेक्षिकत्वान्नैकान्तवादः / अपेक्षाच मोक्षफलाभावलक्षणेति भावः। अन्यच महानिशीथ-प्रसिद्धालापकमुपष्टभ्य एकान्तेन परपाक्षिकप्रशंसानिषेधः / सोऽपि न संगच्छते यतस्तस्मिन्नेवालापके"अविमुह-मुद्धपरिसामज्जगए सलाहेज्जा'' इति वचनेनाभिमुखमुग्धपरिषद्विशेषमध्य एव तत् श्लाघाया निषेध: प्रति-पादितोऽस्ति, न तु सामान्यपर्षदीति, किंचाऽत्रार्थे- ऊह-प्रत्यूहादिबहुवक्तव्यमस्तितत्तु साक्षान्मिलने एव समीचीनता- मञ्चतीति / / 3 / / 4 / / ही. 1 प्रका०। आणागाहग- पुं. (आज्ञाग्राहक) आगमग्राहके, "सयाऽऽणागाहगे सिया" (सूत्र-२+)। सदाज्ञाग्राहक: स्यात्, अध्यय नश्रवणभ्याम्। पं.सू.२ सूत्र। आणागिज्ज-त्रि. (आज्ञाग्राह्य)। आगमविनिश्चये, पंक। आणागिज्जो अत्थो, __ आणाए चेव सो कहेयध्वो / / 993+11 पं.व.४ द्वार। आज्ञा-आगमस्तद्ग्राह्यस्तद्विनिश्चयोऽर्थोऽनागतातिक्रान्त- प्रत्या- | ख्यानादिराज्ञयैव-आगमेनैवासौ कथयितव्य इति / यद्वासामान्येनैवाज्ञाग्राह्योऽर्थ:-सौधर्मादिः, आज्ञयैवासौ कथयि- तव्यो; न दृष्टान्तेन तस्य तत्र वस्तुतोऽसम्भवात् / आव० 6 अ।। (इत्यादिबहुवक्तव्यता वक्खाण' शब्दे षष्ठे भागे करिष्यते।) *आज्ञानिर्देशतर-त्रि. गुरुवचनस्येमित्थमेवं करोमीति निश्चयाभिधानन भवाम्भोधेस्तरणशीले, उत्त० 1 अ। तथा च विनीतशिष्यमधिकृत्यआणाणिद्देसकरे||३|| आिित स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाभिव्याप्त्या वा ज्ञायतेऽर्थो अनयेत्याज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देशउत्सर्गाऽपवादाभ्यां प्रतिमादनम्, आज्ञानिश इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेत्येवमात्मकं तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा आज्ञानिर्देशकरः। यद्वा-आज्ञा-सौम्य ! इदं कुरु, इदं च मा कार्षीरिति गुरुवचनभेव, तस्या निर्देश:-इदमित्थमेव करोमीति निश्चयाभिधानं तत्करः।आज्ञानिर्देशन वा तरतिभवाम्भोधि-मित्याज्ञानिर्देशतर इति, इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद् भगव- द्वचनस्य व्याख्याभेदा: संभवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतु- तया बालाऽबलादिबोधोत्पादनार्थत्वाचास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं प्रदर्शयिष्यन्ते। उत्त.१ अ। *आज्ञाऽनिर्देशकर-पुं॰आज्ञाविराधके उत्तः। अविनीतशिष्यमधिकृत्य-"आणाऽनिद्देसकरे||३४||" स शिष्योऽविनीत इत्युच्यते य आज्ञाया:- तीर्थकरवाक्यस्य, गुरोर्वाक्यस्य चाऽनिर्देशकर:- अप्रमाणकर्ता आज्ञाविराधकः / उत्त.१ अ। आणाणिप्फादय- पुं. (आज्ञानिष्पादक) आज्ञासाधके पं.सू०२ सूत्र। आणाऽणुग-त्रि. (आज्ञाऽनुग) आज्ञामनुगच्छति, अनु०। गम-डतः। आदेशानुसारेण गन्तरि दासादौ, क्त आज्ञानुगतोऽप्यत्रा त्रि० / वाच / आज्ञानुसारिणि, दर्श. 4 तत्त्व / आगमानुसारिणि, पञ्चा० / सुहभावा तट्विगमो, सो विय आणाणुगो निओगेण / / 29+11 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाऽणुग 143 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणामिय शुभभावात्-प्रशस्ताध्यवसायात्तद्विगम:-अशुभकर्मविगमो भवति'सो "एगो आणापाण, तेयालीसं (सयालीसं) सया उ वाबन्ना / विय' त्ति स पुन: शुभभाव: आज्ञानुग:-आगमानुसारी भवति नियोगेन- आवलियपमाणेणं, अणंतनाणीहिँ निद्दिहो // 1 // " नियमेन अनाज्ञाऽनुगम्यशुभ एवति भावः / पञ्चा० 16 विव०। सप्ताऽऽनप्राणप्रमाण: स्तोकः / सू.प्र.२० पाहु / आणाऽणुगामि-(न्)-त्रि०(आज्ञाऽनुगामिन्) आज्ञामनुच्छति, | आणाबज्ज- त्रि. (आज्ञाबाह्य) आप्तोपदेशशून्ये, पञ्चा। अनु० / गम-णिनिहत,स। आज्ञानुगते, स्त्रियां डीप्। वाच / आज्ञाबाह्यायाश्च स्वमतिप्रवृत्तेर्भवनिबन्धनत्वम्आणापडिच्छय-पुं०(आज्ञाप्रतीच्छक) आज्ञाप्रतीच्छाकारके पं.सू. 2 समितिपवित्ती सव्वा, आणाबज्ज त्ति भवफला चेव। सूत्र। तित्थगरहेसेणं वि,ण तत्तओ सा तदुद्देसा ||13|| आणापरतंत-पु. (आज्ञापरतन्त्र) आप्तवचनाधीने, पञ्चा० 14 विव। स्वमतिप्रवृत्ति:-आत्मबुद्धिपूर्विका चेष्टा सर्वासमस्ता द्रव्य-स्तव(आज्ञापरतन्त्रा प्रवृत्तिरप्रवृत्तिरेवेति'आणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम्।) भावस्तवविषया आज्ञाबाह्याआप्तोपदेशशून्या इति हेतोर्भवफलैवसंसारआणापरिणामग-पुं०(आज्ञापरिणामक)। यदाज्ञाप्यते तत्करोति निबन्धनमेव आज्ञाया एव भवोत्तारहेतुषु प्रमाणत्वात्। पञ्चा० 8 विकः / तत्कारणान्न पृच्छति;-किमर्थमेतदिति किंत्वाज्ञयैव कर्तव्यतया (विशेष: 'चेश्य शब्दे तृतीयभागे 1268 पृष्ठे वक्ष्यते!) आप्तक्चनबहिष्कृते श्रद्दधातीत्येवं लक्षणे परिणामक भेदे, व्य० 10 उ०। (एतस्य च। पञ्चा। लक्षणाऽऽदिबहुवक्तव्यता 'परिणामग' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (एतस्य आणाबज्जत्तणओ, न होइ मोक्खंगया णवरं। परीक्षाप्रकार आज्ञाव्यवहारनिरूपणवसरे 'आणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे आज्ञाबाह्यत्वाद्-आप्तवचनबहिष्कृतत्वाद्यदाज्ञाबाह्यं तन्मोक्षाङ्गं न गत:) भवति। पञ्चा०६ विव०। आणापविति-स्त्री. (आज्ञाप्रवृत्ति) आप्तोपदेशपरतन्त्रप्रवर्त्तने, पञ्चा०। आणाबलामिओग-पुं. (आज्ञाबलाभियोग) आज्ञापनम्-आज्ञा; भवतेदं आज्ञाप्रवृत्तिकश्च शुद्ध एव। तथाच विम्बविधिमधिकृत्य कार्य्यमेव तदकुर्वतो बलात्कारणम् बलाभियोगस्तत-श्वाऽऽज्ञया सह आणापवित्तिउ चिय, सुद्धो एसोण अण्णाह णियमा। बलाभियोग आज्ञाबलाभियोग: आज्ञाबलयोर-भियोगोव्यापारणमिति समास: / आज्ञाबलयोव्यापारणे, पञ्चा। तित्थगरे बहुमाणो, तदभावाओ यणायव्वो ||12|| आणाबलाऽभियोगो, णिग्गंथाणं ण कप्पते काउं। आज्ञाप्रवृत्तित एव-आप्तोपदेशपरतन्त्रप्रवर्त्तनादेव शुद्धो-विशुद्धः / एष इच्छा पउंजियव्वा, सेहे तह चेव राइणिए ll परिणामो बिम्बविधायको वा ज्ञेय इति योग: / पञ्चा० 8 विव०। (अत्र आज्ञाबलाऽभियोगो निग्रन्थानां-साधूनां न कल्पते-नयुज्यते कर्तुविशेष: 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1268 पृष्ठे वक्ष्यते) विधातुं परपीडोत्पादकत्वादात्मनश्चाभियोगिककर्मबन्ध हेतुत्वात्तस्येआणापवित्तिय पुं० (आज्ञाप्रवृत्तिक) आप्तोपदेशपरतन्त्र प्रवृत्ति-मति, त्यादि-(बहुवक्तव्यता 'इच्छाकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) पञ्चा० पञ्चा०८ विक। 12 विक। आणापहाण- पुं. (आज्ञाप्रधान)। आगमपरतन्त्रे, ध०२ अधि। आणाभंग- पुं.(आज्ञाभङ्ग) आज्ञाया-आदेशस्य भङ्ग-स्वविषयेषु आणापाणपज्जत्ति- स्त्री. (आनप्राणपर्याप्ति)। पर्याप्तिभेदे, मया प्रसाराभाव:, आदेशस्याऽकरणेन आदिष्यविषयेषु प्रचाराऽभावे, वाच०। पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यवगणादलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिण- मय्य आप्तोपदेशाननुपालने, पञ्चा०१५ विकः / सर्ववि-दागमोल्लङ्घने च। दर्श आलम्ब्य च मुञ्चति सा प्राणापानपर्याप्तिरिति। प्रव० 232 द्वार। 1 तत्त्व। (एतद्वक्तव्यता आणा' शब्दऽस्मिन्नेव भागे गता) आणापाणवग्गणा- स्त्री. (आनप्राणवर्गणा)। उच्छ्यासनिश्वास-योग्यायां / आणाभावग-पुं० (आज्ञाभावक) आज्ञाया भावयितरि, पं. सू० / पुद्गलवर्गणायाम्, कर्म५ कर्मः। (वक्तव्यता 'वग्गणा' शब्दे षष्ठे भागे "सयाणाभावगे सिया" (सूत्र-२+)। सदाऽऽज्ञाभावक: स्यादनुप्रेक्षाद्वावक्ष्यते) रेणेति। फसू०२ सूत्र। आणापाणु- पुं. (आनप्राण) कालविशेषे, जी. 3 प्रति, 4 अधिः / अनु०॥ आणामिय- त्रि. (आनामित)। ईषन्नामिते, उपा. 2 अ। तं / स्था०। ज्ञा० / कर्मा प्रश्न, / जी०। "आणामियचावरुइलकिण्हचिउरराइसुसंठियसंग*आणुप्राणु-त्रि. प्र अन् उण्। वाच / यआययसुजायभूमया" (सूत्र-१४+) (आनामितं चापरुचिर कृष्णचिकुरराजिसुसंस्थितसंगतायतसुजातभूका:) आनामितम् - (सूर्यप्रज्ञप्तावानप्राणकालपरिमाणम्) ईषन्नामितं यच्चापं-धनुस्तद्वद्रुविरे-शोभने कृष्णचिकुररा-जिसुसंस्थिते "आवलियाति वा आणापाणू ति वा / (सूत्र-१०५+) असङ्ख्यया कुत्रापिकृष्णा भूराजिसुसंस्थिते संगते आयतेदीर्घ सुजाते-सुनिष्पन्ने भ्रुवौ आवलिका एक आनप्राण:, "द्विपञ्चाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छत- येषां तेतथा। तं। प्रश्ना"आणामियचावरुइलतणुकसिणनिद्धभूमया" सङ्घयावलिकाप्रमाणं एक आनप्राणः" इति वृद्धसंप्रदाय: / (सूत्र-१४७+)| आनामितम्- इषन्नामितम् - आरोपितमिति भावः, तथा चोक्तम् यचापं- धनुस्तद्वत् रुचिरे-संस्थानविशेषभावतो रमणीये तन-तनुः Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणामिय 144 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणाविराहणाऽणुग श्लक्ष्णपरिमितबालपतयात्मकत्वात् कृष्णे-परमकालिमोपेते स्निग्धे- यो हेतुम् - विवक्षितार्थगमकमजानानः प्रवचनमाज्ञयैव तुशब्द स्निग्धच्छाये भुवौ येषांते आनामितचापरुचिरतनु-कृष्णस्निग्धभ्रूकाः / एवकारार्थः, केवलया रोचते, कथमित्याह-एवमेतत: प्रवचनोक्तजी०३ प्रति० 4 अधि०२ उ० (हस्तिवर्ण- कमधिकृत्य) "आणामिय- | कर्मजातं, नान्यथेति एष आज्ञारुचिनमि। प्रज्ञा० 1 पद। चावललितसंवेल्लितऽग्गर्सीडें" (सूत्र-२१४)। आनामितम्- ईषन्नामितं आणाल-न. (आलान) आ-लीयतेऽत्र आ-ली-ल्युट्। "आलाने यथापंधनुस्तद्वद् ललिता च-विलासवती संवेल्लिता च-वेल्लन्ती लनो:"|११७।। इति हैमप्राकृतसूत्रेण ल-नोर्व्यत्ययः / प्रा० / संकोचिता वा अग्रशुण्डा- शुण्डाग्नं यस्य तत्तथा। उपा०२ अ गजबन्धनस्तम्भे, करणे ल्युट्। तद्बन्धनरज्वाम, भावे ल्युटा बन्धनमात्रे आणामेत्त- न. (आज्ञामात्र) आप्तवचनमात्रे, "आणामेत्तंमि सव्वहा च! वाचा जुत्तो"॥२८+ll आज्ञामात्रे, आप्तवचन एव सर्वथा सर्वप्रकारैर्युक्तः आणालक्खंभ-पुं० (आलानस्तम्भ) गजबन्धनस्तम्भे, प्रा०२पादा वाचः। उद्यत: / पञ्चा० 14 विवा आणावं-त्रि (आज्ञावत्) आप्तोपदेशवर्त्तिनि, ध०२ अधिक। आणारुइ-स्वी० (आज्ञारुचि) आज्ञा-सूत्रव्याख्यानं; नियुक्त्यादि, तत्र तया वा रुचि: श्रद्धानम् सा आज्ञारुचिः / स्था० 4 ठा० 1 उ०। भ०। आणावट्टि(न्)-त्रि. (आज्ञावर्तिन) भगवत्प्रणीतवचनानुसारिणि, नियुक्त्यादेस्तत्त्वश्रद्धाने, ग.१ अधि। औ०।"आणा- रुई तित्थगराणं आचा०। आणं पसंसति"। आ. चू.४ अ० 1248 गाथा। रागद्वेषपरहितस्य पुंस आणाववहार- पुं. (आज्ञाव्यवहार)। व्यवहारभेदे, ध०२ अधिः / व्यः। आज्ञयैव धर्मानुष्ठानगतारुचिराज्ञा-रुचिः। तृतीये सम्यग्दशनभेदे, ध० पञ्चा०। (वक्तव्यता आणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) २अधि। आज्ञा-सर्वज्ञ-वचनात्मिका तया रुचिर्यस्य सः। स्था०१० ठा० आणाविजय-पु. (आज्ञाविच) (ज) य आ-अभिविधिनाज्ञायन्तेऽर्थायया 3 उ०। उत्त,। आप्तोपदेशाभिलाषयुक्ते, पञ्चा०। "आणारुइणो सा-प्रवचनं; सा विचीयते- निर्णीयते; पर्या- लोच्यते वा चरणं" // 12+|| आज्ञारुचे:- आप्तोपदशाभिलाषयुक्तस्य चरणं यस्मिंस्तदाज्ञाविचयं-धर्मध्यानमिति, प्राकृतत्वेन- विजयमिति। स्था० चारित्रम्। पञ्चा० 11 विवः। आगमबहुमानिनि च। पञ्चा० 16 विव०। 1 ठा.१ उ.। आज्ञा-जिनप्रवचनं तस्या विचयो-निर्णयो यत्र "आणारुइणो य सम्मति" |41+|| आज्ञारुचय: आगम-बहुमानिनः / तदाज्ञाविचयम्, प्राकृतत्यात्- आणाविज- यम्। और। ग०। आज्ञा वा पञ्चा० 11 विवा तदात्मकेतृतीये सरागसम्यग्दर्शिनि च। स्था०१० ठा०३ विजीयतेअधिगमद्वारेण परिचिती- क्रियते यस्मिन्नित्याज्ञाविजयम् / ऊ। उत्त। यो हि प्रतनुरागद्वेष-मिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्याऽऽदीनामा व स्था०४ ठा०१ उ०। आज्ञागु-णानुचिन्तनात्मकेधर्मध्यानभेदे, औ०। ग०। कुग्रहाभावाज्जीवा-दितयेतिरोचयते मानुषादिवत्स आज्ञारुचिः / स्था० भ. स च आज्ञाया अनन्तत्वपूर्वापराविरोधित्वादिस्वरूपे 10 ठा०३ उ.! चमत्कारपूर्वक चित्तवि- श्राम:आज्ञाविचयः / अष्ट.६ अष्ट! (तल्लक्षणं यथा) अतीन्द्रियत्वाद्धेतूदाह- रणादिसद्भावेऽपि बुद्धयतिशयशक्तिविकलैः रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। परलोकबन्धमोक्षधर्माधर्मादिभावेष्वत्यन्तदुःखाम्बोधेष्वाप्तप्रामाण्यात्तद्विषयं आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम ||20|| तद्वचनं तथैवेत्याज्ञाविचयम्। सम्म.३ काण्ड 63 गाथाटील। धर्म्यमपि सखलु निश्चयेन आज्ञारुचिर्नाम इति प्रसिद्धो भवति, स इति कः?यस्य ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यभावनाभिः कृताभ्यासस्य नयादिभिरति-गहनं राग:-स्नेहो, द्वेष:-अप्रीति:, मोह:- शेष-मोहनीयप्रकृतयः, अज्ञानं नबुध्यते तुच्छमतिना परं सर्वज्ञमतं सत्यमेवेति चिन्तन-माज्ञाविचयः। मिथ्यात्वरूपम् एतत्सर्व नष्टं भवति अस्य देशतोऽपगतं गम्यते; न ध०३ अधि। सर्वतोऽपगतशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धः। यस्य रोगो द्वेषोऽपगतः, यस्य (एतत्स्वरूपम्)द्वेषोऽपि देशतोऽपगतः, यस्य मोहोऽपि देशतोऽपगतः, यस्य अज्ञानं देशतोऽपगतम्, एतेषां अपगमात् आज्ञया आचार्याधुपदेशेन (1284 गाथा) तत्थ आणाविजये आणं विवेएति / जधा पंचत्थिकाए रोचमानजीवादितस्वं तथैवेति प्रतिपद्यमानो यो भवति सः; छज्जीवनिकाए अट्ठपवयणमाता,अण्णे य सुत्त-निबद्ध भावे, अबद्धेय आज्ञारुचिरित्यर्थः / अत्र माषतुषदृष्टान्त:-मा रूस मा तुस इति स्थाने पेच्छ, कहं आणाए परियाणिज्जंति? एवं चिंतेति, भासति या तधा माषतुष इति / दृष्टान्तोऽस्ति // 20 // उत्त२८ अ। प्रका स्था। पुरिसादिकारणं पडुच किच्छासज्जेसु हेतुविसया तातेसु वि वत्थुसु वि "आणाराई"||११५+|| आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तस्यां रुचि: सव्वण्णादिद्वेसु एवमेव सेतंति चिंततो भासंतो य आणा विधेयेति। आo अभिलाषो यस्य स आज्ञारुचिः। सरागसम्यग्दर्शनाऽऽर्यभेदे, जिनाव चू०४० से तत्त्वं; न शेषं युक्तिजातमिति योऽभिमन्यते स आज्ञारुचिः / (37 सूत्र आणाविराहणा- स्त्री. (आज्ञाविराधना) आप्तोपदेशाननुपालने, पञ्चा० टी.) प्रज्ञा०१ पद। 16 विव० (आप्तोपदेशाऽननुपालने किं भवतीति' आणा' शब्देऽस्मिन्नेव (आज्ञारुचिमाह) भागे गतम्) जो हेउमयाणतो, आणाए रोयए पवयणं तु। आणाविराहणाऽणुग-त्रि (आज्ञाविराधनाऽनुग) आप्तोपदेशाएमेव णण्णहत्तिय, एसो आणारुई नाम॥११९|| (सूत्र 37) ऽननुपालनानुसारिणि, पञ्चा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाविराहणाऽणुग 145 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुगामिय तथा च अशुभाऽध्यवसानमधिकृत्यआणाविराहणाणुग-मेयं पि य होति दट्ठव्वं / / 28 / / इदं पुनरशुभाध्यवसानम्-आज्ञाविराधनाम्- आप्तोपदेशाननुपालनाम्-अनुगच्छति- अनुसरतीत्याज्ञाविराधनानुगं भवति स्याद् द्रष्टव्यम्- ज्ञेयम्। पञ्चा०१६ विव! आणाविवरीय- त्रि. (आज्ञाविपरीत) आप्तवचनविपर्यस्ते, पञ्चा। "आणाविवरीयमेव जं किंचि''||६+il आज्ञाविपरीतमेव आप्तवचनविपर्यस्तमपि। पञ्चा०६ विव।। आणावेतव्य- त्रि. (आज्ञापयितव्य) आदेशनीये, आचा०1 आणासार-त्रि. (आज्ञासार) आप्तवचनप्रधाने, "आणासारं मुणेयव्यं" ||8+II आज्ञासारम्- आप्तवचनप्रधानम्। पञ्चा० 11 विव०। आणासिद्ध-त्रि. (आज्ञासिद्ध) आप्तवचनसिद्धे, सूत्र। "पुराण मानवो धर्म:, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् / आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः / / 1 / / इति परतीर्थिकाः / सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ऊ। आणिज्जंत-त्रि. (आनीयमान) प्राप्यमाणे, "णिज्जंताऽऽणिज्जंतो" // 942 / / 'आणिज्जतो' त्ति-गृहपति: गृहादानीयमानो वा। बृ० 3 उ०। आणि (णी) य-त्रि. (आनीत) आ-नी-कर्मणि क्त।"पानीयादिवित् / / 8 / 1 / 10 / / " इति हैम प्राकृतसूत्रेण- इत्त्वम्। प्रा० / देशाद्देशान्तरं नीते, वाच / आहृते, प्रव०६ द्वार। आणील-पुं० (आनील) ईषदर्थे, आङ्। प्रा.सा ईषन्नीलवर्णे, सामस्त्येन नीलवर्णे च / "आणीलं च वत्थं रयावेहि" ||9|| वस्त्रम्-अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय आनीलम्- ईषन्नीलं सामस्त्येन नीलं भवति। सूत्र. 1 श्रु०४ अ.२ उ। तद्वति, त्रि०। नीलघोटके पुं। हेम। तज्जातिस्त्रियाम्, स्त्री०। डीप् / वाच०। आणुकंपिय-त्रि. (आनुकम्पिक) अनुकम्पया चरतीत्यानुकम्पिकः / भ० 15 श०। कृपावति, भ०३ श०१ उ०। प्रतिका आणुगामिय- त्रि. (आनुगामिक) गच्छन्तं पुरुषम् आसमन्तादनुगच्छत्येवंशील: आनुगामि, आनुगाम्येवानुगामिक स्वार्थे कप्रत्ययः / अथवा-अनुगम: प्रयोजनं यस्य तदानुगामिकम्। अनुशतिकादिपाठादुभयपदवृद्धिः / आ०म०१ अ। नंत। स्था। अनुगन्तरि, (अनुगमनशीले)। ध०३ अधि। "आणु-गामियं ति वेमि" (सूत्र-२१७+) आनुगामिकं तदार्जित-पुण्यानुगमनाद् / आचा० 1 श्रु०८ अ०५ उ.। सह गन्तरि, सूत्रका "से एगईओ आणुगामियभावं पडिसंधाय" (सूत्र३१४)। आनुगामुकभावं प्रतिसंधाय-सहगन्तृभावेनानु-कूल्यं प्रदिपद्य। सूत्र०२ श्रु०२ अ। अवधिज्ञानविशेषे, देशान्तरगतमपि ज्ञानिनमनुगच्छति लोचनवत्तदवधिज्ञानमा-नुगामि / कर्म.१ कर्मः। आणुगामिओऽणुगच्छइ, गच्छंतं लोअणं जहा परिसं 11७१४+नाविशे। नं.स्था.। (एतद्व्याख्याम्'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 141 पृष्ठेकरिष्यते।) (आनुगामिकानानुगामिकमिश्रावधिज्ञानस्वरूपम्)ऑणुगामिओय ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं / अणुगामि अणाणुगामी, मीसो यमणुस्सतेरिच्छे 11714| अनुगमनशील आनुगामुकः / (सर्वोऽप्यवधिज्ञानविषयः 'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 141 पृष्ठे दर्शयिष्यते) (विशे०।) त्रिविधोऽप्यवधिर्मनुष्येषु तिर्यक्षु च भवतीति नियुक्तिगाथार्थ / विशे। तत्रेहान्तगतो न ग्राह्यो, देवनारकाणामभ्यन्तरावधित्वात्, किन्तु-मध्यगत:, सोऽप्यन्त (न्त्य) व्याख्यानविशिष्टो देव-नारकाणां स्वावधिद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात्, तुशब्द एवकारार्थः, सचअवधारणे, आनुगामिक एव यथोक्तरूपो नान्य इति, केषामित्याह-नरान् कायन्ति स्वयोग्यनाह्वयन्तीति नरका: तेषु भवा नारकास्तेषां तथा दीव्यन्ति-यथेच्छया क्रीडन्तीति देवा: तेषां मनुष्याश्च तिर्यक्च मनुष्यतिर्यक् तस्मिन्मनुष्यतिरश्चि जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ:-मनुष्येषु तिर्यक्षु आनुगामिक उक्तशब्दार्थः, अनानुगामिक:- अवस्थित: शृङ्खलादि-नियन्त्रितप्रदीप इव यो गच्छन्तं पुरुष नानुगच्छति, आह च भाष्यकृत्-"अणुगामिकोऽणुगच्छइ, गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं ! इयरो उ नाणुगच्छइ, ठियप्पदीवो व्व गच्छतं'' (विशे० 714) / यस्य तू पन्नस्यावधेर्देशो व्रजति स्वामिना सह अपरश्च देश: प्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योपहतैकलोचनवदन्यत्र न व्रजति स मिश्र उच्यते, उक्तंच-"उभयसहावो मीसो, देसो जस्सा-ऽणुजाइनो अन्नो। कासइ गयस्स कत्थइ, एगं उवहम्मइ जहच्छि' (विशे० 715) एष च भवतिगाथासंक्षेपार्थः / देव-नारकाणां सर्वात्मदेशजाभ्यन्तरावधिरूपमध्यगत आनुगा- मिकोऽवधिः, तिर्यमनुष्याणां सर्वप्रभेद:आनुगामिकः, अनानुगामिको, मिश्रश्चेति / आ.म.१ अ०। एतस्य भेदा:से किं तं आणुगामियं ओहिनाणं ? आणुगामियं ओहिनाणं दुविहं पण्णत्तं; तं जहा-अंतगयं; मज्जगयं च / (सूत्र-१०+) 'से किं तमि' त्यादि, अथ किं तदानुगामिक मधिज्ञानम् ? आनुगामिकव-धिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अन्तगतंच, मध्यगतं च। नं.1 (अन्तगताऽवधिज्ञान स्वरूपम् 'अन्तगय' शब्दे प्रथमभागे गतम्) / (मध्यगताऽवधिज्ञानस्वरूपम् 'मज्जगय' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते।) (अन्तगत- मध्यगतयोर्विशेष:)अंतगयस्स मज्जगयस्स य को पइविसेसो? पुरओ अंतगएणं ओहिनाणणं पुरओ चेव संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वार जोयणाई जाणाइ पासइ, मग्गओ अंतगएणं ओहिनाणेणं मग्गओ चेवसंखिज्जाणिवाअसंखिज्जाणिवाजोयणाईणइपासइ, पासओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पासओचेवसंखिज्जाणिवा असंरि जाणि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुगामिय 146 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणबुव्विणाम वा जोयणाई जाणइ पासइ, मज्जगएणं ओहिनाणेणं सवओ समंता संखिजाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ / (सूत्र-१०+) अन्तगतस्य मध्यगतस्य च परस्परंक: प्रतिविशेष:? प्रतिनियतो विशेष: सूरिराह- पुरतोऽन्तगतेनावधिज्ञानेन पुरतएवाग्रत एव संख्येयानिएकादीनि; शीर्षग्रहेलिकापर्यन्तान्यस-येयानि वा योजनानि; एतावत्सु योजनेष्वगाढं; द्रव्यमित्यर्थः, जानाति-पश्यति ज्ञानं विशेषग्रहणात्मकं, दर्शनं सामान्य-ग्रहणात्मकम्। तदेवं पुरतोऽन्तगतस्य शेषावधिज्ञानेभ्यो भेदः। एवं शेषाणामपि परस्परंभावनीयः। 'नवरं सव्वओ समंता' इतिसर्वत: सर्वासु दिग्विदिक्षु समन्तात्सर्वरेवात्मप्र- देशैः सर्वैर्वा विशुद्धस्पर्द्धकै, उक्तं च चूर्णी-"सव्वउ ति सव्वासु दिसि विदिसासु समंता। इति सव्वायप्पएसेसु सव्वेसु वा विसुद्धफड्डगेसु" इति। अत्र 'सव्वायप्पएसेसु'इत्यादौ तृतीयार्थे सप्तमी भवति च तृतीयार्थे सप्तमी, यदाह पाणिनि: स्वप्राकृतलक्षणे-"व्यत्ययोऽप्यासा'' मित्यत्र सूत्रे'तृतीयार्थे सप्तमी' यथा-"तिसु तेसुअलंकिया पुहवी' इति। अथवासमन्ता इत्यत्र स अवधिज्ञानी परामृश्यते, मन्ता इति ज्ञाता, शेषं तथैव। नं.। साध्यमसाध्यमग्न्यादिकमनुगच्छति साध्या- भावेन भवति यो धूमादिहेतु: सोऽनुगामी ततो जातमानुगामि- कम् अनुमानं तद्रपो व्यवसायोऽपि आनुगामिक एव। अनुमाने, तदात्मक व्यवसायविशेषे च। स्था.३ठा०३ऊ। आणुगामियत्ता-स्त्री. (आनुगामिकता) परम्पराशुभानुबन्ध, "आणुगामियत्ताए भविस्सइ" (सूत्र-३८०४) आनुगामिकत्वाय: शुभानुबन्धायेत्यर्थः / भ०९ श० 33 उ.। "आणुगामियत्ताए अब्भुढेत्ता भवति" // 16+|| आनुगामिकतायै- परम्पराशुभा-नुबन्धायेति। दशा० 4 अ। स्था.। भवपरम्परासु, सानुबन्धसुखे च। “आणुगामियत्ताए भविस्सइ॥११+11" आनुगामिकत्वाय- भवपरम्परासुसानुबन्धसुखाय भविष्यति। दशा० 10 अ। नि। आणुधम्मिय- त्रि. (आनुधार्मिक) अन्यैरपि तद्धार्मिकैरसमा- चीर्ण, आचा०। भगवतो महावीरस्य विहारसमये इन्द्रप्रक्षिप्त-वस्त्रधारणमधिकृत्य-"एवं खुआणुधम्मियं तस्स' (सूत्र-२+)। एतद्वस्त्रावधारणं तस्य भगवतोऽनुपश्चाद्धार्मिकमानुधार्मिकम- वेत्यपरैरपि तीर्थकृद्भिः समाचीर्णमित्यर्थः / आचा०१ श्रु०९ अ०१ उ०। आणुपुत्व-न. (आणुपूर्व्य) पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव: इत्यर्थे। "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः" (पाणि 5/1129) कर्मणि चेति व्यञ् / उत्त० 1 अ। अनु०। क्रमे, औ०। परिपाट्याम्, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ। विशिष्टरचनायाम्, सूत्र०२ श्रु०१ अ०! आणुपुटवट्ठिय-त्रि. (आनुपूर्व्यस्थित) विशिष्टरचनया स्थिते, सूत्र०२ श्रु०१अ। आणुपुथ्व-(टिव) सुजाय-त्रि (आनुपूर्य) (र्वी) सुजाता परि-पाट्या | सुष्ठजाते,। तथा च वृक्षवर्णनमुपक्रम्य- "आणु पुव्वसुजायरुइल- | वट्टभावपरिणया" (सूत्र-२ टी.) आनुपूर्येण- मूलादिपरिपाट्या सुष्ठ जाता रुचिरा: वृत्तभावं च परिणता ये ते तथा। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ। आनुपूामूलादिपरिपाट्या जन्मदोषरहितं यथा भवति एवं जात आनुपूर्वी- सुजात: / रा०। जं। तथा च हृदवर्णनमुपकम्य- "आणु, पुव्व-सुजायवप्पगंभीरसीयजले" (सूत्र-५१+) आनुपूर्येणपरिपाट्या सुष्टुजाता वप्रा:- तटायत्रस तथा गम्भीरम्-अगाधं शीतलंजलंयत्रस तथा तत: पदद्वयस्य कर्मधारयः / ज्ञा० 1 श्रु० 4 अ.। "आणुपुव्वसुसंहयंगुलीए" (सूत्र-१०+) आनुपूर्येणक्रमेण वर्द्धभाना हीयमाना वा इति गम्यम्, सुसंहता-सुष्ठ अविरला अडल्य: पादानावयवा यस्य स तथा। और आणुपुट्विग-त्रि. (आनुपूर्वीग) आनुपूर्वी-क्रमस्तं गच्छतीत्यानु- पूर्वीगः / क्रमवति, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० / "आणुपुट्विगमा एसो पव्वज्जासुत्तअत्थकरणं च" // 268+|| आचा.१ श्रु०८ अ० १ऊ। आणुपुट्विगंठिय- त्रि. (आनुपूर्वीग्रन्थित)। परिपाट्या गुम्फिते, भ०। अन्ययूथिकानधिकृत्य-"आणुपुव्विगंठिया" (सूत्र-१८३४)आनुपूर्व्यापरिपाट्या ग्रन्थिता-गुम्फिता आधुचितग्रन्थीनामादौ विधानादन्तोचितानां च क्रमेणान्त एव करणाद्। भ०५ २०३ऊ। आणुपुटिवणाम- न. (आनुपूर्वीनामन्) वृषभनासिकान्यस्तरज्जुसंस्थानीयाः कर्मसंहत्या विशिष्टं स्थान प्राप्यते असौ यथा चोर्दोत्तमाङ्गाधरश्चरणादिरूपो नियमत: शरीरविशेषो भवति सा अनुपूर्वीति / आव० 1 अ। कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाकाररूपेण यथाक्रमं द्वित्रिचतु:समयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रोणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि, कारणे कार्योपचारादानुपूर्वी / पंचा०७ विव०। कूर्परलाङ्गलगोमूत्रिकाररूपेण यथाक्रमं द्वित्रिचतुःसमयप्रमाणेन विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यअनुश्रेणिगमनमानुपूर्वी, तन्निबन्धनं नाम आनुपूर्वी-नाम / कर्म कर्म / नामकर्मभेदे, यदुदयादन्तराले गतो जीवो याति तदानुपूर्वीनाम / स० 42 सम० / तचतुर्विधम् - नारकानुपूर्वी- नाम 1, तिर्यगानुपूर्वीनाम 2, मनुष्यानुपूर्वीनाम 3, देवानुपूर्वीनाम 4, / कर्म०६ कर्म। "आणुपुव्वी चउभेया'||१२८३४|| आनुपूर्वी चतुर्द्धा-नारक-तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्वीभेदाद् / प्रव. 216 द्वार / कर्म। चतुर्दा गतिरिवानुपूर्वी प्रागुक्तरूपा भवति, कोऽर्थः- गत्याभिधानव्यपदेश्यमानुपूर्वीनाम, ततो निरयानुपूर्वीति-र्यगानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीदेवानुपूर्वीभेदात्-आनुपूर्वीनाम चतुर्द्धति ताप्तर्यम्। तत्र नरकगत्या नाम कर्मप्रकृत्या सहचरितानुपूर्वी नरकगत्यानुपूर्वी तत्समकालं चास्या वेद्यमानत्वात्सहचरित्वम्। एवं तिर्यग्मनुष्यदेवानुपूर्योऽपि वाच्याः। कर्म 1 कर्मा ननु आनुपूर्व्या उदयो नरकादिषु किमृजुगत्या गच्छत आहो-स्विद्वक्रगत्येत्याशयाऽऽह. 'पूच्चीउदओवक्के त्ति-पूर्व्या आनुपूर्व्यावृषभस्य नासिकारज्जुकल्पाया उदयो-विपाको वक्र एव भवति / अयमर्थ:- नरके द्विसमयादिवक्रेण Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्विणाम 147 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुथ्वी CO0BS3e गच्छतो जीवस्य नरकानुपूर्या उदयः, तिर्यक्षु-द्विसमयादिवक्रेण जीवस्य गच्छतस्तिर्यणानुपूर्व्या उदय:, मनुष्येषु द्विसम- यादिवक्रेण गच्छतो जीवस्य मनुष्यानुपूर्व्या उदय:, देवेषु द्विसमयादिवक्रेण गच्छतो जीवस्य देवानुपूर्व्या उदयः / उक्तं च बृहत्कर्मविपाके "नरयाउवस्स उदए, नरए वक्केण गच्छमाणस्स। नरयाणुपुब्वियाए, तहिँ उदओ अन्नहिं नऽस्थि // 1 / / एवं तिरिमणुदेवे, तेसु विवक्केण गच्छमाणस्स। तेसिमाणुपुट्वियाणं, तहिँ उदओ अन्नहिं नत्थि / / 2 / / कर्म०१ कर्म,४२ गाथाटी आणुपुस्विविहारि(न)-पु.(आनुपूर्वीविहारिन्) प्रव्रज्यदिक्रमण विहारिणि, आचा। (आह नियुक्तिकार:)आणुपुस्विविहारीणं, भत्तपरिण्णाय इंगिनीमरणं। पायवगमणं च तहा, अहियारो होइ अट्ठमए / / 257 / / अष्टमके तु अयमाधिकारः, तद्यथा- आनुपूर्वीविहारिणाम् - प्रतिपालितदीर्घसंयमानाम, शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तर-कालमवसीदत्संयमाऽध्ययनाऽध्यापनक्रियाणां निष्पादित- शिष्याणामुत्सर्गतो द्वादशसंवत्सरसंलेखनाक्रमसंलिखितदेहाना भक्तपरिक्षेङ्गितमरणं, पादपोपगमनं वा यथा भवति तथोच्यते। आचा.१ श्रु०८ अ.१ उ.।। तत्रैवानुपूर्वीविहारिणां मरणमधिकृत्य सूत्रम्ऑणुपुटवेण विमोहाई, जाइं धीरा समासज्ज ||1|| आनुपूर्वी क्रमः,-तद्यथा- प्रव्रज्जाशिक्षासूत्रार्थग्रहणपरिनिष्ठितस्यैककालिक विहारित्वमित्यादि, यदि वा-आनुपूर्वीसंलेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि, तया आनुपूर्व्यायान्यभिहितानि। आचा. 1 श्रु०८ अ०८ उ०। आणुपुव्वियसंखाए, कम्मणाओ त्तिउट्टइ ||2|| आनु पूा- प्रव्रज्यादिक्रमेण संयममनुपाल्य मम जीवत: कश्चिद् गुणो नाऽस्तीत्यत: शरीरमोक्षावसर: प्राप्तस्तथा कस्मै भरणाय समर्थोऽहमित्येवं संख्याय-ज्ञात्वा आरम्भणमारम्भ:- शरीरधारणाया-- ऽन्नपानाद्यन्वेषणात्मक स्तस्मात् त्रुट्यति; अपग- च्छतीत्यर्थः सुव्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे चतुर्थे, पाठान्तरं वा-"कामुणाओ तिउट्टई" कम्माष्टभेदं तस्मात् त्रुटिष्यतीति त्रुट्यति, "वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा' (पाणि ३।३।१३श इत्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्तमानता। आचा० 1 श्रु०८ अ०८ऊ। आणुपुथ्वी- स्त्री. (आनुपूर्वी) पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भावः इत्यर्थे "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः'' (पाणि०५।१।१२९।) कर्मणि चेति ष्य तस्य च पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीत्वे "षिद्गौरादिभ्य: श्च" (पाणि[४१४१) इत्रत डीषि आनुपूर्वी / क्रमे, परिपाट्याम्, उत्त० 1 अ.। आचाल। रा०। विशे। पं. सं०। जं०। आनुपूर्वी, अनुक्रमः, अनुपरिपाटीति पर्याया; त्र्यादिवस्तुसंघा इत्यर्थः / अनु। "आणुपुव्वं पाणेहिं संजए'' (सूत्र१३४)। आनुपूर्याश्रमणधर्मप्रतिपत्त्यादिलक्षणया प्राणिषु यथाशक्त्या सम्यक् यत: संयतः। सूत्र. 1 श्रु.२ अ ३ऊ।''आणु-पुष्विधसंखाए' (सूत्र-२+) आनुपुा - प्रव्रज्ययादिक्रमेणा आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। विशिष्टरचनायाम्, सूत्र.२ श्रु०१ अ तदात्मक शास्त्रीयोपक्रमभेदे, प्रकारान्तरेण शास्त्रभावो-पक्रमभेदे च / अनु०। विषयसूचनार्थमधिकाराङ्का:आनुपूर्व्याः सामान्यतो भेदाः। आनुपूर्व्याः द्रव्यादिना भेदाः। नैगमव्यवहारसम्मताया द्रव्यानुपूर्व्या निरूपणम्। प्रसङ्गप्राप्तस्यानुगमस्य निरूपणम्। आनुपूर्व्याः संग्रहनयमतेन निरूपणम्। प्रागुद्दिष्टाया औपनिधिक्या द्रव्याऽऽनुपूर्व्या निरूपणम्। प्रागुद्धिष्टक्षेत्राऽऽनुपूर्व्या निरूपणम् / क्रमप्राप्तकालाऽऽनुपूर्व्या निरूपणम् / उत्कीर्तनाऽऽनुपूर्व्या निरूपणम्। गणानाऽऽनुपूर्व्या निरूपणम्। प्रागुद्दिष्टसंस्थानाऽऽनुपूर्व्या निरूपणम्। भावाऽऽनुपूर्व्या निरूपणम्। (1) आनुपूर्वीस्वरूपनिरूपणगर्भ भेदमाहसे किं तं आणुपुटवी? आणुपुष्वी दसविहा पण्णात्ता, तं जहानामाऽऽणुपुथ्वी 1, ठवणाऽऽणुपुथ्वी 2, दवा- ऽऽणुपुथ्वी 3, खेत्ताऽऽणुपुर्वी 4, कालाणुपुथ्वी 5, उक्कित्तणाऽऽणुपुथ्वी६, गणणाऽऽणुपुटवी७, संठाणा- ऽणुपुथ्वी 8, सामाआरियाणुपुथ्वी 9. भावाऽऽणुपुथ्वी 10 (सूत्र-७१) नामट्ठवणाओगयाओ। (सूत्र 'से किं तमि' त्यादि, अथ किं तदानुपूर्वी वस्त्विति प्रश्नार्थ: / अत्र निर्वचनम्- 'आणुपुव्वी दसविहे 'त्यादि, इह हि पूर्व, प्रथमम्, आदि:, इति पर्यायाः। पूर्वस्य अनु-पश्चादनुपूर्व,"तस्य भाव'' इति यणप्रत्यये स्त्रियामीकारे चानुपूर्वी, अनुक्रमो, अनुपरिपाटीति पर्याया:; त्र्यादिवस्तुसंहतिरित्यर्थ: / इयामानुपूर्वी दशविधा- दशप्रकारा प्रज्ञप्ता, तद्यथानामाऽऽनुपूर्वी, स्थापनाऽऽनुपूर्वी, द्रव्याऽऽनुपूर्वी, क्षेत्राऽऽनुपूर्वी, कालाऽऽनुपूर्वी, उत्कीर्तना-ऽऽनुपूर्वी, गणनाऽऽनुपूर्वी, संस्थानाऽऽनुपूर्वी, सामाचार्या-नुपूर्वी, भावानुपूर्वीति / / 71 / / अत्र नामस्थापनानुपूर्वीसूत्रे नामस्थापनावश्यकसूत्रव्याख्यानुसारेणव्याख्यये / / 724|| (2) द्रव्यादिना आनुपूर्वीभेदमाहसे किं तंदव्वाणुपुथ्वी? दव्वाणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता,तं जहाआगमतो अ, नो आगमतो(ओ) अ / से किं तं आगमाओ दवाणुपुवी?२ जस्स णं आणुपुटिव ति पदं सिक्खि (अं) तं ठितं जितं मितं परिजितंजावनो अणुप्पेहाए कम्हा अणुवओगो दव्वम्मि तिकद्र णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमतो एगा दवाणुपुष्वी जाव कम्हा जति जाणए अणुवउत्तेन भवति / सेत्तं आगमओदव्वाणुपुथ्वी॥ से किंतंनोआगमतोदव्वाणुपुटवी? नो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुवी 148 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी आगमतो दवाणुपुटवी तिविहा पण्णता ? तं जहाजाणगसरीरदव्वाणुपुथ्वी, भवियसरीरदव्वाणुपुथ्वी, जाणगसरीरभविअसरीरव्वतिरित्ता दव्वाणुपुर्वी। से किं तं जाणगसरीरदव्वाणुपुटवी? जाणगसरीरदव्वाणुपुष्वी पदत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगतचुतचावितचत्तदेहं, सेसं जहा दय्वाऽऽवस्सए तहा माणिअव्वं जाव सेतं जाणगसरीरदव्वाणुपुथ्वी। से किं तं भविअसरीर-दव्वाणुपुथ्वी? भविअसरीरदवाणुपुथ्वी जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते, सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से(तं) तं भविअसरीरदवाणुपुटवी / से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवतिरित्ता दवाणुपुटवी ? जाणयसरीरभविअसरीरवतिरित्ता दवाणुपुटवी दुविहा पण्णत्ता ? तं जहाउवणिहिआय, अणोवणिहिआया तत्थ णंजा सा उवणिहिआ सा ठप्पा, (सूत्र-७२+) द्रव्यानुपूर्वीसूत्रमपि द्रव्यावश्यकवदेव भावनीयम् यावत्"जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी दुविहे" त्यादि, तत्र निधानं, निधि:, निक्षेपो, न्यासा, विरचना, प्रस्तारः, स्थापना, इति पर्यायाः। तथा च-लोके-निघेहीदं निहितमिद-मित्यत्र निपूर्वस्य धागो निक्षेपाऽर्थः प्रतीत एव, उप-सामीप्येन निधिरुपनिधि: एकस्मिन्विवक्षित्तेऽर्थे पूर्व व्यवस्थितापिते तत्समीप एवापरापरस्य वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण यन्निक्षेपणं स; उपनिधिरित्यर्थः / उपनिधि: प्रयोजनं यस्या आनुपूयाः सा औपनिधिकीति, प्रयोजनार्थे इकण् प्रत्ययः / सामायिकाध्ययनादिवन्तूनां वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्यादिप्रस्तारप्रयोजनानुपूर्वी औपनिधिकीन्युच्यते इति तात्पर्यम् / अनुपनिधि: वक्ष्यमाणपूर्वानुपूादिक्रमेणाविऽरचनं प्रयोजनमस्या इत्यनौपनिधिकी; यस्यां वक्ष्यमाणपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण विरचना न क्रियते सा त्र्यादिपरमाणु निष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्वीति अनौपनिधिकीत्युच्यते इति भावः / आहनन्वानुपूर्वी परिपाटिरुच्यते भवताच त्र्यणुकादिकोऽनन्ताणुकावसान एकैकस्कन्धः अनौपनिधिक्यानुपूर्वी-त्वेनाभिप्रेतो न चस्कन्ध-गतत्र्यादिपरमाणूनां नियता काचित्परिपा-टिरस्ति विशिष्टैकपरिणामपरिणतत्वात्तेषां तत्कथमिहानुपूर्वीत्वं, सत्यम्, किंतुत्र्यादिपरमाणूनामादिमध्यावसानभावेन नियतपरिपाट्या व्यवस्थापनयोग्यताऽस्तीति योग्यतामाश्रित्यात्राप्यानुपूर्वीत्वं न विरुध्यते। 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र या सा वौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी सा स्थाप्या सा न्यासिकी तिष्ठतु तावदल्प-तरवक्तव्यत्वन तस्या उपरि वक्ष्यमाणत्वादिति भावः। अनोपनिधिकी तु पश्चान्निर्दिष्टाऽपि बहुतरवक्तव्यत्येन प्रथम व्याख्यायते / बहुतरवक्तव्यत्वे हि वस्तुनि प्रथममुच्यमानेऽल्पतरवक्तव्यवस्तुगत: कश्चिदर्थस्तन्मध्येऽप्युक्त एव लभ्यते इति गुणाधिक्यं पर्यालोच्य सूत्रकारोऽनौपनिधिक्या: स्वरूपं विवरीषुराहतत्थ णं जा सा अणोवनिहिआ सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-नेगमववहाराणं, संगहस्सय॥ (सूत्र-७२+) 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र याऽसावनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी सा नयवक्तव्याश्रयणात्- द्रव्यास्तिकनयमतेन, द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथानैगमव्यवहारयोः, संग्रहस्य च। नैगमव्यवहारसंमता संग्रहसमता, चेत्यर्थः / अयमत्र भावार्थ:इहौघत: सप्त नया भवन्ति नैगमादयः, उक्त च-नैगम-संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूलै-वंभूता नया एते च द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिक- लक्षणनद्वयेऽन्तर्भाव्यन्ते द्रव्यमेव परमार्थतोऽस्मिन् पर्याया इत्यभ्युपगमपर: द्रव्यास्तिकः, पर्याया एव वस्तुत: सन्ति न द्रव्यमित्यभ्युपगमपर: पर्यायास्तिकः, तत्राद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिका:, शेषास्तु पर्यायास्तिकाः। पुनर्रव्यास्तिकोऽपि सामान्यतो द्विविध:-विशुद्धः, अविशुद्धश्च / तत्र नैगमव्यवहाररूप: अविशुद्धः, संग्रहरूपस्तु विशुद्धः / कथंयतो नैगमव्यव-हारावनन्तपरमाण्वनन्तद्व्यणुकाद्यनेकव्यक्त्यात्मकं कृष्णाद्यने- कगुणाधारं त्रिकालविषयं वा विशुद्धं द्रव्यमिच्छतः संग्रहश्च परमाण्वादिकं - परमाण्वादिसाम्यदिकं तिरोभूतगुणकलापम- विद्यमानपूर्वापरविभागं नित्यं सामान्यमेव द्रव्यमिच्छति, एतच किलानेकताद्यभ्युपगमकलङ्केनाकलङ्कितत्वाच्छुद्धम, तत: शुद्ध- द्रव्याभ्युपगमपरत्वादयमेव शुद्धः। अत्र च द्रयानुपूर्येव विचार-यितुं प्रक्रान्ता अत: शुद्धाऽशुद्धस्वरूपं द्रव्यास्तिकमतेनैवासौ दर्शयिष्यते न पर्यायास्तिकमतेन पर्यायविचारस्यानुपक्रान्त- त्वात्, इत्यलं विस्तरेण / (3) तत्र नैगमव्यवहारसम्मतामिमां दर्शयितुमाहसे किं तं नेगमववहाराणं अणोवनिहिआ दवाऽऽणुपुवी? नेगमववहाराणं अणोवनिहिआ दव्वाऽऽणुपुव्वी पंचविहा पण्णत्ता,तं जहा-अट्ठपयपरूवणया१, मंग-समुक्कित्तणयार, भंगोवदंसणया३, समोआरे 4, अणुगमे (सूत्र-७३) अत्र निर्वचनम्। 'नैगमववहाराणंअणोवणिहिया दव्वाणु-पुव्वी पंचविहे' त्यादि, अर्थपदप्ररूपणतादिभिः पञ्चभिः प्रकारैर्विचार्यमाणत्वात्पचविधा-पञ्चप्रकारा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- अर्थपदप्ररूपणता, भङ्गसमुत्कीर्तनता, भङ्गोपदर्शनता, समवतार:, अनुगमः, एभि: पञ्चमिः प्रकारैर्नंगमव्यवहारनयम तेन अनौपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्व्या: स्वरूपं निरूप्यते इतीह तात्पर्यम् / तत्र-अर्यते इति अर्थ: त्र्यणुकस्कन्धादि: स्तद्युक्तं तद्विषयं वा पदमानुपूर्व्यादिकं तस्य प्ररूपणं-कथनं तद्भावोऽर्थपदप्ररूपणता इयमानुपूादिका संज्ञा अयं च तद-भिधेयस्यणुकादरर्थः। संज्ञीत्येवं संज्ञासंज्ञिसंबन्धकथनमात्रं प्रथम कर्तव्यमिति भावार्थः। नेषामेवानुपूर्व्यादिपदानांसमुदितानांवक्ष्यमाणन्यायेन संभविनो विकल्पा:भङ्गा उच्यन्ते- विभज्यन्ते; विकल्पयन्ते इति कृत्वा; तेषां समुत्कीर्तनंसमुच्चारणं भङ्गसमुत्कीर्तनं, तद्भावो भङ्गसमुत्कीर्तनता, आनुपूर्व्यादिपदनिष्पन्नानां प्रत्येकभङ्गानां; व्यादिसंयोगभङ्गानां च समुच्चारमित्यर्थः, तेषामेव सूत्रमात्रतया अनन्तरसमुत्कीर्त्तितभङ्गानां प्रत्येकं स्वाभिधेयेन त्र्यणुकाद्यर्थेन सहोपदर्शनं- भङ्गोपदर्शन तद्भावो भङ्गोपद Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 149 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी शनता। भङ्गसमुत्कीर्तने भङ्गकविषयं सूत्रमेव केवलमुच्चार-णीयम, भङ्गोपदर्शने तुतदेव स्वविषयभूतेनार्थेन सहोचार-यिव्यमिति विशेषः। तथा तेषामेवानुपूर्खादिद्रव्याणां स्वस्थान परस्थानान्तरभावचि न्तनप्रकार: समवतारः। तथा तेषामेव आनुपादिद्रव्याणां सत्पदप्ररूपणादिभिरनुयोगद्वारैरनुगमन- विचारणमनुगमः / तत्राऽऽद्यभेदं विवरीषुराहसे किं तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया? नेगमववहाराणं अठ्ठपयपरूवणया तिपएसिए आणुपुथ्वी, चउप्पएसिए आणुपुथ्वी जाव दसपएसिए आणुपुटवी, संखेज्जपएसिए आणुपुथ्वी, असंखिज्जपएसिए आणुपुटवी, अणंतपएसिए आणुपुथ्वी, परमाणुपोग्गले अणाणुपुथ्वी, दुपएसिए अवत्तव्वए, तिपएसिआ आणुपुथ्वीओ, जाव अणंतपएसिआओ आणुपुटवीओ, परमाणुपोग्गला अणा-णुपुव्वीओ, दुपएसिआई अवत्तव्वयाई सेत्तं गमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया। (सूत्र-७४) अथ केयं नैगम- व्यवहारयोः सम्मता अर्थपदप्ररूपणता ? इति / अत्रोत्तरमाह / 'नेगमववहाराणमि' त्यादि, तत्र त्रयः प्रदेशाः परमाणुत्रयलक्षणा यत्र स्कन्धेसा त्र्यणुकानुपूर्वीत्युच्यते, एवं यावदनन्ता अणयो यत्र स: अनन्ताणुक: सोऽप्यानुपूर्वीत्युच्यते। 'परमाणुपोगले' त्ति- एक: परमाणु: परमाण्वन्त- रासंसक्तोऽनानुपूर्वीत्यभिधीयते / द्वौ प्रदेशौ यत्र स द्विप्रदेशिक: स्कन्धोऽवक्तव्यक मित्याख्यायते बहवस्त्रिप्रदेशिकादयः स्कन्धा: आनुपूर्यो, बहवश्वैकाकिपरमाणवोऽनानुपूर्व्यः, बहूनिच व्यणुकस्कन्धद्रव्याण्यवक्तव्यकानि। आनुपूर्व्या प्रकान्ता-यामनानुपूर्व्यवक्तव्यकयो: प्ररूपणमसङ्गतमिति चेत्, न, तत्प्रतिपक्षत्वात्तयोरपि प्ररूपणीयत्वात्, प्रतिपक्षपरिज्ञाने च प्रस्तुतवस्तुनः सुखावसेयत्वादिति भावार्थः / इहानुपूर्वी | अनुपरिपाटिरिति पूर्वमुक्तं सा च यत्रैयादिमध्यान्तलक्षण: संपूर्णो गणनानुक्रमोऽस्ति तत्रैवोपपद्यते; नान्यत्र, एतच त्रिप्रदेशिका- | दिस्कन्धेष्वेव। तथा हि- "यस्मात्परमस्ति न पूर्व स आदिः, यस्मात् पूर्वमस्ति न परं सोऽन्तः, तयोश्चान्तरं मध्यमुच्यते,"अयं च संपूर्णो गणनानुक्रमस्त्रिप्रदेशादिस्कन्ध एव, न परमाणौ; तस्यैकद्रव्यत्वेनाऽऽदिमध्यान्तव्यवहाराभावाद्, अत: एवाय-मनानुपूर्वीत्वेनोक्त:, नापि व्यणुकस्कन्धः, तत्रापि मध्याभावेन संपूर्णगणनानुक्रमाऽभावाद्, अत्राऽऽह- ननु पूर्वस्यानु- पश्चादनुपूर्वं तस्य भाव आनुपूर्वीति पूर्व व्याख्यातम्, एतच्च व्यणुकस्कन्धेऽपि घटत एव परमाणुद्वयस्यापि परस्परापेक्षयापूर्वपश्चाद्भावस्य विद्यमानत्वात्तत: संपूर्णगणनानुक्रमाभावेऽपि कस्मादय-मप्यानुपूर्वी न भवति ? नैतदेवं, यतो यथा मेदिके क्वचित्पदार्थेमध्ये अवधौ व्यवस्थापिते लोकेपूर्वादिविभाग: प्रसिद्धस्तथा यद्यत्रापि स्यात्तदा स्वादप्येवं न चैवमत्रास्ति, मध्येऽवधिभूतस्य कस्यचिदभावतोऽसाङ्कर्येण पूर्वपश्चाद्भावस्यासिद्धत्वात्, यद्येवं परमाणुवत् व्यणुकस्कन्धोऽप्यनानुपूर्वीत्वेन कस्मान्नोच्यते सत्यं, किंतुपरस्परापेक्षया पूर्वपश्चाद्भावमात्रस्य सद्भावादेवमप्य-भिधातुमशक्योऽसौ तस्मादानुपूर्यनानुपूर्वीप्रकाराभ्यां वक्तुमशक्यत्वादवक्तव्यकमेव व्यणुकस्कन्धः, तस्माद्यव- स्थितमिदम् आदिमध्यान्तभावेनाऽवधिभूतं मध्यवर्त्तिनमपे-क्ष्याऽसांकर्येण मुख्यस्य पूर्वपश्चाद्धावस्य सद्भावात् त्रिप्रदे- शादिस्कन्ध: एवानुपूर्वी, परमाणुस्तूक्तयुक्त्या अनानुपूर्वी व्यणुकोऽवक्तव्यकः, इत्येवं संज्ञासंज्ञिकसंबन्धकथनरूपा अर्थपदप्ररूपणा कृता भवति / यद्येवं त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्य इत्यादि बहुवचननिर्देश: किमर्थः? एकत्वमात्रेणैव संज्ञासंज्ञि-संबन्धकथनस्य सिद्धत्वात्, सत्यम्, किंत्वानुपूर्व्यादिद्रव्याणां प्रतिभेदमनन्तव्यक्तिख्यापनार्थो नैगमव्यवहारयोरित्थंभूताभ्यु- पगमप्रदर्शनार्थश्च बहुत्वनिर्देश इत्यदोषः / अत्राह- नन्वनानु- पूर्वीद्रव्यमेकेन परमाणुना निष्पद्यते, अवक्तव्यकद्रव्यं परमाणुद्वयेन आनुपूर्वीद्रव्यं तुजघन्यतोऽपिपरमाणुत्रयेण इत्थं द्रव्यवृद्ध्या पूर्वानुपूर्वीक्रममाश्रित्य प्रथममनानुपूर्वी ततः अवक्तव्यकम् ततश्चानुपूर्वीत्येवं निर्देशो युज्यते, पश्चानुपूर्वीक्रमाश्रयणे तु व्यत्ययेन युक्तस्तत्कथं क्रमद्वयमुल्लङ्यान्यथा निर्देश: कृत: ? सत्यमेतत्, किंत्वनानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गमिति ख्यापनार्थ: / यदि वात्र्यणुकचतुरणुकादीन्यानुपूर्वीद्रव्याण्यनानुपूर्व्यवक्तव्यक- द्रव्येभ्यो बहूनि तेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्याण्यल्पानि तेभ्योऽप्यवक्तव्यकद्रव्याण्यल्पतराणीत्यत्रैव वक्ष्यते, ततश्चेत्थं द्रव्यहान्या पूर्वानुपूर्वीक्रमनिर्देश एवायमिति। अलं विस्तरेण। 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। एआए णं नेगमववहाराणं अठ्ठपयपरूवणयाए किं पओअणं? एआएणं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए भंगसमुक्कित्तणया कज्जइ। (सूत्र-७५) 'एताए णमि' त्यादि, एतया अर्थपदप्ररूपणतया किं प्रयोजन-मिति, अत्राऽऽह-एतया अर्थपदप्ररूपणतया भङ्गसमुत्कीर्तना क्रियते, इदमुक्त भवति- अर्थपदप्ररूपणतायां संज्ञासंज्ञिव्यवहारो निरूपितस्तस्मिंश्व सत्येवं भङ्गका: समुत्कीर्त- यितुं शक्यन्ते, नाऽन्यथा, संज्ञामन्तरेण निर्विषयाणां भङ्गानां प्ररूपयि-तुमशक्यत्वात् तस्माद्युक्तमुक्तम् एतया अर्थपदप्ररूपणतया भङ्गसमुत्कीर्तना क्रियते इति। तामेव भङ्गसमुत्कीर्तनां निरूपयितुमाहसे किं तं नेगमववहाराणं मंगसमुक्कित्तणया ? नेगमववहाराणं मंगसमुक्तित्तणया-अत्थि आनुपूवीर, अत्थि अणाणुपुथ्वीर, अत्थि अश्वत्तध्वए 3, अत्थि आणुपुथ्वीओ 4, अत्थि अणाणुपुथ्वीओ५, अत्थि अव्वत्तव्वयाइं६, इकसंयोगी छ भंगा। द्विकसंयोगीभंगा- अहवा-अत्थि आणुपुर्वी अ अणाणुपुथ्वी अ 1, अहवा-अस्थि आणुपुथ्वी अअणाणुपुथ्वीओ अ२, अहवाअत्थि आणुपुटवीओ अ अणाणुपुर्वी अ३, अहवा अत्थि आणुपुटवीओ अ अणाणुपुटवीओ अ 4, अहवा अस्थि आणुपुटवी अ अव्वत्तव्वए अ५, अहवा अस्थि आणुपुटवी अ अव्वत्तव्वयाइंच, अहवा-अत्थि आणुपुथ्वीओ अ अव्वत्तव्वए अ७, अहवा-अस्थि आणुपुटवीओ अ अवत्तव्वाई च८ अहवा अस्थि अणाणुपुटवी अ अवत्तए अ९, अहवा-अत्थि अणाणु Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 150 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी पुष्वी अ अवत्तव्वयाइं च 10, अहवा-अस्थि अणा-णुपुटवीओ अ अवत्तव्वए अ११, अहवा-अस्थि अणा- णुपुर्वीओ अ अवत्तवयाइं च 12|| त्रिकसंयोगी भङ्गा- अहवा-अस्थि आणुपुर्वी अ अणाणुपुर्वी अ अवत्तव्वए अ१, अहवा-अस्थि आणुपुटवी अ अणाणुपुथ्वी अअवत्तध्वयाइंच२, अहवा-अस्थि आणुपुथ्वीअ अ अणाणुपुर्वीओ अ अवत्तय्वए अ 3, अहवाअत्थि आणुपुर्वी अ अणा-णुपुथ्वीओ अ अवत्तय्वयाइं च 4, अहवा- अत्थि आणुपुथ्वीओ अ अणाणुपुथ्वी अ अवत्तव्वए अ 5, अहवा-अस्थि आणुपुथ्वीओ अ अणाणुपुटवी अ अवतव्वयाई च 6, अहवा-अस्थि आणुपुटवीओ अ अणाणुपुटवीओ अ अवत्तव्वए अ७, अहवा-अत्थि आणुपुथ्वीओ अ अणाणुपुथ्वीओ अअवत्तव्वयाइच८, त्रिकसंयोगी एए अ(ड)ट्ठभंगा। एवं सव्वेऽवि छव्वीसं भंगा। सेत्तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया। (सूत्र 76) प्रश्ने अत्र चानुपूर्व्यादिपदत्रयेणैकवचनान्तेन त्रयो भङ्गा भवन्ति / बहुवचनान्तेनापि तेन त्रय एव भङ्गाः, एवमेते असंयोगत: प्रत्येकं भङ्गा: षड् भवन्ति, संयोगपक्षे तु पदत्रय- स्यास्य त्रयो द्विकसंयोगा:, एकैकस्मिंस्तु द्विकसंयोगे एक- वचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गीसद्भावत: त्रिष्वपि द्विकसंयोगेषु द्वादशभङ्गा संपद्यन्ते, त्रिकसंयोगस्त्वत्रैक एव, तत्र च (एकवचनान्तास्त्रयः एते बहुवचनान्तास्त्रय:) एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गा: सर्वेऽप्यमी षट्विंशतिः, अत्र स्थापना चेयम् सर्वेऽपि षड्विंशतिरेव एते चोत्तरं प्रयच्छता अनेनैव क्रमण सूत्रेऽपि लिखिताः सन्तीति भावनीयाः। अथ किमर्थं भङ्गकसमुत्कीर्तनं क्रियत इति चेत्, उच्यते- इहानुपूर्व्यादिभिस्त्रिभिः पदैरेकवचनान्तबहुवचनान्तः प्रत्येकचिन्तया संयोगचिन्तया च षड्विंशतिर्गङ्गाः जायन्ते, तेषु च मध्ये येन केनचिगङ्गेन वक्ता द्रव्यं वक्तु मिच्छति तेन प्रतिपादयितुं सर्वानपि प्रतिपादनप्रकाराननेकरूत्यान्नैगमव्यवहारनयाविच्छत इति प्रदर्शनार्थं भङ्गकसमुत्कीर्तनमिति / 'संत्तमि' त्यादि निगमनम् / उक्ता भङ्गसमुत्कीर्तनता। ___ अथ भङ्गोपदर्शनतां प्रतिपिपादयिषुराहएआए णं ने गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओअणं ? एआए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए नेगमववहाराणं मंगोवदंसणया कीरइ / (सूत्र-७७) 'एताए णमि' इत्यादि, एतया भङ्गसमुत्कीर्तनतया किं प्रयोजनमिति? अत्रोत्तरमाह- 'एतोए णमि' त्यादि, एतया भङ्गसमुत्कीर्तनया भङ्गोपदर्शनता क्रियते, इदमुक्तं भवति- भङ्गसमुत्कीर्तनतायां भङ्गकसूत्रमुक्त, भङ्गोपदर्शनतायां तस्यैव वाच्यं त्र्यणुकस्कन्धादिक कथयिष्यते। तच सूत्रे समुत्कीर्तिते एव कथयितुं शक्यते, याचकमन्तरेण वाच्यस्य कथयितुमश- क्यत्वाद् अतो युक्तं भङ्गकसमुत्कीर्तनतायां भङ्गोपदर्शनता- प्रयोजनम्, अत्राह-ननु भङ्गोपदर्शनतायां वाच्यस्य त्र्यणुक-स्कन्धादे: कथनकाले आनुपूर्व्यादिसूत्रं पुनरप्युत्कीर्तयिष्यति तत् किं भङ्गसमुत्कीर्तनतया प्रयोजनमिति, सत्यं, किंतुभङ्गसमुत्कीर्तनता सिद्धस्यैव सूत्रस्य भङ्गोपदर्शनतायां वाच्यवाचकभावसुखप्रतिपत्त्यर्थं प्रसङ्गत: पुनरपि समुत्कीर्तनं करिष्यते; न मुख्यतयेत्यदोषः / यथाहि-"संहिता च पदं चैव'' इत्यादि व्याख्याक्रमे सूत्रं संहिताकाले समुचारितमपि पदार्थ- कथनकाले पुनरप्यर्थकथनार्थमुच्चार्यते तद्दनापीति भावः / अथ केयं पुनर्भङ्गोपदर्शनतेति प्रश्रपूर्वकं तामेव निरूपयितुमाहसे किं तं नेगमववहाराणं भंगोपदसणाया? नेगमववहा-राणं भंगोवदंसणया ? तिपएसिए आणुपुथ्वी 1, परमाणुपोग्गले अणाणुपुथ्वी१, दुपएसिए अवत्तय्वए२, अहवा-तिपएसियानुपुटवीओ परमाणुपोग्गला अणाणु- पुटवीओ दुपएसिया अव्वत्तव्यवयाइं 3, अहवा-तिपएसि-यए अ परमाणुपोग्गले अ आणुपुटवी अ अणाणुपुत्वी अ४, चउभंगो / अहवादुपयसिए य तिपएसिए अ आणुपुटवी अ अटवत्तवए य चउभंगो, अहवा- दुपएसिए य परमाणुपोग्गले अ अवत्तव्वए य आणुपुटवी अ, अहवा-तिपएसिआ अ परमाणुपोग्गला य आणुपुत्वीओ अ अणाणुपुटवीओ अ४, अहवा-तिपएसिए अ दुपएसिए अ आणुपुटवी अ अवत्तट्वए अ५, अहवातिपएसिए अदुपएसिआ य आणुपुटवी अ अवत्तटवयाइं च६, अहवा- तिपएसिआ य आणुपुर्वी अ अवत्तवयाइं च 7, अ अवक्तव्यकाः 3|| अनानुपूर्व्यः 3 आनुपूर्व्यः 3 | अवक्तव्यकः१॥ अनानुपूर्वी 1 आनुपूर्वी 1 बहुवचनान्तास्त्रयः इत्येकवचनान्तात्रयः अनानुपूर्व्यः 3 अवक्तव्यकाः 3 / अनानुपूर्व्यः 3 अवक्तव्यकः / अनानुपूर्वी 1 अवक्तव्यकाः 3 अनानुपूर्वी 1 अवक्तव्यकः 1 आनुपूर्व्यः 3 अवक्तव्यकाः 3 आनुपूर्व्यः 3 अवक्तव्यकः१ आनुपूर्वी 1 अवक्तव्यकाः३ आनुपूर्वी 1 अवक्तव्यकः 1 आनुपूर्व्यः 3 अनानुपूर्व्यः३ अनापूर्व्यः 1 अनानुपूर्वी 1 आनुपूर्वी : 3 अनानुपूर्व्यः३ आनुपूर्वी 1 अनानुपूर्वी 1 3 द्विकयोगे 4 / आनुपूर्वी 1 आनुपूर्वी 1 आनुपूर्वी, आनुपूर्वी 1 आनुपूर्व३ आनुपूर्व 3 आनुपूर्व 3 आनुपूर्व 3 त्रिकसंयोगेऽष्टी भङ्गाः २द्विकयोग 4 १द्विकयोगे चतुर्भङ्गी। अनानुपूर्वी 1 अवक्तयकः 1 अनानुपूर्वी 1 अवक्तयकाः३ अनानुपूर्व्यः३ अवक्तव्यकः 1 अनानुपूर्व्यः३ अवक्तव्यकाः३ अनानुपूर्वी 1 अवक्तव्यकः१ अनानुपूर्वी 1 अवक्तव्यकाः३ अनानुपूर्व्यः३ अवक्तव्यकः१ अनानुपूर्व्यः३ अवक्तव्यकाः३ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 151 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी हवा-तिपएसिआय दुपएसिए अ आणुपुथ्वीओ अ अवत्त-व्वए अ, अहवा-तिपएसिआ य दुपएसिआ य आणुपुटवी | अ अवत्तव्वए अ. अहवा तिपएसिआय दुपएसिआय आणुपुथ्वी अ अवत्तवयाइं च 8, अहवा-परमाणुपोग्गले अदुपएसिए अ अणाणुपुटवी अ अवत्तव्वए अ९, अहवा-परमाणुपोग्गले अ दुपएसिआ य अणाणुपुटवी अ अवत्तय्वयाई च 10, अहवा परमाणुपोग्गल्ला य दुपएसिए अ अणाणुपुथ्वी अ अवत्तय्वए अ 11, अहवा परमाणुपोग्गला य दुपएसिआ य अणाणुपुष्वी अ अवत्तव्वयाइंच 12, अहवा-तिपएसिए अपरमाणुपोग्गले अदुपएसिए अ आणुपुथ्वी अ अणाणुपुवी अ अवत्तव्वए अ१, अहवा- तिपएसिए अ| परमाणुपोग्गले य दुपएसिआ य आणुपुथ्वी अ अणाणुपुथ्वी अ अवत्तव्वयाइं च 2, अहवा तिपएसिए अ परमाणुपोग्गला अ / दुपएसिआय आणुपुथ्वी अ अणाणुपुथ्वीओ अ अवत्तय्वए अ३, अहवा-तिपएसिए अपरमाणुपोग्गलाय दुपएसिया अ आणुपुष्वी अ अणाणुपुर्वीओ अ अवत्तव्वए अ४, अहवा तिपएसिए अ परमाणुपोग्गला य दुपएसिआय आणुपुष्वी अ अणाणुपुथ्वीओ अ अवत्तव्वए अ५, अहवा तिपएसिआ य परमाणुपोग्गले अ दुपएसिए अ आणुपुथ्वीओ अ अणाणुपुथ्वीओ अ अवत्तय्वयाई | च 6, अहवा-तिपएसिआ य परमाणुपोग्गले अ दुपएसिआ य | आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुर्वी अवत्तव्वआ७, अहवा तिपएसिआ य परमाणु पोग्गले अ दुपएसिआ य आणुपुटवीओ अ अणाणुपुथ्वीओ अ अवत्तव्वयाई च 8, सेत्तं नेगमववहाराणं भंगोवंदसणया। (सूत्र-७८) 'से किं तमि' त्यादि, "तिपएसिए आणपुव्वी' त्ति-त्रिप्रदेशिकोऽर्थः आनुपूर्वीत्युच्यते; त्रिप्रदेशिकस्कन्ध-लक्षणेनार्थेनानुपुर्वीति भङ्गका निष्पद्यत इत्यर्थः / एवं परमाणुपुद्गलक्षणोऽर्थः अनानुपूर्वीत्युच्यते, द्विप्रदेशिकस्कन्ध-लक्षणोऽर्थोवक्तव्यकमुच्यते एवं बहवस्त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः बहवः परमाणुपुद्गला अनानुपूर्व्य: बहवो द्विप्रदेशिकस्कन्धा अवक्तव्यकानिति षण्णां प्रत्येकभङ्गानामर्थकथनम्। एवं द्विकसंयोगेऽपि त्रिप्रदेशिकस्कन्ध: परमाणुपुद्गलश्चानुपू- व्य॑नानुपूर्वीत्वेनोच्यते, यदा त्रिप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुपुद्गलश्च प्रतिपादयितुमभीष्टो भवति / तदा 'अस्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वी अ' इत्येवं भङ्गो निष्पद्यत इत्यर्थः, एवमर्थकथनपुरस्सरा: शेषभङ्गा अपि भावनीया: अत्राहनन्वर्थोप्यानुपूर्व्यादिपदानां त्र्यणुस्कन्धादिकोऽर्थपदप्ररूपण- तालक्षणे प्रथमद्वारे कथित एव तत्किमनेन ? सत्यम ? किंतु तत्र पदार्थमात्रमुक्तम; अत्र तु तेषामेवानुपूर्व्यादिपदानां भङ्गकर-चनासमादिष्टानामर्थः कथ्यत इत्यदोषः, नयमतवैचित्र्य-प्रदर्शनार्थं वा पुनरित्थमर्थोपदर्शनमिति / अलंविस्तेरण। 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। उक्ता भङ्गोपदर्शनता। अथ समवतारं विभणिषुराहसे किं समोआरे ? समोआरे नेगमववहाराणं आणुपुथ्वीदवाई कहिं समोअरंति ? किं आणुपुटिवदव्वेहिं समोअरंति ? अणाणुपुटिवदवे हिं समोअरंति ? अवत्तवयदवे हिं समोअरंति ? नेगमववहाराणं आणुपुथ्वीदवाई आणुपुथ्वीदव्वेहिं समोअरंति, नो अणाणुपुटवीदव्येहिं समोअरंति, नो अवत्तव्वयववेहि समोअरंति, नेगमववहाराणं अणाणुपुथ्वीदवाई कर्हि समोअरंति ? किं आणुपुट्विदध्वेहि समोअरंति? अणाणुपुटिवदव्वेहि समोअरंति? अवत्तव्वयदध्वेहिंसमोअरंति? नो आणुपुटिवदव्वेहिं समोअरंति, आणुपुविदव्वेहिंसमोअरंति, नो अवत्तवयदटवे हिं समोअरंति / नेगमववहाराणं अवत्तव्वयदव्वाइं कहिं समोअरंति ? किं आणुपुटिवदवेहि समोअरंति? अणाणुपुटिवदव्वेहिंसमोअरंति ? अवत्तव्वयदव्वेहि समोअरंति,नो आणुपुव्विदम्वेहिं समोअरंति; नो आणुपुटिवदवेहिं समोअरंति; अवत्तय्वयदवेहिं समोअरंति / सेत्तं समोआरे। (सूत्र-७९) अथ कोऽयं समवतार इति प्रश्ने सत्याह- 'समोयारे त्तिअयं समवतार उच्यत इति शेषः, कः समवतार इत्याह-नेगम-वबहाराणं आणुपुव्वीदव्याई कहिं समोयरंति' त्यादि प्रश्न: अत्रोत्तरम् 'नेगमववहाराणं आणुपुव्वी' इत्यादि, आनुपूवीद्रव्याणि आनुपूवीद्रव्यलक्षणायां स्वजातायेव वत्तन्त; न स्वजात्य-तिक्रमणेत्यर्थः इदमुक्तं भवतिसम्यग्अविरोधेनावतरणंवर्तनं समवतार; अविरोधवृत्तिता प्रोच्यते, सा ज स्वजातिवृत्तावेव स्यात् परजातिवृत्तेविरुद्धत्वात् ततो नानादेशादिवृत्तीन्यपि सर्वाण्यानुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्येष्वेव वर्तन्ते इति स्थितम् / एवमनानुपूर्यादीनामपि स्वस्थानावतारो भावनीय: / 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। उक्त: समवतारः। (4) अथाऽनुगमे विभणिषुरुपक्रमतेसे किं तं अणुगमे ? अणुगमे नवविहे पण्णत्ते, तं जहा"संतपयपरूवणया? दव्वपमाणं च 2 खित्त 3 फुसणा य 4 / कालो य५, अंतरं 6 भाग 7 भाव 8 अप्पाबहुंचेव९|||" (सूत्र-८०) अत्रोत्तरम्' अणुगमे नवविहे' इत्यादि, तत्रसूत्रार्थस्यानुकूलमनुरूपं वा गमनं, व्याख्यानमनुगमः / अथवा सूत्रपठना-दनु पश्चाद् गमनं व्याख्यानमनुगमः / यदि वा अनुसूत्रमर्थों गम्यते ज्ञायते अनेनेत्यनुगमोव्याख्यान-मेवेत्याद्यन्यदपि वस्त्वविरोधेन स्वधिया वाच्यामिति। सचनवविधो नवप्रकारो भवति। तदेव नवविधत्वं दर्शयति, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 152 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आणुपुर्वी तद्यथेत्युपदर्शनार्थ:। 'संतपयगाहा'- सदर्थविषयं पदं सत्यपदं तस्य प्ररूपणं-प्रज्ञापनं सत्यपदप्ररूपणं तस्य भाव: सत्पद- प्ररूपणता सा प्रथमं कर्तव्या / इदमुक्तं भवति-इह स्तम्भ- कुम्भादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते खरशृङ्गव्योम-कुसुमादीनि त्वसदर्थविषयाणि दृश्यन्ते तत्रानुपूर्व्यादिपदानि किं स्तम्भादिपदानीव सदर्थविषयाणि आहोस्वित् खर-विषाणादिपदवत् असदगर्थगोचराणि इत्येतत्प्रथरमं पर्यालोचयितव्यं, तथा आनुपूर्यादिपदाभिधेयद्रव्याणां प्रमाणं संख्यास्वरूपं प्ररूपणीयम् च: समुच्चये एवमन्यत्रापि तथा तेषामेव क्षेत्रं तदाधारस्वरूपं प्ररूपणीयं; कियति क्षेत्रे तानि भवन्तीति चिन्तनीयमित्यर्थः / तथा स्पर्शना च वक्तव्या; कियत्क्षेत्रं तानि स्पृशन्तीति चिन्तनीयमित्यर्थः / तथा कालश्च तस्थितिलक्षणो वक्तव्य: तथा अन्तरं-विवक्षितस्वभावपरित्यागे सति पुनस्तद्वावप्राप्तिविरहलक्षणं प्ररूपणीयं, तथा आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कतिभागे वर्तन्ते इत्यादिलक्षणो भागः प्ररूपणीयः तथा आनुपूर्व्यादिद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्ते इत्येवंरूपो भाव: प्ररूपणीयः, तथा अल्पबहुत्वं चानुपूर्व्यादिद्रव्याणां द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थोभयार्थताश्रयणेन परस्परं स्तोकबहुत्वचिन्तालक्षणं प्ररूपणीयम् एवकारोऽवधारणे, एतावत्प्रकार एवानुगम इति गाथासमासार्थः / विस्तरा (व्यासा) र्थं तु ग्रन्थकार: स्वयमेव विभणिषुराद्यावयवमधिकृत्याहनेगमववहाराणं आणुपुस्विदवाइं किं अस्थि णऽस्थि ? णियमा अत्थिानेगमववहाराणं अणाणुपुटिवदव्वाइं किं अत्थिणऽत्थि? नियमा अस्थि / नेगमववहाराणं अवत्तव्दगदव्वाइं किं अस्थि णऽस्थि, नियमा अत्थि। (सूत्र-८१) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीशब्दाभिधेयानि द्रव्याणि व्यणुक - स्कन्धादीनि किं सन्ति: न इति (च) प्रश्न:, अत्रोत्तरं-नियमा' अस्थि' इति, एतदुक्तं भवति-नेदं खरशृङ्गादिवदानुपूर्वीपद-मसदर्थगोचरम्, अतो नियमात्सन्ति तदभिधेयानि द्रव्याणि तानि च त्र्यणुकस्कन्धीदीनि पूर्व दर्शितान्येव, एवमनानुपूर्व्यवक्तव्य-कपक्षद्वयेऽपि वाच्यम् / कृता सत्पदनरूपणा। अथ द्रव्यप्रमाणमभिधित्सुराहने गमववहाराणं आणुपु टिवदटवाइं किं संखिज्जाई असंखिज्जाइं अर्णताइं? नो संखिज्जाइं नो असंखिज्जाई, अणंताई, एवं अणाणुपुट्विदव्वाई, अवत्तव्यगदब्वाइंच अणंताई माणिअव्वाई। (सूत्र-८२) 'नेगमववहाराणं आणुपुग्विदव्वाइं किं संखेज्जाइमि' त्यादि, अयमत्र निवर्चनभावार्थ:- इहानुपूय॑नानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणि प्रत्येकमनन्तान्ये कैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे प्राप्यन्ते किं पुनः सर्वलो के, अत: संखेयासंखेयप्रकारद्वयनिषेधेन त्रिष्वपि स्थाने- ध्वानन्त्यमेव वाच्यमिति। न च वक्तव्य कथमसंख्येये लोके अनन्तानि द्रव्याणि तिष्ठन्ति ? अचिन्त्यत्वात, पुद्गलपरिणा- मस्य, शक्तिदृश्यते चैकगृहान्तवाकाशप्रदेशेष्वेक प्रदीपप्रभापरमाणुव्याप्तेष्वप्यनेकाऽपरप्रदीपप्रभापरमाणूनां तत्रैवावस्थानं, नचाऽक्षिदृष्टेऽप्यर्थेऽनुपपत्ति: अतिप्रसङ्गादिति। अलं प्रपञ्चेन। इदानी क्षेत्रद्वार मुच्यतेनेगमववहाराणं आणुपुटिवदव्वाइं लोअस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा, असंखिज्जइभागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा सव्वलोए होज्जा ? एगंदव्वं पडुच संखेज्जइ भागे वा होज्जा असंखिज्जइ भागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा असंखिज्जेसु भागेसु वा होज्जा सव्वलोए वा होज्जा, णाणादव्वाइं पडुच निअमा सव्वलोए होज्जा / नेगमववहा-राणं अणाणुपुस्विदध्वाई किं लोअस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा जाव सवलोए वा होज्जा ? एग दवं पडुब नो संखेज्जइभागे होज्जा, असंखिज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सटवलोए होज्जा, णाणादवाइं पडु च निअमा सटवलोए होज्जा, एवं अवत्तव्वगदप्वाइं माणिअव्वाई। (सूत्र-८३) आनुपूर्वीद्रव्याणि किंलोकस्यैकस्मिन संख्याततमे भागे'होज्ज' ति। आर्षत्वात् भवन्ति अवगाहन्त इति यावत् / यदि वाएकस्मिन्नसंख्याततमे भागे भवन्ति उत बहुषु संख्येयेषु भागेषु भवन्ति आहोश्चिद्वहुष्वसंख्येयेषु भागेषु भवन्ति अथ सर्वलोके भवन्तीति पञ्च प्रश्नस्थानान्यत्र निर्वचनसूत्रस्येयं भावना-इहानुपूर्वीद्रव्याणि त्र्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुस्कन्ध पर्यवसनान्युक्तानितत्रच सामान्यत एकं द्रव्यमाश्रित्य तथाविधपरिणामवैचित्र्यात् किंचिल्लोकस्यैकस्मिन् संख्या-ततमे भागे भवित एकं तत्संख्यातभागमवगाह्य तिष्ठतीत्यर्थः अन्यत्तु तदसंख्येयंभागमवगाहते, अपरस्तु-बहुस्तदसंख्येयान् भागानवगाह्य वर्तते, अन्यच्च बहून् तदसंख्येयभागानवगाह्य तिष्ठतीति, 'सव्वलोए वा होज्ज त्ति' इहानन्तानन्तपरमाणु-प्रचयनिष्पन्नं प्रज्ञापनादिप्रसिद्धाचित्तममहास्कन्धलक्षण-मानुपूर्वीद्रव्यं समयमेक सकललोकावगाहि प्रतिपत्तव्यमिति / कथं पुनरयमचित्तमहास्कन्धः सकललोकावगाही स्याद्? उच्यते-समुद्धातवर्तिक्वलिवत्-तथाहिलोकमध्यव्यव-स्थितोऽसौ प्रथमसमये तिर्यगसंख्यातयोजनविस्तरं संख्यातयोजनविस्तरं वाऊर्ध्वमधस्तु चतुर्दशरज्वायतं विश्रसापरिणामेन वृत्तं दण्डं करोति द्वितीये कपाटम्, तृतीये मन्थानं, चतुर्थे लोकव्याप्ति प्रतिपद्यते। पञ्चमे अन्तराणि संहरति षष्ठे मन्थाने सप्तमे कपाटमष्टमे तु दण्ड संहृत्य खण्डशो भिद्यत इत्येके, अन्येत्यन्यथापि व्याचक्षते; तत्तु विशेषावश्यकादवसेयमिति'वा' शब्द: समुच्चये एवं यथासंभवमन्यत्रापि। 'नाणा दव्याई पड्डचे त्यादिनानाद्रव्याण्यानुपूर्वीपरिणामवन्ति प्रतीत्य कृत्य वा; अधि-कृत्येत्यर्थः, नियमात् नियमेन सर्वलोके भवन्ति, न संख्येयादिभागेषु यतः सर्वलोकाकाशस्य स प्रदेशोऽपि नास्ति यत्र सूक्ष्मपरिणामवन्त्यनन्तान्यानुपूर्वीद्रव्याणि न सन्तीति अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येषु त्वेकं द्रव्यमाश्रित्य लोकस्याऽ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 153 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आणुपुवी संख्येयभाग एव वृत्तिर्न संख्येयभागादिषु यतोऽनानुपूर्वीतावत्परमाणुरुच्यते, स चैकाकाशप्रदेशाऽवगाढ़ एव भवति अवक्तव्यकं तु व्यणुकस्कन्धः, सचैकाकाशप्रदेशावगाढोद्वि-प्रदेशावगाढो वा स्यादिति यथोक्तभागवृत्तितैवेति, नाना द्रव्य-भावना पूर्ववदिति। उक्त क्षेत्रद्वारम्। साम्प्रतं स्पर्शनाद्वारमुच्यतेनेगमववहाराणं आणुपुट्विदव्वाइं लोगस्स किं संखेज्जइ-भागं फुसं ति असंखेज्जइभागं फुसंति संखेज्जे भागे | फुसति असंखेज्जे भागे फुसंति सव्वलोअं फुसंति? एगंदव्वं पडुच लोगस्स संखेज्जइभागं वा फुसंति जाव सवलोगं वा फुसंति णाणादव्वाइं पडुच निअमा सव्वलोगं फुसंति / णेगमववहाराणं अणाणुपुट्विदय्वाई लोअस्स किं संखेज्जइभागं फुसंति जाव सव्वलोगं फुसंति / एगं दवं पडुच नो संखिज्जइजभागं फुसंति असंखिज्जइमागं फुसंति नो संखिज्जे भागे फुसंति नो असंखेज्जे भागे फुसंति नो सव्वलोअं फुसंति, नाणादव्वाइं पडुच निअमा सवलोअं फुसंति, एवं अवत्तय्वगदब्वाइंभाणिअव्वाई। (सूत्र-८४) भावना तु क्षेत्रद्वारवदेव कर्तव्या नवरं क्षेत्रस्पर्शनयोरयंविशेष: क्षेत्रम् अवगाह्याक्रान्तप्रदेशमात्रं, स्पर्शना तु षड्दिक्कैः प्रदेशस्तरहिरपि भवंति, तथा च-परमाणुद्रव्यमाश्रित्य ताव-दवगाहनास्पर्शनयोरन्यत्रोक्तो भेदः। 'एगपएसो गाढं सत्त पएसा य से फुसणंत्ति-अस्यार्थ:परमाणुद्रव्यमगाद तावदेस्मिन्नेवा-काशप्रदेशे, स्पर्शनातु (से) तस्य सप्त प्रदेशा भवन्ति, षड्दिग्व्यवस्थितान् षट्प्रदेशान यत्र चावगाहस्तं च स्पृशतीत्यर्थ:, एवमन्यत्रापि क्षेत्रस्पर्शनयोर्भेदो भावनीयः / अत्र: सौगताः प्रेरयन्ति-यदि परमाणो: षदिगस्पर्शना अभ्युपगम्यते तदैकत्वमस्य हीयते, तथा हि प्रष्टव्यमत्र, किं येनैव स्वरूपेणासौ पूर्वाद्यन्यतरदिशा सम्बद्धस्तेनैवान्यदिग्भिः, उत स्वरूपान्तरेण ? यदि तेनैव तदाऽयं पूर्वदिसंबन्धोऽयं चापरदिक्संबन्ध इत्यादि विभागो न स्यात् एकस्वरूपत्वात्, विभागाभावे च षड्दिसंबन्धवचनमुपप्लवत् एव, अथाऽपरो विकल्प: कल्प्यते तर्हि तस्य षट्स्वरूपाऽऽपत्त्या एकत्वं विशीर्यते, उक्तंच-'दिग्भागभेदो यस्याऽस्ति तस्यैकत्वं नयुज्यत' इति। अत्र प्रतिविधीयते-इह परमाणुद्रव्यमादिमध्याऽन्त्यादिविभागरहित निरंशमेकस्वरूपपमिष्यते अत: सांशवस्तुसंभवित्वात्परोक्तं विकल्पद्वयं निरास्पदमेव, अथानभ्युपगम्यमानाऽपि परमाणो: सांशता अनन्तरोक्तविकल्पबलेनापाद्यते, ननुभवन्तोऽपि तर्हि प्रष्टव्या:-क्वचिद्विसंज्ञानसंताने विक्षितः कश्चिद्विज्ञानलक्षण-क्षण: स्वजनकपूर्व-क्षणस्य कार्य स्वजन्योत्तरक्षणस्य कारणमित्यत्र सौगतानां तावदविप्रतिपत्ति: तत्रेहापि विचार्यते-किमसौ येन स्वरूपेण पूर्वक्षणस्य कार्यं तेनैवोत्तरक्षणस्य कारणम; उत स्वरूपान्तरेण ? यद्याद्य: पक्षस्तर्हि यथा पूर्वापेक्षयाऽसौ कार्य तथोत्तरापेक्षयापि स्यात् यथा वा उत्तराऽपेक्षया कारणं तथा पूर्वापेक्षयापि स्याद, एकस्वरूपत्वात्तस्येति, अथ द्वितीय: पक्षस्तर्हि तस्य सांशत्वप्रसङ्गोऽत्राऽपि दुर्वार: स्याद् अथ निरंश एदासौ ज्ञानलक्षणक्षणोऽकार्याकारणरूप: तत्तद्वस्तुव्यापृतत्वात्। तथा तथा व्यपदिश्यते, न पुनस्तस्यानेकस्वरूपत्वमस्ति, नन्वस्माकमपि नेदमुत्तरमतिदुर्लभं स्यात्, यतो द्रव्यतया निरंशवपरमाणुस्तथाविधाऽ-चिन्त्यपरिणामत्वाद् द्विकषट्केन सह नैरन्तर्येणावस्थितत्वात्तस्य स्पर्शकमुच्यते, न पुनस्तत्रांशैः काचित् स्पर्शना समस्तीति, अत्र बहुवक्तव्यं; तत्तु नोच्यते स्थानान्तरेषु चर्चितत्वादिति। अलं विस्तरेणा उक्त स्पर्शना-द्वारम्। इदानीं कालद्वारं विभणिषुराहणेगमववहाराणं आणुपुटिवदवाई कालओ के वचिरं होइ? एगं दवं पडुच जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणादव्वाइं पडुब णिअमा सव्वऽद्वा अणाणुपुविदवाइं अवत्तटवगदट्वाइंच एवं चेव भाणिअप्वाइं। (सूत्र-८५) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि कालत:- कालमाश्रित्य कियचिरंकियन्तं कालं भवन्ति आनुपूर्वीत्वपर्यायेणाव-तिष्ठन्ते? अत्रोत्तरम-'एगं दव्वमि' त्यादि, इयमत्र भावना- परमाणुद्वयादेरपरैकादिपरमाणुमीलने अपूर्व किं-चिदानुपूर्वीद्रव्यं समुत्पन्नम्, तत: समयादूचं पुनरप्येकाद्यणौ वियुक्तऽपगत- स्तद्भाव इत्येकमानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य-जघन्यत: समय:अव- स्थितिकाल:, यदा तु तदेवासंख्यातं कालं सद्भावेन स्थित्वाऽनन्तरोक्तस्वरूपेण वियुज्यते तदा उत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽवस्थितिकाल: प्राप्यते, अनन्तं कालं पुनर्नावतिष्ठते उत्कृष्टाया अपि पुद्गलसंयोगस्थितेरसंख्येयकालत्वत्वादिति। नानाद्रव्याणि बहूनि पुनरानुपूर्वीद्रव्याण्यधिकृत्य सर्वाऽद्धास्थितिर्भवति, नाऽस्तिस: कश्चित्कालो यत्रानुपूर्वीद्रव्यविरहितोऽयं लोक: स्यादिति भावः / अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वपि जघन्यादिभेद-भिन्न एतावानेवावस्थितिकाल:, तथाहि-कश्चित्परमागुरेकं समयमेकाकीभूत्वा तत: परमाण्वादिना अन्येन सह संयुज्यत इत्थमेकमनानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जधन्यत: समय:- अवस्थितिकाल:, यदा तु स एवावसंख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा अन्येन परमाण्वादिना सह संयुज्यते तत उत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽव-स्थितिकाल: संप्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षस्तु पूर्ववदेव भावनीय: / अवक्तव्यकद्रव्यमपि परमाणुद्वयलक्षणं यदा समयमेकं संयुक्तं स्थित्वा ततो वियुज्यते तदवस्थमेव वाऽन्येन परमाण्वादिना संयुज्यते तदा तस्याऽवक्तव्यकद्रव्यतया जघन्यत: समयोऽ-वस्थानं लभ्यते, यदा तूतदेवाऽसंख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा विघटते तदवस्थमेव वाऽ(चा)न्येन परमाण्यादिना संयुज्यते तदोत्कृष्टत: अवक्तव्यकद्रव्यतया असंख्यातं कालमवस्थानं प्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षस्तु तथैव भावनीय इति। उक्तं कालद्वारम / अथाऽन्तरद्वारं प्रतिपिपादयिषुराहणे गमववहाराणं आणु पुटिवदवाणं अंतरं कालओं के वचिरं होइ? एगं दवं पडुच जहण्णे णं एगं समयं Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 154 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादव्वाइं पडुन णऽत्थि अंतरं। णेगमववहाराणां अणाणुपुथ्वीदव्वाणं अन्तरं कालओ केवचिरं होइ? एगं दट्वं पडुच जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादवाइं पड़च णऽत्थि अन्तरं। णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाणं अन्तरं कालओ केवचिरं होइ? एगं दव्वं पडुच जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं / नाणादवाई पडुच्च णऽत्थि अंतरं / (सूत्र-८६) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालत: कियच्चिरं भवतीति प्रश्न: अन्तरम् - व्यवधानं, तच क्षेत्रतोऽपि भवति, यथा भूतलसूर्ययोरष्टौ योजनशतान्यन्तरमित्यतस्तद्व्यवच्छे दार्थ मुक्त कालत:कालमाश्रित्य, तदयमत्रार्थ:-आनुपूर्वीद्रव्याण्या- नुपूर्वीस्वरूपतां परित्यज्य कियता कालेन तान्येव पुनस्तथा भवन्ति; आनुपूर्वीत्वपरित्याग-पुनर्लाभयोरन्तरे कियान् कालो भवतीत्यर्थः / अत्र निर्वचनम् - 'एग दव्वमि' त्यादि, इयमत्र भावना-इह विवक्षितंत्र्यणुकस्कन्धादिकं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं विश्रसापरिणामात्प्रयोगपरिणामाद्वा खण्डशो वियुज्य परि-त्यक्तानुपूर्वीभावं संजातं एकस्माच समयादूर्द्धवं विश्रसादिपरिणामात्पुनस्तैरेव परमाणुभिस्तथैव तन्निष्पन्नामित्येवं जघन्यत: सर्वस्तोकतया एकं द्रव्यमाश्रित्याऽऽनुपूर्वीत्वपरित्या- गपुनर्लाभयोरन्तरे समय: प्राप्यते, उत्कृष्टत: सर्वबहुतया पुनरन्तरमनन्तं कालं भवति, तथाहि-तदेव विवक्षितं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं तथैव भिन्न भित्त्वा च ते परमाणवोऽन्येषु परमाणुव्यणुकत्र्यणुकादिषु अनन्ताणुस्कन्धपर्यन्तेषु अनंतस्थाने पूत्कृष्टान्तराधिकारादसकृत्प्रतिस्थानमुत्कृष्ट स्थितिमनुभवन्त: पर्यटन्ति, कृत्वा चेत्थं पर्यटनं कालस्यानन्तत्वाद्विश्रसादिपरिणामतो यदा तैरेव परमाणुभिस्तदेव विवक्षितमानुपूर्वीद्रव्यं निष्पद्यते, तदाऽनन्त उत्कृष्टान्तरकाल: प्राप्यते, नानाद्रव्याण्यधिकृत्य पुनर्नाऽस्त्यन्तरम, नहि स कश्चित्कालोऽस्ति यत्र सर्वाण्यप्यानुपूर्वीद्रव्याणि युगपदानुपूर्वीभावं परित्यजन्ति अनन्तानन्तैरानुपूर्वीद्रव्यैः सर्वदैव लोकस्याऽशून्यत्वादिति भावः / अनानुपूर्वीद्रव्यान्तरकालचिन्तायाम्- 'एग दव्यं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समय' ति-इह यदा किंचिदनानुपूर्वीद्रव्यं परमाणुलक्षणमन्येन परमाणुव्यणुकत्र्यणुकादिना केनचित् द्रव्येण सह संयुज्य समयादूर्ध्व वियुज्य पुनरपितथा स्वरूपमेव भवति तदा समयलक्षणो जघन्यान्तरकाल: प्राप्यते, 'उक्कासेणं असंखेज कालं' ति-तदेवाऽनानुपूर्वीद्रव्यं यदा अन्येन परमाणुढ्यणुकत्र्यणुकादिना केनचिद् द्रव्येण सह संयुज्यते तत् संयुक्तं चाऽसंख्येय कालं स्थित्वा वियुज्य पुनस्तथास्वरूपमेव भवति तदा असंख्यात उत्कृष्टान्तरकालो लभ्यते / अत्राह-ननु अनानुपूर्वीद्रव्यं यदा अनन्ताऽनन्तपरमाणु- प्रचितस्कन्धेन सह संयुज्युते, तत्संयुक्तं चासंख्येयं कालमवतिष्ठते ततोऽसौ स्कन्ध उद्भिद्यते भिन्ने च तस्मिन् यस्तस्माल्लघुस्कन्धो भवति तेनापि सह संयुक्तमसंख्यातं कालभवतिष्ठते पुनस्त-स्मिन्नपि भिद्यमाने य: तस्माल्लघुतर: स्कन्धो भवति तेनापि संयुक्तमसंख्येयकालमवतिष्ठते पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने यस्तस्माल्लघुतमः स्कन्धो भवति तेनापि संयुक्तमसख्येयं कालमवतिष्ठते इत्येवंतत्र भिद्यमाने क्रमेण कदाचिदनन्ता अपि स्कन्धा: संभाव्यन्ते, तत्र च प्रतिस्कन्धसंयुक्तमनानुपूर्वीद्रव्यं यदा यथोक्तां स्थितिमनुभूय तत एकाक्येव भवति तदा तस्य यथोक्तानन्तस्कन्धस्थित्यपेक्षया अनन्तोऽपि कालोऽन्तरे प्राप्यते, किमित्यसंख्येय एवोक्त:, अत्रोच्येतस्यादेवं, हन्त यदि संयुक्तोऽणुरेतावन्तं कालं तिष्ठेदेतच्च नास्ति, पुद्रलसंयोगस्थिते-रुत्कृष्टतोऽप्यसंख्येयकालत्वादित्युक्तमेव, अथ ब्रूयात-यस्मि- न्नेव स्कन्ध संयुज्यते असौ परमाणु:सचेत्स्कन्ध: असंख्येय-कालाद्भिद्यतेतर्खेतावतैव चरितार्थ: पुद्रलसंयोगाऽसंख्येय- कालनियमो, विवक्षितपरमाणुद्रव्यस्यतु वियोगो मा भूदपीति नैतदेवं, यस्या अन्येन संयोगो जातस्तस्यासंख्येयकालाद्वियोगश्चिन्त्यते, यदि च परमाण्वाश्रय: स्कन्धो वियुज्यतेतर्हि परमाणो: किमायांत ? तस्यान्संयोगस्य तदवस्थत्वात, तस्मादणुत्वेनासौ संयुक्तोऽसंख्येयकालादणुत्वेनैव वियोजनीय इति यथोक्तएवान्तरकालो नत्वनन्त इति, कथं पुनरणुत्वेनैव तस्य वियोगाश्चिन्तनीय इति चेत् सूत्रप्रामाण्यात्, प्रस्तुतसूत्रे व्याख्याप्रज्ञप्त्यादिषु च परमाणो: पुन: परमाणुभवने संख्येयरूपस्यैवान्तरकालस्योक्तत्वाद् इत्यलं विस्तरेण / 'नाणादवाइं पडुचे' त्यादि, पूर्ववद्भावनीयम् / अवक्तव्यकद्रव्याणामन्तरचिन्तायाम् 'एगं दव्वं पडुचे त्यादि / अत्र भावना-इह कश्चिद द्विप्रदेशिक: स्कन्धो विघटित: स्वतंत्र परमाणुद्वयं जातं, समयं चैकं तथा स्थित्वा पुनस्ताभ्यामेव परमाणुभ्यां द्विप्रदेशिक: स्कन्धो निष्पन्नः, अथवा- विघटित एव द्विप्रदेशिक: स्कन्धोऽन्येन परमाण्वादिना संयुज्य समयादूयं पुनस्तथैव वियुक्त इत्यवक्तव्यकस्य पुनरप्यवक्तव्यकभवने उभयथाऽपि समयोऽन्तरे लभ्यते,'उक्कोसेणं अणंतं कालं' इति कथम् ? अत्रोच्यते-अवक्तव्यकद्रव्यं किमापि विघटितं विशकलितपरमाणुद्वयं जातं तचानन्तैः परमाणुभिरनन्तै व्यणुकस्कन्धैरनन्तैस्त्र्यणुकस्कन्धैर्यावदनन्तैरनन्ताणुकस्कन्धैः सह क्रमेण संयोगमासाद्य उत्कृष्टान्तराधिकारच प्रतिस्थानमसकृदुत्कृष्टां संयोगस्थितिमनुभूय कालस्यानन्तत्वात् यदा पुनरपि तथैव व्यणुकस्कन्धतया संयुज्यते तदा अवक्तव्यकैकद्रव्यस्य पुनस्तथाभवने अनन्तोऽन्तरकाल: प्राप्यते नानाद्रव्यपक्ष-भावनालोकेसर्वदेवतद्भावात् पूर्ववद्वक्तव्याः उक्तमन्तरद्वारम। साम्प्रतं भागद्वारं निर्दिदिक्षुराहणेगमववहाराणं आणुपुटिवदवाई सेसदव्वाणं कति भागे होज्जा ? किं संखिज्जइ भागे होज्जा असंखिज्जइ भागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? नोसंखिज्जइ भागे होज्जानो असंखिज्जइभागे होज्जा नोसंखेज्जेसु भागेसुहोज्जा, नियमाअसंखेज्जेसुभागेसुहोज्जा। गमववहाराणं अणाणुपुग्विदवाई सेसदवाणं कति भागे होज्जा? किं संखिज्जइ भागे होज्जा असंखिज्जइ भागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु मागेसु होज्जा ? वो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 155 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आणुपुव्वी संखेज्जइ भागे होज्जा नो असंखिज्जइ भागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागे होज्जा / एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि माणिअव्वाणि। (सूत्र-८७) नैगमव्यवहारयोस्त्र्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्ध- पर्यन्तानि सर्वाण्यप्यानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां समस्तानानुपूर्यवक्तव्यकद्रव्यलक्षणानां 'कति भागे होज्ज' त्ति-कति भागे भवन्तीत्यर्थः, किं संख्याततमभागे भवन्ति, यथा असत्कल्पनया शतस्य विंशतिमिता: किमसंख्याततमे भागे भवन्ति ? यथा शतस्यैव दश, अथ संख्यातेषु भागेषु भवन्ति? यथा शतस्यैव चत्वारिंशत्षष्टिा, किमसंख्यातेषु भागेषु भवन्ति ? यथा शतस्यैवाशीतिरिति प्रश्न: अत्रनिर्वचनम् '-नो संखेज्जइभागे होज्जा' इत्यादि, नियमात् 'असंखेज्जेसु भागेसु होज्ज' त्ति-इह तृतीयार्थे सप्तमी, ततश्चानुपूर्वीद्रव्याणि शेषेभ्योऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येभ्योसंख्येयै गैरधिकानि, भवन्तीनि वाक्यशेषो द्रष्टव्य: ततश्चायमर्थः प्रतिपत्तव्य:-आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्येभ्योऽसंख्येयगुणानि, शेषद्रव्याणि तु तदसंख्येयभागे वर्तन्ते, न पुनः शतस्याशीतिरिवानुपूर्वीद्रव्याणि शेषेभ्य: स्तोकानीति कस्मादेवं ? व्याख्याते- स्तोकान्यपि तानि भवन्त्विति चेत् नैतदेवम, अघटमानकत्वात् , तथाहि- अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येषु एकाकिन परमाणुपुद्गला व्यणुकाश्च स्कन्धा इत्येतावन्त्येव द्रव्याणि लभ्यन्ते, शेषाणि तु त्र्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि द्रव्याणि समस्ता-न्यप्यानुपूर्वीरूपाण्येव तानि च पूर्वेभ्योऽसंख्येयगुणानि, यदुक्तम्-"एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखिज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्गला अणंतगुणा, संखिज्जपएसिया खंधा संखिज्जगुणा असंखेज्जपएसिया खंधा असंखेज्जगुणा'' तदर्थ सूत्रे पुगलजाते; सर्वस्यापि सकाशादसंख्यातप्रदेशिका: स्कन्धा असंख्यातगुणा उक्तास्ते चानुपूर्व्यामन्तर्भवन्ति, अत: तदपेक्षया आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषात्समस्तादपि द्रव्यादसंख्यातगुणानि, किं पुनरनानुपूर्य-वक्तव्यकद्रव्यमात्रात्, ततो यथोक्तमेव व्याख्यान कर्तव्यमित्यलं विस्तेरण। 'अणाणुपुव्विदव्वाइमि' त्यादि। इहानानुपूर्वीद्रव्या-ण्यवक्तव्यकद्रव्याणि च शेषद्रव्याणां यथा असंख्याततम एवं भागे भवन्ति, नशेषभागेषु तथा अनन्तरोक्तन्यायादेव भावनीयमिति / उक्तं भागद्वारम। साम्प्रतंभावद्वारमाहणेगमववहाराणं आणुपुग्विदवाइं कतरंमि भावे होज्जा? किं उदइए भावे होज्जा उवसमिए भावे होज्जा खइए भावे होज्जा खओवसमिए भावे होज्जा पारिणामिए भावे होज्जासंनिवाइए भावे होज्जा? णिअमा सादिपारि- णामिए भावे होज्जा, अणाणुपुटिवदव्वाणि, अवत्तव- गदवाणि अ; एवं चेव भाणिअव्वाणि (सूत्र-८८) 'नेगमववहराणमि' त्यादि प्रश्नः, अत्र चौदयिकादिभावानां शब्दार्थो भावार्थश्च विस्तरेणोपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्यते, अत्र निर्वचनसूत्रे नियमा 'साइपारिणामिए भावे होज्जत्ति-परिणमनं-द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण वर्तन- भवनं परिणाम:, स एव पारिणामिकः तत्र भवस्तेन वा निवृत्त इति वा पारिणामिकः, स च द्विविध:-सादिः, अनादिश्वा तत्र धर्मास्तिकायाद्यरूपिद्रव्याणामनादिपरिणामोऽनादिकालत्तद्रव्यत्वेन तेषां परिणतत्वाद, रूपिद्रव्याणां तु सादि: परिणाम: अभ्रेन्द्रधनुरादीनां तथा परिणतेरनादित्वाभावाद्, एवं च स्थिते नियमाद् अवश्यंतया आनुपूर्वीद्रव्याणि सादिपारिणामिक एव भावे भवन्ति, आनुपूर्वीत्वपरिणतेरनादित्वासंभवात, विशिष्टैकपरिणामेन पुद्गलानामसंख्येयकालमेवावस्थानादिति भावः / अनानु-पूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वपीत्थमेव भावना कार्या इति। उक्तं भाव-द्वारम। इदानीमल्पबहुत्वदारं विभणिषुराहएएसिं णं मंते ! णेगमववहाराणं आणुपुटवीदवाणं अणाणुपुव्विदव्वाणं अवत्तव्वगदव्वाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्ठयाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिआवा? गोयमा! सवत्थो-वाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं दवट्ठयाए अणा- गुपुटिवदव्वाइं दवट्ठयाए विसेसाहियाई आणुपुट्विदव्वाई दवट्ठयाए असंखेज्जगुणाई पएसठ्ठयाए णेगमववहाराणं सव्वत्थोवाइं अणाणुपुटिवदव्वाई अपएसट्टयाए अवत्त- व्वगदप्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहिआई आणुपुटिवदव्वाइं पएसट्टयाए अणंतगुणाई दवठ्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवाइं णेगमववहाराणं अत्तव्वगदवाई दवट्ठयाए अणाणुपुवि- दवाई दवट्ठयाए अपएसट्ठयाए विसेसाहियाई अवत्तव्व- गदव्वाईपएसट्ठयाए विसेसाहियाइं आणुपुटिवदव्वाई दवट्ठयाए असंखेज्जगुणाई ताई चेव पएसट्टयाए अनंतगुणाई। सेत्तं (तं) अणुगमे / सेत्तं (तं) णेगमववहाराणं अणोवणिहिआ दव्वाणुपुथ्वी। (सूत्र-८९) द्रव्यमेवाओं द्रव्यार्थस्तस्य भावो द्रव्यार्थता तया; द्रव्यत्वेन इत्यर्थ:, प्रकृष्टो- निरंशो देश: प्रदेश: स चासावर्थश्व प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता तया, परमाणुत्वेनेति भावः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया तु यथोक्तोभयरूपतयेति भाव:, तदयमर्थः एतेषां आनुपूर्व्या-दिद्रव्याणां मध्ये 'कयरे-कयरेहिंतो' त्ति-कतराणि कान्याश्रित्य द्रव्यापेक्षया प्रदेशापेक्षया उभयापेक्षया वाऽल्पानि। विशेषहीन-त्यादिना बहूनि असंख्येयगुणत्वादिना तुल्यानि समसंख्यत्वेन विशेषाधिकानि किंचिदाधिक्येनेति वाशब्दा: पक्षान्तरवृत्ति-द्योतकाः, इति पृष्टे वाच: क्रमवर्तित्वाद् द्रव्यार्थतापेक्षया तावदुत्तर-मुच्यते, तत्र 'सव्वत्थोवाई नेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई दवट्ठयाए' त्तिनैगमव्यवहारयोः द्रव्यार्थतामपेक्ष्यतावद-वक्तव्यकद्रव्याणिसर्वेभ्योऽन्येभ्य:स्तोकानिसर्वस्तो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुवी 156 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुर्वी कानि अनानुपूर्वीद्रव्याणितुद्रव्यार्थतामेवापेक्ष्य विशेषाधिकानि कथम् ? "अणाणुपुटिवदवाई दव्वट्ठयाए" इत्यादि यदुक्तम्-अपएसठ्ठयाए' त्तिवस्तुस्थितिस्वभावात्, उक्तं च-"एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं तदात्मव्यतिरिक्त-प्रदेशान्तराभावतोऽनानुपूर्वीद्रव्याणामप्रदेशिकदुपएसियाणं खंधाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा.? गोयमा ! त्वादिति मन्त-व्यम्। ततश्चेदमुक्तं भवति-द्रव्यार्थतया अप्रदेशार्थतयाच दुपएसिएहिंतो खंधेहिंतो परमाणुपोग्गला बहुग" "त्ति-तेभ्योऽपि विशिष्टान्यनानुपूर्वीद्रव्याण्यवक्तव्यकद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानिशेषभावना आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थ-तयैवासंख्येयगुणानि, यतोऽनानुपूर्वीद्रव्येष्वेव तू प्रत्येकचिन्तावत्सर्वा कार्या / आह-यद्येवं प्रत्येकचिन्तायामेव वक्तव्यकद्रव्येषु च परमाणुलक्षणं व्यणुकस्कन्धलक्षणं चैकैकमेव स्थानं प्रस्तुतोऽर्थ सिद्धः किमनयोभयार्थता-चिन्तयेति चेत्, नैवम, यत लभ्यते, आनुपूर्वीद्रव्येषु तु त्र्यणुकस्कन्धादीन्येकोत्तरवृद्ध्यानन्ताणुक आनुपूर्वीद्रव्येभ्यस्तत्प्रदेशा: किय-ताप्यधिका इति प्रत्येकचिन्तायां न स्कन्धपर्यन्तान्यनन्तानिस्थानानि प्राप्यन्ते, अत:स्थान-बहुत्वादानु- निश्चतम् अत्र तु-'ताई चेव पएसट्टयाए अणंतगुणाई" इत्यनेन पूर्वीद्रव्याणि पूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणानि। ननु यदि तेषु स्थानान्यनन्तानि तन्निर्णीतमेव ततो-ऽनवगतार्थप्रतिपादनार्थत्वात्प्रत्येकावस्थातो तानन्तगुणानि पूर्वेभ्यस्तानि कस्मान्न भवन्तीति चेत, नैवम्, भिन्नैवोभया- वस्था वस्तूनामिति दर्शनार्थत्वाच युक्तमेवोभयार्थयतोऽनन्ताणुकस्कन्धा: केवलानानुपूर्वीद्रव्योभ्योऽप्यनन्तभागवर्तित्वात् ताचिन्तन-मित्यदोषः / तदेवमुक्तो नवविधोऽप्यनुगम इतिनिगमयति। स्वभावादेव स्तोका इति न किंचित्तैरिह वर्धयते अतोवस्तुवृत्त्या 'सेतं अणुगमे त्ति। तद्भणनेच समर्थिता नैगमव्यवहारयोरनौप-निधिकी किलासंख्यातान्येव तेषु स्थानानिप्राप्यन्ते तदपेक्षयात्वसंख्यातगुणा- द्रव्यानुपूर्वी इति निगमयति / 'से तं नेगमे' त्यादि, व्याख्याता न्येव तानिएतय पूर्वभागद्वारे लिखितप्रज्ञापनासूत्रात्सर्व भावनीयमित्यलं नैगमव्यवहारनयमतेन अनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी। विस्तरेण। उक्तं द्रवयार्थतया अल्पबहुत्वम् , इदानी प्रदेशार्थतया (1) साम्प्रतं संग्रहनयमतेन तामेव व्याचिख्यासुराहतदेवाह- 'पएसट्टयाए सव्वथोवाइं नेगमववहाराणमि' त्यादि, से किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ दवाणुपुष्वी ? संगहस्स नैगमव्यवहारयो: प्रदेशार्थतया अल्पबहुत्वे चिन्त्यमाने अनानुपूर्वीद्रव्याणि अणोवणिहिआ दवाणुपुटवी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहासर्वेभ्य: स्तोकानि कुत इत्याह- 'अपएसट्ठयाए' त्ति-प्रदेशलक्षण अकृपयपरूवणयार, भंगसमुक्कित्तणया 2, मंगोवदंसणया 3, स्यार्थस्य तेष्वभावादित्यर्थः, यदि हि तेषु प्रदेशा: स्युस्तदा द्रव्यार्थता समोआरे४, अणुगमे। (सूत्र 90) यामिव प्रदेशार्थता- यामप्यवक्तव्यकापेक्षयाधिकत्वं स्यात्, नचैतदस्ति सामान्यमात्रसंग्रहणशील: संग्रहो नयः, अथ तस्य संग्रहन-यस्य किं "परमाणुरप्रदेश" इति वचनाद् अत: सर्वस्तोकान्येतानि ननु यदि तद्वस्त्वनौपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वीति प्रश्न:, आहननु"नेगमसंगहववहारे'' प्रदेशार्थता तेषु नास्ति तर्हि तया विचाराऽपि तेषां न युक्त इति चेत्, न, त्यादिसूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगमानन्तरं संग्रहस्योपन्यासो युक्त:, तत्किमिति एतदेवम्-प्रकष्ट:- सर्वसूक्ष्म: पुद्गलास्तिकायस्य देशो-निरंशो भाग: व्यवहारमपि निर्दिश्य ततोऽमुच्यत इति, सत्यम्, किं तु नैगमव्यवहाप्रदेश व्युत्पत्ते: प्रतिपरमाणुप्रदेशार्थता- भ्युपगम्यत एव आत्मव्यतिरिक्त रयोरत्र तुल्य-मतत्वाल्लाघवार्थं युगपत्तनिदेशं कृत्वा पश्चात्संग्रहोनिर्दिष्ट प्रदेशान्तरापेक्षया त्वप्रदेशा-र्थतेत्यदोषः, अवक्तव्यकद्रव्याणि इत्यदोषः, अत्र निर्वचनमाह-'संगहस्स अणोव-णिहिया दव्याणुपुव्वी प्रदेशार्थतयाऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानि यत: किलासत्कल्पनया पंचविहा पणत्त' त्ति-संग्रहनयमतेनाप्यनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी अवक्तव्यकद्रव्याणां षष्टिः अनानुपूर्वीद्रव्याणां तु शतम्, ततो प्राक्प्ररूपितशब्दार्था पञ्चभिरर्थपद-प्ररूपणतादिभिः प्रकारैर्विचार्यद्रव्यार्थताविचारे एतानीतरापेक्षया विशेषाधिकान्युक्तानि, अत्र तु माणत्वात् पञ्चविधाञ्चप्रकारा प्रज्ञप्ता तदेव दर्शयति-'तं जहे' त्यादि, प्रदेशार्थताविचारे अनानुपूर्वीद्रव्याणां निष्प्रदेशत्वात्तदेव शतमवस्थितम् अत्रव्याख्या पूर्ववदेव। अवक्तव्यकद्रव्याणां त्विह प्रत्येकं द्विप्रदेशत्वाद् द्विगुणितानां विंशत्युत्तरं प्रदेशशतं जायते इति तेषामितरेभ्य: प्रदेशार्थतया विशेषाधिकत्वं से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहस्स भावनीयम् / आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया अवक्तव्यकद्रव्ये अट्ठपयपरूवणया तिपएसिए आणुपुथ्वी चउप्पएसिए आणुपुथ्वी भ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति, कथम् ? यतो द्रव्यार्थतयापि तावदेतानि जाव दसपएसिए आणुपुथ्वी संखिज्जपएसिए आणपुर्वी पूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणान्युक्तानि यदा तु संख्यातप्रदेशिकस्कन्धा असंखिज्जपएसिए आणुपुटवी अणंतपएसिए आणुपुटवी नामसंख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामनन्ताणुकस्कन्धानां च सम्बन्धिन: परमाणुपुग्गले अणाणुपुथ्वी, दुपएसिए अवत्त-व्वए। सेत्त (तं) सर्वेऽपि प्रदेशा विवक्ष्यन्ते तदा महानसौ राशिर्भवतीति प्रदेशार्थत संगहस्स अपयपरूवणया। (सूत्र-९१) याऽमीषां पूर्वेभ्योऽनन्तगुणत्वं भावनीयम्। उक्तं प्रदेशार्थतयाऽल्प- यावत "तिपएसिए आणुपुव्वी' इत्यादि-इह पूर्वमेक-स्त्रिप्रदेशिक बहुत्वम। इदानीमुभयार्थतामाश्रित्य तदाह-'दव्वट्ठपएसट्टयाए' इत्यादि आनुपूर्वी अनेके त्रिप्रदेशिका आनुपुर्व्य इत्याद्युक्तम, अत्र तु संग्रहस्य इहोभयार्थताधिकारेऽपि यदेवाल्पंतदेवाऽऽदौदर्श्यते-अवक्तव्यकद्रव्याणि सामन्यवादित्वात्सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिका एकैवानुपूर्वी इमां चात्र च सर्वाऽल्पानि इति प्रथममेवोक्तम्, 'सव्वत्थोवाइं नेगमववहाराणं युक्तिमयमभिधत्ते त्रिप्रदेशिका: स्कन्धास्त्रिप्रदेशिकत्वसामान्यान्य-तिरेकिण:, अवत्तव्वगदव्वाई दवट्ठयाए' त्ति- अपरं चोभयार्थताधिकारेऽपि- | अव्यतिरेकिणो वा ? यद्याद्य: पक्षस्तर्हि ते त्रिप्रदेशिका: स्कन्धा: त्रिप्रदेशिका Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 157 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आणुपुव्वी एव न भवन्ति, तत्सामान्यव्यतिरिक्तत्वात, द्विप्रदेशिकादिवा-दिति / य, अणाणुपुटवी य, अहवा-तिपएसिया य दुपएसिया अ अथ चरम: पक्षस्तर्हि सामान्यमेव ते तदव्यतिरे-कात्तत्स्वरूपवत्सामान्य आणुपुष्वीय अवक्तव्वए य, अहवा-परमाणुपोग्गलाअदुपएसिया चैकस्वरूपमेवेति सर्वेऽपि त्रि-प्रदेशिका एकै वानुपूर्वी एवं चतु: य अणाणुपुटवी य अवत्तटवए य, अहवा-तिपएसिया य प्रदेशिकत्वसामा-न्याऽव्यतिरेकात्सर्वेऽपि चतुःप्रदेशिका एकैवानुपूर्वी एवं परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य आणुपुथ्वी य अणाणुपुथ्वी य यावदनन्तप्रदेशिकत्वसामान्याऽात्तिरेकात्सर्वेऽप्यनन्त-प्रदेशिका अवत्तवए या सेत्तं संगहस्स मंगोवदसणाया। (सूत्र-९३) एवैचानुपूर्वी इत्यविशुद्धसंग्रहनयमतं विशुद्धसंग्रह- नयमतेन तु सर्वेषां अत्राऽपि सप्त भङ्गास्त एवाऽर्थकथनपुरस्सरा भावनीया:, भावार्थस्तु त्रिप्रदेशिकादीनामनन्ताणुकपर्यन्तानांस्कन्धानामानुपूर्वीत्वसामान्या सर्व: पूर्ववत्, 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। व्यतिरेकाद् व्यतिरिक्त चानु-पूर्वीत्वाभावप्रसङ्गात्सर्वाऽप्ये - अथ समवताराऽभिधित्सया प्राऽऽहकै वानुपूर्वीति / एवमनानु-पूर्वीत्वसामान्याव्यतिरेकात्सर्वेऽपि से किं तं संगहस्ससमोआरे? संगहस्स समोआरे संगह-स्स परमाणुपुद्गला एकैवानानुपूर्वी तथा अवक्तव्यकत्वसामान्यव्यति आणुपुटिवदवाई कर्हि समोयरंति ? किं आणुपुटिवदम्वेहिं रेकात्सर्वेऽपि द्विप्रदेशिकस्कन्धा एकमेवावक्तव्यकमिति सामान्यावा समोयरंति ?अणाणुपुटिवदध्वेहिं समोयरंति ? अवत्तव्वगदव्वेहिं दित्वेन सर्वत्र बहुवचनाभाव: / सेत्तमि' त्यादि, निगमनम्। समोयरंति ? संगहस्स आणुपुटिवदवाई आणुपुटिवदव्वेहि भङ्गसमुत्कीर्तनतां निर्दिदिक्षुराह समोयरन्ति, णो अणाणु पुटिवदवे हिं समोयरंति, णो एआए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए किं पओअणं ? एआए अवत्तव्यगदम्वेहिं समोय-रंति, एवं दोण्णि वि सहाणे सहाणे णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणायाए संगहस्स भंग-समुक्कित्तणया समोयरंति। सेत्तं (तं) समोयारे। (सूत्र 94) कज्जइ / से किं तं संगहस्स भंग-समुक्कित्तणया ? संगहस्स 'से किं तं संगहस्स समोयारे' इत्यादि / इदं च द्वारं पूर्ववन्निखिलं भंगसमुक्कित्तणया अत्थि आणुपुटवी ? अत्थि अणाणुपुथ्वीर, भावनीयम्। अस्थि अवत्तय्वए३, अहवा-अत्थि आणुपुथ्वी अ, अणाणुपुथ्वी अ४, अहवा अत्थि आणुपुथ्वीअ, अवत्तव्वए अ५, अहवा-अस्थि अथाऽनुगमं व्याचिख्यासुराहअणाणुपुटवी अ, अवत्तव्वए अ६, अहवा-अत्थि आणुपुय्वी अ, से किं तं अणुगमे ? अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहाअणाणुपुटवी अ अवत्तव्वए अ७, एवं सत्तभंगा। सेत्तं संगहस्स संतपयपरूवणया 1, भंगसमुक्कित्तणया। एआए णं संगहस्स भङ्ग-समुक्कित्तणयाए दप्वपमाणं च 2, खित्त३, फुसणा य 4 किं पओअणं? एआए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए / कालो य५ अंतर 6 भाग संगहस्स भंगोवदंसणया कीरइ / (सूत्र 92) 7 भावे 8 अप्पाबहुं णऽस्थि / / 1+11' 'एयाए णमि' त्यादि अत्रापि व्याख्या कृतैव दृष्टव्या यावत् 'अस्थि 'से किं तं अणुगमे' ति-अत्रोत्तरम् 'अणुगमे अडविहे पन्नत्ते' इति पूर्व आणुपुथ्वी' त्यादि इहैकवचनान्तास्त्रय, एव प्रत्येक्तभङ्गाः, नवविध उक्तोऽत्र त्वष्टविध एव, अल्पबहुत्वद्वारा- भावात्तदेवाष्टविधत्वं सामान्यवादित्वेन व्यक्तिबहुत्वाभावतो बहुवचनाभावाद् आनुपूर्व्यादिप दर्शयति-तद्यथेत्युपदर्शनार्थ:' संतपयगाहा' इयं पूर्व व्याख्यातैव नवरम् दत्रयस्य च त्रयो द्विकयोगा भवन्ति एकैकस्मिँश्च द्विकयोगे एकवचनान्त 'अप्पाबहुं नऽस्थि' संग्रहस्य सामान्यवादित्वासामान्यस्य च एक एव भङ्गः, त्रिकयोगेऽपि एक एवैक-वचनान्त इति, सर्वेऽपि सप्ता सर्वत्रैकत्वादल्पबहुत्वविचारोऽत्र नसंभवतीत्यर्थः / भङ्गा: संपद्यन्ते, शेषास्त्वेकोन-विंशतिर्बहुवचनसंभवित्वान्न भवन्तिा अत्र तत्र सत्पदप्ररूपणताभिधानार्थमाहस्थापना-आनुपूर्वी 1 अनानुपूर्वी 1, अवक्तव्यक१, इति त्रय प्रत्येकभङ्गाः, आनुपूर्वी 1, अनानुपूर्वी 1, इति प्रथमो द्विकयोग: आनुपूर्वी 1 अवक्तव्यक संगहस्स आणुपुटिवदवाइं किं अस्थि ? नत्थि ? 1, इति द्वितीयो द्विकयोग:। अनानुपूर्वी अवक्तव्यक इति तृतीयो नियमा अत्थि, एवं दोण्णि विx। द्विकयोग: / आनुपूर्वी 1, अनानुपूर्वी 1, अवक्तव्यक 1, इति त्रिकयोग:, 'संगहस्से' त्यादि, ननु संग्रहविचारे प्रक्रान्ते आनुपूर्वीएवमेते सप्त भङ्गाः 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। द्रव्याणि सन्तीत्यनुपपन्नम् आनुपूर्वीसामान्यस्यैवैकस्य ते नास्तिभङ्गोपदर्शनतां विभणिषुराह त्वाभ्युपगमात् सत्यं मुख्यरूपतया सामान्यमेवास्ति, गुणभूतं से किं तं संगहस्स भंगोवंदसणयार, संगहस्स भंगोवदंसणया च व्यवहारमात्रनिबन्धनं द्रव्यबाहुल्यमप्यसौ वदतीत्यदोष: शेषभावना तिपएसिया आणुपुथ्वी परमाणुपोग्गला अणाणुपुर्वी दुपएसिया पूर्वविदिति। अवत्तव्वए, अहवा-तिपएसिया अपरमाणुपोग्गलाय आणुपुथ्वी संगहस्स आणुपुग्विदव्वाइं किं संखेज्जाइं. असंखेज्जाइं, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 158 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुदी अणं ताई? नो संखिज्जाइं, नो असंखिज्जाइं, नो अणंताई। निअमा एगो रासी, एवं दोण्णि वि + द्रव्यप्रमाणद्वारे यदुक्तं नियमा 'एगो रासि' त्ति-अत्राह-ननु यदि संख्येयादिस्वरूपाण्येतानि न भवन्ति तर्केको राशिरित्यपि नोपपद्यते, द्रव्यबाहुल्ये सति तस्योपपद्यमानत्वाद्, व्रीह्यादिराशिषु तथैव दर्शनात, सत्यं किंत्वेकोराशिरितिवदत:कोऽभिप्राय: बहूनामपितेषामानुपूर्वत्विसामान्येनैकेन क्रोडीकृतत्वादेकत्वमेव, किं च यथा विशिष्टैकपरिणामपरिणते स्कन्धे तदारम्भकाऽवय-वानां बाहुल्येऽप्येकतैव मुख्या तद्वदवात्राऽऽपूर्वीद्रव्यबाहुल्येऽपि तत्सामान्यस्यैकरूपत्वादेकत्वमेव मुख्यमसौ नयः प्रतिपद्यते, तद्वशेनैव तेषामानुपूर्वीत्वसिद्धेः, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, तस्मान्मुख्यस्यैकत्वस्याऽनेन कक्षीकृतत्वात्संख्येयरूपतादि-निषेधो गुणभूतानि तू द्रव्याण्याश्रित्य राशिभावोऽपि न विरुध्यते, एवमन्यत्रापि भावनीयमित्यलं प्रपञ्चेन। संगहस्स आणुपुटिवदव्वाइं लोगस्स कइ भागे होज्जा ? किं संखेज्जइभागे होज्जा असंखेजइभागे होज्जा। संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा सवलोए होज्जा ? नो संखिज्जइभागे होज्जा नौ असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा णो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा; णिअमा सय्वलोए होज्जा, दोण्णि वि / संगहस्स आणुपुट्विदव्वाइं लोगस्स किं संकेज्जइभागं फुसंति असंखेज्जइभागं फुसति / संखेज्जे भागे फुसंति असंखेज्जे भागे फुसंति सव्वलोअं फुसंति, नो संखेज्जइमार्ग फुसंति नो असंखेज्जइभागं फुसंति। नो संखेज्जे भागे फुसंति, नो असंखेज्जे भागे फुसति / णिअमा सव्वलोगं फुसंति / एवं दोण्णि वि+1 "क्षेत्रद्वारे' नियमा सव्वलोए होज्ज' त्ति आनुपूर्वासामान्यस्यैकरूपत्वाद् सर्वलोकव्यापित्वाचेति भावनीयम, (एकत्वमेव मुख्यमसौ नयः प्रतिपद्यते तद्वशेनैव तेषामानुपूर्वीद्वाराण्येव) एवमितरद्वयेऽप्यन्यूह्यमिति स्पर्शनाद्वारमप्येवमेव चिन्तनीयमिति। संगहस्स आणुपुटिवदव्वाइं कालओ केवगिरं होन्ति ? णिअमा सव्वद्धा, एवं दोण्णि वि। संगहस्स आणुपुस्विदव्वाणं कालओ केवचिरं अंतर होइ? नऽत्थि अंतरं, एवं-अणाणूपुथ्वीदव्वाणं, अवत्तव्वगदव्वाण वि। कालद्वारेऽपि तत्सामान्यस्य सर्वदा अव्यवच्छिन्नत्वात् त्रयाणामपि सर्वाऽद्धावस्थानं भावनीयमिति, अत एवाऽन्तरद्वारे नास्त्यन्तरमित्युक्तं तद्भावव्यवच्छेदस्य कदाचिदप्यभावादिति। संगहस्स आणु पुटिवदवाई से सदव्वाणं कति भागे होज्जा? किं संखेज्जइ भागे होज्जा असंखेज्जइभागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा? नो संखेज्जइभागे होज्जा नो असंखेज्जइभागे होज्जा नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा णियमा तिमागे होज्जा, एवं दोण्णि वि+। भागद्वारे- 'नियमा तिभागे होज्ज' त्ति-त्रयाणां राशिनामेको राशिस्त्रिभाग एव वर्तत इति भाव:, यत्तु राशिगतद्रव्याणां पूर्वोक्तमल्पबहुत्वं तदत्र न गण्यते, द्रव्याणां प्रस्तुतनयमते व्यवहारसंवृत्तिमात्रेणैव सत्त्वादिति। संगहस्स आणुपुटिवदव्वाइं कतरम्मि भावे होज्जा ? णिअमा साइपारिणामिए भावे होज्जा, एव दोण्णि वि+ | भावद्वार- 'सादिपारिणामिए भावे होज्ज' त्ति- यथा आनुपूर्व्यादिद्रव्याणामेतद्भावर्त्तित्वं पूर्व भावितं, तथा अत्रापि भावनीयम् तेषां यथास्वं सामान्यादव्यतिरिक्तत्वादिति। संगहस्स अप्पावडं नऽत्थिा सेत्त अणुगमे / सेत्तं संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुय्वी। सेत्तं अणोवणिहिया दव्वाणुपुथ्वी। (सूत्र-९५) अल्पबहुत्वद्वाराऽसंभवस्तु उक्त इति समर्थितोऽनुगमः, तत्स-समर्थने च समर्थिता संग्रहनयमतेनानौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी, तत्समर्थने च व्याख्याता सर्वथापीयम, अत: 'सेत्तमि' त्यादि, निगमनत्रयम / गता अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी। (6) साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टामेवोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी व्याचिख्या-सुराहसे किं तं उ (ओ)वणिहिया दवाणुपुथ्वी ? उवणिहिया दवाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुथ्वाणुपुथ्वी, पच्छागुपुथ्वी, अणाणुपुथ्वी य / (सूत्र-९६) 'से किं तमि' त्यादि, अथ केयं प्राग्निीतशब्दार्थमात्रा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति प्रश्नः, अत्र निर्वचनम् औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी त्यादि, उपनिधिनिक्षेपो विरचनं प्रयोजनमस्या इत्यौपनिधिकी द्रव्य-विषया आनुपूर्वीपरिपाटिद्रव्यानुपूर्वी सा त्रिप्रकारा, तत्र विविक्षितधस्तिकायादिद्रव्यर्विशेषस्तत्समुदाये य: पूर्व:- प्रथम: तस्मादारभ्यानुपूर्वी-अनुक्रमः परिपाटिर्निक्षप्यते-विरच्यते यस्यां सा पूर्वानुपूर्वी तत्रैव य: पाश्चात्य:चरमस्तस्मादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी परिपाटिर्विरच्यते यस्यां सा निरुक्तविधिना पश्चानुपूर्वी न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी / यथोक्तप्रकारद्वयाति-रिक्तस्वरूपेत्यर्थः। तत्राऽऽधभेदं तावन्निरूपयितुं प्रश्नमाहसे किं तं पुष्वाणुपुदी 1, पुष्वाणुपुटवी छविहा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए। सेत्तं पुव्वाणुपूर्वी+। (धर्मास्तिकायपदव्याख्या 'धम्मत्थिकाय' शब्दे चतुर्थे भागे वक्ष्यते) (अधर्मास्तिकायव्याख्या 'अध(ह)म्मत्थिकाय' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 159 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुर्वी शब्दे प्रथमभागे 567 पृष्ठे गता) (विशेषत: स्वरूपम् 'अस्थिकाय' शब्दे प्रवर्द्धमानो यस्यां सा एकोत्तरा तस्याम, पुनः कथंभूतायामित्याह.. प्रथमभागे 513 पृष्ठे गतम्) (आकाशास्तिकायव्याख्या 'आगासत्थि- 'छगच्छगताए' त्तिषण्णां गच्छ:- समुदाय: षाच्छस्तं गता-प्राप्ताकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे प्राग् गता) अत्र च जीवपुगलानां षाच्छगता तस्यां धर्मास्तिकायादिवस्तुषट्क-विषयायामित्यर्थः। गत्यन्थानुपपत्तेधर्माऽस्तिकायस्य तेषामेव स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मा- आदी व्यवस्थापितैककाया: पर्यन्ते न्यस्त-षट्काया धम्मास्तिस्तिकायस्य सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् / अनु०। (जीवास्तिकायव्याख्या कायादिवस्तुषल्कविषयाया: पत्तेर्या परस्परगुणने भङ्गकसंख्या भवति 'जीवत्थिकाय' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते) पुद्गलास्तिकायस्य तु सा आद्यन्तभङ्गकद्वयरहिता अनानुपूर्वीति भावार्थः तत्रोधि: घटादिकार्यान्यथानुपपत्ते: कालोऽप्यस्ति बकुलाशोकचम्पकादिषु किलैककादय: षट्पर्यन्ता: अङ्कास्थापिता: तत्र चैककेन द्विगुणिते जाती पुष्पफलप्रदानस्या- नियमेनादर्शनात् , यस्तु तत्र नियामक: स काल द्वावेव, ताभ्यां त्रिको गुणितो जाता: षट्, तैरपि चतुष्को गुणितो जाता इति, स्वभावादेव तु तद्भवने "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा." इत्यादि चतुर्विशति: पञ्चकस्य तु तद्गुणेन जातं विशं शतं, षट्कस्य तदगुणने दूषणप्रसङ्गः, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थदुरखगमता- भयादिति। जातानि विंशत्याधिकानि सप्तशतानि, स्थापना 6-5-4-3-2-1 आह-धर्मास्तिकायस्य प्राथम्यम् अधर्मास्तिकायादीनां तु तदनन्तरं आगमतम्-७२० अत्राद्यो भङ्ग:पूर्वानुपूर्वी अन्त्यश्च (स्तु) पश्चानुपूर्वीति क्रमेणेत्थं निर्देश: कुत: सिद्धः? येनात्र पूर्वानुपूर्वीरूपता स्यादिति, तदपगमे शेषाण्यष्टादशोत्तराणि सप्तभङ्गक शतान्यनानुपूर्वीति अत्रोच्यते-आगमेइत्थमेवपठिततत्वात्तत्रापि कथ-मित्मेवपाठ इति चेत् मन्तव्यानि: / अत्र च भङ्गकस्व-रूपानयनार्थ करणगाथाउच्यते-धर्मास्तिकाय इत्यत्र यदाद्यं धर्मे' ति पदं तस्य "पुव्वाणुपुविहिट्ठा समयाभेएंण कुरु जहा जेहूं। माङ्गलिकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य प्रथममुपन्यासः, ततस्तत्प्रतिपक्षा उवरिमतुल्लं पुरओ, निसेज्ज पुव्वक्कमो सेसे!|१||' इति। त्याद्धर्मास्तिकायस्य ततस्तदाधारत्वादा- काशास्तिकायस्य तत: व्याख्या इह विवक्षितपदानां क्रमेण स्थापना पूर्वानुपूर्वी-त्युच्यते स्वाभाविकाऽमूर्तत्वसाम्याज्जी- वास्तिकायस्य ततस्तदुपयोगित्वा तस्याः 'हेट' त्ति-अधस्तात्- द्वितीयादिभङ्गकान् जिज्ञासुः 'कुरु' त्तिपुद्गलास्तिकायस्य ततो जीवाजीवपर्यायत्वात्तदनन्तरमद्धास स्थापय एकादीनिपदानीति शेषः कथमित्याह ज्येष्ठस्यानतिक्रमेण मयस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीसिद्धिरिति। यथाज्येष्ठं यो यस्यादौ सतस्यज्येष्ठः, यथा द्विकस्यैको ज्येष्ठः, त्रिकस्य अथ पश्चानुपूर्वी निरूपयितुमाह त्वेकको-ऽनुज्येष्ठश्चतुष्कादीनां तु स एव ज्येष्ठानुज्येष्ठ इति एवं त्रिकस्य से किं तं पच्छानुपुव्वी? पच्छाणुपुथ्वी छवि तं. अद्धासमए द्विकोज्येष्ठः स एव चतुष्कस्यानुज्येष्ठ: पञ्चकादीनांतुस एव ज्येष्ठानुज्येष्ठ: पोगगलत्थिकाए जीवत्थिकाए, आगासत्थिकाए अहम्मत्थिकाए इत्यादि, एवं च सति उपरितनाङ्कस्य अधस्ताज्येष्ठो निक्षिप्यते, धम्मत्थिकाए। सेत्तं पच्छा (णु)नुपूवी। तत्रालभ्यमाने अनुज्येष्ठ: तत्राप्यलभ्यमाने ज्येष्ठानुज्येष्ठ इति यथाज्येष्ठे 'से किंतं पच्छाणुपुव्वी' इत्यादि, पाश्चात्यादारभ्य प्रतिलोमंध्यत्ययेनैव निक्षेपं कुर्यात, कथमित्याह-समयाऽभेदेनेति समय:- सङ्केत: आनुपूर्वी-परिपाटी: क्रियते यस्यां सा पश्चानुपूर्वी अत्रोदाहरणमुत्क्रमेण, प्रस्तुतभङ्गकरचनव्यवस्था तस्य अभेद:- अनतिक्रमः, तस्य च भेदस्तदा इदमेवाह-'अद्धासमये त्यादि, गतार्थ-मेव। भवति यदा तस्मिन्नेव भङ्गकेनिक्षिप्ताङ्कसादृशोऽपरोङ्क: पतति ततो यथोतं अथाऽनानुपूर्वी पूर्व निरूपयति समयभेदं वर्जयन्नैव ज्येष्ठाद्यङ्कनिक्षेपं कुर्यात् उक्तं च "जहियम्मि उ 'से किं तं अणानुपूवी? अणाणुपुर्वी एआए चेव एगाइआए निक्खित्ते, पुणरविसोचेबहोइकायव्यो। सो होइ सपयभेओ, वज्जेयव्वो एगुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दू (दु)- पयत्तेणं॥शा" निक्षिप्तस्यचाङ्कस्य यथासंभवं 'पुरउ' त्ति-अग्रत: रूवूणो / सेत्तं अणानुपूथ्वी। (सूत्र-९७) उपरितनाङ्कतुल्यसदृशं यथा भवत्येवं न्यसेत्, उपरितनावसदृशाने'से किंतमि' त्यादि, अत्र निर्वचनम् -'अणाणुपुव्वीएताएचेव' इत्यादि, वाङ्कान्निक्षिपेदित्यर्थ: 'पुव्वक्कमो सेसे' त्ति-स्थापितशेषानकान्निन विद्यते आनुपूर्वी यथोक्तपरिपाटिदयरूपा यस्यां सा अनानुपूर्वी क्षिप्ताङ्ककस्य यथासंभवं पृष्ठतः पूर्वक्रमेण स्थापयेदित्यर्थः, य: संख्येया विवक्षितपदानामनन्तरोक्तक्रमद्वयमुल्लङ्घय परस्पराऽसदृशैः लघुरेककादि: सप्रथम स्थाप्यते वस्तुतया महान् द्विकादि: सपश्चादिति संभवद्भिर्भङ्गफैर्यस्यां विरचना क्रियते साऽना-नुपूर्वीत्यर्थः। का पूर्वक्रमः पूर्वानुपूर्विलक्षणे प्रथमभङ्गके इत्यमेव दृष्टत्वादिति भाव: पुनरियमित्याह-'अन्नमण्णभासो' त्ति-अन्योन्यम् - परस्परमभ्यासो इत्यक्षरघटना। भावार्थस्तु दिड्मात्रदर्शनार्थं सुखाधिगमया च त्रीणि गुणनम् अन्योन्याऽभ्यास: 'दू (दु)रूवूणो' त्ति- द्विरूपन्यून: पदान्याश्रित्य तावत् दय॑ते, तेषां च परस्पराभ्यासे षड्भङ्गका भवन्ति, आद्यन्तरूपरहित: अनानुपूर्वीति संटङ्गः / कस्यां विषये योऽसावभ्यास ते चैवमानीयन्ते-पूर्वानुपूर्वीलक्षण-स्तावत्प्रथमोभङ्गः, तद्यथा-१इत्याह-श्रेण्याम्-पक्ती, कस्यां पुन: श्रेण्यामित्याह 'एताए चेवे' ति- 2-3 अस्याश्च पूर्वानुपूर्व्या अधस्ताद्भङ्गकरचने क्रियमाणे एककस्य अस्या-मेवाऽनन्तराधिकृतधर्मास्तिकाया दिसंबन्धिन्याम् तावज्जयेष्ठ एव नास्ति द्विकस्य तु विद्यते एकः, सतदधो निक्षिप्यते, कथंभूताया-मित्याह-एक आदिर्यस्यां सां एकादिकी एकैक उत्तर: तस्य चाग्रतस्त्रिको दीयते, "उवरिमतुल्लमि" त्यादिवचनान्,पृष्ट Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 160 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुथ्वी तस्तु स्थापितशेषो द्विको दीयते, ततोऽयं द्वितीयो भङ्गः२-१-३ अत्र च 'अणंतगच्छाताए' ति अत्रैकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धानामनन्तत्वादनन्तानां द्विकस्य विद्यते एकको ज्येष्ठः परं नासौ तदधस्तान्निक्षिप्यते अग्रत: गच्छ: समुदायोऽनन्तगच्छस्तं गता अनन्तगच्छगता तस्याम्, अत एव सदृशाङ्कपातेन समयभेदप्रसङ्गात्, एकस्य तुज्येष्ठ एव नास्ति, त्रिकस्य भङ्गा: अत्राऽनन्ता: एवाऽवसेया इति। शेषभावना चसर्वा पूर्वोऽक्तानुसारत: तु विद्यते द्विको ज्येष्ठः स तदधस्तान्निक्षिप्तयते, अत्र चाग्रभागस्य स्वयमप्यवसेयेति। आह-ननुयथैक: पुद्गलास्तिकायो निर्य्यपुनरपि तावत्संभव एव पृष्ठतस्त्वस्थापितशेषावेककत्रिको क्रमेण स्थाप्येते पूर्वानुपूर्व्या-दित्वेनोदाहृतः, एवं शेषा अपि प्रत्येकं किमिति नोदाहियन्ते? "पुव्वक्कमो सेसे ति" वचनात्, ततस्तृतीयोऽयं भङ्गः 1-3-2, अत्रोच्यते-द्रव्याणां क्रम: परिपाट्यादिलक्षण: पूर्वानुपूर्व्यादि-विचार: इह अत्राप्येक-कस्य ज्येष्ठ एव नास्ति त्रिकस्य तु ज्येष्ठोऽस्ति द्विको नच प्रक्रान्त:, सचद्रव्यबाहुल्ये सतिसम्भवति, धर्माऽधर्माऽऽकाशास्तिक्षिप्यते अग्रे सदृशाङ्कपातेन समयभेदापत्तेस्ततोऽस्यैवानुज्येष्ठ एकक: कायेषु च पुद्गलास्तिकाय-वन्नाऽस्ति प्रत्येकं द्रव्यबाहुल्यम्:, स्थाप्यते अग्रतस्तु द्विक: "उवरिमतुल्लमि" त्यादिवचनात् , पृष्ठतस्तु एकैकद्रव्यत्वात्तेषाम्, जीवास्तिकाये त्वनन्तजीवद्रव्यात्मकत्वादस्ति स्थापितशेषस्त्रिको दीयते इति चतुर्थोऽयं भङ्गः३-१-२एवमनया दिशा द्रव्यबाहुल्यं केवलं परमाणुद्विप्रदेशिकादिद्रव्याणमिव जीवद्रव्याणां पञ्चमषष्ठावप्यभ्यूह्यौ, सेर्वेषां चामीषामियं स्थापना 1-2-3 पूर्वानुपूादित्वनिबन्धनः प्रथमपाश्चात्यादिभावो नाऽस्ति, अत्राप्याद्यभङ्गस्य पूर्वानुपूर्वीत्वादन्त्यस्य च पश्चानुपूर्वीत्वान्मध्यमाएव प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वेन सर्वेषां तुल्यप्रदेशत्वापरमाणुद्विप्रदेशिका दिद्रव्याणां तु विषमप्रदेशिकत्वादिति अद्धासमय- स्यैकत्वादेव चत्वारो-ऽनानुपूर्वीत्वेन मन्तव्या एवमनया दिशा 1-2-3 चतुरादिप तदसम्भव इत्यलमतिचर्चितेन, तदेवं समर्थिता औपनिधिकी दसंभाविनोऽपि भङ्गाः भावनीया: भूयांसश्चोत्तराध्ययन-टीकादिनिर्दिष्टा: द्रव्यानुपूर्वी / तत्समर्थनेच समर्थिताप्रागुद्दिष्टा द्वि:प्रकारपि द्रव्यानुपूर्वी। प्रस्तुतभङ्गानयनोपाया: १-३-शसन्तिनचोच्यन्ते अतिविस्तरभयात्, ततः 'सेत्तमि' त्यादि निगमनानि, इति द्रव्यानुपूर्वी समाप्ता: तदर्थना तुतत एवावधारणीयाः। तदिदमत्र तात्पर्य 3-1-2 पूर्वानुपूर्व्या उक्ताद्रव्यानुपूर्वी ताव-द्धर्मास्तिकायस्य प्रथमत्वमेव तदनुक्रमेणाधर्मास्ति-कायादीनां द्वितीयादित्वं पश्चानुपूया 2-3-1 त्वद्धासमयस्य प्रथमत्वं (7) अथ प्रागुद्दिष्टामेव क्षेत्रानुपूर्वी व्याचिख्यासुराह से किं तं खेत्ताऽऽणुपुटवी? खेत्ताणुपुय्वी दुविहा पण्णत्ता, तं पुद्गलास्तिकायादीनां तु प्रतिलोमतया द्वितीयादित्वं अनानुपूर्ती जहा-उवणिहिआ य, अणोवणिहिआ य। (सत्र-९९)तत्थ णं त्वनियमेन क्वचिद्भङ्गके 3-2-1 कस्यचित्प्रथमा-दित्यलं विस्तरेण जा सा उवणिहिआ सा ठप्पा। 'सेत्तमि' त्यादि, निगमनं, तदेवमत्र पक्षे धास्तिकायादीनी षडपि द्रव्याणि पूर्वानुपूादित्वेनोदाहृतानि। 'से किं तं खेत्ताणुपुवि' ति-इह क्षेत्रविषयानुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी, का पुनरियमित्यत्र निर्वचनं-क्षेत्रानुपूर्वी द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथासाम्प्रतं त्वेकमेव पुद्गलास्तिकायमुदाहर्तुमाह औपनिधिकी, पूर्वोक्तशब्दार्था अनौपनिधिकी च / तत्र या सा अहवा-उवनिहिआ दब्वाऽऽणुपुथ्वी,तिविहा पण्णत्ता,तं जहा औपनिधिकी सा स्थाप्या; अल्पवक्तव्यत्वादुपरि वक्ष्यते इत्यर्थः / पुटवानुपुटवी, पच्छानुपुटवी, अणाणुपुटवी / से किं तं तत्थ णं जा अणोवणिहिया सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहापुव्वाणुपुथ्वी ? पुष्वाणुपुष्वी परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए णोगमववहारणं, संगहस्सय। (सूत्र-१००) जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए असं खिज्ज-पएसिए तत्र या असौ अनौपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणाद् अणंतपएसिए / सेत्तं पुटवानुपूवी। से किं तं पच्छानुपुथ्वी, पच्छाणुपुथ्वी अणंतपएसिए असंखिज्जपएसिएसंखिज्जपएसिए द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयो; संग्रहस्य च; सम्म-तेति शेषः / जाव दसपएसिएजाव तिपएसिए दुपएसिए परमाणुपोग्गले। ___ तत्र नैगमव्यवहारसम्मतां तावद्दर्शयितुमाहसेत्तं पच्छानुपुथ्वी। से किं तं गमववहाराणं अणोवनिहिआ खेत्ताऽऽणु पुथ्वी ? नेगमववहाराणं अणोवणिहिया खेत्ताणुपुथ्वी पंचविहा 'अहवा' इत्यादि, अत्र चौपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्व्या ज्ञातमति त्रैविध्यं यत्पुनरप्युपन्यस्तं तत्प्रकारान्तभणनप्रस्तावादेवेति मन्तव्यम्। पण्णत्ता, तं जहा अट्ठपयपरूवणया 1, भंगसमुक्कित्तणया 2, भंगोवदंसणया 3, समोआरे 4, अणुगमे से किं तं णेगमववसे किं अणाणुपुथ्वी? अणाणुपुर्वी एआए चेव एगाइआए हाराणं अट्ठपयपरूवणया ? णेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया एगुत्तरिआए अणं तगच्छगयाए से ढीए अन्नमन्नब्भासो तिपएसोगाढे आनुपूवीजाव दसपएसोगाढे आनुपुथ्वी०जाव दुरूवूणो। सेत्तं अणाणुपुथ्वी। सेत्तं उवणिहिआ दव्वाण-पुथ्वी। संखिज्जपएसोगाढे आनुपुर्वी असंखिज्जपएसोगाढे आनुपुव्वी, सेत्तं जाणगवतिरित्ता दव्वाणुपुथ्वी सेत्तं नोआगमतो दवाणुपुटवी। एगपएसोगाढे अणानुपुथ्वी, दुपएसोगाढे अक्त्तव्वए, तिपएसोगाढा सेत्तं दवाणुपुष्वी (सूत्र-९८) आनुपुटवीओ जाव दसपएसोगाढा आनुपुथ्वीओ, जाव Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुवी 161 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी असंखिज्जपएसोगाढा आनुपुथ्वीओ, एगपएसोगाढा अणा- 'सन्तपयपरूवणये' त्यादिवक्ष्यमाणबहुतरविचार-विषयत्वेन द्रव्यस्य नुपुथ्वीओ, दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाई / सेत्तं णेगमववहाराणं शिष्यमतिव्युत्पादनार्थत्वात् क्षेत्रस्य तु नित्यत्वेन सदावस्थितमाअट्ठपयस्वरूणया। एआएणं णेगमववहाराणं अट्ठपय-रूवणयाए नवत्वादचलत्वाच्च प्रायो वक्ष्यमाण-विचारस्य सुप्रतीतत्वेन किं पओअणं ? एआए णेगमववहाराणं अट्ठपय-रूवणयाए तथाविधशिष्यमतिव्युत्पत्त्यविषयत्वाद्, एवमन्यदपि कारणमभ्यूह्मणेगमववहाराणं भंगमुक्कित्तणया कज्जइ / से किं तं मित्यलं विस्तरेण / एवं चतुःप्रदेशा-वगाढादिष्वपि भावना कार्या, णेगमववहाराणं मंगमुक्कित्तणया ? णेगमववहाराणं यावदसङ्घयातप्रदेशावगाढा आनुपूर्वीति असंख्यातप्रदेशेषु भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आनुपुर्वी, अस्थि अणानुपूथ्वी, अस्थि चावगाढोऽसंख्याताणुकोऽनन्ताणुको वा द्रव्यस्कन्धो मन्तव्यो, यतः अवत्तव्वए, एवं दव्वानुपुट्विगमेणं खेत्तानुपुथ्वीएऽवी ते चेव पुद्गल-व्याणामवगाहमित्थं जगद्गुरवः प्रतिपादयान्तिपरमाणुराछवीसं भंगा भाणिअव्वा, जाव सेत्तं गमवव-हाराणं काशस्यै कस्मिन्नेव प्रदेशेऽवगाहते, द्विप्रदेशिकादयोऽसंख्यातभंगसमुक्कित्तणया। एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्त- प्रदेशिकान्तास्तु स्कन्धा: प्रत्येकं जघन्यत एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽणयाए किं पओअणं ? एआए णं णे गम-ववहाराणं वगाहन्ते उत्कृष्टतस्तु यत्र स्कन्धेयावत: परमाण्वो भवन्ति सतावत्स्वेव मंगसमुक्कित्तणयाएणेगमववहाराणं भगोवदं-सणया कज्जइ। नभ:प्रदेशेष्ववगाहते, अनन्ताणुकस्कन्धस्तुजघन्यतस्तथैव उत्कृष्टतसे किं तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया ? गमववहाराणं स्त्वसंख्येयेष्वेव नभ:प्रदेशेष्ववगाहते नाऽनन्तेषु लोकाकाशस्यैवाभंगोवदंसणया तिपएसोगाढे आनुपुटवी, एगपएसोगाढे संख्येयप्रदेशत्वात्, अलोकाकाशे च द्रव्यस्याऽवगाहाऽभावादित्यलं अणानुपुटवी दुपएसोगाढे अवत्तवए, तिपएसोगाढा प्रसङ्गेन प्रकृतमुच्यते-तत्रानुपूर्वीप्रतिपक्षत्वादनानुपूर्व्यादिस्वरूपमाहआणुपुव्वीओ, एगपएसोगाढा अणानुपुर्वी ओ, दुपएसोगाढा 'एगपए-सोगाढे अणाणुपुव्वि' त्ति-एकस्मिन्नभ:-प्रदेशेऽवगाढः अवत्तट्वगाई, अहवा-तिपएसोगाढे अ, एगपएसोगाढे अ, स्थित: एकप्रदेशाऽवगाढ: परमाणुसङ्घातस्स्कन्धसङ्घातश्च क्षेत्रतोऽनानुआणुपुव्वी अ, अणाणुपुथ्वी आ एवं तहा चेव दवाणुपुध्विगमेणं पूर्वीति मन्तव्य:, 'दुप्पएसोगाढे अवत्तव्वए' त्ति-प्रदेशद्रयेऽवगाढो छटवीसं भंगा माणिअवा जाव सेत्तं गमववहाराणं द्विप्रदेशिकादिस्कन्ध: क्षेत्रतोऽवक्तव्यकं,शेषो बहुवचननिर्देशादिको ग्रन्थो भंगोवदंसणया। से किं तं समोआरे ? समोआरे णेगमववहाराणं यथाऽधस्ताद् द्रव्यानुपूर्त्या व्याख्याततस्तथेहापि तदुक्तानुसारतो आणुपुस्विदव्वाई कर्हि समो-तरंति? किं आणुपुटिवदव्वेहिं व्याख्येय: यावत् द्रव्यप्रमाणद्वारे। समोतरंति ? अणाणु-पुस्विदटवे हिं समोतरंति ? णे गमववहाराणं आणुपुटिवदवाइं किं संखिज्जाई अवत्तव्वगदव्वेहिं समोतरंति ? आणुपुदिवदवाई आणुपुट्वि- असंखिज्जाइं अणंताई? नो संखिज्जाई, असंखिज्जाई णो दव्वेहिं समोतरंति, णो अणाणुपुव्विदध्वेहिं समोतरन्ति णो अणंताई एवं दोण्णि वि / नेगमववहाराणं आणुपुटिव-दवाई अवत्तव्वगदव्वेहिंसमोतरन्ति, एवं तिण्णि विसट्ठाणे समोअरंति अणंताई, नो संखिज्जाइं, असंखिज्जाइं, नो अणताइं एवं त्ति माणिअय्वं सेत्तं समोतारे / से किं तं अणगुमे ? अणुगमे तिण्णि विx| नवविहे पण्णत्ते,तं जहा-"संतपयपरूवणयाजाव अप्पा बहु 'णगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं किं संखेज्जाइं 'इत्या-दिप्रश्न:, चेव"१,णेगमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाइं किं अत्थिनऽत्थि? अत्रोत्तरम- 'नो संखेज्जाइमि त्यादित्र्यादि-प्रदेश-विभागावगाढानि णिअमा अत्थि, एवं दोण्णि वि+1 द्रव्याणि क्षेत्रत आनुपूर्वीत्वेन निर्दिष्टानि,त्र्यादिप्रदेशविभागाश्चासङ्ग्यात'से किं तमि' त्यादि, इह व्याख्या-यथा द्रव्यानुपूर्व्या तथैव कर्तव्या, प्रदेशात्मके लोकेऽसङ्ख्याता भवन्ति, अतो द्रव्यतया बहुनामपि विशेषं तु वक्ष्यामः, तत्र तिपएसोगाढे आणुपुट्वि' ति-त्रिषु क्षेत्रावगाहमपेक्ष्य तुल्यप्रदेशा-वगाढानामकत्वात् क्षत्रानुपूव्यामसङ्ख्यानभ:प्रदेशेष्ववगाढ़:- स्थित: त्रिप्रदेशावगाढस्यणुकादिकोऽन- तान्येवानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्तीति भाव: एवमेकप्रदेशावगाढं बह्नपि द्रव्यं न्ताणुकपर्यन्तो द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी, ननु यदि द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी क्षेत्रत एवैवाऽनानुपूर्वीत्युक्तम् / लोके च प्रदेशा असङ्ख्याता भवन्ति कथं तर्हि तस्य क्षेत्रानुपूर्वीत्वं? सत्यं किन्तु-क्षेत्रप्रदेशत्रयावगाह अतस्तत्तुल्यसङ्घयत्वादनानुपूर्वीद्रव्याण्यप्यसङ्ख्येयानीति एवं पर्यायविशिष्टोऽसौ द्रव्यस्कन्धो गृहीतो नाविशिष्टः, ततोऽत्र प्रदेशद्वयेऽवगाद बह्वपि द्रव्यं क्षेत्रत एकमेवावक्तव्यकमुक्त क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारात् क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यात्सोऽपि क्षेत्रानुपूर्वीति द्विप्रदेशिकात्मकाच विभागा लोकेसङ्ख्याता भवन्त्यतस्तान्यप्ययनदोष: प्रदेशत्रयलक्षणस्य क्षेत्रस्यैवात्र मुख्य क्षेत्रानुपूर्वीत्वं तदधिकारादेव / संख्येयानीति। किन्तु तदवगाढं द्रव्यमपि तत्पर्यायस्य प्राधान्येन विविक्षितत्वात् क्षेत्रद्वारे निर्वचनसूत्रेक्षेत्रानुपूर्वीत्वेन न विरुध्यत इति भावः यद्येवं तर्हि मुख्यं क्षेत्रं परित्यज्य नेगमववहाराणं आनुपुटिवदव्वाइं लोगस्स किं संखिज्जइ किमिति तदवगाढद्रव्यस्यानुपूर्यादिभावश्चिन्त्यते ? उच्यते- | भागे होज्जा असंखिज्जइभागे होज्जा जाव सटवलोए Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 162 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी होज्जा? एगं दव्वं पडुछ लोगस्स संखिज्जइभागे वा होज्जा असं खिज्जइभागे वा होज्जा संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा देसूणे वा लोए होज्जा, नाणादवाइं पडुन निअमा सवलोए होज्जा, नेगमववहाराणं अणाणुपुव्विदव्वाणं पुच्छा-एगं दध्वं पडुच नो संखिज्जइभागे होज्जा, असंखिज्जइभागे होज्जा, नो। संखेज्जेसुनो असंखेज्जेसुनो सबलोगे होज्जा, नाणादवाई पडुच निअमा सव्वलोए होज्जा, एवं अवत्तगदवाणि वि माणिअव्वाणि | 'एग दव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जे' त्यादि, इह स्कन्धद्रव्याणां विचित्ररूपत्वात् कश्चित स्कन्धो लोकस्य संख्येयं भागमवगाह्य तिष्ठति, अन्यस्त्वसंख्येयम्, अन्यस्तु संख्येयास्तद्भागानवगाह्मवर्तते, अन्यस्त्वसंख्येयान् इत्य-तस्तत्स्कन्धद्रव्यापेक्षया सङ्घचेयाऽऽदिभागवर्त्तित्वं भावनीयम् विशिष्टक्षत्रावगाहो पलक्षितानां स्कन्धद्रव्याणामेव क्षेत्रानु-पूर्वीत्वेनोक्रत्वादिति भावः। 'देसूणे वा लोए होज्ज' त्ति-देशोने वा लोके आनुपूर्वीद्रव्यं भवेदिति, अत्राहनन्वचित्तमहा-स्कन्धस्य सर्वलोकव्यापकत्वं पूर्वमुक्ततस्य च समस्तलोकवर्त्यसंख्येयप्रदेशलक्षणायां क्षेत्रानुपूर्व्यामवगाढत्या-त्परिपूर्णस्यापि क्षेत्रानुपूर्वीत्वं न किंचिद्विरुध्यते , अत: तदपेक्षे क्षेत्रतोऽप्यानुपूर्वीद्रव्यं सर्वलोकव्यापि प्राप्यते, किमिति देशोनलोकव्यापिता प्रोच्यते ? सत्यं, किन्तु-लोकोऽयमानु- पूय॑नानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यैः सर्वदैवाऽशून्य एवैष्टव्ये इति-समयस्थिति: यदिचात्रानुपूर्व्याः सर्वलोकव्यापिता निर्दिश्यते तदाऽनानुपुर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां निरवकाशतया अभाव: प्रतीयते, तत:अचित्तमहास्कन्धपूरिते अपि लोकेजघन्यतोऽप्येक: प्रदेशोऽनानुपूर्वीविषयत्वेन प्रदेशद्वयं चाऽ- वक्तव्यकविषयत्येन विवक्ष्यते, आनुपूर्वीद्रव्यस्य तत्र सत्त्वेऽप्यप्राधान्यविवक्षणादनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोस्तु प्राधान्यविवक्षणा-दिति भावः, ततोऽनेन प्रदेशत्रयलक्षणेन देशेनहीनोऽत्रलोक: प्रतिपादित इत्यदोष: उक्तंच पूर्वमुनिभि:-"महखंधा पुण्णे वि, अवत्तव्वगणाणुपुव्विदव्वाइं / जद्देसोगाढाइं तद्देसेणं स लोगूणो ||1||" ननु यद्येवं तर्हि द्रव्यानुपूर्व्यामपि सर्वलोकव्यापित्वमानुपूर्वीद्रव्यस्य यदुक्तं तदसङ्गतं प्राप्नोति, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामनवकाशत्वेन तत्राप्यभावप्रतीतिप्रसङ्गात् , सर्वकालं च तेषामप्यवस्थितिप्रतिपादनात् , नैतदेवं, यंतो द्रध्यानुपूया द्रव्याणामेवानुपूर्व्यादिभाव उक्तो, न क्षेत्रस्य, तस्य तत्रानधिकृतत्वाद्, द्रव्याणां चानुपूर्व्यादीनां परस्परभिन्नानामप्येकत्रापि क्षेत्रेऽवस्थानं न किंचिद्विरुध्यते, एकाऽपवरकान्तर्गताऽनेकप्रदीपप्रभावस्थानदृष्टान्तादिसिद्धत्वात्, अतो न तत्र कस्याप्यनवकाशः, अत्र तु द्रव्याणामौपचारिक एवानुपूर्व्यादिभावो मुख्यस्तु क्षेत्रस्यैव क्षेत्रानुपूर्व्यधिकारात् ततो यदि लोकप्रदेशा: सामस्त्येनैवानुपूा क्रोडीकृता: स्युस्तदा किमन्यदनानुपूर्व्यवक्तव्यकतया प्रतिपद्येत, यस्त्विहवै येष्वाकाशप्रदेशेप्वानुपूर्व्यस्तेष्वेवेतरयोरपि सद्भावः कथयिष्यते स द्रव्यावगाहभेदेन क्षेत्रभेदस्य विवक्षणात्, अत्र तु तदविवक्षणादिति, तस्मादनानुपूर्व्यवक्तव्यकविषयप्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन लोकस्योनता विवक्षितेति। अथवा आनुपूर्वीद्रव्यस्य स्वावयव-रूपा देशाः कल्प्यन्ते यथा पुरुषस्याङ्गुल्यादयः ततश्च विवक्षिते कस्मिंश्चितद्देशे देशिनोऽसद्भवोविवक्ष्यते, यथा पुरुषस्यवा-कुलीदेशे देशित्वस्यैव तत्र प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति भावः, नचवक्तव्यं देशिनो देशान कश्चिदिनो दृश्यते, एकान्ताभेदे देशमात्रस्य देशिमात्रस्य चाभावप्रसङ्गात्, ततश्च समस्तलोक क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्याश्रयणादत्राचित्तमहास्कन्धस्यानुपूर्वीत्वेऽपि देशोन एव लोकः, स्वकीयै कस्मिन्देशे तस्याऽभावविक्षणात्, तस्मिंश्चानुपूर्व्यव्याप्तदेशे इतरयोरवकाश: सिद्धो भवतीति भावः / न च देशदेशिभावः कल्पनामात्र सम्मत्यादिन्यायनिर्दिष्ट्युक्तिसिद्धत्वात् इत्यलं प्रसङ्गेन। 'नाणा-दव्वाइमि' त्यादि त्र्यादिप्रदेशावगाढद्रव्यभेदतोऽत्रानुपूर्वीणां नानात्वं, तैश्व त्र्यादिप्रदेशावगाढैः द्रव्यभेदैः सर्वोऽपि लोको व्याप्त इति भावः। अत्रानानुपूर्वीचिन्तायामेकद्रव्यं प्रतीत्य लोक-स्यासंख्येयभागवर्तित्वमेव, एकप्रदेशावगाढस्यैवानानुपूर्वीत्वेन प्रतिपादनात्, एकप्रदेशस्य च लोकाऽसंख्येयभागवर्तित्वादिति, 'नाणादव्वाइं पडुच नियमा सव्वलोए होज्ज' त्ति- एवैकप्रदेशावगाडैरपि द्रव्यमैदे: समस्तलोकव्याप्सेरिति एवम्-' अवत्तव्वगदव्वाणि वित्ति-अवक्तव्यकद्रव्यमप्येक लोका-संख्येयभाग एव वर्तते, द्विप्रदेशावगाढस्यैवाऽवक्तव्यकत्वे- नाभिधानात्, प्रदेशद्वयस्य च लोकाऽसंख्ययभागवर्तित्वादिति, तथा प्रत्येकं द्विप्रदेशावगाडैरपि द्रव्यभेदैः समस्तलोकव्याप्तैर्नानाद्रव्याणामत्रापि सर्वलोकव्यापित्वमवसेयमिति / अत्राऽऽहनन्वानुपूर्व्यादिद्रव्याणि त्रीण्यपि सर्वलोकव्यापी-नीत्युक्तानि, ततश्च येष्वेवाकाशप्रदेशेष्वानुपूर्वी तेष्वेवेतरयोरपि सद्भाव: प्रतिपादितो भवति कथं चैतत्परस्परविरुद्धं भिन्नविषयं व्यपदेशत्रयमैकस्य स्यात् ? अत्रोच्यते-इह व्यादिदेशावगाढात् द्रव्याद्भिन्नमेव तावदेकप्रदेशावगाद ताभ्यां च भिन्नं द्विप्रदेशावगाद ततश्चाधेयस्यावगाहकद्रव्यस्य भेदादाधारस्याप्यवगाह्यस्य भेद: स्यादेव, तथांचव्यप्रदेशभेदो युक्त एव अनन्तधर्माध्यासिते च वस्तुनि तत्तत्सहकारिसन्निधानात्तत्तधर्माभिव्यक्तौ दृश्यत एव समकालं व्यवप्रदेशभेदो, यथा खङ्गकु तकवचादियुक्ते देवदत्ते खड्गी कुन्ती कवचीत्यादिरिति इह क्वचिद्वाचनान्तरे- 'अणाणुपुव्विदव्याइं अव्वत्तव्यगदव्वाणि यजहेव हिढे' त्ति-अतिदेश एव दृश्यते तत्र 'हेढे त्ति-यथाऽधस्ताद्रव्यानुपूामनयोः क्षेत्रमुक्तः तथाऽत्रापि ज्ञातव्यमित्यर्थः, तस्स व्याख्यातमेव, इत्येवमन्यत्रापि यथासंभवं वाचनान्तरमवगन्त- व्यमिति / गतं क्षेत्रद्वारम। णेगमववहारणं आणुपुटिवदवाइं लोगस्स किं संखेज्जइभागं फुसन्ति असं खिज्जइभागं फुसंति संखिज्जे भागे फुसंति जाव सवलोगं फुसंति? एगं दव्वं पडुम संखिज्जइभागं वा फुसइ संखज्जिइ भागे असंखिज्जइ भागे संखेज्जे वा असंखेज्जे भागे वा देसूर्ण वा लोगं फु Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुथ्वी 163 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुदी सइ, नाणादवाई पद्धच णिअमा सव्वलोगं फुसंति, अणाणुपुथ्वीदव्वाइं अवत्तव्वगदव्वाइंच जहा खेत्तं नवरं फुसणा | भणिअव्वा + स्पर्शनाद्वारमपि चेत्थमेव निखिलं भावनीयं नवरमत्र कस्याश्चिद्वाचनाया अभिप्रायेणानुपूर्व्यामेकद्रव्यस्य संख्येयभागा- दारभ्य यावद्देशोनलोकस्पर्शना भवतीति ज्ञायते, अन्यस्या- स्त्वभिप्रायेण असंख्येयभागादारभ्य यावत्संपूर्णलोकस्पर्शना स्यादित्यवसीयते एतच्च द्वयमपि बुध्यत एव, यतो यदि मुख्यतया क्षेत्रप्रदेशनामानुपुर्वीत्वमङ्गीक्रियते तदाअनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोर्निरवकाशताप्रसङ्गात्पूर्ववद्देशोनता लोकस्य वाच्या अथाऽऽनु- पूर्वीरूपे, क्षेत्रे अवगाढत्वादचित्त महास्कन्धस्यैवावुपूर्वीत्वं तेर्हि द्रव्यानुपूर्व्यामिवात्रापि संपूर्णता लोकस्य वाच्यति नचात्रापूर्व्या सकलस्यापि लोकस्य स्पृष्टत्वादितरयोरवकाशाभाव इति वक्तव्यम्, एकैकप्रदेशरूपे द्विद्धिप्रदेशरूपे च क्षेत्रेऽवगाढानां प्रत्येकमसंख्येयानां द्रव्यभेदानां सद्भावतस्तयोरपि प्रत्येकमसंख्येयभेदयो: लोके सद्भावाद् , द्रव्यावगाहभेदेन च क्षेत्रभेदस्येह विवक्षितत्वादिति भाव: वृद्धबहुमतश्वायमाप पक्षो लक्ष्यते तत्त्वं तु के वलिनो विदन्ति / क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु विशेष: प्राग्निदर्शित एवेति / गतं / स्पर्शनाद्वारम्। अथ कालद्वारम्णेगमववहाराणं आणुपुटवीदय्वाइं कालओ के वचिर होइ? एवं तिण्णि वि, एगं दट्वं पडुच जहनेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, नाणादव्वाइं पडुच निअमा सय्वर्द्ध। तत्र क्षेत्राऽवगाहपर्यायस्य प्राधान्याविवक्षया त्र्यादिप्रदेशावगाढद्रव्याणामेवाऽऽनुपूर्व्यादिभाव: पूर्वमुक्त: अतस्तेषामेवाऽव-गाहस्थितिकालं चिन्तयन्नाह- 'एगंदव्वं पञ्चे' त्यादि, अत्र भावना-इह द्विप्रदेशावगाढस्य वा एकप्रदेशावगाढस्य वा द्रव्यस्य परिणामवैचित्र्यात्प्रदेशत्रयाधवगाहभवने आनु- पूर्वीव्यपदेश: सजात: सप्तयं चैकं तद्भावमनुभूय पुनस्तथैव विप्रदेशावगाढमेकप्रदेशावगाढं वा तद् द्रव्यं संजातमित्यानुपूर्व्या: समयो जघन्याऽवगाहस्थिति: यदा तु तदेव द्रव्यमसंख्येयं काले तद्भावमनुभूय पुनस्तथैव द्विप्रदेशावगाढमेकप्रदेशावगाद वा जायते तदा उत्कृष्टतया असंख्येयोऽवगाहस्थितिकाल: / सिध्यति, अनन्तस्तु न भवति, विवक्षितैकद्रव्यस्यैकावगाहेनोत्कृष्टतोऽप्यसंख्यातकालमेवावस्थानादिति, नानाद्रव्याणि तु सर्वाऽद्धासर्वकालमेव भवन्ति त्र्यादिप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैवाऽस्थानादिति, एवं यदा समयमेकं किंचिद् द्रव्यमेकस्मिन् प्रदेशे अवगाढं स्थित्वा ततो व्यादिप्रदेशावगाढं भवति तदा अनानुपूर्व्याः समयो जघन्यावगाहस्थिति:, यदा तु तदेवाऽसंख्यातं कालं तद्रूपेण स्थित्वा ततो द्रयादिप्रदेशावगाढं भवति तदोत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽवगाहस्थितिकाल: नानाद्रव्याणि तु सर्वकालम् एकप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सर्वदैव सद्भावादिति, अवक्तव्यकस्य तु द्विप्रदेशावगाढस्य समयादूर्ध्वमेकस्मि स्यादिषु वा प्रदेशेष्ववगाहप्रतिपत्तो जघन्यः समयोऽवगाहस्थिति: असंख्येयकालदूर्ध्व द्विप्रदेशावगा(हं)द परित्यज्यत उत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽवगाह- स्थितिकाल: सिध्यति, नाना-द्रव्याणि तु सर्वकालं, दिप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैव भावा-दिति, एवं समानवक्तव्यत्वादतिदिशति एवं 'दोषण वित्ति। इदानीमन्तरद्वारमणेगमववहाराणं आणुपुय्वीदव्वाणं अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? तिण्ड पि एगं दवं पडुच जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेण्णं असंखेज्जंकालं,नाणादवाई पडुचनऽत्थि अंतरं / 'जहण्णेणं एगं समयं' ति-अत्र भावना इह यदा व्यादिप्रदशाव- गाढं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं समयमेकं तस्माद्विवक्षितक्षेत्रादन्यात्रावगाहं प्रतिपद्य पुनरपि कबलमन्यद्रव्यसंयुक्तं वा तेष्वेव विवक्षितत्र्याधाकाशप्रदेशेष्ववगाहते। तदैकानुपूर्वीद्रव्यस्य समयो जघन्योऽन्तरकाल: प्राप्यते, 'उक्कोसेणं असंखेज्जंकाले ति-तदेव यदाऽन्येषु क्षेत्रप्रदेशेष्वसंख्येयं कालं परिभ्रम्य केवलमन्यद्रव्यसंयुक्तं वा समागत्य पुनरपि तेष्वेव विवक्षित-त्र्याद्याकाशप्रदेशेष्ववगाहतेतदोत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽन्तरकाल: प्राप्यते, पुनव्यानुपूर्व्यामिवानन्त:, यतो द्रव्यानुपूर्ध्या विवक्षितद्रव्यादन्ये द्रव्यविशेषा अनन्ता: प्राप्यन्ते तैश्च सह क्रमेण संयोगे। उक्तोऽनन्त: कालः। अत्र तु विवक्षितावगाहक्षेत्रादन्य- क्षेत्रमसंख्येयमेव प्रतिस्थानं चावगाहनामाश्रित्व संयोगस्थितिरत्राप्यसंख्येयकालैव। ततश्च-असंख्येये क्षेत्रे परिभ्रमता द्रव्येण पुनरपि केवलेनान्यसंयुक्तेन वाऽसंख्येयकालात्तेष्वेव नभ: प्रदेशेष्वागतत्यावगाहनीयम्, न च वक्तव्यमसंख्येयेऽपि क्षेत्रे पौन:- पुन्येन तत्रैव परिभ्रमणे कस्मादनन्तोऽपि कालो नोच्यत इति? यत इहासंख्येयक्षेत्रे असंख्येयकालमेवान्यत्र तेन पर्यटितव्यम् तत ऊवं पुनस्तस्मिन्नेव विवक्षितक्षेत्रे / नियमादवगाहनीयं वस्तुस्थितिस्व (स्वा) भावा (व्या)-दिति, तावदेकीयं व्याख्यानमादर्शितम्, अन्ये तुव्याचक्षतेयस्मात् त्र्यादिप्रदेशलक्षणाद्विवक्षितक्षेत्रात्तदानुपूर्वीद्रव्यमन्यत्र गतं, तस्य क्षेत्रस्य स्वभावादेवासंख्येयकालादूर्ध्व तेनैवानुपूर्वी-द्रव्येणं वर्णगन्धरसस्पर्शसंख्यादिधर्म: सर्वथा तुल्येनान्येय वा तथाविधाऽऽधेयेन संयोगे सति नियमात्तथाभूता-धारतोपपत्तेरसंख्येय एवान्तरकाल इति, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तिगम्भीरत्वात् सूत्रप्रवृतेरिति।'नाणा- दव्वाई' इत्यादि, नहि त्र्यादिप्रदेशावगाढानुपूर्वीद्रव्याणि युगपत्सण्यिपि तद्भावं विहाय पुनस्तथैव जायन्त इति कदाचिदपि संभवति, असंख्येयानां तेषां. सर्वदैवोक्तत्वादिति भावः। अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वप्यसावेवैकानेकद्रव्याश्रया अन्तरकालव- क्तव्यता केवलमनानुपूर्वीद्रव्यस्यैकप्रदेशावगाढस्यावक्तव्य-कद्रव्यस्य तु द्विप्रदेशावगाढस्य पुनस्थाभवन अंतरकाल-चिन्तनीयः, शेषा तु व्याख्याद्वयभावना सर्वाऽपि तथैवति। उक्तमन्तरद्वारम्। साम्प्रतं भागद्वारमुच्यतेणेगमववहाराणं आणु पुटिवदवाइं से सदवाणं कइ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 164 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी भागे होज्जा? तिण्णि वि जहा दव्वाणुपुथ्वीएx। तत्र च यथा द्रव्यानुपूर्त्यां तथाऽत्राप्यानुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकलक्षणेभ्यः शेषद्रव्येभ्योऽसंख्येयैगिरधिकानि, शेषद्रव्याणि तु तेषामसंख्येभागे वर्तन्त इति / अत्राह- ननु त्र्यादिप्रदेशावगाढानि द्रव्याण्यानुपूर्दा एकैक प्रदेशा-वगाढान्यनानुपूर्दो द्विद्विप्रदेशावगाढान्यवक्तव्यकानीतिप्राक् प्रतिज्ञातम्, एतानि चानुपूर्व्यादीनि सर्वस्मिन्नपि लोक सन्त्यतो युक्त्या विचार्यमाणान्यानुपूर्वीद्रव्याण्येव स्तोकानि ज्ञायन्ते, तथाहि-असत्कल्पनया किललोके त्रिशत्प्रदेशाः, तत्र चानानुपुर्वीद्रव्याणि त्रिशदेव, अवक्तव्यकानि तु पञ्चदश आनुपूर्वीद्रव्याणि तु यदि सर्वस्तोकतया त्रिप्रदेशनिष्पन्नानि गण्यन्ते तथापि दशैव भवन्तीति, शेषभ्य: स्तोकान्येव प्राप्नुवन्ति, कथमसंख्येयगुणानि स्युरिति ? अत्रोच्यते- एकस्मिन्नापूर्वीद्रव्ये ये नभ:प्रदेशा: उपयुज्यन्ते ते यद्यन्यस्मिन्नपिनोपयुज्येरैस्तदास्यादेवंतचनास्तियत एकस्मिन्नपि प्रदेशत्रयनिष्पत्रे आनुपूर्वीद्रव्ये ये त्रयः प्रदेशास्तएवाऽन्यान्यरूपतयाऽवगाढे नाधेयद्रव्येणाऽऽक्रान्ता: सन्त: प्रत्येक मने के षु त्रिकसंयोगेषुगण्यन्ते, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदात, तद्भेदे चाधारभेदादिति भावः / एवमन्यान्यपि चतु:- प्रदेशावगाढाद्याधेयेनाध्यासितत्वात् त एवानेकेषु चतुष्कसंयोगेष्वनकेषु पञ्चकसंयोगेषु यावदेने केवससंख्येयक संयोगेषु प्रत्येक-मुपयुज्यन्ते, एवं चतुरादिप्रदेशनिष्पन्नेष्वप्यानुपूर्वीद्रव्येषु ये चतुरादय: प्रदेशास्तेषामप्यन्यान्यसंयोगोपयोगिता भावनीया, तस्मादसंख्येयप्रदेशात्मकेष्वस्थित्या व्यवस्थिते लोक यावन्तस्त्रिकसंयोगादयोऽसंख्येयकसंयोगपर्यन्ता: संयोगा जायन्तेतावन्त्यापूर्वीद्रव्याणि भवन्ति, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदेनावस्थितिसद्भावाद, आधेयभेदे चाधारभेदात्, नहिनभ: प्रदेशा येनैव स्वरूपेणैकस्मिन्नाधेये उपयुज्यन्ते तेनैव स्वरूपे- णाधेयान्तरेऽपि आधयैकताप्रसङ्गाद्, एकस्मिन्नाधारस्वरूपे तदवगाहाभ्युपगमात्, घटे तत्वस्वरूपबत्, तस्मात्त्र्यादिसं-योगाना लोकेबहुत्वादानुपूर्वीणां बहुत्वं भावनीयम् / अवक्त- व्यकानि तु स्तोकादि द्विकसंयोगानां तत्र स्तोकत्वाद्, अनानु- पूर्योऽपि स्तोका एव लोकप्रदेशसंख्यमात्रत्वाद् अत्र सुखप्रति- पत्त्यर्थलोकेकिल पञ्चाकाशप्रदेशा: कल्प्यन्ते, तद्यथा 00000 अत्रानुपूर्यस्तात्पश्चैव प्रतीता: अवक्तव्यकानि त्वष्टौ द्विकसंयोगानामिहाष्टानामेव संभवाद्, आनुपूर्यस्तु षोडश सभवन्ति, दशानां त्रिकसंयोगानां पञ्चानां चतुष्कसंयोगानामे-कस्य तु पञ्चकयोगस्येह लाभाद्, दश त्रिकयोगा: कथमिह लभ्यन्ते? इति चेत्, उच्यते-षड् तावत् मध्यव्यवस्थापितेन सहलभ्यते चत्वारस्तु त्रिकसंयोगादिव्यवस्थापितैश्चतुभिरेव केवलैरिति, चतुष्कयोगास्तु चत्वारो मध्यव्यवस्थापितेन सह लभ्यन्ते, एकस्तु तन्निरपेक्षैर्दिव्यवस्थितैरेवेति सर्वे पञ्च, पञ्चकयोगस्तुप्रतीत एवेति, तदेवं प्रदेशपञ्चकप्रस्तारेऽप्या-नुपूर्वीणां बाहुल्यं दृश्यते, अत एव तदनुसारेण सद्भावतोऽसंख्येयकप्रदेशात्मकेलोकेत्रानुपूर्वीद्रव्याणां शेषेभ्यो-ऽसंख्यातगुणत्वं भावनीयमित्यलं विस्तरेण। उक्तं भागद्वारम। साम्प्रतं भावद्वारमाहगमववहाराणं आणुपुटवीदवाई कत (य) रंमि भावे होज्जा? तिण्णि विणिअमा साऽऽदिपारिणामिए भावे होज्जा / / एवं दोण्णि विx तत्र च द्रव्याणांत्र्यादिप्रदेशावगाहपरिणामस्य एकप्रदेशावगाहपरिणामस्य द्विप्रदेशावगाहपरिणामस्य च सादिपारिणामिकत्वात् त्र्याणामपि सादिपारिणामिकभाववर्त्तित्वं भावनीयमिति / अल्पबहुत्वद्वारेएएसि णं मंते ! णे गमववहाराणं आणुपुटिवदवाणं अणाणुपुस्विदव्वाणं अवत्तव्वगदवाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए कतरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा,जहादव्वाणुपुष्वीएतहा माणिअव्वं,णवरं अणंतर्गनऽत्थि / / (गोयमा ! सय्वत्थोवाइं णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं दवट्ठयाए अणाणुपुथ्वीदवाई दवट्ठयाए विसे साहियाई आणुपुटवीदवाई दवट्ठयाए असंखेज्जगुणाई, पएसट्टयाए सव्वत्थोवाइंणेगमववहाराणं अणाणुपुथ्वीदवाइं अपएसट्टयाए अवत्तध्वगदव्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहियाइं आणुपुथ्वीदव्वाई पएसट्टयाए असंखेज्जगुणाई, दव्वट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तय्वगदव्वाइंदवट्ठयाए अणा-णुपुथ्वीदव्वाइं दवट्ठयाए अपएसहयाए विसे साहियाई अवत्तव्यगदवाई पएसट्टयाए विसेसाहियाइं आणुपुटवी-दवाई दवट्ठयाए असंखेज्जगुणाईताइंचेव पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणाई।) सेत्तं अनुगमो (मे) सेत्तंणेगमववहाराणं अणोवणिहिआखेत्ताणुपुष्वी। सूत्र-९०५) इह द्रव्यगणनं द्रव्यार्थता, प्रदेशगणनं प्रदेशार्थता, उभयगणनं तूभयार्थता, तत्रानुपूया विशिष्टद्रव्यावगाहोपलक्षिता- स्त्र्यादिनभ:प्रदेशसमुदायास्तावद् द्रव्याणि / समुदायराम्भ-कास्तु प्रदेशा: अनानुपूया त्वेकैकप्रदेशावगाहिद्रव्योपलक्षिता: सकलनभः प्रदेशा: प्रत्येक द्रव्याणि, प्रदेशास्तु न संभवन्ति, एकैकप्रदेशद्रव्ये हि प्रदेशान्तरायोगाद्, अवक्तव्यकेषु तु यावन्तो लोकेद्विकयोगा: संभवन्ति तावन्ति प्रत्येकं द्रव्याणितदारम्भ-कास्तुप्रदेशा इति, शेषात्वत्र व्याख्या द्रध्यानुपूर्वीवत्कर्तव्येति 'नवरं सव्वत्थोवाइं नेगमववहाराणं अव्वत्तव्वदव्वाइमि' त्यादि, अत्राह- ननु यदा पूर्वोक्तयुक्तया एकैको नभ:प्रदेशोऽनेकेषु द्विकसंयोगेषुपयुज्यते तदा अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्याणामेव बाहुल्यमवगम्यते, यत: पूर्वोक्तायामपि पञ्चप्रदेशनमःकल्पनायावक्तव्यकद्रव्याणामेवाऽष्टसंख्योपेतानां पञ्चसंख्येभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो बाहुल्यं दृष्टं तत्कथमत्र व्यत्यय: प्रतिपाद्यते ? सत्यम्, असत्येतत्केवलंलोकमध्ये, लोकपर्यन्तवर्तिनिष्कुटगतास्तुयेकण्टकाकृतयो विश्रेण्या निर्गता एकाकिन:प्रदेशास्ते विश्रेणिव्यवस्थितत्वादवक्तव्यक Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 165 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी त्याऽयोग्या इत्यनानुपूर्वीसङ्ख्यायामेवान्तर्भवन्ति, अतो लोक-मध्यगतां निष्युटगतां च प्रस्तुतद्रव्यसंख्यां मीलयित्वा यदा केवली चिन्तयति तदा अवक्तव्यकद्रव्याण्येवस्तोकानि, अनानु- पूर्वीद्रव्याणि तु तेभ्यो विशेषाधिकता प्रतिपद्यन्ते, अत्र निष्कुट- स्थापना-'४४४' अत्र विश्रेणिलिखितौ द्वौ अवक्तव्यकायोग्यौ दृष्टव्याविति, एवंभूताश्च किलामी | सर्वलोकपर्यन्तेषु बहवः सन्तीत्यनानुपूर्वीद्रव्याणां बाहुल्यमित्यलं विस्तेरण / आनुपूर्वीद्रव्याणां तु तेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं भावितमेव, शेषं द्रव्यानुपूर्यनुसारेण भावनीयम्, नवरमुभयार्थताविचारे आनुपूर्वीद्रव्याणि स्वद्रव्येभ्य: प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुणानि कथम् ? एकैकस्य तावद् द्रव्यस्य व्यादिभिरसंख्येयान्तैर्नभ: प्रदेशैरारब्धत्वात्, नमः प्रदेशानां च समुदितानामप्य-संख्येयन्वादिति। 'सेत्तमि' त्यादि निगमनद्वयम् / उक्ता नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी। अथ तामेव संग्रहमतेन बिभणिषुराहसे किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ खेत्ताऽऽणुपुथ्वी? संगहस्स अणोवणिहिया खेत्ताऽऽणुपुथ्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाअट्ठपयपरूवणया१, मंगसमुक्कित्तणया 2, भंगोवदंसणया 3, समोतारे 4, अणुगेमासे किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया? संगहस्स अट्ठपयपरूवणया तिपएसोगाढे आणुपुटवी चतुप्पएसोगाढे आणुपुथ्वी जाव दसपएसोगाढे आणुपुथ्वी संखिज्जपएसोगाढे आणुपुटवी असं खिज्जपएसोगाढे आणुपुथ्वी, एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी, दुपएसोगाढे अवत्तथ्वए। सेत्तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया। एआए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए किं पओअणं? एआए णं संगहस्स अट्ठपयपरूवणयाए संगहस्स मंगसमुक्कित्तणया कज्जइ / से किं तं संगहस्स मंगसमुक्कित्तणया? संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया अस्थि आ (णु) नुपुथ्वी अस्थि अणानुपुथ्वी अस्थि अवत्तव्वए, अहवा-अत्थि आनुपूव्वी अ अणाणुपुव्वी अ। एवं जहा दव्वानुपूव्वीए संगहस्स तहा भाणिअवं जाव सेत्तं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणया। एआए णं संगहस्स भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओअणं ? एआए णं मंगसमुक्कित्तणयाए संगहस्स मंगोवदंसणया कज्जइ / से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया? संगहस्स भंगोवर्दसणया तिपएसोगाठे आनुपुथ्वी एगपएसोगाढे अणानुपुष्वी दुपएसोगाढे अवत्तथ्वए, अहवा-तिपएसोगाढे अ एगपएसोगाढे अ आनुपूवी अ अणानुपुटवी अ / एवं जहा दव्वानुपुथ्वीए संगहस्स तहा खेत्तानुपुथ्वीए विभाणिअध्वजाव सेत्तं संगहस्स मंगोवदंसणया। से किं तं समोआरे? समोआरे संगहस्स आनुपुटिवदव्वाइंकहिं समोतरंति ? किं आनुपुटिवदव्वेहिं सभोतरंति अणानुपुवि दव्वेहिं समोअरंति अवत्तय्वगदव्वेहिं समोअरंति? तिण्णि वि सट्ठाणे समोतरंति। सेत्तं समोआरे से किं तं अणुगमे अणुगमे अट्ठविहे पण्णत्ते,तं जहा-"संतपयपरूवणया, जाव अप्पाबहुं नऽस्थि"शा संगहस्स आनुपुटिवदव्वाइं किं अस्थि नऽस्थि निअमा अस्थि / एवं तिण्ण वि सेसगदाराइं जहा दवाणुपुव्वीए संगहस्स तहा खेत्तानुपुटवीए वि भाणिअप्वाइं; जाव सेत्तं अनुगमे / सेत्तं संगहस्स अणोवणिहिआ खेत्तानुपुवी। सेत्तं अणोवनिहआ खेत्ता (णु) पुटवी। (सूत्र 102) 'से किं तमि' त्यादि, इह संग्रहाभिमतद्रव्यानुपूर्व्यनुसारेण निखिलं भावनीयम् / नवरं क्षेत्रप्राधायान्यादव 'तिपएसोगाढा आणुपुव्वी जाव असंखज्जपएसोगाढा आणुपुव्वी एगपएसागाढा अणाणुपुव्दी, दुपएसोगाढा अवत्तव्वए' इत्यादि वक्तव्यं शेषं तथैवेति / उक्ता अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी। अथोपनिधिकीं तां निर्दिदिक्षुराहसे किं तं उवनिहिआ खेत्तानुपुटवी ? उवणिहिया खेत्ताणुपुथ्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- पुटवाणुपुथ्वी 1, पच्छानुपुर्वी 2, अणानुपुव्वी 3 / से किं तं पुव्वाणुपुटवी ? पुथ्वाणुपुव्वी अहोलोए तिरिअलोए उडलोए। सेत्तं पुष्वानुपुथ्वी से किंतं पच्छानुपुथ्वी ? पच्छाणु पुटवी उडलोए तिरिअलोए अहो लोए / सेत्तं पच्छानुपुटवी। से किं तं अणानुपुथ्वी ? अणाणुपुथ्वी, एआए चेव एगाइआए एगुत्त-रिआए तिगच्छगयाए सेटीए अन्नमन्नन्मासो दुरूवूणो। सेत्तं अणाणुपुथ्वी। 'से किं तं उवणिहिये' त्यादि। अत्र व्याख्या पूर्ववत्कर्त्तव्या, नवरं तत्र द्रव्यानुपूर्व्यधिकाराद्धमास्तिकायादिद्रव्याणि पूर्वानुपूर्व्यादित्वेनोदाहृतानि अत्र तु क्षेत्रानुपूर्व्यधिकाराद-धोलोकादिक्षेत्रविशेषा इति, (अनु०) (अधोलोकव्याख्या 'अहोलोय' शब्दे प्रथमभागे 892 पृष्ठे गता) (तिर्यगलोकव्याख्या 'तिरियलोय' शब्दे चतुर्थभागे 2322 पृष्ठे दर्शयिष्यते) (ऊर्ध्वलोकव्याख्या 'उड्डलोग' शब्दे अस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) अत्रच जघन्यपरिणामवद्रव्ययोगतो जघन्यतया गुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टेरिवादावेवाऽधोलोकस्योपन्यासः, तदुपरि मध्यमद्रव्यदत्त्वान्मध्यमतया तिर्यग्लोकस्य तदुपरिष्टादुत्कृष्टदृव्यवत्त्वादू_लोकस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीत्वसिद्धिः पश्चानुपूर्वी तु व्यत्ययेन प्रतीतैव, अनानुपुया तु पदत्रयस्य षड् भङ्गा भवन्ति, ते च पूर्व दर्शिता एव, शेषभावना त्यिह प्राग्वदेवेति। अत्र च क्वचिद्वाचनान्तरेएकप्रदेशावगाढादीनामसंख्यात-प्रदेशावगाढास्तानां प्रथम पूर्वानुपूर्व्यादिभाव उक्तो दृश्यते, सोऽपि क्षेत्रानुपुर्व्यधिकारादविरुद्ध एव सुगमत्वाचोक्तानुसारेण भावनीय इति। 10 अस्मिन्नेव भागे 157 पृष्ठे 95 सूत्रे जावशब्दसंग्रहीतं गतम्। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 166 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुटवी साम्प्रतं वस्त्वन्तरविषयत्वेन पूर्वानुपादिभावं दिदर्श- | असंखेज्जगच्छगयाए सेटीए अन्नमण्णमासो दुरूवूणो / यिषुरधोलोकादीनां च परिभेदज्ञानं शिष्यव्युत्पतिं पश्यन्नाह सेत्तं अणाणुपुटवी। (सूत्र-१०३) अहोलोअखेत्तानुपुदी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा पुटवानुपुथ्वी, तिर्यग्लोके क्षेत्रानुपूर्व्या 'जंबुद्दीवे' इत्यादि गाथाव्याख्याद्वाभ्यां पच्छानुपुटवी, अणानुपुटवी / से किं तं पुटवानुपुटवी ? प्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युपष्टम्भहेतुत्वलक्षणाभ्यां प्राणिन: पुटवाणुपुथ्वी रयणप्पभा सक्करप्पभा वालुअप्पमा पंकप्पमा पान्तीति द्वीपा:-जन्त्वावासभूतक्षेत्रविशेषा: सह मुद्रया-मर्यादया वर्तन्त धूमम्पमा तमप्पभा तमतमप्पमा। सेत्तं पुव्वानुपुथ्वी। से किं तं इति समुद्राः प्रचुरजलोपलक्षिताः क्षेत्रविशेषा एव. एते च तिर्यग्लोके पच्छानुपुटवी ? पच्छाणुपुटवी तमतमा जाव रयणप्पभा। सेत्तं प्रत्येकमसंख्येया भवन्ति, तत्र समस्तद्वीप-समुद्राभ्यन्तरभूतत्वेनादौ पच्छानुपुथ्वी। से किं तं अणानुपुटवी? अणाणुपुथ्वी एआए चेव तावज्जम्बूवृक्षणोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्ततस्तं परिक्षिप्य स्थितो एगाइआए एगुत्तरिआए सत्तगच्छगयाएसेटीए अण्णमण्णमासो लवणरसास्वादनीरपूरित: समुद्रो लवणसमुद्र: एकदेशेन समुदायस्य दुरूवूणो / सेत्तं अणानुपुर्वी +1 गभ्यमानत्वात्, एवं पुरस्तादपि यथासम्भवं द्रष्टव्यं 'धायइकालोय' त्ति ततो लवणसमुद्रं परिक्षिप्य स्थितो धातकीवृक्षखण्डोपलक्षितो द्वीपो 'अहोलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहे' त्यादि। अधौलोकक्षेत्रविषया आनुपूर्वी, धातकीखण्डस्तत्परितोऽपिशुद्धोदकरसास्वाद: कालोदधिसमुद्रःतंच आनुपूर्वी औपनिधिकीति प्रक्रमाल्लभ्यते सा त्रिविधा प्रज्ञप्ता, 'तद्यथे' परिक्षिप्य स्थित: पुष्करैः- पद्मवरैरूपलक्षितो द्वीप: पुष्करवरद्वीप: त्यादि, शेषं पूर्ववद्भावनीयम्। यावद्रत्नप्रभेत्यादि (अनु०)। रत्नप्रभाया: तत्परितोऽपि शुद्धोदकरसास्वाद एवं पुष्करोद: समुद्रः, अनयोश्च व्याख्या 'स्यणप्पभा' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यामि) (शर्कराप्रभाया: द्वयोरप्यकेनैव पदेयात्र संग्रहो द्रष्टव्यः 'पुक्खरे' त्ति-एवमुत्तरत्रापि तत:सर्वा वृत्तान्त: 'सक्करप्यभा' शब्दे सप्तमे भागे वक्ष्यते) 'वरुणो' त्ति-वरुणवरो द्वीपस्ततो वारुणीरसास्वादो वारुणोद: समुद्रः (वालुकाप्रभाविस्तर : 'वालुयप्पभा' शब्दे षष्ठे भागे कथयिष्यते) 'खीर' त्ति-क्षीरवरो द्वीप: क्षीररसास्वादो क्षीरोद: समुद्रः 'घय' त्ति(पङ्कप्रभाया: सर्वं वृत्तम' पंकष्पभा' शब्दे पञ्चमे वक्ष्यते) (धूमप्रभायाः घृतवरो द्वीप: घृतरसास्वादो घृतोद: समुद्रः 'खोय'-त्ति इक्षुवरो द्वीप: व्याख्यानम् 'धूमप्पभा' शब्दे चतुर्थे भागेकरिष्यते) (तम:प्रभाकीदृशीति इक्षुरसास्वाद एवेक्षुरस: समुद्रः, इत ऊर्ध्व सर्वेऽपि समुद्रा तमप्पभा' शब्दे चतुर्थे भागे वक्ष्यते) (तमस्तम: प्रभाया: सर्वां विषयः दीपसदृशनामानो मन्तव्याः, अपरंच- स्वयंभूरमणवर्जा: सर्वेऽपीक्षुरतमतमप्पभा' शब्दे चतुर्थे भागे करिष्यते।) अत्र प्रज्ञापकत्यासन्नेति सास्वादाः, तत्र द्वीपनामान्यमुनि, तद्यथा-नन्दी-समृद्धिस्तस्या ईश्वरो रत्नप्रभाया आदावुपन्यास कृतः, तत: परंव्यवहितव्यवहिततरादित्वात् द्वीपो नन्दीश्वरः, एवम् अरुणवर: अरुणावास कुण्डलवर:, शङ्कवरः, क्रमेण शर्कराप्रभादीनामिति पूर्वाऽऽनुपूर्वीत्वं व्यत्ययेन पश्चानुपूर्वी रुचकवरः, इत्येवं षड्दीपनामानि चूर्णी लिखितानि दृश्यन्ते; सूत्रे तुत्वम्, अमीषां च सप्तानां पदानां परस्पराभ्यासे पञ्चसहस्राणि 'नन्दी अरुणवरे कुण्डले रुयगे' इत्येतस्मिन गाथा दले चत्वार्येव चत्वारिंशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति तानि चाद्यन्तभङ्गकद्वय- तान्युपलभ्यन्ते अतश्चूर्णि-लिखितानुसारेण रुचकस्त्रयोदशः रहितान्यनानुपूया दृष्टव्यानि इति, शेष भावना पूर्ववदिति। सूत्रलिखितानुसारस्तुस एवैकादशो भवति, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति तिरिअलोखेत्तानुपुष्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा पुष्वाणुपुथ्वी गाथार्थः / इदानीमनन्तरो- क्तद्वीपसमुद्राणामवस्थितिस्वरूपप्रतिपाद१, पच्छाणुपुथ्वी 2, अणाणुपुथ्वी 3 / सेकिं तं पुटवाणुपुथ्वी ? नार्थ शेषाणां तु नामाभिधानार्थमाहपुव्वाणुपुथ्वी "जंबुद्दीवाओ खलु, निरंतरा सेसया असंखइमा। "जंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोअ पुक्खरे वरुणे। भुयगवरकुसवरा वि य, कोंचवराऽऽभरणमाई य" ||२|इति। खीर घय खोअनंदी, अरुणवरे कुंडले रअगे || (अस्या: गाथायाः) व्याख्या-एते-पूर्वोक्ता: सर्वेऽपि जम्बूद्रीपा-दारभ्य आभरणवत्थगंधे, उप्पलतिलए अपुढविनिहिरयणे। निरन्तरा नैरन्तर्येण व्यवस्थिताः,न पुनरमीषामन्तरे अपरो द्वीप: वासहर-दह-नईओ, विजया वक्खार-कप्पिंदाशा कश्चनापि समस्तीति भावः, ये तु शेषका: भुजगवरा-दय इत ऊर्ध्व वक्ष्यन्ते ते प्रत्येकमसंख्याततमा द्रष्टव्याः, तथा हि-'भुयगवरे' कुरुमंदरआवासा, मूडा नक्खत्तचंदसूरा य। त्तिपूर्वोक्ताद्चकवराद्वीपादसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् गत्वा भुजगवरो देवे नागे जक्खे, भूए असंयमुरमणे अ ||3|| नाम द्वीप: समस्ति! 'कुसवर ति- ततोऽप्यसंख्येयाँस्तान्गत्या कुशवरो सेत्तं पूवाणुपुथ्वी। नामद्रीप: समस्ति अपिचेति समुच्चये 'कोंचवर' त्ति-ततोऽप्यससंख्येसे किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुटवी संयभूरमणे अ. जाव यांस्तानतिक्रम्य क्रौञ्चवरो नाम द्वीप: समस्ति 'आभरणमाई य' जंबुद्दीवे / सेत्तं पच्छाणुपुटवी / से किं तं अणाणु- त्तिएवमसंख्येयान् द्वीपसमुद्रानुल्लच्याऽऽभरणाऽऽदयश्च आभरणापुटवी ? अणाणुपुटवी एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए दिनाम-सदृशनामानश्च द्वीपा, वक्तव्या:, समुद्रास्तु तत्सदृशना Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 167 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी मान एव भवन्तीत्युक्तमेवेति गाथार्थः / इयं च गाथा कस्याञ्चिद्वाचनायां न दृश्यत एव केवले क्वाऽपि वाचनाविशेषे दृश्यते टीकाचूर्योस्तु तद्व्याख्यानमुपलभ्यत इत्यत्माभिरपि व्याख्यातेति। तान्येवाऽऽभरणादीनाह-'आभरणवत्थे' त्यादिगाथाद्वयम्, असंख्येयानां संख्येयानाम् द्वीपानामन्ते आभरणवस्त्रगन्धोत्पलतिलकादिपर्यायसदृशनामक एकैकोऽपि द्वीपस्तावद्वक्तव्यो यावदन्ते स्वयंभूरमणो द्वीप: शुद्धोदकरस: स्वयंभूरमण एव समुद्र इति गाथाद्वयभावार्थ: / ननुयद्येवंतसिंख्येयान् द्वीपानतिक्रम्य ये वर्तन्ते तेषामेव द्वीपानामेतानि नामान्याख्यातानि; ये त्वन्तरालेषु द्वीपास्ते किंनामका इति वक्तव्यम? सत्यम लोकेपदार्थाना शङ्खध्वजकलशस्वस्तिक- श्रीवत्सादीनि यावन्ति शुभनामानि तै; सर्वैरप्युपलक्षितास्तेषु द्वीपा: प्राप्यन्त इति स्वयमेव दृष्टव्यं, यत उक्तम् 'दीवसमुद्दा णं भंते! केवइया नामधिज्जेहिंपण्णत्ता ? गोयमा!जावइया लोए सुभा नामा सुभा रूवा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवइया णं दीवसमुद्दा नामधिज्जे हिं पण्णत्ता" इति / संख्या तु सर्वेषामसंख्येयस्वरूपा "उद्धारसागराणं, अड्डाईज्जाण जत्तिया समया दुगुणा दुगुणपवित्थरदीवोदहिरज्जु एवइया ' इति गाथा प्रतिपादिता द्रष्टव्या तदेवमत्र क्रमोपन्यासे पूर्वानु-पूर्वीव्यत्ययेन पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी त्वममीषामसंख्येयानां पदानां परस्पराभ्यासे येऽसंख्येया भङ्गा भवन्ति भङ्गकद्धयोना तत्स्वरूपा द्रष्टव्येति। उडलोअखेत्ताणुपुथ्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुटवाणुपुथ्वी, पच्छाणुपुथ्वी, अणाणुपुटवी। से किं तं पुटवाणुपुटवी ? पुथ्वाणुपुथ्वी-सोहम्मे ईसाणे सणंकुमारे माहिदे बंभलोएलंतए महासुक्के सहस्सारे आणए पाणए आरणे अचु (ए) ते गेवेज्जविमाणे अणुत्तरविमाणे इसिपब्भारा। सेत्तं पुटवानुपुटवी। से किं तं पच्छाणुपुटवी ? पच्छाणुपुटवी ईसिप्पडमारा जाव सोहम्मे। सेत्तं पच्छाणु-पुटवी / से किं तं अणाणुपुटवी ? अणाणुपुटवी एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए पण्णरसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो / सेत्तं अणाणुपुटवी। अहवा-उवनिहिआ खेत्ताऽऽणुपुथ्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुटवाणुपुथ्वी, पच्छाणुपुथ्वी, अणाणुपुथ्वी। से किं तं पुष्वाणुपुटवी? पुव्वाणुपुथ्वी-एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे दसपएसोगाढे संखिज्जपएसोगाढे जाव असं खिज्जपएसोगाढे / सेत्तं पुष्वाणुपुटवी // से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुटवी-असंखिज्जपएसोगाढे संखिज्जपएसोगाठे जाव एगपएसोगाढे / सेत्तं पच्छाणुपुथ्वी! से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुटवी-एआए चेव एगाइआए एगुत्त-रिआए | असंखिज्जगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुरूवूणो। सेत्तं अणाणुपुथ्वी। सेत्तं उवनिहिआखेत्ताणु-पुथ्वी / सेत्तं खेत्ताणुपुर्वी (सूत्र 104) ऊर्ध्वलोक क्षेत्रानुपूाम्- सोहम्मे' त्यादि / सकलविमान प्रधानसौधर्मावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षित-त्वात्सौधर्म: एवं सकलविमानप्रधानेशानावंतसक-विमानविशेषोपलक्षित ईशानः, एवं तत्तद्विमानावतंसक-प्राधान्येन तत्तन्नाम वाच्यं यावत्सकलविमानप्रधाना-च्युतावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षितोऽच्युतः लोकपुरुषस्यग्रीवाविभागे भवानि विमानानि ग्रैवेयकानि, नैषामन्यान्युतराणि विमानानि सन्तीत्यनुत्तरविमानानि, ईषदाराक्रान्तपुरुषवन्नता अन्तेष्वितीषत्प्रागभारेति / अत्र प्रज्ञापक प्रत्यासत्तेः आदी सौधर्मास्योपन्यासः, ततो व्यवहितादिरूपत्वात् क्रमेणेशानादीनामिति पूर्वानुपूर्वीत्वं, शेषभावना तु पूर्वोक्तानुसारत: कर्त्तव्येति / क्षेत्रानुपूर्वी समाप्ता। उक्ता क्षेत्रानुपूर्वी। (2) साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टामेव क्रमप्राप्तां कालानुपूर्वी व्याचिख्या-सुराहसे किं तं कालाणुपुथ्वी? कालाणुपुष्वी दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- उवनिहिआ य, अणोवणिहिआय। (सूत्र-१०५)। तत्थ णं जा सा उवनिहिआ सा ठप्या। तत्थ णं जा सा अणोवणिहिआ सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा णेगमववहाराणं, संगहस्स य / (सूत्र-१०६) / से किं तं नेगमववहाराणं अणोवनिहिआ कालाणुपुटवी ? अणो-वणिहिआ कालाणुपुथ्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- अट्ठपयपरूवणया, भंगसमुक्कित्तणया 2, भंगोवदंसणया३, समोआरे 4, अणुगमे 5 / (सूत्र 107) / से किं तं गमवव-हाराणं अपयपरूवणया ? णेगम, तिसमयटिइए आणुपुटवी जाव दससमयहिईए आणपुटवी संखिज्जसमयट्ठिईए आणुपुटवी असंखिज्जसमयट्टिईए आणुपुथ्वी एगसमयट्टिईए अणाणुपुटवी दुसमयष्टिईए अवत्तटवए तिसमयहिईयाओ आणुपुटदीओ एगसमयहिइआओ अणाणु पुटवीओ दुसमयट्टिइआ अवत्तवगाई / सेत्तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया। एआए णं णेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओयणं ? एयाए णं णेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए, नेगमववहाराणं मंगसमुक्कित्तणया कज्जइ, (सूत्र 108) / से किं तं गमववहाराणं मंगसमुक्कित्तणया ? णेगम अत्थि आणुपुटवी, अत्थि अणाणुपुटवी, अस्थि अवत्तट्वए, एवं दवाणुपुटवीगमेणं कालाणुपुटवीए वि ते चेव छवीसं 26 मंगा भाणिअय्वाजाव सेत्तं णे गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया / एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओअणं ? एआए ण गमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए णेगमववहा-राणं मंगो वदंसणया कज्जइ, सूत्र (109) / से किं तं Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुवी 168 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुटवी णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया ? गमव तिसमयहिईए आणुपुथ्वी, एगसमयदिईए अणाणुपुथ्वी, दुसमयष्टिईए अवत्तव्वए तिसमयट्टिईआ आणुपुर्वीओ, एगसमयट्ठिइआ अणाणुपुटवीओ, दुसमयट्टिईआ अवत्तव्वगाई। अहवातिसमयट्ठिईए अ एग समयट्टिईए अ आणपुथ्वी अ अणाणुपुष्वी अ, एवं तहा चेव दवाणुपुटवी-गमेणं छवीसं 26 मंगा भाणिअव्वा जाव सेत्त नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया (सूत्र-११७)। से किं समोतारे ? समोआरे णेगमववहाराणं आणुपुटवीदव्वाई कहिं समो-तरंति? किं आणपुटवीदवे हिं समोतरंति अणाणुपुव्वीदवेहि, एवं तिण्णि विसहाणे समोतरंति इति भाणिअव्वं / सेत्तं समोतारे। (सूत्र-१११) / से किं तं अणुगमे ? अणुगमे णवविहे पण्णत्ते, तं जहा "संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुंचेव" ||शा (सूत्र 1124) 'से किं तं कालानुपुची' त्यादि अत्राक्षरगमनिका यथा द्रव्यानुपुर्व्या तथा कर्तव्या, यावत् -'तिसमयट्टिईए आणुपुव्वी' त्यादि, त्रय समया: स्थितिर्यस्य परमाणुढ्यणुकत्र्यणुकाधनन्ता- णुकस्कन्धपर्यन्तस्य द्रव्यविशेषस्य सः त्रिसमयस्थितिव्यविशेष आनुपूर्वीति / आह- ननु यदि द्रव्यविशेष एवात्राप्यानुपूर्वी कथं तर्हि तस्य कालानुपूर्वीत्वम्? नैतदेवम्- अभिप्राया-ऽपरिज्ञानात्, यत: समयत्रयलक्षणकालपर्यायविशिष्टमेव द्रव्यं गृहीतं, ततश्च पर्यायपर्यायिणो: कथञ्चिदभेदात्कालपर्यायस्य चेह प्राधान्येन विवक्षितत्वाद् द्रव्यस्यापि विशिष्टस्य कालानुपूर्वीत्वं न दुष्यति, मुख्यं समयत्रयस्यैवात्रानुपूर्वीत्वं, किन्तुतद्विशिष्ट द्रव्यस्यापि तदभेदोपचारात्तदुक्त इति भावः। एवं | चतु:समयस्थित्यादिष्वपि वाच्यं, यावद्दश समयाः स्थितिर्यस्य / परमाण्वादिद्रव्यसङ्घातस्य स तथा ! संख्येया: समया: स्थितिर्यस्य | परमाण्वादे: स तथा। असंख्येया: समया: स्थितिर्यस्य परमाण्वादे: स तथा, "अनन्तास्तु समया द्रव्यस्य स्थितिरेव न भवति'' स्वाभाव्यादित्युक्तमेवेति, शेषा बहुवचन-निर्देशादिभावना पूर्ववदेव एकसमयस्थितिकं परमाण्वा-धनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमनानुपूर्वी द्विसमयस्थितिकं तु तदेवावक्तव्यकमिति, शेषं पूर्वोक्तानुसारेण सर्व भावनीयम्। णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं किं अत्थिणऽत्थि? नियमा तिण्णि वि अस्थि / नेगमववहाराणं आणुपुटवीदवाई किं संखेज्जाइ ? असंखेज्जाइं? अणंताई ? तिण्णि वि नो संखिज्जाई, असंखेज्जाई, नो अणंताई। यावद द्रव्यप्रमाणद्वारे-नो संखेज्जाइं, असंखेज्जाई, नो अणंताई' / इति / अस्य भावना इह त्र्यादिसमग्रस्थितिकानि परमाण्वादिद्रव्याणि लोके, यद्यपि प्रत्येकमनन्तानि प्राप्यन्ते तथाऽपि समयत्रयलक्षणाया: स्थितेरेकस्वरूपत्वात् काल-(स्य चेह) स्यैवेह प्राधान्येन द्रव्यबहुत्वस्य गुणीभूतत्वात् त्रिसमययस्थितिकैरनन्तैरप्येकमेवानुपूर्वीद्रव्यम् एवं चतु:समय-लक्षणाया: स्थितेरेकत्वादनन्तैरपि चतु:- समयस्थितिकद्रव्यैरेकमेवानुपूर्वीद्रव्यम्, एवं समयवृद्ध्या तावन्नेयं यावदसंख्येयसमयलक्षणाया: स्थितेरेकत्वादनन्तैरप्यसंख्येयसमय-स्थितिकैर्द्रव्यैरेकमेवानुपूर्वीद्रव्यमिति, एवमसंख्येयान्येवात्रानु- पूर्वीद्रव्याणि भवन्ति एवमनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याण्यपि प्रत्येकमसंख्येयानिवाच्यानि, अत्राहनन्वेकसमयस्थितिकद्र- व्यवस्यानानुपूर्वीत्वं द्विसमयस्थितिकस्य त्ववक्तव्यकत्वमुक्तम्, तत्र यद्यप्येकद्विसमयस्थितीनपरमाण्वादिद्रव्याणि लोके प्रत्येकमनन्तानि लभ्यन्ते तथाऽप्यनन्तरोक्तत्वादुक्तयुक्तयैव समयलक्षणाया द्विसमयलक्षणायाश्च स्थितितेरेकैकरूपत्वाद् द्रव्यबाहुल्यस्य च गुणीभूतत्वावादेकमेवानानुपूर्वाद्रव्यमेकमेव चाऽवक्तव्यकद्रव्यं वक्तुं युज्यते, नतु प्रत्येकमसंख्येयत्वम् अथ द्रव्यभेदेन भेदोऽङ्गीक्रियते तर्हि प्रत्येकमानन्त्यप्रसक्ति: एकसमय-स्थितीनां द्विसमयस्थितीनां च द्रव्याणां प्रत्येक मनन्तानां लोके सद्भावादिति सत्यमेतत्, किन्त्वेकसमयस्थितिकमपि यदव-गाहभेदेन वर्त्तते तदिह भिन्नं विवक्ष्यते, एवं द्विसमय-स्थितिकमप्यवगाहभेदेन भिन्नं चिन्त्यते, लोके च असंख्येया अवगाहभेदा: सन्ति / प्रत्यवगाहं चैकद्विसमयस्थितिकाऽनेकद्रव्यसम्भवादनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामाधारक्षेत्रभेदात् प्रत्येकसंख्येयत्वं न विहन्यत इतिअनया दिशा अतिगहनमिदं सूक्ष्मधिया पर्यालोचनीयमिति। क्षेत्रद्वारेनेगमववहाराणं आणुपुय्वीदव्वाइंलोगस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा? असंखिज्जइभागे होज्जा? संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा ? सव्वलोए वा होज्जा? एगं दध्वं पञ्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा असंखेज्जइभागे वा होज्जा? संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा ? असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा ? देसूणे वा लोए होज्जा ? नाणादप्वाइं पडुच नियमा सवलोए होज्जा, एवं अणाणुपुथ्वीदव्वं, आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु होज्जा, एवं अवत्तव्वगदव्वाणि विभाणिअव्वाणिजहाखेत्ताणुपुव्वीए। फुसणा कालाणुपुथ्वीए वितहा चेव भाणिअव्वा। (सूत्र-११२ +) 'एगं दव्वं पडुच लोगस्स संखेज्जाइभागे वा होज्जा जाव देसूणे वा लोगे 'होज्ज' त्ति-इह त्र्यादिसमयस्थितिकद्रव्यस्य तत्तदवगा (ह) ढसंभवत: संख्येयादिभागवर्तित्वं भावनी-यम् यदा व्यादिसमयस्थितिक: सूक्ष्मपरिणाम: स्कन्धो देशोने लोकेऽवगाहतेतदैकस्यानुपूर्वीद्रव्यस्य देशोनलोकवर्तित्वंभावनीयम्, अन्येतु-"पदेसूणेवा लोगेहोज्ज" त्ति पाठ मन्यन्ते तत्राप्ययमेवार्थः, प्रदेशस्यापि विवक्षया देशत्वादिति, संपूर्णेऽपि लोकेकस्मादिदं न प्राप्यत इति चेद्, उच्यते-सर्वलोकव्यापां अचित्त महास्कन्ध एव प्राप्यते स च तद्व्याषितया एकमेव समयमव Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 169 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी तिष्ठते, तत ऊर्ध्वमुपसंहारस्योक्तत्वात, नचैकसमयस्थितिकमानु- | महास्कन्धभ्यैव सर्वलोकव्यापकत्वात्तस्य चावक्तव्यकत्वा-योगादिति। पूर्वीद्रव्यं भवितुमर्हति, व्यादिसमयस्थितिकत्वेन त स्योक्तत्वात्, एतदपि सूत्रवाचनान्तरे क्वचिदेव दृश्यते। नानाद्रव्याणितुसर्वलोकभवन्ति तस्मात् त्र्यादिसमयस्थितिकमन्यद् द्रव्यं नियमादेकेनाऽपि प्रदेशेनोन द्विसमयस्थितीनां सर्वत्र भावादिति। गतं क्षेत्रद्वारम्। स्पर्शन्गद्वारमप्येवमेव एव लोकऽवगाहत इति प्रतिपत्त-व्यम् / अत्राह नन्वचित्तमहास्कन्धोऽ- भावनीयम्। प्ये कसमयस्थितिको न भवति, दण्डाद्यवस्थासमयगणनेन कालद्वारेतस्याप्यष्टसमयस्थितिक- त्वाद् एवं च सति तस्याप्यानुपूर्वीत्वात् णेगमववहाराणं आणुपुटवीदवाइं कालओ के वचिरं संपूर्णलोकव्यापित्वं युज्यतेऽत्र वक्तु मिति, नैतदेवम्, अवस्थाभेदेन होन्ति ? एगं दध्वं पडुच जहण्णेणं तिण्णि समया, उक्कोसणं वस्तुभेदस्येह विवक्षितत्वाद्भिन्नाश्च परस्परं दण्डकपाटाद्यवस्था:, असखेज्जं कालं नाणादव्वाइंपडुच सव्वऽद्धााणेगम-ववहाराणं ततस्तद्भेदन (स्कन्धभेदेन) वस्तुनोऽपि भेदाद, अन्यदेव दण्डकपाटा- अणाणुपुटवीदव्वाइं कालओ केवचिरं होइ ? एगं दध्वं पडुच द्यवस्थाद्रव्येभ्य: सकललोकव्याप्यचित्तमहास्कन्धद्रव्यं, तचैकसमय- अजहन्नमणुक्कोसेणं एक्कं समयं नाणादवाई पडुच्च निअमा स्थितिकमिति, न तस्यानुपूर्वीत्म एतचानन्तरमेव पुनर्वक्ष्यत इत्यले / सवऽद्धा / अवत्तट्वगदवाणं पुच्छा, एग दवं पडुच विस्तरेण / अथवा-यथा क्षेत्रानुपूर्त्यां तथाऽत्रापि सर्वलोकव्यापिनोऽ- अजहणमणुक्कोसेणं एक्कं समयं नाणादव्वाई पडुच्च निअमा प्यचित्तमहास्कन्धस्य विवक्षामात्रमाश्रित्य एकस्मिन्नभ:प्रदेशे सव्वऽद्धा+ त्वप्रधान्याद्देशोव लोकवर्तित्वं वाच्यम्, एकसमयस्थितिकस्याना- 'एगं दव्वं पडुच जहण्णेणं तिणि समय' ति- जघन्यतोऽपि नुपूर्वीद्रव्यस्य द्विसमयस्थितिका- वक्तव्यकस्य च तत्र प्रदेशे त्रिसमयस्थितिकस्यैवानुपूर्वीत्वेनोक्तत्वादिति भाव: / 'उक्को-सेणं प्राधान्याश्रयणादिति भावः / एवमन्यदपि आगमाऽविरोधतो असंखेयं काले' ति-असंख्येयकालात्परत एके न परिणामेव वक्तव्यमिति / 'नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्ज' त्ति- द्रव्यावस्थानस्यैवाभावादिति हृदयम्। नानाद्रव्याणि तु सर्वकालै भवन्ति, त्र्यादिसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वलोकऽपि भावादिति भावनीयम् / प्रतिप्रदेश लोकस्य सर्वदा तैरशून्यत्वादिति / अनानुपूर्व्यवक्तव्यकाअनानुपूर्वीद्रव्यचिन्तायां यथा क्षेत्रानुपूर्त्यां तथा अत्राप्येकद्रव्ये चिन्तायाम् 'अजहन्नमणुक्कोसेणं' ति-जघन्योत्कृष्टचिन्तामुत्सृज्येलोकस्यासंख्येयभाग एव वर्तते कथमिदम् ? उच्यते-यत् कालत त्यर्थ: नहि एकसमयस्थितिक-स्यैवानानुपूर्वीत्वे द्विसमयस्थितिकस्यैव एकसमयस्थितिकं तत् क्षेत्रतोऽप्येकप्रदेशावगाढमेवेहानानुपूर्वीत्वेन चावक्तव्यध्यकत्वेऽभ्यु-पगम्यमाने जघन्योत्कृष्टचिन्ता सम्भवतीति विवक्ष्यते तचलोकसंख्येयभाग एव भवति, 'आएसंतरेण वा सव्यपुच्छासु भावः, नानाद्रव्याणि तूभयत्रापि सर्वकालं भवन्ति, प्रतिप्रदेशं तैरपि होज्ज' -त्ति अस्य भावनाइहाचित्तमहास्कन्धस्य दण्डाद्य-वस्था: सर्वदा लोकस्या-शून्यत्वादिति। परस्परं भिन्नाः, आकारादिभेदाद, द्वित्रिचतु: प्रदेशा-कादिस्कन्धवत्, अंतरद्वारेतश्चता एकसमयवृत्तित्वात् पृथग-नानुपूर्वीद्रव्याणि तेषु च मध्ये किमपि णेगमववहाराणं आणुपुग्विदवाणमंतरं कालओ के वचिरं कियत्यपि क्षेत्रे वर्त्तत इत्यनया विवक्षया किलैकमनानुपूर्वीद्रव्यं मतान्तरेण होई? एगंदव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं दो समया संख्येय-भागादिकासु पञ्चस्वपि पृच्छासु लभ्यते, एतच सूत्रेषु प्रायो न नाणाददाइं पडुच नऽत्थि अंतरं / गमववहाराणं दृश्यते, टीकाचूर्योस्त्वेवं व्याख्यातमुपलभ्यत इति. नाना-द्रव्याणितु अणाणुपुष्वीदव्वाणमंतरं कालओ केवचिरं होइं? एगं दध्वं सर्वस्मिन्नपि लोकेभवन्ति, एकसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वत्र भावादिति। पडुब जहण्णेणं दो समया, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायां क्षेत्रानुपूर्व्यामिवैकद्रव्यं लोकस्यासंख्येयभाग णाणादवाइं पडुच्च णऽथि अंतरं / नेगमववहाराणं अवत्तय्वएव वर्तते, कथमिति, उच्यते- यत्कालतो द्विसमयस्थितिकं तत् क्षेत्रतो गदवाणुपुटिवदवाणं पुच्छा एगं दवं पडुच जहण्णेणं द्रिप्रदेशावगाढमेवेहावक्तव्यकत्वेन गृह्यते, तच लोकासंख्येयभाग एव एगं समअं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, णाणदव्वाइं पडुच स्यात्, अथवा द्विसमय-स्थितिकं द्रव्यं स्वभावादेव लोकस्यासंख्येय- नऽस्थि अंतरं +1 भागएवावगाहते: न परत:, आदेशान्तरेण वा-"महाखंधवज्जमन्नदव्वेसु 'एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं' ति-अत्र भाव-नाइह आइल्लचउपुच्छासु होज्ज" त्ति अस्य हृदयम् - मतान्तरेण त्र्यादिसमयस्थितिकं विवक्षितं किञ्चिदेकमानुपूर्वीद्रव्यं ते परिणाम किल द्विसमयस्थितिकमपि द्रव्यं किंचिल्लोकस्य संख्येयभागेऽवगाहते परित्यज्य यदा परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा पुनस्तेनैव किंचित्त्वसंख्येये अन्यत्तु संख्येयेषुतद्भागेष्ववगाहते अपरंत्यसंख्येयेष्विति परिणामेन व्यादिसमयस्थितिकं जायते तदा जघन्यतया महास्कन्धं वर्जयित्वा शेषद्रव्याण्याश्रित्य यथोक्तस्वरूपास्वाद्यासु समयोऽन्तरे लभ्यते, 'उक्कोसणं दो समय' त्ति-तदेव यदा चतसृषु पृच्छास्वे- कमवक्तव्यकद्रव्यं लभ्यते, महास्कन्धस्य परिणामान्तरेण द्वौ समयौ स्थित्वा पुनस्तमेव त्र्यादिसमयस्थितित्वष्टसमयस्थितित्वेनोक्तत्वान्न द्विसमयस्थितिकत्वसंभव इति तद्वर्जनम्, युक्तम् प्राक्तनं परिणाममासादयति तदा द्वौ समयावुत्कृष्टतोऽन्तरे अत एव सर्वलोकव्याप्तिलक्षणायाः पञ्चमपृच्छाया अत्राऽसंभवः भवत: यदि पुन: परिणामान्तरेण क्षेत्रादिभेदत: समय Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 170 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी द्वयात् परतोऽपि तिष्ठेतदा तत्राप्यानुपूर्वीत्वमनुभवेत्, ततो-ऽन्तरमेव न स्यादिति भाव: नानाद्रव्याणां तु नाऽस्त्यन्तरं सर्वदा लोकस्य तदशून्यत्वादिति। अनानुपूर्वीचिन्तायाम् ‘एगं दव्वं पडुच जहण्णेणं दो समय' त्ति-एकसमयस्थितिकं द्रव्यं यदा परिणामान्तरेण समयद्वयमनुभूय पुनस्तमेवैकसमयस्थितिकं परिणाममासादयति तदा समयद्वयं जघन्योऽन्तरकाल:, यदितु परिणामान्तरेणाऽप्येकमेव समयं तिष्ठेत्तदा अन्तरमेव न स्यात्, तत्राप्यनानुपूर्वीत्वाद्, अथ समयद्वयात्परतस्तिष्ठेतदा जघन्यत्वं न स्यादिति भावः। 'उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' ति- तदेव यदा परिणामान्तरेणासंख्येयकालमनुभूय पुनरेकसमयस्थितिक परिणाममनुभवति तदोत्कृष्टतोऽसंख्येयोऽन्तरकल: प्राप्यते। आह ननु यदिच अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसम्बन्धे तस्यानन्तोऽपि कालाऽन्तरे लभ्यते किमित्यसंख्येय एवोक्त ? सत्यम्, किन्तु-कालानुपूर्वीप्रक्रमात्कालस्यैवेह प्राधान्यं कर्त्तव्यम्, यदि त्वन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसम्बन्धतोऽन्तरकालबाहुल्यं क्रियते तदा तद्द्वारेणैवान्तरकालस्य बहुत्वकरणात्तयोयोरेव प्राधान्यमाश्रितं स्यान्न कालस्य तस्मादेकास्मिन्नेव परिणामान्तरे यावान् कश्चिदुत्कृष्ट: कालो लभ्यते स एवान्तरे चिन्त्यते, सचासंख्येय एव तत: परभेकेन परिणामेन वस्तुनोऽवस्थानस्यैव निषिद्धत्वादित्येवं भगवतः सूत्रस्य विवक्षावैचित्र्यात्सर्वं पूर्वमुत्तरत्र चागमाऽविरोधेन भावनीयमिति। नानाद्रव्याणांतुनास्त्यन्तरं प्रतिप्रदेशं लोके सवदा तल्लाभादिति / अवक्तव्यकद्रव्याचिन्ता-याम् 'जहण्णेणं एग समयं' ति-द्विसमयस्थितिकं किञ्चदवक्तव्यकद्रव्यं परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा यदा पूवानुभूतमेव द्विसमयस्थितिकपरिणाममासादयति ता समयो जघन्या-न्तरकाल:। 'उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं' ति- तदेव यदा परिणामान्तरेणासंख्येयं काले स्थित्वा पुनस्तमेव पूर्व्यानुभूतं परिणाममासादयति तदाऽसंख्यात उत्कृष्टोऽन्तरकाला भवति, आक्षेपपरिहारावत्राप्यनानुपूर्वीवत् दृष्टव्याविति। नानाद्रव्यान्तरं तु नास्ति सर्वदा लोक तद्भावादिति। उक्तमन्तरद्वारम्। भागद्वारेभाग-भाव अप्पा बहुं चेव जहा खेत्ताणुपुटवीए तहा भाणिअव्वाइं, जाव सेत्तं अणुगमे। सेत्तं नेगमववहाराणं अणोवनिहिआ कालाणुपुर्वी। (सूत्र-११२४) भागद्वारे तुयथा द्रव्य-क्षेत्रानुपूर्दोस्तथैवानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्यभ्योऽ- | संख्येयै गैरधिकानि व्याख्येयानि, शेषद्रव्याणि त्वानुपूर्वीद्रव्याणामसंख्येयभाग एव वर्तन्ते इति, भावना त्वित्थं कर्त्तव्याइहानानुपूर्व्यामेकसमयस्थितिलक्षणमेकमेव स्थानं लभ्यते, अवक्तव्यकेप्यपि द्विसमयस्थितिलक्षणमेकमेव तल्लभ्यते, आनुपूया तु त्रिसमयचतु: समयपञ्चसमयस्थित्या दीन्येकोत्तरध्दयाऽसंख्येयसमयस्थित्यन्तान्यसंख्येयानि स्थानानि लभ्यते,इत्यानुपूर्वीद्रव्याणामसंख्येयगुणत्वम्, इतरयोस्तु तदसंख्येयभागवर्त्तित्वमिति / भावद्वारे सादिपारिणामिकभाववर्तित्वं त्रयाणामपि पूर्ववद्भावनीयम् / अल्पबहुत्वद्वारम् - सर्वस्तोकान्यवक्तव्यकद्रव्याणि द्विसमय-स्थितिकद्रव्याणांस्वभावत एवं स्तो कत्वात् अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु तेभ्यो विशेषाधिकानि, एकसमयस्थितिकद्रव्याणां निसर्गत एव पूर्वेभ्यो विशेषाधिकत्वाद्, आनुपूर्वीद्रव्याणां तु पूर्वेभ्यो-ऽसंख्यातगुणत्वं भागद्वारे भावितमेव, शेष तु क्षेत्रानुपूर्व्या-धुक्तानुसारत: सर्ववाच्यमिति अत एव केषुचिद्वाचनान्तरेषु भागादिद्वारत्रयं क्षेत्रानुपूर्व्यतिदेशेनैव निर्दिष्टं दृश्यते, नतु विशेषतो लिखितमिति। 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम् / उक्ता नैगम व्यवहारनयमतेनानोपनिधिकी कालानुपूर्वी। अथ संग्रहनयमतेन तामेव व्याचिख्यासुराहसे किं तं संगहस्स अणोवनिहिआ कालाऽऽनुपुथ्वी? संगहस्स अणोवणिहिया कालाणुपुथ्वी पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा अट्ठपयपरूवणया 1, मंगसमुक्कित्तणया 2, भंगोव-दंसणया 3, समोतारे 4, अणगुमे / (सूत्र-११३)1 से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ? संगहस्स अट्ठपयपरूवणया एआई पंच वि दाराइं जहा खेत्ताणुपुथ्वीए संगहस्स तहा कालाणुपुटवीए वि भाणिअथ्वाइं, णवरं ठिई, अमिलावो, जाव सेत्तं अणगुमे / सेत्तं संगहस्स अणो वनिहिआ कालाणु पुटवी / सेत्तं अणोवनिहिआ कालाणुपुथ्वी, (सूत्र-११४)। 'से किं तं' त्यादि / यथा क्षेत्रानुपुामियं संग्रहमतेन प्राग्निर्दिष्टा तथाऽत्रापि वाच्या, 'नवरं तिसमयठिइया आनुपुथ्वी जाव असंखेज्जसमयट्ठिइया आणुपुब्धी' त्यादि अभिलाप: कार्य: शेष तु तथैवोत। उक्ता संग्रहमतेनाष्यनौपनिधिकी कालानुपूर्वी, तथा च सति अवसित: तद्विचारः। इदानीं प्रागुद्दिष्टामेवोपनिधिकीं तां निर्दिदिक्षुराहसे किं तं उवनिहिआ कालाणुपुष्वी उवणिहिआ कालाणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा पुटवाणुपुटवी, पच्छाणुपुटवी, अणाणुपुथ्वी, से किं तं पुष्वानुपुष्वी ? पुव्वाणुपुव्वी। (अनु.)। एगसमयहिइए, दुसमयष्ठिइए, तिसमयट्टिइए जाव दससमयट्ठिइए संखिज्जसमयटिइए असंखिज्जसमय-द्विइए। सेत्तं पूवानुपुटवी। से किं तं पच्छानुपुव्वी ? पच्छाणुपुव्वी असंखिज्जसमयट्ठिइए जाव एगसमयट्ठिइए। सेत्तं पच्छानुपुटवी। से किं तं अणानुपुटवी ? अणाणुटवीएआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए असंखिज्ज-गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो / सेत्तं अणानुपुथ्वी। ‘से किं तमि' त्यादि / एक : समय: स्थितिर्यस्य द्रव्यविशेषस्य स तथा, एवं यावदसंख्येया: समया: स्थितिर्यस्य स तथेति पूर्वानुयुर्वी शेषभावना त्वत्र पूर्वक्तानुसारेण सुकरैव / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 171 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी अथ कालविचारस्य प्रस्तुतत्वात्समयादेश्च कालत्वेन प्रसिद्धत्वादनुषगतो विनेयानां समयादिकालपरिज्ञानदर्शनाच तद्विष-यत्वेनैव प्रकारान्तरेण तामाह अहवा उवणिहिआ कालाणुपुटवी तिवहिी पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वाणुपुटवी पच्छाणुपुटवी अणाणुपुटवी / से किं तं पुवाणुपुथ्वी ? पुथ्वाणुपुथ्वी। (अनु.) समए 1, आवलिआ२, आण 3, ४१श पाणु 5, थोवे६, लवे, मुहुत्ते 8, अहोरत्ते 9, पक्खे 10, मासे 11, उऊ 12, अयणे 13, संवच्छ रे 14, जुगे 15 वाससए 16, वाससहस्से 17, वाससयसहस्से 18. पुष्वंगे 19, पुटवे 20, तुडिअंगे 21, तुडिए 22, अडडंगे 23, अडडे२४, अववंगे 25, अववे 26, हुहुअंगे 27, हुहए 28, उप्पलंगे२९, उप्पले 30, पउमंगे३१, पउमे 32, णलिणंगे 33, णलिणे 34, अत्थनिउरंगे 35, अत्थनिउरे 36, अउअंगे 37, अउए 38. नउअंगे 39 नउए 40, पउअंगे 41, पउए 42, चूलिअंगे 43, चूलिआ 44 सीसपहेलिअंगे 45, सीसपहेलिआ 46, पलिओवमे 47, सागरोवमे 48, ओसप्पिणी 19, उस्सप्पिणी 50 पोग्गलपरिअट्टे 51, अतीतद्धा 52, अणागतद्धा१३, सव्वद्धा१४ / सेत्तं पुव्वाणुपुटवी / से किं तं पच्छाणुपुदी? पच्छाणुपुथ्वी सव्वद्धा अणागतद्धाजाव समए, से तं पच्छाणुपुष्वी। से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुटवी एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए अणंत-गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुटवी / सेत्तं उवणिहिआ कालाणुपुटवी। सेत्तं कालाणुपुथ्वी। सूत्र- 115) / 'अहवे' त्यादि, तत्र समयो- वक्ष्यमाणस्वरूप: सर्वसूक्ष्म: कालांऽश: सच सर्वप्रमाणानां प्रभवत्वात् प्रथम निर्दिष्टः (1) / तैरसङ्ख्येयनिष्पन्ना आवलिका (2) / सङ्ख्येया आवलिकाः 'आण' त्ति- आणः; एक उच्छ्वास इत्यर्थ: (3) / ता एव सङ्ख्येया नि:श्वास: अयं च सूत्रेऽनुक्तो ऽपि द्रष्टव्य: स्थाना-न्तरप्रसिद्धत्वादिति (4) / द्वयोरपि काल: 'पाणु' त्ति-एक प्राणुरित्यर्थ : (1) / सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः (1) / सप्तभिः स्तोकैलव: (7) / सप्त-सप्तत्या लवानां मुहूर्त: (8) त्रिंशता मुहूर्तेहोरात्रम् (9) तै. पञ्चदशभिः पक्ष: (10) / ताभ्यां दाभ्यां मास: (11): मासद्वयेन ऋतुः (12) / ऋतुत्रयमानमयनम् (13) / अयनद्वयेन संवत्सर: (14) पञ्चभिस्तैयुर्गम् (15) / विंशत्या युगैर्वषेशतम् (16) / तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् (17) / तेषां शतेन वर्षशतसहस्रम् ; लक्षमित्यर्थः (18) / चतुरशीत्या च लक्ष: पूर्वाङ्ग भवति (19)- 8400000 / तदपि चतुरशीतिलगुणितं पूर्व भवति (20), तच सप्ततिकोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशच कोटि-सहस्राणि वर्षाणाम्, उक्तंच 'पुवस्स उ परिमाणं सयरी खलु हुंति कोडिलक्खाउ। छप्पण्णं स सहस्सा बौद्धव्वा वासकोडीणं ||2||" स्थापना७०५६०००0000000 / इदमपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं त्रुटिताङ्ग भवति (21)- 59270400000, अग्रेदश 10 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। एतदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितंत्रुटितं भवति (22)- 4978713600000 अग्रेपञ्चदश 15 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / तदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमटटाङ्गम् (23)- 418211942400000 अग्रे विशिति : 20 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। एतदपि तेनैव गुणकारेण गुणितमटटम् (24)- 3112980316-1600000 अग्रेपञ्चविंशतिः२५शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / एवं सर्वत्र: पूर्व: पूर्वो राशिश्चतुरशीतिलक्षस्वरूपेण गुणकारेण गुणित उत्तरोत्तर- राशिरूपतां प्रतिपद्यत इति प्रतिपत्तव्यं, ततश्च-अववाङ्गम् (25)- 29509-03465574400000 अग्रे त्रिंशत् 30 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। अववम् (26)-247875891108249600000 अग्रे पञ्चत्रिंशत् 35 शून्यानि अन्यानि स्थापनी-यानि। हूहुकाङ्गम् (27)- 2082157485-3092966400000 अग्रेचत्वारिंशत् 40 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / हूहुकम (28)-1749012287659809177600000 अग्रे पञ्चचत्वारिंशत् 45 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / उत्पलाङ्गम् (29)-1469- 170321634 3970918400000 अग्रे पञ्चाशत् 50 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। उत्पलम् (30) 12341030701727613557145- 600000 अग्रे पञ्चपञ्चाशत् 55 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / पद्माङ्गम् (31)1036646178945119538800230-400000 अग्रे षष्टिः 60 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। पद्मम् (32)-87078312631390041259219353600000 अग्रे पञ्चषष्टिः६५ शून्यान्यन्यानि स्थापः। नलिनाङ्गम् (33)-73145782110367-63461774425702400000 अग्रेसप्तति: 70 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि नलिनम् (34)-614424573927088 - 1311250517590016-00000 अठो पञ्चसप्तति७५ शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / अर्थ- निरापूराङ्गम् (35)- 51611664209875 - 40301450434775-6134400000 अग्रे अशीति: 80 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। अर्थनिपूरम् (36)- 433137979362953385321836521- 1515289500000 अग्रे पञ्चाशीति: 85 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / अयुताङ्गम् (37) 3641719026 - 648808436703426-77767284326400000 अग्रेनवति: 90 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / अयुतम् (38)- 30590439823849990858308784932451883417400000 अग्रे पञ्चनवति: 95 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / नयुताङ्गम् (39)- 2569596 - 9452033992329379-37934325958207078400000 अग्रे शत 100 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि! नयुतम् (40)-21584614339708553556678- 6786483380489394585600000 अग्रे पञ्चाधि १-चतुर्धाङ्के टीकाद्रष्टव्या। 1 अङ्कस्थापना-स्पष्टावबोधार्थ: कोशकारेण दर्शिता / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 172 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी कशत 105 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि / प्रयुताङ्गम् ___ अणाणुपुटवी- एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए चउवीस(४१)- 1813107604535528498761009006460396110 गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो सेत्तं / अणाणुपुव्वी। 9145190400000 अग्रे दशाधिकशत 110 शून्यानि अन्यानि सेत्तं उक्कित्तणाणुपुथ्वी। (सूत्र-११६) स्थापनीयानि / प्रयुतम् (42)- 1523010387809835538959- 'से किं तमि' त्यादि। उत्कीर्तन- संशब्दनम्-अभिधानो- च्यारणम, 247565426732733168195993600000 अग्रे पञ्चदशाधिकशत 115 तस्यानुपूर्वी-अनुपरिपाटि: सा पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेन त्रिविधा, तत्र ऋषभः शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। चूलिकाङ्गम् (43)-127932872576 - प्रथममुत्पन्नत्वात्पूर्वमुत्कीर्त्यते तदनन्तरं क्रमेण अजितादय इति 026185272576795495845549586128463462400000 अग्रे पूर्वानुपूर्वी शेषभावनातुपूर्ववद्। अत्राह-ननु औपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्व्या विंशत्यधिकशत 120 शून्यानि अन्यानि स्थापनीयानि। चूलिका (44) अस्याश्च को भेद: ? उच्यते-तत्र द्रव्याणां विन्यासमात्रमेय 107463612963861-995628964506116510261613347741 - पूर्वानुपूर्व्यादिभावेन चिन्तितम् , अत्र तु तेषामेव तथैवोत्कीर्तनं क्रियते, 30841600000 अग्रे पञ्चविंशत्यधिकशत 125 शून्यानि अन्यानि इत्येतावन्मात्रेण भेद इति भवत्वेवं, किंत्वावश्यकस्य प्रस्तुतत्वास्थापनीयानि शीर्षप्रहेलिकाङ्गम् (45)- 90269434889644076328 दुत्कीर्तनमपि सामायिकाद्यध्ययनानामेव युक्तम्, किमित्यप्रक्रा३३०१८५१३७८-६८६१९७८७९७२१०२६९९०६९४४००000 अग्रेत्रिंशदधिकत न्तानाम् ऋषभादीनां तद्विहितमिति ? सत्यं किंतुसर्वव्यापकं 130 शून्यानि अन्यानिस्थापनीयानि। एवमेतेराशयश्चतुरशीतिलक्षस्वरूपेण गुणकारेण यथोत्तर वृद्धा द्रष्ट-व्यास्तावद् यावदिदमेव प्रस्ततुतशास्त्रा-मित्यादावेवोक्त तद्दर्शनार्थमृषभादि-सूत्रान्तरोपादानं शीर्षप्रहेलिकाङ्गम् चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं शीर्षप्रहेलिका भवति (46) भगवतां च तीर्थप्रणेतृत्वात्तत्स्मरणस्य समस्तश्रेय: फलकल्पादपत्वात् अस्या स्वरूपमङ्कतोऽपि दर्शयते-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७ - युक्तं तन्नामोत्कीर्तनं, तद्विषयत्वेन चोक्तमुपलक्षण-त्वादन्यत्रापि 35551580964046218961662672183296 अग्रेच चत्वारिशंशून्यशतम् द्रष्टव्यमिति, शेष भावितार्थं यावत्, 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। 140, तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमुनि चतुर्णवत्यधिकशतसंख्यानि इदानीं पूर्वोद्दिष्टामेव गणनाऽऽनुपूर्वीमाह१९४ अङ्कस्थानानि भवन्ति, अनेन चैतावता कालमानेन केषांचिद् से किं तं गणणाऽऽणुपुवी? गणणाऽऽपुथ्वी तिविहा पण्णत्ता, रत्नप्रभानारकाणां भवनपतिव्यन्तरसुराणां सुषमदुःषमारक-संभविना तं जहा पुव्वाणुपुर्वी 1, पच्छाणुपुव्वी२, अणाणुपुर्वी 3 / से किं नरतिरश्चां च यथासंभवमायूंषि मीयन्ते, एतस्माच परतोऽपि संख्येय: तं पुवाणुपुटवी ? पुव्वाणुपुटवी-एगोदस, सतं, सहस्सं कालोऽस्ति, किंत्वनतिशयिनाम-संव्यवहार्यत्वात्सर्षपाधुपमयाऽत्रैव दससहस्साई, सत्तसहस्सं, दससतसहस्साई कोडी, वक्ष्यमाणत्वाच नेहोक्त:, किं तर्हि? उपमामात्रप्रतिपाद्यानि दसकोडीओ, कोडिसयं, दस-कोडिसयाई। सेत्तं पुष्वाणुपुटवी। पल्योपमादीन्येव, तत्र पल्योपम-सागरोपमे 47, 48 अत्रैव से किं तं पच्छाणुपुव्वी१, पच्छाणुपुटवी-दसकोडीसयाइं जाव वक्ष्यमाणस्वरूपे दशसागरो-पमकोटाकोटिमाना त्ववसर्पिणी 49, एक्को। सेत्तं पच्छाणुपुटवी / से किं तं अणाणुपुटवी ? तावन्मानैवोत्सर्पिणी 50, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य: पुद्गलपरावर्त: अणाणुपुटवी-एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए 51. अनन्तास्तेऽतीताद्धा 52, तावन्मनैवाऽनागताद्धा 53, अतीता दसकोडिसतगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो सेत्तं नागतवर्तमानकालस्वरूपा सर्वाऽद्धेति 14, एषा पूर्वानुपूर्वी। शेषभावना अणानुपुव्वी ! सेत्तं गणनाणुपुव्वी। (सूत्र-११७) तु पूर्वोक्तानुसारत: सुकरैव, यावत्कालानुपूर्वी समाप्ता / / 'से किं तमि' त्यादि, गणनं-परिसंख्यानम् -एक, द्वे त्रीणि, चत्वरि (9) साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टर्मिवोत्कीर्तनानुपूर्वी विभणिषुराह इत्यादि, तस्य आनुपूर्वी-परिपाटिगणनानुपूर्वी, अत्रोपल क्षणमात्रमुदासे किं उक्कित्तणाणु पुच्ची ? उक्कित्तणाणुपुटवी हर्तुमाह- 'एगे' त्यादि सुगमम्, उपलक्षणमात्रे चेदमतोऽन्येऽपि संभविन: तिविहा पण्णत्तां, तं जहा पुत्वानुपुत्वी, पच्छानुपुव्वी, अणानुपुव्वी। सें किं तं पुव्वानुपव्वी ? पव्वाणपुच्ची उसमे 1, संख्याप्रकारा अत्र दृष्टव्याः / उत्कीर्तनानुपूयाँ नाममात्रोत्कीर्तनमेव कृतम्, अत्रत्वेकादिसंख्याभिधानमिति भेद: 'सेत्तमि' त्यादि निगमनम्। अजिए२, संभवे 3, अभिणंदणे 4, सुमती 5, पउमप्पहे६, सुपासे 7. चंदप्पहे 8. सुविही९सीतले 10, सेज्जंसे 11, वासुपुज्जे 12, अथ प्रागुद्दिष्टामेव संस्थानानुपूर्वीमाहविमले 13, अणंते 14, धम्मे 15, संती 16, से किं तं संठाणानुपुटवी ? संठाऽऽणाणुपुथ्वी तिविहा कुंथू 17, अरे 18, मल्ली 19, मुणिसुन्वते 20, नमी 21, पण्णत्ता,तं जहा पुव्वाणुपुटवी, पच्छाणुपुटवी, अणाणुपुथ्वी। अरिट्ठनेमी 22, पासे 23, वद्धमाणे 24, / सेत्तं पुव्वानुपुव्वी / से किं तं पुवाणुपुटवी ? पुत्वाणुपुटवी- समचउरंसे से किं तं पच्छाणु पुटवी ? पच्छाणुपुटवी वद्धमाणे 0 निग्गोहमंडले, सादी, खुज्जे , वामणे, हुंडे / सेतं जाव उसमे / सेत्तं पच्छाणुपुव्वी / से किं तं अणाणुपुव्वी? | पुटवाणुपुटवी। से किं तं पच्छाणुपुटवी? पच्छाणुपुटवी हुंडे Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुष्वी 173 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आणुपुव्वी जाव समचउरंसे। सेत्तं पच्छाणुपुब्बी।से किं तं अणाणुपुवी? अणाणुपुथ्वी-एआए चेव एगाइआए ए-गुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्मासो दुरूवूणो / सेत्तं अणाणुपुर्वी / सेत्तं संठाणाणुपुष्वी। (सूत्र-१२८) (10) *अधिकाराङ्कः। 'से किं तमि' त्यादि, आकृतिविशेषा:- संस्थानानि: तानि च जीवाऽजीवसंबन्धित्वेन द्विधा भवन्ति, तत्रेह जीवसंबन्धीनि, तत्रापि पञ्चेन्द्रियसंबन्धीनि वक्तुमिष्टानि, अत: तान्याह-'समचउरंसे' त्यादि, तत्र समा:- शास्त्रोक्तलक्षणाविसंवादिन्य- श्वतुर्दिग्वर्तिन्यः अवयवरूपाश्चतस्रोऽस्रयो यत्र तत्समासान्तात् प्रत्यये समचतुरसं संस्थानं, तुल्यारोहपरिणाह: संपूर्णलक्षणो-ऽपि साङ्गोपागावयवः स्वाङ्गुलाष्टाधिकशतोच्छ्रय: सर्व-संस्थानप्रधान: पञ्चेन्द्रियजीवशरीराकारविशेष इत्यर्थः / नाभेरुपरि न्यग्रोधवन्मण्डलम् - आद्यसंस्थानलक्षणयुक्तत्वेन विशिष्टकारं न्यग्रोधमण्डलं, न्यग्रोधोवटवृक्ष:, यथा चायमुपरिवृत्ताकारतादिगुणोपेतत्वेन विशिष्टकारो भवति: अधस्तु न तथा एवमेतदपीति भावः 2 / सह आदिना नाभेरधस्तनकायलक्षणेन वर्तते इति सादि, ननु सर्वमपि संस्थान आदिना सहैव वर्तते ततो निरर्थक सादित्वविशेषणम्, सत्यम, किंतुअत एव विशेष-णवैफल्यप्रसङ्गादाद्यसंस्थानलक्षणयुक्त आदिरिह गृह्यते, ततस्तथाभूतन आदिना सह यद्वर्त्तते नाभेस्तूपरितनकाये आद्यसंस्थानलक्षणविकल तत्सादीति तात्पर्यम् 3 / यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं समग्रलक्षणपरिपूर्णम्; शेषं तु हृदयोदर-पृष्ठलक्षणं कोष्ठम्-लक्षणहीनं तत् कुन्जमा यत्रतुहृदयोदर-पृष्ठं सर्वलक्षणोपेतम्; शेषं तु हीनलक्षणं तद्वामनम्; कुजविपरीतमित्यर्थ: 5 / यत्र सर्वेऽप्यवयवा: प्रायो लक्षण-विसंवादिन एव भवन्ति तत्संस्थान हुण्डमिति 6 / अत्र च सर्वप्रधानत्वात्समचतुरस्रस्य च प्रथमत्वम्, शेषाणां तुयथाक्रम हीनत्वाद् | द्वितीयादित्वमिति पूर्वानुपूर्वीत्वं, शेषभावनां पूर्वव-दिति। आह-यदीत्थं संस्थानानुपूर्वी प्रोच्यते तर्हि संहनन-वर्णरसस्पर्शाऽऽद्यानुपूर्दोऽपि वक्तव्या: स्युः, तथा च सत्यानु-पूर्वीणामियत्तैव विशीर्यते, ततो निष्फल एव प्रागुपन्यस्तो दशविधत्वसंख्यानियम इति, सत्यम्, किन्तुसर्वासामपि तासां वक्तुमशक्यत्वादुपलक्षणमात्रमेवायं सङ्ख्यानियम: एतदनुसारे- णाऽन्या अप्येता अनुसतव्या इतितावल्लक्षयाम:, सुधिया त्वन्यथापि वाच्यं गम्भीरार्थत्वात् परममुनिप्रणीतविवक्षायाः एवमुत्तस्त्रापि वाच्यम्, इत्यले विस्तरेण। (11) सामाचार्यानुपूर्वी विवक्षुराहसे किं तं सामाया आणुपुष्वी ? समायारीआणुपुर्वी तिविहा | पण्णत्ता,तं जहा-पुव्वाणुपुट्वी१, पच्छाणुपुव्वी२, अणाणुपुष्वी 3 / से किं तं पुव्वाणुपुटवी ? पुव्वाणुपुवी"इच्छा१, मिच्छा२,तहक्कारो३, आवस्सिआय 4, निसीहिआदा आपुच्छणा य६ पडिपुच्छा 7, छंदणा य 8, निमंतणा९||१|| उवसंपया य१० काले, सामायारी (भवे) दसविहाउ। सेत्तं पुटवाणुपुटवी / से किं तं पच्छाणुपुथ्वी ? पच्छाणुपुथ्वी उवसंपया जाव इच्छागारो / सेत्तं पच्छाणुपुथ्वी। से किं तं अणाणुपुवी ? अणाणुपुटवी- एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो / सेत्तंअणाणुपुव्वी। सेत्तं सामायारी आणुपुथ्वी। (सूत्र-११९) (सामाचारीव्याख्यानम् 'सामायारी' शब्दे सप्तमे भागे करिष्यते) इह धर्मस्यापरोपतापमूलत्वादिच्छाकारस्याज्ञा बलाभियोगलक्षणपरोपतापयर्जकत्वात्प्राधान्यात्प्रथममुपन्यास: अपरोपतापकेनापि च कथंचित् स्खलने मिथ्यादुष्कृतं दातव्य-मिति, तदनन्तर मिथ्याकारस्य, एतो च गुरुवचनप्रतिपत्तविव ज्ञातु शक्यौ, गुरुवचनं च तथाकारकरणेनैव सम्यक् प्रतिपन्नं भवतीति तदनन्तरं तथाकारस्य प्रतिपन्नगुरुवचनेन चोपाश्रयादहिर्निर्गच्छता गुरुपृच्छापूर्वक निर्गन्तव्यमिति / तथाकारानन्तरं तत्पृच्छारूपाया आवश्यक्या: बहिर्निर्गतेन च नैषधिकीपूर्वकं पुन: प्रवेष्टव्यमिति तदन्तरं नैषेधिक्या:, उपाश्रयप्रविष्टेन च गुरुमापृच्छ्य सकलमनुष्ठेयमिति तदनन्तरमापृच्छनाया:, आपृष्टेच निषिद्धे पुन: प्रष्टव्यमिति तदनन्तरं प्रतिपृच्छनाया प्रतिप्रश्ने चानुज्ञातेनाऽशनाद्यानीय तत्परिभोगाय साधव उत्साहनीया इति तदनन्तरं छन्दनाया: एषा च गृहीत एवाऽदशनादौ स्याद् अगृहीते तु निमन्त्रणैवेति तदनन्तरं निमन्त्रणायाः, इयं च सर्वाऽपि निमन्त्रणापर्यन्ता सामाचारी गुरूसंपदमन्तरेण न ज्ञायते इति तदनन्तरमुपसम्पद उपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीत्वसिद्धिरिति। शेष पूर्ववदिति। (12) अथ भावाऽऽनुपूर्वीमाहसे किं तं भावाणुपुटवी ? भावाणुपुर्वी तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- पुव्वाणुपुव्वी 1, पच्छाणुपुथ्वी 2, अणाणुपुथ्वी 3 / से किं तं पुथ्वाणुपुथ्वी ? पुष्वाणुपुथ्वी-उदइए, उवसमिए, खाइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सन्निवाइए। सेत्तं पुष्वाणुपुर्वी। से किं तं पच्छाणुपुटवी? पच्छाणुपुर्वी संनिवाइएन्जाव उदइए। सेत्तं पच्छाणुपुर्वी।से किं तं अणाणुपुथ्वी ? अणाणुपुष्वी एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नपमन्नब्भासो दुरूवूणो। सेत्तं अणाणुपुर्वी। सेत्तं भावाणुपुथ्वी। सेत्तं आणुपुथ्वी आणुपुदि ति पदं समत्तं / (सूत्र-१२०) से किं तमि' त्यादि, इह तेन तेन रूपेण भवनानि भावावस्तु परिणामविशेषा:- औदयिकादयः अथवा तेनतेन रूपेण भवन्तीति भावास्त एव यद्वा भवन्ति तैस्तेभ्यस्तेषु Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणुपुव्वी 174 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आतंकदंसि वा सत्सु प्राणिनस्तेन तेन रूपेणेति भावा यथोक्ता एव तेषामानुपूर्वी परिपाटिर्भावानुपूर्वी, औदयिकादीनां तु स्वरूपं पुरस्तात् न्यक्षेण वक्ष्यते, अत्र च नारकादिगतिरौदयिको भाव इति वक्ष्यते, तस्यां च सत्यां शेषा भावाः सर्वेऽपि यथासम्भवं प्रादुर्भवन्तीति शेषभावाऽऽधारत्वेन प्रधान-त्वादौदयिकस्य प्रथममुपन्यासः, ततश्च शेषभावपञ्चकस्य मध्ये औपशमिकस्यस्तोकविषयत्वात्स्तोकतया प्रतिपादयिष्यत इति तदनन्तरमौपशमिकस्य, ततो बहुविषयत्वात् क्षायिकस्य ततो बहुतरविषयत्वात् क्षायोपशमिकस्य, ततो बहुमतविषयत्वात्पारिणामिकस्य, ततोऽप्येषामेव भावानां द्विकादिसंयोगसमुत्थत्वा-त्सान्निपातिकस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीक्रमसिद्धिरीति / शेष पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम्। तदेवमुक्ताः प्रागुद्दिष्टा दशाप्यानुपूर्वीभेदा: तगणने चोपक्रमप्रथमभेदलक्षणा आनुपूर्वी समाप्ता। अनु०। आणीह- पुं. (आज्ञौघ) सम्यग्दर्शनविकले आज्ञामात्रे पञ्चा०। "आणो हेणाऽणेता मुक्का" ||484|| पञ्चा० / आज्ञायाआप्तोपदेशस्यौघ:- सामान्यमाज्ञौघ: सम्यग्दर्शनविकलमाज्ञामात्रमित्यर्थः / तेन सताऽपीति गम्यम् अनन्तानि अनन्तसंख्यानि मुक्तानि त्यक्तानीति / पञ्चा० 14 विव०। / आतं (यं) क-पु. (आतङ्क) 'तकि' कृच्छजीवने आतङ्कनमा-तङ्कः / आ-तकि-घञ् / कृच्छ्रजीवने, (दुःखे) आचा०१, श्रु०१, अ०७ उ.। | नरकादिदु:खे चा आच०१ श्रु.३ अ०२ उ। तच द्विविधम शारीरं, मानसं च / तत्राद्यम्कटु कक्षार-शस्त्रगण्डलूतादिसमुत्थम्, मानसं प्रियविप्रयोगाऽप्रिय- संप्रयोगेप्सितालाभदारिद्र्यदौर्मनस्यादिकृतम। आचा.१श्रु१अ०७ उा यदिवा-आतङ्को द्वेधा-द्वव्यभावभेदात्। (सच / 'आतं(य) कंदंसि' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव दर्शयिष्यते) रोगे, स्था. 5 ठा० 3 / उत्त० को अनु० आिित सर्वात्म-प्रदेशाऽभिव्याप्त्या तङ्कयन्ति कृच्छ्रजीवितमात्मानं कुर्वन्ती-त्यातङ्काः / सद्योघातिनि रोगविशेषे उत्त. 10 अ। "आयको जरमाई" / / 1432 / / आतङ्कोज्वरादि: सद्यो घाती रोगः / फव०५ द्वार। उत्त. "आसुधाई आतंको" आव० 4 अ स्था. पं. सू०। आ० चू! जी०। उत्त०। प्रव०। रा०। आ. म.! दशं। आतंका विविहा फुसंति" ||18+II आतङ्कारोगपरीपहा:स्पृशन्ति / उत्त० 21 अा आतङ्क:-कृच्छ्रजीवितकारी ज्वरादिकः / भ. 16 श. 2 उ.। "उयाहु ते आतंका फुसंति" (सूत्र १४७४)|आतङ्का-आशुजीवितापहारिण:शूलादयो-व्याधिविशेषा: स्पृशन्ति- अभिभवन्ति पीडयन्ति आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। उत्त० भ०। ज्ञा। सूत्रा स्थाः। 'दीहकालिएणं रोगातंकेणं' (सूत्र-१३५+)|आतङ्क: कृच्छ्रजीवित-कारी सद्योघाती शुलादि: स्था.३ ठा. 1 उ०। ज्ञा०। प्रश्न. 1 आतङ्का- सद्योघातिनः / शुलादिक रोगा: / संथा। भा। 'आयंके से वहाय होई // 9 // " सूत्र 14) / आतङ्कः सद्योघाती विशूचिकादिको रोगस्तस्य गृहिणो धर्मबनधुरहितस्य वधाय-विनाशाय भवति। दश०१ चू। ते चोत्तराध्ययने दर्शिता यथा अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते। विवडइ बिद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयमा!मापमायए।।२७।। हे गौतम!'ते' तव विविधा:- नानाप्रकारा आतङ्का रोगा: शरीरं स्पृशन्ति ते केवन आतङ्का अरतिश्चतुरशीतिविविधवा- तोद्भूतचित्तोद्वेगो; वातप्रकोप इत्यर्थः। गण्डरूधिर-प्रकोपादभूतस्फोटकः। विशूचिकाअजीर्णोद्भूतवमनाध्मात-विरेचादिसद्यो मृत्युकृत रूक इत्यादयो रोगा आतङ्का दे पीडयन्ति, तै: रोगै: पीडिते शरीरे सति धर्माराधनं दुष्करं ते शरीरं रोगाभिभूतं सत् विपतति, विशेषेण बलापचयात् नश्यति, पुन: शरीरं'ते' तव विध्वस्यते जीवमुक्तं सत् विशेषेण अध: पतति, अत्र सर्वत्र यद्यपि 'ते' तव इत्युक्तं गौतमेच केशपाण्डु-रत्वादि इन्द्रियाणां हानिश्च न संभवति तथापि तन्निश्रया अपरशिष्यादिवर्गप्रतिबोधार्थमुक्तं दोषाय न भवति, तथा च प्रमादो न विधेयः / उत्त०१० अ०। रोगा:अकालमहाय्याधय आतङ्कास्त एव सद्योघातिन इति। औः / आतङ्घरोगयोर्विशेषो यथा-स्यात् केरिसोरोगो, केरिसो वा आतङ्कस्तत उच्यते। गाहागंडी कोढं खइयादी,रोगा कासादितो तु आतंको। दीहरुया वा रोगो, आतङ्को आसुधाती य / / 219|| (अस्याः गाथाया: व्याख्या 'पलंब' शब्दे पञ्चमभागे दर्शयि-ध्यते। बृ. १उ२० प्रका) नि. चू! आतङ्को ज्वरादिस्तद्योगा दातङ्किनोऽष्यातङ्काः / आतङ्किनि पिं। संतापे, सन्देहे, मुरजशब्दे, भये च। वाचा आतं (यं) कंदसि (न) पु० (आतङ्कदर्शिन) 'तकि' कृच्छ्रजीवने आतङ्कनमातङ्क: कच्छ्रजीवन-दुःखं, तच द्विविधम शारीरं, मानसं च। तत्राद्यं कटु कक्षारशस्त्रगण्डलूतादिसमुत्थम्, मानसं प्रियसंप्रयोगेप्सितालाभदारिद्र्यदौर्मनस्यादिकृतम एतदुभयमातङ्गं पश्यति तच्छीलश्चेत्यातङ्कदर्शी / अवश्यमेतदुभयमपि दुःख-मप्यापततीत्येवं ज्ञातरि, आचा। (तथा च वायुकायसमारम्भमधिकृत्य)आयंकदंसी अहियंतिणचा। (सूत्र-१६+) अवश्यमेतदुभयमपि दुःखमापतति मय्यनिवृत्तवायुकाय- समारम्भे ततश्च तद्वायुकायसमारम्भणमातङ्कहेतुभूतमहितमिति ज्ञात्वतस्मान्निवर्तने प्रभुर्भवताति / यदि वा आतङ्को द्वैधा-द्रव्य-भावभेदाद् / तथा मिति ज्ञात्वतमान व्यातझे इदमुदाह याद वा आतङ्को "जंबुद्दीवे दीवे, भारहवासम्मि अत्थिसुपसिद्ध / बहुणयरगुणसमिद्धं, रायगिह णाम णयरं ति // 11 // तत्थासि गरुयदरिया-रिमद्दणो भुयणनिग्गयपयावो। अभिगयजीवाजीवो, राया णामेण जियसत्तू // 2 // अणवरयगरुयसंवे-गभाविओधम्मघोसपामूले। सो अन्नयाकयाई, पमाइणं पासए सेहं // 3!! चोइज्जतमभिक्खं, अवराहं तं गुणो विकुणमाणं / तस्स हिअटुं राया, सेसाण य रक्खणट्ठाए || Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतंकदंसि १७५अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आतगय आयरियाणुण्णाए आणावइ सो उ णिययपुरेसेहि। आतं (यं) कि (न)-पु. (आतङ्किन्) रोगिणि, स्था०५ठा०३ऊ। तिव्वुक्कडदव्वेहिं, संघिय पुव्वं तहिं खारं // 1 // आतं (यं) चणिया- सी. (आतंचनिका) कुम्भकारभाजने, भ०। पक्खित्तो जत्थ णरो, णवरं दोगोहमेत्तकालेण। आयंचणिओदएणं गाताई परिसिंचमाण विहरइ" (सूत्र- 553+) / णिज्जिण्णमंससोणिय-अट्ठिऽवसेसत्तणमुवेइ / / 6 / / 'आयंचणिओदएणे' ति-इह आतञ्चनिकोदकं-कुंभकारस्य भाजने दो ताहे पुव्वमए, पुरिसे आणावए तहिं एया। स्थित तेमनाय मृन्मिभं जलं तेन / भ०१५ श०। एगंगिहत्थवेसं,बीयं पासंडिणेवत्थं / / 7 / / आतंड (यं) तकर-पुं. (आत्मान्तकर) आत्मनोऽन्तम्अवसानं भवस्य पुव्वं विय सिक्खविए, ते पुरिसे पुच्छए तओ राया। करातीत्यात्मान्तकरः / प्रत्येकबुद्धादिके, स्था०४ ठा०२ऊ। अवराहो एएसिं, भणंति आणं अइक्कमइ / / 8 / / आत्मनोऽन्तं मरणं करोतीत्यात्मान्तकरः / आत्मवधकेस्था०४ ठा०२ पासंडिओ जड्डुत्ते-ण वट्टई अत्तणो य आयारे। ऊ।"आयंतकरणाममेगेणो परंतकर" (सूत्र-२८७) स्था०४ठा०२ऊ। पंक्खिवह खारमज्जे खित्ता गोदोहमेत्तस्स / / 9 / / आंत(यं)तम-पु.(आत्मतम) आत्मानं तमयतिखेदयती-त्यात्मतमः / दणऽट्ठिऽवसेसं, ते पुरिसे अलियरोसरतऽच्छो। आचार्यादिकेआत्मखेदयितरि, स्था। आत्मैव तम:-अज्ञाने; क्रोधो वा सेह आलोयतो, राया तो भणइ आयरियं / / 10 / / यस्य स आत्मतमाः / अज्ञानात्मनि, क्रोधात्मना च। स्था.।"आयंतमे तुम्ह वि कोऽवि पमादी, नाममेगेणो परंतमे" (सूत्र-२८७+) स्था 4 ठा०२ उ. सोसेमि य तं पिणऽस्थि भणइ गुरू। आतं (यं) दम-पुं. (आत्मदम) आत्मानं दमयति-शमवस्तं करोतिजइ होहिइ तो साहे, शिक्षयति, वेत्यात्मदमः / आचार्ये, स्था०। अश्वदम-कादौ च। 'आयंदमे तुम्हे चिय तस्स जाणिहिह ||11|| णाममेगे णो परंदमे" (सूत्र 287+) / स्था०४ठा०२ उ०। सेहो गए णिवंमि, भणइ ते साहुणो उण पुण ति। आतं(यं)व-त्रि. (आताम) ईषद्रक्ते, जं. 2 वक्षः। औः। हा हे पमायसीलो; तुम्हं सरणागओ धणियं / / 12 / / 'आयंवतलिणसुइरुइलनिद्धनक्खा " (सूत्र-१४७) / आताम्रा: ईषद्रक्तास्तलिना:- प्रतलाः शुचय:-पवित्रा रुचिरा दीप्ता स्निग्धाजइ पुण होज्ज पमाओ, पुणो ममं सवभावरहियस्स। तुम्हं गुणेहिं सुविहिय, तो सावगरक्खसामुच्चे / / 13 / / अरूक्षानखा: कररुहाः येषां ते आताम्रतलिनशुचि- रुचिरस्निग्धनखा: / जी०३ प्रति 40 अधि०२ उ. आयंकभउव्विग्गो ताहे सो णिचउज्जुओ जाओ। कोवियमती य समए, ग्रह्या नारिसाविओ पच्छा // 14|| आतं (यं) वज्भयण-न. (आताम्राऽध्ययन)। सूर्य्यस्याग्रमहिष्या आताम्राया वक्तव्यताप्रसिद्ध ज्ञाताधर्मकथाया द्वितीय श्रुतदव्वायंकाऽऽदंसी, अत्ताणं सव्वहा णियत्तेइ। अहियारंभा उस्सया जह सीसो धम्मघोसस्स!|१५||" स्कन्धसप्तमवर्गस्तय द्वितीयऽध्ययने, ज्ञा०२ श्रु४वर्ग 1 अ। भावातङ्काऽऽदर्शी तु नरकतिर्यग्मनुष्यामरभवेसु प्रियविप्रयोगादिशा- | आ | आतं (यं) मारे-त्रि. (आत्मम्भरि) आत्मानं विभर्ति भूखिमुम्-च-उप० रीरमानसाऽऽतङ्कभीत्या न प्रवतते, वायुसमारम्भे। अपि तु अहितमेत सं। स्वोदरभात्रपूरके। देवतातिथ्यंनादरेणात्म-पोषकत्वात्तस्य द्वायुसमारम्भणमिति मत्वा परिहरति। आच, 1 श्रु०१ अ०७ उ०। तथात्वम्।"आत्मम्भरिस्त्वं पिशितैनेराणाम् भट्टिः / वाचा आत्मानं आयंकदंसी न करइ पावं // 4 // (सूत्र-१११) विभर्ति पुष्णातीति आत्मम्भरिः। स्वार्थकारके स्था" आयंभरेणाममेगे णो परंभरे" (सूत्र 327+) आत्मम्भरि: प्राकृतत्वात् आयंभरे'। स्था०४ आतङ्को-नरकादिदुःखं तद्रष्टुं शीलमस्येत्यातङ्कदर्शी स 'पापं' ठा०३ऊा पापानुबन्धि कर्म न करोति, उपलक्षणार्थत्वान्न कारयति, नानुमन्यत इति। आचा 1 श्रु. 3 अ०२ उ। आत (य) कम्म (न)- त्रि. (आत्मर्कमन) 6 त.। आत्मन:- स्वस्य कर्तव्ये कायें, "आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रित:?" रघुः / आतं(यं)कविवचास-पु.(आतङ्कविपर्यास) आगाढे अनागा-ढकरणे। आयंकविवचासो नाम-आगाढे अहिदट्ठाइ, अणागाढं करेइ त्ति। पं. चू.४ वाच / ज्ञानावरणादिके आत्मकृतकर्मणि भ. "किं आयकम्मणा उववज्जति ? परकम्मणा उववज्जति" (सूत्र 686+) भ०२० 10 10 उ.। आतं(यं)कसंपओगसंपउत्त-त्रि (आतङ्कप्रयोगसंप्रयुक्त) आतङ्को आत(य)गवेसय-त्रि. (आत्मगवेषक) आत्मानं कर्ममलापहारेण शुद्ध रोगस्तस्य सम्प्रयोग:-संबंधस्तेन संप्रयुक्तः सबन्धो य: स गवेषयतीत्यात्मगवेषकः / उत्त. 15 अ। आत्मानं कर्म-विगमाच्छुद्धतथा / आतङ्कसंबद्धे, 'आतंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगे सति स्वरूपं गवेषयति-कथमयमित्थंभूतो भवेदित्य-न्वेषयते यः स समण्णागए याविभवइ 3 / " (सूत्र४४७+)। (अयं चार्तध्या-नस्य तृतीयो आत्मगवेषकः। कर्मविगमाच्छुद्धस्वरूप-स्यात्मनोऽन्वेषके, उत्त, पाई. भेदस्तद्वक्तव्यता अ()त्तज्भाण' शब्देप्रथमभागे गता) स्था०४ ठा० 1 १५अा "सहिए आयगवेसएस भिक्खू" ||54|| उत्त०१५ अ०। उागाऔंला आत (य) गय-त्रि. (आत्मगत) आत्मनिगतमात्मगतम्। आत्मगे, सूत्र। कल्प। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतगय 176 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयत? संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणे णाहंसु ||30+11 दुहओ ण विणस्संति, नोय उप्पज्जए असं। संलोकनीयं- संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कञ्चनाऽगारंसाधुमात्मनि सवे दिसव्वहा मावा, नियतीभावमागया ||16|| गतमात्मगतम्, आत्मज्ञमित्यर्थः / सूत्र 1 श्रु४ अ२ उ०। सूत्र 1, श्रु१ अ०१ऊ। (अनयोथियोव्याख्यानम् 'अत्तछट्ठ' शब्दे आत (य) गुत्त- त्रि, आत्मगुप्त आत्मा-शरीरम् आत्मशब्दस्य प्रथमभागे 502 पृष्ठे गतम्।) शरीरवचनस्यापि दर्शनात्, उक्तं, हि-"धर्मधृत्यनिधीन्द्वकत्वकृतत्त्व- | आत (य) जस (स)- न. (आत्मयशस्) आत्मसंबन्धिनि यशसि, स्वार्थदेहिषु। शीलाऽनिलमनोयत्नै-कवीर्येष्वात्मन: स्मृतिः ॥१२इति यशो हेतुभूते संयमे च / भ. / "जीवा किं आयजसेणं उवतेन गुप्त आत्मगुप्तो न यतस्तत: कर-चरणादिविक्षेपकृत, इतस्तत: वज्जंति" (सूत्र ८७६+)'आयजसेणं' ति- आत्मन: संबन्धि यशो करचरणाऽविक्षेपके यद्वा- गुप्तो रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन स यशोहेतुत्वाद्यश:-संयम आत्मयशस्तेन (भ.) 'आयजसं उवजीवंति' तथा। उत्त पाई.१५ अ। असंयमस्थानेभ्यो रक्षितात्मानि, आत्मा गुप्तो त्ति-आत्मयश:-आत्मसंयममुपजीवन्ति आश्र-यन्ति; विदधतीत्यर्थः / यस्य स आत्मगुप्त: / सूत्र श्रु 2 अ! मनोवाक्कायैरात्मा गुप्तो यस्य सः भ.४१श। आत्मगुप्तः / सूत्र 1 श्रु 7 अ.। मनोवाक्कायगुप्ते, सूत्र 1 श्रु आत(य) जोगि (न)-पुं०(आत्मयोगिन्) आत्मनो योग: कुशलमन: 11 अ / इन्द्रिय नोइन्द्रियात्मना गुप्त आत्मगुप्तः। आचा. 1 प्रवृत्तिरूप आत्मयोग: स यस्यास्ति। सदा धर्मध्यानावस्थिते सूत्र 20 श्रु श्रु 3 अ०३ उ०। आत्मनामनोवाक्कायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः / २अा सूत्र 1 श्रु 11 अ। मनोवाक्कायात्मना गुप्ते "आयगुत्ते सयावी (धी) | आत (य)?(अप्पणट्ट)-पु. (आत्मार्थ) आत्महिते, "आयट्ठ' (सूत्ररे॥१॥(सूत्र-१९६४)। "आयगुत्ते सया दंते" || सूत्र 1 श्रु०११ अा ६९+टी.) / आचा० 1 श्रु 20 अ० 1 उ०। आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः / (आत्मगुप्तस्य फलमाह) ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, आत्मने हितम्प्रयो-जनमात्मार्थम्। चरित्रानुष्ठाने, कंड च कज्जमाणंच, आगमिस्संच पावर्ग। आचा.१. श्रु२ अ १ऊ। सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिंइदिया।|२१|| आयतट्ठ (अप्पणट्ठ)-. (आयतार्थ) आयत: अपर्यवसा-नान्मोक्ष साधुशेन यद् अपरैः अनार्य कल्पैः कृतम-अनुष्ठितं पापकं एव स चासावर्थश्वायतार्थः / मोक्षात्मकेप्रयोजने, आयतोमोक्ष: अर्थ:कर्म तथा वर्तमानेच काले क्रियमाणं तथौऽऽगामिनिच काले यत्करिष्यते प्रयोजनं यस्य सः / मोक्षप्रयोजनकेदर्शनादिके, आच०१, श्रु२ अं.१ उ०। तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिानुजानन्ति ना नुमो-दन्ति आत्मनिमित्ते, "अप्पणट्ठा परट्ठा वा" (सूत्र-१३+) / तदुपभोगपरिहारेणेतिभावः। यद्यप्यात्मार्थं पापकं कर्म परैः कृतं, क्रियते, आत्मार्थमात्मनिमित्तम् / दश०९ अ 2 उ।। करिष्यते चा तद्यथा- शत्रोशिरश्छिन्नं, छिद्यते, छेत्स्यते वा तथा चौरो (आत्मार्थश्चावश्यमुपासनीय:) हतो, हन्यते, हनिष्यते वा इत्यादिकं परानुष्ठानं नाऽनुजानन्ति- न च अप्पं च खलु आउयं इहमेगेसिं माणवाणं / / 6 / / बहु मन्यन्ते तथाहि / यदि परः कश्चिदशुद्धेनाहारेणोपनिमन्त्रयेत्तमपि आचा०१ श्रु२ अरऊ। (अस्य व्याख्या 'आउ' शब्दे अस्मिन्नेव भागे नानुमन्यत इति।क एवंभूता भवन्तीति दर्शयति- आत्माऽकुशलमनोवा प्राग दर्शिता) क्काय- निरोधेन गुप्तो येषां ते तथा, जितानी-वशीकृतानि इन्द्रियाणि येऽपि दीर्घायुष्कस्थितिका उपक्रमणकारणाभावे आयु:स्थितिमनुश्रोत्रादीनि यैस्ते तथा एवंभूता: पापकर्म नाऽनुजानन्तीति स्थितिम् / भवन्ति तेऽपि मरणादप्यधिकां जराभिभूतविग्रहा जघन्यतरामवस्थामसूत्र.१ श्रु०८ अ०। नुभवन्तीति तद्यथेत्यादिना दर्शयति*गुप्तात्मन्- त्रि० (गुप्त:) असमयस्थानेभ्यो रक्षित आत्मा येन स गुप्तात्मा तं जहा- सो य परिणाणे हिं परिहायमाणे हिं चक्खुप्राकृतत्वाद्विपर्यय: / असंयमस्थानेभ्यो रक्षितात्मनि, उत्त० 15 अ०। परिणाणेहिं परिहायमाणेहिंघाणपरिण्णाणेहिं परिहाय-माणेहि आत्मना गुप्त: स्वशक्त्यैव रक्षिते लताभेदे स्त्री, तस्या: स्पर्शने हि रसणपरिणाणे हिं परिहायमाणे हिं फासप-रिण्णाणे हिं अतिकण्डूयने दु:खं भवति तद्भयाचान्यैर्न सा-स्पृश्यत इति तस्या परिहायमाणेहिं अभिकंतं च खलु वयं सपेहाए तओ से एगदा आत्मगुप्तत्वम् / वाचः। मूढभावं जणयंति||३| आत (य) छट्ठवाइ (न)- पु. (आत्मषष्ठवादिन) आत्मा षष्ठो येषां 'सो य परिणाणेहिं' इत्यादि। तत: स एकदा मूढभावं जनयंतीलि। तान्यात्मष्ठानि भूतानि विद्यन्त इत्येवं वादिनि सांख्यादौ सूत्र। यावत्शृणोति भाषापरिणतान् पुद्गलानिति श्रोत्रं, तच्च कदम्बपुष्पाऽऽकारं सांप्रतमात्मषष्ठवादिमते पूर्वपक्षयितुमाह द्रव्यतो, भावतो भाषाद्रव्यग्रहणलब्ध्युपयोगस्वभावमिति, तेन श्रोत्रेण संति पंचमहाभ्या, इह मेगेसि आहिया। परि:-समन्ताद् घटपदशब्दाऽऽदिविषयाणि ज्ञानानि-परिज्ञानानि तैः आयछट्ठो पुणो आहूहु आया लोगे य सासए||१५|| श्रोत्र-परिज्ञानर्जराप्रभावात्परिहीयमानैः सद्भिस्ततोऽसौ प्राणी शास्त्रतत्त्वमेव भूयः प्रतिपादयितुमाह एकदावृद्धावस्थायाम-रोगोदयाक्सरे वा मूढभावम्-मूढतां कर्त Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ(य)तट्ट 177 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आ(य)तट्ठ व्याऽकर्तव्यज्ञतामिन्द्रियपाटवाभावादात्मनो जनयति: हिताऽहितप्राप्तिपरिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थ:: जनयन्तीति विवेकवचनावसरे "तिडा तिङो भवन्ति'' इति बहुवचनमकारि, अथवा-तानि वा श्रोत्रविज्ञानानि परिक्षोय- माणान्यात्मनः सद्सद्विवेकशून्यतामापादयन्तीति, श्रोत्रा-दिविज्ञानानां च तृतीया प्रथमार्थे सुब्व्यत्ययेन द्रष्टव्येति, एवं चक्षुरादिविज्ञानेष्वपि योज्यम् / अत्र च करणत्वादिन्द्रियाणामेवं सर्वत्र द्रष्टव्यम्- श्रोत्रेणात्मनो विज्ञानानि | चक्षुषात्मनो विज्ञानानीति ! (आचा.) अत्र च 'सोयपरिणाणेहिं परिहायमाणेही त्यादि, य उत्पत्तिं प्रति व्यत्ययेनेन्द्रियाणामुपन्यास: स एवमर्थं द्रष्टव्यः- इह संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियस्य उपदेशदानेनाधिकृतत्वादुपदेशश्च श्रोत्रेन्द्रियविषय इति कृत्वा तत्पर्याप्तौ च सर्वेन्द्रियपर्याप्ति: सूचिता भवति। श्रोतादिविज्ञानानि च वयोऽतिक्रमे परिहीयन्ते, तदवाह-'अभिक्केतमि' त्यादि, अथवा श्रोत्रादिविज्ञानैरपचितैः करणभूतैः सद्भिः 'अभिक्कंतं च खलु वयंसपेहाए' तत्र प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था- यौवनादिर्वय: तज्जरामाभि मृत्युं वा क्रान्तमभिक्रान्तम्, इह हि चत्वारि क्यासि कुमारयौवनमध्यमवृद्धत्वानि, उक्तं च- "प्रथमे वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम्। तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करियष्यति''||२|| तत्राद्यवयोद्वयातिक्रमे जराभिमुखमभिक्रान्तं वयो भवति, अन्यथा वा त्रीणि वयांसी कौमारयौवनस्थविरत्वभेदाद् उक्तंच-"पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवन। पुत्राश्च स्थाविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥शा अन्यथा वा त्रीणि वयांसि बालमध्यमत्ववृद्धत्वभेदाद, उक्तं च-"आषोडशाद्भवेद बालो, यावत्, क्षीरान्नवर्तकः। मध्यम: सप्तर्ति याव-त्परतो वृद्ध उच्यते / / 1 / / ' एतेषु वयस्सु सर्वेष्वपि या उपचयवत्यवस्था तामतिक्रान्तोऽतिक्रान्तक्या इत्युच्यते, च: समुचये, न केवलं श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनविज्ञान-य॑स्तसमत्तैर्देशत: सर्वतो वा परिहीयमानैर्वा मोढ्यमापद्यते, वयश्चातिक्रान्तंप्रेक्ष्यपर्यालोच्य, 'स' इति प्राणी खलुरिति विशेषणे विशेषेण अत्यर्थं मौढ्यमापद्यत इति आह च'ततो से' इत्यादि, 'तत' इति तस्मादिन्द्रियविज्ञानापचयाद् वयोऽतिक्रमणादा 'से' इति प्राणी एकदें ति-वृद्धावस्थायां मूढ-भावोमूढत्वं किंकर्तव्यताभावमात्मनो जनयति, अथवा-'से' तस्याऽसुभृत: श्रोत्रादिविज्ञानानि परिहीयमाणानि मूढत्वभावं जनयन्तीति। स एवं वार्द्धक्ये मूढस्वभाव: सन् प्रायेण लोकावगीतो भवतीत्याहजेहिं वा सद्धिं संवसतिते विणं एगदा णियगा पुट्विं परिवयंति, सोऽवि ते णियए पच्छा परिव्वएज्जा, णाऽलं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुम पि तेसिंणाऽलं ताणाए वा सरणाए वा, से ण हासाय ण किड्डाए ण रतीए ण विभूसाए। (सूत्र-६४) "जेहिं वे' त्यादि, वाशब्द: पक्षाचरद्योतकः।आस्तांतावत् अपरोलोको यैः पुत्रकलज्ञादिभिः सार्द्ध सह संवसति त एव भार्यापुत्रादयो णमिति वाक्यालङ्कारेणा एकदेति-वृद्धावस्थायां 'नियगा' आत्मीया ये तेन समर्थाविस्थायांपूर्वमेव पोषितास्तेतं परिवदन्ति' परि-समन्ताद्वदन्तियथाऽऽयं न मियते, नापि मञ्चकं ददाति, यदि वापरिवदन्तिपरिभवन्तीत्युक्तं भवति, अथ वा-किमनेन वद्धनेत्येवं परिवदन्ति न केवलमेषां तस्यात्मापि तस्यामवस्थायामवगीतो भवतीति, आह च-" वलिसंतत-मस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुधृतं कडे (ले) वरम्। स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ता कमनीयविग्रहा''||१|| गोपालबालाङ्गनादीनां च दृष्टान्तद्वारेणोपन्यस्तोऽर्थो बुद्धिमधितिष्ठतीत्यतस्दाविर्भावनाय कथानकम्-कौशाम्ब्यां नगर्यामर्थवान् बहुपुत्रो धनो नाम सार्थवाहस्तेन चैकाकिना नानाविधै - रुपायैः स्वापतयमुपार्जितम्, तचाशेषदुःखितबन्धुजनस्वजनमित्रकलत्रपुत्रादिभोग्यतां निन्ये, ततोऽसौ कालपरिपाकवशाद् वृद्धभावमुपगतः सन् पुत्रेषु सम्यक्पालनोपचितकलाकुशलेषु समस्तकार्यचिन्ताभरं निचिक्षेप। तेऽपि क्यमनेनेदृशीमवस्थां नीता: सर्वजनाग्रे 'सरा विहिता' इति कृतोपकारा: सन्त: कुलपुत्रतामवलम्बमाना: स्वत: क्वचित् कार्यव्यासङ्गात्स्वभार्याभिगस्तमकल्पं वृद्धं प्रत्यजजागरन् ता अप्युदर्तन-स्नानभोजनादिना यथाकालमक्षुण्णं विहितवत्यस्ततो गच्छत्सु दिवसेषु वर्द्धमानेषु पुत्रभाण्डेषु प्रौढीभवत्सु भर्तृषुजरद्धेच विवशकरणपरिचारे सर्वाङ्गकम्पनिगलदशेषश्रोतसिसति शनैः शनैरुचितमुपचारं शिथिलतां निन्यु: असावपि मन्दप्रतिजागरणतया चित्ताभिमानन विश्रसया च सुतरां दु:खसागरावगाढः सन् पुत्रेभ्यः स्नुपाक्षुण्णान्याऽऽचचक्षे ताश्च स्वभर्तृभिश्चेखिद्यमानाः सुतरामुपचारं परिहृतवत्य: सर्वाश्च पर्यालोच्यैकवाक्यतया स्वभर्तृनभिहितवत्य: क्रियमाणेऽप्ययं प्रतिजागरणे वृद्धभावाद्विपरीतबुद्धितयाऽपढते, यदि भवतामप्यस्माकमुपर्यवसम्भस्ततोऽन्येन विश्वसनीयेन निरूपयत तेऽपि तथैव चक्रुः तास्तु तस्मिन्नवसरे सर्वा अपि सर्वाणि कार्याणि यथावसरं विहितवत्य:, असावपि पुत्रैः पुष्ट: पूर्वविक्षितचेतोस्तथैव ता अपवदति नैता मम किश्चित्सम्यक् कुर्वन्ति, तैस्तु प्रत्ययैकवचनादवगततत्त्वैर्यथायमुपचर्यमाणोऽपि वार्द्धक्याद्रोरुद्यते, ततस्तैरप्य-वधीरितोऽन्येषामपि यथाऽवसरे तद्भण्डनस्वभावतामाक्चक्षिरो ततोऽसौ पुत्रैरवधीरित: ग्नुभाषि: परिभूत: परिजनेनावगीतो वामात्रेणापि केनविदप्यननु-वर्त्यभान: सुखितेषुदुःखित: कष्टतरामायुः शेषामवस्थामनुभवतीति, एवमन्यो ऽपि जराभिभूत विग्रहस्तृणकुजीकरणेऽप्यसमर्थः सन् कार्येकनिष्ठ लोकात्परिभवमाप्रातीति, आह-"गात्रं संकुचितंगतिर्विगलितादन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लाला-यते। वाक्यं नैव करोति बान्धवजन: पत्नी न शुश्रुषते, धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुष पुत्रोऽप्यवज्ञायते // 1 // इत्यादि, तदेवं जराभिभूतं निजा: परिवदन्त्यसावपि परिभूयमान-स्तद्विरक्तचेतास्तदपवादान्जनायाऽऽचष्टे,आह-च'सोवा' इत्यादि,वाशब्दःपूर्वापेक्षया पक्षान्तरं दर्शयति ते वा निजास्तं परवदन्ति,स वा जगर्जजरितदेहस्ताविजान् अनेकदोषौद्घट्टनतया परिवदेनिन्देद्, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ(य)तट्ठ 178 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आ(य)तट्ठ अनुस्वार लोपश्छान्दसत्वादिति, अन्यदप्यलाक्षणिकमेवंजातीयमस्मादेव हेतोरवगन्तव्यमिति, आन्तमॊहूर्तिकत्वाच छाद्यस्थिकोपयोगस्य मुहूर्त्तमित्युक्तम्, अन्यथा समयमप्येकं न प्रमादयेदिति याच्यं, तदुक्तम"संप्राप्य मानुषत्वं, संसारासारतां च विज्ञाय। हे जीव ! किं प्रमादा-नचेष्टसे शान्तये सततम्॥१॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभ- मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम्। मानुष्यं खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम्' ||2|| इत्यादि, किमर्थश्च नो प्रमादयेदित्याह- 'वयो अच्चेइ' त्ति-वय: कुमारादि 'अत्येति' अतीव एति-याति अत्येति, अन्यच. "जोव्वणं व''त्ति-अत्येत्यनुवर्तते, यौवनं वाऽत्येति- अति-क्रामति, वयोग्रहणेनैव यौवनस्यावगतत्वात्तदुपादानं प्राधान्य-ख्यापनार्थ, धर्मार्थकामानां तन्निबन्धनत्वात् सर्ववयसां यौवनं साधीय: तदपि त्वरित यातीति, उक्तं च- नईवेगसमंचवलं, जीवियंजोव्वणञ्चकुसुमसमा सोक्खंचजं अणिचं तिण्णि वि तुरमाणभोज्जाइं" ||1|| तदेवं मत्वा अहो विहारायोत्थानं श्रेय इति। अथ वा- खिद्यमानार्थतया तानसाववगायति; परिभवतीत्यर्थः। येऽपि पूर्वकृतधर्मवशात्तं वृद्धंन परवदन्ति तेऽपि तद्-दुःखाऽपनयनसमर्था न भवन्ति, आह च. 'नालामि' त्यादि- नाऽलं-न समस्ते पुत्रकलत्रादयस्तवेति। प्रत्यक्षभावमुपगतं वृद्धमाह-त्राणाय शरणाय वेति, तत्रापत्तरणसमर्थ त्राणमुच्यते, यथा महाश्रोतोऽभिरुह्यमान: सुकर्णधाराऽधिष्ठितं प्लवमासाद्या- ऽऽपस्तरतीति, शरणं पुनर्यदवष्टम्भान्निर्भयैः स्थीयते तदुच्यते, तत्पुनर्दुर्ग-पर्वत: पुरुषो वेति, एतदुक्तं भवति-जराभिभूतस्य न कश्चित् त्राणाय, शरणाय वा, त्वमति तेषां नालं त्राणाय शरणायवेति, उक्तञ्च-"जन्मजरामरणभयै-रभिद्रुते व्याधि- वेदनाग्रस्ते / जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके॥१॥'' इत्यादि, सतुतस्यामवस्थायां किंभूतो भवतीत्याह'से ण हस्साए' इत्यादि, स जराजीर्णविग्रहो न हास्याय भवति, तस्यैव हसनीयत्वात् नपरान्हसितुंयोग्यो भवतीत्यर्थः। सच समक्ष परोक्षंवा एवमभिधीयते जनै:-किं किलास्य हसितेन हास्यास्पदस्येति। न च क्रीडायै न च लङ्घनवल्गना-स्फोटनक्रीडानां योग्योऽसौ भवति, नापि रत्यै भवति रतिरिह विषयगता गृह्यते सा पुनर्ललनावगूहनादिका, तथाभूतोऽप्यव-जुगूहिषु: स्त्रीभिरभिधीयते-न लज्जते भवान्न पश्यतिआत्मानं नावलोकयति शिर:पलितभस्मावगुण्डितं मां दुहि- तृभूतामेवं गूहितुमिच्छसीत्यादिवचसामास्पदत्वान्न रत्यै भवति न विभूषायै, यतो विभूषितोऽपि प्रततचर्मवलिक: स नैव शोभते. उक्तश्च"न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्यं कुत्त एव विभ्रम: ? अथ तेषु च वर्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम् // 1 // "जंज करेइ तंतं, न सोहए जोव्वणे अतिक्कते। पुरिसस्स महिलियाए, एक्कं धम्म पमुत्तूणं" ||2|| गतमप्रशस्तं मूलस्थानम्। सांप्रतं प्रशस्तमुच्यतेइच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहत्तमवि णो पमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व (सूत्र-६५) अथ वा-यत एवं ते सुहृदो नाऽलं त्राणाय शरणाय वा अत: किं विदध्यादित्याह- इचेवमि' त्यादि, इतिरूपप्रदर्शने, अप्रशस्तमूलगुणस्थाने वर्तमानो जराभिभूतो न हास्याय न क्रीडायै न रत्यै न विभूषायै प्रत्येकं च शुभाशुभकर्मफलं प्राणिानामित्येवं मत्वा, समुत्थितःसम्यगुत्थितः शस्त्रपरिज्ञोक्तं मूलगुणस्थानामधितिष्ठन् 'अहो' इत्याश्चर्ये, विहरणं विहार आश्चर्यभूतो विहारोऽहोविहारो यथोक्तसंयमानुष्ठानं तस्मै अहोविहारायोत्थित: सन् क्षणमपि नो प्रमादयेदित्युत्तरेण सण्ट- ङ्कः। किंच- 'अन्तरं चे' त्यादि, अन्तरमिति- अवसरस्तचार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तियोधिलाभसर्वविरत्यादिकं, च: समु-चये, खलुरवधारणे इममिति अनेनेदमाह-विनेयस्तप:संयमा- दाववसीदन् प्रत्यक्षभावापन्नमार्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपद-याभिधीयते- तवायमेवंमूतोऽवसरोऽनादौ संसारे पुनरतीव सुदुर्लभ एवेति, अतस्तमवसरं संपेक्ष्य पर्यालोच्य धीर: सन् मुहूर्तमप्येकं नो प्रमादयेत्- नो प्रभादवशगो भूयादिति, संपेक्ष्येत्यत्र ये पुन: संसाराभिष्वङ्गिणोऽसंयमजीवितमेव बहु मन्यन्ते ते किंभूता भवन्तीत्याहजीविए इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुपिता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता, अकडं करिस्मामि ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वाणं एगया नियगा तं पुट्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा नाऽलं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पितेसिं नाऽलं ताणाए वा सरणाए वा। (सूत्र-६६) 'जीविए' इत्यादि, ये तु वयोऽतिक्रमणं नावगच्छन्ति, ते 'इह' इतिअस्मिन्नसंयमजीविते प्रमत्ता अभ्युपपन्ना विषयकषायेषु प्रमाद्यन्ति प्रमत्ताश्वाहर्निशं परितप्यमानाः कालाऽकाल- समुत्थायिन: सन्त: सत्त्वोपघातकारिणी: क्रियाः समारम्भत, इति, आह च -' से हंता' इत्यादि 'से' इत्यप्रशस्त-गुणमूलस्थानवान्विषयाभिलाषी प्रमत्तः सन् स्थावरजङ्गमा नामसुमतां हन्ता भवतीति, अत्र च बहुवचन- प्रक्रमेऽपि जात्येपक्षयैकवचननिर्देश इति, तथा छेत्ता कर्णनासिकादीनां भेत्ताशिरोनयनोदरादीनां लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदनादिभि-विलुम्पयिता ग्रामघातादिभिरपद्रावयिता प्राणव्यपरोपको विषशस्वादिभिरपदावयिता वा उत्त्रासको, लोष्टप्रक्षेपादिभिः स किमर्थं हननादिकाः क्रिया: करोतीत्याह- 'अकडं' इत्यादि अकृतमिति, यदन्येन नानुष्ठितं तदहं करिष्यामीत्येवं मन्यमानोऽर्थोपार्जनाय हननादिक्रियायु प्रवर्तते स एवं क्रूरकर्मा -अतिशयकारी समुद्रलङ्घनादिका: क्रिया: कुर्वन्नप्यला भोदयादपगतसर्वस्वः किंभूतोभवतीत्याह- 'जेहिं वा' इत्यादि। वाशब्दो भिन्नक्रमः पक्षान्तरद्योतको, यैर्मातापितृस्वजनादिभिः सार्द्ध संवसत्यसौ त एव वा णमिति वाक्यालङ्कारे, एकदेतिअर्थनाशाद्यापि शैशवे वा निजा आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ(य)तट्ट 179 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आ(य)तट्ठ 'पुट्विं' पूर्वमेव तं सर्वोपायक्षीणं पोषयन्ति स वाऽप्रासेष्ट - मनोरथलाभ: संस्तान्निजान् पश्चात्पोषयेदर्थदानादिना सम्मानयेदिति / ते च पोषका: पोष्या वा तवापगतस्य न त्राणाय भवन्तीत्याह- 'नालं' इत्यादि। तेज निजा मातापित्रा-दयस्तवेत्युपदेशविषयापन्ना, उच्यतेत्राणायआपद्रक्षणार्थं शरणाय-निर्भयस्थित्यर्थं नालं-नसमर्थाः, त्वमपि तेषां त्राण-शरणे कत्तुं नालमिति : तदेवं तावत् स्वजनो न आणाय भवतीत्येत्प्रतिपादितम्। अर्थोऽपि महता क्लेशेनोपात्तो रक्षितश्च न त्राणाय भवतीत्येतत्प्रतिपिपादयिषुराहउवादितसेसं तेण वा संणिहिसंणिचओ किज्जइ, इहमे-गेसिं असंजयाणं भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते वा णं एगया णियगा तं पुट्विं परिहरंति, सो वा ते णियए पच्छा परिहरेज्जा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा, (सूत्र-६७) 'उवादिते' ति-'अद्' भक्षणे इत्येतस्मादुपपूर्वानिष्ठाप्रत्ययः, तत्र बहुलं छन्दसीतीडागम:, उपादितम्- उपभुक्तं, तस्य शेषमुपभक्तशेष, तेन वा वाशब्दादनुपभुक्तशेषेण वा सन्निधामं सन्निधिस्तस्य सन्निचयस्सन्निधिसन्निचयः अथ वा- सम्यग्निधीयते-स्थाप्यत उपभोगाय योऽर्थः स संनिधिस्तस्य सन्निचयः प्राचुर्यमः; उपभोग्यद्रव्यनिचय इत्यर्थः स इहास्मिन् संसारे एवेषाम-असंयतानां; संयताऽऽभासानां वा केषां चिरोजनाय-उपभोगार्थ क्रियते-विधीयत इति, असावपि यदर्थमनुष्ठितोऽन्तरायोदयात्तत्संपत्तये न प्रभवतीत्याह- 'तओ से' त्यादि, ततो द्रव्यसंनिधिसंनिचयादुत्तरकालमुपभोगाऽवसरे से तस्य बुभुक्षोरेकदेति द्रव्यक्षेत्रकालभावनिमित्ता-विर्भावितवेदनीयकर्मोदये रोगसमुत्पादा:-ज्वरादिप्रादुर्भावाः समुत्पद्यन्त' इति-आविर्भवन्ति। सच तै: कुष्ठराज-यक्ष्मादिभिरभिभूत: सन् भग्नासिको गलत्पाणिपादोऽविच्छेदप्रवृत्तश्वासाऽऽकुल: किंभूतो भवति इत्याह- 'जेहिं इत्यादि, यैम्मातापित्रादिभिर्निजैः सार्द्ध संवसति त एव वा निजा एकदा रोगोत्पत्तिकाले पूर्वमेव तंपरिहरन्ति,सवातान्निजान्पश्चात्परिभवोत्थापितविवेकः परिहरेत् त्यजेत्तन्निर-पेक्ष: सेडुकवत्स्यादित्यर्थ; ते च स्वजनादयो रोगोत्पत्तिकाले परिहरन्तो अपरिहरन्तो वा न त्राणाय भवन्तीति दर्शयति- 'नालं' इत्यादि, पूर्ववद्, रोगाद्यभिभूतान्त:करणेन- चाऽपगतत्राणेन न च किमालम्ब्य सम्यक्करणेन रोगवेदना: सोढव्या इति आहजाणित्तु दुक्खं पत्तेय सायं / (सूत्र-६८) 'जाणितु', इत्यादि, ज्ञात्वा प्रत्येकं प्राणिनां दुःखं तद्विपरीतं शातं वा दीनमानसेन ज्वरादिवेदनोत्पत्तिकाले स्वकृतकर्मफलमवश्यमनुभवनीयमीति मत्वा न वैक्लव्यं कार्यमिति, उत्युक्तंच-'सह कले (डे) वर! दु:खमचिंतयत्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा। बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे ! परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते" // 12 // यावच्च श्रोतादिभिर्विज्ञानैरपरिहीयमानैर्जराजीणं न निजा: परिवदन्ति, यावच्चानुकम्पया न पोषयन्ति रोगाभिभूतं च न परिहरन्ति तावादात्मार्थोऽनुष्ठेय इत्येतद्दर्शयतिअणमिक्कंतं च खलु वं संपेहाए ! (सूत्र-६९) 'अणभिक्कंतञ्च' इत्यादि, चशब्द: आधिक्ये खलु शब्द: पुन:शब्दार्थ पूर्वमभिक्रान्तं वयं: समीक्ष्य मूढभावं व्रजतीति प्रतिपादितम्, अनभिक्रान्तं च पुनर्वय: संप्रेक्ष्य'आयटुंसम्म समणुवासेज्जासि' (सूत्र७१) इत्युत्तरेण संबन्धः, आत्मार्थम् आत्महितं समनुवासयेत् ; कुर्यादित्यर्थः। किमनतिक्रान्तवयसैवात्महितमनुष्ठेयमुतान्येनापीति ? परेणापि लब्धावसरेणात्महितमनुष्ठेयमित्येतदर्शयतिखणं जाणाहि पंडिए (सूत्र-७०) क्षण: अवसरो धर्मानुष्ठानस्य स चार्यक्षेत्रसकुलोत्पत्त्यादिक: परिवादपोषणपरिहारदोषदुष्टानां जराबालभावरोगाणामभावे सति, त क्षणं जानिहि अवगच्छ पण्डित!-आत्मज्ञ! अथवा-अवसीदन् शिष्य: प्रोत्साह्यते-हे अनतिक्रान्तयौवन ! परिवादादिदोषत्रयास्पृष्टपण्डित ! द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्न क्षणम्-अवसरमवंभूतंजानीहि-अवबुध्यस्व / आच०। (क्षण-स्वरूपम् 'खण' शब्दे 3 भागे दर्शयिष्यते) एवंभूतमवसरमवाप्यात्मार्थ समनुवासयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः। किञ्चजाव सोत्तपरिणाणा अपरिहीणा णेत्तपरिण्णाणा अपरिहीणा घाणपरिणाणा अपरिहीणा रसणपरिण्णाणा अपरिहीणा फासपरिणाणा अपरिहीणा इचेतेहिं विरूव-रूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहायमाणेहिं आयटुं सम्मं समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / (सूत्र-७१) 'जाव' इत्यादि-, यावदस्य-विशरारो: कायापसदस्य श्रोत्रविज्ञानानि जरसा रोगेण वा अपरिहीनानि भवन्ति एवं नेत्रघ्राणरसनस्पर्शविज्ञानानि न विषयग्रहणस्वभावतया मान्द्यं प्रतिपद्यन्ते इत्येतैर्विरूपरूपैःइष्टानिष्टरूपतया नानारूपैः प्रज्ञानै:- प्रकष्टैनिरपरिक्षीयमाणैः सद्भिः किं कुर्यात, इत्याह- 'आयटुं' इत्यादि, आत्मनोऽर्थ आत्मार्थः स च ज्ञान-दर्शनचारित्रात्मकः, अन्यस्त्वनर्थ एव / अथवा आत्मने हितं प्रयोजनमात्मार्थतच चारित्रानुष्ठानमेव!अथवा आयत:- अपर्यवसानान् मोक्ष एव स चासावर्थश्वायतार्थोऽतस्तम्, यदि वा-आयत्तो-मोक्ष: अर्थ:प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रयस्य तत्तथा 'समनुवासयेद्' इति-'वस' निवासे, इत्यस्माद्धेतुमण्णिजन्ताल्लिट, (सिप्) सम्- सम्यग्यथोक्तानुष्ठानेन अनु-पश्चादनभिक्रान्तंवयं: संप्रेक्ष्य क्षणम् अवसरं प्रतिपद्य श्रोत्रादिविज्ञानानांवा प्रहीणतामधि-गम्यततआत्मार्थसमनुवासये:-आत्मनि विदध्याः / अथ वा अर्थवशाद्विभक्तिपुरुष-विपरिणाम इति कृत्वा तेन Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ(य)तट्ठ 180 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आतत्त वा आत्मार्थेन ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकेनात्मानं समनुवासयेद्- भावयेद् रञ्जयत् आयतार्थ वा मोक्षाख्यं सम्यक् अपुनरागम-नेना अन्विति. यथोक्तानुष्ठानात्पश्चादात्मना समनुवासयेद्-अधिष्ठापयेत्, इति: परिसमाप्तौ० ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमिदमाहयद्भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिनाऽर्थतोऽभ्यधायि तदेवाहं सूत्रात्मना वच्मीति। आचा. 1. श्रु२, अ.१ उ.। आत (य) हि(न)-पु. (आत्मार्थिन) आत्मनोऽर्थः आत्मार्थ: स विद्यते यस्य स तथा / आत्मवति, "एवं से भिक्खू आत (य) ट्ठी' (सूत्र४२४)। यो ह्यान्यमपायेभ्यो रक्षति स आत्मार्थी-आत्मवानित्युच्यते। सूत्र 20 श्रु०२ अ॥ आत(य)निप्फेड य-पुं. (आत्मनिस्फोटक) आत्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारचारकान्निस्सारकेसूत्र। 'आय-निप्फडए आयाणामेणं पडिसाहरेज्जासि" (सूत्र-४२+) आत्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारचारका-निस्सरियतीति / सूत्र 2, श्रु२ अ। आत (य) ण्ण- पुं. (आत्मज्ञ) आत्मज्ञानिनि सूत्र। अत्ताण जो जाणति जो य लोगं (सूत्र. 204) यो ह्यात्मानं परलोकयायिनं शरीराव्यतिरित्तं सुख-दुःखाधारंजानाति यश्चात्महितेषु प्रवर्तते स आत्मज्ञो भवति / येन चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽहंप्रत्ययग्राह्योऽभिज्ञानो भवति नैवायं सर्वोऽपि लोक: प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो विदितो भवति, स एव चात्मज्ञोऽस्तीत्यादिक्रियावाद भाषितुमर्हतीति। सूत्र० 1 श्रु 12 अ। आत(य)तंत-त्रि (आत्मतन्त्र) आत्मायत्ते, स्था० 4 ठा०२ उ०। आत (य) तंतकर- पुं. (आत्मतन्त्रकर)। आत्मतन्त्र: सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्र:। आत्मायत्ते जिनादौ, आत्म-तन्त्रमात्मात्मायत्तं धनम्- गच्छादि करोतीत्यात्मतन्त्रकर: 1 आत्माऽऽयत्तस्य धनस्य गच्छादिकस्य कारकेचा स्था० 4, ठा. 2 उ०। आत (य) तत्त-न. (आत्मतत्त्व) आत्मनस्तत्त्वम् / आत्मनो यथार्थस्वरूपे, चैतन्यरूपे मतभदे, कर्तृत्वादिरूपे, आत्मैव तत्त्वम्परमपदार्थे, आत्मरूप परमपदार्थे च वाचा ज्ञानदर्शन-चारित्रात्मक तत्त्व च। परमार्थदशां ज्ञानदर्शनचारित्रा- त्मकमात्मतत्त्वं विहायान्यत्सर्व शरीराद्यपि पराक्यमेवेति। आचा०। आत (य)तत्तप्पगास-पुं॰ (आत्मतत्वप्रकाश) आत्मधर्म- प्राग्भावे, अष्ठ। गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता। आत्मतत्त्वप्रकाशेन तावत्सेव्यो गुरूत्तमः / / 5 / / अष्ट 8 अष्ट। वाच। आत(य)तरग-पुं.(आत्मतरक) आत्माने केवलं तारय-तीत्यात्मतरा:, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् आत्मतरका: / व्य / प्रायश्चित्ताह पुरुषविशेषे व्य। "आयतरगा." ये पुनस्तपोबलिष्ठा वैयावृत्त्यलब्धिहीनास्ते तप एव यथोक्तरूपं कुर्वन्ति न वैयावृत्त्यमाचार्यादीनामित्यात्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् आत्मतरका: / व्य १ऊ। आत(य)तुला स्वीः (आत्मतुला) आत्मौपम्ये, सूत्र 2 श्रु 2 अ / आत्मतुल्यतायाम् सूत्र 1, श्रु२, अ३ऊ। कम्हाणं तुम्मे पाणिं पडिसाहरह? पाणिनो डहिज्जा, दजे किं भविस्सइ ? दुक्खं ति मन्नमाणा पडिसाहरइ, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे (सूत्र-४१+) अवश्यमग्रिदाहभयान्न कश्चिदग्न्यभिमुखं पाणिं ददा-तीत्येत्परोऽयं दृष्टान्तः। पाणिनादग्धेनापि किं भवतां भविष्य-तीति ? दु:खमिति चेत् यद्येवं भवन्तो दाहापादित दुःखभीरव: सुखलिप्सव: तदेवं सति सर्वेऽपि जन्तवः संसारोदरविवरवर्तिन एवंभूता एवेत्येवम् आत्मतुलयाआत्मौपम्येन यथा मम नाभिमतं दु:खमित्येवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याऽहिंसैव प्राधान्येनाश्रयणीया, तदेतत्प्रमाणम्,एषा युक्तिः / "आत्मवत्स-र्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति।" सूत्र 2 श्रु२ अ०। एवं सहित हियासए, आयतुलं पोण्णेहि संजए।।१२४|| 'एवम्" अनन्तरोक्तरीत्या परिवर्त्तमानः सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियुक्तो वा संयत:- प्रब्रजितोऽपरप्राणिभिः सुखार्थिभिरात्मतुलाम्- आत्मतुल्यतां दु:खाऽप्रियत्वसुखप्रियत्वरूपामधिकं पश्येत् आत्मतुल्यान् सर्वानपि प्राणिन: पालयेत्। सूत्र 1. श्रु२० अ०।"आयतुले पयासू" ||34|| प्रजायन्त इति प्रजा: पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मतुल्यः; आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः, एवंभूत एव साधुर्भवतीति, तथा चोक्तम्-"जह मम ण पियं दुःखं जाणिय एमेव सव्व-जीवाणे।ण हणइण हणावेइय, सममणई तेण सो समणो' ||1|| सूत्र. 1 श्रु१० आ डहरे य पाणे वुड्डे य पाणे, ते आतओ पाइस सव्वलोए।।१८। ये केचन'डहरे' त्ति-लघव:- कुन्थ्वादय: सूक्ष्मा वा ते सर्वेऽपि प्राणा: प्राणिनो ये च वृद्धा बादरशरीरिणस्तान्सर्वान- प्यात्म- तुल्याम्आत्मवत्पश्यति- सर्वस्मिन्नपि, लोकेयावत्प्रमाण ममतावदेव कुन्थोरपि यथा वा मम दुःखमनभिमतमेव सर्व-लोकस्यापिसर्वेषामापि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दु:खाद्बोद्वि-जन्ते। सूत्र 10 श्रु०१२० अ० आत(य)त्त-न. (आत्मत्व) आत्मनोभावे, आत्मधर्मे वाचः। अह पास तेहिं कुलेहि, आयताए जाया (सूत्र 1724) 'अथ' इति-वाक्योपन्यासार्थे, पश्यत्वं तेषूचावचेषुकुलेषु आत्मत्वायआत्मीयकर्मानुभवनाय जाता:, आचा०१ श्रु६० अ०१ उ। अशेषकर्मकलङ्करहितत्वे मोक्षभावे, संयमभावे च। सूत्रः / आरंभ तिरिय कट्ट, आतताए परिवए) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतत्त 181 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आत(य)पसंसा आरम्भम्-सावद्यानुष्ठानरूपं, तिर्यक्कृत्वा- अपहस्तयित्वा आत्मनो भाव आत्मत्वम्- अशेषकर्मकलङ्करहितत्वं तस्मै आत्मत्वाया यदि वा आत्मा-मोक्षः; संयमो वा तद्भावस्तस्मै तदर्थं परि-समन्ताद् व्रजेत्; संयमानुष्ठानाक्रियायां दत्तावधानो भवेदित्यर्थः / सूत्र 1 श्रु३ अ३ऊ। आत (य) दंड- पु. (आत्मदण्ड) आत्मानं दण्डयतीत्यात्म-दण्डः / आत्मन उपघातके, "बीयाइ अस्संजय आयदण्डे''|९+|| असंयतोगृहस्थः, प्रव्रजितो वा तत्कर्मकारी गृहस्था एव / स च हरितच्छेदविधाय्यात्मानं दण्डयतीत्यात्मदण्डः / स हि परमार्थत: परोपघातेनात्मानमेवोपहन्ति / सूत्र 10 श्रु 7 अ "एतेण कारण य आयदण्डे" ||2+11 यथैभिः कायै:- समारभ्यमाणैः: पीड्यमानैरात्मा दण्ड्यते; तत्समारम्भादात्मदण्डो भवतीत्यर्थः / सूत्र 1 श्रु०७ अ०। "णिस्सिय, आयदण्डा" // 234 / / आत्मैव दण्डयतीति: दण्डो येषां ते भवन्त्यात्मदण्डा असदाचारप्रवृत्ते-रिति। सूत्र०२ श्रु६अ। आत(य)दण्डसमायार-त्रि. (आत्मदण्डसमाचार) आत्मा दण्ड्यतेहितात् भ्रश्यते येन स आत्मदण्ड: समाचार अनुष्ठानं येषामनार्याणां ते। आत्महितानुष्ठातरि, सूत्र 1 श्रु०२ अ१ उ.। "आयदण्डसमायारे'।।१४+|| सूत्र 1 श्रु३अ १उ०/ आत(य)दरिस-पु.(आत्मदर्श) आत्मा देह: दृश्यतेऽस्मिन् आधारे घञ् / र्दपणे, आदर्श को / घञ् 6 तक। आत्मनो दर्शने, आत्मसाक्षात्कारे, वाच। आत(य)पएस-पुं. (आत्मप्रदेश) जीवांशे, पञ्चा० 14 विवा आत(य)परिणइ-स्त्री. (आत्मपरिणति) आत्मनोजीवस्य परिणतिरात्मपरिणति: / जीवस्यानुष्ठानविशेषसम्पादके परिणाम-विशेषे, हा। विषयप्रतिभासंचा-त्मपरिणतिमत्तथा। तत्त्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुमहर्षयः ||2|| आत्मनो जीवस्य परिणते: अनुष्ठानविशेषसंपाद्य: परिणाम-विशेष: सैव ज्ञेयतया यस्मिन्नस्ति ज्ञानेन पुनस्तद्रूपप्रवृत्तिनिवृत्ती अपि तदात्मपरिणतिमत्। हा०९ अष्ट। विषयप्रतिभासाख्य-मात्मपरिणतिमत्तथा। तत्त्वसंवेदनं चैव, त्रिधा ज्ञानं प्रकीर्तितम् ।।शा तथा आत्मन:-स्वस्य परिणाम: अर्थानर्थप्रतिभासात्मा विद्यते यत्र / तत्, आत्मनो-जीवस्य परिणाम: अनुष्ठानविशेषसंपाद्यो विद्यते यत्रेति येन सम्यक्त्वलाभप्रयोज्यवस्तुविषयता- वत्त्वमर्थो लभ्यते। द्वा०६ द्वा०। आत (य) पसंसा-स्त्री. (आत्मप्रसंसा) आत्मस्तुतौ, अष्ट.। (आत्मप्रशंसाचन कार्या) आत्मस्वरूपध्यानी सर्वं परम्-अनात्मत्वेन जानाति / स: आत्मवित् प्रशंसां न करोति तदेवाऽऽहगुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया। गुणैरेवाऽसि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया ||1|| व्या०-गुणैरिति- 'यदि गुणैः' केवलज्ञानादिभिः पूर्णः न असि तर्हि 'आत्मप्रंशसया' व्यर्थात्मस्तुत्या 'कृतं' नाम-श्रितं निर्गुणात्मन: का प्रशंसा ? पौद्गलिकोपाधिजा गुणा इति मूढा वदन्ति तैर्न प्रशंसा 'चेद' यदि सम्यग्दर्शनज्ञनाचारित्रतपौरूपैः साधनगुणैः ज्ञायिकज्ञानदर्शनचारित्ररूपैः सिद्धगुणैः पूर्ण: तर्हि वाचकात्मकप्रशंसया कृतम; श्रितमित्यर्थः, प्राग्भाविता गुणा: स्वत एव प्रकटीभवन्ति नेक्षुयष्टिः पलालावृत्ता चिरकालं तिष्ठति इति का स्वमुखात्स्वगुणप्रशंसना। पुनर्व्यवहारेण दर्शयतिश्रेयोद्मस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भ:प्रवाहतः। पुण्यानि प्रकटीकुर्वन, फलं किं समवाप्स्यसि ?शा व्या.- 'श्रेयाद्रुम' इति- भो भद्र ? 'पुण्यानि पवित्राणि 'श्रेयोद्रुमस्य मूलानि कल्याणवृक्षस्य मूलानि 'स्वोत्कर्षाम्भ: प्रवाहत: स्वस्य उत्कर्ष:-औत्सुक्यं स एव अम्भ:प्रवाह: तस्मात् 'प्रकटीकुर्वन' व्यक्त कुर्वन् किं फलं समवाप्स्यसि ? अपितुनैव, यस्य द्रुमस्य मूलम् उत्खातं तेन फलोत्पत्तिर्न भवति। आलम्बिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः / अहो स्वयं गृहीतास्तु पातयन्ति भवोदधौ / / 3 / / व्या.-'आलम्बिता' इति 'स्वगुणरश्मयः आत्मीयगुणरज्जव:'परैः' अन्यै: 'आलम्बिताः स्मरणचिन्तनेन गृहीता: हिताय' कल्याणाय स्युः, स्वसुखाय भवन्ति, 'अहो' इति-आश्चर्ये स्वगुणा: स्वयं-गृहीता भवोदधौ पातयन्ति स्वमुखेन स्वगुणोत्कर्ष: न कार्यः / उचत्वदृष्टिदोषोत्थ-स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम्। पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो, भृशं नीचत्वभावनम् ||4|| व्या.- 'उच्चत्वदोष' इति अभ्यासात्प्राप्तज्ञानविनयतपोरूपगुणान्तज्वलित्महामोहोदयेन आत्मनि उच्चत्वम् अहं गुणी मया प्राप्तमिदं, ज्ञानं विनयगुणवानहमिति उचत्वदृष्टिदोषेण उत्थो य: स्वोत्कर्षः स एव ज्वर: तस्य 'शान्तिकम् उपशमकारणं 'पूर्वपुरुषा:' अर्हदादय: ते एव सिंहा; तेभ्य:'आत्मन्यूनत्वभावन' मानोदयतापनिर्वापणं ज्ञेयम्। "धन्नो धन्नो वयरो, सालिभद्दो यथुलभद्दो अ। जेहिं विसयकसाया, चत्ता रत्ता गुणे नियए॥शा" (अस्या गाथाया व्याख्या)- धन्या: पूर्वपुरुषा ये वान्ताश्रवाः अनादिभुक्तपरभावास्वादनरामणीयकं त्यजन्ति; सदुपदेशज्ञातसत्तासुखप्सया आत्मधर्मश्रवणसुखम् अनुभूयमाना: चक्रिसंपदो विपद इव मन्यन्ते, स्वगुणेषु धन्य; स्थूलभद्रः यो हत्यातुररक्त, १कोशाप्रार्थनाऽकम्पितपरिणामस्तु- "अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ // 3 // उच्चदृष्टिदोषोत्थः, स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम्। पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो, भृशं नीचत्वभावनम्।।४।। शरीररूपलावण्य-ग्रामारामधनादिभिः / 1. कोशानाम्नीवेश्या 2- मूलमेव टीकाकारेण संग्रहीतम्। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत(य)पसंसा 182 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आतप्पओगणिवत्तिव उत्कर्ष, परपर्यायै-श्चिदानन्दघनस्य कः // 6 // " अहं तु निरर्थककुविकल्पैः चिन्तयामि विषयविषोपायान्। उक्तं च-"संतेवि कोवि उज्जइ, को वि असंते वि अहिलसई। भोए चए इयरचयेण वि दलु पभवेण जह जंबू // 1 // " इत्यादिभावनवा स्वदोषचिन्तनेन आत्मोत्कर्षपरिणामो-निवार्यः / शरीररूपलावण्य-ग्रामाऽऽरामधनादिभिः / उत्कर्षः परपर्याय:-श्चिदानन्दघनस्य कः ||1|| व्या- 'शरीरे' ति-'चिदानन्दघनस्य' चिद्-ज्ञानम आनन्द:- सुखं ताभ्यांधनस्य-आत्मन: परपर्यायै-संयोगसंभवै: पुद्गल-संनिकर्षोद्भवैः क उत्कर्ष-उन्माद: कैरिति शरीराणिऔदारिकादीनि विनाशिस्वभावानि रूपंसंस्थाननिर्माण-वर्णनामकर्मोद्भवं लावण्यं-चातुर्य सौभाग्यनामोदयनिष्पन्नं वेदादिमोहसंनिकर्षसंभवं ग्राम:-जननिवासलक्षण: आरामा:वनोद्यानभूमयः, धनं गणिमधरिमादि तेषां द्वन्द्वः तै: क उत्कर्ष परत्वात् कर्मबन्धनिबन्धनात् स्वस्वरूपरपरोधकात् तत्संयोग: निन्द्य एव तर्हि क उत्कर्ष:? उक्तं च उत्तराध्ययने"धणेण किं धम्मपुराहिगारे, __ सयणेण वा कामगुणेहि चेव। समणा मविस्सामो गुणोहधारी, बर्हि विहारा अभिगम्म भिक्खुं // 2|| न तस्स दुक्खं विभजति णाइओ, न मित्तवग्गा न सुआ न बांधवा। इक्को सयं पचणुहोइ दुक्खं, ___कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म"शा अत: आत्मगुणानन्दपरिणतानां कर्मोपाधिसंभवे उत्कृर्षों न भवति। शुद्धा: प्रत्यात्मसाम्येन, पर्याया: परिभाविताः। अशुद्धाश्चाप्रकृष्टत्वात, स्वोत्कर्षाय महामुनेः ||6|| व्या०-'शुद्धाः प्रत्यात्म' इति तथा मुने:-निर्ग्रन्थस्य पाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरगृहीतात्मस्वरूपस्य शुद्धा:पर्याया: सम्यग्ज्ञानचरणध्यानप्राग्भावरूपा आत्मपर्याया न उत्कर्षाय भवन्ति / कथं न भवन्तीत्याह-प्रत्यात्मसाम्येन परिभाविता आत्मानम् आत्मानं प्रति प्रत्यात्म तत्र साम्येन तुल्यत्वेन् भाविता: / भावना च किमाधिक्यं मम जातं ? तेन एते ज्ञानादयो गुणाः सर्वात्मनि सन्त्येवं सर्वसाधारणे क उत्कर्ष ? इति भाविताशय: सर्वजीवानां ज्ञानाद्यनन्तपर्यायत्वं तुल्यं | सिद्ध-संसारस्थयो: न सत्ता भेदः। उक्तं च संवेगरङ्गशालायाम्'नाणाइणंतगुणोववेयं, अरूवमणहं च लोगपरिमाणं / कत्ता भोत्ता जीवं, मन्नहु सिद्धाण तुल्लमिणं / / 1 / / " श्रीपूज्यश्च- "जीवो गुणपडिवन्नो, न जस्स दव्वट्ठियस्स सामइय।" तथा ठाणांगे- 'एगे आया' (सूत्र-२ स्था०१ ठा.) इत्यादिपाठात सर्वत्र तुल्यत्वे आत्मन: सदगुणप्राकट्येक उत्कर्षः अशुद्धा: पर्याया: औदयिका: शुक्रत्वादयः अपकृष्टत्वात्तुच्छत्वाद्दोषत्वाद् गुणधातत्त्वज्ञानरमणोपघातत्वात् शोफरोग-पुष्टत्ववन्न उत्कर्षाय भवन्ति, किमेभिः पुगलोपचयरूपैः परो-पाधिजैः संसर्गश्च मे कदा निवृत्तिः एभ्य इति संवेगनिर्वेदपरिणतानां नोन्माद इति। पुन: आत्मानमुपदिशतिक्षोभ गच्छन्समुद्रोऽपि स्वोत्कर्षपवनेरितः / गुणौधान् बुदबुदीकृत्य, विनाशयसि किं मुधा / / 7 / / व्या.-'क्षोभं गच्छन्नि' ते-हे हंस! स्वतत्त्वजलपूर्णस्वरूपमानसनिवासरसिक: त्वं 'समुद्रोऽपि' मुद्रा-साधुलिङ्गरूपा तयायुक्तोऽपि 'स्वोत्कर्षपवनेरित:' साऽहंकारपवनप्रेरित: क्षोभं गच्छन् अध्यवसायैः एवमेवं भवन् गुणोघान् अभ्यासोत्पन्नान् श्रुतधरव्रतधरलक्षणान् आमर्षांषधिरूपान् बुदबुदीकृत्य 'मुधा' व्यर्थ किं विनाशयसि प्राप्तगुणगम्भीरो भव स्वगुणा: स्वस्यैवं हितहेतवः तन्न, किं परदर्शनेन मानोपहतस्य गुणा: तुच्छीभवन्ति, अतो न मानो विधेयः / निरपेक्षाऽनवछिन्ना-नन्तचिन्मात्रमूर्तयः। योगिनो गलितोत्कर्षा-पकर्षानल्पकल्पना: / / 8 / / व्या०- 'निरपेक्षा' इति-योगिनो - यमनियमाद्यष्टाङ्गयोगाभ्यासोत्पन्नरत्नत्रयीलक्षणस्वयोगसिद्धा ईदशा भवन्ति, 'निर-पेक्षाः' निर्गता अपेक्षा-अपेक्षणं येभ्यस्ते निरपेक्षाः अपेक्षारहिता इत्यर्थः / 'अनवच्छिन्ना' अवच्छेदरहिता। अनन्तचिन्मात्रमूर्तयः अनन्तं प्रान्तरहितं चिद्-ज्ञानंतन्मात्रा ज्ञानमात्रा मूर्तिः येषां ते अनन्तचिन्मात्रमूर्तयः इत्यनेन परभावानुगतचेतनाविकला: स्वच्छस्वरूपानुगतचिन्तनपरिणता: 'गलितोत्कर्षापकर्षाः' गलित: उत्कर्ष-उन्माद: अपकर्ष:-दीनता तयोः अनल्पा:-कल्पनाः विकल्पजालपटलानि येषां एवंविधा योगिनः ज्ञानपरिणता: ज्ञानकरसा: तिष्ठन्ति ते एव तत्त्व-साधनचिन्मया इति अतो मानोन्मादजनकः / स्वोत्कर्षो निवार्य: / अष्ट 18 अष्टा अहाहू से आयरियाण सयंसे, जो लावएज्जा असणस्स हेऊ ||24|| अथाऽसावाचार्यगुणानां शतांऽशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांऽशादेरप्यधो वर्तते इति 'यो' हाह्यस्य हेतुमभोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा आत्मगुणान् परेणालापयेद्-भाणयेत् असावप्यार्यगुणानांसहस्रांशे वर्त्तता क्रिमङ्गपुनर्य: स्वत एवाऽऽत्मप्रशंसा विदधातीति। सूत्र १श्रु७ अा आत(य)प्पओग-पुं०(आत्मप्रयोग) आत्मव्यापारे, "आयप्प-ओगेणं उववज्जंति, णो परप्पओगेणं उववज्जंति" (सूत्र 6864) भ. 20 श० १०उ। आत (य) प्पओगणिवत्तिय- त्रि. (आत्मप्रयोगनिर्वर्तित)। 'आयप्पओगणिव्वत्तिए'' (सूत्र 164+) आत्मनः प्रयोगेणमनःप्रभृतिव्यापारेण निर्वत्तितं निष्पादितं यत्तत्तथा / आत्मनो मन:प्रभृतिव्यापारेण निष्पादिते, भव १६श 1 उ10 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतप्पमाण 183 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आतरक्ख - आत (य) प्पमाण- त्रि. (आत्मप्रमाण)। सार्द्धहस्तत्रयप्रमाणे, प्रव. 2 द्वार। आत (य)प्पवाय-न० (आत्मप्रवाद) आत्मानं जीवमनेकधानयमतभेदेन यत्प्रवदति तदात्मप्रवादम्। नं.। यत्राऽऽत्माजीवोऽनेकनयैः प्रोद्यते तदात्मप्रवादम् / स. 14 सम० / आत्माऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्रवादम्। (स. 147 सूत्र टी.) पूर्वगतश्रुतविशेष, (स. 147 सूत्रटी.) तस्य पदप्रमाणं षड्विंशतिपदकोट्य: / नं.स। आयप्पवायपुवस्सणं सोलस 16 वत्थू पण्णत्ता / नं.। आत्मप्रवादपूर्वस्य सप्तमस्या स. १६समः / आयप्पवायपुव्वं अहिज्जमाणस्सतीसगुत्तस्स। नयमयमयाणमाणस्स, दिठ्ठीमोहो समुप्पन्नो / / 2335|| आत्मप्रवादनामकं पूर्वमधीयानस्य। विशे०। (अस्या गाथाया: व्याख्या 'जीवपएसिय' शब्दे चतुर्थभागे 1554 पृष्ठे वक्ष्यते) आयप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती||१६+ll इह आत्मप्रवादपूर्व-यत्रात्मन: संसारिमुक्ताद्यने कभेदभिन्नस्य प्रवदनमिति तस्मान्निएँढा भवति धर्मप्रज्ञप्तिः; षङ्जीव-निकेत्यर्थः / दश. 1 आत (य) प्पियसंबंधणसंयोग-पु. (आत्मार्पितसम्बन्धन- संयोग)। संयोगभेदे, उत्त०१ अला) तद्वक्तव्यता 'संजोग' शब्दे सप्तमे भागे वक्ष्यते) आत (य) बल- न. (आत्मबल) आत्मनो बलम् शुक्तयुपचय आत्मबलम्। आत्मन: शुक्तयुपचये, आचा०१ श्रु 2 अ 2 उ.।। बहुलाधिकारात्। पो वः ||1|23|| अस्य वैकल्पिकत्वात्। आत (य) बोध- पुं॰ (आत्मबोध) आत्मज्ञाने, अष्ट० / आत्मबोधो न वः पाशो, देहगेहधनादिकम्। य: क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु, स्वस्य बन्धाय जायते / / 6 / / भो भव्या! व: युष्माकम् आत्मबोध: आत्मज्ञानं न पाश: बन्ध- हैतु: तेषु देहगृहधनादिषु य: आत्मना क्षिप्त: स पाश:- रागपरिणाम: स्वस्यआत्मन: एव बन्धाय जायते इत्यनेन देहगृहादिषु य: रक्तः स सर्व: भवपाशैर्बध्नाति स्वस्य बन्धहेतुः इत्यनेन परभावा-रागादय: आत्मनो। बन्धवृद्धिहेतव: अष्ट.१४ अष्टा आत (य) भाव- पुं. (आत्मभाव) अनादिभवाभ्यस्ते मिथ्यात्वा-दिके विषयगृध्नुतायाम्,'"विणइज्जओ सव्वउ आयभावं"।।२१+।। आत्मभाव:-अनादिभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिस्तमपनयेत् / यदिवाआत्मभावो-विषयगृध्नुता, अतस्तमपनयेद् / सूत्र 1 श्रु 13 अ / स्वाभिप्राये च भ० 2 श०५ उछ। आत(य)भाववंकणया-स्री (आत्मभाववङ्कनता) आत्मभावस्याऽप्रशस्तस्य वङ्कनता-वक्रीकरणं प्रशस्ततत्त्वोपदर्शनतात्मभाववङ्कनता। मायाप्रत्ययिकाक्रियाभेदे, वङ्कनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः सा च क्रियाव्यापार-त्वात् / स्था०२ठा० १ऊ / "अप्पणो चियं भावं गूहति नियडिमंतो उज्जगभावं दरिसेइ संजमादिसिढिलोवा करणफला जो डोमं दरिसेइ।" आव 4 अ०। आत (या) भाववत्तव्वया- स्त्री. (आत्मभाववक्तव्यता)। आत्मभाव एव स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्त्वं वक्तव्यो-वाच्योऽभिमानाद् येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव आत्मभाववक्तव्यता / अहंमानितायाम् / भ.२०५ऊ। 'सच्चेणं एस अढे नो चेवणं आयभाववत्तव्ययाए" (सूत्र१११४) नैवात्मभाववक्तव्यतया-ऽयमर्थ: नवयमहंमानितयैव ब्रूमः; अपि तु-परमार्थ एवायमेवंविधः इति भावना। भ.२ श.५७०। आत(य)भू-पुं. (आत्मभू) आत्मनो-मनसो, देहाद्वा भवति, भू-क्विप्६-त.। मनोभवे कामे, देहभवे पुत्रे, कन्यायाम्, वाच०। "नार्याः कुत्राऽपि कस्याश्चि-द्दारको द्वौ बभूवतुः। सपत्नीतनुभूरेको, द्वितीयश्चात्मभूयो: ''||1|| आक०६० अ०। बुद्धौ च। स्त्री / आत्मनैव भवति। भूक्विप। शिवे विष्णौ च। वाचा आत(य)रक्ख-त्रि. (आत्मरक्ष) अङ्गरक्षके औ. आत्मानं रागद्वेषादेरकृत्योद्भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः। रागद्वेषादेरकृत्याचा-त्मनो रक्षके स्था। तेचतओ आयरक्खा पन्नत्ता, तं जहा-धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवइ 1, तुसिणीए वा सिया 2, उहित्तु वा आयाए एगंतमवक्कमेज्जा३1 (सूत्र 172+) 'धम्मियाएपडिचोयणाए' ति-आत्मना एवं धार्मिकोपदेशेन नेदं भवादशां विधातुमुचितमित्यादिना प्रेरयिताउपदेष्टा भवतीति अनुकूलेतरोपसर्गकारिण: ततोऽसावुपसर्ग-करणान्निवर्तत ततोऽकृत्यासेवा न भवतीत्यत आत्मा रक्षितो भवतीति 1, तूष्णीको वा-वाचंयमः; उपेक्षक इत्यर्थः, स्यादिति 2, प्रेरणाया अविषये उपेक्षणासामर्थ्य च तत: स्थानादुत्थाय 'आय'त्ति-आत्मना एकान्तम्-विजनम् अन्तंभूमिभागमवक्रामेत् गच्छेत् / स्था.३ ठा.३ऊ। विमानाधिपते: सूर्याभस्य देवस्यात्मानं रक्षयन्तीत्यात्मरक्षाः / कर्मणोऽण // 143614aa इत्यणप्रत्यय: / रा०। देवविशेषे, रा०। सूर्याभस्य वर्णकमधिकृत्य-"सोलसेहिं आयरक्खदेवसाहस्सीणं" (अस्य सूत्रांशस्य व्याख्या)- षोडशमिरात्मरक्षदेवसहनैरिति विमानाधिपते: सूर्याभस्य देवस्यात्मानं रक्षयन्तीत्यात्मरक्षाः। कर्मणोऽण / / 5 / 3 / 14 / इत्यणप्रत्ययः / ते च शिरस्त्राणकल्पा:, यथा हि शिरस्त्राणंशिरस्यावि-द्धप्राणरक्षकं भवति तथा तेऽप्यात्मरक्षका गृहीतधनुर्दण्डादिप्रहरणा: समन्तत: सप्तानीकाधिपतेरग्रतश्चावस्थायिनो विमानाधिपते: सूर्याभस्य देवस्य प्राणरक्षका: / देवानामपायाभावात् तेषां तथा ग्रहणपुरस्सर-मवस्थानं निरर्थकमिति चेतराणां स्थिति-मात्रपरिपालनहेतुत्वात् प्रीतिप्रकर्षहेतुत्वाच तथा हि-ते समन्तत:- सर्वासु दिक्षु गृहीतप्रहरणा ऊर्ध्वस्थिता अवतिष्ठमाना: Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतरक्ख 184 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आतव स्वनायकशरीररक्षणपरायणा: स्वनायवैकनिषण्णदृष्टयः परेषामसह- | मानानां क्षोभमुत्पादयन्ति-जनयन्ति स्वनायकस्य परां प्रीतिम् / रा०। (तथा च)चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुरण्णो कइ आइरक्खदेवसहस्सीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि चउसडीओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एए णं आयरक्खवण्णओ। एवं सवेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खाते भाणियव्वा (164+) 'वण्णओ' त्ति-आत्मरक्षदेवानां वर्णको वाच्यः, स चायम् - "सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगे-वेज्जा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधियाई वइरामयकोडीणि धणूई अभिगिज्भ पयओ परमाइयकंडकलावा नीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो एवं चारुचावचम्मदंडखग्गपासपाणिणो नीलपीयरत्तचारुचावचम्म-दंडखग्गपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिटुंति'' त्ति, अस्यायमर्थः संनद्धासन्नहतिकया कृतसन्नाहा: बद्धः कशाबन्धत: वर्मितश्च वीकृत: शरीरारोपणत: कवच: कङ्कटोयैस्ते तथा, तत: सन्नद्धशब्देन कर्मधारयः / तथा उत्पीडिता प्रत्यञ्चाऽऽरोपणेन शरासनपट्टिका धनुर्यष्टियस्ते तथा, अथवा-उत्पीडिता बाहौ बद्धा शरासनपट्टिका धनुर्यष्टिर्यस्तेतथा पिनद्धं परिहितं ग्रैवेयकं ग्रीवाभरणं यैस्ते तथा, तथा बद्धो ग्रन्थिदानेन आविद्धश्च शिरस्यारोपणेन विमलो वरश्च चिह्नपट्टो योधतासूचको नेत्रादिवस्त्ररूप: सौवर्णो वा पट्टो यैस्ते तथा, तथा गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय यैस्ते तथा, अथवा-गृहीतान्यायुधानिक्षेप्यास्त्राणि प्रहरणानिच यैस्ते तथा, तथा त्रिनतानि मध्यपाईद्वयलक्षणस्थानत्रयेऽवनतानि त्रिसन्धि- | तानि त्रिषु स्थानेषु कृतसन्धिकानि; नैकाङ्गिकानीत्यर्थः। वज्रमयकोटीनि धनूंष्यभिगृह्य वदत; पदे मुष्टिस्थाने तिष्ठन्तीति सम्बन्धः / परिमात्रिक: सर्वतो मात्रावान् काण्डकलापो येषां ते तथा / नीलपाणय इत्यादिषु नीलादिवर्णपुडत्वान्नीलादयो वाणभेदा: सम्भाव्यन्ते / चारुचापपाणय इत्यत्र च चापं-धनुरेवानारोपितज्यमतो न पुनरुक्तता, चर्मपाणय इत्यत्र चर्मशब्देनस्फुरक उच्यते, दण्डादयः प्रतीता:, उक्तमेवार्थसंग्रहणेनाह'नीलपीए' त्यादि अथ वा-नीलादीन् सर्वानव युगपत्केचिद्धारयन्ति देवशक्ते रिति दर्शयन्नाह- 'नीलपीए' त्यादि, ते चात्मरक्षा न संज्ञामात्रेणैवेत्याह आत्मरक्षाः; स्वाम्यात्मरक्षा इत्यर्थः, ते एव विशेष्यन्ते रक्षोपगता रक्षामुपगताः; सततं प्रयुक्तरक्षा इत्यर्थः / एतदेव कथमित्याहगुप्ता: अभेदवृत्तयः, तथा गुप्तपालीका: तदन्यतो व्यावृत्तमनोवृत्तिका: मण्डलीका, युक्ता: परस्परसम्बद्धाः, युक्तपालीका, निरन्तरमण्डलीका:, प्रत्येकमेकैकश: समयत: पदातिसमाचारेण विनयतीविनयेन किंकरभूता इव-प्रेष्यत्वं प्राप्ता इवेति, अयं च पुस्तकान्तरे साक्षाद् दृश्यत एवेति।' / एवं सटवे सिमिंदाणं ति-'एवमि'ति-चरवत्सर्वेषामिन्द्राणां सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा वाच्या:, ते चार्थत एवम- सर्वेषामिन्द्राणां सामानिकचतुर्गुणाआत्मरक्षाः, तत्र चतुःषष्टिसहयाणि चमरस्येन्द्रमामा निकानाम, बलेस्तु षष्टिः, शेषभवनपतीन्द्राणां प्रत्येकं षट्पट्सहस्राणि शक्रस्य चतुरशीतिः, ईशानस्याऽशीतिः सनत्कुमारस्य द्विसप्ततिः, माहेन्द्रस्य सप्ततिः, ब्रह्मणः षष्टिः लान्तकस्य पञ्चाशत्, शुक्रस्य चत्वारिंशत, सहस्रारस्य त्रिंशत्, प्राणतस्य विंशतिः, अच्युतस्य दशसहस्राणि सामानिकानामिति, यदाह"चउसट्ठी सट्ठी,खलु, छच सदस्सा उ असुरवज्जाण। सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ !|1|| चउरासीइ असीई, बावत्तरि सत्तरी य सट्ठीय। पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा दससहस्सा" || इति। भ.३श०६ जा आत [य] रक्खिन-त्रि. (आत्मरक्षिन) आत्मानं रक्षत्य-पायेभ्य:कुातिगमनादिभ्य इत्येवंशील: आत्मरक्षी। कुातिगमनादिभ्य आत्मनो रक्षणशीले, उत्त० पाइ०४ अा"अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो' // 10+|| उत्त०४ अका आत (य) रक्खिय-त्रि. (आत्मरक्षित) आत्माऽपोयेभ्योदुर्गतिगमनादिभ्यो रक्षितो येन स तथा / दुर्गतिगमनहेतुनिबन्धनात्सावद्यानुष्ठानानिवृत्ते, सूत्र,। 'आयपरक्कमे आयरक्खिए" (सूत्र 42+) / दुर्गतिगमनहेतुनिबन्धनस्य सावद्यानुष्ठानस्य निवृत्तत्वाद् / सूत्र 2, श्रु 20 अरंइ पिट्ठओ किचा, विरए आयरक्खिए ||15|| आत्मरक्षितो दुर्गतिहेतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः / आहिताग्न्यादिषु // 3 / 1 / 153 / / दर्शनात् कान्तस्य परनिपात: (हैम व्याकरण सूत्रैण) उत्त०२ अा आत (य) वं-त्रि. (आत्मवत्)। 'आयवं" (सूत्र-१०x)। आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान्। ज्ञानादिमति, आचा.१ श्रु०३ अ१० उाआत्मा-चित्तं वश्यतयाऽस्त्यस्य मतुप। मस्य व: स्त्रियां डीप। वश्यचित्ते, निर्विकारचित्ते च / आत्मा प्रकाश्यतया विद्यतेऽस्य आत्मप्रकाशकेशास्त्रे, आत्मना तुल्यक्रियावति, आत्मतुल्यक्रियायाम्, अव्या वाचका आतव- पुं० (आतप)। आ-समन्तात्तपति संतापयति जग-दित्यातपः / उत्त.१ अा आ-तप*घ उद्द्योते, कर्म२ कर्मः। स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा, सूर्यगत आतपः, चंद्रगत: प्रकाश इति। तथाप्यातपशब्द: चंन्द्रप्रभायामपि वर्तते, यदुक्रम-"चन्द्रिका कौमदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रातप: स्मृतः" ||शा इति / सू०प्र०३ पाहुः / "आतवाइवा" (सूत्र-९५४) आतप इति वा / आतप आदित्यस्येति। स्था०२ ठा०४ उ.ा धर्मे, उत्त०२ अ!"आयवताणनिमित्त।।९६४|| उष्णेन परितापना। व्य०८ उड़ा आतप्यते-पीड्यते शरीरमनेनेत्यातप: / तृणपाषाणादौ, "आयवस्स निवाएणं, अउला हवई वेयणा'' ||354|| उत्त. 20 / निविडकिरणे, रौद्रे च प्रकाशे, वाच०। स्वनामख्याते आहोरात्रभवे चतुर्विंशतितमे मुहूर्ते च० सम०३० / च० प्र० *पो. व: J इतिपस्यवः। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतवणाम १८५अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आत(य)संजम आतवणाम (न)-न (आतपनामन्) नामकर्मभेदे, श्रा०। यदुदयादा- | आत (य) वस- त्र. (आत्मवश) आत्मनो वश: आयत्तता यत्र / तपवान् भवति / पृथिवीकाये, आदित्यमण्डलादिवत्। श्रा०। आत्माधीने, "यद्यदात्मवशं तु स्या-तत्तत्सेवत यत्नतः / सर्व परवशं यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यपि उष्णप्रकाश-लक्षणमातपं दु:खं, सर्वमात्मवशं सुखम् ॥शा मनु / वाचः। कुर्वन्तितदातपनामा तद्विपाकश्च भानुमण्डल- गतभूकायिकेष्वेव न वह्नौ, सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो 68+/ प्रवचनप्रतिषेधात; तत्रोष्णत्वमुष्ण-स्पर्शनामोदयात्, उत्कटलोहित सर्वाथेषु विमुक्त:-सर्वपदार्थेषु ममतारहित: साधुः मोक्षसाधक: वर्णनामोदयाच प्रकाशकत्व-मिति, प.सं.३ द्वार / यदुदयवशा सर्वत्रात्मवशो भवति; न कुत्रापि परवश: / ग०२ अधि। ज्जन्तुशरीराणि भानुमण्डल-गतपृथ्वीकायिकरूपाणि स्वरूपेणा आत (य) वायपत्त- त्रि. (आत्मवादप्राप्त) आत्मन उप-योगलक्षणस्य नुष्णान्यपि उष्णप्रकाश-लक्षणमातपं कुर्वन्ति तदातपनाम। आतपनामोदयश्च वह्निशरीरेन भवति सूत्रे प्रतिषेधात्। तत्रोष्णत्वमुष्ण जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाश-भाज: स्वकृतफलभुज: स्पर्शनामोदयात् / उत्कटलोहितवर्णनामोदयाच प्रकाशकत्वम् / कर्म प्रत्येकसाधारणतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्य६० कर्म। नन्तधर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवादप्राप्त: / सम्यग् यथावस्थि-तात्मस्वतत्त्ववेदिनि, सूत्रा"आयवायपत्ते विऊ" (सूत्र० रविबिंबे उ जियगं, तावजुयं आयवाउन जलणे / जमुसिणफासस्स तहिं, लोहियवण्णस्स उदउत्ति||४|| 44) सूत्र० श्रु१६अ। आत (य) वि (द)- त्रि. (आत्मविद्)। पाठान्तरे-"आयवी'' (सूत्रआतपाद्-आतपनामोदयाज्जीवानामङ्गं -शरीरम् तापयुतं 1074) आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्म-वित्। आत्मनो स्वयमनुष्णमपि उष्णप्रकाशयुक्तं भवति। आतपस्य पुनरुदयो रविबिम्बे एव। तुशब्द एवकारार्थः / भानुमण्डलादिपा- र्थिवशरीरेष्वेव; न रक्षके आचा० 10 श्रु.३ अ०१० उ.। आत्मानं यथार्थरूपेण वेत्ति, विद क्विप-६ ताआत्मस्वरूपज्ञे, आत्मानं स्वपक्षं वेत्ति विप। स्वपक्षज्ञातरि, पुनलने हुतभुजि। अत्रयुक्तिमाह- यद्यस्मात्कारणात तथा ज्वलने वाचा ज्वलनजन्तुशरीरे; तेजस्कायशरीरे इत्यर्थः उष्णस्पर्शस्योदयः, तथा'लोहित- वर्णस्योदय' इति- तेजस्कायशरीराण्येवोष्णस्पर्शोदये आत (य) वीरिय- न. (आत्मवीर्य्य)। वीर्यभेदे, नि. चू। आयविरियं नोष्णानि, लोहितवर्णनामोदयात्तु प्रकाशयुक्तानि भवन्ति, न दुविहं-विओगावीरियं च, अविओगायवीरियं च। विओगायवीरियं जहात्वातपोदयादिति भावः। तदुदयाज्जन्तुशरीराण्यात्मनानुष्णान्यप्युष्ण संसारावत्थस्स जीवस्स मणमादिजोगा वियो गजा भवन्ति, प्रकाशरूपमातपं कुर्वन्ति, तदातपनामेत्यर्थ: / कम०१ कर्मः। अविओगाऽऽयवीरियं पुण-उवओगो असंखेज्जा पप्प एसत्तणं / नि० आत (य) वणिवाय- पुं. (आतपनिपात)। आतपस्य-धर्मस्य नितरां चु०१ऊ। पातो निपात: / धर्मस्य नितराम्पाते, उत्तः। आत (य) विसोहि-स्त्री. (आत्मविशुद्धि)। उत्कालिकश्रुत-विशेषे, नं०। आयवस्स निवाएणं, अउला हवइ वेयणा / / 314|| आत्मनो-जीवस्यालोचना प्रायश्चित्तप्रतिपत्ति-प्रभृतिप्रकारेण विशुद्धिः आतपस्य निपातेन-धर्मस्य संयोगेन अतुला वेदना भवति, कर्मविगमनलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा आत्मविशुद्धिः / नं। आत्मनो जीवस्या-लोचनादिप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिप्रकारेण विशुद्धिः तापशीतवर्षावातादिपीडाऽस्माभिः सोढुं न शक्यते अथवा-आतप्यते कर्मवि-गमनलक्षणा प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनभात्मविशुद्धिः / पा.। पीड्यते शरीरमनेनेत्यातपः तृणपाषाणादिरप्युच्यते तस्य संगेनास्मच्छरीरे महती वेदना भवति। उत्त०२०। आत (य) वेयावत्रकर-त्रि. (आत्मवैयावृत्त्यकर) अलसे, विस-म्भोगिके च। स्था आत (य) वतत्त- त्रि. (आतपतप्त) धर्मतप्ते, "आतवतत्ते वहे अहवे // 2014) आयवतत्तं अप्पोदर्ग अवहं घेप्पंति। असइ आयवतत्तं आयवेयावबकरे नाममेगे, णो परवेया वचकरे। (सूत्र-३२०x) वह धिप्पति / निचू, ऊ। आत्मवैयावृत्त्यकर:- अलसो, विसम्भोगिको वा। स्था०४, ठा. 30 उ०। आत (य) व (त)-त्रि (आतपवत्)। आतपोऽस्त्यत्र मतुप। मस्यवः | आतसंचेयणिज्ज-पुं. (आत्मसंचेतनीय)। आत्मना संचेत्यन्ते-क्रियन्त आतपयुक्ते, "शृङ्गाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः'' वाचा। अहोरात्रभवे इत्यात्मसंचेतनीया: 1 स्था० 1, ठा. 4 ऊ। उपसर्गभेदे, स्था०४० ठा०४ स्वनामख्याते चतुर्विशेमुहूर्ते, जं.७ वक्ष०ा कल्प। ऊ / (अस्य भेदोहरणादिबहुवक्तव्यता 'उवसम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे आत(य) वाल-त्रि. (आत्मपाल) आत्मानमेव पालयतीत्या-त्मपाल: / वक्ष्यते) आत्मन: पालके ज्ञा१, श्रु१ अा आत (य) संजम- पुं. (आत्मसंयम)आत्मनः शरीरस्य संयमः / आतवालोय- पुं० (आतपालोक) हुतवहतापदर्शने, ज्ञा० / संवृत्ताङ्गोपाङ्गेन्द्रियत्वे, पा० / आत्मनो-मनस.संयम: / चित्तसंयमने, "आतवालोयमहंततुंबइयपुण्णकण्णे" (सूत्र 274) / ज्ञा.१ श्रु१ अ। वाचा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत(य)संजमपर 186 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आत(य)सुह आत (य) संयमपर-त्रि. (आत्मसंयमपर) आत्मन: शरीरस्य संयम; संवृताङ्गोपाङ्गेन्द्रियत्वम् तत्परं-तत्प्रधानम्। संवृताङ्गोपाङ्गेन्द्रियत्वप्रधाने, षो.९ विक। आत (य) संयमोवाय- पुं० (आत्मसंयममोपाय)। संयमसंयम आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तदुपाय:। आत्मसंयमनोपाये, दश०। उक्तं च-" तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतस्सदा। स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनो हित:" ॥शा इति / दश।१। आत (य) संवेयण-न. (आत्मसंवेदन) द्रव्योपसर्गभेदे, सूत्र०। तथा च उपसर्गमधिकृत्यदवे चउव्विहो दे-वमणुयतिरियायसंवेतो!|७|| आत्मसंवेदना अपि चतुर्विधा, तद्यधा घट्टनात: लेशनातः, अड्डलाद्यवयवसंश्लेषरूपाया स्तम्भनात: प्रपाताचा सूत्र.१ श्रु३ अ०१उ०। आत (य) संवेयणिज्ज- पुं० (आत्मसंवेदनीय)। आत्मना क्रियन्त इत्यात्मसंवेदनीयाः। द्रव्योपसर्गभेदे, आ. चू. 1 अ। (एतस्य भेदादिबहुवक्तव्यता 'उवसग्ग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते)। आत (य) सक्खि (न)-त्रि. (आत्मसाक्षिन) आत्मन: बुद्धिवृत्त: साक्षी- | प्रकाशक: वेदान्तादिमतसिद्धे बुद्धिवृद्धिप्रकाशकेचैतन्ये वाचा आत्मास्वजीव: स्वस्वसंचितप्रत्यक्षविरतिपरिणामपरिणत: साक्षी यत्र तदात्मसाक्षिकम् / स्वजीवसाक्षिके पा०। आत (य) (अप्प) सत्तम- त्रि. (आत्मसप्तम) आत्मना सप्तम: सप्तानां पूरण आत्मा वा सप्तमो यस्यासावात्मसप्तमः / सप्तानां पूरण आत्मा यस्य / तस्मिन्, स्था.। "मल्लीणं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता" (सूत्र 564+) स्था०७ठा०३ उ०। आत (य) सम्पपण-न. (आत्मसमर्पण) आत्मनिवेदने, पञ्चा०। ___गुरवे चात्मनिवेदनं महते फलायअह तिपयाहिणपुव्वं, सम्मं सुद्धेण चित्तरयणेण। गुरुणोऽणुदेयणं स-व्वहेव दढमप्पणा एत्थ ||29|| अथ तदात्मनिवेदनं गुरु: प्रतिपद्यते न वायदिन प्रतिपद्यते तदान युक्तं | निष्फलत्वात्तस्येत्याकां परिहरन्नाहएसा खलु गुरुमत्ती, उक्कोसो एस दाणधम्मो उ। भावविसुद्धीऍ दढं, इहरा वियबीयमेयस्स ||30|| कथमिदं भावविशुद्ध्याभावपूर्वकमात्मनिवेदनमुत्कृष्टदानधर्म-बीजं | भवतीत्याहजं उत्तमचरियमिणं, सोउं पि अणुत्तमाण पारे त्ति। ता एयसगासाओ, उक्कोसो होइएयस्स|३|| अथ यदि तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते तदाऽधिकरणदोषो गुरो:स्यादित्याशङ्का परिहरन्नाह गुरुणो विणाऽहिगरणं, ममत्तरहियस्स एत्थ वत्थुम्मि। तब्भवसुद्धिहे, आणाएँ पयत्तमाणस्स॥३शा पचा०२ विवा (एतासां गाथानां व्याख्या पवज्जा' शब्दे पञ्चमेभागे करिष्यते)। आत (य) समया- स्त्री. (आत्मसमता)। आत्मौपम्ये, आचा।। सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदित्याहआतवो दहिया पास, तम्हा ण हंता ण विघायए / (सूत्र 1154) / यथा ह्यात्मन: सुखमिष्टमितरत्त्वन्यथा तथा बहिरपिआत्मनो व्यतिरिक्तानामपि जन्तूनां सुखप्रियत्वमसुखप्रियत्वं च पश्य- अव धारय, तदेवमात्मसमतां सर्वप्राणिनामवधार्य किं कर्त्तव्य-मित्याह'तम्हा' इत्यादि। यस्मात्सर्वेऽपि जन्तवो दु:खद्विषः सुखलिप्सवस्तस्मात्तेषां न हन्तान व्यापादक: स्यात्, नाप्य-परैस्तान् जन्तून् विविधैर्नानाप्रकारैरुपायैर्घातयेविघातयेदिति। आचा०१ श्रु०३ अ०३० उ० / आत (य) समोयार- पुं. (आत्मसमवतार) ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतारभेदे, अनु०। सव्वदव्वा विणं आयसमोआरेणं आयभावे समोअरंति। (सूत्र१५३+) ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारस्त्रिविध: प्रज्ञप्त: तद्यथाआत्मसमवतार इत्यादि। तत्र सर्वद्रव्याण्यप्यात्म- समवतारेण चिन्त्यमानान्यात्मभावे- स्वकीयस्वरूपे समवत-रन्ति- वर्तन्ते तदव्यतरिक्तत्वात्तेषाम्। अनु०। (अत्र बहुवक्तव्यता समोयार' शब्दे सप्तमे भागे करिष्यते) आत (य) सरीरखे त्तोगाढ- त्रिः (आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ) स्वशरीरक्षेत्रव्यवस्थिते, भा"आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेन्ति" (सूत्र 258+) स्वशरीरे व्यवस्थितानित्यर्थ: भ०६श०१० उ०। आत (य) साय-न०(आत्मसात) आत्मसुखे, सूत्र०।"भुताइँजे हिंसति आयसाते // 5 // " अभूवन् भवन्ति भविष्यन्तीति भूतानिप्राणिनस्तानि आत्मसुखार्थं हिनस्तिव्यापादयति। सूत्र.१ श्रु०७०अ०। आत (य) सायाणुगामि (न)- पुं. (आत्मसातानुगामिन) स्वसुखलिप्सौ, सूत्रा हंता छेत्ता पगडिभत्ता, आयसायाणुगामिणो ||5|| आत्मसातानुगामिन:-स्वसुखलिप्सवः / सूत्र 1 श्रु८ अ। आत (य) सुह- न. (आत्मसुख) शरीरसुखे सूत्र०। 'आयसुहं पडुच" ॥४+liआत्मसुखम्प्रतीत्य-स्वस्य शरीरसुखकृते। सूत्र०१ श्रु० 50 अ०१ऊ। जे छिदेति आयसुहं पडुच्च // 65 // सूत्र: श्रु०७अ जीवसुखे द्रव्या। अर्हत्क्रमाऽम्मोजयुगोपयोगि, चेत:कुरुष्वाऽऽत्मसुखं लभस्व / / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत(य)सुह 187 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता आत्मनो-जीवस्य सुख-निराबाधानुभवं लभस्व-प्राप्नुहि नयज्ञानात् जीवादीन् परीक्ष्य कर्मभ्य आत्मानं वियोज्यानन्त- सुखभाक् भव इत्यर्थः / द्रव्या०८ अध्याo। आत्मैव सुखमस्य आत्मलाभमात्रेण सुखिनि, त्रि / आत्मैव सुखं सच्चिदानन्दरूपत्वात्। आत्मरूपे परमानन्दे, न. वाच.। आत (य) सोहि-स्त्री. (आत्मशुद्धि) आत्मनो-देहस्य, मनसोवा शुद्धिः / देहशुद्धौ, चित्तशुद्धौ च। वाचल। कर्मक्षयोपशमक्षयेच!"आययजोगमायसोहीए'' ॥१५४||आत्मशुध्याकर्मक्षयो पशमक्षयलक्षणयाऽऽयतयोगसुप्रणिहितमनोवाक्कायात्मकं विधाय। आचा० 1 श्रु.९ अ 4 उ०। आत (य) हित- त्रि. (आत्महित) स्वहिते, सूत्र / "आयहियाए सण्णिसेज्जाओ" ||164|| आत्महिताय स्वहितं मन्यमानाः / सूत्र० 1, श्रु०४ अ०१ ऊ! शरीराय हिते, "आयट्ठीणं आयहि-ताणं" (सूत्र-१+1) आत्महितानां हितमिव हितम् आत्महितं च शरीरे आत्मनि च भवति / तत्र शरीरे हिताऽहितं पथ्या-ऽपथ्याहारादिकम्। आत्मनि तु हिंसादिप्रवृत्तिनिवृत्ती / अथवा-आत्मनो हितानी त्रीणि त्रिषष्ठानि पाखण्डिकशतानि तदपनयनं तदस्ति येषां ते आत्महिताः / दशा. 50 अ०1 अहिताचाराश्च चौरादयः, अयं त्वात्महित ऐहिकामुष्मिकापायभीरुत्वाद। सूत्र०२ श्रु०२ अ। "आयहिए अणियाणसंवुडे' (सूत्र-२०१)। सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ऊा आयहे उ-पु. (आत्महेतु) आत्मनिमित्ते, दश। "आयहेउ पर उभये" ||339+11 आत्महेतो:-आत्मनिमित्तम / दश०१० अ०। "केई पुरिसे आयहेउ वा णाइहेउं वा" (सूत्र-२७+) आत्मनिमित्तम्आत्मार्थम्। सूत्र०२ श्रु०२ अ० आता (अप्पा)-स्त्री.(आत्मन्) -पुं.अत-मनिण। स्वरूपे, वाच। भ०। भस्माऽऽत्मनो पो वा 112/2/51|| इति हेमप्राकृतसूत्रेण भस्माऽऽत्मनो: संयुक्तस्य पो वा / अप्पा / अप्पाणे / पक्षेअत्ता। प्रा०। पुंस्यन आणो राजवच ||83|16|| इति हैमप्राकृतसूत्रेण पुल्लिङ्गे वर्तमानस्याऽन्नन्तस्य स्थाने आण इत्यादेशोवाभवति। पक्षे यथादर्शनं राजवत् च कायं भवति / आणादेशे च-"अत: से?:"|२|| इत्यादयः प्रवर्तन्ते / पक्षे तु राजवत्-अप्प शस / जस्शस्ङसिङसां णो 18150 / टोणा ||3|11|| इणममामा |8 / 3 / 13 / / इति प्रवर्तन्ते / अप्पाणो / अप्पाणा, प्रथमा। अप्पाणं / अप्पाणे, द्वितीया। अप्पाणेण / अप्पाणेहि, तृतीया। अप्पाणाओ अप्पाणासुन्तो, पञ्चमी। अप्पाणस्स / अप्पाणाण, षष्ठी। अप्पाणम्मि / अप्पाणेसु, सप्तमी। अप्पाण का पक्षे राजवत्। अप्पा। अप्पो प्रथा हे अप्पा!! हे अप्प!, संबोध-नम् / अप्पाणो चिट्ठति / अप्पाणो पेच्छ। अप्पाणा, अप्पेहि। अप्पाणो अप्पाओ। अप्पाउ। अप्पाहि अप्पाहिन्तो। अप्पा / अप्पासुन्तो।अप्पाणोधणं।अप्पाणं। अप्पे। अप्पेसु।प्रा०।"आत्मनष्टो णिआ णइआ" ||3|17|| आत्मन: परस्याष्टाया: स्थाने णिआणइआ इत्यादेशौ वा भवतः / अप्पणिआ पाउसे उवगअम्मि। अप्पणिआ | अविअड्डिखाणिआ। अप्पणइआ। पक्षे-अप्पाण्ण। प्रा०। यत्ने, वाच०। स्वस्मिन्, "आयाए एप्तमंतं अवक्कामंति' (सूत्र-१४२+)। आयाए' त्ति-आत्मना; स्वयमित्यर्थः / भ०३ श०२ उ०। दोहिं ठाणे हिं आया सरीरं फुसित्ता णं णिज्जाति, तं जहा देसेण वि आया सरीरं फुसित्ता णं णिज्जाति, सवेण वि आया सरीरगं पुसित्ताणं णिज्जाति, एवं पुरित्ता णं, एवं फुडित्ता, एवं संवट्टित्ता, निव्वट्टित्ता। (सूत्र-९७) 'दोहिं' इत्यादिकं कण्ठ्यम् / नवरंद्वाभ्यां प्रकाराभ्यां 'देसेण वि' त्तिदेशेनापि कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषांचित्प्रदेशा वा इलिकागत्योत्पादस्थानंगच्छता जीवेन शरीराद्-बहि: क्षिप्तत्वात, आत्मा-जीव: शरीरम्देहां स्पृष्टाश्लिष्टा निर्याति शरीरान्मरणकाले निस्सरतीति, 'सव्वेण वि' त्ति- सर्वेण-सर्वात्मना सर्वैविप्रदेशैः कन्दुकगत्योत्पादस्थानं गच्छता शरीराद् बहि:प्रदेशानामक्षिप्तत्वादिति / अथवा। देशेनाऽपिदेशतोऽपि अपिशब्द: सर्वेणापीत्यपेक्षः / आत्मा-शरीरं कोऽर्थः ? शरीरदेश-पादादिकं स्पृष्ट्वा अवयवान्तरेभ्य: प्रदेशसंहारान्निति, सच संसारी। सर्वेणापिसर्वतयाऽपि, अपिः देशेनापीत्यपेक्ष: सर्वमपि शरीरं स्पृष्टा निर्यातीतिभाव:,सच सिद्धो वक्ष्यतिच-"पायणिज्जाणा निरएसु उववज्जती" त्यादि, यावत्-"सव्यंगनिज्जाणा सिद्धेसु"त्ति। आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सतिस्फुरणं भवतीति, इत्यत उच्यते- 'एवमि' त्यादि, 'एवमि' 'ति' दोहिं 'ठाणेहिं'। इत्याद्यभिलाप- संसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियद्भिरप्यात्मप्रदेशैरिलिकागति-काले 'सव्वेण वि' त्ति सर्वैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीरम्। 'पुरित्ताणं ति-स्फोरयित्वा सस्पन्दं कृत्वा निर्याति, अथवा- शरीरकं देशतः; शरीरदेशमित्यर्थ, स्फोरयित्वा पादादि- निर्याणकाले सर्वत: शरीरं स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनिर्याणावसर इति। स्फुरणाच सात्मकत्वं स्फुट भवतीत्याह-'एवमि' त्यादि- 'एवमि' ति-तथैव देशनात्मदेशेन शरीरकम् 'फुडित्ता णं' ति-सचतेनतया स्फुरणलिङ्गतः स्फुटंकृत्वा इलिकागतौ सर्वेण-सर्वात्मना स्फुटंकृत्वा गेन्दुकगताविति, अथवा-शरीरकं देशत: सात्मकतया स्फुटं कृत्या पादादिना निर्याणकाले सर्वत: सर्वाङ्गनिर्वाणप्रस्ताव इति, अथवा'फुडित्ता' स्फोटयित्वा विशीर्ण कृत्वा तथा देशतोऽक्ष्यादिविधातेन, सर्वत: सर्वविश- रणेन देवदीपादिजीववदिति शरीरकं सात्मकतया स्फुटीकुर्चस्तत्संवर्त्तनमति कश्चित्करोतीत्याह- 'एवमि' त्यादि, 'एवमि' ति तथैव संवट्टइत्ता णं ति-संवर्त्य-संकोच्य शरीरकं देशेने-लिकागती शरीरस्थितप्रदेशैः सर्वेण-सर्वात्मना गेन्दुकगतौ सर्वात्मप्रदेशानां शरीरस्थितत्वान्निर्यातीति, अथवा-शरीरकं शरीरिणमुपचाराद्दण्डयोगाद्दण्डपुरुषवत्, तत्र: देशत: संवर्त्तनं संसारिणो नियमाणस्य पादादिगतजीवप्रदेश- संहारात्सर्वतस्तु निर्वाणं गन्तुरिति। अथवाशरीरकं देशत: संवर्त्य हस्तादिसङ्कोचनेन सर्वत: सर्वशरीरसङ्कोचनेन पिपीलिकादिवदिति। आत्मनश्च संवर्तनं कुर्वन् शरीरस्य निवर्तन करोतीत्याह-एवं 'निवट्टइत्ता णं' ति-तथैव निवर्त्य-जीवप्रदे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 188 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता | (3) शेभ्यः; शरीरकं पृथक् कृत्वेत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागतो निक्षेप आत्मनः। सर्वेण गेन्दुकगतौ, अथवा-प्रदेशत: शरीरकं निवात्मन: पादादि अष्टविध आत्मा। निर्याणवान, सर्वत: सर्वाङ्गनिर्याणवानिति, अथवा पञ्चविधश आत्मानः- सूक्ष्मा, बादराश्च नवविधाश्च / रीरसभुदयापेक्षया देशत: शरीरम्-औदारिकादि निवर्त्य तैजस कार्मणे त्वादायैव तथा सर्वेण सर्व शरीरसमुदायं निवर्त्य निर्याति; आत्मन: लक्षणम्। सिद्ध्यतीत्यर्थः, अनन्तरं सर्वनिर्याणमुक्तं, तच परम्परया परिभोगोपभोगकषायद्वाराणि / धर्मश्रवणलाभादिषु ते च यथा स्युस्तथा दर्शयन्नाह इन्द्रियाण्यात्मनः। दोहिं ठाणेहिं आता केवलिपन्नत्तं धम्मलभेज्जा सवण-ताते, चित्तादीनि आत्मनः। तं जहा-खतेण चेव, उवसमेण चेव, एवं जाव मणपज्जवनाणं (10) आत्मन: अस्तित्वम्। उप्पाडेज्जा , तं जहा-खतेण चेव, उवसमेण चेव। (सूत्र-९८) अभ्याख्यानमात्मन:। 'दोही' त्यादि, कण्ठ्यं, नवरम् 'खएण चेव' त्ति- ज्ञाना-वरणीयम्य दर्शनमोहनीयस्य च कर्मण उदयप्राप्तस्य क्षयेण निर्जरणेन अनुदितस्य आत्मनोऽस्तित्वमिन्द्रभूति प्रति। चोपशमेन-विपाकानुभवनेन क्षयोप-शमेनेत्युक्तं भवति, यावत्करणात्- (13) अभौतिकत्वमात्मनः / "केवलं बोहिं बुज्जेज्जा मुंडेभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा कस्या दिश आगतोऽहम्। केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा केवलेणं (15) अन्यत्वम्, अमूर्त्तत्वम्, अनित्यत्वं च आत्मन:। संवेरणं संवरेज्जा केवलमाभिणिबोहियनाणमुप्पाडेज्जा" इत्यादि (16) कर्तृत्वमात्मनः / दृश्यम्, एवं यावन्मन:पर्यवज्ञानमुत्पादयेदिति, केवलज्ञानं तु क्षयादेव भवतीति तन्त्रोक्तम्। इह च यद्यपि, बोध्यादय: सम्यक्त्वचारित्ररूपत्वात्के (17) विभुत्वमात्मनः। वलेन क्षयेण, उपशमेन च भवन्ति। तथाप्येते क्षयोपशमेनापि भवन्ति। (18) परिमाणमात्मनः / / श्रवणाभिनिबोधिकादीनि तु क्षयोपशमेन भवन्तीति सर्वसाधारण: विस्तरत एकत्वमात्मनः। क्षयोपशम उक्तः / स्था० 2 ठा०४ उ.। देहे, उत्त। उक्तं हि (20) क्रियावत्त्वमात्मनः। "धर्मधृत्यग्निधीन्द्वर्क- त्वकृतत्त्वसूर्य्यदेहेषु / शीलानिलमनोयत्नै ज्ञानमात्मनो भिन्नम्, अभिन्नं च। कवीर्येऽप्यात्मन: स्मृति:"|||| इति। उत्त० 150 अ० / तथा च द्वाभ्यां स्थानाभ्यामात्मा जानाति। जमि णं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारम्भा (23) आत्मनिरूपणे स्फुटगाथा: / कज्जति,तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं / (86+) (24) क्षणिकत्वमात्मनः। 'तं जहा अप्पणो' इत्यादि तद्यथेत्युपप्रदर्शनार्थ नोक्तमात्र- | (25) रत्नप्रभादिभावानामात्मत्वम्। मेवान्यदप्येवंजातीयकं मित्रादिकं द्रष्टव्यम् (से) तस्यार-म्भारिप्सोर्य (26) गाथा:-" अप्पा णई वेयरणी" ति। आत्मा-शरीरंतस्मै अर्थं तदर्थंकारम्भा: पाकादय: क्रियन्ते। आचा० (1) एकविध आत्मा। 1 श्रु.२० अ०५ उ.। मनसि; बुद्धिस्थे निजे स्वभावे बुद्धौ च / वाचः। एगे आता (या)। (सूत्र-२) देहावच्छिन्ने चैतन्ये चा अन्त:करणे, वाच,। ज्ञान, प्रकाशस्वरूपे बुद्धौ आत्मनि, बुद्धिर्हि मनआदिकरणानि प्राप्नोत्यात्मा तेषां प्रत्यभिज्ञानम्। एको; न व्यादिरूप:आत्मा-जीवः कथचिदिति गम्यते / वाच० / अर्के, वहौ, वायौ, वाचः। अततीत्यात्मा। विशे, 2216 गाथा। स्था.१ ठा०। (अस्य सूत्रस्य विस्तरतो व्याख्या (19) ऊनविंशे अतति-सततं गच्छत्यपरापरान् स्वपरुपर्यायानित्यात्मा। अथवा अधिकाराः करिष्यते) ('आत्मत्वमेव जीवत्वम्' अस्याग्रे विवेचन अतधातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानाऽर्थत्वादतति- सततमव- गच्छत्युपयोग भविष्यति द्विविधत्वम् जीवस्य 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1522 पृष्ठ लक्षणत्वादित्यात्मा / भ. 10 श०१२ ऊ। अतति- सातत्येन गच्छति करिष्यते) तांस्तान ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्ति- (2) एकविधोऽपि स च (आत्मा) त्रिविध:निमित्तसंभवात्, उक्तञ्च"एवं जीवो जीवो, संसारीपाणधारणाणुगओ। बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च त्रयः। सिद्धो पुणरज्जीवो, जीवण- परिणामरहिओ ति" आ.म० अ० को काया-धिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाजये / / 17 / / ह्यात्मा भगवानाह-योऽहमित्यभिमन्यते, स कीदृक् सूक्ष्मोऽसौ ? किं बाह्यात्मा चेति-काय: स्वात्मधिया प्रतीयमानः अहं स्थूल:, अहं कृश तत्सूक्ष्म-यन्न गृह्णीम: न तु शब्दगन्धानिला:, किं तु ते इन्द्रियग्राह्या: इत्याद्युल्लेखनाधिष्ठायक: कायचेष्टाजनक प्रयत्नवान् ध्येयश्च तेन ग्रहणमात्मा न तु ग्राहयिता हि सः / आ. चू.१ अ। ध्यानभाव्य एते त्रयः 'बाह्यात्मा च अन्तरात्मा च परमात्मा चे 'तिविषयसूचना योगवानये- योगशास्त्रे प्रसिद्धाः। द्वा०२० द्वा० यस्य देहमनोवचनादिषु (1) एकविध: आत्मा। आत्मत्वभास: देह एवात्मा एवं सर्वपौद्गलिकप्रवर्त्तनेषु आत्मनिष्ठेषु (2) एकविधोऽप्यात्मा त्रिविधः / आत्मत्वबुद्धिः सबाह्यात्मा१, मिथ्यादृष्टिः एषः पुन: सकर्मावस्थायाम 1 श्रु०२० चतन्ये चा अन्तःकान प्राप्नोत्यात्मा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 189 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता पि आत्मनि ज्ञानाधुपयोगलक्षणे शुद्धचैतन्यलक्षणे महानन्द-स्वरूपे तत्रौधजीवमाह (भाष्यकार:)निर्विकाराऽमृताऽबाधरूपे समस्तपरभावमुक्त आत्म-बुद्धिः, संते आउयकम्मे, धरई तस्सेव जीवई उदए। अन्तरात्मा- सम्यग्दृष्टिगुणस्थानकृत: क्षीणमोहं यावत् अन्तराऽऽत्मा तस्सेव निज्जराए, मओ ति सिद्धो नयमएणं / / 7 / / उच्यते 2, य: केवलज्ञानदर्शनोपयुक्त: शुद्धसिद्धः स परमात्मासयोगी व्या. सति-विद्यमाने आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपे ध्रियतेसामान्येनैव अयोगी केवली सिद्धश्च स परमाऽऽत्मा उच्यते। अष्ट०१५ अष्ट०। (अस्य तिष्ठति भवोदधौ कथमित्थमवस्थानमात्राज्जीवत्वमस्येत्यावक्तव्यता' जोग' शब्दे चतुर्थ-भागे 1631 पृष्ठे वक्ष्यते) ("आत्मत्वमेव शङ्ख्याऽत्रैवान्व-र्थयोजनामाह-तस्यैवओघायुष्क-कर्मणो जीवत्युदये' जीवत्वम्" // 494 / / इत्यादिश्लोकविवरणं 'जी' शब्दे चतुर्थभागे 1551 उदये सति जीवत्यासंसारं प्राणान् धारय- त्यतो जीवनाज्जीव इति। पृष्ठे वक्ष्यते) तस्यैवौघायुष्ककर्मणो निर्जरया क्षयेण 'मृत इति' सर्वथा (3) अधुना जीवपद (निक्षेप) माह जीवनाभावात्, स च सिद्धो मृतो नान्यः, विग्रहगतावपि तथा जीवस्स उ निक्खेओ, परूवणा लक्खणं च अत्थित्तं / जीवनसद्भावात्, नयमतेनेति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाथार्थः / अन्नामुत्तत्तं नि-बकारगो देहवावित्तं / / 22011 *जीवत्यनेनेति जीव: ओघेन सामान्ययेन जीव: ओघजीवितविशिष्टो गुणिउड्डगइत्ते या, निम्मयसाफल्लता य परिमाणे / जीव: मध्यपदोत्त-रपदोलोपादित्थं भवति उक्त ओघजीवितविशिष्ट जीवस्स तिविहिकालं-मि परिक्खा होइ कायव्वा // 221|| ओघजीवः / *अधिकः पाठः। सांप्रतं भवजीवंतगजीवं चाह (भाष्यकार:)(दो दारगाहाओ) एतद् द्वारगाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या० जेण य धरइ भवगओ, जीवो जेण य भवाउ संकमइ / जीवस्य तु निक्षेपो नामाऽऽदि: प्ररूपणा द्विविधाश्च भवन्ति जीवा जाणाहितं भवाऽऽउं, चउविहं तब्भवे दुविहं / / 6 / / इत्यादिरूपा लक्षणं चाऽऽदानादि अस्तित्वं सत्त्वं शुद्ध-पदवाच्यत्वादिना अन्यत्वं देहात्, अर्भूतत्वं स्वत: नित्यत्वं विकारानुपलम्भेन, कर्तृत्वं निक्खेओ त्ति गयं। स्वकर्मफलभोगात् देहव्यापित्वं- तत्रैव तल्लिङ्गोपलब्ध्या, गुणित्वं व्या.येन-च-नारकाद्यायुष्केण ध्रियते तिष्ठति भवगतो नारकादिभवयोगादिना, उर्ध्वगति-त्वगुरुलधुभावेन, निर्मायता विकाररहितत्वेन, स्थितो जीवः, तथा येन च मनुष्याद्यायुष्केण भवान्नारकादिलक्षणात् सफलता च कर्मण:, परिमाणं लोकाकाशमात्र इत्यादि एवम्- 'जीवस्य संक्रामति-याति, मनुष्यादिभवन्तिर-मिति सामथ्यागम्यते, जानीहित्रिविधकाल' इति-त्रिकालविषया, परीक्षा भवति- कर्तव्या / इति विद्धि / तदित्थंभूतं भवा-युर्भवजीवितं चतुर्विधं नारकतिर्यशनुष्यामद्वारागाथाद्वयसमासार्थ: / व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः / रभेदेन तथा तद्भवे तद्भवविषयम् आयुरिति वर्तते, तम द्विविधम् तथर च निक्षेपमाह तिर्यक्त्वतद्भवायुः, मनुष्यत्वतद्भवायुश्च / यस्मात्तावेव मृतौ सन्तौ भूयस्तस्मिन्नेव भव उत्पद्येते; नान्ये, तद्भवजीवितं च तस्मान्मृतस्य नाम ठवणा जीवो, दव्वजीवो य भावजीवो य। तस्मिन्ने-वोत्पन्नस्य यत्तदुच्यते इतिः अत्रापि च भावजीवाधिकारात्तद्भवओहभवग्गहणंमिय, तब्भवजीवे य भावम्मि ||222 / / जीविताविशिष्टश्च जीव एव गाह्यः, जीवितं तु तद्विशेषणत्वाद्रुक्तमिति व्या.- 'नामस्थापनाजीव' इति-जीवशब्द: प्रत्येकमभि-संबध्यते, गाथार्थः / उक्तो निक्षेपः / दश.४ अ। (चतुर्विध-पञ्चविध- षविध नामजीव: स्थापनाजीव इति / तथा द्रव्यजीवश्च भाव-जीवश्च सप्तविधत्वं 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1524 पृष्ठे दर्शयिष्यते) वक्ष्यमाणलक्षणः / तत्रौघ इत्रत ओघजीव:, भवग्रहणे चेति भवजीव:, (1) आत्मनोऽष्टविधनिक्षेप:तद्भवजीवश्च-तद्भव एवोत्पन्न:, भावे भावजीव इति गाथासमासार्थः। कइविहाणं भंते ! आता पण्णता? गोयमा! अट्ठविहा आता व्यासार्थ त्वाह [भाष्यकार:] पण्णत्ता,तंजहा-दवियाऽऽता१, कसायाऽऽतार, जोगायाऽऽता नाम ठवणॉगयाओ, दवे गुणपज्जवेहि रहिओ त्ति। 3, उवओयाऽऽता, णाणऽत्ता५, दंसणाऽऽया६, चरित्ताऽऽया७, तिविहो य होइ भावे, ओहे भवतब्भवे चेव ||6| वीरियाऽऽतात व्या,- नामस्थापने गत क्षुण्णत्वादिति भावः / 'द्रव्ये' इतिद्रव्य-जीवो 'कइ विहाण' मित्यादि, 'आय' त्ति-अतति-सततं गच्छति अपरापरान् गुणपर्यायाभ्यां चैतन्यमनुष्यत्वादिलक्षणाभ्यां रहित:। बुद्धिपरिकल्पितो, स्वपरपर्यायानित्यात्मा, अथवा- अतधातोगर्मनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वान त्वसावित्थंविधः संभवतीति। त्रिविधश्च भवति 'भाव' इति- दततिसततमवगच्छत्युपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे भावजीववैविध्यमाह-- ओघजीवो भवजीव- स्तद्भवजीवश्चेति। स्त्रीलिङ्गनिर्देश:, तस्य चोपयोगलक्षणत्वात्सामान्येनैकविधत्वेऽप्युप्राग्गाथोक्तमप्येतादित्थं- विधभाष्यकाशैली- प्रामाण्यतोऽदुष्टमेवेति / पाधिभेदादष्टधात्वं, तत्र 'दवियाय' त्ति- द्रव्यं त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीअन्ये तु पठन्ति - "भावे उ तिहा भणिओ, तं गुण संखेवओ दोच्छं' कृतकषायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषांजीवानाम् 1, कसायाय' 'भाव' इति-भावजीवः, त्रिधेति-त्रिप्रकारो भणितो नियुक्तिकारेण त्ति-क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा कषायात्मा, अक्षीणामुपशान्तकषायाणाम् ओघजीवादिः, तमपि च भावार्थमधिकृत्य संक्षेपतो वक्ष्य इति गाथार्थः / | 2, 'जोगाय' त्ति-योगा मन:प्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 190 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता योगवतामेव३, 'उवओगाय' ति-उपयोग: साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान यस्याप्युपयोगात्मा तस्य नियमाद् द्रध्यात्मा, एतयोः परस्परेण आत्मा उपयोगात्मा, सिद्धसंसाररिस्वरूपः सर्वजीवानाम्। अथवा अविनाभूतत्वाद्यथा सिद्धस्य, तदन्यस्य च द्रव्यात्मास्त्युप-योगात्मा विवक्षितवस्तूपयोगापेक्षयोपयोगात्मा 4, 'नाणाय' त्ति-ज्ञानाविशेषत चोपयोगलक्षणत्याज्जीवानाम्, एतदेवाह-'जस्सदवियाये' त्यादि, तथा उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टे : 5, एवं 'जस्स दवियाता तस्स नाणाया भयणाए, जस्स पुण नाणाया तस्स दर्शनात्मादयोऽपि नवरं दर्शनात्मा सर्वजीवानाम् 6, चारित्रात्मा दवियाया नियम अस्थि' त्ति-यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा विरतानाम्७. वीर्यम्-उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति। उक्तं च- स्यादस्ति तथा सम्यग्दृष्टीनां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृष्टीनामित्येवं जीवानां द्रव्यात्मा ज्ञेयः स कषायिणां कषायात्मा। भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, यथा योग: संयोगिनां, पुनरुपयाग: सर्वजीवानाम् ॥शा सिद्धस्येति। तथा' जस्स दवियाया तस्सदसणाया नियम अस्थि ति यथा सिद्धस्य वेचलदर्शनम्। 'जस्स विदसणाया तस्सदवियाया नियम ज्ञाने सम्यग्दृष्टे-दर्शनमथभवति सर्वजीवानाम्। अत्थि' त्ति-यथा चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति, तथा 'जस्स चारित्रं विरतानां, तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् / / 2 / / इति, 8 // दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए' त्तियत: सिद्धस्याविरतस्य वा एवमष्टधात्मानं प्ररूप्य अथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्म-भेदान्तरं द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चरित्रात्मा नास्ति विरतानां चास्तीति भजनेति युज्यते यच न युज्यते तस्य तद्दर्शयितुमाह 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियमं अत्थि' त्ति-चारित्रिणां जस्स णं भन्ते ! दवियाऽऽता तस्स णं कसायाता, जस्स जीवत्वाव्यभिचारित्वादिति, एवं 'वीरियायाए वि समं' ति- यथा कसायाता तस्स दवियाता? गोयमा!, जस्स दवियाता तस्स द्रव्यात्मनश्चारित्रात्मना सह भजनोक्ता, नियमश्चैवम्वीर्यात्मनापि सहेति, कसायाता सिय अत्थि सिय णत्थि, जस्स पुण कसायाता तस्स तथाहि-यस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा नास्ति यथा सकरणवीयर्यापेक्षया दवियाता णियमं अत्थि। सिद्धस्य, तदन्यस्य त्वस्तीति भजना, वीर्यात्मनस्तु द्रव्या-त्मास्त्येव 'जस्स णमि' त्यादि, इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते तत्र प्रथमपदं शेषैः यथा संसारिणामिति // 7 // सप्तभिः सह चिन्त्यते-तत्र यस्य जीवस्य द्रव्यात्मां- द्रव्यात्मत्वं; अथ कषायात्मन: सहान्यानि पदानि चिन्त्यन्तेजीवत्वमित्यर्थः, तस्य कृषायात्मा स्यादस्ति कदाचिदस्ति जस्स णं भंते ! कसायाऽऽता तस्स जोगाया पुच्छा ? गोयमा! सकषायावस्थायां स्यान्नास्ति कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषाया- 1 जस्स कसायाता तस्स जोगाता णियमं अत्थि, जस्स पुण वस्थायां यस्य पुनः कषायात्माऽस्ति तस्य द्रव्यात्मत्वं जीवत्वं जोगाया तस्स कसायाता सिय अस्थि सियणत्थि,एवं उवओगाए नियमादस्ति, जीवत्वं विना कषायाणामभावादिति। विसमं कसायाता णेयव्दा, कसायाता णाणाताय परोप्परं दोदि जस्स णं मंते ! दवियाऽऽता तस्स जोगाता ? एवं भइयव्वाओ, जहा कसायायाय उवओगाया य तहा कसायाया जहा दवियाता कसायाता भणिया तहा दवियाता जोगा-याया य दंसणाता य कसायाता चरित्ताता य दोऽवि परोप्परं वि. भाणियव्वा। भइयव्वाओ, जहा कसायाता य जोगाता तहा कसायाता य वीरियायाय भाणियव्वाओ एवं जहा कसायायाए वत्तव्वया भणिया तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति योगवतामिव नास्ति तहा जोगायाए वि उवरिमाहिं समं भाणियव्वाओ। चायोगिसिद्धानामिव तथा यस्य योगात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति 'जस्स णमि' त्यादि यस्य कषायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव न हि जीवत्वं विनायोगानामभावादेतदेव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह 'एवं जहा दवियाये' त्यादि। सकपायोऽयोगी भवति यस्य तु योगात्मा तस्य कषायात्मा स्याद्वा न वा। सयोगानां सकषायाणामकषायाणां च भावादिति। एवम- 'उवओगायाए जस्स णं मंते ! दविताऽऽया तस्स उवओगाता एवं वी' त्यादि, अयमर्थ:-यस्य कषायात्मा तस्योपयोगात्मावश्यं सव्वत्थ पुच्छा भाणियटवा, गोयमा! जस्स दवियाता भवत्युपयोगरहितस्य कषायाणामभावात् यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य तस्स उवओगाया णियमं अस्थि, जस्स वि उवओगाता कषायात्मा भजनया उपयोगात्मतायां सत्यामपि कषायिणामेव तस्स विदवियाता णियमं अत्थि, जस्सदवियाता तस्सणाणाता कषायात्मा भवति / निष्कषायाणां तु नासाविति भजनेति, तथाभयणाए, जस्स पुण णाणाता तस्स दवियाता णियमं अत्थि। 'कसायाया य नाणाया य परोप्परं दोवि भइयव्वाओ' त्ति-कथं? जस्स दवियाता तस्स दंसणाता णियम अत्थि, जस्स वि यस्य कषायात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, यत: दसणाता तस्सदवियाता णियमं अत्थि, जस्स दवियाता तस्स कषायिणः सम्यग् -दृष्टे ज्ञानात्मास्ति मिथ्यादृष्ट स्तु तस्य चरित्ताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताता तस्सदवियाता णियम नास्त्यसाविति, भजना। तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कषायात्मा अत्थि। एवं वीरियाताए विसमा स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, ज्ञानिनां कषायभावात् तदभावाचेति तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा / भजनेति। 'जहा कसायाया उवओगाया तहा कसायायायदंसणाया Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 191 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता य'त्ति-अतिदेशः, तस्माचेदंलब्धम्-'जस्स कसायाया तस्सदसणाया नियमं अत्थि' दर्शनरहितस्य घटादे: कषायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दसणाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नऽत्थि' दर्शनवता कषायसद्भावात्तदभावा-चेति, दृष्टान्तार्थस्तु प्राक् प्रसिद्ध एवेति 'कसायाया य चरित्ताया य दोवि परोप्परं भइयव्वाओ' त्ति भजना चैवम्यस्य कषायात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, कथं कषायिणां चारित्रस्य सद्भावात्, प्रमत्तयतीनामिव तदभावाचासंयतानामिवेति, तथा यस्य चारित्रात्मा तस्य कषायात्मास्यादस्तिस्यान्नास्ति, कथं सामायिकादिचारित्रिणां कषायाणां भावाद्यथाख्यातचारित्रिणां च तदभावादिति / 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियव्याओ' त्ति-दृष्टान्त: प्राक् प्रसिद्धः, दान्तिकस्त्वेवम्- यस्य कषायात्मा तस्य वीर्यात्मा नियमादस्ति, न हि कषायवान् वीर्यविकलोऽस्ति, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् सकषायोऽपि स्याद्यथाऽसंयत: अकषायोऽपि स्याद्यथा केवलीति।।६।। अथ योगात्माऽग्रेतनपदैः पञ्चभिः सह चिन्तनीयस्तत्रच लाघवार्थमतिदिशन्नाह- ‘एवं जहा कसायायावत्तव्वया भणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहिं समं भाणियव्य' ति-सा चैवम्-यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमात् यथा सयोगना, यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा सयोगानां स्यान्नास्ति यथा- अयोगिनां सिद्धानां चेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यगदृष्टीनामिव, स्यान्नास्ति मिथ्यादृष्टीनाभिव, यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति, योगिनामिव, स्यान्नास्ति अयोगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येवेति योगिनामिव, यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति योगवतामिव स्यानास्त्ययोगिनामिय, तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति विरतानामिव, स्यान्नास्त्यविरतानामिव, यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिव, स्यान्नास्त्योगिनामिवेति, वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते- 'जस्सचरित्ताया तस्स जोगाया नियम' ति-तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्वात्तस्य च योगाविनामावित्वाद्यम्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमादित्युच्यते इति, तथा यस्य योगात्मा तस्य वीर्यात्मास्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यं भावात्, यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्यविशेषवान् सयोग्यपि स्यात् यथा सयोगिकवल्यादिरयोग्यपि स्याद्ययाऽयोगे-केवलीति ||6|| अथोपयोगात्मना सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते। तत्रा-तिदेशमाहजहा दवियाताए वत्तव्वया भणिया तहा उवओगाताए वि उवरिल्लाहिं समं भाणियव्वा। एवं च भावना कार्या यस्योपयोगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां, स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशां, यस्य च ज्ञानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धानामिवेति, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव, यस्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्मास्त्येव यथा सिद्धादीनामिति२, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, यथा संयतानाम, असंयतानां च, यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगात्मास्त्येव यथा संयतानां 3, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धा-नामिव, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोगगात्मास्त्येव संसारिणा-मिवेति / / अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्तेजस्स णाणाऽऽया तस्स दसणाया णियमं अत्थि, जस्स पुण दंसणाया तस्सणाणाया भयणाए,जस्सणाणाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स पुण चरित्ताया तस्स णाणाया णियमं अत्थि,णाणाता वीरियाता दो वि परोप्परं भयणाए। तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव सम्यग्दृशामिव, यस्य च दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां, स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशामत एवोक्तम्- 'भयणाए' त्ति, 1, तथा' जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि' त्ति। संयतानामिव। 'सिय नत्थि' त्ति, असंयतानामिव 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अत्थि' त्ति, ज्ञानं विना चारित्रस्याभावादिति 2, तथा- 'नाणाये' त्यादि / अस्यार्थ:- यस्य ज्ञानात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिव, स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति, सम्यगदृष्टेरिव, स्यान्नास्ति मिथ्यादृश इवेति 3/ अथदर्शनात्मना सह द्वेचिन्त्येतेजस्स दंसणाया तस्य उवरिमाओ दो वि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया णियमं अस्थि / जस्स चरित्ताया तस्स वीरियाता णियमं अत्थि, जस्स पुण वीरियाता तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय णत्थि। 'जस्स दंसणाये' त्यादि, भावना चास्य- यस्य दर्शनात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव, स्यान्नास्त्य-संयतानामिव, यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव साधूनामिवेति, तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव, स्यानास्ति सिद्धानामिव, यस्य च वीर्यात्मा तस्य दर्शनात्मास्त्येव संसारिणामिवेति ॥शा अथान्तिमपदयोर्योजना-'जस्स चरित्ते' त्यादि, यस्य चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्मास्त्येव वीर्यं विना चारित्रस्याभावात्, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूनामिव, स्यान्नास्ति असंयतानामिवेति। अधुनैषामेवात्मनाल्पबहुत्वमुच्यतेएयासि णं भंते ! दवियाऽऽताणं कसायाऽऽताणं जाव वीरियायाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वाजाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा चरित्तायाओ णाणायाओ अणंतगुणाओ, कसायायाओ अणंतगुणाणो जोगायाओ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 192 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आता विसेसाहियाओ, वीरियाताओ विउवयोगदवियदसणा-याओ तिन्नि वितुल्लाओ, विसेसाहियाओ। (सूत्र-४६७) तत्रच 'सव्वत्थोवाओ चारित्तायाओ' त्ति चारित्रिणां संख्या-तत्वात्। नाणायाओ अणंतगुणाओ' त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रिभ्योऽनन्तगुणत्वात् / 'कसायायाओ अणंतगुणाओ' 'त्ति, सिद्धेभ्यः कषायोदयवतामनन्तगुणत्वात् 'जोगायाओ विसेसाहियाओ' त्तिअपगतकषायोदपैर्योगवद्भिरधिका इत्यर्थ: वीरियायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अयोगिभिरधिका इत्यर्थः, अयोगिनां वीर्यवत्त्वादीति,'उवओगदवियदंसणायाओ तिण्णि वितुल्लाओ विसेसाहियाओ' त्ति-परस्परापेक्षया तुल्याः सर्वेषां सामान्यजीवरूपत्वात्, वीर्यात्मभ्य: सकाशादुपयोगद्रव्यदर्शनात्मानो विशेषाधिका:, यतो वीर्यात्मन: सिद्धाश्च मीलिता उपयोगाद्यात्मनो भवन्ति, ते च वीर्यात्मभ्य: सिद्ध-राशिनाऽधिका भवन्तीति। भवन्ति चात्र गाथा"कोडिसहस्सपुहुत्तं, जईण तो थोदियाउ चरणाया। नाणायाणंतगुणा, पडुच्च य सिद्धाओ ||1|| होंति कसायायाओ-ऽणंतगुणा जेण ते सरागाणं / जोगायाभणियाओ, अजोगिवज्जाण तो अहिया / / 2 / / जं सेलेसिगयाण वि, लद्धी विरियं तओ समहियाओ। उवओगदवियदसण-सव्वजियाणं तवो अहिया'' ||3|| इति। भ०१२ 2010 उ। (5) जीवा: सूक्ष्मा:, बादराश्च (नवविधाश्च) यथा सन्ति तथाऽह भाष्यकार:दुविहाय हुंति जीवा सुहमा तह बायरा य लोगम्मि। सुहुमा य सव्वलोए दो चेव य बायरविहाणे ||9|| व्या- द्विविधाश्च-द्विप्रकाराश्च, चशब्दात्- नवविधाश्च पृथिव्यादिद्वीन्द्रियादिभेदेन भवन्तिजीवा:, द्वैविध्यमाहसूक्ष्मा, तथा बादराश्चा तथा सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मा:, बादरनामकर्मोदयाच बादरा इति, 'लोके इति लोकग्रहणम-लोकेजीवभवनव्यवच्छेदार्थ तत्र सूक्ष्माश्च सर्वलोक इति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सूक्ष्मा एव सर्वलोकेषु न बादरा:! क्वचित्तेषामसंभवात् 'द्वे एव च पर्याप्तकाऽपर्याप्तकलक्षणे 'बादरविधाने' | बादरविधौ चशब्दात् सूक्ष्मविधाने च / तेषामपि पर्याप्तकाऽपर्यातकरूपत्वादिति गाथार्थः / एतदेव स्पष्टयन्नाह (भाष्यकार:)सुहमा य सव्वलोए, परियावन्ना भवंति नायव्वा। दो चेव बायराणं पज्जत्तियरे अनायव्वा // 10 // व्या.-सूक्ष्मा एव पृथिव्यादय, सर्वलोके चतुर्दशरज्जवात्मकेपर्यायापन्ना भवन्ति-ज्ञातव्याः, पर्यायापन्ना' इति-तमेव सूक्ष्म-पर्यायमापन्ना भावसूक्ष्मानतुभूतभाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः। तथा द्वौ भेदौबादराणां पृथिव्यादीनां चशब्दात्सूक्ष्माणां च पर्याप्तके तरौ ज्ञातव्यौ पर्याप्तकाऽपर्याप्तकाविति गाथार्थ: / दश०४ अ। (6) (लक्षणद्वारम्'लक्खण' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते)। तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह (भाष्यकार:) अयगारकूरपरसू, अग्गिसुवने य खीरनरवासी। आहारो दिटुंता, आयाणाईणजहसंखं ||13|| व्या.-अयस्कार: क्रूरस्तथा परशुरग्निः सुवर्णं च क्षीरनरवाश्य: तथा आहारो दृष्टान्ता आदानादीनां प्रक्रान्तानां यथासंख्यं प्रतिज्ञाद्युल्लङ्घनेन चैतदभिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्राय: प्रधानाङ्गताख्यापनार्थमिति गाथार्थः। सांप्रतं प्रयोगानाह (भावष्यकार:)देहिंदियाइरित्तो, आया खलु गमगाहगपओगा। संडासा अयपिंडो, अयकाराइव्व विनेओ॥१४|| ध्यान- देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा। खलुशब्दो विशेषणार्थ:, कथंचित, न सर्वथा अतिरिक्त एव तदसंवेदनादिप्रसङ्गादिति अनेन प्रतिज्ञार्थमाह, प्रतिज्ञा पुन: अर्थेन्द्रियाण्यादेयादानानि विद्यमानादातृकाणि, कुतः इत्याह-गाह्यग्राहकप्रयोगात्। ग्राह्या-रूपादयः। ग्राहकाणीन्द्रियाणि तेषां प्रयोग:- स्वफलसाधनव्यापारस्तस्मान्न ह्यमीषां कर्मकरणभाव: करिमन्तरेण स्वकार्यसाधनप्रयोग: संभवत्यनेनापि हेत्वर्थमाह / हेतुश्चादेयादानरूपत्वादिति। दृष्टान्तमाह- संदंशादादानात्अयस्पिण्डादादेयात् 'अयस्कारादिवत्' लोहकारवद्विज्ञेयः अतिरिक्तो विद्यमान आदानत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह दृष्टान्तस्तु संदंशकायस्पिण्डवत्। यस्तु तदनतिरिक्त: न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः। यथा देहादिभ्य एवेति व्यतिरेकार्थः, व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमानादातृकाणि न भवन्ति तान्या-दानादेयरूपाण्यपि न भवन्ति / यथा मृतकद्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थ: / उक्तमादानद्वारम्। (7) अधुना (भाष्यकार:) परिभोगद्वारमाहदेहो सभोत्तिओखलु, भोज्जत्ता ओयणाइथालंव। अन्नप्पउत्तिगा खलु, जोगा परसुव्व करणत्ता ||15|| व्या०- देह: सभोक्तृक: खल्विति प्रतिज्ञा, भोग्यत्वादिति हेतु: ओदनादिस्थालवत्- स्थालस्थितौदनवदिति दृष्टान्त: / भोग्यत्वं च देहस्य जीवेन तथानिवसतोपभुज्यमानत्वादिति। उक्तं परिभोगद्वारम् / अधुना योगद्वारमाह- अन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगा:, योगा:-साधनानि मन:प्रभृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थ: करणत्वादिति हेतु:, परशुवदिति दृष्टान्तः / भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्यं हेतुः, यथा अनित्यो वर्णात्मकः शब्दः, शब्दत्वात् मेघशब्दवदिति गाथार्थ: / उक्तं योगद्वारम्। साम्प्रतम् (भाष्यकार:) उपयोगद्वारमाहउवओगानाभावो, अग्गि व सलक्खणा परिचाया। सकसाया णाभावो, पज्जयगमणा सुवनंव ||16|| व्या.- उपयोगात्-साकारानाकारभेदभिन्नात् 'नाभावो' जीव इति गम्यते, कुत इत्याह-स्वलक्षणापरित्यागादुपयोगलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणाऽपरित्यागात् अनिवद्यथाऽनिरौष्ण्यादिस्व लक्षणापरित्यागानाभावस्तथा जीवोऽत्पीति प्रयोगार्थः प्रयोगस्तु सन्नात्मा स्वलक्षणापरित्यागाद्, अग्निवदिति। उक्तमुपयोगद्वारम्। अधुना कषायद्वारमाह- सकषयत्वाद् अचेतनविलक्षणक्रोधादिपरिणामोपेतत्वादित्यर्थः / नाभावो जीवः / कुत Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 193 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता इत्याह पर्यायगमनात् क्रोधमानादिपर्यायप्राप्तेः / सुवर्णवत् कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगार्थाः प्रयोगस्तु, सन्ना- त्मा पर्यायगमनात्सुवर्णवदिति गाथार्थ: / उक्तं कषायद्वारम्। इदानी (भाष्यकार:) लेश्याद्वारमाहलेसाओ णाऽभावो, परिणमणसभावाओ य खीरंव। उस्सासाणाभावो,समसटमावाखउव्व नरो।।१७।। व्या- लेश्यातो लेश्यासद्भावेन न अभावो जीवः, किंतुभाव इति, कुत इत्याह-परिणमनस्वभावत्वात्कृष्णादिद्रव्यसाचिष्येव जम्बूखादकाद्रिदृष्टान्तसिद्धतथाविधपरिणामधर्मत्वात्, क्षीरवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु सन्नात्मा परिणाम-मित्वात् क्षीरवदिति। गतं लेश्याद्वारम् / प्राणापानद्वारमाह-उच्छ्वासादिति अचेतनधर्मविलक्षण-प्राणापानसद्भावान्नाऽभावो जीव:, किन्तु - भावः एव इति, श्रमसद्भावेन परिस्पन्दोपेतपुरुषवदिति प्रयोगार्थः / प्रयोगस्तु पुनरत्र व्यतिरेकी द्रष्टव्यः / सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वात् यत्तु सात्मकं न भवति तत्प्राणादिमदपि न भवति, यथा-ऽऽकाशमिति गाथार्थः / उक्तं प्राणापानद्वारम्। (८)(भाष्यकारेण) अधुनेनिन्द्रयद्वारमुच्यतेअक्खाणेयाणि पर-त्वगाणि वासाइवेह करणत्ता। गहवेयगनिज्जरओ, कम्मस्सन्नो जहाहारो / / 18 ध्या०- अक्षाणीन्द्रियाणि एतानीति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि परार्थानि-आत्मप्रयोजनानि वास्यादिवदिह करणत्वादिहलोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः / आह- आदावान्येवेन्द्रियाणि तत्किमर्थं भेदोपन्यास: ? उच्यते विवृत्युपकरणद्वारेण द्वैविध्यख्यापनार्थ ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह तु निवृत्तेरिति, प्रयोगस्तु-परार्थाश्चक्षुरादय: संघातत्वाच्छयनासनादिवत् न चायं विशेषविरुद्धः, कर्मसंबद्धस्यात्मनः संघातरूपत्वाम्युपग-मात् / उक्तमिन्द्रियद्वारम् / इदानी (अधुना) बन्धादिद्वाराण्याह- ग्रहणवेदकनिजरकः कर्मणोऽन्यो, 'यथाहार' इति-तत्र गृहणं - कर्मणो बन्धः वेदनम्-उदय: निजरा-क्षयः, 'यथाहारे' इति-आहराविषयाणि ग्रहणादीनिन कादिव्यतिरेकेण तथा कर्मणो-ऽपीति प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु विद्यमानभोक्तृकमिदं कर्मग्रहणवेदननिर्जरणसद्भावात् आहारवदिति गाथार्थः / उक्तानि बन्धादिद्वाराणि / व्याख्याता च प्रथमा प्रतिद्वारगाथा। (9) सांप्रतं द्वितीयामधिकृत्य चित्ता-दिस्वरूपव्याचिख्यासयाऽऽहचित्तं तिकालविसयं,चेयणपचक्खसन्नमणुसरणं। विण्णाणणेगमेयं, कालमसंखेयरं धरणा ||19|| व्या-चित्तं त्रिकालविषयम् ओघतोऽतीतानागतवर्तमानग्राहि चेतनं चेतना सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी। संज्ञानं संज्ञा सा अनुस्मरणम् इदं तदिति ज्ञानम्, विविधं ज्ञानं विज्ञानमनेकभेदम्-अनेकप्रकारम्, अनेकधर्मिणि वस्तुनि तथा, तथाऽध्यवसाय इत्यर्थः / कालमसंख्येयेतरम्' असंख्येयं संख्येयं वा धारणा अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा, तत्र वासनारूपा संख्येयवर्षा-युषामसंख्येयम्, संख्येयवर्षायुषां च संख्येयमिति गाथार्थ:। (भाष्यम्)अत्थस्स ऊहबुद्धी, ईहा चेतृत्थअवगमो उमई। संभावणत्थतक्का, गुणपश्चक्खा घडो व्व ऽस्थि / / 20 / / व्याख्या-अर्थस्येहा बुद्धिः संज्ञिनः परिनिरपेक्षार्थपरिच्छेद इति भावः, ईहा-चेष्टा किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इति, सदर्थपर्यालोचनरूपा, अश्वयमस्तु अर्थपरिछे दस्तु शिरः कण्डूयनादिधर्मोपपत्ते, पुरुष: एवायमित्येवरूपा मति: 'संभावणत्थतक्क' त्ति-प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना / एवमेव चायमर्थ उपपञ्चत इत्यादिरूपा तर्का / इत्थं द्वाराणि व्याख्याय सर्व एते चित्तादयो गुणा वर्त्तन्त इति जीवाख्यगुणप्रतिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरन्नाहगुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतो: घटवदस्ति जीव इति गम्यते। एष गाथार्थ: / (भाष्यकार:) एतदेवस्फुटयतिजम्हा चित्ताईया, जीवस्स गुणा हवंति पचमक्खा। गुणपचक्खत्तणओ, घडु व्व जीवा अओ अत्थि।।२।। व्याख्या-यस्माञ्चित्तादयोऽनन्तरोक्ता जीवस्य गुणाः, नाऽजीव-स्य शरीरादिगुणविधर्मत्वात् / एते च भवन्ति प्रत्यक्षाः स्वसंवेद्यत्वात्, यतश्चैवम्-गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतोर्घटवज्जीव: / अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः / प्रयोगस्तु सन्नात्मा गुणप्रत्यक्षत्वात् घटवन्नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुद्धः "विरुद्धो-ऽसति बाधने" इति वचनात्, एतचैतन्य प्रत्यक्षेणैव बाधनमिति गाथार्थः / व्याख्यातं मूलद्वारगाथाद्वये प्रतिद्वारद्वयेन लक्षण-द्वारम्। (20) इदानीमस्त्वित्वद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार:अस्थि त्ति दारमहुणा, जीवस्सइ अस्थि विज्जए नियमा। लोआययमनघाय-त्थमुथए तरिथमो हेऊ / / 2 / / व्याख्या- अस्तीति द्वारमधुना सांप्रतमवसरप्राप्तम् तत्रैत-दुच्यतेजीव: सन, पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूप: सन्निति। सिद्धिसाध्यता। न तु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदावाह- अस्त्यन्यश्चेतन्यरूपस्तदपि मातृचैन्तयोपादानं भविष्यति परलोकयायी तु न विद्यत इति मोहापोहायाहविद्यते नियमात्-नियमेन, तथाधाहलोकायतमतघातार्थम्- नास्तिकाभि-प्रायनिराकरणार्थमुच्यते एतत्, तस्य चानन्तरोदित एवाभिप्राय इति सफलानि विशेषणानि तत्र लोकायतमतविघाते कर्तव्ये अयम् - वक्ष्यमाणलक्षणो हेतुः, अन्यथानुपपत्तिरूपो युक्तिमार्ग इति गाथार्थः / (भाष्यम)जो चिंतेइ सरीरे, नऽत्थि अहं स एव होइ जीवो त्ति। नहु जीवम्मि असंते, संसय, उप्पायओ अन्नो ||23|| व्याख्या-यश्चिन्तयति शरीरे अत्र लोकप्रतीतेनास्त्यहं सएव चिन्तयिता भवति 'जीव इति' कथमेतदेवमित्याह-न यस्माज्जीवे असति मृतदेहादौ संशयोत्पादक: अन्य:-प्राणादि: चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थ: एतदेव (भाष्यकार:) भावयतिजीवस्स एस धम्मो, ईहा अस्थि नऽत्थि वा जीवो। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 194 अभिधानराजेन्द्र: भाग 2 आता खाणुमणुस्साणुगया,,जह ईदा देवत्तस्स ||24|| व्या-जीवस्यैष स्वभाव:-एष धर्म:याईहासदर्थ-पर्यालोचनात्मिका, किं विशिष्टे त्याह-अस्ति, नाऽस्ति वा जीव इति लोकप्रसिद्ध निदर्शनमाह-स्थाणुमनुष्यानुगता-किमयं स्थाणुः ? किं वा पुरुष ? इत्येवंरूपा या इहादेवदत्तस्य जीवतो धर्मः। इति गाथार्थः / (भाष्यकार:) प्रकारान्तरणैतदेवाहसिद्धं जीवस्स अत्थितं, सद्दादेवाणुमीयए। नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवइ केवलो |25|| व्याo- सिद्धम्-प्रतिष्ठितं जीवस्योपयोगलक्षस्यास्तित्वं, कुत इत्याहशब्दादेव जीव इत्यस्मादनुमीयते, कथमेतदेव- मित्याह- 'नाऽसत' इति न असत:- अविद्यमानस्य भुवि पृथिव्यां भावस्य पदार्थस्य शब्दो भवति याचक इति, खरविषाणा-दिशब्दैर्व्यभिचारमाशङ्कयाह- केवल: शुद्धः- अन्यपदासंसृष्टः, खरादिपदसंसृष्टाश्च विषाणादिशब्दा इति गाथार्थः। एतद्विवरणायैवाह भाष्यकार:अस्थि त्ति निविगप्पो,जीवो नियमाउसद्दओ सिद्धी। कम्हा सुद्रपयत्ता, घडखरर्सिगाणुमाणाओ // 26 व्या०- अस्तीति निर्विकल्पो जीव: 'निर्विकल्प' इति- नि:संदिग्धः नियमात् नियमेनैव प्रतिपत्त्रपेक्षया शब्दत: सिद्धिः वाचकाद्वाच्यप्रतीतेः / एतदेव प्रश्नद्वारेणाह-कस्मात्युत्त एतदेव-मिति ? आह-शुद्धपदत्वात् केवलपदत्याज्जीवशब्दस्य घटखरशृङ्गानुमानादनुमानशब्दो दृष्टान्तवचन: घटखरशृङ्गदृष्टा-न्तादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तुमुख्येनार्थेनार्थवान् जीवशब्दः, शुद्धपदत्वात्घटशब्दवत्, यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान्न भवति स शुद्धपदमपि न भवति, यथा खरशृङ्गशब्द इति गाथार्थः / पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह (भाष्यकार:) चोयग ! सुद्धपयत्ता, सिद्धी जइ एव सुण्णसिद्धि अम्हं पि। तं न भवइ संत्तेणं, जं सुन्नं सुअगेहं व / / 7 / / व्या-उक्तवच्छुद्धपदत्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्यसिद्धिरस्माकमपि, शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः / अत्रोत्तरमाह-तन्न भवति यदुक्तं परेण / कुत इत्याह- सता विद्यमानन पदार्थेन यद्-यस्मात् शून्यं शून्यमुच्यते ! किंवदित्याह-शून्यगृहमिव, तथा हि-देवदत्तेन रहितं शून्य गृहमुच्यते / निवृत्तो-घटो नष्ट इति, न त्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदवशिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः / प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह (भाष्यकार:) मिच्छा भेवउ सवऽत्था,जे केई पारलोइया। कत्ता चेवोपभोत्ता य, जइ जीवो न विज्जइ||२८|| व्या.- मिथ्या भवेयु:-अनृताः स्युः सर्वेऽर्था ये केचन पारलौकिका | दानादय: यदि किमित्याह-कर्ता चैव कर्मण: उपभोक्ता च तत्फलस्य, यदि जीवो न विद्यते परलोकथायीति गाथार्थः / एतदेवाव्युत्पन्नशिष्यानुग्रहार्थं स्पष्टतरमाह (भाष्यकार:) पाणिदया-तव-नियमा, बम्मं दिक्खाय इंदियनिरोहो। सव्वं निरत्थमेयं, जइ जीवो न विज्जई ||29|| व्या.--प्राणिदया-तपो-नियमा:-करुणोपवासहिंसाविरत्या-दिरूपाः तथा ब्रह्म-ब्रह्मचर्यम्, दीक्षा च योगलक्षणा इन्द्रिय-निरोधः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूप: सर्व निरर्थक -निष्फलमेतत् यदि जीवो न विद्यते परलोकयातीति गाथार्थः। किंच शिष्टाचरितो मार्ग:शिष्टैरनुगन्तव्य इति। ___ तन्मार्गख्यापनायाह (भाष्यकार:)लोइया वेइया चेव, तहा सामाइया विऊ। निबो जीवो पि हो देहा, इह सव्वे ववत्थिया ||30| व्या०- लोक भवा लोके वा विदिता इति लौकिका- इतिहासादिकर्तारः। एवं वैदिकाश्चैव- वैविधवृद्धास्तथा सामायिका: त्रिपिटकादिसमयवृत्तयो विद्वांस:-पण्डिता: नित्यो जीवो नानित्यः / एवं पृथग् देहात् शरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिता नान्यथेति गाथार्थः / एतदेव व्याचष्टे (भाष्यकार:) लोगे अच्छेज्ज भेज्जो, वेए सुपरीसदद्धगसियालो। समए अहमासि गओ, तिविहो दिव्वाइसंसारो ||31|| व्या- लोक अच्छेद्योऽभेद्य आत्मा पठ्यते, यथोक्तं गीतासु"अच्छेद्योऽयमभेद्योऽय-मविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥११॥" इत्यादि।तथा वेदे-"सपुरीषो दग्धः शृगाल पठ्यते" इति, यथोक्तम्-"शृगालो वैएष जायते य: सपुरीषो दह्यते'' - अथाऽपुरीषो दह्यते "आक्षोधुका अस्य प्रजा: प्रादुर्भवन्ती'' त्यादि। तथा समये"अहमासीद्रजः" इति पठ्यते, तथा च बुद्धवचनम्-"अह मासं भिक्षवो हस्ती, षड्दन्तः शङ्कसंनिभः / शुकः पञ्चरवासी च शकुन्तो जीवजीवकः''||१|| इत्यादि। तथा त्रिविधो दिव्यादिसंसार: कैश्चिदिष्यते / देवमानुषतिर्यग्भेदेन, आदि-शब्दाचतुर्विधःकैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः / अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह (भाष्यकार:)अस्थि सरीरविहाया, पइनिययागारयाइभावाओ। कुंभस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाओ ||3|| व्या०- अस्ति शरीरस्यौदारिकादेर्विधाता विधातेतिकर्ता। कुत इत्याह'प्रतिनियताकारादिसद्भावात्; आदिमत्प्रति-नियताकारत्वादित्यर्थः / दृष्टान्तमाह- कुम्भस्य यथा कुलालो विधाता कुलालयदेवमसावपि मूर्त: प्राप्नोतीति। विरुद्धमाशय परिहरन्नाह-स आत्मा यः शरीर विधाता। असौ मूर्तः कर्मयोगादितिमूर्तकर्मसंबन्धा-दिति गाथार्थः। (भाष्यकार:) अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तये अन्यथा तदग्रहण-विधिमाहफरिसेण जहा वाऊ, गिज्जई कायसंसिओ। नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्भई कायसंसिओ // 33 // Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 195 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता व्या.- स्पर्शन-शीतादिना यथा वायुर्गृह्यते कायसंसृतोदेह-सङ्गत: अदृष्टोऽपितथा ज्ञानादिभिर्ज्ञानदर्शनेच्छादिभिर्जीवो गृह्यते कायसंसृतो देहसङ्गत इति गाथार्थः। असकृदनुमानादस्तित्वमुक्तं जीवस्य, अनुमानं च प्रत्यक्षपूर्वकं न चैनं केचन पश्यन्तीति ततश्चाशोभनमेतदित्याशङ्कयाह (भाष्यकार:) अर्णिदियगुणं जीवं, दुग्नेयं मंसचक्खुणा। सिद्धा पासंति सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहूणो // 34 // व्या-अनिन्द्रियगुणम्- अविद्यमानरूपादीन्द्रियग्राह्यगुणं जीवम्अमूर्त्तत्वादिधर्माकं दुर्जेयं-दुर्लक्ष्यं मांसचक्षुषाछद्मस्थेन पश्यन्ति, सिद्धा:-सर्वज्ञा अञ्जनसिद्धादिव्यवच्छेदार्थ सर्वज्ञग्रहणं; ततश्च ऋषभादय इत्यर्थः, ज्ञानसिद्धाश्च साधवोभवस्थकेवलिन इतिगाथार्थः / सांप्रतमागमादस्तित्वमाह (भाष्यकार:)अत्तवयणं उ सत्थं, दिट्ठाय तो अइंदियाणं पि। सिद्धी गहणाईणं, तहेव जीवस्स विन्नेया॥३५|| व्या-आप्तवचनं तु शास्त्रम् आप्तो रागादिरहित: तुशब्दो-ऽवधारणे, आप्तवचनमेव अनेक अपौरुषेयव्यवच्छेदमाह, तस्याऽसंभवादिति। दृष्टा | च तत इत्युपलब्धा च तत आप्तवचनशास्त्रात् अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगाचरातिक्रान्तानामपि, सिद्धिग्रहणादीनामिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यर्थ; तथैव जीवस्य विज्ञेयेति / अतीन्द्रियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः। मूलद्वारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वद्वारम्। दश०४ अर (11) अभ्याख्यानम्। आत्मनोऽस्तित्वेणेव सयं लोग अब्भाइक्खेज्जा, व अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा / जे लोयं अन्भाइक्खइ से अत्ताणं अम्बाइक्खइ, जे अत्ताणं अन्माइक्खइसे लोयं अब्माइक्खइ। (सूत्र-३१+) नैवात्मानं शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्यात्मसंवेद्यं प्रत्याचक्षीत तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेनाहृतमिदं शरीरं केनचिदमि-संधिमता तथा त्यक्त्तमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमतैवेत्येवमा- दिभिर्हेतुभिः प्रसाधितत्वात्, न च साधितसाधनं पिष्टपेषणवत् विद्वज्जनमनांसिरञ्जयति। आचा.१श्रु 104 उा इत्यसिद्धो हेतु: नासर्वज्ञेन सर्वे पुरुषा: सर्वदा सर्वत्रात्मानं पश्यन्तीति वक्तुं शक्यमिति, किंञ्च-विद्यते आत्मा, प्रत्यक्षादिमिरुपलभ्यमानत्वात्, घटवदिति न चायमसिद्धो हेतु: यतोऽस्मादिप्रत्यक्षेणाप्यात्मा तावद्गम्यतएव आत्मा हि ज्ञानादनन्य:, आत्मधर्मत्वात् ज्ञानस्य, तस्य च स्वसंविदितरूपत्वात्, स्वसंविदितत्वं च ज्ञानस्य नीलज्ञानमुत्पन्नभासीदित्यादिस्मृतिदर्शनात्न ह्यस्वसंविदिते ज्ञाने स्मृतिप्रभवो युज्यते, प्रमात्रन्तरज्ञानस्यापि स्मृतिगोचर- त्वप्रसङ्गादिति, तदेवं तदव्यतिरिक्त ज्ञानगुणप्रत्यक्षत्वे आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, रूपगुणप्रत्यक्षल्वे घटगुणीप्रत्यक्षत्ववदिति उक्तञ्च विशेषावश्यके"गुणपचक्खत्तणओ, गुणी वि जीवो घड़ो व्व पञ्चक्खो। घडओ व्व धिप्पइ गुणी, गुणमित्तम्गहणओ जम्हा // 1958 // " तथा'अण्णोऽणन्नो व गुणी, होज्ज गुणेहिं ? जइणाम सोऽणन्नो। णाणगुणमित्तगहणे, धिप्पइ जीवो गुणी सक्खं / / 1559|| अह अन्नो तो एवं गुणिणो न घडादयो वि पचक्खा। गुणमित्तग्गहणाओ, जीवंमि कुतो विआरोयं / / 1560 // " इति, ये तु सकलपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावनसमर्थज्ञानवन्तस्तेषां सर्वात्मनैव प्रत्यक्ष इति। तथाऽनुमानगम्योऽप्यात्मा, तथाहिविद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं भोग्यत्वाद, ओदनादिवत् व्योमकुसुमं विपक्ष: स च कर्ता जीव इति, नन्वोदनकर्तृवन्मूर्त आत्मा सिद्ध्यतीति साध्यविरुद्धो हेतुरिति नैव, संसारिणो मूर्तत्वेनाप्यभ्युपगमात्, आह च"जो कत्ता सो जीवो, सब्भविरुद्धो त्तितेमई होज्जा / मुत्ताइय संगाओ, तत्तो संसारिणो दोसो" ||1| इति। न चायमेकान्तो; यदुतलिङ्गयविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्यैव एकान्ततोऽप्रवृत्तिरिति हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्या-लिङ्गयविनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्। न च देह एव ग्रहो येनाऽन्यदेहे दर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भवतीति, उक्तश्च (विशे०)-"सोनेगंतो जम्हा, लिंगेहिं समं अदिपट्टपुव्दो वि। गहलिंगदरिसणाओ, गहोऽणुमेओ सरीरम्मि // 1556 / / " इत्यागमगम्यत्व त्वात्मन:-' एगे आया' अत एव वचनात्, न चास्यागमान्तरैर्विसंवाद: सम्भावनीयः / सुनिश्चिता-सप्रणीत त्वादस्येति, बहुवक्तव्यमत्र तत्तु स्थानान्तरादवसेय-मिति / किञ्चआत्माभावे जातिस्मरणादयस्तथा प्रेती-भूतपितृपितामहादि कृतानुग्रहोपघातौ च न प्राय॒युरिति। स्था० 10 ठा०। (12) इन्द्रभूतिमुद्दिश्य भगवता महावीरेणोक्तं विस्तरत: जीवास्तित्वम्जीवे तुह संदेहो, पचक्खं जन धिप्पड घडो व्व। अचंता पचक्खं, न नऽस्थि लोएखपुष्पं वा१५४९।। आयुष्मन् ! इन्द्रभूते! तवैष संदेह: / किमयमात्मा-अस्ति ? नास्ति वा ? उभयहेतुसद्भावात्, तत्र नास्तित्वहेतवोऽमीनास्त्यात्मा, प्रत्येक्षणात्यन्तमगृह्यमाणत्वाद, इह यदत्यन्त प्रत्यक्षं तल्लोकेनास्त्येव, यथा-खपुष्पं यत्त्वस्ति तत्प्रत्यक्षेण गृह्यत एव, यथा-घटः इत्यसौ व्यतिरेकदृष्टा अन्यच्च आत्मा न विद्यते; तस्य प्रत्यक्षाऽऽदिभिरनुपलभ्यमानत्वात्, तथाहिन प्रत्यक्षग्राह्योऽसावतीन्द्रियत्वात्, नाप्यनुमान-ग्राह्यः, अनुमानस्य लिङ्गलिङ्गिनो: साक्षात्सम्बन्धदर्शनेन प्रवृतेरिति, आगमगम्योऽपि नाऽसौ आगमानामन्योऽन्यं विसंवादादिति, अत्रोच्यते-केयमनुपलभ्यमानता ? किमेक- पुरुषाश्रिता? सकलपुरुषाश्रिता वा ? यद्येकपुरुषाश्रिता न तयाऽऽत्माऽभावः सिध्यति सत्यपि वस्तुनि तस्या: सम्भवात, न हि कस्यचित्पुरुषविशेषस्यघटाद्यर्थग्राहकं प्रमाणन प्रवृत्तमिति सर्वत्र सर्वदा तदभावो निर्णेतुं शक्य इति, नहि प्रमाणनिवृत्तौ प्रमेयं विनिवर्त्तते, प्रमेयकार्यत्वात् प्रमाणस्य न च कार्याभावे कारणाभावो दृष्ट इत्यनैकान्तिकताऽनुपलम्भहेतोः, सकलपुरुषाश्रितानुपलम्भस्त्वसिद्ध Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 196 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता न्तः / अणवोऽपि ह्यप्रत्यक्षाः, किंतु-घटादिकार्यतया परिणतास्ते प्रत्यक्षत्वमुपयान्ति, न पुनरेवमात्मा कदाचिदपि भावप्रत्यक्षमुपगच्छत्योऽत्रात्यन्तविशेषणमिति। एवं चमन्यसे त्वं किमित्याहनय सोऽणुमाणगम्मो, जम्हा पञ्चक्खपुटवयं तं पि। पुथ्वोबलद्धसंबं-धसरणओ लिंगलिंगीणं / / 2550 / / नचासावात्मानुमानगम्य: यस्मात्तदप्यनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं प्रर्वत्तते, कुत्त इत्याह-'पुव्वोबलद्धे' त्यादि लिङ्गयतेगम्यतेऽतीन्द्रियार्थोऽनेनेति लिङ्गम् ; अथ वा-लीनं-तिरोहितमर्थं गमयतीति लिङ्ग धूमकृतकत्वादिकं, तदस्यास्तीति लिङ्गी वयनित्यत्वादिस्तयोर्लिङ्गलिङ्गनोर्य: पूर्व महानसादौ प्रत्यक्षा-दिना उपलब्धकार्यकारणभावादिकः / संबन्धस्तस्य यत् स्मरणं तस्मादिति। इदमुक्तं भवति-पूर्व महावसादावग्निधूमयोलिङ्गिलिङ्गयोरन्वयव्यतिरेकवन्तमविनाभावमध्यक्षतो गृहीत्वा तत उत्तरकालं क्वचित्कान्तारपर्वतनितत्वाऽऽदौ गगना ऽवलम्बिनीं धूमलेखामवलोक्य प्राग्गृहीतं संबन्धमनुस्मरति, तद्यथा"यत्र यत्रधूमस्तत्र तत्र प्रागहं वह्निम् अद्राक्षं यथा- महानसादौ, धूमश्चात्र दृश्यते तस्मादह्निनापीह भवितव्यम् इत्येवं लिङ्गग्रहणसंबन्धस्मरणाभ्यां तत्र प्रमाता हुतभुजमवगच्छति; न चैवमात्माना लिङ्गिना सार्द्धकस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण संबन्ध: सिद्धोऽस्ति, यत: तत्संबन्धमनुस्मरत: पुनस्तल्लिङ्गदर्शनाज्जीवे संप्रत्यय: स्यात् / यदि पुनर्जीवलिङ्गयो: प्रत्यक्षत: संबन्धसिद्धिः स्यात्तदा जीवस्यापि। प्रत्यक्षत्वापत्त्यानुमानवैयर्थ्य स्यात्तत एव तत्सिद्धेरिति। एतदेवाहनय जीवलिंगसंबं-घदरिसणमभू जओ पुणो सरओ। तल्लिंगदरिसणाओ, जीवे संपचओ होज्जा ||1551|| गतार्था। न च वक्तव्यं सामान्यतो दृष्टात् अनुमानात् आदित्यादिगतिवज्जीव: सिध्यति, यथा-गतिमानादित्यो, देशान्तरप्राप्ते:, देवदत्तवदिति, यतो हन्त देवदत्ते दृष्टान्तधर्मिणि सामान्येन देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्विका प्रत्यक्षेणैव निश्चत्त्य सूर्येऽपि तां तथैव प्रमाता साधयतीति युक्तम्, न चैवमत्र क्वचिदपि दृष्टान्ते जीवसत्त्वेनाविनाभूतः कोऽपि हेतुरध्यक्षेणोपलक्ष्यते इति / अतो न सामान्यतो दृष्टादप्यनुमानात्तगतिरिति / न चाऽऽगमगम्योऽपि जीव इति दर्शयतिनाऽऽगमगम्मो वितओ, भिज्जइ जं नागमोऽणुमाणाओ। नय कासइपचक्खो, जीवो जस्साऽगमोवयणं ।।१५५२शा न चागमगम्योऽपि तकोऽसौ जीवो, यद्-यस्मादागमोऽपि अनुमानाद् भिद्यते (इत्यादिगाथार्द्धव्याख्यानं आगम' शब्दे- ऽस्मिन्नेव भागे गतम्) न चैवमसौ आत्मशब्द: शरीराद् ऋते- अन्यत्र प्रयुज्यमान: क्वचिदुपलब्धो / यत्र खल्वात्मशब्दश्रवणाद् आत्मा इति प्रत्ययो भवेदिति। यदपि स्वर्गनरकाद्यदृष्टार्थविषयं शाब्दं प्रमाणं, तदपि तत्त्वतोऽनुमानं, नात्तिवर्तते। तथाहि- प्रमाणं स्वर्गनरकाद्यदृष्टार्थविषयं वचनम्, अविसंवादिवचनाप्तप्रणीतत्वाचन्द्रार्कोपरागादिवचनवदित्येवमनुमानादेव तत्र प्रमाणता। न चैवं भूतमाप्तं कमपि पश्यामो, यस्यात्मा प्रत्यक्ष इति तद्वचनमागम इति प्रतिपद्येमहि इति शेषः / किंचजंचाऽऽगमा विरुद्धा, परोप्परमओ वि संजुत्तो। सव्वप्पमाणविसया-इओजीवो त्ति तो बुद्धी॥१५५३|| यतश्च तीथिकानां संबन्धिन: सर्वेऽप्यागमा: परस्परविरोधिनः खल्वतोऽपि संशय एवात्मनो युक्तो; न तु निश्चयः, तथाहि- केचिदागमा आत्मनो नास्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति यदा-हुर्नास्तिका:-"एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः / भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुश्रुताः" ||1|| इत्यादि, भट्टोऽप्याह-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न च प्रेत्य संज्ञास्ति।" सुगतस्त्वाह-" नरूपं भिक्षव: पुद्गलः" इत्यादि आत्मास्तित्ववचनान्यप्यागमेषु श्रूयन्ते, तथा च वेद:-"नह वैसशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत" इति / तथा-"अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम:" इत्यादि। कापिलागमे तुप्रतिपाद्यते-"अस्तिपुरुष: अकर्ता निर्गुणो भोक्ता चिद्रूपः" इत्यादि। तस्मादागमानां परस्परविरुद्धत्वान्नागम-प्रमाणादप्यात्मसत्त्वसिद्धिः। इदं च वैशेविषकमतेन प्रत्यक्षानुमाना-गमलक्षणं प्रमाणत्रयमुपन्यस्तम्॥ एतच स्वयं द्रष्टव्यम्- उपमाप्रमाणगम्योऽपि जीवो न भवति / तत्र हि 'यथा गौस्तथा गवय इत्यादावेव सादृश्य-मसन्निकृष्टेऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति।न चेहाऽन्यः कश्चित त्रिभुवनेऽप्यात्मसदृश: पदार्थोऽस्ति, यदर्शनादात्मानम वगच्छामः। कालाऽऽकाशदिगादयो जीवतुल्या विद्यन्ते इति चेत् ? न तेषामपि विवादास्पदीभूतत्वेन तदंहि (ङ्घि) वद्धत्वात् / अर्थापत्तिसाध्योऽपि जीवो न भवति न हि दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थ आत्मानमन्तरेण नोपपद्यते, यदलात्तं साधयामः, तस्मात्सर्वप्रमाणविषयातीतो जीव इति तव बुद्धिः भावोपलम्भप्रमाणपञ्चक विषयातीतत्वात् प्रतिषेधसाधकाऽ-भावाख्यषष्ठ - प्रमाणविषय एव जीव इत्यर्थः इति पूर्वपक्षः। अर्थतत्प्रतिविधानमाहगोयमा पचक्खो चिय, जिवो जं संसयाइविनाणं। पचक्खं च न संज्मं,जह सुह-दुक्खा सदेहन्मि / / 1554 // गौतम ! भवतोऽपि प्रत्यक्ष एवायं जीव:, किमन्येन प्रमाणान्तरोपन्यासेन ? कोऽयं जीवो मम प्रत्यक्ष? इति चेत्, उच्यते- यदेतत्तवैव संशयादिविज्ञानं स्वसंवेदनसिद्ध हृदि स्फुरित / स एव जीव:, संशयादिज्ञानस्यैव तदनन्यत्वेन जीवत्वात् / यच्च प्रत्यक्षं तद् न प्रमाणान्तरेण साध्यं, तथा / - स्वशरीर एवात्मसंवेदनसिद्धा: सुखदु:खादयः, प्रत्यक्षसिद्धमपि सग्रामनगरं विश्वं शून्यवादिनं प्रति साध्यत एवेति चेत, नैवम्, निरालम्बना: सर्वे प्रत्ययाः, प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवद्, इत्यादेस्तदुद्भावितबाधक प्रमाणस्यैव तत्र निराकरणाद्, अत्र त्वात्मग्राहके प्रत्यक्षे बाधकप्रमाणाऽभावादिति। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 197 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता इतश्चायं प्रत्यक्षो जीव: कुत? इत्याहकयवं करेमि काहं, वाहमहं पञ्चया इमाऊ या अप्पा सप्पचक्खो, तिकालकज्जोवएसाओ।।१५५१|| 'वा' इति-अथवा-कृतवानहं, करोम्यहं, करिष्याम्यहम्, उक्तवानहं, ब्रदीम्यहं, वक्ष्याम्यहं, ज्ञातवानहं, जानेऽहं, ज्ञाम्याम्यहम् , इत्यादिप्रकारेण योऽयं त्रैकालिक: कार्यव्यपदेशस्तद्विषयप्रयुज्यमानतया तत्समुत्थो योऽयम्- 'अहंप्रत्यय' एतस्मादपि प्रत्यक्ष एवायमात्मेति प्रपद्यस्व, अयं 'हाहं प्रत्ययो' नानुमानिकः, अलैङ्गिकत्वात् नाप्यागमादिप्रमाणसंभवः, तदन-भिज्ञानानां बालगोपालादीनामप्यन्तर्मुखतया आत्मग्राहकत्वेन स्वसंविदितस्य तस्योत्पादाद् घटादौ चानुत्पादादिति। अपिचकह पडिवनमहं ति य, किमत्थि नऽत्थि त्ति संसओ कह णुः | सइ संसयंमिवायं, कस्साऽहंपचओ जुत्तो / / 1556|| हन्त कथमसति जीवे 'अहमिति' प्रतिपन्नं त्वया विषयाभावे विषयिणोऽनुत्थानप्रसङ्गादेह एवास्य प्रत्ययस्य विषय इति चेत्, न, जीवविप्रमुक्तेऽपि देहे तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात, सति च जीवविषये अस्मिन्नहं प्रत्यये किमहमस्मि नास्मीति भवत: संशयः कथं केन प्रकारेणोपजायते ? अहंप्रत्ययग्राह्यस्य जीवस्य सद्भावाद् अस्म्यहमिति निश्चय एव युज्यते इति भावः / सति वा अस्मिन्नात्मास्तित्वसंशये कस्यायम् 'अहंप्रत्ययो' युज्यते निर्मूलत्वेन तदनुत्थानप्रसङ्गादिति। जीवाभावे संशयविज्ञानमपि न युज्यत एवेति तदर्शयन्नाहजइ नऽत्थि संसय चिय,किमथि नऽत्थि त्ति संसओ कस्सा संसइए व सरूवे, गोयम ! किमसंसय होज्जा ||1557 / / यदि संशयी जीव एवादौ नास्ति, तहस्ति नास्तीति संशयः कस्य भवतु। संशयो हि विज्ञानाख्योगुण एव, नचगुणिनमन्तरेण गुण: संभवति देहोऽत्रगुणीति चेत्, न देहस्य मूर्त्तत्वाज्जडत्वाच ज्ञानस्य चामूर्त्तत्वाद् बोधरूपत्वाच न चाननुरूपाणां गुणगुणिभावो युज्यते आकाशरूपादीनामापि तद्भाधापत्त्या अति-प्रसङ्गप्राप्तेः। 'संसइएवे' त्यादि'या' इतिअथवा संशयिते स्वरूपे गौतम! किमसंशयं शेषं भवेद् ? इदमुक्तं भवतिकिमस्मिनास्म्यहमित्येवं य:स्वरूपेऽपि संशेते-आत्मनिश्चयोऽपि यस्य नास्तीत्यर्थः, तस्य शेष कर्मबन्धमोक्षादिकं घटपटादिकं किमसंशयम्असंदिग्धं स्यात् ? न किंचित्सर्वसंशय एव तस्य स्यादित्यर्थः आत्मास्तित्वनिश्चयमूलो हि शेषवस्तुनिश्चय इति भावः। अहंप्रत्ययग्राह्यं च प्रत्यक्षमात्मानं निढुवानस्य अश्रावणः शब्द इत्यादिवत्प्रत्यक्षविरुद्धो नाम पक्षाऽऽभासः, तथा- वक्ष्यमाणात्मास्तित्वानुमानसद्भावान्नित्य: शब्द इत्यादिवदनुमानविरुद्धोऽपि। तथा- अहमस्मि संशयीति प्रागभ्युपगम्योत्तरत्र नास्मीति प्रतिजानानस्य साङ्ख्यस्य अनित्यः कर्ता अचेतन: आत्मेत्यादिवदभ्युपगमविरोध: / बाल-गोपालाङ्गनादिप्रसिद्ध चात्मानं निराकुवत: अचन्द्रः शशी इत्यादिवल्लोकविरोध:, अहं नाहं वेति गदतो 'माता में बन्ध्या' इत्यादिवत्स्ववचनव्याहतिः / एवं च प्रत्यक्षादिबाधितेऽस्मिन् पक्षे अपक्षधर्मतया हेतुरप्यसिद्धः / हिमवत्पलपरिमाणादौ पिशाचादौ: च प्रमाणपञ्चकाभावस्य प्रवृत्तेस्नैकान्तिकोऽपि वक्ष्यमाणानुमानप्रमाणसिद्धे चात्मनि विपक्ष एव वृत्तेविरुद्धश्चेति। प्रकारान्तरेणाप्यात्मन: प्रत्यक्षसिद्धतामाहगुणपबक्खत्तणओ, गुणी वि जीवो घडो व पचक्खो। घडओ विघेप्पइगुणी,गुणमित्तग्गहणओ जम्हा / / 1558|| प्रत्यक्ष एवं गुणी जीव: स्मृतिजिज्ञासाचिकीर्षाजिगमिषाशंशीत्यादिज्ञानविशेषाणां तद्गुणानां स्वसंवेदनप्रत्यक्ष-सिद्धत्वाद, इह यस्य गुणा: प्रत्यक्षा: स प्रत्यक्षो दृष्टो, यथा घटः, प्रत्यक्षगुणश्व जीव: तस्मात्प्रत्यक्ष: यथा घटोऽपि गुणी रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेवप्रत्यक्षस्तद्वद्विज्ञानादिगुणप्रत्यक्ष- त्वादात्मापीति। आह-अनैकान्तिकोऽपं यस्मादाकाशगुण: शब्द: प्रत्यक्षोऽस्ति न पुनराकाशमिति / तदयुक्तम्, यतो नाकाशगुण: शब्द:, किंतु- पुद्गलगुणः, ऐन्द्रियकत्वात् रूपादिवदिति।। गुणानां प्रत्यक्षत्वे गुणिनस्तद्रुपतायां किमायातम् ? इति चेद्, उच्यतेअन्नोऽणण्णो व गुणी होज्ज गुणेहिं जइ नाम सोऽणन्नो। ननु गुणमेत्तग्गहणे, घेप्पइ जीवो गुणी सक्खं / / 1559 / / अह अन्नो तो एवं, गुणिनो न घडादओ वि पञ्चक्खा। गुणमेत्तग्गहणाओ,जीवम्मि कउवियारोऽयं // 1560 / / ननुभवता गुणेभ्यो गुणी किमर्थान्तरभूतोऽभ्युपगम्यते, अनर्थान्तरभूतो वा? यदि नाम-सोऽनन्यस्तेभ्योऽनन्तरभूत: तर्हि ज्ञानादिगुणग्रहणमात्रादेव गुणी जीव: प्रत्यक्षेण गृह्यत इति सिद्धमेव। प्रयोग:योयस्मादनन्तरं स तद्ग्रहणेन गृह्यते, यथा वाससि रागो गुणेभ्योऽनन्तर च गुणी, तस्माद् गुणग्राहकप्रत्यक्षेण सोऽपि गृह्यत एवेति / अथ गुणेभ्योऽन्योऽर्थान्तरभूत एवगुणी, ततएवं सतिघटादयोऽपि गुणिन: न प्रत्यक्षास्तदर्थान्तरभूतस्य रूपादिगुणमात्रस्यैव ग्रहणात्। इह यद्-यस्मादर्थान्तरभूतं तद्ग्रहणेऽपि नेतरस्य ग्रहणं, यथा घटे गृहीते पटस्य अर्थान्तरभूताश्च गुणिनो गुणा इष्यन्ते अतो गुणग्रहणेऽपि न गुणिग्रहणम्। अतो घटादीनामपि समानोऽग्रहणदोषे कोऽयं नाम भवत: केवलजीवे विचारो नास्तित्वाविवक्षा, येनोच्यते-"पचक्खं जन धिप्पड़ घडो व्व' इत्यादि, अथ द्रव्यविरहिता: केऽपि न सन्त्येव गुणा:, इत्यतस्तद्ग्रहणद्वारेण गृह्यन्त एवं घटादयः / नान्वेतदात्मन्यपि समानमव / किं च-गुणिनो गुणानामर्थान्तरत्वे अभ्युपगम्यमाने गुणीभवतु, मा भूदा प्रत्यक्षः, तथापि ज्ञानादिगुणेभ्यः पृथगात्मा गुणी त्वदभ्युपगमेनापि सिद्ध्यत्येवेति। अत्र पराभिप्रायमाशङ्कमान: प्राहअहमनसि अत्थि गुणी, न य देहत्थंतरं तओ किं तु / देहे नाणाइगुणा, सो चिय तेसिं गुणी जुत्तो // 1561 / / अथ मन्यसे अस्त्ये व ज्ञानादिगुणानां गुणिनैव तं प्रत्या Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 198 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता चक्ष्महे, एतत्तु नाभ्युपगच्छामो यद्देहादर्थान्तरं तकोऽसौ इति, किन्तुदेह एव ज्ञानादयो गुणा: समुपलभ्यन्ते अत: स एव तेषां गुणी युक्तो, यथा रूपादीनां घट: प्रयोग: देहगुणा एव ज्ञानादयः, तत्रैवोपलभ्यमानत्वागौरकृशस्थूलतादिवदिति। अत्रोत्तरमाहनाणादओन देहस्स, मुत्तिमत्ताइओ घटस्सेव। तम्हा नाणाइगुणा, जस्स संदेहाहिओ जीवो / / 1562|| प्रयोगो देहस्य संबन्धिनो ज्ञानादयोगुणा नभवन्त्येव तस्य मूर्त्तिमत्त्वात्, चाक्षुषत्वाद्वा, घटवत् / न च द्रव्यरहितो गुणः समस्ति ततो यो ज्ञानादिगुणानामनुरूप: अमूर्तः, अचाक्षुषश्च गुणी स देहातिरिक्तो जीवो ज्ञातव्य: / आह-ज्ञानादयो न देहस्येति प्रत्यक्षबाधितमिदम्, देह एव ज्ञानादिगुणानां प्रत्यक्षेणैव ग्रहणात्। तदयुक्तम, अनुमानबाधितत्वादस्य प्रत्यक्षस्य, तथा हि- इहेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता, तदुपरमेऽपि तदुलब्धार्थानु-स्मरणात्, यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धमर्थमनुस्मरति स तस्मादर्थान्तरं दृष्टो, यथा-पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्त्ता देवदत्त इत्यादि वायुभूतिप्रश्ने। वक्ष्याम इति। उपसंजिहीर्षुराहइय तुह देसेणाऽयं पचक्खो सव्वहा महं जीवो। अविहयनाणत्तणओ, तुह विन्नाणं व पडिवज्जा।।११६३।। 'इति'-एवम्-उक्तप्रकारेण स्वशरीरेतवापि देशत: प्रत्यक्षो-ऽयमात्मा छद्मस्थत्वेन भवत: सर्वस्यापि वस्तुनो देश- विषयत्वात्, घटवत्, तथाहि-सर्वमपि-स्व- परपर्यायतो- ऽनन्तपर्यायं वस्तु छद्ममस्थश्च प्रत्यक्षेण साक्षात् तद्देशमेव गृह्णाति / प्रत्यक्षेण च प्रदीपादिप्रकाशेनैव देशत: प्रकाशिता अपि घटादयो व्यवहारत: प्रत्यक्षा उच्यन्ते एव / सर्वात्मना च केवली प्रत्यक्षमेव वस्तु प्रकाशयति अतो ममाऽप्रतिहताऽनन्तज्ञानत्वेन सर्वात्मनापि प्रत्यक्षोऽयं जीवो यथा-ऽतीन्द्रियमपि त्वत्संशयविज्ञानमिति प्रतिपद्यस्वेति। परशरीरे तर्हि कथमित्याहएवं विय परदेहे, ऽणुमाणओ गिण्ह जीवमत्थि त्ति। अणुवित्तिनिवित्तीओ, विण्णाणमयं सरूवे व्व / / 1564|| यथा स्वदेहे, एवं परदेहेऽपि गृहाण जीवमनुमानतः कथम् ? इत्याहअस्ति-विद्यते इति / कथंभूतं जीवम् ? इत्याह- विज्ञा- नमयंविज्ञानात्मकम् अनुमानमेव सूचयन्नाह-"अणुवित्तिनित्तीओ''सरूवे व' त्ति-इदमुक्तं भवतिपरशरीररेऽप्यस्ति जीवः / इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् यथा-स्वरूपे स्वात्मनि इह यत्रेष्टानिष्टयो: प्रवृत्तिनिवृत्ती दृश्येते तत्सात्मकं दृष्टं यथा स्वशरीरं तथा च प्रवृत्तिनिवृत्ती दृशयेते परशरीरे, अतस्तदपि सात्मकम् आत्माभावे चेष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्ती न भवतो, यथा घटे इत्यनुमानात्परशरीरेऽपि जीवसिद्धिः / अत्र परमतमाशयोत्तरमाह जंच न लिंगेहिं समं, मन्नसि लिंगी पुरा जओ गहिओ। संगं ससेण व समं, न लिंगओ तोऽणुभेए सो।।१५६५।। सोऽणेगंतो जम्हा, लिंगेहि समं न दिद्वपुथ्वो वि। गहलिंगदरिसणाओ, गहोऽणुमेओ सरीरम्मि||१५६६।। यच न य जीवलिङ्गसंबन्धदरिसणमभू०।१५५१।।' इत्यादि पूर्वोक्तपूर्वक्षानुसारेण मन्यसे त्वम् / किमित्याह-ततो न लिङ्गतोलिङ्गादनुमेयोऽसौ जीवः / यत: किमित्याह-यतोनखलु लिङ्गैः कैश्चिदपि समं लिङ्गी जीव: क्वापि केनापि पुरा पूर्व गृहीत:, किंवदित्याह-शृङ्गमिव शशकेन समं ततो लिङ्गलिङ्गिनो: पूर्व संबन्धाग्रहणान्न लिङ्गाज्जीवोऽनुमीयत इति यन्मन्यसे त्वं, तत्र प्रतिविधीयते-सोऽने कान्त: यस्माल्लिङ्गैः समम् अदृष्ट-पूर्वोऽपि ग्रहो-देवयोनिविशेषत:, शरीरे हसनगानरोदनकर-चरणभूविक्षेपादिविकृतग्रहलिङ्गदर्शनादनुमीयत इति बालानामपि प्रतीतमेवेति। अनुमानान्तरमप्यात्मसाधकमाहदेहस्सऽथिविहाया, पइनिययागारओ घडस्सेव। अक्खाणं च करणओ, दंडाईणं कुलालो व्व ||1567 / / हेहस्याति विधाता-कर्तेति प्रतिज्ञा, आदिमत्प्रतिनियता-कारत्वाद्, घटवत्, यत्पुनरकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथा अभ्रविकारः, यश्च देहस्य कृत स जीवः / प्रतिनियताऽऽकारत्वं मेर्वादीनामप्यस्ति, न च तेषां कश्चिद्विधाता, इति तैरनैकान्तिको हेतु: स्याद्, अतोऽनुक्तमप्यादिमत्त्वविशेषणं द्रष्टव्यमिति। तथा अक्षाणाम्इन्द्रियाणामस्त्यधिष्ठाता इत्यध्याहारः, करणत्वात् यथा चक्रचीवरमृत्सूत्रदण्डादीनां कुलाल:, यच्च निरधिष्ठातृकं तत्करणमपि न भवति यथा आकाश, यश्चेन्द्रियाणामधिष्ठाता स जीव इति। तथाअत्थिदियविसयाणं, अयाणादेयभावओऽवस्सं। कम्मार इवादाया, लो संडासलोहाणं // 1568|| इह यत्रादानादेयभावस्तत्रावश्यमादाता समस्ति, यथा लोके संदंशकलोहानां कारोऽयस्कार: विद्यते चेन्द्रियविषयाणामादानादेयभावः, अतस्तेषामप्यस्त्यादाता, सच जीवः, यत्र त्वादाता नास्ति, तत्रादानादेयभावोऽपि न विद्यते यथा आकाश इति। तथा - भोत्ता देहाईणं, भोज्जत्तणओ नरो व्व भत्तस्स। संघायाइत्तणओ, अस्थिय अत्थी घरस्सेव / / 1569|| इह देहादीनां भोक्तासमस्ति भोग्यत्वात्, यथाशाल्यादिभक्तवस्त्रादीनां नरः, यस्य च भोक्ता नास्ति तद्भोग्यमपि न भवति यथा खरविषाणं, भोग्यं च शरीरादिकं ततो विद्यमानभोक्तृकमिति। तथा अर्थी-स्वामी। ततश्च देहादीनां विद्यते स्वामी, संघातरूपत्वाद् आदिशब्दात- मूर्तिमत्त्वात् ऐन्द्रियत्वाचाक्षुपत्वाद् इत्यादयोऽप्यनैकान्तिकत्वपरिहारार्थं संभवद्विहितविशेषणा हेतवो योजनीयाः, यथा गृहादीनां सूत्रधारादय इति दृष्टान्त:, यत पुनरस्वामिकं तत्संघातादिरूपमपि न भवति, यथा गगनकु सुमं संघातादिरूपं च देहादिकं तस्माद्विद्यमानस्वामिकमिति / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 199 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता आह-ननु "देहस्सऽस्थि विहाया (1567)" इत्यादिना शरीरादीनां नत्वभिहितमत्र यदुत तत्रान्यत्र वा विद्यमान एव वस्तुनि संशयो भवति, कादय एव सिध्यन्ति / न तु प्रस्तुतो जीव:, इत्याशङ्कयोत्तरमाक्षेपप- नाविद्यमाने। खरस्य विषाणं खरविषाणं नास्तीत्यत्र च कोऽर्थः इत्याहरिहारौ चाह 'नतं खरेचेव' त्ति- खर एव तद्विषाणं नास्ति, अन्यत्र गवादावस्त्येवेति; जो कत्ताइस जीवो, सज्मविरुद्धो त्ति ते मई होज्जा। न कश्चिद्व्यभि-चारः / एवं 'विवरीयगाहे वित्ति-इदमुक्तं भवति-यदा मुत्ताइपसंगाओ,तंन संसारिणो दोसो।।१५७०।। विपर्यस्तः कश्चित्स्थाणौ पुरुष एवायमित्यादिविपरीतग्रहं करोति यश्वायमनन्तरं देहेन्द्रियादीनां कर्ता; अधिष्ठाता, आदाता भोक्ता, अर्थी, तदाप्ययमेव न्यायो वाच्यः-सोऽपि विपरीतग्रहो विपरीते पुरुषादिके चोक्तः स सर्वोऽपि जीव एव, अन्यस्येश्वरादेर्यु- क्त्यक्षमत्वेन वस्तुनि सत्येवोपपद्यते; नाविद्यमान इत्यर्थः। एवं भवदभिप्रायेण कर्तृत्वाद्यसंभवादिति। अथ साध्यविरुद्धसाधक- त्वाद्विरुद्धा एते हेतव योऽस्मादृशां शरीरे आत्मास्तित्वाभिमानो, नायमात्मन: सर्वथा इति तव मतिर्भवेत् तथा हि- घटादीनां कादिरूपा: कुलालादयो नास्तित्वे युज्यते इति। मूर्तिमन्त: संघातरूपा अनित्या- दिस्वभावाश्च दृष्टा इत्यतो इतोऽप्यस्ति जीव: कुत ? इत्याहजीवोऽप्येवंविधएव सिध्यति, एतद्विपरीतश्च किलास्माकं साधयितुमिष्टः, अत्थि अजीवविवक्खो, पडिसे हाओ घडोऽघडस्सेव। इत्येवं साध्यविरुद्ध- साधकत्वं हेतुनामिति, तदेतदयुक्तत्वान्न, यत:खलु नऽस्थि घडोत्तिव जीव-त्थित्तपरो नऽत्थि सद्दोय।।१५७३|| संसारिणो जीवस्य साधयितुमिष्टस्याऽदोषोऽयं, स हि अष्टकर्मपुद्गल अत्र प्रयोग:- प्रतिपक्षवानयमजीवः, अत्र व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदसंघातोपगूढत्वात् सशरीरत्वाच कथंचिन्मूर्त्तत्वादिधर्मयुक्त एवेति भावः / प्रतिषेधाद्यत्र व्युत्पत्तिमत: शुद्धपदस्य प्रतिषेधो दृश्यते स प्रतिपक्षवान् अपरमप्यात्मसाधकमनुमानमाह दृष्टो, यथा घटोऽघटप्रतिपक्षवान्, अत्र ह्यघटप्रयोगेशुद्धस्य व्युत्पत्तिमतश्च अस्थि चिय ते जीवो, संसयओ सोम्म ! थाणुपुरिसो ध्व। पदस्य प्रतिषेधः, अतोऽवश्यं घटलक्षणेन प्रतिपक्षण भवितव्यम्। यस्तु जं संदिद्धं गोयम ! तं तत्थऽन्नत्थवत्थु(त्थि) धुवं / / 1571 / / न प्रतिपक्षवान् न तत्र शुद्धस्य व्यूत्पत्तिमतश्च पदस्य प्रतिषेधः, यथाहे सौम्य! गोयम ! अस्त्येव तव जीव: संशयत: संशयसद्भा- वाद्यत्र यत्र अखरविषाणम्, 'अडित्थ' इति- अखरविषाणमित्यत्र खरविषाणसंशयस्तत्तदस्ति यथा स्थाणुपुरुषौ, संशयश्च तवजीवे, तस्मादयस्त्ये- लक्षणस्याऽशुद्धस्य सामासिकपदस्य प्रतिषेध इति, अतोऽत्र खरस्य वायं, तथाहि-स्थाणुपुरुषयोरूव॑त्वारोहपरिणाहाधुभयसाधारणधर्म- विषाणं खरविषाणमित्यादिव्युत्पत्तिमत्त्वे सत्यपि खरविषाणलक्षणो प्रत्यक्षतायां चलनशिर: कण्डूयनवयोनिलयनवल्ल्यारोहणाधुभयगत- विपक्षो नास्ति'अडित्थ' इत्यत्र तु व्यत्पत्तिरहितस्य डित्थस्यडित्थविशेषधा-प्रत्यक्षतायां चोभयगतैतद्धर्मानुस्मरणेच सत्येकतरविशेष- पदस्य प्रतिषेध इति समासरहितत्वेन शुद्धत्ये सत्यपि नावश्यमवस्थितो निश्चयचिकीर्षो: किमिदमिति विमर्शरूप: संशयः प्रादुरस्ति / डित्थलक्षण: कोऽपि पदार्थो जीववद्विपक्षभूतोऽस्तीति। एवंभूते च स्थाणुपुरुषादिगतसंशये तत्स्थाणुपुरुषादिकं वस्त्वस्त्येव 'नऽत्थि घडो त्ति व 'इत्यादि पश्चार्धम् / 'नास्त्यात्मा' इति च अवस्तुनिसंशयायोगात् एवमात्मशरीरयोरपि प्रागुपलब्धसामान्यविशेष योऽयमात्मनिषेधध्वनि:सजीवास्तित्वे नान्तरीयक एव, यथा नास्त्यत्र धर्मस्य प्रमातुस्तयो:सामान्य- धर्मप्रत्यक्षतायां विशेषधाऽप्रत्यक्ष घट इति शब्दोऽन्यत्र घटास्तित्वाविनाभाव्येव / प्रयोग:- यस्य निषेध: त्वेऽपि च तद्विषयानुस्मृतौ सत्यामेकतरविशेषोपलिप्सो:'किमयमात्मा क्रियमाणो दृश्यते तत् क्वचिदस्त्येव यथाघटादिकम्, निषिध्यते च भवता किं वा शरीरमात्रमिदम्' इति, विमर्शरूप: संशयो जायते / अयं 'नास्ति जीवः' इति वचनात् जीव:, तस्मादस्त्येव असौ, यच सर्वथा चात्मशरीरयोः सत्त्व एवोपपद्यते, नैकतरस्याप्यभावेअतोस्ति जीवः। नास्ति तस्य निषेधो न दृश्यत एव, यथा खरविषाणकल्पानां अथैवं बूषे-अरण्यादिषु स्थाणुपुरुषसंशये तत्र विविक्षितप्रदेशे पञ्चभूतातिरिक्तभूतानां निषिध्यते च त्वया जीव:, तस्मान्निषेध एवायं अनयोरेकतर एव भवति, न पुनरुभयमपि तत्कथमुच्यते-विद्यमान एव तत्सत्त्वसाधक इति। वस्तुनि संशयो भवति इति ? तदयुक्तम, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, न हि वयमेवंब्रूमस्तत्रैव प्रदेशे तदुभयमप्यस्ति इति, किंतुयद्गतसंदेह: तद्वस्तु अनैकान्तिकोऽयं हेतुः; असतोऽपि खरविषाणातत्रान्यत्र वा प्रदेशे ध्रुवमस्त्येव अन्यथा-षष्टभूतविषयोऽपि संशयः देर्निषधदर्शनादित्याशङ्ख्याहस्यादेतदेवाह-'ज-संदिरमि' त्यादितस्मातसंशयविषयत्वा- दस्त्येव असओ नऽत्थि निसेहो,संजोगाइपडिसेहओ सिद्ध / जीव इति स्थितम्। संजोगाइचउक्कं, पि सिद्धमत्थंतरे निययं / / 1574 / / अथ पूर्वपक्षमाशङ्कय परिहरन्नाह असत:- अविद्यमानस्य नास्ति-नसंभवत्येव निषेध इति सिद्धम्। कुत एवं नाम विसाणं,खरस्स पत्तं न तं खरे चेव। इत्याह संयोगादिप्रतिषेधाद्, आदिशब्दात्समवायसामान्यविशेषअन्नत्थतदत्थि चिय, एवं विवरीयगाह वि।।१५७२|| परिग्रहः। एतदुक्तं भवति-इह यत्किं-चित्वचित् देवदत्तादिकं निषिध्यते हन्त; यदि यत्र संशयस्तेनावश्यमेव भवितव्यम्, एवं ततः / तस्यान्यत्र सत एव विवक्षितस्थाने कस्मिंश्चित्संयोग- समवायखरविषाणमप्यस्तीति प्राप्तं, तत्रापि कस्यचित्संशयसद्भावाद् उच्यते- सामान्य- विशेषलक्षणं चतुष्टयमेव निषिध्यते, नतु सर्वथैव देवदत्तादेर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 200 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता भाव: प्रतिपाद्यते। तत्र 'नास्ति गृहे देवदत्त' इत्यादिषु गृह-देवदत्तादीनां सतामेव संयोगमात्रं निषिध्यते, न तु तेषां सर्व-थैवास्तित्वमपाक्रियते। तथा-'नास्ति खरविषाणम् इत्यादिषु खरविषाणादीनां सतामेव समवायमानं निराक्रियते / तथा- 'नास्त्यन्यश्चन्द्रमाः' इत्यादिषु विद्यमानस्यैव चन्द्रमसोऽन्य-चन्द्रनिषेधाचन्द्रसामान्यमानं निषिध्यते, न तु सर्वथा चन्द्राभाव: प्रतिपाद्यते। तथा-'न सन्ति घटप्रमाणा मुक्ता' इत्यादिषु घटप्रमाणतामात्ररूपो विशेषो मुक्तानां निषिध्यते, न तु मुक्ताभावः, ख्याप्यत इति, एव च सति 'नास्त्यात्मा' इत्यत्र विद्यमानस्यैवात्मनो यत्र वचन येन केनचित्सहसंयोगमात्रमेव त्वया निषेद्धव्यम्, यथा 'नास्त्यात्मा वपुषी' त्यादि न तु सर्वथात्मनः सत्त्वमिति। अत्राह कश्चित्-ननु यदि यन्निषिध्यते तदस्ति, तर्हि मत्रिलोकेश्वरताप्यस्ति, युष्मदादिभिर्निषिध्य-मानत्वात्; तथा-चतुर्णा समवायादिप्रतिषेधानां, पञ्चमोऽपि प्रतिषेधप्रकारोऽस्ति त्वयैव निषिध्यमानत्वात्, तदयुक्तत्रि- लोक्येश्वरताविशेषमात्रं भवतो निषिध्यते, यथा घटप्रमाणत्वं मुक्तानां, न तु सर्वदेवेश्वरता, स्वशिष्यादीश्वरतावास्तवा- पिविद्यमात्वात्। तथा- प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्ट- त्वमपाक्रियते, न तु सर्वथा प्रतिषेधस्याभाव:, चतु:संख्या- विशिष्टस्य तस्य सद्भावात्। ननु सर्वमप्यसंबद्धमिदम्, तथाहि- मत्रिलोकेश्वरत्वं तावदसदेव निषिध्यते, प्रतिषेधस्यापि पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमविद्यमानमेव निवार्यते, तथा संयोग समवायसामान्य-विशेषाणामपि गृहदेवदत्तखरविषाणादिष्व-सतामेव प्रतिषेधः इत्यत: 'यन्निषिध्यते तदस्त्येव' इत्येतत्कथं नप्लवते इतयाशङ्कयाह'संयोगाइचउक्कं पी' त्यादि, इदमुक्तं भवति- देवदत्तादीनां संयोगादयो गृहादिष्वेवाऽसन्तो निषिध्यन्तो अर्थान्तरे तुतेषां ते विद्यन्तएव; तथाहिगृहेणैव सह देवदत्तस्य सेयोगो न विद्यते, अर्थान्तरेण तु क्षेत्रहट्टयामादिना सह तस्यासौ समस्त्येव, गृहस्यापि देवदत्तेन सह संयोगो नास्ति, खवादिना तुसह तस्यासौ विद्यतएव, एवं विषाणस्यापिखर एव समवायो नास्तिगवादावस्त्येव; सामान्यमपि द्वितीयचन्द्राभावाचन्द्र एव नास्ति, अर्थान्तरे तु घटगवादावस्त्येव; घटप्रमाणत्वमपि मुक्तासु नास्ति, अर्थान्तरे तु-कूष्माण्डादावस्त्येवा त्रिलोकेश्वरताऽपि भवत एव नास्ति, तीर्थकरादावस्त्येव पञ्चसंख्याविशिष्टत्वमपि प्रतिषेधेनाऽस्ति, अर्थान्तरे त्वनुत्तरविद्यमानादावस्त्येव, इत्यनया विवक्षया ब्रूम:- 'यन्निषिध्यते तत्सामान्येनाऽस्त्येव, नत्वेवं प्रतिजामीमहे- यद् यत्र निषिध्यते तत्तत्रैवास्ति, इति, येन व्यभिचार: स्यात्। वयमपि शरीरे जीवं निषेधयामो नान्यत्रेति चेत् साधूक्तम, अस्मत्समीहितस्य सिद्धत्वात्, जीवसिद्ध्यर्थमेव हि यतामहे वयं, स चेत्सिद्धः, तर्हि तत्सिद्धपन्यथानुपपत्तेरेव तदाश्रयः सेत्स्यति किं तया चिन्तया? नच शरीमन्तरेण जीवस्याश्रयान्तरमुपपद्यते, तत्रैव तदवस्थानलिङ्गोपलब्धेः, न च वक्तव्यम् शरीरमेव जीवो, 'जीवति मृतो मूर्च्छित' इत्यादि व्यवस्थानुपपत्ते:, इत्यादेरभिधास्यमानत्वादिति। जीवसिद्धावेवोपपत्त्यन्तरमाह जीवो त्ति सत्थयमिणं सुद्धत्तणओ घडाभिहाणंव। जेणऽत्येण सदत्थं, सो जीवो अह मई होज्ज।१५७५|| अत्थो देहो चिय, से नो पज्जायवयणभेयाओ। नाणाइगुणो यजओ,भणिओ जीवो न देहो त्ति // 1576|| जीव इत्येतद्ववचनं सार्थकमिति प्रतिज्ञा, प्युत्पत्तिमत्त्वे सति शुद्धपदत्वात्, इह यद् व्युत्पत्तिमत्त्वे सति शुद्धपदं तदर्थवद् दृष्टं यथा घटादिकं, तथा च जीवपदं, तस्मात्सार्थकं, यत्तु सार्थकं न भवति तद्व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदं च न भवति, यथा डित्थादिकं खरविषाणादिकं च, न च तथा जीवपदं, तस्मात्सार्थकम् / यद्व्युत्पत्तिमन्न भवति तच्छुद्धपदमपि सद् न सार्थकम् / यथा डित्थादिपदम्, इति हेतोरनैकान्तिकतापरिहारार्थं व्युत्पत्ति- मत्त्वविशेषेणं द्रष्टव्यम् / यदपि शुद्धपदं न भवति किंतु सामासिकं तदपि व्युत्पत्तिमत्त्वे सत्यपि सार्थक न भवति, यथा खर-विषाणादिकम्, इति शुद्धत्वविशेषणम्। अथ मन्यसे देह एवास्य जीवपदस्यार्थो न पुनरर्थान्तरम्, उक्तं च-"देह एवायमनुप्रयुज्यमानो दृष्टो, यथैष जीव:, एनं न हिनस्ति" इति अतो देह एवास्यार्थी युक्त इति। तदेतन्न, कुत:? इत्याह- देहजीवयो: पर्यायवचनभेदात्, यत्र हि पर्यायवचनभेदस्तत्रान्यत्वं दृष्टम्, यथा घटाकाशयोः तत्र घटकुटकुम्भकलशादयो घटस्य पर्यायाः, नमोव्योमान्तरिक्षाऽऽकाशादयस्तु आकाशपर्यायाः / प्रस्तुते च जीवो जन्तुरसुमान्प्राणी सत्त्वो भूत इत्यादयो जीवपर्यायाः, शरीरं वपुः कायो देह: कलेवरमित्यादयस्तुशरीरपर्यायाः। पर्यायवचनभेदेऽपिचवस्त्वेकत्वे सर्वैकत्वप्रसङ्गोऽत्र बाधकम्। यत्पुनरिदमुक्तम्- "देह एवायमनुप्रयुज्यमानो दृष्टः" इत्यादि, तच्छरीरसहचरणावस्थानादित; शरीरे जीवोपचारः क्रियते। किं च-इत्थमपि श्रूयत एव- 'गत: स जीव:, दह्यतामिदं शरीरम्' इति। किं च 'नाणाई' इत्यादि, यस्मान्य ज्ञानादिगुणयुतो जन्तुः, जडश्च देहः, तत्कथं देह एव जीव: / प्रागिहैवचोक्तम्-न ज्ञानादिगुणो देहः, मूर्तिमत्त्वाद्, घटवत्; तथा देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्था- नामनुस्मरणात्, वातायनपुरुषवदिति। तदद्याप्यप्रतिबुध्यमाने इन्द्रभूतौ भगवानाहजीवोऽस्थि वओ सचं, मव्वयणाओऽवसेसवयणं व। सवण्णुवयणओवा, अणुमयसवण्णुवयणं व / / 1577 / / 'जीवोऽस्ति' इत्येतद्वचः सत्यं मद्वचनत्वात्, भवत्संशयविषयाद्यवशेषवचनवत्, यच सत्यं न भवति तद् मदीयवचनमपि न भवति यथा कूटसाक्षिवचनम्। अथ वा-सत्यं 'जीवोऽस्ति' इतिवचनं सर्वज्ञवचनत्वाद्भवदनुमतसर्वज्ञवचनवदिति। यदिवाभयरागदोसमोह-भावाओ सयमणइवाई च। सव्वं चिय मे वयणं, जाणयममत्थवयणं व / / 1178 / / सर्वमपि मद्ववचनं सत्यम् अनतिपाति च बोद्धव्यं भयरागद्वेषाज्ञानरहितत्वात् इह यद्भयादिरहितस्य वचनं त Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 201 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता त्सत्यं दृष्टम्, यथा मार्गज्ञस्य भयरहितस्य प्रष्टरि रागद्वेष-रहितस्य मार्गोपदेशवचनम्, तथा च मद्वध: तस्मात्सत्य मनतिपाति चेति। अत्र गौतममाशय भगवानुत्तरमाहकह सवण्णु त्ति मई,जेणाहं सव्व संसयच्छेई। पुच्छसु वजन जाणसि, जेण व ते पचओ होज्जा / / 1179 / / कथं नाम 'त्वंसर्वज्ञः' इतितेमति:? एवं त्वं मन्यसे, तथा भयरागद्वेषमोहाभावश्चासिद्ध इति मन्यसे, तदयुक्तम् येनाहं सर्वसंशयच्छेदी यश्च सर्वसंशयच्छेता स सर्वज्ञ एव। दृष्टान्ताभावेनान्वयासिद्धेरनैकान्तिकोऽयं हेतुरिति चेत्, नसर्वसंशयच्छेतृत्वानुपपत्तिरेवेह विपर्यये बाधकं प्रमाणं, किमि-हान्वयान्वेषणेन? यदि वापृच्छ्यतां यत्रैलोक्यान्तर्गतं, वस्तुत्वं न जानासि, येन सर्वज्ञत्वप्रत्ययस्तव जायते / भयाद्यभावोऽपि तल्लिङ्गादर्शनात् मयि सिद्ध एवेति स्वयमेव द्रष्टव्यम् / कदाचिदपि लिङ्गादर्शने लिङ्गिनोऽस्तित्वशङ्कायामतिप्रसङ्ग इति। अथोपसंहरन्नाहएवमुवओगलिंगंगोयम! सव्वप्पमाणसंसिद्ध / संसारीयरथावर-तसाइभेयं मुणे जीवं / / 1580 / / एवम्- उक्तेन प्रकारेण जीवम्-आत्मानं गौतम ! मुणप्रति-पद्यस्वेति संबन्ध: / कथंभूतम्? उपयोग एव लिङ्ग यस्य स तथा, सर्वैः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणैः संसिद्धम्प्रतिष्ठितम्, तथा संसारीतरस्थावर सादिभेदम् / संसारिणश्च इतरेसिद्धा: / आदिशब्दाचसूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तादि भेदपरिग्रह इति। विशे। (जीवस्यैकत्वनिराकरणयुक्ति: 'एगावाइ' शब्दे तृतीय-भागे 34 पृष्ठे वक्ष्यते) अथ "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानु-विनश्यति; न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति" इत्यावेद दिवाक्यार्थमनुभाव-यतस्त्यजतोऽपि मम संशयोऽतिविरोधिताहित इव पृष्ठं न मुञ्चति, तत्किं करोमि? इति चेत्तदयुक्तं कुत:? इत्याहगोयम! वेयपयाणं, इमाण अत्थं च तं नयाणासि। जं विश्नाणघणो चिय, भूएहिंतो समुत्थाय / / 1588 // मनसि मज्जंगेसु व, मयभावो भूयसमुदउन्मूओ। विण्णाणमेत्तमाया, भूएऽणुविणस्सई सम्भूओ॥१५८९ / / अत्थि न ये पेच सण्णा, जं पुष्वभवेऽभिहाणममुगो त्ति। जं भणियं न भवाओ, भवंतरं जाइ जीवो त्ति // 1590 // गौतम ! इत्यामन्त्रणम्, वेदपदानाम् - श्रुतिवाक्यानाममीषां "विज्ञानधन एवैतेभ्यः' इत्यादीनां चेतसि वर्तमानानामर्थ यथास्थितं त्वं जानासि-नावबुध्यसे। किमिति? अत आह-यद्यस्मात्त्वमात्माभिप्रायेणैवंभूतमिहार्थमन्यसे विकल्पयसीति संबन्धः / कथंभूतम्? इत्याह'विण्णाणघणो चिय' त्ति पृथिव्यादिभूतानां विज्ञानलवसमुदायो विज्ञानघन: पृथिव्यादिवि- ज्ञानांशानां पिण्ड इत्यर्थः अवधारणं त्वात्मवादिपरिकल्पितस्य भूतसमुदायातिरिक्तस्य ज्ञानदर्शनादिगुणाश्रयस्यात्मनो निरा- सार्थम् / भूतेभ्य:- पृथिव्यादिभ्यः समुदितेभ्यो न तु व्यस्तेभ्यो, ज्ञानस्य तत्समुदायपरिणामाङ्गीकारादिति भावः, मद्याङ्गेषु- मद्ययकारणेषु धातक्यादिषु मद्भाव इव, कथंभूतो विज्ञानघन:? इत्याह- 'भूयसमुदउब्भूओ विण्णाणमेत्तमाय' त्ति - भूतसमुदा यादुद्भूतस्तदैव जातो न तु परभावात्कश्चिदायातो; विज्ञानमात्ररूप आत्मेत्यर्थः, समुत्थाय- उत्पद्य ततस्तान्येवपृथिव्यादिभूतानि विनाशमश्नुवानान्यनु लक्षीकृत्य भूयःपुनरपि स विज्ञानधनो-विज्ञानामात्ररूप: आत्मा विनश्यति, न त्वात्मवादिनामिवान्यभवं याति / अत एव न प्रेत्य भवेपरभवे संज्ञास्ति, यत्पूर्वभवे नारकादिजन्मन्यभिधानमासीत्तत्परभवे नास्ति, यदुत-अमुको नारको देवो वा भूत्वा इदानीं मनुष्य: संवृत्त इत्यादि, नारकादेः प्रागेव सर्वनाशं नष्टत्वादिति भाव: किमिह वाक्ये तात्पर्यवृत्त्या प्रोक्तं भवति? इत्याह'जं भणियमि त्यादि सर्वथात्मन: समुत्पद्य विनष्टवान्न भवाद्भवान्तरं कोऽपि यातीत्युक्तं भवति। यद्येवभूतमस्य वेदवाक्यस्यार्थमहम वगच्छामि तत: किम् ? इत्याहगोयम ! पयत्थमेवं मन्नंतो नऽत्थि मन्नसे जीवं। वक्कंतरेसु य पुणो, मणिओ जीवो जमत्थि त्ति ||1591 / / अग्गिहवणाइकिरिया-फलंच तो सेसयं कुणसि जीवे / मा कुरु न पयत्थोऽयं, इमं पयत्थं निसामेहि / / 1592 / / गौतम! अस्य वाक्यस्य दर्शितरूपमेव पदार्थं मन्यमानस्त्वं 'नास्ति' इत्येवं जीवं मन्यसे। यस्माच पुन: "नह वैसशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत:" इत्यादिषु वेदवाक्यान्तरेषु 'अस्ति' इत्येवं जीवो भणित:- प्रतिपादितः, तथा"अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यादिवचनादग्रिहवनादिक्रियायाः फलं च पारभविक श्रूयते / न चेदं भवान्तरयायिनमात्मानमनन्तरेणोपपद्यते। अत: किं जीव: अस्ति,नास्ति वा इत्येवं संशयं जीवे करोषि त्वम्; तदमुं मा कृथा: यस्माद् "विज्ञानघन एव "इत्यादिवाक्यस्य नाऽयमों यं भवानध्यवस्यति; किंत्वमुम्-वक्ष्यमाणं पदार्थमिह निशमय-आकर्णयेति। तमेवदर्शयतिविण्णाणाओऽणण्णो, विण्णाणघणो त्तिसव्वओवाऽवि॥ स भवइ भूएहितो, घडविण्णाणाइभावेण / / 1993 / / ताई चिय भूयाई, सोऽगणुविस्सइ विणस्समाणाई / अत्यंतरोवओगे, कमसो विण्णेयभावेणं // 1594 / / इह विज्ञानधनो जीव उच्यते। कथम? इति चेत् उच्यते-विशिष्टं ज्ञान विज्ञानं, ज्ञानदर्शनोपयोग इत्यर्थः, तेन विज्ञानेन सहानन्यभूतत्वादेकतया घनत्वं निविडत्वमापन्नो विज्ञानघनो जीव: उच्यते / यदि वा'सव्वओ वा वि' त्ति-सर्वत: प्रतिप्रदेशमनन्तान्तविज्ञानपर्यायसंघातघटितत्वाद्विज्ञानधनो जीव: / एवकारेण तु विज्ञानघन एवासौ, न तु नैयायिकादीनामिव 'स्वरूपेण निर्विज्ञानत्वाज्जडोऽसौ, बुद्धिस्तु तत्र समवेतैव' इति नियम्यते। स भवति उद्यत इति क्रिया। केभ्य? इत्याह'भूएहितो त्तिभूतानीह घटपटादिज्ञेयवस्तुरूपाण्यभिप्रेतानि, तेभ्योज्ञेय Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 202 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता भावेन परिणतेभ्यः / केन भवति? इत्याह 'घटोऽयं' 'पटोऽ- यमि' त्वादिविज्ञानभावेन-घटादिज्ञानपर्यायेण / ततः किम्? इत्याशङ्कय तान्येवानुविनश्यतीत्यस्यार्थमाह- 'ताई चिए' त्यादि, तान्येव ज्ञानालम्बनभूतानिघटादिभूतानि क्रमश:- कालक्रमेण व्यवधानस्थगनाऽन्यमनस्कत्वादिनार्थान्तरोपयोगे सति विज्ञेयभावेन-ज्ञानविषयभावेन विनाशमश्नुवानानि अनुपश्चात्- तद्बोधपर्यायेण, स विज्ञानघनो विनश्यतीति संबन्धः / ज्ञानपयिण घटादिभ्यो ज्ञेयभूतेभ्यो जीव: समुत्थाय कालक्रमाद् व्यवधानादिना अर्थान्तरोपयोगे सति ज्ञेयभावेन तान्येव विनाशमश्नुवानान्यनुविनश्यतीति तात्पर्यार्थः / किमित्थं सर्वथाऽयमात्मा विनश्यति? न इत्याहपुवावरविण्णाणो-वओगओ विगमसंभवसहाओ। विण्णाणसन्तईए, विणाणघणोऽयमविनासी॥१५९५ / / एक एवायमात्मा त्रिस्वभावः / कथम्? इत्युच्यतेअर्थान्त-रोपयोगकाले पूर्व विज्ञानोपयोगेन तावदयं विगमस्वभावो-विनश्वररूपः, अपरविज्ञानोपयोगतस्तुसंभवस्वभाव उत्पाद-स्वरूपः,अनादिकालप्रवृत्तसामान्यविज्ञानमात्रसंतत्या पुनरयं विज्ञानघनो जीव: अविनष्ट एवावतिष्ठते / एवमन्यदपि सर्व वस्तूत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावमेवावगन्तव्यम्, न पुन: किमपि सर्वधात्पद्यते विनश्यति चेति। 'न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' इत्येतद्व्याचिख्यासुराहनच पेच नाणसन्ना-ऽवतिट्ठए संपओवओगाओ। विण्णाणघणाभिक्खो,जीवोऽयं वेयपयभिहिओ।।१५९६ / / नच प्रत्येति- न चान्यवस्तूपयोगकाले प्राक्तनी ज्ञानसंज्ञाऽस्ति कुत:? सांप्रतवस्तुविषयोपयोगात् / इदमुक्तं भवति यदा घटोपयोगनिवृत्ती पटोपयोग उत्पद्यते, तदा घटोपयोगसंज्ञा नास्ति, तदुपयोगस्य निवृत्तत्वात्; किं तुपटोपयोगसंहवास्ति, तदुपयोगस्यैव तदानीमुत्पनत्वात्। तस्माद्विज्ञानघनाऽभिख्यो वेदपदेष्वभिहितोऽयं जीवः। ततो गौतम! प्रतिपद्यस्व एनमिति। पुनरपहि प्रेर्यमाशय परिहरन्नाहएवं पि भूयधम्मो, नाणं तब्भावभावओ बुद्धी। तन्नो तदभावम्मि वि, जं नाणं वेयसमयम्म् i // 1597 / / अत्थमिए आइचे, चंदे संतासु अम्गिवायासु। किं जोइरयं पुरिसो, अप्पजोइ त्ति निद्दिट्टो // 1598 / / 'बुद्धी' ति स्याद् बुद्धि: प्रेकरस्य-एवमपि 'स भवइ भूयेहितो' इत्यादिना युष्मद्व्याख्यानप्रकारेणापीत्यर्थः, पृथिव्यादिभूतधर्म एवं ज्ञानं भूतस्वाभावात्मकमेव ज्ञानमिति भावः / कुत इत्याह'तभावभावउ' त्ति-एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु-विनश्यतीति वचनाद्भूतसद्भावे ज्ञानस्य भावात् तदभावे चाभावा-दित्यर्थः, यस्य च भावे एव यद्भवति, अभावे च न भवति तत्तस्यैव धर्मो, यथा चन्द्रमसश्चन्द्रिका, तथा च ज्ञान-मनुविदधाति भूतान्वयव्यतिरेको, तस्मात्तद्भूतधर्म एव / तदयुक्तम्, विशिष्टमेव हि नीलपीतादिभूतग्राहक ज्ञानं तदन्वयव्यतिरेकावनुविदधातिन तुसामान्य ज्ञानमात्रम्, यस्माद, भूताभावेऽपि वेदलक्षणे समये सिद्धान्ते 'सामान्यज्ञानं भणितमेव' इति शेष: केन वाक्येन इत्याह-'अत्थमिए' इत्यादि, अस्तमिते आदित्ये, याज्ञवल्क्यश्चन्द्रमस्यस्तमिते, शान्तेऽग्नौ, शान्तायां वाचि, किं ज्योतिरेवायं पुरुषः, आत्मज्योति: सम्राडिति होवाच, ज्योति रितिज्ञानामाह / आदित्याऽस्तमयादौ किं ज्योति:? इत्याह-'अयं पुरुष' इति, पुरुषः, आत्मेत्यर्थः / अयं च कथंभूत? इत्याह-'अप्पज्जोइ' त्ति-आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमात्म-ज्योति:-ज्ञानात्मक इति हृदयम्, निर्दिष्टो वेदविद्भिः कथितः, ततो न ज्ञानं भूतधर्मा इति स्थितम् / इतश्च न ज्ञानं भूतधर्माः, कुत ? इत्याहतदभावे भावाओ, भावे चाभावओ न तद्धम्मो। जह घडभावाऽभावे, विवज्जयाओ पडो भिन्नो ||1599 / / नभूतधर्मो ज्ञानम्, मुक्त्यवस्थायां भूताभावेऽपि भावात्, मृतशरीरादौ तद्भावेऽपि चाभावात्, यथा घटस्य धर्म: पटोन भवति, किंतु तस्मादिन्न एव / कुत:? इत्याह- घटभावाभावे विपर्ययात्-घटभावेऽप्यभावात तदभावेऽपि च भावादित्यर्थः / विशे। आम. I आव / कल्प० / (विशेषस्त्वत्र सम्म-तितर्कग्रन्थादवसेय:) (13) अभौतिकत्वमात्मन:(पञ्चभूताद् व्यतिरिक्तो गन्धरसोरूपस्पर्शशब्दरूपः भिन्नो न कश्चित् पदार्थ:)एए पचं महन्भूया, तेव्भो एगो त्ति आहिया। अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणोद। 'एए पञ्च महाभूया' इत्यादि, एतानि-अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि पञ्चमहाभूतानि यानि तेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यः एकः कश्चिचिद्रूपो भूताऽव्यतिरिक्त आत्मा भवति; न भूतेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपरः कश्चित्पर:परकल्पित: परलोकानुयायी सुखदु:खभोक्ता जीवाख्यः पदार्थोऽस्तीत्येवमाख्यातवन्तस्ते, तथाहि-एवं प्रमाणयन्ति-नपृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्मास्ति, तद्ग्रहकप्रमाणाभावात, प्रमाणं चात्र प्रत्यक्षमेव, नानुमानादिकम्, तत्रेन्द्रियेण साक्षादर्थस्य संबन्धाभावाद्व्यभिचारसंभवः / सति च व्यभिचारसंभवे सदृशे च बाधासंभवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्यादिति सर्वत्रानाश्वासः / तथाचोक्तम्-"हस्तस्पर्शादिबान्धेनविषमे पथि धावता। अनुमानप्रधानेन, विनिपातो न दुर्लभ:" // 1 // अनुमानं चात्रोपलक्षणमागमादीनामपि / साक्षादर्थसंबन्धाभावाद्ध-स्तस्पर्शनेव प्रवृत्तिरिति। तस्मात्प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं, तेन च भूतव्यतिरिक्तस्यात्मनो न ग्रहणम् / यत्तु चैतन्यं तेषूपलभ्यते तद्भूतेष्वेव कायाकारपरिणतेष्वभिव्यज्यते मद्याङ्गेषु समुदितेषु मदशक्तिवदिति / तथा न भूतव्यतिरित्तं चैतन्यं तत्कार्यत्वाद् घटादिवदिति तदेवं भूतव्यतिरिक्तस्यात्मनोऽभावाद् भूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिर्जलस्य बुदबुदाभिव्यक्तिवदिति / केषांचिल्लोकायतिकानामाकाशस्यापि भूतत्वेनाभ्युपगमाद्भू-तपञ्चकोपन्यासो न दोषायेति। ननुचयदिभूतव्य Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 203 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता तिरिक्तोऽपरः कश्चिदात्माख्य: पदार्थो न विद्यते कथं तर्हि मृत इति व्यपदेश इत्याशङ्कयाह-अथैषां कायाऽऽकारपरिणतौ चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तदूर्ध्वं तेषामन्यतमस्य विनाशे-अपगमे वायोस्तेजसश्च उभयो देहिनोदेवदत्ताख्यस्य विनाश:-अपगमो भवति, ततश्च: मृतइति व्यपदेश: प्रवर्तते, न पुनर्जीवापगम इति भूताऽव्यतिरिक्त चैतन्यवादिपूर्वपक्ष इति। अत्र प्रतिसभाधानार्थ नियुक्तिकृदाहपंचण्हं संजोए, अण्णगुणाणं च चेयणाइगुणो। पंचिंदियठाणाणं, ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो ||33 / / 'पंचण्हं संजोए' इत्यादि, पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूतानां संयोगेकायाकारपरिणामे चैतन्यादिक:। आदिशब्दात्भाषा- चक्रमणादिकश्च गुणो न भवतीति प्रतिज्ञा, अन्यादयस्त्वत्र हेतुत्वेनोपात्ताः / दृष्टान्तस्त्वभ्यूह्य:, सुलभत्वात्तस्य नोपादानम् / तत्रेदं चार्वाक: प्रष्टव्य:यदेतद्भूतानां संयोगे चैतन्यमभिव्यज्यते तत्किं तेषां संयोगेऽपि स्वातन्त्र्य एव, आहोस्वित् परस्परापक्षया पारतन्त्र्ये इति। किंचात:? न तावत्स्वातन्त्र्ये, यत आह- 'अन्नगुणाणं चे' ति-चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणानि, तथाहि-आधारकाठिन्यगुणा पृथिवी, द्रवगुणा आपः, पक्तृगुणं तेज:, चलनगुणो वायुः, अवगाहदानगुणमाकाशमिति। यदि वा प्रागभिहिता गन्धादयः पृथिव्यादीनामेकैकपरिहान्याऽन्ये गुणाश्चैतन्यादिति, तदेवं पृथिव्यादीन्यन्यगुणानि, चशब्दो द्वितीयविकल्पवक्तव्यतासूचनार्थः, चैतन्यगुणे साध्ये पृथिव्यादीनामन्यगुणानां सतां चैतन्यगुणस्य पृथिव्यादीना- मेकैकस्याप्यभावान्न तत्समुदायाचैतन्याख्यो गुण: सिद्ध्यतीति, प्रयोगस्तत्र भूतसमुदाय: स्वातन्त्र्ये सति धर्मित्वेनोपादीयते, न तस्य चैतन्याख्यो गुणोऽस्तीति साध्यो धर्मः, पृथिव्या दीना-मन्यगुणत्वात्, यो योऽन्यगुणानां समुदायस्तत्र तत्राऽपूर्वगुणोत्पत्तिर्न भवतीति, यथा सिकतासमुदायै स्निग्धगुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये वा न स्तम्भाद्याविर्भाव इति, दृश्यते चा काये चैतन्यं, तदात्मगुणो भविष्यति, न भूतानामिति। अस्मिन्नेव साध्ये हेत्तवन्तरमाह-'पंचिंदिय-ठाणाणं' ति-पञ्चचतानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रात्रा ख्यानीन्द्रियाणि तेषां स्थानानि- अवकाशास्तेषां चैतन्य गुणाभावान्न भूतसमुदाये चैतन्यम्। इदमत्र हृदयम्- लोकायतिकानां हि अपरस्य द्रष्टुरनध्युपगमादिन्द्रियाण्येव द्रष्ट्र णि / तेषां च यानि स्थानान्युपादानकारणानितेषामचिद्रूपत्वान्न भूतसमुदाये चैतन्यमिति, इन्द्रियाणां चामूनि स्थानानि / तद्यथा- श्रोत्रेन्द्रियस्याकाशं सुषिरात्मकत्वात्, घ्राणेन्द्रियस्य पृथिवी तदात्मकत्वात्, चक्षुरिन्द्रियस्य तेजस्तद्रूपत्वात्, एवं रसनेन्द्रियस्याऽऽप: स्पर्शनेन्द्रियस्य वायुरिति / प्रयोगश्चात्र- नेन्द्रियाण्युपलब्धिमन्ति तेषामचेतनगुणाऽऽरब्धत्वात्, यद्यदचेतनगुणाऽऽरब्धं तत्तदचेतनम्, यथा घटपटादीनि / एवमपि च भूतसमुदाय चैतन्याभाव एव साधितो भवति, पुनर्हेत्वन्तरमाह- 'ण अण्णमुणियं मुणइ अण्णो' त्ति- इहेन्द्रियाणि प्रत्येकं भूतात्मकानि तान्येवापरस्य द्रष्टुरभावाद्र्ष्ट्रणि तेषांच प्रत्येकं स्वविषग्रहणादन्यविषये चाप्रावृत्ते न्यदिन्द्रियज्ञातमन्यदिन्द्रियं जानातीत्यतो मया पञ्चापि विषया ज्ञाता इत्येवमात्मक: संकलनाप्रत्ययो न प्राप्नोति, अनुभूयते चायं, तस्मादेकेनैव द्रष्टा भवितव्यम्, तस्यैव च चैतन्यं न भूतसमुदायस्येति, प्रयोग: पुनरेवम्-न भूतसमुदाये चैतन्यं, तदारब्धेन्द्रियाणां प्रत्येक-विषयग्राहित्वे सति संकलना- प्रत्ययाभावात्, यदि पुनरन्यगृहीतमप्यन्यो गृह्णीयादेवदत्तगृहीतं यज्ञदत्तेनापिगृह्येतन चैतद्दृष्टमिष्टं चेति / ननु च स्वातन्त्र्यपक्षेऽयं दोषः / यदा पुन: परस्पर-सापेक्षाणां संयोगपारतन्त्र्याभ्युपगमेन भूतानामेव समुदि तानां चैतन्याख्यो धर्म: संयोगवशादाविर्भवति, यथा किंण्वोदकादिषु मद्याङ्गेषु समुदितेषु प्रत्येकमविद्यमानापि मदशक्तिरिति तदा कुतोऽस्य दोषस्यावकाश इति / अत्रोत्तरम् गाथो पात्तचशब्दाऽऽक्षिप्तमभिधीयते यत्तावदुक्तं यथा भूतेभ्य: परस्परव्यपेक्षसंयोगभाग्भ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते,तत्र विकल्पयाम:किमसौ संयोग: संयोगिभ्यो भिन्न: अभिन्नो? वा भिन्नश्चेत्षष्ठभूतप्रसङ्गो नचान्यत्पञ्चभूतव्यतिरिक्तसंयोगाख्य- भूतग्राहंक भवतां प्रमाणमस्ति प्रत्यक्षस्यैवैकस्याभ्युपगभात्तेन च तस्याग्रहणात् प्रमाणान्तराभ्युपगमे च तेनैव जीवस्यापि ग्रहणमस्तु तथाऽभिन्नो भूतेभ्यो भूतानामेव संयोगस्तत्राप्येतचिन्तनीयं किं भूतानि प्रत्येकं चेतनावन्ति, अचतेनावन्तिवा यदि चेतनावन्ति तदा एकेन्द्रियसिद्धिस्तदा समुदायस्य पञ्चप्रकारचैतन्यापत्तिः, अथअचेतनानि तत्रोक्तो दोषो न हि यद्यत्र प्रत्येकमविद्यमानं तत्समुदाये भवदुपलभ्यतेसिकतासुतैलवदित्यादिना। यदप्यत्रोक्तम्-यथामध्याङ्गेष्वविद्यमानाऽपि प्रत्येकंमदशक्ति: समुदाये प्रादुर्भवतीति / तदप्ययुक्तम्, यतस्तत्र किंण्वादिषु या च यावती शक्तिरुपलभ्यते, तत्राहि-किण्वे दुभुक्षापनयनसामर्थ्य भ्रमिजननसामर्थ्य चोदकस्य तृडपनयनसामर्थ्यमित्यादिनेति, भूतानां प्रत्येक चैतन्याऽनभ्युपगमे दृष्टान्तदाान्तिकयोरसाम्यम् / किं चभूतचैतन्याभ्युपगमे मरणाऽभावो, मृतकायेऽपि पृथिव्यादीनां भूतानां सद्भावात्, नैतदस्ति, तत्र-मृतकाये वायोस्तेजसो वा अभावान्मरणसद्भाव इत्यशिक्षितस्योल्लाप: / तथाहि-मृतकाये शोफोपलब्धेर्न वायोरभाव: कोथस्य च पक्तिस्वभावस्य दर्शनान्नाग्ने रिति, अथ सूक्ष्मः कश्चिद्वायुविशेषो निर्वा ततोऽपगत इति मतिरित्येवं च जीव एव नामान्तरेणाभ्युपगतो भवति, यत् किंचिदेतत्। तथानभूतसमुदायमात्रेण चैतन्याविर्भाव: पृथिव्यादिष्येकत्र व्यवस्था-पितेष्वपि चैतन्यानुपलब्धेः / अथ कायाकारपरिणतौ सत्यां तदभिव्यक्तिरिष्यते, तदपि न यतो लेप्यमयप्रतिमायां समस्तभूतसद्भावेऽपि जडत्वमेवोपलभ्यते। तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामालोच्यमानो नायं चैतन्याख्यो गुणो भूतानां भवितुमर्हति, समुपलभ्यते चायं शरीरेषु / तस्मात् पारिशेष्यात् जीवस्यैवायमिति स्वदर्शनपक्षपातं विहाया- ङ्गीक्रियतामिति।यचोक्तं प्राग् नपृथिव्यादिव्यतिरिक्तआत्मा-स्ति,तद्ग्राहकप्रमाणा-भावात्, प्रमाणंचात्र प्रत्यक्ष-मेवैकमित्यादि, तत्र प्रतिविधीयते- यत्तावदुक्तम्- 'प्रत्यक्षमेवैकं Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 204 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता प्रमाणं नानुमानादिकम्' इत्येतदनुपासितगुरोवर्चः / तथाहि- क्रियाणां समवायिकारणं पदार्थ:, स चात्मेति, तदेवं प्रत्यक्षानुमानाअर्थाऽविसंवादकं प्रमाणमित्युच्यते, प्रत्यक्षस्य च प्रामाण्य- दिपूर्विकाऽन्याप्य-पत्तिरभ्यूह्या / तस्यास्त्विदं लक्षणम् - मेवं व्यवस्थाप्यते / काश्चित्प्रत्यक्षव्यक्तीर्धर्मित्वेनोपादाय प्रमाणयति- 'प्रमाणषट्कविज्ञातो, यत्राऽर्थो नाऽन्यथाभवन् / अदृष्टं कल्पयेदन्यं, प्रमाणमेता अर्थाऽविसंवादकत्यादनुतप्रत्यक्ष-व्यक्तिवत्।नचताभिरेव सार्थापत्ति-रुदाहृता" ||1|| तथाऽऽगमादप्य- स्तित्वमवसेयम् / स प्रत्यक्षव्यक्तिभि: स्वसंविदिताभिः परं व्यवहारयितुमयमीशस्तासां चायमागम:- "अत्थि मे आया उववाइए'' इत्यादि / यदि वास्वसन्निविष्टत्वान्मूकत्वाच / प्रत्य-क्षस्य नानुमानं प्रमाणमित्य- किमत्राऽपर- प्रमाणचिन्तया? सकलप्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यनुमानेनैवानुमाननिरासं कुर्वंश्चार्वाक; कथं नोन्मत्त: स्यात्? एव ह्यसौ क्षेणैवात्माऽस्तीत्यवसीयते / तद्गुणस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वात् / तदप्रामाण्यं प्रतिपादयेत् / यथा नानुमानं प्रमाणं विसंवादकत्वादनु- ज्ञानगुणस्य च गुणिनोऽनन्यत्वात् प्रत्यक्ष एवाऽऽत्मा रूपादिगुणप्रत्यक्षभूतानुमानव्यक्तिवदित्येतचा-नुमानम्, अथ परप्रसिध्यैतदुच्यते त्वेन पटाऽऽदिप्रत्यक्षवत्, तथाहि- अहं सुखी अहं दु:खी तदयुक्तम्, यतस्तत्पर-प्रसिद्धमनुमानं भवत: प्रमाणम्; अप्रमाणं वा? एवमाद्यहंप्रत्ययग्राह्यश्चात्मा प्रत्यक्षः, अहंप्रत्ययस्य स्वसंविद्रूपत्वादिति। प्रमाणं चेत्कथम-नुमानप्रमाणमित्युच्यते, अथाऽप्रमाणं कथमप्रमाणेन ममेदं शरीरं पुराणं कर्मेति च शरीराद्भेदेन निर्दिश्यमानत्वादित्यासता तेन परः प्रत्याय्यते ? परेण तस्य प्रामाण्येनाभ्युपगतत्वादिति दीन्यन्यान्यपि प्रमाणानि जीवसिद्धाव- भ्यूह्यानीति। तथा यदुक्तमन चेतदप्यसांप्रतम्, यदि नाम परो मौढ्यादप्रमाणमेव प्रमाणमित्य- भूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं तत्कार्यत्वात् घटादिवदिति, एतदप्यसमीचीनम्, ध्यवस्यति किं भवताऽतिनिपुणेनापि तेनैवाऽसौ प्रतिपाद्यते ? यो ह्यज्ञो हेतोर-सिद्धत्वात्, तथाहि-न भूतानां कार्य चैतन्यं, तेषामतद्गुणत्वात् गुडमेव विषमिति मन्यते किं तस्य मारयितुकामेनापि बुद्धिमता गुड एव भूतकार्यचैतन्ये संकलनाप्रत्ययासंभवाच इत्यादिनोक्तप्रायम्, दीयते? तदेवं प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्याप्रमाण्ये व्यवस्थापयतो अतोऽस्त्यात्मा भूतव्यतिरिक्तो ज्ञानाधार इति स्थितम् / ननु च किं भवतोऽ-निच्छतोऽपि बलादायातमनुमानस्य प्रामाण्यम्। तथा स्वर्गा ज्ञानाधारभूतेनात्मना ज्ञानाद्भिन्नेनाश्रितेन? यावता ज्ञानादेव पवर्गदेवतादेः प्रतिषेधं कुर्वन् भवान् केन प्रमाणेन करोति ? न सर्वसंकलनाप्रत्ययादिकं सेत्स्यति, किभात्मनान्तर्गडु कल्पेतावत्प्रत्यक्षेण प्रतिषेधः कर्तुपार्यते, यतस्तत्प्रत्यक्ष प्रवर्समानंवा तनिषेधं नेति। तथाहि-ज्ञानस्यैव चिद्रूपत्वाद् भूतैरचेतनैः काया-कारपरिणत: विदध्यानिवर्तमानं वा ? न तावत्प्रवर्तमानं, तस्याऽभावविषयत्व सह संबन्धे सति सुखदुःखेच्छा-द्वेषप्रयत्नक्रिया: प्रादुष्यन्ति तथा विरोधात् नापि निवर्तमानम्, / यतस्तच नास्ति तेन च संकलनाप्रत्ययो भवान्तरगमनं चेति / तदेवं व्यवस्थिते किमात्मना प्रतिपत्तिरित्यसङ्गतम् / तथाहि- व्यापकविनिवृत्तौ व्याप्यस्यापि कल्पितेनेति? अत्रोच्यते- न ह्यात्मान-मेकमाधारभूतमन्तरेण निवृत्तिरिष्यते, नचार्वाकदर्शितप्रत्यक्षेण समस्तवस्तुव्याप्ति: संभाव्यते, संकलनाप्रत्ययो घटते, तथाहि-प्रत्येकमिन्द्रियैः स्वविषयग्रहणे सति तत्कथं प्रत्यक्षविनिवृत्तौ पदार्थव्यावृत्तिरिति?। तदेव स्वर्गाऽऽदेः प्रतिषेधं परविषये चाप्रवृत्तेरेकस्य च परिच्छेत्तुरभावात् / मया पञ्चापि विषया: कुर्वता चावविणाऽवश्यं प्रमाणान्तरमभ्युपगतम् / तथाऽन्याभिप्राय परिच्छिन्ना इत्यात्मकस्य संकलनाप्रत्ययस्याभाव इति / विज्ञानाभ्युपगमादत्र स्पष्टमेव प्रमाणान्तरमभ्युपगतम् / अन्यथा कथं आलयविज्ञानमेकमस्तीति चेत्, एवं सत्यात्मन एव नामान्तरं भवता परावबोधाय शास्वप्रणयनमकारि चावकिणत्य- लमतिप्रसङ्गेन। तदेवं कृतं स्यात्।नच ज्ञानाख्यो गुणो गुणिनमन्तरेण भवतीत्यवश्यम् आत्मना प्रत्यक्षादन्यदपि प्रमाणमस्ति तेनात्मा सेत्स्यति किं पुनस्तदिति चेत्, गुणिना भाव्यमिति / सूत्र.१ श्रु.१ अ / सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यउच्यते-अस्त्यात्मा, असाधारण- तद्गुणोपलब्धे:, चक्षुरिन्द्रियवत्। चित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् क्षितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वजवत् / एवं चक्षुरिन्द्रियं हि न साक्षा-दुपलभ्यते। स्पर्शनादीन्द्रियाऽसाधारणरूप चन्द्रसूर्योपरागादि सूचकज्योतिर्मानाविसंवादान्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतविज्ञानोत्पादन-शक्त्यात्वनुमीयते। तथाऽऽत्मापि पृथिव्याद्यसाधारण योऽपि हेतवो वाच्या: / तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगम: प्रमाणमेव। चैतन्य-गुणोपलब्धरस्तीत्यनुमीयते, चैतन्यं च तस्यासाधारणगुण तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनम्: "रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा इत्येतत्पृथिव्यादिभूतसमुदाये चैतन्यस्य निराकृतत्वादवसेयम् / वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् / यस्य तु नैते दोषा- स्तस्यानृतकारणं किं तथाऽस्त्यात्मा समस्तेन्द्रियोपलब्धार्थसंकलनाप्रत्ययसद्भावात् / स्यात्" // 1 // इति वचनात् / प्रणेतुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेव / इति पश्चगवाक्षानन्यो पलब्धार्थसंकलनाविधाय्येक देवदत्तवत्, सिद्ध आगमादप्यात्मा- "एगे आया" इत्यादिवचनात् / तदेवं तथाऽत्माऽर्थद्रष्टा नेन्द्रियाणि / तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थस्म-रणात, प्रत्यक्षानुमानागमै: सिद्ध:प्रमाता। स्या०१७ श्लोक। गवाक्षोपरमेऽपि तद्द्वारोपोलब्धार्थस्मर्तृदेवदत्तवत्। तथाऽर्थापत्त्याप्या- प्रमाता प्रत्यवादिप्रसिद्ध आत्मा।।५।। त्मास्तीत्यवसीयते, तथाहि- सत्यपि पृथिव्यादिभूतसमुदाये अतति-परापरपर्यायान् सततंगच्छातीत्यात्मा-जीवः / रत्ना.७ परिः / लेप्यकर्मादौ न सुखदु:खेच्छाद्वेषप्र-यत्नादिक्रियाणां सद्भाव इत्यत: (अस्य टीका रत्नाकरावतारिकाग्रन्थादवसेया) (शून्यवादनिराकरणसामर्थ्यादवसीयते / अस्ति भूतातिरिक्त: कश्चित्सुखदुःखेच्छादीनां / पूर्विकाऽऽत्मत्वसिद्धिः विस्तरत: स्याद्वादमञ्जरीग्रन्थादवसेया) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 205 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता (14) साम्प्रतं कस्या दिश आगतोऽहमिति प्रकृतमनुस्रियते / यो हि 'सोऽहम्' इत्यनेनाहङ्कारज्ञानेनात्मोल्लेखेन पूर्वादिदिश आगतमात्मानमवच्छिन्नसन्ततिपतितं द्रव्यार्थतया नित्यम् / पर्यायार्थतया त्वनित्यं जानाति स परमार्थत आत्मवादीति / सूत्रकृद्दर्शयतिअस्थि मे आया उववाइये, जो इमाओ दिसाओ अणुदि-साओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोहं (सूत्र४४) आचा०१ श्रु.१ अ०१०ऊ / (अस्य सूत्रस्य व्याख्या चतुर्थभागात् -2526 पृष्ठे करिष्यमाणादवगन्तव्या) से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी / (सूत्र-५)। 'से' इति-यो भ्रान्तः पूर्वं नारकतिर्यनरामराद्यासु भावदिक्षु पूर्वाद्यासु च प्रज्ञापकदिक्षु अक्षणिकामूर्तादिलक्षणोपेत-मात्मानमवैति स इत्थंभूत आत्मवादीति आत्मानं वदितुं शीलमस्येति / यः पुनरेवंभूतमात्मानं नाभ्युपगच्छति। सोऽना- त्मवादी; नास्तिक इत्यर्थः। योऽपि सर्वव्यापिनं नित्य क्षणिकं वाऽऽत्मानमभ्युपैति; सोऽप्यनात्मवाद्येवयत: सर्वव्यापिनो निष्क्रियत्वाद्भवान्तरसंक्रान्तिर्न स्यात्सर्वथा नित्यत्वेऽपि अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यमिति कृत्वा मरणाऽभावेन गवान्तरसंक्रान्तिरेव न स्यात्,सर्वथा क्षणिकत्वेऽपि निर्मूल- विनाशात् सोऽहमित्यनेन पूर्वोत्तरानुसंधानं न स्यात् / य एव चात्मवादी स एव परमार्थतो लोकवादी। यतो-लोकयतीति लोक:-प्राणिगणस्तं वदितुं शीलमस्येत्यनेन चात्माद्वैतवादि- निरासेनात्मबहुत्वमुक्तम्, यदि वालोकाऽपतीति लोक:- चतुर्दशरज्वात्मकः, प्राणिगणो वा, तत्राऽऽपतितुं शीलमस्ये- त्यनेन च विशिष्टाकाशखण्डस्य लोकसंज्ञा वंदिता, तत्र च जीवास्तिकायस्य संभवेन जीवानां गमनागमनमावेदितं भवति / य एव च दिगादिगमनपरिज्ञानेनात्मवादी लोकवादी च संवृत्तः स एवासुमान् कर्मवादी कर्म-ज्ञानवरणीयादि तद्वदितुं शीलमस्य यतो हि प्राणिनो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः पूर्वं गत्या-दियोग्यानि कर्माण्याददते, पश्चात्तासु तासु विरूपरूपासु यो निषूत्पद्यन्ते / कर्म च * प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मक-मवसेयमिति। अनेन च कालयदृच्छानियतीश्वरात्मवादिनो निरस्ता द्रष्टव्याः। तथा य एव कर्मवादी; स एव क्रियावादी / यत: कर्म योगनिमित्तं बध्यते, योगश्च- व्यापार:, स च क्रियारूप:, अत: कर्मण: कार्यभूतस्य वदनात्तत्कारणभूताया: क्रियाया: अप्यसावेव परमार्थतो वादीति क्रियायाश्च कर्मनिमित्तत्वं प्रसिद्धमागमे, स चायमागमः'जावणं भंते ! एस जीवे सया समियं एयइ वेयइ चलति फंदति घट्टति तिप्पति जाव तं तं भावं परिणयति ताव (वं) च णं अवविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छव्वहबंधए वा एकविहबंधए वाणो णं अबंधए' ति। एवं च कृत्वा य एव कर्मवादी स एव क्रियावादीति। अनेन च सायाभिमतमात्मनोऽक्रियावादित्वं निरस्तं भवति। सांप्रतं पूर्वोक्ता क्रियामात्मपरिणतिरूपां विशिष्टकालाभिधायिनातिङ्प्रत्ययेनाभिदधदहंप्रत्ययसाध्यस्यात्मनस्तद्भव एवावधिमन: पर्यायकेवलज्ञानजातिस्मरणव्यति-रेकेणैव त्रिकाल- संस्पर्शिना मतिज्ञानेन सद्भावावगमं दर्शयितुमाह अकरिस्संचहंकारवेसुंचहं करओ आविसमणुन्ने भविस्सामि / (सूत्र-६) इह भूतवर्त्तमानभविष्यत्कालापेक्षया कृतकारितानुमतिभिर्नवविकल्पा: संभवन्ति, ते चामी-अहमकार्षमचीकरमहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञासिषमहं करोमि कारयाम्यनुजानाम्यहमिति करिष्या-म्यह कारयिष्याम्यहं कुर्वन्तमन्यमनुज्ञास्याम्यहमिति, एतेषांच मध्ये आद्यन्तौ सूत्रेणैवोपात्तौ तदुपादानाच तन्मध्यपातिनां सर्वेषां ग्रहणम्, अस्यैवार्थस्याविष्करणाय द्वितीयो विकल्पः / "कारवेसुं चऽहमिति" सूत्रेणोपात्त:, एतेच चकारद्वयोपादानादपिशब्दो-पादानाच मनोवाक्कायैश्चिन्त्यमानाः सप्तविंशति: 27 भेदा भवन्ति, अयमत्र भावार्थ: अकार्षमहमित्यत्राहमित्यने-नात्मोल्लेखिना विशिष्टिक्रियापरिणतिरूप आत्मा अभिहित-स्ततश्चायं भावार्थो भवति-स एवाऽहं येन मयास्य देहादे: पूर्व यौवनावस्थायामिन्द्रियवशगेन विषयविषमोहितान्धचेतसा तत्तदकार्यानुष्ठानपरायणेनानुकूल्यमनुष्ठितम्। उक्तञ्च-"विहवावलेबनडिएहिं, जाई कीरति जोव्वणमएणं / वयपरिणामे सरियाई ताइं हियए खुडुक्कंति" // 1 // तथा अचीकरमहमित्यनेन परोपकार्यादौ प्रवर्तमानो मया प्रवृत्ति कारित:, तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवानित्येवं कृतकारितानुमतिभिर्भूतकालाभिधानं, तथा करोमीत्यादिना वचनत्रि-केण वर्तमानकालोल्लेख:, तथा करिष्यामि कारयिष्यामि कुर्वतोऽन्यान्प्रति समनुज्ञापरायणो भविष्यामीत्यनागत-कालोल्लेख:, अनेन च कालत्रयसंस्पर्शन देहेन्द्रियाति-रिक्तस्यात्मनो भूतवर्तमानभविष्यत्कालपरिणतिरूपस्यास्तित्वावगतिरावेदिता भवति, सा च- नैकान्तक्षणिकनित्य-वादिनांसंभवतीत्यतोऽनेनते निरस्ता: क्रियापरिणामेनात्मनः परिणामित्वाभ्युपगमादिति, एतदनुसारेणैव संभवानुमानादतीतानागतयोरपि भवयोरात्मास्तित्वमवसे यम् / यदि वा-अनेन क्रियाप्रबन्धप्रतिपादनेन कर्मण उपादानभूताया: क्रियायाः स्वरूप-- मावेदितमिति। अथ किमेतावत्य एव क्रिया; उतान्या अपि सन्तीत्येता एवेत्याहएयावंति सटवावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति। (सूत्र-७) एतावन्त: सर्वेऽपि लोकेप्राणिसंघाते कर्मसमारम्भाः क्रिया-विशेषा ये प्रागुक्ता: अतीतानागतवर्तमानभेदन कृतकारिता नुमतिभिश्वाशेषक्रियानुयायिनाच करोतिनासर्वेषां संग्रहा-दित्येतावन्त एवपरिज्ञातव्या भवन्ति; नान्ये इति। परिज्ञा चज्ञप्रत्याख्यानभेदाद्विधा, तत्रज्ञपरिज्ञायामात्मनो बन्धस्य चास्तित्वमेतावद्भिरेव सर्वैः कर्मसमारम्भैज्ञातं भवति प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सर्वे पापोपादानहेतवः कर्मसमारम्भाः प्रत्याख्यातव्या इति / इयता सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाधितम् / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 206 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आता अधुना तस्यैवात्मनो दिगादिभ्रमणहेतूपदर्शनपुरस्सरमपायान प्रदर्शयितुमाह-यदि वायस्तावदात्मकर्मादिवादी स दिगा दिभ्रमणान्मोक्ष्यते इतरस्य तु विपाकान्दर्शयितुमाह अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ अणु दिसाओ अणु संचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति (सूत्र-८) 'अपरिन्नाये' त्यादि, योऽपं पुरि शयनात्पूर्ण: सुखदु:खानां वा पुरुषो जन्तुर्मनुष्यो वा, प्राधान्याच पुरुषस्योपादानम्, उपलक्षणं चैतत्, सर्वोऽपि चतुर्गत्यापन्नः प्राणी गृह्यते दिशोऽनुदिशो वा अनुसञ्चरति, सः अपरिज्ञातकर्माअपरिज्ञातं कर्माऽनेनेत्यपरि-ज्ञातकर्मा, खलुरवधारणे, अपरिज्ञातकमैव दिगादौ भ्राम्यति नेतर इति, उपलक्षणं चैतद् अपरिज्ञाताऽऽत्मा अपरिज्ञात-क्रियश्चेति यश्चापरिज्ञातकर्मा स, सर्वा दिश: सर्वाश्चानुदिश: 'साहेति' स्वयंकृतेन कर्मणा सहानुसञ्चरति, सर्वग्रहणं सर्वासां प्रज्ञापकदिशां भावदिशांच उपसंग्रहार्थम्। सयदाप्नोति तद्दर्शयतिअणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे पडि-संवेदेइ (सूत्र-२) आचा / (कति जीवोत्पत्तिस्थानानि इति 'जोणि' शब्दे चर्तुथ-भागे वक्ष्यते।) एताश्चानेकरूपा योनीदिंगादिषु पर्यटन्न-परिज्ञातकर्माऽसुमान् 'संधेइ' ति-सन्धयति सन्धिं करोत्यात्मना सहाऽविच्छे देन संघट्टयतीत्यर्थः, "सन्धावइत्ति- पाठान्तरं, सन्धावति, पौन:पुन्येन तासु गच्छतीत्यर्थः, तत्सन्धाने च यदनुभवति तदर्शयतिविरूपं वीभत्सममनोज्ञं रूपं स्वरुपयेषां स्पर्शानां दु:खोपनिपातानां ते तथा स्पर्शाश्रिता दुःखोपनिपाता: स्पर्शा इत्युक्तास्तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति कृत्वा उपलक्षणं चैतन्मानस्योऽपि वेदना ग्राह्या अतस्तानेवंभूतान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयतिअनुभवति प्रतिग्रहणात्प्रत्येकं शारीरान्मानसांश्च दु:खोपनिपाताननुभवतीत्युत्तं भवति स्पर्शग्रहणं चेह सर्वसंसारान्तर्वर्तिजीवराशिसंग्रहार्थ, स्पर्शनेन्द्रियस्य सर्वजीवव्यापित्वात्, अत्रेदमपि वक्तव्यं, सर्वान्विरूपरूपान् रसगन्धरूपशब्दान्, प्रतिसंवेदयतीति विरूपरूपत्वञ्च स्पर्शानां कार्यभूतानाम् विचित्रकर्मोदयात् कारणभूताद्भवतीति वेदितव्यं, विचित्र- कर्मोदयाचापरिज्ञातकर्मा संसारी स्पर्शादीन्विरूपरूपांस्तुषु तेषु योन्यन्तरेषु विपाकत: परिसंवेदयतीति, आह च"तै: कर्मभि: सजीवो, विवश: संसारचक्रमुपयाति द्रव्यक्षेत्राद्धाभा-वभिन्नमावर्तते बहुश: // 1 // नरकेषु देवयोनिषु, तिर्यग्योनिषु च मनुजयोनिषु च। पर्यटति घटीयन्त्रव-दात्मा विभ्रच्छरीराणि॥२ सततानुबद्धमुक्तं, दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम्। लिर्यक्षु भयक्षुत्तृड़-बधादिदुःखं सुखं चाल्पम्॥३॥ सुखदु:खे मनुजानां, मन:शरीराश्रये बहुविकल्पे। सुखमयहिदवन्दु मपंच मनमि भवम् ))) कर्मानुभावदुःखित, एवं मोहान्धकारगहनवति। अन्ध इव दुर्गमार्गे, भ्रमति हि संसारकान्तारे॥५॥ दुःखप्रतिक्रिया), सुखाभिलाषाच पुनरपि तु जीवः / प्राणिबधादीन् दोषा-नधितिष्ठिति मोहसंछन्न / / 6 / / बध्नाति ततो बहुविध-मन्यत्पुनरपि नवं सुबहु कर्म। तेनाथ पच्यते पुन-रग्नेरग्निं प्रविश्यैव // 7 // एवं कर्माणि पुन:, पुन: सम्बध्नस्तयैव मञ्चश्च / सुखकामो बहुदु:खं, संसारमनादिकं भ्रमति / / 8 / / एवं भ्रमत: संसा-रसागरे दुर्लभं मनुष्यत्वम्। संसारस्य महत्त्वं, त्वधर्मदुष्कर्मबाहुल्यैः।।९।। आर्यो देश: कुलरूप-सम्पदायुश्च दीर्घमारोग्यम्। यतिसंसर्ग: श्रद्धा, धर्मश्रवणं च मतितक्ष्णयम्।।१०।। एतानि दुर्लभानि, प्राप्तवतोऽपि दृढमोहनीयस्य / कुपथाकुलेऽर्हदुक्तोऽ-तिदुर्लभो जगति सन्मार्गः" // 11 // यदि वा-योऽयं पुरुष: सर्वा दिशोऽनुदिशश्चानुसञ्चरति तथा अनेकरूपा योनी: सन्धावति विरूपविरूपांश्च स्पर्शान् प्रति-संवेदयति 'सोऽविज्ञातकर्मा' अविज्ञातम् -अविदितं कर्म क्रियाव्यापारो मनोवाक्कायलक्षणः अकार्षमहं, करोमि, करिष्या-मीत्येवंरूप: जीवोपमर्दात्मकत्वेन बन्धहेतु: सावधो येन सोऽयम-विज्ञातकर्मा, अविज्ञातकर्मत्वेन च तत्र तत्र कर्मणि जीवोपम-दादिके प्रवर्तते येन येनास्याष्टविधकर्मबन्धो भवति, तदुदया-चानेकरूपयोन्यनुसन्धान विरूपरूपस्पर्शनिभवश्च भवतीति। यद्येवं ततः किमित्यत आहतत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया। (सूत्र-१०) (अस्य सूत्रस्य व्याख्या 'परिण्णा' शब्दे पञ्चमे भागे करिष्यते) आचा० १श्रु०१ अ०१ऊ। अमुमेवार्थ नियुक्तिकृदाहतत्थ अकारि करिस्सं-ति बंधचिंता कया पुणो होइ। सहसंगइया जाणइ कोऽई पुण हेउजुत्तीए / / 67 / / तत्र-कर्मणि-क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह-'अकारि करिस्संति' अकारीति-कृतवान 'करिस्संति' करिष्यामीत्य नेनातीतानागतोपादानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्तमानस्य कारिता-नुमत्योश्वोपसंग्रहात् - नवापि भेदा आत्मपरिणामत्वेन योगरूपा उपात्ता द्रष्ट व्या:, तत्रानेनात्मपरिणामरूपेण क्रियाविशेषेण बन्धचिन्ता कृता भवति बन्धस्योपादानमुपात्तं भवति, "कर्म-योगनिमित्तं बध्यत" इति वचनात्, एतच्च कश्चिज्जानाति आत्मना सह या सन्मति: स्वमतिर्वाऽवधिमनः पयाय केवलिजा-तिस्मरणरूपा तया जानाति, कश्चिच पक्षधर्माऽन्वयव्यतिरेक-लक्षणया हेतुयुक्तयेति। अथ किमर्थमसौ कटुकविपकेषु कर्माश्रवहेतुभूतेषु क्रिया-विशेषेषु प्रवर्तत इत्याहइम्मस चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहे। (सूत्र-११) तत्र जीवितमिति जीवन्त्यनेनायुष्कर्मणेति जीवितंप्राणधारणं, तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमिति कृत्वा प्रत्यक्षासन्नवाधिनाइदमा निदिशातचशब्दो वक्ष्यमाणजात्यादिसमुच्चयार्थ:, एवकारोऽवधारणेअस्यैवजीवितस्यार्थे परि Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 207 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता फल्गुसारस्य तडिल्लताविलसितचञ्चलस्य बह्वयायस्य दीर्घ-सुखार्थ क्रियासु प्रवर्तते। तथा हि-जीविष्याम्यहमरोग: सुखेन भोगान् भोक्ष्ये ततो ध्याध्यपनयनाथ स्नेहापानलावकपिशित-भक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्त्तते, तथा अल्पस्य सुखस्य कृतेऽभिमानग्रहाकुलितचेता बलारम्भपरिग्रहाद् बहशुभं कर्माऽऽदत्ते, उक्तञ्च"द्वे वाससी प्रवरयोषिदपयशुद्धा, शय्यासनं करिवरस्तुरगो रथो वा। काले भिषग्नियमिताशनपानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् / / 2 / / पुष्ट्यर्थमन्नमिह यत्प्रणिधिप्रयोगैः, संत्रासदोषकलुषो नृपतिस्तुभुडेक्त। यन्निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवाऽन्नम् / / 2 / / भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदारितेक्षणासु / विश्रम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशङ्कितमतेः कतरतु सौख्यम्" // 3 // तदेवमनवबुद्धतरुणकिशलयपलाशचञ्चलजीवितरतय: कर्मा- ऽऽश्रवेषु जीवितोपमर्दादिरूपेषु प्रवर्त्तन्ते तथा अस्यैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थहिंसादिषु प्रवर्तन्ते। तथा परिवन्दनम्- संस्तव:; प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहि-अहंमयूरादिपिशिता-शनादली तेजसा देदीप्यमानो देवकुमार इव लोकानां प्रशंसास्पदं भविष्यामीति माननम्अभ्युत्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपं तदर्थं वा चेष्टमानः कर्माऽऽचिनोति, तथा पूजनपूजा द्रविण वस्त्रानपानसत्कारप्रमाणसेवाविशेषरूपं तदर्थच प्रवर्त्तमान: क्रियासु कर्माश्रवैरात्मानं सम्भावयति, तथाहि- वीरभोग्या वसुन्धरेति मत्वा पराक्रमते, दण्डभयात्सर्वाः प्रजा विभ्यतीति दण्डयति, इत्येवं राज्ञामन्येषामपि यथासम्भवमायोजनीयम्, अत्र च वन्दनादीनां द्वन्द्वसमासं कृत्वा तादर्थ्य चतुर्थी विधेया, परिवन्दनमाननपूजनाय जीवितस्य कर्माश्रवेषु प्रवर्त्तन्त इति समुदायार्थः न केवलं परिवन्दनाद्यर्थमेव कर्मादत्ते, अन्या-र्थमप्यादत्त इति दर्शयति-जातिश्च मरण मोचनञ्च जातिमरण-मोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्तादयें चतुर्थी, एतदर्थ च प्राणिन: क्रियासु प्रवर्तमाना: कर्माददते, तत्र जात्यर्थं क्रौञ्चारि-वन्दनादिका: क्रिया विधत्ते; तथा यान् यान् कामान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति तांस्तानन्यजन्मनि पुनर्जातो भोक्ष्यते, तथा मनुना-ऽप्युक्तम्- "वारिदस्तृप्तिमाप्नोति, सुखमक्षयन्नदः / तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुष्कमभयप्रदः" ||1 // अत्र चैकमेव सुभाषितम्- अभयप्रदानमिति; तुषमध्ये कणिकावदिति एवमादिकुमा-र्गोपदेशात् हिंसादौ प्रवृत्तिं विदधाति, तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदानादिषु क्रियासु प्रवर्त्तते, यदि वाममानेन सम्बन्धी व्यापादितस्तस्य वैरनिर्यातनार्थ वधबन्धादौ प्रवर्तते, यदि वा | मरणनिवृत्त्यर्थमालगनो दुर्गाधुपयाचितमजादिना वलिं विधत्ते, यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन तथा मुक्त्यर्थमज्ञानावृतचतस: पञ्चाग्नितपोऽनुष्ठानादिकेषुप्राण्युपमईकारिषु प्रवर्तमान: कर्माऽऽददते, यदि वाजातिमरणयोर्विमोचनाय हिंसादिकाः क्रिया: कुर्वते, "जाइमरणभोयणाए''- त्ति पाठान्तरम् तत्र भोजनार्थं कृष्यादिकर्मसु प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलनप-वनवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियव्यापत्तये व्याप्रियन्त इति / तथा दु:खप्रतिघातमुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेवन्ते, तथा हिव्याधिवेदना लावकपिशितमदिराद्यासेवन्ते तथा वनस्पतिमूलत्वक् पत्रनिर्यासादिसिद्धशतपाकादितैलार्थमन्यादि- सम्मारम्भेण पापं कुर्वन्ति, स्वत: कारयन्त्यन्यैः कुर्वतोऽन्यान् समनुजानत इत्येवमतीतानागतकालयोरपि मनोवाक्काययोगे: कर्माऽऽदानं विदधतीत्यायोजनीयम् / तथा दु:खप्रतिघातार्थमेव सुखोत्पत्त्यर्थंच कलत्रपुत्रगृहोपस्कराधा-ददतेतल्लाभपालनार्थच तासु तासु क्रियासु प्रवर्तमाना: पापकर्माऽऽसेववन्त इति / उक्तञ्च- "आदौ प्रतिष्ठाधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चाद् गृहिणः सुतेषु। कर्तुं पुनस्तेषुगुणप्रकर्ष, चेष्टा तदुच्चैः पदलनाय" // 1 // तदेवंभूतैः क्रियाविशेषैः कर्मोपादाय नानादिक्ष्वनुसञ्चरन्ति अनेकरूपासुचयोनिषुसन्धावन्ति विरूपरूपांश्च स्पर्शान् प्रतिसंवेदयन्ति, इत्येतज्ज्ञात्वा क्रियाविशेषनिवृत्तिर्विधेयेति। एतावन्त एव च क्रियाविशेषा इति दर्शयितुमाहएयावन्ति सव्वान्ति लोगंसि कम्मसमारम्भा पंरिजाणियव्या भवन्ति। (सूत्र-१२) 'एतायंती' त्यादि 'एआवन्ति सव्वावन्ति' इति-एतौ शब्दौ मागधदेशीभाषाप्रसिध्या एतावन्त: सर्वेऽपीत्येत्तत्पर्यायौ एता-वन्त एव सर्वस्मिन लोकधर्माऽधर्मास्तिकायावच्छिन्नै नमः खण्डे ये पूर्व प्रतिपादिताः कर्मसमारम्भा:- क्रियाविशेषा: नैतेभ्योऽधिका: केचन सन्तीत्येवं परिज्ञातव्या भवन्ति, सर्वेषां पूर्वत्रो-पादानादिति भावः, तथाहि- आत्मपरोभयैहिकामुष्मिकाऽतीताऽनागत वर्तमानकालकृतकारिताऽनुमतिभिरारम्भा: क्रियन्ते, ते च सर्वेऽपि प्रागुपात्ता यथा सम्भवमायोज्या इति। एवं सामान्येन जीवास्तित्वं प्रसाध्य तदुपमईकारिणां च क्रियाविशेषाणां बन्धहेतुत्वं प्रदोपसंहारद्वारेण विरतिं प्रतिपाद-यन्नाह जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णाया भवन्ति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। (सूत्र-१३) 'जस्से' त्यादि, भगवान् समस्तवस्तुवेदी केवलज्ञानेन साक्षादुपलभ्यैवमाहयस्यमुमुक्षोरेतेपूर्वोक्ताः कर्मसमारम्भाः क्रिया-विशेषा: कर्मणो वा ज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारस्य समारम्भा उपा-दानहेतवस्ते च क्रियाविशेषा एव परिसमन्तात् ज्ञाता: परिच्छिन्ना: कर्मबन्धहेतुत्वेन भवन्ति, हुरवधारणे, मनुते मन्यते वा जगत-स्त्रिकालावस्थामिति मुनि: स एव मुनिपज्ञिया परिज्ञातका प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्यातकर्मबन्धहेतुभूतसमस्तम-नोवाक्कायव्यापार इति अनेन च मोक्षाङ्गभूते ज्ञानक्रिये उपात्ते भवतो, न ह्याभ्यां विना मोक्षो भवति, यत उक्तग-"ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः" इति। इतिशब्दएतावानयमात्मपदार्थ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 208 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता विचारः कर्मबन्धहेतुविचारश्च सकलोद्देशकेन परिसमापित इति प्रदर्शकः, यदि वा-'इति' -एतदहं ब्रवीमि यत्प्रागुक्तं यच वक्ष्ये तत् सर्व भवगदन्तिके साक्षात् श्रुत्वेति / आचा.१ श्रु.१ अ०१ उ. ! (आत्माऽस्तित्वे बहुभङ्गा: क्रियावादिनः, अक्रियावादिन:, ते च 'अकिरियावाइ' शब्दे प्रथमभागे दर्शिताः। 'किरिया-वाइ' शब्दे तृतीयभागे च दर्शयिष्यामि।) आत्मास्तित्वं विस्तरेणसुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ। (सूत्र-१)।तं जहा पुरच्छिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पञ्चच्छिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिंणो णायं भवति। (सूत्र-२) आचा०१ श्रु.१ अ०१ उ. / (अनयो: सूत्रयोयाख्यानं 'सण्णा' शब्दे सप्तमभागे करिष्यते) अत्रस्थनियुक्तिगाथाव्याख्यानम् 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे करिष्यते) अत्र च सामान्यदिग्रहणेऽपि यस्यां दिशि जीवानामाविगानेन गत्यागती स्पष्टे सर्वत्र संभव-तस्तयैवेहाधिकार इति तामेव नियुक्तिकृत्साक्षाद्दर्शयति भावादिग्भावेन भाविनी सामर्थ्यादधिकृतैव यतस्तदर्थमन्वादिश-श्चिन्तयन्नाह ! आचा०१ श्रु०१ अ.१ उ / तत्रेह- एवमेगेसिं णो णायं भवइ' इत्यनेन केषांचिदेव संज्ञानिषेधात्केषांचित्तु भवती-त्युक्तं भवति / तत्र सामान्यसंज्ञायां प्रतिप्राणि सिद्धत्वा-त्तत्कारणपरिज्ञानस्य चेहाकिंचित्करत्वा द्विशिष्टसंज्ञायास्तु के षांचिदेव भावात्तस्याश्च भवान्तरगात्म्यात्मनः स्पष्टप्रतिपादने सोपयोगित्वाद् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनादृत्य विशिष्ट-संज्ञाया: कारणं सूत्रकृद्दर्शयितुमाह से जं पुण जाणेज्जा सह संमइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा सोचा, तं जहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि,जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओवा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं जंणायं भवति-अस्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, सोऽहं। (सूत्र-४) आचा०१ श्रु०१० अ०१ उ०। (अस्य सूत्रस्य व्याख्यानम् 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे करिष्यते) इसमेवार्थ नियुक्तिकृदयितुमना गाथात्रितयमाहजाणइ सयं मतीए, अन्नेसिं वाऽवि अंतिए सोचा। जाणगजणपण्णविओ, जीवंतह जीवकाए वा // 14 // एत्थय सह सम्मइय-त्तिजं एवं तत्थ जाणना होइ। ओहीमणपज्जवना-णकेवले जाइसरणे य / / 15 / / परवइवागरणं पुण, जिणवागरणं जिणा परं नऽथि। अण्णेसिं सोपं ति य जिणेहि सवो परो अण्णो // 66 // 'जाणइ' त्यादि 'एत्थये' त्यादि, 'परे' त्यादि कश्चिदना-दिसंसृतौ पर्यटन्नबध्यादिकया चतुर्विधया स्वकीयया मत्या जानाति / अनानुपूर्वीन्यायप्रकटनार्थं पश्चादुपात्तमप्यन्येषा-मित्येतत्पदं तावदाचष्टे अन्येषां वाऽतिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानाति, तथा'जाणगजणपण्णविओ' इत्यनेन परव्याकरण-मुपात्तं, तेनायमर्थोज्ञापकस्तीर्थकृत तत्प्रज्ञापितश्च जानाति यज्जानाति तत्स्वत एव दर्शयतिसामान्यतो 'जीवमि' ति अनेन चाधिकृतोद्देशकस्यार्थाधिकारमाह, तथा- 'जीवकायांश्च' पृथ्वीकायादीन् इत्यनेन चोत्तरेषां षण्णामप्युदेशकानां यथाक्रममधिकारार्थमाहेति, अत्र-च-'सहम्मइए'त्ति-सूत्रेयत् पदं, तत्र 'जाणण' त्ति-ज्ञानमुपातं भवति,'मन' ज्ञाने, मननं भतिरिति कृत्वा, तब किंभूतमिति दर्शयति अवधिमन: पर्यायके वलजातिस्मरणरूपमिति, तत्रावधिज्ञानी संख्येयानसंख्ये-यान्वा भवान् जानाति एवं मन:पर्यायज्ञान्यऽपि, केवली तु नियमतोऽनन्तान, जातिस्मरणस्तु नियमत: संख्येयानिति, शेषं स्पष्टम् अत्र च-सहसन्मत्यादिपरिज्ञाने सुखप्रतिपत्त्यर्थं त्रयो दृष्टान्ता: प्रदर्श्यन्ते, तद्यथावसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणी महादेवी, तयोर्द्धर्मरुच्यभिधान: सुतः। स च राजाऽन्यदा तापसत्वेन प्रव्रजितुमिच्छुर्द्धर्मरुचिं राज्ये स्थापयितुमुद्यत: / तेन च जननी पृष्टा किमिति तातो राज्यश्रियं त्यजति?, तयोक्तं किमनया चपलया नारकादिसकलदु:खहेतुभूतयास्वर्गापवर्गमार्गिलयाऽवश्यमपायिन्या परमार्थत इह लोकेऽप्यभिमान-मात्रफलयेत्यतो विहायैनां सकलसुखसाधनं धर्म कर्तुमुद्यत; धर्मरुचिस्तदाकर्योक्तवान्यद्येवं किमहं तातस्यानिष्टो येनैवभूतां सकलदोषाश्रयणीं मयि नियोजयति. सकलकल्याणहेतो-र्द्धर्मात्प्रच्यावयतीत्यभिधाय पित्राऽनुज्ञातस्तेन सह तापसा-श्रममगात्, तत्र च सकलास्तापसक्रिया यथोक्ता: पालयन्नास्ते। अन्यदामावास्याया: पूवह्नि केनचित्तापसेनोत्तं यथा भो: भो: तापसा: श्वोऽनाकुट्टिभविता अतोऽद्यैव समित्कुसुमकुशकन्द-फलमूलाद्याहरणं कुरुतैतचाकर्ण्य धर्मरुचिना जनक: पृष्टस्तात ! केयमनाकुट्टिरिति तेनक्तंपुत्र! कन्दफलादीनामच्छेदनंतद्ध्यमावास्यादिकेविशिष्टे पर्वदिवसे नवर्तते, सावद्य-त्वाच्छेदनादिक्रियायाः। श्रुत्वा चैतदसावचिन्तयत्यदि सर्वदानकुट्टिः स्याच्छोभनं भवेद्, एवमध्यवसायिनस्तस्यामावास्यायां तपोवनसन्नपथेन गच्छतां साधूनां दर्शनमभूतेचतेनाभिहिता: किमद्यभवतामनाकुहिनसञ्जातायेनाटवीं प्रस्थिता:, तैरप्यभिहितं यथाऽस्माकं यावज्जीवमनाकुटिः; इत्यभिधायातिक्रान्ता: साधवस्तस्य च तदाकयेहापोहविमर्शन जातिस्मरणमुत्पन्नंयथाह जन्मान्तरे प्रव्रज्यां कृत्वा देवलोक-सुखमनुभूयेहागत इति एवं तेन विशिष्टदिगागमनं स्वमत्या जातिस्मरणरूपया विज्ञातं, प्रत्येकबुद्धश्च जातः, एवमन्येऽपि वल्क लचीरिश्रेयांसप्रभृतयोऽत्र योज्या Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 225 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आता जना यथा देशेनापीति देशतोऽपि शृणोति विवक्षितशब्दानां मध्ये कांश्चिच्छृणोतीति सर्वेणापीति सर्वतश्वसामस्त्येन सर्वानवेत्यर्थः, एवं रूपादीनपि, तथा विवक्षितस्य देशं सर्वंवा विवक्षितमवभासयत्येवं प्रभासयति एव विकुर्वणीयं विकुरुतेपरिचरणीयं स्त्रीसरीरादिपरिचारयति | भाषणीयापेक्षया देशतो भाषां भाषते सर्वतो वेति अभ्यवहार्यमाहारयति, | आहृतं परिणमयति, वैद्यं कर्म वेदयति देशतः सर्वतो वा, एवं निर्जरयत्यपि। स्था०२ ठा०२ उ०। (23) आत्मनिरूपणम्। तथाच पूर्वाचार्यकृतगाथा:'जीवो अणाइनिहणो, अविणासी अक्खओ धुवो निचं। दव्वट्ठयाए णिचो, परियायगुणेहि य अणिचो॥१॥ जह पंजराउ सउणी, घडाउ वयराणि कंचुआ पुरिसो। एवं न चेव भिण्णो, जीवो देहाउ संसारी // 2 // जह खीरोदगतिलतिल्ल-कुसुमगंधाण दीसइ न भेओ। तह चेवनजीवस्स वि, देहादचंतिओ भेओ // 3 // संकोअविकोएहि य, जहक्कम देहलोयमित्तो वा! हत्थिस्सव कुंथुस्सवपएससंखा समा चेव॥४॥ कालो जहा अणाई, अविणासी होई तिसु वि कालेसु। तह जीवो वि अणाई, अविणासी तिसु वि कालेसु॥५॥ गयणं जहा अरूवी, अवगाहगुणेण धिप्पईतंतु। जीवो तहा अरूवी, विण्णाणगुणेण घेत्तवो।।६।। जह पुढवी अविणट्ठा, आहारो होई सव्वदव्वाणं / तह अहारो जीवो, नाणाईणं गुणगणाणं // 7 // अक्खयमणंतमउलं, जह गयणं होइ तिसु वि कालेसु। तह जीवो अविणासी, अवडिओ तिसु वि कालेसु // 8 // जह कणगाओ कीरं-ति पज्जवा मउलकुंडलाईया। दव्यं कणगंतं चिय, नाम विसेसो इमो अन्नो // 9 // एवं चंउग्गईए, परिभमंतस्सजीवकणगस्स। नामाई बहुविहाई. जीवदव्वं तयं चेव // 10 // जह कम्मयरो कम्मं, करेइ भुंजेइ सो फलं तस्स। तह जीवो वि अकम्मं, करेइ भुंजेइतस्स फलं / / 11 / / उज्जोवेउं दिवसं,जह सूरो वच्चई पुणो अत्थं। नय दीसइ सो सूरो, अन्नं खित्तं पयांसतो / / 12 / / जह सूरो तह जीवो, भवंतरं वच्चए पुण्णो अन्नं। तत्थ वि सरीरमन्नं, खेत्तं व रवी पयासेई // 13 // फुल्लुप्पलकमलाण चंदणअगरूण सुरहिगंधीणं / धिप्पइ नासाइगुणो, न य रूवं दीसए तेसिं॥१४॥ एवं नाणगुणेणं, धिप्पइ जीवो वि बुद्धिमंतेहि। जह गंधो तह जीवो, न हु संक्खा कीरए भित्तुं / / 15 / / भभामउद्दमद्दल-पणवमकुंदाण संखसन्नाणं। सददु चिय सुव्वइ, के वलु त्तिन हुदीसई रूवं // 16 // पञ्चक्खं गहगहिओ, दीसई पुरसो न दीसई पिसाओ। आगारेहिँ मुणिज्जइ, एवं जीवो वि देहठिओ॥१७॥ हसइ विरूसइ रूसई, नच्चइ गाएइ रुयइ सुहदुक्खं / जीवो देहमइगओ, विविहपयारं पयंसेइ // 18 // जह आहारो भुत्तो, जिआण परिणमइ सत्तभेएहिं। बससोणिय 2 मंस ३ऽट्ठिअ४-मज्जा५ तह मेय६ सुक्केहि 7 / / 19 / / एवं अट्ठविहं चिअ, जीवेण अणाइसहगयं कम। जह कणगपाहाणे, अणाइसंजोगनिप्फन्नं // 20 // जीवस्सय कम्मस्स य, अणाइमं चेव होई संजोगो। सो वि उवाएण पुढो, कीरइन वलाउ जह कणगं / / 21 / / जह पुव्वयरं कम्मं, जीवो वा जइ हविज्ज वा वई कोई। सो वत्तव्यो कुक्कुडि-अंडाणं भणसुको पढमो॥२२॥ जह अंडसंभवा कुक्कुडि ,त्ति अंडं च कुक्कुडी उभदं। न य पुव्वाऽवरभावो, जह तह कम्माण जीवाणं // 23 // अणुमाणपहे सिद्धं, छउमत्थाणं जिणाण पचक्खं। गिण्हसुगणहर! जीवं अणाइयमक्खयसरूवं // 24 // कत्थ य जीवो बलिओ, कत्थ य कम्मा हुंति बलियाई। जीवस्स य कम्मस्स य, पुव्वनिबद्धाइँ वेराई॥२५॥ ग.२ अधि। (24) आत्मतत्त्वनिरूपणं बौद्धादिसम्मतात्मत्वनिराकरणेन प्रदर्शितम्बौद्धास्तु-बुद्धिक्षणपरंपरामात्रमेवाऽऽत्मानमाम्नासिषुः, न पुनमौक्तिककणनिकरनिरन्तरानुस्यूतैकसूत्रवत्तदन्वयिनमेकम् / ते लोकायतलुण्टाकेभ्योऽपि पापीयांस:, तद्भावेऽपि तेषां स्मरणप्रत्यभिज्ञानाद्यघटनात; तथा हि-पूर्वबुद्ध्यानुभूतेऽर्थे नोत्तर-बुद्धीनां स्मृति: सम्भवति, ततोऽन्यत्वात्, सन्तानान्तरबुद्धिवत् / न ह्यन्यदृष्टोऽर्थोऽन्येन स्मर्यते, अन्यथैकेन दृष्टोऽर्थः सर्वैः स्मर्येत। स्मरणाभावे कौतुस्कुती प्रत्यभिज्ञाप्रसूति:? तस्याः स्मरणानुभवोभयसम्भवत्वात्; पदार्थप्रेक्षणप्रबुद्धप्राक्तन- संस्कारस्य हि प्रमातुः स एवायमित्याकरेणेयमुत्पद्यते / अथ स्यादयं दोषो यद्यविशेषेणान्यदृष्टमन्य; स्मरतीत्युच्यते किं त्वन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावादेव स्मृतिः, भिन्नसन्तानबुद्धीनां तु कार्यकारणभावो नाऽस्ति, तेन सन्तानान्तराणां स्मृतिर्न भवति। न चैकसान्तानिकीनामपि बुद्धीनां कार्यकारणभावो नास्ति, येन पूर्वबुद्ध्यनुभूतेऽर्थे तदुत्तरबुद्धिनां स्मृतिर्न स्यात् / तदप्यनवदातम्, एवमपि नानात्वस्य तदवस्थत्वात्। अन्यत्वं हि स्मृत्यसंभवे साधनमुक्तम्, तच्च कार्यकारणभावाभिधानेऽपि नाऽपगतम्, न हि कार्यकारणभावाभिधाने तस्यासिद्धत्या-दीनामन्यतमो दोष: प्रतिपद्यते।नाऽपि स्वपक्षसिद्धिरनेन क्रियते, नहि कार्यकारणभावात् स्मृतिरित्यत्रोभयप्रसिद्धोऽस्ति दृष्टान्तः / अथ "यस्मिन्नेव हि सन्ताने, आहिता कर्मवासना। फलंतत्रैव संधत्ते, कपासे रक्तता यथा॥१॥" इति कप्पासरक्त- तादृष्टान्तोऽस्तीतिचेत्। तदसाधीय:साधनदूषणाऽसंभवात्। अन्वयाद्यसंभवात् न साधनं-न हि कार्यकारणभावो यत्र तत्र स्मृति: कासे रक्ततावदित्यन्वयः संभवति, नाऽपि यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभाव इति व्यतिरेकोऽस्ति / असि-द्धत्वाद्यनुद्भावनाच न दूषणम् / न हि ततोऽन्यत्वादित्यस्य हेतो: कासे रक्ततावदित्यनेन कश्चिद्दोष: प्रतिपाद्यते / किं च- यद्यन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावेन स्मृतेरुत्पत्तिरिष्यते, तदा शिष्याचार्यादिबुद्धीनामपि कार्यकारणभावसद्भावेन स्मृत्यादि स्यात् / अथ नाऽयं प्रसङ्गः एकसन्तानत्वे सतीति विशेषणादिति चेत्, तदयुक्तम्, भेदाभेदपक्षाभ्यांतस्योपक्षीणत्वात्।क्षणपरं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 226 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता परातस्तस्याऽभेदे हि क्षणपरंपरैव सा, तथा च सन्तान इति न किंचिदतिरिक्तमुक्तम् / भेदे तु पारमार्थिकोऽपारमार्थिको वाऽसौ स्यात्। अपारमार्थिकत्वे त्वस्य तदेव दूषणम्। पारमार्थिकत्वे स्थिरो वा स्यात्, क्षणिको वा / क्षणिकत्वे सन्तानि-निर्विशेष एवायमिति किमनेनस्तेनभीतस्यस्तेनान्तरशरण स्वीकरणकारिणा? "स्थिरमथ सन्तानमभ्युपेया:, प्रथयन्तं परमार्थसत्स्वरूपम्। अमृतं पिब पूतयाऽनयोक्त्या , स्थिरवपुष: परलोकिन: प्रसिद्धेः / / 1 / / " उपादानोपादेयभावप्रबन्धेन प्रवर्तमान: कार्यकारण- भाव एव सन्तान इति चेत् / तदवद्यम्, अविष्वम्भावादिसंबन्ध-विशेषाभावे कारणत्वमात्राऽविशेषादुपादानेतरविभागनुपपत्तेः / सन्तानजनकं यत्तदुपादानमिति चेत्न, इतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गात् सन्तानजनकत्वेनोपादानकारणत्वम्, उपादानकारणजन्यत्वेनच सन्तानत्वमिति। लोके तु समानजातीयानां कार्यकारणभावे सन्तानव्यवहार: तद्यथाब्राह्मणसन्तान इति, तत्प्रसिद्ध्या चास्माभिरपि शब्दप्रदीपादिषु सन्तानव्यवहार: क्रियते / तवापि यद्येवमभिप्रेत: सन्तानस्तदा कथं न शिष्याचार्यबुद्धीनामेक- सन्तानत्वम् ? नह्यासां समानजातीयत्वं कार्यकारणभावो वा नाऽस्ति, तत: शिष्यस्य चिरव्यवहिता अपि बुद्धयः पारंपर्येण कारणमिति तदनुभूतेऽप्यर्थे यथा स्मृतिर्भवति तथोपाध्यायबुद्धयोऽप्याजन्मप्रभृत्युत्पन्ना: पारंपर्येण कारणमिति तदनुभूते-ऽप्यर्थे स्मृतिर्भवेत् / किंच-धूमशब्दादीनामुपादानकारणं विनैवो-त्पत्तिस्तव स्यात्, न हि तेषामप्यनादिप्रबन्धेन समानजातीयं कारणमस्तीति शक्यते वक्तुम, तथा च ज्ञानस्यापि गर्भादाव-नुत्पादनैवोत्पत्ति: स्यादिति परलोकाभावः / अथ धूमशब्दादीनां विजातीयमप्युपादानमिष्यते, एवं तर्हि ज्ञानास्याप्युपादानं गर्भशरीरमेवास्तु न जन्मान्तरज्ञानं कल्पीनयम, यथा दर्शनं [ पादानमिष्टम, अन्यथा धूमशब्दा- दीनामप्यनादिः सन्तानः कल्पनीय: स्यादिति सन्तानघटनात्, न परेषां स्मृत्यादिव्यवस्था नापि परलोकः कोऽपि प्रसिद्धिपद्धतिं दधाति परलोकिन: कस्यचिदसंभवात् / सत्यपि वा परलोके कथमकृता-भ्यागमकृतप्रणाशौ पराक्रियेते ? येन हि ज्ञानेन चैत्यवन्दनादि कर्मकृतम्, तस्य विनाशान्न तत्फलोपभोगो यस्य च फलोपभोगस्तेन न तत्कर्म कृतमिति / अथ नाऽयं दोषः। कार्यकारणभावस्य नियामकत्वात्, अनादिप्रबन्धप्रवृत्तो हि ज्ञानानां हेतुफलभावप्रवाह: / स च सन्तान इत्युच्यते तद्वशात्सर्वो व्यवहारः संगच्छते / नित्यस्त्वात्माभ्युपगम्यमानो यदि सुखादिजन्मना विकृतिमनुभवति / तदयमनित्य एव चर्मा- दिवदुक्तः स्यात्, निर्विकारकत्वे तु सताऽसता वा सुख-दुःखादिना कर्मफलेन कस्तस्य विशेषे? इति कर्मवैफल्यमेव / तदुक्तम् - "वर्षाऽऽतपाभ्यां किं व्योमेश्चर्मण्यस्ति तयोः फलम् / चर्मोपमश्चेत्सोऽनित्य:, खतुल्यश्चेदसत्समः // 1 // " इति तस्मात् त्यज्यतामेष मूर्धाभिषिक्त: प्रथमो मोह आत्मग्रहो नाम, तन्निवृतावात्मीयग्रहोऽपि विरंस्यति / अहमेव न, किं मम ? इति / तदिदमहङ्कारममकारग्रन्थिप्रहाणेन नैरात्म्यदर्शनमेव निर्वाणद्वारम्, अन्यथा कौतुस्कुती निर्वाणवार्तापि ? तदपि वार्त्तम, हेतुफलभावप्रवाहस्वभावस्य सन्तानस्यान्तरमेव नियामकत्वेन निरस्तत्वात् / यत्पुनः सुखादिविकाराभ्युपगमे चर्मादिवत् आत्मनोऽनित्यत्वं प्रसञ्जितं तदिष्टमेव, कथंचिद-नित्यत्वेनात्मनः स्यावादिभि: स्वीकारात् / नित्यत्वस्य कथंचिदेवाभ्युपगमात् / यत्तु नित्यत्वे अस्यात्मीयग्रहसद्भावेन मुक्तयनवाप्तिदूषणमभाणि तदप्यनवदातं विदितपर्यन्त-विरससंसारस्वरूपाणां परिगतपारमार्थिवैकान्तिकात्यन्ति-कानन्दसन्दोहस्वभावाऽपवर्गोपनिषदां च महात्मनां शरीरेऽपि किंपाकपाकोपलिप्तपायस इव निर्ममत्त्वदर्शनात्। नैरात्म्यदर्शने पुनरात्मैव-तावन्नास्ति क: प्रेत्य सुखीभवनाथ यतिष्यते ? ज्ञानक्षणोऽपि संसारी कथमपरज्ञानक्षणसुखीभवनाय घटिष्यते ? न हिदुःखी देवदत्तो यज्ञदत्तसुखाय चेष्टमानो दृष्टः; एकक्षणस्य तु दु:खं स्वरसनाशित्वात्तेनैव सार्द्ध दध्वंसे। सन्तानस्तु न वास्तवः कश्चिदिति प्ररूपितमेव, वास्तवत्वे तस्य निष्प्रत्यूहात्मसिद्धि-रिति। अथ-आत्मनः परपरिकल्पितस्वरूपप्रतिषेधाय स्वाभिमतधर्मान्वर्णयन्ति चैतन्यस्वरूप: परिणामी कर्ता साक्षादोक्ता स्वदेहपरि-माण: प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौदलिकाऽदृष्टवांबाऽयमिति॥१६॥ चैतन्यं साकारनिराकारोपयोगाख्यं स्वरूपं यस्यासौ चैत- न्यस्वरूप: परिणमनं प्रतिसमयपरापरपर्यायेषु गमनं परिणामस नित्यमस्यास्तीति परिणामी, करोत्यदृष्टादिकमिति कर्ता, साक्षादनुपचरिवृत्त्या भुङ्क्ते सुखादिकमिति साक्षाद्भोक्ता, स्वदेह- परिमाण: स्वोपात्तवपुर्व्यापकः, प्रतिक्षेत्र प्रतिशरीरं भिन्न: पृथक्, पौद्गलिकादृष्टवान् पुद्गलघटितकर्मपरतन्त्रः, अयमित्यनन्तरं प्रमातृत्वेन निरूपित आत्मेति / अत्र चैतन्यस्वरूपत्वपरि- णामित्वविशेषणाभ्यां जडस्वरूप: कूटस्थनित्यो नैयायिका- दिसम्मतः प्रमाता व्यवच्छिद्यते / यतो येषामात्मानुपयोगस्वभावस्तावत्, तेषां नासौपदार्थपरिच्छेदं विदध्याद्, अचेतनत्वाद्; आकाशवत्। अथनोपयोगस्वभावत्वं चेतनत्वम्, किंतु चैतन्यसमवायः स चात्मनोऽस्तीत्य-सिद्धमचेतनत्वमिति चेत् / तदनुचितम्, इत्थमाकाशादेरपि चेतनत्वापत्तेः, चैतन्यसमवायो हि विहायःप्रमुखेऽपि समानः; समवायस्य स्वयमविशिष्टस्यैकस्य प्रतिनियमहेत्वभावादात्मन्येव ज्ञानं समवेतं नाकाशादिष्विति विशेषाव्यवस्थिते: / ननु यथेह कुण्डे दधीतिप्रत्ययान्न तत्कुण्डादन्यत्र तद्दधिसंयोग: शक्यसंपादनः, तथेह मयिज्ञानमितिहेदंप्रत्ययात् नात्मनोऽन्यत्र गगनादिषु ज्ञानसमवाय इति चेत् / तदयौक्तिकम्। यत: खाऽऽदयोपि ज्ञानमस्मास्विति प्रतियन्तु, स्वयमचेतनत्वाद्, आत्मवत्; आत्मानो वा मैवं प्रतिगुः, तत एव, खादिवद्; इति जडात्मवादिमते सन्नपि ज्ञानमिहेति प्रत्ययः प्रत्यात्मवेद्यो न ज्ञानस्यात्मनि समवायं नियमयति, विशेषाभावात् / नन्वेवमिह पृथिव्यादिषु रूपादय इति प्रत्ययोऽपि न रूपादीनां पृथिव्यादिषु समवायं साधयेत्, यथा खादिषुः तत्र वा सतं साधयेत्, पृथिव्यादिष्विव, इतिन वचित्प्रत्यय-विशेषात् कस्यचित् व्यवस्थेति चेत्। सत्यम् अयमपरो Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 227 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता ' ऽस्य दोषोऽस्तु, पृथिव्यादीनां रूपाद्यनात्मकत्वे खादिभ्यो विशिष्टतया व्यवस्थापयितुमशक्त: / स्यान्मतम्, आत्मनो ज्ञानमस्मास्विति प्रतियन्ति / आत्मत्वात्, ये तु न तथा तेनाऽऽत्मनो, यथा खादयः / आत्मानश्चैतेऽहंप्रत्ययग्राह्या-स्तस्मात्तथा; इत्यात्मत्त्वमेव खाऽऽदिभ्यो विशेषमात्मनां साधयति, पृथिवीत्वादिवत्, पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादियोगाद्धि पृथिव्यादयः तद्वदात्मत्त्वयोगादात्मान इति / तदयुक्तम्, आत्मत्वादिजातीनामपि जातिमदनात्मकत्त्वे तत् समवायनियमासिद्धेः / प्रत्ययविशेषात्तत्सिद्धिरिति चेत् स एव विचारयितुमारब्धः परस्परमत्यन्तभेदाविशेषेऽपि जातितद्वताम्, आत्मत्वजातिरात्मनि प्रत्यविशेषमुपजनयति, न पृथिव्यादीषु पृथिवीत्यादिजातयश्च तत्रैव प्रत्ययमुत्पादयन्ति, नात्मनि; इति कोऽत्र नियमहेतु:? समवाय इतिचेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रय:- सतिप्रत्ययविशेषे जातिविशेषस्य जातिमति समवायाः, सति च समवाये प्रत्ययविशेष इति। प्रत्यासत्तिविशेषादन्यत एव तत्प्रत्ययविशेष इति चेत् / स कोऽन्योऽन्यत्र कथंचित्तदात्म्य-परिणामाद् ? इति स एव प्रत्ययविशेषहेतुरेषितव्यः तदभावे तद्घटनाज्जातिविशेषस्य कृचिदेव समवायाऽसिद्धरात्मादि-विभागानुपपत्तेरात्मन्येव ज्ञानं समयेतमिहेदमिति प्रत्ययं कुरुते न पुनराकाशादिषुः इति प्रतिपत्तुमेशक्तेर्न चैतन्ययोगादा-त्मनश्चेतनत्वं सिध्येत्; अथ किमपरेण? प्रतीयते तावचेतनासमवायादात्मा चेतन इति चेत् / तदयुक्तम् / यत: प्रतीतिश्चेत्प्रमाणीक्रियते, तर्हि निष्प्रतिद्वन्द्वमुपयोगात्मक एवाऽऽत्मा प्रसिध्यति। न हि जातुचित्स्वयवमचेतनोऽहं चेतनायोगाचेतनः, अचेतने वा मयि चेतनाया: समवाय इति प्रतीतिरस्ति; ज्ञाताऽहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः / भेदे तथा प्रतीतिरिति चेत् / न कथंचित्तादात्म्याभावे तददर्शनात् / यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् दृष्टान पुनस्तात्विकी तथा चात्मनि ज्ञाताऽहमिति प्रतीति: कथंचिचेतनाऽऽत्मतां गमयति तामन्तरेणानुपपद्यमानत्वात् कलशादिवत; न हि कलशादिरचेतनात्मको ज्ञाताऽहमिति प्रत्येति। चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत् / न, अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाचेतनोऽहमितिप्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वाद्, इत्यचेतनत्व सिद्धमात्मनो जडस्यार्थपरिच्छेदं पराकरोति तं पुनरिच्छता चैतन्यस्वरूपताऽस्य स्वीकरणीया। ननुज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदः, अन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनतद्वतोभेदाभावानुषङ्गादिति कश्चित् / तदप्यसत्। यतो ज्ञानवानहमिति नाऽऽत्मा प्रत्येति जडत्वैकान्तरूपत्वाद्, घटवत् / सर्वथा जडश्च स्यादात्मा, ज्ञानवानहमिति प्रत्ययश्चाऽस्य स्यात्, विरोधाभावाद्, इति मा निर्णैषीः; तस्य तथोत्पत्त्यसंभवात्; ज्ञानवानहमिति हि प्रत्ययो नागृहीते ज्ञानाख्ये विशेषणे विशेष्ये चात्मनि जातूत्पद्यते, स्वमतविरोधात् / "नागृहीताविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति वचनात् / गृहीतयोस्त. योरुत्पद्यते इति चेत् कुतस्तद्गृहीति: ? न तावत्सवत: स्वसंवेदनानभ्युपगमात्स्वसंविदिते ह्यात्मनि ज्ञानेचस्वत: सायुज्यते, | नान्यथा; सन्तानान्तरवत्। परतश्चेत्, तदपि ज्ञानान्तरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्वविशेषणे गृहीतुं शक्यमिति / ज्ञानान्तरात्, तद्ग्रहणेन भाव्यमित्यनवस्था-नात्कुत: प्रकृतप्रत्यय:? तदेवं नाऽऽत्मनो जडस्वरूपता संगच्छते नाऽपि कुटस्थनित्यता। यतो यथाविध: पूर्वदशायामात्मा तथाविध एव चेत् ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत्तदा प्रागिव कथमेष पदार्थपरिच्छेदक: स्यात? प्रतिनियत- स्वरूपाप्रच्युतिरूपस्वात्कौटस्थ्यस्य; पदार्थपरिच्छेदे तु प्राग प्रमातुः प्रमातृरूप-तया परिणामात्कुत: कौटस्थ्यमिति कर्ता साक्षाद्भोक्तेति विशेषणयुगलकेन कापिलमतं तिरस्क्रियते, तथा हि-कापिल: कर्तृत्वं प्रकृते: प्रतिजानीते; न पुरुषस्य।"अकर्ता निर्गुणो भोक्ता'' इति वचनात्। तदयुक्तम् / यतो यद्ययमकर्ता स्यात्, तदानीमनुभवितापि न भवेत् / द्रष्टः कर्तृत्वे मुक्तस्याऽपि कर्तृत्वप्रसक्तिरिति चेत् / मुक्त: किमकर्तेष्टः? विषयसुखादेरकर्तवति चेत्, कुतः स तथा? तत्कारण-कर्मकर्तृत्वाभावादिति चेत्, तर्हि संसारी विषयसुखादिकारणकर्मविशेषस्य कर्तृत्वात् विषयसुखादे: कर्ता, स एव चानुभविता किं न भवेत? / संसार्यवस्थायामात्मा विषयसुखाऽऽदितत्कारण कर्मणां न कर्ता चेतनत्त्वात्, मुक्ताऽवस्थावत्; इत्येतदपिनसुन्दरम्।स्वेष्टविघातकारित्वात्संसार्यवस्थायामात्मा न सुखादेर्भोक्ता, चेतनत्वात्, मुक्तावस्थावद्; इति स्वेष्टस्यात्मनो भोक्तृत्वस्य विघातात्। प्रतीतिविरुद्धमिष्टविधातसाधनमिदमितिचेत् / कर्तृत्वा-भावसाधनमपि किं न तथा ? पुंसः श्रोता घ्राताऽहमिति स्वकर्तृत्वप्रतीतेः / अथ श्रोताऽहमित्यादिप्रतीतिरहंकाराऽऽस्पदम्, अहंकारस्य च प्रधानमेव कर्तृतया प्रतीयत इति चेत्, तत एवाऽनुभवितृप्रधानमस्तु / न हि तस्याऽहंकारा-ऽऽस्पदत्वं न प्रतिभाति, शब्दादेरनुभविताहमिति प्रतीते: सकलजन साक्षिकत्वात्। भ्रान्तमनुवितुरहङ्काराऽऽस्पदत्वमिति चेत्, कर्तुः कथन्न भ्रान्तम्? तस्याऽहंकाराऽऽस्पदत्वादिति चेत्, तत एवानुभवितुस्तदभ्रान्तमस्तु, तस्योपाधिकत्वादहंकारा-ऽऽस्पदत्वं भ्रान्तमवति चेत्, कुतस्तदौपाधिकत्वसिद्धिः? अथ पुरुषस्वभावत्वाऽभावादहंकारस्यतदास्पदत्वं पुरुषस्वभावस्यानुभवितृत्व- स्यौपाधिकमिति चेत् / स्यादेवं, यदि पुरुषस्वभावोऽहंकारो न स्यात् / मुक्तस्याऽहंकाराऽभावात् अपुरुषस्वभावा एवाऽहंकारः; स्वभावो हि न जातुचित्तद्वन्तं त्यजति, तस्य नि:स्वभावत्व-प्रसङ्गादिति चेत्।नस्वभावस्य द्विविधत्वातसामान्यविशेषपर्यायभेदात्, तत्र सामान्यपर्याय: शाश्वतिकस्वभावः / कादाचित्को विशेषपर्याय इतिनकादाचित्कत्वात्पुंस्यहङ्कारादेव तत्स्वभावता, ततो न तदास्प-दत्वमनुभवितृत्वस्यौपाधिकं, येनाऽभ्रान्तं न भवेत् / तत: सिद्धमात्मानुभवितेव कर्ताः अकर्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेश्च ।ननु भोक्तृत्वमप्युपचरितमेवास्य, प्रकृतिविकारभूतायां हि दर्पणाकारायां बुद्धौ संक्रान्तानां सुखदु:खादीनां पुरुष: स्वात्मनि प्रतिबिम्बोदयमात्रेण भोक्ता व्यपदिश्यते। तदशस्यं तस्य तथापरिणाममन्तरेण प्रतिबिम्बोदयस्याऽघटनात् स्फटिकादावपि परिणामेनैव प्रतिबिम्बोदयसमर्थनात्, तथापरिणामभ्युपगमे च कुतः कर्तृत्वमस्य न स्यात्? इति सिद्ध Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 228 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता मस्य कर्तृत्वं साक्षाद् भोक्तृत्वं चेति, स्वदेहपरिमाण इत्यने-नापि जैनमतानुग ! पूरुषम् / वद तदा कथमस्य विखण्डने, भवति तस्य न नैयायिकादिपरिकल्पितं सर्वगतत्वमात्मनो निषिध्यते, तथात्वे खण्डनडम्बरम् // 1 // " अत्राभिदध्महे-यदभ्यधायि नन्वात्मनो जीवतत्त्वप्रभेदानां व्यवस्थानाप्रसिद्धिप्रसङ्गात् / सर्वगतात्मन्येकत्रैव व्यापकत्वाभाव इत्यादि, तदसत्यम् / यद्येन संयुक्तं तदेव तं नानात्मकार्यपरिसमाप्ते:, सकृन्नानामन: समायोगो हि नानाऽऽत्मकार्य प्रत्युपसंपतीति नियमाऽसंभवात्; अयस्कान्तं प्रत्ययसस्तेनाऽसंयुक्ततच्चैकत्रापि युज्यते, नभसि नाना-घटादिसंयोगवत्। एतेनयुगपन्ना- स्याप्याकर्षणोपलब्धेः / अथासंयुक्तस्याप्याकर्षणे तच्छरीरारम्भ नाशरीरेन्द्रियसंयोग: प्रतिपा-दित: युगपन्नानाशरीरेष्वात्मसमवायिनां प्रत्येकमुखीभूतानां त्रिभुवनोदरविवरवर्तिपरमाणूनामुपसर्पणप्रसङ्गातन सुखदुःखादीनाम-नुपपत्तिः, विरोधादिति चेत्। न युगपन्नानाभेर्यादिष्वा जाने कियत्परिमाणं तच्छरीरं स्यादिति चेत्। संयुक्तस्याप्याकर्षणे कथं काशसमवायिनां विततादिशब्दानामनुपपत्तिप्रसङ्गात्, तद्विरोध- स एव दोषो न भवेद् ? आत्मनो व्यापकत्वेन सकलपरमाणूतां तेन स्याविशेषात् / तथाविधशब्दकारणभेदान्न तदनुपपत्तिरिति चेत्, संयोगात्। अथतदभावाविशेषेऽप्यदृष्टवशाद्विवक्षितशरीरोत्पादनानुगुणा सुखाऽऽदिकारणभेदात्तदनुपपत्तिरप्येकत्रात्मनि मा भूद् विशेषाभावात्। नियता एव परमाणव उपसर्पन्ति तदि-तरत्रापितुल्यम्। यचान्यदुक्तम्विरुद्धधर्माध्यासादात्मनो नानात्वमिति चेत् / तत एवाकाशस्यापि "सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मे" त्यादि, तदप्युक्तिमात्रम्नानात्मवस्तु। प्रदेशभेदोपचाराददोष इति चेत्, ततएवात्मन्यप्यदोषः / सावय-वत्वकार्यत्वयोः कथञ्चिदात्मन्यभ्युपग मात् / न चैवं घटाजननमरणकरणादिप्रतिनियमोऽपि सर्वगतात्मवादिनां नाऽऽत्मबहुत्वं दिवत्प्राक् प्रसिद्धसमानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिः; न खलु साधयेत्, एकत्राऽपि तदुपपत्ते:, घटाकाशादिजननविनाशाऽऽदिवत; न घटादावपि कार्ये प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगा-रभ्यत्वं दृष्टम्, कुम्भकारादिव्यापारान्वितान्मृपिण्डात्प्रथममेव पृथुबुध्नोदराद्याकाहि घटाकाशस्योपपत्तौ घटाकाशस्योत्पत्तिरेव, तदा विनाशस्यापि दर्शनात; नापि विनाशे विनाश एव, जननस्यापि तदोपलम्भात, स्थिती रस्याऽस्योत्पत्तिप्रतीते: / द्रव्यस्य हि पूर्वा कारपरित्यागेनोत्तराकार परिणाम: कार्यत्वं तच बहिरिवान्त-रप्यनुभूयत एव ! न च पटाऽऽदौ वा न स्थितिरेव विनाशोत्पादयोरपि तदा समीक्षणात्। सति बन्धे न स्वावयवसंयोगपूर्वककार्य-त्वोपलम्भात् सर्वत्र तथाभावो युक्तः, काष्ठे मोक्षः, सति वा मोक्षे न बन्ध: स्याद्, एकत्रात्मनि विरोधादिति चेत्। न, लोहलेख्य- त्वोपलम्मात् वज्रऽपि तथाभावप्रसङ्गात; प्रमाणबाधनमुआकाशेऽपि सति घटबन्धे घटान्तरमोक्षाभावप्रसङ्गात्; सति वा भयत्र तुल्यम्।नचोक्तलक्षणकार्यत्वाभ्युपगमेऽ-प्यात्मनोऽनित्यत्वाघटविश्लेषे घटान्तरविश्लेषप्रसङ्गात् / प्रदेशभेदोपचारान्न नुषङ्गात ! प्रतिसंधानाभावोऽनुषज्यते, कथञ्चिदनित्यत्वे सत्येवास्योतत्प्रसङ्ग इति चेत, तत एवात्मनिन तत्प्रसङ्गः / नमस: प्रदेशभेदोपगमे पपद्यमानत्वात्। यचाऽवाचि शरीरपरिमाणत्वे चाऽऽत्मनो मूर्तत्वानुषड्ग जीवस्याप्येकस्य प्रदेशभेदोऽस्त्विति कुत्तो जीवतत्त्वप्रभेदव्यवस्था? यतो इत्यादि, तत्र किमिदं मूर्त्तत्वं नाम ?- असर्वगतद्रव्यपरिमाणत्वं, व्याकत्वं स्यात्। नन्वात्मनो व्यापकत्वाऽभावे दिग्देशान्तरवर्तिपरमाणु रूपादिमत्त्वं वा / तत्र नाद्यः पक्षो दोषपोषाय, सम्मतत्वात् / भिर्युगपत्संयोगा-भावादाद्यकर्माभावः, तदभावादन्त्यसंयोगस्य द्वितीयपक्षस्त्वयुक्त:; व्याप्त्यभावात; न हि यदसर्वगतं तन्निमयेन तन्निमित्तशरीस्यतेन तत्संबन्धस्य चाऽभावादनुपायसिद्धः / सर्वदा सर्वेषां रूपादिमदित्यविनाभावोऽस्ति, मनसोऽसर्वगतत्वेऽपितदसंभवात्। अतो मोक्ष: स्यात् / अस्तु वा यथा कथंचिच्छरीरोत्पत्तिः, तथाऽपि सावयवं नाऽऽत्मनः शरीरे-ऽनुप्रवेशा- नुपपत्तिर्यतो निरात्मकं तत्स्यात् / शरीर प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मासाऽवयव: स्यात्, तथाचास्यपटादिवत् अर्सवगत-द्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्तत्वस्य मनोवत्प्रवेशाप्रतिबन्धकत्वात; कार्यत्वप्रसङ्गः / कार्यत्वे चाऽसौ विजातीयैः सजातीयैर्वा कारणैरारभ्येत / रूपाऽऽदिमत्त्वलक्षणमूतत्वोपेतस्याऽपि हि जलादेर्भस्मा-दावनुप्रवेशो न प्राच्य: प्रकार:, विजा- तीयानामनारम्भकत्वात् / न द्वितीय: यतः न निषिध्यते, आत्मनस्तु तद्रहितस्यापि तत्रासौ प्रतिबध्यत इति सजातीयत्वं तेषामा-त्मत्वाऽभिसबंन्धादेवस्यात्तथा चात्मभिरारभ्यते महचित्रम् / यदप्यवादितत्परिमाणत्वे तस्य बालशरीरपरिमाणस्येइत्यायातम् एतच्चायुक्तम्, एकत्र शरीरेऽनेकात्मनामात्मारम्भकाणा त्यादि, तदप्युक्तम्, युवशरीरपरिमाणा-वस्थायामात्मनो बालशरीरमसंभवात् / संभवे वा प्रतिसंधानानुपपत्तिः; न ह्यन्येन दृष्टमन्यः परिमाणपरित्यागेसर्वधा विनाशाऽसंभवात, विफणावस्थोत्पादे स्वर्पवत्, प्रतिसंधातुमर्हत्यतिप्रसङ्गात्, तदारभ्यत्वे चास्य घटवदवयवक्रियातो इति कथं परलोकाभावोऽनुषज्यते? पर्यायतस्तस्यानित्यत्वेऽपि विभागात्संयोगविनाशाद्विनाश: स्यात् / शरीरपरिणामत्वे चात्मनो द्रव्यतो नित्यत्वात् / यचाजल्पि "यदि वपुष्परिमाणपवित्रितम्' मूर्त्तत्वानुषङ्गाच्छरीरेऽनुप्रवेशो नस्यात्, मूर्ते मूर्तस्यानुप्रवेशविरोधात्; इत्यादि तदप्यपेशलम्, शरीरखण्डने कथंचित्तत्खण्डनस्येष्टत्वात् ततो निरात्मकमेव अखिलं शरीरमनुषज्यते / कथं वा तत्परिमाणत्वे शरीरसंबद्धा-त्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितशरीरप्रदेशे तस्य बाल-शरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरिमाणस्वीकार: स्यात् ? अवस्थानमात्मन: खण्डनं, तचात्र विद्यत एव; अन्यथा शरीरात्पृथतत्परिमाणपरित्यागात् तदपरित्यागाद्वा / परित्यागाचेत् तदा ग्भूतावयवस्य कम्पापलब्धिर्न स्यात् / न च खण्डितावयवानुशरीरवत्तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गात्परलोकाद्यभावाऽनुषङ्गः / अथा- प्रविष्टस्यात्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्वप्रसङ्गः।"तत्रैवानुप्रवेशात्"निचैकत्र परित्यागात्, तन्न, पूर्वपरिमाणाऽपरित्यागे शरीरवत्तस्योत्तर- सन्तानेऽनेक आत्मा अनेकार्थप्रतिभासिज्ञानानामेकप्रमात्राधारतया परिमाणोत्पत्त्यनुपपत्तेः / तथा- "यदि वपुः परिमाणपवित्रितं वदसि / प्रतिभासाभाव-प्रसङ्गात्, शरीरान्तरव्यवस्थितानेक-ज्ञानावसेयार्थसं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 229 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता वित्तिवत् / कथं खण्डिताऽखण्डितावयवयोः संघट्टनं पश्चादिति चेत्? एकान्तेन छेदानभ्युपगमात्, पद्मनालतन्तुवदच्छेदस्यापि स्वीकारात्; तथाभूताऽदृष्टवशाच तत्संघट्टनमविरुद्धमेवेति तनुपरिमाण एवाऽऽत्माङ्गीकर्तव्यो, नव्यापकः / तथा चाऽऽत्मा व्यापको न भवति, चेतनत्वात्, यत्तु नैवं न तचेतनं; यथा व्योम, चेतनश्चाऽऽत्मा, तस्मादव्यापकः / अव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वेन सिद्धा शरीरपरिमाणता। प्रतिक्षेत्र विभिन्न इत्यनेनतु विशेषणेनाऽऽत्माद्वैतमपास्तम् एतदपासनप्रकारश्च प्रागेव प्रोक्त इति न पुनरुच्यते। रत्ना०७ परि / (25) आत्माधिकाराद् रत्नप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह आया भंते! रयणप्पभा पुढवी, अण्णा रयणप्पमा पुढवी? गोयमा! रयणप्पभापुढवी सिय आया, सिय णो आया, सिय अवत्तवं आताति य, णो आताति य / से केणऽ४ णं भंते! एवं दुबइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय णो आया, सिय अवत्तव्वं आयातियणो आयाति य? गोयमा! अप्पणो आदि आया, परस्स आदिढे णो आया, तदुभयस्य आदिठे अवत्तवं रयणप्पभा पुढवी आयाति य, णो आयाति य से तेणऽष्टेणं तं चेव जाव णो आयाति य / आया भंते? सक्करप्पभा पुढवी | जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभाए वि एवं जाव अहे सत्तमा। आया भंते! इत्यादि, अतति-सततंगच्छतितांस्तान्पर्यायान्नित्यात्मा ततश्चात्मा सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी, अन्न' त्ति-अनात्मा; असद्रूपेत्यर्थः। 'सियआया सियनोआय' क्ति-स्यात्सती स्यादसतीति। 'सिय अवत्तव्यं' ति-आत्मत्वेनाऽनात्मत्वेन च व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः / / कथमवक्तव्यम? इत्याह आत्मेति च नो आत्मेति च; वक्तुमशक्य- 1 मित्यर्थः, 'अप्पणो आइडे' त्ति-आत्मन:, स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायैरादिष्टे आदेशे सति तैय॑पदिष्टासतीत्यर्थः, आत्मा भवति स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, 'परस्स आइडे नो आय' त्ति-परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति; तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः, नोआत्मा अनात्मा भवति; पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः, तदुभयस्स आइडे अवत्तव्' ति-तयो: स्वपरयोरुभयं तदेव वा उभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे आदेशे सति; तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः, अवक्तव्यम् -अवाच्यं वस्तु स्यात्, तथाहि-नह्यसौ आत्मेति वक्तुं शक्या, परपर्यायापेक्षया अनात्मत्वात्तस्या नाऽप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति, अवक्तव्यत्वं च आत्माऽनात्मशब्दोपेक्षयैव न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव तस्या उच्यमानत्वादनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थवस्तु प्रभृतिशब्दरनभिलाप्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति। आया भंते! सोहम्मे कप्पे पुच्छा,गोयमा! सोहम्मे कप्पे सिय आया, सिय णो आया.जावणो आयातिय, से केणऽटेणं भंते! जावणो आयाति य? गोयमा! अप्पणो आदितु आया, परस्स आदिढे णो आया, तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्यं आयाति यणो आयातिय, से तेणऽट्ठणं गोयमा! तं चेक जाव णो आयाति य, एवं जाव अचुय-कप्पे / आया मंते ! गेविज्जगविमाणे अण्णे गेविज्जग-विमाणे एवं जहा रयणप्पभापुढवी तहेव, एवं अणुत्तरवि-माणा वि, एवं ईसिप्पन्भारा वि / आया भंते ! परमाणुपोग्गले, अण्णे परमाणुपोग्गले / एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियट्वे / एवं परमाणुसूत्रमपि। आया मंते! दुपदेसिए खंधे, अण्णे दुपदेसिए खंधे ? गोयमा! दुपदेसिए खंधे सिय आया, सिय णो आया 2, सिय अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य 3, सिय आया य, सिय णो आया य४, सिय आया य अवत्तवं आयाति य, णो आयाति य 5, सिय णो आया य अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य६, से केणऽद्वेणं मंते! एवं तंचेव.जावणो आयातिय अवत्तव्वं आयाति यणो आयाति य? गोयमा ! अप्पणो आदितु आया१, परस्स आदितु णो आया२, तदुभयस्स आदिडे अवत्तव्वं दुपदेसिए खंधे आयातिय णो आयातिया देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे दुपदेसिए खंधे आया य णो आया य 4, देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे दुपदेसिए खंधे आया य अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य५, देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसे आदिडे तदुभयपज्जवे दुपदेसिए खंधे णो आयाय अवत्तट्वं आयाति यणो आयातिय 6 से तेणऽटेणं तं चेव जाव णो आयाति य। द्विप्रदेशिकसूत्रे षड्भङ्गाः, तत्राद्यास्त्रय: सकलस्कन्धा-पेक्षा: पूर्वोक्ता एव, तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षास्तत्र च गोयमेत्यत आरभ्य व्याख्यायते'अप्पण्णो' त्ति-स्वस्य पर्यायः'आदिढे' त्ति-आदिष्ट-आदेशे सति; आदिष्ट इत्यर्थः, द्विप्रदेशिक-स्कन्ध आत्मा भवति 1, एव परस्य पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा 2, तदुभयस्य द्विप्रदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात्, कथम ? आत्मेति चाऽनात्मेति चेति 3, तथा द्विप्रदेशत्वात्तस्य देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधाना:- सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स सद्भावपर्यव:, अथवातृतीयाबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, द्वितीयस्तु देश आदिष्टः असद्भावपर्यवः परपर्यायरित्यर्थः, परपर्यवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो वेति, ततश्चासौ द्विप्रदेशिक: स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति नोआत्मा चेति 4, तथा तस्य देश आदिष्टः सद्भा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 230 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आता आo. आ.१ आ०१ नो०३ नो०१ | अव 1 वपर्यवो देशश्वोभयपर्यवस्ततोऽसौ, आत्मा चावक्तव्यं चेति 5, तथा तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यव-स्ततोऽसौ नोआत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति 6, सप्तम:पुनरात्मा च नोआत्मा चावक्तव्यं चेत्येवं रूपोन भवति द्वि-प्रदेशिकेद्यंशत्वादस्य, त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी। आया भन्ते! तिपदेसिए खंधे अण्णे तिपदेसिए खंधे? गोयमा! तिपदेसिए खंधे सिय आया, सिय णो आया२, सिय अवत्तव्वं आयातिय णो आयाति य 3, सिय आया य णो आया य 4, सिय आया य णो आयाओ य५, सिय आयाओ य णो आया य६, सिय आया य अवत्तवं आयातियणो आयाति य७, सिय आयाइ य अवत्तव्वाइं आयाओ य णो आयाओ य८, सिय आयाओ य अवत्तव्वं आयातियणो आयातिय९, सिय णो आयाय अक्त्तवं आयातियणो आयाति य 10, सिय आया य अवत्तव्वाई आयाओ यणो आयाओ य११, सिय णो आयाओ य अवत्तव्वं आयातिय जो आयाति य 12, सिय आया यणो आया य अवत्तव्वं आयाति यणो आयाति य 13, से केणऽद्वेण मंते ! एवं वुचइ तिपदेसिए खंधे सिय आया एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव सिय आया य णो आया य अवत्तव्वं आयातियणो आयाति य? गोयमा! अप्पणो आदितु आया?, परस्स आदिढे णो आया२, तदुभयस्स आदिष्टे अवत्तवं आयाति य णो आयाति य 3, देसे आदिढे सब्भावपज्जवे देसे आदिढे असभावपज्जवे तिपदेसिए खंधे आया य णो आया य 4, देसे आदितु सब्भावपज्जवे देसा आदिवाअसन्भावपज्जवे तिपदेसिएखंधे आया यणो आयाओ य, देसा आदिट्ठासम्भावपज्जवे देसे आदिढे असब्भावपज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाओ य णो आया य 6, देसे आदिढे सब्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपदेसिएखंधे आया य अवत्तवं आयाति य णो आयाति य 7, देसे आदिढे सब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयज्जवा तिपदेसिए खंधे आया य अक्त्तव्वाइं आया उ य णो आयाउ य८, देसा आदिट्ठा सन्मावपज्जवा देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाओ य अवत्तय्वं आयाति य णो आयाति य९, एए तिण्णि भंगा देसे आदितु असम्भाव-पज्जदे देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंघे णो आया य अवत्तव्वं आयाति यणो आयातिय 90, देसे आदिडे असम्भावपज्जवे देसा आदिवा तदुभय-पज्जवा तिपदेसिएखंधे णो आयाय अवत्तट्वाइं आयाउ यणो आयाउय११, देसा आदिवा असब्भावपज्जवादेसे आदिटे। तदुभयपज्जवे तिपदेसिएखंघे णो आयाओय अवत्तव्वं आयाति यणो आयाति य 12, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे वेसे आदिट्टे असन्मावपज्जवे देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंधे आया य णो आया य अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य 13, से तेणढणं गोयमा ! एवं दुचइ-तिपदेसिए खंधे सिय आया तं चेकजावणो आयातिय। त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदशभङ्गास्तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तस्वाद्या: सकलादेशास्त्रयस्तथैव तदन्येषुतुत्रिषुत्रयस्त्रय एकवचन-बहुवचनभेदात् सप्तमस्त्वेकविध एव स्थापना चेयम्यचेह प्रदेशद येऽप्येक-वचनं क्वचित्तत्तस्य प्रदेशद्यस्यैक-प्रदेशाव .00 .0.00 गाढ त्वादिहेतुनैकत्वविवक्षणात्, भेदविवक्षायां च हुवचनमिति / आया भंते, चउप्पदेसिए खंधे अण्णे, पुच्छा, गोयमा ! चउप्पदेसिए खंधे सिय आया१, सिय णो आया२, सिय अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य३, सिय आयाय णो आया य 4, सिय आया य अवत्तव्वं 4, सिय णो आया य अवत्तव्वं 4, सिय आयाय णो आया य अवत्तट्वं आयाति य णो आति य 16 सिय आया य जो आया य अवत्तव्वाइं आयाओ य णो आयाओ य 17, सिय आयायणो आयाओय अवत्तव्यं आयाति य णो आयातिय 18. सिय आयाओ य णो आया य अवत्तव्वं आयातिय णो आयाति य 19, से केणऽटेणं भंते ! एवं दुबइ- चउप्पदेसिए खंधे सिय आया य णो आयाय अवत्तट्वं, तं चेव अढे पडिउचारेयव्वं ? गोयमा ! अप्पणो आदिटे आया 1, परस्स आदिट्टे णो आया 2, तदुभयस्स आदितु अवत्तव्वं आयाति य णो आयाति य 3, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदितु असम्भावपज्जवे / चउमंगो, सम्भाव-पज्जवेणं तदुभएण य 4, चउभंगो, असम्भावेणं तदुभएण य 4, चउभंगो, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदितु असम्भावपज्जवे देसे आदिढे तदुभय-पज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आया य णो आया य अवत्तव्वं आयातियणो आयातिय 16, देसे आदितु सब्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा चउप्पदेसिए खंधे भवइ आया य णो आय य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 231 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता अवत्तट्वाइं आयाओ य णो आयाओ य 17 देसे आ-दिट्टे सब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा असब्भावपज्जवा देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आया य णो आयाओ य अवत्तध्वं आयाति य णो आयाति य 18, देसा आदिट्ठा सब्मावपज्जवा देसे आदितु असम्भाव-पज्जवे देसे आदिट्टे तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आयाओ य णो आया य अवत्तव्वं आयातिय णो आयातिय 19, से तेणडटेणं गोयमा! एवं वुबइ चउप्पदेसिए खंधे सियआया सिय णो आया सिय अवत्तट्वं, निक्खेवो ते चेव भंगा उचारेयव्वा जाव णो आयाति य। चतुष्प्रदेशिकेऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिर्भङ्गास्तत्र त्रयः सकलादेशास्तथैव शेषेषु चतुर्पु प्रत्येकं चत्वारो विकल्पास्ते चैवंचतुर्थादिषु त्रिषु CR सप्तमस्त्वेवम्-- आया भंते! पंचदेसिए खंधे अण्णे पंचदेसिए खंधे ? गोयमा! पंचपदेसिए खंधे सिय आया, सिय णो आया२, सिय अवत्तवं आयाति य णो आयाति य, सिय आया य णो य सिय अवत्तवं 4, णो आया य अवत्तटवेण य 1, तियगसंयोगे एक्को न पठति, से केणऽटेणं भंते ! तं चेव पडिउचारेयवं?,गोयमा! अप्पणो आदिढे आया?, परस्स आदितु णो आया२, तदुभयस्य आदिटे अवत्तट्वं३, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असब्भाव-पज्जवे एवं दुयगसंजोगे सवे पठति, तियगसंजोगे एक्कोन पठति, छप्पदेसियस्स सब्वे पठंति जहा छप्पदेसिए एवं . जाव अणंतपदेसिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / (सूत्र-४६९) पञ्चप्रदेशकेतु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, तदुत्तरेषु च त्रिषु प्रत्येक चत्वारो विकल्पास्तथैव, सप्तमेतु सप्त, तत्र त्रिकसंयोगे किलाऽष्टौ भङ्गका भवन्ति, तेषु च सप्तैवेह ग्राह्या एकस्तुतेषुनपतत्यसम्भवात्, इदमेवाह'तिगसं जोगे' इत्यादि तत्रैतेषां स्थापनायश्च न पतति स पुनरयम् -222 षटप्रदेशिकेत्रयोविंशतिरिति / भ०१२ श०१० उ० / (आत्मस्वरूपादि | 'जीव' शब्दे चतुर्थभागेऽपि वक्ष्यते) (26) (अप्या णई वेतरणी, अप्पा कूड सामली।) अप्पा काम दुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं / / 3 / / अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य / अप्पा मित्तममित्तंच, दुप्पट्टियसुपहिओ // 37|| आत्मेति-व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्यात्मैव नान्यः कश्चिदित्याह-नदीसरित् वैतरणीति नरकनद्या नाम, ततो महा-ऽनर्थहेतुतया नरकनदीव अत एवाऽऽत्मैव कूटमिव जन्तुया- तनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली नरकोद्भवा / तथाऽऽत्मैव कामान्-अभिलाषान् दोग्धिकामितार्थप्राप कतया प्रदूरयति कामदुधा धेनुरिवधेनु: इयं च रूढ़ित उक्ता, एतदुपमत्त्वं चाभिलषितस्वर्गापवर्गावाप्तिहेतुतया, आत्मैव 'मे' मम नन्दनं नन्दननामकं वनम्-उद्यानम् एतदौषम्यं चास्य चित्तप्रह्लाद- हेतुतया यथा चैतदेवं तथाऽऽहआत्मैव कर्ता- विधायको दुःखानां, सुखानां चेति योग:, प्रक्रमाचात्मन एव विकरिता च- विक्षेपकश्चात्मैव तेषामेव अतश्चात्मैव मित्रम् उपकारितया सुहृत् 'अमित्तं' ति-अमित्रंच-अपकारितया दुर्हत कीदृक्सन्-'दुप्पट्टियसुपट्टिओ' त्ति-दुष्टं प्रस्थित:- प्रवृत्तो दुष्प्रस्थितः; दुराचाविधातेति यावत्; सुष्टु प्रस्थित: सुप्रस्थित:, सदनुष्ठान-कर्त्तति यावत्, योऽर्थः एतयोर्विशेषणसमासः, दुष्प्रस्थितो ह्यात्मा समस्दु:खहेतुरिति वैतरण्यादिरूपः, सुप्रस्थितश्च सकल सुखहेतुरितिकामधेन्वाकल्पः, तथा च- प्रव्रज्यास्थायामेव सुप्रस्थितत्वेन आत्मनोऽन्येषां च योगकरणसमर्थत्वान्नाथत्व-मिति सूत्रद्वयगर्भार्थः / उत्त०२० अ / आत्मा चावश्यं पालयितव्यःअप्पा खलु सययं रक्खिअव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहि। अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुबइ // 16 // आत्मा 'खल्विति'- खलुशब्दो विशेषणार्थ: शक्ती, सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः-पालनीय: पारलौकिकाऽपा- येभ्यः, कथमित्युपायमाह-सर्वेन्द्रियैः, स्पर्शनादिभिः सुसमाहितेन; निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः, अरक्षणरक्षणयो: फलमाह-अरक्षित: सन् जातिपन्थानम्- जन्ममार्गसंसारमुपैति-सामीप्येन गच्छति सुरक्षित पुनर्यथाऽऽगमनप्रमादेन सर्वदुःखेभ्य:-शारीरमानसेभ्यो विमुच्यते, विविधम्-अनेकै प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यत इति दश०२ चू। ___ आत्मा च सर्वस्याऽवलम्बनम्ममत्तं परिवज्जामि, निम्ममत्तं उवडिओ। आलंबणं च मे आया, अवसेसंच वोसिरे॥३७॥ तथा ममत्वम्-ममैतदित्येवं रूपो भावो ममत्वम्- प्रतिबन्धस्तव मनोऽभिमतवस्तुष्विति शेष: परिजानामि ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा: प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरामीत्यर्थ: अहं किंभूत: सन् निर्ममत्वंनि:सङ्गत्वम् उपस्थित:; आश्रित इत्यर्थः, तर्हि किमालम्बनतया चिन्तयतीत्याहआलम्बनं च आश्रयोऽवष्टम्भ: आधार इत्यर्थः 'मे' ममात्मैवाराधनाहेतुरयम्, अव-शेषम्अपरं; शरीरोपध्यादि सर्व व्युत्सृजामि। अथ केषु कार्येष्वयमात्माऽवलम्बनम्विषय इत्याहआया हू महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य। आया पञ्चक्खाणे, आया मे संयमे जोगे ||38|| अतति- सततं गच्छति तासु तासु यो निध्विति आत्मा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 232 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आता स मम ज्ञाने ज्ञानविषये आलम्बनं; सहाय इत्यर्थः, 'हू' स्फुट भवतु इति शेषः / आत्मा मे दर्शन सम्यक्त्वे चारित्रेऽपि चालम्बनं, तथा प्रत्याख्याने भक्तपरिज्ञारूपे संयमे च संयमसर्वविरत्यङ्गीकाररूपे, योगे च-प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापाररूपे ममाऽऽत्मैवालम्बनमनन्तान्यप्युपात्तानि द्रष्टव्यानि / एक एव चाऽऽत्मा सर्वमङ्गीकरोति। अथ निर्ममत्वाय एकत्वभावनां भावयतिएगो वचइ जीवो, एगो चेवुववज्जइ। एगस्स चेव मरणं,एगो सिज्भइ नीरओ / / 39 / / 'एगो वचई' एक: स्वजनधनादिरहितो व जति जीवो; भवान्तरमिति शेषः, एक एव च उत्पद्यते मनुष्यादिरूपतया, एकस्यैव मरणं भवति, एक एव च कर्मरजोरहितः सन् सिध्यति जीवः, भवान्तरगमनस्य मरणस्य चैकार्थत्वेऽपि पृथ गुपादानमेकत्व-भावनोत्कर्षपोषार्थं नानादेशजविनेयानां ध्यतार्थ प्रतिपादनार्थ वा। एगा मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सटवे संजोगलक्खणा / / 4 / / 'एगो मे' एक एव 'मे' मम आत्मा शश्वद्भवनात् शाश्वतः सहचारी ज्ञानदर्शनसंयुक्तः स एव; मदीय इत्यर्थः, शेषा केचन 'मे' मम बाह्या भावा: पदार्थाः; पुत्रकलत्रादिका: ते सर्वे संयोजन संयोग: स एव लक्षणं येषां ते तथा कृत्रिममेलापका एवेत्यर्थः; नतु शाश्वताः येषां संयोगस्तेषामवश्यंभावी वियोग इति हे तोर्न मदीयास्ते इति परमार्थः / आतु। आत्मकृतमेव च भुज्यतेको देइकस्स देज्जइ, विहियं को हरइ हीरए कस्स / सयमप्पणा विढत्तं, अल्लियइ सुहं पि दुक्खं पि // 19 // महा०६ अ. आत्मनैव च संसारमुत्तरतिणो णं गोयमा! गुरुसीसगाण निस्साए संसारमुत्तरेज्जा। णो णं गोयमा! परस्स निस्साए संसारमुत्तरेज्जा। अप्पणो निस्साए संसारमुत्तरेज्जा / महा. 3 अ.। (आत्मजयेनैव च क्रोधादिजय:) जे उ संगामकालंमि, नाया सूरपुरंगमा। णो ते पिट्ठमुवे हिंति, किं परं मरणं सिया / / 6 / / सूत्र०१ श्रु.३ अ०३ उ.1 (अस्या गाथाया अर्थ: 'अजत्तविसीयण' शब्दे प्रथमभागे 229 पृष्ठे गत:) तदेवं सुभटदृष्टान्तं प्रदर्श्य दाष्टान्तिकमाह-- तमेगे परिभासंति, भिक्खयं साहुजीविणं / जे एवं परिभासंति, अंत एते समाहिये // 6 // सूत्र 1 श्रु.३ अ३ उ. (अस्या गाथाया अर्थः 'परवादिवयण' शब्दे पञ्चमे भागे वक्ष्यते) धर्म: स्वाऽऽत्मसाक्षिक एव आया सयमेव अत्थाणं, निउणं जाणे जहहियं / आया चेव दुप्पतिज्जे, धम्मं वि य अत्तसक्खियं / / 9 / / महा. 10 / उक्तं च श्रीहरिभद्रपूज्यैः"आयप्पभवं धम्म, आयंति, य अप्पणो सरूवं च / दंसणनाणचरित्ते-गत्तं जीवस्य परिणामं // 1 // " रे भव्य! हिताय वदामः सर्वागमेषु धर्म आत्मन: शुद्धापरिणतिरेव निमित्तस्योपादानात्प्राकट्यहेतुत्वात्, बाह्या- चरणादिकं साथकैरारभ्यस्ते तथापि धर्महे तुत्वेनोपादेयं श्रद्धावद्भिः, तत्स्वात्मक्षेत्रव्यापक रूपानन्तपर्यायलक्षणं धर्म: उत्तराध्ययनावश्यकादिसर्वसिद्धान्ताशयः / अष्ट. 32 अष्ट / आत्मज्ञानस्यैव विद्यात्वम्नित्यशुच्यात्मताख्याति-रनित्याऽशुच्यनात्मसु / अविद्यातत्त्वधीविधा, योगाचार्यः प्रकीर्तिता // 1 // यः पश्ये नित्यमात्मान-मनित्यं परसंगमम् / छल लन्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः // 2 / / तरगतरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् / अदभ्र धीरनुध्याये-दभ्रवद्रं वपुः / / 3 / / शुचीन्यप्यशुचीकत्तुं, समर्थेऽशुचिसम्भवे / देहे जलादिना शौच-भूमो मूठस्य दारुणः ||1|| यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् / पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्माः परः शुचिः / / 5 / / आत्मबोधो न व: पाशो, देहगेहधनादिषु / यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु स्वस्य बन्धाय जायते ||6| मिथो युक्तपदार्थाना-मसंक्रमचमत्क्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषवानुभूयते / / 7 / / अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विधाजनस्पृशा। पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः ||8|| अष्ट. 14 अष्टः / (अस्याष्टकस्य व्याख्यां 'विज्जा' शब्दे षष्ठे भागे करिष्यामि) (आत्मविवेकस्यैव विवेकत्वम्)कर्मजीवं च संश्लिष्टं, सर्वदा क्षीरनीरवत् / विभिन्नीकुरुते योऽसी, मुनिहंसो विवेकवान् / / 1 / / देहाऽऽत्माधविवेकोऽयं, सर्वदा सुलभो भवे / भवतोऽद्यापि तद्वेद-विवे कस्त्वतिदुर्लभः / / 2 / / शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद, रेखाभिमिश्रिता यथा। विकार मिश्रिता भाति, तथात्मन्यविवेकतः / / 3 / / यथा योधैः कृतं युद्धं, स्वामिन्ये वोपचर्यते / शुद्धात्मन्यविवे के न, कर्मस्कन्धोर्जितं तथा / / 4 / / इष्टकाधपि हि स्वर्ण, पीतोन्मत्तो यथेक्षते / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता 233 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आताबणया आत्मा भेदभ्रमस्तद्द् , देहादावविवेकिनः / / 5 / / यच प्रश्नोत्तरे उत्सेधाङ्गुलेन प्रोक्तमस्ति तत्र किं चिद्विधेयमस्तीति।२८० इच्छन्न परमान्मावान् , विवेकाने: पतत्यधः। प्र.। सेन. 3 उल्ला० / 59 परमं भावमन्विष्य-नविवेकेनिमज्जति // 6 // आता(या)णुकं पय - त्रि. (आत्मानुकम्पक) आत्मानमेवानर्थआत्मन्येवात्मनः कुर्यात् य: षट्कारकसंगतिम् / परिहारद्वारेणानुकम्पते शुभानुष्ठानेन सद्गतिगामिनं विधत्ते काऽविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जलमज्जनात् // 7 // इत्यात्मानुकम्पक: / सूत्र. 2 श्रु 2 अ / आत्महितप्रवृत्ते, प्रत्येकबुद्धे संयमास्त्रं विवेकेन, शाणेनेत्तेजितं मुनेः। जिनकल्पिके च / स्था। "आयाणुकंपए णाममेगे" (सूत्र-३५२४) / धृतिधारोल्ल्वणं कर्म, शत्रुच्छेदक्षम भवेत् / / 8 / / आत्मनानुकम्पक: आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा अष्ट,१५ अष्ट.। परानपेक्षो वा निघृण: / स्था 40 ठा०४ऊ। आत्मार्चनस्यैव भावपूजात्वम् आता(या)णुस्सरण- न. (आत्मानुस्मरण) आत्मनोऽनुस्मृतौ, षो / दयाऽम्भसाकृतस्नानः,सन्तोषशुभवखभृत्। "आत्मानुस्मरणाय च" ||16 || आत्मनोऽनुस्मरणाय चविवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाशयः॥१॥ स्वयमेवानुस्मृतिनिमित्तम् / षो० // 16 विक। भक्ति श्रद्धानुघुसृणो-मिश्रकश्मीरजद्रवैः। आता(या)णुसासण- न० (आत्मानुशासन) आत्मनोऽनुशास्तौ, सूत्र / नवब्रह्मगतो देवं शुद्धमात्मानमर्चय // 2 // मा पच्छ असाधुता भवे, अचेही अणुसास अप्पगं / क्षमापुष्पस्वजं धर्म-युग्मक्षौमद्रयं तथा। अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवती बहुं // 7 // ध्यानाभरणसारं च तरङ्गे विनिवेशय // 3 // मा पश्चात्-मरणकाले, भवान्तरे वा कामानुषङ्गादसाधुमदस्थानभिदा त्यागै-लिखाडग्रे चाष्टमङ्गलम्। ताकुगतिगमनादिकरूपा भवेत्-प्राप्नुयादिति / अतो विषयाज्ञानाऽग्नौ शुभसंकल्प-काकतुण्डं च धूपय / / 4 / / सङ्गादात्मानम्- अत्येहि-त्याजय / तथा आत्मानं च अनुशाधिप्राग धर्मलवणोत्तार,धर्मसन्यासवहिना। आत्मनोऽनुशास्तिं कुरु, यथा हे जीव! यो ह्यसाधुः-असाधुकर्मकारीकुर्वन्पूरय सामर्थ्य- राजन्नीराजनाविधिम् / / 5 / / हिंसानृतस्तेयादौ प्रवृत्त: सन् दुर्गतौ पतित: अधिकम्- अत्यर्थमेवं शोचति, स च परमाऽधार्मिकै कदर्थ्यमानस्तिर्यक्षु वा क्षुधादिवेदनाग्रस्फुरन्मङ्गलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः / स्तोऽत्यर्थं स्तनति-सशब्दं नि:श्वसिति / तथा-परिदेवते विलपतियोगनृत्यपरस्तूर्य-त्रिकसंयमवान् भव / / 6 / / आक्रन्दति। सुबह्निति। "हा मातर्मियत इति, त्राता नैवाऽस्ति सांप्रतं उल्लसन्मनस: सत्य- घण्टा वादयतस्तव। कश्चित् / किं शरणं मे स्यादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य ? // 1 // " भावपूजारतस्येत्थं, करक्रोडे महोदयः / / 7 / / इत्येवमादीनि दुःखान्यसाधुकारिण: प्राप्नुवन्तीत्यतो विषया-नुषङ्गो न द्रव्यपूजोचिताभेदो-पासना गृहमेधिनाम्। विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति संबन्धनीयम् / सूत्र 10 श्रु० 2 भावपूजा तु साधूना-मभेदोपासनात्मिका / / 8 / / अ०३० अष्ट.२९ अष्टः। (अस्याष्टकस्यव्याख्या 'पूया' शब्दे पञ्चमे भागे वक्ष्यते) आताब पुं. (आताप) ईषत्तापे आचा। "णो खलु मे कप्पति अगणिकार्य मोक्षे, संयमे च।"आतताएपरिव्वए" |7|| आत्मा-मोक्षः, संयमो था; उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए वा कायं आयाबेत्तए वा पयावेत्तए वा" तद्भावस्तस्मै तदर्थं परि-समन्ताद् व्रजेत्; संयमानुष्ठानक्रियायां (सूत्र-२१+) / कायम्-शरीरमीषत्तापयितुं वा प्रकर्षेण तापयितुं दशावधानौ भवेदित्यर्थः / सूत्र. 1 श्रु०३ अ०३ उ / तथा प्रतापयितुंवा। आचा०१ श्रु०८, अ०३ऊ।"अनादी स्वरादसंयुक्तानां प्रवचनसारोद्धारवृत्त्यादौ इन्द्रियविषयप्रमाणता आत्मालगुलेन क-ख-त-थ-प-फां-ग-घ-द-ध-ब-भा:" |396 || इति प्रोक्ताऽस्ति चक्षुष उत्कृष्टविषयतायां कृतलक्षयोजनरूपो विष्णुकुमारो अपभ्रंशे पस्य बः। प्रा. दृष्टान्त: प्रोक्तोऽस्ति तथा हिचक्षुः सातिरेकयोजनलक्षाद्रूपं गृह्णातीति, आता(या)बग पुं(आतापक) आतापयत्यातापनां शीतातपादिसहनरूपां सातिरेकत्वं तु विष्णुकुमारादयः स्वपदपुर:स्थितं गर्तादिकं तन्मध्यगतं च लेष्वादिकं पश्यन्तीति नवतत्त्वमहाचूण्णावस्ति, इति चक्षुषः करोतीत्यातापकः / स्था०५ ठा०२ ऊ / आतापनाग्राहिणि परतीर्थिकभेदे, सातिरेकलक्षयोजनदूरस्थरूपग्रहणविषये दृष्टान्तकरणाद्विप्णु सूत्र २,श्रु२०॥ कुमारविकुर्वितरूपमात्मालङ्गुलेन संभाव्यते, अन्यथा न दृष्टान्तसंगति आता(या)बण न (आतापन) सकृदीषद्वा तापने, "आयाबिज्जा न रित्येवं सति प्रश्नोत्तर-समुच्चयचतुर्थप्रकाशप्रान्ते यद्विष्णुकुमारवि पयाबेज्जा" सकृदीषदा तापनमातापनम् / दश. 4 अ / शीतादिभि: कुर्वितरूप-मुत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नलक्षयोजन-प्रमाणमुक्तमस्ति शरीरस्य सन्तापने च / स्था. 3 ठा० ३ऊ / तत्कथमिति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् -विष्णुकुमारकृतं सातिरेकलक्षयोजन- | आता(या)बणयास्त्री. (आतापनता) आतापनानांशीतादिभि: शरीरस्य प्रमाणरूपं चमरेन्द्रादिवत्प्रमाणाङ्गुलेनापि संभवतिन काऽपि विप्रतिपत्तिः | संतापनानां भाव: आतापनता। शीतातपादे: सहने, स्था 30 ठा०३ऊ। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आताबणा 234 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आताबणा आता(या)बणा-स्त्री. (आतापना) शीतादिसहनात्मकेतपोभेदे; पञ्चा।। 'आयाबणठाणमाईया // 48 // " पञ्चा० 18 विक। "आयाबणाए आयोबेमाणस्स" / आ०म० 1 अ० 124 गाथाटी!"आताबते' (सूत्र ३९६४)आतापयति-आताप-नाम् -शीताऽऽतपादिसहनरूपाम्। स्था० ५ठा०१ऊ। "आयाबणा य तिविहा, उक्कोसा 1, मज्भिमा 2 जहन्ना य 3 / उक्कोसा उ निविण्णा, निसण्णमज्भा ठिय जहन्ना // 3 / / तिविहा होइ निवण्णा, ओमंथिय 1, पास 2 तइय उत्ताणा।।" इति। निषण्णाऽपि त्रिविधा"गोदुह उक्कुड्ड पलियं-कमेस तिविहा य मज्जिमा हो। तइया उ हत्थिसुंड-गपायसमपाइया चेव॥१॥" इयं च निषण्णादिका त्रिविधाप्यातापना स्वस्थाने पुन-रुत्कृष्टादिभेदा ओमन्थियादिभेदेनावगन्तव्या / इह च यद्यपि स्थानातिगत्वादीनामातापनायामन्तर्भावस्तथापि प्रधानेतर-विवक्षया न पुनरुक्तत्त्वं मन्तव्यमिति। स्था०५ ठा०१ऊ। तद्वक्तव्यतनो कप्पइ निग्गंथीए बहिया गामस्स वाजाव सन्निवेसस्स वा उळ बाहाओ पगिज्जिय 2 सुराभिमुहाए एगपाइयाए ठिया आयाबणाए आयाबित्तए 1 // 23 / / कप्पइ से उवस्सयस्स अंतोवगडाए संघाडिपडिबद्धाए पलंबियाहियाए समतलपाइयाए ठिचा आयाबणाए आयाबित्तए॥२४॥ नो कल्पते निग्रन्थ्या बहिग्रामिस्य वा यावत् संनिवेशस्य वा ऊर्ध्वम्ऊर्ध्वमुखो बाहू प्रगृह्य; प्रकर्षण गृहीत्वा; कृत्वेत्यर्थः, सूर्याभिमुख्या एकपादिकाया एकं पादमूर्द्धमाकुच्य अपरं एकपदे सुविकृतवत्या एवंविधाया: स्थित्वा आतापयितुम्॥२३॥ किंतु कल्पते- 'से' तस्याः उपाश्रयस्यान्तर्वगडायाः संघाटी-प्रतिबद्धाया: प्रलम्बितबाहुकायाः समतलपादिकाया: स्थित्वा आतापनया- आतापनाय; आतापयितुमिति सूत्रार्थ:। अथ भाष्यम्आयाबणा य तिविहा, उक्कोसा मज्जिमा जहण्णा य / उक्कोसा उणिवण्णा, णिसण्णमज्जा वि य जहण्णा / / 265 / / आतापना त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा,जधन्या च। तत्रोत्क्रष्टा-निवन्नानिपत्य; शयितो यां करोतीत्यर्थः / मध्यमा-निषण्णस्य, जघन्या तु ऊर्द्धस्थितस्य। उक्कोसा दुहओ वि, मज्भिममज्जिमा जहन्ना य / अहमुक्कोसाहममज्जिमा, यह अहमाऽधमा चरिमा / / 267 / / निषण्णस्य मध्यमा आतापना, सा द्विधा-मध्यमोत्कृष्टा, 'दुहओ वि मज्जिम' ति मध्यममध्यमा, मध्यमजघन्या / ऊर्ध्व-स्थिततस्य या जघन्या सा त्रिधा-अधमोत्कृष्टा अधममध्यमा। अधमा च चरमेति अधमशब्दोजघन्यवाचकोऽत्र द्रष्टव्यः / एतासामिदं सूत्रम्पलियकअद्ध उक्कड़ -गमो यतिविहा उ मज्जिमा होई। तइया उहत्थिसुंडे-गपादसमपादिगा चेव // 268 / / मध्यमोत्कृष्टा-पर्यङ्कासनसंस्थिता, मध्यममध्या- अर्द्धपर्यङ्का, मध्यमजघन्या-उत्कुटु का / क्वचिदादर्श पूर्वार्द्धमित्थं दृश्यते" गोदोहुक्कुडपलियंकमो यं वि तिविहा उ मज्भिमा होई "त्ति, तत्र मध्यमोत्कृष्टागोदोहिका, मध्यमाउत्कुटुका, मध्यम जघन्यापर्यङ्कासनरूपा / गोशब्द; पादपूरणे, एषा त्रिविधा मध्यमा भवति / या तु तृतीयाऽस्ति तस्या जघन्योत्कृष्टादिभेदात्रिधा भणिता, सजधन्योत्कृष्टा, हस्तिसुण्डिका, पुनर्नाभ्यामुपविष्टस्यैकपादोत्पादनरूपा ! जघन्यमध्यमाएकपादिका, उत्थि-तस्यैकपादेनावस्थानं, जघन्यजघन्यासमतलाभ्यां पादाभ्यां स्थित्वा, यदूर्ध्वस्थितैराताप्यते। कथं पुन: शयितस्योत्कृष्टा आतापना भवतीत्युच्यतेसव्वंगिओपतावो, यताविया धम्मरस्सिणा भूमी। ण य कमइ तत्थ वाऊ, विस्सामो नेव गत्ताणं // 266 / / भूमौ निवन्नस्य सर्वाङ्गानां प्रताप:-प्रकर्षेण तापोलगतिघर्मरश्मिना च भूमि: प्रकर्षणात्यन्ततापिता,नच तत्र भूमौवायु: क्रमते-प्रचरतिनच गात्राणाम्- अङ्गानां विश्रामो भवति, अतो निवन्नस्योत्कृष्टा आतापना मन्तव्या। अथैतासां मध्यमादार्यिकाणां का आतापना कर्तुं कल्पते इत्यत . आहएयासिंणवण्हा- गुण्णाया संजईण अंतिल्ला। सेसा नाणुनाया, अतु आतावणा तेसिं / / 270 / / एतासां नवानामप्यापनानां मध्याद् अन्तिमासमपादिकाख्या आतापना संयतीनासमनुज्ञाता, शेषा अष्टावातापना आसां नाऽनुज्ञाता: / __कीदृशे पुन: स्थानेच आतापयन्तीत्युच्यते-- पालीहि जत्थ दीसइ, जत्थय सहरं विसति नहुदाता। उग्गहमादिसुसज्जा, आयाबयते तहिं अज्जा / / 272 / / यत्र प्रतिश्रयपालिकाभिः-संयतीभि: आतापयता दृश्यते।यत्र च स्वैरंस्वच्छन्दं युवानो न प्रविशन्ति तत्र स्थाने अवग्रहानन्तकादिभिः संघटिकान्तैरुपकरणे: सज्जा-आयुक्ता आर्यिका प्रलम्बितबाहुयुगला आतापयन्ति। किमर्थमवग्रहानन्तकादिसज्जेति चेदत आह-- मुच्छाए विवडिताए, तावेण मुमुच्छतेव संवरणे। गोचरमजयणदोसा, जे दुत्ता ते उ पावेआ ||272 / / तस्या आतापयन्त्या: खरतराऽऽतपसंपर्क परितापिताया: कदाचिन्मूच्छा संजायेत तया च निवतिता वा तेन वा पुनरेवैका त्रिविधातिविहा होई निवण्णा, ओमंथे पासतइयमुत्ताणा। उक्कासुक्कोसा उक्को-समज्मिमा उक्कोसगजहण्णा // 266 / / निवन्नस्योत्कृष्टा आतापना, सा त्रिविधा भवति- उत्कृष्टोत्कृष्टा, उत्कृष्टमध्यमा, उत्कृष्टजघन्या च / तत्र यदवाडखं निपत्य आतापना क्रियतेसा उत्कृष्टोत्कृष्टा, यातुपार्श्वत: शयाने क्रियतसा उत्कृष्टमध्यमा, या पुनरुत्तानशयनेन विधीयते सा उत्कृष्टजधन्या। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आताबणा 235 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आतारामि संवरणे-प्रावरणे समुद्भूते 'अग्रहानातकादिभिर्विना गोचरचर्यायामयतनया प्रविष्टाया ये दोषास्तृतीयोद्देशकेउक्तास्तान्प्राप्नुयात्, अतस्तै: प्रावृता आतापयेत्। वृ०५ उ / (आतापनोदकतीरे न कर्तव्येति 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते।) आताबि (न)-पु.- (आतापिन्) आतापयति-आतापनां शीतातपादिसहनरूपां करोतीत्यातापी। शीतादिसहनकर्तरि, स्था०४ ठा०३ उा वस्त्रादेरातपेदातरि च। कल्प०३ अधि०९क्षण / आतपति आ-तप्णिनि / पक्षिभेदे. क्षीरस्वामी वाचा आता(या)बित्तए- अव्य. (आतापयितुम्) आतपे दातुमित्यर्थे, "आयाबित्तए पयाबित्तए वा' (सूत्र 124) आतापयि-तुमेकवारमातपे दातुं, प्रतापयितुं पुन: पुनरातपे दातुमिच्छति। कल्प०३ अधि०९ क्षण। आता(या)बिया-अव्य. (आतापयित्वा) आतापनां कृत्वत्यर्थे "आयाबिय" (सूत्र-x)| आचा०२ श्रु०१चू.२ अ०३ ऊ / आता(या)बेमाण- त्रि. (आतापयत्) आतापनां कुर्वति, "आयाबणाए आयाबेमाणस्स छटेणं भत्तेणं" (524 गाथाटी.) आ०म०१ अ। आता(या)भिणिवेस- पुं० (आत्माभिनिवेश) आत्मनोऽभिनि-वेशे, यावच्चात्माभिनिवेशस्तावदेव संसार: 1 नका शौद्धौदनीया: पुनरेवमाहुःनैरात्म्यादिभावना रागादिक्लेशप्रहाणिहेतु: नैरात्म्यादिभा- बनाया: सकलरागादिविपक्षभूतत्वात्, तथाहि नैरात्म्यावगतौ नाऽऽत्माभिनिवेश: / आत्मनोऽवगमाभावाद्, आत्माभिनिवेशा- भावाच न पुत्रभ्रातृकलत्रादिष्वात्मीयाभिनिवेश: आत्मनो हि य उपकारी स आत्मीयो, यश्च प्रतिघातकः स द्वेष्यः, यदा त्वात्मैव न विद्यते किन्तु | पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धाना: पूर्वपूर्वहेतुप्रतिबद्धा ज्ञानक्षणा एव तथा तथोत्पद्यन्ते तदा क: कस्योपकर्ता उपधातको वा ? ज्ञानक्षणानां च क्षणमात्रावस्थायितया पर-मार्थत उकर्तुमपकर्तुं वा अशक्यत्त्वात, तन्न तत्त्ववेदिनः पुत्रादिष्वात्मीयाभिनिवेशो, नाऽपि वैरिषु द्वेषो, यस्तुलोकानाममात्मीयानात्मीयाद्यभिनिवेश: सोऽनादिवासनापरि-पाकोपनीतो वेदितव्योऽतत्त्वमूलत्वात्, ननु यदि न परमार्थत: कश्चिदुपकार्योपकारकभावस्तर्हि कथमुच्यते भगवान् सुगत: करुणया सकलसत्त्वोपकाराय देशनां कृतवानिति / क्षणिकत्वमपि च यद्येकान्तेन तर्हि तत्त्ववेदी क्षणानन्तरं विनष्टः सन्ना कचनाऽप्येवं भूयो भविष्यामीति जानान: किमर्थं मोक्षाय यत्नमारभते? तदयुक्तम्, अभिप्रायापरिज्ञानात् भगवान् हि प्राचीनायामवस्थायामवस्थित: सकलमपिजगद्रागद्वेषादिदुःखसंकुलमभिजानान: कथमिदं सकलमपि जगन्मया दु:खादुद्धर्तव्यमिति समुत्पन्नकृपाविशेषा नैरात्म्यक्षणिक- त्वादिकमवगच्छन्नपि तेषामुपकायसत्त्वानां नि:क्लेशक्षणोत्पादनाय प्रजाहितो राजेव स्वसंततिशुद्ध्यै सकलजगत्साक्षा-त्करणसमर्थः स्वसंततिगतविशिष्टक्षणोत्पत्तये यत्नमार-भते, सकलजगत्साक्षात्कारमन्तरेण सर्वेषामक्षणविधानमुपकर्तुमशक्यत्वात् / ततः समुत्पन्नके वलज्ञान: पूर्वाऽहित कृपाविशेषसंस्कारवशात् कृतार्थोऽपि देशनायां प्रवर्तते इति / तदेवं श्रुतमप्यात्मप्रज्ञया निर्दोषं नैरात्म्यादिवस्तुतत्त्वं परिभाव्य भावत: तथैव भावयतो जन्तोर्भावनाप्रकर्षविशेषतो वैराग्यमुपजायते, ततो मुक्तिलाभः, यस्त्वात्मानमभिमन्यते न तस्य मुक्तिसंभवोयत् आत्मनि परमार्थतया विद्यमाने तत्रस्नेह: प्रवर्तते। ततः स्नेहवशाच तत्सुखेषु परितर्षवान् भवति, तृष्णा-वशाच सुखसाधनेषु दोषान् सतोऽपि तिरस्कुरुते गुणा-स्त्वभिभूतानपि पश्यति / ततो गुणदर्शी सन् तानि ममत्व-विषयीकरोति तस्माद्यावदात्माभिवेश: तावत्संसार:, आहच"य: पश्यत्यात्मानं तत्रा-स्याहमिति शाश्वत: स्नेहः / स्नेहात्सुखेषु तृष्यति, तृष्णादोषांस्तिरस्कुरुते॥१॥ गुणादर्शी परितृष्यन् ,ममेति तत्साधनान्युपादत्ते! तेनात्माभिनिवेशो, यावत्तावत्स संसारे" // 2 // तदेतत्सर्वमन्त:करणकृ तावासमहामोहमहीयस्ताविलसितम्, आत्माभावे बन्धमोक्षाऽऽधकाधिकरणत्वायोगात्, तथाहि - यदि नात्माभ्युगम्यते किं तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसंधाना ज्ञान-लक्षणा एव, तथा सत्यन्यस्य बन्धः, अन्यस्य मुक्तिः, अन्यस्य क्षुद्, अन्यस्य तृप्तिः, अन्योऽनुभविता, अन्य: स्मर्ता, अन्य-श्चिकित्सादुःखमनुभवति, अन्यो व्याधिरहितो भवति, अन्य: तप:क्लेशमपि सहते; पर: स्वर्गसुसुखमनुभवति, अपर; शास्त्रमभ्यसितुमारभते, अन्योऽधिगतशास्त्रार्थो भवति, न चैतद्युक्तम्, अतिप्रसङ्गात्, सन्तानापेक्षया बन्धमोक्षादेरेकाधि- करण्यमितिचेत्, न, सन्तानस्यापि भवन्मते नानुपपद्यमानत्वात्, सन्तानो हि सन्तानिभ्यो भिन्नो वा स्यादभिन्नो वा? यदि भिन्नस्तर्हि पुनरपि विकल्पयुगलमुपढौकते / स किं नित्य: क्षणिको वा ? यदि नित्यस्ततो न तस्य बन्धमोक्षादिसंभवः; आकालमेकस्व-भावतया तस्यावस्थावित्र्यानुपपत्तेः / न च नित्यं किमप्यभ्युपगम्यते, "सर्व क्षणिकम्" ति वचनात. अथक्षणिकस्तर्हि तदेव प्राचीनं बन्धमोक्षादिवैयधिकरण्यं प्रसक्तम्, अथाभिन्न इति पक्षस्तर्हि सन्तानिन एव, न सन्तान:, तदभिन्नत्वात्, तत्स्वरूपवत, तथा च सति तदवस्थमेव प्राक्तनं दूषणमिति।नं। आता(या)मिसित्त पुं. (आत्माभिषिक्त)। निजबलेन राज्या-भिषिक्ते भरतदौ, व्य। अहवा राया दुविहो,आयामिसित्तो परामिसित्तोय। आयाँभिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु ||105 / / राजा द्विविधो भवति / तद्यथा-आत्माभिषिक्तः, पराऽभिषि-क्तश्च / व्य५ उ / (विशेषतश्वास्या गाथाया: व्याख्या षष्ठे भागे 'राय' शब्दे करिष्यते) आता(या)रामि(न्) पुं० (आत्मारामिन्) आत्मविश्रामिणि आत्मानुभवमग्ने, सस्वयं संसारान्निवृत्तस्तत्सेवनापरान्नि-स्तारयति। अष्ट.९ अष्टा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतालिजंत 236 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आताहम्म आतालिज्जंत- त्रि. (आताड्यमान) आ-समन्तात् ताड्यमाने, "आतालिज्जताणंतालीणं, तालाणं कंसतालाणं"ति। आ. चू.१ अ.। आता(या)व-पुं(आताप)"पो वः" ||8|231 // इति प्राकृतसूत्रेण पस्यवः / असुरकुमारविशेषे, विशेषस्तुनावगम्यते इति, अभयदेवसूरि: / भ०१३ श०६ उ.। आया(या)वाइ(न) पुं--(आत्मवादिन)"से आयावादी' (सूत्र-५४)1 आत्मानं वदितुं शीलमस्येति / आचा० 1 श्रु. 1 अ०१ऊ.!"एस आयावाई" (सूत्र 1654) / यथावस्थितात्मवादिनि, आचा. 1 श्रु.५ अ०६ उ. I (आत्मवादिनोऽशेषवक्तव्यताऽऽचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्य प्रथमे उद्देशके (सूत्र५ आरभ्य) सा 'आता' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) तथा च ऐक्यवादिनमधिकृत्य-अपरस्त्वामैवास्ति; नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्- "पुरुष एवेद सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति यन्नैजति यद् दूरे यदन्ति केयदन्त-रस्य सर्वस्यास्य बाह्यतः" इति / स्था. टी. 8 ठा०३ उ.। येऽपि च आत्मवादिन: "पुरुष एवेदं सर्वमि" त्यादि प्रतिपन्नाः, तेऽपि महामोहोरगगरलपूरमूर्च्छितमानसा वेदितव्याः / नं.। (अत्र विस्तरं 'एगावाइन्' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यामि) आता(या)हम्म-न. (आत्मघ्न)। आत्मा हन्यते तेषु तेषु यातनास्थानेषु येन तदात्मघ्नम्। दर्श. 4 तत्त्व। ___आत्मघ्नैकार्थिकानिआहा अहे य कम्मे, आताहम्मे य अत्तकम्मे य। तं पुण आहाकम्म, नायव्वं कप्पते कस्स 11110|| आधाकर्म 1, अध:कर्म 2, आत्मघ्न: 3, आत्मकर्म 4, इति चत्वारि नामानि / (बृ.) आत्मानं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं हन्तिविनाशयतीत्यात्मघ्नम् / बृ०४ उ.। आत्मानं दुर्गतिप्रपात-कारणतया हन्तिविनाशयतीत्यात्मघ्नम्। पिं / आधाकर्मणि, पिं०। (आत्मघ्नस्याधाकम्मैकार्थकत्वम् 'आधाकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो वक्ष्यते) एतस्य निक्षेपः-- आयाहम्मे वि चउट्विधो निक्खेवो, दव्वाऽऽयाहमे अणुवउत्तो पाणाऽतिवायं करेंतो भावाऽऽते णाणदंसणचरणा, तं हणं तो भावाऽऽताहम्मं / नि. चू१० ऊ। संप्रत्यात्मघ्ननाम्नोऽवसर: तदपि चात्मघ्नं चतुर्द्धा, तद्यथानामाऽऽत्मघ्नं, स्थापनात्मघ्नं, द्रव्यात्मघ्नं, भावात्मघ्नं च / इदमप्यध:कर्मवत् तावद्भावनीयं यावन्नोआगमतोज्ञशरीर-द्रव्यात्मघ्नम्, भव्यशरीरद्रव्यात्मघ्नम्। ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तंतुद्रव्यात्मघ्नं नियुक्तिकृदाहअट्ठाए अणट्टाए, छक्कायपमद्दणं तु जो कुणइ / अनियाए अनियाए, आयाहम्मं तयं वेति / / 103| योगृही अर्थाय-स्वस्य परस्य वा निमित्तम्, अनर्थाय प्रयो-जनमन्तरेण एवमेव पापकरणशीलतया 'अणियाए य नियाए' त्ति-निदानं निदाप्राणिहिंसा नरकादिदुःखहेतुरिति जानतापि, यदा-साधूनामाधाकर्मन कल्पते इति परिज्ञानवता यज्जी-वानां प्राणध्यपरोपणं सा निदा। तन्निषेधाद्- अनिदा यत् स्वं पुत्रादिकमन्यं वा विभागेनाविविच्य सामान्येन विधीयते / अथ वा- व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य हा धिक् संप्रत्येष मां मारयिष्यतीति परिज्ञानतो यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तद्विपरीताअनिदा, यत् अजानतो व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य व्यापादनमिति। तथा चाह भाष्यकृत्जाणंतों अजाणतो, तहेव उदिसिय ओहओवाऽवि। जाणगअजाणगं वा, वहेइ अनिया निया एसा // 31 // व्याख्यातार्थ / ततो निदया अनिदया वा यः षट्कायप्रमर्दनं करोतिषण्णां पृथिव्यादीनां कायानां प्राणव्यपरोपणं विदधाति। तत् षट् कायप्रमईनम् आत्मघ्नम् नोआगमतो द्रव्यात्मनं ब्रुवन्ति तीर्थकरगणधराः / अथ षट्कायप्रमर्दनं कथंनोआगमतो द्रव्यात्मघ्नम् ? यावता भावाऽऽत्मघ्नं कस्मान्न भवति? अत आह... दव्वाऽऽया खलु काया, अस्य व्याख्या-काया:-पृथिव्यादय: खलु निश्चयेण द्रव्यात्मानो द्रव्यरूपा आत्मान: जीवानां गुणपर्यायवत्तया द्रव्यत्वात्, उक्तं च"अजीवकाया:-धाऽधाऽऽकाशपुद्गलाः, द्रव्याणि जीवाश्च" (तत्त्वा०५अ-सूत्र 1-2) इति। ततस्तेषां यत् उपमर्दनं तत्द्रव्याऽऽत्मघ्नं भवति। उत्तं द्रव्यात्मघ्नम्। संप्रति भावाऽऽत्मघ्नं वक्तव्यं, तच द्विधा-आगमतो, नोआग-मतश्च / तत्र आगमत आत्मघ्नशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः / नोआगमत आत्मघ्नमाह भावाऽऽया तिन्नि नाणमाईणि। परपाणपाडणरओ, चरणायं अप्पणो हणइ / / 104 / / भावाऽऽत्मानो भावरूपा आत्मानस्त्रीणि ज्ञानादीनिज्ञानदर्शनचारित्राणि आत्मनो हि पारमार्थिकं स्वस्वरूपं ज्ञानदर्शनचरणात्मकं ततस्तान्येव परमार्थत आत्मनो न शेषं द्रव्यमानं स्वस्वरूपाभावात्, ततो यश्चारित्री सन् परेषां पृथिव्यादीनां ये प्राणा इन्द्रियादयस्तेषां यत् पातनं-विनाशनं तस्मिन् रत:- आसक्त: स आत्मनश्चरणरूपं भावाऽत्मानं हन्ति / चरणात्मनि च हते ज्ञानदर्शनरूपावप्यात्मानौ परमार्थतो हताविव द्रष्टव्यौ। यत आहनिच्छयनस्य चरणा-ऽऽयविघाए नाणदंसणवहो वि। ववहारस्स उचरणे,हयम्मि भयणा उसेसाणं / / 10 / / निश्चयनयस्य मतेन चरणात्मविघाते सति ज्ञानदर्शनयोरपि वधोविघातो द्रष्ट व्यः, ज्ञानदर्शनयो र्हि फलं चरणप्रतिपत्तिरूपा सन्मार्ग प्रवृत्तिः / सा चेन् नास्ति तर्हि ते अपि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आताहम्म 237 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आदंसग ज्ञानदर्शने परमार्थतोऽसती एव, स्वकार्याकरणात् / उक्तं च ] आती(अप्पी)कय- त्रि. (आत्मीकृत)। आत्मना गाढत-रमागृहीते मूलटीकायामचरणाऽऽत्मविधाते ज्ञानदर्शनवधोऽपि तयो- | आत्मप्रदेशैस्तुलग्नतोयवन्मिश्रीभूते, विशे० / आ०म० / श्वरणफलत्वात् फलाभावे च हेतोर्निरर्थकत्वादिति / अपि च-यश्वरणं | आतीय- त्रि० (आतीत) आ-समन्तादतीव इत:-ज्ञात: / सम-न्तादतीव प्रतिपद्य आहारलाम्पट्यादिना ततोम विनिवर्ततेस नियमाद्भगवदाज्ञा- ज्ञाते, सामस्त्येनातिक्रान्ते, समन्तादतीव गते च। आचा०१ श्रु०८ अ०६ विलोपादिदोषभागी,भगवदाज्ञाविलोपादौ च वर्तमानो न सम्यग्ज्ञानी उ.। "अणातीये" (सूत्र 222+) आ- समन्तादतीव इतोनापि सम्यग्दर्शनी। उक्तंच गतोऽनाद्यनन्ते संसारे आतीत: न आतीतोऽनातीतः, अनात्तो वा संशयो येन स तथा; संसारार्णवपारगामीत्यर्थः / आचा०१ श्रु०८ अ०७ ऊ / "आणाइ चिय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गं ति। *आत्मीय-त्रि आत्मनोऽयम् छ अत्ययः छस्य ईयाऽऽदेशआणं च अइक्कतो, कस्साऽऽएसा कुणइ सेसं" // 1 // श्व। आत्मसंबन्धिनि, वाच०। तथा आतीयट्ठ-त्रि. (आतीतार्थ) आ-समन्तादतिशयेन ज्ञात-जीवादिपदार्थे, "जो जह वार्य न कुणइ, मिच्छादिट्ठी-तओहु को अन्नो। सामस्त्येनातिक्रान्तार्थे उपरतव्यापरे,"आतीयढे अणातीए" (सूत्रवड्वेइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो" // 2 // 222+) आ-समन्तादतीव इता:-ज्ञाता: परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन ततश्चरणविधाते नियमतो ज्ञानदर्शनविधातः / व्यवहारस्य- सोऽयमतीतार्थ: आदत्तार्थेवा। यदिवा-अतीता: सामस्त्येनातिक्रान्ता व्यवहारनयस्स पुनर्मतेन हते चरणे शेषयोनिदर्शनयोजना अर्थाः-प्रयोजनानियस्य स तथा; उपरतव्यापार इत्यर्थः / आचा०१ श्रु० क्वचिद्भवत: / क्वचिन्न। य एकान्तेन भगवतो विप्रतिपन्नस्तस्य न भवतो ८अ०६ऊ। यस्तु देशविरतिं भगवति श्रद्धानमात्र वा कुरुते तस्य व्यवहारनयमतेन आतुर-त्रि. (आतुर) ईषदर्थे, आ। आत-उरच् / कार्याऽक्षमे वाच० / सम्यग्दृष्टित्वाद्भवत इति। ततो निश्च-यनयमतापेक्षया चरणात्मनि हते विह्वले, उत्त० 32 अ! ज्ञानदर्शनरूपावप्यात्मानौ हतावेवेति / परप्राणव्यपरोपणरतः आतेस्सरिय न. (आत्मैश्वर्य) स्वरूपसाम्राज्ये, अष्ट, आत्मैसमूलधातमात्मघ्न इति परप्राणव्यपरोपणमात्मघ्नं, तच्च साधोराधा श्वर्यमस्वरूपसाम्राज्यम् (1 श्लोकटी.) अष्ट. 12 अष्ट.। कर्मभुञानस्यानु- मोदनादिद्वारेण नियमत: संभवतीत्युपचारत: आत्त(ताय) त्रि. (आदत्त) गृहीते अनु। "आत्तएणं सरीरसमुस्सएणं आधाकर्म आत्मघ्नमित्युच्यते तदेवमुक्तमात्मघ्ननाम / पिं० / जिणदितुणं भावेणं," (सूत्र 17+) / आत्तेन आदत्तेन वा गृहीतेन आत्मघ्नपिण्डे, पिं प्राकृतशैलीवशादात्मीयेन वा / अनु० / आता(या)हिगरणवत्तिय- त्रि० (आत्माधिकरणप्रत्यय) आत्ततर-त्रि. (आत्ततर) अतिशयेन आत्तो-गृहीत: आत्ततरः / यत्नेनाध्यवसिते, आचा०१ श्रु०८ अ०८ऊ। आत्मनोऽधिकरणानि आत्माधिकरणानि तान्येव प्रत्यय:-- कारणं यत्र क्रियाकरणे तदात्माधिकरणप्रत्ययम् / आत्माधिकरण-कारणके आदं (यं)स पुं. (आदरिस-आदस्स-आदर्श) आदृश्यतेऽत्र दृश-आधारे घञ्। वाचा / आ-समन्तादृश्यते आत्मा यस्मिन् स आदर्श: 1 सूत्र०१ "आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो इरियावाहिया किरिया कज्जइ, श्रु 4 अ०२ऊ। दर्पणे, रा०1"आदंसंगच पयच्छाहि" (सूत्र-११)। सूत्र संपराइया किरिया कज्जइ'' (सूत्र-२६२४)। साम्परायिकी क्रिया क्रियत 1 श्रु०४ अ० 2 उ० / चक्षुरिन्द्रियजज्ञाने च / "श्रावण इति योग: / भ०७ श०१ उ / वेदनादर्शाऽऽस्वादवाश्चि वित्तयः // 11 // " द्वा० / आदर्शश्चक्षुरिन्द्रियआता(या)हिगरणि (न)- पु. (आत्माधिकरणिन) / अधि-करणी जज्ञानम्, आ-समन्तात् दृश्यते-अनुभूयते रूपमनेनेति कृत्वा, कृष्यादिमान् आत्मनाऽधिकरणी आत्माधिकरणी / आत्मना यत्प्रकर्षादिव्यरूप-ज्ञानमुत्पद्यते। द्वा०२६ द्वा० / तत्र हि बिम्बपदार्थस्य कृष्यादिमति, भ०१६ श०१ उ ।'"आया हिगरणी भवइ" (सूत्र-२६२४) / प्रतिबिम्बपतनात् तत्संयोगेन नयनरश्मीनां परावर्तने वा बिम्बग्रीहितया आत्माजीवोऽधिकरणानिहलशकटा-दीनि कषा-याश्रयभूतानि यस्य बिम्बं दृश्यते इति तस्य तथात्वम्। आदृश्यते सम्यग्रूपेण ज्ञायते ग्राम्यार्थी सन्ति सोऽधिकरणी। भ०७ श०१ऊ। यस्मिन् / टीकायां 3 प्रति-रूपपुस्तकादौ यत्रत्यमक्षरसन्निवेशं दृष्टवा तदनुरूपमन्य-ल्लिख्यते तादृशे पुस्तकेयथादर्श तथा लिखितमितिभूरि आता(या)हिय- त्रि. (आत्महित) आत्मोपकारके, आचा० / प्रयोगः / तत्र तदीयगुणान् दृष्ट्रा परैस्तथा गुणा आश्रीयन्त इति तस्य "परलोकविरुद्धानि, कुर्णानं दूरतस्त्यजेत् / आत्मानं यो न सन्धत्ते, तथात्वम् / जनपदसीमाभेदे च / वाच / वृषभादिग्रीवाभरणे च / सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः // 1 // " इति आचा० 1 श्रु०६ अ०४ उ आदर्शस्तुवृषभादिग्रीवाभरणम् / अनु / आता(ती)ण- न. (आजिन) मूषिकादिचर्मनिष्पन्ने वस्त्रे, आचा.।"आति | आदं (यं)सग- पु. (आदरिसग आदसग- आदर्शक ) (ती) णाणिवा" (सूत्र-१४५) आजिनानि मूषिकादिचर्मनिष्पन्नानि। आसमन्ताद् दृश्यते आत्मा यस्मिन् स आदर्श: / स आचा०१ श्रु०५ अ०१ऊ। एवादर्शकः / दर्पणे, सूत्र.१ श्रु०४ अ०२ उ. / रा। आदर्श भवः / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदंसग 238 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आदाण भवादौ जनपदावधिसूचकस्थानभवे च त्रि / वाच / आदं (यं)स(आदरिस)(आदस्स)घरग- नः / (आदर्शगृहक) आदर्शनये गृहे, रा.।"आईसघरगा सदरयणामया''आदर्श-गृहकाणि आदर्शमयानीव गृहाणि / रा० / जं.। जी। (भरतस्यादर्शगृहस्थितिकथानकं 'भरह' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते।) आद(यं)सतल- न. (आदर्शतल) दर्पणतले औला आद(यं)स(आदरिस)(आदस्स)तलोवम-त्रि. (आदर्शतलोपम)आदर्शो- दर्पणस्तस्य तलं तेन समतयोपमा यस्य आदर्शतलोपमः / आदर्शतलवत्समे,रा। आद(यं)स(आदरिस)(आदस्स)मंडल न०- (आदर्श-मण्डल) आदर्श इव मण्डलमस्य। आदर्शा-कारमण्डलयुक्ते सर्पभेदे, आदर्शो मण्डलमिव / मण्डलाकारे दर्पणे, न / वाच / जावशब्दग्राह्ये बहुसमत्ववर्णकटीकायाम् पाठ:-'आयसमण्डलेइ वा'' (सूत्र-६+)। जं.१ वक्षः। 'आयसमंडलतलव" (सूत्र-२९) प्रश्न०५ संव द्वार। आद(यं)स(आदरिस)(आदस्स)मुह- पुं० (आदर्शमुख)स्वनामख्याते अन्तरद्वीपभेदे, जी०३ प्रति०३ अधिः / तद्वक्त-व्यता 'अन्तरदीव' शब्दे प्रथमभागे गता। आद(यं)स(आदरिस)(आदस्स)लिवि- स्त्री. (आदर्श-लिपि) ब्राझलिपर्लेख्यविधानभेदे, स.१८ समः। आद(य)र-पुं० (आदर) आ-दृ-कप्।गौरवहेतुकेकर्मणि, सम्माने, वाच / सत्कारे, स्थान०६ ठा०३ऊ।"तं पुरिसं आयरेण रक्खेह॥१३३+II आ० म०१ अ / उचितकृत्यकरणे, ज्ञा० 1 श्रु.१ अ / प्रयत्नातिशये, पञ्चा०। "यत्रादरोऽस्ति परम: प्रीतिश्च हितोदया भवति / कर्तुः शेषत्यागे-न करोति यच तत्प्रीत्यनुष्ठानम्" ||1|| पञ्चा० 2 विव० : "आ दृङः सन्नाम:" ||la|| इति हैमप्राकृतसूत्रेणाद्रियते: सन्नाम इत्यादेशो वा भवति। सन्नामइ / आदरेइ। प्रा० / आद(य)रण- न० (आदरण) अभ्युपगमे, भ० 12 श०५ऊ / आद(य)रणया-स्त्री. (आदरणता)। अभ्युपगमे, "आयरणया" (सूत्र४४९)। आयरणय' त्ति-यतो मायाविशेषादादरण-मभ्युपगमं कस्यापि वस्तुन: करोत्यसावादरणम्,ताप्रत्ययस्यचस्वार्थिकत्वात् आदरणया, आचरणं वा परप्रतारणाय विविधक्रियाणामाचरणम् / भ०१२ श५ऊ। आद(योरतर-पु. (आदरतर) अत्यादरे, दश। "आयरतरेण रंधति" (सूत्र 1924) अत्यादरेण राध्यन्तिा दश 1 अ। आद(य)राइजुत्त-त्रि० (आदरादियुक्त) आदरकरणप्रीत्यादिसमन्विते षो। स्यादादरादियुक्तं, यत्तद्देवार्चनं चेष्टम् // 14 // 'स्यादादरादियुक्तं' यद् आदरकरणप्रीत्यादिसमन्वितं यत् स्यात् तदेवार्चनं चेष्ट-तच देवार्चनमिष्टम्। षो०५ विव०। आदहण-न० (आदहन)। आ-दह-भावेल्युट।दाहे, हिंसायाम, कुत्सने च।आदह्यतेऽत्र आधारल्युटश्मशाने, वाच / आ-समन्ताहहने, सूत्र श्रु 1 अ। आदा(या)ण-नं. (आदान) आ-दा-भावे ल्युट्रा ग्रहणे वाच / प्रश्न०३० आश्र द्वारा पं. व औ आ चू। उत्त, / स्था.। विशे। प्रव०।"आयाणं सुसमाहरे" // 20 / / आहरेत् -आददीत; गृह्णीयादित्यर्थः / सूत्र 10 श्रुट अ / "दंडसमा-दाणं संपेहाए" (सूत्र 754) दण्ड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन सदण्डस्तस्य सम्यगादानं-ग्रहणम्- समादानम्। आचा.१ श्रु० 2 02 उ०। स्वीकरणे स्था०३ ठा०३ उ। "सयमाइयंति अन्ने वि, आदियाति अन्नं पि आयतंतं समणुजाणंति" (सूत्र-९) स्वयम्-आत्मना सावधमनुष्ठानमाददते स्वीकुर्विन्ति अन्यान्यप्यादापयन्ति ग्राहयन्ति अन्यमप्यादानंपरिग्रहं स्वकुर्वन्तं समनुजानन्ति / सूत्र. 2 श्रु०१ अ / आदीयत इत्यादानाम् परिग्राह्ये वस्तुनि, स्था०४० ठा० 1 उ. | आदीयते-ठाह्यत इत्यादानम् / धनधान्यादिकेपरिग्रहे, आव 4 अ० प्रक० / कल्प० स्था०। आयाणं नरयं दिस्स, नायइज्जतणामवि // 8 // साधुस्तृणमपि'नायइज्ज' इति-नाऽऽददीत-अदत्तं न गृह्णीत, किं कृत्वा आदान-नरकं दृष्ट्वा आदीयते इत्यादानंधनधान्यादिकं परिग्रहं, नरकं नरकहेतुत्वान्नरकं; ज्ञात्वेत्यर्थः / उक्त लक्ष्मी टी०६अ। आदीयत इत्यादानं धनधान्यादि, कृत्यल्युटोऽन्यत्रापि "कृत्यल्युटो बहुलम्" (पाणि.३३१११३।) इति कर्मणि ल्युट् / आर्षत्वादादानीयं वा० नरककारणत्वान्न-रकं दृष्ट्वा, किमित्याहनाददीत- न गृहणीत न स्वकुर्यादिति यावत्। 'तणमवी ति तृणमप्यास्तां रजतरूप्यादीनि / उत्त पाई 1 अ / मिथ्यात्वादिनाऽऽदीयत इत्यादानम् / सूत्र 1 श्रु१३ अ. / आदीयते सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियते इत्यादानाम्, कर्म / "आयाणसोयगढिए" (सूत्र-१३८४) / अष्ट प्रकारके कर्मणि, सूत्र 1, श्रु१३ अ० / आचा० / आदीयते वाऽनेनेत्यादानम् / कर्मोपादाने, "आयाणं" (सूत्र-१८५) / आचा० 1 श्रु. 6 अ 3 ऊ। "सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा निसीयणं वा तुयट्टणं वा चेतेज्जा। आयाणमेयं" (सूत्र-६७x)। आचा०२ श्रु०१ चू. 2 अ० 1 उ।" एवं खु मुणी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णिज्भोसइत्ता" (सूत्र-१८५) / एतत् -पूर्वोत्तं वक्ष्यमाणं वा खुः वाक्यलंकारे, आदीयत इत्यादानं-कर्म, आदीयतेवाऽनेन कर्मेत्यादानंकर्मोपादानम् तच धर्मोप-करणातिरित्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुनिर्भोषयितेति संबन्धः / आचा: 1 श्रु.६ अ०३ उ.1 "सन्ति मे तओ आयाणा जेहिं कीरइ पावर्ग" (२६x)|"सन्ति-विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदियन्ते- स्वीक्रियन्ते अमीभिः कर्मत्यादानानि एतदेव दर्शयति-यैरादानैः क्रियते विधीयते निष्पाद्यते पापकं कल्मषम्। सूत्र०१ श्रु०१०३ऊ। "संखडि खंखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए, के वली बूया-आयाणमेयं" (सूत्र-१७) / के वली Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाण 239 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आदाण बुयात्- आदानमेतत्-कर्मोपादानमेतदिति / पाठान्तरं वा'आययणमेयं ति-आयतनं-स्थानमेतद्दोषाणां यत्संखडी- गमनम्।। आचा०२ श्रु. 1 चू. 1 अ०३ उ / "एते आयाणा संति'' (सूत्र-१५४)। यस्मादेतानि आयतनानिकर्मोपादानकारणानि सन्ति-भवन्ति / आचा० / 2 श्रु० 11 अ०३ ऊ / आदीयते- गृह्यते आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्यते अष्टप्रकारं कर्म येन तदादानम्। हिंसाद्याश्रवद्वारे, अष्टादशपापस्थानेषु च। आचा०१ श्रु 3 अ०४ उ०। "आयाणं सगडभिज्ज" (सूत्र-२२१४) आदीयते-गृह्यते आत्मप्रदेशै: सह श्लिष्यते अष्टप्रकारं कर्म येनतदादानं हिंसाद्याश्रवद्वारमष्टादशपापस्थानरूपं वा, तत् स्थितेनिमित्तत्वात् कषायापादानं तद्वमिता स्वकृतभिद् भवति। आचा०१ श्रु 3 अ० 1 उ। ('सगडभिज्ज' शब्दे सप्तमे भागे व्याख्या दृष्टव्या) कषाये, परिग्रहे सावद्यानुष्ठाने च / सूत्र. 1 श्रु. 16 अ / "जओ जओ आदाणं अप्पणो पदोसहेऊ तओ तओ आदाणतो पुव्वं पडिविरते' (सूत्र-) आदीयते स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानम्- कषाय: परिग्रह: सावद्यानुष्ठान वेति। सूत्र०१ श्रु०१६ अ। मुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया। सत्थादाणाइँ लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया / / 10 / / पलिउंचणञ्च भयणच, थंडिल्लुस्सयणाणि य। घूणादाणाइँ लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया / / 11 / / तथा- आदीयते-गृह्यतेष्ट प्रकारं कमै भिरिति (आदानानि) कर्मोपादानकारणान्यस्मिन्। सूत्र०१ श्रु९ अ / एतानि पलि- कुञ्चनादीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्तन्ते तदेतद्विद्वालन् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत। सूत्र. 1 श्रु०९ अ : (10-11 / अनयोर्गाथयोर्विशेषत: व्याख्यानं 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे करिष्यते) आदीयते-स्वीक्रियते; प्राप्यते वा: मोक्षो येन तदादानम् / ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, "बुसीएय विगयगेही आयाणं सम्मरक्खए" ||114|| विविधम्- अनेक-प्रकारमुषित:- स्थितो दशविधचक्रबालसामाचर्या व्युषितस्तथा विगताअपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धि: साधुरेवंभूतश्चादीयतेस्वीक्रियते, प्राप्यते वा मोक्षो येन तदा-दानीयं ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग्-रक्षयेद्- अनुपालयेत्; यथा तस्य वृद्धिर्भवति तथा कुर्यादित्यर्थः / सूत्र 10 श्रु.१ अ०४ऊ। “आयाणअट्ठी वोदाणमोणं' (सूत्र-१७x)। मोक्षा-र्थिनाऽऽदीयत इत्यादानम् सम्यक ज्ञानादिकमिति / सूत्र 1, श्रु० 14 अ / "आयाणवं धम्ममुदाहरेज्जा // 55 // मोक्षा-र्थमादीयतइत्यादानं-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्यासावादानवान्। सूत्र०२ श्रु०६अ।"आयाणं सुसमाहरे" // 19 // मोक्षस्यादानम् -उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुष्द्युक्त: सम्यग्विस्रोतसिकारहित आहरेत् -आददीत; गृह्णीयादित्यर्थः / सूत्र 10 श्रु०८ अ."अज्भप्पजोगेसुद्धादाणे" 141 / (सूत्र-३४) शुद्धमवदातम् आदानं-चरित्रं यस्य स शुद्धादानो भवति। सूत्र. १श्रु 16 अ / आदीयत इत्यादानम्। मोक्षे, "आयाणमठ्ठ खलुवंचयित्ता' (सूत्र-४) आदीयत इत्यादानम्-ज्ञानादिकं, मोक्षो वा तमर्थ वञ्चयन्ति भ्रंशयन्त्यात्मनः / सूत्र 1 श्रु०१३ अ / संयमे, "आयाणगुत्ते वलयाविमुक्के // 22+11 मोक्षार्थिनाऽऽदीयते-गृह्यत इत्यादानं- संयमस्तेन तस्मिन्वा सति गुप्तः / सूत्र 1 श्रु१२ अ। संयमानुष्ठानेच। "एसवीरेपसेसिए, जेण णिविज्जति आदाणाए" (सूत्र-८५४) भोगाशाछन्दविवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहाव्रतभारारोहणोन्नामितस्कन्धो वीर: कर्मविदारणात् प्रशंसित:- स्तुतो देवराजादिभिः, क एष वीरो नाम योऽभि-ष्ट्रयत इत्यत आह- 'जे' इत्यादि; यो न निर्विद्यते न खिद्यते- न जुगुप्सते, कस्मै? आदानायआदीयते-गृह्यते अवाप्यते आत्मस्वतत्त्वमशेषाचारककर्मक्षयाविर्भूतसमस्तवस्तुग्राहिज्ञा- नाबाधसुखरूपं येन तदादानंसंयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कुर्वन् सिकताक्चलचर्वणदेशीयं क्वचिदलाभादौ न खेदमुपयातीति ।आचा०१ श्रु.२ अ०४ उ. / आदीयत इत्यादानम् / प्रथमव्रतग्रहणे / सूत्र / "जावज्जीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो, आमरणंताए दंडे निक्खित्ते" (सूत्र०) / यावद्यैर्येषु वा श्रमणोपासकस्याऽऽदीयत इत्यादानम्-प्रथमव्रतग्रहणम्; तत आरभ्य आमरणान्ताद्दण्डो निक्षिप्त:-परि-त्यक्तो भवति / सूत्र०२ श्रु०७ अ / केनचिदादीयत इत्यादानम्। सूत्र०२ श्रु०२ अ० / कारणे कल्प० / "आयाणमेवं,"कर्मणां-दोषाणांवाआदानम्-उपादानकारणम्।कल्पक 3 अधि०९ क्षण। "एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे" (सूत्र३२+)। सूत्र०२ श्रु०२ अ / एकः कश्चित् प्रकृत्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया केनचिदादीयत इत्यादानम्-शब्दादिकं कारणं तेन विरुद्धः समान: परस्या- पकुर्य्यात् शब्दादानेन तातवत्केन चिदात्रुष्टो निन्दितो वाचा विरुध्येत् रूपादादानेन तु बीभत्स कञ्चन दृष्ट्वा अपशकुना- ध्यवसायेन कुप्येत / सूत्र०२ श्रु०२ अ / आदीयन्ते गृह्यन्ते शब्दादयोऽर्था एभिरित्यादानानि। इन्द्रिये, बृ.१ उ / केवली णं आयाणेहिं न जाणइन पासई" (सूत्र-१९८+) | आदीयते-गृह्यतेऽर्थ एभिरित्यादानानिइन्द्रियाणि तैर्न जानाति के वलित्वाद् / भ० 10 श०४ उ. / "आयाणनिरुद्धाओ" ||186 // आदानानीन्द्रियाणि निरुद्धानि यस्यां सा निरुद्धादाना, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापरनिपात: प्राकृतत्वाद्। बृ.१ उ.३ प्रक, / "आयाणगुत्ता विकहाविहीणा'' (884) / आदान:इन्द्रियैर्गुप्ता:। बृ०३ऊ आदीयते कर्मनेनेत्यादानम्। दुष्प्रणिहिते इन्द्रिये चआचा।"आयाणसोयमतिवायसोय" // 164|| आचा.१ श्रु०९ अ। आदीयते गृह्यते, प्रथमम्-आदौ यत्तदानम्। सूत्र.१२१० अ। आचा० / आदौ० (प्रथम) "आयाणपएनेयं / / 503+II आदीयत-इत्यादानम्आदेः; प्रथममित्यर्थः, तच तत्पदञ्च निराकाङ्क्षतया अर्थगमकत्वेन वाक्यमेवादानपदम्। उत्त०२९ अ०।"से किं तं आयाणपदेणं'' (सूत्र+) आदीयतेतत्प्रथमतयाउचारयितुमारभ्यतेशास्त्रस्याध्ययनोद्देशकादेश्चादिपदमित्यर्थः / अनु० ! नि. चू। आदानशब्दस्य तत्पर्यायस्य च ग्रहणशब्दस्य च निक्षेपं कर्तुकामो नियुक्तिकृदाहआदाणे गहणंमिय, णिक्खेवो होतो दोन्नि वि चउक्के। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाण 240 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आदाणभड० एगटुं नाणटुं, च होज्ज पडयं तु आदाणे ||132 / / अथवा-'जमतीयं ति-अस्याध्ययनस्य नाम, तच्चादानपदेन, आदवादीयते इत्यादानं, तच ग्रहणमित्युच्यते, तत्राऽऽदानग्रहणयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह- 'आदाणे' इत्यादि, आदीयतेकार्यार्थिना तदित्यादानं, कर्मणि ल्युट्प्रत्यय:, करणे वा, आदीयतेगृह्यते स्वीक्रियते विवक्षितमनेनेतिकृत्वा, आदानं च-पर्यायतो ग्रहणमित्युच्यते, तत आदानग्रहणयोर्निक्षेपो भवति द्वौ चतुष्को, तद्यथानामादोनम्, स्थापनादानम्, द्रव्यादानम्, भावादानश्चातत्रनामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादानं वित्तं यस्मा-ल्लौकिकैः परित्यक्तान्यकर्त्तव्यैर्महता क्लेशेन तदादीयते, तेन वाऽपरं द्विपदचतुष्पदादिकमादीयत इति कृत्वा, भावाऽऽदानं तु द्विधाप्रशस्तम्, अप्रशस्तं च / तत्र-अप्रशस्तम्क्रोधाद्युदयो, मिथ्यात्वाविरत्वादिकं वा, प्रशस्तंतूत्तरोत्तरगुणश्रेण्या विशुद्धा-ध्यवसायकण्डकोपादानं सम्यक्ज्ञानादिकं वेत्येतदर्थप्रतिपादनपरमेतदेव वाऽध्ययनं द्रष्टव्यमिति। सूत्र०१ श्रु०१५ अ। आदा(या)णअहि(न)-पु.(आदानाऽर्थिन्) मोक्षार्थिनाऽऽदीयते इत्यादानम् - सम्यक्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एवार्थः आदानार्थः स विद्यते यस्यासावादानार्थी / सम्यक् - ज्ञानादिप्रयोजनवति, "आदाणअट्ठी वोदाणमोणं" (सूत्र 17x) / सूत्र०१ श्रु० 14 अ०1 आदा(या)णगुत्त- त्रि. (आदानगुप्त) / संयमगुप्ते, मनोवाक्कायै, कर्मणि गुप्ते च / सूत्र, / "आयाणगुत्ते वलयाविमुक्के (सूत्र२२+)।मोक्षार्थिनाऽऽदीयते-गृह्यत इत्यादानं संयमस्तेन तस्मिन्या सति गुप्त:, यदि वा- मिथ्यात्वादिनाऽऽदीयते इत्यादानम् -अष्टप्रकारकं कर्म तस्मिन्नादातव्ये मनोवाक्कायैर्गुप्त: समितश्च। सूत्र.१ श्रु.१३ अ इन्द्रियैर्गुप्ते च।"आयाणगुत्ता विकहाविहीणा" (cerx) आदानै:- इन्द्रियैर्गुप्तः / बृ०३ऊ। आदा(या)णणिक्खेवदुगुंछय- त्रि. (आदाननिक्षेपजुगुप्सक)। आदाननिक्षे पै-पात्रादेाहणमौक्षौ आगमप्रतिषि (सि) (ब) द्धौ जुगुप्सति-न करोतीति आदाननिक्षेपजुगुप्सकः / आव. 4 अ। आगमप्रति (ब)षिद्धौ पात्रादेर्ग्रहणमोक्षौ च कुर्वति, आग-मानुसारेण प्रत्यवेक्षणप्रमार्जनपूर्वमुपयुक्तः सन्नुपधेरादाननिक्षेपौ करोतीत्यर्थः / (643 गाथाटी.)। प्रव०७२ द्वार। आदा(या)णनिरुद्ध त्रि. (निरुद्धाऽऽदान) / निरुद्धेन्द्रिये, "आयाणनिरुद्धाओ" // 1864)| आदानानि- इन्द्रियाणि निरुद्धानि यस्यां सा निरुद्धाऽऽदाना, गाथायां व्यत्यासेन पूर्वाऽपरनिपात: प्राकृतत्वाद्। बृ.१ ऊ३ प्रक। आदा(या)णपय- न. (आदानपद) आदीयते- गृह्यते प्रथमम्-आदी यत्तदादानम् आदानञ्च तत्पदं च सुबन्तं तिङन्तं वा तदादानपदम्। सूत्र 1 श्रु०१५ अ / शास्त्रस्याध्ययनो-द्देशकादेश्वादिपदे, अनुः / येषामादानपदेनाऽभिधानं तन्म-तेनादौ यत्पदं तदादानपदम् / सूत्र. 1 श्रु०१५ अ। उत्त। से किं तं आयाणपदेणं? आयाणपएणं धम्मो मंगलं चूलिआआवंती चाउरंगिज्जं असंखयं अहातत्थिज्जं अदृइज्ज जण्णइज्जं पुरिसइज्ज (उसुकारिज्ज) एलइज्जं वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं गत्थो जमइयं / सेतं आयाणपएणं / (सूत्र१३१४) 'से किं तं आयाणपएणमि 'त्यादि-आदीयते-तत्प्रथम तया उच्चारयितुमारभ्यते शास्त्राद्यनेनेत्यादानं तच्च तत्पदं चादानपदं, शास्त्रस्याध्ययनोद्देशकादेश्चादिपदमित्यर्थः, तेन हेतुभूतेन किमपि नाम भवति, तच्च"आवंती'' त्यादि, तत्रआवन्तीत्याचा-रस्य पञ्चमाध्ययनम्, तत्र ह्यादावेद- 'आवंती' त्यालापको विद्यते इत्यादानपदेनैतन्नाम / "चाउरंगिज्ज" ति- एतदुत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्यनम्, तत्र-"चत्तारिपरमंगाणिदुल्लहाणीह जंतुणो" इत्यादि विद्यते,"असंखयं ति- इदमप्युत्तराध्ययनेष्वेव चतुर्थमध्ययनम्, तत्रच आदावेद- "असंखयं जीवियमाप-मायए'" इत्येतत् पदमस्ति, ततस्तेनेदं नाम, एवमन्यान्यपि कानिचिदुत्तराध्ययनान्तर्वतीन्यध्ययनानि; कानिचित्तु दशवैका-लिकसूयगडाध्ययनानि (सूत्रकृता-ङ्गाऽध्ययनानि) स्वधिया भावनीयानि। अनु० / आदा(या)णफलिह-पु. (आदानपरिघ) आदीयतेद्वारस्थग-नार्थगृह्यत इत्यादान: / स चासौ परिघश्चादानपरिधः / द्वारस्थगनार्थ ग्राह्यायामर्गलायाम्, जं. 2 वक्ष०२२ सूत्रटी० / जी!"आयाणफलिह" (सूत्र-२+)आदीयते इत्यादानम्-आदेयो-रम्योय: परिधः-अर्गलास आदानपरिघ: / रम्या-यामगर्लायाम्, प्रश्न : आश्र द्वार। आदा(या)णभंडमत्तनिक्खेवणासमिइ- स्त्री. (आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति)। आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्राया उपकरणमात्राया, भाण्डस्य वा, वस्त्राद्युपकरणस्य मृण्म- यादिपात्रस्य च साधुभाजनविशेषस्य निक्षेपणायां च समिति: सुप्रत्युपेक्षितसुप्रमार्जितक्रमेणेति आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा- समितिः / समितिभेदे, पा० 17 सूत्र, टी० / स्था०। (अत्र सूत्रम् 'समिइ' शब्दे सप्तमे भागे वक्ष्यते) भाण्डमात्रे, आदा-ननिक्षेपविषया सुन्दरचेष्टा / स्था०५ ठा०३ उ.४५८ सूत्रटी, / "इह च सत्त भंगा होन्ति पत्तादि न पडिलेहइ, ण पमज्जइ, चउम्भंगो, एत्थ चउत्थे चत्तारि गमा-दुप्पडिलेहियं दुप्पमज्जियं चउभंगो, आइल्लाछअप्पसत्था, चरिमोपसत्त्थो, चउत्थीए उदाहरणं-"आयरिएण साहू भणिओ गाम वच्चामो, उग्गहिए संते केण इ कारणेण ठिया, एक्को एताहे पडिलेहियाणि त्ति काउंठवेउमारद्धो, साहूहिं चोइओ भणइ-किमित्थसप्पोअच्छइसन्निहियाए देवयाए सप्पोविउविओ, एस जहण्णओ असमिओ, अण्णो तेणेव विहिणा पडिलेहिता ठवेइ, सो उक्कोसओ समिओ" | आव४ अ० 105 गाथाटी० / अत्राप्युदाहरणम्"एकस्स आयरियस्स" पंच सीससयाई, तेसिमेगो सेद्विसुओ पव्वइओ, सो जो जो साहू एइ तस्स तस्स डंडगं निक्खवइ, एवं तस्स उठ्ठियस्स Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाणभंड० 241 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आदाणिज्जज्झयण - अन्नो एति, अन्नो जाइ, तहावि सो भगवं अतुरियं अवबलं उवरि / हेट्ठा मज्जिउंठवेइ / एवं बहुएण विकालेण न परितम्मई"पा | 17 सूत्रटी। आदा (या) णमंडमत्तनिक्खेवणासमिय-त्रि. (आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमित)। "आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए" (सूत्र९२४) आदानेन ग्रहणेन सह भाण्डमात्रा या- उपकरण- परिच्छदस्य या निक्षेपणान्यासस्तस्यां समितो य: स तथा / आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितौ सम्यक् प्रवृत्ते, भ०२ श०१ उ० / आदा (या) णमय न. (आदानभय) आदीयत इत्यादानं-धनं तदर्थ चौरादिभ्यो यद् भयं तदादानभयम्। आव०४ अ०८३ गाथाटी। स्था। भयस्थानभेदे, स०७ समः / नि. चू। आदान- भयम्-आदानं पुण्यार्थमपुण्यार्थं वा परेण राजादिना वितरित- ग्रामनगरभूखण्डादे: स्वीकरणं तदेव भयम् आदानभयम् मा कञ्चनापराधमवाप्य तद् ग्रहीष्यति / दर्शक तत्त्व९ गाथाटी०। आदा(या)णभरिय-न (आदानभृत) आग्रहणभृत्ते, उपा."आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि' (सूत्र-२८+) आदा-नम्-आद्रहणं यदुदकतैला-दिकमन्यतरद्रव्यपाकायाऽग्नावुत्ता-प्यत्त तद्भुते / उपा० ३अ। आदा(या)णया-स्त्री. (आदानता) ग्रहणतायाम् इह च ताप्रययः स्वार्थिकः / प्राकृतत्वेनादानादीनां भावविवक्षया वा। स्था०२० ठा०२ उ० / आदा(या) णवंत-त्रि. (आदानवत्) मोक्षार्थमादीयत इत्यादा-नम् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपं तद्विद्यते यस्यासावादानवान् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवति साधौ, सूत्र।"आयाणवन्तं समुदाहरेज्जा" // 15 // सूत्र०२ श्रु०६ अ। आदा(या) णसोयगढिय-त्रि. (आदानश्रोतोगृद्धआदीयते)- कर्मानेनेति आदानं- दुष्प्रणिहितमिन्द्रियमादानं च श्रोत-श्चादानश्रोत: / आचा. 1 श्रु.९ अ.१ उ.१६ गाथाटी, आदीयते- सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियते इत्यादानं कर्म संसारबीजभूतं तस्य श्रोतांसि इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा वा 'तेषु गृद्धः' -अध्युपपन्नः / आचा० 1 श्रु०४ अ०३ उ०।"आदानश्रोतस्यध्युपपन्ने, आचा०। आयाणसोयगढिए बाले अबोच्छिण्णबंधणे अणभिक्कंतसंजोए तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो णऽत्थि त्ति बेमि। (सूत्र-१३८+) (आदानश्रोतोगृद्धः) स्यात्, कोऽसौ ? बालः-अज्ञः रागद्वेषमहामोहाभिभूतान्त:करण: / यश्चादानश्रोतोगृद्धः स किं भूतः स्यादित्याह- | "अव्वोच्छिन्नबंधणे' इत्यादि, अव्यवछिन्नंजन्मशतानुवृत्तिबन्धनम्अष्टप्रकारं कर्म यस्य स तथा, किञ्च- 'अणभिक्कत' इत्यादिअनभिक्रान्त:- अनतिलजित: संयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतोऽसंयमसंयोगो वा येनासावनभिक्रान्तसंयोग: तस्य चैवंभूतस्ये न्द्रियानुकूल्यरूपे मोहात्मकेवा तमसि वर्तमानस्यात्महितं मोक्षोपायं वा अवि-जानत आज्ञाया:-तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्तीत्येतदहं ब्रवीमि तीर्थकरवचननोपलब्धसद्भाव: आचा०१ श्रु०४ अ३ उ०। आदा(या)णिज्ज-त्रि. (आदानीय) आदीयते उपादीयते इत्यादानीय: / उपादेये, स्था०६ ठा०३ऊ / स. / ग्राह्ये, आचा०1"आयाणिज्जे वियाहिए" (सूत्र-१३७+) 1 स वीराणां मार्ग प्रतिपन्न: मांसशोणितयोरपनेता मुमुक्षूणामादानीयो-ग्राह्य आदेयवचनश्च व्याख्यातः / आचा. 1 श्रु०४ अ०३ उ.। आदीय-न्तेगृह्यन्ते सर्वभावा अनेनेत्यादानीयम् / श्रुते, भोगाङ्गे, द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादिके आचा० 1 श्रु. 2 अ०३ऊ / "आयाणिज्ज" (सूत्र-१८४ +)आदीयते इत्यादानीयम्। कर्मणि आचा०२ श्रु०६०२ ऊ / आयाणिज्जं च आदाय तम्मि ठाणेण चिट्ठई'' आदीयन्ते-गृह्यन्ते-सर्वभावा अनेनेत्यादानीयम्श्रुतम्, तदादाय तदुक्ते तस्मिन् संयमस्थाने न तिष्ठति / यदि वाआदानीयम्- आदातव्यं भोगाङ्ग द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्यादि तदादायगृहीत्वा / अथ वा- मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषाययोगैरादानीयं कर्मादाय, किंभूतोभवतीत्याह- तस्मिन् ज्ञानादिमये मोक्षमार्गे सम्यगुपदेशे वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठति नात्मानं विधत्ते / आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ।"आयाणिज्जं परिण्णाय, परियाएणं विगिंचइ (सूत्र-१८४४)। आदीयते इत्यादानीयं-कर्म-तत्परिज्ञाय मूलोत्तरप्रकृतिभेदतो ज्ञात्वा पर्यायेण-श्रामण्येन विवेचयति; क्षपयतीत्यर्थः / आचा०१ श्रु०६ अ२ ऊआश्रयणीये, मोक्षे, मोक्षमार्गे, सम्यग्दर्शनादिके च।"पुरिसाऽऽदाणिया नरा' 34 +| मुमुक्षुणामादानीयाआश्रयणीयाः पुरुषादानीया: महान्तोऽपि महीयांसो भवन्ति / यदि वा- आदानीयोहितैषिणां मोक्षः, तन्मार्गों वा-सम्यग्दर्शनादिक: पुरुषाणांमनुष्याणामादानीय: स विद्यते येषामिति विगृह्य मत्वर्थीयः / "अर्शआदिभ्योऽच् इति। सूत्र०१ श्रु०९ अ / से तं संवुज्जमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पांव कम्मंणेव कुज्जाण कारवेज्जा / (सूत्र-९४४) आदातव्यम्-आदानीयं तच परमार्थतो भावाद्- आदानीयं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तदुत्थाय इति अनेकार्थत्वादआदाय-गृहीत्वा / अथवा स अनगार: एतदादानीयं ज्ञानाद्यपवर्गकारणम्। आचा०१ श्रु०२० अ०६ऊ। (९६-अस्य संपूर्णसूत्रस्य व्याख्या 'लोगविजय' शब्दे षष्ठे भागे करिष्यामि)1"आयाणीयं समुट्ठाय" (सूत्र-२६+) आदानीयंग्राह्यं सम्यग्दर्शनादि सम्यगुत्थाय-अभ्युपगम्य / आचा० 1 श्रु.१ अ०२ उ०। आदा(या)णिज्जज्जयण-न० (आदानीयाध्ययन) मोक्षार्थिनाऽशेषकर्मक्षयार्थ यज्ज्ञानादिकमादीयते- तदत्र प्रतिपाद्यत इति कृत्वाऽऽदानीयमिति नाम संवृत्तम। सूत्रकृताङ्गस्य स्व-नामख्याते पञ्चदशेऽध्ययने, सूत्र. 1 श्रु०१५ अ। आदानपदमाश्रित्यास्याभिधानमाकारि, आदानीयं वा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाणिज्जज्झयण 242 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आदीणभोइ ज्ञानादिकमाश्रित्य नाम कृतमिति / आदानीयाभिधानस्यान्यथा वा आदा (या)-हिणपयाहिणा स्त्री. (आदक्षिणप्रदक्षिणा)- आदक्षिणत:प्रवृत्तिनिमित्तमाह-- पात्प्रदक्षिणा पार्श्वभ्रमणमादक्षिणप्रदक्षिणा / स्था.१ ठा। जं पढमस्संऽतिमए, बितियस्स उतं हवेज्ज आदिम्मि। दक्षिणपाच दारभ्य परिभ्रमणतो दक्षिणप्रार्श्वपाप्तौ निः। "अज्जसुहम्म एतेणाऽऽदाणिज्जं, एसो अन्नो विपज्जाओ ||135 / / थेरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करे।।" त्रि:कृत्व:-त्रीन वारान् यत्पदं प्रथमश्लोकस्य तदर्द्धस्य च अन्ते-पर्यन्ते तदेव पदं शब्दत: आदक्षिणप्रदक्षिणां दक्षिणपार्वादारभ्य परिभ्रमणतो दक्षिणपार्श्वप्राप्तिरा दक्षिणप्रदक्षिणा तां करोति। नि.१ श्रु.१ वर्ग 1 अ। अर्थत: उभयतश्च द्वितीयश्लोकस्यादौ तदर्धस्य वाऽऽदा भवति-एतेन प्रकारेणाद्यपदसदृशत्वेनादानीयं भवति, एष आदानीयाभिधानप्रवृत्ते: आदि(इ)-ब-त्रि. (आदृत्य) आ-दृ-कर्मणि क्यप् / आदरणीये, पर्याय:-अभिप्राय: अन्यो वा विशिष्ट-ज्ञानादि आदानीयोपादानादिति आदर्तव्ये ल्यप। सम्मान्येत्यर्थे, अव्या वाच। केचित्तुं-पुनरस्याध्ययन-स्यान्तादिपदयो: संकलनात्संकलि केतिनाम *आदित्य-पु. कृष्णराज्यवकाशान्तरस्थलोकान्तिकसंज्ञ- कार्चिकुर्वते। तस्या अपि नामादिकश्चतुर्धा निक्षेप: / (सच 'संकलिया' शब्दे मालिवमानस्थे, लोकान्तिकदेवविशेषे, भ०६ श०५ ऊ / समयावलिसप्तमे भागे दर्शयिष्यते) सूत्र०१ श्रु०१५ अ. / पञ्चदशे त्वा कादीनामादौ भवे, सू० प्र० 20 प्राहु / सूर्ये, आव० 4 अ० / आदित्यो हि दानीयाख्येऽध्ययनेऽर्थाधिकारोऽयम्, तद्यथा-"आदाणिय-संकलिया सर्वजगत्प्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी (सूत्र०)। आदाणीयम्मि आदयचरित्त" // 284|| आदीयन्ते- गृह्यन्ते- उपादीयन्ते आ-गो पालाङ्गनादिप्रतीत: समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोइत्यादानीयानि पदानि अर्था वा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरर्थेश्च प्रायशोऽत्र द्घाटनपटीयान् आदित्योद्गम: प्रत्यहे भवन्नुपलक्ष्यते / सूत्र 1 श्रु०१२ संकलिताः, तथा-आयतंचरित्रं सम्यक् चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तच्चात्र अ / (अस्य विमानवक्तव्यता 'विमाण' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते) (अस्य व्यावर्ण्यते। सूत्र०१ श्रु.१ अ०१ऊ। मण्डलादिवक्तव्यता 'सूरमंडल' शब्दे सप्तमे भागे वक्ष्यते) (अस्य आवृत्तयः'आउट्टि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गताः) आदाणीय--त्रि. (आदानीय) उपादेये, स्था०६ ठा० 3 उ. सूत्र० / (अस्य जस्स जओ आइचो, उएइ सा भवइ तस्स पुय्वदिसा। बहवोऽर्था: 'आदाणिज्ज' शब्देऽनुपदमेव गताः) जत्तोय अत्थमेइ उ, अवरदिसा सा उ नायव्वा / / 7 / / आदा(या)य-अव्य. (आदाय) आ-दा-ल्यप्। गृहीत्वेत्यर्थे, सूत्र.१ श्रु०३ दाहिणपासम्मि यदा-हिणा दिसा उत्तराउ वामेणं। अ०४ उ.। "इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेझ्यं" // 20 / आदाय एया चत्तारि दिसा, तावक्खेत्ते उ अक्खाया ||48|| उपादाय आचार्योपदेशेन गृहीत्वेति / सूत्र०१ श्रु०३ अ. ३ऊ / आचा० / प्राप्येत्यर्थे, "एवं विवेगमादाय" // 1 // विपाकं-स्वानुष्ठानस्य आदय तापयतीति ताप:-आदित्यः / आचा.१ श्रु०१ अ०१ऊ। (अत्र विस्तरं प्राप्य, विवेकमिति वा क्वचित् पाठस्तद्विपाकं-विवेकं चादाय-गृहीत्वा। 'दिसा' शब्दे चतुर्थे भागे कथयिष्यामि) सूत्र.१ श्रु०४ अ०१ उछ / अङ्गीकृत्येत्यर्थे, "तवोवहाणमादाय' / / 434|| आदिच्छास्त्री० (आदित्सा) आदातुमिच्छायाम्, आव०६ ऊ / उत्त, लक्ष्मी०२ अ / स्वीकृत्येत्यर्थे, उत्त, पाई.२ अ / अवगम्येत्यर्थे आदिम त्रि. (आदिम) अग्रिमे, बृ.। आवासगमाईया सूयगडा जाव आइमा "आयाए एणंतमवक्कमेज्जा" (सूत्र-३0x) आदाय-अवगम्यैकान्त- भावा" (780x) आवश्यकादय: सूत्रकृताङ्गंयावत्ये आगमग्रन्थास्तेषु मपक्रामेत्। आदाने, पुं०। आचा०२ श्रु१५.१ अ०६ उ०। ये पदार्था अभिधेयास्ते आदिमा भावा: उच्यन्ते। बृ.१ उ.१ प्रक० / आदा(या) हिणपयाहिण-- त्रि. (आदक्षिणप्रदक्षिण) आदक्षिणात्- | आदियावणन. (आदापन) ग्राहणायाम, सूत्रा"सय माइअंति अन्ने वि दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो-भ्राम्यतो- दक्षिण एव आदियाति" (सूत्र-९)। स्वयम्- आत्मना साव-धमनुष्ठानमाददते आदक्षिणप्रदक्षिणः / रा०। आदक्षिणाद्-दक्षिणपार्वादारभ्य प्रदक्षिणो स्वीकुर्वन्ति, 'अन्यान्यप्यादापयन्ति-ग्राह-यन्ति। सूत्र०२ श्रु०१ अ। दक्षिणपार्श्ववर्ती आदक्षिणप्रदक्षिणः। विपा.१ श्रु१०।दक्षिणपार्थादारभ्य | आदीण त्रि. (आदीन) आ-समन्ताद्दीन: आदीन:।सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ऊ। परितो भ्राम्यतो दक्षिणपार्श्ववर्तिनि भ.।"समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो | समन्तात्करुणास्पदे, सूत्र१ श्रु०१० अ० / आयाहिरणपयाहिणं करेइ" (सूत्र-७) / आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्ता- | आदीणमोह (न) पुं. (आदीनभोजिन्) पतितपिण्डोपजीविनि, दारभ्य प्रदक्षिण:- परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं "आदीणभोइं वि करेइ पांव'" (64) आदीनभोज्यपि पापं करोतीति। करोती-ति। भ०१।०१ उ० / नि०। औ.।"आयाहिणं पयाहिणं करेंति' उक्तंच-"पिंडोलकेव दुस्सीले,णरमाओण मुच्चई'" स कदाचिच्छोभन(१८४ गाथा टी.) आ-सर्वतः समन्तात्-परिभ्रमतांदक्षिणमेव जन्मभवनं माहारमलभमानोऽल्पत्वादातरौद्रध्यानोपगतोऽप्यध: सप्तम्यामप्युत्पयथा भवति एवं प्रदक्षिणं कुर्वन्ति। आ. म. 1 अ / जं। द्येत / तद्यथा- असाविव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहो वै Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदीण भोइ 243 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म भारगिरिशलापातनोद्यत: स दैवात्स्वयं पतित: पिण्डोपजीवीति तदेवमादीननभोज्यपि पिण्डोलकादिवज्जन: पापं कर्म करोति / सूत्र० १श्रु०१० अ आदीणवित्तित्रि (आदीनवृत्ति) आ-समन्ताद्दीना-करुणास्पदा वृत्ति:अनुष्ठानं यस्य / एवंभूते, "आदीणवित्ती वि करेई पावं" (64) आसमन्ताद्दीना-करुणास्पदा वृत्तिरनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादे: स भवत्यादीनवृत्तिरेवंभूतोऽपि पापं कर्म करोति। सूत्र०१ श्रु१० अ०। आदीणिय त्रि. (आदीनिक) आ-समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते यस्मिन्स आदीनिकः / अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रये, सूत्र, "आदीणियं उक्कडियं पुरत्था ||2||" सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ऊ। आदीब अव्य. (आदीप)। दीपादारभ्येत्यर्थे, स्या०५श्लोक। आघ (ह) रिसिय-त्रिआधर्षित-आ-धृष्-क्त। अवैयात्ये इट्गुणश्च ! अवमानिते, तिरस्कृते, बलात्कारेणाभिभूते च / वाचः / तेण भणियं जो चंडमेहं दूयं आधरिसेइ त्ति / (444-445 गाथा टी.) आ०म०१ अ / आहरिसिओ दूओसंभंतेण नियत्तिओ (444-445 गाथाटी.) आ.म.१ अ। आधा(हा)स्त्री. (आधा) आधानमाधा। उपसर्गादातः // 53 / 19 / / इत्यङ्प्रत्ययः। पिं। साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधाने पञ्चा०३१ विवापिं / प्रवक / प्रश्नः / दशा० / ग० / बृ. 1 करणे, उत्त०५ अ ! आधीयतेऽस्यामित्याधा / आश्रये पिं / आश्रय आधार इत्यनर्थान्तरमिति / पिं / साऽपि च-आधा नामा-दिभेदाचतुर्दा / तद्यथा-नामाऽऽधा, स्थापनाऽऽधा, द्रव्याऽऽधा, भावाऽऽधा च। तत्रनामाऽऽधा द्रव्याऽऽधाऽपि च आगमतो नो आगमतश्च ज्ञशरीररूपा भव्यशरीररूपा च एषणैव भावनीया / ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरित्तं तु द्रव्याऽऽधामभिधित्सुराहधणुजुयकायभराणं, कुटुंबरज्जधुरमाझ्याणं च। खंधाई हिययं चिय, दव्वाऽऽहा अंतए धणुणो॥९६ // इह द्रव्याऽऽधाया विचार्यमाणायामाधाशब्दोऽधिकरणप्र- धानो विवक्ष्यते आधीयते अस्यामित्याधा, आश्रय आधार इत्यनर्थान्तरम्। तत्र 'धणु' त्ति- धनु:-चापं तत् आधाआश्रयः प्रत्यश्शाया इति सामर्थ्याद्रम्यते, यूप: प्रतीतः। काय:-कापोती यया पुरुषाः स्कन्धारूढया पानीयं वहन्ति / भर:-यवसादिसमूहः, तथा- कुटुम्बम् - पुत्रकलत्रादिसमुदाय:, राज्यं प्रतीतं, तयोधूं:- चिन्ता आदिशब्दात्महाजनधू:प्रभृतिपहिग्रहः तेषां च यथासंख्यं द्रव्याऽऽधा द्रव्यरूप आधारस्कन्धादि हृदयं च / तत्र स्कन्धो बलीवादिस्कन्धो नरादिस्कन्धश्च परिगृह्यते, आदिशब्दात्- गन्त्र्यादिपरिग्रह: तत्रयूपस्य द्रव्याऽऽधाद्रव्यरूप: आश्रयोवृषभादिस्कन्धः,सहि यूपस्तत्राऽऽरोप्यते। कापोत्या आश्रयो नरस्कन्धः, नरो हि पानीयानयनाय कापोती स्कन्धेन वहति / भरस्याश्रयो गन्त्र्यादि, महाप्रमाणो हि भरो गन्त्र्यादिनैवानेतुं शक्यते, नान्येन। तथा कु टुम्ब चिन्ताया राज्यचिन्तायाश्चाश्रयो हृदयं मन:, हृदयमन्तरेण चिन्ताया अयोगात्, धनुर्विषये भावनामाह-अन्तके करहसंज्ञे धनुष: संबन्धिनि प्रत्यञ्चाऽऽरोप्यते ततो धनुः प्रत्यवाया आश्रयः, एवं शेषाणामपि यूपादीनां प्रत्याश्रयत्वं भावनीयम्, तच भावितमेद।उक्ता द्रव्याऽऽधा। संप्रति भावाऽऽधा वक्तव्या-सा-च द्विधा आगमतो, नो आगमतश्च / तत्राऽऽगमत आधाशब्दार्थ-परिज्ञानकुललस्तत्र चोपयुक्तः,"उपयोगो भावनिक्षेपः" इति वचनात्। नोआगमतस्तु भावाऽऽधा, यत्र तत्र वा मन:प्रणिधानम्, तथा हि- भावो नाम मानसिकः परिणामस्तस्य चाऽऽधानं-निष्पादनं भवति मनसस्तदनुगुणतया तेन तेन रूपेण परिणमने सति नाऽन्यथा, ततो मनःप्रणिधानं भावाऽऽधा, सा चेह प्रस्तावात्साधुदानार्थ- मोदनपचनपाचनादिविषया द्रष्टव्या। पिं०। आधा(हा) कम्म न. (आधाकर्म)- आधानम् आधा / उपसर्गादात: 11413 / 11 / / इत्यङ् प्रत्ययः / साधुनिमित्तं चेतसा प्रणिधानम् / यथा-अमुकस्य साधो: कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, आधाया: कर्म-पाकादिक्रिया-आधाकर्म तद्योगात् भक्ताद्यप्याधाकर्म / इह दोषाभिधानप्रक्रमेऽपि यद्दोषवतोऽभिधानं तद्दोषदोषवतोरभेदविवक्षया / द्रष्टव्यम् / पिं० / ग० / प्रव० / ख-घ-थ-ध-भाम् 1811187 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण बहुलं धस्य हः / प्रा० / विषयसूची(१) वक्तव्यसंग्रहः। (2) व्युत्पत्तयः। (3) प्रतिषेवणादीनिः (4) प्रतिश्रवणस्वरूपम्। (6) एकार्थिकानि आधाकर्मणः / (6) आधाकर्माश्रित्य कल्प्याऽकल्प्यविधिः / (7) तीर्थकरस्य आधाकर्मभोजित्वम्। (8) द्वाविंशतिजिनेषु कल्प्याऽकल्प्यविधिः / (9) अशनादिषु आधाकर्मसंभवः / (10) आधाकर्मण एवाऽकल्प्यविधिः / (11) आधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकः / (12) आधाकर्मभोजिना बन्धः / (1) आधाकर्मदोषं व्याचिख्यासुस्तत्प्रतिबद्धद्वारगाथामाहआहाकम्मियनामा, एगट्ठा कस्सवाऽवि किं वाऽवि। परपक्खे यसपक्खे, चउरो गहणे य आणाई / / 94 / / इह प्रथमत आधाकर्मिकस्य नामान्येकार्थिकानि वक्तव्यानि, ततस्तदनन्तरं कस्यार्थाय कृतमाधाकर्मभवतीति विचारणीयं, तदनन्तरं च किंस्वरूपमाधाकर्मेति, विचार्ये, तथा परपक्ष:- गृहस्थवर्ग:स्वपक्ष:साध्वादिवर्गः, तत्र: परपक्षनिमितं कृत-माधाकर्म न भवति / स्वपक्षनिमित्तं तु कृतं भवतीति वक्तव्यम्, तथा-आधाकर्मग्रहणविषये चत्वारोऽतिक्र मादयः प्रकारा भवन्तीति वक्तव्यं, तथा ग्रहणे आधाकर्मणो भक्तादेरादाने आज्ञादय: “सूचनात्सूत्रम्" इति न्यायादाज्ञाभङ्गादयो दोषा वक्तव्याः। तत्रैकार्थिकाभिधानलक्षणं प्रथमं द्वारं विवक्षुराहआहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 244 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म पडिसेवणपडिसुणणा, संवासऽणुमोयणा चेव / / 15 / / 'आहा अहेय कम्मे' ति-अत्र कर्मशब्द: प्रत्येकमभिसंबंध्यते, चकारश्व कर्मेत्यनन्तरं समुच्चयार्थो द्रष्टव्य: तत, एवं निर्देशो ज्ञातव्यः-आधाकर्म, अध:कर्म च / तत्राऽऽधाकर्मेति प्रागुक्त-शब्दार्थम्, अध:कर्मेति अधोगतिनिबन्धनकर्म अध:कर्म, तथा हि-भवति साधूनामाधाकर्मभुज्जानानामधोगतिः, तन्निबन्धनप्राणातिपाताद्याश्रवेषु प्रवृत्तेः, तथा आत्मानं दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्तिविनाशयतीत्यात्मघ्नं, तथा यत् पाचकादिसंबन्धिकर्म पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा / तदात्मन: संबन्धि क्रियतेऽनेनेति आत्मकर्म / एतानि च नामान्याधाकर्मणो मुख्यानि / संप्रति पुनर्य: प्रतिषेवणादिभिः प्रकारैस्तदाधाकर्म भवति / तान्यप्यभेदविवक्षया नामत्वेन प्रतिपादयति- 'पडिसेवणे' त्यादि प्रतिसेव्यते इति प्रतिषेवणं, तथा आधाकर्मनिमन्त्रणानन्तरं प्रतिश्रूयते। अभ्युपगम्यते यत् आधाकर्म तत् प्रतिश्रवणं तथा-आधाकर्मभोक्तृभिः सह संवसनं संवास: तद्वशात् शुद्धाऽऽहारभोज्यपि आधाकर्मभोजी द्रष्टव्य: यो हि तैः सह संवासमनुमन्यते स तेषामाधाकर्म-भोक्तृत्वमप्यनुमन्यते, अन्यथा तै: सह संवसनमेव नेच्छेत् अन्यच्च संवासवशत: कदाचिदाधाकर्मगतमनोज्ञगन्धाऽघ्राणादिना विभिन्न: सन् स्वयमप्याधाकर्मभोजने प्रवर्तेत तत: संवास आधाकर्मदोषहेतुत्वादाधाकर्म उक्तः, तथाऽनुमोदनम् अनु- मोदना आधाकर्मभोक्तृप्रशंसाऽपि आधाकर्मसमुत्थपापनिबन्धनत्वादाधाकर्मप्रवृत्तिकारणत्वाच्च आधाकर्मेति उक्तम् / अमीषां च प्रतिषेवणादीनामाधाकर्मत्वमात्मकर्मरूपं नाम प्रतीत्य वेदितथ्यं, तथा वक्ष्यति-'अत्तीकरेइ कम्मम्मि' त्यादिइह आधाकर्मेति शब्दार्थविचारे आधया कर्म आधाकर्मेत्युक्तम् / पिं / साधूनाम् आधया-प्रणिधानेन यत्कर्म षट्कायविनाशेना- ऽशनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म। बृ.४ उ.४५६ गाथाटी / नि, चू। (2) आधाकर्मशब्दव्युत्पत्तयःआधानमाधा प्रस्तावात्साधुप्रणिधानं, अमुकस्मै साधये देयमिति तया आधाय वा साधून कर्म षड्जीवनिकाय- विराधनादिना भक्तादिपाकक्रिया आधाकर्म तद्योगाद् भक्ताद्यपि तथा निरुक्ताद् यलोपः / ग.१ अधि०२१ गाथाटी, / साधुं चेतसि आधाय-प्रणिधाय; साधुनिमित्तमित्यर्थः, कर्म सचित्तस्याऽचितीकरणमचित्तस्य वा पाको निरुक्तादाधाकर्म / ध०३ अधि, 22 श्लोक टी० / आधानमाधाप्रणिधान तया; साधुप्रणिधानेनत्यर्थ: कर्मक्रिया पाकादिका आधाकर्म / पञ्चा० 13 विक,५ गाथाटी / यद्वा-आधाय साधु-चेतसि प्रणिधाय यत् क्रियतेभक्तादि, तदाधाकर्म। पृषोदराऽऽदयः / / 3 / 2655 / / इतियलोप: / पिं। प्रव। आधाय-चेतसि अवस्थाप्य साधुं यदशनादि सचेतनमचेतनं वा पच्यते-अचित्तीक्रियते तदाधाकर्म। दर्श.४ तत्त्व 6 गाथाटी / आधयासाधु-प्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते-चीयत्ते वा गृहादिकं वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म / "आहाकम भुंजमाणे सबले भवइ'' // 4 // दशा०२ अ. 1 साधुनिमित्तं सचितस्याचित्तीकरणे अचित्तस्य पाकेच। प्रव०६७ द्वार 370 गाथाटी / साधुनिमित्तं कृते ओदनादौ च। दर्श०४ तत्त्व६ गाथाटी। तदात्मकेउद्गमदोषविशेषे च। स्था०३ठा०४ ऊ / आचा। उत्त / आधाकर्मिक यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम्। व्य० ३ऊ.१६४ गाथाटी। सचित्तं जमचित्तं, साहूणऽहाए करिए जंच। अचित्तमेव पचह, आहाकम्मं तयं भणिअं॥७॥ सचित्तम्-विद्यमानचैतन्यं सत्फलबीजादियदचित्तम् अचेतनं साधूनांसंयतानाम् अर्थाय- हेतवे क्रियते-विधियते तथा यत्, 'च' शब्दोलक्षणान्तरसमुचयार्थः, अचित्तमेव- अचेतनमपि सत्तण्डुलादिपच्यतेराध्यते साधूनामर्थायेति प्रकृतम्, आधाकर्मोक्तनिर्वचनतकत्तद्भणितम्-उक्त जिनादिभिर्यद्यपि सचित्तस्य पृथिव्यादेरचित्तीकरणेन यत् क्रियते गृहवस्त्रादि; तदपि आधाकर्मोच्यते, तथापीह तन्नोत्तं, पिण्डस्यैवाधिकृत्वादिति गाथार्थः / पञ्चा०१३ विव० / ध। पं. का आधाया निक्षेपं प्रतिपादयति तया (आधया)यत्कृतं कर्म - ओदनपाकादि तदाधाकर्म। तथा चाह नियुक्तिकृतओरालसरीराणं, उहवणनिवायणं व जस्सऽट्ठा। मणमाहित्ता कीरइ, आहाकम्मं तयं वेंति / / 97 / / औदारिकं शरीरं येषां ते औदारिकशरीरा:-तिर्यचो, मनुष्याश्च / तत्र तिर्यञ्चः-एकेन्द्रियादय पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता द्रष्टव्या:, एकेन्द्रिया अपिसूक्ष्मा बादराश्च / नन्विह ये अपद्रावणयोग्यास्तिर्यञ्चस्ते ग्राह्या:, नच सूक्ष्माणां मनुष्यादिकृतमपद्रावणं संभवति, सूक्ष्मत्वादेव, ततः कथं तेइह गृह्यन्ते? उच्यते, इह यो यस्मादविरत: सत तदकु र्वन्नपि परमार्थत: कुर्वन्नेव अवसेयो यथा रात्रिभोजनादनिवृत्तो रात्रिभोजनम्। गृहस्थश्च / सूक्ष्मैकेन्द्रिया- पद्रावणादनिवृत्तस्तत: साध्यवर्थं समारम्भं कुर्वन् स तदपि कुर्खन्नवगन्तव्य इति सूक्ष्मग्रहणम्, यद्वा-एकेन्द्रिया बादरा एव ग्राह्या, न सूक्ष्मा:, तथा च वक्ष्यति भाष्यकृत् "ओरा-लग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाहवा सुहमवज्जा'' तेषां औदारिकशरीराणां यत् अपद्रावणम्अतिपातविवर्जिता पीडा / किमुक्तं भवति- साध्वर्थमुपस्क्रियमाणेष्वोदनादिषु यावदद्यापि शाल्यादिवनस्पतिकायादीनामतिपात:-- प्राणब्युपरमलक्षणो न भवति / तावदा- ग्वर्तिनि सर्वाऽपि पीडा अपद्रावणम्, यथा साध्वर्थ शाल्योदनकृते शालिकरटेयर्यावद्वारद्वयं कण्डनम् / तृतीयं तु कण्डनमतिपात: / तस्मिन् कृते शालिजीवानामवश्यमतिपात भावात् / ततस्तृतीयकण्डनमतिपातग्रहणेन गृह्यते, वक्ष्यति च भाष्यकृत् "उद्दवणंपुण जाणसु अइवायविवज्जयं पीड''ति / उद्दवणशब्दात्-परतो विभक्तिलोप: आर्षत्वात् "तथा तिपाणयं' ति त्रीणि-कायवाङ् मनांसि, यद्वात्रीणि देहाऽऽयुरिन्द्रियलक्षणानि / पातनं चातिपातो: विनाश इत्यर्थः तत्र च त्रिधा समासविवक्षा, तद्यथा-षष्ठीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः, तृतीयातत्पुरुषश्च / तत्र षुष्ठीतत्पुरुषोऽयम्- 'त्रयाणां-क्राय- वाड्-मनसां पातनं Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 245 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म विनाशनं त्रिपातनम् एतच परिपूर्णगर्भजपञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणामवसेयम्, एकेन्द्रियाणां तु कायस्यैव केवलस्य विकलेन्द्रियसंभूच्छिमतिर्यजनुष्याणां तु कायवचनयोरेवेति / यद्वात्रयाणां - देहायुरिन्द्रियरूपाणां पातनंविनाशनं त्रिपातनम्, इदं च सर्वेषामपि / तिर्यजनुष्याणां परिपूर्ण घटते केवलं यथा येषां संभवति तथा तेषां वक्तव्यम्, यथा एकेन्द्रियाणां देहस्य औदारिकस्य आयुष:तिर्यगायुरूपस्य इन्द्रियस्य स्पर्शनन्द्रियस्य, द्वीन्द्रियाणां देहस्यौदारिकरूपस्य आयुषस्तिर्यगायुष इन्द्रिययोश्वस्पर्शनरसनलक्षणयोरित्यादि, पञ्चमीतत्पुरुषस्त्वयम्-त्रिभ्य:-कायवानोभ्यो देहायुरिन्द्रियेभ्यो वा पातनंच्यावनमिति त्रिपातनम्, अत्रापि त्रिभ्य: परिपूर्णेभ्य: कायवाङ्मनोभ्य: पातनं गर्भजपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्गनुष्याणाम् एकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवलात् विकलेन्द्रियसंमूर्छिमतिर्यमनुष्याणां तु कायवाग्भ्यामिति, देहायुरिन्द्रियरूपेभ्यस्तु त्रिभ्य: पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण संभ-वति, केवलं यथा येषां संभवति तथा तेषां प्रागिव वक्तव्यम्, तृतीयातत्पुरुषः पुनरयम् - त्रिभिः कायवाङ्मनोभिर्विनाशकेन स्वसम्बन्धिभिः पातनं-विनाशनं त्रिपातनं, 'च' शब्द: समुच्चये भिविभक्ति निर्देशश्चशब्दोपादानं च यस्य साध्वर्थमपद्रावणं कृत्वा गृही स्वार्थमतिपातं करोति तत्कल्प्यं, यस्य तुगृही त्रिपातनमपि साध्वर्थं विधत्ते तन्न कल्प्यमिति ख्यापनार्थम्, इत्थंभूतमौदारिकशरीराणामपद्रावणं त्रिपातनं च यस्य साधोरेकस्याने कस्य वाऽर्थायनिमित्तं मन आधाय- चित्तं-प्रवर्त्य क्रियते तदाधाकर्म ब्रुवर्त तीर्थकरगणधराः। इमामेव गाथां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयतिओरालग्गहणेणं, तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवज्जा। उद्दवणं पुण जाणसु, अइवायविवज्जियं पीडं // 25 // कायवइमणो तिन्नि उ, अहवा देहाऽऽउइंदियप्पाणा॥ सामित्ता वायाणे, होइ तिवाओ य करणेसु // 26 / / हिययंमि समाहेउं, एगमणेगं च गाहगं जो उ। वहणं करेइ दाया, काएण तमाह कम्मति // 27 / / सुगमा: / नवरं 'देहाऽऽउइंदियप्पाण' त्ति- देहायुरिन्द्रिय-रूपास्त्रयः प्राणा:, 'सामित्ते' त्यादि स्वामित्वे-स्वामित्वविषये संबन्धविवक्षयेति भावार्थ:, एवमपादाने-अपा-दानविवक्षया करणेषु विषये-करणविवक्षया अतिपातो भवति, यथा त्रयाणां पातनं त्रिपातनम्, यद्वा-त्रिभ्य: पातनं त्रिपातनम्, त्रिभिर्वा, करणभूतैः पातनं त्रिपातनं, भावार्थस्तु प्रागेवोपदर्शित: तदेवमुक्तमाधाकर्मनाम / पिं. (आधाकर्मणोऽध:कर्मत्वमध:कर्म 'अधेकम्म' शब्दे प्रथमभागे 589 पृष्ठ दृश्यम्) आधाकर्म अधोगतिनिबन्धनम् इत्यध:कर्मेत्युच्यते। पिं. 102 गाथाटी / (आत्मघ्नकर्म 'आताहम्म' शब्दे अस्मिन्नेव भागे प्रागुक्तम्) / (तच्च आत्मघ्नकर्म) साधो: आधाकर्मभुञ्जानस्याऽ- नुमोदनादिद्वारेण नियमत: संभवतीत्युपचारत: आधाकर्म आत्मघ्नमित्युच्यते। पिं. 105 गाथाटी०। (आत्मकर्म 'अत्तकम्म' शब्दे प्रथमभागे 500 पृष्ठे दर्शितम्) | अशुभो भाव: आधाकर्म ग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन वर्जयितव्यः / पिं. 120 गाथाटी० / परकर्मणश्चात्मीकरणम् आधाकर्मणा ग्रहणे भोजने वा सति भवति, नान्यथा, तत उपचाराद्-आधाकर्म आत्मकर्मेत्युच्यते / पिं०१११ गाथाटी० / अतिप्रसङ्गदोषभयात् कृतकारित-दोषरहितमपि न आधाकर्म भुञ्जीत / अन्यच्च तदाधाकर्म जानानोऽपि भुजानो नियमतोऽनुमोदते; अनुमोदना हि नाम अप्रतिषेधनम्, 'अप्रतिषिद्धमनुमतम्' इति विद्वत्प्रवादात्। पिं०१११ गाथाटी०। (3) संप्रति प्रतिषेवणादीनि नामानि वक्तव्यानि तानि चाऽऽत्मकर्मेति नामाङ्गत्वेन प्रवृत्तानि, ततस्तेषां आत्मकर्मेति नामाङ्गत्वं परस्परं गुरुलघुचिन्तां च चिकीर्षुरिदमाह अत्तीकरेइ कम्म, पडिसेवाईहिं तं पुण इमेहिं। तत्थ गुरू आइपयं, लहु लहु लहुगा कमेणियरे // 112 / / तत्पुनर्ज्ञानावरणीयादिकं परकर्म आत्मीकरोतिआत्म-सात्करोति एभि:- वक्ष्यमाणस्वरूपैः प्रतिषेवणादिभिः तत: प्रतिषेवणादिविषयमाधाकर्माऽपि प्रतिषेवणादिनाम तत्र तेषां प्रति-पेवणादीनां चतुर्णा मध्ये आदिपर्द-प्रतिषेवणालक्षणं गुरुमहादोषं शेषाणि तुपदानि प्रतिषेवणादीनि लघुलघुलघुकानि द्रष्टव्यानि, प्रतिषेवणापेक्षया प्रतिश्रवणं लघुप्रतिश्रवणादपि संवासनं लघुसंवासनादप्यनुमोदनमिति। संप्रत्येतेषामेव प्रतिषेवणादीनां स्वरूपं दृष्टान्ताश्च प्रतिपिपादयिपुस्तद्विषयां प्रतिज्ञामाहपडिसेवणमाईणं, दाराणणुमोयणाऽवसाणाणं। जहसंभवं सरूवं, सोदाहरणं पवक्खामि ||113 / / प्रतिषेवणाऽऽदीनां द्वाराणामनुमोदनापर्यवसानानां यथासंभवं यद्यस्य संभवति। तस्य तत् स्वरूपं सोदाहरणम्- सदृष्टान्तं प्रवक्ष्यामि, तत्र प्रथमत: प्रतिषेवणास्वरूपं वक्तव्यम्। पिं. (प्रतिषेवणारूपम् 'पडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते११४-११५ गाथाभ्याम्) (4) संप्रति प्रतिश्रवणस्वरूपमाहउवओगम्मि य लाभ कम्मग्गाहिस्स चित्तरक्खट्ठा। आलोइए सुलद्धं, भणइ भणंतस्स पडिसुणणा / / 116 // पिं. (अस्याः गाथायाः व्याख्या 'पडिसुणणा' शब्दे पञ्चमभागे करिष्यते) संप्रति संवासा-ऽनुमोदनयो: स्वरूपं प्रतिपादयतिसंवासो उपसिद्धो, अणुमोयणकम्मभोयगपसंसा। एएसिमुदाहरणा, एए उ कमेण नायव्वा / / 117 / / 'संवास: आधाकर्मभोक्तृभिः सह एकत्र संवसनरूप: प्रसिद्ध एव, अनुमादेनादाधाककर्मभोजकप्रशंसाकृतपुण्या: सुलब्धिका एते ये इत्थं सदैव लभन्ते भुञ्जतेवेत्येवं रूपा। तदेवमुक्तं प्रतिषेवणादीनां चतुर्णामपि स्वरूपम्, संप्रत्येतेषामेव प्रतिषे-वणादीनां क्रमेण एतानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि उदाहरणानि ज्ञातव्यानि, सूत्रे च उदाहरणशब्दस्य पुल्लिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात्। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 246 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आधाकम्म तत्र यान्युदाहरणानि वक्तव्यानि तेषां नामानि क्रमेण प्रतिपादयतिपडिसेवणाए तेणा, पडिसुणणाए उ रायपुत्तो उ। संवासंमि य पल्ली, अणुमोयण रायदुह्रो य / / 118 / / प्रतिषेवणस्य स्तेना उदाहरणम्, प्रतिश्रवणस्य तु राजपुत्रं, राजपुत्रोपपलक्षिताः शेषा: पुरुषा:, / संवासे पल्ली'- पल्लीवा-स्तव्या | वणिज:, अनुमोदनायां राजदुष्टो-पलक्षिता-स्तत्प्रशंसाकारिणः / तत्र प्रथम: प्रतिषेवणसंबन्धिनं स्तेनदृष्टान्तंभावयतिगोणीहरण सभूमी, नेऊणं गोणिओ पहे भक्खे। निदिवसया परिवेसण-ट्ठियाऽविते कूविया घत्थे।।११९।। इह गाथाक्षरयोजनासुगमत्वात्स्वयमेव कर्त्तव्या, केवलं 'निर्विशका'उपभोक्तारो, नि:पूर्वस्य विशेषरूपभोगे वर्तमान-त्वात् तथा चोक्तम्"निर्वेश उपभोग: स्यात्" कुजकाव्या-हारकारिणः; गवां व्यावर्तका इत्यर्थः, 'धत्थे' इति गृहीताः / कथानकमुच्यते- इह क्वचिद्ग्रामे बहवो दस्यवः, ते चान्यदा कुतश्चित्सन्निवेशाद् गा: अपहृत्य निजग्रामाऽभिमुखं प्रचलिताः, गच्छतां च तेषामपान्तराले केऽप्यन्ये दस्यवः पथिका मिलित-वन्तस्ततस्तेऽपि तैः सार्द्ध व्रजन्ति; व्रजन्तश्च स्वदेशं प्राप्ता: तत: प्राप्त: स्वदेश इति निर्भया भोजनवेलायां कतिपया गा विनाश्य भोजनाय तन्मांसं पक्तुमारब्धवन्त: / अस्मिंश्च प्रस्तावे केऽप्यन्येऽपि पथिका: समाययु: ततस्तेऽपि तैर्दस्युमिर्मोजनाय निमन्त्रिता ततो गोमांसे पक्के केऽपि चौरा: पथिकाच भोक्तुं प्रवृत्ताः केऽपि गोमांसभक्षणं बहुपापमिति परिभाव्य न भोजनाय प्रवृत्ताः, केवलमन्येभ्य: परिवेषणं विदधति अत्रान्तरे च निष्प्रत्या-कारनिशितकरवालभीषणमूर्तयः समाययु: कूजकाः, ततस्तै: सर्वेऽपि भोक्तार: परिवेषकाश्च परिगृहीता:, तत्रये पथिका अपान्तराले मिलितास्ते पथिका: वयमिति ब्रुवाणा अपि चौरोपनीतगोमांसभक्ष्यपरिवेषणप्रवृत्ततया चौरवद् दुष्टा इति गृहीता, विनाशिताश्च। अमुमेवार्थ दार्शन्तिकेंयोजयतिजे विय परिवेसंती, भायणाणि धरंति य। तेऽवि बज्भंति तिव्वेण, कम्मुणा किमु भोयिणो?||१२० / / इह चौराणां येऽपान्तराले भोजनवेलायां वा ये मिलिता: पथिकास्तत्रापि ये परिवेषमानं भाजनधारणामात्रं वा कृतवन्तस्तेऽपि कूजकैरागत्य बद्धाविनाशिताश्च:, एवमिहापि ये साधवोऽन्येभ्य: साधुभ्यः आधाकर्म परिवेषयन्ति वा धरन्ति / तेऽपि तीव्रण- दु:सहविपाकेन नरकादिगतिहेतुना कभणा बध्यन्ते, किं पुन-राधकर्मभोजिन:? तत एतद्दोषभयात्परिवेषणादिमात्र-मप्याधाकर्मणः प्रतिषेवणं यतिभिर्नकर्त्तव्यम्, इह चौरस्थानीया आधाकर्मनिमन्त्रिणः साधवो गोमांसभक्षकचौरपथिक-स्थानीया: स्वयंगृहीतनिमन्त्रिताधाकर्मभोजिनो, गोमांस-परिवेकादिस्थानीया आधाकर्मपरिवेषकादयः, गोमां-सस्थानीमाधाकर्म, पथस्थानीयं मानुष जन्म कूजकस्थानीयानि कर्माणि, मरणस्थानीयं नरकादिप्रपात:। संप्रति प्रतिश्रवणस्य पूर्वोक्तराजसुतदृष्टान्तं भावयति-- सामत्थण रायसुए, पिइवहणसहाय तह य तुण्हिक्का। तिण्हं पिहु पडिसुणणा, रन्ना सिटुंमि सा नाऽत्थि / / 121 / / गुणसमृद्धं नाम नगरं तत्र महाबलो राजा तस्य शीला नाम देवी तयोर्विजितसमरो नाम ज्येष्ठ: कुमारः, स च राज्यं जिघृक्षुः पितरि दुष्टाशयश्चिन्तयामास यथा ममैष पिता स्थविरोऽपि न म्रियते नूनं दीर्घजीवी संभाव्यते ततो निजभटान्सहायीकृत्यैनं मारयामीति, एवं च चिन्तयित्वा निजभटैः समं मन्त्रयितुं प्रावर्त्तत, तत्र कैश्चिदुक्तं वयं तव साहायककारिणः, अपरैरुक्तमेवं कुरु, केचित्पुनस्तूष्णीं प्रतिपेदिरे, अपरेपुनश्चेतस्यप्रतिपद्यमाना: सकलमपि तवृत्तान्तं राज्ञे निवेदयामासुः ततोराजा ये साहायकं प्रतिपन्ना ये च एवं कुर्वित्युक्तवन्तो येऽपिच तूष्णी तस्थुः तान् सर्वानपियेष्ठ च कुमारं वैवस्वतमुखेप्रतिचिक्षेप यैस्त्वागत्य निवदिणं ते पूजिता:, गाथाक्षरयोजना त्वियम् -'सामत्थणं' स्वभटै: सह पर्यालोचनं राजसुए' त्ति-तृतीयार्थसप्तमी, ततोऽयमर्थ:- राजसुतेन कर्तुमारब्धमिति शेषः, तत्र कैश्चिदुक्तं पितृहनने कर्तव्ये तव सहाया वयमिति तथा' इति समुच्चये, चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, सच केचिदेवं कुर्विति भाषितवन्त इति समुचिनोति, केचित् पुनस्तूष्णीका जातामौनेनावस्थिता:, एतेषां च त्रयाणामपि प्रतिश्रवणदोष:,यैस्तु राज्ञे शिष्टं तेषां 'सा' तत्प्रतिश्रवणं नास्ति। अमुमेवार्थ दार्टान्तिकेयोजयतिमुंज न मुंजे मुंजसु, तइओ तसिणीए मुंजए पढमो। तिण्हं पि हु पडिसुणणा पडिसेहंतस्स सा नऽस्थि / / 122 / / इह किल केनापि साधुना चत्वारः साधव आधाकर्मणे निमन्त्रिता यथा भुध्वं यूयमेनमाहारमिति तत्रैवं निमन्त्रणे कृत प्रथमो भुक्ते द्वितीयः प्राह-नाहं भुजे भुड्क्ष्व त्वमिति, तृतीयो मौनमाश्रित: चतुर्थः पुनः प्रतिषिद्धवान् यथा न कल्पते साधूनामाधाकर्म तस्मादहं भुञ्ज इति, त्रयाणामाद्यानां प्रतिश्रवणदोषः, चतुर्थस्य प्रतिषेधतः सत: 'सा' तत्प्रतिश्रवणं नास्ति, अत्राह- नन्दाद्यस्याधाकर्मभुजानस्य प्रतिषेवणलक्षण एव दोषः, कथं प्रतिश्रवणदोष उक्त:? उच्यते-इह यदा आधा-कर्मनिमन्त्रित: सन् तद्भोजनमभ्युपगच्छति / तदा नाद्यापि प्रतिषेवणमिति प्रतिश्रवणदोष: तत ऊर्ध्व तुप्रतिषेवणंततोनकश्चिद्दोषः / अथामीषामेव भोजकादीनांक: क: कायिकादिको दोष: स्याद् ? अत आहआणंतमुंजगा क-म्मुणा उ, बीयस्स वाइओ दोसो। तइयस्य य माणसिओ, तीहिं विसुद्धो चउत्थो उ / / 123 / / इह य आधाकर्मणः स्वयमानेता यश्चानीतस्य निमन्त्रित: सन भोक्ता तौ द्वावपि कर्मणा आनयनभोजनरूपतया कायक्रिययातुशब्दान्मनसा वाचा च दोषवन्तौ द्वितीयस्य तु भुड्क्ष्व त्वं नाहं भुञ्ज इति ब्रुवाणस्य वाचिको दोषः, उपलक्षणमेतत्- मानसिकश्व, तृतीयस्य तु तूष्णीस्थितस्य तु मानसिको, यस्तु चतुर्थः स त्रिभिरपि दोषैर्विशुद्धः तस्माचतुर्थकल्पेन सर्वदैव साधुना भवितव्यम्। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 247 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म संप्रति दृष्टान्तोक्तस्य कुमारस्य ये दोषाः संप्रभवन्ति तानुपदाऽऽधाकर्मणो भोक्तरि योजयतिपडिसेवण पडिसुणणा, संवासऽणुमोयणा उचउरोऽवि। पियमारग रायसुए, विभासियव्वा जइजणेऽवि / / 124 / / पितृमारके राजसुते प्रतिषेवण-प्रतिश्रवण-संवासाऽनुमोदनारूपाश्चत्वारोऽपि दोषा घटन्ते, तथाहि-तस्य स्वयं पितृ-मारणाय प्रवृत्तत्वात् प्रतिषेवणं, वयं तत्र सहाया इति निजभट-वचनं प्रतिपद्यमानस्य प्रतिश्रवणं, तैरेव सार्द्धमेकत्रनिवसनेन संवासः, तेष्वेव बहुभानकरणादनुमोदना, एवं यतिजनेऽप्याधा-कर्मणो भोक्तरि विभाषितव्यायोजनीयाः, अत्र य: स्वय-मानीयान्यैः सह भुक्ते तत्र प्रथमतो योज्यन्ते तस्य आधाकर्म गृहस्थगृहादानीय भुञ्जानस्य प्रतिषेवणं, गृहस्थेना- धाकमग्रहणाय निमन्त्रितस्य तद्ग्रहणाभ्युपगम: प्रतिश्रवणं, तस्मै तदाधाकर्म आनीय संविभागेन प्रयच्छति तेन सहकत्र संवसत: संवासः, तत्रैव बहुमानकरणादनुमोदना यश्चान्येनानीतमाधा- कर्मनिमन्त्रित: सन भुक्ते तस्य प्रथमतो निमन्त्रणानन्तरमभ्युपगच्छतः प्रतिश्रवणं, ततो भुञ्जानस्य प्रतिषेवणं, निमन्त्रकेण सह एकत्र संवसत: संवास: तत्र बहुमानकरणादनुमोदना, तदेवं यत्र प्रतिषेवणंतत्र नियमत-श्चत्वारोऽपि दोषा: प्रतिश्रवणे च केवले त्रय: संवासे द्वौ अनुमोदनायां त्वनुमोदनैव वेचला,अत एवाऽऽदिपदं गुरु, शेषाणि तु पदानि लघुलघुलघुकानीति। संप्रति संवासे पल्लीदृष्टान्तं भावयतिपल्लीवहम्मि नट्ठा, चोरा वणिया वयं न चोर त्ति। न पलाया पावकर त्ति, काउंरना उवालद्धा / / 125 / / वसन्तपुरं नामनगरं तत्र-अरिमर्दनो नाम राजा, तस्य प्रियदर्शना देवी, तस्य वसन्तपुरस्य प्रत्यासन्ना भीमाभिधाना पल्ली, तस्यां च बहयो | भिल्लरूपा दस्यवः परिवसन्ति, वणिजश्च / तेच दस्यवस्सदैवस्वपल्या विनिर्गत्य सकलमप्यरि-मर्दनराजमण्डलमुपद्रवन्तिानस कश्चिदस्ति राज्ञ: सामन्तो माण्डलिको वा यस्तान् साधयति, ततोऽन्यदा तत्कृतं सकल-मण्डलोपद्रवमाकर्ण्य महाकोपावेशपूरितमानसो राजा स्वयं महती सामठी विधाय भिल्लान् प्रतिजगाम, भिल्लाश्च पल्लीं मुक्त्या संमुखीभूय संग्राभं दातुमुद्यता:, राजा प्रबलसेना-परिकलिततया तान् सनिप्यविगणय्य सोत्साहो हन्तुमार-उधवान्, ते चैवं हन्यमाना: केऽपि तत्रैव परासवो बभूवुः, केऽपि पुन: पलायितवन्त:, राजा च साऽमर्ष: पल्ली गृहीतवान् वणिजश्च तत्रत्या न वयं चौरास्तत: किमस्माकं राजा करिष्यतीति बुद्ध्या नाऽनेशन्, राज्ञा च तेऽपि ग्राहिता: ततस्तैर्विज्ञपयांचक्रे यथा देव! वयं वणिजो; न चोरा इति, ततो राजाऽवादीत् यूयं चौरेभ्योऽप्यतीवापराधकारिणो येऽस्माकमपराधकारिभिश्चौरैः सह संवसंथति, ततो निगृहीताः / गाथाऽक्षरयोजना तु सुगमत्वात् स्वयं कार्या। दार्शन्तिकयोजनां करोतिआहाकडभोईहिं, सहवासो तह य तट्विवज्जंपि। दसणगंधपरिकहां, भाति सुल्लूहवित्तिं पि।।१२६ / / भावना-यथा वणिजां चौरैस्सहैकत्र संवासो दोषाया बभूव तथा साधूनामप्याधाकर्मभोक्तृभिः सहकत्र संवासो दोषाय वेदितव्यः, यतस्तद्विवजमपि-आधाकर्मपरिहारकमपि तथा सुरूक्षवृत्तिमपि, सुष्ठ अतिशयेन रूक्षा द्रव्यतो विकृत्य परिभोगेन भावतोऽभिष्वङ्गाभावेन नि:स्नेहा वृत्तिः-वर्तनं यस्य तथा तमपि आधाकर्मसंबन्धिन्यो दर्शनगन्धपरिकथा भावयन्ति आधाकर्मपरिभोगवाञ्छापादनेन वासयन्ति / तथाहि दर्शनम्अवलोकनं, तच मनोज्ञमनोज्ञतराऽऽधाकाहारविषयं नियमा- द्वासयति, यत: कस्य नाम शकुन्दावदातो रस-पाकनिधान- निष्णातमहासूपकारसुसंस्कृत: शाल्याद्योदनो न मन:क्षोभमुत्पादयति / गन्धोऽपि सद्यस्तापितधृतादिसंबन्धी नासिकेन्द्रिया ऽप्यायनशीलो बलादपि तद्भोजने श्रद्धा-मुपजनयति, परिकथाऽपि च विशिष्ट विशिष्टतरद्रव्यनिष्पा-दितमोदकादिविषया विधीयमाना तदात्वाद संपत्त्याशंसाविधौ चेत् उत्साहयितुमीश्वरा, तथादर्शनात् ततोऽवश्यमाधाकर्म-भोक्तृभिः सह संवासो यतीनां दोषायेति। अनुमोदनायां राजदुष्टदृष्टान्तं भावयतिरायारोहवराहे, विभूसिओ घाइओ नयरमजे। घन्नाऽधन्न त्ति कहा, वहाऽवहो कप्पडिय खोला / / 127 / / श्रीनिलयं नाम नगरं, तत्र गुणचन्द्रो नाम राजा, तस्य गुणवतीप्रमुखमन्तःपुरं, तत्रैव च पुरे सुरूपो नाम वणिक्: स च निजशरीरसौन्दर्यविनिर्जितमकरध्वजलवणिमाकमनीयकामिनी-नामतीव कामास्पदं स्वभावतश्च परदाराभिष्वलङ्गलालस:, तत: सोऽन्यदा राजान्त:पुर-सन्निवेशसमीपं गच्छन्नन्त:पुरिकाभि: सस्नेहमवलोकित: तेनाप्यपचित्ता: साभिलाषमवेक्षितास्ततो जात: परस्परमनुरागः, दूतीनिवेदितप्रयोगवशेन च ता: प्रतिदिनं तेन सेवितुमारब्धाः, राज्ञा च कथमप्ययं वृत्तान्तो जज्ञे, ततो सदा सोऽन्तःपुरं प्राविशत्तदा निजपुरुषाहितो ग्राहयित्वा च यैरेवाभरणैरलंकृतोऽन्तःपुरं प्रविवेश तैरेवाभरणैर्विभूषितो नगरमध्ये चतुष्पथे सकलजनसमक्ष विचित्रकदर्थनापुरस्सरं विनिपातितः। राजा चान्त:पुरविध्वंसेनातीवदूनमनास्तस्मिन् विनाशितेऽपि न कोपावेशं मुञ्चति / ततो हेरिकान् प्रेषयामास, यथारे दुरात्मानंतंये प्रशंसन्तियेवा निन्दन्ति तान् द्वयानपि मह्यं निवेदय? इति, एवं च प्रेषिता: कार्पटिकवेषधारिण: सर्वत्रापि नगरे परिभ्रमन्ति, लोकाश्च तं विनाशितं दृष्ट्वाकेचन रावते, यथा अहो जातेन मनुजन्मना अवश्यं तावन्मर्त्तव्यं परं या अस्मा-दृशामधन्यानां दृष्टिपथमपि कदाचनापि नायान्ति ता अप्येष यथासुखं चिरकालं भुक्त्वा मृतस्तस्माद्धन्य एष इति, अपरे वृवते - अधन्य एष उभयलोकविरुद्धकारी स्वामिनोऽन्तःपुरिका हि जननीतुल्यास्ततस्तास्वप्येष संचरन् कथं प्रशंसामर्हति शिष्टेभ्य: इति, ततस्ते द्वये अपि हेरिकैर्निवेदिता राज्ञो, राज्ञा च ये तस्य निन्दाकारिणस्ते सबुद्धय इति कृत्वा पूजिता:, इतरे तु-कृतान्तमुखे प्राक्षिप्यन्त, गाथाक्षरयोजना त्वेवम् राज्ञोऽव-रोधोऽन्तःपुरं तद्विपयेऽपराधे यैरेवाऽऽभरणैर्विभूषितोऽन्तःपुरे प्रविष्टस्तैरेव विभूषितो नगरमध्येघातितः / तत: कार्पटि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 248 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म कवेषधारिण: खोला-हेरिका राज्ञा नियुक्ताः / लोकानां च तद्विषया धन्याऽधन्यकथा। ततो धन्यकथाकारिणां विनाश:, इतरेषां त्वविनाशे इति। दान्तिकयोजना त्वेवम्- एकेसाध-वस्तावदाधाकर्म भुञ्जते। तत्राऽपरे- जल्पन्तिधन्या एते सुखं जीवन्ति, अन्ये ब्रुवते-धिग् एतान्ये भगवत्प्रवचनप्रति-षिद्धमाहारमश्नन्ति, तत्र ये प्रशंसिनस्ते, कर्मणा बध्यन्ते, इतरे तु न इहान्त:पुरस्थानीयमाधाकर्म, अन्त: पुरद्रोहकारिस्था- नीया आधाकर्मभोजिन: साधवः, नृपस्थानीयं ज्ञानावरणादिक कर्म, मरणस्थानीय: संसार:, तत्र ये आधाकर्मभोक्तृप्रशंस-कास्ते कर्मराज्ञो निर्णाह्या: शेषसास्त्वनिग्राह्याः। संप्रत्यनुमोदनाप्रकारमेव दर्शयतिसाउं पज्जतं आ-यरेण काले रिउक्खम निद्धं / तग्गुणविकत्थणाए, अमुंजमाणे वि अणुमन्ना / / 128 / आधाकर्मभोजिन उद्दिश्य केचिदेवं ब्रुवते-वयं तावन्न कदा-चनाऽपि मनोज्ञमाहारं लभामहे, एते पुन: सदैव स्वादु लभन्ते, तदपि च पर्याप्तपूरिपूर्ण तत्राप्यादरेण-बहुमान पुरस्सरं तत्रापि काले-प्रस्तभोजनवेलायां तदपि ऋतुक्षम-शिशिरादिऋतूपयोगि तथा स्निग्धं-घृतपूरादि तस्माद्धन्या अमी सुखं जीवन्ति। एवं तद्गुणविकत्थनयातद्गुणप्रशंसया अभुजानेऽपिअनभ्य-वहरत्यपि अनुमन्याअनुमोदना इह अनुमन्याजनितो दोषोऽपि कार्ये कारणोपचारादनुमन्येत्युक्तम्, ततोऽयमर्थ:- अभुजानेऽ- प्यनुमोदनाद्वारेणाधाकर्मभोजिन इव दोषो भवती-ति। अन्ये तु तद्गुणविकत्थनामेवं योजयन्ति-आधाकर्मभोजिनं कोऽपि कन्दर्पणानाभोगेन वा पृच्छति-साधु लब्धं त्वया भोजनं, तथा पर्याप्त तथा आदरेण भक्त्या इत्यादि ? तत्राप्यविरोध: / तदेवमुक्तान्याधाकर्मणो नामानि, तदुक्तौ च यदुत्तं प्राक् मूलद्वार-गाथायाम् "आधाकम्मियनामा" इति तद् व्याख्या-तम्। पिं / (5) एकाथिकानि आधाकर्मणः / संप्रति 'एगट्ठा' इत्यवयवं व्याचिख्यासुरिदमाह आहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य। जह वंजणनाणत्तं, अत्थेण विपुच्छए एवं // 19 // अत्र पर एवं पृच्छति-यथा आधाकर्म१, अध:कर्म 2, आत्मघ्नकर्म 3, आत्मकर्म 4, इत्येतेषु चुतुषु नामसु व्यञ्जनैर्नानात्वं विद्यते, तथाऽत्रार्थेनाऽपि- अथापेक्षयापि नानात्वमस्ति किं वा न? इति, पृच्छतश्चायमभिप्राय:- इहा-ऽऽधा- कादीनां नाम्नां सर्वेषामपि व्युत्पत्तिनिमित्तं पृथगुत्तं, तद्यथा-आधया कर्म आधाकर्म, अथ साधुविषय-प्रणिधानपुरस्सरपाकादिक्रियास्वारम्मो व्युत्पत्तिनिमित्तम् अधोऽध:कर्म- अध:कर्म, अत्र विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽधोऽधस्तरामागमनम्, आत्मानं हन्तीत्यात्मध्नमिति अत्र चरणाद्यात्मविनाशनम् परकर्म आत्मकर्म क्रियते इत्यात्म-कर्म, अत्र परकर्मणः आत्मसंबन्धितया करणं ततोऽत्र संशयो यथा व्युत्पत्तिनिमित्तं पृथक् पृथक् भिन्नमेवं प्रवृत्तिनिमत्तमपि पृथक् पृथक् भिन्न यथा घटपटशकटादिशब्दानां, किं वा म यथा घटकलशकुम्भा दीनामिति / अत्र 'आहा अहेयकम्मे' इत्यादावक्षरयोजनाप्रागिव भावनीया। एवं परेण प्रश्ने कृति सति शिष्यमतिप्रागल्भ्याधानाय सामा-न्यतो नामविषयां चतुर्भगिकामाह- एगह एगवंजण, एगट्ठा नाणवंजणा चेव। नाणट्ट एगवंजण, नाणऽट्ठा वंजणा नाणा ||130 / / इह नामानि जगति प्रवर्तमानानि कानिचिदुपलभ्यन्ते / एकार्थानिएकव्यञ्जनानि१, कानिचिदेकार्थानि नानाव्यञ्जनानि२, कानिचिन्नानार्थानि एकव्यञ्जनानि 3, कानिचित्पुन-नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि४। अस्या एव चतुर्भङ्गिकाया: क्रमेण लौकिकनिदर्शनानि गाथाद्वयेनोपदर्शयतिदिखीरं खीरं, एगऽटुं एगवंजणं लोए। एगबहुनाम, दुद्ध पओ पीलु खीरं च // 131 / / गोमडिसिअयाखीरं, नाणऽटुं एगवंजणं नेयं / घडपडकडसगडरहा, होई पिहत्थं पिहनामं // 132 / / इह सर्वत्र पिजातावेकवचनं, ततोऽयमर्थ: एकार्थानि एक-व्यञ्जनानि नामानि लो प्रवर्त्तमानानि दृष्टानि यथा क्षीरं क्षीरमिति, इयमत्र भावनाएकत्र क्वचित् गृहे गोदुग्धादिविषये क्षीरमिति नाम प्रवृत्तमुपलब्धं, तथाऽन्यत्रापि गेदुग्धादावेव विषये क्षीरमिति नाम प्रवर्तमानमुपलभ्यते एवं ततोऽप्यन्यः गृहान्तरे ततोऽमूनि सर्वाण्यपि क्षीरं क्षीरमित्येवंरूपाणि नामा-न्येका एकव्यञ्जनानि, तथा एकार्थानि बहुव्यञ्जनरूपाणि नामानि यथा दुग्धं पयः पीलु क्षीरमिति अमूनि हि नामानि सर्वाण्यपि विवक्षितगोदुग्धादिलक्षणैकार्थाभिधायितया नानापुरुषैरेककालं क्रमेणैकपुरुषेण वा प्रयुज्यमानान्येकार्थानि नानाव्यञ्जनानि च ततो द्वितीये भङ्गे निपतन्ति / नाना-र्थान्ये कव्यञ्जनानि, यथागोमहिष्यजासंबन्धिषु भीरं क्षीर-मिति नामानि प्रवर्त्तमानानि, एतानि हि नामानि सर्वाण्यपि समानव्यजानानिभिन्नभिन्नगोदुग्धमहिषीदुग्धादिरूपार्थवाचक-तया भिन्नार्थानि च तत उच्यन्तेनानार्थान्येकव्यजनानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटकटशकटरथादीनि नामानि। तदेवमुक्तानि चतुर्थभङ्गिकया निदर्शनानि। सांप्रतमिमामेव चतुर्भगिकामाधाकर्मणि यथासंभवं गाथाद्वयेन योजयतिआहाकम्माईणं, होई दुरुत्ताइ पढमभंगो उ। आहाऽहेकम्मति य, बिइओ सर्किकद इव भंगो / / 133 / / आहाकमंतरिया, असणाई उचउरो तइयभंगो। आहाकम्म पडुचा, नियमा सुन्नो चरिमभंगो / / 134 / / आधाकर्मादीनांनाम्नायुगपद्बहुभिः पुरुषैरेकेनवा काल-भेदेन एकस्मिन्नेव अशनादिरूपे वस्तुनि यद् द्विरुक्तादि-द्विरुधारणादि, आदिशब्दात्रिरुधारणादिपरिग्रहः, स भवति प्रथमो भङ्गः किमुक्तं भवति ? एकत्र वसतावशनविषये केनाप्याधाकर्मेति नाम प्रयुक्तं, तथाऽन्यत्रापि वसत्य Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 249 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म न्तरेऽशनविषये एवाधाकर्मेति नाम प्रयुज्यते, तथा ततोऽन्यत्रापि वसत्यन्तरे, तान्यमूनि सर्वाण्यप्याधाकर्मेति नामान्येकार्थानि एकव्यञ्जनानीति प्रथमे भङ्गेऽवतरन्ति, आधाकर्म अध:- कर्मत्यादीनि तु नामानि विवक्षिताशनादिरूपैकविषये प्रवर्तमानानि / द्वितीयो भङ्गः एकार्थानि नानाव्यञ्जनानी- त्येवंरूपद्वितीयभङ्गविषयाणि 'सक्किंद इवे' तियथा इन्द्रः शक्र इत्येवमादीनि नामानि, तथा अशनादय:अशनपानखादिम- स्वादिमरूपाश्चत्वार आधा-कर्मान्तरिताआधाकर्मशब्देन-व्यवहिता यथा- अशनमाधाकर्म पानमाधाकर्म इत्येवमादि, तृतीयभङ्गः- तृतीयभङ्गविषय: अत्राप्ययं भावार्थ:- यदा-अशनादय: प्रत्येकमाधाकर्म आधाकर्मेति देशभेदेन बहुभिः / पुरुषैरेक- कालमेकेन वा पुरुषेण कालभेदनोच्यन्ते तदा तानि आधाकर्म आधाकर्मेति नामानि नानार्थान्येकव्यञ्जनानीति तृतीये भङ्गेऽवतरन्ति, आधाकर्मरूपं नामाश्रित्य पुनश्चरमो भङ्गो नानार्थानि नानाव्यञ्जनानीत्येवंरूपो नियमाच्छू न्यः आधाकर्म आधाकर्मेत्येवमादिनाम्नां सर्वेषामपि समानव्यञ्जनत्वात, उपलक्षणमेतत्, तेन सर्वाण्यापि नामानि प्रत्येकं चरमभङ्गे न वर्तन्ते, यदा तु कोऽप्यशनविषये आधाकर्मेति ना प्रयुत्ते पानविषये त्वधःकर्मेति खादिमविषये त्वात्मघ्नमिति, खादिमविषये त्वात्मकर्मेति तदानि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि चेति चरमोऽपि भङ्गः प्राप्यते। इह विवक्षिताशनादिरूपैकविषये प्रवर्तमानान्याधाकर्माध: कर्मप्रभृतीनि नामानि द्वितीयभङ्ग उक्तस्ततस्तदेव भावयतिइंदत्थं जह सद्दा, पुरंदराई उनाऽइवत्तंते। अहकम्म आयहम्मा, तह आहे नाऽइवत्तंते / / 135 / / यथा इन्दार्थ इन्द्रशब्दवाच्यं देवराजरूपं पुरन्दरादय:- पुरन्दरः शक्र इत्येवमादयः शब्दा नातिवर्तन्ते- नातिक्रामन्ति / तथा अध:कर्मआत्मघ्नशब्दौ उपलक्षणमेतत्। आत्मकर्मशब्दश्च'आह'ति-"सूचनात् सूत्रमि" तिन्यायात् आधाकर्मार्थम्-आधाकर्मशब्दवाच्यं नातिवर्तन्ते, यदेव येन दोषेण दुष्टमा-धाकर्मशब्दवाच्यमोदनादि तनेव तेनैव दोषण दुष्टमध:कर्मादयोऽपि शब्दा ब्रुवते इति भावः / एतदेव भावयतिआहाकम्मेण अहे, करेइ जं हणइ पाणभूयाई। जंतं आययमाणो, परकम्मं अत्तणो कुणइ / / 136 // आधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा यस्माद्विशुद्धेभ्यो विशुद्ध-तरेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽवतीर्याधस्तादात्मानं करोति / तेन कारणेन तदेवाधाकर्म अध:कर्मेत्युच्यते, तथा यस्मादाधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा स एव भोक्ता / परमार्थतः प्राणान्द्वीन्द्रिया-दीन् भूतान्वनस्पतिकायान् उपलक्षणमेतत् जीवान्- सत्त्वांश्च हन्तिविनाशयति / "जस्सऽट्ठा आरम्भो पाणिवहो होइ तस्स नियमेण' इति वचनप्रामाण्यात्प्राणादींश्च घ्नन् नियमत-श्वरणादिरूपमात्मानं हन्तिविनाशयति / 'पाणिवहे वयभंगो' इत्यादिवचनात् तत आधाकर्म आत्मघ्नमित्युच्यते, तथा यत्-स्मात्कारणात्तत्-आधाकर्म आददान: | परस्य-पाचकादेः संबन्धि यत्कर्म आरम्भजनितं ज्ञानावरणीयादिकमुत्पन्नमासीत् तदात्मनोऽपि करोति, ततस्तदाधाकर्म आत्मकर्मेत्युच्यते तस्मादध:कर्मादीनि नामानि सर्वाण्यपि नाऽऽधाकर्मशब्दार्थमतिवर्तन्ते इति द्वितीये भङ्गेऽवतरन्ति। तदेवं मूलद्वारगाथायाम् 'एगट्ठा' इत्यपि व्याख्यातम्। पिं। (६)आधाकाश्रित्य कल्प्याऽकल्प्यविधिः। संप्रत्येताने-वाधिकृत्य कल्प्याऽकल्प्यविधिर्वक्तव्यः, तत्र नामसाधर्मि-कमधिकृत्य प्रथमत: कल्प्याकल्प्यविधिं गाथाद्वयेन प्रति-पादयतिजावंत देवदत्ता, गिहीव अगिहीव तेसि दाहामि। नो कप्पई गिहीणं, दाहंति विसेसिए कप्पे // 142 / / पासंडीसु वि एवं, मीसाऽमीसेसु होई हु विभासा। समणेसुसंजयाणउ,विसरिसनामाणविन कप्पे॥१४३ / / इह कोऽपि पितरि मृते जीवति वा तन्नामानुरागतस्तन्नाम- युक्तेभ्यो दानं दित्सुरेवं संकल्पयति यथा यावन्तो गृहस्था अगृहस्था वा देवदत्तास्तेभ्यो मया भक्तादिकमुपस्कृत्य दातव्यं, तत्रैवं संकल्पे कृते देवदत्ताख्यस्य साधोर्न कल्पते, देवदत्त-शब्देन तस्यापि संकल्पविषयीकृतत्वात्, यदा पुनरेवं संकल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था देवदत्तास्तेभ्यो दातव्यमिति, तदा एवं विशेषिते- निर्धारिते सति तद्योग्यमुपस्कृतं देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य विवक्षितसंकल्पविषयीकरणाभावात, तथा पाषण्डिष्यपि मिश्राऽमिश्रेषु एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विभाषा कर्तव्या, इह सामान्यसंकल्पविषया मिश्रा उच्यन्ते, यथा यावन्त: पाषण्डिनो देवदत्ता इति, प्रतिनियतसंकल्पविषयास्त्वमिश्रा यथा यावन्त: सरजस्का: पाखण्डिनो, यदिवासौगता देवदत्ता इत्यादि, तत्र यावन्तो देवदत्ता: पाखण्डिन इति मिश्रसंकल्पे कृते न कल्पते। पाषण्डिदेवदत्तशब्दाभ्यां देवदत्ताख्यस्थाऽपि साधो: संकल्पविषयीकृतत्वात् यदा पुनरमिश्रः संकल्पो यथायावन्त: सरजस्का: पाषण्डिनो देवदत्ता, यदि वायावन्त: सौगता देवदत्ताः, यद्वा-साधुव्यतिरेकेण सर्वेऽपि पाषण्डिनो देवदत्तास्तेभ्यो दास्यामीति, तदा देवदत्ताख्यस्य साधो: कल्पते, तस्य संकल्पविषयीकरणाभावात्, यथा च पाषण्डिषु मिश्रामिश्रेषु विभाषा कृता तथा श्रमणेष्वपि मिश्रामिश्रेषु कर्त्तव्या, श्रमणा हि शाक्यादयोऽपि भण्यन्ते, यतो वक्ष्यति-"निगंथ-सक्क- तावसगेरुयआजीवपंचहा समणा" ततो यदैवं मिश्रः संकल्पो यावन्त: श्रमणा देवदत्ताख्यास्तेभ्यो दास्यामीति तदा देव-दत्ताख्यस्य साधोर्न कल्पते, तस्य श्रमणदेवदत्तशब्दाभ्यां संकल्पविषयीकृतत्वात्, यदा पुनरेवममिश्रः संकल्पो यावन्त: शाक्या: श्रमणाः, यदि वा-आजीवका देवदत्ता, यद्वा- साधुव्यतिरेकेण सर्वे श्रमणा देवदत्तास्तेभ्यो दास्यामीति तदा कल्पते, तस्य विवक्षितसंकल्पविषयीकरणाभावात्, संयतानां तु निन्थिातां विसदृशनानामपि संकल्प कृते देवदत्ताख्यादे: साधोर्नकल्पते, किमुत्तं भवतिचैत्रनाम्रोऽपिसंयतस्योद्देशेन कृतं देवदत्ताख्यस्य साधोर्न कल्पते, तथा भगवदाज्ञाविजृम्भ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 250 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म णात् यदा पुनस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धसंकल्पनेन कृतं तदा कल्पते, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धानां सङ्घातीतत्वेन सङ्घमध्यवर्तिभिः साधुभिः सह साधर्मिकत्वाभावात् : "संजयाणउ विसरिसना- माण वि न कप्पे" इति वचनाचार्थापत्त्या यावन्तो देवदत्ता इत्यादौ विसदृशचैत्रादिनाम्नां साधूनां कल्पत एवेति प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् / तदेवमुक्तो नाम साधर्मिकमधिकृत्य कल्प्याऽ- कल्प्यविधिः / संप्रति स्थापनाद्रव्यसाधर्मिकावधिकृत्य तमाहनीसमनीसावकडं,ठवणा साहमियम्मि उविभासा। दवे मयतणुभत्तं,न तं तु कुच्छा विवज्जेज्जा ||144 // इह कोऽपि गृही गृहीतप्रव्रज्यस्य मृतस्य जीवतो वा पित्रादे: स्नेहवशत्प्रतिकृतिं कारयत्विा तत्पुरतो ढौकनाय बलिं निष्पादयति, तनिष्पादनं च द्विधा, तद्यथा-निश्रया, अनिश्रया च / तत्र ये रजोहरणादिवेषधारिणो मत्पितृतुल्यास्तेभ्यो दास्या-मीति संकल्प्य निष्पादयति। तदा तद्वलिनिष्पादनं निश्राकृतमुच्यते, यदा त्वेवंविध: संकल्पो न भवति, किन्त्वे- वमेव ढौकनाय बलिं निष्पादयति / तदा तद्गलिनिष्पादन-मनिश्राकृतमुच्यते, तथा चाह-"नीसमनीसाव कडं'' इह प्रथमातृतीयार्थे वेदितव्या ततोऽयमर्थ:- निश्रया अनिश्रया वा यत्कृत-निष्पादितं भक्तादिस्थापनासाधर्मिकविषये / तत्र विभाषा कर्तव्या, यदि निश्श्राकृतं तदपि च ढौकितमढौकितं वा तर्हि न कल्पते, अनिश्राकृतं तु ढौकितमढौकितं वा कल्पते, परंतत्रापि प्रवृत्तिदोषप्रसङ्ग इति पूर्वसूरयो निषेधमाचक्षते, तथा द्रव्ये-द्रव्यसाधर्मिकविषये यत् मृततनुभत्तं तत्कालं मृतस्य साधोर्या तनुस्तस्याः पुरतो ढौकनाय यदशनादि तत्, पुत्रादिना कृतं तत् मृततनुभक्तं तदपि द्विधानिश्राकृतम्, अनिश्राकृतं च / तत्र साधुभ्यो दास्यामीति संकल्प्यकृतं निश्राकृतम्, इतरत्तु स्वपित्रादिभक्तिमात्रकृतमनिश्राकृतं तत्र यन्निश्राकृतं तनिषेधयति-नैव कल्पते, इतरत्तु अनिश्राकृतं कल्पते, किंतु तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा-निन्दा प्रवर्तते, यथा अहो अमी भिक्षवो नि:शूका मृततनुभक्तमपि न परिहरन्तीति ततो विवजयन्ति तत्साधवः / संप्रति क्षेत्रकालसाधर्मिकावधिकृत्यातिदेशेन कल्प्याऽकल्प्यविधिमाहपासंडियसमणाणं, गिहिनिग्गंथाण चेव उ विभासा। जह नामम्मि तहेव य,खेत्ते काले य नायव्वं / / 145 / / यथा नाम्नि-नामसाधर्मिकविषये पाषण्डिनां श्रमणानां 'गिहि' त्ति"सूचनात् सूत्रमि'' तिन्यायात् गृह्यगृहिणा निर्ग्रन्थानां च विभाषा कृता तथा क्षेत्रे काले च विभाषणं ज्ञातव्यं, तत्र क्षेत्रं-सौराष्ट्रादिकं काल:दिनपौरुष्यादिकः तत्र क्षेत्रविषये विभाषा एवम् यदि सौराष्ट्रदेशोत्पन्नेभ्यः पाषण्डिभ्यो मया दातव्यमिति संकल्प: तदा सौराष्ट्र देशोत्पन्नस्य साधो कल्पते, सौराष्ट्रदेशोत्पन्नत्वेन तस्यापि संकल्पविषयीकरणात्, शेषदेशोत्पन्नानां तु कल्पते, तेषां संकल्पविषयीकरणाभावात्, यदि पुन: सौराष्ट्रदेशोत्पन्नेभ्य: पाषण्डिभ्य: सरजस्केभ्यः, यदि वा-सौगतेभ्य: यद्वा- साधुव्यतिरेकेण सर्वपाषण्डिभ्यो दास्यामीति संकल्पस्तदा सौराष्ट्रदेशोत्पन्नस्यापि साधो: कल्पते, तस्य संकल्पाक्रोडीकरणात्, एवं श्रमणेष्वपि सामान्यत: संकल्पितेषु न कल्पते, साधुव्यतिरेका तु संकल्पितेषु कल्पते तथा गृह्यगृहिषु सामान्यत: सौराष्ट्रदेशोत्पन्नत्वेन संकल्पितेषु न कल्पते, केवलेषु तु गृहिषु कल्पते, निर्ग्रन्थेषु तु सौराष्ट्रदेशोत्पन्नेषु असौराष्ट्रदेशोत्पन्नेषु वा संकल्पितेषु सौराष्ट्रदेशोत्पन्नानामन्यदेशोत्पन्नानां वा सर्वथा न कल्पते, तदेवं क्षेत्रसाधार्मिकेविभाषा भाविता, एवं कालसाधार्मिकपि भावनीया, यथा विवक्षितदिनजातेभ्य: पाषण्डिभ्यो मयादातव्यमिति संकल्पिते तस्यापि तद्दिनजातस्य साधो: न कल्पते, तस्यापि तद्दिन-जातत्वेन संकल्पविषयीकरणात्, शेषदिनजातानां तु कल्पते, संकल्पविषयीकरणाऽभावात् इत्यादि सर्व पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम्, प्रवचनादिपदसप्तकेपुनरेवं पूर्वाचार्यव्याख्याप्रवचनलिङ्गदर्शनज्ञानचारित्राभिग्रहभावनारूपेषु सप्तसु पदेषु द्विसंयोगभङ्गा एकविंशतिः, तद्यथा-प्रवचनस्य लिङ्गेन सह एको, दर्शनेन सह द्वितीयो, ज्ञानेन सह तृतीयः, एवं यावत् भावनया सह षष्ठ इति षड् भङ्गाः एवं लिङ्गस्य दर्शनादिभिः सह पञ्च, दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह चत्वारः, ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह त्रय:, चारित्रस्याभिग्रहभावनाभ्यां द्वौ अभिग्रहस्य भावनया सहैक इत्येक विंशतिः, एतेषु च एकविंशतिसंख्येषु भङ्गेषु प्रत्येकमेवैका: चतुर्भङ्गिका:, तद्यथा-प्रवचनत: साधर्मिको न लिङ्गत:, लिङ्गत: साधर्मिको न प्रवचनत:, प्रवचनत: साधर्मिको लिङ्गतश्च न प्रवचनतो न लिङ्गतश्च शेषेषु भङ्गेषु यथास्थानं चतुर्भङ्गिका दर्शयिष्यते। तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिकाया आद्यभङ्गद्वयोदाहरणमुपदर्शयतिदस ससिहागा सावग, पवयण साहम्मियान लिंगेणं। लिंगेण उसाहंमी, नो पवयण निण्हगा सय्वे |146 / / प्रवचनत: साधर्मिका न लिङ्गेन अविरसम्यग्दृष्टेरारभ्य यावद्दशमी श्रावक प्रतिमा प्रतिपन्ना ये श्रावकास्ते द्रष्टव्याः, कुत इत्याह-'दस ससिहागा' इत्यत्र "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभिक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति न्यायाद्धेतौ, प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यतस्ते दशमी श्रावकप्रतिमा प्रतिपन्नाः, सशिखाका:- शिखासहिता: वेशसहिता एवेत्यर्थः ततस्ते प्रवचनत एव साधर्मिका भवन्ति: न लिङ्गतः, ये त्वेकादशी श्रावक प्रतिमा प्रतिपन्नास्ते निष्केशा इत्यादिना लिङ्गतोऽपि साधर्मिका भवन्तीति तद्विवजनम् एतेषां चार्थाय यत् कृतं तत्साधूनां कल्पते, तथा लिङ्गत: साधर्मिका न प्रवचनतो निह्नवाः, तेषां प्रवचनबहिर्भूतत्वेन प्रवचनत: साधर्मिकत्वाभावात्, लिङ्गं तु तेषामपि रजोहरणादिकं विद्यते इति लिङ्गत: साधर्मिकाः, तेषामप्यर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, निहवाश्च द्विधालोके निह्नवत्वेन ज्ञाता: अज्ञाताश्च / तत्र ये अज्ञातास्ते इह ग्राह्याः, अज्ञातानां लोके साधुत्वेन व्यवहरणभावत: प्रवचनान्तर्वर्तित्त्वात, इहाद्यभङ्गद्वयेन उदाहृते शेषमुत्तरं भङ्गद्रयं स्वयमेव श्रोतारोऽवभोत्स्यन्ते। इति बुद्ध्या नियुक्ति - कृन्नोदाहतवान्, अनेनैव च कारणेन शेषाणामपि चतुर्भङ्गिकारणामाद्यमेव भङ्गद्वयमुदाहरिष्यति नोत्तरं भङ्गद्वयं वयं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 251 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म तु सुखाववोधाय उदाहरिष्यामः, तत्रास्यामेव प्रथमचतुर्भङ्गि- कायां प्रवचनत: साधर्मिका लिङ्गतश्चेति तृतीयभङ्गे उदाहरणं साधव: एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना श्रावका वा, तत्र साधूना- मर्थाय कृतं न कल्पते, श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतः साधर्मिका नाऽपि लिङ्गतस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धा तेषां प्रवचनलिङ्गातीतत्वात् तेषामर्याय कृतं कल्पते, द्विती-याचतुर्भङ्गिका-प्रवचनत: साधर्मिका, न दर्शनतः , | दर्शनत: साधर्मिका न प्रवचनत:, प्रवचनत: साधर्मिका दर्शनतश्च / न / प्रवचनतो न दर्शनतः। तत्राद्यभङ्गद्वयोदाहरणमाहविसरिसदसणजुत्ता, पवयणसाहम्मियानदंसणओ। तित्थगरा पत्तेया, नो पवयणदंससाहम्मी॥१४॥ प्रवचनत: साधर्मिका नदर्शनतो, विसदृशदर्शनयुक्ताः- विभिन्नक्षायिकादिसम्यक्त्वयुक्ता: साधवः श्रावका वा किमुक्तं भवति-एकेषां साधूनां श्रावकाणां वा क्षायोपशमिकं दर्शनमपरेषां त्यौपशमिकं क्षायिकं वा ते परस्परं प्रवचनत: साधर्मिका नदर्शनत:,तत्र साधूनामर्थाय कृतंसाधूनां न कल्पते, श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते, तथा दर्शनत: साधर्मिकान प्रवचनतः, तीर्थकरा: प्रत्येकबुद्धा वा समानदर्शना वेदितव्याः, तेषामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, प्रवचनत: साधर्मिका दर्शनतश्च, साधवः श्रावका वा समानदर्शनाः, अत्रापि साधूनामर्थाय कृतं साधूनां न कल्पते, श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतो नापि दर्शनस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिह्नवाः, तत्र तीर्थकरा: प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नदर्शना वेदितव्याः, निहवाश्च मिथ्यादृष्टयः प्रतीता एव, एतेषां च सर्वेषामर्थात कृतं कल्पते, तृतीया चतुर्भङ्गिका-प्रवचनत: साधर्मिका न ज्ञानत:, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवचनत:, प्रवचनातेऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च, न प्रवचनतो नापि ज्ञानत:, एवं चतुर्थ्यपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य चारित्रेण सह वेदितव्या। एतयोर्द्वयोरपि चतुर्भङ्गिकयोराधभङ्गद्रयमतिदेशेनोदाहरतिनाणचरित्ता एवं, नायव्वा हॉति पवयणेणं तु॥ यथा प्रवचनेन सहदर्शनमुक्तमेवं ज्ञानचारित्रे अपि प्रवचनेन सह ज्ञातव्ये, तद्यथा-प्रवचनत: साधर्मिका न ज्ञानत: विसदृशज्ञानसहिता: साधवः श्रावका वा, अत्रापि यदि साधवस्तर्हि न कल्पते, अथ श्रावकास्तर्हि कल्पते, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवचनत: तीर्थकरा: प्रत्येकबुद्धा वा समानज्ञाना: तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनत: साधर्मिका ज्ञानतश्च, साधवः श्रावका वा समानज्ञाना: अत्रापि साध्वर्थ कृतं न कल्पते, श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते न प्रवचनतो नाऽपि ज्ञानत: तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिवाः, तत्र तीर्थकरा: प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नज्ञाना वेदितव्या, निवास्तु मिथ्यादृष्टित्वादज्ञानिन: प्रतीता एव, एतेषां सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते, तथा प्रवचनत: साधर्मिका न चारित्रत: साधवः श्रावकाच, तत्र साधवो विसदृशचारित्रसहिता वेदितव्याः, श्रावकाणां त्वरितसम्यग्दृष्टीनां सर्वथा विरत्यभावेन देशविरतानां तु देशचारित्रतया चारित्रत: साधर्मिकत्वाभाव: सुप्रतीत: साध्वर्थं चेत् कृतं न कल्पते, श्रावकार्थं चेत्तर्हि कल्पते, चारित्रत: साधर्मिका न प्रवचनत: तीर्थकर प्रत्येकबुद्धा: समानचारित्राः, तेषामर्थाय कृंत कल्पते प्रवचनत: साधर्मिकाश्चारित्रतश्च साधवः समानचारित्राः, तेषा-मर्थाय कृतं न कल्पते, न प्रवचनतो नापि चारित्रतस्तीर्थ-करप्रत्येकबुद्धनिहवाः, तत्र तीर्थकरप्रत्येकबुद्धा विसदृशचारित्रा वेदितव्याः, निहवास्त्वचारित्रिण एवं एतेषां च सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते। पञ्चमी चतुर्भङ्गिकाप्रवचनत: साधर्मिका नाऽभिग्रहतः, अभिग्रहत: साधर्मिका न प्रवचनत: प्रवचनतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न प्रवचनतोऽपि नाप्यभिग्रहतच, एवं षष्ट्यपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य भावनया सह वेदितव्या। एतयोर्द्वयोरपि चतुर्भङ्गिकयो: प्रत्येक माद्यं भगद्वयमुदाहरतिपवयणओ साहमी, नाभिग्गहसावगा जइणो॥१४८| साहम्मऽभिग्गहेणं, नो पवयणनिण्हतित्थ पत्तेया। एवं पवयणभावण, एत्तो सेसाण वोच्छामि // 149 / / प्रवचनत: साधर्मिका नाभिग्रहत: श्रावका यतयश्च विस-दृशाभिग्रहसहिताः, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम, अभिग्रहेण साधर्मिका न प्रवचनेन, निह्रवतीर्थकर-प्रत्येकबुद्धाः, एतेषां चाय कृतं कल्पते, प्रवचनत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च साधवः श्रावकाच समानाभिग्रहाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, न प्रवचनतोनाऽप्य-भिग्रहत:, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिहवा विसदृशाभिग्रहकलिता निरभिग्रहावा, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, एवम् -'पवयणभावण' त्ति- एवंपूर्वोत्तेन प्रकारेण प्रवचनभावनेति प्रवचनभावना चतुर्भङ्गिका भावनीया तद्यथा- प्रवचनत: साधर्मिका न भावनातः, साधव: श्रावका वा विसदृशभावनाकाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते; न साधूनां भावनात: साधर्मिकान प्रवचनत: निहवतीर्थकरप्रत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृत कल्पते, प्रवचनत: साधर्मिका भावनातश्च, साधवः श्रावकाश्च समानभावनाका:, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, न प्रवचनतोनापि भावनातस्तीर्थकरत्येकबुद्धनिह्नवा विसदृशभावनाका:, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवमुक्तानि प्रवचना-श्रितानां षण्णां चतुर्भङ्गिकानामुदाहरणानि- 'एत्तो सेसाण वोच्छामि' त्ति-इत ऊर्ध्व शेषाणां चतुर्भङ्गिकानामुदाहरणानि वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेवातिदेशेन निर्वाहयतिलिंगाईहि वि एवं, एकेकेणं तु उवरिमा नेया। जेऽनन्ने उवरिल्ला , ते मोत्तुं सेसए एवं / / 150 / / 'लिंगाईहि वि' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया; ततोऽयमर्थ:-एवंपूर्वोक्तेन प्रकारेण लिङ्गादिष्वपि लिङ्गदर्शनप्रभृतिष्वपि पदेषु एकै केन लिङ्गादिना पदने उपरितनानि-दर्शनज्ञानप्रभृतीनिपदानि नयेत्, कि मुक्तं भवति ? लिङ्गदर्शनप्रभृतिषु पदेषु दर्श Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 252 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आधाकम्म नज्ञानादिभि: पदै: सह याश्चतुर्भङ्गिकास्ता: पूर्वोक्तानु- सारेणोदाहरेत्, अतीवेदं संक्षिप्ततरमुक्तम्, अत: न्यक्षेण विव-क्षुरिंदमाह- 'जेऽनन्ने' इत्यादि, ये अनन्ये उदाहरणापेक्षया अन्यदृशा न भवन्ति भङ्गास्तान मुक्त्वा शेषकान् भङ्गकान् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण जानीत, इयमत्र भावना- इह लिङ्गदर्शनयोर्ये चत्वारो भङ्गा: सोदाहरणा वक्ष्यन्तेतादृशा एव प्राय उदाहरणा-पेक्षया लिङ्गज्ञानलिङ्गचरणयोरपि भङ्गाः ततस्तान् मुक्त्वा लिङ्ग-दर्शनलिङ्गाभिग्रहादिसत्कान् भङ्गानुदाहरिष्यामीति, तत्र लिङ्ग-दर्शनयोरियं चतुर्भङ्गिका, लिङ्गत्त:साधर्मिका नदर्शनत: दर्शनत: साधर्मिका न लिङ्गत:, लिङ्गतोऽपि साधर्मिका दर्शनतश्च, न लिङ्गतो | नापि दर्शनत:। तत्राऽऽद्यं भङ्गद्वयमुदाहरतिलिंगेण उ साहंमी, न दंसणे वीसुदंसि जइ निण्हा। पत्तेयबुद्धतित्थं-करा य बीयंमि भंगम्मि ||151 / / लिङ्गेन साधर्मिका: 'न दंसणे' इत्यत्र तृतीयार्थे सप्तमी न दर्शनेन, | विष्वगदर्शना-विभिन्नदर्शना यतयो निहवाश्च उप- लक्षणमेतद्विभिन्नदर्शना एकादशप्रतिमाप्रतिपन्ना: श्रावकाश्च तत्र निहवा मिथ्यादृष्टित्वात् नदर्शनत: साधर्मिका: अत्र च निहवानां श्रावकाणां चार्थाय: कृतं कल्पते न यतीनां, द्वितीये भङ्गे दर्शनत: साधर्मिका न लिङ्गत: इत्येवंरूपे प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृत: एका-दशप्रतिमाप्रतिपन्नवर्जा श्रावकाश्च समानदर्शना ज्ञेया:, तेषामर्थाय कृतंकल्पते; शेषं भङ्गद्वयं वयमुदाहराम:, लिङ्गत: साधर्मिका दर्शनतश्च समानदर्शना: साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना: श्रावकाच, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृत कल्पते न साधूनां, न लिङ्गतो नापि दर्शनतो विसदृशदर्शना: प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमाप्रतिपन्नवर्जाः श्रावकाश्च तेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गज्ञानचतुर्भङ्गिका त्वेवम्- लिङ्गत: साधर्मिका न ज्ञानत:, ज्ञानत: साधर्मिका न लिङ्गत: लिङ्गत: साधर्मिका ज्ञानतश्च, न लिङ्गतो नाऽपि ज्ञानतः अस्याश्चतु- भङ्गिकाया आद्यभङ्गद्वयोदाहरणानि प्रायो लिङ्गदर्शनचतुर्भङ्गिकाद्य-द्वयसदृशानीति कृत्वा नियुक्तिकृन्नोदाहरति, ततो वयमे- वोदाहराम:- लिङ्गत: साधर्मिका न ज्ञानत: विभिन्नज्ञाना यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना: श्रावका निहवाश्च, अत्रापि श्रावकाणां निह्रवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, ज्ञानत: साधर्मिका न लिङ्गत: समानज्ञानास्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धा एकादश प्रतिमावर्जा: श्रावकाश्च, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गत: साधर्मिका ज्ञानतश्च समानज्ञाना: साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना श्रावकाच अत्राऽपि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, न लिङ्गतो नाऽपि ज्ञानतो विभिन्नज्ञाना: प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा: एका- दशप्रतिमाप्रतिपन्नवर्जाः श्रावकाच एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, / लिङ्गचरणयोरियं चतुर्भङ्गिका, लिङ्गत: साधर्मिका न चरणत: 1, चरणत: साधर्मिका न लिङ्गत: 2, लिङ्गत: साधर्मिकाश्चरणतश्च 3, न लिङ्गतो नापि चरणत: 4 अस्या अपि चतुर्भङ्गिकाया उदाहरणानि प्राय: पूर्वसदृशानीति कृत्वा नियुक्तिकृत् नोदाहृतवान् ततोऽहमेवोदाहरामिलिङ्गत: साधर्मिका न चरणतो विभिन्नचारित्रा यतयः एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निवाश्च, अत्र श्रावकाणां निह्नवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, चरणत: साधर्मिका न लिङ्गतः, प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृतश्च समानचारित्रा:, तेषामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, लिङ्गत: साधभिकाश्चरणतश्च समानचारित्रा यतयः, तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न लिङ्गतो नापि चरणतो विसदृशचरणा: प्रत्येक-बुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमावर्जा: श्रावकाच, तेषामर्थाय कृतं कल्पते। लिङ्काभिग्रहयोश्चतुर्भङ्गिका इयम्लिङ्गतः साधर्मिका नाभिग्रहतः१, अभिग्रहत: साधर्मिका न लिङ्गत: 2, लिङ्गतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च ३,न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहत: 4 / तत्राद्यं भङ्गद्वयमुदाहरतिलिंगेण उनाभिग्गह, अणभिग्गह वीसऽभिग्गही चेव / जइ सावग बीयभंगे, पत्तेयबुहा य तित्थयरा ||152 / / लिङ्गेन साधर्मिका नाभिग्र हतोऽनभिग्रहाः, यद्रा- विष्वगअभिग्रहिणो-विभिन्नाभिग्रहकलिता यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना श्रावकाच वेदितव्या:, उपलक्षणमेतत् निहवाश्च, अत्रापि निहवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पतेन यतीनाम्१, अभिग्रहत: साधर्मिकान लिङ्गत: इत्येवंरूपे द्वितीये भने प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकराश्चशब्दादेकादशप्रतिमावर्जा: श्रावकाश्च समानाभिग्रहा द्रष्टव्या: एतेषामर्थाय कृतं कल्पते 2, लिङ्गत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च समनाभिग्रहा: साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निहवाश्च, अत्रापि श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् 3, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतश्च विसदृशा-भिग्रहास्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धैकादशप्रतिमावर्जश्रावका:, एतेषा-मर्थाय कृतं कल्पते / लिङ्गभावनयोरियं चतुर्भनिकालिङ्गत: साधर्मिका न भावनात:, भावनात: साधर्मिका न लिङ्गत:, लिङ्गत: साधर्मिका भावनातच, न लिङ्गतो नापि भावनातः / तत्रास्था उदाहरणान्यतिदेशेनाहएवं लिङ्गेण भावण, यथा लिङ्गे अभिग्रहेण भङ्गेषूदाहृतमेवं भावनयाऽप्युदाहर्तव्यम् / तचैवम् - लिङ्गत: साधर्मिका न भावनात; भावनारहिता विष्वगभावना वा यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना: श्रावका निवाश्च / अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम-र्थाय 1, भावनात: साधर्मिका न लिङ्गत: प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृत एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना: श्रावकाश्च समानभावनाका: एतेषामर्थाय कृतं कल्पते 2, लिङ्गत: साधर्मिका भावनातश्च समानभावनाका: साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निहवाश्च अत्रापि श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् 3, न लिङ्गतो नापि भावनातो विसदृशभावना- कास्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धैकादशप्रतिमावर्जश्रावका:, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवं लिङ्गविषयाः पञ्च चतुर्भगिका उक्ताः। संप्रति दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह वक्तव्यास्तत्र दर्शनज्ञानयोरियं चतु-भङ्गिका-दर्शनत: साधर्मिका न ज्ञानत: 1, ज्ञानत: साधर्मिका न दर्शनतः 2, दर्शनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च 3, न दर्शनतो नाऽपि ज्ञानतः / / Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 253 अभिधानराजेन्द्र: भाग 2 आधाकम्म तत्राद्यं भगद्रयमुदाहरतिदसणनाणे य पढमभंगो उ। जइ सावग वीसुनाणी, एवं चिय बिइयभंगोऽवि / / 13 / / दर्शज्ञाने-दर्शनज्ञानाविषयायां च: समुच्चये, प्रथमो भङ्गो दर्शनत: साधर्मिका न ज्ञानत: इत्येवंरूपो विष्वग्ज्ञानिन:- विभिन्नज्ञाना: समानदर्शना: यतय: श्रावकाच वेदितव्याः तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनामर्थाय कृतम् / एवमेव ज्ञानत: साधर्मिका न दर्शनत इत्येवंरूपो द्वितीयभङ्गोऽपि ज्ञातव्यः; तत्राऽपि यतयः श्रावकाश्च वेदितव्या इत्यर्थः केवलं विभिन्नदर्शना: समानज्ञानाः, अत्रापि कल्प्याऽकल्प्यविधि: प्रागिव, ज्ञानत: साधर्मिका दर्शनतश्च समानज्ञाना: समानदर्शना यतयः श्रावकाच, अत्राऽपि कल्प्याऽकल्प्यविधिः प्राग्वत्, न ज्ञानतो नापि दर्शनतो विसदृशज्ञानदर्शना: साधव: श्रावका निह्नवाश्च, अत्र श्रावक-निह्ववानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम् / दर्शनचरणयोश्चतुर्भङ्गिकात्वियम्दर्शनत: साधर्मिका न चरणत: 1, चरणत: साधर्मिका नदर्शनत:२, दर्शनतोऽपि साधर्मिकाश्चरणतश्च 3, न दर्शनतो नापि चरणत:४१ तत्राऽऽद्यं भङ्गद्रयमुदाहरतिदसंणचरणे पढमो, सावग जइणो य बीयभंगो उ। जइणो विसरिसदंसी, दंसे य अभिग्गहे वोच्छं।।१५४।। दर्शनचरणे-दर्शनचरणचतुर्भङ्गिकायां प्रथमो भङ्गो दर्शनत: साधर्मिका न चरणत इत्येवंरूप: समानदर्शना: श्रावका विसदृशचरणा यतयश्च, अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनामर्थाय कृतम् 1, द्वितीयो भङ्गणापुनश्चरणत: साधर्मिका न दर्शनत: इत्येवंरूप: विसदृशदर्शना: समानचारित्रा, यतयः एतेषामर्थाय कृतं न कल्पते 2, दर्शनत: साधर्मिकाश्चरणतश्च समानदर्शनचरणा यतय: अत्रापि न कल्पते 3, न दर्शनतो नापि चरणतो निहवा विसदृशदर्शना श्रावका विसदृशचरणा यतयश्च, तत्र निह्नवश्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम्, दर्शनाभिग्रहयोरियं चतुर्भङ्गिकादर्शनत: साधर्मिका नाभिग्रहतः 1, अभिग्रहत: साधर्मिका न दर्शनत: 2, दर्शनत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च 3, न दर्शनतो नाप्यभिग्रहत: 4, तत्राद्यं भङ्गद्व- यमुदाजिहीर्षुरिदमाह'दसण' इत्यादि, दर्शने अभिग्रहे चाद्य-भङ्गद्वयमधिकृत्योदाहरणं वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिसावग जइ वीसऽभिग्गह-पढमो बीओय समानदर्शना: विष्वगभिग्रहा:-विभिन्नाभिग्रहा: श्रावका यतयश्चदर्शनत: साधर्मिका नाभिग्रहत एवंरूप: प्रथमो भङ्गः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते, नयतीनां, द्वितीयोऽपि भङ्गोऽभिग्रहत:साधर्मिका न दर्शनत | इत्येवंलक्षण: श्रावकयतिरूप एव, केवलं ते यतयः श्रावकाश्च विसदृशदर्शना: समानाभिग्रहा वेदितव्याः, उपलक्षणमेतत, तेन निहवाश्च समानाभिग्रहा ज्ञातव्याः / अत्र श्रावकनिहानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, दर्शनत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानदर्शनाभिग्रहा: साधु श्रावका:, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पले न साधूनां, दर्शनतो नाप्यभिग्रहतो विसदृशदर्शनाभिग्रहा: साधुश्रावक-निहवाः, अत्र कल्प्याऽकल्प्यविधिर्द्वितीयभङ्गवत् / दर्शन-भावनयोरियं चतुर्भङ्गिकादर्शनत: साधर्मिकान भावनातो१, भावनात: साधर्मिका न दर्शनत: 2, दर्शनतोऽपि साधर्मिका भावनातश्च 3, न दर्शनतो नाऽपि भावनात: 4 // अस्या आद्यभङ्गद्वयोदाहरणातिदेशार्थमाहभावणा चेवं। यथा दर्शनेन अभिग्रह उदाहृत एवं भावनाऽप्युदाहर्त्तव्या, सा चैवम् - दर्शनत: साधर्मिका न भावनात:, विसदृशभावनाका: समानदर्शना: श्रावका यतयः 1, भावनात: साधर्मिका न दर्शनतो विसदृशदर्शनसमानभावनाका: साधवः श्रावका निवाश्च 2, दर्शनत: साधर्मिका भावनातश्च समानदर्शनभावनाका: साधु-श्रावका: 3, न दर्शनतो नापि भावनातो विसदृशदर्शनभावनाका: साधुश्रावकनिवा: 4. अत्र चतुर्ध्वपि भङ्गेषु कल्प्याऽकल्प्यविधिः प्रागिव / तदेवं दर्शनविषया अपि चतस्रश्चतुर्भङ्गिका उक्ता:। संप्रति ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह वक्तव्याः / ताश्चाऽतिदेशेनाहनाणेण विनेज्जेवं, यथा दर्शनेन सह चतस्रश्चतुर्भङ्गिका उक्ताः एवं ज्ञानेनापि सह चारित्रादीनि पदानि अधिकृत्य तिस्रश्चतुर्भङ्गिका भावनीयाः / अतीवेदं संक्षिप्तमुक्तमत: स्पष्टं विवियते- ज्ञानचरणयोरियं चतुर्भङ्गिकाज्ञानत: साधर्मिका न चरणत: 1, चरणत: साधर्मिका न ज्ञानत: 2, ज्ञानतोऽपि साधर्मिकाश्चरणतश्च 3, न ज्ञानतोऽपि नापि चरणत: 4 / तत्र ज्ञानत: साधर्मिका न चरणत:, समानज्ञाना: श्रावका: विसदृशचरणसमानज्ञाना यतयश्च, अत्र श्रावकाणामय कृतं कल्पतेन यतीनाम् 1, चरणत: साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञाना: समानचरणयतयः, अत्र न कल्पते 2, ज्ञानत: साधर्मिकाश्चरणतश्च समानज्ञानचरणा: यतयः, अत्रापिन कल्पते३, न ज्ञानतो नापिचरणतो विसदृशज्ञानचरणा यतयो विसदृशज्ञाना: श्रावका निहवाश्च, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय बंत कल्पते, न यतीनाम् ज्ञानाभिग्रहयोरियं चतुर्भभिका- ज्ञानत: साधर्मिका नाभिग्रहत: 1, अग्रिहत: साधर्मिका न ज्ञानत: 2, ज्ञानतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च 3, न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहत:४। तत्र ज्ञानत: साधर्मिका नाभिग्रहत: समानज्ञाना विसदृशाभिग्रहा: साधुश्रावका: अत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते, न साधूनाम् 1, अग्रिहत: साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञाना: समानाभिग्रहा: साधुश्रावका: समानाभिग्रहा निवाश्च, अत्रापि श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम् 2, ज्ञानत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानज्ञानाभिग्रहा: साधुश्रावकाः, अत्र कल्प्याऽक-ल्प्यविधि: प्रथमभङ्ग इव 3, न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहतो विसदृश-ज्ञानाभिग्रहा: साधुश्रावका विसदृशाभिग्रहा निहवाश्च अत्र द्वितीय भङ्गे इव कल्प्याऽकल्प्यभावना 4, ज्ञानभावनयोरियं च Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 254 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म तुर्भङ्गिका-ज्ञानत: साधर्मिका: न भावनात: भावनात: साधर्मिका न ज्ञानत:, ज्ञानतोऽपि साधर्मिका भावनातश्च, न ज्ञानतो नापि भावनात:, तत्र ज्ञानत: साधर्मिका न भावनात: समानज्ञाना विसदृशभावनाका: साधुश्रावका: 1, भावनात: साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञाना: समानभावनाका: साधुश्रावका: समानभावना निहवाश्च 2, ज्ञानत: साधर्मिका भावनातश्च समानज्ञानभावनाका: साधुश्रावका: 3. न ज्ञानतो नापि भावनातो विसदृशभावना: साधुश्रावका विसदृशभावना निहवाश्च 4, अत्र चतुर्वपि भङ्गकेषु कल्प्याऽकल्प्यभावना प्रागिव / तदेवं ज्ञानविषया अपि तिसश्चतुर्भङ्गिका उक्ताः। संप्रति चरणेन सह यचतुर्भङ्गिकाद्वयं तदुदाहर्तुमाहएतो चरणेण वोच्छामि ||15|| इत ऊर्ध्वं चरणेन सह ये द्वे चतुर्भङ्गिके तदुदाहरणानि वक्ष्ये, तत्र चरणाभिग्रहयोरियं चतुर्भङ्गिकाचरणत: साधर्मिका नाभि-ग्रहतः अभिग्रहत: साधर्मिका न चरणत:, चरणतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च न चरणतो नाप्यभिग्रहतः। तत्राद्यं भङ्गद्वयमुदाजिहीर्षुराहेजइणो वीसाऽभिग्गह, पढमो बिय निण्ह सावगजइणो उ। चरणत: साधर्मिका नाभिग्रहत इत्येवंरूप: प्रथमो भङ्गः समानधरणा विष्वगभिग्रहा-विभिन्नाभिग्रहा यतयः, अत्र न कल्पते, अभिग्रहत: साधर्मिका न चरणत इत्येवंरूपो द्वितीयो भङ्गः,समानाभिग्रहा निहवा: श्रावका विभिन्नचरणा यतयश्च, अत्र श्रावकाणां निवानां चार्थाय कृतं कल्पते, न यतीनाम् 2, चरणत: साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानाभिग्रहचरणा यतयः, अत्रन कल्पते 3, न चरणतो नाप्यभिग्रहत: विसदृशाभिग्रहचरणा: साधवो विसदृशाभिग्राहा: श्रावकनिहवाश्च, अत्र कल्प्याऽ- कल्प्यभावना द्वितीयभङ्ग इव 4 चरणभावनयो रियं चतुर्भङ्गिका- चरणत:साधर्मिकान भावनात: 1, भावनात: साधर्मिका न चरणत: 2, चरणत: साधर्मिका भावनाताश्च 3, न चरणतो नापि भावनात:४। __ अस्या उदाहरणान्यतिदेशत आहएवं तु भावणासु वि, यथा चरणेन सहाभिग्रहे उदाहृतम् एवं भावास्वप्युदाहर्तव्यम्, तचैवम्- | चरणत: साधर्मिका न भावनात: समानचरणविभिन्न-भावना यतयः 1, भावनात: साधर्मिका न चरणत: समानभावना निवाः, श्रावका विभिन्नचरणा यतयश्च 2, चरणत: साधर्मिका भावनातश्च समानचरणभावता यतय: 3, न चरणतो नापि भावनात: विसदृशधरणभावना: साधवो विसदृशभावना: श्रावका निहवाश्च 4, अत्र चतुर्ध्वपि भङ्गकेषु कल्प्याऽकल्प्यविधि: प्रागिवातदेवं चरणविषये अपिद्वेचतुर्भङ्गिकेउक्ते। संप्रत्यभिग्रहभावनयोश्चतुर्भङ्गिका वक्तुकाम आहवोच्छं दोण्हं ति माणित्तो॥२५६ / / इत ऊर्द्ध द्वयोरन्तिमयो:- अभिग्रहणभावनालक्षणयो: पदयोश्चतुर्भङ्गिकामुदाहरणतो वक्ष्ये / तत्र तयोरियं चतुर्भङ्गिकाअभि-ग्रहत: साधर्मिका न भावनात: 1, भावनात: साधर्मिका नाअिग्रहत: 2, भावनात: साधर्मिका अभिग्रहतश्च 3, नाभिग्रहतो नापि भावनात: 4 / तत्राद्यं भङ्गद्वयमुदाजिहीर्षुराहजइणो सावगनिण्हव-पढमे बीए व हुंति भंगे य। अभिग्रहत: साधर्मिका न भावनात: इत्येवंरूपे प्रथमे भङ्गे भावनात: साधर्मिका नाभिग्रहत इत्येवं रूपं द्वितीये च भङ्गे यतय: श्रावका निहवाश्च भवन्ति, केवलं प्रथमभङ्गे समाननिहा विसदृशभावना वेदितव्याः, द्वितीयभङ्गे पुन: समानभावना विसदृशाभिग्रहा: अभिग्रहत: साधर्मिका भावनातश्च समानभावनाभिग्रहा: साधुश्रावकनिसवा:, नाभिग्रहतो नापि भावनातो विसदृशभावनाभिग्रहा: साधुश्रावकनिहवा: / अत्र चतुर्वपि भङ्गेषु श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनामिति। तदेवमुक्ताः 21 एकविंशतिरपि चतुर्भङ्गिकाः। (7) तीर्थकरस्य आधाकर्मभोजित्वम् / संप्रति सामान्यकेव-लिनं तीर्थकरं चाधिकृत्य कल्प्याऽकल्प्यविधिं कथययिन्तकेवलनाणे तित्थं-करस्स नो कप्पइ कयं तु // 157 // केवलज्ञाने-केवलज्ञानिन: सामान्यसाधो: उपलक्षणमेतत् तेन तीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जानां शेषसाधूनामित्यर्थः, तीर्थकरस्य; तीर्थकरग्रहणमुपलक्षणम्, तेन प्रत्येकबुद्धस्य चार्थाय कृतं यथाक्रमं न कल्पते, तुशब्दस्यानुक्तार्थसमुच्चायकत्वात् कल्पतेच। इयमत्र भावनातीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जशेषसाधूनामर्थाय कृतं न कल्पते, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धानां त्वर्थाय कृतं कल्पते, तथा हि-तीर्थकरनिमित्तं सुरैः कृतेऽपि समवसरणे तत्र साधूनां देशनाश्रवणार्थमुपवेशनादिकल्पते, एवं भक्ताद्यपि एवं प्रत्येक-बुद्धस्यापि। संप्रति यानाश्रित्य पूर्वोक्ता भङ्गा: संभवन्ति स्म तान् प्रति पादयति-- पत्तेयबुद्ध निण्हव, उवासए केवलीवि आसज्ज। खइयाइए य भावे, पडुच मंगे उ जोएज्जा / / 158 / / प्रत्येकबुद्धान्-निहदान् उपासकान्-श्रावकानन् केवलिनस्तीर्थकरान् अपिशब्दात्- शेषसाधू श्वाश्रित्य तथा क्षायिकादीन् भावान् क्षायिकक्षयोपशमिकानिदर्शनानि चशब्दाद्विचित्राणि ज्ञानानि चरणाणि अभिग्रहान् भावनाश्च प्रतीत्य भङ्गान् योजयेत्, ते च तथैव योजिताः / तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिका प्रवचनलिङ्गविषयामधिकृत्य विशेषत: कल्प्याऽकल्प्यविधिमाहजत्थ उतइओ भंगो, तत्थन कप्पं तु, सेसए भयणा। तित्थंकरकेवलिणो, जहकप्पं नो य सेसाणं // 159 / / यत्र साधर्मि के तृतीयो भङ्ग प्रवचनतः साधर्मि का लिङ्गतश्चेत्येवंरूपस्तत्र न कल्पते, यत: प्रवचनतो लिङ्गतश्च साधर्मिका प्रत्येक बुद्धतीर्थक रवा यतयस्ततस्तेषा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 255 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म मर्थाय कृतं न कल्पते, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च श्राव- कस्य एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नस्य तृतीयभङ्गभाविनोऽप्यर्थाय कृतं कल्पत इति समुचिनोति, केचिदाहु:- एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्न: साधुकल्प इति तस्याप्यर्थाय कृतं न कल्पते, तदयुक्तं मूलटीकायामस्यार्थस्यासम्मतत्वात्, मूलटीकायां हि लिङ्गामि- ग्रहचतुर्भङ्गिकाविषये कल्प्याऽकल्प्यविधिरेवमुक्त:-"लिंगे नो अभिग्गहे जइ साहू न कप्पइ, गिहत्थनिण्हवे कप्पइ'' त्ति / इह लिङ्गयुता गृहस्था एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्ना: श्रावका एव लभ्यन्ते, ततस्तेषामर्थाय कृतंकल्प्यमुक्तम्, 'सेसए भयण' त्ति-शेषकेभङ्गकत्रये भजनाविकल्पना क्वचित् कथंचित्कल्पते, कृचिन्न, भङ्गचतुष्टयमप्यधिकृत्य सामान्यत उदाहरति- "तित्थंकरे' त्यादि, यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / 'तीर्थकर-केवलिनोऽर्थायं कृतं कल्पते, इह तीर्थकर उत्पन्नकेवलज्ञान एव प्राय: सर्वत्रापि भूमण्डले प्रतीतो भवति। प्रतीतस्य च तीर्थकरस्यार्थाय कृतं कल्पते, नाप्रतीतस्य तत: केवलिग्रहणम्, यदापुन: छद्मस्थावस्थायामपि तीर्थकरत्वेन प्रतीतो भवति / तदा तस्यामप्यवस्थायां तन्निमित्तं कृतं कल्पते, तीर्थग्रहणं च प्रत्येकबुद्धानामुपलक्षणं, तेन तेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते, 'नो यसेसाणं' ति- शेषसाधूनामर्थाय कृत न कल्पते, इदं च सामान्यत उक्तम्, ततोऽमुमेवार्थ मुपजीव्य तृतीयवर्जे शेषे भङ्गत्रये भजना स्पष्टमुपदर्शाते प्रवचनत: साधर्मिका न लिङ्गतः, एकादश- प्रतिमाप्रतिपन्नवर्जा, शेषश्रावकास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, ये तु चौरादिमुषितरजोहरणादिलिङ्गा: साधवस्तेषामर्थाय कृतं न कल्पते द्रव्यलिङ्गापेक्षया साधर्मिकत्वाभावेऽपि भावतश्चरणसाध-र्मिकत्वात् लिङ्गत: साधर्मिका न प्रवचनतो निवास्ते यदि लोकेनिह्नवत्वेन ख्यातास्ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, अन्यथा न, न प्रवचनतो न लिङ्गतस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवं प्रथमचतुर्भगिकामधिकृत्य कल्प्याऽकल्प्य-विधिरुक्त एतदनुसारेण च शेषास्वपि चतुर्भनिकासु विज्ञेयः, सच प्रागेव प्रत्येकं दर्शितः। सर्वत्राप्ययं तात्पर्याथाधारणीय:यदि तीर्थकरा: प्रत्येकबुद्धा निवाः श्रावका वा तर्हि तेषामर्थाय कृतं कल्पते / साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते / तदेवमुक्तः कल्प्याऽकल्प्यविधि: तदुक्तौ च-'आहाकम्मियनामे - त्यादि मूलद्वारगाथायां 'कस्स वाऽवी ति व्याख्यातम् / पि० / आत्मघ्नपिण्डेजीवं उदिस्स कडं, कंमं सोऽवि य जया उसाहमी। सावि य तइए भंगे, लिंगादीणं न सेसेसु / / 940 // जीवमुद्दिश्य यत् षट्कायविराधनया कृतं सोऽपि च यदि जीव: साधर्मिकः-समानधर्मा भवति सोऽपिच साधर्मिको लिङ्गादीनां लिङ्गत: साधर्मिको न प्रवचनत: इत्यादीनां चतुर्णा भङ्गानां तृतीये भ लिङ्गत:प्रवचनतोऽपीत्येवं लक्षणे यदि वर्तते न शेषेषु तदेतत्- आधाकर्म मन्तव्यम्। अथ तीर्थकरप्रतिमार्थं तन्निर्वतते तत्साधूनां किं कल्पते नवेत्याशङ्कानिरासार्थमाह संवट्टमेहपुप्फा, सत्थनिमित्तं कया जइ जईणं / न हुलब्मा पडिसिद्धं, किं पुण पडिमट्ठमारद्धं // 941 / / शास्ता-तीर्थकरस्तस्य निमित्तं यानि देवैः संवर्तकमेघपुष्पाणि समवसरणभूमौ कृतानि तानि यतीनां यदि प्रतिषेधुं न लभ्यानि तेषां तत्रावस्थातुं यदि कल्पते इति भावः / तर्हि किं पुन: प्रति-मार्थम् - अजीवानां हेतोरारब्धं तत:-पुरातनं प्रतिषेधम-हतीत्यभिप्रायः / आह-यदि तीर्थकरार्थं संवर्तकमेघपुष्पाणि कृतानि तर्हि तस्य भगवतस्तानि प्रतिसेवमानस्य कथं न दोषो भवतीति? उच्यतेतित्थयरनामगोयस्स,खयऽट्ठा अविय दोण्णि साभव्वा। धम्मं कहेइ सत्था, पूर्व वा सेवई तं तु / / 942 / / तीर्थकरनामानो गोत्रस्य कर्मणः क्षयार्थं शास्ता भगवान् धर्म कथयति पूजां च तामनन्तरोक्तां संवर्तकवातप्रभृतिकामासेवते भगवता हि तीर्थकरनामगोत्रं कर्मावश्यं वेदनीयं विपा-कोदयाऽऽवर्तित्वात, तस्यच वेदने अयमेवोपायो यदग्लान्या धर्मदेशनाकरणं सदेवमनुजासुरलोकविरचितायाश्च पूजाया उपजीवनम्। "तं च कहं वेइज्जइ, अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" तथा-"उदए जस्स सुराऽसुरनरवइनिवहेहिँ पूइओ लोए / तं तित्थयरं नाम, तस्स विवागो उ केवलिणो" // 1 // इति वचनप्रामाण्यात्, अपिचेत्यभ्युचये, 'दोणि' त्तिनिपातो वाक्या-लङ्कारे, सा भवति। स्वो भाव: स्वभावः, यथा-आपो द्रवा: चलो वायुरित्यादि, तस्य भावः स्वाभाव्यं तस्मात् तस्य हि भगवतः स्वभावोऽयं यत्तथा धर्मकथाविधानं पूजयाश्चाऽऽसेव-नम्। इदमेव स्पष्टतरमखीणकसाओ अरिहा, कय किचो अवि य जीयमणुयत्ती। पडिसेवंतो वि अ तओ अदोसवं होइतं पूर्य / / 943 / / क्षीणा:- प्रलयमुपगताः कषाया:-क्रोधादयो यस्य सः क्षीणकषाय एवंविधोऽर्हन् तां पूजां प्रतिसेवभानोऽपि न दोषवान्, इयमत्र भावनायो हिरागादिमान् पूजामुपजीवन्स्वात्मन्युत्कर्ष मन्यतेस दोषभाग्भवति, भगवतस्तु क्षीणकषायस्य पूजामुप-जीवतोऽपि नास्ति स्वात्मन्युत्कर्षगन्धः; अतो दूरापास्तप्रसरा तस्य सदोषतेति तथा कृतकृत्य:केवलज्ञानलाभान्निष्ठितार्थ: तत: कृतकृत्यत्वादेवाऽसौ पूजामासेवते, न च दोषमापद्यते / अपि च- जीवमुपजीवनीया सुराऽसुरविरचिता पूजेत्येवंलक्षणं कल्पमनुवर्तयितुं शीलमस्यासौ जीवानुवर्ती गाथायां मकारो-इलाक्षणिकः / आह भवत्वेवं परं तीर्थकरस्य तत्प्रतिमाया वा निमित्तं यत्कृतं तत्केन कारणेन यतीनां कल्पते? उच्चयतेसाहमिओ न सत्था, तस्स कय तेण कप्पइ जईणं / जं पुण पडिमाण कयं, कस्स कहा का अजीवत्ता / / 944|| शास्ता-तीर्थकर: सधार्मिको लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि न भवति तच लिङ्गमस्य भगवतो नास्ति तथाकल्पत्वात्, अतो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 256 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म न लिङ्गत: साधर्मिकः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिक: सोऽभिधीयतेयश्चतुर्वर्णसङ्घाभ्यन्तरवर्ती भवति "पवयणसंघेयगरे" इति वचनात्, भगवांश्च तत्प्रवर्तकतया न तदभ्यन्तरवर्ती किं तु वर्णस्यापि सङ्घस्यापि ततो न प्रवचनतोऽपि साधर्मिक इत्यतस्तस्य तीर्थकरस्यार्थाय कृतं यतीनां कल्पते, यत्पुन: प्रतिमानामर्थाय कृतं तस्य का कथा-का वार्ता सुतरां तत् कल्पते, कुत इत्याह-अजीवत्वात्, जीवमुद्दिश्य यदि यत्कृतं तदाधाकर्म भवति 'जीवं उद्दिस्स कडं // 940 // " इति प्रागेवोक्तत्वात् तच जीवत्वमेव प्रतिमानां नास्तीति। अथ वसतिविषयमाधाकर्म दर्शयतिठाइमठाई ओसरणे, अमंडवा संजय? देसे वा। पेढी भूमीकंमे, निसेवतो अणुमई दोसा / / 945 / / 'ओसरणे' समवसरणे बहवः संयताः समागमिष्यन्तीति बुद्ध्या श्रावका धर्मश्रद्धया बहून् मण्डपान कुर्यु: ते च द्विधा- स्थायिन:, अस्थायिनश्च / ये समवसरणपर्वणि व्यतीते सति नोत्कील्यन्ते ते स्थायिनः, ये पुनरुत्कील्यन्ते ते अस्थायिन: / पुनरेकैकै द्विविधाःसंयतार्थकृता, देशकृता वा। ये आधा कर्मिकास्ते संयतार्थकृताः / येतु साधूनामात्मन: स्वार्थाय कृतास्ते देशकृता: एतेषु तिष्ठतां तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / तथा पीठिकानामउपवेशनादिस्थानविशेषा: 'भूमीकम्मे' त्ति- भूमि-कर्मविषमाया: भूमे: समीकरणम्, उपलक्षणं चेदं तेन संमार्जनोपलेपनादिपरिग्रहः / एतान्यपि पीठिकादीनि संयतार्थ-कृतानि देशकृतानि भवेयुः / एतानि मण्डपादीनि सदोषाणि निषेवमाणस्य अनुमतिदोषा भवन्ति एतेषु क्रियमाणेषु या षण्णां जीवनिकायानां विराधना सा अनुमोदिता भवतीति भावः / बृ.१ उ०२ प्रक० / आधाकर्मण: कल्प्याऽकल्प्यविवेकःआहा अहे य कम्मे, आताहम्मे य अत्तकम्मे य। तं पुण आहाकम्भ, णायव्वं कप्पते कस्स ||946 / / आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्नम्, आत्मकर्म चेति चत्वारि नामानि। तत्र साधूनामाधया-प्रणिधानेन यत्कर्मषट्का- यविनाशेनाशनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म, तथा विशुद्धसंयम- स्थानेभ्य: प्रतिपत्त्यात्मानमविशुद्धसंयमस्थानेषु यदधोऽध: करोति तदध:कर्म / आत्मानं-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं हन्ति-विनाशयतीत्यात्मघ्नो यत्पाचकादिसंबन्धि कर्म पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मन: संबन्धि क्रियते अनेने-त्यात्मकर्म। तत्पुनराधाकर्म कस्य पुरुषस्य कल्पतेन वा, यद्वा-कस्य तीर्थे कथंकल्पते, न कल्पतेचा 4 उ०। (इति' अकप्पट्ठिय' शब्दे प्रथमभागे तम्:।) (8) यथाक्रमं द्वाविंशति जिनेषु कल्प्याऽकल्प्यविधि:-'अकप्पट्ठिय' शब्दे प्रथमभागे गतः।) (9) अशनादिषु आधाकर्मसंभवः / संप्रति 'किंवावी' ति व्याचिख्यासुराहकिं तं आहाकम्म, ति पुच्छिए तस्स रूवकहणऽत्थं / संभवपदसरिणत्थं, च तस्स असणाइयं भणइ // 160 / / किं तदाधाकर्मेति शिष्येण पृष्टे तत्स्वरूपकथनार्थम् आधाकर्मस्वरूपकथनार्थम्, तस्य-आधाकर्मणः संभव-प्रदर्शनार्थ च अशनादिकम्-अशनपानखादिमस्वादिमं गुरुर्भणति, इयमत्र- भावनाअशनादिस्वरूपमाधाकर्म-अशनादावेव आधाकर्मण: संभवः, ततो गुरु: किमाधाकर्मेति पृष्टः सन्न-शनादिकमेव वक्ति, तथा च शय्यंभवसूरिराधाकर्म दर्शयन् पिण्डैषणाध्ययने अशनादिकमभिधत्ते, तद्यथा"असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा, समणऽट्ठा पगडं इमं // 1 // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं। दितियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 2 // इति। संप्रत्यशनादिकमेव व्याचष्टेसालीमाई अवडे, फलाइ सुंग्रइ साइमं होइ। शाल्यादिकमशनम्, 'अवट' इति- वापीकूपतडागाधुपलक्षणं, तत: कूपवापीतडागादौ यज्जलं तत्पानं, तथा फलादिफलं नालिकेरादि, आदिशब्दाच्चिञ्चिणिकापुष्पापिरिग्रह: तत् खादिम, शुण्ठ्यादिकं स्वादिम, तत्र शुण्ठी प्रतीता, आदिशब्दात्-हरीतक्यादिपरिग्रहः। तदेवं व्याख्यातान्यशनादीनिसंप्रत्येतेष्वेवाधाकर्मरूपेषु प्रत्येकं भङ्गचतुष्टयमाहतस्स कडनिट्ठियमी, सुद्धमसुद्धे य चत्तारि।।१६।। तस्येति प्रस्तावात् साधोराय'कृत' मित्यत्रबुद्धा-वादिकर्मविवक्षायां क्तप्रत्ययः ततोऽयमर्थ:- कर्तुं प्रारब्धं, तथा तस्य साधोराय निष्ठितंसर्वथा प्रासुकीकृतमिति, अत्र विषये 'चत्तारी' ति-चत्वारो भङ्गा भवन्ति तत्र प्रथम एष एव भङ्ग- स्तस्य कृतं तस्य निष्ठितं, द्वितीय:- तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं, तृतीय:- अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं, चतुर्थः, अन्यस्य कृत-मन्यस्य निष्ठितम्। तत्र प्रथमो व्याख्यात:, द्वितीयादिनां तुभङ्गानामयमर्थः- पूर्वतावत्तस्य साधोराय कृतम्-आरब्धंततोदातु: साधुविषयदानपरिणामाभावतोऽन्यस्य-आत्मन: स्वपुत्रा-देवोऽर्थाय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमतोऽन्यस्य पुत्रादेरात्मनो वाऽर्थाय कर्तुमारब्धं तत: साधुविषयदानपरिणामभावत: सा- धोरर्थाय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमत एवाऽन्यस्य निमित्तं कर्तुमार-धमन्यस्यैव च निमित्तं निष्ठां नीतम् / एवमशने पाने खादिमे स्वादिमे च प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तत: 'सुद्धमसुद्धे य' त्ति-आषत्वात् शुद्धावशुद्धौ चेति द्रष्टव्यं, तत्र शुद्धौ साधोरासेवनायोग्यौ, तौ च द्वितीयचतुर्थभड़ौ, तथा हिक्रिया या निष्ठा प्रधाना, ततो यद्यपि प्रथमत: साधुनिमित्तं क्रिया प्रारब्धा तथाऽपि निष्ठाम्-अन्यनिमित्तं नीतेति द्वितीयो भङ्गः साधो: कल्पते, चतुर्थस्तु भङ्गः शुद्ध एव न तत्र विवाद: अशुद्धौ अकल्प-नीयौ, तो च प्रथमतृतीयौ तत्र प्रथम एकान्ते- नाशुद्ध एव साध्वर्थ प्रारब्धत्वान्निष्ठितत्वाच, तृतीये तु भङ्गे यद्यपि पूर्वं न साधुनिमित्तं पाकादिक्रियारम्भस्तथापि साधुनिमित्तं निष्ठां नीता, निष्ठा च प्रधानेति न कल्पते। तदेवमाधाकर्मस्वरूपमुक्तम्। पिं० / आधाकर्मण उत्पत्तिःसालीघयगुलगोरस-नवेसु वल्लीफलेसु जातेसु। mo Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 257 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म पुण्णऽढकरणसङ्का, आहाकम्मे णिमंतणता / / 939 / / कस्यापि दानरुचेरभिगमश्राद्धस्य वा नदः शालिर्भूयान् गृहे समायातस्तत: स चिन्तयति-पूर्वं यतीनामदत्वा ममाऽऽत्मना परिभोक्तुं न युक्त इति परिभाव्याऽऽधाकर्म कुर्यात्, एवं घृते गुडे गोरसे नवेषु वा तुम्ब्यादिवल्लीफलेषु जातेषु पुण्यार्थ दानरुचिः श्राद्धः 'करणं' तिआधाकर्म कृत्वा साधूनां निमन्त्रणं कुर्यात्। वृ०४ उ०। आधाकर्म सम्भवे भेदाश्च प्रदर्शिताः,तस्स आहाकम्मस्स कहं संभवो हवेज्ज इमो भण्णति। सूत्रम्सालीघयगुलगोरस-नवेसु वल्लीफलेसु जातेसु। पुण्णहदाणसवा, आहाम्मे णिमंतणया / / 7 / / आहाम्मे तिविहो,आहारे उवधिवसहिमादीस। 'आहाए आवा कम्म, चउव्विधं होति असणादी॥५८ / / कस्सति दाणरुइणो अभिगमसढस्स वाणवो साली घरे पवेसितो ताहे दाणसड्डो चिंतेति-पुव्वं जतीणं दाउं पच्छा अप्पणा परिभोगं कहेमि त्ति आहाकम्मं करेज्ज, जहा सालीए, एवं घृतगुडे गोरसे वा नवेसु वा तुम्ब्यादिवल्लिफलेषु जातेषु पुण्ण णिमित्तं दाणसड्डा जया आहाकम्म काउंसाहुणो णिमंतेज्ज तस्स य आहाकम्म-स्स इमे दोसा-आहाकम्म तिविध-आहारे, उवधौ, वसहीए। आदिसद्दो णामादिभेदप्रदर्शनार्थः / उत्तरभेदप्रदर्शनार्थं वा आहाए कम्मंचउव्विधं असणादियं / गाहाउवही आहाकम्म, वत्थे पाएय होति नायध्वं / वत्थे पंचविधं पुण, तिविहं पुण होति पातम्मि / / 19 / / उवधीआहाकम्मं दुविध-वत्थे, पादेय। तत्थ वत्थे पंचविहं-जंगियं भंगियं, सणियं, पत्तथा तिरीडपट्टे च / पादे तिविह-लाउयं, दारुयं, मट्टियापादं च / एतेसिं वक्खाणं पूर्ववत् / नि. चू, 10 उ०। साम्प्रतमशनादिरूपस्याधाकर्मणः सम्भवं प्रतिपिपादयिषुः कथानकं रूपकषट्केनाहकोद्दवरालगगामे, वसही रमणिज्ज भिक्खसज्जाए। खेत्तपडिलेहसंजय, सावयपुच्छुज्जुए कहणा // 162 / / जुज्जइ गणस्स खेत्तं, नवरि गुरूणं तु नऽत्थि पाउगं / सालित्ति कए रुंपण, परिभायण निययगेहेसुं॥१६३|| वोलेंता ते व अन्ने वा, अडता तत्थ गोयरं। सुणंति एसणाजुत्ता, बालादिजणसंकहा / / 164 // एए ते जेसिमो रद्धो, सालिकूरो घरे घरे। दिनो वा सेसयं देमि, देहि वा बेंति वा इमं // 165 / / थक्केथक्कावडियं, अमत्तए सालिभत्तयं जायं। मज्जय पइस्स मरणं, दियरस्स य से मया मज्जा / / 166 / / चाउलोदगं पिसे देहि, साली आयामकंजियं। किमेयंति कयं नाउं, वज्जंतऽन्नं वयंति वा / / 167 / / इह संकुलो नाम ग्रामः, तत्र जिनदत्तनामा श्रावक: तस्य भार्या जिनमितिः, तत्र च ग्रामे कोद्रवा रालाकाश्च प्राचुर्येणो- त्पद्यन्ते इति तेषामेव कूरं गृहे गृहे भिक्षार्थमटन्त: साधवो लभन्ते, वसतिरपि स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता समभूतलादिगुणैर-तिरमणीया कल्पनीया च प्राप्यते, स्वाध्यायोऽपि तत्र वसता- मविघ्नमभिवर्द्धते, केवलं शाल्योदनो न प्राप्यत इति न केचनापि सूरयो भरेण तत्राऽवतिष्ठन्ते। अन्यदा च संकुलग्रामप्रत्यासन्ने भद्रिलाभिधाने ग्रामे केचित् सूरयः समाजग्मुः तैश्च संकुलग्राम क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय साधवः प्रेष्यन्ते, साधवोऽपि तत्राऽऽगत्य यथाऽऽगमं जिनदत्तस्य पार्श्वे वसतिमयाचिषत, जिनदत्तेनापि च साधदर्शनसमुच्छलितप्रमोदभरसमुद्भिन्नरोमाञ्चकञ्चुकित-गात्रेण तेभ्यो वसति: कल्पनीया उपादेशि। साधवश्व तत्र स्थिताः, यथाऽऽगमं भिक्षाप्रवेशनेन बहिभूमौ स्थण्डिलनिरक्षिणेन च सकलमपि ग्राम प्रत्युपेक्षितवन्त:, जिनदत्तोऽपि च श्रावको वसतावागत्य यथाविधि साधून वन्दित्या महत्तरं साधुमपृच्छत् भगवन् ! रुचितमिदं युष्मभ्यं क्षेत्रम् ? सूरयोऽत्र निजसमाग- मेनाऽस्माकं प्रसादमाधास्यन्ति। तत: सज्येष्ठ: साधुरवादीत् - वर्तमानयोगेन, ततो ज्ञातं जिनदत्तेन-यथा न रुचितमिदमेतेभ्यः क्षेत्रमिति, चिन्तयति च-अन्येऽपि साधवोऽत्र समागच्छन्ति परं न केचिदवतिष्ठन्ते, तन्न जानामि किमत्र कारणमिति, तत: कारणपरिज्ञानाय तेषां साधूनामन्यतमं कमपि साधुमृनुं ज्ञात्वा पप्रच्छ, स च यथाऽवस्थितमुक्तवान्, यथाऽत्र सर्वेऽपि गुणा विद्यन्ते गच्छस्यापि च योग्यमिदं क्षेत्रं केवलामत्राऽऽचार्यस्य प्रायोग्य: शाल्योदनो न लभ्यते, इति नाऽवस्थीयते / तत एवं कारणं परिज्ञाय तेन जिनदत्तश्रावकेण परस्माद्ग्रामात् शालिबीजमानीय निजग्रामक्षेत्रभूमिषु वापितं, तत: संपन्नो भूयान् शालि: अन्यदा च यथाविहारक्रमं ते वाऽन्ये वासाधव: समायासिषुःश्रावकश्च चिन्तयामासयथैतेभ्यो मया शाल्योदनो दातव्यो येन सूरीणामिदं योग्यं क्षेत्रमिति परिभाव्य साधवोऽमी सूरीनत्राऽऽनयन्ति, तत्र यदि निजगृह एव दास्यामि ततोऽन्येषु गृहेषु कोद्रवरालककूरं लभमानानामेतेषामाधाकर्मशङ्कोत्पत्स्यते तस्मात् सर्वेष्वपि स्वजनगृहेषु शालिं प्रेषयामीति, तथैव च कृतं स्वजनांश्चोक्तवान् यथा स्वयमप्यमुं शालिं पक्त्वा भुञ्जत, साधुभ्योऽपि च ददत, एष च वृत्तान्त: सर्वोऽपि बालादिभिवजग्मे, साधवश्व भिक्षामटन्तो यथाऽऽगममेषणासमितिसमिता बालादीनामुक्तानि शृण्वन्ति, तत्र कोऽपि बालको वक्ति एते ते साधवो येषामर्थाय गृहे गृहे शाल्योदनो निरपादि, अन्यो भाषते साधुसंबन्धी शाल्योदनो मां जनन्या ददे, दात्री वा क्वचिदेवं भाषते-दत्तः परकीय: शाल्योदनः, संप्रत्यात्मीयं किमपि ददामि, गृहनायकोऽपि क्वापि ब्रूतेदत्त: शाल्योदन: परकीयः; संप्रत्यात्मीयं किमपि देहि, बालकोऽपि क्वापि कोऽप्यनभिज्ञो जननीं ब्रूते-मम साधुसम्बन्धिनं शाल्योदनं देहीति, अन्य-स्त्वीषद्दरिद्र: सहर्ष भाषते-अहो थक्के थक्कावडियमस्माकं संपन्नम् / इह यदवसरे अवसरानुरूपमापतति तत् थक्के थ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 258 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म कावडियमित्युच्यते, ततः स एवमाह-येन-अभक्ते-भक्ता- भावेऽस्माकं पूर्वोक्तकथानकप्रकारेण साधवो बालादी नामुल्लापानाकाऽऽशालिभक्तमुदपादि, अत्रैवाऽर्थेस लोकिकं दृष्टान्तमुदाहरति-सूरग्रामे धाकर्मेति च परिज्ञाय तं ग्राम परिहृत-वन्त: / एवमन्यत्राप्याधाकर्म यशोधराभिधाना काचिदाभीरी, तस्या योगराजो नाम भर्ता, वत्सराजो पानीयसंभभवो द्रष्टव्यः, तेऽपि बालाघुल्लापविशेषैः परिकलय्य नाम देवर: तस्य भार्या योधनी, अन्यदाच मरणपर्यवसानो,जीवलोको कथानकोक्तसाधव इव परिहरेयुरिति / सूत्रं सुगमम्। मरणं चानियतहेतुकम्-अनियतकालमितियोधनी-योगराजौसमकालं संप्रति खादिम-स्वादिमयोराधाकर्मणो: संभवमाहमरणमुपगतौ, ततो यशोधरा देवरं वत्सराजमयाचत- तव भार्याऽहं कक्कडिय अंबगा वा दाडिम दक्खा य बीयपूराई। भवामीति, देवरोऽपि च-ममापि भार्या न विद्यते इति विचिन्त्य खाइमऽहिगरणकरणं-ति साइमं तिगडुगाईयं / / 169 / / प्रतिपन्नवान्, तत: सा चिन्तयामास-अहो ! अवसरे-अवसराऽऽप कर्कटिका-चिर्भटिका आम्रकाणि-चूतफलानि दाडिमानि द्राक्षाश्च तितमस्मा- कमजायत, यस्मिन्नेवाऽवसरे मम पति: पञ्जत्वमुपाऽगमत् प्रतीता: बीजपूरकादिकम्, आदिशब्दात्- कपित्था-ऽऽदिपग्रिह: तस्मिन्नैवावसरे मम देवरस्यापि भार्या मृत्युमगच्छत्, ततोऽहं देवरेण एतान्याश्रित्य खादिमविषये अधिकरणकरणं भवेत,-पापकरणं भवेत्, भार्यात्वेन प्रतिपन्ना अन्यथा न प्रतिपद्येत / तथा वाऽपि बालको एतानि साधूनां शालनकादिकार्येषु प्रयुज्यन्ते इति तेषां वपनादि जननीमाचष्टे-मात: ! शालितण्डुलोदकमपि साधुभ्यो देहि, अन्यस्त्वाह कुर्यादिति भावः तथा त्रिकटुकादिकंशुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकमाश्रित्य शालिकाञ्जिकं, तत एवमादीनि बालादिजन जल्पितानि श्रुत्वा स्वादिमे अधिकरणकरणं भवेत् -साधूनामौषधाद्यर्थममूनि कल्पन्ते किमेतदिति पृच्छन्ति पृष्टे च सति ये ऋजवस्ते यथावत् कथितवन्तो इति तेषां रोपणादि कुर्यादिति भावः / यथा युष्माकमायदं कृतमिति, ये तु मायाविनः श्रावकेण वा तथा संप्रति यदुक्तं प्राक् 'तस्स कडनिट्ठियमी' त्यादि, तत्र कृतप्रज्ञापितास्ते न कथयन्ति, केवलं परस्परं निरीक्षन्ते, तत एवं निष्ठितशब्दयोरर्थमाहनूनमिदमाधाकर्मेति परिज्ञाय तानि सर्वाण्यपि गृहाणि परिहृत्याऽन्येषु असणाईण चउण्ह वि, आमं जं साहुगहणपाउग्गं / भिक्षार्थमटन्तिस्म, येचतवन निर्वहन्ति स्म ते तत्राऽनिर्वहन्त: प्रत्यासन्ने तं निट्ठियं वियाणसु, उवक्खडं तू कडं- होइ / / 170 / / ग्राम भिक्षा-र्थमगच्छन्, एव मन्यत्राप्याधाकर्म संभवति, तच बालादिजल्पितविशेषैरवगत्य कथानकोक्तसाधुभिरिव नियमतो निष्कलङ्क अशनादीनां चतुर्णामपि मध्ये यत् आमम्-अपरिणतं सत् साधुसंयममिच्छुना परिहर्त्तव्यम्। सूत्रंतुसकलमपि सुगम, नवरं 'लंपण त्ति ग्रहणप्रायोग्यं कृतम् प्रासुकीकृतमित्यर्थः तं निष्ठितं विजानीत उपस्कृतं तु अत्रापि बुद्धावादिकर्मविवक्षायां क्तप्रत्ययः / ततोऽयमर्थः-- रोपणम् 'परिभायण' ति गृहे परिभाजनम् 'से' इति-एतेभ्य: 'अन्नं ति अन्यं ग्रामम्। तदेवमुक्तोऽशनस्याधा-कर्मण: संभवः / उपस्कर्तुमारब्धमिति भाव:, कृतं भवति ज्ञातव्यम्। एतदेव विशेषतो भावयतिसंप्रति पानस्याऽऽह कंडिय तिगुणुक्कंडा उ, निट्ठिया नेगदुगुणउक्कंडा। लोणागडोदए एवं, खाणित्तु मुहरोदगं। निट्ठियकडो उ कूरो, आहाकम्मं दुगुणमाहु / / 171 / / ढक्कएणऽच्छते ताव, जाव साहु त्ति आगया / / 158 / / इहये तण्डुला: प्रथमत: साध्वर्थमुप्तास्तत: क्रमेण कण्टयो जातास्तत् यथा-अशनस्याधाकर्मकथानकसूचनेन संभव उक्तस्तथा कण्डिता: कथंभूता: कण्डिता:? इत्याह-त्रिगुणोत्कण्डा:- त्रिगुणं त्रीन् पानस्याऽप्याधाकर्मणो वेदितव्य: कथानकमपि तथैव, केव- लमयं वारान् यावत्-उत् - प्राबल्येन कण्डनं-छटन येषां ते त्रिगुणोत्कण्डाः ; विशेष:-क्वचिद्ग्रामे सर्वेऽपि ब्रूपा: क्षारोदका आसीरन् क्षारोदका नाम त्रीन् वारान् कण्डिता इत्यर्थः ते निष्ठिता उच्चयन्ते, ये पुनर्वपनादारभ्य आमलकोदका विज्ञेयाः, नन्वत्यन्त क्षारजला: तथा सति यावदेक-गुणोत्कण्डा द्विगुणोत्कण्डावा कृता वर्तन्ते ते कृता:, अथवाग्रामस्याप्यवस्थानानुपपत्ते, ततस्तस्मिन् लवणा-वटे क्षेत्रे क्षेत्रप्रत्युपे मा भूयन् साध्वर्थमुप्ता: केवलं ये कण्टय: सन्त: साध्वर्थ त्रिगुणोत्कण्डक्षणाय साधव: समागच्छन् परिभावयन्ति स्म च यथाऽऽगमं सकलमपि कण्डितास्ते निष्ठिता उच्यन्ते, ये त्वेकगुणोत्कण्डं द्विगुणोत्कण्डं वा क्षेत्रं, ततस्तन्निवासिना श्रावकेण सादग्मुपरुध्यमाना अपि साधवो कण्डितास्ते कृता:। अत्र वृद्धसंप्रदाय:-इह यद्येकं वारं द्वौवा वारी साध्वर्थ नावतिष्ठन्ते, ततस्तन्मध्यवर्ती कोऽपि ऋजुकोऽनवस्थानकारणं पृष्टः, कण्डितास्तृतीयं तुवारमात्मनिमित्तं कण्डिताराद्धाश्वतेसाधूनां कल्पन्ते, स च यथाऽवस्थितं तस्मै कथयामास, यथा विद्यन्ते सर्वेऽप्यत्र गुणाः, यदि पुनरेकं द्वौ वा वारौ साध्वथ कण्डितास्तृतीयं वारं स्वनिमित्तमेव केवलं क्षारं जलमिति नाऽवतिष्ठन्ते, ततो गतेषु तेषु साधुषु समधुरोदकं कण्डिता राद्धास्तु आत्मनिमित्तं ते केषांचिददेशेन एकेनान्यस्मै कूपं खानितवान्, तं खानयित्वा लोकप्रवृत्तिजनितपापभयात् दत्तास्तेनाप्यन्यस्मायित्येवंयावत्सहस्रसंख्येयस्थाने गतास्तत: परं गताः फलकादिना स्थगितमुखं कृत्वा तावदास्ते यावत्ते वाऽन्ये वा साधवः कल्पन्ते नाऽकि अपरेषांत्वोदेशेन न कदाचिदपि यदि पुनरेकं द्वौ वा समाययु: समागतेषु च साधुषु मा मम गृहे केवले आधाकर्मिक- वारौ साधुनिमित्तम् आत्मनिमित्तं वा कण्डितास्तृतीयं तुवारमात्मनिमित्तं शङ्काऽभूदिति प्रतिगृहं तन्मधुरमुदकं भाजितवान्, तत: | राद्धाः पुन: साध्वर्थ ते न कल्पन्ते, यदि पुनरेकं द्वौ वा वारौ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 259 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म साधुनिमित्तम् आत्मनिमित्तं या कण्डितास्तृतीयं तु वारं साध्वर्थमेव तैरेव तस्मिन् द्रुमे नष्टच्छाये सति तस्याध:शीतभयादिनाऽवस्थानं कल्पते च तण्डुलैः साधुनिमित्तं निष्पादित:ब्र: स निष्ठितकृत उच्यते। निष्ठितै:- इति प्राप्त न चैतदयुत्तं तस्मात्स एव द्रुम आधाकर्मिक-स्तत्संस्पृष्टाश्चाध: आधाकर्मतण्डुलैः कृतो-निष्पादितो; राद्ध इत्यर्थः, निष्ठितकृतः, स कतिपयप्रदेशा: पूतिरिति प्रतिपत्तव्यम्, न तु छायाऽऽधाकर्मिकीति। साधूनां सर्वथा न कल्पते, कुत:? इत्याह-'आहाकम्म' इत्यादि, पुनरपि परेषां दूषणान्तरमाहआधाकर्म प्रतीतं, द्विगुणमाहुस्तीर्थकरादयस्तं निष्ठितकृतं कुरं, वडा हायइ छाया, तत्थिक्कंय पइयं पिवन कप्ये। तत्रैकमाधाकर्मनिष्ठिततण्डुलरूपं द्वितीयं तु पाकक्रियारूपं, तदेवमुक्तो नय आहाय सुविहिए, नित्तयई रविच्छायं / / 174 / / निष्ठितकृतशब्दयोरर्थः, संप्रति चतुर्वप्यशनादिषु कृतनिष्ठितता भाव्यते इह छाया तथा तथा तथा सूर्यगतिवशात् वर्द्धते हीयते च ततो तत्र वपनादारभ्य यावद् वारद्वयं कण्डनं तावत् कृतत्वं, तृतीयवारं तु रवेरस्तमयसमये-प्रात:समये चातिद्राघीयसी विवर्द्धमाना छाया कण्डनं निष्ठितत्वम्, एत-चाऽनन्तरमेवोक्तं पाने कूपादिकं साधुनिमित्त खनितं, ततो जलमाकृष्ट, ततो यावत्प्रासुकीक्रियमाणं नाद्यापि सर्वथा सकलमपि ग्राममभिव्याप्य वर्तते, अतस्तत्संस्पृष्टं सकलमपि प्रासुकीभवति तावत्कृतं, प्रासुकीभूतं च निष्ठितं, खादिमे कर्कटिकादय: ग्रामसंबिन्धवसत्यादिकं पूतिकमिव-तृतीयोद्गमदोषदुष्टमश- नादिकमिव साधुनिमित्तमुप्ता: क्रमेण निष्पन्ना यावद्दात्रादिना खण्डिताः, तानि च न कल्पते, न चैतदागमोपदिष्टं तन्नाऽऽधाकर्मिकी वृक्षस्य छाया, अपि खण्डानि यावन्नाद्यापि प्रासुकीभवन्ति तावत्कृतत्वमवसे यं, च-प्रागेवैतदुक्तं सूर्यप्रत्यया सा छाया न वृक्षहेतुका, न च सूर्यः प्रासुकीभूतानि च तानि निष्ठतानि। एवं स्वादिमेऽपि विज्ञेयम्। सर्वत्रापि सुविहितानाघाय छायां निर्वर्तयति। तत: कथमाधाकर्मिकी? च द्वितीयचतुर्थभङ्गो शुद्धौ, प्रथमतृतीयौ त्वशुद्धाविति। ___ यदि पुनराधाकर्मिकी भवेत् तर्हिसम्प्रति खादिम- स्वादिममाश्रित्य मतान्तरं प्रतिचिक्षि-प्सुराह- अघणघणचारिगगणे, छाया नट्ठा दिया पुणो होइ। छायं पि विवज्जंती, केइ फलहेउगाइवुत्तस्स। कप्पइ निरायवे ना-म आयवे तं विवज्जेउं / / 175 / / तंतु न जुज्जइ जम्हा, फलं पि कप्पं बिइयभंगे / / 172 / / अघना-विरला घना-मेधाश्चरिण:- परिभ्रमणशीलायत्र इत्थंभूते गगने, इह फलहेतुकादे: फलहेतो: पुष्पहेतोरन्यस्माद्बा हेतो: साध्व-र्थमुप्तस्य विरलविरलेषु: नभसि मेधेषु परिभ्रमत्सु इत्यर्थः, छाया नष्टाऽपि सती वृक्षस्य केचिदगीतार्थाः छायामप्याधाकर्मिकवृक्ष- संबन्धिनीति कृत्वा दिवा पुनरपि भवति, ततो मेधैरन्तरिते सूर्ये-निरातपे-आतपाभावे तस्य विवर्जयन्ति-परिहरन्ति, तत्तु छाया-विवर्जनं न युज्यते, वृक्षास्याधस्तनं प्रदेश सेवितुं कल्पते, आतपे तुतं वजयितुं, न चायं यस्मात्फलमपि यदर्थं स वृक्ष आरोतिस्तत आधाकर्मिकवृक्षसंबन्धि विषयविभाग: सूत्रेऽपदिश्यते न च पूर्वपुरुषाचीर्णो नापि परेषां द्वितीये भङ्गे तस्य कृतमन्यार्थं निष्ठित-मित्येवंरूपे वर्तमान सत्कल्पते, सम्मत:तस्मादसदेतत्परोक्त-मिति / इह पूर्वं वृक्षसंबन्धित्वेन किमुक्तं भवति ? साध्वर्थ-मारोपितेऽपि कदल्यादौ वृक्षे यदा फलं छायामाधाकर्मिकीमाशङ्कय 'नट्ठच्छाए उदुमे कप्पइ' इत्याधुक्तम्, इदानीं निष्पद्यमानं साधुसत्ताया अपनीय आत्मसत्तासंबन्धि करोति त्रोटयति तु रविकृत-त्वेनाधाकर्मिकीमाशय 'कप्पइ निरायवे नाम' च तदा तदपि कल्पते, किं पुन: छाया ? सा हि सर्वथा न / इत्याद्युक्तम्, अतो न पुनरुक्तता। साधुसत्तासंबन्धिनी विवक्षिता, न हि साधुच्छायानिमित्तं स वृक्ष ___ संप्रति छायानिर्दोषतानिगमनमगीतार्थधार्मिकाणां परेषां आरोपितस्तत् कथं न कल्पते? किंचिदाश्वासनं च विवक्षुराहपरपचइया छाया, न विसा रुक्खो व्व वट्टिया कत्ता। तम्हान एस दोसो, संभवइ कम्मलक्खणविहूणो। नट्ठच्छाए उदुमे, कप्पइ एवं भणंतस्स / / 173 / / तं पिय हुअइघिणिल्ला, वज्जेमाणा अदोसिल्ला ||176 / / सा छाया परप्रत्ययिका-सूर्यहेतुकानवृक्षमात्रनिमित्ता, तस्मिन् सत्यपि यस्मात् फलमपि द्वितीयभङ्गे कल्पते तथा रविहेतुका छायेत्यादि सूर्याभावे अभावात्, तथाहि- छाया- नाम "पार्श्वत: सव्वेत्राऽऽ- चोक्तं तस्मादाधाकर्मिकी छायेति यो दोष उच्यते स एष दोषो न तपपरिवेष्टितप्रतिनियतदेशवर्ती श्यामपुद्गलात्मक आतपाभावः" | संभवति कुत:? इत्याह-कर्मलक्षणविहीन इति-अत्र हेतौ प्रथमा, इत्थंभूताच छाया सूर्यस्यैवान्वयव्यतिरेका, चतुर्विधत्वेन द्रुमस्य, द्रुमस्तु कर्मेति च आधाकर्मेति द्रष्टव्यं, ततोऽयमर्थ:- यत आधाकर्मलक्षणकेवलं तस्या निमित्तमात्रं, न वैतावता सा दुष्यति, छायापुद्गलानां विहीन एष दोषः न हि तरुरिव छायाऽपि का वृद्धि नीता इत्यादि द्रुमपुद्गलेभ्यो भिन्नत्वात्, न च वृक्ष इव-तरुरिव का वृक्षारोपकेण वद्धिं तस्मान्नैष दोषः संभवति, अथ वातामपि- आधाकर्मिकवृक्षच्छायां नीता तद्विष-यतथारूपसंकल्पस्यैवाभावात् ततो नाऽऽधाकर्मिकी | हु:-निश्चितम् अतिघृणावन्त: अतिशयेन दयालवो विवजयन्त: परे-- छाया : किं च-यद्याधाकर्मिकीच्छायेति न तस्यामवस्थानं न कल्पते। अदोषवन्तः / तदेवमुक्तमानुषङ्गिकं, तदुक्तौ च 'आहाकम्मियनाम' तत एवं परस्य भणतो यदाघनपटलैराच्छादितंगगनमण्डलं भवति तदा | इत्याति मूलद्वारगाथायां 'किं वावी' ति व्याख्यातम् / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 260 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आधाकम्म सम्प्रति 'परपक्खो य, सपक्खो" द्वारद्वयं व्याख्यानयन् प्रसङ्गतो निष्ठित-प्रकृतयो: स्वरूपं ताभ्वामुत्पन्नं भङ्गचतुष्टयं थाऽऽहपरपक्खो उगिहत्था, समणो समणी उ होइ उ सपक्खो। फासकुंड रद्धं वा, निट्ठियमियरं कडं सव्वं // 277 / / तस्स कडनिट्ठियमी, अन्नस्स कडंमि निष्ट्ठिये तस्स। चउभंगो इत्थभदे, चरमदुगे होइ कप्पं तु / / 178 / / इह परपक्ष:-गृहस्था:, श्रावकादय:, तेषामर्थाय कृतं साधू-नामाधाकर्म नभवति, स्वपक्ष:-श्रमणा:, साधव:, 'समणी उ' त्ति-श्रमण्यो-व्रतिन्यः, तेषामर्थाय कृतं साधूनामाधाकर्म वेदितव्यम्, तथा प्राशु (सु) कं कृतं करठ्यादिकं सचेतनं सत् साध्वर्थं निश्चेतनीकृतं यत्र स्वयमचेतनमपि तण्डु लादिकं कूरत्वेन निष्पादितं तन्निष्ठितमित्युच्यते इतरत् पुनरेकगुणद्विगुणकण्डित- तण्डुलादिकं सर्वं कृतमिति / अत्र च कृतनिष्ठितविषये तस्य साधोराय कृते निष्ठिते च तथा अन्यस्याऽप्यर्थाय कृते तस्य साधोराय निष्ठिते भक्तादौ चतुर्भङ्गिका भवति, तत्र प्रथमतृतीयभङ्गौ साक्षाद्दर्शितौ द्वितीयचतुर्थी तु हेतुगम्यौ, तौ चैवं- तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं तत्रोपात्तयोयोर्भङ्गयो: चरमौ-अनुक्तौ पाश्चात्यौ द्वौ भङ्गौ; द्वितीयचतुर्थावित्यर्थः, प्रथमस्य हि द्वितीय: पाश्चात्यस्तृतीयस्य तु चतुर्थः, तत उपात्तप्रथमतृतीयभङ्गापेक्षया चरमौ द्वितीयचतुर्थी लभ्येते, तस्मिन् चरमद्विके भवति कल्प्यमशनादिः एतेच यद्यपि प्रागेवोक्तं तथापि विस्मरणशीलानां स्मरणाय भूयोप्युक्तमिति न कश्चिद्दोषः / उत्तं परपक्षस्वपक्षरूपं द्वारद्व्यम्। संप्रति 'चउरो' इति व्याचिख्यासुराहचउरो अइक्कम्मवइ-क्कमा य अइयार त अणायारो। निद्दरिसणं चउण्ह वि, आहाकम्मे निमंतणया // 179 / / आधाकर्मणि विषये केनाप्यभिनवेन श्राद्धेन निमन्त्रणे कृते चत्वारो दोषाः संभवन्ति, तद्यथा-अतिक्रमः 1, व्यतिक्रम: 2, अतीचारः 3, अनाचारश्च 4 / एते चत्वारोऽपि स्वयमेव सूत्रकृता व्याख्यास्यन्ते, एतेषां च चतुर्णामपि निदर्शनं- दृष्टान्तो भावनीयः, तमपि च वक्ष्यति। तत्र प्रथमत आधाकर्मनिमन्त्रणं भावयतिसालीघयगुलगोरस-नवेसु वल्लीफलेसु जाएसं। दाणे अहिणवसले, आहायकए निमंतेइ / / 10 / / शालिषु- शाल्योदनेषु तथा घृतगुडगोरसेषु साधूनाधाय षट्कायोपमर्दनेन निष्पादितेषु नयेषु च वल्लीफलेषु जातेषु / साधुनिमित्तमचित्तीकृतेषु दाने-दानविषये कोऽप्यभिनवश्राद्ध: (द्धम्)अव्युत्पन्नश्रावको निमन्त्रयते, यथा भगवन ! प्रतिगलीत यूयमस्मद्गृहे शाल्योदनादिकमिति। ततश्चआहाकम्मग्गहणे, अइक्कमाईसु वट्टए चउसु / नेउरहारिगहत्थी, चउतिगदुगएगचलणेणं // 18 // आधाकर्मग्रहणे अतिक्रमादिषु चतुर्षु दोषेषु वर्त्तते, स च यथा यथा उत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन् दोषे वर्तते, तथा तथा तद्दोषजनितात्पापादात्मानं महता कष्टेन ध्यावर्तयितुमीश:, अत्र दृष्टान्तमाह- 'नेउरे' त्यादि, इह नुपूरपण्डिताया: कथानकमतिप्रसिद्धत्वाद् बृहत्त्वाच न लिख्यते, किंतुधर्मोपदेशमालाविवरणादेखगन्त-व्यम्, तत्रनूपुरं- मञ्जीरंतस्य हारोहरणं श्वशुरकृतं तेन या प्रसिद्धा सा नू पुरहारिका, आगमे चान्यत्र नुपुरपण्डितेति प्रसिद्धा, तस्याः कथानकेयो हस्ती राजपत्नी संचारयन् प्रसिद्धः स नूपुरहारिको हस्ती स यथा 'चउतिगदुगएगचलणेणं' तिपश्चानुपूर्व्या योजना, एकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्च चरणैराकाशस्थैमहतामहत्तरेण कष्टे न आत्मानं ध्यावर्तयितुमीशस्तथा आधाकर्मग्राह्यपि, इयमत्र भावना- नूपुरहारिकाकथानके राज्ञा हस्ती स्वपत्नीमिण्ठाभ्यां सह छिन्नटङ्के समारोपितः, ततोऽपि मिण्ठेन छिनटङ्कपर्वताग्रभागे व्यवस्थाप्याऽठोतनमेकं कंचिच्च- रणमाकाशे कारित:, स च तथाकारित: सन् स्तोकेनैव क्लेशन तं चरणं व्यावर्त्य तत्रैव पर्वते आत्मानंस्थापयितुं शक्नोति, एवं साधुरपि कश्चिदतिक्रमाख्यं दोषं प्राप्त: सन् स्तोकेनव शुभाध्यवसायेन तं दोषं विशोध्याऽत्मानं संयमे स्थापयितुमीश:, यथा च हस्ती चरणद्वयमठोतनमाकाशस्थं क्लेशेन व्यावर्तयितुं शक्नोति, एवं च साधुरपि व्यतिक्रमाख्यं दोषं विशिष्टेन शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुमीष्टे, यथा च स हस्ती चरणत्रयमाकाशस्थमेकेन केनापि पाश्चात्येन चरणेन स्थितो गुरुतरेण कष्टेन व्यावर्त्तयितुं क्षमः तथा साधुरप्यतीचारदोषं विशिष्टतरेण शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुं प्रभुः, यथा च स हस्ती चरणचतुष्टयमाकाशस्थितं सर्वथा नव्यावर्तयितुमीश:, किंतु-नियमतो भूमौ निपत्य विनाशमाविशति, एवं साधुरप्यनाचारे वर्तमानो नियमत: संयमात्मानं विनाशयति। इह दृष्टान्ते चरणचतुष्टयं हस्तिना नोत्पाटितं, किंतु- दार्शन्तिकयोजनानुरोधात्संभावनामङ्गीकृत्य प्रतिपादितम्। पिं० / संप्रति 'गहणे य आणाई' इति व्याख्यानयन्नाहआणाइणो य दोसा, गहणे जंभणिय मह इमे ते उ। आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तविराहणा चेव ||183 / / यदुक्तम् 'आहाकम्भियनामे त्यादि मूलद्वारगाथायामाधा- कर्मग्रहणे आज्ञादय:-आज्ञाभङ्गादयो दोषास्ते इमे, तद्यथा- आज्ञाभङ्गः 1, अनवस्था 2, मिथ्यात्वम् 3, विराधनाचा तत्र प्रथमत आज्ञाभङ्गदोषं भावयतिआणं सव्वजिणाणं, गिण्हंतोतं अइक्कमइ लद्धो। आणं अइक्कमंतो, कस्साएसा कुणइ सेसं // 184 / / तद्-आधाकर्मिकमशनादिकं लुब्धः सन् गृह्णान: सर्वेषा-मपि जिनानामाज्ञामतिक्रामति, जिना हि सर्वेऽप्येतदेव बुवन्ति स्म-यदुत मा गृहणत मुमुक्षवो ! भिक्षव आधाकर्मिकां भिक्षामिति ततस्तदाददानो जिनाज्ञामतिक्रामति, तां चातिक्रमन् कस्य नाम ! आदेशाद् -आज्ञाया: शेषंकेशस्मश्रुलुश्चन-भूशय-नमलिनवासोधारणप्रत्युपेक्षणाद्यनुष्ठानं करोति ? न कस्यपीति भावः सर्वस्यापि सर्वज्ञाऽऽज्ञाभङ्गकारिणोऽनुष्ठानस्य (नष्फल्यात्) निष्फलत्वात् / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 261 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म अनवस्थादोषं भावयतिएक्केण कयमकज्जं, करेइ तप्पचया पुणो अन्नो। सायाबहुलपरंपर-वोच्छेओ संयमतवाणं // 185 / / इह प्राय: सर्वेऽपि प्राणिन: कर्मगुरुतया हष्टमात्रसुखाभि- लाषिणो न दीर्घसुखदर्शिनस्तत एवेनापि साधुना यदाधा-कर्मपरिभोगादिलक्षणमकार्यमासेव्यते तदा तत्प्रत्ययात् तेनापि साधुना तत्त्वं विदुषापि सेवितमाधाकर्म ततो वयमपि किं न सेविष्यामहे इत्येवं तमालम्बनीकृत्यान्योऽप्यासेवते, तमप्या- लम्ब्याऽन्यः सेवते इत्येवं सातबहुलानां प्राणिनां परंपरया सर्वथा व्यवच्छेद: प्राप्नोति संयमतपसाम, तद्व्यवच्छेदेचतीर्थव्यवच्छेदः, यश्चभगवत्तीर्थविलोपकारी स महाऽऽशातना-भागित्यनवस्था- दोषभयान्न कदाचनाऽप्याधाकर्म सेवनीयम्। मिथ्यात्वदोषं भावयतिजो जहवायं न कुणइ, मिच्छडिट्ठी तओ हु को अन्नो। वड्लेइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो // 186 / / इह यद्देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्तियथावदनुष्ठानं तत्सम्यक्त्वम्, यत उक्तमाचारसूत्रे- "जंमोणंति पासहा, तं सम्मति पासहा, जं सम्मति पासहा, तं मोणंति पासहा" इति / ततो यो देशकालसंहननानुरूपं शक्त्यनिगृहनेन यथाऽऽ- गमेऽभिहितं तथा न करोति तत: सकाशात् कोऽन्यो मिथ्याहष्टिः? नैव कश्चित्, किंतु-स एवं मिथ्यादृष्टीनां धुरि युज्यते, महामिथ्यादृष्टित्वात्, कथं तस्य मिथ्यादृष्टिता? इत्यत आह'वड्वेइय' इत्यादिचशब्दो हेतौ यस्मात्सयथावादमकुर्वन् परस्य शङ्का जनयति, यथा (तथाहि) यदि यत्प्रवचने अभिधीयते तत्त्वंतर्हि किमयं तत्त्वं जानानोऽपि तथा न करोति ? तस्माद् वितथमेतत् प्रवचनोक्तमिति, एवं च परस्य शङ्कां जनयन् मिथ्यात्वं सन्तानेन वर्द्धयति / तथा च प्रवचनस्य व्यवच्छेद: शेषास्तु मिथ्यादृष्टयो नैवं प्रवचनस्य मालिन्यमापाद्य परंपरया व्यवच्छेदमाधातुमीशाः, तत: शेषमिथ्यादृष्ट्यपेक्षयाऽसौ यथावा- दमकुर्वन् महा-मिथ्यादृष्टिरिति। अन्यचबड्डइ तप्पसंगं, गेही अपरस्स अप्पणो चेव। सजियं पि भिन्नदाढो, न मुयइ निद्धंधसो पच्छा ||187 / / साधुराधाकर्म गृह्णान: परस्य 'एक्केण कयमकज्ज'' इत्या-दिरूपया पूर्वोक्तनीत्या 'तत्प्रसङ्गम्'- आधाकर्मग्रहणप्रङ्गं वर्द्धयति आत्मनोऽपि तथाहि-सकृदपि चेदाधाकर्म गृह्णाति तर्हि तद्गतमनोज्ञरसास्वादलाम्पटयतो भूयोऽपि तद्ग्रहणे प्रवर्तते, तत एवमेकदाप्याधाकर्म गृह्णन्, परस्य आत्मनश्च तत्प्रसङ्गं वर्द्धयति, तत्प्रसङ्गवृद्धौ च कालेन गच्छता परस्य आत्मनश्च गृद्धि:- अत्यन्तमाशक्तिरूपजायते, ततो विशिष्टविशिष्टतरमनोज्ञर- सास्वादनेन भिन्नदंष्ट्राको 'निद्धंधस: अपगतसर्वथादयावासनाको भूत्वा पश्चात् स्वयं परो वा सजीवमपिसचेतनमपि चूतफलादिकं न मुञ्चति तदमोचने च दूर दूरतरमपसर्पन् अपगतसर्वथा- जिनवचनपरिणामो मिथ्यात्वमपि गच्छतीति। संप्रति विराधनादोषं भावयतिखद्ध निद्धे य सया, सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया। पडियरगाण वि हाणी, कुणइ किलेसं किलिस्संतो / / 188 / / आधाकर्म प्राय: प्राधूर्णकस्यैव गौरवेण क्रियते, ततस्तत्स्वादु स्निग्धं भवति, तस्मिंश्च खद्धे-प्रचुरे स्निधे बहुस्नेहे भक्षिते रुजा-रोगो ज्वरविसूचिकादिरूपः प्रादुर्भवति, इयमात्मा- विराधना, ततो रुजा पीडितस्य 'सूत्रे'- सूत्रग्रहणमुपलक्षणम् अर्थस्य च हानि: तथा यदि चिकित्सां न कारयति तर्हि चिर-कालसंयमपरिपालनभ्रंश: अथ कारयति तर्हि चिकित्सायां क्रियमाणायां काया:- तजेस्कायादयो विनाशमाविशन्ति, तथा च सति संयमविराधना, तथा प्रतिचारकाणामपि-परि-पालकानामपि साधूनां तद्वैयावृत्त्यव्याप्ततया सूत्रार्थहानि: षट्कायोपमर्द- कारणानुमोदनाभ्यां च संयमस्यापि हानि: तथा प्रतिचारकास्तदुत्तं यावन प्रपारयन्ति तावत्स: क्लिश्यमान: पीडां सोढुमशक्नुवन् तेभ्यः कुप्यति, कुप्यंश्च तेषामपि मनसि क्लेशमुत्पादयति, अथ वा-क्लिश्यमानो दीर्घकालं क्लेशमनुभवन् प्रतिचारकारणामपि जागरणत: क्लेशम्-रोगमुत्पादयति तत-स्तेषामपि चिकित्साविधौ षट्कायविराधना / तदेवं व्याख्याता सकलापि 'आहाकम्मियनाम' इत्यादिका मूलगाथा। (20) संप्रत्याधाकर्मण एवाऽकल्प्यविधि बिभणिषुः सम्बन्ध-माहजह कम्मं तु अकप्पं, तच्छिक्कं वाऽवि भायणठियं वा। परिहरणं तस्सेव य, गहियमदोसंच तह भणइ / / 18 / / यथा कर्म-आधाकर्म अकल्प्यम्-अभोज्यं, यथा च तेनाऽऽधाकर्मणा स्पृष्टमकल्प्यं यथा च भाजनस्थितं- यस्मिन् भाजने तदाधाकर्म प्रक्षिप्तस्मिन्नाधाकर्मपरित्यागानन्तरमकृतकल्पत्रप्रक्षालने यत् क्षिप्तं शुद्धमशनादि तदपि यथा न कल्प्यं यथा च तस्याऽऽधाकर्मण: परिहारो विध्यविधिरूपो यथा च गृहीतं सद्भक्तमदोष भवति तथा गुरुर्भणति / अनेन यथैवागमे पिण्डविशुद्धिरभाणि तथैवाऽहमपि भणामीत्यावेदितं द्रष्टव्यम्, अनया च गाथया पञ्चद्वाराणि प्रतिपाद्यान्युक्तानि संप्रति तान्येव शेषं प्रतिपाद्यत्वेनाहअब्भुज्जे गमणाइ य, पुच्छा दय्वकुलदेसभावे य। एवं जयंते छलणा, दिलुता तत्थिमे दोन्नि / / 190 // यथा साधूनामाधाकर्म तत्स्पृष्टं कल्पत्रयाप्रक्षालितभाज- नस्थं वा अभोज्यं तथा भणनीयं, तथा अविधिपरिहारे गमनादिका: कायक्लेशादिलक्षणा दोषा वक्तव्या: तथा विधिपरिहारे कर्तव्ये यथा द्रव्यकुलदेशभावे पृच्छा कर्तव्या चशब्दाद्-यथा च न कर्तव्या तथा वक्तव्यम्,एवं यतमाने प्रायश्छलनाया असम्भवो, यदि पुनरेवमपि यतमाने छलनाअशुद्धभक्तादिग्रहणरूपा भवेत् तत-स्तत्र दृष्टान्ताविमौ वक्ष्यमाणौ वक्तव्यौ। इह 'अब्भुज्जे इत्यनेन पूर्वगाथायाद्वारत्रयं परामृष्टम्, 'गमणाइयपुच्छ दव्य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 262 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आधाकम्म कुलदेसमावेय' इत्यवेन पुन: परिहरणस्य विशेषो वक्तव्य उक्त: उत्तरार्द्धन तु'गहियमदोस' चेत्यस्य विशेषः। सम्प्रति प्रथमं द्वारमाधाकर्मणोऽकल्प्यतालक्षणं व्याचिख्या-सुराहजह वंतं तु अमोज्जं, भत्तं जइ विय सुसक्कयं आसि। एवमसंजमवमणे, अणेसणिज्जं अभोज्जंतु / / 191 / / इह यद्यपि वमनकालादर्वाक भक्तम्-ओदनादिकं सुसंस्कृतंशोभनद्रव्यसंपर्कतोपस्कारमासीत् तथापि यथा तद्वान्तम-भोज्यम्, एवमसंयमवमने कृते साधोरप्यनेषणीयम- भोज्यमेव, तुरेवकारार्थः, इयमत्र भावनासंयमप्रतिपत्तौ हि पूर्वमसंयमो वान्त:- असंयमरूपं चाधाकर्म, षट्कायोपमद्देनेनतस्य निष्पन्न-त्वात् नच वान्तमभ्यवहर्तुमुचितं विवेकिनाम्, अत: साधोरनेष-णीयमभोज्यमिति। पुनरप्याधाकर्मण एवाऽभोज्यतां दृष्टान्तान्तरेण समर्थयमानो गाथाद्वयमाहमज्जारखइयमंसा, मंसासित्थि कुणिमं सुरायवंतं / वन्नाई अन्नउप्पा- इयं पि किं तं भवे भोज्ज? ||192 / / केई भणंति पहिए, उट्ठाणे मंसपेसि वोसिरणं / संभारिय परिवेसण, वारेइ सुओ करे घेत्तुं / / 193 / / वक्रपुरं नाम पुरं, तत्र वसत्युठातेजा: पदाति: तस्य भार्या रुक्मिणी, अन्यदा च उठातेजसो ज्येष्ठभ्राता सोदासाभिधनः प्रत्यासन्नपुरात्प्राघूर्णक: समाययौ, उठातेजस्सा च भोजनाय क्वाऽपि मासं क्रीत्वा रुक्मिण्यै समर्पयामासे, तस्याश्च रुक्मिण्या गृहव्यापारव्यापृताया: तन्मांसं मार्जारोऽबभक्षत् / इतश्च सोदासोठातेजसो जनार्थमागमवेल / ततः सा व्याकुलीबभूव / अत्रान्तरे च क्वापि कस्याऽपि मृतस्य कार्पटिकस्य शुना मासं भक्षयित्वा तद्ग्रहप्राङ्गणप्रदेशे तस्याः साक्षात्पश्यन्त्याः पुरत: कथमपि वातसंक्षोभादिवशादुद्वमितम् / तत: साऽचिन्तयत्-यदि नाम कुतोऽपि विपणेरन्यन् मांसं क्रीत्वा समानयिष्यामि तर्हि महदुत्सूरं लगिष्यति, प्राप्ता च समीप पतिज्येष्ठयोर्भोजनवेला, तस्मादेतदेव मांसं जलेन सम्यक् प्रक्षाल्य वेसवारेणोपस्करोमि, तथैव च कृतम् / समागतौ सोदासोठातेजसौ उपविष्टौ च भोजनार्थ, परिवेषितं तयोस्तन्मांसम्, ततो गन्धविशेषेणोठातेजसा विजज्ञे यथा वान्तमेतदिति, ततस्तेन साक्षेप भ्रुवमुत्पाळ रुक्मिणी पप्रच्छे सा च साटोपभूतक्षेपदर्शनतो विभ्यती पवनधुतवृक्षशाखेव कम्पमा- नवपुर्यथाऽवस्थितं कथितवती, तत: परित्यज्य तन्मांसं साक्षेपं निर्भय भूयोऽन्यन्मांसं पाचिता तद्भुक्तम्। प्रथम- गाथाक्षरयोजना त्वेवम्-माज्जरिण खादितं-भक्षितं मांसं यस्याः सा माज्जरिखादितमांसा मांसाशिन उठातेजसः स्त्रीमहेला अन्यन्मांसमप्राप्नुवती श्ववान्तं कुणामांसं गृहीतवती, तच्च वेसवारोपस्कारेण वर्णादिभिरन्यदिवोत्पादितमपि किं भवति भोज्यं?; नैव भवतीति भावः, एवमाधाकर्माऽपि संयमिनामभोज्यम् / / केचित्पुनरत्रैव कथानकेएवमाहुः-तस्या रुक्मिण्या गृहे कोऽप्यतीसारेण 'पीडितो "दुषप्रभनामा'' कार्पटिक: किंचित विवित्तं स्थानं याचित्वा | स्थितवान्, स चातीसारेण मांसखण्डानि व्युत्सृजति, तत: सौदासे प्राघूर्णकेसमागते सति भ; च समानीते मांसे माज्जरिण च तस्मिन् भक्षिते रुक्मिणी प्रत्यासन्ना समागता भोजनवेलेति भयभीता अन्यन्मांसमप्राप्नुवती तान्येवातीसार-व्युतत्सृष्टानि मांस-खण्डानि गृहीत्वा जलेन प्रक्षाल्य वेसवारेण चोपस्कृत्य भोजनायोपविष्टयो: पतिज्येष्ठयो; पतिवेषितवती, अथ च सा तानि मांसखण्डानि गहन्ती मृतसपत्नीपुत्रेणोठातेजसो जातेन गुणमित्रेण दहशे, न च तदानीं तेन किमपि भयाद्वक्तुं शक्तं, ततो भोजनकाले तौ द्वावपि पितृ-पितृव्यौ तेन करे गृहीत्वा निवारितो, यथा कापटिकातीसारसक्तान्यभूनि मांसखण्डानि तन्मा यूयं विभक्षत, तत उठातेजसा सा दूरं निर्भर्त्सयामासे, तत्यजे च तन्मासम्, द्वितीयगाथाक्षरयोजना त्वेवं केचिद्भणन्ति- पथिके- पथिकस्य 'उहाणे' अतीसारोत्थाने मांसपेशीव्युत्सर्जनं ततस्तन्मांसपेशीरादाय तासां संभृत्यवेसवारेणोपस्कृत्य परिवेषणे कृते सुत: करेण गृहीत्वा तौ पितृ-पितृव्यौ भोजनाय वारयति स्म, ततो यथापुरीषमांसमभोज्यं विवेकिनामेवमाधाकर्माऽपि साधूनामिति। किंचअविलाकरहीखीर, ल्हसण पलंडू सुरा य गोमंसं / वेयसमए वि अमयं, किंचि अभोज्ज अपेज्जं च / / 194 / / अविला-ऊरणी करभी-उष्ट्री तयोः क्षीरं, तथा लशुनम्पलाण्डु सुरा गोमांसंच वेदे यथायोगं शेषेषुचसमयेधुनिर्द्धर्मप्रणीतेषु अमतम् - असम्मतं भोजने पाने च, तथा जिनशासनेऽपि किंचिदाधाकर्मिकादिरूपमभोज्यमपेयं च वेदितव्यम् / इयमत्र भावना-पूर्वमिह संयमप्रतिपत्तावंसयम- वमनेनाधाकर्मापि साधुभिर्वान्त, पुरीषमिवोत्सृष्टं वा, नच वान्त पुरीषं वा भोक्तुमुचितं विवे किनामिति युक्तिवशादभोज्यमुक्तमाधाकर्म। अथवा-मा भूत युक्तिः, केवलं वचन- प्रामाण्यादभोज्यमवसेयं, तथाच मिथ्यादृष्ट योऽपि वेदेषु यथायोगमन्येष्वपि समयेषु गोमांसादिकं करभीक्षीरादिकं चाभोज्यमपेयं चाभिधीयमानं वचनप्रमाण्या- भ्युपगमतस्तथेति प्रतिपद्यन्ते। तद्यदि मिथ्यादृष्टयोऽपि स्व-समयवचनप्रामाण्याभ्युपगमतस्तथेति प्रतिपन्नास्तत: साधुमिर्भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययदायमवलम्बमानैर्विशेषतो भगवत्प्रणीते वचस्यभिधी- यमानमाधाकर्मादिकमभोज्यमपेयं च तथेति प्रतिपत्तव्यम्। संप्रति तत्स्पृष्टस्याऽकल्प्यतामाहवन्नाइजुयावि बली, सपललफलसेहरा असुइनत्था। असुइस्स विप्पुसेण वि,जह छिक्काओ अभोज्जाओ।।१९५ / / यथा वर्णादियुतोऽपि बलि: उपहार: सपललफल-शेखर: इह पललंतिलक्षोद उच्यते फलं-नालिकेरादि तत्सहित:- शेखर:- शिखा यस्य स तथा, आस्तामनेवंविध इत्यपि-शब्दार्थ: एतेनास्य प्राधान्यमुत्त, स एवंविधोऽपि यदा अशुचौ न्यस्त:- पुरीषस्योपरि स्थापित: सन् अशुचे: वि-पुषापि लवेनापि, आस्तां स्तबकादिनेत्यपिशब्दार्थः, स्पृष्टो Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 263 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म भवति तदा अभोज्यो भवति, एवं निर्दोषतया भोज्योऽप्याहार आधाकर्मावयवसंस्पृष्टतया साधूनामभोज्यो वेदितव्यः / भोजनस्थितस्याऽकल्प्यतां भावयतिएमेव उजिमयंमि वि, आहाकम्ममि अकयए कप्पे। होइ अभोज्जं भाणे, जत्थ व सुद्धेऽवितं पडियं / / 196 / / यथा आधाकर्मावयवेन संस्पृष्टमभोज्यम् एवं, यस्मिन् भाजने तदाधाकर्म गृहीतं तस्मिन्नाधाकर्मण्युज्भितेऽपि अकृते- कल्पेवक्ष्यमाणप्रकारेण कल्पत्रयेणाप्रक्षालिते, यद्वायत्र भाजने पूर्वं शुद्धेऽपि भत्ते गृहीते आधाकर्म स्तोकमात्रं पतितं तस्मिन् भाजने पूर्वगृहीते शुद्धे आधाकर्मणि च सर्वात्मना त्यत्ते पश्चादकृतकल्पे- वक्ष्यमाणप्रकारेणाकृतकल्पत्रये यद् भूय: शुद्धमपि प्रक्षिप्यते तदभोज्यमवसेयं, न खलु लोकेऽपि यस्मिन् भाजने पुरीषं न्यपतत् तस्मिन्नशुचिपरित्यागानन्तरमप्रक्षालिते, यद्वा-यस्मिन् भाजने भक्तादिना पूर्णेऽपि तदुपरि पुरीषं निपतितं भवेत् तस्मिन पूर्वपरि गृहीतभक्तादिपुरीषपरित्यागानन्तरमप्रक्षालिते भूयः प्रक्षिप्त-मशनादिकं भोज्यं भवति, पुरीषस्थानीयं च संयमिनामाधाकर्म, ततस्तस्मिन् सर्वात्मना परित्येत्तेऽपि पश्चाददत्ते कल्पत्रये भाजने यत्प्रक्षिप्यते तदभोज्यमवसेयम्। संप्रति परिहरणं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-- वंतुचारसरिच्छं, कम्मं सोउमवि कोविओ भीओ। परिहरइ सावि य दुहा, विहिअविहीए य परिहरणा / / 197 / / वान्तसदृशम्-उच्चारसदृशं च आधाकर्म यतीन् प्रति प्रति-पाद्यमानं श्रुत्वा अपि: संभावने, संभाव्यते एतन्नियमत: कोविदःसंसारविमुखप्रज्ञतया पण्डितोऽतएव भीत:- आधाकर्म- भोगत: संसारो भवतीत्याधाकर्मणस्वतस्तदाधाकर्म परिहरति- न गृह्णाति, परिहरणं च द्विधाविधिना, अविधिना च ! सूत्र च परि-हरणशब्दस्य स्त्रीत्येन निर्देश: प्राकृत्वात्, "प्राकृते हि लिङ्ग व्यभिचारि"। तत्राऽविधिपरिहरणं विभणिषुः कथानकं गाथात्रयेणाह-- सालीओयणहत्थं, दलु भणई अकोविओ दिति। कत्तो चउत्ति साली, वणि जाणइ पुच्छतं गंतुं / / 198 / / गंतूण आवणं सो, वाणियगं पुच्छए कओ साली? | पञ्चंते मगहाए, गोब्बरगामो तहिं वयइ 199 / / कम्मांसकाएँ पह, मोत्तुं कंटाहि सावया अदिसिं। छायं पि वज्जयंतो, डज्मइ उण्हेण मुच्छाई / / 20 // शालिग्रामे ग्रामे ग्रामणीनामा वणिक् तस्य भार्याऽपि ग्रामणी:, अन्यदा च वणिजि विपर्णि गते भिक्षार्थमटन् अकोविदः कोऽपि साधुस्तद्गृह प्रविवेश, आनीतश्च तद्भार्यया ग्रामण्या शाल्योदनः साधुना चाऽऽधाकर्मदोषाऽऽशङ्कायनोदाय सा पप्रच्छे, यथा श्राविके ! कुतस्त्य एष शालि:? इति, सा प्रत्युवाच-नाहं जाने; वणिम्जानाति, ततो वणिजं विपणौ गत्वा पृच्छ इति, तत एवमुक्त: सन्स साधुस्तंशाल्योदनमपहाय वणिजं विपणौ गत्वा पृष्टवान्, वणिजाऽप्युत्तं मगधजनपदप्रत्यन्तवर्तिनो गौर्बर- ग्रामादागत: शालिरेष इति, ततः स तत्र गन्तुं प्रावर्तत, तत्रापि साधुनिमित्तं के नापि श्रावके णाऽयं पन्थाः कृतो भविष्यतीति आधाकर्मशङ्कया पन्थानं विमुच्योत्पथेन व्रजति, उत्पथेन व्रजन्नहिकण्टकश्वापदादिभिरभिद्रूयते, नापि काञ्चन दिशं जानाति, तथा आधाकर्मशङ्कया वृक्षच्छायामपि परिहरन् मूर्ध्नि सूर्यकरनिकर-प्रपातेन तप्यमानो मूमिगतम् क्लेशं च महान्तं प्रापेति। इय अविहीपरिहरणा, नाणाइणं न होइ आभागी। दव्वकुलदेसभावे, विहिपरिहरणा इमा तत्थ / / 201 / / इति-एवम् उत्तेन प्रकारेण अविधिना परिहरणात् ज्ञानादीना-माभागी न भवति, तस्माद्विधिना परिहरणा कर्त्तव्या, तच्च-विधिपरिहरणम इदंवक्ष्यमाणं द्रव्यकुलदेशभावनाश्रित्य तत्र- आधाकर्मणि विषय द्रष्टव्यम्। ___ तत्र प्रथमतो द्रव्यादीन्येव गाथाद्वयेनाऽऽ-- ओयणसमिइमसत्तुग-कुम्मासाई उहाँति दव्वाई। बहुजणमप्पजणं वा, कुलं तु देसो सुरहाऽऽई / / 202 / / आयरऽणायरभावे, सयं व अन्नेण वाऽवि दावणया। एएसिं तु पयाणं, चउपयतिपया व भयणा उ / / 203 / / ओदन:- शाल्यादिकूर: समितिमा: माण्डादिका: सक्तवः कुल्माषाश्च प्रतीता: आदिशब्दात्- मुद्रादिपरिग्रह: अमूनि भवन्ति द्रव्याणि, कुलम्अल्पजनं बहुजनं वा देश:-सौराष्ट्रादिक: भावे आदरोऽनादरोवा एतावेव स्वरूपतो व्याख्यानयति-स्वयं वा अन्येन वा कर्मकरादिना यत् दापनं तौ यथासंख्यमादरानादरौ, एतेषां पदानां भजना-विकल्पना चतुष्पदा त्रिपदा वा स्यात्, किमुत्तं भवति?- कदाचिचत्वार्यपि पदानि संभवन्ति कदा-चित्त्रीणि तत्र यदा चत्वार्यपि द्रव्यादीनि प्राप्यन्ते तदा चतुष्पदा, यदा तु आदरो नाप्यनादर: केवलं मध्यस्थवृत्तिता तदा भावस्याऽभावात् त्रिपदेति। संप्रति यादृशेषु द्रव्यादिषु सत्सु पृच्छा कर्तव्या यादृशेषु न कर्त्तव्या तान्याहअणुचिय देसं दव्वं, कुलमप्पं आयरो य तो पुच्छा। बहुएऽविनऽत्थि पुच्छा, सदेसदविए अभावेऽवि।।२०४ / / यदा अनुचितदेशम् - विवक्षितदेशासंभवि द्रव्यं लभ्यते तदपि च प्रभूतं एतच्च 'आयरोय' इत्यत्रचशब्दाल्लभ्यते, एतेन द्रव्यदेशावुक्तौ, कुलमपि च अल्पमल्पजनं अनेन कुलमुक्तम् आदरश्च प्रभूत: एतेन भाव उक्त: ततो भवति पृच्छा, आधाकर्मसंभवात्, बहुकेऽपि च स्वदेशद्रव्ये प्रभूतेऽपि च तद्देश-संभावनि लभ्यमाने द्रव्ये यथा मालवकेमण्डकादौ नास्तिपृच्छा, यत्र हियद्रव्यमुत्पद्यते तत्र तत्प्राय: प्राचुर्येण जनैर्भुज्यत इतिनास्ति तत्र बहुकेऽपिलभ्यमानेपृच्छा, आधाकर्माऽसंभवात्, परंतत्रापि कुलं महदपेक्षणीयम्, अन्यथाऽल्पजने भवेदाधाकर्मेति शङ्का न निवर्तते। तथा-अभावेऽपि-अनादरेऽपि नास्ति पृच्छा, यो ह्याधाकर्म कृत्या दद्यात्स प्राय आदरमपिकुर्यात्, तत आदराऽकरणेन ज्ञायतेयथा नास्ति तत्राऽऽधा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 264 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म कर्मेति न पृच्छा। तदेवं यदा पृच्छा कर्त्तव्या यदा च न कर्त्तव्या तत्प्रतिपादितम्। संप्रति पृच्छायां कृतायां यदा तद् ग्राह्यं भवति यदा च न / तदेतत्प्रतिपादयतितुज्भऽट्ठाए कयमिण-मन्नोऽन्नमवेक्खए य सविलक्खं / वज्जति गाढरुट्ठा, का भे तत्ति त्ति वा गिण्हे / / 205 / / इह या दात्री ऋज्वी भवति सा पृष्टा सती यथावत् कथयति, यथा भगवन ! तवाऽर्थाय कृतमिदमशनादिकमिति, यत्तु भवति मायाविकुटुम्बं तन्मुखेनैवमाचष्टे- गृहार्थमेतत्कृतं; नतवा-ऽर्थायेति, परं ज्ञाता वयमिति सविलक्षणं सर्वाण्यपि मानुषाणि परस्परमवेक्ष्यन्ते कपोलोद्भेदमात्रं च / हसन्ति, ततो यदा तवाऽर्थायेदं कृतमशनादिकमिति जल्पति; यद्वासविलक्षं सल-ज्जमन्योऽन्यम् अवेक्षन्ते चशब्दादहसन्ति वा, तदा साधव-स्तद्देयमाधाकर्मेति परिज्ञाय वजयन्ति, यदा तु कस्यायेदं कृतमिति पृष्टा सती गाढं सत्यवृत्त्या रुष्टा भवति, यथा का'भे' भट्टारक! तव तृ (त) प्ति: इति तदा नैवाधाकर्मेति नि:शङ्ग गृहीत। संप्रति गहियमदोसंच" इत्यवयवं व्याचिख्यासुः परं प्रश्नयतिगूढायारा ण करेंति, आयरं पुच्छिया विन कहेंति। थोवंति व णो पुट्ठा, तं च असुद्धं कहं तत्थ / / 206 / / इह ये श्रावका: श्राविकाश्चाऽतीव भक्तिपरवशगा गूढाचाराश्च ते नाऽऽदरमतिशयेन कुर्वन्ति मा भूत्-न ग्रहीष्यतीति नापि पृष्टा सन्तो यथावत् कथयन्ति, यथा तवाऽर्थायेदं कृतमिति, अथवा-स्तोकमिति | कृत्वा ते साधुना न पृष्टाः अथ च तद् देयं वस्तु अशुद्धम् - आधाकर्मदोषदुष्टम्, अत: कथं तत्र साधो: शुद्धि-भविष्यति इति। एवं परेणोत्ते गुरुराहआहाकम्मपरिणओ, फासुयभोई विबंधओ होइ। सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो / / 207 / / इह प्रासु (शु) कग्रहणेन एषणीयमुच्यते; सामर्थ्यात्तथाहि-साधूनामय कल्पो-ग्लानादिप्रयोजनेऽपि प्रथमतस्तावदेष-णीयमेषितव्यम्, तदभावेऽनेषणीयमपि श्रावकादिना कारयित्वा श्रावकाभावे स्वयमपि कृत्वा भोक्तव्यं, नतु कदाचनापि प्रासुका-भावेऽप्रासुकमिति तत: कदाचिदप्यप्रासुकभोजनाऽसंभवे 'फासुयभोई वी' ति- वाक्यमनुपपद्यमानम् अर्थात् प्रासुकशब्द-मेषणीये वर्त्तयति ततोऽयमर्थ:प्रासुकभोज्यपि- एषणीय-भोज्यपि यद्याधाकर्मपरिणतस्तर्हि सोऽशुभकर्मणां बन्धको भवति, अशुभपरिणामस्यैव वस्तुस्थित्या बन्धकारण- त्वात्, शुद्धम्- उदगमादिदोषरहितं पुनर्गवषयन्नाधाकमण्यपि गृहीते मुत्ते च स शुद्धो वेदितव्यः / शुद्धपरिणामयुक्तत्त्वाद्। एतदेव कथानकाभ्यां भावयतिसंघुद्दिढं सोउं, एइ दुयं कोइ भाइए पत्तो। दिन्नं ति देहि मज्भं-ति गाउ साउंतओ लग्गो / / 208|| शतमुखं नाम पुरं, तत्र गुणचन्द्रः श्रेष्ठी, चन्द्रिका तस्य भार्या, श्रेष्ठी च जिनप्रवचनानुरक्तो हिमगिरिशिखरानुकारिजिन-मन्दिरं कारयित्वा तत्र युगादिजिनप्रतिमा प्रतिष्ठापितवान्, तत: सङ्घभोज्यं दापयितुमारब्धम्। इतश्च प्रत्यासन्ने कस्मिंश्चिद्ग्रामे कोऽपि साधुवेषविडम्बक: साधुर्वर्त्तते। तेन च जनपरंपरया शुश्रुवे / यथा शतमुखपुरे गुणचन्द्रः श्रेष्ठी सङ्घभोज्यमद्यददातीति / ततः स तद्ग्रहणाय सत्वरमाजगाम। सङ्घभत्तं च सर्वे दत्तं तेन च श्रेष्ठी याचितो यथा मह्यं देहि, श्रेष्ठिना च चन्द्रिका अभ्यधायि-देहि साधवेऽस्मै भक्तमिति / सा प्रत्युवाच-दत्तं सर्वे न किमपीदानीं वर्तते, तत: श्रेष्ठिना सा पुनरप्यमाणि-देहि निजरसवतीमध्यात्परिपूर्णमस्यायिति / तत: सा शाल्योदनमोदका-दिपरिपूर्णमदात्, साधुश्च सङ्घभक्तमिति बुझ्या परिग्रह्य स्वोपाश्रये भुक्तवान्। तत: सशुद्धमपि स भुजान आधा-कर्म-ग्रहणपरिणाम- वशादाधाकर्मपरिभोगजनितेन कर्मणा बद्धः / एवमन्योऽपि वेदितव्यः / सूत्रं सुगमं नवरम् 'देहि मज्भंति गाउ' त्ति-भार्यया दत्तमित्युत्ते श्रेष्ठी वभाण देहि मम मध्यात्- मदीय-भोजनमध्यात्। दत्ते च स्वादुमिष्टमिदं सङ्घभक्तमिति भुञ्जानो विचिन्तयति / ततो लग्न आधाकर्मपरिभोगजनितकर्मणा बद्धः / तदेवम्- 'आधाकम्मपरिणओ' इत्यादिकथानकेन भावितम् संप्रति 'सुद्धं गवेसमाणो' इत्यादि कथानकेन भावयतिमासियपारणगट्ठा, गमणं आसन्नगामगे खमए। सड्ढीपायसकरणं, कयाइ अज्जेज्जिही खमओ / / 20 / / खेल्लग-मल्लगलेच्छा-रियाणि डिंभगनिमच्छणंच रुटणया। हंदि समणत्ति पायस-घयगुलजुयजावणट्ठाए।।२१०।। एगंतमवक्कमणं, जइ साहू इज्ज होज्ज तिन्नोमि। तणुकोटुंमि अमुच्छा, भुत्तंमि य केवलं नाणं // 211 / / पोतनपुरं नाम नगरं, तत्र पञ्चभि: साधुशतैः परिवृता यथाऽऽगमं विहरन्तो रत्नाकरनामान: सूरय: समाययुः, तस्याश्च साधु-पञ्चशत्या मध्ये प्रियंकरो नाम क्षपकः, स च मासमासपर्यन्ते पारणकं विदधाति, ततो मासक्षपणपर्यन्ते मा कोऽपि मदीयं पारणकमवबुद्ध्याऽऽधाकर्मादिकं कार्षीदित्य-ज्ञात एव प्रत्यासन्ने ग्राम पारणार्थव्रजामीति चेतसि विचिन्त्य प्रत्यासन्ने क्वचिद्ग्रामे जगाम / तत्र च यशोमति मश्राविका, तथा च यस्य क्षपकस्य मासक्षपणकंपारणकदिनं च जनपरंपरया श्रुतं, ततस्तया तस्मिन् पारणकदिने कदाचिदद्य स क्षपकाऽत्र पारणककरणाय समागच्छेदिति बुद्ध्या, परमभक्तिवशतो विशिष्टशालितण्डुलैः पायसमपच्यत: घृतगुडादीनि च उपबृंहकद्रव्याणि प्रत्यास-न्नीकृतानि ततो मा साधुः पायसमुत्तमं द्रव्यमिति कृत आधा-कर्मशङ्का कार्षीदिति मातृस्थानतोवटादिपत्रैः कृतेषु शरावाकारेषुभाजनेषु डिम्भयोग्या: स्तोका स्तोका क्षैरेयी प्रक्षिप्ता भणिताच डिम्भा यथा रे बालका: / यदा क्षपकः / साधुरीदृशस्तादृशो वा समायाति तदा यूयं मणत- हे अम्ब! प्रसूताऽस्माकं क्षैरेयी परिवेषिता ततो न शक्नुमो भोक्तुम् एवं च उत्रेऽहं युष्मानिर्भ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 265 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म त्सयिष्यामि, ततो यूयं भणत किं दिने दिने पायसमुपस्क्रियते / एव च बालकेषु शिक्षितेषु तस्मिन्नेव प्रस्तावे स क्षपको भिक्षामटन् कथमपि तस्या एव गृहे प्रथमतोजगाम, तदा सा यशोमतिरन्त: समुल्लसत्परमभक्तिर्मा साधो: काऽपि शङ्का भूदिति बहिरादरम् अकुर्वती यथास्वभावमवतिष्ठते। बालकाश्च यथाशिक्षितं भणितुं प्रवृत्ताः, तथैवच तया निर्मर्सितास्तत: सरुषेवाऽनादरपरया क्षपकोऽपि तया वभणे यथा अमी मत्ता बालका: पायसमपि नैतेभ्योरोचते, तर्हि ततो यदि युष्मभ्यमपि रोचते गृह्णीत क्षरेयीं नोचेत् द्रजत इति / तत एवमुक्ते स क्षपकसाधुनि:शङ्को भूत्वा पायसं प्रतिगृहीतुमुद्यतः, साऽपि परमभक्तिमुद्वहन्ती परि-पूर्णभाजनभरणं पायसंघृतगुड़ादिकंच दत्तवती। साधुश्च मनसि नि:शङ्को भूत्वा पायसं गृहीत्वा भोजनाय वृक्षस्य कस्यचिदधस्ताद् गतवान्, गत्वा च यथाविधि ईर्यापथिकादि प्रतिक्रम्य स्वाध्यायं च कियन्तं कृत्वा चिन्तयामासअहो लब्धमुत्कृष्टं मया पायसद्रव्यं घृतगुडादि च, ततो यदि कोऽपि साधुरागत्य संविभागयति मां तर्हि भवामि संसारार्णवोत्तीणों यतो निरन्तरं ये स्वाध्यायनिषण्णचतसः प्रतिक्षणं परिभावयन्ति सकलमपि यथाऽवस्थितवस्तुजातम् अत एव च दुःखरूपात्संसाराद्विमुख-बुद्धयो मोक्षविधावेकताना यथाशक्ति गुर्वादिषु वैयावृत्त्योद्यता ये वा परोपदेशप्रवणा: स्वयं सम्यक् संयमानुष्ठनविधायिनश्च तेषां संविभागे कृते तद्गतं ज्ञानाद्युपष्टब्धं भवति ज्ञानाद्युपष्टम्भे च मम महान्लाभः, शरीरकं पुनरिदमसारं प्रायो निरुपयोगि च / ततो येन तेन वोपष्टब्धंसुखेन वहतीत्येवं भुजानोऽपि शरीर-मूरिहित: प्रवर्द्धमानविशुद्धाध्यवसायो भोजनानन्तरं केवल-ज्ञानमासादितवान, सूत्रं सुगमम् नवरम् 'खेल्लगमल्लगलिच्छा- रियाणि' त्ति- मल्लक-शरावं तदाकाराणि यानि खेल्लकानिवटादिपत्रकृतानि भाजनानिद्रोणा (दूता) नीत्यर्थः, तानि 'लिच्छीरियाणि' ढिम्भकयोग्यस्तोकस्तो-कपायसंप्रक्षेपणेन खरण्टितानीव खरण्टितानि कृतानि रुण्टणया इत्यवज्ञया हन्दीत्यामन्त्रणे भोः श्रमण ! यदि रोचते तर्हि गृहाण विशेष: तत: शरीरयापनाया धृतगुडयुतं पायसं गृहीत्वा एकान्ते अवक्रमणं, शेष सुगमम् / एवमन्येषामपि भावत: शुद्धं गवेषय-तामाधाकर्मण्यपि गृहीते भुक्ते वा न दोषः, भगवदाज्ञाराधनात्। तथा च भगवदाज्ञाराधनकृतमेदाऽदोषं भगवदाज्ञाखण्डन- कृतमेवच दोषं विभावयितुकाम: कथानकं रूपकचतुष्केणाऽऽहचंदोदयं च सूरो-दयं च रनो उदोन्नि उज्जाणा। तेसिं विवरीयगमणे, आणाकोवो तओ दंडो // 22 // सरोदयं गच्छमहं पभाए, चंदोदयं जंतुतणाऽऽइहारा / दुहारवी पचुरसन्ति काउं, रायाऽवि चंदोदयमेव गच्छे / / 213 / / पत्तलदुमसालगया, दच्छामु निवंगण त्ति दुचिता। उज्जाणपालएहिं, गहिया य हया य बद्धा य / / 214 / / सहस पइहा दिवा, इयरेहि निवंगण त्ति तो बद्धा। नितस्सय अवरण्हे, दंसणमुभओबह विसग्गा // 25 // चन्द्रानना नाम पुरी, तत्र चन्द्रावतंसो राजा, तस्य त्रिलोकरेखाप्रभृतयोऽन्तःपुरिका: राज्ञश्च द्वे उद्याने, तद्यथा-एकं पूर्वस्यां दिशि सूर्योदयाभिधानम्। द्वितीयं पश्चिमायां चन्द्रोदयाभिधानम्। तत्र चान्यदा प्राप्ते वसन्तमासे कस्मिंश्चिदिने राजा निजान्त; पुरक्रीडाकौतुकार्थी जनानां पटहं दापितवान् यथा भोः! शृणुत जनाः! प्रभाते राजा सूर्योदयोद्याने निजान्त: पुरिकाभिः सह स्वेच्छंविहरिष्यति ततो मातत्र कोऽपि यासीत् सर्वेऽपितृणकाष्ठाऽऽहारादयश्चन्द्रोदयं गच्छन्त्विति, एवं चपटहे दापिते तस्य सूर्योदयोद्यानस्य रक्षणाय पदातीन् निरूपितवान्, यथा न तत्र कस्याऽपि प्रवेशो दातव्य इति, राजा च निशि चिन्तयामास सूर्योदयमुद्यानं गच्छतामपि प्रभाते-सूर्यः प्रत्युरसं भवति, तत: प्रतिनिवर्तमानानापि मध्याहे, प्रत्युरसं च सूर्यो दु:खावहस्तस्माचन्द्रोदयं गमिष्यामीति, एवं च चिन्तयित्वा प्रातस्तथैव कृतवान्, इतश्च पटहश्रवणानन्तरं केऽपि दुर्वृत्ताश्चिन्तयामासुः यथा न कदाचिदपि वयं राजान्त:पुरिका दृष्टवन्त: / प्रातश्च राजा सूर्योदये सान्त:पुर: समागमिष्यति, अन्त:पुरिकाश्च यथेच्छ विहरिष्यन्ति / तत: पत्रबहुलतरुशाखासु लीना: केनाप्यलक्षिता वयं ता: परिभाक्याम:, एवं च चिन्तयित्वा ते तथैव कृतवन्तः, तत उद्यानरक्षकै कथमपि ते शाखास्वन्तींना दृष्टास्ततो गृहीता लकुडादिभिश्च हता रज्वादिभिश्च बद्धाः, ये चान्ये तृणका-ष्ठाऽऽहारादयो जनास्ते सर्वेऽपि चन्द्रोदयं गताः तैश्च सहसा प्रविष्टैरठो यथेच्छं राजान्त:पुरिका: क्रीडन्त्यो दृष्टाः, ततस्तेऽपि राजपुरुषैर्बद्धाः ततो नगराभिमुखमुद्यानानिर्गच्छतो राज्ञ उद्यानपालकैः पुरुषैयेऽपि बद्धा दर्शिताः, कथितश्च सर्वोऽपि यथावस्थितो वृत्तान्त:, तत्र ये आज्ञाभङ्गकारिणस्ते विनाशिता: इतरे मुक्ताः, सूत्रं सुगम, नवरं 'तओ दंडो' त्ति-दण्डो मारणम्, एतद्भावनार्थ रूपकत्रयम्। 'सूरोदयमि' त्यादि, तत्र'पचुरसं' प्रत्युरसम् उरस: संमुखं 'नितस्सय' त्ति- उद्यानापराह्ने निर्यतोराज्ञउभयेषां दर्शनंततो यथाक्रम वध-विसर्गों, एतेन यदुक्तम् -'अभोज्जे गमणाइ य' इत्यादिगाथायां 'दिटुंता तत्थिमा दोन्नि' त्ति-तद्व्याख्यातम्। सांप्रतं दान्तिकेयोजनामाहजह ते दंसणकंखी, अपूरिइच्छा विणासिया रना। दिट्टेऽवि यरे मुक्का , एमेव इहं समोयारो // 216 / / यथा ते दुर्वृत्ता दर्शनकाक्षिण: अपूरितेच्छा अपि आज्ञा-भङ्गकारिण इति राज्ञा विनाशिता:, इतरे च तृणकाष्ठाऽऽहारादयश्चन्द्रोदयोद्यानगता दृष्टेऽपि तैरन्त:पुरे आज्ञा-कारित्त्वात् मुक्ता: एवमेव इहापि आज्ञाकर्मविषये समवतारोयोजना कार्या, सा चैवम्-आधाकर्मभोजनपरिणामपरिणताः शुद्धमपि भुजाना आज्ञाभङ्गकारित्वात् कर्मणा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 266 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आधाकम्म बध्यन्ते, साधुवेषविडम्बकसाधुवत् शुद्धं गवेषयन्त आधाकर्मापि भुजाना भगवदाज्ञाराधनात् न बध्यन्ते 'प्रियंकरा' ऽभिधक्षपकसाधुवदिति। ___आधाकर्मभोजिनमेव भूयोऽपि निन्दतिआहाकम्मं मुंजइ, न पडिक्कमए य तस्म ठाणस्स। एमेव अडइ बोडो, लुक्कविलुक्को जह कचोडो / / 217 / / य आधाकर्म भुत्तेनच तस्मात्स्थानाद्-आधाकर्म-परिभोगरूपात्प्रतिक्रामति प्रायश्चित्तग्रहणेन निवर्त्तते। स बोड:- मुण्डो जिनाऽऽज्ञाभङ्गे निष्फलं तस्य शिरोलुञ्जनादीति 'बोड' इत्येवमधिक्षिपति / एवमेव निष्फलमटति- जगति परि-भ्रमति, अधिक्षेपसूचकमेव दृष्टान्तमाह'लुक्कविलुक्को जह कवोडो' लुश्चितविलुञ्चितो यथा कपोत:पक्षिविशेषः, यथा तस्य लुञ्चनम् अटनं च न धर्माय; तथा साधोरप्याधाकर्मभोजिन इत्यर्थः, तत्र सामान्यतो लुञ्चनं विच्छित्त्या विशबरं वा लुञ्चनं विलुञ्चनम्। पिं। आधाकर्मपरिभोगे दोषमाहएगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया। एगया आसुरं काया, आहाकम्मेहिँ गच्छइ / / 3 / / आधानमः आधाकरणमित्यर्थः, तदुपलक्षितानि कर्माण्या-धाकर्माणि तैः किमुक्तं भवति-स्वयं विहितैरेव सरागसंयम- माहारं भासुरभावनादिभिरेव नारकासुरगतिहेतुभिः क्रियाविशेषैर्यथाकर्मभिर्वा तत्तद्गत्यनुरूपचेष्टितैर्गच्छति यातीति सूत्रार्थः / उत्त. ३अ।"आहाकम्म भुंजमाणे सवले४' (सूत्र-२१ सम.) आधाकर्मआध्या-साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्मभुजान: शवलः / दशा०३ अ.1 आधाकर्मपरिभोगे दोषस्सदृष्टान्तो यथाजं किंचि उ पूइकुंडं, सङ्घीमागंतुमीहियं / साहस्संतरिय मुंजे, दुपकखं चेव सेवइ / / 1 / / यत् किञ्चिदिति-आहारजातं स्तोकमपि, आस्तां तावत्प्रभूतं, तदपि पूतिकृतम् आधाकर्मादिसिक्थेनाप्युपसृष्टम् आस्तांतावदाधाकर्म, तदपि नस्वयं कृतम्, आपतु श्रद्धावता अन्येन भक्तिमताऽपरानागन्तुकानुद्दिश्य ईहितंचेष्टितं निष्पादितं, तच्च सहस्रान्तरितमपि यो मुञ्जीतअभ्यवहरेदसौ द्विपक्षं- गृहस्थपक्षं प्रव्रजितपक्षं वा सेवते, एतदुक्तं भवति एवंभूतमपि परकृतम-परागन्तुकमत्यर्थं निष्पादितं यदाधाकर्मादि तस्य सहस्रान्तरितस्यापि योऽवयवस्तेनाप्युपसृष्टमाहारजातं भुजानस्य द्विपक्षसेवनमापद्यते, किं पुन: य एते शाक्यादयः स्वयमेव सकलमाहारजातं निष्पाद्य स्वयमेव चोपभुजते; ते च सुतरां द्विपक्ष-सेविनो भवन्तीत्यर्थ: / यदि वा-द्विपक्षमिति-ईर्यापथः, सांपरा-यिक वा। अथ वा-पूर्वबद्धा निकाचिताद्यवस्था: कर्मप्रकृती-नयत्यपूवाश्चादत्ते (सूत्र.) ततश्चैवं शाक्यादयः पर-तीर्थका: स्वयूथ्या वा आधाकर्म भुञ्जाना द्विपक्षमेव सेवन्त इति सूत्रार्थः / इदानीमेतेषां सुखैषिणामाधाकर्मभोजिनां कटुकविपाका-विर्भावनाय श्लोकदयेन दृष्टान्तमाहतमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया। मच्छा वेसालिया चेव, उदगस्सऽमियागमे // 2 // उदगस्स पभावेणं, सुक्कं सिंग्धं तर्मिति उ। ढंकेहि य कंकेहि य, आमिसत्थेहि ते दुही // 3 // तमेव-आधाकर्मोपभोगदोषमजानाना विषम: अष्टप्रकाकर्म-बन्धो भवकोटिभिरपि दुर्मोक्षश्चतुर्गतिसंसारो वा तस्मिन्न- कोविदाः कथमेष कर्मबन्धो भवति कथं वा न भवति ? केन चोपायेनायं संसारार्णवस्तीर्यत इत्यत्रा कुशलाः तस्मिन्नेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिता दुःखिनो भवन्तीति / अत्र दृष्टान्तमाह-यथा मत्स्या: पृथुरोमाणो विशाल: समुद्रस्तत्र भव / वैशालिकाः; विशालाख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा वैशालिकाः; विशाला एव वैशालिका:- बृहच्छरीरास्ते एवंभूता महामत्स्या उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेलाया (मागता:) सत्यां प्रबलमरुद्वेगो- दूतोत्तुङ्गकल्लोलमालापनुन्ना: सन्त उदकस्य प्रभावेण नदीमुखमागता पुनर्वेलापगमे तस्मिन्नुदके शुष्के वेगेनैवापगते बृहत्वाच्छरीरस्य तस्मिन्नेव धुनीमुखे विलग्ना अवसीदन्त आमिषगृध्नुभ.कद्देश्च पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवसाथिभिमत्स्यबन्धादिभिर्जीवन्त एव विलुप्यमाना महान्तं दु:खसमुद्धातमनुभवन्तोऽशरणाघातं - विनाशं यान्ति प्राप्नुवन्ति / तुरवधारणे, त्राणाऽभावाद्विनाशमेव यान्तीति श्लोकद्वयार्थः / एवं दृष्टान्तमुपदी दार्शन्तिकेयोजयितुमाहएवं तु समणा एगे, वट्टमाणसुहेसिणो। मच्छा वेसालिया चेव, घातमेस्संतिऽणंतसो // 4 // यथैते- अनन्तरोक्तमत्स्यास्तथा श्रमणा: श्राम्यन्तीति श्रमणा एके शाक्यपाशुपतादय: स्वयूथ्या वा, किंभूतास्ते इति दर्शयति-वर्तमानमेव सुखम्, आधाकर्मोपभोगजनितमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमानसुखैषिणः, समुद्रवायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवाऽऽसक्तचेतसोऽनालोचिताऽऽधाकर्मोपगभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवना वैशालिकमत्स्या इव घातं वि (नाश) शाल-मेष्यन्ति-अनुभविष्यन्ति अनन्तोशोऽरहट्टघटीन्यायेन भूयो भूय: संसारोदन्वति निमज्जोन्मज्जनं कुर्वाणा न ते संसाराम्भोधे: पारेगामिनो भविष्यन्तीत्यर्थः। सूत्र०१ श्रु.१ अ०३ऊ। (12) आधाकर्मपरिभोगे कर्मबन्धःअहाकम्मंणं मुंजमाणे समणे निग्गथे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उपचिणाइ? गोयमा! आहाकम्भणं भु-जमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधण-बद्धाओ घणियबंधणबद्धाओपकरेइ जाव अणुपरियट्टइ। सेकेणऽटेणं.जाव आहाकम्मंणं मुंजमाणे. जाव अणुपरियष्टह? गोयमा! आहाकम्म णं मुंजमाणे आयाए धम्मंअइक्कमइ, आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविकायं णावकंखइजाव तसकायं णावकंखइ, जेसि पि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आघाकम्म 267 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म यणं जीवाणं सरीराइं आहारमाहारेइ ते वि जीवे ना ऽवकंखइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ. जाव अणु परियट्टइ। (सूत्र 78+) 'आहाकम्ममि' त्यादि आधाय साधुप्रणिधानेन यत्स-चेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, वयते वा वस्त्रादिकं, तदाधाकर्म, 'किं बंधइत्ति-प्रकृति-बन्धमाश्रित्य स्पृष्टावस्थापेक्षया वा 'किंपकरेइ त्ति-स्थितिबन्धापेक्षया बद्धावस्थापेक्षयावा, 'किं चिणाइ' त्ति-अनुभागबन्धापेक्षया निधत्तावस्थापेक्षया वा 'किं उवचिणाइ'त्तिप्रदेशबन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया वेति 'आयाए' ति-आत्मना श्रुतधर्म-चारित्रधर्म वा, 'पुढविकायं नावकंखइ' त्ति-नापेक्षते; नानुकम्पत इत्यर्थः / भ०७ श.९ अ. / 'आयाए' त्ति आत्मना धर्मश्रुतधर्म चारित्रधर्म चेति 'आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविकायं नावकंखइ, आउकायं नावकंखइ, तेउकायं नावकंखइ, वाउकायं नावकंखइ, वणस्सइकायं नावकंखइ, तसकायं नावकंखइ, जेसिं पिय णं जीवाणं सरीर-याइं आहारमाहारेइ ते वि नावकंखइ स एएणऽटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ आहाकम्मं जमाणे जाव परियट्टइ," तथा--"कह णं भंते! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरंति? गोयमा ! पाणे अइवाइत्ता भवइ, मुंस वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा अफा-सुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला-हित्ता भवइ एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरंति''त्ति, द्वितीयपदे पुनर्गाढग्लानादिकार्यासंस्तरणादिरूपे गच्छमध्यव्य-वस्थितस्य गुर्वाज्ञावर्तिनोऽशठभावस्य साधोः पञ्चकपरि-हाणिक्रमेण सर्वथा प्रयतमानस्यातुरदृष्टान्तेनाधाकर्माद्यपि निर्दोषम्, तथा चारऽऽगम:-"संथरणम्मि असुद्धं, दुण्ह वि गिण्हत दिंतयाण हियं / आउरदिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे // 1 // " तथा- "जा जयमाणस्स भवेविराहणासुत्तविहिसमग्गस्स।सा होइ निज्जरफला, अज्भप्पविसोहिजुत्तस्स॥१॥"त्ति ! ध. र.३ अधि०७ लक्ष। चारित्रमधिकृत्याहारविषयाऽनाचाराऽऽ चारौ प्रतिपादयितुकाम आहआहाकम्माणि मुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा। उवलित्तेति जाणिज्जा, ऽणुवलित्तेति वा पुणो // 6 // किमित्येवं स्याद्वाद: प्रतिपाद्यत इत्याहएएहिं दोहिं ठाणेहि, ववहारोण विज्जई। एएहि दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए / / 9 / / सूत्र. 2 श्रु० 5 अ / (अनयो 8-9 थियोर्व्याख्या 'अणायार' शब्दे प्रथमभागे 318 पृष्ठे गता) (वसति विषय: आधाकर्मदोष: 'वसहि' शब्दे षष्ठे भागे वक्ष्यते 165 निशीथचूर्णिगाथया) आधाकर्मदोषदुष्टत्वात् श्रमणार्थं कृता वल्लिवृक्षादयो न कल्पन्ते-- वल्ली वा रुक्खो वा, कोई रोएज्ज संजयऽट्ठाए। तेसिं परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं / / 13 / / वल्लीर्वा वृक्षान् वा कश्चित्संयतानामर्थाय रोपयेत् तत्र तेषां फलानां परिभोगकाले श्रमणानां कथं भणितम्: किं कल्पते किं वा न कल्पत इत्यर्थः। अत्र सूरिराहतस्स कडनिट्ठियादी, चउरो भंगे विभावइत्ताण। विसमेसु जाण विसम, नियमा उसमो समग्गहणे / / 14 / / तस्य कृतं तत् तस्य निष्ठितमिति प्रथम: तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमिति द्वितीयः / अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितमिति तृतीयः / अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमिति चतुर्थः। तत्र-तस्य संयतस्य निमित्तं कृतम्-आरोपितं वृक्षादि तथा तस्यैव संयतस्य निमित्तं निष्ठितं-निष्ठां नीतमचित्तीकृतमित्यर्थः / एष प्रथमभङ्गार्थः / एवं शेषाणामपि भङ्गानामर्थ परिभावनीयः, तत्र तस्य कृतं तस्य निष्ठितमित्यादीन् चतुरो भङ्गान् विभाव्य विषमयोभङ्गयोPणतो: विषममसंयम जानीयात्तन्निमित्तं निष्ठानयनात् समयो-द्धितीयचतुर्थयोभङ्गयोहिणे सम-संयमं जानीयात्। अन्यनिमित्तं निष्ठितत्वात्। पर आह-ननु श्रमणार्थं स आरोपितस्तत: कथं द्वितीये भड्ने कल्पते। सूरिराहकामं सो समणाऽहा, वुत्तो तह वि य न होइ सो कम्मं / जं कम्मलक्खणं खलु, इह इं वुत्तं न पस्सामि / / 55 / / कामम् -अनुमन्यामहे सवृक्ष: श्रमणार्थमारोपित: तथाऽप्यसौ कर्म न भवति / यतो यत्कर्मलक्षणं खलु तीर्थकरगणघरैरुक्तं तदिह 'ई' पादपूरणे न पश्यामि। __ किं तत्कर्मलक्षणमत आहसचित्तभावविकली-कयम्मिदव्वम्मिमग्गणा होई। का मग्गणा उ दवे, सचेयणे फासुभोईणं // 16 // यत्सचित्तभावविकलीकृतमचित्तीकृतम् द्रव्यं तत्र प्रासुकभो-जिनां मार्गणा भवति / तत आधाकर्मिक चिन्ताऽपि तत्रैव युक्ता; नान्यत्र / सचेतने तु द्रव्ये का मार्गणा ? नैव काचित् सचित्ततया तस्य ग्रहणाऽसंभवात्ततो न तदपेक्षया आधा-कर्मिकत्वमिति / तदेवमारोपितरूपकृतनिष्ठितविषये कल्प्याऽकल्प्यविधिरुक्तः / ___संप्रति छिन्नरूपकृतनिष्ठितविषय तमाहसंजयहेतुं छिन्नं, अत्ताडोवक्खडं तु तं कप्पे। अत्तऽट्ठा छिन्नं पिहु, समणऽहा निहियमकप्पं / / 17 / / अत्राऽपि भङ्गचतुष्टयम्-तस्य कृतम् तस्य निष्ठितम् 1, तस्थ कृतमन्यस्य निष्ठितम् 2, अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितम् 3, अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितम् 4 / अत्र कृतं छिन्नं निष्ठितं- पाकादि-करणतो निष्ठां नीतम् / तत्र प्रथम भङ्गे सर्वथा न कल्पते, चतुर्थस्तु भङ्ग एकान्तशुद्धः, द्वितीयभङ्गमधिकृत्य पूर्वार्द्धमाह- संयतहतौ:संयतनिमित्तं छिन्नमात्मार्थमुपस्कृतं निष्ठां नीतं तत्कल्पते / तृतीयभङ्गमधिकृत्याह-आत्मार्थं छिन्नमपि श्रम-णार्थनिष्ठितमकल्प्यम्। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 268 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधाकम्म संप्रति बीजानि, उदकं चाऽधिकृत्याहबीयाणि य वावेज्जा, अगडं वखणेज्ज संजयऽहाए। तेसिं परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं / / 58 / / बीजानि शाल्यादिसत्कानि वपेत, अवटं च खानयेत् संयतार्थ, तेषां परिभोगकाले तत्र श्रमणानां कथं भणितं कल्प्यम् अकल्प्यं वा। सूरिराहदुच्छडाणियं च उदयं, जइ हेउं निद्वियं च अत्तहा। तं कप्पइ अत्तऽट्ठा, कयं तु जइ निट्ठियमकप्पं / / 19 / / अत्रापि प्रागिव भङ्गचतुष्टयम्, तत्राऽऽद्यो भङ्गः एकान्ते- नाऽशुद्धः / चरमस्त्वेकान्तशुद्धः / द्वितीयभङ्गमधिकृत्याह-यति- हेतोस्तण्डुला द्विच्छटीकृता उदकं वासंयतहेतोरवटादानीतम् उभयमपि च निष्ठितम्अचित्तीकृतमातत्यार्थं तत्कल्पते / तृतीयभङ्गमधिकृत्याह- कृतं द्विच्छटीकृतास्तण्डुला अवटा- दानीतं पानीयं निष्ठितं तु यतिनिमित्तं तदकल्प्यमिति। पुनरपि पर आहसमणाण संजतीण व, दाहामि जो किणेज्ज अट्ठाए। गावीमहिसीमादी, समणाण तर्हि कहं भणियं 160 / / श्रमणानां संयतीनां दुग्धादि दास्यामीति बुद्ध्या तेषामर्थाय गोमहिष्यादिकं य: क्रीणीयात्तत्र श्रमणानां कथं कल्प्यम् अकल्प्यं वा भणितम्। सूरिराहसंजयउंदूढा,न कप्पए कप्पए य सयमट्ठा। पामिचिय कीया वा, जइ वि समणट्ठ या घेणू 61 // यद्यपि च धेनु:-गोरूपा महिषीरूपा वा श्रमणार्थमिय- मित्यात्मीयां धेनुं दत्त्वा परकीयायाचिता क्रीता वा यदि संयतहेतोर्दुग्धा ततोन कल्पते। अथ स्वयमात्मनोऽर्थाय दुग्धा तर्हि कल्पते। पुनरन्यथा पर: प्रश्नयतिचेझ्यदव्वं विभया, करेज्ज कोई नरो सयट्ठाए। समणं वा सोवहियं, विक्केज्जा संजयट्ठाए / / 2 / / चैत्यद्रव्यं चौरा: समुदायेनापहृत्य तन्मध्ये कश्चिन्नर आत्मीयेन भागेन स्वयम्-आत्मनोऽर्थाय मोदकादि कुर्यात्, कृत्वा च संयतेभ्यो दद्यात्, / यो वा संयतार्थाय श्रमणं सोपधिकं विक्रीणीयात्। विक्रीय च तत्प्रासुकं वस्त्रादि संयतेभ्यो दद्यात्। एयारिसम्मि दवे, समणाणं किं नु कप्पई घेत्तुं। चेइयदव्वेण कयं, मुल्लेण वज्ज सुविहियाणं / / 63 / / तेण पडिच्छा लोए, वि गरहिया उत्तरे किमंग ! पुण। चेइय जइ पडिणीए, जो गेण्हइ सो विहु तहेव ||64 / / एतादृशेन द्रव्येण गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे, यत् आत्मार्थ कृतं तत् श्रमणानां किं नु ग्रहीतुं कल्पते / सूरिराह-यचैत्यद्रव्येण यच वा सुविहितानां मूल्येनात्मार्थ क्रीतं तद्दीयमानं न कल्पते / किं कारणमिति चेदुच्यते- स्तेनानीतस्य प्रतीच्छा-प्रतिग्रहणं लोकेऽपि गर्हिता किमङ्ग! पुनरुत्तरे, तत्र सुतरां गर्हिता यत:-चैत्ययतिप्रत्यनीकेचैत्ययतिप्रत्यनीकस्य हस्तात् यो गृह्णाति सोऽपि 'हू' निश्चितं तथैव चैत्ययतिप्रत्यनीक एव। कस्मादिति आहहरियाहडिया सा खलु, ससत्तितो उग्गए हरा गुरुगा। एवं तु कया भत्ती, न विहाणी जा विणा तेण / / 65 / / साखलु स्तेनानीतप्रतीच्छा हताहतिका भण्यतेस्तेनैर्हृतस्य स्तेनहरणं हताहतिका यत एवं तस्मात् स्वशक्तितश्चैत्यद्रव्यं सोपधिकं वा श्रमणमुद्गमयेत्-उत्पादयेत्, इतरथा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका: / एवं च सति कृता भक्तिर्भवति। प्रवचनस्य या च तेन विना हानि:, साऽपि न भवति। पुन: पृच्छतिजा तित्थयराण कया, वंदणआवरिसणादि पाहुडिया। भत्तीहिँ सुरवरेहिं, समणाण तहिं कहं भणियं / / 66 / / या तीर्थकराणां सुरवरैर्भक्तया वन्दनाऽऽवर्षणादिका आदि शब्दात्पुष्पवृष्टिप्रकारत्रयादिकरणपरिग्रहः प्राभृतिका कृता तत्र श्रमणानां कथं भणितं किं तत्र स्थातुं कल्पते न वा। अत्र सूरिराहजइ समणाण न कप्पइ, एवं एगागिणो जिणवरिंदा। गणहरमादी समणा, अकप्पिए न विय चिट्ठति // 17 // तस्यां प्राभृतिकायां श्रमणानामवस्थांतुकल्पते भगवत: प्रवचनातीतत्वात् / अन्यच यदि श्रमणानां न कल्पते तत एकाकिनो जिनवरेन्द्रा भवेयुः / यतो गणधरादयः श्रमणा: अकल्पिकेनैव तिष्ठन्तिा व्य०९ उ.।। आधाकर्मोपभोगे प्रायश्चित्तम्जे भिक्खू आहाकम्मं, मुंजइ, मुंजतं वा साइज्जइ / / 6 / / आधाकडं आहाकम्मतं जो भुजति तस्स चउगुरुं आणादिया य दोसा। नि चू.१० ऊ। आधाकर्मप्रायश्चित्तम् "गुरुगा आह य चरम." ||1414 / / 'आह य' आधाकर्मगलत:प्रायश्चित्तं चत्वारोगुरुका: / बृ.१ ऊ.१ प्रक। ज्ञानवत आधाकर्मादिदोषविचार: "णाण' शब्दे चतुर्थ-भागे 1980 पृष्ठे करिष्यते) (गोचरचा गतेनाधाकर्मिकमशनादि न ग्राह्यमिति 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 991 पृष्ठे वक्ष्यते / ) यदाधायनिमित्तत्वेनाश्रित्य पूर्वोक्तमष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते तदाधाकर्मेति / कर्मभेदे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ऊ। (तच विस्तरत: 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 245 पृष्ठे,६२ सूत्रव्याख्याने वक्ष्यते।) आधानमाधाकरणमात्मनेति गम्यते तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि / स्वकृतकर्मसु उत्ता सुया मे णरए ठाणा, (उत्त.) पगाढा जत्थ वेयणा // 12 // Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाकम्म 269 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आधिदेविय तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुयं / आहाकम्मेहँ गच्छंतो, सो पच्छा परितप्पइ // 13 // तत्रेति-नरकेषु उपपाते भवमौपपातिकं स्थानं- स्थितिर्यथा -येन | प्रकारेण; भवतीति शेष: / 'मे' मया तत्-इति-अनन्त-रोक्तपरामशेऽनुश्रुतम्-अवधारितं गुरुभिरुच्यमानमिति शेषः (उत्त.) औपपातिकमितिचब्रुवतोऽस्यायमाशय:, यदि गर्मजत्वं भवेत्-भवेदपि तदपि तदवस्थायां छेदभेदादिनारकदुःखान्तरम्, औपपातिकत्वे त्वन्तर्मुहूर्तान्तरमेव तथाविधवेदनोदय इति कुतस्तदन्तरसंभवः? तथा घ-'आहाकम्मेहि ति- आधानम्- आधाकरणमात्मनेति गम्यते, तदुपलक्षितानि काण्याधा- काणि तैराधाकर्मभिःस्वकृतकर्मभिः, यद्वा- आर्षत्त्वात् - 'आहे' ति-आधाय- कृत्वा कम्मर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्मभिर्गच्छन्-यान, प्रक्रमात् नरकं, यद्वा-यथा कर्मभिर्गमिष्यमाणगत्यनुरूपैस्तीव्रतीव्रतराद्यनुभावान्वितैर्गच्छंस्तदनु-रूपमेव स्थानं 'स' इति-याल: पश्चादिति-आयुषि हीयमाने परितप्यते- यथा-धिग्मामसदनुष्ठायिनं किमिदानीं मन्दभाग्य: करोमीत्यादि शोचते इति सूत्रार्थः / उत्त०५ अ / आधा (हा)कम्मिय त्रि. (आधाकर्मिक) साधूनामेवार्थाय कारिते भक्तादौ, बृ०१ उ। आधा(हा)ण-न. (आधान) आ-धा-भावे ल्युट्संस्कारपूर्वकं वक़्यादे: स्थापने, अग्न्याधाने, गर्भाधाने च / वाचः / स्तथाने आव० : "इअ सव्वगुणाऽऽहाणं॥१०५४।।'' सर्वगुणाधानम् -अशेषगुणस्थानम्। आव० 4 अ / स्थापने, षो.।"कुलयोग्यादीनामिह, तन्मूलाऽऽधानयुक्तानाम्" मूलाऽऽधानं- मूलस्थापनं- बीजन्यासस्तद्युक्तानाम् / षो. 13 विव० / व्यवस्थापने, आख्याने, व्याख्याने च / वाच। अविरई पडुच बाले, आहिज्जइ, विरइं पडुच पंडिए आहिज्जइ, विरयाऽविरई पडुच बालपंडिए आहिज्जइ॥३९४|| आधीयते-व्यवस्थाप्यते, आख्यायते वा, तथा-विरतिं चाश्रित्य प्रतीत्य पापाद् डीन: पण्डित:-परमार्थज्ञो वेत्येव- माधीयतेव्याख्यायते / सूत्र०२ श्रु.२ अ) आधा(हा)य-आधाय-अव्य / आ-धा-ल्या कृत्वेत्यर्थे, उत्त०५०। स्थापयित्वेत्यर्थे; आधानं कृत्वेत्यर्थे भावे-घञ्। आधाने, पुं.। वाच०। आधा(हा)र-आधार-आ-धृ-आधारे-घञ् / आश्रये, "अपा- | मिवाधारमनुत्तरङ्गम्'कुमा० / "चराचराणां भूतानां, कुक्षिता धारतां गतः" / कुमा०। "वाधारस्नेहयोगाद्यथा दीपस्य संस्थिति:" या० स्मृ / "व्याकरणप्रसिद्ध औपश्ले-षिकवैषयिकाभिव्यापकाख्ये अधिकरणकारके' आधारो-ऽधिकरणम्' / पाणिनि: / अधिकरणञ्च परम्परया क्रियाश्रय:तच त्रिविधिम् औपश्लेषिक- वैषयिकाऽभिव्यापकभेदात्। तत्र औपश्लेषिकएकदेशसम्बन्ध:, यथाकटेआस्ते।वैषयिक:मोक्षे इच्छास्ति / अभिव्यापक:- तिलेषु तैलमस्ति / मुग्धबोधकारस्तु "सामपीप्या- ऽऽश्लेषविषय-व्याप्त्याऽऽधारश्चतुर्विधः" इति "सामीप्यसम्बन्धे-नाप्याधारतेत्याह" / तचिन्त्यम्, गङ्गायां घोषो वसतीत्यादौ विषयलक्षणयैव गङ्गासमीपतीरस्योपस्थितौ न तस्य विक्त्यर्थत्वमिति पाणिनीयाः शस्यसंपादनार्थं जलरोधनार्थ बन्धने वृक्षसेकार्थ जलधारणार्थे आलवालेच।"आधारबन्धप्रमुखैः प्रयत्नैः" रधु / याच० / आधारस्य भावः तल् आधारता संबन्धविशेषेण पदार्थविशेषस्याऽऽधेयता-सम्पादके धर्मविशेष, तथा च तयोः परस्परनिरूप्यनिरूपक-भाव: / आधारताया अनतिरिक्तवृत्तिर्धर्म आधारतावच्छेदकः / एवमाधेयताया अनतिरिक्तवृत्तिर्धर्म आधेयतावच्छेदक: यथा संयोगेन घटाधारे भूतले भूतलत्वमाधारतावच्छेदकं भूत-लाधेये घटेच घटत्वमाधेयतावच्छेकम् तयोश्चावच्छेदकत्यात्। ताभ्यामाधारताऽऽधेयता चाऽवच्छिद्यते यथा घटत्वावच्छिन्ना घटनिष्ठाऽऽधेयता तथा भूतलत्वावच्छिन्ना भूतलनिष्ठाऽऽधारता इति नव्यनैयायिकानां रीतिः / आधारत्वात्तदर्थे, न. ! वाच / ख-घ-थघ- भाम् / / 811 / 187 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण धस्य बाहुल्येन हः / प्रा० / "आहारो." // 14094 / / द्रव्यम् आधारो भवति। विशे। आधि (हि)-पुं० (आधि)- आधीयते-अभिनिवेश्यते प्रतीकाराय मनोऽनेन / आ-धा-कि / मानसव्यथाभेदे, वाचः / आधीनाम् - मन:पीडानाम्। भ१ श०१ उ.१ सूत्रटी / शरीरमानसे पीडा-विशेषेच। "आधीनां परमौषधम्' |३४||आधीना-शरीर-मानसपीडाविशेषाणां परमौषधंप्रधानौषधकल्पम् / षो०१५ विव० / ईषत् अधिक्रियते उत्तमोऽत्र / आ-ईषदर्थे, धा-अधि-कारार्थे, आधारे कि, आधीयते ऋणशोधनार्थम् आ-धा-कर्मणि-कि-वा | ऋणशोधनार्थ प्रतिभूस्थानीयतया बन्धकत्वेन उत्तमर्णसमीपे अधमर्णेनाऽऽधीयमाने उत्तमर्णस्य ईषत् स्वत्व-हेतुभूतव्यापारविशिष्टे, वाच०। आहि (हि)क्क-न (आधिक्य) अधिकस्य भाव: ष्यञ्। अधि-कतायाम्, अतिशयितायाम्, "यदावगच्छेदायत्या- माधिक्यं ध्रुवमात्मनः" | मनु / युग्मायामपि रात्रौ चेत् शोणितं प्रचुरंतदा / कन्या च पुंवत् भवति, शुक्राधिक्ये पुमान् भवेत् / / 1 / / ज्योतिस्तत्त्वम् / प्रतिपादिकमात्रे लिङ्गमात्राद्याधिक्ये, सि. कौ. "एवमेतद् गुणाधिक्यं, द्रव्ये द्रव्ये व्यवस्थितम्" सुश्रुः / वाच, / "आधिक्यस्थैर्यसिद्ध्यर्थम्" // 294 / / आधिक्यं सजाती- यपरिणामप्राचुर्य्यम्। द्वा० 17 द्वा०। आधि(हि) गरणिया-स्त्री. (आधिकरणिकी) अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं, तेन निर्वृत्ता आधिकरणिकी, पञ्चक्रिया मध्ये तृतीये क्रियाविशेषे, सा च द्विधा चक्ररथपशु बन्धमन्त्रतन्त्रादिप्रवर्तिनी खादिनिवर्तिनी चेति। ध०३ अधिः / आधि(हि)देविय-त्रि. (आधिदैविक) अधिदेवं भव: देवान वातादीन् अधिकृत्य प्रवृत्ते वा ठ। अनुशति- कादित्वात् द्विपदवृद्धिः / देवाधिकारेण प्रवृत्ते शास्त्रे, वातादिनिबन्धने, दु:खे च / दुःखं हि त्रिविधम् - आध्यात्मिकादिमे Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधिदेविय 270 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आप दात् / वाचः / आधिदैविकम्-यक्षराक्षसग्रहाद्यावेशहेतुकम् / स्या०१५ श्लोकटी। आधि(हि)भोइय त्रि.(आधिभौतिक भूतानिव्याघ्रसप्पादीन्य-धिकृत्य जातम्। अधिभूत ठञ् द्विपदवृद्धिः / व्याघ्रसप्पादिजनिते दु:खे, वाच / आधिभौतिक-मानुषपशुपक्षिमृगसरीसृपस्था-वरनिमित्तम् / स्या: 15 श्लोकटी। आधु(हु)णिय त्रि. (आधुनिक)- अधुना भव: ठञ्। साम्प्रतंभवे अर्वाचीने, अप्राचीने च / स्त्रियां ङीप् / वाच / अष्टा- शीतिग्रहाणामन्यतमे स्वनामख्याते ग्रहे, जं.। सू० प्र०२० पाहु। दो आहुणिया। (सूत्र-९०+) स्था०२ ठा०३ ऊ / आधे (हि)य त्रि. (आधेय)- आ-धा-कर्मणि यत् / 1 उत्पाद्ये, "आधेयश्चाक्रि याजश्च, सोऽसत्त्वप्रकृतिर्गुणः" व्या० का / यस्य सतो गुणान्तरमुत्पाद्यम् तादृशे उत्पाद्यगुणान्तरे विद्यमाने एव यत्र घटादिपदार्थे पाकादिना रक्तता गुणान्तरमाधीयते तादृशे घटादौ, आधानविधिना स्थापनीय वह्नौ, पु.। अधिक- रणेऽभिनिवेशनीये, "अधिकं पृथुलाधारादाधेयाधिक्यवर्णनम्" चन्द्रा० / वाच / आधाराऽऽधेयौ द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेनआहारो आहेयं, च होइ दव्वं तहेव भावो य। खेत्तं पुण आहारो, कालो नियमाउ आहेओ / / 1409 / / (अस्या: गाथाया: व्याख्या अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 344 पृष्ठेगता।) विशे। स्थापनीये द्रव्ये च। भावे यत्। आधाने, न० / वाच / आधे(हे)वचन. (आधिपत्य) अधिपतेर्भाव: कर्मवा पत्यन्तत्वात् यक्। स्वामित्वे, "अवाप्यभूमावसपत्नमृद्ध, राज्यं सुराणा-मपि चाधिपत्यम् "गीता / वाच / यक्षाणामाधिपत्यं च, राजराजत्वमेव च / भा० / / राजकार्ये प्रजापालनादौ, "दुर्योधनं तत्त्वहितं वै निगृह्य, पाण्डो: पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये। अजातशत्रुढि विमुक्तराज्यो, धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्।" भा० / क / प०।९। अ० / वाच.।"आहेवचं" (सूत्र-४६+)| प्रज्ञा० 2 पद / अधिपते: कर्माधिपत्यम् / रक्षायाम्, जी०३ प्रति० 4 अधि० 1 उ० 177 सूत्रटी, / आ० म० / प्रज्ञा० / भ० / कल्प। ज्ञा० / विपा० / जं। आधोधि(होहि)य पुं(आधोऽवधिक) नियतक्षेत्रविषयाऽवधिज्ञानिनि, भा। आहोहिए णं भंते! मणुस्से जे भविए अन्नयरेसु देवलोएस उववज्जइ। (सुत्र-२९१+) 'आहोहिए णं' ति, आधोऽवधिकः-नियतक्षेत्रविषयाऽवधि-ज्ञानी।। भ०७ श०७ उ०। नमिस्स णं अरहओ एगूणत्तालीसं आहोहियसया होत्था। (सूत्र-३९४) 'आहोहिय' ति- नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञाननस्तेषां शतानि / स. 39 सम / प्रतिनियतक्षेत्रावऽवधिज्ञाने च. न. / केवली णं भंते ! आधोऽधियं जाणइ पासइ। (सूत्र 158+) 'आहोहियं' ति, प्रतिनियतक्षेत्रावधिज्ञानम्। भ. 140 श० 10 उ० / आप(व) पुं॰ आप-आप्यते! आप् कर्मणि घञ्- अष्टसु वसुषु चतुर्थे वसौ वसौ, अपां समूहः अण / जलंसमूहे न / आकाशे निरुक्त / तस्य सर्वमूर्तसंयोगित्वात्तथात्वम्। वाच / व्याप्ती, आप:व्याप्तिः। भ०१०६० उ०५० सूत्रटी० आप(व)इस्त्री० (आपद्) आ-पद् सम्पता क्विप्। आपद्विपसंपदा दइ: 11818 1400 // इति हैमप्राकृतसूत्रेण आपत् शब्दद्कारस्य इकारः। "अणउ- करन्हतो पुरिसहो, आवइ आवइ" (अनयम् -अन्यायं) कुर्वत: पुरुषष्य आपत् आयाति / प्रा० ढुं / पोव: 11811231 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण स्वरात्परस्य पस्य वः / विपत्तौ, प्रा० / "दुहओ गइ बालस्स, आवई वहमूलिया" ||17+II आपदोविपदः ! उत्त० 7 अ / "संभम-भयाऽऽउरा- ऽऽवइ'' ||13+II आवई चउव्विहा- दव्वखेत्त- कालभावाऽऽवई / दव्वाऽऽवई-दव्वं दुल्लहं। खेत्ताऽऽवई-बोच्छिन्न-मंडबाई / कालाऽऽवई-ओमाई। भावाऽऽवईगुरुगिलाणाई। (इति तच्चूर्णि:)। द्रव्यक्षेत्र-कालभावैस्तत्र- द्रव्यापत् - कल्पनीयाशनादिद्रव्यदुर्लभता 1, क्षेत्राऽऽपत्-प्रत्यासन्नग्रामनगरादिरहितमल्पं च क्षेत्रम् 2, कालाऽऽपद् दुष्कालादि 3, भावाऽऽपद् .. ग्लानत्वादि 4 / जीत / द्रव्याऽऽपत् -प्रासुकादिद्रव्यालाभः, क्षेत्राऽऽपत्कान्ता- रक्षेत्रपतितत्वं, कालाऽऽपत्-दुर्भिक्षकालप्राप्ति: भावापत्- ग्लानत्वमिति / प्रतिषेवणाया: पञ्चमे भेदे, भ. 25 श०७ उ. 799 सूत्रटी! "आउरे अवाईसु य" (सूत्र-७७३+) तथा आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विघासु, तत्र द्रव्यत:- प्रासुकद्रव्यं दुर्लमें, क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता, कालतोदुर्भिक्षं, भावतोग्लानत्वमिति / उक्तंच"दव्वाइअलंभे पुण चउव्विहा आवया होइ" इति। स्था०१० ठा०३ऊ। व्यः / नि. चू / आ.चू / "आवईसु दढधम्मया" (सूत्र-३२+) प्रशस्तयोगसंग्रहाय साधुना-ऽऽपत्सुद्रव्यादिभेदासु, दृढधर्मता कार्या सुवरांतासु दृढधर्मिणा भाव्यमित्यर्थः / स०३२ समः। उदाहरणादियोगःउज्जेणीऍ धणवसू, अणगारे,धम्मघोसचम्पाए। अडवीए सत्थविन्भम-वोसिरणं सिज्जणा चेव / / 1281 / / अभ्या: व्याख्या कथानकादवसेया, तचेदम्- "उज्जेणी-नयरी, तत्थ धणवसू वाणियओ, सो चंपंजाउकामो उग्घोसणं कारेइ।जहा (णाए) धन्नो, एयं अणुण्णवेइ धम्म-घोसो नाम अणगारो, तेसु दूरं अडविमइगएसु पुलिन्देहिं विलोलिओ सत्थो इओ तइओ नट्ठो, सो अणगमारो अण्णेण लोएण समं अडविं पविट्ठो, तेमूलाणि खायंति Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपइ 271 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आपण्णपरिहार पाणियं च पियंति, सो निमंतिज्जइ, नेच्छति, आहारजाए एगत्थ सिलायले मत्तं पचक्खायं, अदीणस्स अहियासेमाणस्स केवलनाणं समुप्पन्नं सिद्धो, दढधम्मयाए योगा संगहिया, एसा दव्वाऽऽवती, खेत्ताऽऽवती-खेत्ताणं असतीए 2, कालाऽऽवती-ओमोदरियादि३।। __ भावाऽऽक्तीए 4- उदाहरणगाहमहुराए जउणराया, जउणावंकेण दंडमणगारे। वहणं च कालकरणं, सक्काऽऽगमणं च पवज्जा / / 1282 / / व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदम्-"महुराए नगरीएजउणो राया, जउणावर्षं उज्जाणं अवरेण, तत्थ जउणाए कोप्परो दिन्नो, तत्थदण्डो अणगारो आयावेइ, सो रायाए णितेण दिट्ठो, तेया रोसेण असिणा ससिं छिन्नं, अन्ने भणन्ति-फलेण आहवो, सव्वे हिं वि मणुस्से हिं पत्थररासीकओ कोवोदयं पइ तस्स वेयणाउदयं भाक्यंतस्स आवती, कालगतो सिद्धो, देवागमणं महिमाकरणं, सक्कागमणं पालएणं विमाणेण तस्स वि य रन्नो अधिती जाया, वज्जेण भेसिओसक्केण जइ पव्वयसि तो मुञ्चसि पव्वइओ थेराण अन्तिए अभिग्गहं गेण्हइ जइ भिक्खागओ संभरामि तो ण जेमेमि जइ दरजिमिओ ता सेसंग विगिंचामि एवं किर तेणं भगवया एगमवि दिवसं नाऽऽहारियं तस्स दव्वाऽऽवती, दण्डस्स भावाऽऽवती ४"आवईसु दृढधम्मत त्ति गयं" | आव० 4 अ / हलन्तत्वाट्टापआपदाप्यत्र / वाचा। आप(व)गा-स्त्री. (आपगा) आपेन-जलसमूहेन गच्छतिवहतिडानद्याम, दश। बहूसमाणि तित्थाणि, आवगाणं वियागरे / / 37 / / बहुसमानि-तीर्थानि आपमाना-नदीनांव्यागृणीयात् सा-ध्यादिविषय इति। दश. 7 अ०२ ऊ। आवचिज-पु. (अपत्य) सन्ताने, कल्प०।"एएणं सव्वे अज्जसुहमस्स। अणगारस्स आवञ्चिज्जा" एते सर्वे आर्यसुधर्मण: अनगारस्य अपत्यानि शिष्यसन्तानजा इत्यर्थः / कल्प०२ अधि०८ क्षण। आप(व)डण-न. (आपतन) आ-पत। भावेल्युट्। आगमने, प्राप्तौ, ज्ञाने (क्वचित्प्राकरणिकादर्थादप्राकरणिकस्या-पतनम) साहिल / दैववशात् पतनेच। वाच / प्रस्फोटनेध०३ अधि०२४ श्लोकटी० / प्रस्खलने च। ओघ 312 गाथाटी। "आवडणं विसमखाणुकंटेसु"। (9904) / विषमे वा स्थाणौ वा आपतनं-प्रस्खलनं भवति / बृ.१ उ०३ प्रक०। आपतनं नाम-यद् भूमिमसंप्राप्तस्य संप्राप्तस्य वा जानुकूपराभ्यां प्रस्खलनम् / बृ. उ. 151 गाथाटी / "आवडणे लहुगं' ||211+ आवडणं-पक्खलणं तं पुण भूमिअसंपत्तो संपत्तो वा जाणुकोप्परेहिं / निचू.१ उ। आप(व)डिय-क्रि (आपतित) आ-पत्-क्त। हठादागते, दैवायत्तपतने | च / वाच / आस्फालिते च / 'दोऽवि आवडिया कुड्डे" (42+) / आपतितौ-भित्तौ आस्फालितौ। उत्त. 25 अ / आप(व) ण-पु. (आपण) आपण्यन्ते-विक्रीणन्त्यत्र आपण: / आधारे घञ्। हट्टे. "पणियाऽऽवणविविह" (सूत्र-१४) पणितानि-भाण्डानि तत्प्रधाना:- आपणा:- हट्टा: / औ.! भ। आ०म० / कल्प० / प्रश्न / द्वा० / विशे० : ज्ञा० / 'आवणसिंघाडग" (सूत्र-१३४+)। अनु० / द्वा० / वीथ्याम् न !"कोलचचुण्णाई आवणे" li71+|| दश०५ अ०१ उ० / पण्यस्थाने, प्रश्न.३ संक द्वारा 26 सूत्रटी०। क्रयविक्रयद्रव्यशालायां च। वाच / "शकटाऽऽपणवेशाच, वणिजो वन्दिनस्तथा / नराश्च मृगयाशीला:, शतशोऽथसहस्रशः" भा. व.प०अ०२३८ / "भक्ष्यमाल्याऽऽपणानाञ्च, ददृशुः श्रियमुत्तमाम्" भा० स. प. 4 अ / (आपण: पण्यवीथिका) (आपणो विक्रयस्थानम्) तेनैवोक्तम् / "पूर्णाऽऽपणा विपणिनो विपणीविभेजुः / माघ / " वाच। आप(व) णगिह-न (आयणगृह) आपणमध्यवर्तिगृहे, 30 / तथा चजं आवणमज्मम्मि, जंच गिहं आवणा य दुहओ वि। तं होइ आवणगिहं, रत्थामुहरत्थपासम्मि / / 17 / / यद् गृहमापणमध्ये समतादापणैः परिक्षिप्तं तदापणगृहम्, यद्वा- मध्ये गृहम् 'दुहओ वित्ति- द्वाभ्यामपिच पाश्र्वाभ्यां यस्याऽऽपणे भवन्ति तदापणगृहं भवति / बृ.१ उ.३प्रक० / आप(ब)णवीहि-स्त्री. (आपणवीथि) रत्थाविशेषे, आ. म. १अ.१८३ गाथाटी / द्वारा। जी। हट्टमार्गे, दशा. 10 अ० 1 जीज्ञा० / "संमट्ठरत्यंतराऽऽवणवीहियं" आपणवीथयश्च हट्टमार्गाः / कल्प०१ अधि०५क्षण। आप (व) ण्ण-त्रि आपन्न- आ-पदक्त। आपट्ठास्ते, "आपन्न: संसृति घोरां, यन्नाम विवशो गृणन् / तत: सद्यो विमुच्येत, यद् बिभेति स्वयं भयम्'। भाग०।"आपन्नाभयसत्रेषु, दीक्षिताः खलु पौरवाः" / शकु० / "आत्मापराधादापन्नस्तत् किं भीमं जिघांससि" भा. स्त्री. प०१३ आ.। वाच / आश्रिते,"इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चइ" // 19 // सूत्र०१ श्रु१०१ उ. अनु. 1 उत्पन्ने, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०३६-३७ सूत्रटी / प्राप्ते, "जो जाहे आवन्नो" (1245) / आव 4 अ / आवण्णो प्राप्त उच्यते। नि.चू, १उ०२५९ गाथाटील! "आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारम्भि अणंतए" (134) / आपन्ना:-प्राप्ताः / उत्त०१ अ! व्याप्ते, निः / आप(व)ण्णपरिहार-पु. (आपन्नपरिहार) भावपरिहारभेदे, नि.चू। आप (भाष्यम्) मासादी आवण्णे, तेण उ पगयं न अन्नेहिं / / 23 / / आवण्णपरिहारो पुण जो मालियं वा. जाव छम्मासियं Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपण्णपरिहार 272 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आपत्तिमुत्त वा पायच्छित्तं आवण्णो। निच.२० ऊ / यत् मासिकं यावत् पाण्मासिकं आयामं। चउगुरुमासे चउत्थं / छल्लहुमासे छटै छगुरुमासे अट्ठमं / एवं वा प्रायश्चित्तमापन्नं तत आपन्ने अपरिभोगेऽपि वर्तते, परिहियते इति सुत्तनिधिहाऽऽवत्तिं जहावराहं जाणिऊण जीएण निव्विइयाइपरिहार:, कर्मणि घआपन्नमेव परि-हार: आपन्नपरिहार इति व्युत्पत्ते: अट्ठमभत्तन्तं तथाचाह- 'मासादी आवन्ने' इति- मासादिकं यत्प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं तवं देज्जा / तत् आपन्ने-आपन्नपरिहारे द्रष्टव्यं; मासादिकं यत्प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं इय सव्वाऽऽवत्तीओ, तवसो नाउंजह-क्कम समए। तत् आपन्न परिहार इति भाव: अथवा-परिहरणं परिहार इति भावे घञ्, जीएण देज्ज निव्वी-इगाइदाणं जहाऽभिहियं // 12 // आपन्नेन- प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जनं साधोरिति गम्यते / 'इय सव्वाऽऽवत्तीओ इचाइ। इय' एवं-एएण पगारेण सव्वाऽऽवत्तीओ' आपन्नपरिहारः / तथा हि-स प्रायश्चित्ती अविशुद्धत्वात् विशुद्धचरणैः सव्वतवट्ठाणाई। 'जहक्कम'- पायच्छिताणु-लोभेण समए-सिद्धते। साधुभिर्यावत्प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या न शुद्धो भवति तावत् परिहियते, इह 'जीएण देज्जा' / निव्विइयाइयंदाणं जह जह भणियं तहातहा 'देज्ज' तेन आपन्नपरिहारेण प्रकृतमधिकारो; न शेषै परिहारैः / व्य. 1 उ० 29 त्ति-भणिय होइ। (इति चूर्णि:)। जीत / इहजीतव्यवहारे अपराधमुद्दिश्य गाथाटी। यद्यत्प्राय-श्चित्तेन भणितं तस्याऽप्यापत्तिविशेषेण दानसंक्षेपं वक्ष्ये आप(व)ण्णसत्ता-स्त्री. (आपन्नसत्त्वा) आपन्न:-उत्पन्न: सत्त्वो- जीवो आपत्तिश्चअमुकातिचारेऽमुकस्य तपसः प्राप्तिरिति, सा च गर्भे यस्याः सा / ज्ञा० 1 श्रु.२ अ. 37 सूत्रटी / गर्भिण्यां निशीथकल्पव्यवहारादिषु विस्तरेणाभिहिता। जीतका व्याप्तौ भ.१ श०६ स्त्रियाम,"सममापन्नसत्त्वास्ता रेजुरापाण्डुरत्विशः। रघु.। वाच / उ०५ सूत्रटी० / उद्भूतौ, विशे० 69 गाथाटी० अनिष्टप्रसङ्गे च / स च आप(ब)त्ति-स्त्री. (आपत्ति) / आप-पक्तिन् / आपदि, आपच- व्याप्यस्याहार्यारोपात् व्यापकस्या- हार्यारोप: यदि निर्वह्निः रोगाद्यभिभूतावस्था सम्यग् वर्तनोपायानुपलम्मश्च / वाचः / आपादने, स्यान्निधूर्म: स्यादित्येवं रूपः। वाचः / व्यआपत्तिः-प्रायश्चित्तस्याऽऽपादनम्।व्य.१ उ.१ प्रक, 167 गाथाटी। आप(व)त्तिसुत्त-न. (आपत्तिसूत्र) शिष्यगतप्रतिसेवनाद्वारेणाप्राप्तौ "संवेगात्समरसापत्त्या 84" आपत्तिश्च प्राप्ति: / षो०९ विक०८ ऽऽपन्नप्रायश्चित्तमिधायिनि सूत्रे, नि. चू / प्रतिसेवनायां सत्यां श्लोकटी। प्रागश्चित्तापत्तिः स्यात् इत्यापत्तिसूत्राण्युच्यन्ते-जे भिक्खू जंजं न भणियमिहयं, तस्सावत्तीए दाणसंखेवं / बहुसो मासियं पडिसेवित्ता आलोइज्जा (1) बहुसो वि, बहुसो, विबहुसो भिन्नाइया य बुच्छं, छम्मासंताय जीएणं / / 6 / / पंच पडिसेवित्ता आलोइज्जा (2) इति प्रत्येक-बहुससूत्रम्, जे भिक्खू 'जं जमिच्चाइ' / इह जीयववहारे जं जं पच्छित्तं न भणियं मासियं वा दो मासियं, तेमासियं, च (3) इत्यादिसकलसंयोगसूत्रम्, जे अवराहमुद्दिसिऊण तस्सावि आवत्तिविसेसेण दाणसंखेवं भिक्खू बहुसो मासियं बहुसो दो मासियं बहुसो तेमासियम् (4) इत्यादि भणामि / आवत्ती-पायच्छित्तट्ठाणसंपत्ती / सायनिसीहकप्प- बहुसंयोगसूत्रम्, एत-त्सूत्रचतुष्टयमेतावता ग्रन्थेन सूत्रोपात्तं व्याख्यानम् / ववहाराभिहिया / सुत्तओ, अत्थओ य / आणाअणव- नि० चू०२० उ० / आवत्तीए अहिगो दिज्जति, नि० चू. 20 उ०५ त्थमिच्छत्तविराहणा सवित्थरा ! तवसो यसो य तवो पणगादी सूत्रव्याख्याने। छम्मासपज्जवंसाणो अणेगाऽऽवत्तिदाणविरयणालक्खणो तेसु सव्वेसु (संपूर्णसूत्रपाठस्त्वेवम्) गंथेसु / इह पुण जीयववहारे संखेवेणं आवत्तीदाणं निरूविज्जइ // 60 / / जे भिक्खू बहुसोमासियं परिहारहाणं परिसे वित्ता भिन्नो अविसिहो चिय, मासो चउरो य छच लहु गुरुया। आलोएज्जा अपलिउंचियं आलोएमाणस्समासियं पलिउंचियं निटिवयगाई अट्ठम-मत्तऽन्तं दाणमेएसिं॥१९॥ आलोएमाणस्सदोमासियं // 6 // जे मिक्ख बहुसोविदोमासियं 'भिन्नो अविसिट्ट' इचाइ। 'भिन्न' इति ससमयसन्ना; पंचवीसं२० दिवसा परिहारहाणं परिसे वित्ता आलो एज्जा अपलिउँ चियं भिन्नसघण घेप्पन्ति।सो य अविसिट्टो एक्को चेव। अविसिट्टाहणाओय आलोएमाणस्स दोमासि पलिउंचिअं आलोएमाणस्स सव्वपणगाई मेया घेप्पन्ति। पणगं-लहुगं, गुरुगं च; दसगं- लहुगं गुरुगं तिमासियं // // जे भिक्खू बहुसो तिमासि परिहारट्ठाणं च; पन्नरसंग-लहुगं गुरुगं च; वीसगं-लहुगं, गुरुगंच; पंचवीसगं-लहुगं, परिसे वित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिअं आलोएमाणस्स गुरुगंचा एस भिन्नमासो बहुभेओ विएक्को चेवघेप्पइ। एसोयसुयववहारो तिमासियं पलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं // 8 // जे जेसु जेसु अवराहेसु भणिओ तेसु तेसु चेव अवराहेसु जीएण सव्वस्थ भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं परिहारहाणं परिसे वित्ता निविगई। भिन्नो अविसिट्ठो चिय एवं वक्खाणियं / इयाणि 'मासो' त्ति- आलोएज्जा अपलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं पलिसो य लहुमासो, गुरुमासो य / एत्थ य लहुमासे पुरिमळू / गुरुमासे उंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं // 9 // जे भिक्खू एक्कासणयं / चउरो य छच्च मासा सम्बज्भन्ति / तत्थ लहुचउमासे | बहुसोवि पंचमासियं परिहारहाणं परिसे वित्ता आलो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपत्तिसुत्त 273 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आपुच्छणा एज्जा अपलिउंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं पलि- | उंचि-अं आलोएमाणस्स छम्मासियं तेण परं पलिउंचियं वा अपलिउंचियं वा आलोएमाणस्स ते चेव छम्मासा॥१०॥ नि. चू,२० उ / निसीहस्स पच्छिमे उद्देसगे तिविहभेदा सुत्ता, सव्वे तीसं सुत्ता, तत्थ आवत्तिसुत्ताजे दसतेसिंचउरो सुत्तेणेव भणिता, इमे अत्थतो छ जाणियव्वा तं जहा-सातिरेगसुत्तं 1, बहु-ससातिरेगसुत्तं 2. सातिरेगसंजोगसुत्तं 3, बहुससातिरेगसंजोग-सुत्तं 4, णमवं सगलस्स सातिरेगस्स य संजोगसुत्तं 5, दसमं बहुसस्स बहुससाइरेगस्स संजोगे सुत्तं 6, एवं एतेसु दससु आवत्तिसुत्तेसु सणिएसु एते णेव विहिणा दस आलोयणासुत्ता भाणियव्या। नि. चू 20 उ। 'इमे अत्थउ' त्ति- अर्थो व्याख्यान-भाष्यादिकंतस्मात् षट्बोद्धव्यानि "तंजहे" त्यादि,"जे भिक्खू मासाइरेगदो- मासियमि" (१)त्यादि, सातिरेकसंयोगसूत्रम् - "जे भिक्खू बहुसोसातिरेगमासियं, बहुसोसाइरेगदोमासियं (2) च'' इत्यादि / बहुससातिरेकसंयोगसूत्रम्, "जे भिक्खू मासियं सातिरेकमासियं (3)" / "जे भिक्खू दुमासियं सातिरेकदुमासियं चे (4)" त्यादि, सकलस्य सातिरेकस्य च संयोगसूत्रम्, "जे भिक्खू बहुसो मासियं बहुसो सातिरेकमासियं च" (5) / "जे भिक्खू बहुसो दुमासियं, बहुसो सातिरेकदुमासियं चे" (6) त्यादि / बहुससातिरेगस्स य संजोगसुत्तं इत्येवमापत्तिसूत्राणि दश कथितानि। नि. चू. 20 उ.। आप(वय-त्रि. (आपद्द) आपदंददातीत्यापद्द: रोगादिके पुरुषादिकेच! आतु। आप(पि)लव-पु. (आप्लव)-आ-प्लु-घञ्-भावे। पक्षे अप्। स्नाने, जलानां सर्वत: समुच्छलने, ल्युट्-आप्लवनं तत्रैव। नावाचा लात् 82 106 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण लकारात् पूर्व इकार: / प्रा० / आप(य)सरीरअणवकं खवत्तिया-स्त्री. (आत्मशरीरानवकाइक्षाप्रत्यया)- अचवकाक्षाप्रत्ययक्रियाभेदे, स्थाः / तत्रात्मशरीरानवकाङ्गाक्षाप्रत्यया सा स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि कुर्वत: क्रिया भवति। स्था०२ ठा०१ उ०६० सूत्रटी०। आपहल्लिय-त्रि (आघूर्णित) 'आधुम्मिय' शब्दार्थे, प्रा:४पाद / आपा(वा)ग(य)--पु. (आपाक) समन्तात्परिवेष्ट्य पच्यतेऽत्र आ-क्च् / आधारे घञ्। कुम्भकारस्य मृण्मयपात्रपचनस्थाने, वाच / तथा च-"कुंभकाराऽऽवाएइ वा कवेल्लुवाऽऽवाएइ वा इट्टाऽऽवाएइवा" (सूत्र-५९७+)। कुम्भकारेस्यापाकोभा-एडपचनस्थानम्, कवेल्लुकानि प्रतीतानि तेषामापाक: प्रतीत एवास्था०८ ठा०३ऊ। भावे घञ्। ईषत्पाके सम्यक् पाके पुटपाकेच वाच! आबाड-पु. (आबाड) स्वनामख्याते चिलातजातो, "उत्तर-डुभरहे वासे बहवे आबाडाणाम चिलाता परिवसंति त्ति" आ.चू. 1 अ / आपा(वा)य-पु. (आपात)हठात्- अविवेकात् कारणान्तरसाचिव्याभावेऽपि आगत्य पात: अतर्कितागमने, "गरुडापात- विश्लिष्ट-- मेघनादास्त्रबन्धनः" रघुः"तदापातभयात् पथि कुमा० / आपतत्यत्राधारे घञ् / उपक्रमे "आपातरम्या विषया: पर्यन्त- परितापिन:'" किरा० "आपातरम्या: तत्काल-रमणीया:" मल्लिक / उपक्रमे च'मध्यापात इति मनु: / मध्वापातो मधुरोपक्रमः"कुल्लू / वाच! "आपातभहते" (सूत्र-२५५४) / आपतनमापात: ! प्रथममीलके / स्था०४ ठा.१ उ / तत्प्रथमतया संसर्गे भ०। तस्स भोयणस्स आवाए भद्दए भवइतओ पच्छा परिणम-माणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए. जाव भुज्जो मुज्जो परिणमइ। (सूत्र-३०६) आपात:- तत्प्रथमतया संसर्गः / भ०७ श०१० ऊ / आभि-मुख्येन समवाये,"आवाए सव्वदव्वाणं'' ||2634 // सर्वेषामपिजीवादिद्रव्याणामापाते- आभिमुख्येन समवाये निष्पद्यते इति शेषः। विशे / अभ्यागमे, "अणावायमसंलोए" (2964) नआपात:-अभ्यागमः, स्वपक्षपरपक्षयोर्यस्मिन् स्थण्डिले तदनापात: ओघ / / "तत्थाऽऽवायं दुविहं" (267+) तत्र आपातं-स्थाण्डिलं द्विविधम्-द्विप्रकारम्। ओघ / बृ. / (अस्य बहुभेदा: 'थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे वक्ष्यते)" अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा" (सूत्र-२९+) अनापाते-विजने, असंलोकेच सन्ति-ष्ठेत्। आचा०२ श्रु०१ चू.१ अ०५ उ. प्राप्तौ आपात: विषयप्राप्ति। आ. चू१ अ / *आपाद-पु. (आ-पद घi) 1 फललाभे, आगतौ च पादपर्यन्तम् / अव्य पादपर्य्यन्ते, अव्य / वाच / आपा(वा)यभद्दय-पुं(आपातभद्रक) आपातनमापात:- प्रथममीलकस्तत्र भद्रको-भद्रकारी दर्शनाऽऽलापादिना सुखकरत्वादापातभद्रकः / प्रथममीलके दर्शनाऽऽलापादिना सुख-करे, स्था।" आवायभद्दए णाममेगे, णो संवासभद्दए (सूत्र-२५५४)। स्था०४ ठा०१ऊ। आपायावच-न. (आप्राजापत्य) अहोरात्रभवे एकोनविंशतितमे स्वनामख्याते मुहूर्ते, कल्प.१ अधि०६ क्षण। आपुच्छणा-स्त्री. (आप्रच्छना) आपृच्छाया: करणमाप्रच्छना। पञ्चा० 12 विव२६ गाथाटी० / प्रश्नकरणे, पञ्चा० 12 विक०२ गाथाटी० / भ० / "आपुच्छणा उवाइयं दोहला" (सूत्र-२९+) 'आपुच्छण' त्तिभर्तुरापृच्छा-"इच्छामि णं तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया'' इत्यादिकां। विपा०८ अ / आमर्यादया तथाविधविनयलक्षणया, अभिविधिना वा सर्वप्रयोजनाभिव्याप्तिलक्षणेन प्रच्छनं गुरोः प्रश्नकरणमा-प्रच्छना / पञ्चा० 12 विव०२ गाथाटी० / सामाचारीभेदे, प्रव०१०१ द्वार 768 गाथाटी० / सा च कर्तुमभीष्टे कार्योप्रवर्तमानेनगुरो: कार्या-भगवन्! अहमिदंकरोमीति। प्रवक Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपुच्छणा 274 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आबाह 101 द्वार 773 गाथाटी० / आ. चू / जीत० / ग० / अनु / "आपृच्छा " ध० प्रशस्ताध्यवसायो वर्त्तते, स च मङ्गलं- विघ्नविघातकं वस्तु तत्र कार्ये 3 अधिः / अयं भावः यत्कार्यं साक्षादाप्रष्टुं शक्यते विशेषप्रयोजनं च तत्र प्रवर्तमानस्ये तिशषः / अथ वा- स गुरुः विधिज्ञाताउपायज्ञ: साक्षादापृच्छा, यत्तु मुहुर्मुहः सम्भवितया प्रष्टुमशक्यं तत्रापि तत्साधनेचिकीर्षितकार्यनिष्पादने ततश्च तज्ज्ञानात् गुरोः सकाशात् बहुवेलसंदेशनेनापृच्छाऽऽवश्य-कीति। ध० 3 अधिक। "आपुच्छणा य यत् ज्ञानं तस्मात् सुज्ञानं कार्यं भवति सुज्ञानाच्च प्रतिपत्ति:- सम्यक् तझ्या" / (24) / तृतीया आपृच्छना यतो हि श्वासोच्छ्वासादिकं क्रियाभ्युपगम: साचशुभो भावः शेषं तथैव इतिगाथार्थ: पञ्चा०१२ विवः / त्यक्त्वा अपरं सर्वं कार्यं गुरोः पृच्छां विना न कार्यम् तस्मादेषा आपुच्छा-स्त्री. आपृच्छा-आ-पृच्छ- अङ्। आलापे, जिज्ञा-सायाम, आप्रच्छना / उत्त० 26 अ०।"आपुच्छणा सयंकरणे" (5+) / स्वयम् आभाषणे-गतागतकाले, शुभे, प्रश्ने, आनन्दने च। वाच.।"आपुच्छणा आत्मना कार्याणां करणे गुरो: आप्रच्छना कर्तव्या, न च गुरौ सति यकज्जे" (6974) आपृच्छनमापृच्छा / समाचारीभेदे, साच कुर्तुमभीष्टे स्वबुद्धयैव गुरुम् अनापृच्छ्य कार्यं कर्तव्यमिति भावः / उत्त० 26 अ / कार्ये प्रवर्तमानेन गुरोः कार्या- अहमिदं करोमीति / आ०म०१अ / आइिति- सकलकृत्याभिव्याप्त्या प्रच्छना, प्रच्छना- इदमहं कुर्यां नवे (एतद्बहुवक्तव्यता'आपुच्छणा' शब्देऽनुपदमेवगता)। त्वेवंरूपाता स्वयमित्यात्मन: करणं कस्यचिद्विवक्षितकार्यस्य निवर्तनं आपुच्छणिज्ज-त्रि. (आप्रच्छनीय) पृष्टव्ये, भ० 18 श० 2 उ० स्वयंकरणम्। तस्मिन्, उत्त, पाई.२६ अ। उच्छ्वास-नि:श्वासौ विहाय 617 सूत्र। सकृत्पृष्टव्ये, "आपुच्छणिज्जे' (सूत्र 7x) आप्रच्छनीय:सर्वकार्येष्वपिस्वसंबन्धिषु गुरवः पृष्टव्याः, अत: सर्वविषयमपि प्रथमत: सकृद् पृष्टव्यः / ज्ञा१श्रु.१०। प्रच्छनमापृच्छेत्युच्यते तथा च नियुक्तिकृता सामान्येनैवाभिहितम्- आपुच्छिता-अव्य. (आपृच्छ्य)- आ-पृच्छ ल्यप्। जिज्ञा-सित्वेत्यर्थे, "आपुच्छणा उ कज्जे" ति। उत्त० 26 अ० / आ०म० / वाचः।"आपुच्छिताणठंति सहाणे" (446+) आपृच्छय प्रश्नार्हत्वाद् तथा च गुरुमिति गम्यते इति / पं.व.२ द्वार। आउच्छणा उ कज्जे, गुरुणो गुरुसम्मयस्स वा णियमा। आपूविय-त्रि. (आपूपिक)कर्मजबुद्धेर्दशमे उदाहरणभेदे अपूप-कर्तरि, एवं खु तयं सेयं, जायति सति णिज्जराहेऊ // 26 / / च चामित्वाप्यपूपानां दलस्य मानं जानाति 'पूयइ 1 (सूत्र-६८४) नं। व्याख्या-आपृच्छाया: करणम् आपृच्छना, तुशब्द: पुनरर्थः | आपूरिय-न. (आपूरित) आ-पूर-क्त- यस्यापूरणं कृतम् / तस्मिन्, तत आपृच्छना पुन: कार्ये- ज्ञानादिसाधने प्रयोजने सति कार्येति शेष: / "पहयदेवदुंदुहिनिनायाऽऽपूरियदिसामंडलं "ति आ. म. 1 अ 343 कस्येत्याह-गुरो रत्नाधिकस्य, तत्संमतस्य वा गुरुबहुम-तस्य वा गाथाटी। अभिव्याप्तेचावाचा "आपूरियं" (251) / 'आपूरियं तिस्थविरादे: वाशब्दो विकल्पार्थो, नियमात्- अवश्यंभावेन, अथ आपूरितं-संव्याप्तं भृतं वासितमित्यर्थः / विशे। कस्मादेषा विधेयेत्याह- एवं 'खु' एवमेव; गुर्वाद्यापृच्छापूर्वकमित्यर्थः | आपूरिमाण-त्रि। (आपूरयत्)- आपूरणं कुर्वति,"सघणं तप्पएसे सव्वओ तत्कार्य श्रेयोऽतिशयेन प्रशस्यं जायते- भवति सकृत्सदा | समता आपूरेमाणे" (सूत्र) शब्देन तान् प्रत्यासन्नान् सर्वतो-दिक्षु, निर्जराहेतुकर्मक्षयकारणमिति कृत्वेति गाथार्थः / समन्ततो-विदिक्षु आपूरयति शत्रन्तस्य साविदं रूपम्। रा। जी। अथ कथमापृच्छाविषयभूतं कार्यं श्रेय: स्यादित्यत आह- *आपूर्यमाण–त्रिआ-पूर-कर्माणिशानच्। सम्यक् पूर्यमाणे, वाचः / सो विहिना या तस्सा-हणम्मि तज्जाणा सुणायंति। प्रश्न. 3 आश्र द्वार 11 सूत्रटी०। समन्तात्प्रसृते "आपूर्यमाणमचलसन्नाणा, पडिवत्ती, सुहमावो मंगलं तत्थ // 27 // प्रतिष्ठ, समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्" गीता० / आधारे शानच् / व्याख्या- 'सो' त्ति-य:-आपृच्छ्यते स गुरु: गुर्वानुमतो वा, विधिज्ञाता सूर्यकिरणै: पूर्य्यमाणचन्द्रस्याधारे पक्षे वाचः / चिकीर्षितकार्यस्य वस्त्रधावनादेर्विधानस्य वेदिता भवति, गीतार्थत्वात्, आफोडिय-त्रि. (आस्फोटित) करास्फोटे, प्रश्न ! आफोडियसीहततश्च तत्साधने अहमिदं कार्य करोमी-त्येवंविधिज्ञातृगुरुनिवेदने, अथ नाया" (सूत्र-११४) आस्फोटितं-करास्फोटरूपम्। प्रश्न० 3 आश्र० वा-विधिप्रतिपादने सति स हि पृच्छ्यमानो विधिज्ञत्वाचिकीर्षित द्वार। कार्यविधिं साधयति, यथा-"अच्छोडपिट्टणासुयनधुवे धोए पयावणं आबबहुल-न० (आपबहुल) रत्नप्रभाया: पृथिव्या अपबहुले काण्डे, स०। न करे' इत्यादि "तज्जाण' त्ति- विधिज्ञानं पृच्छकस्य भवति, ततश्च- इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आप (ब) बहुले कण्डे 'सुनाय' ति- "अहो गुरुणा जिनेन वा सुष्ठ ज्ञातं सकलसत्त्वा- केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते,गोयमा! असीति-जोयणसहस्साई नुपधातकत्वेन मुमुक्षोश्वोपग्राहकत्वेन निपुणमिदं दृष्टं, नैवं वाहल्लेणं पण्णत्ते / (सूत्र-७२) / जी०३ प्रति १ऊ। दर्शनान्तरीयैरिति एवं विधात्स्वज्ञानात्- स्वगतसबोधात्सकाशात् आबाह-न. (आबाध) आ-बाध-भावे अ / पीडायाम, तापत्रये प्रतिपत्तिर्गुरुरेव जिन एवाप्त इत्येवंभूता रुचिर्भवति, सा च शुभभाव:- क्लेशे च / वाच० / मानसपीडायाम, "आवाहे च Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबाह 275 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभास भये वा'' (5994) आबाधं नाम-मानसी पीडा। बृ. उ.३ प्रक० / स्त्रीत्वे टाप / तत्र मनःशरीराऽऽबाधकराणि शल्यानि / सुश्रुः / नास्ति बाधा यस्य पीडाशून्ये, त्रि। वाच। आभंकर-पुं. (आभङ्कर)। स्वनामख्याते महागृहे, सू०प्र०२० पाहु०७ गाथा 7107 सूत्र। कल्प० / चं०प्र०। दो आभरंकरा। (सूत्र-९०+) स्था०२ ठा०३ऊ। स्वनामख्याते विमानभेदेच। स०३ सम० 3 सूत्र। आमरण-न. (आभरण)- आ-भृकर्मणि ल्युट्। भूषणे, स्था०८, ठा०३ ऊ / सू. प्र० / आमा औ०। ललियकयाऽऽभरणे" (सूत्र-) ललितानिशोभमानानि कृतानिन्यस्तान्याभरणानि- सारभूषणानि यस्य स तथा। तं. | "आभरणभूसणविराइयमंगु- वंग' (सूत्र-) आभरणानिअङ्गपारधेयानि ग्रैवेयककङ्कणा- दीनि / कल्प. 1 अधि० 2 क्षण / "आभरणेहिं विभूसिओ" ||9| आभरणैः- कुण्डलमुकुटहारादिभिः / उत्त०२२ अ.।"घेतूणाऽऽभरणाई" (72+) आभरणानि-वस्त्राणि / व्य० ५ऊ।"पाण्डवानां सभामध्ये, दुर्योधन उपागतः / तस्मै गाश्च हिरण्यं च, सर्वाण्याभरणानि च।१।वाच / आभरणप्रधानेच। "आभरणाणि वा" (सूत्र. 145+) / आभरणानि- आभरण-प्रधानानि। आचा०२ श्रु० 1 चू०५ अ०१ उ / भावे ल्युट्। सम्यक् पोषणे / चावाचा आभरणचित्त--त्रि. (आभरणचित्र) आभरणैश्चित्राणिविचित्राण्याभरणचित्राणि। आभरणैर्विचित्रे, जी०३ प्रति०२ उ०१४७ सूत्र। आभरणजहट्ठाणविविहपरिहाण-न. (आभरणयथास्थानविविधपरिधान) आभरणानां यथास्थानं विविधरूपेण परिधान-लक्षणे द्वाषष्टितमे कलाभेदे, कल्प 10 अ०७ क्षण 211 सूत्र। आमरणप्पिय-पुं॰ (आभरणप्रिय) पुरुषभेदे, बृ। आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि 14254 | केशादीनि माल्यादिभिरलङ्कारैरलड्डर्वत: पुरुषान् आभरण-प्रियान् जानीहि / बृ.१ उ०३ प्रक। आभरणविचित्त-त्रि (आभरणविचित्र) आभरणविभूषिते, आचा) / "आभरणविचित्तानि वा' (सूत्र-१४५४)। आभरण-विचित्राणिगिरिविडकादिविभूषितानि। आचा०२ श्रु.१ चू.१ अ०१ उ०१। आभरणविधि-पु.। (आभरणविधि)- आभरणं-कटकादितस्य विधि:भेदा: आभरणविधिः / आभरणप्रकारेषु, बृ.१ उ.३ प्रक० 326 गाथा। कलाभेदे, नि.चू.९०९४ गाथा। सा ज्ञा०ा जं"आभरणविहिपरिमाणं करेइ"उपा.१ अ.। (सूत्रम् - 'आणंद' शब्देस्मिन्नेव भागे गतम्) आभरणविभूसिय- त्रि. (आभरणविभूषित) आभरणालंकृते "आभरणविभूसियाणि वा" (सूत्र-१४५+)। आचा०२ श्रु०५अ 1 उ। आभव-अव्य. (अभाव) आजन्मेत्यर्थे आसंसारमित्यर्थे , च / "तव्वयणसेवणाआभवमखंडा" // 34 // तद्वचनसेवना- गुरुवचनसेवा, आभवम् -आसंसारम् / पञ्चा० 4 विव० / आभ- वमखण्डा-आजन्म, आसंसारं वा सम्पूर्णा। ल.।"विसुज्भमाणे आभवं भावकिरियमाराहेइ" (सूत्र-४४) आभवम् -आजन्म, आसंसारं वा भावक्रियं निर्वाणसाधकमाराधयति ! पं. सू। आभवंताहिगार--पुं. (आभवदधिकार) व्यवहारभेदे, पं०भा०।"ववहारो होई दुविहो, पच्छिते आभवंते य" पं. भा०१ कल्प० / व्यवहर्तव्यभेदेच। व्य। "आभवंते य पच्छिते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं" / / 19 / / व्य० 10 ऊ / (आभवद्व्यवहार: क्षेत्रविषय: उवसंपया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) आम- वद्व्यवहाराधिकारे, व्य। आभवंताऽहिगारे उ, वट्टते तप्पसंगया। आभवंता इमे अण्णे, सुहसीलादि आहिआ||४३७ / / आभवदधिकारे वर्तमाने तत्प्रसङ्गाद्-आभवदधिकारप्रस- ङ्गादिमेवक्ष्यमाणा अन्ये अभावन्त:-सुखशीलादयस्तु सुखशी-लादिप्रयुक्ता आख्याता: / व्य०४ उ.। आभय्व-त्रि. (आभाव्य) समंताद्भवितुंयोग्ये, व्या एते तेअनन्त-रोदिता: चिन्हं विभार्गयन्त: सन्त: अभिधारयन्तंयान्ति- अभिधारयत आभाव्या भवन्ति, शेषेषु पुनरनभिधारयत्सु आचार्य:-श्रुतगुरुस्वामी भवति। शेषा अनभिधारयन्त: श्रुतगुरोराभाव्या भवन्ति इत्यर्थः / उत्तं च- "जइ ते अभिधारती, पडिच्छंतेपडिच्छगस्सेव। अहनो अभिधारंती, सुयगुरुणो तो उ आभव्वा' / / || व्य०४ उ०। (अस्य बहुवक्तव्यता'चरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 1164 पृष्ठे वक्ष्यते) आमा-स्त्री. (आभा) आ-भा- अङ्। प्रभायाम्, प्रश्न. 4 आश्र द्वार 15 सूत्रटी / दीप्तौ, वाच ! छायायाम, जी०३ प्रति०१ उ० 214- सूत्र / शोभायाम्, कान्तौ, उपनामे, वाच / स-पु.। (आभास)- आभासते आ-भास अच् / उपाधितुल्यतया भासमाने प्रतिबिम्बे, दुष्टहेत्वादौ, वाच / "प्रमाणस्य स्वरूपादि चतुष्टयाद्विपरीतं तदाभासम्" इति ॥२३॥(रत्ना.) तद्वदाभासते इति। रत्ना. 6 परिः / (अस्यसूत्रस्यार्थ: "पमाणाभास' शब्द पञ्चमभागे विस्तरतो वक्ष्यते) (हेत्वाभासाश्च पञ्चधा) भाषा."सव्यभिचारविरुद्धप्रकरण-मसाध्यसमातीतकाला हेत्वा-भासा:" गौतमसूत्र / पक्षसत्वसपक्ष-सत्वविपक्षासत्वाबाधित-त्वासत्प्रतिपक्षत्वोपपन्नो हेतुर्गमक: स इवाभासत इति हेत्वाभासस्तेन तद्भिन्नत्वेसतितद्धर्मवत्त्वम् पञ्चरूपोपपन्नत्वाभावे सति तद्रूपेणाभासमानत्वं हेत्वाभासत्वमिति फलितार्थ: "हेत्वाभासाश्च यथोक्ता:" गौ. सूत्रः / एवं प्रमाणाभासो युक्त्या-भास आगमाभास इत्यादावपि प्रामाण्ययाद्यभाववत्त्वे सति प्रमाणादिरूपेणाभासमानत्वमर्थः / "एवं बहवो विप्रतिपन्ना Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास 276 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभियोगता युक्तिवाक्यतदाभाससमाश्रयाः सन्तः" !! शा. भा० / / तथा च अथ फलाऽऽभासमाहयद्वाचकपदोत्तरमाभासशब्द: प्रयुज्यते तस्य तुष्टत्वं तेन गम्यते / अमिन्नमेव मिन्नमेव वा प्रमाणात्फलं तस्य तदाभासमिति॥८७ // रसाऽऽभासादावपि तिर्यग्योन्यादिगतत्वेन परनायकगतत्वेन च अभिन्नमेव प्रमाणात्फलं बौद्धानां, भिन्नमेव नैयायिकादीनां, तस्य दुष्टत्वाद्रसाऽऽभासत्वम् / पुनरुक्तवदाभासादौ च न दुष्ट त्वम्, प्रमाणस्य तदाभासं फलाऽऽभास; यथा फलस्य भेदाकिन्तुपुनरुक्तभिन्नत्वेनाऽऽभासमानत्वात् वस्तुतोऽपुनरुक्तत्व भेदैकान्तावकान्तावेव तथा सूत्रत एव प्रागुपपादितमिति। रत्ना०६परि / मेव गम्यते इत्येव तत्र विशेष: / "रस्यत इति रस इति व्युत्पत्ति-दर्शनात् (नयाऽऽभासस्वरूपभेदा बहवः, ते च 'णयाऽऽभास' शब्दे चतुर्थभागे भावतदाभासादयोऽपि गृह्यन्ते" || सा.द. / / तत्र रसाऽऽभास: "मधुदिरफः कुसुमैकपात्रे" इत्यादि / "अत्र हि सम्भोग शृङ्गारस्य दर्शयिष्यन्ते) तिर्यग्विषयत्वाद्रसाऽऽभासत्वम्" (सा.द.। "आपाततो यदर्थस्य आभासिय-पु. (आभाषिक)-म्लेच्छजातिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। प्रश्न। पुनरुक्तावभासमानम् / पुनरुक्तवदाभास:" ||साद० / भावे घम्।३ *आभाषित-त्रि: परस्परकथिते नि.१ श्रु०३ वर्ग३अ / तुल्यप्रकाशे, आभास्यतेऽनेन आ-भास- णिच् करणे अच् / / आभासिय-पु. (आभाषि) (सि)कआभाषि (सि) कद्वीपजे मनुष्ये, जी०३ ग्रन्थावतारणार्थं ग्रन्थाभिप्रायवर्णने व्याख्यानांशभेदे च / वाचः / प्रति०३ अधि०१ उ / स्था० अन्तर-दीपिकमनुष्यस्वीभेदे च। टापाजी० (प्रत्यक्षाऽऽभासं 'पञ्चक्खाऽऽभास' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) 2 प्रति। प्रत्यभिज्ञाऽऽभासम् 'पञ्चभिण्णाऽऽभास' शब्दे पञ्चमभागे दर्शयिष्यामि) आभासियदीव-पु. (आभाषि) (सि) कद्वीप। अन्तरदीपभेदे, प्रज्ञा / स (तक्कभिासम् 'तक्काऽऽभास' शब्दे चतुर्थभागे दर्शयिष्यामि) च हिमवत: पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि (पक्षाऽऽभासम् 'पक्खाऽऽभास' शब्दे पञ्चमभागे निरूपयिष्यामि। अस्य बहवः प्रकारास्तान् तत्रैव दर्शयिष्यामि) (हेत्वाऽऽभासस्वरूपं तद्भेदाश्च योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य द्वितीयदंष्ट्राया उपरि 'हेउआभास' शब्दे सप्तमे भागे द्रष्टव्या:) (द्रष्टान्ताऽऽभासा:) एकोरुकद्वीपप्रमाण आभासिकनामा द्वीपो वर्तते। प्रज्ञा०१ पद / कर्म / 'दिट्ठन्ताऽऽभास' शब्दे चतुर्थे भागे विस्तरतो विलोकनीया:)(उपनया स्था। नं.। ऽऽभासस्वरूपम् 'उवणयाऽऽभास" शब्देऽस्मिन्नेव भागे द्रष्टव्यम्) कहिणं भंते! दाहिणिल्लाणं आभासियमणुयाणं आभासियदीवे (निगमनाऽऽभास: "णिगमण' शब्दे चतुर्थभागे दर्शयिष्यमाण:) नाम दीवे पण्णते? सूत्र (1914) जी०३ प्रति०३ अधि.१ उ / (आगमाऽऽभास: 'आगमाऽऽशब्देस्मिन्नेव भागे दर्शित:) ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 95 पृष्ठे संपूर्ण सूत्रं गतम्।) संप्रति संख्याऽऽमासमाख्यान्ति स्त्री. (आभाषी) आभाषि (सि) कंद्वीपजे, मनुष्यस्त्रीभेदे,जी. 3 प्रति०३ प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादिसंख्यानं तस्य संख्याऽऽ- | अघि 10 उ० 112 सूत्र। मासमिति।।८५॥ आमिओग--पुं० (आभियोग्य) आ- समन्ताद् युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि प्रत्यक्षपरोक्षभेदाद्धि प्रमाणस्य द्वैविध्यमुक्तम् तद्वैपरीत्येन प्रत्यक्षमेव, व्यापार्य्यन्ते इत्याभियोग्याः / ध०३ अधि०८१ श्लोक। अभियोगप्रत्यक्षानुमाने एव, प्रत्यक्षानुमानागमा एव प्रमाण-मित्यादिकं व्यापारणमर्हन्तीत्यामियोग्याः / स्था०४ ठा० 4 उ. / आ-समन्तात् चार्वाकवैशेषिकसौगतसांख्यादितीर्थान्तरीयाणां संख्यानं, तस्य आभिमुख्येन युज्यन्ते- प्रेष्यकर्मसु व्यापार्य्यन्त इत्याभियोग्या प्रमाणस्य संख्याऽऽभासम् / प्रमाण संख्या-भ्युपगमश्च परेषामितोऽ- अभियोगिका: ।रा०। किंकरे, किंकरस्थानीये देवविशेषे च। स्था०४ ठा० वसेयः ४ऊारा।"अभियोगाणं देवाणं अंतिए एयमढं सोचा'' (सूत्र-+) रा / "चार्वाकोऽध्यक्षमेकं सुगतकणभुजौ सानुमानं सशाब्दं, तद्-द्वैतं अभिमुखं कर्मणि युज्यते- व्यापार्य्यते इत्याभियोग्यस्तस्य भावः कर्म पारमर्ष: सहितमुपमया तत्त्रयं चाऽक्षपाद: / अर्थाऽऽपत्त्या प्रभाकृद्वदति वा आभियोग्यम्।"व्यञ्जनात् पञ्चमान्तस्थायाः सरूपे वा" च निखिलं मन्यते भट्ट एतत्, साभावं दे प्रमाण जिनपतिसमये // 1 / 3 / 47 // इत्येकयकारस्य लोपः। जी०३ प्रति०४ अधि०२ ऊ 147 स्पष्टतोऽस्पष्टतश्च // 1 // " सूत्र टी० / अभियोग आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यामियोगी तद्भाव: अथ विषयाऽऽभासं प्रकाशयन्त आभियोग्यम् / दश०९ अ०२ उ० ! कर्मकमरभावे, दश०९ अ 2 उ०१० सामान्यमेव, विशेष एव, तदद्वयंवा स्वतन्त्रमित्या-दिस्तस्य गाथा / कर्मकरकर्मणि च / जी०३ प्रति० 4 अधि०२ ऊ१४७ सूत्र टी. / विषयाऽऽभास: इति // 6 // 'आभिओगमुवट्ठिया' / आभियोग्यं कर्मकर-भावमित्यर्थः, उपस्थिताः सामान्यमानं सत्ताद्वैतवादिनो, विशेषमात्रं सौगतस्य तदुभयं चस्वतन्त्रं प्राप्ता: 1 दश.९ अ०२ उ५ गाथा टी। नैयायिकादेरित्यादिरेकान्तस्तस्य प्रमाणस्य विषया-ऽऽभासः। अभियोगता-स्त्री. (आभियोग्यता)अभियोग व्यापारणमर्हन्तीआदिशब्दानित्यमेवाऽनित्यमेव तवयं वा परस्पर-निरपेक्षमित्या- त्याभियोग्याः- किंकरदेवविशेषास्तद्धावस्तत्ता। किंकरस्थाधेकान्तपरिग्रहः। नीयदेवविशेषत्वे, स्था। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिओगता 277 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिग्गहिय तत्कारणं दर्शितं यथा एवम् - उक्त विषयेणेच्छाकाराप्रयोगविधिना आज्ञाराधनचउर्हि ग्रणेहिं जीवा अभिओगत्ताए कम्मं पगरेति / तं जहा- योगादआप्तोपदेशपालनसम्बन्धात्: पराभियोगपरमार्थात् अभि-योग: अणुक्कोसेणं परपरिवाएणं, भइकम्मेणं कोउ-यकरणेणं / प्रयोजनमस्येत्याभियोगिकंपरतन्त्रताफलं कर्म तस्य क्षयो-विनाश (सूत्र-३४५+)। आभियोगिकक्षयो भवति। पञ्चा० 12 विवः / अभियोग-व्यापारणमर्हन्तीत्याभियोग्या:-किङ्करदेवविशेषा स्तद्भावस्तत्ता | आभिओगियभावणा-स्त्री. (आभियोगिकभावना) आसमन्तात् तस्यै तया वेति आत्मोत्कर्षेणआत्मगुणाभिमानेन, परपरिवादेनपरदोष- युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्य्यन्ते इत्याभियोग्या:; किंकर-स्थानीया परिकीर्तने, भूतिकर्मणाज्वरितादीनां भूत्यादिभी रक्षादिकरणेन, देवविशेषाः, तेषामियमाभियोगिकी / ध०३ अधि० 81 श्लोक / सैव कौतुकरणेनसौभाग्यादिनिमित्तं; परस्तपनकादिकरणेनेति, इयमप्येव भावनाअभियोगिकभावना। भावनाभेदेगा। (अस्या: भावनाया: स्वरूपं मन्यत्र-"कोउयभूईकम्मे, पसिणपसिणे निमित्तमाजीवी। इड्डिरससा- 'भावणा' शब्दे पञ्चमे भागे वक्ष्यते)। यगरुओ, अभिजोग भावणं कुणइ" // 1 // इति। स्था०४ ठा०४ उ.। "मंता जोगं काउं, भूइकमंच जे पउंजंति। आभिओगपण्णत्ति-स्त्री. (आभियोगप्रज्ञप्ति) विद्याधरसम्बन्धिनि सायरसइड्डिहेउं, अभिओगं भावणं कुणइ // 2 // " विद्याभेदे, "संकामणि (अ) आभियोगपण्णत्तिगमणीथंभणीसुय बहुसु (अस्या व्याख्या)--मन्त्राणामायोगो-व्यापारोमन्त्रयोगस्तम्, यदिवाविज्जाहरीसुविज्जासु विस्सुयजसे' (सूत्र-१२२)। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ / मन्त्राश्च योगश्च तथाविधद्रव्यसंयोगाः / सूत्रत्वान्मन्त्रयोगं तत् आभिओगि(न)-पुं० (अभियोगिन) अभियोगआज्ञाप्रदानलक्षणो- कृत्वाविधाय, व्यापार्य का, भूत्याभस्मना उपलक्षण-त्वान्मृदा सूत्रेण ऽस्यास्तीत्याभियोगी। कर्मकरे, दश.९ अ / कर्मरक्षार्थं वसत्यादिपरिवेष्टनं भूतिकर्म चशब्दात्- कौतुकादि च य: आमिओगिय-०(आभियोगिक)- आभिमुख्येन योजनम् अभि-योग: प्रयुद्धे किमर्थं सातंसुखं रसामाधुर्यादयः ऋद्धिः- उपकरणादिसंपत् एते प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वम्। अभियोगेन जीवन्ती-त्याभियोगिका:, हेतवो यस्मिन् प्रयोजने तत्कसातरसर्द्धिहेतुको भाव: साताद्यर्थ "चेतनादेर्जीवति" / इकणप्रत्ययः कर्मकरे, रा.।"आभिओगिएहिं' मन्त्रयोगादि प्रयुक्ते एवमाभियोगी भावनां करोति इह च (सूत्र-१४+) आभियोग:- पारवश्यं प्रयोजनं येषां ते आभियोगिका: / सातादिहेतोरभिधानं निस्पृहस्याऽपवादत् एतत् प्रयोग: प्रत्युत गुण: इति विपा.१ श्रु.२ अ / अभियोग: प्रयोजनमस्येत्याभियोगिकम् / ख्यापनार्थम् / ग०२ अधि० 82 गाथाटी० / परतन्त्रताफले कर्मणि, पञ्चा० 12 विव 7 गाथा / विद्यामन्त्रादौ च / (आभियोगिकीभावनाफलम्) "आभिओगेहि य आभिओगिता' (सूत्र-१४४) / अभियोगश्च द्वेधा। एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आमिओगियं बंधइ। (स च 'अमिओग' शब्दे प्रथमभागे विस्तरत: प्रतिपादित:) विपा. 1 वीयं गारवरहिओ, कुव्वं आराहगत्तं च // 484|| श्रु०२ अ० / पराभिभवहेतौ, चूर्णादिकेच ! "आभिओगिए वा" (सूत्र- बृ. उ.२० प्रक। 994) / आभिओगिए' त्ति- पराभिभवहेतुरिति / ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०1 | (अस्या: गाथाया: व्याख्या 'अभिओगी' शब्दे प्रथमभागे गता) अभियोजनमभियोग: प्रेष्यकर्मणि व्या-पार्यमाणत्वमिति भावः / आभिग्गहिय-त्रि. (आभिग्रहिक)- अभिगृह्यत इत्यभिग्रह: अभिग्रहेण अभियोगे नियुक्ता आभियोगिकाः / देवविशेषे, "आभिओगिए देवे निर्वृत्त आभिग्रहिक:- कायोत्सर्गस्तदव्यतिरेकात्त- त्कर्ताप्यासद्दावेति, आभिओगिए देवे सद्दावेत्ता एवं वयासी" (सूत्र-१४१+) भिग्रहिक: / अभिग्रहनिर्वृत्ते कायोत्सर्गादौ, अभिग्रहनिर्वृत्तकायोत्सर्गादिआभियोगिकान् देवान् शब्दायन्ते- आकारयन्ति शब्दाययित्वा च कारिणि च / आव० / "उस्सासं न निरंभइ, आभिग्गहिओ वि किमुअ तानेवमेवादिषुः / जी०३ प्रति०४ अधि०२ उ० रा चिट्ठाओ" // 15204|| ऊर्ध्व प्रबल: श्वास उच्छ्वास:तं'न निरंभइ'त्तिआमिओगिय-त्रि. (आभियोगित) वशीकरणयन्त्रमन्त्राभिसंस्कृते, ननिरुणद्धि'आभिग्गहिओ वि' अभिगृह्यत इत्यभिग्रह: अभिग्रहेणनिर्वृत्त आव। "आभिओगिए गहिए" |73+|| आभियोगितेशी-करणाय आभिग्रहिक: कायोत्सर्गस्तदव्यतिरेकात्क प्याभिग्रहिको भण्यते, मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति आव०४ अ। असावप्याऽभिग्रहिककायोत्सर्गकार्यपीत्यर्थः / "किमुत चेट्ठाओ' त्ति आभिओ गियक्खय-पुं० (अभियोगिक क्षय) अभियोगः प्रयोज- | किं पुनश्चेष्टाकायोत्सर्गकारी स तु सुतरां न निरुणद्धीत्यर्थः / आव०५ नमस्येत्याभियोगिकम्परतन्त्रताफलंकर्मतस्य क्षयो विनाश अ. अभिग्रहः-चैत्यपूजनमकृत्वामयान भोक्तव्यंनवास्वप्तव्यमित्यादिरूपो आभियोगिकक्षयः / परतन्त्रताफलकर्मणो विनाशे पञ्चा० / नियम:-प्रयोजन मस्येत्याभिग्रहिकः / अभिग्रहप्रयोजनके च / एवं आणाराहण-जोगाओ आभियोगियक्खओत्ति||७४|| पञ्चा०४ विव०८ गाथाटी। जिनकहल्पकादौ, पुं। आभिग्रहि Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिग्गहिय 278 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण को जिनकल्पिकादिः / सूत्र०१ श्रु०२, अ०२ उ०१४ गाथाटी० / (13) सत्पदप्ररूपणतादिभिरानिबोधिकज्ञानस्य प्ररूपणम्। आभिग्गहियकाल-पु. (आभिग्रहिककाल)अभिग्रहश्चैत्यपूजन-मकृत्वा (1) आभिनिबोधिकज्ञानशब्दव्युत्पत्ति:-- मया न भोक्तव्यं, न वा स्वप्तव्यमित्यादिरूपो नियम: अभि इति आभिमुख्ये, नीति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखो वस्तु प्रयोजनमस्येत्याभिग्रहिक: स चासौ काल आभिग्रहिककाल: / योग्यदेशावरधानापेक्षी नियत इन्द्रियमन:समाश्रित्य स्व-स्वविषयापेक्षी अभिग्रहप्रयोजनके काले, पञ्चाः / बोधनं बोध: अभिनिबोधः स एवाऽभिनिबोधिकम् ("विनयादिभ्यः" तासिं अविरोहेणं, आभिग्गहिओ इहंमओ कालो। / / 7 / 2 / 169 / / इति) विनयादेराकृगणत्वा-दिकण्प्रत्यय: अभिनिबुध्यत तत्थावोच्छिण्णो जं, णिचं तक्करणभावो त्ति / / 8 / / इत्यभिनिबोध इति कर्तरि लिहादि (511:50) त्वादच वा, यद्वा पञ्चा०४ विव०। (आभिग्रहिककालस्य व्याख्या 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे अभिनिबुध्यते आत्मना स इत्यभिनिबोध इति कर्मणि घ, स करिष्यते।) एवाभिनिबोधिकमिति, तथैव आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं आभिग्गहियमिच्छत्त-न. (आभिग्रहिकमिथ्यात्व) मिथ्या-त्वभेदे, ध० / चाभिनिबोधिकज्ञानम् / कर्मः१ कर्म अभिनिबोधे वा भवं तेन निवृत्त तत्राऽभिग्रहिकं पाषण्डिनां स्वशास्त्र-नियन्त्रितविवेकालोकानां तन्मयं वा तत्प्रयोजनं वेत्याभिनिबोधिकम्, अभिनिबुध्यते वा तत् परपक्षप्रतिक्षेपदक्षाणां जैनानां च धर्माऽधर्मवादेन परीक्षापूर्व कर्मभूतमित्याभिनि- बोधिकम्, अवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमेव, तस्य तत्त्वमाकलय्य स्वाभ्युपगतार्थ श्रद्दधानानां परपक्षप्रतिक्षेपद-क्षत्वेऽपि स्वसंविदितिरूप- त्वात्, भेदोपचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वा नाभिग्रहिकत्वम्, स्वशास्त्रनियन्त्रितत्वाद्विवेकालोकस्य / यस्तु नाम्रा अनेनास्माद- स्मिन्वेत्याभिनिबोधिकम्, तदावरणकर्मक्षयोपशम इति जैनोऽपि स्वकुलाचारेणैवागमपरीक्षा बाधते, तस्या- मिग्रहिकत्वमेव, भावार्थ: आत्मैव वा अभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादभिनिबुध्यत सम्यग्दृशोऽपरीक्षितपक्षपातित्वायोगात, तदुक्तं हरिभद्र-सूरिभि:- इत्याभिनिबोधिकम्, तच तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञान'पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष: कपिलादिषु / युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य मिति / स्था०५ ठा०३ उ. 463 सूत्रटी० / अभिमुखम्योग्यदेशावकार्य: परिग्रहः / / 1 // " इति गीतार्थनिश्रितानां माष-तुषादिकल्पानां तु स्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेणात्मा येन परिणामविशेषेणा- वबुध्यते प्रज्ञापाटवाभावाद्विवे- करहितानामपि गुणवत्पारतन्त्र्यान्न दोष इति स परिणामविशेषो ज्ञानाऽपरपर्याय: आभिनिबोधि-कम्। आ०म०१ अ० भाव: / तच नास्त्यात्मेत्या-दिषविकल्पैः षड्विधम्। ध०२ अधि, 22 1 गाथाटी० / अर्थाभिमुखो नियत:- प्रतिनियत- स्वरूपो श्लोकटी। बोधोबोधविशेषोऽभिनिबोध: अभिनिबोध एवाऽऽभिनि- बोधिकम्, आभिणियोहियणाण-न. (आभिनिबोधिकज्ञान) अर्थाभिमुखो अभिनिबोधशब्दस्य विनया-दिपाठाभ्युपगमात्, 'विनयादिभ्य" 72 ऽविपर्ययरूपत्वान्नियतोऽसंशयरूपत्वाद् बोध:-संवेदनमभि- निबोध: / 169 / / इत्यनेन स्वार्थे इकण प्रत्ययः / अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययका: स एव स्वार्थिकेकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकम, ज्ञातिायते अनेनेति प्रकृति-लिङ्गवचनानि" इति वचनात्तत्र नपुंसकता, यथा विनय एव वा ज्ञानम् आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेत्याभिनिबोधिकज्ञानम्, वैनयिकमित्यत्र, अथवा अभिनिबुध्यते अस्मादस्मिन्वेति अभिनिबोध: इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति / ज्ञानभेदे, भ०८ श०२ उ०३१८ तदावरणकर्मक्ष-योपशमस्तेन निवृत्तमा-भिनिबोधिकम्, तच तज्ज्ञानं सूत्रटी / स्था। चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानम्, स च इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यप्रदेशाविषयसूचना वस्थितवस्तुविषय: स्फुट: प्रतिभासो बोधविशेष इत्यर्थः। प्रज्ञा०२९ पद 313 सूत्रटी० / अभीत्याभिमुख्ये, नीति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखोवस्तु(१) आमिनिबोधिकज्ञानशब्दव्युत्पत्तिः / योग्यदेशावस्थानापेक्षी नियत- इन्द्रियाण्याश्रित्य स्वस्वविषया-पेक्षी (2) भेदा: आभिनिबोधिकज्ञानस्य। बोधोऽभिनिबोधः इति भावसाधन: स्वार्थिकत-द्धितोत्पादात्स (3) अवग्रहहावाऽ(प) यधारणानां स्वरूपम्। एवाभिनिबोधिकम्, अभिनिबुध्यते आत्मना स इत्यभिनिबोध इति (4) अवग्रहप्ररूपणा। कर्मसाधनोवा, अभिनिबुध्यते वस्त्वसावित्यभिनिबोध इति कर्तृसाधनो (5) अवग्रहादीनां क्रमोपन्यासे प्रयोजनम्। वा, स एवा-भिनिबोधिकमिति तथैव, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं (6) अवग्रहस्य मल्लकदृष्टान्तेन प्ररूपणा! चाभि-निबोधिकज्ञानम् इन्द्रियपञ्चकमनोनिमित्तो बोध इत्यर्थः अनु० (7) अष्टाविंशति 18 विधमाभिनिबोधिकम्। आभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्श दर्शयन्नाह(८) बहुतरभेदत्वं मतेः। अत्थाभिमुहो नियओ, बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो। (9) अवग्रहादीनां संशयादित्वव्यपोहः / सोचेवाऽऽमिनिबोहिय-महव जहाजोगमाउज्जं1011 (10) आभिनिकधिकं चतुर्विधम्-द्रव्यत: क्षेत्रत: कालतो बोधनं बोधः 'ऋ' गतौ, अर्यते-गम्यते; ज्ञायत इत्यर्थः भावत:। तस्या-भिमुखस्तदग्रहणप्रवण:- अर्थबलायातत्वेन तन्ना(११) अवग्रहादीनां कालमानम्। न्तरीयकोद्भवइत्यर्थः, अयमभिशब्दस्यार्थी दर्शित:, एवं(१२) ईहादीनां संज्ञादीनां च आभिनिबोधिकत्वम्। भुतश्च बोध: क्षयोपशमाद्यपाटवे निश्चयात्मकोऽपि स्याद ततो विषय Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 279 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण नियतो-निश्चित इति निशब्देन विशिष्यतेरसाद्यपोहेन रूपमे-वेदम् इत्येव | धारणात्मक इत्यर्थः / उत्तं च-" एवमवग्रहोऽपि निश्चितमवगृह्णाति, | कार्यत उपलब्धे:" अन्यथावग्रहकार्य-भूतोऽपायोऽपि निश्चयात्मको न स्यादिति भावः / आह-ननु नियतोऽर्थाभिमुख एव भवति ततो नियतत्वविशेषणमेवास्तु किमाभिमुखविशेषणेन ? तदयुत्तं द्विचन्द्रज्ञानस्यतैमिरिकं प्रति नियतत्वे सत्यप्यर्थाभिमुख्याभावादिति / एवं च सति-अर्थाभि- मुखो नियतो यो बोधः स तीर्थकरगणधरादीनामभिनिबोधो मत:- अभिप्रेतः। 'सो चेवाभिणिबोहियमिति' स एवाआभिनिबोध एवाभिनिबोधिकं, विनयादिपारदभिनिबोधशब्दस्य "विन-- यादिभ्यष्ठक" (पा.-५।४।३४) इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययो; यथा विनय एव वैनयिकमिति ! अहव जहाजोग्गमाउज्ज' तिअथवा- नेह स्वार्थिक प्रत्ययो विधीयते, किंतुयथायोगयथासंबन्धमायोजनीयम्; घटमानसंबन्धानुसारेण स्वयमेव वक्तव्यमित्यर्थः, तद्यथा- अर्थाभिमुखे नियते बोधे भवम् आभिनिबो-धिकं तेन वा निवृत्तं, तन्मयं वा, तत्प्रयोजनं वा, आभिनिबो- धिकं तच्च तज्ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञानम् / इति गाथार्थः / तदेवमाभिनिबोधिकशब्दवाच्यं ज्ञानमुक्तम्। अथवा- ज्ञानं क्षयोपशम: आत्मा वा तद्वाच्य इति दर्शयन्नाहतं तेण तओ तम्मिव, सो वाऽऽभिनिबुज्मए, तओवातं / / 814|| 'त' ति-आभिमुख्येन निश्चितत्वेन अवबुध्यते- संवेदयते आत्मा तदित्यभिनिबोध: अवग्रहादिज्ञानं स एवाभिनिबोधिकम्, अथवा-आत्मा तेन प्रस्तुतज्ञानेन, तदावरणक्षयोपशमेन वा करणभूतेन घटादिवस्त्वभिनिबुध्यते तस्माद् वा-प्रकृतज्ञानात्, क्षयोपशमाद् वा अभिनिबुध्यते; तस्मिन्वाऽधिकृतज्ञाने, क्षयोपशमे वा सत्यभिनिबुध्यते अवगच्छतीत्याभिनिबोध:- ज्ञानं क्षयोपशमो वा। 'सो वाऽभिणिबुज्भए' त्ति- अथ वा- अभिनिबुध्यते- वस्तु अवगच्छतीति अभिनिबोधः / असावात्मैव ज्ञानज्ञानिनोः कथं चिदध्यतिरेकादिति / स एवाभिनिबोधिकम्'तओ वा तमि तिन वेचलं 'अत्थाभिमुहो नियओ' इत्यादि-व्युत्पत्त्या आभिनिबोधिकमुक्तं; किन्तु यत:-'तं तेण तओ तम्मि' इत्यादिव्युत्पत्त्यन्तरमस्ति, ततोऽपि कारणासदाभिनिबोधिकमुच्यत इत्यर्थः, नन्वात्मक्षयोप-शमयोरामिनिबोधिकशब्दवाच्यत्वे ज्ञानेन सह कथं समाना-धिकरणता स्यात् ? सत्यं, किं तुज्ञानस्यात्माश्रयत्वात् क्षयोपशमस्यच ज्ञानकारणत्वादपचारतोऽत्रापि पक्षे आभि-निबोधिकशब्दो ज्ञाने वर्तते / ततश्वामिनि-बोधिकंच तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानमिति समाना-धिकरणमास: इत्यदोषः / विशे। आभिनिबोधिकज्ञानस्य स्वरूपं परोक्षं ज्ञानमधिकृत्यपचक्खं परोक्खं वा, जं अत्थं ऊहिऊण निहिसइ। तं होई अमिणिबोहं, अभिमुहमत्थं न विवरीयं / / 39 / / प्रत्यक्षम् -इन्द्रियविषयं परोक्षम् -इन्द्रियविषयातिक्रान्तम्, यदर्थमूहित्वा निर्दिशति- निर्णयपुरस्सरं ब्रूते एष एवंभूतोऽर्थ इति तदर्थं प्रति अभिमुखं- यथार्थविषयमाभिनिबोधिकं न विपरीतं नाऽनर्थाभिमुखं तस्य यथार्थतया मिथ्यारूपत्वात् तच्च द्विधा- इन्द्रियनिश्चितम्, अनिन्द्रियनिश्चितं च। बृ.१ उ.१ प्रक०। (2) आभिनिबोधिकज्ञानभेदाः-- जत्थ आमिणिबोहियणाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुअ-नाणं तत्थाऽऽमिणिबोहियणाणं,दो वि एयाइं अण्ण-मण्णमणुगयाइं, तह वि पुण इत्थ आयरिया नाणत्तं पण्णवयंति- अमिबुज्जई त्ति आभिणिबोहिअणाणं, सुणेइत्ति सु। (सूत्र 244) 'यत्र' पुरुष आभिनिबोधिकं ज्ञानं तत्रैव श्रुतज्ञानमपि, तथा 'यत्र' श्रुतज्ञानं तत्रैवाभिनिबोधिकज्ञानम्। आह-यत्रा-भिनिबोधिकज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानंतत्रा-भिनिबोधिकज्ञानमिति गम्यत एव, तत: किमने नोक्तेनेति ? उच्यते, नियमतो न गम्यते, ततो नियमावधारणार्थमेतदुच्यते इत्यदोषः, नियमावधारणमेव स्पष्टयति-द्रे अप्येते- आभिनिबोधिकश्रुते अन्योऽन्यानुगते- परस्परप्रतिबद्धे, स्यादेतद्-अनयोर्यदि परस्परमनुगमस्तर्हि अभेद एव प्राणोति कथं भेदेन व्यवहार:? तत आह- 'तह वी' त्यादि, तथापिपरस्परमनुगमेऽपि पुनरत्र- आभिनिबोधिकश्रुतयोराचार्या:- पूर्वसूरयो नानात्वं-भेदं प्ररूपयन्ति, कथमिति चेत्? उच्यते, लक्षणभेदात, दृष्टश्च परस्परमनुगतयोरपि लक्षणभेदोद्भेदो: यथैकाकाशस्थयोर्धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकाययोः, तथाहि- धर्माऽधर्मास्तिकायौ परस्पर लोलीभावेनैकस्मिन्नाकाशदेशे व्यवस्थितौ, तथापि यो गतिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुगल-योर्गत्युपष्टम्भहेतुर्जलमिव मत्स्यस्य स खलु धर्माऽस्तिकायो, य पुन: स्थितिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्रलयोरेव स्थि-त्युपष्टम्भहेतुः क्षितिरिवभषस्य स खलु अधर्मास्तिकाय इति लक्षणभेदाढ़ेदो भवति, एवमाभिनिबोधिक श्रुतयोरपि लक्षणभेदाढ़ेदो वेदितव्यः, लक्षणभेदमेव दर्शयति- 'अभि-निबुज्भई' त्यादि, अभिमुखं-योग्यदेशे व्यवस्थितं नियत-मर्थमिन्द्रियमनोद्वारेण बुध्यते- परिच्छिनत्ति आत्मा येन परि-णामविशेषण स परिणामविशेषो ज्ञानाऽपरपर्याय आभिनिबोधिकं, तथा शृणोतिवाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थ परिच्छिनत्त्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणाम-विशेष: श्रुतम् / न० / (श्रुतज्ञानस्य सर्वा वक्तव्यता'सुय' शब्दे सप्तमे भागे करिष्यते) से किं तं आभिनिबोहियनाणं? आभिणिबोहियनाणं दुविहं पण्णतं,त्तं जहा-सुयनिस्सियं च, अस्सुयनिस्सियं च / (सूत्र-२६+) 'से किं तं' इत्यादि, अथ किं तद् ? आमिनिबोधिकज्ञानं सूरिराह- आभिनिबोधिक ज्ञानं द्विविध प्रज्ञप्तं , तद्यथाश्रुतनिश्रितं च, अश्रुतनिश्रित च / तत्र शास्त्रपरिक र्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते म 1- ("ठस्येकः" || इत्यनेन ठस्य इकाऽऽदेशः) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 280 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आभिणिबोहियणाण तिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम् - अवग्रहादि, यत्पुन: सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथाऽवस्थित वस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानम् उपजायते तत् अश्रुतनिश्रितम्- औत्पसिक्यादि, तथा चाह भाष्यकृत"पुव्वं सुयपरिकम्मिय-गइस्स जं संपयं सुयाईयं। तंनिस्सियमियरं पुण, अणिस्सियं मइचउक्कं त।।१६९।। (अस्या विशेषायवश्यकभाष्यगाथाया: विस्तरतोव्याख्या'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1956 पृष्ठे करिष्यते) आह- औत्पत्तिक्यादिकमप्यवग्रहादिरूपमेव तत् कोऽनयो-विशेष:, / उच्यते-अवग्रहादिरूपमेव परं शास्त्रानुसारमन्तरेणोत्प-द्यते इति भेदेनोपन्यस्तम्। तत्राल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथममश्रुतनिश्चितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह से किं तं अस्सुयनिस्सियं ? अस्सुयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा"उप्पत्तिया, वेणइया, कमइया, पारिणामिया। बुद्धि चउव्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भइ॥१९॥" (सूत्र०२६) 'से किंत' इत्यादि अथ किंतदश्रुतनिश्रितं ? सूरिराह- अश्रुतनिश्रितं चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- 'उप्पत्तिया गाहा' / उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरिशीलनादिकं प्रयोजनं कारणं यस्या: सा औत्पत्तिकी, "तदस्य प्रयोजनम्"। इतीकण, ननु सर्वस्या: बुद्धेः कारणं क्षयोपशम: तत्कथम् ? उच्यते- उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इति ? उच्यते-क्षयोपशम: सर्वबुद्धिसाधारणः, ततो नाऽसौ भेदेन प्रतिपत्तिनिबन्धनं भवति, अथ च बुद्ध्यन्तराद् भेदेन प्रतिपत्त्यर्थं व्यपदेशान्तरं कत्तुमारब्धं, तत्र व्यपदेशा-न्तरनिमित्तमत्र न किमपि विनयादिकं विद्यते, केवलमेवमेव तथोत्पत्तिरिति सैव साक्षानिर्दिष्टा। तथा विनयोगुरुशुश्रूषा सा प्रयोजनमस्या इति वैनयिकी, तथा अनाचार्यकं कर्म; साचार्यकं शिल्पम / अथवाकादाचित्कं शिल्पं, सर्वकालिकं कर्म / कर्मणो जाता कर्मजा तथा परिसमन्तानमनं परिणाम:- सुदीर्घकाल-पूर्वापरपर्यालोचनजन्य आत्मनो धर्मविशेष: स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी। बुध्यतेऽनयेति बुद्धिः सा चतुर्विधा उक्ता तीर्थकरगणधरैः किमिति ? यस्मात्पञ्चमी केवलिनाऽपि नोपलभ्यते, सर्वस्याप्यश्रुतनिश्रितमतिविशेषस्यौत्पत्तिक्यादि-बुद्धिचतुष्टय एवान्तर्भावात्।नं। भ०। (औत्पत्तिकीबुद्धिविषय: सदृष्टान्त:'उप्पत्तिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) (वैनयिक्या: बुद्धः सर्वं रहस्यं 'वेणइया' शब्दे षष्ठे भागे स्पष्ट भविष्यति) (कर्मजबुद्धेः सर्वो विषय: 'कम्मया' शब्दे तृतीयभागे कथयिष्यते) 'पारिणामिक्या: बुद्धेः सदृष्टान्तो विषयः 5 भागे वक्ष्यते) तथा चमइसुयनाणविसेसो, भणिओ तल्लक्खणाइभेएणं। पुष्वं आमिणिबोहिय-मुद्दिष्टं तं परूविस्सं ||176 / / मतिश्रुतज्ञानयोर्विशेषो भेदो भणित: केनेत्याह तयोर्लक्षणा-दिभिर्भेद: अथ वा-स चासौ अनन्तरोक्तो लक्षणादिभेदश्च तल्लक्षणादिभेद: तेन। सांप्रतं त्वाभिनिबोधिकज्ञानं प्ररूपयिष्ये-विस्तरतो व्याख्यास्यामि / शेषश्रुतादिपरिहारेण किमित्या-भिनिबोधिकं प्रथमं प्ररूप्यते ? इत्याहयस्माज्ज्ञानपञ्चके पूर्वमादौ तदुपदिष्टमुपन्यस्तं, तस्मात् “यथोद्देशं निर्देशः" इति कृत्वा तत् प्रथमं व्याख्यास्यामि। इति गाथार्थः / तत्वभेदपर्यायैश्च व्याख्या, तत्र तत्त्वं लक्षणं तच्च प्रागेवोक्तम् / अथ तद्भेदनिरूपणार्थमाहइंदियमणोनिमित्तं, तं सुयनिस्सियमहेयरं च पुणो। तत्थेक्किक्कं च उभे- यमुग्गहोप्पत्तियाईयं // 177 / / इन्द्रियमनोनिमित्तं यत्प्रागुक्तमाभिनिदोधिकज्ञानं, तत् द्विभेदं भवति श्रुतनिश्रितम्, इतरच-अश्रुतनिश्रितम्। अथ' शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / तत्र श्रुतं-संकेतकालभावी परोपदेशः श्रुतग- न्थश्च पूर्व तेन परिकर्मितकमतेर्व्यवहारकाले तदनपेक्षमेव यदुत्प- द्यते तत्श्रतुनिश्रितं, यत्तु श्रुतापरिकर्मितमते: सहजमुपजायतेत-दश्रुतनिश्रिमत्। तत्र तयो:श्रुतनिश्रिताऽश्रुतनिश्रितयोर्मध्ये एकैकं चतुर्विधं कथम् ? इत्याह यथासंख्यमग्रहादिकं, औत्पत्ति-क्यादिकं च- अवग्रहहापायधारणाभेदात् श्रुतनिश्रितं चतुर्विधम्, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा, परिणामिकी, लक्षणबुद्धिभेदात्तु अश्रुतनिश्रितं चतुर्भेदमित्यर्थः / यद्यप्योत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेऽप्यवग्रहादयो विद्यन्ते तथाऽपि "पुव्वमदिट्ठमसुयमेवइयक्खणविसुद्धगहियत्था'' इत्यादि-वक्ष्यमाणवचनात्परोपदेशाधनपेक्षत्वात्ते श्रुतनिश्रितान भवन्ति शेषास्त्ववग्रहादय: पूर्व श्रुतपरिकर्मणान्तरेण न संभवन्ति, ईहा-दिगताभिलापस्य परोपदेशाद्यन्त- रेणाप्युपपत्तेः; इति ते श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते / औत्पत्तिक्यादिषु त्वीहाद्यभिलापस्य तथाविधकर्मक्षयोपश-मजत्वात् परोपदेशाशद्यन्तरेणाप्युपपत्तेरिति भावः इति गाथार्थः / (3) तत्र श्रुतनिश्रितानवग्रहादींस्तावनियुक्तिकारः प्राहउग्गहो ईह अवाओ, य धारणा एव होति चत्तारि। आमिणिबोहियनाण-स्स भेयवत्थू समासेणं / / 178 / / रूपरसादिभेदैरनिद्देश्यस्याव्यक्तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याव- ग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः / तेनावगृहीतस्यार्थस्य भेदविचारणं वक्ष्यमाणगत्या विशेषान्वेषणमीहा, तया ईहितस्यैवार्थस्य व्यवसायस्तद्विशेषनिश्चयोऽपाय: चशब्दोऽवग्रहादीनां पृथक् पृथक् स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थ: तेनैतदुक्तं भवति-अग्रहादेरीहादयः पर्याया न भवन्ति, पृथक्मेदवाचकत्वादिति। निश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युत्त्यादिरूपेण धारणं धारणा / एवकार: क्रमद्योतनपर: अवग्रहादीनामुपन्यासस्यायमेव क्रमो नान्यः अवगृहीतस्यैवेहनाद् ईहितस्यैव निश्चयात् निश्चितस्यैव धारणादिति। एवमेतान्याभिनिबोधिकज्ञानस्य-४ चत्वा-र्येवभेदवस्तूनि सभासेनसंक्षेपेण भवन्ति, विस्तरतस्त्वष्टा-विंशत्यादिभेदभिन्नमिदं वक्ष्यत इतिभावः। तत्र भिद्यन्तेपरस्परमितिभेदा: विशेषास्तएव वस्तूनि भेदवस्तूनीति समासः / इति गाथार्थः। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 281 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण अथ नियुक्तिकार एवाऽवग्रहादीन् व्याख्यानयन्नाहअत्थाणं उग्गहणं, अवग्गहं तह वियालणं ईहं। ववसायं च अवार्य, धरणं पुण धारणं विति / / 279 / / अर्थादीनाम् -रूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरमेवावग्रहणमवग्राहं ब्रुवत इति संबन्धः / तथा विचारणं-पयालोचनम् अर्थानामिति वर्तते, ईहनमीहा तां ब्रुवते; इदमुक्तं भवति-अवग्रहादुत्तीर्णो-ऽपायात्पूर्व सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशे- षत्यागसंमुखश्च प्राय: काकनिलयनादय: स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्य-न्ते, नतु शिर:कण्डूयनादय: पुरुषधर्मा इति मतिविशेष ईहेति। विशिष्टोऽवसायो व्यवसाय:- निश्चयस्तं व्यवसायम्, अर्थानामितीहापि वर्तते, अवायम् -अपायं वा ब्रुवते, एतदुत्तं भवति- स्थाणुरेवायमित्यवधारणात्मक: प्रत्यय:-अवाय:, अपायो वेति; चशब्द एव कारार्थः, व्यवसायमेव अवायम् अपायं वा ब्रुवत इत्यर्थः / धृतिर्धरणम्, 'अर्थानाम्' इति वर्तते, अपायेन विनिश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणमेव धारणां ब्रुवत इत्यर्थः / पुन:शब्दस्यावधारणार्थत्वात् ब्रुवत इत्यनेन शास्त्रस्य पारतन्त्र्यमुक्तम् इत्थं तीर्थकरगणधरा ब्रुवत इति / अन्ये त्वेवं पठन्ति-"अत्थाणं उग्गहणम्मि उग्गहो'' इत्यादि, तत्र- अर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिभेद इत्येवं ब्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यम; भावार्थस्तु पूर्ववदेव / अथ वाप्राकृतशैल्यार्थवशाद् विभक्तिविपरिणाम इति सप्तमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या / इति गाथार्थः / विशे० / नं। अथैतदेव अवग्रहादिस्वरूपं भाष्यकारो विवृण्वन्नाहसामण्णत्थावग्गह-णमुग्गहो भेयमग्गहणमहेहा। तस्सावगमोवाओ, अविचुई धारणा तस्स / / 180 / / अन्तर्भूाविशेषस्य केनाऽपि रूपेणाराशनिर्देश्यस्य सामान्यार्थस्यैकसामयिक मवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणम्, अथ वासामान्येनसामान्यरूपेणार्थस्यावग्रहणं सामान्यार्थाऽवग्रहण-मवग्रहो वेदितव्यः। अथाऽनन्तरमीहा प्रवर्तते कथंभूतेऽयम् ? इत्याह-भेदमार्गणभेदा:-वस्तुनो धर्मास्तेषां मार्गणम्-अन्वेषणं विचारणं प्रायः काकनिलयनादय: स्थाणुधर्माः अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इत्येवं वस्तु धर्मविचारणमीहेत्यर्थः। तस्यैवेहया ईहितस्य वस्तुनस्तदनन्त-रमवगमनमवगम:- स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्चय: अवाय: अपायो वेति तस्यैव निश्चितस्य वस्तुनः अविच्युतिस्मृतिवासनारूपं धरणं धारणा सूत्रे अविच्युतेरुपलक्षत्वात्। इति गाथार्थः / अत्र चावग्रहादारभ्य परैः सह विप्रतिपत्तय: सन्ति इत्यव-ग्रहविषयां तां तावन्निराकर्तुमाहसामाण्णविसेसस्स वि, केई उग्गहणमुग्गह उति। जं मइरिदंतयंति च, तं नो बहुदोसभावाओ // 181 / / सामान्यं चासौ विशेषश्च सामान्यविशेष: तस्यापि न केवलं सामान्यार्थस्य इत्यपिशब्द: अवग्रहणम्-अवच्छेदन केचन व्याख्यातारः | अवग्रहं ब्रुवते, किं कारणम्? इत्याह- 'जं मइरिदंतयं तिचे ति यत् यस्मात्कारणात् अमुत: शब्दादिलक्षणसामान्यविशेषग्राहकावग्रहादनन्तरम् इदं तदिति चेति विमर्शलक्षणा मतिरनुधावति; ईहा प्रवर्तत इत्यर्थः, यदनन्तरं चेहादिप्रवृत्तिः सोऽवग्रह एव यथा व्यञ्जनावग्रहानन्तरभावी अव्यक्तानिर्देश्यसामान्यमात्रग्राही अवग्रहः, प्रवर्तते च शब्दादि- सामान्यविशेषग्राहकावग्रहानन्तरमीहादिः, तस्मादवग्रह एवायं, तथाहि- दूराच्छवादिसंबन्धिनि शब्दे सामान्यविशेषात्मकेरूपा-दिभ्यो भिन्ने गृहीते प्रवर्तते एवायं विमर्श:किमयं शाङ्कः, शाङ्गों, वा शब्द:? शाश्चेत् किं महिषीङ्गोद्भवो महिषशृङ्गजो वा ? महिषीशृङ्गसंभवश्चेत्, किं प्रसूतमहिषीशृङ्गसंभव:, अप्रसूत-महिषीशृङ्गसमुद्भूतो वा ? इत्यादि, यतश्चानन्तरमित्थं विमर्शेनेहा-प्रवृत्तिन भवति, अन्तप्राप्तेः क्षयोपशमाभावाद्वा, स पुनरपायः / तदेतत्परोक्तं दूषयितुमाह- "तं नो" इत्यादि, तदेतत्परोक्तं न ! कुत:? इत्याह-बहवश्व ते दोषाश्च तेषां भाव उपनिपातस्तस्मात्, एवं हि सर्वायुषाप्यपायप्रवृत्तिर्न स्यात्, यथोक्तविमर्शप्रवृ-त्तेरनुष्ठितत्वात्।नच पूर्वमनीहिते प्रथमोऽपिशब्दनिश्चयो युक्तः, यतश्च पूर्वमीहा प्रवर्तते नाऽसौ अवग्रहः किं त्वपाय एवेत्यादि सर्वं पुरस्ताद्वक्ष्यते। इति गाथार्थः / अन्ये त्वीहायां विप्रतिपद्यन्ते, तन्मतमुपन्यस्य दूषयन्नाहईहासंशयमेतं, कई न तयं तओ जमन्नाणं। मइनाणंऽसा चेहा, कहमन्नाणं तई जुत्तं? ||182 / / किमयं स्थाणुः: आहोश्वित्पुरुषः? इत्यनिश्चयात्मकं संशयमात्रं यदुत्पद्यते तदीहेति केचित् प्रतिपद्यन्ते तदेतन्न घटते। कुत:? इत्याहयद् -यस्मात्कारणात् 'तओ' त्तिअसौ संशय:- अज्ञानम् भवतु तहज्ञानमपि ईहेति चेदित्याह-'मईत्यादि' मतिज्ञानांशश्चमतिज्ञानभेदश्चे हा वर्तते / न च ज्ञानभेद- स्याज्ञानरूपता युज्यते, एतदेवाह- 'कहमि' त्यादि, कथम् केन प्रकारेण ज्ञानं युत्तं न कथंचिदित्यर्थः / केयमित्याह- 'तई' इति, असौ मतिज्ञानांशरूपा ईहा, संशयस्य दस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वेनाऽज्ञानात्मकत्वादीहायास्तु ज्ञानभेदत्वेन ज्ञानस्वभावत्वातः ज्ञानाऽज्ञानयोश्च परस्परपरिहारेण स्थितत्वान्नाऽज्ञानरूपस्य संशयस्यज्ञानांशात्मकेहारूपत्वं युक्तमिति भावः / इति गाथार्थ:। आह-ननु संशयेहयो: किं कश्चिद्विशेषोऽस्ति येनेहारूपत्वं संशयस्य निषिध्यते ? इत्याशङ्कय तयो: स्वरूपभेदमुपदर्शयन्नाहजमणेगत्थालंबण-मपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सवपयओ, तं संसयरूवमन्नाणं / / 183 / / तं चिय सयत्थहेऊ- ववत्तिवावारतप्परममोहं। भूयाऽभूयविसेसा-याणबायाभिमुहमीहा।।१८४ / / यचित्तं- यन्मनः अनेकार्थालम्बनम् -अनेकार्थ प्रतिभासान्दोलितम् अत एव पर्युदसनं पर्युदासो-निषेधो न तथा अपयुदासोऽनिषेधस्ते न, तथा उपलक्षणत्वादविधिना च Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 282 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण परिकुण्ठितं -जडीभूतं सर्वथा अवस्तुनिश्चयरूपतामापन्नं, किं बहुना? 'सेय इवे' त्यादि,शेतइव-स्वपितीव सर्वात्मना न किंचित् चेतयते वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वात् तदेवं विधं चित्तं-संशय उच्यते इत्यर्थः तयाऽज्ञानं वस्त्ववबोधरहितत्वादिति / यपुनस्तदेव चेतोवक्ष्यमाणस्वरूपं तदीहेति संबन्धः / कथंभूतं सद्? इत्याह- 'भूयाऽभूये' त्यादि, भूत: क्वचिद् विवक्षित-प्रदेशे स्थाण्वादिरर्थः, अभूतस्तत्राविद्यमानः पुरुषादिस्तावेव पदार्थान्तरेभ्यो विशिष्यमाणत्वात् विशेषौ, तयोरादानत्यागा-भिमुखं भूतार्थविशेषोपादानस्याभिमुखम्, अभूतार्थत्याग-स्याभिमुखमिति यथासंख्येन संबन्धः / यत: कथंभूतम् ? इत्याह सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारतत्परं हेतुद्वारेणेदं विशेषणं-सदर्थहेतूपपत्ति व्यापारतत्परत्वाद भूताऽभूतविशेषादानत्यागा-भिमुखमिति भावः, तत्र हेतुः साध्यार्थगमकं युक्तिविशेषरूपं साधनम्, उपपत्ति:- संभवघटनं; विवक्षितार्थस्य संभवव्य-वस्थापनम्। ततश्च हेतुश्चोपपत्तिश्च हेतूपपत्ती सदर्थस्य विवक्षितप्रदेशे अरण्यादौ विद्यमानस्य स्थाण्वादेरर्थस्य हेतूपपत्ती सदर्थहेतूपपत्ती। तद्विषयो व्यापारोघटनं-चेष्टनं सदर्थहेतूपपत्तिव्यापारस्ततस्तत्परं तन्निष्ठमिति समासः / अत एव अमोघम्अर्थबलायातत्वेन अविफलम्- अमिथ्यास्वरूपं, तदेवभूतं चेत: ईहा इति संबन्ध: कृत एव; इदमुक्तं भवतिकेनचिदरण्यदेशं गतेन सवितुरस्तमयसमये ईषदवकाशमासादयति तमिस्त्रे दूरवर्ती स्थाणुरुपलब्धस्ततोऽस्य विमर्श: समुत्पन्न: किमयं स्थाणुः पुरुषो वा ? इति / अयं च संशयत्वात् अज्ञानम् / ततोऽनेन तस्मिन् स्थाणौ दृष्ट्वा वल्ल्यारोहणं, प्रविलोक्य काककारण्डवकादंम्बक्रौञ्चकीरशकुन्तकुलनिलयन, कृतश्चेतसि हेतुव्यापार: यथा-स्थाणुरयं, वल्ल्युत्सर्पणकाकादिनिलयनोपलम्भात्। तथासंभवपर्यालोचनं चव्यधायि, तद्यथा अस्ताचलान्तरिते सवितरि, प्रसरति चेषत्तमिस्र महारण्येऽस्मिन् स्थाणुरयं संभाव्यते; न पुरुषः, शिर:कण्डूयनकरग्रीवाचलनादेस्तव्यवस्थापकहेतोरभावाद्; ईदृशे च प्रदेशेऽस्यां वेलायां प्रायस्तस्याऽसंभवात्। तस्मात् स्थाणुनाऽत्र सद्भूतेन भाव्यं न पुरुषेण / तदुक्तम्- "अरण्यमेतत् सविता-स्तमागतो, न चाधुना संभवतीह मानव: / प्रायस्तदेतेन खगा-दिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना // 1 // एतचेदृशं चित्तं ईहा इत्युच्यते, निश्चयाभिमुखत्वेन संशयादुत्तीर्णत्वात्, सर्वथा निश्चयेऽपायत्वप्रसङ्गेन निश्चयादधोवर्तित्वाचेति संशयेहयो: प्रतिविशेषः / इति गाथाद्वयार्थः / अथापायधारणागतविप्रतिपत्तिनिराचिकीर्षया परमतमुपदर्श- यन्नाहकेई तयण्णविसेसा-वणयणमेत्तं अवायमिच्छंति। सब्भूयत्थविसेसाऽ-वधारणं धारणं विति।।१८५।। तच्छब्दास्थानन्तरगाथोऽतो भूतोऽर्थः संबध्यते, तस्मात्तत्र भूतात् विद्यमानात् स्थानण्वादेर्योऽन्यः तत्प्रतियोगी तत्राविद्य-मान: पुरुषादिस्तद्विशेषाः शिर: कण्डूयनचलनस्पन्दनादयः तेषां पुरोवर्तिनि सद्भतेऽर्थेऽपनयनं- निषेधनं तदन्यविशेषापनयनं तदेव तन्मात्रम्, / अपायमिच्छन्ति, केचनापि व्याख्यातार: अपायनम् -अपनयनम् अपाय इति व्युत्पत्त्यर्थविभ्रमितमनस्का इति भावः / अवधारणं धारणा इति च व्युत्पत्त्यर्थभ्रमितास्ते धारणा बुवते / किं तत् ?, इत्याहसद्भूतार्थविशेषावधारणं सद्भूतस्तत्र विवक्षितप्रदेशे विद्यमान: स्थाण्वादिरर्थविशेषस्तस्य स्थाणु-रेवायम् इत्यवधारणं सद्भतार्थविशेषावधारणमिति समास: / इति गाथार्थः।। तदेतद्दूषयितुमाहकासइ तयन्नवइरे-गमेत्तओऽवगमणं भवे भूए। सब्भूयसमण्णयओ, तदुभयओ कासइ न दोसो।।१८६ / / 'भूए' त्ति-तत्र विवक्षितप्रदेशे भूते विद्यमानेऽर्थे स्थाण्वादौ 'कासइ' त्ति-कस्यचित् प्रतिपत्तुस्तदन्यव्यतिरेकमात्रादवगमन- निश्चयो भवति तस्मात्स्थाण्वादेर्योऽन्य: पुरुषादिरर्थस्तस्य व्यतिरेकः स एव च तदन्यव्यतिरेकमात्रंतस्मात्स्थाण्वाद्यर्थ-निश्चयो भवतीत्यर्थः; तद्यथायतो नेह शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधा दृश्यन्ते; ततः स्थाणुरेवायमिति। कस्यापि सद्भुत-समन्वयत: सद्भूतस्तत्र प्रदेशे विद्यमानः स्थाण्वादिरर्थस्तस्य समन्वयत:- अन्वयधर्मघटनात् भूतेऽर्थेऽवगमनं निश्चयो भवेत्, यथा स्थाणुरेवायं वल्ल्युत्सर्पणवयोनिलयनादि-धर्माणा-मिहान्वयादिति। कस्यचित्पुनस्तदुभयाद्अन्वयव्यतिरेकोभयात् तत्र भूतेऽर्थेऽवगमनं भवेत्; तद्यथायस्मात्पुरुषधर्माः शिर:कण्डू-यनादयोऽत्र न दृश्यन्ते, वल्ल्युत्सर्पणादयस्तु स्थाणुधर्माः समीक्ष्यन्ते, तस्मात् स्थाणुरेवायमिति / न चैवमन्वयात् व्यतिरेकात्, उभयाद्वा निश्चये जायमाने कश्चिद्दोषः, परव्याख्याने तु वक्ष्यमाणन्यायेन दोष: इति भावः / इति गाथार्थः / कथं पुनस्तद्व्याख्याने न दोष:? इत्याहसव्वो विंय सोऽवाओ, मेए वा होति पंच वत्थूणि। आहेवं चिय चउहा, मई तिहा अन्नहा होइ / / 187 / / यस्माद् व्यतिरेकाद्, अन्वयाद्, उभयाद्वा भूतार्थविशेषा- वधारणं कुर्वतो योऽध्यवसाय: स सर्वोऽप्यपाय:- प्रस्तुत-स्थाण्वादिवस्तुनिश्चयः, नतु सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणेति भावः, तस्मान्न दोषः / / आह ननु यथा मया व्याख्याते- सद्भू-तार्थविशेषाऽवधारणं धारणा, तथा किं कश्चिद्दोष: समुपजायते, येनाऽऽत्मीयव्याख्यानपक्ष इदमित्थमभिधीयते न दोष इति? एतदाशङ्कयाह- 'भेएवा' इत्यादि, वाशब्द: पातनायां गतार्थः, व्यतिरेक:-अपाय:, अन्वयस्तु धारणा, इत्येवं मतिज्ञानतृतीय- भेदस्यापायस्य भेदेऽभ्युपगम्यमाने पञ्च वस्तूनिपञ्च भेदा भवन्ति; आभिनिबोधिकज्ञानस्येति गम्यते; तथा हि अवग्रहेहा- ऽपायधारणालक्षणाश्चत्वारो भेदास्तावत् त्वयैव पूरिता:, पञ्चमस्तु भेद: स्मृतिलक्षण: प्राप्नोति-अविच्युते: स्वसमानकालभाविन्यपायेऽन्तभूर्तत्वाद्, वासनायास्तु स्मृत्यन्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात् स्मृतेरनन्यशरणत्वान्मते; पञ्चमो भेद: प्रसज्यत इति भाव: / / ''आहे' त्यादि पुनरप्याह पर:-ननु यथैव मया व्या Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 283 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण ख्यायते व्यतिरेकमुखेन निश्चयोऽपाय: अन्वयमुखेनतुधारणा इत्येवमेव चतुर्धा-चतुर्विधा मतिर्भवति-युक्तितो घटते। अन्यथा तुव्याख्यायमानेअन्वयव्यतिरेकयोर्द्वयोरप्य-पायत्वेऽभ्युपगम्यमाने इत्यर्थः / किम् ? इत्याह-त्रिधा-अवग्रहे- हापायभेदतस्त्रिभेदा मतिर्भवति,नपुनश्चतुर्दा, धारणाया अघटमानकत्वादिति भावः / इति गाथार्थः / कथं पुनर्धारणाभाव:? इत्याहकाऽणुवओगम्मि घिई, पुणोवओगेय सा जओऽवाओ। तो नऽत्थि धिई भण्णइ, इदं तदेवेति जा बुद्धी||१८८ // नणु साऽवायन्महिया, जओयसा वासणाविसेसाओ। जा य अवायाणन्तर-मविचुई सा धिई नाम ||189 // अनुपयोगे- उपयोगोपरमे सति का धृति: का नाम धारणा ? न काचिदित्यर्थः / इदमुक्तं भवति- इह तावन्निञ्चयोऽपायमुखेन घटादिके वस्तुनि अवग्रहहापायरूपतयाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाण एवोप-यागोजायते। तत्र चापाये जाते। या उपयोग-सातत्यलक्षणा अविच्युतिर्भवताऽभ्युपगम्यते, सा अपाय एवाऽ- न्तर्भूता / इति न ततो व्यतिरिक्ता / या तु तस्मिन् घटाधुपयोगे उपरते सति संख्येयमसंख्येयंकालं वासनाभ्युपगम्यते, 'इदं तदेव' इति लक्षणा स्मृतिश्चाङ्गिक्रियते, सा मत्यंशरूपा धारणा न भवति, मत्युपयोगस्य प्रागेवोपरतत्वात् / पुनरपि कालान्तरोपयोगे धारणा भविष्यतीति चेत्, इत्याह- 'पुणो' इत्यादि, कालाऽन्तरे पुनर्जायमानोपयोगेऽपि या ऽन्वयमुखोपजायमानावधारणरूपा धारणा मयेष्यते, सा यतोऽपाय एव भवताभ्युपगम्यते / 'सव्वो वि य सोवाओ' इत्यादिवचनात्; ततस्तत्रापि नाऽस्तिधृति-धारणा, पुनरप्युपयोगोपरमेऽपि पूर्वोक्तयुक्त्यैव तदभावः, तस्मा-दुपयोगकालेऽन्वयमुखावधारणरूपाया धारणायास्त्वयाऽनभ्यु-पगमात् उपयोगोपरमे च मृत्युपयोगाभावात्, तदेशरूपाया धारणाया अघटमानकत्वात्रिधैव भवदभिप्रायेण मति: प्राप्नोति, न चतुर्दा, इति पूर्वपक्षाभिप्रायः / अत्रोत्तरमाह- 'भण्णई' त्यादि, भण्यतेऽत्र प्रतिविधानम्। किम् ? इत्याह-'इदं वस्तु तदेव यत् प्रागुपलब्धं मया' इत्येवंभूता कालान्तरे या स्मृतिरूपा बुद्धिरुप जायते नत्विह सा पूर्वप्रवृत्तापायान्निर्विवादमभ्यधिकैन, पूर्वप्रवृत्ताऽपायकाले, तस्या अभावात् सांप्रतापायस्य तु वस्तुनिश्चयमात्रफलत्वेन पूर्वापर- दर्शनानुसंधानायोगात् / ततश्च साऽनन्यरूपत्वात् धृतिर्धारणा नामेतिपर्यन्ते संबन्धः / यतश्च यस्माच्च वासनाविशेषात्- पूर्वो-पलब्धवस्त्वाहित संस्कारलक्षणात्, तद्विज्ञानावरणक्षयोप- शमसान्निध्यादित्यर्थः, सा इदं तदेवेति लक्षणा स्मृतिर्भवति। साऽपि वासनाऽपायादभ्यधिकेतिकृत्वा धृति म इतीहापि संबन्धः। 'जायाऽवाय' इत्यादि,याच अपायादनन्तरमविच्युति: प्रवर्तते साऽपि धृति म / इदमुक्तं भवति-यस्मिन् समये 'स्थाणुरेवाय' मित्यादिनिश्चयस्वरूपोऽपाय: प्रवृत्तः, तत: समयादूर्द्धवमपि 'स्थाणुरेवाऽयं स्थाणुरेवायमि' त्यविच्युता याऽन्तर्मुहूर्ते क्वचिदपायप्रवृत्तिः साऽप्युपायाऽविच्युति: प्रथम-प्रवृत्ताऽपायादभ्य धिकेति धृतिर्धारणा नामेति / एवम-विच्युतिवासनास्मृतिरूपा धारणा त्रिधा सिद्धा भवति॥ अत्राह- कश्चित्-नन्वविच्युतिस्मृतिलक्षणौ ज्ञानभेदौ गृहीतग्राहित्वान्न प्रमाणं, द्वितीयादिवाराप्रवृत्तापायसाध्यस्य वस्तुनिश्चयलक्षणस्य कार्यस्य प्रथमवाराप्रवृत्तापायेनैव साधित- त्वात्। न च निष्पादितक्रिये कर्मणि तत्साधनायैव प्रवर्तमानं साधनं शोभां बिभर्ति, अतिप्रसङ्गात् कुठारादिभिः कृतच्छे-दनादिक्रियेष्वपि वृक्षादिषु पुनस्तत्साधनाय तेषां प्रवत्त्याप्ते: 1 स्मृतेरपि पूर्वोत्तरकालभाविज्ञानद्वयगृहीत एव वस्तुनि प्रवर्तमा- नतया कुत:प्रामाण्यं, नचवक्तव्यं पूवोत्तरदर्शनद्वयानधिगतस्य वस्त्वेकत्वस्य ग्रहणात् स्मृति: प्रमाणं, पूर्वोत्तरकालदृष्टस्य वस्तुन: कालादिभेदेन भिन्नत्वाद्, एकत्वस्यैवासिद्धत्वादिति। वासना तु किं रूपा ? इति वाच्यम्। संस्काररूपेति चेत्। कोऽयं नाम संस्कार:? स्मृतिज्ञानवरणक्षयोपशमो वा, तज्ज्ञान-जननशक्तिर्वा, तद्वस्तुविकल्पोवा? इति त्रयीगतिः। तत्राद्य-पक्षद्वयमयुक्तम् ज्ञानरूपत्वाभावात् तद्भेदानां चेह विचार्यत्वेन प्रस्तुतत्वात् / तृतीयपक्षोऽप्ययुक्त एव संख्येमसंख्येयं वा कालं वासनाया इष्टत्वाद् एतावन्तं च कालं तद्वस्तुविकल्पायोगात्तदेवमविच्युतिस्मृति- वासनारूपायास्त्रिविधाया अपि धारणाया अघटमानत्वात् विधैव मति: प्राप्नोति, न चतुर्दा / अत्रोच्यते-यत्तावद् गृहीतग्राहित्वादविच्युतेरप्रामाण्यमुच्य- ते, तदयुक्ततम्, गृहीतग्राहित्वलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वाद्, अन्य-कालविशिष्टं हि वस्तु प्रथमप्रवृत्तापायेन गृह्यते, अपरकालविशिष्टं च द्वितीयादिवाराप्रवृत्तापायेन / किं चस्पष्टस्पष्टतर स्पष्टतमभिन्नधर्मकवासनाजनकत्वादप्यविच्युतिप्रवृत्तद्वितीया-द्यपायविषयं वस्तु भिन्नधर्मकमेवेति कथमविच्युतेर्गृहीतग्राहिता ? स्मृतिरपि पूर्वोत्तरदर्शनद्वयानधिगतं वस्त्वेकत्वं गृह्णाना न गृहीतग्राहिणी। न च वक्तव्यं कालादिभेदेन भिन्नत्वात् वस्तुनो नैकत्वं, कालादिभिर्भिन्नत्वेऽपि सत्त्वप्रमेयत्वसंस्थानरूपादिभिरेकत्वात्। वासनाऽपिस्मृतिविज्ञानावरणकर्मक्षयोपश-मरूपातद्विज्ञानजननशक्तिरूपा चेष्यते। सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानस्वरूपा न भवति, तथापि पूर्वप्रवृत्ताविच्युतिलक्षणज्ञानका र्यत्वाद्, उत्तरकालभाविस्मृतिरूंपज्ञानकारणत्वाचोपचारतो ज्ञानरूपाऽभ्युपगम्यते / तद्वस्तुविकल्पपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव निरस्त: तस्मादविच्युतिस्मृतिवासनारूपाया धारणाया: स्थित-त्वात् न मतेस्त्रैविध्यं, किंतु चतुर्दा सेति स्थितम्। इति गाथाद्वयार्थः / अथैतां स्वाभिमतां धारणा व्यवस्थाप्य परं प्रत्याहतं इच्छंतस्स तुहं वत्थूणिय पंच मेच्छमाणस्स। किं होउसा अभावो, मावो नाणं वतं कयरं? ||190 / / अस्मदभिमतामनन्तरप्रतिष्ठितस्वरूपां तां धारणामिच्छतस्तव पञ्च वस्तूनि- पशाभिबोधिक ज्ञानभेदाः प्राप्नुवन्ति, अपायस्यै कस्यापि भेदद्वयरूपताभ्युपगमेन भेदचतुष्टय स्य त्वयाऽपिं पूरितत्वात्, पञ्चमस्य तु मदुक्तस्य धारणालक्ष Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 284 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण णस्य प्रसङ्गादिति भावः / अथाऽस्मदभ्युपगता धारणा त्वया नेष्यते, "तर्हि नेच्छमाणस्स किं होउ" इत्यादि, तां मदभ्यु - पगता धारणामनिच्छतोऽप्रतिपद्यमानस्य तव सा मदभ्युपगता धारणा किं भवतु अभाव: अवस्तु, आहोस्विद्भावो, वस्तु इति विकल्पद्वयम्। किं चात:? न तावदभाव: भावत्वेनानुभूय- मानत्वात् / न च तथानुभूयमानस्याभावत्वमाधातुं शक्यते, अतिप्रसङ्गात्-घटादिष्वपितथात्वप्राप्त:, तेऽपि ह्यनुभववशेनैव भावरूपा व्यवस्थाप्यन्ते / यदि चअनुभवोऽप्यप्रमाणं, तदा घटादिष्वपि भावरूपतायामनाश्वास इति भावः / अथ भावोऽसौ, तर्हि वक्तव्यं ज्ञानम्, अज्ञानं वा ? नतावदज्ञानं, चिद्रू- पतयाऽनुभूयमानत्वात् / अथ ज्ञानं तदपि मतिश्रुतावधिमन: पर्यायकेवलेभ्यो ज्ञानान्तरस्याभावात्तेषां मध्ये कतमत् ? इति वाच्यम्। न तावत् श्रुतादिचतुष्टयरूपम्, अनभ्युपगमात्, तल्लक्षणाऽयोगाच मतिज्ञानं चेत्, तदपि नावग्रहेहापायरूपं, तल्लक्षणाऽसंभवात् 'नणु सावायब्भहिया' इत्यादि, नाऽपायाभ्यधिकत्वेन साधितत्वाच / तस्मादन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चय: सर्वोऽप्यपाय:, अविच्युस्मृितिवासनारूपा तु पारिशेष्यद्वारेणैवेति स्थितम्। इति गाथार्थः / तदेवं निरुत्तरीकृतोऽप्यविलक्षिततयाऽन्येन प्रकारेणाह-- तुज्भं बहुयरभेया, भणइ मई होइ धिइबहुत्ताओ। भण्णइ न जाइ भेओ, इट्ठो मज्भं जहा तुज्ज ||191 / / अत्र प्रेरको भणति। किम् ? इत्याह- 'तुज्भमि' त्यादि, इत्थमाचार्य! तव बहुतरभेदा मतिर्भवति / कुत:? इत्याह-धृतेर्धारणाया बहुत्वात्: बहुभेदत्वादित्यर्थः, धारणाया एकस्या अप्यविच्युतिवासनास्मृतिलक्षणभेदत्रययुक्तत्वादेवग्रहेहाऽपायैः सह षट्भेदा मति प्राप्नोतीति भावः / अत्र प्रतिविधानमाह- 'भण्णइ इत्यादि, भण्यतेऽत्रोत्तरम्जातेर्भदो जातिभेदो; व्यक्ति-पक्ष इत्यर्थः / स इह धारणाविचारे मम नेष्टोनाभिप्रेत: / किं तु धारणा सामान्यरूपा जातिरेव ममाभिप्रेता। कस्य यथा? इत्याह- यथा तवाऽवग्रहविषये इति शेषः / इदमुक्तं भवतियथाऽवग्रहो व्यञ्जनार्थाग्रहभेदादुभयरूपोऽवग्रहसामान्यादेकस्त्वयाऽपीष्टः, अन्यथा मते: पञ्चविधत्वप्रसङ्गात् तथा त्रिरूपाऽपि धारणा तत्सामान्यादेकरुपैव; इति चतुर्विधैव मतिर्न बहुतरभेदा। इति गाथार्थः। एतदेव भावयन्नाहसा भिन्नलक्खणा वि हु, धिइसामण्णेण धारणा होइ। जह उग्गहो दुरूवो, उग्गहसामण्णओ एक्को / / 192 / / सा धारणा अविच्युति-वासना-स्मृतीनां भिन्नस्वरूपत्वेन भिन्नलक्षणाऽपि सती धारणा सामान्याव्यतिरेकादेकै व भवति; यथाऽवग्रहो व्यञ्जनावग्रहभेदात् द्विरूपोऽप्यवग्रहसामान्याध्यतिरेकादेक: / परस्याऽपि सिद्धेः, अन्यथा मतेः पञ्चविधत्वा- पत्तेः। इति गाथार्थः। तदेवमवग्रादिभेदचतुष्टविषया निराकृताः सर्वा अपि परा वप्रतिपत्तयस्तन्निराकरणप्रक्रमे चानन्तरमवग्रहो द्विरूपः प्रोक्तः स च कथं द्विरूपो- भवति इत्याशङ्कय तद्विरूपताकथनव्याजेन पूर्व यान्याभिनिबोधिकज्ञानस्याऽवग्रहादीनि चत्वारि भेदव-स्तून्युक्तरानि, तेष्वेव मध्येऽवग्रहं तावद्, विशे०। ('उग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) तत्र व्यञ्जनं तावत्किमुच्यते ? इत्यादिवजिज्जइ जेणऽत्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तं च। उवगरणिंदिप्यसद्दा-इपरिणयदव्वसंबंधो।।१९४ / / व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थो येन दीपेनेव घटस्तत् व्यञ्जनं, किं पुनस्तदित्याह- 'तं चे' त्यादि / तच व्यञ्जनम् उपकरणे -- न्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धः / इन्द्रियं द्विविधम्- द्रव्येन्द्रि-यम, भावेन्द्रियं च / विशे (अत्र विस्तर: 'इंदिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) तत्र निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियं निवृत्तिश्च द्विधाअडलासंख्येयभागादिमाना कदम्बकुसुमगोलकधान्यमसूरकाहलाक्षुरप्राकारमांसगोलक-रूपा, शरीराकारा च / श्रोतादीन्द्रियाणां पञ्चानामापि यथा-संख्यमन्तर्निवृत्तिः; कर्णशष्कुलिकादिरूपा तु बहिर्निर्वृत्तिः / तत्र कदम्बकुसुमगोलकाकारमासखण्डादिरूपाया अन्तर्निवृत्ते: शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुर्य: शक्तिविशेषः स उपकरणेन्द्रियं, शब्दादिश्च श्रोत्रादीन्द्रियाणां विषयः, आदिशब्दाद्रसगन्धस्पर्शपरिग्रहः, तद्भावेन परिणतानि च तानि भाषावर्गणादिसंबन्धीनि द्रव्याणि चशब्दादिपरिणतद्रव्याणि, उपकरणेन्द्रियं च शब्दा- दिपरिणतद्रव्याणि च तेषां परस्परं संबन्ध: उपकरणेन्द्रियशब्दा- दिपरिणतद्रव्यसंबन्धः; एष तावद् व्यञ्जनमुच्यते। अपरं च- इन्द्रियेणाऽप्यर्थस्य व्यज्यमानत्वात्तदपि व्यञ्जनमुच्यते / तथा शब्दादिपरिणतद्रव्यनिकुरम्बमपि व्यज्यमानत्वाद् व्यञ्जनमभि-धीयते, इति। एवमुपलक्षणव्याख्यानात् त्रितयमपि यथोक्तं व्यञ्जनमवगन्तव्यम्ततश्चेन्द्रियलक्षणेन व्यञ्जनेन शब्दादि- परिणतद्रव्यसंबन्धस्वरूपस्य व्यञ्जनस्याऽवग्रहो व्यञ्जनाग्रहः, अथवातेनैव व्यञ्जनेन शब्दादिपरिणतद्रव्यात्मकानां व्यञ्ज- नानामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः इत्युभयत्राऽप्ये कस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोपं कृत्वा समासः / इति गाथार्थ:। अत्राऽऽक्षेपं, परिहारं चाभिधित्सुराहअण्णाणं सो बहिरा- ईणं व तक्कालमणुबलंभाउ। न तदंते तत्तो चिय, उवलंभाओ तओ नाणं / / 195 / / स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं, ज्ञानं न भवति, तस्य उप करणे - न्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धस्य कालस्तत्कालस्तस्मिन् ज्ञानस्यानुपलम्भात् स्वसंवेदनेनासंवेद्यमानत्वाद; बधिरादीनामिव यथा हि बधिरादीनामुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिविषयद्रव्यैः सह संबन्धकालेन किमपि ज्ञानमनुभूयते, अननुभूयमानत्वाच तन्नाऽस्ति तथेहापीति भावः / अत्रोत्तरमाह-'न तदंते' इत्यादि, नाऽसौ जडरूपतया ज्ञानरूपेणननुभूयमानत्वादज्ञानं, किं तर्हि स कोऽसौ व्यञ्जनावग्रहोज्ञानमेव / कुतः? तदन्ते- तस्यव्यञ्जनावग्रहस्यान्ते तत एव ज्ञानत्मकस्याऽर्थावग्रहोपलम्भस्य भावात्, तथाहि- यस्य ज्ञानस्याऽन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 285 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण एव ज्ञानमुपजायते, तज्ज्ञानं दृष्टं, यथार्थावग्रहपर्यन्ते तज्ज्ञेय- मतिपूर्विका एव, अन्यथा काष्ठादीनामपि तत्प्रसङ्गात्; वस्तूपादानत ईहासद्भावादविग्रहो ज्ञानं, जायते चव्यञ्ज-नावग्रहस्य अतस्ताभ्यस्तत्तेषामस्तीति लक्ष्यत एव धूमादाग्निरिव / इति गाथार्थः / पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत एवार्थाऽवग्रहज्ञानं, तस्माद् आह-ननु आत्मीयमपि चेष्टितं किं कश्चिन्न जानाति येन सुप्तादीनां व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानम्। इति गाथार्थः / स्वचेष्टितासंवेदनमुच्यते ? इत्याशङ्कयाहतदेवं व्यञ्जनावग्रहे यद्यपि ज्ञानं नाऽनुभूयते, तथाऽपि ज्ञान- जग्गंतो विन जाणइ, छउमत्थो हिययगोचरं सदं / कारणत्वादसौ ज्ञानम्, इत्येवं व्यञ्जनावग्र हे ज्ञानाऽभाव जं तज्जवसाणाई, जमसंखिज्जाई दिवसेणं / / 199 / / मभ्युपगम्योक्तम्। सांप्रतं ज्ञानाऽभावोऽपि तत्राऽसिद्धएवेति दर्शयन्नाह हृदयम् -मनोगोचरस्थानं यस्य तत् हृदयगोचरम् अध्यतक्कालम्मि वि नाणं, तत्थऽत्थि तणुंति तो तमध्वत्तं / वसायनिकुरम्बम् इति गम्यते, तज्जाठादपिछयस्थ: सर्वम्-अपरिशेष बहिराईणं पुण सो अण्णाणं तदुभया भावा ||196 / / न जानाति- न संवेदयते, आस्तां तावत्पुन: सुप्त:- कुत ? इत्याहतत्कालेऽपि-तस्य व्यञ्जनसंबन्धस्य कालेऽपि तत्रानुपहते- अध्यवसानानि-अध्यवसायस्थानरूपाणि केवलिगम्यानि सूक्ष्माणि। न्द्रियसंबन्धिनि व्यञ्जनावग्रहे ज्ञानमस्ति, केवलमेक- यत् एकेनाप्यन्तर्मुहूर्तेनासंख्येनानि यान्ति- अतिक्रामन्ति, किं पुन: तेजोऽयववप्रकाशवत् तनु अतीवाल्पमिति; अतोऽव्यत्तं स्व-संवेदनेनापि सर्वेणापि दिवसेन ? न चैतानिछामस्थ: सर्वाण्यपि संवेदयते। ततश्च नव्यज्यते। यद्यव्यक्तं, कथं तदस्तीतिज्ञायते? इति चेत्। मा त्वरिष्ठा:, यथैतानि छद्मस्थैर-संवेद्यमानान्यपि केवलिदृष्टत्वात्सत्वेनाभ्युपग"जइ विण्णाणमसंखेज्जसमइ-सद्दाइदव्वसभावे" इत्यादिनाऽ- म्यन्ते, तथा व्यञ्जनावग्रहज्ञानमपि। इति गाथार्थः। नन्तरमेव तदस्तित्वयुक्तेर्वक्ष्य-माणत्वात् दृष्टान्ते तु ज्ञानाऽभावे आह-ननु सुप्तादीनां ज्ञानं वचनादिचेष्टाभ्यो गम्यते इत्युक्तं अविप्रतिपत्तिरिति दर्शय-नाहबधिराऽऽदीनाम्, आदिशब्दादुपहत तत्तावदभ्युपगच्छामः, व्यञ्जनावग्रहे तु ज्ञानरूपतागमकं लिङ्गं न घ्राणादीन्द्रियाणां पुनः स व्यञ्जनावग्रहोऽज्ञानं- ज्ञानं न किंचिदुपलभामहे, अतो जडरूपत्वान्नाऽसौ ज्ञानमिति ब्रूमः, भवतीत्यत्राऽविप्रतिपत्तिरेव / कुत्त: ? इत्याह-तच तदुभयं च तदुभयं इत्याशङ्कयाहतस्याभावात्ज्ञान-कारणत्वाभावात् अव्यक्तस्यापि च ज्ञानस्याभावात्। जइव ऽण्णाणमसंखे-ज्जसमइसघाइदवसब्भावे। इति गाथार्थः। किह चरमसमयसहा- इदध्वविण्णाणसामत्थं / / 200 / / अथ पुनरप्याक्षेपं, परिहारं चाऽभिधित्सुराह वाशब्द: पातनासूचक; सा च कृतैव / ततश्च हन्त ! यदि-अज्ञानं कहमव्वत्तं नाणं,च सुत्तमत्ताइसुहमबोहो व्व। ध्यञ्जनावग्रह: क्व सति ? इत्याह-असंख्येयस-मयशब्दादिद्रव्यसुत्तादओ सयं विय, विण्णाणं नाऽवबुज्मंति।।१९७ / / सद्भावेऽपि सति, इत्यपिशब्दो गम्यते। कथं तर्हि चरमसमयशब्दादिपर: साऽसूयमाह- ननु कथं ज्ञानम् 'अव्यक्तं च इत्युच्यते ? द्रव्याणां विज्ञानजननसामर्थ्य ? नकथंचिदि-त्यर्थः / इदमुक्तं भवतितम:प्रकाशाद्यभिधानवविरुद्धत्वान्नेदं यत्तुं युज्यत इति भावः / व्यञ्जनावग्रहे तावत्प्रतिसमयसंख्ये-यान्समयान्यावच्छेत्रादीन्द्रियैः अत्रोत्तरकमनन्तरमेवोक्तम् -एकतेजोऽवयवप्रकाशवत्सूक्ष्मत्वा- सह शब्दादिविषयद्रव्याणि संबध्यन्ते / ततश्च यद्यसंख्येयसमयान् दव्यक्तम् / अथ पुनरप्युच्यते- सुप्तमत्तमूर्च्छितादीनां सूक्ष्मबोध- यावच्छ्रोत्रादीन्द्रियैः सह शब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धसधेद्भावेऽपि सति वदव्यक्तंज्ञानमुच्यतइति नदोषः। सुप्तादीनां तदात्मीज्ञानं स्वसंविदितं व्यञ्जनावग्रहरूपं ज्ञानं नाऽभ्यपगम्यते, कथंतर्हि चरमसमये भविष्यतीति चेत् न एत देवमित्यासुप्तादय: स्वयमपि तदात्मीयविज्ञानं श्रोतादीन्द्रियैः सह संबद्धानांशब्दादिविषयद्रव्याणां परेणाऽप्यर्थावग्रहनाऽवबुध्यन्तेन संवेदयन्ति अतिसूक्ष्मत्वात्। इति गाथार्थः / लक्षणविज्ञान-जननसामर्थ्यमिष्यते ? तदभ्युपगन्तुं न युज्यते इति आह-यदि तैरपि सुप्तादिभिस्तदात्मीयज्ञानं नसंवेद्यते, भाव: / यदि हि शब्दादिविषयद्रव्याणां श्रोत्रादीन्द्रियैः सह संबन्धे तर्हि तत्तेषामस्तीत्येतत्कथं लक्ष्यते? इत्याह आदिसमयादेवारभ्य ज्ञानमात्रा काचित्प्रतिसमयमाविर्भवन्ती लिक्खज्जइतं सिमिणा-यमाणवयणदाणाइचेट्ठाहिं। नाऽभ्युपगम्यते, तर्हि चरमसमयेऽप्येकस्मादेवैषा न युज्यते, तथा च जंनाऽमइपुवाओ, विज्जंते वयणचेट्ठाओ / / 198 / / सत्यर्थावग्रहादिज्ञानानामप्यनुदयप्रसङ्गः / इति गाथार्थः / तत्सुप्तादीनां ज्ञानमस्तित्वेन लक्ष्यते / कुत:? स्वप्नायमान तथाहिवचनदानादिचेष्टाभ्यः, सुप्तादयोऽपि हि स्वप्नायमानाद्यवस्था जं सव्वहान वीसुं, सवेसु वि तन्न रेणुतिल्लं व। यां केचित्किमपि भाषमाणा दृश्यन्ते, शब्दिताश्चौघतो वाचं प्रयच्छन्ति, पत्तेयमणिच्छंतो, कहमिच्छसि समुदये नाणं // 201 / / संकोचविकोचाङ्गभङ्गजृम्मितकूजितकण्डूयनादि-चेष्टाचश्च कुर्वन्ति, न यद्वस्तु सर्वथा-सर्वप्रकारैर्विष्वक् -पृथक नाऽस्ति तत् च तास्ते तदावेदयन्ते / नापि च प्रबुद्धाः स्मरन्ति, तर्हि कथं | समुदायेऽपि नाभ्युपगन्तव्यं, यथा रेणुकणनिकरे प्रतिरेणुक तचेष्टाभ्यस्तेषां ज्ञानमस्तीति लक्ष्यते ? इत्याह- 'जमि' त्यादि, यत्- (ण)- मविद्यमानं तैलम्, एवं चेत्तर्हि त्वमपि प्रत्ये कमनिच्छन् यस्मात्कारणाद् नाऽमतिपूर्वास्ता वचनादिचेष्टा विद्यन्ते, किंतु ___ कथं समुदाये ज्ञानमिच्छसि? इदमुक्तं भवति- यदीन्द्रिय Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 286 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण विषयसंबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य व्यञ्जनावग्रहसंबन्धिनो ऽसंख्येयान् तथाऽत्रापि सर्वेष्वपि समुदितेषु समयेषु ज्ञानं भवति, नैकस्मिंश्वरमसमये। समयान् यावत्प्रतिसमयं पुष्टिमाबिभ्रती ज्ञानमात्रां काञ्चिदपि नेच्छसि ततश्चार्थावग्रहसम-यात् पूर्वसमयेषु तदेव ज्ञानमतीवास्पुटं व्यञ्जनावग्रह तर्हि चरमसमयशब्दादिविषयद्रव्य-संबन्धेन संपूर्ण समुदायेऽपि कथं उच्यते ? चरमसमये तु तदेव किञ्चित् स्फुटतरावस्थामापन्नमर्थावग्रह: तामिच्छसि? चरमसमय-शब्दादिविषयद्रव्यसंबन्धे यदर्थावग्रहज्ञानम- इति ध्यपदिश्यते / अतो-यद्यपि सुप्तमत्तमूर्छितादिज्ञानस्येव भ्युपगम्यते, तदपि प्रत्येकमसच्चरमसिकताकणे तैलवन्न प्राप्नोतीति व्यक्तं तथाविधं व्यञ्जनावग्रहज्ञानसाधकं लिङ्गं नास्ति तथाऽपि भावः / तस्मा-त्तिलेषु तैलवत्सर्वेष्वपि समयेषु प्रत्येकं यच यावच्च यथोक्तयुक्तितो व्यञ्जनावग्रहे सिद्ध ज्ञानम्। इति गाथार्थः / ज्ञानमस्तीति प्रतिपत्तव्यम् / इति गाथार्थः / तत्त्वभेदपर्यायव्याख्या तत्र तत्त्वं व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपकिंच मुक्तम्। अथ तस्य भेदान्निरूपयितुमाहसमुदाये जइ णाणं, देसूणे समुदए कहं नऽत्थि। नयणमणोवजिदिय-भेआओ वंजणोग्गहो चउहा। (204+) समुदाये वाऽभूयं, कह देसे होज्जतं सयलं / / 20 / / स च व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्की भवति / कुत:? इत्याह- नयनमनोवसमुदायज्ञानवादिन् ? यदि विषयद्रव्यसंबन्धसमयानाम- संख्येयानां जेन्द्रियभेदात् / इदमुक्तं भवति- विषयस्य इन्द्रियस्य च य: परस्परं समुदाये ज्ञानमर्थावग्रहलक्षणमभ्युपगम्यते / तर्हि चरमसमयलक्षणो संबन्ध:- प्रथममुपश्लेषमानं; तद्व्यञ्जनावग्रहस्य विषयः। स च विषयेण योऽसौ देशस्तेन न्यूने समुदायेचरमैकसमयो नैष्वसंख्यातेषु सहोपश्लेषः प्राप्यकारिष्वेव स्पर्शन- रसनध्राणश्रोत्रलक्षणेषु समयेष्वित्यर्थः, तत्कथं नास्ति ? समस्त्येव, प्रमाणोपपन्नत्वात् ? चतुर्विन्द्रियेषु भवति, न तु नयनम नसोः / अतस्ते वर्जयित्वा शेषस्पर्शनादीन्द्रियचतुष्टयभेदात् चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रहो भवति / तथाहि-सर्वेष्वपि शब्दादिद्रव्यसंबन्ध-समयेषु ज्ञानमस्तीति विशे। (भेदान 'इंदिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यामि) ('मण' शब्दे च प्रतिजानीमहे, ज्ञानोपकारिशब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयसमुदायै.. षष्ठे भागे) (व्यवस्थितम् अप्राप्यकारित्वं नयनमनसोः) ततश्च- स्पर्शनकदेशत्वादिति हेतुः, अर्थावग्रहसमय-वदिति दृष्टान्तः / अत्राहननु रसनध्राणश्रोत्रभेदात् चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रहः / विशे०। शब्दादिविषयोपादानसमयसमुदाये ज्ञानं केना- भ्युपगम्यते, येन (4) अवग्रहप्ररूपणामाह। प्रतिबोधकमल्लकदृष्टान्ताभ्याञ्च प्ररूपणां समुदायैकदेशत्वात्प्रथमादिसमयेषु सर्वेष्वपि तत् प्रतिज्ञायते / मया ोकस्मिन्नैव चरमसमये शब्दादिद्रव्यो- पादाने ज्ञानप्रसव इष्यते, सहोपात्तत्वाप्ररूपणया सहैव व्युत्क्रमेणाहइत्याशङ्कयाह- "समुदाये वा ऽभूयमि' त्यादि, चशब्दो वाशब्दो वा तत्थोग्गहो दुभेओ, उग्गणं जं होइ वंजणऽत्थाणं / वंजणओ य जमत्थो, तेणाईए तयं वोच्छं॥१९३ / / पातनायां, सा च कृतैव। तत्र यद्ये कस्मिन्नेय चरमसमये ज्ञानमभ्युपगम्यते। तदाऽसौ सर्व-समयसमुदायापेक्षया तावदेकदेशएव / (अस्या गाथाया व्याख्या 'उग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) ततश्वाऽननैकदेशेनोने शेषसमयसमुदाये यद्भूतं ज्ञानं तत्कथं हन्त इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिज्ञातव्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादनं चेह प्रकृतम्। चरमसमयलक्षणे देशे अकस्मादेव सकलमखण्डं भवेद् तस्य व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपं नन्धध्ययनागमसूत्रे प्रतिबोधकमल्लअप्रमाणोपपन्नत्वात्। तथाहि-नैकस्मिंश्चरमशब्दादि- द्रव्योपादानसये कोदाहरणाभ्यां प्रतिपादितम्, तद्यथाज्ञानमुपजायते, एकसयमात्रशब्दादिद्रव्योपादानात, व्यञ्जनावग्रहाद्य "वंजणुग्गहस्सपरूवणं करिस्सामिपडिबोहगदिटुंतणं, मल्लगदिट्ठतेण समय-वदिति।स्थादेतत्, चरमसंमयेऽर्थाव ग्रहज्ञानमनुभवप्रत्यक्षेणा यासे किंतंपडिबोहगदिटुंतेणं? पडिबोह- गदिटुंतेणं से-जहानामए केह ऽप्यनुभूयते, तत: प्रत्यक्षविरोधिनीयं प्रतिज्ञाः / तदयुक्तम्, चरमसमय पुरिसे कचि पुरिसं सुत्तं पडिबोहिज्जा अमुग! अमुग! त्ति / तत्थ चोयगे एव समठां ज्ञानमुत्पद्यते इति भवत्प्रतिज्ञातस्यैव प्रत्यक्षविरोधात्, पण्णवग एवं वयासी-किं एगसमयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति, चरमतन्तौ समस्तपटोत्पादवचनवत्। तथा, सर्वेष्वपि शब्दाविद्रव्य दुसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति, जाव दससमयपविट्ठा पुग्गला संबन्धसमयेषु ज्ञानमस्तीत्यादि-पूर्वोक्तानुमानविरोधश्च भवत्पक्षस्य। गहणमागच्छंति संखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति इति गाथार्थः। असंखिज्ज-समयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति ? एवं वदन्त चोयगं पण्णवए एवं वयासी-नो एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति, नो तस्मात्किमिह स्थितम् ? इत्याह दुसमयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छत्ति जाव नो दससमयपविट्ठा पुग्गला तंतू पडोवगारी,न समत्तपडो य समुदिया ते उ। गहणमागच्छंति, नो संखिज्जसमयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, सवे सम्मत्तपडओ, तह नाणं सव्वसमयेसु / / 203 / / असंखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति, से (त्तं) तं यथा एकस्तन्तु: पटोपकारी वर्तते, तमन्तरेणापि समठाम्य पडिबोहगदिट्ठतेणं॥ तस्याऽभावात् नचासौ तन्तुरेतावता समस्त: पटो भवति, पटैकदेशत्वात् से किं तं मल्लगदिटुंतेणं? मल्लगदिटुं तेणं से जहानामए तस्य, समुदिता: पुनस्ते तन्तव: सर्वेसमस्तपटव्यपदेशभाजोभवन्ति ? | के इ आवागसीसाओ मल्लगं महाय तत्थेग उदगविंदु पक्खि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 287 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण विज्जा, से न8।अण्णे विपक्खित्ते, सेऽवि नटे। अण्णे विपक्खित्ते, से विनटे। एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदूजेणं तं / मल्लगंरावेहिति। होही से उदगविंदूजेणं तंसि मल्लगंसि ठाइति। होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं भरेहिति। होही से उदगबिन्दू जेणं तंसि मल्लगंसिन द्वाहि-हिति। होही से उदगबिंदूजे णं तं मल्लग पवाहहिति एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं 2 अणन्तेहिं पुगलेहिं जाहे तं वंजणं पूरियं होइ ताहे हुन्ति करेइ, नो चेव णं जाणइ के वि एस सद्दाइ" (सूत्र-३५+) इत्यादि। इदं च सूत्र नन्दिविवरणे एवेत्थं व्याख्यातम्, तद्यथा प्रतिबोधकमल्लक दृष्टान्ताभ्यां व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणं करिष्यामि / तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः स एव दृष्टान्तस्तेन, तद्यथा-नाम कश्चिद्-अनिर्दिष्टस्वरूप: पुरुष: कञ्चिद्-अन्यम् अनिर्दिष्ट-स्वरूपमेव पुरुषं सुप्तं सन्तं प्रतिबोधयेत्। कथमित्याह-अमुक ! अमुक! इति। तत्र प्रेरक: प्रज्ञापकमेवमवादीत्किमेक-समयप्रविष्टा इत्यादि / एवं वदन्तं प्रेरकं प्रज्ञापक एवमुक्तवान्नो एकसमयप्रविष्टा इत्यादि, प्रकटार्थ, यावन्नोसंख्येयसमयप्रविष्टा: पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति। नवरमयं प्रतिषेध: शब्दविज्ञान-ग्राह्यतामधिकृत्य वेदितव्यः; शब्दविज्ञानजनकत्वेनेत्यर्थः, अन्यथा संबन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य पुद्गला ग्रहणमागच्छन्त्येव / 'असंखेज्ज' इत्यादि प्रतिसमयप्रवेशेनादित आरभ्यासंख्येयसमयैः प्रविष्टा: असंख्येयसमयप्रविष्टा: पुद्गला:शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्ति अर्थावग्रहज्ञानहेतवो भवन्तीति भावः / इह च चरमसमयप्रविष्टा एव विज्ञानजनकत्वेन ग्रहणमागच्छन्ति, तदन्ये त्विन्द्रियक्षयो- पशमोपकारिण इति सर्वेषां सामान्येन ग्रहणमुक्तम्। सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहणप्ररूपणा इति वाक्यशेष: / / अर्थ केयं मल्लक-दृष्टान्तेन प्ररूपणा? तद्यथानाम कश्चित्पुरुष: आपाकशिरसो मल्लकं शरावं गृहीत्वा रूक्षमिदं भवतीत्यस्य ग्रहणम् / तत्र मल्लके एकमुदकबिन्दू प्रक्षिपेत्स नष्टः तत्रैव तद्भावपरिणतिमापन्न इत्यर्थः / शेषं सुबोधम् 'जाव जे णं तं मल्लग' 'रावेहिति' आर्द्रता नेष्यति / शेष सुबोधम् / नवरम् 'पवाहेहिति' प्लाव-यिष्यतीति / 'एवामेवे' त्यादि, अति बहुत्त्वा- त्प्रतिसमयमनन्तैः शब्दपुद्गलैः यदा तद्व्यञ्जनं पूरितं भवति, तदा 'हुम' इति करोति तमर्थं गृह्णाणातीत्युत्तं भवति। किं विशिष्टं नामजात्यादि-कल्पनारहितम्, अतएवाह-'नो चेव णंजाणइ केवेस सद्दाइ त्ति न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिः इत्यर्थः / एवं च सतिसामयिकत्वादविग्रहस्य अर्थावग्रहात्पूर्व सो व्यञ्जनाऽवग्रह:" तदेवमस्य व्यञ्जनाऽवग्रहस्वरूपप्रतिपादकस्य नन्दिसूत्रस्य शेषं प्राय: सुगममिति मन्यमानो भाष्यकार: "जाहे तं वंजणं पूरियं होइ "इत्येतत् (नन्दिसूत्रांशं)व्याचिख्यासुराहतोएण मल्लगं पिब, वंजणमापरियं तिजं भणियं / तं दव्यमिडियं वा, तस्संजोगो व न विरुद्धं // 20 // 'जं भणियं' यदुक्त नन्दिसूत्रकारेण किं तद् ? इत्याहव्यञ्जनमापूरितमिति। केन किंवत् ? इत्याह। तोयेनजलेन मल्लकंशराब तद्वदिति। तस्मिन् सूत्रकारभणितेव्यञ्जनद्रव्यं गृह्यते, इन्द्रियं वा, तयोर्वा द्रव्येन्द्रिययो: संयोगासंबंन्ध इति सर्वथाऽप्यविरोधः / इदमुक्तं भवतिव्यञ्जनशब्देन शब्दादि-विषय- परिणतपुद्रलसमूहरूपं द्रव्यं श्रोत्रादीन्द्रियं वा द्रव्येन्द्रिययो: संबन्धो वा गृह्यते, न कश्चिद्विरोध: व्यज्यते-प्रकटीक्रियते विवक्षितोऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमित्यस्या व्युत्पत्ते: सर्वत्रघटनादिति गाथार्थः। केचलं द्रव्यादिषु त्रिष्वपि व्यञ्जनशब्दवाच्येषु प्रत्येकमापूरितत्वे विशेषो द्रष्टव्य: कः पुनरसो? इत्याह दव्वं माणं पूरिय-मिदियमापूरियं तहा दोण्हं। अवरोप्पस्संसग्गो,जया तया गिण्डइ तमत्थं / / 251 / / 'दव्वं' ति यदा द्रव्यं व्यञ्जनमधिक्रियते तदा 'जाहे तं वंजणं पूरियं होइ' इति- कोऽर्थः ? इत्याह-'माणं पूरियं' तिमानम् तस्य शब्दादिद्रव्यस्य प्रमाणं प्रतिसमयप्रवेशेन प्रभूतिकृतत्वात्स्वप्रमाणमानीतं प्रकर्षमुपनीतं स्वग्राहकज्ञानजनने समर्थीकृत-मिति यावत्। यदा त्विन्द्रियमिति इन्द्रियं व्यञ्जनमधिक्रियते तदा 'जाहे तं वंजण पूरियं होइ' इति-किमुत्तं भवति ? इत्याह- 'आपूरियं' ति आपूरित-व्याप्तं-भृतंवासितमित्यर्थः / तथा- 'दोण्हं ति'-द्वयोः श्रोत्रादीन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्ययो: संबन्धो यदि व्यञ्जनमधिक्रियते तदा जाहेतं वंजणं पूरियं होइ' इतिकिमुत्तं भवति ? इत्याह-'अवरोप्परं संसग्गो' त्ति-सम्यग् सर्गो-योग: संसर्गः; सम्यक् संबन्ध इत्यर्थः, इदमत्र हृदयम्- अस्मिन्पक्षे यदा तयोरिन्द्रियद्रव्ययो: परस्परमतीव संयुक्तताअनुपक्तता अङ्गाङ्गिभावेन परिणामो भवति, तदा प्रस्तुतसंबन्ध- लक्षणं व्यञ्जनमापूरितं भवतीत्युच्यत इति! 'जया तया गिण्हइ तमत्थं त्तिएवं यदा त्रिविधमपि व्यञ्जनं प्रकारत्रयेणाऽऽपूरितं भवति, तदा तं विवक्षितं शब्दादिकमर्थमव्यत्तं नाम-जात्यादिकल्पना रहितं गृह्णाति / एतच 'ताहे हुंति करेइ' इत्यस्य व्याख्यानाम अर्थावग्रहश्चायमेकसमायिको विज्ञेयः, इतरस्तु पूर्वमन्तर्मुहूर्त द्रव्यप्रवेशादिरूपो व्यञ्जनाऽवग्रहोऽवसेय: / इति गाथार्थः / किं विशिष्टं पुनस्तमर्थं गृह्णाति? इत्याशङ्कय स्वत एव भाष्यकारस्तस्वरूपमाहसामण्णणिद्देसं, सरूव-नामाइकप्पणारहियं / जइ एवं जं तेणं, गहिए सद्देत्ति तं किहणु? // 252 / / ग्राह्यवस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वे सत्यप्यर्थावग्रहेण सामान्यरूपमेवार्थं गृह्णाति, न विशेषरूपम्, अर्थावग्रहस्यैकसा- मयिकत्वात्, समयेन च विशेषग्रहणायोगादिति / सामान्यार्थश्च कश्चित् ग्रामनगरवनसेनादिशब्देन निर्देश्योऽपि भवति, तद्व्यवच्छेदार्थमाह-अनिद्देश्य केनापि शब्देनानमिलप्यम् / कुतः पुनरेतत् ? इत्याह- यत: स्वरूपनामादिकल्पनारहितम्, आदि-शब्दातजातिक्रियागुणद्रव्यपरिग्रहः। तत्र रूपरसाद्यर्थानां य आत्मीचक्षुरादीन्द्रियगम्य: प्रतिनियत: स्वभावस्तत्स्वरूपम्। रूपरसादिकस्तु तदभिधायको ध्वान म्, रूपत्वरसत्वादिका Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 288 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण तु जाति: प्रीतिकरमिदं रूपं पुष्टिकरोऽयं रस इत्यादि-कस्तु शब्द: क्रियाप्रधानत्वात् क्रियाः / कृष्णनीलादिकस्तु गुण: / पृथिव्यादिकं पुनर्रव्यम्। एतेषां स्वरूप-नामजात्यादीनां कल्पना अन्तजल्पारूषितज्ञानरूपा तया रहितमेवार्थमर्थावग्रहण गृह्णाणाति यतो जीव:, तस्मादनिर्देश्योऽयमर्थः प्रोक्त: तत्कल्पनारहितत्वेन स्वरूपनामजात्यादिप्रकारेण केनाऽपि निद्देष्टुमशक्यत्वादिति / एवमुक्तं सति परः प्राह-'जइ एवं' इत्यादि- यदि स्वरूपनामादिकल्पनारहितोऽर्थोऽर्थाऽवग्रहस्य विषय इत्येवं व्याख्यायते भवद्भिः तर्हि 'ज' ति-यन्नन्द्यध्ययनसूत्र प्रोक्तम्। किम? इत्याह-'तेणं गहिए सद्दे' त्तिउपलक्षणत्वादित्थं तसंपूर्ण द्रष्टव्यम्-"से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेज्जा तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए न उण जाणइ केवेस सद्दा" इति, 'तं किहणु' त्ति-तदेतत्कथमविरोधेन नीयते ? युष्मद्व्याख्यानेन सह विरुद्ध्यते एवेदमित्यर्थः, तथा हि अस्मिन्नन्दिसूत्रेऽयमर्थ: प्रतीयते- यथा तेन प्रतिपत्त्रार्थावग्रहेण शब्दोऽवगृहीत इति भवन्तस्तु शब्दाद्युल्लेखरहितं सर्वथा अमुं प्रतिपादयन्तिततः कथं न विरोध इति भाव: इति गाथार्थः। अत्रोत्तरमाहसद्दे त्ति भणइ वत्ता, तम्मत्तं वानसहबुद्धीए। जइ होज्ज सहबुद्दी, तोऽवाओ चेव सो होज्जा / / 253 / / शब्दस्तेनाऽवगृहीत इति यदुत्तं, तत्र-'शब्दः' इति वक्ता प्रज्ञापक: सूत्रकारो वा भणति- प्रतिपादयति, अथवा-तन्मात्रं- शब्दमात्रं रूपरसादिविशेषव्यावृत्त्याऽनवधारितत्वाच्छन्दतया अनिश्चितं गृह्णाणातीति / एतावतांशेन शब्दस्तेनाऽवगृहीत इत्युच्यते न पुन: शब्दबुद्ध्या' शब्दोऽयम्' इत्यध्यवसायेन तत्-शब्दवस्तु तेनावगृहीतं, शब्दोल्लेखस्यान्तर्मुहूर्तिकत्वाद् अर्थावग्रहस्य त्वेकत्वसामायिकत्वादसंभव एवायमिति भाव: / यदि पुन: तत्र- अर्थावग्रहे शब्दबुद्धि: स्यात्तर्हि को दोष: स्याद ? इत्याशय सूत्रकार: स्वयमेव दूषणान्तरमाह'जई' त्यादि-यदि पुनरविग्रहे शब्दबुद्धिः- शब्दनिश्चय: स्यात् तदाऽपाय एवाऽसौ स्यात्, नत्वावग्रहः, निश्चयस्यापायरूपत्वात् / ततश्चार्थावग्रहेहाभाव एव स्यात्, न चैतद् दृष्टम्, इष्टं च / इति गाथार्थः / अत्राह पर:-ननु प्रथमसमय एव रूपादिव्यपोहेन 'शब्दोऽयम' इति प्रत्ययोऽर्थावग्रहत्वेनाभ्युपगम्यतां शब्दमात्रत्वेन सामान्य-त्वात्; उत्तरकालंतु प्रायो माधुर्यादय: शङ्खशब्दधाइह घटन्ते, ननुशाङ्गधर्माः खरकर्कशत्वादय इति विमर्शबुद्धिरीहा तस्मा-च्छाङ्क एवाऽयं शब्द इति तद्विशेषस्त्वपायोऽस्तु / तथा च सति "तेणं सद्दे ति उग्गहिए" इदं यथाश्रुतमेव व्याख्यायते-नो चेव णं जाणइ केवेस सद्दाइ तओ ईहं पविसई" इत्याद्यपि सर्वमविरोधेन गच्छतीति / तदेतत्परोक्तं सूरिः प्रत्यनुभाष्य दूषयति, तद्यथाजइ सद्दबुद्धिमत्तयमव-गहो तट्विसेसणमवाओ। नणु सद्दो नासहो, नय रूवाइविसेसोयं / / 254 / / भो पर! यदि शब्दबुद्धिमानं 'शब्दोऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपि | भवतार्थाऽवग्रहोऽभ्युपगम्यते, तद्विशेषणं तुतस्य शब्दस्य विशेषणं विशेष: 'शास एवायं शब्दः' इत्यादिविशेषज्ञान- मित्यर्थः, अपायो मतिज्ञानतृतियो भेदोऽङ्गीक्रियते हन्त तर्हि अवग्रहलक्षणस्य तदाधभेदस्याऽभावप्रसङ्गः, प्रथमत एवावग्रह- मतिक्रम्याऽपायाऽभ्युपगमात्। कथं पुन: शब्दज्ञानमपाय:? इति चेद् / उच्यते-तस्यापि विशेषग्राहकत्वात्, विशेषज्ञानस्य च भवताप्यपायत्वेनाभ्युपगतत्वात्। ननु 'शाङ्क्ष एवाऽयं शब्द' इत्यादिकमेव तदुत्तरकालभाविज्ञानं विशेषग्राहकं शब्दज्ञाने तु शब्दसामान्यस्यैव प्रतिभासनात्कथं विशेषप्रतिभास: येनाऽपाय- प्रसङ्गः स्याद् ? इत्याह- 'नणु' इत्यादि नन्वित्यक्षमायां, पराम-न्त्रणेवा, ननु'शब्दोऽयं नाशब्द' इति विशेषोऽयं विशेष- प्रतिभास एवाऽयमित्यर्थः / कथं पुन शब्द इति निश्चीयते? इत्याह- न च रूपादिरिति, चशब्दो हिशब्दार्थे, आदिशब्दा- द्वन्धरस-स्पर्शपरिग्रहः / ततश्चेदमुक्तं भवति-यस्मान्न रूपादिरयं, तेभ्यो व्यावृत्तत्वेन गृहीतत्वाद् , अतो नाऽशब्दोऽयमिति निश्चीयते; / यदि तु रूपादिभ्योऽपि व्यावृत्तिर्गृहीता न स्यात्तदा शब्दो- ऽयमिति निश्चयोऽपि न स्यादिति भावः / तस्माच्छब्दोऽयं नाशब्द: इति विशेषप्रतिभास एवाऽयम् / तथा च सत्यस्याप्यपाय-प्रसङ्गतोऽवग्रहाभावप्रसङ्ग इति स्थितम् / इति गाथार्थः। अथ परोऽवग्रहाऽपाययोर्विषयविभागं दर्शयन्नाहथोवमियं नाऽवाओ, संखाइविसेसणगवाउत्ति। तब्भेया वेक्खाए, नणु थोवमियं पि नाऽवाओ // 255 / / इदं शब्दबुद्धिमात्रकं शब्दमात्रस्तोकविशेषावसायित्वात् स्तोकम्स्तोकविशेषग्राहकम्, अतोऽपायो न भवति, किं त्ववग्रह एवाऽयमिति भाव: / क: पुनस्तीपाय:? इत्याह-'संखाइ' इत्यादि, शाङ्खोऽयं शब्द इत्यादिविशेषणविशिष्टं यज्ज्ञानं तदपाय: बृहद्विशेषावसायित्वादिति हृदयम् / हन्त ! यद्यत् स्तोकं तत्तन्नाऽपाय: तर्हि निवृत्ता सांप्रतमपायज्ञानकथा, उत्तरोत्तरार्थविशेषग्रहणापेक्षयापूर्वपूर्वार्थविशेषावसायस्य स्तोकत्वाद्। एतदेवाह- 'तब्भेये त्यादि, तस्य शानशब्दस्य ये उत्तरोत्तरभेदा: मन्द्रमधुरत्वादयः, तरुणमध्यमवृद्धस्त्रीपुरुषसमुत्थत्वादयश्च तदपेक्षायां सत्यामिदमपि 'शाङ्खोऽयं शब्द:' इत्यादि ज्ञानं ननु स्तोकस्तोकविशेषग्राहकमेव इति नाऽपाय: स्याद् / एवमुत्तरोत्तरविशेषग्राहिणामपि ज्ञानानां तदुत्तरोत्तर-भेदापेक्षया स्तोकत्वादपायत्वाभावो भावनीया: इति गाथार्थ:। तमेवाऽपायाभावं स्फुटीकुर्वन्नाहइय सुबहुणा वि कालेण, सव्वभेयावहारणमसभं / जम्मि हवेज्ज अवाओ, सव्वो चिय उग्गहो नाम / / 296 / / इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थ:, ततश्चेदमुत्तं भवति-यथा 'शाङ्खोऽयं शब्द:' इत्यस्यांबुद्धौशब्दगतभेदावधारणं सांप्रतम-साध्यम्, मन्द्रमधुरत्वादितदुत्तरोत्तरभेदबाहुल्यसंभवात् / तथा च सति स्तोक त्वान्नेयं बुद्धिरपाय:, किं त्वर्थाऽवग्रह इत्येवं सुबहुनाऽपि कालेन सर्वेणाऽपि पुरुषायुषेण शब्दगतमन्द्रमधुरत्वाद्युत्तरोत्तरभेदावधारणमसाध्यं तद्रे Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 289 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण दानामनन्तत्वादशक्यमित्यर्थः, यस्मिन भेदाऽवधारणे, किम ? इत्याहयस्मिन्नपायो भवेदन्यभेदाकाङ्क्षानिवृत्तेर्यस्मिन् भेदाऽवधारणज्ञानेऽपायत्वं व्यवस्थाप्येत, इति भावः / तस्मात्सर्वोऽपि भेदप्रत्यय उत्तरोत्तरापेक्षया त्वदभिप्राये स्तोक-त्वादविग्रह एवं प्राप्नोति नाऽपाय: शब्दज्ञानवद्। इति गाथार्थः। किं च शब्द एवायमिति ज्ञानं स्तोकत्वाद्यदर्थावग्रहत्वेन भवताऽभिमतम् / तत् पूर्वमीहामन्तरेण न संभवति तत्पूर्वकत्वे च तस्याऽर्थावग्रहत्वाऽसंभव इति दर्शयन्नाहकिंसदो किमसद्दो-तणीहिए सहए व किह जुत्तं ? | अह पुध्वमीहिऊणं, सहो त्ति मयं तई पुव्वं // 257 / / 'किं शब्दोऽयम् आहो (स्व)श्विद् अशब्दो-रूपादि: इत्येवं पूर्वमनीहिते यत् 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानं तदकस्मादेव जायमानं कथं युक्तम् ? विमर्शपूर्वकत्वमन्तरेण नदं घटत इत्यर्थः / इदमुक्तं भवतिशब्दगतान्वयधर्मेषु रूपादिभ्यो व्यावृत्तौ च गृहीतायां 'शब्द एव' इति निश्चयज्ञानं युज्यते, तद्ग्रहणं च विमर्शमन्तरेण नोपपद्यते, विमर्शश्चईहा, तस्मादीहा-मन्तरेणायुक्तमेव' शब्द एव' इति निश्चयज्ञानम्। अथ निश्चय-कालात्पूर्वमीहित्वा भवतोऽपि 'शब्द एवायम' इति निश्चयज्ञानमभिमतम् / हन्त; तर्हि निश्चयज्ञानात्पूर्वम् 'तई' असौ ईहा भवद्वचनतोऽपि सिद्धा: इति गाथार्थः / यदि नाम निश्चयज्ञानात्पूर्वमीहा सिद्धा, तत: किम् ? इत्याहकिं तं पुव्वं गहियं, जमीहओ सहए व विण्णाणं / अह पुटवं सामण्णं, जमीहमाणस्स सद्दो त्ति // 258 / / हन्त! यदि निश्चयज्ञानमीहापूर्वकं त्वयाभ्युपगम्यते, तर्हि प्रष्टव्योऽसि ननु ईहाया: पूर्व किं तद्वस्तु प्रमात्रा गृहीतम्, यदी-हमानस्य तस्य शब्द एवायम्' इति निश्चयज्ञानमुपजायते ? न हि कश्चिद्वस्तुन्यगृहीते अकस्मात्प्रथमत एव ईहां कुरुत इति भावः / क्षुभितस्य परस्योत्तरप्रदानाऽसामर्थ्यमालोक्य स्वयमेव तन्मतमाशङ्कते अथ ब्रूयात्पर:-सामान्यं नामजात्यादिकल्पना- रहितं वस्तु मात्रमीहाया: पूर्व गृहीतं, यदीहमानस्य 'शब्दः' इति निश्चयज्ञानमुत्पद्यते / इति गाथार्थः / अथ ईहाया: पूर्व सामान्यग्रहणे परेणेष्यमाणे सूरिः स्वसमीहितसिद्धिमुपदर्शयन्नाहअत्थोग्गहओ पुव्वं, होयव्वं तस्स गहणकालेणं। पुव्वं च तस्स वंजण-कालो सो अत्थपरिसुण्णो // 259 / / ननु ईहायाः पूर्वं यत् सामान्यं गृह्यते, तस्य तावद् ग्रहणकालन | भवितव्यम् / स चास्मदभ्युपगतसामायिकाऽवग्रहकालरूपो न भवति, अस्मदभ्युपगताऽङ्गीकारप्रसङ्गात्, किं तर्हि ? अस्मदभ्युपगतार्थाऽवग्रहात्तत्पूर्वमेव भवदभिप्रायेण तस्य सामान्यस्य ग्रहणकालेन भवितव्यं, पूर्व च तस्यास्मदभ्युपग- तार्थाऽवग्रहस्य व्यञ्जनकाल एव वर्तते, व्यञ्जनानांशब्दादि- द्रव्याणामिन्द्रियमात्रेणादानकालो मध्यपदलोपाद्व्यञ्जनकाल: / भवत्वेवं, तथाऽपि तत्र सामान्याऽर्थग्रहणं भविष्यति, इत्याशङ्कयाह- स च व्यञ्जनकालोऽर्थपरिशून्यः, न हि तत्र सामान्यरूपो, विशेष्यरूपो वा कश्चनाप्यर्थः प्रतिभाति, तदा मनोरहितेन्द्रियमात्रव्यापारात्, तत्र चार्थप्रतिभासाऽयोगात् / तस्मत्पारिशेष्यादस्मदभ्युपगतार्थाऽवग्रह एव सामान्य-ग्रहणमिति गाथायामनुक्तमपि स्वयमेव द्रष्टव्यम् / तदनन्तरं चान्वयव्यतिरेकधर्मपर्यालोचनरूपा ईहा, तदनन्तरंच 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयज्ञानमपाय: इति सर्वं सुस्थं भवति। इति गाथार्थः / अथ प्रथममेवाऽर्थाऽवग्रहज्ञानेन शब्दाऽग्रहणे पर: पुनरपि दोषमाह-- जइ सद्दो त्ति नगहियं, न उजाणइ जंक एस सद्दो त्ति। तमजुत्तं सामण्णे, गहिए मम्गिज्जइ विसेसो॥२६० / / यद्यर्थाऽवबोधसमये प्रथममेव"शब्दोऽयम्' इत्येवं तद्वस्तु नगृहीतं, तर्हि 'न उण जाणइ केवेस सद्दे त्ति' 'जंति', यत्सूत्रे निर्दिष्टं तदयुक्तं प्राप्नोति, यस्माच्छब्दसामान्ये रूपादिव्यावृत्ते गृहीते संति पश्चान्मृग्यतेअन्विष्यते विशेष:- 'किमयं शब्द: शाङ्क:, उतशाङ्ग:?' इति। इदमुक्तं भवति "न उण जाणइ के वेस सद्दे" त्ति, अस्मिन् नन्दिसूत्रे 'न पुनर्जानाति कोऽप्येष शाङ्खशाधिन्यतरशब्दः' इति विशेषस्यैवाऽपरिज्ञानमुक्तम्, शब्दसामान्यमात्रग्रहणं त्वनुज्ञातमेव, तद्ग्रहणे तु 'क एष शब्द: किं शाङ्गः, शाङ्गों वा' इत्येवं विशेषमार्गणमसङ्गतमेव स्थात् विशेषजिज्ञासाया: सामान्यज्ञानपूर्वकत्वाच्छब्दसामान्ये गृहीतएव तद्विशेषमार्गणस्य युज्यमानत्वात्। इति गाथार्थः / अत्रोत्तरमाहसव्वत्थ देसयंतो, सद्दो सद्दो त्ति भासओ भणइ। इहरान समयमित्ते, सहो त्ति विसेसणं जुत्तं // 26 // सर्वत्र-पूर्वस्मिन्, अत्र च सूत्रावयवे अवग्रहस्वरूपं देशयन्- प्ररूपयन् 'शब्द: शब्दः' इति भाषक:- प्रज्ञापक एव वदति, न तु तत्र ज्ञाने शब्दप्रतिभासोऽस्ति। इत्थं चैतद्, अन्यथा न समयमात्रेऽर्थावग्रहकाले 'शब्दः' इति विशेषणं युक्तम्, आन्तर्मुहूर्तिकत्वाच्छब्दनिश्चयस्येति प्रागेवोक्तम्। सांव्यवहारि-कार्थाऽवग्रहापेक्षं या सूत्रमिदं व्याख्यास्यते इति मा त्वरिष्ठाः / इति गाथार्थः। अथ सूत्रावष्टम्भवादिनं परं दृष्ट्वा सौत्रमेव परिहारमाअहव सुए चिय भणियं, जह कोई सुणेज्ज सहमवत्तं / अवत्तमणिद्देसं, सामण्णं-कप्पणारहियं / / 262 / / अथवा यदि तव गाढः श्रुतावष्टम्भः तदा तत्राप्येतद्भणितं यदुतप्रथममव्यक्तस्यैव शब्दोल्लेखरहितस्य शब्दमात्रस्य ग्रहणम् / केन पुन: सूत्राऽवयवेनेदमुक्तम्? इत्याह- 'जह कोइ सुणेज्ज सद्दमव्वत्तं' ति अयं च सूत्रावयवो नन्द्य-ध्ययने इत्थं द्रष्टव्यः- "से जहानामए के इपुरिसे अव्वत्तं सई सुणेज्जत्ति (सूत्र+) अत्र अव्यक्तमिति कोऽर्थ:? इत्याह-अनिद्देश्यं 'शब्दोऽयं 'रूपादिर्वा' इत्यादिना प्रका Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 290 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण रेणाऽव्यक्तमित्यर्थः / ननु यदि शब्दादिरूपेणाऽनिद्देश्य, तर्हि किं तद्? इत्याह-सामान्यम् / किमुक्तं भवति?, इत्याहनामजात्या- / दिकल्पनारहितम् / न च वक्तव्यं शाङ्कशाङ्गभेददापेक्षया शब्दोल्लेखस्याप्यव्यक्तत्वे घटमाने कुत इदं व्याख्यानं लभ्यते? इति; अवग्रहस्यानाकारोपयोगरूपतया सूत्रेऽधीतत्वाद् अना-कारोपयोगस्य च सामान्यमात्रविषयत्वात् , प्रथममेवाऽपायप्रस- क्त्याऽवग्रहेहाभावप्रसङ्ग इत्याधुक्तत्वाच / इति गाथार्थः / अथ सूरिरेव पराभिप्रायमाशिशङ्कयिषुराहअहव मई पुव्वं चिय, सो गहिओ वंजणोग्गहे तेणं। जं वंजणोग्गहम्मि वि, भणियं विण्णाणमव्वत्तं / / 263 / / अथ् परस्य मति: स्यात्केयम् ? इत्याह-स:-अव्यक्तः, अनिद्देश्यादिस्वरूप: शब्द: अर्थाग्रहात्पूर्वमेव व्यञ्जनावग्रहे तेन श्रोता गृहीत:तत्किमित्यर्थावग्रहेऽपितद्ग्रहणमुघुष्यते? कथमिदं पुनर्जायते यदुत-असौ व्यञ्जनाऽवग्रहे गृहीत:? इत्याह- 'जमि' त्यादि, यत्यस्माद् व्यञ्जनाऽवग्रहेऽपि भव-द्भिरव्यक्तं विज्ञानमुक्तम्, अव्यक्तविषयग्रहण एव चाऽव्यक्तत्वम् तस्योपपद्यते इति भाव: इति। गाथार्थ:। अत्रोत्तरमाअस्थि तयं अव्वत्तं, न उ तं गिण्हइ सयं पि सो भणियं / न उ अग्गहियम्मि जुज्जइ, सहो त्ति विसेसणं बुद्धी / / 264 / / अस्ति तदव्यक्तं श्रोतुर्व्यञ्जनावग्रहे ज्ञानं, न तस्यात्माभि- रपलाप: क्रियते, न पुनरसौ श्रोता अतिसौक्ष्म्यात्तत्स्वयमपि गृह्णाति संवेदयते। एतच्च प्रागपि भणितम् / "सुत्तमत्ताइसुहुम-बोहो व्व'' इति वचनात्, तथा "सुत्तादयो सयं वि य विण्णाणं णाऽवबुज्भंति" इति वचनाच्च / तस्माद् व्यञ्जनमात्रस्यैव तत्र ग्रहणं, न शब्दस्य, व्यञ्जनावग्रहत्वान्यथाऽनुपपत्तेरेवेति / न च सामान्यरूपतया अव्यक्ते शब्देऽगृहीतेऽकस्मादेव शब्द: इति विशेषणबुद्धिर्युज्यते, अनुस्वारस्याऽलाक्षणिकत्वाद्विशेषु-बुद्धिरित्यर्थ: / अस्यां च विशेषबुद्धौ प्रथममेवेष्यमाणायामा-दावेवार्थवग्रहकालेऽप्यपायप्रसङ्गः इत्यसकृदे-वोक्तम्। इति गाथार्थः। ननु यदि व्यञ्जनाऽवग्रहेऽप्यव्यक्तशब्दग्रहणं भवेत्तदा को दोष: स्यात् ? इत्याहअत्थो त्ति विसयगहणं, जइ तम्मि वि सोन वंजणं नाम / अत्थोग्गहो चिय ततो, अविसेसो संकरो वाऽवि / / 265 / / अर्थाऽवग्रहे अर्थः इत्यनेन तावद्विषयग्रहणमभिप्रेतंरूपादिभेदेनाऽनिर्धारितस्याव्यक्तस्य शब्दादेविषयस्य ग्रहणं; तत्राऽभिप्रेतमित्यर्थः / यदि च तस्मिन्नपि व्यञ्जनाऽवग्रहेऽसावव्यक्तशब्द: प्रतिभासते इत्यभ्युपगम्यते, तदा न व्यञ्जनं नाम; व्यञ्जनाऽवग्रहो न प्राप्नोतीत्यर्थः / ततश्चेदानी निवृत्ता तत्कथा, व्यञ्जनमात्रसंबन्धस्यैव तत्रोक्तत्वात्, भवता च तदतिक्रान्तस्याऽव्यक्तार्थग्रहणस्येहाऽभिधीयमानत्वादिति / तमुव्य-क्तार्थग्रहणे किमसौ स्यात् ? इत्याह- अर्थाऽवग्रह एवाऽसौ, अव्यक्ताऽर्थावग्रहणात्, | ततश्च नास्ति व्यञ्जनम् -व्यञ्जनाऽव-ग्रहः / अथास्याऽपि सूत्रे प्रोक्तत्वादस्तित्वं न परिहियते, तर्हि द्वयोरप्यविशेष: सोऽप्यविग्रह: सोऽपि व्यञ्जनावग्रह: प्रोप्नोतीति भावः / मेचकमणिप्रभावत् संकरो वा स्यादित्थम्। इति गाथार्थः / तदेवं व्यञ्जनाऽवग्रहे व्यञ्जनसंबन्धमात्रमेव, अर्थाऽवग्रहे त्वव्यक्तशब्दाद्यर्थग्रहणं, न व्यक्तशब्दाद्यर्थसंवेदनम्, इति प्रतिपादितम्। सांप्रतमुपपत्त्यन्तरेणाप्यर्थाऽवग्रहे व्यक्तशब्दार्थ- संवेदनं निराचिकीर्षुराहजेणऽत्थोग्गहकाले, गहणेहाऽवायसंभवो नडत्थि। तो नऽत्थि सहबुद्दी, अहऽत्थिनाऽवग्गहो नाम ||266 / / पूर्व तावदर्थस्य ग्रहणमात्रं ततश्चेहा, तदनन्तरं त्वपायः, इत्येवं मतिज्ञानस्योत्पत्तिक्रमः / न चैतत् त्रितयं प्रथममेवशब्दा- र्थेऽवगृहीते समस्तीति। एतदेवाह-येनार्थाऽवग्रहकालेऽर्थग्रहणे- हाऽपायानां संभवो नाऽस्ति ततोऽर्थाऽवग्रहे नाऽस्ति 'शब्द': इति विशेषबुद्धिः अर्थग्रहणेहापूर्वकत्वात्तस्याः। अथाऽस्त्यसौतत्र, तर्हि नाऽयमर्थाऽवग्रहः, किं त्वपाय एव स्यात्, न एतद्युज्यते तदभ्युपगमेऽर्थाऽवग्रहेहयोरभावप्रसङ्गात्। इति गाथार्थः। अपि-च अर्थाऽवग्रहे 'शब्दः' इति विशेषबुद्धाविष्य माणायां दोषान्तरमप्यस्ति। किं तत् ? इत्याहसामण्ण-तदण्णविसे-सेहावज्जणपरिग्गहणओ से। अत्थोग्गहेगसमओ- वओगबाहुल्लमावण्णं / / 267 / / इह येयमाऽवग्रहै कसमये 'शब्दः' इति विशेषबुद्धिर्भवताऽभ्युपगम्यते, सातावन्निश्चयरूपा निश्चयश्चाकस्मादेवन युज्यते, किंतु क्रमेण, तथाहि-प्रथमं तावद्रूपादिभ्योऽव्यावृत्त- मव्यक्तं शब्दसामान्यं ग्रहीतव्यं,ततस्तद्विशेषविषयातदपर-रूपादिविशेषविषया च / एतैरेतैश्च धर्म: 'किमयं शब्द:, आहो- श्वित् रूपादिः' इत्येवं रूपा ईहा, तदनन्तरं च गृहीतशब्दसा- मान्यविशेषाणां ग्रहणम्, अन्येषां तु रूपादिविशेषाणां तत्राऽ- विद्यमानानां परिवर्जनम्, इत्येवंभूतेन क्रमेण निश्चयोत्पत्तिः / तथा च सति श्रोतुराऽवग्रहै कसमयेऽपि सामान्यग्रहणादिभिः प्रकारैरुपयोगबहुत्वमापद्यते, एकस्मिँश्च समये बहवः उपयोगाः सिद्धान्ते निषिद्धाः, इति नाऽविग्रहे शब्दादिविशेषबुद्धि: / इति गाथाभावार्थः / अक्षरार्थस्तूच्यते- सामान्यमिह-श्रूयमाणशब्दसामान्यं गृह्यते, 'तयण्णविसेसेह' त्ति-तच्छब्देनान्तरोत्तं शब्द सामान्यमनुकृष्यते, अन्यशब्देन तु तत्राऽविद्यमाना रूपादयः परिगृह्यन्ते ततश्च तचान्येच तदन्ये-शब्दसामान्य रूपादयश्चेत्यर्थः, तेषां विशेषा धर्माः श्रोत्रग्राह्यत्वादयः, चक्षुरादिवेद्यत्वादयश्च, तद्विषया ईहा तदन्यविशेषेहा, किमत्र श्रोत्रग्राह्यत्वादयो धर्माः उप-लभ्यन्ते, आहोश्वित्चक्षुरादिवेद्य-त्वादयः? इत्येवं रूपो विमर्श इत्यर्थः तदनन्तरं तु वर्जनं च तत्राऽविद्यमानरूपादिगतानां हेयधर्माणां चक्षुर्वेद्यत्वादीनां, परिग्रहणं च तत्र च गृहीतशब्दसामान्यर्गतानामुपादेयधर्माणां श्रोत्रग्राह्यत्वादीनाम् इति वर्जन-परिग्रहणेत्यागाऽऽदाने; सामान्यं चतदन्यविशेषेहा चवर्जनपरिग्रहणेच सामान्य- तदन्यविशेषेहाव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 291 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण र्जन-परिग्रहणानि तेभ्यस्तत: 'से' तस्य श्रोतु: / अर्थाव-ग्रहैकसमयेऽप्युपयोगबाहुल्यम्, आपन्नं-प्राप्तम् / तथाहि-प्रथमस्सामान्यग्रहणोपयोगः यथोक्तेहोपयोगस्तु द्वितीयः, हेयधर्मवर्जनोपयोगस्तृतीयः, उपादेयधर्मपरिग्रहणोप-योगश्चतुर्थः इत्येवमविग्रहैकसमयमात्रेऽपि बहवः उपयोगा: प्राप्नुवन्ति / नचैतद्युत्तं, समयविरुद्धत्वात् / तस्मानार्थाऽव-ग्रहे शब्दविशेषबुद्धि:, किं तु 'सद्दे त्ति भण्णइ क्त्ता' इत्यादि स्थितम्। इति गाथार्थः। अथास्मिन्नेवार्थाऽवग्रहेऽपरवाधभिप्राय निराचिकीर्षुराहअण्णे सामण्णग्गहण-माहुबालस्स जायमेत्तस्स। समयम्मि चेव परिचिय-विसयस्स विसेसविनाणं / / 268 / / अन्ये-वादिनः केचिदेवमाहुः- यदेतत्सर्वविशेषविमुखस्या--ऽव्यक्तस्य सामान्यमात्रस्य वस्तुनो ग्रहणमालोचनं, तबाल-स्य शिशोस्तत्क्षणजातमात्रस्य भवति, नाऽत्र विप्रतिपत्तिः, अव्यक्तो ह्यसौ संकेतादिविकलोऽपरिचितविषयः / यस्तर्हि परिचितविषयः, तस्य किम् ? इत्याह- समय एव आद्यशब्द-श्रवणसमय एव विशेषविज्ञानं जायते, स्पष्टत्वात्तस्य ततश्चा-मुमाश्रित्य तेण सद्देत्ति उग्गहिए' इत्यादि, यथाश्रुतमेव व्याख्यायते, तेन न कश्चिद्दोष इति भावः / इति गाथार्थ: अत्रोत्तरमाहतदवत्थमेव तं पुथ्व-दोसओ तम्मि चेव वा समये। संखमहुराइसुबहुय-विसेसगहणं पसज्जेज्जा // 269 / / "जेणऽत्थोग्गहकाले" (२६६गा.) इत्यादिना ग्रन्थेन सामपणतयण्णविसेसेहा (267 गा.) इत्यादिना च ग्रन्थेन यद् दूषितं या तस्यावस्था-यत्तस्य स्वरूपम्-'समयम्मि चेव परिचियविसयरस विसेसविण्णाणं' इति, तदेतत्परोक्तमपि तदवस्थमेव, न पुन: किंचिदूनाधिकावस्थम् / कुत: ? इत्याह- "पुव्वदोसउ' त्ति, "जेणत्थोग्गहकाले" (266 गा.) इत्यादिना"सामण्णतयण्ण' (267 गा.) इत्यादिना च य: पूर्व दोषोऽभिहितस्तस्मात्पूर्वदोषात् पूर्वदोषानतिवृत्तेः, तदेतत्परोक्तं तदवस्थमेव, इति नान्यदूषणाद्यभिधानप्रयासो विधीयत इति भावः / अथ वा-पूर्वमपि दूषणमुच्यते। किं तद् ? इत्याह-'तम्मि चेव' इत्यादि, 'वा' इति अथवा, तस्मिन्नेव स्पष्टविज्ञानस्य व्यक्तस्य जन्तोर्विशेग्राहिणि समये 'शास शाङ्गों वाऽयं शब्द:, स्निग्धो मधुरः कर्कश: स्त्री-पुरुषाद्यन्यतरवाद्यः' इत्यादिषु बहु कविशेषग्रहणं प्रसज्येत / इदमुक्तं भवति-यदि व्यक्तस्य परिचितविषयस्य जन्तोरव्यक्तशब्दज्ञानमुल्लच्य तस्मिन्नर्थावग्रहैक समयमात्रे शब्दनिश्चयज्ञानं भवति, तदा अन्यस्य कस्यचित्परिचिततरविषयस्य पटुतरावबोधस्य तस्मिन्नेव समये व्यक्तशब्दज्ञानमपि अतिक्रम्य, "शाङ्खोऽयं शब्द: इत्यादिसंख्यातीतविशेषग्राहकमपि ज्ञानं भवदभिप्रायेण स्यात्, दृश्यन्ते च पुरुषशक्तीनां तारतम्यविशेषाः / भवत्येव कस्यचित्प्रथमसमयेऽपि | सुबहुविशेषग्राहकमपि ज्ञानमिति चेत्, न, "न उण जाणइ केवेस सद्दे'' इत्यस्य सूत्रावयवस्या-गमकत्वप्रसङ्गात्। विमध्यमशक्ति पुरुषविषयमेतत्सूत्रमिति चेत, न; अविशेषणोक्तत्वात् , सर्वविशेषविषयत्वस्य च युक्त्यनुपपन्नत्वात् ; न हि प्रकृष्टमतेरपि शब्दधर्मिणमगृहीत्वा उत्तरोत्तरबहुसुधर्मग्रहणसंवभोऽस्ति, निराधारधर्माणामनुपपत्तेः / इति गाथार्थ: किं च- समयमात्रेऽपि 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानम-- भ्युपगच्छतोऽन्येऽपि समयविरोधादयो दोषाः / केपुनस्ते? इत्याहअत्थोग्गहो न समयं, अहवा समओवओगबाहुल्लं। सम्वविसेसग्गहणं, सव्वमईवोग्गहो गिज्जे ||27 // एगो वाऽवाउ चिय,अहवा सोऽगहियणीहिए पत्तो। उवक्कम-वइक्कमा वा, पत्ता धुवमोग्गहाईणं / / 271 / / सामण्णं च विसेसो, वा सामण्णमुभयमुभयं वा। नय जुत्तं सव्वमियं वा,सामण्णाऽऽलंबणं मोत्तुं // 272 / / 'उग्गहो एक्कं समयमि' त्यादिवचनादर्थावग्रह: सिद्धान्ते सामयिको निर्दिष्टः, यदि-चार्थाऽवग्र हे विशेषविज्ञानमभ्युपगम्यते तदा सामायिकोऽसौन प्राप्नोति, विशेषज्ञानस्याऽसंख्ये- यसामयिकत्वाद। अथ समयमात्रेऽप्यस्मिन् विशेषज्ञानमिष्यते, तर्हि "सामण्णतयण्णविसेसेहा" (267 गा.) इत्यादिना प्रागुक्तं समयोपयोगबाहुल्य। प्राप्नोति / अथवेत्यग्रतोऽप्यनुवर्तते / ततश्च अथवा परिचितविषयस्य विशेषज्ञानेऽभ्युपगम्यमाने परिचिततर- विषयस्य तस्मिन्नेव समये सर्वविशेषग्रहण-मनन्तरोक्तं प्राप्नोति। अथवा अवग्रहमात्रादपि विशेषपरिच्छेदेऽङ्गीक्रियमाणे ईहादीनाभनुत्थानमेव। ततेश्च सर्वापि मतिरवग्रहो ग्राह्य:- सर्वस्याऽपि मतेरवग्रहरूपतैव प्राप्नोतीत्यर्थ: ।अथवा-सर्वाऽपि मतिरपाय एवैक: प्राप्नोति, अर्थावग्रहे विशेषज्ञानस्याश्रयणात, तस्य च निश्चयरूपत्वात्, निश्चयस्य, चाऽपायत्वादिति समयमात्रे चास्मिन्नपाये सिद्धे "ईहावायामुहुत्तमंत्तं तु" इति विरुध्यते / अथवा- अर्थेऽवगृहीते ईहितेच, अपाय: सिद्धान्ते निर्दिश्यते "उगहो, ईहा, अवाओय' इति क्रमनिर्देशात्, यदि चाद्यसमयेऽपि विशेषज्ञानाभ्युगपगमादपाय इष्यते, तीनव-गृहीते अनीहिते च तस्मिन्नसौ प्राप्तः ! 'वा' इतिअथवा, यदि तृतीयस्थाननिर्दिष्टोऽप्यपाय: "समयम्मि चेव परिचिय विसयस्स विण्णाणं' इति वचनात्पटुत्ववैचित्र्येण प्रथममभ्युपगम्यते, तर्हि तस्मादेव पाटववैचित्र्यादवग्रहेहा-ऽपायधारणानां ध्रुवं निश्चितमुत्क्रमव्यतिक्रमौ स्याताम्।तत्रपश्चानुपूर्वीभवनम्उत्क्रमः।अनानुपूर्वीभावस्तुव्यतिक्रमः / तथा हि / यथा शक्तिवैचित्र्या-त्कश्चित्प्रथममेवापायो भवताभ्युप-गम्यते, तथा तत एव कस्यापि प्रथमं धारणा स्यात्, ततोऽपाय:, ततोऽपि ईहा तदनन्तरंत्ववग्रह इत्युत्क्रमः,अन्यस्य कस्यचित् पुनरवग्रहमुल्लङ्घय प्रथममेवेहा समुपजायेत, अपरस्य तु तामप्यतिक्रम्याऽपाय,अन्यस्य तु तमप्यतिवृत्य धारणा स्याद् इत्यादि व्यतिक्रमः।नचेह वयं युक्तिमाप्रच्छनीया: भवदभ्युपगतस्य शक्तिवैचित्र्य Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 292 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण स्यैव पुष्टिहेतोः सद्भावात् / न चैतावुत्क्रमव्यतिक्रमौ युक्ती सूत्रे विषयविभागव्यवस्थापितेऽपि वादी जयं न प्राप्स्यति, तदा "उग्गहो ईहा अवाओ य धारणा एव होंति चत्तारि'' इति तूष्णीमाश्रयन्तु विपश्चितो विचारचर्यामार्गस्य स्वाग्रहतत्परेण त्वयैव परममुनिनिर्दिष्टक्रमस्याऽन्यथाकर्तुमशक्यत्वादिति / तथा यदि लुप्तत्वात् / इति गाथार्थः / यत्प्रथमसमये गृह्यते स विशेषस्तर्हि "सामण्णं स विसेसो' त्ति तदत्र सूरि: परस्येषद्गनुिविद्धामज्ञतामवलोकयत्सामान्यं तदपि विशेषः प्राप्त:, प्रथमसमये हि सर्वस्याऽपि यन् मार्गाऽवतारणाय विकल्पयन्नाहवस्तुनोऽव्यक्तं सामान्यमेव रूपं गृह्यते, ततोऽस्मिन्नप्या- ऽवग्रहसमये तं वंजणोग्गहाओ, पुय्वं पच्छा स एव वा होज्जा। सामान्यमेव गृह्यत इति परमार्थः / यदि वा अत्र विशेषबुद्धिर्भव पुथ्वं तदत्थवंजण-संबंधाऽभावओ नऽत्थि।।२७४ / / ताऽभ्युपगम्यते, तर्हि यदिह वस्तस्थित्या सामान्य स्थितं तदपि भवदभिप्रायेण विशेष: प्राप्त: / 'चि' शब्दो दूषण- समुच्चयार्थः / 'सो वा यद्यनुपहतस्मरणवासनासन्तानस्तदशर्थावग्रहात्पूर्व व्यञ्ज- नावग्रहो सामण्णं त्ति-सवा भवदभिप्रेतो विशेषो वस्तुस्थितिसमायातं सामान्य भवतीति यदुक्तं, प्राक् तद् भवानपि स्मरति। ततः किम्? इति चेद्, प्राप्नोतीति / 'उभयमुभयं व' त्ति- अथ-वा सामान्य-विशेषलक्षण उच्यते- यदेतद्भवदुत्प्रेक्षितं सामान्यग्रसहकमा- लोचनं तत्मुभयमप्येतत्प्रत्येकमुभयं प्राप्नोति- एकैकमुभयरूपं स्यादित्यर्थ: तथा तस्माद्यञ्जनाऽवग्रहात्पूर्व वा भवेत्, पश्चाद्वा भवेत्, सा एव वा हि-अव ईषत्सा-मान्यं गृह्णातीत्यग्रह इतिव्युत्पत्त्या वस्तुस्थितिसमायातं व्यञ्जनावग्रहोऽप्यालोचनं भवेत ? इति त्रयी गति:, अन्यत्र यत्- सामान्यं तत्स्वरूपेण तावत्सामान्यम्, भवदभ्युपगमेन तु विशेष:, स्थानाऽभावात्। किं चात:? इत्याह-पूर्वं तन्नास्तीति संबन्धः / कुत:? इत्येकस्याऽपि सामान्यस्योभयरूपता: तथा योऽपि भवदभ्युपगतो इत्याह- अर्थव्यञ्जनसंबन्धाभावादिति अर्थ:- शब्दादिविषयभावेन विशेष: सोऽपि त्यदभिप्रायेण विशेष: वस्तुस्थित्या तु सामान्यम्, इति परिणतद्रव्यसमूहः, व्यञ्जनंतु श्रोत्रादि, अर्थश्च व्यञ्जनंच अर्थव्यञ्जने विशेषस्याप्येकस्योभयस्वभाव-ता। भवत्वेवमिति चेत्। इत्याह-नच तयोः संबन्धस्तस्याऽभावात्, सति ह्यर्थव्यञ्जनसंबन्धे युक्तं सर्वमिदम्। किं कृत्वा? इत्याह- सामान्यमालम्बनं ग्राह्य मुक्त्वा सामान्यार्थालोचनं स्याद, अन्यथा सर्वत्र सर्वथा तद्भावप्रसङ्गात् / अर्थाऽवग्रहस्य इति शेषः / इदमुक्तं भवति-अर्थावग्रहस्याऽव्यक्तं व्यञ्जनाऽवग्रहाच पूर्वमर्थव्यञ्जनसंबन्धो नाऽस्ति, तद्भावे च सामान्यमात्रमा- लम्बनं परिहत्य यदन्यद्विशेषरूपमालम्बनभिष्यते, व्यञ्जनावग्रहस्यैवेष्टत्वात्तत्पूर्वकालतान स्यादिति भावः। इति गाथार्थः / तदभ्युपगमे च 'सामण्णं च विसेसो वा सामण्णं' इत्यादि, यदापतति, द्वितीयविकल्पं शोधयन्नाहतत्सर्वमयुक्तम्, अघटमानकत्वात्। इह च गाथात्रये बहुषु दूषणेषु मध्ये अत्थोग्गहो विजं वं-जणोग्गहस्सेव चरमसयम्मि। यत् प्रागुक्तमपि किंचित् दूषणमुत्तं तत्प्रसङ्गायातत्वात्, इति न पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होज्जा |275 / / पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम् इति गाथात्रयार्थः / तथा-अर्थावग्रहोऽपि यद्-यस्माद्व्यञ्जनाऽवग्रहस्यैव चरमसमये प्रस्तुत एवाऽर्थोपरमपि मतान्तरमुपन्यस्य निराकुर्वन्नाह-- भवति, इति, प्रागिहापि निर्णीतम् / तस्मात्पश्चादपि व्यञ्जनाऽकेई दीहालोयण-पुटवमोग्गहं विति तत्थ सामण्णं / वग्रहादालोचनज्ञानं न युक्तं, निरवकाशत्वात् / न हि व्यञ्जनार्थाsगहियम हत्थावग्गह-काले सहि त्ति निच्छिण्णं ||273 / / वग्रहयोरन्तरे काल: समस्ति, यत्र तत् त्वदी- यमालोचनज्ञानं स्यात्, केचित् - वादिन: इहास्मिन्प्रक्रमेऽवग्रहं ब्रवते-अर्थावग्रहं व्याचक्षते। व्यञ्जनाऽवग्रहचरमसमय एवार्था- वग्रहसद्भावात् तस्मात्पूर्वपश्चात्कालकिं विशिष्टम्? इत्याह-आलोचनपूर्वम् -सामान्य-वस्तुग्राहिज्ञानम् - योर्निषिद्धत्वात्पारि- शेष्यान्मध्यकालवर्ती तृतीयविकल्पोपन्यस्तो आलोचनं तत्पूर्व-प्रथमं यत्र स तथा तं, प्रथ- ममालोचनज्ञानं व्यञ्जनं- व्यजनावग्रह एव भवता आलोचनाज्ञानत्वेनाभ्युपगतो भवेत्। ततोऽर्थावग्रह इत्यर्थः, तथा चतैरुक्तम्-"अस्ति ह्यालोचनाज्ञान, प्रथम एवं च न कश्चिद्दोष: नाममात्र एव विवादात्। इति गाथार्थः। निर्विकल्पकम्। बालमूकादिविज्ञान सदृशं शुद्धवस्तुजम्" // 1 // इति। क्रियतां तर्हि प्रेरकवर्गेण वर्धापनकं, त्वदभिप्रायाविसंवा- दलाभात, किं पुनस्तत्राऽऽलोचनज्ञाने गृह्यते ? इत्याह-'तत्त्थ' इत्यादि तत्र इति चेत् / नैवं विकल्पद्वयस्येह सद्भावात्, तथा हि-तद् आलोचनज्ञाने सामान्यम-व्यक्तं वस्तु गृहीतं प्रतिपत्ता इति गम्यते, व्यञ्जनावग्रहकालेऽभ्युपगम्यमानमालोचनं किमर्थस्या- लोचनं, अथानन्तरम् - अर्थाऽवग्रहकाले'तदेव गृहीतम्' इत्यनुवर्तते। कथंभूतं व्यञ्जनानां वा ? इति विकल्पद्वयम् / तत्र प्रथम- विकल्पमनूद्य सद् ? इत्याह- निच्छिन्नं- पृथक् कृतं: रूपादिव्यावृत्तेरित्यर्थः, दूषयन्नाहकेनोल्लेखनगृहीतम्? इत्याह-सद्दे त्ति-शब्द-विशेषणविशिष्टमित्यर्थः / तंच समालोयणम-त्थदरिसणं जइन बंजणं तो तं। ततश्च "से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सह सुणेज्ज" इति ए अह वंजणस्स तो कह-मालोयणमत्थसुण्णस्स? ||276 / / तदालोचनज्ञानापेक्षया नीयते, "तेणं, सद्दे त्ति उग्गहिए'' एतत् तत्समालोचनंयदिसामान्यरूपस्यार्थस्यदर्शनमिष्यतेतत:तर्हिनव्यञ्जनम्चार्थाऽवग्रहापेक्षयेति सर्व सुस्थतामनुभवति / न चातः परं नव्यञ्जनाऽग्रहात्मकंभवति,व्यञ्जनाऽवग्रहस्यव्यञ्जनसंबन्धमात्ररूपत्वेनाभवतोऽप्याचार्य: किंचि-द्वक्तव्यमस्ति; यदि हियुक्त्य-नुभवसिद्धनार्थेन / ऽर्थशून्यत्वात्, तथा च प्रागपि "पुव्वं च तस्स वंजण- कालो सो अत्थ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 293 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण परिसुण्णो" इत्यादिना साधितमेवेदम् / अतोऽर्थदर्शनरूपमालो- चनं कथमर्थशून्य- व्यञ्जनावग्रहात्मकं भवितुमहर्ति ? विरो-धाद्। अथ द्वितीयविकल्पमङ्गीकृत्याह-अथव्यञ्जनस्य शब्दा- दिविषयपरिणतद्रव्यसंबन्धमात्रस्य तत्समालोचनमिष्यते, तर्हि कथभालोचनं कथमालोचकत्वं तस्यघटते? इत्यर्थः / कथं- भूतस्य सत:? इत्याहअर्थशून्यस्य व्यञ्जनसंबन्धमात्रान्वित- त्वेन सामान्यार्थालोचकत्वानुपपत्तेरित्यर्थ: / इति गाथार्थः / ननु शास्त्रान्तरप्रसिद्धस्यालोचनज्ञानस्य वरा ___ कस्य तर्हि का गति:? इत्याहआलोयण त्ति नाम,हविज्जतं वंजणोग्गहस्सेव। होज्ज कहं सामण्णग्गहणं तत्थऽत्थसुण्णम्मि? ||277 / / तस्मादालोचनमिति यन्नाम तदन्यत्र निर्गतिकं सत्पारि- शेष्याद्व्यञ्जनावग्रहस्यैव द्वितीयं नाम भवेत्। नच विव-क्षामात्रप्रवृत्तेषु वस्तूनां बहुष्वपि नामसु क्रियमाणेषु कोऽपि विवादमाविष्करोति? अत एतदपि नामान्तरमस्तु, को दोष:? इति / नैतदेवम्, यस्मादिदं सामान्यग्रसहकमालोचनज्ञानं भविष्यति, अर्थावग्रहस्तु विशेषग्राहक / इति; एवमप्यस्माकं समीहितसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्, इत्याह-'होज्ज' त्यादि / व्यञ्जनावग्रहस्यैव पारिशेष्यादालोचनज्ञानत्वमापन्नं तत्र च प्रागुक्तयुक्तिभिरर्थशून्ये कथं सामान्यग्रहणं भवेत, येन भवतः समीहितसिद्धिप्रमोद:? इति। तस्मादविग्रह एव सामान्याऽर्थ-ग्राहक: न पुनरेतस्मादपरमालोचनाज्ञानम् / अत एव यदुक्तम्"अस्तिह्यालोचनाज्ञानं, प्रथमं निर्विकल्पकम्" इत्यादि, तदप्यर्थावग्रहाश्रयमेव, यदि घटते; नाऽन्यविषयम्। इति गाथार्थः। अथ 'दुर्बलं वादिनं दृष्ट्वाऽभ्युपगमोऽपि कर्त व्य: इति न्यायप्रदर्शनार्थमाहगहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि। अत्थाऽवग्गहकाले, विसेसणं एस सहो त्ति।।२७८ // आथवा भवतु तस्मिन् व्यञ्जनाऽवग्रहे सामान्यं गृहीतं, तथाऽपि कथमनीहिते-अविमर्शिते तस्मिन्नकस्मादेवार्थाऽवग्रहकाले 'शब्द एषः' इति विशेषणं विशेषज्ञानयुक्तं, 'शब्द एवैषः' इत्ययं हि निश्चयः, न चायमीहामन्तरेण जगित्येव युज्यते, इत्यसकृदेवोक्तप्रायम् / अतो नार्थाऽवग्रहे 'शब्दः' इत्यादि-विशेषबुद्धियुज्यते। इति गाथार्थ: / अथाऽर्थाऽवग्रहसमये शब्दाद्यवगमेन सहैवेहा भविष्यतीति मन्यसे, तत्राऽऽहअत्थाऽवग्गहसमये, वीसुमसंखिज्जसमइया दो वि। तक्काऽवगमसहावा, ईहाऽवाया कह जुत्ता? ||279 / / अर्थाऽवग्रहसंबन्धिन्येकस्मिन्समये कथमीहापायौ युक्तौ ? इति संबन्धः / कथंभूतावेतौ? यतः, इत्याह-ताऽवगमस्वभावौ तर्कोविमर्शस्तत्स्वभावा ईहा, अवगमोऽपिनिश्चयस्तत्स्व- भावोऽपाय: द्वावपि चैतो पृथगसंख्येयसमयनिष्पन्नौ / एतदुक्तं भवति- यदिदमर्थाऽवग्रहे विशेषज्ञानं त्वयेष्यते सोऽपाय:, स चाऽवगमस्वभावो निश्चयस्वरूप इत्यर्थः; या च तत्समकाल- मीहाऽभ्युपेयते सा तर्क स्वभावा; अनिश्चयात्मिका इत्यर्थः / तत एतौ ईहाऽपायौ अनिश्चयेतरस्वभावौ कथमर्थावग्रहे युगपदेव युक्तौ निश्चयाऽनिश्चययोः परस्परपरिहारेण व्यवस्थितत्वादेकत्रैकदा- ऽवस्थानाभावेन सहोदयानुपपत्तेः ? इति / एषा तावद्विशेषावगमे- हयो: सहभावे एकानुपपत्तिः / अपरं च समयमात्रकालोऽर्थाऽवग्रह ईहाऽपायौ तु "ईहाऽवायामुहुत्तमंतंतु" इति वचनात्प्रत्येकम-संख्येयसमयनिष्पन्नौ कथमेकस्मिन्नर्थाऽवग्रहसमये स्याताम् / अत्यन्तानुपपन्नत्वात्? इति द्वितीयानुपपत्तिः तस्मादत्यन्ताऽ- संबद्धत्वाद्यत्किं चिदेतत्, इत्युपेक्षणीयम् / इति गाथार्थः / / तदेवं युक्तिशतैर्निराकृतानामपि प्रेरकाणां नि:संख्या त्वात्वेषांचित्प्रेर्यशेषमद्यापि सूरिराशङ्कतेखिप्पेतराइभेओ, जमुग्गहो तो विसेसविण्णाणं / जुज्जइ विगप्पवसओ, सहो त्ति सुयम्मिजं केइ / / 280 / / 'केई' त्ति-इहार्थाऽवग्रहे विशेषज्ञानसमर्थनाग्रहममुमुक्षवो- ऽद्यापि 'केऽपि केचिद्वादिनो मन्यन्ते / किम्? इत्याह-क्षिप्रेतरा- दिभेदो यस्मादवग्रहो ठान्थान्तरे भणित: 'अत्रापि च विस्तरेण भणिष्यते' इति गम्यते / तत: 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानं युज्यते-घटते 'अर्थावग्रहे' इति प्रस्तावादेव लभ्यते। यत्किम्? इत्याह-'सुयम्मि जति-"तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए" इत्यादिवचनात् यत् सूत्रे निर्दिष्ट' इति शेष: / कुत्त: पुनरिदं विशेषविज्ञानं युज्यते? इत्याहविकल्पवशतोऽन्यत्रोक्तनानात्ववशत: इत्यक्षरघटना / एतत्वात्र हृदयम् क्षिप्रमवगृह्णाति, चिरेणाऽवगृह्णाति, बह्व वगृह्णाति, अबह्वगृह्णति बहुविधमवगृह्णाति अबहुविधमवगृह्णाति एवमनिश्रितं, निश्रितम्, असंदिग्धं, संदिग्धं, ध्रुवम्, अधुवं गृह्णाति, इत्यादिना ठान्थेनाऽवग्रहादयः शास्त्रान्तरे द्वादशभिर्विशेषणैर्विशेषिता: / अत्रापि च पुरस्तादयमों वक्ष्यते। तत: 'क्षिप्रं चिरेण चाव-गृह्णाति' इति विशेषणाऽन्यथानुपपत्तेायतेनैकसमयमात्रमान? एवार्थाऽवग्रहः, किंतु-चिर- कालिकोऽपि नहि समयमात्रमानतया एकरूपेतस्मिन् क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणमुपपद्यत इति भावः / तस्मादेतद्विशेषणबलाद-संख्येयसमय-मानोऽप्यविग्रहो युज्यते। तथा-बहूनां श्रोतृणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थेशजभेर्यादिबहुतूर्यनिर्घोष क्षयोप-शमवैचित्र्यात्कोऽप्यबहु अवगृह्णाति; सामान्यं समुदिततूर्यशब्दमात्रमवगृह्णातीत्यर्थः / अन्यस्तु बह्ववगृह्णाति; शङ्गभेर्यादिसूर्यशब्दान् भिन्नान् बहून् गृहृतीत्यर्थः / अन्यस्तु स्त्रीपुरुषादिवाद्यवस्निग्धमधुरत्वादिबहुविधविशेषविशिष्टवेन बहुविधमवगृह्णाति, अपरस्तु-अबहुविधविशेषविशिष्टत्वाद् अबहुविधमवगृह्णाति अत एतस्माद्बहुबहुविधाद्यनेकविकल्पना-नात्ववशादवग्रहस्य क्वचित्सामान्यग्रहणं क्वचित्तु- विशेषग्रहणम्, इत्युभयमप्यविरुद्धम्। अतो यत्सूत्रे"तेणं सद्देत्ति उग्गहिए" इति वचनात्- 'शब्दः' इति विशेषज्ञानमुपदिष्टं तदप्याऽवग्र हे युज्यत एव इति केचित् / इति गाथार्थः / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 294 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण अत्रोत्तरमाहसकिमुग्गहो त्ति भणइ, गहणेहाऽवायलक्खणत्ते वि। अह उवचारो कीरइ, तो सुण जह जुज्जए सोऽवि / / 281 / / इह पूर्वमनेकधा प्रतिविहितमप्यर्थं पुन: पुन: प्रेरयन्तं प्रेरक वलोक्यान्तर्विस्फुरदसूयावशात्साक्षेपं काचा सूरि: पृच्छति-'किमुग्गहो त्ति भण्णइ' त्ति-किंशब्द: क्षेपे, यो बहुबहुधादिवि- शेषणवशात् विशेषावगम:स किमबुधचक्रवर्तिन! अवग्रह:- अर्थाऽवग्रहा भण्यते? क्व सत्यपि ? इत्याह-'गहणे-हि' त्यादि, गहणं च सामान्यार्थस्य, ईहा अवगृहीतस्य, अपायश्च ईंहिताऽर्थस्य गहणे-हाऽ-पायास्तैर्लक्ष्यतेप्रकटीक्रियते यः स तथा तद्भावस्तत्त्वं तस्मिन् सत्यपि बहुबहुविधादिग्राहको हि विशेषाऽवगमो निश्चय: स च सामान्याऽर्थग्रहणम्, ईहां च विना न भवति, यश्चतदविनाभावी सोऽऽपाय एव, कथमर्थावग्रह इति भण्यते? इति। एतत्पूर्वसकृदेवोक्तमपिहन्त ! विस्मरण-शीलतया, जडतया, बुद्धाभिनिवेशतया वा पुन: पुनरस्मान् भाणयसीति किं कुर्म:? पुनरुक्तमपि ब्रूमो यद्यस्मादायासेनाऽपि कश्चिन्मार्गमासादयतोति। ननु ग्रहणम, ईहा च विशेषावगमस्य लक्षणं भवतु, ताभ्यां विना तदभावाद्, अपायस्तु कथं तल्ल-क्षणं, तत्स्वरूपत्वादेवास्य ? सत्यं, किं तु स्वरूपमपि भेदवि-वक्षया लक्षणं भवत्येव,यदाह-'विषाऽमृते स्वरूपेण, लक्ष्यते कलशादिवत् / एवं च स्वस्वभावाभ्यां, व्यज्येते खलसज्जनौ // 1 // " आह-यदि बहु-बहुविधादिग्राहकोऽप्राय एव भवति, तर्हि कथमन्यत्राऽवग्रहादीनामपि बह्वादिग्रहणमुक्तम्। सत्यं, किंतु अपायस्य कारणमवग्रहादय: कारणे च योग्यतया कार्यस्व-रूपमस्ति, इत्युपचारतस्तेऽपि बह्वादिग्राहका: प्रोच्यन्ते, इत्यदोषः / यद्यैवं, तर्हि वयमप्यपायगतं विशेषज्ञान-मर्थावग्रहेऽप्युपचरिष्याम इति एतदेवाह'अहे' त्यादि अथोक्तन्यायेनोपचारं कृत्वा विशेषग्राहकोऽर्थाऽवग्रहः प्रोच्यते / नैतदेवं, यतो मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचार: प्रवर्तते / नचैवमुपचारे किंचित्प्रयोजनमस्ति।"तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए" इत्यादिसूत्रस्य यथा श्रुतार्थनिगमनं प्रयोजनमिति चेत् / न "सदे त्ति भणइ वत्ता'' इत्यादिप्रकारेणाऽपि तस्य निगमितत्वात् / सामर्थ्यव्याख्यानमिदं, न यथाश्रुतार्थव्याख्येति चेत् / तर्हि यधुपचारेणाऽपि श्रौतोऽर्थः सूत्रस्य व्याख्यायते इति तवाभिप्राय:, तर्हि यथा युज्यते उपचारस्तथा कुरु, न चैवं क्रियमाणोऽसो युज्यते, यत: 'सिंहो माणवकः' 'समुद्रस्तडागः' इत्यादाविव किंचत्साम्ये सत्ययं विधीयमानः शोभते / न चैतत्सामायिकेऽर्थावग्रहेऽसंख्येयसामयिक विशेषग्रहणं कथमप्युपपद्यते तर्हि कथमयमुपचार: क्रियमाणो घटते ? इति चेद् / अहो ! सुचिरादुपसन्नोऽस्ति। ततः शृणु समाकर्णयाऽवहितेन मनसा, सोऽपि तथा युज्यते तथा कथयामि- 'सद्दे ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद्व्याख्यातं सूत्रम्। यदि चौपचारिकेणाऽप्यर्थेन भवत: प्रयोजनं, तर्हि सोऽपि यथा घटमानकस्तथा कथ्यत इत्यपिशब्दाभिप्राय: / इति गाथार्थः / यथा प्रतिज्ञातमेव संपादयन्नाहसामण्णमेत्तग्गहणं, नेच्छइओ समयमुग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहिय-वत्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥२८२ / / सो पुणरीहावायाऽ-विक्खाओऽवग्गहो त्ति उवयरिओ। एस्सविसेसाऽऽविक्खं,सामण्णं गिण्हएजेणं / / 283 / / तत्तोऽऽणंतरमीहा, ततोऽऽवाओ यतव्विसेसस्स। इसामण्णविसेसा-वेक्खा जावंऽतिमो भेओ।।२८४ / / इहै कसमयमात्रमानो नैश्चयिको निरुपचरित: प्रथमोऽर्थावग्रह: कथंभूत:? इत्याह-सामान्यमात्रस्याऽव्यक्तनिर्देशस्य वस्तुनो ग्रहणं; सामान्यवस्तुमात्रग्राहक इत्यर्थः, सामयिकानि हि ज्ञानादिवस्तूनि परमयोगिन एव निश्चयवेदिनोऽवगच्छन्तीति नैश्चयिकोऽयमुच्यते। अथ छद्मस्थव्यवहारिभिरपि यो व्यवह्रियते, तं व्यावहारिकमुपचरितमर्थाऽवग्रहं दर्शयति- 'तत्तो' इत्यादि, ततो नैश्चयिकाऽर्थाऽवग्रहादननन्तरमीहितस्य- वस्तुविशेषस्य योऽपाय: स पुनर्भाविनीमीहाम्, अपायंचाऽपेक्ष्यो-पचरितोऽवग्रहोर्थाऽवग्रह इति द्वितीयगाथायां संबन्धः / उपचारस्यैवास्य निमित्तान्तरमाह- 'एस्से' त्यादि, एष्योभावी योऽन्यो विशेषस्तदपेक्षया येन कारणेनायमपायोऽपि सन् सामान्यं गृह्णाति, यश्व सामान्यं गृह्णाति सोऽर्थावग्रहो यथा प्रथमो नैश्चयिक: / एतदिह तात्पर्य प्रथमं नैश्चयिकेऽर्थावग्रहे रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दादि वस्तु सामान्यं गृहीतं, ततस्तस्मिन्नीहिते सति 'शब्द एवायम्' इत्यादि निश्चयरूपोऽपायो भवति / तदनन्तरंतु 'शब्दोऽयं किं शाङ्कः, शाङ्गो वा इत्यादिशब्दविशेषविषया पुनरीहाप्रवर्तिष्यते 'शाङ्क एवाऽयं शब्द:' इत्यादिशब्दविशेषविषयोपायश्च यो भविष्यति तदपेक्षया 'शब्द एवायम्' इति निश्चय: प्रथमोऽपायोऽपि सन्नु- पचारादविग्रहो भण्यते, ईहाऽपायापेक्षया तुइत्यनेन चोपचारस्यैकं निमित्त सूचितम्, 'शाकोऽयं शब्दः' इत्याद्येष्यविशेषापेक्षया येनाऽ- सौ सामान्यशब्दरूपं सामान्य गृह्णातीति, अनेन तूपचारस्यैव द्वितीयं निमित्तमावेदितं; तथा हियदनन्तरमीहा पायौ, प्रवर्त्तते, यश्च सामान्यं गृह्णाति, सोऽर्थावग्रहः यथा आद्यो नैश्वयिक: प्रवर्त्तते च 'शब्द एवायमि' त्याद्यपायानन्तरमीहापायौ गृह्णाति च 'शाहो- ऽयमि' त्यादिभाविविशेषापेक्षयाऽयं सामान्यम् / तस्मादविग्रहः एष्यविशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णातीत्युक्तम् / ततस्तदनन्तरं किं भवति ? इत्याह- तृतीयगाथायाम्'ततोऽणंतरमि' त्यादि, तत: सामान्येन शब्दनिश्चयरूपात्प्रथमाऽपायादनन्तरं किमयं 'शब्द: शाङ्क: शार्हो वा ? इत्यादिरूपा ईहा प्रवर्तते। ततस्तद्विशेषस्य शङ्खप्रभवत्वादे: शब्दविशेषस्य 'शाङ्क एवायमि' त्यादिरूपेणापायश्च निश्चयरूपो भवति / अयमपि च भूयोऽन्यतमविशेषाकाङ्क्षावत: प्रमातु विनीमीहामपायं चापेक्ष्य एष्यविशेषापेक्षया सामान्यालम्बनत्वाचार्थावग्रह: इत्युपचर्यते / इयं च सामान्यविशेषापक्षा तावत् कर्त्तव्या यावदन्यो वस्तुनो भेदो विशेषः / यस्माच विशेषात्परतो वस्तुनोऽन्ये विशेषान संभवन्ति सोऽन्त्य: अथवा Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 295 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण संभवत्स्वपि अन्यविशेषेषु यतो विशेषात्परत: प्रमातुस्तज्जि-ज्ञासा निवर्त्तते सोऽन्त्य: तमन्त्यं विशेषं यावद्व्यावहारिकार्थाऽवग्रहहाऽपायार्थ सामान्यविशेषापेक्षा कर्त्तव्या। इति गाथात्रयाऽर्थः / इह च गाथात्रयेऽपि यः पर्यवसितोऽर्थो भवति, तमाहसव्वत्थेहाऽवाया, निच्छयओ मोत्तुमाइसामण्णं। संववहारत्थं पुण, सव्वत्थाऽवग्गहोऽवाओ।।२८५।। सर्वत्र विषयपरिच्छेदे कर्तव्ये निश्चयत:- परमार्थत: ईहाऽपायौ भवतः, 'ईहा, पुनरपाय: पुनरीहा, पुनरप्यपाय:' इत्येवं क्रमेण यावदन्त्यो विशेषस्तावदीहापायावेव भवत: नाऽर्थावग्रह इत्यर्थः / किंसर्वत्र एवमेव ? न इत्याह- 'मौत्तुमाइसामण्णं ति' आद्यमव्यक्तं सामान्यमात्रालम्बनमेकं सामयिक ज्ञानं मुक्त्वा-ऽन्यत्रेहापायौ भवतः, इदं पुनर्नेहा, नाऽप्यपाय:, किं त्वर्थावग्रह एवेति भावः / संव्यवहारार्थ व्यावहारिकजनप्रतीत्यपेक्ष पुनः सर्वत्र यो योऽपाय: स स उत्तरोत्तरेहाऽपायाऽपेक्षया, एष्यविशेषापेक्षया चोपचारतोऽर्थावग्रहः / एवं च तावन्नेयं, यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकाङ्क्षा प्रवर्तते / इति गाथार्थः। तरतमयोगाभावे तु किं भवतीत्याहतरतमजोगाऽभावे, ऽवाउ चिय धारणा तदंतम्मि। सव्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालंतरे विसई ||286 / / तरतमयोगाऽभावे-ज्ञातुरठोतनविशेषाकाक्षः निर्वृत्तौ अपाय एव भवति; न पुनस्तस्यावग्रहत्वमिति भावः, तन्निमित्तानां पुनरीहादी- [ नामभावादिति। यद्यग्रत ईहादयो न भवन्ति, तर्हि किं भवति ? इत्याहतदन्ते-अपायान्ते धारणातदर्थोपयोगा- प्रच्युतिरूपा भवति। शेषस्य वासनास्मृतिरूपस्य धारणाभेदद्व- यस्य व संभव:? इत्याह- 'सव्वत्थ वासणा पुण' इत्यादि, वासना च वक्ष्यमाणरूपा तथा कालान्तरे स्मृति:, साच सर्वत्र भणिता। अयमर्थ:- अविच्युतिरूपा धारणाऽपायपर्यन्त एव ' भवति, वासना-स्मृतीतु सर्वत्र कालान्तरेऽप्यविरुद्धे। इति गाथार्थ: / एवं चामिहितस्वरूपव्यावहारिकार्थावग्रहाऽपेक्षया यथाश्रुतार्थव्याख्यानमपि सूत्रस्याविरुद्धमेव, इति दर्शयन्नाहसद्दो त्तिय सुयभणियं, विगप्पओ जइ विसेसविण्णाणं। चिप्सेज्जतं पि जुज्जइ, संववहारोग्गहे सव्वं / / 287 / / 'वा' शब्दोऽथवार्थे, ततश्चाऽयमभिप्राय:- 'सद्दे त्ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद्व्याख्यातं"तेणं सद्देत्ति उग्गहिए'' इत्यादिसूत्रम्। अथवा-'शब्द' इति यत्सूत्रे भणितम्- "शब्दस्तेनाऽवगृहीतः" इति यत्सूत्रे प्रतिपादितम्, तद्यदि विकल्पतो विवक्षावशतो विशेषविज्ञानं गृह्यते, तदपि सर्वं युज्यते / कस्मिन्? इत्याह- यथोक्ते औपचारिके सांव्य-वहारिकार्थावग्रहे गृह्यमाणे सति, अत्र हि 'शब्दः' इति विशेषज्ञानं युज्यते, सर्वग्रहणात्तदनन्तरमीहादयश्चोपपद्यन्ते, पूर्वोक्तयुक्तेः। ततश्च "से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेज्जा , तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए, न उण जाणइ के वेस सद्दे, तओ ईहं पविसइ, तओ अवायं गच्छइ' इत्यादिसर्व सुस्थं भवति। यद्येवम्, अयमेवार्थावग्रह: कस्मान्न गृह्यते, येन सर्वोऽपि विवाद: शाम्यति? इति चेत्। नैवं 'शब्द एवायम्' इत्याद्यपायरूपोऽयमविग्रह: अपायश्च सामान्यग्रहणेहाभ्यामन्तरेण न संभवति, इत्याद्यसकृत्पूर्वमभिहितमेव / इति प्राक्तनमेव व्याख्यानं मुख्यम् / इत्यलं विस्तरेण / इति गाथार्थः / व्यावहारिकार्थाऽवग्रहाभ्युपगमे यो गुणस्तं सविशेषमुपदर्शयन्नाहखिप्पेयराइमेओ, पुष्वोइयदोसजालपरिहारो। जुज्जइ संताणेण य, सामण्णविसेसववहारो / / 288 / / क्षिप्रेतरादिभेदं यत्पूर्वोदितदोषजालं तस्य परिहारो युज्यते, 'अस्मिन् व्यावहारिकेर्थावग्रहे सति' इति प्रकमाद् गम्यते / इदमुक्तं भवतिएकसामयिकनैश्चयिकार्थावग्रहव्याख्यातारं प्रति प्राग् यदुक्तंयद्यसावेकसामयिकस्तर्हि कथं क्षिप्रचिरग्रहण- विशेषणमस्योपपद्यते; तथा यद्यसौ सामान्यमात्रग्राहकः, तर्हि बहु-बहुविधादिविशेषणोक्तं विशेष ग्रहणं कथं घटते? तथाऽर्थावग्रहस्य विशेषग्राहकत्वे यत्समयोपयोगबाहुल्यमुक्तम् इत्यादि कस्य दोषजालस्य परिहारो व्यावहारिकेविग्रहे सति युज्यते, तथा हि-नैश्चयिकावग्रहवादिना इदानीं शशक्यमिदं वक्तुं यदुत-क्षिप्रेतरादिविशेषणानि व्यावहारिकावग्रहविषया-ण्येतानि, असंख्येयसमयनिष्पन्नत्वेनास्य क्षिप्रचिरग्रहणस्य युज्य-मानत्वात् विशेषग्राहकत्वेन बहु बहुविधादिग्रहणस्यापि घटमानकत्वादिति। 'सामण्णतयण्णविसेसेहा, इत्यादिना प्रागमिहितं समयोपयोगबाहुल्यमप्यस्मिन्निरास्पदमेव, सामान्य-ग्रहणेहापूर्वकत्वेन, असंख्ये यसामयिकत्वेन चैकसमयोपयोग-याबाहुल्यस्याऽत्रासंबध्यमानत्वादिति / ननु नैश्वयिकावग्रहे किं क्षिप्रेतरादिविशेषणकलापो, न घटते, येन व्यावहारिका-वग्रहापेक्ष: प्रोच्यते ? सत्यं, मुख्यतया व्यवहारावग्रहे एव घटते, कारणे कार्यधर्मोपचारात् पुनर्निश्चयावग्रहेऽपि युज्यते, इति प्रागप्युक्तं, वक्ष्यते च, विशिष्टादेव हि कारणात्कार्यस्य वैशिष्ट्यं युज्यते, अन्यथा त्रिभुवनस्याप्यैश्व र्यादिप्रसङ्गः, काष्ठखण्डादेरपि रत्नादिनिचयाऽवाप्तेः, इत्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतमुच्यते- सन्तानेन च योऽसौ सामान्यविशेषव्यवहारो लोकेरूढः सोऽपि 'व्यवहारावग्रहे सति युज्यते' इतीहापि संबध्यते। लोकपि हि यो विशेष: सोऽप्य- पेक्षया सामान्यं, यत्सामान्यं तदप्यपेक्षया विशेष इति व्यवहियते, तथाहि-'शब्द एवायम' 'इत्येवमध्यवसिताऽर्थः पूर्वसामान्यापेक्षया विशेष: शाङ्खोऽयम्' इत्युत्तरविशेषापेक्षया तु सामान्यम्, इत्येवं यावदन्त्यो विशेष: इति प्रागप्युक्तम् / अयं चोपर्युपरिज्ञानप्रवृत्तिरूपेण सन्तानेन लोकेरूढ: सामान्यविशेषव्यवहार औपचारिकावग्रहे सत्येव घटते; नाऽन्यथा / तदनभ्युपगमे हि प्रथमापायानन्तरमीहानुत्थानम् उत्तरविशेषाग्रहणं चाभ्युपगतं भवति, उत्तरविशेषाऽग्रहणे च प्रथमाऽपायव्यवसितार्थस्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 296 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण विशेषत्वमेव, न सामान्यत्वम्, इति पूर्वोक्तरूपो लोकप्रतीत: / सामान्यविशेषव्यवहार: समुच्छिद्येत / अथ प्रथमापायानन्तरमभ्युपगम्यते ईहोत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं च; तर्हि सिद्धं तदपेक्षया प्रथमापायव्यवसितार्थस्य सामान्यत्वं, यश्च सामान्यग्राहकः, यदनन्तरं चेहादि प्रवृत्ति: सोऽविग्रह: नैश्वयिकाद्यर्थावग्रहवत्, इत्युक्तमेव / इति सिद्धो व्यावहारिकार्थावग्रह: तत्सिद्धौ च सन्तानप्रवृत्त्या अन्त्यविशेष यावत्सिद्धः सामान्यविशेषव्यवहार: / इति गाथार्थः इति मतिज्ञानाद्यभेदलक्षणो द्विभेदोऽप्यवग्रहः समाप्त इति। अथ तद्वितीयभेदलक्षणामीहां व्याचिख्यासुराइय सामण्णगहणा-णंतरमीहा सदत्थवीमंसा। किमिदं सद्दोऽसहो, को होज्जद संखसंगाणं / / 289 / / इतिशब्द उपदर्शने, इत्येवं प्रागुक्तेन प्रकारेण नैश्वयिका-विग्रहे यत्सामान्यग्रहणं रूपाद्यव्यावृत्त्या व्यक्तवस्तुमात्रग्रहण- मुत्तं, तथा व्यवहारार्थावग्रहेऽपि यदुत्तरविशेषापेक्षया शब्दादि- सामान्यग्रहणमभिहितं तस्मादनन्तरमीहा प्रवर्तते। विशे०। (तस्या: ईहाया: स्वरूपम् 'ईहा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) अथमतिज्ञानतृतीयभेदस्याऽपायस्य स्वरूपम्। (विशे०।२९० गाथया' अवाय' शब्दे प्रथमभागे 804 पृष्ठे गतम्) अथ चतुर्थो मतिज्ञानभेदो धारणा, इयं चाविच्युतवासनास्मृतिभेदात् त्रिधा भवत्यत: सभेदाऽपि। (विशे / साधारणा'धारणा' शब्दे चतुर्थभागे 291 गाथाया वक्ष्यते) तदेवं "से जहानामए के इ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेज्ज'' इत्यादिसूत्राऽनुरोधेन शब्दमाश्रित्यावग्रहादयो भाविताः / अथ सूत्रकारेणैव यदुक्तम्-"एवं एएणं अभिलावेणं अव्वत्तं रूवं रसं गंध फास' इत्यादि, तचेतसि निधाय भाष्यकारोऽप्यति देशमाहसेसेसु विरूवाइ-सु विसएस होति रूवलक्खाई। पायं पञ्चासन्न-तणेणमीहाइवत्थूणि / / 292 / / यथा शब्दे एवं शेषेष्वपि, रूपाऽऽदिविषयेषु साक्षादनु- तान्यपि रूपलक्षाणि कथितानुसारप्रसरत्प्रज्ञानां चतुरचेतसां सुज्ञेयानि भवन्ति / कानीत्याह-ईहादीन्याभिनिबोधिकज्ञानस्य भेद- वस्तूनि / केन रूपलक्षाणीत्याह- प्रायः प्रत्यासन्नत्वेन चक्षुरादिना गृह्यमाणस्य स्थाण्वादेस्तत्राऽगृह्यमाणेन पुरुषादिना सह प्रायो बहुभिर्धर्मैर्यत्प्रत्यासन्नत्वं या प्रत्यासत्तिः सादृश्यमिति यावत् तेन ईहादीनि ज्ञेयानि न पुनरत्यन्तवैलक्षण्ये स्थाण्वादेरुष्ट्रादिना सहेत्यर्थः / इदमुक्तं भवतिअवग्रहे तावत्सामान्यमात्र-ग्राहकत्वात् द्वितीयवस्त्वपेक्षाऽपि न विद्यते। ईहा पुनरुभयवस्त्ववलम्बिनी तत्र पुरोदृश्यमानस्य वस्तुनो यत्प्रतिपक्षभूतं वस्तु तत्प्रायो बहुभिर्धम्म: प्रत्यासन्नंग्राह्यं न पुनरत्यन्तविलक्षणं पुरो हि मन्दमन्दप्रकाशे दूरात् दृश्यमाने स्थाण्वादौ 'किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा ?' इत्येवमेवेहा प्रवर्तत, ऊध्वस्थानारोह- परिणाहतुल्य- | तादिभिः प्रायो बहुभिर्धर्म: पुरुषस्य स्थाणुप्रत्यासन्नत्वादिति। 'किमयं स्थाणुः, उष्ट्रो वा' इत्येवंतुन प्रवर्तते। उष्ट्रस्य स्थाण्यपेक्षया प्रायोऽत्यन्तविलक्षणत्वात् / अत एव सामान्यमात्रग्राही अवग्रहोऽत्रादौ न कृतः, किंतु'ईहादीनि' इत्येवमेवोक्तं उभयवस्त्व-वलम्बित्वेनेहाया एव'पायं पचासन्नत्तणेण' इति विशेषणस्य सफलत्वाद् अपायस्याऽपि 'स्थाणुरेवायं, न पुरुषः' इत्यादिरूपेण प्रवृत्तेः / किंचिद्विशेषणस्य सफलत्वादादि-शब्दोऽप्यविरुद्धः / इति गाथार्थः / इह 'किं शब्दः, अशब्दो वा'? इति श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रत्यासन्नवस्तूपदर्शनं कृतमेव / अथाऽशेषचक्षुरादीन्द्रियाणां विषयभू-तानि प्रत्यासन्नवस्तूनि क्रमेण प्रदर्शयतिथाणुपुरिसाइकुछ-प्पलाइसंमियकरिल्लमसाइ। सप्पुप्पलनालाइव, समाणरूवाइविसयाई / / 293 / / 'ईहादिवस्तूनि रूपलक्षणि" इत्युक्तं कथं भूतानि सन्ति पुनस्तानि रूपलक्षाणि? इत्याह-समान: समानधर्मा रूपसरसादिर्विषयो येषामीहादीनां तानि समानरूपा-दिविषयाणीति पूर्वगाथायां संबन्धः / क: पुनरमीषां समानधर्मा रूपादिविषयः? इत्याह-स्थाणुपुरुषादिवदिति पर्यन्ते निर्दिष्टोऽपि विषयोपदर्श- नाभिद्योतको वच्छब्दः सर्वत्र योज्यते। ततश्चक्षुरिन्द्रियप्रभव- स्यहादे: स्थाणुपुरुषादिवत्समानधर्मा रूपविषयो द्रष्टव्यः; आदिशब्दात्-किमयं शुक्तिका रजतखण्डवा? मृगतृष्णिका, पय:पूरो वा ? 'रज्जुर्विषधरो वा' इत्यादिपरिग्रहः / घ्राणेन्द्रियप्रभवस्येहादे: कुष्टो (ठो)त्पलादिवत्समानगन्धो विषय:,तत्र कुष्टः (8) गन्धिकहट्टविक्रेयो वस्तुविशेष:,उत्पलं-पद्मम् अनयोः किल समानगन्धो भवति / तत ईदृशेन गन्धेन 'किमिदं कु (ठं) ष्टम्, उत्पलं वा?' इत्येवमीहाप्रवृत्तिः, आदिशब्दात्-किमत्र सप्तच्छदा:, मत्तकरिणो वा?' 'कस्तूरिका, वनगजमदो वा?' इत्यादिपरिग्रहः,रसनेन्द्रियप्रभवस्येहादेः संभृतकरीलमां- सादिवत्समानरसो विषयः / तत्र संभृतानि संस्कृतानि संधानीकृ- तान्यद्धृतानि यानि वंशजालसंबन्धीनि करीलानि, तथा मांसम्, अनयोः किलाऽऽस्वाद: समानो भवति / ततोऽन्धकारादावन्यतर-स्मिन् जिह्वाग्रप्रदत्ते भवत्येवं-'किमिदं संभृतवंशकरीलम्, आमिषं वा ?' इति; आदिशब्दाद्- 'गुड: खण्डं वा ?' मृबीका, शुष्कराजादनं वा ? इत्यादिपरिग्रहः / स्र्पशनेन्द्रियप्रभवस्येहादे: सप्पोत्पलनालादिवत्समानस्पर्शो विषय:, सर्पो-त्पलयोश्व तुल्यस्पर्शनेहाप्रवृत्तिः सुगमैव, आदिशब्दात् - स्त्रीपुरुषलेष्ट्रपलादिसमानस्पर्शवस्तुपरिग्रहः / इति गाथार्थः / अथ यदुक्तं सूत्रे 'जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासेज्जा" इत्यादि, तदनुसृत्य स्वप्ने मनसोऽप्यवग्रहादीन् दर्शयन्नाहएवं चिय सिमिणाइसु, मणसो सहाइएसु विसएसु। होतिदियबावारा- भावे वि अवग्गहाईया / / 294 / / एवमे व-उक्तानुसारेणेन्द्रियव्यापाराभावेऽपि स्वप्नादिषु, आदिशब्दात्- दत्तकपाट सान्धकारापवरकादीनीन्द्रियव्या Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 297 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण षाराभाववन्ति स्थानानि गृह्यन्ते, तेषु केवलस्यैव मनसो मन्य- मानेषु शब्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽवग्रहेहापायधारणा भवन्तीति स्वयमभ्यूह्या: तथाहि- स्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षामात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्दे प्रथम सामान्यमात्रोत्प्रेक्षायामवग्रह:, 'किमयं शब्द:, अशब्दो वा' इत्याधुत्प्रेक्षायां त्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपाय: तदनन्तरंतुधारणा। एवं देवतादिरूपे, कर्पूरादिगन्धे, मोदका- दिरसे, कामिनीकुचकलशादिस्पर्श चोत्प्रेक्ष्यमाणे अवग्रहादयो मनस: केवलस्य भावनीयाः / इति गाथार्थः। (5) आह नन्वेते अग्रहादय उत्क्रमेण व्यतिक्रमेण वा किमिति न भवन्ति / यद्वा-ईहादयस्त्रयो द्वौएको वा किंनाऽभ्युपगम्यन्तेयावत्सर्वेऽप्यभ्युपगम्यन्त इत्याशङ्कयाहउक्कमओऽइक्कमओ, एगाभावे विवान वत्थुस्स। जं सब्भावाहिगमो, तो सव्वे नियमियक्कमा य / / 295 / / एषामवग्रहादीनामुत्क्रमेण- उत्क्रमत: अतिक्रमेण- अति- क्रमत: 'अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वादेकस्याप्यभावे वा यस्मान्न वस्तुनः सद्भावाधिगम: तस्मात्सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्याः तथा नियमितक्रमाश्चसूत्रनिर्दिष्ट परिपाट्यन्विताश्च 'भवन्त्येतेऽवग्रहा- दयः' इति प्रक्रमाल्लभ्यते / इत्यक्षरयोजना / भावार्थस्तूच्यते- तत्र पश्चानुपूर्वीभवनमुत्क्रमः। अनानुपूर्वी भवनं त्वतिक्रमः। कचिद-वग्रहमतिक्रम्येहा तामप्यतिलयापायस्तमप्यतिवृत्य धारणेति; एवमनानुपूर्वीरूपोऽतिक्रम इत्यर्थः / एताभ्यामुत्क्रम-व्यतिक्रमाभ्यां तावदवग्रहादिभिवस्तुस्वरूपं नाऽवगम्यते / तथैषां मध्ये एकस्याऽप्यन्यतरस्याऽभावे वैकल्येन वस्तु-स्वभावावबोध इत्यसकृदुक्तप्रायमेव / तत: सर्वेऽप्यमी एष्टव्याः, नत्वेकः द्वौ त्रयो वेत्यर्थः / तथा-"उग्गहो ईहाऽवाओ यधारणा एव होन्ति चत्तारि" इत्यस्यां गाथायां यथैवकारेण पूर्वमेतेषांनियमित: क्रमः, तथैवैते नियमितक्रमा भवन्त, नोत्क्रमाऽतिक्रमाभ्यामिति भावः / इति गाथार्थः। अथोत्क्रमाऽतिक्रमयो रे कादिवैकल्ये चाऽवग्रहादीनां वस्त्वधिगमाऽभावे युक्तिमाहईहिज्ज्जइ नाऽगहियं, नज्जइ नाणीहियं न याऽनायं / धारिज्जइ जंवत्थु, ते क्कमोऽवग्गहाई उ / / 296 / / यस्मादवग्रहेणागृहीतं वस्तु नेह्यते- न तत्रेहा प्रवर्तते, ईहाया, विचाररूपत्वाद् अगृहीते च वस्तुनि निरास्पदत्वेन वि- चाराऽयोगादिति भावः / तदनेन कारणेनादौ अवग्रहं निर्दिश्य पश्चादीहा निर्दिष्टा / न चाऽनीहितम्-अविचारितं ज्ञायते- अपा- यविषयतां याति, अपायस्य निश्चयरूपत्वात्, निश्चयस्य च विचारपूर्वकत्यादिति हृदयम् / एतदभिप्रायवता चापायस्यादौ ईहा निर्दिष्टेति / न चाज्ञातम्अपायेनाऽनिश्चितं धार्यते-धारणाविष- यीभवति वस्तुधारणाया अर्थावधारणरूपत्वादवधारणस्य च निश्चयमन्तरेणाऽयोगादित्यभिप्रायः / ततश्च धारणादावपायः / ततः किम्? इत्याहतेनाऽवग्रहादिरेव क्रमो न्याय्य:, नोत्क्रमातिक्रमौ, यथोक्तन्यायेन वस्त्ववगमाऽभावप्रसङ्गात्। इति गाथार्थः / तदेवं निराकृतौ सयुक्तिकमुत्क्रमाऽतिक्रमौ। अथ यदुक्तम्- "एगाऽभावे विवान वत्थुस्सजंसब्भावाहिगमोतोसव्ये त्ति, तत्रापीयमेव युक्तिरितत दर्शयन्नाहएत्तो चिय ते सवे, भवंति य नेव समकालं। न वइक्कमो य तेसिं, न अन्नहा नेयसब्भावो // 297 / / यत एव 'नाऽगृहीतमीह्यते, इत्याधुक्तम, एतस्मादेव च तेऽवग्रहादयः सर्वे चत्वारोऽप्येष्टव्या भवन्ति, उक्तन्यायान्नैक- वैकल्येऽपि मतिज्ञानं संपद्यते इत्यर्थः / 'पूर्वमवगृहीमीह्यत' इत्याधुक्तेरेव च ते भिन्ना:परस्परमसंकीर्णाः, उत्तरोत्तरापूर्वभिन्न- वस्तुपर्यायग्रहणादिति / नागृहीतमीह्यत' इत्यादियुक्तेरेव च न ते समकालम्, भिन्ना: सिद्धास्तेऽवग्रहादयः समकालमपि नैव भवन्ति; युगपन्न जायन्त इत्यर्थः / 'पूर्वमवगृहीत-मेवोत्तरकालमीह्यते, ईहोत्तरकालमेव च निश्चीयते' इत्या-द्युक्तन्यायेनैवावग्रहा-दीनामुत्पत्तिकालस्य भिन्नत्वात् न युगपत्संभव इति भावः / उक्तयुक्तेरेव तेषां न व्यतिक्रम:, उपलक्षणत्वात् 'नाऽप्युत्क्रमः' इत्यपि द्रष्टव्यम् / एतच 'तेण कमोवग्गहाईउ' इत्यनन्तरगाथाचरमपादेन सामर्थ्यादुक्तमपि प्रस्तावात्पुनरपि साक्षादुक्तम्, इत्यदोष: तदेवं 'ईहिज्जइ नागहियं' इत्यादियुत्ते- यथोक्तधर्मका एवाऽवग्रहादय: न विपर्ययधर्माण इति साधितम्। अथ ज्ञेयवशेनाऽप्येषां यथोक्तधर्मकत्वं सिसाधयिषुरिदमाह'न अन्नहा नेयसब्भावो' त्ति-ज्ञेयस्याप्यवग्रहादिग्राहसय शब्दरूपादे न्यथा स्वभावोऽस्ति, येनाऽवग्रहादयस्तद्ग्राहका; यथोक्तरूपतां परित्यज्याऽन्यथा भवेयुरित्यर्थः / इदमुक्तं भवति ज्ञेयस्याऽपि शब्दादे: स स्वभावो नास्ति य एतैरवग्रहादिभिरेकादिविकलैरभिन्नैः समकालभाविभिरुत्क्रमातिक्रमवद्भिश्चाव-गम्येत / किंतु-शब्दादिज्ञेयस्वभावोऽपि तथैव- व्यवस्थितो यथा- ऽमीभि: सर्भिन्नैः असमकालै:, उत्क्रमातिक्रमरहितैश्च संपूर्णो यथावस्थितश्चावगम्यते, अतो ज्ञेयवशेनाप्येते यथोक्तरूपा एव भवन्ति / तदेवम्'उक्कमओ अतिक्कमओ एगाऽभावे वि वा' इत्यादिगाथोक्तं प्रसङ्गतोऽन्यदपि भिन्नत्वम्, असमकालत्वं चसमर्थितम्, इतिगाथार्थः / अत्र पर: प्राऽऽहअब्भत्थेऽवाओ चिय, कत्थइ लक्खिज्जई इमो पुरिसो। अन्नत्थ धारण चिय, पुरोवलद्धे इमं तंति / / 298 / / स्वभ्यस्तेऽनवरतं दृष्टपूर्वे, विकल्पिते, भाषिते च विषये पुन: क्वचित्कदाचिदवलोकिते अवग्रहेहाद्वयमतिक्रम्य प्रथमतोऽ- प्यपाय एव लक्ष्यते-अनुभूयते निर्विवादमशेरैरपि जन्तुभि: यथाऽसौ 'पुरुष' इति। अन्यत्र पुन: कचित्पूर्वोपलब्धे सुनिश्चिते दृढवासने विषयेऽवग्रहहापायानतिलच्य स्मृतिरूपा धारणैव लक्ष्यते, यथा 'इदं तद्वस्तु यदस्माभिः पूर्वमुपलब्धम्' इति तत्कथम् ? उच्यते-उत्क्रमाऽतिक्रमाभ्याम् एकादिवैकल्ये च न वस्तुसद्भावाऽधिगमः? इदं च कथमभिधीयते "ईहिज्जइ नागहियं" इत्यादीप्रेरकाभिप्राय: / इति गाथार्थः। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 298 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण भ्रान्तोऽयमनुभव इति दर्शयन्नाहउप्पलदलसयवेहे व्व, दुट्विभावत्तणेण पडिहाइ। समयं वसुक्कसक्कुलि-दसणे विसयाणमुवलद्धी / / 299 / / 'क्वचित्प्रथममेवाऽपाय: क्वचित्तु धारणैव' इति यत्त्वया प्रेर्यते, तत् 'प्रतिभाति' इत्यनन्तरगाथोक्तेन संबन्धः / केनैतत् प्रतिभाति? इत्याह-दुःखेन विभाव्यते दुर्विभावो दुर्लक्षस्तद्भा- वस्तत्त्वं तेन दुर्विभावत्वेन दुर्लक्षत्वेनाऽवग्रहादिकालस्येति गम्यते / कस्मिन्निव इत्याह-उत्पलंपद्म तस्य दलानि- पत्राणि तेषां शतं तस्य सूच्यादिना वेधनं वेधस्तस्मिन्निव / इदमुक्तं भवति-यथा तरुण: समर्थपुरुष: पद्मपत्रशतस्य सूच्यादिना वेधं कुर्वाण एवं मन्यते, मया एतानि युगपद्विद्धानि, अथच प्रतिपत्रंतानि कालभेदेनैव भिद्यन्ते, न चाऽसौ तं कालमतिसौक्ष्म्या - देनावबुद्ध्यते, एवमत्राप्यऽवग्रहादिकालस्यातिसूक्ष्मतया दुर्विभावनीयत्वेनाऽप्रतिभासः, न पुनरसत्त्वेन, ईहादयो ह्यन्यत्र क्वचित्तावत्स्फुटमेवानुभूयन्ते, यत्राऽपि स्वसंवेदनेन नाऽनुभू- यन्ते, तत्राऽपि "ईहिज्जइ नागहियं नज्जइ नाणीहियं" इत्यादि प्रागसकृदभिहितयुक्तिकलापादवसेयाः / तस्मादुत्पलदलशतवेधोदाहरणेन भ्रान्त एवायं प्रथमत एवाऽपायादिप्रतिभासः / अथोदाहरणान्तरेणाप्यऽस्य भ्रान्ततामुपदर्शयति-'समयंवे' त्यादि, वा' इति-अथवा, यथा शुष्कशष्कुलीदशने समयं - युगपदेव सर्वेन्द्रियविषयाणां - शब्द रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाना-मुपलब्धि: प्रतिभाति, तथैषोऽपि प्राथम्येनाऽपायादिप्रतिभासः / एतदुत्तं भवतियथा कस्यचित् शुष्कां दीर्घा शष्कुलिकां भक्षयत:, तच्छब्दोत्थानाच्छउदविज्ञानमुपजाते, अत एव शुष्क त्वविशेषणं मृव्यामेतस्यां शब्दानुत्थानादिति शब्दश्रवणसमकालमेव च दीर्घत्वात् तस्या दृष्टया तदूपदर्शनं चाऽयमनुभवति, अतएव च दीर्घत्वविशेषणम्, अति-हस्वत्वे मुखप्रविष्टायास्तस्याः शब्दश्रवणसमकालं रूपदर्शनानुभवाभावादिति। रूपदर्शनसमकालं च तद्गन्धज्ञानमनुभवति, अत एव शष्कुलीग्रहणं गन्धोत्कटत्वात्तस्याः; इक्षुखण्डादिषु तु दीर्धेष्वऽपि तथाविधगन्धाभावाद्विति गन्धादिज्ञानसमकालं च तद्रसस्पर्शज्ञानेऽ-नुभवति / तदेवं पञ्चानामपीन्द्रिय-विषयाणामुपलब्धियुगपदेवास्य प्रतिभाति / न चेयं सत्या इन्द्रियज्ञानानां युगपदुत्पादाऽयोगात्, तथा हि-मनसा सह संयुक्तमेवेन्द्रियं स्वविषयज्ञानमुत्पादयति; नाऽन्यथा, अन्यमनस्कस्य रूपादिज्ञानानुपलम्भात्। न च सर्वेन्द्रियैः सह मनो युगपत्संयुज्यते, तस्यैकोपयोगरूपत्वाद्, एकत्र ज्ञातरि एककालेऽनेकै संयुज्यमानत्वायोगात् / तस्मान्मनसोऽत्यन्ताशुसंचारित्वेन कालभेदस्य दुर्लक्ष्यत्वाधुगपत्सर्वेन्द्रियविषयोपलब्धिरस्य प्रतिभाति / परमार्थतस्त्वस्वामपि कालभेदोऽस्त्येव ततो यथाऽसौ भ्रान्तै!पलक्ष्यते तथावग्रहादिकालेऽपीति प्रकृतम् / दीर्घत्व-विशेषणं च शष्कुलिकाया गाथायामनुक्तमप्युपलक्षण- त्वाद्विहित-मिति परिभावनीयम्।। तदेवमवग्रहादीनां नैकादिवैकल्यं नाप्युत्क्रमाऽ-तिक्रमाविति स्थितम्। इति गाथार्थः / विशे। (7) आभिनिबोधिकज्ञानस्य अष्टाविंशति२८ भेदाःएवं अट्ठावीसइविहस्स अमणिवोहियनाणस्स / वंजणुग्गहस्स परू वणं करिस्सामि पडिवोहगदिढतेणं, मल्लगदिलुतेण य / से किं तं पडिबोहगदिटुंतेणं? पडिबोहगदिहतेणं से जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं सुत्तं पडियोहिज्जा अमुगा! अमुग ! त्ति, तत्थ चोयगे पन्नवगं एवं वयासी- किं एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, दुसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, जाव दससमयपविठ्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, संखिज्ज- समयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, असंखिज्ज- समयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, एवं वदंतं चोयगं पण्णवए एवं वयासी- नो एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, नो दुसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, जाव नो दससमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, नो संखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, असंखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, सेतं पडिबोहगदिटुंऽतेणं॥ से किं तं मल्लगदिटुंतेणं? मल्लगदिटुंतेणं- से जहानामए केइ पुरिसे आपागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्खिविज्जा से नहे, अण्णे वि पक्खित्ते से वि नहे; एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं रावेहिइ त्ति, होही से उदगबिंदू जेणं तंसि मल्लगंसि? ठाहिति, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लग भरिहिति, होही से उदगबिंदूजेणं तं मल्लगं पवाहेहिति, एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पुरियं होइ ताहे हुंति करेइ, नो चेवणं जाणइ केवि एस सद्दाइ ? तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सद्दाइ, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखेज्जं व कालं / से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सह सुणिज्जा तेणं सहो त्ति उग्गहिए, नो चेवणं जाणइ केवेस सद्दाइ तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सद्दे तओणं अवार्य पविसइतओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्ज वा कालं / से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा तेणं रूव त्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस रूव त्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस रूवे त्ति तओ अवायं पविरसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 299 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण पविसइ तओ णं धारेइ संखिज्जवा कालं असंखिज्जं वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं गंधं अग्घाइज्जा तेणं गंधे त्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस गंधे ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुकेएस गंधे तओ अवायं पविसइतओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं / से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रसं आसाइज्जा तेणं रसो त्ति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ केवेस रसे त्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस रसे तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइज्जा तेणं फासे त्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस फासे त्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस फासे तओ अवार्य पविसइ तओ से उवगयं हवइ तओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्ज वा कालं / से जहानाम केइ पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासिज्जा तेणं सुमिणो त्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ केवेस सुमिणे त्ति तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस सुमिणे तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइतओ धारणं पविसइ तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं। सेत्तं मल्लगदिहतेणं। (सूत्र-३५) 'एवं अट्ठावीसे' इत्यादि। एवम् -उक्तेन प्रकारेण अष्टाविंशतिविधस्य, कथमष्टाविंशविधतेति, उच्यते-चतुर्दा व्यञ्जनावग्रह: षोढा अर्थावग्रह: षोढा ईहा, षड्विधोऽपाय: षोढा धारणेत्याद्यष्टाविंशतिविधता एवमष्टाविंशतिविधस्याभिनि-बोधिकज्ञानस्य संबन्धी यो व्यञ्जनाग्रह: तस्य स्पष्टतरस्वरू-पपरिज्ञानाय प्ररूपणां करिष्यामि कथम् ? इत्याह प्रतिबोधकदृ- ष्टान्तेन, मल्लकदृष्टान्तेन च / तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधक:- सुप्तस्योत्थापक: स एव दृष्टान्त: प्रतिबोधकदृष्टान्त: तेन, मल्लकं- शरावं तदेव दृष्टान्तो मल्लकदृष्टान्तस्तेन च, 'से किं तमि' त्यादि, अथ केयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन, व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणेति शेषः / आचार्य: प्राह-प्रतिबोधकदृष्टान्तेनेयं व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणा, स यथानामकोयथासंभवनामधेयः कोऽपि पुरुषः, अत्र सर्वत्राप्येकारो मागधिकभाषालक्षणा-नुसरणात्, तच्च प्रागेवानेकशः उक्तं चकश्चिदनिर्दिष्टनामानं यथासंभवनामकं पुरुष सुप्तं सन्तं प्रतिबोधयेत्, कथमित्याहअमुक अमुक इति, तत्र एवमुक्ते सति 'चोदको' ज्ञाना वरणकर्मोदयत: कथितमपिसूत्रार्थमनवगच्छन् प्रश्नं चोदयतीति चोदक:, यथावस्थितं सूत्रार्थं प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको गुरुः, तम् एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण अवादीत् भूतकालनिर्देशोऽनादिमानागम इति ख्यापनार्थः, वदनप्रकारमेव दर्शयति-किमेकसमयप्रविष्टा: पुद्गला ग्रहणमा गच्छन्ति?.. ग्राहातामुपगच्छन्ति, किंवा द्विसमयप्रविष्टा?, इत्यादि सुगमम्, एवं वदन्तं चोदकं प्रति प्रज्ञापक: अवादीत्-उक्तवान् नो एकसमयप्रविष्टा इत्यादि, प्रकटार्थ यावन्नो संख्येयसमयप्रविष्टा: पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति नवरमयं प्रतिषेधः स्फुटप्रतिभासरूपार्थावग्रहलक्षणविज्ञान-ग्राह्यतामधिकृत्य वेदितव्यो, यावता पुनः प्रथमसमयादुप्यारभ्य किंचि-त्किञ्चिदव्यक्तं ग्रहणमागच्छन्तीति प्रतिपत्तव्यम्, 'जं वंजणोग्गहणमिति भणियं विन्नाण अव्वत्तं' इतिवचनप्रमाण्यात् 'असंखेज्जे त्यादि, आदित आरभ्य प्रतिप्रसमयप्रवेशनेनासंख्येयान्समयान्यावत्ये प्रविष्टा: ते असंख्येय-समयप्रविष्टा: पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति अर्थाव- ग्रहरूपविज्ञानग्राह्यतामुपपद्यन्ते असंख्येयसमयप्रविष्टेषु तेषु चरमसमये प्रविष्टा: पुद्रला अर्थावग्रहविज्ञानमुपजनयन्तीत्यर्थः / अर्थावग्रहाविज्ञानाच्च प्राक्सर्वोऽपि व्यञ्जनावग्रहः / एषा प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपरूपणा व्यञ्जनाव- ग्रहस्य च कालो जघन्यत: आवलिकाsसङ्ख्येयभागः, उत्कर्षत: संख्येयावलिका: ता अपि संख्येया आवलिकाः आनपानपृथ- क्त्वकालमाना वेदितथ्याः, यत उक्तम्-' वंजणवग्गहकालो आवलियासंखभागातुल्लो उ। थोवा उक्कोसा पुण, आणापाणू पहुत्तंति' ||1|| 'सेत्तमि'-त्यादि, नियमनम्, सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणा।। 'से किं तमि' त्यादि, अथ केयं मल्लकादृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणा ? सूरिराह-सःअनिर्दिष्टस्वरूपो यथानामकः कश्चित् पुरुष: आपाकशिरस:- आपाक: प्रतीत: तस्य शिरसो मल्लकंशरावं गृहीत्वा इदं हि किल रूक्षं भवति ततोऽस्योपादानं, तत्र मल्लकं एकमुदकविन्दु प्रक्षिपेत्, स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिणतिमापन्न इत्यर्थः, ततो द्वितीयं प्रेक्षिपेत् सोऽपि विनष्टः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तत् मल्लकं 'रावेहिइ' इति देश्योऽयं शब्द:- आर्द्रतां नेष्यति, शेषं सुगम, यावदेवमित्यादि, एवमेव उदकबिन्दुभिरिव निरन्तरं प्रक्षिप्यमाणैः प्रक्षिप्यमाणैरनन्तै: शब्दरूपतापरिणतैः पुद्गलैर्यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवतितदा हुंकरोति-हुंकारंमुञ्चति-तदातान् पुद्गलान् अनिर्दिश्यरूपतया परिच्छिनत्ति, इति भावार्थः / अत्र व्यञ्जनशब्देन उपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतं वा द्रव्यं तयो: संबन्धो गृह्यते, तेनन कश्चिद्वि-रोध: आह च भाष्यकृत् "तोएण मल्लगं पि व वंजणमापूरियं ति जं भणियं / तं दव्वमिंदियं वा, तत्संबंधो व न विरोहो // 250 // " तत्र यदा व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियमधिक्रियते तदा पूरितमिति कोऽर्थः- परिपूर्ण भृतंव्याप्तमित्यर्थः, यदा व्यञ्जनं द्रव्यमभिगृह्यते तदा पूरितमिति प्रभूतीकृतं स्वप्रमाणमानीतं स्वव्यक्तौ समथा-कृतमित्यर्थः, यदातुव्यञ्जनंद्वयोरपि संबन्धोगृह्यतेतदा पूरितमिति। किमुक्तं भवति-तावत्संबन्धोऽभूतयावति सति ते शब्दादिपुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, आह च चूर्णिकृत- "यदा पु Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 300 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आभिणिबोहियणाण ग्गलदव्वा वंजणं तया पूरियंति पभूया ते पुग्गलदव्वा जायास्वं प्रमाणमानीता: सविसयपडिबोहसमत्था जाया" इत्यादि, "जया उवगरणिंदियं वंजणं तथा पूरियंति कहं उच्चते ? जाहे तेहिं पुग्गलेहिं तं दव्विंदियं आवृतं भरियं व्यापितं तया पूरयंति भण्णइ, जया उभयसंबंधो बंजणं तया पूरियंति कहं ? उच्यते, दव्वें दियस्स | पुग्गला अंगीभावमागता, पोग्गला दव्विंदिए अभिषिक्ता इत्यर्थः / तया पूरियंति इति भण्णइ इति, एवं च यदापूरितं भवति व्यञ्जनं तदा हु इति करोतिअर्थावग्रहरूपेण ज्ञानेन तमर्थ गृह्णाति, किं च ? नामजात्यादिकल्पनारहितं, तथा चाह-"नो चेव णं जाणइ केवेस सद्दाइ त्ति'-न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिरर्थ इति, स्वरूपद्रव्यगुणक्रियाविशेषकल्पनारहितमनिर्दृश्यं सामान्यमानं गृह्णातीत्यर्थः / एवं रूपसामान्यमात्रकारणत्वादविग्रहस्य एतस्माच पूर्व: सर्वोऽपि व्यञ्जनावग्रह: एषा मल्लक दृष्टान्तेन व्यञ्जनाऽवग्रहस्य प्ररूपणा, हुंकारकरणं चार्थावग्रहबलप्रवर्तितम्, तत ईहां प्रवि- शति किमिदं किमिदमिति विमर्श कर्तुमारभते, तत ईहानन्तरं क्षयोपशम- विशेषभावाज्जानाति अमुक एष शब्दादिरिति, 'तत' एवं रूपे ज्ञानपरिणामे प्रादुर्भवति सति सोऽपायं प्रविशति, ततोऽपायानन्तरमन्तर्मुहूर्तकालं यावदुपगतं भवतिसामीप्येना- त्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति, अविच्युतिरन्तमुहर्तकालं यावत् प्रवर्तत इत्यर्थ: ततो धारणां प्रविशति, सा च धारणा वासनारूपा द्रष्टव्या, यत आह- "तत्तो णमि'' त्यादि, ततो धारणायां प्रवेशात् 'णमि' तिवाक्यालंकारे, संख्येयं वा असंख्येयं वा कालं हृदि धारयन्ति, तत्र संख्येयवर्षायुष: संख्येयं कालम्, असंख्येयवर्षायुषस्तु असंख्येयं कालम् / अत्राह-सुप्तमङ्गीकृत्य पूर्वोक्त: प्रकार: सर्वोऽपिघटते, जाग्रतस्तु शब्द-श्रवणसमनन्तरमेवाऽवग्रहेहाव्यतिरेकेणावायज्ञानमुपजायते तथा प्रतिप्राणि संवेदनात् तन्निषेधार्थमाह- 'से जहानामए' इत्यादि, स यथानामकः कश्चित् जाग्रदपि पुरुषोऽव्यक्तं शब्द शृणुयात्, अव्यक्तमेव प्रथमं शब्दं सृणोति, अव्यक्तं नाम अनिद्देश्यस्वरूपं नामजात्यादिकल्पनारहितम्, अनेनाऽवग्रहमाह, अर्थाऽवग्रहश्च श्रोत्रेन्द्रियस्य संबन्धिव्यञ्जनाऽवग्रहमन्तरेण न भवति ततो व्यञ्जनाऽवग्रहोऽप्युक्तो वेदितव्यः, अत्राह-नन्वेवं क्रमो न कोऽप्युपलभ्यते, किंतु प्रथमत एव शब्दाऽपायज्ञानमुपजायते, सूत्रेऽपि चाऽव्यक्तमितिशब्दविशेषणं कृतम्, ततोऽयमों व्याख्येय:-अव्यक्तम्अनवधारितशाङ्कशाङ्गादिविशेषं शब्दं शृणुयादिति, इदं च व्याख्यानमुत्तरसूत्रमपि संवादयति-'तेणं सहो त्ति उम्गहिए तेनप्रमात्रा शब्द इत्यवगृहीतं, 'नो चेवणं जाणइ वेवेस सद्दाऽऽह' न पुनरेवं जानातिकएष शब्द:-शाङ्क:शाइतिवा? शब्द इत्यत्राऽऽदिशब्दात्-रसादिष्व- / प्ययमेव न्याय इति ज्ञापयति, तत ईहांप्रविशति इत्यादि सर्व संबद्धमेव, तदेतदयुक्तम्, सम्यक् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, इह हि यत्किचपि वस्तु निश्चीयते तत्सर्वमीहापूर्वकम्, अनीहितस्य सम्यक निश्चितत्वाऽयोगात्, नखलु प्रथमाक्षिसन्निपाते सत्य- धूमदर्शनेऽपि यावत्किभयं धूमः? किं वा मशकवर्तिरिति विमृश्य धूमगतकण्ठ क्षणनकालीकरणसोष्मतादिधर्मदर्शनात् सम्यक् धूमं धूमत्वेन न विनिश्चिनोति तावत्स धूमो निश्चितो भवति, अनिवर्तितशङ्कतया तस्य सम्यक् निश्चितत्वायोगात्, तस्माव-दश्यं यो वस्तु विशेषनिश्चय: स ईहापूर्वक शब्दोऽयमिति च निश्चयो वस्तुविशेषनिश्चयो रूपादिव्यवच्छेदात् ततोऽवश्यमितः पूर्वमीहया भवितव्यम्, ईहा च प्रथमत: सामान्यरूपेणाऽवगृहीते भवति, नाऽनवगृहीते, न खलु सर्वथा निरालम्बनमीहनं क्वापि भवदुपलभ्यते नचाऽनुपलभ्यमानं प्रतिपत्तुं शक्नुमः, सर्वस्या अपि प्रेक्षावतां प्रतिपत्ते: प्रमाणमूलत्वाद, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षितिप्रस- त्तेः, तस्माद्-ईहायाः प्रागवग्रहोऽपि नियमात्प्रतिपत्तव्य: अमु- मेदार्थ भाष्यकारोऽपि द्रढयति-"ईहिज्जइ नाऽगहियं; नज्जई नाऽनीहियं न याऽनायं / धारिज्जइ तं वत्थु, तेण कमोऽवग्गहाई उ' ||296 // अवग्रहश्च शब्दोऽयमिति ज्ञानात् पूर्व प्रवर्त्तमानोऽ-निद्देश्यसामान्यमात्र-ग्रहणरूप एवोपपद्यते, नाऽन्य: अत एवोत्तं सूत्रकृता-'अव्यत्तं शब्दं शृणुयात्' इति, स हि परमार्थतः शब्द एव, तत: प्रज्ञापकस्तं शब्दमनूद्य तद्विशेषणमाचष्टे- अव्यक्तमिति तं शब्दमव्यत्तं शृणोति, किमुत्तं भवति ? शब्दव्यक्त्यापि व्यत्तं न शृणोति, किं तु सामान्यमात्रनिद्देश्यं गृह्णाति इत्यर्थः यदपि चोक्तम्- तेन प्रमात्रा शब्द: इत्यवगृहीतमिति, तत्रशब्दइति प्रतिपादयति प्रज्ञापक: सूत्रकारो, न पुनस्तेन प्रमात्रा शब्द इति अवगृह्यते, शब्द इति ज्ञानस्याऽपायरूपत्वात्, तथा हिशब्दोऽयमिति, किमुत्तं भवति ?- न शब्दाऽभावो, नच रूपादिः, किंतुशब्द एवाऽयमिति, ततो विशेषनिश्चयरूपत्वादयमवगमोऽपायरूप एव, नाऽवग्रहरूपः, अथ च अवग्रहप्रतिपादनार्थमिदमुच्यमानं वर्तते तत: शब्द इति प्रज्ञापक: सूत्रकारो वदति, न पुनस्तेन प्रमात्रा शब्द इत्यवगृहीते इति स्थितं, तथा चाह सूत्रकृत्- "नो चेव णमि'' त्यादि, न पुरेरवं जानाति क एव शब्दादिरर्थ इति, शब्दादिरूपतया तमर्थन जानातीति भावार्थ: / अतिनिद्देश्य-सामान्यमात्रप्रतिभासात्मकत्वादर्थाऽवग्रहस्य, अर्थाऽवग्रहश्च श्रोतेन्द्रियघ्राणेन्द्रियादीनां व्यञ्जनाऽवग्रहपूर्वक इति पूर्व व्यञ्जनाऽवग्रहोऽपि द्रष्टव्यः, तदेवं सर्वत्राप्यवग्रहेहापूर्वमवायज्ञानमुपजायते, केवलमभ्यासदशामामापन्नस्य शीघ्रंशीघ्रतरमवग्रहादेयः प्रवर्तन्ते इति कालसौक्ष्म्यात्ते स्पष्ट न संदेद्यन्ते इति स्थितम्।तत ईहां प्रविशित, इह केचिदीहां संशयमात्रं मन्यन्ते, तदयुत्तं, संशयो हिनामाऽज्ञानमिति, ज्ञानांऽशरूपा चेहा, तत: सा कथमज्ञानरूपा भवितुमर्हति? नन्वीहाऽपि किमयं शाङ्कः, किंवा शाङ्ग? इत्येवं रूपतया प्रवर्तते, संशयोऽपि चैवमेव ततः कोऽनयो: प्रतिविशेष:? उच्यते-इह यत् ज्ञानं शाशशाङ्गादिविशेषाननेकानालम्बतेन चासद्भूतं विशेषमुपासितुं शक्नोति, किंतु सर्वात्मना शयानमिव वर्तते; कुाठीभूतं तिष्ठतीत्यर्थ:, तदसद्भूतविशेषाऽपर्युदापरिकुण्ठितं संशयज्ञानमुच्यते यत्पुनः सद्भूतार्थविशेषविषये हेतुपपत्तिव्यापारपरतया सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखम Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 301 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण सद्भूतविशेषत्यागाभिमुखं च तदीहा, आह च (विशेषाऽऽवश्यक) भाष्यकृत्"जमणेगत्थालंबण-मपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सव्वप्पयओ,तं संसयरूपमन्नाणं / / 183 / / तं चिय सयत्थहेऊ, वय त्ति वावारतप्परममोहं। भूयाऽभूयविसेसा, दाणचामिमुहमीहा।।१८४ा" इह यदि वस्तु सुबोधं भवति-विशिष्टश्च मतिज्ञानावर- णक्षयोपशमो वर्त्तते, ततोऽन्तर्मुहूर्तकालेन नियमात्तद्वस्तु निश्चिनोति, यदि पुनर्वस्तु दुर्बोधं न च तथाविधो विशिष्टो मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्तत ईहोपयोगादच्युत: पुन-रप्यन्तर्मुहूर्तकालमीहते,एवमीहोपगाविच्छेदेन प्रभूतान्य-न्तर्मुहर्तानियावदीहतेतत ईहानन्तरंजानातिअमुक एषोऽर्थः शब्द इति, इदं च ज्ञानमवा (पा)यरूपं, ततोऽस्मिन् ज्ञाने प्रादुर्भवति 'णमि' ति वाक्यालङ्कारे, अपायं प्रविशति तत: 'से' तस्योपगतम्अवि- च्युत्या सामीप्येनात्मनि परिणतं भवति, ततोधारणां वासनारूपां प्रविशति, संख्येयमसंख्येयं वा कालम्। एवमनेन क्रमप्रकारेण एतेन पूर्वदर्शितेनाभिलापेन शेषेष्वपि चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु अवग्रहादयो वाच्या:, नवरमभिलाष-विषये-"अव्वत्तं सदं सुणेज्जा" इत्यस्य स्थाने "अव्वत्तं रूपं पासेज्जा'' इति वक्तव्यं, उपलक्षणमेतत् तेन सर्वत्राऽपि शब्दस्थाने रूपमिति वक्तव्यं, तद्यथा-'तेणं रूवि त्ति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ केवेस रूवि त्ति ततो इहं पविसइ, ततो जाणइ अमुगेएस रूवे त्ति, ततो अवायं पविसइ"इत्यादि तदवस्थमेव नवरमिह व्यञ्जनावग्रहो न व्याख्येयः, अप्राप्यकारित्वाद् चक्षुषः, घ्राणेन्द्रियादिषु तुव्याख्येय:, एवं तुघ्राणेन्द्रियविषये "अव्वत्तं गंध अग्धाइज्जा" इत्यादिवक्तव्यं जिह्वेन्द्रिय विषये-"अव्वत्तं रसं आसाएज्जा" इत्यादि, स्पर्शनेन्द्रियविषये"अव्वत्तं फासं पडिसंवेदेज्जा' इत्यादि, यथा च शब्द इति निश्चिते तदुत्तर-कालमुत्तरधर्मजिज्ञासायां किंशाङ्क? किंवाशाङ्गः? इत्येवंरूपा | ईहा प्रवर्तते तथा रूपमिति निश्चिते तदुत्तरकालमुत्तरजिज्ञासायां किमयं स्थाणु:? किं वा पुरुष? इत्यादिरूपा (सा) प्रवर्तते। एवं घ्राणेन्द्रियादिष्वपि समानगन्धादीनि वस्तूनि ईहाऽऽलम्बनानि वेदितव्यानि, आह च (विशेषावश्यक) भाष्यकृत्"सेससु विरूपाइसु विसएसु होतिरूवलक्खाई। पायं पञ्चासन्न-तणेण ईहावत्थूणि / / 292! थाणुपरिसाइकुठु-प्पलादिसंभियकरिल्लमसाइ। सप्पुप्पलनालाइव, समाणरूवाइँ विसयाई।।२९३॥" ‘से जहानामए' इत्यादि स यथानामक: कोऽपि पुरुषोऽव्यक्तं स्वप्नं | प्रतिसंवेदयेत्, अव्यक्तं नाम-सकलविशेषविकल-मनिर्देश्यमिति यावत् स्वप्नमिति प्रज्ञापक:-सूत्रकारो वदति, स तु प्रतिपत्ता स्वप्नादिव्यक्तिविकलं किञ्चिदनिद्देश्यमेव तदानीं गृह्णाति, तथा अनेन प्रतिपत्त्रा"सुविणो त्ति उग्गहिए" इति स्वप्नमिति अवगृहीतम, अत्राऽपि स्वप्न इति प्रज्ञापकोवदति, स तु प्रतिपत्ता अशेषविशेषवियुक्तमेवाऽवगृहीतवान्, तथा चाह-नपुनरेवं जानाति-क एष स्वप्न इति ? स्वप्न | इत्यपि तमर्थन जानातीति भावः, ततईहां प्रविशतीत्यादि, प्राग्वत्,एवं स्वप्न- मधिकृत्य नोइन्द्रियस्याऽर्थावग्रहादयः प्रतिपादिताः। अनेन चोल्लेखेनाऽन्यत्राऽपि विषये वेदितव्याः,तदेवं मल्लकदृष्टान्तेन ध्यजनावग्रहप्ररूपणां कुर्खता प्रसङ्गतोऽष्टाविंशतिसंख्या अपि मतिज्ञानस्य भेदा: सप्रपञ्चमुक्ताः, संप्रति मल्लकदृष्टान्तमुपसंह- रति-"सेत्तं मल्लगदिढ़तेणं' एवं मल्लकदृष्टान्तेन व्यञ्जनाव- ग्रहस्य प्ररूपणा। नं। (7) मतान्तरेणाष्टाविंशति 28 भेदत्वम्-"उम्गह ईह अवाओ य" इत्यादिगाथायाम् 'आभिनिबोधिकज्ञानस्य' चत्वारि भेदवस्तूनि समासत इत्युक्तं, तत्किं व्यासतो बहुभेद-मप्याभिनिबोधिकज्ञानं भवति? 'इत्याशङ्कय तद्भेदबहु-विधत्वदर्शनात् 'समासेन' इति विशेषणस्य सफलत्वमाहसोइंदियाइभएण, छविहाऽवग्गहादओऽभिहिया। ते हॉति चउव्वीसं, चतुव्विहं वंजणोग्गहणं / / 30011 अट्टावीसइभेयं, एयं सुयनिस्सियं समासेणं / केइत्तु वंजणोग्गह-वज्जे छोटूणमेयम्मि ||30|| अस्सुयनिस्सियमेवं, अट्ठावीसइविहं ति भासंति। जमवग्गहो दुभेओ-ऽवग्गहसामण्णओग्गहियो / / 302|| श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानामिन्द्रियाणां मनःषष्ठानां यो भेदस्तेनाऽवग्रहादय: प्रत्येकं षड्विधाश्चत्वारोऽप्यभिहिताः। ततस्तैः षभिश्चत्वारो गुणिताश्चतुर्विंशतिर्भवन्ति। अन्यच्च-स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियचतुष्टयभेदात् व्यञ्जनाऽवग्रहणम्- व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधो भवति। एवमेतत् श्रुतनिः सृ (श्रि) तमाभिनियोधिक ज्ञानं सर्वमप्यष्टाविंशतिविधं संपद्यते। एतदपि भेदाऽभिधानं वक्ष्यमाणबहुतरभेदकलापापेक्षयाऽद्याऽपि समा-सेन-संक्षेपेण द्रष्टव्यम्। अन्ये त्वेतानष्टाविंशतिभेदानन्यथा पूरयन्तितन्मतमुपद-शयति-'केइ तु इत्यादि, के चित्पुनराचार्य एतस्मिन्नेव श्रुतानि: (श्रिते मतिज्ञानभेदसमुदये, व्यञ्जनावग्रहभेदचतुष्टयवर्जे 'उप्पत्ति-या, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया" इत्यादिना अन्यत्र, प्रागत्राऽपि च प्रतिपादितस्वरूपमश्रुतनि:- सृ(श्रि) तमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयं क्षिप्त्वामीलयित्वा एवमष्टाविंश-तिविधं सर्वमपि मतिज्ञानमितिभाषन्ते। अयं हित तेषामभिप्राय:मतिज्ञानस्य संपूर्णस्येह भेदा: प्रतिपादयितुं प्रक्रान्ताः। यदिच- अश्रुतनि:सृ (श्रितं बुद्धिचतुष्टयं न गण्यते तदा श्रुतनि:सृ (श्र) तरूपस्य मतिज्ञानदेशस्यैवैतेऽष्टाविंशति- भेदा: प्रोक्ता भवन्ति / न तु सर्वस्याऽपि; यदा तूक्तन्यायेन श्रुतनि:सृ (श्रि) तमश्रुतनि:सृ(श्रितं च मील्यते तदा सर्वस्याऽपि तस्य भेदा: सिद्धा भवन्ति। ननु साधुक्तं तै: केवलमेवं सतिव्यञ्जनाऽवग्रहचतुष्टयं क्व क्रियताम् ? न ह्येतदपि विक्रीयमाणं खलखण्डमात्रेण क्रीतम्, किंत्विदमपि मतिज्ञानान्तर्गतमेव ततोऽस्मान्निष्काश्यमानं वराकमिदं क्वाऽवस्थिति बध्नातु ? इत्याशङ्कयाह-'जमवग्गहो' इत्यादि, यत्यस्मा-व्यञ्जनार्थाऽवग्रहभेदतो योऽयमवग्रहो द्विभेद: प्रागुक्तः सोऽव-गृहसामान्येन गृहीतोऽवग्रहसामान्येऽन्तर्भावित: भवति च विशेषाणां सामन्ये ऽन्तर्भावः, यथा सेनायां गजादीनां Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 302 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण वनादौ धवखदिरादीनाम्। अतोऽवग्रहस्य सामान्यरूपतया एकत्वादवग्रहे हाऽपायधारणानामिन्द्रियमनोभेदेन प्रत्येक षडविंधत्वात् / श्रुतनि: सृ(श्रिोतमतिज्ञानस्य चतुर्विंशतिरेवं भेदा: अश्रुतनि: सृ (श्रि) तसय तु बुद्धिचतुष्टयलक्षणाश्चत्वारः इत्येवं सर्व मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं सिद्ध्यति / इति केषांचिन्मतम् / इति गाथात्रयार्थः / एतच तन्मतमयुक्तम् / कुत: ? इत्याहचउवइरित्ता भावा, जम्हान तमुग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइ-सामण्णउतयं तग्गयं चेव // 303|| चतुभ्यः-अवग्रहेहापायधारणावस्तुभ्यो व्यतिरिक्तं चतुर्यतिरिक्तं तस्य चतुर्व्यतिरिक्तस्याश्रुतनि: सृ(श्रि) तस्याऽभावात्कारणाद्यस्मात्- यतो न तदश्रुतनि: सृ(श्रिोतम-वग्रहादिभ्यो भिन्नम्। तत: किम्, इत्याह-तेन कारणेनावग्रहादिसामान्याद्अवग्रहादिसामान्यमाश्रित्य 'तयंतगयं चेव' त्ति- तेष्ववग्रहादिसंबन्धिष्वष्टाविंशति-भेदेष्वन्तर्गतं--प्रविष्टमन्तर्भूतं तदन्तर्गतमेवाऽश्रुतनि: सृ(श्रि) तं बुद्धिचतुष्टयम्। अत: किमिति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं पातयित्वा श्रुतनि:सृतं बुद्धिचतुष्टयं पुनरपि प्रक्षिप्यते ? इत्यभिप्राय:। इदमुक्तं भवति- "सोइंदियाइभे एण छटिवहावग्गहादओ" (300) इत्यादिना प्रतिपादितैरवग्रहादिसंबन्धिभिरष्टाविंशतिभेदैः किलाऽसंगृहीतत्वाव्यञ्जनावग्रहचतुष्टयापगमं कृत्वा श्रुतनि: सृतं बुद्धिचतुष्टयं मतान्तरवादिभिः प्रक्षिप्यते एतचायुक्त, यत: सोइंदियाइभेएणं' इत्यादिनाऽवग्रहादीनामेव अष्टाविंशतिर्भेदा: प्रोक्ता: अवग्रहादयश्च बुद्धिचतुष्टयेऽपि सन्ति, अतोऽवग्रहादिभणनद्वारेण तदप्यश्रुतनि: सृ(श्रितं बुद्धिचतुष्टयमेतेष्वष्टाविंशतिभेदेषु संगृहीतमेवेति, किमित तै: पुनरपि प्रतिक्षप्यते? इति गाथार्थः। तत्रैतत्स्यात्प्रष्टव्यं परस्य कथमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेऽव-ग्रहादय: संभवन्ति? तदत्र यथा ते भवन्ति, तथा दर्शयन्नाहकिह पडिकुक्कुड हीणो, जुज्मे बिंबेणऽवग्गहो ईहा। किं सुसिलिट्टमवाओ, दप्पणसंकंतबिंबं ति||३४|| इह किलाऽऽगमे- "भरह-सिल-मिंढकुचकुड-तिल-वालु यहत्थिअगड-वणसंडे / पायसआइयापत्ते-खाडहिला पंच पियरो य"||६|| (नन्दी सूत्र-२७) इत्यादिना औत्पत्तिक्यादिबुद्धीनां बहून्युदाहरणान्युक्तानि, तन्मध्याच्छेषोपलक्षणार्थ कुक्कुटोदाहरणमाश्रित्यौत्पत्तिक्यां बुद्धौ अवग्रहादयो भाव्यन्ते-राज्ञा नटकुमारकस्य भरतस्य किल बुद्धिपरीक्षणार्थमादिष्टं यदुत-अयं मदीयकु (कु) क्कुटोद्वितीयकु (कुक्कुटमन्तरेणैकक एव योधनीयः। ततस्ते न जिज्ञासितं मनसि कथमयं प्रतिकु (कुक्कुटहीन: प्रतिपक्षभूतद्वितीयकुकुक्कुटवर्जितो युध्येत। एतच जिज्ञासमानस्य तस्य झगित्येव स्फुरितं चेतसि किम्? इत्याह-बिंबेने' त्ति-आत्मीयेन प्रतिबिम्बेन पुरो वीक्षितेन दप्पीध्मातत्वादयं युध्यत इत्यवगृहीतमित्यर्थ: एतच किम् ? इत्याहअवग्रहासामान्येनैव बिम्बमात्राग्रहणादवग्रहो; मतिप्रथमभेद इत्यर्थः। ईहा तर्हि का ? इत्याह- 'ईहा किं सुसिलिट्ठ' मिति, किं पुनस्तर्हि | प्रतिबिम्बमस्य योधनाय सुश्लिष्टं- सुष्ठ युज्यमानकं भवेत्-किं तडागपय:-पूरादिगमतम्, आहोस्विद्दर्पणगतम्? इत्यादिबिम्बविशेषान्वेषणम् ईहत्यर्थः। अपायमुपदर्शयति-'अवाओ दप्पणसंकंतबिंब' ति-कल्लोलादिभिः प्रतिक्षणमपनीयमानत्वाद्, अस्पष्टत्वाच जलादिगतबिम्बमिह न युक्तं ; तत: स्थिरत्येन, स्पष्टादित्वेन च चरणाघातादिविषयत्वाद्दप्पणसंक्रान्तमेव तदत्र युज्यते इत्येवं बिम्बविशेषनिश्चयः अपाय इत्यर्थः। एवमन्येष्यपि बुद्ध्युदाहरणेष्ववग्रहादयो भावनीयाः, तस्माद् बुद्धिचतुष्टयेऽप्येषां सद्भावात् श्रुतनि:(श्रि) सृतमतिज्ञानसंबन्धिष्ववग्रहादिगताऽष्टाविंशतिभेदेष्ववग्रहादिसाम्येन बुद्धिचतुष्टयस्यान्तर्भावो भावनीयः। ततो न युक्त व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयागमेन पुनर्बुद्धिचतुष्टयप्रक्षेपणम्। इति स्थितम्। इति गाथार्थः। आह ननु यद्यवग्रहादिसाम्ये नाश्रुतनि: (श्रि) सृतावग्रहादिष्वन्तर्भवति, तर्हि "आभिनिबोहियनाणं दुविहं पन्नत्ते, तं जहासुयनिस्सियं, असुयनिस्सियं च "इत्येवमागमे यः श्रुतनि: (श्रि)सृतादश्रुतनि:(श्रि)सृतस्य भेद उक्तः स विशीर्यत एव इत्याशङ्कयाहजह उग्गहाइसाम-पणओ विसोइंदियाइणा मेओ। तह उग्गहाइमास-प्रणओ वितमणिस्सिया भिन्न / / 305 / / यथेहावग्रहादीनामवग्रहादिसामान्ये सत्यपि; अवग्रहादित्वे तुल्येऽपि सतीत्यर्थः। किम् ? इत्याह- श्रोत्रेन्द्रियादिना भेदः, तथा हि-एके श्रोत्रेन्द्रियसंबन्धिनोऽवग्रहादयः, यावदन्ये स्पर्श-नेन्द्रियसंबन्धिन: अपरे तु मन:संबन्धिनः; तथा तेनैव प्रकारे- णाऽवग्रहादिसामान्ये सत्यपि तदश्रुतनि: सृ(श्रितं भिन्नं' श्रुतनि: स(श्रितादिति विशेषः। कस्मात् हेतोर्भिन्नम्?; इत्याह-'अणिस्सिय' त्ति-भावप्रधानोऽयं निर्देश: अनि:सृ(श्रि)तत्वात्: श्रुतानिः सृतत्वादित्यर्थः; एतदुक्तं भवतिअष्टाविंशतिभेदविचार- प्रक्रमेऽवग्रहादिमत्त्वं सामान्य धर्ममाश्रित्याश्रुतनि:सृतस्य श्रुतनि: सृत एवान्तर्भावो विवक्ष्यते, श्रुताऽश्रुतनि: सृतविचारप्रस्तावे त्वश्रुतनि: सृतत्वं विशिष्टं धर्ममुररीकृत्य श्रुतनि: सृतादश्रुतनि: सृतं पृथगेवेष्यते, इत्यागमोक्तस्तयोर्भेदोऽपि न किंचित् विशीर्य- ते न च वक्तव्यं कथमेकस्यैवैकस्मादेव भेदश्वाऽभेदश्च; विरोधात् इति यतो यदि तेनैव धर्मेण भेदः, अभेदश्चेष्येत् स्यात्तदा विरोध: धर्मान्तरनिबन्धनौतु भेदाऽभेदौ न विरुध्येते / किं हि नाम तद्वस्त्वस्ति, यस्य वस्त्वन्तराद्भेदाऽभेदौ न स्त:? घटादयोऽपि हि घटादित्वसामान्येन परस्परमभेदिनोऽपि स्वद्रव्यक्षेत्रका लादिमत्त्वेन भिन्ना इति। अत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थग्रहनताप्रसङ्गाद्, अनेकान्तजयपताकादिषु / विस्तरेणोक्त-त्वाचा इति गाथार्थ: स्यादेतत्, किमेतावता कष्टेन ? भदीयव्याख्यापक्ष एव सुखावहः, श्रुतनि:सृताऽश्रुतनि:सृतयोरभेदापत्तेरभावात् समस्त- मतिज्ञानभेदभणनाचेति। तदेतदयुक्तं सिद्धान्ताभिप्रायबहिर्भूतत्वादेतदेवोपसंहारपूर्वकमाहअट्ठावीसइ मेयं, सुयनिस्सियमेव केवलं तम्हा। १-अनेकान्तजयताकानाग्नि ग्रन्थे। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 303 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण जम्हा तम्मि समत्ते, पुणरस्सुअनिस्सियं भणियं / / 306 / / तस्माद्-अवग्रहादिसाम्याद् श्रुतनि:सृतस्य अश्रुतनि:सृ- तेऽन्तर्भावं कृत्वा केवलं श्रुतनि:सृतमेव मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं व्याख्यातुमुचितं, नतुपरोक्तनीत्या व्यञ्जनावग्रहाऽपगमेन श्रुताऽश्रुतनि:सृतमिति। कुत: ? इत्याह-'जम्हा' इत्यादि, यत:-"से किंतंसुयनिस्सियं" इत्येवमागमे तस्मिन् श्रुतनि: सृते समाप्ते-निष्ठां नीते सति पुन: पश्चात्" से किं तं अस्सुयनि-स्सियं" इत्यादिना ग्रन्थेनाऽश्रुतनि:सृतं भणितम्। अयमभिप्राय:-श्रुतनि:सृतं सभेदमप्यभिधाय पश्चादेवा-ऽश्रुतनि:सृतमुक्तम्। अत: कथं तत्तत्र प्रक्षिप्यते? तस्मात्समयाऽभिप्रायेण श्रुतनि:सृतस्यैवाष्टाविंशतिभेदा: इति अतोन भवव्याख्यानं श्रेय: इतितदेवम्"चउवइरिताभावा" इत्यादिगाथा मूलटीकाऽभिप्रायेण व्याख्याता:! अन्ये त्वन्यथाऽपि व्याख्यानयन्ति, तदभिप्रायंत्वतिगम्भीरत्वान्न विद्यः। इति गाथार्थः। विशे०। ज्ञा०। अने।। एते चावग्रहादयोऽष्टाविंशतिभेदा: प्रत्येकं बह्वादिभिः सेतर: सर्वसङ्ख्याया द्वादशसंख्यैर्भेदैर्भिद्यमाना यदा विवक्ष्यन्ते तदा षट्त्रिंशदधिकं भेदानां शतत्रयं (336) भवति / तत्र बह्वादयः शब्दमधिकृत्य भाव्यन्ते। शङ्खपटहादिनानाशब्दसमूह पृपगेकैकं यदा अवगृह्णाति तदा अबह्नवग्रहः यदा त्वेकमेव कंचिच्छु ब्द-मवगृह्णति तदा अबवग्रहः, तथा शङ्खपटहदिना-नाशब्दसमूहमध्ये एकैकं शब्दभनेकै पर्याय: स्निग्धगाम्भीर्यादिभिर्विशिष्टं यथावस्थितं च यदा अवगृह्णाति, तदा स बहुविधाऽवग्रहः, यदात्वेकमनेकं वा शब्दमेकपर्याय-विशिष्टमवगृह्णाति तदा सोऽबहुविधावग्रहः। यदा तु अचिरेण जानाति तदा स क्षिप्रावग्रहः, यदा तु चिरेण तदा अक्षिप्राऽवग्रह: तमेव शब्दं स्वरूपेण यदाजानाति:न लिङ्गपरिग्रहात् तदा अनिश्रितावग्रहः। लिङ्गपरिग्रहेण त्ववगच्छतो निश्रितावग्रहः, अथवा-परधमैर्विमिश्रितं यद ग्रहणं तन्मिश्रितावग्रहः, यत्पुन:-परधर्मरविमिश्रितस्य ग्रहणं तदमिश्रितावग्रहः। तथा निश्चितमवगृह्णतो निश्चितावग्रहः, संदिग्धमवगृह्णत: संदिग्धावग्रह: सर्वदैवं बह्वादिरूपेणावगृह्णतो ध्रुवाऽवग्रह: कदाचिदेव पुनर्बह्वादिरूपेणावगृह्णत: अध्रुवावग्रह: एष च बहुबहु-विधादिरूपोऽवग्रहो विशेषसामान्यावग्रहरूपो द्रष्टव्यः, नैश्चयिकस्यावग्रहस्य सकलविशेषनिरपेक्षा-निर्देश्यसामा न्यमात्रग्राहिण एकसामयिकस्य बहुविधादिविशेषग्राहकत्वा-ऽसंभवाद्, बह्रादीनां चानन्तरोक्तं व्याख्यानं भाष्यकारोऽपि प्रमाणयति"नाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजातीयं। बहुविहमणेगभेयं, एक्कक्कं निद्धमहुराई।।३०८।। खिप्पमचिरेणतं चिय, सरूवओ जमनिस्सियमलिंग। निच्छियमसंसयंज,धुवमचंतन उकयाई।।३०९।। एतो चियपडिवक्खं, साहेज्जा निस्सिए विसेसोऽयं। परधम्मेहँ विमिस्सं, मिस्सियमविमिस्सियं इयरं / / 310 // " यदा पुनरालोकस्य मन्द-मन्दतर मन्दतमस्पष्ट -- स्पष्टतरस्पष्टतमत्वादिभेदतो विषयस्याऽल्पत्वमहत्त्वसंनिकर्षादिभेदतः | क्षयोपशमस्य च तारतस्यभेदतो भिद्यमानं मतिज्ञानं चिन्त्यते, तदा तदनन्तभेदं प्रतिपत्तव्यम् / न०३५ सूत्र टीला आ.मा कर्मा (8) अष्टाविंशतिविधत्वं मतिज्ञानस्योपदी, विवक्षान्त- रेण बहुतरभेदमप्येतद्भवतीति दर्शयन्नाहजंबहु-बहुविह-खिप्पाऽनिस्सियनिच्छियधुवेअरविभिन्ना / पुणरुग्गहादओ तो,तं छत्तीसत्तिसयमेयं / / 307 / / यत्-यस्माद् बहु-बहुविधक्षिप्राऽनिश्रितनिश्चितधुवैः सेतरैः सप्रतिपक्षरेकैकशो विभिन्ना भेदभाजः पुनरप्यग्रहादय इष्यन्ते। ततस्तदेवाष्टाविंशतिविधमाभिनिबोधिक ज्ञानमे तै दिशभिर्मेदैः प्रत्येकं भिद्यमानत्वात् षड्विंशदधिकत्रिशत 336 भेदं भवति। इदमुक्तं भवति-अनन्तरवक्ष्यमाणन्यायेन संक्षेपत: प्रागभिहितयुक्तया च श्रोत्रादिभिः कश्चिद्वगृह्णाति, कश्चित्त्वबहु, अपरस्तु बहुविधम्, अन्यस्त्वबहुविधम्, एवं यावदन्यो ध्रुवम्, अपरस्त्वध्रुवमवगृह्णातीति। एवमीहाऽ-पाय-धारणास्वपि सप्रभेदासु प्रत्येकममी द्वादश 12 भेदा योजनीयाः। नवरमीहते, निश्चिनोति, धारयति, इत्याद्यभिलाप: कार्यः। ततश्चाष्टाविंशतौ द्वादभिर्गुणितायां षत्रिंशदधिकानि त्रीणि शतानि 336 मेदानां भवन्तीति गाथार्थः। अथ शब्दलक्षणं विषयमाश्रित्य तावबहादीनामर्थ व्याख्या-तुमाहनाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजातीयं / बहुविहमणेगमेयं,एक्कक निद्धमहुराई ||30|| खिप्पमचिरेण तं चिय, सरूवओ जं अणिस्सियमलिंग। निच्छियमसंसयं जं,धुवमचंतं न उकयाइ / / 309|| इह श्रवणयोग्यदेशस्थेतूर्यसमुदाये युगपदाद्यमाने कोऽपि श्रोता तस्य तूर्यसंघातस्य संबन्धिनं पटहढक्काशङ्खभेरिभाणकादिनानाशब्दसमूहमाकर्णितं सन्तं क्षयोपशमविशेषाद् बहुमवग्र- हादिना मुणतिजानाति। कोऽर्थ:? इत्याह पृथग-भिन्नजातीयम्, एतावन्तोऽत्र भेरिशब्दा: एतावन्तो भाणकशब्दा:.एतावन्तस्तु शङ्ख-पटहादिशब्दा: इत्येवं पृथगेकैकशो; भिन्नजातीयत्वेनतं नानाशब्दसमूहं बुद्ध्यत इत्यर्थः। अन्यस्त्वल्पक्षयोपशम- त्वात्तत्समानदेशोऽप्यबहु मुणति सामान्येन "नानातूर्यशब्दोऽ- यमि' त्यादिमात्रकमेव जानाति इति प्रतिपक्षः। एवमुत्तरगा- थायामतिदेक्ष्यमाणा प्रतिपक्षभावना सर्वत्रावबोद्धव्या। अन्यस्तु क्षयोपशमवैचित्र्याद् बहुविधं मुणति। कोऽर्थ:? इत्याहअनेक- भेदम् इदमपि व्याचष्टे -एकैकं शङ्खमेर्यादिशब्द स्निग्धत्वमधुर-त्वतरुणमध्यमवृद्धपुरुषवाद्यत्वादिबहुविधधर्मोपेतं जानातीत्य- र्थः। अन्यस्तु-अबहुविधं स्निग्धमधुरत्वादिस्वल्पधर्मान्वितमेव पृथग्मिन्नजातीयं नानाशब्दसमूहं जानाति। अन्यस्तु क्षिप्रम्। कोऽर्थः, इत्याह-अचिरेण-शीघ्रमेव परिच्छिनत्ति; नतु चिरेण विमृश्येत्यर्थः। अन्यस्तुअक्षिप्रं-चिरविमर्शितं जानाति। तथा-"तं चिय सरूवओ जं अणिस्सियमि" ति तमेव नानाशब्दसमूह कोऽप्यनि (श्रि)सृतं मुणतीति संबन्धः। यं किम् इत्याह- यं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 304 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण स्वरूपतो जानाति। कोऽर्थः इत्याह-आलिङ्गः पताका- निर्दिष्टभेदानां कारणम्, अन्येषामपि बहुतरभेदानां सहेतुकं संभवं ऽदिलिङ्गाऽनि:शृतमित्यर्थः। इदमुक्तं भवति-तमेव शब्दसमूह चोपसंहारगर्भमाह'देवकुलमत्र, तथाविधपताकादर्शनाद्' इत्येवं लिङ्गनिश्रामकृत्वा एवं वज्झझं(ज्मं)तर-निमित्तवइचित्तओ महबहुत्तं / स्वरूपत एव यमवगच्छति, तमनि:सृतं'मुणति' इति उच्यत इति। तमेव किंचिम्मेत्तविसेसे-ण भिज्जमाणं पुरगोऽणंतं // 311|| लिङ्गनिश्रया जानानो नि:सृतंमुणतीत्युच्यते। तथा-'निच्छियम-संसयं एवं तावदाह्याभ्यन्तरनिमित्तवैचित्र्यान्मतिबहुत्वमुक्तम्। तत्र बाह्य जं' ति-यमशंसयमवच्छिनत्ति तं निश्चितं मुणति। निश्चित निमित्तं मतिज्ञानस्य कारणम् आलोकविषयादिकम्। तस्य च तावदित्थमेतन्मया, परं न जाने तथा वा स्याद् अन्यथा वा, इत्येवं स्पष्टाऽव्यक्तमध्यमाल्पमहत्त्वसंनिकर्षविप्रकर्षभेदाद्वैचित्र्यम् ? संदेहानुबिद्धं न जानन्ननिश्चितं मुणतिा 'धुवमि' त्यादि, ध्रुवं कोऽर्थ: आभ्यन्तरनिमित्तं पुनरावरणक्षयोपशमोपयोगोपकरणेन्द्रियाणि। अत्यन्तंनतु कदाचिदिति। इदमुक्तं भवति- यथैकदा बह्वाद्विरूपेणावगतं अस्याऽपि वैचित्र्यं शुद्धाऽशुद्धमध्यमभेदात्। ततश्चैतस्माद् सर्वदैव तथाऽवबुध्यमानो ध्रुवं मुणतीत्युच्यते। यस्तु कदाचिद् बहादिरूपेण, कदा-चित्त्वबह्वादिरूपेण सोऽध्रुवं मुणति। इति बाह्याभ्यन्तरनिमित्तवैचित्र्यान्मतिज्ञानस्य यथोक्तभेदबहुत्व-मभिहिगाथाद्वयार्थः। तमवगन्तव्यम्। एतदेव च मतिज्ञानं यथोक्तनिमित्तिद्वयस्य किं चिन्मात्रभेदाद्भिद्यमानं पुनरनन्तमपि भवतीतिप्रतिपत्तव्यम्-सामान्येन इतरशब्दं व्याचिख्यासुराह मतिज्ञानमात्रवतां जीवानामनन्तत्वात्, तेषां च क्षयोपशमादिभेदेन एतो चिय पडिवक्खं, साहिज्जा निस्सिए विसेसो वा। मतेभिन्नत्वादिति भावः। इति गाथार्थः / परधम्मेहिँ विमिस्सं, निस्सियमविणिस्सियं इयरं 113011 (9) अत्राह कश्चिन्नन्ववग्रहादयो ज्ञानमेव न भवन्ति, स्पष्टाएतस्मादेव-उक्तस्वरूपाद्-बह्लादिपदषट्कसमूहात्प्रतिपक्षमे - र्थनिभीसाद्यभावात्, संशयादिवत्, कथममी मतिज्ञानभेदा:? तद्विपर्ययमबहबहुविधाऽक्षिप्र-निसृताऽनिश्रिताऽध्रुवपदषट्क- लक्षणं इत्याशङ्कयैतेषां ज्ञानत्वसाधनायाऽऽहसाधयेत् स्वयमेव ब्रूयात् मेधावी। स च लाघवार्थं बह्वा- दिविचार एव साधित: तदेवं व्याख्याता द्वादशापि बह्वादयो भेदाः / अथवा-निसृते इह संसयादणंतभा-वाओऽवग्गहादयो नाणं। सप्रतिपक्षेऽपि व्याख्यानान्तरलक्षणो विशेषो वक्तव्य: / कः ? इत्याह अणुमाणमिवाहनसं-सयाइसब्भावओ तेसुं|३२|| परधर्मे:-अश्वादिवस्तुधर्मविमिश्र-युक्तं गवादिवस्तु गृह्णाणस्य निसृतं 'अवग्रहादयो ज्ञानमि" ति प्रतिज्ञा। "संशयादिष्वनन्तर्भा- वादि'' भवति-गामश्वादिरूपेणं गृह्णतो येयं विपर्ययोपलब्धि: तन्निसृतमित्यर्थः / ति हेतुः। आदिशब्दात्-विपर्ययाऽनध्यवसायपरिग्रहः; अनुमानवदिति इतरत्तु यत्परधर्मर्विमिश्र वस्तु न गृह्णाति, किं तु- यथावस्थितमेव दृष्टान्तः। इह संशयाद्यनन्तर्भूतैर्वर्णगन्धादिभि: पुद्गलद्रव्यैर्व्यभिचारतत्सद्भूतोपल-ब्धिरूपमनिसृतं गवादिकं वस्तु गवादिरूपणैव गृह्णतो संभवात् सूत्रस्य सूचकत्वाद, आत्मधर्मत्वे सति संशयाद्यनन्तर्भावात् येयम-विपर्ययोपलब्धिस्तदनिसृतमित्यर्थः। इति सविशेषणो हेतुर्द्रष्टव्यः। अत्राह पर:-ननु सविशेषणे अत्राह-ननु बहुबहुविधपरिज्ञानादीनि विशेषणानि स्पष्टार्थ हेतावनैकान्तिकता मा भूद, असिद्धता। त्वनिवार्यवेति, एतदेवाह-'न ग्राहकेष्वपायादिपु भवन्तु, व्यञ्जनावग्रहनिश्चयार्थावग्रहयोस्तु कथं संशया' इत्यादि, सूरे! न तद्भवदीयं वचः। कुतः? इत्याहतत्संभवः? तथाहि- 'सामण्णमणिद्देसं सरूवनामाइकप्प- णारहियं' संशयादिसद्भावतस्तेष्वऽवग्रहादिषु, तेषां संशयादिरूपत्वात् इत्यादिवचनानिश्चयार्थाऽवग्रहे शब्दादिविशेषमात्रह- णमपि नाऽस्ति, संशयाद्यनन्तर्भावाद्, इत्यसिद्धो हेतुरिति भावः। इति गाथार्थ:। कुतो यथोक्तबह्वादिपरिभवज्ञानसंभव:? अथ व्याख्यानात् कथं पुनस्तेषु संशयादिसद्भाव:? इत्याहव्यवहारार्थावग्रहोऽत्र गृह्यते, तस्मिंश्च विशेषग्राहि- स्वाद ननु संदिद्धे संसय-विवज्जया संसओह चेहाऽवि। बहुपरिज्ञानादिविशेषणान्युपपद्यन्त एव भवत्वेवं, तथा- प्यष्टाविंशति वचासो वा निस्सिय-मवग्गहोऽणज्मवसियं तु।।३१३|| भेदमध्यसंगृहीतस्य व्यञ्जनावग्रहस्य कथमेतद् विशेषणसंभव:? तत्र हि ननु "खिप्पमचिरेण" (309) इत्यादिगाथायां यदुक्तम्सामान्यार्थग्रहणमात्रमपाकृतं बह्रादि- परिज्ञानं तु दूरोत्सारितमेवेति। 'निच्छियमसंसयं जं' ति तत्प्रतिपक्षे यदुच्यते-"कोऽपि संदिग्ध सत्यमेतत्, किं तु-व्यञ्जनावग्र- हादय: कारणमपायादीनां, मुणति" इति, तत्र संदिग्धे ज्ञायमाने संशयस्तावद्व्यक्त एव, यत्र च तानन्तरेणापायाद्यभावात्। तत- श्वापायादिगतं बह्वादिपरिज्ञानं संशयस्तत्र संदिहानस्य कदाचिद्विपर्ययोऽपि स्याद्, इत्येवं संदिग्धे तत्कारणभूतेषु व्यञ्जनावग्रहादि-ष्वपि योग्यतयाऽभ्युपगन्तव्यम्। न हि संशयविपर्ययौ तावदनिवारितावैव। अथ वा- किमनेनोत्तरभेदरूपे सर्वथाऽविशिष्टत्कारणात् विशिष्टं कार्यमुत्पत्तुमर्हति, कोद्रवबीजादेरपि संदिग्धे दूषणप्रदानेन? हन्तऽ येयं मूलभे-दरूपाईहासाऽपि संशय एव, शालिफलादिप्रसव- प्रसङ्गात् इति। प्रागप्युक्तप्रायम्। इत्यलमतिच- निश्चयत्वे तस्याऽपायत्व- प्रसङ्गादिति। अथवा-"परधम्मे हि विमिस्सं चिंतेनेति गाथार्थ: निस्सिय" (310) मित्यत्र वन्नि सृतमुक्तं तदपि गवादिकमश्यादिरूपेण ननु कथमेकस्यापि मतिज्ञानस्यैतावन्तो भेदो इत्याशङ्कच | | गृह्णद्वि- पर्यास एवा न हि नृत्यन्विपर्यासो भवति, किं त्वन्यस्याऽन्य Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 305 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमिणिबोहियणाण रूपेण ग्रहणमेवेति भावः। नैश्वयिकाऽर्थाऽवग्रहरूपोऽवग्रहः। पुनरनध्यवसितमनध्यवसाय एव, अनिद्देश्यसामान्यमात्रग्राहि- त्वात्, नह्यत्र कस्याऽप्यर्थस्य संबन्ध्यध्यवसायोऽस्तीतिकृत्वा। तदेवं संशयादिरूपत्वात् नाऽवग्रहादयो ज्ञानमिति! अतो न ते मतिज्ञानभेदा: तद्भेदत्वे वा मतिज्ञानमपि न किञ्चित्, दोषशतज- जराऽवग्रहाद्यात्मकत्वात्। इति गाथार्थः। अत्राऽऽचार्य:प्राऽऽहइह सज्भमोग्गहाई-णसंसयाइत्तणं तह विनाम। अन्भुवगंतुं भण्णइ, नाणं चिय संसयाऽऽईया ||314|| इह यदवग्रहादीनां संशयादित्वं त्वयोद्भावितंतदद्याऽपि साध्यं-साधनीयं वर्तते, त्वदुक्तनियुक्तिकवामात्रेणैव मदुक्तहे- तोरसिद्धत्वाभावादिति मन्तव्यं, नपुनरेतायतैव जातात्वत्स- मीहितसिद्धः; इति प्रमुदितेनन भाव्यमिति भावः। तथा हि- यदुक्तम् 'संदिग्धे संशयविपर्ययौ' इति तदयुक्तम्, अभिप्रा-याऽपरिज्ञानात् नह्यस्माभिस्तथाविधवस्त्वप्रापकं संदिग्धत्वं विवक्षितं,येन वस्त्वप्रापणात, विपर्ययप्रापणाद्वातत्र संशयविपर्ययौ स्यातां; किंतु-कृतेऽपि वस्तुप्रापकेऽवितथे निश्चये यत्र तथा विधक्षयोपशमवैचित्र्यान्मनसि किंचिदल्पं शङ्कामात्रं न निवर्तते 'सम्यक् न जाने, तथैव स्यादन्यथा वा' इति, तचेह संदिग्धत्वं विवक्षितम्। न चैतावन्मात्रेणैवाऽज्ञानता युक्ता, व्यव- हारोच्छेदप्रसङ्गात्। न खलु धूमबलाकादेः सकाशात्सम्यग्दहन-जलादौ निश्चतेऽपि मुखेन तन्निश्चयं ब्रुवतामपि सर्वेषां प्रमातृणां चेतसि शङ्कामात्रं विनिवर्तते। नच ते सर्वेऽपि निश्चितं वस्तुन प्राप्नुवन्ति। नच क्वाऽपि संशयविपर्ययत्वेन अज्ञानता तेषां दृष्टा। यदप्युच्यते-'ईहाऽपि संशय एव' तदप्यसंगतम्, न हि 'किमयांस्थाणुः, पुरुषो वा' इत्यादिरूपः संशय ईहाभ्युपगम्यते। किंतु यदनन्तरमेव निश्चयोऽवश्यं भवति स एवाऽन्वय-धर्मघटनव्यतिरेकधर्मनिराकरणाभ्यां निश्चयाभिमुखो बोध ईहा, इत्यसकृदेव पूर्वमावेदितम्। न चाऽयं संशयो निश्चया- भिमुखत्वात्। नाऽपि निश्चयस्तत्प्रत्यासत्तिमात्रप्राप्तत्वात्। नचवक्तव्यं निश्चयादन्यस्य सर्वस्य संशयत्वादज्ञानतैवेति; निश्चयो- पादानक्षणस्यापि सर्वथाऽज्ञानत्वप्रसङ्गात् / तथा च सति निश्चय- स्याप्यज्ञानताप्राप्तिः। 'नह्यविशिष्टात्कारणाद्विशिष्टकार्योत्पत्तिः' इत्युक्तत्वादिति। यदप्युक्तम्'नि:सृतं विपर्यास: इति। तदप्युक्तम् 'लिङ्गासृतं नि:सृतम्' इत्यस्मिन् व्याख्यानेऽस्य दोषस्य सर्वथै- वाऽसंबध्यमानत्वात, 'परधम्मेहि विमिस्सं निस्सियं' (310) इत्यस्य च व्याख्यानान्तरमात्रत्वात्। भवतु तदपि व्याख्यानं तथाऽपि व्याख्यानात् परधर्मास्तस्मिन्नाशङ्किता एव द्रष्टव्याः; नतु निश्चिता:, तथा गौरवात्र, केवलमश्व इव मतिभाति' इति। | एतावन्मात्रेणैव चेयं विपर्ययोपलब्धिरवगन्तव्या; नतु सर्वथा विपर्ययधर्मनिश्चयात्सर्वथा विपर्यय तथाऽऽश्वादिसत्त्वप्रसङ्गात्। नचवक्तव्यम्- | एवं सतीदमनिश्चितान्न भिद्येत, तत्र परधर्मनि:सृतत्वा- भावात्, विवक्षितवस्त्वभावशङ्कामात्रस्यैव सद्भावादिति। न च विपर्ययधर्मशङ्का मात्रेणाऽप्यज्ञानता, वस्तुप्राप्तिविघाताऽभावादिति। यदप्युक्तम्'अवग्रहोऽयवसाय:' इति तदप्ययुकक्तम्। तत्र ह्यध्यवसाय: साक्षादेव नास्ति, योग्यतया पुनरस्त्येव, अन्यथा तत्कार्येषुअपायादिष्वपि तदभावप्रसङ्गात्, इत्युक्तमेवा अतिमत्तमूर्छितानामेव हि ज्ञानमनध्यवसाय उच्यते, तत्र योग्यतयाऽप्यध्यवसायस्यवक्तुमशक्यत्वात, तत्कार्यभूतस्याऽपायाद्यवसायस्याप्यलक्षणत्वात् / तदेवमवग्रहादीनामसिद्धंसंशयादित्वम्। तथाऽपि अभ्युपगन्तुम्' अङ्गीकृत्यापि तेषां संशयादिरूपतां ब्रूमः। ज्ञानमेव संशयादयः। संशयविपर्ययाऽनवध्यवसाया:- तश्च तश्च संशयादिरूपत्वेऽपि नावग्रहादीनां मतिज्ञानभेदत्वं विरुद्ध्यत इति भावः। इदमुक्तं भवति- नाऽस्माभिः 'समीहितवस्तुप्रापकं ज्ञानम्, इतरदज्ञानम्' इत्येवं व्यवहारिणां प्रमाणाऽप्रमाणभूते ज्ञानाऽज्ञाने विचारयितुमुपक्रान्ते, किं तु-'ज्ञायते येन किमपि, तत्सम्यग्दृष्टिसंबन्धिज्ञानम्' इत्येतावन्मात्र-कमेव व्याख्यातुमभिप्रेत; वस्तुपरिज्ञानमात्रंतु संशयादिष्वपि विद्यते, इतिन तेषामपि सम्यग्दृष्टिसम्बन्धिनां ज्ञानत्वहानि: इति गाथार्थः। कथं पुनः संशयादयो ज्ञानमित्याहवत्थुस्स देसगमग-त्तभावओ परमयप्पमाणं व। किह वत्थुदेसविण्णा-णहेयवो सुणसुतंवोच्छं // 311|| ज्ञानमेव संशयादय इति प्राक्तनी प्रतिज्ञा, वस्तुनो-गवादे: स्वपरपर्यायैरनन्तधर्माऽध्यासितस्य यो देश:-एकदेशस्तस्य गमकत्वभावात्, इति हेतु:पराभिमतं प्रमाणं निश्चयमानरूपं तद्वदिति दृष्टान्त: इह यदस्त्वेकदेशस्य गमकं तज्ज्ञानं दृष्ट, यथा परमतं निश्चयरूपं प्रमाणं, वस्त्वेकदेशगमकाश्वसंशयादयः, ततस्तेज्ञानम्, इति। अत्र हेतोरसिद्धता मन्यमानः परः पृच्छति- कथं वस्त्वेकदेशविज्ञानहेतवः संशयादय:? वस्तुनो निरंशत्वेन देशस्यैवाभावान्न ते एकदेशग्राहिणो घटन्त इति परस्याऽभिप्राय:। आचार्य: प्राह- यत्त्वया पृष्टं तद्वक्ष्ये-भणिष्यामि अहं, शृणु-समवहितः समाकर्णय त्वम्। इति गाथार्थः। यथा प्रतिज्ञातमेवाहइह वत्थुमत्थवयणा-इपज्जयाऽणंतसत्तिसंपनं। तस्सेगदेसविच्छे-यकारिणो संसयाईया ||316|| इह वस्तुनो-घटादे: मृण्मयत्वपृथुबुध्नत्ववृत्तत्वकुण्डलायतग्रीवायुक्तत्वादयोऽर्थरूपा: पर्याया:-अर्थपर्यायाः अनन्ता भवन्ति। घटकुटकुम्भकलशादयस्तुवचनरूपा: पर्याया:वचनप-र्यायास्तेऽप्यनन्ता भवन्ति, आदिशब्दात्-परव्यावृत्तिरूपा अप्यनन्ता ग्रह्यन्ते। ततश्चेत्थं समास: कर्त्तव्य:-अर्थश्च वचनानि च आदिशब्दात्-परव्यावृत्तयश्च तद्रूपा: पर्याया अर्थवच-नादिपर्याया:, तेच तेऽनन्ताश्च त एव शक्तयः, ताभिः संपन्नं-युक्तं यतो तस्तु भवति अतस्तस्यैकदेशविच्छेदकारिण: संशया-दयो ज्ञेया:। इदमुक्तं भवति-न खलु वयं निरंशवस्तुवादिनः, किंतु-यथोक्ताऽनन्तधर्मलक्षणवस्तुनोऽनन्ता एव देशा: सन्तीति वयं मन्यामहे। तन्मध्याच एकैक देशग्राहिणः संशयादयोऽपि Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 306 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आमिणिबोहियणाण भवन्त्येव, इति कथं न ते ज्ञानम् ? यदि पुनस्ते किमपि न गृह्णीयु; तदा तेषामनुत्थानमेव स्यात्, सर्वथा निर्विषयज्ञानस्य प्रसवा-ऽयोगात्, गगननलिनज्ञानवत्। ततश्च ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति व्युत्पुत्यर्थात्संशयादीनामपि ज्ञानता न विरुद्ध्यते / इति गाथार्थः। अथ समस्तवस्तुरूपग्राह्येव ज्ञानं, नैकदेशग्राहकम् इत्ये- तदाशय निराकुर्वन्नाह अहवा न सव्वधम्मा-वभासया तो न नाणमिटुंते। नणु निन्नओ वितद्दे-समेत्तगाहि त्ति अन्नाणं / / 317 / / अथवा-अथ चेदेवं ब्रूयात्परः। किम्? इत्याह न सर्वध- माऽवभासका:- | न कान्येन गवादिवस्तुसमग्राहिणः, ततो न ज्ञानमिष्टं ते संशयादय: संपूर्णवस्तुस्वरूपग्राहिण एव ज्ञानत्वात्। अत्रोत्तरमाह-ननु भवता ज्ञानत्वेऽङ्गीकृतस्तर्हि निर्णयोऽप्य-ज्ञानमेव प्राप्रोति। कुत्त:? इत्याहतस्य गवादिवस्तुन एकदेशमात्रग्राहीति कृत्वा तथा हि-गौरयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादिभिर्निर्णयैरपि गोत्वघटत्वादिको वस्त्वेकदेश एव गृह्यते, अतस्तेऽपि कथं ज्ञानरूपतां भजेयुः? अथ देशस्य देशिनमन्तरेण कदाचिदप्यभावात्तदग्रहणद्वारेण सर्वमपि वस्तु निर्णयेन गृहीतम् इत्यतो ज्ञानमेवाऽसौ। तदेतत्संशयादिष्वपि समान; तथा हि-'किमयं स्थाणुः पुरुषो वा' इत्यादिरूप: संशयोऽपि स्थाणुत्वादिकं वस्त्वेकदेशं जानाति, विपर्यासोऽपि विपर्ययवस्त्वेकदेशमवबुद्ध- यते अनध्यवसायोऽपि | सामान्यमात्ररूपं वस्त्वेकदेशमवगृह्णाति। ततश्च संशयादयोऽप्येक- | देशपरिज्ञानद्वारेण समग्रमपि वस्तु जानन्त्येव, इति तेषामपि ज्ञानता केनवार्यत? अथ गृह्यते संशयादिभिर्वस्त्वेदेश:, केवलं संशयेन संदिग्धः; विपर्यासेन विपर्यस्त:, अनवध्यवसायेन त्वविशिष्ट इतिचेत्। ननुप्रतिविहितमप्यदः किं विस्मरसि;? यत:-'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमतिरूपं ज्ञानं मतिज्ञानम्' इत्येवं सामान्येनैव सम्यग्दृष्टिसंबन्धि मति- ज्ञानमिह विचार्यते। तस्य च संशयादिरूपस्य निर्णयरूपस्य वा सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो ज्ञानता न विरुध्यते, 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' इत्यस्याऽर्थस्य सर्वत्रोपपद्यमानत्वादिति। ननु यदि संश- यादयोऽपि मतिज्ञानं, तर्हि चतुर्भेदत्वमतिक्रम्य सप्तभेदत्वं तस्य प्रसज्यते, इति चेत्। नैतदेवं, यतोऽनध्यवसायस्तावत् सामान्यमात्रग्राहित्वेनाऽवग्रहे अन्तर्भवति संशयोऽपि पूर्वोक्तस्व- रूपेहाप्रकारत्वात, तत्कारणत्वाच तस्यामेवान्तर्विशति, यदपि संशयस्य पूर्वमीहात्वमपाकृतं तदपि व्यवहारिजनानुवृत्या, नतु सर्वथेति; विपर्यासस्तु निश्चयरूपत्वात्साक्षादपाय एव, इति कुतश्चतुर्भेदाऽतिक्रम:? इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा सम्य- गदृष्टिसंबन्धिनः संशयादयो मतिज्ञानादतिरिच्यमाना: क्वाऽन्त- भवेयु:? अज्ञान इति चेत्। नैवं ''सम्मट्ठिीणं भंते! किं नाणी, अन्नाणी? गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी" इत्याद्यागमवचनात्स-म्यग्दृष्टे: सदैव ज्ञानित्वादिति, भवत्वेवं, तथाऽपि सम्यग्दृष्टि- संबन्ध्येव मतिज्ञानमिह विचार्यत इति कुतो लभ्यते? इति चेद् उच्यतेज्ञानपञ्चकमेवेह विचारयितुमुपक्रान्तम्। ज्ञानं च सम्यग- दृष्टरेव भवति / अतस्तत् संबन्ध्येव मतिज्ञानमिह विचार्यते,सम्य- गदृष्टिसंबन्धिनांच संशयादीनां ज्ञानता साध्यते इत्यलं विस्तरेण। इति गाथार्थ:। विशे०। (10) सम्प्रति पुनर्द्रव्यादिभेदतश्चतुष्प्रकारतामाहतं समासओ, चउव्विहं पन्नत्तं,तं जहा-दव्वओ१,खेत्तओ 2, कालओ३, भावओ। तत्थ दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सवाई दवाइं जाणइ, न पासा खेत्तओ णं आमिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, न पासइश कालओ णं आमिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वकालं जाणा, न पासइ 3 भावओ णं आमिणिबोडियनाणी आएसेणं सवे भावे जाणइ, न पासइ (सूत्र-३६४) 'तं समासओ' इत्यादि-तन्मतिज्ञान समासत:-संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यत:१, क्षेत्रत:२, कालतो३, भावतश्च तत्रद्रव्यतो णमिति वाक्यालङ्कारे, आभिनिबोधि- कज्ञानी, 'आदेसेणं' तिआदेश:-प्रकार:, स च द्विधासामा- न्यरूपो विशेषरूपश्च। तत्रेह सामान्यरूपो ग्राह्यः, तत: आदेशेन द्रव्यजातिरूपसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति किंचिद्विशेषतोऽपि, यथाधर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य प्रदेश: तथा-धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भहेतुरमूर्तो लोकाऽऽकाशप्रमाणः इत्यादि, न पश्यति सर्वात्मना; धर्मास्तिकायादीन् न पश्यति, घटादीस्तु योग्यदेशादस्थितान् पश्यत्यपि, अथ वा- 'आदेश' इति- सूत्रादेशस्तस्मात्सूत्रादेशात्सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न तु साक्षात्सर्वाणि पश्यति, ननु यत्सूत्रादेशतो ज्ञानमुपजायते तत् श्रुतज्ञानं भवति; तस्य शब्दार्थपरिज्ञानरूपत्वात्। अथ च मतिज्ञानमभिधीयमानं वर्त्तते, तत्कथमादेश इति सूत्रादेशो व्याख्यातः? तदयुक्तम्, सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानाद, इह हि श्रुतभावितमते: श्रुतोपलब्धेष्वप्यर्थेषु सूत्रानुसारमात्रेण येऽवग्रहहापायादयो बुद्धिविशेषाः प्रादु:ष्यन्ति ते मतिज्ञानमेव, न श्रुतज्ञानं, सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात, आह च भाष्यकृत्"आदेसो त्ति व सुत्तं, सुओवलद्धेसु तस्समइनाणां पसरइतब्भावणया, विणा वि सुत्ताणुसारेणं // 405||1, एवं क्षेत्रादिष्वपि नवरं तान् सर्वथा न पश्यति, तत्र क्षेत्रं लोका-लोकात्मकम् 2, काल: सर्वाऽद्धारूपः, अतीतानागतवर्तमानरूपोवा३, भावाश्च पञ्चसंख्या: औदयिकादयः, तथा चाह भाष्यकृत"आएसो त्ति पगारो, ओहादेसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थिकाइयाई, जाणइन उसव्वभावेणं // 403|| खेत्तं लोगालोग, कालं सव्वऽद्धमहव तिविहंच। पंचोदइयाईए, भावे जंनेवमेवइयं / / 404|| अनं०/ (11) अथ तेषामेव कालनिरूपणार्थमाह नियुक्तिकार:उग्गहो एक्कं समयं, ईहाऽवाया मुहुत्तमेत्तं तु / कालमसंखं संख, च धारणा होईनायव्वा // 333)) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 307 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आभिणिबोहियणाण 'अवग्रह' इति-व्याख्यानान्नैश्वयिकोर्थाऽवग्रहो द्रष्टयः। स किम् ? त्याह-सर्वजघन्य: कालविशेष: समयः, तमेकं समयं भवति, न परतः। ईहाऽ-पायौ प्राकनिर्णीतस्वरूपौ'मुत्तमंतंत्वि' ति-अन्त:शब्दो मध्यवचन:, ततश्च जघन्यत:, उत्कृष्टश्चमुहू-न्तर्भिन्नं मुहूर्त ज्ञातव्यौ भवत:; अन्तर्मुहूर्त्तमित्यर्थः। तुश्च- कारार्थः। चकारश्चातानुक्तसमुच्चये। ततश्च व्यञ्जनाऽवग्रह-व्यावहारिकार्थाऽवग्रहौ च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त भवत इति द्रष्टव्यम्। क्वचित् "मुहुत्तमद्धं त्वि'' ति-पाठः, तत्राऽपि | मुहूर्तार्द्धशब्दे-नान्तर्मुहूर्तमेव मन्तव्यम्। तुशब्दोऽपितथैवा कलनं काल: न विद्यते संख्या पक्षमासयनसंवत्सरादिका यस्यासावसङ्ख्य पल्योपमादिलक्षण: तं कालमसंख्यं, तथासंख्यायत इति संख्य: पक्षमासवयनादिप्रमित इत्यर्थः। तं संख्यं चशब्दादन्तर्मुहूर्त च धारणा प्रागभिहितस्वरूपा भवति-ज्ञातव्या। इदमुक्तं भवतिअविच्युतिस्मृतिवासनाभेदाद्धारणा त्रिविधा। तत्राऽविच्यु- तिरूपा, स्मृतिरूपा च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त भवति। या तु तदर्थज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा स्मृतिबीजरूपा वासनाख्या धारणा सा संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालम, असंख्येयवर्षायुषां तुपल्योपमादिजीविनामसंख्येयं कालं भवति। इति नियुक्तिगाथार्थः। अथैनां भाष्यकारो व्याख्यानयतिअत्थोग्गहो जहन्नो, समयं सेसोग्गहादओ वीसुं। अंतो मुहुत्तमेगं, तु वासना धारणां मोत्तुं / / 334|| अवग्रह इत्यस्य व्याख्यानमर्थाऽवग्रह इति, अयमपि निश्चयव्यवहारभेदतो द्विधा, ततो व्यवहारार्थाऽवग्रहव्यवच्छे- दार्थमाह'जहन्न' इति-अतिस्तोककालत्वेन जघन्यो नैश्चयि- कोऽर्थावग्रहौ; नेतर इत्यर्थः, अयमेकसमयं भवति। शेषास्त्वेकां वासनारूपां धारणां मुक्त्वा ये अवग्रहादयो व्यञ्जनाऽवग्रहा व्यावहारिकार्थाऽवग्रहेहापायाऽविच्युतिस्मृतिरूपा मतिभेदास्ते सर्वेऽपि विष्वक्-पृथक्एकमेवान्तर्मुहर्त भवन्ति। वासना- धारणायास्तु नियुक्तिगाथोक्तमेव कालमानमवगन्तव्यम् इत्यभिप्राय:। इति गाथार्थः। विशे! (12) अथ नानादेशजविनेयाऽनुग्रहार्थं तत्पर्यायान् (आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायान) आभिधित्सुराहाईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। सण्ण सईमई पण्णा, सव्वं आमिनिबोहिय।।३९६।। 'ईह चेष्टायाम्, ईहनमीहा-सतामन्वयिनां, व्यतिरेकिणां चार्थानां, पर्यालोचना। अपोहनमपोहो निश्चयः। विमर्षणं विमर्षः, अपायात्पूर्य: ईहायाश्चोत्तर: 'प्रायः शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्ते, इति संप्रत्ययः। तथा- मार्गणमन्वयधर्मान्वेषणंमार्गणा। चशब्द: समुच्चयार्थाः। गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा। तथा-संज्ञानं संज्ञाअवग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष एव। स्मरणं स्मृतिः। पूर्वानुभूतार्थालम्बन: प्रत्ययः! मननं मति: कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिः। तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्ट क्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगत यथावस्थितधर्मालोचनरूपा: मतिः। सर्वमिदमाभिनियोधिक कथंचित किंचिद्भेददर्शनेऽपि तत्त्वत: सर्व मतिज्ञानमेवेदमित्यर्थः। इति नियुक्तिश्लोकार्थ:: विशे / आ०म०१ अ० 12 गाथा। अत्रैव तद्व्याख्यानाय भाष्यम् - होई अपोहोऽवाओ, सई धिई सव्वमेव मइपन्ना। ईडा सेसा सव्वं, इदमामिणिबोडियं जाण // 397 / / अपोहस्तावत्किमुच्यत इत्याह-अपोहो भवति-अपाय: योऽयमपोह: स मतिज्ञानतृतीयभेदोऽपायो: निश्चय उच्यत इत्य- र्थः। स्मृति: पुनतिर्धारणोच्यते धारणाभेदत्वेनाप्यवयवे समुदा- योपचारादिति। मतिप्रज्ञे-मतिप्रज्ञाशब्दाभ्यां सर्वमपि मतिज्ञान-मुच्यते'ईहा सेस' त्ति शेषाऽभिधानानि त्वीहा-विमर्श-मार्गणा गवेषणा-संज्ञालक्षणानि सर्वाण्यऽपि ईहा ईहाऽन्तर्भावीनि द्रष्टव्यानीत्यर्थः। एवं विशेषत: कथंचिद्भेदसद्भावेऽपि सामान्यत: सर्वमिदमाभिनिबोधिकज्ञानमेव जानीहि, यतः-ईहाऽपोहादयः सर्वेऽच्यमी आभिनिबोधिकज्ञानस्यैव पर्याया: केषांचिद्वचनपर्याय-त्वात्, केषांचित्त्वर्थपर्यायत्वादिति। एतदेवं दर्शयतिमइपन्नाभिनिबोहिय-बुद्धीओ हॉति वयणपज्जाया। जा उग्गहाइसण्णा,ते सव्वे अत्थपज्जाया ||398 / / इह ये शब्दा: किल सर्ववस्तु-संपूर्ण प्रतिपादयन्तितेवचनरूपा वस्तुनः पर्याया वचनपर्याया उच्यन्ते। ये तु तदेकदेशमभिदधति तेऽथैकदेशप्रतिपादका: पर्याया अर्थपर्या उच्यन्ते, तत्रमतिप्रज्ञाभिनिबोधिकबुद्धयो वचनपर्याया भवन्ति। मतिप्रज्ञा-मिनिबोधिक बुद्धिलक्षणाश्चत्वारः शब्दा: आभिनिबोधिक- ज्ञानस्य ज्ञानपञ्चकाद्यभेदलक्षणस्य, वचनपर्याया द्रष्टव्या इत्यर्थः, संपूर्णस्याऽपि तस्यामीभिः प्रतिपाद्यमानत्वात्। येऽत्ववग्रहे हादि- का: संज्ञाविशेषास्ते सर्वेऽप्यर्थपर्यायाः तदेकदेशप्रतिपादकत्वात्। ततश्चात्रेहाऽपोहादय: आभिनिबोधिकाज्ञानस्यैवाथ पर्यायाः। मतिप्रज्ञाशब्दौ तु तस्यैव वचनपर्यायौ अत: सर्वमेवेदंसामान्येनाऽभिनिबोधिकज्ञानमेवेति स्थितमा अथ वा- सर्वेषामपि वस्तूनामभिलापवाचका: शब्दा: वचनरूपापन्ना वचनपर्याया:, ये तु तेषामेव वाचकशब्दानामभिधेयार्थस्यात्मभूता भेदा; यथा कन-कस्य कटककेयूरादयः; ते सर्वेऽप्यर्थपर्याया: भण्यन्ते। ततश्च प्रस्तुतस्याभिनिबोधिकज्ञानस्य मतिप्रज्ञावग्रहहादय: सर्वेऽपि वाचका ध्वनयो वचनपर्याया एव, तदभिधेयास्त्वाभिनिबोधिकस्यात्मभूता भेदा अर्थपर्याया इत्यवसेयमिति। इह पूर्व मतिप्रज्ञादिशब्दानां सर्वमप्याभिनिबोधिकज्ञानं वाच्यम्, अवग्रहेहादिशब्दानां तु तदेकदेशा एवाऽभिधेया इति दर्शितम्। अथाऽवग्रहेहादिभिरपि शब्दैरन्वर्थवशात्सर्वमप्याभिनि-बोधिकम भिधीयते, इति दर्शयतिसव्वं वाऽऽमिनिबोहिय-मिहोग्गहाइवयणसंगहियं। केवलमस्थि विसेसं,पइ भिन्ना उग्गहाईया ||399 / / 'वा' इति-अथवा, इह सर्वमाभिनिबोधिक ज्ञानमवग्र हे - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिणिबोहियणाण 308 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आभिणिबोहियणाण हादिवचनेन संग्रह्यते, न पुनस्तदेकदेश एव तीवग्रहादिश-ब्दानां सर्वेषामे कमरूपता प्राप्नोति, एकाभिधेयत्वाद्, बहुपुरुषोचारितघटाघेकशब्दवत् इत्याशङ्याह-'केवलमि' त्यादि, केवलं-1 नवरम् अर्थविशेष प्रत्यवग्रहादयः शब्दा भिन्नाः। इदमुक्तं भवतिअवग्रहशब्दोऽवग्रहलक्षणेनार्थेन सर्वमाभिनिबोधिकं संगृह्णाति, ईहाशब्दस्तु चेष्टालक्षणेन, अपायस्त्ववगमनलक्षणेन, धारणा तु धरणलक्षणेनेत्यादि। ततोऽमुमवग्रहणादिलक्षणमर्थविशेषमात्रमपेक्ष्याग्रहादिशब्दा भिन्ना: तत्त्वतस्त्वभिधेयं सर्वेषामा-भिनिबोधिकज्ञानमेव / अथवा, आह- ननु यदि सर्वमप्याभिनिबोधिकमवग्रहादि- वचनेन संगृह्यते, तविग्रहेहापायधारणानां तद्भेदानां सर्वेषामपि संकरः प्राप्नोति,अनन्तरवक्ष्यमाणव्युत्पत्तित: प्रत्येक मेषां सर्वेषामप्यवग्रहादिरूपत्वाद, इत्याशङ्कयाह-'केवलमत्थविसेसमि' त्यादि, केवलं-नवरम् अर्थविशेष प्रति अवग्रहादयो भिन्ना:। इदमुक्तं भवतियद्यप्यर्थाऽवग्रहणेहनावगमनधारणमात्रस्य सामा- न्यस्य प्रत्येक सर्वेष्वपि विद्यमानत्त्वादेकैकशोऽप्यवग्रहादिशब्दे- नोच्यन्तेऽवग्रहादयः, तथाऽप्यर्थविशेषमाश्रित्यैते भिन्ना एव, तथाहि- यथाभूतमवग्रहे सामान्यमात्रार्थस्यावग्रहणं, न तथाभूत- मेवेहायां, किं तु-विशिष्टं विशिष्टतरं, विशिष्टतमं, चाऽपाय-धारणयोः; यथाभूता चेहायां मतिचेष्टा न तथाभूतान्यत्र, किं तुविशिष्टा, विशिष्टतरा चाऽपायधारणयो: अविशिष्टतरा चाऽवग्रहेऽर्थावगमनमप्यपायात् विशिष्टं धारणायाम् अविशिष्टमविशिष्टतरं चेहावग्रहयोः; अर्थधारणमप्यवग्रहेहापायेभ्य: सर्वप्रकृष्टं धारणायाम, इत्येवमवग्रहणादिमात्रे सर्वेषां सामान्ये सत्यप्यर्थविशेष ग्राह्यमाश्रित्य भिन्ना एवावग्रहादयः। स चार्थविशेषोऽमीषां ग्राह्यः प्राग्विस्तरेण दर्शितएव, इत्येवं वा उत्तरार्द्धमिदं व्याख्याते-इदमेव च व्याख्यानं वृद्धसम्मतं लक्ष्यते, युक्त्या तु प्राक्तनमपि घटते। इत्यलं विस्तरेणेति। कथं पुनरवग्रहादिवचनेन सर्वमप्याभिनिबोधिकं संगृहाते ? इत्याहउग्गहणमोग्गहो त्ति, य, अविसिट्ठमवग्गहो तयं सव्वं / ईहा जं मइचेट्ठा, मइवावारो तयं सव्वं ||47oll अवग्रहणं तावदवग्रह उच्यते इति कृत्वा अविशिष्टं तत्सर्वमपि ईहादिभेदभिन्नमाभिनिबोधिकज्ञानमवग्रह एव। इदमुक्तं भवतिअवग्रहणमवग्रह इति व्युत्पत्तिमाश्रित्य सर्वमप्याभिनिबोधिकज्ञानमवग्रहो भवति, यथाह्यवग्रह: कमप्यर्थमवगृह्णाति, एवमीहाऽपि कमप्यर्थमवगृह्णात्येव, एवमपायधारणे अपि इति। सर्वमप्याभिनिबोधिकज्ञानं सामान्ये-नावग्रहः। तथा यत्-यस्माद्ईहचेष्टायाम्, नमीहेतिव्युत्पत्ते: ईहापि मतेश्चेष्टा मतिचेष्टा वर्त्तते तस्मात्सर्वमपि तदा-भिनिबोधिकमविशिष्टं मतियव्यापार; ईहे-त्यर्थः, अहग्रहापाय-धारणानामपि सामान्येन मतिचेष्टारूपत्वा- दितिभावः। यतश्वाऽवगमनमवा(पा)यो भण्यते, अतोऽनया व्युत्पत्त्या सर्वमपि तदाभिनिबोधिक मर्थस्यापाय: अवग्रहे हाधारणा स्वपि सामान्येनार्थावगमनस्य विद्यमानत्वात्। तथा, धरणं धारणा यतो भण्यतेअतोऽनया व्युत्पत्त्या तत्सर्वमप्याभिनिबोधि-कमर्थधरणरूपत्वाद्धारणा, अवग्रहेहापायेष्वप्यविशिष्टस्यार्थधरणस्य विद्यमानत्वादिति। संकरप्राप्तिश्चैवमवग्रहादीनां प्राक् "केवलमत्थवि- सेसं पई" (399) इत्यादिना परिहृतैवेति गाथापञ्चकार्थः। विशे ।नं।आ० मा"ईह त्ति वा 1, अपोहो त्ति वा 2, वीमंस त्ति वा 3, मगण त्ति वा 4, गवेसण त्ति वा 5, सण्ण त्ति वा६, सई त्ति वा 7, मति त्ति वा 8. पन्नत्ति वा 9." सव्वमेयं आभिणिबोहियं एतेहिं एगट्ठिएहिं भणितं ति। आ.यू. 10 12 गाथा (१-ईहाया: विचारो विस्तरतः 'ईहा' शब्देऽ-स्मिन्नेवभागेऽग्रे करिष्यते)(२-अपोहशब्दार्थविचार:'अपोह' शब्दे प्रथमभागे विस्तरत: समुक्त:)(अत्र 'आगम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे (11) विषयसूच्यङ्के विस्तर: प्रतिपादितः। ततोऽवशिष्ट: 'सह' शब्दे सप्तमे भागे 337 पृष्ठादारभ्य दर्शयिष्यते) (3- विमर्शशब्दविचार: 'वीमंस शब्दे पृष्ठभागे करिष्यते) (४-मार्गणाशब्दार्थनिरूपणम् दृष्टान्तश्च मग्गणा' शब्दे षष्ठभागे, तथाअस्यैकार्थिकानि 'मग्गण' शब्दे तस्मिन्नेव भागे दर्शयिष्यन्ते) (५गवेषणाविषयो विशेष: 'गवेषणा' शब्दे तृतीय- भागे करिष्यते) (६संज्ञासर्वस्वविचार: 'सण्णा' शब्दे७ भागे दर्शयिष्यते) (७-स्मृतिस्वरूपम् 'सई' शब्दे सप्तमे भागे विस्त- रतो वक्ष्यते) (मतिस्वरूपं विस्तरत: 'मइ' शब्दे पष्ठभागे वक्ष्य-ते)(८-प्रज्ञाशब्दार्थविचार: ‘पण्णा' शब्दे पञ्चमे भागे करिष्यते) तदेवं तत्त्वभेदपर्यायराभिनिबोधिकज्ञानं व्याख्याय, साम्प्रतं तद्विषयनिरूपणार्थमाहतं पुण चउट्विहं नेयं, भेयओ तेण जं तदुवउत्तो। आदेसेणं सव्वं, दव्वाइँ चउट्विहं मुणइ 11402|| तत्पुनराभिनिबोधिकज्ञानं चतुर्विध-चतुर्भेदम्। नन्ववग्रहा- दिभेदेन भेदकथनं प्रागस्य कृतमेव किमिह पुनरपि भेदोपन्या- स:?। सत्यम्, ज्ञेयमेवेह द्रव्यादिभेदेन चतुर्भेदं, ज्ञानस्य तु तद्भे- दादेव भेदोऽत्राऽभिधीयते, सूत्रे तथैवोक्तत्वात्। तथा च नन्दि- सूत्रं- "तं समासतो चउव्विहं पन्नत्तं, तं जहा-दव्वओ१, खेत्तओ 2, कालओ 3, भावओ४ तदव्वओणं आभिणिबोहियनाणी आदेसेणं सव्वदव्वाईजाणइ नपासइ (सूत्र-३६)" इत्यादि। ज्ञेयभेदादपि तत्कथं चतुर्विधमित्याह'जंतदुवउत्तो इत्यादि यत्-यस्मात्कारणात्तेनाभिनिबोधिकज्ञानेन सर्व द्रव्यादि मुणतीति संबन्धः। कथंभूतम् ? इत्याह-चतुर्विधंचतुर्भेदं द्रव्यक्षेत्रकाल- भावभेदभिन्नमित्यर्थः। कथंभूतः सन्। मूणति इत्याहतस्मिन्- आभिनिबोधिकज्ञाने उपयुक्तस्तदुपयुक्तः। केन? इत्याह - आदेशेनिति। कोऽयमादेश इत्याहआएसोत्ति पगारो, ओहादेसेणसव्वदव्वाई। धम्मत्थिआइयाई, जाणइ न उ सव्वभेदेणं / / 403|| को तथा अवगमणमवाओ त्तिय, अत्थावगमो तयं हवइ सध्वं / .धरणं च धारणं त्तिय,तं सवं धरणमत्थस्स ||4|| Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 309 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण विशे०। (अस्याः गाथाया: व्याख्या 'आएस' शब्देऽस्मिन्नेव गागे गता) क्षेत्रादिस्वरूपं विशेषत: ग्राहखेत्तं लोगाऽलोग, कालं सव्वद्धमहव तिविहं ति। पंचोदइयाईए, भावे जं नेयमेवइयं ||ll क्षेत्रमपि-लोकाऽलोकस्वरूपं सामान्यादेशेन कियत्पर्याय- विशिष्ट सर्वमपि जानाति, न तु विशेषादेशेन सर्वपर्यायैर्विशि-ष्टमिति। एवं कालमपि सर्वाऽद्धारूपम् अतीताऽनागतवर्तमानभे- दतस्त्रिविधं वा इत्येक एवार्थ:। भावतस्तु सर्वभावानामनन्तभागं जानाति, औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायकौपशमिकपारिणामिकान्वा पञ्च भावान् सामान्येन जानाति न परत:। कुत: ? इत्याह- यत्-यस्मादेतावदेव ज्ञेयमस्ति; नाऽन्यदिति। इह क्षेत्रकालौ सामान्येन द्रव्यागतावेव वेचलं भेदेन रूढत्वा-त्पृथगुपादानममवसेयमिति! आदेशस्य व्याख्यानान्तरमाहआएसो तिव सुत्तं,सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं। पसरइ तन्मावणया, विणा विसुत्ताणुसारेण ||405| अथवा-आदेश: सूत्रमुच्यते, तेन-सूत्रादेशेन सूत्रोपलब्धेष्वर्थेषु तस्य मतिज्ञानिन: सर्वद्रव्यादिविषयं मतिज्ञानं प्रसरति। ननु श्रुतोपलब्धेष्वर्थेषु यज्ज्ञानं तच्छुतमेव भवति, कथं मतिज्ञानम् ? इत्याह-'तब्भावणये' त्यादि, तद्भावनया-श्रुतोपयोगमन्तरेण तद्वासनामावत एव यद्रव्यादिषु प्रवर्तते, तत्सूत्रादेशेन मति-ज्ञानमिति भावः। एतच्च पूर्वमपि 'पुव्वं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं' इत्यादि प्रोक्तमेव। इति गाथाचतुष्टयार्थः। विशे०। भा। (13) तदेवं तत्त्वभेदपर्यायैर्मतिज्ञानं व्याख्याय, विषयं च द्रव्यादिकमस्य निरूप्य, साम्प्रतमिदमेव सत्पदप्ररूपणतादिभिर्नवभिरनुयोगद्वारैर्विचारयितुमाहसंतपयपरूवणयार, दय्वपमाणं च 2 खेत्त३, फुसणा या कालो या५ अंतरं६ भाग भावः अप्पाबहुंचेव९||४०६|| सच तत्पदं च सत्पदंतस्य प्ररूपणं सत्पदत्ररूपणंगत्यादिद्वारेषु विचारणं तद्भाव: सत्पदप्रूपणता 'कस्मिन् गत्यादिद्वारे इदं सद्' इत्येवं सतोविद्यमानस्याऽऽभिनिबोधिक ज्ञानस्यगत्यादि- द्वारेषु; प्ररूपणा कर्तव्ये त्यर्थः / तथा द्रव्यप्रमाणमिति। 'मति- ज्ञानि जीवद्रव्याणामेकस्मिन्समये कियन्तो मतिज्ञानं प्रतिपद्यन्ते, सर्वे वा कियन्तस्ते? इत्येवं प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः चशब्द: समुच्चयेश तथाक्षेत्रमिति 'कियति क्षेत्रे तत्संभवति?' इत्येवं मतिज्ञानस्य क्षेत्र वक्तव्यम् 3 / तथा-'कियत्क्षेत्रं मतिज्ञानिन: स्पृशन्ति' इत्येवं स्पर्शना वक्तव्या। यत्राऽवगाढस्तत्क्षेत्रं पार्श्व- तोऽपि च स्पर्शना, इत्येवं क्षेत्रस्पर्शनयोर्विशेष:, च: समुच्चये 4 तथा काल: स्थितिलक्षणो मतिज्ञानस्य वाच्य: चस्तथैव दा एकदा प्रतिपद्य वियुक्त: कियता कालेन पुनरपि प्रपद्यते' इत्येवम् अन्तरं च तस्य वक्तव्यम्घातथा मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनां कतिभागे वर्तन्ते' इत्येवं भागोऽस्य वक्तव्य: / तथा कस्मिन् भावे मतिज्ञानिनो वर्तन्ते?' इत्येवं भावो भणनीय:दा तथा अल्पबहुत्वं वक्तव्यम्, भागद्वारादपि तल्लब्धमिति चेत्। नैवं, यतोऽत्र मतिज्ञानिनां स्वस्थान एव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापे- क्षयाऽल्पबहुत्वमभिधानीय, भागस्तु शेषज्ञानापेक्षया चिन्तनीय इति विशेष: 9 / इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः। विस्तरार्थं तु भाष्य- कार एव वक्ष्यति। अथ (1) सत्पदप्ररूपणता किमुच्यते ? इत्याहसंतं ति विज्जमाणं, एयस्स जा परूवणया। गइआइएसु वत्थुसु, संतपयपरूवणा सा उ||४०७।। जीवस्स च तं संतं, जम्हा तं तेहि तेसु वा पयति। तो संतस्स पयाई, ताई तेसु प्ररूवणया ||408|| गत्यादिद्वारेषु सत्त्वेन चिन्त्यमानत्वात्पदं सत् उच्यते। ततश्च सतोविद्यमानस्य पदस्य या वक्ष्यमाणेषु गत्यादिद्वारेषु प्ररूपणता सा सत्पदप्ररूपणतोच्यते। अथवा जीवस्य यत्सज्ज्ञा-नदर्शनादिकं तत्तैश्च कारणभूतैः, तेषुवाऽधिकरणभूतेषु यस्मात् पर्यति' त्ति-पद्यतेअनुगभ्यते, विचार्यते तत:-तस्मात्सत: पदानि सत्पदानि तानि गत्यादीनि द्वाराण्युच्यन्ते तै:,तेषु वा प्ररूपणता मत्यादेः' इति गम्यते, सत्पदप्ररूपणता! इति गाथाद्वयार्थः। तान्येव सत्पदानि गत्यादिद्वाराणि दर्शयतिगइइंदिए य काए, जोए वेए कसायलेसासु। सम्मत्त-नाण-दसण-संजय-उवओग-आहारे।।४०९|| भासग-परित्त-पज्ज-त्त-सुहम-सण्णीय भविय-चरिमेय। पुथ्वपडिवन्नए वा, पडिवज्जते य मग्गणया||४१०।। एतेषु गत्यादिषुद्वारेषु मतिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना: प्रतिपद्य- मानकाः, तदुभयम्, उभयाभावश्च इत्येतचतुष्टयं चिन्त्यते। तत्र येषु स्थानेषु मतिज्ञानिनो न प्रतिपद्यमानका:, नाऽपि पूर्वप्रतिपन्ना:, किंतु उभयाभावः तान्यपोद्धृत्य दर्शयतिएगिदियजाईओ, सम्मा मिच्छो य जो य सम्वन्नू। अपरित्ताय अभव्वा,ऽचरिमा (य) एएसया सुण्णा / / 411| इह सर्वेष्वपि गत्यादिद्वारेषु यावान् कोऽप्ये केन्द्रियजातीय:एकेन्द्रियप्रकार:; एकेन्द्रियभेद इत्यर्थः। एष सर्वोऽपि मतिज्ञानेन शून्यः, न तत्र मतिज्ञानस्य प्रतिपद्यमानक:, नापि पूर्व प्रतिपन्न: संभवतीत्यर्थः। "उभयाभावो एगिदिएसु सम्मत्तलद्धिए'' इति वचनादितिा क: पुनरेकेन्द्रियजातीय:? इति चेत्। उच्यते इन्द्रियद्वारेतावदेकेन्द्रिय एव कायद्वारे-पृथिव्यप्तेजोवायुवन-स्पतयः। सूक्ष्मद्वारे तु-सूक्ष्म इत्यादि। तथा- सम्यग्मिथ्यादृष्टि- रपि सम्यक्त्वद्वारे मतिज्ञानशून्यः। "सम्मामिच्छदिट्ठी णं भंते! किं नाणी, अन्नाणी?| गोयमा! नो नाणी, अण्णाणी" ऊ इत्यादिवचनादिति। यश्च क्वाऽपि द्वारे-सर्वज्ञ: केवली संभवति, सोऽपि तच्छून्य एव; तद्यथा- गतिद्वारे Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 310 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण सिद्धिगतौ सिद्धः इन्द्रियद्वारे-अतीन्द्रिय: कायद्वारेअकाय:, योगद्वारे- अयोग:, लेश्याद्वारे-अलेश्यः, ज्ञानद्वारे-केवलज्ञानी, दर्शनद्वारेकेवलदर्शनी, तथा, संयमपरीत्त-पर्याप्त-सूक्ष्म- संज्ञि-भव्यद्वारेषुयथासंख्यं नोसंयत-नोपरीत्त-नोपर्याप्त-नो-सूक्ष्म-नोसंज्ञि-नोभव्या इति। एते सर्वेऽपि सर्वज्ञत्वान्मतिज्ञानशून्या:,छास्थस्यैव तत्संभवादिति भावः। तथा-परीत्त-भव्य- चरमद्वारेषु परीत्ता-ऽभव्याऽचरमा अपि मिथ्यादृष्टित्वान्मतिज्ञानशून्या:। तदेवमेते सर्वे सर्वदैव मतिज्ञानशून्या मन्तव्या उभयाभादात् / इति गाथार्थः। अथ गत्यादिद्वारोष्वेव पूर्वप्रतिपन्नप्रति पद्यमानकचिन्तां कुर्वन्नावियला अविसुद्धलेसा, मणपज्जवणाणिणो अणाहारा। असण्णि अणगारोव-ओगिणो पुव्वपडिवन्ना ॥४९शा सेसा पुष्वपवण्णा, नियमा पडिवज्जमाणया भइया। भयणा पुष्वपवण्णा अकसायाऽवेयया हॉति / / 413|| विकला:-द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणा विकलेन्द्रियाः तथाअविशुद्धलेश्या: भावलेश्यामङ्गीकृत्य कृष्ण-नील-कापोत लेश्या-वृत्तयः तथा-मन:पर्यायज्ञानिन: अनाहारकाः, असंज्ञिन:, अना-कारोपयुक्ताः; एते सर्वेऽपि मतिज्ञानस्य यदि भवन्ति। तथा पूर्व- प्रतिपन्ना एव, नतु प्रतिपद्यमानकाः, तथा हि-इन्द्रियद्वारे केचि- द्विकलेन्द्रिया ये सास्वादनसम्यक्त्वेन सह पूर्वभवादागच्छन्ति तेषां पूर्वप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य स्यान्मतिज्ञान, प्रतिपद्यमानस्त्वस्य विकलेन्द्रिया: सर्वेऽपिन भूवन्त्येव, तथाविधविशुद्ध्यभावात्। तथा-लेश्याद्वारे-अविशुद्धलेश्या अपि पूर्वप्रतिपन्ना: केचिद्भवन्ति, नतुप्रतिपद्यमानका: विशुद्धभावलेश्यानामेव तत्प्रतिपत्तेः ज्ञानद्वारे-मन:पर्यायज्ञानिन: सर्वेऽपि पूर्वप्रतिपन्ना: भवन्त्येव, नतु प्रतिपद्यमानका:, सम्यक्त्वसहचरितप्राप्तमतिज्ञानस्यैव पश्चादप्रमत्तसंयतावस्थायां मन:पर्यायज्ञानोत्पत्तेः सम्यक्त्वसहचरितचारित्रलाभे तु मति सहचरितं मनः पर्यायज्ञानं नोत्पद्यत एव, अत एव वचनाद् अन्यथा अवधिज्ञानीव मन: पर्यायज्ञान्यपि निश्चयनयमतेन प्रतिपद्यमानक: स्यादिति / आहारकद्वारे अनाहारकाः केचिद्देवादयः पूर्वभावाद् गृहीतसम्यक्त्वा मनुष्यादिषूत्पद्यमानाः मते: पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्रतिपद्यमानका: तथाविधविशुद्ध्यभावात्। संज्ञाद्वारे असंज्ञिनो विकलेन्द्रियवद्भावनीयाः। उपयोगद्वारे अनाकारोपयोगिन: के चित्पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्रतिपद्यमानका: मतिज्ञानस्य लब्धित्वात्तदुत्पत्तेश्चाना-कारोपयोगे प्रतिषिद्धत्वादिति। उक्तशेषास्तुगतिद्वारे नारकादयः, इन्द्रियद्वारेतुपञ्चेन्द्रिया:, कायद्वारे तुत्रसकायिकाः, इत्येवमादयो जातिमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीया:-कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्नेति / अतिव्याप्तिनिषेधार्थमाह- 'भयणा पुव्वपवन्ना' इत्यादि कषायद्वारे अकषायाः वेदद्वारे त्ववेदकाः, भजनया पूर्वप्रतिपन्नया एव भवन्ति, छद्मस्था: पूर्वप्रतिपन्ना: मतेर्भवन्ति, नतु केवलिन:, प्रतिपद्यमान कास्त्वमी न भवन्त्येव, पूर्वप्रतिपन्न- मतिज्ञानानामेव क्षपकोशमश्रेणिप्रतिपत्तेः। इति गाथाद्वयार्थः। तदेवं संक्षेपतो गत्यादिद्वारेषु भाष्यकृता मतिज्ञानस्य कृता सत्पदप्ररूपणा। अथ विनेयाऽनुग्रहार्थं किंचिद्विस्तरतोऽप्यसौ विधीयते-तत्र मतिज्ञानं किमस्ति, नवा ? यद्यस्ति, क्व ? तद्गत्यादिस्थानेषु। तत्र नारकतिर्यङ् नरामरभेदागतिश्चतुर्दा। तत्र चतुविधायामपि गतौ मतिज्ञानस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमात्सन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु भाज्या:- विवक्षितकाले कदाचिद्भवन्ति, कदाचित्तु नेत्यर्थः। आभिनिबोधिकप्रतिपत्तिप्रथमसमये प्रतिपद्यमानका उच्यन्ते, द्वितीयादिसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना इत्यनयोर्विशेषः। इन्द्रियद्वारेएकन्द्रियेषूभयाभावः। सैद्धान्तिकमतेन कार्मिकग्र- न्थिकास्तुलब्धिपर्याप्तबादरपृथव्यवनस्पतीन् करणाऽपर्याप्तान् पूर्वप्रपन्नानिच्छन्ति, सास्वादनस्य तेषूत्पत्तेः। विकलेन्द्रियास्तूम- यमतेनाऽपि करणाऽपर्याप्ताः सास्वादनमेव पूर्वभवायातमङ्गी- कृत्य पूर्वप्रतिपन्ना लभ्यन्ते, नतु प्रतिपद्यमानका: पञ्चेन्द्रियास्तु सामान्येन पूर्वप्रतिपन्ना नियमत: सन्ति प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीया:। कायद्वारे-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात्षोढा काय:। तत्राद्यकायपञ्चकैउभयाभावः त्रसकाये तुपञ्चेन्द्रियवद्वाच्यम्। योगद्वारे कायवाङ्मनोभेदात्रिधा योग:, स एष त्रिविधोऽपि समुदितो येषामस्ति तेषां पञ्चेन्द्रियद्वाच्यम्, मनोरहितवाग्योगिनां विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगिनां त्येकेन्द्रियवदिति। वेदद्वारेस्त्रीपुंनपुंसकभेदात् त्रिविधेऽपि वेदे पञ्चेन्द्रियवत् भावनीयम्। कषायद्वारे तु चतुर्खनन्ताऽनुबन्धिषु सास्वादनमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते; न प्रतिपद्यमानक:, शेषेषु द्वादासु कषायेषु पञ्चेन्द्रियवदेवा लेश्याद्वारेभावलेश्यामङ्गीकृत्य कृष्णादिकासु तिसृष्वप्रशस्तलेश्यासुपूर्वप्रतिपन्ना: संभवन्ति, नत्वितरे;प्रशस्तेतु नेश्यात्रये पञ्चेन्द्रियवदेवा सम्यक्त्वद्वारेनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां विचारः। तत्र व्यवहारनयो मन्यतेमिथ्यादृष्टिरज्ञानी च सम्यक्त्वज्ञानयोः प्रतिपद्यमानको भवति, न तु सम्यक्त्वज्ञानसहित:। निश्चयनयस्तु ब्रूते- सम्यग्दृष्टिानी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते, नतु मिथ्यादृष्टिः, अज्ञानी चा विशे०। (यत्तत् 'कज्जकारणभाव' शब्दे तृतीयभागे (114) इत्यादिगाथाभिः दर्शयिष्यते) तस्माद्-'इय न श्रवणादिकाले नाणं' (417) इत्यनेन यदि सर्वेष्वपि धर्मश्रवणादिसमयेषु मतिज्ञानं निषिध्यते, तदा सिद्धसाध्यता। अथ चरमक्रियासमयेऽपि तन्निवार्यते, तदयुक्तम्, तत्र तस्य प्रसाधितत्वादितिा तस्मिश्च धर्मश्रवणादिक्रिया चरम-समये सम्यक्त्वं ज्ञानं च प्रतिपद्यमानं प्रतिपन्नमेवेति। अत: सम्य-गदृष्टिानी च सम्यक्त्वज्ञाने प्रतिपद्यते। इति निश्चय-नयमततात्पर्यम्। व्यवहारनयस्तु ब्रूतेतस्मिश्वरमसमये सम्य-क्त्वज्ञानयोरद्याप्यसौ प्रतिपद्यमानक:, प्रतिपद्यमानंचाप्रतिपन्न-मेवा अतोमिथ्यादृष्टि: अज्ञानीचसम्यकत्वज्ञाने प्रतिपद्यते / उत्तरत्र क्रियानिष्ठासमये तु सम्यकत्वज्ञाने युगपदेव ल Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 311 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण भते / अत: प्रस्तुते सम्यक्त्वद्वारे एतन्मतेन सम्यग्दृष्टिराभिनिबोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्न एव भवति, नतुप्रतिपद्यमानक:, सम्यक्त्वज्ञानयोर्युगपल्लाभात, तत्काले च क्रियाया अभावात, तदभावे च प्रतिपद्यमानकत्वायोगादिति। निश्चयनयमतेन तु सम्यग्दृष्टेराभिनिबोधकस्य पूर्वप्रतिपन्नः, प्रतिपद्यमानकश्च लभ्यते, क्रियाया: कार्यनिष्ठायाश्च युगपद्भावस्य समर्थितत्वात्। इत्यलमतिविस्तरेणेति। विशे। ज्ञानद्वारे - मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात्पञ्चधा ज्ञानम्। व्यवहारनयमतेनमतिश्रुतावधिमन:पर्यायज्ञानिन: आभिनि- बोधिकस्य पूर्वप्रतिपन्ना भवन्ति, नतु प्रतिपद्यमानका:ज्ञानिनो मतिज्ञानप्रतिपत्त्ययोगस्यैतन्मतेन प्रागुक्तत्वात्। केवलिनां तूभयाभावः, तेषां क्षयोपशमिकज्ञानातीतत्वात्। मत्यज्ञानश्रुताऽ- ज्ञानविभङ्गज्ञानवन्तस्तु प्रतिपद्यमानका: कदाचित् भवन्ति, युक्तेदर्शितत्वात्, नतु पूर्वप्रतिपन्नाः, निश्चयनयमतनेन तु मति- श्रुतावधिज्ञानिन: पूर्वप्रतिपन्ना नियमत: सन्ति, प्रतिपद्यमानका अपि भजनीयाः, ज्ञानिनो ज्ञानप्रतिपत्ते: समर्थितत्वात्। मन:- पर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानका: पूर्वसम्यक्त्वलाभकाले प्रतिपन्नमतिज्ञानस्यैव पश्चादन्त्यावस्थायां मन: पर्यायज्ञानसद्भावात्ा केवलिनां तूभयाभावः। एवं मत्या- धज्ञानवतामप्युभयाभाव एव, ज्ञानिन एव ज्ञानप्रतिपत्तेः। दर्शनद्वारे- चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदात् दर्शनं तु चतुर्धा! अत्राद्यदर्शनत्रये लब्धिमङ्गीकृत्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमत: प्राप्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीया:, तदुपयोगत्वाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्ना एव नतु प्रतिपद्यमानका: मतिज्ञानस्य लब्धित्वात्, लब्ध्युत्पत्तेश्व दर्शनोपयोगे निषिद्धत्वात, "सव्वाओ विलद्धीओ, सागारोपउत्तस्स उववज्जति''इति वचनादिति / केवलद-शनिनां तूभयाभावः / संयतद्वारे- संयतादयश्चाऽऽभिनिबोधकस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमाल्लभ्यन्ते, प्रतिपद्यमाना अपि भजनया प्राप्यन्ते। ननु सम्यक्त्वलाभावस्थायामेव मतिज्ञानस्य प्रतिपन्नत्वात्संयत: कथं प्रतिपद्यमानकोऽवाप्यते? सत्यं, किंतु-योऽतिविशुद्धिवशात्स-म्यकत्वं चारित्रं च युगपत्प्रतिपद्यते स तस्यामवस्थायां प्रतिप- द्यमानस्य संयमस्य प्रतिपन्नत्वात्संयतो मतेः प्रतिपद्यमानको भवतिः उक्त चावश्यकचूर्णी-"नऽस्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं दंसणं तु भयणिज्ज''। भजनामेव आह-"सम्मत्तचरित्ताइ जुगवं, पुव्वं च सम्मत्त" उपयोगद्वारेउपयोगो द्विधा-पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि चाज्ञानानि साकारोपयोगः; चत्वारि दर्शनानि अनाकारोपयोग: तत्र साकारोपयोगे पूर्वप्रतिपन्ना नियमात् सन्ति, प्रतिप- द्यमानकास्तु भजनीयाः। अनाकारोपयोगे तु प्रतिपन्ना एव, नतु प्रतिपद्यमानकाः। अनाकारोपयोग लब्ध्युत्पत्ते: प्रतिषिद्धत्वादिति। आहारकद्वारेआहारकाः साकारोपयोगवद् / अनाहारकास्त्व-पान्तरालगतौ प्रतिपन्ना: संभवन्ति, प्रतिपद्यमानकास्तु नभवन्त्येव। भाषकद्वारे भाष्यकार एवाह मासासलद्धिओ लमई,भासमाणो अभासमाणो वा। पुष्वपडिवन्नओवा, उभयं पि अलद्धिए नऽस्थि / / 427|| भाषालब्ध्या सह वर्त्तते इतत भाषासलब्धिक: भाषालब्धिमांश्चेद्भवतीत्यर्थः तदा भाषमाणोऽभाषमाणो वा लभते प्रतिपद्यते कश्चिन्मतिज्ञानं, पूर्वप्रतिपन्नौ वा भवति, भाषालब्धियुक्तो मनुष्यादिर्जात्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नो नियमाल्लभते प्रतिपद्यमानकोऽपि भजनयेति तात्पर्यम्। अलब्धिके भाषालब्धिशून्ये पुनरुभयमपि नास्ति, सोकेन्द्रिय एव, तस्य च प्रागुक्तवदुभयाभाव एवेत्यर्थः। इति गाथार्थः / परीत्तद्वारे-परीत्ता: प्रत्येकशरीरिणः, परीत्तीकृतसंसारा वा; स्तोकावशेषभवा इत्यर्थः। एते उभयेऽपि पूर्वप्रतिपन्ना नियमा-ल्लभ्यन्ते, प्रतिपद्यमानकास्तु भजनीयाः। अपरीतास्तु साधार- णशरीरिणः, अपार्द्धपुद्गलपराव दप्युपरिवर्तिसंसारा वा; मिथ्यादृष्टित्वादुमयेऽप्युभयविकला:। पर्याप्तकद्वारे-षट्पर्याप्ति-भि: पर्याप्ताः परीतवद्वाच्यास्तदपर्याप्तास्तुप्रतिपन्ना एवन वितरे। सूक्ष्मद्वारे-सूक्ष्मा उभयविकला:। बादरास्तु पर्याप्तकवद्वाच्याः। संज्ञिद्वारे-दीर्घकालिकोपदेशेन संज्ञिनो गृह्यन्ते,ते चबादरवद्भावनीयाः / असंज्ञिनस्तु अपर्याप्तवदिति। भवद्वारेभवसिद्धिका: संज्ञिवद। अभवसिद्धिकास्तूभयशून्या:। चरमद्वारे- चरमो भवो भविष्यति येषां तेऽभेदोपचाराचरमा भव्यवद् अचरमास्त्वभव्यवदिति / तदेवं कृता गत्यादिद्वारेषु भाष्ये वृत्तौ च सत्पदप्ररूपणता। अथ (2) द्रव्यप्रमाणमाहकिमिहाभिणिबोहिनियनाणि-जीवदव्वपमाणमिगसमए। पडिवज्जेज्जंतुन वा, पडिवज्जे जहन्नओ एग्गो ||426|| खेत्तपलिओवमासं-खभागउक्कोसओ पवज्जेज्जा। पुथ्वपवना दोसु वि, पलियासंखेज्जईभागो // 429|| किमिहाऽस्मिन् लोकेआभिनिबोधिकज्ञानपरिणामापन्नजी- द्रव्याणां प्रमाणमेकस्मिन् विवक्षितसमये? एवं शिष्येण पृष्टे सत्याह-प्रतिपद्येरन्, नवेति। इदमुक्तं भवति-यदि प्रतिपद्य- मानकानां प्रमाणं पृच्छसि, तदा प्रतिपद्यमानकास्तस्य विवि- क्षितसमये प्राप्यन्ते न वा। तत्र प्रतिपद्यमानप्राप्तिपक्षे जघन्यत एक: प्रतिपद्येत, उत्कृष्टस्तु सर्वलोके क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागः प्रतिपद्येता अथ पूर्व प्रतिपन्नानां तेषां प्रमाणमिच्छसि ज्ञातुं, तर्हि पूर्वप्रतिपन्ना द्वयोरपि पक्षयोर्जघन्योत्कृष्टलक्षणयोः क्षेत्रपल्योप- माऽसंख्येयभागप्रदेशराशिप्रमाणा: प्राप्यन्ते, केवलं जघन्यपदा-दुत्कृष्टं विशेषाऽधिकम्। इति गाथाद्वयार्थः। अथ (3) क्षेत्रद्वारमधिकृत्याहखेत्तं हवेज्ज चोहस-भागा सत्तोवरि अहे पंच। इलियागईए विग्गह-गयस्स गमणेऽहवाऽऽगमणे // 430 / / नानाजीवानपेक्ष्य सर्वेऽप्याभिनिबोधिक ज्ञानिनः पिण्डिता लोकासंख्ये यभागमेव व्याप्नुवन्ति। एक जीवस्य तु क्षेत्रं भवेत्कियद ? इत्याह- सप्तचतुर्दशभागा: चतुर्दशभागीकृत Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 312 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आभिणिबोहियणाण स्य लोकस्य सप्त भागाः; सप्तरज्जव इत्यर्थः, उपरि-ऊर्ध्वम् इलिकागत्या विग्रहगतस्य निरन्तराऽपान्तराल-स्पर्शिनोऽनुत्तरविमानेषु गमने, तत आगमने वा / अधस्त्वनयैव गत्या षष्ठनरकपृथिवीगमने | आगमने वा पञ्चचतुर्दशभागाः पञ्च रज्जव: प्राप्यन्ते। इदमुक्तं भवतियदाऽत्राऽऽभिनिबोधिकज्ञानी मृत्वा / इलिकागत्यानुत्तरसुरेषूत्पद्यते, तेभ्यो वाऽत्र मनुष्यो जायते, तदाऽस्य जीवप्रदेशो दण्ड: सप्तरज्जुप्रमाणक्षेत्रे भवति, अधस्त्वनयैव गत्या षष्ठनरकपृथिव्यां गच्छतः, तत आगच्छतो वा पञ्चरज्जुप्रमाणक्षेत्रेऽसौ लभ्यत इति। विराधितसम्यक्त्वो हि षष्ठपृथ्वीं यावत् गृहीतेनाऽपि सम्यक्त्वेन सैद्धान्तिकमतेन कश्चिदुत्पद्यते कार्मग्रन्थिकमतेन तु वैमानिकदेवेभ्योऽन्यत्र तिर्य, मनुष्यो वा तेनैव क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेनोत्पद्यते, न गृहीतेन; सप्तमपृथिव्यां पुनरुभयमतेनाऽपि वान्तेनैवतेनोपजायते। आह भवत्वेवं किंतु य: सप्तमपृथिव्या गृहीतसम्यक्त्वोऽत्रागच्छति तस्याऽध: षट्चतुर्दश भागाः किमिति न लभ्यन्ते? इति (विशे०।) ('सम्मत्त' शब्दे सप्तमे भागे स्फुटीभविष्यति) (स्पर्शनाद्वाम्। क्षेत्रस्पर्शनयोर्विशेषश्च 'फासणा' शब्दे पञ्चमभागे (431) गाथया दर्शयिष्यते)। एकस्याऽऽभिनिबोधिक ज्ञानिजीवस्य वे क्षेत्रस्पर्शने, ताभ्यां सकाशान्नानाऽऽभिनिबोधिकजीवानां या: क्षेत्रस्य स्पर्शनास्ता असंख्येयगुणा: नानाऽभिनिबोधिकजीवानां सर्वेषामसंख्येयत्वा-दिति भाव: कालद्वारमधिकृत्याहएगस्स अणेगाण व, उवओगंतो मुहुत्ताओ।।४३४।। द्विधा मतिज्ञानस्य कालश्चिन्तनीयः- उपयोगतो, लब्धितश्च / तत्रैकजीवस्य तदुपयोगो जघन्यत उत्कृष्टतश्चाऽन्तर्मुहूर्तमेव भवति, परत उपयोगान्तरगमनादिति। सर्वलोकवर्तिनामनेकाऽऽभि-निबोधिकजीवानामपीदमे वोपयोगकालमानम्, केवलमिद-मन्तर्मुहूर्तमपि बृहत्तरमवसेयम्। लब्धिमङ्गीकृत्य कालमानमाहलद्धी वि जहण्णेणं, एगस्सेवं परा इमा होई। अह सागरोवमाई,छावहिं सातिरेगाई॥४३५|| आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धिरपि तदावरणक्षयोपशमरूपाऽऽवाप्तसम्यत्वस्यैकजीवस्य जघन्यतएवमितिएवमेव; अन्त-मुहूर्तमेवेत्यर्थ: परतो मिथ्यात्वगमनात्, केवलाऽवाप्तेर्वा! परा तूत्कृष्टा तल्लब्धिरेकजीवस्येयम्-अनन्तरवक्ष्यमाणा भवति। अथ सैवोच्यते-सातिरेकाणि षट्षष्टिसागरोपमाणि। कथं पुनरेतानि भवन्ति, नानाजीवानां च कियान् लब्धि-काल: ? इत्याहदो वारे विजयाइसु, गयस्स तिनचुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं, नाणाजीवाण सव्वऽद्धं // 436 / / इह कश्चित्साधुर्मत्यादिज्ञानान्वितो देशोनां पूर्वकोटीया-वत्प्रव्रज्यां परिपाल्य विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितविमानाना मन्यतरविमाने उत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणदेवायुरनुभूय पुनरप्रतिपतितमत्यादिज्ञान एव मनुजेषु उत्पन्नो देशोनां पूर्वकोर्टी प्रव्रज्यां विधाय तदैव विजयादिषूत्कृष्टमायुःसंप्राप्य पुनरप्रतिप- तितमत्यादिज्ञान एव मनुष्यो भूत्वा पूर्वीकोटी जीवित्वा सिद्ध्यतीति। एवं विजयादिषु वारद्वयं गतस्य; अथवा- अच्युत-देवलोके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु त्रीन् वारान् गतस्य तानि षट्षष्टिसागरोपमाणि अधिकानि भवन्तिः अधिक चेह नरभवसंबन्धिदेशोनं पूर्वकोटित्रयं चतुष्टयं वा द्रव्यम्। नाना-जीवानां तु सर्वाऽद्धसर्वकालं मतिज्ञानस्य स्थितिः। इति गाथा (विशे०)ऽर्थः / अथाऽन्तरद्वारमाश्रित्याहएगस्स जहन्नेणं, अंतरमंतो मुहुत्तमुक्कोसं / पोग्गलपरिअट्टद्धं, देसूणं दोसबहुलस्स / / 437|| इह कश्चिज्जीवः सम्यक्त्वसहितं मतिज्ञानमवाप्य- प्रतिपत्त्य चान्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वे स्थित्वा यदि पुनरपि सम्यक्त्वसहितं तदेव प्राप्नोति। तदेतन्मतिज्ञानस्य जघन्यमन्तरमुहूर्तमन्तरं प्राप्ति-विरहकालरूपं भवति। आशातनादिदोषबुहलस्यतुजीवस्य सम्यक्त्वात् प्रतिपतितस्य देशोनपुद्गलपरावर्ताऽर्द्धरूपमुत्कृष्ट- मन्तरं भवति, एतावता कालेन पुनरपि सम्यक्त्वाऽऽभिनि-बोधिकलाभात् इत्येकजीवस्योक्तमन्तरम्। अथ नानाजीवानां तदभिधित्सुः, भावद्वारं च बिभणिषुराहजमसुन्नं तेहिं तओ, नानाजीवाणमंतरं नऽत्थि / मइनाणी सेसाणं,जीवाणमणंतभागम्मि / / 438 / / यत् यस्मात्तै:- आभिनिबोधिक ज्ञानिभिरशून्यं सर्वदैव नारकादिगतिचतुष्टयाऽन्वितं त्रिभुवनमिदंततस्तस्मान्नानाजीवाना-श्रित्य नाऽस्ति मतिज्ञानस्याऽन्तरकालः। तथा मतिज्ञानिन: शेषज्ञानवतां जीवानामनन्ततमे भागे वर्तन्ते, शेषज्ञानिनो हि वेचलिसहितत्वादनन्ता:, आभिनिबोधिकज्ञानिनस्तु सर्व-लोकेप्यसंख्याता एवेति भावः। इति गाथाद्वयार्थ:। अथ भावद्वारम्, अल्पबहुत्वद्वारं चाऽभिधित्सुराहभावे खओवसमिए, मइनाणं नथिसेसमावेसुं। थोवा मइनाणविऊ, सेसाजीवा अणंतगुणा / / 439|| मतिज्ञानाचरणे हि कर्मण्युदीर्णे क्षीणे, अनुदीर्णे तूपशान्ते मतिज्ञानमुपजायते, अत: क्षायोपशमिक एव भावे तद्वर्त्तते, न तु शेषेष्वौदयिक क्षायिकादिभावेष्विति मतिज्ञानेन विदन्तीति मतिज्ञानविद: स्तोकाः शेषज्ञानयुक्तास्तु सिद्धकेवल्यादयो जीवा अनन्तगुणा इति। एवमपि तावदल्पबहुत्वं भवति। केवलमिहै- वमुच्यमाने भागाऽल्पबहुत्वद्वारयोरर्थत: परमार्थतो न कश्चिद्विशेषो भेदो दर्शितो भवति। तेन तस्यैवाऽऽभिनिबोधिकस्य पूर्वप्रति-पन्नप्रतिपद्यमान-- कानाश्रित्याऽल्पबहुत्वं वक्तुमुचितं, पौन-रुक्त्याऽभावादिति। एतदेवाहनेह त्थओ विसेसो, भागप्पबहण तेण तस्सेव / Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभिणिबोहियणाण 313 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आभीरीवंचग पडिवज्जमाणपडिवनगाणमप्पाबहं जुत्तं ।।४४०|गतार्थवा अथ यदेव युक्तं तदेवाहथोवा पवज्जमाणा, असंखगुणिया पवनयजहन्ना। उक्कोसए पवन्ना, होति विसेसाऽहिया तत्तो॥४४१|| आभिनिबोधिकस्य "जहन्नेणं, एक्को वा, दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं असंखेज्जा" इत्येवं प्रतिपद्यमानका; प्रोच्यन्ते ते सर्वस्तोकाः। तेभ्यो जधन्यपदवर्तिन: पूर्वप्रतिपन्नास्ते असंख्या- तगुणा: चिरकालसंकलितत्वात् प्रतिपद्यमानकानां तु विवक्षि- तैकसमयमात्रभावादिति। उत्कृष्टपदवर्तिनस्तुपूर्वप्रतिपन्ना- स्तेभ्योऽपि विशेषाधिका इति। __ प्रकारान्तरमप्यल्पबहुत्वे दर्शयतिअहवा मइनाणीणं, सेसयनाणीहिँ नाणरहिएहिं। कज्जं सहो भएहि य, अहवा गन्नाइभेएणं / / 442|| अथवा मतिज्ञानिनां शेषज्ञानिभिः सहाऽल्पबहुत्वं प्रथमं वाच्यम्, यथा"मइनाणी सेसाणं जीवाणमणंतभागम्मि" इति। ततो द्वितीयस्थाने"नाणरहिएहिं" ति, ज्ञानानिव्याख्यानादिह मतिज्ञानादन्यानि गृह्यन्ते, तैरहिता: वियुक्ता: पूर्वप्रतिपद्यमा- नकमतिज्ञानिन ऋव केवला इत्यर्थः तै: सहितं मतिज्ञानि- नामल्पबहुत्वं स्वस्था एव; वक्तव्यम्। यथा"थोवा पवज्जमाणा, असंखगुणिया पवण्णयजहन्ना'' इत्यादि ततस्तृतीयस्थाने उभयैः शेषज्ञानिभिः समुदितै: सहाऽल्पबहुत्वं तेषां कर्तव्यम्। तद्यथा-" सवथोवा मणपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखेज्जगुणा, मइना- णी, सुवनाणी य दोवि सहाणे तुल्ला, मज्झिल्ले हिंतो विसेसा- हिया केवलनाणी अणंतगुणा'' एवं पूर्वप्रतिपन्नप्रतिद्यमानकवि- भागेनाऽप्यल्पबहुत्वमिह स्वधियाऽ-- भ्यूह्यमिति। अथवा-गत्यादि- भेदेन तत्कार्यम्, यथा-सर्वस्तोका मतिज्ञानिनो मनुष्या: नारका असंख्यातगुणा: ततस्तियश्चः, ततो देवा इति। एवं संभवत: सर्वत्र वाच्यमिति। अथोपसंहरन्नाहलक्खणविहाणविसया-ऽणुओगदारेहि वनिया बुद्धी। तयणंतरमुदिलं, सुअनाणमओ परूविस्सं / / 443|| लक्षणम्- आभिनिबोधिकशब्दव्युत्पत्तिः, विधान-भेदोऽ- वग्रहादिः, विषयो द्रव्यक्षेत्रादिः, अनुयोगद्वाराणि सत्पदप्ररूप- णतादीनि, एतैः सर्वैरपि यथोक्तक्रमेणाभिनिबोधिकज्ञानलक्षणा वर्णिता व्याख्याता बुद्धिः। ततस्तदनन्तरोद्दिष्टं श्रुतज्ञानं प्ररूपयिष्ये इति गाथापञ्चकार्थः। तदेवमाभिनिबोधिकज्ञानं समाप्तमिति। विशे०। आ.म.! आमिणिबोहियनाणलद्धि-स्त्री. (आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धि)आभिनिबोधिक ज्ञानम्-मतिज्ञानम् तस्य लब्धि:-योग्यता। | आभिनिबोधिकज्ञानयोग्यतायाम्, "आभिणिबोहियणाणलद्धी जाव खवोअसमिआ" (सूत्र-२७४) स्वस्वावरणकर्मक्षयोपश- मसाध्यत्वात् / क्षायोपशमिकी। अनु० आमिणिबोहियनाणसागरोवओग- पुं० (आभिनिबोधिकज्ञानसा- | कारोपयोग)। अर्थाभिमुखो नियत:-प्रतिनियतस्वरूपो बोधोबोधविशेष: अभिनिबोध: अभिनिबोध एवाभिनि बोधिकम्। अभिनिबोधिशब्दस्य विनयादिपाठाऽभ्युपगमात् 'विनयादिभ्यः" ||72 / 169 / / इत्यनेनस्वार्थे इकणप्रत्ययः।"निवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययका: प्रकृतिलिङ्गवचनानि" इति वचनादव नपुसंकता, यथा विनय एव वैनयिक मित्यत्रा अथवा-अभिनिबुध्यते अस्मादस्मि- न्वेति अभिनिबोध:- तदा-वरणकर्मक्षयोपशमस्तेन निर्वृत्तमाभिनिबोधिकम् तच्च तज्ज्ञानं च आभिनिरोधकज्ञानम्, इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यप्रदेशा-ऽवस्थितवस्तुविषय: स्फुटप्रतिभासो: बोधविशेष इत्यर्थः, च चासौ साकारोपयोगश्च आभिनिबोधिक ज्ञानसाकारोपयोगः। साकारोपयोगविशेषे,प्रज्ञा०२९, पद३१२ सूत्रटी! आभिसेक्क- त्रि. (आभिषेक्य)। अभिषेकमर्हति आभिषेक्यम्। अभिषेकाऽहे, औ.! "आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि" (सूत्र२९)। औ० आभीर-पुं. (आभीर)। आ-समन्ताद् भियं राति रा-क। वाचः। शूद्रजातिभेदे, सूत्र०१ श्रु०९ अ०२ गाथाटी। "आभीराणं अहि- वई' (492 गाथाटी.) आ.म.१ अ.। गोपे, सङ्कीर्णजातिभेदे, स हि अल्पभीतिहेतोरप्यधिकं विभेतीति तस्य तथा तदिदंगृहाणा उद्भट: सच संकीर्णवर्णः। "ब्राह्मणादुगकन्याया-मावृत्तो नाम जायते। आभीरोऽबष्ठकन्याया- मायोगव्यां तु धीखण:।।२।।" इति मनूक्तेः। "श्रीकोङ्कणादधोभागे, तापीत: पश्चिमे तटे! आभीरदेशो दे वेशि, विन्ध्यशैले व्यवस्थित:"!|१|| इति। देशभेदे, तद्देशवासिनि, तद्देशराजे च। वं. का। "एकादशक- लाधारि- कविकुलमानसहारि। इदमाभीरमवेहि, जगणमन्त्यमनु-धेहि "||1|| इत्युक्तलक्षणे 5 मात्रावृत्तभेदे च वाचा आभीरदेस-पुं० (आभीरदेश)। देशभेदे, कल्प० / आभीरदेशे अचलपुरासन्ने कन्ना-वेन्नानधोमध्ये ब्रह्मद्वीपे पञ्चशतंतापसानामभूत्। कल्प० २अधि०८ क्षण। ('जोगपिंड' शब्दे चतुर्थभागे 1641 पृष्ठे।। 'बभदीविया' शब्दे पञ्चमभागे चाऽत्र विशेषवृत्तं वक्ष्यते) आभीरविसय- पुं(आभीरविषय)। देशभेदे, "आभीरविसये कण्हावेण्णाणामणई तस्स कूल बंभद्दीवो तत्थ पञ्च, तावसा परिवसंति। नि० चू०१३ उ। पिं०५०३ गाथा। आ०म० / आ.चूछ। "एवं सो भगवं विहरतो ततो आभीरविसयं गओ" आ.चू.१ अा आव०१ अ० 934 गाथा। आभीरसाहु-पुं. (आभीरसाधु)| आभीरपुत्रे स्वनामख्याते साधौ, उत्त. 20 / (तत्कथा'अण्णाण' शब्दे प्रथमभागे 488 पृष्ठे गता।) आमीरीवंचग-त्रि (आभीरीवञ्चक )| आभीर्या वञ्चनकारके वणिजि, उत्तः। तत्कथा यथा-"क्वाऽपि ग्रामे कोऽपि वणिक् हट्टे क्रयविक्रयं करोति। अन्यदा एका आभीरी तद्धट्टे आगता। तया भणितम्- भो: रूपकद्वयस्य मे रुतं देहि। तेनोक्तम-अर्पयामि। अर्पितं तया रूपकद्वयम्। तेन वणिजा एकस्यैव रूपकस्य रुतं वाग्द्वयं Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभीरीवचग 314 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आम तोलयित्वा अर्पितम्! सा जानाति मम रूपकद्वयस्य रुतंद्वत्तम्। वञ्चिता / "आभोगणिव्वत्तिए" (सूत्र-२४९+) स्था०४ठा०१ऊसंज्ञा:-आभोग:। च सा। तस्यां गतायां स चिन्तयति- एष रूपको मया मुधा लब्धः, स्था०१० ठा० 752 सूत्र टीका "आभोगे जाणतेण जोअइयारो कओ पुणो ततोऽहमेव उपभुजामि / तस्य रूपकस्य घृतखण्डादि लात्वा स्वगृहे तस्स" आव० 4 अ० 1249 गाथा टीला ज्ञानपूर्वकेव्यापारे,आतु 1, सूत्र विसर्जितं भार्याया: कथापितम्- अद्य घृतपूरा: कुाः / तया घृतपूरा: टी। परिस्फुटबुद्धौ, "आभोगेण वि तणुएसु" (12 + गाथा)। कृताः। तावता तद्गृहे समित्रो जामातासमायातः। तस्यैव तया घृतपूरा: "परिस्फुडबुद्धीए वि" चूर्णिः। आभोगेनापि- परिस्फुटबुद्ध्यापि; पारवेषिताः। समित्रेण तेन भक्षिताः1 गत समित्रो जामाता। वणिग् गृहे अविस्मृत्याऽपीत्यर्थ: जीता 'अण्णत्थ अणाभोगेणं" (सूत्र +) सभायातः। स्नानं कृत्वा भोजनार्थमुपविष्टः। तया स्वाभाविकमेव भोजनं आभोजनमाभोग:- आभोगोऽत्यन्तविस्मृतिरित्यर्थः तेन अनाभोगं परिवेषितम्। वणिक् वदति-कथं न कृता घृतपूरा:? तया उक्तम्-कृता: मुक्त्वेत्यर्थी आव०६ अ०२५३ भाष्यगाथाटी। विस्तारे, ज्ञा० 1 श्रु०१० परमागन्तुकेन समित्रेण जामात्रा भक्षिताः। स चिन्तयति मया सा वराकी 27 सूत्र टी०। आभोजनमाभोग: 'भुज' पालनाभ्यवहारयोः मर्यादया आभीरी वशिता। परार्थमेवाऽयमात्मा पापेन संयोजितः। एवं अभिविधिना वा भोगनपालनमाभोगः। प्रतिलेखनायाम, ओधा चिन्तयन्नेवाऽसौ शरीरचिन्तार्थं बहिर्गत:। तदानीं ग्रीष्मो वर्तते। स (अस्यैकार्थिकानि)मध्याह्नवेलायां कृतशरीरचिन्तः एकस्य वृक्षस्याधस्तात् आभोगण मग्गण गवेसण्णा य ईहा अपोह पडिलेहा। विश्रामार्थमुपविष्टः। तेन मार्गेण गच्छन्तं साधुं दृष्टवान्। वणिगुवाच-भो पेखण निरिक्खणाऽविय, आलोय पलोयणेगट्ठा / / 3 / / साधो? विनम्यताम्। साधुनोक्तम-शीघ्रंमया स्वकार्य गन्तव्यम्। वणिजा (अस्या गाथायाः व्याख्या 'पडिलेहणा' शब्दे पञ्चम भागे करिष्यते) उक्तम्-भगवन्! कोऽपि परकायें गच्छति? साधुः प्राह-यथा त्वं ओघळा आ भुज् आधारे घञ्ा परिपूर्णतायाम्, सम्यक् सुखाद्यनुभवे, स्वजनाऽर्थ क्लिश्यसि। अनेन एकनैव वचनेन स बुद्धः। प्राह-भगवन्! वरुणस्य छत्रेचा मेदि.: वाचा यूयं क्व तिष्ठथा साधुना भणितम्-उद्याने! स साधुना समं तत्र गत:। तन्मुखाद्धर्ममाकर्ण्य भणति-भगवन्! अहं प्रव्रजिष्यामिा नवरं स्वजन आभोगंझाण-न (आभोगध्यान)। आभोगोज्ञानपूर्वको व्यापार-स्तस्य मापृच्छ्याऽऽगच्छामि। गतो निजागृहे बान्धवान् भार्यां च भणति-अत्रापणे ध्यानम्। ज्ञानपूर्वकव्यापारस्यध्याने, ब्राह्मणनयना-भिप्रायेण फलान्यपि व्यवहारतो मम तुच्छलाभोऽस्ति देशान्तरं यास्यामि सार्थवाहद्वयगत्रा मृद्नतो ब्रह्मदत्तस्येवा आतु. सूत्र-१४टी०। (अस्य वृत्तान्तं 'भदत्त' शब्दे यातमस्ति। एक: सार्थवाहो मूलद्रव्यमर्पयति, इष्टपुरं नयति, न च लाभं पञ्चमभागे निरूपयिष्यामि) गृहाति। द्वितीयो मूलद्रव्यमर्पयति सह गमनात् लाभञ्च गृह्णाति, तत्कन / आभोगण-न० (आभोगन)। आभोग्यतेऽनेनेति आपोगनम्। सहगमनं युज्यते? तैरुक्तं प्रथमेन सह व्रजा अथस वणिक् स्वजनै: समं अर्थावग्रहसमयसमन्तरमेवा सद्भतार्थविशेषाऽभिमुखे आलो- चने, नं. वने गत्वा उवाच-अयं मुनिः परलोकसार्थवाहः स्वकीयमूलद्रव्येण | 3. सूत्र टी०। उपयोगविशेषे, आव: 4 अ० 11 गाथा टीका व्यवहारं कारयति मोक्षपुरं च नयतीक् दृष्टान्तदर्शनपूर्वकं स्वजनानापृच्छ्य आभोगणया-स्त्री०। (आभोगनता)- आभोग्यतेऽनेनेत्याभोगनम्स वणिक् तस्य गुरो: समीपे दीक्षा जग्राहेति। उत्त०४ अ अर्थावग्रहसमयसमनन्तरमेव सद्भूतार्थविशेषाभिमुखलोचनम्तस्य भाव: आभोइत्ता- अव्य. (आभोगयित्वा)। "आभोइत्ताण णीसेसं" (894 आभोगनता। ईहायाम् नं. 31 सूत्र टीat गाथा)। आभोगयित्वा-ज्ञात्वा निश्शेषमतिचारम्। दश०५ अ० आभोगणिव्वत्तिय-त्रि०। (आभोगनिवर्तित)- आभोगो-ज्ञानम् तेन आभोएउं-अव्य (आभोज्य)। विज्ञायेत्यर्थे, पं०व०१४२० गाथा। निर्वर्तितः। ज्ञानेन कृत क्रोधादो, यज्जानन् कोपविपाआभोएमाण-त्रि० (ओभागयत्)। अवलोकयति, कल्प अधि०१क्षण 211 कादि रुष्यति। वैमानिकक्रोधविशेषे, स्था० 1, ठा. 1 उ०२४९ सूत्र टी०। आभोगबउस-पु.। (आभोगबकुश)- आभोग: साधूनाम- कृत्यआभोग-पु. (आभोग)-आभोगनमाभोग: उपयोगविशेषे आवळा"आभोगे मेतच्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानम्, तत्प्रधानो वकुश तह अणाभोगे'' ||4|| आव० 4 अ{"लोकालो-कावलोकनाभोगम्" आभोगबकुश:। बकुशभेदे, भ०२५,९१०६,उ०७५१ सूत्र टीका आभोगिणी-स्त्री. (आभोगिनी)। विद्याभेदे, बृ। "आभोगिणी य" आभोग:-उपयोग:। पो०१५ विव०।"अन्नाए आभोगं,नाए ससदं करंति // 9524|| आभोगिनी नाम विद्या, साभण्यते-यापरिजपिता सती मानसं सज्ज्ञायं''।७५x|| जनेनाऽज्ञाता: स्थितास्ततो रात्रावाऽऽभोगम्- | परिच्छेदमुत्पादयति बृ०३ उठा नि० चू०। उपयोगं कुर्वते; तूष्णीका औसत इत्यर्थः। बृ०३ उ.1 "ज्ञाने, | आम- अव्य. (आम)। अनभ्युपगमे, प्रा.। "आम अभ्युपगमे" सूत्रा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम 315 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आम |2177|| आमेत्यभ्युपगमे प्रयोक्तव्यम्।"आम बहला वणोली" प्रा। "दुविहं च तिविहं च आमं ति"||१११// आमशब्दोऽनुमतौ, सम्मतमेतदस्माकं सर्वमिति भावः। व्य.१ "सो भणइ-आम दिटुं" आ.म.१अ०१३१ गाथाटी।"आमंतिअणुभयत्थे" आमंइत्यनुमतार्थे इति।'आमं' ति एतदभ्युपगम्यत एवास्माभिः नि. चू.१० उ०१९७ गाथा टीका अपक्के, विशे० 235 गाथा टी० "आमे णाममेगे' (सूत्र-२५३४) आमम्-अपक्वम्। (स्था.) पुरुषस्तु आम: वय:श्रुताभ्यामव्यक्त:।स्था० 401 उ.।''आमं ओमंच भुंजीया"||२०४|आमम्-अपक्वम्। आ०म० १अा आमनिक्षेपश्चनाम ठवणाआमं, दव्वाऽऽमं चेव होअ भावाऽऽमं। उस्सेइमसंसेइम-मुवक्खडं चेव पलिआमं / / 3 / / आम चतुर्दा। तद्यथा-नामाऽऽमम् 1, स्थापनाऽऽमम् 2, द्रव्याऽऽमम् 3. भावाऽऽमम् तत्र नामस्थापने गतार्थे द्रव्या- ऽऽमं पुनश्चतुर्दा,तदेव | दर्शयति-'उस्सेइम' इत्यादि, उत् ऊर्ध्व निर्गच्छता वाष्पेण य: स्वेद: स उत्स्वेद उत्स्वेदेन निर्वृत्तं उत्स्वेदिममा भावादिम:||६||२|| इति सूत्रेण इम प्रत्ययः। उत्स्वेदिमञ्च तदामं च उत्स्वेदिमाऽऽमं 1, 'संसेइम' स एका- किभावेन स्वेदः संस्वेदस्तेन निर्वृत्तं संस्वेदिमं तदेवाऽऽमम् संस्वेदिमाऽऽमम् 2, तथोपस्कृता राद्धा ये वल्लवणकादयस्तेषां मध्ये यदामं तदुपस्कृताऽऽमम् / पर्याय: स्वाभाविक औपाधि-को वा फलानां पाक: परिणामस्तस्मिन् प्राप्तेऽपि यदामं तत्प- र्यायाऽऽमम् / अथोत्स्वेदिमादिचतुष्टयमेव व्याचष्टेउस्सेइम पिट्ठाई, तिलाई संसेइमं तुऽणेगविहं। कंकडुयाइ उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं / / 33 / / उत्स्वेदिमम्-पिष्टादिपिष्टम्, सूक्ष्मतन्दुलादिचूर्णनिष्पन्नं त द्धि वस्त्रान्तरितमध:स्थितस्योष्मोदकस्य वाष्पेनोत्स्विद्यमानं पच्यते तत्र यदामं तदुत्स्वेदिमाऽऽमम्, आदिग्रहणाद्भरोला दिपरिग्रहः। संस्वेदिम पुनस्तिलादिकमनेकविधम्। इह क्वचित् पिठरादौ पानीयं तापयित्वा पिटिकायां प्रक्लृप्तास्तिलास्तेनोष्णोदकेन सिद्धयन्ते ततस्तिला: संस्विद्यन्ते तेषां संस्विन्नानां मध्ये ये आमास्तत् संस्वेदिमाऽऽमम्, आदिग्रहणेन-यदन्यदप्येतेन क्रमेण संस्विद्यते तत् संस्वेदिमाऽऽमम्,। तथा चण-कमुद्गादीनामुपस्कृतानां ये कऋटुकादय आमास्ते उपस्कृ ताऽऽमम्, पर्यायाऽऽमम् पुनरविपक्वरसफलादिकमुच्यते, तचतुर्विधम्। तद्यथाइन्धणधूमे गंधे, वच्छप्पभियामएच आमविही। एसो खलु आमविही, तपचो आणुपुटवीए|३४|| इन्धनपर्यायामम् 1, धूमपर्यायामम् 2, गन्धपर्यायामम् 3, वृक्षपर्यायाममपीत्येवं पर्यायामे आमविधिश्वतुःप्रकार: 4 / एष खलु आमविधिज्ञातव्यः। आनुपूर्व्या यथोक्तयाऽद्धा आनुपूर्वीनाम वक्ष्यमाणलक्षणा पलालवेष्टनग खननकरीषप्रक्षेपणादिका यथायोगमामफलपाचनाय रचना, तया ज्ञातव्य: आमविधिरितिा अथेन्धनधूमपर्यायाऽऽमे विवृणोतिकोहवपलालमाई, घूमेणं तिदुगाइ पञ्चंते। मज्झगडा मगणि पेरं-ततिंदुया छिद्दधूमेणं / / 35|| कोद्रवपलालादिकमिन्धनमुच्यते, आदिग्रहणेन शालिप-लालपरिग्रहः तेन चाम्रादीनि फलानि वेष्टयित्वा पाच्यन्ते, तत्र यान्यपक्कानि फलानि तदिन्धनपर्यायामम् / तथा धूमेन तिन्दुका- दीनि फलानि पाच्यन्ते। कथंपाच्यन्त? इत्याह-'मज्झगडा' इति-प्रथमतोग"या मध्ये करीष: प्रक्षिप्यते, तस्याश्च गया: पार्श्वेष्वपरा गर्ताः स्वन्यन्ते, तासुच गर्तासु तिन्दुकादिनि फलानि प्रक्षिप्य मध्यमायां करीषगायाम् 'अगणि' त्तिअग्निर्दीयते तासां च 'पेरंत' त्ति-पर्यन्तगर्तानां श्रोतांसि मध्यमगर्त्तया सह-मीलितानि क्रियन्ते। ततस्तस्या: करीषगायाः सकाशाद्धूमस्तै: श्रोतोभि: पर्यन्तगर्तासु प्रविशति ततस्तच्छिद्रसंबन्धिना धूमेन प्रसरता तानि फलानिपाच्यन्त इति तेषां मध्ये यद्-आमंतधूमपर्यायाऽऽमम्। - अथ गन्धपर्यायाऽऽमे भावयतिअंबगचिब्भिडमाई, गंधेणं जंच उवरि सक्खस्स। कालपत्तं न पचइ, वत्थपलियामर्मतं तु ||36|| आम्रकचिर्भिटादीनि आदिशब्दात्-बीजपूरकादीनि या न्यपक्वानि फलानि तेषां मध्ये पक्वानि प्रक्षिप्यन्ते। तेषां गन्धेन प्राक्तनान्यामकानि पच्यन्ते। तत्र यदपक्वं फल तद्गन्ध- पर्यायामम्। तथ-बीजं चेति / चशब्दस्य पुनरर्थत्वाद्यत्पुनर्वृक्ष- स्योपरि शाखायां वर्तमानं काले वसन्तादिलक्षणे पाकसमये प्राप्तेऽपि परिपक्वेष्वपरफलेषु न पच्यते तवृक्षपर्यायाऽऽमम्। व्याख्यातं चतुर्विधमपि पर्यायाऽऽमम्। तद्व्याख्याने च समर्थितं द्रव्याऽऽमम्। अथवा भावाऽऽमस्य रूपं निरूपयतिभावाऽऽमं पिय दुविह, वयणाम चेव णो य वयणाऽऽमं / वयणाऽऽमं अणुमयत्थे, आमंति हि जो वदे वक्कं॥३७।। नोवयणाऽऽमं दुविहं, आगमतो चेव नोआगमतो। आगमेनॅाणुवउत्तो, नोआगमओ इमं होई / / 3 / / भावाममपि द्विविधम्-वचनामं चैव, नोवचनामम्। वचनरूपमामं वचनामम्, अनुमतार्थे आममिति। यद्वाक्यं वचनं वदेतद्वचनामम्। यथा कोऽपि साधुगुरूणां कार्येण गच्छन्नपरेण पृष्टः-आर्य! किं गुरुकार्येण गम्यते? स प्रत्याह-आमम; एवमेतदित्यर्थः। नोवचनामं द्विविधम्आगमतश्चैव, नौआगम-तश्च। तत्राऽऽगमत आमपदार्थज्ञानयुत्तं, तत्र चोपयुक्त: उपयो- गस्य भावरूपत्वात् ज्ञानस्य चागमरूपत्वात्। नोआगमतो- भावाममपीदं भवति। तदेवाहउग्गमदोसाईया, भावतो असंजमो अ आमविही। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम 316 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमंतिय अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ / / 39|| यविलक्षणत्वान्न सत्या, ग मृषा, नापिसत्यामृषा, केवलव्यवहारउद्गमदोषा:-आधाकर्मादय: आदिग्रहणाद् -उत्पादनपदोषा, मात्रप्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा एव, भावना कार्या। ध०३ अधि० 43 श्लोक एषणादोषाश्च; एतद भावामं प्रतिपत्तव्यम्। तथा चाचाराद्- गसूत्रम्- टी। दश / विभक्तिभेदेचा "अट्ठमाऽऽम-तणीभवे''||२|| (सूत्र-१२९+) "सव्वाऽऽमगंधं परिन्नाय, निरामगंधो परिव्ववए" (सूत्र-८७+) अष्टमी संबुद्धिः- आमन्त्रणी भवेत्; आमन्त्रणार्थे विधीयत इत्यर्थः। अनु। (आचा:१, श्रु२ अ५७०।) असंयमश्च पृथिव्याधु- पमईलक्षणो भावत: स्था. आमविधिरेव ज्ञातव्यश्चरित्राऽपक्वताका- रणात्। यद्वाऽन्योऽपि आदेश:- आमंतणी भवे अट्ठ-मी य जह हे 3 जुवाण ! त्ति ||6|| (सूत्रप्रकारो भण्यते-यो वर्षशतायुः पुरुष आयुष्कोपक्रमेण वर्षशतमपूरयित्वा 609+) मियते सोऽपि भावत आमः; आयुष:परिपाकमन्तरेण मरणात्। अत्र च अष्टम्यामन्त्रणी भवेदिति। सु-औ-जसिति प्रथमापीयं द्रव्याणामधि-कारसूत्रेऽपिवृक्षपर्यायाऽऽमेण शेषाणामुचारितसदृशतया विभक्तिरामन्त्रणलक्षणास्यार्थस्य कर्मकरणादिवत्। लिङ्गार्थविनेयव्युत्पादनार्थं प्रसङ्गत: प्ररूपितत्वात्। व्याख्यातमामपदम्। बृ.१ मात्रातिरिक्तस्य प्रतिपदाकत्वेनाष्टम्युक्ता, यथा हे 3 युवन् इति। स्था०८ ऊ२ प्रक। नि० चू। अपरिशुद्धे, आचाo! "सव्वाऽऽमगंधं परिण्णाय" ठा०३ उ.। इदं चानुयोगद्वारानुसारेण व्याख्यातम्, आदर्शषु आमन्त्रणेति (सूत्र-८७x)। आमम्अपरिशुद्धम्। आचा०१ श्रु०२ अ०५उ "णिरामगंधे दृश्यते। स्था०८ ठा०३ऊ।"आमंतणी भवे अट्ठ-मी उजहा हे 3 जुवाण धिइमं ठितप्पा" (सूत्र-५+) निर्गत:-अपगत आमः ति" (सूत्र-१२९+)। आमन्त्रणी भवेदष्टमी, यथा हे-३ युवन्निति अविशोधिकोठ्याख्यस्तथा गन्धो-वि- शोधिकोटिरूपो, यस्मात्स वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गण्यते, ऐदंयुगीनानां त्वसौ प्रथमैवेति भवति निरामगन्धः; मूलोत्तरगुप्पभेद-भिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः। मन्तव्यमिति। अनु०। 'असत्यामृषा-आन्त्र्यण्याज्ञापनादिका। आचा०२ सूत्र.१ श्रु६अ। अम करणे घञ्। रोगमात्रे, वैद्यकोक्ते षड्विधे अजीर्णे, श्रु 1 चू.४ अ.१ उ०१३४ सूत्र टी। ('भासा' शब्दे पञ्चमभागे रोगभेदे, वाचक अजीर्णरोगभेदेचा तत्लक्षणम्-"आमे तुद्रवगन्धित्वम्'' दशवैकालिकसप्तमाऽध्ययना-द्वितीयोद्देशक "आमंतणि" 276 (ध.) व्याख्या द्रव्यस्यगूथस्य क्वथितनक्रादेरिवगन्धो यस्यास्ति तत्तथा इत्यादिगाथया बहुविस्तरं कथयिष्यामि) तद्भावस्तत्त्वमिति। ध०१ अधि०१७ श्लोक टी०i आमंतित्ता-अव्य. (आमन्त्र्य)-आ मन्त्र- ल्यप। सम्बोध्येत्यर्थे, वाच / आमइ-(न्) पुं० (आमयिन)। आमयो रोग: स येषां विद्यते ते आमयिनः। रोगिणि, व्य अज्जो! त्ति समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे नाउंतिविहामयाणं, देइ लहाओ सह गणं तु||२५८।। आमंतेत्ता एवं बयासी-किंभया पाणा? समणाऽऽउसो! (सूत्रत्रिविधतापादिजन्यरोगयोगतस्त्रिप्रकारा आमया-रोगा: स येषां ते आमयिनः त्रिविधाश्च ते आमयितश्च तेषां त्रिविधामयिनाम्। व्य०१ उ. 'अज्जो' इत्यादि, सुगमम्। केवलम् 'अज्जो त्ति' त्ति- आरात् पापकर्मभ्यो याता आर्याः तदामन्त्रणम् हे -3 आर्या! 'इति' आमंतण-ना (आमन्त्रण)- आ मन्त्र ल्युट्ा अभिनन्दने, संबोधने, एवमभिलापेनाऽऽमन्त्र्येति संबन्धः, श्रमणो भगवान् महावीर: गौतमादीन् कामचारानुज्ञारूपे, क्रियाभेदेषु प्रवर्तनव्यापारे च। व्यापरे चा युचा श्रमणान् निर्ग्रन्थानेयम् -वक्ष्यमाणन्यायेनाऽवादी-दिति, कस्माद् भयं आमन्त्रणाप्यत्र। स्त्रीला वाच, प्रच्छन्ने, आचाल। "अणामं तिया परिहवेति" येषां ते किंभया:; कुतो विभ्यतीत्यर्थः, प्राणा:-प्राणिन: 'समणाऽऽउसो' (सूत्र-५४+) अनापृच्छ्य प्रमादितया परिष्ठापयेत्। आचा०२ श्रु०१ चूर त्ति-हे३श्रमणा: हे३आयु-ष्मन्तः इति गौतमादीनामेवाऽऽमन्त्रणमिति। अ.९ उ.। "समणामंतणखमणे"||१९०४|| आचार्येण स्वगणस्यस्वगच्छस्याऽऽमन्त्रणं प्रच्छन्नं कर्त्तव्यम्। व्य०१ उ०। (स्त्रीपुरुषयोक्त स्था०३ ठा०२ उl व्याक्तव्यामन्त्रणवचनानि 'भासा' शब्दे षष्ठे भागे "तहेव काणं काण' आमंतिय-त्रि०। (आमन्त्रित)- आ-मन्त्र क्त। अनावश्यके कर्मणि त्ति (12) इत्यादि दशवकालिक 7 सप्तमाध्ययनस्थगाथाभिर्वक्ष्यते)। नियोजिते, वाच!''पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणमाणे णो "करेमि भंते! सामाइयं" (ध.) 'भंते' इति गुरोरामन्त्रणम्। (ध.) एवं वदेज्जा " (सूत्र-१३५+) आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ 3 ॐा वाचः। आमन्त्रणं च प्रत्यक्षस्य गुरोः, तदभावे परोक्षस्याऽपि बुद्धया परिभाषितायां सम्बोधनार्थे प्रथमायां विभक्तौ, नका "सामन्त्रितम्' प्रत्यक्षीकृतस्य भवति, गुरोश्चाभिमुखीकरणेन सर्वो धर्म: गुरुपादमूले पाणिनिः। सम्बोधने या प्रथमा साऽऽमन्त्रितसंज्ञा स्यात्। सि. कौ०। तदभावे स्थापनासमक्ष कृत: फलवानिति। ध२ अधि०७ श्लोका (भदंत' "आमन्त्रितं पूर्वमविद्यमानवत्" नामन्त्रिते समानाधिकरणे शब्दे षष्ठे भागे विस्तरम्) सामान्यवचनम् पाला निमन्त्रिते, त्रिका "प्रातरामन्त्रितान् विप्रान्" वाचः। आमंतणी-स्त्री०। (आमन्त्रणी)-असत्यामृषाभाषाभेदे, संथा.७ गाथाटी ! *आमन्त्र्य-अच्य,। आ-मन्त्र-ल्यप् / सम्बोध्येत्यर्थे वाच।। आमन्त्रणी-हे 3 देवदत्त इत्यादिरूपा। एष / हि प्रागुक्तभाषात्र- आमंतिय उस्सविया, भिक्खु आयसा निमंतंति''||५|| Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंतिय 317 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आमयि स्त्रियो हि स्वभावेनैवाऽकर्त्तव्यप्रवणा:, साधुमामन्त्र्य- यथाऽहममुकस्यां उ.। (अनयो: सूत्रांशयो: व्याख्या 'अण्णमण्णकिरिया' शब्दे प्रथमभागे वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं संक्तं ग्राहयित्वा (सूत्र०) भारम् 480 पृष्ठे गता) आमन्त्र्य-आपृच्छ्य अहमिहाऽऽ- याता। सूत्र. 1 श्रु० 4 अ०१ उ। जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमंतेमाण-त्रि (आमन्त्रयत्)।- आपृच्छति, आचाo''पुमं आमंतेमाणे आमज्जंतं वा पमज्जंतं साइज्जइ / / 6 / / आमंतिते वा" (सूत्र-१३५) आचा०२ श्रु१चु०४ अ०३ उठा "अच्छीणि वा आमज्जति णाम अच्छिपत्तरोमे संठवेति पुणो पुणो आमंद-पुं. (आमन्द्र)।- ईषन्मद्रः। प्रा. स.। ईषद्गम्भीर शब्दे, करेंतस्स पमज्जणा। अहवा-बीयकणगादीणं सकृत् अवणयणे "आमन्द्रमन्थध्वनिदत्ततालम्" भट्टिः। तद्युक्ते त्रिः। वाच.। सर्वत्र आमज्जणा पुणो 2, पमज्जणा। निचू.३ऊ। मृदुगोमयादिना लिम्पने लवरामचन्द्र७ि९|| इति लुक। प्रा०। चाव्य, 4 उ०२७ गाथा टी। आगम-त्रि० (आमक)।- अपक्के, भ०१५ श०१ उ० 554 सूत्र | आमज्जंत- आमज्जमाण त्रि. (आमार्जयत्)सकृत् हस्तादिना / टी. "आमगमल्लगभूया' (सूत्र-७९+) आमकमल्लकभूता- | शोधयति, निचू। "आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जई" (सूत्रअपक्वशरावकल्पा जलसंपर्क क्षणेन विलयनात्।ज्ञा०१ श्रु०९ 604) नि. चू.३ऊ। "आमज्जमाणे वा" (सूत्र-३६४) आमार्जयत्अ अशस्त्रोपहते चा दश। "आमगं विविहं बीयं''||१४|| आमकम्- सकृत् हस्तादिना शोधयन्। आचा०२ श्रु०१चू. 1 अ०७ ऊ/ अशस्त्रोपहतम्। दश०८ अ२ उ०। आचा।"फले बीए य आमए''||७|| आमडाग-न. (आमडाग)।- अर्द्धपक्के, अपक्के चा अरणिकआमकं-सचित्तम्। दश.३० तण्डुलीयकादिके आचा०।"सेज्जंपुण जाणेज्जा आमडागंवा" (सूत्रआमगंध-न० (आमगन्ध)।- आमंच गन्धश्च आमगन्धम्। समाहारद्वन्द्वः। 46x) 'आमडागं वा' इति-आमपत्रम्- अरणि-कतण्डुलीयकादि अविशुद्धकोट्यन्तर्गतेषु आधाकर्मादिषु, आचा। "सव्वाऽऽमगंधं तचार्द्धपक्वम्, अपक्वम्वा। आचा०२ श्रु०१चू.१ अ०८ उ०। परिण्णाय णिरामगंधो परिट्वए" (सूत्र-८७+)। सर्वञ्च तदामगन्धञ्च आमतर-त्रि. (आपतर) अतिशयेन प्रापके रा! "मणामतराए चेव" सर्वाऽऽमगन्धं, सर्वशब्द: प्रकारकात्न्ये ऽत्र गृह्यते; न द्रव्यकात्स्न्ये , (सूत्र-+)। द्रष्ट्रीणां मनांसि आप्नुवन्ति-आत्मयशतां नयन्तीति आमम्- अपरिशुद्धं, गन्धग्रहणेन तु पूतिगृह्यते / ननु च मनआपस्तत: प्रकर्षविवक्षायां तरप्रत्ययः प्राकृतत्याच पकारस्य मकारे पूतिद्रव्यस्याप्यशुद्धत्वादामशब्दे- नैवोपादानात्किमर्थं भेदेनोपादा मणामतरा इति भवति। रात। नामिति? सत्यम्, अशुद्धसामान्याद् गृह्यते, किं तुपूतिग्रहणेनेह आममल्लगरूव-त्रि. (आममल्लकरूप)। अपक्वशरावतुल्ये, तं। आधाकर्मा- द्यविशुद्धकोटिरुपात्ता, तस्याश्च गुरुतरत्वात्प्राधान्य आममल्लगरूवे, निव्वेयं वच्चह सरीरे"|३२|| 116) आदित: गाथाङ्क:)। ख्यापनार्थं पुनरुपादानं, ततश्चायमर्थ:- गन्धग्रहणेन-आत्मकर्म 1. (सूत्र-१८+) अपक्वशरावतुल्ये शरीरे निर्वेदं वैराग्यं व्रजतात. औद्देशिकत्रिकं 2, पूतिकर्म 3, मिश्रजातं 4, बादरप्राभृतिका 5 अध्यवपूरक ६श्चैतेषडुद्गमदोषाअविशुद्धकोट्यन्तर्गता गृहीता:शेषास्त्रयो | आममहुर-न (आममधुर)। आममिव मधुरमाममधुरम्। ईषन्मधुरे फले, विशुद्धकोट्यन्तर्भूता आमग्रहणेनोपात्ता द्रष्टव्या इति, सर्वशब्दस्य च "आमेणाम एगे आममहुरे'' (सूत्र-२५३+)। स्था० 4 ठाउा प्रकारकास्न्याभिधायकत्वाद्यद्येन केनचित्प्रकारेण आमम्- अपरिशुद्धं आमय-पुं. (आमय)। आमं रोगं यात्यनेन करणे घार्थे क:। आ। मीञ् पूतिर्वा भवति तत्सर्वज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया निरामगन्ध: हिंसायाम्। करणे अच् वा। रोगे, अनामयः निरामयः। "समौ हि निर्गतावामगन्धी यस्मात् स तथा परिव्रजेत् - मोक्षमार्गे शिष्टैराम्नातौ, वत्स्यन्तावामयः स च" माघः। वाच! व्य. 1 उ. 258 ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये परि:-समन्ताद् गच्छेत्; संयमानुष्ठानं गाथा टी सम्यगनुपालयेदिति यावत्। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। आमयकरणी-स्त्री. (आमयकरणी)। विद्याभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० 30 आमगोरस-पुं. (आमगोरस)। आमं च तद् गोरसं च आमगोरसम्। सूत्र टी। कच्चदुग्धदधितक्रादिके ध०२ अधि, 34 श्लोक टी०। आमयभाव-पु. (आमयभाव)। रोगोत्पत्तौ, दश०। "निरामयाऽऽमयआमज्जण-न (आमार्जन)। सकृत् कईमादिशोधने, आचाला "णो भावा"||२२६ / निरामयामयभावात् निरामयस्य:नीरोगस्याऽऽमयआमज्जेज्ज वा" (सूत्र-२६+) नैव सकृदामृज्यानाऽपि पुन: पुन: भावाद्रोगोत्पत्ते: उपलक्षणं चैतत्साऽऽमयनिराम- यभावस्य तथा चैव प्रमृज्यात; कर्दमादि शोधयेदित्यर्थः। आचा. 2 श्रु०१ चू.१ अ०५ उ०। वक्तार उपलभ्यन्तेपूर्वे निरामयोऽहमासं, सम्प्रति साऽऽमयो जातः। "आमज्जेज्जवापमज्जेज्जवाआमज्जंतं वा पमज्जंतंवा साइज्जई" दश०४ अ (सूत्र-१६+)। नि, चू०१७ ऊ। "आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा | आमयि-त्रि. (आमयिन् ) रो गिणि, व्यः। 'नाउं आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्जई" (सूत्र-२२४) नि. चू०१७ तिविहामयीण" ||258+ / / ज्ञात्वा त्रिविधा वातादिजन्य Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमयि 318 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आमाऽभिभूय रोगयोगतस्त्रिप्रकारा आमयो-रोग: स येषां विद्यते, ते आमयिनः। व्य. 1 कूरपिउडादिना-कूरसित्थादिदानेन प्रतिबोधित इत्यर्थः। विशे। आ० उ"नाउं तिविहामइणं"।१२३४|| आभइणं' ति- आमती-रोगत्तो, काआ.चू / आमा आवळा उत्त। रा०। "इहेवजंबूदीवे दीवे भारहे वासे आमती जस्स अस्थि सो आमती मणुस्सो भण्णति नि० चू. 20 उ०। आमलकप्पानाम नयरी होत्था।" (सूत्र-१४८) ज्ञा०२ श्रु०१ अ। आमरकुंड-न. (आमरकुण्ड)- तैलङ्गजनपदस्थे स्वनामख्याते नगरे, | आमल-पु. (आमल)-बहुबीजकेवृक्षभेदे, "आमलपाणगंवा 20." (सूत्र ती.। "आमरकु ण्डनगरे, तैलङ्गजनपदविभूषणे रुचिरे / / 4344) आचा०२ श्रु०१ चू.१ अ०७ उ.! गिरिशिखरभुवनमध्य-स्थिता जयति पद्मिनी देवी // 1 // " ती०५३ आमलग-पु. (आमरक)- सामस्त्येन मायाम् स्था०१० ठा० / कल्प / (अस्मिन् विषये बहुवृत्तम् 'पउमिणी' शब्दे पञ्चमभागे वक्ष्यते) (सूत्र-७५५४) तदर्थप्रतिबद्धे कर्मविपाकदशाया नवमेऽध्ययने चाम। आमरणंत-अव्य (आमरणान्त)- मृत्युलक्षणावसानं यावदित्यर्थे पञ्चा०। स्था . "आमरणतमजस्सं, संज परिपालणं विहिणा''||Yell आमरणान्तम् तद्वक्तव्यता यथामृत्युलक्षणावसानं यावद्। पञ्चा०७ विव०। "एअस्सपायमूलं, आमरणंतं सहसुद्दाहे आमलए (सूत्र-७५५+) न मोत्तव्वं"||१३१७।। एतस्यगुरोः पादमूलं-समीपमामरणान्तं न 'आमलए त्ति- रश्रुते'लश्रुत्तिरित्यामरक: सामस्त्येन मारि:, मोक्तव्यं-सर्वकालम्। पं०व०। एवमर्थप्रतिबद्धं नवम, तत्र किल सुप्रतिष्ठे नगरे सिंहसेनो राजा आमरणंतदोस-पु. (आमरणान्तदोष)- मरणमेवान्तो मरणान्त: श्यामाभिधानदेव्यामनुरक्तस्तद्वचनादेवैकोनानिपञ्चशतानि देवीनां ता आमरणान्तात्- आमरणान्तमसंजाताऽनुतापस्य काल- मिमारविषूणि ज्ञात्वा कुपित: सन् तन्मातृणामेकोन- पञ्चशतान्युसौकरिकादेरिव या हिंसादिप्रवृत्ति: सैव दोष आमरणान्तदोष: पनिमन्त्र्य महत्यगारे आवासं दत्त्वा भक्तादिभि: सम्पूज्य विश्रब्धानि रौद्रध्यानस्य लक्षणभेदे, भ।"आमरणंतदोसे" (सूत्र-८०३+) भ०२५ सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन श०७ उ / स्था। ग.! औः। "नाना-विहाऽमरणदोसा।।२६४||" दग्धवांस्ततोऽसौ राजा मृत्वा च षष्ठ्यां गत्वा रोहीतके नगरे महदापगतोऽपि स्वत: महदापगतेऽपि च परे आमरणादसंजाताऽनुताप, दत्तसार्थवाहस्य दुहिता देवदत्ताभिधानाऽभवत्, साचपुष्पनन्दिना राज्ञा कालसौकरिकवत्, अपि तु-असमाप्तानुतापानुशय पर इत्यामरणदोष परिणीता, स च मातुर्भक्तिपरतया तत्कृत्यानि कुर्चन्नासामास तया च इति। आव०१ अ। आमरणन्तदोसो जथा पव्वतराई; परिगिलायमाणस्स भोगविघ्नकारिणीति तन्मातुर्व्वलल्लोहदण्डस्यापान-प्रक्षेपात्सहसा वि आगतपचादेसस्स थोवो वि पच्छाणुताओ न भवति, अवि दाहेन वधो व्यधायिा राज्ञा चासौ विविधविडम्बनाभिर्विडम्ब्य विनाशितेति। मरणकालेऽविजस्स कालसोयरियस्सेव ण ताओ उवरतो भवति, एस विपाकश्रुते देवदत्ताभिधानं नदवममिति९। स्था.१० ठा. ३ऊ। आमरणन्तदोसो। आ.चू०१ अ० 1258 गाथाचूर्णिः। *आमलक-त्रि आ-मल्-क्विन स्त्रीत्वे गौरा:। डीए। बहुबीजकेवृक्षभेदे, आमरिस-पुं. (आमर्श)- आ-मृशा स्पर्श, घञ्। सम्यक् स्पर्श, ल्युट। जी०१ प्रति०२० सूत्र / प्रज्ञाकाल प्रा आचाळा स्था। "तत्थणं आमलगा आमर्शनमप्यत्रा नल। वाच। पक्खित्ता" (सूत्र-१४३४)। अनु०। (धात्रीवृक्षे)। वाचा धात्रीफलेचा नका *आमर्ष-पुं, आमर्षणमामर्ष संस्पर्शने, विशे० 779 गाथा टी! आ०म० / "आमलगाई दगाहरणं च" (गाथा सूत्र 104) आमलकानिश-र्ष-तप्त-वग्रे वा 18 / 2 / 10 / / इति हैमप्राकृत- सूत्रेण श-र्षयोः धात्रीफलानि सूत्र०२ श्रु०४ अ०२ऊ। संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो वा। प्रा०। आ-मृप घना कोपे, | आमलगमहुर-त्रि (आमलकमधुर)- आमलकामव मधुर यद्यन्यत् असहने, सम्यग् विवेको वाच०। आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरम्। ईषन्मधुरे, स्था०४ठा०३ उ०२३० आमलईकीडा-स्त्री. (आमलकीक्रीडा)- क्रीडाभेदे, तथा च भवगतो सूत्र टी० महावीरस्य वर्णकमधिकृत्य-समानवयोभि: कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाण: आमलगमहुरफलसमाण-पुं० (आमलगकमधुरफलसमान)ईषदुपआमलकीक्रीडानिमित्तं पुराद् बहिर्जगाम, तत्र च कुमारा शमादिगुणलक्षणमाधुर्य्यवति पुरुषभेदे, स्था०४ठा०३ उ० 230 सूत्र टी० वृक्षारोहणादिप्रकारेण क्रीडन्ति स्म। कल्प०१ अधि.५ क्षण। आमलगरस-पु. (आमलकरस)- धात्रीफलरसे, "शिशिरे चामल(आमलकीक्रीडाकरणसमये देवलोके शक्रकृतभगवत्प्र- शंसां श्रुत्वा करस." सूत्र१. श्रु०८ अ० 93 गाथा टी०। कश्चित् मिथ्यादृष्टिदेव: भगवद्भापनार्थमिहागत इति'वीर' शब्दे षष्ठे भागे | आमलगरसिय-त्रि. (आमलकरसित)- आमलकरससंसृष्टे, विपा०। 105 सूत्र विवरणे वक्ष्यते) "आमलगरसियाणि य" (सूत्र-२९+)। आमलकरससं- सृष्टानीति। आमलकप्पा-स्त्री. (आगलकल्पा)-स्वनामख्यातायां नगर्याम विशे। विपा०१ श्रु०८ अ० "आमलकप्पा णयरी, मित्तसिरी कूरपिउडाई"॥२३३४।। | आमाऽभिभूय-त्रि.(आमाऽभिभूत)अपक्चरसेनाभिभूते, विपा० / आमलकल्पायां नगर्यां गतः, तत्र च मित्र श्रीनामा श्रावके ण / 'आमाभिभूयगत्ता" (सूत्र-+) आमेनअपक्चरसेन विपाल। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिस 319 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आमेल आमिस-न (आमिष)- आमिषति स्नेहम्-अम-टिषच्दीर्घश्च वा-मांसे | आमिसलोल-त्रि. (आमिषलोल)- आमिषलम्पटे, ज्ञा०१ श्रु०४ अ५१ स्नेहातिरेकात्तस्य तथात्वम्। वाचल। "ढंकेहि यकंकेहि य, आमिसत्थेहि | सूत्र टी.। ते दुही // 3 // " ढङ्क: ढहैश्च पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवशार्थिभिर्मत्स्य- | आमिसाऽऽवत्त-पुं(आमिषाऽऽवर्त)- आमिषं-मांसादि तद-र्थमावर्त: बन्धादिभिः। सूत्र 1, श्रु.१ अ०३ उ.। आहारे, "इत्तो चिय शकुनिकादीनामामिषावर्तः। आवर्तभेदे, स्था०४ठा०४ उ०३८५ सूत्र टी०। पुल्लाऽऽमिस''||२६+|| पञ्चा०६ विव। मांसादिके, स्था० 4 ठा०४ उ. आमिसाऽऽहार-त्रि. (आमिषाऽऽहार)- मांसादिभोजिनि ज्ञा०१ श्रु०४ अ० 385 सूत्रटी। ज्ञा. अशनादिकेच भोग्यवस्तुनि, ध०२ अधि०६१श्लोकटी। 51 सूत्र टी. "जंइच्छसिघेत्तुंजे, पुट्विंतं आमिसेण गिण्हाहि। आमिसपासनिबद्धो, आमुट्ठ-त्रि. (आमृष्ट)- आ-मृष-क्ता आधर्षिते, आमड़िते च। काहिइ कज्ज अकज्जं वा||१||" सूत्र 1 श्रु०४ अ.१ उ.४ गाथाटी। "आमृष्टास्तिलकरुचः सजो निरस्ता:" माघः। आ-मृज-क्त। उत्कोचे, सुन्दररूपादौ, लोभे लोभनीये विषये चा वाचा अभिष्वङ्गहेतौ, परिमार्जिते, विशोधितेचा आ-मृश-क्ता संस्पष्टे चा वाच / विपर्यासीकृते धनधान्यादिकेचा उत्त। "अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा||४१+l" चा ओघ०।" हेट्ठारिया आम (मुं)8' (२९७+भाष्या गा.)। अधस्तादुपरि निष्क्रान्ता आमिषात्- विषयादिपदार्थात् इति निरामिषा-विषयादय: चयत्'आमुटुं' विपर्या- सीकृतं भुडक्ते ओघा"ऋतोऽत्।।१।१६।। पदार्था हि विषया जीवानां गृद्धिहेतुत्वादामिषोपमा: एतस्मादहं निर्विषया ऋतः अत्त्वम्। आमृष्टम्। आमट्ठा प्रा। सती। उत्त. 14 अ आमुम्हिय-त्रि. (आमुष्मिक)- अमुष्मिन्-परलोकेभव: ठक् सप्तभ्या: सामिसंकुललं दिस्स, वज्भमाणं निरामिसं। अलुक् टिलोपः। वाच०। अमुत्र भव: आमुष्मिकः। द्वितीयेऽतीचारभेदे, आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामो निरामिसा||७|| परलोकसम्बन्धिनि स्वर्गसुखादौ, ध०३ अधि० 148 श्लोक। हे३ राजन् अहं सर्वम् आमिषम्-अभिष्वङ्गहेतुं धनधान्या- दिकम् परभवविपाक प्रदर्शके, द्वा०। "महानामुष्मिकोऽपि च।।१७।।" उज्भित्वा-त्यक्त्वा निरामिष:-त्यक्तसङ्गा सती अप्रति- बद्धविहारतया आमुष्मिकोऽपि-परभवे विपाकप्रदर्शकोऽपि। द्वा०। 7 द्वा / विहरिष्यामि, किं कृत्वा साऽऽमिषम् (आमिषेण- पिशितरूपेण)। उत्त. "शास्त्रमासन्नभव्यस्य, मानमामुष्मिके विधौ"||२०+॥ आमुष्मिके पाई। आभिषम्-अभिष्वङ्गहेतुं धन-धान्यादि। उत्त, पाई. 14 अ०४७ विधौ-पारलौकिके कर्मणि। शास्त्र मानम्। धर्माऽधर्मयोरतीन्द्रियत्वेन गाथाटी,। आमिषसहितं कुललं-गृद्धम् अपरं पक्षिणं वा परैरिति तदुपायत्वबोधने प्रमाणान्त- रासामर्थ्यात्। द्वा०१४ द्वा। अन्यैर्वध्यमान- पीड्यमानं दृष्ट्वा सामिष: पक्षी हि आमिषाहारिपक्षिभिः आमुसंत-त्रि. (आमृशत्)- सकृदीषद्द्वा स्पृशति, दश०४ अ०११ सूत्रटी। पीड्यते। अथवा-साऽऽमिषम्-सस्पृहं, भोजनाद्यर्थे लुब्धं, कुललं "सुयं मे आउसंतेणं" (सूत्र-१४)1 पक्षिणं परैर्वध्यमानं-पीड्यमानं दृष्ट्वा यतो हि पक्षिणो यदा गृह्यन्ते तदा तान् भक्ष्यं दर्शयित्वा पाशादिना बध्यन्ते, आमिषाहारी शकुनिस्तु *आमृशता-भगवत्पादारविन्दं करयुगलादिना स्पृशता। आचा०१ श्रु.१ आमिषदर्शने नैव लोभयित्वा मीनवत् बध्यते, सह आमि अ.१ उा स्था। षेणआगिपरसास्वादलोभेन वर्तते इति साऽऽमिषस्तं साऽऽमिषम्। उत्त० आमुसमाण-त्रि. (आमृशत्)- ईषत् स्पृशति, भ०ा "आमुसमाणे वा 14 अ० पर्णे जम्तीरफले चा वाच०। पूजादौ निवेदनीयेऽक्षतादौ चा दर्श.। संमुसमाणे वा" (सूत्र-३२५+) आमृशन; ईपत्स्पृशन्नित्यर्थः। भ०८ "पुष्पफाऽऽमिसथुइभेआ''||३७xi पुष्पाऽऽमिषस्तुतिभेदात् त्रिधा पूजा। श०३ उ। आमिषम्चाऽख- ण्डाऽक्षतनारङ्गनालिकेरबीजपूरकफलविमलगलितज आमूल-न. (आमूल)- अभिव्याप्त्या कारणे, षो. "आमूलमिदं परमं, लदधिघृ- ताऽनेकविधिनैवेद्यस्वभावम्। दर्श०१ तत्त्वा "एतो चिय फु- सर्वस्य हि योगमार्गस्य // 16 // आमूलमअभिव्याप्त्या कारणम्। षो० ल्लामिस-थुइपडिवत्तिपूयमज्भम्मि १२६४।।''इत एव संपूर्णा- | 13 विवा ऽऽज्ञाकरणस्य भावसाधुसाध्यत्वादेव, 'फुल्लामिसथुइपडिवत्ति आमेट्ट (गा) घर-न. (आमेष्टकागृह)- अपक्केष्टकागृहे, व्य। पूयमभंमि' त्ति-पुष्पाणि-जात्यादिकुसुमानि, उपलक्षणत्वाद्व "सेलियकाणिट्टघर, पक्केट्टाऽऽमेयपिंडदारुघरे"।।५५५+|| आमास्त्ररत्नादीनामिहैवान्तर्भावो वेदितव्य: आमिषम्- आहार:, इहाऽपि अपक्वास्ताभिरिष्टकाभि: कृतं गृहम् - आमेष्टकागृहम्। व्य. 4 उ। तथैव फलादिसकलनैवेद्यपरिग्रहो दृश्य:। पञ्चा. विवा गृहस्यघरोऽपती ||14|| इति घर। प्रा०। आमिसत्थि (न)-त्रि. (आमिषार्थिन्)- आमिषम्-मांसादिकम् | आमेल आवेडपुं० (आपीड) आ-पीड-अच्। शेखरके ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ० अर्थयत:-प्रार्थयतः। मांसादिप्रार्थयितरि, ज्ञा०१ श्रु०४ अ०५१ सूत्र टी०। 124 सूत्रटी / 'एत्पीयूषापीडबिभी-तककीदृशेदृशे"||१|१०|| आमिसप्पिय-त्रि. (आमिषप्रिय)- कङ्कपक्षिणि, मांसाभिलाषिणि च। इति हैमप्राकृतसूत्रेणे - कारस्यैत्वम्। प्रा०। "नीपापीडे मो वाच वल्लभमांसादिके ज्ञा०१ श्रु.४ अ०५१ सूत्र टी०। वा"| |23|| इति हैमप्राकृतसूत्रेण पस्य वा. मः। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमेल 320 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आय आमेलो प्रा०। 'डो लः'' शा इति हैमप्राकृतसूत्रेण | | आमोष-आमुष्णाति-आ-मुष-पचाद्यच्। सम्यगपहारकेचौरादौ, आमुष्स्वरात्परस्यासंयुक्तस्यानादेर्डस्य प्रायो ल:। आमेलो। आवेडो। प्रा०। / भावे घञ् / अपहरणे, वाचा शिखामाल्ये शिरोभूषणे, वाच / "वणमालाऽऽमेलमउल आमोसग-पु. (आमोषक)-आमुष्णातीत्यामोषक:। चौरे, स्था०५ ठा०२ कुंडलसच्छंदविउव्वियाभरणचारुभूसणधरा" (सूत्र-४७x)'आमेल' ऊ४१७ सूत्र टीला "आमोसगा संपिंडिया गच्छेज्जा" (सूत्र-१३०x) त्तिआपीडशब्दस्य प्राकृतलक्षणवशत आपीड:- शेखरकः। प्रज्ञा०२ पद। आमोषका: स्तेनाः। आचा०२ श्रु०१ चू.३ अ.३ उ"तत्थ खलु विहरंसि जी०। 'आविद्धतिलयामेलाणं" (सूत्रx) आविद्धस्तिलक आमेलश्च बहवे आभोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया गच्छेज्जा" (सूत्र-१५१४)। शेखरको यकाभिस्ता आविद्धतिलका-ऽऽमेलास्तासाम् ।रा०। आमोषका:-चौरा:। आचा०२ श्रुः१ चू.५०२ऊ। आमेलग-पुं. (आपीडक)-शेखरके, भा"णीलुप्पलकया- मेलएहिं" आमोसहि-पुं० [आमी (ौ)षधि ] आमझे हि हस्तादिना स्पर्श: (सूत्र-३८०x)। 'आमेल' त्ति आपीड: शेखरः। भ०८ श. 330 ज्ञा० / ओषधिर्यस्य स आमीषधिः। ग.२ अधि०७१ गाथा टी०। प्रव०। "आमेलगओ' (सूत्र-१२९+) आमेलक:- आपीडः; शेखरक इत्यर्थः, आमर्षणमामर्ष:-संस्पर्शनमित्यर्थः। स एवौष-धिर्यस्यासावाम!षधि: जी०३ प्रति.. उ / "आमेलग" (सूत्र-२४४)आपीड:-शेखर एव करादिसंस्पर्शमात्रादेव व्याध्यप- नयनसमर्थ: लब्धिलब्धिमतोरभेदोपस्तनप्रस्तावाचञ्चुक-स्तत्प्रधानौ आमेलको वा परस्परमीषत्संबद्धौ! चारात्साधुरेवामर्षोष-धरित्यर्थः। विशे० 779 गाथाटीला आम०/ ज्ञा.१ श्रु.१ अ ।गृहबहिर्निस्सृतकाष्ठेच आपीडकमात्रे, त्रिला वाचा लब्धिभेदे, पा. 1 सूत्र०ा औला यत्प्रभावात्स्वहस्तपादाद्यवय*आमेलक-त्रि परस्परमीषत्सम्बद्धे, ज्ञा०१ श्रु.१ अ०२४ सूत्र टी. वपरामर्शमात्रेणैवात्मनः, परस्य वा सर्वेऽपि रोगा: प्रणश्यन्ति स *आमोडक-पुं. पुष्पोन्मिश्रेबालबन्धविशेषे, आमोडक:- पुष्पोन्मिश्रो आमीषधिः। प्रव०२७० द्वार 1506 गाथा आमोसहिणाम रोगाभिभूतं अत्ताणं बालबन्धविशेष: उत्त०३ अ० 152 गाथाटी। परं वा जवे वि तिगिच्छामि त्ति संचिंतेऊण आसुरति तं तक्खणा चेव ओमक्ख-पुं० (आमोक्ष)-आमुच्यतेऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वा आमोक्ष:। ववगयरोगातकं करेति ति। साय अमोसहिलद्धी। सरीरेगदेसे वा सव्वसरीरे परित्यागे, आचा०१ श्रु.१ अ.१ उ०७ गाथा। अशेषकर्मक्षये सूत्र। वा समुपज्जति ति एवमेसा आमोसहि त्ति भण्णति आ.चू. 1 अ०। "आमोक्खाए परिव्वएज्जा" (सूत्र-२१४)। आमोक्षाय- आमोसहिपत्त-त्रि. [आमी) () षधिप्राप्त ] आमर्श:- संस्पर्श: स अशेषकर्मक्षयप्राप्तिं यावत्। सूत्र०१ श्रु.३ अ०३ उ०। अशेषकर्मक्षयसाधके एवौषधि:-सर्वरोगापहारित्वात् ततपश्चरण प्रभावो लब्धि- विशेषस्तां आचारे, आचा। तथा चाचारैकार्थिकानधि- कृत्य- आमोक्षस्य निक्षेपो प्राप्ता ये ते तथा। आमी (षो) षधिलब्धि- विशेषप्राप्रे, प्रश्नः / नामादिस्तत्र व्यतिरिक्तो, निगडादे: भावामोक्ष: कष्टिकोद्वेष्टनमशेषमेतत् 'आमोसहिपत्तेहिं" (सूत्र-२२४) प्रश्न.१ संव द्वारा साधकश्वायमेवाचारः इति। आचा०१ श्रु०२ अ.१ उ०७ गाथा टी०। आय-पुं(आय)- आगच्छतीत्याय: द्रव्यादेलभि, सूत्र 1 श्रु.१० अ०१० (अस्यैकार्थिकानि 'आयारंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ऽग्रे द्रष्टव्यानि) गाथाटील। उत्त०। आलमol ज्ञा। आतु०। प्रव। दशला विशेा धनागमे, वाच०। आमोग-पुं(आमोक)- आ-मुच-घन-परिधाने, ल्युट आमो-चनमप्यत्रा "आयस्स हेउं पगरेइ संग // 19+l! आयस्स-लाभस्य हेतो:-कारणात्। न / वाचा / कचवरपुजे, न।" आमोयाणि वा (सूत्र-१९६+) सूत्र०२ श्रु०६ अ। (आयं दृष्ट्रा कार्य कुर्यादितिः ('गच्छसारणा' शब्दे आमोकानि-कचवरपुञ्जा:। आचा०१ श्रु७ अ.२ उका तृतीयभागे वक्ष्यते) आय:! प्राप्तिलाभ इत्यनार्थन्तरम्। अनु० 154 सूत्र आमोडग (लय)-न. (आमोडक)- आतोद्यभेदे, "मुच्छिज्जंताणं टीका नि०चू। "गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागतं आउवायकुसलेणं" आमोडगाणं" आ. चू.१ अ // 8644 / / आयो-नाम पार्श्वस्थादे: पावन्निष्प्रत्यूहसंयमआमोस-पुं. (आमर्श)- आमर्शनमामर्शः। परामर्श, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०७६ सूत्र | पालनादिको लाभ:। बृ०३ उ.।"दानादिकं च लाभोचितमेव कार्यम्" टी। संस्पर्श, प्रश्न०१ संव. द्वारा 22 सूत्र०ा प्रवला ग लाहोचियदाणे, लाहोचियभोगे,लाहोचियपरिवारे, लाहोचियतिहिकरे *आमर्ष-पु. आमर्षणमामर्ष: संस्पर्श, विशे० 779 गाथा टी०। आ०म०। सिआ" (सूत्र-२+) (अस्य सूत्रांशस्य व्याख्या धम्म' शब्दे चतुर्थभागे अप्रमृज्य करेण स्पर्शने, जाग्रतोऽतिचारभेदे चा आवा "आमोसे 682 पृष्ठ वक्ष्यते) उक्तं चात्र लौकिकै "पादमायान्निधिं कुर्यात्पादं वित्ताय ससरक्खामोसे" अविधिनैव आमर्षणमामर्षः, अप्र-मृज्य करेण वर्द्धयेत्। धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्तव्यपोषणे"||१|| स्पर्शनमित्यर्थः। तस्मिन् सरजस्कामर्षे सति, सह पृथिव्यादिरजसा तथाऽन्यैरप्युक्तम् "आयादर्द्धनियुञ्जीत, धर्मे यद्वाऽधिकं ततः। शेषेण यद्वस्तु स्पृष्टं तत्संस्पर्श इत्यर्थ: आव०४ अ०। शेषं कुर्वीत, यतस्तत्तुच्छमैहिकम्॥।॥" इत्यादि। पं. सू.। आ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय 321 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आय गच्छतीत्यायो- द्रव्यादेलभिस्तन्निमित्तापादितेऽष्टप्रकार-ककर्मलाभे चा "आयं न कुज्जा इह जीविअट्ठी"||११|| आगच्छतीत्यायोद्रव्यादेलाभ: तन्निमित्तापादितोऽष्टप्रकार-कर्मलाभ: तमिहास्मिन् संसारे असंयमजीविता ; भोगप्रधानजीवितार्थीत्यर्थः। यदि वा - आजीविकाभयात् द्रव्यसंचयं न कुर्यात्। सूत्र. 1 श्रु०१० अ०। आयम्कर्माश्रवलक्षणं न कुर्य्यादा सूत्र०१ श्रु.१० अ०३गाथाटी। उपादाने, हैतो च। विशेष. 1229 गाथाटी। आयो-लाभ:। प्राप्तिर्ज्ञानादीनामस्मादित्यायः। विशे० 691 गाथाटीला ओघनिष्पन्ननिक्षेपेण सामान्यत: अङ्गाध्ययनोद्देशकादिकेश्रुतौ, अनु. 154 सूत्र टी०। तथा चनाणस्स दसणस्स वि, चरणस्स य जेण आगमो होइ। सो होइ भावणाउ, आओ लाहो त्ति एगऽट्ठा ||3|| ज्ञानस्य-मत्यादेः, दर्शनस्य चोपशमिकादे:, चरणस्य चसामायिकादेर्थेन हेतुभूतेनागमो भवति- प्राप्तिर्भवति स भवति भावाऽऽय: आयोलाभ इति निर्दिष्टः। अध्ययनेन च हेतुभूतेन ज्ञानाद्यागमो भवतीति गाथार्थ:। दश.१० ___ ओघनिष्पन्ननिक्षेपमधिकृत्यओहो जं सामण्णं सुयाऽभिहाणं चउट्विहं तंच। अज्झयणं अज्झीणं, आयज्मयणाय पत्तेयं / / 658|| इह यच्छुतस्य-जिनवचनरूपस्य सामान्यमङ्गाध्ययनाद्देश- कादिकं नाम तद् ओघ उच्यते, सामान्यं शास्त्रनामेत्यर्थः। विशेः। अथाऽऽयनिक्षेपं कर्तुमाहसे किं तं आए? चउदिवहे पण्णत्ते, तं जहानामाऽऽए 1, ठवणाऽऽए 2, दवाऽऽए 3, भावाऽऽए 4, नामठवणाओ पुष्वं भणिआओ। 'आये' त्यादि, आय:- प्राप्तिाभ- इत्यनर्थान्तरम्, अस्यापि नामादिभेदभिन्नस्य विचार: सूत्रसिद्ध एवं यावत्! से किं तं दव्वाऽऽए? दव्वाऽऽए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाआगमओ अ, नो आगमओ आ स किं तं आगमओ दव्वाऽऽए? आगमओ दव्वाऽऽए जस्सणं आयत्ति-पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं जाव कम्हा? अणुवओगो दवमिति कहा, नेगमस्स णं जावइआ अणुवउत्ता आगमतो तावइआ ते दव्वाऽऽया,जाव सेत्तं आगमओ दवाए। से कितं नोआगमओ दवाए? नोआगमओ दवाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहाजाणगसरीरदव्वाए, भविअसरीरदव्वाए, जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दवाए / से किं तं जाणगसरीरदवाए? जाणगसरीरदवाए आयपयत्था-हिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचु अचाविअचत्तदेहं जहा दय्वज्झयणे; जाव से तं जाणगसरीरदवाए। से किं तं भविअशरीरदवाए? भविअशरीरदवाए जे जीवे जोणीजम्मणणिक्खंते जहा दवज्झयणे जाव सेत्तं भविअसरीरदवाए। से किं तं जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दवाए? जाणगसरीरभवियसरीरवइरिते दवाए तिविहे पराणत्ते,तंजहा-लोइए 1, कुप्पावयणिए२, लोगुत्तरिए। से किं तं लोइए? लोइए तिविहे पण्णत्ते,तं जहा-सचित्ते, अचित्ते, मीसए से किं तं सचित्ते? सचित्ते तिविहे पण्णत्ते। तंजहादुपयाणं, चउप्पयाणं, अपयाणं। दुपयाणं दासाणं, दासीणं / चउप्पयाणं-आसाणं, हत्थीण। अपयाणं- अंबाणं, अंबाडगाणं, आए से तं सचित्ते। से किं तं अचित्ते ? अचित्ते अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुवण्णरययमणिमोत्ति-असंखसिलप्पवालरयणाणं आए से तं अचित्ते। से किं तं मीसए ? मीसए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-दासाणं, दासीणं, आसाणं, हत्थीणं,समाभरिआउज्जालंकि-आणं आए। से तं मीसए। से तं लोइए। से किं तं कुप्पावयणिए? कुप्पावणिए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते, अचित्ते, मीसए / तिण्णि वि जहा लोइए जाव से तं मीसए। से तं कुप्पावगणिए।। से किं तं लोगुत्तरिए? लोगुत्तरिए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा सचित्ते, अचित्ते, मीसए आ से किं तं सचित्ते? सचित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा सीसाणं, सिस्सणिआणं। सेतं सचिते से किं तं अचिते? अचिते अणेगविहे पण्णत्ते, तंह जहा-पडिग्गहाणं, वत्थाणं, कंबलाणं, पायपुच्छणाणं आए। सेत्तं अचित्ते। से किं तं मीसए? मीसए तिविहे पण्णत्ते,तं जहा-सिस्साणं, सिस्सणिआणं,समंडोवगरणाणं आए। सेत्तं मीसए। सेत्तं लोगुत्तरिए।। सेत्तं जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दवाए। से तं नो आगमओ दवाए। सेत्तंदवाए। 'से किं तं अचिते?' "सुवण्णे त्यादि-लौकिकोचितस्य सुवर्णादरायो मन्तव्यः, तत्र सुवर्णादीनि प्रतीतानि 'सिल' ति-शिला। मुक्ताशेलराजपट्टादीनां, रक्तवस्त्राणि रत्नानिपद्मराग- रत्नानि 'संतसावएज्जस्स' त्ति-सद्-विद्यमानं स्वापतेयं द्रव्यं तस्याऽऽय:, 'समाभरियाउज्जालंकियाणं' ति-आभरितानां सुवर्णसंकलिकादिभूषितानामातोथैः झल्लरीप्रमुखैरलंकृतानाम्। से किं तं भावाए? भावाऽऽए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आगमओ अ, नो आगमओ आ से किं तं आगमओ भावाऽए? आगमओ भावाएजाणइउवउत्ते, सेतं आगमओभावाए। से किंतंनोआगओ भावाए ? नो आगमओ भावाए दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-पसत्थे अ, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय 322 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 . आयंगुल अपसत्थे अ / से किं तं पसत्थे? पसत्थे तिविहे पण्णत्ते, तं | आयइविराहग- त्रि. (आयतिविराधक)।- परलोकपीडाकरे; पं. सू जहाणाणाऽऽए, दंसणाऽऽए, चरित्ताऽऽए, सेत्तं पसत्यों से किं तं | "आयइविराहगं समारंभ न चिंतिज्जा" (सूत्र-२+) आयतिविराधकं अपसत्थे? अपसत्थे चउविहे पण्णते,तंजहा-कोहाए, माणाए, ___-परपीडाकर समारम्भम् - अङ्गारकर्मादिरूपं तथा न चिन्तयेत्। पं. सूत्र। मायाए, लोभाए। से तं अप्पसत्थे। से तं णो आगमओ भावाए। आयइसंपगासण-न. (आयतिसम्प्रकाशन)।- चतुर्थे सामभेदे, स्था०। सेत्तं भावाए। सेत्तं आए। (सूत्र-२५४+) अनु०॥ चतुर्थसामभेदमाधिकृत्य-"आयत्या: सम्प्रकाशनम्' अस्मिन्नेवकृते ज्योतिषोक्त लग्नावधिके; राश्यवधिके च एकादशस्थाने, इदमावयोर्भविष्यतीत्याशायोजनम् आयति- सम्प्रकाशन्। स्था०३ ठा० लग्नावधिकैकादशस्थानस्याऽऽयत्वं चा तत्स्थाने आयस्य ३उ०१८५ सूत्रटी चिन्तनीयत्वात्। वनितागारपालकेच। कर्मणि अच्, घर वा। ग्रामादित: आयंगुल-न. (आत्माङ्गुल)।- आत्मनोऽङ्गुलमात्माङ्गुलम्। स्वामिग्राह्यभागे, लभ्ये धनादौ, "तदस्मिन् वृद्ध्यालाभशुल्कोप- आत्माऽङ्गुलप्रमाणभेदे, प्रकला ('अङ्गुल' शब्दे प्रथमभागे स्वत्वमुक्तम्) दादीयते" पा० / ग्रामेषु स्वामिग्राह्यो भाग: आय:। सि. कौ० / वाच / जं पुण आयंगुलमे-रिसेण तं भासिविहिणा ||2407|| कूष्माण्ड भेदे, प्रज्ञा / "आए, काए, कुहणे''11४011 (सूत्र-२३४) प्रज्ञा० यत्पुनरात्माऽडलं पूर्वमुद्दिष्टं तदीदृशेन-वक्ष्यमाणस्वरूपेण विधिना१पद। आ वा०। (अत्र विस्तर: 'कुहणा' शब्दे तृतीयभागे वक्ष्यते)। प्रकारेण भाषितं-प्रतिपादितं तीर्थकृद्गणधरैः। *आज-त्रि. (आज्यतेऽनेन) आ अज घत्रर्थे का घृते, जन्टी। अजस्येदम् तमेव विधिमाहअण। छागमांसादौ, त्रि०ा अलंकृतं कुमारं कुशलीकृतशिरसमहतेन वाससा संवीतमैणेयेन वा अजिनेन ब्राहणं, रौरवेण क्षत्रियम्, आजेन वैश्यम्। जे जम्मि जुगे पुरिसा, अट्ठसयंगुलमूसिआ हुति।। आश्व, गृा "गव्यमाजं तथा चौष्ट्र-माविकं माहिषं च यत्। अश्वायाश्चैव तेर्सि जं जं निअम- गुलमायंगुलमेत्थ तं होइ / / 1408 / / नार्याश्च, करेणूनां च यत्पय:"||२|| सुश्रुतः। अज भावे घञ्। न वीभावः। ये पुरुषाश्चक्रवर्तिवासुदेवादयो यस्मिन् युगे सुषमसुख- मादिकाले विक्षेपे, आजानेया वाचा निजाऽङ्गुलेनैवाऽष्टोत्तरं शतमङ्गुलानामुच्छ्रिता:- उच्चा भवन्ति तेषां च स्वकीयाऽङ्गुलेनाऽष्टोत्तराऽङ्गुलशतोचानां पुरुषाणां यन्निजम्आयइ (ई)-स्त्री. (आयति)(ती)-आ-य-ति। वाडीपा आगामिकाले, "आयइ जणगो''॥२८+|| पञ्चा० 19 विवा बृ। व्या "से तत्थ मुच्छिए आत्मीयमङ्गुलं तत्पुनरात्माऽङ्गुलं भवति। इह च ये यस्मिन् काले वाले, आयइंनाऽवबुज्भइ''||१|| दश. 1 चू। तत्र तेषु भोगेषु मूर्छितो प्रमाणयुक्ताः पुरुषा भवन्ति, तेषां सम्बन्धी आत्मा गृह्यते। तत गृद्धो बाल: आयतिम् -आगमिकालं नाऽवबुद्ध्यते- न सम्यगवगच्छति। आत्मनोऽङ्गुलमात्माऽङ्गुलम् / इदं च पुरुषाणां कालादिभेदेनानवदश०१ चू। आगामिकालविषयायां महत्यामास्थायाम, व्यः। स्थितमानत्वादनियतप्रमाणं द्रष्टव्यम्। "जुवराजंमि उ ठविए, एयाओ बंधंति आयति तत्थ"||१६६+।। जे पुण एयपमाणा, ऊणा अहिगा य तेसिमेयं तु / आयतिम्- आगामिकालविषयां महतीमास्थां बन्धन्तिा व्य०४ उ। आयलं न भन्नइ, किं नु तदाभासमेव त्ति / / 1409 / / सन्ततौ, बृह राजसुतदीक्षामधिकृत्य- "आयती इड्डिमंतपूया ये पुन:-पुरुषा एतस्मात्- अष्टोत्तराऽगुलशतलक्षणा- त्प्रमाणान्न्यूना: य"||८३+II आयतिश्च-सन्ततिरमीषामेतेन अविच्छिन्ना भविष्यतीति। समधिका वा तेषां संबन्धि यदङ्गुलमेतदात्माऽ- डलं न भण्यते, किंतु बृ०३ उ। प्रभावे कोषदण्डजे तेजसि, फलदानकाले च! आयति-स्त्री०। तदाभासमेव- आत्माङ्गुलाभासमेव; परमार्थत आत्माङ्गुलं तन्न आ यम क्तिन्। स्नेहे, वशित्वे, सामर्थ्य, सीम्नि, शयने, प्रभावे, भवतीत्यर्थः। लक्षणशास्त्रोक्तस्वरादि- शेषलक्षणवैकल्यसहायं च "आगतौ च उपाये च अनास्था तत्कल्पनम्''|शा. भात वाचा यथोक्तप्रमाणाधीनाधिक्यमिह प्रतिषिद्धं न केवलमिति संभाव्यते, आयइजणग-त्रि. (आयतिजनक)- आयतौ आगामिकाले अभीष्ट फलं भरतचक्रवादीनां स्वा-ऽङ्गुलतो विंशत्यधिकाऽङ्गुलशतप्रमाणाजनयति- करोति योऽसावायतिजनकः। आगामिकालेऽ नामप्यत्र निर्णीतत्वान्महावीरादिनांच केषांचिन्मतेन चतुरशीत्याद्यड्डलभीष्टफलदायके, पञ्चा। "आयइजणगो"॥२८४।। पञ्चा०१९ विव०। प्रमाणत्वादिति। प्र० 254 द्वार। आयइत्ता-अव्य. (आदाय)गृहीत्वेत्यर्थे, सूत्र 1 श्रु 12 अ६ गाथाटी०। __ आत्माङ्गुलं सूच्यङ्गुलादिभेदात् त्रिविधम्आयइफल-न (आयतिफल)- आयतो आगामिनि काले से किं तं आयंगुले ? आयंगुले (अनु. सूत्र-१३४+) तिविहे फलमम्येत्यायतिफिलम्। परभवफलके, पञ्चा। "आयतिफल- पण्णत्ते, तं जहा सूइअंगुले, पयरंगुले 2, घणंगुले 3, (सूत्रम वसा- हणंच निउणं मुणेयव्व|४४||" आयतौ-आगामिकाले; परभव 1344) अनु। इत्यर्थः। फलं साध्यमस्येत्यायतिफलम्। पाठान्तरेण-आयतफलं- (आत्माङ्गुलेन षड्डलानि पाद: इत्यादि / ये यदा मनुष्या मोक्षफलम्। पञ्चा०१२ विका भवन्ति तेषां तदा आत्माङ्गुलेन स्वकीयस्वकीयकाल Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयंगुल 323 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयंबिलपचक्खाण संभवीन्यवटहृदादीनि मीयन्ते इत्यादि सर्वम् 'अङ्गुल' शब्दे प्रथमभागे प्रतिपादितम्।) (सूच्यडलादिप्रदेशानामल्पबहुत्वचि-न्ताऽपि 'अंगुल' शब्दे प्रथमभागे गता) आयंत-त्रि० (आचान्त)-आ-धम्-क्त। आचमनकर्तरि, आचान्त: पुनराचामेत्। काशी। कृतमाचमनं यस्य तादृशे जलादौ च। वाचा गृहीताचमने, राला भला शौचाथ कृतजलस्पर्श, नि.१, श्रु.३ वर्ग 3 अ०। और आयंते चोक्खे परमसुइभूये" (सूत्र+) आयते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालने-नाचान्तो गृहीता-ऽऽचमनः। रा०ा आचान्तौशुद्धोदकेन कृताऽऽचमनौ। कल्प०१ अधि०५क्षण 105 सूत्र टी०। ज्ञा० भ०। आयंबिल-न० (आचामाम्ल)- ल०प्र०१०२ गाथा आचाम:-अवश्रावणम् अम्लं चतुर्थो रस:, त एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदनकुल्भाषसक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् / समयभा- षयौदनकुल्माषसक्तुप्रभृतिके ध०२ अधि०६३ श्लोका आयामाऽम्ल-न आयामम् अवश्रावणम्, अवश्रावणम् काञ्जिकम्। बृ०१ उ०। अत्रार्थे ' अवस्सावण' शब्द: प्रथम-भागस्थो द्रष्टव्य:)(आयाम:अवशायनम्।) आव०६ अ० 1603 गाथा टी) अम्लंच-सौवीरकं, त एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदनकुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदायामाम्लम्। समयभाष-यौदनकुल्माषसक्तुप्रभूतौ, पञ्चा० 5 विव०७ गाथाटी। अवस्यामे, (ने, आचा०२ श्रु.१५.१ अ०७:०४१ सूत्र टी.) ग०२ अधि०७८ गाथाटी० / (आचाम्लभेदादि 'आयंबिलपचक्खाण' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते) तद्गते प्रत्याख्यानभेदे चा पञ्चा०५ विव० 7 गाथा टी०। (तद्वक्तव्यता'आयंबिलपचक्खाण' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते) आयंबिलपचक्खाण-न. [आचा(या)माम्लप्रत्याख्यान] प्रत्याख्यानभेदे, ध। अत्रसूत्रम्आयंबिलं पचक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं, गिहत्थसंसटेणं पारिट्ठावणियागारेणं,महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं, वोसिरह। आव०६अ। आचाम:- अवश्रावणम्, अम्लं चतुर्थो रस: त एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र | भोजने ओदनकुल्माषसक्तुप्रभृतिकेतदाचामाम्लम् समयभाषयोच्यते, तत्प्रत्याख्याति, आचामाम्लप्रत्याख्यानं करोतित्यर्थः। आद्यावन्त्याश्च त्रय आकारा: पूर्ववत्, (लेवालेवेणं) लेपो-भोजनभाजनस्य विकृत्या तीमनादिना वा आचा-माम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयेन लिप्तता, अलेपो- विकृत्यादिना लिप्तपूर्वस्य भोजनभाजनस्यैव हस्तादिना संलेखनतोऽलिप्तता, लेपश्चाऽलेपश्च लेपालेपम, तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवय-वसद्भावेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। 'उक्खित्तविवेगेणं' शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्वस्याचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्य स्याद्रवविकृत्या-दिद्रव्यस्योत्क्षिप्तस्योवृत्तस्य विवेको नि:शेषतया त्याग उत्क्षिप्तविवेकः; उत्क्षिप्य त्याग इत्यर्थः, तस्मादन्यत्र, भोक्त-व्यद्रव्यस्य अमोक्तव्यद्रव्यस्पर्शनाऽपि न भङ्ग इति भावः, यत्तूत्क्षेप्तुं न शक्यं तस्य भोजने भङ्गः 'गिहत्थसंसटेणं' गृहस्थस्य- भक्तदायकस्य संबन्धि करोटिकादिभाजनं विकृत्यादि-द्रव्येणोपलिप्तं गृहस्थसंसृष्टं, ततोऽन्यत्र, विकृत्यादिसंसृष्ट-भाजनेन हि दीयमानं भक्तमकल्पद्रव्यावयवमिश्रं भवति, न च तद्ञानस्याऽपि भङ्गः, यद्यकल्पद्रव्यरसो बहुर्न ज्ञायते। 'वोसिरई' इति-आचामाम्लं चतुर्विधाहारं च व्युत्सृजति। घ०२ अधिक 78 श्लोका 'अटेवाऽऽयंबिलम्मि आगारा||९४)।" अष्टैव, नन्यूनाधिका:। आयाम:-अवश्रावणम्, अम्लं च सौवीरकं, ते एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदनकुल्माषसक्तुप्रभृतिकेतदा-यामाम्लं समयभाषयोच्यते, एतद्तं प्रत्याख्यानमपि तदेवेत्य-तस्तस्मिन्नायामाम्ले आयामाम्लस्य चाऽऽकारा भवन्ति। ते चैवम्। पञ्चा०५ विव०। सूत्रम्आयंबिलं पचक्खाइ अण्णत्थणाभोगेणं सहसाकारेणं लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं गिहत्थसंसडेणं परिहावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह। आव०६ अ० 1605 गाथा। व्याख्यानं सर्वं प्राग्वत् नवरम्। आयामाम्लं प्रत्याख्याति- तदेव मया भोक्तव्यमिति प्रतिजानीते। लेपो भोजनभाजनस्य विकृत्या तीमदिना वा आयामाम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयेन लिप्तता, स चालेपश्च विकृत्यादिना लिप्तपूर्वस्य भोजनभाजनस्यैव हस्तादिना संलेखनतो निर्लेपतेति लेपालेपं तस्मादन्यत्र भाजने, विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपिन भङ्ग इत्यर्थः तथा उत्क्षिप्तस्य शुष्कौदनादिभक्ते निक्षिप्तपूर्वस्यायामाम्लप्रत्याख्यानवताम-योग्यस्याद्रवविकृत्यादिद्रव्यस्य विवेको नि:शेषतया पृथक्करणम् -उद्धरमुत्क्षिप्तविवेकस्तस्मादन्यत्र प्रत्याख्यानं भोक्तव्यद्रव्य-स्याकल्पनीयद्रव्येण संस्पर्शेऽपिन भङ्ग इति भावः। तथा गृहस्थस्य भक्तदायकस्य सम्बन्धि संसृष्टं - विकृत्यादिद्रव्येणो- पलिप्तं यत्करोटिकादिभाजनं तद्गृहस्थसंसृष्टं ततोऽप्यन्यत्र विकृत्यादिसंसृष्टं भाजनेन हि दीयमानं भक्तमकल्पद्रव्यावयवमिदं भवति, न च तत् भुजानस्याऽपि भङ्ग इति भावः। 'चोसिरइ' त्ति-अनायामाम्लं व्युत्सृजनीति। पञ्चा०५ विव०९ गाथा टी०। अधुना तदुपन्यस्तमेव चाऽऽचामाम्लऽमुच्यतेगुन्नं नाम तिविहं, ओअणर कुम्मास सत्तुआचेव। इकिकं पि अतिविहं, जहन्नयं मज्जिमुक्कोसं // 1603 / / आयामाम्लमिति गौणं नाम, आयाम: अव (शायनम्) श्रावणम् आम्लंचतुर्थरस: ताभ्यां निर्वृत्तम् आयामाम्लम्, इदंचोपाधिभेदात्त्रिविधं भवति। ओदन: कुल्माषाः, सक्तवश्चैवा ओदनमधिकृत्य, कुल्माषान्सक्तूंश्चेति एकैकमपि चामीषां त्रिविधं भवति। जघन्यम्,मध्यमम, उत्कृष्टं चेति। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयंबिलपचक्खाण 324 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयंबिलपचक्खाण - कथमित्यत्राह जहन्नं-आयंबिलेण रसओ उक्कोसं गुणतो मज्झं, ते चेव आयामेणं दव्वे रस गुणे वा३, जहन्नयं, मज्झिमं चश्उकोसं | दव्वओ जहन्नं रसओ मज्झं गुणओ मज्झं, ते चेव उण्होदएण दव्वओ तस्सेव य पाउग्गं, छलणा पंचेव य कुडंगा / / 1604 / / जहन्नं, रसओ, जहन्नं, गुणओ उक्कोसं बहुनिज्जर त्ति भणियं होइ। द्रव्ये रसे गुणे चैव-द्रव्यमधिकृत्य 1, रसमधिकृत्य 2, गुणं अहवा- उक्कोसे तिन्नि विभासा उक्कोसोक्कोसं उक्कोसमज्झिम, चाधिकृत्येत्यर्थः 3 / किं? जघन्यकं 1, मध्यमं 2, चोत्कृष्टं चेति 3, उक्कोसजहन्नं, कंजियआयामउण्होदएहिं जहन्ना,मज्झिमा, उक्कोसा तस्यैवायामाम्लस्य प्रयोग्यं वक्तव्यं, तथा आयामाम्लं प्रत्या-ख्यातमिति निज्जरा। एवं तिसु विभासियव्वं छलणानाम एगेणाऽऽयंबिलं पचक्खायं, तेण हिंडतेण सुद्धोदणो गहिओ, अण्णाणेण य खीरेण निमित्तं घेत्तूण दध्ना भुजानस्य दोषः प्राणातिपातप्रत्याख्याने तदनासेवनवदिति, आगमओ आलोएउं पजीओ, गुरूहिं भणिओ-अज्ज तुज्भ आयंबिलं छलना वक्तव्या, पञ्चैव कुडङ्गा-वक्रविशेषा इति। पचक्खायं, भणइ सच्चं, तो किं भुंजसि? जेण मे पचक्खायं, जहा तद्यथा पाणाइवाए पचक्खाते ण मारिज्जइ, एवं आयंबिले वि पचक्खाते। तं न लोए१ वेये२ समये३, अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने / कीरइ, एसा छलणा" परिहारस्तु प्रत्याख्यानंभोजनेतन्निवृत्तौ च भवति, एए पंच कुडंगा, नायव्वा अंबिलम्मि भवे / / 1605|| भोजने आयामाम्लप्रायोग्यादन्यत् तत् प्रत्याख्याति आयामाम्ले च लोकेवेदे समये अज्ञाने खलु तथैव ग्लानत्वे लोकम- ङ्गीकृत्य कुडगा: वर्तते, तन्निवृत्तौ चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचक्षाणम्य, तथा लोकेएवमेव एवं वेदान् समयान् अज्ञानं ग्लानत्वं च एते पञ्च कुडङ्गा ज्ञातव्या: प्रत्याख्यानार्थ:। दोसु अत्थेसुवट्टइभोजनेतन्निवृत्तौच, तेण एसाछलणा आयामाम्ले भवन्ति; आयामाम्लविषये। इति गाथात्रयसमासार्थ:।।१७।। निरत्थिया। पंच कुडंगा लोए, वेदे, समए, अन्नाणे, गिलाणे कुडंगो त्ति, विस्तरार्थस्तु वृद्धसंप्रदाय-समधिगम्यः। एगेणाऽऽयंबिलस्स पच्चक्खायं, तेण हिडंतेण सखडी संभाविया, अन्नं वा सचाऽयम् उक्कोसं लद्धं, आयरियाणं दंसेइ, भणियं-तुडभ आयंबिलं पचक्खायं, "एत्थ आयंबिलं च भवति आयंबिलपाउग्गं च, तत्थोदणे आयंबिलंच सो भणइ-खमासमाणा! अम्हे हिं बहूणि लोइयाणि सत्थाणि आयंबिलपाउग्गं च आयंबिला सकूरा, जाणियव्वा कूरविहाणाणि परिमिलियाणि, तत्थ आयंबिलस्स सद्यो नऽत्थि, पढमो कुडंगो / आयंबिलपाउग्गं तंदुलकणियाउ कुडतो पिटुं पिहुगा पिट्ठपोवलियाओ अहवा-वेदेसु चउसु संगोवंगेसु नऽत्थि आयंबिलं, बितिओ कुंडगो२। रालगा मंडगादि, कुम्मासा पुव्वं पाणिएणं कड्डिज्जंति पच्छा ओक्खलीए अहवा-समए चरगचीरिगभिक्खुपंडरंगाणं, तत्थ विनऽत्थि, न जाणामि पीसंति, ते तिविहा- सण्णा, मज्झिमा, थूला, एए आयंबिलं, एस तुब्भं कओ आगओ? तइओ कुडंगो 3 / अन्नाणेण भणइ न जाणामि आयंबिलपाउग्गाणि पुण जे तस्स तुसमीसा कणियाओ ककंडुगा य खमासमणा! केरिसयं आयंबिलं भवइ? अहं जाणामि कुसणेहि वि एवमादि, सत्तुगा-जवाणं वा, गोधूमाणं वा, बीहियाणं वा, पाओग्गंपुण जिम्मइ त्ति तेण गहियं "मिच्छा दिदुक्कडं," नपुणो गच्छामि, चउत्थो गोधूम- भुज्जिया पिचुगालाया जाव भुंजिज्जा, जे यजतरण न तीरंति, कुडंगोह गिलाणो भणइ-नतरामि आयंबिलं काउंसूलं मे उढेइ अन्नं पीसिउं, तस्सेव निद्दारो कणिगादिवा, एयाणि आयंबिलपाओग्गाणि, तं वा उद्दिसइ रोग ताहे न तीरइ करेउं। एसपंचमो कुडंगो / तस्स अट्ठ तिविहं पि आयंबिलं, तिविहं उक्कोसं मज्झिमं,जहन्नी दव्वओ आगाराकलमसालिकूरो उक्कोसो, जवा जस्स पत्थं रुबइ वा, रालगो सामागो अण्णत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं वा जहन्नो, सेसा मज्झिमा, जो सो कलमसालीकूरो सो रसं पडुच गिहत्थसंसटेणं पारिद्वावणियागारेणं महत्तरागारेणं सळसमाहितिविहो- उक्कोसो, मज्झिमो, जहन्नो या तं चैव तिविधं पि आयंबिलं वत्तियागारेणं वोसिरति। निज्जरागुणं पड्ढच्च तिविधं-उक्कोसो निज्जरागुणो, मज्झिमो, जहन्नो अणाभोगसहसक्कारा तहेव, लेवालेवो जइ भायणे पुव्वं लेवाडगगहियं त्ति। कलमसालिकूरोदव्वओ उक्कोसं दव्वं चउत्थं रसिएण समुद्दिसइ, च समुद्दिटुं संलिहियं जति तेण आणेतिण भुञ्जति, उक्खित्तविवेगो-जं रसओ वि उक्कोसं तस्स वएण वि आयामेण उक्कोसं रसओ गुणओ आयंबिले पडति विगतिमादि उ-क्खिवित्ता विगिचतु मा णवरि गलतु जहन्नं थोवा निज्जर त्ति भणियं होइ, सो चेव कलमोयणो जया अन्नेहिं अन्नं वा आयंबिलस्स अप्पाओग्गंजइ उद्धरितंतीरइउद्धरिएनउवहम्मइ, आयामेहिं तदा दव्वाओ उक्कोसो रसओ मज्झिमओ गुणओ वि स गिहत्थ- संसटे व जदिगिहत्थो डोलियं भाणियं वालेवाड कुसणादीहिं मज्झिमो चेव सो चेव जया उण्होदएण तदा दव्वओ उक्कोसं, रसओ तेण ईसि त्ति लेवाडं तं भुज्जइ, जइ रसो आलिखिज्जइ बहुओ ताहे न जहन्नं, गुणओ मज्झिमं चेव, जेण दव्वओ उक्कोसं, न रसओ। ध्याणि कप्पइ, परिट्ठावणित्तमहत्तरासमाही) तहेव / व्याख्याजे मज्झिमा चाउलोदणा ते दव्वओ मज्झिमा, आयंबिलेण रसओ / तमतिगम्भीरबुद्धिना भाष्यकारेणोपन्यस्तक्रम-मायामाम्लम्। आव०६ उक्कोसा, गुणओ मज्झिमा, तहेव च-उण्होदएण दव्वओमज्झं रसतो अा तथा च-" आयंबिलमवि तिविहं" इत्यादिगाथा: 102 आरभ्यजहन गुमओ मन्झं नाशिमं दवं तिकारमा गालगत्रणका द्रव्वओ ) 106 पर्यान्ताः 'अचित्त' शब्दे प्रथमभागे गताः)। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयंबिलपचक्खाण 325 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयचरित्त जं तिमियं काउंनो, सकइ तं तं न कप्पइ रयाइ। त्ति- भीमो-भीमसेनवदिति न्यायागर्हिता-चित्तम्रक्षिते अगर्हितसंसक्तापायं हिंगुन कप्पइ, दुकयदोसप्पसंगओ जयणा ||107 / / चित्तम्रक्षिते; आलिप्तकरमात्रलिप्तदोष इत्यर्थः, 'अइरं' परित्तोत्पन्न दंतवणं तंबोलं, कायव्वं नेव अंबिलंमि नवे। परित्ताशब्दोपलक्षणत्वात् पृथिव्यतेजोवायुप्रत्येकवनस्पति त्रसाऽऽख्या: जलभिण्णमणाहारं, कप्पइ सव्वं पितत्थ ठिए ||18| षट्कायाः सचित्ता गृह्यन्ते / पश्चात् व्यवहितषटका- यनिक्षिप्तपिहित संहतमिश्रादिषु आदिशब्दात्-षट्काया: परिण-तषट्कायोपरि छर्दितयो: सोवीरमुसिणजलं, कप्पइ नो अण्णमेस विहिपायं। 'निक्खित्त' त्ति-अकर्दमप्रक्षिप्ते बाल-वृद्धमत्तोन्मत्तव्यपनज्वरितान्धा: सोवीरं सिद्धपिटुं, निण्णेहं वियलमुक्किट्टे / / 109|| निगडितकरचरणा: छिन्नपाणि- पादा: नपुंसका: गुर्विणी बालवत्सा च मज्झिमे घुग्घरियाई, हिंगुप्पमुहा पकप्पए भयणा। भुञ्जती विलोडयन्ती भृज्जन्ती खण्डयन्ती पिम्षन्ती दलन्ती भज्जियधण्णाईयं, सव्वं पिपकप्पइ जहन्ने // 110 / / पिठरकादिकमपवर्त्य ददती साधारणं चोरितकं वा ददती बलिं काठिन्यसहितमण्डकखाखरपर्पटिकादियतस्तिमितुम्- स्थापयन्ती परकीय- मिदमित्युक्त्वा ददती सप्रत्यपाया च ददती आद्रीकर्तुं न शक्यन्ते तत् आचामाम्ले अकल्प्यम्। फूलबालकमुनिव्रतं त्याजयित्री मागधिका वेश्येव शाकिन्यादिश एतेभ्यो दुन्नि चउअंगुलमाणं, नीरं जइ हवइ सिद्धभत्तुवरि / दायकेभ्यो ग्रहणे च, तथातिमानं च-प्रमाणभूताहाराधिकभोजनं धूमश्च आयंबिलं विसुद्धं, हविज्जतो सव्वकट्ठहरं // 199|| सद्वेषभोजनं कारणविपर्ययश्च निष्कारणे भोजनम् अतिमानधूमकारण विपर्ययः तस्मिन् एतेषु सर्वेषु विहितम् आचामाम्लं प्रायश्चितमित्यर्थः / जगराजीरगजुत्तं, ओयणमिह कप्पए जईण पुणो। जीत। सढाणं नो कप्पइ, नूयरि लट्ठाइयं वि पुणो ११शल.प्र.। आयंबिलपाउग्ग-त्रि. (आचामाम्लप्रायोग्य)-ओदनादिसत्के कूरादौ, अत्रोत्तरम्-तथा आचामाम्लमध्ये सुण्ठीमरिचादिकं कल्पते तत्किं आव०६अ। (तानि च आयंबिलपचक्खाण' शब्देऽनुपदमेव गतानि) कारणेन स्वभावेन वेति? ||9|| अत्र कारणं विनापि कल्पते इति।।९।। आयंबिलवड्डमाण-न. [आचा (या) माम्लवर्द्धमान ] तपोविशेषे, औ०। तथा आचामाम्लमध्ये सुण्ठीमरिचादिकं कल्पते, पिप्पलीलवङ्गादिकं "आयंबिलवड्डमाणं तवोकम्म पडिवण्णा" (सूत्र-१५+)। यत्र चतुर्थ चन, तत्किं शास्त्राक्षरैः परंपरातो वेति ? ||10|| तथा आचामाम्लमध्ये कृत्या आयामाम्लं क्रियते, पुनश्चतुर्थ, पुन आयामाम्ले, पुनश्चतुर्थ सुण्ठीमरिचादिकं कल्पते, लवङ्गपिप्पलीहरितकीप्रमुखं पुनर्न कल्पते, पुनस्त्रीणि आयामाम्लानि, एवं यावच्चतुर्थं शतं चाऽऽयामाम्लानां क्रियते तत्रै-तत्कारणं ज्ञायते- यल्लवङ्गेषु दुग्धं भक्तं दीयमानमस्ति, तथा इति, इह च शतं चतुर्थानां तथा पञ्चसहस्राणि पञ्चाशददिकानि 5050, हरीतकी- पिप्पल्यादिकं नालिकातोऽपक्वं सत् शुष्कीक्रियते, यथा आयामाम्लानां भवन्तीति। औ०। (एतत्तपःकरणात् महासेन-कृण्णा युगन्धरीगोधूमादि पृथुकोराद्धस्स चाचामाम्लमध्ये न कल्पते, सिद्धि प्राप्ता इति महासेणकण्हा' शब्दे षष्ठे भागे दर्शयिष्यते) युगन्धरीगोधूमादिकं तु राद्धं सत् कल्पते इति संभाव्यते॥१०॥ ही०४ तत्स्व रूपं सूत्रत:प्रका०। आयंबिलं करेति. (अन्तः) एवं एगुत्तरियाए बुड्डीए आयंबिलाई संप्रत्याचामाम्लशोध्यान् एतान् (दोषान्) वडति चतुत्थंतरियाईजाव आयंबिलसयं करे ति आयंबिलसयं संकलय्य गाथायुगलेनाह करेत्ता चउत्थं करेति। अन्त.१ श्रु०८ वर्ग१० अ०॥ कमुद्देसिय मीसे, धायाइ पगासणाइएसुंच। आयंबिलिय-पु. [आचा (या) माम्लिक ]आचामाम्लं समयप्रसिद्धं तेन पुरपच्छकम्मकुच्छिय-संसत्ताऽलित्तकरमत्ते / / 37 / / चरतीत्याचामाम्लिकः। स्था०५ ठा०९ऊ.३९६ सूत्रटी। आचामाम्लसहिते, अइरं परित्तनिक्खि- त्तपहियसाहरियमीसियाईसु। "आयंबिलमणायंबिले, आयंबिलगा, अणा- यंबिलंगा य / अइमाणधूमकारण, विवज्जए विहियमायामं |3 अणायं बिलगा, आयंबिलगविरहिया" इति। आव 6 अ / कर्मोद्देशिकं-विभागोद्देशिकम् नवमभेदः, मिश्रं च-याव- दर्थिकमि आचाम्लम्ओदन-कुल्माषादि तेन चरतीत्याचाम्लिक: साधुभेदे, सूत्र श्राख्यो मिश्रजाताद्यभेद: कर्मोद्देशिकमिश्रं तस्मिन् धात्र्यादिप्रका- 2 श्रु०२ अ. शनादिषु च धात्र्यादयश्च धात्रीदूतीनिमित्त-कथनाऽऽजीवनापिण्ड- आयग-न. (आजक)- अजानां सूमहः! वुञ्। छागसूमहे, वाच / वनीपकत्वबादरचिकित्साकरण-क्रोधमानपिण्डाः द्विविधसंस्तव: अजापक्ष्मनिष्पन्ने वस्त्रादौ,'आयाणि वा' (सूत्र-१४५४) क्वचिद्देशविशेष विद्यामन्त्रं चूर्णयोगपिण्डा: प्रकाशनादयश्च प्रकाशकरणं द्विविधिंद्रव्यक्रीतं, अजा: सूक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति तत्पक्ष्म-निष्पन्नान्याजकानि भवन्ति। द्विविधं लौकिकप्रामित्यपरिवर्तेन निष्प्रत्यपायं-परग्रामऽऽहृतं आचा०२ श्रु०१ चू.५अ 1 उ. पिहितोद्भिन्नकपाटोद्भिन्ने उत्कृष्टमालाऽपहृतं सर्वमाच्छेद्यंसर्वमनिष्टं चेति | आयचरित्त- त्रि. (आयचरित्र)- "आयचरितत्तो"||३६+!! आयभूतं धात्र्यादिप्रकाशनादयस्तेषु पुरःकर्म:- पश्चात्कर्मणो;, 'कुच्छ्यिसंसत्त' | निरतिचारतया चारित्रं यस्यस आयचरित्रः। दृढचरित्रे, संथा०३६ गाथाटी। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयचरित्त 326 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयतण *आत्तचरित्र-त्रि. गृहीतचारित्रे "आयचरित्तो करेइ, सामण्णं // 364 // " आकृष्टः कर्णायत:, आयत: आयतम् (वा)-प्रयत्नवद्यथा भवतीत्येवं आयभूतं-निरतिचारतया चारित्रं यस्य स आयचरित्रो दृढचारित्रत्वात् कर्णायत:। आयतकर्णायत:। प्रयत्नेन कर्णपर्यन्त- माकृष्ट, प्राकृतत्वात-आत्तचारित्रो-गृहीत-चारित्र: करोति- पालयति श्रामण्यं- - "आययकण्णाययं उसु आयामेत्ता चिट्ठई'' (सूत्र-६८+)। भ०१ श०८ श्रमणभावम्। संथा ऊ। सामान्येन कर्णपर्य्यन्तमाकृष्ट चा "आययकण्णा- ययं उसुकरेइ" आयज्म-धा. (टुवेप) कम्पने, भ्वा० आत्म। सकसेटा वेपते। अवेपिष्टा (सूत्र-३०३४) आयत:-आकृष्टः सामान्येन स एव कर्णायत: ऋदित्। चडि न ह्रस्व:। टित् / वेपथुः। वाच.। "वेपेरायम्बाss आकर्णमाकृष्ट: आयतकर्णायतस्तम्। भ०७ श०९ ऊ/ यज्झौ ."1114147 / / इति हैमप्राकृतसूत्रेण वेपे: आयम्ब आयज्झ आयत-(य) चक्खु-त्रि. (आयतचक्षुष)- आयतं- दीर्घमैहिकामुष्मिइत्यादेशौ वा। आयम्बइ। आयज्झइ / वेवइ / प्रा०। काऽपायदर्शि चक्षुः-ज्ञानं यस्य स आयतचक्षुः। ऐहिकामुष्मिकाऽपायआयट्ठ-पु. (आयतार्थ)-आयत: अपर्यवसानान्मोक्ष एव, सचासावर्थ- दर्शिज्ञानोपेते, आचा०१ श्रु०२ अ०५:०९३ सूत्रटी०। वायतार्थः। मोक्षरूपेऽर्थे, आयतो-मोक्षः अर्थ:- प्रयोजनं यस्य आयतचरित्त-न. (आयतचरित्र)- आयतं-चरित्रं सम्यक् चरित्रं दर्शनादित्रयस्य तत्तथा / दर्शनादित्रये च। आचा.१ श्रु.१ अ०२ उ०७१ मोक्षमार्गप्रसाधकम्। मोक्षमार्गप्रसाधके चरित्रे, सूत्र "आदाणीयम्मि सूत्र टी० आयतचरित्त"॥२८४|| सूत्र०१ श्रु०१ अा आत्मार्थ-पु. 'आयंट्ठ' (सूत्र-७१४) आत्मनोऽर्थ: आत्मार्थः, स च | आयत-(य) जोग- पुं० (आयतयोग)- आयत:- संयतो योगोमज्ञानदर्शनचारित्रात्मकः, अन्यस्त्वनर्थ एव, अथवा-आत्मने हितं- नोवाक्कायलक्षणः, आयतश्वासौ योगश्चायतयोगः। ज्ञानचतुष्टयेन सम्यग् प्रयोजनमात्मार्थं, तच चारित्रानुष्ठानमेव चारित्रानुष्ठाने, आचा०१, श्रु०२ योगप्रणिधाने, आचा। "आयतजोगताए सेवित्था"||१४|| आचा०९ अ०१ऊ। श्रु०९ अ४उ।"सयमेव अभिसमागम्म आययजोगमायसोहिए"||१६+11 आयण्णण-न. (आकर्णन)- श्रवणे, "तस्थाऽऽयण्णणजाणण आयतयोगम्-- सुप्रणिहितं, मनोवाक्कायात्मकं विधाय। आचा० श्रु०९ गिण्हणपडिसेवणेसु उज्जुत्ता'। तत्राऽऽकर्णन-विनयबहुमानाभ्यां व्रतस्य अ०४ उ. श्रवणमिति। ध०२ अधि, 22 श्लोक। आयतह-पु(आयतार्थ)- आयत:- अपर्यवसानान्मोक्ष एव स आमत- (आयत)- आ यम क्त / दीपे, औ० 10 सूत्रटी / आ. चासावर्थश्चायतार्थः। मोक्षरूपेऽर्थे, आयत:-मोक्ष: अर्थ:-प्रयोजनं यस्य मा अनु / उत्त / स्था। आयामवति, प्रश्न०३ आश्र द्वार 12 सूत्रटी। दर्शनादित्रयस्य तत्तथा। दर्शनादित्रये, "आयतद्वंसंमं समणुवासेज्जा" "गिरिवरे वा निसहोऽऽययाणं, रुयएवसेढे वलया-ऽऽययाणं ||15+ll (सूत्र-७१+) / आयत:- अपर्यवसानान्मोक्ष एव स चासावर्थश्चाययया निषधो गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपेऽन्येषु वा द्वीपेषु तार्थोऽतस्तं, यदिवा-आयतो मोक्ष:- अर्थः प्रयोजनं यस्य दर्शनादित्रदैर्येण श्रेष्ठः-प्रधान: तथा वलयाऽऽयतानां मध्ये रुचक: पर्वतोऽन्येभ्यो यस्य तत्तथा। आचा.१ श्रु२ अ०२ उ.।"आयतटुंसुआदाय, एवं वीरस्स वलयायतत्वेन।सूत्र १श्रु६अ। साद्यपर्यवसितत्वेन दीर्घत्वात् आयत: वीरियं"||१|| मोक्ष:। मोक्षे, पं. सू०४ सूत्रटी। पं०व०। आयतो-मोक्षोऽपर्य्यवसिताऽव- __ आयत:-मोक्ष: अपर्य्यवसितावस्थानत्वान्मोक्ष: सचासावर्थश्च तदर्थो स्थानत्वात्। सूत्र०१ श्रु०८ अ०१८ गाथाटी। आयतोऽपर्यवसाना-मोक्ष वा तत्प्रयोजनो वा सम्यकदर्शनज्ञानचारित्रमार्गः स आयतार्थस्तं सुष्ठ एव। आचा०१ श्रु०२ अ.१ 371 सूत्रटीला आयतो- दीर्घसर्वकाल- आदाय-गृहीत्वा यो धृतिबलेन कामक्रोधादिविजयाय च पराक्रमते भवनान्मोक्ष: सूत्र 1 श्रु०२ अ०३ उ०१५ गाथाटीला आत्मनि सूत्रका "सव्वे एतद्वीरस्य वीर्यमिति! सूत्र०१ श्रु०८ अ०१८ गाथाटी०। पाणा पियाऽऽयया" (सूत्र-८0x)। आयत:-आत्मनोऽनाद्यनन्तत्वात् | आयतहि-(न) पुं(आयतार्थिन्)- मोक्षार्थिनि, दश०५ अ.२ उ. 15 स प्रियो येषां ते तथा सर्वेऽपि प्राणिनः प्रियात्मान:। आचा०१ श्रु२ अ०३ | गाथा टीका उ। आइअभिविधौ,सामस्त्येन यत:-आयत: आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ आयतहित-(य)-पुं॰ (आयतार्थिक)-आयतो-दीर्घः सर्वकालभवना१९ गाथाटी०। संयते,"आयतजोगताए सेवित्था"||९|| आचा०१ श्रु०९ न्मोक्षस्तेनार्थिकस्तदभिलाषी। मोक्षाभिलाषिणि सूत्रका "आयपरे अ०४ उ। आकृष्टे, यत्नवति च / भ.। "आययकण्णाययं उसुं परमायतट्ठिए ||15|| सूत्र.१ श्रु.१ अ०२ उका आयामेत्ता" (सूत्र-६८४) कर्णं यावदायत:- आकृष्टः कर्णाऽऽयत: आयतण-न. (आयतन)- आयतन्तऽत्र यत् आधारे ल्युट् / गृहे,' आयतंप्रयत्नवद् यथा भवतीत्येवं कर्णायतः। भ. १श०८ उ) "सव्वओ सहाऽऽययणं" (सूत्र-१७+) आयतनंगृहम् / तं। संस्थानभेदे च / स्था०१ ठा। उत्त०। (तद्ववक्तव्यता 'आयतसंठाण' "आयतणे हाणठवणा य"||१६|| आयतने-भवने / पञ्चा० 8 विका शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव वक्ष्यते) गुणा-श्रये, प्रश्न 1 संक द्वारा 23 सूत्रटीका "इचेयं विमोहाऽऽयतणं" आयत (य) कण्णायय-त्रि. (आयतकर्णायत)- कर्णं यावदायत:- | (सूत्र-२१५४)। विगतमोहानामायतनम् - आश्रयः / आचा० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आययण 327 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयतित्त १श्रु०८१०४उ० / स्थाने, संथा। आचा। निचू। "दस्सुगाऽऽयतणाणि" प्रश्नायतनानि-लौकिकानां परस्परव्यवहारे मिथ्या-शास्त्रगतसंशये वा (सूत्र-१९५४) दस्यूनां चौराणामायत-नानि-स्थानानि। आचा०२ श्रु० प्रश्ने सति यथाऽवस्थितार्थक थनद्वारेणाऽऽयतनानि-निर्णयनानीति। 15.3 अ१ उ० "एयाई आयतणाई" एतानि स्त्र्यादीन्यायतनानि- सूत्र 1, श्रु०९ अ०। उपभोगास्पदभूतानि वर्तन्ते। आचा। देवादिवन्दनस्थाने, वाचा प्रश्न आयतणसेवा-स्त्री. (आयतनसेवा)-आयतनसेवाशब्द: प्रथमेशीलभेदे, 1. आश्र द्वार। "नयरस्स पुव्वेण जक्खस्स आययणं कयं" आ०म०। दर्श। शीलत्वभेदानधिकृत्यनित्यमायतनसेवा, अनायतनपरिहारः। तत्र "भगवतो निव्वाणं गयस्स आययणं काराविय भरहो अवज्जमागओ आयतनं-पञ्चविधाऽऽचाराऽऽचरण- प्रवणा: सुसाधवः। दर्श०३ तत्त्व 24 कालेण य अप्पसोगो जाओ" आ० म०१ अ४३६ गाथाटी। गाथाटी देवकुलपावपिवरकेचा "आयतणाणिवा'' (सूत्र-१४) आयतनानि- (आयतन) प्रतिसेवनाद्वारव्याचिख्यासया संबन्धं प्रति- पादयन्नाहदेवकुलपाॉपवरका:। दशा०१ श्रु०१० अ०आचाo। धार्मिकजनमीलस्थाने, एवं खलु आययणं, निसेवमाणस्स हुज्ज साहुस्स। धरला भावश्रावकस्य शीलवत्स्वरूपं द्वितीयलक्षणं व्याख्यानयन्नाह कंटगपहेव छलणा, रागहोसे समासज्जा७८५|| "आययणं खुनिसेवई''||३७+|| आयतनं-धार्मिकजनमीलनस्थानम्, एवम्-उक्तनन्यायेन आयतनं सेवमानस्याऽपि साधो: भवेत् कण्टकपथ उक्तं च। (ओघनि.)। "जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलवंता बहुस्सुया। इव छलना किमासाद्य? अत आह-रागद्वेषौ समाश्रित्य, साच रागद्वेषण चरित्ताऽऽयारसंपण्णा, आयतणं तं वियाणाहि''||७८३|| खुरवधारणे, सेवा द्विविधा भवति। प्रतिपक्षप्रतिषेधार्थ- ततश्चायतनमेव निषेवते भावश्रावको, न एतदेवाहअनायतनमिति योग:। ध० र०२ अधि०२ लक्षा दर्शक। कर्मोपादानस्थाने, आचा। "इचेयाइं आयतणाई" (सूत्र-६१४)। इत्येतानि पडिसेवणाऽविदुविहा, मूलगुणे चेत्र उत्तरगुणे य। पूर्वोक्तान्यायतनानि कर्मोपादानस्थानानि। आचा०१ श्रु०१ चू.१ अ०११ मूलगुणे छट्ठाणा, उत्तरगुणे इंति तिगमाई ||7eall उ.।"कम्माययणे हिं" (सूत्र-१५+) कर्मणां ज्ञानवरणादीनाम् ओघ / धर। आयतनानि-आदानानि वा; बन्धहेतव इत्यर्थः। अन्त०१ श्रु०६ वर्ग 15 आयत (य) तर त्रि०-(आयततर)- "आयत (य) रे सिया''||१९४।। असा विश्रामस्थाने यज्ञस्थाने च। वाच०। आङभिविधौ आडभिविधौ सामस्त्येन यत् आयत: अयमनयोरतिशयेनायत समस्तपापारम्मेभ्य' आत्मा आयत्यते-आनियम्यते तस्मिन् / आयततरः। यत्नेनाध्यवसिते, आचा.१ श्रु० ८अ 8 उ०। कुशलानुष्ठाने वा यत्नत्वात् क्रियते इत्यायतनम्। ज्ञानादित्रये, आचा०। आयतसंठाण-न. (आयतसंस्थान)- संस्थानभेदे, आयतम्-दीर्घयथा "इक्कायतणयस्स इह विप्पमुक्कस्सणऽस्थि मग्गे विरतस्स" (सूत्र- दण्डस्येति। उत्त०१ अ०३८ गाथाटी। (आयतसंस्थाने कतिसंयोगा: इति 148+) आचा०१ श्रु०५ अ२ऊ। आयतनं-द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च। तत्र 'संजोग' शब्दे उत्त०॥४०॥४|| गाथाभ्यां सप्तमभागे वक्ष्यते) द्रव्यतो-जिनगृहादि, भावतस्तु-ज्ञानदर्शनचारित्रधरा: साध्वादय:। प्रव० तथा च१४८ द्वार 949 गाथाटी०। ओघ एगो पिहुले (सूत्र-४७x)। इदानीमायतनप्रतिपदानायाह पृथुलं-विस्तीर्णम्, अन्यत्र, पुन: इह स्थाने आयतमभि-धीयते, तदेव आययणं पि य दुविहं, दवे भावे य होइनायव्वं। चेह दीर्घहस्वपृथुलशब्दैविभज्योक्तम् आयत-धर्मत्वादेषां, तच्चाऽऽयतं दवम्मि जिणघराई, भावम्मि होइ तिविहं तु।।७८२|| प्रतरघनश्रेणिभेदात् त्रिधा, पुररेकैकं सम-विषम- प्रदेशमिति षोढा, आयतनमपि द्विविधम्-द्रव्यविषये, भावविषये च ज्ञातव्यम्। तत्र द्रव्ये यचायतभेदयोरपि ह्रस्वदीर्घ- योरादावभिधानं तवृत्तादिषु जिनगृहादि, भावे च भवति त्रिविधम्- ज्ञानदर्शन चारित्ररूपमायतनमितिा संस्थानेष्वायतस्य प्रायो वृत्तिदर्श-नार्थम्। तथा हि-दीर्घायत: स्तम्भो वृत्तस्त्र्यसश्चतुरस्रश्चेत्यादिभावनीयम्। विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतरेवमुपन्यास: जत्थ साहम्मिया बहवे, सीलवन्ता बहुस्सुया। इति। स्था०१ ठा० प्रज्ञा०। (भेदादिबहुवक्तव्यता 'संठाण' शब्दे सप्तमे चरित्ताऽऽयारसंपन्ना, आययणं तं वियाणाहि||७८३|| भागे वक्ष्यते) 'जथे' त्यादि, सुगमा। आयतसंठाणपरिणय-त्रि. (आयतसंस्थानपरिणत)- आयतसुंदरजणसंसग्गी, सीलदरिदं पि कुणइ सीलड्ढा संस्थानभाजि, प्रज्ञा।"आयतसंठाणपरिणया" (सूत्र-४+) आयतजह मेरुगिरीजायं, तणं पिकणगत्तमणमुवेइ।१७८४|| संस्थापरिणता दण्डादिवत्। प्रज्ञा०१ पद। सुगमाउक्तमायतनद्वारम्। ओध,। आविष्करणे, निर्णयने च। सूत्र। | आयतित्त-त्रि. (आत्मतृप्त)- आत्मस्वरुपतुष्टे, अष्ट। "आत्मतृप्तो "पसिणाऽऽयतणाणि"||२६+ प्रश्नस्य- आदर्शप्रश्नादे: आयतनम्- मुनिर्भवेत् ||6x|| आत्मतृप्त:- आत्मस्वरूपेऽनन्तगुणात्मकेतृप्त:-तुष्टो आविष्करणं; कथनं यथा विवक्षितप्रश्ननिर्णयनानि। यदिवा भवेत्। अष्ट. 13 अष्ट। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयत्त 328 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरणकप्प आयत्त-त्रिका (आयत्त) आ यत क्त। अधीने, वशीभूते, वाचला आयत्तो वशवर्ती तदुक्तानुयायीति। दर्श.४ तत्त्व 80 गाथाटीला कृतप्रयत्नेचा वाच०। *आयस्त-त्रिका आ-यस्-क्त क्षिप्ते, "आयस्तसिंहाकृति-रुत्पपात" किराना क्लेशिते, प्रतिहते, तीक्ष्णीकृते आयासयुक्ते चा वाचा आयपइट्ठिय-त्रि. (आत्मप्रतिष्ठित)- स्वरूपप्रतिष्ठिते,'आयपइडिया' (सूत्र-१८६४) स्था०३ठा० ३उ / क्रोधभेदे,स्था०२ ठा०४ उ०१०० सूत्रटी० (व्याख्या 'कोह' शब्दे तृतीयभागे करिष्यते) आयपण्ण-त्रि. (आगतप्रज्ञ)- आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः। संजातकर्तव्याऽकर्त्तव्यविवेके, सूत्र "समितीसु गुत्तीसु य आयपण्णे ||5+II सूत्र.१ श्रु 14 अा आयमग्ग-पुं. (आयतमार्ग)- मोक्षमार्गे, आयतो-मोक्षोऽव्यव-च्छेदात्तस्य मार्गा-ज्ञानादिः। पञ्चा० 11 विव० 42 गाथाटी। आयमण-न. (आचमन)- आ चम्। भावे ल्युट्। निर्लेपने, "आयमणत्थं वाऽवि वोसिरइ''॥२६४४|| आचमनम्- निर्लेपनम्। बृ० 1 उ.३ प्रक०। आयमणं-णिल्लेवणं। नि, चू.४ ऊ 307 गाथाचूर्णिः। पुरीषोत्सर्गानन्तरं शौचकरणे चा 'आय-मणभाणधुवणं ||234 // पिं०। "तिहिं आयमणं अदूरम्मि''। ओघ. 317 गाथा ध०३ अधि० 4 श्लोका (उच्चारप्रस्रवणे कृत्वा योन परिष्ठापयति तस्य प्रायश्चित्तं'थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे 2381 पृष्ठे वक्ष्यते) आयममाण-त्रि। (आचमत्)- आचमनं कुति, स्था०५ ठा०२ उ० 414 सूत्र। आयमिणी-स्त्री०। (आयमिनी)- विद्याभेदे, सूत्रका 'आयमिणी एवमाइआओ विज्जाओ अन्नस्स हेउं पउंजंति" (सूत्र-३०+) सूत्र०२ श्रु०२ उ० आयम्ब-धा० (टुवेपृ)- कम्पने "वेपेरायम्बाऽऽयज्झौ" TARI इति हैमप्राकृतसूत्रेण वेपेरायम्बाऽऽदेश:। आयम्बइ। आयज्झइ। वेवइ। प्रा० आयरंत-त्रि। (आचरत्) अङ्गीकुर्वति, उत्तला "तमायरंतो ववहारं // 42+7 / उत्त. 1 अ। कुर्वति, उत्त. पाई 1, अ० 42 गाथाटी०। विदधति चा उत्त" नायरेज्ज कयाइ वि''||२|| नाचरेत्-नाभिदध्यात् (उत्त१ अ) न समाचरेत् न विदध्यादिति संबन्धः। सूत्र०२ श्रु०५०। आयक्ख-पुं। (आत्मरक्ष)-आत्मरक्षके स्थान। सूत्रम्तओ आयरक्खा पन्नत्ता। तं जहा-धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवइ, तुसिणीतो वा सिया, उहित्तु वा आयाए एगंतमन्तमवक्कमेज्जा ! (सूत्र-१७२४) 'तओ आय' इत्यादि, सुगमा, नवरम् आत्मानं रागद्वेषा- | देरकृत्याद्भवकूपाद्वा रक्षन्तीत्यात्मरक्षा:। 'धम्मियाए पडिचो- यणाए' त्तिधार्मिकोपदेशेन-नेदम् भवादृशां विधातुमुचित- मित्यादिना प्रेरयिता-उपदेष्टाभवति, अनुकूलेतरोपसर्गकारिणः, ततोऽसावुपसर्गकरणान्निवर्तते ततोऽकृत्या सेवा न भवतीत्यत आत्मा रक्षितो भवतीति 1, तूष्णीको वा वाचंयमः; उपेक्षक इत्यर्थ: 2, 'स्यादिति' प्रेरणाया अविषये उपेक्षणासामर्थ्य च तत: स्थानादुत्थाय, 'आय' त्ति-आत्मना एकान्तं-विजनम् 'अंत' भूमिभागमवक्रामेत्-गच्छेत। स्था०३ ठा०३ उ०। आयरक्खिय-त्रि. (आत्मरक्षित)-आत्मो रक्षितो दुर्गतिहेतो- रपध्यानादेरनेनेति आत्मरक्षित: "आहिताग्न्यादिषु // 31 // 153|| दर्शनात् क्तान्तस्य परनिपातः। दुर्गतिहेतोरात्मध्याना- देरात्मनो रक्षके उत्त० पाई.२ अ 15 गाथटी० *आयरक्षित-त्रि०ा आयो वा-ज्ञानादिलाभो रक्षितोऽनेनेत्यायरक्षितः। ज्ञानादिलाभस्य रक्षके, उत्तला "विरओ आयरक्खिए''|१५४॥ उत्त० पाई.२ अ. आयरण-न. (आचरण) अनुष्ठाने, स्था०ा आचरणमाचार:। स्था०८ ठा०। विधाने सूत्रका अस्सिं धम्मे अणायारं, नाऽऽयरेज्ज कराइ विशा अस्मिन्धर्मे-सर्वज्ञप्रणीते व्यवस्थित:सन्ननाचारम्- सावद्यानुष्ठानरूपं न समाचरेत् -नविदध्यादा सूत्र०२ श्रु.५अ। केनचित्प्रकारेण परिणमने, दशा "दव्वाऽऽयारं वियाणाहि"||१८०। आचरणम्-आचारो द्रव्यस्या चारो द्रव्याचारः। द्रव्यस्य यदाचरणम् तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः। दश. 3 अ०। परप्रतारणाय विविध-क्रियाणामाचरणरूपे मायाविशेषे चा भ०१२श०५ऊ४४९ सूत्र टी। आचरत्यनेन करण ल्युट्। रथे, शकटे च। त्रि। वाच! *आदरण-ना मायाविशेषात्कस्यापि वस्तुनोऽभ्युपगमे, भ०१२ श०५ उ०४४९ सूत्रटी आयरणकप्प-पुं। (आचरणकल्प)-उत्सर्गाऽपवादयोः स्वस्थानेसेवनाकर्तव्यतायाम्, निचू। इदाणी इमो आयरणकप्पो 'जे भणित्ता गाहा''जे भणित्ता उपकप्पे, पुव्वाऽवरवाहता भवे सुत्ता। सो तहसमायरंतो, सव्वो आयरणकप्पो उ / / 386 / / जे पकप्पे एगणवीसतिउद्देसमेंहिं पुव्वावरबाहया सुत्ता अत्था वा भणिता तहेव समायारंतस्स आयरणकप्पो भवति। एत्थ पुथ्वो उस्सग्गो, अवरोऽवादो। एतं परोप्परवाहता एतेसिं सट्ठाणे सेवणा कर्तव्येत्यर्थः। गाहाउस्सग्गे अववायं, आयरमाणो विराहओ हो त्ति। अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेक्ओ भइओ / / 307 / / दारं कया भयणाए कहं उच्यते। जो धितिसंघयण संपन्नो सो अववादट्ठाणे पत्ते पि उस्सग्गं करेंतो सुद्धो जो पुण घितिसंघयणहीणो अववादट्ठाणे उस्सगं करेति सो विराहणं पावति। एसा भयणा! गतो आयरणकप्पो। नि. चू. 20 जा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरणया 329 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय आयरणया- स्त्री॰ [आद(च)रणता] यतो मायाविशेषादादरणम्अभ्युपगमं कस्यापि वस्तुन: करोत्यसावा-दरणम् , ताप्रत्ययस्य च | स्वार्थिकत्वादादरणता। मायाविशेषे, आचरणताऽप्यौत। भ० 120 श०५ उ. 449 सूत्र टी। आयरिय-पुं(आचारिक)- स्वकीयमतोद्भवानुष्ठानसमूहे, उत्त। इह मेगे इह (उ) मन्नंति, अपचक्खाय पावर्ग। आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ ||9|| इह-अस्मिन्संसारे एके-केचित्कापिलिकादयो ज्ञानवादिनः इति मन्यन्ते, इतीति किम् ? पापकम् -हिंसादिकम् अप्र-त्याख्याय पापम्अनालोच्याऽपि मनुष्य आचारिकं स्वकीय- मतोद्भवानुष्ठानसमूह विदित्वा- ज्ञात्वा सर्वदुःखात् विमुच्यते, एतावता तत्त्वज्ञानान्मोक्षावाप्ति:" इति वदन्ति / जैनानां तु ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, ज्ञानवादिनां तु ज्ञानमेव मुक्त्यङ्गम्। उत्त०६ अा (एतन्मतनिराकरणं 'मोक्ख' शब्दे षष्ठे भागे करिष्यते) *आचरित-न आ-चर भावे क्त:। आचरणे, उत्ता आचरण- माचरितम्। तत्तक्रियाकलाप:। उत्त०६ अ०९ गाथाटी। आसेवने, औ०४० सूत्र टी० / 'अवज्झाणायरिअं" (सूत्र-६+) आचरित:- आसेवितः। उपा० १श्रु०१ अ. "जं किंचि वितहमायरियं''।६८२४|| यत्किंचिद्वितथम् अन्यथा आचरितम-आसेवितं भूतमिति वाक्यशेष: आ०म०१ अ! अनुष्ठानमापन्ने "ज किंचि वितहमायरियं"|१४|| वितथम् - अन्यथाभूतं, संयमानुत्कलमित्यर्थः, आचरितम्- अनुष्ठानमापन्नमिति शेष:। पञ्चा. 12 विवः। धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहाऽऽयरियं सया। तमायरंतो ववहारं, गरहं नाऽभिगच्छइ / / 4 / / धर्मेण-क्षान्त्यादिरूपेणार्जितम्- उपार्जितं धार्जितं, न हि क्षान्त्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति, च: पूरणे, विविधं विधिवद्वा व्यवहरणमनेकार्थत्वात् आचरणं व्यवहारः 'तम्' इति- कर्तव्यतारूपं बुद्धः- अवगततत्त्वैराचरितं सदासर्वकालं, तमिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव आचरन्-व्यवहरन्, यद्वा-यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्सुप्व्यत्ययाच धर्मार्जितो बुद्धराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन् कुर्धन् विशेषेणापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तम्, व्यवहारविशेषणमेतत, एवं च किमित्याह- गहमिविनीतोऽयमित्येवंविधां निन्दा नाऽभिगच्छति न प्राप्नोति यतिरिति गम्यते। उत्त०१ अ०। आचर्यते स्म बृहत्पुरुषैरप्याचरितमा व्यवहारे, व्यवहारैकार्थिकान्यधिकृत्य (आह भाष्यकार:)"आयरिए चेव ववहारे ||7+| व्य.१ उ। *आचर्य-त्रिका आचर्यतेऽत्र आ-चर-आधारे यत्। अनुष्ठानयोग्ये देशे, वाचा *आचार्य-पुंo आचर्यते असावाचार्य : सूत्रार्थावगमार्थ ममुक्षुभिरासेव्यते इत्यर्थः। आव 4 अ० 47 गाथा टी० धा दशा०। १-'आयरियं' ति-सूत्रत्वात् / उत्त० पाई०६अ। 'आयरियाणं' (सूत्र-१४) आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्तेसेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकाङ्क्षिभि-रित्याचार्याः। उत्तंच'सुत्तत्थविऊ लक्खण-जुत्तो गच्छस्स मेढिभूओय! गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ" |||| इति। अथवा-आचारो-ज्ञानाचारादि: पञ्चधा, आ-मर्यादया वाऽऽचारो विहार: आचारस्तत्र साधवः स्वयंकरणात्प्रभाषणात्प्र- दशनश्चेित्याचार्याः। आह च-" पंचविहं आयारं आयरमाणा तहापयासंता। आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुचंति (994) / " (आव. नि.) अथवा-आईषद्; अपरिपूर्णा इत्यर्थ: चारा: हेरिका ये ते आचाराः; चारकल्पा इत्यर्थः, युक्ताऽयुक्तवि- भागानिरूपणनिपुणा विनेया अतस्तेषु साधवो यथावच्छस्त्रा-र्थोपदेशकतयेत्याचााः / भ०१ श०१ऊा दशा। 'घर' गति-भक्षणयोः, आयूर्वः। आचर्यते कार्यार्थिभिः सेव्यते इत्याचार्य:। "ऋवर्णव्यञ्जनात् ध्यण'११।१७।। इति ध्यण। आ. म.१ अ. 993 गाथा। आड् मर्यादाभिविध्योः, चरिर्गत्यर्थ; मर्यादया चरन्तीत्याचा~। आचारेण वा चरन्तीत्याचार्याः। आ.चू. १अ. 993 गाथाचूर्णिः। अट्ठारससीलंगसहस्साहिहियं तणूछत्तीसइविहमायारंजहट्ठियं में गिलाए महत्ति साणुसमयं आयरंतित्तिवत्तयंतित्ति आयरिया। परमप्पणो यहियमायरंति आयरिया। सवसत्तसीगसगणाणं च हियमायरंति आयरिया। पाणपरिचाए विउ पुढवादीणं समारंभ नाऽऽयरंति, नारभंति, णाणुजाणंति, आयरिया। सुहुमावरद्धेवि ण कस्सइमणसाऽवि पावमायरंति त्ति वा आयरिया। महा.३अ / "स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्"||२|१०वा इति हैमप्राकृतसूत्रेण चौर्यशब्देन समेषु शब्देषु संयुक्तस्य यात्पूर्वइता प्रा!"आचार्ये चोऽच 8973 / / इति हैमप्राकृतसू-त्रेणाचार्य्यशब्दे चस्याऽऽत इत्त्वमत्त्वं च। प्रा० / गुरौ० पं. 2013 गाथाटी०। पञ्चस्थविराणां मध्ये प्रथमे स्थविरे, ध०३ अधि० 54 श्लोका आचार्या:-अर्थदातारः। बृ.१ उ०३ प्रक० 639 गाथटी। आचार्यम्सूत्रार्थदाता, दिगाचार्यो वा कल्प, 3 अधि९क्षण 46 सूत्र टी। आचार्य्यस्सूत्रार्थोभयवेत्ता लक्षणादियुक्तश्चा आव०३ अ 1995 गाथाटी। विषयाः(१) निक्षेप आचार्यपदस्य। (2) भेदा:-कलाचार्य: 1, शिल्पाचार्य:२, धर्माचार्यश्चेति 3, तेषां विनय:। (3) स्वरूपमाचार्य्यस्येह परत्र च। प्रव्राजनाचार्या उपस्थापनाचार्याश्च / स्वरूपमाचार्य्यस्य 'सुत्तत्थ' इत्यादि। (6) लक्षणमाचार्य्यस्य। गुणा आचार्य्यस्य यै रहितो गुरुर्न भवति। (8) गुणा आचार्य्यस्य 'अपरिश्रावी' त्यादि। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 330 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय (9) भ्रष्टाचारत्वं दुर्गुणस्सूरेः। (10) पराऽहितकारित्वं दुर्गुणः / (11) सूरे: स दुर्गुणो येन कुगुरुर्भवति। (12) प्रमादिनमाचार्य्य शिष्यो बोधयति। (13) वैरी शिष्यस्य गुरुः। (14) विनय आचार्य्यस्य। (15) गुरुविनये वैद्यदृष्टान्तः / (16) नमस्कार आचार्य्यस्य। (17) वैयावृत्त्यं गुरोः। (18) गच्छाधिपति: केन कर्मविपाकेन भवति। (19) अतिशया आचार्य्यस्य। (20) निर्ग्रन्थीनामाचार्य: / (21) आचार्य कालगते आचार्यान्तरस्थापनम्। (22) आचार्येऽवधाविते आचार्यान्तरस्थापनम्। (23) लक्षणं "सुत्तत्थे णिम्माओ" इत्यादि। (24) एकपाक्षिकादेर्दिगाचार्यः / (25) लक्षण मेढीभूतः। (26) परीक्षा आचार्यस्य। (27) उद्देश: मैथुनादिप्रतिसेव्याचार्य्यत्वेन। (28) स्थापनाविधिराचार्यपदे गुरोः / (29) परिच्छदसहितस्यैवाचार्य्यत्वम्। (30) स्थापनायां स्थविरा: प्रष्टव्याः / (1) निक्षेप आचार्यपदस्यआङ्मर्यादाऽभिविध्यो: चरिर्गत्यर्थः, मर्यादया चरन्ती- त्याचार्याः। आचारेण वा चरन्तीत्याचार्या:।"ते चउव्विहा- णामट्ठवणाओ गताओ। द्रव्यभूतो वा द्रव्यनिमित्तं वा द्रव्यमेव वा दव्वं आयारवंतं भवति, अनायारवंतं च नाम तं प्रति, तिण्णि सिलया एरंडो य, धावणं प्रति, हारिद्दा रागो य वासणं प्रति, कवेल्लुगा वइरं व सिक्खवेणं प्रति, मदणसलागा भासादीप- करणं प्रति, सुवर्णे घंटा लोहं च अविरोधं प्रति, कीरं सकराय विरोधं प्रति, तेल्लंदाणेधिरार्च एगमादि एत्थ गाधा"णामण- धावण-वासण-सिक्खावण सुवण्णण अविरोधीणि। दव्याणि जाणि लोए, दव्वायारं वियाणाहि। अहवादव्यायरिओ तिविहो एगभविओ, वद्धाउओ, अभिमुहणामगोत्तो। एगभविओ वतिरित्ते जो एगेणं भवेणं उववज्जिहि त्तिा वद्धाउओ जेण आउयं बद्ध। अभिमुहणामगोत्तो जेण पदेसा उच्छूढो। अहवा-मूलगुणणि- व्वत्तित्तो, उत्तरगुणणिव्वत्तितो या सरीरं मूलगुणा, विऊकम्मादि उत्तरगुणा। अहवा-जाणओ, भविओ, वतिरित्तो, मंगुवायगाणं समुद्दवायगाणं नागहत्थिवायगाणं जधासखं आदेसो। आ चू.१ अ।"दव्वाआयरियो सयाऽभव्वो' ||13+ / / द्रव्याचार्य: आचार्यत्वयोग्यताया अभावादप्रधानाऽऽचार्य:। पञ्चा०६ विव०। भावायरिओ दुविहो-आगमतो, णोआगमतो या तहेव / णोआगमतो दुविहो-लोइओ, लोउत्तरिओ या लोइत्तो-सिप्पाणि चित्तकम्मादिसत्थाणि वइसेसियादिजो उपदिसति उत्तरिओ-जो पंचविधं णाणादियं आयारं आयरति; प्रभासति य अण्णेसिं आयरियाणं आचरितव्यानि दर्शयति। एवं मन्तव्य। एवमादि तेण ते भावायरिया तेसिं फलं तहेवा आ.चू.२ अ॥ नाम ठवणा दविए, भावे चउव्विहो य आयरिओ। दव्वंमि एगभवियाइ, लोइए सिप्सत्थाई||३०|| आचार्य इति कः शब्दार्थ उच्यते-'चरणतिभक्षणयोः इत्यस्य (चरे:) आडि वागुरा (पा.३-१-१०० वार्त्तिक) वितिण्यति आचार्य इति भवति, आचर्यतेऽसावित्याचार्यः, कार्यार्थिभिः सेव्यत इत्यर्थः। अयं च नामादिभेदाचतुर्विधः। आव०१ऊ। इह नामस्यापने सुगमे। विशे०। ___ द्रव्यविचारे पुनराहआगमदव्वायरिओ, आयारवियाणओ अणुवउत्तो। नो आगमओ जाणय-भव्वसरीराइरित्तोऽयं / / 3191|| भविओ बुद्धाऊ, अभि-मुहो मूलाइनिम्मिओ वाऽवि। अहवा दव्वब्भूओ, दव्वनिमित्तायरणओ वा / / 319|| झशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्वाचार्योऽयं कः इत्याह- 'भविओ' इत्यादि, एकभविको, बद्धायुष्क, अभिमुखनामगोत्र-श्वेत्यर्थः, 'मूलाइनिम्मिओ वाऽवि' त्ति-तथा मूलगुणनिर्मित:, उत्तरगुणनिर्मितश्च तद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचार्यो मन्तव्यः। तत्र मूलगुणनिर्मित आचार्यशरीर निवर्त्तनयोग्यानि द्रव्याणि उत्तर-गुणनिर्मितस्तु तान्येव तदाकारपरिणतानीति। अथवा- द्रव्य- भूतोऽप्रधान आचार्य्यस्त-द्रव्यतिरिक्तो द्रव्याचार्य : प्रतिपाद्यते। यो वा द्रव्यनिमित्तेनाचरति चेष्टते स द्रव्यनिमित्ताचरणाद् द्रव्याचार्यः, स च लौकिको, लौकिकमार्गे शिल्पशास्त्रादिविज्ञेयः। य: शिल्पानि निमित्तादिशास्त्राणि च ग्राहयति स इहोपचारत: शिल्पशास्त्रादिरुक्त: अन्ये विमं शिल्पशास्त्राचार्य लौकिक भावाचायं व्याचक्षते। शेषं सुगममिति। 'पंचविहमि' त्यादिनालोकोत्तरो भावाऽऽचार्य उक्तः। तत्स्वरूपव्याख्यानार्थमाहआ मज्जायावयणो, चरणं चारो त्ति तीए आयारो। सो होइनाणदंसण-चरित्ततवविरियवियप्पो ||3193 / / तस्सायरणपभासण-देसणओ देसियाविमोक्खत्थं। जे ते भावाऽऽयरिया, भावायारोवउत्ता य / / 3194 / / अहवाऽऽयरंतिजं सय-मायारेति व जमायरिज्जंति। मज्जाययाऽभिगम्म-ति जमुत्तं तेणमायरिया ||3195 / / पाठसिद्धा एवं नवरं 'तीए' त्ति-तया-मर्यादया चरणमाचारः। तस्से' त्यादि, तस्य-पञ्चविधस्याचारस्य स्वयमाचरणतः परेषा च प्रभाषणत: तथा विनेयानां वस्तुप्रत्युपेक्षणा-दिक्रियाविधेर्दर्शनतो ये परात्मनो मोक्षार्थं 'देसिय' त्ति- देशितारस्ते भावाचारोपयुक्तत्वादावाचार्या इति। अथवा-स्वयं यस्मादाचरन्ति सदनुष्ठानम्, आचरयन्ति चान्यैः। अथवा- आचर्यन्ते-मर्यादया अभिगम्यन्ते यतो मुमुक्षुभिरिति यदुक्तमेतत्तात्पर्यमित्यर्थः तेनाऽऽचार्याः / विशे। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 331 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय कस्याऽऽचार्यस्याऽऽज्ञा नाऽतिक्रमणीयेत्यधिकृत्य कलायरियस्स, सिप्पायरिअस्स उबलेवणं वा समंज्जणं वा गोयमा! चउट्विहा आयरिया भवंति, तं जहानामा- ऽऽयरिया करेज्जा, पुप्फाणि वा आणावेज्जा, मंडवेज्जावा, भोयवेज्जा 1, ठवणायरिया२, दव्वायरिया३,भावायरिया हा तत्थ णं जे ते वा, विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलएज्जा, पुत्ताणं पुत्तियं वावि भावायरिया ते तित्थयरसमा चेव दट्ठव्वा, तेसिं संतियाणं विकप्पेज्जा। जत्थेव धम्माऽऽयरियं पासेज्जा तत्थेव वंदिज्जा णाइक्कमेज्जा, से भयवं ! कयरे णं ते भावायरिया भन्नति, णमंसेज्जा सक्कारेज्जा सम्माणेज्जा कल्लाणं मंगलं चेव गोयमा ! जे अज्जपव्वइए वि आगम-विहीए एवं पए पए पज्जुवासेज्जा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं आणाणुसंवरंति ते भावायरिया। जओ णं वाससयदिक्खिए वि पडिलाभेज्जा पाडिहारिएणं पीठफलगसेज्जासंथारतेणं हुत्ताणं वायामेत्तेणं पि आगमओ वाहिं करेंति ते णामठवणाहिं उवनिमंतिज्जा। (सूत्र-+) राा णिओइयव्वे। से भयवं! आयरियाणं केवइयं पायच्छितं भवेज्जा। __ आचार्य्यस्विविधस्तद्यथाजेसिं गच्छस्स साहू णो तं आयरियमयहरपवित्तिणीए य सीहाऽणुगवसम-कोट्ठगाणूगे ||400 / सत्तरसगुणं अहाणं सीलखलिए भवंति। तओ तिलक्खगुणं जं सिंहाऽनुगो 1, वृषभाऽनुग: 2, क्रोष्टुकाऽनुगश्च 3 / क्रोष्टुक:-शृगालः। यत्र अइदुक्करणासंजं सुकरं तम्हा सव्वहा सव्वपयारेहि णं यो महत्यां निषद्यायां स्थित: सन् सूत्रमर्थं वा वाचयति तिष्ठति वा स आयरियमयहरे पवित्तिणिए य अत्ताण पायच्छित्तस्स संक्खेयव्वं सिंहानुगः। य: पुनरेकस्मिन् कल्पे स्थितस्सन् वाचयति तिष्ठात वा स अखिलअसीलेहिं च भवियवं। महा. 5 अ०। वृषभानुग:। यस्तुरजोहरणनिषद्यायामौपग्रहिकपादप्रोञ्छने वा स्थितो (2) आचार्यस्य भेदा: वाचयति तिष्ठति वास कोष्ठकानुग: इति 4aa व्य. 1 उला नि चू०२० ऊ 343 तओ आयरिया पण्णत्ता / सिप्पायरिया 1, कलायरिया 2, गाथा। (कस्याचार्यस्य क: आचार्य आलोचनां दद्यात् इत्याधम्मायरियाशजे ते धम्मायरिया, परलोगहियहाए निज्जरवाए, दिबहुवक्तव्यता'आलोयणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽग्रे वक्ष्यते) आराहेयव्वा / अण्णे कलायरिया, सिप्पायरियाए, कइएहि, (3) स्वरूपमाचार्यस्येह परत्र चकित्तबुद्धिए, आराहियट्वे / तत्थेगे धम्मायरिया, सोवायकरंडसमा / वृद्धाइकथत्थप्पयगाहाइहिं जे सुद्धसभाए आयरिओ केरिसओ, इहलोए केरिसो व परलोए। वक्खाणिति ते सोवागकरंडसमा। वेसाकरंडसमा- जो रीरी इहलोए असारणिओ, परलोए फुडं भणंतो / / 381|| आहारणसरिसजीहा- वक्खाणडंबरेण अंतरं सुअसारविर- य एष उपग्रहकृदाचार्य्यस्तमेव ज्ञातुमिच्छामि कीदृश: खल्वाचार्य हियाऽवि सुद्धसभाए जणं विमोहिंति रविंति अप्पाणं थुतंसि इहलोकेहितकारी, कीदृश: परलोकेइति, सूरिराह-चतुर्विधस्सामान्येआलुच अत्थेणे पार्डिति गोयमगणहराणं उवमाए ते नाऽऽचार्यः तद्यथा-इह लोके हितो नामैको न परलोक हितः१। वेसारकरंडसमा। गाहावइकरंडसमा-जे संमंसमुवसियसगुरु- परलोकहितो,नेह लोकहित:। इह लोकेहितोऽपि; परलोकेहितोऽपि 3 / हिंतो संपत्तं अंगोवंगाइंसुत्तत्थेसुपरिच्छियच्छेयगंथा ससमय- न इह लोकहितो; नापि परलोकहितः / तत्र प्रथमद्वितीयभङ्ग ___ व्याख्यानमाह- 'इहलोए' इत्यादि, तत्र यो वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं विहीए अणुओगं करिति ते गाहावइ- करंड समा। समस्तमपि साधूनां पूरयति;न पुन: संयमे सीदतस्सारयति स:रायकरंडसमा-जे गणहरा चउदसपुटिवणो वा घडाओ घडसयं, असारणिकः; सारणारहित इह लोकेन परलोके एषा प्रथमभङ्गभावना। पडाओ पडसयं, इचाई विहाई सयसमाणिया ते रायकरंडसमा। यः पुस्संयमयोगेषु प्रमाद्यतां सारणां करोतिनच वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं गाहावइकरंडसमाणे, रायकरंडसमाणे, दोवि आयरिए प्रयच्छति, स केवलं स्फुटं भणन् कुर्वाण: परलोकेहितो, नेह लोकेइति तित्थयरसमाणे। अंग सामर्थ्याद्गम्यते, एषा द्वितीयभङ्गभावना। तृतीयचतुर्थभङ्गभावना तु (आचार्यस्य यथोचितसत्कार:) स्वयं भावनीया / सा चैवम् यो। वस्त्रपात्रभक्तपानादिकं समस्तमपि केसीकुमारसमणे पदेसिं रायं एव वयासी-जाणासि णं तुम्हें साधूनां पूरयति संयमयोगेषुचसीदतस्सारयति स इहलोकेहित: परलोके पएसी केवइयाऽऽयरिया पण्णत्ता ? हंता ! जाणामि, तओ च हित: चतुर्थ: उभयरहितः / अत्र पर आहननु यो भद्रस्वभावतया न आयरिया पण्णत्ता। तं जहा कलायरिए 1, सिप्पायरिए 2, सारयति वस्त्रपात्रभक्तादिकं तु समस्तमापूरयति स एव समीचीन: य: धम्मायरिए जाणासिणं तुम्ह पएसीतेसिंतिण्हं आयरियाणं पुन: खरपुरुषं कुर्वाण:- चण्डरुद्राचार्य इव सारयति स न समीचीन, कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियवा? हंता जाणामि- असमाध्युत्पादकत्वात्। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 332 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय प्रव्राजना। किमुक्तं भवति-आत्मनिमित्ते, परनिमित्ते वा य: केवलं प्रव्राजयति स प्रथम: प्रव्रजनाचार्यः। एवमेव- अनेनैव प्रकारेण द्वितीयः स केवलं मात्रम् उपस्थापयति; य: प्रव्राजितस्य सदुपस्थापनामात्र करोतिस द्वितीय इत्यर्थः। तृतीयः पुनरपिप्रव्राजनमुपस्थापनं वाऽऽत्मार्थं परार्थ वा करोति, य: पुनर्नोभ-यकारी स चतुर्थः। अय स कस्माद्भवत्याचार्य: उभयविकल- त्वात्सू रिराह-भण्यते स धर्माचार्यो धर्मदेशकत्वात् स पुनगृही श्रमणो वा वेदितव्य:! एवं च यत्राऽऽचार्या: तथा चाह-- धम्मायरिपव्वायण, तह य उट्ठावणा गुरू तइओ। को इतिहिं संपन्नो, दोहिँ वि एक्के क्कएणं वा ||4|| प्रथमो धर्माचार्यो यस्तत्प्रथमतया धर्मं ग्राहयति / द्वितीयः प्रव्राजनाचार्यो य: प्रव्राजयतिशतृतीयो गुरुरूरुप-स्थापनाचार्यो यो महाद्रतेषूपस्थापयति / तत्र कश्चित्रिभिरपि संपन्नो भवति। तथाहिकदाचित्सएव धर्म ग्राहयति स एव प्रव्राजयति स एवोपस्थापयति कश्चिद द्वाभ्याम्, तद्यथा-धर्मग्राहकत्वेन प्रव्राजनेन च, अथवा धर्मग्राहकत्वेनोपस्थाप- नेन के नचिदेकै के न गुणेन तद्यथा। कश्चिद् धर्ममेव ग्राहयति / कश्चित्प्रव्राजयत्येव कश्चिदुपस्थापयत्येव। सूत्रम तत्राऽऽहजीहाएमिलिहंतो, न भवतो जत्थ सारणानऽत्थि। दंडेणऽवि तातो, स भद्दतो सारणा जत्थ / / 382|| यत्रनाम संयमयोगेषु सीदतां सारणा नाऽस्तिसआचार्यो जिह्वयाऽभिलिहन्- मधुरवचोभिरानन्दयन्, उपलक्षणमेतत्- वस्त्रपात्रादिकंच पूरयन् न भद्रको- न समीचीन: परलोका- ऽपायेषु पातनात्। यत्र पुनस्सीदतां साधूनां सम्यक् सारणा- संयमयोगेषु प्रवर्तना समस्ति स आचार्यो दण्डेनापि ताडयन् भद्रक:-एकान्तसमीचीन: सकलसांसारिकाऽपायेभ्यः परित्राणक- रणात्। अथ सारणमकुर्वाणो जिह्वया विलिहन्कस्मान्न समीचीन इत्यत्राऽऽहजह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं नरो कुणइ। एवं सारणियाणं, आयरितो असारओ गच्छे / / 383 / / यथा कोऽपि नर एकान्तेनाऽहितकारी शरणमुपागतानां जीवितव्यपरोपणं करोति एवं साधूनामपि शरणमुपागतानां संयमयोगेषु प्रमादव्यावर्तनेन प्रवर्तनीयानामाचार्योऽसारको गच्छे भावनीयः। सोऽपि शरणोपगतशिरोनिकर्त्तक इव एकान्तेनाऽहितकारीति भावः। शरणमुपगतानां संसारापारपारावारे निरनुकम्पं प्रक्षेपणात्, सच तादृश इह परलोकहितार्थिना परित्याज्यः। यस्तु खरपरुषभणनेनापि संयमयोगेषु सीदत: सारयति स संसारनिस्तार कत्यादेकान्तेनाऽऽश्रयणीयः। व्य. 1 ॐा नि० चू। (4) प्रव्राजनाचार्या:, उपस्थापनाचार्याश्च सूत्रम्चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-पव्वायणायरिए एगे नामं; नो उवट्ठावण आयरिए / उवट्ठावणायरिए नाम एगे; नो पव्वावणायरिएशएगे पटवावणायरिएऽवि; उवठावणायरिएवि। एगे नो पव्वायणायरिए; नोउवठायणायरिए धम्मायरिए ||शा ___ अस्य (सूत्रस्य) संबन्धमाहअददाऽपियधम्माणं तटिववरीए करेंति आयरिए। तेसि विहाणंमि इम, कमेण सुत्तं समुद्दिष्टुं तु // 37 / / अहढधर्माणामप्रियधर्माणां चानुशासनाय स्थविराधाचार्या:। व्याख्यानार्थमाहपव्वावण उट्ठावण, उभय नोभयमिति चउत्थो। अत्तऽट्ठपरऽट्ठावा, पव्वावणा केवला पढमे / / 38 / / एवमेव य बितितो वि, केवलमत्तं उवट्ठवे सो उ। तइओ पुण उभयं पि, अत्तऽट्ठपरऽह वा कुणउ // 39 / / जो पुण नोभयकारी, सो कम्हा भवति आयरिगो उ। भण्णति धम्माऽऽयरितो, सो पुण गहितो व समणो वा 18011 प्रथमे-प्रवाजनाऽऽचार्यः। द्वितीये-द्वितीयभङ्गेन सूचितउपास्थापनाचार्यः। तृतीयभङ्गसूचित उभयः। प्रव्राजनोपस्थापनाचार्य:। तत्र प्रथमः-प्रथमस्यात्मार्थस्य परार्थस्य केवला! | चत्तारि आयरिया पन्नत्ता। तं जहा- उद्देसणाऽऽरिए एगे णाम: एगे नो वायणायरिए, वायणायरिए एगे णांम; एगे णो उद्देसणायरिए२, एगे उद्देसणायरिए वि; वायणायरिए वि३, एगे नो उद्देसणायरिए, नो वायणायरिए||१३|| अमीषां स्वरूपमाहएगो उहिसइ सुयं, एगो वाएइतेण उद्दिडं। उद्दिसई वाएइय,धम्माऽऽयरिओ चउत्थोय॥४२|| एक:-प्रथम: श्रुतमुदिशति न वाचयति यथा मङ्गलबुद्ध्या प्रथमत आचार्य उद्दिशति तत उपाध्यायः। अत्राचार्य: प्रथम- भगवर्तीउपाध्यायो द्वितीयभङ्गे, तथा चाहएको द्वितीय उपा- ध्यायस्तेनाऽऽचार्येणोद्दिष्टं वाचयति य एवोद्विशति स एव वाचयति एष तृतीयः उभयविकलश्चतुर्थो धर्माचार्यः। व्य, 10 उ०। आचार्यते-सेव्यते वा आचार्य: स च पञ्चधा-प्रव्राजकाचार्य: 1, सचित्ताचित्तमिश्रानुज्ञायी दिगाचार्यः२, प्रथमतएव श्रुतमुद्दिशतिय: सउद्देशाचार्य: 3, उद्देष्टगुर्वभावे तदेवं श्रुतं संमुद्दिशत्यनुजानीते वा य: स समुद्देशानुज्ञाचार्यः 4, आम्नायम्-उत्सर्गा-पवादलक्षणमर्थ वक्ति यः स प्रवचनार्थकथनेनानुग्राहकोऽक्षनिषद्यानुज्ञायी आम्नायार्थवाचकाचार्य:/ध०३ अधिक 116 श्लोक। (4)स्वरूपमाचार्य्यस्या कीदृश आचार्य्यस्तस्वरूपमाहसुत्तत्थतदुभएहिं, उवउत्ताणाणदंसणचरित्ते। गणतत्तिविप्पमुका, एरिसथा हुँति आयरिया॥३२५।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 333 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय ये सूत्रार्थतदुभयोपेता इति गम्यते। तथा सततंज्ञानदर्शन चारित्रेसमाहारो द्वन्द्वः। ज्ञानदर्शनचारित्रेषु उपयुक्ताः कृतोपयोगा:। तथा गणस्य गच्छस्य या तप्तिस्सारा* तया विप्रमुक्ताः। गणावच्छेद- प्रभृतीनां तत्तप्ते: समर्पितत्वादुपलक्षणमेतत्। शुभलक्षणोपेताश्च य एतादृशा भवन्त्याचार्याः। ते चार्थमेव केवलं भाषन्ते न तु सूत्र-- मपि वाचयन्तिा तथा चोक्तं / "सुत्तत्थबिऊलक्खण, जुत्तो गच्छस्स मेढिभूतोय।। गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं भासेइ आयरियो"।। अथ किं कारणमाचार्यास्स्वयं सूत्रन्न वाचयन्तीत्यत आह।। एगग्गया य इझाणे वड्डी,तित्थयरअणुगिई गरुया। आणथेज्जमिति गुरु, कयरिणमुक्खो न वाएई। सूत्रवाचनाप्रदानपरिहारेणार्थमेव केवलव्याख्यानाय आचा- र्यस्य एकग्राता एकाग्रमनस्कता ध्यानेऽर्थचिन्तनात्मके भवति। यदि पुनस्सूत्रमपि वाचयेत्तदा बहुव्यग्रत्वादर्थचिन्तायामेकाग्रता न स्यात् एकाग्रतयाऽपि को गुण इत्यत आह। वृद्धिः। एकाग्रस्य हि सतोऽर्थ चिन्तयतस्सूत्रार्थस्य तत्र सूक्ष्मार्थोन्मीलनादृद्धिरुप-जायते। तथा तीर्थकरानुकृतिरेव कृता भवति। तथाहि। तीर्थकृतो भगवन्त: किलार्थमेव केवलं भाषन्ते न तु सूत्रं नापि गणतप्तिङ्कुर्वन्ति। एवमाचार्या अपि तथा वर्तमाना-स्तीर्थकरानुकरिणो भवन्ति। सूत्रवाचनां तु प्रयच्छतामाचायाणां लाघवमप्युपजायते। तद्वाचनायास्ततोऽध-स्तनपदवृत्तिभिरप्युपाध्यायादिभिः क्रियमाणत्यादेवं च तस्य तथा वर्तमानस्यलोकेराज्ञ इव महती गुरुता प्रादुर्भवति। तद्गुरुतायां च प्रवचनप्रभावना तथा आज्ञायां स्थैर्यमाज्ञास्थैयं कृतं भवति तीर्थकृतामेवमाज्ञा पालिता भवतीत्यर्थः। इयं हि तीर्थकृतामाज्ञा यथोक्तप्रकारेण ममानुकारिण आचार्येण भवितव्यमित्यस्मात् हेतुकलापात् गुरुराचार्यः। कृत: ऋणमोक्षोयेन स कृत-ऋणमोक्षस्तेन हि सा मान्यावस्थायामने के साधवस्तत्र सूत्रमध्यापितास्तत ऋणमोक्षस्य कृतत्वात्सूत्रं न वाचयति।। उक्तमाचार्यस्वरूपम्।।व्य, खं०१ उ०१॥ (6) लक्षणमाचार्य्यस्य॥ आवश्यकचूर्णी // किंचि आयरियं आयारकुसलं एवं संजमपवयणसंगह उवग्गह- | गुग्गहकप्पववहारपन्नत्तिदिद्विवायससमयपरसमयकुसलं ओयंसिं तेयंसिं वचसिं जसंसिं दुद्धरिसं अलहुगचित्तं जितक्कोहं पयारं जितिंदियं जीवितासं समरणभयविप्पमुक्कं जियपरिस्सहं पुव्वर-यपुव्वकीलियपुव्यसंथवविरहितं णिम्ममं निरहंकारं अणाणुताविंसक्कारलाभालाभसुहदुखमाणा अवमा सहं अचवलं असबलम् असंकिलिट्ठ णिव्वणचरित्तं दसविह आलोयणदोसविहिन्नु अट्ठारसआ-यारट्ठाणजाणगं अट्ठविहालोयणारिहगुणोवदेसगं आलोयणारिहं सुतरहस्सं अपरिस्साई पायच्छित्तकुसलं मग्गाम- रंगवियाणगं उग्गहईहअवायधारणाप वरबुद्धिकुसलं अणुओग- जाणगं णयविहिन्मुं आहरणहेउकारणणिदरिसणउवमाणिरुत्तलेहट्ठअठ्ठदरं रिसिहिं बहुविहउपा यागारोपदेसणइंगितायारणे गमभिलसितमूगत्त-मणुवदिठ्ठा वा हयसच्छंदविकप्प*तप्तिश्चिन्ता / प्रतिमाशतके श्लोक 65 तमे // विहिविहन्तुं लिविगणितसद्दत्थ-णिमित्तउप्पादपौराणंपडिचभावजाणगं वसुह- समं सीतधरस माणं पुक्खरपत्तमिव, णिरुवलेवं वायुमिव, अप्पडिबद्धं पव्वयमिव णिप्पकंपं सागरमिव, अक्खोभं कुम्मो इव गुत्तिदियं जव्वकणगमिव, जायतेयं चन्दमिव, सोम्मंसूरमिव, दित्ततेयं सलिलभिव, सव्वजगणिव्वुइकरंगगणमिव, अपरिमितणाणंमतिकेतुं सूयकेतुं सुदिकृत्थं सुपरणितित्थंएगआयतसुहगवेसगंदुद्दोसजलं तिदंडविरतं तिगारवरहितं तिसल्लणिसल्लं तिगुत्तिगुत्तं तिगणविसुद्धं चउटिवहविकहा विवज्जियमतिं चउक्कसायविजढं चउव्विहविसुद्धबुद्धिं चउव्वि हाहारणीरालंबमतिं पञ्चसमितं पञ्चमहव्वयधारगं पञ्च णियंठणिदाणजाणगं पञ्चविहचरित्तजाणगं पञ्चविहचरित्त लक्ख- णसंपन्न छव्विहविकहविवज्जगं छविहदव्यविधिवित्थ रजाणगं छठाणविसुद्धपचक्खाणदेसगं छज्जीवकायदयापरं सत्तभयवि- प्पमुक्कं सत्तविहसंसारजाणगं सत्तविहगुत्तो वदेसगं अठ्ठविह- माणमहणं अठविहबाहिरइझणजोगरहियं अट्ठविहभंतर-इझाणजुत्तं अठविहकम्मगंठिभेदगं नवबंभचेर वावत्तिघातकं दसविहसमणधम्मजाणगं एक्कारससातियक्खरविहिवियाणगं एक्कारसउवासगपडिमोवदेसगं बारस भिक्खुपडिमाफासगं बारसंगतवभावणाभावितमति बारसं गसुत्तत्थपारगंएवमाइगु- गोववेयस्स णिम्मधमहिरिसिस्स सगलंसकम्म कितिकम्मं काऊणं भण्णति भगवं बहुपु रिसपरंपरागयं संसारणित्थरणोपायं आवस्सनाणुओग मिच्छामि तस्सायरिओ गुणमहप्पणच्चा आवस्सयाणुओग परिकहेइ / / आ. चू / / ईदृशि गुरौ गुणमाह॥ भत्तिबहुमाणसद्धा, थिरयाचरणंमि होइसेहाणं / / एआरिसम्मि नियमा, गुरुमि गुणरयणजलहिंमि ||15|| व्याख्या भक्तिबहुमानाविति भक्तिर्बाह्यविनयरूपा बहुमानो भावप्रतिबन्धः एतौ भवतः। शिक्षकाणाामाभिनवप्रव्रजिताना मितियोगः। केत्याह ईदृश्येवं भुते गुरौ आचार्ये नियमान्नियमेन पुनरपि स एव वि शिष्यते। गुणरत्नजलधौ गुणरत्नसमुद्र इति तत: श्रद्धास्थिरताचरणे भवतीति। तथाहि। गुरुभक्ति बहुमानभावत एव चारित्रे श्रद्धा स्थैर्य च भवति नान्यथेति गाथार्थः।। गुणान्तरमाह / / अणुवत्तगो अएसो, हवइ दढं जाणई जओ सत्ता। चित्ते चित्त सहावे, अणणुवत्ते तह उवायं च / / 16 / / व्याख्या / अनुवर्तकश्च एषोऽनन्तरोदितो गुरुर्भवति दृढम त्यर्थं कुत्त इत्याह। जानाति यत: सत्वान् प्राणिनश्चित्रान् नानारूपाँश्चित्रस्वभावान्नानास्वभावान् अनुवाननुवर्तनी यान् तथोपायं चानुवर्तनोपायंच जानातीति गाथार्थ:। पं. व० (7) गुणा आचार्य्यस्य यै रहितो गुरुर्न भवति / गुरुगुणाश्च षटत्रिंशदनुयोगशब्दे॥ गुरुगुणरहितस्य गुरोविधिना परित्यागः।। गुरुगुणरहिओ उ गुरू, न गुरू विहिचायमो उ उद्दिहो। अण्णत्थसंकमेणं, ण उ एगागित्तणेणंति / / 4 / / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 334 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय व्याख्या / गुरुगुणा: संज्ञानं सदनुष्ठानविशेषास्तै रहितोहीनोगुरु- मंगीकृत्य तृतीयभंगपतित: आलोचनाया अपरिश्रावित्वात् / 3 / कुमार्ग गुणरहित: तुशदः पुनर्रथः। गुरुर्धर्माचार्योगुरुनधर्माचार्यो भवति। प्रति चतुर्थभंगपतित: कुमार्गस्यहि प्रवेशनिर्गमाभावात्।४। यदि वा सुवर्णगुणविकलं सुवर्णमिवा ततश्च (विहिचायमो उत्ति) इह मकारो केवल श्रुतमाश्रित्य भंगा योज्यं ते तत्र स्थविरकल्पिकाचार्य: लाक्षणिकस्ततश्च विधित्याग एवागमिकन्यायेन परिहार एव तस्य प्रथमभंगपतिता: / द्वितीयभंगपतितास्तु तीर्छकृत:।। तृतीयगुरोरिष्टोऽभिमतो जिनानां। स च न यथा कथं चिदत एवाहा अन्यत्र भंगपतिता यथा लंदिकाः। तेषां तुक्वचिदपिरिसमाप्तवाचार्यादेर्निर्णय गुरुकुलान्तरे संक्रमेण प्रवेशेन न पुनरेकाकित्वेन एकाकिविहारितयेति। सद्भावात्।३। प्रत्येकबुद्धास्तूभयाभावच्चतुच्छभिंगस्था:।४। सम्यक्सर्वथेगुरुकुलान्तरसंक्रमणे विधिश्च"संदिह्रो संदिट्ठस्सचेवसंपज्जइउपमाइ।। त्यर्थ: (समपासी चेव होइकज्जे सुत्ति)सममविपरीतं पश्यतीत्येवं शील चउभंगो एत्थं पूण, पढ़मो भंगो हवइ सुद्धो''||१|| इत्यादिरागमप्रसिद्ध समदर्शी "दृशोनियच्छ पेंच्छे''त्यादिना दृशे: पासादेशः। एवं विध एव इति सर्वथा गुरुरहितेन न भाव्य मिति भावोयदाह"एसणमणेसणं वा, योभवति व कार्येषु आगमव्या ख्यानादिसकलव्यापारेष्वित्यर्थः। स कहं तेनाहिंति जिणवरमयं वा।। करिणं मिव पोयाला, जे मुक्का आचार्य: रक्षति धत्ते कुमार्गे पतन्तमिति शेषः। कं गच्छं कणं किंभूतं पव्वइयमेत्ता'' इतिशब्दः प्राग्वदिति गाथार्थः।। पंचा. वृ० 2 / / अथ सबालाचते वृद्धाश्च सबालवृद्धास्तैराकुल: संकीर्णस्तं सबालवृद्धाकुलं गुरुगुणरहितस्तु गुरुर्न गुरुरिति विधित्याग एव तस्येष्ट इति यदुत्तं तत्र किमिव चक्षुरिवा विशेषाभिधानायाह। यथाचार्यस्वरूपमाह! गुरुगुणरहिओ वि इह, दट्ठय्वो मूलगुणविउत्तो।। सीआवेइ विहारं सुहशीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ॥ जोण उगुणमेत्तविहीणोत्ति चंडरुद्दो उदाहरणं ||3|| सन वरं लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो / / 23 / / व्याख्या। गुरुगुणरहितोऽपि अपि शब्दोऽत्र पुनः शब्दार्थ स्ततश्च व्याख्या। (जो अबुद्धी ओत्ति) य आचार्योऽबुद्धिकस्तत्वज्ञा- नरहित: गुरुगुणरहितो गुरुर्न भवति। गुरुगुणरहित: पुनरिह गुरुकुलवासप्रक्रमे स (सीयावे इत्ति) सीदयति शिथिलीकरोति के विहारं नवकल्परूपं एव दृष्टव्योज्ञातव्यो मुलगुणवियुक्तो महाव्र-तरहित: सम्यगज्ञानक्रिया गीतार्थादिरूपं वा / कै सुखशीलगुणैः सुखशीलस्य साताभिलाषिणो विरहितोवायो नतुनपुनर्गुणमात्रविहीनो मूलगुणव्यतिरिक्तप्रतिरूपता गुणा: पार्श्वस्थादिस्थानानि सुखशीलगुणास्तैः (स नवरित्ति) केवलं विशिष्टोपशमादि गुणविकल इति हेतोगुरुगुणरहितोदृष्टव्य इति प्रक्रम: उप प्रदर्शनार्थोवा इति शब्द: उक्तं वेहार्थे "काल परिहाणिदोसा, एत्तो लिंगधारी वेषमात्रधारी संयम आश्रवनिरोधरूपस्तस्य योग: इक्काइगुणवि-णेणाअण्णेण विप्पव्वज्जादायव्वा सीलवंतेणं' अत्रार्थे प्रतिलेखनादि व्यापारस्तेन रहितत्वात् निस्सारश्चर्विततांबूलवदिति किं ज्ञा-पकमित्याह। चंडरुद्रश्चंड रुद्राभिधानाचार्य उदाहरणं ज्ञापकं गाच्छाछंदः // 23 // त- त्प्रयोगश्चैवं। गुणमात्र विहीनोऽपि गुरुरेव मूलगुणयुक्तत्वात् चंड- कुलगामनगररज्ज, पयहियं जो तेसु कुणइ हुममत्तं // रुद्राचार्यवत्तथा ह्यसौ प्रकृतिरोषणोऽपि बहूनां संविग्रगीतार्थ-शिष्याणा सोन वरि लिंगधारी संजमजोएण निस्सारो॥२४|| ममोचनीय: विशिष्टबहुमानविषयश्चाभूत्। पंचा.बृ. 11 / / व्याख्या। कुलं गृहं ग्रामं सकरं नगरमष्टादशकररहितं राज्यं सप्तांगमयं (8) गुणाआचार्य्यस्य अपरिश्रावीत्यादि।। उपलक्षणत्वात् धूलीप्रकारपरिक्षिप्तं खेटं कुनगरंकट सर्वत्रार्द्धतृतीयपुनरप्याचार्यगुणानाह। गव्यूतांतग्रामान्तररहितं मर्डवं जलपयोपेतं जलपत्तनं द्वीपमिव अपरिस्सावी सम्म, समपासीचेव होई कज्जेसु। स्थलपयोपेतं स्थलपत्तनं लोहा-दिधातुजन्मभूमिरूपं आकर सोरक्खइ चक्खुपिब सबालबुवाउलं गच्छं / / 2 / / जलस्थलपयाभ्यामुपेतंद्रोणमुखं वणिक् समूहवासं निगममित्यादि ज्ञेयं (पयहियत्ति) प्रहायत्ति प्रहार्य प्रकर्षेण त्यक्वा: पुनर्य: आचार्यस्तेषु व्याख्या। न परिश्रवति परिकथितात्मगुह्यजलमित्येवं शीलोऽपरिश्रावी कुलादिषु करोति विधत्ते हुपनरर्थे ममत्वं ममैतदित्यभिप्रायमित्यर्थः। स आलोचनामाश्रित्य आचारांगोक्ततृतीयभंगतुल्य इत्यर्थः। भंगाश्चैते सूरि नवरि वेचलं वेषधारी संयमयोगेन निस्सार इति गाथा छन्दः // 24 // एकोहृदः परिगलतश्रोता: पर्यागलत् श्रोता- श्च शीता शीतोदा प्रवाहहृदवत्। यतेस्तत्र जलं निर्गच्छत्याग- च्छति च ॥शा अपर: अथ पुनरपि सुन्दराचार्यप्रशंसामाह।। सुपरिगलच्छ्रोता नो पर्यागलत् श्रोता: पद्मदवत् पद्महदे तु जलं विहिणा जो उं चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहइ। निर्गच्छति नत्यागच्छति।।२|| तथा परोनो परिगलत् श्रोता: पर्यागलत् सो धन्नो सो अपुणो अ, सबन्धू मुक्खदायगो |25|| श्रोताश्च लवणोदधिवत् लवणे आगच्छति जलं न तु निर्गच्छति।३।। व्याख्या'"विधिणा धर्ममइएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणि अपरस्तु नो परिगलत् श्रोता नो पर्यागलत् श्रोताश्च मनुष्य लोकादहि: एहिं पल्हायन्तो अमणं सीस चोएई आयरिओ" इत्याद्याग समुद्रवत् तत्र नागच्छति न च निर्गच्छति।।४॥ तत्रा चार्यः श्रुतमंगीकृत्य गभोक्तप्रकारेण (जोउत्ति) य: पुनराचार्य: (चोएत्ति) चोदयति प्रथमभंगपतित: श्रुतस्य दानग्रहण सद्भावाता। सांपरायिककर्मापेक्षया प्रेरयति शिष्यगणं कृत्य करणादौ तथा सूत्रमाचा रांगातु द्वितीयभंगपतितः कषायोदयाभावेन गृहणाभावात् तप: दिश्रुतविधिनेत्यस्यात्रापि सम्बन्धनात् व्यवहारदशमोहे शकाकायोत्सर्गादिना क्षपणापतेश्च सांपरायिककर्म कषायकर्मश आलोचना | धुत्तेन विधिना ग्राहयति पाठयति सूत्रपाठ नानन्तरं तस्य Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 335 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय नियुक्तिभाष्यचूर्णिसंग्रहणीवृत्तिटिप्पनकादिपरंपरोपलब्धमर्थं च (9) भ्रष्टाचारत्वं दुर्गुणस्सूरेः / / विधिनेत्यस्यात्राप्यनिसम्बन्धनात् "सुत्तत्थो खलु पढमो बी ओ" अथ केसूरय: आज्ञामतिक्रामन्तीत्याह॥ इत्यादिना श्रीभगवतीसूत्रपञ्चविंशतितमशतकतृतीयो देशकश्री भट्ठायारो सूरी भट्ठायाराणुविक्खाओ सूरी॥ नन्दिसूत्रावश्यकनियुक्त्याधुत्तेन विधिनैव ग्राहयति बोधयति अथवा उम्मग्गट्टि ओ सूरी तिण्णिवि मग्गं पणांसति / / 2 / / सूत्रमर्थंच विधिना गाहते निरंतरं स्वयमभ्यस्यतीत्यर्थः स आचार्योधन्यः पुण्यवान् अतएव (सो अ पुणोयत्ति) स पुण्य एव प्रवित्रात्मैव बंधुरिव व्याख्या। भ्रष्ट: सर्वथा विनष्ट आचारो ज्ञानाचारादिर्थस्य स भ्रष्टाचार: बन्धुः। कुमत्यादिनिवारकत्वेन परमहितकर्तृत्वात् अतएव सूरिरधर्माचार्यः 1 भ्रष्टाचाराणां विनष्टाचाराणां साधूनामुपेक्षक: (मुक्खदायगोत्ति) मोक्षप्राप्तिहेतु-ज्ञानादिरत्नत्रयलंभकत्वेन मोक्षदायक प्रमादप्रवृत्तसाधूनामनिवारयितेत्यर्थः। सूरिमंद- धर्माचार्य:।। इत्रत अनुष्टुप्छन्दः // 26 // उन्मार्गस्थित उत्सूत्रादिप्ररूपण पर: सुरिरधमा-धमाचार्यः / 3 / त्रयोऽप्येते मार्ग ज्ञानादिरूपं मोक्षपथं प्रणाशयन्ति जिनाज्ञामतिक्रामन्तीत्यर्थः। सएव भव्वसत्ताणं, चक्खूभूए वियाहिए। गाथा छन्द: // 28 // दंसेइ जो जिणुदिटुं, अणुट्ठाणं जहहिअं|२६|| अथ तेषां त्रयाणां सेवकस्याशुभफलमाह। व्याख्या / स एवाचार्योभव्यसत्वानां मोक्षगमनयोग्यजंतूनां चक्षुर्भूतोनयनतुल्यो व्याहृतः कथितो जिनादिभिः। स कोयो उम्मग्गनासए जोउ, सेवए सूरी नियमेणं / जिनाद्दिष्टमाप्तोक्तमनुष्ठानं मोक्षपथप्रापकरत्नत्र-याराधनमित्यर्थः। यथा सो गोयमा अप्पाणं, अप्पं पाडेइ संसारे।।२९|| स्थितमवितयं दर्शयति कुमति-निराकरणेन प्रकटीकरोतीति व्याख्या उन्मार्गस्थितान् सन्मार्गनाशकान्। (उ) शब्दात् भ्रष्टाचारान् अनुष्टुपछन्दः // 26 // 2 भ्रष्टाचारोपेक्षकाँचश्च ३सूरीन्य: सेवते पर्युपास्ते नियमेन निश्चयेन स अथ पूर्वार्द्धन सूरेर्गुणविशेषेणं तीर्थकरसाम्यमुत्तरार्द्धना नरो हे गौतम! आत्मानं अत्माना पातयति संसारे चर्तुगत्यात्मके इति ज्ञोल्लंधिनस्तस्य कापुरुषत्वं च दर्शयन्नाह / / गाथा छन्दः।।२९।। तित्थयरसमोसूरी, संमं जो णिजमयं पयासेई॥ अथ भंग्यन्तरेण एनमेवार्थ दृष्टान्तेन समर्थयन्नाह। आणं अइक्कमन्तो, सोकापुरिसोन सप्पुरिसो|२७|| उम्मग्गडिओ एक्को, विनासए भव्वसत्तसंघाए। व्याख्या। स सूरिस्तीर्थकरसमः सर्वाचार्यगुणयुक्ततया सुधादिव- तं मग्गामणुसरंतं, जह कुत्तारो नरो होई ||30|| तीर्थकरकल्पो विज्ञेयः। न च वाच्यं चतुस्त्रिंशदतिश- यादिगुणविराज- व्या. उन्मार्गस्थितः उत्सूत्रप्ररूपणानिरत: एकोऽपि अधि- कारात् मानस्य तीर्थकरस्योपमा सूरेस्तद्विकलस्यानु चिता। यथा तीर्थकरोऽर्थ सूरि शयति संसारसमुद्रे अनंतानंतमरणप्रदानेन वि- नाशयतीत्यर्थः। भाषते एवमाचार्योऽप्यर्थमेव भाषते तथा यथा तीर्थकर उत्पन्नकेवलज्ञानो कान् भव्यसत्वसंघातान् किं कुर्वतस्तान् तन्मा- गस्थितप्रदर्शितपथं भिक्षार्थं न हिंडते एवमाचा-योऽपिभिक्षार्थं न हिंडते इत्याद्यनेकप्रका- अनुसरत्: आश्रयत: प्राकृतत्वात् वचन- व्यत्ययः। अत्र दृष्टांतमाहा यथा रैस्तीर्थकरानुकारित्वस्य सर्वातिशयित्वस्य परमोपकारित्वादेश्व कुतार: कुत्सिस्तारकोनरो भवति स बहून् प्रष्ठलग्नान् जंतुसमूहान् नद्यादौ ख्यापनार्थ तस्या न्याय्य- तरत्वात्। किंच श्रीमहानिशीथे विनाशयति गाथाछन्दः॥३०॥ पंचमाध्ययनेऽपि भावाचार्यस्य तीर्थकरसाम्यमुक्ता यथा "सेभयवं किं अथोन्मार्गगामिनामेवाशुभफलं दर्शयति। तित्थयरसंतिअंआणं नाइक्कमिज्जा? उदाहुआयरिय संति अंगोअमा! उम्मग्गमगा संपट्टियाण साहूणंगोअमा! नूणं / चउव्विहा आयरिया भवन्तिातं नामायरिया, ठवणायरिया, दव्वायरिया, संसारो अ अणंतो, होईसम्मगानासीणं // 31 // भावायरिया, तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तिय्थयरसमा चेव दट्ठय्या तेसिं सन्ति आणं नाइक्कमेज्जत्ति, स क: य: सम्यग् यथास्थित व्याख्या। उन्मार्गगा: गोशालकबोटिकनिन्हवादय: तेषां मार्ग: परम्परा जिनमतं जगत्प्रभु दर्शनं नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्र-शब्दसमभिरूद्वैवं तस्मिन् अथवा उन्मार्गरूपो यो मार्ग स्तस्मिन् समित्येकीभावेन इति भूतरूपनयसप्तकात्मकं प्रकाशयति भव्यानां दर्शयतीत्यर्थः। तथा आज्ञा प्रकर्षेण स्थितानांसाधूनां साधुलिंग धार-कारणां हे गौतमा नूनं निश्चित: तीर्थकरोपदेशवचनरूपां अतिक्रामन् वितथप्ररूपणादिनोल्लंघयन् स संसारश्चतुर्गत्यात्मक अनंतोऽपर्यतो भवति चशब्दस्तद्गतासूरि:कापुरुष: पुरुषाधमः नस- त्पुरुषो न प्रधानपुरुष इति। नेकदु:रकसूचकः। किंभूतानां तेषां सन्मार्गनाशिनां शुद्धपथोच्छेदकानां इहचाज्ञोल्लंघिन: कापुरुषत्व- मात्रमैहलौकिकं फलं पारलौकिकं तु महानिशीथोक्तमुनिचन्द्र- साधुवत् इति गाथाछन्द: 31 ग० अधि०१।। तदनेकदुस्सहदुःखसन्त-तिसम्वलितमनन्तसंसारित्वं श्रीमहानिशीथ- (प्रव्रज्याय: पञ्चदशगुरवस्तेच प्रव्रज्याशब्द) सद्गुरुस्वरूपं दर्शयति॥ पञ्चमाध्ययनोक्त- सावधाचार्यस्येव ज्ञेयः। देशं खित्तं उजाणित्ता, वत्थं पत्तं उवस्सयं। तस्माद्गच्छाधिपतिना सर्वदा सर्वार्थेषु अप्रमत्तेन भाव्यमिति पू- संगहे साहुवग्गं च सुत्तत्थं च निहालाए।।१४।। वाचार्यसंस्कृत: सावधाचार्यसम्बन्ध इत्येवं विलोक्याऽचार्योपा- व्याख्या। आचार्योदेशमालक्कादिकं क्षेत्रं रुक्षा रूक्षभा विताभावितादिरूपं ध्यायप्रवर्तकादिना मोक्षार्थिना भगवदाज्ञया आगमार्थोनिरूप-णीय: न, (उ) शब्दात्ग्लानादियोग्यं द्रयं दुर्भिक्षादिकालं दातृपरिणामादिरूपं भावं च स्वमत्या तथात्वेऽनन्तसंसारावाप्तेरितिगाथाछन्द / / 27 / / ग. अधि.१॥ | ज्ञात्वा वस्त्रं चीवरं पात्रं पतदग्रहादि उपाश्रयं मुनियोग्यालयं संग Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 336 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय हीत कोऽर्थः। आचार्यः क्षेत्रादिकारणं ज्ञात्वा वस्त्रादिकं मेलयित्वा प्रायोगृहस्थानामदर्शयन् स्वपाश्व एव संरक्षेत्न तुयथाकथंचिदित्यर्थः। तथा (साहु वग्गन्ति) साधूनां वर्गोवृन्दंसाधुवर्गस्तंचसाध्वीवर्गच संगृहीत तु हीनाचारवर्ग तथा सुत्तत्थं च (निहालए) इति सूत्रमाचारांगादि अथो नियुक्ति भाष्यचूर्णिसंग्रहिणीवृत्तिटिप्पनादि: सूत्रं चार्थश्चेति समाहारद्वन्द्वे सूत्रार्थं तन्निभालयति चिन्तयतीत्यर्थः। चशद्वात्साधूनामपि सूत्रार्थं ददातीति एवं विधोय: ससदाचार्य: स्यादिति शेषः। इत्यनुष्टुप्छन्दः // 14|| ग० अंधि० 1 टी।। भ्रष्टाचारस्य सूरेनिन्दा यथा / / भट्ठायारोसूरी, भट्ठायाराणुविक्खओ सूरी। उम्मगडिओ सूरी, तिणि विमग्गं पणासन्ति शा उम्मग्गट्ठिए सूरिमिनिच्छयं भव्वसत्तसंधाए। जम्हा तंमग्गमणुस्सरन्ति तम्हाणतंजुत्त। एक्कं पि जोदुहत्तं सत्तं पडिबोहिं उठवे मग्गे। ससुरासुरंमिविजिगे तेण हघोसियं आणाघोय। भूए अत्थि भविस्सति के इजगवन्दणीय कमजुयले जेसिंपरहियकरणे कवद्धलकरवाणवो लिही कालं भूए अणागए काले ण केई इहोहिंति गोयमा! सूरी। णामग्गहणेण वि जेसिं होज्जनियमेण पच्छित्ता एयंगच्छिचवत्थं दुप्पसहाणंतरंतुजोखंडे तं गोयम! जाणगणिं निच्छयओ अणंतसंसारि। जेसयलजीवजगमंगलेक्ककल्लाण परमकल्लाणसिद्धिपए। वा वोच्छिन्ने पच्छितं होई तं गणिणो। तम्हा गणिणं समसत्तुमित्तपक्खेण परहियरएणं कल्लाणकंखुणा अप्पणो विय अणाण लंघेया। एवं मेरा ण लंघेयव्ववत्ति एवं गच्छवववच्छ लंधितुनगारवेहिं पडिबद्धे संखाईए गणिणो अज्जवि बोहिं न पावंति। ण लभेहिंति य अन्ने अणंतहुत्तोवि परिभमं तित्था चउगइभवंससारोचेट्ठिज्जचिरसुदुक्खत्तेा। महा० 5 अ० (10) पराहितकारित्वं दुर्गुणः।। अथ ये नाममात्रग्रहणेनाऽपि पराहितकारिण: सुरयस्तानाह।। तीअणागयकाले, केई होर्हिति गोयमा ! सूरी। जेसिं नामग्गहणे, वि होई नियमेण पच्छित्तं / / 3 / / व्या०। अतीतकाले ते के चिदनिर्दिष्टनामानोऽभू वन्निति शेषः। अनागतकालेच (होहिति) भविष्यंति आद्यंतग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमिति न्यायेन वर्तमानकाले च संति / हे गौतम ! सूरय: आचार्यनामधारका: येषां परिचयकरणादिकं दूरे आस्तां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन निश्चयेन प्रायश्चित। तथाचोक्तं श्रीमहानिशीथपंचमाध्ययने "इत्थं चायरियाणं, पणपण्णं होंति कोडिलक्खाओ! कोडिसहस्से कोडिं, स एव तह एतिएचेवााशा एतेसिं मज्झा एगे, निव्वु ओइ गुणगुणइण्णो।। सव्वुत्तमभंगेणं, तित्थयरस्साणुसा रिगुरू'' इति गाथाछंदः ||37 / / अथात्र हेतुमाह॥ जओ सयरी भवंति, अणविक्खयाइजह भिन्चबाहणा लोए।। पडिपुच्छेहिं चोयणं, तम्हाउ गुरू सया नयइ ||3|| व्याख्या (जओत्ति) भिन्नं पदं यतो भणितं (सयरित्ति) स्वेच्छाचारीणी भवंति (अणविक्खया इति) अनपेक्षया शिक्षारहितत्वेन यथो लोके (भिचवाहणत्ति) भृत्याश्च सेवका श्च वाहनानि च हस्त्यश्ववृषभमहिषादीनीति द्वंद्वे भृत्यवाहनानि। तथा विनेया: गुरूणां प्रतिपृच्छाभि: कार्य 2 प्रति पृच्छा ताभि: (चोयणत्ति) प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोप:)| चोदनाभिश्च विनेतिशेषः।स्वेच्छचारिणो भवंति (तम्हाउति) तस्मादेव कारणात्प्रतिपृच्छाभिश्चोदनादिभिश्चाचार्यो विनेयान् सदा सर्वकालं (भयइत्ति) भजते सत्यापयति शिक्षयतीत्यर्थ: गाच्छाछंदः // 38 // ग. अधि०१। (11) सूरेः स दुर्गणो येन कुगुरुर्भवति। कुगुरुश्च कदा भविष्यतीति महानिशीथे अ०८ सेभयवं केवइअणं कालेणं पहे कुगुरुभावी होति गोयमा ! इओ यमाउयअद्रतेरसणं वाससयागं साइरेगाणं समइ क्कताणं परत भवीसु से भयवं केणं अट्ठणं गोयमा? तक्कालं इवि रससायगारवसंगए ममीकरे अहंकारग्गीए अंतो संपज्जलंतवोदी अहमहंति कयमाणसे अमुणि य समयसम्भावे गणी भवीसु एएणं अटेणं से भगवं किं सव्वे वीएवं विहे तक्कालगणि भवीसुंगोयमा! एणतेणंनो सव्व केयपुण दुरन्तपंतलक्खणे अदष्टेणं एगाए जणणीए जमगसमगं पसूए निम्मेरे पावसीले दुज्जायजम्मे सूरोहेप यंडाभिगाहिय दूरमहामिच्छदिट्ठी भविसु सेयं भयवं कहं ते समुबलक्खेज्जा गोयमा! उस्सुत्तउस्सगायवत्तणुदिस्सणमइपबएण वा।। (12) प्रमादिमाचाय शिष्यो बोधयति॥ अर्थ कथंचित् प्रमादिनं गुरुं शिष्यो विबोधयतीत्याह। तुम्हारिसा वि मुणिवर,! पमायवसगा हवंति जइ पुरिसा। तेणन्नो को अहं, आलंबणं हुज्ज संसारे / / 19 / / व्याख्या। युष्मादृशा अपि हे मुनिवर! श्रमणश्रेष्ठ प्रमादवशगा: प्रमादपरवशा भवंति यदि चेत् पुरुषाः पुमांसस्तेन कारणेनान्यो युष्मद्व्यतिरिक्तः कोऽस्माकं मंदभाग्यानामालंबनमत्र विभक्तिलोप: प्राकृतत्वात्। सागरे नौरिव भविष्यति संसारे चतुर्गत्यात्मकेपततामिति शेषः। अनेनं विधिना शिष्य: प्रमादिनं गुरुं विबोधयतीत्यधिकाराल्लभ्यते। तथाच विबोधनविधये आचार्यगुणानपि शिष्य आचार्यस्य दर्शयति यथा॥ पुढवीविव सव्वसह, मेरुव्व अकंपिरं ठियं धम्मे। चंदुय्व सोमलेसं,तं आयरिंपसंसंति||शा अप्परिसावि आलोयणा, रिह हेउकारणविहिन्न / गंभीरं दुद्धरिसं तं आयरियं // 2 // Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 337 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय कालन्नु देसन्नु, भावन्नु अत्तुरियं असंभंतं / अणुवत्तयं अमायं,तं आय.||३|| लोइयसामाइएसु, जस्स वक्खेवो। ससमयपरसमयंमि अ, तं // 4 // बारसहिंवि अंगेहि, सामाइयमाइपुय्वनिव्वद्धे। लद्धहँ गहियटुं तं // 5 आयरियसहस्साई, लहई अजीवो भवेहिं बहुएहि। कम्मेसु य सिप्पेसु य, धम्मायरणेसु नो कहवि ||6|| जे पुण जिणोवइटे, निरंगथे पवयणमि आयरिया। संसारमुक्खमग्गस्स, देसगाते हुआयरिया ||7|| देवा वि देवलोए, निग्गंथं पवयणं अणुसरंता। अच्छरगणमइझगया, आयरिए, वंदयाइंति || जह दीवो दीवसयं, पइप्पए दिप्पईय। सो दीवसमा आयरिया, अप्पं च परं च दीवंति।।९।। देवा वि देवलोए, निचं दिव्वोहिणा वियाणंता। आयरियमणुसरंता, आसणसयणाणि मुंचंति।।१०।। इत्यादि चंद्रकवेधकप्रकीणकोत्तं वाच्यमिति गाथाछन्दः / / ग.१ अधि०॥ प्रमादगतस्याचार्यास्स श्रमणोपासकेन कथं निवारण कर्त्तव्येति (समणोपासग) शब्दे।। अथ चोदनाया अकर्तुः फलं दर्शयन्नाह।। जो उप्पमायदोसेणं आलस्सेणं तहेव य। सीसवगं न चोएइ, तेण आणा विराहिया||३९|| व्याख्या। योगणी चशब्दादुपाध्यायादिश्च प्रमाददोषेण प्रमाद रूपो यो दोषस्तेन तथैवचचकारादुक्तशेषैर्मोहादिभिश्च उक्तंच"आलस्स.मोहर वन्ना, ३थंभा४ कोहाइपमाय६ किविणत्ता11७11 भय८सोगा९अन्नाणा, 10 वक्खेद 11 कुऊहला 12, रमणा 13 (1)" एतैर्हेतुभिः शिष्यवर्गमंतेवासिवृंदं न प्रेरयति मोक्षानुष्ठाने इति शेषः। तेनाचार्येण उपाध्यायादिना वा आज्ञेति जिनाज्ञा विराधिताखंडितेत्यर्थ|| ग.अधि. "आचार्यस्यैव तत् जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते। गावो गोपालकेनेव, कुतीर्थनावतारिता: (1)" आ०म०१ खं०१ अ०॥ (13) वैरी शिष्यस्य गुरुः।। अथ य:सूरिश्शिष्यस्य वैरी स्यात्तं वृत्तद्वयेनाह। संगहोवगाहं विहिणा, न करेइ य जो गणी। समणं समणिं तु दिक्खित्ता, सामायारी न गाहए||१५|| वालाणं जो उसीसाणं, जीहाए उवलिंपए। तं सम्ममग्गं गाहेइ, सो सूरि जाण वेरिउ ||16|| यःपुनर्बालानां शिष्याणां शिरः प्रभृत्यवयवमिति शेष:। जिव्हयारसनया उपलिंपद्गौरिव वत्सस्य चुंबेत् अत्यंतबाह्यहितं करोतीत्यर्थः। ननु बालादीनां प्रव्राजने निषेधोऽस्तितत्कथं बालानां शिष्यत्वमुच्यते। योऽयं प्रव्रजने बालो निषिध्यते स ऊनाष्टवर्षः / अत्र त्वष्ट वर्षोपरिवर्ती बालो गृह्यते। अपवादपदेन तु ऊनाष्टवर्षोऽपि // तथा सम्यक्मार्ग मोक्षपथं न ग्राहयति दर्शयति न शिक्ष यतीत्यर्थः। स आचार्यो वैरीति जानीहि हे गोतम! त्वमिति विषमाक्षरेतिगाथा-ऽनुष्टुपछंदसी॥१६॥ अथ पुर्वाक्तार्थलेशं विशेषयन्नाह॥ जीहाए विलिहंतो, न महओ सारणा जहिं नत्थि। दंडेणवि तातो, स भद्दओ सारणा जत्थ।।१७।। व्याख्या जिव्हया विलिहन् शिष्यं चुंबन्नाचार्यों न भद्रको न श्रेष्ठो यत्राचार्य सारणा हित प्रवर्तनलक्षणास्मारणा वा कृत्य- स्मारणलक्षणा उपलक्षणत्वाद्वारणा अहितानिवारणलक्षणा तोदना संयमयोगेषु स्खलितस्याऽयुक्तमेतद्भवादृशां विधातु मित्यादिवचनेन प्रेरणा प्रतिनोदना तथैव पुन: प्रेरणा नास्ति न विद्यते तथा दंडेनाऽपि यष्टज्यापि किं पुनर्दव रकादिना ताडयन् शरीरपीडां कुर्वन् स आचार्यों भद्रक: श्रेष्ठः। यत्र गणिनि सारणा उपलक्षणत्वाद्वारणादिर्वाऽस्तीति गाथाछंदः / ग०१ अधि। (14) विनय आचार्य्यस्य॥ आचार्ये सापेक्षैः साधुभिर्भवितव्यम्। तेषु च तेनेति दृष्टान्तै: प्रदर्शयति / / वद्धीधन्नसुभरियं, कोट्ठागारं डइझते कुटुंबिस्स / किं अम्हमुहा देई, केई तहियं न अण्णीणा // एक: कौटुंबिकः स कर्षकाणां कारणे उत्पन्ने वृद्ध्या कालांतर रूपया घान्यं ददाति / तथा च वृद्ध्या कौटुंबिकस्य कोष्ठा गाराणि धान्यस्य सुभृतानि जातानि। अन्यदा च तस्यैकं कोष्ठागारं वृद्धि-धान्यसुभृतं वन्हिना प्रदीप्तेन दह्यते। न च केचित्कर्षका विध्या-पननिमित्तं तत्र प्रदह्यमाने कोष्ठागारमसमा गताः। किमेष कौटुंबिकोऽस्माकं मुधा ददाति येन वयं विध्यापनार्थमभ्युद्यता भवामः।। एयस्स प्रभावेणं, जीवा अम्हेति एवं नाऊणं। अण्णे तु समल्लीणा, विज्झविए तेसिं सो तुट्ठो॥ अन्ये कर्षका एतस्य कौटुंबिकस्य प्रभावेण च ये जीवंति स्म जीवा अनुप्रत्यया जीविता इत्यर्थः। एवं ज्ञात्वा समालीनास्त त्र समागता विध्यापनाय च प्रवृत्तास्ततो विध्यापिते कोष्ठा गारे स कौटुंबिकस्तेषां तुष्टस्तत: किमकार्षीदित्यत आह|| जे ओ सहायगत्तं, करेस तेसिं अवट्ठियं दिन्नं / / दटुंति न दिण्णियरे, अकासगा दुक्खजीवीया॥ येतु विध्यापनेसहायत्वमकार्षुस्तेषामवृद्धिकं कालांतरहितं धान्यं दत्तं। इतेरषां तु सहायत्वमकृतवतां दत्तमित्युत्तरं विधा य न दत्तं। ततस्ते अकर्षकास्संतो दु:खवज्जीविनो जाता एव दृष्टांतः। सांप्रतमुपनयमभिधित्सुराह। आयरियकुटुंबीय, सामाणियथाणिया भवे साहू॥ बावाहअगणितुल्ला, सुत्तत्था जाण धनं तु // भक्तश्रुतादिदानेनोपष्टंभनं तथा तन्न करोति वा न कारयति विधिना आगमोक्तप्रकारेण योगणी आचार्य्यस्तथा यः श्रमणं श्रमणी दिक्षित्वातु शब्दात्प्रतिच्छकगणमपि समाचारी आगमो-क्ताहोरात्रक्रियाकलापरूपां सत्स्वगच्छोक्तां वा न ग्राहयेन्निर्जरा-पेक्षि सन्न शिक्षयेदित्यर्थः।।१५|| तथा | Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 338 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय आचार्य:कुटुंबीव कुटुंबितुल्य इत्यर्थः। सामान्यकर्षकस्थानीया: साधवः। / गुरुकुले निवसन् किंभूत: स्यादित्याह (जयंविहारी) यतमानो यतनया आचार्यस्य भिक्षाटने वातादिव्याबाधाऽग्नितुल्या। सूत्रा-न् जानीहि विहरणशीलो विहारी स्यात् / यतमान: प्राण्यु पमईनमकुर्वन् धान्यं धान्यतुल्यान्॥ प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रिया: कु र्यादिति / किञ्च (चित्तनिवाती) एमेव विणीयाणं, करेंति सुत्तत्थसंगहं थेरा॥ चित्तमाचार्याभिप्रायस्तेन निपतितुं क्रियायां प्रवर्तितुं शीलमस्येति होवेंति उदासीणे, किलेसमागीय संसारे।। चित्तनिपाती सदा स्यादिति। तथा (पंच्छणिज्झाती) गुरो: वचिद्गतस्य (एमेव) कौटुंबिकदृष्टान्तप्रकारेण ये विनितास्तषां स्थविरा आचार्याः पथानं निर्यातुं प्रलोकितुं शीलमस्येति पथनिायी। उपलक्षणं चैतत्। सूत्रार्थसंग्रहं कुर्वति सूत्रार्थान्प्रयच्छति। यस्तूदासीनस्तत्र हापयतीतिन शिशयिषोः संस्तारकप्रलोकी बुभुक्षोराहारान्वेषीत्यादिना गुरोराराधक: प्रयच्छतीति भावः / सचोदासीनो वर्तमान: केवलं सूत्रार्थयोग्यो भवेत् सदा स्यात्किञ्च (पलिवाहिरे) परि समन्ताद्गुरोरव ठाहात्पुरत: पृष्ठतो क्लेशभागी च संसारे जायते॥ संप्रतिदंडिकदृष्टांतं विभावयिषुरिदमाह / / वा चस्थानात्सदा कार्यमृते बाहा: स्यादेत स्माच सूत्रात् त्रय ईर्योद्देशका निर्गता इति। किञ्च (पासिय इत्यादि) क्वचित्कार्यादौ गुर्वादिना प्रेषित: उप्पण्णकारणे पुण, जइ सयमेव सहस्सा गुरू हिंडे / अप्पाणं गच्छेमुभयं, परिचयती तत्थिमं नायं / / सन् दृष्ट्वा प्राणिनां युग-मात्रदृष्टिस्तदुपधातं परिहरन् गच्छेत्किञ्च (सेइत्यादि) स भिक्षुः सदा गुर्वादेशविधायी एतद्व्यापाखान् भवति। उत्पन्ने कारणे वक्ष्यमाणलक्षणे यदि सहसा स्वयमेव गुरुरात्मानं तद्यथा। अभिक्रामन् गच्छन् प्रतिक्रामनिवर्तमान: संकुचन् गच्छमुभयं च परित्यजति। तत्र चेदं वक्ष्यमाणज्ञातमुदाहरण। तदेवाह॥ हस्तपादादिसंकोचनत: प्रसारयन् हस्तादीनवयवान् विनि वर्तमान: सोउं परबलमायं, सहसा एक्काणिओ उ जो राया।। समस्ताशुभव्यापारान्सम्यक् परिसमंताद्धस्तपापादादीनवयवांस्तन्निनिग्गच्छति सो वयती, अप्पाणं रज्जमुभयं च / / क्षेपस्थापनानिवारजोहरणादिना मृजनपरिमृजन गुरुकुलवासे वसेदिति यो निरपेक्षोराज्ये परबलमागतं श्रुत्वा बलवाहना-न्यमेलयित्वा सहसा सर्वत्र संबंधीनयम्। आचा. टी.।। एकादीपरबलस्यं संमुखो निर्गच्छति स आत्मानं राज्यं चेत्युभयं त्यजति अस्य बहुव्यक्तव्यता (आसायणा) शब्दे।। बलवाहनव्यतिरेकण युद्धारंभे मरणभावात् एवमाचार्योऽपि निरपेक्ष: अथैवमाचार्ये रक्षिते शुश्रुषिते च को गुण इत्यत आह॥ समुत्पन्नेऽपि कारणे सहसा भिक्षामटन्नात्मानं गच्छमुभयं च परत्यजति निरपेक्षदंडिक- दृष्टान्तभावना पुयंति य रक्खंति, य, सीसा सव्वे गणी सया पयया।। इह परलोए य गुणा, हवंति तप्पुयणे जम्हा।। संप्रति सापेक्षदंडिकदृष्टांतभावनामाह गणिनमाचार्य शिष्या: सर्वे सदा प्रयता: प्रयत्नपरा: पूजयंति शुश्रुषते सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहिं परबलं खविया। चा यस्मात्तत्पूजने आचार्यपूजने इह लोकेपरलोकेच गुणा भवंति इह अजिए सयंपि जुज्झइ, उवमा एसेव गच्छेवि।। लोके सूत्रार्थतदुपधाति परलोके सूत्रार्था भ्यामधीताभ्यां सापेक्षः पुना राजा प्रथम कुमारादीन युद्धाय प्रेषयति। ततः ज्ञानादिमोक्षमार्गप्रसाधनं अथवा पारलौकिका गुणा"आयरिए वेयावच्चं कुमारादिभिः परबलं क्षपयित्वा यदा कुमारैर्न परबलं तदा तस्मि-न् करेमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति" इत्येवमादयः।। व्य. द्वि० जिते स्वयमपि राज्ञा युध्यते। एषैवोपमा गच्छेऽपिद्रष्टवा। आ--चार्योऽपि ख०६अ। पूर्वयतनां करोति तथापि असंस्तरेण स्वयमपि हिंडते। एवं चात्मानं गुरुशुश्रुषा (विणय) शब्द।। आचार्यस्य चतुर्विधविनये नान्तेवासी गच्छमुभयंच निस्तारयतीति भावः। व्य०६ उ०।। अनृणी भवतीति विनयशब्दे॥ आचार्यसमीपवर्तिनाच शिष्येण किं विधेयमित्याहातद्दिट्ठीए आचार्य्यस्याराधने फलंयथा!।"गुर्वायत्तायस्मात् शास्त्रा रंभा भवति तम्मोत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे जयं विहारी सर्वेऽपि।। तस्मात् गुर्वाराधन, परेण हितकांक्षिणा भाव्यं" / / चित्तणिवाई पर्थणिज्झाई बलिवाहिरे पासि यपाणे गच्छेज्जा आवश्यकभाष्यकारेणाऽप्यभ्यधायि / से अभिकक्ममाणे पडिक्कममाणे संकुसेमाणे पसारे-माणे विणियदृमाणे संपरिज्जमाणे / आचा.४ अ०४ उ.।। गुरुचित्तायत्ताई, वक्खाणंगाइ जेण सव्वाइं / / जेण पुण सुप्पसण्णं, होइज्जं आगारिंगियं ॥शा कुसलं जइ सेयं, वायसं (तिद्दिट्ठीए) तस्याचार्यस्य दृष्टिस्तवृष्टिस्तया सततं वर्तितव्यं वए पुज्जा / तह वियसिं न वि कूडे, विरहमियं कारणं पुटवे // 2 // हेयोपादेयेषु। यदि वा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिस्स एव वागमो व्य.१खं.१ऊ। दृष्टिस्तदृष्टिस्तया सर्वकार्येषु व्यवहर्तव्यं तथा (तम्मोत्तीए) तेनोक्ता सर्वसंगेभ्यो विरतिर्मुक्तिस्तन्मुक्तिस्तया सदायतितव्यं तथा (15) गुवविनये वैद्यदृष्टान्तः / / (तप्पुरक्कारे) पुरस्करणं पुरस्कारः सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापन आचार्य्यसेवायां वैद्यदृष्टान्तो यथा॥ तस्याचार्यस्य पुरस्कारस्तद्पुरस्कारस्त स्मिंस्तद्विषये यतितव्यं तथा से जहा एकेई महावाहिगहिए अणुहूअतटवे अणे विण्णाया (तस्सण्णी) तस्य संज्ञा तत्संज्ञातत्ज्ञानंतद्वांस्तत्सज्ञीसर्वकार्येषुस्यान्न सरू वेणं निटिवण्णे। तत्तओ सुविज्जवयणे ण सम्म स्वमतिविरचनयाकार्य विदध्यात्तथा (तण्णिवेसणे) तस्य गुरोर्निवेशनं तमवगच्छि अ जहा विहाणओ पवणे सु विकिरिअं स्थानं यस्यासौ तन्निवेशन:। सदा गुरुकुलवासी स्यादिति भावस्तत्र च | निरुद्धजाहिच्छाचारो तुच्छपच्छभोईमुच्चमाणे वाहिणा नि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 339 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय अत्तमाणवेअणे समुपलप्भारोग्ग पवढमाणतब्भावे तल्ला भनिव्वुइण्णे तप्पडि बंधाओ सिराखाराइजोगे विवाहिसमारुगाविण्णाणेरेणं इट्ठनिष्फत्तिओ अणाकुलभावयाए किरि उवओगेण अपीडिए अव्वहिए सुहलेस्साए ववइ विज्जं च बहू मन्नइ। एवं कम्मवाहिगहिए अणुभूअजम्माइवेअणे विण्णाया दुरकरूवेणं निविण्णे तत्तओ तओ सुगुरुवयणेणं अणुट्ठाणाइणा तमवगच्छीअ पुटवुत्तविहाणओ पव्वण्णे सु किरिअं पव्वज्जं विरुद्धपमायायारे असारसुद्धभोई मुच्च-माणे कम्मवाहिणा निअत्तमाणिट्ठविओगाइवे अणे समुवलब्भ चरणारोग्गं पवमाणसुहभावे तल्लाभनिव्वुईए तप्पडिबंधविसेसओ परिसहोवसग्गाभावे वि तस्स संवेअणाओ कुसलासयविओ थिराशयत्तेण धम्मोवओगाओ सया थिमिए। तेउल्लेसाए वठ्ठई गुरांच बहुमन्नइ जहोचिअं असंगपडिवत्तिए निसग्गपबित्तिभावेणा एसा गुरुई विआहिआ भावसारा विसेसओ भगवंतब्बहुमाणेण जोमं पडिमन्नइ सो गुरुत्तितदाणा अन्नहा किरिआ अकिरिआ कुलडानारी किरि-आसमा गरहिआ। तत्त वेईणं अफलजोगओ विसण्ण तित्तीफलनित्यनायं आवद्दे खुतप्फलं असुहाणुबंधे आयओ गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण अओपरमगुरुसंजोगो तओ सिद्धीरसंसयं एसोह सुहोदए पगिट्टतयणुबंधे भववाहितेगिच्छ नइओ सुंदरं परं उवमा इत्थ न विज्जई। पं. सू०४ सू०॥ से जहेत्यादि / तद्यथा / कश्चित्सत्व: महाव्याधिगृहीत: कुष्ठादिग्रस्त इत्यर्थः। अनुभूततवेदनोऽनुभूतव्याधिवेदन: विज्ञाता स्वरूपेण वेदनाया:। न कंडूगृहीतकंडूयनकारिवद्विपर्यस्त: निर्विणस्तत्वतस्तद्वेदनयेति प्रक्रमः / तत: किमित्याहा सुवैद्यवचनेन हेतुभूतेन सम्यगवैपरीत्येन तं व्याधिमवगम्य यथाविधानतो यथा विधानेन देवतापूजादिलक्षणेन प्रपन्न: सुक्रियां परिपाचनादिरूपांरुद्धयदृच्छाचार: सन्प्रत्यपायभयात्तथातुच्छ पथ्यभोजी व्याध्यनुगुण्यत: अनेन प्रकारेण मुच्यमानो व्याधि ना खसराद्यपगमेन निवर्तमानवेदन: कंडूवाद्यभावात् समुपसभ्यारोग्यं सदुपलभेन प्रवर्द्धमानतद्भाव: प्रवर्द्धमानारोग्यभावः। तल्लाभ- निर्वृत्त्या आरोग्यलाभनिर्वृत्या तत्प्रतिबंधात् आरोग्यप्रतिबंधा-खेतो: शिराक्षारादियोगेऽपि शिरावेधक्षारपात भावेऽपीत्यर्थः। व्याधिसमारोग्यविज्ञानेन व्याधिशमाद्यदारोग्यं तदवबोधेनेय॑थः। किमित्याह। इष्टनिष्पत्तेरारोग्य निष्पतेर्हेतोरनाकुलभावतया निबंधनाभावात्।। तथा क्रियो पयोगेन इति कर्त्तव्यताया बोधेन हेतुना अपीडितो ऽव्यथितो निवातस्थानामनौषधपानदिना। किमित्याह। शुभलेश्यया प्रशस्तभावरूपया वर्द्धते वृद्धिमाप्नोति। तथा वैद्यं च बहुमन्यते। महापायनिवृत्तिहेतुरयं ममेति सम्यक् ज्ञानात् एष दृष्टांतोऽयमर्थोपनय: (एवमित्यादि) एवं कर्मव्याधिगृहीत: प्राणी किंविशिष्ट इत्याह। अनुभूतजन्मादिवेदनः / आदिशब्दा-ज्जरामरणादिग्रहः। विज्ञाता दुःखरूपेण। जन्मादिवेदनाया: न तु तत्रैवाशत्त्या विपर्यस्त इति। तत: किमित्याहा निर्विण्णस्त त्वत: | ततो जन्मादिवेदनाया: किमित्याह। सुगुरुवचनेन हेतुना अनुष्ठानादिना तमवगम्य सुगुरुकर्मव्याधिं च पूर्वोक्तविधानत स्तृतीयसूत्रोक्तेतद्विधानेन प्रपन्नस्सन् सुक्रियां प्रव्रज्यां विरुद्ध प्रमादाचारो यदृच्छया असारशुद्धभोजी संयमानुगुणेन अने न विधिना मुच्यमानः कर्मव्याधिना निवर्तमानेष्टवियोगादिवेदनस्तथा मोहनिवृत्त्या किमित्याहा समुपलभ्य चरणारोग्यं सदुपलंभेन प्रवर्द्धमानशुभभावः। प्रवर्धमानचरणारोग्यभाव: बहुतरकर्मव्याधिविकारनिवृत्त्या तल्लाभनिवृत्त्या तत्प्रतिबंधविशेषात् चरणारोग्यप्रतिबंधविशेषात् स्वाभाविकात् कारणात्परीषहोपसर्गभोवेऽपि क्षुद्दिव्यादिव्यसनभावेऽपि तत्वसंवेदनात् सम्यक्ज्ञानाद्धेतोः। तथा कुशलाशयवृद्ध्या क्षायोपशमिक भाववृद्ध्या स्थिराशयत्वेन चित्तस्थैर्येण हेतु तथा धर्मोपयोगात् इति कर्त्तव्य- ताबोधात्कारणात् सदास्तिमित: भावद्वंदविर हेण प्रशान्तः। किमित्याह तेजोलेश्यया शुभप्रभावरूपया वर्द्धते वृद्धिमनुभवति। गुरुंच बहु मन्यते। भाववैद्यकल्पं कथ मित्याह। यथोचितमोचित्येन असंगप्रतिपत्त्या स्नेहरहितस्तद् भावप्रतिपत्त्या। किमस्या उपन्यास इत्याह। निसर्गप्रवृत्ति भावेन सांसिद्धिकप्रवृत्तित्वेन हेतुना एषाऽसंगप्रतिपत्तिणुर्वी व्याख्याता भगवङ्गिः। किमित्याहा भावसारा तथौदयिकभाव विरहेण विशेषतोऽसंगप्रतिपत्तेः। इहैव युत्त्यंतरमाह। भगवद्हुमानेन अचिंत्यचिंतामणि-कल्पतीर्थकरप्रतिबंधेन कथमय मित्याह। यो मां प्रति मन्यते भावतस्स सुकर्मेत्येवं तदाज्ञा भगवदाज्ञा। इत्थं। तत्वं व्यवस्थितं अन्यथेत्यादि। अन्यथा गुरुबहुमानव्यतिरेकेण क्रियाऽप्यक्रिया प्रत्युपेक्षणादि रूपा अक्रिया सत्क्रिया ताभ्यां किंविशिष्ट इत्याह। कुलटाना री क्रियासमा दुःशीलवनितोंपवासक्रियातुल्या तत: किमित्याहा गर्हिता तत्ववेदिनां विदुषां कस्मादित्याह। अफलयोगतः इष्ट फलादन्यत्फलं मोक्षात्सांसारिकमित्यर्थः। तद्यो गात् एतदेव स्पष्टयन्नाह। विषान्न तृप्तिफलमत्र ज्ञानमल्पं विपाकदारुणं विराधनासेवनात्। एतदेवाह आवर्त्त एव तत्फलं आवर्त्तते प्राणिनोऽस्मिन्नित्यावर्त्तः संसारः। स एव तत्यत स्तत्फलं विराधनाविषजन्यं / किंविशिष्ट आवर्त्त इत्याहा अशुभानुबंधः। तथा विराधनोत्कषेण एवं सफलं गुर्वबहुमानमभिधाय तद्बहुमानमाह (आयत इत्यादिना) आयतो गुरु बहुमान: साद्यपर्यवसितत्वेन दीर्घत्वादायतो मोक्ष: स गुरु बहुमान: गुरुभावप्रतिबंध ऋव मोक्ष इत्यर्थः। कथमित्याह। अवंध्यकारणत्वेन मोक्षं प्रत्यप्रतिबद्ध- सामग्रीहेतुत्वेन / एत देवाह। अत: परमगुरुसंयोगः। अतोगुरु-बहुमानात्तीर्थकर संयोगः। तत: संयोगादुदिततत्संबंधत्वात् सिद्धि- रसंशय मुक्ति रेकांतेन। यतश्चैवमत एषोऽत्र शुभोदयो गुरुबहुमानः। कारणे कार्योपचारात्। यथाऽऽयुघृतमिति। अयमेव विशेष्यते प्रकृष्टतदनुबंध: प्रधानशुभोदयानुबंधस्तथा 2 राधनोत्कर्षेण तथा भवव्याधिकित्सकगुरुबहुमान एव हेतुफलभावात्। न इत: सुंदरं परं गुरुबहुमानात्। उपमाऽत्र न विद्यतेगुरुबहुमाने सुंदरत्वेन भगवद्हुमानादित्यभिप्राय:। पं. सू. टी०॥ (16) नमस्कार आचार्य्यस्य॥ (णमो आयरियाणं) नमस्यता चैषामाचारोपदेशक तयो Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 340 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय पकारित्वादिति ।।भ. श.१ उ०१। || आचार्य्यनमस्कारे फलं यथा। आयरियनमोक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्सातो।। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए ||1|| आयरियनमोकारो, धन्नाणभवक्खयं करेंताणं / हिययं अणुमोयंतो, विसोत्तिया वारतोहोई / / आयरियनमाकारो, एवं खलु वण्णित्तोमहत्थोत्ति। जो मरणंमिउवग्गे, अभिक्खणं कारए बहुसो ||3|| आयरियनमोकारो, सय्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, तइयं हवइ मंगलं || आ.म.२ खं. 1 अ॥ (आचार्य्यस्य मङ्गलत्वम्मङ्गलशब्दे) (17) वैयावृत्यं गुरोः॥ आचार्यस्य वैयावृत्त्यमतिशेषशब्दे (वेयावच्च) शब्दे च॥ ___ आचार्य्यवेयावृत्ते फलं यथा // गुरुवेयावचेणं, सदणाणसहकारिभावाओ॥ विउलं फलमिब्भस्सव, विसावगेणावि ववहारे / / 2 / / व्या०। गुरुवैयावृत्त्येन आचार्यविषयेण भक्तादिदानग्लानताप्रति चरणादिलक्षणे न हेतुना सदनुष्ठाने गुरुगते जिनप्रवच- नार्थप्रकाशनगच्छपालनादौ सहकारिभावो य: सहायक करणं स तथा तस्मात्सदनुष्ठानसहकारिभावत:। किमित्याह। विपुलं महत्फलं कर्मक्षयलक्षणं गुरुकुलवासिनो भवति। कस्मिन्निवेत्याहा इभ्यस्येव सुवर्णलक्षादिमान् महाधनपते रिव। स केन विंशोपकेनाऽपि तदीयद्रव्यविंशतितमभागेनाऽपिा आस्तां सर्वेण व्यवहारे वाणिज्ये क्रियमाणे सति। तथा हि। लक्षपति-संबंधिना लक्षविंशतिभागेनाऽपि। आस्तां सर्वेण सहस्रपंचक लक्षणेन व्यवहारतो वणिक्पुत्रस्य महान्लाभो भवत्येव।गुरोवैयावृत्यमात्रमपि कुर्चन्महत्फलमासादयतिगुरुविषयवैयावृत्त्यमात्रस्याऽपि महत्वादिति। अन्ये त्वाहुः। इभ्यस्य गृहा गतस्य विंशोपकेनाऽपि व्यवहारे सत्कारे इति गाथार्थः। पंचा० 11 वृ०। आचार्यस्य च बलाभियोगमन्तरेणैव मोक्षार्थिना स्वयमेव प्रत्युतेच्छाकारं दत्वाऽनभ्यर्थितेनैव वैयावृत्यादि कर्त्तव्य-मितिच्छाकारशब्दे।। (18) गच्छाधिपति: केन कर्मविपाकेन भवति॥ केन कर्मविपाकेनाऽचार्यो भूत्वा ईप्सितं लभत इति महानिशीथे 2 / चूलि. यथा॥ से भयवं ताकयरेणं कम्मविवागेणं तेणं गच्छाहि वइणा होऊण | पुण इच्छितं समच्छियत्ति गोयमा ! मायापचएणं से भयवं कयरेणं से मायापचए जेणं पयणीकयसंसारे वीसयलपावाय पणावीयविबुहजणे णिदे सुरहिबहुदव्वघयखंडचुन्नसूसकरियसमभावपमाणपागनिप्फण्ण- मोयगमल्लगे इव तस्स भक्खे सयलदुक्खे साणमालए सयलसुहासणस्स परमपवित्ततमस्सणं अहिंसा-लक्खणसमणधम्मस्स विग्धे सम्मग्गला निरयदारभूए सयलअकित्तीकलंकलिकलहवेरायणवनिहाणनिम्मल-कुलस्स णंदुद्धरिसअकज्जकज्जलकन्हमसीखपणे तेणं गच्छाहिवइणा इत्थीभावे णिवितिएत्ति गोयमा! णो तेणं गच्छाहिवइ तेहिएणं अणुमवि माया कया सेणं तहा पुहवइचक्कहरे भवित्ता णयरलोगभीभूए णिटिवण्णकामभोगे तणमिव परिविचाणं तं तारिसं चोद्दसरयणनवनिहीतो चोसठ्ठीसहस्से वरजुवईणं बत्तीससाहस्सीओ अणादिवरनरिंदच्छन्नउईगामकोडीओ जाव ण छखंड-भरहवासस्स णं देविंदोवमं महारायलछित्तीयं बहुपुन्नचाईए णीसंगे पव्वइएय थोवकालेणं सयलगुणोहधारी महातवस्सी सुयहरे जाए जोगेणाऊणं गुरूहिं गच्छाहिवई समणुनाए तहेव गोयमा! तेणं सुदिष्ठसुग्गइपहेण जहोवइसमणठणं माणेणं उग्गाभिग्गहविहारत्ताए घोरपरिसहोवसम्महियासणेणं रागहोसकसायविवज्जणेणं आगमाणुसारेणं सुविहिए गणं परिचालणेणं आजम्मसमणा कप्पपरिभोगवज्ज णेणं छकायसमारंभविवज्जणेणं ईसंपिदि व्वोरालियमेहुणपरिणामविप्पमुक्को णं इह परलोगासंसाइणियाणमायाइसल्लविप्पमुक्केणं णीसल्लालोयणनिंदणगरहणणं जहोव वइपायछित्तकरणेणं सव्वत्था पडिबद्धत्तेणं सव्वपमायालंबणं विप्पमुक्के णइ पइणिढिअवसे सीकए अणे गभवसंचिए कम्मरासी अण्णेगभवे तेणं माया कया तप्पव्वईणं गोयमा! सविवागे से भयवं कयरा उ ण अन्नभवे तेणं महाणुभागेणं मायाकया जीएणं एरिसो दारुणवि वागो गोयमा ! सेणं महाणुभागस्स गच्छाहिवईणोजीवेण। णूणाहिएयणा फलं लक्खइमेव भवग्गहणा!। आचार्य्यस्य प्रायश्चित्तं महानिशीथे. अ६ यथा० // से भयवं जेणं गुरु सहस्साकारेणं अन्नयरे ठाणे चुकेज्ज वा खलेज्ज वा सेणं आराहगेण वा गोयमा ! गुरूणं गुरुगुणे सु वदृमाणो अखलियसीले अपवादी अणालस्सी सव्वालंबणविप्पमुक्केसमसतुमित्तपक्खे समग्गपक्खवाएजावणं कहाभणिरे सद्धम्म जुत्ते भवेज्जाणो णं उम्मग्गदेसए अहमाणुरए भवेज्जासम्वहा सपयरिहिणं गुरुणा ताव अप्पमत्तेणं भवियव्यं। णो णं पमत्तेणं जउणपमादी भवेज्जा सेणं दुरंतपंतलक्खणे अदट्ठय्वे महापाठे जईणं सवीरिए हवेज्जा। तेणं कयदूधरियं जहावत्तं सपरसीसगणाणं पक्खा-विय जहा दुरंतपंतलक्खणे अदहटवे महापावकम्मकारी संमग्गं पणासेउ अहयंतिएवं निंदित्तागरहित्ताणं आलोइत्ताणं च जहा भणियं पायच्छित्तमणुचे रज्जा। सेणं किं उद्देसेणं आराहगे भावज्जा। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 341 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय जइणं नीसल्ले नियट्ठी विप्पमुक्के न पुणो संमग्गाउ परिभसेज्जा अट्ठाणं परिभस्स तओ णाराहेइ॥ आलोचनाया अप्रदाने आचार्यस्य प्रायश्चित्त (मालोयणा) शब्द।। आचार्यस्यावश्यकप्रमादे प्रायश्चित्त (मावस्सग) शब्दे। (19) अतिशया आचार्य्यस्य। आचार्य्यस्य पञ्चातिशया (अइसेस) शब्दे॥ आचार्यस्य बहिर्गमने दोष: (अइसेस) शब्दे, (निग्गमन) शब्दे च॥ आचार्यस्य संज्ञाभूमिगमन (मइसेस) शब्दे (थण्डिल) शब्दे च। गोचरचा कारणेऽसत्याचाप्येण न गंतव्येति (अइसेस) शब्दे | (गोयरचरिया) शब्दे च। आचार्य्यस्य शुद्धवस्त्रंकीदृशम (इसेस) शब्दे!। उपाश्रयस्याऽन्तर्बहिर्वा निवसन्नाचार्यों न दुष्यतीत्य (इसेस) शब्दे वसतिशब्दे च॥ आचार्यस्याचारप्रकल्पे भ्रष्टे कर्तव्यता (आयारपकप्प) शब्द। आचार्य: स्मरन्नस्मरन् वा कल्पाकं उपस्थापयेन्नोपस्च्छा-पयेद्वा तत्र कर्त्तव्यता (उवठ्ठाण) शब्दे॥ आचार्योपसम्पत् (उवसंपया) शब्दे| आचार्य प्रमादिनि शिष्याणां गणान्तरोपसंपत्ति: (उवसं-पया) शब्दे॥ आचार्यादौ मृतेऽन्यस्योपंसपत् (उवसंपया) शब्दे। संयमसंरक्षणार्थमन्यत्रोपसम्पद्येततत्र दृष्टान्तादिः (उवसंपया) शब्दे / / वर्षास्वाचार्येकालगतेऽन्यत्रोपसम्पत्तिः (उवसंपया) शब्द आचार्यस्य कृति: (कम्म) शब्दे!! आचार्यस्य तीर्थकरसमानत्वं (वेयावच) शब्दे। भिक्षुणा कृत: शिष्य आचार्यस्येति (सीस) शब्द।। आचार्य्यस्तुति: (थुई) शब्दे॥ (20) निर्ग्रन्थीनामाचार्यः।। श्रमणीनामाचार्य्यावश्यकता यथा // आयरियउवज्झातो, तइयाय पत्तिणीओ समणीणं / / आणसि अट्ठाएत्ती, होइ एएसि तिण्डंपि॥ श्रमणीनामाचार्य उपाध्यायस्तृतीया प्रवर्तिनी च भवति। श्रमणानां त्वाचार्योपाध्यायास्ततोऽन्येषामर्यायति यदुत्तं सूत्रद्वयेऽपि व्याख्यातम्। व्यरखं. 7 ऊ॥ तथा च व्यवहारसूत्रम्॥ तिवासपरियाए समणो निग्गंथे तीसवासपरियाए सम णीए निग्गंथीओ कप्पइ उवज्झायताए उदिसित्तए धारित्तए / वा पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सट्ठिवा सपरियाए समणीए निगथिए कप्पइ आयरियष्टाए उद्दिसित्तए॥१६॥ व्याख्या। त्रिवर्षपर्यायश्रमणो निग्रंथस्त्रिंशद्वर्षपर्यायाया: श्रमण्या: कल्पते उपाध्यायतया उद्देष्टुंपंचवर्षपर्याय: श्रमणो निग्रंथः। षष्टिवर्षपर्यायायाः / श्रमण्या निग्रंथ्या: कल्पते आचार्यतया उपाध्यायतया उद्देष्टुमिति एष सूत्राक्षरार्थ:।। संप्रति भाष्ये विस्तर:।। तइयंमिउ उद्देसे, दिसासु जा गणहरा समक्खाओ / / सो चेव य होइइहं, परियातो वण्णितो नवरं / / तृतीये उद्देशे दिक्षु आचार्योपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणा-वच्छेदिरूपासु यो गणधर आचार्य उपाध्यायो वा समाख्यात: स एव इहाऽपि भवति ज्ञातप्पा नवरमिह पर्यायोऽधिको वर्णित: तत् स एव प्रबंध्यते॥ तेवरिसो, तीसिया, जहणचत्ताए कप्पइ उवज्झे। वितियाए सहि सयरा, यजम्मणयणवास आयरितो।। त्रिवर्षविवर्षपर्याय उपाध्याय कल्पते त्रिंशकायस्त्रिंश-वर्षपर्यायाया जन्मना जन्मपर्यायेण जघन्यतश्चत्वारिंशकायश्चत्वारिंशद्वर्षपर्यायाया उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिकायाश्चत्वारिंशत्कथं स्यादिति चेदुच्यते। दशवर्षजाताया; प्रव्रज्यायाः प्रतिपत्तिस्त्रि- शद्वर्षाणि व्रतपर्याय एवं चत्वारिंशत्तथा द्वितीयस्याः श्रमण्या निग्रंथ्या: षष्टिवर्षव्रतपर्यायाया जन्मतो जघन्यत:सप्तती:सप्त-तिवर्षपर्याय आचार्य: कल्पतो उत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटिकाया जन्मन: सप्ततिवर्षाणि कथं भवंतीति चेदुच्यते। दशवर्षपर्याया-या: प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः प्रव्रजिताया: षष्टिवर्षाणीति / / गीयागीतावुड्ढाव, अवुड्ढा जाव तीसपरियाया। अरिहति तिदुसंगहंसा, दुसंगहंसा भयपरेणं॥ गीता चागीतार्था वा भवतु अगीता वा गीतार्था वा तथा वृद्ध्या वाभवतु। अवृद्ध्या वा यावत्रिंशवर्षपर्याया:तावन्निय मात् त्रिसंग्रह त्रयाणामाचार्योपाध्यायप्रवर्तिनीनां संठाहमर्हति दु:संग्रह वा भयं पारणं त्रिंशद्वर्षपर्यायात्परतोऽभवद्गीता वि कल्पना त्रिसंग्रहमुपाध्यायस्य प्रवर्तिन्या वा अरोधतः। एतदेव भावयति।। वयपरिणया य गीया, बहुपरिवारा य निध्वियाराव। होज्जउ अणुवज्झाया, अप्पवत्तिणिजाव सठ्ठीओ।। वयसा परिणता गीतार्था बहुपरिवारा निर्विकारा च सा यावत्षष्टिस्तावदनुपाध्याया वा भवेदप्रवर्तिनी वा एवं भवति द्विसंग्रहिका। एमेव अणायरिया, थेरी गणिणा व होज्ज इयरीय / कालगतोसण्णाएव, दिसाए धारेंति पुव्वदिसं। षष्टिवर्षेभ्य:परतो गणिनी प्रवर्तिनी इतरा वा अप्रवर्तिनी स्थविरा अनाचार्या भवेत्। कथमित्याह (कालगतोसन्नाए वेत्यादि) कालगतायामवसन्नायां वा दिशि आचार्यलक्षणायां षष्टिवर्षेभ्य: परतो वर्तमाना आर्यिका धारयंति पूर्वी दिशमे वमनाचार्या भवंति। किंकारणं संयतीनामवश्यं संग्रहीष्यते तत आह॥ बहुपचवाय अज्जाउ, नियमा पुण संगहे अपरिभूया। संगहिया पुण अज्जा, थिरथावरसंजमा होइ॥ आर्या पुनर्बहुप्रत्यवाया तत: संग्रहे सति नियमात्परिभूता-भवति। पराभवस्थानमुपजायते संगृहीता पुनरार्या स्थिरस्था वरसंयमा भवति। तत: संग्रह इष्यतो अथ केअपाया इत्याहा पेसी अइया दीया,जे पुष्वमुदीहट्ठा अवायाउ।। ते सव्वे वत्तवा,दुसंग वन्नयं तेणया। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 342 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय पूर्व कल्पाध्ययने द्विसंग्रहं वर्णतया ऐसीअजिका आदि शब्दा- त्रिवर्षपं- चवर्षपर्यायरित्रशत्षष्टिवर्षपर्यायाणामपि गीतार्थानामपि दीयते। त्कुलपुत्रभोजिकादिपरिग्रहः। इत्यादिका उदाहृता अपायास्ते सर्वेऽत्रापि व्य,२ खं, 7 उ वक्तव्यास्ता बहूपायदर्शनत: संग्रहो मन्येत तदेव दृढयति। (21) आचार्य कालगते आचार्यान्तरस्थापनं / / अज्जाउविउलरवंधा, लता वाएण कंपते जले वा।। (1) आयरियउवज्भाए गिलायमाणे अन्नत्तरं विवज्ज अज्जो नावा अबंधणावा, उवमाएस असंगहे होइ।। माएणं कालगत सि समणं सि अयं समुक सियवे सेय अजातविपुलस्कंधा यथा वातेन लता कंपते जले वा / यथा अबंधना समुक्कसणारिहि समुक्कसियवे णो समुक्कसिणारिहि णो समुबंधनरहितानौरेषा असंग्रहे उपमयाऽप्यसंगृहीता राती बहुप्रत्यवायवा कसियवे अत्थि यो अत्थ अण्णे के ई समुक्त सिणारिहे से तोत्कलिकाभिरितस्तत: संयमात्कम्पते इत्यर्थः / समुक्कसियवे णत्थिया अत्थ केइ अन्ने समुक्कसिणारिहे सो चेव समुक्कसियव्वे। तेसिं चणं समुकसि परावेएज्जा दुसमुकठंति दिटुंतो गुव्विणीए, उ कप्पट्ठगबोधिएहि कायवो।। अज्जो णिक्खिवाहितस्स णं णिखिवमाणस्स वा पत्थि केई गब्भत्थे रक्खंती, सामत्थंरवदुए अगडे / / अत्थे एवापरिहारे वा जे तं साहम्मियं अहाकप्पाणं णोअब्भुटुं अत्र लोके दृष्टान्तो गुर्विण्या कर्त्तव्यो लोकोत्तरे कल्पस्य- कबोधिके तेसिं व सव्वेसिं तप्पति यं छे एवा परिहारे वा / / व्य. सू. उ.४।। क्षुल्लकाचौरे: तत्र गच्छे पुत्र स्वगोत्रराजादयस्ता रक्षति स एष पुत्रप्रभावः। (आयरिय उवज्झाए गिलायमाण) मित्यादि अथास्य सूत्रस्य क: संबंध अवटे गते चौरे क्षुल्लकस्य तन्मारणाय सामर्थ्यपर्यालोचनं सोऽप्येष इत्यत आह॥ पुरुषस्य प्रभावस्तत्र प्रथमतो गुर्विणी दृष्टांतं विभावयिषुस्तावदिदमाह।। आयरियत्ते पगते, अणुयत्तं तेयकालकाणंमि। सगोत्तरायमादीसु, गन्भत्थोवि धणं सुतो।। गच्छे सावेक्खोवा, वुत्तोइ मतो वि सावेक्खो।। रक्खए मायरं चेव, किमुता जायवद्वितो / / आचार्यत्वं पूर्वसूत्रेषु प्रकृतमनुवर्तमानं च कालकरणं तत आचार्यत्वे गर्भस्थोऽपि यत: स्वगोत्रराजादिषु धनं जिघृक्षुषु धनं रक्षति मातरं च प्रकृते अनुवर्तमानमेवाकालकरणे इदमपि सूत्र माप- तितमत्राऽप्याकिं पुनर्जात: प्रवर्द्धितश्च ससुतरां रक्षति। सूत्रं यथा गर्भस्थोऽपि रक्षति चार्यव॑स्य कालकरणस्य वाभिधास्यमानत्वात् यदि वा पूर्वमर्थत: सापेक्ष तथा प्रतिपादयति // उक्तोऽयमपि चाधिकृ तसूत्रे णाभिधीयमानः सापेक्ष इति वणिएपरायसिद्धे, गम्मिणिधणमच्छ धूपसूयाए। सापेक्षत्वप्रकरणादनंतरमस्य सूत्रस्योपनिपात:। अनेन सबंधनायातस्य सव्वं सुयस्स दाहं,धूया पवत्तवेवाहे / / व्याख्या।। आचार्य उपाध्यायो वा धातुक्षोभादिना ग्लायन् एको वणिक् तस्य भार्या आपन्नसत्त्वा स वणिक कालग- तस्तत: अन्यतरमुपाध्यायप्रवर्तिगणावच्छेदक-गीतार्थभिक्षुणामन्यतमं सापेक्ष: फेनाऽपि राज्ञः शिष्टं देव ! गुर्विण्या धनमस्ति राज्ञोक्तं तिष्ठतु तद्वित्त / यदि सन् वदेत्। आय! मयि कालगते सति अयं समुत्कर्षयितव्य: आचार्यपदे स्छुापयितव्यः। सचेत्परीक्षया समुत्कर्षणा) भवति ति। ततः प्रसूताया:सुतो भविष्यति / तत: सर्वं सुतस्य दास्यामो दुहितरि च समुत्कर्षयितव्यो नोचेत्समुकर्षणार्हस्तर्हि नो समुत्कर्षयितव्यः। अछूयो जातायां यावता भक्तं यावताच विवाहस्तावन्मानंदास्यामः। एवं गच्छोऽपि ऽसौ पूर्वमाचार्येण समीक्षित: सोऽभ्युद्यतविहारमभ्युद्यतमरणं वा गर्भस्थोऽपि सुतो राज्ञ:स्वगोत्रेभ्यश्च धनं रक्षति मातरं च। अन्यथा स्वगोत्र व्यवसितसूत्रमाह। अस्ति चात्र गच्छेऽन्यः कश्चित्समुत्कर्षणार्हः स जैराज्ञा चाद्यापि तव पार्थे धनमस्तीति बहुधा विलुप्यते // भावित समुत्कर्षयितव्यः अथ नास्ति कश्चिदन्यः समुत्कर्षणार्हस्तर्हि स लौकिकमुदाहरणमधुना लोकोत्तरं भावयति / / एवाभ्यर्थ्यः समुत्कर्षयितव्यः। तस्मिंश्च समुत्कर्षित परोगच्छे वदेत्तं लोउत्तरिए अज्जा, खुल्लग वोहिहरणं पसरणीयं / / दु:समुत्कृष्टं ते तव हेआर्य! तस्मान्निक्षिप एवं तस्य निक्षिपतो नास्ति चोरो मरणं कूवे, सामत्थण चारणा लेट्ट।। कश्चिछेद: परिहारो वा। उपलक्षण- मेतदन्यतपो वा सप्तरात्रादिकं ये लोकोत्तरिकोऽयं दृष्टांतः। क्वचिद्ग्रामे मालवशबरानीकमाप तितं। तत्र पुन: साधर्मिका गच्छसाधवो यथा कल्पेन आवश्यकादिषु कैश्चिद्वौधिकैश्चौरैरार्यिकाणामेकस्य क्षुल्लकस्य हरणं कृतं। ते चौरा यथोक्तविनयकरणलक्षणेन नोत्थाय विहरंति तेषा सर्वेषां प्रत्येक अन्यस्यैकस्य चौरस्यार्जिका: क्षुल्लकं च सम- प्ऽन्यस्य हरणाय तत्प्रत्ययं यथा कल्पनेऽभ्युथानप्रत्ययश्छेद: परिहार: सप्तरात्रं वा तप: गता: / स चैव चौरस्तृपापीडित: सन् कूपे पानीयायावतीर्णः। ततः प्रायश्चित्तमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। एनमेव भाष्यकृत्प्रपंचयन्प्रथमतो क्षुल्लकश्चितयति। वयमिति वयमे- तावत्संख्याका बहवोऽयमेकस्तत: गिलायमाण इत्यस्यार्थ भावयति।। किमेक स्यापि न प्रभविष्याम इति विचित्य ता आर्यिका भणिताः। अतिसयनरिट्ठतो वा, धातुक्खोभेण वा धुवं मरणं। पाषाणपुंजमेन कुर्मस्ता नेच्छंति न: मारयिष्यतीतिकृत्वा तत: क्षुल्लकेन ना सावेक्खगणी, भणंति सुत्तम्मि जं वुत्तं // तद्वचः श्रुत्वा महानेक: पाषाणस्तस्योपरि मुक्तस्तत: पश्चात्ताभिः अतिशयेन श्रुतज्ञानातिशयादिना अरिष्टतो वा अरिष्टदर्शनतो वा सर्वाभिरेक- कालं पाषाणा मुक्तास्तत: पाषाणपुंजे धातुक्षोभेण या ध्रुवं मरण ज्ञात्वा सापेक्षा गच्छापेक्षोपेता गणिनो यत्सूत्रे नाक्रांतश्वोरोमरणमुपा-गमत् / ततः क्षुल्लकेन तास्ततो निष्काशिता उक्त (मज्जोकालगयमी) त्यादि तद्भणंति सांप्रत (मन्नतरं चएज्जा) एवं क्षुल्लको रक्षति किपुनर्महान्ततएतेन कारणे नउपाध्याय आचार्यश्च इत्यस्यार्थमाह / / Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 343 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय अन्नयर उवज्माया, दिगाउ गीयत्थपंचमा पुरिसा। उकसणमणणत्तिय, एगढ ठावणा चेव // उपाध्यायादिका उपाध्याय प्रवर्ती गणावच्छेदको गणी गीतार्थश्च भिक्षुरित्येवं रूपा गीतार्थपंचमा: पुरुषाः तेषामन्यतमोऽन्यतर: समुत्कर्षणं मननं स्थापना आचार्यत्वस्थापनमित्यर्थः।।। पुटवं गावेति गणे, जीवंतो गणहरं जहा राया। कुमरेउ परिच्छित्ता, रज्जरिंह ठावए रज्जे॥ पूर्वमेव जीवन्नाचार्यो यःशक्तिमान्तंगणघरं ठाणे स्थापयति। यथा राजा कुमारान्परीक्ष्य यःशक्तिमत्तया राज्यार्हस्तं राज्ये स्थापयति। कथं परीक्षेत्यत: परीक्षाविधिमाह // दहि कुड अमच आणत्ती, कुमारा आतिणएतहिएको। पासे निरिक्खिऊणं, असिमंति पवेसणे रज्जं // 1 // एगो राया बहुपुत्तो, सो चिंतेइ जो सत्तिमंतो। तं रज्जे ठावेहामि, ततोकुमारे परितच्छिउ माढत्तो // 2 // आणत्ता पुरिसादहि, घडगे एगत्थओगासे। ठवेह तेहिं ठवेत्ता, रण्णो निवेदियं अमव्वोभणितो / / 3 / / विच्छं तुम दहिघडाणं, पासे अत्था हिगतोअमन्यो / अन्नाते कुमारा सदाविता, भणिया वत्थदहिघडमेक्के कं / / 4 / / आणेह सेगया अण्णं, वहंतयं न पासंति। ततो ते अप्पासेंता सयं चेव दहिघडमेक्के कं ||5|| घेत्तुंसंपवियाएकोकुमारो, पासाणि निरिक्खेत्ता अण्णं च।। हंतयमपासंतो अमचं भणति दहिघडं अमचे / / 6 / / नेच्छइ कुमारेण असिं उज्जिरिऊण भण्णइजइनेच्छसि सीसतेपाडेमि अमवेणगहितो, दहिघडो कुमारो तं घेत्तुं गतो रायसमीवं।। रण्णा एस सत्तिमंतोत्ति परिक्खि त्ता रज्जेठवितो / / 7 / / अक्षरयोजनात्वियं। दधिकुटा एकत्र राज्ञा पुरुषैः स्थापितास्तदनंतरममात्यस्याज्ञप्ति: प्रदत्ता। यथा घटानां पार्श्वे तिष्ठा तत कुमारा दधिघटनामानयने निरोपितास्तत्रैक: कुमार; पावत् निरीक्ष्याऽन्यमपश्यत् अमात्यस्योपरि असिरुद्रारितस्ततो मंत्रिणा दधिघटो गृहीतस्तेनदधिघटस्य प्रवेशने कुमारेण कारिते दृष्टे तस्य कुमारस्य राज्य दत्तवान्। अत्रोपनयमाह॥ दसविहवेयावाव्वतिउ, कुसलज्जयाणमेवं तु। ठाउँति सत्तिमंतं, असत्तिमंते बहूदोसा। एवमाचार्योऽपि दशविधेवैयावृत्ये उद्यतानामुदयतमतीनां मध्ये (कुसलत्ति) यो यत्र कुशलस्तस्य तत्र नियोगं करोतितंतत्र नियोजयति। यस्तं शक्तिमंतं गणधरं स्थापयति अशक्तिमति तु स्थाप्यमाने बहवो दोषाः के ते इतिचेदुच्यते। सोऽशक्तिमत्वेन शक्नोति साधून यथायोगमनियोक्तुं। तत आहारोपधिपरिहा- निर्निर्जरातश्च ते परिभ्रश्यति। अथाशुकारणत: पूर्वन स्थापितं स्यात्ततोऽपस्थापिते गणधरे स कालगतो न प्रकाशयितव्य इत्यादि पूर्वोक्तमपि च सातव्यम्॥ अथैव विधिशेषमाह। दोमादीगीयत्थे पुष्वुत्त, गमेण सति गणं विभए। मीसेव अणरिहे वा, अगीयत्थे वा भएज्जाहि।। आचार्येण शिष्या निर्मापितास्ते द्वौ त्रयश्चत्वारो वा भेवयु स्तेषुद्यादिषु गीतार्थेषु सति प्रभवति परिवारे पूर्वोक्तागमेन तृतीयोद्देशकोत्तेन प्रकारेण गणं विभजेत् तेषु सर्वेष्वपि विभज्य पृथक् 2 गणोदातव्य इत्यर्थः।। तथा मिश्रानाम तेषामाचार्यशि- ष्याणां मध्ये के चित् गीतार्थाः केचिदगीतार्थास्तानपी विभजेत्। किमुक्तं भवति / यो गीतार्थास्तान् गणधरपदे स्थाप्य तया पृथक् कुर्यादितरांस्त्वगीतार्थननर्हतया अथवा यैरों देशतो गृहीतो न देशतो गृहीतस्ते मिश्रास्तान् विभजेत् एते मिश्रा अपि योग्या एते त्वयोम्या इति विभागेन स्थापयेत्तथा ये शरीरेण जुंगिकतया*सर्वथा गणधरपदान स्तानपि विभजेत् वाशब्दोऽपि शब्दार्थः॥ एकांतेनाऽयोग्यतया पृथक स्थापयेत् अगीतार्थत्वान्न भजेत्। इयमत्र भावना। योऽगीतार्थानामाचार्यलक्षणोपेतास्तान- नर्हतया स्थापयति ये पुनरगीतार्था अपि संभाव्य श्रुतसंपदा आचार्यलक्षणोपेतास्तान योग्यतया पृथक् स्थापयति।। संप्रति मिश्रपदव्याख्यानार्थमाह / / गीयागीया मिस्सा, अहवा अत्थस्स देसो गहितो उ। तत्थ अगीया णअरिहा, आयरिय तस्स होतीउ॥ केचित् गीता गीतार्था केचिदगीतार्था एते मिश्रा अथवा अर्थस्य देशो यैहीतस्ते मिश्रास्तत्र ये अगीता आचार्यलक्षणपरिभ्रष्टाश्च ते आचार्यत्वस्याऽनर्हा भवंति।। संप्रति "सेयसमुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वो नासमुक्कसणारिहे णो समुक्कसियव्वे, इत्यस्य भावार्थमभिधित्सुः प्रथमत: पूर्वपक्षमुत्था पयति॥ कहमरिहो वि अणरिहो, किंतु हु असमिक्खकारिणो थेरा। ठावेंति जं अणरिहं चोयग ! सुण कारणमिणं तु // परो ब्रूते। कथं पूर्वमाचार्यविद्यमानवेलायाम)ऽपि सन्पश्चादन) जातो येनोच्यते। स चेत्समुत्कर्षणार्हस्ताहि समुकर्षयि- तव्यः। किंतु वितर्के वितर्कयामि / हु निश्चितमसमीक्षितकारि स्थविरा आसीरन्। यदनह स्थापयंतिा यथायं समुत्कर्षयितव्य: अत्र सूरि:- प्राहा चोदक ! शृणु कारणमिदं येन पूर्वमहा॑ऽपि पश्चादन) जात:।। तदेव कारणमभिधित्सुरगाथामाह॥ उप्पियणभीतसंदिसण, देसिए चेव फरुससंगहिए। वायगनिप्फावग, अण्णसीसइच्छाअहाकप्पो॥ (उप्पियणं) मुह:स्वसनं तद्वारं भीतसंदेशनद्वारमदेशिक द्वारं परुषद्वारमेतानि चत्वार्यपि प्रस्तुतार्थविषयाणि। संग्रहद्वारं वाचकनिष्पादकं द्वारमन्यशिष्यद्वारमिच्छाद्वारं यथा कल्पद्वारमित्येतानि संग्रहादीनिद्वाराणि (अत्थियाइंच अण्णे समुक्कसणारिहे) इत्यादि सूत्रविषयाणीति द्वारगाथा संक्षेपार्थः।। संप्रति उप्पियणद्वारं विभावयिषुराह / / सन्निसेज्जागयं दिस्सा, सिस्सेहिं परिवारियं / *हस्तपादादिशरीरविकलतयेत्यर्थः / Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 344 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय कौमुदी जोगजुत्तं व तारापरिवुडं ससिं // 2 // गिहत्थपरतित्थाहिं, संसयस्थिहि निचसो। सिविज्जंतं विहगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं / / 2 / / खज्जडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जए। गणस्स गिलाकुम्वंतं संगहं विसएसए / / 3 / / इंगियागारदकेहि सया छंदाणुवत्तिहिं। अविक्कडियनिहेसं रायाणंच अनायकं ||1|| सती नाम शोभना स्वकीया ये निषद्या सन्निषद्या तस्यां गतमुपविष्टं शिष्यैःपरिवारितमित्थभूतमुपमयति। कौमुदी कार्तिकी पौर्णमासी तद्योगयुक्तं तारापरिवृतं शशिनमिव |क्षा तथा गहस्थैः परतीर्थिभिः संशयार्थिभिश्च साधुभिर्नित्यशः सर्वकालं सेव्यमानं किमिवेत्यत आह (कमलोज्जलं) कमलपरिमंडितं सर इव विहगैः पक्षिभिस्तथा ॥शा (खज्जूडान्) कुस्वभावान् अनुशासंतं सम्यक् उद्यता: समुद्यतास्तान् श्रद्धापयंत तेषां महतीं श्रद्धामुत्पादयंतं तथा गणस्य गच्छस्य अगिलया निर्जरार्थ मात्मोत्साहन स्वकेविषये आत्मीयया शक्तया इत्यर्थः। संग्रह कु वतं / / 3 / / तथा इंगिताकारदःच्छंदोऽनुवर्तिभिः सदा सर्वकालमविकटित-निर्देशमखंडिताज्ञं राजानमिव अनायकं न विद्यते नायको यस्य तस तच्छा। तंचक्रवर्त्तिनमिवेत्यच्छः। दृष्ट्वाकश्चिदगीतार्थ उत्पन्नगौरवो भवति। उप्पन्नगारवे एवं,गणित्ति परिकंखिओ। उप्पियंतं गणिं दिस्सा, अगीतो भासेइ इमं॥ उत्पन्नमभिलषणीयतया जातं गौरवं यस्य स तच्छा। एव महमपिगणी भवामि गणिपदमवाप्य परिपालयामि / तत: शोभनं भवतीत्येव परिकांक्षित: परिकांक्षावान् गणिनमाचार्य मुप्पियतं मुहुर्मुहुः श्वसंतं मर्तुकाममलिंगं दृष्ट्वा कश्विदगीतोऽगीतार्थः कथ- महं गणधरो भविष्यामीति विचिंत्य यथा गच्छवर्त्तिन: साधवः शृण्वंति। तछ्रा मातृस्थानत इदं वक्ष्यमाणं भाषत। तदेवाह॥ अलं मइझ गणेणंति, तुम्मे जीवइ मे चिरं। किमेयं तेहि पुट्ठोउ, दिव्वए मे गणो किल॥ अलं पर्याप्तं मम गणेन यूयं मम पुण्योदयेन चिरं प्रभूतं कालं-जीवथा | ततस्ते गच्छवर्त्तिन:साधवस्तस्यागीतार्थं ब्रुवते। कि- मेतत्त्वं ब्रूषे। यथा अलं मम गणेना एवं तै: पृष्ठ:सन्सोऽगी-तार्थोवक्ति। क्षमाश्रमणै:किल मे गणो दीयते। तत एवमुक्तं मयेति। अथवा उप्पियणद्वारस्यायमर्थः / अठ्ठाविऋव पुटवंतु, गीयत्था उप्पियं तए॥ आमदाहा मो एयस्स, संमतो एस अम्मवि|||| गीयत्थो पवयत्थो य, संपुण्णसुहलक्खणो।। सम्मतो एस सध्वेसिं, साहू ते ठावितो गणेशा वाशब्दः प्रकारांतरद्योतने। पूर्वमस्थापितेगणधरे म्रियमाण आचार्य: किल (उप्पियंतित्ति) मुहुर्मुह: स्वसिति तं च तथाभूतं दृष्ट्वा गीतार्थश्चिन्तयति आचार्यस्य वाङ् नास्ति यया ब्रूते यथा अमुकं साधु गणधर स्थापयथा माभूत् सा वाणी वयमेव गच्छ-वर्तिन:साधून भणामो यथाचार्यरमुकोगणधरपदे संदिष्ट इति। तथा- चोपायं करिष्यामो यथा गच्छसाधूनामकंपनीयो भवतिा एवं चिन्तयित्वा गच्छसाधवः शृणवंति। तथाबुवते "आमदाहामोएयस्सत्ति / इच्छामः क्षमाश्रमणाश्च तस्यामुकस्यदास्यामोगणधरपदमस्माकमप्येष सम्मतोयत एष गीतार्थो वयस्थ: सपूर्णानि शुभानि लक्षणानि यस्याऽसौ स संपूर्णशुभलक्षणस्तथा एष सर्वेषां साधूनां समतस्ततस्ते त्वया गणेस्थापितः। एवमेतौ द्वौ प्रकारा बुप्पियणद्वारेण व्याख्या तौ। एतौ द्वावपि जनौ यदि पूर्वमाचार्येण समीक्षितौ यथान विति तदा न कश्चिदाचार्याणामसमीक्षितदोषः। गतमुप्पियणद्वारम् / / अधुना भीतसदेशद्वारमाह। असमाहियमरणं ते, करेमि जइ मे गणं न देसि। इति गीतेउगीते, संदिसए, गुरु तओ भीओ॥ कश्चिदगीतार्थ: पापीयान् प्रत्यासन्नमरणमाचार्यमवगम्य ब्रूते। यदि मे मां गणं न ददासि ततस्तेऽसमाहितमरणंतथा करो"मिवर्तमानसमीप्ये वर्तमानवद्वे'' ति वचनात् प्राकृतत्वाद-विष्यति। वर्तमाना ततोऽयमर्थः। करिष्यामि यथा दीर्घ कालं संसारे भ्रमसि तत एवमुक्तेतस्य भीत आचार्यो गीतो गीतार्थां देशकालपुरुषौचित्यवेदनात् गीतार्थान् स दिशति यथैतस्मै मया गणो दत्त इति गीतार्थाश्च विदितकारणाब्रुवते। आमंति वोत्तुं गीयत्था, जाणंताकरणं तमु / कयट्टेवं तुनि हे, अतिसीसेय संवसे॥ आम इच्छाम इति उक्ता गीतार्थस्तत्करणं जानंत: कृतार्थे निर्यापिते आचार्ये तं दुष्टाभिप्राय निहंति निष्काशयंति। एवमेषोऽन)भवति। अथातिशेषेऽतिशयज्ञानी जानातीति यथा सांप्रतमेव निर्दोषीभूत:स वा तस्मात् स्थानात् गुरुजनसमक्षं प्रतिक्रांतस्ततः संवास्यते!! गतं भीतसंदिसणद्वारम्॥ इदानीमदेशिकद्वारमाह / / अरिहोवि अणरीहो, होइ जो उतेसिमदेसितो।। तुल्लदेसीव फरुसो, महुरोव असंग्गहो।। एक आचार्यस्तस्य षट्कुडुक्का:। तेषां मध्ये एक आचार्ये ण गंणधरपदे समीहितोऽन्ये चाचार्यस्य शिष्या: सिंधुदेशादिषु विहरंति। ते सिध्वादिषु विहृत्याऽचार्यसमीपमागता:। एकं कुडुक्कमाचार्यसमीहितं मुक्त्वा अन्ये सर्वे कुडुक्का: केचित् कालगता: / केचित्प्रतिभग्ना एवं सकुडुक्क: कुडुक्क देशो- गवस्तेषां सैन्धवादीनामनो जातो येन ते तस्य भिन्न देशि-कत्वादुल्लापनं परियछंति। अक्षरयोजनात्वेवमर्होऽप्यन) भवति। यस्तेषां तत्कालभाविनां साधूनामदेशिको मिन्नदेशिको यथा सैन्धवादीनां कुडक्क इति / गतमदेशिक द्वारम्॥ अधुना परुषद्वारमाह।। (तुल्लदेसीवफरुसो) तुल्यदेशीय: पूर्वसमीहितो गणधरपदेस पश्चात्परुषभावोजात: परुषत्वाचप्रतिचोद्यमान आक्रोशति आक्रोशांश्चासहमानानामुत्संखडादिकं कुर्वन् गच्छभेदं करोति। एवमेष पश्चाद नर्हः। सप्रति (अत्थियाई अण्णे समुक्कसणारिहे) इत्य स्यार्थ विभावयिषुः संग्रहद्वारमाह (महुरो व असंग्गहो) यैः पूर्वं समीहित: स सत्यपि मधुरत्वे असंग्रहो न संग्रहशील: अन्यस्तु संग्रहशील: स समुत्कयत नेतर इतिी सांप्रतम स्मिन्नेवार्थे वाचकनिष्पादकद्वारमाह। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 345 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय वायंतगनिप्फायग, चउरोभंगाउ पढमो। गन्भे तइओउ होइ, सुण्णो अण्णेण वा वाएइ / / वाचको निष्पादक इति पदद्वयसंयोगतश्चत्वारो भंगास्तद्यथा / वाचयत्यपि निष्पादयत्यपीति प्रथमः१वाचयतिन निष्पादयति द्वितीय: 2 न वाचयति निष्पादयति तृतीयः३न वाचयति न निष्पादयति चतुर्थः 4 अत्र सत्यपि पूर्वसमीहिते यः प्रथम- भंगवर्ती संस्थाप्यते नेतरो द्वितीयादिभंगवर्ती। तथाचाहा प्रथम- को ग्राह्य: द्वितीयभङ्गको न स्थाप्योऽनिष्पादकत्वात्। तृतीयस्तु शून्यो वाचनाया अभावे निष्पादकत्वायोगात्। यदि वा आत्मना न वाचयति अन्येन वाचयति। तदासोऽपि योग्यः। चतुर्भगिकस्तु सर्वथाऽनर्ह एव। सांप्रतमधिकृत एवार्थेऽन्यशिष्यद्वारमाह॥ असतीव अण्णसीसं,ठावेति गणम्मिजाव निम्मातो। एसोचेव अणरिहो, अहवा विइमो ससिस्सोवि॥ आचार्याः कालं कर्तुकामा आत्मीयाः शिष्याः सर्वेऽप्यनिर्माता इति तेषां मध्ये गणधरपदयोग्यो एकस्मिन्नप्यसति अन्यस्य शिष्यं प्रातीच्छिकं गणे स्थापयंति च यावन्मम शिष्यो निर्मातो निष्पन्नो भवति तावत्त्वं गणधरः / निर्माते सति त्वया गणधरपदं निक्षेप्तव्यं / यदि न निक्षिपति ततश्छेदः परिहार: सप्तरात्रं वा तप: प्रायश्चित्तम्। एष समीक्षितोऽप्यन) जातः / अथवाऽयं स्वशिष्योऽप्यनर्हस्तमेवाह। जो अणुमतो बहुणं, गणहरअवियतो दुस्समुकट्ठो। दोसा अणिक्खिवंते, सेसा दोसं च पाति। आचार्य:कालं कुर्वद्भिातो य एष मम शिष्य: सूत्र- तोऽर्थतश्च निर्मात एतस्मादयं बहुभिर्भागैर्गणधरगुणैरभ्यधिको भविष्यति। केवलमिदानीभनिर्मातस्ततो योऽसौ निर्मात: स आ- चार्यरुच्यते। यावदेनं त्वं निर्मापयसि। तावत्त्वं गणधरः / एत-स्मिंस्तु निर्मापिते त्वया गणधरपदं निक्षेप्तव्यम्।यत एष तव पाविहुभि गर्गच्छस्य प्रवचनस्य चोपग्रहकारी भविष्यति / तेन- तथा प्रतिपन्नम्। आचार्य: कालगत: सच तेन निर्मापितो जात: समस्तस्याऽपि संधस्य प्रीतिकरः ततोयस्तेन निर्मापितो जातोऽ- नुमतो बहूनां स गणधरः स्थापनीयो यस्त्ववियत्तोऽप्रीतकर: पूर्वस्थापित: सदुस्समुत्कृष्टइति वक्तव्यो निक्षिप गणधरपदमेवमुक्तो यदिन निक्षिपति तत स्तस्मिन्ननिक्षिपति दोषाश्छेदं परिहारं सप्तरात्रं वा तप: प्राप्नोतीति भावः। येऽपिच शेषास्तंभंजते तेऽपि दोषं प्राप्नुवन्ति छेदं परिहारं सप्तरात्रं वा तेऽपि प्राप्नुवंतीत्यर्थः। यदेतद्भणित-मेतत्प्रसंगागतमयं पुन: स्फुटसूत्रेण निपात:। अन्भुज्जयमेगयरं, ववसियकामंमि होइ सुत्तं तु। तेवेंति कुणसुएकं, गीयं पच्छा जहिच्छा ते॥ आचार्येण कोऽपि स्वशिष्य: समीहितो यथाऽयमाचार्यपद योग्य इति ततो गीतार्थाः संदिष्टा, एष सुमुत्कर्षयितव्य: सच कालगते आचार्ये ब्रूते। अहमभ्युद्यतविहारं जनकल्पादिक मभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्स्ये तस्मिन्नभ्युद्यतमेकतरं विहारं मरणं / वाच्यवशात्तुमनसि भवति निपतित सूत्रम् / अत्थिया इत्थं अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियव्वे नत्थि याइं च केई अन्ने समुक्कसणारिहे सेचेव समुक्कसियव्वे। तस्मिन्नभ्युद्यतस्यैकतरं व्यवसातुकामे अस्ति चेदत्र गच्छेन्यः कश्चित्समुत्कर्षणार्हस्तर्हि स समुत्कर्षयितव्यो नास्ति चेदत्र कश्चिदन्य: समुत्कर्षणार्हस्तत: स एव समुत्कर्षयितव्यः। कथमिति चेदुच्यते। गीतार्था अभ्यर्थनपुरस्सरंब्रुवतो यूयं गणधरपदंपरिपालयता एकमस्माकंकंचन गीतं गीतार्थ कुरुत निर्मापयत तत: पश्चात्तस्मिन्निििपते ते भवतां यदिष्टं यत्प्रतिभासते तत्कुरुतेतिभावः। अत्रेच्छाद्वारावसरः। एवमुक्ते तेन गणधरपदं प्रतिपाद्य कश्चनाप्येको निम्मापितः। पश्चात्तस्य चित्तमजायता यथा अभ्युद्यतविहारात् गच्छपरिपालनं विपुलतरं निर्जराद्वारम् तस्मात्परिपालयाम्यहमेव गच्छमिति। तथाचाहा! निम्माऊण णेगइमंपि, मे निज्जरायदारं तु / निक्खिव निक्खिवामी, इत्थं इतरे उखुन्मत्ति॥ स गणधरपदे स्थापित एक कंचनापि निम्मप्येिदं चित्तम- कार्षीत् इदमपि गच्छपरिपालनं महत् निजराया द्वारं / एवं व्यवसिते तस्मिन् गच्छे गीतार्था बुवते निक्षिप गणधरपदं स प्राह / न निक्षिपामि किंन्त्विच्छामि गच्छं परिपालयितुमेवमुक्ते इतरे गच्छगीतार्थाः क्षुभ्यंति तेच क्षुभ्यंतोयब्रुवतै तदाह। दुस्समुक्कडं निक्खिव, भणंति गुरुगा अणुष्ठिहं तेय। एमेव अण्णे सीसे, निक्खिवणा गाहिते नवरं / / पूर्व तव नेप्सितंगणधारणं पश्चादिदानीं यद्यपि रुचिस्तथापि नत्वस्मभ्यं रोचसे दुःसमुत्कृष्टं खलु तव गणधरपदं। तस्मान्नि-क्षिपेति एवं भणति गच्छसाधुवर्गे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका: (अणुष्ठिहतेयमेवे) त्यादियोऽसौ प्रातीच्छिक: स्थापित: सचेत् यावदद्यापि न निर्मापयति कमपि शिष्य तावद्यदि गच्छसाधवो भाषते निक्षिपत्वं गणधरपदमिति तदा तेषां तथा भाषमाणानां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अथ तस्मिन्नन्यशिष्ये निर्मापयितुमिष्यमाणे अनुतिष्ठति अनिर्मापिते गणधर-पदनिक्षेपणं करोति तदा तस्न्निन्यशिष्ये अनुतिष्ठति गणधरत्वं निक्षिपतः प्रतिच्छिकस्य प्रायश्चित्तमेव चत्वारो गुरुका इत्यर्थः। यथा गीतार्थत्वेन गच्छसाधव: सेविष्यंते तन्निमित्तमापि तस्य प्रायश्चित्त नवरं केवलं तस्मिन्नन्यशिष्येग्राहिते निम्मापितेगणधरपदनिक्षेपणा कर्तव्या। नच तत्र तां कुर्वतस्तस्यच्छेद: परिहार: सप्तरात्रं वा तपः। गतमिछाद्वारम्॥ संप्रति यथा कल्पद्वारावसरस्तत्र ये गच्छसाधवस्ते स्वग- च्छसाधु प्रतिच्छिकं च पूर्वस्थापितं यथा कल्पेनाऽभ्युत्तिष्ठिति यथाकल्पानभ्युत्थानमेवाह॥ आवस्सगसुत्तत्थे, भत्ते आलोयणाउवष्ठाणे। पडिलेहा कितिकम्म, मत्तगसंथारगतिगं च // आवश्यकेक्रियमाणोयो विनयस्तस्य आचार्यस्य कर्तव्यस्तंचन कुर्वति सूत्रमर्थ वा तस्य समीपे न गृह्णते। (भत्तेति) आचार्य्यप्रायोग्यं तस्य भक्तं न प्रयच्छति / (आलोयणत्ति) तस्य पुरतो नालोचयंति (उवठ्ठाणत्ति) आचार्यवस्त्रकबलपात्रादिप्रत्यु- पेक्षणाय नोपतिष्ठते। नापि कृतिकर्म वंदनकमन्यद्वा कुर्वति नापि मात्रकत्रिकं तस्य ढोकयति तिस्रः संस्तारकभूमयस्ता अपिन प्रयच्छति। तेषामपि यथा कल्पमनभ्युत्तिष्ठतां प्रायश्चितं छेदः परिहार: सप्तरात्रं वा तप इति / व्य.२ खं०४ ऊ / / आचार्ये मृते तत् क्षणमेवान्य: स्थाप्यते। तथा च व्यवहारसूत्रं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 346 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय णिग्गंथस्स णं णवड हरतरुणगस्स आयरिय उवझाए विसंभेज्जा णो से कप्पइ / अणायरियउवज्ञझायस्स होतए कप्पइ। से पुव आयरियं उदिसावित्ता ततोपच्छा उवझायं सेकिमाह भंते ! दुसंगहिए समणे णिग्गंथे तंज हा आयरियेणं उवजायेणय |शाच्य.सू.३॥ निर्ग्रन्थस्य णमिति वाक्यालङ्कारे। नवडहरतरुणस्य वाआ-चार्यसहित उपाध्याय आचार्योपाध्यायस्तस्याचार्योपाध्यायस्येत्यर्थः। विष्कंभयात् नियेत। तत: सेतस्य नवडहर तरुणस्याचार्योपाध्यायस्यसतो भवितुंन कल्पते वर्तितुं किन्तु पूर्वमाचार्यमुद्देशास्स्थापयित्वा ततः पश्चादुपाध्यायमुद्देशा अप्येवमाचार्योपाध्यायस्य सतो भवितुं कल्पते। सेकिमाहु (भन्ते!इति) से शब्दोऽथ शब्दार्थः / अथ भदन्त ! किं कस्मात्कारणात् भगवन्त एवमाहुः / सूरिराह। द्वाभ्यामाचार्योपाध्यायाभ्यां संगृहीताद्विसंग्रहीत: श्रमणो निर्ग्रन्थस्सदा भवति तद्यथा आचार्योपाध्यायेन च एष सूत्रसंक्षेपार्थः / / 11 / / (2) आचार्ये मृते निग्रन्थीनामप्यन्य आचार्य: स्थाप्यते। तथा च व्यवहारसूत्रं॥ निग्गन्थीएणं णवडहरतरुणियाए आयरियउवज्माए पवित्तिणियं विसंभेज्जा णो से कप्पइ अणायरिय अणुवज्जाइयताए अपवत्तिणिएय होतए कप्पइ से पुटवं आयरियं तु दिसाविता तओ पच्छापतिओ उवझायं ततोपच्छापवित्तिणियं से किमाहु भंतेति संगाहिया समणी निग्गंथी। तंजहा। आयरिएणं उवज्ञझाण्णं पवित्तिणिण्य / / 1 / / व्य सू.३० ऊ। निग्गन्थीएणमिति पूर्ववत् नवडहरतरुण्या: आचार्योपाध्यायस्समासोऽत्रपूर्ववत्। आचार्योपाध्यायमेतत्प्रवर्तिनी च विष्कं भयात् मियेत। ततस्सेतस्या अनाचार्योपाध्याया उपलक्षणमेतत् प्रवर्ति- नीरहितायाश्च नोकल्पते भवितुं। किन्तु पूर्वमाचार्यमुद्दिश्यते। तत: पश्चादुपाध्यायां ततः पश्चात् प्रवर्तिनीं। कयाभवितुं कल्पते (से किमाहु) इत्यादिअथ भदन्त ! किंकस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुः। सूरिराह। त्रिभि: संग्रहिता श्रमणी निर्ग्रन्थी सदा भवति तद्यथा आचार्येणो पाध्यायेन प्रवर्तिन्या च एष सूत्रसंक्षेपार्थः। (22) आचार्येऽवधाविते आचार्यान्तरस्थापनं // पूर्वाचार्योऽवधावेत्तर्हि नवः स्थाप्य: / / तथा च व्यवहारसूत्रं आयरिय उवज्ञझाए उहायमाणे अन्नयरं वएज्जा अज्जो मएणं उदायंसि समणंसि अयं समुक्कसियव्ये। जाव सव्वेसिं तेसिं तप्पतियं च्छेए वा परिहारे वा / / 13 / / व्य. सू०४ उ०॥ व्याख्या। आचार्य उपाध्यायो वा मोहेन रागेण वा अवधावन (मन्यतर) मुपाध्यायादिकानां गीतार्थपंचमानां पुरुषाणामन्य- तमं वदेत् यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठो द्रष्टव्यः॥ अज्जो ममं सिणं उहावियंमि समाणंसि अयं समुक्कसियव्वो | सेय समुक्कसणारिहे समुक्कसियट्वेसिया सेयनो समुस-सणारिहे नो समुक्कसियव्वे सिया अत्थिया इत्थ अण्णे केई समुक्कसणारिहे से समुकसियट्वे नत्थिपाइत्थ अन्ने केइ समुक्कसणरिहे से चेव | समुफसियव्वे तेसिंचणं समुक्किठंसि परावेएज्जा दुस्समुकिलुते अज्जोनिक्खिहि तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छेदे परिहारे वा॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् व्यः सू०४ ऊ॥ अधुना नियुक्तिविस्तर: केन पुन: कारणेनाऽसाववधावतीति चेदत आह / / मोहेण वा रागेण, ववहाणं भेसयं पयत्तेण / / धम्मकहाए निमित्तेणं, अणाहसालागवेसणया॥ अवधावनं मोहेन वा कामोद्रेकरूपेण रोगेण वा। तत्र मोह विषया यतना प्राक् तृतीयोद्देशकेभिहिता। यदिरोगेण ततो नाधावितव्या किंतु प्रयत्नेन भेषजं दातव्यम् // तच धर्म कथानिमित्तेन चोत्पादनीय। तथाऽप्यलाभे अनाथशालातो गवेषणा भैषजस्य कर्तव्ये ति नियुक्तिगाथायाः संक्षेपार्थः / / एतामेव संप्रति भाष्यकृद्विवरीषुरिदमाह। मोहेण पुष्वभणियं, रोगेण करेंति माएजयणाए। आयरियकुलगणे वा, संघो व कमेण पुटवुत्तं / / यदि मोहेनावधावनं कर्तुमीहते तदा यत्पूर्व तृतीयोद्देशकेमोहचिकित्सा विषयं भणितं तत्कर्तव्यमथ रोगेण तदाऽनयावक्ष्यमाणया प्रथमत: तत: प्रासुकेन तदलाभे वाऽप्रासुकेना-पीत्येवरूपया यतनया पूर्वोक्तं भैषज्यं प्रयत्नेन संपादनीय-मित्यादिरूपं कुर्वन्ति केते कुर्वति।तत आचार्यकुलं गणसंघोवा कथमित्याहा क्रमेण परिपाट्या तामेव परिपाटी कालनियमनपूर्विकामाह // च्छम्मासे आयरियकुलंतु, संवच्छराणि त्तिन्नि भवे // संवच्छरं गणो खलु, जावज्जीवं भवे संघो। प्रथमत आचार्यः षण्मासान् यावत् चिकित्सां कारयति तथाप्यप्रगुणीभूतं तं कुलस्य समर्पयति तत: कुलं त्रीन्सं वत्सरान् यावत् चिकित्सकं भवति। तच्छाऽप्यप्रगुणीभवंतंगणस्यतं समर्पयति। तदनंतरं संवत्सरं यावत गण: खलु चिकित्सको भवति। एतच्चोक्तं भक्तविवेकं कर्तुमशक्नुवतो य: पुनर्भक्तविवेकं कर्तुं शक्नोति। तेन प्रथमतोऽष्टादशमासान् चिकित्सा कारयितव्या / विरतिसहितस्य पुन: संसारे दुःप्रापकत्वात् तदनंतरं चेत्प्रगुणीभवति / ततस्सुन्दरमथ न भवति / तर्हि भक्तविवेक: कर्तव्य: / अत्रैव देशांतरमाह!! अहवा विइयादेसे, गुरुवसंभे, भिक्खुमादिते गच्छं। जत्थि वारसवासा, तिछसमासो असद्धेणं / / अथवा द्वितीय आदेशो गुरौ च ते भिक्षादौ यथाक्रमं चिकित्सां कारयति यावज्जीवं द्वादशवर्षाणि त्रिषट्कमष्टादश मासान् कथमित्याह अशुद्धेनापिशब्दोऽत्र लुप्तोदृष्टव्य: प्रथमत: शुद्धेन तदभावे चाशुद्धेनापि। तदनन्तरं भिक्षादिना भक्त विवेक: कर्तव्यः। गुरुस्सुगच्छप्रवर्तकइति तस्य यावज्जीवं चिकित्सा तत्र प्रथममोद्देशेन च विवेकं कर्तुं शक्नुवंतं प्रत्यष्टा दशमासान्। कश्चिकित्साविधिस्तमभिधित्सुराह। पयत्तेण ओसहं से, करेंति सुद्धेण उग्गमादीहि। पहाणीए अलंभे,धम्मकहाहिं निमित्तेहि।। प्रथमतः प्रयत्नेनोगमादिभिः शुद्धेन वस्तुजातेन (से) तस्य औषधं कुर्वति। तदलाभे पंचपरिहान्या यावचतुर्गुरुकेनाप्यशुद्ध Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 347 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय नापि धर्मकथाभिस्तदौषधमुत्पादयंति तच्छाऽप्यलाभे निमित्तै रपि।। तहविण लाभे असुद्धं, बहिट्ठियसालाहिवाणुसहादि। नत्यंते बहिदाणं, सलिंगविसणेण उड्डाहे॥ तथापि निमित्तैरपिचेदशुद्धं नलभेत ततोनाऽथशाला या आरोग्यशाला तस्यां मध्ये न प्रविशंति। किंतु बहिस्थितास्तत आरोग्यशालात औषधं गवेषयित्वा समानयंति। अथ ते शाला निवासिनो न प्रयच्छंति। तर्हि यस्तस्या आरोग्यशालायाः प्रभुर- धिपस्तमनुशास्य याचते। तच्छाप्यलाभे धर्मकथया आवर्जनीयस्त च्छाप्यनावर्जने निमित्ते स्वलिङ्गेनाऽप्यवर्जयि-तव्य: तच्छापि बहि: स्च्छितानामौषधप्रदानमनिच्छतियत्यस्यार्चितलिंगंतेन लिंगेन प्रविशंति प्रविश्यौषधमानयंति अथ स्व लिंगेनापि तत्र कस्मान्न प्रविशंति तत आह! स्वलिंगव्यसनेन स्वलिंगप्रवेशेन प्रवचनस्यो- ड्डाहः। नामी किमपि जानते सं चामीषां धर्म: श्रेयानत: क्वचिदपि किंचिद्प्यलभमाना अनाथा इवात्र समांगता इति प्रवचनस्योप- घात:। एतदेव पणहाणी एअलंभे इत्यादिकं विवरीषुरिदमाह / / पणगादिज्जागुरुगा, अलभमाणे बहिंतु पायोज्जा।। बहिट्ठियेसालगवेसण, तत्थ पभुस्साणुसट्ठादि। पंचकपरिहान्या पंचकादिप्नायश्चितमौषधोत्पादनायता यदा-सेवनीय यावचत्वारोगुरुकास्तच्छापि बहि: प्रायोग्ये औषधे अलभ्ये आरोग्यशालाया बहि:स्च्छिाता औषधस्य गवेषणं कुर्वते तत्र तद्वास्तव्यानामदाने य: प्रभुरारोग्यशालाया अधिपति-स्तस्यानुशास्ति आदिशब्दाद्धर्मकथनिमित्तं य प्रयुंजते असई अच्चियलिंगेनरक्तपटादिरुपेण प्रवेशनं कुर्वंतितेषुच प्रविष्टेषुयेप्रतिभानवंत:प्रतिवचनदानसमर्था वृषभास्ते स्वलिंगेन गत्वा प्रभुभाषते यथा कोयुष्माकं सिद्धांत एवमाभाष्य तत्र सिद्धांतविषये प्रभुणागृहीतलिंगैश्चसहपरस्परमुल्लापंकुर्वति। यच्छा उत्तरवादिनो वृषभा भवंति। अच्छ वा यदि प्रतिपत्तिकुशला: परप्रतिपादनवृषभास्ततस्ते गत्वा से तस्य प्रभोर्निजकत्व-मात्मीयत्वं भावयंति। तत्रापि सिद्धांतविषये तैर्गृहीतलिंगैः सह परस्परमुल्लापं तथा कुर्वति। यच्छा ते आ चक्षत इति। अहवा पडिवत्तिकुसला, तेण समं करेंति उल्लावं। पभवंतो विय सोवी, वसमेऊ उत्तरीकुणति।। अथवा ये प्रतिपत्तिकुशला:परप्रतिवचनदानसमस्तितस्ते गत्वा तेन प्रभुणा सह परस्परमुल्लापं तथा कुर्वतिगृहीत लिंगाश्च तथा तं भावयंति तथा सोऽपि आस्तां गृहीतालिंगा इत्यपिशब्दार्थः। प्रभवन्नपि वृषभानुत्तरीकरोति उत्तरवादिन: करोति। तत: स निरुत्तरीकृत: सन् यब्रूते तदाह॥ तोभणइ कलहमित्ता, मझमेव हेज्जह उदंतंति। तंवियपडिसुणंति, एवं एगाएच्छम्मासा॥ तत: सिद्धांतोल्लापे पराजित: सन् भणति यूयं मम कलह- मित्राणि कलहानंतरं यानिजातानि मित्राणि तानि कलहमित्राणी ततोमे ममोदंतं वहत एवमुक्ते तेपि वृषभाः प्रतिशृणवंति अभ्यु-पगछंति। तत एवं गत्या गतिभिस्तमतीवावय॑ ता षण्मासान् यावत् तत्र चिकित्सां कारयति। एवमेकस्यामनाथशालायां षण्मासा एवं द्वितीयस्यां तृतीयस्यामपि च तथा चाह। छम्मासा छम्मासा, विइय तझ्याए एव साालाए। काऊ अट्ठारस ऊअ, पउणे, ताहे विवेगोउ। एव मुक्तप्रकारेण द्वितीयस्यामनाथशालायां षण्मासा एवं तृतीयस्यामपीति सर्वसंकलनया अष्टादशमासान् चिकित्सां कार-यित्वा प्रगुणीकरोति। अथ प्रगुणा न भवति ततस्तस्य भक्तविवेकं कर्तुमुचित: संप्रति प्रागुत्तं द्वितीयमादेशं स्पष्टयति अहवा। गुरुणो जावज्जीवं, फासुय अफासुएण ते गित्थं / वसमे बारसमासा, अठारसमिक्खुणोमासा।। गुरोराचार्य्यस्य यावज्जीवं चिकित्सां प्रासुकेनाऽप्रासुकेन वा कुर्वति सर्वस्यापि गच्छस्य तदधीनत्वात् यथाशक्ति निरंतरं सूत्रार्थनिर्णयप्रवृत्तेश्च / वृषभे द्वादशवर्षाणि चिकित्सा तत: परं शक्ती भक्तविवेकः एतावता कालेनान्यस्यापि समस्तगच्छ भारो द्वहनसमर्थस्य वृषभस्थोत्थानात् अष्टादशमासा भिक्षोश्चिकित्सा तत: परमसाध्यतया शक्तौ सत्यां भक्त विवेकस्येव कर्तुमुचित-त्वात्।।व्य०४ उ०।। (23) लक्षणं सुत्तत्थे णिम्माओ इत्यादि। सुत्तत्थे णिम्माओ, पिअदढधम्मोणुवत्तणाकुसलो।। जाइकुलसंपण्णो, गंभीरोलद्धिमंतोअ॥१५|| व्या। सूत्रार्थे निर्मितो निष्ठित: प्रियदृढधर्म: उभययुक्तोऽनुवर्तनाकुशल: उपायज्ञः। जातिकुलसंपन्नः। एतद्वयसमन्वितो गंभीरो महाशयलब्धिमांश्च उपकरणाद्यधिकृत्येति गाथार्थः। संगहुवग्गहीनरओ, कयकरणो पवयणाणुरागीय।। एवं विहोओ भणिओ, गणसामि जिणवरिंदेहि।।१६।। व्या.। संग्रहणोपग्रहनिरत: संग्रह उपदेशादिनोपग्रहश्च वस्त्रादिना व्यत्यय इत्यन्ये। कृतकरणो ऽभ्यस्त क्रियः / प्रवचना- नुरागी च प्रकृत्या परार्थप्रवृतः। एवं विध एव भणि: प्रतिपादितो गणस्वामी गच्छधरैर्जिनवरेंद्रै:भवगद्भिरिति गाथार्थ: पं.व०॥ आहारवत्थादिसुलद्धिजुत्तं, आदेज्जवकं वअहीणदेह। सकारमज्जं मइममि लोए, पूर्यति सेहाय पिहूजणाय / / आहारवस्त्रादिलब्धियुक्तमादेयवाक्य महीनदेहं परिपूर्णदेहा- व्यवं तथा मतिमति लोकेसत्कारभाजं विद्वज्जनपूज्यमित्यर्थः। शैक्षका: पूजयंति। पाठांतरम् "सक्कारहज्जंमि इमं मिलोए" तत्राऽयमर्थः। सक्कारेण हियते आक्षिप्यते इति सत्कारहार्योऽयं यतोलोकस्तत एवं भूतेऽस्मिन् लोकेआहारवस्त्रादिषु लब्धियुक्तमित्यादिगुणैः शैक्षकाः पूजयंति। पृथक जनश्च बहुमन्यते। तत: स तादृशो गणधारी कर्तव्यः / व्य० 330 // आयरियउवभाया, नाणुण्णाया जिणेहिं सिप्पट्ठा। णाणे चरणे जोगा, वहाउते अणुण्णाया / / आचार्या उपाध्यायाश्च जिनैस्तीर्थकृभिर्न शिल्पार्था:शिल्प शिक्षणनिमित्तमनुज्ञाता: कै कारणैः पुनरनुज्ञातास्तत आह। ज्ञाने चरणे च ये योगास्तेषामावहा: प्रापका यतो भविष्यन्ति ततस्त अनुज्ञाताः। ज्ञानचरणस्फातिनिमित्तमनुज्ञाता इत्यर्थ: अपिचेदृशा आचार्योपाध्याया अनुज्ञाता: / / व्य०२खं.४ उ०। (24) एकपाक्षिकादेर्दिगाचार्यः / / नूतनाचार्यस्थापनायामे कपाक्षिकभिन्नपाक्षिकयोोग्गयता Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 348 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय ऽयोग्यता यथा // एगपक्खेियस्स भिक्खुस्स कप्यई इंतिरियं दिसंवा अणुदिसं वा धारित्तए वा जहावा तस्स गणस्स परियंसि वा ॥२४|व्य. सू. 3 जा एकपाक्षिकभिन्नपाक्षिकयोोग्याऽयोग्यता (चानुपालणाकप्प) शब्दे॥ | (25) लक्षणं मेढीभूतः॥ तत्र गणस्य बहुव्रतिनीसमुदायात्मकस्य प्रत्येकं परीक्षा कर्तुं न शक्यते अथाचार्ये च परीक्षिते प्रायोगणोऽपि परीक्षित एव मेढ्यादिसमानत्वेन तत्प्रवर्तकत्वादाचार्यस्य गणस्य च तदनुव- र्तित्वादित्यत: प्रथममाचार्य्यमेव परीक्षेतेत्याह।।। मेढी आलंबणं खंभ, दिष्टि जाणसुउत्तमं / / सूरी जंहोइ गच्छस्स तम्हां तं उ परिरकए |8| ध्याख्या ययस्मात्कारणात् सूरिः सदाचार्यो गच्छस्य गणस्य (मेवित्ति) मेदि:खले गोबंधस्थूणा तत्समानो भवति। यथा तया बद्धानि पशुवृंदानि मर्यादया प्रवर्तते तथाचार्यो मेढीबद्धो गच्छोऽपि मर्यादया प्रवर्तत इत्यर्थः। तथालंबनं हस्ताद्याधार- स्तत्समानः यथा हस्ताद्याधारो गर्तादौ पतज्जंतुंधारयति। तथा ऽचार्योपि भवगर्ते पतंतं गच्छं धारयतीत्यर्थः। तथा (खंभति) स्तंभ: स्थूणा अत्र नपुंसकत्वं प्राकृत्वादेव तत्समानः। यच्छा स्थंभ: प्रासादाधार: स्यात् तथाचार्योंपिगच्छप्रासादाधार: तथा (दिहित्ति) दृष्टिर्नेत्र तत्समानः यथाजतोर्नेत्रं शुभाशुभवस्तुप्रदर्शकं भवति तथा ऽऽचाय्योपि गच्छस्य भाविशुभाशुभप्रदेशक: स्यात् तथा (जाणं सूत्तमंति) यानं पानपात्रं सूत्तममतिप्रधानमच्छिद्रमित्यर्थः तत्समानो यथा अच्छिद्रयानपात्रं समुद्रतीरं नयति जंतून् तथाचार्योपिगच्छे भवति तस्मात् प्रथम तंतुत्तिनोरवकारार्थत्वात् तमेवाचार्य्यमेव परीक्षेत गच्छपरिक्षेच्छु: साधुरिति अनुष्टुप्छंद:। एवंचात्र ग्र॰ त्रयोधिकाराः सूचिताः तद्यया आचार्यस्वरूपाधिकारः 1 साधुस्वरूपाधिकारः 2 साध्वी स्वरूपाधिकारश्च 3 तथा प्रथममाचार्यस्वरूपाधिकारं निरुपयितुकाम: वैश्चिन्है: छद्मस्थ उन्मार्गप्रस्थितमाचार्या परीक्षेतेति प्रश्नयन्नाह / / भयवं कहिं लिंगेहिं, सूरि उम्मग्गपट्ठि॥ विआणिज्जाछ उमत्थे, मुणि! तमे निसामय / / 9 / / व्याख्या। हे भगवन्!परमैश्वर्यादिसमन्वित ! कैर्लिङ्गैश्चिन्है रुन्मार्गप्रस्थितसन्मार्गस्थितंसूरिमाचार्ये छाद्यते केवलज्ञानं केवल-दर्शनं चात्मनोऽनेनेति छद्म तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थस्तं विजानीयात् परीक्षेतेति परप्रश्ने गुरुराह हे मुने! यश्चिन्हैराचार्यमुन्मार्गप्रस्थितं छद्मस्थ: परीक्षेत तन्मे मम कथय इतिशेष: (निसामयत्ति) त्वं निशामयाकर्णयेति अनुष्टप् छंदः।।९।। अथ वृत्तद्वयेनपूर्वोक्तशिष्यप्रश्नोत्तरमेवाहा। सच्छंदयारिंदुस्सीलं, आरंभेसु पवत्तयं / / पुढवाइपडिवद्धं, आउक्कायविहिंसर्ग ||10|| मुलुत्तरगुणब्भहूं, सामायारीविराहयं / / आदिनालोअणं निचं, विकहासु परायणं // 11|| अनयोर्व्याख्या।। स्वच्छंदेन स्वाभिप्रायेण न तु जिनाज्ञया चर तीति स्वच्छंदचारी तं तथा दुष्टं शीलमाचारो यस्यस दुश्शील स्तं तथारंभ: / पृथिव्याक्युपद्रवणानि उपलक्षणत्वात्संरभसमारंभावपि। तत्र संरंभः संकल्प: समारंभस्तु परितापकर: उत्तं च // संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो // आरंभो उद्दवओ,सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ||3|| तत्र स्वान्ययोः प्रवर्तकस्तं तथा पीठकमासनं आदिशब्दात् फलकपट्टिकादयस्तत्र प्रतिबद्धः कारणं विनापि ऋतुबद्धकाले तत्परिभोजीत्यर्थः / / ग०१ अधि०॥ (26) परीक्षा आचार्य्यस्य॥ सुद्धस्सय पारिच्छा, खुड्यथेरेयतरुणखज्जूडे / / दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततोपच्छा॥ शुद्धस्य परीक्षा कर्त्तव्या कस्मिन्विषये इत्यत आहा क्षुल्लकेस्च्छविरे तरुणे खज्जूडः स्वभावाद्वक्राचारः तस्मिंस्तथा- द्वयोरादिमंडल्यो: एताभि: परीक्षाभिर्यदि निवर्तितस्तत: शुद्धः इतरस्त्वशुद्धः शुद्धस्य च गणधरपदानुज्ञा कर्त्तव्या ना शुद्धस्य तत:शुद्धाशुद्धप्रतिपादनानंतरं चोदकं पृच्छा उपलक्षणमेतदाचा- र्यस्य प्रतिवचनं च वक्तव्यं एष द्वारगाथासंक्षेपार्छ:। सांप्रत- मेनामेव गाथां विवरीषु: प्रथमत: क्षुल्लकविषयं परीक्षाविधिमाहा। उचफलो अहखुडो, सउणिच्छावोपवासिउंदुक्खं / पुष्ठोवि होहिति न वा पलिमंथो सारवंतस्स / / तस्य द्रव्यभावपरिच्छेदोपेतस्य गणधरपदयोग्यता परीक्षणाय प्रथमत: क्षुल्लको दीयते। एवं द्विविधामपि शिक्षांत्वं ग्राहय ततः स एव मुक्तः सन् यदि चिंतयति यथा (अहत्ति) एष क्षुल्लक: उच्चं चिरकालभाविफलं यस्मात्स उच्चफलश्विरका लेनोपकारी तावता कालेन किमपि भविष्यतीति कोवेद तत: कमेनं शिक्षां ग्राहयिष्यति यदि वा शकुनिशावसिवावत्पोष्य: पोष्यतो पुन:पुनर्बुभुक्षाभावादिति भावः। अपि चपुष्टोऽपिसन्नेष मम भविष्यति वानवा को न जानाति अन्यचामुंधारयत: सारं कुर्वतो मम सूत्रस्य च महान्पलिमंथो व्याधातस्ततो नैतस्य मे शिक्षया प्रयोजनमेवं चिंतयन् योन ग्राहयति सोऽनर्हस्तद्विपरीतो ऽर्हस्ततो य: स्थविर एष प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यति दृढदेहो वा यथा आचार्यरक्षित: पितेति कारणतो दीक्षितस्तिष्ठति स शिक्षकस्तस्य समर्प्यते एवं द्विविधामपि शिक्षा ग्राहयति तस्मिंस्तत्समर्पिते यदि स इदं चिंतयति॥ पुट्ठोवा स मरिसति, दुराणुवुत्तो न वेच्छपडियारो। सुत्तत्थे परिहाणी, थेरे बहुयं निरत्थं तु॥ एष प्रथमालिकादिदापनत: शिक्षाग्राहणतश्च पुष्टिकृतोऽप्याशु शीघ्र मरिष्यतिच शब्द: चिंतांतरसमुचये। यदिवा वृद्धः स्व-भावात् दुरनुवत्य दुःखेनानुवर्त्य तेन वा अत्र वृद्धशिक्षापने कश्चित् प्रतीकारः किमुक्त भवतिनास्माद्बद्धात् कश्चित् प्रत्युपकारोऽथवा वृद्धो वृद्धत्वादेव जडप्रज्ञश्च ततोस्य शिक्षणे मम सूत्रार्थ- परिहाणिस्तदेव स्थविरशिक्षा ग्रह्यमाणे बहुकनिर्रथक मिति य एनं चिंतयित्वा योन शिक्षा ग्राहयति सोऽनर्हस्तद्वि परितोऽर्ह इति तदनंतरं योऽसौ तरुणो मेधावी तं समर्प्य भण्यते यथा एष मंडलिपरिपाट्या आलापके दीयमाने सीदति तत स्त्वमेत-मप्याक्षेपेण पाठया तत: स इदं चिंतयति॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 349 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय अहियं पुच्छति गिहए, बहुं किं गुणो चरगेण // होहिंति य विवद्धंतो, एसो ममं पडिसपत्ती॥ एष मेधावित्वादधिकं पृच्छत्यवगृह्णाति वावधारयति बहु प्रभूतं तत इत्थमस्यैव सूत्रस्यार्थस्य चरकेण प्रदानत आक्षणिकतया को गुणो मम निरर्थकः कश्चिदित्यर्थः। केवलं दोषो निजसूत्रार्थपरिगलनादन्यच एष हु निश्चितं विवर्द्धमान: सूत्र-तोऽर्थतश्च वृद्धि गच्छन् मम प्रतिसपत्नीव प्रतिपंथी भविष्यति / ततो न कोऽप्येनं पाठयिप्यतीति योन शिक्षयति सोऽनर्ह स्तत:खज्जूडं दत्वा स भण्यते। अमुंतथा ग्राहयायच्छा सुज्ञ: समाचारीकुशलश्च भवति ततो यदि।। कोही निरुवगारी, फरुसो सव्वस्स वामवडोय। अविणीतोत्ति व काउं,हंतुं सत्तं व निच्छुभती॥ क्रोधी यदि वा निरुपकारी अथवा परुषः परुषभाषी तथा सर्वस्य साधुवर्गस्य वामावर्त: प्रतिकूलतया वर्तते यदि वा अविनीत इति कृत्वा शिक्षां ग्राहयति। अथवा आक्रुश्य शत्रुमिव वा हत्वा निष्काशयतितर्हि सोऽनर्हस्तद्विपरीतोऽर्हः // संप्रति चतुर्वपि योजनेषु तद्विपरीततया यथाझैभवति तथा भावयति // वत्थाहारादीहिं, संगेह अणुवत्तए य जो जुयलं // गाहेइ अपरितंतो, गाहण सिक्खावए तरुणं ||1| खरुमउण्ह अणुयत्तत्ति, खज्जूडं जेण पडइपासेणं / / गाढमवहारविजढो, तत्थोडणमप्पणो कुणइ / / 2 / / यो नाम युगलं क्षुल्लकवृद्धलक्षणं वस्त्राहारादिभिः संगृह्णाति आत्मवशीकरोत्यनुवर्तयति च तरुणमपरिभ्रांत: परिश्रममगण यन् ग्राहयति। ग्राहणं ग्राह्यते शिष्य एतदिति बाहुलकात् कर्मण्यनटा | ग्राहणमाचारादिसूत्रं आसेवनां शिक्षयति तथा खज्जू डं | खरमृदुभिवाक्यैस्तथानुवर्तयतिः येन स पाशे न पतति अन्यथा गतिंन लभते इति मन्यमानस्तद्गशीभवति तथा:य:स्थानाद पि चलन्नपि सन् खज्जूडतया विहारविजढो भवति विहारं न करो- तीति भावस्तत्र उड्डणमंगीकारमात्मना करोति। यथैनमहं खरेण मृदुना चोपायेन विहारक्रम कारयिष्यामीति एष एवं भूतोयोग्यः।। इयसुव्व सुद्धमंडलिं, दाविज्जइ अत्थमंडलिं चेव। दोहिं पि असीयंते, देइ गणं चोइए पुच्छा। इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेण चतुर्ध्वपिजनेषु सूत्रोपदेशत: परीक्षित: सन् शुद्धो भवतिनमनागपि दोषः। ततस्तस्य सूत्रमंडली दाप्यते अर्थमंडली च एतयोरपि मंडल्योर्यदिन विषीदति किंत्वपरिश्रांततया गच्छवर्तिनां प्रातीच्छकानां च ज्ञाना-भिलाषिणां चित्तग्राहको वर्तते ततस्तस्मिन् मूलाचार्यो गणं ददाति एवमुक्ते चोदकेचोदकस्य पृच्छा केत्यत आह। चोएइ भणिऊणं,उभयछिन्नस्स दिज्जइगणोत्ति / / सुत्तेय अणुन्नायं, भयवं चरणं पलिच्छन्नो ||1|| अपरिहाण परिह, परिछंध अत्थेण जं पुणो परवेह॥ एवं होइ विरोहो, सुत्तत्थेणं दुवेतपि।।२।। चोदयति प्रश्नयति परोयथा पूर्वमिदमुक्तं उभयच्छिन्नस्य द्रव्यभावपरिच्छदविशेषात् शाकल्यपरिकलितस्य गणोदीयते। युक्तं चैतत्। यत: सूत्रेऽपि च शब्दोऽपि शब्दार्थ:। भगवन्! धारणं गणधार एमजुज्ञात। परिछन्ने द्रव्यभावपरिच्छदोपेतमात्रे तत एवमुक्त्वा यदनिहपरीक्षाम र्थेनार्थमाश्रित्य प्रारूपयथाः। नन्वेवं सति द्वयोरपि सूत्रार्थयोर्भवति विरोधः। उक्तस्वरुपस्याऽर्थस्या-धिकृतसूत्रेणासूचनात्॥ अत्र सूरिराह॥ संति हि आयरिय जगाणि, सत्थाणि चोयग ! सुणाहि / / सुत्ताणुण्णातो विहू, होइ कयाइ अणरिहोउ ||1|| तेण परिच्छा कीरइ, सुवण्णगस्सेव तावनिहसादी॥ तत्थइमो दिळतो, रायकुमारेहिं कायव्वो // 2 / / चोदक! शृणु मदीयं वच: संति हि स्फुटं तानि शास्त्राणि यान्याचार्यद्वितीयकानि किमुक्तं भवत्याचार्यपरंपराया तत्संप्रदाय विशेषपरिकलितानि ततो यद्यप्यनिह परीक्षालक्षणोऽर्थः सूत्रे साक्षान्नोपनिबदस्तथापि सूचनात् सूत्रमिति सोऽपिसूत्रेण सूचित इति संप्रदायादवगम्यते इति न कश्चिद्दोषः। तथा च सूत्रानुज्ञापि हि निश्चितं कदाचिदनों भवति। नच सूत्रमन्यथा सर्वज्ञप्रणीतत्वा- त्तेन परीक्षापि सूचितेति। तापनिकषादिभिः सुवर्णस्येव सूत्रानुज्ञा- नस्याऽपि क्षुल्लकादिभि: परीक्षा क्रियते। तत्रायं वक्ष्यमाण- लक्षणोदृष्टांतो राजकुमारैः कर्तव्य: // तमेवाह / / सूरे वीरे सत्तिए, ववसाययिरे चियायधितिमंते॥ बुद्धिविणयकरणे, सीसेवि तहा परिच्छाए।। निब्भयओरस्सबली, अविसाइपुणो करेंति संठाणं / / नवि संमतिदेति अणस्सित्तो उव उहाणुवित्ति य॥ इहाद्यगाथापदानां द्वितीयगाथापदैव्याख्यानं। तद्यथासूरो नाम निर्भय: सच कुतश्चिदपिन भयमुपगच्छति। वीरऔर सबलवान्तेनाक्लेशेन परबलं जयति। सात्विको नाम योमह त्यप्युदये गर्व नोपयाति न च गरिष्ठेऽपि समापतिते व्यसने विषादी तथाचाहा अविषादि उपलक्षणमेतत् अगर्वी वा व्यवसायी अनलस उद्यो- गवानित्यर्थः। तथाचाहा पुनः करोति संस्थानां किमुत्तं भवति। प्रमादत: कथंचिह्यवसायविकलोऽपि भूत्वा पुन: करोति संस्था कर्तुमुद्यच्छतिस्वोचितव्यवसायमिति भावः। स्थिरोनाम उद्योगं कुर्वन्नपि न परिताम्यति तथा चाहा विश्राम्यतीति (वियायत्ति) दानरुचिर्यथौचित्यमाश्रित्य स्वेभ्योऽन्येभ्यश्व ददातीत्यर्थः। धृति- मान् राज्यकार्याणि कुर्वन् परनिश्रामनपेक्षमाणः तथाचाह (अ-णिस्सित्ति) इति (बुद्धित्ति) औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयोपेतः। वि- नीतो गुर्वादिषु विनयकारी यथोचित्य गुर्वादीनामनुवर्तक इत्यर्थः। करणे इति यद्राज्ञः कर्तव्यं तत्करणे कुशल:। एतेषु परीक्षा क्रि- यते किमेते गुणास्सन्ति न वा य एतैर्गुणैरूपेतो भवति। स राज्ञो राज्येऽभिषिच्यते। दानशीलोऽत्रयः स्थिरस्सोऽपरिभ्रांतस्सन् कर्तव्यं करोति। कृत्वापि च पश्चादनुपतापी त्यागवान् नाम दानशील: स च स्तोकादपि स्तोकं ददानो गणस्य बहुमानभाग् भवति॥ उवसग्गो सोढव्वे, झाये किचेसु या विदिसंतो।। बुद्धिचउकविणीतो, अहवा गुरुमादिविणीतोउ|| धृतिमान उपसर्गान् सोढव्यान् ध्यायति। कृत्येष्वपि कार्येष्ववि-षादं प्रवर्तते। बुद्धिविनीत इत्यत्र इदमपि व्याख्यानं। बुद्धिचतुष्टयं नीतं प्रापितमात्मनि येन स बुद्धिविनीतः। सुखादिदर्शनात्क्तांतस्य पाक्षिक: परनिपातः। अथवा (बुद्धित्ति) बुद्धिच तुष्कोपेतो विनीतो गुर्वादिषु विनीतः // Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 350 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय दव्वाई जं जत्थ उ, जम्मि विकिव्वं तु जस्स वा जंतु॥ कव्वइ अहीणकालं, जियकरणविणीयएगत्थ।। यद्यत्र द्रव्याधुपयोगि यस्य वा यत्र यत्कृत्यं तत्सर्वमहीनकालं जितकरण: करोति कारयति। जितकरणो विनीत इति द्रावप्येकार्थी: तात्पर्य विश्रांत्या शब्दार्थस्तुपरस्परं भिन्नो जित करणो नाम करणदकक्ष उच्यते। विनीत इति विनयकरणशील: एवं जुत्तपरिछा, जुत्तो वेतेहिमेहिउ अज्जागो॥ आहारादिधरें तो, तितिणिमाइहिं दोसेहिं।। एवमेतैरनंतरोदितै: सूरत्वादिभिर्गुणैर्युक्ता उचिता या परीक्षा तथा युक्तोऽपि निश्चित: एभिर्वक्ष्यमाणैर्दोषैरयोग्यः। ताने वाह। आहारादि आहरोपधिपूजनिमित्तं गुणं धारयन् तिं तिण्यादिभिश्च दोषैरयोग्य:। तिंतिणीनाम यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे करकरायणं। आदिशब्दाञ्चलचित्तादिपरिग्रहः // एतदेव व्याख्यानयति॥ बहुसुत्ते गीयत्थे, धरेइ आहारपूयणट्ठाइ॥ तिंतिणचलअणविट्ठअ, दुब्बल चरणा अजोग्गो उ॥ बहुकालोचितं सूत्रमाचारादिकं यस्य स बहुसूत्रो गीतार्थों विदितसूत्रार्छः। एतेन युक्त: परीक्षायुक्तोऽप्येतद्व्याख्यानयति एवंभूतोऽपि यो गणं धारयति (आहारपूयणठाई) उत्कृष्टो मे आहारोभविष्यति पूजनं वा स्वपक्षतश्चेत्येवमर्छ: आदिशब्दा दुपधिरन्यद्वोपकरणमुत्कृष्टं मे भविष्यतीत्येवमर्छपरिग्रहः। सोऽयोग्यस्तथा योतिंतिण: स्वल्पेऽपि प्रयोजने करकरायमाणः। चलश्चलचित्तोऽनवस्च्छित: स्वप्रतिपन्नार्डोंनिर्वाही। दुर्बलश्चरणचारित्रविषये दुर्बल एतेऽप्ययोग्या:। एवं परिक्खियम्मि, पत्ते दिवई अपत्तिपडिसेहो। दुपरिक्खियपत्ते, पुण चारियहार्वेति मामेरा॥ एवमनंतरोदितेषुगुणेषु च यदि परीक्षया निर्वटियो भवतिगुणैरुपेतो दोषैश्च विप्रमुक्त इत्यर्थः। तदा स पात्रमिति कृत्वा तस्मिन्परीक्षिते पात्रे गाणेदीयते। यस्तु प्रागुक्तैर्दोषैरूपेतो गुणैश्च विप्रमुक्तः सोऽपात्रमिति तस्मिन्नपात्रे गणदानस्य प्रतिषेधस्तस्मिन् गणोन दातव्य इति भाव: (दुपरिक्खिय) इत्यादि। अथ कदा-चित सुदु:परीक्षित: कृतोभवेत् गणश्च तस्मै दत्त: सच गण:सी- दति तं दृष्ट्राऽन्येऽपि गच्छवर्तिन: केचित् सामाचारीशिथिला भवितुं प्रवृत्तास्तत: परीक्षिते पात्रे गणे प्रदत्ते सति गणोऽवसी- दति / ये तत्र गच्छेऽन्यतीव्रधर्मका न सीदति तैरुपायेन प्रतिचोद्य वारयितव्यः। तत्र यदि वारणानंतरमावृत्योद्यच्छति ततस्समीची- नमथ वारितोऽपि किंचित्कालमुद्यम्य पुन: समाचारी हापयति। तत इयं मर्यादा कर्तव्या अयं विधि:प्रयोक्तव्य इत्यर्थः। तमेवाहा दिठ्ठोवसमोसरणे, अहवाथेरातहिं तु वव्वन्ति। परिसायघट्ठमट्ठा, चंदणखोडी करंटणेय॥ यत्र समवसरणे ज्ञायते आचार्योऽत्र प्रवेक्ष्यति। तत्र गच्छोऽनुलोमवचसा प्रवेशनीयः। प्रविश्य तत्र गत्वाऽचार्यस्य कथयंति। त्वं सीदन् तिष्ठसि नैव च तद्युक्तं तस्मात् भवगत्या वर्तस्व। अथवा कुलानि हिंडमाना:स्थविरा:सूत्रगछे व्रजति तत्र दृष्टान्तैः पर्षदसाधुपरिवाररूपा। घृष्टा: पादघषर्णात् मृष्टाः शरीर- स्य केशादीनांच समारचनात्। ततस्तां तथारूपांपर्षदमव-लोक्य चंदनखोडीदृष्टांतेन खरंटना कर्तव्या साचैवम् आयरिया दिलुतमेगं सुणंति। एगोइंगालदाहओ इंगाल कठाइणं अणेणठाए नदीकूलं गतोतत्थ पासइ। तडे ण बुइझमाणं गोसीसचंदणखोडिं सोतं घेत्तूण पारंठितो तमंतरावणीओ पासई जाणई एसा गोसीसचंदणखोडी। ततोतेण सो भणितो कि एएण कट्टेण तं करिस्सई। इंगालदाहगो भणई। दहिउण इंगाले घेच्छामि। वणिउचिंतिते। जइत्ता हेवेच मज्जाहामोतो बहुंसुकं मोल्लंकाहिति तो जाहेडहिओ माढवोहिति ताहे किणीहामि। एवं चिंतित्ता जाव वणिउ मुल्लस्स काण्ण घरं गंतु एति। तावत्तेण दिट्ठा गोसीस-चंदणखोडी वणिएण आंगतुं पुच्छितो। कहींतं कटुं सोभणा दद्वंति। एवं भणिएण खिसितोमहाभाग फिडितोसि इसरियत्तणस्स एवं जहा सो इंगालदाहओ सोयवाणियउ ईसरियत्तणस्स बुक्को। एवं तुमंपि नाणादी दहतो निव्वाणस्स बुकिहिसि॥ एतदेवाह॥ इंगालदाहखोडी, पबेसे दिहाउ वाणिएणं॥ तुज्जामुल्लं आणयए, इंगालठाए तादिहा ||1| इय चंदणरयणनिभा, पमाय तिक्खेण परसुणा भेत्थं // दुविहपडिसेवसिहिणा, तिरियणखोडि तुमे दहाशा अंगारान्दहतीति अंगारदाहस्तस्य पार्श्वे गोशीर्षचंदनखोडी प्रवेशग्रामप्रवेशे च वणि जा दृष्टा। सच यावन्मूल्यमानयति। तावत्तेनांगारदाहकेनाऽगारार्थ सा खोडीदग्धा इत्यक्षरार्थः भावार्थस्तु प्रागेवोक्तः सांप्रतमुपनयमाह।। इयचंदणेत्यादि। इत्येवममुना प्रकारेण चंदनरत्ननिभा गोशीर्षचंदनमूल्यात्रिरत्न रत्नत्रयरूपाखोडीप्रमादरूपेण तीक्ष्णेन परशुना भित्त्वाद्विधा या प्रतिसेवा मूलगुणप्रतिसेवा उत्तरगुणप्रतिसेवाचेत्यर्थः। सैव शिखी वैश्वानरस्तेन त्वया दग्धा एवं वारित: सन् यदि निवर्तते तत: प्रायश्चितं दत्वा तस्य वर्तापका: स्थविरा दातव्याः / अथ न निवर्तते तर्हि तस्य गणोऽपहरणीय: 1 न केवलमेतेऽनर्हाः / किं चान्येऽपि तथा चाह॥ एएण अणरिहेहिं, अन्ने इयसूजया अणरिहातो। केपुणे ते इणमोत्त, दीणादिया मुणेयव्वा / एतैरनंतरोदितैरनहरन्येऽपि खलु सूचिता अनर्हाः केपुन- स्तेसूरिराहा इमे ते वक्ष्यमाणा दीनादयो ज्ञातव्यास्तानेवाह। दीणाजुंगियचउरो, जातीकम्मे,यसिप्पसारीरे॥ पाणाडौंवा किणिया, सोवागा चेव जातीए।। दीना:अनर्हाः कस्मादिति चेदुच्यते। तेषा नंदनाभावा दुक्तंच // दीणाभासं दीणे, गति दीणजं पिउं पुरिसं। कं पेच्छसि नंदंतं, दीणाए, दिहिए तत्थ॥ जुंगिका हीणाश्चत्वारोऽनर्हाः। तद्यथा जातौ कर्मणि शिल्पे शरीरे च / तत्रजातौ जुगिकाश्चत्वारस्तद्यथा। पाणाडोबा: किणि-का: श्वपचाश्च / तत्र पाणानाम ये ग्रामस्य नगरस्य च बहि Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 351 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय राकाशे वसंति तेषां गृहाणमभावात् / डोंबा येषां गृहाणि संति गीतं च गायन्ति / किणिका ये वादित्राणि परिणह्यन्ति / वध्यानां च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयंति / श्वपचा श्वांडाला ये शुनः पचन्ति। तंत्रीश्च विक्रीणंन्तीति। एतेजातौ जुंगिका उपलक्षणमेतत् / तेनायकल्पिका ये | चये च हरिकेशजा तयोमेया येच बरुडादयस्तेपिजातौ जुंगिका दृष्टव्याः। / संप्रति कर्मणि शिल्पे च तानभिधित्सुराह // पोसगवंसरनडलं, ख वाहमच्छंधरयगवा गुरिया।। पडगारा य परीसह, सिप्पे सरीरे य वुच्छामि // पोषका ये स्त्रीकुक्कुटमयूरान पोषयन्तिा संवरास्तानिकाः / शोधकाः नटाः प्रतीता ये नाटकानि नर्तयन्ति।लंखा येवंशादेरुपरि वृत्तं दर्शयति / व्याधा लुब्धका मत्स्यबंधाः कैवर्ता रजकावस्त्रप्रक्षालका वागुरिका मृगजालिकाजीविनः / एते कर्मणि जंगिकाः। पटकाराः कुंचिकादयश्चर्मकारा इत्यपरे परीषहा नापिता एते शिल्पे जुंगिकाः / / संप्रति शरीरे तान् वक्ष्यामि प्रतिज्ञातं निर्वाहयति // इत्थे पाए कण्णे, नासाउटेहिं वञ्जियं जाण // वाडणगमडभकोडिया, काणा तह पंगुला चेव॥ शरीरे मुंगिकाः जातीहि / हस्ते सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे / एवं सर्वत्र / ततोऽयमर्थः / हस्तेन उपलक्षणमेतत्। हस्ताभ्यां वा वर्जित एवं पादेन पादाभ्यां वा कर्णेन कर्णाभ्यां वा नासया ओष्ठेन वा वामनका हीनहस्तपादाद्यवयवाः / मृडभाः कुब्जाः कुष्टव्याध्युपहताः काणाः एकाक्षाः / पगुलाः पादगमनशक्ति विकला एतानपि शरीरे जुगिकान् जानीहि / / दिक्खेउंपिन कप्पंति, मुंगिया कारणेवि दोसोवि॥ अण्णादिक्खिएवा, ताउंन करेंति आयरिए॥ एते अनंतरोदिताश्चत्वारोऽपि जुगिका दीक्षितुमपि न कल्पते किंपुनराचार्यपदे स्थापयितुमित्यपि शब्दार्थः / कारणे तथाविधे | समुत्पन्ने दोषका निर्दोषावा दीक्षितुमपि संबध्यते। अज्ञाता-श्चेत्कथमपि जुगिका दीक्षिता भवेयुः ततस्तान् अज्ञात दीक्षिता-नज्ञात्वा कुर्वत्याचार्यगुणोपेतानप्याचार्यान् प्रवचनहेलनाप्रसक्तेः / / पच्छावि होति विकला, आयरियत्तं न कप्पई तेसिं॥ सीसो ठावेयव्वो,काणगमहिसो व निन्नम्मि॥ पश्चादपि श्रामण्यस्थिता अक्षिगलनादिना विकला भवति / तेषामप्याचार्यगुणैर्युक्तानामप्याचार्यत्वं न कल्पते। येऽप्याचार्यपदोपविष्टास्संतः पश्चाद्विकला जायते। तेषामपिन कल्पतेधारयितुमाचार्यत्वं / किंतु तैस्तया विकलैः सङ्गिरात्मनः पदे शिष्यःस्थापयितव्यः। आत्मत्वे प्रकाशे स्थापयितव्यः / क इवेत्यत आह / काण्कमहिष इव / निम्ने। इयमत्र भावना / काणकोनाम चोरितमहिषो माकोऽप्येन भद्राक्षीदिति हेतोग्रामस्य नगरस्य वा बहिर्गर्तरूपे निम्ने प्रदेशउपलक्षणमेतदिति गुपिले वा वनगहने स्थाप्यते / एवमेषोऽप्यन्यथाच प्रवचनहील-नाप्रसक्तराज्ञादिदोषप्रसंगश्च / अथ यो वाऽऽत्मीयः शिष्यः पश्चाद्विकलैराचार्यः स्याप्यते / स कीदृश इत्यत आह / / गणि अगणी वागीतो, जोवि अगीतोवि या गईमन्तो। लोगे स पगासिज्जइ, तहावेन्ति न किचमियरस्स। गणोऽस्यास्तीति गणी साधुपरिवारवान् यो वर्तते तदभावे अगणी / वा यो गीतो गीतार्थः कालोचितसूत्रार्थ परिनिष्ठितः तस्याऽप्यभावे योवाप्यगीतोऽप्यगीतार्थोऽपि आकृतिमान् रूपेण मकरध्वजतुल्यः स गणधरपदे निवेश्यते 1 यथाऽप्यमस्माकमाचार्यों नेतर इति / केवल मितरस्याऽपि जुंगिकाचार्यस्य यत्कृत्यं तत्स्थविरा अन्येऽपि च न हापयंति सर्वमपि कृत्यं कुर्वतीति भावः / संप्रत्यनन्ि प्रतिपादयिषुरिदमाह / / एयदोस विमुक्कावि, अणरिहा हॉति सेउअण्णेवि॥ अव्वाबाधादीया, तेसिं विभागो उ कायव्वो।। एतैरनंतरोदितैर्दोषैर्विमुक्ता अपि भवत्यन्ये इमे अनर्हाः। के ते इत्याह। अत्याबाधादयस्ततस्तेषामत्याबाधानां विभागः पार्थक्येन स्वरूपरूपवर्णनं कतयं / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति॥ अव्वाबाध अवायन्ते, नेच्छइ अप्पचिंतए। एगपुरिसे कह निंदू, काकवाझा कहं भवे // (अव्वाबाधेत्ति) अत्याबाध (आचाएतेत्ति) अशक्नुवन् (नेच्छत्ति) नेच्छति अनिच्छन् तथा आत्मचिंतकः एते चत्वारोऽपिपुरुषा अनर्हाःन केवलमेतेऽनर्हाः किंत्वेक-पुरुषादयोऽपि तत्र शिष्यः प्राहः। कथेमकपुरुषो भवति। कथं वा निंदूः कथं वा क की कथं वा वंध्येति / एवं शिष्येण प्रश्रे कृते सूरिः सकलविनेयजनाऽनुग्रहप्रवृत्तः सर्वानप्यत्याबाधादीन् व्याख्यान-यति॥ अव्वाबाधो वाहइन, मन्नइवितिधरेउमसमत्थो॥ तइओन चेव इच्छइ, तिण्णि ए ए अणरिहातो॥ अतिशयेन आबाधा यस्य सोऽत्याबाधः। स गच्छस्य द्विविधेऽप्युपग्रहे वस्वपात्रादिज्ञानाद्युपष्टंभरूपे कर्तव्ये बाधां मन्यते द्वितीयोऽशक्नुवन्। गणं धारयितुमसमर्थः द्विविधमप्युपग्रहं गच्छस्य कर्तुमशक्त इत्यर्थः / तृतीयोऽनिच्छन् समर्थोऽप्यालस्ये न गणं धारयितुं नेच्छति / एते त्रयोऽप्यनर्हाः // आत्मचिंतकमाह॥ अन्भुज्जयमेगयरं, पडिवजिस्संति अत्तचिंतो उ॥ जोवा गणे वसंतो, न वहति तत्तीतो अन्नेसिं॥ आत्मानमेव केवलं चिंतयन्मन्यते यच्छाऽहमभ्युध्यतं जिनकल्यं यथा लंदकल्पानामेतरं प्रतिपश्ये इति। आत्मचिंतकः योऽपि गणेऽपि गच्छेऽपि वसन् तिष्ठन्न वहतिन करोति तप्तिमन्येषां साधूनां सोऽप्यात्मचिंतकः। एतौ द्वावप्या-त्मचिंतकावनहीं॥ एग मजति सिस्सं, पणछ? मरंति विद्धसंतेवा।। अन्नमयस्स य एवं, नवरं पुणय एए गो पणत्ति॥ पंचम एक्पुरुषएकंशिष्यंमृगयतेसह्येवं चिंतयंति। किमप्येकमात्मनः सहाय मृगयामि।येनसुखंतिष्ठामीतितया कष्टे निदूतुल्याः शिष्या नियंते विध्वंसते वा प्रतिभज्यंतेवेतिभावार्थः / इयमत्र भावना। यथा निंदूमहिलायद्यदपत्यं प्रसूतेतत्तन्मियते। एवं योऽपियं प्रव्राजयति ससम्रियतेअपगच्छति वाततः स निंदूरिव निदू। सप्तमस्यापि काकीतुल्य-स्य एवमेव द्रष्टव्यं / नवरं पुनरेक तिष्ठति किमुक्तं भवति / यस्यापि यः शिष्यः स म्रियते विध्वंसते वा केवलमेकः तिष्ठति। उपलक्षणमेतत्। न चैतदपि द्रष्टव्यं / वस्यैकस्मिन् Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 352 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय प्रव्राजिते सति द्वितीयविषये लब्धिरेव नारित स काकीव काकी काक्यपि हि किलैकं वारं प्रसूते इति प्रसिद्धिः / वंध्यातुल्यः सुप्रतीत इति न व्याख्या तदेवेदं व्याख्यानं। वंध्या किला-प्रसवधर्मा एवं यस्य नैकोऽपि शिष्य उपतिष्ठते / स वंध्येव वंध्ये-ति / पुनरन्यानननि प्रतिपादयिपुरिदमाह // अहवा इमे अणरिहा, देसाणं दरिसणं करेतेण / / जेपव्वावियतेणं, थेरादि पयछति गुरुएणं // अथवेति / अनर्हाणामेव प्रकारांतरतोपदर्शने इमे वक्ष्यमाणा अनर्हास्तानेवाह / देशानां दर्शनं कुर्वते / तेन ये प्रवाजिकाःस्थविरादयस्तान् प्रयछंति गुरूणां न तरुणादीन् पूर्व बहुवचनमनेकव्यक्तयपेक्षयेत्यदोषः। स्थविरादीनेवाह। थेरे अणरीहे सीसे,खजूढे एगलंभिए॥ उक्खोवगयात्तिरिए, पेथे कालगते इय॥ यःस्थविरान् प्रयच्छति शिष्यान् यो वाननि योवा खजूडान् यदि वा एकलांभिकानथवा य एकं प्रधानं शिष्यमात्मना लभते गृह्णाति शेषाँस्त्वाचार्यस्य समर्पयति। स एकलाभेन चरतीति एकलाभिकः। यो वा शिष्याणमुत्क्षेपको यश्चाचा र्याणामत्वरिकान् शिष्यान् करोति। योवा गुरुसंबंधिनः शिष्यान् पथि कालगतान् चशब्दात् प्रतिभग्नान् कथयति। एते सर्वेऽप्यनस्तित्र स्थविरादीन् व्याख्यानयति॥ थेराउ अतिमहल्ला, अणरिहा, काणकुंटमादीया।। खजूडाय अवस्सा, एगालंभीपहाणा उशा तं एगंन विवतीअ, विसेसे देइजे गुरुणत्तु / / अहवा वि एगदम्वे, लभंति जे ते देइऊगुराणं ॥शा स्थविरानाम अतिमहांतो वयसाऽतिगरिष्ठा इत्यर्थः / अनहीं: काणकुंटादयः खजूडा अवश्याः / अयमत्र भावार्थः योऽसौ पूर्व परीक्षितः स देशदर्शनं कार्यते। तेन च देशदर्शनं कुर्वता यदि ये स्थविराः प्रव्रजिता ये च जुंगिका ये च खजूडा वा ते आचार्यस्य समप्यते तरुणा न व्यङ्गा विनीताश्चात्मनस्तदासोऽनह इति। एगलाभिनायः प्रधानः शिष्यस्तमेकं योन ददति अवशेषांस्तु सर्वानपि प्रव्राजितान् गुरूणां प्रयच्छति। अथवा येषामेकएवलानो यथा यदि भक्तं लभंते ततो वस्त्रादीनिन अथवस्त्रादीनि लभंते तर्हि न भक्तमपि एकमेव लभंते इत्येवं शीला एकलाभिनस्तया चाह / अथवा ये एकं द्रव्यं लभंते तान् शिष्यान् गुरुणां यः प्रयच्छति। उभयलब्धिकानात्मन संबंधयति सोऽप्यनहः / / / उक्खोवणं देतिन्नि वा, विउवणाति से समप्पणो।। आयरिया णित्तिरियं,बंधइ दिसमप्पणो वकहिं॥ इयं किल समाचारी यावंतः किल देशदर्शनं कुर्वता प्रव्राजिताः तावंतः सर्वे गुरूणां समर्पणीयाः यस्तु प्रव्राजितान् द्विधा कृत्वा उत्क्षेपेण हस्तोत्पाटनेनद्वौत्रीन्वा शिष्यान् गुरूणमुपनयतिशेषान् सर्वानप्यात्मना गृहति एषो क्षेपकोऽनर्हः॥ तथा ये के च न देशदशनं कुर्वता प्रव्राज्यंते ते सर्वेऽप्यात्मन इत्वरिका बंधनीयाः / यथा आचार्यसमीपं गता यूयं सर्वेऽप्या-चार्यस्य यत्पुनराचार्याणां दिशमित्वरिका बध्नाति / आत्मनस्तु यावत्कथिकां यथा यावत् यूयमाचार्यसमीपे तिष्ठत तावदाचार्य-सक्ताः शेषकालं ममेत्येवमित्वरिकान् कतिशिप्यान् सोऽप्यनर्हः / / पथंमियकालगया, पडिभजावावितुम्म जे सीसा। एए सव्वे अणरिहा, तप्पडिवक्खा भवे अरिहा।। यो देशदर्शनं कृत्वा समागतः सन् ब्रूतेयुष्माभिर्दताःसाधवः परिवारतया ते सर्वे युष्माकं शिष्यां पथि कालगताः प्रतिभनाः वा इमे पुनः सर्वे मम शिष्या एते स्थविरादयोऽनर्हाः तेषां पुनरनर्हाणामाचार्यसमीपगतानां ये तैः प्रव्राजिता शिष्या-स्तानाचार्य इच्छापयति वा न वा गुरुणामत्रेच्छाप्रमाण // व्याखं.३ऊ॥ (27) उद्देशः मैथुनादिप्रतिसेव्याचार्यत्वे न॥ मैथुनप्रतिसेवने त्रिवर्षाभ्यन्तरे आचार्य्यत्यन्न कल्पत इत्यत्र प्रमाण (मुद्देस)शब्दे। (28) स्थापनाविधिराचार्यपदे गुरोः॥ आचार्य्यपदेऽन्यस्थापनाविधिश्च / / कहणं भंते ! आयरियस्स ठवणविहीवियाहिया जंबू ! जे आयरिया विहिपुट्वं ममाउआयरियेणं पट्टाविया तेवि आयरिया तत्थ एगे नामायरिया दव्वायरिया ठवणायरिया भावायरिया। जंबू ! जे भावायरिया ते तित्ययरस मा। अहवा तऊ आयरिया पण्णत्ता सिप्पायरिया कलायरि या धम्मायरिया जे ते धम्मायरिया परलोगगहियट्ठाए निजरट्टाए आराहेयव्वा / अण्णे कलायरिया सिप्पायरिया एकइएहिं कित्तबुद्धिए आराहियय्वे / तत्थेगे धम्मायरिया सोवा-यकरंडसमा बद्धाइकथथप्पयगाहाइंहिं जे सुद्ध सभाए वखाणिति ते सोवागकरंसमा / वेसाकरंडसमाजोरीआहारणसरिसजीहावाखाणडवरेणं अंतरं सुअसार विरहिया विसुद्धसभाए जणं विमोहिंतिणेरविंति अप्पा णं थुतंसि आलुच अणत्थे पार्डिति गोयमा ! गणहराण उवमाएतेवेसाकरंडसमा गाहावइकरंडसमा जे समं समु वसियसुगुरुहितो संपत्त अंगोवंगाइसुत्तथे सुपरिच्छियच्छेयगंथा सयसमयपरसमयणिच्छया परोवयाकरणिक भल्लिच्छया जणजोगविहीए अणुओगं करिति / ते गा हावइकरंडसमा रायकरंडसमा जे गणहरा चउदसपुटिवणोवा घडाओ घडसयं पडाओ पडसयं इचाई विहाई सयसमणिया ते रायकरंडसमा गाहावइकरंडसमाणे रायकरंडमाणे दोविए आयरिए तित्थयरसमाणे तेसिं ठवणविहि गाहाबंधो।। जइगुण 1 काल 2 णिसिज्जा 3 विज 4 चंदु 5 समा६नंदि७ सगच्छोभा मंत९रक 10 णाम११ वंदण 12 अणुसडिं३निरुद्ध 14 गणगुन्ना 15 संगा 16 संगहणीगाहा॥ अउवरिसदिक्ख बारसु, सुत्ते अत्थे य बायगत्तेय। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 353 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय पणयालीसपरिसगुण, जुत्तोसूरिपयजुग्गे // 2 // आयरियनिसिप्झाए उवविसणं वंदणं च तह गुरुणो तुल्लगुणादेसकलं पसिद्धि, छत्तीसगणगणालंकिओ दवचरित्ते / क्खायणत्थं ण तया दुटु दुवण्हपितउ वक्खाणं करेहत्ति। गुरुणा जयणाजुत्तो संघस्य, सम्मओ मुक्खकं खी य ||3|| दुत्ते तत्थष्ठिओ चेव अहिणवसूरी नंदिमाइयं परिसाणुरूवं वा वक्खाणं करेइ / तस्सम्मतीए य संघो तं वंदइ / तओसोवि कालाइव साइकाइ, गुण विहीणो विसुद्धगीयत्थो।। णिसिजाउ उठेइ गुखो तत्थ णिसित्ता उवहंति। यथा ग्रायणीपुथ्ये ठाविजइ सूरिपए, उजुत्तो सारणाइसुंक्षा दसमसिलोगबंधेण सिक्खा दिति। सुगुणभावे न पुणो, गुणपरिहाणी ठविजए सूरी। अप्पते सूरिपयं, दितस्स गुरुस्स गुरुदोसो ||5|| नमोईऽत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः। जउत्तंबूढो गणहरस्स, दोगोयमाइहिं धीरपुरिसेहिं॥ यथा / धन्यस्त्वं येन विज्ञात, स्संसारगिरिदारकः॥ जोतं ठवह अपत्ते, जाणंतो सो महापावो ||6|| वजवझुर्मिदश्चायं, महाभाग ! जिनागमः ||2|| कहं भासेइ अगीअत्थो, चउरंगं सवलो असारंग / / इदं चारोपितं यत्ते, पदं तत्संपदा पदम्।। नद्धमिअ चउरंगेण, हु सुलहं होइ चउरंग / / 7 / / श्रीगौतमसुधादि, मुनिसिंहनिषोवितम् ॥शा नासेइ संवेगो, चउरंगं सवलो य सारंगं / धन्येभ्यो दीयते भद्र,! धन्या एवास्य पारगाः॥ नटुंमिय चउरंगेण, हु सुलह होइ चउरंग || धन्या गत्वाऽस्य पारन्तु, पारं गच्छंति संसृतेः // 3|| भीतं संसारकांतारा,त्साधुवृन्दमिदं मुदा॥ एयाए विहीएसुसीसस्स परिक्खा काऊण दुसममयाणुभावेणं पसत्थे तिहिनक्खत्तमुहत्ते गहिए पामाइअकाले पट्टविए गुरुसीसे विमोचने समर्थस्य, भवतश्शरणागतं / / 4 / / सिज्झाए करित्ता पसत्थजिणभवणा इखित्ते अक्खए गुरुजुगे अतो विधेयं यत्नेन, सारणावारणादिना // निसिजादुगे कातवे अणुओगाणुण्णवणत्थं कियलोयस्ससीसस्स अपायपरिहारेण, संसारारण्यपारगं / / 1 / / सिरे गुरुणो वासं घेति मंतिऊण सीसे खिवति / सुसीसस्स से एवं तं उववूहिअ विणेयजणोवि अणुसासियव्यो। यथा। तओ पुय्वविहीए देवे वंदावेइत्ता अणुओगाणुण्णवणत्थं काउस्सग्गं युष्माभिरपि नैवेष, सुस्थबोधिस्थसन्निभः॥ किरइ / सत्तावीसुस्सा संदुवेवि गुरुसीसा तओपयडं चउवीसं थुतं संसारसागरोत्तारी, विमोक्तव्यः कदाचन||१ पडित्ता वारत्तिगं पंचमंगलुधारं करें ति / सुद्धष्ठिया / गुरु अन्नोवा प्रतिकूलन कर्तव्य, मनुकूलरतैः सदा // अक्खलियाइगुणोपवेय मंदिसुत्तं कटेइ / खसीसो अहोणयकायुजोडियकरकमल-कुमलोपववमाणसंवेगो सुणेइ / भाव्यमस्य गृहत्यागो, येनवस्सफलो भवेत्॥शा तओ सीसो वंदितो भणेइ इच्छयारिंभंते ! तुम्हे अणुओ गं जाणह अन्यथा लोकबंधूना, माज्ञालोपः कृतो भवेत्॥ तओ गुरु मणइ अहमेअस्स साहुस्स दव्वगुण पञ्जवेहि खमासमणाणं ततो विडंबना घोरा, भवेदिह परत्र च // 3 / / हत्थेणं अणुओगं अणुजाणामि विए संदिसह किं मणामि / वंदित्ता ततः कुलवधून्यायात, कायें निभर्साितैरपि / पवेएह तइए इच्छ यारि तुम्हे अम्हं अणुओगो अणुण्णाउं। इच्छामो यावजीवं न मोक्तव्यं, पादमूलममुष्य भोः ||4|| अणुसट्टिति सीसेण भणिए गुरु भणइ। संम्डे अवहारे यव्वं अन्नेसिं तो ज्ञानभाजनं धन्या, स्तेहि निर्मलदर्शनाः।। पवेयहचउत्थे तुझाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि पंचमेय ते निष्प्रकंपचारित्रा, ये सदा गुरुसेविनः||१| इक्कणमुक्कारेण समोसरणं च गुरं च पयक्खिणेइ एवं तिन्नि वारा इदं अणुसष्टि काउं दोवि णिरुद्धं करें ति दोविसज्झायस्स छट्टेण तुम्हाणं पवेइउ साहूणे पवेइऊं संदिसह काउस्सग्गं करेमि। कालस्सय पडिकमंति। आयरियं पंचएए अइसया ववहारगत्थे सत्तमे अणओगाणु जाणावणियं करेमिकाउस्सगमिथाइणा उवसग्गे अभिहिया॥ कए गुरुसमप्पिय णिसिञ्जा जुओ गुरां तिपयक्खिणीकरिय वंदित्ता भत्ते पाणे धोवणए, पसंसणा हत्थपायसोएय॥ गुरुदाहिणओ उचआसन्ने निसिञ्जाए णिसी अइ / तउ णिसन्नस्स लग्गवेलाए दाहिणसवणे गुरुपरंपरा गयमंतपए तिनिवारे परिकहे।। . आयरियअइसेसा, णइसेसा होतणायरिया ||2|| तओ वकृतिया उतिनिअक्खमुट्टिओ देइ करयलपुडे सीसो ताउ उप्पन्ननाणा जहनो अडंती, चुत्ती सुबद्धा इसया जिणिंदा। उवउत्तो गिकइ / तओ गुरु तस्स नामंकारिय णि सिचाउ उद्वेइ। एवं गणी अदृगुणोववेआ, सत्थावनो हिंडइइडिमंतु // 2 / सीसो तत्थ णिसीयइ अहा सन्निहीयसंघसहिओ गुरू तस्स वंदणं गुरुहिंडणंमि गुरुगा, वसभे लहुगा णिवारयंतंमि // देइ / इयं च तुल्यगुणाख्यापनार्थमुभयोरपिन दोषाय / यदाह / गीयागीयगुरुलहू, आणाइआ बहूदोसा / / 3 / / Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 354 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय पंचविआयरियाइ, यच्छंति जहन्नए वि संथरणे / / एवं पसत्थरंतो, सयमेव गणी अडइ गाडे ||4|| इचाइगुणजुत्तस्स दुचेवावियारियस्स वा गणानुज्ञां करोति / तत्थय सकरुण पवयणाणुरागीय एवं वि खमासणपुव्वं सीसो भणइ। इत्थयारि तुम्हे अम्हदिगाइ अणुजाणावणियं नंदिकारावणियं वासणिक्खेवं करेह इचाइ पुव्वुत्तविहीए चेइवंदणं चेइवंदणपुव्वं काउसम्ग करणं नंदिसुत्तस्स कट्ठणं गंधदाणं सत्तखमासणदावणं तओ उस्सग्गाणंतरं सूरिसमीवे उवचिट्ठियस्स अभिणवगणहरस्स साहुणीओ वंदणयं दिति / तओ तस्सायरियस्स सीसे हत्थं दाऊणं सासणं देइ // तंजहा। संपारिऊण परमे, त्ताणाइ दुविहियतायणसमत्थो। भवभयभीयाणदढं, ताणं जो कुणई सो धन्नो ||1|| अत्ताणबाहिगाहिया, जइवि न सम्मं इहातुरा हुंति / / तहवि पुण भावविजा, तेसिं अवणंति तंवाहिं ||2| तातंसि भावविजो, भवदुक्खनिवडियातुम्हं।। एए हंदिसरणं, पवना मोएयव्वा पयत्तेणं ||3|| गच्छस्स सिक्खिदाणं पुण एवं // तुज्झेहि पिण एसो, संसाराडविमहाकडील्लंमि / / सिद्धिपुरसत्थवाहो, जत्तेण सया ण मुत्तथ्वो ||4|| नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्तेय / / धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं ण मुंचन्ति / / 411 एवंचिय समणीणं, अणुसहि कुणइ इत्य आयरि ओ। तह अजचन्दणमिगावइ, णासा होइ परमगुणा // 6 एवं ठवणविहीए, ठविया जे हवन्ति आयरिया // बिहिवहिया अणायरिया, भणिया सिरिवीरणाहेणम् 7|| अंग चू। ध० 3 अधि / / नूतनाचार्य्यस्थापनाविधिर्गुरुशिष्ययोरनुशासनंचपंचवस्तुके यथा // एत्थाणुजाणणविही, सीसं काऊण वामपासम्मि / देवे वन्देइ गुरू, सीसो वन्दिओ तो भणइ ||36!! ध्याख्या। अत्र प्रक्रमे अनुज्ञाविधिरयं शिष्यं कृत्वा वामपार्श्वे आत्मनः देवान्वन्दते / गुरुराचार्यशिशष्यो वंदित्वा अत्रा तरे ततो भणति वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः // 36 // इच्छाकारणम्हं, दिसाइ अणुजाणहत्ति आयरिया। इच्छामोत्ति भणित्ता, उस्सगं कुणइ ओ तयत्थं ||371 व्याख्या / इच्छाकारेण स्वेच्छया क्रिययाऽस्माकं दिगाद्यनुजानीतेति भणति अत्रांतरे आचार्य इच्छामि इति भणित्वा तदनंतरं कायोत्सर्ग करोति तदनन्तरं दिगाद्यनुज्ञार्थमिति गाच्छार्थः / / चउवीसत्थयनवकार, पारणं कट्ठिउथयं ताहे। नवकारपुव्वयं चि अ, कइ अणुण्णणंदित्ति / 38|| व्याख्या / चतुर्विंशतिसूत्रपाठनमस्कारपारणं नमोरिहंताणमि | त्येवमाकृष्य पठित्वा स्तवं पूर्वोक्तं ततो नमस्कारपूर्वक मेवाकर्षति / पठत्यनुज्ञानंदीमिति गाथार्थः / / सीसो वि भाविअप्पा, सुणेइ जह वंदरं पुणो भणइ। इच्छाकारेणम्हं, दिसाइ अणुजाणह तहेव // 39 / / व्याख्या / शिष्योऽपि भावितात्मा सन् शृणोत्युपयुक्तः अथ वंदित्वा पुनर्भणति शिष्यः / इच्छाकारेणास्माकं भगवन् ! दिगाद्यनुजानीत तथैव भणतीति गाथार्थः // आह गुरु खमासमणं, हत्थे णिम्मस्स साहुस्स / अणुजाणिअं दिसाई, सीसो वंदित्तुतो भणइ ||4|| व्याख्या। आह गुरुस्तत्रांतरे क्षमाश्रमणानां हस्तेन स्वमनीषयाऽस्य साधोः प्रस्तुतस्यानुज्ञातं दिगादिप्रस्तुतं शिष्यो वन्दित्वा अत्रांतरे ततो भणति वक्ष्यमाणमिति गाच्छार्छः // संदिसह किं भणामो, वन्दितु पवेअह गुरू मणइ / वंदितुपवे अयई, भणइ गुरुतत्थ विहिणाओ ||4|| व्या० // सदिशति किं भणामि अत्र प्रस्तावे वंदित्वा प्रवेदय वं गुरु भणति वंदित्वा प्रवेदयति शिष्यो भणति गुरुस्तत्रविधिना तु वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः | वंदितु भणइ तुम्ह, पवेइयं संदिसह साहूणं / एवं सीसोभणइ, भणइ गुरू पवेयह तओउ ||4|| वंदित्वा भणति ततः किमित्याह / युष्माकं प्रवेदितं संदिशत साधूनां प्रवेदयामि एवं भणति शिष्यः / अत्रांतरे गुरुराह प्रवेदय ततस्तु तदनंतरमिति गाथार्थः / किमित्याह वंदित्वा भणति ततः किमित्याह / युष्माकं प्रवेदितं संदिशत साधूनां प्रवेदयामि एवं भणति शिष्यः / अत्रान्तरे गुरुराह / प्रवेदय ततस्तु तदनन्तरमिति गाथार्थः / / किमित्याह॥ वन्दितु णमोकारो, कटुंभो से गुरु पयक्खिणइ / / सो विअ देवाईणं, वासो दाऊण तो पच्छा ||4|| व्या० // वंदित्वा नमस्कारमाकार्ष सशष्यिो गुरुं प्रदक्षिणी करोति सोऽपिच गुरुर्देवादीनांवासान् दत्वा ततस्तदनन्तरं पश्चादिति गाथार्थः // किमित्याह / / सीसंमि पक्खिवन्तो, भणइ तं गुरू गुणेहिं वट्टाहिं। एवं तु तिण्णिवारो, उवविसइ तओ गुरूपच्छा ||4|| व्याख्या। शिरसि प्रक्षिप्त्वा, तान् भणति तं साधु गुरुगुणैर्वर्धस्वेति एवमेव त्रीन्वारानेतदुपविशति। ततस्तदनंतरं गुरुः पश्चादिति गाथार्थः / / सेसं जह सामइए, दिसाइ अणुजाणणामि मित्तंतु / णवरं इह उस्सग्गो, उवविस इ तओ गुरुसमीवे ||4|| व्या० शेष प्रादक्षिण्यादि तथा सामायिके तच्छैव द्रष्टव्यं दिगा दयनुज्ञानिमित्तं तु नवरमिह कायोत्सर्गो नियमतएव उपविशति ततो गुरुसमीपे स साधुरिति गाथार्थः // दिति अ नो वंदणयं, सीसाइ तओ गुरू वि अणुसहि / दोएहवि करेइ तह जह, अण्णोवि अबुझई कोई // 46 व्या, ददति च ततो वंदनं शिष्यादयः सर्व एव ततो गुरुरप्य नुशास्ति मौलः द्वयोरपि गच्छगणधरयोः करोति / तथा संवेगसारं यथाऽन्योपि च सत्वो बुध्यते कश्चिदिति गाथार्थः / / गणधरानुशस्तिमाह // Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 355 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय उत्तममिअंपयं, जिणवरेहिं लोगुत्तमेहिं पण्णत्तं। उत्तमफलसंजणयं, उत्तमजणसेविअंलोए।।७।। व्या. उत्तममिदंगणधरपदं जिनवरैर्लोकोत्तमैर्भगवद्भिः प्रज्ञप्तमुत्तमफलसंजनकं मोक्षजनकमित्यर्थः / उत्तमजनसेवितं गणधराणामुत्तमत्वाल्लोक इति गाथार्थः // घण्णाण णिवेसिज्जइ, धण्णागच्च्छंति पारमेअस्स / गन्तुंइमस्स पारं, पारं वचंति दुक्खाणं ||4|| व्या. धन्यानां निवेश्यते एतद्धन्या गच्छंति पारमेतस्य विधिना परंपारं | व्रजति दुःखानां / सिध्यंतीति गाथार्थः / / संपाविऊण परमे, णाणाई दुक्खिय तायणसमत्थे / भवभयमाअणे दर्द, ताणं जो कुणइ सोधण्णो ||19|| व्या. संप्राप्य परमान् प्रधानान् ज्ञानादीन् गुणान् दुःखित त्राणसमर्यान्।। किमित्याह / भवभयभीतानां प्राणिनां दृढं त्राणं यः करोति सधन्यो महासत्व इति गाथार्थः।। अण्णाणवाहिगहिआ, जइदिन सम्म इहाउरा हो ति / तहवि पुणभावविजा, तैसि अवणिति तंवाहिं / / qoll व्या. // अज्ञानव्याधिगृहीताः सन्तो यद्यपि न सम्यगिहातुरा भवंति व्याधिदोषात्तयापि पुनर्भाववैद्यास्तात्विकास्तेषामप नयंति व्याधिमज्ञानलक्षणमिति गाथार्थः // तातंसि भावविजा, भवदुक्खनिवीडिया तुहंएए। हंदिसरणं पवण्णा, मोएअव्वा पयत्तेणं ||11|| व्या० / / त्वमसि भाववैद्यो वर्तसे भवदुःखनिपग्डिताः संत स्तवैते साध्वादयः हंदिसरणं प्रपन्नाः प्रव्रज्यादिप्रतिपत्या मोचयितव्याः प्रयत्नेन सम्यक्त्वकारणेनेति गाथार्थः // मोएइ अप्पमत्तो, परहिअकरणंमि णिचमुज्जत्तो। भवसोक्खापडिबद्धो, पडिबद्धो मोक्खसोक्खंमि ||2|| व्या। मोचयति चा प्रमत्तः सन् परहितकरणे नित्योद्युक्तो य इति। भवसौख्याऽप्रतिबद्धोनिस्पृहः / प्रतिबद्धो मोक्षसौख्ये नान्यत्रेति गायार्थः / / ताएरिसो वि अतुम, तह वि अ भणिओ सिसमयणीईए। णिअयावत्थासरिसं, भवयाणिचं पि कायव्वं / / 53|| व्याला तदीदृश एव त्वं पुण्यवांस्तथापिच भणितोऽसि मया समयनीत्या करणेन निजावस्थासदृशं कुलमेव भवता नित्यमपि कर्तव्यं नान्यदिति गाथार्थः / गच्छानुशास्तिमाह। तुम्भेहिं पि न एसो, संसाराडविमहाकडिल्लंमि / सिद्धिपुरसत्थवाहो जत्तेण खणंपि मोत्तव्यो / / 5 / / व्या. युष्माभिरपि नैष गुरुः संसाराटवीमहाकडिल्ले गहने सिद्धिपुरसार्थवाहः / तत्रानपायनयनादयत्नेन क्षणमपि मोक्तव्यो नेति गाथार्थः / / ण य पडिकूलेअव्वं, वयणं एअस्स नाणरासिस्स। एवं गिहवासचागो, जं सफलो होइ तुम्हाणं ||15|| व्या० // न च प्रतिकूलयितव्यमशक्त्या वचनमेतस्य ज्ञानराशे गुरोरेवं गृहवासत्यागः प्रव्रज्यया यत्सफलो भवति युष्माक माज्ञाराधनेनेति गाथार्थः / / इहरा परमगुरूणं, आणाभंगो निसेविउ होइ। विहला य हॉति तं मि, निअमाइहलोअपरलोआ ||6|| व्या० // इतरथा तद्वचनप्रतिकूलत्वेन परमगुरूणां तीर्थकृतामाज्ञाभंगो निषेधितो भवति / निष्फलौ च भवतस्तस्मिन्नाज्ञाभंगे सति नियमादिहलोकपरलोकाविति गाथार्थः // ताकुलवहुणाएणं, कजे निम्मच्छिएहिं विकहिं वि। एअस्स पायमूलं, आमरणंतं न मोत्तव्वं / / 17 / / व्याख्या। तत् कुलवधूज्ञोतनोदाहरणेन कार्ये निर्भसितैरपि सद्भिः / कथंचिदेतस्य गुरोः पादमूलं समीपमामरणतं न मोक्तव्यं सर्वकालमिति गाथार्थः / पं० व 4 द्वा० / / नूतनाचार्य्यस्थापने गुरुशिष्ययोरनुशासनं (जिनकप्पिक) शब्देऽपि // (21) परिच्छदसहितस्यैवाचार्यत्वम् / / आचार्यस्य गणधारणे परिच्छदावश्यकता। तथा च व्यवहारसूत्रम् / भिक्खू इच्छेजा गणं धारित्तए भगवं सचे अपलिच्छि एणेएवं सेनो कप्पई गणं धारित्तए भगवं च से पलिच्छन्ने एवं से कप्पइ गणं धारित्तए / व्याख्या।। भिक्षुश्चशब्दः आचार्यपदयोग्यानेकगुणसमुच्चयार्थः। इच्छेत् गणं धारयितुं। भगवांश्च (से) तस्य भिक्षोरपि परिच्छदः परिच्छदरहितः। परिच्छदश्च द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र द्रव्यतः परिच्छदः शिष्यादिपरिवारः भावतः सूत्रादिकं / तत्र भगवानाचार्योऽपरिच्छदो द्रव्यतो भावतः पुनर्नियमात्स-परिच्छदोऽन्यथाचार्यत्वायोग्यात् / चशब्दादिक्षुश्च द्रव्यतो परिच्छदो भावतः सपरिच्छदः परिगृत्यते एवं से इत्यादि एवममुनाप्रकारेण(से) तस्य न कल्पते गणं धारयितुमेवं शब्दोविशेषद्योतनार्थः / सचामुं विशेषं द्योतयति / आचार्ये द्रव्यतोऽपरिच्छदे भिक्षोः सपरिच्छदस्य / न कल्पते गणं धारयितु मिति। भगवांश्च (से) तस्य द्रव्यतोपि परिच्छन्नः परिच्छदोपेतश्चशब्दात्सो पिच द्रव्यतोपि परिच्छन्नस्तत एवं (से) तस्य कल्पते गणं धारयितुमिति विशेषद्योतनार्थः / भाष्यकारो-व्याख्यानयति / थेरे अपलिच्छन्ने, सयंपि वग्गहणा तत्थ। छन्नो थेरो पुण वा, इअरो सीसो भवे दोहि // स्थविरोनाम आचार्यः असावेव पूजावचनेन भगवच्छडदे नोच्यते / भगवानिति महात्मनः संज्ञा / सस्थविरोऽपरिछन्नः परिच्छदरहितः चग्रहणाचशब्दोपादानात् भिक्षुरपिस्वयमपरिच्छन्नः तत्र स्थविरोऽपरिछन्नो द्रव्यतः परिवाररहितो द्रष्टव्यः। भावतः पुनर्नियमात् / सपरिच्छदः इतरः शिष्यः पुनभ्यिाम पि द्रव्यभावाभ्यामपरिच्छन्नो भवति / तत्र भावतो-ऽपरिच्छन्नो नियमादयोगग्य एव / इतरस्तु द्रव्यतोऽपरिच्छदो भावतः सपरिच्छदो योग्यः / अथाचार्य द्रव्यतोऽपरिच्छदे किं सर्वथा भिक्षोर्गणं धारयितुं न कल्पते उतास्ति कश्चित्कल्पन-प्रकारः / अस्तीति ब्रूमस्तथाचाह / / नोकारो खलु देसं, पडिसेहयती कयाइ कप्पेशा। ओसन्नंमिउ थेरे, सोचेव परिच्छओ तस्स ||शा एवं सेनोकप्पइ इत्यत्र नोशब्दो देशवचनत्वात् देशं प्रति षेधयति / तेन कदाचित्कल्पेतापि कदा कल्पते इति चेदत आह / अवसन्ने आचार्य / इयमत्र भावना / यद्याचार्यो भावतः सूत्रा धुपेतस्तपःसंयमोद्यतस्तस्मिन् द्रव्यतोऽपरिच्छन्ने न Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 356 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय कल्पतेऽयावसन्नस्तर्हि तस्मिन् द्रव्यतोऽपरिच्छदे वा कल्पते खलु शब्दोविशेषणार्थः। स चैतत् विशिनष्टि। यो भावतःस-परिच्छदस्तस्य / कल्पते न शेषस्य परिच्छदे वावसन्ने / आचार्य गणं धारयति शिष्ये य आचार्यस्य सपरिच्छदः परिवारः स एव तस्य शिष्यस्य भवति व्यवहारस्तस्या भावनात् इतरस्य न किमप्याभवति शिथिलत्वात् / इहपरिच्छदविषया चतुर्भगिका / तद्यथा / द्रव्यतोऽपरिच्छन्नो भावतश्वापरिच्छन्नः१ द्रव्य-तोऽपरिच्छन्नोभावतः परिच्छन्नः 2 द्रव्यतः सपरिच्छदोभावतोऽपरिच्छन्नः३द्रव्यतः सपरिच्छदोभावतश्वसपरिच्छदः 4 तत्र चतुर्थभंगवर्ती शुद्धः शेषास्त्वशुद्धाः / एष सूत्रार्थः / अधुना नियुक्तिविस्तरः // मिक्खू इच्छा गणे, धारए अपव्वाविए गणो नत्थि / इच्छातिगस्स अट्ठा, महातडागेण ओव्वम्मं / / भिक्षोरिच्छा गणं धारयितुंसच गणः स्वयं प्रव्राजितो नास्ति तस्मात्स्वयं साधवः प्रव्राजनीयाः॥ अथवा यद्यपि स्वयम प्रव्राजने गणोनास्ति तथा यद्यपि यदा अवसन्न आचार्योजातो भवति तदा योऽसावाचार्यस्य गणः स एव तस्य भवतिच्छिाचगणं धारयितुंत्रिकस्य ज्ञानादिरत्नत्रयस्यार्थाय नतुपूजासत्कारनिमित्तमत्रार्थे चौपम्यमुपमा महातडागेन। किमुक्तं भवति पद्मसरसा महातडागेन गणपरिवर्द्धस्योपमा कर्तव्या / सा चाग्रे भावयिप्यते। एष नियुक्तिगाथा संक्षेपार्थः / गण निक्षेपम्प्रतिपाद्य // भावगणेण हिगारो, सो उ अपव्वाविए न संभवति / इच्छातियगहणं पुण, नियमणहेउं तओ कुणइ // भावगणेन नो आगमतो भावगणेनाधिकारः प्रयोजनं स च भावगणो यथोक्तरूपः स्वयं प्रवाजितो नास्ति। तस्मात्स्वयं साधवः प्रव्राजनीयाः ते परिवारतया कर्तव्याः। अथवा प्रमाद्यत्याचार्य यः परिवारः तथा स को नियुक्तिकारो द्वार-गाथायामिच्छात्रिकग्रहणं नियमहेतुंकरोतीत्युक्तं / तत्र किं नियमयति सूरिराह / निर्जरानिमित्तमेवं गणं धारयति नतु पूजादिनिमित। स च गणं धारयन् यतिप्रभुमहातडागेन समानो भवति / महातडागेन समानतामेव भावयति / / / तिमिमगरेहिं न खुरामइ, जहंबुनाहो वियंभमाणेहिं // सोय महातलागो पप्फुल्लपउमं च जं अन्नं / यथाऽबुनाथस्तिमिमकरैर्विज्टंभमाणैर्न क्षुभ्यतिनस्व-स्थानाचलति। स एव चांबुनाय इह महातडागस्तथा विवक्षणात् अथवा समुद्रात्यदन्यत् प्रफुल्लपा महासरस्तत् महातडागम् / / उपनयमाह // परवादीहिं न खुम्भइ, संगिएहंतो गणं च न गिलाइ / होतिय सयाभिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमङ्को॥ तिमिमकरैरंबुनाथ इव परवादिभिराक्षिप्यमाणो न क्षुभ्यति न च गणं संगृह्णन्यथौचित्येनानुवर्तमानोग्लायति। यथा वा सरः पद्माढ्यं सत्वानां सदाभिगमं भवत्येवं सदा सत्वानाम भिगमसाधुः प्रभुर्भवति / / एयगुणसंपउत्तो, वा विजो गणहरोउ गच्छंमि / पडिय्बोहादीएहि य, जइ होइ गुणेहिं संजुत्तो // एतेन समुद्रतुल्यतारूपेण पद्माढ्यसरः समानत्वेन गुणेन वा संप्रयुक्तो गच्छे गणधरः स्थाप्यते / सचैतद्गुणसंप्रयुक्तस्तदा भवति यदि प्रतिबोधादिभिर्वक्ष्यमाणगुणैर्युक्तो भवति / प्रतिबोधा-दयोगुणाः प्रतिबोधकादिदृष्टांतेभ्योभावनीया इति / तानेव प्रतिबोधकादीन् दृष्टांतानुल्लिंगयति / / पडिब्बोहगदेसियसिरि, घरेय निजामगेय बोधवे / / तत्तोय महागोवो, एमेया पडिवत्तिओ पंच // प्रतिबोधकः सुप्तोत्थापकः देशको मार्गदेशी श्रीगृहिकोभांडागारनियुक्तो निर्यामकः समुद्रे प्रवहण्नेता। तथा महागोपोऽतीवगोरक्षणकुशल एवमेता अनंतरोदिताः पंच प्रतिपत्तयोऽधिकृताऽर्थ अभिरितिप्रतिपत्तय उपमा। तत्र प्रतिबोधकोपमा भावयति // जह आलित्ते गेहे, कोइ पसुत्तं नरं तु बोहेजा। जरमरणादिभयत्ते, संसारघरंमि तह उजिए / यथा आसमंततो दीप्तगृहे कोऽपि परमबंधुः प्रसुप्तं नरं प्रबोधयेत्तथा संसारगृहे जरामरणप्रदीप्ते जीवान् अविबुद्धान् भावसुप्तान प्रबोधयति। सस्थापनीयो गणधरादेशितस्तीर्थ करैरुक्तः प्रतिबोधकदृष्टांतः। संप्रति देशकादिदृष्टांतमाह / / बोहेइ अपडिबुद्धे, देसिय माईविजोएजा॥ एयगुणविप्पहीणो, अपलिच्छन्ने य न धरेजा ||2|| (बोहेइ अपडिबुद्धे) इति पूर्वगाथाव्याख्यायां व्याख्यातानेव देशकादीनपि दृष्टांतान्योजयेत् / ताँश्चैवं यो ग्रामादीनां पंथानमृजुकं क्षेमेण प्रापयति स देशक इष्यते / एवं ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन् यो गच्छंपरिवर्द्धयति स गणधरःस्थापनीयोनशेषः। श्रीगृहकदृष्टांतभावना / यथा यो रत्नानि सुनिरीक्षितानि करोति स श्रीगृहे नियुज्यते एवं यो ज्ञानादीनामात्मसंयमयोश्चाविराध-नया गणं वर्द्धयति स तादृशोगणस्य नेता कर्तव्यः // निर्यामकदृष्टांतभावना। यथा निर्यामकस्तथा कयंचनाऽपि प्रवहणं वाहयति / यथा क्षिप्रमविनेन समुद्रस्य पारमुपगच्छति एष एव च तत्वतोनियमिक उच्यते। शेषो नामधारकः / एवं य आचार्यस्तया कथंचनापि गच्छं परिवर्द्धयति तथा क्षिप्रमविनेनात्मनां गच्छंचसंसारसमुद्रस्य पारंनयति। स तत्वतोगणधरः शेषोवै नाममात्रपरितुष्टः। महागोपदृष्टांतभावना यो गाः स्वपदेषु विषमेषु वा प्रदेशेष्वटव्यां वा पतंतीवारयित्वा च क्रमेण स्वस्थानमानयति / स महागोप उच्यते। एवमाचार्योऽपि यो गणमस्थानेषु प्रत्यंतदेशादिषु विहारिणं धारयति / पूर्वाभ्यासवृत्तानि च प्रमादस्खालिता न्यपनयति स तादृशो गणपरिवर्द्धकः करणीयो न शेषः / अथवा प्रतिबोधको नाम गृहचिंतक उच्यते / यो गृहं चिंतयन् यो यत्र योग्यस्तं तत्र व्यापारयति / तत्र व्याप्रियमाणेच प्रमादतः स्खलनं निवारयतिसगृहचिंतक उच्यते। एवं यः स्थापितो यो यत्र योग्यस्तं तत्र नियुक्ते। नियुक्तांश्च प्रमादतः स्खलतः शिक्षयति / स स्थापनीयो गणधरपदे नेतर इति / यश्चैतगुणविप्रहीणः प्रतिबोधादिगुणविकलो यश्च द्रव्यतो भावतेश्चत्यर्यः / छन्नः परिच्छदहीनः स गणं धारयेत्। न स गणधरपदे स्थापनीय इति भावः / / दोहिं वि अपलिच्छन्ने, एककेणं व अपरिच्छन्नो य / अहारणा होति इमे, भिक्खंमि गणंधरं तंडि / / द्रव्यतोऽपरिच्छन्नो भावतश्चापरिच्छन्न इत्यादिचतुभंगी प्रा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 397 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय वोपदर्शिता। तत्र भिक्षौगणंधारयतिद्वाभ्यामपिद्रव्यतो भावतश्च नेतव्यः। अपरिच्छन्ने परिच्छदरहिते प्रथमभंग उपात्तः / एकैकेनवा अपरिच्छन्ने द्वितीयभंगवर्तिनि द्रव्यतोऽपरिच्छन्ने तृतीयभंगवर्तिनि वक्ष्यमाणानि उदाहरणानि भवंतितान्येवाह / / भिक्खू कुमारविरए, झामणपंती सियालरायाणो। वित्तत्थजुद्ध असती, दमगभयगदामगाईया।। भिक्षौ द्रव्यभावाभ्यामपरिच्छन्ने गणं धारयति कुमारदृष्टांतः / विरयो लघुश्रोतोरूपो ध्मापनवनदवे द्वितीयो दृष्टांतः / तृतीयः पंक्तिदृष्टांतः। चतुर्थः श्रृगालराजदृष्टांतः / पंचमो वित्रस्तेन सिंहेन सह युद्धस्याभावो दृष्टांतः। एते पंचदृष्टांता अप्रशस्ताः / प्रथमभंगवर्तिनि प्रशस्ताश्चतुर्थभंगे द्वितीयेद्रमकदृष्टात-स्तृतीयभंगवर्तिनि भृतकस्य सतोदामकादिपरिग्रहो दृष्टातः / अत्रादिशब्दात् मयूरांगचूलिकादिपरिग्रहः / तत्र कुमारदृष्टांतभावनार्थमाह! बुद्धीबलपरहीणो, कुमारपचंतडमरकरणं तु। अप्पेणेव बलेणं, गिण्हो वणमासणा रना / एको राजकुमारः बुद्धिबलपरिहीनो हस्त्यादिबलपरिहीनश्वेति भावः। एतेन द्रव्यभावपरिच्छदरहितत्वमस्याख्यातं। सप्रत्त्यंतदेशे स्थितो डमरं देशविप्लवं करोति। ततो दायादेन राज्ञातं बुद्धिबलपरिहीनं ज्ञात्वा अल्पेनैव बलेनदंडप्रेषणेन ग्रहापणं तस्य राज्ञा कृतं। ग्रहणानन्तरं च शासना कृता / ग्राहयित्वा स विनाशित इति भावः॥ अत्रैवोपनयमाह। सुत्तत्थअणुववेतो,अगीयपरिवारगमणपश्चन्तं। परतित्थकउंहावण, सेवगसेहादवण्णोउ। एवं सूत्रेण अर्थेन वानुपपेतोऽसंपन्नोऽनेन भावतोऽपरिच्छन्न तामेवाह। अगीतपरिवारोऽगीतार्थपरिवृतोऽनेन द्रव्यतोऽयरि-च्छन्नत्वमुक्तं / स प्रत्यंत देशं प्रति गमनं विधाय आचार्यत्वं करोति / सच तथा आचार्यत्वं विडंबयन् परतीर्थिकैः परिमीय निःपृष्ठव्याकरणः क्रियते / तदनंतरं श्रावकाणा मपभ्राजना। यथा विडंबिता यूयं न भवदीयोधर्मः शोभनः / तथा च भवदाचार्यःपृष्टः सन्न किमप्युत्तरं ददाति / किंत्वस मंजसं प्रलपतीति। तथा शिष्या अपितैर्विपरिणम्यते। एवं च जायतेमहाननर्थः शासन-स्य। तदेवं यत इमे दोषास्तस्माद् व्य परिच्छदरहितेन भिक्षुणा न गणे धारयितव्यः / गतं कुमारद्वारम्॥ वणदवसत्तसमागण, विरए सिंहस्स पुंछडेवणया। तं दिस्सं जंबुएणो, विविरयवूढा मिगाईया। वियरयो नाम लघु श्रोतोरूपो जलाशयः। स च षोडश-हस्तविस्तारो नद्यां महाग यां वा तस्याऽकुंचः त्रिहस्तविस्तार-स्तस्य प्रवेशे मध्यो वेंट। अन्नया अडवीएवणदवो जातो सो सध्यतो समंता दहतो वह ताहे मिगादयो सत्ता तस्सवणदवस्स मीया परिधावं वेदं पविठ्ठा।। तत्थवि सो वणदव्वो महंतो आगच्छद। तत्थ स सीहो पविट्ठो। आसितोयमिगादी भाया चिंतिति। वेंटएस वणदवो पविसइत्ति दम्भियव्यंति / ततो सीहं पायवडिया विण्णति / तुम्हे अम्हं मिगरायाओ नित्थारेहि / सीहेणं भण्णइ / पुंछ मम धणियं लग्गा। ततो सीहेण प्लुतं कयं / सोलसहत्थे विकंतो सह मिगाई हिंडीणं अन्नया पुणो वणदवो जातो / तहेव मिगादयो तत्थ पविट्ठा / ततो एको सियालो सीहेण उत्तारियपुटवो चिंतेइ। अहं पिसीहो चेव उत्तारेहामित्ति मिगादयो भणंति।मम पुच्छे धणियं लग्गेहते लग्गा तेण सियालेण प्लुतं कयं / वियरए सह मिगाइएहि पडिओ सव्वे विणट्ठा / तेअट्ठाणातीआवतीसुगीथत्येणं वीयपए जयणानिसेवणा मिए गच्छं नित्थारियं पासित्ता अगीयत्थो चिंतेइ / सवेवि एवमायत्ति एवं मन्नतो निकारणे वित्तियपदेण गच्छेण समं विहरइ सो तहा विहरतो नगरगाइभववियरए अप्पाणं गच्छं च पाडेइ॥ एष भावार्थः / अधुनाऽक्षरार्थो विब्रियते / वनदवे जाते सत्वा-नां मृगादीनां वियरयपरिवृत्ते वेटे समागतः / तेषां सिंहस्य पुच्छे लगानां सिंहेन सह व्यपरजसा लघुश्रोतोरूपस्य जलाशयस्य डेपनलंघनंततोदृष्ट्वा जंबुकेनाऽप्यन्यदा तत्कर्तुमारब्धं। तेनच तथाकर्तुमशक्नुवता मृगादयः तस्मिन् व्यपरजसि वुढाः क्षिप्ता एष दृष्टांतः।। संप्रति दार्शतिकयोजनामाह॥ अहाणादिसु एवं, दट्ठं सव्वत्थ एव मन्नन्तो। भवविरियं अग्गीतो, पाडइअन्नेवि पवडन्तो।। अघ्वादिष्वापत्स्वेव द्वितीयपदेन यतनानिषेवणतो गच्छं निस्तारयंतं दृष्ट्वा अगीतोऽगीतार्थःसर्वत्रैव मारयितव्यमिति मन्यमानोनिष्कारणयतनया द्वितीयपदेन गच्छं परिपालयन् भाववियरयमिति द्वितीया प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे / नरकादिभवरूपे व्यपरजसि प्रपतन् अन्यानपि स्वगच्छवासिनः पातयति। गतं व्यपरजोद्वारम्।। अधुना पंक्तिद्वारमाह। जम्बुककूवे चन्दे, सीडेणुत्तारणा य पंतिए। जंबुक सपन्तिकडणं, एमेव अगीयाणं // एगया जेहामासे सियाला तिसिया अद्यरत्ते कूवतडे ठिया। कूवं पलोयंति। तत्थ ते जोण्हाए उदए चंदबिंबंपासंति। चिंतेतिय चंदो कूदे पडितो / तत्थ य सीहो आगतोचेट्टइततो तेहिं सियालेहिं सीहो विण्णावितो तुम मिगाहिवतीए सवि गहाहिवती कूवे पडितो एयस्स गुणेणं अम्हे दिवसभूयाए रत्तीए सुहं निरुवसग्गा विय रामो ततो जुञ्जसि तुमंगहाडिवतिमुत्तारित। सीहो भणति। पंतिए समं पुच्छे लग्गित्ता वियरह अंतिल्लस्स चंदो लग्गिहिति ताहे सव्वे प्लुतेनोत्तारेहामिति ततोते पंतीए सीहपुच्छे लग्गा कू वमज्झे उत्तिण्णा सीहेण प्लुतं काउं सटवे उत्तारिया / उवरि गगणे चंदं पासें ति / कूब Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 358 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय तलेय आलोलिए उदएचंदं अपासमाणा उतरियत्ति म नंति / अन्नया तहेव चंदं पासेत्ता सीहेण उत्तारियपुष्वो सियालो एवं चिन्तेइ। अहमवि सीहोइव उत्तारेमि।। एवं चिंतित्ता सोसियालो भणइ / पंतीए मम पुच्छे लग्गित्ता उयरहते उत्तिना। सीयालेणं उत्तारेहामित्ति प्लुतं कयं। ततो असमत्थोत्ति तह पुच्छे लग्गित्ता सह कूवे पडिता। तत्थेवमतो एवमट्ठाणादीसु आवईसुगीयत्थेणं वितियपदे जयणा निसेदणाए। इत्यादि। उपनयः पूर्ववेदष भावार्थोऽधुना अक्षरार्यः / एक दाजंबुकाः कूपतटे मिलितास्तैः कूपे कूपमध्ये चंद्रो दृष्टः / तस्मिन् दृष्ट तदुद्धरणाय सिंहपुच्छविलग्नानां पंक्त्या प्रविष्टानां शृगालानां सिंहेनोत्तारणा कृता। तत् दृष्ट्वा अन्यदा एकेन जंबुकेन सिंहोत्तारितपूर्वेण तथा कर्तुमारब्धं / ततस्तस्य जंबुकस्य संपक्तिकस्य कूपे पतनमेवमनेनैव दृष्टांतद्वयोक्तेन प्रकारेण गीतागीतयोर्भवकूपे गच्छेन सह पतनं तत उत्तारणं च गच्छस्य परिभावनीयमिति / गतं पंक्तिद्वारमिदानीं शृगालराजद्वारमाह / / नीलारागे खसटूटम, हत्थीसरभा सियालकच्छमओ॥ बहुपरिवारअगीते, विव्वूयणो हावणपरेहिं।। एको सियालो रत्तिघरं पविट्ठो घरमाणुसेण वेतितो निच्छुमिउमाढत्तो सोपुण गाईहि पारहो नीलीरागरंजणे पडितो किहवि ततो उत्तिन्नो नीलवन्नो जातो तं अन्ने सरमतरक्खु सियालादी पासिउं भणंति को तुमंएरिसो सो भणइ अहंसवाहिं मृगजातीहिं खसटुमो नाम मिगराया क ओ / ततो अहं एत्थमागतोपासामि।ताव कोमन्नति तेजाणंति।अपुटवो एतस्स एसदेवेहिं अणुग्गहितो ततो भणंति अम्हे तव किंकरा। संदिसह किं करेमा खसटुमो भणइ हत्थिवाहणं देह दिण्णो विलग्गो वियरति। अन्नथा सियालेण उखुइयं / ताहे खसट्टमेणं तं सियालसहावमसहमाणेण उव्वुइयं ततो हच्छिणा सियालोत्ति, नाउं सोंडां पवेतुं मारितो॥ एवं कोइ अगीयत्थो अगीयस्थपरिवारं लभेत्ता पचतं देसं तं गंतुं आयरिउत्ति पकासेइ। सो कहिंवि विओसेहिंपे यालितो जानहिकिंविजाणइएवं तेण अप्पा जहामितो॥ एष भावार्थोऽधुना अक्षरार्थः। नील्यासंबंधी रागो यस्यसनीलीरागः। शृगालःखसटुमोनाभमृगराजो जातः। तस्यह स्तिनः खरभाः शृगाला उपलक्षणमेतत् / तरक्षादयश्च परिवारः / सोऽन्यदा कस्यापि शृगालस्योन्नदमाकर्ण्य शृगालोन्नादितमकरोत् / ततःश्रृगालोऽयमिति ज्ञात्वा हस्तिना मारित इति शेषः / एवं गीताछेबहुपरिवारे अगीते अगीतार्थे विहरति बहुश्रुतोऽहमाचार्य इति बहुजनविश्रुतं विकुर्वाणः प्रष्टव्याकरणासमर्थतया परेभ्यः पक्षवर्तिभ्यश्चापभाजना भवति। अतवा अयमन्य उपनयः॥ से हादिकज्जेसुंवा, कुलादिसमितिसु जंपउ अयं तु। गीएही विस्सुयंतो, निहोडणमपनओ सेहि। वाशब्द उपभयांतरसूचकः / शैक्षकादिकार्येषु कुला दिसमवाये नियुक्तः कुलगणसंघसमवायेषु श्रावकाः सिद्धपुत्राश्च ब्रुवत अयमेव तुरेवकारार्थः / बहुश्रुतो जल्पतु व्यवहारनिर्णयं करोतु यथाकस्य भवतीति / ततस्तेनाव्यवहारमुक्तं तच्च गीताथैर्विश्रुत ततस्तै निहोडण मिति निहेडितं यथा अगीतार्थ एष नजानाति व्यवहारमिति / ततः शैक्षे प्राकृतत्वात् पठ्यर्थेसप्तमी। एकवचने बहुवचनं। शैक्षकाणामुपलक्षणमेतत् श्रावकाणां सिद्धपुत्राणां तद्वचस्थप्रत्ययो जातः चिंतयति च एषइयत्कालमस्माभिगीतार्थः संभावित इति / गतं श्रृगा लराजद्वारम्।। संप्रति (वित्तत्यजुद्धप्रसतित्ति) द्वारं व्याचिख्यासुराह / / एकेकएगजाती, पतिदिण सममेव गिण्हाइ॥ सीहेण हुजुजइत्ति, पाडह कूवंम्मि वुड्डससगेण ||2|| एमेव जंबुग्गो, वा कूबे पडिबिंबमप्पणो दिस्स। उवणय तत्थ मरणं सामायारीगयिअगीयाणं ॥शा एगो सीहो सो हरिणजातीणं लुद्धो दिवसे२ हरिणं मारेऊण खाइ। तओ हरिणेहिं विण्णविओ किमंगरायं तुमंहरिणजातीणं एबयाणपरिनिव्वट्ठो तापसायं करेहि सव्वमिगजातीणं वारणं पइदिवसमेकर मिगं खाहि / सीहेणं चिंतियं जुत्तमेस भणइ ततो सव्वे मिगा मेलित्ता सीहेण मणिया। तम्मे कलजत्तत्ताए आत्मी यकुलौचित्येनेत्यर्थः / सव्वमिगजातीणं वारणं पइदिवसं सहाणठियस्स एगं पेसिजाह। तेहिं अभुवगयं / ततो ते वि मिगा तहेव पेसंति। अन्नया ससगजातीए वारए / ससगा संपसारेंति मन्त्रयंतीत्यर्थः। कोवबउअज्ज सीहसगासे एगो वुड्ढुससगो भणइ / अहं वच्चामि / जो सवेसि मिगाणं संति काउं एमित्ति सो बलिओ अंतराले मायकूवसरिसे कूवं दतु उस्सूरे सीहसगासमागतो। ताहे सीहेण भणियं किं रे तुम उस्सूरे आगतोसि / ससगो भणइ / अहं पाए आगच्छंतो संतो अन्नेण सीहेण रद्धो। जहा कहि वचसि। ततो मए सम्भावो कहितो / ताहे सोभणइ अन्नो न होइसो मिगराया ततो मए भणियं / जइ अहं तस्स मिगरायस्स सगासं न जामि तो सो रुट्ठो सव्वे ससगा उच्छादेहित्ति / तम्हा जामि तस्स सगासं कहेमि। ततो जो तुमं वलितोहोहित्ति तस्स अम्हे आणं कहामो। ताहे अहं तेण भणितो वचा कहोहि भण आगच्छ मम सगासं जदिते सत्ती अत्थिततो सीहे भणति दंसेहिममंतं सीहं / ततो ससओ सीहेण समागम्म दूरं अगडं दूरत्थोववदंसेति। भणइय एत्थ पविट्ठो चिट्ठइ / जइ तपत्तियसि तो तुमं अगज्जयज्जेण Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 359 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय सो वि उग्गजइ॥ ततो तेण उग्गज्जियं उग्गज पडिसद्दो उद्वित्तो | पउंजे हामि / एवं सुबहुं धणं पंडित्ता कुलाणं समा. ततो मुहुत्तं अच्छइजाद न पुणो को वि उग्गजइ णेतरकुलप्पसूर्य कण्णा। परिणित्ता आणेमि / ताहे साकुलमदेण ताहे सीहो वितेह मम भएण वित्तत्थोतो न गजइति। निप्फडइ उसीसएणं सेलं वडिहितिततोहंकिंउस्सीसएणा सम्वडिसिति वातं एत्थेवजएविसितामारे मितिपडितो कूवे। अपेक्ख-माणो पहाए आहणिस्सामिति पादोउच्छूढो तेण सा घडी भगा। चिंतेइ नणं निलुक्को ताहे सीहो गज्जइ रोक्किरइय अक्षरयोजनां त्वियं / द्रमकोरंकः स व्रजिकायां गोकुले गतः / तेन ततो चिंतेइ न जुज्झिउकामो मए समं एवं जुद्धासतीए सीहो दुग्धपानानंतरं क्षीरभृता घाटका लब्धा सा गृहंगतेनखट्वा या प्लुतं काउं उत्तिण्णो / एवं गीयत्थस्स विजयविच्छलणा मुच्छीर्षकमूले स्थापिता। ततश्चिंताऽभूत् किंविषयेत्यत आह। कुक्कुट्यः भवति। क्रेतव्यास्तदनंतरंतासांप्रबंधन प्रसवः। पुदनस्तस्य मूल्येन विक्रयस्ततो तहावि सो जाणगतणेण अप्पाणं वि सोहेइ / तहाएगो जंबुगो वृद्धियोगेन धनपिंडनं कृत्वा (समाणे तर) मिति। समानां समानकुलसो भमंतोकहवि कूवतडे समागतो कूवे पाणियं पादाइयं दिटुं प्रसूतामिवेत-रामसमानकुलप्रसूतां कन्यां परिणीय तां अत्तणो पडिबिंब / तओ उन्नयइताहे उच्छलिओ पडिसहो। तं कुलमदेनोच्छीर्षकेन चटतीं पादेनाहनिष्या मीति दुग्धघटिकाया सोउ मेहकार इतिराया सिया ते पडितो तं मगाणं प्लुतं भेदनमकार्षीत् / / काउमसमत्थोत्तितत्थे वमतो एवमगीयत्थो वलिओ बिन सके। अत्रोपनयमाह / / अप्पाणं पव्वुद्धरिउमिति तस्व गणो न दायव्यो / / पव्वावइत्ताण बहूउ सिस्से, पच्छा करेस्सामि गणाहिवत्तं / एषभावार्थोऽधुनाक्षरार्थनिवरणं / सर्वा मृगजातवो मिलित्वा इत्थं विकप्पेहि विसूरमाणो, सज्झायमेवं न करेइ मंदो॥ प्रतिदिवसमेकैकमे कस्या जातेः सिंहस्य स्थानस्थितस्य सम-प्पयंति। बहून् शिष्यान्प्रद्राज्य पश्चात्करिष्यामि गणाधिपत्यं एव अन्यदा शशकस्य वारोजातः / सोऽपांतराले दवकूपे प्रतिबिंब मिच्छाविकल्पैस्स मंदो नित्यकालं विस्तरयन् स्वाध्यायं न करोति मरुकूपसदृशमतीवोण्डं कूपे दृष्ट्वेत्यर्थः / चिरात्सि-हसकाश सूत्रार्थपौरुषीन करोतीत्यर्थः / ताश्चाकुर्वाणः पूर्व गृहीतान् मागतःततइशशके सिंहस्य पृच्छा कस्मा चिरादागतः / सूत्रार्थान्नाशयति। यथा सद्रमको दुग्धघटिकां नाशितवान्। तस्याद्यसिंहकथनं तत (एजणति) सिंहस्य कूपसमीपागमनं तदनंतरं पूर्वप्रकारेण कूपे डेप आत्मनः प्रतिक्षेपः ततः।प्लुतेनोत्तरणं / एवमेवेत्यादि संप्रति तृतीयभंगे उदाहरणमाह॥ एवमेव यथाप्रवृत्यैवेत्यर्यः।जबूकोऽपि कूपे प्रतिबिंबमात्मनोदृष्ट्वा डेपनकं गावीगोरक्खंतो, घेत्थं च भत्तिए पड्डिया तत्तो। प्रति क्षेपणकमात्मनः कृतवान् तच्च तस्य मरणमेवं समवतार उपनेयो दिलुतो गोवग्गे, होहिंति य वच्छिगा तत्थ ॥शा यथाक्रमं गीतागीतार्थयोः कर्त्तव्यः। सच प्रागेव कृत इति। सांप्रतमेता- तेसिं तु दामगाई, करेमि मोरंगचूलितोय। न्युदाहरणानि यं भंगमाश्रित्योपदर्शितानि तत्र योजयति॥ एवं तु तइयभंगे, वत्थादीपिंडणमगीतो ॥शा एए उदाहरणा, दवे भावे य अपलिच्छन्नडि। एगो घोसो गाविंतो रक्खंतो चिंत्तेति। अहं गोरक्खणमो-ल्लेण दव्वेण अपलिच्छन्ने, हाँति इमे तइय भंगंडि। पडियातो गहिस्सामि ततो मे पवढमाणो गोवग्गो भविस्सत्ति एतान्यनंतरोदितानि पंचाप्युदाहरणानि अप्रशस्तानि द्रव्ये भावे च | तम्मिय पवडमाणे गोवग्गे वच्छगा ओ बहुयाउ होहिंति ततो सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे / द्रव्येण भावेन च अपरिच्छन्ने इति करेमि / तासां जोग्गाओ मोरंगचूलियाओ य एवं चिंतिता सो प्रथमभंगवर्तिनि वेदितव्यानि / प्रशस्तानि चतुर्भगे द्रव्यतो भावतश्च तहापकरेति एवमगीयथो विभावेणापलिच्छन्नो तइयं भंगील्लो परिच्छन्ने इतिवाक्यशेषः॥ द्रव्येण अपरिच्छन्नेऽनेन द्रव्यतोऽपरिच्छन्नो वहगे परिवारे चिंतेति-इति वत्थादीणी बहूणि पिडेति // भावतः परिच्छन्न इति वा तृतीयभंगसूचितंसूत्रं / तथा भावे सप्तमी अक्षरयोजना त्वियं / गोरक्षणे गोपालोऽचिंतयत् भृत्या मूल्येन पड्डिका तृतीयार्थे / भावेनापरिच्छन्नो भावतोऽपरिच्छन्न इति तृतीयभंग इति न अभिनवप्रसूता गा ग्रहिष्यामिततो मे प्रवर्द्धमानोगो वर्गोभविष्यति। तत्र सूत्र इति न इमे वक्ष्यमाणे उदाहरणे। तत्र प्रथमतो द्वितीयभंग उपात्तः॥ तस्मिन्प्रवर्द्धमाने गोवर्गे वत्सिका भविष्यति। ततोऽतस्तस्यां योग्यानि दमगे वइया खीरघडि, घट्टचिंताय कुकुडिप्पसवो। दामकानि करोमि। मयूरांग चूलिकाश्च मयूरांगचूलिका आभरणविशेषरूपा धणपिंडणसमणेरि, ऊसीसगभिंदणघडीए॥ एवं। चिंत यित्वा स तथा प्राकृतवान्॥ एगो दमगो गोउलं गतो तत्थ गोउलिएहिं दुद्धं उदं पाइतो तत्रोपनयमाहा एवं तुएवमेव तुरेवकारार्थस्तृतीयभंगवर्तमानस्य अगीते अन्नया से दुद्धस्स भरियाघडिया दिण्णा। सोतं घेत्तूण घरं गतो | अगीतार्थस्य वस्त्रादिपिंडनमवगंतव्यं / अस्य यद्यपि परिवारो नास्ति खट्टाएण ऊसिसमूले ठवेउं निवण्णो चिंतिउमाढत्तो / एयाए | तथा वस्त्रादिषु लब्धिरस्तीति द्रव्यतः परिच्छन्नत्वमंगीकृत्य तृतीयभंगे दुद्धघडियाए कल्ले कु कुडीतो किणिस्सामि ताहे इत्युक्तं // पसवो होहिति तं पसवं विक्के हामि ततो तं मूल्लं वडिए। अस्य दोषानाह॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 360 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय ताई बहूई पडिलेहयतो, अट्ठाणमाईसुय संवहंतो।। एमेव वा सम्मतिरित्तगंसे, वातादिखोभेदुयएव हाणी॥ तानि वस्त्राणि बहूनि प्रतिदिवसमुभयकालं प्रतिलेखयन् अप्रतिलेखने प्रायश्चित्तापत्तेरलब्धादिषु अध्वनि मार्गे आदि शब्दात् वसत्यंतरसंक्रमेणादौ च संवहन् श्राम्यति / श्रमाच ग्लानत्वे च संयमविराधना सूत्रहानिश्च एवमेव अनेनैवप्रकारेण वर्षास्वपि दोषा वाच्याः केवलं (से) तस्य उभयकालं तानि प्रतिलेख-यतोऽतिरिक्तकर्म अतिरेकेण वातादिक्षोभो भवति। तथा च सति सुदीर्घ श्रुते सूत्रस्य च शब्दार्थस्य च परिहानिः॥ अत्र परस्याऽवकाशमाह। चोदेति न पिंडेतिय, कलेगिण्हंति यजो सलद्धीओ। तस्स न दिनई किं गणो, भावे उण जो उ संच्छनो। चोदयतिपुरोयथा यःसलब्धिको भावेनचयोऽसंच्छन्नो परिच्छदरहितो न पूर्वमेव वस्त्रादीनि पिंडयति। किंत कार्ये समुत्पन्ने गृह्णाऽति तस्य किं कस्मात्कारणात् गणो न दीयते प्रामुक्तदोषसंभवात् अत्र सूरिराह॥ चोयग ! अप्पम्भूयअसी, पूयापडिसेहनिमरतला। एसंते से अणुजाणसि, पव्वइए तिन्नि इच्छासे॥ हेचोदक ! स भावतोऽपरिच्छन्नोऽप्रभुरहितोऽतस्तस्मात्तस्मै गणो न दीयते / एतौ तृतीयभंगवर्तिन्याक्षेपपरिहारौ (असतित्ति) यस्य तृतीयभंगवर्त्तिन आक्षेपपरिहारावभिघातव्याविति वाक्यशेषः / तथा (पूयत्ति) पूजार्थे गणो ध्रियते इति कस्यापि वचनं तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः / किंतु निर्जयार्थ गणो धारणीय इति वाच्यं / निर्जरार्थं व्यवसिताः केचित्पूजामपीच्छंति। तत्र निर्जरार्थं गणं धारयतः पूजामपि प्रतीच्छतः आचार्यस्य न दोषस्तथा तडागं दृष्टांतत्वेन द्रष्टव्यं / तथा यो भावतः परिच्छन्नशिष्यो लब्धिमांश्च सततं परिवार (से) तस्याऽत्मीयस्य आचार्यस्य अनुजानाति कियंतमित्याह / जघन्यतस्त्रीन्प्रताजितान्। किमुक्तं भवति। जघन्यतस्त्रयः प्रद्राजिताःअवश्यं दातव्याः (इच्छासेत्ति) इच्छावो (से) तस्याऽचार्थस्य / इयमत्र भावना / आचार्य आत्मनो यथेच्छया त्रीन्वा बहुतरान्वा सर्वान्वा प्रव्रजितान् गृह्णातीति एष गाथासंक्षेपार्थः। व्यासार्थं तु भाष्यकृद्धिवक्षुः प्रथमतः (चोयग अप्पभुत्ति पद) व्याख्यानयति॥ भण्णइ अविगीयस्स उ, उवगरणेदीहिं जई विसंपत्ति। तह विन सो पजतो, वोढव्वे करीलकाओव्व। चोदकेनाक्षेपे प्रागुक्ते कृते सति प्रतिवचनं भण्यते / अविगीतस्य विशिष्ट गीतार्थरहितस्य हु निश्चितं यद्यपि उपकरणादीनामुपकरणशिष्यादीनां गाथायां वा तृतीया षष्ठ्यर्थे प्राकृतत्वात् / संपत्तिस्तथापिन सपर्याप्तः समर्थो वोढव्ये उपेक्षितेगणेभारं किमेवेत्यत आह (करीलकाओव्व) करीलो नाम वंशजातिविशेषो दुर्बलस्तन्मया कापोतीव कस्माद्रणभारवहनेन समर्थ इत्यत आह / / न य जाणइ वेणइयं, कारावेउं न यावि कुव्वंति / / तइयस्स परिभवेणं, सुत्तत्थेणं अप्पडिबद्धा / / वा यस्मादर्थे यस्मान्न जानाति विनय एव वैनयिक विनया दिभ्य इति स्वार्थेइकण्प्रत्ययः / "अतिवर्तते स्वार्थप्रत्ययकाः प्रकृति लिंगवचनानि" विनयशब्देऽस्यपुंस्त्वेऽपि प्रत्यये समानीते नपुसकलिंगता तत् शिष्यान् कारयितुमगीतार्थत्वात् / नच तस्य पार्वे सूत्रमर्थो वा भावतोऽसंछन्नत्वात् / ततः सूत्रार्थाभ्यां गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् अप्रतिबद्धाःसंतः शिष्याः परिभवमेव केवलं मन्यते।जन्मनो निष्फलीभवनात्। तेन च परिभवेत् / तस्य तृतीयभंगवर्तिनो वैनयिक कारयितुं जानतोऽपि न चापि नचैव ते शिष्या विनयं कुर्वति / तस्मान तृतीयभंगवर्ती गणधारणयोग्यः॥ सांप्रत (मासत्तित्ति) पदं व्याख्यानयन् द्वितीयभंगगतावाक्षेपपरिहारावाह / / वियभंगे पडिसेहो; जं पुच्छसि तत्थ कारणं सुणसु॥ जइसेहोज धरेजा, तदभावे किं न कारेउशा तांपि यहु दय्व संगह, परिहीणं परिहरंति सेहादी॥ संगहरीए य संगलं, गणधारित्तं कहं होइशा यत्पृच्छसि त्वं यथा द्वितीयभंगे द्विनीयभंगवर्त्तिना गणधारणे कस्मात्प्रतिषेधः कृतस्तत्रकारणमिदं शृणु तदेवाह यदि (से) तस्यगणो भवेत्ततो धारयेत् तदभावे गणभावे किनु धारयेत्नैव किंचिदिति भावस्ततो गणाभावादेतस्य गणधारणप्रतिषेधः अपि च तंबहु इत्यादि तमपि च भावयेत् / संच्छन्नमपि च बहु निश्चितमलब्धिकतया द्रव्यसंग्रहपरिहीनं वस्वापात्राद्युपकरण-संग्रहरहितं शैक्षादयः शैक्षक आदिशब्दात् मुनि वृषभादिपरिग्रहः / परिहरंति वस्त्राधभावात् तेषां सीदनात् ततः संग्रहमृते विना सकलं परिपूर्णगणधारित्वं कथं भवति नवै भवतीति भावः तदभावाच तस्य तत्प्रतिषेधः / इदमलब्धिकमधिकृत्योक्तं / यदि पुनर्द्धितीयभंगवर्त्यपि वक्ष्यमाणगुणैरुपेतोभवति ततोऽनुज्ञा-प्यतेऽपि गणधारीदोषाभावात्तथाचाह / आहारवत्थादि इत्यादि गाथा 319 पृष्ठे 30 पंक्तौ द्रष्टव्या॥ ___ संप्रति (पूयापडिसेहे इति) पदे व्याख्यानयन्नाह पूयत्थं नाम गणो, धरिजति एव ववसितो सुणत्ता।। आहारोवहिपूया, करणेन गणो धरेयध्वो ||1|| पूजां प्राप्नुयामित्येवमर्थे नाम गणो ध्रियते इत्येवं कश्चित् व्यवसितो ऽभ्युपगतवान्। एतावता (पूया) इत्यशो व्याख्यातः। अत्राचार्यः प्राहः / शृणुत यदर्थ गणोध्रियते। तत्र परोक्तप्रतिषेध-माह / आहारोपधिपूजाकरणेन उत्कृष्ट आहारः शोभन उप-धिर्महती पूजास्यादिति कारणतोऽत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् न गणोधारयितव्यः / एतावता प्रतिषेध इति विवृतं॥ किमर्थं तर्हि गणो धारयितव्य इत्यत आह॥ कम्माणनिखारडा, एवंखु गणोभवे धरेयव्यो। निअरणहेतुववसिया, पूर्यपिव केइ इच्छति ||| एवमनेन कारणेन खु निश्चितं भवति गणोधारयितव्यो यदुत कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां निर्जरार्थं मोक्षायैव तत्ववेदिनां प्रवृत्तोराहारादीनां चैहिकत्वात्केवलं के चित्स्थविरकल्पिका निर्जराहेतोर्गणधारणं व्यवसिताः। पूजामपि वक्ष्यमाण-लक्षणामिच्छति। किमुक्तंभवति यद्यपि नाम तत्वतः कर्म-निर्जरणनिमित्तं गणो ध्रियते तच्छापि पूजामप्येष प्राप्नुयादिति पूजानिमित्तमपि तस्य गणधारणमनुज्ञाप्यते // पूजामेवाह! गणधारिस्साहारो, उवकरणं,संथवो य उक्कोसो। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 361 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय सक्कारो सीसपडिच्छा, एहिं गिहिअन्नतित्थेहिंशा गणधारिणस्सतः उत्कृष्ट आहार उत्कृष्टस्संस्तवस्सतांगुणानां प्रख्यानं तथा शिष्यैः प्रतीच्छ कैहिभिरन्य-तीर्थिकै श्वोत्कृष्टः सत्कार उपाध्यायादिभिः पूजनं क्रियते ततः पूजानिमित्तमपि तस्य गणधारणमनुज्ञापनं संस्तवनं व्याख्यानयति॥ सुत्तेण अत्थेण य उत्तमोउ, आगाढपण्णेसु य भावियप्या।। जचनिओ यावि विसुद्धभावो, संते गुणेवं पविकत्थयंते॥ सूत्रेण अर्थेन च एष उत्तमः प्रधानः परिपूर्णस्य सूत्रस्यार्थस्य वावदातस्यास्य संभवात्। तथा आगाढप्रज्ञानिशास्त्राणि तेषु भावितात्मा तात्पर्यग्राहितया तत्राऽतीव निषण्णमतिरिति भावः / तथा जात्या सकलजनप्रशस्ययाऽन्वितो युक्तो जात्यन्वितः / तथा विशुद्धः स्वपरसंसारनिस्तारणैकतानतयाऽवदातो भावोऽ-भिप्रायो यस्य य विशुद्धभावः / एवं स्तुतो गुणान् गणधारिणः शिष्या अपरे च प्रकर्षतो हर्षाऽतिरेकलक्षणतो विकत्थयंते श्ला-घंते / एवं पूज्यमाने आचार्ये पूजकानां यो गणस्तमुपदर्शयति॥ आगम्म एवं बहुमाणितोहु, आणा विरत्तंच अभाविएस। सुणिज्जरावेणइया य निर्च,माणस्स मंगोवि य हुजयंते॥ पूज्यमाने आचार्य पूजकैरागमो बहुमानितो बहुमानविषयीकृतो भवति। आगमस्य तत्रस्थत्वात्। तथा भगवतामर्हतामाज्ञा परिपालिता भवति। भगवतां हि तीर्थकृतामियमाज्ञा यदुत गुरोः सदा पूजा कर्तव्या। तथा चोक्तं। "जहाहि अग्गी जलनं नमसे, नानाहुतीमंतपयाभिसित्तं / / एवायरी यं उववेट्ठएजा, उणंतनाणो विगतोविसंतो,, तथा गुरुविनयकरणेन यैर्नाऽद्यापि भाविता-स्तेष्वभावितेषु क्रियमाणपूजा दर्शनतः स्थिरत्वमुपजायते। यथा वैनयिकैर्विनयनिमित्ता विनिर्जरा कर्मनिर्जरणं नित्यं सदा सततं भवति / गुरुविनय स्य सदा कर्तव्यत्वात् / तथा मानस्या-ऽहंकारस्य भंगोऽपि च कृतो भवति। एते पूजकानां गुणाः / / संप्रति निर्जरार्थमेवगणधारिणं व्यवसितस्य पूजामपीच्छतः आचार्यस्य दोषाभावे यस्तडाग दृष्टांतस्तं भावयति॥ लोइयधम्मनिमित्तं, तडागखाणावियंमि पउमादी। न विगरिहियाणुभोत्तुं, एमेव इमं पि पासामो // केनापि लौकिकी श्रुतिमाकार्य धर्मनिमित्तं तडागं खानितं। तस्मिश्च तडागे पद्मादीनि जातानि / वर्षारात्रे चापगते यत्र यत्र पानीयं शुष्यति। तत्र तत्र धान्यं वापयति / तत्र यथा पद्मादीनि अनुभवितुं भोक्तं गृह्यमाणान्यपि न तस्य विगर्हितानि भवंति / लोके न तथा सम्मतत्वादेवमेव अनेनैव प्रकारेण इदमपि गणधारणं पश्यामः / निर्जरार्थमाचार्याणां गणधारणमुक्तप्रकारेण पूजानिमित्तमप्यदोषायेति भावः॥ ___ संप्रति (सं तंसे) इत्यादि पश्चार्द्ध व्याख्यानयति॥ संतमिउ केवइओ, सिस्सगणो दिज्जतीति ता तस्स। पव्वाविते समाणे, तिनि जहन्नेण दित्ति। भावपरिच्छन्नस्य शिष्यस्य सति विद्यमाने परिवारे तेन तस्याऽचार्यस्य ततो गणधारणानुज्ञापनानंतरं कियान् शिष्यगणो दीयतां / अत्रोत्तरं प्रव्राजिते शिष्यगणै सतितत्रत्रयो जघन्येन दीयंते। उत्कर्षतो बहुतरकाः सर्वे वा इति वाक्यशेषः / अथ किं कारणं जघन्यतस्त्रयोऽवश्यं दातव्या इत्याह / / एगो चिट्ठइपासे, सन्ना आलित्तमादिकज्जत्था। मिक्खादिवियारदुवे, पव्वयहेउं व दो हेउं॥ एकः पार्श्वे समीपे संज्ञापुरीषोत्सर्गे आलप्तमालपनं कस्याऽ-प्याचार्यः कारयेदित्यादि कार्यार्थ तिष्ठति // द्वौ च भिक्षायामा-दिशब्दात् औषधानयनादौ विचारे बहिभूमौ गच्छतः यदि वा सूत्रार्थासंवादप्रत्यये हेतू द्वौ भवेतां संप्रति प्रागुक्तायामवे चतुर्भग्या विशेष वक्तुकाम आह / / दवे भावे पलिच्छ दे, दवे तिविहो उहोइ चित्तादी। लोइयलोउत्तरिओ, दुविहो वा वारजुत्तियरो॥ परिच्छदो द्विविधो द्विप्रकारो द्रव्ये भावे च / तत्र द्रव्ये द्रव्य परिच्छदस्त्रिविधोभवति / (चित्तादी) सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्व एष त्रिविधोऽपि द्रव्यपरिच्छदो भूयो द्विधा लौकिको लोकोत्तरिकश्च / तत्र लौकिकः सचित्तः त्रिविधो द्विपदचतुष्पदापदभेदात्। अचित्तो हिरण्यादिमिश्रः सचित्ताचित्तसमवायेन लोकोत्तरिकः सचित्तो द्रव्यपरिच्छदः शिष्यादिराचित्त उपधिमिश्रः सचित्ता-चित्तसमवायतः। तत्र लौकिके लोकोत्तरिके च द्रव्यपरिच्छदे द्विधा / यथा व्यापारयुक्त इतरो व्यापारायुक्तश्च त निदर्शन-माह। दो भाउया विभत्ता, एको पुण तत्थ उज्जुतो कम्मे। उवि उभतिप्पदाणं,अकालहीणंच परिवड्डी। द्वौ भ्रातरौ तौ परस्परं विभक्तौ धनं विविच्य पृथक्पृथजातावित्यर्थः / तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये पुनरेकः कृषि कुर्वन् कर्माणि उद्युक्तः। किमुक्तं भवति / स्वयं कर्म करोति भृतकांश्च कारय-ति / भृतकानां वा कालपरिहीनां उचितां परिपूर्ण भूर्ति मूल्यं ददाति / अकालपरिहीनं च परिपूर्ण भक्तं / एवं चतस्य व्याप्रिय-माणस्य कृषः परिवृद्धिरजायत साधुवादश्च / / कयमकयं वन जाणइ, न य उज्जम ए सयं न वावारो। भत्ति भक्तकालहीने, दुग्गहियकिसीए परिहाणी।। द्वितीयो व्यापारायुक्तो भृतकैः किं कर्म कृतं किं वा न कृत मिति नैव जानाति स्वयमपरिभावनादन्यतश्चाऽप्रच्छनान्नच स्वयं कर्मकारणायोद्यच्छति। न वा मध्ये स्थित्वा भृतकान् व्यापारयति / भृतिभक्ते च भृतकानां कालहीने ददाति। किमुक्तं भवति / भृतिमपरिपूर्ण ददाति। कालहीनां च एवं भक्तमपि / तत एवं दुर्गहीतायाः कृषेस्तस्य परिहानिरभूदसाधुवादश्च / / संप्रति लोकोत्तरिक द्रव्यपरिच्छदे व्यापारयुक्तमाह !! जो जाए लद्धीए, उववेओ तत्थ तं निजोएंति। उवकरणे सुत्तत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ यो यथा लब्ध्या उपपेतोयुक्तो वर्तते। तत्र तं नियोजयंति सूरयस्तद्यथा उपकरणे इति उपकरणोत्पादने (सुत्ते) इति-सूत्रपाठलब्ध्युपेतं सूत्रपाठे अर्थग्रहणे लब्धिसमन्वितं परवा-दिमयने धर्मकथनलब्धिपरिकलितं धर्मकथने ऽग्लानमिति चरणपटीयांसंग्लानं प्रति जागरणे // जह जह वावायरते, जहा य वावारिया न हायंति। तह तह गणपरिवड्डी, निजर वडी वि एमेव // यथा यथा तत्तल्लब्ध्युपेतान् तत्कर्मणि व्यापारयंति यथा यथा च व्यापारा न हीयते / देशकालस्वभावौचित्येन व्यापारणात् तथा तथा गणस्य गच्छस्य परिवृद्धिर्भवति / निर्जरावृद्धि Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 362 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयरिय रप्येवमेव निर्जराऽपि तथा परिवर्द्धत इतिभावः / तद्व्यतिरिक्तो | व्यापारयुक्तस्तस्य गच्छपरिहानिर्भवति निजरिति संप्रति भावपरिच्छेदमाह॥ दसणनाणचरित्ते, तवेय विणए य होइ भावम्मि। संजोगे चउभागा, विइए नायं वइरभूतं / दर्शनं क्षायोपशमिकादिभेदभिन्नं सम्यक्त्वं ज्ञानं मतिज्ञानादि चारित्रं सामायिकादि, तपोऽनशनादि, एष भावतः परिच्छदः अनयोश्च द्रव्यभावपरिच्छन्नो भावतः परिच्छन्नः इत्येवं रूप द्वितीये भंगे ज्ञातमुदाहरणं वज्रभूतिस्तेदवाह॥ भरुयच्छे नहवाहण, देवी पउमावती वइरभूती। ओरोहकथगाणय, कोउयनिव पुच्छदे विगमो ||3|| कत्थत्ति निवाएसो, सयमासण एसचेवचेडिकहा।। परिदारण मदाणं वि, रूवपडिवाररहिएयशा भरुयच्छे नयरे नहवाहणो नाम राया तस्स पउमावती देवी। तत्थ नयरे वइरभूती आयरिओ महाकई अपरिवारो रूवेण य मंदरूवो अतीव किसो तस्स कव्वं अंतेउरे गिर्जति सा य पउमावती देवी तेण कव्वेण हयहियया कया चिंतेइ / जस्सेयं कव्वं कहमहंतं पेछिज्जा / तओ रायं अणुण्णवित्ता दासी संपरिवुडा महरिय-पण्णागारं औचित्येन ढोकनीयं घेत्तुं वइरभूतिस्स वसिहिं गता / तं वारट्टियं पासिता वइरभूइमेव मिसियं घेत्तुं निग्गतो। वउमावतीए कहियं कहं वइरभूती दासीए सनियं एस चेव वइरभूती ताहे विरागं गया चिंतेइ य दिहासिकसेरुमती पीयंते। पाणियं यं वरं तुह नाम न दंसणयं अत्र कसेरुमती नाम नदी। तस्याः प्रसिद्धि-रतीव / नच तत् प्रसिद्ध्यनरूपंतस्याःपानीयमिति क्षेपः। ताहेतं पण्णागारदिण्णं ठवियं / एतं आयरियस्स दिञ्जसित्ति गया। संप्रत्यक्षरघटना। भरुकच्छे नभोवाहनो नाम राजा तस्य पद्मावती देवी। तत्र वज्रभूतिराचार्योऽवरोधे अंतःपुरे तत्काव्यमानं कौतुकेन नृपं दृष्ट्वा देव्यास्तद्वसतौ गमः तदनंतरं पृच्छा कुत्र वज्रभूतिराचार्यस्तस्य प्रत्त्युत्तरं बहिर्निर्गतः। सचाचार्यः सपरि-वाराभावात् स्वयमासनं गृहीत्वा मध्यावाहिरागतः चेट्या दास्याः कथानकमेष एवं वज्रभूतिस्ततो विपरिणामा विपरिणामाच साक्षाददानां विरूपे परिवाररहिते च तस्मिन्नाचार्ये एतेनैतदावेदितं यः परिवारवानपि रूपेणाऽविरूपः सोऽपि द्रव्य-परिच्छदेनापरिच्छन्नः ततो यद्यपि तस्य परिवारोऽस्ति। तथापि योऽधस्तात् द्रव्यपरिच्छदो वर्णितस्तस्य मूलमाकृतिस्तदभावे तस्याभावः। तथाचाह। मूलं खलु दवपलि, च्छयस्स सुंदेरमोरसबलं च / आकितिमतो हिनियमा, सेसाविहरति लद्धीतो।। समस्तस्याऽपि प्रागुक्तस्य द्रव्यपरिच्छदस्य मूलं खलु सौंदर्य मौरसंच बलं हृदयबलिष्ठता सर्वव्यापारेषु दाक्ष्यमिति भावः।कुत इतिचेदत आह / यस्मादाकृतिमतः सतो नियमाच्छेषा अपि लब्धयो वस्त्रादिविषया भवंति। न त्वाकृतिविरहितस्य तथा प्रत्यक्षत एव दर्शनात् तत | आकृतिरहितोऽपि द्रव्यपरिच्छदरहित इति न तस्यापि गणधारणानुज्ञा // संप्रति वक्ष्यमाणग्रंथ-संबंधनार्थमाह।।। जो सो उपुटवभणितो, अपभूतो उ अविसेसिओ तहियं / सोचेव विसोसिबइ, इहइ सुत्ते य अत्थे य॥ योऽसौ (चोयगअप्पभु) इत्यादिना ग्रंथेन अप्रभुःपूर्वः भणित स्सतत्रापि विशेषत एवोक्तः इह अस्मिन्प्रस्तावेऽप्रभुःसूत्रेऽर्थे च विशिष्यते / सूत्रतोऽर्थतश्च तस्याऽप्रभुत्वं चिंत्यते इति भावः। तदेवाह।। अबहुस्सुए अगीयत्थे, दिटुंता सप्पसीसवेजसुए। अत्थविहूणो धरते, मासा चतारि भारीय / / अत्र बहुश्रुतागीतार्थपदाभ्यां भंगचतुष्टयं तदचया। अबहुश्रुतोऽगीतार्थ इति प्रथमो भंगः 1 अबहुश्रुतो गीतार्थः 2 वा बहुश्रुतोऽगीतार्थः 3 बहुश्रुतोगीतार्थः / तत्र तस्य निशीथादिकं सूत्रतोऽर्थतो न गतं सप्रथमोभंगः यस्य पुनर्निशीथादिगतौ सूत्रार्थों विस्मृतौ स द्वितीयभंगः। पुनरेकादशांगधारी अश्रुतार्थः स तृतीयभंगः / सकलकालोचितसूत्रार्थोपेतश्चतुर्थः / अत्र बहुश्रुते अगीतार्थे वा एतेनादयभंगत्रयमुपात्तं / तस्मिन् गणं धारयति दृष्टांतौ सर्पशीर्षक वैदयसुतश्च / इयमत्र भावना। आदयानां त्रयाणां भंगानामन्यतरोयदि गणं धारयति। ततः स सहगणेन विनश्यति यथा सर्पशीर्षकं वैक्यसुतो वा एतदद्रष्टांतद्वयं यथा कल्पाध्ययने तथा भावनीयं (अत्थविहूणेत्यादि) अर्थ विहीने अगीतार्थे इत्यर्थः / अर्थग्रहणमुपलक्षणं सूत्रे इत्यपिदृष्टव्यं / तस्मिन् अर्थविहीने वा गणं धारयति। उपलक्षणमे तत्। निसृजति वा प्रायश्चित्तं चत्वारो (भारिया इति) गुरुका मासाः॥ अबहुस्सुते अगीयत्थे, निसिरए वा धारए गमणं / / तद्देवसियं तस्स उ, मासा चत्तारि मारिया / / अबहुश्रुतोऽगीतार्थो वा यदिगणं निसृजति धारयति वा स्वयं / किमुक्तं भवति / आद्यानां त्रयाणां भंगानामन्यतरो यदि गणं गीतार्थस्य वा निसृजति स्वयं वाऽद्यानां त्रयाणां भंगाना मेकतरः सन् यदिगणं धारयति एकद्वौवा दिवसावुत्कर्षतः सप्तरात्रिंदिवानिततस्तद्दिवसिकैस्तेषां सप्तानां दिवसानां निमित्तत्वतस्तस्य गणं निस्रष्टुर्धारयति स प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा गुरुकाः॥ सत्तरत्तं तवो होही, ततो छेदो पधावती। छेदेण छिनपरियाए, ततो मूलं ततो दुगं / / अन्यदन्यतः सप्तरात्रं यावद्गणस्य निसर्जने धारणे वा प्रायश्चित्तं तपो भवति / तपः प्रायश्चित्तसमाप्त्यनंतरक्रमेण छेदः प्रधावति छेदेन चेच्छिन्नपर्यायो भवति ततो च्छिन्नपर्याये तस्मिन् मूलं दीयते। ततोऽप्यतिक्रमे अंतिम द्विकमनवस्थाप्य पारांचित-लक्षणं / इयमत्र भावना। प्रथमसप्तदिवसानंतरमन्यानि चेत्सप्त-दिनानि गणं निसृजति धारयति वा स्वयं ततः प्रायश्चित्तं बदलघु ततोऽव्याचानिसहदिनानि ततः षट्गुरु। तदनंतरमप्यन्यानिचेत् सप्तादिनानि ततश्चतुर्गुरुका श्छेदः ततोऽप्यन्यसप्त दिनानि ततश्चतुर्गुरुकाश्छेदः। ततोऽप्यन्यसप्तदिवसातिक्रमे षट्लघु-कश्छेदः / तदनंतरमप्यन्यसप्तदिवसातिवाहने षट्गुरुकच्छेदः / एतावता कालेन यदि पर्यायो न च्छिनत्ति ततास्त्रि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 363 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय वा||१|| चत्वारिंशत्तमे दिवसे गणं धारयतो निस्रष्ट्रा प्रायश्चित्तं मूलं सयमेव दिसाबंध, अणणुण्णाते करे अणापुच्छा। चतुश्चत्वारिंशत्तमे दिवसे अनवस्थाप्यं पंचचत्वारिंशत्तमे पारां चितं तदेवं थेरेहिं य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा उवेहंता।। यत इत्थं प्रायश्चित्तं ततो न वर्तते / आद्यानां त्रयाणां भंगानामेकतरः यो नाम स्वयमेव आत्मच्छंदसा को मम निजमाचार्य मुक्त्वाऽन्य स्यापयितुं कः पुनर्गणधरः स्थापयितव्य इति चेदुच्यते शुद्धः / आपृच्छनीयः समस्तीत्यध्यवसायतः पूर्चाचार्येणाऽननुज्ञात आचार्यपदे अथ कोऽसौ शुद्ध इतिशुद्धलक्षणमाह। तस्याऽस्थापनात्स्थविरान् गच्छमहत्तररूपान् अनापृच्छ्य दिग्बंध जोसो चउत्थमंगो, दव्वे भावेय होइ संच्छन्नो। करोति। स्थविरैः प्रतिषेधनीयाः / यथा निवर्तते आर्य ! तव गणधारणमि अरिहो, सो सुद्धो होइनायव्यो।। तीर्थकराणामाज्ञां लोपयितुं एवं प्रतिवेदितोऽपि यदि न प्रतिनिविर्तते योऽसौ चतुर्थभंगश्चतुर्भगवर्ती कोऽसावित्याह। द्रव्ये भावेच यो भवति / तर्हि स्थविराः शुद्धाः सन्तः चतुर्गुरुके प्रायश्चित्ते लग्नाः / अथ स्थविरा उपेक्षते तर्हि ते उपेक्षा प्रत्ययं चतुर्गुरुके लग्नायत एवमुपेक्षायामनापृच्छायां संच्छन्नद्रव्यः परिच्छदविशेषैश्च परिकलित इति भावः।। च तीर्थकराभिहितं प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषास्तस्मात्स्थ-विरैरुपेक्षा न (30) स्थापनायां स्थविराः प्रष्टव्याः॥ कर्तव्या। तेन च स्थविरा आपृच्छनीयाः।। स्थविराननापृच्छ्य गणं न धारयेदाचार्यः व्य, सू०३ऊ॥ सगणे थेराणसती, तिगरे वा तिगं तु बद्धाति / भिक्खू इच्छेज्जा इत्यादिगाथा 327 पृष्ठे 14 पंक्ती व्याख्याता।। सेवासति इत्तरियं, धारेइन मेलितो जाव / / भिक्खू य इच्छे ज्जा गणं धारित्तए / णो कप्पइ से थेरे अथ स्वगच्छेस्थविरानसंतितर्हिगणेस्वकीये गच्छेस्थविराणामसति अणापुच्छित्ता गणं धारित्तए। कप्पइ से थरे आपुच्छित्ता गणं अभावे ये त्रिककुलगणसंघरूपे स्थविरास्तान् त्रिकस्थविरान् त्रिकं वा धारित्तए। थविराय सेवयरेञ्जा एवं से कप्पइगणं धारित्तए थेरा समस्तं कुलं वागणं वा संघो वा इत्यर्थः / उपतिष्ठत यथा यूयमनुजानीत य से एगेवियवेजा एवं से णो कप्पइ गणं धारित्तए जणं थेरेहिं मह्यं दिशमिति। अथ अशिवादिभिः कारणैर्न पश्ये कुलस्थविरादीनामअविदिन्नं गणं धारेंति से संतराए छे ए वा परिहारे सत्यभावे इत्वरिकां दिशं गणस्य धारयति यावत्कुलादिभिः सह गणोन मिलितो भवति // व्याख्या / भिक्षुरिच्छेत् गणं धारयितुं तत्र (से) तस्य न कल्पते। जे उ अहाकप्पेणं, अणुण्णायंमि तत्थ साहम्मि। स्थविरान् गच्छगतान् पुरुषान् अनापृच्छय गणं धारयितुं कल्पते (से) विरहन्ति अमट्ठाए, न तेसि छेओ न परिहारो॥ तस्य स्थविरान् आपृच्छ्य गणं धार यितुं स्थविराश्च (से) तस्य ये तु साधर्मिकाः स्वगच्छवर्तिनः परगच्छवर्तिनो वा यथा कल्पेन वितरेयुरनुजानीयुर्गणधारणं पूवौक्तैः कारणैरर्हत्वात्। तत एवं सति (से) श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थं तत्रोपस्थानात् विषये तदर्थाय सूत्राणामर्थाय तस्य कल्पतेगणं धारयितुं स्थविराश्च (से) तस्य न वितरेयुर्गणधारणा आसेवना शिक्षायैवेत्यर्थः / अनुज्ञाते गणधारणा तत्र गच्छे विहरति / नहत्वादेवं सति न कल्पते / गणं धारयितुं / यः पुनः स्थविरै ऋतुबद्धे काले मासकल्पेन वर्षासु वर्षाकल्पेन तेषां तत्प्रत्ययोपदेशोऽरवितीर्णमनुज्ञातगणं धारयेत् ततः (से) तस्य कृतादनंतरादपन्या नुज्ञातो गणं धारय तीति तन्निमित्तमित्यर्थः। प्रायच्छित्तंच्छेदोन परिहार यात्प्रायश्चित्तं च्छेदो वा परिहारोवा चशब्दादन्यद्वा तपः / एष सूत्राक्षरार्थः / उपलक्षणमेतन्नान्यद्वातपः श्रुतोपदेशेन तेषां सूत्राद्यर्थतप उपस्था नात् भावार्थं भाष्यकृदाह। विषयलोलता हि तस्यासमीपमुपतिष्ठमानानां दोषोन सूत्राद्यर्थमिति। काउं देसदरिसाणं, आगतउवट्ठियम्मि उबरया थेरा। व्य, ३ऊ। असिवादिकारणेहि, वनठावितो साहगस्स असती॥ शिल्पिनि, औप. शिल्पोपाध्याये, (छेयायरियरइयदढफलिसा कालगतेम्मि उगतो, विदेसं व तत्थ च अपुच्छा। हइंदकीला) छेकेन निपुणेनाऽचार्येण शिल्पोपाध्यायेन रचितो दृढो थेरे धारे य गणं, भावनिसिद्धं अणुग्घाया। बलवान् परिघोऽर्गला इन्द्रकीलश्च सम्पाटित-कपाटद्वयाधारभूतः देशदर्शननिमित्तं गतेन ये प्रव्राजितास्तान् यद्यात्मनोयावत्कथि कात् | प्रेवशमध्यभागो यस्यां सा तथेति राज० / / शिष्यतया बध्नातिततस्तस्य प्रायश्चितंचतुर्गुरुकं। तथा देशदर्शनं कृत्वा | आ(य)रिय-पुं० (आर्य) आरात् हेयधर्मभ्यो याताः प्राप्ता तस्मिन्नागते अप्रस्थापिते च तस्मिन्नाचार्यपदे स्च्छविरा यस्याचार्या उपादेयधर्मरित्यार्याः / पृषोदरादय इति रूपनिष्पत्तिः // प्रज्ञा प.११ उपरताः कालगता यदि वा स प्रत्याग तोऽप्याशिवादिभिःकारणैर्यद्वा- प्रव०२७५ द्वा०॥ साधकस्य (असतित्ति) अभावेना चार्यपदे स्थापितोऽत्रांतेरवाऽचार्यः / / स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्।। 107 / इत प्राकृत सूत्रेण स्यादादिषु ततस्तस्मिन्कालगते यदि वा गतो विदेशं तत्रैव विदेशे गणं चौर्यशब्देन समेषु च शब्देषु संयुक्तस्य यात्पूर्व इद्भवति। आराहरे याता धारयितुमिच्छेत् / एतेषु सर्वेष्वपि कारणेषु समुत्पन्नेषु यदि स्थविरान् गताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्याऱ्याः। सूत्र०१ श्रु०३ अ / / गच्छमहांतोऽपृष्ट्वा यद्यपि तस्याचार्ये ण भावतो गणो निसृष्टोऽनुज्ञाततस्तथापि स्थविरा आप्रच्छनीयास्तत आह / भावनि चारित्राहे, आचा. अ.२ स०५ सृष्टमपि गणं धारयति तर्हि तस्य स्थविरानापृच्छाप्रत्ययं प्रायश्चित्तं (अणारियवयणमेयं) आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यास्त अनुद्घाता गुरुकाश्चत्वारो मासाः उपलक्षणमेतत् / आज्ञाऽनवस्था द्विपर्यायादनााः क्रूरकर्माण इति / आचा० 4 अ.५ऊ॥ मिथ्या त्वाविराधनारूपाश्च तस्य दोषाः / / (मिच्छदिट्ठी अणारिया) आरादयाताः सर्वहे यधर्मे भ्य Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 364 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय इत्यार्याः। सूत्र.१ श्रु०१ अ॥ "एसटाणे आरिए" अरादयातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यम् सूत्र०२ श्रु / 2 // (एगमविआरियं धम्मियं सुवयणं सोचा) आर्य आरादयातं पापकर्मभ्य इत्यार्थ अत एव धार्मिकमिति / भ० श. 1 उ०७ : आर्या देशभाषाचरित्रार्या इति आचा०४ अ.२ उ० / विवेकिनि (तमेव पासित्ता आयरिया वयंति) आर्या विवेकिनः सदाचारवंतः एवं ब्रुवते। सूत्र 2 श्रु० 2 अ। आर्यदेशोत्पन्ने (आयरियमाणायरियाणं) आर्याणामार्यदेशोत्पन्नानाम् उपा.२ अ / स०३४ सा औप० / आर्यभेदाः॥ सेकिंतं आयरिया ? आयरिया हुविहा पण्णता / तंजहा। इडिपत्तारिया य अणिड्डिपत्तारिया यासे किंति इडिपत्तारिया? २छट्विहा पण्णता, तंजहा अरहंता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा सेत्तं इडिपत्तारिया। सेकिंतं अणिड्डिपत्तारिया ? 2 नवविहापण्णत्ता, तंजहारवेत्तारिया जातिआरिया कुलारिया कम्मारिया सिप्पारिया भासारिया णाणारिया दंसणारिया चरित्तारिया सेकिंतं खेत्तारिया?२अद्धछट्वीसति विहापण्णता, तंजहा। रायगिहमगहचंपा, अंगा तह तामलित्ति बंगा य। कंचणपुरं कलिंगा, वाणारसि चेव कासीय || साएयकोसलागय, पुरं च कुरुसोरियं कुसडाय / कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव / / 2 / / दारवती य सुरहा, मिहिलविदेहाय वच्छकोसंबी। नंदि पुरं संडिल्ला, महिलपुरमेव मलयाय ||3|| वइराडवच्छवरणा, अच्छा तह मतियावईदसण्णा। सोत्तियमझ्याचेदी, बीइभयं सिंधुसोवीरा // 4|| महुरा यसूरसेणा, पावा भंगीय मासपुरिवठ्ठा। सावत्थीय कुणाला, कोडीवरिसं चलाढाय || सेयंविया वियनगरी, केयइ अद्धंच आरीयं भणियं / / एत्थुप्पत्तिजिणाणं, चक्कीणं रामकण्हाणं / / 6 / / सेत्तं खेत्तारिया सेकिंतं जाइ आयरिया ? २छट्विहा पण्णता तंजहा अंबट्ठा य कलिंदा विदेहा वेदगाइय हरिया चुंचुणाचे व छएया इन्भजाइओ सेत्तं जाइआयरिया य सेकितं कुलारिया? २छट्विहा पण्णत्ता तंजहा उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा नाता कोरवा सेत्तं कुलारिया सेकिंतं कम्मारिया ? 2 अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा। दोस्सिया सुत्तिया कप्पा, सिया मुत्ताविया जीया।। भंडविया लिया कोला, लिया नरवाहणिया ||3|| जेयावणे तहप्पगारा सेत्तं कम्मारिया सेकिंतं सिप्पारिया?२ अणेगविहापण्णत्ता। तंजहा। तुण्णागा तंतुवाया पट्टागारा देयडा वरुडा कट्ठयाउयारा मुंजपा उयारा छत्तारा बंभारा पम्मारा पोत्थारा लेप्पारा चित्ता रा संखारा दंतारा भंडारा जिग्मगारा सेल्लारा कोडिगारा जेयावन्ने तहप्पगारा सेत्तं सिप्पारिया सेकिंतंभासारिया?जेणं अद्धमागहाए भासाए भासंति जत्थ वियणं बंभी लिवी पवत्तइ बंभीएणं लिवीए अहारस विहे लेक्खविहाणे पण्णते। तंजहा बंभी, जवणाणिया, दोसा, पुरिसा, खरुट्टी, पुक्खरसारिया, भोगवइया, निण्हइया, अंकलिबी गणियलिवी गंधव्यलिवी, आयासलिवी, माहेसरी, दामिली, पोलिंदी। सेत्तं भासारिया सेकिंतंनाणारिया?२पंचविहा पणत्ता तंजहा आभि-णिबोहियनाणारिया सुयनाणारिया ओहिनाणारिया मणपजवनाणारिया केवलनाणारिया / / सेत्तं नाणारिया सेकिंतं दसणारिया ? 2 दुविहा पणत्ता / तंजहा सरागदंणारियायवियरागदसणा८सेकिंतं सराग-दंसणारिया? 2 दसविहा पण्णता तंजहा॥ निस्सग्गुवदेसराई,आणारुइ सुत्तवीयराइचेव। अभिगमवित्थारराई, किरिया संखेव धम्मरई ||1|| भूयत्थेणाधिगया, जीवा जीवा य पुण्णपावं च सहस्सं मुझ्यासव, संवरो यवेयइएस णिस्सग्गो // 21 // जो जिणदिटे भावे, चउटिवहे सद्दहा सयमेव / एमेव णण्णहत्ति य, णिसम्गराइति णाइयो / / 3 / / एए चेव उ भावे, उददिहे जो परेण सद्दहइ। छउमत्थेण जिणेण, व उवएसराइत्ति णायव्वो // 4|| जोहेउमयाणतो, आणाएरोयए पवयणं तु / एमेवण्णहत्तिय, एसो आणाराई नाम ||5|| जो सुत्तमहिमंत्तो, सुएण ओगाहई उसम्मत्तं / अंगेण बाहिरेण, वसो सुत्तरुइत्ति नायव्वो // 6| एगपएणेगाई, पदाइं जो पसरइ उ सम्मत्तं / उदइव्व तिल्लबिंदू, सो वीयरइत्ति नायव्वो / 7 / / सो होई अभिगमरुई, सुयनाणं जस्स अत्थओदिई। एकारसअंगाई, पइण्णगा दिहिवाओया दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा। सव्वाहिणयविहीहि, वित्थारराइत्ति नायव्वोगा।। दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सव्वसमिइगुत्तीसु। जो किरियामावरुई, सो खलु किरियारुई नाम ||10|| अणभिग्गहिय कुदिट्ठी, सेखेवरुइत्ति होइ नायव्यो। अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु ||1|| जो अस्थि कायकम्म, सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च / / सदहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरइत्ति नायव्दो ||2|| परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणावावि॥ वावनकुदंसणव, जणाय सम्मत्तसहहणा ||13|| निस्संकियनिकंखिय, णिदिवतिगिच्छा अमुढदिट्ठीय। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 365 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरिय उववूहथिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अg|| सेत्तं सरागदंसणारिया / सेकिंतं वीयरागदंस णारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तंजहा उवसंतकसायवीयरागदसणारिया खीणक सायवीयरागदंसणरिया य / सेकिंतं उवसंतकसायवीयरागदसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तंजहा पढमसमयउवसंतक सायवीतरागदसणारिया अपठमसमयउवसंतकसायवीतरागदंसणारिया, अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवीतरागदसणारिया अचरिमसमयउवसंतकसायवीतरागदसणारिया य / सेकिंतं खीणकसायवीतरागदंसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तंजहा छउमत्थखीणक सायवीतरागर्दसणारिया के वलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य / सेकिंतं छउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता / तंजहा। सयं बुद्धछ मत्थखीणक सायवीतरागदसणारिया बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया य / सेकिंतं सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया य / सेकिंतं सयं बुद्धछ उमत्थखीणक सायवीतरागदं सणारिया? सयंबुद्धछ उमत्थखीण. दुविहा पण्णत्ता / तंजहा पढम समयसंयबुद्धछउमत्थखीणक सायवीतरागदसणारिया य अपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणक सायवीतरागदसणा रिया / अहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागदसणारिया अचरिमसमयसयंबुद्धछंउमत्थखीणकसायवीतरागंदसणारिया य / सेत्तं सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया सेकिंतं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागदसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तंजहा पढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतराग-दसणारिया अपढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया / अहवा / चरिमसमयबुद्धबोहिय-छउमत्थखीणकसायवीतरागदंसणारिया अचरिमसमय बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागदसणारिया। सेत्तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागदसणारिया / सेत्तं छउमत्थखीणकसायवीतरागदसणारिया / सेकिंतं केवलिखीणक सायवीतरागदसणारिया ? 2 दुविहापण्णत्ता, तंजहा सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणा रिया अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदंसणारिया य / सेकिंतं सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता / तं जहा पढमसमयसजोगिके वलिखीणक-सायवीतरागदसणारिया अपढमसमयसजोगिकेवलिखीण-कसायवीरागदंसणारिया य / अहवा। चरिमस मयस-जोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागर्दसणारियाय। सेत्तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया / सेकिंतं अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदंसणारिया ? 2 दुविहा पण्णत्तातंजहा पठमसमयअजोगिकेवलिखीणकसा-यवीतरागर्दसणारिया अपठमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया या अहवा चरिम समय-अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागर्दसणारिया अचरिम-समय अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य। सेत्तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया। सेत्तं केवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया सेत्तं खीणकसायवीतराग-दसणारिया सेत्तं वीतरागदसणारिया सेत्तं दसणारिया / सेकिंतं चरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्तां / तंजहा / सरागचरित्तारिया वीतरागचरित्तारिया य / सेकिंतं सरागचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता तंजहा सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया वायरसंप-रायरागचरित्तारिया य / सेकिंतं सुहमसंपरायसरागचरित्ता-रिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता तंजहा पठमसमयसुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया अपढमसमयसुहुमसंपरायसराग-चरित्तारिया य अहवा चरिमसमयसुहुमसंपरायसराग-चरित्तारिया अचरिमसमयसहमसंपरायसरागचरित्तारिया य अहवा सुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा संकिलिस्समाणा य विसुज्झमाणाय सेत्त सुहुमसंपरायसरागचरित्तारिया / सेकिंतं वायरसंपरायसरागचरित्तारिया ? 2 दुविहापण्णता तंजहा पठमसमय-वायरसंपरायसरागचरित्तारिया अपढमसमयवायरसंपरायसरागचरित्तारियाय। अहवाचरिमसमयबायरसंपराय-सरागचरित्तारिया अचरिमसमयबायरसंपरायसराग-चरित्तारिया य अहवा बायरसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तंजहा। पडिवाई य अपडिवाई य सेत्तं बायरसंपरायचरित्तारिया सेत्तं सरागचरित्तारिया सेकिंतं वीतरागचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता तंजहा। उवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया खीणकसायवीतराग-चरित्तारिया ससेकिंतं उवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया ? 2 दुविहा पतंजहा पढमसमयउवसंतकसायवीतराग चरित्तारिया अपढमसमयवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया य अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया अचरिमसमयउवसंतकसायवीतराग चरित्तारियाय सेत्तं उवसंतकसायवीतरागचरित्तारिया। सेकिंतं खीणकसायवी तरागचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता तंजहा छउमत्थ खीणकसायवीतरागचरित्तारिया केवलिखीणकसा-यवीतरागचरित्तारिया य सेकिंतं छउ मत्थखीणक सायवीतरागचरित्तारिया 12 दुविहा पण्णता तंजहा सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया बुदबोहियछउम Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय 366 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आयरियखेत्त त्थरवी णकसायवीतरागचरित्तारिया य सेकिंतं सयंबुद्धछ उमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया? दुविहा पण्णत्तातंज हा पढ मसमयसं बुद्धखीणक सायवीतरागचरित्तारिया अपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतराग-चरित्तारिया य अहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणक-सायवीतराग चरित्तारिया अचरिमसमयसयंबुद्धछमत्थ-खीणकसायवी तरागचरित्तारिया य सेत्तं सर्यबुद्धछउमत्थ-खीणकसायवी तरागचरित्तारिया / सेकिंतं बुद्धबोडिय- छउमत्थकीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णता, तंजहा पढम समयबुद्धबोहियछ उमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया अपढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागचरिसारिया य अहवा अरिमसमय-बुद्धबोहियछउमत्थखीण कसायवीतरागचरित्तारिया अचरिमसमयबुद्धबोहियाउमत्थखीणक सायवीतरागचरित्तारिया य सेत्तं बुद्धबोहिय छउ मत्थखीणक सायवीतरागचरित्तारिया सेत्तंछउमत्थखीणकसायवीतराग-चरित्तारिया। सेकिंतं केवलिखीणकसा यवीतरागचरित्ता-रिया? 2 दुविहापण्णत्ता। तंजहा सजोगी केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया अजोगीकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया या सेकिंतं सजोगीकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ?2 दुविहापण्णत्ता। तंजहा पढमसमयसजोगीकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया अपढमसमयसजोगीके वलिखीणकसाय-वीतरागचरित्तारिया य अहवा | चरिमसमयसजोगिकेवलि-खीणकसायवीतरागचरित्तारिया अचरिमसमयसजोगि-केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारियाय / सेत्तं सजोगिकेव-लीखीणकसायवीतरागचरित्तारियाय सेर्कितं अजोगी-केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया 12 दुविहा पण्णत्ता। तंजहा पढमसमयअजोगीकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया अपढमसमयअजोगिके वलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य अहवा चरिमसमयअजोगिके वलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया / अचरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य सेत्तं अजोगिके वलिखीणक सायवीतरागचरित्तारिया / सेत्तं के वलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया / सेत्तं खीणकसाय-वीतरागचरितारिया सेत्तं वीतरागचरित्तारिया अहवा चरित्तारिया पंचविहा पण्णत्ता / तंजहा सामाइयचरित्तारिया, छेओवट्ठावणीयचरित्तारिया, परिहारविसुद्धिचरित्तारिया, सुहुमसंपरायचरित्तारिया, अहक्खायचरित्तारिया य / सेकिंतं सामाइयचरित्तारिया 12 दुविहा पण्णत्ता / तंजहा / इत्तरियसामाइयचरित्तारिया आवकाहयासमिाझ्य-चरित्तारियायासेत्तंसामाइयचरित्तारिया। से किंतं छेओवट्ठावणीयचरित्तारिया १२दुविहा पण्णत्ता तंजहा। / साइयारा छेओवट्ठावणीयचरित्तारिया निरइयारा छेओवठ्ठावणीयचरित्तारिया। सेत्तं छेओवट्ठावणीयचरित्तारिया। सेकिंतं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता / तंजहा निटिवस्समाणपरिहारविसुद्धियचरित्तारिया निवट्ठकाइयपरिहारविसुद्धियचरित्तारियाय। सेत्तं परि-हारविसुद्धियचरित्तारिया / से किंतं सुहुमसंपरायचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता तं जहा, संकिलिस्समाण-सुहुमसंपरायचरित्तारिया विसुज्झमाणसुहमसंपराय-चरित्तारिया सेत्तं सुहुमसंपरायचरित्तारिया। से किंतं अहक्खायचरित्तारिया ? 2 दुविहा पण्णत्ता, तंजहाछउमत्थअहक्खायचरित्तारिया केवलिअहक्खायचरित्तारिया य सेत्तं अहक्खायचरित्तारिया / सेत्तं चरित्तारिया / सेत्तं अणविपत्तारिया। सेत्तं आयरिया। प्रज्ञा० 105. / / आराद्यातःसर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यः। मोक्षमार्गे, (आरियं-उवसंपजे.) सूत्र०१८ अ० / आराद् यातं सर्वकुयुक्तिभ्य इत्यार्य तत्वम् / तत्वे,। (आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ) आयरियंति सूत्रत्वात् आराद् यातं सर्वकुयुक्तिभ्य इत्याय्यं तत्वंतद्विदित्वा ज्ञात्वेति (त्त०३६। प्रगुणे, न्यायोपपन्ने, आर्य प्रगुणं न्यायोपपन्नमिति। आचा.२ अ०५ उ / / आयरियउवज्झाय-पु. (आचार्योपाध्याय) आचार्यसहित उपाध्याय आचार्योपाध्यायः / आचार्यसहिते उपाध्याये (आयारियउवज्झाए विसंभेजा) व्या. सू०३ उ. | आचार्यसहित उपाध्याय आचार्योपाध्यायः। आचार्य उपाध्यायश्चेत्यर्थः आचार्यश्च स एवोपाध्यायः आचार्योपाध्यायः आचार्य्यरूपे उपाध्याये, स हि केषां चिदाचार्यः केषांचिदुपाध्याय इति / व्य०३ उ० / / आ (य) रियखेत्त-न (आर्यक्षेत्र) अर्द्धषड्विंशतिजनपदोपलक्षिते राजगृहमगधादिके, सूत्र०१ श्रु०५ अ॥ सार्द्धपञ्चविंशातिः आर्यक्षेत्राणि (आयरिय) शब्दे पृष्ठे 336 पंक्तौ 21 उक्तानि / / यस्मादत्र एतेषु सार्द्धषड्वंशतिसंख्येषु जनपदेषुत्पत्तिर्जि नानां तीर्थकराणां चक्रवर्तिनां रामाणां बलदेवानां कृष्णानां वासुदेवानां तत आर्यमेतेन क्षेत्रस्यार्यानार्यव्यवस्था दर्शिता यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य शेषमनार्यमिति / आवश्यकचूर्णी पुनरित्थमार्यव्यवस्था उक्ता "जेसु केसुवि पएसेसु मिहुणगाणि यइट्ठिएसुहकाराईया नीई परूढाते आयरिया सेसा अणारिया इति" एते च प्रत्यासत्या भरतक्षेत्रवर्तिन एव आर्या उक्ताः। उपलक्षणत्वाश्चैषामन्येऽपि महाविदेहांतर्वतिविजयमध्यमखंडादिष्यमी बहवो द्रष्टव्या इति / प्रव. 276 द्वा० / आर्यक्षेत्रसीमा निशीथचूर्णी यथा 16 अ / मगहा कोसंबीया, थूणाविसओ कुणालविसओ य। एसा विहारभूमी, पत्ता आयरियं खेत्तं // 635 / / पुव्वेण मगहविसओदक्खिणेण कोसंबी अवरेण थूणाविसओ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरियट्ठाण 367 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयाइट्ठाण उत्तरेण कुणालाविसओ एतेसिं मझ्झं आयरियं पुरतो अणारियं। / गच्छांतरादध्ययनार्थमायातः सच शिष्यकस्त्रिविधः सूत्रेऽर्थे तदुभये च आ(य)रियट्ठाण-न (आयस्थान) सर्वतो विरत्यादौ, संयमस्थाने | सूत्रग्राहकोऽर्थग्राहक-स्तदुभयग्राहकश्चेत्यर्थः / 30 / नि. चू०१९ अ / / "जासा सव्वतोविरई एसट्ठाणे अणारंभट्ठाणे आरिए', तत्र चेयं विरतिः | आयरियपायमूल-न. (आचार्यपादमूल) आचार्यान्तिके सम्यक्त्वापूर्विका सावद्यारम्मान्निवृत्तिः सावद्यानुष्ठान-रहितत्वात् (गंतूणयरियपायमूलम्मि,) आचार्य्यपादमूले आचार्यान्तिक इति० संयमस्थानम् तत्रचैतत्स्थानमार्यस्थानम् ! सूत्र०२ श्रु०२०।। पं०२ द्रा आ (य) रियदंसि (न)-पुं० (आर्य्यदर्शिन्) आर्म्य प्रगुणं न्यायोपपन्नं | आयरियभासिय-न. (आचार्यभाषित) प्रश्नव्याकरणदशापश्यति तच्च्छीलश्चेत्यार्यदर्शी न्यायोपपन्नदर्शिनि, (आयरिए ___ याश्चतुर्थेऽध्ययने, स्था० 10 ठा०॥ आरियपणे आरियदंसी) आचा०२०५ऊ। आयरियमग्ग-पुं(आर्य्यमार्ग) आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यो मार्गो आ (य) रियदिण्ण-पु. (आर्यदत्त) पार्श्वनाथस्य प्रथमे गणधरे प्रक० निर्दोषः। पापलेश्याऽसम्पृक्ते मार्ग, (आरियं मगं असंपत्ता) सूत्र०२ श्रु०१ अ॥ सदनुष्ठानरूपे मार्गे, जैनेन्द्रशासन-प्रतिपादिते मोक्षमार्गे च सूत्र आ(य)रियदेस-पु. (आर्यदेश) मगधाद्यर्द्धषड्वंशतिजनपदेषु, श्रु०३ अ। (जे तत्थ आरिअंमगं परमंच समाहिए) सूत्र द्वि० श्रु०३ अ० // (आयरियदेसंमि जे समुप्पण्णा) पं. व०१ द्वा० / आर्यदेशसमुत्पन्नः आयरियविजा-स्वी. (आचार्यविद्या) द्वाचत्वारिंशत्तमे पुरुष कलाभेदे, शुद्धजातिकुलान्वितः ध०३ अधि। तत्र आर्यदशा जिनचक्रवर्द्धच-द्युत्तम कल्प०॥ पुरुषजन्मभूमयस्ते च संख्यया मगधाद्याः सार्द्धपंचविंशतिः प्रार्याणां आयरियविप्पडि वत्ति-न (आचार्यविप्रतिपत्ति) बंधदशायाः वासार्हो देशः। प्रवा आर्यावर्तादौ देशे। पञ्चमेऽध्ययने, स्था० 10 ठा०। आ(य)रियधम्म-' (आर्यधर्म) आर्यस्यधर्मः। सदाचारे श्रुतचारित्ररूपे आ(य)रियव्वेय-पु. (आर्य्यवेद) तीर्थकरस्तुतिरूपे, श्रा-वकधर्मप्रति धर्मे च (वेइज णिज्जरापेही आरियं धम्म-मणुत्तरं)आरद्धेययधर्मेमयों पादके च वेदे, (दाणं च माहणाणं वेआकासीअ पुच्छनिव्वाणं) आर्यान् यात इत्यार्यस्तं धर्मं श्रुतचा रित्ररूपमिति उत्त०२ अ॥ वेदान् कृतवाँश्च स भरत एव तत्स्वा-ध्यायनिमित्त मिति आ(य)रियपएसिय-त्रि (आर्यप्रदेति) तीर्थकरप्रणीते, (एवं से धम्मे तीर्थकरस्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपादकाँश्च अनार्यास्तुपश्चात्सुलभा आयरियपएसिए। आचा००६ अ.४ उ.! याज्ञवल्क्यादिभिः कृता इति आव.२ अ / आ. म.२ अ।। आ(य)रियपण्ण-पुं० (आर्यप्रज्ञ) आर्या प्रज्ञा यस्य स आर्य- आयरियवेयावच-न (आचार्य्यवैयावृत्य) आचार्यस्य वैयावृत्यं प्रज्ञः। श्रुतविशेषितमतौ, आचा०२ अ०५ऊ। भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः। वैयावृत्यभेदे, औप०॥ आयरियपरिभावि (न)-त्रि. (आचार्य्यपरिभाविन) आचार्य- आयरियव्व-त्रि. (आचरितव्य)आ. चर तव्यअनुष्ठेये। (जंजम्मि होइ परिभवकर्तरि। काले, आयरियव्वं स कालमायारो)। नि, चू.१ उ. // डहरो अकुलीणोत्ति य, दुम्मेहो दमगमंदबुद्धित्ति। आयारियादेस-पुं० (आचार्यदेश) आचार्यकथने, (आयरियअवि अप्पलाभलद्धी, सीसो परिभवइ आयरियं / / 1 / / देसावाहारिण्ण अत्थेण) आचार्यादेशात् आचार्यकथनात् कश्चित्कुशिष्यस्सूचया असूचया वा आचार्य परिभवति ! सूचा नाम अवधारितेनेति। व्य०३ऊ। स्वव्यपदेशेन परस्वरूपसूचनं / यथा कोपचयः परिणतं आयसभायण-न. (आयसभाजन) लोहभाजने, (तोयमिव ना लियाए, साधुबालकमाचार्य ब्रवीति / अद्यापि डहरा बालका धयं तत्तायसभायणेदरत्थवा) तप्तं च तदायसभाजनं च लोहभाजनमितिः // किमस्माकमाचार्यपदस्य योग्यत्वमिति। असूचा स्फुटमेव परदोषोद्घाटनं आव०४ अ०॥ यथा भो आचार्य ! त्वं तावदद्यापि डहरो मुग्धः क्षीरकंठो वर्त्तसे अतः कीदृशं भवत आचार्यकत्वमिति। योऽकुलीन आचार्यस्तमुद्दिश्य भणत्हिो आयाइ-स्त्री. (आजाति) आ जन् क्तिन् आजननमाजातिः उत्तमकुलसंभूता अमी योग्य एवाचार्यपदस्य वयं तु हीनकुलोत्पन्नाः सम्मूर्छनगर्भो पपाततो जन्मनि, स्या० 10 ठा। आजायतेकुतोऽस्माकं सूरिपदयोग्यता यद्वा धिक्कष्टं यदकुलीनोऽप्ययमाचार्य पदे ऽस्यामित्याजातिः मनुष्यादिजातौ, / तथा चाचाराने आचारैनिवेशित इति। तथादुर्मेधा मंदप्रज्ञोद्रमको नामदरिद्रो भूत्वायः प्रव्रजितः कार्थकानाधिकृत्य इदानीमाजातिराजायंते तस्यामित्याजातिः / साऽपि मंदबुद्धिः स्वल्पमतिः अपि संभावनायां संभाव्यते कुतोऽपि कारणा चतुर्दा व्यतिरिक्ता मनुष्यादिजातिः भावाजातिस्तुज्ञानाद्याचारप्रस्तुतोदेवंविधोऽप्याचार्य इति अल्पा तुच्छा वस्वपात्रादिलाभे लब्धिर्यस्य ऽयमेवाचार इति। आचा० 1 अ.१ / सोऽल्पलाभलब्धिः। एतानप्येव मेव सूचया असूचया च परिभवति॥ *आयाति-स्त्री. आ. या. भावे - क्तिन्आगमने-स्थानान्त रगमने च ___अथ शिष्यपदंव्यापदंव्याचष्टे।। (आयातिर्वा गतिरिति) स्था, ठा०३आयातिर्गर्भान्निष्क्रम इति स्था. ठा० सो वि य सीसो दुविहो, पटवावियगो अ सिक्खओ चेव।। 2 उत्तरकाले च दशा०॥ सो सिक्खओ उतिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य॥ आयाइहाण-न० (आजातिस्थान) आजननमाजातिः सम्मूर्छ - यः शिष्यो गुरुन् परिभवति सोऽपि च द्विविधः। प्रव्राजितकः शिष्यकश्चैव नगर्भोपपाततो जन्म तस्याः स्थानम्। संसारे, स्था०१० ठा० यस्तेनैव परिभूयमानगुरुणा दीक्षां ग्राहितस्स प्रवाजितकः। शिष्यकस्तु आयातिस्थान-न, उत्तरकालस्य स्थाने (आयातिट्ठाणं सम्मतं) Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाइट्ठाण 368 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आयार आयाइट्ठाणेति आयति म उत्तरकालस्तस्य स्थानं पदमिति / दशा।। आयाइहाणज्झयण-न. (आजातिस्थानाध्ययन) आजन-नमाजातिः सम्मूर्छनगर्भोपपाततो जन्म तस्याः स्थानं सं सारस्तत्सनिदानस्य भवतीत्येवमर्थप्रतिपादनपरमाजातिस्थान-मुच्यत इति। आचारदशाया नवमेऽध्ययने। स्था० 10 ठा०॥ आयागर-पु. (अयआकर) लोहाकरे। (आयागरेइवा) अयआकरो लोहाकरो यत्र लोहंध्मायत इति स्था० 8 ठा० // आया(चा)म-न. (आचाम) अवस्रावणे पानकभेदे "आयाममवस्रावणमिति" वृ. आव०६अ। आ०म०पिं.नि. स्था३ठा. उ. त्त. 150 (आयाभवासोवीरंवासुद्धवियडवातहप्पगारं-पाणगजातं पुव्वामेव आलोएजा) आयामाम्लमवश्यानमिति आचा. श्रु.१, चू॥ *आयाम-पुं. आ-यम्-भावे घञ् दैयें,- स्था, 2 ठा० / / नि. चू० ऊ आ०म०। राजंजी. "आयामेणंदुवेयणं तीसेवाहाओ अण्णवट्ठित्ताओ भवति" आयामश्चदक्षिणेत्तरायततया प्रतिपत्तव्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततयोति। सू. प्र.४ प्रा० // आयामग-न. [आचा(या)मक] आयाममेवायामकम्अवस्रावणके पानक भेदे- उत्त. (आयामगं चेव जवोदगं च) आयामक धान्यस्यावस्रावणम्। उत्त. 15 अ आयामसित्थभोइ(न्)-त्रि [आचा(या)म सिक्थभोजिन] अवस्रावणगतसिक्थभोक्तरि, तथा चौपपातिके, "रसपरित्यागभेदानधिकृत्यआयामसित्थभोइत्ति' औप० / आयामेइत्ता अव्य. (आचम्य) आचमनं कृत्वेत्यर्य, (परमण्णेणं माहणे आयामेत्था) आमेत्थत्ति, आचामितवान् तद्भोजनदानद्वारेणोच्छिष्टतासम्पादनेन तच्छुद्ध्यर्थमाचमनं कारितवान् भोजितवानिति तात्पर्य्यम् भ० 15 २०१ऊ। माहणे आया-मईआयामेइत्ता स उत्तरोठं मुंडं करेइ, भ० 15 श०१ उजा आयार-पु. (आचार) आ. चर-भावे घञ् आ० मादायां चरणं चारः मर्यादया कालनियमादिलक्षणया चार आचारः आ. म. / / आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चधा आ मर्यादया वा चारोविहार आचारः भ० 1 श०१ ऊ।।दशा. विशे."आमज्जायाक्यणो, चरणं चारोत्तितीए आयारो। सोहोई नाणदंसण, चरित्त-तववीरियवियप्पो" || आनुष्ठाने स्था० 4 ठा० / आचार-णमाचारोऽनुष्ठानमिति, सूत्र 2 श्रु५ अ / स्या० / आचारोमोक्षार्थमनुष्ठानविशेष, इति. आचा० 1 अ०३ उ / आचारो ज्ञानादिविषयमनुष्ठानमिति ज्ञा. आचारः श्रुतज्ञानादि-विषयमनुष्ठान कालाध्यनादीनि भ०२ श०१ऊ आचरणीये आधारे आव० // आचर्यते गुणविवृद्धये इत्याचारः अष्टः॥ आचारः साधुसमाचार इति। स्था०२ ठा० आचारोलोचाऽस्नाना-दिसुष्टुक्रियारूपइति। 301 अधि० / स्था०४० दशा० // आयारे चेव भावतेणेय / आचारे साधुसामाचार्या विषये इति। प्रश्न सं३द्वा / आचारस्तत्परिहरणपरिष्ठापनरूपइति। स्था०७ ठा० // आचारः शास्त्रविहितो व्यवहार इति / गा आतुः / आचरणमा-चारः / आचर्यते इति वाऽऽचारः। पूर्वपुरुषाचरिते ज्ञाना-द्यासेवनविधौ,। नं। शिष्टाचारतो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति / पा० / / ध, 20 / अनु० // साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थः / सम० // आचारस्य चतुर्विधो निक्षेपः दश०,३अ आचारस्य तुचतुर्धानिक्षेपः / / सचायं नामाचारः स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च बोद्धव्य इति गाथाक्षरार्थः भावार्थं तु वक्ष्यति / तत्र नामस्थापने क्षुण्णे अतो द्रव्याचारमाह। नामणधावणवासण, सिक्खावणसुकरणाविरोहीणि। दव्वाणि जाणि लोए, दवायारं वियाणाहि ||6|| व्या. नामनधावनवासनशिक्षापनसुकरणाविरोधीनि द्रव्याणि यानि लोके तानि द्रव्याचारं विजानीहि / अयमत्र भावार्थः / आचरणमाचारः द्रव्यस्याऽचारो द्रव्याचारः द्रव्यस्य यदाचरणं तेन 2 प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः। तत्र नामनमवनतिकरममुच्यते। तत्प्रतिद्विविधं द्रव्यं भवति / आचारवदनाचारवच्च तत्प-रिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः / तत्र तिनिशलतादि आचारवत् एरंडाद्यनाचारवत् / एतदुक्त भवति / तिनिशलतादि आचरित भावं तेन रूपेण परिणमति नत्वेरंडादि / एवं सर्वत्र भावना कार्या / नवरमुदाहरणानिप्रदाते। धावनं प्रति हरिद्रारक्त वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रक्षालनात् कृमिरागरक्तमनाचारवत्तदस्मनोऽपिरा-गानपगमात् वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत् सुखेन पाटला-कुसुमादिभिस्यिमानत्वात् / वैड्ाद्यनाचारवदशक्यत्वात् शिक्षापना प्रत्याचारवच्छुकसारिकादिमुखेन मानुषभाषाद्य-संपादनात् अनाचारवच्छकुतादितदनुपपत्तेः। सुकरणं प्रत्या-चारवत्सुवर्णादिसुखेन तस्य कटकादिकरणात् अनाचा-रवघंटालोहादि तत्राऽन्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति / अविरोधं प्रत्याचारवंति गुडदध्यादीनि रसोत्कर्षादुपभोगगुणाच अनाचारवंति तैलक्षीरादीनि विषर्ययादिति / एवंभूतानि द्रव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तहव्याव्यतिरेकाहव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथा चरणपरिणाममस्य भावत्वेऽपि गुणाभावाद-व्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति गाथार्थः / / उक्तो द्रव्याचारः सांप्रतं भावाचारमाह॥ दसणनाणचरित्ते, तवआयारे य विरियायारे। एसो मावायारो, पंचविहो होइनायध्वो / 7 / / व्या. दर्शनज्ञानचारित्रादिष्वाचाशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपाचारश्च वीर्याचारइति / तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते न चक्षुरादिदर्शनं तच क्षायोपश-मिकादिरूपत्वात् भाव एव। ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयं भावार्थ तु वक्ष्यति एष भावाचारः पंचविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथाक्षरार्थः / दश अ०३ विस्तरस्तु (णाणायार) शब्दे॥ तथाच निशीयचूर्णी 1 ऊ निक्षेपोयथा॥ जं भणियं आयारे, चउविहो णिक्खेवो सो इमो॥ णामंठवणायारो, एसो खलु आयारे णिरके दो चउट्विहो होइ। णामणघोवणवासण, सिक्खा-वणसुकणविरोधाणि / गाहा) नामठवणाउ गयाउ दवायारो दुविहो आगमओ णोआगमओ यआगमओ जाणए अणुवउत्ते णो आगमओ जाणगसरीरं भवियसरीरं जाणगभवियसरीरवइरित्तो इमो णामणधोवण्ण गाहा णमादिपएसु आयारो भण्णइ / तेण सिद्धिमिच्छं तो य सूरी अणायारं पि पण्णवें ति दीर्घह्रस्वव्यपदेशवत् णामण पडु च आयारमंतो तिणिसो अणायारमंतो एरंडो धोवणं पडुघ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयार 369 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयारंग कुसुंभरागो आयारमंतो अणायारमंतो किमिरागो / वासणाए कवेल्लुगादीणि आयारमंताणि वइरं अणायारमंतं / सुकसालहियादि। सिक्खावणं पडुच्च आयारमंताणि वायसगोवगादिभंगादिअणायारमंताणि सुकरणे सुवण्णं आयारमंतं घंटालोहं अणायारमंतं / अविरोह पडुच पयसकराणं आयारो दहितेल्लायविरोधे अणायारमंता। दव्वाणि जाणि लो,दव्वायारं वियाणाहि। णाणे दंसणचरणे, तए विरिए य भावमायारो। गाहा। गुणपर्यायान् द्रवतीति द्रव्यं जाणत्ति अणिद्दिट्टसरूवाणि अहवा एताणि चेव जाणि भणियाणि लोक्यतेइति लोकः दृश्यते इत्यर्थः तस्मिन् लोके आधारभूते दव्वायारं वियाणाहि एवमभिहि-तानभिहितेषु द्रव्येषु द्रव्याचारो विज्ञातव्य इतिगतो दव्वायारो॥ इयाणि भावायारो भणस्सइ सोऽयं पंचविहो इमो॥ णाणेदंसणगाहटुं, पच्छद्धेण एएसिंपभेया गहिया। अट्ठदुवालस, विरिय महाणीतु जातेसिं७ गाहा। णाणायारो अट्ठविहो दसणायारो अट्ठविहो चरित्तायारो अट्ठविहो, तवायारो बारसविहो, वीरिआरो छत्तीसतिविहाणे, ते अछत्तीसइ भेया एए चेव नाणादी मेलिया भवंति। वीरिअमिति गहिओ अहाणी असीअणं जंतेसिं नापायाराईणं स एव वीरिआयारो भवइ / आचारस्य भेदाः। दुविहे आयारे पण्णत्ते तंजहाणाणायारे चेव नोणाणायारे चेव / नाणायारे दुविहे पण्णत्ते तं जहा दंसणायारे चेव नोदंसणायारे चेव नो दंसणायारे दुविहे पण्णत्ते तंजहा चरित्तायारे चेव नोचरित्तायारेचेवणो चरित्ताचारे दुविहे पण्णत्ते तं जहा तवायारे चे वीरियायारे चेव / / स्था.२ठा // सूत्रचतुष्टयं कंठ्यन्नवरं। आचरणमाचारो व्यवहारो ज्ञानंशुभज्ञानन्तद्विपय आचारः कालादिरष्टविधीज्ञानाचारः॥ पंचविहे आयारे पण्णत्ते तं जहा माणायारे दंसमायारेचरित्तायारे तवायारे वीस्यिायारे स्थ, ठा०५॥ आचारेणैवात्मसंयमो भवति। उक्तंच। तस्याऽत्मा सयंतोयो हिसदाचारे | रतः सदा। स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनो हितः॥१॥ इति / / दश 1 अ / तथा च धर्मसंग्रहे मूलगुणे-धूक्तप्रायाणामपि ज्ञानाद्याचाराणां / मुख्यत्वख्यापनार्थं तत्पालन-स्य स्वान्त्रयेणाऽभिधित्सयाऽऽह / / ज्ञानादिपंचाचाराणां, पालनं च यथाक्रमम्। गच्छवासः कुसंसर्ग,त्यागोऽर्यपदाचिंतनम्-ध. अधि०३ आचारशुद्धौ हि सामान्यायामपि कुलादयुत्पत्तौ पुरुषस्य महात्म्यमुपपद्यते / यचोक्तं / न कुलं हीनवृत्तस्य, प्रमाणमिति मे मतिः। अन्त्येष्वपिहि जातानां, वृत्तमेव विशिष्यत, इति // ध० 1 अधिक। आचारमाचरतः प्रशंसा यथा। आयारमायरंते, एगखेत्तेवि गोयमा! मुणिणो। वाससयं पि वसन्ते, गीयत्थाराहगे भणिए। आचारातिक्रमे दोषो यथा। आयारंगं अणंतगमपज्जवेहिं पण्णविजमाणं समवधारियं तत्थ यं छत्तिसआयारे पण्णविञ्जत्ति तेर्सिचणंजे केह साहू वासाहुणी वा अण्णयरमायारमहकमेशा सेणं गारबीहिं उवम्मेयं अहण्णहा समणुढे वायरेखापण्णविजावा तओ मं अणंतसंसारी भवेजा। महा.१ अ.।। आचाररहितस्य कर्मोपादानमाचाराङ्गे यथा। एत्थंपिजाणे उवादीयमाणा जे आयारेण रमंति। एतस्मिन्नपि प्रस्तुते वायुकाये अपिशब्दात्पृथिव्यादिषु समाश्रितमारंभ ये कुर्वति ते उपादीयन्ते कर्मणावध्यन्ते एकस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्ताशेषनिकायवधजनितेन कर्मणा वा वध्यन्ते किमिति येनहि एकजीवनिकायविषय आरंभः शेषजीवनि-कायोपमर्दमन्तरेण कर्तु शक्यते अतः स्त्वमेवं जानीहि अनेन श्रोतुः परामर्शः पृथिव्याद्यारंभिणः शेषकारंभकर्मणाउपादीयमाना जानीहि के पुनःकर्मणाउपादी यन्ते त्यिाह (जे आयारेत्ति) ये अविदित परमार्थाः पंचविधे आचारेन रमन्ते न धृति कुर्वन्ति // आचा० 1 अ०७ऊ। आचारस्वरूपम्महानिशीथे यथा भहा। 1 अ०१ उ०। सेभयवं केरिसे आयारे कयरे वासेणं अणायारे।गो. आयारे अणायारे णं तप्पडिपक्खा तस्य जेणं आणापडिक्खे वसे णं एगते ण सव्वपयारेहिं णं सव्यहा। वजाणिजे / जे य णं णो आणापडिरकं / से णं गतेणं सटवपयारेहिं णं / सवहा आयरणिज्जा। तहा णं गो. जंजाणेना जहा णं एस णं सामन्नं विहारेजा से णं सव्वहा विवजेला महा।। आचारप्रतिपादको ग्रंथोऽप्पाचारः // समः // नं / आचारक्रियाभिधानादाचारः / आ०म०१ अ || आचार आचारोपदेशहेतु-त्वात् / दश५। अ। आचाराभिधायकत्वादाचारः। स्था०१ ठा०। द्वादशाङ्ग्याः प्रथमेङ्गे,ध र० // अनुसाध्वाचारप्रतिपादको ग्रंथ आचार इति। विशे० // एतद्बहुबक्तव्वता (आयारंग) शब्दे / नवमपूर्वस्थ प्रत्याख्यानस्य स्वनामख्याते विंशतिवस्तुषुत्टतीये वस्तुनि च / पचक्खाणस्स तइयवत्थूनो आयारनामधेजो। व्य० / 1 उ / उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश पूर्वाणि तत्र नवमं पूर्वप्रत्याख्याननामकं / तस्मिन् विंशतिर्वस्तूनि / वस्तूनि नाम अर्थाधिकार विशेषा स्तेषुविंशतौ वस्तुषु त्टतीयमाचारनामधेयं वस्त्विति व्य / आच. 1 आ ईषत् अपरिपूर्णा इत्यर्थश्चारा हैरिका येते / आचाराश्चारकल्पा इत्यर्थो युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेया इति भ. 1 श०१ उ / दशा० // आयारउवगच्छणन०(आचारोपगमन) मायाकरणरूपे योगे, आयारोवगयशब्दे कथा। आव. 4 अ॥ आयारंग न० (आचारंग) द्वादशाङ्ग्याः प्रथमेऽङ्गे सम तद्वक्तव्या आचारांगटीकायाम्। इह हिरागद्वेषमोहाद्यमिभूतेन सर्वेणापिसंसारिजन्तुना शरीरमानसानेकदुःखोपहतेन तदपनयनाव हेयोपादेयपदार्थपरिज्ञानेयत्नो विधेयः / स च न विशिष्टविवेकमृते / विशिष्टविवेकश्च न प्राप्ताशेषति Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग 370 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारंग शयबलाप्तोपदेशमन्तरेण आप्तश्च रागद्वेषमोहादीनांदोषाणा मात्यन्तिक प्रक्षयात् / सऽचाहत एवातः प्रारभ्यतेऽर्हद्वचनानुयोगः / स च चतुर्धा तद्यथा धर्मकथानुयोगो, गणितानुयोगो, / द्रव्यानुयोगश्चरमकरणानुयोगश्चेति / तत्र धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनादिकः गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः / द्रव्यानुयोग स्सम्मत्यादिकश्चरणकरणानुयोग आचारादिकः स च प्रधानतमः शेषाणां तदर्थत्वात्तदुक्तं चरणपरिवर्ति हेउं, जे णयरे तिण्णि अणुओगत्ति तया चरणपडिवत्तिहेउं, धम्मकहा कानदिक्खमादीया।दविएदसणसेही, दंसणशुद्धस्सचरणं तु।गणधरैरथ त एव तस्यैवादौ प्रणयनमकार्यतस्तत्प्रतिपादकख्याचारांगस्थानुयोगः समारभ्यते / स च परमपदप्राप्तिहेतुत्वा त्सविधस्तदुक्तं / "श्रेयांसिबहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि / अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः तस्मादशेषप्रत्यूहोपशमनायमङ्गलमभिधेयं तचादिमध्या-वसानभेदात्रिविधं तत्रादिमङ्गलं सुयमे आउसंतेणं भगवया एवमक्खाय' मित्यादि अत्रच भगवद्देचनानुवादो मङ्गलं अथवा श्रुतमिति श्रुतं ज्ञानं तच नन्यतिपातित्यान्मङ्गलंमित्येतद्या-विघ्नेनाभिलषितशास्त्रार्थपार गमनकारणं मध्यमङ्गलं लोकसाराध्ययनपञ्चमोद्देशकेसूत्र से जहा के वि हरए पडिपुन्ने तिट्ठइ समं / सि भोम्मे उवसन्नर एसा रक्खमाणे त्यादि अत्र चाहद्गुणैराचार्य गुणोत्कीर्तनमाचार्यश्च पञ्चनमस्कारान्तः पातित्वान्मङ्गलमित्येतच्चाभिलषितशास्वार्थस्थिरीकरणार्थं अवसानमङ्गलं नवमाध्ययनेऽवसानसूत्रं अडि निव्वुडे अमाई आ वकहाए भयवं समियासी अत्राभिनिर्वृतग्रहणं संसारमहातरु. कन्दोच्छेद्यविप्रतिपत्या ध्यानकारित्वन्मङ्गलमित्येतचशिष्य-प्रति शिष्यसन्तानाव्यच्छेदार्थ मित्यध्ययनगतसूत्रं मङ्गल-त्वप्रतिपादने नैवाध्ययनानामपि मङ्गलत्वमुक्तमेवेति न प्रतन्यते सर्वमेववा मङ्गलं ज्ञानरूपत्वा तस्य निर्जरार्थत्वेनच तस्या-विप्रतिपत्तिर्युदुक्तं / (जं अन्नाणी कम्मं खवे इवहुयाहिं वासकाडीहिं तन्नाणीतिहिं गुत्ता खवेइ उसासमित्तेणं) मङ्गलध्वनि रुक्तंच मांगालयत्यपनयति भवादिति मङ्गलं मामूद्रले विघ्नो गालो वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गल मित्यादि शेष वाक्षेपपरिहारा दिक मन्यतोवसेयमिति / साम्प्रतमाचारानुयोगः प्रारभ्यते आचार-स्यानुयोगोऽर्थकथनमाचारानुयोगः सूत्रादनु पश्चादर्थस्य योगोऽनुयोगः / साम्प्रतमाचाङ्गस्योपक्रमादीनामनुयोगद्वाराणां यथायोग किञ्चिद्विभणिषु रशेषप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलार्थं प्रेक्षापूर्वकारिणां च प्रवृत्यर्थं सम्बन्धाभिधेय प्रयोजनप्रति पादिकानि युक्तिकारो गाथामाह // वन्दित्तु सव्व सिद्धे, जिणेय अणु ओगदायएसवे। आयारस्स भगवओ निजुर्ति कित्तयिस्सामि॥ तत्रवन्दित्वा सर्वसिद्धान् जिनांश्चेति मङ्गलवचनं अनुयोगदायकानित्येतच्च सम्बन्धवचनमपि आचारस्येत्यभिधेयवचनं नियुक्तिं करिप्ये इति प्रयोजन कथनमितितात्पर्यार्थः / अवयवार्थस्तुवन्दित्वेति वदिअभिवा दनस्तुत्यो रित्यर्थद्वया-मिधायिधातुस्तत्राभि वादनं कायेन / स्तुतिर्वाचाऽनयोश्चमनः पूर्वकत्वा त्करणत्रये मापि नमस्कार आविदितो भवति। सितंध्यानमेषामिति सिद्धाः प्रक्षीणाशेषकर्माणः सर्वेचते सिद्धाश्च सर्वसिद्धाः सर्वग्रहणं तीर्थातीर्थानन्तरपरंपरादिसिद्धप्रतिपादक तान्वन्दित्वेति सम्बन्धः सर्वत्र योज्यः / रागद्वेषजितो जिनास्तीर्थ कृतस्तानपि सनितीतानागतवर्तमानसर्वक्षेत्रगतानिति अनुयोगदायिनः | सुधर्मस्वामि प्रभूतयो यावदस्य भगवतो नियुक्ति कारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानित्यनेन चाम्नाय कथनेन स्वमनी षिकाव्युदासः कृतो भवति वन्दित्वेतिक्त्वा प्रत्ययस्योत्तरक्रिया सध्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह आचारस्य यथार्थनाम्नः भगवत इति अर्थधर्मप्रयत्नगुण-भाजस्तस्यैवं विधस्य निश्चिये नार्थप्रतिपादिका युक्ति नियुक्ति स्तां कीर्तयिष्ये अभिधास्ये इति अन्तस्तत्वेन निष्यन्नां नियुक्तिं वहिस्तत्वेन प्रकाश यिष्यामीत्यर्थः यथा प्रतिज्ञातमेव विभणिषु निक्षेपार्हाणि पदानि तावत् सुहृद्भूत्वाचार्यः संपीड्य कथयति। आयार अंगसुयखंध, वंभचरणे तहेव पसत्थेय। परिनाए निक्खेवो, तह दिसाणं च ॥शा न.१ अ० 1 उ. / आयारेत्यादि आचार अङ्गश्रुतस्कन्ध ब्रह्मचरण शस्त्रपरिज्ञा संज्ञा दिशा मित्येतेषां निक्षेपः। कर्तव्यइतितत्राचार ब्रह्मचरण शस्त्र परिज्ञा शब्दानां निष्पन्ने निक्षेपे द्रष्टव्या अङ्गश्रुत स्कन्ध शब्दा ओघनिष्पन्नसंज्ञादि सूत्रा लापक निष्पन्ने निष्क्षेपेद्रष्टव्या इति एतेषां मध्ये कस्य कति विधो निक्षेप इत्यत आह // "चरणदिसावञ्जाणं, निक्खेवो चउकाओय नायव्वो। चरणंडि च्छविहो खलु, सत्तविहो होइ ओदिसाणं / / इ.। आचा.१ अ०१ऊ1 चरणादिवर्जानां चतुर्विधो निक्षेपः चरणस्य षड्विधः दिक्शब्दस्य सप्तविधो निक्षेपः अत्र च क्षेत्रकालादिकं यथा सम्भवमायोज्यं नामादिचतुष्टयं सर्वत्रव्यवस्थया दर्शयितुमाह आचा०१ अ०१उ। जत्थ जं जाणेजा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थवि न जाणेजा, चउकयं निक्खिवे तत्थ।। जत्थयजमित्यादि यत्र चरणदिक्शब्दादौ यं निक्षेपं क्षेत्र-कालादिकं जानीयात् तत्र निरवशेष निक्षिपेद्यत्र तु निरवशेष नजानीयादाचारङ्गदौ तत्रापि नामस्थापना द्रव्यभावचतुष्कात्मकं निक्षेपनिक्षिपेदित्युपदेश इति गाथार्थः / प्रदेशान्तरप्रसिद्ध-स्यार्थस्य लाधवमिच्छता नियुक्तिकारेण गाथाभ्यधायि। आयारे अंगंमि य, पुव्व हिट्ठो चउक्कनिक्खेवो। नवरं पुण नाणत्तं, भावायारंडि तं वोच्छं ||5|| आयारे इत्यादिक्षुल्लिकाचारकथायामाचारस्यपूर्वोद्दिष्टोनिक्षेपोयस्य तु चतुरङ्गाध्ययनं यश्चात्र विशेषः सोभिधीयते भावाचारविषय इति॥ यथा प्रतिज्ञातमाह॥ तस्सेगटुं पवत्तण, पढमंगगणी तहेव परिमाणे। समोयारे सारेय, सत्तहिं दारेहिनाणत्तं / / तस्येत्यादि गाथा तस्य भावाचारस्य एकार्याभिधायिनो वाच्या केन प्रकारेण प्रवृत्तिः प्रवर्तनमाचारस्याभूत्तचवाच्यं तथा प्रथमाङ्गता च वाच्या तथागण्याचार्यस्तस्य कतिविधं स्थानमिदमिति च वाच्यं परिमाणमियत्ता वाच्या तथा किं व समवतारस्येतीत्येतचवाच्यंतथा सारश्च वाच्य इत्येभि रिः पूर्वस्माद्भावाचारादस्य भेदो नानात्वमिति पिंडार्थः। अवयवार्यस्तु नियुक्तिकृदेवाभिधातुमाह। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग 371 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारंग आयारो आचालो आगालो आगरोय आसंसो। आयारो अंगाणं, पढम अंग दुवालसएहंपि। आगरिसो अंग चिय आइन्ना जाइया मोक्खो। एत्थय मोक्खो वा ओ, एस य सारो पवयणस्स। आचा.१ अ०१ऊ। आचर्यते आसेव्यत इत्याचारः सचनामादिश्चतुर्धा | अयमाचारो द्वादशानाम प्यङ्गानांप्रथममङ्गमेतस्य कारण माह / यतोत्र तत्र ज्ञशरीरं भव्यशरीरं तद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचारोऽनया गाथयानुसर्तव्यः मोक्षोपायशश्चरण करणं निगद्यते एषच प्रवचनस्य सारं प्रधानं "णामणधोयणवासण सिरका-वणसुकरणाविरोहीणि दव्वाणि जाणि मोक्षहेतुप्रतिपादना दत्र च स्थितस्य शेषांगाध्ययन-योग्यत्वादस्य लोए दव्वायार वियाणाहि" भावाचारो द्विधा लौकिको लोकोत्तरश्च तत्र प्रथमतयोपन्यास इति / इदानीं गणि द्वारंसाधुर्वा गणिगुणगणो वा गण: लौकिकाः पाषडिकादयः पञ्चरात्रादिकं येकुर्वन्ति ते विज्ञेयाः लोकोत्तरस्तु सोऽस्यास्तीति गणी आचारायत्तं च गणित्वमिति प्रदर्शयन्नाह // आ.१ पशधा ज्ञानादिकः आचारशब्दे दर्शितः एष पञ्चविध आचार अ०१उ। एतत्त्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थविशेषो भावाचारः / एवं सर्वत्र योज्यम्। आयारंमि अहीए, जंनाउ होई समणधम्मो उ। इदानीमाचालः आचाल्यतेऽनेनेति निविडं कर्मादीत्याचालः सोपिचतुर्धा तम्हा आयारधरो, वुबइ पढमं गणि हाणं / / 10 / / व्यतिरिक्तो वा यः भावाचालः स्वयमेव ज्ञानादिः पञ्चधा इदानीमागालः (आयारम्मीत्यादि) यस्मादाचाराध्ययनात् क्षात्यादिक श्चरण भागलनमागालः समप्रदेशावस्थानं सोपि चतुर्धाव्यतिरिक्त करणात्मको वा श्रमण धर्मपरिज्ञातो भवतितस्मात्सर्वेषां गणित्वकारणा उदकादेर्निम्न-प्रदेशावस्थानं भावागालो ज्ञानादिक एकस्यात्मनि नामाचारधरत्वं प्रथममाद्यं प्रधानं वा गणिस्थान मिति। रागादिरहिते ऽवस्थानमिति कृत्वा / इदानीमाकारः आगत्य तस्मिन् कुर्वन्तीत्याकारो नामादि सूत्रव्यतिरिक्तो रजतादि र्भावाकारो-ऽयमेव इदानीं परिमाणं कि पुनरस्याध्ययनतः पदतच परिमाण मित्यत आह। ज्ञानादिस्तत्प्रतिपादकश्चायमेव ग्रन्थो निर्जरा-दिरत्नानामत्रलाभात् / नव वंभचेरमइओ, अट्ठारस पदसहस्सिओ वेउ। इदानीमाश्वास आश्वसंत्यस्मिन्नित्या-श्वासो नामादिसूत्रव्यतिरिक्तो हवय स पश्च चूलो, बहु बहुतर ओ पयग्गेणं॥ पानपात्रद्वीपादिभावश्चासौ ज्ञानादिरेव / इदानीमादर्शः आदृश्यते 1 / अ०१ उ. / (णवेत्यादि) तत्राध्ययनतो नवब्रह्मचर्या भिधानाअस्मिन्नित्यादर्शो नामादिव्यतिरिक्तो दर्पणं भावादर्श उक्त एवं ध्ययनात्मको वेद इति विदन्त्यस्माद्धयोपादेय पदार्थानिति वेदः यतोऽस्मिन्निति कर्तव्यता दृश्यते / इदानीमंगं अज्यते व्यक्तीक्रियते क्षायोपशमिकभाववर्त्ययमाचारः सह पञ्च भिश्चूडाभि वर्तत इति स ऽस्मिन्नित्यंग नामाघेव सूत्रव्यतिरिक्तं शिरोबाहादि भावां गमेवा चारः। पञ्चचूड श्चभवति। उक्तशेषानुवादिनीचूड़ा तत्र प्रथम पिंडे सण सेजरिया इदानीमाचीर्ण मासेवितं तश्च नामादि षोढा तत्र व्यतिरिक्तं द्रव्या-चीर्ण भासज्जा पायवत्थया एसा उग्गह पडिमत्ति। सप्ताध्ययनात्मिका द्वितीया सिंहादेस्तृणादिपरिहारेण पिशितभक्षणं क्षेत्राचीर्ण बाल्ही-केषुसक्तवः सत्तसत्तिक्कया तृतीया भावना चतुर्थी विमुक्तिः पञ्चमी निशीथाध्ययन कोंकणेषुपेयाः कोलाचीर्णं त्विदं। वहुवहुयरो (पदग्गेणंति) तत्र चतुश्चूलिकात्मक द्वितीयशुतस्कन्धसरसीवन्दणपंको, अग्घइ सरसा य गन्धकासादी। प्रक्षेपादहुः निशीथपञ्चम-चूलिका प्रक्षेपा द्रहुतरोऽनन्तगमंपर्यायात्मकपाडलिसिरीस मल्लिय, पियाइं काले निदाहम्मि। विवक्षया बहुतमश्च पदाग्रेण प्रमाणेन भवतीति इदानी मुपक्रमांतर्गत भावाचीर्णन्तु ज्ञानादि पञ्चकं तत्प्रतिपादक श्वाचारग्रन्थः / समवतारदारं / तत्रताश्चूडानवसु ब्रह्मचर्याध्ययनेष्ववतरन्तीति इदानीमाजातिराजायन्ते तस्यामित्याजातिः सापि चतुर्दा व्यतिरिक्ता दर्शयितुमाह॥ मनुष्यादिजातिः भावाजातिस्यु ज्ञानाद्याचार प्रसूतिरयमेव ग्रन्थ इति। आयारगाणत्थो, बंभचेरेसु सो समोयरइ / इदानीमामोक्ष आमुच्यन्ते ऽस्मिन्नित्यामोक्षणं वा मोक्षो नामादि स्तत्र सो विय सत्थपरिणाए, पिंडियत्यो समोयरइ |12|| व्यतिरिक्तो निगडादेः भाकामोक्षाकगंगिको द्वेष्टनमशेषमेतत् सत्थपरिण्णायत्थो, छस्सु, विकाएसु समोयरइ // साधकश्चायमेवाचार इति एते किञ्चिद्विशेषादेकमेवार्थ विशेषन्तः छजीवणिया अत्थो, पंच, सु विवएसु उयरइ ||13|| प्रवर्तन्तइत्येकार्थिकाः शक्रपुरन्दरादिवत् एकार्थाभिधायिनांचछन्दश्चेति पंचय महव्ययाइ, समोयरंतेउ सव्व दवे सु / / बन्धानु-लोभ्यादि प्रतिपत्यर्थमुद्घट्टनं उक्तं च॥ सव्वेसिं पजवाणं, अणन्तभागंडि उयइंति ||1|| बन्धाणुलोमया खलु, सच्छंमि य लाघवं असम्मोहो। इति / 1 अ उ. 1 आयारे इत्यादि। सत्थे इत्यादि / सत्थे इत्यादि। सन्तगुणवीयरागे, विय एगटुं गुणाहवन्ते॥ पंचेइत्यादि / उत्तानार्था नवरभाचाराग्राणि चूलिकाः द्रव्याणि स इदानी प्रवर्तनाद्वारं कदा पुनर्भगवताचारः प्रणीत इत्यत आह / / धर्मास्तिकायादीनि पर्याया अनुरुलध्वादय स्तेषामनन्तंभागे दारं सव्वेसिं आयारो, तित्थस्स पत्तणो पढमयाए। व्रत्तानामवतार इति। कथं पुनर्महाव्रतानां सर्वद्रव्येष्ववतार इति तदाह // सेसाई अंगाई, एकारसआणुपुटवीए॥ छजीवणिया पढमे, वयंमिचरमे विति एय सम्वदवाई। आ.१ अ.१ उ. सव्वेसिमित्यादि सर्वेषां तीर्थकराणं तीर्थ-प्रवृत्यादा से सा महव्वया खलु, ते दिकदेसेण दव्वाणं ||15|| वाचारार्थ प्रथमतया भूद्रवति भविष्यति च ततः शेषां गार्थ इति गणधरा छज्जीवणिया इत्यादि / स्पष्टा कथं पुनर्वतानां सर्वद्रव्येष्ववतारो अप्यनयैवानुपूर्व्या सूत्रतया ग्रन्थन्तीति इदानीं प्रथमत्वे हेतुमाह॥ | न सर्व पर्याये श्वित्युच्यते ये नाभिप्रायेण चोदितया स Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग 372 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारंग सर्वाकाशप्रदेशसंख्याया अनन्तगुणं सर्वनभः प्रदेशवर्गीकृतप्रमाणमित्यर्थः / ततोद्वितीयादिस्थानरसंख्यातगच्छगतै रनंतभागादिकया वृद्ध्या षट्स्थानकानामसंख्येयस्थानगता श्रेणि भवति / एवंचैकमपि स्थानं सर्वपर्यायान्वितं न शक्यते परिच्छेत्तुं किं पुनः सर्वाण्यपीत्यतः केऽन्ये पर्याया येषामननन्तभामे व्रतानि वर्तेरन्निति स्यान्मतिरन्ये केवलगम्या इतीदमुक्तं भवति के वल-गम्या प्रज्ञापनीयपर्यायाणामपि तत्र प्रक्षेपागहु, त्वमेवमपि ज्ञानशेयास्तुल्यत्वात्तुल्या एव नानन्तगुणा इतिअत्राचार्यआह / यासौ संयमस्थानश्रेणिनिरूपितासा सर्वाचारित्रपर्यायाने दर्शन-पर्यायसहिते तत्प्रमाणा सर्वाकाश प्रदेशानन्तगुणा इह पुन-श्चरित्रमा त्रोपयोगित्त्वा त्पर्याया नन्तभागवृत्तित्व मित्यदोषः। इदानीं सारद्वारं कः कस्यसार इत्याह॥ अंगाणं किं सारो, आयारो तस्स किं हवइ सारो। अणु ओगत्थो सारो, तस्सवियपरूवाणासारो।।१६।। सारोपरूवणाए,चरणं तस्स विय होइ निव्वाणं / / निव्वाणस्स उसारो, अव्वाबाहं जिणो वेति / / आ.१ अ०१ उ. / / अंगाणमित्यादि स्पष्टा केवल मनुयोगार्थो व्याख्यानभूतोऽर्थस्तस्य प्ररूपणा यथा स्वविनियोग इति। अन्यच्च सारो इत्यादि स्पष्टैव / एतेषांचान्वर्थाभिधानानि दर्शयितुमाह।। सत्थपरिण्णा लोग, विजओय सीउसणिजसम्मत्तं / / तह लोगसारनामं, वुत्तं तह महापरिण्णा य / / 3 / / अट्ठसए य विमोक्खा, उवहाण सुयं च नवमगं भणियं / इचेसो आयारो, आयास्गाणि सेसाणि ||3|| सत्थ इत्यादि अट्ठसए इत्यादि स्पष्ट केवलमित्येष नवा-ध्ययनरूप अचारो द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनानि शेषाण्या-चाराग्राणी ति साम्प्रतमुपक्रमान्तर्गतोर्थाधिकारो द्वेधा अध्य-नार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च तत्राद्यमाह / / जियसंजमो य लोगो, जह वज्झइजह य तंपजहियवं / सुहदुक्खतितिक्खा विय, संमत्तं लोगसारो य||३३।। निस्संगया य छठे, मोहसमुत्था परीसहोवसम्मा। निजाणंअट्ठमए नवमेय जिणेण पयंति ||34|| जिअइत्यादि णिस्संग इत्यादि तत्र शास्त्र परिज्ञाया मय मर्थाधिकारो (जिय संजमोत्ति) जीवेषुसंयमा जीवसंयमा स्तेषु हिंसादिपरिहारः सच जीवस्तित्वपरिज्ञाने सति भव त्यतो जीवास्तित्व विरति प्रतिपादनमत्रार्था धिकारलोकविजये तु लोको जहवज्झइ जहायत्तं पजहियव्वं ति विजितभावलोकेन संयमस्थितेन लोको यथा वध्यते अष्टविधेन कर्मणा यथा च तत्प्रहातव्यं तथा ज्ञातव्य मित्ययमर्थाधिकार स्त्टतीये त्वयं संयमस्थितेन जितकषायेणानु कूलप्रतिकूलोपसर्गनिपातेसुख दुखः तितिक्षाविधेयेति / चतुर्थे त्वयं प्राक्तनाध्य यनार्थसम्पन्नेन तापसादिकष्टतपः से विनामष्टगुणे श्वर्यमुद्वीक्ष्यापि दृढसम्य क्त्वेन भवितव्यमिति पंचमे त्वयं चतुरध्ययनार्थस्यितेनासार परित्यागेन लोकसार रत्नत्रयो भाव्यमिति / षष्ठे त्वयं प्रागुक्तगुणयुक्तेन निस्संगता युक्तेनाप्रतिबद्धेन भवितव्या सप्तमेत्वयं संयमादि गुणयुक्तस्य कदाचिन्मोह समुत्थाः परिषहोपसर्गावा। प्रादुर्भवेयुस्तेसम्यक् सोढव्याः। अष्ठमे त्वयं निर्याणमंत क्रिया या सर्वगुणयुक्तेन सम्यग्विधेयेति।नव मेयं अष्टाध्ययनप्रतिपादितोऽर्थस्सम्यगेवम् वर्धमानस्वामिना विहित इति तत्प्रदर्शनं च शेषसाधूनामुत्साहार्थ। तदुक्तम् तित्थयरोच उरणणी,सुरमहिओसि सिज्झिसव्वय धूमि। अणिगृहियबलविरिओ, सव्वत्थाने सुउज्जमइ॥ किं पुण अवसेसे हिंदुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं। होतिन उज्जमियव्यं सपव्ववायंमि माणुस्से आचा०१२०१ उ.1 तथा चसमवायांगे आचारस्य श्रुतस्कंधद्वय रूपस्य प्रथमां गस्य चूलिका सर्वान्तिममध्ययन विमुक्तयभिधान माचारचूलिका तद्वानां तत्राचारे प्रथम श्रुतस्कंधे नवाध्ययनानि द्वितीये षोडशनिशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात् / षोडशानां मध्येएकस्या चार चूलिकेति परिहृतत्वात् शेषाणां पञ्चदश समः / / 57 सा। आयारस्सणं भगवओ सचूलिआयगस्स पणवीसं अज्झयणा प.तं.सत्थपरिण्णा लोगविजओ सीओसणी असम्मत्तं / आवन्ति धुयविमोहउवहाणसुयं महपरिण्णा ||2|| पिंडेसणसिझिरिआ, भासज्झयणा य वत्थपएसा / उग्गहपडिमा सत्तिकसत्तया भावणविमुत्ती / / 2 / / निसीह-ज्झयणं पण वीस इमं // समः // 21|| आयारस्स णं भगवओ सधूलियागस्स पंचासी इउद्देसणकाला प.टी तत्राचारस्य प्रथमांगस्य नवाध्यय-नात्मकप्रथम श्रुतस्कन्धरूपस्य सचूलियागस्स इति द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्चचूलिकास्तासुचपञ्चमी निशीथाख्येहन गृह्यते भिन्नप्रस्थानरूपत्वात् तस्यास्तदन्याश्चत स्रस्तासुच प्रथमद्वितीये सप्तसप्ताध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यो चैक-काध्ययनात्मिके तदेवं सह चूलिकाभिर्वर्तत इति सचूलिका / कस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला भवंतीति प्रत्यध्ययन उद्देशनकालानामेतावत्संख्यत्वात्तथाहि प्रथमश्रुतस्कन्धे नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्तषट चत्वारश्वत्वारः षट् पञ्च अष्टचत्वारः सप्त चेति द्वितीयश्रुतस्कन्धेषु तु प्रथमचूलिकायां सप्तस्वध्ययेनषु क्रमेण एकादश त्रयस्रयः चतुर्यु द्वौ द्वौ द्वितीयायां सप्तैकसराणि अध्यनानि एवं तृतीयकाध्ययनात्मिका एवं चतुर्थ्यपीति सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति तथाचनन्द्यध्ययने। सेकिंतं आयारे आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयारे गोयरविणयविणयश्यसिक्खाभासा अभासा चरणकरणजायामायावित्तीओ आघविनंति। से समासओ पचविहे पणत्ते तं जहा नाणायारे दसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे आयारेणं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिना सिलोगा संखिजाओ निजुत्तीओ संखिलाओ पडिवत्तीओ सणं अंगठ्ठयाए पढमे अंगे दो सुयखंधा पणवीसे अज्झयणा पश्चासीई उद्देसणकाला पञ्चासीइं समुद्देसणकाला अट्ठारस पयसहस्साणि पयजणं संखिजा अक्खरा अणंतागमा अणंतापजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकड निबद्धनिकाया जिण Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग 373 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारंग पन्नता भावा आपविजंति पनविजन्ति परूविजंति दंसिञ्जन्ति निदंसिर्जति उवदंसिशंति / से एवं आयासे एवं नायासे एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ सेत्तं आयारे॥ सेकिंतमित्यादि। अथ किं तत्आचार इत्यादि अथवा कोऽय आचारः आचार्य आह (आयारेण मित्यादि) आचारणमाचारः आचार्यते इति वा आचारः पूर्वपुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवन विधिरित्यर्थः / तत्प्रतिपादको ग्रंथोऽप्याचारएव उच्यते अनेनचाचारेण करणभूतेनाथवाचारे आचारभूते णमिति। वाक्यालंकारे श्रमणानां प्राइनिरूपित शब्दार्थानां निन्थानां बाह्याभ्यन्तर ग्रंथरहितानां आह। श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवंति।तत्किमर्थं निर्ग्रन्थानामिति विशेषणमुच्यते / शाक् यादिव्यवच्छे दार्थ शाक्यादयोऽपीह लोके श्रमणाव्यपदिश्यते तदुक्तं (निग्गन्थ-सक्कतावसगे रुअआजीवपञ्चहा समणा इति) तेषामाचारा व्याख्यायंते / तत्राऽचारो ज्ञानाऽचाराद्यनेकभेदभिन्नो गोचरो भिक्षाग्रहणविधिकलक्षणः विनयो ज्ञानादि विनयः वैनयिकं विनयफलं कर्मक्षयादि। शिक्षाग्रहणं शिक्षा आसेवनशिक्षा च विनवशिक्षेति चूर्णिकृत् / तत्र विनेयाः शिष्यास्तथा भाषा सत्या असत्या मृषाच अभाषा मृषा सत्यामृषाचचरणं व्रतादिकरणं पिंडविशुद्ध्यादि उक्तंच (वयसमणधम्मसंजम, वेया वचं च बंभगुत्तिओ। नाणा इति यतव कोह, निग्गहाई चरणमे यंतु॥शा पिंड विसोहि समिई.. भावणपडिमा इंइदियनिरोहो। पडिले-हणगुत्तीओ। अभिग्गहो चेव करणं तु // 2 / / (जाया माया वित्तिओत्ति) यात्रा संयमयात्रा मात्रा तदर्थ मेव परिमिताहारग्रहणं वृत्तिर्विविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तनं। आचारश्च गोचरश्चेत्यादिद्वंद्वान्ता आचारगोचरविनयवैनयिक शिक्षाभाषाणा माचरणकरणयात्रामात्रावृत्तयः आख्यायते इह यत्र क्वचिदन्यतरोपादानेऽन्यतरगतार्थाभिधानं तत्सर्वं तत् प्राधान्यख्या-पनार्थमवसेयं (से समासओ) इत्यादिसआचारः समासतः संक्षेपतः पंचविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा (नाणाचारो इत्यादि तत्र आयारेण मित्यादि आचारे ममिति वाक्यालंकारे परित्ता परिमिता ततः प्रज्ञापकं पाठकं चाधिकृत्याद्यन्तोप लब्धैरथवा उत्स-र्पिणीमवसर्पिर्णीवा प्रतीत्य परित्ताअनन्ता न भवति (आइअन्तो वलंभणाओ तणाओ अहवा ओसप्पिणी मुसप्पिणीकालं पडुच्च परित्तातीयाणागयसव्वद्धं च पडुच्च अणंता) इति तथा संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि तानि ह्यध्ययनमध्ययनं प्रति वर्तते अध्ययनानि च संख्येयानीति कृत्वा तथा संख्येया वेढा वेढो नाम च्छन्दोविशेषः / तथाच संख्येयाः श्लोकाः प्रतीताः तथा संख्येया नियुक्तयस्तथा संख्येयाः प्रार्तपत्तयः प्रतिपत्तयो नाम द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमाः प्रतिमाद्यभिग्रहविशेषा वा ताः सूत्रनिबद्धाः संख्येयाः। आह च चूर्णिकृत्। "दव्या-इपयस्थपुव्वगमा, पडिमादभिग्गह विसे सा। पडिवत्ती उत्ते समासतो सुत्तपडिबद्धासंखेज्जत्ति' (सेणमित्यादि) स आचारो णमिति वाक्यालंकारे अंगार्थतया अंगार्थत्वेनार्थग्रहणं परलोकचिन्तायां सूत्रादर्थस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थं अथवा सूत्रार्थोभयरूप आचार इति ख्यापनार्थं प्रथममंग एकारांतता सर्वत्र मागधभाषालक्षणानुसरणतो वेदितव्या स्थापनामधिकृत्य प्रथममंग मित्यर्थः / तथा द्वौ श्रुतस्कन्धौ अध्ययनसमुदायरूपी पञ्चविंशतिरध्ययनानि / तद्यथा / / सत्थपरिनालोगविजओ, सीओसणिणं सम्मत्तं। आवंतिधुय विमोहो, महापरिनोवहाणसुयं॥ एतानिनवाद्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे'"पिंडेसणासेजिरिया, भासज्जाया य वत्थपाएसा। उग्गहपडिमासत्ता, सत्तिक्कया यभावणविमुत्ती॥१॥ अत्र (सेजिरियत्ति) शय्याध्ययनमीर्या-ध्ययनं च (वत्थपाएसत्ति) वस्वैषणाध्ययनं पात्रैषणाध्ययनं च असूनि षोडशाध्ययनानि द्वितीयश्रुतस्कन्धे एव मेतानि निशीथवानि पंचविंशतिध्ययनानि भवंति / तथा पञ्चाशी-तिरुहेशनकालाः कथमिति चेदुच्यते। इहाऽङ्गस्य श्रुतस्क-न्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैक एवोद्देशनकालः। एवं शस्त्रपरिज्ञायां सप्तोद्देशनकालाः / लोकविजये षट् / शीतोष्णाध्ययने चत्वारः / सम्यक्त्वाध्ययने चत्वारः लोकसाराध्ययनेषट्। धूताध्ययने पञ्च / / विमोहाध्ययनेऽष्टौ / / महापरिज्ञायां सप्त।। उपधानश्रुते चत्वारः।। पिंडषणाध्ययने एकादश॥ शब्दैषणाध्ययने त्रयः / वस्त्रैषणाध्ययने द्वौ। अवग्रहप्रतिमाध्ययने द्वौ / / सप्तसप्ततिकाध्ययनेषु भावनायामेको विमुक्तावेकश्च / / एवमेते सर्वेऽपि पिंडिताः पञ्चाशीतिर्भवन्ति / / अत्र संग्रहगाथा। सत्तय छच उचउरो,पंचअद्रुवसत्तचउरोय। एक्कारसतिनिय दो दो, दो दो दो सत्तेक एको य|शा एवं समुद्देशनकाला अपि पञ्चाशीतिर्भावनीयाः / तथा पदाग्रेण पदपरिमाणे नाष्टादश पदसहस्राणि इह यथार्थोपलब्धिः तत्पदं अत्र पर आह। यद्याचारे गौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनानिपदाग्रेण चाष्टादश पदसहस्राणि तर्हि यद्भणितं "नव बंभचेर-मइओ अट्ठारसपयसहस्सि ओवेओ" इति तद्विरुध्यते। अत्र हि नवब्रह्मचर्याध्ययनमात्र एवाष्टादशापदसहस्रप्रमाण आचार उक्तोरिंमस्त्वध्ययेन श्रुतस्कन्धद्वयात्मकः पञ्चविंशत्यध्ययन-रूपोऽष्टादशपदसहस्रप्रमाण इति / ततः कथं न परस्परं विरोधः तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् इह द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनानि एतत्समग्रस्याऽचारस्य परिमाणं अष्टादशपदसहस्राणि पुनः प्रथमश्रुतस्कन्धस्य नवब्रह्मचर्याध्ययनमयस्य विधिवादार्थनिबद्धानि हि सूत्राणि भवन्ति अतएव चैषां सम्यगावगमो गुरूपदेशतो भवति नान्यथा अत्राह चूर्णिकृत् "दोसुयक्खन्धा पणवीसं अज्झयणाणि एयं आयारगा सहियस्स आयारस्स पमाणं भणियं अट्ठारसपयसहस्सा पुण पढमसुयखंधस्स नवबंभचेरमइयस्स पमाणं विचिंत अत्थ-निवद्धाणि सुत्ताणि य. गुरूवएस ओसिं अत्थो जाणियव्वोत्ति, तथा संख्येयान्यक्षराणि पदानां संख्येयत्वात् तथा (अणंता गमा) इति इह गमा अर्थगमा गृह्यते / अर्थगमा नाम अर्थपरिच्छेदाः ते चानन्ताः एकस्मादेव सूत्रादतिशायि मतिमेधादिगुणानां तत्तद्धर्मविशिष्टानां तत्तद्धर्मात्मवस्तुप्रतिपत्तिभावात्॥ एतय टीकाकृतो व्याख्यानं // चूर्णिकृत् पुनराह / / अभि-धानाभिधेयवशतो गमा भवंति ते चानन्ताः अनेन च प्रकारेण वेदितव्याः। तद्यथा। सुयं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खायंति, इतञ्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह तत्रायमर्थः श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! तेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना एवमाख्यातं अथवा श्रुतंमया आयुष्मदंते आयुष्मतो भगवतो वर्द्धमानस्य स्वामिनोऽन्ते समीपे णमिति वाक्यालंकारे तथाच भगवता एवमा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारंग 374 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारकुसल ख्यात। अथवा श्रुतं मया आयुष्मतोऽयवा श्रुतं मया भगवत्पादारविंदयुगलमामृशता / अथवा श्रुतं मया गुरु-कुलवासमावसता। अथवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! (तेणंति) प्रथमार्थे तृतीया तत् भगवता एवमाख्यातं / अथवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! (तेणंति) तदा भगवता एवमाख्यातं / अच्छवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! (तेणंति) तत्र षट्जीवनिकायविषये तत्र वा विवक्षितेन समवसरणे स्थितेन बगवता एवमाख्यातं अथ वा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! वर्तते यतस्तेन भगवता एवमा ख्यातं एवमादयस्तंतमर्थमधिकृत्य गमा भवंति। अभिधानवशतःपुनरेवं गमाः 'सुयं मे आउसं आउस सुयं मे मे सुयं,, आउसमित्येवमर्थभेदे तथा तथा भवंति / तथा अनन्ताः पर्यायास्ते च स्वपरभेदभिन्नाः अक्षरार्थगोचरा वेदितव्याः तथा परीताः परिमितास्त्रसाद्वीन्द्रियादयाः स्थावरा अनन्ता वनस्पतिकायादयः (सासयकडनिबद्धनिकाइयत्ति) शास्वता धर्मास्तिकायादयः कृताः प्रयोगाविसूसा जन्याः घट- सन्ध्याभ्ररागादयः / एते सर्वेऽपित्रसादयो निबद्धाः सूत्रे स्वरूपतः उक्ताः / निकाचिता नियुक्तिसंग्रहणहेतूदाहरणादिभिरनेकधा व्यवस्थापिता जिनप्रज्ञप्ता भावाः पदार्था आख्यायंते सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदोपन्यासेन प्रपच्यन्ते प्ररूप्यन्ते नामादीनामेव भेदा-नांसप्रपञ्चं स्वरूपकथनेन पृथग्विभक्ताः स्थाप्यन्ते दर्श्यन्ते उपमाप्रदर्शनेन यथा गौरिवगवय इत्यादि निदय॑ते हेतुद्रष्टान्तोपदर्शनेनोपदर्थ्यन्ते निगमनेन शिष्यबुद्धौ निश्शंकं व्यवस्थाप्यन्ते साम्प्रतमाचाराङ्ग ग्रहणे फलं प्रतिपादयति स एवमित्यादि स इति आचारांगग्राहकोऽभिसम्बन्ध्यतेएवमात्माएवंरूपो भवति। अयमत्र भावः अस्मिन्नाचारांगे भावतः सम्यगधीते सति तदुक्तक्रियानुष्ठानानुप-- रिपालनात्साक्षान्मूर्त इवाचारोभवति / आह च टीकाकृत् / तदुक्तक्रियापरिणामा-व्यतिरेकात्स एवाचारो भवतीत्यर्थः / इति तदेवं क्रिया-मधिकृत्योक्तं संप्रति ज्ञानमधिकृत्याह (एवं नायत्ति) यथाचारांगे निबद्धा भावास्तथा तेषां भावानां ज्ञाता भवति तथा (एवं विनायत्ति) यथा नियुक्तिसंग्रहणीहेतूदाहरणादिभिर्विविधं प्ररूपितास्तथा विविधं ज्ञातारो भवंति एवं चरणकरणप्ररूपणा आधार आख्यायते सेत्तं आयारोत्ति जनता सेकिंतं आयारे आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं आयारगोयरविणयवेणइयठाण-गमणचकमणपमाणजोगजुंजणभासा समितिगुत्तीसेजोवहिभत्त-पाण उग्गमउप्पायएसणाविसोहि शुद्धाशुद्धग्गहणवयणि-यमतवोवहाणसुप्पसत्थामाहिजइसे समासओ पञ्चविहो पं० तं णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, आयारस्स णं परित्तावायण संखेना अणुओगदारा संखेजाओपडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ निजुत्तीओ से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे दो सुयक्खधा पणवीसं अजयणा पञ्चासीइं उद्देसणकाला पञ्चासी समुद्देसणकाला अट्ठारस पदसहस्साइं पदग्गेणा संखेज्जा अक्खरा अणंतागमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडानिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति नंदिस्संति उवदंसिज्जा से एवं णाए एवं विण्णाए एवं चरणकरणपरूवमया आघविजंति परूविजंतिनन्दिसिजंति उवदंसिर्जति ) सेत्तं आयारो ||सम० 12 स आचाराङ्गस्य व्यवच्छेदकालश्च / / विण्हमुणिम्मि मरते, हरितगोत्तम्मि होतिवीसाए / वरिसाणसहस्सेहिं, आयारंगस्सवोच्छेदो। सम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारःशस्त्रपरिज्ञाया अयंजीव इत्यादि तत्र प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्य शेषेषुतुषट्सु विशेषेण पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति सर्वेषां चावसाने बन्धविरतिप्रतिपाद नमिति। एतच्चान्ते उपात्तवान् प्रत्येकमुद्देशा-र्येषु योजनीयं प्रथमोद्देशके जीवस्वपवधे वधो विरतिष्विति एवमिति तत्र शस्त्रपरिज्ञा |आचा.१० 1 उ. साम्प्रतमाचारा-दिप्रधानस्य सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तोपन्यासेन विधिराख्यायते॥ यथा कश्चिद्राजाऽभिनवनगरनिवेशेच्छया भूखंण्डानि विभज्य समतया प्रकृतिभ्यो दत्तवाँस्तथा कचवरापनयने शल्योद्वारे भूस्थिरीकरणे पक्केष्टकापीठप्रासादरचने रत्नाधुपादाने चोपदेश दत्तवाँस्ताँश्च प्रकृतयस्तदुपदेशानुसारेण तथैव कृत्वा यथाभिप्रेतान् भोगान् बुभुजिरे। अयमत्रार्थोपनयः। राजसदृशेन सूरिणा प्रकृतिसदृशशिष्यगणस्य भूखण्डसदृशः संयमो मिथ्यात्व-कचवराद्यपनीय सर्वोपाधिशुद्धस्यारोपणीयस्तं च सामायिक-संयम स्थिरीकृत्य पक्केष्टकापीठतुल्यानिव्रतान्यारोपणीयानि ततः प्रासादकल्पोऽयमाचारो विधेयसूत्रस्थश्च शेषशास्त्रादि-रन्यान्यादत्ते निर्वाणभाग्भवति॥ आचा० 1 अ.१ऊ॥ आयारंगचूला-स्त्री. (आचाराङ्गचूडा) आचाराङ्गस्य द्वितीयेऽग्रश्रुतस्कन्धे (एतद्रहुवक्तव्यताऽऽचारचूलिकाशब्दे) प्रथमा-चारचूलेति आचा०। आयारकुसल-पुं० (आचारकुशल) आचारेण ज्ञानाद्याचारेण कर्मकुशलः कर्मोच्छेदकः आचारविषये सम्यक् परिज्ञानवति, आचारे ज्ञातव्ये प्रयोक्तव्ये वा कुशलो दक्ष आचारकुशलः। आचारज्ञाने आचारप्रयोगे या दक्षे, च / व्य०७० 3 / आचार-कुशलशद्वस्य व्याख्यानार्थमाह // अब्भुटाणे आसण, किं कर अप्भासकरणविभत्ति / पहिरुवजोगजुंजण, नीयोगपूजा जहा कमसो / / अफरुस अणबल अचवल, मकुवयमडंभगोमसीभरणं / सहित समाहि यउवट्ठिय, गुणनिहि आयार कुशलोउ / आचार कुशलो नाम यो गुर्वादी नामभ्युत्थानं करोति (आसणत्ति) आसनप्रदानं च तेषामेव गुर्वादीनां विधत्ते समागताना पीठिकाद्युपनयतीतिभावः। तथाप्रातरेवागत्य आचार्यान् वदति संदिशत किंकरोमीति स किंकरः तथा (अभ्भासकरणमिति) ये अभ्यागतास्तेषा मात्मस-मीपवर्तित्वकरणमभ्यासकरणं अविभक्तिर्विभागाभावः शिष्यः प्रतिच्छिकानां विशेषकरणमितिभावः (पडिरूव योगजुंजणत्ति) प्रतिरूपः खलु विनयः कायिकादिभेदतश्चतुर्धाऽधस्तात् पीठिकायामभिहितस्तदनुगता योगा मनोवाक्कायास्तेषां योजनं व्यापारणमवश्यकरणं अविभक्तविभागयोजन (नियोगत्ति) योयत्र वस्त्राद्युत्पादने नियोक्तव्यः तस्य तत्र नियोगं करोति (पूजा जहा कमसोत्ति) गुर्वादीनां यथानुरूपं क्रमशो येन पूजा क्रियते अपरुषमनिष्ठुरंमनः प्रल्हादकृदित्यर्थः तद्भाषते (अण-बलत्ति) तत्र प्राकृतत्वात्यकारलोपः तेन अबलया इतिद्रष्टव्यं तस्याऽभावोऽणबलया अकुटिलत्वमित्यर्थः / अचपलः स्थिरस्वभावः अकु कुयो हस्तपादमुखादिवि रूपचेष्टारहितः। अदभंको वंचनानुगतवचनविरहितः। सीभरो नाम य उल्लपन् परं लालया सिंचति तत्प्रतिषेधादसभिरः / प्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययविधानेन असीभरकः एष सर्वोऽपि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारक्खेवणी 375 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारग्गा किल विनय इति वीर्याचारः प्रतिपादितो दृष्टव्यः संप्रति शेषाणां ज्ञानाद्याचाराणां प्ररूपणानिमित्तं पश्चार्द्धमाह / सहितो नाम स यस्य ज्ञानादेरुचितः कालस्तेनोपेतः। किमुक्तं भवति।काले स्वाध्यायं करोति / काले प्रतिलेखनादिकं काले च स्वोचितं तप इति सम्यक् आदितो यत् यस्योपधाने तत्करणे वा स्वाभिप्रायः समाहितः उपशमी ज्ञानादीनां हितः स्थित औत्पत्तिके ज्ञानाधिकं निर्मलतर मात्मनोवाञ्छन् सदैव गुरुषु बहुमानपर इति भावः / एवंज्ञानाद्याचारसमन्वितोगुणनिधिर्भवति। तत आह गुणनिधिर्गुणानामाकारः एष आचारकुशलः सांप्रतमेत देव गायाद्वयं विनेयजनानुग्रहाय भाष्यकृयाख्यानयति / अब्भुट्ठामं गुरुमादियाणं,आसणदाणं च होइतस्सेव। गोसे वय आयरिये, संदिसहा किं करोमित्ति अत्र (गोसे) इति प्रातरेवेत्यर्थः "सभासकरणधम्म, छेयाण अविभत्ति सीसपाडिच्छे। पडिरुवजोगो जह, पीढियाए झुंजणं करेमि धुवं' अत्र प्रतिरूपयोगो यथा पीठिकायां प्राक् प्रतिरूपविनयाधिकारेऽभिहितस्तथा प्रतिपत्तव्यः (जुजणं) इत्यस्य व्याख्यानं यत् ध्रुवमकालहीनं प्रतिरूपयोगात्करोति पारयती-तिभावः / (पूर्य जहाणुरूवं, गुरुमादीणं करेह कमसोउ / उल्हा-दिजणणमफरुसं, अचवलया होइ कुलुमंत) अब्रह्लादिजननमिति मनः प्रह्लादजनक "अचबलथिरस्सभावो अप्फंदणयायहोइ अकुयत्तं / उल्लावलालससीभर, सहितो कालेलणाणादि" अवस्यंदनता भंडोचितहस्तपादादिचेष्टाविकलता सम्म अहियभावो समाहितो समीवम्मि नाणादिणं तु तद्धितो गुणनिहिजोआगरो गुणाणं गाथापंचकमपि गतार्थम् ॥व्या आयारक्खेवणी-स्त्री. (आचारक्षेपणी) आचारो लोचाऽस्नानादिस्तत्प्रकाशनेनाक्षेपणी आचाराक्षेपणी / आक्षेपणी-कथाभेदे, // स्था० ४द्वा०॥ आयारगोयर--पु. (आचारगोचर) आचारोमोक्षार्थमनुष्ठान-विशेषस्तस्य गोचरो विषय आचारगोचरः आचा. 1170 अ० 1 उ! आचारः साधुसमाचारस्तस्य गोचरो विषयो व्रतषट्कादिरा-चारगोचरः साधुसमाचारविषये, व्रतषट्कादिके, आचारश्च ज्ञानादि विषयः पञ्चधा गोचरश्च भिक्षाचर्येत्याचारगोचरं ज्ञानाचारादिके, भिक्षाचर्यायां च, / ना सेहं आचारगोयरं ग्रहणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ स्था०८ हाइह विभक्तिविपरिणामादाचारगोचरस्य ग्रहण-तायां शिक्षण शैक्षमाचारगोचर ग्राहयितुमित्यर्थःस्था०८ट्ठा। आयारगोयरं विणयवणइयचरणकरणजायामायावत्ति यं धम्ममाइक्खीयं / / आचारः श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादिगोचरो भिक्षाटनम् एतयोः समाहारद्वन्द्वस्ततस्तदाख्यातमिच्छामीति योग इति ॥भ.२ श.१ उ. / / क्रियाकलापे, पुं. दश. ६अ। रायाणो रायमचा य, माहणा अदुव खत्तिया। पुच्छंति निहुअप्पाणो कहं आयारगोयरं / / व्या० / / राजानो नरपतयः राजामात्याश्च मंत्रिणः ब्राह्मणाः प्रतीताः (अदुवत्ति) तथा क्षत्रियाः श्रेष्ठ्यादयः पृच्छंति निभृतात्मानः असभांता रचितांजलयः कथं ते भवता आचारगोचरः क्रियाकलापः स्थित इति सूत्रार्थः॥ तेसिं सो निहुओदंतो, सव्वभूय सुहावहो। सिक्खा एसु समाउत्तो आइक्खेज वियक्खरो / / 3 / / व्या० // तेभ्यो राजादिभ्यः असौ मणी निभृतोऽसंभांत उचितधर्मः कायस्थित्या दांत इंद्रिय मनोदमाभ्यां सर्वभूत सुखावहः सर्वप्राणिहितइत्यर्थः / शिक्षया ग्रहणासेवनरूपया सुसमायुक्तः सुष्ट एकीभावेन युक्तः आख्याति कथयति विचक्षणः पंडित इति सूत्रार्थः। (हंदिधम्मत्थकामाणं, निगंथाण सुणेह मे। आयारगोयरं भीम, सयलं दुरहिट्ठियं) सूत्रंव्या० / / हंदिइत्युपदर्शने तमेनं धर्मार्थकामानामिति धर्माश्चारित्रधादिस्तस्यार्थः प्रयोजनं मोक्षः कामयंते इच्छंति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धम्मार्थकामाः मुमुक्षवस्तेषां निग्रंथानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां शृणुत मम समीपात् आचारगोचरं क्रियाकलापं भीमं कर्मशवपेक्षया रौद्रं सकलं संपूर्ण दुरधिष्ठं क्षुद्धसत्वैर्दुराश्रयमिति सूत्रार्थः॥ आयारग्ग-न. (आचाराग्र) आचारांगस्य द्वितीये श्रुतस्कंधेतद्वक्तव्यता:चारांगटीकायाम्॥ (आचारमेरो-गदितस्यलेशतः, प्रवच्मिचच्छेषिकचूलिकागतां / प्रारिप्सितेऽर्थे गुण वान् कृती सदा, जायेत निः शेषमशेषितक्रियः१) उक्तो नवब्रह्मचर्याध्यय-नात्मक आचारश्रुतस्कंधः सांप्रतं द्वितीयोग्रश्रुतस्कंधः समारभ्यते। अस्य चायमभिसंबंधः उक्तम् प्राचारपरिमाण प्रतिपादयता तद्यथा (णवबंभचेरमइ ओअट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ हवइ य स पंचचूलो बहु 2 अयरो पयग्गेणं) तत्राचे श्रुतस्कंधे नवब्रह्मचर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि तेषु च न समस्तोऽपिविवक्षि-तोऽर्थोऽभिहितोऽभिहितोऽपि संक्षेपतोऽतोऽभिहितार्थाभिधानाय संक्षेपोक्तस्माचप्रपंचायतदग्रभूताश्चतस्रश्चूडा उक्ताः अनुक्त-संग्रहिकाः प्रतिपाद्यते॥तदात्मकश्च द्वितीयोग्रश्रुतस्कंध इत्यनेन संबधे नायातस्यास्य व्याख्या प्रतन्यते तथा चाचारांगनियुक्ती अग्रनिक्षेपम्प्रतिपाद्याह॥ उवयारेण उपगयं, आयारस्सेव उवरिमाइं॥ तुरुक्खस्सपव्वयस्सय, जह अग्गाई तहे ताई ॥शा उपकाराग्रेणात्र प्रकृतमधिकारः यस्मादेतान्याचारस्यै-वोपरिवर्तन्ते तदुक्तं शेषवादितया तत्संबद्धानि तद्यथा वृक्ष-पर्वतादेरग्राणीति शेषाणि त्वग्राणि शिष्यमतिव्युत्पत्यर्थमस्य चोपकाराग्रस्य सुखप्रतिपत्यर्थमिति तदुक्तं (उच्चारिस्स सरिसं, जं केणवितं परुवए विहिणा, जेणहि गारोत मिउ, परुविए होइ सुहगेझं) तत्रेदमिदानीं वाच्यं केनैतानि नियूंढानि किमर्थ कुतो वेत्यतआह॥थेरेहिं अणुग्गाहट्ठा, सिसहियं होउ पागडत्थं च॥ आयाराउ अत्थो, आयारग्गेसुपविभत्तो गाहा॥थेरेहीत्यादि स्थविरैः श्रुतवृद्धश्चतुर्दश पूर्वविद्भिर्नियूंढानीति किमर्थं शिष्यहितं भवत्विति कृत्वा अनुग्रहार्थ तथा अप्रकटोऽर्थः प्रकटो-यथास्यादित्येवमर्थ च कुतोनियूंढाचारात् सकाशात्सम-स्तोऽप्यर्थः आचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति // सांप्रतं यद्यस्मानियूंढ तद्विभागेनाचष्ट इति।। विइ अस्सय पंचमए, अट्ठमगस्स वीयंमि उद्देसो। भणिओ पिंडेसणेशा, वत्थं पाओग्गहे चेव || पंचमगस्सचउत्थे इरिया वणिजइसमासेणं / / छहस्सय पंचमए, भासजाया वियाणाहि ||5|| सत्तेकाणि सत्तवि, णिशूढाई महापरिण्णावो।। सत्थपरिण्णा भावण, णिझूठाउधुवविमुत्तो।।६।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारग्ग 376 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारह आयारपकप्पोउ, पचखाणस्सतइयवत्थूओ। रात्रिभोजनविरतिपरिग्रहाच षोढे-त्यादिकया प्रक्रियया भिद्यमानो आयारणामधेजा, विसइमा पाहुडच्छेया।७।। यावदष्टा दशशीलांगसहस्र-परिमाणो भवतीति किंपुनरसौ संयमस्तत्र विइयस्सेत्यादि चतस्रो। गाथाः ब्रह्मचर्याध्ययनानां द्वितीय मध्ययनं तत्र प्रवचने पंच-महाव्रतरूपतया भिद्यते इत्याह॥ लोकविजयाख्यं तत्र पंचमोद्देशके इदं सूत्रं (सव्वामगं धं परिणाय आइक्खि चिमइयु, विण्णाउं चेव सुहुतरं होइ। निरामगंधो परिव्वएजा) तत्रामग्रहणेन हननाधास्तिस्रः कोट्यो गृहीता एएण कारणेण, पञ्चमहव्वया पण्णविजंति|१|| गन्धोपादानादपरास्तिस्र एताः षडप्यविशो-धिकोट्यस्ताश्चेमा स्वतो संयमः पञ्चमहाव्रतरूपतया व्यवस्थापितः सन्नाख्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं हंतिघातयतिघ्रन्तमनुजानीते तथा पचति पाचयति पचन्तमनुजानीत च सुखेनैव भवतीत्यतःकारणात्पञ्चमहाव्रतानि प्रज्ञाप्यते / एतानि च इति तथा तत्रैव सूत्रं (अदिस्समाणो कयविक्कएहिति) अनेनापि तिसो पञ्चमहाव्रतान्यस्खलितानि फलवन्ति भवंत्यतो रक्षायत्तो विधेयस्तविशोधिकोट्यो गृहीतास्ताश्चेमाः क्रीणाति क्रापयति क्रीणतमन्यमनु दर्थमाह। जानीते तथाऽष्टमस्य विमोहाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशके इदं सूत्रं (भिक्खू परिक्कमेज वा चिट्ठल वा णीसिएज वा तुयेट्ठल वा सु साणंसि वेत्यादि) तेसिंच रक्खणट्ठा, भावणा पचवए इकेके / यावत् (बहिया विहरेज्जा तं भिक्खुंगाहावति उवसंकमित्तुवएजा अहमा तासत्थपरिण्णाए, एसो अम्भितरो होइ||१२|| उसंतो समणा तुब्भट्ठाये असणं वा 4 पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताइ तेषां च महाव्रतानामे कै कस्य तद्वत्तिकल्पाः पंच 2 भावना समारब्भसमुदिस्स कीयं पाडिच्च) मित्यादि एतानि सर्वाण्यपि भवंति / ताश्च द्वितीयाग्रश्रुतस्कंधे प्रतिपाद्यंते अतोऽयं शस्त्रसूत्राण्याश्रित्यैकादशपिंडैषणा नियूंढास्तथा तस्मिन्नेव द्वितीयाध्ययने परिज्ञाध्ययनाभ्यंतरो भवतीति।। पंचमोद्देशके सूत्रं (से वत्थं पडिग्ग हं कंबलं पायपुंछणं उम्गहं च सांप्रतं चूडानां यथा स्वं परिमाणमाह // जाउग्गहपडिमाओ, पढमा कडासणमिति) तत्र वस्त्रकंबलपादपुंछनग्रहणात्वस्वैषणा नियूढापतद् सत्ति किगावीय चूला भावणविम्मुत्ति आयारपकप्पा तिण्णि इतिपंच // 13 // ग्रहपदात्पात्रैषणा निव्यूढा अवग्रह इत्येतस्मादवग्रहप्रतिमा नियूंढा पिंडै षणाध्ययनादारभ्य अवग्रहप्रतिमाध्ययनं यावत् एतानि कडासनमित्येतस्माच्छय्येति तथा पंचमाध्ययनावंत्याख्यस्य सप्ताऽध्ययनानि प्रथमाचूडा सप्तसप्तैकका द्वितीया भावना तृतीया चतुर्थेद्देशक सूत्रं (गामाणुगामंदुइज्जमाणस्सदुज्झायंदुप्परकंतमित्यादि विमुक्तिः चतुर्थी आचारविकल्पो निशीथः सा पंचमी चूडेति आचा०२ नेर्या संक्षेपेण व्यावर्णितेत्यत ईर्याध्ययनं निर्मूढं तथा षष्ठाध्ययनस्य ध्रुवाख्यस्य पंचमोद्देशकसूत्रं (आइक्खइ विहयइ किट्टति धम्मकामी) आयारचूला-स्त्री० (आचारचूला) उक्तशेषानुवादिनी चूडा आचारस्य चूला त्येतस्माद्वाषाध्ययनमाकृष्टमित्येवं विजानीयास्त्वमिति तथा महापरिक्षाध्ययने सप्तोद्देशकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तापि सप्तकका आचार चूला। आचाराग्रे आचारांगस्य द्वितीयेऽग्रश्रुतस्कंधे, आचा० अ० १ऊ। नियूँढास्तत्छा शस्त्रपरिज्ञाध्ययनाद्भावना नियूंढास्तथा धूताध्ययनस्य द्वितीयचतुर्थकोद्देश-काभ्यां विमुक्ताध्ययनं नियूँढमिति तच्छाचार आचाराग्राणि चूलिका इति आचा०॥ आचारांगस्य-द्वितीयेग्रश्रुतस्कंधे प्रकल्पो निशीथः स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत् तृतीयं वस्तु तस्याऽपि पञ्चचूडास्तत्र प्रथमा (पिंडेसणसेञ्जरिया, भासज्जा या य वत्च्छपाएसा यदाचाराख्य विंशतितमं प्राभृतं ततो नियूंढ इति ब्रह्मचर्याध्ययनेभ्य उग्गहपडिमत्ति) सप्ताध्ययनात्मिका द्वितीया सत्तसत्तिकया तृतीया भावना आचारा-ग्राणि नियूंढान्यतो नियूँहनाधिकारादेव तान्यपिशस्वपरिज्ञा चतुर्थी विमुक्तिः पञ्चमी निशोथाध्ययनमिति! आचा० अ०१ऊ.१॥ ध्ययनानि नियूंढानीति दर्शयति॥ एताश्चाचारश्रुतस्कंधस्य नवभ्यो ब्रह्मचर्याध्ययनेभ्यो नियूंढा इति अब्दोगडो उ भणिओ,सत्थपरिण्णाए दंडणिक्खेवो // आचाराग्रशब्दे॥ सो पुण विभज्जमाणो, तहा तहा होइ णायव्वो // 8 / / आयारचूलिया-स्त्री. (आचारचूलिका) आचारचूलायाम, आयारस्सणं अव्याकृतोऽव्यक्तोऽपरिस्फुट इति यावत् भणितः प्रतिपादितः कोऽसौ भगवओ सचूलीयागस्स पञ्चासीइ उद्देसणकाला सम०८५ स० // दंडनिक्षेपः दंडः प्राणिपीडालक्षणस्तस्य निक्षेपः परित्यागः संयम आचारांगस्य विमुक्त्यभिधाने सर्वातिमेऽध्ययने, चतिण्हंगमिपिडगाणं, इत्यर्थः / स च शास्त्रपरिज्ञायामव्यक्तोऽभिहितो यतस्तेन पुनर्विभज्य- आयारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा प० सम० 57 स० / / मानोऽष्टस्वप्यध्ययनेष्वसावेव तथा तथानेकप्रकारो ज्ञातव्यो भवतीति // आचारस्य श्रुतस्कंधद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका सर्वाकथं पुनरयं संयमः संक्षेपोऽभिहितो विस्तार्यत इत्याह। न्तिममध्ययनं विमुक्त्यभिधानमाचारचूलिका तदर्जानामिति सम टी० / / एगविहो पुण सो, संजमोत्ति अझत्थ बाहिरेय दुहा। आयारटीगा-स्त्री. (आचारटीका) शीलंगाचार्यविरचितायामाचारांगमणवयमकायतिविहो, चउविहो चाउजामोउ।। व्याख्यायाम, तथाचाचारांगटीकायाम् आचार-टीकाकरणे / पंच य महवयाइं तु, पंचहाराइ भोयणं छट्ठा। "आचारशास्त्र सुविनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः॥ सीलंगसहस्साणि य, एसो उ अभितरो होइ तथैव किञ्चिद्दतः स एव मे, पुनातु धीमान् विनयार्पिता गिरः |1|| (एगविहो) इत्यादि (पंचय) इत्यादि अविरतिवृत्तिलक्षण एकविधः शस्त्रपरिज्ञाविवरण, मतिबहुगहनञ्चगन्धहस्तिकृतं तस्मात्सुखबोधार्थ, संयमः सएवाऽध्यात्मिकबाह्यभेदात् द्विधा भवति। पुनर्मनोवाक्काययोग- गृहाम्यहमञ्जसा सारम् // 2 // " आचा. टी. अ१ उ.१॥ भेदात्त्रिविधः स एव चतुर्याम भेदाचतुर्धा पुनः पञ्चमहाव्रतभेदात्पंचधा! | आयारह-त्रि (आचारस्थ) आचारे स्थित आचारस्थः ज्ञाना Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारणिखंत्ति 377 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपकप्प - चामदिपंचविधाचारयुक्ते, / / "नाणंमिदंसणंमिय, तवे चरित्तेय समणसारमि ।णच एत्ति जो ठवेउं, अप्पाणं गणं न गणहारी। एसगणहरमेरा, आयारस्था-णवणितासुत्ते" / पं. भा०॥ एसा गणधरमेरोमर्यादा सीमा इत्यर्थः (आयारहाणंति पंचविहे आयारे जुत्ताणं) आचारे स्थित आचारस्थः तेषां वर्णिता स्तत्र प्रणीता इत्यर्थः / पं. चू०॥ आयारणिझुत्ति-स्त्री. (आचारनियुक्ति) निर्युक्तानां सूत्रेऽभिधेय तथा व्यवस्थापितानामर्यानां युक्तिर्घटना विशिष्टा योजना नियुक्तियुक्तिरेतस्मिश्च वाच्ये युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिरित्युच्यते / सम. स. 1 आचारस्य नियुक्तिराचारनियुक्तिः। आचार सूत्रार्थानां विशिष्टयोजनायाम्, तथात्य समवायांगे। आचारांग मधिकृत्य "संखेजाओणिज्जुत्तिओ" सम०१ स० // आचारांग नियुक्तिश्च भद्रबाहुस्वामिना रचिता / तथाचाचारांगटकियां भद्रबाहुस्वामिनमधिकृत्य / स च पूर्वमावश्यकनियुक्तिं विधाय पश्चादाचारांगनियुक्तिं चक्रे तथाचोक्तं (आवस्सयस्स दस कालियस्स तह उत्तरज्झयमायारत्ति) आचा० अ०१ उ०१ आयारतेण--त्रिः (आचारस्तेन) विशिष्टाचारवत्तुल्यरूपे "आयारभावतेणेय कुव्वइ देवकिव्विसं 46" दश अ०५ऊ२॥ आयारदशा-स्त्री. (आचारदशा) आचरणमाचारोज्ञानादिविषयः पंचधा / आचारप्रतिपादनपरा दशा आचारदशा। दशाभेदे, दशाध्ययनात्मिकाआचारदशा दशाश्रुतस्कंध इति या रूढेति स्या, ठा. 10 / / अङ्गदशा। अण्हावि हु उबासगा, दिण्ण तेण्णतु विसेसो / आयारदशा तुइमो, जेणेत्थं वण्हिया यारो। पं. भा०। आचारदशानामध्ययनविभागमाह। स्था० 10 ठा० / / आयारदसाणं दस अज्झयणा पण्णता / तंजहा वीसं असमाहिठणा इकवीसं सबला तित्तिसं आसायणो अट्ठविहा गणिसंपया दस चित्तसमाहिट्ठाणा इक्कारस उवासगपडि-माओ बारस भिक्खुपडिमाओपजोसवणा कप्पे तिसं मोहणिज्जठाणा / समाधिस्थानानि वैरासेवितैरात्मपरोभयानामिह परत्रो भयत्र वा असमाधिरुत्पद्यते तानीति भावस्तानि च विंशतितचारित्वादीनि ।तत एवावगम्यनीति तत्प्रतिपादकमध्ययनमसमाधिस्थानानीति। प्रथमतया एकविंशतिः शबलाः शबलं कबूंरं द्रव्यतः पटादिः भावतः साऽतिचार चारित्रमिह च शबलचारित्रयोगात् शबलाः साधवस्ते च करकर्मप्रकारान्तरमैथुनादीन्येकविंशतिपदानि॥शा तत्रैवोक्तरूपाणि सेवमाना उपाधित एकविंशतिर्भवति / तदर्थ मध्ययनमेकविंशति शबला इत्यभिधीयते॥शाते तो समासायणाओत्तिज्ञानादिगुणाः आसमस्त्येन शात्यंते अपध्वस्यंते यकाभिस्ता आशातना रत्नाधिकविषयाः अविनयरूबपाः पुरतो गमनादिकास्त-प्रसिद्धास्त्रयस्त्रिंशद्रेदा यत्राभिधीयन्ते तदध्ययनमपि तथैवोच्यत इति // 3 // (अद्वेत्यादि) अष्टविधा गणिसंपत् आचारभुत-शरीरवचनादिका आचार्य गुणद्धिरष्टस्थानकोक्तरूपा यत्राऽभिधीयते तदध्ययनमपि तत्रैवोच्यत इति // 8 // (दसेत्यादि) दशचित्तसमाधिस्था नानि येषु सत्सु चित्तस्य प्रशस्त-परिणतिर्जायते तानि तथा असमुत्पन्नपूर्वकधाचित्तोत्पादादीनि तत्रैव प्रसिद्धान्यभिधीयन्ते यत्र तत्तथैवोच्यते इति 5 (एकारे) त्यादिएकादशो पासकानां श्रावकाणां प्रतिमाः प्रतिपत्तिविशेषाः दर्शनव्रत सामयिकादिविषयाः प्रतिपाद्यते यत्र तत्तथैवोच्यते // 6|| (बारसेत्यादि) द्वादशभिक्षूणां प्रतिमा अभिग्रहा मासिकीद्विमा सि की प्रभृतयोयत्राभिधीयन्ते-तत्तथोच्यत इति 11७|पजो इत्यादि।। पर्याया ऋजुबुद्धिका द्रव्यक्षेत्रकालभावसंबन्धिनउत्सृज्यन्ते उझन्ते यस्यांसा निरुक्तविधिना पर्योसवना अथवा परीति सर्वतः-क्रो धादिभावेभ्य उपशम्यते यस्यांसा पर्युपशमना अथवा परिःसर्वथा एकक्षेत्रेजघन्यतः सप्ततिदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा तस्याःकल्प आचारोमर्यादत्यर्थः / पर्योसवनाकल्पः पर्युपशमनाकल्प पर्युषणाकल्पोवेतिसच (सको संजोयणं विगइनववयमि) त्यादिकस्तत्रैव प्रसिद्धस्तदर्थमध्ययनं स एवोचयत इति 8 // (तीसमित्यादि) त्रिंशन्मोहनीयकर्मणो बन्धस्था नानि बन्धनकारणानि (वारिमईझबगाहित्ता तसे पाणे विहिंसई) इत्यादि कानि तत्रैव प्रसिद्धानि मोहनीयस्थानानि तत्प्रतिपादकमध्ययनं तथैवोच्यत इति ||9|| (आयाइहाण) मिति आजननमाजातिः सम्मूर्छनगर्भो पपाततो जन्म तस्याः स्थानं संसारस्तत्सनिदानस्य भवतीत्येवमर्यप्रतिपादनपरमाजाति स्थानमुच्यते।। इति ठा, टी. ठा० 10 // आयारपकप्प-पुं. (आचारप्रकल्प) आचार एवाचार प्रकल्पः क्रिया आचारक्रियायाम, आव० 4 अ. || आचार आचारांगम् प्रकल्पो निशीथाध्ययनम् तस्यैव पञ्चमचूला आचारेण सहितः प्रकल्पः आचारप्रकल्पःनिशीथाध्ययनसहिते आचारांगे, ध० अ०३।। अट्ठावीसइविहे आयारपकप्पे आव ३अ // सत्थपरिभा लोगविजओ, असिओसणिज्जं संमत्तं // आवंति धुअ विमोहो, उवहाणसुअं महपरिन्ना ||5|| पिंडेसण सिञ्जीरिज्जा, भासज्जा या यवत्थपाएसा॥ उग्गहपडिमासत्ति, कसतयं भावणविमुत्ति ||2|| उग्घायमणुग्घायं, आरोवणतिविहमो निसीहंतु॥ इत अट्ठाविसविहो, आयारपकप्पनामोयं / / 53|| अष्टविंशतिविधे आचारप्रकल्पे आचार एवाचारप्रकल्पःक्रिया पूर्ववत्। पिंडेसणागाह 152 उग्घातगाथात्रयं निगदसिद्धमेव / / अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः निशोथांतमाचारांगमित्यर्थः स चैवं // सत्थपरिण्णा लोकविजओर सीओसणिज्जा३ संमत्तं आवंति 5 धुव विमोहो 7 उवहाणत्थयं 8 महपरिण्णा 1 प्रथमस्य श्रुतस्कंधस्याऽध्ययनानि / द्वितीयस्य तु पिंडेसण सेन इरिया ३भासाजाया यवत्थ पाएसा 6 उग्गहपडिमा 7 सत्तसतिकया 5 भावणा 5 विमुत्ति 6 उग्धाइ अणुग्धाइ 2 आरहणा 3 तिविहमोनिसीहंतु अट्ठाविसविहो आयारपकप्पनामोत्ति। उद्घातिकं यत्र लघुमासादिकं प्रायश्चितं वर्ण्यते / अनुद्धाति कं तु यत्र गुरुमासादि आरोपणा च यत्रैक-स्मिन्प्रायश्चितेऽन्यदप्यारोप्यत इति॥ प्रश्र सं०५ द्वा० // Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 78 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपकप्प अष्टाविंशत्या आचारप्रकल्पैः आचार आचारांगं प्रकल्पो निशीथाध्ययनं तस्यैव पंचमचूला। आचारणे सहितः प्रकल्प आचारप्रकल्पस्तैः पंचविंशत्यध्ययनात्मकत्वात्पंचविंशतिविध आचार उद्घातिममनुद्धातिममारोपणेति त्रिधा प्रकल्पोमीलनेऽष्टाविंशतिविधस्तत्र पंचविंशतिरध्ययनान्यमूनि॥ सत्थपरिण्णा 1 लोगविजओ 2 सीओसणीजं 3 संमतं 4 आवंतिलोगसारंवा 5 धुयं 6 विमोहो 7 उवहाणसुअं८ महापरिण्णा 9 पिंडेसणा 10 सिज्जा 11 इरिया 12 भासाजायं 13 वत्थेसणा 14 पाएसणा 15 उग्गहपडिमा 16 ठाणसत्तिक्कयं 17 निसीहिआसत्तिकयं 18 उच्चारणसवणसत्तिकयं 19 सदसत्तिकयं 20 रूवसत्तिकयं 21 परकिरिआसत्तिकयं 22 अन्नोन्नकिरिआसत्तिकयं 23 भावणा 24 विमुत्ति 25 30 30 आयरणं आयायारो सो यपंचविहोणाणदसण चरित्ततववियारो य तस्स पकरिसेणं कप्पणा पकप्पणासप्रभेदनिरूपणा आ. चू, 4 अ / नि. चू. 1 उ.॥ आचारः प्रथमांगन्तस्य प्रकल्पोऽध्ययनविशेषोनिशीथमित्य पराभिधानस्य वाऽऽचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पोऽध्यवसायमित्याचारप्रकल्पः / सम. स. 28 / / आचा-रस्य प्रथमांगस्य पदविभागसमाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पा-भिधायकत्वात् प्रकल्प आचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनं आचारां गस्य निशीथाध्ययने, स्था०५द्वा०। यस्मात्तत्रदशविध आचारः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवी-चारश्च प्रकल्पते ख्याप्यते प्रज्ञाप्यते इत्यर्थ इत्यत आचारप्रकल्प इति पं. चू०।। आचारप्रकल्पस्य नामधेयानि निशीथचूर्णी यथा // आयारपकप्पस्सउ, इमाइं गोणाई णामधिज्जाइं। आयारमाइयाई, पायच्छितेणहीगारो॥शा गाहा आयरणं आयारो सो य पंचविहो णाणदंसमचरित्ततव-वीरियायारोय तस्स पकरिसेणं कप्पणा पकप्पणा सप्रभेद-प्ररूपणेत्यर्थः इमाइंति वक्खमाणात्ति गोणग्रहणं पारिभासिय उदासत्यं तंजहा अमुद्दोसमुदो इंदं गोवयतीति इंदगोवगो एवं तस्स आयारपकप्पस्स णाम न भवति गुणणिप्फण्णं भवति "गुण-निप्फण्णं गोणं, तंचेव जहत्थ मत्थवीषिति तं पुण खवणो जलणो, तवणो पवणो पदीवो य // 11 // " णामाणि, अभिधेयाणि नामधेजाणि अहवा धरणियाणि वा धेजाति णामधेजाति सार्थकाणीत्यर्थः / आयारो आदीजोसताणि नामाणि आयारादीणि पंच पायच्छिते अहीगारेत्ति अत्थेढ़, दारं सीसो पुच्छति ण णु पायच्छिते अहिगारोत्ति पुच्छाहि अत्थाहिकार एव भणिओ आयरिओ भणति सव्वं तत्थ भणिओ इह विशेषज्ञापनार्थ भणति अण्णत्थवि आयारस रूवणा कया इह तु आयारसरूवं पायच्छित्तं परूविञ्जति अहवा प्रायश्चित्ते प्रयत्न इत्यर्थः।। अहवा इहभणिओ तत्थ दट्ठव्वो आयारमाझ्यातिं जं भणि यंताणि य इमाणि // आयारो अग्गंति, पकप्पे तह चूलीया णिसीहंति। णिसीतं सुत्तत्थ तहा, तह आणु पुव्विअक्खातं ३गाहा।। एसादारगाहा वक्खमाणसरूवा आयारमाईयाणिं इमा सामण्णणि खेवलक्खणा गाहा // आयारे णिक्खेदो, चउविधो दशविधो य अग्जम्मि। छक्कायपकप्पंमि, चूलीयाए निशीथे या निच१ उ. आचारप्रकल्पः पंचविधः तच्छाच स्थानांगे। पंचविहे आयारपकप्पे पं. सं. 1 मासिए उग्घाइए 1 मासिये अणुग्घाइए२ चउम्मासिए उग्घाइए३ चउम्मासिये अणुग्घाइये। अरोवणाास्था५ठा०11 आचारस्य प्रथमांगस्य पदविभागसमाचारी लक्षणप्रकृष्ट - कल्पाऽभिधायकत्वात्प्रकल्प आचारप्रकल्प निशीथाध्ययनं स च पंचविधः। पंचविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात्तथाह। तत्र केषुचिदुद्देशकेषु लधुमासप्रायश्चित्तापत्तिरुत्पद्यते 1 केषुचिच गुरुमासापत्ति 2 एवं लघुचतुर्मास ३गुरुचतुर्मासा रोपणाश्चेति तत्र भासेन निष्पन्नं मासिक तपस्तच उद्घातो भोगपातो यत्रास्ति तदुद्धातिकं लध्वित्यर्थः / यत उक्तं "अद्धेण छिन्ने सेसं, पुव्वद्धणं तु संजुयं काउं। देख्वाहिलघुयदाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेवत्ति ||1|| पंचेवत्ति / एतद्भावना मासिकतपोऽधिकृत्योपदय॑ते / मासस्या-ऽर्द्धच्छिन्नस्य शेष दिनानां पंचदशकं तन्मासापेक्षयाच पूर्वस्य पंचविंशतिकस्याऽर्द्धन सार्द्धद्वादशकेन संयुतं कृतं सा सप्तविंशतिर्भवतीति।आरोपणातु (चढावणित्ति भणिय होइ) योहि यथा प्रतिषेवित मालोचयति तस्य प्रतिषेवानिष्पन्नमेव मासलधुमासगुरुप्रभृतिकं दीयते / यस्तु न तथा तत्तावद्दीयते एवमायासनिष्पन्नं चान्यदारोप्यत इत्यारोपणेति। ठा, टी, ठा.५॥ अस्याष्टाविंशतिभेदाः समवायाङ्गे यथा // अट्ठाविसविहे आयारपकप्पे प. तं / मासिया आरोवणा सपंचराइमासीया आरोवणा सदसराइमासियाआरोवणा सपन्नरसराइमासिया आरोवणा! सवीसइराइमासिया आरोवणा। सपंचवीसराइमासिया आरोवणा। एवं चेव दोमासीया आरोवणा सपंच-राइदोमासीया आरोवणा एवं तिमासीया आरोवणा चउमासीयाआरोवणा उवधाइया-आरोवणा अणुधाइया आरोवणा कसिणा आरोवणा अकसिणा आरोवणा / एतावता आयारकप्पे एतावताय आयरियव्वे / सम०२८ स०॥ अत्रैव निगमनमाह। एतावांस्तावदाचारप्रकल्प इह स्थानके आरोपणामाश्रित्य विवक्षितोऽन्यथा तद्व्यतिरेकेणाऽपि तस्यैतद्वातिकरूपस्यभावात् अथ चैतावानेवायं तावदाचारप्रकल्पः शेषस्यात्रै वांत र्भावात् स. स.२८॥ आचारप्रकल्पो महानिशीथः। स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत्तृतीयं वस्तु तस्यापि यदाचाराख्यं विंशतितमं प्राभ्टतं ततो नियूंढ इति आचा. द्वि० श्रु अ०१॥ तथा च निशीथचूर्णो // निसीथं णवणा पुव्वा, पचक्खाणस्स तत्तियवत्थुउ। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 379 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपकप्प आयारनामधेजा, वासनिमापाहुडच्छेदा / / 219 / / पुव्वगतेहिं तो पचक्खाणपुणामणवमपुव्यंत्तिस्संवीसंवत्थु वत्थुत्ति वत्थुभूतं वीसं अत्याधिकारात्तेसुतत्तियं आयारणामधिज्जं जंवत्थु तस्स वत्थुस्स बीसं पाहुडच्छे दो परिमाणपरिच्छि -प्रणाप्राभृतवत् अर्थच्छेदपाहुडछेदा भण्णंति। तेसु विजंधीसतिमं पादुडच्छेदंततो णिसीहं सिद्ध / तथाच व्यवहारकल्पे॥ आयारपकप्पो ऊ, नवमे पुवंमि आसि सोधीय। तत्तोटिव य निजूढो, इहाणियतो किं न सुद्धिभवे // आचारप्रकल्पः पूर्व नवमे पूर्वे आसीत् शोधितश्च ततोऽभवत् इदानीं पुनरिहाचारांगेतत एव नवमान्नि'ह्याऽनीतः। ततः किमेष आचारप्रकल्पो न भवति किं वा ततः शोधिर्नोपजायते / एषोऽप्याचारप्रकल्पः शोधिश्वास्मादवशिष्टा भवतीति भावः // ध्य०३ उ०॥ तथाच पंचकल्पभाष्ये॥ आयरदसाकप्पो ववहारो नवमपुष्वा णि संदो-चारित्तरक्खणट्ठा सुयकडस्सुवरिठविताई अंगदसा अण्हा वि हु उव्वासगादीण तेणतु विसेसो आयारदसा उइमो जेणेत्यं वण्हियायारो, दसकप्पववहारा एगसुतखंधे कइ इच्छंति / केइं च दसाएक कप्पववहारवीयं तुरयणा गरथाणीयं णवमं पुवंतु तस्सनीसंदो परिगालपरिस्सावो।। (जम्हा तेण भगवता आयरपकप्पा दसाकप्पव्यवहाराय नवमपुव्वनिसंदभूता निजूढा) तेनाऽसौपूजार्हः आयारपकप्प इति विधिः यस्मात्तत्रदशविध आचारोज्ञानदर्शनचारित्रतपो-वीर्याचारश्च प्रकल्पते // ख्याप्यते प्रज्ञाप्यत इत्यर्थः / इत्यत आचारप्रकल्पः दशाकल्पव्यवहाराणां पूर्वोक्तं निरुक्तं॥ पं. चू / / एते दशकप्पववहाराः किं कारणं / / निजूढाचरित्तसारिस्स, रक्खणट्ठाए खलियस्स। तेहिं सोहि किरति, तहो होति निरुपहतं / पं. भा.॥ चारित्र इति चारित्तरक्खणट्ठा गाहा पंचप्रकारं चारित्रं सामायिकाद्यमथाख्यातपर्यवसानं तस्य रक्षणार्थ भूतिः रक्षायाः परिपालनार्थमित्यर्थः / पंचू॥ सूयकडुवरिठवित्ता, जातपंचवासपरियायो।। सुयकडमहज्जतिनुत्तो, जोग्गो होतिसो तेसिं॥ सूत्रकृतांगस्योपरि व्यवस्थापित आह / किमर्थ सूत्रकृतां गस्योपरि व्यवस्थापित अधोवा न व्यवस्थापितः / उच्यते / सूत्रोपदेशादिति यस्माद् व्यवहारसूत्रे तृतीयोद्देशकेऽप्युक्तं त्रिवर्षपर्यायस्य कल्पते आचारप्रकल्प इति तथा व्यवहारस्सेव दशमोद्देशके सूत्रमस्ति त्रिवर्षपर्यायस्य कल्पते सूत्रकृतांगमुद्देष्टु एतदर्थ सूत्रकृतांगस्योपरि कृता इति किं कारणं तेण भगवता नवमाओ पुवाओ नीणीओ उच्यते पं.च॥ पं. भा.॥ अणुकंप्पा वोच्छेदो, कुसुमाभेरी तिगिच्छापारिच्छा। कप्पे परिसा य तहा, दिटुंता आदिसुत्तमि।।१।। ओसप्पिणीसवणाणं, हाणिं,णाउण आउगबलाणं। होहिं तु वग्गधं, करा पुटवगतं मि पहीणंमीशा खेतस्स य कालस्सय, परिहाणिं गहणधारणाणं च / बलविरिए संघयणे, सद्धाउच्छाहतो चेव / / 3 / / किं खेत्तं कालो वा, संकुयति जेण तेण परिहाणी। भण्णइन संकुयंति, परिहाणी तेसि तु गुणेहिं || मणियवहुसमाए, गामा होहंतित्तमसाणसामाइय। खेत्तगुणहाणि काले, विउहोतिमाहाणि समये ||1|| समयेणंता परिहा, यंते उवण्हमादीया। दवादीपज्जाया, अहोरत्तं तत्तीयं चेव / / 6 / / दुसमअम अण्णुभोवणं, साहुजोग्गा तु दुल्लमा खेत्ता कालेवि य दुमक्खा, अभिक्खणं होतिडमरायं / / 7 / / दूसमअणुभावेण यपरिहाणीहोति ओ सहवलाणं / तेणमणुआणं पि, तु आउगमे हादि परिहाणि | दारा संघयणं पिय हिय इतत्तोय हाणीय धितिबलस्य भवो विरियं सारिरबलं तंपिय परिहातिसत्तं च हायंति यसठ्ठाओ गहणे परियट्टणे यमणुयाणं उच्छाहो उज्जो गो अणालमत्तं च एगट्ठाइयणाउंपरिहाणि अणुग्गहट्ठाए एस साहुणं णिजूढणुकंपाए दिटुंतेहिं इमेहिं तु पगरणे चेडणुकंपादड्ड विदड्डेहिं होयगारीणं जहउमेवीयभत्त रण्हा दिण्डं जहण्णवयस्स एवं अप्पतच्चिय पुष्व गतं केइ मा हु मरिहिं तिन्नोउयरिऊण ततो हेट्ठाओ तारियं तेहिं। दारं / मायहु वोछिज्जीहिती चरणणुउगोत्ति तेण णिजूढं / वोच्छी-ण्हे बहुयं मी चरणाभावोभ विजाहि कहं पुण तेण गेहं तु दिएहाई तत्थीमो तु दिहतो जहकोई दुरारोहो सुसुरमिकुसुमो तु कप्पदुमो पुरिसा के ई असत्ता तं आरोहण कुसुमगहणट्ठा तेसिं अणुकंपमट्ठा कोइ ससत्तो समारझ्झ घेत्तुं कुसुमा सुहमहणहेतुगंगंथिउंदले तेसिं तह चोदसपुष्वतरु आरुढो / भद्दबाहू तु अणुकंपट्टा गुथितुं सुयगडस्सुप्परिं ववेवीरो। दारं / तं पुणतो वयेसेण वेव गहितं णसेच्छाये अह गहिए दोसो असाह गाहोंति नाणमाईणं के सवभेरीणि तं वक्खातं पुथ्वसामइए अहवा तिगीच्छ उ तुज णहियं वावी उसहं देखा तेहिं तुण क जसिद्धि विव रीयए भवति दाणं पारिच्छपरिच्छीतु यकप्पमादिदलं ति जोग्गस्स परिणामादीणं तुदारुगमांदिहीं णात्तेहि पारिच्छा आदिसुत्ते पुव्वं भणियातुजाउ विहिसुत्ते सेण धणादि परिसा पूरंताइ य मण्णिहिं परिसा। दारं / भणितं कप्पदारं / / कमेण हु इदाणिं किं पुण उक्कमकरणं बहुत्तट्वंत्ति नाउणं किं पुण कप्पज्झयणे वं निजइ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 300 अभिधानराजेन्द्रः भाग३ आयारपकप्प भन्नति सुणसुतावजे अभिविदितातु अच्छातहियंतेऊस-माणं। पं.भा.॥ उसप्पिणी समणाण | गाहा / जम्हा उसप्पिणी दोसेणं / परिहायंति साहूणं आउयं बलं बुद्धियएतन्निमित्तं उवग्गहकरा भविस्संति पुष्वगये परिहीणे किंच खे त्तस्स य कालस्सय / गाहा।। खेत्ते ताव उसप्पिणिं, चेव पडिचपरिहाणी। गहणधारणाणं, च तहा बलविरियं // बलं सारीरंवीरियं वीर्य व्यवसायो वा तहा संघयम सद्धा मेघा उयंच खेत्तदोसणयं परिहायंति। गाहा। अणुकंपा वोच्छेए उक्तं च सिद्धसेनक्षमाश्रमणगुरुभिः। पालाइणमुकंपा, संखडिकरणंमि गाहवोच्छेयं / मि पजुचाओ मेय पीय, भतंर ण्णीदिणंजणवयस्स कुसुमो / इति तवनियमनाण्णरुक्खंगाहा भेरीचंदणकंथाते इच्छित्ति पालगिलाण गाहा / तेण भगवता अणुकंपिएण मावो च्छिज्जीस्संतीति काठंदुरारोहमिवयादवं आरुह्य अप्पणा मालिताणि कुसुमाणि अवेसिंच दत्ताणि तवोदुवालसविहो णियमा इंदियनो इन्दियनियमनिग्रहः। निरोध इत्यर्थः इंदियनियमोसो इंदियविसयंपयानिरोहो वा सो इंदियपत्तेसुवा अत्थेसुरागदोसनिग्गहो जाव फार्सिदिय नो इंदिय अकुसल मणनिरोहो / वा कुसलमणओ ईरणं वा मणसो वा एगत्तिभावकरणं / कोहस्स उदय निरोहो वा उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं जाव लोभस्स। तपसा नियमेन ज्ञानेन च संप्रयुक्तो वृद्धः किंच सम्यगदर्शनचारित्रतपोनियमसंयमस्तं समवृद्धादेव तत्पुरुषः समासः / ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रात्मक एव वृद्धाः / ततस्तेन भगवता भद्रबाहुनापूर्वरत्नाकरश्रुतसमुद्रान्प्रयत्नेनाहृतः उत्धृतमित्यर्थः न तु स्वेच्छयातेनाऽसौश्रुतकर्ता ऋषिरित्यपदिश्येत ऋषिरित्ययं स्थायाजवेति ऋषिः यस्मादसौ भगवतामार्जवे सम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्रात्मके निर्वाणमार्गे व्यवस्थितः। इर्यादिभिश्च समितिभिर्युक्तः इत्युक्तो ऋषिः। सेपुण अप्पणो इच्छाए सुत्तं अत्थंवा करेइ तस्स सुत्ते चउलहु अत्थे चओ गुरू / आणाइ य विराहणादि हंतो वंदणभेरीय वासुदेवस्य असिवप्पसमए सा कृता कंथा पच्छा अहया नप्प समेइ एव सच्छंदविगाप्पिए सुत्तं मोखकस्स असावकं भवति पितिया पासत्थाउत्पत्ति वने यथा दोण्ह विभेरिणं कप्पव्ववहारा पुणपुरिसंपरिक्खि ऊण दिज्जति जहा आइसुए पुरिसा परिसा परियासे लघण कुडग गहा एवं सुसिस्सदिजंति॥ तत्रशैलघनछिद्रकुंढचालनीमसकमार्जारादयः अनर्हा हंसमे षजलूकजाहकादयो योग्याः। प. चू॥ आचारप्रकल्पश्च कस्मै उद्दिश्यते कस्मै नेति (उद्देस) शब्द।। आयार पकप्पोत्तिवा सपरियागस्स आरेण तंदिति निवास परियागस्स वि अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्सवान दिअति आयारपकप्पो पुण परिणामगस्स दिअति नीच, 1 उ.। एगविहकुसुमपुलो, वया रसरिया उकेइ अहिगा। सस्सवति भूमिभावित, गुणसति वप्पे पकप्पंडि / / 116|| अणेगजातिएहिं अणेगवण्णेहिं पुप्पावयारोकओविव ती दीसत्ति एवं सुतत्थ विकप्पिया अणेगविहा अधिकारा दट्ठव्वा कहं उच्यते एकप्पो सो केरिसो गुणस इव प्रतुल्लो वप्परूपकं इमंसस्ययस्यां भूमौविजते सासस्यवतीसस्ययुक्ताक्वचिच्छालि क्वचिदिक्षुः क्वचिजवा क्वचिद्बीहयः भावितो गुणेहिं जो सो भावितगुणः गुणगत इत्यर्थः / तवगुणा सतिमादि सती णामविशिष्टा समृद्धिनिरुपहतत्वं इतिवर्जितत्वंबहुफलं च एभिर्गुणैरुपपेतोवप्रः / इदाणिं उवण उवप्पो इव पकप्पो ण्णलिमादीणि वा उद्देसत्याधिका सस्यवृद्धिरिव अनेकार्थः निरुपहतमिवदोषविवर्जित इति वर्जितमिव पासत्थचरगादि सलेप वर्जिता बहुत्वमिति एहि कल्पवित्वसं-भवात्। इदृशैकप्रकल्पे अनेकार्थाधिकारा इत्यर्थः / / एवंपुण कप्पज्झयणं कस्सण दायव्वं केरीसगुणयुतस्सवा देयव्वं अतो भणति गाहा। भिण्णरहस्सवतार, निस्साकर एव मुकयोगी वा। छविहगति गुविलं मी, सो संसारे भगविदीहे ||417|| भिण्णरहस्सो णाम जो अववादपदे अण्णेसिं कप्पियाणं सीहत्ति णिस्साकरणामं यो किंचि अववादपदं लभित मुसलं पक्खिवइ / मुक्कयोगीणाम जेण मुक्को योगो णाणदंसणचरित्त तवणि-यमसंयमादिसु सो एस मुक्कयोगी। एरिसस्स जोदेति सो संसारे चउप्पगारे वा पंचप्पगारे वा छप्पगारे वा एव मादिगति गुविले गुविलोति गहणो धुण्णा वयतीति घोरा एरिसे संसारे भमिहिति दिहं कालं एरिसे सुण दायव्वा एएसिं पडिवक्खा जे ते सुदायव्वा / / ते य इमे गाहा॥ अरहस्स दारए पारय, य असष्टकरणे तुलोदमे समिते। कप्पाणु पालणादीवणा,य आराहणछिण्णसंसारो / 419/ अतीवरहस्संतंजोधरेति सो अइरहस्सधारगोजोतं अइरहस्सं एकं दो तिणि वादिणा धरेति ण तेणं अहिगारो जातं रहस्सधरणं जीवियकालं पारं णेति तेण अहिकारो असढकारणो णाम सव्वत्थादान जो अप्पाणं माया पढाति असढो हेऊणं कसिणं करेति तुलसमोणाम समभट्ठिता तुला जहा ण मग्गतोपुरओ वा णमति एवं जो राग दोसविमुक्को सो तुलासमो भणति। समितो णाम पंचहिं समितिहिं समिता ए गुणसंपओते परेतो एयं गुणसंपउत्ते यदि विणयकंप्पाणु पालणा कया भवति / अहवा एकप्पे जं जहा भणितं तस्स अणुपालना जो करेति तस्स देयो यकप्पाणुपालणा एय दीवणे कअण्णेसिं दिवियं दरिसियं गमियं एवं कायव्वमिति अह वा दीवणा जोअरिहाणं अणालस्से वक्खाणंण करेति तस्सेयं देयंति दीवणाए य मोक्खमम्गस्स आराहणा कता भवति / आराहणायेय चउगति गुविलो दीहसणवयग्गो छिण्णंमिय संसारे जंतं सिवमयलयमरुयमक्खयमव्वाबाहमपुणरावतयं ठाणं तं पावंति तं च एतो कम्मविमुक्को Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 381 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयारपकप्प सिद्धो भवति // नि चू, 20 उ० / / भ्रष्टाचारप्रकल्पाया निथ्याः प्रवर्तिनीत्वं गणावच्छेदिकात्वं च नोद्दिश्यते। तथा च व्यवहारसूत्रम्॥ णिग्गंथिस्स णवडहरतरुणगस्स आयारकप्पे नामं अज्झयणे परिभट्टे सिया से य पुच्छिवे केण केण कारणेणं अजो आयारकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया किं आबाहेणं उदाहु पमायेणं सेवएज्जा णो आबाहेणं पमायेणं जाव जीवाए तस्स तप्पतियं, णो कप्पति आयरियत्तं वा जाव गणावछेइयत्तं वा उदिसित्तएवा धारितए वासेयवएजा आवाहेणं णोपमाएणं से य संह विस्सामिति संठवेजा / एवं से कप्पति आयरित्तं वा जाव गणावछेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा तं सेयसवच्छेसा म्मित्ति णो संठवेजा एवं से णो कप्पति आयरियत्तं वा जावगणावच्छे इयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तएवा ||14|| णिग्गंथिएणं णवडहरस्सतरुणियाए आयारकप्पे नाम अज्झयणे परिभढे सिया साय पुच्छियव्या केण कारणेणं अजे आयारकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया किं आवाहेणं पमाएणं सायवएजा णो आवाहेणं पमाएणं जावजीवाए तीगसे तप्पतियं णोकप्पति यं पवितिणं वागणावच्छेइणितं वा उदि सित्तए वा धारित्तएण वा सायवदोज्जा आवाहेणं णोपमाएणं सायसंठवेस्सामितिसंववेजा। एवं से कप्पइपवत्तिणितं वा उद्दिसित्तएवाधारित्तए वासयं सहूं विस्सामिति णो संढवेज्जा / एवं सेनो कप्पति पवित्तिणित्तं वा गणावछेइणियत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तएवा||१५|| व्य.५ऊ।। (निगंथिएनवडहरतरुणाए) इत्यादिसूत्रार्द्धकं अस्यव्याख्या। निग्रंथ्या नवडहरतरुण्या वक्ष्यमाणस्वरूपाया आचार प्रकल्पोनामाध्ययनं परिभ्रष्ट स्यात् सा च प्रष्टव्या केन कारणेन आचारप्रकल्पो नामाध्ययन परिभ्रष्टमभवत् किमाबाधेन प्रमादेन वा एवं प्रष्टा सती सा यदीति गम्यते वदेत् नो आ बाधेन किं तु प्रमादेन तर्हि यावजीवतस्यास्तत्प्रत्ययं प्रमाद तोऽध्यय-ननाशनप्रत्ययं नो कल्पते प्रवर्तिनीत्वं वा गणावच्छेदिकात्वं उदेष्टुं नापि तस्याः स्वयं धारयितुं अथ सा वदेत् आबाधेन नष्टं न तु प्रमादेन सा च नष्टमध्येयनं संस्थापयामीत्युक्त्वा संस्थापयेत् एवं तर्हि (से) तस्याः कल्पते प्रवर्तिनीत्वं वागणावच्छेदिकात्वंवा उद्देष्टुमनुज्ञातुं स्वयं धारयितुमथ नष्टमध्ययन संस्थापयिष्यामीत्युक्त्वाऽपि न संस्थापयेत् एवं तर्हि (से) तस्याः न कल्पते प्रवर्तनीत्वं बा गणाबच्छेदिकात्वंवा उद्देष्टुं वा स्वयंवा धारयितुमिति एवं निग्रंथसूत्रमपि भावनीयं // (नवडहरतरुण) व्याख्यानं च प्रागुक्तमवसेयं (तेवरिसो होइ नवो) व्रतपर्यायेणेतिवाक्यशेषः आसोलसगंतुजन्मपर्यायेणेति गम्यते। डहरगं चेति (तरुणोवत्तासत्तरुणमज्झिमो थेरओ सेसो) आचार्यत्वं वा यावत्करणादुपाध्यायत्वं प्रवर्तित्वं स्थविरत्वं चेति परिग्रहःशेषं तथैव। अत्राह शिष्यः / पुरुषोत्तमो धर्म इति पूर्व निग्रंथसूत्रंवक्तव्यं पश्चान्निग्रंथिसूत्रं / पूर्वत्र वाऽध्ययनद्रये पूर्व निग्रंथसूत्राण्युक्तानि पश्चान्निग्रंथी सूत्राणि अत्र विपर्ययः कृतः / सूरिराह।। जइविय पुरिसादेतो, पुष्वंतहवियविष्वजओ जुत्तो। जिण समण्णि उपगया य, पमायबहुला य अथिरा य॥ यद्यपिच पुरुषोत्तमोधर्मः पूर्वत्रऽवाध्ययनद्वये पूर्वपुरुषा-देशस्तत्राप्यत्र विपर्ययो युक्तः केन कारणेनेत्याह। येन कारणेन श्रमण्यः प्रकृत्या तथा प्रायः श्रमण्यः प्रमादबहुला अस्थिराश्च न तु श्रमणा अध्ययनस्य चनाशः प्रायः प्रमाद स्ततः श्रम-ण्यधिकारादधिकृतसूत्रार्थस्थानत्वात् पूर्व निग्रंथ सूत्रमुक्तं पश्चान्निग्रंथसूत्र। नवडहरतरुणीनां व्याख्यानमाह। तेवरिसा होइन वा अट्ठारसिया डहरिया होइ। तरुणी खलु जा जुवइ, चउरो दसगा ववुत्तासा॥ व्रतपर्यायेण यावत्रिवर्षा तावद्भवतिनवा जन्मपर्यायेण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद्भवति। डहरिका तरुणी खलु तावदृष्टव्यायावत् युवतिः / अथवा / पूर्वोक्तास्तृतीयोद्देशके नवडहरतरुणिसूत्रे ये अभिहितास्तरुणचत्वारो दशकाश्चत्वारिंशद्विणिीत्यर्थः / तेऽत्रापि तरुण्या द्रष्टव्याः / 14 / 15| सा एव गुणोवेया, सुत्तत्थेहिं पकप्पमज्झयणं / सयहिंज्झिया इतो आ, वि आगया न वसु अण्णा / / सा नवडहरा तरुणी एतावद्गुणोपेता सूत्रार्थाभ्यां प्रकल्पनामकमध्ययनमधीता अधीतिनी। ततः सा प्रवर्तिनित्वस्य योग्या सूरिभिः संसाधिता। अथ चतस्याःसूत्रतोऽर्थतश्चाचारप्रकल्पः परिभ्रष्टः स कथं ज्ञात इत्याह / इतश्चापि आगता अन्यगच्छादन्या साध्वी उपसंपन्ना / सा विज्ञापयति। कथमित्याह / अत्थेण मेधाकप्पो, समाणितो न य जिनो महं मंतो। अमुगा मे संघाडं, ददंतु वुत्ता उसा गुरुणा॥ हे भदंत! भगवन् अर्येऽनार्थतो मम आचारप्रकल्पः समानी तो समाप्ति नीतः / रं न च न वै मम स जिनः परिचितोऽभूत् / ततोऽमुकायाः प्रवर्तिनीत्वेन संभावितां संघाट पूज्या ददतु ! एवं तया विज्ञप्तं गणिना आचार्येण सा उक्ता। आर्ये ! देहि (से) तस्याः संघाट।। सा दाउं आठत्ता, नवरं पणटुं न किंचि आगच्छे। एमेव मुणंति चिट्ठति, मुणिया य सा तीये। संघाटं दातुं प्रवृत्ता परावर्तयितुं व्याख्यातुं च प्रवृत्ता इत्यर्थः। न वरिष्ठ तदध्ययनं न किमप्यागच्छति केवलमेव मुण मुणन्ती अव्यक्तक्षरं किमपि ब्रुवंती तिष्ठति। ततः सा तथा मुणिता यथा न किमप्येतस्या आगच्छति // पुनरवि साहती गणिणो, सा नट्ठसुया दलाहमे अन्नं / अब्भक्खाणंपि सिया, वाहितुं होइमा पुच्छा। ततः सा पुनरपि गणिन आचार्यस्य कथयति / यथा नष्ट श्रुता तस्मान्ममान्यां सहायां ददतु / एवमुक्ते आचार्येण विचारयितव्यं / सत्यं / किं परिभ्रष्टं तस्या अध्ययनं किं वा Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 382 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपकप्प न को जानाति अभ्याक्यानमपि काचित्केनापि कारणेन प्रद्विष्टा सती दद्यात्ततस्तां व्याहृत्य तस्या इयं वक्ष्यमाणा पृच्छा कर्तव्या॥ तामेवाह / / दंडकगहनिक्खेवे, आवसियाए निसीहिया। गुरुणं च अप्पणामे य भणसु आरोवणा काउ। दंडकस्य प्रत्युपेक्षा प्रवर्जना व्यतिरेकेण ग्रहणे निक्षेपणे च तथा आवशिक्या नैषेधिक्याश्चाकरणे बहिः प्रदेशादागच्छ ता वसानः प्रवेशे नमः क्षमाश्रमणेभ्य इत्येवं गुरूणामप्रणा मा च प्रणामाकरणे च का आरोपणा प्रायश्चित्तं भवति॥ पुट्ठा अनिव्वहंति, किहिं नटुं वाहतो पमाएणं। साहेइपमारणं, सोय पमादो इमो होइ॥ सा एव पृष्टा सती यदि न निर्वहति न यथावस्थितमुत्तरं ददाति / तदा सा अनिर्वहंती भूयः प्रष्टव्या / कथं केन कारणेन ते नष्टमाचारप्रकल्पनामकमध्ययनं किमाबाधेन उत्त प्रमादेन / तत्र यदि सा कथयति प्रमादेन। स च प्रमादोऽयं वक्ष्यमाणो भवति। तमेवाह॥ धम्मकहनिमित्तादि, उपमातो तत्थ होइ नायव्वो। मलयवइगणसेणा, तरंगवझ्याओ धम्मकहा। तत्रतस्यां संयत्यां धर्मकथानिमित्तादिकः आदिशब्दात् ग्रहचरित्तादिपरिग्रहप्रमादो भवति ज्ञातव्यस्तत्र धर्मकथा मलयवतीमगधसेनातरंगवती। आदिशब्दात् वसुदेवहिंड्यादिपरिग्रहः / एतां कथामधीयानाया विस्मृतिगतं प्रकल्पनाम-कमध्ययनं / / ग्गहचरियविनमन्ता, चुण्णनिमित्तादिणा पमाएणं। नटुंमि संधयंती, असंधयंतीवमानलभो॥ गहचरित्तं ज्योतिष्कं / ससाधना विद्या / साधनरहितोमंत्रश्चूर्मो योगचूर्णः / निमित्तमतीतादिभावकथनमादिशब्दात् कुहु कशास्त्रादिपरिग्रह इत्यादिना प्रमाणेन इत्याद्यध्ययनलक्षणेन प्रमादेन नष्टे प्रकल्पे नाम्नि अध्ययने यदिभूयः सा तत्संदधाति। यदि वान संदधाति तथापि सा संदधति वा यावजीवं गणं न लभते। जावजीवं तु गणं, इमेहि नाएहि लोगसिद्धेहि / / अतिवालवेज जोहे, धणुगाईभग्गफलगोण ||शा यावजीवं गणं न लभते। एभिरजापालकवैद्ययो-धैर्लोकसिद्धतिस्तत्र योधे प्रमादाचरितं सम्यग्विदित धनु-रादिभिर्धनुर्भगं विभग्नं दृष्ट जीवाच्छिन्नविच्छिन्नाकांडा-न्यसज्जितानि। न केवलमेतैतिः। किन्तु भग्रफलकेन सटित-पतितमलयनवज्ञातेन।। तत्र प्रथममजापालकदृष्टान्तमाह।। खेलतेण उ अइया, पणासिया, जेण सो पुणो न लमे // सूलाधिरूपानट्ठा, विलहति एमेव उत्तरिए / / 1 / / कोइ अयवा लोवे, एण आयातो रक्खेइ तेण / / तएतावदृगदि,खेल्लणादिहिपमाएहि ||2|| नासियातोसो अण्णा, तो दवावितो भणइ पुणो॥ रक्खामिन परिसंकहामि, सो एवं भणंतो वि // 3 // जावजीवं अन्नत्थ, विनहति अहमुलं सेउट्ठियं जरोवा।। अतिआ उरो आगतो, ततोनट्ठाततोहो सो पुणा विलभते रक्खिा अक्षरगमनिका / येन खेलनावृत्तादिना क्रीडता अजिकाः प्रणाशिताः स पुनर्न लभते यावज्जीवमन्यत्राऽप्यजा रक्षितु मय शूलादिरुजा अत्रादिशब्दादत्यातुरज्वरादिपरिग्रहस्ता अजा नष्टास्ततः वैद्यज्ञानं भावयति॥ जति से सत्थं नटुं, पेच्छह पेसच्छ कोसगं गंत / / हीरति कलंकिएK, भोगो जूयादिदप्पेणं / / कोइ वेजोरपणे कयं वित्तीतोतेणं जयपमादेण विसयपमादेण विजसत्थं नासियं सत्थकोसगाणि पच्छणगादीणि किदृकलंकियाणि न निसीयइ / अण्णया रणं कजंजायं सहावितोविजोसो कि उवदेन किचि सकेइ वोतुं ततो रण्णा भणियं किमियं ततो सो भणइ मेपोत्थगाचोरेहि हिया पाडिपुच्छां पि नत्थितो मम नटुं वेजसत्यं नत्थि पुण मम अण्णोपमातो जेण वेज्जसत्थं नासियं ताहे रण्णा पुरिसा पेसिया॥ यदि (से) तस्य शास्त्र नष्टं तर्हि (से) तस्य यूयं गत्वा शास्त्रकौतुकं प्रेक्षध्वं हियते राज्ञः समयत। दृष्टानि राज्ञा समस्तानि प्रतक्षणकप्रभृतीनि शास्त्राणि किदृकलंकितानि ततस्तेषु कलंकितेषु दृष्टषु ज्ञातं यथा द्यूतादिदर्पण द्यूतादिना प्रमादेन विनाशितं वैद्यशास्त्रं ततो भोगच्छिन्नः पश्चादन्यत्र गत्वा वैद्यशास्त्रं पुनरप्युज्ज्वाल्य समागतो भूयोऽपि राज्ञः समीपे भोगान् याचते स च याचमानोऽपि न लभते एवं लोकोत्तरेऽप्युपनयभावना प्राग्वत्कर्तव्या। योधदृष्टांतभावनार्थमाह // वुटको जइ सरवेही, तहा विपलोएह से सरे गंतुं॥ अकलंककलंकं वा, भग्गमभग्गाणि य धणूणि ||2|| कोइ जोहो धणुव्वेयं, अहिज्जितो गुरुवएसेण // अन्भासेण य सो, अपासंतो विसद्देणं ||2|| विधंति रम्ना कयप भूय, वितिनो कतो अन्नया तेण / / विसयपमाएणतं, धणुटवेय सत्थं तं च / 3 / / अन्मासकरणं नासियं, अन्नया युद्धकजेसमावडिए। एन किञ्चि सकेइ, विधिउं पराजिणिउंशा वारण्णा पुच्छितो, किमेयंति सो भणइ / / नत्थि मे पमादो ताहे रण्णाभणियं / / यदिनाम प्रथमादाकरणत एकस्वरवेधी वुक्कोभुल्लस्तथापि (से) तस्य शरान् गत्वा प्रलोक यत् किं तत् शरजालमलंकं वा धनूष्यपि भग्नान्यभग्नानि वा द्रष्टं शरजालके कलंकितं धनूंषि च भग्नानि ततो ज्ञातं प्रमादतः सर्वं नष्टं कृतो वृत्तिव्यवच्छेदः सोऽन्यत्र गत्वा धनुर्वेदशास्त्रमुज्वाल्यकृताभ्यासःपुनरागतो वृत्तिं याचमानोऽपि यावज्जीवं नलभते एवं लोकोत्तरेऽप्युपनयः प्राग्वत्कर्तव्यः। फलकज्ञातमाह। फालहियस्सवि एवं, जइफलतो भग्ग लुग्गोतो // Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 383 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आयारपकप्प भोगोहीरति सव्वेसिं, पि य नभोगहारो भवेकज्जे ||2|| कोई अणेगवनप्पति, पत्तसागादिकलिए। फलए केणावि, निउत्तो सो विसयपमाएणं / / / जयपमाएण वा, न रक्खइ न य पाणिएणं / पालेंति सोय फलहो, लोगे णाणरूवे हि य / / 3 / / उल्लूडितो मुक्को, य न किंचि ततो वणफलादि। आगच्छइ, फलह सामिणा भणियं // 4 // किमयं सो भणइ, किं करेमि रकखेमि तावअहं। नत्थि मे पमादो, सतो फलहसामिणा फलहो गवेसावितो ||6|| तथाचाह (फालकिकस्य) फलकस्वामिन एवं पूर्वदृष्टान्तेषु राज्ञ इव फलगवेषणा चिन्ता जाता / यदि फलको भग्नलुग्नो भविष्यति ततोऽस्यभोगो हियेत गाथायां "वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्धे" तिवचनतो भविष्यति वर्तमानता कस्मात् हरिष्यते इत्याह कार्ये प्रयोजने समापतिते सर्वेषामपि कुटुंबजनानां भोगहारो न स्या-दिति हेतोः सूत्रगवेषणे कृते फलको भग्नलुग्नो दृष्टःभग्नो गोरूपादिभिर्विध्वंसनात् लुग्रो जलसेवनाकरणतस्ततस्तस्य वृत्तिश्छिन्ना ततो नाहं भूय एवं करिष्यामीति याचमानोऽपि यावजीवं न लभते वृत्तिमेवं लोकोत्तरेऽप्युपनयः कर्तव्यस्तेमवाह॥ एवं दप्पपणासिते,ण विदिति गणं पकप्पमज्झयणे / / आवाहेणं नासिए, गेलण्णादिण दलयंति|शा एवं पूर्वोक्तदृष्टान्तप्रकारेण दर्पतो धर्मकथाध्ययनतो व्याकरणाध्ययनतो निमित्तशास्वाद्यध्ययनतो वा इत्यर्थः। प्रणाशिते प्रकल्पनाम्न्यध्ययने यावज्जीवमाचार्यास्तस्या गणनदद ति-आबाधितग्लानत्वादिना पुनर्नाशितो भूयः प्रज्वालिते दलयंति प्रयच्छति / एतदेव सप्रपंच भावयति // गेलण्णे असिवे वाओ, मोयरिया य रायदुट्टे वा॥ एएहि नासियं मी, सन्धे मणिए दिति गणं ||1|| ग्लानत्वे वा जाते ग्लानप्रतिजागरणे वा कृते अशिवे वा समुपस्थिते अवमौदर्ये वादुर्भिक्षे जाते भिक्षापरिभ्रमणतो राजद्विष्ट वा पलायनतो वा यदि नष्टं प्रकल्पनामकमध्ययनं तत एतैः कारणै शितेऽपि पुनः सम्बन्धंत्या गणं ददति प्रयच्छंति! तदेवं निग्रंथीसूत्रं भावितमअधुना निर्ग्रन्थसूत्रं विभावयिषुराह।। एवमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तछन्दकहमादी। वीइयं गिलाणतो मे, अट्ठाणो चेव थूभेय / / एवमेव अनेन प्रकारेण साधूनामपि सूत्रं भावनीयं नवरं तत्र प्रमादो व्याकरणनिमित्तच्छदः कथाद्यधीयानस्य प्रतिपत्तव्यः // द्वितीयमाबाधलक्षणं कारणं सूतौ ग्लाने ग्लानप्रतिजागरणे वा अवमौदर्ये अशिवादिकारणतोऽध्वनि वा गमने स्तूपे वाद्रष्टव्यमियमत्र भावना। यदि व्याकरणाध्ययनतो निमित्त शास्त्राध्ययनतश्छन्दः शास्त्राध्ययनतो धर्मकथाध्ययनत आदिशब्दाद्विद्यामन्त्रादिव्याक्षेपतो यदि प्रकल्पाध्ययनं नाशितं तदा पश्चादुज्ज्वालितेऽपियावजीवं तस्मैगणं सूरयो न प्रयच्छंति अथ ग्लानत्वाद्याबाधतो नाशितं तदातस्मिन्पुनरुज्ज्यालिते प्रयच्छंति प्रमाददोषाभावात् तत्र ग्लानत्वाविषय आबाधः प्रतीतः / / सम्प्रति स्तूपविषयमाह॥ महुरा खमगाया, वणदेवयआउदृआणवेजत्ति / किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कजं / यूगत्ति तच भणिवि वा य च्छम्मास संघो को // सत्तोखमगस्सग्गा, कंपणखिंसणुक्का कयपडगा। मथुरायां नगर्याकोऽपि क्षपणक आतापयति यस्यातापनां दृष्ट्या देवता आवृता तमागतमागत्य वन्दित्वा ब्रूते यन्मयाकर्तव्यंतन्ममाज्ञापयेद्भवानिति / एवमुक्ते स क्षपकेण भण्यते / किं मम कार्यमसंयत्या भविष्यति। ततस्तस्या देवताया अप्रीतिकम-भूत् / अप्रतीतिवत्यचेतनयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति / ततो देवतया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितस्तत्र भिक्षवो रक्तपटा उपस्थिताः अयमस्मदीयःस्तूपस्तैः समं संघस्य षण्मा-सानविवादो जातस्ततः संघो ब्रूते। को नामात्राऽर्थे शक्तः केनापिकथितंयच्छा अमुकःक्षपकस्ततः संधेनसभण्यते क्षपक ! कायोत्सर्गेण देवतामाकंपय / ततःक्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम्। सा आगता ब्रूते। संदिशत किंकरोमि क्षपकेण भणिता तथा कुरुत यथा संघस्य जयो भवति ततो देवतया क्षपकस्य खिंसना कृता। यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्य जातं एवं खिसित्वा सा ब्रूते / यूयं राज्ञः समीपं गत्वा ब्रूत / यदि रक्तपटानां स्तूपः / ततः कल्पे रक्ता पताका दृश्यतां अथाऽस्माकं तर्हि शुक्ला पताका। राज्ञा प्रतिपन्नमेवं भवतु ततो राज्ञा प्रत्ययिकपुरुषैः स्तूपो रक्षापितो रात्रौ देव तया शुक्लपताका कृता।। प्रभाते दृष्टा स्तूपे शुक्ला पताका जितं सधेनव्य. सू०५ उ०॥ थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे णाम अज्ञायणे परिभवे सिया कप्पतिं तेसिं ठवेत्ताणं वा आयरियत्ते वा जावगणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तएवाधारित्त एवा।। व्य०५ उ.। व्या० स्थविराणांऽस्थविरभूमि प्राप्तानामाचार्यपदं प्राप्तानामाचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभृष्टं स्यात्कल्पते / तेषां सूत्रं सं स्थापयतामसंस्थापयतां वाचार्यत्वं वा यावत्करणादुपाध्यायत्वं वा इति परिग्रहः / गणावच्छेदकत्वमुद्देष्टुमनुज्ञातुंजीर्णमहत्वकरणतः सूत्रधरणशकनात् एष सूत्रसंक्षेपार्थः॥ सम्प्रति भाष्यविस्तरः। सुत्ते अणिते लहुगा, अत्थे अणिते धरेंति चउगुरुगा। सुत्तेण वायणा, अत्थे सोही तो दोहणुण्णाय॥ इदं सूत्रमापवादिकमुत्सर्गतः पुनः सूत्रे अनागच्छति यदि गणं धारयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। अर्थेऽनागच्छतियदिगणं धारयति चत्वारो गुरुकाः।आज्ञादयश्चदोषा-स्तस्मादुभयधारणगणोधारयितव्यः / किंकार णमत आह सूत्रेणगच्छता वाचनां ददाति / अर्थनागच्छता प्रायश्चित्त-स्थानमापन्नानां शोधिं करोति। तस्मात् द्वाभ्यामपि संपन्नो गणधारणेऽनुज्ञातः॥ अवियविणासुत्तेणं, ववहारे उअपञ्चतो होइ।। तेण उभयधरो ऊ, गणधारि सो अणुण्णातो ||| अपि च विना सूत्रेण व्यवहारे क्रियमाणे अप्रत्ययो भवति / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपकप्प 384 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपकप्प तस्माद्व्यवहारे अर्थनिर्देशं कुर्वता सूत्रमवश्यमुचारणीयं। यथा इदं सूत्रं | तस्मादयमेवात्र व्यवहारस्ततः प्रत्ययो भवति तेन स गणधारी उभयपरोऽनुज्ञातः॥ असती कजोगी पुम, अत्थेयं तं किमप्पतिधारेउं / / जुण्णमहल्लो सुत्तं, न तरति पचुक्यारेउं ॥शा उभयधरस्य असत्यभावे यः कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधर आसीत्। तदानीं सोऽर्थे समागच्छति गणं धारयितुं कल्पते। अथ केन कारणेन तस्य सूत्रमानशत् अत आह! (जुण्णं महल्लो) इत्यादि जीर्णो नामैको नो महान् यस्तरुणक एव सन् जरसा परिणतो जातः नो जीर्णो महानिति द्वितीयः। यो बृद्धोऽपि सन् दृढशरीरः जीर्णोऽपिच तृतीयः।नो जीर्णो नो महानिति चतुर्थः / एष शून्यशेषाणां तु त्रयाणामेकतरो न शक्नोति प्रत्युज्ज्वालयितुमतः सूत्रं तस्य नश्यति।। उभयधरंमि उ सीसे, विजंते धारणा उ इच्छाए। मा परिभवनयाणं वा, गच्छेवअणिच्छमाणंमि ||1|| उभयधरे सूत्रार्थधरे शिष्ये विद्यमाने स्वयं गणस्यधारणा इच्छया स्वयं वा गणं धारयति तस्य वा शिष्यस्योभयधरस्य ददाति सह गणस्य शिष्यस्य वा भावं जानाति। यदि शिष्यस्य गणं दास्यामि तत एते मम परिभवं करिष्यति / अथवा मांत्यक्त्वा गच्छमादाय गमिष्यन्ति / यदि वा तमुभयधरं गणधरे स्थाप्यमानं गणो नेच्छति। ततो मा परिभवमेतेऽकार्पुर्नयनं वा मां त्यक्त्वाऽन्यत्र गच्छस्याकार्षुरिति हेतोरनिच्छति वागणे तस्य गणं न ददाति। किन्तुस्वयंधारयतितत्रसूत्रं तेनोभयधरेण शिष्येण वाचयत्यर्थमात्मना ददाति।प्रागुक्तदोषाभावेतस्य गणं समर्पयति। थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आचारपकप्पे णाम अज्झयणे परिभवे सिया कप्पत्ति तेसिं सणिसणाण कायासे ल्लियाण वा उत्ताणेण वा तुयट्ठाण वा आयारपकप्पे णाम अज्झयणे दोबपि तचंपि पडिच्छित्तए वा परिसारेत्तए वा||१८० व्य. सू.५ उ / / (थेराणं थरे भूमिपत्ताण) मित्यादि स्थविराणां स्थविरभूमि प्राप्तानामाचारप्रकल्पो नामाध्ययनं परिभ्रष्टं स्यात् कल्पते तेषां सन्निषण्णानां व निषद्यागतानां (संतुयदृणे वेति) सम्यक्त्ववर्तनेन स्थितानां उत्तानानां वा (पासिल्लयाणवत्ति) पार्श्वतः तिष्ठतां वा आचारप्रकल्पनामकमध्ययनं द्वितीयमपि तृतीयमपि अपिशब्दात् चतुर्थमपि वारं प्रत्येष्टु वा प्रतिसारयितुं वा अवमरत्नाधिकः प्रतिसारयति स्थविराः प्रतीच्छंति एष सूत्रसंक्षेपार्थः / / अधुना भाष्यविस्तरः। एमेव विइयसुत्तं, कारणियं सति बलेन हावेत्ति। जंजत्थउ कितिकम्म, निहाणसमओ मराइणिए / यथा प्राक्तनं सूत्रं कारणिकमेवमेवेदमपि सूत्रं कारणिक सूत्रं प्रत्युज्ज्वालयन् सति बले विनयं न हापयति / अथ कोऽसो विनयो यस्तेन सूत्रप्रत्युज्ज्वालयता सति बलेन हातव्य इत्यतआह (जजत्थउ) इत्यादि यत्कृतिकर्म वन्दन कं यत्र सूत्रे अर्थेवाऽधिकृतं तत्रावमरत्नाधिके निधानसमे सूत्रमर्थं च प्र-त्युज्वालयता तत्न हापयितव्यं / निधानसमे इति वदता निधाने दृष्टान्तः सूचितः। स चैवं / यथा महति क्षुल्लके वा निधाने उत्खनितव्ये तस्य तदनुरूपमुपचारमुतखानको यदि करोति ततस्तमुत्खनितुं शक्नोति अथ न करोति तदनुपमुपचार तर्हि वृश्चिकाद्युपद्रवतो न शनति एवं यदि स रत्नाधिकेऽवमरत्नाधिके वा सूत्रमर्थ वा प्रत्युज्ज्वालयन् अपूर्व वा पठन् तदनुरूपं विनयं न करोति तदा निर्जरालाभस्तस्य नोपजायते / नच शास्त्रं स्थिरपरिचितं भवति विभंग वा तस्य ज्ञान विभ्रं शितया प्रान्त-देवता कुर्यात्कलहं। एतदेवाभिधित्सुःप्रथमतः प्रायश्चित्तमाह // सुत्तंमिय चउलहुगा, अत्यंमि यचऊगुरुंच गच्छेण / कित्तिकम्ममकुव्वंतो, पावति थेरोस विबलंमि / / स्थविरः प्रत्युजवालयन्नपूर्वं पठन्वा सति बले यदि गर्वेण कृति कर्मन करोति तर्हि तदकुर्वन् सूत्रे सूत्रविषये चतुरो लघुकान्प्राप्नोति अर्थे चतुर्गुरुकं॥ उवयारहीणमफलं.होइ निहाणं करेइ वाणत्थं / इयनिजरा य लाभो, न होई विभंगफलहो वा॥ यथा उपचारहीनं निधानमफलं भवति नोत्खनितुं शक्यते इति भावः। अनर्थवा करोति वृश्चिकाद्युपद्रवकारणात् इति एवमनेनैव दृष्टान्तप्रकारेण कृति ककिरणे निर्जराया लाभो न भवति प्रान्तदेवताकोपवशाद्विभागो वा तस्योपजायेत कलहो वा / / दूरत्थो वा पुच्छह, अहवनिसलाय सनिसन्नो उ। अचासन्ननिविट्व, हिए य चउभंगो वोचत्थो। अंजलिपमाण अकरणं, विप्पक्खंते दिसाहो उडमुहे। भासंतणुवउत्ते, वहसंते पुष्वमाणो उ॥ एएसु सत्तेसु वि, सुत्ते लहुतो उ अत्थे गुरुमासो। नाभीतोवरिलहुगा, गुरुगमहो कोय कन्दुयाण / / दूरस्थितो वा पृच्छति अथवा निषद्यायां सन्निषण्णः पृच्छतिशृणोतीति भावार्थः / यदि वा अत्यासन्न ऊरुणा ऊरु संघृष्य शृणोति निविष्टोत्थिते चतुर्भगी बोद्धव्या। सा चैवं निविष्टोवा निविष्टं पृच्छति निविष्ट उत्थितं पृच्छति 2 उत्थितो निविष्टं पृच्छति 3 उत्थित उत्थितं पृच्छति 4 यथा अंजलेर-करणमर्थपरिसमाप्तौ प्रणामस्याऽकरण तथा दिशो विप्रेक्षमाणः पृच्छतिश्यदिवाऽधोमुख ऊर्ध्वमुखो वा शृणेति न गुर्वभिमुखः२ अथवा येन तेन वा सह भाषमाणः शृणोति अनुप्रयुक्तो 3 वा शृणोति हसन्वा पृच्छति एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु सूत्रे श्रूयमाणे प्रायश्चित्त लघुको मासः अर्थे गुरुमासः तथानामित उपरि सूत्रं शृण्वतः कायम्डूकयने चत्वारो लघुकाः / अर्थ शृण्वतश्चत्वारो गुरुकाः / नाभितोऽधस्तात् सूत्रश्रवणे कायकण्डूयने चत्वारो-गुरुकाः। नवरं तपःकाल-योरन्यतरेण गुरुकाः। तहा वजं तेणं, ठाणाणे याणि पंजलुखुडुणा। सोप्पय्वए यत्तेणं कित्तिकम्मं वावि कायव्वं / / यस्मादेवमविनयकरमे प्रायश्चित्त विधि स्तस्मार्दतानिप्रागनन्तरमुपदर्शितानि वर्जयित्वा प्रांजलिना प्रकृतोजलिना-उत्कुडु केन प्रयत्नेनादरपरतया श्रोतव्यं / कृतिकर्म वापि वंदन कं कर्तव्यं / यद्यपि वंदनकेनोपस्थितं वाचनाचार्योऽनुजानाति तथापि क्षमाश्रमणं दत्वा कृतप्रांजलिना श्रोतव्यं। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयारपकप्पधर 385 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आयारपणिहि - तेणविधारेयवं, पच्छाविय उट्टिएण मंडलितो। वेदुट्ठ निवण्णस्सव, सारेयव्वं हवति मओ // तेनापि श्रोत्रवत् व्याख्यानमंडल्या, वा श्रुतं तत् मंडलीत उत्थितेन पश्चादपि धारयितव्यम्। तस्य च धारयत उपविष्टस्य ऊवं स्थितस्य निष्पन्नस्य वा क्वचित् स्खलने तेनापि वाचनाचार्येण भूयो भवति स्मारयितव्यं गमयितव्यम्। अह से रागो न होज, ताहे भासंत एगपासंमि। सन्निसनो तु पो वा, अत्थइ अणुग्ग हपव्वत्तो। अथ(से) तस्य स्थविरस्य रागो न भवेत्तर्हि व्याख्यानमंडल्या उत्थितो भाषमाणस्य अनुभाषमाणस्य चिन्तापयत इत्यर्थः / एकपाचे तत्सेवाबुद्ध्या सन्निषण्णः सम्यनिषद्यागतस्त्वगवर्तितो वा भाषमाणस्याऽनुग्रहप्रवृत्तस्तिष्ठति / पर आह। थेरस्य किंतूप, हेणं किलेसकरणेण / भण्णइ एगनुवयोग, सद्धजणं णा च तरुणाणं / अथ तस्य स्थविरस्य जीर्णमहतः किमेतावन्मात्रेण क्लेश-करणेन। सुरिराह / भण्यते अत्रोत्तरं दीयते / एवमाचरतस्तस्य सूत्रार्थाभ्यां सह एकत्वोपयोगोपयुक्तस्य तु सुत्रार्थः सम्यग्लगति। तथा तरुणानां च श्रद्धाजननं कृतं भवति / तथाहि / व्याख्या-नमंडल्या उत्थितमपि निजमाचार्य जीर्णं महान्तमेषं विनयं कुर्वन्तं दृष्ट्वा चिन्तयंति। यद्युष्माकमाचार्यों जीर्णो महानप्येवं श्रुतस्य विनयं करोति ततोऽस्माभिस्तरुणैः सुतरां कर्तव्यः आह शिष्यः / यथा जीर्णमहत आचार्यस्याऽनुग्रहः क्रियते / यथाऽनुभाषमाणस्य एकपाचे सन्निषण्णस्त्वग्वर्तितो वा तिष्ठतु एवमन्यस्यापि क्रियते इति ब्रूमस्तथा चाह। सो उगणी अगणी वा, अणुभासं तस्स सुणति पासंमि। न वइ जुण्णदेहो, होडं बद्धासणो सुचिरम्॥ सजीर्णो महान् गणी आचार्य उपाध्यायो गणावच्छेदको वा अगणी वा अन्यो यः स्थाननियुक्तः सोऽनुभाषमाणस्य चिन्तापयतु एकस्मिन्पार्थे सन्निसण्णस्त्वगवर्तितो वा शृणोति यतो न शक्रोति जीर्णदेहो बद्धासनो भवितुं सुचिरं कालमिति॥ व्या. उ० 50 // आयारपकप्पधर-पुं. (आचारप्रकल्पधर) निशीथाध्ययनधा-रिणि,। ग०१ अधि। निशीथाध्ययनसूत्रार्थधरे, च व्यउ.३। पं० चू!। तिविहाय पकप्पधरा सुत्ते अत्थे य तदुभये चेव।। आयारपकप्पधरो, कप्पववहारधारओ अज्जो व्यः। णयसुत्तवन्जिओविहु, गयणं परियदि अणुराहातो। पं.चू। आयारपकप्पधरोगाहा। आचारणमाचारः क्रिया इत्यर्छः सचाटप्रकारः पंचसमितयो गुप्तित्रयं एष चारित्राचार आचारप्रकल्पधरो नाम निशीथेषु सूत्रार्थधर इत्यर्थः / किञ्चकल्प-व्यवहारधरश्च (अज्जोत्ति) आमन्त्रणे निर्देशे वा (नयवजिउत्ति) नयन्तीति नयाः हुपादपूरणे दुक्खक्खयकार ओ जम्हा एएण गणपरियदि अणुएहाओ आह कहमनुज्ञातः। पच्छित्तकरणअणुपालणा, य भणिता ओ कप्पववहारे। एतेण अत्थधारी, गणधारी जो चरणधारी। अजोतिआमंतणाणिदेसे, वाणयस्स सुत्ताई। जाति तु दिहिवाते, पच्छित्तं दिखते तहतु। तेहिं विणा विजाणति, आयारपकप्पवारओ जम्हा। तम्हा तु अणुण्हातो, गणपरिवदितु सो णियमा। पायच्छित्तं जम्हा, पायच्छित्तकरणं अणुपालयंति तहा गणे अणुपालीजइ तंपकप्प पकप्पववारेसु भणियं एएण सत्थदारी जो सो गणपरियदी अणुएहाओ चरणजुत्तो जइ भवइ गाहा पं० भा.चू॥ करणाणुपालपयालं तु, पज्जवकसिणं समासतो णाणं करणाणुपालणदुत्तं, पज्जवकसिणं भवे तिविहं। दुत्तिपण च्छक्ककणयं, तरेसु सोलस हवंति ठाणाई / करणट्ठाणपसत्था, करणट्ठाणाओअपसत्था। एयाइं ठाणाई,दोहि विगाहाहि जाई भणित्ताई। तेसिं परूवणमिणमो, समासतो होति बोधव्वा। करणं तु किया होति, पढिलेहण मादिसामायारी तु॥ तं पालेजतु णाणे, णतं च दुविहं मुणेयव्वं / दारं। पनवकसिणसमासो, पज्जवकसणं तु चोद्दस पुव्वा। सामाइयं पकप्पो, होति समासो मुणेयव्यो। पज्जवकसिणंतिविहं, सुत्ते अत्थे य तदुभये चेव / पं. मा० / / करणाणुपालयाणं तं दुविहं पज्जवकसिणं समासतश्च पज्जवकसिणं नाम चोद्दसपुव्वाणि समासओ आयारपकप्पोसमासः संक्षेप इत्यर्थः / यथा समुद्रभूतस्तडागः चन्द्रमुखीदेवता सिं हो माणवकः एकदेशेनाप्यौपम्यं क्रियते। चतुर्दशपूर्वधरः सर्वपर्यायेषु सूत्रार्थेषु चरणकरणादयः पदार्थाः सर्व पर्यायेषु सूत्रार्थेषु चरणकरणादयः पदार्थाः प्रज्ञापयितुं समर्थाः / आचारकल्पधरस्त्वेकदेशतः। (दोण्हविचरणकरणं अणुपाले उसमत्था) तेनैकदेशाभिज्ञत्वं प्रतीत्य यथा समासतोऽप्यर्थधरः कल्पव्यवहारादयो गणपरिपालण समर्था भवंतिपज्ज वकसिणं तिविहं सुत्ते अत्थेतदुभएय॥ पं.चू आयारपकप्पिय-पुं०(आचारप्रकल्पिक) आचारप्रकल्पाऽभिधानाध्ययनधारिणि, (आयारपकप्पितो जोग्गो) व्य. उ०५। आयारपढमसुत्त-न (आचारप्रथमसूत्र)"सुयंमि आउसं तेणं भगवया एवमक्खाय" मित्येवं रूपे आचाराभिधानप्रथमांगा दिवाक्ये, पंचा० एसाय परा आणा, पयडाजं गुरुकूलं ण मोत्तव्वं / आयारपढमसुत्ते, एतोचियदंसियं पयं ॥शा आयारपण्णत्तिधर--पुं. (आचारप्रज्ञप्तिधर) आचारधरे, प्रज्ञप्तिधरे, च। आयारपण्णत्तिधरं, दिट्ठीवाय महिज्जगं। चइविक्खलियं नचा, नतं उवहसे मुणी 114011 सूत्रं व्या। आचारप्रज्ञप्तिघरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवं भूतमिति दश० अ०८ आयारपणिहि पुं. (आचारप्रणिधि) आचारप्रणिधाने तत्प्रतिपादके दशवैकालिकस्य स्वनामख्यातेऽष्टमेऽध्ययने, च। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिहि 386 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयारपणिहि तथा च दशवैकालिके॥ व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनमिदानीमाचारप्रणिधानाख्य मारभते / अस्य चाऽयमभिसम्बन्धः / इहानतराध्ययने साधुना वचनदोषगुणाभिशेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्ये तदुक्तं इह तु तुं निरवद्य वच आचारे प्रणिहितस्य भवतीति। तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुच्यते। उक्तं च // पणिहाणरहिअस्सेह, निरवजं पि भासियं / सावज्जतुल्लं विनेयं, अज्झूत्थेणेहसम्बुडं // इत्यनेनाभिसम्बन्धेनायातमिदमध्ययनं अस्य चाऽनुयो द्वारो-पन्यासः पूर्वक्त्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षेपस्तत्र चा चार-प्रणिधिरिति द्विपदं नाम // साम्प्रतं सूत्राऽलापकनिष्पन्नस्याऽवसर इत्यादि वचः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्राऽनुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयंतचेदं। आयारपणिहिं लद्धं, जहा कायव्व भिक्खुणा। तम्भे उदाहरिस्सामि, आणुपुट्विं सुणेह मे ॥शा अस्य व्याख्या। आचारप्रणिधिमुक्तलक्षणं लब्ध्वा प्राप्य येन प्रकारेण कर्तव्यं विहिताऽनुष्ठानं भिक्षुणा साधुना तं प्रकारं तेन भवद्भ्य उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि / आनुपूर्व्या परिपाट्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः / / तं प्रकारमाह।। पुढविदगअगणिमारुय, तणरुरकस्स बीयगा। त्तस्सा य पामा जीवंति, इह वुत्तं महेसिणा |2|| व्याख्या। पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसबीजा एते पञ्चकेन्द्रियकायाः पूर्ववत् त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षिणा वर्द्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः॥ तेसिं अत्थणजोएणं, निचं हो अव्वयं सिया। मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए / / 3 / / यतश्चैवमतस्तेषां पृथिव्यादीनामक्षणयोगेनाहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यं वर्तितव्यं स्याद्भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्ये न त्रिभिः कारणैरित्यर्थः / एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संयतो नान्यच्छेति सूत्रार्थः। एवं सामान्येन षड्जीवनिकायहिंसया संयतत्वमभिधायाधुना तद्गतविधिंविधानतो विशेषेणाऽऽह // पुढविं भित्तिं सिलिं लेलु, नेवमिदं न संलिह / / तिविहेण करणजोएण, संजए सुसमाहिए ||1|| व्या०॥ पृथिवीं शुद्धां भित्तिं तटीं शिला पाषाणात्मिकां लेष्ठ, मिट्टालखंड नैव भिंद्यात् न संलिखेत् / तत्र भेदनं द्वैधीभावोत्पादनं संलेखनमीषल्लेकनं त्रिविधेन त्रिकरणयोगेन न करोति मनसेत्यादिना संयतस्साधुस्सुसमाहितः शुद्धभाव इति गाथार्थः / / सुद्धपुढविंन निसीए, ससरक्खंमिअ आसणे॥ पम जित्तु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं / / 5 / / शुद्धपृथिव्यामशत्रोपहतायामनन्तरितायां न निषीदेत् / तथा रजस्के | वा पृथिवीरजोवगुण्डिते वा आसने पीठिकादौ न निषी-देत् / निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः / अचेतनायां तु प्रमृज्य तां / रजोहरणेन निषीदेत् ज्ञात्वेत्यचेतना ज्ञात्वा याचयित्वाऽवग्रहमिति यस्य सबन्धिनी पृथिवी तमनु-ग्रहमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः / / उक्तः पृथिवीकायविधिरप्कायविधिमाह। सीओदगं नसेविजा, सिलावुलु हिमाणि अ॥ उसिणोदगं तत्तफासुअंपडिगाहिज संजए||६|| शीतोदकं पृथिव्युद्भवसचित्तोदकं न सेवेता तथा शिलावृष्टं हिमानिचन सेवेत / तत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते / वृष्ट वर्षणं / हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति यद्येवं कथमयं वर्तेतेत्याह उष्णोदकं क्वथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदण्डोद्धृतमुष्णोदकमात्रं प्रतिगृण्हीयादृत्यर्थ संयतस्साधुः / एतच सौवीराद्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः / तथा॥ उदउल्लं अप्पणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे / / समुप्पेह तहा भूअं, नो णं संघट्टए मुणी / / 7 / / नदीमुत्तीर्णो भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकामुदकबिंदु-चितमात्मनः कायं शरीरं स्निग्धं वा नैव पुञ्छयेत् / वस्त्रतृणादिभिर्नव संलिखेत् / पाणिना अपि तु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथा भूतमुदकादिरूपं नैवं कार्य संघट्टयेत् मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः / उक्तो ऽप्कायविधिस्तेजस्कायविधिमाह / / अंगालं अगणि अचिं, अलायं वा सजोइ।। उंजिज्जा न घट्टिजा, नो णं निव्वावए मुणी / / 8 / / अंगारं ज्वालारहितं अग्रि मयः पिण्डानुगतमर्चिश्छिन्नज्वालंअलातचोल्मुकंवा सज्योतिस्साग्निकमित्यर्थः / किमि-त्याहा नोत्सिचेत् न घट्टयेत् तत्रों जनमुत्सेचनं प्रदीपादेर्घट्टनं मिथश्चालन तथा नैनमग्न निर्वापयेत् अभावमापादयेन्मुनि-स्साधुरितिसूत्रार्थः / / प्रतिपादितस्तेजस्कायविधिर्वायुकायविधिमाह // तालविंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा। नवीइज्ज अप्पणोकायं,बाहिरं वावि पुग्गले ||1|| तालवृंतेन व्यजनविशेषेण पत्त्रेण पद्मिनीपत्रादिना शाखयावृक्षडालरूपया विधूननेन वा / किमित्याह / न वीजयेत् आत्मनः कायं स्वशरीरमित्यर्थः / बाह्य वाऽपि पुद्गल-मुष्णोदकादीति सूत्रार्थः / / प्रतिपादितो वायुकायविधिर्वनस्पतिकायविधिमाह / / तणरुक्खं न छिंदिजा, फलं मूलं च कस्सई। आमगं विविहं बीअं,मणसावि व पत्थए / / 10 / / तृणवृक्षमित्येकवद्भावः तृणानि दर्भादीनि वृक्षाः कदम्बादयः एतान्न छिंद्यात्। फलं मूलं वा कस्यचिद्वृक्षादेर्नछिंद्यात्। तथा आगमशास्त्रोपहतं विधमनेकप्रकारं बीजं मनसाऽपि न प्रार्थयेत् किमुताश्रीयादिति सूत्रार्थः॥ तथा। गहणेसुन चिट्ठिज्जा, बीएसु हरिएसु वा। उदगंमितहा निचं, उत्तिंगपमगेसु वा ||1|| गहनेषु वननिकु जेषु न तिष्ठेत् संघट्टनादि दोषप्रसङ्गात्तथा बीजेषु प्रसारिताशाल्यादिषु हरितेषु वा दूर्वादिषु न तिष्ठेत् / उदके तथा नित्यं अत्रोदक मनन्तवनस्पतिविशेषः / यथोक्तं "उदए अवए पणए" इत्यादि। उदक मेवान्ये / तत्र नियमतो Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिहि 387 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 अयारवञ्जिय वनस्पतिभावात्। उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठन्। तत्रोत्तिङ्गःसर्पछत्रादिः। / विद्यावनित्यर्थः। अममःसर्वत्रममत्वरहितः। अकिञ्चनो द्रव्यभावकिश्चनपनक उल्लिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः।। रहितो विराजते शोभते / कर्मघने ज्ञाना-वरणीयादिकर्ममधे अपगते उक्तो वनस्पतिकायविधिस्त्रसकायविधिमाह / / सति। निदर्शनमाह। कृत्स्नाभ्रपुटा-पगम इव चन्द्रमा इति। यथा कृत्स्ने वाभ्रपुटे गते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपेतकर्मधनः तसे पाणे न हिंसेज्जा, वाया अदुव कंमुणा / / समासादितकेवलालोको विराजते इति सूत्रार्थः। दश०८ अ॥ उवर ओ सव्व भूएस, पासेज विविहं जगं / / 12 / / आयारपत्त-त्रि. (आचारप्राप्त) ब्रह्मव्रताद्याचाराऽपन्ने, तथाच असप्राणिनो द्वीन्द्रियादीन् न हिंस्यात् / कथमित्याह / वाचाऽथवा तण्डुलवैकालिके। स्त्रियोऽधिकृत्य (दूषणं आयारपत्ताणं दूषणं कलंकः कर्मणा कायेन मनसस्तदर्तगतत्वाद्ग्रहणं / अपि चोपरतः सर्वभूतेषु केषां आचारप्राप्तानां ब्रह्मव्रताद्याचारापद्मानामिति ! तं० / / निक्षिप्तदण्डस्सन् पश्येद्विविधं जगत्कर्मापरतंत्रं नरकादिगतिरूपं आयारपरकम-पुं. (आचारपराक्रम) आचारे ज्ञानादौ पराक्रमः प्रवृत्तिबलं निर्वेदायेति सूत्रार्थः॥ यस्य स आचारपराक्रमः। ज्ञानाद्याचारप्रवृत्तिबलो-पेते, दश चू०२।। उक्तः स्थूलविधिस्सूक्ष्मविधि माह॥ तम्हत्ति सूत्रं॥ अट्ठ सुहमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए। तम्हा आयारपरकमेणं, सम्वरसमाहि बहुलेणं / / दयाहिगारी भूएसु, आसचिट्ठ स एहिवा / / 13 / / चरिया गुणा य निअमा, होति साहुणदहव्या / / / अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्षोपयोगतः आसीत् / तिष्ठेच्छयीत च्या, यस्मादेतदेवमनंतरोदितं तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे वेतियोगः / किं विशिष्टानीत्याह / यानि ज्ञात्वा संयतो ज्ञपरिज्ञया ज्ञानादौपराक्रमः प्रवत्त्विलं यस्यसतथा विध इतिगमक-त्वादहुव्रीहिः / प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषुभवत्यन्यथा दयाधि कार्येव तेनैवभूतेन साधुना संवरसमाधिबहुलेनेति संवर इंद्रियविषये नेति तानि प्रेक्ष्य तद्रहितः एवाऽसनादीनि कुदिन्यथा तेषां समाधिरनाकुलत्वं बहुलं प्रभूतं यस्य स तथाविध इति समासः पूर्ववत् सातिचारतेति सूत्रार्थः॥दश०८ अ॥ तेनैवं विधेन सता अप्रतिपाताय विशुद्धये च किमित्याह / चर्या आचारप्रणिधिफलमाह // भिक्षुभावनसाधनी बाह्या अनियतवासादिरूपा गुणाश्च मूलगुणोत्तरतवं चिमं संजमजोगयं च, सज्झायजोगं च सया अहिहिए। गुणरूपा नियमाश्चोत्तरगुणानमेवपिंड विशुद्ध्या दीनांस्वकालासेवनसूरेव सेणा एसमत्ताउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं६२ वियोगा भवंति। साधूनां द्रष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवंति / सूत्रव्याख्या / तपश्चेदमशनदिरूपं साधुलोकं प्रतीतं संयम योगं च सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणा-रूपेणेति सूत्रार्थः।। प्रथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च स्वाध्याय योगं च वाचनादिव्यापार आयारभंडग-न. (आचारभंडक) पात्रपटलरजोहरणादिके,। सदा सर्वकालं अधिष्ठाता तपः प्रभृतीनां कर्तेत्यर्थः / इह च सव्वोवगरणमाया य साहू आयारभंडगेण समं आचारभं डंक यात्रम् तपोभिधानात्तद्ग्रहणेऽपि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ ओघा भेदाभिधान मिति / स एवं भूतः शूर इव विक्रान्तः भट इव सेनया आयारभंडसेवि(न)-पु. (आचारभाण्डसेविन्) आचारःशास्त्र-विहितो चतुरंगरूपया इन्द्रियकषायादिरूपया निरुद्धः सन् समाप्तायुधः व्यवहारस्तेन भाण्डमुपकरणमाचारभाण्डम् तत्सेवितुं शीलं यस्य स संपूर्णतपःप्रभृतिखड्गाद्यायुध अल-मित्यर्थ मात्मनो भवति संरक्षणाय आचारभाण्डसेवी। शास्त्रविहितव्यवहारेणोपकरणसेविनि, अणायारअलंच परेषां निराकरणयेति सूत्रार्थः।। भंडसेवी जन्ममरणाणुबन्धाणि आतु.॥ तदेव स्पष्टयन्नाह!| आयरमन्तर-न. (आचारान्तर) ज्ञानादिके आचारविशेषे, आचारसज्झाय सज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स। व्यवधाने, च (आयारमन्तरेण विण्णयमन्तरे सेहिओ) पा० / / विसुज्झइ जसिमलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व आयारमन्तरेति आचारान्तरे क्वचित् ज्ञानाचाराविशेष विषय भूते जोइणा ||63 // आचारव्यवधानेवासतिज्ञानादिक्रियाया अकरणे सतीति भावः / पा. टी. सूत्र व्याख्या. स्वाध्याय एव सद्ध्यानं स्वाध्यायसद्ध्यानं तत्र रतस्य आयारमट्ठ-त्रि. (आचारार्थ) ज्ञानाद्याचारनिमित्ते, (आयार-मट्ठाविण यं सक्तस्य त्रातुः स्वपरोभयत्राणशीलस्य अपापभावस्य लब्ध्याद्यपेक्षा- पउंजे) दश अ०९ उ.३ आचारार्थ ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयमुक्तलक्षणं रहिततया शुद्धचित्तस्य तपस्यनशनादौ यथा-शक्तिरतस्य विशुद्ध्यते प्रयुक्ते करोतीति। दश टी.। अपैति यदस्य साधोर्मलं कर्ममलं पुराकृतं जन्मांतरोपात्तं दृष्टांतमाह। / आयार(मंत)वं-त्रि. (आचारवत्) ज्ञानाऽसेवनाभ्यां पञ्चप्रकारासमीरितं प्रेरितं रुप्पमलमिव ज्योतिषा अग्निनेति सूत्रार्थः।। ततश्च / ऽचारवति, स्था. ठा० 8 ज्ञानासेवनाभ्यां ज्ञानादिपञ्चप्रकारा-चारयुक्ते, सेत्तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएणजुत्ते अममे अकिंचणे॥ अयं हि गुणत्वेन श्रद्धेयवाक्यो भवतिपंचावृ०१५। ब. श०२५ उ०७। ध० अ० विरायई कम्मघणंडि अवगए, कसिणप्भपुडावगमेवचंदिमि २(आयारमंतागुण सुट्टियप्पा) आचारवंतो ज्ञानाद्याचारसमन्विता इति त्तिबेमि ||6 दश / अ०९उ३ आचारः शास्त्रो-कानुष्ठानं कर्तव्यतयाऽस्त्यस्य मतुप सूत्रव्याख्या स तादृशोऽनन्तरगुणपरिषहयुक्तः साधुःदुःखसहः मस्य वः शास्त्रोक्ताऽनुष्ठानयुक्ते स्त्रियां डीप वाच। परीषहजेता जितेन्द्रियः पराजितश्रोत्रेन्द्रियादिःश्रुतेन युक्तो | अयारवनिय-त्रि. (आचारवर्जित) आचारेण वर्जितः शास्त्रो Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारपणिहि 388 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आयारपणिहि क्ताचारहीने, आचारहीनादयोऽप्यत्र वाच॥ आयारविणय--पुं० (आचारविनय) आचारो वतिनां समाचारः स एव विनीयते अपनीयते काऽनेनेतिविनय आचारविनयः विनयभेदे।। सचतुर्दा यथा संयमसमाचारी 1 तपः समाचारी 2 गण-समाचारी३ एकाकिविहारसामाचारी४चातत्र संयम स्वयमा-चरति परं च ग्राहयति तत्र च सीदंतं स्थिरीकरोति तत्रोद्यतं चोपव॑हतीति संयमसमाचारी / / पाक्षिकादिषु तपः कर्म स्वयं करोति परंच कारयति भिक्षाचयां स्वयमनुतिष्ठति परं च तस्यां-नियुक्ते इतितपःसमाचारी।। प्रत्युपे क्षणा बालवृद्धा-दिवैयावृत्यादिकार्येषु स्वयमुद्यतोऽग्लान्यागणंप्रेरयतीतिगणसामाचारी।३। एकाकिविहारप्रतिमा स्वयंप्रतिपक्ष्यते परं च ग्राहयतीति एकाकिविहारसामाचारी।।४। प्रव. द्वा०६४ दशा० // सेकिं तं आयारविणए ? 2 चउविहे पण्णते / तं जहा। संजमसामायायावि भवति तवसामायारी यावि भवति (महासामायारीयावि भवति) गणसामाहारीयावि भवति एगल्लविहारतासामायारीयावि भवति सेत्तं आया रविण्णए५दशा. अथ कथं आचारविनयेन शिक्षयति इति पृच्छन्नाह (से-किंतमित्यादि) कएठ्यं गुरुराह आयारविणएणमित्यादिआचारविनयेनेत्यत्र तृतीयान्तता शिक्षयति / अनेन सम्बन्धेनोक्ता. अथवा कोऽसावाचारविनयो णं वाक्यालंकारे चतुविधः प्रज्ञप्तः / तद्यथा। संयमसमाचारी चापि भवति / एवं तपः२ गणं 3 एकल्लविहारसमाचार्यपि भवति / तत्र संयमः सप्तदशप्रकारस्तस्य समाचारीति समाचरणं समाचारीति समाचरणं समाचारस्तस्य भावे गुणवचनब्राह्यणादिभ्य इति ङ्य तस्य च षित्करणसामर्थ्यात् स्त्रियामपि स्टत्तिरिति षिग्दौरादिभ्य श्वेतिडीषि सामाचारीशिक्षयिता इति शेषः / भवतिकोऽर्थः / पृथिव्यादिषु संघट्टनपरितापनोपद्रवादि परिहर्तव्यं इति शिक्षायिता भवति। चापि शब्दौ पञ्चाश्रवाद्विरमणाऽद्यनुक्तार्यसंग्राहको द्रष्टव्यौ १एवं तपः सामाचार्यपि तपः पाक्षिकपौषधिकैः कारयति परैः स्वयं च करोति पाक्षिकादिषु तपश्चतुर्थादिरूपं द्वादशविधो वात्र तपः प्रकारो यथावसरं द्रष्टव्यः३एवं गणसामाचर्यपि गणशब्देन समुदायः साधूनामिति द्रष्टव्यं तं शिक्षयति तथा प्रतिलेखना प्रस्फोटनादि च प्रवर्तमानात् / / 1 / नोदयति बालदुर्बलग्लानष्टद्धादिवैयावृत्या दिषु आप्रवर्तमानान् दृष्ट्वा तान् तथा जयति / स्वयं वा तान् दुःखितान् दृष्ट्वा तत्र प्रवर्तते एकल्लविहारप्रतिमामन्यान् अंगीकारयति / तथा विधानश्रुसंहननादिसमुचितान् दृष्ट्वा स्वयं च कृतकृत्यो गणे तथाविधमाचार्यादिकं स्थापयित्वा विशिष्टानुष्टानतुलनापयोगीत्यर्थः। सनतांप्रतिपद्यते। अनेनाऽचारणाsत्मानं परं च विनयति शिक्षयति॥ व्यवहारकल्पे / आचारविनयमाह / / आयारे विणओ,खलु च उदिवहोहोइ आणुपुथ्वीए। संयमसामायारी, तवे या गणविहरणा चेव / / 1 / / एगल्लविहारे य, सामाचारीयए च उभेया। एयासिंतुविभाग। वुच्छामि अहाणुपुथ्वीए / / 2 / / आचो आचारविषयः खलु विनयश्चतुर्विधो भवति / आनुपूर्व्या परिपाट्या। तद्यथा / संयमसामाचारी 1 तपः सामाचारी 2 गणविहरणसामाचारी 3 एकाकिविहारसामाचारी 4 एवमेषा चतुर्भेदा सामाचारी / एतासांसामाचारीणां विभाग यथानुपूर्ध्या वक्ष्यामि ते च तच्छब्दे द्रष्टव्याः आयारवेई-स्त्री. (आचारवेदी) आचारस्य वेदीव पुण्य भूमौहेम. वाचः। आयारसंवया-स्त्री. (आचारसंपत्) आचारणमाचारोऽनुष्ठानम्तद्विषया स एव वा सम्पद्विभूतिस्तस्य वा सम्पत् सम्पत्तिःप्राप्तिराचारसम्पत्प्रक द्वा० 64 ठा. ठा०८ आचारो नाम प्रथममंग तस्मिन् अधीते दशविधश्रमणधर्मो ज्ञातो भवति तस्मादाचारङ्ग यो भणति सूत्रतोऽर्थतः सम्पधुक्तो भवतियः स आचारसम्पत्दश अ१ उत्त, अ.१गणिसम्पद्रेदे। आचारसम्पच्चतुर्धा। संयमध्रुवयोगयुक्ता १असंप्रग्रहः२ अनियतवृत्तिः 3 वृद्धशीलता 1 चेति / तत्र संयमश्चरणं तस्मिन्ध्रुवोनित्यो योगः समाधिस्तद्युक्तबा कोऽर्थः समंतोप-युक्तता असंप्रग्रहः समंतात्प्रकर्षण जात्यादि प्रकृतल क्षणेन ग्रहणमात्मनोऽवधारणं सम्प्रग्रहस्तदभावोऽसंप्रग्रहोजात्या-धनुत्सिततेत्यर्थः२ अनियतवृत्तिरनियतविहाररूपाऽत्र वृद्ध-शीलता वपुषि मनसि च निभृतस्वभावता निर्विकारतेति यावत् स्था०८ ठा. ध दश। आयारसम्पदाचउविहापं.तं.संजमधुवजोगजुत्ते यावि भवति १असंपइगहियप्पा 2 अणियतवित्ती 3 वुसीले यावि भवति दश.॥ टी. संयमधुवयोयुक्तश्चापिभवति१असंप्रतिगृहीतात्मा अनियवृत्तिः३ वृद्धशील 4 श्वापि भवति तत्राचाचारोनामप्रथममंगं तस्मिन् अधीते दशविधश्रमणधर्मोज्ञातो भवति तस्मादारांग यो भणति सूत्रतोऽर्थतःसम्यधुक्तो भवति। यस्सआचारसम्पत्। स च संयमेत्यादि। संयमो नाम चरणं / तस्य ये ध्रुवा अवश्यं कर्तव्यत्वात् योगाः प्रतिलेखनास्वाध्यायादयः / तैर्युक्तो भवति / अथवा संयमः सप्तदशप्रकारः पञ्चाश्रवाद्विरमणमित्यादिकः तस्मिन् ध्रुवो नित्योगोयो व्यापारो यस्य स संयमधुवयोगयुक्तः / अथवा संयमेध्रुवोनित्योयोगोव्यापारोयस्यस संयमधुवयोग युक्तः / च शब्दात् ज्ञानादिष्वपि नित्योपयोगः / अपिशब्दग्रहणात्परमपि योजयति / इत्येका 1 असंप्रगृहीतः अनुत्सेकवानात्मा यस्य सोऽसंप्रगृहीतात्मा निरभिमान इत्यर्थः / यथा अहमाचार्यो बहुश्रुतस्तपस्वी सामाचारीकुशलो जात्यादिमान्वा इत्यादिमदरहितः 2 अनियता अनिश्चितावृत्तिर्व्यवहरणं विहारो वा यस्य सोऽनिवृत्तिर्यया ग्रामे एगराइं नगरे पंचराइं इत्यादिका। अथवा निकेतनं नाम गृहं तत्र वृत्तिर्वर्तनंयस्य सनिकेतवृत्तिः न निकेतवृत्तिरनिकेतवृत्तिः अथवा चतुर्थादि तपोविशेषैरेषणा समितियोगेन च निकेतवृत्तिः परिचितगृहेष्वंगता इतिवृद्धशीलो निभृतशीलः अवंचनशील इतियावत् / अर्थग्रहणात् वृद्धेषु ग्लानादिषु सम्यग्वैयावृत्यादिकरणकारापणयोरुद्युक्तो भवति एवं विध अथवा वृद्धशीलता वपुषिमनसि च निभृतस्वभावता निर्विकारतेतियावत्॥ प्रव. द्वा०॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयारसमाहि 389 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आयाराणुओग आचरणमाचारोऽनुष्ठानं तद्विषया स एव वा सम्पद्विभूतिस्तस्य वा सम्पत्सम्पत्तिप्राप्तिराचारसम्पत्। एवमग्रेऽपि व्युत्पत्यर्थो भावनीयः।। सा चतुर्धा यथा॥ चरणजओमयरहिओ, अनिययवित्ती अचंचलोचवत्ति चरणयुतो मदरहितोनियतवृत्तिरचंचलश्चेति तत्र चरणं चारित्रं व्रतश्रमणधर्मेत्यादि सप्ततिस्थानरूपं तेनयुतो युक्तश्चरणयुतः। अन्यत्र तु संयमधुवयोयुक्ततेत्येवमिदं पठ्यते / तत्राप्ययमेव परमार्थों यतः संयमश्चारित्रं तस्मिन् ध्रुवोनित्यो योगः समाधिस्तेन युक्तता तत्र सततोपयुक्ततेत्यर्थः / तथा मदैर्जातिकुलतपः श्रुताधुगवै-रहितो मदरहितो ग्रन्थान्तरे तु असम्प्रग्रह इति पठ्यते। तत्राऽपि सएवार्थो यतः समन्तात्प्रकर्षेण जातिः श्रुततपोरूपादिप्रत्कृष्टतालक्षणेनाऽत्मनो ग्रहणमहमेवं जातिमानित्यादि-रूपेणावधारणं सम्प्रग्रहोन तथाऽसम्प्रग्रहो जात्याद्यनुत्सि-क्तत्वमित्यर्थः। अनियतवृत्तिःग्रामादिष्वनियतविहारस्वरूपता / तथाऽचंचलो वशीकृतेन्द्रियोऽन्यत्र तु वृद्धशीलतेत्येवं पाठ्यते / तत्र वृद्धशीलता वपुषि मनसिच कामिनीमनोमोहने वयसि वर्तमानस्याऽपि निभृतस्वभावता निर्विकारतेति यावत् यतो।। मनसि रजसाभिभूता जायंते यौवनेऽपि विद्वांसः / / मूढधियः पुनरितरे भवंति वृद्धत्वभावेऽपि प्रव०६४ द्वा० // 2 // तत्राचारश्चतुर्विध स्तद्यथा चरणकरणगुप्तता१मदोह-कारस्तद्रहितता 2 द्रव्यक्षेत्रकालादिष्टनियतवृत्तिता 3 गत्याद्यचपलता दश ||4|| आयारसत्य-न (आचारशास्त्र) आचाराङ्गे आचा० अशा आचारशास्त्र सु विनिश्चितं यथा, जगाद वीरो जगते हिताय यः॥ तथाच किञ्चिद्गदतः समेऽधुना, पुनातु धीमान् विनयार्पिता गिरः // 2 // आयारसमाहि-पु. (आचारसमाधि) समाधि भेदे आचार-समाधिमाह। दश वैकालिके अ०९:०४ चउविहाखलु आयारसमाही भवइतंजहां नो इह लोगट्ठयाए आयारमहिडिजाइनो परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिजा 2 नो कित्तिवन्नसद्दसि लोगट्ठयाए आयरमहिट्ठिजा 3 अन्नत्थ अरिहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिडेजा 4 चउत्थं पयं भवइ, भवइ त्थि सिलोगो ||10|| चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / नेह लोकार्थमित्यादि आचाराभिधानभेदेन पूर्ववत् यावन्नान्यत्रार्हते रर्हत्सम्बन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवत्वादिनिराचारं मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेत् / निरीहस्सन्यथामोक्ष एव भवतीति चतुर्थपदं भवतीति। भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् सचाय।। जिणवयणरए अतिंतणो, पडिपुन्नावयमाययहिए। आयासमाहिसंवुडे, भवइय दंते भावसन्धए। व्या. जिनवचनरतः आगमे सक्तः (अतिंतिनः) नसकृत्किञ्चिदुक्तः सन् असूयया भूयो 2 वक्ता / प्रतिपूर्णः सूत्रादिना / आयतमायतार्थिक इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी। आचारसमाधि संवृत्तः इत्याचारे यः समाधिः तेन स्थगिताश्रवद्वारः स भवति / दांत इन्द्रियनो इन्द्रियदमाभ्यां।। भावसन्धकोभावोमोक्षस्तत्सन्धकः / आत्मनो मोक्षासन्नकारीतिसूत्रार्थः अयारसुय-न. (आचारश्रुत) आचारश्च श्रुतं च आचारश्रुतं द्वन्द्वैकद्भावः। आचारश्रुतसमाहारे। सूत्रकृतांगद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्चमेऽध्ययने च सूत्र 2 श्रु५ अ॥ साम्प्रतंपञ्चममध्ययनमारभ्यते। अस्य चायममिसम्बन्धः। इहानन्तराधयने प्रत्याख्यानक्रियोक्ता साचाचारसंव्यवस्थितस्यसतोभवतीत्यतस्तदनन्तरमाचारभुताध्ययनमभिधीयते। यदि वा नाचारपरिवर्जनेन सम्यक्प्रत्याख्यानमस्खलितं भवतीत्य तोनाचारश्रुताध्ययनमभिधीयते / यदिवा प्रत्याख्या नयुक्तः सन्नाचारवान् भवतीत्यतः प्रत्याख्यानक्रियानन्तरमाचारश्रुताध्ययनं / तत्प्रतिपक्षभूतमनाचारश्रुताध्ययनं वा प्रतिपाद्यत इत्यनेनसम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याऽध्ययनस्योपकमादीनिचत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवंति। तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं तद्यथा अनाचारं प्रतिषिध्य साधूनामाचारः प्रतिपाद्यते। नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे आचारश्रुतमिति द्विपदं नाम तदन-योनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदा है। णामं ठवणा दविए, दवे भावे य होंति नायव्वा॥ एमेवय सुत्तस्स, णिक्खेवो चउव्विहो होत्ति ||1|| णामंठवणेत्यदि। तत्राचारो नाम स्थापना द्रव्यभावभेद-भिन्नश्चतुर्धा द्रष्टव्यः / एवं श्रुतमपीति। तत्राचारश्रुतयोरन्यत्राभिहितयोलाघवार्थमतिदेशं कुर्वन्नाह॥ आयारसुयं भणियं, वजेयव्वा सया अणायारा। अबहुस्सुयस्स होला, विरहेणा इत्थ जइयव्वे |शा आचारसुयमित्यादि। आचारश्च श्रुतंच आचारश्रुतं। द्वन्द्वैकवद्भावस्तदुभयमापि भणितमुक्तं। तत्राचारः क्षुल्लिका-चारकथायामभिहितः श्रुतं तु विनयश्रुते। भावार्थस्तु वर्जयितव्याः परिहार्याः सदा सर्वकालं यावजीवं साधु-रनाचारास्ता-श्वांबहुश्रुतोऽगीतार्थोन सम्यक् जानातीत्यतस्तस्य विराधना भवेत् / बहुशब्दोऽवधारणे बहुश्रुतस्यैव विराधना न गीतार्थस्येत्यतोऽत्र सदाचारे तत्परिज्ञानेच यतितव्यं / तताहि। मार्गज्ञः पथिकः कुमार्गवर्जनेन नापथगामी भवति न चोन्मार्गदोषैर्युज्यते / एवमनाचारंवर्जयन्नाचारवान् भवति नचाना-चारदोषयुज्यत इत्यतस्तअनिषेधार्थमाह // एयस्स पडिसेहो, इहमज्झयणमि होत्ति नायव्वा / / तोअणगारयं इयि, होई नामं तु एयस्स ॥शा (एयस्स इत्यादि) एतस्याऽनाचारस्य सर्वदोषास्पदस्य दुर्गतिगमनैकहेतोः प्रतिषेधो निराकरणं सदाचारप्रतिपत्यर्थ-मिहाध्ययने ज्ञातव्यः सच परमार्थतोऽनगारकारणमिति। ततः। केषांचिन्मतेनैतस्याव्ययनस्यानगारश्रुतमित्येतन्नाम भवतीति। आयारसुयखंध-पु. (आचारश्रुतस्कंध) आचारांगस्य नवब्रह्मचर्याध्ययनामक आचारश्रुतस्कन्ध इति। आचारङ्गार्द्ध आचा० श्रु द्वि. अ. 1 आयारणुओग-पु. (आचारानुयोग) आचारस्यानुयोगोऽनुयोगः सूत्राध्ययनात्पश्चादर्थकथनम्। आचाराङ्गस्यार्थकथने आचारा-ङ्गस्य सूत्राध्ययनात्यपश्चादर्थकथने च आया द्वि.श्रु अ०११ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर 390 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ (आचाराणुयोगे) अणोर्वा लधीयसः सूत्रस्य महतार्थेन योगोऽनुयोगः। | आचाराङ्गस्य महतार्थेन योगेच आचा०। आयारोवगय-त्रि. (आचारोपगत) चतुर्दशे योगसङ्ग्रहे / (आयार विणयोवगए) आचारोपगतत्वं विनयोपगतत्वं चेत्यर्थः इतिप्रश्नः / द्वा० 5 सं०। आयार विणययोवगएत्ति द्वारद्वयम् / आचारोपगतः स्यान्नमायां कुर्या | दित्यर्थः / विनयोपगतः स्यान्नमानं कुर्यादित्यर्थ ! सम. स. 32 / आचारो पगत माह / आ. क! पाडलिपुत्त हुआसण जलणसहाचेव जलणदहणो। असोहम्मपलिअपयणए आमलकप्याइनट्ठविही।। नगरे पाटली पुत्रे, श्रावकोभूद्भुताशनः / तद्भार्याज्वलनशिखा, दहन ज्वलनौ सुतौ ।।शा व्रतंचतुर्भिरप्यात्तं ज्वलनात्सर भात्मनः / मायावी दहनोऽभ्येही, त्युक्तोऽगाद्याहिचागमत् // 21 मृतोऽसोतदनालोच्य, सौधर्मेद्वावपीयतुः / पञ्चपल्य स्थिती जातौ, शक्राभ्यन्तर पर्षदि ||3|| पुर्याभामलकल्यायां श्रीवीरः समवा-सरत्। तौद्वावप्यागतौदेवौ, नाठ्यं दर्शयतस्तदा // 4 // ऋ-जून्येकस्यरूपाणि, वक्त्राएयन्यस्य चाभवन्। तदृष्ट्वागौतमः स्वामी पप्रछ स्वामिनं ततः // || तत्प्राग्भवं प्रभुः प्राह, माया-दोषाद्भवत्यदः / आचारोपगतैकस्य, द्वितीयस्य च ना भवत्।।६।। चू० / / आवः॥ आयास-पु. (आयास) आ-यस-घत्रखेदे। चिन्तायास निचि विपुलसालो चिन्ताश्च चिन्तनानि आयासाश्चमनः प्रभृतीनां खेदास्तएव पाठान्तरेण चिन्ताशतान्येव निचिता निरन्तरा विपुला विस्तीर्णा शाला शाखायस्य | सतयेति प्रश्न द्वा०५/ (आयास विसूरणा कलह कम्पियग्गसिहरो) आयास शरीरखेदः विस्तरणा चित्तखेदः कलहोवनचनभण्डम् एत देव प्रकम्पितं कम्पमानमग्रशिखरं शिखाराग्रं यस्य स तथा। प्रश्नः ॥द्वा|५|| आयास हेतुत्वात्परिग्रहेच परिग्रहस्य गौणनामान्यधिकृस्य आयासो आयासः खेदः तद्धेतुत्वात्परिग्रहोऽप्यायास उक्त आहच / शरीरमनसोया॑यामेच (आयासविसूरणां) आयास विस्तरणंस्वदार गमने शरीरमनसोव्यायाम कुर्वं तीति प्रकृतम् / परदार सेवनायांच विस्तरणमप्राप्तौ मनः खेदं परस्य वा मनः पीडां कुर्वन्तीति / प्रश्न द्वा ||5|| आयासलिवि-स्त्री. (आयासलिपि) ब्राह्मयालिपेरष्टादश-सुलेख्यविधानेषुपञ्चदशे लेख्यविधाने प्रज्ञा पद१ आर-पु. (आर) परभावापेक्षया इहभवेप्रव्रज्यापेक्षया गृहस्थत्वे मोक्षापेक्षया संसारेच (णाहिसिआरंकओ परंवेहासे कम्मेहिं किच्चती) सूत्र० श्रुअ०२ तन्मार्गे प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि आरमिह भवं कुतो वा परंपरलोकं यदिवा आरमितिगृहस्थत्वं परमिति प्रवृज्या पर्यायम्। अथवा आरमिति ससारं। परमिति मोक्ष एवं भूतश्चान्योऽप्युभयभ्रष्ठः (वेहसित्ति) अन्तराल उभयाभावतः स्वकृतः कर्मभिः कृत्यते पीड्यतइति / परलोकापेक्षयाइहलोके नरकाद्येपेक्षया मनुष्यलोके च (लोग विदिता आरं पार च सव्वं पभूवारिय सव्ववार) सूत्र श्रु.१०६) लोकंविदित्वा आरमिह लोकाख्यं पारं परलोकाख्यं यदि वा आरं मनुष्यलोकं पारमिति नरकादिकंस्वरूपतस्तत्प्राप्तिहेतुं ततश्वविदित्वा सर्वमेतत्प्रभुर्भगवान् सर्ववारं बहुशो निवारितवान् इति सूत्र. टी.। चतुर्थ्याः पंकप्रभायाः पृथिव्याः स्वनामख्याते महानिरये च स्था, ठा. 4 आ ऋकर्तरि संज्ञायां कन् दण्डान्तर्वर्तिन्यां शलाकायां स्त्री टाप, (कसंकुसारणि वाय दमणाणि आराच प्रवणी परायणदण्डान्तर्वतिनी शलाकेति प्रश्न। आरओ-अव्य(आरतस्) इहलोके (इहलोके आरओ वा विदुहा वियअसंजया) सूत्र० श्रु०१ अ०८ आरतः परश्चेति इहलोक परलोकयोरिति, सूत्र टी. आरतः परतश्चेति लौकिकी वा युक्तिरितिएवं पर्यालोच्यमाना ऐहि-कामुष्मिकयोxिधापि स्वयंकरणेन परकरणेन वा संयता जीवो-पघातकारिण इत्यर्थः सूत्र० श्रु 108 अर्वागित्यर्थेच आरेण पव्वाएव्य, उ४ त्रयाणां वर्षाणामारतोऽर्वाक् यानि प्रव्राजयतीति व्य० / / आरम्भ-पुं०(आरंभ) आरभ घन मुम् वर्गेन्त्योवा इति प्राकृतसूत्रेणानुस्वारस्य वर्गपरे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा भवति आरंभो आरंभो इति प्रा. उपक्रमे प्रथम कृतौ वाच, प्रथमोत्पत्तौ (ओहिन्नाणारम्भो परिनिट्ठाणं चतंजेसु)येष्ववधि)ज्ञानस्याऽरंभः प्रथमोत्पत्तिलक्षण इति। विशे० (काऊण पञ्चमंगलमारंभोहोई सुत्तस्स) आ. म. / हिंसादिकेसावद्यानुष्ठाने--सूत्र श्रु०१२ आचा. अ.१३ उ०७।। आरंभतिरियंकटु आत्तताएपरिव्वये-आरंभं सावद्यानुष्टानारूपं तिर्यकृत्वेति सूत्र / श्रु.१ अ०३ / आरंभेसु अणिस्सिए आरंभेषु सावद्यानुष्ठानरूपेष्वनिश्रितोऽसंबन्धोऽप्रवृत्त इत्यर्थ इतिसूत्रश्रु.१ अ०९॥ आरंभगंचेवपरिगहंच विनस्सियाणिस्सियआयदंडां आरंभं सावद्यानुष्ठानेच तथा परिग्रहं वा व्युत्सृज्य परित्यज्य तस्मिन्नेवारंभेक्रयविक्रय पचनपाचनादिके तच्छा परिग्रहे धनधान्यहिरण्यसुवर्ण चतुष्पदादिके निश्चयेन श्रिताबद्धानिश्रिता इति सूत्र० श्रु०२ अ६॥ आरंभः सावद्योयोगइति आचा, अ५ऊ५॥ आरम्भणमारंभः शरीरधारणायानपानाद्यन्वेषणात्मक इति। आचा० / / आरम्भः कृष्यादिव्यापार इति प्रश्न द्वा०२।। आरंभश्चस्वयं कृष्यादि करण मिति। पञ्च / / आरंभो हलदंतोलूखलादिखननसूना प्रकार इति / आव / आरंभः परोपद्रव इति। आतु०॥ आरंभो जीवानांमुपद्रवण मिति। प्रश्नः / द्वा०१ / / आरंभाः प्रथिव्याधुपद्रवलक्षणानि। ग० / अ०१॥ संकप्पो संरंभो, परितावकरोभवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ, सवनयाणं विसुद्धाणं // प्राणातिपातंकरोमीति यःसंकल्पोऽध्यवसायः ससंरम्भःयस्तु परस्य परितापकरो व्यापारः स समारम्भः अपद्राक्यतो जीविता-त्परं व्यपारोपयतो व्यापार आरंभः। आहच / चूर्णिकृत्॥ पाणइवायं करोमिति जोसंकप्पंकरे इति // चिंतयतीत्यर्थः॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 391 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ संरंभे वट्टइ परितावणं करेइ समारंभे वट्टइ। एतच्च समारंभादि त्रितयं सर्वनयानामपि शुद्धानां सम्मतं अथवा शुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात्पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः ततोऽयमर्थः सर्वनयानामप्यशुद्धानामेत्समारंभादित्रितयं सम्मतं नत्व-शुद्धानामिति--व्य, उ१ प्रज्ञा०२२ पद धर्म अधि०३ग अं१ आचा. श्रु०२ चूठ 1 / सव्वंपाणारम्भं पचक्खामिति प्राणानामारंभं विनाशादिरूपं प्रारंभमिति आतु.॥ मनःकायमनोवाक्कायव्यापारानधिकृत्य तदेतत्त्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणातिपातादिक्रिया निवृत्तिरारंभ इति आचा० अ०१॥ आरंभं भूतोपमर्दनमिति / दश० / / आरंभणमारंभः प्रथिव्याधुपमर्द इति. उत्त० अ०७ / / प्राण्युपमर्दकारिणी व्यापार इतिसूत्र० श्रु.१ अशा प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरंभे व्यापारे, सू० श्रु०१०१ आरम्भेण जीवोपमर्दकारिणा व्यापारेणेति सूत्र, श्रु.१ अ०१ आरंभः पृथिव्यादिजीवोपमर्दः कृष्यादि विषय इति औप.। आरम्भाः कृप्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपमई इति स्था ठा०२। जेयआरम्भणिस्सिया सूत्रः / ये चान्ये वापसदा नानारूप-सावद्यारम्भमिश्रिता यंत्रपीडन निलाञ्छन कर्मागारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपमर्दकारिण इति सूत्रः श्रु.१ अ.९। (पुढवा इसुआरम्भ) पृथिव्यादिकार्येषु विषयभूतेषु आरम्भ इत्या-रम्भणमारंभः संघदनादिरूप इतिपं. वा प्रमत्तयोगेचा आरम्भः सावद्यानुष्टानम् प्रमत्तयोगो वा उक्तञ्च। आयाणे णिक्खेवे, भासुस्सग्गे य ठाणगमणादी। सव्वोपमत्तओगो, समणस्सउ होइ आरम्भो।।१।। आचा. अ. 5 उ.२ / स्था, ठा.९। प्राणवधे, च। संघट्टनादिरूप इति प्राणवधस्य गौणनामान्यधिकृत्य आरम्भ समारम्भोऽथवेहारम्भसमारम्भयोरेकतर एव गणनीयो बहुसमरूपत्वादिति प्रश्न द्वा०१। आरम्भसमारम्भयो स्वैविध्यम् दशाश्रुतस्कन्धे / तत्रे मोद्वावपित्रिप्रकारौ तद्यथा मानसिकवाचि ककायिक भेदात्। तत्र मानसिको मंत्रादिध्यानं परमारणे हेतोः प्रथमः तथा समारम्भः परपीडाकरोचाटनादिनिबन्धनध्यान वाचिको यथा आम्भः परव्यापादनक्षमक्षुद्राविद्यादि परावर्तना संकल्पसूचको ध्वनिरेव समारम्भः परपरितापकरमन्त्रादि परावर्तन कायिको यथा आरम्भोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं समारम्भः परितापकरो मुष्ट्या अभिघातः तथा चोत्तराध्ययने (आरम्भे य तहे वय मणं य वत्तमाणं तु नियतेज जयं जई) उत, अ.२४ / आरम्भः परप्राणापहारक्षमोऽशुभपरिणामस्तस्मिन् परिणामे प्रवर्तमानं मनो निवर्तयेत् / आरम्भः परेषां क्लेशोचाटनमा-रणादिमन्त्रजापकरणं तत्राऽपि प्रवर्त्तमानं वचो निवारयेत् उत. टीः (आरम्भय तहेव य कायं पवत्तमाणं तु नियतेज जयं जई) उत्त० अ० 24 / आरम्भे तथैव पुनः प्राणवधाकरे यट्यादि प्रयोगे कायं प्रवर्तमानं निवर्तयेत् इति उत्त, अ० 24 आरम्भस्य भेदाः स्थानाङ्गे यथा स्था, ठा०७/ सत्तविहे आरम्भे पं.तं. पुढवीकाय आरम्भे जाव अजीवकाय आरम्भे एवमणारम्भे वि एव सारम्भे वि एवमसारम्भे वि एवं समारम्भे वि एवमसारम्भे वि। टी. पुढवीत्यादि। सुगमं नवरं / प्रागभिहितं। आरम्भो उद्दवओ परितावकरो भवे समारम्भो। संरम्भो संकप्पो सुद्धणयाणं तु सवेसिं॥ नत्वारम्भादयोऽपद्रावण परितापादिरूपास्था ठा.७। नैरयि-कादीनां सारम्भानारम्भकत्वं चतुर्विंशतिदण्डकेनप्ररूपयन्नाह। नेरइयाणं मंते ? किं सारंभा सपरिग्गहा उदाहु अणा रम्भा अपरिग्गहा ? गोयमा ? नेरइया सारम्मा सपरिग्गहा नो अणारम्भा अपरिग्गहा से केणटेणं जाव अपरिगहा गोयमा ? नेरइयाणं पुठविकार्य समारभंति, जाव तसकार्य समारमंति सरीरा परिग्गहिया भवंति, सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति से तेणं तं चेव असुरकुमाराणं भन्ते ? किं सारम्भा पुच्छा गोयमा? असुरकुमारा सारम्भा सपरिग्गहा नो अणारम्भा अपरिग्गहा से केणटेणं गोयमा? असुरकुमाराणं पुढविकायं समारम्भेति जावतसकायं समारंभंति सरीरा परिग्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति भवणा परिग्गहिया भवंति देवा देवीओ मणूसा मणूसीओ तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहियाओ भवंति, आसणसयणमंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति ? सचित्तचित्तमीसयाई दवाइं परिग्गहियाइं भवंति? से तेणटेणं तहेव एवं जाव थाणियकुमारा ll भंडमत्तोवगरणासि / / इह भांडानि मृण्मयभाजनानि पात्राणि कांश्यभाजनानि उपकरणानि लौहीकटाहकडुच्छुकादीनि एकेन्द्रियाणां परिग्रहो प्रत्याख्यानादवसेयः॥ बेइन्द्रियाणं मंते ? किं सारंभा सपरिग्गहा तं चेव जाव सरीरा परिग्गहियाभवति वाहिरिया भंडमत्तो वगरणापरिग्गहिया भवंति, सचित्ताचित्त जाव भवंति एवं जाव चरिंदिया वाहिरया भंडे मत्तोवगरणत्ति। उपकारसाधादिन्द्रियाणां शरीररक्षार्थ तत्कृतगृहकादीन्यवसेयानि / पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! तं चेव जाव कम्मा परिग्गहिया भवंति। टंका कूडासेला सिहरी पटमारा परिग्गहिया भवंति।जलथलविलगुहलेणा परिगहिया भवंति उज्झर निज्झर चिल्लल पल्लल चिप्णिा परिग्गहिया भवंति / अगडतडागदहनदीओ वावीपुरकरिणी दीहियागुंजालिया सरासरपंतियाओ सरसरपंतियाओ विलयंतियाओ परिग्गहियाओ भवंति / आरामुजाणकाणणावणावणखंडावणराईओपरिगहियाओ भवंति। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 392 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ देव उलसभपव्यथूभखाइय परिखाओपरिग्गहियाओ भवंति / पागारट्टालगचरियदारगोपुरपरिग्गहिया भवंति पासायघरसरणलेण आवण परिगहिया भवंति / सिंघाडगतिग चउक्कचचरचउम्मुहमहापहापह पहापरिग्गहिया भवंति सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणियाओ परिग्गहिओ भवति लोहीलोहकटाहकडुच्छुयापरिग्गहिया भवंति भवणा परिग्गहिया भवंति / देवा-देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओतिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ आसणसयण खंभभंडसचित्ताचित्तमीसयाइंदव्वाइं परिग्ग-हियाई भवंति से तेण?णं जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियव्वा वाणमन्तरजोइसियवेमाणिया जहा भवणबासी तहा नेयव्वा भ० श०५ उ० 87 / जीवाणं भंते किं आयारम्भा परारम्भा तदुभयारंभा अणारम्मा गोयमा ? अत्थेगइया जीवाआयारम्भा विपरारम्भा वि तदुभयारम्मा विणो अणारम्भा अत्थेगइया जीवाणो आयारम्मा णो परारम्भा णो तदुभयारम्भा अणारम्भा से केणटेणं भन्ते एवंवुचइ अत्थेगइया जीवा आयारम्मा वि एवंपडिउचारेयव्यं गोयमा जीवा दुविहा पण्णत्ता तंजहा संसारसमावण्णगा य असंसारसमावण्णगाय तत्थणं जे ते असंसारसमावण्णगाय तेणं सिद्धा सिद्धाणं णो आयारम्भा जाव अणारम्भा तत्थणं जे ते संसारसमावण्णगाते दुविहापं तै.संजयाय असंजयायतत्थणं जे ते संजया ते दुविहा पं. तं. पमत्तसंजया य अपमत्तसंजयाय तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया ते णं णो आयारम्भा णोपरारम्भा जावअणारम्भा तत्थणं जेते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडुच णो आयारंभा णो परारंभा जाव अणारंभा असुहजोगं पडुन आयारंभा वि जाव णो अणारम्भा तत्थ णं जे ते असंजया ते अविरतिं पडुच आयारंभावि जाव णो अणारम्भा से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ अत्थे गइया जीवा जाव अणारंभा॥ टी० // जीवा णं भंते 1 किं आयारम्भेत्यादि / आरम्भो जीवोपघात उपद्रवणमित्यर्थः सामान्येन वाश्रवद्वारप्रवृत्तिस्तत्र आत्मानमारभंते आत्मना वा स्वयमारभंते इत्यात्मारम्भस्तथा परमारभंते परे णवारम्भयन्तीतिपरारम्भास्तदुभयमात्मरूप तदुभयेनवारभंत इति / तदुभयारम्भः आत्मपरोभयारम्भव-जिंतास्त्वनारम्भा इति प्रश्नः। अत्रोत्तरं स्फुटमेव नवरं अस्तिशब्दस्याव्ययत्वेन बहुत्वार्थत्वादस्ति विद्यन्ते सन्तीत्यर्थः / अथवा अस्ति अयं पक्षो यदुत। एगयत्ति। एकका एके के चनेत्यर्थः। जीवा आत्मारम्भा अपीत्यादावपिशब्दः उत्तरपदापेक्षया समुच्चये सचात्मारम्भत्वादिधर्माणामेकाश्रयता प्रतिपादनार्थः भिन्नाश्रयताप्रतिपादनार्थो वा एका श्रयत्वं च कालभेदेनावगन्तव्यं तथाहि कदाचिदात्मारंभाः कदाचित् परारंभाः कदाचित्तदुभयारम्भाः अतएव नोअनारम्भाः भिन्नाश्रयत्वंतुएवं एकेजीवा असंयता इत्यर्थः आत्मारम्भा वापरारम्भा वेत्यादि अथैकस्वभावत्यात् जीवानां भेदमसम्भा-वयन्नाहा से केणट्टेणन्ति अथ केन प्रकारेण नेत्यर्थः ।।दुविहा-पण्णत्तत्ति।मया चान्यैश्च केवलिभिरनेन समस्तसर्वविदांमतभेदमाह मतभेदे तु मतवि रोधिवचनतया तेषामसत्यवचनतापत्तिः पाटलिपुत्रस्वरूपाभिधायकविरुद्धवचन-पुरुषकदम्बकवदिति प्रमत्तसंयमतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगः स्यात्संयतत्वात् प्रमादपरत्वाचेत्यत आह शुभंयोगं पडुचति / शुभयोग उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणं अशुभयोगस्तुतदेवानुपयुक्ततया आह च (पुढवी आ उक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं पडिलेहणामडत्तो छण्हं पि विराहओ होइ। तथासव्वोपमत्तयोगोसमणस्स उहोइआरम्भोत्ति) अतः शुभाशुभौ योगावात्मारम्भादिकारणमिति अविरइंपडुचत्ति इहायम्भावो यद्यप्यसंयतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां नात्मारम्भकादित्वं साक्षादस्तितथाप्यविरतिम्प्रतीत्येतदस्ति तेषां ते न हि ते तो निवृत्ता अतोऽसं यतानामविरतिस्तत्रकारणमिति। निवृत्तानां तुकथं चिदात्माद्यारम्भकत्वेऽप्यनारम्भकत्वं यदाह"जाजयाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होई णिजरपला अब्भत्थविसोहि जुत्तस्सत्ति" ||1| भ, श० 1 उ.१॥ णोरइया णं मंते किं आयारम्भा परारम्भा तदुभयारम्मा अणारंभा गोयमा णेरइया आयारम्भाविजाव णो अणारम्भा से केणटेणं भंते एवं वुचइ गोयमा ? अविरतिं पडुच से तेणतुणं जावणो अणारंभा एवं जाव पंचिदियत्तिरिक्खजोणिया मणुस्सा जहा जीवा णवरं सिद्धविरहिता भाणियव्वा वाणमन्तरा जाववेमाणिया जहा जेरइया सलेस्सा जहा ओहिया किण्हलेसस्स नीललेसस्स काउलेसस्स जहा ओहियाजीवा णवरं पमत्त अपमत्ताण भाणियव्वा तेउलेसस्स सुकलेसस्सजहा ओहिया जीवा णवरं सिद्धाणं भामियव्वा / / टी. रझ्याण मित्यादि व्यक्तं नवरं मणुस्सेत्यादौ अयमर्थः मनुष्येषु संयता संयत प्रमत्ताप्रमत्तभेदाः पूर्वोक्ताः सन्ति ततस्ते यथा जीवास्तथाऽध्येतव्याः किं तु संसारसमापन्ना इतरे च तेन वाच्या भववर्तित्वादेव तेषामित्येतदेवाह सिद्धविरहियेत्यादिव्यन्तरादयो यथा नारकास्तथाध्येयाः असंयतत्वसाधादिति, आत्मारम्भकत्वादि भिर्धर्मेर्जीवा निरूपितास्ते च सलेश्याश्चा लेश्याश्च भवन्तीति सलेश्यांस्तांस्तैरेव निरूपयन्नाह सलेसा जहा ओहियत्ति लेश्या कृष्णादि द्रव्य सान्निध्यजानतो जीवपरिणामो यदाह / कृष्णादिद्रव्यसाचिच्यात् परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं लेस्या शब्दः प्रयुज्यते।शतत्र लेश्यावन्तो जीवाःजहा ओहियत्ति यथा नारकादि विशेषणवर्जिता जीवा अधीता जीवाणं भंते किं आयारम्भा परारम्भे त्यादिना दण्डकेन तथा सलेश्या जीवा अपि वाच्या सलेश्या नाम संसारसमापन्नत्वस्यासंभवे नासंसारसमापन्नेत्यादिविशेषण वर्जितानां शेषाणां संयतादि विशेषणानां तेष्वपि युज्यमानत्वात्तत्र चायं पाठक्रमः सलेसाणं भंते जीवा किं Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 393 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरम्भ आयारंभेत्यादि तदेव सर्वं नवरं जीवस्थाने सलेश्या इति वाच्यमिति अयमेको दण्डकः कृष्णादि लेश्याभेदात् तदन्ये षट् तदेव मेते सप्त तत्र किण्ह लेसस्येत्यादि। कृष्ण लेश्यस्य नीललेश्यस्य कापोतलेश्यस्य च जीवराशे र्दण्डको यथो-धिकजीवदण्डकस्तथा ध्येतव्यः प्रमत्ताप्रमत्त विशेषण वर्ग्यः कृष्णादिषु हि अप्रशस्त भावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति यचोच्यते पुथ्वं पडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाएत्ति तत् द्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्यय्यं ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावस्तत्र सूत्रो चारण मेव / किण्हलेसाणं भंते जीवा किं आयारंभा ? 4 गोयमा? आयारंभा वि जाव णो अणारम्भा से केणटेणं भंते एवं वुचइ गोयमा? अविरइं पडुच। एवं नीलकापोतलेश्या दण्डकावपीति तथा तेजोले श्यादे र्जीवराशेर्दण्डका यथौविका जीवास्तयावाच्याः नवर तेषु सिद्धानवाच्याः सिद्धानामलेश्यत्वात्तेचैवं। तेउले साणं भंते जीवा किं आयारम्भा ? 4 गोयमा ? अत्थेगइया आयारम्भा वि जाव नो अणारम्भा अत्थे गइया नो अणारम्भा अत्थे गइया नो आयारंभा जाव अणारंभा से केण टेणं भंते ? एवं वुचइ ? गोयमा ? दुविहा तेउलेस्सा पं. तं. संजया य, असंजया इत्यादि भ. श०१ उ१॥ आरम्भवक्तव्यताऽऽवाराङ्गे लोकविजयाध्ययनस्य पञ्चमोद्दे-श्यके यथा तस्य चायभिसम्बन्धः इह भोगान् परित्यज्य लोकभिश्रया | संयमदेहप्रतिपालनार्थ विहर्तव्यमित्युक्तं तदत्र प्रतिपाद्यते / इह हि ससारोद्वेगवता परित्यक्तभोगाभिलाषेण मुमुक्षुणोत्क्षिप्तपञ्चमहाव्रतभारेण निरवद्यानुष्ठानविधायिना दीर्घसंयमयात्रार्थ देहप्रतिपालनाय लोकनिश्रया विहर्तव्यं निराश्रयस्य हि कुतो देहसाधम्मयं चेति उक्तं हि धर्मश्चरतः साधोलेंके निश्रयपदानि पञ्चापि राजगृहपतिरपरः षट्कायगणसरीरेच / / 1 / / वस्त्रपात्रान्नासन, शयनादीनि तत्रापि प्रायः प्रतिदिनमुपयोगित्वादाहारो गरीयनिति ||2|| स च लोकादन्वेष्ट-व्यो लोकश्च नानाविधैरुपायैरात्मीयपुत्रकलवाद्यर्थमारम्भ-प्रवृत्तस्तत्र साधुना संयमदेहार्थं प्रवृत्तिरन्वेषणीयेति दर्शयति आचा०२ अ०४ उ. जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्समारम्मा कति तंजहा अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं णाईणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाए पूढोपहेणाए सामासाए पायरासाए सणिहिसंणिचओ कन्नइ इह मेगेसिं माणवाणं भोयणाए समुट्ठिये अणगारे आयरिये आयरियण्णे आरियदंसी अयंसंघिति अदक्खु से णादिये णादियावये णं समणुजाणाति सव्वामगंधंपरिण्णाय णिरामगन्धो परिव्वये अदिस्समाणो कयविकयेसु सेकिणकिण्णेण किणावये किणन्तं अणुजाणेज्जा से भिक्खू कालेण बालणे मापणे खेयणे खणयणे विणयणे ससमयणे परसमयणे भावणे परिग्गहं अममायमाणे काले अणुहाई अपडिण्णे दुहा तोच्छित्ताणियाइवत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुच्छणं उग्गहं च कडासणं एएस चेव जाणेज्जालद्धे आहारे आगारे मायं जाणेजा से जहेयं भगवया पवेइयं लाभोत्ति ण मजेना अलामोत्तिण सो एला वहूंपिलद्धंण णिहे परिगहाओ अप्पाणं अवसके मा अण्णहाणं पासए परिहरेखा एस मग्गे अरिएहि पवेदिते जत्थकुलसेणोव लिपिडा / / सित्तिबेमि।। टी. जमिण मित्यादि / यैरविदितवैद्यैरिदमिति सुखदुःखप्राप्ति परिहारक्रियाणां कायिकाधिकरणिकाप्रांदोषिकापरितापनिका प्राणातिपातरूपाणां वा समारम्भा इति मध्यगृहणागहुवचन निर्देशाच समारंभारंभयोरप्युपादानं भावनीयमित्यर्थः / शरीकल-त्राद्यर्थ संरम्भसमारम्भाः क्रियतेऽनुष्ठीयंते तत्र सरंभ इष्टानिष्ट-प्राप्ति-परिहाराय प्राणातिपातादिक्रियानिवृत्तिररिसंकल्पावेशस्तत्साधनसन्निपातकायवाख्यापारजनितपरितापनादिलक्षणः समारंभः तदत्र त्रयव्यापारापादितचिकीर्षितप्राणा-तिपातादिक्रियानिवृत्तिरारंभः कर्मणोवाऽष्टप्रकारस्यसमारम्भा उपार्जनोपायाः क्रियन्त इति लोकस्येतिचतुर्थ्यर्थेषष्ठी सापितादर्थ्ये / कः पुनरसौलोको यदर्थ संरम्भसमारम्भाः क्रियन्त इत्याह तं जहा अप्पणो से इत्यादि यदि वा लोकस्य तृतीयार्थे षष्ठी यदिति हेतौ यस्माल्लोकेन नानाविधैः शस्त्रैः कर्मसमारम्भाः क्रियन्त इत्येतस्मिन् लोके साधुवृत्तिमन्वेप्य यद्यदर्थं च लोकेन कर्मसमारम्भाः क्रि यन्ते तक्यथेत्यादिना दर्शयति तं जहा अप्पणो इत्यादि तद्यथेत्युपप्रदर्शनार्थं नोक्तमात्रामेवान्यदाप्येवं जातीयकभिदादिक "दृष्टव्यं से तस्यारम्भा रिप्सार्यमात्मा शरीरं तस्मै अर्थ तदर्थं कर्म समारंभाः पाकादयः क्रियं ते ननु च लोकार्य समारम्भाः क्रियत इति प्रागभिहितं नच शरीरं लोको भवति नैतदस्ति यतः परमार्थदृश्य ज्ञानदर्शन-चारित्रात्मकमात्मतत्वं विहायान्यत्सर्वशरीरा द्यपि पारक्यमेव तथाहि बाह्यारयापौ चूलिकस्याचे नतनस्य कर्मणो विपाकभूतानि पञ्चापि शरीराणीत्यतः शरीरात्मापि लोकशब्दा-भिधेय इति तदित्थं कश्चिच्छरीरनिमित्तं कारभते परस्तु पुत्रेभ्यो दुहितृभ्यः स्नुषा वध्वस्ताभ्यो ज्ञातयः पूवापरसम्बन्धाः स्वजनाः तेभ्योधात्रीभ्यो राजभ्यो दासेभ्यो दासीभ्यः कर्मकरेभ्यः कर्मकरीभ्यः आदिश्यते परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय निरामगंधःसन् परिव्रजेत् संयमानुष्ठान सम्यक् पालयेत् जनो यस्मिन्नागते तदातिधेयायेत्यादेशः प्राधूर्णक स्तदर्थ कर्मसमारंभाः क्रियन्त इति स्मबन्धस्तया पुढोपहेणायेत्यादि पृथक् पृथक् पुत्रादिभ्यः प्रहेणकार्य तथा समासाएत्ति श्यामा रजनीतः श्यामाशः तदा तदर्थं तथा (पायरासयेति) प्रातरशनं प्रातराशस्तस्मै कर्म समारम्भाः क्रियन्त इति सामान्येनोक्तावपि विशेषार्थ माह सन्निहीत्यादि सम्यग्निधीय इति संनिधि विनाशिद्रव्याणां दध्यो दनादीनां संस्थापन तथा सम्यगनिश्चयेन धीयते इति संनिचयो विनाशिद्रव्याणामभया सितामृद्वीकादीनां संग्रहः संनिधिश्च से निचयश्च संनिधिसनिचयं प्राकृतशैक्ष्या पुल्लिङ्गता अथवा संनिधेः संनिचयः संनिधिसंनिचयः स च परिग्रह संज्ञोदया दाजीविकामयाद्वा धनधान्यहिरण्यका दिन क्रियत इति स च किमर्थ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 394 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरम्भ मित्याह / इहेत्यादि इहेति मनुष्यलोके एकेषामिह लोकभूत परमार्थ बुद्धीनां मानवानां मनुष्याणां भोजनायोप भोगार्थमिति तदेवं विरूपरूपैः शस्त्रैरात्मपुत्राद्यर्थे कर्म समारम्भ प्रवृत्ते लोके पृथक प्रहेणकाय श्यामाशाय प्रातराशाय केषांचिन्मानवानां भोजनार्थ सन्निधिसन्निचय करणोद्यते सति साधुनां किं कर्तव्यमित्याह (समुट्ठिए) इत्यादि यावत् णिरामगंधोपरिव्वए सम्यक् सन्ततं सगतं वा संयमानुष्ठानेनोत्थितो नानाविधशस्त्र कर्मसमारम्भोपरत इत्यर्थः नविद्यतेअ गारं गृह मस्येत्यनगारः पुत्रदुहितृस्नुषाज्ञाति धात्र्यादिरहित इत्यर्थः सोऽनगार आराद्यात सर्वहेयधम्मभ्य इत्यार्थश्चारित्रार्ह आर्या प्रज्ञा यस्यासावार्यप्रज्ञः श्रुतविशेषता सुमुखीक इत्यर्थः आर्य प्रगुणन्यायोपपन्नं पश्यति तच्छीलश्चेत्यार्यदर्शी पृथक्प्रहेणकस्य श्रमादि-संकल्परहितइत्यर्थः अयं सन्धीति सन्धानं सन्धीयते वासाविति सन्धिर्यस्य साधोरसावयं सन्विश्छान्दसत्याद्विभक्तेरलुगित्ययं सन्धिर्यथाकालमनुष्ठानविधायीयो यस्य वर्तमानः कालः कर्तव्यतयोपस्थिततस्तत्करणतथा तमेव सन्धत इति एतदुक्तं भवति सर्वाःक्रियाः प्रत्युपेक्षणोपयोग-स्वाध्यायभिक्षाचर्याप्रतिक्रमणादिका असम्पन्ना अन्योन्याबाधयात्मीय कर्तव्यकाले करोतीत्यर्थ इति हेतौ यस्माद्यथाकाला-नुष्ठानविधायीतस्मादस वेध परमार्थं पश्यतीत्याहुः / (अदक्खु-त्तिति) व्यत्ययेनैकवचनावसरे बहुवचनमकारि ततश्चायमर्थो योऽह्यर्थेआर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी कालज्ञश्च सएव परमार्थमद्राक्षीनापर इति पाठन्तरम्वा अयं सन्धिं अदक्खु अयमनन्तरोक्तविशेषेण विशिष्टः साधुः सन्धिं कर्तव्यकालं अद्राक्षीदृष्टवानेतदुक्तंमवति यः परस्पराबाधया हितप्राप्तिपरिहाररूपतया विधेया विधयावसं वेत्ति विधत्तरं च स परमार्थ ज्ञातवानिति अथवासंधिनिदर्शनचारित्राणामभिवृद्धिः सचशरीरमृतेन भवति तदपि नोपष्ट-भकारणांतरेण तस्य च सावधस्य परिहारः कर्तव्य इत्यत आह (सोणाइए) इत्यादि स भिक्षुस्तद्वाः कल्प्पं नाददीत न गण्हीयान्नाप्यपरमादापये दुद्ग्राहयेन्नाप्यपरमनेषणीयमाददानं समनुजानी यादय वा सइंगालं सधूमं वा नाद्यान्न भक्षये न्नापर-मादापयेत् ददन्तं वा नसमनुजानी यादित्याह सव्वामग-गन्धमित्यादिआमंचगन्धं चामगन्धं समाहारद्वन्द्वस्स-वर्चतदामगंन्धंसर्वामगन्धं सर्वशब्दः प्रकारकात्य॑ऽत्रगृह्यते न द्रव्यकात्स्न्ये आममपरिशुद्धं गधं ग्रहणेन तु पूर्तिह्यते ननु च पूतिद्रव्यस्याप्यशुद्धत्वादामशब्देनैवोपादानात्किमर्थं भेदेनोपादानमिति सत्यमशुद्ध सामान्यता गृह्यत किन्नद्रव्य-कात्स्न्येऽत्रगृह्यते किन्तु पूतिग्रहणेनेह आधाकर्मा द्यविशुद्ध कोटिरूपता त स्याश्वगुरुतरत्वात्प्राधान्यख्यापनार्थ पुनरुपादानां ततश्चायमर्थः गन्धग्रहणेनात्मकमोद्देशिकत्रिकं पू तिकर्म मिश्रजातं बादरप्रभृतिकाध्यवपूरा काश्चेतेषडुद्रमदोषा अविश्रुद्धकोट्यन्तर्गता गृहीताः शेषा स्त्रयोःविशुद्ध कोट्यन्तभूता आमग्रहणेनोपात्ता दृष्टव्या इति सर्वशब्दस्य च प्रकारकात्ाभिधायकत्वाघद्येन केन चित् प्रकारेण आममपरिशुद्धं पूति वा भवतितत्सर्वं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया निरामगन्धः निर्गतो वामगन्धो यस्मात् स तथा परिव्रजेत् मोक्षमार्गे ज्ञानदर्नचारित्रा ख्ये परिसम॑तार च्छेत् संयमानुष्ठानं सम्यगनुपालयेदितियावत् आमगृहणेन प्रतिषिद्धेअपि क्रीतकृते तथाप्यल्पसत्वानां विशुद्धकोट्यालम्बनतया माभूत्तत्र प्रवृतिरतस्तदेवा नामग्राहं प्रतिषेधयिषुराह। / आदिस्स / इत्यादि क्रयश्चश्च वित्क्रयश्च त्क्रयवि-क्रयो / तयोः क्रयविक्रययोरदृश्यमानः कीदश श्व-तयोरदृश्यमानो भवति यतस्तयोनिमित्तभूतद्रव्याभावा-दिकिञ्चनोऽयवा क्रयविक्र ययोरदिश्यमानोsमुपदिश्यमानः कश्च तयोरनुपदिश्यमानो भवति यः क्रीतकृतापरिभोगी भवतीत्याह च सनकिणे इत्यादि स मुमुक्षुर किञ्चनो धर्मोपकरणमपि न क्रीणीयात् स्वतो वा नाप्यपरेण क्रापयेत् क्रीणन्तमपि न समनुजानी यादथवा निरामगन्धः परिव्रजेदित्यत्रामग्रहणेन हनन को टित्रिक गन्धग्रहणेन पाचनकोटित्रिकं क्रयणकोत्रिकं तुपुनः स्वरूपेणैवोपात्तमतो नवकोटीः परिशुद्धमाहार विगतांगारधूमं जीत एतद्गुण विशिष्टश्च किंभूतो भवतीत्याह से भिक्खु (कालण्णे) कालः कर्तव्यावसरस्तंजानातीति कालज्ञो विदि तवेदयस्तया बालज्ञो बलंजानातीति बालज्ञः छन्द सत्वाद्दीर्घत्वमात्मवलसामर्थ्य जानातीति यथाशक्तयनु छानविधाय्य निगहितबलवीर्य इत्यर्थ-स्तथा (मायण्णे) यावत् द्रव्योपयोगिता मात्रा तां जानातीति मात्राज्ञ स्तथा (खेयण्णे) खेदोऽभ्यासस्तेन जानातीति खेदज्ञो यथा खेदः श्रमः संसार पर्यटन जनितस्तं जानातीत्युक्तं च "जरामरणदौर्गत्य व्याधयस्तावदासतां / मन्येजन्मेव वीरस्य भूयो भूयस्वपाकरमिति |शा अथ क्षेत्रज्ञः सं सक्त विरुद्ध द्रव्य परिहार्यकुलादिक्षेत्र स्वरूपपरिच्छेदकर तथा खणयणे) क्षण एव क्षणकोऽवसरो भिक्षार्थ मप सर्पणादिः यरतं जा नातीति तथा (विण्णयणो) विनयो ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरू पस्तंजानातीति तथा (ससमयण्णे) स्वसमयं जानातीति स्वसमयज्ञोगोचर प्रदेशादौ दृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषा नाचष्टे तद्यथा षोडशोद्मदोषास्ते चामी आधाकर्मा उद्देशिक पूतिकर्म मिश्रजातं स्थापना प्राभृतिका प्रकाशकरणं क्रीत उद्यतकं परिवर्तितं अभ्याह्नतं उद्भिन्नं मालाहृतं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अध्यवपूरक श्चेति षोडशोत्पादनादोषास्ते चामी धात्रीपिंडः दूति पिंडः नमित्तपिंड आजीवपिडः वनीमकपिडः चिकित्सापिंडः क्रोधपिंड: मानपिडः मायापिंडः लोभपिडः पूर्वसंस्तवपिंडः पश्चात्सस्तवपिंडः विद्यापिडः मंत्रपिंडः चूर्ण योगपिंडः मूलकर्मपिंड श्चेति तथा दशैषणादोषास्ते चामी संकितं मृक्षितं निक्षिप्तपिहितसं हृ तदायकोन्मिश्रापरित लिप्तोप्सितदोषाएषां चोद्गमदोषा दातृकृतां एव भवन्ति उत्पादनादोषास्तु साधुजनिता एषणादोषा श्चोभयापादिता इति तथा परसमयज्ञोग्रीष्ममध्यान्हतीव्रत-स्तरणिकर-निकरावलीढगलत्स्वेदविन्दुकः क्लिन्नवपुष्करसाधुः केनचिद्-द्विजातिदेशेनाभिहितं कि मिति भवतां सर्वजनाचीर्ण स्नानं नसम्मतमिति स आह प्रायः सर्वेषामेवयतीनां कामांगत्वात् जलस्नानं प्रतिषिद्धं (स्नानं मददर्पकर कामाङ्गं प्रथम स्मृतं। तस्मात्काम परित्यज्य नैवस्नांति दमेरता इत्यादि तदेव समुभयज्ञस्त द्विषये प्रश्ने उत्तर दानकुशलो भवति तथा (भावण्णे) भाव-श्चित्ताभिप्रायो दातुः श्रोतुर्वा तंजानातीति भावज्ञः किञ्च (परिगह) अममायमाणे) परिगृह्यत इति परिग्रहः संयमातिरिक्तमुपकरणादिःतमममीकुर्वन् अस्वीकुर्वन्मन-साऽप्यनाददान इति यावत्स एवं विधोभिक्षुः कालज्ञोमात्रज्ञः क्षेत्रज्ञः क्षणज्ञो विनयज्ञः समयज्ञोभावज्ञः परिग्रह मममी कुर्वाणश्च किंभूतो भवतीत्याह (कालानुट्ठाइ) यद्यस्मिन् काले कर्तव्यं तस्मिन्नेवानुष्ठातुं-शीलमस्येति कालानुष्ठायी कालानति-पातकर्तव्योद्यतो ननु चास्यार्थस्य से भिक्खू कालाणु इत्यनेनैव गतार्थत्वात्किमर्थ पुनरभिधीयत इति नैषदोषस्तत्र हि झपरिज्ञैव केवलाभिहिता कर्तव्यकालं Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 395 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ जानातीह पुनरासेवना परिज्ञा कर्तव्यकाले कार्य विधत्त इति किञ्च व्रजेक्षितितनार्थः एतेषु चारम्तप्रवृत्तेषु परिव्रजन्बालाभंगृण्ही (अपडिण्णे) नास्य प्रतिज्ञाविद्यत इत्यप्रतिज्ञः प्रतिज्ञा च यादुतकश्चिनियमोऽप्यस्तीत्याह सन्धइत्यादिलब्ध प्राप्ते सत्या-हारे कषायोदयादविरतिः / तद्यथा क्रोधोदयात् स्कन्दकाचार्येण आहारग्रहणं चोपलक्षणार्थमन्यस्मिन्नपि वस्त्रौषधादिके अनगारोभिक्षुस्वशिष्ययन्त्रपीडनव्यतिकरमवलोक्य सबलवाहनराजधानी- मात्रांजानीयाद्यावन्मात्रेण गृहीतेन गृहस्थः पुनरारम्भे न प्रवर्तते समन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञाऽकारि / तथामानोदयादाहु- यावन्मात्रेण वात्मनो विवक्षितकार्यनिष्पत्तिर्भवति तथाभूतां बलिना प्रतिज्ञा व्यधायि / यथा कथमहं शिशून् स्वभातृनु मात्रामवगच्छेदिति भावः एतच स्वमनीविषकया नोच्यत इत्याह से जहेयं त्पन्ननिरावरणज्ञानान् छद्मस्थः सन् द्रक्ष्यामीति तथामानो- इत्यादि तद्यथेदमुद्देशकादेरारध्यानन्तर-सूत्रं यावद्भगवता दयान्मल्लिस्वामि जीवेन यथा (परयत्ति) विप्रलंभनं भवति तथा ऐश्वर्यादिगुणसमन्वितेनार्द्धमागधया भाषया सर्वस्वभाषानुगतया प्रत्याख्यानपरिज्ञा जगृहे तथा लोभोदयत्वाद्विदितपरमार्था सदेवमनुजाभ्यां पर्षदि केवलहानचक्षुषा अवलोक्य प्रवेदितं प्रतिपादितं साम्प्रतक्षिणोत्पत्या मासामासक्षपणादिका अपि प्रतिज्ञाः कुव्वते अथवा सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिने इदमा-चष्टे किश्चान्यत् लाभोत्ति इत्यादि प्रतिज्ञो निदानो वसुदेववत्सयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोतीत्यथवा लाभोवस्त्राहारदेर्मम संवृत्त इत्यतोऽहं लब्धिमान इत्येवं मदंनविदध्यान्न गोचरादौ प्रविष्टः सन्नाहारादिक ममैवैतद्भ-विष्यतीत्येवं प्रतिज्ञोयदि वा च तदभावे शोकाभिभूतो विमनस्कोभूयादित्याह च (अलाभोत्ति) स्याद्वादप्रधानत्वात् भौनीन्द्र-गमस्येकपक्षावधारण प्रतिज्ञा इत्यादि अलाभेसति शोकं न कुर्यात् कथ चिन्मन्दभाग्योऽहं येन सर्वदा तद्रहितोऽप्रतिज्ञस्तच्छाहि मैथुनविषयं विहायान्यत्र न क्वचित् नियमवती दानोद्यते नापिदार्तुन लमेहमिति अपितु तयोर्लाभालाभ-योर्माध्यस्थ्य प्रतिज्ञा विधेया यत उक्तं। भावनीयमित्युक्त च लभ्यते साधुः साधुरेव न लभ्यते। अलब्धे ण य किञ्चि अणुण्णायं, पडि सिद्धं वावि जिणवरिदेहिं। मोत्तु तपसोवृद्धिलब्धेतु प्राणधारणमित्यादितदेवं पिंडपात्रवस्त्राभरणभेषणाः प्रतिपादिताः सांप्रतं सन्निधि प्रतिषेधं कुर्वन्नाह बहुलं पिलद्धेत्यादि मेहुणभावं, न विणा तं रागदोसेहि तया देसा जेण निरखंति, बहपिलब्धाणं णिभेत्ति नस्थापयेन्न संनिधिं कुर्यात् स्तोकं तावन्न जेणटिमञ्जन्ति पुष्वकम्माई, सो मोक्खो वा उ, रोगावत्थासु सन्निधीयेत एवं वह्नपि न सन्निदध्या दित्यपि शब्दार्थः न समणं वा / जेजतिया उ हेउ भवस्स तव्वेय तत्तिय मोक्खो। केवलमाहारसन्निधिं न कुर्यादप रमपि वस्त्रपात्रादिकं संयमोपकरगणणातीत लोया दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला। णातिरिक्तं न विभृयादित्याह पडीत्यादि परिगृह्यत इति परिग्रहो इत्यादि अयं सन्धीत्यारभ्य कालेणुट्ठा इति यावदेतेभ्यः सूत्रेभ्य धर्मोपकरणाति रिक्तमुपकरणं तस्मादात्मानमपष्वष्के दपसर्पये दथवा एकादशपिंडषणा नियूंढा इत्येवंतीप्रतिज्ञइत्यनेन सूत्रेण्दिमा-पन्न न संयमोपकरण मपि मूर्छया परिग्रहो भवति मूपिरिग्रह इति वचनात्तत क्वचित् के नचित्प्रतिज्ञा विधेया प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा आत्मानं परिग्रहा दपसर्पयन्मुपकरणे तुरगवन्मूछौं न कुर्यात् ननु च यः अभिग्रहविशेषास्ततश्च पूर्वोत्तरव्याहितिरेव लक्ष्य तइत्यत आह। कश्चिद्धर्मोप करणा द्यपि परिग्रहो न सचित्त कालुष्यं मुने भर्वति (दुहउछित्ताणियाति) द्विषिते रागेण द्वेषेण वाया प्रतिज्ञा तां छित्वा तथाह्यात्मीयोपकारिणि उपघातकारिणि च द्वेस्तः परिग्रहे सति रागद्वेषौ निश्चयेन नियतंच याति ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये मोक्षमार्गे संयमानुष्ठानेवा नेदिष्ठौतेभ्यश्च कर्मबंध तत्कच्छंपरिग्रहोधर्मोपकरणं उक्तंच (ममाहमिति) भिक्षाद्यर्थश्च एतदुक्तं भवति रागद्वेषौ छित्त्वा प्रतिज्ञा गुणवतव्यत्यय इति चैव यावदभिमानदाहज्वरः कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशांत्युन्नयः। स एवं भूतो भिक्षुः कालज्ञो बालज्ञो यावत् द्विधाछेदनकं कुर्यात् इत्याह यशः सुखपिपासितैरयमसावनोंत्तरैः परैरपसदः कुतो ऽपि (वत्यं परिगह इत्यादि) यावत् एएसु चेवजाणिज्जा एतेषु कथमष्यपाकृष्यते॥शा नैष दोषः नहि धर्मोपकारणे ममेदमित्येवं साधूनां पुत्राद्यथमारम्भप्रवृत्तेषु सन्निधिसन्नि-चयकरणोघेतषु जानीयाच्छुद्धा- परिग्रहयोगोऽस्ति / तथाह्यागमः / अवियप्पणो विदेहमि णापरंति शुद्धतया परिछिद्य तत्परिच्छेद-वैवमात्मकः शुद्धगृह्णीयादशुद्धं ममाइउं / यदिह परिगृहीत कर्मबन्धायोपकल्यते स परिग्रहो यत्तु पुनः परिहरेदिति यावत् किं न जानीयाद्वस्त्रं वस्त्रग्रहणेन वस्त्रैषणा सूचिता कर्मनिर्जरणार्थं प्रभवति तत्परिग्रह एव न भवतीत्याह च / अण्णहाणं तथा पतद्ग्रह पात्रमेतद्ग्रहणेन च पात्रैषणा सूचिता। कंबलमित्यनेनाविकः इत्यादि णमितिवाक्यालंकारे अन्य वा अन्येन प्रकारेण पश्यकः सन् पात्रनिर्योगः कल्पश्च गृह्यते पादपुंछनक मित्यनेन च रजोहरणमित्येभिश्च परिग्रह परिहरेद्यथाह्यविदितपरमार्था गृहस्थाः सुखसाधनाय परिगृहं सूत्ररोघोपधिरौपग्रहिकश्च सूचितस्तथैतेभ्य एव वस्त्रैषणा पात्रैषणा च पश्यन्ति न तथा साधुः तथाह्यममस्याशयः आचार्यसक्तमिदमुपरणं न नियूँढा तथा अवगृह्यत इत्यवग्रहः सच पञ्चधा देवेन्द्रावग्रहः राजावग्रहः ममेत्ति रागद्वेषमूलत्वात्परि-ग्रहाग्रहयोगोऽत्र निषेद्यो न धर्मो पकरणं ग्रहपत्यवग्रहः शय्यातरावग्रहः साधर्मिकावग्रहश्चेत्यनेनावग्रहप्रतिमासर्वाः तेन विना संसारा-र्णवपारगमनादि उक्तं च (साध्यं तथाकथंचित् सूचिता अतएवासौ नियूँढा अवग्रहकल्पिकश्चास्मिन्नेव क्रियते स्वल्पं कार्य महच न तथेति / प्लवनमृते नहि शक्यं पारं गंतु तथाकटासनं कटग्रहणेन संरतारको गृह्यते आसनग्रहणेन समुद्रस्य / / 120) अत्र चार्हताभासैर्वोढेकैः सह मानविवादोस्तीत्यतो वासन्दकादिविष्टरमिति आस्यतेस्थीयते अस्मिन्निति वा आसनं शय्या विवक्षितमर्थ तीर्थक राभिप्रायेणापि सिसाधयिबु राह / ततश्वासनग्रहणेन शय्या सूचिता अतएव निव्यूढति एतानि च समस्तान्यपि एसमग्गेइत्यादि / धर्मोपकरणं न परिग्रहायेत्यनंतरोक्तो मार्गः / वस्त्रादीन्याहारादीनि चैतेषुस्वारम्भप्रवृत्तेषुगृहस्थेषु जानीयात् आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यास्तीर्थकृतस्तैः प्रवेदितः कथितो सर्वा मगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धो यथा भवति तथा परि- | ननु यथावोटिकै कुडिकातट्टिकातट्टिकालवणिकाश्रबालधिबालादि Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 396 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरम्भ स्वरुचिविरचितो मार्ग इति ननु वा यथा मौद्गलिस्वातिपुत्राभ्यां शौद्धोदनि ध्वजीकृत्य प्रकाशितः इत्यनया दिशा अन्येऽपि परिहार्या इति। इह तु स्वशास्त्रगौरवमुत्पादयितुमायैः प्रवेदित इत्युक्तमस्मिश्चार्थे प्रवेदिते मागे प्रयत्नवताभाव्यमित्याह। जहेत्थेत्यादिलब्धकर्मभूमि मोक्षपादपबीजभूताच बोधिं सर्वसंचारित्रं च प्राप्त तथा विधेयं यथा कुशलो विदितवेद्योऽत्रास्मिन्नार्यप्रवेदितमार्गे आत्मना पापेन कर्मणा नोप-लिंपयेदिति एवंचोपलिंपनं भवति यदि यथोक्तानुष्ठान विधायित्वं न भवति सतां चायं पन्थाः यदुत यत् स्वयं प्रतिज्ञातंतदोच्छ-वासं यावद्विधेयमित्युक्तंच (लज्जांगुणौधजननींजननीमिवार्या-मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनितोनपुनः प्रतिज्ञा 1) इति शब्दोऽधिकारसमाप्तों ब्रवीमीति। आरम्भप्रशंसकस्य निन्दा दर्शनशुद्धौ यथा। जे मय आरंमयाते,जीवा हॉति अप्पदोसयरा, तउ महापावयए, जे आरम्भं पसंसंति दर्श.॥ आरम्भ प्रसक्तानां निन्दा गच्छाचारे अ.२ यथा / / आरंभेसु पसत्ता, सिद्धं तपरंमुहा विसयगिद्धा मुत्तुमुणिणो गोयम, वसिज, मज्झेसु हियाणम् ? 74 || व्या. आरंभेषु पृथिव्या दयुपर्मदनेषु प्रसक्ता स्तत्पराः सिद्धांतपराङ्मुखा आगमोक्ता नुष्ठानशून्या विषयेषु शब्दरूपर-सगंधस्पर्शेषु गृद्धा लंपटा हे गौतम? ये एवं विधास्तान् मुनीन् मुकत्वा परित्यज्य सुविहितानां सदनुष्टानो घतानां मध्ये वसन्मुनिरिति। आरम्भजीविनो ऽप्रशंसाऽनारम्भजीविनश्च प्रशंसाऽऽचारांगे लोकसाराध्ययनस्य द्वितीयोद्देशके यथा||| अस्य चायमभिसंबंध इह प्रागुद्देशके एक चर्याप्रति पन्नेपि सावद्यानुष्ठाना द्विरतेरभावाच न मुनिरित्युक्तमिह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभावः स्यात्तयोच्यत त्यिनेन संबंधेना यातस्यास्यो द्देश्यकस्यादिसूत्रं / आचाal आवत्ती के यावंती लोगंसि अणारं भजीवी ते सु चेव अणारंभजीवी एत्थो वरए तं ज्झो समाणो धर्म असासयं चयोवजउयं विपरिणाम पासह एवं रूवय सधिं समुवेहमाणस्स एकायतणरयस्स इयस्स इह विप्पगुकस्स णत्थि मग्गे विरतस्सत्ति तिवेमि।। टी आ० / / आवत्तीत्यादि यावत् केचन लोकेऽनारंभजीविनि आरभः सावधानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा उक्तञ्च। "आयाणे णिक्खेवे भासुसग्गे य ठाणगमणादी सव्वो पमत्त / जोगो समणस्सओ होइ आरंभो" तद्विपययण त्वनारभस्तेनजीवितुंशीलमेषामित्यनारं-जीविनोयतयः समस्तारंभनिवृत्तास्तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्र-स्वशरीराद्यर्थमारंभ जावनो भवन्ति एतदुक्तं भवति सावद्यानु-ष्ठानप्रवृत्तषु गृहस्थषु देहसाधनाथ मनवद्यारंभजी विनस्साधवः पकाधारपकजवान लेपा एव भवंति। यद्येवं ततः किमित्याह / एत्थोवरए इत्यादि अत्रास्मिन् सावद्यारंभे कर्तव्ये उपरतः सकुचितगात्रः अत्र चाहतधर्मो व्यवस्थित उपरतः पापारभात् किं कुर्यात्तत्सावद्यानुष्ठानायातं। कर्म जोषयन् क्षपयन् मानभाव भजत इति किममिसंध्य अत्रोपरतः स्यादि त्याह अयं संधीति। अदक्खु जे इमस्स विगहस्स अयं खणेत्ति अणेसीए समगे आयरिएहिं पवेदिते उद्विते णो पमापए जाणित्तु दुखं पसेयं सायं पुढोछंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेदितं से अविह समाणे अणवपमाणे पुट्ठो फासे विपणोल्लए एस समिया परियाए वियाहिए जे असत्तापावेहिं कम्मेहिं उपा हुत्ते आर्य का फुसं ति इति उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठोहिया सए से पुष्वं पेयं पच्छापेयं भिउरधम्म विद्धं सणधर्म अधुवं अणित्तियं / / अयं सधीइत्यादि अविवक्षितकर्मका अष्येककर्मका धातवो यथा पश्य मृगोधावत्येवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतत् क्रियायोगेऽप्ययं संधिरिति प्रथम कृतेत्यिमिति प्रत्यक्षगोचरापन्न आर्यक्षेत्रे सुकुलोत्पतीं द्रियनिर्वृत्ति श्रद्धा संवेगलक्षणः संधिरवसरो मिथ्यात्व क्षयानु दयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतु भूतः कर्मविवर लक्षणः सन्धिः शुभाध्यवसायसंधानभूतो वा संधिरित्येनं स्वात्मव्यवस्थित मद्राक्षी दावानित्यतः क्षणमष्येकं न प्रमाद्येत विषयादिप्रमादवशगो भूयात्कञ्च न प्रमत्तः स्यादि-त्याह / (जे इमस्स इत्यादि) इत्युपुलब्धतत्वे ऽस्याध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्ठप्रकारं कर्मत।तर शरीरविशिष्टं बाह्ये द्रियेण गृह्यत इति विग्रहः औदारिक शरीरं तस्या यं वार्त्तमानिकः क्षण एवं भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गत एवं भूतश्च भावीत्येवं यः अन्वेषणशीलः सोऽन्वेषा सदा अप्रमत्तः स्यादिति स्वमनी-षिकापरिहारार्थ माह / (एसमगो) इत्यादि एषोऽनंतरोक्तो मार्गो मोक्षपथ आर्यः सर्व हेयधर्मा रातीयवर्तिभिस्तीर्थ करगणधरैः प्रकर्षणदौ वा वेदितः कथितः प्रवेदिति इति न केवल मनंतरो वद्वायमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदितं इत्याह (उडिएइत्यादि) संधिम धिम्यो स्थितो धर्म धरणाय क्षणमप्येकं न प्रमाद्येत् किं वा (परमधिगम्मेत्याह) जाणित्ति इत्यादि ज्ञात्वा प्राणिनां प्रत्येक दुःखं तदुपादानं वा कर्म तथा प्रत्येक सातंच मन आह्लादिज्ञात्वा समुत्थितो न प्रमादन् न केवलं दुःखं कर्म वा प्रत्येक तदुपादानभूत्तोऽध्यवसायो ऽपि प्राणिनां भिन्न एवेति दर्शयितुमाह (पुढो इत्यादि) पृथग्भिन्नश्छन्दो ऽभिप्रायो ये येषां ते पृथक् छन्दा नानाभूतबन्धाध्यवसायस्याना इत्यर्थः इहेति संसारे संझिलोके वा के ते मानवा मनुष्या उपलक्षणार्थावादन्ये ऽपि संज्ञिनां पृथक संकल्यत्वाच तत्कार्यमपि कर्मपृथगेव तत्कारणामपि दुःखं नानारूपमिति कारणभेदे कार्यभेदस्यावश्यंभावित्वा दित्यतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह (पुढो इत्यादि,) दुःखोपादान भेदात् दुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवेदितं सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वा-नान्यकृतमन्यउपभुक्तं इत्ये तन्मत्वा किं कुर्यादित्याह से इत्यादि सोऽनारंभजीवी प्रत्येकंसुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधैरूपायेरहिंसस्तथानपवदन् अन्यथैव व्यवस्थितं वस्त्वन्यथा वदन्नापवदन् मृषावादमब्रुवनित्यर्थः यस्य च भूतस्यापि प्राकृ तत्वादर्थत्वादालोपः एवं परस्वमगृह्णन्नित्याद्यप्यायोज्यं एतद्विधायीच किमपरं कुर्यादित्याह (पूढो इत्यादि) सपञ्चमहाव्रत व्यवस्थितः सन् यथा गृहीतप्रतिज्ञानिहिणोदयतः स्पृष्टः परीषहोपसर्गेस्तन् तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान दुःखस्वनि चा तत्सहिष्णु तथा अनाकुलो विविधैः प्रकारैः संसार Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 397 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ भावनादिभिः प्रेरयन् तत्प्रेरणं च सम्यक् सहनं न तत् कृतया दुःखासिकयात्मानं भावयेदिति यावत् योहि सम्यक्करणतवा परीषहान् सहेत स किं गुणः स्यादित्याह एस इत्यादि एषोऽनंतरोक्तो यः परीषहानां प्रणोदकः समिया सम्यक्शमिता वा शमोऽस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता पर्यायः प्रव्रज्या सम्यक्शमितयावा पर्यायः प्रवज्यास्योति विगृह्य बहुव्रीहिः स सम्यक् प्रायः शमिता पर्यायो वा व्याख्यातो नापर इति तदेव परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतां प्रतिपाद्य व्याधिसहिष्णुतां प्रतिपादयन्नाह जे असत्ता इत्यादि, ये अपाकृतप्रदनतयासमतृणमणिलेष्टकांचनाः समतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसक्ताः पापाषादानानुष्ठानरता उदाहु कदाचित्तांस्तयाभूतान् साधून आतका आशुजीवितापहारिणः शूलादयो व्याधिविशेषाः स्पृशंत्यभिभवंति पीडयन्ति यदि नाभैवं ततः किमित्याह इति उदाहु इत्यादि इत्येतद्वक्ष्य माणमुदाहृतवान् व्याकृतवान् कोऽसौ धीरो धीर्बुद्विस्तया राजते स च तीर्थकृत गणधरो वा किंतदुदाहृतवास्तै रातकै स्पृष्ठः सन्तान् स्पर्शान् दुःखानुभवान् व्याधिविशेषापादितानध्यासयेत् सहेत किमाकलय्येत्याह से पुव्व इत्यादि स स्पृष्टः पीडित आशु जीवितापहारिभिरातंकैरेतद्भावयेद्यथा पूर्वमप्येतदसातावेदनीयविपाकजनितं दुःखं मयैव सोढव्यं पश्चादप्येतन् मयैव सहनीयं यतः संसारोदरविवरवर्ती न विद्यत एवासौ यस्यासातवेदनीयवि पाकापादितारोगातका न भवेयुस्तथाहि केवलिनोऽपि मोहनीयादिघातिचतुष्टयादुत्पन्नज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्तत्सम्भवं इति यतश्च तीर्थकरैरप्येतद्द्धस्पृष्टनिध-त्तिनिकाचनावस्थायातं कम्मविश्यवेद्य नान्यथा तन्मोक्षोऽ-तोनेनाप्पसातावेदनीयोदये सन्तकुमारद्रष्टांतेन मयैवैत-त्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्थमित्युक्तंच 'स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानांविपाकः पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र ते निर्गुणस्य / / स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो भवशतगतिहेतु-र्जायतेऽनिच्छतस्ते" अपि चैतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौषध-रसायनाधुपबंहितं मूण्मयामघटादपि निस्सारतरं सर्वथा सदा विशराबिति दशयन्नाह / भेउरधम्म इत्यादि यदि वा पूर्व पश्चादप्येतदौदारिकं शरीरं वदयमाणधर्मस्वभावमित्याह / भेदुरधम्मामित्यादि स्वयमेव भिद्यत इति भिदुरः स धर्मोऽस्य शरिस्येति भिदुरधर्म इदमौदारिकं शरीर सुपोषितमपि वेदनीयोदयाच्छिरोऽक्ष्युरः प्रभृत्यवयवेषु स्वत एव भिद्यत इति भिदुरंतं विध्वंसयन धर्मं पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात् तथावश्यं भावितं त्रियामांते सूर्योदयवत् ध्रुव न तथाऽधुवं तथा प्रच्युतानुत्पन्नास्थिरैकस्वभावतया कूटस्थनित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यं नैव यत्तदनित्यमिति तथा तेन तेन रूपेणोदकधारावत् शस्वद्भवतीति शास्वतं ततोऽन्यदशास्वतं तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपट्ठभादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणूपचयाचयरस्तदभावेनतद्विघटनादपचयः चयापचयौविद्येते यस्य तचयापचयिक मतएव विधिपरिणामोऽन्यथाभावात्मको धर्मः स्वभावो यस्य तद्रिपरिणामधर्म यतश्चेवं भूतमिदं शरीरकमतोऽस्योपरि कोऽनुबंधः का मूर्छनास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा साफल्यमित्येतदेवाह पासह इत्यादि पश्यतैनं पूर्वोक्तं रूपं सधिभिदुरधर्माद्याघ्रातौदारिकं पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिलाभावसरात्मकं दृष्ट्वा च विविधातंकजनितानस्पर्शामध्यासयेदितिएतत्पश्यतश्च यत्स्या-त्तदाह। समुवे इत्यादिसम्यगुत्प्रेक्ष्यमाणस्य पश्यतोऽनित्यता-घ्रातमिदं शरीरक मित्येवमवधारयतो नास्ति मार्ग इति संबंधः / किंच आङ् अभिविधी समस्तपापारंभेभ्य आत्मा आयत्यते आनियम्यतेतस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा यत्नवान् क्रियत इत्यायतनं ज्ञानादित्रयमेकमद्वितीयमायतनमेकायतनंतत्र रतस्य किंच इह शरीरे जन्मनि वा विविधं परमार्थभावनया शरीरानुबन्धात्प्रमुक्तो विप्रमुक्तस्तस्य नास्ति न विद्यते कोऽसौ मार्गो नरकतिर्यङ्-मनुष्यगमनपद्धति वर्तमानसामीप्ये वर्तमानदर्शनान्न भविष्यतीतिनास्तीत्युक्तं यदिवा तस्मिन्नेव जन्मनि समस्तकर्मक्षयोपपत्तेनास्ति नरकादिमार्गः कस्येति दर्शयति विरतस्य हिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्तस्य इत्यधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति सुधर्मस्वाम्यात्मानमाह। यद्भगवता वीर-वर्द्धमानस्वामिना दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाग्योगेनोक्तं तदहं भवतां ब्रवीमि न स्वमतिविरचननेति॥ आरम्भोपरमणं च सोभनं तथा चाचाराङ्गे।। जस्स णत्थिपुरे पच्छा मज्झे तस्स कुतो सिया / से हु पण्णाणमते बुद्धे, आरंभोवरए सममेयं ति // पासह जेण वंधं वहं धोरं परितावं च दारुणं / परिच्छिंदिय बाहिरगं च सोयं / / जस्स नत्थि इत्यादि, यस्य भोगविपाकवेदिनः पूर्वमुक्तानुस्मृति स्ति नापि पाश्चात्यकालभोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधि विचिकित्सारूपान् भोगान् भावयतो मध्ये वर्तमानकाले कुतो भोगेच्छा स्यात् मोहनीयस्योपशमान्नैव स्यादित्यर्थः यस्य तु त्रिकालविषया भोगेच्छा निवृता स किंभूतः स्यादित्याह / से हुश्त्यादि हुयस्मादर्थे य स्मानिवृतभोगाभिलाषस्तस्मात्स प्रज्ञानवान् प्रकृष्ट ज्ञानं जीवाजीवादिपरिच्छेतृतद्विद्यते यस्यासौ प्रज्ञानवान् यत एव प्रज्ञानवानत एव बुद्धोऽवगततत्वः यत एवंभूतोऽत एवाह आरभोवरए सावधानुष्ठानमारंभस्तस्मादुपरत आरंभोपरतः एतचारंभोपरमणं शोभनमित्ति दर्शयन्नाह सममित्यादियदिदंसावद्यारम्भोपरमणं सम्यगेतच्छोजनमेतत्सम्यक्त्व काय त्वाद्वा सम्यकत्वमेतदित्येवं पश्यत एवंगृहीत यूयमिति कि मित्यारंभोपरमणं सम्यगिति चेदाह जेण त्यिादि येन कारणेन सावधारंभप्रवृतो बंधं निगडादिभिर्वधं कसादिभिर्धारं प्राणसंशयरूपं परितापं शारीरमानसं दारुणमसह्यमवाप्रोत्य त आरम्भोपरमणं सम्यक्भूतं कुर्यात् किंकत्वेत्याह पलिछिंदि इत्यादि परिछिंद्या पनीय किं तच्छोतं पापोपादानं तच्चबाह्यं धनदान्यहि रण्यपुत्रकलत्रादिरूपं हिंसाद्याश्रवद्वारात्मकं च शब्दान्तरं च रागद्वेषात्मकं विषयपिपासारूपं चेति / तथाच महानिशीथे 2 प्र! अत्थेगे गोयमा? पाणी जेणो वयइ परिग्गहं जावइयं गोयमा तस्स सचित्ताचित्तभेयत्तंग, पभूयं वाणुजीवस्स मवेडा उपरिग्गह। तावइण्णं तु सोपाणि ससंगो मुक्ख-साहाणं जाणात्तिगं ण आराहे तम्हा व परिम्गहं अत्थेगे गोयमा पाणि जे पयहे ताए परिग्गहं आरंभ न विवेजेजा जंपियं भवपरंपरा आरंभे पत्थियस्सेगवियलजीवस्य वइययरे संघट्टणा इयं कम्म बद्धं गोयमा? सुण एगे वेइंदिए जीवे एणं समयं अणिच्छमाणे Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 398 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरम्भ वलामिओगणं हत्थेणं वा पाएणं वा अन्नयरेण वा सलागाइ ओवगरणं जाएणंजे केइ पाणि आगाढं संघट्टेज वा संघट्टावेजा वा संघट्टिजमाणं वा आगाढं परेहि समणुजाणेजा सेणं गोयमा? जाया तं कम्म उदयं गच्छेजा तथा णं महया केसेणं छम्मासेणं विदिज्जा गाढं दुवालसहिं संवच्छरेहिं तमेव आगाढं परिआवेञ्जा वाससहस्सेणं गाढं दसहि वाससहस्सेहिं तमेव आगाढ़ किलामेजावासलक्खेणं गाढं दसहिंवा तलक्खेहि अहा णं उद्धविज्जा तउ वासकोडीए एवं ती चउपंचिंदिएसु दट्ठवं सुहमस्स पुढविजीवस्स जत्थेगस्सवि अप्यारंभं तयं चिंते गोयमा? सटवके वली सुहुमस्स पुढविजीवस्स वावि ती जत्थसंभवे महारंभ तयं वेति गोयमा ? सव्वकेवली एवं तु समिलं तेहिं कम्मकुरुडेहिं गोयमा ? सेसो भट्ठो अणंतेहि जे आरंभे पवतए आरंभे वट्टमाणस्स बद्धपुट्ठनिकाइयं, कम्मं वद्धं भवे तम्हा, तम्हारंभ विवज्जए।पुढवि इअजीवकायंता सव्वभावे हिसव्वहा 1 आरंभे जे निअट्टेजा से अइए जम्मजरामरणसव्वदारिद्वदुक्खाण विमुच इति अ.२ / तथाचवृहत्कल्पे वस्वच्छेदनमधिकृत्य विनाय आरंभमिणं सदोसं तम्हा जहालद्धमधिद्विहिज्जा, वुत्तं स ए उ खलु जावदेही ण होति सो अंतकरी तु भावे। इयमनंतरोक्त सर्वलोकपूरणात्मकमारंभंसदोषं सूक्ष्मजीव-विराधनया सावधं विज्ञाय तस्मात्कारणाद्ययालब्धं वस्त्रम धितिष्ठेत् न च्छेदनादिकं कुर्यात् यतउक्तं भणित व्याख्याप्रज्ञप्तौ यावदयं देही जीवः सैजः सकंपचेष्टावानित्यर्थः / तावदसौ कर्मणो भवस्य वा अंतकारी न भवति तथा च तदालापकः जाव णए सजीवं सयासमियं एयइ वेयइ बलइ फंदइ वट्टइ खझइ ओदीरइ॥ तं तं भावं परिणमइ ताव णं तस्स जीवस्स अंते किरिया न भवति। आरंभाचावश्यं विरमेत् वृ. उ०३।। तथा च सूत्र कृताने श्रु०१२॥ मायाहि पियाहिं लुप्यइ नो सुलहा सुगई य पेचओ। एयाइ भयाइं पेहिया आरंभा विरमेज सुवए।। टी तथा मायाही इत्यादि कश्चिन्मातापितृभ्यां मोहेन स्वजनस्नेहेन च / नधर्म प्रत्युद्यमं विधत्ते सच तैरेव मातापित्रा-दिभिलुप्यतेसंसारे भ्राम्यते। तथाहि / विहितमलोह-महोमहन्मातापितृपुत्रदारबधुसंज्ञं / स्नेहमयमसुमतामतः किं बंधनं श्रंखलं खलेनधात्रा // 1 // तस्य च स्नेहाकुलितमानसस्यसदसद्विवेकविकल्पस्य स्वजनपोषणार्थं यत्किचनकारिण इहैव सद्भिनिंदितस्य सुगतिरपिप्रेत्य जन्मांतरेनो सुलभाऽपितु माता पितृव्यामोहितमनसस्तदर्य क्लिश्य तो विषय सुखेप्सातश्चदुर्गतिरेव भवतीत्युक्तं भवति। तदेवमेतानि भयानि भयकारणानि दुर्गतिगमनादीनि (पहियत्ति) प्रेक्ष्य आरंभात्सावद्याऽनुष्टानरूपाद्विरभेत्। सुव्रतः शोभनग्रतः सन् सुस्थितोवेति पाठान्तरं ||30 अनिवृत्तस्य दोषमाह (जमिणमित्यादि)"जमिणं जगति पुढो जगा कम्मेहि लुप्यति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहरु णोतस्स मुच्चेज पुट्ठयं ॥४|टीला (जमिणमित्यादि) यद्यस्मादनिवृता नामिदं भवति किं तत् जगति पृथिव्यां (पुढोत्ति) पृथग्भूता व्यवस्थिताःसावद्यानुष्ठानोपचितैः कर्मभिर्विलुप्यतेनरकादिषु यातनास्थानेषु भ्राम्यते। स्वयमेव च कृतैः कर्मभिर्नेश्वराद्यापादितेहिते नरकादिस्थानानि यानि तानि वा कर्माणि दुःख-हेतूनि गाहते उपचिनोति / अनेन च हेतुसद्भाबः कर्मणामुपदर्शितो भवति न च तस्याऽशुभाचरितस्य कर्मणो विपाकेनास्पृष्टोऽच्छुप्तो मुच्यते जंतुः कर्मणामुदय मननुभूय तपोविशेषमंतरेण दीक्षाप्रवेशादिनान तदपगमं वि धत्त इति भावः / / आरंभ रहितएव च मुनिर्भवति तथाच सूत्रकृताङ्गे धम्हस्सय पारए मुणि आरंभस्सय अंतएट्ठिए सोयंतियणं ममाइणो णो लब्भंति णियं परिग्गह।।२॥ धर्मस्य श्रुतचा रित्रभेदभिन्नस्य पारंगच्छतीति पारगः सिद्धांतपारगामी सम्यक् चारित्रानुष्ठायी वेति / चारित्रमधिकृत्याह / आरंभस्य सावधानुष्ठानरूपस्यांते पर्यते तदभावरूपे स्थितो मुनिर्भवति ये पुन नैवं भवंति ते अकृतधाः मरणे दुःखे वा समुपस्थिते आत्मानं शोचंति / णमिति वाक्यालंकारे / यदि चेष्टमरणादाऽवर्थनाशे वा (ममाइणोत्ति) ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचंति / शोचमाना अप्येते निजमात्मीयं परिसमंतात् गृह्यते आत्मसात्क्रियत इति / परिग्रहो हिरण्यादिरिष्टस्वजनादि / नष्टांमृतं वा न लंभते न प्राप्नुवंतीति / यदि वा धर्मस्य पारगं मुनिमारंभस्यांते व्यवस्थित मेनमागत्य स्वजनामातापित्रादयः शोचंति ममत्वयुक्ताः स्नेहालवः न च ते लभंते निजमप्यात्मीयपरिग्रहबुद्धया गृहीतमिति। आरम्भस्य दुःख-विपाकत्वं सूत्रकृताङ्गे यथा।। वेराई कुय्वई वेरी, तउवेरिहिं रज्जती। पावोवगाय आरंभा दुक्खफासाय अंतसो।। सांप्रतं जीवोपधातविपाकदर्शनार्थमाह ! (वेराई इत्यादि) वैरमस्यास्तीति वैरी स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबंधीनि वै राणि करोति / ततोऽपि च वैरा दप रैवररैनुरुध्यते / वैरपरपरानुषंगी भवतीत्यथः / किमिति / यतः पापं उपसामीप्येन गच्छंतीति पापोपगाः क एते आरंभाः सावद्यानुष्ठान रूपाः / अन्तशो विपाककाले दुःखं स्पृशंतीति दुःखस्पर्शा असातोदयविपाकिनो भवंतीति। सूत्र० श्रु०१ अ० ८(सारम्भस्य सपरिग्रहस्य च मोक्ष-मार्गो नास्ति) तता सूत्रकृताङ्गे।। सपरिग्गहाय सांरभा इह मेगेसिमाहियं / अपरिग्गहा अणारंभा भिक्खू ताणं परिवए / / 3 / / सपरिगहा इत्यादि सह परिग्रहेण धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्त्तते तदभावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूविंतः सपरि-ग्रहाः। तथा सहारंभणे जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारेण वर्तत शति तदभावेऽप्योद्देशिकादिभोजित्यात्सारंभाः। तीथिकादयः सपरिग्रहारंभकत्वेनैव च मोक्षमार्ग प्रसाधयंतीति दर्शयति। इह परलोकचिंतायामेकेषां केषांचिदाख्यातंभाषितं यथा कि मनया शिरस्तुंडमुंडनादिक या क्रि यया परं गुरोरनुगृहात्परमक्षरावाप्तिस्तद्दीक्षावाप्तिा यदि भवति ततो Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भ 399 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भ मोक्षो भवतीत्येवं भाषमाणास्ते न त्राणाय भवंतीति / ये तु त्रातुं समथास्तान्पश्चार्द्धन दर्शयति। अपरिग्रहाः। न विद्यते धर्मोपकारणादृत्ते शरीरोपभोगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो येषां ते अपरिग्रहाः। तथा न विद्यते सावद्य आरंभो येषां तेऽनारंभास्ते चैवं भूताः कर्मलघवः स्वयं यानपात्रकल्पाः संसारमहोद-धेर्जतूत्तारणसमर्थास्तान् भिक्षुर्भिक्षणशील उद्देशिकाद्यपरिभोजी त्राणं शरणं परिसमंताद्व्रजेद्गच्छेदिति // 30 कथं पुनः पुनस्तेनापरिग्रहेणाऽनारंभेण च वत्तनीयमित्येत इर्शयितुमाह। कडेसु घासमेसेज्जा, विऊ दत्तेसणं चरे। अगिद्धो विप्पमुक्को, अउमाणं परिवज्जए ll टी.।। कडेसु इत्यादि गृहस्थैः परिग्रहारंभद्वारेणाऽत्मार्थं ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यते / तेषु कृतेषु परकृतेषु परनिष्ठितेष्वित्यर्थः। अनेन च षोउशोद्मपरिहारः सूचितः। तदेवमुद्रमदोषरहितं ग्रस्यत इति ग्रास आहारस्तमेवंभूत-मन्वेषयन्मृगयेत् याचेतेत्यर्थः / तथा। विद्वान् संयमकरणैकनिपुणः परैराशंसादोषरहितै यन्निःश्रेयसबुद्ध्या दत्तमित्यनेन षोडशो-त्पादनदोषाः परिगृहीता द्रष्टव्याः / / तदेवंभूते दौत्यधात्रीनिमित्तादिदोषरहिते आहारे स भिक्षुः एषणां ग्रहणेषणां चरेदनुतिष्ठेदित्यनेनाऽपि दशैषणा दोषाः परिगृहीता इति मंतव्य / तथा / अगृद्धोऽनुध्युपपन्नोऽमूर्च्छितस्तस्मिन्नाहारे रागद्वेषविप्रमुक्तः। अनेनाऽपि चग्रासेषणा दोषाः पंच निरस्ता अवसेयाः स एवंभूतो भिक्षुः परेषामपमानं परावमदर्शित्वं परिवर्जयेत् परित्यजेत् ।नतपोमदं ज्ञानमदं च कुर्यादिति भावः सूत्र श्रु.१ अ०१।। आरंभेण च विद्याचरणे न लभते तथा च स्थानाङ्गे विद्याचरणेच कयमात्मा नलभत इत्याह!|स्था ठा०२ // दोहणांई अपरियाणित्ता आयाणो केवली पन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए तंजहा आरंभे चेव परिग्गहचे व दोहाणाई अपरियाइत्ता आयाणो केवलं बोधि बुज्झिज्जा तंजहा आरंभे चेव परिग्गहे चेव // दोट्ठाणाइत्यादि सूत्राण्येकादशद्वे स्थानेद्वेवस्तुनी। (अपरियाणित्तति) अपरिज्ञाय ज्ञपरिज्ञया यथतावारम्भपरिग्रहा वनर्थाय तच्छा अलं ममाभ्यामिति परिहाराभिमुख्यद्वारेण प्रत्याख्यानपरिक्षया अप्रत्याख्याय च ब्रह्मदत्तवत्तयोरनिर्विण्ण इत्यर्थः / / अपरीयाइत्तत्ति। क्वचित्याठस्तत्र स्वरूपस्तावदपर्यादाय अगृहीत्वेत्यर्थः आत्मनो नैव केवलिप्रज्ञप्तं जिनोक्तधर्मं लभेत श्रवणतया श्रवणभावेन श्रोतुमित्यर्थः तद्यथा आरम्भाः कृष्यादिद्वारेण पृथिव्याधुपम स्तान्परिग्रहा धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्यादय स्तानिह चैकवचनप्रक्रमेऽपि व्यक्त्यपेक्षं बहुबचनमवधारणसमुच्चयो स्वबुध्याज्ञेयाविति केवलां शुद्धं वाधि दर्शनं सम्यक्त्वमित्यर्थोबुध्येत अनुभवेत अथवा केवल या बोध्येति विभक्ति परिणामात् बोध्यं जीवादीति गम्यते बुध्येत श्रद्दधीतेति|स्था.२ ठा! दोहाणाई अन्नो केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अण्ण गारियं पव्वेज्जा तंजहा आरंभे चेव परिग्गहे चेव एवं णो कवल बंभचरं वावि समावसेजा णो केवलण संज मेणं संजमेजा नो केवलेणं संवरेणं संवरेजा नो केवलमामिणिबोहिय णाणं उप्पाडेबापदं सुअणाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं दो ठाणाई परियाइत्ता आया केवलीपन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए तंजहा आरंभे चेव परिग्गहे चेव एवं जाव केवल-नाणमुप्पाडेजा। टी० // मुण्डो द्रव्यतः शिरोलोचनं भावतः कषायाद्यपनयनेन भूत्वा संपद्य अगारातहान्निष्कम्येति गम्यते केवलाभित्यस्येह सम्बन्धात्केवलाम्परिपूर्णाम्बिशुद्धां वा अनगारितां प्रव्रज्यां प्रव्रजेत् यायादिति / एवमिति / यथा प्राक्तथोत्तरवाक्येऽपि / / दोठाणाइत्यादि॥ वाक्यं पठनीयमित्यर्थः ब्रह्मचर्येणाब्रह्मविरमणेन वासो रात्रौ स्वापः तत्रैव वा वासो निवासो ब्रह्मचर्यवासः तमावसेत्कुर्यादिति संयमेन पृथिव्यादि रक्षणलक्षणेन संयमयेदात्मानमिति संवरेणाश्रवनिरोधलक्षणेन संवृणुयादा-श्रवद्वाराणीति गम्यते केवलं परिपूर्ण सर्व स्वविषयग्राहकं / आभिणिबोहियणाणं // अर्थाभिमुखो विपर्ययरूपत्त्वानियतो-ऽसंशयस्वभावत्त्वाबोधोवेदन माभिणिबोधः स एवाभिनिबोधिकं तच तज्ज्ञाननश्चेत्याभिनिबोधिकज्ञान मिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं ओघतः सर्वद्रव्यसर्वपर्यायविषयं उप्पाडेअत्ति // उत्पादयेदिति तथा एवमित्यनेनोत्तरपदेषु नो केवलं उप्याडजति द्रष्टव्यं सुयणाणत्ति) श्रूयतेतदिति श्रुतं शद्व एव सचभावश्रुतकारणत्वाज्ज्ञानं श्रुतग्रन्थानुसारिओधतः सर्व द्रव्यसर्वपर्यायविषयमक्षरश्रुतादिभेदमिति / तथा ओहिणाणंत्ति / अवधीयते अनेनास्मादस्मिन्वेत्यवधिः अवधीयत इत्यधोधोविस्तृतम्परिच्छिद्यते मर्यादया वेति अवधिज्ञा इत्यधोधो विस्तृतम्परिच्छिद्यते मर्यादया वेति अवधिज्ञानावरण क्षयोपशम एव तदुपयोगहेतुत्वादिति अवधानम्याऽवधि विषयपरिच्छेदनमिति अवधिश्चासौ ज्ञानंचेत्यवधिज्ञानं इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनोरूपिद्रव्य-साक्षाकारणमिति तथा मणपज्जवनाणंति।मनसि मनसो वा पर्यवः परिच्छेदः स एव ज्ञानमथवा मानसः पर्थवाः पर्याया वा विशेषावस्था मनः पर्यवादयः तेषान्तेषुवा ज्ञानम्मनःपर्यवज्ञानमेवमितरत्रापि समय क्षेत्रगतसंज्ञिमन्यमानमनो द्रव्यसाक्षात्कारीति / (केवलनाणंति) केवलमसहायं मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलङ्कञ्चावरणमलाभावात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवा शेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्यतेरसाधारणं वाऽनन्यसदृशत्वादनन्तं वा ज्ञेयानंतत्वात्तच्च तजज्ञानश्च केवलज्ञानमिति ठा०२॥ कुशलारब्धमेव चारब्धव्यम् तथा चाचाराङ्गे अ.३ उ०१॥ कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्को सेजं च आरंभ / / जं च णारभे अणारद्धं च ण आरम।। टी० // कुशलेत्यादि कुशलोऽत्र क्षीणधातिकाशी विवक्षितः स च तीर्थकृत्सामान्यके वली वा छद्मास्यो हि कर्मणा बद्धो मोक्षार्थी तदुपायान्वेषकः केवली तुपुनर्धातिकर्मक्षयान्नो बद्धो भवोपग्राहिकर्मसद्भावान्नो मुक्तो यदिवा छद्मस्थ एवाभिधीयते कुशलोऽवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकषायो-पशमसगावातदुदयवानिव न बद्धोऽद्यापि तत्सत्कर्म तासद्भावान्नो मुक्त इत्यादि एवंभूतश्च कुशलः केवली छद्मस्थो वा यदा-चीर्णवानाचरितवान् तदपरेणापि मुमुक्षुणा विधेयमिति दर्शयति / सेजंच इत्यादि सकुशलो यदारभते आरब्ध Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भग 400 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आरम्भटिन) - वान्वा शेषकर्मक्षपणोपायं संयमानुष्ठानं यच्च नारभते मिथ्या त्वाविरत्यादिकं संसारकारणं तदारब्धव्यमनारंभणीयं चेति संसारकारणस्य च मिथ्यात्वाविरत्यादेः प्राणातिपाता-द्यष्टादशरूपस्य चैकांतेन निराकार्यत्वात्तनिषेधं च विधेयस्य संयमानुष्ठानस्य सामायातत्वात्तन्निषेधमाह / अणारद्ध चेत्यादि अनारब्धमनाचीर्ण केवलिभिविशिष्टमुनिभिर्वा तन्मुमुक्षु नरिभेत नोकुर्यादित्युपदेशो यच्च मोक्षांगमाचीर्णं तत् कुर्यात् प्रस्तावने वधे दर्ये च द्रव्याणां द्रव्यान्तरेण गुणानां गुणान्त-रेणोत्पादे वैशेषिकोक्ते व्यापारे - द्रव्यारंभश्चतुषु स्यात् कर्मणि घञ् आरम्यमाणे। फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तनाइवरघुः चित्रार्पितारम्भइवावतस्थे। कुमा. वाच० / / आरभ्यत इत्यारम्भः जीवे-आरम्भयते विनाश्यन्ते इत्यारंभा जीवा इति / / प्रश्न, द्वा० 1 / / आरंभकड-त्रि० (आरंभकृत्) (आरम्भेण कृते) आरंभकडेति वा सावजकडेत्ति वा पयत्तकडेत्ति वा (आरंभकृतमेतत् सावध-कृतमेतत्) प्रयत्नकृतमेतदित्ति // आचा० अ०४ उ.१ आरंभकरण-न. (आरम्भकरण) व्यापारकरणे (हिंसालीयअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारंभकरणकारावणाणुमोदणअट्ठविहअणि? कम्मपिंडितगुरुभारकन्तदुग्गजलोघदूरनिबोलिज्जमाणउम्मग्गनिमग्गदुल्लहत्तलं) हिंसालीकादत्तादानमैथुनपरि-ग्रहलक्षणा ये आरम्भा व्यपारास्तेषां यानि करणकारणा-नुमोदननिति / / प्रश्न द्वा०३॥ आरम्भणमारम्भः पृथिव्या-छुपमर्द्धनन्तस्य कृतिः करणम्स एव वा करणमित्यारम्भकरणम् करणभेदे स्था द्वा०३॥ आरंभकहा-स्त्री. (आरंभकथा) तित्तिरादीनामियत्तां तत्रोपयोग इत्यारंभकया विकथाभेदे साच भक्तकथायास्तृतीयो भेद इति // स्था. ठा०४॥ आरंभकिरिया-स्त्री. (आरंभक्रिया) क्रियाभेदे आरंभक्रिया द्विविधा जीवारंभक्रिया अजीवारंभक्रिया तत्र जीवां भक्रिया जीवानारभते अजीवारम्भक्रिया अजीवानारभत इति / / आ. चू. / / एत द्वक्तव्यताऽऽरम्भिकीशब्देऽपि॥ आरंभझाण-न (आरंभध्यान) आरम्भः परोपद्रवस्तस्यध्यानम् परोपद्रवध्याने (आरंभझाणे) आरंभः परोपद्रवस्तस्यध्यानम् कुरुडोत्कुरूडयोरिव द्वीपायनस्येव वा तस्मिन् इति / आतुः / / आरंभग-क्रि (आरम्भक) आरभ ण्वुल मुम् आरम्भकारके ॥वाच०। सावद्यारम्भप्रवृत्ते आचाराड़ पंचमाध्ययनप्रथमो-द्देशकस्योद्देशार्थ मधिकृत्य निर्युक्तौ, हिंसगविसयारंभो एगचरोत्ति न मुणि पढमगंमि ॥आचा. 5 उ०१ अ हिनस्तीति हिंसक आरम्भणमारम्भो विषयाणामारम्भोऽस्येति विषयारम्भकः व्यधिकरणस्याऽपि गमकत्वात्समाभः ण्वुलन्तस्य वा याज-कादिदर्श नात्समासो विषयाणामारम्भको विषययारंभक इति हिंसकश्च विषयारम्भश्चेति विगृह्य समाहारद्वंद्धः प्राकृतत्त्वात् पुल्लिंङ्गता अयमर्थो हिंसकः प्राणिनां विषयारम्भकश्च विषयार्थसावद्यारम्भप्रवृत्तश्च न मुनिस्तथा विषयार्थमेक एव चरत्येकचरः स च न मुनिरित्येतदधिकारत्रयं प्रथमोद्देशके। आचा० / / अ०५ऊ.॥ (सावद्यानुष्ठाने पुंआरम्भगं चेव परिग्गहं च अविउस्सिया मिस्सिय आयदंडा आरम्भं सावधानुष्ठानमिति। सूत्रः / श्रु०२ अ०६ वैशेविकादिमतसिद्धे महत्वाद्युपचयाय अवयवानां विजा-तीयसंयोगे च, तत आरम्भसंयोगनाशः / / मुक्ता० / आरम्भ-वादशब्दे // शा. भा. उदा.!! आरम्मजीविन-पु. (आरम्भजीविन्) आरम्भः सावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा तेन जीवितुं शीलमेषामित्यारम्भजीविनः / साव-दयानुष्ठानप्रवते (लोगंसि अणारंमजीवी) आ. चा० अ५३१॥ आरम्भः सावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा उक्तंच "आयाणे णिक्खेवे, भासुसगेय ठाणगमणादी, सव्वोपमत्तजोगो समणस्स ओ होइ आरंम्भो। तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितुं शीलमेषामित्यनारम्भजीविनो यतयः समस्तारम्भनिवृत्तास्तेष्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भजीविनो भवन्ति एतदुक्तं भवति सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनव-द्यारम्भजीविनस्साधवः पंकाधारपंकजवन्निर्लेपा एव भवन्ति आरम्भेण जीवितुं शीलमस्येत्यारभजीवी महारम्भपरिग्रहप्रकल्पितजीवनोपाये। आ. चा अ५उ॥ आरंभजीवी उभयाणुपस्सी || आचा. अउ१ सावद्यानुष्ठानस्थिति के सावद्यानुष्ठानवृत्तिके च // आरमट्ठाण-न. (आरम्भस्थान) सावद्यारंभाश्रये सूत्र (तत्थणं जासा सव्वतो अविरइएसट्ठाणे आरंभट्टाणे अणारिएजाव असव्वदुःखप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे) असाहूतत्र पूर्वोक्तेषुयेयं सर्वात्मना सर्वस्मात् अविरतिर्विरति परिणामाभावः / एतत्स्थानं सावद्यारम्भस्थानमाश्रयस्तदाश्रित्य सर्वाण्यपि कार्याणि क्रियते यत एवमत एतदनार्यस्थान निःशूकतया यत्किंचनकारित्वाद्या-वदसर्वदुःखप्रक्षीणमार्गोऽयं तथैकांतमिथ्यारूपो साधुरिति आरम्भ एव स्थानम् वस्तुआरंभस्थानम् प्रमत्तयोगलक्षणे वस्तुनि तथा च स्थानाङ्गे / / स्था. ठा० 10 / / अथ महापद्मस्यआत्मनश्च सर्वज्ञत्वात्सर्वज्ञपोश्च मतामेदात् भेदे चैकस्यायथावस्तुदर्शनेनाऽसर्वज्ञता प्रसंगादित्युभयोभगवान् समां वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाह / से जहा नामए अमोमए समणाणं निग्गंथाणं एगे आरभट्ठाणे प. एवामेव महापउमेविहा समणाणं निग्गंथाणं एगं आरंभट्ठाणं पनवेहिंति॥ टी० // सेजहेत्यादि सइत्यथार्थोऽथशदश्च वाक्योपन्यासार्थो यथेत्सुपमार्थः / नामएत्ति // वाक्यालंकारे / अजोत्ति // शिष्या-मंत्रणं / / एगे आरंभट्ठाणेत्ति / / आरम्भएव स्थानं वस्तु आरम्भस्थान मेकमेव तत्तत् प्रमत्तयोगलक्षणत्वात्तस्य यदाह सव्वोपमत्तजोगो समणस्सउ होइ आरंभोत्ति ठा.९। आरंभट्टि (न्)-पुं० (आरम्भार्थिन) सावद्यारंभप्रवृत्ते, आरंभट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे धायमाणे हणओ यावि समणुजाणमाणे | आचा, अ०६ ऊ४। आरम्भार्थी सावद्यारम्भप्रवृत्तः कुत आरम्भार्थी यतः प्राण्युपमईवादाननुवदन्नैतद् ब्रूषे तद्यथा जहि प्राणिनोपरै रेवं घातयन् प्रतश्चापि समनुजानासीति, टी. (तेइहारंभट्ठी) ते अनधीता-चारगोचर भिक्षाचर्यास्ते न स्वेदमलपरीषह तर्जिताः सुख-विहारिभिः शाक्यादिभिरात्मसात्परिणामिता इह मनुष्यलोके आरम्भार्थिनो भवन्ति ते वा शाक्यादयोऽन्ये वा कुशीलाः सावद्यारम्भार्थिन / इति Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भपरिणाय 401 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरम्भसंभिय आचा० अ०७ उ०१॥ लक्षणः परिज्ञातस्तथैव प्रत्याख्यातो येन-सावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धः आरम्भणिस्सिय-त्रि (आरम्भनिश्रित) आरम्भे हिंसादिके अष्टम्या उपासकप्रतिमयोपेते श्राद्धे तथा च स मवायाङ्गे / अष्टमी सावधानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः सम्बद्धा अध्युपपन्ना आर-म्भनिश्रिताः मुपासकप्रतिमामधिकृत्य (आरंभ-परिणाए) // सम० 11 / आरंभः हिंसादिकसावद्यानुष्ठानेऽध्युपपन्ने (जे इह आर-म्भणिस्सिया सूत्र० श्रु१ | पृथिव्याधुपमईनलक्षणः परिज्ञातस्तथैवप्रतया ख्यातो येनासावारंभअ२॥ जे य आरम्भणिणिस्सया,) ये चान्ये वापसदानानारूपसा परिज्ञातः श्राद्धो-ऽष्टमीप्रतिमेति // वद्यारम्भ निश्रिता यंत्रपीडन निलांछनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषै / आरम्भपसत-त्रि. (आरंभप्रसक्त) आरम्भेषु पृथिव्याधुपमईनेषु जीवोपमईकारिण इति, // सूत्र० श्रु.१ अ०९॥ प्रसक्तस्तत्परः आरम्भतत्परे ग० अ०२॥ (मंदा आरम्भणिस्सिया)। आरंभय-त्रि० (आरम्भज) आरम्भः सावधक्रियानुष्ठानं तस्माआरम्भे प्राण्युपमईकारिणि व्यापारे निश्रिता आसक्तास्सम्बद्धा जातमारम्भजं सावधक्रियानुष्ठानेन जाते॥ आचा अ३अ (आरंभ अध्युपपन्ना इति / / प्राण्युपमईकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे दुक्खमिणंतिणचा) | आचा, अ२ उ१॥ आरम्भः सावधक्रियानुष्ठानम् व्यापारे निश्चयेन नितरां चाश्रिताः सम्बद्धाः पुण्यपापयोरभाव इत्याश्रित्य तस्माज्जातमारम्भ किंतत् दुःखं तत्कारणं वा कर्म इदमिति प्रत्यक्ष परलोकनिरपेक्षयाऽऽरम्भनिश्रिता इति।। सूत्र० / / श्रु०११॥ गोचरापन्न मशेषारम्भप्रवृत्त प्राणिगणानुभूयमानमित्येतत् ज्ञात्वा परिच्छिद्य निरारम्भो भूत्वाऽऽत्महिते जागृहि सावधक्रियानुष्ठानमारम्भ आरंभदोस-पु. (आरम्भदोष) क्रियाफले (पागोवजीविणोत्तिय किंतत्-दुःखमिदमिति सकलप्राणिप्रत्यक्षं तथा हि कृषिसेवा लिप्पंतारंभदोसेणं) पाकोपजीविन इति कृत्वा लिप्पंते आरम्भदोषेणा वाणिज्याद्यारम्भप्रवृत्तोयच्छारीरमानसंदुःख मनुभवति तद्वा चामगोचर हारक्रियाकरणपलेनेच्यर्छइति॥ दश अ०१॥ इत्यतः प्रत्यक्षाभिधायिनेदमुक्तमितिरूपप्रदर्शने इत्येतदनुभवसिद्धंदुःखं आरंभपडिमा स्त्री. (आरम्भप्रतिमा) अष्टम्यां प्रतिमायाम् अष्टौ मासान् ज्ञात्वा मृताचार्ग्यधर्म विद ऋजवश्व भवन्तीति (पाणाइवाए दुविहे पण्णते स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्ठमी / / ध० अधि२॥ तंजहा संकप्पओअ१ आरंभओअ३) आव० // आरंभाजातस्तत्रारम्भो आरंभपरिग्गहचाय-पुं० (आरम्भपरिग्रहत्याग) आरम्भपरि-ग्रहवर्जने हलदंतो-लूखलादिखनन सूनाप्रकार स्तस्माच्छं खचंदनक (भावेण जिणमयंमि उ आरंभपरिग्गहचाओ) पं० 20 // भावेनेति भावतः पिपिलिकाधा-न्यगृहकारिकादिसंघट्टन परितापा पद्रावण लक्षण इति। परमार्थतः जिनमत एवं रागादिजेतृत्वाजिनः। तन्मत एववीतरागशासन | आवा एवेत्यर्थः आरम्भपरिग्रहत्यागः। वक्ष्यमाणारम्भपरिग्रहवर्जनं जिनशासन आरंभपेसउबिट्ठवजय-पु. (आरंभप्रेषोद्दिष्टवर्जक) अष्टम्या-मुपासक एवान्य-शासनेष्वारम्भपरिग्रहस्वरूपानवगमात्सम्यक्त्यागानुभव इति प्रतिमायां तथाच पञ्चाशके। गाथार्थः। आरंभ पेसउद्दिह वजए, समणभूएय। आरम्भपरिग्रहस्वरूप प्रतिपादनायाह। पं. वृ०१ तथा आरंभश्च स्वयं कृष्यादिकरणं प्रेषश्वप्रेषणं परेषां कृष्यादिषु पुढवाइसु आरंभे परिग्गहो धम्मसाहणं मुत्तुं, प्रवर्तनं उद्दिष्टं चाधिकृतश्रावक मुद्दिश्य सचेतनंसदचेतनीकृतंपकंवायो मुच्छय तत्थबाह्यो इरेयरो मिथ्यतमाईओ / / 7 / / वर्जयति परिहरते असावारंभ प्रेषो-द्दिष्टवर्जकः प्रतिमेति प्रकृतमेव इह व्याख्या। पृथिव्यादिषु कार्येषु विषयभूतेषु आरम्भ इत्यारम्भणमारम्भः च प्रतिमाप्रतिमाव-तोरभेदादेवमुपन्यासः // 15|| संघट्टन्नादिरूपः परिग्रहं परिग्रहः असौद्विविधः बाह्याभ्यंतरश्च तत्र | आरंभरय-त्रि. (आरंभरत) सावद्यानुष्ठानरते। धर्मसाधनं मुखवस्त्रिकादि मुक्त्वा बाह्य इति संबंधः / जेमयआरंभ रया, तेजीवा होंति अप्पह दोसयए, अन्यपरिग्रहणमिति गम्यते, मूर्छा चतत्रधर्मोपकरण-बाह्या एव परिग्रह तओमहापावयरा, जे आरंभपसंसंति। दश / इति इतरस्त्वांतरपरिग्रहो मिथ्यात्वादिरेव आदिशब्दादविरति दुष्टयोगा आरंभवंत-त्रि (आरंभवत्) आरंभप्रवृत्ते षो. विव०९ गृह्यते परिगृह्यते न कारणभूतेन कर्मणा जीव इति गाथार्थः। आरंभवजय-त्रि. (आरंभवर्जक) आरंभपरिहारके वंचैका दशसूपासक त्यागशब्दार्थ व्याचिख्यासुराह॥ प्रतिमास्वष्टमी प्रतिमेति प्रश्न, द्वा० 5 अष्टौमासान् ह्ययमारंभं न चाउइमेसि संगं मणवयकाएहिं अप्पवित्तिओ। करोतीत्यष्टमीति। ध० अ०२। एसा खलु पव्वज्जा मुक्खफला होइ नियमेणं // आरंभविणय-पु. (आरंभविनय) पुं. आरंभविनय आरंभाभावः सविद्यते व्याख्या / त्यागः प्रोज्झनभनयो रारम्भपरिग्रहयोः सम्यक् प्रवचनोक्तेन येषामिति मत्वर्थीयः आरंभाभाववति। आचा० / अ० 4 उ०२। विधिना मनोवाक्वायैः त्रिभिरप्पप्रवृत्तिरेव। आरम्भेपरिग्रहे च मनसा वाचा आरंभसंभिय-त्रि० (आरंभसंभृत) आरंभैः संभृता आरंभसंभृता कायेनाप्रवर्तनमिति भावः एषा खल्विति एषैव प्रव्रज्या यथोक्त स्वरूपा आरंभपुष्टे / आरंभ सभिया कामा नते दुःखविनोयगाः / आरंभैः मोक्षफला भवतीतिमोज्ञः फलं यस्याः सा मोक्षफला भवति नियमेनावश्यं सम्यक्भृता आरंभपुष्टा आरंभाश्च जीवोपमर्दकारिणोऽतो नते काम तथा भावमंतरेणारम्भादौ मनौऽप्रवृत्यसंभवादिति गाथार्थः / / संभृताः आरंभनिश्रिताः परगृहनिविष्टाः दुःखयतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्म आरम्भपरिण्णाय-पु. (आरम्भपरिज्ञात) आरम्भः पृथि-व्याधुपमर्दन तद्विमोचकाभवंति तस्याऽपनेतारो भवंती-त्यर्थः / सू श्रु०१ अ०९/ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभसच 402 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरक्खिय आरंभसच-त्रि. (आरंभसत्य) आरंभोजीवोपद्यातस्तद्विषयं सत्य व्या। एभिः पूर्वोक्तः षड्भिरपि कायैस्त्रस स्थावररूपैः सूक्ष्म-बादर मारंभसत्यं आरंभविषये सत्ये ब. श०८ उ. 1 / पर्याप्तका पर्याप्तकभेदभिन्नैनारंभी नाऽपिपरिग्रही स्यादिति संबंधः / आरंभसचमगप्पओग-पु. (आरंभसत्यमनः प्रयोग) आरंभो तदेतद्विद्वान् सश्रुतिको ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान परिज्ञया जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारभसत्यं तद्विषयो यो मनः प्रयोगः आरंभ मनोवाकाय कर्मभिर्जीवोपमईकारिणामारंभं परिग्रहंच परिहरेदिति // . सत्यविषयक मनः प्रयोगे भ. श०८ उ.१॥ आरंभिया-स्त्री. (आरंभिकी) आरंभः प्रथिव्याधुपमईः सप्रयोजनं कारणं आरंभसचमणप्प ओगपरिणय-त्रि (आरंभसत्यमनः-प्रयोगपरिणत) यस्याः साऽऽरंभिकी। स्था. ठा०२ क्रियाभेदे-भ. श. 1 उ.२।। आरंभो जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारंभसत्यं तद्विषयो यो मनः आरंभिया किरिया दुविहा पं.तं. जीवआरंभिया चेव अजीव प्रयोगस्तेनपरिणत यत्तत्तया आरंभसत्य-विषयक मनः प्रयोगपरिणते आरंभिया चेव / / स्था.ठा.५॥ द्रव्यादो (जइसच्चमणप्पओग परिणए कि आरंभ सच्चमणप्पओग परिणए जीवआरंभियाचेवत्ति-यज्जीवानारभ माणस्योपमृगतः कर्मबन्धनं सा अणा रंभसच्चमणप्पओग परिणए) भ. श०८ उ०१ // जीवरंभिकी अजीवारंभिया चेवत्ति यच्चाजीवान् जीवकलेवराणि आरंभसत्त-त्रि (आरंभसक्त) आरंभे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तो लग्नः षिष्टादिमयजीवाकृतीश्ववस्त्रादीन्या रंभमाणस्य सा अजीवारंभिकीति आरंभलग्ने। सू. श्रु.१ अ१। स्था.। आव चू। वेराणु गिद्धे (पाठान्तरे आरभसत्तो) णिचयंकरे ति, आरंभियाणं भंते ! किरिया कस्स कमइ गोयमा! इओ चुते सुदुहमट्ठदुग्गं। तम्हाउमेधाविसमिक्ख धम्म चरेमुणी अन्नयरस्स विपमत्तसंजतस्स,प्रज्ञा० / / पद२२|| सय्वओविप्पपुक्को त टी०॥ अन्नयरस्स वि पमत्तसंजतस्स इति / अत्रापि शब्दो भिन्नक्रमः प्रमत्त व्या। येन केन कर्मणा परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यतेजन्मान्तरशतानु संयतस्याप्यन्यतरस्य एकतरस्य कस्यचित्प्रभादे सति कायदुःयायि भवति तत्र गृद्धो वैरानुगृहः पाठान्तरं वा (आरंभसत्तोत्ति) आरंभे प्रयोगभावतः पृथिव्यादेरुपमर्दसम्भवात् अपिशब्दोऽन्येषामधस्तन सावद्द्यानुष्ठानरूपे सक्तो लग्रो निरनुकम्पो निचयं द्रव्योपचयं गुणस्या न वर्तिनां नियम प्रदर्शनार्थः प्रमत्त संयतस्याप्यारंभिकी क्रिया तन्निमित्तापादितकर्मनिचय स्थानाचयुतोजन्मान्तरंगतः सन्वा करोति भवति किं पुनः शेषाणां देशविरति प्रभृतीनामिति एव मुत्तरत्रापि उपादत्ते स एवं भूत उपात्तवैरः कृतकर्मो पचय इत्यतोऽस्मात्स्थानाचयु यथायोगमपिशब्दभावना कर्तव्या / / तोजन्मांतरंगतः सन्ः दुःखयतीति दुःखंनरकादिकयातनास्थान मर्थतः परमार्थतो दुर्ग विषमां दुरूत्तरमुपैति यत एवं तत्तस्मान्मेधावी विवेकी आरंभोवरय-त्रि (आरम्भोपरत) सावद्यानुष्ठानादुपरते।। मर्यादावान् वा संपूर्ण समाधिगुणं जानानो धर्म श्रुत चारित्राख्यंसमीक्ष्या जे य पण्णाणमंतो पबुद्धा आरंभोवरता सम्ममेयंति पासह / लोच्यांगीकृत्य मुनिः साधुः सर्वतः स बाह्याभ्यंतरात्संगाद्वि आचा, अ५ उ.41 प्रमुक्तोऽपगतः। संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनकहेतुभूतं चरे दनुतिष्ठेत् आरंभः सावद्योयोगस्तस्मादुपरता आरंभोपरता इति। आचा.। स्त्र्यारंभादिसंगाद्विप्रमुक्तो निःश्रितभावेन विहरेदिति यावत् / / सेहु पण्णाणमंते बुद्ध आरंभोवरए सम्ममेयंति पासह आचा. (आरंभसत्तापकरंतिसंग) आरंत्रण मारंभः सावद्यानुष्ठानम् तस्मिन् अ०४ उ.३। सक्तास्तत्परा इति। आ० अ०१७ सावद्यानुष्ठानमारंभस्तस्मादुपरता आरंभोपरता इति। आरंभसमारंभ-पुं० (आरंभसमारंभ) आरभ्यंते विनाश्यते इत्यारंभाः जीवा स्तेषां समारम्भ उपमईः अथवा आरंभः कृष्यादि व्यापारस्तेन आरक्ख-पुं. (आरक्ष) आ-रक्ष-अच-हस्तिकुंभाधः स्थले, समारंभो जीवोपमईः अथवाऽरंभो जीवाना मुपद्रवणं तेन सह आरंभः आरक्षमग्रमवमत्य सृणिं शिताग्रां / माघः / हस्तिमस्तकचर्मणि, सैन्यचे परितापन मित्यारंभः समारम्भः जीवोपमईः कृष्यादिव्यापारेण रक्षके, त्रि. (सहसाहत्र मारक्षं मथ्यगं रक्षसां कपिः भट्टिः जीवोपमर्दे परितापसहित जीवाना मुपद्रवेण च प्राणवधे च तथा च (तेषाभारक्षभूतन्तुपूर्वं दैवं नियोजयेत्। मनुः वाच / / प्रश्रव्याकरणे प्राणवधस्य गौणनामा-न्यधिकृत्य आरंभः समारंभः चोरो यणगररक्खेण परिमस्समाणो तत्थेवअतिगतो नि.च, प्राणवधस्थ पर्यायः इति प्रश्नः / द्वा० 1 // १ऊ। आ. म.। आरंभि(न)-पु. (आरंभिन्) पापारंभान्वेषिणि / / राज्ञामात्मरक्षक-स्था. ठा३। उग्रे. उग्रवंश्ये, च आरक्षकाउदवण्णादेसीणारंभे कंचण सव्वलोए। ग्रदण्डकारित्वादुग्रा इति / आ. म. उग्रा आदिराजेनारक्षकत्वेन कप्पमुह विदिसप्ततिपणे / आ. अ. 5 ऊ / / व्यवस्थापितास्तद्वश्याश्चेति स्था०६ठा। भावे घञ् रक्षायां-पु. वाच // सचैवंभूतः सन्नारंभी स्यात् कुमार्ग परित्यागेन न पापारंभान्वेषी | आरक्खिय-पुं० (आरक्षिक) कोट्टपाले। वृ०। भवतीत्यर्थः आचा० सूत्र० श्रु.१ अ०९/ आरक्खि पुरिसेहिय अहोरायं रक्खिजइ नि. १ऊ। एतेहिं छर्हि काएहिं,तं विलं परिजाणिया। आरक्खिओ पुटवभणिओ आरक्खिगोत्ति। मणसा काय वकणं, णारंभी ण परिग्गही।। दंडवासिम्गो || निचू, 16 उ.। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरभ 403 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरबग आररिकयपुत्तेण हिडतेण चोरोत्ति काऊण भल्लण्णाहया आव० म० / / रम्भढवौ 14 इतिप्राकृतसूत्रेणाङः परस्यरभे रंभ ढव इत्यादशौ वा भवतः। आरग-पुं० (आरक) आक्षेपे, व्य.१ उ०। आरंभइ आढवइ / आरभइ / / प्रा. व्या०॥ आरगय-त्रि० (आरगत) आरद्भातस्थिते (आरगयाइं सद्दाई सुणेइ णो | आरभ(म्भ) इत्ता-अव्य, (आरभ्य) आ. रम ल्यप् / उप-क्रमेत्यर्थे / परगयाई) आराद्भागस्थितानिन्द्रियगोचरानित्यर्थः / भ०५ श०४ ऊ॥ | आरभंत-त्रि० (आरभमाण) आरंभं कुर्वति आइमिउ आरभंता. आरण-पुं० (आरण) सकलविमान प्रधानारणावतंसकाभिधान विमान आरभमाणा इति। स्था. ठा० 7 / विनाशयति च स्त्रियां डीप् / संघट्टता विशेषोपलक्षित आरणः। अनु / कल्पभेदे, सम.१०५। कल्पोपगवैमानिक रभन्तीय आरभमाणा तानेव षट्कायान् विनाशयंतीति ! पिं, वृत्तिः // देवलोकभेदे, च विशे० (आरणाअचुयाचेवइ इकप्पो वगंसुरा) उत्त० अ० आरभड-न. (आरभट) नाट्यभेदे स्था. ट 4 अष्टाविंशतिमेनाव्यविधिभेदे 22 प्रज्ञा पद०२। च आरभट नाम अष्टाविंशतितममिति / राज। स्वनामख्याते 4 दिवस आरनाल-न (आरनाल) सौवीरे पानकभेदे।। भवे। मुहुर्ते पु. छचेवयआरभडो सोमित्तो पंच अंगुलो होइ। द. प.८। सेजं पुण पाणगजायं जाणेज्जा तंजहा तिलोदगं वातुसोदगंवा आरः सामर्थ्येन गामीभटः शूरे वीरे. पु.। हेम० / वाच०। जवोदगं वा आयाम वा सौवीरं वा सुद्ध वियडंवा अण्णतरं वा आरभडभसोल-न० (आरभटभसोल) 30 नाट्यविधिभेदेआरभट भसोलं तहप्पगारं पाणगजायं पुष्वामेव आलोएन्जा। आचा. अ१ उ०७। नाम त्रिंशत्तममिति / राज. ! आ० म०॥ व्याः। यत्पनः पानकजातमेवं जानीयात् तद्यथा तिलोदक तिलैः | आरभडा--स्त्री० (आरभटा) प्रमादप्रतिलेखनाभेदे (आरभडासम्पदा केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकमेवं तुषै र्यवैर्वा तथा आचालम्भ वजेयव्वाय मोसली तइया) आरभटा विधेर्विपरीतकरणं त्वरित 2 पृथक् मवश्यानं सोवीरमारनालं शुद्धविकट प्रासुकमुदक मन्यद्वा तथा प्रकारं ३नवीनवस्त्रग्रहण एषा प्रथमा प्रसाद प्रतिलेखनेति। स्या०1 ठा०६॥ द्राक्षापानकादि पानकजातं पानीयसामान्य पूर्व मेवावलोकयेत्पश्येत्। आरभटा वितय करण रूपा अथवा त्वरितं सर्वमारभमाणस्थाथवा आरण्णय-न (आरण्यक) आवश्यके लौकिकं श्रुतमधिकृत्य लौकिक- प्रत्युपेक्षिता एवैकत्र यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं सा आरभटा साच वर्जनीया त्यारण्यकादि दृष्टव्यमिति ! आ. म. उ०१६ / (आरण्यग) त्रि. आरण्यं सदोषत्वात् इति (वित्तहकरणे चतुरियं अण्णं अण्णं च गिण्हआरभडा) गछंतीत्यारण्यगाः आरण्यगंतरि। नि. चू।। ध, अ०३।। वितथं विपरीतं यत्करणं तदारभटाशब्दे नोच्यते साचारभटा आरण्णरासि-पुं० (आरण्यराशि)नि कर्म आरण्यशब्दोक्तेसिंहे / प्रत्युपेक्षणा न कार्या इत्यर्थः / वा विकल्पेनेयं चारभटोच्यते यदुत मकरादिमार्द्ध दिवसे मेष वृषेचराशौ / वाच।। त्वरितमाकुलं यदन्यान्यवस्वग्रहणं तदारभटा शब्देनोच्यते। पंच औ०। आराण्णय--पु. (आरण्यक) अरण्ये वसत्याण्यकः कंदमूल फलाहारे आरभडी-स्त्री. (आरभटी) आरभ्यतेऽनया आ. रभ० अटडीप तापसे / दशा० अ० 10 अरण्ये वसंत्यारण्यकास्तेच कन्दमूलफलाहारा- नाट्ये। रचनाभेदे-वाच।। स्सतः केवन वृक्षमूले वसंतिति सूत्र / श्रु२०२१ अरण्येभवाआरण्यकाः आरभिय-न० (आरभित) नाट्यविधिभेदे (अप्पेइयादेवा आरभियं तीर्थिकविशषे। णट्टविहिं उपदंसेइ) राज०॥ *आरणिक पुं. अरण्ये चरंत्यारण्यकाः कंदमूलफलाशिनि तापसादौ आरमण-न. (आरमण) आ. रम. भावे. ल्युट् आरामे विश्रामे. सूत्र० श्रू.२ अ०२१ आरम्यतेऽनेन करणे ल्युट् आरति साधने। वाच / आरत-' (आरक्त) ईषद्रक्तवर्णे, वाच, आरक्त भीषद्रक्तमिति आचा० / आरय-त्रि० (आरत) आ. रम्, क्त, उपरते विरतेचः। सूत्र० / श्रु.१०४! अ०२ उ०३। तद्वतिसम्यगनुरक्तेच त्रि. भावे. क्त अनुरागे न वाचा० // अपगते। सूत्र० श्रु०१ अ०१५॥ आरात्तिय-न. (आरात्रिक) दीपार्तिक्ये, (आरात्रिकं जिना-र्चायाः, कृतं आरयमेहुण-त्रि. (आरतमैथुन) आरतमुपरतं मैथुनं कामाभिलाषो श्राद्धे ज्वलच्छिखं। दीप्यमानौषधीचक्रं शैलशृंगविकंबकम् / ध, अधि०२।। यस्यासा वा रतमैथुनः / सूत्र, श्रु.१ अ०४॥ (दढे आरय मेहुणे) आरद्ध-त्रि० (आराद्ध) आ. राधक्त संसिद्धे. तिका० आरतमुपरतमपगतं मैथुनं यस्यसआरत मैथुनोऽपगतेच्छामदनआरद्ध-त्रि. (आराद्ध) आर राधत, संसिद्धे. तिका, फिञ्आरद्धायनिः कामाभावाचसंयमे दृढोसौ भवतीति। सूत्र० शु०१ अ०१५।। तदपत्ये, पुं. स्त्री० / वाच. आरब्ध त्रि. आरभक्त, कृतारम्भणे, आरब-पुं० (आरब) म्लेच्छदेशभेदे-जं॥ (प्रारब्धादन्यकार्याणां करणं परिवर्तकः) अनारब्धकार्ये एवतु इत्यादि।। यस्य कियदंशकर्तुमारेभे तादृशः पदार्थ आरब्धः। वाच. कडिउमारद्धो--- तत्र भवेम्लेच्छजाति भेदे। प्रश्नः / द्वा०॥शा नि० चू. उ. भावेक्तः।। आरंभे न / वाचा। स्त्रियां डीप आरबीहिं। भ० 1 श०९।उ०३३ / / आरभ(म्म)-(आरभ) आङ् र भ्वा. आ. आरंभे सक, अलिठ्यजादौ | आरबग-पुं॰ (आरबक) आरबदेशोद्भवे म्लेच्छविशेषे आर्द्धधातुके मुम् आरंभः आरंभणं लिटितु आरेभे / वाच / आडो रमे आरबके रोमके अलसंडविसथवासीअपिक्खु रे काल Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरसंत 404 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आराहग मुहे जेणेए अ उत्तरेवेअट्ठ संसिआअ मेच्छा जाईबहुप्पगारा।। व्या. आरबकान् आरबदेशोद्भवान् रोमकांश्च रोमकदेशोद्भवान कालमुखान् जोन्काँश्च म्लेच्छविशेषानिति। जं० // आरसंत-त्रि (आरसत्) विलपति आरसंतोसुभरेवमतिभीषणं शब्दरसन् विलपन्निति उ. अ. 15 // आसरिय-न. (आरसित) आरटिते इमेणंदारएणं जायमेत्तेणंचेव महया२ सद्देणं विधुढे विसरे आरसिएतएणं एयस्सदारगस्स आरसिय सढें सोचा णिसम्म हस्थिणाउरे बहवे णयरे गोरूवा जाव भीया। विपा० अ०२। महया तिच्चि आरसित्ति महता चिची त्येवं चीत्कारेणेत्यर्थः आरसित मारटितं छिज्जंति सुभगवया आरसि-यन्ति। आ. म० / अ०१॥ आरा-स्त्री. (आरा) आ. ऋ अच्. चर्मभेदकालेस्त्रभेदे। लौहास्त्रे प्रतोदेच। वाच. (तत्ताहिं आराहिं नियोजयन्ति) सू. श्रु०१। अ०१॥ तप्ताभिराराभिः पीड्यमानास्तप्त पुपानादिके कर्मणि नियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति / सूत्र०१ श्रु०५०। आराम-पुं. (आराम) आरम्यतेऽत्र आ रम् आधारे घञ् आगत्या गत्य भोगपुरुषा / वरतरुणीभिः सहयत्र रमन्ते क्रीडंति स आरा मो नगरान्नादिदूरवर्ती क्रीडाश्रयस्तरुखण्डः / राज० / माधवी लताद्युपेते दम्पति रमणाश्रये वनविशेष प्रश्न. 4 द्वा० / / (आरामुजाणमणाभिरामपरिमण्डियस्स) आरामै दम्पति रतिस्थानलता गृहोपेतवनविशेष रिति प्रश्न०३द्वा० / आरामाः पुष्पजातिप्रधाना वनखण्डा इति. जं.। भ.९ श.३३ उ० / स्था०। ठा०५। औप० / आरमन्ति येषु माधवी लतागृहादिषु दंपत्यादीनि ते आरामाः / ज्ञा० 1 अ। दशा भ०५ श०७ उ / औप.। (आरामाइव) आरामा विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादिप्रछन्नगृहेषु स्त्रीहितानां पुंसां रमण स्थानभूता इति / स्था०२ ठा० / (आरामेसुवा) आरामेषु कदल्याद्याछादितेषु स्त्रीपुंसयोः क्रीडास्थानेषु / कल्पः / रमणीयताऽतिशयेन स्त्रीपुरुषमिथुनानि यत्रारमंति स विविधपुष्प जात्युपशोभित आरामः। अनु० / माधवी लतासुदंपत्यादीनि येष्वारमन्ति क्रीडति ते आरामाः पुष्पफलादिसमृद्धानेकवृक्षसंकुलानीति / अनु० / (आरामेसुय) आगत्यरमन्तेऽत्र माधवीलतागृहादिषु दंपत्य इति स आरामपुष्पादिमवृक्ष संकुलमिति / जी०३ प्रतिः / ज्ञा० 1 अ / राज० / आरामा वनोद्यानभूमय इतिकृत्रिमवने वाटिका यांच स्त्रियोऽधिकृत्य तन्दुलवैकालिके (आरामोकम्मरयस्स) आरामः कृत्रिमवनं कस्य कर्मरजसः कर्मपरागस्ययद्वाकमच निविडमोहनीयादिरश्वकामः चश्चचौरः कर्मरचंतस्यारामोवाटिकेतितं आराम-यतीत्यारामः आराम कारके त्रि। स्त्रियोऽधिकृत्याचाराङ्गे (एससे परमारामो जाओलोगंमि इथिओ) आचा. अ. 5 उ. 4 आरामयतीत्यारामः परमश्चासावारामश्चपरमारामः ज्ञाततत्वमपिजनं हास विलासापाङ्गे निरीक्षणादिभिर्विब्वोकौविमोहयतीत्यर्थः। आ० अ०५ ऊ४ वृत्तरत्नाकरटीकोक्ते षोडशभिश्चरगणै राराम इत्युक्ते दण्डकभेदेच आ-रम्भावेघ आरत्तौ। अन्तः-सुखोन्तरारामः / गीता० अन्तरात्मनि आरामो यस्येति विग्रहः / अध्रायुरिन्द्रियारामो मोघंपार्थसजीवति गीता वाच इहारामं परिणाय अल्लीणगुत्तो परिव्वए | आचा० अ०५ उ.६ इहास्मिन् मनुष्यलोके आरमणमारामो रतिरित्यर्थः / सचारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिक रतिरूपः संयमः तमासेवनपरिज्ञया परिज्ञाय आलीनो गुप्तश्च परिव्रजेत् आचा० अ०१ऊ.२। आरामगय-त्रि. (आरामगत)आरामो विविधपुष्पजात्युपशोभितस्तत्रगते आरामगयं वा स्था, ठा.५। आरामागार-न. (आरामागार) आरामेऽगारं गृह मारामागारं आराममध्यगृहे (आरामागारेसुवा) आराममध्यगृहाण्या-रामागाराणीति आचा०आगंतगारे आरामगारे समणेउभीतेण उवेतिवासं आरामेगारमागारमिति सूत्र श्रु.२०६। आरामिय-त्रि (आरामिक) आरामे तद्रक्षणे नियुक्तःठक उद्यान् पाले, मालिके, (आरामिउ पढइ) आ. म / सायअण्णया आरामियेण गहिया नि, चू उ.१ / स्था, ठा०४॥ आराहग(य)-पु. (आराधक) निष्पादके, औप० / आराधयति सम्यक पालयति बोधिमित्याराधकः / राज. / ज्ञानाद्याराधन-वति / पंचा. वृ० आराधकोज्ञानादीनामाराधयितेति भ. श०३ऊ.। (आराहए विराहए ज्ञानादीनाराधयतेनि) प्रति. मोक्षमार्गस्याराधकःशुद्धइत्यर्थ, भ. श०८ ६ऊ। सद्दष्टिराराधकः आराधको ज्ञानाधाराधनकर्तेति प्रति / (नहुते आराहगाभणिया) आराधका उत्तमार्थ साधकाः / आतु० / आराधको ज्ञाना-द्याराधनकर्तेति // आराधकस्यफलं पंचाशके. यथाः॥ आराहगो य जीवो, सवट्टमवेहिं पावतीणिय मां, / जम्मादिदोस विरहा, सासय मोक्खतुं णिव्वाणम् / / 10 / / व्या / आराधकश्च ज्ञानाधाराधनावान् च शब्द पुनरर्थः जीव प्राणी सप्ताष्टमवैः सप्तभि रष्टाभिरित्यर्थः इदंच जघन्या राधनामाश्रित्योक्तम् अन्यथा तद्भव एव कश्चित् सिध्यतीति एतेच सप्ताष्टौभवा आराधनायुक्ता द्रष्टव्याः इतरथातुसप्तैव प्राप्नुवन्ति लभंते नियमादवश्यं तया कुतः किंविधं किमित्याहा / जन्मादिदोषविरहा जातिजरामरणप्रभृति दूषणावियोगा-देतचपदंशास्वत सौख्यमित्यनेन प्रापोतीत्यनेन वासंबन्धनीयं शास्वत सौख्यंतु नित्यसुखमेव नतु स्वास्थ्यमात्र निर्वाण निवृत्तिमितिगाथार्थः / अथ आराधकस्य कथंभवति औघ० सेसेसुजागेसुअ, बटुंतोविदेसमाराहो। जहिपुणसव्वाराहण, मिच्छसितेणं निसामेहि।। व्या। शेषेषुयोगेषु अवर्तमानः सम्यक्शास्त्रोक्तेन न्यायेन प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्नपिदेशकः आराधकएवअसौ नतु सर्व माराधितं भवति तेन यदि पुनः सम्पूर्णाराधनामिच्छतीत्यादिसुगमं। कथंच सर्वाराधको भवत्यत आह। पचिदिएहिं गुत्तो, मणमाई तिविह करण मा उत्तो॥ तवणियम संयमंमि, जुत्तो आराहमो होई // 46 // व्या.। पं चभिरिन्द्रियै गुप्तिः मानसादिना त्रिविधेन करणेन युक्तो यत्नवान् तपसा द्वादशविधेनयुक्तः नियम इन्द्रिय नियमो नो इन्द्रिय नियमश्च तेन युक्तः संयमः सप्तदशप्रकारः पुढ विकाओ आउकाओ वाउकाओ वणस्सइकाओ वे इंदिय ते इंदिय चउरिदिय अजीवकाय संजमो पेहे। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 405 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहग उपेहो पर्मजणं परिट्ठावणं मणवइक्काए / अत्र संयतः सन् मोक्षस्य आराधको भवति प्रव्रज्याया वा आराधकः। "सिद्धेउवसं पण्णो, अरहते केवलित्तिभावेणं / इत्तो एगयरेणं वि, एएण आराहेउ होई / / 20 / 1 "लजाइं गारवेणं य, बहु सुयमयेण वावि दुचरिय। जेन कहंति गुरूणं, नहुते आराहगा हुंति / / 14 / / पंचमहव्वय सव्वय, संपुण्ण चरित्तसीलसंज्जुत्ता। जहतह मया महेसि, हवंति आराहग समाणं / / 27 / / पडिमासुसीह निक्कीलियासु, गोरे अभिगाहा ईस। छब्बीह अभंतर एवं, भयतवे समणु रन्ना ||4|| अवि हलशीला पारा, पडिवन्ना जेय उत्तम अहूं। पुविलाणयमाणय भणिया आराहणा चेव ||4|| जह पुवुट्ट अगमाणा, करण विहिणोवि सागरो पोओ। तीरासन्नं पावई, रहिउ अवल्लगाइहिं॥४२।। तहसुकरणो महेसी, ति करण आराहउ धुवं होई। अहलहई उत्तम टुंतं, अइलाभ नूणं जाणं ||3|| आराधकत्वं विराधकत्वं च ज्ञाताऽध्ययने यथा० एकारस मस्स के अटे पण्णत्ते एवं खलु जम्बू तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे सामी समोसढे गोयमा ? / एवं बयासी कहणं भंते ! जीवा आराहगा विराहगा वा भवंति सेजहा नाम एएगंसि समुद्दकूलंसि दावदवानामा रुक्खापण्णत्ता किण्हा जाव निउरंव भूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियग रिरिज्झमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिटुंति जयाणं दीविचग्गाइसिं पुरे वाया पच्छा वाया मंद मंदं वायं वायंति तदाणं बहवे दावदवा रुक्खा पत्तिया जाव चिटुंति अप्पे गतिया दावदवरुक्खा जुहाजोडा परिसडिय पंडुर पत्त पुप्फफलासुक रुक्ख विव मिलायमाणा 2 चिटुंति एवा मेव समणाउ सो जे अम्हाणं निग्गंथोवा 2 जाव पव्वत्ति एसमाणे बहूणं समणाणं 4 सम्मं संहति जाव अहिया सेति बहूणं अण उत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं णोसम्मंसहति जावनो अहिया सेति एसणं मए पुरिसे देस विराहए पण्णत्ते समणाउसो जयाणं समुद्दगाइसिं पुरे वाया पच्छा वाया मंदवाया महावाया वायंति तत्तेणं बहवे दावदवा रुक्खा जुबाजोडा जावमिलायमाणा चिटुंति ! अप्पे दावदवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया जाव उवसोभेमाणा चिटुंति एवामेव समणाउसो जे अम्हं निग्गंथोवा२पव्वति समाणे बहूणं अन्नउत्थि गिहत्थाणं सम्मं सह निबहूणं समणाणं समणीणं नो सम्मंसहति 4 एसणं मए पुरिसे देस आराहए पण्णत्ते समणाउसो जयाणं तो दिविव्वगातो समुहग्ग वि इसिं पुरेवाया जाव महावाया | वायं ति तयाणं सवे दीवदवा पत्तिया जाव चिट्ठति एवामेवसमणाउसो जो जाव अम्हं पवत्तिए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं अणउत्थिय गिहत्थाणं नो सम्म सहति एसणं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णते समणाउसो जयाणं दिव्विगावि समुद्दगावि इसिं पुटवपुरओ वायंति तयाणं सव्वे दावद्दवा पत्तिया जाव चिट्ठति एवामेव समणाउसोजे अम्हे पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं 4 बहूणं अण्ण उत्थिंयगिहत्ताणं सम्म सहइ एसणं मए पुरिसे सव्वाराहे पण्णत्ते एवं खलु-गोयमा ! जीवा आराहगा विराहगा वा भवंति एवं खलु जम्बू समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेतिबेमि / ज्ञाता / अ०११ व्या. अथैकादशंविवियते अस्य च पूर्वेण सहायं संबन्धः पूर्वच प्रमाद्य प्रमादिनोर्गुणहानिवृद्धिलक्षणावनार्थावुक्ता विहतु मार्गाराधनविराधनाभ्यां तावुच्येते इति संबद्धमिदं सर्वं सुगमं नवरं / आराधका ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य विराधका अपितस्यैव (जयाणमित्यादि) दीविव्वगा द्वैप्याद्वीपसंभवा ईषत्पुरेवाताः मनाक् स चेह वाताइत्यर्थः पूर्वदिसंबंधिनो वा पथ्यावाता वनस्पतीनां सामान्येनहिता वायवः पश्चाद्वातावामंदाः शनैस्संचारिणः महावाता उदंडवाता वांति / तदा (अप्पेगइयत्ति) अप्येके केचनाऽपिस्तोका इत्यर्थः / (जुण्णत्ति) जीर्णा इव जीर्णा) क्रोडपत्रादिशाटनं तद्योगात्तेपिक्रोडा अतएव परिशाटितानि कानिचिच पांडूनि पत्राणि पुष्पफलानिचयेषांते तथाशुष्क वृक्षकइवम्लायतस्तिष्ठति इत्येष दृष्टांतो।योजनात्तस्यैवं / एवामेवेत्यादि (अन्नउत्थियाणत्तु) अन्ययूथिकानां तीर्थान्तरीयाणां कपिलादीनामित्यर्थः दुरवचनादीनुपसर्गान् नो सम्यक्सहत इति (एसणंति) एवंच भूत एषपुरुषो देशविराधको ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य / इयमत्र विकल्पचतुष्टयेपि भावना यथा दावदववृक्षसमूहः स्वभावतोद्वीपवायुभिः बहुतरदेशैः स्वसंपदासमृद्धिमनुभवंति देशेनचा समृद्धिं समुद्रवायुभिश्च देशैरसमृद्धिं देशेनच समृद्धिमुभयेषांच वायूनामभावे समृध्य-भावमुभय सद्भावेच सर्वतस्समृद्धि मेवं क्रमेण साधुः कुती-र्थिकगृहस्थाना दुर्वचनादीन्यसहमानः क्षांतिप्रधानस्य ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य देशतोविराधनां करोति श्रमणादीनां बहुमान विषयाणां दुर्वचनादि क्षमणेन बहुतरदेशानामाराधनात् श्रमणादिदुर्वचनानां त्वसहने कुतीथिकादीनां सहने देशानां विराधनेन देशतएव आराधनां करोति। उभयेषामसहमानो विराधनायां सर्वथातस्यवर्तते / सहमानश्वसर्वथाराधनायामिति। इहपुनर्विशेषयोजनामेवं वर्णयंति॥ (जहा दावदवतरुणमेवं, साहू जहेह दीविव्वा वाया तहसमणाइयसपक्ख वयणाइ दुस्सहाई।। जहा समुद्दयवाया तहणत्थिाइ कडुयवयणाई। कुसुमाई संपयाजह-सिवमग्गा राहणातहओ ॥शा जहकुसुमाण विणासोसिवमग्ग विराहणातहानेया। जहदीववायुजोगे बहुइट्ठी ईसियअणिट्ठी॥३० तहसाहम्मिय Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 406 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आराहग वयणा, णसहण माराहणभवे बहुया / इयएणमसहणेपुण सिव-मग्ग विराहणाथोवा 4 / जहजलहिवायजोगे थेविट्ठबहुयरा अणिट्ठीओ।। तहयपरपक्खखमणे आराहणमी सिबहुइयरं / / 1|| जह उभयवाय विरहे सव्वातरु संपया विणट्ठत्ति / अनिमित्तो भयमच्छर रूवेह विराहणा तहय / / 6 / जहउभय वायजागेसव्वसमिड्डिवणस्स संजाया। तह उभयण सहणे सिवमग्गा एहणापुणा // 7 // तापुन्नसमणधम्मा एहणचित्तो सयामहा सत्तो / सव्वेण विकीरंतं सहेजसव्वं विपडिकूल मिति || मायीमायांकृत्वा नाराधकोभवतीतिमायीशब्दे / स्था. ठा०८ आराधका अनाराधका चौपपातिके विस्तरेण / यथा-जीवेणं भंते ? असंजये आवरए अपडिहय पचक्खाण पावकम्मेइओचुए पेचा देवेसिआ गोयमा ? अत्थे गइया देवेसिआ अत्थेगइया णोदेवेसिआ सेकेणटेणं भंते ? एवं दुचइ अत्थे गइआ देवेसिया अत्थे गइआ णोदेवेसिआ गोयमा? जे इमेजीवा गामागर णगर निगमरायहाणि खेड कव्वड मडव दोणमुहवट्ठणा समसंवाह सण्णिवेसेसु अकाम तण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेर वासणं अकाम आराहाण कसियाय वदंस मसग से अजल्लमल्ल पंक परिभावेणं अप्पतरोवा भुजतरोवा कालं अप्पाण परिकिलेसंति अप्पतरोवाकालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालंकिच्चा अण्णतरेसु व णमंतरे देवलोएस देवताए उववत्तारो भवंति तर्हि तेसिंगती तहिं तेसिं ठिती तहिं तेर्सि उववाए पण्णते सेणंभंते ? देवाणं केवति कालं ठिती पण्णत्ता / गोयमा ? दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्तातत्थणं भंते ? तेसिंदेवाणं डीवाजईवा जसेतिवा बलेतिवा वीरिएइवा पुरिसकार परिक्कमे इवाहंता अत्थितेणं भंते ? देवा परलोगस्साराहगा णोति णट्टे समेट्ट। औप.।। व्या०। (जीवेणमित्यादि) व्यक्तंनवरं (उस्सणंति) बाहुल्यतः कालमासे (कालंकिञ्चति) मरणाऽवसरे मरणं विधायेत्यर्थः / (इओचुए पच्चत्ति) इतः स्थानान्मृर्त्यलोकलक्षणाचयुतो भ्रष्टः प्रेत्य जन्मान्तरे देवः स्यात् (से केणतुणंति) अथ केन कारण नेत्यर्थः / (जेइमेजीवत्ति) यइने प्रत्यक्षासन्नाः जीवाः पञ्चेन्द्रिय-तिर्यङ्मनुष्यलक्षणा ग्रामागरादयः प्राग्वत् अकामतः (तलाएत्ति) अकामानांनिर्जरा धनभिलाषितां सतां तृष्णा तृट् अकाम तृष्णातया एवमन्यत्पदद्वयम्।अप्पतरोवा भुजतरोवा कालंति प्राकृतत्वेन विभक्ति परिणामा दल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालयावत् (अण्णतरेसुत्ति) बहुनांमध्ये एकतरेषु (वाणमंतरेसुत्ति) व्यंतरेषु देवलोकेषुदेवजनेषुमध्ये (तेहितेसिंगइति) तस्मिन्वाणमंतर देवलोके तेषामसंयतादिविशेषणजीवानां। पुनः (तेणंदेवा-परलोगस्सआराहगत्ति) ते अकामनिर्जरालब्धदेवभवाव्यंतराः परलोकस्य जन्मान्तरस्य निर्वाणसाधनाऽनुकूलस्य आराधका निष्पादका इतिप्रश्नः (नोइणद्वेत्ति) नायमर्थः (समटेत्ति) समर्थः संगत इत्युत्तरं अयमभिप्रायो येहि सम्यग्दर्शनज्ञान-पूर्वकाऽनुष्ठानतोदेवाः स्यु स्तएवावश्यं तथा ) आनंतर्ये ण पारंपर्येणवा निर्वाणाऽनुकूलं भवान्तरमावर्जयंति तदन्येतुभाज्याः। सेजे इमेगामागर णगर निगम रायहाणि खेड कव्वडमडंबदोणमुह पठ्ठणा सम संबाह सन्निवेसेसु मणुआभवंति तंजहा अण्डु बद्धकाणि अलबद्धका हडिवद्धका चारगबद्धका हत्थच्छिन्नकापायच्छिन्नका कण्ण-च्छिकन्नकाणक्कच्छिन्नका उहच्छिन्नका जिभछिण्णका सीसछिन्नका मुखछिनका मज्झच्छिन्नका वेकच्छच्छिन्नका हियउपाडियगा मयणुपाडियगा दसणुपाडियगा वसणु पाडियगा गोवच्छिन्नका तंण्डुलच्छिन्नका कागणिमंसं खाइयया उलंबि आलंबियआ घंस्यिा घोलिअया फाडिअया पीलिअया सूलभिन्नका खारवत्तिया वज्झवत्तिया सोहपुच्छियया दव ग्गिदड्डिया पंकोसण्णका पंके खुत्तका वलयमयका वसहमयका णियाणमयका अंतोसल्लमयका गिरिपडिअका तरुपडिअ का मरुपडिअका गिरिपक्खंदोलिया तरुपक्खंदोलिया मरुपक्खंदोलिया जलपवेसिका जलणपवेसिका विसभक्खि तका सत्थोवाडितका वेहाणसिया गिद्धपिट्ठका कंतारमंतका दुभिक्खमंतका असंकिलिट्ठ परिणामा तंकालमासे कालंकिचा अण्णतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवदत्ताए उववत्तारो भवंति तहिं तेसिं ठिती तर्हि तेर्सि उववाए पण्णत्ते तेसिणं भंते। देवाणं केवलिंअ कालहिती पण्णत्ता गोयमा ? वारसवास सहस्सांइ ठिती पण्णता अच्छिणं भंते / तेसिं देवाणं इडिवा जुइवाज सेतिवा वलेतिवा वीरीएतिवा पुरिसकार परिकमेतिवा हंताअत्थी तेणं भंते ? देवा परलोगस्सारागाहणेति णटे समठे / औप० / (उल्लंबियगत्ति) अवलम्बितकाः रज्वा बद्धा गर्तादाववतारिता उल्लम्बितपर्यायास्तु नैते भवन्ति उल्लम्बितानां वैहा-यंसिकशब्देन वक्ष्यमामत्वात् (सीहपुच्छिययत्ति) / इह पुच्छशब्देन मेहनं विवक्षित मुपचारात् ततः सीहपुच्छं कृतं संजातं वा येषां ते सिंहपुच्छितास्तएवसिंहपुच्छितकाः सिंहस्य हि मैथुना-निवृत्तस्यात्याकर्षणात् कदाचित्मेहनं त्रुट्यति / एवं ये कृचिदपराधे राजपुरुषैस्त्रौटितमेहनाः क्रियन्ते ते सिंह पुच्छितकाव्यपदिश्यन्ते / (अंसकिलिट्ठपरिणामत्ति) संक्लिष्टपरिणामा हि महातरौद्रध्यानावेशैन देवत्यं न लभन्त इति भावः // 60 से जे इमे गामागरणगरणिगमरायहाणिखेडकम्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसंनिवेसेसु मणु, आ भवंति तंजहा पगतिमद्दका पगति उवसंता पगतिपतणुकोहमाणमायालोहा मिउमद्दवसंपण्ण अल्लीणा विणीआ अम्मापि उ स्सुस्सुका अम्मापिईणं अणत्ति-कमणिज-वयणा अपिच्छा अप्पारं भा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पाणं आरंभे समारंभेणं वित्तिक Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 407 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहग पेमाणा बहुइं वासाइं आउअं पालंति पालित्ता कालमा से आहारो यकाभिस्तास्तथा तामेव (पइसेज नाइकमंति) कालं किचा अण्णतरेसु वाणमंतरेसुदेवलोएस देवताए यानिधुवनार्थमाश्रीयते तामेव पतिशय्यां भर्तृशयनं नातिक्रामति उववत्तारोभवंति तहि तेसिं गती तहिं तेसिं ठिती तहिते सिं उपपतिना सह नाऽऽश्रयन्तीति / / उववाए पण्णते तेसिंणं भंते / देवाणं के व इअं कालं ठिती से जे इमे गामागर णगरणिगमरायहाणिखेड कटवपण्णता गोअमा चउ-हसवासहस्सा।। औप. डमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाह सन्निवेवेसुमणुआ भवंति तंजहा टी. / / अम्बापित्रोः शुश्रूषकाः सेवकाः अत एव (अंमापिऊणं दगवित्तिया दगतइआ दगसत्तमा दगएकारसमा गोअमा ? अणइक्कामणिज्जवयणा) इहेव सम्बन्धाः अम्बापित्रोः सत्क- गोटवइआ गहिधम्माधम्मचिंतका अविरुद्ध विरुद्धवुड्ड मनतिक्रमणीय वचनं येषां ते तथा तथा (अप्पिच्छा अमहेच्छा अप्पारंभा सावकप्पभित्तिया तेसि मणु आ णं णोकप्पइ इमाओ अप्पपरिग्गहत्ति) इहारम्भः पथिव्यादि जीवोपमः कृष्यादिरूपः नवरसविगईओ आहारित्तए ते जहा खीरं दहिं णवनीयं सप्पिं परिग्रहस्तु धनधान्यादिस्वीकार एतदेव वाक्या-न्तरेमाह / (अप्पेणा तेल्लं फाणितं महुं मजं मंसं णणत्थ एक्काए सरसवविगइ एतेणं आरम्भेण मित्यादि) इहारम्भो जीवानां विनाशः समारम्भस्तेषामेव मणुआ अप्पिच्छा तं चेव सव्वं णवरं चउरासीइवाससहस्साई परितापकरण आरम्भसमारम्भ-स्त्वेतदय (वित्तिति) वृतिं जीविकां ठित्ती पण्णता 11|| से जे इमे गंगाकुलगा वाणपत्था तावसा (कप्पमाणति) कल्पयन्तः कुर्वाणाः / / 10 भवंति तंजहा होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जण्णी सहई घालई से जाउ इमाउ गामागरणगरणिगमराय हाणिखेडक- हुँपउट्ठा दंतुक्खलियां उम्मज्जका संम्मञ्जका निमज्जका व्वडमडंबदोणमुहपट्टणा समसंवाहसंनिवेसेस इत्थिआओ संपक्खाला दक्षिणकूलका उत्तरकूलका संखधमका भवंति / तंजहा अंतोउरिआओ गयपत्तिआओ मयपत्तिआओ कूलधम्मका मिगलुद्धका हत्थितावसा उदंडका दिसापोक्खिणो बालविहवाओ छडितल्लिता इमाइं रक्खि आओ वा कवासिणो अंबुवासिणो जलवासिणी बिलवासिणो पिअरक्खिआओ भायरक्खिआओ कुल घररक्खि आओ सक्खमलिआ अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभ क्खिणो ससुरकुलरक्खिआओ परूढमणहमस केसकक्खरोमाओ मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा वीयाहारा ववगयपुप्फगंधमल्लालंकाराओअह्राणए से अजल्लमलपंक परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफ लहारा जलाभिसे अ कठिणा पारिताविआओ ववगय-खीरदहिणवणीअसप्पित्तेल्लगुललोण- गायभूया आयावणाहिं पंचवग्गित्तावेहिं इंगालसोल्लियं महुमजमंसपरिचत्तकयाहाराओ अप्पिच्छिआओ अप्पारंभाओ कंडुसो ल्लियं कंठसोल्लियं पिद अप्पाणं करेमाणाबहूई अप्पपरिग्गाओ अप्पेणं हा आरम्भेणं अप्पेणं समारम्भेणं अप्पेणं वासाई परियायं पाउणंति बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता आरम्मेणं समारम्भेणं वितिं कप्पमाणीओ अकाम बम्भचेर वासेणं कालमासे कालंकिच्चा उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए तामेव पति सेजं णातिकमति ताउण्णं इत्थिआओ एयाहरूपेण उववत्तारो भवंति पलिओवमं वाससयस-हस्ससमन्महिंअं वित्ती विहारेणं विहरमाणीओ बहूई पासाइसेसंतं चेव जाव चउसहि आराहगाणोतिणढे समढे समणो भवंति ||20| वाससहस्साई ठित्ती पण्णतादा नाटी। जलामिषेक कठिनं गात्रं भूतः प्राप्ता ये ते तथा से जाओ (इमाओत्ति) अथया एता अंतो (अंतेपुरिया ओत्ति) अंतर्मध्ये | (इंगाल्लसोल्लियति) अङ्गा रैरिव पक्वं (कं डुसोल्लियंति) अंतः पुरस्येति गम्यं (कुलघररक्खियाओत्ति) कुलगृहं पितृगृहं कन्दुपक्कमिवेत्ति पलिआवमं (वाससयसहस्समब्भाहियंति) मकारस्य मित्तवाइनिययसंबन्धिरक्खिया ओत्ति क्वचित् तत्र मित्राणि प्राकृतप्रभवत्वाद्वर्षशतस हस्राभ्यधिकमित्यथः अथवा पल्योपमं पितृपत्यादिनांतासामेव वा सुहृदः एवं ज्ञातयो मातुलादिस्वजनानिजका वर्षशतसहस्रमप्यधिकं च पल्योपमादित्येवं गमनिकाः।। गोत्रिया सम्बन्धिनो देवरादिरूपाः (परूढहणकेसकक्खरोमाओत्ति) समणो भवंति तंजहा कं दप्पिया कु कु यिा मोहरिया प्ररूढाःवद्धिमुपगताः विशिष्टसंस्काराभावान्नकादयो यास तास्तया गीयरइप्पिया नबणसीला तेणं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहुइ पाठन्तरे (प्रारूढनहकेसमंसुरोमाओत्ति) इह श्मश्रूणि कूर्चरोमाणि तानि वासाइंसामण्णपरियाय पाउणति बहुइ वासाइ सामण्णपरियायं च यद्यपि स्त्रीणां न भवन्ति तथाऽपि कासांचिदकल्पानि भवन्ति अपीति पाउणित्ता तस्स ठाणस्स आणालोइअ अप्पडिकंत्ता कालमासे तद्ग्रहणं (अणहाणगसेयजल्लभलपंकपरितावाओ) अस्नानं केन हेतुना कालंकिचा आणालोइअ अप्पडिक्वंत्ता कालमासे कालंकिच्चा स्वेदादिभिः परितापो यासांतास्तथा तत्र स्वेदःप्रस्वेदः जल्लो रजोमात्रं उक्कोसेणं सोहम्मेकप्पे कदंप्पिएसु देवेसु देवताए उववत्तारो मलः कहिनीभूतं तदेव (ववगयखीरदहिणवणीयसप्पितेल्ल- भवति तहिंतेसिंगति तहिं तेसि ठिती सेसंतंचेवणवरं पल्लिओ गुल्ललोणमहुमज्जमंसपरिचतकयाहाराओत्ति / / व्यपगतानि क्षीरादीनि वमं वाससहस्समज्झहि ठिति 12 औना सन्निवेयतस्था परित्यक्तानि मध्वा-दीननियेन स एवं विधः कृतोऽभ्यवहृत | सेसुपरिटवायगा भवंति तंजहा संखजोई कविलामि Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 408 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आराहग उच्चा हंसा परमहंसा बहुउदया कुडिव्वया कण्हपरिव्वायगा। अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चुलामणिं तत्थ खलु इमे अहगाहणपरिष्वायगा भवंति तंजहा कहेअ वा पिणद्धित्तए ण्णण्णत्थ एकेणं तंविएणं पवित्तएणं तेसिणं करकंहूय अंबडेय परासरे / कहे दीवायणे चेव देवगुत्ती अ परिष्वायाणं णो कप्पइगंच्छि मेवढिमपूरिम संघातिम चउविहे णारये / तत्थ खलु इमे अट्ठक्खतिअपरिष्वाय या भवंति तं | मल्ले धारित्तए एणण्णत्थ एक्केणं कण्णपुरेणं ते सिणं सीलई ससिह णग्गई मग्गई तिअ विदेहे राया एमे बले परिवायाणंणो कप्पइ अगलूएणा वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा तिअ / तेणं परिव्वायगा रिउव्वेदजजुय्वेदसामवेदअहव्वण- गायं अणुलिंपित्तए ण्ण पण त्थएक्काए गंगामदृिआए तेसिणं वेदहतिहास पंचमाणं णिग्घंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं परिवायाणं कप्पइ मागह ए पत्थए जलस्सपडिगाहित्तए चउइंवेदाणं सारका पारगा धारका वारणा सडगवीसद्वितंत- सेविवहमाणे णो चेवणं अवहमाणे सेवियथिमि ओदए णो चेव विसारदा संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे णिरते णं कद्दमोए सेविअ बहुं पसण्णे णो चेवणं अबहुपसण्णे जोतिसामयणो अण्णेसुवंभण्णएसु असत्थेसु सुपारिणिहातावि सिविअपरिपूत्ते णो चेवणं अपरिपूत्ते सेवि अणंदिण णो चेवणं हुत्था तेणं परिव्यायगादाणधम्मंच सो अधम्मच तित्थाभिसेयं अदिण्णे सेविअपिबित्तएणो चेव णं हत्थपायचरचमसंपक्खाच आघवेमाणा पण्णवेमाणा परूवेमाणा विहरंति। जपणं अम्ह लणट्ठाए सिणाइताए वा तेसिणं परिवायाणं कप्पइ मागहए किंचि असुई भवति तण्णं उदण्णय मदिआएअं अपक्खालिअं अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए सेविय वहमाणे णो चेवणं सुई भवति एवं खलु अम्ह चोक्खा चोक्खापारा सुइ सुइस अवहमाणे जावणो चेवणं अदिण्णे सेविय हत्थपायचरुचं मासं मायारभवेत्ता अभि-से अजलपूआप्पाणो अविग्घेण सग्गं पक्खालणट्ठयाइएणोचेवणं पिबइ वा तेणं परिवाया एया रूवेणं गमिस्सामो तेसिणं परिष्वायगाणं णो कप्पइ अगडं वा तलायं विहारेणं विहरमाणा बहुइबासाइ परियाई पाउणंत्ति बहूइ वासाई वाणई वा वविं वा पुक्खरिणी वा दीहियं वा गुंजालिअंवा सरं पाउणित्ताकालमासे कालंकिचा उक्कोसेणं बमलोएकप्पे देवत्ताए वासामना भोगाहिए मशहाणायम मोकाइसाई उववत्तारो भवंति तेहिं तेसिं गई दससागरावमाये ठिई पण्णता वा जाव संदमाणिवा दरुहिताणं गछित्तर ते सिणं सेसं तंचेव ||शक्षा तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगाणं णो कप्पइ आसंवाहत्थिंवाउठंवा गोणिवामहिसं परिवायगस्स सत्तअंतेवासिंसयाइ गिम्हकालसमयंसिजेवामूलं वाखरंवादुरु-हित्ताणगमित्तए तेसिणं परिव्वाय गाणंणोकप्प- 1 मासांसि गंगाए महानईएओ उभउकूले कंपिल्लपुरातोणगराओ इनडपेच्छाइ वा जाव मागहयेच्छाइ वा पिच्छित्तए तेसिं पुरिमतालंणगारं संपडिआ विहाराए तयणं तेसिं परिव्वायगाणं परिव्वायाणं णो कप्पइ हरिआणं लेसणत्ता वा घदृणत्ता वा तेसिं अगामियाए छिण्णो वायाए दोहहाए अडवीए।।टीला थंभणता वा लूसणत्ता वा उप्पाडणत्ता वा करित्तए तेसिं कएडवादयः षोडश पब्रिाजका लोकतोवऽसेया (ऋउवेदजजुव्वेदपरिष्वायाणं णो कप्पइ इत्थि कहाइवा भत्तकहाइवा देसकहाइ सामवेय अहव्ववेदत्ति) इह षष्ठिबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदवा रायकहाइ वा चोरकहाइ वा जणवयकहाइ वा अणत्थादंडं सामवेदाथर्ववेदानामिति दृश्यं (इतिहास-पंचमाणंति) इतिहासः करित्तए तेसिणं परिवायाणं णो कप्पइ अयपायाइ वा पुराणमुच्यते (निग्घंटुछट्ठाणंति) निघण्टो नाम कोशः (संगोवंगाणंति) तउअपायाणिवा तंबापायाणिवाजसदपायाणिवासीसगपायाणि अङ्गानि शिक्षादीनि उपाङ्गानितदुक्त प्रपञ्चनपर प्रबन्धाः (सरहस्साणंति) वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा ऐदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः (चउण्हंवेयाणंति) व्यक्तंसारयति अध्यापनद्वारेण बहुमुल्लाणि वा धारित्तए णणत्थ ला उपाएण वा दारुपासण वा प्रवर्तकाः स्मारका वा अन्येषांविस्मृतस्य स्मरणात्पारयति पर्यन्तमदिआ पाएण वा तेसिणं परिव्ययाणं णो कप्पइ अयवंधणाणि गामिनःधारयत्ति धारयितुंक्षमाः (षडंगवीत्ति) बडंगविदः शिक्षादि विचारकाः वा तउअबंधणाणि वा तवबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए (सहितंत विसारयति) कापिलीय तन्त्रपण्डिताः (संखाणेत्ति) संख्याने तेसिणं परिव्वायाणं णो कप्पदणाणाविहवण्णरागरत्ताइंवत्थाई गणित स्कंधे सुपरि निष्टिता इति योगः अथ षडंगानि दर्शयन्नाह / धारित्तए ण्णत्थ एकाए धाउत्ताए तेसिणं परिवायाणं णो कप्पइ (सिक्खाकप्पेत्ति) शिक्षाअक्षरस्वरूप निरूपकशास्त्र कल्पश्च तथाविध हारं वा अद्ध हारं वा एकावलि वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा समाचार निरूपकं शास्त्रमेवेति शिक्षाकल्पस्तत्र (वागरणत्ति) रयणावलिं वा मुरविं वा कंट्ट मुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा शब्दलक्षणशास्त्र (छन्देत्ति) पद्यवनचन लक्षणशास्त्रे (निरूत्तेत्ति) कडिसुत्तं वा समुदियाणंतकं वा कडवाणि वा तुडियाणं वा | शब्दनिरूक्तिप्रतिपादके (जोइसामयणेत्ति) ज्योतिषामयने ज्योति Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 409 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहग श्शास्त्र अन्येषुचबहुषु (बंभण्ण एसुयत्ति) ब्राह्मणकषुधवेदव्याक्यानरूपेषु देवकिदिवसियत्ताए उववत्तारो भवंति तेहिं गतो तेरसशास्त्रेषु आगमेषु वावाचनान्तरे (परिव्वाएसुयनएसुत्ति) परिव्राज- / सागरोवमाइ ठिती अणाराहका सेसं तं चेव / / 15 / / कसंबन्धिषु च नयेषु न्यायेषु (सुपरिनिटिवयायाविहोत्थत्ति) टी. असद्भावोद्भावनाभिः (मिच्छत्ताभिनिवेसेहियत्ति) मिथ्यात्वे सुनिष्णाताश्चाप्यभूवन्निति (आघवेमाणत्ति) आख्यन्तः कययन्तः वस्तुविपर्यास मिथ्यात्वाद्वा मिथ्यादर्शनाख्यकमणः सकाशादभि(पण्णवेमाणत्ति) बोधयंत) (परूवेमाणत्ति) उपपत्तिभिः स्थापयंतः निवेशाश्चित्तावष्टम्भा मिथ्यात्वाभिनिवैशास्तैः (दुग्गाहमाणत्ति) (चोक्खाचोक्खायारत्ति) चोक्षा विमलदेहनेपथ्याः चोक्षाचाराः / व्युद्ग्राहयमाणाः कुग्रहे योजयन्तः (वुप्पा-एमाणत्ति) व्युत्पाद्यमानाः निरवद्यव्यवहाराः किमुक्तंभवतीत्याह / (सुईसुई समायरत्ति) अभि- असद्भावोद्भावनासुसमर्थीकुवन्त इत्यर्थः (अणालोइयअपडिकांतत्ति) स्सेयजलपुयप्पाणेत्ति) अभिषेकतो जलेन पूयत्ति पवित्रित आत्मायैस्त गुरूणां समीपे अकृ-तालोचनास्ततो दोषादनिवृत्ताश्चेत्यर्थः एतेषां च तथा अविग्घेणं विघ्नाभावेन (अबडंगत्ती अवटकूपं (वाविचत्ति) विशिष्ट-श्रामण्यजन्यं देवत्वं प्रत्यनीकतया जन्यं च किल्विषिकत्वं ते हि वापीचतुरस्रजलाशयविशेषः (पुक्करिणीवत्ति) पुष्करिणीवर्तुलः स एव चण्डालप्राया एव देवमध्ये भवन्तीति१५।ओप.1 पुष्करयुक्तोवा (दीहियवत्ति) दीर्घिकासारणी (गुंजालियवत्ति) सेज्जेइमे सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पञ्जत्तया भवंति तं गुंजालिकावक्रसारणो (सरसिवत्ति) क्वचिदृश्यते / तत्र महत्सरः जहा जलयरा खहयरा थलयरा तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं सरसीत्युच्यते (णण्णत्थ अद्धाण गमणे णंति) न इतियोनिषेधः परिणामेणं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि लेसाहि विसुज्झमाणाहिं सोऽन्यत्राध्वगमनादित्यर्थः सगडवेत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं (रदं वा तहावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमइएणं इहा तह मणगवेसणं जाणं वा जुगं वा गिल्लिं वा थील्लि वा षवहणं वा सियवेत्ति) एतानिच कारमाणाणं सणीपुटवे जाईसरणे समुप्पजति तएणं ते प्रागिवव्यारव्येयानीति (हरियाणलेसण यावत्ति) संश्लेषणता समुप्पण्णजाइसरणसमाणां सयमेव पंचाणुव्वयाई पडिवखंति (घट्टणयावत्ति) संघट्टनं (थंभणयावत्ति) स्तंभनमूर्वी करणं पडिवजिता बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमण-पञ्चक्खाणपोसहोव(लूसणयावत्ति) क्वचित्तत्र लूषणं हस्ता-दिनापनकादेः संमार्जनं वासाइं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासा इंआउयं पालेति पालित्ता (उप्पाडनयावा) उन्मूलनं अयपा-याणिवेत्यादिसूत्रं यावत् करणात् भत्तं पचक्खंति बहूई भत्ताइं अणसणाए छेयंतिरता आलोइय पुकसीसकरजतजातरूप काच (वेडंतिय) वृत्त लोह कंसलोह हारपुटक पडिकता समाहिं पत्ताकालमासे कालंकिचाउकोसेणं सहस्सारे रौतिका मणि शङ्ख दन्तचर्मचेल शैल शब्दविशेषितानि पात्राणि दृश्यानि कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति तेहिं तेर्सि गती अट्ठारस (अण्ण-यराणिवा तहप्पगाराणि महद्धण मोल्लाइं) इति च दृश्यम्-तत्रा सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता परलोगस्स आराहगा सेसं यो लोह-रजनं रूप्यं जातरूपंसुवर्ण काचः पाषाणविकार (वेडंतियत्ति) तंचेव // 16 // रूढिगम्यं वृत्तलोहं त्रिकूटीति यदुच्यते कांस्यलोहं कांस्यमेवहारपुटकं टी. (सण्णी पुव्वजाईसरणेति) संज्ञिनां सतां या पूर्वजातिः प्राक्तनो मुक्ताशुक्तिपुटकं रौतिका पित्तला अन्य-तराणिवा येषांमध्ये एकतराणि भवस्तस्या यत्स्मरणं तत्तथा / / एतद्व्यतिरिक्तानि वा तथा प्रकाराणि भोजनादि कार्यकरणसमर्थानि सेजे इमे गामागरजावसन्निवेसेसु अजीवकम् भवंति तंजहा महत्प्रभूतं धनं द्रव्यं मूल्यं प्रतीतं येषांतानि तथा (अलाबुपायेणंति) दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलबेट्टिया अलाबुपात्रात् तुंबक-भाजनादित्यर्थः तथाअयबंधणानि चेत्यत्र यावत् घरसमुदाणिया विजुअन्तरिया उट्टिया समणा तेण एयारू वेणं करणात् त्रपुकबधनादीनि शैलबंधनान्तानि दृश्यानि (अण्णयराई विहारेणं विहरमाणे बहुइं वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे तदप्पगाराई महद्धणसल्लाइं) इत्येतच्चदृश्यमिति पुस्तकांतरे समग्रमिदं कालं किया उकोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति सूत्रद्वयमस्त्येवेति (णण्णत्थएगाए धाउरत्ताएत्ति) इह युगलिकयेति शेषो तेहिं तेर्सि गती वावीसं सागरोवमाइं ठिती अणाराहका सेसं तं दृश्यः हारादीनि प्राग्वत्। औपः। चेव॥१७॥ से जे इमे गामागरजावसाण्णिवेसेसु पथ्वइया समाणा से इमे गामागरजाणसण्णिवेसेसु पय्वइया समाणा भवंति भवंति तं अनुको सिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजो 2 तं जहा आयरियपडिणीया उवज्झायपडिण्णीया कुल- कोऊयकारका तेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइ पडिणीया मणपडिणीया आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहूहिं असम्भावुटभाव- अणालोइयअपडिकंता कालमासे कालंकिचा उक्कोसेण अच्चुए णाहि मिच्छत्ताभिण्णिबेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयंच कप्पे अमिओगिएस देवेसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति तेहिं तेसि दुग्गाहेमाणावुपपाएमाणा विहरित्ता बहूइ वासाइंसामण्णपरियागं | गई बावीसं सागरोवमाइ ठिती परलोगस्स अणाराहगा सेसं तं पाउणंति बहुतस्स ठाणस्स अणा-लोइयअप्पडि कंता चेवा कालमासे कालं किया उकासेणं लंतए कप्पे देवकिपिसिएस टी. (भुजो भुञ्जो (कोउगकारगत्ति) भूयो भूयः पुनः पुनः Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 410 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहग कौतुकं सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां स्नपनादि तत्कर्तारः कौतुककारकाः (आभिओगिएसुत्ति) अभियोगे आदेशकर्माणि नियुक्ता अभियोगिका आदेशकारिण इत्यर्थः एतेषां च देवत्वं चारित्रादाभियोगिकत्वं चात्मोत्कर्षादेरिति / / 18 / औः / / सेजे इमे गामागरजावसण्णिवेसेसु णिएहका भवंति तंबहुरया १जीवपदेसिया 2 अव्वत्तिया 3 सामुच्छिया 4 दोकरिया 5 तेरासीया६ अवडिया७ इचेते सत्तप्पवयणणिण्हका केवलचरिया लिं गसामण्णा मिच्छट्टिा बहूहिं असम्भावुटमावणाहि मिच्छत्ताभिसिणिवेसे हिय अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणावुप्पाएमाणा विहरित्ता बहुइ वासाइ सामण्णपरियागं पाउणंति कालमासे कालंकिच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवताए उववत्तारो भवंति तेहिं तेसिं गती एकत्तीसं सागरोमाइ ठिती परलोगस्स अणाराहगा सेसं तं चेव // 19|| टीका उपलक्षणश्च तत् सक्रियावतिव्यापनदर्शना-नामन्येषामपीति (पवयणनिण्हयत्ति) प्रवचनं जिनागमं निन्हुवते अपलपन्त्यन्यथा तदैकदेशस्याभ्युपगमात्ते प्रवचननिनन्हवकाः केवलं (चारियालिंगसामण्णा मिच्छादिट्ठीति) मिथ्यादृष्टयस्ते विपरीतबोधाः नवरं चर्यया भिक्षाटनादिक्रियया लिङ्गेन च रजोहरणादिना सामान्यः साधुतुल्य इति // 19 // से जे इमे गामागरजावसण्णिवेसेसु मणुया भवंति तं जहा अप्पारंभा अप्परिग्गहा धम्मिया धम्माणुय धम्मिट्ठाधम्मक्खाइ धम्मप्पलोइ धम्पपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणंचे व विति कप्पेमाणासुसीलासु प्वयासुप्पडियाणंदासाहूर्हिति एकचाओ पाणाइवा ताओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया एवं जाव परिग्गहातो एकच्चाओ कोहाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णओ परपरिवादाओ अरतिरतीओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया एकचाओ आबभसमारंभाओ पडिविरआ यावञ्जीवाए एकचाओ अपडिविरआ एकचाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ पयपयावणाओपडिविरआ जावजीवाए एकच्चाओ अपडिविरआ एकचाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ पयण्णपयावणाओ पडिविरया जावञ्जीवए चेव वित्तिं कप्पेमाणा सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहूहिंति एकचाओ पाणाइवा ताओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया एवं जाव परिग्गहातो एकच्चाओ कोहाओ मायाओ लोभाओ पेजाओ कलहाओ एकचाओ पयण-पयावणाओ अपडिविरया एकचाओ कुछण पिट्ठण तश्रण तालण वहंबध परिकिलेसाओपडि विरया जावजी वाए एकचाओ अपडिविरया एकचाओ राहाण महण वण्णड विलेवण सह फरिस रस रूव गंध मल्लालंकाराओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया जेयावणे तहप्पगारा सावजजोगा वहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कच्छंति ततोजावए कचाओ अपडिविरया तं समगोवासका भवंति अभिगयजीवा जीवाओ बलद्ध पुण्णपावाओ आसव संबर निजरकिरिया अधिकरण बंधमोक्खकुसला असहेजाओ देवासुरणागजक्ख-रक्खसकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगादिएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अण्णइक्कमणिज्जा णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिकं खिया निव्विति गिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजये माणुरागत्ता अयमाउसो णिग्गंथे पावयणाअढे अयं परपट्टे सेसे अणद्वे ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चिंत्ततेउरपरघरदारप्पवेसा चउद्दसहमुहिपुण्णमासिण्णी सुपडिपुणं पोसह सम्म अणुपालेत्ता समणणिग्गंथे फासुए सणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्महं कंवलपायपुंछण्णेणं ओसहभेसज्जेणं पडिहारएणयप ढफलहगसेनासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति विहरित्ता भत्तं पचक्खंति तंबहूइंभत्ताई अणसणेए च्छेदित्ति च्छेदित्ता आलोइयपडिकंतासमाहिपत्ताकालमासे कालंकिया उक्कोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति तेहिं तेसिंगती बावीसं सागरोवमाई ठिती आराहया सेसं तहेव ||2| टी० // (धम्मियत्ति) धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्ति येते धार्मिकाः कुत एतदेवमित्यत आह (धम्मिट्ठत्ति) धर्मश्रुतरूप एवेष्टोवल्लभः पूजितो वा येषान्तेधर्मेष्टाः धर्मिणांचेष्टाः धर्मीष्टाः अथवा धर्मोऽस्ति येषान्ते धर्मिणः तएवान्ये-भ्योऽतिशयवन्तोधर्मिष्ठाअत एव (धम्मक्खाइत्ति) धर्म मारव्यान्ति भव्यानां प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनःधर्मादा ख्यातिः प्रसिद्धिर्येषान्ते धर्मख्यातयः (धम्मपलोइयत्ति) धर्म प्रलोकयन्ति उपादेयता प्रेक्षन्ते पाषण्डिषु वा गवेषयन्तीति धर्मप्रलोकिनः धम्मगवेषणानन्तरं वा (धम्मपलज्जणत्ति) धर्मे प्ररज्यन्ते आसज्यन्ते ये ते धर्मप्ररज्जनाः ततश्च (धर्मसमुदाचारत्ति) धर्मरूपश्चारित्रात्मकः समुदाचारः सदाचारः सप्रमोदोवाऽऽचारो येषान्ते धर्मसमुदायाराः अत एव (धम्मेण चे व वित्तिं कप्पेमाणत्ति) धर्मेषेवचारित्राविरोधेन श्रुताविरोधेन वा वृत्तिं जीविकां कल्पयन्तः कुर्वाणा विहरन्तीति योगः (सुव्वयत्ति) सवृत्ताः शोभनचित्तवृत्ति-वितरणा वा (सुप्पडियाणंदा साहूहिति) सुष्ठु प्रत्यानन्दः चित्तालादोयेषान्ते सुप्रत्यानन्दाः साधुषुविषय भूतेषु अथवा (साहूहित्ति) उत्तरवाक्ये सम्बध्यते ततश्च साधुभ्यः सकाशात् साध्वन्तिके इत्यर्थः (एगचाओ पाणा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहग 411 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहणा इवायाओत्ति) एकस्मात् न सर्वस्मात् पाठान्तरे (एगइयाओत्ति) तत्र एकक एव एककिकः तस्मादेककिकात् इत इदं सूत्रं प्रायः प्रागुक्तार्थनवरं मिच्छादसणसल्लाओत्ति इह मिथ्यादर्शनं तज्जन्यान्ययूथिकवन्दनादिका क्रिया ततो भावतो विरताः राजाभि-योगादिभिस्त्वाकारैरविरता इति / / 20 / / एवं सामान्येनोक्तानां मनुष्याणां विशेषनिर्देशार्थमाह। (तंजहत्ति) एते इत्यर्थः (सेजहानामएत्ति) कृचित्तत्राप्ययमेवार्थः। से जे इमे गामागरजावसण्णिवेसेसु मणुआ भवंति तंजहा | अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया नाव कप्पेमाणासुसीलासुव्वता सुपडियाणंदा साहु सव्वाओ पाणाइवायातो पडिविरया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया सव्वाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया सव्वाओ कुट्ठणपिट्टण-तज्जणतालणवलबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया सव्वाओ पहाण मद्दण वण्णक विलेवण सद्दफरिस रस रूव गंध मल्लालंकाराओ पडिविरया जेतावण्णे तहप्पगारा | सावजजोगे वहिया कम्मंत्ता परयाणपरियावण करा कजंत्ति ततो विपडिविरया जावज्जीवाए से जहाणा मए अणगारा भवंति। इरियासमिया भासासमिया जावइणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति तेसिणंभगवं ताणं एतेणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पजति। ते बहुइं वासा ई के वलिपरियागं पाउणं ति / पाउणित्ता भत्तपचक्खति भत्तं 2 बहूई भत्ताई अणसणाई छेदइ 2 त्ता जस्सट्ठाए कीरइणग्गभावे जाव अंतं करंतिजेसि पियणं एगइया णं णो के वलवरदंसणे समुप्पजइ ते बहूइं वासाइं छउ मत्थपरियागं पाउ 2 आवाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पचक्खंति ते बहूई भत्ताई अणमणाए छेदेइ 2 त्ता जस्सट्ठीए कीरए णग्गभावे जाव अंतं करेइ जसि पियणं एगइयाणं णो केवलवरदसणे समुप्पजइ / ते बहूइ वासाइं छउमत्थपरियागं पाओ 2 आबाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पञ्चक्खंति / ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेइत्ता जस्सहिए करिए णग्गभावो जाव तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्साणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं उप्पाडिंति तओपच्छा सिज्झइजाव अंतंकरेहित्ति एकच्चापुण एके भयं तासे पुष्वकम्मावसे सेणं कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवताए उववत्तारो भवंति तेहिंतेसिंगई तेती संसागरोवमाइ ठिई आराहका सेसंतंचेव।। टी. आवाहेति रोगादिबाधायां एगचा पुण एगे भयं तारोत्ति एगा असाधारणगुणत्त्वाद्वितीया मनुजभवभाविनीवा अर्चा पूजायेषान्ते एकाएंः पुनः शब्दः पूर्वोक्ताथ ऽिपेक्षया उत्तर-वाक्यार्थस्य विशेषद्योतनार्थः / एके केवलज्ञान भाजनेभ्यो अपरे (भयंत्तारोत्ति) भक्तारो अनुष्ठानविशेषस्य सेवयितारो भयत्रातारो वा अनुस्वारस्त्वलाक्षणिकः (पुव्वकम्मावसे सेण) क्षीणा-वशेषकम्मणिो देवतयोत्पत्तारो भवन्तीति योगः।। आराहण-(आराधन) आ राध-ल्युट-आ सामस्त्येन राध्यते साध्यते पर्यन्तक्रियाऽनेनेत्याराधनमन शनम् अनशने, संस्ता० आराहणपडागा-स्त्री. (आराधनपताका) आराधनरूपपता कायाम् द, प.॥ संसाररगमज्झे, धिइवल वचसाय वद्धकव्वाओ / / हंतूण मोहमल्लं, हरादि आराहणपडागं / / 29|| द, प० / चतारिय कसाए, तिन्निगारवे पंच इदियग्गामे।। हंता परीसहस मूहे, राहि आराहणपडाग // 34 // आराहणय-पुं० (आराधनक) संस्तारके, संस्ता.। आराहणया-स्त्री. (आराधनता) संस्तारके, एस किलाराहणया आ सामस्त्येनराध्यते साध्यतेपर्यन्तक्रियाऽनेनेत्याराधनमन-शनम्तस्य भाव आराधनता आराधनमेव वा आराधनका स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादाराधनका अयमर्थः एष संस्तारक आराधनता आराधनका वा चारित्रधर्मोत्यापनकल्पा इति संस्ता.॥ आराहणा-स्वी. (आराधना) आ राध णिच् युच् स्वीत्वाट्टाप् सेवायाम्, वाच० / पालनायाम, पंचा वृ०७॥ मोक्षसुखसाधनो-पाये , दर्श. / / आराधनमाराधना ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्वम् निरतिचारज्ञानाद्यासेवायाम् स्था० ठा. 2 आराधना ज्ञानादिगुणानां विशेषतः पालनेति. औप० (आराहणागुणाणं) आराधना-ऽखण्डनिष्पादना गुणानामितिध. अधि०३ (अपच्छिममारणंतिय संलेहणा जोसणाराहणाय) आरोधनाऽखण्डकालस्य करण-मित्यर्थः / आव / उत्तमार्थ प्रतिपत्तौ आतु०॥ चरमकाले निर्यापणे, च आराधना चरमकाले निर्यापणरूपेति। द्वा० / दश अ०१०॥ सा च द्विविधा तथा च स्थानाङ्गे 2 ठा.! दुविहा आराहण पतं। धम्मियाराहण चेव केवलिआराहणा चेव धम्मियाराहण दुविहा पतंजहा सुयधम्माराहण चेव चरित्तधम्माराहण चेव केवलि-आराहण दुविहा पन्नता।तंजहा अंतकिरिया चेव कप्पविमाणोववत्तिया चेव।। टी. दुविहेत्यादि / / सूत्रं कण्ठ्यं नवरं / आराधनमाराधना ज्ञानादिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्वं निरतिचारज्ञानाद्यासेवेति यावत् धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः साधवस्ते षामियं धार्मिकी सा चासावाराधना चेति निरतिचारज्ञानादिपालनाधाम्मिकाराधना केवलिनां श्रुतावधि मनःपर्याय केवलज्ञानिना मियं कैवलिकी सा चासावाराधना चेति कैवलिकाराधनेति। सुयधम्मेत्यादौ विषयभेदेनाराधनाभेद उक्तः केवलिआरा-हणेत्यादौ तु फलभेदेनेति तत्र अंतो भवांत स्तस्य Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहणा 412 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहणा क्रिया अंत क्रिया भवच्छेद इत्यर्थस्तद्धेतुर्याऽराधना शैलेशि रूपा सा अंतक्रियेत्युपचारात् एषा च क्षायिकज्ञानिकेवलिनामेव भवति / तथा कल्पेषु देवलोकेषु न तु ज्योतिश्चारे विमानानि देवा वासविशेषा अथवा कल्पाश्च सोधम्मदियो विमानानि च तदुपरिवर्ति गैवेयकादीनि कल्पविमानानि तेषु उपपत्तिरूपपातो जन्म यस्याः सकाशात् सा कल्पविमानापपातिका ज्ञानाधाराधना एषा च श्रुतकेवल्यादीनां भवतीति एवं फला चेय-मनंतरफलद्वारेणोक्ता परंपरया तु भवांतक्रियानुपातिन्येवेति। त्रिविधापि भगवत्याम् यथा भ, श०८ उ०१० कइविहाणं भंते ! आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा / आराहणा पण्णत्ता तंजहा नाणाराहणा ? दंसणाराहणा 2 चरित्ताराहणा३नाणाराहणाणं भंते ! कइविहापण्णता? तिविहा पण्णत्ता तंजहा-उकोसिया मज्झिमा जहण्णा दंसमाराहणाणं भंते ! कइविहा? एवं चेव तिविहावि एवं चरित्ताराहणावि॥ टी. आराधना निरतिचारतयानुपालना तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारं श्रुतं वा तस्याऽराधना कालाधुपवारकरणं दर्शनं सम्यक्त्वं तस्याऽराधना निःशंकितत्वादि तदाचारानुपालनं चारित्रं सामा-यिकादि तदाराधना निरतिचारता (उकोसियत्ति / उत्कर्षा ज्ञानाराधना ज्ञानकृत्यानुष्ठानेषु प्रकृष्ट प्रयत्नता मज्झिमत्ति तेष्वेव मध्यमप्रयत्नता जहण्णत्ति। तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता। एवं दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति // स्था, ठा०३ / / ज्ञानस्य श्रुतस्याराधना कालाध्ययनादिष्वष्टसु आचारेषु प्रवृत्त्या निरतिचारपरिपालना ज्ञानाराधना एवं दर्शनस्य निःशङ्कितादिषु चारित्रस्य समितिगुप्तिषु सा चोत्कृष्टादिभेदाभाव भेदात्काल-भेदाद्विति ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः॥ अयोक्ताराधनाभेदानामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाह / | भ, श०८ उ.१०! जस्सणं भंते ! उक्कोसिया नाणाराहण तस्स उक्कोसिया दसणाराहण जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा गोयमा ! जस्स उक्कोसिया णाणा राहणा तस्स दसणाराहणा उक्कोसा वा अजहन्नुकोसावा जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा जहण्णा वा अजहण्ण मणुक्कोसा वा।। टी०। जस्स णमित्यादि। अजहण्णुकोसावत्ति॥ जघन्या चासावुत्कर्षा चोत्कृष्टा जघन्योत्कर्षा तन्निषेधादजघन्योत्कर्षा मध्यमेत्यर्थः / उत्कृष्टज्ञानाराधनावतोह्याधे द्वे दर्शनाराधने भवतो न पुनस्तृतीया तथा स्वभावत्वात्तस्येति // जस्स पुणेत्यादि / उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञानं प्रति त्रिप्रकारस्यापि प्रयतस्य सम्भवोऽस्तीति त्रिप्रकारापि तदाराधना भजनया भवतीति॥ जस्सणं मंते / उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा जस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्सुक्कोसिया | नाणाराहणार जहा उक्कोसिया नाणा-राहणा यदसणाराहणाय | भणिया तहा उकोसिया नाणाराहणा च चरित्ताराहणा य भाणियव्वा॥ टी. / / उत्कृष्टज्ञानचारित्राराधना संयोगसूत्रे तूत्तरं यस्योत्कृष्टा ज्ञानाराधना तस्य चारित्राराधना उत्कृष्टा मध्यमा वास्यात् उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि चारित्रं प्रति नाल्पतमप्रयतता स्यातत्स्वभावत्वात्तरयेति / उत्कृष्टचारित्राराधनावतस्तु ज्ञानं प्रति प्रयत्नत्रयमपि भजनया स्यात्, एतदेवातिदेशत आह जहा उक्कोसिए इत्यादि। जस्सणं मंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्सुक्कोसिया चरित्ताराहणा जस्सुक्को सया चरित्ताराहणा तस्सुक्कोसिया दंसणाराहणा गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहण तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा जहण्णा वा अजहण्णमणुक्कोसा वा जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहण तस्स दंसणाराहण नियम उक्कोसा।। मटी०।। उत्कृष्टदर्शनचारित्राराधना संयोगसूत्रेषुत्तरं / / (जस्सुक्कोसियादसणाराहणेत्यादि) || यस्यात्कृष्टा दर्शनाराधना तस्य चारित्राराधना त्रिविधापि भजनया स्यादुत्कृष्ट दर्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयत्नस्य त्रिविधस्याऽप्यविरुद्धत्यादिति // उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टव दर्शनाराधना प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगतत्त्वादिति // अथाराधनाभेदानां फलदर्शनायाह. भ. श०८ उ० 10 उक्कोसियं णं भंते / नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहिं सिजद्द जाव अंतं करेइ गोयमा! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्जइ जाव अंतं करेइ अत्थेगइए दोचे णं भवरगहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ अत्थेगइए कप्पोवएसु वा कप्पातीतएसु वा उववञ्जइ, उक्कोसिया णं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवगहणेहिं एवं चेव।। उक्कोसियंणं मंते! चरित्ताराहणं आराहेत्ता एवं चेव, णवरं अत्थेगइए कप्पातीत एसु उववअइ॥ टी। तेणेव भवगहणेणं सिजइति / उत्कृष्टां ज्ञाना-राधनामाराध्य तेनैव भवग्रहणेन सिद्धत्युत्कृष्टचारित्राराधनायाः सद्भाव कप्पोवएसुवत्ति / / कल्पोपगेषु सौधर्मादिदेवलोकोपगेषु देवेषु मध्ये उपपद्यते मध्यमचारित्राराधनासद्भावे / / कप्पा-तीएसुवत्ति / / ग्रैवेयकादिदेवेखूपपद्यते मध्यमोत्कृष्टचारित्रा-राधनासद्भाव इति // तथा उक्कोसियं णं भंते ! दंसणाराहण-मित्यादौ एवंचेवत्ति करणात्तेणेव भवग्गहणेण्णं सिज्झईत्यादि दृश्यं तद्वसिद्व्यादि च तस्यां स्याचारित्राराधनायास्तत्रोत्कृष्टाया मध्यमाया-श्वोक्तत्वादिति॥ तथा उक्कोसियं ण भंते ! चारित्ताराहणमित्यादि एवंचेव तिकरणात्तेणेव भवग्गहणेणमित्यादि दृश्यं केवलं तत्र अत्थगइए कप्पोवगेसु वेत्यभिहितमिह तु तन्नवाच्य-मुकृष्टचारित्राराधनावतः सौधर्मादिकल्पेष्वगमनाद्वाच्यं पुनः अत्थेगइए कप्पातीतएसु उववञ्जइति, सिद्धिगमनाभावे तस्यानुत्तरसुरेषु गमनादेतदेव दर्शयतोक्तं // मज्झिमियं णं मंत! नाणाराहणं आराहेत्ता क इहिं भवग्गहणे हिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ२ गोयमा! अत्थेगइए दोघे णं भवग्गहणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ तचं पुण भवग्गहणं णाइक्कमइ / मिज्झमियं ण भंते / दसणा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहणा 413 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आराहणा राहणं आराहेत्ता एवं चेव एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि।। टी. / / नवरमित्यादि / / मध्यमज्ञानाराधना सूत्रे मध्यमत्वं ज्ञानाराधनाया अधिकृतभव एव निर्वाण भवेपुनरुत्कृष्टत्वमवश्यं भावीत्यवसेयं निर्वाणाऽन्यथानुपपत्ते रिति / दोचेणंति / / अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन।। तचं पुण भवग्गहणंति // अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं मनुष्यभवग्रहणं // जहणियं गंभंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहि भवग्गहणेहिं सिज्झइजाव अंतं करेइगोयमा! अत्थेगइएतचे णं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ सत्त-भवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ एवं दंसणाराहणं पि। एवं चरित्ताराहणं पि॥ एताश्च चारित्राराधनाः संवलिता ज्ञानाद्याराधना इह विवक्षिताः कथमन्यथा जघन्यज्ञानाराधनामाश्रित्य वक्ष्यति सत्तट्ठ-भवगहणाइ पुण णाइक्कमइत्ति / / यतश्चारित्राराधनाया एवेद फलमुक्तं यदाह अट्ठभवा उवचरित्तेत्ति / श्रुतसम्यक्त्त्वदेश विरतिभवास्त्वसङ्ख्येया उक्तास्ततश्चरणाराधनारहितज्ञान-दर्शनाराधना असङ्घयेयभविका अपि भवन्ति नत्वष्टभविका एवेति॥ तथाच व्यवहारकल्पे (आराहणाउतिविहा उक्कोसा मज्झमा जहण्णाउ // एगदुगतिगज हुन्नं दुतीगट्ठभवाउक्कोसा) आराधना त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा जघन्या च / तत्रोत्कृष्टाराधनायाः फलमेको भवः मध्यमाया द्वौभवौ जघन्यायास्त्रयो भवाः यदि तद्वैर्मोक्षाभावस्तदा उत्कृष्टाराधनायाः फलं जधन्यं संसरणं द्वौ भवौ मध्यमायास्त्रयो भवा जघन्याया अष्टौ भवाः ।।द. प. म. प०९। दसणनाणचरितं तव य आराहणा चउक्खंधा। सव्वे च होइ तिविहा उक्कोसा मज्झिम जहन्ना 37 आराहे ऊणविऊ उक्कोसाराहणं चउक्खधं / कम्म-रइविप्प मुक्को तेणेव भावेण सिज्झिज्जा 38 आराहेऊणविऊ जहन्नमाराहणाचउक्खंधा। सत्तट्ठभवमहणे परिणामेऊण सिज्झिज्जा 39 // भणइ य तिविहा भणिया, सुविहिय आराहण जिणिं देहि / सम्मत्तं मिय पढमा, नाणचरितेहिं दोअण्णा ||15|| सद्दहगा पत्तियगा, रोयगा जस्स वीरवयणस्स / समसअणु सरंता, दंसणआराहण हुन्ति ||16|| संसारसमावन्ने य छविहे मुहे मस्सिएचेव / एएदुविहे जीवे, आणाए सद्द हे निचं 17 धम्माधम्मागास, दुग्गा जे जीवमच्छिकायं च | आणाइ सहकहतां,सम्मत्ताराहगा भणिया१८ आराधनामधिकृत्य महाप्रत्याख्याने द. प. इंदियसुहसोउलउ, धोरपरीसहपराईयपराज्झा / अकयपरिकम्मकीवो, सुज्झइ आराहणाकाले // 93 / / सुज्झई दुक्करकारी, जाणई मग्गंति पावए कित्ति / विणिगृहितो निंदई , तम्हा आराहणा सेया ||9|| द. प. चइऊण कसाए इंदिए य सावयगार वेहंतु तोसलिय रागदोसो करेद आराहादणा सुद्धिं // 44|| आराधनोपयुक्तस्य फलम् यथा. आतु। एगंपि सिलोग जो, पुरिसा मरणदसकालंमि। आराहणोवउत्ता, विततो आराहगो होइ / / 74|| टी० // तस्मादेकमपि श्लोकं पंचपरमेष्टि नमस्कारा दिरूपं यः पुमान् मरणदेशकाले आराधनोपयुक्तः सन् चिंतयति स तं चिंतयन् स्मरन्नाराधको भवति // 7 // अयाराधकस्य किम्फलमित्याह आतु। आगहणोवउत्तो, सम्म काउण सविहिओ कालं / / उकोसं तिन्निभवे, गंतूणं लहइ निव्वाणं / / 75|| टी०आराधनाया उत्तमार्थप्रतिपत्त्या आराधनायां वा उपयुक्त उद्यतः सावधान इत्यर्थः कालं मरणं कृत्वा सुविहितः सुसाधुः सम्यम् श्रुद्धभावनोत्कृष्टत उत्कृष्टाराधनाबलात्त्रीन् भवान् गत्वा लभते निर्वाणं मोक्षमित्यर्थः / यदि परमसमाधिना कालं करोति ततस्तृतीये भवेऽवश्य सिद्ध्यतीति भावः। अत्राह शिष्यः / ग्रंथांतरे उत्कृष्टतो निरंतरमष्टभवाराधनया जघन्यतस्त्रिकभवाराधनयापि सिध्यतीत्युक्तं अत्र तु तृतीयभवेसिध्यतीति तदेतन्नाप्युत्कृष्ठनापिजघन्यंततश्च कथन विरोधः उच्यते यदेकेनभवेनसिद्ध्यती-त्युक्तंतद्वऋषभनाराचसंहन नमाश्रित्य एतच सेवात्तसंहनन मंगीकृत्योच्यते सेवार्तसंहननोहि यद्युत्कृष्टाराधनां करोति ततस्तृतीये भवे सिद्ध्यति उत्कृष्टशब्दश्चात्राऽतिशयार्थः / आराधनाविशेषणं च द्रष्टव्यः / नतु भवानगीकृत्य भवांगीकरणे पुनरुत्कृष्टतोऽष्टभिरेव भवैः सेवार्तसंहननः सिध्यतीति न विरोधः / / 75 / / आराधनाभिमुखस्य फलम् पाoll जय इमं गुणरयण, सायरमविराहिऊण तिण्णसंसारा। ते मंगलं करित्ता, अहमवि आराहणाभिमुहो / / 2 / / टी. / / तथा (जेय इमं इति) ये महामुनयश्वशब्दो मंगलांतरसमुच्चयार्थः / इमं जैनशासनप्रसिद्धं (गुणरयमसायरंति) गुणा महाव्रतादयस्त एवरत्नानि विशिष्टफलहेतुत्वात्सर्ववस्तुसारत्वाच गुणरत्नानि तान्येव बहुत्वात्सागर इव सागरः समुद्रो गुणरत्न-सागरःतं किमित्याह। अविराध्य अखडमनुपाल्य तीर्णसंसारा-लंधितभदवोदधयो जातास्तान्परमात्मनो मंगलं कृत्वा शुभ-मनोवाकायगोचरं समानीयेत्यर्थः / अहमपि न केवलमुक्त-न्यायेनाराधकत्वात्ते तीर्णभवार्णवाः / किंत्वहमपि संसारा विलंघनार्थमेवाराधनायास्संपूर्णमोक्षमार्गनुपालनाया अभि-मुखः संमुखः कृतउद्यतइत्यर्थः / / आराधनाभिमुखः संजातइति। आधाकर्मादिभुञ्जानस्य नालोचयतोऽऽप्रतिक्रामतश्च नास्त्याराधना // तथाच दर्शनशुद्धौ दर्श०॥ भुजंइ आहाकम्भ, समं नय जो पडिकमइ लखो।। सव्वजिणणाविमुहस्स तस्स आराहणा नत्थि।। भुक्तेऽभ्यवहरतिलौल्यादापन्निपतितो वा आधाकर्म उप-लक्षणत्वात् क्रीताभ्याहूताद्यपि सम्यक्नच नैव प्रतिक्रामति मयेदमनुचितमाचरितमिति सम्यग्भावतेन्यर्थः यः लुब्धो लोभवान् तस्य किं नास्ति न विद्यते साऽराधना मोज्ञसुखसाधनोपायो यदर्थं गेहान्निष्कांत इत्यर्थः / कथंभूतस्य सर्वजिनाज्ञाविमुख-स्य।।१०।। आलोअणमालुंचण, विअडीकरणं च भावसोहीअ।। आलोइअंमि, आराहण अणलोइए भयणा ||15|| अवलोकनं आलुचन विकटीकरणं चभावशुद्धिश्चयच्छेहकश्चिन्निपुणमालाकारःस्वस्यारामस्य सदाद्विसंध्यमवलोकनकरोति किं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहणा 414 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आराहणा कुसुमानि संत्युत नेति दृष्ट्वा तेषामाखंचनं करोति ग्रहणमित्यर्थः ततोविकटीकरणं विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदनं विभजनमित्यर्थः च शब्दात् पश्चात् ग्रंथनं करोति ततो ग्राहका गृह्णति ततोऽस्याभिलषितार्थलाभो भवति भावशुद्धिश्चचित्त-प्रसादलक्षणा अस्या एव विवक्षितत्वात् अन्यस्तु विपरी तकारी मालाकारस्तस्य न भवति एवं साधुरपि कृतोप-धिप्रत्युप्रेक्षणादिव्यापारा उच्चारादिभूमिप्रत्युपेक्षया घातविरहितः कायोत्सर्गस्थोऽनुप्रेक्षते सूत्रं गुरौ तु स्थिते दैवसिकावश्यकस्य मुखवस्त्रिकाप्रत्युप्रेक्षणादेः कायोत्सर्ग तस्यावलोकन करोति पश्चादालुंचनं स्पष्ट बुद्ध्याऽपराधग्रहणं ततो विकटीकरणं गुरुलधूनामपराधानां विभंजनं च शब्दादालोचनं प्रतिसेवना-नुलोमेन ग्रंथनं ततो यथाक्रमं गुरोर्निवेदनं करातिएवं कुर्वतः भावशुद्धिरुपजायते। औदयिक भावात् क्षायोपशमिक -प्राप्तिरित्यर्थः / इत्थमुक्तेन प्रकारेणालोचिते गुरोरपराध जाले निवेदिते आराधना मोक्षमार्गाकंडना भवति अनालोचिते अनिवेदिते भजना विकल्पना कदाचिद्भवति, कदाचिन्न भवति तत्थं भवति। आलोयणापरिणओ, समं समुवट्ठिउ गुरुसगासं। जइ अंतराओ कालं, करेज आराहओ तहवि ||1|| एवं तुन भवति इडी, एगारवेणं बाहुसुयमएणावा-णिदुचरियं / जो न कहेइ गुरूणं नहु सो आराहआ भणि ओति // गाथार्थः / आव०॥ आहाकम अणवजेत्ति मणं पहारेता भवइ सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कं ते कालं करेइ नात्थ तस्स आराहणा सेणं तस्स ठणस्स आलोइयपडिकंते कालं करेइ अत्थितस्स आराहणा एएणं गमेण नेयव्वं कीयकडं ठवियं रइयं के तारभत्तं दुटिमक्खभत्तं वद्दलियाभत्तं गिलाणभत्तं से जायरपिंडं रायपिडं आहाकम्म अणवज्जे ति बहुजणमज्झे भासित्ता सयमेव परि जित्ता भवइ सेणं तस्स ठाणस्स जाव अत्थि तस्स आराहणा एयंपि तह चेव जाव रायपिंड आहाकम्म अणवजे त्ति अण्णमण्णस्स अणुपदावे इत्ता भवइ सेणं तस्स एवं तह चेव जाव रायपिडं आहाकम्मं णं अणवजे ति बहुजणमज्झे पभावइत्ता भवइ सेणं तस्स जाव अत्थि आराहणा जाव रायपिंडं। भ.५ श.६ उ / / (अणवजेत्ति) अनवद्यमिति निर्दोषमिति।। मणे पहारोत्तित्ति। मानसं प्रधारयिता स्थापयिता भवति / रइयगंति / मोदकचूण्ादि पुनर्मोदकादितया रचितमौद्देशिक भेदरूपं (कं तारभत्तंति) / कान्तारमरएयं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहाथं यद्विहितं भक्तं तत्कान्तारभक्तं एवमन्यान्यपि नवरे, वादलिका मेघदुर्दिन / (गिलाणभत्तेति) ग्लानस्य नीरोगतार्थं भिक्षुकदानाथ यत्कृतं भक्तं तत् ग्लानभक्तं आधाकर्मादीनां सदोषत्वेनागमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनं तत एव स्वय भोजनमन्यसाधुभ्योऽनुपदापनं सभायां निर्दोषताभणनञ्च विपरीतश्रद्धानादिरूपत्वामिन्मथ्यात्वादि, ततश्चज्ञानादीनां विराधना स्फुटेवेति॥ निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविटेणं अण्णयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिते वए तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ट्ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि गरिहामि विउट्टामि विसोहामि अकरणयाए अब्भुट्टेमि अहारिहं पायच्छित्ततवोकम्म पडिवजामि तओपच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि / जाव तवोकम्मंपडिवजिस्सामिसेय सपट्ठिए असंपत्ते थेराय पुव्वामेव अमुहा सिया। से णं भंते ! किं आराहए विराहए ? गोयमा ! आराहए नोविराहए से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणाय पुय्वामेव अमुहे सिया से गंभंते !किं आराहए विराहए गोयमा ! आराहए नो विराहए से य संपट्ठिए असंपत्ते थेराय कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए गोयमा ! आराहए नोविराहए से य संपट्ठिए असपत्तय अप्पणाय पुवामेव कालं करेजा सेणं भंते! किं आराहए विराहए गोयमा ! आराहए नो विराहए से य संपढ़िए संपत्ते थेराय अमुहा सिया से णं भंते / किं आराहए विराहए गोयमा ! आराहए नो विराहए से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणाय एवं संपत्तेण विचत्तारि आलावगा भाणियव्वा / / जहेव असंपत्तेणं निग्गंथेण य वहियारभूमि वा विराहभूमि वा निखंतेणं अण्णयरे अकिंचट्ठाणे पडिसेविए तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एवं एत्थवि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। निग्गंथेण य गामाणुगामं दूइज्जमाणेणं अण्णयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए तस्स णं एवं भवइ इहेव ताव एत्थवि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियवा जाव नो विराहए / निग्गंथाए य गाहावइकुलं / पिंडवायपाडयाए अणुप्पविट्ठाए अण्णयरे / अकिचठाणे पडितेविएतीसेणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवोकम्म पडिवजामि तओ पच्छा पवित्तणीए अंतिए आलोएस्सामि जाव पडिवजिस्सामि सा य संपट्ठिया असंपत्ता पवित्तणीय अमुहा सिया साणं भंते ! किं आराहिया विराहिया? गोयमा! आराहिया णो विराहिया। सा यसंपठ्ठिया जहा णिग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं निग्गयीए वि त्तिण्णि आलावगा भाणियवा जाव आराहिया नो विराहिया। से के णटेणं भंते ! एवं वुचइ आराहए नो विराहए? गोयमा ! से जहा नाम ए केइ पुरिसे एग महं उण्णालोमं वागयलोमं वासणलोमं वा कप्पासलोमं वा तणसूर्य वा दुहा वा तिहा दा संखेसहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेज्जा से गूणं गोयमा ! छिज्जमाणे छिण्णे पक्खिप्पमाणे Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराहणा 415 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आराहियसंजम पक्खित्ते दजझमाणे दर्दृत्ति वत्तव्वं सिया हंता भगवं! छिज्जमाणे छिपणे जाव दहत्ति वत्तव्वं सिया सेजहानाम एकेइ पुरिसे वत्थं अहतं धोयं वा तंतुग्गयं वा मंजिट्ठदोणीए पक्खिवेज्जा से गूणं गोयमा! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते रज्जमाणे रत्तेत्ति दत्तव्वं सिया हंता भगवं! उक्खित्तमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्तव्वं सिया से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुधइ आराहए नो विराहए।भ०८ श०७ उ / निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह। निणथं चणमित्यादि।। इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य घटनाचैवं निर्ग्रन्थं कंचित्पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टं पिण्डादिनोपनिमन्त्रयेत्तेन च निर्ग्रन्थेन पुनः / / अकिचट्टाणेति // कृतस्य करणस्य स्थानमाश्रयः कृत्यस्थान तन्निषेधोऽकृत्यस्थानं मूलगुणा दिप्रतिसेवारूपोऽकायेविशेषः (तस्स णंति) तस्य निग्रंथस्य संजातानुतापस्यैवं भवति एवं प्रकारं मनोभवति एयरस ठाणस्सत्ति) विभक्तिपरिणामादेतत् स्थानमनन्त-रासेवितमालोचयामि स्थापनाचार्यनिवेदनेन प्रतिक्रमामि मिथ्यादुष्कृतदानेन निन्दामि स्वसमक्षं स्वस्याकृत्यस्थानस्य वा कुत्सनेन (विउट्टामिति) वित्रोटयामि तदभुबन्धञ्छिनद्मि विशोधयामि प्रायश्चिताभ्युपगमेन अकरणतयाऽकरणेनाभ्युत्तिष्ठाम्युभ्युद्यतो भवामीति (अहा-रिहंति) यथार्ह यथोचितमेतच्च गीतार्थतायामेव भवति नान्यथा (अंतियति) समीप गत इति शेषः (थेराय अमुहा सियत्ति) स्थविरा पुनरमुखानिर्वाचः स्युर्वातादिदोषात्ततश्च तस्यालोचनादिपरिणामे सत्यपि नालोचनादि- 1 सम्पद्यत इत्यतः प्रश्न यति / / (सेणमित्यादि) (आराहएत्ति) मोक्षमागऽस्याराधकः शुद्धइत्यर्थ भावस्य शुद्धत्वाद्भवति चालोचनापरिणता सत्यां कथञ्चित्तदप्राप्तावप्याराधकत्वं यत उक्त। मरणमाश्रित्य आलोयणापरिणओसम्म सपट्टिओ गुरुसगासे / जइ मरइ अंतराविय तहा विसुद्धोत्ति भावाओत्ति || स्थविरात्मभेदेन चेह द्वे अमुखसूत्रे द्वे कालगतसूत्रे इत्येवं चत्वारि असम्प्राप्तसूत्राणि सम्प्राप्तसत्राण्यप्येवं चत्वार्येव एवमेतान्यष्टौ पिण्डपातार्थ गृहपतिकुले प्रविष्टस्य एव विचारभूम्यादावष्टा एव ग्रामगमनेऽष्टावेवमेतानि चतुर्विंशतिसूत्राणि। एवं निन्थिकाया अपि चतुर्विशतिसूत्राणीति अथानालोचित एव कथमाराधक इत्याशङ्कामुत्तरं चाह / / सेकेणा-मित्यादि॥ तणसूर्यवत्ति तृणाग्रंवा। छिज्जमाणे छिन्नेत्ति // क्रियाकालनिष्ठाकालयारेभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तेश्छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते एवमसा वालोचनापरिणतौ सत्यामाराधनाप्रवृत्तं आराधक एवेति। अहयं वत्ति। अहतं नवं (धोयंति) प्रक्षालितं // तंतुग्गुयंति तत्रोद्गतं तुरीवेमादेरुत्तीर्णमात्र।। मंजिट्ठदोणीएत्ति // मांजिष्ठरागभाजने // भ. टी.॥ आराधकत्वविराधकत्ववक्तव्यताऽऽराधकशब्दे , मार्यिनोना स्त्याराधेनति आलोयणाशब्दे 2 शीलसम्पन्नश्रुतसंपन्नादीनां देशाराधकत्वसर्वाराधकत्वादि पुरुषजातशब्दे / / 3 // तदात्मके द्वात्रिंशत्तमे योगसंग्रहे च (आराहणा य मरणंते) मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्रेत्यतो द्वात्रिंशद्योगसंग्रहण इति समस. 32 / प्रश्न, द्वा०५/आव. (इयाणि आराहणाय मरणंतित्ति आराहणाए) | मरणकाले योगाः संगृह्यन्ते तत्रोदाहरणं प्रतिगाथापश्वार्द्धमाह आराहणाइ मरुदेवा ओसप्पणिए पढमसिद्धा / / आसीत्पुर्या विनीतायां, भूपतिर्भरतेश्वरः / / श्रुत्वा विभूषितं तं च, मरुदेवाऽभ्यधादिदं // 1|| त्वत्पितापीदृशीं त्यक्त्वा, विभूषामेककोऽभ्रमत्॥ उवाचभरतः कासौ, भूतिम तस्य यादृशी // 2 // चेन्न प्रत्येषि तद्यामो, निर्ययौ भरतेश्वरः / / मरुदेवीं करिस्कंधे, ऽधिरोप्य प्रभुसनिधौ // 3 // श्रुत्वा समवसरणे, देवेभ्योस्याः स्तवं प्रभोः॥ आनंदात्रैदृशा नीलो, नगतोऽपश्यत्प्रभोः श्रियं / / 4 / 0 आथोचे भरतो मातः ! पुत्रभूषा विलोकिता / / कुतो ममेदृशी साय, चिंतयंतीप्रमोदतः // 5 // विवेशाऽपूवकरणं, जातिस्मृतिरभून्ननु / वनस्पते यदुवृत्ता, करिस्कंधजुषोऽप्यथ / / 6 / / उत्पन्नं केवलं मक्षु, प्राप प्रथमसिद्धतां // ईदृगाराधनायोगा, जायते योगसंग्रहः / / 7 / / आ. कथा। मोक्षाराधनहेतुत्वादाराधना, आवश्यके, आवश्यकस्यैकार्थिकान्यधिकृत्य (नाओ आराहणामग्गो) अनु० // आराहणाभिमुह-त्रि. (आराधनाभिमुख) आराधनाया सम्पूर्णमोक्षमार्गानुपालनाया अभिमुखः सम्मुखः कृतोद्यम इत्यर्थः आराधनायां कृतोद्यमे, पा० // अराहणी-स्त्री. (आराधनी) आराध्यतेपरलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयत्याराधनी, द्रव्यभावभाषाभेदे (आराहणी-ओदव्वे सच्चे मोसाविराहणी होइ) दश अ० 7 // आराहणोवउत्त-त्रि. (आराधनोपयुक्त) आराधनया उत्तमार्थ-प्रतिपत्त्या आराधनायां वा उपयुक्त उद्यतः सावधान आरा-धनोपयुक्तः आराधनयोपयुक्ते, आराधनायामुपयुक्ते च (आरा-हणोवउत्ते विततो आराहगो होइ) आतु०॥ आराहिता-अव्य. (आराध्य) सेवनं कृत्वेत्यर्थे, (आराहिता आणाए अनुपालइत्ता) आराध्य यथोक्तोत्सर्गापवादनयविज्ञानेन सेवनं कृत्वेतिउत्त, अ२९ सम्पाद्येत्यर्थे, पं.वकल्प। आराहिय-(आराधित) आ.राध-णिच् क्त सेविते, वा संपादिते, पं. व. सम्यक्पालितति / आतु, / सम० // परितोष प्रापिते- (आराहितो रज्जसपट्टबंधं कासीयरायाउदुवक्खरस्स) आराधितः के नाऽपि गुणविशेषेण परितोष प्रापित इति-वृ० (हरिणगमेसिं देवं भत्ति बहुमाणेणं आराहिया) आ. म. अखडिते, (जह चेव उमोक्खफला आणा, आराहि आ जिणिंदाण) पं. व. / / (निष्ठां नीते, अहिंसालक्षणं प्रथम संवरद्वारमधिकृत्य (आराहियं आणाए,) आराधितमेभिरेवप्रकारनिष्टांनींतमिति - प्रश्न सं द्वा! (आराहिया विभवइ) एभिरेव प्रकारेः सम्पूर्णनिष्ठां नीता भवतीति स्था, ठा०७ (आराहियं पयारेहिं सम्ममेएहिं निट्ठवियं) आराधितञ्चैव एभिरेव प्रकारैर्निष्ठां नीतमिति, प्रव, / उपा० अर आराहियनाणदंसणचारित्तजोगनिस्सल्लसुद्धसिद्धालयमग्गभिमुहाणं, सम.नि. चू१ आचाoआराहियसंजम-त्रि. (आराधितसंयम) परिपालितसंयमे (आराहियसजमाय सुरलोग पडिनियत्ता-सम० / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरिय 416 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आरुग्गबोहिलाभ आरि (य)-त्रि. (आरित) आरितो आयरितो सेवि तो वा एगट्ठति-आ० चू। आकारिते. आरिओ आगारिओ स्सरिओ वा एगटुंति आव०॥ आरिस-त्रि. (आर्ष) विवाहभेदे, गोमियुनदानपूर्वमार्ष इति ध, सं० // आरु (रो)ग्ग-न० (आरोग्य) अरोगस्य भावः प्योगशून्यत्वे, रोगाभावे, उत्त० अ०२७।। आरोग्ये सति यद्व्याधि, विकारा भवंति नो पुंसां। तद्धमारोग्ये, पापविकारा अपि ज्ञेया // 8 // टी० / / आरोग्ये रोगाभावे सति ज्ञायमाने यद्वदिति यथा व्याधिविकारा रोगाविकारा भवंति नो पुंसामारोग्यवतां तद्वदिति तथा धारोग्ये धर्मरूपमारोग्यं तस्मिन्सति पापविकारा अपि वक्ष्यमाणा न भवतीति विज्ञेया षो० वि०३ / / नीरोगतायाम् उत्त० अ० 3 / / आरोग्यं नीरूजत्वं प्राक्तनसहजौत्पातिकरोगविरहणम् / षो. विव० 3 स्थाठा. 10 / आरोग्गसारियं माणुसत्तणं सव्वसारिओधम्मो विजानिच्छियसारा सुहाइ संतोससाराइति 1 / दोषाणां समत्वं चारोग्यम् "तेषां समत्वमारोग्यं क्षयवृद्धीविपर्यय" इतिवचनात्नं भावतःसम्यक्त्वे मोक्षेचलोकोत्तरतत्वप्राप्तिमधिकृत्य आद्यं भावारोग्यं बीजं चैषां रपरस्य तस्यैव। आदौ भवमाद्यं भावारोग्यं भावरूपमारोग्यं तच्चे ह सम्यक्त्वं तद्रूपत्वाल्लोकोत्तरंतत्वंतत्प्रोप्तेर्बीजं चैषां लोकोत्तरत्वसंप्राप्तिः परस्पर प्रधानस्य तस्यैव भावारोग्यस्य मोक्षलक्षणस्य रागद्वेष-मोहानां तन्निमित्तानां च जातिजरामरणादीनां भावरोगरूप-त्यादिति षो. वि० 4 / अरोगस्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वेध, अदि। आव०॥ आवाधारहिते त्रि कल्प। ज्वरादिवर्जिते, आरोग्गा अरोगा ज्वरादिवर्जिता इति स्था० ठा०४ (आरोग्गारोग्गं दारयं पाया) आरोग्या आबाधारहिता सा त्रिशाला आरोग्यं आबाधा-रहितम् / कल्प / जण्णं रयणिं तिसला खतियाणी समणं भगवं महावीरं आरोआरोग्यं पसूया। आचा० अ०४। अरुग्गदिय-फु (आरोग्यद्विज) उज्जयिनीवास्तव्ये द्विजे।तत्कथाच धर०॥ अथि पुरी उज्जेणी, सक्कवि भूसिया हरितणुव्व। किंतु गयलक्खकलिया, बहुसंखसिरीइ उवगूढा | तत्थरिथ देवगुत्तो, विप्पो गुत्तिंदिओ पवरगुत्तो। सुविहिअसदाणंदा, नंदानामेण तस्स पिया |2|| जाउताणसुओ जंमप, मिइरोगेहिं मुखए नव। अवहियनामो रोगुत्ति, चेव सो विस्सुओ जाओ ||3|| कइया वि तस्स गेहे, भिक्खत्थं कोवि वरमुणीपुत्तो। पाडिन्नं सुयं पाएसु, माहणेणं इमो भणिओ४| रोगोवसमोवायं, इमस्स पहुकहसुकारुन्नं / सेससुया णतेहिं, कहान कहिलइ इयमुणी आह / / 1 / / तो तेणं मज्झण्णे, सह नियपुत्तेण गंतुउजाण / नमिऊण तयं पुट्ठो, एवं सो महरिसी आह ||6|| पावाओ होइ दुक्खं, तं पुण धम्मो नासए खिप्पं / जलणपलित्तं गेहं, सलिलपवाहेण विज्झाइ / / 7 / / धम्मेण सुवण्णेणं, सिग्धं नासति सयलदुक्खाइ। एया रिसाइ नियमा, नयमान य हुँति पुणो परभवे विदा इय सुणिउंते बुद्धा, गिहत्थधम्म दुवे वि गिण्हंति। दधम्मो सो माहण, पुत्तो जाओ विसेसेण |9|| धारिजह इतो सायरो, कल्लोलभिन्नकुलसेलो। नहु अन्नं जमनिम्मि, य सुहासुहो दिव्वपरिणामो ||10|| इच्चाइ विलयंतो, रोगायंके सहेइ संयमिमो। सावजंच विविग्गिं मणसा विन पच्छइ कयावि|११|| अहहरणा दढधमुत्ति, संसिउ सो कयावि तो इच्छा। पत्ता असद्दहंता दुबे सुराविजरूवधरा ||1|| जयंति इमं बालं, पउणे मोजई णो किरियं / तस्स पयाणहि पुढे, सोकेरिसया इमो बित्ति / / 13 / / महुअवलोहो पढमे, पहरे चरिमे ओजन्नसुरपाणं / नवणीयं जूयं कूरं, निसि सहपियएण भुत्तट्वं / / 14|| तो दियपुतेणुतं, इमेसि एगंपि नेव पकरेमि। वयमंगभीरूचित्तो, जीववद्दो तह फुडो चेव / / 11 / / उक्तंच // मद्ये मांसे तथाक्षोद्रे तक्रान्नीतेनवोद्धृते / उत्पद्यते विलीयंते, तद्रपर्णाः सूक्ष्मजंतवः ||16|| विजेहि तओभणिओ, देहसिणं धम्मसाहणं भई / जह वा तह वा मउणिय, पत्थापत्थनमायरसु / / 17 / / तथाचोक्तं सव्वत्थसंजमसंजमावो, अप्पाणमेव रक्खिज्जा। मुच्चइ अइवायाओ, पुणोविसोही नया विरई // 18 // सो आहम इ विसोही, पछावी करिस्स एतओएयं / किंकीरइ पढमं पिहु, भद्दा कद्दमफरिसणं च ||19|| इय सयाण हितित्तेण, विमणिओ विन जाव मन्नए एसो। ताते पमुइयचित्ता, अमरा पइडंतिनियसरूवं // 20 // कहिओ सकपसंसं, नीरोगणू कओ इमो तेहिं। तुट्ठो से सयणगुणो, राया पुलयकिओ जाओ / / 21|| तं दृट्ठपाहट्ठमणा, जयपयडं जइणधम्ममाहप्यं / बुद्धा बहवे जीवा, वयपालणउज्जया जाया ||2|| तप्पभइ इमो लोए, आरुग्गदिओति विसुओ जाओ। पालियवयाइ जाओ, कमेण सुहमावणं एसो |23|| एवमारोग्यविप्रस्य वृत्तंवरं / धीरधर्मात श्रुत्वैतचमत्कृत्परं भव्यलोका निशम्य प्रकंपां सदा पालयध्वंव्रतानि स्फुरत्संपदाः॥ आरु(रो)ग्गफल-त्रि. (आरोग्यफल) आरोग्य साधके (अवितहमा रोग्गफलं, धण्णोऽहं जेणिमं णायं) पंचा वृ० 15 // आरु(रो)ग्गबोहिलाम-पुं० (आरोग्यबोधिलाभ) आरोग्याय बोधिलाभ आरोग्यबोधिलाभः आव० / अरोग Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरुग्गबोहिलाभ 417 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरोवणा स्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वं तदर्थं बोधिलाभः अर्हत्प्रणीत- | आरेण अव्ययं आरादित्यर्थे वृ०॥ धर्मप्राप्तिरारोग्यबोधिलाभः / मोक्षायार्हत्प्रणीतधर्मप्राप्तौ, आरोअ-(उल्लस) भ्वा० पर० सेट् उल्लासे उल्लसेरूसलोकित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। सुम्भणिल्लसपुलआअंगुजोल्लारोआः // 1|| 201 / / इति प्राकृतसूत्रेआरोग्गबोहिलामं, समाहिवरमुत्तमं दितुं ध०२ अ. / णोल्लसरारोअइत्यादेशः। आरोअइ उल्लसइ प्रा० // अरोगस्य भाव आरोग्यं सिद्धत्वं तदर्थ बोधिलाभ आरोग्य आरोव-पु. (आरोप) आरुप् णिच्करणे ल्युट् अन्यपदार्थे - बोधिलाभःप्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिर्बोधिलाभोऽभिधीयते / सचाऽनि दानो ऽन्यधर्मस्यावभासरूपे मिथ्या ज्ञाने-वाच / मोज्ञायैव प्रशस्यते इति / आव. 2 अ (आरुग्गबोहिलाभं समाहिवर ___ अनारोपसुखं मोह, त्यागादनुभवन्नपि / आरोपप्रियलोकेषु मुत्तमं दितु) इत्यारोग्यबोधिलाभस्य प्रार्थनयुक्तत्वं (णियाण) शब्दे वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत्।।७।। अष्ट. ||4|| व्याख्यास्यते॥ आरोवण-न. (आरोपण) आरुप्-णिच् ल्युट्-आरोपशब्दार्थे , आरु(रो)ग्गबोहिलाभाइपत्थणाचित्ततुल्ल-त्रि (आरोग्य- आरोहणासम्पादने च, आर्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम् कुमा. रधुः वाच०।। बोधिलाभादिप्रार्थनाचित्ततुल्य) आरोग्यबाधिलाभादीनां आरोग्ग- आरोवणा-स्त्री. (आरोपणा) आरोप्यतइत्यारोपणा। प्राय-श्चित्तभेदे, बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दित्वित्येवं रूपा या प्रार्थना तत्प्रधानं यश्चित्तं व्य / आरोप्यतेइति आरोपणा / प्रायाश्चित्ताना-मुपर्युपर्यारोपण मनस्तेन तुल्यं समानम् / तथाच पञ्चाशके - तपोऽधिकृत्य यावत् षएमासाः परतो वर्द्धमानस्वामितीर्थे आरोपणायाः आरोग्गबोहिलाभाइ पत्थणचित्ततुल्लंति, पंचा. वृ०१९ प्रतिषेधात् / / व्य. उ०१॥ आरु(रो)ग्गसाहग-त्रि० (आरोग्यसाधक) आरोग्यनिष्पादके, ध० अ० 1 सांप्रतमारोपणाप्रायश्चित्तमाह // आरुस्स-अव्य. (आरुष्य) कोपं कृत्वेत्यर्थे, (आरुस्स विज्झंति तु पंचादी आरोवणा, ने यव्वा जावहुंति छम्मासा। देणपिढे) सूत्र श्रु.१ अ.५ (आरुस्स विज्झंति ककाणओ सो) आरुप्य ते पणगादियाणं, वण्हु वरिसो ज्झोसणं कुछा / / क्रोधं कृत्वेति सूत्र० श्रु.१०५) रात्रिंदिवपंचकादारभ्यारोपणापंचादिः / रात्रिंदिवपंचकादिका आरुह-(आरुह) आ० रुह भ्वा०प० अनिट् -सक् आरोहणो आदिशब्दाद्दशपंचदशविंशति रात्रिं दिवमा सिकादिपरिग्रहा ज्ञातव्याः / आरूहेश्चडवलग्गौ ८४वा इति प्राकृतसूत्रेणारूहेरेतावादेशौवा चडइ तावद्यावत्षएमासा भवंति नाधिकं यत एवं तेन प्रकारेण तेषां षण्णां वलग्गइ-आरुहइ-प्रा.। चडतिवलम्पति आरुहत्तित्तिएगटुंनि चू उ० 18 // मासाना मुपरि (पणगाइया णंति) रात्रि दिवपंचका दीना आरुहमाण-त्रि० (आरोहयत्) आरोहणं कुर्वति आरुहमाणे वा ओरुहमाणे ज्झोषणामपनयनं कुर्यात् / षण्मासाना मुपरि य दापपद्यते प्रायश्चित्तं वास्था. ठा०५ तत्सर्वं त्यज्यते इति भावः / उक्तं च चूर्णी (छम्मासाणंपरंजं आवज्जइंतं सव्वत्थ हिज्जइति) अत्र चोदक आह / किं कारणं न दिज्जइ छम्मासाणं आरू-पु. (आरू) ऋऊ-णिच पिंगलवणे आरूशब्दार्थे कर्कटशूकरादौ च परतो उ आरूवणा। भणइण मोजं कारणाज्झोसियो सेसा। षएमासानां ततः संज्ञायां कन् (आडु) हिमाचल प्रसिद्धौषधीभेदे वाच / / परत आरोपणा प्रायश्चित्तं नदीयते। अत्र किंकारणमाचार्यः प्रतिवचनमाह आरूढ-त्रिः (आरूढ) आ० रुह, कर्तरि त-वाच / आश्रिते जं कारणंति निमित्तकारणहेतुषु सर्वा विभक्तय इति वचनात् अत्र हेतौ (तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी) विशे || आरूढ प्रथमा / ततोऽयमर्थः / येन कारणेन षण्मासानां परतः शेषाणि आश्रित इति आ. चू, प्राप्ते, (आरूढाः शुद्धभुमिकाम) आरूढाः प्राप्ताः रात्रिंदिवपंचकादीनि प्रायश्चित्तानि झोषितानि त्यक्तानितत्कारणं पुनरिदं अष्ट. (आरूढेपाउपाहिंव) पिं.। मत्तं च गंधहत्थिच, वासुदेवस्सजेट्टगं / वक्ष्यमाममिति गुरुर्भणति। आरूढो सोहइ अहिय, सिरे चुडामणी जहा / (सिया रयणं तओ तदेव कारणं दर्शयति। समारूढो) उत्त० अ०२२ आरोवणानिप्पन्न, छउमत्थे जंजिणेहिमुक्कोसा। आरूढ हत्यारोह--पुं० (आरूढहस्त्यारोह) आरूढमहामात्रे तंतस्स उतित्थं, ववहरणं धन्नपिडगं च / / (आरूढहत्थारोहे) आरूढा हस्त्यारोहा महामात्रा येषु ते तथा। विपा० छदास्छे छद्मस्थकाले यत् जिनैः स्वस्वकालापेक्षया उत्कृष्ट-तपः कर्म अध्य०२ कृतं तस्य तीर्थे तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च सचैवं योजनीयस्तदेव आरेग-पु. (आरेक) आ-रिच्-धआकुश्चने-अतिरेके च वाच॥ तावत्प्रमाणमेवारोपणानिष्पन्नं तपः कर्म व्यवहियते इति व्यवहरणं आरेगा-स्त्री. (आरेका) शंकायाम् (विजहित्तु विसोत्तियं) आचा. विहाय बहुलवचनात्कमएयनव्य-वहारणीयमिति भावः / किमिवेत्यत आह। परित्यज्य विस्रोतसिकां शंकां सा च द्विधा सर्वशंका देशशंका चत्र तत्र धान्यपिटकमिव धान्यप्रस्थक इव / किमुक्तं भवति / येन राज्ञा सर्वशंका किमस्त्याहतो मार्गोन वेति। देशशंका तु किं विद्यन्तेऽप्का- यो धान्यप्रस्थकःस्थापितस्तत्काप्ते स एव व्यवहर्तव्यो न पुरातनो यादयो जीवा विशेष्य प्रवचनेऽभिहितत्वात् स्पष्टचेतनात्मलिङ्गाभावान्न नाप्यन्यः स्वमतिपरिकल्पितस्तथा भगवताऽपि तीर्थकरेण येन विद्यन्ते इति चेत्येवमादिकामारेकां विहाय सम्पूर्णाननगारगुणाननु- छद्मस्थकाले यावत्प्रमाणभुत्कृष्टं तपः कर्म कृतं तस्य तीर्थे पालयेत् आचा० अ०१ऊ२|| आरोपणानिष्पन्नं प्रायश्चित्तमपितावत्प्रमाणमेवव्यवहारणीयंनाधिकमन्यथा Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोवणा 418 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आरोवणा राजाज्ञाखडनतोराजप्रयुक्तदंडस्येव भगवदाज्ञाखंडनतः संसारदंडस्य च अत्यंतमुपचयं प्राप्ते सतिसंवत्सरेणाऽपि संवत्सरप्रमाणमपि तपः कुर्वतां प्रवृत्तेः॥ न योगानां संयमव्यापाररूपाणां हानिरासीत् / / मध्यतीर्थवर्तिनां एनमेव धान्यपिटकदृष्टांतं भावयति॥ द्विविधमप्येवं क्रमेणानंतभागहीनम् पश्चिमतीर्थकरतीर्थवर्तिनाम त्यंतहीनमतो मध्यमकानां संवत्सरप्रमाणं तपः कुर्वतां महती जो जया पत्थिदो होश, सो तया धन्नपच्छगं। योगहानिरिति तेषामष्ट-मासिकमुत्कृष्टं तपः कर्मव्यवस्थापितमठावेअन्नं पुरिल्लेणं, ववहारी य दंडए / पश्चिमतीर्थकरतीर्थवर्तिनां तदपि कुर्वतां योगहानिः षाएमासिकमुत्कृष्टं यो यदा पार्थिवः पृथिवीपतिर्भवति। सतदास्वकालेधान्य प्रस्थकमन्यं तपः कर्म तेषां प्रवर्तितं। तदेवम्तं प्रायश्चितवैषम्येकारणं। संप्रतितुल्यां स्थापयति / तस्मिश्च स्थापिते ये (परित्तेणंति) पुरातनेनोपलक्षणमेतत् विशोधिं प्रतिपादयति। ये चापि मध्यमतीर्थकरतीर्थवर्तिनश्चधैर्या द्यनुपेता स्वमतिपरिकल्पितेन व्यवहरंति तान्तथा व्यहरतो दंडयति / एवं धैर्येण धृतिबलेन आदिशब्दात् संहननबलेन च कालदोषतोऽनुपपेताः। तीर्थकृदपि भगवान् यो यावरप्रमाणमुत्कृष्टं तपः कर्मछदास्थकाले कुर्वन् तएवित्ति तकानपि तद्धमता तेषामि व आदितीर्थकरतीर्थवर्तिनामिव तपः कर्मपरिमाणं स्थापयति / स स्वतीर्थतावत्प्रमाणादधिकं तपः धर्मोऽशठत्वादिकस्वभावो येषां ते तदर्माणस्तद्भावस्तद्धर्माता सा कर्मव्यवहरतः संसारदंभेन दंडयति। तस्मात्तस्य तीर्थे तावत्प्रमाणमेव शोधयति / इयमत्र भावना / इह अशठभावेना-निगूहितबलवीर्यतया व्यवहर्तव्यमिति यथाशक्ति तपः कर्मणि प्रवृत्ति-विशोधिरांतरंकरणं तच बाह्यतपः कर्म अथ कस्य तीर्थे कियत्प्रमाणं तपः कर्मेत्यत आह॥ षोवैषम्येऽपि सर्वेषामप्यविशिष्टमतः सर्वेषांतुल्या विशोधिः युक्तं चै तत्। संवच्छरं तु पढमे, मज्झिमगाणट्ठ मासियं होइ। तथाहि प्रथमतीर्थकरतीर्थेऽपिनसर्वेषां देहबलंच समानमथ च छम्मासपच्छिमस्स उ, माणं भणियं तु उक्कोसं / / सर्वेषामप्यशठभावतया प्रवृत्तेस्तुल्या विशोधि रेवमत्रापिप्रथमे प्रच्छमतीर्थकरकाले मानं तपःकर्मपरिमाणमुत्कृष्ट भणितं भावनीयमित्यदोषः। अत्रैव निदर्शनमाह / / संवत्सरमेव तुरेवकारार्थःमध्यमकानां द्वाविंशतितीर्थकृतां तपः कर्म पत्थगा जे पुरा आसी, हीणमाणाउ तेधुणा। परिमाणमुत्कृष्ट भवत्यष्टमासप्रमाणं पश्चिमस्य तुभगवतोवर्द्धमानस्वामिनः माणभंडाणि धन्नाणि, सोहिंजाणितहेवय।। तपः कर्म परिमाणमुत्कृष्टं भणितमिति / षण्मासाः / अत्रैव भूयः ये पुरा पूर्वे काले प्रस्थका आसन्। ते कालदोषतः क्रमेण हीना हीनतरा शिष्याशंकामाह / पुणरविचाणइ ततो, पुरिमा चरिमाविसमसोहीया। जायमाना अत्यंतहीनमाना जातास्तथापि धान्यानि मानभांडानि किहसुझंती तेन, चोयगइण मोसुण सुवोत्थं। प्रस्थकादिपरिमाणपरिच्छेद्यानि तथैव संख्या-व्यवहारस्य सर्वदाऽ एवमनंतरोदिते सूरिणाऽभिहितेपुनरपि शिष्यश्चोदयति। प्रश्नयति यदि प्यविशिष्टत्वात् / एवमिहापि प्रायश्चित्तानां वैषम्येऽपि अशठभावेन तपः नामैवं ततः पूर्वा आदितीर्थकरतीर्दुवतिनश्वरमाः पश्चिमतीर्थकरतीर्थ- कर्मणि प्रवृत्तिरांतरकारणं सर्वेषामप्यविशिष्टमिति शोधिमपि वीतनो विषमशोधिका विषमप्रायश्चिता अभवन् / ततः कथं ते तुशब्दस्यापि शब्दार्थस्य भिन्नक्र मत्वात् / तथैव धान्यानां विषमशोधिका अविशेषेण शुध्यति। सर्वात्मना शुद्धिमासादयंतिनखलु प्रस्थकपरिच्छेद्यतामिव तुल्यां जानीहि / प्रस्थकदृष्टांतेन सर्वत्र तुल्यां कारणवैषम्ये कार्यवैषम्यं दृष्टमत्र तु विषमं प्रायाश्चित्तं विशोधिस्तु विशोधिमवबुध्यस्वेति भावः / उक्तमारोपणाप्रायपश्चित्तम्। व्य, उ०१|| सर्वेषामप्यविशेषेण तुल्या ततो दुर्घटमेतदिति भावः / अत्र आरोपणा पञ्चविधा / स्था. ठा०५। सूरियत्प्रायश्चित्त वैषम्ये कारणं यथा च कारणविषमतायामपि तुल्या आरोवणा पंचविहा पण्णता तंजहा पट्टविया। विशोधिस्तदेत-त्प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तवैषम्ये ठविया कसिणा अकसिणा हाडहडा। कारणममिधि-त्सुरिदमाह। चोयगेत्यादि हे चोदक ! उपपन्नप्रश्रकारिन्न प्रायश्चित्तवैषम्ये इदं वक्ष्यमाणं कारणं वक्ष्येतच वक्ष्य-माणमवहितमनाः आरोपणोक्तस्वरूपा तत्र (पट्टवियत्ति) बहुष्वारोपितेषु यन्मासगुर्वादिशृणु / प्रतिज्ञातमवहितमनाः शृणु। प्रतिज्ञातमेव निहियति। प्रायश्चित्तं प्रस्थापयति वोढुमारभते तदपेक्षयाऽसौ प्रस्थापितेत्युक्ता॥१॥ (छवियत्ति) यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्य स्थापितं कृतं न वाहयितुमाकालस्य निट्ठयाए, देहबलंधिइबलं चजपुरिमे। तदणंतभागहीणं, कमेण जा पच्छिमो अरिहा || रब्धमित्यर्थः // आचार्यादिवैया-वृत्यकरणार्थं तद्वि वहन्न शक्नो ति वैयावृत्यं कुर्त वैयावृत्यसमाप्तौ तु तत्करिष्यतीति स्थापितोच्यत पुरिमे पूर्वे आदितीर्थकरतीर्छकालस्य स्निग्धतया हेतुभूतया प्राणिनां इति२ / / कृत्सापुनर्यत्र ज्झोषेनक्रियते झोषोस्त्वयमिह तीर्थे देहबलं शरीरबलं तदुपदिष्टं ततो धृतिबलं च यत् आसीत् तत् षण्मासांतमेव तपस्ततःषण्णां मासानामुपरियान् मासानापन्नोपराधी अवसर्पिणीकालस्य तथा स्वभावतया क्रमेण प्रति-क्षणमनंतभागहीनं तेषां क्षपणमनारोपणं प्रस्थे चतुः सेतिकातिरिक्तधान्यस्येव तत् तावदायातं यावत्पश्चिमो भगवानर्हद्वर्द्धमानस्वामी ततः शारीरबलस्य काटनमित्यर्थः / झोषाभावेन सा परिपूर्णेति कृत्स्नेत्युच्यत इतिभावः 3 धृतिबलस्य च विषमत्वात् विषमं प्रायश्चित्तं / तथा चाह। अकृत्स्नातु यस्यां षण्मासधिकं झोष्यतेतस्या हि तदतिरक्तकाटनेनासंवच्छरेणाविनतेसि आति,जोगाण हाणी दुविहे बलंमि। जेया | परिपूर्णत्वादिति॥४(हाडहडेति) यल्लघुगुरूमासादिकमापन्नस्तत्सद्य विधिजादिअणोववेया, तद्धम्मया सोहय एतएवि।। एवं यस्यां दीयते सा हाडहडोक्तोति एतत्स्वरूपं च विशेषतो तेषामादितीर्थकरतीर्थवर्तिनांसाधूनां द्विविधे बले शारीरे बले धृतिबले | निशीथविंशति-तमोद्देशकादवगन्तव्यमिति॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोवणा 419 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आरोवप्पिय कति भेदा आरोपणाया उच्यते पंच तथा चाह व्य. 1 उ० / / मासवहनयोग्यं मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येव मासिक्यारोपणा (पट्ठवितिया) पठविया कसिणाऽकसिणा तहेव हाडहडा आरोपणा भवति। तथा पंचरात्रिकशुद्धियोग्यं मासिकञ्च शुद्धियोग्यं चापराधद्वयपंचविधा पंचप्रकारातद्यथा प्रस्थापित्तिका स्थापिता त्कृश्ना हाडहडाच / मापन्नस्ततः पूर्वदत्तप्रायश्चित्ते सपंचरात्रिमासिकप्रायश्चित्तारोपणाएषा पंचप्रकाराऽप्यारोपणा प्रायश्चित्तस्य / तच्च प्रायश्चित्तं पुरुषजातेः त्सपंचरात्रमासिक्यारोपणाष्ष्ट्६एवं द्विमासिक्यः 6 त्रिमासिक्यः 6 कृतकरणादौ यथायोग्य मवसेयमेष गाथासंक्षेपार्थः। चतुर्मासिक्यः 6 चतुविंशति-रारोपणाः तथा सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य चोपघातनेनलघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा उपघातिकारो इदानीमेतामेव गाथा व्याख्यानयन्प्रथमतः प्रस्थापितिकादिभेदचतुष्टयं पणा यदाह॥ व्याख्यानयति // अद्धेण छिन्नसेसं, पुव्वद्धणं तु संजुयं काउं। पट्टवित्तिया वहंते, वेयावञ्चट्ठिया ठवितिया उ। देजाय लहुपहाणं, गुरुदाणं तत्तियं चेवत्ति। कसिण्णाज्झोसविरहिया, जहिज्झोसोसा अकसिणाओ॥ यथा मासार्द्ध 15 पंचविंशतिकार्द्ध च सार्द्धद्वादशवर्षं सर्वमीलने यदारोपितं प्रायश्चित्तं वहति एषा प्रस्थापितिका आरोपणा यो सार्द्धसप्तविंशतिरिति लघुमासाः तथा मासद्वयार्द्धमासो मासिकस्याऽर्द्ध वैयावृत्त्यकरणलब्धिसंपन्नः आचार्य प्रभृतीनां वैयावृत्यं कुर्वन पक्ष उभयभीलने साझैमास इति लघुद्विमासिकं 25 तथा तेषामेव यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्यारोपितमपि स्थापितं क्रियते / यावत् सार्द्धदिनद्वयाद्यनुघातनेन गुरूणामारोपणा आनुघातिकारोपणा 26 तथा वैयावृत्त्यपरिसमाप्तिभवति / द्वौ योगावेककालं कुर्तमसमर्थ इति कृत्वा यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्स्नारोपणा सा आरोपणा स्थापितिका। कृत्श्ना नाम यत्र झोषोन क्रियते। अकृत्श्ना तथा बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासांतं तेषु इति षण्मासाधिकतपः कर्म यत्र किंचित् ज्झोष्यते। हाडहडा त्रिविधा तद्यथा सद्योरूपा स्थापिता तेष्वेवांतर्भाव्यं / शेषांतर्भाव्यशेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्सारोपणेप्रस्थापिता च तत्रेयं सद्योरूपा॥ त्यष्टाविंश-तिरेतच सम्यगनिशीथविशतितमोद्देशकादवगम्यम्॥सम् उग्धायमणुग्वायं,मासादितवो उदिजए सव्वं / 28 स.॥ मासादी निक्खित्तं, जं सेसं दिज्जए तं तु // आरोपणायाः स्थापनासंचयः पायच्छितशब्दे। उद्घात लघु अनुद्धातं गुरु यत् मासादिमासिकमादिशब्दात् द्वैमासिकं तत्प्रतिपादके निशीथाध्यनभेदे, च आरोपणा यत्रैकस्मिन प्रायश्चित्तेऽत्रैमासिकं वा इत्यादि तप आपन्नस्तद्यदि सद्यस्तत्कालं दीयते न न्यदारोप्यत इति प्रश्न द्वा०५॥ आव // बंधमोचने, प्रतिलेखने, च कालक्षेपेण तदा सा हाडहडा आरोपणा स धोरूपा यदि (पक्खिया आरोवणा) कल्प, पक्खिया आरोवणत्ति / कोऽर्थःपक्षे 2 पुनर्यन्मासादिकमापन्नस्तत् वैयावृत्यमाचार्यादीनां करोतीति स्थापित संस्तारकदवरकाणाम् बन्धा मोक्तव्याः प्रतिलेखितव्याश्चेत्यर्थः / क्रियते। तस्मिश्च स्थापिते यदन्यत् झोष-मुद्घातमनुद्घातं वा पद्यते अथवाऽऽरोपणा प्रायश्चित्तम्पक्षे२ ग्राह्यं सर्वकालं वर्षासु विशेषतः। कल्प. तत्सर्वमपि प्रमादनिवारणाथमनुदघातं दीयतेसा हाडहडा आरोपणा।। प्ररूपणाभेदे, च विशे। स्थापिता प्रस्थापितायाः स्वरूपमाह॥ तत्रारोपणा इयं केत्याह॥ छम्मासादि वहंते, अंतरे आवण्णे जाउ आरूवणा। किंजीवो होज नमो, वाजीवोत्तिजं परोपओ। सा होति अणुग्घाया, तिन्नि विगप्पा उचरिमा य॥ अज्झारोवणमेसो, पच्छाणुजोगो मयारूवणा।। षाएमासिकं तपो वहन आदिग्रहणात् पांचमासिकं चातुर्मासिकं किं जीव एव भवे नमस्कारः नमस्कार एव वा जीवो भवति त्रैमासिकंद्वैमासिकं वा वहन् अंतरा यदन्यदापद्यते उद्घा-तमनुद्घातं यत्परम्परावधारणादध्यारोपणं पर्युनुयोजनं एष पर्युनेयाग आरोपणा मता वातस्याप्यतिप्रमादनिवारणार्थमनुग्रहकृत्श्ने नचानुद्घातंयत् आरोप्यते सम्मतेति|आ. म० || आ. चू।। एषा हाडहडा आरोपणा प्रस्थापिता / एते त्रयो विकल्पाश्चरमाया आरोवणापायच्छित्त-न. (आरोपणाप्रायश्चित्त) आरोपणमेकाहाडहडायाः अथवा इमे त्रयो विकल्पाः। पराधप्रायश्चित्ते पुनःपुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताधा-रोपणमासा पुण जहन्न उक्कोसा, मज्झिमा तिन्नि वि विगप्पा। रोपणा यता पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चितमापन्नः पुन स्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवं मासो छम्मासा वा, जहण्णुक्कोसजे मज्झे / / पुनः पंचदशरात्रिदिवमेवं यावत् षएमासान्ततस्तस्याधिकं तपो देयं न सा हाडहडा आरोपणा त्रिविधा। तद्यथा जघन्या उत्कृष्टा मध्यमा च भवत्यपि तु शेषतपांसि तु तत्रैवान्त-भवनीयानि इह तीर्थे षएमासान्तत्वात्तपस इति उक्तञ्च॥ एते त्रयो विकल्पाहाडहडाया भवंति। तत्र गुरुको मासो जघन्या षएमासा गुरुच उत्कृष्टा एतयोxयोद्वयोर्मध्येये गुरु द्विमासादयोगुरुमासपंचकपर्यंता पंचाईयारोवणे, नेयव्वा जाव होति छम्मासा। एषा जघन्योत्कृष्टा हाडहडा सा चतुर्विकल्पा तद्यथा द्वैमासिकगुरुकं तेण परमासियाणं, छण्हुवरि झोसणं कुञ्जत्ति // त्रैमासिकं गुरुकं चातुर्मासिकं गुरुकं पांचमासिकं गुरुकमिति॥ आरोपणायाः प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तं / प्रायश्चित्तभेदे। स्था, ठा०४। आयारपगप्पशब्दे आचारप्रकल्पस्याष्टा विंशतिभेदप्रतिपादकं | आरोवणिज-त्रि (आरोपणीय) आरुह-णिचच्अनीयरआरोपाहे, सूत्रमुक्तम्। तट्टी कायामारोपणाभेदा इत्थं // आरोप्ये वस्तुनि-वाच॥ तत्र क्वचित् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापन्नस्य कस्यचित् प्रायश्चितं | आरोवप्पिय-त्रि (आरोपप्रिय) आरोपो मिथ्योपचारः प्रियो यस्य स दत्तं पुनरन्यमपराधविशेषमापन्नस्ततस्तत्रैव प्राक्तने प्रायश्चित्ते आरोपप्रियः मिथ्योपचारप्रिये, / Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोवसुह 420 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आलम्बण अनारोपसुखं मोह, त्यागादनुभवन्नपि || आरोपप्रियलोकेषु, | आरोहपरिणाहयुक्तता उचितदेय॑विस्तारता इत्यर्थः स्था, छा०४॥ वक्तुमाश्चर्य्यवान्भवेत्॥१॥ अष्ट | आरोहपरिणाहसंपण्ण-पु. (आरोहपरिणाहसम्पन्न) शरीरसम्प-द्रेदे। आरोवसुह-न० (आरोपसुख) आरोपजे सुखे--अष्टः / आरोहपरिणाहसपण्णे यावि भवइ, इह चारोहो दैर्ध्य परिणाहो आरोविज्ज-त्रि. (आरोप्य) आ-रुह-णिच् कर्मणि यत्-आरोपणीये, यथा | विस्तारस्ताभ्या सम्पणेः चापिशब्दा-वन्यांगसुन्दरत्वख्यापकावितियन मुखं चन्द्र इत्यादौ मुखे चंद्रत्वमारोप्यं // वाच०॥ उच्यते लौकिकेरेपि यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्तीति। दशा० / / आरोलइ-धा (पुञ्जि) पुजीकरणे पुंजेरारोलवमालौ 4 // 102 / / इति | आरोहुं-अव्य. (आरुह्य) आरोहण कृत्वेत्यर्थे (आरोहमुणि प्राकृतसूत्रेणपुंजेरेतावादेशौवा, आरोलइ.वमालइ. पुजइ पुंजयति प्रा० // वणियामहग्धसालंगरयमपडिपुण्णं) आरोहुमिति समारुह्य के आरोस-पु. (आरोष) म्लेच्छजातिभेदे-प्रश्न द्वा०२।। मुनिवणिजः दर्श। आरोह-' (आरोह) आरुह घञ्-आक्रमणे, नीच-स्थानादूर्ध्वदेशगमने, आल-न. (आल) आ-अल् पर्याप्तो० अच्-अनल्पे श्रेष्ठे च त्रि वाच / अङ्कुरादिप्रादुर्भाव-शब्दच, गज-वाजिनामुपरिगमने दीर्घत्वे वाच. प्राकृतोक्ते मत्वर्यके प्रत्ययभेदे च / आल्विल्लोल्लालवत्तमन्त(आरोहो दिग्धत्तं) व्यऊ५॥ उत्तअ०१ दशा.।। उचितदैर्ध्य -स्था. ठा तेरमणामतोः।।२।१५९|| प्रा. सू. सद्दालोजडालो फडालो रसालो 7 / उच्छ्ये आरोहो नाम शरीरेण नातिदैर्ध्य नातिहस्वता अथवा आरोहः प्रा. व्या० / उक्तंच मतुयंछमिमुणे जह आले इल्लं मण च मतुयं चेतिशरीरोच्छ्राय इति-वृ० / उच्चत्वे च नितम्बे वरारोहा मत्तकाशिन्युत्तमा | आवा वरवर्णिनीअमरः। सारमान वरारोहा, उद्भटः / आरोहैनिविडवृहन्नितम्ब- आलइय-न. (आलिंगित) आरोपिते-उपा, अ०२१ आविद्धे जी. प्र. 4 10 बिम्बैः माघःवाच। परिहिते, कल्प। आरोहतीत्यारोहः हस्त्यारोहादौ, नि. चू, न.९॥ आलइयमालमउड-त्रि [आल(लिं)गितमाल(ला)मुकुट] आलगितमाआसाणय हत्थीणय, दमगा जे पढमताए विणएंति॥ लमारोपितसक् मुकुटो यस्य स तथा तस्मिन् उपा० अ० 2 आलगितो परियदृमेणुपच्छा, आरोहा जुद्धकालंमि / / 10 / / यथास्थानं परिहितो मालामुकुटा येन सतथा तस्मिन् कल्पमालाच जे पढमं विणयं गाहेंति ते दमगा जे जवजोगासणेहिं वावारं वा वहतिं तो मुकुटश्च मालामुकुटं आलगि तमाविद्धं मालामुकुटं येन स मदा जुद्धकाले जे आरुहंति ते आरोहा।। आलगितमालामुकुटः / आविद्धमालामुकुटे जी. प्र. 4 (आलइयमाआरोहइयव्व-त्रि. (आरोहयितव्य) आरोपणीये, व्य. उ०१ लमउडे) आलगितमालामुकुटः कृतकण्ठे मालः आविद्धशिरसि मुकुट आरोहग-त्रि (आरोहक) आरुह ण्वुल. आरोहणकर्तरि वाचला हस्तिपके इति भावः / / आ. म. / भ. श०३ऊ२॥ (वरपुरिसारोहगपंपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं)तत्रारोहका हस्तिपकाः औ० // आलंकारियसभा-स्त्री. (आलंकारिकसभा) चमरचंचा-राजधानीस्थे आरोहण-न. आ(आरोहण) रुह ल्युटानी चस्थानादूर्ध्वस्या नगमने | सभाविशेषे, आलंकारिका यस्यामलंक्रियत इति स्था, ठा०५|| वाच० / / आरोहणार्थं नवयौवनेन कामस्य सोपानमिव प्रयुक्तम्, कुमा० आलंद-न. (आलन्द) कालविशेष, तत्रोदकाः करो यावता शुष्यति अकुरादिप्रादुर्भावच, आरुह्यतेऽनेनकरणे,ल्युट सोपाने चा आरोहण तत आरभ्योत्कृष्टतः पंचरात्रिदिवानि यावत्कालोऽत्र समयपरिभाषय स्यात् सोपानम् / अमरः वाच. !! लंदमित्युच्यते / विश०॥ आरोहणिज्ज-त्रि. (आरोहणीय) आरोहणं प्रयोजनमस्य अनु प्र. | आलंदिय-त्रि (आलंदिक) आलदस्यानतिक्रमेण चरतीति। आलन्द आरोहणसाधने पदार्थे, आरुह, कर्मणि अनीयर आरोढुं योग्य हयादौ चारिणि, विशे॥ वाचा आलंबण-त्रि. (आलम्बन) आलम्ब्यतेऽवष्टस्थते दुर्गपर्वताआरोहपरिणाह-पु. (आरोहपरिणाह) शरीरस्याऽरोहसमः परिणाहः। / दिस्थानमधिरोदुकामैरित्यालम्बनंदर्श आश्रये (आलंबणं च मे आया शरीरोपसम्पर्दोदे, व्य, उ.५ आरोहपरीणाहो, आरोहो नाम शरीरेण अवसेसं च वोसिरे) आलम्बनं चाश्रयोऽवष्टंब आधार इत्यर्थः / आतु० / नातिदैर्ध्य नातिहस्वता परिणाहो नातिस्थौल्यं नाति दुर्बलता अथवा (आलंबणेण केणइ) आलम्बन इत्यालम्बनम् प्रपतनाधारणस्थान् आरोहः शरीरोच्छ्रयः परिणाहो बाहोर्विप्कंभ एतौ द्वावपि तुल्यौ न तेनालबनेन केनचिदिति आक / (जो मरणदेशकालेन होई आलंबणं हीनाधिकप्रमाणविति / वृ०॥ किंचि) आलं बनमाधारभूतं) तं० / (मेढिआलम्बणं खंभ) आलम्बनं आरोहो दीर्घत्वं परिणाहो विष्कंभो विशालतातत्र यावतारोहस्तावान् हस्ताद्याधारः / ग. अधि१ (जमणेगत्थालंबणम-पजुदासपारकुचियं यदि विष्कभो भवति तदा एषा उपसंपत् आरोहपरिणाहे ज्ञातव्या।।व्या० चित्तं) यचितं यन्म-नोऽनेकार्यालम्बनमनेकार्थप्रतिभासांदोलितमिति उ.५॥ विशे० / / आलम्बनेन चक्षुरादिज्ञानविषयेण प्रति मादिनेति / षो० // आरोहपरिणाहजुत्तता-स्त्री. (आरोहपरिणाहयुक्तत्ता) आराहो दैर्ध्य आलंबनं द्विधा द्रव्यतो गर्तादौ निमजतोरज्वादि। भावतः संसारगञ्जयां परिणाहो विस्तरः ताभ्यां तुल्याभ्यां युक्तता आरोह-परिणाहयुक्तता। निपततांज्ञानादि।। ध० अधि०३नि चू. उ.१आलंविज्जतिजंतमालंबणं शरीरसम्पर्दोदे, उत्त० अ०१।। दुविहं दवे वल्लि वियाणाइ भावे य णाणादि / नि चू / आ लबि Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंबण 421 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलंबण कर्मणि ल्युट् / आलम्ब्यन्ते आश्रीयन्ते तान्याल्मबनानि / औ० आश्रयणीये, आलम्बनादाश्रयणीया-दिति / / स्था, ठा०३यान्यालम्बन्यन्ते तान्यालम्बनानि भ. श.२५ उ०७ कारणे प्रव द्वा० 104 / / नि. चू, उ। कारणमालंबणं मोत्त, कारणं नामा लंबनम् आ० म.प्र. अ०१॥ (सपञ्चवाएण निरालंबणेणं, निष्कारणे न प्रत्यपायसंभवे वा त्राणायालंबनीयवस्तुवर्जितेनेति ज्ञा० अ०९ आलंब्यत इत्यालम्बनम्। प्रवृत्तिनिमित्ते,आवळा आलम्ब्यते निश्चलङक्रियतेमनो येनेत्यालम्बनम् उत्त० अ० 24 / प्रयोजने, (आलंबणे य काले मग्गे जयणाए चेव परिसुद्धं) आचा० अ० 2 उ०३ नि.उ. 10 आलं-बणेत्यादितः प्रवचन संघगच्छाचार्यादिप्रयोजनम् आचा०। पुष्टालम्बनस्य मूलगुणप्रतिसेवने न दोषः वृ० / अथापुष्टा-लंबनोनिरालंबनो वा प्रतिसेवते / ततः संसारोपनिपातमासादयति॥ तथाचात्र दृष्टांतमाह। तुच्छमवलंबमाणो पेहति निरालंबतो यदुग्गंमि। सालंबनिरालंबे, अह दिटुंतो णिसेवंतो॥ इहालंबनं द्रव्यभावभेदाद्विधा तत्र गर्तादौ पतद्भिर्यद्रव्यमालं व्यतेतत् द्रव्यालंबनंतच द्विधा पुष्टमपुष्टं च / अपुष्ट दुर्बलं कुशवल्वकादिपुष्ट बलिष्ठं तथाविधकठोरवल्यादि भावा-लंबनमपिपुष्टापुष्टभेदात् द्विधा पुष्टं तीर्थाव्यवच्छित्तिग्रंथा-ध्ययनादि अपुष्टं शठतया स्वमतिमात्रोत्प्रेक्षितमालंबनमात्र ततश्च द्रव्यालंबनं पुष्टम-पुष्टमवलंबमानो निरालंबनो वा यथा दुर्गे गर्तादौ पतति यस्तु पुष्टालंबनमवलंबते स सुखेनैवात्मानं गदिौ पतन्तं धारयति / एवं साधोरपि मूलगुणाद्यपराधान्निषेवमाणस्य सालंबनिरालंबविषयोऽथायं दृष्टांतो मंतव्यः।। किमुक्तं भवति। योनिरालंबनोऽपुष्टालंबनोवा प्रतिसेवतेस आत्मनंसारग यांपतंतनसंधारयितुं शक्रोति / यस्तु पुष्टालबनः स तदवष्टभादेव संसारगर्त सुखेनैवातिलंघयति // अथ कस्मादालम्बन-मन्वेषणीयमित्याह॥ सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमे विधारेइ। इअसालंबणसेवा, धारेइ जई असढभावं ||6|| कानि पुनस्तान्यालम्बनानीत्याह / / काहं अछित्तिअदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु व उज्जमिस्सं। गणं वनिइए बहुसारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं // | व्या. काहमित्यादिवृत्तं यः कश्चिदेवं चिंतयति यथा करिष्याम्यहमत्र स्थितोऽछित्तिमव्यवस्थितिं जिनधर्मस्येति शेषो राजादेर्जिनशासनावतारणादिभिः (अदुवेति) अथवा अहमध्येष्ये सूत्रतोऽर्थतश्च द्वादशांगं दर्शनप्रभावकाणि वा शास्त्राणि यदि वा तपोलब्धिसमन्वितत्वात्तपोविधानेषु नानाप्रकारेषु तपस्सु उज्जमिस्स इति उद्यस्यामि उद्यम करिष्यामि गणं वा गच्छं वा (नीईमुयत्ति) सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वान्नीतिभिः सूत्रोक्तैर्निः सारयिष्यामि गुणैः प्रवृद्धिं करिष्यामि स एवं सालंबनसेवी। एतैरनंतरोदितैरालंबनैर्यतनया नित्यवाम्मपि प्रतिसेवमानो जिनाज्ञानुल्लंघनात्समुपैति प्राप्रोति मोक्षं सिद्धिं तस्माीर्याव्यवच्छेदा दिकमेव यथोक्तज्ञानदर्शनचारित्राणां समुदितानामन्यतरस्य वा यवृद्धिजनकं तदालंबनं जिनाज्ञावशादुपादेयं नान्यत्॥१४॥ संप्रति सिसाधयिषितार्थव्यतिरेकदर्शनायाह / आलंबणहीणो पुण, निमडइ रवलिओ अहे दुरुत्तारे। इअनिकारणसेवी, पडइ बवोहे अगामि सदा टी० // आलंबनहीनः पुनर्निपतितः स्खालतः क्व आह दुरुत्तारे गर्तयां दुरुत्तारायां इय एवनिःकारणसेवी साधुः पुष्टालंबनरहित इत्यर्थः। पतति भवौधे अगाधे पतति भवगत्तीयां अगाधायां अगाधता पुनरस्यादुःखेनोत्तरणसंभवादिति गाथार्थः // यथा चरणविकला असहायज्ञानदर्शनपक्षमालम्बत्येवं नित्यवासा-द्यथाह। जेजत्थ जया भग्गा, ओगासं ते परं अविंदंता / / गंतु तत्थ चयत्ता, इमं पहाणंति घोसंति ||9| टी०॥ ये साधवः शीतलविहारिणः यत्र नित्यवासादौ यदा यस्मिन्काले भग्नानिर्विणा अवकाशंस्थानं ते परं अन्यत् (अविदंतित्ति) अलभमानाः गंतुं तत्र शोभने स्थाने अशक्नुवंतः किंकुर्वति इदं पहाणंति घोसंति यदस्माभिरंगीकृतं सांप्रतं कालमाश्रित्येदमेव प्रधानमित्येवं नाघोषयंति ||9|| आव०३अ / आ. क दा. 14 अत्र सार्थेन दृष्टांतः / / स्वल्पोदकतरुच्छायं सार्थः कश्चिद्यथापथं // प्रपन्नस्तत्रकेऽप्यस्थुः, परिश्रमजुषोऽलसाः ||1|| तिलतंदुलिकप्राया, स्वपि छायासु निर्वृताः।। तैस्तै लश्च गड्डुलै, शब्दयत्यपरानपि / / 2 / / प्रधानमिदमेवात्र, स्थानमित्यर्थक च न / ये तद्वचः प्रपद्यास्यु स्ते झुत्तृड्दुःखिनोऽभवन् / / 3 / / स्वीचक्रे तद्वचोयर्न, तमध्वानं विलंध्यते / / शीघ्रं शीतोदकच्छायं, सुखभाजोऽथतेऽभवन् ||4|| यथा ते पुरुषास्तस्युः, पार्थस्थाद्यास्तथालसाः।। ये तूधमात्तं निस्तीर्णाः सुखिनस्ते सुसाधवः ||1|| साम्प्रतं यदुक्तमिदं प्रधानेमिति घोषयंति तदर्शयति॥ निअयावासविहारं, चेइ अभत्तिंच अनिआ लाभ: विगईसु अपडिबंधं, निहोसं चोअिंबिंति॥२०॥ पडिदारगाहा।। टीका नित्यवासेन विहरंतंनित्यवासक-ल्पमित्यर्थः चैत्येषु भक्तिस्तां च चशब्दात्कुलकार्यादिपरिग्रहः। आर्थिकाभ्योलाभस्तंक्षीराद्या विगतयो अभिधीयते॥तासु विगतिषु प्रतिबंध आसंगं निर्दोष चोदिता अन्येनोद्य तवि-हारिणोढुवते भणंतीति गाथार्थः / / अधुना चेइयदारंगाहा // चेइ अकुलगणंसघे, अन्नं वा किं चिकाउ निस्साणं / अहवा वि अलवइरं, तो सेवती अकरणिशं / / चैत्यकुलगणसंधं अन्यद्वा किंचिदपुष्टमव्यवस्थित्यादिकृत्वालंबनमित्यर्थः / कथं नास्ति कश्चिदिह चैत्यादि प्रति जागरूकः अतोऽस्माभिरसंयमोऽङ्गीकृतः। माभूचैत्यादिव्यवच्छेद इति अथचाय्यवैरं कृत्वा निश्रांततः सेवंते अकृत्य असंयममंदधर्मा इतिगाथार्थः 114 आव. अ.३॥ चेइअपूआ किं, वइरसामिणो सुअपुष्वसारेणं। न कया पुरिआइ तया, मुक्खंगं सा वि साहूणं / / 11 / / टीका / अक्षरार्थः सुगमः | भावार्थस्त कथानका Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंबण 422 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलंबण दवसेयस्तच कथितमेव तत्र वैरस्वामि नमालंबनं कुर्वाणा इदं नेक्षते उक्तस्तैनाlते राज्यं, चिराद व्युदग्राहितोऽथ सः। मदधियः / किमित्याह॥ पशुपाल्यैकया साधोः, सविषं दध्यदापयत्।।५|| ओहावणं परेसिं, सतित्थ उन्मावणंच वच्छल्लं। दुष्टाः पुनरमात्यास्ते, सर्वत्राऽप्यादिशन् पुरे। न गणंति गणे माणो, पुवुचिअपुप्फमहिमं च ||16|| राजर्षरस्य युष्माभि, तिव्यं सविषं दधि / / 6 / / टी० / / अपभ्राजनां लांछनं परेषां शाक्यानां स्वतीर्थो द्भावनां च हत्वा तहवताभाणी, न्महर्षे ! सविषं दधि / दिव्यकरणेन तथा वात्सल्यं श्रावकाणां एतन्न गणयंत्यालंबनानि गणयतः त्यजैतत्त्यक्तमेतेन, पुनाधिरवर्द्धत 7 / / संतः तथा पुव्वेचिय पुप्फमहि मं च गणयंतीति पूर्वावचितैः प्रागगृहीतैः पुनर्दध्याददे सोऽथ, पुनर्देव्यहरदिष। पुष्पैः कुसुमैर्महिमा यात्रा तामिति गाथार्थः 16 / / चैत्यभक्तिद्वार गतं / / एवं तत्पृष्ठतो लग्ना, देवता संचचार सा / / 8 / / अधुनार्यिकालाभद्वारम् / तत्रेयं गाथा / / तस्याः प्रमादतोऽन्येधु, बुभुजे सविर्ष दधि। अज्जियलाभे गिद्धा, सएणलाभणजे असंतुट्ठा। भिक्खायरिया भग्गा, अन्निय पुत्तं ववइसंति॥ तत्तापातः शुभध्यानः, केवलं प्राप्य निर्वृतः / / 9 / / अनिअपुत्तायरिओ, भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए। तस्य शय्यातरः कुंभ, कारो देवतया तदा। उवणीअं भुजंतो, ते णवभावे अंतगडी।। सिनपल्यां कृतो राजा, राजर्षेभक्तिमानिति / / 10 / / टी. अक्षरार्थोनिगदसिद्धः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः / तच्च कुंभकारकृतमि ते, तन्नाम्राजनि तत्पुरं। अन्विकापुत्राचार्यशब्दे / तेन मंदमतय इदमालंबनं कुर्वतः इदमपरं नेक्षते पांशुवृड्या पुनर्वीत, भयं सर्व स्थलीकृतं ||1|| // किमत आह / / ऋषिहत्याकरमिति, कोपाद्देवतया तदा। गयसीसगणं ओमे, मिक्खायरिआ अपचलं थे। कारणाधिभुगयुक्तः, कर्तुमालंबनं न सः ॥१२आ. क॥ न गणंति सहो विसढो, अजिअलामंगवेसेज्जा। सीअललुक्खाणुचिअं, वएस विगईगएण जावंतं / / टी० गतः शिष्यगणोऽस्येति समासस्तं ओमे दुर्भिक्षे भिक्षाच-र्यायां हट्ठा वि भणंति सहा, किमासि उद्दायणो न मुणी ||2|| अप्पचलो असमर्थः भिक्षाचर्यायां अपचल असमर्थस्तं स्थविरं वृद्धं एवं टी। शीतलं च तद्रुक्षं च शीतलरुक्षं अन्नमिति गम्यते।तस्याऽननुचितः गुणयुक्तं न गणयंति नालोचयंति सहा विसढा समर्थाः अपि शब्दात् अननुरूपः नरेन्द्रप्रव्रजितत्वाद्रोगाभिभूतत्वाच्च शीतलरुक्षाननुचितस्तं सहायादिगुणयुक्तत्वेऽपि शठा मायाविन आर्यिकालाभं गवेषयंतीति व्रजेषु गोकुलेषु विगतिंगतेन विगति यातेन यापयंतं (हठ्ठावित्ति) समर्था अन्विषत इति गाथार्थः 128 / / अपि भणंति शठाः किमासीत् (उद्दायणो न मुनिः) मुनिरेव विगत्ति गतमार्यिकालाभद्वारं विकृतिद्वारमधुना तत्रेयं गाथा। परिभोगे सत्यपि तस्मानिर्दोष एवायमिति गाथार्थः / / 7 / / एवं भत्तं वा पाणं वा, भूत्तूणं लावललिअमि विसुद्धं / नित्यवासादिषु मंदधर्माः संगमस्थविरादीन्यालंबनान्याश्रित्य सीदति। तोवज्जपडिच्छन्ना, उदायणरिसिव्व वइसंती||२०|| अन्ये पुनः सूत्रादीन्येवाधिकृत्य तथाचाह / आव ! / टी० // भत्तं वा ओदनादि पानं वा द्राक्ष पानादि भुक् त्वा उपभुज्य सुत्तत्थबालबुड्ढे, असहूदव्वाइआवईओ / (लावललिवियति) लोपेत्तं अशुद्धं विगतिसपर्कदोषात् तथाच निः कारणे निस्साणपयं काउं, सत्थरमाणा विसीअंति।।२।। प्रतिषिद्ध एव विगतिपरिभोगः / / उक्तंच॥ सूत्रधार्थश्च बालश्च वृद्धश्च सूत्रार्थबालवृद्धाः / तान् तथा असहश्च विगतिं विगति भीया, विगतिगयं जो ऊ मुंजति साहू। द्रव्याद्यापदश्च असहद्रव्याद्यापदस्तांश्च निश्राणां आलंबनानां पदं कृत्वा विगति विगतिसहावा, विगति विगतिं वलानेति।। संस्तरंतोऽपि संयमानुपरोधने वर्तमाना अभिसंतः सीदति / एतदुक्तं ततः केनचित्साधुना चोदिताः संतोऽवद्यप्रतिछन्नाः पाप-प्रच्छादिता भवति। सूत्रं निश्रापदं कृत्वा यथाहं पठामि तावत्किं ममाऽन्येन एवमर्थं उदायनाघेव्यवदिशत्थालंबनतयेति गाथार्थः / / 10 / / आव०३ अ० // निश्रापदं कृत्त्वा शृणोमि तावत् एवं बालत्वं वृद्धत्वं असहत्वं कथाचेयम्। असमर्थत्वमित्यर्थः / एवं द्रव्यापदं दुर्लभमिदं द्रव्यं, तथा क्षेत्रापदं आसीदुदायनो नाम, राजा वीतभयाधिपः। क्षुल्लक मिदं क्षेत्रं, कालापदं दुर्भिक्षं वर्त्तते, तथा भावापदं राज्ये निवेश्य जामेयं, प्रव्रज्यां स्वयमग्रहीत् // 1 / / ग्लानोऽहमित्यादि, निश्रापदं कृत्वा संस्तरंतोपि विषीदंत्यल्यसत्वा इति भिक्षाहारस्य तस्याभूद, व्याधिर्वधैरभाणि सः। गाथार्थः // 22 // केवलं दधि मुंजीथा, येन व्याधिन वर्द्धते / / 2 / / आलंबणाण लोगो, भरिओ जीवस्स अजउकामस्स / / राजर्षिस्तु व्रजेष्वस्था, त्तत्रयत्सुलभं दधि / जं जं पिच्छइ लोइ, तं तं आलंबणं कुणइ / / 23 / / सोऽगाद्रीतमयेऽन्येधु, स्तत्र तजामिसून॒पः / / 3 / / टी। आलंबनानां प्रानिरूपितशब्दार्थानां लोको मनुष्यलोको ऊचेऽमात्यैः स्वराज्यायीं, जितसर्वपरीषहै। भूतः पूर्णो जीवस्य (अजतुकामस्सति) अयतितुकामस्य राजर्षिराजगामात्र, राज्यं दास्यामि सोऽवदत् / / 4 / / तथा चायतितुकामो यद्यत्पश्यात लो के नित्यवासादि Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंबणजोग 423 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलय तत्तदालंबनं करोतीति गाथार्छः // 23|| किंच द्विविधाभवंति प्राणिनो मंदश्रद्धास्तीव्रश्रद्धाश्च तत्रान्यत् मंदश्रद्धानामालम्बनमन्यच्च तीव्रश्रद्धानामित्याह च // जे जच्छ जयाजईअ, बहुस्सुआ चरणकरणपब्मट्ठा। भट्ठाजं ते समायरंती, आलंवणं मंदसद्धाणं ||24|| टी० // ये केचन साधवो यत्र ग्रामनगरादौ यदा यस्मिन् काले सुखमदुःखभादौ (यइयत्ति) यदा दुर्भिज्ञादौ बहुश्रुताचरण-करणप्रभ्रष्टाः संतः यत्ते समाचरति / पार्श्वसथादिरूपं तदालंबनं मदश्रद्धानां भवतीति वाक्यशेषः। तथा ह्याचार्या मथुरामगुः सुभिक्षेऽप्याहारादिप्रतिबंधापरित्यागात्पार्श्वस्च्छतामभजत्तदेवमपि नूनं जिनैर्धर्मो दृष्ट एवेति गाथाभिप्रायः // 24 // जे जत्थ जया जेइअ, बहुस्सुआ चरणकरणसंपत्ता॥ जं ते समायरंती, आलंबणं तिव्वसद्धाणं // 25 // ये केचन यत्र ग्रामनगरादौ यदा सुखमदुःखमादौ (जइयत्ति) यदा च दुर्भिक्षादौ बहुश्रुताश्चरणकरणसंपन्नाः यत्ते समा चरंति भिकुप्रतिमा तदालम्बनं तीव्रश्रद्धानां भवतीति गाथार्थः / आव०३ अ॥ आलंबनं रज्वादि तद्वदापगतार्तादिनिस्तारकत्वादालम्बनम् आलम्बनसदृशे, च. भ. श. 18 उ.२(आहारभूए आलंबणे) आलंबनं | वस्त्रादिकमिव / ज्ञा० अ०७॥ (मेढी आलम्बणं) खंभं) आलंबनं हस्ताद्याधारः तत्समानः यथा हस्ताद्याधारो गर्तादौ पतंतंजंतुंधारयति तथाचार्योऽपि भगवर्ते पतंतं गच्छं धारयतीत्यर्थः ग. अधि० 1 (मेढीयपमाणे आहारे आलंबणे) आलंबनं रज्वादि तद्वदापद्गादिनिस्तारकत्वादालम्बनमाज आलम्ब्यत इत्यालम्बनम् भावेऽनट्प्रत्ययः कर्म // अवष्टम्भे यथा मंदशक्तिः कश्चित् नगरेपरिभ्रमणाय यष्टिमवलम्बते ततस्तदवष्टंभते / जातसामर्थ्य विशेषः सन् तान् प्राणापानादिपुद्गलान् विसृजतीति कर्म, प्र. 16 गृहणशब्दे निर्ग्रन्थीनां ग्रहणं वक्ष्यते / आलंबणजोग-पुं० (आलंबणयोग) आलम्बनवाच्ये पदार्थे अर्हत्वस्वरूपे उपयोगस्यैकतानत्वाम्। एतस्य बहुवक्तव्यता योगशब्दे अष्टः // सालम्बनो निरालम्बनश्चयोगः परो द्विधा ज्ञेयः। सह आलंबनेन चक्षुरादिज्ञानविषयेण प्रतिमादिना वर्तत इति सालम्बनम् षो वृ०१३। योगभेदे च अष्ट। आलंबणभूय-त्रि. (आलम्बनभूत) आलम्बनसद्दशे, (आलं-बणभूए) आलंबनं रज्वादि तद्वदापद्गादिनिस्तारकत्वादालंबनम् / ज्ञाअ१॥ आलंबमाण-त्रि. (आलम्बमान) बाव्हादौ गृहीत्वा धायति, देशतः करेण गृह्णाति च। वृ.। आलंबि(न्)-न. (आलम्बिन्) आ लबि णिनि, आश्रयिणि, "गजाजिनालम्बिदुकूलधारिवा" / कुमा० / / वाच / / आलंबिय-त्रि (आलम्बित) लबिक्तः धृते, गृहीते, च वाचः / आलंभ-पु. (आलम्भ) आलभ्घत्र नुम् संस्पर्श 1 हिंसने 2 च वाच / / आलंमिय-न. (आलम्भिक) स्वनामख्याते नगरे, यत्र घुल्ल-शतको गृहपतिरासीत् स्थानांगे चुल्लशतकमधिकृत्य (सवालम्मिकाभिधाननगरनिवासी) स्था. ठा.१। (आलंभियणयरं मज्झं मज्झेण णिग्गच्छइ) भ. श. 11 उ. 12 // आलम्भि कायां नगा यत्प्ररूपितं तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालंभिक इत्युच्यते। ततो-ऽसौ द्वादशः भगवत्या एकादशशतकस्य द्वादशे उद्देशे च।। आलंभिया-स्त्री. (आलम्भिका) स्वनामख्यातायां नगर्याम् भ० श०११ उ. 1 (ततोभयवं आलंभियं नयरीं गतो) आ. म. / कल्प० / / आ. चू॥ अस्या वर्णको भगवत्याम् यथा॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं आलंभिया णामं णयरी होत्था वण्णओ संखवणे चेइए वण्णओ तत्थणं आलंमिया एणयरीए बहवे इसिमपुत्तप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति। अवजाव अपरिभूए अभिगयजीवाजीवाजाव विहरंति।। भ. श.११ उ.११॥ आलत्त-त्रि (आलप्त) आभाषिते, (आलत्ते वाहिते,) आलप्तोनाम आर्य ! किं तव वर्तत इत्येवमाभाषित इतिवृह / (सेवगपुरीसो उ कोइ आलत्तो) आलप्तः संभाषित इति। व्य, उ०२।। शब्दिते, ततश्चालप्ताः शब्दिता वा तृष्णिभावं भजन्ते / आचा० अ०६ उ. 4 / आलपने न० (आलत्तमादिकज्जत्था) आलप्तमालपनम् व्य. ऊ. 10 / आलद्ध-त्रि. (आलब्ध) आलभक्त सं सृष्ट, संयुक्ते, स्पृष्ट, हिंसिते, च०। आलप्प-त्रि (आलाप्य) आलप, कर्मणि एयत्, कथनीये, णिच. यत् आभाष्यते. वाच। आलवंत-त्रि (आलपत्) ईषद्वदति, (आलंवतेलबंतेवा) आलपति सति ईषद् वदति सतिउत्तत अ.१ सकृल्लपति, च. (आलवित्तएवा) आलपितुंवा सकृत् प्रति.। आलपनं कुर्वति, च (आलवंताणं मुरयाणं नंदिमुइंगाणं) मुरजमृदंगनंदिमृदंगाना-मालपनम् / राज. / आ. चू। आलय-पु. (आलय) आलीयतेऽस्मिन्, आ. ली. आधारे च. आधारे वाच. आश्रये, स्था. ठा०३ स्था ठा० 2 / / जं.1 आवासे. ओघ || गृहे, तं. // स्थाने, विशे० (हिमालयो नाम नगाधिराजः) कुमा. तत्रामरालय मरालमरालकेशी नैष, नहि दुष्टात्मना माऱ्या निवसन्त्यालये चिरम्, रामा० (आलयं देवशत्रूणां सुघोरं खाण्डवं वनम्) भा० आ. प.। आलीयंते साधवोऽत्रेत्यालयः वृ। वसतौ,स्था ठा. आ. चू। (आलएणं विहारेणं) आलयो वसतिः आव० / अणुत्तरेण आलएणं, आलयेन स्त्रीषंडादिरहितवसतिसेवनेन कल्प० / / उपाश्रये, वृहत्कल्पे उपाश्रयस्यैकार्थिकानधिकृत्य (उवस्सगपडिस्स-गसिज्जा आलयवसधीनिसीहिया छाणे, वृह / शरीरे, च. निसीहिगा सरीरगं वसही थंडिलं च भणति / यतोनिसीहिया नाम आलयो वसहीथंडिलंच सरीरस्स आलओ सरीरंजीवस्स आलयोत्ति आ.चू।। आलयवर्तिनि, च (आलयविहारसमिओ) आलयः सूचकत्वादालयवर्ती सकलकलं क विकलनिषेवीत्यर्थ: ध. अधि०३ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलयगुण 424 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ अलिंगणिया भावेध संश्लेषे, मर्यादायामव्ययी. लयपर्यन्ते. अव्य, वाच। एष ईदृश आलाप उचारणविधिः वृह (आलावोदेवदत्तादि कि भोत्ति किं आलयगुण-पु. (आलयगुण) बहिश्चेष्टादौ, प्रतिलेखनादौ, उपशमगुणए देवदत्तात्ति.) (अण्णयावेभणे आलावसद्दो सुओ) नि. चू!। च वृ०॥ आलावग-पु. (आलापक) आ लाप. क. उच्चारणविधौ (एवमिक्कक्के आलयविनाण-(आलयविज्ञान) बौद्धपरिभाषितेक्षणिकविज्ञाने, आलावगा भणियव्वा) चत्तारि आलावगा, स्था. ठा०६ / / आव // आलावण-न. (आलापन) आलप णिच् भावेल्युल परस्पर कथोपकथने, आलयसामि(न)--पुं. (आलयस्वामिन) साध्वाश्रयप्रभौ, (सेज्रायरोत्ति आभाषणे, आलापशब्देऽस्य प्रवृत्तिहेतुत्वमुक्तम् स्यादाभाषणमालाप भण्णति आलयस्वामी उ तस्स जो पिंडो) आलयस्वामी तु इत्यमरः / स्वस्तिवाचने, च (मंगला-लापनोमैः) रामा, वाच / साध्वाश्रयप्रभुरेवपंचा. वृ०१७ संभाषणे, वृ०। सकृत्संभाषणे आव०॥ भाणने. (जोलावसेज्जा असणस्स आलयसुद्धाइलिंगपरिसुद्ध-पुं० (आलयशुद्धादिलिंगपरिशुद्ध) हेऊ) आला पयेद् भाणयेत् सूत्र श्रु० अ०८आ लाप्यते आलोपनं आलयशुद्धादीनि वसतिनिर्दोषताप्रभृतीनि यानि लिङ्गानि क्रियते एभिरित्यालापनानि, रज्वादौ० भ० श. उ०९ सुविहितचिन्हानितैःपरिशुद्धोनिश्चितसुविहितभावोयः स आलयशुद्धा- आलावणबंध-पुं. (आलापनबन्ध) आलाप्यते आलीनं क्रियते एभिरिति दिलिङ्ग परिशुद्धःतस्मिन् (तम्हा जहोइयगुणो आलयसुद्धाइ- आलापनानि रज्वादीनि तैर्बन्धस्तृणादीनामालापन-बन्धः। बन्धभेदे० लिंगपरिसुद्धो) पंचा. वृ०११ / / ब.श०८ उ०९ आलवण्ण-न. (आलवण्य) न लवण, न त अलवण-स्यभावःष्यञ् तथाच भगवत्याम लवणरसभिन्नत्वे नास्तिलवणं यत्र बहु, तल्त्वंवाष्यनअलवणता-स्त्री. सेकिंतं आलावणवंधे 2 जण्णं तणभाराण वा कट्ठभा राण वा अलवणत्वंतु, न लवणशून्यत्त्वे वाच। पत्तभाराण वा पलालभाराण वा वेल्लभाराण वा वेत्तलया वा आलस-त्रि. (आलस) आलसति, ईषत्व्याप्रियते-अच, क्रियामान्ये गवरतरञ्जवल्लिकुशब्दभमाइएहिं आ लावणबंधे समुप्प-जइ। अलसस्यापत्पम् बिदा० अञ्अलसापत्ये पुं. स्त्री यून्यपत्ये हरिता. फञ् जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेचं कालं / सेत्तं आलसायनः तस्य यून्यपत्ये-पु. स्त्री वाच०। आलावणबंधे // आलस्स-न० (आलस्य) अलसस्य भावः ष्यञ् अनुद्यमने उत्त० 1 अ॥ | आलि-पुं. (आलि) वनस्पतिविशेषे,। जी० प्र०३ // औदासीन्ये प्रमादो यत्र आलस्यमौदासीन्यं च हेतुषु आलस्यं च हेतुषु | आलोकदल्यौ वनस्पतिविशेषौ ज्ञा०३ अ / / समाधिसाधनेष्वादौसीन्य माध्यस्थंनतुपक्षपातः द्वा. द्वा० 16 |आ०म०॥ आलिग-पु. (आलिङ्ग) मुरजनामके, वाद्यविशेषे, राज.प्र.३ आलाव-पु. (आलाप) आलपकरणेघञ्-वाच आङ ईषदर्थत्वादीषल्ल आलिंगोमृतमयो मुरजः जी०३ प्र. उतालिज्जताणं आलिगाण, राज. To पनमालापः स्था. ठा०५ ईषद्भाषणे, ध. अधि.२ असकृत्संभाषण, च चू० // (आलिंग पुक्खरेइ वा) आलिंग्य वाद्यत इत्यालिंगो (आलावं वा संलावं वा) आलापः संभाषणं संलापस्तदेव पुनः पुनः भ० / मुरजवाद्यविशेषस्तस्यपुष्करं चर्मपुटं तत् किलात्यंतसममिति तेनोपमा श.३ उ०१॥ क्रियते इति, आ. म. प्र.१ अ. जं. // आलावत्ति सकृजल्पं सलाववत्तिमहर्मुहुर्जल्पं. भ. श. 5 उ / आलिङ्गय--त्रि. आ. लिग एयत् आलिंगनीये प्रियादौ, वा च // ४॥ध अधि०२॥ ईषत्प्रथमतया वा जल्पने, चतुर्भिश्च स्थाननिर्ग्रन्थस्य मुरजनामके वाद्यविशेषे, पु. (अलिंगपुक्खरे इव) आलिंग्यो नाम यो निर्गन्थ्या सममालापे न दोषः। तथाच स्थानाङ्गे स्था० द्वा०४।। वादकेन मुरज आलिंग्य वाद्यते हृदि धृत्वा वाद्यत इत्यर्थः / / आलिंग्यो चउहि ठाणोहिं णिगंथें णिग्गंथि आलवमाणे वा संलवमाणे वा मुरजोवाद्यविशेषः / एष यकारान्तः शब्दः / जी. प्र.३ णाइकमइ तं.पंच्छं पुच्छमाणे पंच्छं देसमाणे असणं वा पाणं आलिंगण-न. (आलिंगन) आलिगिल्युट्-आश्लेषे-अष्ट / ईषत्स्पर्शने. खाइम वा साइमं वा दलयमाणे दवावेमाणे वा।। प्रक, द्वा० 170 नि, चू, उ०१ दश अध्य०६ स्था. टी. (चउहीत्यादि) स्फुट किंतु आलपन्नीषत्प्रथमतया वा जल्पन्न् आलिंगनवट्टि-स्त्री० (आलिंगनवर्ति) शरीरप्रमाणे उपधाने (तारिसगंसि संलपन् मिथो भाषणेन नातिक्रामति न लंघयति निग्रंथाचारं (एगो सयणिज्जंसि सालिंगनवट्ठिए) सहालिंगन वा शरीरप्रमाणेनोपधानेन एगत्थिए सद्धिं नेव चिट्टे न संलवे) विशेषतः साध्व्या इत्येवं रूपं मार्गप्रश्रादीनां पुष्टालम्बनत्वादि ति तत्र मार्ग पृच्छन् यत्तत्तथा-सू. प्र. प्रा०२० / जी. प्र०३/ब० श.११ उ. 11 ज्ञा० अ०१ प्रश्ननीयसाधर्मिकगृहस्थपुरुषादीनामभावे हे आर्ये ! कोऽस्मा-कमितो आलिंगणवट्टिया-स्त्री. (आलिंगनवर्तिका) शरीरप्रमाणे दीर्धे, गच्छता मार्ग इत्यादिना क्रमेण मार्ग वा तस्यादेशयन् धर्मशीलेऽयं मार्गस्ते गण्डोपधोन, आलिंगनवर्त्तिका नाम शरीरप्रमाणं दीर्घ-गण्डोपधानम्। इत्यादिना क्रमेण अशनादिचाददद्धर्मशीले ! गृहाणेदं अशनादीत्येवं तथा कल्प०॥ अशनादि दापयन् आर्ये ! दापयाम्येत्तत्तुयं आगच्छेह गृहा | आलिंगणिया--स्त्री. (आलिंगनिका) पुरुषप्रमाणे उपधाने, दावित्यादिविधिनेति॥ प्रवादे-उच्चारणविधौ च-(एसालवोडसव्वच्छ) | आलिंगनिकायां पुरुषप्रमाणायां राजे ति द्ध्या समालिंग्य Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलिंगपुक्खर 425 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलुख राजान्तः पुर्यः शेरते. जी. प्र०१ आलिंगपुक्खर-न. (आलिंगपुष्कर) मुरजमुखे, भ. श०२ उ०८ मुरजमुखपुटे, च भ. श०६ उ०७ जं.। आ. म. प्र. 1 अ : राज.! आलिंपत-त्रि. (आलिंपत्) आलेपं कुर्वति (आलिंपतं वा विलिंपतं वा साइजइ) नि. चू.उ०३ आलिंपावंत-त्रि. (आलेपयत्) आलेपं कारयति (अण्णयरेण वा आलेवणजाएणं आलिंपावंतं वा) नि, चू उ०१७ आलिधरग-न. (आलिगृहक) आलिवनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृहकाणि / आलिमये गृहे, राज / आलित्त-त्रि. (आदीप्त) समंततो दीप्ते. "जह आलित्ते गेहे, कोइ पसुत्तं नरंतु बोहेला" आसमन्ततो दीप्ते गृहे, व्य, उ.३ अंत०५ अभि. अ.५ अभिविधिना ज्वलिते, भ. श. 2 उ 1 प्रदीपने, न. कोटिमघरे वसंते आलितमि वि न डज्झई तेणे आदीप्तेऽपिप्रदीपनकऽपि न दह्यते इतिव्य० उ०४ आलिप्त-क्रि आ. लिप क्त कृतालेपने, दत्तादीपने, च वाच / / आलिद्ध-त्रि (आदिग्ध) लग्ने, (अत्थेगइया पुढवीकाइया आलिद्धा) आदिग्धाः शिलायां शिलापुत्रके चलना इति भ. श. 19 उ०३ आश्लिष्ट-त्रि, / आ. श्लिष् क्त आश्लिष्टे, लधौ // 49 / / इति प्राकृतसूत्रेण आश्लिष्ट संयुक्तयोर्यथासंख्यं लध इत्येतौ भवतः प्रा.आलिंगिते संबद्धे (शिखाभिराश्लिष्ट इवाम्भसां निधिः। आश्लिष्टभूमिं रसितारमुचैः) इति माघः वाचा आलिद्धमणालिद्धवंदण-न. (आश्लिष्टानाश्लिष्टवन्दन) सप्त विशे वन्दनकदोषे, तच (आलिद्धमणालिद्धेश्यहरसीसे य होइ चउभंगो) वृ०। अश्लिष्टमनाश्लिष्टं चेति पदद्वयमाश्रित्य रजोहरणशिरसो विषये चतुर्भगिका भवति। सा च अहोकायं काय इत्याद्यावर्तकान्ते संभवति। रजोहरणं कराभ्यामाश्लिष्यति शिरश्चेत्येको 1 रजोहरणं श्लिष्यतिन शिर इति द्वितीयः२ शिरःश्लिष्यतिन रजोहरणमिति तृतीयो३न रजोहरणं न शिरः श्लिष्यति 4 इति चतुर्थो भंग इति अत्राऽऽद्योभंगः शुद्धः / शेषभंगत्रये आश्लिष्टदोषदुष्टप्रकृतवंदनमवतरति / प्रव. द्वा०१ध अधिआव / आ. चू.२ अ॥ आलि(ली)वग-त्रि. (आदीपक) आदीपयत्यन्यगृहमग्नि ना। आ. दीप णिच् एवुल परगृहस्य दाहके, गृहादिदीपनक कारिषु प्रश्न द्वा०३ / अग्निदातरि ज्ञा० अ०२ उद्दीपके, च वाचः / / आलि(ली)वण-न. (आदीपन) आ. दीप णिच् ल्युट् तण्डुलादिचूर्णमिश्रितजलेन गृहादौ चित्राकारलेपनभेदे, उद्दीपने, च वाच / / ग्रामादिप्रदीपने (आलीवणेहि य) व्या कुललोकानां मोषणार्थ - ग्रामादिप्रदीपनैः / विपा. अ। आलि(ली)विय-त्रि. (आदीपित) आ. दीप णिच् क्त दत्तादीपने गृहाङ्गनादौ, उद्दीपिते, च वाच॥ आलिसं (सिं)दग-पुं॰ [आलिस(सिन्दक] धान्यविशेषे दशा० (आलिसंदगत्ति) चपलकाः जं. टी. (आलिसदगत्ति) चवलकप्रकाराः चवलका एवान्ये / भ. श०६ उ.७ आलिह-स्पृश् स्पर्श तु. पर सक, अनिट् / स्पृशः फासफंसफरिसछिवछिहालुंखालिहाः / / 8 / / इति प्राकृतसूत्रेण स्पृशतेरालिहादेशः आलिहइ प्रा० // स्पृशति अस्प्राक्षीत् अस्पार्टात् अस्पृक्षत् पस्पर्श / वाच॥ आलिहमाण-त्रि. (आलिखत्) विन्यस्यति, (आलिहमाणे 2 अषुप्पविसइ) आलिखन्२ विन्यस्यन् 2 अनुप्रविशति॥जना आलिहिजमाण–त्रि. (आलिख्यमान) विन्यस्यमाने, (मंडले हिंआलिहिज्जमाणेहिं) जं.॥ आली-स्त्री. (आली) सख्याम् ॥प्राoll आलीठ-त्रि. (आलीढ) आ-लिह-क्त-युद्धासनविशेषे ॥वाचा।। तत्र दक्षिणमुरुमग्रतो मुखं कृत्वा बाममूरं पश्चान्मुखं प्रासारयति / अंतराबद्ध्योरपि पादयोः पंचपदोः ततो वामहस्तेन धनुर्गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यंचामाकर्षति तत् आलिढम्।। व्य. उ.१ आoम-अ-. // आ-चू।। उत्त, 1 अनि चू उ११ आलीण-त्रि (आलीन) आ ली कर्तरिक्त आश्लिष्ट, वाच. आलिंगिते, कल्प. सुश्लिष्टे, ज्ञा० अ२ किंचिल्लग्ने, च // जं.।। प्राकृते (आलिङोऽल्ली ||14|1) इति सूत्रेणालियतेः अल्ली इत्यादेशो भवति / अल्लिअइ अल्लीणो |प्रा०ा (अल्लीणयमाणजुत्तस्सवणा) आलीनौ मस्तकभित्तौ किंचिल्लग्नौ नतुटप्परौ प्रमाणयुक्तौ स्वप्रमाणोपेतौ श्रवणौ कणौं येषां ते // जं।। (आलीणे मद्दए विलीणे) आलीनः सर्व-गुणैरालिंगितः / / कल्प० // (आलीणगुणत्तोपरिव्वए) आचा. अ३उ२॥ भावेक्तः संश्लेषे, न तत्र साधु अण दंगे धातुभेदे तस्य धात्वन्तरसंश्लेषकारक त्वात् तथात्वं / वाच॥ आलीणगुत्त-त्रि (आलीनगुप्त) आङ् मर्यादयेन्द्रियरोधादिकया लीन आलीनो गुप्तो मनोवाकायकर्मभिः कूर्मवत्संवृतगात्रः / आलीनश्चासौ गुप्तचालीनगुप्तः / इन्द्रियरोधादियुते मनोवा-कायकर्मभिर्गुप्ते, कूर्मवत्संवृतगात्रे, च आचा० अ०३ऊ२ (आलीणगुत्तोपरिव्वए) आलीनो गुप्तश्व परिव्रजेत् ।।आचाoया आलु-पु. (आलु) आ लाति-ला-मितड ऋउणिच रस्य लः वा पेचके, भेलके, शब्दरता. स्वल्पवारिधानिकायाम् सनाले जलपात्रभेदे, स्त्री. कन्दभेदे राजनि तस्य भेदा नानाविधाः "कंदो बहुविधो लोके आलुशब्देन भण्यते / / कचालुश्चैव घंटालु, पिंडालुश्शर्करादिकम् // काष्ठालुश्चैव माद्यं स्यात् तस्य भेदा अनेकशः" ॥वाच। आचाराङ्गदीपिकायाम्। द्वात्रिंशदनंतकाय वनस्पति जीवान-धिकृत्य (आलू तह पिंडालू बत्तीसं जाणिउं अणंताई) आचा. अ. 1 उ. 3 / / आलू तह पिंडालू हवन्ति एए अणन्तनामेणं ! ध० अ० 2 / आलू इति दीर्घान्तोप्यत्र॥ आलुई-स्त्री. (आलकी) वल्लीभेदे। आचा० अ०१ऊ५॥ प्रव द्वा० 10 / / आलुख-दह-दाहे-भस्मीकरणेच सक भ्वा. फ. अनिट्-दहेरहिऊलुंखौ ||207 / / इति प्राकृत सूत्रेण दहेरालुंखादेशः आलुंखइ डहइ प्रा. आलुख-स्पृश-स्पर्श-तु. पर सक, अनिट् (स्पृशः फासफंसफ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलुंचण 426 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलेवण रिसछिवछिहालुंखालिहा०८१ // इति प्राक्रतसूत्रेण्ण स्पृशे-रालुंखादेशः एतो एगतरेणं पक्खेत्ताणाहिणो दोसा ||21|| चउकामयण आलुंखइ प्राoll चउभंगो त्तत्तिउद्देसएजावणेवुत्ताइहंपि सचेव। गाहा। ततुप्पतित्तं आलुंचण न. (आलुचन) आ.लुचि ल्पुट्उत्पाटने, केशा-देर्बन्धराहित्ये, दुक्खं अभिभूतो वेयणा एत्तिटवाए / अद्धाणे अय्वहितो तं च॥ वाच / / ग्रहणे, / / आव / / दुक्खहिया सते सम्मं // 217|| अव्वोच्छित्तिणिमित्तं जीयट्ठाए आलुंटण-न. (आलूठन) आ लुटि ल्युट्वलादपहरणे, वाच०।। समाहिहेउं वा। एतेहि कारणेहिं जयणा आलिंपणं कुज्जा / / 18 / / पूर्ववत् गोमय गहणा इमा विधी गाहा / अभिणववोसहासत्ति आलुंप-त्रि (आलुम्ब) आसमंताल्लुंपतीत्यालुपः धनापहारके, आलुपे इतरे उवयोगं काउगहणं तु माहिसअसत्तीगव्वं अण्णातवच्छं व सहसाकारे / स हि लोभाभिभतान्तः करणोऽपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेकोऽर्थलोभैकदत्तदृष्टिरैहिकामुष्मिकविपाककारिणीनिलाञ्छ विसघाता।।२१९|| वोसिरियमोत्तं घेत्तव्वं तं वहुणंत्तस्सासविइयरं नगलकर्तनचौर्यादिकाःक्रिया करोति॥ आचाअ०२ उ० 10 // (आलुपह चिरकाल वोसिरियं तं पिउवकरे तु गहणं दिणसंसत्तं पिमादिसं घेत्तव्वं मोहिसासतिगव्वं तं पिअणायवेत्तियं छायायामित्य-र्थः। विलुपह) आलुपंतवस्त्रादिकं विलुपत् सर्वस्वापहारेण।। तं असुसितं विसघाती भवति आयवत्थं पुण सुसियरं आलुग(य)-पुंआलुक आ० लाति पृथ्वी कासरोग वा आला. मित् डु सण्णगुणकारी सुत्तं जे भिक्खू दिया आलिंवणजायं पडिग्गाहेत्ता संज्ञायां कन, शेषनागे, कासालौ, च आलु० स्वार्थे कन् कन्दभेदे, न. दिया कार्यसि वणं आलिंपेज वा विलिंपेज वा आलिंपतं वा वाचा / / (तरुणगएलालुयत्ति वा) आलुकं कन्दविशेष- तचानेकप्रकार मिति विशेषपरिग्रहार्थ एलालुकमित्युक्तम् / आणु० अ०१॥ विलिंपतं वा साइजह // 43|| जे भिक्खू दिया आलिंपणजायं पडिग्गाहेत्ता रत्तिं कायंसि वणं आलिं पेज वा विलिंपेज वा साधारणशरीरबादर-वनस्पतिकायिकानधिकृत्त्य (साहारणसरीरा आलिंपंतं वा विलिंपंतं वा साइजइ |43|| जे भिक्खू दिया अणोगहाते पकित्तिया आलुएमूलए चेव सिंगवरे तहेव य) उत्त० अ०३६ // आलिंपणजायं पडिग्गाहेत्ता रत्तिं कायंसि वणं आलि पेज वा भ. श०७ ऊ०२।। प्रज्ञा० पद.१०।। जी.प्र.१॥ विलिंपेज वा आलिंपंतं विलिंपतं वा साइजहाजे भिक्खू आलूण-त्रिलूक्त (आलून) ईषच्छिन्ने, सम्यकछिन्ने, चतेनामरवधूहस्तैः रतिं आलेवणजायं पडिग्गाहेत्ता दिया कायं सि वणं आलिं पेज सदयालूनपल्लवाः कुमार, | वाचा विशीर्णे, // आ०म० // वा विलिंपेज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइजइ ||1|| जे आलेलुयं-अव्य (आलेष्टुम्) आश्लेषं कर्तुमित्यर्थे, स्वार्थेकश्च वा इति भिक्खू रत्तिं आलेवणजायं पडिग्गाहित्ता रत्ति कायंसि वणं प्राकृतसूत्रेण स्वार्थे कः ||प्राoli आलिपेज वा विलिपेज्ज वा आलिपंतं वा विलिपंतं वा साइजइ आलेप-पुं. (आलेप) आ-लिप्घञ्-उपलेपे, आलिम्पने, च आलिप्यते ||6|| आलेवण जातं आलेवणप्प गारा॥ गाहा।। कर्मणि ल्युट् आलिप्यमाने, च // वाचा दियरातो लेवेणं, चउकभयणाउ जाव णेवुत्ता। आलेवण-न० (आलेपन) आ-लिप्ल्यु ट् उपलेपे, आलिम्पने, च वाच॥ / एतो एगतरेणं, मखेत्ताणादिणादोसा नि, चू,ऊ.१२ सकृल्लेपने, नि. चू, उ०१२ ईषल्लेपने, वृता। दिवागृहीतगोमयै रात्री पर्युषितेनालेपनजातेनालेपननिषेधो / वृहत्कल्पे॥ व्रणाखालेपननिषेधो // णो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा पारि यसिएणं नि.चू॥ आलेवणजाएणं आलिपित्तए वा विलिपित्तए वानन्नत्थ आगाढेहिं जे भिक्खू दिया गोमयं पडिग्गहेत्ता / दिया कायंसि वणं रोगायंकेहिं॥ आलिंपेज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइजइ एवं म्रक्षणसूत्रमप्युचारणीयं / व्याख्यातः कल्पते निर्ग्रन्थानां वा 2 ||35|| जे भिक्खू दिया गोमयं पडिग्गहेत्ता रत्तिं कार्य सि वणं परिवासिते नालेपनजातेनालेपयितुंवा ईषल्लेपयितुं विलेपयितुं विशेषेण आलिंपेज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलिपंतं वा साइजइ लेपयितुं नान्यत्र आगाढेभ्यो रोगातंकेभ्य इति सूत्रार्थः / / ||zoli जे भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गहेत्ता दिया कायंसि वणं आलिंपेज वा विलिंपेज्जा वा आलिंपंतं वा साइजइ 1141|| जे अथ भाष्यं / / भिक्खू रत्तिं गोमयं पडिग्गहेत्ता रत्तिं कायंसि वणं आलिंपेज वा मखेऊणं लिप्पइ, एस कमो होइ वणतिगिच्छाए। विलिंपेज वा आलिंपंतं वा विलिंपंतं वा साइज्जइ ||4|| जइ तेण तप्पमाणं, माकुण किरियं सरीरस्स। चउक्कभंगसुत्तं उच्चारेयव्वं / कायःशरीरं व्रणः क्षतं तेण गोमयेण परः प्राह॥ ननु व्रणचिकित्सायांपूर्वव्रणो मृक्षित्वा ततः पिडी आदानेन आलिंपइ सकृत् विलिंपइ अनेकशो ऽपरिवासिते मासलहुं / आलिप्यते एष क्रमस्ततः प्रथमं मृक्षणसूत्रमुक्त्वा पश्चादालेपनसूत्रं परिवासिते चउभंगे चउलहुं तवकालदिसिट्टा आणदिया। भणितुमुचितमिति भावः / यदि चैतत्तव न प्रमाणं ततोमा शरीरस्य दोसा। गाहा। दियएतो गोमत्तेणं चउक्कभयणा तु जाव णेवुत्ता। क्रियामकार्षीरिति सूरिराह। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलेवण 427 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोइयपडिकंत आलेवणेण पउणइ, जो उवणो मखणेण किं तत्थ। होहिइ वणो वमासे, आलेवो दिजई समणं // नायमेकान्तो यदवश्यं व्रणेम्रक्षणमालेपनंचभवति। किन्तु कुत्रचिदेकतरं कुत्राऽप्युभयं ततो यः किल व्रण आलेपेन प्रगुणीभवति तत्र किं म्रक्षणेन कार्य किंचिदित्यर्थः / यद्वा / मावे व्रणो भविष्यतीति कृत्या प्रथममेवालेपः शमनमौषधं दीयते किंच।। चाउरे उकजे करित्ति, जह लाभकज्जपडिवाडी। अणुपुट्विसंतविभवे, जुज्जइ न उसव्वजाईसु॥ अत्यातुरे आगाढे कार्ये यथा लाभं आलापो मूक्षणं वा यः प्रथमं लभ्यते तेनैव चिकित्सांकुर्वन्ति। कुत्र नाम परिपाटिःक्रमो विद्यते इदमेव व्यनक्ति यः स द्विभावा विद्यमानविकृति सूत्रचिकित्सायां क्रियमाणायामानुपूर्वी चिकित्साशास्त्रेण भणिता परिपाटियुज्यते घटतेनपुनः सर्वजातिषु अतः किमत्र क्रमनिरीक्षणेनेति। सुत्तमि कड्डियंमि, आलेवउवत्ति चउलहू हुंति॥ आणाइणाइदोसा, विणा इमेहिं तुठाणेहिं। सूत्रार्थकथनेन सूत्रे आकृष्ट सति नियुक्तिविस्तर उच्यते / यथा लेपं | रात्रौ स्थापयति। तदा चतुर्लघु, आज्ञादयश्च दोषाः विराधना च अमीभिः स्थानैर्भवति॥ निद्धे दवे पणीए, आवजणपाणतव्खणखरणा। आयंके विविज्जा, सो मासलहुगाय॥ सिग्धे द्रवे प्रणीते आलेपे स्थापिते प्राणिनामायततत्क्षणक्षरणं तस्य द्रवादेः स्यन्दनं भवति / अत्र दोषभावना प्राग्वत् / / आतंके च रोगे विपर्यासेन क्रियाकरणे वक्ष्यमाणं प्रायश्चित्तं मासेति // आगाढानागाढकारणमन्तरेण पदे परिवासयत्ति / ततः प्राशुकादौ स्थाप्यमाने चतुर्लघु। अप्राशुकादौ चतुर्गुरु। इदमेव व्याचष्टे / / तिच्चिय संचयदोसा, तयावि से लालछिवणलिहणं वा। अंवीभूयं विइए, उज्झमणुज्झंति जे दोसा॥ तएवं संचयादयो दोषा मन्तव्याः॥ त्वग्विषः सर्पः स्पृशेत् लालाविषो वा जिव्हया वा लेहनं कुर्यात्। द्वितीये च दिने अम्लीभूतं तदुप्स्यते। अनुज्झतो वा ये दोषास्तान् प्राप्तान् यत एते दोषा-स्ततः / / दिवसे 2 गहणं, पिट्ठमपिटे य होय जयणाए। आगाढे निक्खिवणं, अपिट्ठ पिटे य जयणाए।। यदा ग्लानार्थमालेपो न प्रयोजनं भवति तदा दिवसे 2 ग्रहणं विधेयं / तत्र प्रथमं पिष्टस्य पश्चादपि पिष्टस्यापि यतनया कर्तव्यं भवति। / आगाढे च ग्लानत्वे आलेपस्य निक्षेपणं परिवासनमपि कुर्यात्।। तदप्यपिष्टस्य पिष्टस्य वा यतनया कर्तव्यम्। अथाऽऽतंकाव्यभ्यासं व्याख्याति / / आगाढे अणागाद, अणागाढे वा वि कुणइ आगाढं। एव तु विवज्जासं, कुणइ ववाए कफतिगिच्छं। आगाढे ग्लानत्वे अनागाढां क्रियां करोति चतुर्लघु। अनागाढे वा आगाढं करोति चतुर्लघु यद्वा वाते चिकित्सनीये कफचिकित्सां करोति / एष विपर्यासो मंतव्यः। अथ सेसे लहुगायत्ति पदं व्याचष्ट। अगिलाणो खलु सेसो, दवाई ति विह आवइ जढो वा। पच्छित्ते मग्गणया, परिवासित्तं तस्सिमा तस्स॥ शेषो नाम य आगाढोऽनागाढो वा ग्लानो न भवति यो वा द्रव्यक्षेत्रकालापद्भेदात् त्रिविधया आपदा जडो मुक्तः स शेष उच्यते तस्य परिवासयत इयं प्रायश्चित्तमार्गणा। फासुगमफासुगेवा, अचित्तचित्ते परित्तणं तेवा। असिणे हसिणे हसए, अणाहारा हारलहुगुरुगा। प्राशुकं स्थापयति चर्तुलघु / अप्राशुकं स्थापयति चर्तुगुरु अचित्ते स्थाप्यमाने चर्तुलघुसचित्ते चतुर्गुरु परित्ते चतुर्लघुअनन्तेचतुर्गुरु नेहेगते सेहावगाढे चतुर्गुरु अनाहारे चतुर्लघु आहारे चतुर्गुरु।।। आलिप्यते अनेनत्यालेपनं आलेपनसाधने द्रव्ये, आलेवो तिविधो वेदनप्रशमकारी पाककारी व्रणादिणीहरणकारी। नि. चू. उ. 3 / / आलेवणजाय न. (आलेपनजात) आलेपनप्रकारे, (आले-वणजाएणं आलिंपेज्ज वा वितिपेज वा) नि. चू, उ०३।। आलेह-पुं(आलेख) आ-लिख-घञ् सम्यक्लेखने, आधारे, घञ् लेखपत्रे, च / वाच // चित्रे, // आ. म. प्र.॥ आलेक्ख-त्रि. (आलेख्य) आ-लिख्- ण्यत्-चित्रादौ लेख्यदेवादिप्रतिबिम्बे, विधातुमालेख्यमशवंतः / माघः / इति संरंभिणो वाणीबलस्यालेख्यदेवताः। माघः अहो रूपमालेख्यस्य शकु. लेखनीयेत्रि आधारे ण्यत् चित्रे ॥वाच // आलोइऊण-अव्य. (आलोक्य) विमृश्येत्यर्थे (आलोइऊणा एवं) आलोच्य विमृश्येति // पंचा. वृ.१४ वृ.३ आलोइय-त्रि(आलोकित) आ-लोक् -त. दृष्ट / / वाच // (आलोइयं इंगियमेव नचा) आलोकितं निरीक्षितमिति / दश अ० 9 उ. 3 // आलोइयपाणभोयणभोई से णिग्गंथे) आलोकितं प्रत्युपेक्षितमशनादिभोक्तव्यं तदकरणे दोषसंभवात्।आचा० अ०७ उ०२॥ आलोचित-त्रि (आ-लुचु.णिच-त) आलोचनाविषयीभूते विशेषदर्शनादिना कृतालोचने, (आलोचितमिन्द्रियेणेति) सां को इति कर्तव्यतयावधारितेचावाचा निवेदितेभि. श०२ ऊ१॥ (आलोइयंमि आराहणाअणालोइए भयणा) आलोचिते गुरोरपराधजालें निवेदिते,॥ आव०॥ आलोचनावति, च // भ० 1 श०७ उ०२॥ आलोइयणिंदिय-त्रि. (आलोचितनिन्दित) सम्यक् कृता लोचननिन्दाविधौ, // कयपावो विमणुस्सो, आलोइयनिंदियगुरु सगासे। होइ अइरेगलहुओ, हरियमराव भारवहो / / आलोइयनिंदिओत्ति आलोचितनिन्दितः सम्यक् कृतालोचननिन्दाविधिरित्यर्थः / ध, अधि०२।। आलोइयपडिकं त-त्रि. (आलोचितप्रतिक्रान्त) आलोचितं गुरूणां निवेदितं यद तिचारजातं तत् प्रतिक्रान्तमकरणविषयी कृतं येनासावालोचितप्रतिक्रान्तः तास्मिन् आलोचित्तश्चासावा लोचनादानात्प्रतिक्रान्तश्च मिथ्या दुष्कृतदानादालोचितप्रति Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोएमाण 428 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा क्रांतः / / भ. श०२ उ०१। आलोचनाप्रदानपूर्व प्रदत्तमिथ्या दुष्कृते, (आलोइयपडिकंता ठावयति तओगणे) वृ.।। आलोएमाण-त्रि. (आलोकयत्) पश्यति आचा.अ.५॥ आलोएयव्व-त्रि (आलोचितव्य) प्रकाशनीये, पंचा वृ. 15 निवेदनीये अपराधादौ, च० // पंचा. वृ०१८॥ आलोय-पुं. (आलोक) आलोक्यतेऽनेन आ लुक् लोक वा करणे घञ् प्रकाशे। दश उ०२।। आव०॥ (आलोओ उज्जोओ दित्तीभासापहा पयासो य) प्रा. को० // ज्ञा० 10 अ आलोकस्याने गवाक्षादौ, च वाच / / णो गाहावइकुलस्स, आलोयं वा थिग्गलं वा संधिवा दगभवणं वाहाओपगन्मिय अंगुलियाए वा उहि सिय उद्दिसिव उण्णमिय उन्नमिय२णिज्झाएज्जा।। आलोकस्यानं गवाक्षादिकम् आचा, अ.१ उ.५ आलोय थिग्गलं दारं आलोक निर्वृहकादिरूपं दश अ०५॥ आलोक्यत इत्यालोकः लोके, तथा चावश्यके लोकपर्यायशब्दानधिकृत्य (आलोक्कइपलोक्कइ संलोक्कईय एकट्ठा) आ. म.आचारांगे (लोयालोयपवंचाओ पमुचति) आलोक्यत इत्यालोकः कर्मणिधालोके चतुर्दशरज्वात्मके आलोको लोकालोकस्तस्य प्रपंचः पर्याप्तापर्याप्तकसुभगादिद्वन्द्वविकल्पस्तद्यथा। नारको नारकत्वेनालोक्यते एकेन्द्रियादिरेकेन्द्रियादित्वेनैवं पर्याप्ता-पर्याप्तकाद्यपि वाच्यम् / तदेवं भूतात्प्रपंचान्मुच्यते / चर्तुशजीवस्थानान्यतरव्यपदेशार्हो न भवति इति यावत् / / आचा० / / दृष्टिविषये क्षेत्रादौ॥ज्ञा. अ.१॥ दृष्टिविषये॥औप० / / आलोकनमालोकः भावे घञ् दर्शन, / आव / / ज्ञा० अ०२॥ (आलोए समणस्स भगवओ महावीरस्स पणामं करेइ) आलोके दर्शनमात्रे, // कल्प० / / आलोकनमालोकः मर्याद-याऽभिविधिना वालोचनम् निरीक्षणे, (पिक्खणनिरिक्खणावि य आलोयपलोयणेगट्ठा) ओघ / / आलोयग-त्रि०(आलोचक) आ-लुच्-णिच्-एवुल् आलोचना कारके, / / वाच / / आलोचनाया योग्या आलोचका आलो-चनाशब्दे। व्य उ०१।। आलोचयल-त्रि०(आलोकचल) आलोकनमालोकस्त-स्मिन्नालोके चलमालोकचलं दर्शनलालसे, आलोअचलं चक्म णुव्वतंदुक्करं थिर काउं। आव टी० // आलोयण न० (आलोकन) आ.लुक लोक वा भावेल्युटदर्शने, |आचा० ३ऊ५ दश अ०४॥ ततस्तदालोकनतत्पराणाम्। भुवनालोकनप्रीतिः स्वर्गिभिर्नानुभूयते॥ कुमार.! "व्रजति हि सफलत्वं वल्लभालोकनेन,, माघः।। वाच।। निरीक्षणे, आव०॥ निरूपणे, // ओघ० // प्रकाशके, प्रश्न द्वा० सं०॥ आलोचन-न आ-लुच् णिच् भावे ल्युट् विशेषधर्मादिना विवेचने नैया० / वाच // विचारणे, (पुवामेव आलोएडा) आलोच-येद्विचारयेत्।। आचा० अ०३ऊ.५आलोचयेद्दत्तावधानो भवेदित्यर्थः / आचा. श्रु.२ अ०१ उ. 6 // सामान्यवस्तु ग्राहि-ज्ञानविशेषे, च सामान्यवस्तुग्राहिज्ञानमालोचनम् / तद्वक्त-व्यताऽर्थावग्रहवक्तव्यताऽवसरेऽवग्रहशब्दे / / आङ्मादायां लोचूदर्शने अर्यादयाऽलोचनं दर्शनमालोचनम् // नि० चू, उ०२०॥ निवेदने, उपदर्शने, चआलोयणदायणं च दाऊणं आलोचनं तथा गृहीतभक्तपाननिवेदनं तयोरेवोपदर्शनञ्च प्रश्न सं० द्वा० 1 / आलोएहिगुरूभ्यो निवेदयेति॥ उपा० अ०३॥ स्था, ठा०३॥ आलोइत्तए आलोचयितुं गुरवे अपराधान्निवेदयितुम् / / स्था०२ ठा० / / आलोचनं गुरोः पुरतः स्वापराधस्य प्रकटनम् // 10 // आङमर्यादायाम् सा च मर्यादा इयं। जह बालो जंपतो कज्जमकजं च उञ्जय भणइ। तंतह आलोइजा, मायामयविप्पमुक्को उ॥ अनया / मर्यादया लोचदर्शने चुरादित्वाणिच् लोचनं लोचना प्रकटीकरणं आलोचना गुरोः पुरतो वचसा प्रकाशनमिति भावः / यत्प्रायश्चित्तमालोचनमात्रेण शुद्ध्यति तदाऽऽलोचनार्हतया कारणे कार्योपचारालोचनम्। प्रायश्चित्तभेदे।। प्रव० // द्वा० 98 / / व्य. उ.१॥ अस्याशेषवक्तव्यताऽऽलोचनाशब्दे आलोचनार्हशब्दे च / / सामाचारीभेदे च तच पिंडादिनिवेदनं, // ग. अधि२॥ लोचनपर्यन्ते, अव्य.। "आलोचनान्तं श्रवणं वितत्य" रघुः / वाच // आलोयणमायण-न. (आलोकनभाजन) प्रकाशमुखे भाजने / / प्रश्न सं०१ द्वा० // अह कोई न इच्छेला, तओ मुजेज एकओ। आलोयभायणे साहू, जयं अयरिसाडियं / / आलोकभाजनं मक्षिकाद्यपाहोय प्रकाशप्रधाने भाजने इत्यर्थः / / दश० अ५ उ. आलोयणा-स्त्री. (आलोचना) आङ्मादायाम् सा च मर्यादा इयम्॥ जह बालो जंपतो, कन्डमकजं च उजुयं भणइ। तंतह आलोइया, मायामयविप्पमुक्को उ॥ अनया मर्यादया लोचूदर्शने चुरादित्वाण्णिच लोचनालोचनं प्रकटीकरणम् आलोचना गुरोः पुरतो वचसा प्रकाशनम् प्रवद्वा० 98 / व्य उ. 10 / / जीतः // विषयाः (9) आलोचनाया व्युत्पत्तिरर्थः स्वरूपंच। (2) द्रव्यादिनिक्षेप आलोचनायाः। (3) आलोचनाया मूलगुणोत्तरगुणेन भेदाः। (4) विहारादिभेदेनालोचना त्रिविधा तद्भेदाश्च। (4) शल्योद्धरणार्थमालोचनकरणविधिः। आलोचनीये विषये यथाक्रममालोचनाप्रकारः / आलोचनायां शिष्याचार्य्यपरीक्षणे आवश्यका दिद्वा-राणि / (e) वा लोचना गृहीतव्या तानि स्थानानि। (9) द्रव्यादिचतुर्विधमालोचनीयम्। (10) अपराधालोचनायां प्रशस्ताऽप्रशस्तद्रव्यादयः / (11) यथाभूतेषु द्रव्यादिष्वालोचना तादृशानां प्रतिपादनम् / Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 429 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा (12) आलोचनासमयवर्णनम्। (13) कस्य समीपे आलोचना कर्तव्या। (14) गीतार्थमवाप्य शल्लयानुद्धरणादौ दोषगुणादिकं भावयता यद्विधेयत्वम्। (15) मरणाभिमुखेनाप्यालोचना करणीयात्र ब्राह्मणदृष्टान्तः। (16) अदत्तालोचने व्याधदृष्टान्तभावना। (17) स्वगणपरगणवासिकानां समीपे आलोचना। (28) आलोचनाया ष्टौ अस्थानकाः दशस्थानकाच ! (19) सामुदानिकाऽतिचारालोचना। (20) आलोचयित्रा एतानि वर्जनीयानि / (21) सम्यगालोचनादाने कि लिंङ्गम्। (22) कृतानां कर्मणां क्रमत आलोचना। (23) आलोचनायां दत्तायां न विरतिभंगः सदृष्टान्तः / (24) आलोचनायामकृतायां मृत्वाऽनाराधको भवति। (25) आलोचनायाः कलम्।। (1) आलोचनाया व्युत्पत्तिरर्थस्स्वरूपं च॥ आ अभिविधिना सकलदोषाणां लोचना गुरुपुरतः प्रकाशना आलोचना भ. श०१७ ऊ३॥ आसामस्त्येन स्वगताऽकरणीयस्य वागादियोगत्रयेण गुरोः पुरो भावशुद्ध्या प्रकटनमालोचना ध, अधि०२ गुरुभ्यो निजदोषकथने, ध. अधि.२॥ आमादायां लोचूदर्शने आलोचना नाम आलोचना प्रकटना ऋजुभावनेति / / पं. चू. // आलोचनमालोचना मर्यादयाऽलोचनं दर्शनमाचार्यादरा-लोचनेत्यभिधीयते। ओघ // आलोयणा णाम जहा अप्पणोजाणति तहा परस्सपागडं करे।। नि. चू, उ. 20 // आ अपराधमर्यादया लोचनं दर्शनभाचार्यादेः पुरत इत्यालोचना ध० अधि०३। गुरोः स्वचरितप्रकाशनमात्मके, प्रायश्चित्तभेदे, / / पंचा. वृ. 16 "व्यवहारो आलोयणा सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा'' व्यवहार आलोचना शोधिः प्रायश्चित्तमित्येकार्थः // व्य, ऊ 2 आलोचनाया एकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह॥ आलोयणा वियडणा, सोही सब्भावदायणा चेव। निंदागरहविउड्डा, सल्लुद्धरणेय एगट्ठा ||13|| आलोचना विकटना शुद्धिः सद्भावदापना जिंदणगरहण विउट्ठण सल्लुद्धरणं चेति एकार्थिकानि इति।। ओघ०।। आलोचना प्रयोजनतो हस्तशताहिर्गमनादौ गुरोर्विकटना। आव० / / स्था, ठा०४॥ जे मिक्क्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएमाव्य. उ.१॥ आलोचयेत् लोचूदर्शने चुरादित्वाणिच् आङमादायाम् आ मर्यादया (जहा बालोजपंतो) इत्यादि रूपया आलोचयेत् यथात्मनस्तया गुरोः प्रकटीकुर्यात् // व्य. उ.१। अथालोचनाशब्दार्थमाह॥ आलोयणं अकिब, अभिविहिणा दंसणं तिलिंगेहिं। वइमादिएहिं सम्म, गुरुणो आलोयणेया || व्याख्या। आलोचनमालोचना ज्ञेयेतियोगः / आलोचनमेव किमित्याह / अकृत्ये अकरणीयविषये स्वगतस्याकृत्यस्येत्य-छः / अभिविधिना सामस्त्येनेत्याडर्थः दर्शनं प्रकाशनमिति लोधातोः कारितां तस्यार्थ इतिशब्दोऽग्रे योक्ष्यते / कथमकृत्यद निमित्याह / लिंग: परोक्षाकृत्यगमकै र्हेतुभिर्वागादिभि-वचनकायविकारविशषैः / सम्यक्भावशुध्या कस्य तदर्शन-मित्याह / गुरोरालोचनाचार्यस्येति / एषा आलोचना प्रकरणा-द्विज्ञेया ज्ञातव्या तच्छब्दज्ञानार्थिभिरिति गाथार्थः / / पंचा. वृ. 15 आलोचनास्वरूपं व्यवहारकल्पे यथा। "आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य कार्यस्य पूर्व कार्यसमाप्तेरूद्ध वा यदिवा पूर्वमपि पश्चादपि गुरोः पुरतो वचसाप्रकटीकरण / / 3 / / व्य०१ऊ / / (2) द्रव्यादिनिक्षेप आलोचनायाः॥ आलोचनानिक्षेपश्चतुर्धा तथाच महानिशीथे अ०७।। तंजहा नामालोयणं ठवणालोयणं दव्वालोयणं भावा. लोयणं एते चउरो वि पए अणे गहा वि (8) उघोइजंति तत्थ ताव समासेणं णामालोयणं नाममेतेणंठवणालोयणं पोत्थयाइसुमालिहियं दव्वालोयणं नाम जं आलोएताणं असढभावत्ताए जहोवइट्ठ पायच्छित्तंनाणूचिट्टे एते तओविपए एगंतेणं गोयमा! अपसत्थे जे यणं से चउत्थपए मावालोयणं नाम तेणं तु गोयमा! आलो-एत्ताणं निंदित्ताणं गरहित्ताणं पायच्छित्तमणु चरित्ताणं जाव णं आयहियष्ठाए संपज्जित्ताणं संकजुत्तमढे आराहेशा से भवयं कयरेणं से चउत्थे यएगोयमा! भावालोयणं से भयवं ! भावालोयणं जेणं भिक्खू परिसे संवेगग्गगए सीलतवदाणभावण चउक्खंधसुसमण धम्ममाराहणाकंतरसिए मयभयगारवादीहिं अचंत-विप्पमुके सच्चभावनाभावंतरेहिं नीसल्ले आलोइत्ताणं विसोहिए य पडिगाहित्ताणं तहत्ति समणुष्ठिया सव्वुत्तमं संजमकिरियमणुपालिज्जा / / तं जहा॥ कयाइं पावाई, इमाई जेहिं अट्ठाणवज्जए। तेसिं तित्थयरवयणेहि, सुद्धी अम्हाणकीरउ ||1|| परिनिव्वाणं तयं कम्म, घोरं संसारदुक्खदं। मणोव्वयकायकिरियाहिं, सीलभारं घरेमि हं।।।। जह जाणइ सव्वन्नू, केवली तित्थंकरे। आयरिए चरित्तष्ठे, उवज्झाए यसुसाहुणो / 3 / / जह पंचलोयपाले,य सताधम्मे य जाणए। तहालोएमिहं, सव्वं तिलमित्तं पिन निन्हवं शा तत्थ जंपायच्छित्तं, गिरिवरगुरुयं पि आवए। तमणुचरेमि हं.सुद्धी जह पांव विलिजए 11411 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 430 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा मरिउणं नरयतिरिएसु, कुंभीपाएसु कत्थई। कत्थय करवत्तनंतेहिं, कत्थइ भिन्नो उ सूलिए ||6|| घंसणं घोलणं कहविमि, कत्थइच्छेयणं भयणं / बंधणं ण कहविमि, कत्थई दमणमंकणं / / 7 / / णत्थणं वाहणं कहिमि, कत्थइ वहणत्तालगं / गुरुक्कमणं कर्हि, विकत्थइ जमलारविधणं / / 6 / / उरपछिअट्ठिकडिभंग, परवसो तएहं छुहं। संतावुव्वेवदारिदं, विसहिहासि पुणो विहं / / 9 / / भारहं चेव सव्वंपि, नियदुचरियं जहट्ठियं / आलोएता निंदित्ता, गरहित्ता पायच्छित्तं चरित्तुणं // 20 // निद्दहेमिपावयं कम्मं, अतिसंसारदुक्खयं / अभुठित्तातवं घोरं, धीरं वीरपरक्कम // 11 // अचंतकडयड कलु, दुक्खरं दुरणुचरं / उग्गगायरं जिणाभिहियं, सयलकल्लाणकारणं ||12|| पायच्छित्तनिमित्तेणं, पाणसंथारकारयं / आयरेण तवंचरिमो, जेणुटभेसोक्खई तणुं ||13|| कसाए विहलीकट्टुं, इंदिए पंचनिग्गहं। मणोवइकायदंडाणं, निग्गहं धणियमारंभ / / 14 / / आसवदारे नेरुभित्ता, चत्तमयमच्छरअमपरिसो॥ गयरागदोसमोहोहं, निस्संगो निपरिग्गहो ||15|| निम्ममो निरहंकारं, सरीरअचंतनिप्पिहो। महव्वयाई पालेमि, निरइयाराइ निच्छिओ ||16|| हठ्ठीहा अहन्नोहं, पावोपावमती अहं / / पाविठ्ठो पावकम्मोणं, वाहमोहमायारो ||17|| अहं कुसीलोठ्ठचरित्ती, मिल्लसूणोवमो अहं॥ चिलातो निक्किवो पावी, कूरकम्माहं निग्घिणो ||18|| इणमो दुल्लहं लमिऊ, सामन्नं नाणदंसणं // चारित्तं वा विराहित्ता, अणालोइयनिंदिय||१९|| गरहियअकयपच्छित्तो, वावजंतो जई अहं।। ता निच्छयं अणुत्तारे, घोरे संसारसायरे // 20 // निव्वुडोभवकोडिहिं, समुत्तारं ताण वा पुणो॥ जरा जाव ण पीडेइ, बाही जाव न केइ मे ||2|| जाविंदिया ण हाइंति, ताव धम्म चरित्तु हं।। निद्दहमपरेण, पावाइं निंदिउं गरहिउँ चिरं // 22|| पायच्छित्तं चरित्ताणं, निक्कलंको भवामि हं। निकलुसनिक्कलंकाणं, सुद्धभावाण गोयमा ! ||23|| वन्नो नठं जयं गहिया, सुहराम विपरिवलित्तुणं / कलिकलुसकम्ममलमुकं, जइणो सिज्झिज्जतक्खणं ||24|| ताव यं देवलोगम्मि, निबुओ एसयंपहे। देवदुंदुहिनिग्घोसे, अच्छरासयसंकुले ||25|| तओ चुया इहागंतुं, सुकुलुप्पत्तिं लमित्तुणं / निव्विन्नकामभोगाय, तवं काउं मया पुणो // 26 / / अणुत्तरविमाणेसुं, निस्विसिउणे हमागया। हवंति धम्मतित्थयरा, सयलतेलोकबंधवा / / 7 / / एस गोयम ! विन्नेए, सुपसत्थे पए भावालोयणं / नाम अक्खयंसिवसोक्खदायगो // 28 // तिबेमि / / (3) आलोचनाया मूलगुणोत्तरगुणेन भेदाः। आलोचनाया मूलगुणोत्तरगुणभेदेन भेदा यथा ओघ० // आलोयणा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। एकेक्का चउकन्ना, दुवग्गसिद्धावसाणाय॥१शा आलोचना च द्विविधा मूलगुणालोचना।उत्तरगुणालोचना चेति / साच द्विविधाप्येकैकमूलगुणालोचनाउत्तरगुणालोचना च (चउकण्णदुवम्गत्ति) द्वयोरपि साधुसाध्वीवर्गयोरेकैकस्य चतुष्कर्णा भवति / एक आचार्यः द्वितीयश्वालोचकः साधुरेवं साधुवर्गे चतुष्कर्णा भवति साध्वीवर्गेऽपि चतुष्कर्णा भवति। एका प्रवर्तिनी द्वितीया तस्या एव या आलोचयतीति साध्वी एवं साध्वीवर्गे चतुष्कर्णा भवति / द्वयोश्च साधुसाध्वी वर्गयोर्मिलितयोरष्टकर्णा भवतीति। कथमात्मद्वितीयः प्रवर्तिनीचात्मद्वितीया आलोचयति यदा तदाऽष्टकर्णा भवति / सामान्यसाध्वी वा यद्यालोचयति तदाष्टकर्णाश्चति अथवा।। छक्कण्णा होजा, यदा बुडो आयरिओ हवइ / तदा एगागिस्सवि, साहुणीदुगं आलोएइ। एवं छकण्णा हवइ, सव्वहा साहुणी उ अन्ज / विइयाए आलोयव्वं, न तु एगागिणी एत्ति॥ एवं तावदुत्सर्गतः आचार्य आलोचयति शल्यं तदभावे सवदेशेषु निरूपयित्वा आलोचयितव्यं एवं तावत् यावत् सिद्धानामप्यालोचते साधूनामभावे ततश्चैवं सिद्धावसाना आलोचना दातव्येति / / तथाच वृहत्कल्पे राहस्यिकी पर्षदमधिकृत्याह।वृoll सल्लुद्धरणे समणस्स, चाउकण्णा रहसिया परिसा। अजाणं चाउकण्णा, छक्कन्ना अट्ठकन्ना वा / / द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यं च द्रव्यशल्य कंटकादिभावशल्यं मायानिदानमिथ्यात्वादि अथवा भावशल्यं मूलो-त्तरगुणातिचारस्ततःश्रमणस्य भावश्ल्योद्धरणे आचार्यसमीपे आलोचयत इय॑थः / राहस्यिकी पर्षद् भवति। कथं भूतेत्यत आह / चतुष्कर्णा द्वावाचार्यस्य द्वौ साधोरिति च त्वारः कण्र्णा यत्र सा तथा / आचार्याणां चतुष्कर्णा षट्कर्णा वा तत्र यदा निर्ग थी निर्ग थ्याः पुरतः आलोचयति तदा चतुष्कर्णा / यथा निग्रंथस्य निर्गथपा आलोचयतः यदा च द्वितीयस्थविरगुरुसमीपे आलोचयति सद्वितीया भिक्षुकी तदाषट्कर्णा। स द्वितीय-तरुणगुरुसमीपे सद्वितीयाया सभिक्षुक्या आलोचयन्त्या अष्टकर्णा तत्र प्रथमतः सयतस्य चतुष्कर्णा भावयति। आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवञ्जितो गुरुसगासे। एगंतमणावाए, एगो एगस्स निस्साए॥ एकांते अनायाते एकोऽद्वितीय एकस्याद्वितीयस्याऽचार्य Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 431 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा स्य निश्रया तत्पुरत इत्यर्थः / गौरवपरिवर्जितः ऋद्धिरसातगौरवपरित्यक्तो गौरवाद्धि सम्यगालोचयितव्यं न भवतीति तत्प्रतिषेधः गुरुसमीपे आलोचनाऽचार्यसमीपे आलोचनां प्रयुक्ते। कथमित्याह। विरहंमि दिसाभिग्गह, उत्कुडतो पंभलीनिसेजा वा। एस सपक्खे परपक्खे, मोतु च्छणंति सिज्जा वा // एकांते यत्र कोऽपि न तिष्ठति तत्र विरहे छन्ने प्रदेशे पूर्वं गुरोर्निषद्यां कृत्वा पूर्वामुत्तरां चरंति / कां वा दिशमभिगृह्य वंदनकं दत्वा उत्कुहकः प्रबद्धांजलिः अथासौ व्याधिमान् प्रभूतं वा लोचनीयं ततो निषद्यामनुज्ञाप्याऽलोचयति। एष सपक्षे आलोचनाविधिः। परपक्षे नाम संयती तत्र छन्नं मुक्वा आलोचना दातव्या निषधाचन कार्यते। इयमत्र भावना / यदा संयती संयतस्य पुरत आलोचयति तदाछन्नं वर्जयति किं तु यत्र लोकस्य संलोकस्तत्रालोचयति निषद्यां वाचार्यस्य न करोति॥ आत्मनाऽभ्युत्थिता आलोचयति। श्रमणीमधिकृत्याऽलोचनाविधिश्चतुष्कर्णत्वमाह॥ आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवजिया उगणिणिए। एगतमणावाए, एगा एगाए निस्साए।। या श्रमणी गौरवपरिवर्जिता गणिन्याः पुरत आलोचनां प्रयुक्त / केत्याह। एकांते अनायाते एका अद्वितीया एकस्या अद्वितीयाया गणिन्या निश्रया ततो गुरुसमीपे श्रमणस्येव श्रमण्या अपि गणिन्याः पुरतः आलोचयंत्याश्चतुष्कर्णा पर्षद् भवति / / षट्कर्णामाह।। आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजनस्स संलोए। अचितियथेरगुणो, सवियईया भिक्खुणि निहुया / / अद्वितीयस्थविरगुरुसमीपे सद्वितीया भिक्षुकी निभृता नियापारा न दिशो नापि विदिशः आलोकयति नापि यत्किंचि-दुल्लापयति इत्यर्थः। / एवं भूता सती एकांते बहुजनस्य संलोके आलोचनां प्रयुक्ते // अथी कीदृशी तस्या द्वितीया भवतीत्यत आह / / नाणदंसणसंपन्ना, पोढा वयसपरिणया। इंगियागारसंपन्ना, भणिया तीसेवि इजिया। ज्ञानदर्शनसंपन्ना प्रौढा समर्था या संयतस्य तस्या वाभावं विज्ञाय न मंत्रणं कर्तुं ददाति किंतु वदति यद्यालोचित तर्हि व्रजामो नोचेदालोचनयापि न प्रयोजनमिति / यथा वयसा परिणता परिणतवयास्तथा इंगिताकारसंपन्ना इगितेनाकारेण च यस्य यादृशो भावस्तस्य तं जानातीत्यर्थः एवं भूता सा तस्या द्वितीया गणिन्या सा पुनः कियदूरे तिष्ठति / उच्यते। एके सूरयो वदंति यत्रोभयोराकारा दृश्यतेतावन्मात्रे परे ब्रुवते यत्र श्रवणं शब्दस्येति // अष्टकर्णामाह॥ आलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। सचित्तियतरुणगुरुणो, सचिइया भिक्खुणि निहुया।। एकांते बहुजनस्य संलोके सद्वितीयस्य तरुणगुरोः समीपे सद्वितीया तादृशी प्रागुक्ता / / संप्रति यादृशस्य आचार्यस्य द्वितीयस्तादृशमाह / / नाणेण दंसणेण य, चरित्ततवविणयआलयगुणेहिं। वयपरिणामण य, अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो।। ज्ञानेन दर्शनेन चारित्रेण तपसा विनयेन आलयगुणैर्बहिश्चेष्टाभिः प्रतिलेखनादिभिरुपशमगुणेन च यथा वयःपरिणामेन अभिगमन सम्यक् शास्त्रार्थकौशलेन युक्तो भवत्याचार्यस्येतरो द्वितीयाः॥ः / / सशल्यमालोचयितव्यम्। ओघनिर्युक्तौ // गंतूण गुरुसगासं, काउण य अंजलिं विनयमूलं / पव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एसओ उवएसो ||19|| सुगमा // न हु सुज्झइ सस्सल्लो, जह भणियं सासणे धुवरयाणं / उद्धरिय सव्वसल्लो, सुजइ जावो धुअकिलेसो // 20 // नहु चैव शुद्ध्यति सशल्यः पुरुषः कथं पुनः शुद्ध्यते / यथा भणितं धुतरजसाशासने तथा शुद्ध्यते।कथं पुनः शुद्ध्यति अत आह। उद्धृतः सर्वशल्यो जीवः शुध्यति धुतक्लेश इति / तस्माद्यद्यपि कथमपि किंचिदकार्य कृतं ततस्तदालोचयितव्यं। कथं पुनस्तत्कृतं भवतीत्यत आह // सहसा अन्नाणेण व,भीएण व पेल्लिएणव। कपंवसणे णायं, केण व मूढेण वा रागदोसेहिं / / 21 / / सहसा अप्रतर्कि तमेव प्राणिवधादिकर्म कार्य यदि कृतं ततस्तस्मात्प्रतिक्रमितव्यमित्येतद्वितीयगाथायां वक्ष्यते। अज्ञानेनच कृतं न तत्र प्राणिज्ञातां व्यापादितस्य भीतेन तेन आत्मभयात् माभूदयं मां मारयिष्यतीत्यह आह / प्राणिव्यपरोपणं यदि कृतं प्रेरितेन वा परेण यदि कृतं व्यसनेन वा आपदा यदि कृतं आतंकेन ज्वराद्युपसर्गेण यदि कृतं मूढेन वा राग द्वेषैर्यदि कृतं किंचिदकार्य ततः।।। जं किंचि कयमकचं,नहु तं लब्भापुणो समायरियं / तस्स परिक्कमियव्वं, न हुतं हियएण वोढव्वं / / 2 / / यत्किंचित्कृतमकार्यतत्पुनर्न हुनैव समाचरितुंलब्धं उपलभ्यते / यथा तथा प्रतिक्रमितव्यं / एतदुक्तं भवति! किंचिदकार्य कृत्या पुनर्यथा तत्रैव भवति नैव क्रियते तथा तस्य प्रतिक्रमितव्यं नतुतदकार्य हृदयेनवोढव्वं सर्वमालोच-यितव्यमित्यर्थः।। कथं पुनस्तदालोचयितव्यमित्यत आह|| जह बालोजपंतो, कञ्जमकजं च उजुयं भणइ। तंतह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्कोओ ||23!! सुगमा // तस्स य पायच्छित्त, जं मग्गविऊ गुरु वउवइसंति। तं तह आयरियव्वं, अणवच्छपसंगभीएणं ||24|| तस्य च साधोर्यत्प्रायश्चित्तं मार्गविदो गुरव उपदिशति / तत्प्रायश्चित्तं तेनैव विधिना आचरितव्यं कथमनवस्थाप्रसंगभीतेन सता आचरितव्यं अनवस्था नाम यद्यकार्यसमाचरणात्प्रायश्चित्तं न कृतं तदा अन्येऽपि न समाचरिष्यन्ति। न वितं सत्थं विसं, वदुप्पउत्तो य कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो य पमाइणो कुद्धो // 25| नतत्करोति दुःखं शस्त्रं नापि विषं नाऽपि दुः प्रयुक्तो दुःसाधि-तवेतालः यत्रं वा दुःप्रयुक्तं सो वा क्रुद्धः प्रमादिनः पुरुषस्य दुःखं करोति॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 432 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा जं कुणइ भावसल्लं, अणुट्टियं उत्तिमष्ठकालंमि। दुल्लभबोहीयंतं, अणंतसंसारियत्तं च / / 26 / / यत्करोतिभावशल्यं अनुद्धृतं शस्त्रादिदुःखानि पुनरेकभव एव भवंति अतः संयतेन सर्वमालोचयितव्यं / ता उद्धरंति गार व, गहियासूलं पुणब्भवलयाणं / मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च // 27 // ततः एवमालोच्य गौरवरहिता मुनयः उद्धरति उत्पाटयंति शूलं पुनर्भवलतानां यत् मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशल्यं निदानशल्यं च उद्धरतीति ततः॥ उद्धरियं सव्वसल्लो, आलोइय निदिओ गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, उद्धरियभरुव्वभारवहो // 28 // सुगमा न वरं अतिरेकप्रत्यर्थ लघुर्भवति उत्सीरयभरो उत्तारितभरोभारवहो गर्दभादिः सयथा लघुर्भवति। एवमालोचितेसति कर्मलघुत्वं भवतीति। यतश्चैवंविधः सः॥ उद्धरिय सव्वसल्लो, भत्तपरिणाए वणियमाउत्तो। मरणाराहणजुत्तो, चंदगविज्झसमाणेइ ||29|| उद्धरितसर्वशल्यो भक्तपरिन्नाए भक्तप्रत्याख्याते वनिकमत्यर्थ अयुक्तप्रयत्नपरः मरणाराधनयुक्तः स एवंविधश्चंद्रवेधं समानयति करोतीत्यर्थः / अत्र च कथानकं राधावेधमंगीकृत्य आवश्यकादवसेयमिति।। ओघा (4) विहारादिभेदेनालोचना त्रिविधा तद्भेदाच // आलोचना त्रिविधा। तद्यथा। विहारालोचना उपसंपदालोचनाऽपराधालोचना चव्य, उ.१ तत्रप्रथमा विहारालोचनां तावदाह / / तं पुण ओहविभागो, दरभुत्ते ओह जाव भिन्नोउ। तेण परेण विभागो, संभमसच्छाइभयणाओ।1।। तत्पुनर्विहारालोचनां द्विधा तद्यथा (ओहविभागे) इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी। ओघेन विभागेनवा ओधः समान्य विभागो विस्तरः। तत्र ये साधवः समाना (ओदर ते) इति ईषद्भुक्ते वास्तव्यसाधुभिरिति गम्यते / भोक्तुमारब्धवतां वास्त-व्यसाधूनामित्यर्थः / प्राधूर्णकाः समागताः (तउहत्ति) ओघेना-लोचयंति / यथा अल्पा विराधना मूलगुणेष्वल्पा पार्श्वस्थादिषु दानग्रहणतश्चेत्येवमालोच्य मंडल्या भुंजते तत्र यदि मूलगुणापराधनिमित्तं वा प्रायश्चित्तं पंचकादि यावत् / भिन्नो भिन्नमासः भिन्नमासपर्यं तमापन्ना भवंति तदा ओघालोचना-मालोच्य साधुभिः प्रशस्तस्य प्रशस्तो विपक्षः ततोऽययमर्थः / प्रशस्ते वा दिवसे रात्रौ वा न स्यातामिति "विवक्खतो होउ तइयाउ" इति तृतीया पुनरपराधालोचना विभागतो दीयमाना विपक्षतः सर्वस्यवाक्यस्य विपक्षव्यवच्छेदफलतया साधारण-त्वाद्विपक्षत एव प्रशस्त एव दिवसे रात्रौ वा भवतीति भावः / / सांप्रतमोघालोचनायाः प्रकारमाह / / अप्पा मूलगुणेसुं, उत्तरगुणतो विराहणा अप्पा। अप्पापासत्थादिसु, दाणुञ्जहसंपयो गाहा ||क्षा अप्ला स्तोका विराधना मूलगुणेषु प्राणातिपातनिवृत्यादिषु / रात्रिभोजनविरमणपर्यंतेषु अल्पा विराधना / उत्तरगुणेषु पिंडविशुद्ध्यादिषु अल्पा विराधना / पार्श्वस्थावसन्नकु-शीलसंसक्तेषु दानग्रहसंप्रयोगतः दानसंप्रयोगतो ग्रहणसंप्रयोग-तश्च / एषा ओघात ओघेनालोचना एवमालोच्य मंडल्यामेकत्र समुद्दिशंति। व्य. उ०१ / / विहारविभागालोचनाया विधिमाह // भिक्खादिनिग्गयेसुं, रहिएविडयंति फट्डगपईओ। सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेति / / मिक्षादिनिर्गतेषु भिक्षादि आदि शब्दाद्विचारभूमिगमनार्थमन्यप्रयोजनार्थं वा बहिर्विनिर्गतेषु शेषेषु साधुषु / किमुक्तं भवति / यस्यां वेलायां शिष्याः प्रतीच्छकाश्च बहिर्विनिर्गता भवंति / तदानीं रहिते रहितस्य एकाकिन आचार्यस्य समीपे स्पर्द्धकपतिका: स्पर्द्धकस्वामिनो विकटयंति / आलोचयंति / केचित्पुनराचार्या एतत् बुवते / ये स्पर्द्धकपतिना सह समा गताः साधवस्तेषां समक्षं स्पर्द्धकपतयो विकटयंति। किं कारणमिति चेत् आहा ते वीसरियं तु सारेंति। यस्मात्ते यत्किमपि विस्मृतं तत् स्मारयंति कथयति / / व्य०१ उ.।। (4) शल्योद्धरणार्थमालोचनाकरण विधिः।। शल्योद्धरणायाऽलोचना विधेया तत्फलं च केवल ज्ञानम् तथाच महानिशीथे 1 अ॥ णवरं सुहासुहं, सव्वं सुविणगं समवधारए।। जं तत्थ सुविणगे, पासे तारिसगतंतहा भवे // 11 जईणं सुंदरगं पासे, सुमिणगंतो इमं महा।। परमत्थतत्थसारत्थं, सल्लुद्धरणं सुणेतु णं ||12|| देजा आलोयणं सुद्धं,अष्ठमयष्ठाणविरहिओ। रंजंतो धम्मतित्थयरे, सिद्धे लोगगासष्ठिए ||3|| आलोएत्ताणणीसल्लं,सामाण्णेण पुणो विय / / वंदित्ता चेइए साहू, विह पुटवेण खमावए|१४| खामित्ता पावसल्लस्स, निम्मूलद्धरणं पुण्णो।। करेखा विहिपुटवेणं, रंजंतो ससुरासुरं जगं ||5|| एवं होऊण निस्सल्लो, सव्वभावे पुणोरवि। विहिपुष्वं चेइए वंदे, खामे साहमिए तहा / / 16 / / नवरं / जेण समं वुत्थो, जेहिं सद्धिं पविहरिओ।। खरफरिसं चोइओ,जेहिं जेहिं सयं वाइओ ||17|| जे वियकजमकने वा, मणिओ खरफरासनिठुरं / / भणियं जेण वा किंचि, सोजइ जीवई जई मुओ / / 5 / / खामेयव्वो सव्वभावेण, जीवंतो जत्थ चिट्ठई।। तत्थ गंतूण विणएण, मउवी साहुसक्खियम् / / 19 / / एवं खामणमरिसामणं, काउं तिहुअणसुवि भावओ।। सुद्धो मणवइकाएहिं, एयं घोसेज निच्छिओ ||6oll खमावेमि अहं सव्वे, सवे जीवा खमंतु मे।। मित्ति मे सव्वभूएस, वेरं मज्झण केण वि / / 6 / / खमामि अहं पिसवेसिं,सय्वभावेण सव्वहा॥ भवे भवेसु वि जंतूणं, वाया मणुसा य कम्मुणा ||2|| एवं घोसे तु वंदिला, चेइय साहू विहियओ।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 433 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा गुरुस्सावि विहीपुव्वं, खामणमरिसामणं करे / / 3 / / खमातु गुरुं सम्म, नाणमहिमं स सात्तिओ // काऊणं वंदिऊणं च, विहिपुटवेण पुणोवि य 64|| परमच्छतत्तसारच्छं, सल्लुद्धरणमिमं सुणे / / सुणेज्जा तहमालोए, जह आलोयतोचेव ||6|| उप्पाए केवलं नाणं, दिने रिसभावत्थहि निसल्ला॥ आलोयणा जेण, आलोयमाणाणंचेव उप्पन्नं तत्थकेवलं // 66|| केसिं विसोहिमो नामे, महासत्ताण गोयमा ! / जेहिं भावणा लोययं, तेहिं केवल नाणमुप्पाइयं // 67 / / हाहा दुतु कडे साहू, हाहा दुठु विचिंतिरे / हाहा दुतुभाणिरे साहु, हाहा दुटुठुमणुंमते ||8|| संवेगालोयगे तह य, भावालोयणकेवली / / पयखेव केवली चेव, मुहणांतगकेवली // 69 / / तहा पच्छित्तकेवली, सम्मं महावेरग्गकेवली // आलोयणकेवली तहय, हा हं पावित्तिकेवली 110011 उसुत्तमगं पन्नवए, हाहा अणायारकेवली // सावजं न करेमित्ति, अक्खंडिय सीलकेवली 71|| तवसंजमवयंसं, रक्खे निंदणगरहणे तहा। सव्वतो सीलसंरक्खे, कोडीपच्छित्ते वि य ||7|| निप्परिकम्मे अ कंडपणे, अणिमिसत्थी य केवली। एगपासित्तदोपहरे, मूणव्वयकेवली तहा / / 73|| न सक्कोकाउ सामन्नं, अणसणे वामि केवली / नवकारकेवली तहय, च निचालोयणकेवली // 74|| नीसल्लकेवली तह य, सल्लुद्धरणकेवली। धन्नोमितिसंपुग्नो, स ताहंपी किन्न केवली ||7|| सलल्लो हं न पारेमि, वलकट्ठपयकेवली / पक्खसुद्धा विहाणे य, चाउम्मासी य केवली / / 76|| संवच्छरमहपच्छित्ते, जहा चलजीविते तहा। अणिचे खण्णविद्धंसी, मणुपत्ते केवली तहा / / 77|| आलोयं निंदरं दियए, घोरपच्छित्तदुक्करे। लखोवभग्गपच्छित्ते, संमहिया सण केवली / / 7 / / हत्थोसरणनिवासे य, अठ्ठकवलासि केवली / एगसिद्धगपच्छित्ते, दसवासो केवली तहा 1179|| पच्छित्ताढवगोवेसु, पच्छित्तद्धकयकेवली। पच्छित्तपरिसमत्ती, य अ स उक्कोसकेवली ||7|| न सुद्धिविन पच्छित्ता, नावरं खिप्पकेवली। एग काऊण पच्छित्तं, वीयं न भवे जह चेव केवली |8| तं वा यरांम पच्छित्तं, जेण गच्छद केवली॥ तं वा यराम जेण तमं, सफली होइ केवली ||2|| किं पच्छित्तं चरंतोहं, चिठ्ठणो तवलीजिणा // ण माणंण लंघेयं पाण, परिचयणकेवली ||3|| अन्नं होही सरीरं मे, नो वोही चेव केवली // सुलद्धमिणं सरीरेणं, पाविणीदुहरणकेवली ||4|| अणाइपावकम्ममलं, निद्धोवेमीह केवली। वीयंतं न समायरियं, पमाया केवली तहा ||5|| देहे खवउ सरीरं मे, निजराभावउ केवली। सरीरस्स संजमं सारं निक्कलंकं तु केवली ||6| मणसा विखंडिए सीले, पाणेण धरामि केवली। एवं वइकायजोगेणं, सीलं रक्खे अहं केवली ||7|| एवमाई अणादीया, कालाउ णंते मुणी। केइयालोयणासिद्धे, पच्छित्ता जाइ गोयमा ! lll खंता दंता विमुत्ता य, जिइंदी सव्वभासियो / / छकायसमारंभाओ, विरत्ते तिविहे णओ // 89|| तिदंडा सवसंवरिया, इत्थिकहासंगवजिया। इत्थिणं लावनिरयाय, अंगोवंगणिरक्खणा ||10|| निम्ममत्ता सरीरेवि, अप्पडिबद्धा महायसा। भीयाइस्थित्थिगब्भवसहीणं, बहुदुक्खाओ भावओए / 91 तहा तोपरिसेणं, भावेणं दायव्वा आलोयणा / पच्छित्तं पि व कायव्वं, तहा जहा चेव एहिं कयं // 92|| न पुणो तहा आलोएयव्व, मायाडं मेण केणइ। जह आलोयणं चेव, संसार वुविभवे / / 13 / / अणंतेणाइकालाओ, अत्तकम्मेहिं दुम्मइ। बहुविकप्पल्लोले, आलोए तेवि अहोगए / / 9 / / द. प. // नहु सिज्झई स स सल्लो, जह भणियं सासणं धुयरयणा / उद्धरियसव्वसल्लो, सिज्झइ जीवो धुअकिलेसो 24 // सुबहुपि भावसल्लं, जे नालोयंति गुरुसगासंमि / निसल्लासंथारग, सुचितिआराहगा हुंति ||25|| अप्पंपि भावसल्लं, जे नालोयंति गुरुसगासंमि। वंतंपि सुयसमिद्धा, नहु ते आराहगा हुंति // 26 / / नवि ते सत्थं च विसं, च दुप्पउत्तो वि कुणइ वेयालो / जंतं च दुप्पउत्तं, सप्पुय्वपमाइओ कुद्धो // 27 // जं कुणइ भावसल्लं, अणुठ्ठियं उत्तमकालंमि // दुल्लमव्वोहियत्तं, अणंतसंसारियंतं च / / 2 / / तत्थुद्धरंति गौरव, रहिया मूलं पुणज्झवलयाणं // मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणसल्लं च / / 29|| मरिझं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि / / सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारंमि ओइन्ता ||4|| व्याख्या / मृत्वा आसेव्य सशल्यमरणं प्रतीतं ततः कि मित्याह / संसाराड विमहाकडिल्ले भवारण्यगुरुगहने सुचिरमतिदीर्घकालं भ्रमंति पर्यटति जीवा देहिनः अनर्वाक् पारे Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 434 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा अर्वाकभागपरभागवर्जिते अक्तीर्णा अवगाढा इति संवेग कृत्वेति योगः।। तथा॥ उद्धरियसव्वसल्ला, तित्थगराणाए सुत्थिया जीवा। भवसयकयाइं खविओ, पापाइंगया सिवंथाम ||4|| व्याख्या। उद्धृत सर्वशल्याः कृतालोचनास्तीर्थकराज्ञायां जिनोपदेशे सुस्थिताः सुष्टु व्यवस्थिताः संतोजीवा देहिनः भवशतकृतानि जन्मशत विहितानि क्षपयित्वा प्रक्षपय्य-शल्योद्वारसामर्थ्यात् पापानि कर्माणि गताः प्राप्ताः शिवं निरुपद्रवं (थामंति) स्थानं सिद्धालयमित्यर्थः / / सल्लुद्धरणं च इम, ति लोगवंधूहिं दंसियं सम्म। अवितहमारोगफलं, धण्णोहं जेणिमं णायं ||4|| व्याख्या / शल्योद्धरणमालोचना च शब्दः पूर्वगाथा-द्वयोक्तार्थापेक्षया समुच्चयार्यः / इदमनंतरोक्त विधानं त्रि-लोकबंधुभिर्जिनैरित्यर्थः दर्शितमुक्तं / सम्यक् सोपपत्तिकं अवितयमव्यभिचारि आरोग्यफलं भावारोग्यसाधकं ततश्च धन्योऽहं पुण्यवाहनं येन मया इदमेतच्छल्योद्धरण ज्ञातमवगतं॥ ता उद्धरेमि सम्मं, एय एयस्स णाणरासिस्स। आवेदिय असेस, अणियाणो दारुणविवागं ||4|| व्याख्या / ता इति यस्मादिदं मया ज्ञातं तत्तस्मा-दुद्धराम्यपनयामि सम्यग् न्यायेन एतत् भावशल्यं एतस्य गुरोनिराशेः अग्रे सदोधनिकरस्यावेद्य कथयित्वाऽशेष सकल मनिदानो निर्निदानः सन् दारुणविपाक रौद्रफलं शल्यमिति प्रक्रमः इय संवेगं काऊं, मरुगाहरणादिएहिं विधेहि / / दृढपुणकरणाजुत्तो, सामायारिं पउंजेला // 46| व्या०॥ इति एवमनंतरगाथाचतुष्कोक्तप्रकारं संवेगं शुभाध्यवसायविशेषं कृत्वा विधाय कैरित्याह। मरुकाहरणा-दिर्भिब्राम्हणोदाहणाधैः समयप्रसिद्धैश्चिन्हैर्लिगैमरणाभ्युपग-मेनाऽपि शुद्धिः कार्येत्येवंभूतार्थगमकैः।। पंचा-वृ.१५० नविसुझंतिससल्ला, जहभणियं सव्वभावदंसीहिं / गरणापुणन्भवरहिआ, आलोअणनिंदणा साहू।।१|| द. प.४॥ () आलोचनीये विषये यथाक्रममालोचनाप्रकारः।। संप्रति यत् आलोचनीयं तदालोचनाविषयं तस्य विधिमाह। मूलगुणपढमकाया, तत्थवि पढमं तु पंथमादीस। पाय अपमजणादी, विइए उल्लाइपंथे वा। इह द्विधा अपराधा (मूलगुणापराधा उत्तरगुणापराधाश्च तत्र उभयसंभवे प्रथम) मूलगुणापराधालोचना / तेष्वपि मूलगुणापराधेषु मध्ये प्रथम मूलगुणापराधः प्राणातिपात इति सः प्रथममालोचनीयः / स च षड्जीवकायविषय इति काया प्रथमत आलोधयिव्यास्ते च कायाः पृथिव्यादिक्रमेण तत्र सूत्रे उपन्यस्ता इति (तत्थवि) तेष्वपि कायेषु पृथिव्यादिषु मध्ये प्रथम पृथिवीकायमेवमालोचयेत् / "पंथमादीसु पादअपमजणादी, पंथादिषु यत् पादप्रमार्जनादि कृतं। किमुक्तं भवति / पथि व्रजिता स्थंडिलादस्थंडिलाद्वा स्थंडिलं कृष्णमृत्तिकातो वा नीलमृत्तिकां नीलमृत्तिकातो वा कृष्णमृत्तिका मेवं शेषवर्णेष्वपि भावनीयं / संक्रामता पादयोर्यत्प्रमार्जनं न कृतं / तथा वातोद्धृतेन सचित्तेन रजसासचित्तया वा मृत्ति कया संसृष्टेन हस्तेन संसृष्टन मात्रकेण वा यत् भिक्षाग्रहणं कृतं! तदेव मयाऽऽलोचीति सर्वत्रापि सामर्थ्यात् योजनीयम् "विश्यउल्लाह पंथेवा'' इति पृथिवीकायविराधनालोचनानंतरं द्वितीये अप्कायविषये यदुदकार्दादिआदिशब्दात्सस्निग्धादि परिग्रहः / एतदुक्तं भवति / उदकाट्टैण सस्निग्धेन वा हस्तेन मात्रेण भिक्षाग्रहणं कृतं पथि वा मार्गे वा अयतनया उदकमुत्तीर्णं वा एवमादि तयालोचयेत्। तइए पइडियादी अभिधारणवीयणादिवाउंडि। वीयाइघमंचमे, इंदिये अणुवायतो छट्टे॥ अप्कायविराधनालोचनानंतरं तृतीये तेजस्काये यत् प्रतिष्ठितादितेजसि परंपरादिप्रतिष्ठितं भक्तंपानं वा गृहीतं आदिशब्दात् सद्योषिति वा वसतावस्थानं कृतमित्येवमादीति-भावः / तदा लोचयेत्। तदनंतरं वायौ वातकाये यत् अभिधार-णवीजनादि कृतं / घर्तेिन बहितिोऽभिसंधारितो भक्तं पानं शरीरं वा वीजनिकादि वा जीवितं एवमादि तदालोचयेत् / ततः पंचमे वनस्पतिकाये "वीयाइघट्ठत्ति,,। यत् बीजादिघट्टनं आदिशब्दात् हरितकायादिपरिग्रहः उपलक्षणमेतत्। तेन यदि वा बीजादिकं भिक्षासु पतितं गृहीतमित्येवमादितदालोचयेत्। तदनंतरं षष्ठेऽत्र त्रसकाये इंद्रियानुपात्तत इंद्रियवृद्धिक्रमेणालोचना दातव्या॥ तद्यथा। प्रथमतो।वींद्रियाणां संघट्टनपरितापनाद्यालोचयेत्। तदनंतरं त्रींद्रियाणां चतुरिंद्रियाणां ततः पंचेंद्रियाणामिति / एवं प्रथममूलगुणापराधेषु क्रमेणालोचितेषु सत्सु॥ दुम्मासियहीयसादी, विए तइएयजावियग्गहणं / संघट्टणपुय्वरयादी, इंदियआलोगमेहुण्णे // द्वितीये मूलगुणापराधिमृषावादे मृषावादविषये यत् दुर्भाषितहसितादियत्किमपि दुर्भाषितं हासेन वा मृषावादो भणितः आदिशब्दात् / क्रोधेन वा मानेन मायया वा लोभेन वा यत्किमपि मृषा भणित मिति परिग्रहस्तदालोचयेत् / तदनंतरं तृतीयेन मूलगुणापराधे अदत्तादानलक्षणे यत् अयाचितस्य तृण-डगलकादेहणं उपलक्षणमेतत् / तेन अनुज्ञाप्य वा अवग्रहं कायिकादिव्युत्सृष्टं भवेदित्यादि परिग्रहः / तदालोचयेत् / मैथुनविषये ततौमैथुने यत् घट्टने पूर्वरतादि / किमुक्तं भवति। चैत्यभवनम हिमादिषु प्रभूतजनसंमर्दै स्त्रीशरीरसंघट्टने स्पर्श आस्वादितो भवेत् / पूर्वरतक्रीडितं वा अनुस्मृतं स्यात् (इंदियत्ति) इंद्रियाणि वा मनोहरणानि उपलक्षणमेतत् / वदनस्तनादिमतिसुमनोहरमवेक्ष्य मनाक् रागं गतो भवेत्। इत्यादि तदालोचयेत्। मुच्छातिरित्तपंचमे,छट्टे लेवाडअगयसुंठादी। गुत्तिसमिईविवक्खा, णामि गहणुत्तरगुणेसु॥ चतुर्थमूलगुणापराधालोचनानंतरं पंचमे मूलगुणापराधेपरिग्रहे विषयभूते यत् उपकरणेषु मूर्छा कृता भवेत्। (अइरित्तित्ति) अतिरिक्तो वा उपधिः परिगृहीत एतदालोचयेत्। तदनंतरं षष्ठे मूलगुणापराधे रात्रिभोजने (लेवाडेत्ति) लेपकृदवयवः कथमपि पर्युषितो भवेत्। अगदं वा शुंठ्यादिकं किंचित्सन्निहितं परिभुक्तं भवेत् ! एवमादि आलोचयेत् एवं क्रमेण मूलगुणापराधालोचनां दत्वा तदनंतरमुत्तरगुणेषु विषयेषु गुप्तिसमितिविपक्षाः कृताः। अनेषणीयग्रहणं वाऽकारि। किमुक्तं भवति / गुप्तिषु कदाचिदगुप्तः स्यात् / समि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 435 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा तिषु कदाचिदसमितोऽनेषणीयं वा भक्तं वा पान वा गृहीतं स्यादित्यादि | आलोचयेत् तथा।। संतमि विवलविरिए, तवोवहाणे यं जंन उज्जमियं। एसा विहारवियडण, वोत्थं उवसंपणाणंतं // सत्यपि विद्यमानेऽपि बलं शरीरप्राणः वीर्यमांतरीशक्ति-र्यद्वशात्तपः कुर्वन् शरीरस्यातिकृशतायामपि न संयमयोगेषु सीदति बलं च वीर्य च बलवीयं समाहारे द्वंद्वस्तस्मिन् तपसो द्विप्रभेदस्याऽपि उपधानं तस्मिन्नोद्यतं नोद्यमः कृतएतदपि आलोचयेत् / एषा विहारावकटना विहारालो चना / उपसंपदालोचनाऽपि प्राय एवंरूपा केवलं यन्नानात्वं तत्वक्ष्ये। व्य०।तत्रप्रथमत उपसंपदालोचनाया अप-राधालोचनायाश्च विहारालोचनया सह नानात्वं दर्शयति।। एगमणेगा दिवसेसु, होइ ओहे य पइविभागे य। उवसंपयावराहे, नायमनायं परिच्छंति।। उपसंपचापराधश्च उपसंपदपराधस्तस्मिन् आलोचनेति प्रस्तावात् गम्यते उपसंपदालोचना अपराधालोचना चेत्यर्थः / प्रत्येकं द्विधा (ओघे य) इत्यादि तृतीयार्थे सप्तमी / ओघेन पदविभागेन च तथा एकेकापि दिवसेषु चिंत्यमाना (एगमणेगा) इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्। एक दिवसिकी अनेकदिवसिकी चभवति। ओघालोचना एकदिवसिकी। विभागालोचनाएकदिवसिकी अनेकदिवसिकी चेत्यर्थः / / तदेवमुक्तमनानानात्वमधुनानात्वमुपदर्शयति। (नायमनायं परिच्छंति) उपसंपद्यमानो द्विविधो भवति। ज्ञातोऽज्ञातोवा। तत्र यदिज्ञातस्ततःस नपरीक्ष्यते तस्याग्रेऽपिज्ञातत्वात् अथाज्ञातस्तर्हिस आवश्यकादिभिः पदैः परीक्षणीय इति। संप्रति यदुक्तं विभागेन (अप्पसत्थे दिण) मित्यादि। तद्व्या-ख्यातुकाम आह॥ दियरातो उवसंपय, अवराहेदिवसतोपसत्थंमि। उव्वातो दिवसं, तिण्हंतु अतिक्कमे गुरुगा। विहारालोचनावत्। उपसंपदालोचनाऽपि विभागेन प्रशस्ते वा दिवसे रात्रौ वा दातव्या दोषाभावात् / तथा पूर्वसूरिभि रनुज्ञानात् / अपराधे अपराधविषये पुनरालोचनादिवसतो इति सप्तम्यन्तात् तदिवसे उपलक्षणमेतत् / रजन्यां वा प्रशस्ते विष्टि व्यती-पातादिदोषवर्जिते "व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिरिति" न्यायात् द्रव्यादिषु प्रशस्तेषु दातव्या नाऽप्रशस्तेषु एषा जिनाज्ञा। तथा उव्वातो तद्दिवसमितियस्मिन् दिवसे उपसंपद्यमान आगतः। तस्मिन् दिवसे यदि उद्वातपरिश्रांत इति कृत्वा न पृष्ठ आचार्येण ततः स आचार्यः शुद्धः / त्रयाणां तु दिवसानामतिक्रमे / किमुक्तं भवति / त्रिषु दिवसेषु मध्ये यदि न पृष्टस्ततश्चतुर्थे दिवसे तस्याऽपृच्छतः परिहारस्थानं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। एतच्च उपरि व्याख्यास्यते॥ समणुन्नदुगनिमित्तं, उवसंपज्जेत्ते य होइ एमेव। अण्णमणुण्णेन वरं, विभागतो कारणे भइयं / / उपसंपद्यमानो द्विधा तद्यथा। समनोज्ञोऽसमनोज्ञश्चतत्र समनोज्ञस्य | समीपे समनोज्ञ उपसंपद्यमानो द्विकनि मित्तंउपसंप-द्यते।तथद्या ज्ञानार्थ दर्शनार्थच न चारित्रार्थं येन चरणं प्रति ससदृश एव समनुझे द्विकनिमित्त मुपसंपद्यमाने एवमव विहारालोचनेव भवत्यालोचना। इयमत्र भावना। समनोज्ञो द्विकनिमित्त मुपसंपद्यमान अलोचनां विहारालोचना मिव ओघेन ददाति / पदविभागेन च पदविभागेनालोचना / एकदिवसेन वा भवत्यनेकदिवसैर्वा / एवं समनोज्ञस्य उपसंपदालोचना (अण्णमणुण्णे) त्यादि अन्योनाम भिन्न संभोगिकः समनोज्ञोऽसंविनः सोज्ञोऽ समनोज्ञश्च उपसंपद्यमान स्त्रिक निमित्त मुपसंपद्यते / तद्यथा ज्ञानार्थ दर्शनार्थं चारित्रार्थ वा तस्मिश्च तथोपसंपद्यमाने पूर्ववदालोचनां विधिः। अत्रऽपीयं भावना अन्यो ऽसमनोज्ञो वा आलोचनां ददाति।ओघेन पदविभागेन च ददान एकदिवसेन वा ददाति / अनेक दिवसै वर्वा नवरमिति विशेषेएष पुनरत्र विशेषः / तस्याऽज्ञस्यासमनोज्ञस्य वा आलोचना उत्सर्गतो विभागतः सर्ववाक्यं साधारणमिति विभागत एव कारण पुनर्भजितं विकल्पितं वेलाप्राप्तौ विभागालोचना भवति सभ्रम सार्थादिषु पुनः कारणेषु तदप्राप्ताबोधेनालोचनेतिभावः / एषा भजना अपराधालोचनाया अपिद्रष्टव्या तथाहि। अपराधालोचना व्युत्सर्गतः पद विभागेन दातव्या अपवादकारणे पुनः संभ्रम सार्थादिलक्षणाओधेनापीति। संप्रति उच्यते। तद्दिव समिति व्याख्यातुकाम आह। पढमदिणविफाले,लहु विइए गुरुतइए लहुया। तेविय तम्हाकहणे, सुद्धमसुद्धोविमेहिंतु // यः स मनोज्ञ उपसंपदनार्थमागतस्तं यद्याचार्यः प्रथमदिवसमिति सप्तम्येर्थे द्वितीया प्रथमदिवसेन (विप्फालेइ) देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः उक्तंच' विप्फालनत्ति पुच्छणत्ति वा एगट्ठमिति,, यथा कुत आगत कुत्र वा गमिष्यसि / किं निमित्तं या समागत इति / ततस्तस्य दिवसे एव मविप्फालने परिहारस्थानं (लहुयत्ति) मासलधु द्वितीयेऽपि दिवसे यदि न पृच्छति ततो (गुरुत्ति) मास गुरु (तइएत्ति तृतीये दिवसेऽप्यपृच्छने (लहुया) इति चत्वारो लघुमासाचतुर्थेऽपि दिवसे यदि न पृच्छति / ततः (तिण्हं तु अइक्कमे गुरुगा) इति वचनाचतुर्गुरु पंचमादिषुदिवसेष्वप्रच्छने तदेव चतुर्गुरु (तिण्हंतु अइक्कमे) गुरुगा इति निरवधितया वचनप्रवृत्तेः / "तचियतस्साकहणे" इति तेच प्रायश्चित्तविशेषाः क्रमेण तस्याकथने। तद्यथा। स पृष्टः सन् यदि ब्रूते कथयिष्यामि न तु कथयति। तस्मिन् प्रथम-दिवसे अकथने मासलघु / द्वितीयदिवसेऽप्य कथयतो मासगुरु / तृतीयदिवसे चतुर्लघु चतुर्थदिवसेऽप्पकथयतश्चत्वारो गुरुमासाः / ततः परं पंचमादिष्वपिदिवसेष्व कथने तदेव चतुर्गुरु। इदानीं उदातोतदिवसमिति व्याख्याया अवसरः। तदिवसे प्रथमदिवसे उद्दवात इति कृत्वा न पृच्छति / तत आचार्यः प्रथमदिवसे अविस्फालेअपृच्छने (लहुयत्ति) लघु न दोषगुरुः शुद्ध इत्यर्थः / कारणवशेनापृच्छनात् द्वितीयदिवसे न पृच्छति मासगुरु तृतीयदिवसेऽप्यप्रश्ने चतुर्गुरु / एवं तेनोपसंपद्यमानेन पृष्ठेन वा यदव्याख्यातं भवति / तथाचाह // ननु केन कारणेन वा समागत इति। तत आगतश्चिंतनीयः (सुद्धमसुद्धोवत्ति) शुद्धोऽशुद्धो वा अत्र चत्वारो भंगास्तद्यथानिर्गमन-मप्यशुद्धमागमनमप्यशुद्धं निर्गमनमशुद्धमागमनं शुद्ध 2 निर्गमनं शुद्धमागमनमशुद्धं 3 निर्गमनमपि शुद्धमागमनमपि Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 436 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा शुद्ध तत्र प्रथमभंगेनिर्गमन (इमेहिंतुति) एभिर्वक्ष्यमाणैद्वारै-चिंतितान्येव द्वाराणि दर्शयति॥ अहिगरणविगतिजोगे, पडिणीए थद्धलुद्धनिद्धम्मे। अलसअणुबद्धवरे, सच्छंदमतीपयहियव्वो॥ यदि स उपसंपद्यमानोऽधिकरणतः स्वस्थानान्निर्गतः (विग-तित्ति) विकृतेलापठ्यात् (योगत्ति) योगोद्वहनभीरुतया (पडिणीएत्ति) प्रत्यनीकोऽत्र मे साधुरिति बुद्ध्या तथा थद्धलुद्ध" इत्यादिस्तब्ध इति वा लुब्ध इति वा निर्द्धर्म इति वा अलस इति वा स्वच्छंदमतिरिति वा विनिर्गतस्तत स्तस्य निर्गम-नमशुद्धमिति कृत्वा (पयहियव्वोत्ति) परिहर्त्तव्यः। तदपरिहणे प्रायश्चित्तं तत्राधिकरणाविषये प्रायश्चित्तमाह। गिहिसंजय अहिगरणे, लहु गुरुगा तस्स अप्पणोच्छेदो। विगई न देइ घेत्तुं, उत्तुरयं व गहिये वि॥ गृहिभिः संयतेश्च सहाधिकरणे विनिर्गतं यद्याचार्यः स्वीकरोति ततो यथाक्रमं प्रायश्चित्तं लधुगुरुकं / इयमत्र भावना / यदि गृहस्थेन सहाधिकरणं कृत्वा विनिर्गतस्तं यद्याचार्यःसंगृहाति ततस्तस्याचार्यस्य परिहारस्थानं चत्वारो लघुमासाः अथ संयतेन सममधिकरणं कृत्वा विनिर्गतस्तं यद्याचार्यः संगृहाति ततस्तस्याचार्यस्य परिहारस्यानं चत्वारो लघुमासाः अथ संयतेन सममधिकरणं कृत्वा समागतं संगृह्णाति ततश्चत्वारो गुरुकाः / तस्य पुनरागंतुकस्य (पणत्ति) रात्रिंदिवपंचकप्रमाणाः पर्यायस्यच्छेदः / इहाऽधिकरणादिदोषतो विनिर्गतास्ते प्रश्ने वा सति तदुक्तिवशादवसीयंते / तत्र विकृतिदोषविनिर्गतपृष्ठस्य वा उक्तिविशेषस्तं दर्शयति (विगइमित्यादि) आचार्यो विकृति घृतादि कांग्रहणां य नददाति तथा योगवाहिभिर्यो गोत्तीर्णः कायोत्सर्गकरणतोगृहीतोऽपि परिपूर्ण विकृति जातेऽन्यैर्भुक्ते या उद्वरिता विकृतिस्तामपि नानुजानाति किंच। नववजिया विदेहो, पगईए दुव्वलोअहं भंते !! तब्भावियस्स इण्डिं, नयगहणं धारणं कत्तो॥ वजिवावोनाम देशीवचनत्वादिक्षुः / उक्तं च "वजियावगोउच्चू" इति नववजियाववत् देहो यस्यसतथा इयमत्र भावना। सब्रूते अहं भवगन् ! नवेक्षुतुल्यो मम देहो यथा स इक्षुः पानीयेन विना शुष्यति तथा ममापि देहो विकृति विना सीदति / अन्यच्चाऽहं स्वभावेन दुर्बलोन विकृतिमंतरेण बलिको भवामि। तथासर्वदैव विकृत्याचितदेहस्ततस्तद्भावितस्य सतो ममेदानीं तस्याऽभावेन बलं न च सूत्राऽर्थस्य वा ग्रहणमशक्तत्वात्। पूर्व गृहीतस्य सूत्रस्यावधारणं कुतः तत् अशक्त्या सर्व दूरत एव विस्मृतं। ततोऽहं विनिर्गतः॥ संप्रति योगविषये प्रत्यनीकविषये चोक्तिविशेषं दर्शयति!। एगंतरनिव्वगत्ती, जोगोपव्वत्थिगोवमे अत्थि। दुक्कूखलिएसु गेण्हइ, छिवाणि कहेइय गुरूणं / / तस्मिन् गच्छयोग एकांतरनिर्विकृतिकः / किमुक्तं भवति / सपृष्टोवा ब्रूते। तस्याऽचार्यस्य गच्छे योग एकांतरोपवासेनोह्यते। एकांतराचाम्लेन वा तथा योगवाहिनो योगोत्तीर्णस्याऽपि ते आचार्या विकृतिन विसृजति / ततः कर्कशा सुत्र योगा इति विनिर्गतः / न तथा तत्र गच्छे मे मम प्रत्यर्थिकः / प्रत्यनीकोऽस्ति स कथं विसामाचारीयो गेषु "तुझखलिएसुत्ति'' वुक्के विस्मृते सामाचारीविशेषे स्खलिते दुःप्रत्युपेक्षणादिके मांगृह्णाति अत्यर्थ खरंटयति। अथवा बुक्कस्खलितेषु जातेषु तानि बुक्कस्खलितानि अपराधपदे छिद्राणीवछिद्राणि गृह्णाति गृहीत्वा गुरूणां कथयति / पश्चात् गुरुवो मां खरंटयंति ततो विनिर्गतः।। संप्रति लुब्धस्य स्तब्धस्य चोक्तिविशेष दर्शयति॥ चंकमणादिउठाणे, कडिगहणं काउ नत्थि वहि एवं / / भुंजइ सयमुक्कोसं, तयदेति नेमिलुद्धेवं ॥शा स्तब्ध एवं भाषते चंक्रमणादावुत्थाने कटिग्रहणं स्वाध्यायश्च नास्ति। एतदुक्तं भवति / यद्याचार्याश्चंक्रमणं कुर्वति / आदि शब्दात् यदि वा कायिक्यादिभूमि गच्छंत्यागच्छति वा तथा तथा-ऽप्यभ्युत्थातव्याः। तेषां नायकत्वात्। ततः एवं चंक्रमणादाव-भ्युत्तिष्ठतामस्माकं कटी वा तेन गृह्यते भूयोभूय उत्थाने पलि-मंथभावात् सूत्ररूपस्याऽर्थरूपस्य वा स्वाध्यायस्य हानिः। अथ नाभ्युत्थीयतेऽतः आचार्यः प्रायश्चित्तं ददाति खरंटयति च। ततोऽहं विर्निगतः लुब्धः पुनरेवं ब्रूते यत्किमप्युत्कृष्ट शिखरिणीमोदकादि तदाचार्यः स्वयं भुक्ते न त्वस्मादृशेभ्यो ददाति / अन्येभ्यो वा बालदुर्बलप्राधुर्णकेभ्यो ददाति ततः एवमसहमानोऽहं निर्गतः॥ अथवा निर्द्धलिसयोरुक्तिविशेष प्रकटयति॥ आवासियापमन्त्रण, अकरणे उज्जदंडनिद्धम्मो॥ बालावद्धादीहा, भिक्खायरिया य उभामाशा योनिद्धा स पृष्टः सन्नेवं वक्ति आवश्यक प्रमार्जनीकरणे उदग्रदंडा आचार्याः / इयमत्र भावना / यदि कथमपि निर्गच्छन् प्रविशन् वा आवश्यकीं नैषधिकी च न करोति दंडादिकं वा गृह्णन् निक्षिपन्वा न प्रमार्जयति / तत आचार्या निरनुकंपाः संतः उग्रं प्रायश्चित्तरूपं दंड प्रयच्छति ततोऽहं दंडभयाद्विनिर्गतः / यः पुनरलसः स एवं ब्रूते। बालाद्यर्थाय बालवृद्धादीनामर्याय।तस्मिन् गच्छे दीर्घभिक्षाचार्या अथवा क्षुल्लकं कर्कशं वा तत् क्षेत्रं ततो दिने दिने उद्घामा भिक्षाचर्या प्रतिदिवसमन्यत्र ग्रामान्तरे गत्वा भिक्षा नीयते इति भावस्तथा यदिकथमप्यपर्याप्तने समागम्यते ततो गुरुः खरटयति किं वसतौ न महानसमस्ति येनापर्याप्तः समागतः। तस्मा भूयोऽपि व्रज भिक्षार्थ यतः कालोऽद्यापि बहू प्राप्य इति ततोऽहं निर्गतः। सांप्रतमनुबद्धवरस्वच्छंदमत्योरुक्तिविशेष दर्शयति॥ पाणसुणगा व मुंजंति, एगत्तो भंडिउंपि अणुबद्धो॥ एगागिस्सनलब्भा, बलिउं घेवंपि सच्छंदो॥ अनुबद्धोऽनुबद्धवैरो भवति भंडित्वाऽपि भंडनं कलहस्तमपि कृत्वा पाणशुनका इव एकत्र भुंजते / इयमत्र भावना // यथा पाणाश्चंडालाः शुनकाः कुर्कुराः परस्परं भंडित्या तत्क्षणादेवैकत्र भुंजते। एवं तत्र संयता अपि नवरं मिथ्यादुष्कृतं परस्परं दाप्यं इति विशेषः / अहं पुनर्न शक्रोमि हृदयस्थेनशल्येन तैः सह एकत्रसमुद्देष्टमिति विनिर्गतः। स्वच्छंदमतिः पुनरेवंभाषेत एकाकिनः सतः स्तोकमपिनलभ्यंचलितुं। किमुक्तं भवति। संज्ञा-भूमावप्येकाकिनः सतो न गंतुं प्रयच्छंति कित्वेवं ब्रुवते नियमात्संघाटक रूपतया के नापि सहितेन गंतव्यं / ततस्तमसहमानोऽहमत्रागतः एतान्यधिकरणादीनि पदान्याचार्यः श्रुत्वा तं परित्यजति / एतैश्चाधिकरणादिपदैरागतस्य तस्योपसंपद्यमानस्य चाप्रतीच्छतश्चाचार्यस्येद प्रायश्चित्तं / Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 437 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा जइ भंडणपडिणीए, लुद्धे अणुबद्धरोस चउगुरुगा / / सेसाण हुंति लहुगा, एमेव पडिच्छमाणस्स। यो यतिभिः सह भंडनं कृत्वा समागतः। यश्च तत्र मे प्रत्यनीकः साधुरिति कृत्वा समागच्छेत् / यश्च लुब्धो यश्चानुबद्धरोषः / एतेषामुपसंपदं प्रतिपद्यमानानां प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः चत्वारो गुरुमासाः / शेषाणां भंडनकारिविकृतिलंपटयोगभीरुस्तब्ध-निर्द्धर्मस्वच्छंदमतीनां लघुका इतिचत्वारो लघुकाः। यः पुनराचार्यस्तदाचार्याननुज्ञया प्रायश्चित्तदानमतरेण च प्रतीच्छति तस्यापि प्रायश्चित्तमेवमेव / तद्यथा / यतिभंडनकारिप्रत्यनी-कलुब्धानुबद्धवैरान्प्रतीच्छतश्चत्वारोमासाः शेषान्षट्प्रती-च्छतश्चत्वारोलघुमासाः। अथवा ये एते दोषा उक्तास्तेषां मध्ये एकेनापि दोषेण नागतो भवेत् किंत्वे भिर्वक्ष्यमाणैस्तानेवाह। एगे अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे / / यदि एक एकाकी पश्चादाचार्यः। यदिवा अपरिणए वा, अप्पाधारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगीय मंदधम्मे य पाहुडे || यदि एकतः। अकल्पिकवस्त्रादिसहितः सच कल्पिक-वस्त्राधुत्पादने लब्धिमानथवा तदाचार्योऽल्पाधारः सूत्रार्थ-नैषणविकलः सच पृष्टः सन् सूत्रार्थकथने निपुणः शक्तिमान् यदि वा तदाचार्यः परिवारो वा स्थविरो जरसा वृद्धशरीरः / स च तेषां प्रतिजागरूकः अथवा पश्चादेकोग्लानः।स च तस्य चिंताकारी यदि वा पश्चत्तत्रैको बहुरोगी नाम बहुभिः साधारणैरागैर्जाप्यशरीरः स च तस्य वर्त्तापकः / यदि वा पश्चात्तनाचार्यपरिवारः सर्वोऽपि निर्द्धनिगुर्वाज्ञां करोति केवलं तद्भयात् किमपि करोति। तथा तत्र पश्चात् गुरोः केनापि सह प्राभृतं वर्तमानमस्ति। प्राभूतं नाम अधिकरणं। सचगुरोः क्रमेण अपनतःसाहाय्यकारी एवं प्राग्वर्त्तमाने यदि समागतो भवति।तदातस्य निर्गमनमशुद्धत्वाच्च परित्याज्यमिति / / एनामेव गाथां व्याख्यातुकाम प्रथमत एका परिणताऽल्पा-धारद्वाराणि | व्याख्यानयति // एगाणियं पमोत्तुं, वत्थादि अकप्पएहिं वा सहियं / अप्पाधारावायणं, तं चेव य पुच्छिओ देइ। एक मेकाकिनं पश्चादाचार्य मुक्त्वा यदि सभागतः / अथवा | वस्त्राचकल्पिकैः प्रथममपि ग्रहीतैरकल्पिकैर्वस्त्रादिभिः सहितं मुक्त्या एतेनापरिणत इति व्याख्यातां। यदिवा अल्प सूत्रस्या-ऽर्थस्य वा आधार इति स आचार्यस्तमेवपृष्ट्वा शेषसाधुभ्यो वाचनां ददाति तादृशं मुक्तवा एतेनाऽल्पाधार इति विवृतं॥ थेरं अतिमहल्लं, अजंगम मोत्तु आगतो गुरुं तु॥ सो व परिसाव थेरा, अहं तु अट्टावगोतेसिं ॥शा स्थविरमेव व्याचष्टे अतीव महान्तमजंगमं गमनशक्ति विकलं गुरुं उपलक्षणमेतत् परिवारं वा स्थविरमुक्तरूपमुक्त्वा यदि समागतः स च प्रतिजागरुक स्तथा च तस्य पृष्टस्य सतोऽमुमेवोक्तिविशेषं दर्शयति।स च आचार्यः स्थविरः पर्षद्वा परिवारो वा आसीत् अहं तु तेषां गुर्वादीनां वर्तापकः प्रति जागरूक एतेन स्थविर इति पदं व्याख्यातं / / ग्लानबहुरोगनिर्द्धर्मपदानि व्याख्यानयति / तत्थ गिलाणोएगो, जप्पसरीरो य होइ बहुरोगी॥ निद्धम्मा गुरुआणं, न करेंति समं पमोत्तूणं ||1|| तत्र गच्छे ग्लान एकोऽस्ति यदि वा बहुरोगीयो जाप्यशरीरो भवति। स बहुरोगी तंग्लानं बहुरोगिणं वा विमुच्य यदि स समागतस्तथा निर्द्धर्मपरिषद्विषये तस्य पृष्टस्य सत उक्तिविशेषं दर्शयति / निर्द्धमधिर्मवासनारहितस्तस्यममाचार्यस्य शिष्याः सर्वथा गुर्वाज्ञान कुर्वति। मां प्रमुच्य मम पुनराज्ञां न कुर्वति। तादृशं वा निर्द्धर्म परिवारं मुक्त्वा यदि समागतस्तर्हि स न प्रतिग्राह्यः / केवलमयमुपदेशस्तस्मेदातव्यः॥ तमेवाह। एयारिसं विओसज्ज, विप्पवासोन कप्पई। सीसायरियपडिच्छे, पायच्छित्तं विहिज्जइशा एतादृशमेकाक्यादिस्वरूपं गुरुमन्यं वा ग्लानादिकं व्युत्स्टज्य परित्यज्य विशेषेण प्रवासोऽन्यत्र गमनं विप्रवासो भद्रं तव न कल्पते / बहुगुणाधारो भवान् कयमीदृशं कृतवान् / तस्मात् अद्याऽपि प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य पश्चात् गच्छ। स च समागतस्तस्य प्राक्तनाचार्यस्य शिष्यो वा स्यात् प्रतीच्छको वा एवमाग-तमुपसंपद्यमानं योऽप्याचार्यः प्रतीच्छति सोऽपि प्रायश्चित्तभाक् / ततः शिष्यप्रतीच्छकाचार्याणां प्रायश्चित्तं विवक्षुरिदमाह / / (सीसायरिएत्यादि) शिष्ये आचार्य प्रतीच्छके च प्रायश्चित्तं विधीयते। प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते इति भावः / / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति॥ एगे गिलाणगे वा, तिण्हवि गुरुगा उसीसमादीणं / / सेसे सिस्से गुरुगा, पडिच्छलहुगा गुरुसरिसं॥ एकस्मिन् एकाकिनि गुरौ ग्लाने वा तत्र गच्छे तिष्ठति यदि समागतः। शिष्यः प्रतीच्छको वा आचार्येण वा तथा समागतः सन् यदि प्रतीच्छितस्तदा शिष्यादीनां शिष्यप्रतीच्छकाचार्याणांत्रयाणामपि प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। यः पुनरन्यः शेषोऽपरिणताऽल्पाधारस्यविरबहुरोगमंदधर्मपरिचारलक्षण-स्तस्मिन शेषे यदि समागतः शिष्यः ततस्तस्य प्रायश्चित्तं गुरुका-श्चत्वारो गुरुमासाः। अथ प्रतीच्छकः समागतस्तर्हि तस्य लघुकाश्चत्वारोलघुमासाः (गुरुसरिसमिति) गुरोरपि प्रतीच्छ-कसदृशं प्रायश्चित्तं / किमुक्तं भवति यदिशिष्यं प्रतीच्छति ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुमासाः अथ प्रतीच्छकंतर्हिचत्वारोलघुका इति / / सीसपडिच्छे पाहुड,च्छेदो राइंदियाणि पंचेव। आयरियस्स उगुरुगा, दोवेएपडिच्छमाणस्स॥ यदि प्राभृते गुरोः केनापि सहाधिकरणावर्त्तमानः शिष्यः प्रतीच्छको वा समागतः / तदा तस्य प्रतीच्छकस्य वा प्रायश्चित्तं पंचरात्रिंदिवानि पर्यायस्य छेदः / आचार्यस्य पुनर्धावप्येतौ प्रतीच्छतः प्रतिगृह्णतः प्रायश्चित्तं / गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / तदेवं प्रथमभंगे निर्गमनदोषा उक्ताः आगमनमशुद्धं तदा भवति यदा वजिकादिषु प्रतिबध्यमानः समागततस्तत्रापि प्रतिबंधनिमित्तं प्रायश्चित्तं सूत्रानुसारतो वक्तव्यं / गतः प्रथमो भंगः द्वितीयभंगोऽप्येतादृश एव न वरं / तत्रा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 438 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा गमनं शुद्ध क्वचिदपि वजिकादौ प्रतिबंधकरणात् तृतीयचतुर्थभंगावनुक्रमेणाऽह / / एतद्दोसाविमुकं, वइयादी अपडिबद्धमायातं / / दाऊणं पच्छित्तं, पडिबद्धं पडिच्छेला || एतैरनंतरोदितैरधिकरणकारित्वविकृतिलांपठ्यादिदोषैर्वि-मुक्तमेतेन निर्गमनं शुद्धमुक्ता तथा वजिकादौ अप्रतिबद्धं क्वचिदपि प्रतिबंधमकुंर्वत. मायातमनेनाऽगमनं शुद्धमपि दर्शितं एष चतुर्थो-भंगः / एष एवोत्सर्गतः श्रेयानिति ज्ञापनार्थ तृतीयभंगात्पूर्वमुक्तः / एवं भूतं प्रतीच्छेत् / तृतीयभंगमाह (उणे) त्यादि यस्त्वधिकरणकारित्वादिदोषैर्विनिर्मुक्तो निर्गतः केवलंवजिकादिषु प्रतिबद्धमप्यपवादपदेन वजिकादिषु प्रतिबंधकारणमभूत्तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं दत्वा प्रतीच्छेत् / / (7) आलोचनायां शिष्याऽचार्यपरीक्षणे आवश्यकादिद्वाराणि॥ सुद्धं पडिच्छिऊणं, अपरिच्छणा लहुय तिग्निदिवसाणं। सिस्से आयरिए वा, पारिच्छा तत्थिमा होइ। शुद्ध निर्गमनागमनादिदोषरहितं प्रतीच्छ्य प्रतिगृह्य त्रीन दिवसान्यावत् परीक्षेत / किमेष धर्मश्रद्धावान् किं वा नेति यदि पुनर्न परीक्षते। ततोऽपरीक्षणे परीक्षणाकरणे (लहुयत्ति) मासलघु प्रायश्चित्तं आचार्यान्तराभिप्रायेण चर्तुमासलघु। सा च परीक्षा उभययाऽपि शिष्य आचार्य परीक्षते आचार्याः शिष्यं उभययापि च परीक्षा आवश्यकादिपदैस्तयाचाह / (सिस्सिइत्यादि) तत्र तस्मिन् उपसंपद्यमाने प्रतीच्छिते सति शिष्ये आचार्य च परस्परमियमावश्यकादिपदैर्वक्ष्यमाणा परीक्षा भवति॥ तामेवाह / / आवस्सयपडिलेहण, सज्झाण भुजणाय भासाय। वीयारे गेलन्ने, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति // आवश्यके, प्रतिलेखने, स्वाध्याये, भोजने, भाषायां, विचारे, यहि मौ, ग्लाने, भिक्षाग्रहणे, च परस्परमाचार्यशिष्यौ परीक्ष्येते / / तत्राऽवश्यकादिपदान्यधिकृत्य यथाचार्यः शिष्यं परीक्षतेतथोपदर्शयति॥ केई पुथ्वनिसिद्धा केई सारेइ तन्न सारे। संविग्गोसिक्खमग्गइ, सुत्तावलिमो अणाहो हं॥ केचित्साधवोवृषभादयः तस्योपसंपत्कालात्पूर्वमेव आवश्यकादिपदेषु ये दोषास्तेभ्यो निषिद्धा यथा आचार्या इदमिदंच माकाषुरिति। तेतच्छव वर्तमानास्तिष्ठति / ये पुनः केचित् अभिनवदीक्षितत्वादिना कारणेन प्रमाद्यंति तान् गुरुः सारयति। सम्यग् यथोक्तानुष्ठाने वर्तयति / तं पुनरुपसंपन्नं प्रमादस्थाने वर्तमानमपि न सारयति / तत्र यदि स उपसंपद्यमानः संविनो भवति। ततः सोऽप्रतिनेद्यमानः सन्नेवं चिंतयति। येषु स्थाने-वन्यानप्रमाद्यत आचार्याः सारयति अहो अहमनाथः परित्यक्त एतैरिति चिंतयित्वा संविग्नहविहारमिच्छन् आचार्यपादमूले गत्वा (सुत्तावलिमो) इति निपातः पादपूरणाच्छिन्नमुक्तावलीप्रकाशान्यभूणि विमुंचन पादयोः पतित्वां शिक्षामार्गयते याचते यथा मामप्यत्यादरेण भगवंतः शिक्षयन्तां मां शरणमुपागतं परित्यजत एवं परीक्षानिर्वर्तितः परिग्राह्यः। इतरस्तु परित्याज्यः।। तत्राऽवश्यके यथा परीक्षा कर्तव्या तथोपदर्शयति॥ हीणाहियविवरिए, सतिविवले पुटवलुते चोएइ / / अप्पणवो देती नममंति इहं सुहं वसिउं॥ हीनं नाम यत्कायोत्सर्गसूत्राणि मंदमंदमुच्चार्य शेषेषु साधुषु चिरकालं कायोत्सर्गे स्थितेषुपश्चात्स कायोत्सर्गे तिष्ठति। इत्या-दि। अधिकं नाम कायोत्सर्गसूत्राण्यतित्वरितमुचाचार्नुत्प्रेक्षा-करणार्थं पूर्वमेव कायोत्सर्गे तिष्ठति रत्नाधिके वोत्सारिते-कायोत्सर्गेपश्चाचिरेण स्वं कायोत्सर्गमुत्सारयति इत्यादि। विपरीतं नाम प्रादोषिकान्कायोत्सर्गान प्राभातिकानिव करोति / प्राभातिकान् प्रादोषिकानिव इत्यादि / हीनाधिकं च विपरीतं समाहारद्वंद्वस्तस्मिन्प्रमादतोवर्तमानात् अथवा सूर्ये किल अस्तमितमात्रे एव निर्व्याघाते सर्वैरपि साधुभिराचार्येण सह प्रतिक्रमितव्यं / यदि पुनराचार्यस्य श्राद्धादिधर्मकथादि भिाघातस्ततो बालवृद्धग्लानासहान् निषद्याधरं च मुक्त वाशेषैः सूत्रार्थस्मरणार्थ कायोत्सर्गेण स्थातव्यं / ये सत्यपि वले पूर्व कायोत्सर्गे न तिष्ठति तान्पूर्वमतिष्ठतश्चोदयंति यः पुनः परीक्ष्यते तंप्रमाद्यंतमपि न शिक्षयंति / ततो यदि स एवं व्यवस्यति / यथा आत्मीयान् प्रमाद्यतश्चोदयति / न मामिति सुखमिह वसितु-मिति। स इत्थं भूतः पंजरभनो ज्ञातव्यो न प्रतीच्छनीयः।। जो पुण चोइजंते, दट्ठुण नियत्तए ततो ठाणा। भणह अहं भवत्तो, चोएह ममंपि सीयंतं // यः पुनश्चोद्यमाना न् शिक्ष्यमाणान् शेषसाधून् दृष्ट्वा ततः स्थानात् निवर्तितैर्भणति / गुरुपादमूले गत्वा मन्युभराक्रांतो गद्दस्वरेण अहं युष्मच्छरणमागतोऽपि भगवन् युष्माभिः शिक्षाया अप्रदानतस्त्यक्तः। न चैतत् भगवतां परमकरुणापरीत-चेतसामुचितं / तस्मात्प्रमादमाध्याम मामपि सीदंतं शिक्षय-ध्वमिति एष इत्थंभूतः प्रतिग्राह्यः कृता आवश्यकमधिकृत्य परीक्षा // संप्रतिप्रतिलेखनस्वाध्याय भोजनभाषाद्वाराणि अधिकृत्य तामाह / / पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणअहियविवरीयं / दोसेहि वा वि मुंजइ, गारत्थियढएमासा॥ एवमेवावश्यकोक्तेनैव प्रकारेण प्रतिलेखने, स्वाध्याये, च हीनमधिक विपरीतं च कुर्वत आत्मीयान् शिक्षयतेनतुतंपरीक्ष्यमाणमित्यादि पूर्ववत् तत्र प्रतिलेखनाया हीनाधिकता नाम यत् कालतो हीनामधिकां वा / विपरीतता नाम प्रभाते यत् मुखपोतिकादिक्रमेण न प्रत्युपेक्षते। किंतु स्वेच्छया यदि वा पूर्वाह्नरणं निःपश्चिमं प्रत्युपेक्षते। अपराण्हे तु सर्व प्रथममित्यादि / स्वाध्याये हीनता नाम यदिप्राप्तायामपिकाल वेलायां काल-प्रतिक्रमणं करोति अधिकता यदतिक्रांतायामपिकालवेलायां कालं प्रतिक्रामति। वंदनादिक्रियायांवा तदनुगतां हीनाधिकां करोति विपरीतता पौरुषीपाठमतिक्रांतायां पौरुष्यां पठति / उक्तालिकं पौरुष्यामिति तथा भोजनद्वारे आलोकादिवि-धानसूत्रोक्ते न न भुक्ते दोषैर्वाऽपि (असुरसुरं अचवचवं अट्टय-मवलंवियमि) त्यादि विपरीतरूपैर्भुक्ते। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 439 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा तवात्मीयानतथा भुंजानान् शिक्षयतने तु परीक्ष्यमाणमित्यादि पूर्ववत् भाषाद्वारे या अगारस्थिते भाषागृहस्थभाषा चढङ्कभाषा स्थूरस्वरभाषा तां भाषते / तत्रात्मीयान् तथारूपया भाषया भाषमाणान् शिक्षयते न पुनः परीक्ष्यमाणमित्यादि विभाषा पूर्ववत्॥ शेषाणि त्रीणि द्वाराण्येकगाथया प्रतिपादयति। थंडिलसामायारेहि, हवेइ अतरंतगं न पडिजये। अभीणतो भिक्खं, न हिंडइ अणेसणाइ च पेल्लेइ॥ स्थंडिले सामाचारी पादप्रमार्जनडगलकग्रहणं निदनालोक नादिरूपां हापयति परिभवति विलुपतीत्यर्थः / तत्र तथा सामाचारी विलुंपत आत्मीयान् साधून शिक्षयते न परीक्ष्य माणमित्यादि प्राग्वत् / गतं विचारद्वारम्॥ ग्लानद्वारमाह।अतरंतगं असमर्थ ग्लानमित्यर्थः। न प्रतिजागत्ति नापि तस्य ग्लानस्य खेलमल्लकादि कंसमर्पयति / अत्रापि ग्लानमप्रतिजाग्रत आत्मीयान् साधून् शिक्षयते। नतु परिक्ष्य-माणमित्यादि भाषा पूर्ववत्। गतं ग्लानद्वारं। भिक्षाग्रहणद्वारमाह / अभणितः सन् भिक्षां न हिंडते भणि तोऽपि च इषहिडने सति प्रतिनिवर्तते अनेषणीयां भिक्षां गृह्णाति / आदिशब्दात् कौटिल्ये न चोत्पादयति इत्यादि परिगृहः / तं तथा भिक्षागृहणे प्रवर्तमानमपि न शिक्षयति / किं त्वात्मीयान् साधून् इत्यादि प्राग्वत्। तस्य चागमो द्वाभ्यां स्थानाभ्यां भवति / ततस्ते एव द्वे स्थाने प्रतिपादयति॥ जयमाणपरिहवंते, आगमणं तस्स दोहिं ठमेहिं। पंजरभग्ग अभिमुहे, आवस्सगमादि आयरिए।। तस्योपसंपद्यमानस्यागमनं द्वाभ्यां स्थानाभ्यां भवेत् / तद्यथा। यतमानेभ्यः परिभवद्भ्यश्च यतमाना नाम संविग्नाः परिभवंतः पार्श्वस्थादयः / उक्तं च। सो पुण जयमाणगाण, वा साहूण मूलातो / आगतोहुजा परिभवंताण मूला उ, आगतो हुज्जा परिभवंता नाम पासत्थ। इति / तत्र यो यतमानसाधूनां मूलादागतः संज्ञानदर्शनार्थ पजरभग्नो वा समागतो भवेत् / यः पुनः परिभवतां मूलादागतः स चारित्रार्थमुद्यतुकामः समागतो भवेत् / अनुषंतु कामो वा ज्ञानदर्शनार्थमिति। अथ वा यो यतमानेभ्यः समागतः स पजरभग्नः यः पुनः परिभवतां मूलादागतः स चारित्रार्थमुद्युतुकामः समागतो भवेत्। अनुद्यंतु कामो वा ज्ञानदर्शनार्थमिति। अथवायो यतमानेभ्यः समागतः स पंजरभग्नः यः पुनः परिभवद्भ्य उद्यंतुकामश्चारित्रार्थं समागतः / सोऽभिमुखः पंजराभिमुखः एतयोर्द्वयोरपि समागतयोरावश्यकादिभिः पदैराचार्येण परीक्ष्यमाणानपि सीदतः पश्यतितत आचार्येभ्यः कथयति। तेन कथिते सति यद्याचार्याः सम्यक् प्रतिपद्य तान्प्रमादिनः प्रति नोदयंति / प्रायश्चित्त त प्रयच्छति। ततस्तत्रोपसंपत्तव्यं / अथ कथितेऽपि ते आचार्यास्तूष्णीं तिष्ठति। भणंति वा किं तव यद्येतेन सम्यग्वर्त्तते।तर्हि अन्यत्र गच्छांतरे उपसंपत्तव्यं / न तत्रेति अय यतमानेभ्यः समागतः पंजरभग्न इत्युक्तं तत्र पंजरे इति किमुच्यते। तत आह / / पणगाइसंगहो होइ, पंजरो जायसारणाणोण्णं / पच्छित्तं चढमणाहिं, तिवारणं,सउणिदिवंतो।। पंचकं नाम आचार्योपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणावच्छेदकरूपं आदिशब्दात् भिक्षवो वृषभाः क्षुल्लकवृद्धाश्च परिगृह्यते / तेषां संग्रहः पंचकादिसंग्रहो भवति। पंजरः अथवा आचार्यादी-नामन्योन्यं परस्पर यत्। मृदुमधुरभाषया सोपालं भंवा शिक्षयति एष वा पंजरः। यदि वा यत् प्रायश्चित्तं चमढनाभिरसमाचार्यों निवारणपूर्व रवरपुरुष स्तर्जयित्वा पश्चात्प्रायश्चित्तप्रदानेन यदा सामाचारीतो निवर्त्तनं तत् पंजरः अत्रार्थे शकुनिदृष्टांतः। यथा पंजरेशकुनेःशलाकादिभिः स्वच्छंदगमनं निवार्यते। तथा आचार्यादिपुरुषगच्छपंजरे सारणाशलाकया सामाचारीरूपोन्मार्गगमनं निवार्यते इति / अत्र ये यतमानानां मूलात् ज्ञानर्दनार्थमागता ये च परिभवतां मूलात् चारित्रार्थमागच्छन् ते संग्रहीतव्याः। ये पुनः पंजरभग्ना ज्ञानदर्शनार्थमागता ये च परिभवतां मूलात् ज्ञानदर्शनार्थमागमन्ते न संग्रहीतव्याः। तत्र ये संग्रहीतव्यास्ते एको वास्मादनेको वा यत आह!| ते पुण एगमणेगाणं, गाणं सारणा जहा पुव्वं / / उवसंपयआउटे, अणाउटे अन्नहिं गच्छे ॥शा ते पुनरुपसंपद्यमानाः कदाचिदेको वा स्यादनेको वा तत्रानेकेषां या सारणा सा यथापूर्व कल्पाध्ययने "उवएसो सारण चेव तइया पडिसारणा" इत्यादिना ग्रंथेन भणिता तथाऽत्रापि द्रष्टव्या यः पुनरेकोऽसमीचीनं कुर्वन् शिक्ष्यमाणश्च यद् व्यावृत्तः शिक्षा प्रत्यभिमुखोभवति / ततस्तस्मिन् आवृत्ते षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात्तस्यावृत्तस्य उपसंपद्भवति यदिपुनविर्तते / तदा तस्मिन् अनावृत्ते इदं भण्यते। अन्यत्र गच्छमात्र स्था इति। अथवा इदमुत्तरार्द्धम् (आवस्सगमाइआयरिए) इति यदुक्तं तस्य व्याख्यानं आवश्यकादिषु गच्छवासिनः प्रमादिनो दृष्ट्वा आचार्याय कथयेत्। कथितेच सति यदि आचार्यः सम्यगावर्तते निजसाधून् सम्यक् शिक्षयते प्रायश्चित्तं च तेभ्यः प्रयच्छति ततस्तस्मिन्नावृत्तेतस्य तत्रोपसंपद्भवति। अथ कथितेनावर्तते तूष्णीं करोति न भणति किं तवैतैः स्वयं सम्यग्वत्तेथा इति। तदाऽन्यत्र गच्छेदिति। यदुक्तं प्राक्॥ दाऊणं पच्छित्तवज्झंतंपी पडिच्छेजा। इति // तत् व्याख्यानयति / (निम्गमणे अपरिसुद्धे, इमाए जयणाए वारेंति) तृतीये भंगे निर्गमने परिशुद्ध प्रागुक्तदोषवर्जिते आगमने अशुद्ध व्रजिकादिषु प्रतिबंधकरणादिषु प्रतिबंधकरणात् द्वितीये पदे अल्पदोषतयाप्रतीच्छाबुद्धौ सत्यां प्रायश्चित्तं प्रतिबंध-मात्रनिष्पन्नं ददाति / दत्वा च प्रतीच्छंति निर्गमने पुनः प्रथमभंगे द्वितीयभंगे वा अधिकरणमेव अधिकरणादिभिः 1 एगेऽपरिणए वा इत्यादिभिर्वा दोषैरपरिशुद्धे न प्रतीच्छनीयः किंतु वारणीयः / तं वाऽनया वक्षमाणयाऽथतनया वारयति / तामेवाह॥ नत्थिसंकियसंयाड, मंडली विक्खवाहिराणयणं। पच्छित्तविउस्सग्ग, निगमसुत्तस्स छण्णेण / / यः पंजरभग्रो ज्ञानदर्शनार्थमागतः तं प्रतीय वाग्यतना यत्त्वं श्रुतमभिलषसि / तन्मम पार्क नास्ति अथ स ब्रूयात् मया श्रुतं यथाऽमुकोग्रंथोऽमुकस्यापार्श्वे युष्माभिः श्रुत इति तत् इदं वक्तव्यं श्रुतः स ग्रंथः केवलमिदनी बहुषुस्थानेषु शंकितं जातं नचशंकितं श्रुतमन्यस्मै दीयते प्रवचने निषेधात् तस्मादन्यत्र निःशंकितश्रुतात् गवेषयस्वा यस्तु स्वच्छंदमतिः संघाटकोद्विग्रःसंज्ञाभूमिमप्येकाकिना गंतुं न लभ्यमिति Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 440 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा सामागतस्तं प्रतीदं वक्तव्यं / अस्माकमाचार्यपरंपरात श्यं सामाचारी संज्ञाभूमिमात्रमपि न गंतव्यमेतच तव दुष्करमतोऽन्यत्र गच्छ तावदिति। यः पुनरनुबद्धवैरत्वेनागतस्तं प्रतीदं वक्तव्यं। मंडलीति। अस्माकमीदृशी सामाचारी यदवश्यं मंडल्यांसमुद्देष्टव्यं / यद्यपिचनपठतिन शृणोति वा तथापि सूत्रपौरुप्यांमंडल्यामुपविश्यार्थः श्रोतव्यः न कदाचनापि साधूनां स्वच्छंदत्वमेतच भवतोऽप्रतीतिकरं तस्मादन्यत्र गम्यतां / यस्त्वलसत्वेनागतस्तं प्रतीदं वाच्यं / (भिक्ख-वाहिराणं)। भिक्षाया बहिः प्रदेशादानयनं। किमुक्तं भवति।। अस्माकमत्र क्षेत्रे बहवो बालवृद्धाः सग्लानाः साधवः ते च भिक्षां न हिंडते / ततो यदि प्रतिदिवसं भिक्षां बहिः प्रदेशादानयसि ततस्तिष्ठ परमेतत् दुष्करं तव तस्मात् यत्र सुखेन तिष्ठसि तत्र याहि किमत्र क्लेशसहनेन यस्तु निर्द्धा उग्रदंडा आचार्या इति विनिर्गत-स्तंप्रतीदमुत्तरं (पच्छितत्ति) अस्माक मियं सामाचारीयदिदुः प्रमार्जनादिमात्रमपिकरोति। तदातत्कालमेवप्रायश्चित्तं यथोक्तं दीयते न कालक्षेपेण नापि पक्षपातादिना स्तोकहासेन यस्तु विकृतिलंपटोन मह्यं विकृतिमनुजानातीति विनिर्गतस्तं प्रतीयं वाग्यतना (अविउस्सग्गत्ति) अस्माकमप्ययं समाचार्यागमः।। अभ्युत्सर्गोनुत्कलनं विकृतेरिति व्याख्यानतो गम्यते। योगवाहिना अयोगवाहिना वा विकृतिर्न ग्राह्या इत्यर्थः / अत्राधिकरण प्रत्यनीकस्तब्ध लुब्धविषये यतनानोक्ता विचित्रत्वात् सूत्र-भाष्यगते सूत्राधिकरणे यतना यथाकल्पाध्ययने तथा दृष्टव्या। शेषविषयातुविनेयजनानुग्रहायाभिधीयते तत्र य प्रत्यनीकस्तत्र मे प्रत्यनीकोऽस्तीत्यागतः सभण्यतेममापि शिष्याः प्रतीच्छकाश्च ईषदपि प्रमादं न क्षमते मह्यं कथयति / अहं च दोषानुरूपं दंड प्रयच्छामि। अन्यथैकतरपक्षपातकरणतोगच्छमुद्राभंगः / सर्वज्ञाज्ञाविलोपश्च / तस्मादत्राऽपि तवदुष्करमिति नस्थातुमुचितं स्तब्धः पुनरेवं भण्यते। अस्मा कमियं सामाचारी-चंक्रमणादिकुर्वति गुराव भ्युत्थानं अनभ्युत्तिष्ठतः प्रायश्चित्त-दानमिति लुब्धं प्रत्येषा वाग्यतनाउत्कृष्टद्रव्याणिमोदकादीनि अस्माकं बालवृद्धालानप्राधूर्णिकेभ्यो दीयते। तदेव स्वच्छंदचारित्र प्रभृतीनां निवारणे वाग्यतनोक्ता यदि पुनरेते तथा निवारिता अपि न वक्ष्यमाणप्रकारेण प्रत्यावर्त्तते नापि निर्गच्छति येऽपि च विशुद्धनिर्गमाः प्रतीच्छिताः संतः सीदंतितेषां परिस्थापने यतनामाह (निग्गममुत्तस्स छण्णेण) यदा परिस्थापयितुमिष्यमामस्य स्वयं भिक्षादिनिमित्तं निर्गमो भवति / यदा रात्रौ निर्भद्रया सुप्तस्तदातं त्यक्तवा नष्टव्यं॥ कथमित्याह / / छन्नेनाप्रकटमल्पसागारिकं किमुक्तं भवति / ये अपरिणता बालादयो वा तत्र गच्छे तेषां न कथ्यते यथाऽमुमेवं त्यक्तवानष्टव्य मिति / मा रहस्यभेदं कार्युरिति कृत्वेति एष गाथार्थः / / सांप्रतमेनामेव गाथां विनेयजनानुग्रहाय विवृणोति। नत्थेयंमिज मिच्छसि, सुयं मया आमसंकियं तं तु। न य संकियं तु दिज्जइ, निस्संकसुए गवेस्साहि॥ यदिच्छसि शास्त्रं श्रोतुं तदेतत्मे मम पार्थेनास्ति। अथब्रूयात् / मयेदं श्रुतं यथाऽमुकं शास्त्रं भवद्भिः श्रुतमिति / तत्राह / आमं तत् शास्त्रं केवलमिदानीं शंकितं जातं नच शंकितं दीयते / तस्मान्निः शंकश्रुतान् गवेषय॥ (संघाडत्ति) मंडलीति च द्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह॥ एगागिस्स न लब्भा, वियारादी विजयणसच्छंदे। . मोयणसुत्ते मंडली, पठमंते वा निओयंति॥ स्वच्छन्दे स्वच्छंदमती निवारणार्थमियं वाग्यतना अस्मा-कमेकाकिनः सतोविचारादावपि बहिर्भूम्यादावपि तन्न लभ्यं गन्तुमिति। अनुबद्धवैरे। इयं वाग्यतना। अस्मदीया मुनिवृषा भोजने सूत्रे उपलक्षणमेतत् अर्थे वा पठंतोऽपि मंडल्यां नियोजयंति / एतच तवदुष्करमिति / / अधुना "भिक्खवाहिराणयणं पच्छित्तविउस्सग्गे'' इति त्रीणि द्वाराणि व्याख्यानयति // अलसं भणंति वाहि,भिक्खंवहिंडसि अम्हएत्थबालादी। पच्छित्तं हाडहडं, अविउस्सग्गो तहा दिगई। अलसं प्रति भणंत्याचार्याः / अस्माकमत्र क्षेत्रे बहवो बालादयस्ते च भिक्षां न हिंडते ततो यदि बहिर्भिक्षां हिंडसे / तर्हि तिष्ठ अन्यथा व्रज स्थानांतरमिति / निर्माण प्रति पुनरिद वदति अस्माकं केऽपि दुःप्रमार्जनादौ कृते प्रायश्चित्तं हाडहडं देशीपद-मेतत् तत्कालमित्यर्थः / दीयते अन्यथा मूलत एव सामाचारी-विलोपप्रसक्तेः विकृतिलंपटं प्रति पुनरियं वाग्यतनायोगवाहिनो वाऽस्माकं गच्छे विकृतेरव्युत्सर्गोऽनुत्कलनं भवांश्च दुर्बलशरीरो-नवेक्षुरिव पानीयैर्विकृत्याऽल्पस्वभावास्तस्मादन्यत्र प्रयाहीति / / अत्र चोदक आह॥ तित्थ भवे मायमोसो, एवं तु भवे अणुज मं तस्स। वुत्तं च उजुभूते, सोही तेलोकदसीहिं॥ यदेतत् निर्गमनाशुद्धे उपायेन प्रतिषेधनमुक्तं तत्र कस्यचिन् मतिः स्यात् / एवं प्रतिषेधतो माया भवति / मृषावादश्च / तत्र यत् परिचिंतनं तन्मायाविद्यमानमापि श्रुतं नास्ति शंकित वा तिष्ठतित्यादि कुर्वाणस्य मृषावादः / एवं तु अमुना प्रकारे ण पुनर्माया मृषां कुर्वते भवेत् / तस्याऽनार्जवमनृ जुता मायातः कुटिलभावभावात् उक्तं पुनस्त्रैलोक्यदर्शिभिरिदं शोधिकल्पे ऋतुभूते सोहीउज्जुयस्सेत्यादेः प्रदेशांते श्रवणात् ततो नेदं माया मृषा भाषणमुचितमिति। अत्र सूरिः प्रत्युत्तरमाह॥ एसअगिते जयणा, गीते वि करेंति जुजई जंतु / / विद्देसकरं इह ए, मच्छरवि दोव फुडरुक्खो ||1|| एषा अनंतरोदिता वाग्यतना अगीते अगीतार्थे गीतेऽपि गीतार्थेऽपि निर्गमनाशुद्धे निवारणा क्रियते ! स्फुटाक्षरैर्यथा एवंभूतदोषात्त्वमत्रागत एवं भूतदोषश्च न सुविहितैः प्रतीच्छ्यते इति न चैवं भणितगीतार्थो हि सर्वामपि सामाचारीमवबुध्यते। अवबुध्यमानाश्च कथमप्रीतिं विद्वेष वा कुर्वतीति / / तथाचाह / / (करेंति जुजई जंतु) यत् अत्र युज्यते युक्तिमापतति तत् गीतार्थाः कुर्वति। ना प्रीत्यादिकमिति। इहरत्ति / इतरया यद्यगीतार्थेऽपि स्फुटरूक्षैर्निवारणा क्रियते। ततः स्फुटरूक्षे भाषिते सति स्फुटं नाम सद्भूतदोषोचारणं रूक्ष स्नेहोपदर्शन-रहितं यदि वा स्फुटमेव परस्य रूक्षतोत्पादनात् रूक्षं स्फुटरूक्षं तस्मिन् भा-षितेन तत् भाष्यमाणं वचस्तेषां विद्वेषकरं विद्वेषोत्पादकं भवति। अगीतार्थत्वात् चिंतयति च मत्सरभा-वेनैते सूत्रमर्थ वा न प्रयच्छंति / ततो मत्सरिण Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 441 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा एत इति एवं च चिंतयित्वा स्वपक्षेपरपक्षेच मत्सरिण एतेइतिप्रकाशयति। ततो लोके मत्सरिप्रवादो विद्वेषकरं च तद्वचस्तेषां मा भूदिति प्रागुक्तयतनया निवारणा क्रियते वचनेमाया-मृषादोषसंभवः / यतः परप्रीत्यनुवादकतया परिणाममसुंदरतया चोभयोरपि गुणकारित्वेक्ष्य तछा वाग्यतना क्रियते। न विप्रतारणबुद्येति / / एतेषामेव प्रतीच्छने अपवादमाह।। निग्गमसुमुवागए ण, वारिया गेण्हए समाउडं। अहिगरपडिणि अणुबद्ध, मेगागिजट न साएजा। निर्गमोऽशुद्धो यस्य स, निर्गमाशुद्धस्तं उपायनप्रागुक्तयत-नालक्षणेन वारितं समावृत्तं संतं गृण्हाति। किमुक्तं भवति / यदि स तथा प्रतिषिद्धः सन् ब्रूते भगवन्मिथ्या मे दुष्कृतं न पुनरेवं करिष्यामि। किन्तु यथा यूयं भणिष्यथ तथा करिष्यामि। मुक्तो मया पापस्वभावो दुर्गतिवर्द्धन इति। तत एवं तं समावृत्तं गृहाति किं सर्वमपि नेत्याह / (अहिगरणेत्यादि) योऽधिकरणं कृत्वा समागतस्तं यश्च मे तत्र प्रत्यनीकोऽस्तीत्युक्तवान्तं तथा अनु-बद्धरोषं येन च पश्चादेकाकी आचार्यस्त्यक्तस्तंचन (साएजा) न सात्मयेत् न सात्मीकुर्यादिति भावः॥ केवलं प्रत्यनीके अपवादोऽस्ति तमेवाभिधित्सुराह / / पडिणीयंमि उ भयणा, गिहंमि आयरियमादिदुहृमि // संजयपडिणीए पुण, न होति उवसामिए भयणा / / प्रत्यनीके भजना तामेवाह / गृहिणी गृहस्थे आचार्यादिदुष्ट / किमुक्तं भवति / यदि कोऽपिनाम गृहस्थ आचार्यस्य आदि-शब्दादुपाध्यायप्रवर्तिस्थविरगणावच्छेदानां शेषभिक्षणां च प्रद्धिष्टः स चाऽनेकधा उपशम्यमानोऽपि नोपशांतस्ततस्तस्मिन् आचार्यादिप्रदुष्टे गृहिण्यनुपशतितद्भयादागतः सन् प्रतिगृह्यते।यदि पुनः सब्रूयात् संयतोमे तत्र प्रत्यनीकोऽस्ति ततस्तस्मिन् संयतप्रत्यनीके न भवत्युपसंपत्नस प्रतिगृह्यते इत्यर्थः / अथवा स भण्यते / गच्छत्वं क्षमयित्वा समागच्छ। एवमुक्तो यदि तत्र गत्वा तं न क्षमयति ततो न स प्रतिगृह्यते अथ तेन गत्वाऽसौ क्षामितः केवलं स एव न क्षमते तर्हि पश्चादागतः प्रतिग्राह्यः। अथ स वक्ति मया स तदानीमेवागच्छता क्षामितः। तदा तस्मिन्नुपशांते स नियमात् प्रतिगृह्य एव न भवति भजनादिर्दोषत्वात्॥ सो पुण उवसंपन्जे, नाणहादसणे, चरित्ते, य। एएसिंनाणत्तं, वुच्छामि अहाणुपुष्वीए।। सपुनरुक्तप्रकारेण संगृह्यमाण उपसंपद्यते ज्ञानार्थं ज्ञाननिमित्तं दर्शने दर्शननिमित्तं सप्तम्या निमित्ते विधानात् / दर्शनप्रभावकशास्त्रनिमित्तमित्यर्थः / चारित्रार्थं चारित्रनिमित्तं एतेषां ज्ञानाद्यर्थमुपसंपद्यमानानां नानात्वभेदं यथोपन्यासं या आनुपूर्वी तया वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति॥ वत्तणा संघणा चेव, गहवे सुत्तत्थ तदुभए। वेयावचे खमणे, काले आवकहाएय॥ ज्ञानार्थ दर्शनार्थ चोपसंपत्प्रत्येकं त्रिधा। तद्यथा सूत्रं चार्थश्च तदुभयं च सूत्रार्थतदुभयं तस्मिन् सूत्रेऽर्थे तदुभयस्मिश्चेत्यर्थः / निमित्तसप्तमी चेयं। ततोऽयं भावार्थः / ज्ञानार्थं दर्शनार्थं चोप-संपद्यमानः प्रत्येकं सूत्रार्थं वा उपसंपद्यते। अर्थार्थ वा तदुभयार्थं चेति। पुनरेकैका प्रत्येकं भवति त्रिधा / तद्यथा / वर्तनेति अत्र सप्तमीलोपः प्राकृतत्वात् / वर्तनायां वर्तनानिमित्तमेवमेव संधनायां संधनानिमित्तं ग्रहणे ग्रहणानिमित्तें तत्र पूर्वगृहीतस्य सूत्रार्थस्य तदुभयस्य वा पुनः पुनः रभ्यसनं वर्तना। पूर्वगृहीतस्य विस्मृतस्यपुनः संस्थापनं संधना। तथा ग्रहणे तत्प्रथमतया अपूर्वस्य सूत्रार्थस्य तदुभयस्यवा ग्रहणनिमित्त एवं ज्ञाने दर्शनेच प्रत्येक भवति त्रिधा उपसंपत् चरणोपसंपद्यमानोद्विधोप-संपद्यते / तद्यथा। वैयावृत्ये क्षपणे च वैयावृत्यनिमित्तं क्षपणनिमित्तं च / ते द्विधा उपसंपद्यमानाः कालतो यावज्जीवं भवेयुश्च शब्दादित्वराश्च / / एनामेव गाथा व्याख्यानयति॥ दंसणनाणे सुत्तत्थ, तदुभए वत्तणाय एकक्के / उवसंपया य चरिते, देयावचे य खमणे यशा दर्शनविशोधकानि यानि सूत्राणि शास्त्राणि वा तानि दर्शन शेषाणि सूत्राणि शास्त्राणि वा ज्ञानं / तत्र दर्शनज्ञाने च प्रत्येकमुपसंपत्रिधा। सूत्रनिमित्तमर्थनिमित्तं यदुभयनिमित्तं च / एकैकस्मिन् सूत्रादौ प्रत्येक वर्त्तना संधना ग्रहणं च / किमुक्तं भवति / सूत्रेऽपि वर्तनानिमित्तमुपसंपद्यते / संधना निमित्तमुपसं-पद्यते। अपूर्वग्रहणनिमित्तं वा उपसंपद्यते। एवमर्थेऽपि त्रितयमुभयेऽपित्रितयमितिदर्शनेऽपि नवविधोपसंपद् ज्ञानेऽपि नवविधेति। चारित्रे चारित्रविषया उपसंपत् वैयावृत्ये, क्षपणे च // शुद्ध अपडिच्छणे, लहुगा अकरेंते सारणा अणापुच्छा। तेसु विमासो लहुतो, वत्तणादिसुत्थाणेसु / / / यदेतद्गुरुसकाशे सूत्रं तत् सर्वमधीतं / ततोगुरुभिरनुज्ञातो विधिना आपृच्छ्य व्रजकादिष्वप्रतिवध्यमान आगतः / आगतश्च सन् त्रीन् दिवसान्यावत् परीक्षितः शुद्धः। इत्थंभूतं योन प्रती-च्छत्याचार्यास्तस्य प्रायश्चित्तं लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः। योऽपि उपसंपन्नो वर्तनानिमित्तं संधनानिमित्तं ग्रहणनिमित्तं वा स यदि वर्तनां संधनां ग्रहणं वान करोति तदा तस्मिन् वर्तना-दिकमकुर्वति प्रत्येकं त्रिष्वपि स्थानेषु वर्तनादिषु मासोलघुकः प्रायश्चित्तं / आचार्योऽपि यद्युपसंपन्नं प्रमाद्यतं न सारयति तदातस्मिन्नपि सारणा / अत्र विभक्तिलोप आर्षत्वात्। अकुर्वति त्रिष्वपि / वर्तनादिषु स्थानेषुभासलघु। एतच्च प्रायश्चित्तविधानं सूत्रविषयम्। अर्थे पुनर्वर्तनादिमकुर्वति शिष्ये अर्थनिमित्त-मुपसंपन्नं प्रमाद्यंत वर्तनादिष्वसारयति गुरौच प्रत्येकं त्रिष्वपि वर्तनादिषु स्छानेषु प्रायश्चित्तं मासगुरु।उभयविषये च द्वयोरपि प्रत्येकं वर्त्तनादि त्रिष्वपि स्थानेषु पृथक् उभयं प्रायश्चित्त मासगुरु मास लघु चेति / एतच गाथायामनुक्तमपि संप्रदायादवसितं। यथा (अणापुच्छा) इति। अनापृच्छायामननुज्ञायामित्यर्थः / अत्र चत्वारो भंगास्तद्यथा / अननुज्ञातोऽननुज्ञातेन सह वर्तनां करोत्ये-कोभंगः१ अनुज्ञातो अननुज्ञातेन सहेति द्वितीयः 2 अननु-ज्ञातोऽनुज्ञातेनेति तृतीयः३ अनुज्ञातोऽनुज्ञातेनेति चतुर्थः४ एवं संधनायां ग्रहणेऽपि च प्रत्येकं चत्वारो भंगाः / एवमर्थेऽपि तदुभयस्मिन्नपि च प्रत्येकं वर्तनादिषु चत्वारो भंगा। तत्र सूत्रविषये त्रिष्वपि वर्तनादिषु स्थानेषु प्रत्येकमायेषु भंगेषु ददानस्य गृण्हानस्य च प्रायश्चित्तं मासलघु। तपःकालविशेषितं / तद्यथा। वर्तनायामाद्येषु Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 442 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा त्रिषु भंगेषु मासलघु संघनायां मासलघु / तपो गुरुकाललघु / ग्रहणे मासलघुद्वाभ्यांगुरुस्तद्यथा तपसा कालेनच। एव मर्थेतपःकालविशेषितं मासगुरु / तदुभयप्रायश्चित्तमर्थविषयं च प्रायश्चित्तं गाथानुपात्तमपि व्याख्यानादवगतं / चतुर्थभंगःपुनः सर्वत्राऽपिशुद्ध इति न तत्र कस्याऽपि प्रायश्चित्त मिति। इहाचार्यस्याऽपि प्रमादतः सूत्रादिषु वर्तनादिकमकुर्व तमुपसंपन्नमसारयतः प्रायश्चित्तमतो नियमात्स आचार्येण- | सारयितव्यस्तथा च एतदेवाह।। सारेयव्वो नियमा, उपसंपन्नोसि जं निमित्तं तु। तं कुण सु तुम भंते ! अकरेमाणे विवेगोउ। स उपसंपन्नो नियमात्सारयितव्यः कथमित्याह / अहोभदंत ! ज्ञानाद्यभ्यासकारितया परमकल्याणयोगिन् ! इह शिष्य-स्याप्याचार्येण प्रोत्साहनार्थ तथा विधयोग्यतासंभवमधि-कृत्यैवंविधमप्यामंत्रणं कर्तव्यमिति ज्ञापनार्थ / अन्यथा भदंतेति गुमिंत्रणे रूढत्वात्तत्रैवन्याय्यं न शिष्ये इति / यन्निमित्त-मुपसंपन्नस्त्वं तत्कुरु / एवमेकद्वित्रिवारं सारितोऽपि यदि न करोति वर्तनादिकं ततस्तस्मिन्नकुर्वति विवेक एव परित्याग एव कर्त्तव्यः / तुरेवकारार्थः // (यदुक्तमणापुच्छा) इति तत् व्याख्यानयति॥ अणणुन्नमणुण्णाए, दितं पडिच्छंतभंगचउरो उ। भंगतियंमि विमासो, दुहतोणुण्णाए सद्धो उ॥ अननुज्ञातो मकारोऽलाक्षणिकः / अननुज्ञातो ददाति इतरस्तु प्रतीच्छतीत्येवं ददानप्रतीच्छतां चत्वारो भंगास्तत्रभंगत्रिकेऽपि आद्येऽपि त्रिष्वपि वर्तनादिषु स्थानेषु प्रत्येकं प्रायश्चित्तं मासो लघुमासः / अर्थे गुरुमासस्तदुभयस्मिन् तदुभयं प्रायश्चित्तमिति व्याख्यानात् / / (दुहतोण्णुण्णाए) इति उभयतो ददानतया प्रतीच्छकतथा चाऽनुज्ञाते भगश्चतुर्थः शुद्ध एव / तुरेवकारार्थः एषोऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु प्रागेवोपदर्शितः। एष प्रायश्चित्तविधिर्ज्ञानार्थमुपसंपद्युक्त एवं दर्शनार्थमुपसंपदि द्रष्टव्यस्तथा चाह। एमेव दंसणाबी, वत्तणमादी पथा उजह नाणे। वेयावबकरो पुण, इत्तरितो आवकहितोय॥ यथा ज्ञाने वर्तनादिपदान्यधिकृत्य प्रायश्चित्तविधिरुक्त एवमेव अनेनैव प्रकारेण दर्शनेऽपि वर्तमानादीनि पदान्यधिकृय वेदि-तव्यः ! गता ज्ञानदर्शनोपसंपत्॥ इदानीं चारित्रोपसंपत् भावनाया।। तत्र काले (आवकहाएय) इति पदं व्याख्यानयति। (वेयावचे) त्यादि वैयावृत्यकरो वैयावृत्यार्थमुपसंपन्नः पुनर्द्धिधा इत्वरः स्वल्पकालभावी यावत्कथिको यावअविभावी। अस्य च द्विविधस्याऽपि वैयावृत्यकरापणविधिरयं एको गच्छवासी वैयावृत्यकरोऽपरः प्राधूर्णकः स च वक्ति अहं वैयावत्यं करोमि।। तत्र विधिमाह॥ तुल्लेसु जो सुलद्धी, अन्नस्स व वारएण निच्छंते। तुल्लेसु व आवकही, तस्स मएणं च इत्तरिओ॥ यदि द्वावपि कालतस्तुल्यावित्वरौ च तत्र यद्येकोलब्धिमान् | अपरोऽलब्धिकस्तर्हि तयोस्तुल्यथोर्यः स लब्धिकः स कार्यते इतरस्तु उपाध्यायादिभ्यो दीयते। अथद्वावपियावत्कथिको तत्रापियो लब्धिमान् स कार्यते इतरोऽन्येभ्यो दीयते / यदि पुनावपि सलब्धिको यावत्कथिकौ च तत्र अन्यतर उपाध्यायादेः कार्यते। अथैकोऽपि तस्य नेच्छति तत आगंतुको विमुच्यते। अथद्वावपि सलब्धिकावित्वरौच तत आगंतुक उपाध्यायादीनां वैयावृत्यं कार्यते सूत्रालापकश्च उपाध्यायादिवैयावृत्त्य-फलप्रदर्शकस्ततः प्रोत्साहनार्थ पठनीयः।। उवज्झायवेयावचं, करेमाणे समणे / / निग्गथे महानिजरे, महापजवसाणे होइंशा इत्यादि / अथ नेच्छति तर्हि तस्मिन्नन्यस्य उपाध्यायादिवैयावृत्यमनिच्छति वा शब्दोभिन्नक्रमत्वात्।वारएण चेत्येवं योजनीयः। द्वावपि वारकेण कार्येते कियत्कालमेकः कियत्काल-पर इति / यदि वास्तव्यो वैयावृत्यकरोऽनुमन्यते / अथ नाऽनु-मन्यते तत आगंतुकस्तावंतं कालं प्रतीक्षाप्यते। यावत् वास्त-व्यस्य वैयावृत्यस्य इत्वरकालसमाप्तिमुपयाति / / अथ न प्रतीक्षते तर्हि विसृज्यते अथ द्वयोरपि तयोर्वैयावृत्यकरापण विधिः // अथ एक इत्वर एको यावत्कथिकस्तत्राह (तुल्लेसु व) इत्या-दि। तुल्ययोर्लब्ध्यासमानयोर्यावत्कथिकः स कार्यते / इतरो ऽन्यस्योपाध्यायादेः सन्नियोजनीयः। अथ वास्तव्योयाव-त्कथिकस्तर्हि स भण्यते विश्राम्य त्वं तावत् यावदित्वरः करोति तथा चाह / तस्य वास्तव्यस्य वैयावृत्यकरस्य मतेन इच्छया इत्वरो वा कार्यते वैयावृत्यकरस्तथा प्रज्ञापितोऽपि नेच्छति तर्हि न कार्यते। स हि पश्चादपि यास्यति / तत इतरो वास्तव्यो न करिष्यती-ति / अथ इत्वरो यावत्कथिकश्च द्वावपि सलब्धिको तत्र यावत्कथिकः कार्यते / इतरोऽन्यस्य नियुज्यते विसृज्यते वा / अथवा इत्वरः स लब्धिकस्तत्र यावत्कथिको भण्यते / विश्रम्य तावत् वर्तितव्यम् / यावदेष इत्वरः सलब्धिकः करोति / पश्चात्त्वमेव करिष्यसि / अथ नेच्छति तर्हि स एव कार्यते। इतरस्त्वन्यस्मै दीयते / तस्य तत्रानिच्छायास विसृज्यते अथेत्वरोऽलब्धिको लब्धिमान् तत्र यावत्कथिक्रः कार्यते / इतर उपाध्यायादेः समर्प्यते / अथ तस्य तत्रा निच्छा तर्हि विसृज्यते / इह यदि वास्तव्यवैयावृत्यकरेणा ननुज्ञातो वैयावृत्यं कारयति / यदि वा नापृच्छया अन्यंवैयावृत्यकरं स्थापयति तदा तस्या-ऽचार्यस्य बहवो दोषास्तानेवाह // अणण्णुनाए लहुगा, अचियत्तमसाहजोग्ग दाणादी। निञ्जरं महती हु भवे, तवस्सिमाई ण करणे वी॥ वास्तव्यवैयावृत्यकरेणाननुज्ञायामुपलक्षणमेतत्तस्यानापृच्छायां वा यद्यागंतुकमित्वरं वैयावृत्ये स्थापयति / ततस्तस्य प्रायश्चित्तं लघुकाश्चत्वारोलघुमासाः / अन्ये ब्रुवते अनापृच्छायां मासलघु। अननुज्ञायां चतुर्लघु / अन्यचाननुज्ञायामनापृच्छायां वा वैया-वृत्यपदे अन्यस्येत्वरस्य स्थापने वास्तव्यस्य अवियत्त मप्रीति-रुपजायते / अप्रीत्या च कलहं कुर्यात् (असाहजोग्गदी) इति यानि दानादीनि दानश्रद्धादीनि कुलानि योग्यानि तान्याग-तुकवैयावृत्त्यकरस्य न साधयति / न कथयति तस्मात्स इत्वर आगंतुको वैयावृत्त्यकरः प्रज्ञाप्यते त्वतपस्या दीनां क्षपकादीनां वैयावृत्त्यं कुरु तेषामपि क्रियमाणे वैयावृत्त्ये महती निर्जरा // तदेवं वैयावृत्त्यद्वारं गतम्।। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 443 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा इदानी क्षपणद्वारावसरः॥ लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः (असतित्ति) तथा असतिप्रायो-ग्यद्रव्ये ये आवकही इत्तरिए, इत्तरियविगिढ़ तह विगिट्टे य। दोषास्ते च वक्तव्याः / तेचामी / द्वयो क्षपकयोर्यु-गपत्पारणकदिने समणामंतणखमणे, अणिच्छमाणं न ओ नियोगो॥ समापतिते पर्याप्त्या पारणकद्रव्ये अलाभ-तोऽसति असंस्तरणं भवेत्। असंस्तरणाच यदेषणादि प्रेरयति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमाचार्यस्याऽपतति क्षपक उपसंपद्यमानो द्विधा यावत्कच्छिक इत्वरश्च तत्रेत्वरो द्विधा आज्ञाभंगादयश्च दोषा जायते / तथा पारणकप्रायोग्यद्रव्यसंपादनेन विकृष्ठतपः कारी अविकृष्टतपः कारी च / तत्र चतुर्थ षष्ठाष्टमकारी संस्तरणमकुर्वत्सु साधुषु विषये सोऽप्रीतिं कुर्यात् / अप्रीत्या च अविकृष्टतपः कृत्। दशमादितपःकारी विकृष्ट तपःकृत् तर्योद्वयोरप्युप अनागाढामागाढा वा परितापनां प्राप्नुयात्। तथा च सति तन्निष्पन्नमपि संपद्यमानयोः (समणामंतणत्ति) आचार्येण स्वगच्छस्यामंत्रणं प्रच्छनं प्रायश्चि-त्तमाचार्यस्य अन्यच्च शिष्याः प्रतीच्छकाश्च द्वयोरपि क्षपककर्त्तव्यं / यथा आचार्या ! एष विकृष्टतपः करणार्थं समागतः किं यायावृत्त्यकरणतो भग्ना एवं चिंतयेयुर्यथा अन्यान्यक्षपकवैयावृत्त्यकरणेन प्रतीक्ष्यतामुत प्रतिषिध्यतामिति / तत्र यदि तेषामनुमतं भवति / तदा नाऽस्माकं सूत्रमर्थो वा तस्मादन्यत्र व्रजाम इति / तथा (गिलाणोवम) प्रतीष्यते अनिच्छायां प्रतिषिध्यते यदि पुनः केचिन्न मन्यते तर्हि यः इति तेषु गच्छवासिषु साधुषु वास्तव्य क्षपकवैयावृत्त्यकरणेन व्यापृतेषु कश्चिन्नेष्टवान् तमनिच्छंतं तस्य क्षपकस्य वैयावृत्ये बलान्न नियोजयेत्। ग्लानोपमो जायते / तदा तस्याऽचार्यस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः / बलाभियोगस्य सूत्रे निषेधात्। यस्तुप्रतीच्छितः। स पृष्टव्यः किं त्वविकृष्ट (अडन्तेयत्ति) तथा गच्छ वास्तव्यपक्षककरणव्यापृततया भक्तंपानं तपः करोषि अविकृष्टं वा यदि ब्रूत अविकृष्टं ततो भूयोऽपि प्रष्टव्यं त्व वागंतुकस्याददाने स भक्तार्थ पानार्थं वा स्वय हिंडते प्रतिलेखनादिक्रियां पारणकदिने कीदृशोभवसि / यदि प्राह ग्लानोपमः तत्राह / / चस्वयमेव कुर्यात्। हिंडमानश्च क्षुधा पिपासया शीतोष्णेन वा पीडितो अविगठकिलम्मं तं, भणंति मा खम करेहि सज्झायं / यद्यनागाढां परित्तापनां प्राप्नोति तदा प्रायश्चित्तमाचार्यस्य चतुर्लघु सकाकिलिमिउंजेवि, विगिटेणं तहिं वियरे॥ अथागाढं तदा चतुर्गुरु। अथ मूर्छति तदा षट्लघु॥ तथा परिताप्यमानो अविकृष्ट तपसि क्लाम्यन्तंभणन्ति सूरयो माक्षपय माक्षपणं कुरु न योषणां प्रेरयति तदा तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं अथ न प्रेरयति / तदा युक्तं तव क्षपणं कत्तुमशक्यभावादित्यर्थः / तस्मात्कुरु स्वाध्यायं तपः प्रभूतमटतोयदानागाढादिपरितापनां प्राप्नोति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं / अथ करणात्स्वाध्यायकरणस्य बहुगुणत्वात्। अपि च स्वाध्यायोऽपि परमं तत्र गच्छेऽन्योवास्तव्यः क्षपको न विद्यते। तदा नियमतः प्रतीच्छनीयः। तपः। यत उक्तं / / केवलं सोऽपि गच्छानुमत्या / अन्यथा न किमपि तस्य गच्छ: करिष्यति। वारसविहम्मि वि तवे सब्भि तरबाहिरे कुसलदिटे॥ तत्र यदि प्रमादतो वैयावृत्त्यभीरुतया गच्छो नानुमन्यते / तदा स न वि अत्थिन वियहोहिइ, सज्झायसमं तवोकम्मं / / प्रज्ञापनीयः / अथ कारणवश तस्तदा न प्रतीच्छनीयः / यदि पुनर्गच्छाननुमत्याऽपि प्रतीच्छति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो अग्लानोपमस्त्वविकृष्टतपः कारी तपः कार्यते यस्तु विकृष्टं तपः करोति लघुकास्तथा गच्छानुमतौ यो यतः प्रतीलभ्यते ततः क्षपकप्रायोग्यस यद्यपि पारणकदिने ग्लानोपमोजायते तथापिस कार्यते / यत आह मानयति / अननुमतौ च नकोऽपि किमप्यानयतीत्यसति पारणकदिने (सक्क) इत्यादि अदि शब्दः पुनरर्थे ये पुनस्तपस्विनो विकृष्टन तपसा पर्याप्तयाप्रायोग्यद्रव्ये असंस्तरणमसंस्तरणाच परितापनाद् दुःखं / पारणकदिने क्लमयितु शक्याः क्लाम्यंते इतिभावः तत्र तेषु तपस्विषु तन्निमित्त प्रायश्चित्तमाचार्यस्य तथा पारणकदिनेग्लानोपमो जायते तथा वितरेत् दद्यात् तपः करणं तेषां तथा रूपाणामपि सभनुजानीयात्। नतु शेषसाधुप्रयोजनांतर व्यापृततया भक्तपानं वा ददानेषु स्वयं हिंड-माने वारणीयं विकृष्टतपः करणस्य महागुणत्वात् केवलं भक्तपानं ये दोषास्तेऽपि वक्तव्याः। संप्रति तस्य क्षपकस्य वा-स्नव्यस्याऽगंतुभैषजादिकमानाय्य दातव्यं / अथ ग्लानोपमो न भवति। किंतु स्वयमेव कस्य वा कृतप्रत्याख्यानस्यापि यत् प्रतिदिवस कर्त्तव्यं तदाह। संस्तारक-प्रतिलेखनादीन् व्यापारान् सर्वानप्य हीना तिरिक्तान् करोति (पडिलेहणे) त्यादि / तस्योपकरणं कल्पादि यथायोगमुभयकालं प्रतीच्छते एवं च तत्र यो विकृष्टन तपसा ग्लानोपमो भवति / तत्रेयं प्रतिलेखनीयं संस्तारकश्च तस्य कर्त्तव्यः / तथापानकं पानीयं समाचारी। तस्योचितमानीयदातव्यं तथा मात्रकत्रिकंच उच्चारमात्रकं प्रस्त्रवणमात्रकं अन्नपडिच्छणे लहुगा, असति गिलाणोवमे अडते य। खेलमात्रक च यथाकालं समर्पणीयं परिस्थापनीयं वा।। पडिलेहणसंथारग, पाणग तह मत्तगतिगं च / / 3 / / सांप्रतमेनामेव गाथा व्याख्यानयन प्रथमतो (अन्नपडिच्छेणे लहुगा) तस्मिन्गच्छे यद्यन्यः कोऽपि विकृष्टतपः कारी क्षपको विद्यते स च इति च व्याख्यानयति॥ पारणकदिनेग्लानोपमो वा भवेद ग्लानोपमोवा तथाऽपितस्मिन्विद्यमाने दुण्णेगतरे खमणे, अन्नपडिच्छंतसंथरे आणा। क्षपके अन्य क्षपकमाचार्यों न प्रतीच्छेत प्राक्त नस्य हि क्षपकस्य अप्पत्तियपरितावण, सुत्ते हाणि अनहिं च इमे / / पारणकदिने ग्लानोपमस्याग्लानोपमस्य वा सतोऽवश्यं कर्तव्यं / न च वास्तव्ये क्षपणे क्षपके द्वयोः ग्लानोपमयोरन्यतरस्मिन्विद्यमाने यदि द्वयोर्वैयावृत्यकरणे साधवः प्रभवंति तस्मान्न प्रत्येषणीयः / यदि पुनः गच्छानापृच्छया अन्य प्रतीच्छति। तदा तस्मिनित्यं प्रतीच्छति प्रायश्चित्तं साधवोऽनुमन्यते सोऽपि प्रतीष्यतां तस्यापि वैयावृत्यकरणेन लघुकाश्चत्वार इति वाक्यशेषः / तथा युगपत् द्वयोः पारणकदिने समाधिमुत्पादयिष्याम इति तदाप्रतीच्छनीयः यदिपुनर्गच्छे विद्यमानेऽपि युगपत्समापतिते प्रायोग्यद्रव्ये अलाभतोऽसति यदि वास्तव्यक्षपकवैयाविकृष्टतपः कारिणि क्षपके गच्छाननुमतावाचार्योऽन्य प्रतीच्छति तदा वृत्त्यकरणव्यापृत-नामागंतुकस्य वैयावृत्त्यकरणे वेलातिक्रमतोऽसंस्तरणं तस्यान्य-प्रतीच्छने प्रायश्चित्तम्। भवेत् तस्मिश्चासंस्तरणे यादेषणादि प्रेरयति तन्निमित्त प्रायश्चित्तमाचा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 444 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा - र्यस्य तथा (आणत्ति) आज्ञापदैकदेशेपदसमुदायोपचारात् आज्ञाभंगानवस्थामिथ्याविराधनादोषाः प्रादुःष्युः। तस्य वा संस्तरणे अप्रीतिरप्रीत्या च परितापननिमित्तमपि प्रायश्चित्तं तथा शिष्याः प्रतीच्छाकाश्चैवं चितयें युरस्माकं द्वयोः क्षपकयोः वैयावृत्यकरणव्याप्रतानां सूत्रे हानि रूपलक्षणमेतत् अर्थे च तस्मादन्यत्र व्रजामः। संप्रति (गिलाणो धामअडतेयत्ति) व्याख्यानयति (गेलण्ण तुल्ल गुरुगा अडते परितावणा य संयकरणे / णेसणगहणागहणेदुगट्टहिं डतमुच्छाय) साधुषु वास्तव्यक्षपक वैयावृत्यकरणतः प्रयोजनान्तर व्यापृततया वा वैयावृत्यमकुर्वत्सु यद्यागंतुकः क्षपको ग्लानतुल्यो ग्लानोपमो जायते / तदा सूरेः प्रायश्चित्त चतुर्गुरुकाः / तथा भक्तं पानं च अददत्सु स्वयं (दुगढहिंडंतत्ति) द्विकार्थ च हिंडमाने स्वयं बा उपकरणस्य प्रत्युपेक्षणादेः करणे या परितापना अनागाढा वा (मूर्छायति) मूर्छा च तन्निमित्त प्रायश्चित्तमाचार्यस्य तत्रा-गाढपरि तापनानिमित्तं चतुर्लघु। आगाढपरि तापनानिमित्तं चतुर्गुरु मूर्छानिमित्तं षटलघु / णेसणगहणागहणे / इति स स्वयं हिंडमानः क्षुधापिपासया वा शीतेन उष्णनेवा परितापितः सन् यदि नेषणीयमपि गृण्हाति तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमग्रहणेऽनेषणीयस्य प्रभूतं हिंडमानो यदवाप्नोति / आगाढपरि तापनादिकं तन्निमित्त मपि यत एवमादयो दोषाः / तस्माद्गच्छतमापृच्छय तदनुमत्या प्रतीच्छेत् / प्रतीच्छितस्य च सर्वप्रयत्नेन निर्जरार्थतथा कर्तव्य-मिति / इह आगतः सन्प्रथमदिवसेऽपि प्रच्छनीयो यथा केन कारणेन त्वमिहागतो ऽसीति अन्यथा यदि तमपृष्ट्वैव आलोचना मदापयित्वा च संवासयति / तदा प्रयश्चित्तं तदेवाह॥ पढमदिणंमिन पुच्छे, लहुओ मासो उ वाइगुरुओ य। तइयंमि हुँति लहुगा तिण्हं तु अतिक्कमे गुरुगा। यदि प्रथमे दिने न पृच्छेत् तर्हि तस्या ऽचार्य स्य प्रायश्चित्तं लघुमासः द्वितीये दिने पृच्छतो मासगुरु तृतीये भवंति चत्वारो लघुमासाः। त्रयाण तु दिनानामतिक्रमे चतुर्था दिषु दिवसेष प्रायश्चित्त चतुर्गुरुकश्चित्वारो गुरुमासाः / अधुना अपबादो भण्यते यदि कार्यादिप्रयोजन वशात्तमेकं द्वे त्रीणि दिनानि षण्मासानपि यावन्न पृच्ति तथापि न प्रायश्चित्त भाक् तथाचाह / / कजे भत्तपरिणा, गिलाणराया य धम्मकहवादी। छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वइक्कमे गुरुगा। कार्ये कुलगणसंघविषये व्यावृतो भवेदाचार्यः / तथाकेनाऽपि साधुना भक्तपरिज्ञा कृता तस्य समीपे लोकोभूयानागच्छति / तत्राचार्यों धम्मकथने व्यापृतः। ग्लानप्रयोजने वाव्यापृतः॥ (रायाएधम्मकहीति) राजाचधार्थी प्रतिदिवसमेति ततस्तस्य धर्मः कथयि तव्य इति धर्मकथिक त्वेन व्यापृतः / वादीवा कश्च न प्रबलः समुत्थितः स निग्रही तव्य स्तत एतैः कारणैाप्तः सन् आचार्यों जधन्यत एकं द्वे त्रीणि वा दिनादि उत्कर्षतो यावत् षण्मासास्ता वदाग तुकं प्रष्टुमालोचनां वा प्रदापयितुं न प्रपारयेत् / इत्थमप्रपारणे च दोषाभावः तेषां षण्णां मासानां पुनर्व्यतिक्रमे किमुक्तं भवति / षण्मासेभ्यः परतोऽपि यदि न पृच्छति नाऽपि दाययत्वालोचनां ततः प्रायश्चित्तमायार्चस्य गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। अन्येतु ब्रुवते / षण्मासाना परतो यदि न पृतीच्छत्यालोचनां ततः प्रायश्चित्तमाचार्यस्य गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। अन्ये तुब्रुवतेषण्मासानां परतो यदि न प्रतीच्छत्यालोचनां तदा लघुमासः। द्वितीयदिनेऽप्यप्रतीच्छने मासगुरु / तृतीयदिन चतुर्लघु / दिनेत्रयातिक्र मे चतुर्थादिषुदिनेष्वप्रतीच्छने चतुर्गुरुका इति कार्यादिप्रयोजनवशतो व्यापृत इमां यतनां कुर्यात् // अनेण पडिच्छावे, तस्सासति सयं पडिच्छए रत्तिं। उत्तरवीमंसाए, खिन्नो य निसिंपि न पडिच्छे / / यद्यन्यो गीतार्थस्तस्याचार्यस्य समीपेऽस्त्यालोचनार्हस्तर्हि स संदेशनीयो यथा ऽयमापृच्छता / मालोचनाचास्य प्रतीष्यता-मिति / अथ नास्त्यन्यो गीतार्थस्तदा तस्य गीतार्थस्या ऽसति भावप्रधानोऽयं निर्देशोऽभावे स्वयमेव रात्रौप्रतीच्छित्यालोचनां अथ यथा श्रीगुप्तेन षडुलूकः षण्मासान् यावत् वादं दत्वा निर्जित एवं दीर्घकालावलंविनिविवादे रात्रावप्युत्त रविमर्शेन प्रत्यु-त्तरचिंतया खिन्नपरिश्रांतो निशायामपि न प्रतीच्छत्यालोचनां दत्तामिति अथवा अत्राप्यपवादस्य मेवाह // दोहिंतिर्हि वा दिणेहिं, जइच्छिज्जइ तेनहोइ पच्छित्तं / तेणपरमणुण्णवणा, कुलादिरश्नो व दीवंति॥ यदि षण्णां मासानां परतो द्वाभ्यां दिनाभ्यां त्रिभिर्वा दिनैः परप्रवादी नियमात् पराजेष्यते कुलादिकार्य वा समाप्ति-मुपयास्यतीत्येवं निश्चीयते / ततस्तेष्वपि दिनेष्वप्रच्छने आलोचनाया अप्रतीच्छने वा न प्रायश्चित्तं भवति / अथ ज्ञायते तेष्वष्येकद्विवादिषु दिवसेषु न कुलादिकार्यसमाप्ति भविष्यति / न च परवादीजेष्यते तदा षण्मासाऽसमाप्ता चेव राज्ञः समीपे गत्वा ज्ञापनीयम् / यथाहं दिनमेकमक्षणिको भविष्यामि नान्यथा ग्राहीथा इति कुलादिकार्येष्वपि कुलादी न्यनुज्ञापयति तथाचाह (तेण परमित्यादि) तेनेत्यव्ययं तत इत्यर्थे ततः षण्मासेभ्यः परं कार्यापरिच्छितौ संभाव्यमानाथामनुज्ञापना कुलादेर्दिनमे-कयावत्कर्तव्या राज्ञश्च वादिविषये कारण दीपयंत्याचार्याः यथाऽहं कारणवशेन दिनमेकमक्षणिकोभविष्यामीति / एवं चेन्न कुर्वति तदा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः। तदेवमुक्तः क्षपणोपसंपद्विधिरिदानी ज्ञानार्थ दर्शनार्थं प्रतीच्छितो नियमादालोचनां दापयितव्यस्सच दाष्यमानः कथमालोचनां ददाति उच्यते॥ आलोयणा तह चेव य, मूलुत्तरे न वरि विगडिपइमं तु / इत्थं सारणवायण, निवेयणं तेवि ए मेव॥ यथा सांभोगिकानां विहारालोचनायां मूलगुणातिचारविषये उत्तरगुणातिचारविषये च भणितं। तथात्राऽपि भणितव्यं। किमुक्तं भवति / उपसंपद्यमानोऽप्यालोचनांददानः पूर्वमूल गुणाति-चारात्प्रागुक्तक्रमेणालोचयति पश्चादुत्तरगुणानिति / नवरमयं विशेषः / विकटिते आलोचिते एकत्र स्थितान् भिन्नस्थितान्वा प्रत्येकं वन्दित्वा इदं भणति / / आलोयणामे दिण्णा, इच्छामि सारणवारणवोयणं / तेऽप्येवमेव प्रतिभणन्तो निवेदनकुर्वन्ति (अजो अम्हे विसारेज्जा वारेएज्जा) इति गता उपसंपदालोचना साम्प्रतम-पराधालोयनयाऽत्र प्रकृतं // कहाति) Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 445 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा एमेव य अवण्हे, किं तेन कथा तहिं वियविसोही। कृत्यासेवने बंधो ऽशुभकर्मोपादनं जीवस्य भवति व्यवदानं दैप्शोधन अहिगरणादीसाहति,गीयत्थोवा तहिं नत्थि॥ इति वचनात् शुद्धिः ततो व्यवदानात्पश्चात्तापरूप चित्तविशुद्धेः यथा विहारालोचना यामुपसंपदालोचनायांचविधिर्भणितएवमेव तथैव सकाशात्तया तद्वद्विगमा निर्जरणमकृत्यकरण-जन्याशुभकर्मणो भवति अपराधे अपराधालोचनायामपि द्रष्टव्यो यावत्पृष्टो वा अपृष्टो वा ब्रूते यद्येवं ततः किमित्याह (तंपुणत्ति) तत्पुनर्व्यवदानमनया नियमादअहमपराधालोचकः समागतः / ततः आचार्यवक्तव्यः / केनकारणेन ते वश्यतया भवति विधिना विधानेन वक्ष्यमाणेन सकृत्सदासुप्रयुक्तया त्वया तत्रैव स्वगच्छे एव नकृता विशोधिः प्रायश्चितांगीकरणेन एवमुक्ते भावसारं प्रवर्तितयेत्यतः सफलेयमिति गाथार्थः विधिना प्रयुक्ता यदि साधयति कथयति अधिकरणदीनि। अधिकरणं तैः सह आदिशब्दात् लोचनाव्यवदानतः सफला स्यादित्युक्तमयोक्तस्यैव विपर्ययमाह। प्रागुक्त-विकृतियोग प्रत्यनीकादि कारणपरिग्रहः / अथवा वक्ति तत्र इहरहा विवजओ विहु, कुवेज किरिजा दिणायतोणेओ। गीतार्थो नास्ति / तत्राधिकरणादिष्वविशुद्धकारणेषु समागत एवं अवि होज तत्थ सिद्धीआणाभंगा न उणएत्थ। प्रतिभणनीयः / / ब्याख्या / इतरथाऽविधिप्रयोगे आलोचना या विपर्ययोऽपि नत्थि इह पडियरगा,खुल्लखेत्तं उग्गमवि य पच्छित्तं। व्यवदानाभावेन आलोचना निष्फलत्वमपि अनर्थफलत्वं वा स्यात् न संकीयमादीव पदे, जहक्कम्मं ते तहवि भासे / / केवलं विधिना सफलत्वमविधिना विपर्ययोऽपि स्यादित्य-पिशब्दार्थः अस्तीति निपातो बहुवचनार्थः प्रतिचारका नाम अपराधापन्नस्य हुक्यिालंकारे।कुत एवमिदमित्याह। कुवैद्या-क्रियादिज्ञाततः दुर्भिषक् प्रायश्चित्ते दत्ते तपः कुर्वतो ग्लानायमानस्य वैया वृत्यकरास्ते इह मे पायें प्रवर्तितरोगेचिकित्साप्रभृत्युदाहरणे-नादिशब्दादविधिविद्यासाधनादि न संति खलक्षेत्रं नाम मंदभिक्षं यत्र वा प्रभूतमुपकारि घृतादिद्रव्यं न परिग्रहः ज्ञेयो ज्ञातव्यः अविध्यालोचनायां विशेषमाह। अपीति संभाव्यत लभ्यते तादृशमिदं क्षेत्र तथाविधदान-श्रद्धश्रावकाभावात् वयमपि च एतत् यदुत भवेजायेत पुण्यानु भावात् तत्र कुवैद्य चिकित्सायां सिद्धिः स्तोकेऽष्यपराधे उग्रं प्रायश्चित्तं दद्मः तथा गुरुपारंपर्य समागमात् तथा प्रयोजननिष्पत्तिरारोग्यमित्यर्थः न पुनरत्र नत्वविध्यालोचनायानि (नत्थी संकिय संघाडे) त्यादिप्रागुक्तगाथोपन्यस्तानिशंकितादीनि यामिष्टसिद्धिः कुत इत्याह आज्ञाभंगादाप्तोपदेशान्नतुपालनादिति पदानि तानि संभवेन यथाक्रम तथेति समुच्चये विभाषेत ब्रूयात् यथा गाथार्थः एतदेवस्पष्टयन्नाह!! प्रायश्चित्तसूत्रमनुसृत्य प्रायश्चित्त दीयते तदिदानी विस्मृतं शंकितं वा तित्थगराणं आणा, सम्मं विहिणा उ होइ कायय्वा। जातं नचार्थ स्मरामि। ततः कथं प्रायश्चित्तं प्रयच्छामि अथवा प्रायश्चित्ते तस्सण्णहा उकरण, मोहादतिसकिलेसोत्ति। प्रतिपन्ने सति तत्तपः त्वयेह कर्तव्यं / तत्रचेयमस्माकं सामाचारी बंधोय संकिले सा, तत्तोण सोवेति तिव्वतरगाओ। बहिर्भूमिमात्रमपि संघाटकं विना न गंतव्यं यदि पुनः कोऽपि गच्छति ईसिमलिणं ण वत्थ सुझइनीलीरसादीहिं / / 7 / / ततस्तस्मै प्रायश्चित्तमत्युग्रं ददामि इत्येवं यथासंभबं शंकितादीनि ब्रूयात् व्याख्या। तीर्थकराणां जिनाना माज्ञोपदेशः सम्यक् भावतः विधिना नतुदद्यादालोचनामितियस्तु निर्गमन शुद्ध आगमनेन शुद्धो वा प्रतीच्यते नुवक्ष्यमाणविधानेनैव भवति स्यात् कर्तव्या विधि विपर्यये दोषमाह तस्या तस्थालोचनायां विधिर्वक्तव्यः / व्य० उ०१। जिनाज्ञाया अन्यथा तु करणे अविधिविधाने पुनः कुत इत्याह / नन्वकृत्येसमासेविते यत्कर्मबद्धं तदनुभवनीय मेवेत्यालोच-नायां को मोहादज्ञानात् किमित्याह अति संक्लेशं आत्यंतिकं चित्तमालिन्यं भवति गुण इत्या शंकायाम्॥ इति शब्दः समाप्ता विति बंधश्चा शुभ-कर्मबंधः पुनः सक्लेशादुक्तआसेविते वकिवेणा, भोगादिहिं होंति संवागा। रूपाद्भवति। किंचेतस्ततः संक्लेशान्नसः नैवासौ कर्मबंधोऽपैत्यपगच्छति अणुतावो तत्तो खलु, एसा सफला मुणोयव्वा ||3|| किं भूतात् संक्लेशा-दित्याह / तीव्रतरकादकृत्यासेवाहेतुभूत (पंचा) वृ०१५ आसेवितेऽप्याचरितेऽपि अनासेविते काभावात् संक्लेशापेक्षयाऽतिशयोत्कटात् अविधालोचना कृताज्ञाभंगफलैर्वाज्ञाऽनुपालनादित्यपि शब्दार्थः / अकृत्ये साधूनामविधेये जन्यादित्यर्थः॥ कथमित्याह अनाभोगादिभिरज्ञान प्रभृतिभिस्तद्यथा !| इहार्थे दृष्टांतमाह॥ सहसाणाभोगेण व, भीएण व पेल्लिण्णव परेण व। ईषन्मलिनं मनाग्मलयुक्तं न नैव वस्त्रंवासः शुद्धयतिनिर्मली भवति सणेणा यं केण व, मूढेण व रागदोसेहिं। नीलीरसादिभिर्गुलिकाद्रव्यप्रभृतिभिर्वहुतरमालिन्य-हेतुभिरादिभवति जायते कुतः इत्याह संवेगा संसारभयादनुतापः पश्चात्तापः शब्दात्रुधिरादिपरिग्रहः। यथाहीषन्मलिनं प्रचुरमालिन्यहेतुनाशुध्यप्राकृताकृत्य विषयस्तजन्यकर्म क्षपण हेतुभूतः आलोचना-यामिति त्येवमकृत्यासेवाकृतोबंधोअतिगाढत-रंबंधहेतु ना आज्ञाभंगहेतुभतगम्यते ततः किमित्याह / ततो ऽनुतापात् खलुक्या -लंकारे संक्लेशेनापैतीतिगाच्छाद्वयार्थः पंचा०वृ०१५।। एषाआलोचना स फला सार्थिका (मुणोयव्यति) ज्ञातव्येति गाथार्थः॥ व्यवहारे आलोचनायाश्चेमे गुणाः॥ अथ कथमनुतापादालोचना सफ्ला भवतीत्यत आह / / लहुयील्हादीजणणं, अप्पपर नियत्ति अज्जवं सोही। जहसंकिलेसओ इह, बंधो बोदारणओ तहा विगमो। दुकरकरणं विणओ, निसल्लत्तं च सोहि गुणालधोभीवो। तं पुण इमीए णियमा, विहिणा सइ सुप्पउत्ताए। लघुता यथा भारवाही अपहतभारोलघुर्भवति तथा आलोचको व्याख्या यथा यद्वत् संक्लेशाद्रागादिलक्षण चित्तमालिन्या दिहा | प्युधृतशल्यो लघुभर्वति इति लघुता तथा ल्हादन ल्हादिणा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 446 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा दिक इ प्रत्ययः प्रल्हति स्तस्याजननमुत्पत्ति ल्हादिजननं-प्रमोदोत्पाद इति यावत् तथा ह्यतीचार धर्मतप्तस्य चित्तस्य मलयगिरि पवनसपर्केणेव आलोचना प्रदानेनाती चार धर्मा पगमतो भवति संविनानां परम मुनीनां महान्प्रमोद इति / तथा (अप्पपर नियत्तित्ति) आलोचना प्रदानतः स्वयमात्मनो दोषेभ्योनिवृत्तिःकृतातांचदृष्ट्वाऽप्यन्ये आलोचना भिमुखा भवंतीत्यन्येषामपि दोषेभ्यो निवर्तनमिति। तथा यदतीचारजातं प्रति सेवितं तत्परस्मै प्रकटनामात्मन आर्जवं सम्यग्विभावितं भवति। आर्जवं नाम अमायाविता तथा अतीचार-पंकमलिनस्यात्मनश्चरणस्य वा प्रायश्चित्तजलेन अतीचार पंकप्रक्षालनतो निर्मलता शोधिः / तथा दुष्करकरणंदुष्कर-कारिता तथाहि यत्प्रतिसेवनंतन्नदुष्करं अनादिभवा भ्यस्तत्वात् यत्पुनरालोचयति तत् दुष्करं प्रबलमोक्षा नुयायि वीर्योल्लास विशेषेणैव तस्य कर्तुमक्यत्वात् / तथा (विणउत्ति) आलोचयता चारित्रविनयः सम्यगुपपादितो भवति (नेस्सल्लत्त) मिति सशल्य आत्मा निः शल्यः कृतो भवतीति निःशल्यता एते शोधिगुणा आलोचनागुणाः आलोचनाशोधिरित्यनांतरत्वात्। व्य००१ / आलोचनायांदत्तायां ये गुणा भवन्ति ते भक्तप्रत्याख्यान शब्दे वक्ष्यन्ते। (8) कालोचना ग्रहीतय्या तानि स्थानानि।। आलोचना येषु कार्येषु कर्तव्या तानि व्यवहारकल्पे यथा (आलोयणत्ति का पुणकस्स सगासे व होइ कायव्वा। केसुव कज्जेसुभवे गमणा गमणादि एसुंतु) का किस्वरूपालोचनेति प्रथमतः प्रतिपाद्यं ततस्तदनंतरं कस्य सकाशे समीपे भवति कर्तव्यालोचनेति वाच्यं तथा केषु कार्येषु भवत्यालोचना तत्र प्रतिपत्ति लाघवाय संक्षेपतोऽत्रैव निर्वचनमाह / गमनागमनादिकेषु गमने आगमने आदिशब्दात् शय्यासंस्तारकवस्त्र पात्रपाद-पोंछनकग्रहणादिपरिग्रहः। तुशब्दो विशेषणे। सचैतद्विशिनष्टि गमनागमनादिष्ववश्यकर्तव्येषु सम्यगुपयुक्तस्याऽदुष्ट भावतया निरतिचारस्य छद्मस्थस्याप्रमत्तस्य यते रालोचना भवतीति आह यानि नामावश्यकर्तव्यानि गमनादीनि तेषु सम्यगुपयुक्तस्या- दुष्टभावतया निरतिचारस्याऽप्रमत्तस्य किमालोचनया तामन्त-रेणाऽपि तस्य शुद्धत्वात् यथासूत्रं प्रवृत्तेः सत्यमेतत्के वलं याचेष्टा-निमित्ता सूक्ष्मप्रमादनिमित्ता वा सूक्ष्मा आश्रवक्रियास्ता आलोचना मात्रेण शुद्भयंतीति तच्छुद्धिनिमित्तमालोचना उक्तं च / / जया उवउत्तो नेरइयारो ये करेइ ये करणिज्जायत्ते जोगा तत्थ को विसोही आलोइए आणालोइए वा गुरु भणइ तत्थ जाविठ्ठ निमित्ता सुहुमां आसवकिरिया ता उसुइंझति आलोयणामेत्तणंति॥ तत्र का नामालोचनेति यत्प्रथमं द्वारं तत्सुप्रसिद्धत्वादन्यत्र वा कल्पाध्ययनादिषुव्याख्यातं तथापि स्थानाशून्यार्थं किंचिदुच्यते / आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य कार्यस्य पूर्व कार्यसमासे रूर्द्ध वा यदि वा पूर्व मपि पश्चादपि गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणं सालोचना उपरितनेषु प्रायश्चित्तेषु केषु चित्संभवति केषुचिन्न संभवति / तत्र येषु संभवति तत्प्रतिसिद्ध्यर्थमिदमाह॥ विइए नत्थि वियडणावा उ विवेगे तहा वि उस्सग्गो आलोयणाउ य नियमा गीयसगीए व केसिं वि॥ द्वितीये सूत्रक्रमः प्रामाएयानुसरणात् प्रतिक्रमणं तस्मिन् द्वितीये प्रतिक्रमणलक्षणे प्रायश्चित्ते नास्ति विकटना आलोचना तथाहि सहसाऽनाभोगतो वा यदा किंचिदाचरितं भवति यथा मनोज्ञेषु शब्दादिष्विद्रिय गोचरमागतेषु एव मनोज्ञेषु द्वेषगमनं तदा तदनंतरमेव मिथ्यादुष्कृतमिति ब्रूते तच तेनैव शुद्धिं यातीति नालोचयति (वा उविवेगत्ति) वा शब्दो विभाषायां विवेके विवेकाहे प्रायश्चित्ते आलोचनाया विभाषा कदाचित् भवति कदाचिन्नभवतीतिभावः। तथाहि तत् विवेकाह नाम प्रायश्चित्तं यत्परिस्थापनया शुध्यति यत्र यदकल्पिकमाधाकर्मिकादिपूर्वमविदितत्वेन गृहीतं पश्चाच्चकथमपि ज्ञातं तत्यदा परिस्थापयतः शुभभावनाध्यारोहे केवलज्ञानमुत्पद्यते / तदाऽसौ कृतकृत्यो जात इति नालोचयति अनुत्पन्नेतुज्ञानातिशये नियमादागत्य गुरुसमीपलोचयतीति / (तदाविउस्सग्गेइति) यथा विवेके आलोचना विभाषा तथा व्युत्सर्गेऽपि किमुक्तं भवति। व्युत्सर्गेऽपि कदाचिदालोचना भवति / कदाचिन्नभवति। यथा स्वप्रे हिंसादिकमासेवितं तच्छुद्धिनिमित्तं च कायोत्सर्गः कृतस्तदनन्तरं च शुभभावनाप्रकर्षितः केवलज्ञानमुत्पादि / मरणं वा तस्याऽकस्मिकमुपजामिति नास्त्या-लोचना अनुत्पन्ने तुज्ञाने जीवितं यावत् नियमादवश्यंविकटना यत् आलोचयति // तथा।। स्वप्ने मयाहिंसादिकमासेवितं कार्योत्सर्गेण च विशोधितमिति / / तचालोचनाहम्प्रायश्चित्तमेतेषु स्थानेषु भवति। व्य उ०१ करणि सु उजोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो॥ आलोयणपच्छितं,गुरूणं अंतिएसिया।। करणीया नाम अवश्य कर्तव्या योगाः श्रुतोपदिष्टाः संयमहेतवः क्रिया अथवा योगामनोकायव्यापाराः (जोगो विरियंथामो उच्छाहपरक्कमो तहा चेठ्ठा सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पझाया) इति वचनात्तेचाऽवश्यं कर्तव्य इमे कूर्म इव वसतौ संलीनगात्रः सुप्रणिहितपाणिपादाऽवतिष्ठते वचनमपि सत्यमसत्या मृषां वा ब्रूते न मृषां वेति मनसोऽप्यकुशलस्य निरोधनं कुशल-स्योदीरणमेवं रूपेषु करणीयेषुसम्यगुपयुक्तस्य निरतिचारस्येति वाक्यशेषः सातिचारस्योपरितनप्रायश्चित संभवात् छद्मस्थस्य परोक्षज्ञानिनो नतु केवलज्ञानिन स्तस्य कृतकृत्यत्वेनालोचनाया अयोगात् उक्तंच (छउमत्थस्स हवइ आलोयणा न केवलिणो) इति तच्छा तत्रोक्तेन प्रकारेण भिक्षत इत्येवं शीलो भिक्षुस्तस्य यतेरालोचनाप्रायश्चितं स्यात्तदपि च गुरूणामंतिके समीपे नान्येषामिति // प्रवद्वा०९८ धर्म० अ०३ / / इह करणीया योगा इति सामान्येनोक्तम् / / अधुनानामग्राहं करणीययोगप्रतिपादनार्थमाह व्य. उ.१ / भिक्खवियार विहारे, अण्णसुय एवमाइकजेसु। अविगडियंमि अविण तो, होजअसुद्धे व परिमोगो / भिक्षाया विचारे विहारे अन्येष्वपि चेवमादिकेषु कार्येषु आलोचना प्रायश्चित्तं भवतीति वर्तते इयमत्र भावना गुरुमापृच्छ्य गुरुणाऽनुज्ञातः सन् श्रुतोपदेशेनोपयुक्तः स्वयोग्य भिक्षावस्त्रपात्रशय्यासंस्तारकपादप्रोछनादियदिवा आचार्योपाध्याय स्थविरबालग्नानशैक्षकक्षपकासमर्थप्रायोग्यवस्त्रपात्रभक्तपानौषधादि गृहीत्वा समागतो विचार उच्चार भूमि Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 447 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा पडिवजेता तं जहा णाणाइक्कमस्स दसणाइक्कमस्स चरिता इकमस्स एवं वइकमाणं अइयाराणं अणायारा एणं स्थाठा०३।। अतिक्रमाणांत्रयाणां गुरवे निवेदनम् // तिण्हं अइक्वमाणंति। षष्ठया द्वितीयार्थत्वा त्रीनतिक्रमानालो-चयेत्। गुरवे निवेदयेदित्यादि। प्राग्वत नवरं यावत्करणात् विसोहेजा विउठूजा अकरणयाए अभ्भुठूजा अहारिअंतवो कम्मंपायच्छित्तमित्यध्येतव्यमिति / स्था. टी. अथालोचयितव्यापराधदर्शनार्थ माह पंचाशके वृ.१५ / आलोएयव्वा पुण अइयारा सहमबायरासमं। णाणा यारादिगया पंचविहो सोय विण्णेओ / / 2 / / ब्याख्या / आलोचना विधिस्तावदय मालोचयितव्याः पुनः प्रकाशनीयास्तु अतीचारा अपराधाः सूक्ष्मबादराः लघु गुरुका न तु लघवएव बादरा एववा सम्यग् भावशुध्याज्ञानाचारादिगता ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारविषयाः पंचविधः पंचप्रकारः सच आचारः पुनर्विज्ञेयो ज्ञातव्य इति गाथार्थः। १कः पुनस्सोऽतिचारः कुतोवा प्रभृत्यालोचयितव्यमिति भत्तपचक्खाण शब्दे॥ स्तस्माद्वा समागतो विहारो वसतावस्वाध्यायिकं तमकृत्वावसते रन्यत्र गमनं तत एवमादिग्रहणंच्चैत्यवंदननिमित्तं पूर्वगृहीत-पीट्ठफलकशय्यासंस्तारकप्रत्यर्पणनिमित्तं बहुश्रुतापूर्व-संविविग्नानां वंदनप्रत्ययं वा सशयव्यवच्छेदाय वा श्राद्धस्वज्ञात्यवषण्णविहाराणामवबोधाय वा साधर्मिकाणां वा संयमोत्साहनिमित्तं हस्तशतात्परतरमासन्नं वा गत्वा समागतो यद्यपि नास्ति कश्चिदतीचारस्तथापि यच्छापि यच्छा विधिगुरूसमक्षमालोचयितव्यम् अन्यच्छा सूक्ष्मचष्टो निमित्तानां सूक्ष्म प्रमादनिमित्तानां वा क्रियाणां शुद्ध्यभावात् अन्यचनिरतिचारोऽपि यदि गुरोः समक्षं नालोचयति ततोऽविनयो भवति / अशुद्धपरिभोगो वा / तथाचाह / अविकटितेऽनालोचितेऽविनयोऽशुद्धे या परिभोगो भवेत्आलोचिते तूभयदोषाभावः नत्वविनयदोषा भावः स्यादशुद्धपरिभोगाभावः कथमुच्यते केनाऽपि साधुना भिक्ष प्रघुरासत्कारपुरस्सरा लब्धा तस्य शंकितमुपजातं किंनामेयं भिक्षा शुद्धा वा तत्र यद्यनालोच्य भुंक्ते ततोऽशुद्धपरिभोगो भवति तेनालोचितं आचार्येण पृष्टमन्यदिवसेषु तस्मिन् गृहे कीदृशी भिक्षा अलभ्यत कियंतो वा भोजनकारिणः प्राधूर्णका वा केऽप्यागताः संखंडी वा जाता इत्यादि विभाषा एवं च पृष्टे तेन यथावस्थितं कथितं ततः आचार्येण ज्ञाता शुद्धा अशुद्धा वा तस्मादालोचयितव्यं // अन्यच्च / / छउमत्थो तहन्नहा वा हवेज उवओगो / आलोएंतोउहइ सो उंदवियाणईसोया / अन्यच्च किंधान्यदित्यर्थः / छद्मास्थिकः सामान्यसाधुगतः उपयोगस्तथा यथावस्थितवस्त्वनुसारी अन्यथावा विपरीतो भवेत्। आचार्यस्तु मतिमेधाधारणादिगुणसमन्विततथा बहुश्रुततथा वातिशयज्ञानी ततः शंकितमालोचिते अशंकितमालोचितो निःशंकितं करोति तथा यद्यपि गृह्णः शंकितमुपजातं / तथापि / कदाचिदालोचयन् स्वप्रज्ञयाऽप्यूहेत ततः शुद्धम् शुद्ध वा स्वयमेव जानाति यदि वा तदीयामालोचनां श्रुत्वा श्रोताऽप्याचार्यादिकः पूर्वोक्तनप्रकारेणयदिवा आचार्यादिकस्य पार्चे बहवो लोकाः समागच्छन्तिबहुभ्यश्चबहु शृण्वन् कदाचित्तमपि विषयं लोकतः श्रुत्वा जानाति शुद्धमशुद्धं वा तस्मादालोचयितव्यं / यदुक्तं। (गुरूणं अंतिऐ सिया) इति तन्न स्यादित्यस्य व्याख्यानमाह || आसंकमवहियंमिय होइ सिया अवहिए तयं पगयं / / गणतत्तिविप्पमुक्के तिक्खवे वावि आसंका॥ स्यात् शब्द आशंकमिति प्राकृ तत्वादाशंकायामवधृते चार्थे आशंका नाम विभाषा यथा स्यादिति कोऽर्थः // कदाचिद्भवेत् कदाचिन्न भवेत्। अवधृतं नाम अवधारणं तत्र तयोयोरर्थयोर्मध्येऽवधृतेऽवधारणे प्रकृतमधिकारः। अवधारणार्थोऽत्रस्याच्छब्द इतिभावः / ततोऽथमर्थः // गुरू-णामन्तिकेनियमादालोचना यदि वा अशंकायामपि कृतं तत्रा-यमर्थः / गुरूणामंतिके स्यात्तावदालोचना यदि पुनराचार्यो गणतप्तिविप्रमुक्तो भवति तत स्तस्मिन्गणतप्तिविप्रमुक्ते उपाध्यायस्य समीपे आलोचना अथोपाध्यायस्याऽपि कुलादिकायें श्राद्धादिकथनैर्वा व्याक्षेपस्तस्तोऽन्यस्य गीतार्थस्य तदभावे गीतार्छस्याऽपि समीपे आलोचयितव्यं गतमालोचना-प्रायश्चितम् आलोचनीयाऽतिचाराः व्यवहारशब्दे। तिहमइकमाणं आलोएजापडिक्कमेजाणिदेखागरहिल्या जाव (9) द्रव्यादिचतुर्विधमालोचनीयं / / किंपुनस्तदालोचनीयं / उच्यते। चतुर्विधं / द्रव्यादितथा चाह / (वेयणमचित्तदव्वं जणवयसठ्ठाणे होइ खेत्तम्मि। दिण निसि सुभिक्ख दुभिक्खकाले भावम्मि हेठ्ठियरे)। द्रव्यतश्चेतनं सचित्तमुपलक्षणमेतत् / मिश्रं वा अचित्तमचेतनं वा अकल्पिकं यक्तिचित्सेवितं क्षेत्रतो जनपदे वा अध्वनि वा कालतो दिने निशिवा यदि वा सुभिक्षे वा दुर्भिक्ष वा भावे हेद्र्यरे सप्तमी तृतीयार्थे / हष्टन इतरेण वाग्लानेन सतायतनयावा दर्पतः कल्पतो वालोचयति। कथमित्याह (जह बालो जंपतो कज्जमकजं चउक्कयं भणई / तं तहा आलोएजा मायामयविप्पमुक्कोउ)। यथा बालो मातुःपितुर्वा पुरवो जल्प कार्याकार्यञ्च ऋजु कमकुटिल भणतितथा आलोचकोऽपिमायामदविप्रमुक्तः सन् तदालोचनीयं / यथा ऋजुभावेनालोचयेत् व्य. उ.४॥ गोचरचर्यातः प्रतिनिवृत्तस्यालोचना पञ्च वस्तुके। यच्छा। (चिंतितु जोगमखिलं नवकारेणं त ओ उ अरित्ता। पढिऊण घयंताहे साहू आलोअए विहिणा // 3 // ) पुनः चिंतयित्वा योगमखिलसामुदानिकं नमस्कारेण ततश्च तदनंतरं पारयित्वा णमोअरहंताण मित्यनेन। ततः पठित्वा स्तवमितैश्चतुर्विंशतिस्तवपाठानन्तरं गुरुसमीपं गत्वा साधु-र्भावतश्चारित्रपरिणामापन्नः सन्नालोचने तद्भिक्षानिवेदनं कुर्याद्विधिना प्रवचनोक्तेनेति गाथार्थः / पं०व०॥ गोचरचाया आगत्य गुरोरावेद्यालोचनं गोचरचर्याशब्दे / / गोचरचर्याथामकृत्यं प्रतिषेव्यालोचयतो मोक्षमार्गाराध-कत्वमाराधना शब्दे / भ०|| श०८ उ०६॥ यव्वहारकल्पे॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 448 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आलोयणा (10) अपराधालोचनायां प्रशस्ताऽप्रशस्तद्रव्यादयः।। अपराधालोचनामधिकृत्य प्रशस्ताप्रशस्तद्रव्यादयो यथा व्य|१| दव्वादिचउरभिग्गह, पसत्थमपसत्च्छेते दुहेकेके। अपसत्थेवजेउं पसत्थएहिं तु आलोए। अपराधालोचनायां दीयमानायां द्रव्यादयो द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्वत्वारश्वत्तुः संख्याका अपेक्षणीया भवंति ! तथा (अभिग्गहत्ति दिशामभिग्रहः कर्तव्यः / ते च द्रव्यादयो दिशश्च एकैकं प्रत्येकं द्विधा द्विप्रकारास्तद्यथा / प्रशस्ता अप्रशस्ताश्च तत्र प्रशस्तान् द्रव्यादीन् अप्रशस्तांश्च दिशो वर्जयित्वा प्रशस्तैर्द्रव्या-दिभिदिग्विशेषैश्च / किमुक्तं भवति। प्रशस्तेषु द्रव्यादिषु प्रशस्ताश्च दिशोऽभिगृह्य आलोचनां दद्यात्॥ तत्राप्रशस्तद्रव्यादिप्रतिपादनार्थमाह // भग्गघरे कुडेसु य, रासीसुय जे दुमा य अमणुण्णा। तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खदिसा तिनि। यत्र स्तंभकुला कुड्यादीनामन्यतमत्किमपि पतितंतत् भग्नगृहं तत्र तथा (कुडेसुइति) कुड्यग्रहणात् कुड्यमात्रा विशेषे यत्र पाठांतरं (रुद्देसुय) इति तत्र रुद्रेषु रुद्रगृहेषु तच्छा राशिषु अमनोज्ञतिलमाषकोद्रवादिधान्यराशिषु ये च द्रुमा अमनोज्ञा निष्कंटकिप्रभृतयोऽमनोज्ञा अप्रशस्ता सूत्रिते तेष्वप्याश्रयभूतेषु उपलक्षणमेतत् अप्रशस्तासु तिथिषु अप्रशस्तेषु च संध्यागतादिषु नक्षत्रेषु अप्रशस्ताश्च याम्यादिदिशोऽभिगृह्य नालोचयेत् / किंतु तत्प्रतिपक्षे प्रशस्तद्रव्यादि रूपे आलोचयेत् तथा प्रशस्ताश्च तिस्रो दिशः पूर्वामुत्तरांप्रतीचींचाभिगृह्य आलोचयेत्। इदानीममनोज्ञधान्यराश्यादिषु द्रव्यादित्वयोजनामाह। अमणुण्णधणरासी, अमगुण्णदुमायहोति दध्वंमि। भग्गघररुदऊसर, पवायदवा इखित्तंमि॥ अमनोज्ञधान्यराशयो ऽमनोज्ञद्रुमाश्च भवति द्रव्ये द्रष्ठयाः / भग्न-गृहं प्रागुक्तस्वरूपं (रुद्दत्ति) रुद्रग्रह (उसरत्ति) ऊपरं यत्र तृणादिनो गच्छति। च्छिन्नटंका तटीप्रपातः भृगुप्रपातादिकं वा दाधं दवदग्धमादिशब्दाद्विद्युद्धतादिपरिग्रहः इत्यादि सर्व क्षेत्रं द्रष्टव्यं तत्र यत् अमणुण्ण दुमाय होति दव्वंमीत्युक्तं तदेतत् व्याख्यानयति।। निष्पत्तकंटइल्ले, विजुहते खारकडय हवे य। अयत्तउयत्तंब सीस, गदव्वे धण्णायअमणुण्णा॥ निष्पन्नाः स्वभावतः पत्ररहिताः करीरादयः 1 कंटकिनो बदरीवब्बूलप्रभृतयः / विद्युद्धता विद्युत्प्रपातभग्नाः क्षाररसा मोरहप्रभुतयः / कठुकाः कटुकरसा रोहिणी कुटजनिंबादयः।दग्धादावदग्धाः एतान्दुमान् अमनोज्ञान् जानीहीति वाक्यशेषः नकेवलममनोज्ञधान्यराशयो मनोज्ञा दुमाश्च द्रव्ये वर्जनीयाः। किंतु अयसपुताम्रसीसकराशयो द्रव्ये वर्जयितव्याः (अम-गुण्णाधनराशी) इति व्याख्यानयति। अमनोज्ञानिधान्यानि च शब्दः / पुनरर्थेअमनोज्ञधान्यराशयः॥ संप्रति कालतो यदिच सा वर्जनीयास्तानाह॥ पडिकुटिल्लगदिवसे, वजेजाअट्ठमिच नवमिंच। छट्टि व चउत्थि वारसिंच, दोएहंपि पक्खाणं / / इह इल्लप्रत्ययः प्राकृतेस्वार्थे प्रतिकृष्टा एव प्रतिकुष्टेल्लकाः। ते चते दिवसाश्च प्रतिकुष्टेल्लकदिवसः। प्रतिषिद्धा दिव-सास्तान्वर्जयेत्। तानेव नामत आह द्वयोरपि शुक्लकृष्णरूपयोः पक्षयोरष्टमी नवमीं षष्ठीं चतुर्थी द्वादशीं च / एता दि तिथयः शुभप्रयोजनेषु सर्वेष्वपि स्वभावत एव प्रतिकूलास्ततो वर्जनीयाः इदं कालतोऽप्रशस्तं वज्य संध्यागतादिकं नक्षत्रं तदेवाह॥ संज्झागयं रविडेरं, सग्गहं विलंवि च। राहुहयं गहमिन्नं, वजए सत्तनक्खत्ते / / संध्यागतं नाम यत्र नक्षत्रे सूर्योऽनंतरं स्थास्यति / तत् आदित्यपृष्ठस्थितमन्येपुनराहुर्यस्मिन्नुदित्ते सूर्य उदेति तत् संध्यागतमपरे त्वेवं ब्रूवते यत्र रविस्तिष्टति। तस्माचतुर्दश पंचदशं वा नक्षत्रं संगतं यत्र रविस्तिष्ठति / पूर्वद्वारिके नक्षत्रे पूर्वदिशा गंतव्ये यदा अपरयादिशा गच्छति / तदा तत् विद्वारं विगत द्वारमित्यर्थः / यत्तक्रूरग्रहेणाक्रांत तत् सग्रह विलंबि यत् सूर्येण परिभुज्य भुक्तं अन्ये त्वाहुः / सूरगतान् नक्षत्रान् पृष्ठतस्तृतीयं तत्पृष्टतस्तृतीयं विलंबि इति। राहुहतं यत्र सूर्यस्य चंद्रस्य वा ग्रहणं यस्य मध्ये नग्रहोऽगमत् ग्रहभिन्नं / एतानि सप्तनक्षत्राणि चन्द्रयोगयुक्तानि वर्जयेत्। यत एतेष्विमे दोषाः / / संज्झागयंमि कलहो, होइ कुभुत्तं विलंविनक्खते। विड्डोरपरविजयो,आदिचगए अनिव्वाणी।। जं सग्गहमि कीरइ, नक्खत्तेतत्थवुग्गहोहाइ / राहुइयंमि यमरणं, गहभिन्ने सोणिउग्गालो। संध्यागते नक्षत्रे शुभप्रयोजनेषु प्रारभ्यमाणेषु कलहो राडिर्भ-वति। विलंबनक्षत्रे कुभक्तं विद्वारे परेषां शत्रूणां विजयः / आदित्यगते रविगते अनिर्वाणिरसुखं स्वग्रहे पुनर्नक्षत्रे यत् क्रियतेतत्र व्युद्ग्रहः संग्रामो भवति। राहुहते मरणं ग्रहभिन्ने शोणितोगारः शोणितविनिर्गमः / एवं भूतेष्वप्रशस्त द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु नालोचयेत् किंतु प्रशस्तेषु तत्र प्रशस्ते द्रव्ये शाल्यादि-प्रशस्तधान्यराशिः मणिकनकमौक्तिकवज्रवैडूर्यपद्मरागादिराशिषु च प्रशस्तं क्षेत्रं साक्षादाह॥ तप्पडिवक्खेखेत्ते, उच्छुवणा सालिवेइयघरेवा। गंभीरमाणुणाए, पयाहिणावत्तउदयएय।। तस्य प्रागुक्तस्याप्रशस्तस्य क्षेत्रस्य प्रतिपक्षे प्रशस्तेक्षेत्रे इक्षुवने उपलक्षणक्षमेतत् / आरामे वा पत्रपुष्पफलोपेते (सालित्ति) वन शब्दोऽत्रापि संबंध्यते / शालिवने चैत्यगृहे वा शब्दो विकल्पो न तथा गंभीरे गंभीरं नाम भग्नत्वादिदोष वर्जितं शेषजनेन च प्रायेणालक्षणीयमध्यमभागं स्थानं गंभीरमस्थाद्यमिति वचनात् सानुनादे यत्रोचरिते शब्दे प्रतिशब्दः समंतात् उत्तिष्ठति। तत् सानुनादं तथा प्रदक्षिणावर्त्तमुदकं यत्र नद्यां पद्मसरसि वा तत् प्रदक्षिणावर्तोदकं तस्मिन्वा वशब्दो वा शब्दार्थः क्वचिद्वा शब्दस्यैव पाठः / प्रशस्त कालमाह।। उतदिणसेसकाले, उव्वट्ठाणा गहाय भावंमि। पुव्वदिसउत्तरावा, चारतिय जाव नवपुथ्वी॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 449 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा -- उक्तानि यानि दिनानि अष्टम्यादीनि तेभ्यो ये शेषा द्वितीयादयो दिवसास्ते च स कालश्च उक्तदिनशेषकालस्तस्मिन्प्रशस्तेव्यतीपातादिदोषवर्जिते उपलक्षणमेतत्। प्रशस्तेच करणे प्रशस्तेचमुहूर्ते एतत्कालतः प्रशस्तमुक्तं भावतः प्रशस्तमाह। उचं स्थानं येषान्ते उच्चस्थापना ग्रहाः। भावे भावविषयं प्रशस्तं / किमुक्तं भवति / भावत उच्चस्थाने गतेषु तत्र ग्रहाणामुच स्थानमेवं (सूर्यस्य मेष उच्चः स्थानं! सोमस्य वृषः / मंगलस्य मकरः / बुधस्य कन्या वृहस्पतेः कर्कटकः / शुक्रस्य मीनः / शनैश्चरस्य तुला। सर्वेषामपि च ग्रहाणामात्मीयादुचः स्थानात् यत्सप्तमं स्थानं तत् नीचः स्थानं / अथवा भावतः प्रशस्ता ये सोमबहा बुधशुक्रबृहस्पतिशशिन एतेषां संबंधिषु राशिषु एतैरवलोकितेषु च लग्नेषु आलोचयेत्। तथा तिस्रोदिशः प्रशस्ता ग्राह्याः। तद्यथा पूर्वा उत्तरा वरती च वरंती नाम यस्यां भगवानर्हद्विहरति समान्यतः केवलज्ञानी मनः पर्ययज्ञानी अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी त्रयोदशपूर्वी यावन्नवपूर्वी यदि वा योयस्मिन् युगे प्रधान आचार्यः स प्रातिहारिकान् यथा विहरति। एतासां तिसृणां दि शामन्यत-मस्या दिशोऽभिमुख आलोचना)ऽवतिष्ठते तस्ये यं सामाचारी // निसज्जासति पडिहारी य, किइकम्मं काउयं जलुक्कडुओ। पहुपडिसेवरिसां, सुय अणुण्णवेउं निसज्जमातो॥ आत्मीयकल्पैरपरिभुक्तैराचार्यस्य निषद्यां करोति / असति आत्मीय कल्पानामभावे अन्यस्य सक्तान् वा कल्पान् गृहीत्वा करोति। कृत्वा च यद्याचार्यः पूर्वाभिमुखो निषीदति तत आलोचकोदक्षिणत उत्तराभिमुखोऽवतिष्ठते / अथाचार्य उत्तराभिमुखो निषण्णः / तत आलोचको वामपार्श्वे पूर्वा-भिमुखस्तिष्ठति। वरंती च दिशं प्रत्यभिमुखो भवति / ततः कृति कर्मद्वादशावर्तवंदनकं कृत्वा प्रवृद्धोंऽजलिर्येन स प्रांजलिः। उत्सर्गत उत्कटुकस्थितः सन् आलोचयेत्। यदि पुनर्बहुप्रतिसेवितमस्तीति चिरेणालोचनापरिसमाप्तिमुपयास्यति तायंतं च कालमुत्कुटुकः स्थातुं न शक्नोति। यदि वा आर्शोरोगवत उत्कुटुकस्य सतोऽशासि क्षोभमुपयांति ततो बहुप्रतिसेवी। अर्शः सुबहुसु गुरुमनुज्ञाप्य निषद्यायामौपग्रहिक् पादपोंछने वा अन्यस्मिवा यथार्हे आसने स्थितः आलोचयंति किंपुनस्त दालोचनीयं उच्यते / चतुर्विध द्रव्यादि / तथा चाह॥ चेयणमचित्तदवं,जणवयसहाणे होइखेत्तंमि। दिणनिसिसुभिक्ख, दुरिभक्खकाले भावमिहेट्ठियरे॥ द्रव्यतश्चेतनं सचित्तमुपलक्षणमेतत् / मिश्रं वा अचित्तमचेतनं चा अकल्पिकं यत्किंचित्सेवितं क्षेत्रतो जनपदे वा अध्वनि वा कालतो दिने निशि वा यदि वा सुभिक्षे वा भावे हेट्ठियरे सप्तमी तृतीयार्थे हृष्टने इतरेण या म्लानेन सता यतनया वा दर्पणः कल्पतो वा तत् आलोचयति।। (11) यथाभूतेषु-द्रव्यादिष्वालोचना-तादृशानां प्रतिपादनम्॥ सम्प्रति यथाभूतेषु द्रव्यादिष्वालोचना तथाभूतद्रव्यादि प्रतिपादनार्थमाह ।।१व्य०१ उ०॥ आलोयणा विहाणं,तं चेव जं दिव्वखित्तकाले य। भावे सुद्धमसुद्धो, ससणिद्धे सातिरेगाई॥१॥ आलोचनाविधानं तदेवात्राऽपि सविस्तरमभिधातव्यं यदुक्तं प्रथमसूत्रे (दव्वादिच उरभिग्गहे) त्यादिना ग्रंथेन ततः प्रागुक्तदोषवर्जिताआलोचना प्रशस्ते द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च प्रागुक्तस्वरूपे दातव्या नाऽप्रशस्ते। इह प्रतिसेवितं द्विधा भवति / शुद्धमशुद्धच। तत्र यत्शुद्धेन भावेन प्रतिसेवितं यतनया च तत् शुद्ध / तचा शुद्धत्वादेते न प्रायश्चित्तविषयाः। यत्वशुद्धन भावेन प्रतिसेवितमयतलनया च तदशुद्धातच प्रायश्चित्तविषयेऽशुद्धत्वात् तस्मि श्वाशुद्धे प्रायश्चित्तानि केवलानि मासिकादीनि सातिरेकाणि (ससिणिद्धे) इति सस्निग्धे हस्ते मात्रके वा सति तेन भिक्षाग्रहणत उपलक्षणमेतत् तेन बीजकासंघट्टनादिनाऽपि सातिरेकाणि द्रव्याणि तत्र सातिरेकाणि द्रष्टव्यानि॥ व्य, पंचाoll (12) आलोचनासमयवर्णनम्॥ कालो पुण एताए, पक्खादी वण्णितो जिणिदेहिं। पायं विसिहिगाए, पुव्वायरिया तहा चाहु / / 9 / / व्या.। कालोऽवसरः पुनः शब्देष्वेवं योज्यं / आलोचनाया विधिस्तावदयं। कालः पुनरेतस्या आलोचनायाः पक्षादिरर्द्धमासप्रभृतिरादिशब्दाच्चतुर्मासादिग्रहः वर्णित उक्तोजिनें ट्रैरर्हद्भिः प्रायो बाहुल्येन / प्रायोग्रहणं यदैव विशिष्ट मपराधमाप न्नस्त-दैवालोचना कदाचित्करोति ग्लानत्वोत्थितोदीर्घाध्वगतादिर्वा न पक्षादिकमपेक्षत इत्येतदर्थसूचनार्थ किं सर्व स्यालोचनायाः पक्षादिकाल इत्यत्राही विशिष्टकाया विशेषवत्याः सामान्या पुनरावश्यकद्वये प्रतिदिनं विधीयत एवेति पक्षादिकमालोचनाकालं पूज्यवचनेन दर्शयितुमाह। पूर्वाचार्या भद्रबाहुस्वा-मिमिश्रास्तथा च तेनैव प्रकारेण पक्षादिप्रतिपादनपरतया आहुर्बुवत इति गाथार्थः यदाहुस्ते। तदेवाह॥ पक्खियचाउम्मासे, आलोयणणियमसो उदायव्वा / / गहणं अभिग्गहाण य, पुव्वगाहिए णिवेएउं / / 10 / / व्याा पक्षेऽर्द्धमासे भवं पाक्षिकं पर्व चतुर्दशी पंचदशी वा। चतुषु मासेषु भवं चातुर्मासं पर्व च ततो द्वंद्वैकत्वात्पाक्षिकचातुर्मासे किमित्याह / / आलोचना उक्तार्था हस्वत्वं प्राकृतत्वात् (नियमसाउत्ति) सकारस्य प्राकृतत्वान्नियमेन वावश्यत-यैवान्यनियमा दातव्या देया। तथा ग्रहणं चोपादानं विधेयमभिग्रहाणां नियमानां चः समुच्चयार्थो योजितश्च पूर्वगृहीतान् प्रागुपात्ता निवेध गुरोराख्यायेति गाथार्थः।। किंपुनः पक्षादावभिमतेयमित्याह !! जीयमिणं आणाओ,जयमाणस्सविया दोससब्भावा।। पम्हसणपमायाओ,जलकुंभमलादिणाएण।। व्या० / / जितमाचरितं पूर्वमुनीनामिदं पक्षादावनतिचारणा-मप्योधत आलोचनादानं तथा आज्ञातः आप्तोपदेशात्पक्षादा-वालोचनेति प्रकृतं तथा यतमानस्याऽपि च संयमे घटमानस्याऽपि चास्तामितरस्य दोषसद्धावादतिचारसभवादालोचनेति प्रकृतमथकथं यतमानस्यातिचार इत्याह / (पम्हसणंति) विस्मरणं प्रमादश्च प्रमत्तता ताभ्यामत्रोदाहरणमाह / जलकुंभमलादि ज्ञातेन नीराधारघटमालिन्यहेतुप्रभृत्युदाहरणेन यथाहि जलकुंभे नित्यं प्रक्षाल्यमानेऽपि मलसंचयो भवतीत्येवं यतमानस्याऽप्यतिचारभाव आदिशब्दात् ग्रहकचवरादिग्रहः। आह / जहगेहं पतिदियहंपि, सोहियं तहय पक्खसंधीसु। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 450 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा M सोहियजइ सविसेसं, एवमिहयंपिनायव्वम्॥ इति गाथार्थः // आलोचना परसाक्षिकी कर्तव्या पंचा० वृ०१५ आलोचना अदाउं, सति अण्णमिवि तहप्पणो दाउं। जे विहु करेंति सोहिं, ते विससन्ना विणिहिट्ठा // आलोचनां विकटनामदत्वाऽविधाय शुद्धिं कुर्वति। स्वकल्पनया तथा (सइअन्नंमि विति) अन्यस्मिन् परस्मिन् गीतार्थे सत्यपि विद्यमानेऽपि तथेति समुच्चये आत्मनः स्वस्यैव दत्वा विधाय लज्जादेः कारणान् अनेन च परसद्भावे परस्यैवतां यच्छन् शुद्ध्यतीत्युक्तं भवति यदाह! छत्तीसगुणसंपन्ना, गण्णते णावि अवस्सकायव्वा। परसक्खिया विसोही, सुकृवि ववहारकुसलेण॥ पराभावे त्वात्मनोऽपि यच्छन् शुद्ध्यति केवलसिद्धान् साक्षीकृत्य यदाह / (सिद्धा च साणायतया) गीतार्थप्राप्तौ निवेदयिष्यामीत्यध्यवसायान् स्वयमेव प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य तद्विदधानो गीतार्थः शद्ध्यतीत्युक्तं भवतीति / येऽपि अपिशब्दाचे न कुर्वत्येवं / हुशब्दोऽलंकृतौ / कुर्वति शोधि विशुद्धि प्रायश्चित्तप्रतिपत्यादिना ते तदन्येऽपि सशल्याभावशल्यो पेता विनिर्दिष्टाः उक्ता जिनैरिति गाथार्थः / स्वयं शल्योद्धारे सशल्यतैवेति दृष्टांतेनाह। किरियण्णुणाविसंमंपि,रोहिउ जद्द वणो ससल्लोउ। ओहोइ अपच्छो, एवं अवण्हवणो विचिनो / / 4 / / क्रि याज्ञेनापि व्रणचिकित्सावेदिनाप्यास्तां तदन्येन सम्यमपि सर्वथाऽप्यास्तामसम्यक् रोहितो रूढतां नीतः यथा यद्वत्वृणो देहक्षत सशल्यो दुष्टगर्भोपातः सन् तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च भवति जायते अपथ्य एवाहित एव परिणतो मरणकारणत्वात् एवं तद्वदन्यस्मै अनिवेदितशल्यस्यापथ्या एवानंतमरणादिकार-णत्वात्कोऽसावित्याह अपराधाव्रणोऽपि चरणरूपशरीरश्रयाति-चारक्षतमपि न केवलं देहव्रण एव विज्ञेयो ज्ञातव्यस्तत्वतस्तस्या-नुद्धृतत्वादन्यविनिवेदनमेव हि शल्योद्वार इति गाथार्थः। इदानीं यस्मै आलोचना दीयते तेनाऽप्यालोचयितव्यम् इत्येतदेवं प्रदर्शयन्नाह ओघ.। (छत्तीसेत्यादि) जातिकुलबलरूपादिषत्रिंशद्गुणसमन्वि-तेनाऽपि अवश्यं पर साक्षिका विशुद्धिः कर्तव्या सुष्ठुअपिज्ञानक्रियाव्यवहारकुशलो न सुविहितेनेति। व्य०उ०१०। जह कुलसो वि वेजो, अन्नस्स कहेइ अत्तणोवादि। विज्जस्स य सोयंतो, पडिकम्मं समारभतो।। जाणं तेणविएवं,पायच्छित्तविहिमप्पणो विउणं। तहवि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होइ॥ यथा सुकुशलोऽपि वैद्योऽन्यस्याऽत्मनो व्याधिं कथयति / सोऽपि वैद्यस्य श्रुत्वा व्याधिकथनं ततः प्रतिकर्म समारभते / एवं प्रायश्चित्तविधिनात्मनो निपुणं जानताऽपि तथापि प्रकटतरमालोचयितव्यं भवतीति कृत्वा अन्यस्य समीपे आलाच-यितव्यम्।। ओघ०॥ ग० अधि०१॥ (13) कस्य समीपे आलोचना कर्तव्या / / आलोयणाउपनियमागीयसगीएव केसिवि। (आलोयणाउ) इत्यादि। सा आलोचना नियमावश्यं तथागीतमिति प्राकृतत्वात्।षष्ठ्यर्थे प्रथमा तस्य गीतार्थस्य सकाशे कर्तव्या नाऽगीतार्थस्य अत्रैव मतांतरमाह। (अगीयकेसिंवि) केषां-चिदाचार्यणामिदं मतं उत्सर्गतस्तावदाचार्यस्य समीपे आलो-चयितव्यं / यदा पुनराचार्यः संज्ञादिप्रयोजनगतो भवति। गीतार्थस्यापि समीपे तदा भिक्षाद्यालोचनीयमिति / / गीतार्थस्यालोचना देयेत्युक्तमथ दुर्लभत्वे तस्य यद्विधेयन्तदाह ! पंचा. वृ.१५॥ सल्लुद्धरणनिमित्तं,गीयस्सन्ने सणाउउकोसा। जोयणसयाई सत्त, उबारसवरिसाइकायव्वा / / 4 / / व्या.। शल्योद्धरणानिमित्तमालोचनार्थगीतस्यगीतार्थस्यगुरो रन्वेषणा तु गवेषणा पुनरुत्कर्षादुत्कृष्टतः कियात् क्षेत्रकाल विषयेत्याह। योजनशतानि प्रतीतानि सप्त तु सप्तैव यावत् तच्छा द्वादशवर्षाणि संवत्सरान् यावत् कर्तव्या विधेयेति / इह च / शेषविशेषणानुपादानेन यद्गीतार्थग्रहणं कृतं तत्सकलोक्तगुणयुक्ताचार्यालाभे संविग्रगीतार्थमात्रस्याऽप्यालोचनाऽचार्यत्वज्ञापनार्थं यतः श्रूयतेऽपवदतो गीतार्थसंविनपाक्षिकसिद्धपुत्रप्रवचनदेवता-नामलाभसिद्धानामथालोचना देया सशल्यमरणस्य संसार-कारणत्वादित्याह च!। (संविग्गे गीयत्थेससई पासत्थमाई सा रूवीति) गाथार्थः / / प्रवच० द्वा०१२९॥ (तथा च व्यवहारकल्पे विहारालोचनामधिकृत्य-)१व्य० उ०१॥ पक्खियचउवसंवच्छर, उक्कोसं वच्छरउक्कोसं बारसएहवरिसाणं / समणुन्ना आयरिया, फडुगपतितायविडेंति॥ समनोज्ञा एकसंभोगिका आचार्याः परस्परं तथा स्पर्द्धकपतयश्च स्वमूलाचार्यस्य समीपे पाक्षिके तत्राभावे चातुर्मासिके तत्राप्यभावे सांवत्सरिके तत्राप्यसत्यन्यदा (उक्कोस) मित्यादि / / उत्कर्षतो द्वादशभिर्वर्षः सूत्रे षष्ठी तृतीयार्थे प्राकृतत्वादूरादप्यागत्य विहार विकटयंति प्रकटयंति आलोयंतीत्यर्थः / एष गाथाक्षरार्थः / भावार्थो वृद्धसंप्रदायादवसातव्यः।। सवायं संभोइया आयरिया पक्खिए आलोएंति उमोयएयणीयस्स आलोएइ / रायणितोविओ मरायणियस्स आलोएइ जइसेरायणिओ नच्छि। जइ पुण ओमराइणितोविओगो वा गीयत्थो न भवइ / तो वा चउम्मासिए आलोएइ तथा वि असंवच्छरिए तथा वि अतसीए जत्थ मिलए रायणियस्सओ मगीयत्थस्स वा तत्थ उकोसेणं वारसहि वरिसेहिं दूरतोवि आगंतुं आलोएयव्वं / फडगय इहिं विआगंतु आलोएयव्वं फडुगयइयावि आगंतुं पक्खियाइ अमूलायरियस्स समीवे आलोएंति इति॥ तथा च व्यवहारसूत्रम्॥ जे भिक्खू अन्नयरं अकि बगणं पडि से वित्ता इच्छे जा आलो इत्तए जत्थे व अप्पणो आयरियं उवज्झाए पासिजा कप्पई ते सिं तिए आलोइत्तएवा पडिक मित्तए वा विउदित्तए वा सोहित्तए वा अकरणाए अग्भुष्ठित्तएवा Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 451 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा अहारिहं तवोकम्मंपायच्छित्तं पडिवज्जित्तए वाणो चेवणं अप्पणो आयरियं उवज्झाए पासेजा जत्थेव संभोइयं बहुस्सुयं बहु आगमं पासेज्जा कप्पइ से तंम्मत्तिए आलोइत्तए बा जाव पडिकमित्तए वा णो चेवणं संभोइयं साहम्मियं बहुस्सुयं बहुआगमं पासे जाव जत्थे व असंभोइयं साहम्मियं बहस्सय बहुआगमं पासेजा कप्पइसेवं संठिए आलोइत्तए वा जाव पडिवजित्तए वा णो चेवणं अन्नसंभोइयं साहम्मियं बहुसुयं आगामियं पासेज्जा वा सारूवियं बहुस्सुय बहुआगमं पासेजा कप्पइ तंसंतिए आलोइत्तए वा पडिकमित्ति वा जावपडिवजीत्तए वा नो चेवणं सारूवीयं बहुस्सुयं बज्झागमं पासेजा जत्थेव समणो वासगंपच्छा कडंबहुस्सुयं वज्झागम पासेज्जा कप्पइसे तस्संतिए आलोइत्तएवा जावपडिवज्जित्तए वाणो चेवणं समणो वासगं पच्छाकडं बहुस्सुयं वज्झागमं पासिज्जा जत्थेव दसमं भावियाइं चेइयाइपासेज्जा कप्पइ से तस्संतिए आलोइत्तए वा जाव पडिवज्जित्तए वा णो चेव समभावियाई चेइयाइं पासेजा बहियागामस्स वा जाव सन्निवेसस्स वा पाइणाभिमुहे वा उदिणाभिमुहेवा करपल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकटु कप्पई सेएएवं ववइत्तए एवइयामे अवराहा एवं तिक्खु त्ताय अहं अवर अरिहंताणं सिद्धाणं अंतिएआलोएज्जा पडिकमेजानिदेजाजाव पायच्छित्तंपडिवेञ्जासित्तिबेमि / / 3 / / व्याख्या / भिक्षुरन्यतरत् अकृ त्यस्थान से वित्वा प्रतिसेव्य इच्छेत् / आलोचयितुं स वालोचयितुमिच्छुर्यत्रैवात्मन आचार्योपाध्यान्यपश्येत्तत्रैव गत्वा तेषामंतिके समीपे आलोचयेद तीचार जातं वचसा प्रकटीकुर्यात् प्रतिक्रामे न्मिथ्यादुष्कृतं तद्विषये दद्याद्यावत्कारणात् निदेजा गरहेज्जा विउडेजा विसोहेज्जा / अकरणयाए अब्भुठेज्जा अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडि-वज्जेज्जा) इति परिग्रहः तत्र निंदाद्यात्मसाक्षिकं जुगुप्सेतु गर्हेत् गुरुसाक्षिकं निंद्यात् इह निंदनगर्हणमपि तात्विकं तदा भवति यदा तत्करणतः प्रतिनिवर्तते // तत आह (उबढेजा) इति तस्मा-दकृत्यप्रतिसेवनात्व्यावर्तेत निवर्तेत। व्यावृतावपि कृतात् पापात्तदा मुच्यते यदात्मनो विशोधिर्भवति / तत आह। आत्मानं विशोधयेत्। पापमलस्फोटनतो निर्मलीकुर्यात्। साच विशुद्धिर-पुनः करणतायामुपपद्यते। ततस्तामेव / पुनः करणतामाह। अकरणतया पुनरभ्युत्तिष्ठेत् पुनरकरणतया अभ्युत्थानेऽपि विशोधिः प्रायश्चित्तप्रतिपतिर्भवति / तत आह यथार्ह यथायोग्यं तपः कर्म तपोग्रहणमुपलक्षणं छेदादिकं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येत / यदि पुनरात्मीयेष्वाचार्योपाध्यायेषु सत्सु अन्येषामंतिके आलोचयति। ततः प्रायश्चित्तं तस्य चतुर्गुरु यदि पुनरात्मन आचार्योपाध्यायान्न पश्येत् अभावाद् दूरव्यावधानतो वा ततो यत्रैव सांभोगिकं साधर्मिकं विशिष्टसामाचारीनिष्पन्नं बहुश्रुतं च्छेदग्रंथादिकुशलं उद्भ्रामकमुद्यतविहारिणं पाठांतरं बव्हा-गममर्थतः प्रभूतागमं पश्येत्तस्यांऽतिके आलोचयेदत्रापि यावत्करणात्पडिक्कमेज्जा इत्यादि पदकदबंकपरिग्रहः। यदि पुनस्तस्य भावे अन्यस्य सकाशे आलोचयति / तदा चतुलधु - वक्तव्यं / सांभोगिकसाधिम्मिकबहुश्रुतस्यांतिके तस्याऽप्यभावे सारूपिको वक्ष्यमाणस्वरूपः तस्याऽप्यभावे यत्रैव सम्यग्भावितानि जिनवचनवासितांतः करणानि दैवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामंतिके आलोचयेत् तेषामप्यभावे बहिग्रामस्य यावत्करणात्।। नगरस्सवा निगमस्स वा रायहणिए वाखंडस्सवा। पट्टणस्स वादोण्णमुहस्स वा असमस्सवासंदाहस्सवासंन्निवेसस्स वा॥ इतिपरिग्रहः प्राचीनाभिमुखोवा उदीचीनाभिमुखो वा सूर्यदिगभिमुख उत्तरदिगभिमुखो वा इत्यर्थः // इह चिरंतनव्या करणेषु दिश्यपिस्त्रियामभिधेयामामीन् प्रत्ययः स्वार्थे भवति। तत एवं निर्देशः। पूर्वोत्तरादिग्रहणमालोचनायामेतयोरेव दिशयोरर्हत्वात् / करतलाभ्यां प्रकर्षण गृहीतः करतलप्रगृहीतः / तं तथा शिरस्यावर्तो यस्य स शिरस्यावर्तः कंठे कालवदलुकसमासः।तमस्तके अंजलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणरीत्या वदेत्॥ तामेव रीतिं दर्शयति / एतावंतो मे ममापराधाः एतावत्कृत्व एतावतो वारान् यावदहमपराद्ध एवमपराध एवमर्हतां तीर्थकृतं कथंभूतानामित्याह / सिद्धानामुपगतमलकल्पकानामंतिके आलोचयेदित्यादि पूर्ववदेष सूत्रसंक्षेपार्थः॥ अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः / तत्र यदुक्तमकृत्यं स्थानं सेवित्वेति तद्विषयमुपदर्शयति। अन्नयरं तु अकिव्वं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य / मूलं व सव्वदेसं, ए मेव य उत्तर गुणेसु / / अन्यतरद कृत्यं पुनः सूत्रोक्तं मूलगुणे मूलगुणविषयमुत्तरगुणे वा उत्तरगुणविषयं वा तत्र मूलं मूलगुणविषयं सर्वदेश वा सर्वथामूलगुण स्योच्छेदे देशतोवा इत्यर्थः / एवमेवानेनैव प्रकारेण उत्तरगुणेष्वपिद्वैविध्यं भावनीयं / तद्यथा। उत्तरगुणस्याऽपि सर्वतो देशतो वा उच्छेदेनेति तत्रैव व्याख्यानांतरमाह // अहवा पणगादीयं,मायसादीयं वाविजाव छम्मासा एवं तथारिहं खलु, छेदादि चउण्हवेगथरं॥ अथवेति अकृतस्य स्थानस्य प्रकारांतरतोपदर्शने पंचकादिकं रात्रिंदिवपंचकप्रभृतिप्रायश्चित्तस्थानमकृत्थं स्थानं यदिवा मासादितच तावद्यावत्षएमासाः। एतत् खलु अकृत्यस्थानंतापाहं तपोरूपप्रायश्चित्ताहयदि वा छेदा दीनां चतुण्णां प्रायश्चित्तस्थानमकृत्य स्थानं तदेवमधिकृत्य स्थानं व्याख्याय यथास्वकीयाचार्योपाध्यायादीनामदर्शनं संभवति / तथा-प्रतिपादयति।। आउयवाघाययं, वाहुल्लहगीयं चपत्तकालंत। अपरकममासजव, सुत्तमिणंतदिसा जाव।। स्वकीयानामाचार्या पाध्यायानामायुषो ध्याघातोऽभवत् / जीवितस्य बहुधातसंकुलत्वात् यदिवा तस्यैवाऽलोचकस्यायुर्यावदाचायाँ पाध्यायादिसमीपे. गच्छति तावत् न प्रभवति स्तोकावशेषत्वात् / तत आयुषो व्याघातं वा आश्रित्य तथा Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 452 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा भाविष्यति कालो यत्र दुर्लभो गीतार्थः आलोचनार्हस्तत एष्यन्त कालमधिकृत्य दुर्लभं गीतार्थं चाश्रित्य तथा जंघाबलपरिहान्या रोगातंकेण वाजातोऽपराक्रम आलोचकस्ततस्तं वा प्रतीत्य सूत्रमधिकृतं प्रवृत्तं यावद्दिशादिसूत्र / अत्र पर आह / ननुपूर्व-मेकाकिविहारप्रतिमासूत्राणि व्याख्यातानि / यथा एकाकि विहारे दोषाः / तदनंतरं पार्श्वस्थादिविहारोऽपि प्रतिषिद्धः / ततो नियमाद्च्छे वस्तव्यमिति नियमितं / एवं च नियमिते कथमेकाकी जातो येनोच्यते यत्रैवात्मन आचार्योपाध्यायान्पश्येत्तत्रैव गत्वा तेषामंतिकं आलोचयेदित्यादि। अत्र सूरिराह॥ सुत्तमिणं कारणियं, आयरियादीण जत्थ गच्छंमि। पंचएहं हो असती, एगो व जहिं न वसियध्वं / / सूत्रमिदमधिकृतं कारणिकं कारणे भवं कारणिकं कारणे सत्येकाकिविहारविषयमित्यर्थः / इयमत्र भावना। बहूनि खल्वशिवादीनि एकाकित्यकारणानि ततः कारणवशतोयो जात एकाकी तद्विषयमिदं सूत्रमिति न कश्चिद्दोषः अशिवादीनि तु कारणानि मुक्त्वा आचार्यादिविरहितस्य न वर्त्तते वस्तुं तथा चाह / यत्र गच्छे पंचानामाचार्योपाध्यायगणा वच्छेदिप्रवृत्तिस्थ-विररूपाणामसदभावो यदिवा यत्र पचानामन्यतमोऽप्येकोन विद्यते। तत्रनवस्तव्यमनेकदोषसम्भवात्ता नेव दोषानाह। एवं असुभगिलाणे परिण्णकुलकज्जमादिवग्गउ / अण्णस्सतिसल्लस्सा जीवियथाते चरणघातो॥ एवमुक्तेन प्रकारेण एकादिहीने गच्छे एकोऽशुभकार्ये मृत-कस्थापनादौ अपरोल्हानप्रयोजनेष्वन्यः परिज्ञायां कृत-भक्तप्रत्याख्यानस्य देशनादौ अपरः कुलकार्यादौ व्यग्र इति। अन्यस्य पंचमस्याऽप्यंत्यावस्थाप्राप्तस्य आलोचनाया असंभवेनसन्यस्य सतो जीवनाशे चरणव्याघातवरणगात्रभ्रंशश्चरणभ्रंशे च शुभगतिविनाशः / अत्र पर आह।। एवं होइ विरोहो आलोयणापरिणतोउ सुद्धोउ। एगतेण पमाणं परिमाणो वीन, खलु अम्हं॥ नत्येवं सति परस्परविरोधस्तथाहि भवद्भिरिदानीमेवमुच्यते / सशलयस्य सतो जीवितनाशे चरणभंशः / प्राक्त्वेवमुक्तमदत्तलोचनेऽप्यालोचनापरिणामपरिणतः शुद्ध इति ततो भवति परस्परविरोधः / अत्र सूरिराह (एगते णेत्यादि) न खल्वस्माकं स्वशक्त्यनिगूहनेन यथाशक्तिप्रवृत्तिविरहितः केवलपरिणामः एकांतेन प्रमाण तस्य परिणामाभासत्वार्तिकतु सूत्रं प्रमाणीकुर्वतो यथाशक्तिप्रवृत्तिसमन्वितः। नचैकाद्यभाव गच्छे वसन् सूत्रमनु-वर्तते। ततस्तस्य तात्विकपरिणाम एव नेति सशल्यस्य जीवितनाशे चरणनाशः / पुनरपि भक्तव्यांतरं विवक्षुः प्रश्नमुत्थापयाति। चोयग किं वा कारण, पवण्ह सती तहिं न वासियव्वं / दिटुंता वाणियए, पिंडियआत्थे वसिउकामो ||शा चोदक आह॥ यत्रपंचानां परिपूर्णानामसदभावः तत्र न वस्तव्यमित्यत्र किंवाकारणं को नाम दोषः // सूरिराह / / अत्र अधिकृतार्थे वाणिजोपीडितार्थेन वस्तुकामेन दृष्टान्तः / / उप-मागाथायां सप्तमी तृतीयार्थे / / इयमत्र भावना / / कोऽपि वणिक् तेन प्रभूतार्थे पीडितस्ततः सोऽचिंतयत् कुत्र मया वस्तव्यं यत्रैनमर्छ परिभुजेऽहमिति ततस्तेन परिचिंत्येदं निश्चिक्ये॥ तत्थ न कप्पइ वासो आहारो जच्छ नत्थि पंच इमे। राया वेज्जाधणिमं नेवइया रूवजक्खा य॥ तत्र गमनं कल्पते वासो यत्रेमे वक्ष्यमाणाः पंच नाधाराः। केते इत्याह। राजा नृपति वैद्यो भिषक् अन्ये च धनवन्तो नैतिका नीतिकारिणो रूपयक्षाः धर्मपाठकाः कस्मादिति चेदत आह॥ दविणस्स जीवियस्सव, वाघातो होज जत्थ नत्थेतो। वाघाए एगतरस्स, दव्यसंघाडणा अफला॥ यत्र नसंत्थेते राजादयः परिपूर्णाः पञ्च नियमतो द्रविणस्य धनस्य जीवितस्य वा व्याघातो भवेत् वैद्येन विना जीवितस्य राजादिभिर्विना धनस्य व्याघातो चैकस्य धनस्य जीवितस्य वा द्रव्यसंघाटना द्रव्योपार्जना विफला परिभोगस्थासम्भवादथवा॥ रण्णा जुवरण्णा वा, महरयय अमचतहकुमारेहि। एएहिं पडिग्गहियं, वसेज्ज रजं गुणविसालं।। राज्ञा युवराजेन महत्तरकेनामात्येन तथाकुमारैरेभिः पंच परिगृहीत राज्यं गुणविशालं भवति गुणविशालत्वात् तद्व सेत् आ-चार्योपाध्याप्रवर्तिस्थविरगीतार्थान् प्रतिपाद्यव्य, उ०१ एवमाचार्यपंचकसमेते गच्छे वस्तव्यं / यदि पुनः किं चिदपराधं प्राप्तो भवति गच्छश्च पंचकपरिहीनस्तदायं दृष्टांतः। जह पंचकपरिहीणं, रज्जडंमरभयवोरउदिवगं / उग्गहियसगडपिडगं, परंपरवचए सामि।। यथा राज्यं राजादिपंचकपरिहीनं संतं डमरं स्वदेशोत्थो विप्लवः भयं परचक्रसमुत्थं तस्कराश्चौरास्तैरुद्विग्नमुपगतं परित्यज्य आत्मीयं चशकटपिटकमुद्गृह्य परंपरंस्वामिनं द्राग्व्रजति यत्र स्वास्थ्यं लभते। इयपंचकपरिहीने, गच्छे आसन्नकारणे साहू। आलोयणमलहंतो, परंयाव बसिद्धे // इत्येवमनेन दृष्टांतप्रकारेण पंचकपरिहीने आचार्यादिपंचक विरहिते गच्छेप्रायश्चित्तस्थानमापन्नः साधुः कारणेन प्रामुक्तेन आयुयाघातादिरूपेण निजाचार्यादीनामंतिके आलोचना मलभमानः सूत्रोक्तया नीत्या परंपरमन्यसांभोगिकादिकं तावद्ब्रजति यावत् सिद्धान् गच्छति एतदेव सविशेषमाह। आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छे वहियाजो। वोचत्थेचउलहुगा, गीयत्थे हों ति चउगुरुगा। आचार्येआचार्यसमीपे आलोचनादातव्या / गच्छे पंचानामाचार्यादीनामसति गच्छादहिगंतव्यं इयमत्र भावना / प्रायश्चित्तस्यानमापनेन साधुना नियमतः स्वकीयानामाचार्याणां समीपे आलोचयितव्यं तेषामभावे उपाध्यायस्य तस्याऽप्यभावे प्रवर्तिनस्तस्थाऽभावे स्थविरस्य तस्याऽप्यभावेगणावच्छेदिनः अथ स्वगच्छेपंचानामप्यभावस्ततो बहिरन्यस्मिन्सांभोगिकानामाचार्यादीनामभावे संविनानामसांभोगिकानां समीपे गंतव्यं तत्राप्याचार्यादिक्रमेणालोचना प्रदातव्या। यदा पुनरुक्तक्रमोल्लंघनेनालोचनां प्रयच्छति तदा प्रायश्चित्तं चतुलघु / तथा चाह (वावुच्छे चउलहुगा) इति व्यत्यस्ते विपर्यासे उक्तक्रमोल्लंघने इत्यर्थः / चत्वारो लघुकाः लघुमासा यदि पुनरुक्तक्रममुल्लंघयन् अगीतार्थसमीपे आलो चयति / तद Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 453 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु। एतदेवाह (गीयत्थे होति चउगुरुगा) तदेवं संविनानां संभोगिकात् यावत् विधिरुक्तः। संप्रति शेषान्प्रति विधिमाह / / संविग्गे गीयत्थे, सरूविपच्छाकडे य गीयत्थे। पडिकंते अन्भुट्ठिय, असती अन्नत्थ तत्थेव / / संविग्ने अन्यसांभोगिकलक्षणे असति अविद्यमाने पार्श्वस्थस्य गीतार्थस्य समीपे आलोचयितव्यं तस्मिन्नपि गीतार्थे पार्श्वस्थे असति सारूपिकस्य वक्ष्यमाणस्वरूपस्य गीतार्थसमीपे तस्मिन्नपि सारूपिके असति पश्चात्कृतस्य गीतार्थसमीपे आलोचयितव्य! एतेषां च मध्ये यस्य पुरत आलोचना दातुमि-ष्यते। तमभ्युत्थाप्य तदनंतरस्य पुरत आलोचयितव्यं / अभ्युत्थानं नामवंदनकप्रतीच्छनादिकं प्रत्यभ्युपगमकारोपणा / / तथा चाह / (पडिक्वंते अब्भुठ्ठिएत्ति) अभ्युत्थिते वंदनाप्रतीच्छनादिकं प्रति कृताभ्युपगमेऽतिक्रांतो भूयात् नान्यथा अथ ते पावस्थादय आत्मानं हीनगुण पश्यंतो नाभ्युत्तिष्ठति तत आह (असतित्ति) असति अविद्यमाने अभ्युत्थाने पावस्थादीनां निषद्यामारचय्य प्रणाममात्रं कृत्वा लोचयनीयमितरस्य तु पश्चात्कृतस्य इत्वरसामायिकारोपणं लिंगप्रदान च कृत्वा यथाविधि तदंतिकमालोचनीयं (अन्नत्थ तत्थवत्ति) यदि पार्श्वस्थादिकोऽभ्युत्तिष्ठत्ति। तदा तेनान्यत्र गंतव्य येन प्रवचनलाघवं न भवति / तत्र च गत्वा तमापन्नप्रायश्चित्तं शुद्धतपो वहति मासा-दिमुत्कर्षतः षण्मासपर्यवसान यदिवा प्रागुक्तस्वरूपंपरिहारतपः। अथस नाऽभ्युत्तिष्ठतिशुद्धंच तपः। तेन प्रायश्चित्तं दत्त ततस्तत्रव तपो वहति / एतदव असति इत्यादिकं व्याख्यानयति॥ असतीए लिंगकरणं, सामाइय इत्तरं च कितिकम्म। तत्थेवय सुद्धतवो, गवेसणा जाव सुहदुक्खे॥ असती अविद्यमाने पश्चात्कृतस्याऽभ्युत्थाने गृहस्थात्त्वात् लिंगकरणं इत्वरकाल लिंगसमर्पणं तथा इत्वरमित्वरकाल सामायिकमारोपणीयं। / ततस्तस्यापि निषद्यामारचय्य कृति कर्म वंदनकं कृत्वा तत्पुरत आलोचयितव्यं / तदेवमसतीति व्याख्या-तमधुना तत्त्येवत्ति व्याख्या। यदि पार्श्वस्थादिको नाभ्युत्तिष्ठति शुद्धं च तपस्तेन प्रायश्चित्तं तथा दत्तं ततस्तत्रैव तत् शुद्धं तपो वहति यावत्तपो वहति / तावत्तस्यालोचना प्रदायिनः सुखदुःखे गवेषयति / सर्वमुदंतं वहतीत्यर्थः / पश्चात्कृतमेव विधिमाह // लिंगकरणं निसेज्जा, कितिकम्ममणिच्छत्तो पणामो य। एमे व देवयाए, न वरं सामाइयं मुत्तुं // पश्चात्कृतस्येत्वरकालसामायिकारोपणपुरस्सरमित्वरकालं लिंगकारणं रजोहरणसमर्पणं तदनंतरं निषद्याकरणंततः कृतिकर्मवंदनकं दातव्यं / अथसवंदनकं नेच्छति। ततस्तस्य कृतिकर्ममनिच्छतः प्रणामो वाचा कायेन प्रणाममात्र कर्त्तव्यं पार्श्वस्थादेरपि कृतिकानिच्छायां प्रणामः कतर्व्यः / एवमेव अनेनैव प्रकारेण देवताया अपि सम्यक्तवभावितायाः पुरतः आलोचयति ते वरंसामायिकारोपणलिंगसमर्पणं न च कर्तव्यमविरतत्वेन तस्यास्तद्योग्यताया अभावात्। यदुक्तं (गवेषणा जाव सुहदुक्खे) इति तद्व्याख्यानयति॥ आहारउवहिसेजा, एएसणमादीसु होइजइयव्वं / अणुमोयणकारावण, सिक्खत्तिपयम्मितो सुद्धो। आहारः पिंड उपधिपात्रनिर्योगादिः शय्या वसतिरेषणाशब्दः प्रत्यकमभिसंबध्यते। आहारैषणायामुपध्येषणायां शय्यै-षणायामादि शब्दाद्विनयवैयावृत्यादिषु च भवति / तेन यतितव्य कथमित्याह / अनुमोदनेन कारापणेन च। किमुक्तं भवति / यदि तस्याऽलोचनार्हस्य कश्चिदाहारादीनुत्पादयति / ततस्त-स्यानुमोदनाकरणतः प्रोत्साहने यतते / अन्यथाऽन्यः कश्चिन्नो-त्पादयति ततः स्वयमालोचक आहारादीन् शुद्धानुत्पादयति / अथ शुद्धं नोत्पद्यते / ततः श्राद्धात् प्रोत्साहाकल्पि-कानप्याहारादीन् यतनया उत्पादयतीति / अथाकल्पिका नाहारादीनुत्पादयतः तस्य महती मलिनतोपजायते / अथ चस शुद्धिकरणार्थं तदति-कमागतस्ततः परस्परविरोधः अत्राह (सिक्खत्तिपयम्मितो सुद्धो) यद्यपि नाम तस्यालोचनाहस्थाथायाकल्पिकानप्या हारादीनुत्पादयति / तथाप्या-सेवनाशिक्षा तस्याऽतिके क्रियते / वितिपदे अपवादपदे स तथा वर्तमानः शुद्ध एव एतदेव भावयति॥ चोइयसे परिवार, अकरेमाणे भणाइ वा सढे। सव्वोच्छित्तिकरिस्स उ, सुयभत्तीएकुणहयूयं / / प्रथमतः। सेतस्यालोचनाहस्य परिवारंवैयावृत्त्यादिकमकुर्वतं चोदयति शिक्षयति / तथा ग्रहणासेवना शिक्षानिष्णात एष तत एतस्य विनयवैयावृत्त्यादिकं क्रियमाणं महानिर्जराहेतुरिति। एवमपि शिक्षमाणो यदिन करोति। ततस्तस्मिन्नकुर्वाणे स्वय-माहारादीनुत्पादयति। अथ स्वयं शुद्ध प्रायोग्यमाहारादिकं न लभते। ततः श्राद्धान् भणति प्रज्ञापयति प्रज्ञाप्य च तेभ्योऽ-कल्पिकमपि यतनया संपादयति नच वाच्यं तस्यैवं कुर्वतः कथं नदोषो यत आह (अब्बोच्छित्तीत्यादि) अव्यवच्छित्तिकरणस्य पार्श्वस्थादेः श्रुतभक्तया हेतुभूतया अकल्पिकस्याप्याहारादेः श्रुतभक्तया पूजां कुरुत यूयं नच तत्र दोष एवमत्रापि / इयमत्र भावना / / यथा कारणे पार्श्वस्थादीनां समीपे सूत्रमर्थं च गृण्हानोऽकल्पिकमप्याहारादिक यतनया तदर्थं प्रतिसेवमानः शुद्धो ग्रहणशिक्षायाः क्रियमाणत्वादेवमालोचनार्हस्याऽपि निमित्तं प्रतिसे वमानः शुद्ध एव आसेवनाशिक्षायास्ततत्समीपे क्रियमाणत्वादिति / एतदेव स्पष्टतरं भावयति॥ दुविहा सती एतेसिं,आहारादी करेइ सध्वेसिं। पणहाणीय जयंतो, अत्तहाए वि एमेव / / इह परिवाराभावे तस्याऽलोचनार्हस्य कर्तव्यमिति सामाचारी तेषां च पार्श्वस्थादीनां दुविहा असती इति परिवाराभावो द्विविधः / विद्यमानाभावोऽविद्यमानाभावश्च / विद्यमानः सन् अभावाऽसन् वैयावृत्यादेरकरणात् विद्यमानाभावः / अविद्यमानः सन्नभावोऽविद्यमानाभावः / तत्र द्विविधेऽप्यभावे (से) तस्या-लोचनस्याऽहारादिकं सर्वकल्पमकल्पिकं वायतनया करोति उत्पादयति / यतनया कथमकल्पिकमुत्पादयति इति चेदत आह / पंचकहान्या यतमानः / किमुक्तं भवति / अपरिपूर्ण मासिक-प्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनापत्तौ गुरुलाधवपर्यालोचनया पंचकादिपंचकहीनमासिक प्रायश्चित्तस्थानप्रतिसेवनां करोति / तामपि यतनया पंचकग्रहणमुपलक्षणं तेन देशादिहान्यापि यतमानइति द्रष्टव्य। एवं सर्वत्र न केवलमालोचनार्थिमवं यतेत किंतुकारणे समुत्पन्ने आत्मार्थमप्येवमेवं पंचकहान्या यतते इति / यदुक्तं सम्यक्त्वभावितायाः पुरत आलोचयितव्यमेतदेतद्भावयति // Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 454 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा कोरंटगं जहा भावि, यद्धम्मं पुच्छिऊण वा अन्नं / / असति अरहं सिद्धे, जाणंतो सुद्धो जावेव शा कोरंटकं नाम भएकच्छं उद्यानं तत्र भगवान्मुनिसुव्रतस्वामी अर्हन्नभीक्ष्णं समवसृतसूत्र तीर्थकरेण गणधरैश्च बहूनि प्रायश्चितानि च दीयमानानि तत्रत्यया देवतया दृष्टानिततः कोरंटकं गत्वा तत्र सम्यक्त्वभावितदेवताराधनार्थमष्टमं कृत्वा तत्र च सम्यक्त्वकंपितायादेवतायाः पुरतो यथोचितप्रतिपत्ति पुर-स्सरमालोचयति / सा च प्रयच्छति यथार्ह प्रायश्चित्तं / अथ सा देवता कदाचित् च्युता भवेत् पश्चादन्या समुत्पन्ना तथा च न दृष्टस्तीर्थकरस्ततः साष्टमेनाकं पिता ब्रूते महाविदेहे तीर्थकरमापृछ्य समागच्छामि ततः सा तेनाऽनुज्ञाता महाविदेहे गत्वा तीर्थकरं पृच्छति पृष्ट्वा च समागच्छत्यसाघवे प्रायश्चित्त कथयति। यथा च कोरंटकमुधानमुक्तमेवं गुणशिलादिकमपि द्रष्टव्यम्। अत्राऽप्यभीक्ष्णं वर्द्धमानस्वाम्यादीनां समवसरणत् / तासामपिदेवतानामभावे अर्हत्प्रतिमानांपुरत स्वप्रायश्चित्तदानपरिज्ञानकुशल आलोचयति। ततः स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तं तामप्यसत्यभावे प्राचीनादिदिगभिमुखो ऽर्हतः सिद्धानभिसमीक्ष्य जानन् प्रायश्चित्तदानविधिः / विद्वान् आलोचयति / आलोच्य च स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तं सचतथा प्रतिपद्यमानः शुद्ध एव सूत्रोक्तविधिना प्रवृत्तेः / यदपि विराधितं तत्रापि शुद्धप्राय-श्चितप्रतिप्रत्तेरिति / कोरंटकं जहेत्यत्र यथाशब्दोपादानात्कोरंटकसमुद्दिशताऽन्यान्यऽप्युद्यानानि सूचितानीति प्रकटयिषुराह। सोहीकरणा दिट्ठा, गुणसिलमादीसु जह य साहूणां। नोर्देति विसोहीतो, पचुप्पण्णा व पुच्छंति॥ गुणशीलादिषूद्यानेषुयाभिर्देवताभिः साधूनां तीर्थक-रैगणधरैश्चानेकशो विधीयमानानि शोधिकरणानि दृष्टानिताः स्वयं ददति प्रयच्छति / विशोधीः प्राचश्चित्तानियाः पुनः प्रत्युत्पन्नाः देवतास्ता महाविदेहेषु गत्वा तीर्थकरान् पृच्छति। पृष्ट्वा च साधु-भ्यः कथयति। आ०म०१ उग० अधि०१ प्रतिमा० श्लो०६४॥ (14) गीतार्थमबाप्य शल्यानुद्धरणादौ दोषगुणादिकं भावयता यद्विधेयत्वम् // अथ गीतार्थमवाप्य शल्यानुद्धरणादौ दोषगुणादिकं भावयता यद्विधेयं तदाह / पंचा०ा वृ०१५॥ मरिससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लंमि। सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारंमि ओइन्ना ||42|| व्या.। मृत्वा आसेव्य सशल्यमरणं प्रतीतं ततः किमित्याह / संसाराडविमहाकडिल्ले भवारण्यगुरुगहने सुचिरमति दीर्धकालं भ्रमंति पर्यटति जीवा देहिनः अनर्वाक्पारे अक्भिागपर-भागवर्जित अवतीर्णा अवगाढाइति संवेगं कृत्वेतियोगः तथा।। उद्धरियसव्वसल्ला, तित्थगराणाए मुच्छिया जीवा। भवसयकयाई खविओ, पावाइंगथा सिवं थामं ||4|| व्या. / उद्धृतसर्वशल्याः कृतालोचनास्तीर्थकराज्ञायां जिनोपदेशे सुस्थिताः सुष्ठु व्यवस्थिताः संतो जीवा देहिनः भवशतकृतानि जन्मशतविहितानि क्षपयित्वा प्रक्षपप्यः शल्योद्धारसामर्थ्यात् यानि यानि कर्माणि गताः प्राप्ताः शिवं निरुपद्रवं थामति स्थानं सिद्धालयमित्यर्थः। सल्लुद्धरणं चइमंति, लोगबंधूहि दंसियं सम्म। अवितहमारोग्गफलं,धण्णोहं जेणिमं णामं // 44|| व्या.। शल्योद्धरणमालोचना चशब्दः पूर्वगाथाद्वयोक्तार्थापेक्षया समुच्चयार्थः / इदमनंतरोक्तविधानं त्रिलोकबंधुभिर्जिनैरित्यर्थः दर्शितमुक्तं सम्यक्सोपपत्तिकं अवितथमव्यभिचारि आरोग्यफलं भावारोग्यसाधकं ततश्च धन्योऽहं पुण्यवानहं येन मया इद-मेतच्छल्योद्धरणं ज्ञातमेवगतम् // ताउद्धरेमि सम्मए, य एयस्सणाणरासिस्स। आवेदियं असेसं, अणियाणो दारुणविवागं / / 45|| व्या. ताइति यस्मादिकं मया ज्ञातं तत्तरमाद्उद्धराम्यपनया मिसम्यग् न्यायेन एतत् भावशल्यं एतस्य गुरोर्ज्ञानराशेः अग्रे सद्रोधनिकरस्याऽवेध कथयित्वाऽशेष सकलं अनिदानो निर्निदानःसन्दारुणविपाकं रौद्रफलं शल्यमिति प्रक्रमः। इयसंवेगं काउं मरुगाहरणादिएहिं विघहिं। दढ पुण करणजुत्तो, सामायारि पउंजेजा। व्या०। इति एवमनंतरगाथाचतुष्कोक्तप्रकारसंवेगं शुभाध्यवसायविशेष कृत्वा विधाय कैरित्याह मरुकाहरणा-दिभिब्राह्मणोदाहरणाद्यैः समयप्रसिद्धैश्चिन्है लिंगैमर्रणाभ्युपग-मेनापि शुद्धिः कार्यत्येवं भूतार्थगमकैः सशल्यतादोषज्ञापकैर्वा आदिशब्दात्पीठमहापीठादिग्रहः दृढमत्यर्थमपुनः करणयुक्तः पुनरमुमपराधंन करिष्यामीत्यभिप्रायवान् सन् सामाचारी-मालोचनागतसमाचारं वंदनकदाननिषद्यादानादिक प्रयुजीत विदध्यादालोचनाकारीति॥ (15) मरणाऽभिमुखेनाऽप्यालोचना करणीयात्रब्राह्मणदृष्टान्तः॥ मरुकज्ञातं चैतत्॥ नगरे पाटलीपुत्रे, विप्र आसीत् त्रिलोचनः। वेदवेदांगगर्भार्थ, विशारदशिरोमणिःशा तस्य पार्वे बटुः कोऽपि, समा यातः प्रणम्य तम् / / उवाच मयका मोहा, त्परदाररतिः कृता ||2|| तस्यपापस्य मे शुद्धिः क्रियतां सोऽप्यभाषत। तद्भावस्य परीक्षार्थ ,यथा भो विप्रपुत्रक ! ||3|| तप्तां लोहमयीं नारी, फुल्लकिम्शुकसन्निभाम् / आलिंगय यतो नान्य, प्रायश्चित्तमिहागसि ||4|| तेनापि पापभीतेन, प्रतिपत्रमिदंततः। सोपि विज्ञाय तद्भावं,शुद्धिमन्यां न्यवेदयत्।। अथवा मरुकोदाहरणमेवं॥ बभूव ब्राह्मणः कोऽपि वेदार्छषु विशारदः। स्वागमाहितबोधेन, धर्मार्था भूत्स तापसः||१|| ततस्तपस्यतस्तस्य, वसतस्तापसाश्रमे। कंदमूलाशिनोऽत्यर्थ , कष्टानुष्ठानकारिणः ॥शा स्नानाद्यर्थ नदीतीरे, प्रयातस्यैकदा किल। पश्यतो मत्स्यबंधानां, मत्स्यमांसस्य भक्षणम् // 3 // तत्र जाताभिलाषस्य, जेमितस्य प्रयाच तत्। तस्यैवाऽजीर्णदोषेण, समुत्पन्नो महाज्वरः ||4|| Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 455 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा तचिकित्यार्थमानीतो, वैधः सोऽपि च पृष्टवान्। किंभो स्त्व भुक्तवान, बूहि, सोऽप्यभाषत लज्जया / / 1 / / कंदमलफलाहारा, स्तापसा यत्प्रभुंजते / तद्भक्त न पुनस्तेन, कथितं मत्स्यभक्षणम् / / 6 / / वैद्योऽपि तस्य वाक्येन, ज्ञाखा तं वातिकंज्वरं। तथाविधक्रियां चक्रे, नचाभूतज्वरमुक्तता |7|| पुनः पृष्टोऽद्यवैद्येन, तदेवाख्यातवानसौ। चक्रे क्रियां सतामेव, विशेषान्नत्वभदगुणः / / 6 / / अन्यदावेदनाक्रांतो भीतोऽसौ मृत्युराक्षसात्। लजां विहाय वैद्याय,न्यगादीन्मत्स्यभोजनं / / 9 / / ततोवैद्योऽन्यगादीतं, दुहु दुछु त्वया कृतं / यदीयंति दिनानीदं नाख्यातं रोगकारणं / / 10 / / अधुनापि कृतं साधु साधो यत्साधितं त्वया। निदानं ज्वररोगस्य, करोमीतो रुजः क्षयम्॥शा तस्योचितं ततो वैद्यः, क्रियां कृत्वा तकं व्यधात्। व्याधिब्बाधाव्यपेतांगं, पुष्टदेहं महोजसमिति ||शा (16) अदत्तालोचने व्याधदृष्टान्तभावना, कंटगमादिप वढे, नोद्धरइ सयं नहोइ एकहए। कमठीभूयवणगए, आगलणं खोमियामरणं / / इह किल व्याधा वने संचरंत उपानही पादेषु नोपनह्यति माहस्तिन उपानहोः शब्दान श्रोषुरिति / तत्रेकस्य व्याधस्याऽन्यदा वने उपानही विनापरिभ्रमतो योरपि पादयोः कंटकादयः प्रविष्टा आदिशब्दात् लक्ष्णं किलिंचादिपरिग्रहः // तान्प्रविष्टान् कंटकादीन्स्वयं नोद्धरति / नापि भोजिकायै निजभार्यायै व्याधि कथयति। ततः स तैः पादतलप्रविष्टः कंटकादिभिः पीडितः सन् वनगतो हस्तिना पृष्टतो धावता प्रेर्यभाणो धावन् कमठीभूतः स्थले कमठे इव मंदगतिरभूत्ततः प्राप्तो हस्ती प्रत्यासन्न देशमिति जानन् क्षुधाक्षोभंगत्वा (आगलण) मितिवैकल्यं प्राप्तः / ततो मरणमेष गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयं। एगो वाहो उवाहणातो विणावणे गतो तस्सपायतला कंटगाईणं भरिया ते कंटगाइयानो सयमुद्धरियानो वियवाहीए उदराविया अन्नया वणे संचरंतो हत्थिणा दिट्ठो तो तस्स धावंतस्स कंटगाइया दूरतरंमंसे पविद्ध / ताहे अतिदुक्खेण अदितो महापायवो इवाच्छिन्नमूलो हस्थिभएणं पवेयणभूतो पडितो हत्थिणा विणासितो // विविए सयमुद्धरती अणुहिए भोइयाए नीहरइ। परिमद्दणदंतमलादि पूरणं वणगयपलातो।। अन्यो द्वितीयो व्याध उपानही विना वने गतः / तस्य वने संचरतः कंटकादयः पादतले प्रविष्टा स्तान्स्वयमुद्धरतियेच स्वयमुद्धर्तुन शक्तान् अनुद्धृतान् भोजिकया निजभार्यया व्याधा नीहारयति निष्काशयंति तदनंतरं तेषांकंटकादि वेधस्थाना-नामंगुष्ठादिना परिमर्दनं तदनतरं दंतमलादिना आदिशब्दात्। कर्णमलादिपरिग्रहः। पूरणं कंटकादिवेधानां ततोऽन्यदा वनगतः सन् हस्तिना दृष्टोऽपि पलायितो जातो जीवितव्यमुरवानामाभागी एष दृष्टीतः। सांप्रत दार्टीतिकयोजनामाह।। वाहत्थाणी साहू, वाहिगुरुकंटकादिअवराहा। सोही य ओसहाइ, पसत्थनाएण वणतो उ॥ व्याधस्थानीयाः साधवः व्याधिस्थानीयो गुरुः कंटका-दिस्थानीया अपराधा औषधानि दंतमलादीनि तत्स्थानीया शोधिः अत्र द्वौ व्याधदृष्टांतौ प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च आद्योऽप्रशस्तो द्वितीयः प्रशस्तः / तत्र प्रशस्तेन ज्ञातेन दृष्टांतेनोपनयः कर्त्तव्यः / आचार्योऽपि यदितान उपेक्षते ततः कंटकादीनामुपेक्षको व्याध इव सोऽपि दुस्तरामापदमाप्नोति। तथा चाह॥ पडिसेवंते उवेक्खइ नयणं ओवीलए अकत्थंतो। संसारहत्थिहत्थं पावति विवरीयमियरोवि।। इतरोऽपि आचार्योऽपितुशब्दोऽपिशब्दार्थः। यः प्रतिसेवमानात् उपेक्षते ननु निषेधति न वा कुर्वतोऽकुर्वाणात् प्रायश्चित्तमुत्पीड-यति / न भूयः प्रायश्चित्तदानदंडेन ताडयन् कारयति सविपरी-तमाचार्यपदस्य हि यच्छोक्तनीत्या परिपालनफलमचिरात् मोक्षगमनं तद्विपरीतं संसारं एव हस्तिहस्तं प्राप्नोति। दुस्तरं संसारमागच्छतीति भावः। उपसंहारमाह।। आलोयमणालोयणदोसा य, गुणा य वण्णिया एए / / एते अनन्तरोदिता आलोचनायां गुणाआनालोचनायां दोषा वर्णिताः उ.१ आगमव्यवहारिकां सकाशे आलोचना (आग-मनयवहारि) शब्दे।। इदानी मागमव्यवहारिणामभावे समयानुसारेणो त्कृष्ट श्रुतानां श्रुतव्यवहारिणां सन्निधावालोच्यत इति / जीत.। (17) स्वगणपरगणवासिकानां समीपे आलोचना. स्वगणपरगणवासिकानां समीपे आलोचना ऽङ्गचूलिकायाम्॥ कहणं भंते सहुरूवे आयरिय उवज्झाए पमायवंते / सगण परगण वासियाणं समीवे पावं आलोइज्जा तएणं अजसुहम्मे जंबू एवं वयासी / जंब जिणसासणे ववहारो बलवंतो त्थि भिक्खू अणागदकम्मं अण्णतरं अकिचहाणं पडिसेवित्ता आलोएजातत्थ पासेज पुणो आयरियउवज्झायं बहुस्सुयं बहूआगमं कप्पइ से तस्संतिए आलोइत्तए पडिक मित्तए जिंदए गरिहारत्तिए ठिओदित्तए अकरणयाए अभुष्ठित्तए अहारिहं पायच्छित्तं पडिवजित्तए जत्थेवणो आयरियउवज्झायं पासेज बहुस्सुय बहुआगमं तत्थेव संभोइय उवइझाय आयरिय पासेज बहुस्सुयं बहुआगमं कप्पइ से तस्संतिए जाव पडि वशित्ता / / जत्थेणो संभोय आयरियउवज्झायं पासेज तत्थेव अण संभोइय आयरिय उवजायं पासेज तत्थेव बहुस्स आगमं तस्सतियं जाव पडिवज्जित्तए६। जत्थेव णो अण्णसंभोइय आयरिय उवज्झायं पासेज तत्थवे सावयं पासेज बहस तस्संतिए आलोयत्तए || जत्थेव णो सावयं जत्थेव सार विह जत्थेव णयेतत्थेव पच्छा कडं जाव आलो. 14/ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 456 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा जत्थेव णो पच्छा। तत्थे समभावियाइं चेइयाइ पासिज्ज जाव विराधना शीलस्यभिन्नकथादिना प्रागुक्तस्वरूपेण भवति तथा निच्छक्का कप्पइजत्थेवणो समभावियाइं पसिज्ज तत्थेव गमेणगरस्स वाहिं धृष्टा सती यांचा या कुर्यात् तथा दृष्टिरागतो मुखरागतोवा परस्य भावं पाइणाभिमुहस्सवाउदीणाभिमुहस्सवा हिच्या अलोइजा जाव विजानीते यथा मामेष एषा वा इच्छतीतिततो घटना स्यात् न केवलमेते पडिवजिज्जा एवं जंबू जहाविवए-हारुहेसएपण्णत्तं तहा करिज्जा विपक्षे आलोचनायां दोषः किंत्विमेऽपि तानेवाह॥ णोय रपासंडि एसु रंजिज्जा। 'अप्पचयनिन्मया, पिल्लणया जईपगासणे दोसा। निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च स्वपक्षपरपक्षयोरालोचना व्यवहार कल्पे वयणी वि होइ, गुम्मा, नियए दोसे पगासिंति॥ तथा च व्यवहारसूत्रम् उ०५॥ वंदत्ते वा उट्टे वा, गच्छो तह लहुसगत्तणाण गणे। जे निग्गंयानिग्गंथीउयंसंभोइया सियाणे एहं कप्पइ अण्णमणं विगडितपिं जलिउदुं, दळूणुदाहकुवियन्न / / कप्पई अणमणहस्स अंतिए आलोइत्तए अथिय इत्थ केइ यतेः संयत्याः पुरतःप्रकाशने आलोचनायामिमे दोषाः तत्था अप्रत्ययः आलोयणा रिहे कप्पति से तस्संतिए आलोए तएणजिया इत्थं किमेषा वराकी जानातीति तवाज्ञातो यत्किमपि सा प्रायश्चित्तं ददाति के इ अणो आलोयणारिहे एवण्हं कप्पइ अण्णमण्णसंतिए तत्र विश्वासाभावः। तथा भूयोऽपराधकरणे गुरुगरीयांसं दंडदास्यतीति आलोएत्तए॥१९॥ महत्याशंका संयतीनां तु पुरुषस्य न भयमिति निर्भयता तद्भावाद्य व्य०५ उ० अस्य सूत्रस्य संबंधप्रतिपादनार्थमाह। भूयोभूयोऽपराधकारण प्रवृत्तिस्तथा (पेल्लणयेति) यदि महत्प्रायश्चित्तं थेरो अरिहो आलोयणाए आयारकप्पितोजोग्गो। ददाति ततः संयतो बूते न भवत्येतत्प्रायश्चित्तं किं त्विदमित्येवं सायन होइ विवक्खे नेव सपरके अगीएसु। प्रायश्चित्तस्य प्रेरणा। तथा वतिन्यपि यदि संयतस्य पुरत आलोचयति स्थविरः पूर्व सूत्रे ऽभिहितः स च आलोचनाया अर्हः सोऽपि च योग्य ततः सा निजकान् दोषान् प्रकाशयंती गम्या भवति यथा एकवारं ताबदिदमाचरितं भूयोऽपि संप्रति मया सह स समाचर्यतां पश्चात्प्रायश्चित्त आलोचनाया भवत्याचार कल्पिक आचारप्रकल्पा भिधानाध्ययन धारी। दास्यते इति द्वितीयगाथा संप्रदायात् व्याख्येया। यद्येवं तर्हि कथ पूर्वतत एवंसति सा आलोचना न विपक्षे नाऽपि सपक्षे अगीतेष्वगीतार्थेषु मार्यिकाःच्छेदश्रुतमधीयेरन् कथं चालोचनां दद्युस्तदुत्तरमाह। भवति। तत्र संयता संयतीनां विपक्षः संयत्यः संयतानां / सपक्षः संयता संयतीनां संयत्यः संयतीनां तत्र विपक्षेसपक्षेवा गीतार्थेष्वालोचनाप्रति ततो जाव अजरक्खिय, आगमववहारिणो वियाणत्ता। षेधार्थमधिकृतं सूत्रं व्याख्याय निर्ग्रन्थानिग्रंथ्यो वा संभोगिका स्युस्तेषां नमविस्सति दोसो, तितो वायंती उच्छेदसुयं / / (नोण्हमिति) वाक्यालंकारे कल्प ते अन्योन्यस्य परस्परस्याऽतिके यावदार्यरक्षितास्तावदागमव्यवहारिणोऽभूवन्ते चागम-व्यावहारबलेन आलोचयितुमगीतार्थत्वात् अस्तिचेदत्र कश्चिदालोचनार्ह एवं सति न विज्ञाय यथा एतस्याश्च्छेदश्रुतवाचनायां दोषो न भविष्यतीति सयतीमपि कल्पतोऽन्यान्यस्यांतिके आलो-चयितुमेष सूत्रसंक्षेपार्थः / / छेदश्रुतं वाचयंतिस्म। सम्मोगविभागं सप्रपचम्प्रतिपाद्य। आरेणागमरहिया, मा विद्याहिं तितो नवाएंति। सांप्रतमालोचनाविधिमाह // तेण कहं कुव्वंतं, सोहितु अपाणमाणीतो।। आलोयणा सपक्खे, परपक्खे चउगुरुंच। आर्यरक्षितादारत आगमरहितास्ततस्तेमाच्छेदश्रुताध्ययनतः संयत्यो आणादी भिन्नकह दि, विराहणं दट्ठण व भावसंबंधो। विद्रास्यंति विनङ्क्षचतीति हेतोश्छेदश्रुतानि संयतीनवाचयंतीति। अत्राह / आलोचना सपक्षे दातव्या। तद्यथा। तेन छेदश्रुताध्ययनाभावेन कथं ताः संयत्योऽजानानाः शोधिं कुर्वतु। अत्राचार्य आह (ततो जाव अज्जरक्खियसठाणे पगासइ सुवणीतो। निग्रंथो निग्रंथस्य पुरत आलोचयति / निग्रंथो निग्रंथ्याः पुरतो यदि असतीए विवक्खंमिवि एमेव य हो ति समणावि) यतः पुरतोयदिपुनर्विपक्षआलोचयति। यथा निग्रंथे निर्ग्रन्थ्याः पुरतो निर्ग्रन्थी पूर्वमागमव्यवहारिणः स्युच्छेदश्रुतं च संयत्योऽधीयेरन् ततो वा निर्गन्थस्य तदा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकं कित्वा-ज्ञादयश्च दोषा श्वशब्दै यावदार्यरक्षितास्तावत् तिन्याः स्वस्च्छाने स्वपक्षे संयतीनां प्रकाशने भिन्नक्रमः सचतथैवयोजितः कस्मादेवमत आह भिन्नकहादि इत्यादिच प्रकाशनामकार्षुः स्वपक्षाभावे विपक्षेऽप्यालोचितवंत्यः श्रमण्यः। एवमेव चतुर्थव्रतातिचारमालोचयंत्थाः संयत्या भिन्न कथादोषो भवति श्रमणा अपि भवंति ज्ञातव्याः / किमुक्तं भवति / श्रमणा अपि सपक्षे चतुर्थव्रतातिचारकथनतस्तस्थाः कदाचि दालोचनाधास्य भावभेदो आलोचितवंतस्तदलाभे विपक्षेऽपि श्रमणीनांपा इत्यर्थः दोषाभावात्। भवतीत्यर्थः / आदिशब्दात् षष्ठी भूता सायांचामिति कुर्यादिति परिग्रहः आगमव्यवहारिभिर्हि दोषाभावमवबुध्य छेदश्रुतवाचना संयतीनां दत्ता एवं सति शीलं विराहणं दणं भावसंबंधो दृष्टिविकारेण मुखविकारेण नान्येथति। आर्यरक्षितादारतः पुनः श्रमणानामेव समीपे आलोचयति वा स वा सा वा भावं दृष्ट्वा मामिच्छतीत्यभिप्रायं ज्ञात्वा संबंधो घटना श्रमण्योऽपि श्रमणानामागमव्यवहारच्छेदादत्रैव परमतमाशंक्य दूषयति // स्यात् एतदेव व्याख्यानयति।। मेहुणवजं आरेण, केइ समणेसु ता पगासंति। मूलगुणेसु चउत्थे, विगडिजंते विहारणा हुज्जा। तंतु न जुज्जइ जम्हा, लहुसगदोसा सपक्खेवि / / नित्थक्वचिटिमहुरा, गतो य भावं वियाणंति।। आर्य रक्षितादारतः श्रमणेषु श्रमणानां पावें ताः श्रमण्याः मलगुणेष मध्ये चतुर्थे मूलगुणातिचारे विकथ्यमाने आलोच्यामाने | प्रकाशयंत्यालोचयंति मैथुनवज्यं मैथुनं पुनः श्रमण्यः श्रमणी Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 457 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा नामेव सकाश आलोचयंति इति केचिद्व्याचक्षते तत्तुन युज्यते यस्मात् लघुस्वकदोषाः सपक्षेऽपि। किमुक्तं भवति। श्रमण्योऽपि स्वकलघुदोषतस्तुच्छत्वरूपस्वक दोषतः परिस्रावित्वं कुर्युः परिभवं वा समुत्पादयेयुस्तस्मान्मैथुनमपि श्रमणानामेवांतिके विकटनीयं / असती कडजोगी, पुण मुत्तूणं संकियाइं ठाणाई॥ आइण्णो धुवकम्मिय, तरुणीथेरस्स दिट्ठिपहे ||2|| आर्यरक्षितकालेऽपि यदिसंयत्या मूलगुणापराध-आलोचयितव्यस्तर्हि संयत्याः सकाशे आलोच्यते / तस्याऽसति अभावं यः कृतयोगी कृतः सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रंथधरः स्थविरस्तस्य समीपे आलोचयति नवरं शंकितानि स्थानानि वक्ष्यमाणानि शून्य गृहादीनि मुक्त्वा किंत्वाचीणे उचिते प्रदेशे आलोचयितव्यं यत्र धुक्कर्मिको दृष्टिपथेवर्तते दृष्ट्या पश्यति न तु शृणोति / तत्र जवनिकांतरिता आलोचयति / तरुणी थेरस्येत्येष तृतीयभंग उपात्तः / स च शेषभंगानां त्रयाणामप्युपलक्षणं / तं चेमे। स्थविरा स्थविरस्यालोचयतिर स्थविरा तरुणस्या-लोचयतिर तरुणी स्थविरस्यालोचयति 3 तरुणी तरुणस्य 4 यदुक्तं मुक्त्वा शंकितानि स्थानानि // संप्रति तान्येवोपदर्शयति॥ सुण्णघरदेउलउजाण, रण्णपच्छाण्णुवस्सयस्संतो। एयंविवजे ठायंति, तिण्णिचउरोहवा पंच ||1|| शून्यगृहं देवकुलं उद्यानमरण्यं प्रच्छन्नं च स्थानम् तथा उपाश्चयस्याऽतर्मध्ये एतद्विवर्जे एतद्विरहिते प्रदेशे आलोचनानिमित्तं तिष्ठति। ते च जघन्यतस्त्रया यदि वा चत्वारोऽथवा पंचते च त्रिप्रभृतयो वक्ष्यमाणभंगकानुसारेण प्रतिपत्तव्याः भंगकानेवाह / / थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थपरिहरे दिहिं।। दोण्हपुण तरुणाणं, थेरे थेरी यप्रचुरसं // 2 // स्थविरतरुणेषु भंगाश्चत्वारस्ते च प्रागेवोपदर्शिताः / स्थविरा स्थविरस्यालोचयंतीत्यादि // तत्र यदि जवनिकाया अवकाशो नास्ति ततः सर्वत्र चतुर्वपि भंगेषुदृष्टि परिहरेत्। भूमिगत दृष्टिका सति आलोचयेत् यथा आलोचनाहः शृणोति तत्र चतुर्भगे द्वयोः स्थविरः स्थविरा च प्रत्युरसमिति / प्रत्यासन्नौ सहायौ दीयेते / येन परस्परं तौ दृष्टिं न बधोतोनापि मुख विकारं कुरुतः। एवमस्मिन् चतुर्थे भंगे चत्वारो भवंति // थेरो पुण असहाओ, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया। सरिसवयं च विवजे, असती पंचमं कुजाशा तृतीयभंगे पुनःस्थविरोऽसहायोऽपि भवतु / तरुण्यः पुनः स्थविरासहाया दीयते। द्वितीयभंगे निग्रंथी स्थविराऽपि ससहाया कर्तव्या | तरुणस्याऽलोचनार्हस्य सहायोऽस्तु वान वा कश्वि-घोषः। एवं तृतीये द्वितीये च भंगे त्रयो जना भवंति। तथा सदृशवयो नियमतः सहायानां विवर्जयेत् तद संभावे सदृशवया अपि भवेत्। तत्र प्रथमभंगे चतुर्थभंगे वा सदृशवयः सहायसभवे पंचमक्षुल्लकक्षुल्लका वा पटुकां कुर्यात्॥ ईसिं अण्णोयताविया, उ आलोचयए विवक्खंमि। सरिपक्खे उकुड्ड, पंजलिचिठोवणुण्णातो।। विपक्षे श्रमणस्य समीपे श्रमणी आलोयति ईषत् अवनता ऊर्ध्वस्थिताः सदृशपक्षे पुनः श्रमणः श्रमणस्य पार्चे पुनरुक्कु-डुका / कुतप्रांजलि- रालोधयति / अथ सोऽर्शव्याधिपीडितस्ततो-ऽनुज्ञापनांकृत्वां अनुज्ञातः सन् निषधामुपविष्टमालोचयति।। दिट्ठीए हों तिगुरुगा, सविकाराओ सरत्तिसा भणिया। तस्स विवडितरागे, तिगिच्छजयणाएकायव्वा / / यो दृष्ट्या दृष्टिं बधाति तस्य दृष्टौ सविकारायां भवंति प्रायश्चित्ततथा चत्वारो गुरुकास्तत्र ये ते द्वितीयका दत्तास्य यदि एकतर पश्यति तत आलोचनातोऽपसारयंति यथा अपसर-तापसरत यूयं न किमप्यालोचनया प्रयोजनमिति / अथ सा निग्रंथ / स्वभावत एवोरालशरीरा सविकारा दृष्टा अपसरेति भणिता सति अपसृता तथापि तस्याऽलोचनाचार्यस्य यदि तस्या उपरि विवर्द्धितो रागस्तर्हि तस्मिन् सति यतनया चिकित्सा कर्तव्या॥ तामेवयतनामाह / / अण्णेहिं पगारिएहि, जाहो नियतेउं से न तीरति अ॥ घेत्तूणामरणाइति, गच्छजयणाए कायव्वा / / यदा अन्यैः प्रकारैस्तं भावं निवर्तयितुं न शक्नोति तदा तस्याः संयत्या आभरणानि वस्त्राणि गृहीत्वा यतनया चिकित्सा कर्तव्या॥ एतामेवाह / / जारिसवएहि ठिया, तारिसएहितमस्सतीचरिया। संभलिविणोयकेयण, वेलवणं चिहुरगंडेहिं / / यादृशैः सचित्रैर्वस्त्रैः प्रावृतेः सा संयती उपविष्टा दृष्टा तादृशैर्वस्त्रैस्तमोऽधकारमस्यास्तीति तमस्वती रात्रिस्तस्यां तरुणसाधुर्वरितः प्रावृतः क्रियते ततः संभलीति दूती प्रेष्यते ततो विनावितृको नरविहीनो यओको निवासो गृहमित्यर्थः। तत्र केतनं संकेतो दीयते दत्वा च स तत्र स्थितस्तावत्तिष्ठति / यावत्स तरुणसाधुः संयतीनेपथ्योपेत आगच्छति / तस्मिंश्चागते चिकुरेषु केशेषु गंडयोश्व विलेपनं क्रीडनं करोति तत्र यद्येता वता शुक्रनिपाततस्तिष्ठति ततः सुंदरं / अथ नोतर्हि संयत नेपथ्योऽपसार्यते प्रकारांतरमारभ्यते॥ तदेव प्रकारांतरमाह। अहवा वि सिद्धपुत्तिं, पुटिव गमेऊण तीए सिबएहि आवरियकालियाए, सुण्णागरादिसंमेलो। अथवेति प्रकारांतरद्योतने पूर्व सिद्धपुत्रीं गमयित्वा तस्याः सयत्याः शिवायैरावृत्य कालिकायां कृष्णायां रात्रौ शून्यगृहा दिषु तथा सह तस्य मेलः संगमः कर्तव्यः। व्य०॥ सा चोलाचनाऽऽचाऱ्यांशिष्यभावे भवति तत्र च शिष्या चाव्णामियं मय्यादा सामाचारि पच्छित्तशब्दे॥ सम्प्रतियादृशा उत्सर्गत आलोचनास्तिानभिधित्सुराह|व्य०५ उ०|| गीयत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा। चिरदिकिखया य बुढा, जईगं आलोयणा जोगा।। गीतार्थः सूत्रार्थतदुभयनिष्णातत्वात् कृतकरणा अनेक वारमालोचनायां सहायीभवनात् प्रौढाः समर्थाः सूत्रतोऽर्थतश्च प्रायश्चित्तदाने पश्चात्कर्तुमशक्यत्वात् परिणामिकावाऽपरिणामिका वा गंभीरामहत्यप्यालोचक स्य दोषे श्रुते अपरिश्राविणश्चिरं दीक्षिताः प्रभूतकं प्रवृजिता वृद्धाः श्रुते न Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 458 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा पर्यायेण वयसा च महांत एवंभूता यतीनांसाधूनामुपलक्षणमेतत् संयतीनां चालोचनायोग्याः / / व्य०3०५ / / तथाच महानिशीथे। भयवं कस्सा लोएजा, पच्छित्तं को वदिज वा। कस्स व पच्छित्तं देज्जा, आलोवेजावा कहंगो।। लोयणं ताकेवलीणबहूसुवि। जोयणसएहिं गंतुणं सुद्धभादेहिं दिजए। चउनाणीणं तथा भावे एवं ओहिमईसुजस्स विमलयरे तस्स तारतम्मेण दिज्जई। उमग्गपन्नविंतस्स उस्सग्गोपठियस्स य। उसग्गरयणोचेव सव्वभावं तरेहिणं / / उवसंतस्स दंतस्स संजयस्स तवस्सिणो / सुमिती गुत्तीपहाणस्स दढवीरितस्स असढभाविणोश आलोएज्जा पडिच्छेजा-देजादाविजवा परं। अहन्निसंत दुद्दिढें पायच्छित्तं अणुच्चरो॥३॥ पंचा. वृ.१५ आचारवान् ज्ञानासेवाभ्या ज्ञानादिपंच-प्रकाराचारयुक्तोऽयं हि गुणत्वेन श्रद्धेयवाक्यो भवति / तथा (आहारवत्ति) अवधारः आलोचकोक्तापराधानामवधारणा तद्वान्सहिसर्वापराधेषु यथावत् शुद्धिदानसमर्थो भवति तथा (ववहारत्ति) मतुब्लोपाद्व्यवहारवान् आगमश्रुताऽज्ञाधारणा जीतलक्षणपंचप्रकारव्यवहाराऽन्यतरयुक्तः व्यवहारवांश्च यथा वत् शुद्धिकरणसमर्थो भवतीति तथा (ओवील एत्ति) लज्जया अतिचारान् गोपायंतमुपदेशविशेषैरप वीडयति विमतलज्जा करोतीत्यपव्रीडकः अयं ह्यालोचकस्याऽत्यंतमुपकारको भवतीति अवधारादिपदत्रयस्य च कर्मधारयः कार्यः तथा (पकुव्वीति) आलोचिताऽतिचाराणां प्रायश्चित्तदानेन शुद्धिं प्रकर्षण कारयतो त्येवंशील इत्येतदर्थस्य सामायिकस्य कुर्वधातोर्दर्शनात् प्रकुर्वी आचार वत्वादिगुणयुक्तोऽपि कश्चित् शुद्धिदान नाभ्युपग-च्छतीत्यतस्तद् व्यवच्छेदार्थ प्रकुर्वीत्युक्तं / चः समुचये 1 तथा (निजावत्ति) प्राकृतत्वान्निर्यापकोपपत्तेः प्रायश्यित्तस्य निर्वा-पकोऽयं हि तथा विधत्ते यथा साधुर्महदपि प्रायश्चित्तं वोढुं शक्नोत्यत एवायमिहमहोपकारीति तत्तथा अपायान् दुर्भिक्ष-दुर्बलत्वादिकानैहलौकिकानर्यान् पश्यति / अथवा दुर्लभ बोधिकत्वादिकान् पारलौकिकान् सातिचाराणां तान् दर्शयतीत्येवं शीलोऽपायदर्शी अयं चात एवाऽलोचकस्योपकारी तथा न परिश्रवति आलोचकोक्तमकृत्यमन्यस्मै न निवेदय तीत्येवं शीलोऽपरिश्रावी तदन्यो ह्यालोचकाणां लाघवकारी स्याचः समुच्चये। बोद्धव्यो ज्ञेय इति आलोचनाचार्य इति योगः // पं०चूला तहपरहियम्मि जुत्तो, विसेसओ सुहुमभावकुसलमती। भावाणुमाणवं तह, जोग्गो आलोयणपरिओ ||15|| तथेति समुचये। परहिते परोपकारे युक्तः उद्युक्त उद्यत इत्यर्थः / तदन्यो हि परेषामवधारको भवति। तथा विशेषत आ-चार्यान्तरापेक्षया विशेषेण सूक्ष्मभावकुशलमतिः लोकशास्त्र-गतास्थूलार्थनिपुणबुद्धिः अत एव भावानुमानवान् परचेत-समिगितादिभिर्निश्चायकः / अयं हि परभावानुसारेण शुद्धिदाने शक्तो भवति / तथेति समुच्चय योग्य उचित आलोचनाचार्यो विकटना गुरूक्तगुणकलाप शून्यो हि न शुद्धिकरणक्षम इति गाथा द्वयार्थः। पंचा०वृ०१५|| तथा च स्थानांगे-स्था०॥ ठा०८।। (18) आलोचनाया अष्टौ स्थानकाः दशस्थानकाश्च / / अट्ठर्हि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ आलोयणा पडिच्छि-तए। तं जहा / आयारवं आहारवं ववहा रवं उटिवलए पकुवए अपरिस्सावी णिज्जवए अवायदंसी॥ अहीत्यादि। सुगम / नवरं आयारवंति। ज्ञानदिपंच-प्रकाराचारवान् ज्ञानासेवनाभ्यामाहारवंति अवधारणावान् आलोचकेनालोच्यमनानामतीचाराणामिति आह च। आयारवमायारं, पंचवि मुणाई जोय आयरइ। आहारवमहारे, आलोइं तस्स तं सव्वंति।। ववहारवति आगमश्रुताज्ञाधारणजीतलक्षणानां पंचाना मुक्त-रूपाणां व्यवहाराणां ज्ञातेति (उव्वीलएति) अपद्रीडति विलजीकरोति यो लज्जया सम्यगनालोचयन्तं सर्व यथा सम्यग्लोचयति तथाकरोतीत्यपव्रीडिकः अभिहितं च / / ववहारववहरं, आगममाइ उ सुणइ पंचविहं। ओबीलुवगृहंतु,जह आलोए इत्तंसवंति|| (पकुव्वएत्ति) आलोचिते सति यः शुद्धिं प्रकर्षेणं कारयति संप्रकारीति भणितं च (आलोयश्यंमि सोहिं जो कारावेइ सो पकुव्वीओत्ति / अपरिस्सात्ति) न परिश्रवति नालोचकदोषा-नुपश्रुत्याऽन्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशीलः सोऽपरिश्रावीति यदाह (जो अन्नस्सउदोसेन कहेइ अपरिसाइ सो होइति।) (निज्जवएति) निर्यापयति तथा करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति न्यगादि च (निजवओ तह कुणइनिव्वहेईजेण पच्छित्तंत्ति / ) (अवायदंसिति) अपायाननन् चित्तभंगा-निर्वाहादीन् दुर्विक्षदौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशीलः सभ्यगनालोचनायां च दुर्लभबोधिकत्वादीनपायान् शिष्यस्य दर्शयतीत्यपायदर्शीति भणितं च / / दुमिक्खदुब्बलाइ, इहलोएजाणए अवाएउ। उदंसेइय परलोए, दुल्लहव्वोहित्तसंसारेत्ति || भ.१५ श.७ उ.। स्छा.ठा.८। दसहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ अत्तदोसं आलोयणं पडिच्छित्तएतंजहा आयारवं आहारवंजाव अदायदंसी पियधम्मे दढधम्मे / ठा.१० अधिकमिह प्रियधर्माधर्म प्रियो दृढधर्माय आपद्यापि धर्मान्नचलतीति / आलोचितदोषाय प्रायश्चित्तं देयम्। अट्ठहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहइ अत्तदोसं आलोए-त्तए। तं जहा। जाइ संपन्ने कुल संपन्ने विणयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसण संपन्ने चरितसंपन्ने खंते दंते। टी.(अत्तदोसत्ति) आत्मापराधमिति जातिकुले मातापितृपक्षी तत्सम्पन्नः प्रायोऽकृत्यन्न करोति कृत्वाऽपि पश्चातापा-दालोचयतीति तद्ग्रहणं यदाह॥ जाइकुलसंपन्नो, पायमकिच्चंन सेवइ किंचि। आसेविउंचयच्छा, तग्गुणओसम्ममालोएत्ति॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 459 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा विनयसंपन्नः सुखनैवालोचयति तथा ज्ञानसंपन्नो दोषविपाक प्रायश्चित्तं वावगच्छति यतो॥ वा विनाणेउ संपन्नो, दोसविवागं वियाणिओ घोरं। आलोएइ सुहं विय, पावच्छित्तं च अवगच्छेत्ति||१| दर्शनसपन्नः शुद्धोऽहमिति एव श्रद्धते चरित्रसंपन्नो भूयस्तमपराधं न करोति सम्यगालोचयति प्रायश्चित्तं च निर्वाहयति इति उक्तं च / सुद्धो तहत्ति सम्म, सद्दहई दसणेण संपन्नो। चरणेणउ संपन्नो, न कुणइ मुजो तमवराहति ||शा क्षान्तः परुष भणितोऽप्याचार्यार्न रुष्यतीति। आह च / / खंतो आपरिएहिं, फरुसं भणिओ विन विरूसेति। दान्तः प्रायश्चित्त दत्तं वोदं समर्थोभवतीति / आह च / दंतो समत्थो वोढुं पच्छित्तं जमिह दिज्जए तस्सत्ति / / स्था०८ ठा०॥ दसहि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहइ अत्तदोसं आलोइ-त्तए। तं जहा / जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने एवं जहा अट्टहाणे खते दंते अमाईअपच्छाणुतावी॥ठा०२० (एवंति) अनेन क्रमेण यथा अष्टस्थानके तथेदं सूत्र पठ-नीयमित्यर्थः कियडूरं यावत् (खंतेदंतेत्ति) पदे तथाहि।। विणयसंपण्णे नाणसंपण्णे दसणसंपण्णे चरणसंपण्णेत्ति। अमाईअपच्छाणुतावीति।। पदद्वयमिहाधिकं प्रकटं च नवर ग्रन्थान्तरोक्तं तत्स्वरूपमिदम्॥ नोपलिउंचेमाई,अपच्छयावो न परितप्पेति। (15) सामुदानिकाऽतिचारालोचना। ओघनिर्युक्तौ सामुदानिकानतिचारानधिकृत्य इदानीं सामुदानिकानतिचारान् आलोचयति यदि व्याक्षेपादिरहितो गुरुर्भवति अथ व्याक्षिप्तो भवति। तदा नालोचयतीत्येतदेवाह। विक्खित्तपराहुते, विप्पमत्तेमाकयाइआलोए। आहारं च करतो, णीहारं वा जइ करेइ / / 782|| व्याक्षिप्तो धर्मकथादिना स्वाध्यायेनापराण्हु तो पराङ्मुखः अन्यतोऽभिमुखः प्रमत्तः विकथयति एवं विधे गुरुन् कदाचिदालोचयेत् तथा आहारं कुर्वति सति तथा नीहारं वा यदि करोति ततो नालोचयति / इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाह। दारगाहा। कहणाईवक्खित्ते, विगहाए पमत्ते अन्नओ। वमुहो अतरमकाए, वाणीहारे सकमरणं वा / / 783 / / धर्मकथादिना वा प्रमत्तः अन्यतोऽभिमुखो वा भवति भुंजतेऽपि वा नालोचनीयं किं कारणं (अंतरति) अंतरायं भवति यावदालोचनां शृणोति अकारकं वा शीतलं भवति यावदालोचना वा शृणोति तथा नीहारमपि कुर्वतो नालोचनीयं किं कारणं यत् आशंकया साधुजनितया कायिकादिनिर्गच्छति अथ धारयति ततो वा मरणं भवति यस्मादेते दोषास्तस्मात्। अब्भुक्खित्ताउत्तं, उवसंतमुवट्ठियं च नाऊणं। अण्णोणचेत्तमहावी, आलोएत्तासुसंजए / 1784|| धर्मकथादिना व्याक्षिप्ते गुरौ आलोचयेत् आयुक्तमुपयोगतत्परं उपशांतमनाकुलगुरुं दृष्ट्वा उपस्थितमुद्यतं च ज्ञात्वा एवंविधं अनुज्ञाप्त मेधावी आलोचयेत् सुसंयुतःसाधुः। इदानीमेतामेव गाथां व्याख्यानयन् भाष्यकृदाह॥ कहणाई अवक्खित्ते, कोहाइ अणाउले तदुवउत्ते। संदिसहत्ति अणुन्ना, काउण विदिन्न मालोए|ll धर्मकथादिना व्याक्षिप्तोक्रोधादिभिरनाकुले तदुपयुक्ते भिक्षालोचनोपयुक्ते (संदिसहति) अणुन्नं काऊण संदिसत आलोच-यामीत्येवं अनुज्ञां कृत्वा मार्गयित्वेत्यर्थः (विदिण्णत्ति) आचार्येण दत्तायामनुज्ञायां भणत इत्येवं लक्षणायां तत आलोचयेत्। तथा च पञ्चाशकेहद्वारविवरणायाह पंचा. वृ.१५ संविग्गोउद मादी, मइमं कप्पट्टिओ अणासंसी। पण्णवणिजो सट्ठो, आणाइत्तो दुदुकडतावी।।१२।। तविहिसमूसुगो खलु, अभिगाहासेवणदिलिंगजुत्तो। आलोयणापयाणे,जोगो भणितो जिणिंदेहिं|१३|| व्या. संविग्नस्तुसंसारभीरुरेवाऽलोचनाप्रदाने योग्यः इति योगः। तस्यैव दुक्करकरणाध्यवसायित्वात् दुष्करं चालोचनादानं यदाह (अविरायाचरारजंनयदुचरियं कहे) तथा अमायी अशठः याहीहि न यथा यावत् दुष्कृतं कथयितुं शक्नोति तथा मतिमान् विद्वांस्तदन्या ह्यालोचनीयादिस्वरूपमेव नजानाति / तथा कल्पस्थितः स्थविर - जातसमाप्तकल्पादि व्यवस्थितादन्यस्य ह्यतीचारविषया जुगुत्सव न स्यात् यथा अनाशंसी आचार्या-धाराधभाषारहितः सांसारिकफलानपेक्षो वा / आशंसिनो हि न समग्रातिचारालोचना संभवत्याशंसाया एवातिचारत्वात् / तथा प्रज्ञापनीयः सुखावबोध्यस्तदन्यो हि स्वाग्रहादकृत्यविषया-निवर्तयितुं न शक्श्ते तथा श्राद्धः श्रद्धालुः स हि गुरूक्तांशुद्धिं श्रद्धते। तथा आज्ञा वान् आप्तोपदेशवों सहि प्रायोऽकृत्यं न करोत्येव तथा दुकृतेनातिचारासेवनेन तप्यते / अनुतापं करोत्येव शीलः दुष्कृततापीस एव तदालोचयितुंशनोतीति तथा तद्विधिसमुत्सुकः खल्वालोचनाकल्पनालस एव सहितविधिं प्रयत्नेन परिहरति तथा अभिग्रहासेवनादिभिर्द्रव्यादिनियमविधानविधायनानुमोदनप्रभृतिलिंगरालोचनायोग्यतालक्षणैर्युतो युक्तोयः स तथा / आलोचनाप्रदाने प्रतीते योग्योऽो भणित उक्तोजिनेद्रैस्तीर्थकरैरितिगाथाद्वयार्थः / ओघ.।। किमेतावन्त एव करणीययोगा आहोस्विदन्येऽपि सन्तीत्याह। जं चनं करणिज्ज, जेयणो हत्थसयवाहिगयारियं। अविगडयम्मि अशुद्धो, आलोयंतो तयं सुद्धो / / 7 / / यच पूर्वोक्तकरणीयव्यापारेभ्योऽन्यद्यत्तत्करणीयं क्षेत्रप्रतिलेखनास्थण्डिलान्वेषणशैक्षनिष्क्रमणाचार्यसंलेखना द्विहस्तशतादहिराचरितं तस्मिन्पूर्वोक्ते च करणीययोगनिवहे अविकटिते गुरोरप्रकाशितेऽनालोचिते अशुद्धः समित्याद्यतिचारलेशवान् आलोचयं स्तं करणीययोगनिवहं शुद्धः आलोचनाख्यप्रायश्चित्तेन समित्याद्यतिचारलेशस्य निवर्त्तनाद्धस्तशताभ्यन्तराचरितं किञ्चित्प्रश्रवणादिकमालोच्यते। किंचिचखेलसंधानजल्लनिवसनोत्थानविज़ंभणाकुश्चन प्रसारणोच्छासनिःश्वासचेष्टादिकन्नालोच्यते॥अत्राह शिष्यः। करणीय योगेष्वाहारादिग्रहणाद्येषु यथोक्तविधिना कृतेष्वपि यद्या Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 460 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा लोचनाप्रायश्चित्तयोग्यता भवति / तर्हि न किमपि कर्तव्यं व्रतमादाय प्रथममेव सर्बेरप्यनशनङ्कायं / गुरुराह / तन्न / एवं सति तीर्थोच्छेदः स्यात् / कः केन प्रतिबोध इष्यते / किञ्च न खलु मालिन्याऽशंकया वस्त्राणि न परिधीयन्ते / अपरिधानेहिं विवस्त्र तथा सर्वेषांपशुरूपतापत्तिस्ततः परिधीयंत एव / जातमालिन्यानि च जलेन प्रक्षाल्य निर्मलीक्रियन्ते / एवं चारित्रमपि करणीययोगकरणे संजातातिचारलेशमलं आलोच-नाप्रायश्चित्तजलेन विशोध्य निर्मलीकार्य / / अतिचारलेशवशतोऽपि तच्छुद्धये भवत्यालोचना परं निर-तिचारस्य किमित्याह। कारणविणिग्गयस्सय, सगणाउपरगणागयस्स विय। उवसंपयाविहारे अ, आलोयणनिरयास्स ||5|| टीका / कारणेनाऽशिवदुर्भिक्षराजादिप्रत्यनीकत्व श्लानोत्तमाथिविराधनागुर्वादेशाद्विनिर्गतस्य निरतिचारस्याऽथ विराधितसमितिगुप्तिकस्याऽप्यालोचना भवति / सा च द्विधा / ओघतो विभागतश्च / तत्र यः कारणविनिर्गतः पक्षाभ्यन्तरे समागच्छति / आगतमात्रश्चापथिकीम्प्रतिक्रम्य समुद्देशवेलाया अगेिवाऽलोचर्यात / तस्याऽप्योघालोचनामात्र भवति / यथा / / अप्पा मूलगुणा सुविराहणा, अप्पा उत्तरगुणेसु। अप्पा पासत्थाइसु, दाणगह संपउगोहा॥ अल्प शब्दोऽभाववाचीतिन मूलगुणेषु विराधना अल्पा न कदाचिदुत्तरगुणेपवप्यल्पा न काचित्पार्श्वस्थावसन्नादिषु दानग्रहाभ्यां संप्रयोगः सम्पर्कः सोऽप्यल्पः / सोऽपिनासीदित्यर्थः इयमोघालोचना। यस्तु पक्षाभ्यन्तरागतोऽपि समुपदेशानन्तरमालोचयति / यावत्पक्षात्परतः समागतः समुद्देशादर्वागप्यालोचयति। तयोर्निरतिचारयोरपि विभागालोचना विशेषालोचना सुव्यक्ता / निः शेषनिजाऽनुष्ठितनिवेदनरूपा। वस्तुतक्षशिलायां धर्मचक्रसय मथुरायां स्तूपस्य पुरुकायां जीवत्स्वामिप्रतिमायाः तीर्थकृज्जन्मनिः क्रमणज्ञाननिर्वाणभूमीनामयोध्यादीनां दर्शनार्थं स्वजनगोकुलविवाहादि संखंडिकाप्रेक्षार्थं यत्र विशिष्टाहारोपधी लभ्येति / तत्र लिप्सया रम्यदेशदिदृक्षयादिना चागुर्वनादेशा-द्विनिर्गतोऽकारणविनिर्गतस्तस्य साऽतिचारत्वेन वृहत्तरप्राय-श्चित्तशोध्यत्वान्नालोचनामात्रेण शुद्धिः / तथा स्वगणात्सांभोगिकरूपादे कमंडली भोजिनः उभयतोऽपि संविना संविनरूपादागतस्याऽपिचनिरतिचारस्य उपसंपयत्ति उप-संपद्यमानस्य सा चोपसंपत्पचधा / श्रुतग्रहणायान्यमाचार्य-मुपसम्पद्यमानस्य श्रुतोपसंपत्३ मार्गेव्रजतोममयौष्माकी-निश्रेतिमार्गोपसंपत्४ विनयं कर्तु गच्छांतरमुपसंपद्यमानस्य विनयोपसंपद्५भाष्यकृताऽप्युक्तं॥ उपसंपयपंचविहा, सुय सुहदुक्खे यखित्तमग्गे य / विणउपसंपयाविविय, पंचविहा होइनायव्वा।। एतासामन्यतरामुपसंपदं प्रथममाददानस्य विभागालोचना भवति / विहारत्ति / विहारे कृते निरतिचारस्याऽप्यालोचना भवति / अयंभावः / एकाहात्पक्षावर्षाद्वा यदा संभोगिकाः स्पर्द्धकपतयो गीतार्थाचार्या मिलन्ति। तदा निरतिचारेऽप्यन्योन्यस्य विहारालोचनां स्वस्वविहारक्रमानुष्ठितप्रकाशरूपां ददतीति।।जीत // (20) आलोचयित्रा एतानि वर्जनीयानि॥ णमु चलं भासं भूयं तह ढंकुर च वजेजा। आलोएज्जा सुविहिओ, हत्थं मत्तं च वावारं / / 6 / / नृत्त्यन्नाऽलोचयति / चलँश्च नाऽलोचयति / अङ्गानि चालयनालोचयति / तथा गृहस्थभाषया नालोचयति। किं तर्हि संयतभाषया आलोचनीयमिति / तद्यथा। 'मुयारियाओ " इत्येवमादि, तथा आलोचयन केन स्वरेण नालोचयति मिणि मिणेण तथा ढकुरेण च स्वरेण उच्च लोचयति। एवं विधस्वरं वर्जयेत्। किम्पुनरसावालोचयतीत्येतदाह॥ आलोचयेत्सुविहितः हस्तमुदकस्निग्धं तथामात्रक गृहस्थसत्कं कटच्छुकादि उदकाद्रार्दि तथा गृहस्थया कृतमव्यापारकुर्वता तदेतचालोचयति / इदानीमेनामेव गाथां व्याख्यानयन्नाह || करपायस्समुह, सीसत्थि उट्ठमाईहिण ढिएणाम।। चलणं हत्थसरीरे, बलणं काए भूयभावे य ||7|| करस्य तथा पादस्य भूवश्शिरसः अक्ष्णः ओष्ठस्य चैव-मादीनामङ्गानां सविकारंचलनं नर्तितं नाम तच्च नर्तितं कुर्वन्ना लोचयति। चलनं हस्तस्य शरीरस्य कुवन्नालोचयति / तथा चलनं कायस्य करोति मोटनं कुन्नालोचयति तथा भावतश्चलनं अन्यथा गृहीतमन्यथा आलोचयति॥ अडवियहुन्ज गारत्थिय, भासा उवज्जए मूयढरं च सरं। आलोएवाचारं, संसठियकरमतो ||ll आलोचयेत् गृहस्थभाषया न आलोचयति यदुत (लंगणीउ लठाउ मंडलका लठ्ठा) इत्येवमादि किन्तु संयतभाषया आलोचनीयं (मुयारियाउ) इत्येवमादि मूकस्वरे मनाक ढवर च महान्तं स्वरं वर्जयित्वाऽलोचयति। व्यापारं गृहस्थाः संबन्धिनं तथा संसृष्ट उदकार्दादि इतरं असंसृष्टं किंतत्करं संसृष्टं असंसृष्टंच उदकेनतछा मात्रकंगृहस्थसत्कं डेलिकादि उद कसंसष्ट-चेति। एतदालोचयति। ओघ / पं०व० / / तथाच स्थानाङ्गे छा.११ दस आलोयणादोसापण्णत्ता। आकंपइत्तु अणुमाणइत्तु, जं दिट्ठवायरं च सुहुमं वा / / च्छन्नं सदाउलगं, बहुजण अय्वत्ततस्सेविशा टीका / आकम्प्य आवयेत्यर्थः / यदुक्तं / / वेयावचाइहिं पुवं, आकपइतु आयरिए। आलोएइ कहं मे, थोवं वियरेज पच्छित्तंति|शा (अणुमाणइत्ता) अनुमानं कृत्वा किमयं मृदुदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थोऽयमभिप्रायोऽस्य ! यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति उक्तञ्च // किं एस उग्गदंडो, मिउदंडो वत्तिएवमणुमाणो। अण्णेयविंतिच्छोवं, पच्छित्तं मज्झदेजाहिति ॥शा (जंदिकृति) यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं तदेवालोचयति / नान्यद्दोषश्चायमाचार्य रञ्जनमात्रपरत्वेनासंविनत्वा दस्येति। उक्तञ्च॥ दिठ्ठाव जेपरेणं, दोसावियडेयं तेचियण णण्णे // सोहिभया जाणंतु, वएसो पयावदोसोउत्ति ||1|| (वायारंवति) बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्म मिति (सुहमंवत्ति) सूक्ष्ममेव वातिचारमालोचयति। यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथ बादरं संतं नालोचयत्येव रूपं भाव-सम्पादनायाचार्य्यस्येति। आह च। वायरवदुवण्हे, जो आलोएइ सुहमनालोए॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 461 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा अहवा सुहमालोए वरमणंतोउएवं तु ||1|| जो सुहमे आलोए, सो किह नालोय बायरे दोसेति / / (छन्नत्ति) प्रच्छन्नमालोचयति यथात्मनैव शृणोति नाचार्या भणितं (छण्णतह आलोए जह नवर अप्पणा सुणइत्ति) (सघाउलयत्ति) शब्देनाऽकुलं शब्दाकुलं वृहच्छब्देनालोचयति / यथान्येऽप्यगीतास्तिच्छृण्वन्तीत्यभाणि च / (सद्दा-उलवट्टेणं सद्देणालोय जद्द अग्गियाविवो हेति बहुजणं ति) बहबो जना आलोचनाचार्या यस्मिन्नालोचने तद्बहुजनं। अयमभिप्रायः।। एगस्सालोइत्ताजो, आलोएसणोवि अण्णस्स। ते चेवय अवराहे,तं होई बहुजणं नामोत्ति ||1|| (अव्वत्तेति) अव्यक्तस्याऽगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालो चनं तत्तत्सबन्धादव्यक्तमुच्यते। उक्तञ्च। (जोय अगीयत्थस्स आलोए तंतु होइ अव्वत्तमिति तस्स विति) ये दोषा आलोचयि-तव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालो चनं स तत्से-विलक्षणमालो-चनादोषस्तत्र चाऽयमभिप्रायः आलोचयितुः / / जह एसो सत्तुल्लो, नो दाही गुरुगमवे पच्छित्त। इय-जो किलिट्ठचित्ता, दिण्णा आलोयणा तेणंति॥ भ. श०२५ उ०७! ध, अ ध०२। पं. चू॥ दस दोसविप्पमुक्तं, तम्हा सव्वं अगहमाणेणं / किंपि कयमकानं, तं जहवत्तं कहेयव्व ॥३शा द. फ.।। आलोचनायाम्परुषवचने दोषा (ववहार) शब्दे॥ कयम्पुनरात्मनः शोधिजातमप्यालोचयेदित्याह / / जल बालो जंपती, कज्जमकजं च उज्जयं भणति / तंतह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुकोउ / / 7 / / व्याख्या। यथा यद्वद्वालः शिशुर्जल्पन्भाषमाणः विवक्षितमिति गम्यते। कार्यमकार्य वा विधेयमविधेयं वा निर्विशेष मृजुकं अ वक्रमयन् गोपायन्नित्यर्थः / भणत्यभिधत्ते मात्रादिक प्रतीतमित्यालोचनीयाऽपराधं तच्छा तद्वद्वालवद्वक्तव्यमवक्तव्यं वाऽलोचयेत् गुरोनिवेदयेत् / मायामदविप्रमुक्तस्तु शठता गवरहित एव मायामदयुक्तो हि न सम्यगालोचयितुंशकोतीत्यतस्तद्रहितेइत्युक्तम्।व्य उ. 410 // पंचावृ० 15 आलोचनाविधिः॥ एत्थं पुण एसविही, अरिहो अरिहम्मि दलयति कमेण / आसेवणादिणाखलु सम्मं दुय्वादिसुद्धीएका व्याख्या। अत्रालोचनायां पुनः शब्दस्य चैवं संबंधो विधिनाऽलोचना देया / अत्र पुनः एषोऽयं वक्ष्यमाणो विधिः कल्पस्तद्यच्छा / अर्ह आलोचनादानोचितः / तथा अर्ह आलोचनादानयोग्य गुरौ विषय भूते (दलय इत्ति) ददाति प्रयच्छति तथा क्रमेणाऽनुपूर्वेण किं विवेनेत्याह। आसेवनादिना खलु प्रतिषेवाप्रभृतिनैव आदिशब्दादालोचनाक्रमग्रहः / तथा सम्यग्यथावत् आकुट्टिकादिभावप्रकाशनतः // तथा द्रव्यादिशुद्धौ द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धौ सत्या प्रशस्तेषु द्रव्यादिष्वित्यर्थः॥ अथ सम्यगिति यदुक्तन्तत्राह।। तह आउट्टियदप्पओ, कप्पमायप्पुवजयणाए। कज्जे वा जयणाए, जहट्ठियं सव्वमालोए ||18| व्याख्या। तथेति शब्दः समुच्चये। यथाक्रममालोचनाङ्गमेवमाकुट्यादिकृतत्वमपीत्येतदर्थः। आकुट्टिकोपेत्यकरणंदोवल्गनादिः / प्रमादा मद्यादिस्मृतिभ्रंशादिर्वा एषां द्वन्द्वोऽतस्तेभ्यस्तत आकुट्टिकादर्पप्रमा.. दतस्तया कल्पतो वाऽशिवादिपुष्टालम्बनतो वा कल्पश्च यतनादिविषय इत्यत आहायतनया यथाशक्तिसंयमरक्षारूपया कार्ये वा प्रयोजने वा संभ्रमहेतोः प्रदीपनकादावयतनयाऽनापेक्षितसारेतरविभाग तया यदासवित तदिति गम्यं यथास्थितं यथावृत्तं सर्वं समस्तमकृत्यमालोचयेत् / गुरुभ्यो निवेदयेच्छुबुद्धिकाम इति गाथार्थः ||10|| पंचा. 1530 // (21) सम्यगाऽलोचनादाने किं लिङ्गम्॥ सम्यगालोचनादाने किम्पुलिंङ्गमित्याह / / पंचा. वृ.१५ आलोयणासुदाणे, लिंगमिणे बिति मुणियसमयत्था। पच्छित्तकरणमुचितं, अहकरणयं चेव दोसाणं // 48ll व्याख्या। आलोचनासुदाने सम्यगालोचनायां लिंग चिन्हमिदं वक्ष्यमाणं ब्रुवते आहुः / मुणियसमयत्था ज्ञातसिद्धांतार्थाः प्रायश्चित्तकरणं विशुद्धिविशेषासेवनमुचितं योग्यं गुरूपदेशानुसारि तथा अकरणकमेवाविधानकमक चैवेत्यवधारणे दोषाणामालोचिता-पराधानामिति गाथार्थः // कच्छमुनरालोचनादानं शुद्धिकरणं भवतीत्याह। इयभावपहाणाणं,आणाए सुष्ठियाण हों ति इमं / / गुणष्ठाणसुद्धिजनगं, सेतं तु विवजय फलंति / / 19 / / व्याख्या / इत्येवमुक्तनीत्या भावप्रधानानां संवेगसाराणां तथा आज्ञायामाप्तोपदेशे सुस्च्छितानां सुष्ठ व्यवस्थितानां भवति स्यात् इदमालोचनादानं गुणस्थानशुद्धिजनकं प्रमत्तादिगुणविशेषनिर्मलताधायकं शेष तूक्तादन्यत्पुनर्विपर्ययफलं गुणस्थानका शुद्धिजनकमिति शब्दः समाप्ताविति गाथार्थः // तथाच महानिशीथे अ०१॥ खंता दंता विमुत्ता य, जिइंदी सव्वभासिणो। छक्कायसमारंभाओ, विरत्ते तिविहेणओ।।८९|| तिदंडासव्वसंवरिया, इथिकहासंगवजिया। इत्थिसंलावनिरया भीय, अंगोवंगनिरक्खणा।।९।। निम्ममत्ता सरीरेवि, अप्पडिबद्धा महायसा।। भीया इत्थित्थिगन्म, सहीणं बहुदुक्खाओभावओए / 91 // तहातो परिसेण, भावेणं दायव्वा आलोयणा॥ पच्छित्तं पिव कायवं, तहा जहा चेव एहिंकयं ||9|| न पुणो तहा आलोण्यव्वं, मायाडंभेण केणई। जह आलोयणंचेव, संसारं वुड्डीमवे ||13|| अणंतेणाइकालाओ, अत्तकम्मेहिं दुम्मइ। बहुविकप्पकल्लोले, आलोए तेवी अहोगए।।९४|| गोयम ! केसिं विना माई,साहिमोतं निबोधय॥ जेमालोयणपच्छित्ते, भावदोसिककलुसिए|९|| ससल्ले घोरमहं दुक्खं, दुरिहियासंसुद्धसहं / / अणुहवंति चिट्ठति, पावकम्मे नराहमे // 96 / / गुरुगा संजम नाम, साहू निदंद्रसे तहा।। दिट्ठिवायाकुसीले य, मणकुसीले तहेव य / / 97 / / सुहुमालोयगे तहय, परवंचयसा लोयगे तह॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 462 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा 30 किं वा लोयगा तहयण, किंवा लोयगे तहा / / 26 / / उणवियडणा एतदुक्तंभवति। अकयालोयणे चेव, जणरंजवणे तहा।। आसिवियं पढमं वट्ठ पुणो लहुयं पुणोवलु। नाहं काहामि पच्छित्तं, छम्मासा लोयममेव य / / 99|| पुणो वड्डयर चिंतेइ मायाडंभपवंचीय, पुरकडतववरणकहो।। एवमेव ततश्च प्रतिसेवनायाः / अनुकूड / अनुकूलं नत्वालोचनाया पच्छित्तं मे किंचि, न कायालोयणुचरे ||100ll यतस्तत्र प्रथम लधुरालोच्यत। पुनर्वृहत्तरः पुन वृहत्तमः इति एष द्वितीयो आसणरलोयणक्खाइं, लहुँ पच्छित्तजायगो॥ भंगः। "अन्नोपडिसेवणाएविअणणुकूलो आलोयणाएपुण अणुकूलो,,। एतदुक्तं भवति / अठवियठ्ठापडिसेवणाएवि अणणुकूलो आलोयणाएवि अम्हाणा लोइयं चेट्टे, मुहबंधालोयगे तहा ||20| अणणुकूलो। एतदुक्तम्भवतिपढमवठ्ठो पडिसेविओपुणो वायरो वितेत्ति गुरुपच्छित्ताहमसक्केय, गिलाणालंबणं कहे / / पुण जं जहा संभरइ पढमं वडो पुणो लहुओ पुणो ववो पुणो बहुयारो एवं अण्डालोयगे साहू, सुणासुण्णि तहेव य / / 10 / / अपडिवियडु चिंते तस्सण पडिसेवणाणुकुलो यणाणु कूलो एस चउत्थो निच्छिन्ने वियपच्छित्ते, न काहं वुद्धिसायगे / एसो वजेयव्वो॥ रंजवणमेत्तलोगाणं, वाया पच्छित्ते तहा ||10|| इदानीममुमेवार्थं गाथार्द्धनोपसंहरनाह। पडिवजणपच्छित्ते, चिरयालए वेसगे तहा। (पडि सेववियडणा एय होइ इत्थपि चउमंगो) इदं अणुणिट्ठियपायच्छित्ते, अण्णभणियण्णहायरे तहा।२०४॥ व्याख्यातमेवेति|ओघ।। आउहीयमहापावे, कंदप्पादप्पे तहा। तथा च पंचाशके वृ०१५|| अजयणासेवणे तहय, सया असुयपच्छित्ते तहा / 105/ दुविहेण णुलोमेण, आसेवणवियडणाभिहाणेणं / दिठ्ठयोच्छयपायच्छित्ते, सयं पच्छित्तकप्पगे। आसेवणाणुलोमं जं जह आसेवियं विपडे ||16|| एवं इयं इच्छयपच्छित्तं, पुव्वालोइयमणुस्सरे / / 10 / / आलोयणाणुलोम, गुगवराहे उपच्छओ वियडे / जाइमयसंकिए चेव, कुलमदसंकिए तहा। पणगादिणा कमेण, जहजह पच्छित्तवुहि / / 17 / / जाइकुलोभयमयासंके, सुत्तलामिस्सिरि संकीयए तंही 107/ व्याख्या / द्विविधेन द्विप्रकारेणानुलोभ्येन क्रमेण द्वै विध्यमे-वाह / तवोमया संकिएचेव, पडिच्चासयसंकिए तहा। आसेवना यदानुलोभ्यंतदासेवनमेव विकटनेन च यत्ताद्विकटनमेवानस्ते एवाभिधाने यस्य तत्तथा तेनासेवन विकटनाभिधानेनालोचनांददातीति सक्कारमयलुद्धे य, गारवसंदूसिए तहा ||18|| द्वारगाथासंवधिपदं संबंध-नीयं / तत्राद्यं स्वरूपत आह / अपुजो वा विहंजमे, एगजमेव चिंतगे। आसेवनानुलोम्यमुक्त शदार्थं तदिति शेषः। यत्किं येन क्रमेणासेवितं यथा पाविणंपि पावतरे, सकलसचित्तालोयगे / / 19 / / सिंचितं विकट-यत्यालोचयत्यालोचनाकारीति। आलोचनानुलोभ्यं पुन परकहावगे चेव, अविणयालोयगे तहा। य॑क्त-शब्दार्थं तद्यदिति शेषः गुरुकापराद्यान्महातिचारान् तु शब्दः अदिहीयालोयगे साहू, एबमादी दुरप्पणो // 110 / / पुनरर्थः। स च योजित एव पच्छउत्ति प्राकृतत्वात्पश्चाद्य-थापराधानंतर अणंतेणाइकालेणं, गोयमा ! अत्तदुक्खिया। विकटयत्यालोचयति / कथमित्याह ! पण गाइणत्ति / समयभाषत्वाअहो अहो जावसत्त, मियं भावदोसेक्क ओगए।।११।। त्पचकादिना पंचदशकप्रभृतिना क्रमेणानुपूर्व्या किमित्याह / गोयम ! णते चिट्ठति,जे अण्णादिए ससल्लिए। यथा यथायनेयेन प्रकारेण प्रायश्चित्तवृद्धिर्विशुद्धिवर्द्धन तथातथायनियभासदोससल्लाणं, भुजंते विरसं फलं / / 11 / / द्विकटयतीति प्रकृतमिह चलघावचोरपंचकनाम प्रायश्चित्तं गुरुके तुदशक गुरुतरे तु पंचदशकमित्येवमादीति तुशब्दःपूरणार्थः / अत्र च गीतार्थ चिट्ठइस्संति अज्जवि, तेणं सल्लेण सल्लिए। आलोचनानुलोम्येनैवालोचयति कारणं तुगीतार्थगम्यमितरस्त्वासेवनाअणंतंपि अणागयं, कालंतम्हासल्लंन धारएण्णं मुणित्ति॥११३|| तुलोभ्येनालोच ना तु लोभ्यानभिज्ञत्वा तस्य च कारणमतिचाराणां (22) कृतानां कर्मणां क्रमत आलोचना / / सुस्सर त्वमिति गाथाद्वयार्थः // आलोचनाक्रमश्च। संयतीनामालोचना / महानिशीथे अ० 2 / / ते य पडिसेवणाए, अणुलोमा होति वियडणाएय। गोयम | समणीणणो संखा जा उनिकलुसनीसल्लपडिसेववियडणाए, एत्थ चउरो भवे भंगा ||6|| वीसुद्धशुनिम्मलवमणमाणसाउ अज्झप्पविसोहीए आलोयतांश्चातिचारान्प्रतिसेवनानुलोमेन यथैव प्रतिसेवितास्ते-नैवानुक्रमेण ताणसुपरिफुडं / नीसकं निखिलं निरावं नियवं नियदुचकदाचिचिन्तयति॥ तथा (वियडणाएत्ति) विकटना आलोचना तस्य च रियमाईयं सव्वंपिभावसल्लं अहारिहं तवो कम्मं पायच्छित्तं अनुलोमा एव चिंतयति एतदुक्तम्भवति। पढम लहुओ दोसो पडिसेविउ | मणुचरित्ताणं निरोपपावकम्ममललेवकलंकाओ उप्पन्नपुणोवठ्ठो वखतरो चिंतई। एवमेव ततश्च प्रतिसेवनायां अनुकूलमालोचना दिव्यपरकेवलनाणाओ महाणुभावाओ महाय। यामपि अनुकूलमेव / यतः प्रथम लघुको दोष आलोच्यते पुनर्वृहत्तरः साओ महासत्तसंपन्नाओ सुगणहियनामाघेयाओ अणंतपुनदेहत्तमः इति एष प्रथमो भंगकः / अन्नोपडिसेवणा अनकलो न / मसोक्खं मोक्खं पत्ताओ।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 463 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा कासिंच गोयमा नामे, पुग्नभागाण साहिमो।। जेसिमालोयमाणीणं, उप्पणंसमणीणकेवलं ॥शा हाहाहापाकम्माणं, पावापावमती अहं।। पावं ठाणं वि पावयए, हाहाहादुट्टिचिंतिमे ||2|| हाहा हाइच्छे भावं, मे ताविहजं मेउवट्ठियं / / तहावीणघोर वीरुग्गं, कटुंतवसंजमं धरं // 3 // अणंतपावरासीओ, संमिलियाओ जयाभवे // तइयाइच्छित्तणं लद्धे, शुद्धं पावाण कम्मणा ||4|| एगपिंडी भूताणं, समुद्दयंतणुतो तह॥ करेमि जह न पुणो, इत्थीहं होमि केवली ||5|| दिट्ठीए विनखंडामि, सीलं हंसमणि केवली।। हाहामणेणमे किंपि, अट्ठदुहट्ठाचिंतियं / / 6 / / तमालोइत्तालहुँ, सुद्धिंगिण्हेहं समणिकेवली॥ दिठूणमझलावण्णं, रूवं कंतिदित्तिसिरिं।७।। माणरपयं गाहमाजं तु, खयमणसमणीय केवली / / वातमोत्तूण नो अन्नो, निच्छयं मह तणुच्छिवे / / 6 / छकायं समारंभ, न करेहंसमणि केवली॥ पोग्गलकरे कारुगुज्झतं णाहि जहणं तरे तहा / / 9 / / जणाणा एविण दंशेमि, सुसंगुत्तं गोवं गासमणी य केवली / / बहुभंवतरकोडीओ, घोरं गब्भपरंपरं ||10|| परियटुंतीए सुलद्धमे, णाणचारीत्तसुंजुआमाणुस्सजम्मं सुसंमत्तं, पावकम्म क्खयं करं ।।१क्षा तासय्वभावणीसल्ला, आलोएमीखणेखणे॥ पायच्छित्तमणुष्ठामि, वीयंतं न समारमं ॥१२शा जेणागछइपछित्तं, वायामणु साय कम्मुणा / पुढविदगागणिवाऊ, हरियकायं तहे वय ||13|| वीयकायसमारंभ, विति चउपंचिंदिया णया / सुसाणंपि न मासेमि, समरक्खंपि अदिन्नयं ।।१४न गिण्हंसि मणंतेवि, णपच्छं मणसावि मेहुणं // परिग्गहं न काहामि, मूलुत्तरगुणरवलणं तहा ||15|| मयभयकसायदंडेसु, गुत्तिसुमिति दिएसु य / अठारसीलं गसहस्साहि ठियहीतणू ||16| सज्झायज्झाणयोगेसु, अमिरमंसमणीकेवली॥ तेलोकलक्खणक्खंभ धम्मतित्थंकरेण जं // 27 // तमहंलिंगंधरिण, भणिजइ विजंते निप्फिलियं॥ मज्झोमझीय दोखंडा,फालिज्जामि तहेवय ||२८अहपक्खिप्यामि दिन्नर्गि, अहवा छिजे जइसिरं / / तावीहं नियमवयभंगं, सील चारित्तखंडणं // 19|| मणसा वी एवजं, मकएण कुण समणिकेवली। खरुद्दगोणजाइसं. सरागार्हिठिया अहं ||20|| विकम पि समायरियं, अणंते भवभवंतरे तमेव खरकम्ममह, पवजाए ट्ठियाकुणं // 22|| घोरंध यारपायाला. जेणंणोणिहरं पुणो // छंडियाणमाणुसं जम्मं तवं च बहु दुक्ख भायणं / / 22 / / अणिचं रवणविद्धंसी, बहुदंडं दोषसंकरं / तत्थवि इत्थीसंजाया, सयलत्तेलोकनिदिया / / 23 / / तहाविपावियं धम्म, णिविग्घमणं तराइयं। ताहंतनं विराहेमि, पावदोसेण केणई 24 सिंगाररागसविगारं, साहिलासं न विट्ठिमो / पसंताए विदिठीण, मातु धम्मोवएसगं |29| अन्नं पुरिसं न निज्झाय, णालंवं समणिकेवली। तं तारिसं महापावं, काओ अक्कहणीय तं / 26 / सल्लमविउपन्नं जह, दत्तालोयसमणिके वली। पमादि अणंतसमणी उ, दानसुद्धीलोयणं / नीसल्लोकेवलं यप्पा, सिद्धा उअणादीकालेण गोयमा ! खंता दंता व मुत्ताउ जिइंदिया उ सव्वभाणिए उ / छक्कायसमारंभा विरया तिविहेण उ। तिदंडा सय्वसंवुडा पुरिसकहासंगवजिया पुरिससंलवविरया उ पुरि-संगोबंगनिरक्खणा निममत्ताउ सरीरे अप्पडिबद्धा उ महायसा भीयत्थिगम्भवसहीणं बहुदुक्खाओ भवसरणओ तहा ताएरिसेणं भावेणं दायव्वा आलोयणा पायच्छित्तं पिकायव्वं / / तह जह एयाहिं समणिहिं कयं णउणं तह आलोएयध्वं / मायाडंभेण केणई जह आलोयमाणी णं पाव-कम्मवुड्डीभवे अणं तेणा इकालेणंमाया तत्थ कम्मदोसेणं कवडालोयपकाउसमणी उसल्लीउ आतिउ गयस्सरेणं छवियं पुढविंग या ||3|| छकासिंवगोयमा ! नामेसाहिमो तंति बोधयजाउ आलोयमाणि उ भावदोसेसु श्रुत्तरगपाव-कम्ममलपचलिया भवसंजमसीलगाणं णीसल्लतपसंसियं तं परमभावविसोहिए विणाकणद्धपि नाभवे तो गोयमा! केसिमित्थिणं चित्तविसोहिं सुनिम्मलाभवंतारं विमो होही जेण नीसल्लयाभावे छट्टहमदसमदुवालसेहिं सुक्खंतिके वि समणि उत हवि यसंरागभावं गाणालोयंतीणं च्छडंतिबहुविहवि कप्पकल्लोलमालाओ कि लगाहणं वियरं तंतेण लक्खिज्जा 25 दुखगाहमणसागरं ते कहमालोयणं दि तुं जासि चित्तं पि मोवसे सल्लंजो ताणमुद्धरए / 26 / स वंदणीओखणे खणे / असणे हि पीयपुटवेणं धम्म-सुद्धल्लसावियं / सीलंगगुणहाणेसु उत्तमेसुंधरेइ जो / इ छीबहुबंधणमुकगिहकलत्ता विचारगा / सुविसुद्धसुनिम्मलचित्तं णीसल्लं सोमहायशो दहव्यो वंदणीओ य देविंदाणं सउत्तमो दीणत्थी सव्वपरिभूयं विरइहाणो जो उत्तमे वरेणा लोएमि अहं समणी देक हं किंचि सा हुणि बहुदोसं न कह समणी जं दिटुं समणिहितं कहं असायज कहासमणि बहु आलंवणा कहा पमा। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 464 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा या खावगा समणि पाविट्ठा बलमाडी कहा लोगविरुद्ध - उत्तमठाणमि ठिओमादिराहिला अत्ताणं आलोहकहा तह य परवएसा लोयणीसुयपच्छित्ता तहया यर्निदियगराहिउग्गकयपायच्छित्तंसंविग्गेच्छिन्नं पि तणं हरियं जायादीमयसंकिया। सूसगारभीरुया चेव गारवत्तिपदूसियातहा। असइमणगंमा फरिसे आलोइयर्निदियगर हियो विकयपायछित्तं एवमादि अणेगभवादोसवसल्लेहिं पूरियानिरंतरा अणतेणं सविग्गो उत्तमठाणंमि ठिउजावञ्जीवं एतेसिं बेइंदियतेंदियचउरो कालसमएणं गोयमा ! अइक्कं तेणं अणं ताउ समाणोओ पंचिंदियाणंजीवाणं संघट्टणपरियावण किलावणोइवणमाकासी बहुरवावसहंगया गोयमा ! अणं ताउ चिटुंति जाअणादी आलोइयनिंदियगरहिओ विक य-पायाच्छित्तसं विग्गो सल्लसल्लीया। भावदोसे कसेल्लेहिं भुज-माणीओ कटुबिरसं उत्तमठाणंमि ठिओ सावजं माभणिज्जा आलोइयनिंदियगरहिओ घोर ग्गतरं फलं चिट्ठइस्संति अज्जावि तेहि सल्लेहिं सल्लिया विकय पायच्छित्तसंविग्गो लोयतेण विभूई गहियागहिओ खिवि अणंतं पि अणागयं कालं तम्हा सल्लं सुसहुमंपि समणी णो उदिन्ना आलोइयनिंदियगरहिओ विकयपायच्छित्तनिजो सल्लोधारेज रवणं त्तिवेमि। जोइत्थि संलोवेजा गोयमा ! कत्थमु निहि-आलोइय (23) आलोचनायां दत्तायां न विरतिभंगः सद्दष्टान्तः।। निंदियगरहिय ओविकयंपायच्छित्त संविग्गोचउद्दसधम्मवगरणे प्रालोचनायां दत्तायामपि विरतिभंगो न कश्णीयः / महानि-शीथे। उट्टमापरिहगं कुज्जा तेसुंपि वि ममतो अमुच्छिओ अगडिओ अ०७॥ दवहविया अहवा कुज्जाउ ममत्तं तासुद्धी गोयमा ! नत्थि किं पाणाइवाय विरइ, से वफलया गिहिउण ताधीमं बहुणा गोयमा ! नत्थइत्यंदाउणं आलोयण रयणिए आविए मरणावयं मिपत्ते मरेजविरइ नखंडिजा 1 अलियवणस्स विरइ, पाणम्कत्थगम् तु समुझिही आलोइयनिंदियरहिओ सावजं सटवमवि न भासिजा परदव्वहरण विरई, विकयपायच्छित्तनीसल्लो छइक्करे मेणरक्खे जो कत्थसुद्धिं करेज दिन्ने वि मालोयं 2 घरणं दुद्धरवं भटवयस्सकाउं लभेज से / महा. अ.७॥ परिरगहवायंत्राइमोयणविरह, पंबिंदियनिमहं विहिणार अग्ने आलोचनायां दत्तायां विरभिङ्गान करणीयस्तभा उपचारात्तत्कारणय कोइ माणा, एगदोसे य आलोयणं दाउं। पमाहारअहंकारे, भूतप्रमादक्रियायाच। ध० 2 अ। गायढे सव्वं पव्वतणे। जह तव संजमसजायम, गाणमाइसुसुद्धिं भावेहिं उज्जमियव्वं गोयम ! विजुलयाचंच ले जीवे किं बहुणा आलोचनायाः प्रायश्चित्तस्य प्रशस्तयोगसङग्रहनिमित्तत्वा-तदात्मके गोयमा ! इत्थं दाउणं पुढविकायं विराहिज्जा कत्थगुंतुं समुजिह प्रथमे योगसङ्गहे, च। प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वा-दालोचनादय एव किं बहुणा गोयमा! इत्च्छं दोउणं आलोयणं वाहिणंपाणिं तर्हि तथोच्यन्ते, सम. 31 स / मोक्षसाधनयोग-सङग्रहाय शिष्येणाऽऽजम्मे जो पिएकत्थाच्छमुजिही किंबहुणा गोयमा ! एत्थं दाउणं चाव्या लोचना दत्तेति / अत्रोदाहरणम् / आलोयणं उन्हववइ जालय जाइ फुसि उत्ता कत्थसुज्झिही किं उज्जेणि अट्टणे खलु, सिंहगिरि सोपारए पुह हवई। बहुणा गोयमा ! इत्थं दाऊण आलोयणं वाउकायं उदिरिजा मच्छिअमल्ले दुरुल्ल, क्खविओ फलिहमल्ले अ||११|| कत्थर्गंतु ससुज्झिहि किं बहुणा णं गोयमा ! एत्थम्दाउणम् दुरुल्लखविया ग्रामाः फलहीशब्दो देश्यो वउणीवाची। आलोयण जोहरियतण कप्पांवाफरिसे कत्थमसुझिहि किं बहुणा उज्जयिन्यामुञ्जयिन्यां, समस्तनगरावलीः। जित-शत्रुर्नृपस्तत्र, गोयमा ! इत्थं दाऊणं आलोयणं अक्कमइ बीजकार्य जो मल्लस्तस्याट्टनाभिधः ||1|| इत्यादि, (अट्टन) शब्दे तत्कथा। कच्छगतो समुज्झिही किं बहुणा गोयमा ! इत्थं दाउणं आलोयं यथाट्टनस्तथाचाय्यः, पताकानिवृत्तिः पुनः। वियलं दीविति चउ-पंचिंदियपरिठावे जो कत्थ समुत्थही किं बहुणा गोयमा इत्थं दाउणं आलोयणं छक्काए जोतं न रक्खेजा। साधुमल्लोऽपराधास्सु, प्रहारास्तान् गुरोहि यः 10 आलोचयति निः शल्य, स निर्वाणपताकिका 11 सुहुमे कत्च्छसमुचिही किं बहुणा गोयमा ! इत्थं दाउणं त्रैलोक्यरगे गण्हाती, त्युक्ताः शिष्यगुण इमे। आलोयणं तसथावरो जो न रक्खे कत्थगंतु समुचिही आलोइयनींदियगरहिय ओविक यपायछित्त निसल्ल आव, क, / आ. चू / आव०॥ उत्तमठाणंमिठिउपुढवारंभ परिहरिजा / आलोइयनिंदिउगर (24) आलोचनायामकृतायां मृत्वाऽनाराधको भवति। हियविकयपायच्छित्तनीसल्लो उत्तमठाणमि ठिओजोइ एमा भिक्खू य अण्णयरं अकिचट्ठाणं पडिसेवित्ता सेणं तस्स फुसावेजा। आलोइयनिंदियगरहिओविकयपायच्छित्त-संविग्गो | ठामस्स अणालोइयपडिकं ते कालं करेइ / णत्थि तस्स Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा 465 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आलोयणा आराहणा। सेणं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकं तं कालं करेइ / अत्थि तस्स आराहणा। भिक्ख अण्णयरं अकिच-ट्ठाणं पडि से वित्ता तस्स णं एवं भवइ पच्छाविणं अहं चरिमकालसमयंसि एयस्स ट्ठाणस्स आलोइयस्सामि जाव पडिक्कमिस्सामि। सेणं तस्स ठाणस्स आणालोइयपडितेजाव णत्थि तस्स आराहणा। सेणं तस्सठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ / अस्थि तस्स आराहणा भिक्खूय अण्णतरं अकिच्चठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ जइ ताव समणोवासयावि कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववत्तारो भवंति। किमंगपुण अणवण्णियदेवत्तणं पिणो लमिस्सामित्ति कटु सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा। सेणं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा सेवं भंते ! मंतेत्ति / / भ. 10 श.२ उ.! टीका / इह च शब्दश्चेदित्येतस्यार्थे वर्तते। स च भिक्षोरकृत्यस्थानासेवनस्य प्रायेणासंभवप्रदर्शनपरः (पडिसेवित्तत्ति) अकृत्यस्थान प्रतिषविता भवतीति गम्यं / वाचनांतरे त्वस्य स्थाने (पडिसेविज्जत्ति) दृश्यते। सेणंति। स भिक्षुः तस्स ठाणस्सतितत्स्थानम् अणपन्नियदेवत्तणं पि नो लभिस्सामिति अण पन्निका व्यंतरनिकायविशषास्तत्सबंधिदेवत्वमणपन्निकदेवत्वं तदपि नोलप्स्ये इति भाटीला (25) आलोचनाफलम्॥ आलोयणाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ आलोयणाएणं मायाणिया। मिच्छादरिसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारबंधणाणं उद्धरणं करेइ / उजुभावं च जण-यइ। उजुभावपडिवण्णे वियणं जीवे अमाइ इत्थिवेयं नपुंसगवेयं च न वुचइ पुथ्वबद्धं च णं निजरेइ / / 5 उत्त, ऊ९।। गुरुशुश्रूषां कुवर्तोऽप्यतीचारसंभव आलोचना तथा मायाशाठ्यं निदानं ममाऽतस्पतःप्रभृत्यादेरिदं स्यादिति प्रार्थनात्मकं मिथ्या-दर्शन सांशयिकाद्येतानि शल्यानीव शल्यानि तेषां ततः कर्मधारये मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानि तथाहि तो मरादिशल्यानि तत्कालदुःखादानेप्यायते दुःखदायीन्येवं मायादीन्यपीत्येवमुच्यते तेषां मोक्षविनानां पापानुबधनत्वेन मुक्त्यंतरायाणां तथानंतं संसारं वर्द्धयंति वृद्धिं नयंतीत्यनंतसंसारवर्द्धनानि तेषामुद्धरणमपनयनं करोति तदुद्धरणतश्व ऋजुभावं चार्जवं जनयति // (उजुभावपडिवण्णेयत्ति) प्रतिपन्नऋजुभावश्चजीवाऽमायी मायारहितस्ततः पुंस्त्वनिबंधनत्वादमायित्वस्य (इत्थिवेयत्ति) प्राग्वविंदुलोपस्त्रीवेदं नपुंसकवेदं च न बध्नाति पूर्वबद्धं च तदेव द्वयं यद्वा सकलमपि कर्म निर्जरयति क्षपयति तथा च मुक्तिपदमागोतीत्यभिप्रायः उक्तंहि। "उद्धियदंडो साहू अचिरेण उवेति सासयं ठाणं / सोचिय णुट्ठियदंडो संसार-पकडओ होत्तिति // 25 // " उत्त. टी.॥ आलोचनापरिणतस्य निमाणस्यापि आधारकत्वमाराधनाशब्दे॥ तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कद्र णो आलोएजा णोपडिकमेजाणो णिंदेखा णो गरहेजा णो विउद्देज्झा णो विसोहेज्जा णो अकरणाया ए अब्भुट्टेजा णो अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवद्धिज्जा / तं / अकरि सुवाहं करेमि वाहं करिस्सामि वाह। तिहिं ठाणेहिं मायी मायं कट्टणो आलोएज्जा णो पडिकामेजा जाव नो पडिवज्जज्जा / तं जहा। अकित्ती वा मे सिया अवन्ने वा मे सिया अविणये वा मे सिया तिहिं ठाणेहिं मायीमाय कट्टुणो आलोएजाजाव णो पडिवजञ्जातंकित्तिवा मे परिहाइस्सइ जसोवा मे परिहाइस्सइ पूयसकारे वा मे परिहाइस्सइ / तिर्हि ठाणे हि मायी मायं कटु आलोएज्जा पडिक्कमेज्जा निंदेजा जाव पडिवजेजा। तं / मायी स्सणं अम्सि लो गेगरहिए भावइ उववाए गरीहए भवइयाइं गरहिया भवइ। तिहिं ठाणेहिं मायी माय कटु आलोएज्जा जाव पडिवजेज्जातं अमाइस्सणं अस्सि लोगे पसत्थे भवइ उववाए पसत्थे भवइ आयांई पसत्थे भवई। तिहिं ठाणेहिं मायीमायंकट आलोएज्जा जाव पडिवजज्जातं.। णाणट्ठयाएदसणट्टयाए चरितट्टयाए स्था० ठा.३|| तिहिं ठाणेहिमित्यादि व्याख्या / मायी मायावान् मायं / मायाविषयं गोपनीय प्रच्छन्नमकार्यं कृत्वा नो आलोचयेत् मायामेवेति शेषसुगम नवरमालोचनं गुरुनिवेदनं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतदानं निंदऽऽत्मसाक्षिकाग गुरुसाक्षिकावित्रोटनंतदध्यवसायनिच्छेदन। आत्मनश्चारित्रस्य वाऽतिचारमलक्षालनमकरणता ऽत्युत्थानं पुनर्न तत्करिष्यामीत्यभ्युपगमः / अहारिहं / यथो चितं पायच्छित्तंति पापच्छेदकं प्रायश्चित्तवि-शोधकं वा तपः कर्म निर्विकृतिकादिप्रतिपद्येत तद्यथा अकार्षमहमिदमतः कथं निन्द्यमित्यालोचयिष्यामि स्वस्य महात्म्यहानिप्राप्तेरित्येवमभिमानात् / तथा करोमि चाह-मिदानीमेव कथं साध्विति भणामि करिष्यामीति चाहमे -तदकृत्यमनागत कालेऽपीति कथ प्रायश्चित्तं प्रति पद्यत इति कीर्तिर कदिग्गामिनी प्रसिद्धिः / सर्वदिग्गामिनी सैव वर्णो यशः / पर्यायत्वादस्य अथवा "दानपुण्यफला कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः" तच वर्णयति तयोः प्रतिषेधोऽकीर्तिरवणश्चेति / अविनयः साधुकृता स्यादिति / इदं च सूत्रमप्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्ष मायं कटुति मायां कृत्वा मायां पुरुस्कृत्य मायेयत्यर्थः। परिहास्यति हीना भविष्यति पूजा पुष्पादिभिः। सत्कारो वत्रादिभिरिदमेव विवक्षितमेकरूपत्वादिति। इदंतुप्राप्तप्रसिद्धिपुरुषापेक्ष शेषं सुगमं / उक्त विपर्यायमाह। (तिहि) मित्यादि सूत्रत्रयं स्फुटं किन्तु मायी (मायंकटु आलएजति) इह मायो अकृत्यकरणकाल एव आलोचनादिका लेत्वमाय्ये वा-लोचनाद्यन्यथानुत्तरिति (अस्सिति) अयं यतो मायिन इह लोकाद्या गर्हिता भवन्ति / यतश्चामायिन इहलो काद्याः प्रशस्ता भवति यतश्चामायिनः आलोचनादिना निरती चारीभूतस्य ज्ञानादीनि स्वस्वभावं लभन्ते / अतोऽहन Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणाणय 466 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवकहिय मायी भूत्वा आलोचनादि करोमीत भावः // आलोयणाणय-पु.(आलोचनानय) आभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचना स एव नयः। आलोचनायाः नय भेदे, तद्वक्तव्यता (सामाइय) शब्दे विशे० आ. चू०२ अ। आलोयणारिह-न. (आलोचनाह) आ मर्यादया "जह बालो जंपतो, कजमकजं" च उज्जुओ भणइतं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्वोय इत्येवंरूपयाऽऽलोचनं गुरोः पुरतः प्रकाशनं तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्धिस्तदालोचनार्ह तद् विशोधिकं प्रायाश्चित्तमप्युपचारादालोचनाहम्। जीत, व्य०१ आलोचना गुरुनिवेदनां विशुद्धये यदर्हत्यतिचारजातं | तदाऽऽलोचनान्त-द्विशोधकमालोचनालक्षणं प्रायश्चित्तमप्युपचारादालोचनाहम् ग० अ० 112 औप. प्रायश्चित्तभेदे / आलोचनाई यद्गुरुनिवेदनया शुद्ध्यतीति ठा, 3 ठा, भग, श० 25 उ७ आलोचना गुरुनिवे-दनम्। तथैव यच्छुझ्यत्य तिचारजातं तत्र तदर्हत्वादालोचनाहम् / तच्छुद्ध्यर्थे यत्प्रायश्चित्त तद्प्यालोचनार्हन्तचालोचनैव स्था ठा० 106 / एतस्याशेषवक्तव्यताऽऽलोचनाशब्दे आलोचनायोग्ये आचा--दिके० पु. ते चालोचनाशब्दे व्य.उ. 10 ध, अधि०२ नि० चू उ. 20 / / आलोयणायरिय-पुं(आलोचनाचार्य) विकटनागुरौ (जोगो आलोयणायरिओ) आलोचनाचार्यो विकटनागुरुस्सच कीदृशो योग्य इत्यालोचनाशब्दे / पचा० 15 वृध अधि०२।। आलोयणाविहिसुत्त-न (आलोचनाविधिसूत्र) शिष्यनिवेदितप्रायश्चित्तपोलोचनविषयप्रायश्चित्ताभिधायिनि सूत्रे आलोचनाविधिसुत्ता नाम गुरुं शिष्येण गुरोर्निवेदिते गुरुणा प्रायाश्चित्तपालोचनाविषयाणि प्रायाश्चित्ताभिधायिनि नि, चू, उ०२।। आलोयदरिसणिज्ज-त्रि. (आलोकदर्शनीय) आलोकं दृष्टिगोचर यावद् दृश्यतेऽत्युचत्वेन यः स आलोकदर्शनीयः भ. श. 9 उ. 33 आलोके दृष्टिविषये क्षेत्रे स्थितोऽत्युच्चतथा दृश्यते यः स आलोकदर्शनीयः अत्युचतया यावदृष्टिगोचरं दृश्यमाने ज्ञा० अ१ (दसणरइयआलोअदरिसणिज्जा) आलोकं दृष्टिपच्छंयाव-दृश्यते अत्युच्चैस्त्वेन या सा आलोकदर्शनीयेति औप. नात्युचतया आलोकमात्र एव दर्शनीये मङ्गल्यत्वात्प्रस्थानसमये द्रष्टु योग्ये, च॥ दरिसणरइय आलोयदरिसणिज्जा।।। आलोके बहिः प्रस्थानसमयभाविनिदर्शनीया द्रटं योग्या मंगल्यत्वात् अन्ये त्वा हुरालोके दर्शनीया न पुनरत्युचा आलोकदर्शनीयति राज०॥ आलोल-त्रि. (आलोल) इषत् लोलः प्रा. स. इषचञ्चले, / "आलोलपुष्करमुखोल्लसितैरभीक्ष्णण माघः" वाच // आलोलिय-त्रि. (आलोलित) आ लुल णिच् क्त ईषचञ्चलीकृते॥ आवंत-पुं. (आवन्त) अवन्तेरयं राजा अण अवन्तिदेशाधिपे चन्द्रवंश्ये नृपभेदे, वाच / / आवन्तिअज्झयण-न० (आवन्त्यध्ययन) आचाराङ्ग स्य नवब्रह्मचर्य्याध्ययनान्तर्गत लोकसाराख्ये पञ्चमेऽध्ययने / आवंतीत्या चारस्य पशमाध्ययनम् तत्र ह्यादावेवावंतीत्यालापका विद्यते इत्यादानपदेनैतन्नाम / अनु० / आवंतीति आद्यपदेन नामान्तरण तु लोकसार इति स्था. ठा०९। समआव(आयाण पएणावंती। गोणनामेण लोगसारोत्ति) आदीयते प्रथममेव गृह्यत इत्यादानम् तच तत्पदं चादानपदम् तेन करण भूतेनावंतीत्येत प्रामाध्ययनादावावंतीशब्दस्योचारणात् आचा० अ०५ उ. 1 / / आव (जाव)-त्रि. (यावत्) आदेर्योजः।०४५।। इति प्राकृतसूत्रेण पदादेर्यस्य जो वा भवति आर्षे लोपोऽपि। प्रा० / यत्परिमाणमस्यमतुपा यत्परिमाणे स्त्रियां डीप्यावति साकल्ये अवधौ, व्याप्ती, माने अवधारणेच। अव्य. अमरः। एतच्छब्दयोगे द्वितीया। वाच०॥ आवकह-प्रव्य (यावत्कथ) यावजीवमित्यर्थे, आवकहं भगवं समित्तासि ॥१६|यावत्कथमिति यावज्जीवम् आचा० अ०९ उ०४॥ आवकहा-स्त्री. (यावत्कथा) यावती यत्परिमाणा कथा मनुष्योऽयं देवदत्तादिर्वाऽयमिति व्यपदेशलक्षणा यावत्कथा यावजीवे जत्थवियणं आवकहाए चिट्ठइ स्था, ठा० 4 से पा रए आवकहाए यावत्कथं यावञ्जीवमित्यर्थः / आचा० अ०९ उ०४ जे आवकहा समाहिए कियंत कालं यावत् कथा देव दत्तो यज्ञदत्त इति कथायावदिति सूत्र० श्रु०१ अ०२ धण्णा आवकहाए गुरुकुलवासंण मुंचंति॥१६० यावत्कथं यावज्जीवम्। पंचा 103.11 // आवकहिय-त्रि. (यावत्कथिक) यावजीविके। पंचा. वृ०११ एत्थ उसावय धम्मे, पायमणुव्ययगुणव्वयाइ च / आवकहियांई सिक्खा, वयाई पुण इत्तरा -1 इति पंचा 1 वृ. / यावत्कथिकानि यावती यत्यरिमाणा कथा मनुष्योऽयमित्यादिव्यपदेशरूपा यावत्कथा तस्यां भवानि यावत्कथिकानि यावज्जीवानीत्यर्थः / पंचा० // यावत्कथिकानीति सकृद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनी यानीति / आव० / सामयिकभेदेतच्च मध्यमवैदहकतीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयम्। तेषामुपस्थापनाया अभावात्। पंचा वृ०१९ / आत्मनः कथा यावद्यदास्ते तद्यावत्कथं यावजीवमित्यर्थः / यावत्कथमेव यावत्कथिकम् / सामायिकचरित्रगुणप्रमाणभेदे, एतच भरतैरावतेष्वाद्यचरम-वर्जमध्यमतीर्थकरसाधूनां महाविदेहयतीनां च संभवति / अनु / यावत्कथस्य भाविव्यपदेशान्तराभावात् यावजीविकस्य समायिक स्याऽतिस्तत्वात् यावत्कथिकः / सामायिक संयतभेदे, सच मध्यमजिनमहाविदेहजिनसम्बन्धिसाधुः। भ० श०२५७०७। प्रतिक्रमणभेदे च स्था ठा० / / यावत्काथकं यावज्जीविक महाव्रतभक्तपरिज्ञानादिरूपं प्रतिक्रमणत्वं चाऽस्य निवृत्ति-लक्षणाऽन्वर्थयोगादिति। आवः॥ पंच य महव्वयाई रांईच्छट्ठाई चाउजा मोअं। भत्तपरिन्ना य तहा, दुन्हंपि अ आवकहिआई। पंच महाव्रतानि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि राइभोयणछट्टोइंति। उपलक्षणत्वात् रात्रिभोजननिवृत्तिषष्ठानि पुरिमपश्चिमतीर्थकरयोस्तीर्थ इति / चतुयामिश्च निवृत्तिधर्म एव भक्तपरिज्ञा च तथा शब्दादिन्तिमरणादिपरिग्रहः द्वयोरपि पुरिमपश्चिमयोः चशब्दान्मध्यमानां च यावत्कथिकान्येतानीति गाथार्थः / / अशनभेदे, च-भ.श०२५ उ०७ / / Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवग 467 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवट्ट सेकितं आवकहिए आव 2 दुविहे प. तं पा ओवगमणे य भत्तपचक्खाणे य / प्रव. दा.६ दश अ१॥ आवग-त्रि. (आवक्) अवति, अव एवुल-रक्षके, वाच० आवज-न. (आतोद्य) ओतोऽद्वाऽन्योऽन्यप्रकोष्ठातोद्यशिरोवेद | नामनोहरसरोरुहे तो श्व वः // 1|| 56 इति प्राकृतसूत्रेणैष्वोतोऽत्वं वा भवति तत्संनियोगे च यथा संभवं ककारतकारयोर्वादेशः / प्रा. वीणादौ वाद्ये, अत्रत्याबहुक्तव्यता (आउज्ज) शब्दे। आवजण-न० (आवर्जन) उपयोगे व्यापारे, चकेवलिसमुद्घातगन्तुमनसा केवलिना कर्तव्यमावर्जीकरणमधिकृत्य (आव-अणमुव ओगो वावारो वातदत्थमाइए) तदर्थं समुद्घातक रणार्थमादौ केवलिन उपयागो मया अधुनेदं कर्तव्यमित्येवंरूप उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपो व्यापारोवाऽऽवर्जनमुच्यते। इति विशे० / अभिमुखीकरण, आ. चू॥ आवज्जिय-त्रि. (आवर्जित) वृज-णिच् क्तः। अभिमुखे, आ. चू० आवज्जियकरण-न. (आवर्जितकरण) अभिमुखीकरणे, केवलिसमुद्घातात्पूर्व कर्तव्ये केवलिनोव्यापारविशेषेच आ. चू, केविदावर्जितकरणमिति वर्णयंति। तेषामप्यावर्जितशब्दस्याऽतिमुखपर्यायवाचित्वात् आवर्जितकरणसिद्धिः कथमावर्जितमनुप्यवत् यथा लोकेदृष्टमेत दाव-जिंतो मनुष्योभिमुखीकृतइति तथा च सिद्धान्तः / सिद्धपर्यायपरिणामाभिमुखीकरणं यत्तदावर्जितकरणं येन कारणन परिणत आत्मा नियमात् सिद्धतत्पर्यायपरिणामाभिमुखो भवतीत्यर्थः॥ आवजीकरण-न० (आवर्जीकरण) समुद्घातकरणार्थमादौ केवलिन उपयोगो मया अधुनेदं कर्तव्यमित्येवं उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपो व्यापारो वा आवर्जनमुच्यते / तथा भूत्तस्य करणमावजीकरणम् केवलिसमुदधातात्पूर्व केवलिना कर्तव्ये व्यापार भेदे, विशे। आव(ह)(ड)(त्त)त-पुं० (आवर्त) आवर्तनमावर्तःसचस मुद्रादेश्चक्रविशेषाणांचेति। स्था. ठा०४। ज्ञा० अ१ आ.म.प्रा आवर्तयति प्राणिनं भ्रामयतीत्यावर्तः / सूत्र० श्रु० 1 अ०३ / आ. वृत. भावादौ घञ् चक्रांकारेण जलस्यपरिभ्रमणे / वाचः / तस्याधूर्तादी // 2 // 30 / / इति प्राकृतसूत्रेण तस्य भवति धूर्तादीन् वर्जयित्वा बाहुलकाधिकाराद् धूर्तादावपि प्रा० / जलादीनां परिभ्रमणे आचा. अ.१ उ०५आवर्त आवर्तनं परिभ्रमणमिति ज्ञा० अ०१ मोहावत्तं महाभीमं। मोहोमोहनीयं कर्म तदेव | तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वादावर्तो यस्मिन्स तथा विवस्तमिति आव।स्था / द्वा०४॥ चत्तारि आवत्ता पण्णत्ता। तं खरादत्ते उन्नयावत्ते गूढावत्ते आमिसावत्ते ठा० / आवर्तन्तेपरिभ्रमंति प्राणिनो यत्र स आवर्तः ससारे आचा, अ। 5 (आवट्टे सो एसंगमभिजाणति) आचा० अ० 33 11 आवट्ट इत्यादि भावावर्तो जन्मजरामरणरोग-शोकव्यसनोपनिपातात्मः संसार इत्युक्तं हि "रागद्वेष वशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरं / / जन्मावर्ते जगत् क्षिप्तं, प्रमादाभ्राम्यते भृशं / / 1 / / भावोतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाष आवर्तश्च श्रोतश्च आवर्तश्रोतसी तयोरागद्वेषाभ्यां सम्बन्धः सगस्तमभिजानत्याभिमुख्येन परिच्छिनत्ति यथा यं संग आवर्तश्रोतसोः करणं जानानाश्चपरमार्थतः कोऽभिधीयतेयोऽनर्थं ज्ञात्वा परिहरति | यश्चायमर्थः / संसारश्रोतः संग रागद्वेषात्मक ज्ञात्वा यः परिहरति स एव चावर्तः श्रोतसोः संगस्याभिज्ञाता (आवट्टमेवणुपरियट्टति भावावर्तः संसारस्तमरहट्टघटीयंत्रन्यायेनानुपरिवर्तन्ते।तास्वेव नरकादिगतिषुभूयो 2 भवन्तीति आचा. उ०५७०१॥ (विषये आवट्टमेयं तु पेहाए एत्थ विरमेज्जवेदवी) आवट्ट तु इत्यादि रागद्वेषकषायविषयावर्त कर्मबन्धावर्तवा तुशब्दात्पुनः शब्दार्थेभावावर्त पुनरुत्प्रेक्षात्राऽस्मिन् भावावर्ते विषय रूपे / वेदविदागमविद्धिरमेदाश्रवद्वारनिरोधं विदध्यात्। आचा० अ० 5 उ०६ ससारकारणे, शब्दादिगुणे, च (जेगुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे) आचा० अ० 1 उ.४ आवर्तो नामादिभेदाचतुर्धा / नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यावर्त्तः स्वामित्वकरणाधिकरणेषु यथा संभवंयोज्यः। स्वामित्वेनद्यादीनां वचित्यविभागे जलपरिभ्रमणं द्रव्यावतः द्रव्याणां वा हंसकारंडवचक्रवाकादीनां व्योम्नि क्रीडतामावर्तो नादावर्त्तः / करणेतु तेनैव जलद्रव्येण भ्रमता यदन्यदावर्त्तते तृणकलिंबादि स द्रव्येणावर्तः / तथा त्रपुसीसकलो हरजतसुवणौंरावर्तमानैर्यदन्यत्तदन्तः पात्या वर्तते / स द्रव्यैरावर्तत इति। अधिकरणत्वविवक्षायामेकस्मिन् जलद्रव्ये आवर्तः // तथा रजतसुवणरीतिकात्रपुसीसकेष्बेकस्थीकृतेषु बहुषु द्रव्येप्वावर्तः / भावावर्तो नामान्यो भावसङक्रान्तिः औदयिकभावोदयाद्वा नरकादिगीतचुतष्टयेषुभावावर्तः / आचा.१ अ०५ऊ॥ उत् कटमोहोदयापादितविषयाटि संपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषे, सूत्र० श्रु.१०३॥ अह मे संति आवट्टा, कासवेणं पवेश्या। बुद्धाजत्थ वसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं / / 14 / / टीका / अत्यधिकारांतरदर्शनार्थः / पाठातरं वा अहो इति / तच विस्मये इमे इति प्रत्यक्षासन्नाः सर्वजनविदित त्वात् संति विद्यते वक्ष्यमाणा आवर्तयंति प्राणिनं भ्रामयंतीत्यावर्तास्तत्र द्रव्यावर्त्ता नद्यादेर्भावावर्तास्तूत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्राथ विशेष एते चावत काश्यपेन श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनाऽमुत्पन्नदिव्यज्ञाने नावेदिताः कथिता प्रतिपादिताः / यत्र येषु सत्सु बुद्धा अवगतत्वा आवर्तविपाकवेदिनस्तेभ्योऽवसर्पते प्रमत्ततया तहूरगामिनो भवत्यबुद्धास्तुनिर्विवेकतया ये ह्यवसीदंत्यासक्तिं कुर्वतीति। आवर्तने, वाच द्वादशावर्तादिवन्दनकगते सूत्राभिधानगर्भकायव्यापार.. विशेषे। आवत्तोवारसेवय आवपौनः पुन्यभवने। दुक्खाणमेव आवढे अणुपरियट्टइ आचा. अ.२ ऊ३ दुक्खाणमित्यादि / दुःखानां शरीरमानसानामावतः पौनः पुन्यभवनमनुपरिवर्तते दुःखावर्तावमानौ बंभ्रम्यत इत्यर्थः / णिच् भावे अच् पुनः पुनश्चालने परिघट्टने।धातूनां द्रावणे। चिन्तायाञ्च / चिन्तयाहि चित्तं स्वविषयेषु पुनः पुनश्चाल्यते इति तस्यास्तथा-त्वम् / ध्रुवाख्यधोटकचिन्हे रोमसंस्थानभेदे / आवर्तिनः दशा-वर्तयुक्ताः प्रशंसायाम् णिनिः तेच। द्वावुरस्यौशिरस्यौ द्वौ, द्वौ द्वौ रन्ध्रोपरन्ध्रयोः। एको भाले ह्यपाने च, दशावर्ता धुवाः स्मृताः ॥शा पयोधिपक्षे जलभ्रमः मल्लि वाच। आवों देवमणिनामहयानां महालक्षणतया प्रसिद्ध इति जं आवर्ताकारे, देहिनां रोमसंस्थानभेदे, च वाच. आवर्तादाक्षि Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवट्ट 468 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आवरण णे भागे, दक्षिणःशुभकृन्नृणाम्। वामो वामेऽतिनिन्द्यः स्यात्, दिगन्यत्व उक्तं च विजयद्वारचिन्तायाम् जीवाभिगममूल टीकाकारेण तुमध्यमः // 1 // कल्प० / राजावर्तनामके मणौ पु. वाच :माणेलक्षणभेदे | "आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको भवतीति" || राज जी. जं०॥ आवर्तादीनि मणीनां लक्षणनीति // आ. म. प्र. जी. प्र.३ राज / आव(हत णिज्ज-त्रि. (आवर्तनीय) आ. वृत-णिच्-अनीयरद्रावणीये मेघाधिपभेदे, याचः / स्तनितकुमारेन्द्रस्य घोषस्य स्वनामक्याते धात्वादौ, वाच॥ लोकपाले स्तनित-कुमरेन्द्रस्य महाघाषस्य स्वनामव्याख्याते आव(ह)तय-पुं. (आवर्तक) आवर्त एव स्वार्थे कन् आवर्त शब्दार्थ प्रा० // लोकपाले, च स्था ठा० 4 भ. श.३ ऊ८ स्वनामख्याते जंबूद्वीपस्ये आव(हा)त्तायंत-त्रि (आवर्तायमान) आवर्त कुर्वाणे भ० श० 11 उ० / / दीर्घवैताढ्यपर्वते, स्था. ठा. 9 एकखुरे चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रिय _प्रदक्षिणं भ्रमति, च कल्प०!! तिर्यग्यानिकभेदे, प्रज्ञा पद 1 अहोरात्रभवे स्वनामख्याते पंचविंशतितमे मुहूर्ते, सम. स.३४ / स्वनामख्याते ग्रामे (आवते, मुहत्तासे) आवत्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं। ततो भगवान् आवर्ते ग्रामे बलदेवगृहे प्रतिमा प्रतिपन्न इति आ० मद्विः। (आवत्तायंत्ति) आवर्त कुर्वाण तद्वद्ये वृत्ते च तडिदिव विमलेच सदृशे आ. चू, माक्षिकधातौ, न, वाव, स्वनामख्याते विमानभेदे, सम, स 17 / च परस्परेण ते लोचने यस्य स तथा तं। भ, 11 2011 उ०॥ जंबुमंदरपौरस्त्ये सीताया महानद्या उत्तरस्थे स्वनामख्याते (आवत्तायति) आवर्तायमानं प्रदक्षिणं भमनएवंविधं यत् चक्रवर्तिविजयक्षेत्रे, स्था. ठा०८।दो आवत्ता स्था. ठा०२ महाविदेहस्थे (प्रवरकगगति) प्रवरकनक तद्वत् वृत्ते (तडियविमलत्ति) विमला या चक्रवर्तिविजयक्षेत्रे, च। जं॥ तडित् विद्युत् तत्सदृशे नयने लोचने यस्य स तथा तम्। कल्प० // कहिणं भंते महाविदेहे वासे आवत्तणामं विजए पणत्ते आवडिय-त्रि. (आपतित) समन्तात्पतिते, // गोअमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं सीआए | आवण-पु. (आपण) हट्टे. कल्प० / / माहणईए उत्तेरणं णलिणे कूडस्स वक्खा-गपव्वयस्स आवरग-न. (आवरक) आ वृ-करणे अप संज्ञायां कन् अपवरके, पच्छिमेणं दहावतीए महाणइए पुरच्छिमेणं एत्थणं महा- आच्छादके वस्त्रादौ,॥ विदेहे वासे आवते णामं विजए पणत्ते सेसं जहा कच्छस्स आवरण--न. (आवरण) आवियते देहोऽनेन आ वृ करणे ल्युट् विजयस्स / / वाचा / आ मर्यादया वृणोतीत्त्यावरणम् / स्था०४ ठा० / अंगरक्षादिके, आव(ट्ट) पचावडसे ढियसोत्थिय सोवत्थिय पूसमाण- ज्ञा०८ अ०। वद्धमाणगत्थंडामकरंडाजारामाराफुल्लावलियपउमपत्त कवचादिके उत्त०३ अ। सागरतरंगवणलयपउमलयभत्तिचित्तं / (जाणावरणपहरणे) आवरणं कवचादि आ० क आवरणए कवचादी आवर्तप्रत्यावर्त श्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकपुष्यमाणवर्द्धमानकम- सूत्र.१ श्रु०८अ। स्माण्डकमकराराडकजारमारपुष्पाव लिपद्मपत्रसागरतरंगवा (जोहाणयं उप्पती आवरणाणं पहरणाणं च) आवरणानां सन्नाहानाम् सतीलतापमलताभक्तिचित्रनस्वनामख्याते नाट्यविधिभेदे, राज०॥ स्था०९ठा। आव(ट्ट) त्तकूड-न. (आवर्तकूड) महाविदेहस्थनलिनकूटवक्षस्कार- आवरणानां कंकटानाम् श०१६ अ। पर्वतस्थे स्वनामख्याते कूटे, जंग! स्फुरकादिके (सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसञ्जाणं) आवरणानि आव(ट्ट)त्तण-(आवर्तन) आवृत आधारे ल्युट् सूर्य्यस्य पश्चिमादि च स्फुरकादीनि। औप० / फलादिके, आचा१अ.५ऊ। गवस्थितच्छायायाः पूवदिग्गमनसमये मध्यान्हकाले "आवर्त ना तु आवियते आकाशभनेनेत्यावरणम् प्रसादनगरादिके, स्था०९ ठा०॥ पूर्वाराहोऽपराण्हस्तु ततः परम्ः" स्मृतिः वाच विलयने, (आवट्टती तत्थ असाहुकम्मा) आवर्तते विलीयंते इति॥सूत्र०१ श्रु.५ अ०॥ आच्छादनसाधनमात्रे, वाथ स्थगने, वृ०१ उ० / पीडने, (आवट्टतीकम्मसु पावएसु) आवर्त्यतेपीड्यतेदुःखभाग्भवतीति ईषद्धरणे आवरिजइ वा णिवारइज्जइवा आवरिजइति इष. -द्रियत। ब.९श.३३ऊ। सूत्र०१ श्रु०१०॥ आकंपने (कहणाउट्टणआगमणपुच्छणा दीवणा य कज्जस्स) आद्रियते चैतन्यमनेन वेदान्तिमतसिद्ध चैतन्यावरणे अज्ञाने, वाचा। आवर्तनमाकंपनं राज्ञो भक्तीभवनम् व्य०९ उ.। आवियते आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् यद्वा आवृणोत्याच्छादय ति आ. वृत भावे ल्युट् आलोडणे, गुणने, च धातूनां द्रावणे आर्वतयेति जन्यादिभ्यः कर्तर्यानटप्रत्यये आवरणम् / मिथ्यात्वादिके कर्मभेदे, स संसारचक्रम् आ. वृत णिच् कर्तरि ल्यु विष्णौ, (आवर्तनो निवृत्तात्मा च जीवव्वयापाराहृतकर्मवर्णान्तः पाती विशिष्टपु-द्रलसमूहः / कर्म। विष्णुसह) जम्बुद्वीपोपद्वीपभेदे च / आवर्त्यतेऽनया ल्युट्डीप् दाम् प्रव.२१५ द्वा०। स्त्री आधारेल्युटडीपधातुद्रव्य-द्रावणाधा भूषायाम, करणएल्युट्वेष्टने, तचाद्वीवधम् ज्ञानावरणं दर्शनावरणं च (नाणस्स दंसणस्स आवरणं प्राचीरादौ न / वाच / वेयणीयं य) पं. सं०३द्वा०॥ आवाहत्तणपे ढिया--स्त्री. (आवर्तनपीठिका) इंद्रकीलिका- (पढ मं नाणावरणं वीयं पुणदंसणस्स आवरणं) ज्ञायते निवेश स्थाने, आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलके निवेश्यत इति जी०३ प्र. परिच्छिद्यत वस्तु अननति ज्ञान / सामान्यविशेषात्मक वस्तु (वइरामयीतो आवत्तणपेढिआउ) आवर्तनपीठिका नाम यत्रेन्द्रकीलका | नि विशेषग्रहणात्मको बोधः / आवियते आच्छाद्यतेऽनेनेत्या Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण 469 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवरण वरणं मिथ्यात्वादि, सचित्तजीवय्यापाराहृतकर्मवर्गणा तःपाती विशिष्टः सम्यग्दर्शनं। सम्यक्त्वंतस्य लाभ: तंभवे सिद्धिर्येषान्ते भवसिद्धिकाः // पुद्गलसमूहज्ञानस्य मत्यादेरावरणं ज्ञानावरण तथा दृश्यतेऽनेनेति दर्शनं ननु सर्वेषामपि सिद्धिर्भवे एव कस्मिंश्चिद्भवति। किमनेन व्यवच्छिद्यते। सामान्यविशेषात्मकं वस्तुनि सामान्य-ग्रहणात्मको बोधस्तस्यावरणं सत्यम् / किंत्विह व्याख्यानाद्भव एव भवा गृह्यन्ते / तद्भवसिद्धिका दर्शनावरणं प्रय० 115 द्वा० / कर्म पंचप्रकार ज्ञानावरणं चतुष्प्रकार इत्यर्थः / तेऽपि न लभन्ते किमुताऽभव्याः / इति नियुक्तिगाथार्थः / / दर्शनावरणम् क. प्र / आवरणानि मतिज्ञानावरणश्रुतज्ञानावरणाव भाष्यम् // धिज्ञानावरण-मनः पर्यायज्ञानावरणकेवलज्ञानावरणचक्षुर्दशनावरणा खवणं पडुब पढमा, पढमगुणविगाइणोत्ति वा जम्हा। चक्षुर्दर्शनावरणावधिदर्शनावरणावधिदर्शनावरणा केवलदर्शनावरण संयोयणा कसाया, भवादिसंजोयणा उत्ति / गतार्थव / विशे / / लक्षणानि भव / पंचविधं ज्ञानावरणं नवविधं दर्शनावरणं आवरणानि आओ वउवादाणं, तेष कसाया जओ कसस्साया। ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनवकस्वरूपाणि / / कर्म।। चत्तारि बहुव्वयणओ, एवं वीआदओ वी मया / / पंचविहं नाणावरणं, नव भेया दंसणस्स / ते च बहुबचननिर्देशाचत्वारः क्रोधादयो गम्यन्ते / एवं ते च भेदा ज्ञानावरणस्य(नाणावरण) शब्दे / दर्शनावरणस्य देशविरत्याधुत्तरोत्तरगुणपातित्वाद्वितीयतृतीयचतुर्थत्वेन कषा(दंसणावरण) शब्दे। यशब्दादिवाच्यत्वेन च द्वितीयादयोऽपि मताः सम्मता इति // आवरणस्य द्विविधानि स्पर्शकानि भवन्ति / सर्वोपघातीनि भवसिद्धियावीत्येतद् व्याख्यानयति // देशोपघातीनि च / सर्वं स्वाचायं गुणमुपधन्तीत्येवं शीलानि भवसिद्धियावि भणिए, नियमा न लभंति तहमभव्वावि। सोपघातीनि / स्वाचार्यस्य गुणस्य देशमुपधं तीत्येवं शीलानि अविसहेणवगहिया, परित्तसंसारिया ईया।। देशोपघातीनि / आह च भाष्यकृत् / भवसिद्धिका अपीत्युक्तेऽपि शब्दादभव्यास्तं नैव लभन्त इत्यवगम्यत मइसुयनाणावरणं, दंसणमोहं च तदुवघातीणि / एव। अथवाऽपि शब्दात्परित्तसंसारादयोऽपि नल-भन्त इति गम्यत इति तप्फडगाई दुविहाइं, सव्वदेसोवघाईणि ||आम.दि.१ अ. | गाथार्थः // 231| पं. सं०३दा। उक्ताः सम्यक्त्वस्याऽवरणभूताः कषाया अथ देशविरत्यामिथ्यात्वादिक च किङ्कस्याऽऽवारकमित्याह / वरणभूताँस्तानाह // अहुणो जस्सोदयओ, न लप्भइ दंसणाईसामइयं / / विअ कसायाणुदये, अप्पचक्खाणणामधेजाणं / लद्धं पुणो व भस्सइ, तदिहावरणं कसायाई // सम्मइंसणलंभ, विरया विरई न उ लहंति / / सुगमा / नवरं तदिह कषायादिकावरणमुच्यते / तत्राऽनन्तानु सर्वप्रत्याख्यानं देशप्रत्याख्यानञ्च न येषामुदये लभ्यतेऽप्रत्याख्यानाः। बन्धिकषायचतुष्टयं मिथ्यात्वञ्च सम्यक्त्वस्याऽवरणं / श्रुतस्य अकारस्य सर्वप्रतिषेधवचनत्वादप्रत्याख्यान इति नामधेयं श्रुतज्ञानाऽवरणं / चारित्रस्य चारित्रमोहनीयमिति / / येषामप्रत्याख्याननामधेयानां द्वितीयस्य देशविरतिगुणस्याऽऽचारतदेवाह / पढमेल्लुयाण उदएत्यादि / / कत्वात्। द्वितीयास्ते च ते कषायास्तेषां द्वितीयकषायाणामुदये भव्याः अथवा पातनानतरमाह। सम्यग्दर्शनलाभलभन्त इति वाक्यशेषः॥अयंच वाक्यशेषः (विरयाविरई अहवा खयाइओ, केवलाइं जं जेसिं ते कई कसाया न उ लहंती) इत्यत्र तु शब्दोपादानात् लभ्यते / एषामुदये भव्याः को वा कस्सावरणं, को वक्खयाई क्कमो कस्स ||22|| सम्यग्दर्शनलाभं लभन्ते ते विरताविरतिं देशविरतिम्पुनर्लभन्त इति वाक्यसङ्गते-रिति विरतिं वा / विरतिश्च यस्यां निवृत्तौ सा अथवा यत्केवलादिकमादिशब्दाद्दर्शनचारित्रपरिग्रहः एषां कषायाणां विरताविरतिस्ता-मिति नियुक्तिगाथाथः // क्षयादितो भवत्यादिशब्दात्क्षायोपशमादि परिग्रहः / ते कति कषायाःको वा कस्यसाहायिकस्याऽवरणं को वा क्षया-दिक्रमः। कस्येति गाथार्थः // भाष्यम्॥ सव्वं देसो वजओ, पचक्खाणं न जेसिमुदएणं / अथ क्रमेणोत्तरमाह // ते अप्पचक्खाणा, सव्वनिसेहे मओकारो ||1| पढमील्लुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं / सम्मइंसणलंभं, लभंति भवियति वक्कसेसोयं / सम्मइंसणलंभं, भवसिद्धी या विन लहंति / / 2 / / विरयाविरइविसेसे, णं तुसदलखिओयंच / / 234 // तत्र प्रथमील्लुकानां संयोजनाकषायाणामुदये नियमात्सम्य गतार्थव / ग्दर्शनलाभं भवसिद्धिका अपि न लभन्ते / किमुताऽभव्याः / इत्यक्षरयोजना / भावार्थस्त्वयं / प्रथमा एवं देशीवचनतः अथ तृतीयस्य सर्वविरतिगुणस्याऽचारकांस्तृतीयकषायानाह / / प्रथमिल्लुकास्तेषां प्रथमिल्लकानामनन्तानुबन्धिक्रोधमान- तइयकसायाणुदए, पच खाणावरणनामधेजाणं। मायालोभानामित्यर्थः / प्राथम्यञ्चैषां सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुण देसिकदेसविरई, चरित्तलंभ न उ लहंति // विधातित्वात् क्षपणक्रमाद्वेति। उदये विपाकाऽनुभवे सति नियमान्नियमेन सर्वविरतिलक्षणतृतीयगुणघातित्वात्क्षपणक्र मादा तृतीया अस्य व्यवहितसम्बन्धस्स च दर्शित एव / कि विशिष्टानां स्ते च ते कषायाश्च तृतीयकषायाः क्रोधादयः चत्वारः तेषा प्रथमिल्लुकानामित्याह / कर्मणा तत्फलभूतसंसारे संयोजनाहेतवः मुदये कथंभूतानामावृण्वन्त्यावरणाः प्रत्याख्यानं सर्वविरति कषायाः संयोजनाकषायास्तेषामुदये नियमा-त्सम्यगविपरीतं दर्शनं / लक्षणं तस्यावरणा एतदेव नामधेयं यषां ते प्रत्याख्यानावरण पि. . Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण 470 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवलियापविट्ठ नामधेयास्तेषां / आह न त्वप्रत्याख्याननामधेयानामुदये सर्वथा | आवरिय-त्रि (आवृत्त) वृक्त कृतावरणे, अप्रकाशीकृते, आच्छादिते, प्रत्याख्यानं नास्तीत्यक्तं / तत्राऽप्रतिषिद्धत्वादिहापि चावरण शब्देन __ वाच. (आवरिओ कम्मेहि) आवृत्तःप्रच्छादितः नि. चू.१ उ० (आवरिया प्रत्याख्यानस्य सर्वस्यापि निषेधो गम्यत् इति / क एषां प्रतिविशेष विरणमुहे) आवृत्ता अपि सन्नद्धसन्नाहा / अपि व्य० 1 उ० / / इत्यत्रोच्यते / तत्र नसर्वनिधेषे उक्तः / इह त्वाडोमर्यादेवदर्थत्वा- आवरिसण-न. (आवर्षण) उदकादिना छटकप्रदाने,॥ दासर्व विरतिप्रत्याख्यानमर्यादया अथवा ईषत्सावद्ययोगानु समजण आवरिसणउवलेवणसुहुमदीएवए चेव। मतिमात्रविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृ एवं तीति प्रत्याख्यानावरणा इति आवर्षणमुदकेन छटकप्रदानमिति वृ. उ०१॥ आवरिसणं पाणिएण व्युत्पत्तेस्सर्ववितिरूपप्रत्याख्या-ननिषेधार्थ एवायं वर्तते न उप्फासण नि. चू२ उ० / (उवलेवणसम्मजणा वरिसण) आवर्षणं देशविरतिप्रत्याख्याननिषेधे। आवरणशब्दैस्तथाचाह देशश्च देशैकदेशी गन्धोदकादिनेति ग. 2 अधि, अनुः / उदगादि आवरिसणं तत्र देशः स्थूल प्राणातियातादि, एकदेशस्तु तस्यैव दृश्यवनस्पति उदकेनादिशब्दाद्धृतेन तैलेन वाऽऽवर्षणं करोति वृ०४ ऊ / / कायाद्य-तिपातस्तयोर्विरतिः निवृत्तिस्तां लंभत इति वाक्यशेषः (चरित्त-लंभं न उलहंति) इत्यत्र तुशब्दोपादानादेव लभ्यते / समन्ताद्वर्षण (आवरिसिज्जा) आसमन्ताद्वर्षेत्राज०।। चरंत्यनिंदित-मनेनेति चारित्रं / अष्टविधकर्मचयरिक्तीकरणाद्वाचारित्रं। आवरिहिय-त्रि. (आवर्हित) आ. वृह उद्यमने णिच् क्त आ बर्हर्हिसायाम् सर्वविरतिक्रियेत्यर्थः। तस्य लाभस्तमेषामुदये लभत देशै-कदेशविरतिं क्तः / उत्पाटिते, उन्मूलिते. वाच॥ पुनर्न लभत इति नियुक्तिगाथार्थः / विशे० // आवलण-न. (आवलन) मोटन (गलगवलावलणमारणाणि) गलस्य प्रत्याख्यानावरणवक्तव्यता (पञ्चक्खाणावरण) शब्दे / / कण्ठस्य गवलस्य शृंगस्याऽवलनं च मोटनम् प्रश्न०१ द्वा०॥ अथोक्तमेवार्थ संगृह्य विभणिषुस्तथा चतुर्थकषायाणा यथा | | आव(लि) ली-स्त्री० [आव(लि)ली] आवल वडीप्पङ्क्तौ विशे० अणु० ख्यातचरित्रादिविधातित्वं च दिदर्शयिषुराह / / १अ (कोंचावलीइ वा हारावलीइ वा वलयावलीइ वा) आवलिपदोमूलगुणाणं लंभं, न लहइ मूलगुणधाइणो उदये। पादानं वर्णोत्कठ्य प्रतिपादनार्थम् / जं. 1 अस्यार्योजीवाजीवशब्दे संजलणाणं उदए, न लहइ चरणं अहक्खायं / / दृष्टव्यः // इह सम्यक्त्व महाव्रताणुव्रतानि च मूलभूता गुणा मुलगुणाः आवालिय-त्रि. (आवलित) आवल चलनेक्त ईषचलिते, सम्यक्चलिते, उत्तरगुणानामाधारभूतत्वात्तेषां मूलगुणानां लाभं न लभते। कदे-त्याह।। च। वाच / आमोटिते॥ यथोक्तान् मूलगुणान् हंतु शीलं येषां ते मूलगुणधातिनस्तेषां / (अणचावियंओवलियं) अवलितं यथात्मनो वस्त्रस्य च व-लितमिति मूलगुणघातिनामनंतानुबंधि अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणानां मोटनं न भवतीति। उत्त० 26 अ० / / द्वादशानां कषायाणामुदये एतच (पढमिल्लुयाण उदए) इत्यादिना सर्व आवलिय(या)णिवाय-पुं(आवलिकानिपात) आवलिकया क्रमेण भावितमेव तथा ईषज्ज्वलनात्संज्वलनाःसंपदिज्व-लनाद्वासंज्वलनाः निपातः संपात आवलिकानिपातः क्रमेण संपाते,॥ परीषहादिसंपाते चारित्रिणमपि ज्वलयन्तीति वा संज्वलनाः क्रोधादय ताजोगेति व पुस्स आवलि(त) याणिवाते आहितेति वदेजा एव चत्वारः कषायास्तेषामुदये न लभंते लब्धं वा त्यजति चरणं चारित्रं ताइति।। किंसर्वमपि नेत्याह। यथैव तीर्थकरगणधरैराख्याता अकषायमित्यर्थः / आस्तां तावदन्यकथनीय सम्प्रत्येतावत्कथ्यते / योग इति / वस्तुनो सकषायं तु लभते। नच यथाख्यातचारित्रमात्रमेवोपघ्नंति संज्वलनाः नक्षवजातस्य (आवंलिकानिवायोति) आवलिकया क्रमेण निपातश्चकिं तु विशेष चारित्राणामपि देशोपघातिनो भवंति। तदुदये शेषचारित्र न्द्रसूर्यः सह संपात आख्यातो मयेति वदेत् सू. प्रा. प्रा. 10 / चं. प्र. देशाभिचारसिद्धेरितिनियुक्तिगाथार्थः / विशे० आव० म० / प्रा. 10! आवरणसत्थ-न० (आवरणशास्त्र) आवियते आकाशमनेत्या-वरणम्। आवलिय(या) पविठ्ठ-त्रि. (आवलिकाप्रविष्ट) आवलिकासु श्रेणिसु भवनप्रासादनगरादि तल्लक्षणं शास्त्रमपि तथा वस्तु विद्यात्मके प्रविष्टा व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः श्रेण्या व्यव-स्थिते, जी०३ प्र० / / पापश्रुतेभेदे, स्था०९ठा। इमे सेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किं संठि ताप, गो० आवरणावरणपविभत्ति-न. (आवणावरणप्रविभक्ति) नाट्य विधिभेदे,॥ दुविहा पंतं आवलियपविठ्ठाय आवलियवाहिराय तत्थणं जे चंदावरणपविभत्तिं च सूरावरणपविभत्तिं च आवरणा ते आवलियपविठ्ठा ते तिविहा पंतं वट्ठा 1 तंसार चउरसा वरणपविभत्तिं णामं दिव्यं णट्टविहं उवदंसे।।। जी. प्र.३। चन्द्रावरणप्रविभक्तिसूर्यावरणप्रविभक्तियुक्तमावरणावरण प्रविभक्ति आवलिकास्ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा / सर्यावरणप्रविभक्तिनामकमष्टमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति / राज॥ वृत्तास्त्र्यस्राश्चतुरस्राः। जी०टी०। आवरणी-स्त्री. (आवरणी) आवरणकारिण्याम् विद्यायाम, ज्ञा०१६ अ॥ सोहम्मीसाणेसु णं मंते ! कप्पेस विमाणे किं संठिता प. गो. आवरिजमाण-त्रि. (आद्रियमाण) स्वल्पमाने, (आवरिजमा-णावा / दुविहा. पं.तं. आवलियाए बाहिराय॥ आवरिजमाणत्ति) स्वल्पमानानि भ. 15 श०१ उ० / तत्रावलिकाप्रविष्टानि नाम यानि पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु आवरिता-अव्य. (आवृत्त्य) आवरण कृत्वेत्यर्थे (आवरित्ता चिट्ठइ) स्था०॥ श्रेण्योवस्थितानि यानि पुनरावलिकाप्रविष्टानां प्रांगणप्रदेशे Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवलियापविमात्त 471 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय कुसुमप्रकर इव यतस्ततां विप्रकीणानि तान्यावलिका बाह्यानि। तानि च पुष्पावकीनीत्युच्यन्ते / पुष्पाणीव इतस्ततोवकी नि विप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तेः / जी. टी. 4 प्रा आवलिय(या) पविभत्ति-न.(आवलिकाप्रविभक्ति) दिव्ये नाट्याविधिभेदे,॥ चंदावलिपविभत्तिं च सूरावलिपविभत्तिं च हंसावलिप-विमत्तिं च एगावलिपविभत्तिं च तारावलिपविभतिंच मत्तावलिपविभत्ति च आवलियपविभत्तिं णाम दिब्बं णठविहं उवदंसेइ॥ चन्द्रवलिप्रविभक्तिसूर्यावलिप्रविभक्ति, वलयावलि प्रबिभक्ति हंसावलिप्रविभक्तयेकावलिप्रविभक्ति, तारावलिप्रविभक्ति, मुक्तावलिप्रविभक्ति, कनकावलिप्रविभक्ति, रत्नावलि प्रविभक्तया नितथात्मक मावलिप्रविभक्ति नाम पञ्चमं नाट्य-विधिमुपदर्शयन्ति राज टीला आवलिय(या) बाहिर-त्रि (आवलिकाबाह्य) इतस्ततो विप्रकीर्णे, अन्न यद्वक्तव्यन्तद् (आवलियापविठ्ठ) शब्दे उक्तम् जी०४ प्र०।। आवलिया-स्त्री(आवलिका) पड्क्तौ वृ०३ उ०। आवलिका पक्तिरमिधीयते / आलीश्रेण्यावली पक्तिरिति वचनात् पं.सं. (भ्रमरावलियत्ति वा) भ्रमरावली भ्रमरपङ्क्तिः / राज, एकान्ते स्थितानां विच्छिन्नायाम्मण्डल्यां च / या विच्छिन्ना एकान्ते भवति मण्डली सा आवलिका या पुनः स्वस्थान एव सा मण्डली व्य०४ उता अथावलिकाया मंडल्याश्च कः प्रतिविशेष इत्यह आह / / छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाएउ अंतएगत्ति। मंडलीए सठ्ठायं, सचित्ताएसुसंकमति॥ आवलिकामंडल्योः परस्परं छिन्नाछिन्नरूपो विशेषः आवलिका छिन्ना विविक्त एकांतो भवति / मंडलिका त्वच्छिन्ना (आव-लियतत्थछिन्ना मंडलिया होइ अच्छिन्ना उ) इति वचनात् / एतदेव सुव्यक्तमाह / आवलिकायामुपाध्यायकोऽन्तर्मध्ये विविक्ते प्रदेशं तिष्ठति। मंडल्या पुनः स्वस्थानमाभवनं च पाठ यित-रिसंक्रामति सचित्तादिषु तत्क्षेत्रगतसचित्तादिविषयं (आवलियमडलिकमो पुद्युतो छिण्णछिण्णभेदेण) व्य.१० उ०ी क्रमे, सूर प्र०१० प्रा.चं,प्र०२० प्रा० कालविशेषे, असंख्येयसमयसंघातात्मकः कालविशेष आवलिका। विशे। असंख्यातैः समयैरावलिका जघन्ययुक्ता संख्येयसमय-राशिमानेति / तंoा अनु।। असंख्यातसमयसमुदायात्मिका आवलिकाः क्षुल्लकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्वि-शतमभागभूता इति स्थाठा०२ चं. प्र.प्रा०२० आमा असंखजाणं समयाणं समुदयं समइ समागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुबइ / म. टी. असङ्ख्यातानां सम्बन्धिनो ये समुदया वृन्दानि तेषा याः समितयो मीलनानि तासां यः समागमं संयोगः ससमु-दयसमितिसमागमस्तेन यत्कालमान भवतीति गम्यते सका-वकिलेति प्राच्येत (संखेज्जा आवलियत्ति) किल षट् पशा-शदधिकशतद्वयमावलिकानां क्षुल्लकभवग्रहणं भवतिभ०६श०७ उछ। अनु विशे नं. पं. स. दर्श. कर्म ज्यो. तंl अवसंत-त्रि.(आवसत्) आवासं कुर्वति॥ (सुर्यमे आउसंतेणंभगवया एवमकवायं) सुयमे आउसंतणंति __ मयेत्यस्य विशेषणात्तत आडितिगुरुदर्शितमर्यादया वसता अनेन तत्वतो गुरुमर्यादावर्तित्वरूपत्वात्गुरुकुलवासस्य तद्विधा नमथत उक्त ज्ञानादि हेतुत्वात् स्था.१ ठा.(गारमावसंतेहि) आगारमावसद्भिः सेवमानैः आचा०५ अ०३ उll आवसह-पुं०(आवसथ) आवसत्यत्र आवस अथच् गृहे, सूत्र० 2 श्रु०२ अ.। प्रति (आवसहं च जाणमतं च) आवसथं गृहमिति सूत्र०१ श्रु०४ अ०। आश्रये, (आवसहं वासमुस्सिणामि) आवसथं वा युष्मदा-श्रयं समुच्छृणोमि आचा०७ अ०२ उा पब्रिाजकाश्रयेउटजाकारगृहे,आवसथः परिव्राजकाश्रय इति प्रश्न. 1 द्वा०। आवसथास्ता-पसाश्रया उटजादयः। दशा, (जेणेव-परिवायागावसहे तेणव उवागच्छउ परिवायावस हेत्ति) परिव्राजकमठः भ०२ श०१ उ केचनावसेषूटजा कारेषु गृहेषु वंसतीति सूत्र०२ श्रु०२ अ, आाच्छंदोरचिते कोषभेदे, वाच।। आवसहिय-पुं०(आवसथिक) आवसथो गृहं तेन चरंतीत्या-वसथिकः। प्रति सूत्र 1 श्रु.१ अ आवसथे गृहे वसति ठणू स्त्रियां डीपगृहस्थे, वाच, आवसथास्तापसाश्रया उठजादय-स्तत्रवसत्तीत्यावसथिकाः ।।दशा० तीर्थकविशेषे सूत्र०२ श्रु०७ अ आवसथिकाः केचनावसथेषूटजाकारेषु गृहेषु वसतीति सूत्र०२ श्रु०२ अoll आवसहि-स्त्री.(आवसति) वसत्यत्र गृहे वसतिः रात्रिः सम्यक् वसतिः प्रा.स.निशीथे, वसतेः सम्यकत्वञ्चावश्य गृहवासयोग्यचं तच्चार्द्धरात्रेडवश्यं भवतीति तस्य तथात्वम् वाच०॥ आवस्सय-पुं.(आपाश्रय) आङ्मर्यादाभिविधिवाची / आमर्यादयाऽभिविधिना वा गुणानामापाश्रय आधार इदमित्यापा श्रयः / सामायिकादिके आवश्यके, // विशेषावश्यके आवश्यकपर्यायनामान्यधिकृत्य। आवस्सयं अवस्सकरणिचं धुवनिग्गहे विसोहीय। आमर्यादयाऽभिविधिना वा गुणानामापाश्रय आधार इद मित्यापाश्रयं गुणाधार इत्यर्थः / नन्वाधारवाचक आपाश्रय शब्दः पुल्लिङ्गे वर्तते। तत्कथमापाश्रयमिति नपुंसकत्वमितिचेन्न / प्राकृतशैलीवशतोऽदोषादिति / विशे *आवश्यक-न. अवश्यं भाव आवश्यक द्वन्द्वमनोज्ञादिभ्यश्चेति मनोज्ञादेरधिकृतत्वाद्दुञ् / आ. चू.२ अ॥ अवश्यंभावे नैयत्ये, वाच. अवश्यं कर्म आवश्यकं अवश्यकर्तव्यक्रियानुष्ठाने, नि। आवस्सगपरिसुद्धीय, होति भिक्खुस्स लिगाई। आवश्यकपरिशुद्धिश्चावश्यं करणीययोगनिरतिचारतेति। दश अ०१० / द्वा० / आव,। धर्म। अनु, पंचा०। स्था०१० ठा०। नियमात्कर्तव्यो, आवश्यकानि नियमत एव करणीयानीति आव०४ अ०। अवश्यंभावित्वा-द्वाच्यत्वाद्वावश्यकं स्था० 4 ठा० अनु० अवश्यङ्कर्तव्यमावश्यकम् श्रमणादिभिरवश्य मुभयकालं क्रियते इति भावः। क्वचिदितिकर्मणि बाहुकाड प्रत्ययः / वृषोदगदय इति निपातनात् शेषरूपसिद्धिः। अथवा ज्ञानादिगुणानामासमन्ताद्वध्यमात्मानं करोति। यदि वा आसमन्तादश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रवो यस्मात्तदाव Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 472 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय वयकं / शेषाद्वेतिकप् प्रत्ययः यदि वा ज्ञानादिगुणकदम्बकं मोक्षोवा आसमन्तावश्यः क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकं 1 आ.म.प्र.१ अ. / प्रव। स्था०। ग० विशेा ओवळा दंसणविणए आवस्सए असीलव्वए निरइआरो। आवश्यकं अवश्यकर्तव्यं संयमव्यापारानिष्पन्न तस्मिन्पिड विशुद्ध्याद्युत्तरगुणकलापे, इति / आकol ज्ञा०l तत्प्रतिपादके सामायिकादिषडध्ययनकलापात्मके अङ्ग बाह्ये श्रुतविशेषे च अनु०। विशे। स्थानंदी। समएणं सावएणय, अवस्सकायव्वं हवई जम्हा। अंतो अहो निसस्सय, तम्हा आवस्सय नाम नाम सेत्तं आवसयं।। टी, श्रमणादिना अहोरात्रस्य मध्ये यस्मादवश्यं क्रियते / तस्मादावश्यकं एवमवश्यकरणीयादिपदानामपि व्युत्पत्तिर्द्रष्टव्या। उपलक्षणत्वादस्य इति गाथार्थः / अनु०।। तच्छाच विशेषावश्यक। आवश्यकस्य पर्यायनामान्यभिधित्सुराह। पर्यायाः॥ तस्साभिन्नत्थाहं, सुपसत्थाई जहंनु निययाई। अव्यामोहाई.निनित्तमाहपज्जायनामाइं॥ तस्याऽवश्यकस्य पर्यायनामान्याह इति संबन्धः / कथंभूतान्यभिन्नार्थानि सुप्रशस्तानि यथार्थो व्यवस्थितस्तथैव नियतानि निश्चितानि / किमित्याह / / अव्वामोहादिनिमित्तं एकाथिकै र्हि पर्यायनामभितैिरन्योन्यस्थानेष्वन्यान्यनामश्रवणतः शिष्यो नमुह्यति। आदिशब्दान्नानादेशजविनयोनां सुखेनैवार्थ प्रतिपत्तिभवति इत्यादि वाच्यमिति॥ कानि पुनस्तानि पर्यायनामनित्याह / आवस्सयं 1 अवस्सकरणिजं 2 धुव 3 निग्गहो 4 विसोहिय 5 अज्झयण 6 छक्कवग्गो 7 घनाउ८ आराहणा९ मग्गो 10 एतानि दश पर्यायनामानि॥ अत्राऽवश्यकमिति कः शब्दार्थः इत्याह। समणेण सावण्णय, अवस्सकायव्वयं हवई जम्हा। अंतो अहोनिसिस्सा, तम्हा आवस्सयं नाम।। श्रमणादिभिरहोरात्रिमध्येऽवश्यकरणादावश्यकमितीह तात्पर्यमिति॥ एतदेव सविशेषमाह॥ जदवसं कायव्वं, तेणावस्सयमिदंगुणाणं वा। आवस्सयमाहारो, आमज्जायामिमिहिवाइ॥ आवस्संवा जीवं, करेइ जनाणदसणगुणाणं / संनिद्धभावणत्थयणेहि, वा वासयं गुणोओ। यद्यस्मादवश्यं कर्तव्यं तेन तस्मादावश्यक मिदमित्ये - तत्प्राक्तनगाच्छायाः पर्यवसितार्थकथनमेव। अच्छवा आङ्-मर्यादाभि विधिवाची / आमर्यादया अभिविधिना वा गुणानामापाश्रय आधार इदमित्यापाश्रयं गुणाधारमित्यर्छः। नन्वाऽधार वाचक आपाश्रयशब्दः पुल्लिगे वर्तते / तत्कथमापाश्रयतीति नपुंसकत्वमितिचेन्न / प्राकृतशैलीवशतोऽदोषादिति / अथवा ज्ञानादिगुणानामासमंतादृश्यमात्मानकरोतीत्यावश्यकं / यथा ! अन्तं करोतीत्यंतकः / सान्निध्यभावच्छादनैर्वा आवासकं गुणत इत्यावासकमुच्यते / इदमुक्तं भवति / वसनिवास इति गुणशून्यमात्मानं गुणैरासमन्ताद्वासयति गुणसांनिध्यमात्मनः क रोतीत्यावासकं / अथवा यथावद् वासधूपादिभिस्तथा गुणै-रासमन्तादात्मानं वासयति भावयति रंजयत्यावासकं यदि वा वस आच्छादनेगुणरासमंतादात्मानं छादयति। छदषट्टसंवरणे। दोषेभ्यः संवृणोत्यावश्यकमिति तदेतदेवमावस्सयत्याचं पय्यायनाम व्याख्यातं। शेषाण्यतिदिशन्नाह // एवं विअसेसाई, विउसासुय लक्खणाणुसारेण / कमसो वत्तव्वाइं, तहा सुयक्खंधनामाई / / एवमेव शेषाण्यपि अवश्यकरणीयादिनामानि सिद्धान्तलक्षणाऽनुसारेण क्रमशो विदुषा वक्तव्यानि / तद्यथा। मुमुक्षु-भिरवश्य क्रि यत इति अवश्यं करणीयमिदमुच्यते। तथा अर्थतो ध्रुवत्वाच्छास्वतत्वात्ध्रुवं / निग्रह्यते इन्द्रियकषायादयो भावशत्रवोऽनेनेति निग्रहः / अन्ये तु प्रवाहतोऽनादिकालीनध्रुवं कर्म तन्निग्रह्यते अनेनेति ध्रुवनिग्रह इत्येकमेवेदं पायनाम व्याचक्षते / कर्ममलिनस्याऽत्मनोविशुद्धिहेतुत्वाद्विशुद्धिः / सामायिकादिषडध्ययनात्मकत्वादध्ययनषट्कं / वृजी वर्जने वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा अनेनेति वर्गः / अन्ये तुषडध्ययनकलापात्मकत्वादध्ययनषट्कवर्ग इतीदमत्येकमेव पयार्य नाम बुवते / अभिप्रेतार्थसिद्धेः सम्यगुपायत्वान्न्यायः अथवा जीवकमसंबन्धापनयनान्नयायः / अयमभिप्रायो यथा कारणिकै दृष्टी न्यायोद्वयोरर्थिप्रत्यर्थिनोभूमिद्रव्यादिसंबंधे चिरकालीनमप्यपनयत्येवं जीवकर्मणोरनादिकालीनमप्याश्रयाश्रयि भावसम्बधमपनयतीत्यावश्यकमपिन्याय उच्यते / मोक्षाराधना हेतुत्वादाराधना मोक्षपुरप्रापकत्वान्मार्ग इव मार्ग इति / विशे। अनु.।। आ.। चू।। आ०म०प्र० आवश्यकस्य चतुर्धा निक्षेपो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् सेकिंतं आवस्सयं-आवस्सयं चउट्विहं पण्णत्तं / तंजहा। नामावस्ययंठवणावस्सयंदवावस्सयं भावावस्सयं४॥ (सेकिंतं आवस्सय) मित्यादि अत्र से शब्दो मागधदेशी प्रसिद्धोऽथ शब्दार्थे वर्तते। अथ शब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः / स्तथा चोक्तम्॥ अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यभंगलोपन्यासनिर्वचनसमुच्चयेष्विति किमिति परप्रश्ने। तदिति सर्वनामपूवप्रक्रान्तपरामर्शार्थे / ततश्वायं समुदायार्थेऽय किं स्वरूप तदावश्यकं / एवं प्रश्रिते सत्याचार्यः शिष्यवचनाऽनुरोधेन समाधानार्थं प्रत्युचार्य निर्दिशति / / (आवस्सयं चउविहं) इत्यादि अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् / अथवा गुणानामासमंता द्वश्यमात्मानं करोति इत्यावश्यकम् / यथाऽतं करोतीति अन्तकः / अथवा आवस्सयंति प्राकृत शैल्या आवासकं / अत्र वस निवासे इति गुण शून्यमात्मानं वा समंता-द्वासयति गुणैरित्यावश्यकं (चउविहं पण्णत्तंति) चतस्रो विधा भेदा अस्येति चतुर्विधम् प्रज्ञा प्ररूपितमर्थत स्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैस्तद्यथा (नामावस्सय) मित्यादि नामाभिधानतद् रूपमावश्यकं नामावश्यक आवश्यका भिधानमेवेत्यर्थः / अथवा नाम्ना नाममात्रेणाऽवश्यकं जीवादीत्यर्थस्तल्लक्षणञ्चेदम्। यद्वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपक्षे पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा विनेयाऽनु Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 473 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आवस्सय ग्रहार्थमेतद्व्याख्या यद्वस्तुन इन्द्रादिरभिधानमिन्द्र इत्यादि वर्णावलिमात्रमिदमेव आवश्यकलक्षणवर्णचतुष्टयावलीमात्र मिदमेव। आवश्यकलक्षणवर्णचतुष्टयावलिमात्र / त्तदोनित्याभिसंबन्धात्तन्नामेति संटकः // अथ प्रकारान्तरेण नाम्नोलक्षणमाह / स्थितमन्यार्थे तद-र्थनिरपेक्ष पर्यायानभिधेयश्चेति तदपिनामयत्कथंभूतमित्याह / अन्यश्चासावर्थश्च अन्यार्थो गोपालदारकादिलक्षणस्तत्र स्थितमन्यत्रेन्द्रादावर्थे यथार्थत्वेन प्रसिद्ध तदन्यत्र गोपालदार कादौ यदारोपितमित्यर्थः / अतएवाह / तदर्थनिरपेक्षमिति। तस्येन्द्रादिनानाम्नोऽर्थः परमैश्वर्यादिरूपस्तदर्थः। स चा सावर्थश्चेति वा तदर्थस्तस्य निरपेक्ष गोपालदारकादौ तथा तदर्थस्याऽ भावात्पुनः किम्भूतं तदित्याह। पर्यायानभिधेयमिति। पर्यायाणां शक्रपुरन्दरादीनामनभिधेयमवाच्य गोपालदारकादयो हीन्द्रादिशब्दैरुच्यमाना अपि शचीपत्य दिरिव शक्रपुरन्दरादिशब्दैन -भिधीयन्ते / अतस्तन्नामाऽपि नाम तद्वतोरभेदोपचारात्पर्यायान-भिधेयमित्युच्यतेच / शब्दान्नाम्न एव लक्षणान्तरसूचकं शचीपत्यादौ प्रसिद्ध / तन्नाम वाच्यार्थशून्ये अन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितं तदपि नामेति तात्पर्यम्। तृतीयप्रकारेणाऽपि लक्षणमाह। यादृच्छिकच तथेति / तथा विधव्युत्पत्तिशून्यं डित्थकपित्यादिरूपं यादृच्छिकं स्वेच्छया नाम क्रियते तदपि नामेत्यार्यार्थः / अनु०।। अच्छनामावश्यकस्वरूपनिरूपणार्थ सूत्रकार एवाह। सेकिंतं नामावस्सयं जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणवा अजीवाणवातदुभयस्सवातदुभयाणवाआवस्सएत्ति नामं कज्जइ सेत्तं नामावस्सयं / / अथ किं तन्नाभावस्सकमिति प्रश्ने सत्याह ।(नामावस्सयं जस्स ण) मित्यादि। अत्र द्विकलक्षणेनाऽङ्केन सूचितं द्वितीयमपि (नामावस्सयं) ति पदं द्रष्टव्यं / एवमन्यत्राऽपि यथासभवमभ्यू-ह्यम् / णमिति वाक्यालङ्कारे। यस्य वस्तुनो जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानामजीवानां वा (तदुभयस्स वा) तदुभयानां वा आव-श्यकमिति यन्नाम क्रियते तन्नामावश्यकमित्यादिपदेन संबन्धः / / नाम च तदावश्यक चेतिव्युत्पत्तिरथवा यस्य जीवादिवस्तुनः आवश्यकमिति नाम क्रियते। तदेव जीवादिवस्तु नामावश्यकं / नाम्ना नाममात्रेणाऽवश्यक नामावश्यकमिति व्युत्पत्तिर्वाशब्दाः पक्षान्तरे सूचका इति समुदायार्थस्तत्र जीवस्य कथमावश्यकमिति नाम संभवतीत्युच्यते यथा लोके जीवस्य स्वपुत्रादेः कश्चित्त्सीह को देवदत्त इत्यादि नाम करोति। तथा कश्चित्स्वाभिप्रायवशादावश्यकमित्यापि नाम करोति। अजीवस्य कथमिति चेदुच्यते / इहावश्यकावसकशब्दयोरकार्थता प्रागुक्ता। ततश्चोर्द्धशुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकीर्णो वृक्षोऽन्यो वा तथाविध कश्चित्पदार्थविशेषस्सदिरावासोऽयमिति लोकिकै-यपदिश्यत एव / सच वृक्षादिर्यद्यष्यनन्तैः परमाणुलक्षणैरजीव द्रव्यैर्निष्पन्नस्तथाप्येकस्कंधपरिणातिमाश्रित्यकाजीवत्वेन विवक्षित इति स्वाक्षिककप्रत्ययोपादानादेकानि वयस्यावास कनाम सिद्धम् / जीवानामपि बहूनामावासकनाम सन्दृश्यते / यथा इष्टकापाकाद्यग्निर्मूषिकावास इत्युच्यते / तत्र ह्यग्नौ किलमूषिकाः संमूर्च्छन्त्यतस्तेषामसङ्ख्येयायानग्निजीवानां पूव-र्वदावासकन्नाम सिद्धम्। अजीवानान्तुयथा नीडं पक्षिणामा वास इत्युच्यते / तन्नीडं बहुभिस्तृणाद्यजीवैर्निष्पद्यते। इति बहूनां जीवानामावासकनाम भवति / इदानीमुभयस्यावासकसंज्ञा भाव्यते। तत्र गृहदीर्धिका अशोकवनिकाद्युपशोभितः प्रासादादि प्रदेशो राजादेरावास उच्यते / सौधम्मादिविमानं वा दवाना-मावासोऽभिधीयते / अत्र च जलवृक्षादयस्सचेतनरत्नादयश्च जीवा इष्टकाः काष्ठादयो चेतनरत्नादयश्चाजीवास्तन्निष्पन्नमुभयं तस्य कप्प्रत्ययोपादाने आवासक संज्ञा सिद्धा / उभयानां त्वा-वासकसंज्ञा यथा सम्पूर्णनगरादिक राजादीनामवास उच्यते। सम्पूर्णः सौधर्मादिकल्पो वा इन्द्रादीनामावासोऽभिधीयते / अत्र च पूर्वोक्तप्रासादविमानयोलघुत्वदिकमेव जीवाजीवोभयं विव-क्षितमत्र तु नगरादीनां सौधर्मादिकल्पानां च महत्वाद्हूनि जीवाजीवोभयानि विवक्षितानीति विवक्षयाभेदो दृष्टव्यः एव-मन्यत्राऽपि जीवादीनामावासक संज्ञा यथा सम्भवं भावनीया॥ दिङ्मात्रप्रदर्शनार्थत्वादस्य निगमयन्नाह / (सेतमित्यादि) (सेत्त) मित्यादि वा क्वचित् पाठः तदेतन्नामावश्यकमित्यर्थः // इदानीं स्च्छापनाऽवश्यकनिरूपणार्छमाह। सेकिंतं ठवणावस्सयं ठवणावस्सयं जण्णं कट्टकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लिप्पकम्मे वागंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइ मे वा अक्खेवा वराउए वा एगोवा अणे गोवा सज्झावठवणा वा असज्झावठवणा वा असझाय ठवणा वा आवस्सएत्ति ढवणाठविजइ सेत्तं ट्ठवणावस्सयं नाम हवणाणं कोपइविसेसो णामं आवस्सकहिअंठवणा इत्तरिआ वा होजा आवकहिआवा।। टीका सेंकितमित्यादि अथ किंतत् स्थापनावश्यकमिति प्रश्ने सत्याह। (ठवणा आवस्सयं जण्ण) मित्यादि / तत्र स्थाप्यत शुष्कोऽयमित्यभिप्रायेण क्रियते निर्वर्त्यत इति स्च्छापना / काष्ठ कादिगतावश्यकवत् साध्वादिरूपा / सा चासौ आवश्यकतद्वतोरभेदोपचारादावश्यकं च स्थापनावश्यके स्च्छा-पनालक्षणं च सामान्यत इदमुक्तं / यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियते अल्पकालं च ||1|| इति विनेयाऽनुग्रहार्थमत्रापि व्याख्यातुशःब्दो नामलक्षणस्य स्थापनालक्षणस्य भेदसूचकः / स चासावर्थश्च तदर्थो भावेन्द्रभावावश्यकादिलक्षणस्तेनवियुक्तं रहितं यद्वस्तुतद-भिप्रायेण भावेन्द्राधभिप्रायण क्रियते स्थाप्यते तत् स्थापनेति संबंधः। किंविशिष्टं यादित्याह / यच्च तत्करणि तेन भावेन्द्रादिना सहकारणिः सादृश्यं तस्य तत्करणि तत्त्सदृशमित्यर्थः / च-शब्दात्तदकरणि चाक्षादिवस्तु गृह्यते / अवसदृशमित्यर्थः / किंपुनस्तदेवं भूतं वस्त्वित्याह ।लेप्यादिकर्मेति लेप्यपुत्त-लिकादीत्यर्थः। आदिशब्दात् काष्ठपुत्तलिकादिगृह्यते अक्षरादि अनाकारं कियंतं कालं तत् क्रियते इत्याह / अल्पः कालो यस्य तदल्पकाल मित्वरकालमित्यर्थः / च शब्दाचावत्कथिकं शाश्वतप्रतिमादि यत् पुनविन्द्राद्यर्थरहितं साकार मनाकारं वा तदर्थाभिप्रायण क्रियते तत् स्थापनेति तात्पर्यमित्यार्थिः।।। इदानीं प्रकृ तमुच्यते (जण्णं ति) णमिति वाक्याऽलंकारे यत्काष्ठ कर्मणि वा चित्रकर्मणि वा वराटके वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापनायां वा असद्भावस्थापनायं वा / आवस्सएति। आवश्यकतद्वतोरभेदोपचारात्तद्वानिह गृह्यतेऽतश्चैको वा अनेको वो कथं भूतां अत उच्यते / आवश्यक क्रिया वाआवश्यक Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 474 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आवस्सय क्रिया-वन्तो वा (ठवणा ठविज्झत्तेत्ति) स्थापनारूपं स्थाप्यते क्रियते / कालभेदेनैतयोर्भेद कथनमपरस्यापि बहुप्रकाराभेदस्य सम्भवात्तथाहि / आवृत्या बहुवचनांतत्वे स्थापनारूपाः स्थाप्यते तत् स्था- यथेन्द्रादिप्रतिमास्थापनायां कुण्डलांगदादि भूषितः सन्निहितशचीवपनावश्यकमित्यादिपदन संबन्ध इति समुदायार्थः / काष्ठकर्मा- जादिराकार उपलभ्यते / न तथा नामेन्द्रादौ एवं यथा स्थापनादर्शदिष्वावश्यकक्रियां कुर्वतो ये स्थापनारूपा साध्वादयः स्थाप्यते तत् नाद्भावः / समुल्लसति नैव मिन्द्रा-दिश्रवणमात्राद् / यथाच तत् स्थापनावश्यकमिति तात्पर्यम्। अधुना अवयवार्थमुच्यते। तत्र क्रियत स्थापनायां लोक-स्योपयाचितेत्वापूजाप्रवृत्ति समीहितलाभादयोइति कर्म काष्ठकर्म काष्ठनिष्कुट्टितं रूपकमित्यर्थः। चित्रकर्मचित्रलिखितं दृश्यन्ते नैवं / नामेन्द्रादावित्येव मन्यदपि वाच्यमिति। रूपकं (पोत्थकम्मवेत्ति) अत्र पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः तत्र कर्म उक्तं स्थापनावश्यकम्। तत्पल्लवनिष्पन्नं वा उल्लिकारूप-कमित्यर्थः / अथवा पोत्थं पुस्तकं अत्र नाम इदानीं द्रव्यावश्यकनिरूपणाय प्रश्न कारयति। तचेह संपुटकरूपं गृह्यते / तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः। अथवा पोत्थं तालपत्रादितत्र कर्मतच्छेदनिष्पन्न रूपकं सेकिंतं दव्वावस्स्यं दवावसयं दुविहं पण्णत्तं / तंजहा। लेप्यकर्म लेप्यरूपकं ग्रन्थिमं कोशलातिशयाद्ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितं आगमओ अनो आगमओ // रूपकं वेष्टिमं पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्नमानन्दपुरादि प्रतीत्य रूपमथवा टी. अथ किंतत् द्रव्यावश्यकमिति पृष्ट सत्याह। (दव्वावस्सयं दुविह) एकं द्वे त्रीणि वस्त्राणि वेष्टयित्वा यत् किंचित् रूपकं तत्स्थापयति मित्यादि तत्र द्रवति गच्छति ताँ स्तान पर्यायानिति द्रव्यं तद्द्वेष्टिमं / पूरिमं भरिमं पित्तलादिमयप्रतिमावत् / संघातिमं विवक्षितयोरतीतभविष्यद्भावयाः कारणम् अनुभूतं विवक्षितभावं बहुवस्त्रादिखण्डसंघातनिष्पन्न कञ्चुकवत् / अथश्चंदनको वराटकः अनुभविष्यद्विवक्षितभावं चास्ति इति द्रव्यभूतस्य भाविनो वा भावस्य कपर्दकः / अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तकर्मा दिपदानि दृश्यते। हिकारणं तु यल्लोके तत् द्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम्। तान्यप्युक्तानुसारतो भावनीयानि / वा शब्दाः पक्षान्तरसूचकः / व्या। तद्दव्यं तत्वज्ञैः कथितं तत्कथंभूतं द्रव्यं यत्कारणं हेतुः यथासम्भवमेवमन्यत्रापि एतेषु काष्ठकर्मादिआवश्यक्रियां कुर्वतः एकादि कस्येत्याह। भावस्य पर्यायस्य कथभूतस्येत्याह। साध्वादयः सद्भावस्थापनया असद्भावस्थापनया वा स्थापनावश्यकं / भूतस्या तीतस्य भाविनोवा भविष्यतोवालोके आधारभूतेतत्र सचेतनं तत्र काष्ठकर्मादिष्वाकारवती सद्भावस्थापना साध्वाधाकारस्य तत्र पुरुषादि अचेतनं च काष्ठादि भवति। सगावात् / अक्षादिषु तु नाऽकारवती असद्भावस्थापना साध्वाकारस्य एतदुक्तं भवति। तत्रासद्भावादिति निगमयन्नाह / (सेत्त मित्यादितदेतत्स्थापनावश्यकमित्यर्थः / अत्र नामस्थापनयोर भेदं पश्यन्निमाह (नाम ढवणाणं यः पूर्व स्वर्गादिष्विन्द्रादित्वेन भूत्वा इदानीं मनुष्यादित्वेन परिणतः कोपइविसेसोत्ति) नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषो न कश्चिदित्यभिप्रायः। अतीतस्येन्द्रादिपर्यस्य कारणत्वात्सांप्रतमपिद्रव्यमिंद्रादिरभिधीयते। तथाह्यावश्यकादिभावार्थशून्ये गोपाल-दारकादौ द्रव्यमाने अमात्यादिपदपरिभ्रष्टामात्यादिवत्तथा अग्रेऽपियइन्द्रादित्येनत्पस्यते यथावश्यकादिनाम क्रियते तत्स्थापनापि तथैव। तच्छ्ये काष्ठकर्मादौ स इदानीमपि भविष्यदिन्द्रा-दिपदपर्यायकारणत्वात् द्रव्यत द्रव्यमाने क्रियतेऽतो भावशून्य द्रव्यमाने क्रियमाणत्वात् विशेषान्नानयोः इन्द्रादिरभिधीयते / भविष्य-द्राजकुमारराजवत् / एवमचेतनस्यापि कश्चिद्विशेषः / अत्रोत्तरमाह / (नामं आवकहिय) मित्यादि नाम काष्ठादेः तत् भविष्यत् पर्यायकारणत्वेन द्रव्यता भावनीयेत् इति यावत्कथिकं स्वाश्रयद्रव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्तते नपुनरन्तराऽ तात्पर्यार्थः / इतः प्रकृतमुच्यते / तचेह द्रव्यरूपमावश्यकं प्रकृतं तत्रा प्युपरमते। स्थापना पुनरित्वरा स्वल्पकालभाविनी वा स्याद्यावत् वश्य-कोपयोगाधिष्ठितः साध्यादिदेहावन्दनकादिसूत्रोच्चारण लक्षणकथिका वा स्वाश्रयद्रव्ये अवतिष्ठमानेऽपि काचिदितराऽपि निवर्तते / श्वागमः / आवर्तदिकाः क्रिया चावश्यकमुच्यते / आवश्यकाचित्तु तत्सतां यावदवतिष्ठत इति भावस्तथाहि। नाम आवश्यकादिकं कोपयोगशून्यस्तु ता एवं देहागमक्रिया द्रव्यावश्यकं / तच द्विविधं मेरुजम्बूद्वीपकलिङ्गमगधसुराष्ट्रादिकं चाद्यात् स्वाश्रयो गोपालदार प्रज्ञप्तमिति / तद्यथा। आगमत आगममाश्रित्य / नो आगमतो नो कदेहादिः शिलासमुच्चयादिसिम-स्तितावदवतिष्ठति इति / तद्यावत् आगममाश्रित्य नो आगमशब्दार्थ यथावसरमेव वक्ष्यामः / चशब्दो कथिकमेव। स्थापनात्वावश्यकत्वेन योग्यःस्थापितः स क्षणांतरेपुनरपि द्वयोरपिस्वस्वविषये तुल्यप्राधान्यस्थापनार्थः / तथाविधप्रयो-जनसम्भवे इन्द्रत्वेन स्थाप्यते / पुनरपि च अत्राद्यभेदं जिज्ञासुराह! राजादित्वेनेत्यल्पका लवर्तिनः शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु सेकिंतं आगम ओ दवावस्सयं दवावस्स्यं जस्सणं यावत्कथिकात्वर्ततेतस्मातुअर्हदादिरूपेण सर्वदा तिष्ठतीतिस्च्छापनेति आवस्सएत्ति पदं सिक्खितं द्वितं जितं मितं परिजितं नाम समं व्युत्पतेः। स्था-पनात्वमवसेयं नतुस्थाप्यत इति स्थापना शाश्वतत्वेन घोससमं अहीण क्खरं अणचक खरं अव्वा-इद्धक्खरं केनापि स्थाप्यमानत्वाभावादिति / तस्माद्भावशून्यद्रव्याधारसाम्ये- अक्खलिअं अमिलिअं अवचामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोसं ऽप्यस्त्यनयोः कालकृतोविशेषः / अत्राह / ननु यथा स्थापना। कंटोठविप्पमुक्वं गुरुवा-यणोवगयं सेणं तत्थवायणाय पुच्छणाए काचिदल्पकालीना तथा नामापि किश्चिदल्पकालीनमेव / परिअट्ठणाए धम्मकहाए नो अणुपहाए कम्हा अण्णुव ओगे गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरावृत्ति-दर्शनमुच्यते। दवमिति कटु। संत्यं। किन्तु प्रायो नाम यावत् कयिकमेव। यस्तु क्वचिदन्यथोपलभः। टीका से किंत मित्यादि-अथ किं तदागमतो द्रव्यावश्यक - सोऽल्यत्वान्नेह विवक्षितः इत्यदोषः / उपलक्षणमात्रं चेदं / / मिति आह / (आगमतो दव्वावसयं जस्सण) मित्यादि Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 475 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय विधफलशून्या एव सपद्यन्ते उपयुक्तस्य तु मतिवैकल्पादितः सदोषा अप्यमी कर्ममलापगमार्यवेत्यलं विस्तरेण / / णमिति पूर्ववत् / जस्सत्ति यस्य आवस्सएति पयंति / आवश्यकपदाभिधेयंशास्त्रमित्यर्थः। ततश्च यस्य कस्यचिदा वश्यकशास्त्र शिक्षितं जितं यावत्। वाचनोपगतं भवति (सेणं तत्थेति। सजन्तुस्तत्रावश्यकशास्त्रे वाचनाप्रच्छना परिवर्तनाधर्म-कथभिर्वतमानोऽप्यावश्कोपयोगे अवर्तमान आगमतः आगम-माश्रित्य द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः / अत्राह / नन्वागममाश्रित्य द्रव्यावश्यक मित्यागमरूपमिदं आवश्यकमित्युक्तम् भवति। एतच्चायुक्तं। यतः आगमो ज्ञानं ज्ञानं च भाव एवेति। कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते। सत्यमेतरिकत्वागमस्य कारणमात्मा तदधिष्ठितो देहशब्दश्वोपयोग शून्यसूत्रोचारणरूप इहास्ति नतु साक्षादागमः। एतच त्रितयमागमकारणत्वात्कारणे कार्यो-पचारादागम उच्यते / कारणं च विवक्षितभावस्य द्रव्यमेव भवतीत्युक्तमेवेत्यदोषः / अनु०॥ शिक्षितादिपदानां व्याख्या शिक्षितादि शब्दे।। उदात्तादिघारविकलं प्रतिपूर्णघोषं / अत्राह। घोष सममित्युक्तमेव तत्क इह विशेष इत्युच्यते / धोषसममिति / शिक्षाकालमधिकृत्योक्तं / / प्रतिपूर्ण घोषं तु परावर्तनादि कालमधिकृत्येति विशेषः / / तदेवं यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्रं शिक्षितादिगुणोपेतं भवति / स जंतुस्तत्रावश्यकशास्त्रे वाचनया शिष्याध्यापनलक्षणया प्रच्छन्नयार्थादेर्गुरु प्रति प्रश्नलक्षणयापरावर्तनया पुनः पुनस्सूत्रार्थाऽभ्यासलक्षणया धर्मकथयाहिंसादिधर्मप्ररूप-णस्वरूपया। वर्तमानोऽप्यनुपयुक्तत्वादिति साध्याहारमागमतो द्रव्यावश्यकमित्यनेन सम्बंधः / ननु यथा वाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपिद्रव्यावश्यकं भवति। तथानुत्प्रेक्षयाऽपि तत्र वर्तमानस्तद्भवति नेत्याह। (नो अणुप्पेहाएत्ति) अनुप्रेक्षया ग्रन्थार्थानुचिंतनरूपया तत्र वर्तमानो नद्रव्यावश्यकमित्यर्थः / अनुप्रेक्षायामुपयोगमन्तरेणाऽभावादुपयुक्तस्य च द्रव्यावश्यकत्वायोग्यादितिभावः / अत्राह परः। (कम्हति) ननुकस्माद्वावाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि द्रव्यावश्यकं कंस्माचानुप्रेक्षया तत्र वर्तमानो न तथेति प्रच्छकाभिप्रायः / एवं प्रष्टसत्याह / (अणुवओगोदव्य) मिति कृत्वा उपयोजनउपयोगोपि जीवस्य बोधरूपोव्यापारः / सचेह विवक्षितार्थे चित्तस्य विनिवेशस्वरूपो गृह्यते / न विद्यते सो यत्र सोऽनुपयोगः पदार्छः / सविवक्षितो पयोगस्य कारणमात्रत्वात् द्रव्यमेव भवतीति कृत्वाऽस्मात्कारणादनन्तरोक्तमुपपद्यत इति शेषः / एतदुक्तम् / भवत्युपयोगपूर्वका अनुपयोगपूर्वकाश्चवाचना प्रच्छनादयः संभवत्येव तत्रेह द्रव्यावश्यकचिन्ता प्रस्तावादनुपयोगपूर्विका गृह्यते / अतएव सूत्रेणाऽभिहितस्याऽप्यनुपयुक्तस्याध्याहारस्तत्रकृतोऽनुपयोगस्तुभावशून्यता तच्छून्यं वस्तु द्रव्यमेव भवतीत्यतोवाचनादिभिस्तत्रवर्तमानोऽपि द्रव्यावश्यकम् / अनु-प्रेक्षा तूपयोगपूर्विकैव संभवत्यतस्तत्र वर्तमानो न तथेति भावार्थः / अत्राह। नन्वागममतोऽपयुक्तो वक्ता द्रव्यावश्यक मित्येतावचेष्टसिद्धेः शिक्षितादिश्रुतगुणकीर्तनमनर्थकम् / अत्रोच्यते। शिक्षिता गुणोत्कीर्तनं कुर्वन्निदंज्ञापयति। यदुतैवं भूतमपि निर्दोष श्रुत-मुचारयतोऽनुपयुक्तस्य द्रव्यश्रुतं द्रव्यावश्यकमेव भवति किं पुनः सदोषमुपयुक्तस्यतु स्खलितादिदोषदुष्टमपि निगदतः श्रुतमेव भवति / एवमन्यत्रापि प्रत्युपेक्षणादिक्रियाविशेषाः सर्वे निर्दोषा अप्यनुपयुक्तस्य तथा सुत्तं अत्थो व जिणमए किंचि आसज्जसोयारं नए नय-विसारओपूया) इति वचनात् इदमपि द्रव्यावश्यकं न यैश्चिन्त्यते तेच मूलभेदानाश्रित्य नैगमादयः सप्त तदुक्तं / / निगमसंगहववहा, उज्जसुए चेव होई वोधव्वे / / सद्दयसमभिरूळे, एवं भूते य मूलनया / / तत्रनैगमस्तावत्कियंति द्रव्यावश्यकानीच्छतीत्याह / / नैगमस्सुणं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वावस्सयं दोण्णि अणुवउत्ता आगमउं दोण्णि दवावस्सयाइ तिण्णि अणुवउत्ता आगमओ तिणि दव्वावस्सयाई एवजावइआ अण्णुवउत्ता आगमओ तावइ आई दवावस्सयाई एवमेव बहारस्संवि संगहस्सणं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्तावा। आगमओ दवावस्सयं दव्वावस्सयाणि वा उज्जुसुअस्स एगे अणुवउत्तो आगमतो एग दवावस्सयं पुहुत्तं नेच्छा तिण्हं सहानयाणंजाणए अणुवउत्ते अवत्थु कम्हा जइजाणइ अणुवउत्ते न भवति सेत्तं / आगमउं दवावस्सयं / टी. निगमस्सेत्यादि / सामान्यविशेषादि प्रकारेण नैकोऽपितु बहवो गमा वस्तुपरिच्छेदो यस्यासौ निरुक्तविधिना ककारस्य लोपाद् नैगमसामान्यविशेषादिप्रकारैः बहुरूपवस्त्वभ्युगमपर इत्यर्थः / तस्य नैगमस्यको देवदत्तादिरनुपयुक्त आगमत एक द्रव्यावश्यकं द्वौ देवदत्तपज्ञदत्तावनुपयुक्तौ आगमतो द्रव्यावश्यके वयो देवदत्तयज्ञदत्तसोमदत्ता अनुपयुक्ता आगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि। किं बहुना। एवं यावन्तो देवदत्तादयोऽनुप-युक्ताः तान्यतीतादि कालत्रयवर्तीनि नैगमस्याऽगमतो द्रव्यावश्यकानिएतदुक्तं भवति। नैगमो हि सामान्यरूपं विशेषरूपं च वस्त्वभ्युपगच्छत्येव नं पुनर्वक्ष्यमाणसंग्रहवत्सामान्यरूपमेव / ततो विशेषत्वादित्यस्येह प्राधान्येन विवक्षितत्वाद्यावन्तः के चन देवदत्तादिविशेषा अनुपयुक्ता स्तावन्ति सर्वाण्यप्यसौ द्रव्यावश्यकानि न पुनः संग्रहवत्सामान्यवादित्वादेकमेव च (ववहारस्सतित्ति) व्यवहरणं वयवहारो लौकिकप्रवृत्ति-रूपस्तत्प्रधानो नयोऽपि व्यवहारस्तस्याप्येवमेव। नैगमवदेको देवदत्तादिर-नुपयुक्तोऽथागमत एकं द्रव्यावश्यकमित्यादि सर्वं वाच्यमिदमुक्तं भवति / व्यवहारनयो लोकव्यवहारोपकारिण एव पदार्था-नभ्युपगच्छति न शेषान् / लोकव्यवहारे च जलाहरणव्रण पिंडीप्रदानादिकेघटनिव्वादि विशेषा एवोपकुर्वाणा दृश्यन्ते न पुनस्तदतिरिक्तंतत्सामान्यमिति विशेषानेव वस्तुत्वेन प्रतिपद्यते-ऽसौ न सामान्य व्यवहारानु पकारित्वाद्विशेष व्यतिरेकेणा-ऽनुपलभ्यमानत्वाचैत्यतो विशेषादिनैगममतसाम्येनातिदृिष्टः / अत्र चातिदेशेन चेष्टार्थ सिद्धेग्रंथलाघवार्थं संग्रहमतिक्रम्य व्यवहारोपन्यासः कृत इति भावनीयं (संग्रहस्सेत्यादि) सर्वमापि भुवनत्रनाऽन्तर्वर्तिवस्तूनि कुरुवं संगृह्णाति सामान्यरूपतयाऽध्यवस्यतीति संग्रहस्तस्य मते एको वा अनेको वा अनुपयुक्तोऽनुपयुक्ता वा यदा गमतो द्रव्यावश्यकं द्रव्यावश्यकानि वा तत्किमित्याह (सऐगत्ति) तदेकं द्रव्यावश्यकम् इदमत्र हृदयं / संग्रहनयः सा Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 476 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय मान्यमेवाभ्युपगच्छति न विशेषानभिदधाति च सामान्या-द्विशेषाद् व्यतिरिक्ताः स्युः / अव्यतिरिक्ताःस्युः अव्यतिरिक्ता वा यद्याद्यः पक्षः। तर्हि न सत्यमी निःसामान्यत्वात् खरबिषाण वत्। अथापरः पक्षस्तर्हि सामान्यमेव तेतद् व्यतिरिक्तत्वात्सा मान्यस्वरूपवत्तस्मात्सामान्यव्यतिरेकेणा विशेषासिद्धेयानि का निचिद्दव्यावश्यकानि तानि तत्सामान्याव्यतिरिक्तत्वादेकमेवं संग्रहस्य द्रव्यावश्यक मिति (उज्झसुयस्से)त्यादि। ऋज्वतीतानागतपरकीयपरिहारणमांजलवस्तु सूत्रयत्य-भ्युपगच्छतीति। ऋजुसूत्रः। अयं हि वर्तमानकालभाव्य वक्त अभ्युपगच्छतिनातीत विनष्टत्वान्नाऽप्नागत मनुत्पन्नत्वाद्वर्तमानकालभाव्यपि स्वकीयमेव मन्यते स्वकार्यसाधुकत्वात् स्वधनवत्परकीयन्तु नेच्छति स्वकाया-प्रसाधकत्वात्। परधनवत्तस्मादेको देवदत्तादिरनुपयुक्तोऽस्यमत्ते आगमत एकं द्रव्यावश्य / कमिति (पुहत्तं त्ति) पुहत्तंनिच्छइति। अतीतानागतभेदतः परकीयभेदतश्च पृथक्त्वं पार्थक्यं नेच्छत्यसौ किं तर्हिवर्तमानकालीनं स्वत्वमेवंचाभ्युपैति तच्चैकमेवति (तिण्हं सद्दनयाण) मित्यादि शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः शब्दसमभिरूद्वैवंभूतास्ते हि शब्दमेव प्रधानमिच्छतीत्यर्थन्तु गौणं शब्दवासनैवार्थप्रतीतिस्त्रयाणां शब्दनयानां ज्ञापकोऽथवानुपयुक्त इत्येतदेवतुन सम्भवतीदमित्यर्थः। (कम्हेति) कस्मा-देवमुच्यते इत्याह / यदिज्ञापकस्तहनुपयुक्तो न भवति ज्ञानस्योपयोगरूपत्यादिदमत्र हृदयं / आवश्यकशास्त्रज्ञस्तत्रा चानुपयुक्त आगमतो द्रव्यावश्यकमिति प्राग्निोतमेव स्वामी न प्रतिपद्यते यद्यावश्यकशास्त्र जानाति कथमनुपयुक्तोऽनुपयुक्तश्चेत् कथं जानाति ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात यदप्याग मकारणादात्मदेहादिकमागमत्वेनोक्तं तदप्यौपचारिकत्वादमी न मन्यन्ते / शुद्धनयत्वेन मुख्यवस्त्वभ्युपगमपरत्वात्तस्मादेतन्मते द्रव्यावश्य-कस्यासंभव इति निगमयन्नाह (सेत्तमिप्यादि) तदेतदागमतो द्रव्यावश्यकन्तेनउक्तम् आगमतो द्रव्यावश्यकमिदनिम्॥ इदानीं ना आगमतस्तदुच्यते॥ से किं तं नो आगमओ दव्याव-स्सय दव्वावस्सय तिविहं पण्णत्तं तंजाणयं सरीर दव्यावस्सयं / / टी० अथ किंतनो आगमतोद्रव्यावश्यकामति प्रश्नः / उत्तरमाह नो आगमउ दव्वावस्सयं तिविहं पण्णत्तमित्यादिनो आगमत इत्यत्रनो शब्दे आगमस्य सर्वनिषेधे देशनिषेधेवा वर्तते यत उक्तं पूर्वमुनिभिः / / आगमसव्वनिसेहे नोसहोअहंवदेसपडिसेहे। सव्वे जहण्णसरीरं भव्वस्स य आगमाभावा॥ व्याख्या। आगमस्यावश्यकादिज्ञानस्य सर्वनिषेधे वर्ततेनोशब्दोऽथवा तस्यैव देशप्रतिषेधे वर्तते / तत्र (सव्वेत्ति) सर्वनिषेधउदाहरणमुच्यते यथेत्युपदर्शने (सरीरति) तस्य जानतःशरीरं ज्ञशरीरं नो आगमत इह द्रव्यावश्यकं भव्यस्य च योग्यस्य यच्छशरीरं तदपि नो आगमत इह द्रव्यावश्यकं कुत इत्याह / आगमस्यावश्यकादिज्ञानलक्षणस्य सर्वथा अभावा-दिदमुक्तं भवति / ज्ञशरीरं भव्यशरीरं चानन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपं नो आगमतः सर्वथा आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकमुच्यते। नोशब्दस्याऽत्र पक्षे सर्वनिषेधवचनत्वादितिगाथार्थः। देशप्रतिषेधवचनेऽपि नोशब्दे उदाहरणम् / यथा / किरियागमुच्चरंतो, आवासं कुणई भावसुन्नेउ। किरियागमा न होई, तस्स निसेहो भवेदेसे। व्या.। क्रियामावर्तादिकं कुर्वन्नित्यध्याहार आगम च वंदनकसूत्रादिकमुचारयन् भावशून्यो य आवश्यक करोति सोऽपि नी आगमत इह द्रव्यावश्यकमितिशेषः / अत्र च क्रि यावर्त्तादिकागमो न भवति जडत्वागमस्य च ज्ञानरूपत्वादतस्तस्यागम-स्य देशे क्रियालक्षणे निषेधो भवति / क्रियाआगमो न भवतीत्यर्थः अतोनो आगमतइतीह। किमुक्तं भवति / देशे क्रियालक्षणे आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकमिति गाथार्थः / / तदेवं नो आगमतः। आगमाभावमाश्रित्व द्रव्यावश्यक त्रिविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं 1 भव्यशरीरद्रव्यावश्यक 2 ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरित्तं द्रव्यावश्यकम्।३तत्राद्यभेदंवि-वरीषुराह॥ सेकिंतं जाणयसरीरदव्वावस्सयं जाणयसरीरदव्वा-वस्सयं आवस्सयस्स पयत्थाहिगारं जाणयस्स जं सरीरयं ववगतचुतचावितचत्तदेहं जीवविप्पजठं शिजागतं वा संच्छारयगतं वा निसीहिआगतं वा सिद्धि सिलातलगतंवापासित्ताणं कोइभणेचा अहोणंइमेणं सरीर-समुस्सएणं जिणदितुणं भावेणं आवस्सएत्ति पयं आधविरं पण्णविअं परूविरं दंसि निइंसि उवदंसि जहा को दिटुंतो अयं घयकुंभे आसी अयं महुकुंभे आसीसेत्तं जाणयसरीरदव्वास्सयं॥ टी. / अथ किं तत् ज्ञशरीरद्रव्यावश्कमिति प्रश्ने निर्वचनमाह। (जाणयसरीरदव्वास्सयं आवस्सत्तीत्यादि) ज्ञातवानिति ज्ञःप्रतिक्षण शीयत इति शरीरं ज्ञस्यशरीरं ज्ञशरीरं तदेव अनु-भूतभवत्वाद् द्रव्यावश्यकं किं तदित्याह। यच्छरीरकं संज्ञापकं च वपुरित्यथः। कस्य संबधीत्याह / आयस्सएतीत्यादि आवश्य-कमिति यत्पदं आवश्यकपदाभिधेयं शास्त्रमित्यर्थः। तस्यार्थ एवार्थाधिकारोऽनेके वा तद्गतार्था अधिकारा गृह्यन्तेतस्य तेषांवा वा ज्ञातु संबंधि कथं भूतं तदिदं / ज्ञशरीरं द्रव्यावश्यकं भवती-त्याह व्यपगतच्युतं त्यक्तदेह जीवविप्रमुक्तमित्य क्षरयोजना / इदानीं भावाथः कश्चिदुच्यते तत्र / व्यपगतचैतन्यपर्यायाद-चेतन्यलक्षणं पर्यायान्तरं प्राप्तमत एव च्युतं उच्छवासनि स्वासजीवितादिशविधप्रमाणेभ्यः परिभ्रष्टम् / अचैतन्यं श्वासाद्ययोग्यत्वादन्यथा लेष्ट्रवादीनामपि तत्प्रसंगातेभ्यश्च परिभृशस्वभावादिभिः कैश्चित् स्वभावत एवा भ्युपगम्यते / तदपोहार्थमाह / च्यावित आयुःक्षयण तेभ्यःपरिभसितं / ननु स्वभावतस्तस्य सदावस्थितत्वेन सर्वदा तत्प्रसंगादेवं च सति कथं भूतं तदित्याह। त्यक्तदेह दिह उपचते त्यक्तो देह आहारपरिणामजनितोपचयो येन तत्त्यक्तदेहं / अचेत नस्याहार-ग्रहणपरिणत्योरभावात् / एवमुक्तेन विधिना जीवेनात्मना विधमनेकधा प्रकर्षण मुक्तं जीवविप्रमुक्तकं किं तदेतदावश्यक / ज्ञस्य शरीरमतीता वश्यकभावस्य कारणत्वाद्रव्यावश्यकम्।अस्य चनो आगमत्वमागमस्य तदनीं सर्वथा भावान्नो शब्दस्य चात्र पक्षे सर्वनिषेध वचनत्वादिति भावः / ननु यदि जीवविप्रमुक्तमिदं कथं तहस्य द्रव्यावश्यकत्वं लेष्ट्रवादीनामपि तत्प्रसंगात्तत्पुद्गलानामपि कदाचिदावश्यकवेतृभिर्गृहीत्वा मुक्तत्वसंभवादित्याशंक्याह / (सेज्जागत) मित्यादि यस्मादिदं शय्यागतं वा संस्तारगतं च नैषेधिकीगतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि ब्रूयादहोअनेन शरीरसमुच्छ्रायेण जिनदृष्टितभावेन आवश्यकमित्येतत्पदे गृहीतमित्यादि यावदुपदर्शितमिति तस्मादतीतवर्तमान Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 477 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय कालभावि वस्त्वेकत्वग्राहिनयानुसारिणामेवं वादिनां सम्मवाद्यथोक्तशरीरस्य द्रव्यावश्यकत्वं न विरुध्यते लेष्टवादिदर्शने पुनर्नेत्थंभूतः प्रत्यय कस्याऽपि समुत्पद्यत इति। न तेषां तत्प्रसंगस्तेनैव करचरणोरुग्रीवादिपारणोमनानन्तर-मेवावश्यककारणत्वेन वयावृतत्वात्तदैव तथाविधप्रत्ययजनकं द्रव्यावश्यकं लेष्टवादय इतिभाव इति समुदायार्थः / इदानीम वयवार्थ उच्यते। तत्र शय्या महती सर्वांगप्रमाणा तां गतंशय्यास्थितमित्यर्थः। संस्तारोलघुकोऽर्द्धतृतीयहस्तमान स्वंगतं तत्रस्थमित्यर्थः / यत्र साधवस्तपःपरिकर्मितशरीराः स्वयमेव गत्वा भक्तपरिज्ञानशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यते प्रतिः पत्स्यन्ते च तत्सिद्धशिलातलमुच्यते / क्षेत्रगुणतो यथा भद्रकदेवतागुणतो वा साधूनामाराधनाः सिध्यंतिाश तत्रेति कृत्वा अन्येऽप्याचक्षते। यत्रमहर्षिः कश्चित्सिद्धस्तत् सिद्धशिलातलं तद्गतं तत्र स्थितं सिद्धशिलातलगतम्। इह निसीहयाग तं चेत्यादीन्यपि पदानि वाचनांतरे द्रश्यते तानि च सुगमत्वात् स्वयमेव भावनीयानि। नवरं नैषेधिकी शवपरिस्थापनभूमिः अपरं चात्रान्तरे (पासित्ताण कोइ भणिज्जेति) ग्रंथः। क्वचिद् दृश्यते स च समुदायार्थकथनावसरणे जित एव यत्र तुन श्यते तत्राध्याहारो द्रष्टव्यः। अहो शब्दो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु वर्तते / स चेह त्रिष्वपि घटते तथाह्यनित्यशरीरमिति दैन्ये आवश्यकं ज्ञातमिति विस्मयेऽन्यं विपार्श्वस्थितमामंत्रयमाणस्थामंत्रणे अनेन प्रत्यक्षतया द्रश्यमानेन शरीरमेव पुद्रलसंघातत्वात् समुच्छ्यस्तेन जिनदुष्टन तीर्थंकराभिमतेन भावेन कर्मनि रेणाभिप्रायेण अच्छवा भावेन तदावणकर्मक्षयोपशमलक्षणेन आवश्यकपदाभिधेयं शास्त्रम् (आधवियंति) प्राकृतशैल्या च्छांदसत्वाच गुरोः सकाशाद् गृहीतं प्रज्ञापितं सामान्यतो विनयेभ्यः कच्छितं प्ररूपितं तेभ्य एव प्रतिसूत्रमर्छकच्छनतः / दर्शितं प्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनतः / इदं क्रिया एभिरक्षरैरत्रोपात्ता / इत्छं च क्रियते इत्येवं विनेयेभ्यः प्रकटितमितिभावः। निदर्शितं कच्छंचिदगृह्णतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुन-पुन दर्शितं / उपदर्शितं सर्वनययुक्तिभिः आह। नन्वनेन शरीरसमुच्छ्रायेणाऽवश्यकमागृहीतमित्यादि नोएपद्यते गृहणप्ररूपणादीनां जीवधर्मत्वेन शरीरस्थाऽघटमानकत्वा सत्यं / किन्तु भूतपूर्वगत्या जीवशरीरयोरभेदोपचारदित्च्छ-मुपन्यास इत्यदोषः / पुनर प्याह। ननु यद्यपि तच्छरीरकं शय्यादिगतं दृष्ट्वा पूर्वोक्तवक्तारो भवंति तथापि कथं तस्य द्रव्यावश्यकता यत् आवश्यकस्य कारणमेव द्रव्यावश्यकं भवितुमर्हति भूतस्य भाविनो वेत्यादिपूर्वोक्तवचनात्। कारणं चागमस्य चेतनाधि-ष्ठितमेव शरीरं नत्विदं चेतनारहितत्वात्तस्यापि तत्कारणत्वेऽति-प्रसंगात्सत्यं। किंत्वतीपर्यायानुवृत्यभ्युपगमपरतयानुवृत्यातीतमावश्यककारणत्वपर्यायमपेक्ष्य द्रव्यावश्यकताऽ-स्योच्यत इत्यदोषः / स्यादेवं / यद्यत्राथैकः कश्चिददृष्टान्तः स्यादिति विकल्पात् प्रच्छति यथा कोऽत्रदृष्टातं इति प्रष्टेसत्याह। यच्छा अथं घृतकुम्भ आसीत् / अर्थ मधुकुम्भ आसीदित्यादि। एतदुक्तं भवति / यथा मधुनि घृते वा प्रक्षिप्यापनीते तदाधार पर्यायातिक्रांतेऽप्ययं मधुकुम्भोऽयं च घृतकुंभ इति व्यपदेशो लोके प्रवर्तते / तथा आवश्यककारणत्वपर्यायऽतिक्रांतेऽपि पर्यायानुवृत्या द्रव्यावश्यकमिदमुच्यत इति भावः। निगमयन्नाह। (सेत्तमित्यादि) तदेतत् ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम्। उक्तोनो आगमतो द्रव्यावश्यकप्रथमभेदः॥ द्वितीयभेदनिरूपणायमाह। से किंतं भविअसरीरदट्वावस्सयं जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव अत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिद्वेणं भावेण आवस्सयतिपयंसेअकाले सिक्खिस्सतिन ताव सिक्खतिजहा को दिटुंतो अयं महकुभे भविस्सइ अयं घयकुंभे भविस्सइ सेत्तं भविअसरीरदव्वावस्सयं / / अथ किं तद्भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति प्रश्ने सत्याह (भवियसरीर दव्वावस्सयं जे जीवे) इत्यादि / विवक्षितपर्यायेण भविष्यतीति भव्यो विवक्षितपर्यायाहस्तद्योग्य इत्यर्थः / तस्य शरीरं तदेव भाविभावावश्यककारणत्वात् द्रव्यावश्यकं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं किं पुनस्तदित्यत्रोच्यते / यो जीवो योनिजन्मभिनिष्क्रांतोऽनेन च शरीरसमुच्छ्यणजिनोपदिष्टन भावेन आवश्यकमित्येतत्पदं आगामिनि काले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते यजीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः सांप्रतमवयवार्थ उच्यते। तत्र यः कश्चिजीवो जंतुर्योन्या योषिदवाच्यदेशलक्षणायाः परिपूर्णसमस्तदेहो जन्मत्वेन जन्मसमयेन निष्क्रांतो न पुर्नगर्भावस्थ एव पतितो योनिजन्मत्वनिष्क्रांतः / अनेन च शरीरमेव पुद्गलसंघातत्वादुत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिसमयं समुत्सर्पणाद्वा समुच्चयस्तेन / आत्तेनआदत्तेन वा गृहीतेन प्राकृतशेलीवशादात्मीयेन वा जिनोपदिष्टनेत्यादि पूर्ववत् (सेयकालित्ति) छांदसत्वादागामिनि काले शिक्षिष्यते अध्येष्यते / सांप्रतन्तु न तावदद्यापि शिक्षते तज्जीवाधिष्ठितशरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं नो आगमत्वं चाप्या गमाभावमाश्रित्य मन्तव्यं / तदांनी तत्र वपुष्यागमाभावान्नो शब्दस्य चात्राऽपि सर्वनिषेधवचनत्वात् / अत्राह / नन्वावश्यकस्य कारणं द्रव्यावश्यकमुच्यते / यदि त्वत्र वपुष्यागमाभावः / कथं तर्हितस्य तं प्रतिकारणत्वं न हि कार्याभावे वस्तुः कारणत्व युज्यते अतिप्रसंगात्। ततः कथमस्य द्रव्यावश्यकता। सत्या किन्तु भविष्यत्पर्यायस्येदानीमपि योऽस्तित्वमुपचरितन-यस्तदनुवृत्त्यास्यद्रव्यावश्यकत्वमुच्यते। तथा च तद्नुसारिणः पठंति भाविनिभूतवदुपचार इति अत्रार्थे दृष्टांत दिदर्शयिषुः प्रश्नं कारयति / यथा कोऽत्र दृष्टांत इति निर्वचन माह। यथायं मधुकुंभो भविष्यतीत्यादि / एतदुक्तं भवति यथा मधुनि घृते वा प्रक्षेप्तुमिष्टे तदाधारत्वपर्याये भविष्यत्यपि लोके ऽयं मधुकुं भो धृतकुंभो वेत्यादिव्यपदेशो दृश्यते / तथास्याप्यावश्यक कारणत्व पाये भविष्यत्यपि तदस्तित्वपरतयानुवृत्या दृव्यावश्यत्वमुच्यते इति भावः। निगमयन्नाह / सेत्तमित्यादि तदेतद्भव्यशरीरद्रव्या-वश्यकमिति / उक्तो नो आगमत दृव्यावश्यक द्वितीयभेदः।। तृतीयभेदनिरूपणार्थमाह // से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दवावस्सयं दवावस्सयं तिविहं पणत्तं / लोइअंकुप्पावयणि लोउत्तरिक अथ किं तत् ज्ञशरीरभव्यं शरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यक निर्वचनमाह / / (जाणगशरीरभवियसरीरवइरित्ते दवावस्सए तिविहे) इत्यादि यत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरयोः संबधि Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 478 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय पूर्वोक्तलक्षणं नघटते। तदुभाभ्यांव्यतिरिक्तं भिन्नं द्रव्या-वश्यकमुच्यते। तच त्रिविधं प्रज्ञप्त। तद्यथा। लौकिकंकुप्रावच-निकं लोकोत्तरिकम्॥ तत्र प्रथमभेदं जिज्ञासुराह॥ से किं तं लोइ दवावस्सयं दवावस्सयं जे इमे राईसरतलवरमाडं विअकोडुं बिअइम्भसेहिसेणावइसत्थवाहप्पभितओकल्लंपाप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलिअंमि अह पद्धं रए पभाए रत्तासोगपगासकिं सुअसुमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरनलिणि संडवोहए उट्ठिअंमि सूरे सहस्सरस्सिमिदिणयरे ते असा जलंते मुहधोअणदंतपक्खालणतेल्लफणिहसिद्धत्थयहरि आलिअ अद्दागधूवपुफ्फगं-धमल्लतंबोलवत्थाइ आई हव्वावस्सयाई काउंततो पच्छा रायकुलं वा देवकुलं वा आराम वा उज्जाणं वा सभं वा पटवं वा गच्छति से लोइअं दव्वावस्सयं // लोइयमित्यादि / / लोके भवं लौकिकं शेषं तथैव अत्र राज श्वरा तलवरादयः प्रभातसमये मुखधावनादि कृत्वा तत पश्चाद्राजकुलादौ गच्छति। तत्तेषां सम्बंधिमुखधावनादि लौकिकं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकं मिति समुदायार्थः।। (कल्लं पाउप्पभायाए) इत्यादि कल्यमिति विभक्तिव्यत्य येन सामान्येन प्रभाते प्रभातस्यैव विशेषावस्थाः प्राह इत्यादि / प्रादुः प्राकाश्ये ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां किं चिदुपलभ्यमानप्रकाशायामिति भावः / तदनतरं सुविमलायां तस्यामेव किचित्परिस्फुटतरप्रकाशायान्। अथशब्द आनंतर्ये तदनंतरं पांडुरे प्रभाते कथं भूत इत्याह / फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते फुल्लं विकसितं तच तदुत्पलंच फुल्लोत्पलं कमलो हरिणविशेषः फुल्लोत्फलं च कमलश्च फुल्लोत्पलकमला तयोः कोमलमकठोरं दलानां नयनयोश्चोन्मीलितमुन्मीलन यत्र प्रभाते / तद्यथा / अनेन च प्रागुक्तायाः सुविमलतायाः वक्ष्यमाणसूर्योदयस्थ चांतरालभविनी पूर्वस्थादिश्यरुणप्रभावस्थामाह। तदनंतरम् (उहिए सूरिए त्ति) अभ्युद्गते आदित्ये कथं भूते इत्याह / रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुंजार्द्धरागसदृशे। रक्ताशोकप्रकाशस्य पुष्पितं पलाशस्य शुकमुखस्य गुंजार्द्धस्य च रागेण सदृशो यः सेतथा तस्मिन् आरक्त इत्यर्थः / तथा कमलाकरनलिनिखंड बोधके कमलानामाकरा उत्पत्तिभूमयो हृदादिजलाशयविशेषास्तेषु यानि नलिनीखंण्डानि तेषां बोधको य स तथा तस्मिन् पुनः किंभूते तस्मिन्नित्याह / / सहस्त्ररश्मौ दिनं करोतीति दिनकरस्तस्मिन् तेजसा ज्वलति। तत्रैवैते भावाः सर्वेऽपिसंतीतिज्ञापनार्थ सूर्यस्य विशेषणबहुत्वं अनेन चोत्तरोत्तरकालभाविना आवश्यककरणकालविशेषणकलापेन प्रकृष्टमध्यमजघन्योद्यमवतां सत्वा नामभिमतमावश्य-करणसमयमाह। तथाहि / के चित्प्रकृष्टोद्यमिनः किं चित्प्रकाशमानायां रजन्यां मुखधावनाद्यावश्यकं कुर्वति / मध्यमोद्यमिनस्तु तस्यामेव सुविमलायामरुणप्रभावसरे वा। जघन्योद्यमिनस्तु समुद्गते सवितरीति (मुहधोवणेत्यादि) मुखधावनं च दंतप्रक्षालनं च तैलं च फणिहश्च सिद्ध्यर्थश्च हरितालिका च आदर्शश्च पुष्पाणि च माल्यं च गंधाश्च तांबूलंच वस्त्राणि च तान्यादिर्येषां स्नानाभरण परिधानादीनां तानि फणिहः कंकतकस्तं मस्तकादौ व्यापारयति। सिद्धार्थाः सर्षपाः। हरितालिका दूर्वा एतद्द्वयं मंगलार्थं शिरसि प्रक्षिपंति / आदर्शेषु मुखादि निरीक्षते वस्त्रादिधूपयंति अग्रथितानि पुष्पाणि तान्येवग्रथितानि माल्यम् अथवा विकसितानि पुष्पाणि वा तान्येवाविकसितानि माल्यमेतेषां च मस्तकादिषूपयोगः / शेषस्वरूपत उपयोगतश्चप्रतीतमेवएतानि द्रव्यावश्यकानि कृत्वा ततः पश्चाद्राजकुलादौ गच्छति तत्र रमणीयतातिशयेन स्त्री-पुरुषमिथुनानि यत्रारमंति स विविधपुष्पजात्युपशोभित आरामः वस्त्राभरणादिसमलंकृतविग्रहाः संति हिताशनाद्याहारा मदनोत्सवादिषु कीडार्थ लोका उद्याति यत्रतचम्पकादितरुखण्डमण्डितमुद्यानं भारतादिकथाविनोदेन यश्च लोकस्तिष्ठति सा सभा शेषं प्रतीतम् / अत्राह / ननु राजादिभिः प्रभाते अवश्यं क्रियत इति व्युत्पत्तिमात्रेणावश्यकत्वं भवतुमुखधावनादीनि भावावश्यककारणं न भवन्ति। सत्यं / किंतु भूतस्य भाविनो वेत्याद्येव द्रव्यलक्षणं मतंव्यं। किं तर्हि (अप्पाहणे वि दव्वसद्दो) तीतिवचनादाह / अप्रधानवाचकोऽपि द्रव्यशब्दोऽवगंतव्यः / अप्रधानानि च मोक्षकारणभावावश्यकापेक्षया संसारकारणानि राजादिमुखधावनादीनि ततश्च द्रव्यभूतान्यावश्यकानि द्रव्या-वश्यकानि एतानीत्यदोषः नो आगमत्वं चेहाप्यागंमाभावा-नोशब्दस्य च सर्वनिषेधवचनत्वादित्यलं विस्तरणे निगमयन्नाह / / (सेत्तं लोइय) मित्यादि / तदेतज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं लौकिकं द्रव्यावश्यक मित्यर्थः / उक्तो नो आगमतो द्रव्यावश्यकांतर्गतज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः द्रव्यावश्यक-प्रथमभेदः द्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह // सं किंतं कुप्पावयणि दवावस्सयं दवावस्सयं जे इमे चरगचीरिगचम्मखंडिअभिक्खोडपुंडरं गगोअमगोवत्तिअगिहिधम्मधम्मचिंतग अविरुद्धवैनयिक-वुड सावगप्पमित्तओ पासंडत्था कल्लंप्पाउप्पभाए जाएजा वते असा जलं ते इंदस्स दाखंदस्स वारुहस्सवा सिवस्स वा वेसमणस्स वादेवस्स वा नागस्स वा भूअस्स वा मुगुदस्स वा अजाए वा कोट्टकिरिआए वा उवले-वणस्स मञ्जण आवरिस्सण्ण धूवपुप्फगंधमल्लादिआइंदव्वावस्सयाई करेंति सेत्तं कुप्पावयणिअंदव्वावस्सयं / / से किंतं कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकमत्र निर्वचनं (कुप्पावयणियं दव्वास्सयंत्ति) इमे इत्यादि कुत्सितं प्रवचनं येषां ते कुप्र-वचनास्तेषामिदं कुप्रावनिक द्रव्यावश्यकं किं पुनस्तदित्याह / जे इमे इत्यादि।। एते चरकचीरिकादयः प्रभातसमये इंद्रस्कं-दादेरुपलेपनादि कुर्वति तत् कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः / / देवताक्षितीशमातापितृगुरूणामविरोधेन विनयकारित्वा-दविरुद्धा वैनयिकाः पुण्यपापपरलोकाद्यनभ्युपगमपरा अक्रिया-वादिनो विशुद्धाः सर्वपार्षडिभिः सह विशुद्धचारित्वादत्राह ननुयद्येते पुण्याधनभ्युपगमपराः कथंतर्वेषां वक्ष्यमाणामिंद्राधुपलेपनं संभवति पुण्यादिनिमित्तमेव तस्य संभवात्सत्यं किं तु जीविकादिहेतोस्तेषामपि तत्संभवतीत्यदोषः।। प्रभृतिग्रहणात् परिव्राजकादिपरिग्रहः पाषंडं व्रतं तत्र तिष्ठंतीति पाषंड स्थाः / (कल्लं पाउप्पमायाए) इत्यादिपूर्ववद्या Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 479 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय वत्तजसाज्वलतीति। इंदस्स वेत्यादि। तत्रंद्रः प्रतीतः स्कन्दः कार्तिकेयः रुद्रो हरः शिवस्त्वाकारविशेषधरः स एव व्यंतरविशेषो वा वैश्रवणो यक्षनायकः देवःसन्मान्यः नागो भवन पतिविशेषः यक्षभूतो व्यंतरविशेषो मुकुंदो बलदेवः आर्याप्रशांतरूपा दुर्गाऽस्यैव महिषारूढा। तत् कुट्टनपरा कौट्टक्रिया अत्रोपचारादिंद्रादिशब्देन तदायतनमप्युच्यते / अतः तस्येंद्रादिरूपोपलेपनसम्मा-र्जनवर्षणपुष्पधूपगंधमाल्यादीनि द्रव्यावश्यकानि कुर्वति। तत्र लेपनं छगणादिना प्रतीतमेव / सम्मानं दंडपुंछनादिना / वर्षणं गंधोदकादिना। शेषं गतार्थम् // तदेवं य एते चरकादय इंद्रा-देरुपलेपनादि कुर्वति तत कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकम्। अत्र द्रव्यत्वमावश्यकत्वं नो आगमत्वं च लौकिकद्रव्यावश्यकोक्त-मिव भावनीयं निगयन्नाह (सेत्तमित्यादि) तदेतत् ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं कुप्रावचनिकं द्रव्यावश्यकमित्यर्थः / उक्तो नो आगमतो द्रव्यावश्यकांत्तर्गतज्ञशरीरभव्यशरीरव्यति-रिक्तद्रव्यावश्यकद्वितीयभेदः ||अथातृतीयभेदनिरूपणार्थमाह / / से किं तं लोगुत्तरिअं दवावस्सयं जं इमे समणगुणमुक्कजोगीछक्कायनिरणुकंपा हयाइव उदमा गया इव निरंकुशघट्टा मट्टा तु प्पट्टा पांडुरपडपाउरणा जिणाण-मणाणाए सच्छंदविहरिऊणं इभउकालं आवस्सयस्स उवट्टावयति सेसं लोगुत्तरिअंदवावस्सयं सेत्तं जाणय सरीरभवि असरीवतिरित्तं दव्वावस्सयं सेत्तंनो आगमतो दव्वावस्सयं / सेत्तं दव्वावस्सयं / / अथ किं तल्लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकमत्र निर्वचनमाहा लोकस्योत्तराः साधवः अथवालोकस्योत्तरं प्रधानं लोकोत्तरं जिनशासनं तेषु तस्मिन्वा भवंति लोकोत्तरिकं द्रव्यावश्यकमिति व्याख्यातमेव किं पुनस्तदित्याह। जे इमेत्यादि / य एते श्रमणगुणमुक्तयोगित्वादिविशेषणविशिष्टाः साध्वाभासा जिनानामनाज्ञया स्वच्छंदविरुद्धतयोभयकालमावश्यकाय प्रतिक्रमणायोपतिष्ठं ते तत्तेषां प्रतिक्रमणानुष्ठानं लोकोत्तरकं द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः / इदानीमवयवार्थ उच्यते। तत्र श्रमणाः साधवस्तेषां गुणा मूलोत्तरगुणरूपास्तत्र जीववध-विरत्यादयो मूलगुणाः पिंडविशुद्धयादयस्तूत्तरगुणास्तेषु मुक्तो योगो व्यापारो यैस्ते सर्वधनादेराकृतिगणत्वात् श्रमणगुणमुक्ता योगिनः एते च जीववधादिविरतिमुक्ता व्यापारा अपि मनसा कदाचित्सानुकंपा अपि स्थुरित्याहा षट्सुकायेषु पृथिव्यादिषु विषये निर्गता अपगता अनुकंपा मनसा दया येभ्यस्ते तथा निर-नुकंपाः तीच्चत्तमव हया इव तुरगा इव उद्दा माश्चरणनिपात-जीवोपम निरपेक्षत्वात्तदचारिण इत्यर्थः / / किमपीत्येवं भूतास्ते इत्याह / यतो गजा इव दुष्टद्विरदा इव निरंकुशा गुर्वाज्ञाव्यति-क्रमचारिण इत्यर्थः / अत एव घट्टति येषां जंघे श्लक्ष्णीकरणार्थ फेनादिना घृष्टे ति भावतस्तेऽवयवावयविनोरभेदोपचारात्घृष्टास्त-था मट्ठति। तैलोदकादिना येषां केशाः शरीरं वा मृष्ट ते तथैव मृष्टा अथवा केशादिषु मृष्टं विद्यते येषांते मृष्टवन्तो वत् प्रत्ययलोपा-न्मृष्टाः तथा। (तुप्पोटुंति) तुप्रामूक्षिता वदनेन वा वेष्टिताः शीतरक्षादि निमित्तमोष्ठा येषां ते तुप्रौष्ठा तथा मलपरीषहासहिष्णुतादूरीकृतत्वात्पांडुरो धौतपटः प्रावरणं येषां ते तथा जिनानामनाज्ञया स्वच्छंद विरुद्धतीर्थकराज्ञा बाह्या स्वस्वरु-याविविधचेष्टाः / कृत्वा तत्रोभयकालं प्रभातसमयेऽस्तमयसमयेचचतुर्थ्यर्थेषष्ठीति कृत्वा आवश्यकाय प्रतिक्रमणायोपतिष्ठते तत्तेषामावश्यकम अत्र द्रव्यावश्यकत्वं भावशून्यत्वातृ फलाभावत्वादप्रधानतया अवसेयं / नो आगमतो देशे क्रियालक्षण आगमानावान्नोशब्दस्य चात्र देशप्रतिषेधवचनत्वादिति अत्र चलोकोत्तरिके द्रव्यावश्यके उदाहरणं। वसंतपुरे नगरे अगीता-सिंविग्ने गच्छे एकोविचरति तत्र श्रमणगुणमुक्तयोगीसं विनाभासः साधुरेकः प्रतिदिनं पुरः कर्मादिदोषदुष्टमनेषणी यं भक्तादि गृहीत्वा महता संवेगेन प्रतिक्रमणकाले आलोचयति। तस्य गच्छाचार्ये गीतार्थत्वात्प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् भणति पश्यत अहोकथमसौ भावमगोपयन् अशठतया सर्व समालोचयति। सुखं हि आसेवना क्रियते दुःखं चेत्थमालोचयितुं तस्मादेष अशठतयेव शुद्धोसौ तथा च तं प्रशस्यमानं दृष्ट्वा अन्येऽप्य गीतार्थश्रमणः प्रशंसंति चिंतयंति च गुरोश्चेदिच्छया भाव्यस्यहि दोषासेवना-यामसकृत्यपतितायामपि न कश्चिद्दोषः। आलोचनाया एव साध्यत्वादित्थं चान्यदा तत्र संविग्रगीतार्थः कश्चिदायातस्तेन च प्रतिदिनं तमेव व्यतिकरमालोक्य सूरिरुक्तस्त्व मित्थमस्य प्रशंसा कुर्वन् विवक्षितक्षितीश इव लक्ष्यसे / तथाहि गिरिनगरवासी कश्चिदग्निभक्तो वणिक् पद्मरागरत्नानां गृहं भृत्वा प्रतिवर्ष वन्हिना प्रदीपयति तथा विवेकतया तत्र नरपतिलोके श्लाघमाणः अहो धन्योऽयं वणिग् भगवंतं हुतभुजमित्थमौदार्थभक्तयतिशयाद्रत्नस्तप्पयति। अन्यदा च प्रबलपवनपटल-प्रेरितस्तत्प्रदीपितदहनः सराजप्रासादसमस्तमपितन्नगर दहतिस्स। असाच राज्ञादंडितो नगराच्च निष्कासितस्तदेवं राज्ञा तस्य प्रशंसां कुर्वता आत्मा नगरं लोकश्च नाशित स्तथा त्वमपि अस्याऽविधिप्रवृत्तस्य प्रशंसां कुर्वन्नात्मानं समस्तगच्छं चोच्छेदयसि यदि पुनरेनमेक शिक्षयसि तदा तथाविध न पइव त्वंपरिकारानिरपायतामनु भवसि।तथा ह्यन्येन केनचिद्राज्ञा तथैव कुर्वन् कश्चिद्वणिगाकर्णितस्तेभ्यो नगरदाहापायदर्शनातक्षितोशेन अरण्यं गत्वा किमित्थं न करोषीत्यादिवचोभिस्तिरस्कृत्यदण्डितो निष्कासितश्च एव त्वम-पीत्याधुपनयोगतार्थः / इत्यादि बहुप्रकारं भणितो यावदसौ तत्प्रशंसातो न निवर्तत तावत्तेन गीतार्थसाधुना शेषसाधवोभिहिता एष गणाधिपो महानिर्द्धमतास्पदमगीतार्थो यदिन परित्यज्यते तदा भवतां महते अनर्थाय प्रभवतीति तदेवं तत्साध्वावश्यकप्रकार सर्व लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकमिति निगमयन्नाह (सेतमित्यादि) तदेतल्लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकं एतद्गणनेज्ञशरीरभव्यशरीख्यतिरिक्तं त्रिविधममि द्रव्यावश्यक समर्थितं भवत्यतस्तदपि निगमयति / सेत्तमित्यादि। एतत्समर्थेन नो आगमतो द्रव्या-वश्यकस्य प्रभेदस्य समर्थितत्वात्तदपि निगमयति / सेत्तं नो आगमतो इत्यादि एतत्समर्थने च यत्प्रक्रांतं। द्रव्यावश्यकं तस्योत्तरः भेदमप्यवसितमतो निगमयति सत्वं दव्वावस्सयमिति तदेतत् द्रव्यावश्यकं समर्थितमित्यर्थः। उक्तं सप्रपंचं द्रव्यावश्यकम्।। साम्प्रतमवसरायातभावावश्यकनिरूपणार्थमाह / / सेकिंतं भावावस्सयं भावावस्सयं दुविहं पण्णतं तंजहा आगमतो अनो आगमतो अ॥ टी।। अथ किं तद् भावावश्यक मित्यत्र निर्वधनमाह || भावावस्स्यं दुविहमित्यादि वक्त विवक्षितपरिणामस्य भवनभावं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 480 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय उक्तं च भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यात मोकारमादि आइभावावस्सयाइ करेंति सेत्तं कुप्पावयणिों सर्वरिंद्रादिवदिहेंदनादिक्रियानुभावात् व्याख्यावतुर्विवक्षितक्रियया भावावस्सयं / / विवक्षितपरिणामस्य इंदनादेरनुभवनमनुभूतिस्तया युक्तोऽर्थः टी.(से किं तं कुप्पावणीय) मित्यादि अत्र च निर्वचनमाह / संभवस्तयोरभेदोपचारः सर्वः समारव्यातो निर्दशनमाह / कुप्पावयणियं भावावस्सयं जे इमे त्यादि कुत्सितं प्रवचनं भावावश्यक इंद्रादिवदित्यादि यथा इंदनादिक्रियानुभावात् परमैश्वर्यादिपरिणामेन किंतदुच्यते / य एते चरक चीरकादयः पाषंडस्था यथावसरे परिणतत्वा-दिन्द्रादिभाव उच्यते इत्यर्थः / भावश्चासावावश्यकं च इज्यांजलिहोमादीनि भावरूपान्याववश्यकानि कुर्वति। तत्कुप्रावनिक भावमाश्रित्य वा। भावावश्यकमिति संबंधः / तत्र चरकादिस्वरूपं प्रागेवोक्तम् / तत्राद्यभेदनिरूपणार्थमाह।। इज्यांजल्यादिस्वरूपमुच्यते। तत्र यजनमिति याग इत्यर्थस्तद्विषयोसे कितं आगमतो भावावस्सयं भावावस्सयं जाणए उवउत्ते जलस्यांजलिरिज्यांजलिः / यागदेवतापूजावसरभावीति हृदयं अथवा सेत्तंआगमतो भावावस्सयं // यजनभिज्या पूजा गायत्र्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां संध्यार्चनमित्यर्थः। सूत्रां-जलिरिज्याजलि अथवा देशी भाषाया मिज्येति माता तस्या अथ किंतदागमतो भावावश्यकमत्राह (आगमओभावावस्सयं जाणए) नमस्कारविधौ तद्भक्तैः क्रियमाणः करकुड्मलमीलनलइत्यादि ज्ञापकोपयुक्तं आगमतो भावावश्यकं इदमुक्तं भवत्यावश्यक लक्षणोंऽजलिरिज्यांजलिः होमोऽग्रिहोत्रिकैः क्रियमाणमनिहवने जापो पदार्थज्ञस्तजनितसंवेगविशुद्धमानपरिमाणा-मस्तत्रचोपयुक्त मंत्राभ्यासः। मंडुरक्कत्ति। देशीवचनं मंदु सुखं तेनरकं वृषभादिशब्दकरणं साध्वादिरागममते भावावश्यकम् आवश्यकार्थो-पयोगलक्षणस्याऽत्र मंदुरका देवतादिपुरतो वृषभगर्जिता-दिकरणमित्यर्थः / नमस्कारोनमो सद्भावात् भावावश्यकता चात्रावश्य-कोपयोगपरिणामस्य सद्भावात् / भगवते दिवसनाथायेत्यादिक एतेषां द्वंद्वे इज्यांजलिहो भावनाश्रित्यआवश्यकम् इति व्युत्पत्तेः अथवा आवश्यकोपयोग- मजापमंदरुक्कनमस्कारास्ते आदिर्येषां तानि / तथा आदिशब्दात् परिणामानन्यत्वात्साध्वादिरपि भावस्ततश्च भावश्चासावश्यकं चेति स्तवादिपरिग्रहः एतेषां चरकादिभिरवश्यं क्रियमाणत्वादावश्यव्युत्पत्तेरप्यसौ मंतव्य इति (सेत्तमित्यादि) निगमनं। कत्वमेतत्कर्तृणां च तदर्थोपयोगश्रद्धा-दिपरिणामसद्भावात् भावत्वं / अय भावावश्यकद्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह / / अन्यच्च चरकादयस्तदर्थो पयोग-लक्षणो देश आगमो देशस्तु से कितं नो आगमओ भावावस्सयं भावावस्सयं वितिविहं करशिरोव्यापारादिक्रिया लक्षणो-नागमस्ततो देश आगमाभावमाश्रित्य पण्णत्तं तं जहा। लोइअंकुप्पावणिलोगुत्तरिअं॥ नो आगमत्वमवगंतव्यं / नोशब्दस्येहापि देशनिषेधपरत्वात्तस्माचर कादयस्तदुपयुक्ता यथावसरं यदवश्यमिज्यांजल्यादि कुर्यात / ततः अय किं तन्नो आगमतो भावावश्यकमत्राह नो आगमतो कुप्रावधनिकं / भावावश्यकं भावावश्यकशब्दस्य च व्युत्पत्तिद्वयं तथैव भावावश्यकत्रिविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा लौकिकं कुप्रावनिक लोकोत्तरिकं च॥ सेत्तमित्यादि निगमनं / उक्तो नो आगमतो भावावश्यकद्वितीय-भेदः / तत्र प्रथमभेदनिर्णयार्थमाह // अथ तृतीयभेदनिरूपणार्थमाह। से किं तं लोइ भावावस्सयं भावावस्सयं पुव्वण्हे भारहं से किं तं लोगोत्तरिअंभावावस्सअंजण्णं समणे वा समणिवा अपरहे रामायणं से त्तं लोइअं भावावस्सयं / / सावओ वा साविआ वा तचिते तंमणो तल्लेस्सेतदध्यवसिते अय किं तल्लौकिकं भावावश्यकमित्याह (लोइयं भावाव-स्सयं तदज्झवसाणे तदट्ठीवउत्ते तदप्पिअकरणे तम्मावणाभाविते पुव्वराहे) इत्याच्छलोके भवं लौकिकं यदिदं लोकः पूर्वाह्न भारतमपराह्ने अण्णत्थकत्थइमण अकुव्वमाणे उवउत्ते जिणवयणधम्माण्णुरामायणं वाचयति शृणोतिवा तल्लौकिक भावावश्यकं हि रागस्तमणे प्रत्यंतरे उभयोकालं आवस्सयं करेंति सेत्तं भारतरामायणयोर्वाचनं श्रवणं वा पूर्वाह्ना-परालयोरेव रूढं लोगुत्तरियं भावावस्सयं // विपर्ययेदोषदर्शनात्ततः स्वच्छमनयोर्लोकेऽवश्यकरणीयत्वादा- सेत्तं नो आगमतो भावावस्सयं सेत्तं भावावस्सयं / वश्यकत्वंतवाचकस्य श्रोतृणां च तदर्थोपयोगपरिणामसद्भावात्वा चेत्थं से किं तं लोउत्तरियमित्यादि / अत्र निर्वचनं लोउत्तरियं भावावस्सयं तद्वाचकः श्रोतारश्च पत्रकपरावर्तनहस्तामिनयगात्रसयंमन जण्णमित्यादि। जण्णंतिणमिति वाक्यालंकारे। यदिदं श्रमणादयस्तकाकुड्मलमीलनादि क्रियायुक्ता भवंति क्रिया वा नामत्वेन चित्तादिविशेषणविशिष्टा उभयकालं प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं कुर्वति / प्रागेवोक्ताकिरियागमो न हो इति वचनात् / ततश्चक्रियालक्षणे तल्लोकोत्तरिकं भावावश्यक-मिति / संटेकस्तत्र श्राम्यतीति श्रमणः देशे आगमस्याऽभावात् आगमत्वमपि भावनीयं नो शब्दस्यात्र साधुः। श्रमणी साध्वीश्टणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां समाचारीमिति देशनिषेधवचनत्वाद्देशे त्वागमोऽस्तिलौकिकाभिप्रायेण भारतादेरागम श्रावकः श्रमणोपासकः। श्रमणोपासकः। श्राविका श्रमणोपासिका। त्वात्तथा निर्दिष्टसमये लौकिकास्तदुपयुक्ता यदवश्यं भारतादि वाचयंति वाशब्दाः समुच्चयार्थाः। तस्मिन्नेवावश्यके चित्त सामा-न्योपयोगरूपं शृण्वंति वा तल्लौकिकं भावावश्यक मितिभावमाश्रित्यावश्यक यस्येति तचित्तः। तस्मिन्नेव मनो विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः भावश्चासावावश्यकं चेति वा भावावश्यकमित्यलं विस्तरेण सेत्तमित्यादि तत्रैव लेश्या शुभपरिणामरूपा यस्येति सतल्लेश्यस्तथा तदध्यव गमनम् / उक्तो नो आगमतो भावावश्यकप्रथमभेदोऽयं / / तद् सितः इहाऽध्य-वसायोऽध्यवसितं ततश्च तचित्तादिभावयुक्तस्य द्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह / / सतस्त-स्मिन्नेवावश्य-केऽध्यवसितं क्रियासम्पादनेनं विषयस्येति सेकिंतं कुप्पावणि भावावस्सयं भावावस्सयं जे इमे तदध्यवसितः / तथा / तत्तीव्राध्यवसायस्तस्मिन्नेवावावश्यके तीव्र चरगचीरिगजावपासंडथायं 2 इज्जांजलिहोमजप मन्दरुकन- प्रारंभकालादारभ्य प्रतिक्षणं प्रकर्षयायिप्रयत्नविशेषल Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 481 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय क्षणमध्यवसानं यस्य स तथा। तदर्थोऽपयुक्तस्तस्यावश्य-कस्यार्थस्तदछस्तस्मिन्नुपयुक्तस्तदर्योपयुक्तः / प्रशस्ततरसंवेगविशुध्यमानस्तस्मिन्नेव प्रतिसूत्रं प्रतिक्रियं चार्थोपयुक्त इत्यर्थः। तथा तदप्तिकरणः करणानि तत्साधकतमानिदेहरजोहरणमुखवस्त्रिकादीनि तस्मिन्नावश्यके तथोचित व्यापारनियोगेनाऽर्पितानि नियुक्तानि तानि येन स तथा। सम्यग् यथास्थानं न्यस्तोपकरण इत्यर्थः / तथा तद्भावनाभावितः तस्याऽवश्यकस्य भावना अव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य पुनः पुनस्तदनुष्ठानरूपा तया भावितोगाढभावेन परिणतावश्यकानुष्ठानपरिणामस्तद्भावनाभावितः / तदेवंयथोक्तप्रकारेण प्रस्तुतव्यतिरेकतोऽन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन्तुपलक्षणत्वाद्वाचं कायं चान्यत्राकुळन्नेकार्थिकानि वा विशेषणान्येतानि प्रस्तु-तोपयोगप्रकर्षप्रतिपादनपराणि अमूनि चलिंगपरिणामतः अमणी-श्राविकयोरपि योज्यानि / तस्मात्तच्चित्तादिविशेषणविशिष्टाः श्रमणादयः उभयकालमुभयसंध्ययदावश्यक कुर्वति तल्लो-कोत्तरिकं भावमाश्रित्य भावश्चासावावश्यकं चेति वा भावा-वश्यकम् / अत्राप्यवश्यं करणादावश्यकत्वं तदुपयोगपरिणामस्य च सनावात् भावत्वं / मुखवस्त्रिकाप्रत्युप्रेक्षणरजोहरणव्यापारादिक्रियालक्षणदेशस्याऽनागमत्वात् नो आगमत्वं भाव-नीयं / सेत्तमित्यादि। अनु०।। निगमनं तदेवं स्वरूपत उक्त भावावश्यकमनेन चात्राधिकार : एतदेवं संगृह्य गाच्छयोपनिबध्नन् चतुर्विधं निक्षेपमाह। विशे० / / तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वान्नोच्यते / द्रव्याऽवश्यकं तु द्विधा आगमतो नो आगमतश्च / तत्राऽगमतः प्राह / / आगमओदवावास्सय, तमावस्सयं पयं जस्स। अहीणक्खरं अबरकरं अव्वाइद्धाक्खरं अखलिय अमिलियं अविचामेलिय पडिपुन्नं घोसं कठोठ्ठविप्पमुकं गुरुवायणोवगर्य सेणं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअदृणाए धम्मकहाए / वर्तत इत्यध्याहारः॥ नोअणुपेहाए इहापि वर्तत इति शेषः इदं च सूत्रं आगमओदटवावस्सयमित्यादि प्रागुक्तगाथायाः प्रायो व्याख्यातं शिक्षितादिपदानि त्विदाना व्याख्यायंते तत्रशिक्षितमिति कोऽ-र्थःअंतं नीत सर्वमधीमिति स्थितं हृदिव्यवस्थितमप्रच्युतमित्यर्थः / जितं हृतमागच्छतिच्छवर्णादिभिः संख्यातमितं यदुतक्रमेणाऽप्येत्याऽगच्छतितत्सर्वतो जितं स्वकीयेन नाम्नासमनाम समं यथा स्वनाम शिक्षितं तथा तदप्यावश्यकं तथा यथैवस्वनामस्थितादिविशेषण विशिष्टं घटते। स्थितं जितं मितं परिमितमित्यर्थः / एवंतदप्यावश्यकमतः स्वनामसमुचुच्यते / यद्वाचनाचार्याभिहितोदात्ताऽनुदात्तस्वरितलक्षणै?षैः सदृशमेव गृहीतं तत् घोषसमं न हीनाक्षरं नाप्यधिकारक्षरं (वोचच्छे) त्यादि यथा प्रात्ताभीस्रिोतरत्रमालाविपर्ययन्यस्तरतनिचया भवत्येवं यद्यत्पासितवर्णविन्यासं विपर्ययोपन्यस्तवर्णसंतानमित्यर्थः। तद्वाक्षरंन तथावा विद्धाक्षरं इदं वर्णमात्रापेक्षं विवक्ष्यतेनतुवा-क्यापक्ष पदवाक्यविपर्ययस्तस्य वक्ष्यमाणमीलितविषयत्वादिति उपलशकलाऽकुलभूतले हलमिव यन्न स्खलति तदस्खलितं / विसदृशानेकधान्यमेलववद्यन्न मिलति तदमिलितं / अथवा विपर्यस्तपदवाक्यग्रंथ मिलितं नैवं यतद मिलितं (अमिलि-यपवक्कविच्छेयंति) अथवेत्यत्रापि तृतीय व्याख्यांतरसूचकः संबध्यते। अमिलितोऽसंसक्तः.पदवाक्य विच्छेदो यत्र-तद्वाऽमिलितमुच्यते / अव्यत्यामेडितं व्याख्यातुमाह / नयविविहेत्यादि विविधानि नानाप्रकाराण्यनेकानि शास्त्राणि तेषांपदवाक्यावयवरूपा बहवाः पल्लवास्तैर्विमिश्रव्यत्यानेडितं अथवा स्थानच्छिन्नग्रथितं व्यत्यामेडितं यथा / प्राप्तराज्यस्य रामस्य राक्षसा निधनं गताः / कोलिकपायसव रीकंथावद्वा यथोक्तरूपं यन्न भवति तद्व्यत्यानेडितं / परिपूर्ण द्विधा / सूत्रतोऽर्थतश्च / तत्र छंदसा छंदः समाश्रित्य मात्रादिनियतमानसूत्रतःपरिपूर्णं / यत्वनाकांक्षादिदोषस्तदर्यतोऽपरिपूर्ण यत्क्रियाऽध्याहारं नाऽपे-क्षते। अध्यापकश्व तंत्रं च भवति तदर्थतः परिपूर्णमिति भावः। परिपूर्णघोषमिति व्याख्यातुमाह (पुन्न-) मित्यादि। उदात्तादिघोषैः परावर्तनादिकाले उचारयति। तत्परिपूर्णघोष / इहच शिक्षाकालेऽध्यापकनिगदितोदात्तादिघोषैः समं शिक्षमाणस्य घोषसमं। शेषकाले तुपरावर्तेनादि कुर्वन्यदुदात्तादिघोषैः परिपूर्णमुच्चा-रयति तत्परिपूर्ण घोषमित्यनयो विशेषः / कं ठोष्ठविप्रमुक्तं न तु बालमूकभाषितवदव्यक्तं गुरोः सकाशाद्वाचनया उपयातमायातं न पुनः पुस्तकादेव चोरितः स्वतत्रेणैवाऽधीतं वाशब्दात्कर्णोद्धाटकेन वा गृहीतमिति / अत्र प्रेरकः प्राह। आगमओऽणुवउत्तो, वत्ता दवंति सिद्धमावासं। किंसिरिकयाइ सुयगुण, विसेसणो फलमिहत्तहियं / नन्वागमतो ऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यावश्यकमित्येतावतैव सिद्ध-मागतो द्रव्यावश्यकं किं शिक्षितं स्थितं जितमित्याद्या वश्यकश्रुतगुणविशेषणैरिहा ऽभ्यधिक फलमिति // अत्रोत्तरमाह॥ आगमतो द्रव्यावश्यकं भवति क इत्याह || तदावश्यक निगदत्यवदन्नध्येता कथंभूतस्तस्मिन्नावश्यकेऽनुपयुक्तस्त-दनुपयुक्तः यस्याऽन्येतुः / किमित्याह / यस्य तदावश्यकपदं प्रथमं शिक्षितं जितमित्यादि विशेषणविशिष्टं भवति / अथ तान्ये -वाऽनुयोगद्वा रादिसूत्रोक्तानि शिक्षितादिविशेषणानि व्या-क्यानयन्नाह // सिक्खिय मंतं नीयं हिययं मिठियं जियं स्यं / एइस क्खियवण्णाइमियं परिजियमेरुक्कमेणंमि / जहसिक्खिओयं समानांमतहतंपि तहाठियाइ नामसमं गुरुभणियं घोससरिसं संगहियमुहत्तातओतेय नविहीणक्खमहियक्खरं च वोचच्छरयणमालटववाइठ करकरमेयं वचा सियव नासं न खलियमुवलहणं पिव अमिलियमसरूवधनमे लोव्ववोशत्तगब्वहवा अमिलियपयवक्कविच्छेयं / नय विविहसत्च्छपल्लवविमिस्समठाण विश्नमहियं वा निव्वा मेलियकोलिययायसमिव से रिकथं वा मन्नाइनियमाणं पडिपुग्नं च्छेदसाहवत्थेणं नाकंखायसवोसुं पुणमुदताइंघोसेहिं / / कंठोठविप्पमुक्कं नाठत्तं बालसुयभणियं वा गुरुवायणो वयातं न चोरियं पुच्छयाउ वा / / इहानुयोगद्वारेऽप्युक्तं // सेकिंतं आगमओ दवावस्सयं जस्सणं आवस्स यत्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियपरिजियं नामसमं घोस समं Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 482 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय जह सव्वदोसरहियं पि, निगदओसुतमणुवउत्तस्स।। दवस्सुयं दवावासयं,च तह स वदकिरिया उवओशा उवउत्तस्स य खलियाइ, यं पिसुद्धस्स भाव ओसुत्तं / / साहइ तहकिरियाओ, सव्वाओ निजरफलाओ।।शा इहाशिक्षितादिविशेषणकलापं कुर्वन्नाचार्य इति साधयतेततः कथयतीति द्वितीयगाथायां क्रि या किंसाधयतीत्याह यथा शिक्षितादिगुणेपेतत्वात्सर्वदोषरहितं सूत्रमनुपयुक्तस्य निगदतो द्रव्यश्रुतं वक्षमाणद्रव्यावश्यकं चोक्तस्वरूपं भवति।तथा प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनेत्यादि क्रियाऽपि सर्वा अनुपयुक्तस्य कुर्वतों ऽतः प्रणिधानशून्यत्वादृव्यक्रिया स्तत्फलविकला भवंति। तथा यथैव सामर्थ्यादिदं लभ्यते / उपयुक्तस्य त्वंतः प्रणिधानयुक्तस्य कारणवैकल्पादिकारणात्कय मपि स्स्वलितादिदोषदुष्टमपि सूत्रं निगदतो भावतः शुद्धस्य तस्य भावसूत्रमेव भवति / तथा सर्वाऽपि प्रत्पुपेक्ष आदिक्रिया उपयुक्तस्य कुर्वतः कमनिर्जराफला एव भवं त्यतः सर्वेष्वपि भगवदुक्ताऽनुष्टानेप्वतःप्रणिधानेऽतिशयः प्रयत्नः कार्य इति // विशे० // अथ नो आगमतोऽभिधित्सुराह॥ नो आगमओजाणय, भध्वसरीरइरित्तमावासं। लोइयलोउत्तरियं, कुप्पावयणं ज हा सुत्ते / / नो आगमतो द्रव्यावश्यकं त्रिविधं ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं भव्य शरीरद्रव्यावश्यका / तदुभयद्रव्यावश्यकव्यतिरिक्तं च तत्र सम्यक् पूर्वाऽधीताऽवश्यकं सिद्धशिलातलगतं जीवविप्रमुक्तं मुनिशरीरमनुभूतभावत्वात् ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं / यत्पुनरावश्यकार्थ ज्ञास्यति / न पुनरिदानीं जानाति तत्सचेतन देव दत्तादिशरीरं योग्यत्वाच्यशरीरद्रव्यावश्यक / एतदुभयव्य तिरिक्तं तु नो आगमतो द्रव्यावश्यकं त्रिविधम्। लौकिकं लोकोत्तरं कुप्रावचनिकंचा तत्र लौकिकं राजादीनां मुखप्रक्षालनाद्यावश्यक लोकोत्तरंतु येश्मे श्रमणगुणविप्रमुक्ता लिंगमात्र-धारिणः साध्वाभासाः प्रतिपदमनेकान्यसंयमस्थानान्यासव्योभयकालं प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं कुर्वंति तद्विज्ञेयं / कुप्रावचनिकंतु यत्पाखंडिनश्चामुंडायतनोपलेपनाद्यावश्यक कुवति तद्बोद्धव्यं नोशब्दश्चेह सर्वत्रागमे सर्वनिषधे द्रष्टव्यः / एतच्च सर्वमपि नो आगमतो द्रव्यावश्यकंसप्रभेद यथा सूत्र।अनुयोगद्वाराख्ये प्रोक्तंतथा विज्ञेयमिति। इह लोकोत्तरं यन्नो आगमतो द्रव्यावश्यकमुक्तं तत्रोदाहरणमाह। लोउत्तरे अभिकखण, मासेवाजोयओ उदाहरणं। सरयणदाहगवाणिय, नाण जइ उवालद्धे / / लोकोत्तरं नो आगमतो द्रव्यावश्यकेऽभीक्ष्णमासेवकालोचक : साध्वाभास उदाहरणं / आसेवकश्चासावालोचकश्चेति समासः / आसेवकालोचकस्य च योऽगीतार्थोगुरुः स रवलु रत्नदाह-कवणिग् ज्ञानेन गीतार्थयतिभिरुपालब्धः इत्यक्षरार्थो भावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच कथ्यते। वसतपुरं नामनगरंतत्रचाऽगीतार्थः संविग्नाभास एकोगच्छः सूरिसहितो विचरति / तन्मध्ये चैकः साध्वाभासस्तिष्ठति / स च प्रतिदिनमुदकाऽर्द्रहस्तादिदोषदुष्टान्यनेषणी यभक्तपा नकादीनि गृहीत्वावश्यककाले महांतं संवेगमिवोद्वहन सर्व गुर्वति केऽन्वहमालोचयति गुरुरपितच्छैव प्रायश्चित्ते प्रयच्छति / तत्र प्रच्छऋगीतार्थत्वेन नित्यमेव वक्यहोधर्मश्रद्धालुस्यं महाभागः सुखे-नासेव्यते दुष्करं च यदित्थमालोच्यते / अतोऽशठत्वादेव शुद्धो-ऽयमेतच दृष्ट्वान्यमुग्धसाधवश्चितंयत्यहो आलोचयितव्यमवेत साध्य। तचेतक्रियते तय कृयाऽसेवनेऽपि न कश्चिद्दोषइत्येवं सर्वस्मिन् गच्छे प्रायः प्रवृत्तमसमंजस इति। इत्थंचव्रजतिकाले अन्यदागीतार्थः साधुः कश्चित्तत्र गच्छे प्राधूर्णकः समायातस्तेन चासौविधिःसर्वोऽपि दृष्टस्तश्चिंतितमहोऽनेनागीताथगुरुणा सर्बोप्ययं नाशितो गच्छ स्ततस्तेन भणितो गुरुराह। त्वममुं नित्यमकृत्यासेवकं साधुमित्थ प्रशंसन् भवसिनगरनृपतेस्तन्नगरवासिलोकस्य च सदृशः कथमित्यत्रोच्यते। गिरिनगरं नाम नगरं तत्र चैकोवणिक कोटीश्वरो निवसति / स च वैश्वानरभक्तवात्प्रतिवर्ष रत्नानामपवरकं भृत्वा वन्हिना प्रदीपयति। तं च तथा कुर्वतं राजा नगरलोकश्च सर्वदा प्रशंसति। यच्छा अहो वैश्वानरे भक्तिरस्य यदमुं भगवंतं प्रतिवर्षमित्थं रवैस्तर्पयत्यसौ। एवं च प्रशस्यमानोऽय मादृततरः प्रतिसंवत्सरं तथाऽनुतिष्ठति / ततोऽन्य दा प्रचण्डपवनोद्धृतस्तेन प्रदीपितो वन्हिः सराजगृह समस्तमपि नगरं भस्मसात्करोतिस्म। ततः सनगरेण राज्ञा किमस्माभिरित्थं कुर्वन्नासौ पूर्वनिषिद्धः किंवा प्रशंसित इत्यादि बह पश्चात्ताप कृत्वा दंडितो निर्वासितश्च नगरादसौ वणिगिति / एवमाचार्य ! त्वमपि अविधिप्रवृत्तस्याऽस्यसाधोर्नित्यमित्थंप्रशंसां कुर्वन्नमुमात्मानं गच्छं च नाशयसि / तस्मान्मपुरापुरीनरपते स्तन्निवासिलोकस्य च सदृशोभव यतोऽनर्थभाग्न भवसि / कथमित्यत्राऽभिधीयते / / मथुरानगर्यामपि वैश्वानरभक्तेन केनापीश्वरवणिजा इत्थमेव रत्नभृतं गृहं प्रदीपयितुमारब्धम् ततः स नगरलोकेन राज्ञादंडितः तिरस्कृतश्वासोवणिगटव्यां गृहं कृत्वा किमित्थन प्रदीपयसीति निष्कसिता नगरादिति त्वमपीत्थंकुवन्नमुमात्मान गच्छ चानर्थेभ्यो रक्षसि तदित्थं युक्तिभिः शिक्ष्यमाणोऽप्य सो गुरुरगीतार्थत्वेन साग्रहतया निर्धर्मतया च स्वप्रवृत्ते निवर्तते। ततस्तन प्राघूर्णकसाधुना गच्छसाधवोऽभिहिताः। अलमेवं भूतस्य गुरोर्वशवर्तित्वेन परिहियतामयमन्यथा सर्वेषामनाय संपत्स्यत / ततस्तवैवाऽनुष्ठितं तैरिति / तदेवं भूतस्य गच्छस्य सत्क नोआगमतो लोकोत्तरं द्रव्यावश्यकम भिधीयत इति तदेव सोदाहरणुक्तं द्रव्यावश्यकं // अधुना भावावश्यकमभिधीयते। तच द्विधा आगमतो नो आगमतश्च / तदेतदुभयमप्याह।। आगमओभावावस्सयं, तदत्थोवओगपरिणामो। नो आगमओभावे, परिणामो नाणकिरियासु।। आगमतो भावावश्यकमावश्यकार्थोपयोगपरिणामः नो आगम-तस्तु ज्ञानक्रियोभयपरिणामो मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्येति। इदं च त्रिविधमपि दर्शयन्नाह॥ लोइयलोउत्तरियं, कुप्पावयणं च तं समासेणं। लोउत्तरं पसच्छं सत्थे तेणाहिगारोयं / / तन्नो आगमतो भावावश्यकं त्रिविधं लौकिक लोकोत्तरं कुप्रावधनिक / एवं चोपन्यासः पूर्व यतिरिक्तद्रव्यावश्यके ऽत्र च भावावश्यके वंधानुलोभ्यादिना केनापि हेतुना कृतो यावताऽनुयोगद्वारसूत्रेण इत्थमुक्त! लौकिकंकुप्रावचनिकलोकोत्तरंचेति।तत्रलौकिकंनो आगमतोभावावश्यकं / पूर्वाह्न भारतं अपराह्ने रामायणं वाचनीयमित्यादि कुप्रावचनिकं। मंत्रादि Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 483 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय पाठपूर्वकमिज्यांजलिहोमादि लोकोत्तरं पुनरुपयुक्तस्य श्रमणा देर्मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणावर्त्तादि क्रियामिश्रमुभयकालमावश्यकसूत्रोचारणं एवंसर्वत्र ज्ञानक्रियामिश्रता भावनीया। इह च त्रिविधेऽपि नो आगमतो भावावश्यके पारमार्थिकाऽनुपमाऽप-वर्गसुखप्राप्तिहेतुत्वाल्लोकोत्तरमेव प्रशस्तं। तदेव चेह शास्त्रेऽधिक्रियत इति। विशे आ. म. प्र०१ अ आ चू०१ / आवश्यकं च गुरुसाक्षिकमेव कर्त्तव्यम्। तथा च विशेषावश्यके // आवस्सयंमि निश्चं, गुरूपादमूलंमि देसियं सव्वं होइ। वीसंपि हुसंवसओ, कारणओ जंदभिसेज्जाए। अनेन गुमिंत्रणवचनेन आवश्यकं प्रतिक्रमणं गुरुपादमूल एव नित्यं कर्तव्यं इति दर्शितं भवति / यद्यद्यस्मादभिशव्यायां द्वितीयवसतावित्यछः / कारणतः कारणवशाद्विष्वगपि संवसतःसाधोः कल्पग्रंथे इयं सामाचारी प्रोक्तोति शेषः का पुनरियं कल्पसमाचारीत्युच्यते। जइ खुटुलगा वसहीतो, अन्नगंतूणा कपयया साहूणो। वसंति तत्राचार्यसमीपे (पडिक्कमिउं पाउसिय) कालग्रहणोत्तरं कालं सूत्रार्थपौरुषीं कृत्वा अन्यस्यां गच्छंतो अथांतराश्वापदादिभयं ततोऽर्थपौरुषां हापयंति तथा सूत्र-पौरुषांमपि कालमपि तथा चरम कायोत्सर्ग द्वितीयमाद्यं यावत्तिष्ठत्यपि सहस्ररश्मौ तत्र यांतीति न केवलं प्रतिक्रमणं कित्वेवमेव शेषाण्यपि सर्वाणि साधुभिरवश्यं कर्तृत्वान्यावश्यकानि / गुरुनापृच्छ्य कर्तव्यानीत्येतद्द्वापितमामंत्रणवचनाद्येन सर्वेषामप्यावश्यकानां सामायिकमेवादी मतं भदंतशब्दश्च यस्मात्तदादौ निर्दिष्टस्तेनानुवर्ततो तत्कोऽसो सर्वेष्वप्यावश्यकेषु कथमित्याह / / इदमिद च करोमि भदंता ! इति। एतदेवाह॥ एवं चिय सटवावस्सयाइ आपुच्छिउण कजाई जाणा वियमामंतणवयणा / जेण सटवेसिं सामाइयमाइयं ओ यं भदंत ! सद्दोयजंतदुदाइ एतेणाण्णुवत्तइ तओकरेमि ! भंते ति सव्वेसु॥ गतार्थे / किमिति गुरूनापृछ्यैव सर्वावश्यकानि कर्तव्यानीत्याह। किचाकिच्चं गुरुवो, विदंति विणयपडिवतिहेऊंच। उस्सासाइए मोत्तु, तदण्णपुछाएपडिसिद्ध॥श पाठसिद्धा। यत्र तर्हि गुरुर्न भवति तत्र किं विधेयमित्याह॥ गुरुविरहम्मिय ठवणा, गुरूवसेवोवर्दसणत्थं च / जिणविरहम्मि वि जिण, बिंबसेवणमंतणं सफलं? रनोवपरोक्खस्स वि, जह सेवामंतदेवया एव। तह य परोक्खस्स वि, गुरुणो सेवा विणयहेऊ२ अहवा गुरुगुणनाणो, चउगउभाव गुरुसमा एसो। इह विणयमूल धम्मो, वएसणत्थं चउभियं विणयसासाणमूलं। विणीऊसंजाऊ भवो, विणयाविप्पमूकस्स क उधम्मो 3 क उतवो विणउवयारं, माणस्स भंजणापूयणा गुरुजणस्स / तित्थयराणय आणा, सुयधम्माराहणा किरिया। पाठसिद्धा एवेति॥ आवश्यकाकरणेऽसमाचारी दोषः॥ न करेंती आवस्सं, हिणाहियनिविद्ध पाउयनिविना। दंडगहणादिविणयं, राइणियादीणा न करेंति॥ आवश्यकं मूलत एव न कुर्वति। यदिवा हीनं अधिकं वा कायोत्सर्गाणां हीनकरणतोऽधिकं वाऽनुप्रेक्षायं कायोत्सर्गाणामेव चिरकालकरणतः कुर्वति / यदि वा निषण्णा उपविष्टाः प्रावृत्ताः शीताः शीतादिभयतः कल्पादिप्राचरणप्रावृत्ता निषण्णास्त्वग्वर्त-नेन निपतिताः प्रकुर्वति। व्य,१० आवश्यकाकरणे प्रायश्चितम् / महा०७ अ०॥ से भय के वइयाई पायच्छित्तस्स णं पयाई खाइयाई गोपायत्थिस्स पयाइं संखाइयाइं से भयवं तेसिणं संखा इयणं पायच्छित्त पयाणं किंतं पढमं पायच्छित्तस्स णं गोयमा ! पइदिणकिरियं सेभयवं किंति पइदेणकिरियं गोयमा ! जं मणुं समयाअहन्निसायणोवरमंजावणुट्टेयव्वाणि संखेजाणि आवस्सगाणि / से भयवं केणं अटेणं एवं वुबइ / जहा ण आवस्सगाणि गोयमा ! असेसकसिणट्ठकम्मर खयकारि उत्तमसम्मदंसणं चारित्तं अचंतघोरवीरुग्गकट्ठसुदुकरं तवसाहणट्ठाए परूविजंति / नियमिय विभत्तुदिटुं परिमिएणं कालसमएणं पयं पयेणाहं निसाणुसमयमाजम्मं अवस्समेव तित्थराइसु कीरंति अणुहिज्जयंति उवइसिद्धं ति परुविजंति पन्नविजंति सययं एराणं अटेणं एवं वुश्चइ / गोयमा ! जहा णं आवस्सगाणि तेसिं चणं गोयमा ! जे मिरकू कालाइक्कमेणं वेलाइक्कमेणं समयाइकम्माणं आलसायमाणे अणोवओपमत्ते अविहीए अन्नेसिं व असहूं उप्पायमाणो अन्नयरमावस्सगं पमाइयसं तेणं बलवीरिएणं सातलेहडताए आलंबणं वा किंचिघेत्तूणं विराइयं पउरियाणाणं जहुतयालं समणुहेासेणं गोयमा! महा पायच्छित्ती भवेजा। अकएसु य पुरिमा, संणमायायं सव्वसो चउत्थं तु। पुट्वमपेहियथंडिल, निसिवो सिरिणे दिवासुवणे ||13|| अकृतेषु पुनः कार्योत्सर्गेषु वंदनकेषु च एकादिषु एकद्वित्रिषु पुरिमैकाशनाचामाम्लानि (सव्वसो चउत्थंतु) सर्वस्मिस्तु प्रतिक्रमणे अकृते चतुर्थन्तु। तथा पुर्व सन्ध्यायामप्रेक्षितस्थण्डिले निशि संज्ञोत्सर्गे कृते चतुर्थं। तथा दिवसे निद्राकृते चतुर्थ / / 13 / / जीत, टी० // निव्वीतियपुरिमद्धोअंबिलखपणा य आवासे। आवासे आवश्यके एकादिकायोत्सर्गाऽकरणे सर्वावश्यकाकरणे यथासंख्यं निर्विकृतिपूर्वार्धाचाम्लक्षपणानि। इयमत्र भावना। आवश्यके यद्ये कं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायश्चित्तं / निर्विकृतिकं कायोत्सर्गद्वयाकरणे पूर्वार्द्ध त्रयाणा मपि कायो-त्सर्गकरणानामकरणे आचाम्लं सर्वस्याऽपि चावश्याकस्याकरणे अभक्तार्था इति। व्य०१ऊ / / देशतः सर्वतो वाऽऽवश्यकाकरणकारणान्यभिशय्यागमनवेलामधिकृत्य व्यवहारकल्पे।। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 484 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय आवस्सयं तु काउं, निवाघाएण होइ गंतव्वं / वायाएण उभयणा, देसं सव्वं अकाउणं / / व्याघातस्य स्तेनादिप्रतिबंधस्याऽभावोनियाघातेन भवति / गंतव्यं वसतिराचार्यः सममावश्यकं कृत्वा व्याघातो न पुनर्हेतु भूतेन भजनाविकल्पेन का भजनेत्यत आह / देशं वा आवश्यक-कृत्वा सर्व वावश्यकमकृत्वा संप्रति यैःकारणैः प्रतिबन्ध-स्तान्युपदर्शयति / तेणासावयवाला, गुम्मिय आरक्खिठवणपडीणीए। इत्थिनपुंसगसंसत्त, वासचिरकल्लकंटे य / / स्तेनाश्चौरास्ते संध्यासमयेऽधकारकलुषिते संचरंति / श्वापदानि चादुष्टानि भूयांसि तदा उदृतानि हिडते व्याला वा भुजंगमादयो वातादिपानाय भूयांसः संचरंति तच्छा गुल्मेन स समुदायेन संचरतीति गौल्मिका आरक्षिकाणामप्युपरिस्थायिनो हिंडिकाः पुररक्षकास्ते अकाले हिंडमानान् गृह्णति तथा ठवणत्ति। क्वचिद्देशे एवं रूपा स्थापना क्रियते / तथा अस्तमिते सूर्ये रथ्यादिषु सर्वथा न संचरणीयमिति प्रत्यनीको वा कोऽप्यंतराविघातकरणार्थं तिष्ठन् वर्तते स्त्रियो नपुंसका वा कामबहुलास्तदा उपसर्गययुः / संसक्तो वा प्राणजातिनिरयांतराले मार्गः / ततोऽधकारेणेर्यापथिकी न शुद्धयति / वर्ष वा यत्तत् संभाव्यते (वासचिरुवल्लोत्ति) कर्दमो वा पथि भूयानस्ति / ततो रात्रौ पादलग्नः कर्दमः कथं क्रियते (कंटत्ति) कंटका वा मार्गेऽतिबहवस्ते रात्रौ परिहर्तु न शक्यते / एतैर्व्याघातकारणैः समुपस्थितैः देशतः सर्वतो वा वश्यकमकृत्वा गच्छति तत्र देशतः कथमकृत्वेत्यत आह / / युतिमंगलकितिकम्मे, उस्सग्गो य तिविहकियकम्मे / तत्तो य पडिक्कमणे, आलोयणायाए किति कम्मो // स्तुतिमंगलमकृत्वा स्तुतिमंगलाकरणे चायं विधिः आवश्यके समाप्ते द्वे स्तुतीउचार्य तृतीयांस्तु तिमकृत्वा अभिशय्यां गच्छति तत्र च ग त्वाचेर्यापथिकिं प्रतिक्रम्य तृतीयां स्तुतिं ददति अथ वा आवश्यके समाप्ते एकांस्तुति कृत्वा द्वेस्तुती अभिशय्यां गत्वा पूर्वविधिनोधारयति / अथ वा समाप्ते आवश्यके अभिशय्यां गत्वा तत्र तिस्रः स्तुतीर्ददति / अथवा स्तुतिभ्यो यदवक्तितत्कृतिकर्म तस्मिन्नकृतेऽभिशय्यां गत्वा तर्यापथिकींप्रतिक्रम्य मुखवस्त्रिकां च प्रत्युपेक्ष्य कृतिकर्मकृत्वास्तुतीर्ददति (काउस्सगो य तिविहत्ति) त्रिविधे कार्योत्सर्गे क्रमेण कृते तद्यथा चरमकार्योत्सर्गमकृत्वा अभिशय्यांगत्वा तत्र चरमकायोत्सर्गादिकं कुर्वति / अच्छवा द्वौकार्योत्सर्गो चरमावकृत्वा यदि वा त्रीनपि कार्यासंगान् अकृत्या अथ वा कार्योत्सर्गेभ्योऽक्तिनं यत् कृतिकर्म तस्मिन्नकृते उपलक्षणमेतत् / ततो अक्तिने क्षामणेयदि वा ततोऽप्यक्तिने कृतिकर्मणि अकृते अथवा ततोऽप्यक्तिने प्रतिक्रमणे अकृते यदि वा ततोऽप्यक्तिने आलोचने अकृते अथवा ततोऽप्यक्तिने कृतिकर्माणि अकृते अभिशय्यांमुपगम्य तत्र तदाद्यावश्यकं कर्तव्यमिति / एवमावश्यकस्य देशतोऽकरणमुक्तमिदानीं सर्वस्याकरणमाह / काउस्सग्गमकाऊं, कितिकम्मालोयणं जहण्णेणं / गमणम्मी एसविही, आगमणम्मीविहीं वोत्थं / / यो देवसिकातिचारानुप्रेक्षार्थं प्रथमः कार्योत्सर्गस्तमप्यकृत्वा किमुक्तं भवति। सर्वमावश्यकमकृत्वाऽभिशय्यां गच्छति। किमेवमेव गच्छन्ति। उतास्ति कश्चन विधिरुच्यते / अस्तीति ब्रूमः / तथा चाह / कितिकम्मालोयणं जहण्णेणंति। जघन्येन जघन्यपदे सर्वमावश्यकम.. कृत्वा सर्वे गुरुभ्योवंदनं कृत्वा यश्च सर्वोत्तमोज्येष्ठः स आलोच्य तदनंतरमभिशय्यांगत्वा सर्वमावश्यकमहीनं कुर्वति। एषोऽभिसय्यायां गमनेऽभिसंज्जातः प्रत्यागमने पुनर्योविधिस्तमिदानी वक्ष्ये / / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति। आवस्सगं अकाशं, निव्वाधाएण होइ आगमणं ! आघायम्मि उ भयणा, देशं सव्वं च काउणं / / यदि कश्चनापि व्याघातो न भवति ततोनियाघातेन व्याघाताभावेनावश्यकमकृत्वाऽभिशय्यातो वसतावागमनं भवति / आगत्य च गुरुभिः सहावश्यकं कुर्वति व्याघाते भजना कापुनर्भजनेत्यत आह / देशमावश्यकस्य कृत्वा सर्व वाऽऽवश्यकं कृत्वा तत्र देशत आवश्यकस्य करणमाह / / काउस्सग्गं काऊं, कितिकम्मालोयणं पडिक्कमणं / किइकम्मं तिविहं वा, काउस्सग्गं परिण्णाय // कार्योत्सर्गमाद्यं कृत्वा वसतावागत्य शेष गुरुभिः सह कुर्वति / अथ वा द्वौ कार्योत्सर्गो कृत्वा यदिवा त्रीनकार्योत्सर्गान् कृत्वा अथ वा कार्योत्सर्गत्रयानंतरं यत् कृतिकर्म तत्कृत्वा अथवा तदनंतरमालोचनमपि कृत्वा यदि वा तत्परं यत्प्रतिक्रमणं तदपि कृत्वा अथवा तदनन्तरं यत्कृतिकर्मा द्विभेदं क्षामणादक्तिनं परश्चेत्यर्थः / / तदपि कृत्वा पाठांतरं तिविहं ते विमूलकृतिकर्मापेक्षया त्रिविधं वा कृतिकर्म कृत्वा अथवा कायोत्सर्ग चरम पाण्मासिकं कृत्वा परिज्ञाप्रत्याख्यानं तामपि वा कृत्वा / अत्रायं विधिः / सर्वे साधवश्वरमकार्योत्सर्गक्सतावागत्य गुरुसमीपे वंदनकं कृत्वा सर्वोत्तमश्च ज्येष्ठः आलोच्य सर्वे प्रत्याख्यानं गृहति / अथवा सर्वमावश्यकं कृत्वा एकांस्तुतिं दत्वा शेषे द्वे स्तुती कृत्वा शेषं गुरुसकाशे कुर्वति॥ तदेवमुक्तं देशतः आवश्यकस्य करणमधुना सर्वतः कारणमाह / / थुति मंगलं च काऊं, आगमणं होति अभिनिसिज्जातो। वितियपदे भयणाऊ, गिलाणमादी उ कायव्वा / / अथवा प्रत्याख्यानं तदनंतरं स्तुतिमंगलं च स्तुतित्रया कर्षणरूपं तत्र कृत्वा अभिशय्यात आगमनं भवति / तत्रेयं समाचारी गुरुसमीपे ज्येष्ठ एक आलोचयति आलोच्य प्रत्याख्यानं गृह्णातीति शेषः ज्येष्ठस्य पुरत आलोचना प्रत्याख्यानं च कृतं वंदनकं च सर्वे ददति क्षामणं च / द्वितीयपदे अपवादपदे ग्लानादिषु प्रयोजनेषु भजना कर्तव्या। किमुक्तं भवतिग्लानादिकं प्रयोजनमुद्दिश्य वसतौ नागच्छेयुरपीतिग्लाना दीन्येव प्रयोजनान्याह // गेलण्णवासमहिता, पदुट्ठ अंते उरे निवेअगणी // अहिगरणहत्थि संभम ण, गेलण्णनिवेयणा नवरि // ग्लानत्वमेकस्य बहूनां साधूनां तत्राऽभवत् तत्ः सर्वेऽपि साधवस्तत्र व्याप्तीभूता इति न वसतावागमनं अथवा वर्ष पतितुमारब्धं मिहिका वा पतितुं लग्ना यद्वा (पउत्ति) प्रविष्टाः कोऽप्यंतराविरूपकरणाय तिष्ठति / अंतः पुरं वा तदानीं निर्गतुमारब्धं / तत्र च राज्ञा उद्घोषितं यथा पुरुषेण न केनापि रथ्यासु संचरितव्यं / राजा वा तदा निर्गच्छति। तत्र हयगजपुरुषादीनां संमर्दः अनिकायोबांतराले महान् उत्थि तोऽधिकरणं वा गृहस्थेन समं कथमपि जात वृहद्वृषभा स्तदुपशमयितुं लग्ना हस्तिसभ्रमो वा जातः / किमुक्तं भवति / Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 485 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सय हस्ती कथमप्याडलानस्तंभं भक्त्वा शून्यासनःस्वेच्छया तदा परिभ्रमति / एतेषु कारणेषु नागच्छेयुरपि वसतिं नवरमेतेषु कारणेषु मध्ये ग्लानत्वे विशेषः यदि ग्लानत्वमागाढमुपजातमे कस्यबहूनां वा तदा गुरूणां निवेदना कर्त्तव्या ।।व्य. 1 उ.।।। कालाद्यतिक्रमेणाऽवश्यके प्रायश्चित्तम्। तथा च महानिशीथे अ० एवं जेणं भिक्खू सुताइक्कमेणं कालाइकमेणं आवस्सगं कु व्वीया / तस्स णं कारणिगस्स मिछु काडं गोयमा ! पायछि उ वइसेज्जा जइणं आकरिणिगतेसिं तुणं जहाजो गं चउत्थाई॥ आवश्यके च प्रमादो न कार्यः / पं. भा० / माकुणहप्पमायं, आवस्सएहि संजमतवोतहाणेहिं। णिस्सारं माणुस्सं, दुल्लभलाभं वियाणेत्ता // (माकुण हप्पमायं) असानोनाः प्रतिषेधे माकुरुत कषाययोगा-दिभिः प्रमादं आवश्यकरणीयमावस्यकं। किंचित् तदाबश्यकं संयमतपोध्यानादिभिः / एष आवश्यकः तपएव उपधानंतपोपधानं किमर्था यस्मान्निः सारं मानुष्यं जलबुद् बुदसमानं कुशाग्रजलबिंदुसन्निभं चेत्यादि ततश्चैवं गुणं जातीयं दुर्लभं दुःप्रा-प्यमित्यर्थः / विविधमनेकप्रकारं वा ज्ञात्वा दिलुतो॥ पं. चू॥ आवश्यकप्रमादे प्रायश्चित्तम् / / से भयवं जेणं गणी किं चि आवस्सगं पमाएजा गोयमा ! जेणंगणा अकाराणिगे किंची खणमेगमवि पमाएसेणं अवदंउवइसेजाजओणं तुम महाकारणिगे वि संते गणी खणमेगमविणकिंचि णियमावस्सगं पमाए सेणं वंदे पूए दहव्वे जावणं सिद्धे बुद्धे पारगए खीणट्टकम्ममले नीरए उवइसेना सेसं तु महयाए बंधेणं सत्थाणे चेव भाणिहिह एवं पच्छित्ते विहि सोउणाणुढ़ती अदीणमणो जं जइय जहा थामंजे से आराहगे भणिए। महा०७ अ॥ सम्प्रति श्रावकस्य बव्हारंभरतस्याऽप्यावश्यके न दुःखांतो भवतीति . दर्शयितुमाह। आवस्सएण एएण, सावओ जइवि वहुरओ होइ। दुक्खाणमंतकिरियं, काही अचिरेण कालेणं // आवश्यकेनतेनेति षड्विधभावावश्यकरूपेण नतु दंत-धावनादिना द्रव्यावश्यकेण श्रावको यद्यपि बहुरजा बहु-बद्धयमानका बहुरतो वा विविधसावद्यारंभासक्तो भवति तथापीत्यध्याहाराद् दुःखानां शरीरमानसानां (अंतकिरियं) अंतक्रियां विनाशं करिष्यत्यचिरेण स्तोकेनैव कालेन-अत्र चांतक्रियायां अनंतरहेतुर्यथाख्यातचारित्रं तथापि परंपराहेतुरिदमपिजायते सुदर्शनादेरिवेति। ध०२ अधिः / / श्रावकस्याऽवश्यकम्॥ अविरुद्धो ववहारो, काले तह भोयणं च संवरणं। चे इहरागमसवणं, सक्कारो वंदणाईय|पंचा. 11 नत्वावश्यककरणमित्यसंगतं श्रावकं प्रति व्रतादिवत्तस्याऽगमने विधेयतया उपदिष्टत्वात्तथा ह्यसौ उपासक दशादी मूलागमेनोपदेशोज्ञापकं चोपलभ्यते तदुद्वाररूपे श्रावकप्रज्ञप्त्यादौ चतथेहैवच श्रावकप्रतिदिनक्रियां प्रतिपादयताऽचार्येण चिइवंदणमो इत्येतावदेवोक्तमय ब्रूषे। समणेण सावएणय, अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा।। अंतो अहो निसिस्सय, तम्हा आवस्सयं नाम॥ इत्यस्यामनुयोगद्वारगाथायां श्रावकस्य तदुपदिष्टमिष्टसिद्धौ हेतुः नैवं तत्र चैत्यवदनादिनैवावश्यकस्य गतार्थत्वाद्यतोयदवावश्यं कर्त्तव्यं तदेवावश्यकमवश्यकर्त्तव्यं च चैत्यपूजावंदनादिश्रावकस्य यदि पुनरिदं षविधावश्यकमवश्यकर्त्तव्यतया श्रावक-स्योपदिष्टम भविष्यत्तदा य एवषविधावश्यककारी सएव श्रावकोभविष्यन्नचैवमविरतानामपि सामायिककारिणां श्रावकत्वाभ्युपगमादिति / अत्रोच्यते / यदुक्तमुपासकदशादावमुक्तत्वात् श्रावकाणामावश्यकमयुक्तमिति / तदयुक्तमनुपदिष्टत्वस्या-सिद्धत्वात्तथाहि / यद्यप्युपासकदशादौ नोपदष्टिं तत्तेषां तथाप्यनुयोगद्वारेषु तदुपष्टिं तथाहि॥ जं इमंसमणे समणीवा सावए वा साविया वा तचित्ते तम्मणे ज़ाव उभओकालं छविहं आवस्सयं करेंति सेत्तं लोउत्तरिय भावावस्सयंति।। यचोक्तं / चैत्यवन्दनादि श्रावकस्याऽवश्यकमिति तदप्यसंगतं (मज्झयणछक्कवग्गो) इत्यादि तदेकार्थिकपदोपन्यासेन तस्य षड्विधत्वेन निश्चितत्वादुमास्वातिवाचके नाऽप्यस्थ समर्थितत्वात्तयाहि तेनोक्तं / सम्यग्दर्शनसंपन्नः षड्विधावश्य कनिरतश्च श्रावको भवतीति गम्यते। तथा अशठसमाचरित त्वादिजीत-लक्षणानामिहोपपद्यमानत्वेन जीताभिधानपंचमव्यवहारसम-र्थितत्यात्तथा / यदुक्तं (समणेण सावएण य) इत्यत्र गाथायां यदि षड्विधावश्यक विवक्षितमभविष्यत्तदा तत्कारिण एव श्रावका अभविष्यन्नान्ये इति / तदप्यसंगतं / श्रमणपक्षेऽप्यस्य दूषणस्य समानत्वात्तयाहि / य एव षड्विधमावश्यकं कुर्वन्ति स एव श्रमणाः स्युस्ततश्च कारणजाते प्रतिक्रमणकारिणां मध्यमतीर्थसाधू-नामश्रमणता स्यान्न चैवमय चरमतीर्थसाधूनाश्रित्येयं गाथोक्ता / सत्यं / केवलं यदि श्रावकाणां षड्विधाऽवश्यकप्रज्ञापनार्थापि स्यात्तदा किं दूषणमिति / अथ ब्रूषे षड्विधावश्यकमति-चारशुद्धिरूपं वर्तते।नच श्रावकाणामालोचनादि दश-प्रकारशुद्धेमध्यादेकापि प्रकल्पादिग्रंथेषूपलभ्यते / न च तेषामतिचारा घटते। संज्वलनोदय एव तेषामुक्तत्वादित्यत्रोच्यते / यद्यपि श्रावकाणां प्रकल्पा दिग्रंथेषु शुद्धिर्न दृश्यते / तथाऽप्यसौ श्रावकजीतकल्पादेः सका शादवश्याभ्युपगंतव्या / अन्यथोपासकदशासु यदुक्तं किल भगवान् गौतममुनिरानन्दश्रावकंप्रत्यवादीत्॥ तु मण्णं आणं दाएयस्स अट्ठस्स आलोयाहि पडिकमाहि निंदाहिगरिहाहि अहारिहंतवोकम्मंपायाच्छित्तं पडिवजाहीति / / तत्कथं घटेताऽतएव ज्ञापकादतिचारा अपि तेषां भवंतीति सिद्धं यच्छाचारा असंज्वलनोदयेऽपि भवन्ति / तथा प्रागुक्तं किंच यदीदं चैत्यवंदनादिकमावश्यकं स्यात्तदाऽतो अहोनिसिस्सय इति मुनि-वचनेन सन्ध्याद्वय एव श्रावकस्य तद्विधेयं स्यात् श्रूयते।पुनरेवं॥ दसणसुद्धिनिमित्तं, तिचालं देववंदणाइयंति अतः सन्ध्याद्वयकरणनियमः षड् विधावश्यकस्यैवोपपद्यते साधूनामिवेति किंच॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय 486 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सयटीगा सव्वंति भाणिऊणं, विरई खलु जस्सव्विया नित्थ। मनैष्ठिकत्वादिति। एवं प्रत्याख्यानकमपि नतु परिष्ठापनिकादय आकारः सोसव्वविरइवाइ,चकाइदेसंच सव्वं च / / साधूनामेव घटते / ततो गृहिणामयुक्तमेतन्नैवं यतो यथा गुर्वादयः इत्यनया गाथया सामयिकसूत्र सर्वशब्दवर्ज श्रावकस्योक्तं / परिष्ठापनिकस्याऽनधिकारिणोऽपि यथा वा भगवती-योगवाहिनो गृहस्थं चतुर्विशतिस्तवस्तु सम्मग्दर्शनशुद्धिनिमित्तत्वात् सम्यग्दर्शन-स्य च संसृष्टाद्यनधिकारिणोऽपि परिष्ठापनिकाद्या-कारोचारणेन प्रत्याख्याति श्रावकस्याऽपि शोधनीयत्वात्कर्तृविशेषस्य चानभिहित अखंडं सूत्रमुच्चारणीयमिति न्यायादेव गृहस्था अपीति न त्वादाचरितत्वाचोपपन्न एवास्येति / किंचेर्यापथिका प्रति-क्रमण स्य दोषस्तस्मात्पइविधमप्यावश्यकं श्रावकस्या-स्तीतिप्रतिपत्तव्यमित्यलं गमनागमनमात्रेण शब्देन भगवत्यां शंखोपाख्यानकेषु पुष्कलिश्रावक प्रसंगेन विस्तरेणेतिगाथार्थः ||4|| कृतत्वेन दशिंतत्वाद्गमनागमनशब्दस्य चेर्यापथिकापायतया पंचा 1 वृ०॥ ज्ञाता.१ अध०२ अधि॥ भगवत्यामेव तेषुतेष्वाख्यानके षु ओघनियुक्तिचूया च आवस्सय-न. (आवश्यक) समग्रस्याऽपिगुणग्रामस्याऽवासप्रसिद्धत्वादीपिथिकाकायोत्सर्ग च चतुर्विंशति-स्तवस्य | कमित्यावश्यकम् / अनु० / सामायिकादिके, स्था०२ ठा० / / प्रायश्चिन्तनीयत्वाचाऽसौ सिद्ध इति वन्दन कमपि गुणवत् *आवासक-न. गुणशून्यमात्मान मासमंत्ताद्वासयति गुणैरित्याप्रतिपत्तिरूपत्वात् गुणवत् प्रतिपत्तेश्च श्रावकस्याऽप्यविरुद्धत्वात् वासकम्सामायिकादिके, || ग.२ अधि, अथवा आऽऽवस्स-यंति कृष्णादिभिश्च तस्य प्रवर्तितत्वात्संगतमेवास्य नतु॥ प्राकृतशैल्याऽऽवासकम्।। गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयतीत्यावासकम्। पंचमहय्वयजुत्तो, अनलसमानपरिवजियमतीय। गुणसान्निद्यमात्मनः करोतीति।। आ. म. प्र.१ अ / अनु० / / संविग्गनिजरठी, किई कम्मकरो, हवइ साहुत्ति।। सन्निज्झमावत्थापण्णेहिं वावसयं गुणओ।। अनया नियुक्तिगाथया साधुग्रहणेन श्रावकस्य व्यवच्छेदान्न सान्निध्यभावस्थापनैर्वा आवसकं गुणत इत्यावासकमुच्यते। इदमुक्तं संगत। तस्य वन्दनकं नैवंततः साधुग्रहणंतत्र तदन्यवन्दन-कोपलक्षणार्थ भवति / वस निवास इति गुणशून्यमात्मानं गुणैरासमन्ताद्वासयति नतु श्रावकव्यवच्छेदार्थं। यदितुव्यवच्छेदार्यमनविष्यत्तदासाध्व्या अपि गुणसान्निध्यमात्मनः करोतीत्यावासकम् / अथ वा यच्छा वस्त्रं व्यवच्छेदो भविष्यन्न चासौ संगतो मातुर्विशेषणं वन्दनकनिषेधाधदाह। वासधूपादिभिस्तथा गुणैरासमन्तादात्मानं वासयति भावयति मायरं पियरं वा वि, जेट्टगं वा वि भायरं। रंजयत्यावासकम् / यदि वा वस आच्छादने गुणैरासमन्तादात्मनां किइकम्मं न कारेजा, सव्वेराई णिए तदा // छदयति छद संवरणे दोषेभ्यः संवृणोत्यावासकमिति विशे० // तथा (पंचमहव्वयजुत्तो) अनेन यथा महाव्रतग्रहणादणुव्रत-युक्तस्य आवस्सयकरण-न (आवश्यककरण) केवलिसमुद्घातात्पूर्वं केवलिना व्यवच्छेदस्तथा पंचग्रहणाचतुर्महाव्रतयुक्तस्य मध्य-तीर्थसाधोरपि क्रियमाणे व्यापारभेदे, शब्दा ते स्वोपात्तमनुप्यायुषोतः व्यवच्छेदः स्थान्नचैतदिष्टमित्यतो निर्विशेष वन्दनकमपीति प्रतिक्रमणं प्रक्षयवशाभुक्तस्याऽन्तर्मुहूर्ते शेषे सिध्यत्पर्यायाभि मुखा तु सामान्यत ईपिथप्रतिक्रमण भणनेनैव सिद्धमथ विचित्राभिग्रहवतां अवश्यकरणमिति प्रश्ने प्रदर्श्यते / अन्वर्थत्वादवश्यकारणसंज्ञायाः श्रावकाणां कथमे के न प्रतिक्रमणसूत्रेण तदुपपद्यते / यतो भास्करवत् अवश्यकरणीयत्वादवश्यकरणं कुर्वतीति / प्रतिपन्नान्यतरव्रतस्य तदति चारासंभवस्तदसंभवे च त दुधारणम- कथमिदमावश्यकरणमिति कथमिदमत्वर्थेति दर्शाते। अर्थम-नुगताया संगतमेवान्यथा महाव्रतातिचाराणामप्युचारणप्रसंग इति / संज्ञा सान्वर्था / अर्थमंगीकृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः / कथमिह यथा नैवमप्रतिपन्ना-न्यतरव्रतस्यापितदतिचारोचारतो श्रद्धाननिदविषयस्य भास्करसंज्ञा अन्वर्था / कथमन्वर्थाभासं करोतीति भास्कर इति यो प्रतिक्रमण स्यानुमतत्वाद्यत उक्तं / / भासनार्थमंगीकृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः / तथावश्यककरणमिति इयं संज्ञा पडिसिद्धाणं करणे, किचाणं अकरणे पडिकमणं। अन्वर्था कच्छमिति चेत् ब्रमहे। अवश्यकं क्रियत इत्यावश्यकरणं इति। असद्दहणेय तहा, विवरीयपरूवणाए य॥ योऽवश्यकरणा-र्थोऽवश्यकर्त्तव्यतार्थमंगीकृत्य प्रवर्तते यस्मात्तस्माअत एव साधुरप्रतिपन्नास्वप्युपासकभिक्षुप्रतिमासु (एगारस सर्वकेवलिभिः सिद्धयद्भिरवश्यं क्रियमाणत्वादवश्यकरण मित्यर्थ एहिं उवासगपडिमाहिं बारसेहिं भिक्खुपडिमाही) त्येवं प्रतिक्रामति / संज्ञासिद्धिरथवावश्यं भाव आवश्यक द्वंद्व मनोज्ञादिभ्यश्चेति नतु यद्येवं तदा साधुप्रतिक्रमणसूत्रेणैव ते प्रतिक्रामंतु को वा किमाह मनोज्ञादिरधिकृतत्वात् बुद्धिसत्यावश्यक सिद्धिः / आवश्यकं करणं आवश्यककरणं। कुतः लोके दृष्टत्वाद् मल्लस्य कक्षाबंधकरणवत्तथा केवलं श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रमणुव्रतादिविषयस्य प्रतिसिद्धाचरणस्य प्रपंचाभिधाथकत्वात् सोपयोगतरमिति तेन ते प्रतिक्रामति नतु मल्लोयुयुत्सुनाबध्वाशाटकं युध्यते। स हि प्रथममेव शाटकेन कक्ष बध्वा अतः परं कृतावश्यकं कक्षाबंधकरणं योद्धमारभेत्। तथांतरर्मुहूर्तायः साधुप्रतिक्रमणाद्भिन्न श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रम-युक्तं / नियुक्तिभाष्य शेषेण केवलिभावसिद्धता प्रथममेवेदं करणं अवश्यं कर्तव्यमित्याचूादिभिरतंत्रितत्वेनार्षत्वान्नैवमावस्यका-दिदशशास्त्रीव्यतिरेकेण वश्यककरणमिति आ. चू. 2 अ / नियुक्तीनामभावेनौपपातिकाधुपांगानां च चूर्ण्यभावेनानार्षत्वप्रसंगात्ततः प्रतिक्रमणमप्यस्ति / तेषां कायोत्सर्गस्तु ईर्यापथप्रतिक्रमणात् आवस्सयकिइ-स्त्री. (आवश्यककृत्ति) प्रतिक्रणणकरणे ध०३ अधिः / पंचमप्रतिमाकरणात् सुभद्राश्राविकादिनिदर्शनतश्च श्रावकस्य विधेयतया आवस्सयटीगा-स्त्री. (आवश्यकटीका) हरिभद्रस्वामिविरचितायामाप्रतिपदत्तव्यो यदि हि साधवोऽपि भंगभयात्साकारं कायोत्सर्ग प्रतिपद्यत वश्यकवृत्तौ, आव०६ अ॥ तदा गृहिभिः सुतरामसौ तथा प्रतिपत्तव्या साध्वपक्षया तेषा- यदर्जितं विरचयता सुबोधां पुण्यं मयाऽवश्यक Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सयणिज्जुत्ति 487 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सयसुयक्खंध शास्त्रटीकां / भवे भवे तेन ममैवमेव, भूयाजिनोक्तेऽनुमतेः प्रयासः ||2|| इयच द्वाविंशतिसहस्रात्मिका "द्वाविंशतिसहस्राणि, ग्रन्थाग्रन्थनिसंख्या। अनुष्टुप्छंदसां मान, मस्या उद्देशतः कृतम्" आव०॥ आवस्सयणिजृत्ति-स्त्री. (आवश्यकनियुक्ति) भद्रबाहुस्वामिविरचितेआवश्यक व्याख्याने, / तथाचाऽवश्यकनियुक्तिं वि-वृण्वन् मलयगिरिराह। आम०प्र०१ अ। नत्वा गुरुपदकमलं, प्रभावतस्तस्य मन्दशक्तिरपि॥ आवश्यकनियुक्ति, विवृणोमि यथागमं स्पष्टम् // 3 / / यद्यपि च विवृतयोऽस्या, स्सन्ति विचित्रास्तथापि विषमास्ताः / संप्रतिचजनोजडधी, भूयानिति विवृत्तिसंरम्भः ||4|| तत्र प्रेक्षावताम्प्रवृत्त्यर्थमादौ प्रयोजनादिकमुपन्यसनीयम न्यथा न युक्तोऽयमावश्यक प्रारम्भप्रयासो निष्प्रयोजनत्वात्कण्टकशाखामर्दनवत् निरभिधेयत्वात्काकदन्तपरीक्षावत् असंबद्धत्वादश दडिमानि षडपूपा इत्यादि वाक्यवत् / स्वेच्छाविरचित शास्त्रबद्धेत्याशङ्कातः प्रेक्षावन्तो व प्रवर्तेरन् / तथा मङ्गलमप्यादौ वक्तव्यमन्यथा। कर्तुः श्रोतृणां चावि नेष्टफलसिद्धियोगात्।। प्रेक्षावतां प्रवृत्यर्थ फलादित्रितयंस्फुटं।। मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥शा आवश्यकनिर्युक्तों काश्चन नियुक्तिगाथा अन्यकतृकाः प्रक्षिप्तास्ताश्च टीकाकृता तत्र व्याख्यानावसो तथा सूचितास्ता -स्वपि काश्चिट्टीकाकारेण नियुक्तिकृत्कृतत्वेन मता अपि अन्य-कर्तृका इति क्षेपकश्रेणि शब्दे / / मलयगिरिवचसा दर्शयिष्यामि करणशब्देऽपि करणशब्दे॥ आवस्सयपरिसुद्धि-स्त्री. (आवश्यकपरिशुद्धि) अवश्यंकरणीययोगनिरतिचारतायाम् // आवश्ययपरिसुद्धीय, हॉति भिक्खुस्स लिंगाई। आवश्यकपरिशुद्धिश्चावश्यंकरणीययोगनिरतिचारता च भवति भिक्षो वसाधोर्लिंगानीति दश. 10 अ / द्वा०२७ द्वा० // आवस्सयवइरित्त-न. (आवश्यकव्यतिरिक्त) अंगबाह्ये श्रुतभेदे,।। तथाचांगबाह्यं श्रुतमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह। सेकिंतं आवसयं 2 च्छव्विहं पण्णत्तं / तंजहा / सामाइयं / चउवीसच्छउवंदणयं 3 पडिक्कमणं 4 काउसग्गो५ पञ्चखाणं 6 / सेत्तआवस्सयं / सेकिंतं आवस्ययवइरितं। आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं / तंजहा। कालियं उक्कालियंच / न० 11 टी० // अथकिं तदंगबाह्यं सूरिराह। अंगबाह्यश्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्त। तद्यथा!आवश्यकं च आवश्यकव्यतिरिक्तं च / तत्रावश्यकर्म आवश्यकं अवश्य-कर्त्तव्यक्रियानुष्ठानमित्यर्थः / अथवा गुणानाममिविधिना वश्य मात्मानं करोतीत्यवश्यकं / अवश्यकर्त्तव्यसामायिकादि क्रियानुष्ठानं तत्प्रतिपादकं श्रुतमपि आवश्यकं / च शब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः / (से किं त) मित्यादि अथकिंतदावश्यकं / सूरिराह॥ आवश्यकं षड्विधं प्रज्ञप्तं / तद्यथा। सामायिकमित्यादि निगद सिद्धं सेत्तमित्यादि तदेतदावश्यक सेकिंतमित्यादि / अच्छ-किंतदावश्यक व्यतिरिक्तं वा आचार्य आहा आवश्यक व्यतिरिक्तं द्विविधं प्रज्ञप्त। तद्यथा। कालिकमुत्कालिकं च / तत्र यदिवसनिशा प्रथमपश्चिम पौरुषीद्वये एव पठ्यते तत्कालिकं / कालेन निर्वृत्त कालिकमिति त्यत्पत्तेः / यत्पुनः कालवेलावर्ज सर्वकालेषु पठ्यते तदुक्तालिकं / आह च चूर्णकृत् तत्थकालियं दिणराइण पढम चरमपोरसी सुपढिाइ / जं पुणकालवेलावजं पढिवजइ तं उकालियंति / तत्राऽल्प वक्तव्यकत्वात् नं टी०।। आवस्सयवइरत्तेत्यादि। यदिह दिवसनिशा प्रथमपश्चिम पौरुषीद्वये एव पठ्यते तत्कालेनिवृतं कालिकमुत्तराध्यय-नादियत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्द्ध कालिकादित्युत्कालिकं दशवैकालिकादीनि। ठा०२ ठा०।। आवस्सयवित्ति-स्त्री. (आवश्यकवृत्ति) आवश्यकविरणे आ. म. प्र. १अका आवस्सयविसुद्धि-स्त्री. (आवश्यकविशुद्धि) आवश्यं करणीय योगनिरतिचारतायाम् // आवश्यक विशुद्धिश्चभिक्षोलिंगान्यकीर्तयन् / आवश्यकविशुद्विश्वावश्यंकरणीययोगानिरतिचारता / एतानि भिक्षोलिंगान्यकीर्तयन् गौतमादयो महर्षयः। द्वा० 27 द्वा० // आवस्सयसुयक्खंघ-पुं० (आवश्यकश्रुतस्कंध) षण्णां श्रुतविशेषाणांस्कंधः श्रुतस्कंधः / आवश्यकं च तत् श्रुतस्कंधश्चावश्यक शुतस्कंधः / अच्छवाऽऽवश्यकं च तत् श्रुतंचावश्यक श्रुतं / तस्यषडध्ययनसमुदायात्मक आवश्यक श्रुत स्कंधः / स्वनाम ख्याते श्रुतविशेषे, विशे० / द्वा॥ आवस्सयस्स जइसो, तत्थं गाइण अट्ठपुच्छी ओ। ते होइ सुय क्खंधो, अझुयणा इंच नउ सेसा // यद्यावश्यकस्याऽनुयोगस्तचावश्यकं श्रुतविशेषस्तमु त्रांगादीन्याश्रित्याष्टौ पृच्छाः संभवंति। तद्यथा। आवस्स यन्न किं अंगं, अंग्इसयक्खंधो सुयर-कंधाअझयणं अझयणाई उद्देसो। उद्देसा इति अत्रोत्तरमाह। इह तदा वश्यकंषडऽध्ययन-समुदायलक्षणः श्रुतस्कंधः प्रत्येकमध्ययनानिच षडिति। शेषाः षट्प्रकाराः प्रतिषेद्धव्याः असंभवित्वादिति। अत्रप्रेरकः प्राह। ननु नंदिवरकाणे, भणियमणं गं इहं कओ संका। भण्णइ अक ओ संका, तस्स नियमं वदाए इ। ननुनंद्यध्यने व्याख्यायमाने (इमं पुण वठवणं पडुच, अंगवा-हिरस्स उद्देसोसमुद्दे सो अणुनाणुओगो पव्वत्त) इत्यादिवचनादायश्यकमंगबाह्यत्वादंग न भवतीति भणितमेवेति / कुतोऽत्राशंका येन प्रच्छा क्रियते। अत्र निर्वचनमाह। भण्यतेऽत्रोत्तरं / श्रुतस्कंधादि विषये तावदस्त्येवा शंका / तत्राऽस्यार्थस्याऽनिर्णोतत्वात् अतस्तद्विषयास्तावत्कर्त्तव्या एव पृच्छाः / अंगानंगरूपतायामपि यदा नंद्यध्ययनमश्रुत्वा विनेयः प्रथमत एवेदं शृणोति / तथा अकृते नंदिव्याख्यानेऽस्त्येव च शंका / किमावश्यकमगं तबाह्यं वेति / आह / ननु नद्य Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सयसुयखंध 488 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आवस्सयसुयखंध ध्ययनं श्रुत्वा तत् आवश्यकं श्रोतव्यमितीत्थंक्रमोऽतः कथं नंद्यध्ययनस्य प्रथमव्याख्यानाकरणं येन प्रस्तुत-शंका स्यादित्याशंक्याह। (तस्से) त्यादितस्य प्रथमं नदिव्या-क्यानकरणस्याऽत एवांगाऽनगप्रश्ननिर्णयवचनादाचार्योऽनियमं दर्शयति / पुरुषाद्यपेक्षयाऽन्यथापि नंधादिव्याख्यानकरणादिति / आह / ननुमंगलार्थ सर्वेषामपि शास्त्राणामादौ गंदिव्याख्यानम् कर्त्तव्यमेवेति कथं तदनियम इत्याह / नाणाभिहाणमित्तं, मंगल मिटुं नती एवरकाणं। इह सवत्थाणे जुञ्जइ, जं सावीसुं सुयक्खंधो॥ ज्ञानपंवकाभिधानमात्रमेव शास्त्रादौ मंगलमिष्टं नतु तस्या नंद्याः सर्वस्या अपि शास्त्ररूपाया इहास्थाने व्याख्यानं युज्यते तथाहि पथि प्रस्थितैर्मंगलभूतं दधिदूर्वाक्षतादिवस्तूनामभिधान-दर्शनादीन्येव मंगलतया गृह्यते नतु तद्भक्षणतद्गुणवर्णा दीन्यपि क्रियते / तथेहापि ज्ञानोत्कीर्तनमात्रमेव मंगलं युज्यते नतु नंदिव्याख्यानमिह तस्य स्थानत्वान्नह्यावश्यकशास्त्रारंभेशास्त्रांतरभूताया नंद्या व्याख्यानं युज्यते अतिप्रसंगान च वक्तव्यं सर्वशास्त्रांतरभूतैव नंदी यद्यत्स्मात्साविष्वक्पृथगेव श्रुतस्कंधतया सिद्धांते प्रसिद्धा श्रुतस्कंधत्वं चास्याः पदवाक्य समूहात्मकत्वेनैव द्रष्टव्यं नत्वध्ययनकलापात्मकं परिभाषितमेकाध्ययनरूपत्वेन रूढत्वादिति / ननु यदि नंदिव्याख्यानस्य स्थानमिदं तर्हि-किमितीत्थमादावेवं भवद्भिर्ज्ञानपंचकं विस्तरेण व्याख्यातमिति पौर्वापर्येण स्ववचननिरोध इत्यशंक्याह। इहसाणुग्गहमुइयं न उ नियमोयमहवा पवादोयं / दाइज्जइ कहणा, एकयाइ पुरिसादवि क्खाथ। इहावश्यकारंभे यद्विस्तरेण ज्ञानपचंकऽस्यादौ व्याख्यातं तत्सानुग्रह शिष्याऽनुग्रहमास्थायोदितमस्माभिर्नपुनरयं नियम एव ज्ञानोत्कीर्तनमात्रस्यैव नियमेन मंगलतयात्राऽभीष्टत्वादथवा कथनया कथनविधेरपवादोऽयं दृश्यते यथेह पुरुषाद्यऽपेक्षया कदा क्रमेणापि शास्त्राणि व्याख्यान्ते अन्यारंभेअथान्यद्वा व्याख्यायत इति तस्मादावश्यकश्रुतस्कंधस्याऽनुयोग इति स्थिते किमिदानी कर्तव्यमित्याह। आवस्सयसुयक्खंधो, नामं सत्थस्स तस्स जेभेया। ताइं अज्झयणाई,नासो आवस्सयाइणं ||1|| कप्पोपिहविहाणं,जहत्थ मजहत्थछउसूण्णत्ति। नामे चेव परिछाग,त्तं जइ होहि इ जहछं ||2|| इह प्रस्तुतशास्त्रस्यावश्यकश्रुतस्कंध इति नाम तस्यचावश्य कस्य ये सामायिकादयाषढ़ेदाः स्तान्यऽध्ययनान्यऽभिधीयते तत आवश्यकादिपदानामावश्यकं श्रुतस्कंधोऽध्ययनमित्येषां पदानां न्यासो निक्षेपः पृथक्कार्यःकुतइत्यस्मद्धेतोर्यतकिंचिन्नाम तावद्यथार्थ भवति यथा दीपो दहन इत्यादि / किंचित् त्वयथार्थं भवति यथापलाशो मंडप इत्यादि अपरं त्वर्थशून्यभवति यथा डित्यकपित्थइत्यादि यथार्थ च शास्त्राभिधानमिप्यते तत्रैव समुदायाविगतेरतो नाम्न्येव परीक्षाविचारणाक्रियते ततो-ग्राह्यमिदं यदि यथार्थ स्यादिति। विशे० // अथ सामायिकाद्यध्ययनानामर्थाधिकारर्दशनार्थं प्रस्ताव नामाह। किंपुण छक्कझयणं, जेणछलत्था हिगाराविणिउत्तं / सामाइयाइयाणां, ते य इमे तज्जहासंखं / आह किं पुनरिह कारणं येन षडध्ययनमिदमावश्यकं षडध्य यनानि तत्र तेभ्यः षडध्ययनमिति समासः अत्रोच्यते। येन षड्भिरर्थाऽधिकारैविनिर्युक्तं नियुक्तं। निबद्धं ते च षडाऽधिकाराःसामायिकादीनां षण्णामध्ययनानां यथासंख्यमेव द्रष्टव्या इति। विशे०॥ नन्वावश्यके किमिति बडध्ययनान्यत्रोच्यते षडाधिकारयोगात् के पुनस्ते इत्याशक्य तदुपदर्शनार्थमाह। आवास्सगस्स णं इमे अत्थाहिगारा भवंति / तंजहा / सावजजोगविरइ, उक्कित्ततणगुणवउयपडिवत्ती खलि अस्सय निंदण्णा, वणतिगिद्धं गुणधारणं चेव।। आवश्यकषडध्ययनस्य वक्ष्यमाणा अर्थाधिकारा भवंति / तद्यथा / सावजजोगगाहा व्याख्या। प्रथमेसामायिकलक्षणे अध्ययने प्राणातिपातादिसर्वसावधयोगविरतिराधिकारः (उकितणत्ति) द्वितीये चतुर्विशतिस्तवाध्ययने प्रधानकर्मकारणत्वाल्लब्धबोधिविशुद्धिहेतुत्वात्पुनर्बोधिलाभफलत्वात्सावद्ययोगविरत्युपदेशकत्वेनोपकारित्वाश्च तीर्थकारणं गुणोत्कीर्तनार्थाधिकार // (गुणओयपडिवत्ति) गुणा मूलो-त्तरगुणरूपा त्रतपिंण्डविशुद्धयादयो विद्यते यस्य स गुणचांस्तस्य प्रतिपत्तिवंदनादिकं कर्तव्येति तृतीये वंदनाध्ययनेऽर्थधिकारश्वशब्दात्पुष्टालम्बने गुणवतोऽपि प्रतिपत्तिकर्तव्यति द्रष्टव्यं / उक्तं च। परियायपरिसपुरिसं,खेत्तं कालंच आगमंनाउं। कारणाजाए ताए, जाहारिहं जस्स संजोगं / / (खलियस्स य निंदणत्ते) स्खलितस्य मूलोत्तरगुणेषुप्रमादाचीर्णस्य प्रत्यागमसंवेगस्य जंतोर्विशुद्ध्यमानाध्यव-सायस्या कार्यमिदमिति भावयतो निंदाप्रतिक्रमणे अधि -कारः / व्रणति गच्छतीतिव्रणः / व्रणचिकित्सा कायोत्सर्गा-ध्ययनेऽर्थाधिकारः / इदमकुं भवति / चारित्रपुरुषस्ययोऽतिचा-रूपोभावव्रणस्तस्यदशविधप्रायश्चित्तं भेषजेन कार्योत्सर्गाध्ययने चिकित्सा प्रतिपाद्यते (गुणधारणा चेवत्ति) गुणधारणा प्रत्या-ख्यानाध्ययने अर्थाधिकारः / अयमत्र भावार्थः / मूलगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिस्तस्याश्च निरतिचारं संधारणं यथा भवति तथा प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपणां करिष्यते च शद्वादन्येाधिकारा विज्ञेयाः / एवकारोऽवधारण इति गाथार्थः / तदेवं यदादौ प्रतिज्ञातमावश्यकं निक्षेपस्यामीति इत्यादि / तत्रावश्यक श्रुतस्कंधलक्षणानि त्रीणि पदानिनिक्षिप्तानि / सांप्रतं त्वद्ययनपदमवसरायात मपि निक्षेपूस्यते वक्ष्यमणिनिक्षेपानुयोगद्वार-ओघनिष्पन्ननिक्षेपे तस्य निक्षेप्यमानत्वादत्रापि भणने च ग्रंथगौरवापत्तेरिति।। इदानीमावश्यकस्य यद्व्याख्यानं यच्च व्याख्येयं तदुपदर्शय-नाह। आवस्सयस्स एसो, पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं। एत्तो एकेक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ||1|| तं जहा। समाइयं 1 चउवीसत्थओ२ वंदणय 3 पडिक्कमणं काउसग्गो 5 पञ्चक्खाणं। ट्या. आवश्यक स्यावश्यक पदाभिधये स्य शास्त्रस्य एष पूर्वोक्तप्रकार-पिण्डादिसमुदायार्थो वर्णितः कथितः। समासेन संक्षेपेण / इदमत्र हृदयं 1 आवश्यक श्रुतस्कंध इति शास्त्र नाम पूर्व व्याख्यातं / तच्च सामर्थ्य ततश्च यथा सात्वर्यादा Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सयाणुओग 489 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सयाणुओग चारादीनामत एव तद्वाच्यशास्त्रस्य चारित्राद्याचारोऽत्राभि धास्थते इत्यादिलक्षणः समुदायार्थः प्रतिपादितो भवत्येवमत्राप्यावश्यकश्रुतस्कंध इति सान्वर्थनामकथनादेवावश्यं करणीयं सावद्ययोगविरत्यादिकं वस्त्वत्राभिधास्यत इति समुददायार्थः प्रतिपादितो भवति अत ऊर्द्ध पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः / तत्कीर्तनार्थमेवाह तद्यथा सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो वंदनं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गप्रत्याख्यानं विशे० / आ. म. प्र.१ अ० // आवस्सयाणुओग-पुं. (आवश्यकानुयोग) आवश्यकव्याख्याने, अनु०॥ आ. चू०१ अ विशे कयपवयणप्पणामो, वोच्छं चरणगुणसंगहं सयलं। आवस्सयाणुओगं गुरुवएसाणुसारेणं / / व्याख्या / वोच्छमिति क्रिया वक्ष्येऽभिधास्येत्यर्थः / किमि-त्याह (आवस्सयाणुओगति) अवश्यं कर्तव्यमावश्यक सामायिकादिरूपं / क्वचिदावासयाणुयोगमितिपाठस्तत्राप्यासमंतात्ज्ञानादिगुणैः शून्यंजीवं वासयति तैर्युक्तं करोतीत्या-वासकं सामायिकादिरूपमेव तस्य वक्ष्यमाणशब्दार्थोऽनुयोगो व्याख्यानं विधिप्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणमित्यर्थः किंविशिष्टः सन्नित्याह (कयपवयणप्पणामोत्ति) प्रोच्यते ऽने नास्मादस्मिन्वा जीवादयः पदार्था इति प्रवचनं / अथ वा प्रशब्दस्याव्य-यत्वेनाऽनेकार्थद्योतकत्वात्प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं प्रशस्त मादौ वा वचनं द्वादशांगं गणिपिटकं आदित्वं चास्य विवक्षिततीर्थकरापक्षया द्रष्ट व्यं / नमस्तीर्थायेति वचनात्तीर्थकरेणापि तन्नमस्करणादिति / अथवा जीवादितत्वं प्रवक्तीति प्रवचनमिति व्युत्पत्तेादशांगंगणिपिटकोपयोगानन्यत्वाद्वाचतुर्विध-श्रीश्रमणसंघोऽपि प्रवचनमुच्यते / कृतो विहितो यथोक्तप्रवचन-स्य प्रणामो नमस्कारो येन मया सोऽहं कृतप्रवचनप्रणामःकिं-स्वरूपमावश्यकानुयोगमित्याह (चरणगुणसंगहति) चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यते इति चरण / अथवा चर्यते गम्यते प्राप्यते भवो-दधेः परकूलमनेनेति चरणं / व्रतश्रमणधर्मादयो मूलगुणाः गुण्यंते संख्यायंत इति गुणाः पिंडविशुद्ध्याधुत्तरगुणरूपाः चरणंच गुणाश्च चरणगुणाः अथवा चरणशब्देन सर्वतो देशतश्च चारित्रमिह विवक्षितं। गुणशब्देन तु दर्शनज्ञाने ततश्च चरणं च गुणौच चरणगुणास्तेषां संगृहीतिः संग्रहश्चरणगुणसंग्रहहस्तं स च देशतोऽपि भवतीत्याह। सकलं परिपूर्ण आह / नत्वावश्यकानुयोगस्ता-वदावश्यकव्याख्यानं / चरणगुणसंग्रहस्तु ज्ञानदर्शनचारित्रसंगृहीतिरूपस्ततोऽत्यंतभिन्नाधिकरणत्वात्कथमनयोः सामानाधिकरण्यं सत्यं किंतु (सामाश्यं च तिविहं सम्मत्तसुअं तहाचरित्तं चेत्यादि) वक्ष्यमाणवचनादेकोऽपि सामायिकानुयोगस्तावत्संपूर्ण चरणगुणसंग्राहकः / किं पुनः सकलावश्यकानुयोगस्ततश्च संपूर्णचरणगुणसंग्रहयुक्तत्वादावश्यकानुयोगोऽपि संपूर्णचरणगुण संग्रहत्वेनोक्तो यथा दंडयोगा द्दण्डः पुरुष इत्यदोषः अथ वा चरणगुणानां संग्रहोयत्राऽवश्यकानुयोगोऽसौ चरणगुणसंग्रह इति बहुव्रीहिपक्षे प्रेर्यमेव नास्ति केवलमस्मिन् पक्षे सकलमिति विशेषणमावश्यकानुयोगस्य चरणगुणसंग्रहसंपूर्णत्वापेक्षयैव द्रष्टव्यमित्येतच कष्टगम्यमित्युपेक्षते आह। ननुयदि (सामाइयंचतिविह) मित्यादि वक्ष्यमाणवचनात्सामायिकस्य संपूर्ण-चरणगुणसंग्राहकत्वंतर्हि तदनुयोगस्य तदरूपत्वे किमायातं नैत-देवं सामायिकं हि व्याख्येयं अनुयोगगस्तु व्याख्यानं व्याख्ये-यव्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वा दिहाभेदेन विवक्षित्वाददोषः इत्यलमितिचर्यति अनेन च संपूर्णचरणगुणसंग्रहलक्षणेन स्वरूपविशेषणेनावश्यकानुयोगस्य महार्थतां दर्शयति भाष्यकारः / आह / ननु यदि त्वया आवश्यकानुयोगः स्वमनीषिकया वक्ष्यते तदाऽनादेय एवायं प्रेक्षावतां छद्मस्थत्वे सति स्वतंत्र-तयाभिधीयमानत्वाद्रथ्यापुरुषवाक्यवदिति परवचनमाशंक्यतदुपन्यस्तहेतोरसिद्धतां उपदर्शयन्नाह (गुरुवएसाणु-सारेणंति) गृणंति तत्वमितिगुरवस्तीर्थकरगणधरादय-स्तेषामुपदेशो भणनं तदनुसारेण तत्पारतंत्र्येणावश्यकानुयोगमहं वक्ष्ये नतु स्वमनीषिकया अतः स्वतंत्रयाऽभिधीयमान-त्वादित्यासिद्धो हेतुरिति भावः / यो हि छद्मस्थः सन्परम-गुरुपदशानपेक्षस्वतंत्रमेव वक्ति रथ्यापुरुषस्येव तस्य वचोऽनादेयमिति॥ वयमपि मन्यामहे के वलं तदिह नास्ति परमगुरूपदेशानुसारेणैवावश्यकानुयोगस्य मयाऽभिधीयमानत्वादिति / तदेव कृतप्रवचनप्रणामो गुरुपदेशनिश्रयसकलंचरणगुणसंग्रह-रूपमावश्यकानुयोगमहं वक्ष्ये इति पिंडार्थः / / आह / ननु श्रीमद्भद्रबाहुप्रणीता सामयिकनियुक्ति रिह भाष्ये व्याख्यास्यते। तत्कथमिदमावश्यकानुयोगोऽभिधीयते तदेवमभिप्रायापरिज्ञानात्तथाहि / सामायिकस्य षड्विधावश्य कैकदेशत्वादावश्यकरूपता तावन्न विरुध्यते / तन्नियुक्तिस्त तद्व्याख्यानरूपेव व्याख्यानयोश्चैकाभिप्रायत्वादेककत्वमित्यनं तरमेवोक्तं / तस्मात्सामायिकस्य तन्नियुक्तेश्च सर्वस्यावश्यकत्वात्तस्य चेह व्याख्यायमानत्वादावश्यकानुयोगरूपता भाष्यस्य न विहन्यत इत्यलंविस्तरेण / अस्याश्च गाथायाः प्रथमपादेन विघसंघातार्थं मंगलेहतुत्वादिष्टदेवतानमस्कारः कृतः। शेषपादत्रयेण त्वभिधेयप्रयोजनसंबंधाभिधानमकारितत्रावश्यकानुयोग वक्ष्य इति ब्रुवता आवश्यकानुयोगोऽस्यशास्त्रस्याऽभिधेय इति साक्षादेवोक्तं प्रयोजनसंबंधौ तु सामर्थ्यादुक्ती तथाहि संपूर्णचरणगुणसंग्राहकत्वं दर्शयता ज्ञानदर्शनचारित्राधारताऽस्य शास्त्रस्य दर्शिता भवति / तद्पाणि शास्त्राणि पाठनश्रवणादिभिरनुशील्यमानानि स्वर्गापवर्गप्राप्तिनिबंधनानि भवंतीति प्रतीतमेव / अतः स्वर्गमोक्षफलावाप्तिरस्स शास्त्रस्य प्रयोजनमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति / अभिधेयाऽभिधायकायोश्च वाचकलक्षण: संबंधोऽप्यदिभिहितो भवति / अस्यां च संबंधप्रयोजनाभिधानादिचर्यायां बह्वपि वक्तव्यमस्ति केवलं बहुषुशास्त्रेष्वतिचर्चितत्वेन सुप्रतीतत्वात्तथाविधसाध्यशून्यत्वाच नेहोच्यत। अनेन चाऽभिधेयाभिधानेन शास्त्रस्य श्रवणादौ शिष्य-प्रवृत्तिः साधिता भवति / अन्यथा हि न श्रवणादियोग्यमिदं निरभिधेयत्वात्काकदंतपरीक्षावदित्याशंक्य नेहकश्चित्प्रवर्तते / उक्तंच॥ सीसपवित्तिनिमित्तं, अभिधेयपओ अणाई संबन्धो। ओवत्तयाइं सत्थे, तस्सुन्नत्तं सुणिजिहरा॥ एवं मंगलाद्यभिधाने व्यवस्थापिते कश्चिदाह। नन्वर्हदादयएवेष्टदेवतात्वेन प्रसिद्धास्तत्किमिति तान्विहाय ग्रंथकृता प्रवचनस्य नमस्कारः कृतः / इत्यत्रोच्यते। नमस्तीर्थायति वच-नादर्हदादीनामपिवचनमेव नमस्करणीयं अपरं चाहदादयो-प्यस्मदादिभिः प्रवचनोपदेशेनैव ज्ञायते तीर्थमपि च चिरकालं प्रवचनावष्टंभेनैव प्रवर्तत इत्यादिविवक्षयाऽर्हदादिभ्योपि प्रवचनस्य प्रधानत्वात्ज्ञानादिगुणात्मकत्वाचेष्टदेवतात्वं नविरुद्धयत Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सयाणुओग. 490 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सयाणुओग. प्रवचननमस्कारं च कुर्वद्भिः पूज्यैः सिद्धांततत्वावगमरसाऽनुरंजितहृदयत्वादात्मनःप्रवचनभक्तयतिशयःप्रख्यापितो भवति इत्यलमितिविस्तरेण / मंगलादिविचारविषयह्याक्षेपपरिहारादिकमिहैव ग्रंथकारोऽपि संक्षेपेण वक्ष्यतीति तदेवमियं गाथा सर्वोऽपि चायं ग्रंथो महामतिभिः पूर्वसूरिभि-गंभीरवाक्यप्रबंधैः व्युत्पन्नभणितिप्रकारेण व्याख्यातः तच्च व्याख्यान मित्थं युक्तमपि गौरवत्वं पांडुरोगन्यायेन मतिमांद्यात्सांप्रतकालीनशिष्याणां न तथाविधार्थावगमहेतुतां प्रतिपद्यत इत्याकलय्य मंदमतिनापि मया तेषां मंदतरमतीनां शिष्याणां अर्थावगमनिमित्तममुना ऋजुभणितिप्रकारेणेयं गाथा व्याख्या-ता। सर्वोपिच ग्रंथोऽयमनेनोल्लेखेन व्याख्यास्यत इति प्रति-पत्तव्यं / नच वक्तव्यं येषां महामतिपूर्वपुरुषवचनैरर्थावबोधो न संपद्यते तेषां मंदबुद्धर्भवतो वचनेन कुतोऽयंसंपत्स्यते इति यतो-जायत एव समानशीलवचनैः समानशीलानामर्थप्रतिपत्तिर्यदाह। गामिल्लुयाण गामिल्लु, एहि मिच्छाण हति मिच्छेहि। सम्म पडिवत्ती ओ, अत्थस्स नविबुहमणिएहिं॥ नियमासायेभणंति, समाणसीलंमि अपडिवत्ती। जायइ मंदस्स वि, न उण विविह सक्कयपबंधेहिं / / इत्यलंबहुभाषितेनेति गाथार्थः / आवश्यकानुयोगोऽत्राऽभि धास्यत इत्युक्तं किंपुनरस्य फलादिकं यदवगम्य वयं तच्छ्रवणादौ प्रवर्तामह इति प्रेक्षावच्छिष्यवचनमाशंक्यावश्यकानु योगस्य पलादीन्यभिधित्सुस्तत्संग्रहपरां द्वारगाथामाह॥ तस्सफलजोगमंगल, समुदायत्था तहेवदाराई। तम्भेयनिरुतकम, पञ्चोयणाई चवचाई।। व्याख्या / तस्येत्यावश्यकानुयोगस्य प्रेक्षावतांप्रवृत्तिनिमित्तिं फलं मोक्षप्राप्तिलक्षणं तावदत्रग्रंथेवक्तव्यं ततोऽस्यप्रयोगः शिष्यप्रदाने संबंधोऽवसरः प्रस्तावो वाच्यः / आवश्यकानुयोगे च क्रियमाणे किं मंगलमित्येतदपि निरूपणीयं सामायिकाद्यध्यय नानां (सावज्जजोगविरइ ओ, वित्तणगुणवओ अपडिवत्ती) त्यादि-गाथया समुदायार्थश्च सावद्ययोगविरत्यादिकोऽभिधानीयः / फलं च योगश्च मंगलं च समुदायार्थश्चेति समासः (तेहवदारांइंति) तथा द्वाराणि चोपक्रमनिक्षेपादीनि कथनीयानि तेषांद्वाराणां भेदो-वक्तव्यः। तद्यथा आनुपूर्वी / नामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधि-कारसमवतारभेदादुप्रक्रमः षोढा / ओघनिष्पन्ननामनिष्पन्न-सूत्रालापकनिष्पन्नभेदान्निक्षेपस्त्रिधा। सूत्रनियुक्तिभेदादनुगमो द्विधा / नैगमादिभेदान्नयाः सप्तविधा इत्यादि। उपक्रमणमुपक्रमो निक्षेपणं निक्षेप इत्यादि निरुक्तं च शब्द व्युत्पत्तिरूपं भणनीयं। तथा (कमत्ति) तेषामुपक्रमादिद्वाराणांप्रथममुपक्रम एव ततो यथाक्रमं निक्षेपादय एवेत्येवंरूपो योऽसौ नियतःक्रमः सयुक्तयाभिधानतोनिद्देष्टव्यो युक्तिं चात्रैव वक्ष्यति / तद्यथा नानुपक्रांत निक्षिप्यतेना निक्षिप्तमनुगम्यत् इत्यादि तथोपक्रमादिद्वाराणां एवं प्रयोजनशास्त्रोपकाररूपनगरदृष्टांतेन वाच्यं यथा सप्रकारांमहानगरं किमप्यकृतद्वारं लोकस्य नाश्रयणीयं भवत्येकादि-द्वारोपेतमपि दुखनिर्गमप्रवेशं जायते चतुरोपेतं तु सर्वजना-भिगमनीयं सुखनिर्गमप्रवेशं च संपद्यते। एवं शास्त्रमप्यु-पक्रमादिचतुर्दारयुक्तं सुबोध सुखचिंतनधारणादिसंपन्नं भवतीत्येवमुपक्रमादि द्वाराणां सुखावबोधादिरूपः शास्त्रोपकारः प्रयोजन महवक्ष्यत इति भावः। भेदश्च निरुक्तंच क्रमश्च प्रयोजनं चेति द्वंद्वंकृत्वा पश्चात षामुपक्रमादिद्वाराणां भेद निरुक्त- क्रमप्रयोजनानीत्येवं षष्ठीतत्पुरुषसमासो विधेयः / चः समुच्चये वाच्यानीति यथा योगमर्थतः सर्वत्र योजितमेवेति द्वार-गाथासंक्षेपार्थः // 2 // विस्तरार्थतु भाष्यकार एव दिदर्शयिषुर्यथो-द्देशं निर्देश इति कृत्वा प्रेक्षावतां प्रवृत्यर्थमावश्यकानुयोगफल-प्रतिपादितां तावद्भाथामाह। नाणकिरियाहि मुक्खो, तम्मयमावस्सयं जओतेणं। तव्वक्खाणारंभो, कारणओकज्जासिद्धित्ति॥ व्याख्या / ज्ञानं च सम्यगऽवबोधरूपं क्रियाच तत्पूर्वकसावद्याऽवद्ययोगनिवृत्तिप्रवृतिरूपा ज्ञानक्रिये ताभ्यां तावन्मोक्षोऽशेषकर्ममलकलंकाभावरूपः साध्यत इति सर्वेषामपि शिष्टानां प्रमाणसिद्धमेव दर्शनस्य ज्ञान एवांतर्निहितत्वादिति / यदि नाम ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षस्तावश्यकानुयोगस्य किमायातं येन फलवत्तया प्रेक्षावतां तत्र प्रवृत्तिः स्यादित्याह तन्मयमावश्यकं ताभ्यां क्षानक्रियाभ्यां निर्वृत्तंतन्मयं ज्ञानक्रियास्वरूपमावश्यकं तत्कारणत्वादिति भावः / यथा ह्यायुवृद्धिकारणत्वेनोपचारा-ल्लोके घृतमायुरुच्यते नड्वलोदकं वा पादरोगकारणत्वात्तथैवा भिधीयते एवं प्रस्तुतानुयोग विषयीकृतं सामायिकादिषडध्ययनसूत्रात्मकमावश्यकमपि सम्यग्ज्ञानक्रियाकारणत्वात् स्वरूप मेव तदध्ययनश्रवणचिंतनतदुक्ताचरणप्रवृत्तानामवश्यं सम्य-गज्ञानक्रियाप्राप्तेस्तस्मादुक्तन्यायेन ज्ञानक्रियात्मकं यत् आवश्यकमतस्तस्यावश्यकस्य व्याख्यानं अनुयोगस्तद्व्याख्यानंतस्यारं भप्रेक्षावता क्रियामाणो न विरुध्यते / आवश्यकात्सम्यक् ज्ञानक्रियाप्राप्तिद्वारेण मोक्षलक्षणफलसिद्धेः / नन्वित्थंतह्यावश्यकात्सम्यग्ज्ञानक्रियाप्राप्तिस्ताभ्यां च मोक्षलक्षणफलसिद्धिरित्येवमावश्य कस्यैव पारंपर्येणमोक्षात्मकं फलं स्यात् नपुनस्यदनुयोगस्य फलचिंता त्वस्यैवेह प्रस्तुतेतिचेत्सत्यं कित्वावश्यक व्याख्येयं तद्व्याख्यानं चानुयोगो व्याख्यानेचव्याख्येयगत एव सर्वोऽभिप्रायः प्रकटीक्रियतेऽतोव्याख्येयस्ययत्फलं व्याख्या नस्य तत्सुतरामवसे यं तयोरेकाऽभिप्रायत्वात् तस्मात् मोक्षलक्षणं फलमभिवाञ्छता आवश्यकानुयोगेऽवश्यं प्रवर्तितव्यमेव ततोऽपि ज्ञानक्रियाप्राप्ते स्ताभ्यां च मोक्षफलसिद्धिरिति। यदि नामावश्यकानुयोगतो ज्ञानक्रियावाऽप्तिस्ताभ्यां च मोक्षसिद्धिस्तथापि किमिति तत्र प्रवृर्तितव्यं न पुनर्यत्र कुत्रचित्षष्ठि तंत्रादावित्याह ! कारणात्कार्यसिद्धिर्नाकारणादिति कृत्वा कारणे हि सुविवेचितेप्रवर्त्तमानाः प्रेक्षावंतः समीहितमप्रति हतं कार्य-मासादयंति नाकारणे अन्यथा तृणादपि हिरएयमणिमौक्ति-कावाप्तेः सर्वविश्वमदरिद्र स्यात्कारणं च पारंपर्येणावश्यकानुयोग एव मोक्षस्य न षष्ठि तंत्रादिकं ज्ञानक्रियाजननद्वारेण तस्य मोक्षसंसाधकत्वादितरस्य तु पारंपर्येणापितदसाधकत्वा-दितिगाच्छार्थः। उक्तं फलद्वारमधुना योगद्वारमभिधित्सुराह। भव्वस्स मोक्खमग्गाहि, लासिणो ठि अगुरूवएसस्स। आइए जोगामिणं, वाल गिलाणस्स बाहारं / / व्याख्या।यदादीप्रतिज्ञातंशिष्यप्रदानेऽस्ययोग्योऽवसरोवाच्यइति। तत्राह। समस्तद्वादशांगाऽध्ययनकालस्यादौ प्रथममिदं षड्विधमावश्यक योग्यमुपदिशंति मुनयः शेषसमग्रश्रुत प्रदानकालस्यादौ प्रथममेवावश्यकप्रदानस्थाऽवसरइतिभावः कस्यपुनरिदमावश्यकंयोग्यमादिशंतिमुनयः इत्याह / भव्य स्यमुक्तिामनांग्यस्य जतोः स च कश्चिदूरभव्योऽसंजात. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सिया 491 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवस्सिया मोक्षमार्गाभिलाषोऽपिभवति / तद्व्यवच्छेदार्थमाह / मोक्षमार्गः सम्यक् ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्तमुत्तरोत्तरविशुद्धिरूपम भिलषितुं शीलमस्य स तस्य अयं चैवंविधोऽपरिणतगुरूपदेशोऽपि स्यात्तन्निरासार्थमाह। स्थितः कर्तव्यतया परिणतो गुरूपदेशो यस्यासौ स्थितगुरूपदेशस्तस्य किं यथायोग्यमुपदिशंतीत्याह / बालग्लानयो रिवाहारं यथोपदिशंति भिषजेति गम्यते,। इदमुक्तं भवति। यथा आदौ बालस्य कोमलमधुरादिक ग्लानस्य च पेयमुद्गयूषादिकं तत्कालोचितं उत्तरोत्तरबलपुष्ट्यादिहेतु-माहारयोग्यं भेषजं समुपदिशति तथेहापिभव्यादिविशेषण विशिष्टस्य जंतोरादाविदमेवावश्यकमुत्तरोत्तरगुणवृद्धिहेतुभूत-योग्यमुपदिशंति तीर्थकरगणधरा इति आवश्यकस्य चादौ शिष्यप्रदानाऽवसरे प्रतिपादिते तदनुयोगस्याऽसौ प्रतिपादित एव द्रष्टव्यस्तयोरेकत्वस्यानंतरमेवाख्यातत्वादिति गाथार्थः |4| आह ननु यस्य भव्यादिविशेषणविशिष्टस्यादौ योग्यमि-दमावश्यक तस्मै योग्यमित्येतावन्मात्रमेव ज्ञात्वा तद्ददत्याचार्या आहो स्विदन्योऽपि तत्र कश्चिद्विधिरपेक्षणीय इति शिष्य-वचनमांशक्यास्मिन्नेवानुयोगद्वारे तदानविधानादि किंचिल्लेशतः प्रासंगिकमभिधित्सुराह / कयपंचनमुक्कारस्स, दित्तिसामाइयायं विहिणा। आवस्सयमायरिया, कमेण तो सेसयसुअंपि॥ व्याक्या / भव्यादिविशेषण विशिष्ट स्याऽपि शिष्यस्य कृत पंचनमस्कारस्य चतुर्थ्यर्थे षष्ठी कृतपं चनमस्काराय मंगलार्थमुच्चारितपंचनमस्कृतिमंगलायेत्यर्थः / / सामायिकादिकमावासकं विधिना प्रशस्तद्रव्यक्षेत्रकालभाव रूपेण प्रशस्तदिगभिमुखव्यवस्थापनारूपेण च समयोक्तेन ददत्याचार्या नपुन योग्यमित्येतावन्मात्रकमेव ज्ञात्वेति भावः (तत उर्ध्वमस्मै किन किंचित ददतीत्याह) क्रमेण ततः शेष मप्याचारादिश्रुतं प्रयच्छंति यावत्श्रुतोदधेः पारमिति गाथार्थः। आवश्यकानुयोगप्रदानेऽप्ययमेव विधिरित्यावेदयितुमाह / / तेणेवयाणुओगं, कमेण तेणेव याऽहिगारोयं // जेण विणेयहियत्था, यत्थेरकप्पे कमो एसो ||1|| चकारोऽपि शब्दार्थोभिन्नक्रमश्च। ततस्तेनैव पंचनमस्कार करणादिना क्रमेणानुयोगमपि सूत्रव्याख्यानरूपं ददत्याचार्या इति वर्तते अनयोश्च सूत्रप्रदानक्रमानुयोगप्रदानक्रमयोर्मध्ये तेनैव प्रस्तुतगाच्छाप्रक्रांतेनानुयोगप्रदानक्र मेणायमस्मदभिमतोऽधिकारः अनुयोगस्यैवेह प्रस्तुतत्वादितिभावः / कुतः पुनरिहानु-योगप्रदानक्रमेणैवाऽधिकारः इत्याह / येन कारणेन विनेयहितार्थ शिष्यवर्गस्योत्तरोत्तरगुणप्राप्तिमपेक्षेत्यर्थः / स्थविराणां गच्छवासिनां साधूनां योऽसौ विकल्पः सामाचारविशेषस्त स्यैषोऽनंतरगाथावक्ष्यमाणलक्षणः क्रमः परिपाटीरूपस्तेन कारणेनाऽनुयोगप्रदानक्रमेणैवेहाधिकारोऽयमिति. विशे॥ आवस्सिया-स्त्री. (आवश्यिकी) अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् तत्र भवाऽऽवश्यिकी अनु / अवश्यंकर्तव्योगैर्निष्पन्नाऽऽवश्यकी स्था, ठा० 20 / अवश्यं कर्तव्यैश्चरणकरणयोगैर्निर्वृत्ताऽऽवश्यकी जीत / आव.३ अ / अप्रमत्तत्वेनावश्यकर्त्तव्यव्या पारे भवाऽऽवश्यकी उत्त० 26 अ / आवश्यकेषु अप्रमत्ततयाऽवश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाऽऽवश्यिकी ग. 2 अ सामाचारीभेदे, (पढमा) आवस्सिया नाम) उत्त० 26 अ / प्रथमा सामाचारी आवश्यकी नाम्नी यतः उपाश्रयात् निर्गच्छन् / साधुरावश्यकीति वदति उपाश्रयात् बर्हि निःसरणं चावश्यकी विना न स्यात् तेन आवश्यकीति प्रथमा सामाचारी ज्ञानाद्यालंबनेनोपाश्रयात् बहिरवश्यं गमने समुपस्थितेऽवश्यंकर्तव्यमिदमतोगच्छा-म्यहमित्येवं गुरुं प्रतिनिवेदनाऽऽवश्यकीति हृदयम्। अनु० / वृ.१ ऊ / स्था. प्रक० / (गमणे आवस्सियं कुछा) उत्त, गमने स्वस्थानादन्यत्रगमने अप्रमत्तत्वेन अवश्यकर्त्तव्यव्यापारे भवा आवश्यिकी तां आवश्यिकीं कुर्यात् यतोहि साधोर्गमनंनिष्प्रयोजनं नास्तियदि अवश्यं किंचित्कायं समुत्पन्नं वर्तते तदैव साधुः स्वस्थानादुत्थितोस्ति इति भावः। अथाऽवश्यकीस्वरूपमाह। कजेणं गच्छंतस्स, गुरुणिओएणसुत्तणीइए। आवस्सियत्तिणेया शुद्धा अम्णत्थजोगाओ।। व्याख्या। कार्येण ज्ञानादिप्रयोजनेनानेन निष्कारणगमन-निषेध उक्तो गच्छतो वसतेर्निर्गच्छतः साधोः किंस्वच्छंदेन नेत्याह / गुरुनियोगेन गुर्वनुज्ञया तत्रापि सूत्रनीत्यागमन्यायेन (इयास) मित्यादिलक्षणेन किमित्याह। आवश्यिकी अवश्यंकृत्यनिर्वृत्ता निर्गमक्रियात्सूचिका वाक् इति एवमुक्तन्यायेन ज्ञेयाऽवसे या किंभूतशुद्धाऽनवेद्याकुतइत्याह / अन्वर्थयोगान् अनुगतशब्दार्थसंबधान् अन्वच्छश्चोक्त एव प्रकारांतरेण पुनरशुद्धेति गाथार्थः / / कार्येण गच्छत इत्युक्तं किंपुनस्तदित्याह। कछविण्णाण दंसण, चरित्तजोगाण साहगं जंतु। जइणो सेसमकजं, तत्थ आवस्सियासुद्धा / / 19 / व्याख्या। इहापिशब्दः पुनरर्थः ततश्चावश्यिकी कार्येण-गच्छतोभवति कार्य पुननिदर्शनचारित्रयोगादित्रयतगव्यापाराणां साधकं हेतुभूतं भिक्षाटनादियत् इह तदिति शेषोदृश्-यस्तुशब्दश्चैवकारार्थस्ततश्च तदेव नान्यत् कस्येत्याह / यतेः साधोः शेष ज्ञानादिसाधनान्यदकार्यमप्रयोजनमुमुक्षुत्वात्सा धोरिति किं वातइत्याह नैव तत्र ज्ञानाद्यसाधनप्रयोजनेगच्छत इति गम्यते आवश्यिकी पूर्वोक्तनिर्वचनाशुद्धानिर्दोषान्वर्या भावादिति गाथार्थः। यद्यसौ न शुद्धा तर्हि किंविधा सेत्याह / / वइमेनं णिटिवसयं, दोसायमुसत्तिएव विण्णेयं / कुसलेहिं वयणाओ, वइरेगेणंजओभणियं // 2 / / व्याख्या / वागेव वचनमेव वाङ्मात्रं साविश्यिकीति प्रकृतंवाङ् मात्रमित्यत्रावधारणार्थमात्रशब्दस्य व्यवच्छेद्यं यदाह निर्विषयं निर्गों चरमनर्थकमित्यर्थः किंफलंच तदित्याह दोषाय कमबद्धलक्षणदूषणार्थं कस्मोदवमित्याह मृषेति अनृतमिति कृत्वा प्रतीतं चानृतस्य दोषार्थत्वमिति (एवत्ति) इहानुस्वारस्याऽश्रवणं-छंदोवशात् एवमुक्तस्वरूप विज्ञेयं ज्ञातव्यं कुशलैर्निपुणैरन्येषां ज्ञानासक्तत्वावचननादागमाद्विवक्षितवचनस्यैव प्रस्तावनार्थमाह। व्यतिरेकेण प्रकृमविपर्ययेम यतोयस्माद्भणितमुक्तं सामायिकनिर्युक्ताविति गाथार्थः // यदुक्तं तदाह॥ आवस्सियाउ आवस्स, एहिं सवेजुत्तंजोगस्स। एयस्सेसो उचिओ, यिरस्सणचेव णत्तित्ति।। व्याख्या / आवश्यिकी तु प्रागुक्त निर्वचना तु पुनः शब्दार्थः आवश्यकैः प्रतिक्रमणादिभिः सर्व समस्तैर्युक्तयोगस्य संयुक्तकायादिचेष्टस्य शुद्धा भवतीति शेषः / तदिदंव्यतिरेक भणितं Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सिया 492 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवास तं नैवंविधस्य वाङ्मात्रत्वात्तस्या इति कथमेवं विधस्येयं शुद्धा भवतीत्याह एतस्यावश्यकयुक्तस्य एष इति पूर्वतमगाथोक्तोऽ-न्वर्थयोगः आश्यिकीशब्दोश्वाररूपे उचितः संगतो विद्यमानत्वात् उक्तव्यतिरकेमाह (इयरस्सत्ति) इहोत्तरस्य पुनरर्थस्य चशब्दस्य संबंधादितरस्य पुनरनावश्यकयुक्तस्य नैव उचितएष इति प्रकृतं कुतइत्याह नास्तीति कृत्वाअविद्यमानत्वादन्वर्थाभावादित्यर्थः / अतस्तस्य धाङ्मात्रमेवासाविति गाथार्थः। उक्ताऽवश्यिकी पंचा० 12 वृ०॥ ध० 3 अधि० // साम्प्रतमावश्यिकी नैषेधिकी द्वारद्वयावयवार्थमभिधित्सुः पातनिका गाथामाह। आवस्सियं च नितो, जं चायं तो निसीहियं कुणइ॥ एवं इच्छंनाउं, गणिवरतुज्झतिए निउणं // आवश्यिकी पूर्वोक्तशब्दार्था तां आवश्यिकी (निंतो) निर्गच्छन् प्रविशन् इत्यर्थः / नैषेधिकीं करोति एतत् आवश्यिकी (निंतो) निर्गच्छन् यां च (आयतो) आगच्छन् प्रविशन् इत्यर्थः नैषेधिकीं करोति एतत् आवश्यिकी रूपद्वयमपि स्वरूपादिभेदभिन्नं इच्छामि ज्ञातुं हेगणिवर ? युष्मदंतिके निपुणं सूक्ष्म एतत् ज्ञातुमिच्छामीति क्रिया विशेषणं एवं शिष्येणोक्ते सत्याह आचार्यः॥ आवस्सियं चनितो, जंचायतो निसीहियं कुणइ। वंजणमेयं तु दुहा, अत्थो पूणहोइसो चे व / / आवश्यिकीं निर्गच्छन् यां च प्रविशन्नैषेधिकीं करोति एतद व्यंजनं शब्दरूपं द्विधा किमुक्तं भवति आवश्यकीं नैषेधिकी चेति द्वयं शब्द एव भिन्नमर्थः पुनर्भवत्यावश्यकीनषेधिक्योः स एव एकएव यस्मादवश्यकर्तव्ययोगक्रिया आवश्यकी। निषिद्धात्मनश्चारेभ्यः क्रिया नैषेधिकी नह्यसाववश्यकर्त्तव्यम् व्यापारमुल्लंध्य वर्तते आह / यद्येव भेदोपन्यासः किमर्थः उच्यते गमनस्थिति क्रियाभेदात् आह आवश्यकीं निर्गच्छन्नित्युक्तं तत्र साधो किमवस्थानं कथं यत आह। एगागस्स पसंतस्स, नहोंति इरियादयो गुणा हॉति। गंतव्वमवस्सं, कारणमि आवस्सिया होइ॥ एकमग्रमालंबनं यस्येत्यस्यावेकाग्रस्तस्य स च प्रशस्तालं वनोऽपि भवति तत आह / प्रशांतस्य क्रोधरहितस्य सतस्तिष्ठतः किं न भवति इदियः ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः / इह इर्या कार्यं कर्म ईर्याशब्देन गृह्यते। कारणे कार्योपचारात् ईर्या आदि-र्येषांमात्मसंयमविराधनादीनां दोषाणां ते ईर्यादयो न भवंति। तथा गुणाश्व स्वाध्यायध्यानादयो भवति / प्राप्त तर्हि संयतस्य आगमनमेव श्रेय इत्यपवादमाह / नचावस्थाने खलूक्तगुणसंभवान्नगंतव्यमवश्यं नियोगतः कारणे गुरुग्लानादिसंबंधिनियतस्तत्रागच्छतो दोषास्ततः कारणे गच्छत आवश्यकी भवति आह कारणेन गच्छतः किं सर्वस्यै वावश्यकी भवति उत नेति उच्यते नेति कस्य तर्हि तदुच्यते। आवस्सियाउ आवस्स, एहिं सव्वेहिं जुत्तजोगिस्स। मणवयणकायगुत्तिं, दियस्स आवस्सिया होइ।। आवश्यकी आवश्यकैः प्रतिक्रमणादिभिः सर्वैर्युक्ता योगिनो भवति शेषकालमपि निरतिचारस्य क्रिया स्थास्यति भावार्थः / तस्य च गुरुनियोगादिना प्रवृत्तिकालेऽपि (मण) इत्यादिमनोवाकाथायेंद्रियैर्गुप्तस्य किमावश्यकी भवति / सूत्रे इंद्रियशब्दस्य गाच्छाभंगभयाद्व्यवहित उपन्यासः कार्यास् पृथगिंद्रियग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थं अस्ति चायं न्यायःसामान्यग्रहणे सत्यपि प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनोपन्यासो यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति उक्ता आवश्यकी। आoम.द्वि.र अll आवह-पु. (आवह) आवहति आभिमुख्येन गच्छति आ-बह अच्सप्तस्कंधापन्नवायोः प्रथमे स्कंधे भूवायौ भूवायुरावहइह प्रवहस्तदूर्ध्वम् -सि०शि०(आवहः प्रवहश्चैव विवहश्च समीरणः / परावहः संवहश्च उद्वहश्च महाबलः। तथा परिवहः श्रीमान्) हरिवं आवहति प्रापयति आ-वहअय् प्रापके त्रि, वाचा (णो पूयणं तवसा आवहेला) नापि तपसा पूजन सत्कारमावहेत् न पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः सूत्र०७ अ०। आवहमाण-त्रि.(आवहमान) आ-वह-शानच्-क्रमागते-वाध०। अवाब-पु.(आवाप) आ-वप्-आधारे वाघञ्वाच / आवावकहा-स्त्री.(आवापकथा) विकथाभेदे व्याख्या भत्तकहा शब्दे स्था . आवास-न(आवश्य) आवश्यके व्य०१ उहा आवास-पुं. आवसन्ति येषु ते आवासाः भ०१ श०४ उ आ-वस्-आधारेघञ्आश्रये-स्था, वासस्थाने गृहादौ वाच जेसिं ते आवासा येषां देवानां ते निधय आवासा आश्रया इति स्था०९ ठा, आवसंत्यस्मिन्नित्यावासः मनुष्यादिभवे मनुष्यादिशरीरे च (अणिचमावासमुवेतिजंतुणा आवसंत्यस्मिन्नित्यावासो मनुष्यादिभवस्तच्छरीरं वा तमनित्यं उपसामीप्येन यंति गच्छंति जंतवः प्राणिन इति आचा। नरका वासाःनरकावासशब्दे। अथासुराद्यावासविषयमभिलाषं दर्शयति।समः / केवइयाणं भंते असुरकुमारवासा प. गोयमा. इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तरजोयणं सयसहस्स बाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता अट्ठहत्तरिंजोयणसहस्से एत्थणं रयणप्पभाए पुढवीए चउसलिं असुरकुमारावास सयसहस्सा प तेणं भवणावाहिवट्ठा अंतो चउरंसा अहोपोक्खर कण्णिआ संठाण संठिया उकिण्णंतर विउल गंभीर खाय फलिहा अट्ठालय चरिय दार गोउर कवाड तारेण पडिदुवार देस भागा जंत मुसल भुसंढि सयग्घि परिवारिया अउझा अडयाल कोहरइया अडयालकय वण्ण माला लाउल्लोइय महिया गोसीस सरस रत्तचंदण दद्दरविण्ण पंचंगुलितला कालागुरु पवर कुं दुरुक्क तुरुक्कडज्झंत धूवमघमर्चेत गधुधुयाभिरामा सुगंध वरगंधिया गंधवट्टि भूया अच्छा सण्हा लण्हा घठा मठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विशुद्धा सप्पभा समरीया सउज्जोआपासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा एवं जंजस्स कमातीतं तस्स जंजं गाहाहिं भणियं तहचेव वण्णओ॥ टी. वृत्तप्राकारावृत्तनगरवत् अंतः समचतुरस्राणि तदवकाशादेतस्य चतुरसत्वात् अधः पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि पुष्करकर्णिकापद्ममध्यभागः सचोन्नतसमचित्रबिंदुकिनीभवतीति तथा उत्कीर्णातरविपुलगम्भीरखातपरिखानि उत्कीर्ण Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास 493 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आवास भुवनमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमंतरमंतरालं ययोस्ते उत्कीतिरेते विपुलगम्भीरेखातपरिखे येषां तानि तत्रखातमध उपरिच समम्परिखा / उपरि विशाला अधः संकुचिता तयोरंतरेषु पाली अस्तीति भावः / तथा अट्टालकाः प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः चरिका नगरप्राकारयोरंतरमष्टहस्तो मार्गः पाठान्तरेण (चतुरयंति) चतुरकाः सभाविशेषाः ग्रामप्रसिद्धाः (दारगोउरत्ति) गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो नगरस्येव कपाटानि प्रतीतानि तोरणान्यपि तथैव प्रति द्वाराणि अवांतरद्वाराणि तत एतेषां द्वंद्व एतानि देशलक्षणेषु भागेषु येषां तानि तथा इह देशो भागश्चानेकार्थस्ततोन्योन्य-मनयोर्विशेष्यविशेषणभावोदृश्यत इति तथा यंत्राणि पाषाणक्षेपणयंत्राणि मुशलानि प्रतीतानि भुशुंड्यः प्रहरणविशेषाः शतघ्न्यः शतानामुपधातकारिण्यो महाकायाः काष्ठशैलस्तम्भय-ष्टयः ताभिः (परियारियत्ति) परिवारितानि परिकरितानीत्यर्थः / तथा आयोधानि योधयितुं संग्रामयितुंदुर्गतत्वान्न शक्यंते परबलैर्यानि तान्ययोधानि अविद्यमाना वा योधाः परबलसुभटा यानि प्रतीतान्ययोधानि तथा (अडयालकोद्वगरइयत्ति) अष्टचत्वारिंशद्रेदभिन्नविचित्रछंदो गोपुररचितानि अन्ये भणंति अडयालशब्दः किलप्रशंसायाचकः तथा (अड्यालकयवण्ण-मालत्ति) अष्टचत्वारिंशद्रेदभिन्नाः प्रशंसार्हाः कृता वनमाला वनस्पतिपल्लवस्रजोयेषु तानि तथा (लाइयंति) यद्-भूमेच्छगणादिनोपलेपनं (उल्लोइयंति) कुड्यमालानां सेटिका-दिभिः सन्मृष्टीकरणं ततस्ताभ्या मिवमहितानि पूजितानि (लाउल्लोइय) महितानि तथा गोशीर्ष चन्दनविशेषः सरसंच रसोपेतं यद्रक्तचंदन चंदनविशेषः ताभ्यां दर्दराभ्यां घनाभ्यां दत्ताः पंचांगुलयस्तलाहस्तका कुड्येषु येषु अथवा गोशीर्षसरसस्य रक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरण चपेटाभिघातेन दर्दरेषुवा सोपानवीथीषु दत्ताः पंचांगुलितला येषु तानि गोशीर्ष सरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपंचागुलितलानि तच्छा कालागुरुः कृष्णा-गुरुगं धद्रव्यविशेषः प्रवरः प्रधानः कुन्दुरुक्कश्चीडा तुरुष्कः सिल्हकं गंधद्रव्यमेव एतानि च तानि (डजंतित्ति) दह्यमानानि चेति विग्रहः तेषां योधूमो (मधमतत्ति) अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगंध इत्यर्थः / तेनोधुराणि उत्कटानि तानि तथा तानि च तान्यभिरामाणि रमणीयानीति समासः। तथा सुगन्धयः सुरभयो ये वरगंधाः प्रधानवासास्तेषां गन्ध आमोदो येष्वस्ति तानि सुगन्धि वरगंधिकानि तथा गंधवर्ति गंधद्रव्याणां गंधयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निवर्तितगुटिकातद्भूतानि तत्कल्पानीति गन्धवर्तिभूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः / तथा अच्छानि आकाशस्फटिकवत् / (सण्हत्ति) श्लक्षणानि सूक्ष्मस्कंधदलनिष्पन्नत्वात् लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् / (लण्हत्ति) मसृणानीत्यर्थः / घुटितपटवत् (घट्ठत्ति) घृष्टानिखरशाणया पाषाण-प्रतिमावत् (मट्ठत्ति) मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाण-प्रतिमेव शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेव अतएव (नीरयत्ति) नीरजांसि रजोरहितत्वात् (निम्मलत्ति) निर्मलानि कठिनमला-भावात् (वितिमिराणि) निरंधकारत्वात् (विशुद्धत्ति) विशुद्धानि निष्कलंकत्वान्नचन्द्रवत सकलंकानीत्यर्थः तथा (सप्पहत्ति) सप्रभाणि स प्रभावाणि अथवा स्वेनात्मना प्रभांतिशोभंते प्रकाशते चेतिस्वप्रभाणि यतः (समरीयत्ति) समरीचीनि सकिरणानि अतएव (सउज्जोयंति) सहउद्योतेन वस्त्वंतरप्रकाशनेन वर्तत इति सोद्योतानि (पासाईयत्ति) प्रासादीयानि मनः प्रशांतिकराणि (दरिसणिजत्ति) दर्शनीयानि तानि हि पश्यंश्चक्षुषा न श्रमं गच्छतीति भावः (अभिरूवत्ति) अभिरूपाणि कमनीयानि (पडिरूवत्ति) प्रतिरूपाणि दृष्टारं प्रतिरमणीयानि नैकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः / एवमित्यादि यथासुरकुमारावास सूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमेवमिति यथा यद् भवनादिपरिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते घटते तत्तस्य वाच्यमिति किंविधं तत्परिमाणमतआह। "जंजंगाहाहिंभणियं" यद्यत्रगाथाभिः चउसट्ठिअसुरामित्यादिकाभिरभिहितं किंम्परिमाणमेव तथावाच्यं (तहेत्याह)। (तहचेववण्णओत्ति) यथा असुरकुमारभवनानां वर्णक उक्तस्तथा सर्वेषामसौ वाच्य इति तथाहि। केवइयाणं भंते नागकुमारावासा पण्णत्ता गोयमा इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयण सयसहस्स पमाणाए उप्पिं एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता। हेट्ठावे गंजोयण सहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरेजोयण सहस्से एत्थणं रयणप्पभाए चुलसीइ नागकुमारावाससयसहस्सापण्णत्ता तेणं भवणा इत्यादीनि समः।। तथाच भगवत्याम्॥ केवइयाणं मंते असुरकुमारा भवणावास सयसहस्सा पं. गोयमा ! चउसद्धि असुर कुमारा भवणावाससय सहस्सा पं. तेणं भन्ते ! किंमया पं. गोयमा! सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा तत्थणं बहवे जीवाय पोग्गलाय वक्कामंति विउकामंतिचयंति उववशंति सासयाणं ते भवणा दध्वट्ठयाए वण्णपनवेहिंजाव फासपञ्जवेहिं असासया एवं जावथणियकुमारावासा भ.श०१९ उ०७॥ आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि दशानां गाच्छाया संगृह्णाति॥ चउसद्वि असुराणं, चउरासीहं च होइ नागाणं / बावत्तरि सुवन्नाणं, बाउकुमाराण वण्ण ओइ ||3|| दीवदिसाउद हीणं, विजकुमारिंदथणियमग्गीणं। छण्डंपि जुवलयाणं, बावत्तरिमो य सयसहस्सा शासमा (छण्हपि जुवलयाणंति) दक्षिणोत्तरभेदेनासुरादिनिकायोद्विभेदो भवतीति युगलान्युक्तानि तत्र षट्षु युगलेषु प्रत्येकं षट् सप्ततिर्भवनलक्षाणामिति एषां चासुरादिनिकाययुगलानां दक्षिणोत्तरदिशोरयं विभागः (चउतीसा चउछत्ता, अट्टत्तीसंचसयस-हस्साउं। पण्णाचत्तालीसा, दाहिणओ हों ति भवणाई // 1 // चत्ता-लीसत्ति / / द्वीपकुमारादीनांषण्णांप्रत्येकं चत्वरिशद्रवनलक्षाणि तीसा चत्तालीसा, चोत्तीसं चेव सयसहस्साई ! छायाला छत्तिसा, उत्तरओहोंति भवणाई ॥शा (छत्तीसत्ति) दीपकुमारादीनां षण्णां प्रत्येकंषट्त्रिंशद्रवनलक्षाणीति // भ.१ श०५ उ केवइयाणाभंते ! पुढविकाइयावासा प. गोयमा ! असंखेज्जा पुढविकाइयावासा प. एव जाव मणुस्सत्ति। / / टी०।। के वइयाणं भंते पुढवीत्यादि गतार्थ / नवरं मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां असंख्यातानामभावात् संख्याता एवाऽवासाः संमूर्छिमानां त्वसंख्येयत्वेन प्रतिशरीरमावासाभावाद संख्याता इति भावनीयमिति // भ. श. 5 उ०१ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासपव्वय 494 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आविह के वइयाणम्भंते ! वाणमंतरावासा पं. गोयमा ! इमीसेणं आवाहोऽभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्याऽनयनं विवाहश्च पाणिग्रहणं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्स तत्प्रधानां या वरकथा परिणेतृकथाआवाहविवाहवरा वा या कथा सा बाहल्लस्स उवरि एगंजोयणसयं ओगाहेत्ता हेहाचेगंजोयणसयं तथा सापि न कथयित व्येतिप्रक्रमः / प्रश्न, सं०४ द्वाoll वजेत्ता मझे अट्ठसु जोयणसएस एत्थणं वाणमंतराणं देवाणं आविइ-स्त्री.(आविची) अविचदेशोद्भवायाम्-राजoll तिरियमसंखेज्जाभोमेझानगरा-वाससयसहस्सापं तेणं भोमेला आविधइत्ता-अव्य (आविध्य) परिधायेत्यर्थे (पालवं वासुवण्णसुत्तं वा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा एवं जहा भवणवासीणं तहेव आविधेज वा पिणिंधेज वा) आचा० अ०३ उl णेयवा। णवरं। पडागमालाउलासुरम्मा पासाइया दरिसणिया आवीक (वीक)म्म-न०(आविष्कर्मन) न.-प्रगटक्रिया-याम्-स्था०९ अभिरूवा पडिरूवा के वइयाणं मंते वाणमंतर मोमेज ठा. कल्पका णयरावाससयसहस्सा पं. गोयमा! असंखेजाबाणमंतरा भोमेजा णयरावासासयसहस्सा प. तेणं भंते ! किंसट्टिया पं.२ सेस तं आविट्ठ-त्रि०(आविष्ट) आ-विष-त-भूतादिग्रस्ते, आवेश्ययुक्ते, निविष्ट, चेव / / भ. 19 श०७ उ 111 व्याप्ते, च-वाचा अधिष्ठिते, स्था०५ ठाना प्रविष्ट, (मच्छाविठ्ठाव केयणे) केतने मत्स्यबंधने प्रविष्टा निर्गतिकाः / सूत्र०१ श्रु.३ अा युक्ते, च / टीका भोमेज्जनगरत्ति / भूमेरंतर्भवानि भौमेयकानि तानि च तानि सम०३ सा नगराणि चेति विग्रहः॥ भटी.।। आविद्ध-त्रि (आविद्ध) आ-व्यध्-क्त-ताडितेऽविद्धे, छिद्रिते, क्षिप्ते, च अरुणोदगे समुद्दे गंतूणं पंच आवासा / दी (नश्यतीषुर्यथाऽऽविद्धः) मनु-वाच, परिहिते, कल्प औप०।। निरयावासा नियावासशब्दे। भावेल्युट् सम्यग्वासे वाच / / निवासे, (आविद्धमणिसुवण्णे) आविद्धानि परिहितानि मणिसुवर्णानि येन सः। प्रश्न० 4 द्वा०ा औप०।। अवस्थाने, समा1 स. 7 / / स्था०४ ठाoll तं.। औपळा आविद्धानि परिहितानि मणिसुवर्णानि लक्षणया (आगारमावसंता वि) अगारं गृहं तदावसन्ततस्तस्मिस्तिष्ठतो ग्रहस्था मणिसुवर्णानि सुवर्णमयादिभूषणानि येन स तथा तस्मिन् / कल्प०। इत्यर्थः सूत्र०१ श्रु०९अ॥ (तं जोइभूयं च सया वसेज्जा) आवसेत सेवेत (आविद्धवग्धारियमल्लदामकलाव) परिहितप्रलंबपुष्पमालासमूहे, / गुर्वन्तिक एव यावज्जीवं वसेत् सूत्र०१ श्रु०१२ अ० (कम्मोवगाकुणिमे ज्ञा०२ अ आवसंति-) आ समन्ताद्वसति तिष्ठतीति। सूत्र नीडे, व्यर उok आविद्धवीरवलय-त्रि०(आविद्धवीरवलय) आविद्धानि वीर वलयानि आवासपव्वय-पुं०(आवासपर्वत) निवासभूते पर्वते, (गोथूभस्स णं वीरत्वगर्वसूचकानि वलयानि येन तथा तस्मिन् सुभ-टोहि यदि आवासपव्वयस्स)स. क्वचिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि आवासय-न०(आवश्यक) लुप्तयरवशषसां दीर्घः१।४३ इति प्राकृतसूत्रेण वलयानीति स्पर्द्धयन् यानि कटकानि परिदधाति तानि प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपर्यधोवा येषां शकारषकारसकाराणां वीरवलयानीत्युच्यन्ते। औपः।। कल्पoll ज्ञा०१ अoll तेषामादेः स्वरस्य दी? भवति प्रा०।। अवश्यकर्त्तव्ये सामायिकादिके, आदिभाव-पु.(आविर्भाव) आविस्-भू-घञ् प्रकाशे, वाच। विशे०।। (आविब्भावतिरोभावमेत्तपरिणामिदव्यमेवायं) आविर्भाव*आवासक-न आसमन्तात् ज्ञानादिगुणैः शून्यं जीवं वासयति तैर्युक्तं श्वकुण्डलादिरूपेण तिरोभावश्च मुद्रिकादिभावेन आविर्भाव-तिरोभावौ। करोतीत्यावासकम् सामायिकादिके, विशेot आवासो नीडमावास तावेव तन्मात्रम् तेन परिणतुं प्रवर्तितुं शीलं यस्य एवावासकः नीडे, पु.वासगगयंतुषोसति वासगगयंति प्राकृतत्वादाद्या- तदाविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामिसुवर्णादिकं द्रव्यमेवेदं नतु तदतिरिक्ता कारस्य लोपः आवासो नीडमावास एवावासकः / व्यः गुणाः। विशे उ.(सावासगापविउ मन्नमाणं) स्वकीयादावासका-त्स्वनीडात्, सूत्र०१ आविन्भूज-त्रि (आविर्भूत) आ-विस्-भू-कर्तरि-क्त-प्रकटिते,श्रु०१४ अका अभिव्यक्ते, / वाचा आवासयाणु ओग-पु.(आवासकानुयोग) आवश्यकव्याख्याने, | आविल-त्रि०(आविल) आकुले, (कलुसाविलचेयसे) सम० सूत्र०।। "आवासयाणुओगे" आसमंताद्ज्ञानादिगुणैः शून्यं जीवं वासयति तैर्युक्तं अस्वच्छे, आविलमविमलमस्वच्छमिति जी०३ प्र० आविलति दृष्टिं करोतीत्यावासकं सामायिकादिरूपमेव तस्य वक्ष्यमाणशब्दार्थोऽनुयोगो स्तृणाति-विल स्तृतौ-क-कलुषे-अयं विल भेदने विलप्रकृतिकत्वात् व्याख्यानं विधिप्रतिषेधाभ्याम-र्थप्ररूपणमित्यर्थः विशे०। वयेवमध्य इति रायमुवाच।। आवाह-पुं.(आवाह) आहूयंते स्वजनास्तांबूलदानाय यत्र स आवाहः / "छिन्नसोए अणाविले" अनाविलोऽकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततथा विवाहात् पूर्व ताम्बूलदानोत्सवे, जी.३ प्र०ा अभिनवपरिणीतस्य मलरहितोऽनाकुलो वा विषयाप्रवृत्तेः- स्वच्छचेता इति सूत्र०१ श्रु. वधूवरस्यानयने। प्रश्न सं०४ द्वा०ा वध्वा वरगृहानयने, च प्रश्न०४ द्वा०।। 15 अ आवाहण-न (आवाहन) आ. वह-णिच्-ल्युट्-सान्निध्याय आविलप्पा-पु.(आविलात्मन्) आकुलात्मनि, (अभयं करे भिक्खु देवानामाव्हाने वाचा अणाविलप्पा) अनाविलो दिषयकषायैरनाकुल आत्मा आवाहविहारवरकहा-स्त्री.(आवाहविवाहावरकथा) आवाह | यस्यासावनाविलात्मा।। सूत्र०१ श्रु०१७ अ०/ विवाहप्रधानायां परिणेतकथानां. (आवाहविवाहवरकहावि) | आविह-पुं०(आविध) आविध्यतेऽनेनआ-व्यध-धार्थेक वा काष्ठादि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवी 495 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आस रामाता यास्मन् / श्लो वेधनसाधने सूच्याकाराने अस्त्रे, वाचा (विज्ञापेर्वोक्काबुक्कौ / 4 / 38) इति प्राकृतसूत्रेण विपूर्वस्य जानातेर्ण्यन्तस्य आवी-स्त्री (आवी) अविरेव स्वार्थ-अण-डीप-रजस्वलायां ना र्याम्, वोक्कआवुक्क इत्येतावादेशौ वा-वोक्कइ आवुकइ-विण्णवई। प्रा०व्याall गर्भवत्यां, च। गर्भस्यंदनमायीनां, प्रणाशःश्यावपाण्डुता-सुश्रुता वाचा आवुद्वि-स्त्री०(आवृष्टि) आ-वृष-क्तिन् सम्यग् वर्षणे, वा-षं। आवीइमरण-न (आवीचिरमण) आसमन्ताद्वीचय इव वीचय आवेदिय-त्रि.(आवेष्टित) सकृद्वेष्टिते, स्था०२० // ठिा सर्वतोवेष्टिते, च० आयुर्दलिक विच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिस्तदावीचि अथवा भ०१६ श०६ उ. सव्वओ समंतात् आवेढिय परिवेढियं-आवेढियंति वीचिर्विच्छेदस्तदमावादवीचिः दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवं भूतं सकृदावेष्टितम् परिवेढियं ति असकृदिति-स्थाoil आवेढियंति मरणमावीचिमरणम् / प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणे मरणभेदे, | अभिविधिना चेष्टितं सर्वत इत्यर्थः परिवेढियंतिपुनः पुनरित्यर्थः / / भ०।। सम०१७ स०। आवेढियपरिवेढिय-त्रि०(आवेष्टितपरिवेष्टित) गाढतरं संवेल्लिते, / / "अणुसमयं निरंतर, मावीइसंनियं तं भणंति। प्रज्ञा०पद 15 // पंचविहं दवे खेत्ते, काले भवे भावे य संसारे, // आवेय-पुं०(आवेग) आ-विज्--घर-त्वरायाम्, अष्टका। अणुसमय समयमाश्रित्य इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतोऽपि भवतीति आवेत-त्रि छन्ने प्रदेशे कुड्येऽवष्टभ्य ऊर्वीकृते, ।व्य ऊoll माभूभातिरत आह / निरंतरं न सान्त-रालमंतरालाभावात् / किं | आवेयग-त्रि०(आवेदक) आ-विद्-णिच् ण्वुल विज्ञापके। तदेवंविधमावीचिसंज्ञितं आसमंताद्वीचय इव वीचयः प्रतिसमयमनुभूय- आवोम-अव्य (आव्योम) व्योम मर्यादीकू त्येत्यर्थे,मानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात्पूर्वयुदलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था (आदीपमाव्योमसमस्वभावम्) आव्योमं व्योममर्या कृत्येतिस्या 5 यस्मिन्मरणे तदा वीचि तत् आवीचीति संज्ञां संजाता यस्मिन् तदावीचिसंज्ञितं तारकादित्वादितचि रूपमिदं। अथवा वीचिर्विच्छेदस्तद आस-पुं.(अश्व) अश्रुते व्याप्रोतिमार्गम्-अश-क्छन्-घोटके ज्ञा०१७ अolt भावादवीचिः दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात् उभयत्र प्रक्रमान्मरणं तदेवं भूतं अनु०।। अश्वस्तुरगं इति औप.|| आसो सत्तीवाहो एका. प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटन-लक्षणमावीचिमरणं पंचविध भणति / वाल्हीकादिदेशोत्पन्ने जात्यश्वे दश६ अ जात्या आशुगमनशीला तीर्थकरगणधरादयोऽस्मिन् संसारे जगतिपंचविधत्वमेवाह, (द्रव्ये क्षेत्रे अश्वाः-शेषा घोटकाः जी०३ प्रा काले भवे भावे च) द्रव्यावीचिमरणं क्षेत्रावीचिमरणं कालावीचिमरणं अश्वानां वर्णको ज्ञाताध्ययने यथा। भवावीचिमरणं भावावीचिमरणं चेत्यर्थः। तत्र द्रव्यावीचिमरणं नाम यन्नार बहवे तच्छ आसे पासंति / किं ते हरिरेणुसोणिसुत्तग / कतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात्प्रभृतिनिजनिजायुः कर्मद आइण्णवेढो-ज्ञा०१७ अना लिकानामनुसमयनुभावनाविचटनं तु तच नारकादिभेदाच-तुर्विधमेवं बहूंश्चात्राश्वान् घोटकान् पश्यंति स्म किंतेत्ति किंभूतान् अत्रो-च्यते / नारकादिगतिचातुर्विध्यापेक्षया तद्विषयं क्षेत्रमपि चतु-विधं हरीत्यादि / / आईन्नवेढोत्ति / आकीर्णा जात्या अश्वाः तेषां वेढोत्ति ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया क्षेत्रावीचिमरणमपि चतुर्विधम् / काल इति वर्णनार्था वाक्यपद्धतिराकीर्णवेष्टकः / सचायं। यथाऽयुष्ककालो गृह्यते नत्वयथाकाल-स्तद्देवादिष्वसंभवात् स च देवायुष्ककालादिभेदाचतुर्वि-धस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालावीचिम हरिरेणुसोणिसुत्तगसकविलमखारपायकुकुडवॉडसमुग्गयरणमपि चतुर्विधमेव / चतुर्विधभवापेक्षया भवावीचिमरणमपि चतुर्धेव। सामवण्णा गोहुमगोरंगगोरपाडलगोरापवालवण्णाय धूमवण्णा तेषामेव च नारकादीनां चतुर्विधमायुः क्षयलक्षणं भावप्राधान्या य केशातलपत्तरिडवण्णासालीवण्णाय भासवण्णाय। केई पेक्षयाभावावीचिमरणमपि चतुर्धवेति। प्रव०१५७ द्वा०। जंपिय तिलकीडग्गय सालोयरिट्ठगाय पुंडपइयाय कणगपीडाय केई || चक्कागपट्ठवण्णा सारसवण्णाय हंसवण्ण्णाय केई / आसमन्ताद्वीचयः प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायुईलिको-दयात्पूर्व के ई अब्भवण्णा पक्कतलमेहदण्णाय बाहुवण्णाय केई // 3 // पूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिस्तदावीचिकम् / अथवा * संज्झा-णुरागसरिसा सुयमुहगुंजद्धरागसरिसच्छकेई। एलापाअविद्यमाना वीचि-विच्छेदो यत्र तदवीचिकम्। अवीचिकमेवावीचिकम् तच तन्मरणं चेत्यावीचिकमरणम्। मरणभेदे, / भ०१३ श०७ उहा। डलगोरा सामलयागवलसामला पुणोकेई ||| बहवे अण्णे अणिठे सासामा कासीसरत्तपीया। अबंतविसुद्धा वियणं आइण्ण आवीइसण्णिय-न (आवीचिसंज्ञित) आ समन्ताद्वी चय इव वीचयः जाइकुलविणीयागमच्छरा हयवरा जहोवए सकमवाहिणोवि य प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात्पूर्व पूर्वा णं सिक्खाविणीय विणया लंघणवग्गणधावणधोवणतिबईणयुर्दलिकविच्युतिलक्षणा अवस्था यस्मिन्मरणे तदावीचि तत् सिक्खियगई किं ते मणसा बिउविहिंताई अणेगाई आससयाई आवीचितिसंज्ञा संजाता यस्मिन् तदावीचिसंज्ञितं तारकादित्वादितच पासिं-तित्ति। आवीचिसंज्ञके मरणभेदे, प्रव०१५७ द्वाता तत्र हरिद्रेणवश्व नीलवर्णपांशवः श्रोणिसूत्रकं च बालकानांचर्मा आवीकम्म-न०(आविष्कर्मन्) प्रगटकर्मणि, कल्पना दिदरवरकरूपं कटिसूत्रं तद्धि प्रायः कालकं भवति सह कपिलेन आवुक्कण-न०(विज्ञापन) वि ज्ञा. णिच-पुक्-ल्युट्-विशेषेण बोधने, पक्षिविशेषण यो मार्जारो बिडालः स च तथा पादकुकुटविशेषः वाचा स च तथा बोडं कार्पासीफला तस्यसमुद्गकं संपुटमभिन्नावस्थं Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस 496 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ आसंदिया काप्पासीफलमित्यर्थः तचेति द्वंद्वस्तत एषामिव श्यामो वर्णो येषांते तान् किं ते इति किमपरं (मणसावि उव्विहिं ताइंत्ति) मनसाऽपि तथा / इह च सर्वत्र द्वितीयार्थे प्रथमाऽतस्तानिति तथा गोधूमो चेतसाऽपि न केवलं वपुषा (उव्विहिंताइंति) उत्पतंति (अणेगाई धान्यविशेषः तद्वद्गौरमंगं येषां ते तथा / तथा गौरी या पाटला आससयाइंति) न केवलमश्वानेकैकशोऽपितु अश्वशतानि पश्यति स्मेति पुष्पजातिविशेषस्तद्वद्ते गौरास्ते तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः / गमनिकामात्रमेतदस्य वर्णकस्य / भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्यइति / / गोधूमगौरांगगौरपाटलागौरास्तान् तथा प्रवालवर्णाश्च विद्रुमवर्णान् धावमानस्याश्वस्योदरवर्ति-शब्दविचारो भगवत्याम्। अभिनवपल्लववर्णान् वा रक्तानित्यर्थः (धूमवण्णायत्ति) धूम्रवर्णाश्चधूमू- आसस्सणं भंते ! क्खु धावमाणस्स कि क्खुक्खुत्ति करे। वर्णान्या पांडुरानित्यर्थः (केईत्ति) कांश्चिन्न सर्वानित्यर्थः / इदंच हरीत्यत गोयमा ! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जग यस्स य आरभ्य पांडुशब्दे कल्पितार्द्ध रूपकं भवति / तालपत्राणि अंतरा एत्थं ककुडए नाम वाए समुच्छिए जेणं आसस्स तालाभिधानवृक्षपर्णानि रिष्टा च मदिरा तद्वद्वर्णा येषां ते ता घावमाणस्स खुक्खुत्ति करेइ॥ भ. श०३ उ.।। लपत्ररिष्टवर्णास्तां स्तथा शालिवान् शुक्लानित्यर्थः / // टी! हृदयस्य यकृतस्य दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषस्या(भासावण्णायत्ति) भस्मवर्णाश्च भासो वा पक्षि-विशेषस्तद्वद्वर्णाश्च न्तरान्तराले / भन्टीला कांश्चिदित्यर्थः (जंपियतिलकीडगायत्ति) यापिताः कालांतरं प्राप्ता य अश्विनीनक्षत्राधिष्ठातरि देवे, तदधिष्ठातृके अश्विनीनक्षत्रे, च तिलकीटा धान्य विशेषास्तद्वद्ये वर्णसाधात्ते तथा तान् अश्वनामको देवविशेष इति जं। अश्वोऽश्वदेवतोपल-क्षिताऽश्विनीति यापिततिलकीटकांश्च (सालोयरिट्टगायत्ति) सावलोकं सोद्योतं यद्रिष्टकं चं०२० प्रा० आशुगमनादश्वः मनसि, जी०३ प्र०। प्रज्ञा पद।। रत्नविशेषस्त द्वद्ये वर्णसाधयत्ति सावलोकरिष्ठकास्तां श्व (पुंडपइयायत्ति) पुंड्राणि धवलानि पदानि पादा येषां ते तथा त एव *आश-पु. अशनमाशः। अश्भोजने-घञ्-भोजने-आ०म०प्र०१ अा! पुड्रपदिकास्तांश्च तथा कनकपृष्ठान् कांश्चिदिति रूपकं // 2 / / (चक्काग (सामासाए पायरासाए) प्रातरशनं प्रातराशःप्रत्यूष स्येव भोजनमिति पट्टवण्णित्ति) चक्रवाकः पक्षिविशेषस्तत्पृष्ठस्येव वर्णो येषां ते तथा तान् सूत्र-२ श्रु.१ अ सारसवर्णाश्च / हंसवर्णान् कांश्चित् इति पधार्द्ध (केइ अब्भवण्णेति) कर्मणि उपपदे कंतरि अण्-उपपदस. तत्तद्वस्तुभक्षके। यथा हुताशः कांश्चिदेवाभ्रवर्णान् (पक्वतलमे हवायत्ति) पक्कः पक्वपत्रो आश्रयाशः मांसाशः पलाशः हविष्याशः / / वाचका। यस्तलस्तालवृक्षः स च मेघश्चेति विग्रहस्तस्येत वर्णो येषां ते तथा तान् आसइ-(न)त्रि०(आश्रयिन्) आ-श्रि-इनि-आश्रयकारके, आश्रिते, (पविरलमेहवण्णत्ति) क्वचित्पाठः तथा (बाहुवण्णाके इति बभूवर्णान् "मयूरपृष्ठाश्रयिणा गुहेन" रघुः। पर्य्यन्ताश्रयिभिः निजस्य सदृशं नाम्नः कांश्चित्पिंगलानित्यर्थः / बहुवर्णानिति क्वचित् दृश्यते रूपकमिदं // 3 // किरातैः कृतम् रत्नाला वाच।। तथा (संज्झाणुरागसरिसत्ति) संध्यानुरागेण सदृशा वर्णत इत्यर्थः आसइत्ता-आश्रित्य-अ आ. श्रि-ल्यष्-अवलम्ब्येत्यर्थे, वाचः / / (सुयमुहगुंजद्वरागसरिसच्छके इत्ति) शुकमुखस्यगुंजार्द्धस्य च प्रतीतस्य आसंकणित-त्रि.(आशंकनीय) आ-शकि-अनीयर् शंकया रागेण सदृशो रागो येषां तथा तान् / अत्र इह काश्चिदित्यर्द्ध विषयीकार्ये-अनिष्टतथा चिन्तनीये, च वाच०।। (एलापाडलगोरत्ति) एला पाटला पाटलाविशेषोऽथवाएला च पाटला आसंग-पुं.(आसंग) अभिष्वङ्गे, 1षो। स्वरूपम्॥ चेत्येलापाटले। तद्वद्गौरा येते तथा तान् (सामलयागवलसामला पुणो आसंगेऽप्यविधाना, दसंगसक्तयुचितमित्यफलमेतत्।। केइत्ति) श्यामलता प्रियंगुलतागवलं च महिषशृंगं तद्वत् श्यामलान् पुनः भवतीष्टफलदमुच्चै, स्तदप्यसंगं यतः परमं ||1|| कांश्चिदिति रूपकं // 4aa (बहवे अण्णे अणिढेसत्ति) एकवर्णेनाव्यपदिश्यानित्यर्थः / अतएवाह। (सामाकासीसरित्तपीयत्ति) श्यामाकाश्च आसंगेपीत्यादि।आसंगेऽपि चित्तदोषेसति विधीयमानानुष्ठाने इदमेव कासीसं रागद्रव्यं तद्वद्येते कासीसास्ते च रक्ताश्च पीताश्च येते तथा तान् सुंदरमित्येवंरूपे अविधानं शास्त्रोक्तविधेरभावात् शक्तिरनवरतप्रवृत्तिः शबलानित्यर्थः (अचंतविसुद्धावियणंति) निर्दोषांश्चेत्यर्थः। णमित्यलंकारे न विद्यते संगो यस्यां सेयमसंगाभिष्वंगो भाववती असंगा चासौ शक्तिश्च (आइण्ण जाइकुलविणी-यगयमच्छरत्ति) आकीर्णानां तस्या उचितंयोग्यमिति कृत्वा फलमेतदिष्टफलरहितमेतदनुष्ठानं भवति यवादिगुणयुक्तानां संबंधिनी जातिकुले येषां ते तथा ते च ते विनीताश्च जायते। इष्टफल-दमिष्टफलसंपादकमुचैरत्यर्थं तदपि शास्त्रोक्तमनुष्ठान गतमत्सराश्च परस्परा-सहनवर्जिता निर्मात्सराश्चेति / ते तथा तान् मसंगम-भिष्वंगरहितं यतो यस्मात्परमप्रधानं आसंगयुक्तं ह्यनुष्ठानं (हयवरत्ति) हया-नामश्वानां मध्ये वरान् प्रधानानित्यर्थः तन्मा-त्रगुणस्थानकस्थितिकार्ये च न मोहोन्मूलनद्वारेण केवल(जहोवदेसकमबाहिणो वियणंति) यथोपदेशक्रममिव उपदिष्टपरिपाट्य ज्ञानोत्पत्तये प्रभवति तस्मात्तदर्थिना आसंगस्य दोषरूपता विज्ञे-येति। नतिक्रमेणेव वोढुं शीलं येषां ते तथा तानपि च णमित्यलंकारे षो०१४ विद्वाना गायें, सूत्र०२ श्रु०३ अरोगे आचा० अ०५३ उ.४ // (सिखाविणयत्ति)। शिक्षयेवाश्वदमकपुरुषशिक्षाकरणादिव विनीतोवाप्तो | *आसंग-पु.वासगेहे, "आसंगो आसवणं आलयणं वासगे हम्मि" देशी० विनयो यैस्ते तथा तान् (लघणंवग्गणधावणधोरणतिपईजईणसि पानिपजणसि- व१श्लो०६६ / / क्खियगईत्ति) लंघनं गर्तादीनां वलानं कूर्दनं धावनं वेगवगमनं धोरणं | आसंदय-न(असन्दक) आसनविशेषे, (आसनमासनकादीत्ति) आचार चतुरत्वं गतिविषयं त्रिपदीमल्लस्येव रंगभूम्यां गति- | अ५ उता विशेषः / एतद्पा जविनी वेगवती शिक्षितेव शिक्षितागतियैस्ते तथा | आसंदिया-स्त्री०(आसंदिका) मंचिकायाम्- (आसंदियं च न Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसंदी 497 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसंसा वसुत्तं) आसंदिकां मंचिकाम् सूत्र०१ श्रु०४ अ०l आसंदी-स्त्री०(आसन्दी) आसद्यतेऽस्याम्-आ--सद्-अब्दादिनि गौरा, डी-उपवेशनयोग्ये आसनयंत्रे क्षुद्रखट्वायाम, वाचा। मंचके, सूत्र०२ श्रु.१ अ०(आसंदी पलियंके य) आसंदी-त्यासनविशेष इति / सूत्र०२ / श्रु०९ अ॥ आसंबर-पुं.(आशाम्बर) दिगंबरे जैनसाधुभेदे, एतेन यदाहुराशाम्बराः न स्त्रीणां निर्वाणमिति तदपास्तम् इति / नं. आसंसप्पओग-पु.(आशंसाप्रयोग) आशंसनमाशंसाऽ-भिलाषस्तस्याः प्रयोगो व्यापारणम् करणमाशंसाप्रयोगः / आशंसैव वा प्रयोगोव्यापार आशंसाप्रयोगः / आशंसाया व्यापारे, च आशंसारूपे व्यापारे, प्रव०१ द्वा०॥ आशंसप्पओगो नाम निदानकारणम् इति / / निचू.१ उ.।। दसविहे आसंसप्पओगे पतं जहा 1 इहलोगासंसप्पओगे 2 परलोगासंसप्पओगे 3 दुहओलोसंसप्पओगे 4 जीवियासंसप्पओगे 5 मरणासंसप्पओगे ६कामासंसप्पओगे 7 भोगासंसप्पओगे लाभासंसप्पओगे 9 पूयासंसप्पओगे 10 सकारासंसप्पओगे। स्था.१० ठा।। दसविहेत्यादि / आशंसनमाशंसा इच्छा तस्याःप्रयोगो व्यापारणं करणमाशंसैव प्रयोगो व्यापारः आशंसाप्रयोगः सूत्रे च प्राकृत-त्वात् (आसंसप्पओगेत्ति) भणितं तच इहास्मिन् प्रज्ञाप-कमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याय यो वर्तते लोकः प्राणिवर्गः स इहलोकस्तद्व्यतिरिक्तस्तु परलोकस्तत्रेहलोकं प्रति आशंसा-प्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणाचक्रवादिरितीहलोका-शंसाप्रयोगः 1 एवमन्यत्रापि विग्रहः कार्यः / परलोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणादिन्द्रःसमानिको वा 2 द्विधा लोकाशंसाप्रेयोगो यथा भवेयमिन्द्रस्ततश्चक्रवर्ती 3 अथवा इहलोके इह जन्मनि किंचिदाशास्ति एवं परजन्मन्युभयत्र वेति एतत्त्रयं सामान्यमतोऽन्ये तद्विशेषाः। एवास्ति च सामान्यविशेष-योर्विवक्षापेक्षो भेद इत्याशंसाप्रयोगाणां दशधात्वं न विरुध्यते। तथा जीवितं प्रत्याशंसा चिरम्मे जीवितं भवत्विति जीविताशंसाप्रयोगः // 4aa तथा मरणं प्रत्याशंसा शीघ्रं मे मरणमस्त्विंति मरणाशंसाप्रयोगः ॥का तथा कामौ शब्दरूपेतौ मनोज्ञौ मे भूयास्तामिति कामाशंसाप्रयोगः / / 6 / / तथा भोगाः गंधरसस्पर्शास्ते मनोज्ञा मे भूयासुरिति भोगाशंसाप्रयोगः // 7 // तथा कीर्तिः श्रुतादिलाभो भूयादिति लाभाऽसंशाप्रयोगः ||8|| तथा पूजा पुष्पादिपूजनं मे स्थादिति पूजाशंसाप्रयोगः // 9|| सत्कारः प्रवरवस्त्रादिभिः पूजनं तन्मे स्यादिति सत्कारा-शंसाप्रयोगाः / / 10|| स्था. टीला आव०६ अ॥ आसवण-वासगेहे, देशी.१ व०६६ श्लो। आसक्ख-पक्षिविशेषे, "असक्रओ सिरिवए'' श्रीरितिवदतीति श्रीवदः प्रशस्तः पक्षिविशेषः / देशी.१५६७ श्लो। आसक्खंध-पुं.(अश्वस्कंध) हयग्रीवायाम्, स्था०२ ठा०। आसंसा-स्त्री.(आशंसा) आशंसनमाशंसा-अभिलाषे, प्रव०५ वाला आव० 6 अ।। आशंसनमाशंसा-इच्छायाम्, स्था, आशंसनमाशंसाअप्राप्तप्रापणाभिलाषे, आचाला 2 अउ०२ अहवा आसंसा एतं परिण्णाय मेहाविणे वसयं एएहि। कजेहिं दंडं समारंभेजा-आचा० अ०२ उ.।। टीका अथवा आशंसनमाशंसा अप्राप्तप्रापणाभिलाषः तदर्थ दण्डसमादानमादत्ते तथाहि ममैतत्परुत्परारि वा प्रेत्य परलोके चोपस्थास्यत इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्तते राजानं वाऽर्थाशाविमोहितमना विलगति-आचा० / विशेषावश्यके आशं-सादूषितं प्रत्याख्यानमधिकृत्य // आसंसाजा पुने, सेविस्सामिति दूसियं तीए। या एवंविधपरिणामरूपा कथंभूतः परिणाम इत्याह / पूर्णे प्रत्याख्याने देवलोकादौ सुरांगनासंभोगादिभोगानह सेविष्ये इत्येवं भूतपरिणामरूपा चया आशंसा तथा प्रत्याख्यानं दूषितं भवति। विशे | आ. म. द्वि. 1 अ / तथा च सूत्रकृतांगेसे भिक्खु अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिब्बुडे णो आसंसं पुरतो कुजा इमेणं मे दिटेण वा सुएण वा मुएण वा णाएण वा विनाएण वा इमेण वा सुचरियत्तदनियमबंभचेरवासेण इमेण वा जायामायावुत्तिएणं धम्मेणंइ उवइ पेचा देवो सिया कामभोगा वसवत्ति सिद्धे वा अदुक्ख मसुभे एत्थ एत्थविणो सिया // 2 श्रु०१ अ.41 सेभिक्खु इत्यादि / समूलोत्तरगुणव्यवस्थितो भिक्षुर्नास्य क्रिया सावद्या विद्यते इत्यक्रियः संवृतात्मकतया सांपरायिककबिंधक इत्यर्थः / कुत एवंभूतो यतः प्राणिनामलूषकोऽहिंस कोऽनुपमर्दक इत्यर्थः / तथा न विद्यते क्रोधोयस्येत्यक्रोध एवममानो-ऽमाय्यलोभः कषायोपशमाचोपशांतः शीतीभूतस्तदुपशमाच्च परिनिर्वृत इव परिनिर्वृतः / एवं तावदैहिकेभ्यकामभोगेभ्यो विरतः पारलौकिकेभ्योऽपि विरत इति दर्शयति। नो आसंसं इत्यादि / नोनैवाशंसां पुरस्कृत्य ममानेन विशिष्टतपसा जन्मांतरे काम भोगावाप्तिर्भविष्यतीति। एवंभूतामाशंसा न पुरस्कुर्यादित्येतदेव दर्शयितुमाह / इमेण मे इत्यादि / अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफलेन दृष्टनामर्षोषध्यादिना पारलौकिकेन च श्रुतेनाकधम्मिल्लब्रम्हदत्तादीनां तथा (मुएणवत्ति) मननं ज्ञानं जातिस्मरणादिना ज्ञानेन तथाचार्यादेः सकाशाद्धिज्ञानेनाऽवगतेन ममापि विशिष्टं भविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात् / तथाऽमुना वा यात्रामात्रावृत्तिना धर्मेणानुष्ठितेनातोस्माद्भवाचयुतस्यप्रेत्यजन्-मांतरे स्यामहं देवस्तत्रस्थस्य च मे वशवर्तिन कामभोगा भवेयुरशेषकर्माऽ-- वियुतोवा सिद्धोऽदुखः शुभाशुभकर्मप्रकृत्य-पेक्षयेत्येवंभूतोऽहं स्यामागामिकाल इत्येवमाशंसां न विदध्या-दिति / यदि वा विशिष्टतपश्चरणादिनाऽऽगामिनि कालेममाणिमालघिमेत्यादिकाष्टप्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्यनया च सिद्ध्या सिद्धोऽहमदुःखोऽशुभो वामध्यस्थ इत्येवं रूपामाशंसां न कुर्यात् / तदकरणे च कारणमाह / एत्थ विइत्यादि / अत्रापि विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्चिन्निमित्तादुष्प्रणिधानसद्भावे सति कदाचित्सिद्धिः स्यात्कदा चिच्च नैवाशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धिःस्यात् / तथा चोक्तं (जेजत्तिया उहे ओ, भविस्सते चेव तत्तिया मोक्खे) इत्यादि / यदि वाऽत्राप्यणिमाद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणादौ सिद्धिः स्यात्कदाचिच न स्यात् तद्विपर्ययोपि वा स्यादित्येवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकारणां कथमाशंसा कहूँ युज्यते इति / सिद्धिश्वाष्ट प्रकारे यं - Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसंसाविप्पमुक्क 498 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसण अणिमा 1 गरिमा 2 लघिमा 3 महिमा प्राप्तिः५ प्राकारयं 6 ईशित्वं वशित्वं 8 यत्र कामावसायित्वामिति / तदेवमैहिकार्थमामुष्मिकार्थं च कीर्तिवर्णश्लोकाद्यर्थं च तपो न विधे यमिति स्थितं / / 4 / सूत्र टी०२ श्रु०१ अ आसंसाविप्पमुक्क-त्रि.(आशंसाविप्रमुक्त) इहलोकाद्यपेक्षया विप्रमुक्ते, पं.सू.! आशंसया विनिर्मुक्तोऽनुष्ठानं सर्वमाचरेत्।मोक्षे भवेच सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः प्रव०५ द्वारा आसंसि(न)-त्रि.(आशंसिन्) आ-शनस-णिनि-आशंसौ / आशंसाकर्तरि, स्त्रीयां डीप-वाच।। (धिइजुत्तो अणासंसी) अनाशंसी श्रोतृभ्यो न वस्त्राद्याकाङ्क्षति-आचा०१ उ.।। आसंसित्ता-त्रि०(आशंसितृ) आ-शंस्-तृच्-भाविशुभेच्छावति, स्त्रियां डीप्-वा० / / आसंसिय-त्रि (आशंसित) आ-शन्स्-त-कथिते, इच्छा-विषयीभूते, भावे क्त आशंसायाम् नवाच.॥ आसक ण्ण-पुं०(अश्वकर्ण) अश्वमुखद्गीपात्परतों ऽतरद्वीपभेदे, (अंतरदीव) शब्दे विवृत्तिः। स्था०४ ठा०। प्रव०२६२ द्वा०॥ आसण-न (आसन) आस्यते उपविश्यतेऽस्मिन्नित्यासनम् / आतापनास्थाने, उत्त० अ० वसत्यादौ, सूत्र०१ श्रु०२ अास्थाने, उत्त०१ अ०१ उ०वृ०५ उ०। आस्यते स्थीयतेऽस्मिन्निति शय्यायां आचा०२ अ०५ उ। पीठफलकादौ, आव०४ अ। स्था०९ ठा। निचू.१ उ०। सम.स०२० / आव०५ अ आधारलक्षणे धर्मास्तिकायादीनां लोकाकाशादिके,आ०१ अ.उपवेशन योग्यनिषद्यादिके, वृ०३ अ० विष्टरे, प्रश्न०१ द्वा०। हंसासनादिके, जी०३ प्र! भग०१ श०११ उ.उपवेशने, स्था०९ ठाना निन्थ्या यादृशानि आसनानि कल्पन्ते तान्याह। नो कप्पइ निग्गंच्छीए ठाणाइयाए हुं तए नो कप्पइ निग्गंथिए पडिमइच्छयाए हुं तए पदं नेसञ्जियाए उखड गासणियाए दंडासणियाए लगंडसाइयाए पउमन्थियाए उत्ताणियाए अन्तरकुजियाए एगपासियाए। नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः स्थानाय तथा भवितुं पदं प्रतिमा-स्थायिन्या नषेधिकाया उत्कुडिकासनिकाया वीरासनिकाया दण्डासनिकाया लगंडशायिन्या अवाङ्मुखाया उत्तानिकाया अन्ते कुब्जिकाया एकपार्श्वशायिन्या इति सूत्राक्षरसंस्कारः।। अत्र भाष्यकारो विषमपदानि व्याख्यानयति / / उद्दट्ठाणं ठाणे, यतंतु पडिमाउ हुंति भासाई॥ पंचवणिसिज्झाउ, तासि विभासाउ कायव्वा / / 1 / / व्या०। स्यानायत नामोर्ध्वस्थानरूपमायतं स्थानं तद्यस्यामस्ति सा स्थानायतिका / केचित्तु (ठाणाइग) मितिपठन्ति तत्रा यमर्थः / सर्वेषां / निषदनादीनां स्थानानामादिभूतमूलस्थानमतः स्था-नानामादौ गच्छतीति स्थानादिगं तदुच्यते तद्योगादार्यिकापि स्थानदिगेति व्यपदिश्यते। प्रतिमा मासिक्यादिका तासु तिष्ठतीति प्रतिमास्थायिनी (नेसज्जियायत्ति) निषद्याः पञ्चैव भवन्ति तासां विभाषा कर्तव्या साचेयम् निषद्यानामोपवेशनविशेषास्ताः पञ्चविधास्तद्यथा / / समपादयुता गोनिषधिका हस्तिशुंडिका पर्यता अर्द्धपर्यकाचेति तत्र यस्यांसमौ पादौयुतौचस्पृशतः सा समपादयुतायस्यान्तुगौरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका यत्र तु ताभ्यामुपविश्यकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिशुंडिका पर्यङ्का प्रतीता अर्द्धपर्यंका यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति एवं विधया निषद्यया चरतीति नैषधिकी उत्कुटिकासनन्तु सुगमत्वाद्भाष्यकृता न व्याख्यातम्॥ वीरासनन्तु सीहासणेव जहमुकजणु कणिविट्ठो। दंडे लगंडउबमा, आयतखुज्जायदुएहपि // 23 // वीरासनं नाम यथा सिंहासने उपविष्टोभून्यस्तपादअस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सिंहासनइवनिविष्ट मुक्तजानुकश्व निरालंबनेऽपि यदतिदुष्करं चैतदतएव वीरस्य साहसिकस्यासन वीरासनमित्युच्यते तदस्यास्तीति वीरासनिका। दंडासनिकालगंडशायिका पदद्वये यथाक्रम दंडस्यलगंडस्यचायत-कुब्जताभ्यामुपमा कर्तव्या तद्यथा। दंडस्येवायत पादप्रसाणेन दीर्घ यदासनं तदंडासनं तदस्यास्तीति दंडासनिका।लगंड किल दुस्संस्थितं काष्ठंतद्दुत्कुब्जतया मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालनेत्यर्थः / या तु यथाविध्यभिग्रहविशेषेण शेते सा लगंडशयिनी / अवाङ्मुखादीनितुपदानि सुगमत्वान्नव्या-ख्यातानीति दृष्टव्यम् / एते सर्वेऽप्यभिग्रह विशेषाः सयंतीनांप्रतिषिद्धाः एतान्प्रतिपद्यमानानां दोषानाह!॥ जोणी खुम्भणपिल्लण, गुरुगा पत्ताणहोइ सइकरण। गुरुगासवेनगम्मी, कारणे गहनं वग्धरणंच // व्या०। उर्ध्वस्थानादौ स्थानविशेषस्थिताया आर्यिकायायोनेः क्षोभी भवेत् तरुणा वा यथास्थितां दृष्ट्वा प्रेरयेयुः प्रति सेवेरन् अतएवैतानभिग्राहान् प्रतिपद्यमानायास्तस्याश्चतुर्गुरु भुक्त-भोगिनीनां चयेन कारणेन स्मृतिकरणं इतरासां कौतुकंचजायतेतथा वक्ष्यमाणसूत्रे प्रतिषेधयिष्यमाणं सवेन्टकं तुम्बकं यदि निग्रन्थी गृण्हाति तदा चतुर्गुरु स्मृति करणादयश्च त एव दोषाः कारणेतु तस्यापि गृहणं धारणंचानुज्ञातम् / एतचाप्रस्तुतमपि लाघवार्थ स्मृतिकरणादि दोषसाम्यादत्र भाष्ये भाष्यकृताऽभिहितमिति संभावयामः। अन्यथा वा सुविधा परिभाव्यम्॥ वीरासणगोदोही, मुत्तं सव्वे विताणकप्पन्ति। ते पुण पडुच वेडे, मुत्ताओअभिग्गहं पप्प // अन्तरोक्तासनानां मध्यात् वीरासनं गोदोहिकासनं च मुक्त्वा शेषाण्यूलस्थानादीनि सर्वाण्यपि तासां कल्पन्ते आह सूत्रे तान्यपि प्रतिषिद्धानि तत्कथमनुज्ञायन्त इत्याह / तानि पुनः शेषानि स्थानानि चेष्टांप्रतीत्य कल्पतेन पुनरभिग्रहविशेष सूत्राणि पुनरभिग्रहं प्राप्य प्रतीत्य प्रवृत्तानि तत इदमुक्तं भवति। अभिग्रहविशेषास्तूलस्थानानि संयतीनां न कल्पते / सामान्यतः पुनरावश्यकादिवेलायां यानि क्रियन्ते तानि कल्पन्ते एवापरःप्राह ननु चाभिग्रहादिरूपं तपः कर्म निर्धारणार्थमुक्तं ततः किमेवं संयतीनां तत्प्रतिषिध्यते उच्यते। तओ सोउ अगुन्ना ओ, जेण सेसन लुप्पइ। अकामियं पिपेलेग्जा, वारिउत्तेण मिग्गहो / व्या.। तपस्तदेव भगवद्भिरनुज्ञातं येन शेषं ब्रह्मचर्यादिकं गुण कदंबकं न लुप्यते कथंपुनः शेषं लुप्यत इत्याह अकामियमित्यादि। दंडायतादिस्थानस्थितामार्थिकां दृष्ट्वा कश्चिदुदीर्ण का नाम कामी काममनिच्छन्तीमपि प्रेरये त् प्रतिसे वेत Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसण 499 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसण - तेन कारणेन वारित एतादृशस्तासामभिग्रहः / किन्तु॥ जे यदंसादओपाण, जेय संसप्पगा भुवि। विठुस्स अट्ठियातावि, सहन्ति जह संजया / / व्याः। इह द्विधा कायोत्सर्गश्चेष्टायामभिभवेत्तत्राभिभवकायोत्सर्गसतासां प्रतिषिद्ध इति कृत्वाऽभिधीयते ये च दंशमशकादयः प्राणिनो ये च भुवि संसर्पकाः संचरणशीला उन्दिरकीटकादयस्ते कृतानुपद्रवान् यथासंयताः सहन्ते तथा ता अप्यार्यिकाश्चेष्टा-कायोत्सर्गस्थिता आवश्यकादिवेलायां सम्यक् सहन्ते तत एवं ता अपि कर्मनिर्जरां कुर्वन्ति आह यधुदीर्णकर्मणा तरुणादिना प्रेर्यमाणापि सा संयतीनामुत्पादयति ततः किमिति येना-भिग्रहविशेषेण बहुतरा कर्म निर्जरा भवति सर्वा यत उच्यते॥ वसिज्जा बंभचेरंसि, भुजमाणी तुकीदितु। तदाचित्तं तत्तइंति, थेरा आवयसभीरुणो॥ व्या। यद्यपि काचिदार्यिका धृतिबलयुक्ता युज्यमाना प्रति सेव्यमानापि भावतो ब्रह्मचर्ये वसेत्तथापि स्थविरा गौतमादयः सूरयःप्रवचनापयशः प्रमादभीरवस्तां न पूजयन्ति नप्रशंसंतीत्यर्थः किंच॥ तिव्वाभिग्गहसंजुत्ता, ट्ठाणमोणासणे रता। जहा सुज्झन्ति जयउ, एगाणेगं विहारिणो / / लज्जं च बंभचचंच, रक्खंतीउतवोरता। गच्छे चेव विसुज्जन्ति, तहा अणसणादिहि। व्या। तीरैर्द्रव्यादिविषयैरभिग्रहै: संयुक्तः स्थानमौनासन विशेषेषु रता एकानेकविहारिणः क्वचिदेकाकिविहारिणो जिनकल्पिकादय इत्यर्छः। केचिचानेकविहारिस्थविरकल्पिका इत्यर्थः / एवंविधा यतयोयथा शुध्यन्ति तथा निर्ग्रन्थ्योऽपि लज्जां ब्रह्मचर्य च सूत्रोक्तविधिना रक्षन्त्यस्तपोरता स्वाध्यायादितपः कर्मपरायणा गच्छ एव वसन्त्योऽनशनादिभिर्यथोचितैस्तपोभिः शुद्ध्यन्ति न तीरभिग्रहैः / अपिच॥ जोविदिद्धंधणोहुजा, इत्थिविधोनुकेवली। वसते सोवि गच्छंति, किमुच्छीवेदसिंघणा।। ध्या। योपि दग्धेन्धनो भस्मीकृतवेदमोहनीयकर्मा स्त्रीचिन्हो बहिः स्त्रीलक्षणलक्षितः केवली भवति सोऽपिगच्छवासे वसति किंपुनर्या संयती स्त्रीवेदेन सेन्धनासासुतरां गच्छे वसेदितिभावः / यद्यप्युक्तं यदि न स्वादयति ततः कोनाम तस्याअभिग्रह ग्रहणदोषः तदप्ययुक्तं प्रतिसेव्यमानाया आस्वादनस्य यादृच्छिकत्वात्कथ-मिति चेदुच्यते॥ अलायं घट्ठियं ज्झाइ, फुफुगा सहसायइ। कोवितो वड्डती बाहा, इत्थी वेदेवि सोगमो॥ व्या० / अलातं उल्मुकं घटितं चालितं सत् यथा ध्यायति प्रज्वलति यथा फुफुकाधट्टितं साहसायति भृशं दीप्यते यथा व्याधिरपथ्यासेवनादिना कोपितो वर्द्धते / स्त्रीवेदस्याऽपि समवगमो मन्तव्यः सोपि घट्टितः प्रज्वलतीत्यर्थः / अतोयादृच्छिकमास्यादनमिति आह / संयतीनां प्रतिषिद्धा अमी अभिग्रहाः परं संयतानां का वार्ता अत्रोच्यते। कारणमकारणेविय, गीयत्थंमिय तहा अमीयंमि। एएसव्वे विपए, संजयपक्खे विभासिजा।। व्या. यान्येतानि व्युत्सृष्टकायिकत्वादीनि पदान्युक्तानि तानि कारणे सिंहादिभिरभिभूतस्य देवताकंपननिमित्तं वा गीतार्थस्याऽ गीतार्थस्य वा कल्पन्ते अकारणे पुनरगीतार्थस्य न कल्पन्ते गीतार्थस्य निष्कारणे निर्जरानिमित्तं कल्पन्ते अचेलत्वादिकमपि गीतार्थस्य जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य कल्पते एवं संयतपक्षे एतान्यचेलतादीनि सर्वाण्यपि पदानिविभाषयेत। सावश्यके आसेन निर्ग्रन्थीनां / / नो कप्पइ निग्गन्थीणं सावस्सयंसि आसणंसि आसइत्त एवा तु अद्वित्तएवा कप्पइ निग्गन्थाणं सावस्सयंसि आसणंसि आसइत्तएवातु यदृित्तएवा। सावश्रयं नाम यस्य पृष्ठतोऽवष्टंभो भवति। एवं विधे आसने निर्ग्रन्थीनां नोकल्पते निर्ग्रन्थानां सावश्रये आसने आसितुं वा कल्पते निर्ग्रन्थ्य एतादृशे आसने यधुपविशति शेरतेवातदातएव गर्वादयो दोषाश्चतुर्गुरुच प्रायश्चित्तं द्वितीयपदे अल्पसागारिकस्थविरोग्लानो वा उपदिशेत् / निर्ग्रन्थानामपि न कल्पते यद्युपविशन्ति तदा चतुर्लघु सूत्रं तु कारणिकं तदेव कारणमाद्द।। सावस्सय इत्यादि पश्चार्ट्स योवृद्ध आचार्यः स पूर्वकृते गृहस्थैस्सार्द्ध निष्पादिते सावायेऽप्यासने उपविष्टोऽसागरिके एकान्तेवा यद्विनेयानां वाचनां दद्यात् सूत्रम्॥ नोकप्पइ निग्गंथीणं सविसाणंसि पठिंसि वा फलगंसि वा आसइत्तएवा तुयदिएवा कप्पइनिगंथाणंसविसाणंसिपीठं सिवा फलगंसि वा आसइत्तएवा तुयदृित्तएवा / / सविषाणं नाम यथा कपाटस्योभयतः शृंगे भवतः / एवं यत्र भिसिकादौ पीठे फलके वा विषाणं शृङ्गं भवति तत्र निर्ग-न्थीनामासितुवा न कल्पते निर्ग्रन्थानान्तु कल्पते / निर्ग्रन्थास्तु सविषाणे पीठे फलके वा यद्युपविशन्ति शेरते च तदा चतुर्गुरुके आज्ञादयश्च दोषाः। तथा॥ सविसाणे उड्डाहो, पावमादीयते पडिक्कुहम्। वितियपए वासासु, कप्पइ छिपणे विसाणम्मि। सविषाण आसने उपविशत्यामार्यिकायामुड्डाहो भवति। पादकर्मादयश्च दोषास्संभवन्ति। ततः प्रतिकुष्ट तत्रोपवेशन मितिगम्यते द्वितीयपदे वर्षासु पीठफलकदुर्लभतायां सविषाण मपि गृह्यते तस्य च विषाणंच्छित्वा परिष्ठाप्यते एवं च्छिन्ने विषाणे स्थविराया अन्यस्या वा कल्पते॥ जंतु लज्झइ छित्तुं तं,थेरीणं दलंति सविसाणं। इंति यसे दंडपाउं,छणघणमट्टिया एवा / / यत्रपुनःस्थातुंन कल्पतेततः सविषाणमपितदासनं स्थ-विरसाध्वीनां साधवः प्रयच्छन्ति / तदियं च दंडपादपोंछनंघनं छादयन्ति / तेनच चेष्टयित्वा स्थूलतरं कुर्वन्तीत्यर्थः। मृत्तिकया परिवेष्टयन्ति निर्ग्रथानां सविषाणमपि कल्पते। कुत इत्याह। समणाणउ ते दोसा, न हुंति तेण तदुपणुण्णा य। पीठं आसणहे. फलगं पुण होइ सेज्जहा। श्रमणानां पुनस्ते पादकदियो दोषा न भवन्ति ततो द्वे अपि पीठकफलके सविषाणेप्यनुज्ञाते / तत्र पीठमासनहेतोः फलकं पुनः शय्यार्थं शयननिमित्तं वर्षासु गृह्यते। अथ किमर्थं वर्षासु तत्रोपवेशनं शयनं वा क्रियते इत्याह॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसणअभिग्गह. 500 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसय कुत्थण आयदयट्ठा, उज्झायग अरिसवायरक्खहा। पाणा सीतल दीहा, रक्खट्टा होइफलगंतु 11 आर्द्रायां भुमौ स्थाप्यमानाया निषद्यायाः कथनं भवति शीतलायां च भूमावुपविशतां धान्यं न जीर्यति ततो ग्लानत्वेनात्म विराधनोदयार्थं च जीवदयानिमित्तं वर्षाभूमौ नोपवेष्टव्यं ! (उज्झायगंति) भूमेराीभावेन मलिनीभूतस्योपद्ये जुगुप्सनीय ता स्यात् असि वाक्षुभ्येषुः वातोवाऽधिकतरं प्रकुप्येत् ततएतेषां रक्षार्थं पीठकं गृहीतव्यं / तथा शीतलायां भूमौवहवः पनकप्रभृतयः प्राणिनः संमूछेयुः ततो भूमौ च योनीनां तेषां विराधनाभवति दीर्घजाताया वा भूमेनिर्गत्य दशेयुरुपलक्षणमिदं / ततोपधिको नजीर्णतादयोऽपिदोषा भवन्ति। एतेषां / रक्षार्थं वर्षासु फलकं गृह्यते। वृ.५ उ०।। गुरोः पुरतः आसन विधिं (विणय) शब्दे वक्ष्यमि / / सुखस्थिरासनोपेतं-स्थिरसुखमासनमिति पतंजलिःद्वा०२२ द्वा० आसणअभिग्गह-पुं०(आसनाभिग्रह) यत्र यत्रोपवेष्टुमिच्छन्ति तत्र तत्रासननयने, पंचा०२ वृ०॥ तिष्ठत एव गुरोरादरेणासनानयनपूर्वके अत्रोपविशत इति भणने दर्शनविनयभेदे, प्रव०। सम०९१ स०। निचू०२ उध०३ अधिका आसणगय-त्रि. (आसनगत) स्वस्थाने स्थिते, उत्त। आसनासीने (आसणग कोण पुच्छे जाणेवसेजाग ओकयाइवि) उत्ता आसणचाग--'(आसनत्याग) आसनत्यागे, पीठकाद्युपनयने द्वा०२९ द्वाoll आसणत्थ-त्रि०(आसनस्थ) उत्कृटकागोदोहिकावीरासना-द्यवस्थे, आचा०१ श्रु०९ अ०। (आसणत्थो पढिउमारवाहेति) नि.चू.१ उ०। आसणदाण--न०(आसनदान) पीठकाद्युपनयने, ध०१ अधिका आसणपयाण-न (आसनप्रदान) आसनदानमात्रे दर्शनविनय रूपे | विनयभेदे, गला निचू०॥ आसणाणुप्पयाण-न०(आसनानुप्रदान) गौरवमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसंचारणे, भ०१४ श०३ उठा पंचा०१८वृस्था०७ ठा०। आसण्ण-त्रि.(आसन्न) निकटवर्तिनि, उत्त०१ अ। स्था, आ म.पंचा०३ वृ.। ध०३ अधिळा आवळा प्रत्यासत्तिमति, षो. "उज्जेणीए नयरीए आसन्नोणडाणं गामा" आ०म०।। आसण्णलद्धपइम-त्रि (आसन्नलब्धप्रतिभ) परतीर्थीकादीनामुत्तरदानसमर्थे, गर अधिक। सूरौ प्रक०। आसण्णसिद्धिय-त्रि (आसन्नसिद्धिक) समासन्नीभूतनिवृत्ति के, पं०॥ आसतर-पुं०(अश्वतर) वेसरे, धनि चू.। आसत्त-त्रि (आसक्त) भूमिलग्ने ज्ञा भूमौ संवासे नoll आसत्ति-स्त्री (आसाक्ति) यो गिपरिभाषितेऽर्थे ज्ञा भेदे स्था० बाधिर्यकुंठतांधत्वजडताजिघ्रतामूकताकौण्यपंगुत्वक्लैब्योदावर्तमत्ततारूपैकादशेन्द्रियवधतुष्टिनवकविपर्ययसिद्ध्यष्टकविपर्ययलक्षणसप्तदशबुद्धिभेदादष्टाविंशतिधासक्तिः।। आसत्तोसत्त-त्रि.(आसक्तोत्सत) आ अवाङ् अधोभूमौ सक्त आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्ध्वं सक्तउत्सक्तः भूमौ उल्लोचने उपरिच संबद्धे जी. कल! आसत्थ-पुंन०(अश्वत्थ) पिप्पले नि.चूसा *आश्वस्त-त्रि मार्गजनितश्रमापनयनेनाश्वत्थतामुपगते, कल्प, भ०११ शउ०११ मनागांश्वसिते ओ०(आसत्था मंजाव करपल समोसरह) ज्ञा०। आसदेत्ता-अव्य.(अस्वाद्य) आस्वादनं कृत्वेत्यर्थे (सद्दफरिसरसरूवगन्धे आसदेत्ताभवइ) स्था०७ ठा आसघर-पु.(अश्वधर) अश्वधारकपुरुष, और येऽश्वान् धारय-न्ति। आसपुरा-स्त्री.(अश्वपुरा) पद्मविजये पुरीयुगले, स्था०(दोआसपुराओ) स्था०८ ठा आसम-पुं.(आश्रम) तापसावसयोपलक्षिते आश्रयविशेषे, व्य, दर्श. जी० प्रथमस्तापसादिभिरावासितः पश्चादपरोऽपिलोकस्तत्र गत्वा वसति वृ.नि.चू प्रज्ञा औ०आचा अनु. तीर्थस्थाने, च स्था। (ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोयतिस्तथा) इति चतुर्पु, लोकप्रसिद्धेषु अवस्थाविशेषभाक्षु मनुष्येषु। आसमहग-त्रि(अश्वमर्दक) घोटकानां मर्दनाधिकारिणि पुरुषे ज्ञा०। आसमपय-न (आश्रमपद) तापसाश्रमोपलक्षिते स्थाने उत्त (कणखलं नाम आसमपदं) आ.म.द्विना आसमभेय-पु.(आश्रमभेद) "ब्रह्मचारी गृहस्थ श्ववानप्रस्थोयतिस्तेथत्यादिनोक्तस्वरूपे भूमिकाविशेषे, पंचा०१० वृ०। आसमाण-त्रि (आसीन) निषण्णे, (अजयं आसमाणोय पाण भूयाहिहिंसई) आसीनो निषण्णतयाऽनुपयुक्त आकुंचनादि भावेन / द०४ अ. आसमि-पुं.(आश्रमिन्) लिङ्गिनि, पं०व०१ द्वा०। आसमित-पु.(अश्वमित्र) सामुच्छेदानां निन्हवानां धर्माचार्ये, योहि महागिरिशिष्यस्य कौडिन्याभिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगा लक्ष्मीगृहेचैत्ये अनुप्रवादाभिधाने पूर्व नैपुणिके वस्तुनि छिन्नच्छेदनाय वक्तव्यतायां (पडुप्पन्नसमया नेरइया वोच्छिजिस्सन्ति एवं जाव वैमाणियत्ति एवं वितियाइसमएसुवत्तव्व) मित्येवंरूपमालापकमधीयानो मिथ्यात्वमुपगतः सामुच्छेदिकनिन्हावान् प्रावर्तयत् इति समुच्छेदिकशब्दो विवृत्यर्थिनाऽन्देष्टव्यः॥ स्था०७ ठा० उत्त०१ अ विशे०/ आसमुह पुं(अश्वमुख) आदर्शमुखद्वीपस्य परतोंऽतरद्वीपे, तत्स्थेमनुष्ये च अन्तरद्वीपशब्दे विवृत्तिः उत्त० 36 अ०। प्रवका 262 द्वा०ा स्था०४ ठाला आसय-त्रि.(आशक) भोजिनि, आचा०५ अ०४ उ०ा आशय स्वकीयदर्शनाभ्युपगमे, सूत्र०१ श्रु०१ अ। परिणामे, द्वा२९द्रा० अभिप्राये, सूत्र,१ श्रु०१५ अध्यवसायविशेष, षो०३ विव०। प्रणिधिप्रवृत्तिविध्नजय, सिद्धिविनियोगभेदतःप्रायः / धर्मज्ञैराख्यातः शुभाशयः पंचधात्र विधौ // 6| प्रणिधानादिराशिरुक्तस्तमेव संख्याविशिष्टं नामग्राहमाह। (प्रणिधीत्यादि) प्रणिधिश्च वृत्तिश्च विघ्नजयश्च सिद्धिश्च विनियोगश्च एतएव भेदास्तानाश्रित्य कर्मणि ल्यबलोपे पंचमी। प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियो गभेदतः प्राय इति Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसयंत 501 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसरयण प्राचुर्येण शास्त्रेषु धर्मज्ञैर्धर्मवेदिभिराख्यातः कथितः शुभा शयः शुभपरिणामः पंचधा पंचप्रकारः / अत्र प्रक्रमे विधौ कर्तव्योप-देशे। प्रतिपादिताशयपंचकव्यतिरेकेण पुष्टिशुद्धिद्वय लक्षण-द्वयमनुबंधि न भवतिति प्रणिधानादिना स्वरूपमन्यत्र दृष्टादृष्टजन्मवेदनीये कर्माशये क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरःषो टीद्वा // * आश्रय-पुंआश्रयतीत्याश्रयः धूमबलाकादौ हेतौ, अनु० / प्रत्यये,आचा.१ अ आधारे, अष्ट, आलये,स्था०३ठा० / भजनीये, ज्ञा०१००अ०॥ *आस्यक-न० मुखे,क्ष०५ अ / जी.। आचा. (आसेणनत्थिदुरो) आस्येन मुखेन द.अ॥ आसयंत-त्रि०(आश्रयत्) गृण्हति,विशे ईषद्भजमाने भ० 13 श० 6 उ. आश्रयणीयं वस्तु भ०११ 2011 उ. / / आसयभेय-पुं०(आशयभेद) अध्यवसायविशेष,कथमयं वरा कोधर्मकान्तारोत्तरणेन निखिलासुखदिरहभाजनं भविष्यतीत्या दिरूपे,प्रति // आसयमहत्त-न०(आशयमहत्व) आशयस्य विपुलत्वे,षो०१ वि०॥ आसयविसेस-पु०(आशयविशेष) चित्तोत्साहातिशये,द्वा०२१ द्वा० // आसरयण-न०(अश्वरत्न) चक्रवर्तिनोऽश्वोत्कृष्टे, यक्षसहस्राधिष्ठितेऽश्वे,स. 14 स०॥ भरतस्य कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावईकमेणं | समभिरूढे / जं0 आ. चू.१ स. // स्था०९ ठा० // प्रज्ञा. 19 पद // अश्ववर्णक: तएणं तं असीइमंगलमूसिअं णवणउइमं गुलपरिणाह अट्ठसयमंगुलनायतं छत्तीस मंगुलमूसिअसिरं चउरंगुलकण्णगं वीसइ अंगुल बाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलस अंगुल जंघार्ग चउरंगुलमूसिअखुरं मुत्तोलीसंवत्त वलिअमज्जं ईसिं अंगुलपणापटुं संगयपढे सण्णायपढ़ सजायपठं पसत्यपर्छ विसिद्धपढ़ एणी जण्णुणय विछ धट्ठपटुं वित्तलयकसणिवायअं केल्लण्णप्पहारपरिवजिअंगं तवणी अच्छासम्महिलाणं वक्खण सुफुल्लथासगविचित्तरयणरजुपासं कंचण मणि कणग पयर गणाणाविह घंटिअ जालमुत्तिआ जालएहिं परिमंडिएण पटेण सोभमाणेण सोभमाणकट्ठयण इंदनीलमरगयमसारगल्लमुहमंण रइअ आविद्धमाणिकसुत्तग विभूसिअंकणगमय पडम सुकयतिलकं देवमइविकप्पिअंसुरवरिंदवाहणज्जोग्गं वयं सुरूवं दुईज्जमाण पंचवाह चामरा मेलगंधरेंतं अणब्भवाहं अभेलणेयण कोकासी अवहलपत्तलच्छसेया वरणन-वकण्णगतविअतवणिज तालुजी हासयंसि अमिसेअघोणं पोक्खरपत्तमिव,सलिलबिन्दु अचंचलं चंचल सरीरं चोक्खचरगपरिव्वायगो विवहिलीयमाणं 2 खुरचलणचंचु पुडे हिं धरणिअलं अभिहणमाणं 2 दोवि अचलणेजमगसमगं मुहाओ विणिग्गमंतं च सिग्घयाए मुणालतंतुउदगमविणिस्साए पकमंतं जाइकुलरूवपव्वयप सत्थबारसावत्तकविसुद्धलक्खणं सुकुलप्पसूअं तेहार्वि मद्दथं विणीयं अणु असुकुमाललोमनिद्धच्छर्वि सुजायं अमरमणपवणगरल-जइणं चंवलसिग्घगामि इसिमिव,खं तिखमाए सुसीसमिव, पचक्खया विणीयं उदगहुतवहपासाणं कहमसकर सतालुइल्ल तडकडगविसमपन्भार गिरिदरीत्थासु जघण पिल्लणणिरणासमत्थं अचंडपाडिअं दंडपातिअणं सुपाति अकालतालु च कालहेंसिं जिअनिई गवेसं जिअपरिसहं जच्चजातीयमल्लहाणिं सुगपत्त सुवण्णकामेलामिरामं कमलागेलं णामेणं आसरयण // टीका / तएणं तं असीइमंगुलमुसिअ इत आरभ्य सिणावइक्कमेण समभिरूढे इत्येतदंतेन सूत्रेण पदयोजना / तत इतिक्रियाक्रम सूचकं वचनं तं प्रसिद्धगुणं नाम्ना कमलामेलं अश्वरवं सेनापतिक्रमेण सन्नाहादिपरिधानविधिना समभिरूढ आरूढः किंविशिष्टमित्याह / अशीत्यंगुलानिउछ्रितं अंगुलं चात्र मानविशेषः। नव नवत्यंगुलानि एकोनशतांगुलानि एकोनश-तांगुलप्रमाणः परिणाहो मध्यपरिधिर्यस्य तत्तथा / अष्टोत्तर-शतांगुलानि आयतं दीर्घ सर्वत्र मकारोऽलाक्षणिकः / तुरङ्गाणा तुंगत्वं खुरतः प्रारभ्य कर्णावधि परिणाहः पृष्ठपार्बोदरांतरावधि। आयामो मुखादिपुच्छमूलं / यदाह पराशरः / मुखादापुच्छकं दैध्य ,पृष्टपार्थोदरांतरात् / आनाह उच्छ्रयः पादा,दिज्ञेयो यावदासनम् // 1 // तत्रोचत्वसंख्यामेलनायसाक्षादेव सूत्रकृदाह // लोचितशिरस्कं चतुरंगुल (बत्तीसमित्यादि) द्वात्रिंशदंगुलप्रमाणं कर्णकं ह्रस्वकर्णत्वस्य जात्यतुर गलक्षण-त्वात् / अनेन कर्णयोरुचत्वेनास्थिरयौवनत्वमभिहितं शंकु कर्णत्वात् हयानां यौवनपाते वनितास्तनयोरिव अनयोः पातः स्यात् / दीर्घत्वात् अत्र योजनीयाः क्रमप्राप्त धान्येन पूर्वकर्णविशेषणं ज्ञेयं पञ्चाच्छिरसः अश्वश्रवसोरूवं मुचतरत्वात् विंशत्यंगुलप्रमाणा वाहाः शिरोभागाधोवर्ती जानुनोरुपरिवर्ती प्राक्चरणभागो यस्य तत्तथा / चतुरंगुलप्रमाणं जानु बाहुजंघासंधिरूपोऽवयवो यस्य तत्तथा / षोडशांगुलप्रमाणा जंधायाच संख्या पूर्वोक्ता असीवर्ती खुरावधिरवयवौ यस्य तत्तथा / चतुरंगुलोच्छ्रिताः खुराः पादतलरूपा अवयवा यस्य तत्तथा / एषामवयवानामुचत्वमीलने सर्वसंख्या पूर्वोक्ता अशी त्यंगुलरूपा मकारः सर्वत्रालाक्षणिकः। यतु श्रेष्ठाश्चमानमाश्रित्यालौकिक पराशरगंथे "जघन्यमध्यश्रेष्ठानामश्वानामार्यातिर्भवेत् / अंगुलानां शतं हीनं विशत्या दशभिस्विभिः१परिणाहाङ्गुलानिस्यात् सप्ततिः सप्तसप्ततिः / एकाशीतिः समासेन त्रिविधंस्याद्यथाक्रमम तथा षष्टिश्चतुष्षाष्टिरष्टषष्टिः समुच्छ्रयः त्रिपंचसप्तकयुताः विंशतिः स्यान्मुखायतिः 3 इत्यत्र सप्तनवत्यंगुलान्यायति एकाशीत्यंगुलानि परिणाहः अष्ठषष्ट्य गुलानि समुच्छ्रयः सप्तविंशत्यङ्गुलानि मुखायतिरित्युक्तमस्ति तदपरश्रेष्ठहयानाश्रित्य / नतुचक्रवर्तिरत्नमालित्य दृष्टश्चायं विशेषः / पुरुषोत्सेधे सामुद्रिके उत्तमपुरुषाणामष्टोत्तरशतां गुलाण्युत्सेधः / उत्तमोत्तमानां तु विंशत्युत्तरशताङ्गुलानि अनेनास्य प्रमाणोपेतत्वं सूचितं / सम्प्रत्यवयवेषु लक्षणोपेतत्वं सूचयति / मुक्तोली नाम अध उपरि च सङ्कीर्णा मध्ये Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसरयण 502 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसरयण त्वीषद्विशाला कोष्ठिका तद्वत्संवृत्तं सम्यग्वर्तुलं वलितं नमनस्वभावंनतु (सिरिसातिसे अघोण) मिति दृश्यते तत्र शिरीष शिरीषपुष्पं स्तब्धमध्यं यस्य तत्तथा / परिणाहस्यमध्यपरिधिरूपस्य चैव तद्वतिश्वेताघोणायस्येति तथा पुष्करपत्रमिव कमलदलमिव सलिलस्य चिंत्यमानत्वादुचितेयमुपमा / ईषदंगुलं यावत्प्रणतं न तु प्रारब्धं बिन्दवोयत्र तदेवं विधं कोऽर्थः यथा पुष्करपत्रं जलान्तस्थं अतिप्रणतस्योपवेष्टुर्दुःखावहत्वात् पृष्ठे पर्यायस्थानं यस्य तत्तथा वाताहतजलबिन्दुयुतं भवति / तथैतदपि सलिलं पानीयं आरोहकसुखावहपृष्ठकमित्यर्थः / सम्यग् यथा क्रमेण नतं पृष्ठ यस्य लावण्यमित्यर्थः / तस्य बिन्दवः छटास्तैर्युतं बिन्दुगृहणेनाऽत्र प्रत्यंगं तत्तथा / सुजातं जन्मदोषरहितं पृष्ठं यस्य तत्तथा / प्रशस्तशालिहोत्र- लावण्यं सूचित लोकेऽपि प्रसिद्धमेतत् / मुखेऽस्य पानीयमिति अचंचलं लक्षणानुसारि पृष्ठं यस्य तत्तथा / किंबहुना विशिष्टपृष्ठं प्रधानपृष्ठमिति स्वामिकार्यकरणे स्थिरं साधुवाहित्वात् चंचलं शरीरं जातिस्वभावात् यावत् / उक्तं पृष्ठे पर्याणस्थानवर्णनं / अथ तत्रैवावशिष्टभागं विशिनष्टि / अथ यदि चंचलाङ्गस्तदायुर्मेध्यवस्तुस्वपिस्वाङ्गप्रवर्तको एणी हरिणी तस्या जानुवदुन्नतं उभयपार्श्वयोर्विस्तृतञ्च चरमभागे स्तब्धं भविष्यतीत्याह / चोक्षः कृतस्नानश्वरको धाटिभि क्षाधर परिव्राजको सुदृढं पृष्ठ यस्य त-त्तथा / वेत्रो जलवंशःलता वा कशा चर्मदण्डस्तेषां मस्करी ततश्चरकसहितः परिव्राजकश्वरकपरिव्राजकः प्रथमा द्वितीयार्थे / निपातास्तैस्तथा अंकेल्लणप्रहारैस्तर्जकविशेषाघातैश्च परिवर्जितं नचोक्षपरिव्राजकमिव प्राकृतशैल्याअकारप्रश्लेषादभिलीयमानं श अश्ववारमनोऽनुकूलचारित्वात् अंगं यस्य तत्तथा / तपनीयमयाः अश्रुभिः संसर्गशंकया आत्मानं संवृण्वान्ति आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विवचनम् स्थासका दर्पणाकारा अश्वालंकारविशेषा यत्र तदेवंविधं अहिलाणं एवमग्रेऽपिभाव्यं / अथाऽस्य क्रियाविशेषैत्यित्वं लक्षयति / मुखसंयमनविशेषो यस्य तत्तथा / वरकनकमयानि सुष्टुशोभनानि खुरप्रधानाश्वरणाखुरचरणास्तेषां चंचुपुटा आघातविशेषापुष्पाणि स्थासकाश्च तैर्विचित्रा रत्नमयी रञ्जुः पार्श्वयोः स्तैर्धरणीतलमभिघ्नदननुभूतविलेखनं सामान्यतः पुंसइवाऽश्वस्योपपृष्ठोदरान्तवर्त्यवयवविशेषयोर्यस्य त-त्तथा / बध्यते पट्टिका: लक्षणमिति एतस्य लक्षणत्वेन शालिहोत्रे प्रतिपादनाद्यतः "खुरैःखनेद्यः पर्याणदृढीकरणार्थमश्वानामुभयोः पार्श्वयोरिति कांचनयुतमणिमयानि पृथिवी मश्वोलोकोत्तरः स्मृतः" इति। अश्ववारप्रयोगनर्तितोहिहके वलकनकमयानि च प्रतरकाणि पत्रिकाभिधानभूषणानि योग्रपादावुदस्यति तत्रास्यशक्तिविशेषणद्वारेण दर्शयति द्वावपि च चरणौ अन्तरान्तरीयेषु तानि तथाभूतानि नानाविधानि घंटिकाजालानि यमकसमकं युगपन्मुखाद्विनिर्गम दिव निस्सारयदिव कोऽर्थः / मौक्तिकजालकानि च तैः परिमंडितेन पृष्ठोन शोभमानकर्केतना इदमग्रपादावू नयत्तथा मुखान्तिकं प्रापयति यथा जन उत्प्रेक्षते इमौ दिरत्नमयं मुखमंडनार्छ रचितं आविद्धमाणिक्यं प्रोतमाणिक्यसूत्रकं मुखाद्विनिर्गमयति पुनः क्रियांतरदर्शनेनैतद्विशिनष्टि / शीघ्र तया हयमुखभूषण-विशेषणविशेषस्तेन विभूषित कनकमयपद्मेन सुष्ठ कृतं लाघवविशेषेण मृणालं पद्मनालं तस्य तंतुः सूत्राकारोऽवयवविशेषः सच तिलकं यस्य तत्तथा देवमये न स्वर्गिचातुर्येण विविधप्रकारेण कल्पितं उदकं च ते अपि निश्रयावलंब्य आस्तामन्य दुर्गादिकं प्रक्रामत् संचरत् / सर्जितं / सुरवरेन्द्रवाहनमुचैः श्रवा हयस्तस्य योग्य मंडलकरणाभ्यास- अयमर्थः / यथा अन्येषां संचरिष्णूनां मृणालतंतूदकादावर्षटभकेन स्तस्या व्रजगतवित्यस्य ल्युप्रत्यये व्रजनं प्रापकं / ये गत्यर्थास्ते भवतःतथा नास्येति सूत्रे चैकवचनमार्षत्वात् तथा जातिर्मातृपक्षः कुलं प्राप्त्यर्छा इतिवचनात् / अयंभावः / यादृशं खुरली अयमुचैःश्रवाः पितृपक्षः रूपं सदाकारसंस्थानं तेषां प्रत्ययो विश्वासो येभ्यस्ते च ते करोति तादृशोऽयमपि / अत्र षष्ठ्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् / यथासरूपं प्रशस्ताः प्रदक्षिणावहत्वात् शुभस्थानस्थितत्वाच्च ! / येद्वादशावर्तास्ते सुंदरं द्रवंति इतस्ततो दोलायमानानि सहजचंचलाङ्गत्वा- यत्र तत्तथा बहुव्रीहिलक्षणः कः प्रत्ययः / विशुद्धा निर्दोषा मिश्रितानि द्रलभालमौलिकर्णाद्वयमूलविनिवेशितत्वेन पंचसंख्याकानि यानि लक्षणानि अश्वशास्वप्रसिद्धानि यस्य तत्तथा / ततः पदव-यस्य चारूणि। चामराणि तेषां मेलक एकस्मिन् मूर्द्धनि संगमस्तंधरद्वहत्चामरा कर्मधारयः द्वादशा वर्ता श्व इमेवराहोक्ताः ।"ये पाणि गलकर्णसंस्थिताः इत्यत्र स्त्रीनिर्देशःसमयसिद्धएव / गौडमतेन वा चामरा इत्यादन्तःशब्दः। पृष्ठ मध्यनयनोपरि स्च्छिताः / ओष्ठसक्थिभुजकुक्षिपार्श्वगास्तेलअत्रापीडशब्दे व्याख्यायमाने मर्दालंकार-एवोक्तोभवति नतु लाटसहिताः सुशोभनाः ॥१॥अत्रवृत्तिलेशः / प्रपाणमुत्तरोष्ठतलं गलः कर्णाद्यलंकारःदृश्यतेलोके एकंचामरं मूर्धालंकारभूतं चामरं एकंच कंटं यत्र स्थित आवर्तो देवमणिनाम हयानां महालक्षणतया प्रसिद्धः / कर्णालंकारभूतं एकंचभालालंकारभूतं एकं च कंठालंकारभूत-भिति कर्णी प्रतीतौ एतेषु स्थानेषु संस्थितास्तथोष्ठपर्याणस्थानं मध्य प्रतीतं / तेनयथोक्तव्याख्यानमेव सुन्दरं / अथ देवमतिविकल्पिता- नयने अपि तथैव तदुपरि स्थिताः तथा ओष्ठौ प्रतीतौ / सक्थिनी दिविशेषविशिष्ट उचैः श्रवानामशक्र हयोऽपिस्यादित्याह / पाश्चात्यपादयोनूिपरिभागभुजौ प्राक्पादयोर्जा नूपरिगःकुक्षि अनभ्राचारीवाहोऽश्वःउचैःश्रवास्तदन्य (अदभवाहमिति) पाठेतु अदभ्रं रत्नवामो दक्षिणकुक्ष्यावर्तस्य गर्हितत्वात् / / पाश्याँ प्रसिद्धी भूरि वहतीतिअदभ्रवाहस्तत् अभेलेदोषादिना असंकुचिते नयने यस्त तद्गताः ललाट प्रतीतं तदावर्तनासहिताः अत्र कर्ण तत्तथा अतएव कोकासिते विकसिते बहले हढे अनश्रुपातित्वात् पत्रले नयनादिस्थानानां द्विसंख्याकत्वेऽपिजात्य-पेक्षतया द्वादशैव पक्ष्मवती नतु ऐद्रलुप्तिकरोगवशाद्रोमरहिते अक्षिणी यस्य तत्तथा / स्थानानि स्थानभेदाऽनुसारेण स्थानिभेदा अपि द्वादशैवेति / / सदाचरणे शोभार्थ दंशमशकादिरक्षार्थ वा प्रच्छादनपटेन च कनकानि तथा सुकुलप्रसूतं हयशास्त्रोक्तं क्षत्रियाश्च पितृकं मेधावी स्वामी नव्यवस्तुवर्णानि यस्य तत्तथा / स्वर्णतंतु स्यूतप्रछादनपटमित्यर्थः / पदसंज्ञादि प्राप्ता िधारकं अदुष्टं विनीतं स्वाभीष्टकारित्वात् / तप्त तपनीयं तद्वदरुणे तालुजिव्हे यत्र तदेवं विधमास्यं यस्यतत्तथा / अणुकतनुकानामतिसूक्ष्माणां सुकुमालानां लोम्नां स्निग्घा छवि ततः पूर्वविशेषणेन कर्मधारयः / श्रीकाया लक्ष्म्या अभिषेकोऽभिषेचन यत्र तत् तच्छा / सुष्टु यानं गमनं यस्य तत्तथा / अमरमनः नाम शारीरलक्षणं घोणायां नासिकायां यस्य तत्तथा / क्वचित्पाठान्तरेतु | पवनगरुडाःप्रतीताःतान् वेगाधिक्ये म जयतीति अमरमनः Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसरह 503 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसवभावणा पवनगरुडजयि अतएव चपलं शीघ्रगतिकंपश्चात्पदद्वयस्यकर्मधारयः / आचा० / रा०। विषयकषायादिकेषु वा० / आचा० ओ०। सू०। क्षात्या क्रोधाभावेन नत्वसामर्थ्येन या क्षमा तया ऋषिमिवानगारमिव / कर्मप्रदेशद्वाररूपेषु / सू०पापोपादानकारणेषु / ग०।। रागे-आसवे क्षमाप्रधानत्वात्तस्य न चरणयोर्लत्तादायक। न तु मुखेन दंशकं न च आश्रति प्रविशन्तियेन काण्यात्मनीति आश्रवाः कर्महेतुरिति भावः पुच्छाघातकरमिति / सुशिष्यामिव प्रत्यक्षतो विनीतं अत्र ताकारः स्थानाव। (एगे आसवे) आश्रति प्रति-शंति येनकडाण्यात्मनीति प्राकृतशैली भवस्तेन प्रत्य-क्षविनीतं / उदकं हुतवहोऽग्निः पाषाणः पांशुः आश्रवः कर्मबन्धहेतुरितिभावः / सर्वेन्द्रियकषाया व्रतक्रियायोगरूपरेणुः कर्दमः शर्करं सलघूपलखंडंस्थानं सवालुकं / अत्रार्थ इल्लप्रत्ययः / क्रमेण पंचचतुःपंचपंचविंशतिभेदः / उक्तश्च / इन्द्रिय कसायअव्वय बहुलसिकताकणं स्थानं तटं नदीतटंकटको गिरि-नितंबविषमप्राग्भारौ ५किरिया 25 पण चउ अपंचपणवीसा / जोगतिएणेव भवे आसो भेयाउ प्राग्वत् / गिरिदर्थः प्रतीताः / तासु लंघनमतिक्रामणं प्रेरणं आरुढस्य वाया लत्ति / तदेवमयं द्विचत्वारिंशतिद्विधोडथवा द्विविधो पुंसोऽभिमुखे दर्शनधावना दिना संज्ञाकरणपूवकं प्रवर्तनं निस्तारणा द्रव्यभावभेदात्तत्र द्वव्याश्रवो यजलान्तरगतनावादौ तथा-विधपरिणामेन तत्पारप्रापणा तत्र समर्थना चंडैरुप्रैः सुभटैः रणापातितंदंडवत् छिट्टैर्जलप्रवेशनामावा आश्रवस्तु यजीवाना-म्यंचेन्द्रिवयादिछिद्रवतः पततीत्येवंशीलं दंडपाति अतर्कितमेव प्रतिपक्षं स्कंधावारे पतनशीलं कर्मजलसंचय इति सावाश्रव सामान्यादेक एवेति / सम०। स्था० // अनेना ऽस्योत्पतनस्वभावोऽपि सूचितः / मार्गादिखेदेष्वापि नाश्रुपातय आचा।कर्मप्रव० तीत्येवं शीलमनश्रुपाति तच्छा अकालतालुं अश्यामतालुं पूर्व जे आसवाते परिस्सवा / आचा० / रक्ततावर्णितेऽपि यत्पुनरकालतालु इति विशेषणं तत्तालुनः य इति सामान्य निर्देश आश्रवत्यष्टप्रकारं कर्म थैरारंभैस्ते आश्रवाः श्यामत्वमतीतरामपलक्षणमिति तन्निषेधख्यापनार्थं चः समुच्चये परिसमन्तात्श्रवति गलति यैरनुष्ठानविशेषैस्ते परिश्रवाः यएवाश्रवाः कालेऽराजकानां राजनिर्णयार्थकाधिवासनादिके समये हेषते कर्मबन्धस्थानानि तएवपरिश्रवाः // कर्मनिर्जरा-स्पदानीदमुक्तं भवति / शब्दायत्येवं शीलं कालहेषि जितनिद्राआलस्ययेन तत् जित-निद्रं / यानीतरजनाचरितानि सगंगनादीनी सुखकारणतया तानि त्यक्तालस्यमित्यर्थः / कार्येष्वप्रमादित्वात् यथा श्रुतार्थेव्याख्यायमाने कर्मबन्धहेतुत्वादाश्रवाः पुनस्तान्येव तत्वविदां विषय सुखपराङ्मुखानां हयशास्त्रविरोधस्तथाहि / "सदैव निद्रा वशगा, निद्राच्छेदस्य संभवः / निस्सारतया संसारसरणि-देश्यानीनि कृत्वा वैराग्यजनकान्यतः जायते संगरे प्राप्ते, कर्मा रस्य च भक्षणे" इति / यद्वा जितनिद्रत्वं परिश्रवा निर्जरास्थानानि आश्रवतीत्याश्रवः कर्मबन्धके आचा०५ अ०६ समावसरप्राप्तत्वादश्वरत्नत्वेना-ल्पनिद्राकत्वाच्च / तथा गवेषकं उ० आश्रवति तान् शोभनत्वेनाशोभनत्वे वा गृह्णातीत्याश्रवाः / सूत्रकर मूत्रपुरीषोत्सर्गादौ उचिता-नुचितस्थानान्वेषकं / जितपरिषहं शीता श्रु०१४ अ आ समन्तात् श्रृण्वंति गृण्हती गुरुवचनमाकर्णयंतीत्याश्रवाः तपाद्यातुरत्वेऽपि अखिन्नं जात्यं प्राधान्या जातितिपक्षस्तत्र भवं जात्यं उत०१ अगुरुवचने स्थिते / आश्रवो वचने स्थित इति हैमः उत०१ अ / जातीयं निर्दोष-कमित्यर्थः / निर्दोषपितृकत्वं तु प्रागुक्तं / ईदृग्गुणयुक्तो हि समये स्वामिने न द्रह्यति मातृमुखा वगतस्वकारणत्वात् व्यतिकरः आसवणिरोहभाव-पुं. (आश्रवनिरोधभाव) आश्रवस्य कर्मा प्रकुपितचिन्तितस्वामिद्रोहककि शोरवत्मल्लिविंचकिलकुसुमं तद्वतशुभ्रं दानहेतोरविरतलक्षणस्थान्तरार्थस्य निरोधो निषेधो यस्तस्य यो भावः अश्लेष्मत्वेनाना विलिप्तपूतिगंधिच घ्राणं पाथो यस्यतत्तथा / इकारः सत्ता स तथा संवरसत्वे, पंचा० / वृ० / प्राकृत शैली भवः / ततः पूर्वपदेन कर्म-धारयः / शुकपत्रवत् शुक आसवदार-न०(आश्रवद्वार) आस्रवणं जीवतडागे कर्मजलस्य पिच्छ्चत् सुष्टुवर्णो यस्य तत्तथा / कोमलत्वं कायेन ततःपदद्वयस्य संगलनमाश्रवः कर्मबन्धनमित्यर्थः / तस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपाया कर्मधारयसमासः मनोभिरामम्। जंन्टी० // आश्रवद्वाराणि स्था०५ ठा० / कर्मोपादानोपायेषु मिथ्यात्वादिषु, / स० आसरह-पुं० (अश्वरथ) अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथःज्ञा०१अ.अश्व० १सा युक्तोरथोऽश्वरथः / अश्वेन युक्ते रथे, (चाउग्घंटं आसरयणंदुड्ढढे) पंच आसवदारा / फमिच्छतं आविरई पमाया कसाया जोगा // नि०यू०१३ अ०। आव०१ अ०॥ आसराय पुं.(अश्वराज) अणहिलपट्टननगरे जाते पौरपाटकुल मण्डने आ०चू० / प्रणातिपातादिषु / स्था०। आव०। आचा०। गुर्जरधराधिपतौ, / अणहिल्ल वाड्यपट्टणे यपोरवाल कुलमंडणा आसराय अत्थेगे गोयमा पाणी, जेए यं मणुए विसं / कुमरदेविलणया गुञ्जरधराहिवई / प्रधानेऽश्वे,स्था०५ ग० / आसवदारे णिरोहादि, इयरहे पसोक्खंचरे / महा०॥ आसवपुं.(आसव)अपकायतेजस्कायपवनवनस्पतिकायादि पिण्डरूपे। आसवभावणा-स्त्री०(आश्रवभावना) आसवतत्वालोचने,ध०। अ. पिं / मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्ने,प्रज्ञा पत्रादिवासकद्रव्यभेदादनेकप्रकारे आश्रवभावना चैवं / निर्याससारे, जी० मादकरसे अष्ट, कुसुमोत्पन्ने मद्ये उत्तः / चंद्रहासादिके, रा०। मनोवाकायकर्माणि, योगाः कर्म शुभाशुभं / यदाश्रवंति जंतूना, मावास्तेन कीर्तिताः // 5 // *आश्रव-आ-श्रवतियत्क्षरतिजलंयैस्तेआश्रवाः सूक्ष्म रंधेषुभ० / अश्रोत्यादत्ते कडर्म यैस्ते आश्रवाः / धर्म आश्रवति प्रविशति कर्म मैत्र्यादिवासितं चेतः कर्म स्यूते शुभात्मकं / येन स आश्रवः / सूत्र० / अष्टप्रकारकं कर्म येन स / आ०। सम्म०। कषायविषयाक्रांतं, वितनोत्यशुभं मनः // 2 // आश्रीयते उपाय॑ते कर्म एभिः इत्याश्रवाः / प्रव, / उत्त प्राणातिपात यतोन्यत्र-मैत्र्या सर्वेषु सत्वेषु, प्रमोदेन गुणाधिके / मृषावादा-दत्तादानमैयथुनमिथ्यात्वादिषु / आव / परिग्रह लक्षणेषु वा माध्यस्थ्येनाविनीतेषु, कृपया दःखितेषु वा // 3 // Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसवमाणा 504 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसाढभूइ सततं वासितं स्वातं, कस्यचित्पुण्यशालिनः / वितनोति शुभं कर्म, द्विचत्वारिंशदात्मकामिति // 4 // तथा-श्रमार्जनाय निर्मिध्यं.श्रतज्ञानाश्रितं वचः। विपरीतं पुनयि, मशुभार्जनहेतवे / / 5 / / शरीरेण च सुप्तेन, शरीरी चिनुते शुभं / सततारंभिणा जंतु, घातकेनाशुभं पुनः // 6 // कषायविषया योगाः, प्रमादाचरती तथा / मिथ्यात्वमार्तरौद्रं चे, त्यशुभं प्रति हेतवः / / 7 / / नन्वेते बंधं प्रति हेतुत्वेनोक्ताः / यदाह वाचकमुख्यः / मिथ्या दर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव इति तत्किमाश्रव-भावनायां बंधहेतूनामेतेषामभिधानं सत्यं आश्रवभावबंधभावनापि महर्षिभिर्भावनात्वेनोक्ता / आश्रवभावनयैव गतार्थत्वात् आश्रयेण कषायात्ताः कर्मपुद्गला आत्मना संबद्यमाना बंध इत्यभिधीयंत यदाह सकषायत्वान्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते सबन्धः स्यात् इत्यतोऽपि कर्म पुगलादानहे तावाश्रवे बंधहेतूनामभिधान-मदुष्टं / ननु तथापिबंधहेतूनां पाठो निरर्थकः नैवं बंधाश्रवयोरेकत्वेनोक्तत्वादाश्रवहेतूनामेवायं पाठ इति सर्वमवदातमिति / आसवमाण-वि०(आस्रवत्) शनैः प्रस्रवति-(उदयं आसवमाणं पेहारा) आचा०४०१ उ.। आसवर-पुं०(अश्ववर) अश्वानांमध्ये प्रधाने-औ० / भ०९ श०३३ उ० / आसवसक्कि-(ण) स्त्री०(आस्रवसक्तिन) आसवा हिंसादयस्तेषुसक्तं संगं आस्रवसक्तं तद्विद्यते यस्य आस्रवसक्ती हिंसाद्यनुषंगवति आचा०।५ अ०१ऊ। आसवार-पुं०(अश्ववार) अश्वारूढपुरुषे-भः / 9 श.३३ ऊ ।ततो आसवारेण दिह्रो-आ.म.॥ आसवोदगा-स्त्री०(आसवोदक) आसवमिव चंद्रहासादिपरमासवमिवोदकं यासांताः आसवोदकाः। आसवमिष्टोदकासु वापीषु / जी०३प्र० / राणा आससेण-पुं०(अश्वसेन) चतुर्दशे महाग्रहे-ज-कल्प० / पार्श्वजिनपितरि, साकल्प० भरतक्षेत्रेऽवसर्पिण्यांजातस्य चतर्थचक्रिणः पितरि, स० आव०। आसा-स्त्री०(आशा) वांछयाम् ज्ञा० 1 अ तं / इच्छाविशेषे प्रश्न / भोगाकांक्षायाम् / आसं च छंदं च ठिगिव धीरे आचा आहारोपकरणगणस्वजनशरीराधनभिष्वंगरूपायामिच्छायाम् / अनु०। अप्राप्तार्थानां प्राप्तिसंभावनायाम् औ०। परसत्व-वस्तुप्राप्त्यभिलाषे / आतुः। आसाइजो पहुत्तं, देइ सदा सत्तमप्पणो वस्स / इय सव्वत्थमूला, परिहरियव्या सया आसा // संघा० / / उत्तररुचकपर्वतस्य विजयकूटवासिन्यां दिकुमार्याम् / स्था० 8 ठा.द्वी। दिशि, च वाचा आसाई-स्त्री०(आश्वयुजी) अश्वयुगश्विनी तस्यां भवाऽश्वायुजो / आश्विनेयमासभाविन्याममायां पूर्णिमायां / जं०। आसाएनाण-त्रि०(आशातयत्) आशातनां कुर्वति / स्था०४ठा०। *आस्वादयत्-त्रि इक्ष्वादेरिव ईषत्स्वाद्यति बहु त्यजति च आचा०कल्प०वि०। आसागह-पुं० (आशाग्रह) चित्तव्याक्षेपकारित्वात् ग्रहतुल्यवांछायाम् / आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, मोक्यामहे किल वयं सततं सुखानि इत्याशयाव्रत विमोहितमानसाना,कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् // 3 // एहिगच्छ पतोत्तिष्ठ वद मौनं समाचर / इत्याद्याशाग्रहग्रस्त क्रीडंति धनिनोऽर्थिभिः२ आचा०॥ आसाढ-पुं०(आषाढ) आषाढी पूर्णिमा यत्र मासे स आषाढः / आषाढी पूर्णिमा घटिते मासे, | आषाढे मासे सकृत् कर्क संक्रांती उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति / स०१८ स.। आसाढेणं मासे एगूणतीसं राइंदिआई राइंदियणेणं पं०। स० 29 स.॥ आषाढपुनिमाएण उक्कोसपए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ म.११ श.११ उ. / उत्त. 126 अ०॥ आव्यक्तिकनिन्हवानां धर्माचार्य, / विशे० / ठा० / आषाढो येन हि श्वेतांब्यां नगर्या पोलासा उद्यानेच शिष्याणां प्रतिपन्ना गाढयोगाना रात्रौ हृदयशूलेन मरणमासाद्य दिवेन भूत्वातदनुकंपया स्वकीयमेव कलेवरमधिष्ठाय सर्वा समाचारी-मनुप्रवर्तयता योगसमाप्तिं शीघ्रं कृत्वा वंदित्वा तानभिहितं च क्षमणीयं भदंता! यन् मया यूयं वंदनकारिताः यस्य च शिष्या इयचिरमसंयतो वन्दितोऽस्माभिरिति विचिंत्या व्यक्तमतमाश्रि-ताः ।स्था ठा०७ / उज्जयिन्यामवधाविते स्वनामख्याते आचार्येच। स्थिरीकरणशब्दे कच्छा / नि. चू। आसाढपाडिवया-स्त्री०(आषाढप्रतिपत) आषाढपूर्णमास्या अनन्तरा प्रतिपदाषाढप्रतिपत् / श्रावणकृष्णप्रतिपदि,स्था०1४ ठा० // आसाठभूइ-पुं०(आषाढभूति) धर्मरुचिसूरिशिष्ये, पिण्ड / विश्वकर्मा नाम नटः तस्य द्वे दुहितरी तेचद्वे अप्यतिसुरूपे अतिशयाते येनवदनं कात्या दिनकरकरोद्भासितकमलश्रियं नयनयुगलेन चंचरीक कुलवलययुगलं पीनोन्नतनिरंतरेण पयोध-रयुगलेन संहततालफलयुगलं बाहुयुगलेन सपल्लवालताःत्रिव-लिभंगुरेण मध्यभागेनेंद्रायुधमध्यं जधनविस्तरेण जान्हवीपुलिन-देशं ऊरुयुगलेन गजकलभनासाभोगं जंघायुगलेन कुरुविंदवृत्त-संस्थितिंचरणयुगलेन कूर्मदेहाकृतिं सुकुमारतया शिरीषकुसुम-संचयं वचनमधुरतया वसंतमासोन्मत्त कोकिलारवं अन्यदाच तत्र यथाविहारक्रम समाययुः। धर्मरुचयो नाम सूरयः / तेषामंते-वासी प्रज्ञानिधिराषाढभूतिः स भिक्षार्थमटन् कथमपि विश्वकर्मणो नटस्य गृहे प्राविशत् / तत्र चलब्धः प्रधानो मोदकः द्वारे च वि-निर्गत्य तेन चिंतितमेष सूरीणां भविष्यति तत आत्मार्थ रूप-परावर्त्तमाधायान्यं मोदकं मार्गयामि ततः काणरूपं कृत्वा पुनः प्रविष्टो लब्धो द्वितीयो मोदकः / ततो भूयोपि चिंतितं एष उपाध्यायस्य भविष्यति / ततः कुब्जरूपमभिनिर्वयंपुनरपि प्रविष्टः लब्धः Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसाढभूइ 505 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आसाढा तृतीयो मोदकः / एष द्वितीयसंघाटकसाधोभविष्यतीतिविचिंत्य कुष्टिरूपं कृत्वा चतुर्थवेलायां प्रविष्टः लब्धश्चतुर्थो मोदकः एतानिच रूपाणि कुर्वन् मालोपरिस्थितेन विश्वकर्मणा नटेन ददृशे / चिंतितं चानेन सम्यगेषोऽस्माकं मध्ये नटो भवति / परं केनोपायेन स यतितव्य इति / एवं च चिंतयतः समुत्पन्ना तस्य शेमुषी दुहितृभयां क्षोभयित्वा गृहीतव्य इति / ततो मालादुतीर्य सादरमाकार्याषाढभूतिः पात्रभरणप्रमाणैर्मोदकैः प्रलोभितः भणितश्वासावहो भगवन ! प्रतिदिवसमस्माकं भक्तदानग्रहणेनानुग्रहोऽनुविधातव्यः ततोगतस्वोपाश्रयमाषाढभूति-रकथयचाते रूपपरावर्तनवृत्तांतं विश्वकर्मा निजकुटुंबस्य भणिते च दुहितरौ यथा सादरं दानस्नेहदर्शनादिना तथाकर्तव्यं / यथा युष्माकमायत्तोभवति प्रतिदिवसमायाति च भिक्षार्थमाषाढभूति-दुहितरावपि तथैवोपचरतः ततोऽत्यंतमनुरक्त मवगम्य रहसि भणितो यथायमत्यंतं तवानुरक्तस्ततोऽस्मान् परिणीय त्वं परिभुक्ष्वेति अत्रांतरे च तस्यादेयमियाय चारित्रावरणकर्म गलितो गुरूपदेशः प्राणे सति विवेको दूरीभूतः कुलजात्य-भिमानस्ततस्तेनोक्तमेवं भवतु परमहं गुरुपादांतिके लिंगं विमुच्य समागच्छामि गतो गुरुसमीपं प्रणतस्तेषां पादयुगलं प्रकटितो निजाभिप्रायः / ततो गुरुभिरवादि वत्स! नेदंयुष्मादृशां विवेकरत्नैकशरणानामवगाहितसक लशास्त्रार्थानामु भयलोक-जुगुप्सनीयं समाचरितुमुचितं / तथा (दीहरसीलं परिपालि,ऊण विसएसुवच्छमार मसु / को गोपयमि बुड्डइउपहिंत रिउण बाहाहिं) इत्यादि / तत उवाचाषाढभूतिर्भगवन्! यथा यूयमादिशथ तथैव केवलप्रतिकूलकर्मणोदयः। प्रतिपक्षभावनारूपकवदुर्बलतया मदनशबरेण निरंतर समुत्रस्यमृगनयनरमणीकटाक्षविशेषोपनिपातमादधता शतशो मे जर्जरीकृतं हृदयं एवं चोक्तवा गुरुपादान् प्रणम्य तदंतिके रजोहरणं मुक्तवान् / ततः कथमहममीषामनुपकृतोपकारिणामपारसंसारोदधिनिमग्न जंतुसमुद्धरणैकचेतसां सकलजगत्परमबंधुकल्पानां गुरूणां पृष्ठं ददामीति पश्चात्कृतपादप्रचारो हा कथमहं भूयोऽप्येवंविधगुरूणां चरणकमलं प्राप्स्यामीति विचिंतयत् वसतेर्विनिर्गत्य विश्वकर्मणो भवनमायातः / परिभावितमस्य सादरमनिमेषदृष्ट्या नटदुहितृभ्यां वपुः प्रत्यभासत। सकलजगदाश्चर्यमस्य रूपं ततोप्यचिंतयतामिमे अहो कौमुदीशशांकमंडलमिवास्य मनोहरकांतिवदनं, कमलदल-युगलमिव नयनयुगलं गरुत्मत इव तुंगमायतं नासानालं कुंद मुकुलश्रेणिरिव सुस्निग्धा दशनपद्धतिः,महापुरकपाट मिव विशालमस्य मासलं,वक्षःस्थलं मृगरिपोरिव संवर्तितः कटि प्रदेशो निगूढजानुप्रदेश जंघायुगलं सुप्रतिष्ठितकूर्मयुगलमिव चरणयुगलं // ततो विश्वकर्मा अवोचत् महाभाग तवायत्तेद्वे अप्यमू कन्यके ततः स्वीक्रियतामिति / ततः परिणीते ते द्वे अपि तेन कन्यके भणिते च विश्वक मा यो नामैतादृशीमप्यवस्था गतो गरुपादान् स्मरति सनियमादुत्तमप्रकृतिः / ततएव भिक्षावर्जनार्थ सर्वदैव मद्यपानविरहिताभिर्युष्माभिः स्थातव्यं / अन्यथैष विरक्तो यास्यति / आषाढभूतिश्च सकलकलाकलापपरिज्ञानकुशलो नानाविधैर्विज्ञानातिशयैः सर्वेषामपि नटानामप्रणीर्बभूव ततस्ते च सर्वेपि नटाः स्वां स्वायुवतिं स्वस्वपृहे विसुप्य च राजकुलंगता। आषाढभूति भार्याभ्यामपि चिंतितमद्य राजकुले गतो ऽस्माकं भर्ता सकलामपि च रात्रिं गमयिष्यति / ततः पिबामो यथेच्छमा-सवमिति | तथैव कृतं / मदवशाव्यपगतचेतने विगतवस्त्रे द्वितीय भूमिकाया उपरि सुप्ते तिष्ठतः ! राजकुले परराष्ट्रदूतः समायात इति राज्ञो व्याक्षेपो बभूव / ततो नवसर इति कृत्वा प्रतीहारेण मुत्कलिता सर्वेऽपिनटाः समागता स्वं स्वं भवनं आषाढभूतिश्च निजावासे समागत्य यावत् द्वितीयभूमिका मारोहति / तावत्ते द्वे अपि निजभार्ये विगतवस्त्रे बीभत्स्ये पश्यति ततः स महात्मा चिंतयत् अहो मे मूढता अहो मे निर्विवेकता / अहो मे दुर्विलसितं यदेतादृशमप्यशुचिकरंडकभूतानामधो गतिनिबंधनानां कृते परमशुचिभूतमिह परलोककल्याणपरंपराजनकमोक्षेपेण मुक्तिपदनिबंधन संयममुभामाभूव ततोऽद्यापि न मे किमपि विनष्टमपि, गच्छामि गुरुपाहांतिकं, प्रतिपद्ये चारित्रं, प्रक्षालयामिपापपंकमिति,विचिंत्य गतो गृहात् / हष्टः कथमपि विश्वकर्मणा लक्षित इंगितादिना यथा विरक्त एष यातीति ततः सत्वरं निजदुहितरावुत्थाप्य निर्भर्त्सयति / हा दुरात्मिके हीनपुण्य-चतुर्दशीके ! युष्मद्विलसितमेतादृशमवलोक्य सकलनिधानभूतो युश्यद्भर्ता विरक्तो यातीति तद्यदि निवर्तयितुं शक्नुथस्स्तर्हि निवर्त्तयथो नो चेत् प्रजीवनं याचध्वमिति / ततस्ताः ससंभ्रम परिहितवसनाः पृष्ठतः प्रधाव्य गच्छतः पादयोलग्ना वदंति च / हा स्वामिन् ! क्षमस्वैकमपराधं निवर्तस्व मास्माननुरक्ताः परिहर एवमुक्तोपि समनागपि चेतसिन रज्यते ततस्ताभ्यामवाचि / स्वामिन् ! यद्येवं तर्हि प्रजीवनं देहि येन पश्चादपि युष्मत्प्रसादेन जीवामस्तत एवं भवत्विति दाक्षिण्यवशादनुमत्य प्रतिनिवृत्तः / ततः कृतं भरतचक्रवर्तिनश्चरितप्रकाशकं राष्ट्रपालं नाम नाटकं / ततो विज्ञप्तो विश्वकर्मणा सिंहरथो राजा / देव ! आषाढभूतिना राष्ट्रपालं नाम नाटकं विरचितं / तत्संप्रति नर्त्यतामिति / परंतत्र राजपुत्रपंचशतैराभरणविभूषितै प्रयोजनं / ततो राज्ञा दत्तानि राजपुत्राणां पंचशतानि तानि यथातथमाषाढभूतिना शिक्षितानि ततः प्रारब्धं नाटकं नर्तितुं तत्र आषाढभूतिना शिक्षित इक्ष्वा कुवंशसंभूतो भरतश्चक्रवातपदस्थितो। राजपुत्राश्च यथायोगं कृताः सामंतादयः। तत्र च नाटके यथा भरतेन भारतं षट्खंडं प्रसाधितं / यथा चतुर्दशरत्नानि नव महानिधयः प्राप्ता यथा वा दर्शगृहा-वस्थितस्य केवलालोकप्रादुर्भावो, यथा च पंचशतपरिवारेण सह प्रवृज्या प्रतिपन्ना तत्सर्वमप्यभिनीयते ततो राज्ञा लोकेन च परितुष्टेन सर्वेणापि यथाशक्ति हारकुंडलादीन्याभरणानि सुवर्णवस्त्राणि च प्रदत्तानि / ततः सर्वजनानां धर्मलाभं प्रदाय पंचशतपरिवार आषाढभूतिर्गतुं प्रावर्तत / ततः किमेतदिति राज्ञा निवारितस्तेनोक्तं किं भरतश्चवतींप्रव्रज्यामादाय निवृत्तोयेनाहं निवर्ते / इति गतः सपरिवारो गुरुसमीपं वस्त्राभरणदिकंच समस्तं निजभार्याभ्यांदत्तवान् तच प्रजीवनकं किल तयोतिं / गृहीता दीक्षा तदपि च नाटकं विश्वकर्मणा कुसुमपुरे नर्तितुमारब्धं / तत्रापि पंचशतसंख्याः क्षत्रियाःप्रव्रजंतो निःक्षत्रियां पृथिवीं करिप्यंतीति नाटकपुस्तकमग्नौ प्रवेशितं ! पिं०1 मायापिंडे इदमुदाहरणम् / / आषाढा-स्त्री(आषाढा) नक्षत्रभेदे (दो आसाढा) स्था० 2 ठा० / द्वे आषाढे पूर्वाषाढा उतराषाढाच-वाच०। आसाढायरिय-पुं०(आषाढाचार्य)आव्यक्तिकनिन्हवाचार्येऔर। आसाठी-स्त्री०(आषाढी) आषाढानक्षत्रयुक्ता पूर्णमासी आषाढी आषाढमासभाविन्यां पूणमायाम्-सू०च० आव०। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसापास 506 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसायणा आसापास-पुं०(आशापाश) इच्छाविशेषरूपे बन्धने आसापासपडिबद्धपाणा / आशा इच्छाविशेषः सैव पाशो बन्धनं तेन प्रतिबद्धाः संरुद्धा निर्यान्त इति गम्यं प्राणा येषां ते तच्छा / प्रश्न०३ द्वा० (किंकिंन कुणइजीवो आसापासेण वा बद्धो),-संघा.। आसावल्ली-स्त्री०(आशावल्ली) सोमनाथभंगसमये यवनै शितस्य कर्णदेवस्य मातरि, ती। आसाय-पुं०(आस्वाद)आईषदपि अइतिनस्वादः आस्वादमनागस्वादे रसनेन्द्रियजन्ये ज्ञाने / आस्वाद्यतेऽनेनेति कृत्वा यत्प्रकर्षादिव्यरससंविदुजायतेतस्मिश्च / द्वाज्ञा० / विशे० 1 अभिलाषे आचा०८ अ / आसायण-न०(आशातन) आ समन्ताच्छातयति मुक्तिमार्गाद् भ्रंशयति इत्याशातनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदने / विशे०। आसायणा-स्त्री०(आशातना) ज्ञानादिगुणा आ सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वस्यन्तेयाभिस्ता आशातनाः स्छा०। प्रतीपवर्तनेषु / अधिक्षेपेषु / सम्म० विनयभ्रंशेषु आव / प्रतिषिद्धकरणेषु / आ० चालधुतापादनेषु / द०आतु०। आशातना ज्ञानदेवगुर्वादीनांजधन्यादिभेदाः त्रिविधाः तत्र ज्ञानस्य, तत्र जघन्या ज्ञानाशातना ज्ञानोपकरणस्थनिष्ठीवनस्पर्शेऽतिकस्थे, च / तस्मिन्नधोवातनिसर्गो हीनाधिकाक्षरोचार इत्यादिका 1 मध्यमा आकालिकं निरुपधानतपो वा अध्ययन भ्रात्यान्यथार्थकल्पनं ज्ञानोपकरणस्य प्रमादात्पादादिस्पर्शा भूपातनं चेत्यादिरूपा उत्कृष्टत्वेनाक्षरमार्जनं उपर्युपवेशनशयनादिज्ञानोपकरणेऽतिकस्थे उच्चारादिकरणं ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा निंदा प्रत्यनीकतोपघातकरणमुत्सूत्रभाषणं चेत्यादिस्वरूपा 3 जधन्या देवाशातना वासकुंपिकाद्यास्फालन-श्वांसवस्त्रांचलादिस्पर्शाधा 1 मध्यमा शरीराद्यशुद्ध्या पूजनं प्रतिमाभूनिपातनं चेत्याद्या 2 उत्कृष्टा प्रतिमायाश्चरणश्लेष्म-स्वेदादिस्पर्शनभंगजननावहेलनाद्या च // श्रुताशातना फलमुवहाणशब्दे महा० / प्रवचनाशातक आचार्यः / महा० ५अध्य० // से भयवं जेण कई कहिं कयाई पमायदोसओ पवयण मासाएजा। से णं किम आयरियं पावेजा / गोयमा ! जेणं केई कहिं वि कयाईपमायदोसओ असई कोहेण वामाणेण वा मायाए वा लाभेण वा रागेण वा दोसेण वा भएण वा हासेण वा मोहेण वा अन्नाणदोसेण वा पवयणस्स अन्नयरहाणे वइमेत्तेणं पि अणगारं असमायारीपरूवमाणे वा अणुमन्नेमाणे वा पवयणमासाएज्जा से णं वोहिं पिणो पावे किंमंग! आयरियपलंभं 1 से भयवं ! किं अभटवे मिछादिट्ठी / आयरिये भवेजा गोयमा ! भवेजा / एत्थं च णं इंगालमद्दगाईन एसे भयवं ! किं मिच्छट्टिी निखमेजा। गोयमा ! निक्खमेजा देवस्य / / अथवा देवाशातना जघन्या दश मध्यमाश्चत्वारिंशदुतकृष्टा श्वतुरशीतिस्ताश्च क्रमेणैवमाहुः / / तंबोल पाण२ भोअण, 3 वाहणहत्थीभोग 5 सुवण 6 निट्ठवणं७ // मुत्तुचारं९ जूअं,१० वजे जिणमंदिरस्संते // 1 // इति जघन्यतो दश देवाशातनाः / प्रव०३८ वा तंबोलेत्या-दिगाथायां तांबूलपानभोजनोपानतस्त्री भोगस्वपननिष्ठीवनानि मूत्रं प्रस्रवणं उच्चारं पुरीष द्यूतमंधकादि वर्जयेत् तीर्थकदाशातनाहेतुत्वाजिनमंदिरस्यांऽतर्विवेकी जन इति। मुत्त पुरीसं२पाणंजाणा सण५ सयण इत्थितंवोलं 8 निट्ठीवणं च 9 जूअं 10 जूआइपलोयणं 11 विगहा 12 / / 3 / / पल्हत्थीकरणं 13 पिहुपासायपसारण 14 परप्परविचाओ 15 परिहासो 16 मच्छरिआ 17 सीहासणमाइपरिभोगो 18 // 2 // केससरीरविभूसण 19 छत्ता२० सिसकिरीड 22 चमरधरणं च 23 धरणं 24 जुवईहिं सविआरहास 25 खिडप्पसंगाय 26 13 / / अकयमुहकोस 27 मलिणंगवत्थ२८ जिणपूअणामणसोअणेगयत्तं 29 सचित्तदविआणविमुआणं 30 / / 4 || अचित्तदव्विअबुस्सणंच 31 तहणेगसाडिअत्तचि 32 जिणदसणेअणंजलि 33 जिणंमि दिलुमि अ अपूआ 34 // 5 // अहवा अणिहकुसुमाइपूअणं 35 तह अणायरपवित्ती 36 जिणपडिणीअनिवारण 37 चेइअदध्वस्सुबेहणमो 38 6 || सहसामस्थिउवाणह 39 पुर्व चिइवंदणाइपढणंच 10 जिणभवणाइठिआणं चालीसायणा एए 7 // इति मध्यमतश्चत्वारिंशदाशातना // उत्कृष्टाः 84 / ध! खेलं ? केलिं 2 कलिं 3 कला कुललयं 5 तंवोल मुग्णालयं, गाली कंगुलिआ९ सरीरधुवणं 10 केसे 11 नहे 12 लोहिअं 13 / भत्तोसं 14 तय 15 पित्त 16 वंत 17 दसणा 18 विस्सामणा 19 दामणं,२० दंत 21 च्छी 22 नह 23 गल्ल 24 नासिअ२५ सिरो 26 सोत्त 27 छवीणंमलं 28 // 3 // मुत्तं 29 मीलण 30 लिक्खयं 31 विभजणं 32 भंडार 33 दुट्ठासणं 34 छाणी 35 कप्पउ 36 दालि 37 पप्पड 38 वडी विस्सारणं 39 नासणं 40 अकंदं 1 विकह 42 सरच्छुघउणं 43 तेरिछसंहावणं 44 अग्गीसेवण 45 रंधणं 46 परिखणं 47 निस्सीहिआभंजणं 48 // 2 / / छतो 49 वाणह 50 सत्थ 51 चामर 52 मणोणेगत्त५३ मंषगणं 14 सचित्ताण 96 मचाय 56 चायमजिए 57 दिठ्ठीइनो अंजती 58 साडेगुत्तरमंग-भंग 59 मउड 60 मोलिंसिरोसेहरं६२ हुड्डा३जिंडुहगेडि आइरमणं 64 जोहार 65 मंडकि अं१६ |रेकारं 67 धरणं 68 रणं 69 विचरणं वालाण 70 पल्हथिअं७१ पाऊ 72 पायपसारणं 73 पुडुपुडी 74 पंकं 75 रओ 76 मेहुणं Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 507 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसायणा 77 जूअं७८ जेमण 79 गुज्ज विजश्वणिज 82 सिजं८३जलं 84 मज्जणं / एमाईओ अमजकजसुजुओवजे जिणिं-दालए / विषमपदार्थे यथा // आसायणाओ चुलसी इति / अष्टात्रिंशत्तमंद्वारमाह // खेलं केलिकलिमित्यादि शार्दूलवृत्तचतुष्टयमिदं व्याख्यायते / तत्र जिनभवने इतमियं च कुर्वन्नाशातनां करोतिति तात्पर्यार्थः / आयं लाभं ज्ञानादीनां निःशेषकल्याण संपलतावितानाविकलबीजानां शातयंति विनाशयंत्याशातनाः / तत्र खेलं मुखश्लेष्माणं जिनमंदिरे त्यजति / तथा केलिं क्रीडां करोति / तथा कलिं वा कलहं विधत्ते तथा केला धनुर्वेदादिकाः खलूरिकायामिव तत्र शिक्षते / तथा कुललयं गंडूषं विधत्ते तांबूलं तत्र चर्वयति तथा तांबूलसंबंधिनमुद्गाल माचीलं तत्र मुंचति / तथा गालीश्चकारमकारादिकास्तत्र ददाति तथा कंगुलिकालध्वीं महतींच विधत्ते / तथा शरीरस्य धावनं प्रक्षालनं कुरुते / तथा केशान मस्तकादिभ्य स्तत्रोत्तारयति / तथा नखान् हस्तपादसंबंधिनः किरति। तथा लोहितं शरीरान्निर्गतं तत्र विसृजति तथा भक्तोषं सुखादिकांतत्र खादति तथा त्वचं व्रणादिसंबधिनी पातयति / तया पित्तधातुविशेषमौषधादिना तत्र पातयति / तथा वांतं वमनं करोति / तथा दशनान्दंतान क्षिपतितत्संस्कारं वा कुरुते / तथा विश्रामणामंगसंबाधनं कार-यति तथा दामनं बंधनमजादितिरश्चां विधत्ते तथा दंताक्षिन-खगंडनासिकाशिरश्रोत्रछवीनां संबंधिनं मलं जिनगृहे त्यजति तत्र छविः शरीरं शेषाश्च तदवयवा इति प्रथमवृत्तं / तथा मंत्रं भूतादिनिग्रहलक्षणं राजादिकार्यपर्यालोचनरूपं वा कुरुते। तथा मीलनं क्वापि स्वकीयविवाहादिकृत्ये निर्णयाय वृद्धपुरुषाणां तत्रोपवेशनं / तथा लेख्यक व्यवहारादिसंबंधितत्र कुरुतेतथा विभजनं विभागंदायादादीनां तत्र विधत्ते / तथा भांडागारं निजद्रव्यादेर्विधत्ते तथा दुष्टासनं पादोपरि पाद-स्थापनादिकमनौचित्योपवेशनं कुरुते / तथा छाणी गोमयपिंडः कूर्पटं वस्त्रं दालिमुगादिदिलरूपा पर्पटवटिके प्रसिद्धे / तत एतेषां विसारणं च उद्घापनकृते विस्तारणं / तथा नाशनं नृप-दायादादिभयेन चैत्यस्य गर्भगृहादिष्वंतर्धानं तथा आक्रं दं रुदितविशेष पुत्रकलत्रादिवियोग तत्र विधात्ते तथा विविधाः कथा रमणीयरमण्यादिसंबंधिनीः कुरुते तथा शराणां बाणानामिक्षूणां च घटनं सरच्छति पाठे तु शराणां अस्त्राणां च धनुः शराणां घटनं / तथा तिरश्चामश्वगवादीनां संस्थापनं तथा अग्निसेवनं शीतादौ सति तथा रंधनं पाचनमन्नादीनां तथा परीक्षणं द्रव्यादीनां तथा नैषेधिकीभंजनमवश्यमेव हि चैत्यादौ प्रविशद्भिः सामाचारीचतुरैनैषेधिकी करणीया / ततस्तस्य अकरणं भजन-माशातनेति द्वितीयवृत्तार्थः / तथा छत्रस्य तथा उपानहोस्तथा शस्त्राणां खगादीनां चामरयोश्च देवगृहाबहिरमोचनं मध्ये वा धरणं तथा मनसोऽनेकांतता नैकाण्यं नानाविकल्पकल्पनमित्यर्थः अभ्यंजन तैलादिना तथा सचित्तानां पुष्पतांबूलपत्रादीनामत्यागो वहिरमोक्षणं तथा त्यागःपरिहरणमजीए इति अजीवानां हाररत्नमुद्रिकादीनां बहिस्तन्मोचनो हि अहो भिक्षाचराणामयं धर्म इत्यवर्ण बादो दुष्टलोकै विधीयते / तथा सर्वज्ञप्रतिमादृष्टौ दृग्गोचरतायां नो नैवांजलिकरणमंजलिविरचनं तथा एकशाटकेन एकोपरितनवस्त्रेण उत्तरासंगभंग उत्तरासंगस्याकरणं तथा मुकुटं किरीटं मस्तके धरंति तथा मौलिं शिरावेष्टेनवि शेषरूपां करोति तथा शिरः शेखरं कुसुमादिमयं धत्ते / तथा हुंडा पारा-पतनालिकेरादिसंबंधिनीं विधत्ते तथा जिड्डहत्ति कंदुकः गिंदुका तत्क्षेपिणी चक्रयष्टिका ताभ्यामादिशब्दाद्गलिका कपर्दिका-दिभिश्च रमणं क्रीडनं तथा तथा ज्यात्कारेणं पित्रादीनां / तथा भांडानां विटानां क्रिया कक्षा चोदनादिका इति तृतीयवृत्तार्थः / तथा रेकारं तिरस्कारप्रकाशकं रेरे रुद्रदत्तेत्यादि वक्ति / तथा धरणकं रोधनमपकारिणामधमण्णादीनां च तथा रणं संग्रामकरणं / तथा विचरणं बालानां विजढीकरणं तथा पर्यस्तिकाकरणं / तथा पादुका काष्ठादिमयंचरणरक्षणोपकरणं तथा पादयोः प्रसारणं स्वैरं निराकुलतायां / तथा पुटपुटिकादापनं तथा एकंकर्दमं करोति निजदेहावयवक्षालनादिना तथा रजोधूली तत्र पादादिलग्नां / जाटयति। तथा मैथुनं मिथुनस्य कर्म तथा यूकां मस्तकादिभ्यः क्षिपति वीक्षयति वा तथा जेमनं भोजनं तथा गुह्य लिंगं तस्यासंवृतस्य करणं जुज्जमिति तु पाठे युद्धं दृग्युद्धबाहुयुद्धादि / तथाविञ्जत्ति वैद्यकं तथा वाणिज्य क्रयलक्षणं तथा शय्यांकृत्वा तत्र स्वपिति तथा जलंपर्यस्तत्पानाद्यर्थतत्र मुंचति पिबति वा तथा मज्जनं स्नानं तत्र करोति। एवमादिकमवद्यं सदोषं कार्य ऋजुकः प्रांजलचेता उद्यतो वा वर्जयजिनेंद्रालये जिनमंदिरे एवमादिकमित्यनेनेद माह न केवलमेतावत्य एवाशातनाः किंत्वन्यदपि यदनोदितं हसनचलनादिकं जिनालये तदप्याशातनास्वरूपं ज्ञेयं नन्वेवंतंबोलपाणेत्यादिगाच्छयैवाशातनादशकस्य प्रतिपादितत्वाच्छेषाशातनानांचैतद्दश-कोपलक्षितत्वेनैव ज्ञास्यमानत्वादयुक्तमिदं द्वारांतरमिति चेन्न सामान्याभिधानेति बालादिबोधनार्थं विभिन्नविशेषाभिघानं किं यत एव यथा ब्राह्मणाः समागता वसिष्ठोपि समागत इति सर्वमनवानन्वेता आशातना जिनालये क्रियामाणा गृहिणां कंचन दोषमावहति / उतैवमेव न करणीयास्तत्र ब्रूमो न केवलंगृहिणां सर्वसावधकरणोद्यतानां भवभ्रमणादिकं दोषमावहति किं तु निसद्याचाररतानां मुनीनामपि दोषभाव हंतीत्याह / आसाय-णाउ इत्यादि एताः आशातनाः परिस्फुरद्विविधदुःख परंपराप्रभवभवभ्रमणकारणमिति विभाव्य परिभाव्य यतयोज्स्नाका-रित्वेन मलमलिनदेहत्वात्न जिनमंदिरे निवसति / इति समयः सिद्धांतस्तमेव समयं व्यवहारभाष्योक्तं दर्शयति दष्भिगंधेत्यादि। एषा तनुःस्नापितापि दुरभिगंधमलप्रस्वेदश्राविणी तथा द्विधावायुपथोऽधोवायुनिर्गम उत्श्वास निश्वासनिर्गमश्च यद्वा द्विधा मुखेन अपानेन च वायुवहो वापि वातवहनंच तेन कारणेन न तिष्ठति यततश्चैत्ये जिनमंदिरे यद्येवं व्रतिभिश्चैत्येष्वाशातना-भीरुभिः कदाचिदपि न गंतव्यं / तत्राह तिन्निवाकड्ढुइत्यादि तिनः स्तुतयः कायोत्सर्गादनंतरं या दीयते ताः यावत्कर्षति भणतीत्यर्थः किंविशिष्टास्तत्राह त्रिश्लोकिकाः / त्रयः श्लोकाः छंदोविशेषरूपा आधिक्येन यासुतास्तथा सिद्धाणं बुद्धाणमि त्येक श्लोको जोदेवाणवि इति द्वितीयं एक्को वि नमोकारो इति तृतीय शति अग्रेतनगाथा द्वयं स्तुतिश्चतुर्थीगीतार्थाचरणेनैव क्रियते गीतार्थाचरणं तु मूलगणधरमणितमिव सर्वविधेयमेव सर्वैरपि मुमुक्षुभिरिति तावत्कालमेव तत्र जिनमंदिरेऽनुज्ञातमवस्थान यतीनांकारणेनपुनर्धर्मश्रवणाद्यर्थमुपस्थितंभविक-जनोपकारा-दिनां परतोपि चैत्यवंदनाय अग्रतोपि यतीनामवस्थानमनुज्ञातं / शेषकाले तु साधूनां जिनाशातनादिभयान्नानुज्ञातमवस्थानं तीर्थंकरगणधरादिभिस्ततो व्रति-भिरप्येवमाशातनाः परिहियंते / गृहस्थैस्तु सुतरां परि-हरणीयाइति इयं तीर्थकृतामाज्ञा आज्ञाभंगश्च महतेऽनर्थाय Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 508 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आसायणा संपद्यतेयदाहुः (अणाइ चियचरणमित्यादि)दर्श। तीर्थ-कराशातनाः। वृ। तत्र तीर्थकरं यथा शातयति तथा-भिधीयते // पाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं च मुंजती भोगे / थीतित्थपिय वचति, अतिकरकडदेसणायावि / / प्राभृतिकां सुरविरचितसमवसरणमहार्यादिपूजालक्षणामहन् यदनुमन्यते तन्न सुंदरं / ज्ञानत्रयप्रमाणेन च भवस्वरूपं जानन् विपाकदारुणान् भोगान्निमित्ते भुक्ते मल्लिनाथस्य स्त्रिया अपि यत्तीर्थमुच्यते / तदतीवासमीचीना अतीव कर्कशा अतीवदुरनुचरा तीर्थकरैः सर्वोपायकुशलैरपि यदि क्षमाकृता साप्ययुक्ता / / अण्णंच एवमादी, अविपडिमासुविति लोगमहिताणं। पडिरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं हाणं // अन्येप्येवमादिकं तीर्थकृतामवण्ण भाषते तथा अपीत्यभ्युच ये। त्रिलोकमहितानां भगवतां याः प्रतिमास्तास्वपि यद्यवर्ण भाषते एतासां पाषाणादिमयीनां माल्यालंकारादिपूजा क्रियते एवं कवन्प्रतिरूपं वा विनयं वंदनस्तुतिस्तवादिकंतासामेव बुद्ध्या अकुर्वन्पारांचिकं स्थान प्राप्नोति अग्र महिषी शब्दे ताभिः सहेंद्राः भोक्तु मनीशाः प्रत्याशातनाभयादित्युक्तम गुरोः 20 // जेभिक्खु भदंतं अण्णयरीए अण्णयरीए अच्चासायाणाए अच्चा-साइए अच्चासायंतंवा साइजइ 4 दसासु तेत्तीसं आसायणा भणिता तासिं अण्णतराए आसादणाए आसादेति आडित्युपसर्गो वाचकः षद्लूविसरणगत्य वसादनेषु / गुरु पडुच विणयारणे जंफलतमायं सादेतीति आसादणाः य सोय आसादणा चउव्विहा गाहा। दव्वे खेत्ते कालेभावे आसायणा मुणेयव्वा // एतेसिंणाणत्तं वोच्छामि अहाणुपुटवीए ||36 / / चउएह दव्वादियाण इमावक्खागाहा / / दव्वेआहारादिसु खेत्ते गमणादिएसुनायव्वा ||37 / / दव्ये आहारादिएसु सेहेराइणिएण सद्धिअसणं बाह आहारे माणे तत्थ सेहतराए खटुंखलू आहारेति सेहराणिएण सद्धिं असणं बाहूपडिगाहेत्ता तरातिणियं अणापुच्छित्ता जस्स इच्छेति तस्स खद्धं खद्धं दलति आदिग्गहणाओ वच्छादिया गुरुणो अदंसिया पडिभुंजंति खेत्ते पुरतो पासतो मग्गओ वा आसणं गमणं करेति आदिग्गहणातो चिट्ठणणिसीयणादी आसणं करेति कालं मि विवचासाणमसट्टे एतिण्णियस्स रातो या वियाले वा वाहरणमाणस्स अपडिपुण्णेत्ता भवति ठिएण पडिसुणेयव्वं तस्स पुण विणए अपडिसुणेमाणस्स उस्सत्त भवति तेण वि वचासो भवति भावे जं गुरू भणंति तेण पडिवजति अपडिवजंतेय मिच्छा भवति गाहा।। कालंमि बिवचासे मिच्छा पडिवज्जणा भावे, काले तु सुणेमाणे अपडिसुणेतस्स होति आसायणा, हितादिफरसाभावे अंतरभासा य कहणाया / / 38 // कालेत्ति रातोवावियाले वा गुरुणो वाहरें तस्स सुणेतो वि असुण्णेता वि व अच्छति एस कालासादणा इदाणिं भावासादणां / मिच्छामि पडिवत्तितो भावेत्ति हि सित्ति वत्ता किं तुम ति वा फरुसं भणति गुरुणोवा धम्मकहं तस्स अंतरभासए सा भावा-सायणा दव्वादिएसु चउसुवि इमो | अविणयदोसो गाहा // गुरुपव्वइया आसा-यणा तु धम्मस्स मूलछेदो य / / चउपददोसा एते एत्तो वेसेसियं वोच्छं / / 39 / / गुरुविनयकरणे कम्मक्खए जो आतोत सादेति अहवा गुरुपव्वतितो णाणाओ आउतं अविणयदोसो ण सादेति न भवतीत्यर्थः / विणओ धम्मस्स मूलं सोय अविणयजुत्तो सस्स छेदं करेति / अहवा धम्मस्स मूलं सम्मत्तं गुरुआसायणा एतस्स छेदं करेति दव्वादिएसु चउसु वि एते सामण्णतो दो सा भणियाएत्तो एक्के, कस्स वि वेसेसेण भणामि / / सच्चित्तखट्टकारग, अविकडणमदंसणे भवे दोसो // इंगाल अविवितेणि, गलगुत्तूठातिसेसे तु // 40 // गुरुणो अणालोतियं अपडिदेसियं वा जइ भुंजति ता इमे दोसा सचित्तं फलकंदादी भुंजेज्ज अतिप्यमाणे वा भुंजेज तं अजरिं तं हादेज व मारेजसरीरस्स वा अकारगं भुजेज्ज तेण से वाही भुजेज्ज अतिप्पमाणे वा भंजेज तं अजीरंतं महादेज व मारेज व सरीरस्स वा अकारगं भुंजेज तेण सेवा ही भंजेज इंगालसधूम वा भुंजे अविधीए वा भुंजे सुरु सुरं चेव चउ अंविलंबित स परिसा-डिमणवयणकाएसु वा गुत्तो भुंजे सचित्तविहालोयवजित्ते तणीयं भवति / ठाणादिसयणा सणयावणा य गुरुभावे सत्तविहो आलोगो, सत्ता विजयण सुविहियाणं सेसुत्तिराणिएण सद्धि खद्धं डायं 92 रसिय 3 मण्णुण्णं इत्यादिगलएलाजेज्या तुरिए अतिप्पमाणेणं वा कवले उबूढे आयराहणा। दिया दोसा सव्वासादणा गता / इदाणिं खेत्तासादणा दोसा गाहा / / घट्टणरेणुविणासे, तिपास भावणभवे पुरतो / खेत्ते कालग्गलिते गिलाणअमुणेत अधिकरणं // 41 // आसण्णं गच्छंतस्स गुरुणा संघट्टणा भवति पादुट्टियरेणुणा य वत्थुविण्णासो भवति सो जति पासतो वामतो दाहिणतो मग्गतो यपुरतो गच्छतओ भावणा आयरियस्स एसक्खेत्तासा दणा गता इमे कालगतो वियालेव पिलिज्जति आयरियस्स वहरतस्स अपडिसुणेमाणस्स सीसस्सा गिलाणविराहणा हवे उवकरण दाहो वा अजंगमो वा आयरिओज्जे अपडि सुणेमाणो वा अणेण / साहुणा भणितो कीस / अकण्णासुएण अच्छसित्ति उत्तरादुत्तरेण अधिक रणसंभवो कालासादणा गता / / इदाणि भावासायणा गाहा साहादीण अदण्णा, परउत्थियगंमपरिभवो लोए। भावासायणएसा, संममणाउदृणा चेव // 42 || सेहादिणो विचिंतेज्जं जहा एते अम्हंजेठतरा आयरियस्स वज्ञां करोति तहा णज्जति णूण एसपतितो ते विसेहा अवज्ञां करेज एवं ससिस्सेह परिभूतो परितित्थियाण विगम्मो भवति लोगो य परिभूतो भवति एते भावासादणा दोसा गुरुणो उपदेसपदाणे समणा उट्टतस्स भावादसाणा थेव मिच्छा पडिवज्जणा भवति / अस्य व्याख्या / गाहा / मिच्छापडिवत्तीए जे भावा जत्थ होति सन्भूया / तेसु व तहं पडिवज्जणा य आसायणाय तम्हा ||4|| मिहा अढं तं प्रतिपादनं प्रतिपत्तिःजत्थेत्ति दवादिएसु जीवादिपदे सु हा सुत्तज्जयणसुयक्खधे सु वा सब्भूया जे जिणपण्णत्ताभावा ते गुरु अयाणंतो परिसामज्जे पण्णवेति तत्थ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 509 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आसायणा उवदेसा सीसो तुहिक्का अच्छति जाह उट्ठिवक्खाणाओताह सीसे एणते गुरुणो सब्भावं सहति अह सीसो तेसु पदत्थेसु परिसामज्जे चेव वितहपडिवज्जणा एत्थ वुत्ताणं करिज्जा ताहे अविणयो भवति / अविणयपडिवत्तीए य तम्हा आसायणा भवति / अहवा परिसामज्जे गुरू चोदितो वितहपडिवज्जणं करोति न सम्यक् प्रतिपद्यत इत्यर्थः / तम्हा सीसस्स आसायणा भवति अहवा गुरू जाणतो चेव अण्णहा अत्थपंण्णवेति मा परप्पवादी दोसं गेण्हेज्ज जहा सव्वस्स केवलिस्साजुगवंदो णत्थि उवओगा एगो प्रयोगप्रतिपादनमित्यर्थः / तहसेहतराए तोजाणति जहा अवसिद्धतं पण्णवेत जतिवितहपडिवज्ज तिआसादणा सेहस्स चोदगाहा जमत्थं आयरिओ ण याणति तमत्थं सीसो कहं जाणति भण्णति / गाहा // जंगारणगारते सुतंतु, सहसंमुतं तजं किंचि / तं गुरुअंणह कहणे, णेव मिदं छपाडिवत्ती ||4|| भंतेण सेहतराएण गिहत्थत्तणे सुएलयं अणगारत्ते वा अणतो सुयं अप्पणो वाहितं तं गरुस्स अण्णहा कहिंतस्स सो भणेज्जा ण एवं भवमिच्छापडिवत्तिओ आसादणा भवति / गाहा // एवं भणतो दोसा, इमं सुतं वण्णं हिमए एवं / सब्भूयमसब्भूए, एवं मिच्छाउपडिवत्ती / / 45|| एवं गुरुपडिकूलं भणतो आसादणा दोसो भवति अहवासीसो गुरू भणइ तुज एवं पन्नवितंस्स समयविहारणा दोसो भवति मम एवं सुयं अण्णायरियसमीवे एवं पण्णविज्जते समयविराहणा दोसो न भवति एवं सीसस्स सब्भूयमसठभूयं एवापरिसामज्जे मिच्छा पडियत्तिओआसायणाभवति / गाहा। वितियं पढमे ततिए, य होति गेलण्णपकज्जमादीसु / अद्धाणादी वितिए, ओसण्णादी चउत्थंमि // 4|| वितियत्ति अववायपदं पढमेत्ति दव्वासायणा ततिएत्तिकाला-सादणा वितिएत्ति अद्धाणादिसु खेत्तासादणा चउत्थित्ति उस आदिसुद्धियस्स तत्थ पढमतत्तियत्ति मेलणं पटुच्च वितियपदं भवति / गहा। होज गुरु गिलाणो, अपत्थदव्वं व से इदं / अवगडमंदसितं वा, मुंजे खटुंचगेहज // 47 / / गुरुं गिलाणो तस्सयजं अपत्थदव्वं तं लद्धताहेत अवियडितं अदंसियं वा सभुंजे अण्णस्स वा अणापुच्छाए खट्वं दलयत्ति मासोरा तिणिओ सयं भुजिहित्ति एवं गुरुरक्खणहा अविणयं पि करेंतो सुद्धो / / गाहा / / कंठाइ साहणट्ठा अथ, बंमट्ठावलीणो अट्ठाणे / संवाधुवस्सए वा, विस्सामगिलाणछेदसुए // 48 // खेत्तासादणं पडुच अवत्तो भण्णति अट्ठाणे कंदासादणट्ठा पुरतो गच्छति विसमे वा अवलबट्टापासतो अल्लीणो गच्छति गिलाणस्स वा अवटुंभणट्ठा अल्लीणो अच्छति बाहुस्सएया आसणट्ठिओ अच्छति गच्छति वा आयरियस्स वा विस्सामणं कारंतो आसण्णं चिट्ठति संघट्टेति वा गिलाणस्स उव्वत्तणादी करेंतो संघट्टणादी करेति अण्णंवा चिट्ठति / यसुयंवा वक्खाणतो अप्पसदं वक्खाणेतिमा अपरिणया सुणेहितिताहे सोतारा आसणं ठविजंति इमकोलाववादो गाहा / / कालेगिलाणवावडसेहस्स वसारियं भवे वाहिं। संवाधुवस्सए वा अहिकरणादी इमा दोसा // 49 // राओवा दिया वा गिलाणवावडो गुरुस्सवाहरंतस्सण देज सई सेहस्स वा सागारियं वोहिं अंतोहिंतो सुणेता विसद्दणादज्जमासण्णायगासरं पच्छभिजाणित्ता उप्पवाहिति सा हुहिं वा ओतप्रोतं संवाहुस्स एयासजं अलभंतो उल्लप्पिउं वयंतस्स अधिकरणादी दोसा भविस्संति तम्हा आयरिओ सणियं वा हरति तं च असुणंतो तुसिणीओ सुद्धो अधिकरणदोसभया वा तुसिणीओ अज्जति तहावि सुद्धो गाहा / उल्लावं तु असत्तो दाउंगिलाणो तहेव उठेउं 1 तुसिणी तत्थगओ वा सुणेज सो वाहरंतस्स ||50 / / वावाहरंतस्स गुरुस्स गिलाणो उल्लावं दाउमसत्तो गिलाणो तुसिणीओ। अत्थेजउ वा आसत्तो तत्थ गतो पडिसुणेज शब्दं ददातीत्यर्थः / इदाणी भावस्स अक्वादो भण्णति गाहा। वणतिरहे जइ एवं हवेज णिहोसमिहरहा दोसा। तुज्जे वि ताव ऊहह भणतिपगासे विदढमूढे ||5|| सेहतराएण आयरिओ परि सामज्जेण वत्तव्यो जहा तुमं पण्ण वेसि एवं ण भवतित्ति तो कहिं तेण भाणियव्वं उच्यते जहा हं पण्णवेति जति एवं भण्णति तो णिद्दोस इहरहा जहा तुमं पण्णवेह एवं समयविराहणा दोसो भवति तुडभेवि मयाभिहितं अत्थं जहह किंघडतिण घडतीति तावशब्दः परिमाणवाचकः जहा इमेण भे पहेण गंतव्वं जावंतितंदव्वं एव इणमत्थं पुव्वावरेण ताव ऊहह जाभवे अभिगओ अहवा पादपूरणे वा दढं जो मूढो भूतत्थं पडिवजंतोपगासं परिसामज्जेवि भण्णति ओसणादी चउत्थंमि // अस्स व्याख्या गाहा / विरहुत्तमट्ठायंतं उसण्णं भणति परिसमज्जेवि / णेवि जाणसि हित्ता वडपडियं किं भवे तेणं / / 12 / / ओसण्णो आयरिओ विरहे एगंते वहु भणितो सागारवविरमाहित्ति अट्ठायंतो अविरमंतेत्यर्थः / परिसामत्थे वि भण्णति ण याणसि तुमं हि तवा अहियवाडणडपडितेण वा किं तुज्जे पण्णं पादेहिं वा संघट्टिजति जेण सो अवमाणितो चिंतेत एते मंदे वयमिव पेक्खंता इदाणिं म उसण्णदोसेण दोसमिव पासंति / तंण एतेसिं दोसो नामज्जदोसो उज्जमामि! निचू० उ० 10 / द. अ० 7 001 तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ता तंजहा सेहे राइणिअस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स // 1 // सेहे राइणियस्स सपक्खं गंता भवइ आसायणा सेहस्स // 2 // सेहराइणियस्स आसायणा सेहस्स 3 एवं एएणं अभिलावेणं सेहे राइणियस्स पुरओ / चिट्ठित्ता भवइ आसायणा सेहस्स४ सहे राइणि-यस्स सपक्खं चिट्ठित्ता भवइ आसायणा सेहस्स५ सेंहे राइणियस्स आसण्णं चिट्ठिता भवइ आसायणा सेहस्स६ सेहे राइणियस्स पुरओ निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स७ सेहे राइणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स:सेहे राइणियस्स आसण्णं निसीइत्ता भवइ आसायणासे हस्स९एवं एएणं अभिलावेणं सेहे Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 510 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसायणा राइणिएणं सद्धिं वहिया विहारभूमि निक्खंते समाणे तत्थ पुव्वामेव सीहतराए आयामइ पच्छाराइणिए आसायणा सेहस्स 10 सेहे राइणिएणं सद्धिं बहिया विहारभूमि वा निक्खंते समाणे तत्थ पुवामेव सीहतरा ए आलोइए पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स११ सेहे राइणियस्सराओ वा विआले वा वाहरमाणस्स अज्जो के सुत्ते के जागरे तत्थ सेहे जागरमाणे राइणियस्स अप्पडिसुणेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स 12 सेहे राइणियस्स पुष्वं संलवित्तए तं पुष्वामेव सीहतराए आलवइ पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स१३ सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तं पुष्वामेव सीहतराए गिहस्स आलोएइ पच्छा राइणियस्स आसायणा सेहस्स 14 सेहे असणं वा 4 // पडिगाहित्ता पुटवामेव सीहतराए गिहस्स पडिदंसेइ पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स 15 सेहे अस गंवा० 4 पडिगाहित्ता पुटवामेव सीहतराए अन्नस्स उवणिमंतेइ पच्छा राइणिए आसायणा सेहस्स 16 सेहे राइणिएणं सद्धिं असणं वा 4 पडिगाहित्तातं राइणियं अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइतस्स तस्स खद्धं 2 दसयइ आसायणा सेहस्स 17 सेहे राइणिएणं सद्धिं असणं वा आहारेमाणे तत्च्छ सेहे खलु खलु डायं डायं रसियं रसियं उसंढ उसढं मणुण्णं मणुण्णं मणामं मणामं निद्धं निद्धं लुक्खं लुक्खं आहारेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स 18 सेहे राइणियस्स बाहरमाणस्स अप्पडिसुणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स१९ सेहेरायणियं खलुखद्धं वत्ता भवइआसायणासेहस्स 20 सेहे राइणियं किं वइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स 21 सेहे राइणियं तुम इइवत्ता भवइ आसायणा सेहस्स२२ सेहे रायणियं तजाएणं तज्जायं पडिभणित्ता भवइ आसायणा. 23 सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्सनो सुमिणे भवइ आसायणासेहस्स 24 सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्य नो सरसि एवं वत्ता भवइ आसायणा०२५ सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं आछिदित्ता भवइ आसायणा सेहस्स 26 सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसंभित्ता भवइ आसायणा सेहस्स 27 सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्स तीसे य परिसाए अणु-हिआए अभिन्नाए अवोच्छिन्नाए अवोगडाए होचं पि तचं पितामेव कहं कहेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स 28 से हे राइणियस्स सेज्जासंथारगं पाएणं संघट्टित्ता हत्थेणं अणुण्णवेत्ता गच्छइ आसा० 28 सेहे राइणियस्स सेज्जासंथारए चिट्ठित्ता वा निसीइत्तातुयट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स 30 से हे रायणियस्स उचासणं सिवा 31 समासणं सिदाचिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसायणासेहस्स३२ सेहे राइणियस्सवाहरमाणस्स तत्थ गए चेव पडिसुणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स // 33 / / टी० / / अथ त्रयस्त्रिंशत्तमस्थानकं तत्र आयः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्य शातनाः खण्डना निरुक्तादाशातनास्तत्र शैक्षोऽल्पपर्यायो रात्रिकस्य बहुपर्यायस्य आसन्नमासत्तिर्य था रजोंचलादिस्तस्य लगति तथा गन्ता भवतीत्येवमाशातना शैक्ष्यस्येत्येवं सर्वत्र (पुरओत्ति) अग्रतो गंता भवति (सपक्खत्ति) समानपक्ष समपार्श्व यथा भवति समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थः / (चिट्ठत्ति) स्थाता आसिता भवति यावत्करणादृशाश्रुत-स्कन्धानुसारेणान्या इह द्रष्टव्यास्ताश्चैवमर्थतः आसन्नपुरः पार्श्वतः स्थानेन तिस्रोऽत्र निषीदनेन च तिस्रः तथा विचारभूमौ गतयोः पूर्वतरमाचमतः शैक्षस्याशातना 10 एवं पूर्व गमनागमनमालोचयतः 19 तथा रात्रौ को जागतींति पृष्टे रात्रिकेन तद्वचनमप्रतिशृण्वतः 12 रात्रिकस्यापूर्वमालपनीयं कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपतः / 13 अशनादिलब्धमपरस्य पूर्वमालोचयतः // 14 // एवमन्यस्योपदर्शयतः / 15 / एवं निमंत्र यतः 16 / रात्रिक्रमनापृच्छ्याऽन्यस्मै भक्तादिददतः / 17 / स्वयं प्रधानतरंभुंजानस्य / 18 / क्वचित् प्रयोजने व्याहरतो रात्रिकस्य च वा प्रतिशृण्वतः / 19 / रात्रिकम्प्रति तत्समक्षता वृहता शब्देन बहुधा भाषमाणस्य / 20 / व्याहतेन मस्तकेन वन्दे इति वक्तव्ये किम्भणसीति ब्रुवाणस्य / 21 / प्रेरयति रात्रि के कस्त्वं प्रेरणायामिति वदतः / 23 / आचार्यग्लानं किंन प्रतिचरसीत्याद्युक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरसीत्यादि भणतः / 23 / धर्म अर्थयति गुरावन्यामनस्कतां भजतोऽनुमोदयति इत्यर्थः / 24 / कथयति गुरौ न स्मरसीति वदतः // 25 / धर्मकथामाच्छिदतः / 26 / भिक्षावेला वर्त्तते इत्यादि वचनतः पर्षदं भिंदानस्य / 27 / गुरुपदभेदोनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थिताया धर्मकथयतः / 28 / गुरोः संस्तारकं पादेन घट्टयतः / 29 / गुरोः संस्तारके निषीदतः / 30 / उच्चासने निषीदतः / 31 समासनेऽप्येवं / 32 त्रयस्त्रिंशत्तमा सूत्रोक्ता चरात्रिकस्यालपतस्तत्र गत एवासनादिस्थित एव प्रतिशृणोति आगत्य हि प्रत्युत्तरं देयमिति शैक्षस्याशातनेति / सम०३३ स. / दशा ! अहवा अरिहंताणं आसायणाइ सञ्जाए किंचि / नाहीअंजा कंठसमुद्दिट्ठा तितीसासायणाओ गाथाद्वयं सं. व्या. 1 आसायणा समत्ता समत्ता व सा पडिक्कमणसंगहणी / अत्रपदं / अरिहंताणं आसायणाए सिद्धाणं आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्जायाणं आसायणाएसाहूणं आसायणाए साहुणीणंआसायणाए सावयाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए देवाणं आसायणाए इहलोगस्स आसायणाए परलोगस्स आसायणाए केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स आसायणाए सवपाणभूअजीवसत्ताणं आसायणाए कालस्स य Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 511 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसायणा आसायणाए सुअस्स आसायणाए सुअदेवआए आसायणाए / वायणायरिअस्स आसायणाए जंवाइद्धं वच्चामे लियं हीणक्खरं अचक्खरं पयहीणं विणयहीणं घोसहीणं जोगहीणं सुदिनं दुख पडिच्छियं अकाले कओ सिज्जाओ काले न कओ सिज्जाओ असज्जाइयं / / सांप्रतंसूत्रोक्ताएव त्रयस्त्रिंशद्व्याख्यायंते / तत्र अरहताणं आसायणाए अर्हता प्रानिरूपितशब्दार्थानां संबंधिन्या आशा तनया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति क्रिया एवं सिद्धादिपदेष्वपियोज्येति इत्थं चाभिदधता-मर्हतामाशातना भवति॥ नत्थि अरहंतत्ति जाणंतो कीस भुजई भोगे / पाहुडियं उवजीयं एव वदं उत्तरं इणमो ||1|| भोगफलनिवत्तिय पुनपगडीए मुदयवाहल्ला / मुंजइ भोए एवं पाहुडियाए इम सुणसु // 2 // णाणादिणुरोधक अघातिसुहपायवस्स वेदाए। तित्थंकरनामाए उदया तह वीयरागत्ता ||3|| सिद्धाणं आसायणाए (सिद्धानामाशातनया क्रियापूर्ववत्) सिद्धाणं आसायणा एंव भणतस्स होइ मुडस्स / णस्थिणि चेट्ठा वासइ वावी अहव उवओगे // 4 ॥रागदोसा धुवत्ति तहेव अन्नन्नकालमुवओगे / दंसणनाणाणं तू होइ असव्वन्नुया चेव ।।५।।अन्नोन्नावरणाहव एगत्तव्यं वा विनाणदंसणओ / भन्नति नवा एएसिंदोसो एगो वि संभवइ // 6 // अत्थित्ति नियमसिद्धा सद्दाओ चेव गम्मए एवं / नचेट्ठा वि भवंति विरियक्खयओ न दोसो हु ॥७॥रागदोसा न भवे सव्वकसायाण निरवसेसखया / जियसा भव्वाण जुगवमुवओगे ण य मया ओय // 8 // न पिहू आवरणाओ दट्वट्ठिय वा मएणं पु-रागत्तं वा भवति दंसणनाणाणदोन्नं पि / / 9 ॥णाणछदसणणए पडुच गाणं तु सव्वमेव / दसव्वं छदंसणं तीएम सव्व न्नुया का हु // 10 // सणयं व पडुच्चागवायं वओगे दोन्नं पि / एवमसम्वन्नुत्ता दोसोएसोन संभवइ 11 आयरियाणं आसायणाए आचार्याणामाशातनया क्रिया पूर्ववत् आसातनातु। महरो अकुलीणोत्तिय दुम्मोहो दमगमंदबुद्धिया / अवियप्पला भलद्धिसीसो परिभवइ आयरियं 12 अहवा विवए एवं उवएसपरस्स देंति एवं तु / दसविहवेयावच्चे कायव्वं सयं न कुव्वंति 13 डहरो विनाण-बुड्डो आकुलिणोत्ति य गुणालिओ किहणु / दुम्भहादीणि वि ते भणंत संताइ दुम्मे हा१४ जाणंति न वियन एवं निद्धम्मा मोक्खकारणं णाणं / निच्चंपचासयता वे यावचादि कुवंति 15 उवज्जा याणमासायणाए उपाध्यायानामाशातनया क्रिया पूर्ववत् आशातनापि साक्षेपपरिहारा यथाचार्याणां नवरं सूत्रप्रदा उपाध्याया इति / साहूणं आसायणाएत्ति साधूनामाशातनया क्रिया पूर्ववत् / जो सुणियसमयसारो साहु समुद्धिस्स भासए एवं / अविसहणा तरियग्गा ते भंडणं काउं च तह चेव 16 पाणसुणया व मुंजंति एगत्तो तह विरूवनेवत्था / एमादिवयदवघ्नं मूढो न सुणेइ एयं तु१७ अविसहणादिसमेया संसार सभावजाणणा नेव / साहू थो वजसाया जओ य भुजंति एगओ तह वि१८ रूवण वत्थं एवंमादिवयदुवणं मुट्टणेति एयं तु / अविसहणादिसमया संसारसहावजाणणाणेव साधुथोवकसाया जओ य भुजंति ते तहवि१९ साहुणीणं आसायणाए। साध्वीनामाशातनया क्रिया पूर्ववत् 1 आशातना / कलहिणिया बहुउवही अह वा वीसमणु वदवा समणी गयाणियापुत्तभंडादुमवल्लिजस्स सेवालो // 20 / / अत्रोतंर / कलहेत्तिणेवणाउण कसाए कम्मबंधए पएति / संजंलणाण सुदयु ईर्सि कलहे वि को दोसो 21 उवही बहुविकप्पो बंभवयरक्खणत्थमत्तासि / भणिओ जिणेहि जम्हा तम्हा उवह मिणो दोसो 22 समणाण णेयएया उबद्दाथदो सम्ममापुसरंताण / आगेमचिहिमहत्थजिणवयणसमाहिअप्पाणं 23 सावगाण आसायणाए / श्रावकाणामाशातनया क्रिया तथैव जिनशासनभक्ता गृहस्थाः श्रावका भण्यते / आशातना तु लवण मणुस्सत्तंणाऊण विजिणमय णजे विरतियमिवजंति कहतेधणोवुच्चंति लोगम्मि / सावगसुत्तासायणमिच्चुत्तरकम्मपरिण-श्वसेण जइ वि पवजंतिणति तह वि वण्णतिमग्पट्ठिया / सम्यग्दर्शनादिमार्गस्थितत्वेन गुणयुक्तत्वादित्यर्थः / साविगाणं आसायणाए श्राविकाणामाशातनया, क्रियाक्षेपपरिहारौ च पूर्ववत् देवाणं आसायणाए देवानामासातनया क्रिया तथैव आशातना॥ कामपसत्ता विरतीए, वजिया अणमिसा य णिचेट्ठा। देवा सामत्थं मिविणय, तित्थस्सुण्णतिकराय॥ एत्थ पसिद्धि मोहणि, यसायवेयकम्मउदयायो। कामपसत्तविरति, कंमोदयउटिवणयत्तेसिं। अणमिसदेवसभावा णिचेट्ठा अणुत्तरा कियकिचा। कालणुभावाति छुण्णपिअणत्थ कुवंति // देवीणं आसायणाए देवीनामशातनया क्रियाक्षेपपरिहारौ च प्राग्वत् इह लोकस्याशातनया क्रिया पूर्ववत् इहलोको मनुष्यलोकः आशातना तस्य वितथप्ररूपणादीति / परलोगस्स आसायणाए परलोकस्याशातनया क्रिया प्राग्वत् / परलोको मनुष्यस्य नारकतिर्यगमराः आशातना त्वस्य वितथ-प्ररूपणादिनैव द्वितयेप्या क्षेपपरिहारौ च स्वमत्या कार्यों के वलिपन्नत्तस्य धम्मस्स आसायणा के वलिप्रज्ञप्तस्स धर्मस्याशातनया क्रिया प्राग्वत् स च धर्मो द्विविधः / श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च आशातना तु॥ पागयभासा निबद्धं को वा जाणइ पणीयं केणेयं / Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणा 512 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आसायणा किंवा चरणेणं तू दाणेण विणाउ भव इत्ति / / उत्तरं / बालस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणां / अनुग्रहार्थ तत्त्वहः सिद्धांतःप्राकृतः कृतः // निपुणधर्मप्रतिपादकत्वाच सर्वज्ञप्रणीतत्त्वमिति चरणमा-श्रित्याह। दानमौरविकेणापि चंडालेनापि दीयते / येन वा तेन वा शीलं न शक्यमभिरक्षितुं // दानेन भोगानाप्नोति यत्र तत्रोपपद्यते। शीलेन भोगान् वर्गच निर्वाणं चाधिगच्छति // तथाभयदानं दाता चारित्रवान्नियमत एवेति / सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स आसायणाए सदेवमनुष्यासुरस्य लोकस्याशा तनया क्रिया प्राग्वत् / आशातना तु वितथप्ररूपणादिना आह च भाष्यकारः / देवादीयं लोयं विवरीयं भणइ सत्तदीवुदहिं / तह कयपयावदीणं पगतिपुरिसाण जोगे वा || अत्रोत्तरं / सत्तसु परमियसत्ता मोक्खसुन्नत्तणं पयावइणा / केण कओ तणपच्छा पयईए कहं पवत्तित्ति ||1|| जेय चेयणेति पुरिसत्थनिमित्तं किल वयपवत्तत्ती सा य तीसे चिय अपत्तिपरोत्ति सव्वंचिय विरुद्ध सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं / आसायणाए सर्वप्राणिभूतजीवसत्त्वानामाशा तनया क्रिया प्राग्वत्। तत्र प्राणिनो द्रींद्रियादयः व्यक्तोच्छ वासनिश्वासा अपि भूयो भवति भविष्यंति चेति भूतानि पृथिव्यादयः जीवंतीति जीवा आयुष्ककर्मा तु तव युक्ताः सर्व एवेत्यर्थः सत्त्वाःसांसारिक-संसारातीतभेदाः एकार्थिका वाध्वनय इति आशातनातु विपरीतप्ररूपणादिनैव तथा ांगुष्ठपर्वमात्रोदींद्रियाद्यात्मेति पृथिव्यादयस्त्वजीवा एव स्यंदनादिचैतन्यकार्यानुपलब्धेर्जीवाः क्षणिका इति सत्वाः संसारिणः अंगुष्ठपर्वमात्रा एव भवंति संसारतीताः नश्यंत्येवापि तु प्रध्यातदीपकल्पोपमो मोक्ष इति / उत्तरं देहमात्रेणैव सुखदुःखादितत्कार्योपलब्धेः पृथिव्यादीनांत्वल्पचैतन्यत्वात्तत्का -नुपलब्धि जीवत्वादिति जीवा अप्येकांतक्षणिका न भवंति निरन्वयनाशे उत्तरक्षणस्यानुपपत्तेः निर्हेतुकत्वादेकांतनष्टस्यासद्विशेषात् सत्वाः संसारिणः प्रत्यक्षाएव संसारातीता अपि विद्युत एवेति जीवस्य सर्वथा विनाशाभावात्तथा तैरप्युक्तं ! नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः / उभयोरपिदृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः" इत्यादि / कालस्य य आसायणाए "कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः / कालः सुप्तेषु जागर्ति कालोहि दुरतिक्रमः" इत्यादि कालोऽस्ति तमंतरेण बकुलचंपकादीनां नियतः पुष्पादिप्रदानभावो न स्यात् न च तत्परिणतिर्विश्वं एकांतनित्यस्य परिणामानुपपत्तेः। "सुयस्स आसायणाए" श्रुतस्याशातनया क्रिया पूर्ववत् आशातना तु / / को आउरस्स कालो, मइलंवरधोव्वणे व कालो अ। जइ मोक्खहेतुनाणं, को कालो तस्य कालो वा // इत्यादि उत्तरं / / जोगोर जिणसासणंमि दुखक्खयो पउज्जत्ता। अन्नोन्नमवाहतो अव्वत्तो होइकायय्वो // प्राग्धर्मद्वारेण श्रुताशातनोक्ता इह तु स्वतंत्रश्रुतविषयेतिन पौनरुक्त्यं। सुयदेवयाए आसायणाए श्रुतदेवताया आशातनया क्रिया प्राग्वत् आशातना तु श्रुतदेवता सान विद्यते अकिंचित्करी वान ह्यनधिष्ठितो मौनींद्रः खल्वागमः अतोऽसावस्ति न वा किंचित्करी तामालंब्य प्रसस्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात् (वायणारियस्स आसायणाए) वाचनाचार्य्यस्याशातनया क्रिया प्राग्वत् / तत्र वाचनाचार्य उपाध्यायस्संदिष्टो य उद्देशादिकं करोति आशातना त्वियं निर्दुःखसुखप्रभूतं वा वंदनं / दापयति उत्तरं तु श्रुतोपचारः एष क इव तस्यात्र दोष इति / "जवाइद्ध वच्चामेलियं हीणक्खरियं अचक्खरियपयहीणं घोसहीणं जोगहीणं सुठुदिन्नं दुट्ठपडिच्छियं अकाले कओ सज्जाओ काले न कओसज्जाओ असज्जायं सज्जाइयं सज्जाए न सज्जायंति एए चउद्दशसुत्ता पुविल्लयाय एगूणवीसंतिएते तेत्तीसमासायणस्थवन्ति'' एतानि चतुर्दश सूत्राणि श्रुतकलापकगोचरत्वान्न पौनरुक्तभाजीनीति तथा दोषदुष्टं श्रुतं यत्पठितं तद्यथा आविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावदनेकप्रकारेण या आशातना तथा हेतुभूतया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमितिक्रिया एवमन्यत्रापि योज्या व्यत्यानेडितंकोलिकपायसवत् हीनाक्षरं अक्षरन्यूनं अत्यक्षरं अधिकाक्षरं पदहीनं पादेनैव हीनं अकृतोचितविनयं घोषहीनं उदात्तादिघोषहिरतं योगहीनं सम्यक्तयोपचारं सुष्ठुदत्तं गुरुणा दुष्ठुप्रतीतं कलुषितांतरात्मनि अकाले कृतस्वाध्यायो यो यस्य श्रुतस्य कालिकादेरकाल इति कालेन कृतः स्वाध्यायः यो यस्यात्मीयोध्यनकाल उक्त इति अस्वाध्यायिके स्वाध्यायितं / आव०४ अध्य || आत्मानं परवानाशातयदिति / 2 / आचा० / __ अणुवीइभिक्खुधम्ममाइक्खमाणो णो अत्ताणं आसाइजाणो परं आसाएजणो अण्णाईपाणाई भूताई जीवाई सत्ताई आसाएजा से अणासायए अणा-सायमाणे व उज्जमाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीवे एवं से सरणं भवति महामुणी / टी.।। अतस्तेषां क्षांत्यादिकं दशविधं धर्म यथत्योगं प्रागुपन्य-स्तं शांत्यादिपदाभिहितमनुविचिंत्य स्वपरीयभिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्मकथालब्धिमानाचक्षीत प्रतिपादयेदिति यथा च धर्म कथयेत्तदा (अणुवीइ भिक्खुमा) इत्यादि यावत् भवति सरणं (महामुणित्ति) स भिक्षुर्मुमुक्षुरनुविचिंत्य पूर्वापरेण धर्म पुरुष वालोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तं धर्ममाचक्षाण आङिति मर्यादया यथानुष्ठानं सम्यग्दर्शनादेः शातना आशातना तयात्मानं नो आशातयेत्तथा धर्ममाचक्षीत यथोन्मनआशातना न भवेद्यदिवात्मन आशातना द्विधा द्रव्यतो भावतश्चद्रव्यतो यथाहारोपकरणादेव्यस्य कालातिपातादिकृताशातना बाधा न भवति तथा कथयेदाहारादिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडा भावाशातनारूपा स्यात् कथयतो वा यथा गात्रभंगरूपा भावाशतना न तस्य स्यात्तथा कथयेदिति / तथा नापरं शुश्रूषुः आशातयेत् यत्तः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडायै प्रवर्तेताऽतस्तदाशातनां वर्जयन् धर्म ब्रूयादिति / तथा नान्यान्वासामान्ये न प्राणिनो भूतान् जीवान् नो आशातयेद्वाधयेत एवं समुनिः स्वतोऽनाशातकरैरनाशातयन् तथा परानाशातयतोऽनुमन्यमानोऽपरेषां बध्यमानानां प्राणिनां भूतानां सत्वानां जीवानां यथा पीडा नोत्पद्यते तथा धर्म Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणिज्ज 513 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसास कथयेदिति तद्यथा यदि लौकिककु प्रावचनिकपार्श्वस्थादिदाना नि प्रशंसत्यवटतडागादीनि वा ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुरथ दूषयति ततोऽपरेषामंतरायापादनेन तत्कृतो बंधविपाकानुभवः स्यादुक्तं च। जे उदाणं पसंसन्ति वहमिच्छंति पाणिणं / जे उणं पडिसेहेंति वित्तिच्छेयं करंति ते / / तस्मात्तदवटतडागादिविधिप्रतिषेधव्युदासेन यथावस्थितं दानं शुद्धं प्ररूपयेदसावद्यानुष्टानं चेत्येवं च कुर्वन्नुभयदोषपरिहारी जंतूनामाश्वासभूर्भवतीत्येतत् दृष्टांतद्वारेण दर्शयति यथा सौद्वीपो संदीनः शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः तद्र क्षणोपायोपदेशतः बध्यमानानां बधकानां च तदध्यवसायान्नि वर्त्तते न विशिष्टगुणस्थानापादनाच्छरण्यो भवति तथा हि यथोद्दिष्टेन कथाविधानेन धर्मकथां कथयन् कांश्चन प्रव्राजयति काश्चन श्रावका-विधत्ते काश्चन सम्यग्दर्शनयुजः करोति केषांचित्प्रकृति-भद्रतामापादयति / आचा, उ. अ. व्य. आसायणिज त्रि. (आश्वादनीय) आ. स्वद णिच् कृब्दहुलमिति कर्तर्यनीयः / प्रज्ञा जी, ईषत्स्वादयोग्ये, दशा जं। आसायवडिया-स्त्री. (आस्वादप्रतिज्ञा) विषयभोगप्रतिज्ञायाम् आचा० / आसारेंत त्रि. (आसारयत)ईषत्स्वस्थानत्याजनेनसारयति, ज्ञा० आसालिय पु. (आशालिक) उरः परिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यग्भेदे, प्रज्ञा सेकिंतं आसालिया ? कहिणं भंते ! आसालिया समुछंति गाोयमा! अंतो मणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीवेसु णिवाघाण पण्णरससु कम्मभूमीसु वाधातं पदुम पंचसु महाविदेहेसु चक्कूवट्टी खंघावारेसु वासुदेवखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामंडलियखंधावारेसु गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु निगमनिवेसेसु खेड निवेसेसु कय्वउनिवेसेसु मडंबनिवेसेसु दोणमुहनिवेसेसुपट्टणनिवेसेसु आगरनिवे-सेसु आसमनिवेसेसुसंवाहनिवेसेसु रायहाणिनिवेसेसु एएसिणं चेव विणासेसु एत्थ णं आसालया समुछति / जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइ भागमित्तीए औगाहणाए, उक्कोसेणं वारसजोयणइ। तहाणुरूवं च णंविक्खंभवाहल्लेणं भूमि दालित्ताणं समुद्रुत्ति / असन्नी मिच्छादिट्ठी अन्नाणी अंतोमुहत्तद्धाउ या चेव कालं करेइ / सेत्तं आसालिया ॥जी॥ आसावग त्रि. (आश्रावक) बन्धके विशेः / आसाविणी स्त्री. (आस्राविणी) शतच्छिद्रायाम्। जहा आसाविणि जाइअंधे दुरूहिया, इच्छत्ति पारभागं / / तु अंतराय विसीयति / सूत्र. श्रु.१ / अ० 11 // आसास पु. (आश्वास) आश्वासन्त्यस्मिन्नित्याश्वासो नामादिसूत्रव्यतिरिक्तो द्रव्यतोयानपात्रद्वीपादौ भावतो ज्ञानादौ आचारांगे आचा० धीरो भव अहं ते सर्वमपि वैयावृत्त्यं करिप्ये- इत्यादिरूपे प्राणिनामाश्वासने, वृ. प्रश्न, विश्रामे, भारं वहत आश्वासाः स्था० / भारणं वहमाणस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता तंजहा जत्थ णं अंसाओ अंसं साहरइ तत्थ विय से एगे आसासे पण्णत्ते जत्थ वि यणं उचारं वा पासवणं वा परिठावंति तत्थ विय से एगे आसासे पण्णत्ते जत्थ वि य णं णागकुमारावासंसि वा सुवन्नकुमारावासंसि वा वासं उवेइ तत्थ वि य से एगे आसासे पणत्ते जत्थ वियणं आवकहाएचिट्ठइतत्थ विय से एगे आसासे पण्णत्ते / एवमेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा प.तं. जहा सीलव्वयगुणव्वयवेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाई पडिवाइ तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते जत्थ विय णं सामाइयं देसावगासियमणुपालेइतत्थ विय से एगे आसासे पण्णत्ते जत्थ वियणं चाउद्दसिए मुद्दिट्ठ-पुण्णिमासीस पडिपुन्नं पोसह सम्म अणुपालेइ तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते जत्थ वि य णं अपच्छिममारणंतियसंलेहणाजूसणाजूसिएभत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरइ तत्थ वि य से एगे आसासे पण्णत्ते // भारं धान्यमुक्तादिकं वहमानस्य देशान्तरं नयतः पुरुषस्य अश्वासा विश्रामाः / भेदश्च तेषामवसरभेदेनेति यत्रावसरे अंशादेकस्मात् स्कंधादशमिति स्कन्धान्तरं संहरति नयति भारमिति प्रक्रमः तत्रावसरेपि चेति उत्तराश्वासापेक्षया समुचये स तस्य वोदुरिति परिष्ठापयति व्युत्सृजति नागकुमारावासा-दिकमुपलक्षणमत्तो ऽन्यत्र वा यतने वा समुपैतीति रात्रौ वसति यावती यत्परिमाणा कथा मनुष्योयं देवदत्तादिर्वायमिति व्यपदेशलक्षणा यावत्कथा तया यावज्जीवमित्यर्थः। तिष्ठति वसतीत्ययं दृष्टान्त एवमेवेत्यादिदान्तिकः श्रमणान् साधूनुपास्त इति श्रमणोपासकः श्रावकस्तस्य सावधव्यापारभाराक्रान्तस्याश्वासास्तद्विमोचनेन विश्वामाश्चित्तस्याश्वासनानिस्वास्थ्यानि इदं मे परलोकभीतस्य वाणमित्येवंरूपाणीति स हि जिनागमसंगमावदातबुद्धितया आरम्भपरिग्रहौ दुःखपरंपराकारिसंसारकान्तारकारणभूततया परित्याज्यावित्याकलयन् करणभटवशतया तयोः प्रवर्त्तमानो महान्तं खेदं संतापं भयं चोदहति भावयति चैवंहि / एयं जिणाण आणा- चरियं मह एरिसं अउण्णस्स / एयं आलप्पालं अचादूरं वि सवयइ / / 1 / / हयमम्हाणं नाणं हयमम्हाणं मणुस्समाहप्प || जे किल लद्धविवेया विचिट्ठिमो वालवा लुवत्ति // 2 // यत्रावसरे शीलानि समाधानविशेषा ब्रह्मचर्यविशेषा वा व्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि अन्यत्र तु शीलान्यणुव्रतानि सप्तशिक्षाव्रतानि तदिह न व्याख्यातं गुणव्रतादीनां साक्षादेवोपादानादिति गुणव्रते दिग्वतोपभोगपरिभोगव्रतलक्षणे विरमणान्यनर्थदण्डविरतिप्रकारा रागादिविरतयो वाप्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि पौषधः पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनं भक्तार्थः पौषधोपवास एतेषां द्वंद्वस्तान् प्रतिपद्यतेभ्युगच्छति तत्रापि च स तस्यैक आश्वासः प्रज्ञप्तो यत्रापि च सामायिकं सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगप्रतिसे Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसासंकर 514 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसीविस वनलक्षणं यद्वावस्थितः श्राद्धः श्रमणभूतो भवति तथा देशे दिग्द्रतगृहीतस्य दिकपरिमाणस्य विभागोवकाशोऽव स्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशं तदेव देशावकाशिकं दिग्व्रतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिनं संक्षेपकरणलक्षणं सर्वव्रतसंक्षेपकरणलक्षणं वानुपालयति प्रतिपत्त्यनन्तरमखण्डमा सेवत इति तत्रापि चतस्यैव आश्वासः प्रज्ञप्त इति उद्दिष्टेत्यमावास्यापरिपूर्णमित्यहोरात्रं यावत् आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्यव्यापारलक्षणभेदोपेतमिति यत्रापि च पश्चिमैवा मंगलपरिहारार्थमपश्चिमा चासौ मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी सा चेत्पश्चिममारणान्तिकी सा चासौ सँलिख्यते अनया शरीरकषायादीनि सँल्लेखनात्तपो विशेषः सा चेति अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनात् तस्याः (जुसणत्ति) जोषणा सेवनालक्षणो यो धर्मस्तया (जूसिएत्ति) जुष्टः सेवितोऽथवा क्षिप्तः क्षपितदेहो यस्स तथा / तथा भक्तपाने प्रत्याख्याते येन सः पादपवत् उपगतो निश्चेष्टतया स्थितः पादपोपगतः अनशनविशेष प्रतिपन्न इत्यर्थः / कालं मरणकालं अनवकांक्षन् तत्राऽनुत्सुक इत्यर्थः विहरति तिष्ठति। स्था० ४ठा० / / आसासंकरसमुब्भव न० (आश्वासांकुरसमुद्भव) आश्वास ए वांकुरप्ररोहस्तस्य समुद्भव उत्पत्तिर्यस्मात्तदाश्वासांकुरस मुद्भवम् ग्लानस्याश्वासप्ररोहबीजे, / वृ.१ उ. / / आसासदीव पु. (आश्वासद्वीप) आश्वास्यतेऽस्मिन्निति आश्वासः सचासौ द्वीपश्चाश्वासद्वीपः यदिवा आश्वसनमाश्वासः आश्वासाय द्वीप आश्वासद्वीपः / नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे, भिन्नबोधिस्थादयो यमवाप्याश्वासंति तस्मिन्द्रव्यदीपविशेषे, सच द्विधा सन्दीनोऽसदीनश्च-आचा० अ०३ऊ. पं.व. दा. // आसियावण न. (आश्रितापन) अपहरणे वृ. 1 उ० / निष्काशयितुमासादने / व्य. 10 व्य. स्तैन्ये, वृ०४ उ० / आसियावाय पुं० (आशीर्वाद) बहुपुत्रो बहुधनो बहुधर्मो दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यभीष्टोक्ती, आसियावायवियागरेज्जा-सूत्र०१ श्रु०१४ अ / आसीस्त्री. (आशी) सर्पदंष्ट्रायाम्-विशेः / स्था०४०। आसीण त्रि. (आसीन) उपविष्टे 1 प्रश्र१ सं द्वा० / आसिते / आक०२ अ / आसीविस पुं. (आशीविष) आश्यो द्रंष्ट्रास्तासु विषं यस्य सः। आसीदाढातग्गय महाविसा आसीविसा इति। दंष्ट्राविषे दर्वीकरसर्पभेदे, / प्रज्ञा.१ पद / जी. 1 प्र. नागे प्रश्नः 1 द्वा० / स्था०४ ठा० आशीविष इवाशीविषः यथा हि तमत्यन्तमवजानानो मृत्युमेवाप्नोति एवमेतमपि मुनिभव-जानानानामवश्यंभावि मरणम् / आशीविषलब्धिमति शापानुग्रहसमर्थे / उत्त, 12 अ / (आशीविषाणां भेदाः) कइविहा णं भंते ! आसीविसा पण्णत्ता गोथमा ! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता / तंजहा / जाइ आसीविसाय कम्मआसीविसाय // कइइत्यादि / आसीविसत्ति // आशीविषा दंष्ट्राविषाः / जाइ आसीविसत्ति / जात्या जन्मना आशीविषा जात्याशीविषाः कम्मआशीविसत्ति // कर्मणा क्रियया शापादिनोपघातकरणे नाशीविषाः काशीविषास्तत्र पंचेन्द्रियतिर्यंचो मनुष्याश्च काशीविषाः पर्याप्तका एव एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वगुणतः खल्वाशीविषा भवन्ति शापप्रदानेनैव व्यापादयन्ती त्यर्थः / एते चाशीविषलब्धिस्वभावात्सहस्रारान्तदेवेष्वेवोपप-द्यन्ते / देवास्त्वेत एव ये देवत्वेनोत्पन्नास्तेऽ-- पर्याप्तकावस्था- यामनुभूतभावतया काशीविषा इति / उक्तंच / शब्दा-भेदसंवादिभाष्यकारेण। आसीदाढातग्गय, महाविसासीविसादुविहभेया / ते कम्मजाइभएण, णेगहा चउविहविगप्पा | 1 || भ. टी०८ श०२ उ. / / जात्याशीविषाः / जाइआसीविसाणं भंते ! / कइविहार पण्णत्ता गोयमा? चउटिवहा पण्णत्ता / तंजहा / विच्छुयजाइआसीविसे 1 मंडजाइआसीविसे 2 उरगजाइआसीविसे ३मणुस्सजा इआसीविसे / स्था० 4 ठा० / भ० / विच्छुयजाइआसी विसस्सणं मंते / के वइए विसए पण्णत्ते 2 गोयमा ! पभूणं विच्छुयजाइआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं वोदिविसेणं विसदृमाणं पकरेत्तए एवइए विसए नो चेवणं संपत्तीए करिसु वा करंति वा करिस्सं तिवा मंडु कजाइअसीविसपुच्छा गोयमा ! पमूणं मंडुकजाइआसी विसे भरहप्पमाणमेत्तं बोदिविसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करिस्संति वा / एवं उरगजाइआसीविसस्सवि / नवरं / आसित्त पुं. (आसिक्त) स्त्रीशरीरावसक्ते, "नपुंसकविशेषे,, स च मोहोत्कटतया मेहनं योनावनुप्रवेश्य नित्यमास्ते वृ०४ऊ पं.भा.पं.चू / / जो विग्गहं अणुप्पवेसिअ छतीसा गारिस आसित्तो णयते भावोवसमं अलभंतो सो वि अपुमं भवे पं. भा० / सुगंधजलच्छटादानेन कल्प, उदकच्छटने दश / कृतासेके जी०१ प्र. 3 प्र / ज्ञा० 1 अ आ. म. प्र.६ अ / ईषत्सिक्ते, भ.९श. 33 उ० / (आसित्तसित्तसुईअ सम्मट्टरत्थंतरावणविहियं) आसिक्तानीषसिक्तानि च तदन्यथा अत एव सुचिकानि पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च हट्टमार्गा यत्रतत्तथा भ० ९श०३३उ। आसिम पुं॰ (आशिमन्) आशोर्भाव इमनिष्डिद्वत् / शीघ्रत्ये वाच / आसिय त्रि. (आश्रित) प्रतिष्ठिते स्था०६ वा. आश्रयं प्राप्ते शरणागते वाच / *आश्चिक-त्रि, अश्वान् भारभूतान् हरति वहति आवहति वा ठञ् भारभूतस्याऽश्वस्य हारके वाहके आवाहके / अश्वस्य निमित्तं संयोग उत्पातो वा वक् अश्वलाभसूचके संयोगे उत्पाते निमित्ते च / वाच / / अश्वस्वामिनि,४ व्य० // जो णाम सारहीणं, सड्डेजो भद्दबाइणो दमए / दुढे वि अजोआसे, दमेइतं आसियंवित्ति / / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसीविस 515 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसीविस जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं वोदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करिस्संति वा / मणुस्सजाइआसीविसस्स वि एवं चेव / नवरं / समयखेत्तप्पमाणमेत्तं वोदिं विसेणं विसपरिगयं सेसंतं चेव जाव करिस्संति वा // (केवइएति) कियान् / विसएत्ति / गोचरो विषस्येति गम्यं / अद्धभरहप्पमाणमेत्तंति / अर्द्धभरतस्य यत्प्रमाणं सातिरेकत्रिषष्ट्यधिक योजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा प्रमाणं यस्याः तथा तां ( / / वोदिति // ) तनुं (विसेणत्ति / ) विषेण स्वकीयाशीप्रभवेण करणभूतेन (विसपरिगयंति) विषं भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य विषतां परिगता प्राप्ता विषपरिगताऽतस्तामत एव / विसदृमाणंत्ति / विकट्यन्ती विदलन्तीम (करेत्तएत्ति) कर्तुम् (विसंएसंति) गोचरोऽसौ अथवा (से) तस्य वृश्चिकस्य (विसदृयाएत्ति) विषमेवार्थो विषार्थस्तद्भावस्तत्तातस्या विषार्थताया विषत्वस्य तस्यां वा (नो चेवत्ति / ) नैवेत्यर्थः (संपत्तीएत्ति) संपत्त्या एवंविधवोधिसम्प्राप्तिद्वारेण (करिसुत्ति) अकार्षुवृश्चिका इति गम्यत इह चैकवचनप्रक्रमेपि बहुवचननिर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थमेवं कुर्वति करिष्यति त्रिकालनिर्देशश्चाभीषां कालिकत्वज्ञापनार्थः / समयखेत्तत्ति / समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रं || कर्माशीविषाः भ० जइ कम्मआसीविसे किं नेरइयकम्मआसीविसे तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे मणुस्सकम्मआसीविसे देव कम्मासीविसे / गोयमा ! नो नेरइयकम्मासीविसे तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे वि मणुस्सकम्मासीविसे देवकम्मासीविसे वि / जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कि एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गोयमा ! नो एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव / नो चउरिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे पंचिंदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविसे जइपंचिंदियजावकम्मासीविसे किं सम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकाम्मासीविसे / एवं जहा वेउब्वियसरीरस्स भेओ जाव पज्जत्ता संखेजवासा-उयगम्भवकं तियकम्मभूमियपंचिंदियतिरिक्खजोणिय-कम्मासीविसे नो अपज्जत्ता संखेजधासाउ य जावकम्मासीविसे / जइ मणुस्सकम्मासीविसे किं समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गम्भवकं तियमणुस्सकम्मासीविसे 2 गोयमा ! नो समुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गब्भवतियमणुस्स-कम्मासीविसे / एवं जहा वेउब्वियसरीरं जाव पज्जत्ता संखेजवासाउ य कम्मभूमियगम्भवकं तियमणुस्सकम्मासीविसे नो अपज्जात्तजावकम्मासीविसे / जइ देवकम्मासीविसे किं भवणवासीदेवकम्मासीविसे जाव वेमाणियदेवकम्मासीविसे गोयमा! भवणवासीदेवकम्मा-सिविसे / विवाणमंतरदेवजोइसि-यवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि / जह भवणवासीदेवकम्मा-सीविसे किं असुरकुमारभवणवासीदेवकम्मासीविसे जाव थणिय-कुमारजावकम्मासीविसे 2 गोयमा! असुरकुमार भवण-वासीदेवकम्मासीविसे जाव थणियकुमारजावकम्मासीविसे जइ असुरकुमारजावकम्मासीविसे किं पज्जत्ता असुर-कुमारभवणवासीदेवकम्मासीविसे किं अपञ्जत्ता असुर-कुमारजावकम्मासीविसे गोयमा! नो पञ्जत्ताअसुरकुमारजावकम्मासीविसे अपज्जत्ता असुरकुमारभवणवासीजावकम्मासीविसे / एवं थणियकुमाराणं / जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पिसायवाणमंतदेवकम्मासीविसे एवं सव्वेसिं अपज्जत्तगाणं जोइसियाणं सवे सिं अपनत्तगाणं / जइ वेमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोवगवेमाणिय-देवकम्मासीविसे कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासीविसे गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे नो कप्पातीय-वेमाणियदेवकम्मासीविसे / जइ कप्पोवगवेमाणियदेव-कम्मासीविसे किं सोहम्मकप्पोवगजावकम्मासीविसे जाव अच्चुयकप्पोवगजावकम्मासीविसे गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे विजाव सहस्सार-कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, नो आणयकप्पो-वगवेमाणियदेवकम्मासीविसे जाव नो अच्वुयकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे / जइसोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे किं पज्जत्ता सोहम्मकप्पोवगजावकम्मासीविसे अपज्जत्ता सोहम्मजावकम्मासीविसे गोयमा !नो पज्जत्ता सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेव-कम्मासीविसे अपज्जत्तासोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेव-कम्मासी विसे एवं जाव नो पञ्जत्ता सहस्सारकप्पोवग-वेमाणियदे वककम्मासीविसे अपजत्ता सहस्सारकप्पो-वगजावकम्मासीविसे // टी. एवं (जहा वेउध्वियसरीरसभेओत्ति) यथा वैक्रिय भणत जीवभेदो भणितः तथेहापि वाच्योसावित्यर्थः / स चायं-गोयमानो समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संखेजवासाउयगडभवक्कतियपंचिंदियतिरिक्खिजोणियकम्मासीविसेअसंखेज्ज-वासाउ य जाव कम्मासीविसे गोयमा संखेज्जवासाउ यजाव कम्मासीविसे नो असंखेजवासाउ य जाव कम्मासीविसे जइ संखेजजावकम्मासीविसे किं पञ्जत्तसंखेजजावकम्मासीविसे अपज्जत्तसंखेजजाव कम्मासीविसे? गोयमा / शेषं लिखितमेवास्ते / भ.टी. 1८श. १ऊ // एतदेवसंक्षिप्याह। (आसीविस इति) आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशी विषाः ते द्विविधा जातितः कर्मतश्च तत्रजातितो वृश्चिक मंडूकोरगमनुष्यजातयः क्रमेण बहुबहुतरबहुतमविषाः वृश्चिकविषं हि उत्कर्षतोऽर्धभरतक्षेत्रप्रमाणं शरीरं व्याप्नोति / मंडूकविषं भरतक्षेत्रप्रमाणं / भुजंगमविषं जंबूद्वीपप्रमाण / मनुष्यविर्ष समय क्षेत्रप्रमाणं / कर्मतश्च पंचेंद्रियतिर्यग्यो Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसीविसत्त 516 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आसेय नयो मनुष्या देवाश्चासहस्रारात्। एते हि तपश्चरणा नुष्ठानतोऽन्यतो | आसुरता स्त्री०(आसुरता) आसुरभावेस्था०। वा गुणत आशीविष वृश्चिकभुजंगादिसाध्यां क्रियां कुर्वति / आसुरा-री स्त्री. (आसुरी) असुराभवनपतिदेवविशेषास्तेषा-मियमासुरी शापप्रदानादिना परं व्यापादयंतीति भावः / देवास्त्वपर्याप्तावच्छायां येष्वनुष्ठानेषु वर्तमानोऽसुरत्वं जनयति तैरात्मनो वासनेवृ. उप० स्था० / तच्छक्तिमंतोऽवसातव्याः / ते हि पूर्व मनुष्यभवे समुपार्जिताशीविष- चउहिं ठाणे हिं जीवा आसुरत्ताए कम्मं पकरेति तंजहा लब्धयः सहस्रारांतदेवेष्वभिनवोत्पन्ना अपर्याप्तावस्थायां प्राग्भविका कोवसीलयाए पाहुडसीलयाए संसत्ततवोकम्मेणं निमित्ताजीशीविषलब्धिसंस्कारादाशीविषलब्धिमंतो व्यवहियंते / ततः परं तु वयाए / स्था. 4 ठा पर्याप्तावस्थायां संस्कारस्यापि निवृत्तिरिति नतद्व्यपदेशभाजः / यद्यपि व्या. चउहिं ठाणेहिमित्यादि कंठ्यं नवरं असुरेषु भव आसुर च नाम पर्याप्ता अपि देवाः शापादिना परं व्यापादयंति। तथापि न असुरविशेषस्तद्भाव आसुरत्वं तस्मै आसुरत्वाय तदर्थ मित्यर्थः अथवा लब्धिव्यपदेशो भवप्रत्ययतस्तथा रूपसामर्थ्यस्य सर्वसाधारणत्वात् असुरतायै असुरताया वा कर्मतदायुष्कादि प्रकुर्वन्तिकर्तुमारभन्तेतद्यथा गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लब्धिरिति प्रसिद्धिः।। आ.म.प्र.१ अ / क्रोधनशीलतया कोपस्वभावत्वेन प्राभृत-शीलतया कलहनसंबंधतया विशे, प्रवद्वा० 139 जंबूद्वीपे मन्दरस्यपश्चिमेशीतोदाया महानद्या दक्षिणे संसक्ततपःकर्मणा आहारो-पधिशय्यादि प्रतिबद्धभावतपश्चरणेन वक्षस्कारपर्वतविशेषे, स्था०४८ाठा / (दोआसीविसा) स्था०२ठा० / निमित्ता जीवनतया त्रैकालिकलाभालाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराआसीविसत्तन (आशीविषत्व) शापानुग्रहसामर्थ्य-स्था०५ठा० / धुपजीवनेनेति स्था०४ठा। आसीविसभावणा स्त्री. (आशीविषभावना)आशीविषत्वं पूर्वोक्तस्वरूपं अथासुरीमाह। भाव्यते प्रतिपाद्यते यासु ग्रन्थपद्धतिषु ता आशीविषभावना अणुबद्धविग्गहो विय संसत्ततवोनिमित्तमाएमी / अंगवाह्यकालिकश्रुतभेदे। पा० आशीविषभावनायां पिटिकायामाशी- निक्किवनिराणुकंपो आसुरियं भावणं कुणइ // विषत्वलब्धेर्यथा समाचरणैराशी-विषतयाकर्म बध्यते व्य-१ ऊसाच अनुबद्धविग्रहसंसक्ततया निमित्तादेशी निष्कृपो निरनुकंप-स्सन्नासुरी चतुर्दशवर्षपर्यायस्य दीयते पं०व०२ द्वा० // भावनां करोतीति नियुक्तिसमासार्थः / वृ. उ.१ प्रव. ध / पं. व० / आसीविसलद्धि स्त्री०(आशीविषलब्धि) तपश्चरणमाहात्म्याद, आसुर्यपि सदा विग्रहशीलत्व१ संसक्ततपः२ निमित्तकथन 3 निष्कृपता गुणादितरतोपि वा / / आशीविषसमर्थाः स्युर्निग्रहेऽनुग्रहेऽपि च // 1 // 4 निरनुकम्पता 5 भेदेन पंचविधा उक्तं च सइविग्गहेत्यादि / ग. अधिः / इत्युक्तस्वरूपे निग्रहाऽनुग्रहसामर्थ्य ग० अ० / आ.चू.१ असुराणामियमासुरी सूत्रः / रौद्राणां रुद्रकर्मकारिणां भावदिशि, उत्तः / आसीस स्त्री (आशिष) आ. शास क्विप्- आड्पूर्वकत्यात् अतइत्वम् | आसरिप०(असुरि) सांख्याचार्यकपिलप्रथमशिष्ये, यदाह आसुरिः विविक्ते गोणादित्वादन्त्यस्यात्वम् / इष्टार्थाविष्करणे प्रार्थने, च / वाच / दकपरिणतौ भोगोऽस्य कथ्यते / स्या० / आम.प्र.आ. चू। आसु अव्य. (आशु) शीघ्र, वि० / निआव० / सूत्र क्षिप्रे सूत्र०१ श्रु०४ | आसुरिय पु.(आसुरिक) असुराणां चण्डकोपेन चरन्तीति आसुरिकाः। अ. ||स्वल्पकाले-आवः / प्राक्संयतभवे कृतचण्डकोपेषु, असुरत्वेनोत्पन्नेषु / आतु / आसुक्कार पु. (आशुकार) करण कारः अचित्तीकरणं गृह्यतेआशु शीघ्रं *आसुर्य न असुरभावे, प्रश्न / कार आशुकारः / मारणे, / तद्धेतुत्वादहिविषविसूचिकादौ, आव० आसुरुत्तत्रि.(आसुरुप्त) आशुशीघ्ररुप्तः कोपोदयाद्विमूढो रुप्लुपविमोहने मरणावसरे, च / आतु.॥ इतिवचनात् / भ.श०७ उ.९ / शीघ्रकोप-विमूढबुद्धौ, भ० / श०६उ / आसुक्कारोवगय त्रि०(आशुकारोपगत) आशुकारेण शूलादिनो परतः स्फुरितकोपलिंगे / ज्ञा० / अ०२ | जं। कालगत आशुकारोपगतः। शूलादिना मृते / व्य०४ उ / *आसुरोक्त त्रि. आसुरमसुरत्ककोपेन दारुणत्वात् उक्तं भणितं यस्य आसुगपु०(आशुग) आशु-गम्ड-बायौ, / सूर्ये बाणे / वाच० स आसुरोक्तः / असुरसदृशकोपेन दीर्घ शब्दकारिणि, निः / आसुपण्ण-पु.(आशुप्रज्ञ)-आशु शीघ्र कार्याकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा | *आशुरुष्ट त्रि० आशुशीघ्र रुष्टः क्रोधेन विमोहितो यःसःनिकोपेन प्रज्ञामतिर्यस्य स आशुप्रज्ञः उत्त, क्षिप्रप्रज्ञे। सूत्र 1 श्रु०१४ अ पटुबुद्वौ। विमोहिते, विपा० अ-९वि० / कुपिते विपा० / क्रुद्धज्ञा. अ१६ सदसदविवेकविकले / सूत्र०२ श्रु० 1 अ निरावरणत्वात् आव०- सर्वत्र | आसूणि न. (आशूनि) येनाशूनः सन् आ समन्ताच्छूनीभवति सदोपयोगादच्छद्मस्थे सूत्र 1 श्रु०६अ। मानसाऽपय्यालोच्यैव बलवानुपजायते तदाशूनीत्युच्यते / घृतपानादौ आहारविशेषे पदार्थपरिच्छित्तिविधायके सूत्र. 1 श्रु०६ अ ! के वलज्ञानिनि रसायनक्रि यायां, च सूत्र 1 अ६ / आसूणिमक्खिरागं च उत्पन्नदिव्यज्ञाने (णेआमुणीकासव आसुपन्ने) सूत्र.१ श्रु०६अ० // गिद्धवज्जायकम्मगं-सूत्र। . आसुयर त्रि. (आशुचर) शीघ्रसंचरणशीले-विशे० // आसूणिय त्रि०(आशूनित) ईषच्छूनीकृते- प्रश्नः / आसुर न०(आसुर) असुरकु मारभाव, उत्त० / असुरभावना आसेय पु.(आसेक) आ सिच्-घञ्-जलादिना वृक्षादेरीषत्सेचने, आ जनितेऽनुष्ठाने, स्था, पणबन्धेन कन्याप्रदाने-विवाहभेदे-ध सम्यक् सिच्यते येन / करणे ल्युट् आसेचनसाधने पात्रे, वाच / Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसेवण 517 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहारणतद्दोस आसेवणन०(आसेवन), सम्यक्सेवने, सततसेवने पौनःपुन्ये, च वाचः। सम्यक्पालने- / मैथुनक्रियायाम् / दः / आसे वणा स्त्री०(आसेवना) प्रतिसेवायाम् पंचा० / संयमस्य विपरीताचरणे,-ध, अधि०३ / प्रव। अभ्यासे, आ. चू० यथावस्थितसूत्रानुष्ठाने / सूत्र० श्रु०१ अ०१४ / आसेवणाकुसील पु.(आसेवनाकुशील) संयमस्य विपरीता राधनया कुशीले, प्रवः / स्वरूपमस्य कुसीलशब्दे // आसेवणासिक्खा स्त्री (आसेवनाशिक्षा)"औधिकी दश धाऽऽख्या च तथा पद्विभागयुक् / सामाचारी त्रिधेत्त्युक्ता तस्याः सम्यक् प्रपालनम् इत्युक्तलक्षणे शिक्षाभेदे-ध, अधि०३ / आसेविय त्रि०(आसेवित) सकृत्करणात् (ज्ञा. आचा. पंचा०) प्रतिसेविते, सम्यक, सेविते, पौनः पुन्येन सेविते, च भावेक्तः आसेवनायाम् / वाच / आसोअ पुं.(अश्वयुज्) आश्विनमासे,- जो. (आसोअमावासाए नेमिजिर्णिदस्स)। आ० म०प्र० / आसोत्थपु.(अस्वत्थ) बहुबीजकवृक्षविशेषे, प्रश्नः / आहंसु आख्यातवति, प्रश्र / आहन्न अव्य (आहत्य) सहसा इत्यस्य (आचा०) कदाचिदित्यस्य वार्थे भ. नि. चू.४ व्यः / आचा० / उत्त, आहत्य अव्य, ढौकित्वा आचा। उपेत्य / आचा।। व्यवस्थाप्य / सूत्र. श्रु 2 अ०१ / सूत्र / परिभाज्य / परिभागीकृत्यइत्यस्य वार्थे, आचा." आहपुदिज्जमाणं भुंजमाणे" सबले आहृत्य दीयमानं स्वस्थानात्साध्व-र्थमभिमुखदानमानीय, दशा। आहया स्त्री०(आहत्या) आहनने, प्राहारे, / निः / आहट्टपुं०(आहत्त) प्रेहलिकायां, वृ०॥ आहट अव्य०(आहृत्य) व्यवस्थाप्य अपाहृत्य वेत्यर्थे / सूत्र० अमिहडं आहुट्ट देसियं / सूत्र० श्रु०२१ / आहड-त्रि (आहृत)-प्रत्यादौडः 8 6 इतितस्यङः प्रा. साध्वर्थं यद्गृहस्थेन नीयते तदाहृतम् सूत्र० श्रु.१ अ०५ आनीते,-आव, आचा. दर्श / प्राहणके-वृ. ऊ२ / आहृतं द्विधा स्वग्रामाहृतं परग्रामाहृतं / सप्रत्यवायमप्रत्यवायं चेत्याद्यभ्याहृत शब्दे / जीत. नि. चू, व्यः / आहडियास्वी०(आहृतिका) प्राहणके-वृ. उ.२ / आहत्तहिय न.(याथात्म्य) यथातथाभावो याथातथ्यम् धर्म मार्गसमवसरणाख्याध्ययने तत्रोक्तार्थे-तत्त्वे सत्तानुगतसम्यक्त्वे- चारित्रे, च-सूत्र यथावस्थितेऽर्छ / सूत्र० श्रु.१ आ०१परमार्थेन परमार्थचिंतायां सम्यग्ज्ञानादिके-सूत्र. श्रु 1 अ०१३ / तत्प्रतिपादके त्रयोदशे सूत्रकृताध्ययने / सम०२३ स. / आहम्मधा०(आहम्म) हम्मगतौ आपूर्वः / आहम्मई आहम्मति-प्रा. ! आहम्मत् त्रि (आहन्यमान) वाद्यमानेषु पणवादिषु, आहम्मताणं पणवाणं पडिहाणं / प्रा० / आहय त्रि. (आहत) अननुबद्धे- स्था, प्रेरिते-आव. रा. आवश्यकर्तव्ये गमनागमनादौ / प्रव। चूर्णिते, / प्रति / *आहत त्रि. उपदर्शिते-प्रतिः / *आख्यातन, आख्यानकप्रतिबद्ध-प्रज्ञा० / जी. स्था० ।आ. म०प्र० भ० / आहरत्त त्रि.(आनयत्) आनयति,-द। आहरण न०(आहरण) व्यवस्च्छापने, आचा० / स्वीकरणे आचा० / __ आनयने,-सूत्र० श्रु.२ अ०२ आचा. आदाने, ग्रहणे, सूत्र श्रु.१ अ०८। *उदाहरण न उदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेनदाान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणम् द साध्यसाधनान्वयप्रदर्शने दृष्टान्ते, आ. म.प्र. विशे० / आहरणं दुविहं चउव्विहं होइ इक्कमेकं तु / आ अभिविधिना हियतेप्रतीतौ नीयते अप्रतीतोऽर्थोऽ-नेनेत्याहरणं यत्र समुदित एव दाष्टातिकोऽर्थ उपनीयते यथा पापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्यैवेति / द. अ०१ स्था० / आहरणे चउबिहे पन्नत्ते / तंजहा आवाए / उवाएठवणाकम्मे पडुप्पन्नविणासीआ।। सांप्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आह || चउहा खलु आहरणे होइ अवाउ उवाय ठवणाय / तह य पडुपन्नविणासमेव पढमं चउविगप्पं // 25 / / व्या. चतुर्दा खलूदाहरणं भवति अथ चतुर्दा खलूदाहरणे विचार्यमाणे भेदो भवति / तद्यथा / अपायः उपायः स्थापना च तथा च प्रत्युत्पन्नविनाशमेवेतिस्वरूपमेव प्रपंचेन भेदतो नियुक्तिकार एववक्ष्यति द० अ०१ अपायादीनां व्याख्याऽन्यत्र स्वस्वस्थाने / आहरणतद्देश-पुं०(आहरणतद्देश) तस्य देशस्तद्देशः स चासाउपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वादाहरणशब्दस्यपूर्वनिपाते। आहरणतद्देशः / दृष्टान्तार्थदशेनैवदान्तिकस्यार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्देशेउदाहरणमिति-यथा-चन्द्र इवमुखमस्या इति / इह हि चन्द्रे सौम्यत्वलक्षणेनैव देशेन मुखस्योपनयननानिष्टेन नयननासावर्जितत्वं कलंकादिना / स्था. ठा०।४। आहरणतद्देसे चउविहे पन्नते तंजहा अणुसहि उबालंभे पुच्छाणिस्सावयणे / अनुशास्त्यादीनां व्याख्या स्वस्थाने / आहरणतहोस पु. (आहरणतदोष) तथा तस्यैवाहरण तद्देशस्यैवाहरणस्य संबन्धी साक्षात्प्रसंगसंपन्नो वा दोषस्तद्दोषः सचासौधर्मे धर्मिण उपचारदाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादा-हरणतद्दोषः / अथवा तस्याऽऽहरणस्य दोषो यस्मिस्तत्तथा / दुर्हेतुभेदे,-स्थाठा०४ इह साध्य साधन कैवल्यं नाम दृष्टांत-दोषो यच्चासत्यादिवचनरूपं तदोषाहरणं यथा सर्वथाहमसत्यं परिहरामि गुरुमस्तककर्तनवदिति, यद्वा / साध्यसिद्धिं कुर्वदपि दोषान्तरमुपनयति तदपि तदेव यथा सत्यं धर्ममिच्छंति लौकिकमुनयोऽपि " वरं कूपशताद्वापी वरं वापीशतात् ऋतुः / वरंक्रतुशतात्पुत्रः सत्यं पुत्रशतादरमिति" 11 वचनवकृनारदवदिति अनेन च श्रोतुः पुत्रक्रतुप्रभृतिषु प्रायः संसारकारणेषु धर्माप्रतीतिराहितेति आहरणतद्दोषतेति यथा वा बुद्धिमता केनापि कृतमिद जगत्सन्निवेशविशेषवत्वात् घटवत् स चेश्वर इति अनेन हिस बुद्धिमान् कुंभकारतुल्योपीश्वरः सिध्यतीति ईश्वरश्च स विवक्षित इति स्था. 1४ठा० तद्यथा। आहरणतदोसे चउबिहे पन्नत्ते / तं जहा / अधम्मजुत्ते पडिलोमे आत्तोवणीए दुरोवणीए / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहरिज्जमाण 518 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार स्थाठा०४ दश० अ०२। आहरिजमाण त्रि.(आह्रियमाण) खाद्यमानेपुद्गले आहारे अभ्यवह्रियमाणे, | स्था, ठा. 10 / आहारतया जीवेन गृह्यमाणे। स्था, ठा०३ / आहरित्तए अव्य, (आहर्तुम्) अदनं कर्तुमित्यर्थे, / तं / आहरिसिय त्रि.(आधर्षित) भर्त्सिते, आ. म०प्र० / आहवण न०(आह्वान) संशब्दने, पंचा.१व- (अग्गिकुमाराहवणे धूवं एगं इहं वेति)। पंचा। आहव्वणीस्त्री०(आथर्वणी) स्वाभिधानायां सद्योऽनर्थकारिण्यां विद्यायाम् सूत्र० श्रु.५०२। आहा धा०(कांक्ष) आकांक्षायाम्, कांक्षे राहाहिलंघाहिलं खवचक महसिहविलुपाः। 849 / इति कांक्षेराहादेशः / आहाइ / कांक्षति / प्रा० / आहार पुं०(आधार) अधिकरणे, विशे० आ.चू.अ.१ अनु० / दोण्हं गब्भत्थाणं आहारे पं.तं. मणुस्साणं चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / / टी. द्वयोरेव गर्भस्थयोराहारोऽत्येषां गर्भस्थैवाभावादिति / स्था० ठा. | शस चतुर्भेदस्तद्यथा वैषयिको व्यापक औपश्लेषिकः सामीप्यकश्च आ, म.द्वि. यथा। आहारोआहेयं च होइ दव्वं तहेव भावाय / द्रव्यं आधारो भवति पर्यायाणाम् / विशे। आश्रये, ज्ञा० अ०० आलम्बने, संथा. आधेयस्यैव सर्वलोकानामुपकारित्वात् (ज्ञा० अ०१) आधार इवाधार आश्रय इति यावत् / सम्यक्त्वे, यथा धरातलमन्तरेण निरालंबं जगदिदं न तिष्ठति एवं धर्मजगदपि सम्य क्त्वलक्षणाधारव्यतिरेके ण नावतिष्ठत इति त्तथा भावनीयम् / प्रव. ध / आधारणादाधारः। आकाशे, भ.श०२ उ२। *आहार पुं. आहरणमाहारः ग्रहणे, क-प्र० / भोजने, प्रश्र अभ्यवहरणे प्रक। आहारनिक्षेपः। नामंठवणा दविए रवेत्ते भावे च हॉति बोधव्वो। एसो खलु आहारेनिक्खेवो होइपंचविहो // (नामंठवणेत्यादि) नामस्थापना द्रव्य क्षेत्रभावरूपः पंचप्रकरो भवति निक्षेप आहारपदाश्रय इति / तत्र नामस्थापनेअनादृत्य द्रव्याहार प्रतिपादयितुमाह / दव्वे सचित्तादी खेत्ते नगरस्स जणवओ होइ / भावाहारो तिविहो ओए, लोमे य पक्खेवे // (दव्वे इत्यादि) द्रव्याहारे चिंत्यमाने स चित्तादिराहारस्विविधो भवति।। तद्यथा सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च तत्रापि सचित्तः षडि विधः पृथिवीकायादिकः। तत्र सचित्तस्यं पृथिवीकायस्य लक्षणादिरूपापन्नस्याहारो द्रष्टव्यः तथाप्कायादरेपीति एवं मिश्रीऽचित्तश्चायोज्यः नवरमनिकायमचित्तं प्रायशो मनुष्या आहारयंति ओदनादेस्तद्रूपत्वादिति / क्षेत्राहारस्तु यस्मिन्क्षेत्रे आहारः क्रियते उत्पद्यते व्याख्यायते / यदि वा नगरस्य यो देशो धान्यधनादिनोपभोग्यःस क्षेत्राहारः / तद्यथा / मथुरायाः समासन्नो देशः परिभोग्यो मथुराहारो माठरकाहारः खेडाहार इत्यादिभावाहारस्त्वयं / / क्षुधोदयाद्भक्षपर्यायोफ्पन्न वस्तु यदाहार यति स भावाहार इति तत्रापि प्रायश आहारस्य जिव्हेन्द्रियविषयत्वात्तिक्त कटुककषायाम्ललवणमधुररसा गृह्यते / तथा चोक्तं "राईभत्ते भावओ तित्ते वा जाव मधुरेत्यादि" अन्यदपि प्रसंगेन गृह्यते / तद्यथा / खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्यं तत्रापि पुष्पाढ्य ओदनः प्रशस्यते न शीतः / उदकं तु शीतमेव तथा चोक्तं शैत्यमपां प्रधानो गुणः / एवं तावदभ्यवहार्यं द्रव्यमाश्रित्य भावाहारः प्रतिपादितः / सांप्रतमाहारकमाश्रित्य भावाहारं नियुक्तिकृदाह / भावाहारस्त्रिविधस्त्रिप्रकारो भवति / आहारकस्य जंतोस्विभिः प्रकारैराहारोपादानादिति / प्रकारानाह (ओहेति) तैजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कर्मणा कार्मणेनाभ्यां द्वाभ्यामप्याहारयति यावदपरमौदरिकं शरीरं न निष्पद्यते / तथा चोक्तं "तएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो / तेण परं मिस्सेणं जाव शरीरस्य निष्पत्ती / / तथा / ओहारा जीवा सव्वे आहारगा अपज्जता" | लोमाहारस्तु शरीरपर्यात्त्युत्तरकालं बाह्यया त्वचा लोमभिराहारो लोमाहारस्तथाप्रक्षेपेण कवलादेराहार प्रक्षेपाहारः स च वेदनीयोदयेन चतुर्भिः स्थानराहारसद्भवाद्भावति / तथाचोक्तं " चउहि ठाणेहिं आहारसन्ना समुप्पजइ तं जहा ओमोट्ठयाए छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मई एतमट्ठोवओ गेणंति // सांप्रतमेतेषां त्रयाणामप्येकयैव गाथया व्याख्यानं कर्तुमाह / सरीरेणोयाहारो तयायफासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलितो होइ नायव्वो // सरीरेणेत्यादि / तैजसेन कार्मणेन च शरीरेणौदारिकादिशरीरानिष्पत्तेर्मि श्रेण च य आहारः स सर्वोऽप्योजाहार इति के चिद् व्याचक्षते / औदरिकादिशरीरपर्याप्तापर्याप्तकोपींद्रिया नापानभाषामनःपर्याप्तिभिरपर्याप्तकः शरीरेणाहारयन् ओजाहार इति गृह्यते तदुत्तरकालं त्वचा स्पर्शद्रियेण आहारः स लोमाहार इति / प्रक्षेपाहारस्तुकावलिकः कवलप्रक्षेपनिष्पादित इति ज्ञातव्यो भवति के ओजाहाराः के लोमाहाराः के प्रक्षेपाहारा पुनरप्येषामेव स्वामिविशेषेण विशेषमाविभर्वियन्नाह // ओयाहारा जीवा सवे अपज्जत्तगा मुणेयव्वा / पज्जत्तगाय लोमे पक्खेवे होइ नायव्वा || ओयाहार इत्यादि / यः प्रागुक्तःशरीरेणौजसाहारस्तेनाहारेणा हारका जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्तका ज्ञातव्याः / सर्वाभिः पर्याप्तिभिरपर्याप्तास्ते वेदितव्याः / तत्र प्रथमोत्पत्तौ जीवः पूर्व-शरीरपरित्यागे विग्रहेणाविग्रहेण चोत्पत्तिदेशे तैजसेन कार्मणेन शरीरेण तप्तस्नेहपतितसंपानकवत्तत्प्रदेशस्थानात्पुद्गलानादत्ते तदुत्तरकालमपि यावदपर्याप्तकावस्था तावदोज आहार इति पर्याप्तकास्त्विंद्रियादिभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः केषांचिन्मतेन शरीरपर्याप्तका वा गृह्यते तदेवं तेलोमाहारा भवंति तत्र स्पर्शद्रियेणोष्मादिना तप्तच्छायया शीतवायुनोदकेन प्रीयतेप्राणी गर्भस्थोऽपि पर्याप्त्युत्तरकालं लोमाहार एवेति प्रक्षेपाहारे तु भजनीया यदैव प्रक्षेपं कुर्वति तदैव प्रक्षेपाहारो नान्यदा लोमा-हारता तु वाय्वादिस्पर्शात्सर्वदैवेति स च लोमाहारश्चक्षुष्म-तामग्दृिष्टिमतां न दृष्टिपथमवतरत्यतोऽसौ प्रतिसमयवर्ती प्रायशः प्रक्षेपाहारस्तूपलभ्यते प्रायः स च नियतकालीयः / तद्यथाः / देवकु रूत्तरकुरुप्रभवा अष्टमभक्ताहाराः संख्येय-वर्षायुषामनियतकालीयः प्रक्षेपाहार इति // सांप्रतं प्रक्षेपाहारं स्वामिविभागेन दर्शयितुमाह || Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 519 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार एगिदियदेवाणं नेरइयाणं च नत्थि पक्खेवो / सेसाणं पक्खेवो संसारत्थाण जीवाणं // (एगिंदिय इत्यादि) एकमेव स्पर्शद्रियं येषां भवति ते एकेन्द्रियाः पृथिवीकायादयस्तेषां देवनारकाणां च नास्ति प्रक्षेपस्ते हि पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्शद्रियेणैवाहारयंतीति कृत्वा लोमाहाराः तत्र देवानां मनसा परिकल्पिताः शुभाः पुद्गलाः सर्वेणैव कायेन परिणमंति नारकाणां त्वशुभा इति / शेषास्त्वौदारिकशरीरा द्वीन्द्रियादयस्तिर्यङ्मनुष्यास्तेषां प्रक्षेपाहार इति / तेषां संसार-स्थितानां कायस्थितेरेवाभावात्प्रक्षेपमंतरेण कावलिक आहारो जिव्हेंद्रियसभावादिति अन्ये त्वाचार्या अन्यथा व्याचक्षते तत्र यो जिव्हेंद्रियेण स्थूलशरीरे प्रक्षिप्यते स प्रक्षे पाहारः यस्तुघ्राणदर्शनश्रवणैरुपलभ्यतेधातुभावेन परिणमति स ओजाहारः / य पुनः स्पर्शेन्द्रियेणैवोपलभ्यते धातु भावेन प्रयाति सलोमाहार इति / सूत्र- श्रु०२ अ३प्रव, दवा२५ सांप्रतं कालविशेषमधिकृत्याऽनाहारकानभिधित्सुराह / एकं च दोवसमए तिन्निवसमए मुहुत्तमद्धं वा / सादीयमनिहणं पुण कालमणाहारगा जीवा // एवं चेत्यादि / तत्र 'विग्गहगइमावन्ना के वलिणोसमोहया अ योगीया / सिद्धा य अणाहारा सेसाआहरगाजीवा' अस्था लेशतोयऽमर्थः उत्पत्तिकाले विग्रहगतौ वक्रगतिमापन्नाः केवलिनो लोकपूरणकाले समुद्धतावस्थिता अयोगिनः-शैलेश्यवस्थाः सिद्धाश्चानाहारकाः शेषास्तु जीवाहारकाः इत्यवगंतव्यं तत्र भवाद्भवांतरं यदासमश्रेण्या याति तदानाहारको न लभ्यते यदापि विश्रेण्यामेकेन वक्रेणोत्पद्यते तदापि प्रथमसमये पूर्वशरीरस्थेनाहारितं द्वितीये त्ववक्रसमये समाश्रित-शरीरस्थेनेतिवक्र द्वये तु त्रिसमयोत्पतौ मध्यसमयेनाहारक इति / इतरयो स्त्वाहारक इति वक्रत्रयेतु चतुः समयोत्पत्तिके मध्यवर्तिनोः समययोरनाहारकश्वतुः समयोत्पत्तिश्चैव भवति / त्रसनाड्या बहिरुपरिष्टादधोधस्ताद्वापर्युत्पद्यामानो दिशो विदिशि विदिशो वा दिशि यदोत्पद्यते तदा लभ्यते / तत्रैकन समयेन सनाडी प्रवेशो द्वितीयेनोपर्यधोवा गमनं तृतीयेन च बहिर्निःसरणं चतुर्थेन तु विदिक्षुत्पत्तिदेशप्राप्तिरिति / पंचमसमयस्तु सनाड्या बहिरेव विदिशो विदिगुत्पतौ लभ्यते / तत्र च मध्य वर्तिषु आनाहारक इत्यवगंतव्यं / आद्यंतसमय-योस्त्वाहारकइति / केवलिसमुद्घातेपि कार्मणशरीर-वर्तित्वात्तृतीयचतुर्थ पंचमसमयेष्वनाहारको द्रष्टव्यः / शेषेषु त्वौदरिकतन्मिश्रवर्तित्वादाहारक इति (मुहत्तमद्धंचत्ति) अंतर्मुहूर्त गृह्यते / तच के वली स्वायुषः क्षये सर्वयोगनिरोधे सति ह्रस्वपंचाक्षरोगिरणमा त्रकालम् यावदनाहारक इत्येवमवगंतव्यं सिद्धजीवास्तु शैले श्यवस्थाया आदिसमयादारभ्यानंतमपि कालमनाहारका इति / सांप्रतमेतदेव स्वामिविशेषविशेषि-ततरमाह। एकं च दोव समए केवलिपरिवजिया अणाहारा / पंचंमि दोणि लोए य पूरिए तिन्नि समयाओ // एक्चेत्यादि || केवलपरिवर्जिताः संसारस्था जीवा एकं द्वौवा अनाहारका भवंति ते च द्विविग्रह त्रिविग्रहोत्पत्तौ त्रिचतुः सामयिकायां द्रष्टव्याः चतुर्विग्रहपंचसमयोत्पत्तिस्तु स्वल्प-सत्वाश्रितेपि न साक्षादुपात्ता / तथा चान्यत्राप्यभिहितं एकं द्वौ वानाहारकः / वाशब्दात् | त्रीन् वा आनुपूा अभ्युदन उत्कृष्टतो विग्रहगतौ चतुरः समयानागमेऽभिहिताः तेच / पंचमसमयोत्पत्तौ लभ्यते नान्यंत्रेति / भवस्थके वलिनस्तु समुद्घाते मथे तत्करणोपसंहारावसरे तृतीयपंचमसमयौ द्वौ लो कपूरणा-चतुर्थसमयेन सहितास्त्रयः समया भवंतीति / पुनरपि नियुक्तिकारः सादिकमपर्यवसानं कालमनाहारकत्वं दर्शयितुमाह // अंतो मुहुत्तमद्धं सेलेसीए भवे अणाहारा / सादीयमनिहणं पुण सिद्धायणाहारगा होति / / (अंतोमुत्तमित्यादि) शैलेश्यवस्थाया आरभ्य सर्वथानाहारकः सिद्धावस्थाप्राप्तावनंतमपि कालं यावदिति पूर्व तु कावा लिकाख्यव्यतिरेकेण प्रतिसमयमनाहारकः कावलिकेन तु कादाचित्क इति / सूत्र० श्रु०२ अ०३ // सयोगिकेवली अनाहारक इति वदतां दिगम्बराणां तस्याऽऽहारकत्वसाधनेन प्रतिक्षेप कृतः। सूत्रः / सम्म / तदेवं संसारस्या जीवा विग्रहगतौ जघन्येनैकं समयं उत्कृष्टतः समयत्रयं भवस्थकेवली च समुद्घातावस्थाः समयत्रयमनाहारकः शैलेश्यवस्था यांत्वंतर्मुहूर्त सिद्धास्तु-सादिकमपर्यत कालमनाहारका इति स्थितं / / सांप्रतं प्रथमाहारग्रहणं येन शरीरेण करोति तदर्शयति / / जोएण कम्मरणं आहारेई अणंतरं जीवा / तेण परं मीसेणं जीवशरीरस्स पज्जत्ती // जोएणेत्यादि / ज्योतिस्तेजस्तदेव तत्र वा भवं तैजसं कार्मणेन वाहारयति / तैजसकार्मणे हि शरीरे आसंसारभाविनि ताभ्यामेवोत्पत्तिदेशं गता जीवा प्रथममाहारं कुर्वति ततः परमौदा-रिकमिश्रेण वैक्रियमिश्रणेन वा यावच्छरीरं निष्पद्यते ताव-दाहारयति / शरीरनिष्पत्तौ त्वौदारिकेण वैक्रियेण वाऽऽहारयंतीति स्थित / सूत्र० श्रु० 2 अ०३ / श्रा. केवलिनां प्रच्छन्नावाहारनिहारी // स / पृथ्वीकायिकादीनामाहारनिरूपणम्-कथं किं वा ते आह रन्ति / सुयं मे आउसंते णं भगवया एवमक्खायं इह खलु आहारपरिण्णा णामज्जयणे तस्स णं अयम8 इह खलु पाईणं वा सव्वत्तो सव्वावंति च णं लोगंसि चत्तारि वीयकाया एवमाहिअंति / तं जहा अग्गवीया मूलवीया पोरवीयाखंधवीया ते सिं च णं अहाविएणं अहावगासेणं इहे गतिया सत्ता पुढवीजोणिया पुढविसंभवा पुढवीवुक्कमये तोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहजोणियासु पुढवीसु सक्खत्ताए विउद्देति ते जीवातेसिं णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेति // 1 // || टी० // सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह / तद्यथा श्रुतं मयाऽऽयुष्मतातु भगवतेदमाख्यातं / तद्यथा / आहारपरिशेदमध्ययनं तस्य चायमर्थः / प्राच्यादिषु दिक्षु सर्वत इत्यूर्वाधो विदिक्षु च (सव्वावंतित्ति) सर्वस्मिन्नपि लोके क्षेत्रेप्रज्ञापकभावदिगाधारभूतेऽस्मिन् चत्वारो बीजकाया बीजमेव कायो येषां ते तथा बीजं वक्ष्यमाणं चत्वारो बीजप्रकारा समुत्यत्तिभेदाभवंति तद्यथा अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते ते तलता लिसहकारादयः शाल्यादयो वा / यदिवाग्राण्येवोत्पत्ती Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 520 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार कारणतां प्रतिपद्यते येषां कोरंटादीनां ते अग्रबीजास्तथा मूलबीजा आर्द्रकादयः पर्वबीजास्त्विक्ष्वादयः स्कंधबीजाः सल्लक्यादयः / नागार्जुनीयास्तु पठंति (वणस्सइकाइयाणं पंचविहा बीजवकंती एवमाहिजइ तं जहा अग्गमूलपोरुक्खंधबीयरुहा छट्ठापि एगेंदिया समुच्छिमा बीया जायते) यथा दग्धवनस्थलीषु नानाविधानि हारितान्युद्भवंति पद्मिन्यो वाऽभिनवतडागादाविति तेषां च चतुर्विधानामति वनस्पतिकायानां यद्यस्य वीजमुत्पत्तिकारणं तद्यथा बीजं / तेन यथावीजेनेति / इदमुक्तं भवानि / शाल्यंकुरस्य शालिबीजमुत्पत्तिकारणं / एवमन्यदपि द्रष्टव्यं / यथावकाशेति यो यस्यावकाशः यद्यस्योत्पत्तिस्थानमथवा भूम्यंबुकालाकाशबीजसंयोगा यथावकाशे गृह्यते तेनेति / तदेवं यथाबीजं यथावकाशेन चेहास्मिन् जगत्येके केचन सत्त्वा ये तथाविधकर्मोदयाद्वनस्पतित्पित्सवस्ते हि वनस्पतावुत्पद्यमाना अपि पृथिवीयोनिका भवंतियथा तेषां वनस्पतिबीज कारण-मेवमाधारमंतरेणोत्पत्तेरभावात्पृथिव्यपि शैवालजंबालादेरुदकवदिति / तथा पृथिव्यां संभवः सदा भवनं येषां वनस्पतीनां तथा / इदमुक्तं भवति / न केवलं ते सद्योनिकायस्थितिका-श्चेति / तथा पृथिव्यामेव विविधमुत्पाल्त्येन क्रमःक्रमणं येषा ते पृथिव्युत्क्रमाः। इदमुक्तं भवति / पृथिव्यामेव तेषामूलंक्रमण-लक्षणा वृद्धिर्भवति / एवं च ते तद्योनिकास्तत्संभवास्तद् व्युत्क्रमा इत्येतदनूद्याप्यपरं विधातुकाम आह॥ कम्मोवगा इत्यादि / ते हि तथाविधेन वनस्पतिकायसंभवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वनस्पतिषूपसामीप्येनतस्यामेव च पृथिव्यां गच्छंतीति कर्मोपगा भण्यंते तेहि कर्मवशगा वनस्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि वनस्पतिषूत्पद्यते / न चान्य त्रोप्ता अन्यत्र भविष्यंतीति उक्तं च / "कुसुमपुरोप्ते बीजे मथुरायां नाङ्कुरः समुद्भवति / यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोपत्द्यते प्रसवः " तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन कारणेन समाकृष्यमाणास्तत्र वनस्पति-काये वा व्युत्क्रमाः समागताः संतो नानाविधयोनिकासु पृथिवीष्वित्यन्येषामपि षण्णां कायानामुत्पत्तिस्थानभूतासु सचित्ताऽचित्तमिश्रासु वा श्वेतकृष्णादिवर्णतिक्तादिर ससुरभ्यादिगंधमृदुकर्कशादिस्पर्शादिकैर्विकल्पैर्बहुप्रकारासु भूमिषु वृक्षतया विविधा वर्तते तेचतत्रोत्पन्नास्तासां पृथिवीनां स्नेहं स्निग्धभावमाददते स एव च तेषामाहार इति / नच ते पृथवीशरीरमाहारयंतः पृथिव्याः पीडामुत्पादयंति // सूत्र० श्रु० 2 अ-६।। तेजीवा आहारेंति पुढवीशरीरं आउशरीरं तेउशरीरं वाउशरीरं वणस्सइसरीरंणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिविद्धत्थं तं शरीरं पुष्वा हारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूवियकडं संतं अवरेवियणं तेसिं पुढबिजोणियाणं रक्खाणं सरीरा णाणावण्णाणा णागंधा जाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठियाणाणा विह-सरीरपुरणलविउव्वित्ता ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मक्खायं / / टी, एवमप्कायतेजोवायुवनस्पतीनामायोज्यं / अत्र च पीडानुत्पादनेऽयं दृष्टान्तः / तद्यथा / अण्डोद्भवाद्या जीवा-मातुरुष्मणा विवर्धमाना गर्भस्था एवोदरगतमाहारयंतो नातीव पीडामुत्पादयंत्येव- | मसावपि वनस्पतिकायिकः पृथिवीस्नेहमाहार यन्नातीव तस्याः पीडामुत्पादयति उत्पद्यमानः समुत्पन्नश्च बुद्धिमुपगतोऽसदृशवर्णरसाद्युपेतत्वात् बाधां विदध्यादपीति / एवमप्कायस्य भौमस्यांतरिक्षस्य वा शरीरमाहारयंति तथा तेजसो भस्मादिकं शरीरमाददति / एवं वाय्वादेरपीति द्रष्टव्यं / किंबहुनोक्तेननानाविधानां वसस्थावराणां प्राणिनां यच्छरीरं तत्ते समुत्पद्यमाना अचित्तमपि स्वकायेनावष्टभ्य प्रासुकीकुर्वति / यदि वा परिविध्वस्त पृथिवीकायादिशरीरं किंचित्परितापितं कुर्वति ते वनस्पतिजीवाएतेषां पृथिवीकायादीनां तच्छरीरं पूर्वमाहारितमिति तैरेव पृथिवीकायादिभिरुत्पत्तिसमये आहारितमासीत् स्वकायत्वेन परिणामितमासीत् / तदधुना वनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमान उत्पन्नो वा त्वचा स्पर्शनाहारयत्याहार्य च स्वकायत्वेन विपरिणामयति विपरिणामितं च तच्छरीरं स्वकायेन सह स्वरूपतां नीतं सत्तन्मयतां प्रतिपद्यते / अपराण्यपि मूलशाखाप्रतिशाखापत्रपुष्पफलादीनि तेषां पृथिवीकायिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि / तथाहि स्कंध-स्यान्यथाभूतो वर्णो मूलस्य चान्यादृश इति / एवं यावन्ना-नाविधशरीरेषु पुद्गलविकुर्वितास्ते भवंतीति / तथाहि / नाना-रसवीर्यविपाका नानाविधपुद्गलोपचयात्सुरूपकुरूपसंस्थानास्ते भवंतीति / तथा दृढाल्पसंहननाः कृशस्थूलस्कंधाश्च भवंत्येवमादिका नानाविधस्वरूपाणि विकुर्वतीति स्थितम् / केषांचिच्छाक्यादीनां वनस्पत्याद्या स्थावरजीवा एव न भवंतीति अतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह / ते जीवा इत्यादि / ते वनस्पतिषूत्पन्ना जीवा उपयोगलक्षणत्वाज्जीवानां तेषामप्याश्रयोत्सर्पणादिकया क्रिययोपयोगो लक्ष्यते / तथा विशिष्टाहारोपचयापचयाभ्यां शरीरोपचयापचयसद्धावादर्भकजीवाः स्थावरास्तथाच्छि-न्नप्ररोहणात्स्वापात्सर्वत्वगपहरणे मरणादित्येवमादयो हेतवोऽत्र द्रष्टव्याः यदत्र कैश्चित्पृष्टेपि वनस्पतीनां चैतन्ये सिद्धानैकांतिकत्वादिकमुक्तं स्वदर्शनानुरागात्तदपकर्णनीयं नहि सम्यगार्हतमताभिज्ञोऽसिद्धविरुद्धानेकांतिकोपन्यासेन व्यामोह्यते सर्वस्य कथांचिदभ्युपगतत्वात्प्रतिषिद्धत्वाचेति तेजीवास्तत्र वनस्पतिषु तथाविधेन कर्मणा उपपन्नगाः / तचेदं एकेंद्रियजातिस्थावरनामवनस्पतियोग्यायुष्कादिकमिति तत्कर्मोदयेन तत्रोत्पन्ना उच्यते न पुनः कालेश्वरादिना तत्रोत्पाद्यते इत्येवमाख्यातं तीर्थकरादिभिरिति। एवं तावत्पृथिवीयोनिका वृक्षा अभिहिताः सूत्र श्रु.२ अ०३ / सांप्रतं तद्योनिकेष्वेव वनस्पतिषु अपरे समुत्पद्यत इत्येतदर्शयितुमाह / सूत्र आहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तजोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं / तत्थ दुकमा पुढवीजोणिएहिं रुक्खे हिं सक्खत्ताए विउति ते जीवा तेसिं पुढवीजोणियाणां रुक्खाणं सिणे हमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरंणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुटवाहारिय तयाहारियं विप्परिणामियं सारूविकडं संतं अवरेवियणे तेसिं रुक्ख जोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावन्ना णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया णाणाविह Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 521 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार सरीरपुग्गलविउटिवया ते जीवा कम्मोववनगा भवंतीतिमक्खायं ||3|| टी० / सुधर्मस्वामी शिष्योद्देशेनेदमाह / / अथापरमेतदा ख्यातं पुरा तीर्थकरेण यदि वा तस्यैव वनस्पतेः पुनरपरं वक्ष्य-माणमाख्यातं यद्यथेहास्मिन् जगत्येके केचन तथाविधक-र्मोदयवर्तिनः सत्वाः प्राणिनो वृक्षा एव योनिरुत्पत्तिस्था नमाश्रयो येषां ते वृक्षयोनिकाः / इह च यत्पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेष्वभिहितं तदेतेष्वपि वृक्षयोनिकेषु वनस्पतिषु तदुपचयकर्तृसर्वमायोज्यं यावदाख्यातमिति / सूत्र० श्रु२ अ०३ / साम्प्रतं वनस्पत्यवयवानधिकृत्या ऽऽह // अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तनोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा रुक्खजोणिएसुरुक्खत्ताए विउद्वंति ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंतिपुढवीसरीरं आउते उवाउवणस्सइसरीरं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूविकडं संतं अवरेवियणं तेसिं रुक्ख जेणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावना जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मक्खायं // 4 // अथापरमेतदाख्यातं तद्दर्शयति / इहास्मिन् जगत्येके न सर्वे तथाविधकर्मोदयवर्तिनो वृक्षयोनिकाः सत्वा भवंति तदवयवा श्रिताश्च परे वनस्पतिरूपा एव प्राणिनो भवंति तथा यो ह्येको वनस्पतिजीवः सर्ववृक्षावयवव्यापी भवति तस्य चापरे तद वयवेषु मूलकंदस्कंधत्वकशाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजभूतेषु दशसुस्थानेषु जीवाः समुत्पद्यंते ते च तत्रोत्पद्यभाना वृक्षयोनिका वृक्षव्युत्क्रमाश्चोच्यते इति / शेषं पूर्ववत् इह च प्राक् चतुर्वि-धार्थप्रतिपादकानि सूत्राण्यभिहितानि / तद्यथा वनस्पतयः पृथिव्याश्रिता भवंतीत्येकं 1 तच्छरीरं अप्कायादिशरीरं वाऽऽहारयंतीति द्वितीयं तथा विवृद्धास्तदाहारितं शरीरमचित्तं विध्वस्तं च कृत्वात्मसात्कुर्वंतीति तृतीयं 3 अन्यान्यपि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि मूलस्कंधकं दादीनि नानावर्णानि भवंतीति चतुर्थं // 4 // एवमत्रापि वनस्पतियोनिकानां वनस्पतीनामेवंविधार्थप्रतिपादकानिचतुष्प्रकाराणि सूत्राणि द्रष्टव्यानीति यावत्तेजीवा वनस्पत्यवयव मूलस्कंधादिरूपाः कर्मोपपन्नगा भवत्येवमाख्यातं / सूत्र-श्रु० 3-03 // अथ वृक्षोपर्युत्पन्नान् वृक्षानाश्रित्याह / अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकया तजोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा रुक्खजोणिए सुरुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तताएपुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउदंति ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति परिविद्धत्थंतं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं क्खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णाणाणागंधा जावणाणाविहसरीरं पुग्गलविउवित्ता ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीति मक्खायं // 5 // अथापरमेतत्पुराऽऽख्यातं यद्रक्ष्यमाणमिहैके सत्वा वृक्षयोनिका भवंति तत्र ये ते पृथिवीयोनिका वृक्षास्तेष्वेव प्रतिप्रदेशतया ये परे समुत्पद्यते तस्यैकस्य वनस्पतेर्मूलारंभकस्योपचयकारिणस्ते वृक्षयोनिका इत्यभिधीयते / यदिवायेतेमूलकंदस्कंधशाखादिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिनस्तएवमभिधीयते तेषुचवृक्षयोनिकेषु वृक्षेषुकर्मोपपादननिष्पादितेषु उपर्युपरि अध्यारोहंतीत्यध्यारुहा वृक्षोपरिजाता वृक्षाभिधानाः कामवृक्षाभिधाना वा द्रष्टव्यास्तदभावेवाऽपरेवनस्पतिकायाः समुत्पद्यते वृक्षयोनिकेषुः वनस्पतिष्विति / इहापि प्राग्वचत्वारि सूत्राणि द्रष्टव्यानि। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्तारुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुकमा तछोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोववन्नगा कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खे हिं अज्जारोहत्ताए विउदंति ते जीवा तेसिं रुक्खजो णियाणं सक्खाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारति पुढवीसरीरं जाव सारू विकडं संतं अवरे विय णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्जारहाणं सरीरा णाणा वन्ना जाव मक्खायं // 6 // तद्यथा योनिकेषु वृक्षेष्वपरेऽध्यारुहाः समुत्पद्यते ते च तत्रोत्पन्नाः स्वयोनिभूतं वनस्पतिशरीरमाहारयंति तथा पृथिव्यप्तेजोवा य्वादीनां शरीरकमाहारयंति तथा तच्छीरमाहारितं सदचित्तं विध्वस्तं परिणामितमात्मसात्कृतं स्वकायावयवतया व्यवस्था पयंत्यपराणि च तेषामध्यारुहाणां नानाविधरूपरसगंधस्पर्शोपेतानि नानासंस्थानानि शरीराणि भवंति ते जीवास्तत्रस्वकृतकर्मोपपन्ना भवंतीत्येतदाख्यातमिति प्रथम सूत्रम् / सूत्र० श्रु०२ अ०३। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्जारोहजोणिया अज्जारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्छ दुकमा रुक्ख जोणिएसु अज्जारोहेसु अज्जारोहत्ताए विउद्देति ते जीवा तेसिं अज्जारोहजोणियाणं अज्जारोहाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति ते जीवा पुडवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं अवरे वि यणं तेसिं अज्जारोहजोणियाणं अज्जारोहाणं सरीराणाणावना जाव मक्खायं 119 द्वितीयं त्विदमथापरं पुराख्यातं / येतेप्राग्वृक्षयोनिषु वृक्षेषु अध्यारुहाः प्रतिपादितास्तेष्वेवोपरि प्रतिप्रदेशोपचयकर्तारोऽध्यारुहवनस्पतित्वेनोपपद्यंते ते च जीवा अध्यारुहप्रदेशेषूत्पन्ना अध्यासहजीवास्तेषां स्वयोनिभूतानि शरीरास्याहारयति / तथाऽपराण्यपि पृथिव्यादीनि शरीराणि आहारयंति अपराणि चाध्यारोहसंभवानामध्यारुहजीवानां नानाविधवर्ण कादिकानि शरीराणि भवंतीत्येवमाख्यातं / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 522 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्जारोहजोणिया अच्जारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा अज्जारोहजोणिएसु अज्जारोहत्ताए विउद्वंति ते जीवा तेसिं अज्जारोहजोणियाणं अच्छारोहाणं सिणेहमा हारेंति ते जीवा आहारतिपुढवीसरीरा आउसरीराजावसारूविकडं संतं अवरे वि य णं तेसिं अज्जारो हजोणियाणं अज्जारोहाणं सरीरा णाणावना जाव मक्खायं // 8 // तृतीयं त्विदं / / अहावरमित्यादि / अथापरं पुराख्यातं तद्यथा इहैके सत्वा अध्यारुहसंभवेष्वध्यारुहत्वेनोपपद्यते ये चैवमुत्पद्यते तेऽध्यारुहजीवा आहारयति तृतीये त्वध्यारुहयोनिका- | नामध्यारुहजीवानां शरीराणि द्रष्टव्यानीति विशेषः / अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता अज्जारोहजोणिया अज्जारोहसंभवा जाव कम्मनियाणे णं तत्थ बुकमा अज्जारोहजोणिएसु अज्जारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउ,ति ते जीवा तेसिं अज्जारोहजोणियाणं अज्जारोहाणं सिणेहमाहारैतिजाव अवरेवियणंतेसिं अज्जा-रोहजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीराणाणावना जाव मक्खायं 7 || इदं तु चतुर्थकं तद्यथा (अहावरमित्यादि) अथापर-मिदमाख्यातं। तद्यथा इहैके सत्वा अध्यारुहयोनिकेष्वध्यारुहेषु मूलकंदस्कंधत्वक्शाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजभावेनोत्पद्यते तेच तथाविधकर्मोपगा भवंतीत्येतदाख्यातमिति शेषं तदेवेति / साम्प्रतं वृक्षव्यतिरिक्तशेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव णाणाविहजोणियासु पुढवीसु तणत्ताए विउति ते जीवा | तेंसिणाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना भवंतीति मक्खायं 10 एवं पुढविजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउदंति जाव मक्खायं 11 एवं तणजोणिएसु तणेसु तणत्ताए विउदति तणजोणीयं तणसरीरं च आहारति जावमक्खायं 12 एवं तणजोणिएसुतणेसुमूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउदंतिते जीवा जाव एवमक्खायं 13 एवं ओसहीणं वि चत्तारि आलावगा 14 एवं हरियाणं वि चत्तारि आलावगा ||15 / / साम्प्रतं वृक्षव्यतिरिक्तं शेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह / (अहावरमित्यादि) अथापरमिदमाख्यातं यदुत्तरत्र वक्ष्यते / तद्यथा इहैके सत्त्वाः पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसंभवाः पृथिवीव्युत्क्रमा इत्यादयो यथा वृक्षेषुचत्वार आलापका एंव तृणान्यप्याश्रित्य द्रष्टव्याः / ते चामी नानाविधासु पृथिवीयोनिषु तृणत्त्वेनोपपद्यते पृथिवीशरीरं चाहरयन्ति 10 द्वितीयं तु पृथिवीयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यन्ते तृणशरीरं चाहारयंतीति 11 तृतीयं तु तृणयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यते तृणयोनिकं शरीरं चाहारयंतीति 12 चतुर्थं तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु मूलादिदशप्रकारेषूत्पद्यते तृणशरीरं चाहारयंत्येवं यादवाख्यातमिति 13 एव मौषध्याश्रयाश्चत्वार आलापका भणनीयाः 14 नवरमौषधिग्रहणं कर्तव्यमेवं हरिताश्रयाश्चत्वार आलापका भणनीयाः / कुहणेषु त्वेक एवालापको द्रष्टव्यस्तद्योनिकानामपरेषामभावादिति भावः / अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्तापुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा णाणा-विहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए वायत्ताएकायत्ताएकूहणत्ताएकंदुकत्ताए उव्वेहणियत्ताए निव्वेहणियत्ताए सछत्ताए छत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउदंति ते जीवा तेर्सि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमारेति ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं पुढविजोणियाणं आयत्ताणं जाव कूराणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं एगो चेव आलावगो सेसा तिण्णि णस्थि / / 16 / / इह चामी वनस्पतिविशेषा लोकव्यवहारतोऽनुगंतव्याः प्रज्ञा-पनातो दावासेया इति / अत्रार्थे सर्वेषामेव पृथिवीयो-निकत्वात्पृथिवीसमाश्रयत्वेनाभिहिताः इह च स्थावराणां वनस्पतेरेव प्रस्पष्टचैतन्यलक्षणत्वात्तस्यैव प्राक्प्रदर्शितं चैतन्यं / / सांप्रतमपकाययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपं दर्शयितुमाह / अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा णाणावि हजोणिएस उदएस रक्खत्ताए विउदंति / ते जीवा ते सिंणाणाजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंतिते जीवा आहारेतिं पुढविसरीरंजाव संतं अवरे वियणं तेर्सि उदगजोणियाणं रुक्खाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं / जहा पुढविजोणियाणं चत्तारि गमा अज्जारहाणं वि तहेव तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भणियय्वा। एकके तहा उदगजोणियाणं रुक्खाणं इलाके // 17 // अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उ दगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ दुकमा णाणाविहजोणिएसु उदयेसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेदालत्ताए कलंबुगत्ताए हडताए कसेरुगत्ताए कच्छमाणियत्ताए उप्पलत्ताए पउम-त्ताए कुमुयत्ताए नलिणत्ताए सुभगत्ताए सोगंधियत्ताए पॉडरियत्ताए महापॉडरियत्ताए सयपत्ताए सहस्सपत्ताए एवं कहलारकोकणपत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए भिसभि-समुणालपुक्खलत्ताए पुक्खलत्थिमगत्ताए विउद्वंतिते जीवा तेसिंणाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढवी सरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं उद गाणं जाव पुक्खलत्थिमगाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं एगो चेव आलावगो // 18 // (अहावरमित्यादि) अथानंतरमेतद्वक्ष्यमाणमाख्यातं तद्यथा Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 523 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ आहार इहै के सत्वास्तथाविधकर्मोपचयादुदकं योनिरुत्पत्तिस्थान येषां ते तथा / तथोदके संभवो येषां ते तथा / यावत्कर्मनिदानेन संदानितास्तदुपक्रमा भवंतीति तेच तत्कर्मवशगा नानाविधयोनिष्दकेषु वृक्षत्वेन व्युत्क्रामत्युत्पद्यते / ये चजीवा उदकयोनिका वृक्षत्वेनोत्पन्नास्ते तच्छरीरमुदकं शरीरमाहारयति न केवलं तदेवान्यदपि पृथिवीकायादिशरीरमाहारयंतीति शेषं पूर्ववत् यथा पृथिवीयोनिकानांवृक्षाणां चत्वार आलापका एवमुदकयोनिकानामपिवृक्षाणां भवंतीत्येवंद्रष्टव्यं अपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्पाभावादिति किंतर्हि एक एवालापको भवति 17 एतेषां हिउदकाकृतीनां वनस्पतिकायानां तथाक्यव-पनकशैवलादीनामपरस्य प्रागुक्तस्य विकल्पस्याभावादिति / एतेच उदकाश्रया वनस्पतिविशेषाः कलंबुका हडादयो लोक-व्यवहारतोऽवसेया इति // 18 // साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वनस्पत्याश्रयमालापकत्रयं दर्शयि-तुमाह / अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता तेसिं चेव पुढवीजोणिएहिं रुक्खेहि रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं रुक्खजोणिएहिं अज्जारोहेहिं अज्जारोहजोणेएहिं अज्जारुहेहिं अज्जा- रोहजोणेएहिं मूलेहिं जान बीएहिं पुढविजोणिएहि तणेहिं तणजोणिएहिं तणेहिं तणजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं एवं ओसहीहिं वि तिन्नि आलावगा एवं हरिएहिं वि तिन्नि आलावगा पुढविजोणिएहिं विआएहिं काएहिं जाव कूरेहिं उदगजोणिएहिं रुक्खेहिं रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहि रुक्खजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं एवं अज्जारुहेहिं वि तिण्णि तणेहिं वि तिण्णि आलावगा ओसहीहि वि तिण्णि हरिएहिं वि तिण्णि उदगजोणिएहिं उदएहि अवएहिं जाव पुक्खलत्थिभएहिं तसपाणत्ताए विउप॑ति / / 19 / / टी. तद्यथा / पृथिवीयो निकैर्वृक्ष वृक्षयोनिकै वृक्षस्तया वृक्ष- | योनिकै मूलादिभिरिति एवं वृक्षयोनिकै रध्यारुहैस्तथाऽध्यारुहयोनिकैर्मूलादिभिरिति एवमन्योपितृणादयो द्रष्टव्याः एवमुदकयोनिकेष्वपि वृक्षेषु योजनीयं // 19 // तदेवं पृथिवीयोनिक वनस्पतेरुदकयोनिकवनस्पतेश्च भेदानुपदाऽधुना तदनुवादेनोपसंजिघृक्षुराह॥ ते जीवा तेसिं पुढवीजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्जारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहीजोणियाणं हरियजोणियाणं रुक्खाणं अज्जारहाणं तणाणं ओसहीणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं आयाणं कायाणं जाव करवाणं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्ख-लत्थिमगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्जारोहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कं दजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं आयजोणियाणं कायजोणियाणं जाव कू रजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलत्थिभगजो णियाणं तसपाणाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं ||20|| (तेजीवा इत्यादि) ते वनस्पतिषूत्पन्ना जीवा पृथिवीयोनिकानां तथोदकवृक्षाध्यारुहतृणौषधिहरितयोनिकानां वृक्षाणां यावस्नेहमाहरयंतीत्येतदाख्यातमिति / तथा त्रसानां प्राणिनां शरीर महारयन्त्येतदवसाने द्रष्टव्यमिति / तदेवं वनस्पतिकायिकानां सुप्रतिपाद्यचैतन्यानां स्वरूपमभिहितं शेषाः पृथ्वीकाया-दयश्चत्वार एकेंद्रिया उत्तरत्र प्रतिपादयिष्यंते / सूत्र, श्रु०२ अ०३। उत्पलादिजीवानामाहारो वनस्पतिशब्दे। मनुष्याणाम् // सांप्रतंत्रसकायस्याऽवसरः सचनारकतिर्यड्मनुष्यदेव-भेदभिन्नः तत्र नारका अप्रत्यक्षत्वेनानुमानग्राह्या दुष्कृत-कर्मफलभुजः केचनसंतीत्येवं ते ग्राह्या तदाहारोऽप्येकान्तेना-शुभपुद्गलनिवर्तित ओजसा प्रक्षेपेणेति / देवा अप्यधुना बाहुल्ये नानुमानगम्या एव तेषामप्याहारः शुभ एकांतेनौजोनिवर्तितो न प्रक्षेपकृत इति / सचाभोगनिवर्तितो नाभोगकृतश्च / तत्र नाभोगकृतः प्रतिसमयभावी आभोगकृतश्च जघन्येन चतुर्भक्तकृत उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्रनिष्पादित इति शेषास्तु तिर्यङ्मनुष्यास्तेषां च मध्ये मनुष्याणामभ्यर्हितत्वात्ताने व प्राग्दर्शयितुमाह॥ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं मणुस्साणं तं जहा कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं अरियाणं मिलुक्खयाणं तेसिं च णं अहाबीएणं अहावकासेणं इत्थीए पुरिस्ससयं कम्मकडाए जोणिए एत्थणं मेहुणवत्तियाए वणाम संजोगे समुप्पज्जइते दुहओ वि सिणेहं संचिणंति तत्थणं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विउदंतिते जीवा माओओयं पिउसुकं तं तदुभयं संसह कलुसं किदिवसं तं पढमत्ताए आहारमाहा रेंतिततो पच्छाजं से माया णाणाविहाउ रसविई आहारमाहारेंति ततो एगदेसेणं ओय-माहारेंति आणुपुटवेण वुड्डा पलिपागमणुविना ततो कायातो अभिनिवदृमाणा इत्थिं वेगया जणयंतिपुरिसंवेगया जणयंतिणपुंसर्ग वेगया जणयंतिते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पिं आहा रेंति आणुपुट्वेण वुड्डा ओयणं कुम्मासंतसथावरेय पाणे ते जीवा आहारति पुढविसरीरं जाव सारूविकडं संतं अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलक्खणं सरीरा णाणावण्णा भवंतीति मक्खायं // 21 // (अथावरं पुरक्खाय) मित्यादि / अथानंतरमेव तु पुरा पूर्वमाख्या तं तद्यथा आर्याणामनार्याणां च कर्मभूमिजाऽकर्मभूमिजादीनां मनुष्याणां नानाविधयोनिकानां स्वरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समाख्यातं तेषां च स्त्रीनपुंसक-भेदभिन्नानां / यथाबीजेनेति / यद्यस्य बीजं तत्र स्त्रियाः- संबंधि शोणितं पुरुषस्य च शुक्रं एतदुभयमप्यविध्वस्तं शुक्राधिकंसन्मनुष्यस्यशोणिताधिकं स्त्रियास्तत्स Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 524 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार मता नपुंसकस्य कारणतां प्रतिपद्यते / तथा यथावकाशनेति / योऽर्थस्थावकाशो मातुरुदरकुक्ष्यादिकस्तत्रापि किल वामा स्त्रिया दक्षिणा कुक्षिः पुरुषस्योभयाश्रितः षंढ इति / अत्र चाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजमिति चत्वारो भंगाः तत्राप्याद्य एव भंगक उत्पत्तेरवकाशो न शेषेषु त्रिष्विति / अत्र च स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्मनिवर्तितायां योनौ मैथुनप्रत्यायिको रताभिला षोदयजनितोऽनिकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सवो जंतव स्तैजसकार्मणाभ्यां शरीराभ्यां कर्मरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यते ते ते च प्रथममुभयोरपि स्नेहमाचिन्वंत्यविध्वस्तायां योनौ सत्यामिति / विध्वस्यते तु योनिः "पंचपंचाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुष इति' तथा द्वादश मुहुर्तानि यावच्छुक्रशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवतस्तत ऊर्ध्वं ध्वंसमुपगच्छत इति / तत्र जीवा उभयोरपि स्नेहमाहार्य स्वकर्मविपाकेन यथा स्वं स्त्रीपुन्नपुंसकभावेन / (विउद्भृतित्ति) वर्तते समुत्पद्यत इति यावत् / तदुतरकालंच स्त्रीकुक्षौ प्रक्षिप्ताः सन्तः स्त्रिया हारितस्याहारस्य निर्यासं स्नेहमाददति तत्स्नेहेन च तेषां जंतूनां क्रमोपच यादानेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते (सत्ताहं कललं होइ सत्ताहंहोइबुब्बुयं) इत्यादि तदेवमनेन क्रमेण तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रेण वा लोमभिर्वानुपूर्वेणाहारयति यथाक्रममानुपूर्वेण वृद्धिमुपागताः संतो गर्भपरिपाकं गर्भनिष्पत्ति-मनुप्रपन्नास्ततो मातुःकायादभिनिवर्तमानाः पृथग्भवंतःसंतस्त-द्योनेर्निर्गच्छति / तेचतथाविधकर्मोदयादात्मनः स्त्रीभाव-मप्येकदा जनयंत्युत्पादयंत्यपरे केंचन पुंभावं नपुंसकमावं च / इदमुक्तं भवति / स्त्रीपुंनपुंसकभावः प्राणिनां स्वकृतकर्मनिवर्तितो भवति नपुनर्यो यादृगिह भवे सोमुऽष्मिन्नेव तादृगेवेति / ते च तदहर्जातबालकाः संतः पूर्वभवाभ्यासादाहाराभिलाषिणो भवंति मातुः स्तन्यमाहारयंति तदाहारेण चानुपूव्येण च वृद्धास्तदुत्तरकालं नवनीतदध्योदनादिकं यावत्कुल्माषान् भुंजते तथाहारत्वेनोपगतास्त्रसान् स्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवा आहारयंति तथा नानाविधपृथिवीशरीरं लवणादिकं सचेतनं वाहारयंति तचाहारितमात्मसात्कृतं सारूप्य मापादितं सत् रसासृड् मांसभेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातव इति सप्तधा व्यवस्थापयंत्यपराण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावर्णान्याविर्भवंति। ते च तद्योनिकत्वात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीराण्याहारयंतीत्येवमाख्यात मिति / / 21 / / सूत्र, श्रु.२ अ०३। तिर्यग्जलचराणाम्। एवं तावद्गर्भव्युत्क्रांतजमनुष्याः प्रतिपादितास्तदनंतरं संमूर्छनजानामवसरस्वतांश्चोत्तरत्र प्रतिपादयिष्यामि / सांप्रतं तिर्यग्योनिकास्तत्रापि जलचरानुद्दिश्याह / अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं जलचराणं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / तंजहा / मच्छाणं जाव सुसमा-राणं तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडा तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति आणुपुटवेणं वुड्डा पलिपागमणुविना ततो कायाओ अभिनिवदृमाणा अंडं वेगया जणयंतिपोयं वेगया जणयंति से अंडे उब्भिञ्जमाणे इत्थिं वेगया जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुंसगं वेगया जणयंति ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारें ति आणुपुटवेणं वुड्डा वणस्सति-कायं तसथावरे य पाणे ते जीवा आहारैति / पुढवीसरीरं जावसंतं अवरे वियणं तेर्सि नानाविहाणं जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छाणं सुसुमाराणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं // 22 // अथानंतरमेतद्वक्ष्यमाणं पूर्वमाख्यातं / तद्यथा / नानाविधजलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां संबंधिनः कांश्चित्स्वनामग्राह-माह / तद्यथा / (मच्छाणं जाव सुसुमाराण) मित्यादि तेषां मत्स्यकच्छपमकरग्राहसुषुमारादीनां यस्य यथा यदीजं तेन तथा यथावकाशेन यो यस्योदरादाववकाशस्तेन स्त्रियाः पुरुषस्य च स्वकर्मनिवर्तितायां योनावुत्पद्यते ते च तत्राभिव्यक्ता मातुराहारेण वृद्धिमुपगताः स्त्रीपुंनपुंसकानामन्यतमेनोत्पद्यते / तेचजीवा जलधरा गर्भाव्युत्क्रांताः संतस्तदनंतरं यावड्डहरंति लघवस्ता-वदपस्नेहमप्कायमेवाहारयंति आनुपूर्येण च वृद्धाः संतो वनस्पतिकायं तथापरांश्वत्रसाँस्थावरांआहारयंति यावत्पंचेंद्रिया नत्याहारयंति तथाचोक्तं " अस्ति मत्स्यस्तिमिम शत-योजनविस्तरः / तिमिगिलगिलोप्ययस्ति तद्विलोऽप्यस्ति राघवः" तथा तेजीवाःपृथिवीशरीरं कर्दमस्वरूपंक्रमेण वृद्धिमुपगताः संत आहारयति तचाहारितं समानरूपीकृतमात्मसात्परिणामयंति शेषं सुगमं यावत्कर्मोपगता भवंतीत्येवमाख्यातं // 22 // अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं च उप्पयथलयरपंचिंदि यतिरिक्खजोणियाणं एगरवुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणप्पयाणं ते सिंचणं आहावीएणं अहावगासेणं इत्थि-पुरिसस्स यकम्म जाव मेहुणवत्तिएणामं संजोगे समुपबई तेदुहओसिणेहं संचिणंति तत्थणं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाव विउदृति ते जीवा माउओयं पिउसुझं एवं जहा मणुस्साणं इत्थि वि वेगया जणयंति पुरिसंपिनपुसंग पि ते जीवा डहरा समाणा माउ क्खीरं सप्पिं आहारति आणुपुटवेणं बुडा वणस्सइकायं तसयावरेय पाणे ते जीवा आहारति पुढवीसरीरंजाव संतं अवरे वि यणं तेसिं णाणाविहाणं चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणप्पयाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं / / 23 // टी. अथापरमेतदाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां तद्यथा। एकखुराणामित्यश्वखुरादीनां, तथा द्विखुराणां, गोमहिण्यादीनां तथा गंडीपदानां हस्तिगंडकादीनां, तथा सनखानां सिंहव्याघ्रादीनां, यथाबीजेन यथावकाशेन सकलपर्याप्तिमवाप्योप्पद्यते तथोत्पन्नाः संतस्तदनंतरं मातुः स्तन्यमाहयंतीति / क्रमेण च वृद्धिमुपगताः संतोऽपरेषामपि शरीरमाहार-यंति ! शेषं सुगम यावत्कर्मोपगताः भवंतीति / / 23 / / साम्प्रतमुरःपरिसानुद्दिश्याह / अहावरंपुरक्खायं णाणाविहाणंउरपरिसप्पथलयरपंचिंदिय तिरिक्खयोणियाणं तेसिं चणं तं जहा अहीणं अयगराणंअ सालियाणं महारेगाणंतेसिंचणं अहावीएणं अहावगासे णं Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 525 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार इत्थीए पुरिस जाव एत्थ णं मेहुणं एवं तं चेव नाणत्तं तेसिंचणे अंडं वेगइया जणयंति पोयं वेगइया जणयंति से अंडे उभिजमाणे इत्थिंवेगइया जणयंति पुरिसं पि णपुंसगं पि ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमा हारेति आणुपुटवेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरपाणे ते जीवा आहारेति पुढिव सरीरं जाव संतं अवरे विय णं तेसिं जाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खा पंचिंदियअहीणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाव मक्खायं / / 24 / / टी, नानाविधानां बहुप्रकारणामुरसा ये प्रसप्र्पति तेषां / तद्यथा अहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणं यथावकाशेन यथा-बीजत्वेन चोत्पत्त्यांडजत्वेन पोतजत्वेन वा गर्भान्निर्गच्छंतीति ते च निर्गता मातुरूष्माणं वायुंचाहारयति तेषां जातिप्रत्ययेन तेनैवाहारेण क्षीरादिनैव वृद्धिरुपजायते। शेषं सुगमं यावदा-ख्यातमिति।। सांप्रतं भुजपरिसानुद्दिश्याह / / अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलयरपं चिंदियतिरिक्खजोणियाणं तं जहा / गोहाणं नउलाणं सिंहाणं सरडाणं सल्लाणं सरघाणं खराणं घरकोइलियाणं विस्सभराणं मुसगाणं मंगुसाणं पयलाइयाणं विरालियाणं जोहाणं चउप्पाइयाणं तेसिं च णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य जहा उरपरिसप्पाणं तहा भाणियट्वं जाव सारूविक डं संतं अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं भुयपरिसप्पपंचिंदियथलयरतिरिक्खाणं तं गाहाणं जाव मक्खायं ||26|| टी. नानाविधाभ्यां भुजाभ्यां ये परिसप्प॑ति तेषां / तद्यथा। गोधानकुलादीनां स्वकर्मोपात्तेन यथाबीजेन यथावकाशेन चोत्पत्तिर्भवति। ते चांडजत्वेन पोतजत्वेनचोत्पन्नास्तदनंतरं मातुरूष्मणावायुना वाहारितेन वृद्धिमुपयांति शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति। सांप्रतं खेचरानुद्दिश्याह॥ अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं खहचरंपचिंदियतिरि - क्खजोणियाणं तं जहा चम्मपक्खीणं लोभपक्खीणं समु ग्गपक्खीणं विततपक्खीणं तेसिंच णं अहावीएणं अहावगासेणं इत्थीए जहा उरपरिसप्पाणं नाणत्तं ते जीवा डहरा समाणा माउगात्तसिणेहमाहारेंति आनुपुटवेणं वुवा वणस्सतिकायं तसथावरे य पाणे ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं णाणाविहाणं खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं चम्मपक्खीणं जावमक्खायं // 26 // नानाविधानां खेचराणामुत्पत्तिरेवं द्रष्टव्या यथा चर्मपक्षिणां चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तथा लोमपक्षिणां सारसराजहंसकाकवकादीनां समुद्गपक्षिविततपक्षिणां वहिर्दीपवर्तिनामेतेषां यथाबीजेन यथावकाशेनचोत्पन्नानामाहारक्रियैवमुपजायते / तद्यथा / सा पक्षिणी तदंडकं पक्षाभ्यामावृत्य तावत्तिष्ठति यावत्तदंडकं तदूष्मणा हारितेन | वृद्धिमुपगतं सत् कललावस्थां परित्यज्य चंचादिकानवयवान् परिसमापय्य भेदमुपयाति तदुत्तर-कालमपि मात्रोपनीतेनाहारेण वृद्धिमुपयाति शेषं प्राग्वत्॥२६॥ विकलेन्द्रियाणाम्। व्याख्याताः पंचेंद्रिया मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च तेषां चाहारो द्वेधा। आभोगनिवर्तिताऽनाभोगनिवर्तितश्च तत्रानाभोगनिवर्तितः। प्रतिक्षणभाव्याभोगनिवर्तितस्तु यथास्वं क्षुद्वेदनीयोदयभावीति। सांप्रतं विकलेंद्रियानुद्दिश्याह। अहावरं पुरक्खायं इहे गतिया सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविहवुकमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवुकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पोग्गलाणं सरीरसुदा सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अणुसुयत्ताए विउदंति ते जीवा तेसिंणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं अणुसूयमाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं ||27|| (अहावरमित्यादि) अथानंतरमेतदाख्यातमिहास्मिन् संसारे एके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः सत्वाः प्राणिनो नाना-विधयोनिकाः कर्मनिदानेन स्वकृतकर्मण उपादानभूतेन तत्रोत्पत्तिस्च्छाने उपक्रम्यागत्य नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु अचित्तेषु सचित्तेषु वा (अणुसुयत्ताएत्ति) अपरशरीराश्रिततया परनिश्रया विवर्तते समुत्पद्यते इति यावत् ते च जीवा विकलेंद्रियाः सचित्तेषु मनुष्यादिशरीरेषु यूकालिक्षादिकत्वेनोत्पद्यते / तथा तत्परिभुज्यमानेषु मंचकादिष्वचित्तेषु मत्कुणत्वे नाविर्भवति तथाऽचित्तीभूतेषु मनुष्यादिशरीरके षु विकलेंन्द्रियशरीरेषु वा ते जीवाअनुस्यूतत्वेन परनिश्रयाः कृम्यादित्वेनोत्पद्यते / अपरे तुसचित्ते तेजःकायादौ मूषिकादित्वेनोत्पद्यते यत्र चाग्निस्तत्र वायुरित्यस्तदुद्भवा अपि द्रष्टव्याः तथा पृथिवीमनुश्रित्य कुंथुपि-पीलिकादयो वर्षादावूष्मणा संस्वेदजा जायंते तथोदके पूतरका डोलणकभ्रमरिकाच्छेदनकादयः समुत्पद्यते तथा वनस्वतिकाये पनक भ्रमरादयो जायते तदेवं तेजीवास्तानि स्वयोनिशरीराण्याहारयंतिइत्येवमाख्यातमिति। सांप्रतं पंचेंद्रियमूत्रपुरीषोद्भवानसुमतः प्रतिपादयितुमाह एवं दुरूवसंभवत्ताए // 28 // एवमिति पूर्वोक्तपरामर्शः / यथा सचित्ताचित्तशरीरनिश्रया विकलेंद्रियाः समुत्पद्यते तथा तत्संभवेषु मूत्रपुरीषवांतादिषु अपरे जंतवो दुष्टं विरूपं रूपं येषां क्रम्यादीनां ते दुरूपास्तत्संभवत्वेन तद्भावेनोत्पद्यते ते च तत्र विष्ठादौ देहान्निर्गतऽनिर्गत वा समुत्प-द्यमाना उत्पन्नाश्च तदेव विष्ठादिकं स्वयोनिभूतमाहारयति / शेषं प्राग्वत्॥२८॥ एवं खुरदुगत्ताए ||29|| सांप्रतं सचित्तशरीराश्रयान् जंतून् प्रतिपादयितुमाह (एवं खुरदुगुत्ताएइत्यादि) एवमिति यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा तिर्यक् शरीरेषु / खुरदुगत्ताएत्ति / चर्मकीटतया समुत्पद्यते / Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 526 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार इदमुक्तं भवति जीवतामेव गोमहिष्यादीनां चर्मणोंतः प्राणिनः संमूच्र्थ्यं ते च तन्मांसचर्मणी भक्षयंति भक्षयंतश्चचर्मणो विवराणि विदधति गलच्छोणितेषु विवरेषु तिष्ठंतस्तदेव / शोणितमाहारयति / यथा अचित्तगवादिशरीरेऽपि तथा सचित्ताचित्तवनस्पतिशरीरेऽपि धुणकीटकाः संमूच्यते ते च तत्र संमूर्छतस्तच्छरीरमाहारयंतीति // 29 // साम्प्रतमप्कायं प्रतिपादयिषुस्तत्कारणभूतवातप्रतिपाद नपूर्वक प्रतिपादयतीत्याह / / अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेषु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वायसं सिद्धं वा वायसंगहियं वा वायं परिगहियं उट्ट वाएसु उहभागी भवति अहेवाएसु अहेभागी भवति तिरियंवाएस तिरियंभागी भवति तं जहा ओसाहिमए महियाकरए हरतणुए सुद्धोदए ते जीवा तेर्सि णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं तसथावरजोणियाणं ओसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं // 30 // (अहावरमित्यादि)अथानंतरमेतद्वक्ष्यमाणपुरा पूर्वमाख्यातं इहास्मिन् जगत्ये के सत्वास्तथाविधकर्मोदया नानाविधयो निकाः संतो यावत्कर्मनिदानेन तत्र तस्मिन्वातयोनिके ऽच्काये व्युत्क्रम्यागत्य नानाविधानां बहुप्रकाराणां त्रसानां दर्दुरप्रभृतीनां स्थावराणांच हरितलवणादीनां प्राणिनां सचित्ताचित्तभेदभिन्नेषु शरीरेषु तदप्कायशरीरं वातयोनिकत्वादप्कायस्य वायुनो-पादानकारणभूतेन सम्यक् संसिद्धं निष्पादितं तथा वातेनैव सम्यग्गृहीतमभ्रपटलांतरनिर्वृत्तं तथा वातेनान्योन्यानुगत-त्वात्परिगतं तथोर्ध्वगतेषु वातेषूर्वभागी। भवत्यप्कायो गगनगतवातवशादिवि संमूर्च्छते जलं तथाधस्ताद्गतेषु तद्वशाद्भवत्यधोभागीत्यप्काय एवं तिर्यग्गतेषु तिर्यग्भागी भवत्यप्कायः / इदमुक्तं भवति / वातयोनिकत्वादप्कायस्य यत्र यत्रासौ तथाविधपरिणामपरिणतो भवति तत्र तत्र तत्कार्यभूतंजलमपि संमूर्च्छते। तस्य चाभिधानपूर्वकं भेदं दर्शयितुमाह / तद्यथा (ओसत्ति) अवश्यायः (हिमयेति) शिशिरादौ वातेरिता हिमकणाः। मिहिका धूमिकाः / करकाःप्रतीताः (हरतणुयत्ति) तृणाग्रव्यवस्थिता जलविंदवः शुद्धोदकं प्रतीतमिति / इहास्मि-न्नुदक प्रस्तावे एके सत्वास्तत्रोत्पद्यते स्वकर्मवशगास्तत्रोत्पन्ना-स्तेजीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्वोत्पत्त्याधार-भूतानां स्नेहमाहारयति ते जीवास्तच्छरीरमाहारयंति अनाहारका न भवंतीत्यर्थः शेषं सुगमं यावदेतदाख्यातमिति // 30 // तदेवं वातयोनिकमप्कार्य प्रदाधुनाऽप्कायसंभवमेवाप्कायं दर्शयितुमाह। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदग-संभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ वुकमा तसथावर-जोणिएस उदएसु उदगत्ताए विउदृन्ति ते जीवा तेसिं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंतिते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संतं अवरे वियणं तेर्सि- तसथावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं // 31 // अथापरमाख्यातमिहास्मिन् जगति उदकाधिकारे वा एके सत्वास्तथाविधकर्मोदयाद्वातदशोत्पन्नत्रसस्थावरशरीराधारमुदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तथोदकसंभवा यावत्कर्मनिदानेन तत्रोत्पित्सवस्त्रसस्थावरयोनिकेषूदकेष्वपरोदकतया विवर्ततेसमुत्पद्यते ते चोदकजीवास्तेषां त्रसस्थावरयोनिकानामुदकानां स्नेहमाहारयंत्यन्यान्यपि पृथिव्यादिशरीराण्याहारयति / तच्च पृथिव्यादिशरीरमाहारित सत् सारूप्यमानीयात्मसात्प्रकुर्वत्य-पराण्यतितत्र त्रसस्थावरशरीराणि निवर्तते तेषां चोदकयोनि-कानामुदकानां नानाविधानि शरीराणि निवर्तन्ते इत्येतदा-ख्यातम् // 31 // ! तदेवं त्रसस्थावरसंभवमुदकयोनित्वेन प्रदाऽधुना निर्विशेषणमप्कायसंभवमेवाप्कार्य दर्शयितुमाह / अहावरं पुरक्खायं इहे गतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउद्वंति ते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं जीवाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंतिते जीवा आहारेंतिपुढविसरीरंजाव संतं अवरे वियणं जीवाणं उदगजोणियाणं उदगाणं सरीराणाणावन्ना जाव मक्खायं / / 32 11 (अहावरमित्यादि) अथापरमाख्यातमिहास्मिन् जगत्यु दकाधिकारे वा एके सत्वाःस्वकृतकर्मोदयादुदकयोनिषूदके षूत्यंते ते च तेषामुदकसंभवानामुदकजीवानामात्माधारभूतानां शरीरमाहारयंति शेष सुगमं। यावदाख्यातमिति // 32|| सांप्रतमुदकाधारानपरान् पूतरकादिकांस्त्रसान् दर्शयितुमाह। अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुकमा उदगजोणिएसु उदएसुतसपाणत्ताए विउदंतिते जीवा तेसिं उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेति पुठवीसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं // 33 // (अहावरमित्यादि) अथापरमेतदाख्यातमिहै के सत्वाउ दक-योनिषु चोदकेषु त्रसप्राणितया पूतरकादित्वेन विवर्तन्ते समुत्पद्यते ते चोत्पद्यमानाः समुत्पन्नाश्च तेषामुदकयोनीनामुदकानांस्नेह-माहारयंति शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति // 33 // साम्प्रतं तेजस्कायमुद्दिश्याह // अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थ दुकमाणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउटुंति ते जीवा तेसिंणणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारैति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे वि य णं तेंसि तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीराणाणावण्णा जाव मक्खायं सेसा तिन्नि आलावगा उदगाणं // 34 // Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 527 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार (अहावरमित्यादि) अथैतदपरमाख्यातं इहास्मिन् संसारे एके केचन सत्वाः प्राणिनस्तथाविधकर्मोदयवर्तिनो नानाविधयोनयः प्राक् सन्तः पूर्वजन्मनि तथाविधं कर्मोपादाय तत्कर्मनिदानेन नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां सचित्तेष्वचित्तेषु शरीरेषु चाग्नित्वेन विवर्त्तन्ते प्रादुर्भवंति / तथाहि / पंचेंद्रिय-तिरश्चांदंतिमहिषादीनांपरस्परंयुद्धावसरे विषाणसंघर्ष सति अग्निरुत्तिष्ठते एवमचित्तेष्वपितदस्थिसंघर्षादग्रेरुत्थानं तथा दींद्रियादिशरीरेष्वपि यथासंभवमायोजनीयं तथा स्थावरेष्वपि वनस्पत्युपलादिषु सचित्ताचित्तेष्वग्निजीवाः समुत्पद्यते ते चाग्निजीवास्तत्रोत्पन्नास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्नेहमाहारयति / शेष सुगमं यावद्भवंतीत्येवमाख्यातं / अपरे त्रयोऽप्यालापकाः प्राग्वदृष्टव्या इति। साम्प्रतं वायुकायमुद्दिश्याह॥ अहावरंपुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वाउकायत्ताए विउदंति जहा अगणीणं तहा भाणियव्वा चत्तारिगमा।।३।। अथापरमेतदाख्यातमित्याद्यग्निकायागमेन व्याख्येयम् / साम्प्रतमशेषजीवाधारं पृथिवीकायमधिकृत्याह // अहावरं पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया णं / जाव कम्मनियाणेणं तत्च्छ वुक्कमाणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसुवापुढवित्ताए सक्करत्ताए वालुयत्ताए इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ पुढवीय सकरा वा लुयाय उवले सिला य लोणूसे / अयत उय तंव सीसग रुप्प सुवण्णे य वइरेय ? हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले 1 अब्भपडल पवालु य वायरकाए मणिविहाणा 2 गोमेज्जए य रूयए अंके फलिहिय लोहियक्खे य। मरगयमसारगल्ले भूयमोयग इंदणीले य चंदण गेरुयहसंगम्भे पुलए सोगंधिए य बोद्धट्वे / चंदप्पभवेरुलिए जलकंते सूरकंते य 4 एयाओ एएस भाणियव्वा एओ गाहाओ जाव सूरकताए विवुदंतितेजीवा तेसिंणाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेह माहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरे विय णं तेर्सि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकंताणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खायं सेसं तिण्णि आलवगा जहा उदगाणं // 36 // अथापरमेतत्पूर्वमाख्यातं इहैके सत्वाः पूर्वं नानाविध योनिकाः स्वकृतकर्मवशा नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु पृथिवीत्वेनोत्पद्यन्ते / तद्यथा / सर्पशिरस्सुमणयः करिदंतेषु मौक्ति-कानि, स्थावरेष्वपि वेण्वादिषु तान्येवेति / एवमचित्ते खूपला-दिषु लवणभावनोत्पद्यन्ते / तदेवं पृथिवीकायिका नाना विधासु पृथिवीषु शर्करावालुकोपलशीता-लवणादिभावेन तथा गोमेदकादिरत्नभावेन च बादरमणिविधानतया समुत्पद्यन्ते / शेषं सुगमं / यावचत्वारो ऽप्यालापका उदकागमेन नतव्या / इति // 36 // साम्प्रतं सर्वोपसंहारद्वारेण सर्वजीवान सामान्यता विभ-णिषुराह / अहावरं पुरक्खायं सव्वे पाणा सवेभूता सब्वे जीवा सव्वे सत्ता णाणाविहजोणिया णाणाविहसंभवा णाणाविहबुकमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरदुकमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगतीया कम्मद्विइया कम्मणाचेव विप्परिया समुर्वेति // 37 // (अहावरमित्यादि) अथापरमेतदाख्यातं / तद्यथा / सर्वेप्राणा प्राणिनो ऽत्र च प्राणिभूतजीवसत्वशब्दाः पर्यायत्वेन दृष्टव्याः / कथंचिद्भेदं चाश्रित्य व्याख्येयाः / ते च नानाविधयोनिका अतो नानाविधासु योनिषूत्पद्यन्ते नारकतिर्यग्नरामराणां परस्परगमनसंभवात्ते च यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्तच्छरीराण्याहार-यन्ति तदाहारवन्तश्च तत्रागुप्ताश्रवद्वारतया कर्मवशगा नारकतिर्यड्नरामरगतिषु जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितयो भवंति / अनेनेदमुक्तं भवति / यो यादृगिह भवे स तादृगेवामुत्रापि भवतीत्येतन्निरस्तं भवति / अपितु कर्मोपगाः कर्मनिदानाः कयित्तगतयो भवन्ति / तथा तेनैव कर्मणा सुखलिप्सवोऽपि तद्विपर्यासंदुःखमुपगच्छंतीति // 37 / / साम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुराह! से एवमायाणहसे एवमायाणित्ता आहारगुत्ते सहिए समिए सयाजए तिबेमि // बियसुय क्खंधस्स आहारप रिण्णा णाम तईयमज्जयणं सम्मत्तम् // यदेतन्मयादितः प्रभृत्युक्तं / तद्यथा ।यो यत्रोत्पद्यतेस तच्छरीराहारको भवति आहारगुप्तश्च कर्मादत्ते कर्मणा च नानाविधासु योनिषु अरहट्टघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यट तीत्येवमाजानीत यूयं एतद्विपर्यासं दुःखमुपगच्छंतीति / एतत्परिज्ञाय च सदसद्विवेक्याहारगुप्तः पञ्चभिस्स-मितिभिस्समितो यदि वा सम्यक् ज्ञानादिके मार्गे इतो गतः समितस्तथा सह हितेन वर्तते सहितः सन् सदासर्वकालं यावदुच्छ्वासं तावद्यतेत तत्संयमानुष्ठाने प्रयत्नवान् भवेदिति / इति परिसमाप्तयर्छ ब्रवीमीति पूर्ववत् / गतोऽनुगमः साम्प्रतंनयास्ते च प्राग्वदृष्टव्याः // 38|| समाप्तमाहारपरिज्ञाख्यं तृतीयमध्ययनम् // 3 // आहारस्य दिक् // छहिं दिसाहिं जीवाणं आहारे पवत्तइ। तंजहा पाईणाए जाव अहाए / स्था. ठा.६। आहारः प्रतीतः सोऽपि षट् स्वेव दिक्षु एतद्व्यवस्थितप्रदेशावगादपुद्गलानामेव जीवेन स्पर्शनात्स्पृष्टानामेवाहरणात् / स्था० टीका जीवा० प्र०१॥ सच देशतः सर्वतश्च। दोर्हि ठाणेहिं आया आहारेइ देसेण वि सव्वेण वि। आहारयति देशेन मुखमात्रेण सर्वेण ओज आहारापेक्षया आहारमेव परिणमयति परिणामन्नयति खलरसविभागेन भक्ता श्रयदेशस्य प्लीहादिना रुद्धत्वात् देशतोऽन्यथा सर्वतः / स्था, ठा.२ टी० // चतुर्गतिषु आहारः॥ णेरइयाणं चउविहे आहारे पन्नत्ते तंजहा / इंगालोवमे मुम्मुरोवमे सीयले हिमसीयले / / Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 128 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार नारकानाहारतो निरूपयन्नाह / नेरइयाणमित्यादि / व्यक्तं केवलं अंगारोपमः अल्पकालदाहत्वान्मुर्मुरोपमः स्थिर-तरदाहत्वाच्छीतलः शीतवेदनोत्पादकत्वात् हिमशीतलो ऽत्यन्तशीतलोऽत्यंतशीतवेदनोत्पादकत्वात् अधोऽध इति क्रम इति / स्था, ठा०४। तिरिक्खजोणियाणं चउविहे आहारे पं.तं. कंकोवमे विलोवमे पाणमंसोवमे पुत्तमंसोवमे / मणुस्साणंचउठिवहे आहारे पं.तं. असणे जाव साइमे / देवाणं चउविहे आहारे पं.तं. वण्णमंते गंधमते रसमंते फासमंते // तिरिक्खजोणियाणमित्यादि / व्यक्तन्नवरं कं कः पक्षिविशेष स्तस्याहारेणोपमा यत्र च मध्यमपदलोपात्कङ्कोपमः / अयमों यथा हि कंकस्य दुर्जरोऽपि स्वरूपेणाहारः सुखभक्ष्यःसुखपरिणामश्च भवति एवं यस्तिरश्चां सुखभक्ष्यस्सुखपरिणामश्च स कङ्कोपम इति / तथा विले प्रवेशद्रव्यं बिलमेवतेनोपमा यत्र स तथा / बिले हि अलब्धरसास्वाद जटिति यथा किल किंचित्प्रविशति एवं यस्तेषां गलबिले प्रविशति स तथोच्यते / पाणो मातङ्गस्तन्मांसमस्पृश्यत्वेन जुगुप्सया दुःखाव्यं स्यादेवं यस्तेषां दुःखान्यस्सपाणमांसोपमः / पुत्रमांसन्तु स्नेहपरतया दुःखाव्यतरंस्यादेवं योदुःखान्यतरःसपुत्रमासोपमः क्रमेण चैतेशुभसमा शुभाशुभतरा वेदित व्याः वर्णवानित्यादौ प्रशंसायामतिशायगे वा मतुरिति / स्था ठा. ||4|| टी० // आहारमधिकृत्य वक्तव्यार्थाः। सचित्ताहारट्ठी केवति किंवा विसवतो चेव / कतिभागं सवे खलु परिणामे चेव बोधव्वे // 2 / / एगिदियसरीरादि लोमाहारे तहेवमणभक्खी / एतेसिं तु पदाणं विभावणा होइ कायव्वा ॥शा प्रथमोऽधिकारस्सचित्तपदोपलक्षितस्स चैवं (नैरइयाणं भंते ! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा) इत्यादि / द्वितीय आहारार्थिन इति 2 तृतीयः / (केवइयत्ति) कियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यते इत्यादिरूपः३ चतुर्थः किमाहारमाहारयन्तीतिपदोपलक्षितः४॥ पंचमः सर्वत इति पदोपलक्षितस्स चैवं:- (नेरइयाणं सव्वतो परिणामन्तीत्यादि).५। चेव शब्दस्समुच्चये (कइभागंति) गृहीतानां पुद्गलानां कतिभागमाहारयन्तीत्येवमादिषष्ठोऽधिकारः६ तच्छा (सव्वं इति) यान्पुद्गलानाहारतया गृण्हन्ति तान्किं सर्वानपरिशेषान् आहारयन्ते उत सर्वानित्येवमुपलक्षितः सप्तमोऽधिकारः 7 तथा अष्टमोऽधिकारः परिणामः परिणामरूपो बोद्धव्यः सचैवं (नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति तेणं तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुजोर परिणामन्तीत्यादि-) रूपः 8 नवमोऽर्थाधिकारः एकेन्द्रियादीनि शरीराणि सचैवं (नेरइयाणं भंते! किं एगिदियसरीराइं / आहारेंति जाव पंचिंदियशरीराई आहारैति) इत्यादि 9 दशमोऽधिकारो लोमाहारो लोमाहारवक्तव्यतारूपः / 10 / एकादशो मनोभक्षिवक्तव्यतारूपः / 11 / एएसिं तु इत्यादि / एतेषां सामान्यतोऽनन्तरमुद्दिष्टानां पदानामर्थाधिकाराणां विभावना विस्तरतः प्रकाशना नाम भवति कर्तव्या / सूत्रकारवचनमेतत्प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामो यथोहेशनिर्देश इति न्यायात्प्रथमाधिकारं विभावयति / प्रज्ञा० पद०२८ / भ. श०११॥ सचित्ताहाराः // नेरइयाणं भंते / किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा? गोयमा ! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया | उरालिय सरीरा जाव मणूसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा विमीसाहारा वि / / नैरयिका भदन्त! किं सचित्ताहाराः सचित्तमाहारयन्तीति सचित्ताहाराः एवमचित्ताहारा मिश्राहारा इत्यादि भावनीयं भगवानाह- (गोयमेत्यादि) इह वैक्रियशरीरिणो वैक्रियशरीरपरिपोषयोग्यान् पुद्गलानाहारयन्ति ते चाचित्ता एव संभवंतिन जीवपरिगृहीता इत्यचित्ताहारा नापि मिश्राहारा एवमसुरकुमारादयः स्तनितकु मारपर्यवसाना भवनपतयो व्यन्तरज्योतिष्का वैमानिकाश्च वैदितव्याः। औदारिकशरीरिणः पुनरौदारिकशरीरपरिपोषयोग्यान्पुद्गलानाहारयन्ति ते च पृथिवीकायिकादिपरिणामपरिणता इति / सचित्ताहारा मिश्राहारा अपि घटन्ते / तथाचाह / (उरालियसरीरी जाव मणूसा इत्यादि) औदारिकशरीरिणः पृथिवीकायिकेभ्यः आरभ्य यावन्मनुष्याः / किमुक्तम्भवति पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपा एकेन्द्रिया द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्च एते प्रत्येकं सचित्ताहारा अपि अचित्ताहारा अपि मिश्राहारा अपि वक्तव्याः॥ उक्तः प्रथमोऽधिकारः || सम्प्रति द्वितीयानष्टपर्यन्तान्सप्ताधिकारन चतुर्विशदिण्ड-कक्रमेण युगपदमिधित्सुः प्रथमतो नैरयिकाणामभिदधाति। नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी णेरइयाणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! णेरइयाणं दुविहे आहारे पण्णत्ते / तं. आभोगनिवत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिएय / तत्थणंजे से अणाभोगनिव्यत्तिए सेणं अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ / तत्थ णं जे से आभोगनिवत्तिए सेणं असंखेजसमइए अंतो मुहुत्तिए आहारडे समुप्पाइ // (नेरयाणमित्यादि) नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! आहारार्थिनो नैरयिका इति यदि आहारार्थिनस्ततो भगवानाह (हंतेत्यादि) हंतेत्यनुमतौ अनुमतमेतत् गौतम! आहारार्थिनो नैरयिका इति यदि आहारार्थिनस्ततो भदन्त ! नैरयिकाणमिति पूर्ववत् (केवइ कालस्सत्ति) प्राकृतत् तृतीयार्थे षष्ठी / कियता कालेन आहारार्थ आहारलक्षणं प्रयोजनं आहाराभि-लाष इति यावत्समुत्पद्यतेभगवानाह (गोयमेत्यादि) नैरयिकाणां द्विविधो द्विप्रकार आहारस्तद्यथा। आभोगनिर्वर्तित आहारयामीति इच्छापूर्वनिर्मापित इति यावत् / तद्विपरीतोऽनाभोगनिर्वर्तितः। आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेण यो निष्पाद्यते प्रावृट्काले प्रचुरतरसूत्राद्यभिव्यंगशीत पुद्गलाद्याहारवत्सोऽनाभोगनिर्वर्तित इति भावाः / (तत्थणमित्यादि) तत्राभोगानाभोगनिर्वर्तितयोर्मध्ये योऽनाभोग-निवर्तितः आहारः (सेणमिति) पूर्ववत् अनुसमयं प्रतिसमयं 2 समयं 2 इत्यर्थः / इत्यदीर्घकालोपभोगस्याहारस्यैक वारमपि ग्रहणे तावंतं कालमनुसमयम्भवति ।तत आभवपर्यन्तंसातत्यग्रहणप्रतिपाद-नार्थमाह / अविरहित आहारार्थस्समुत्पद्यते। अथवा सततप्रवृत्ते आहारार्थेऽपांतराले Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 529 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार चुस्खलितन्यायेन कथञ्चिद्विरहे भावेऽपि लोके तदगणनया अनुसमयमिति व्यवहारः प्रवर्तते / ततोऽपान्तराले विरहाभावप्रतिपादनार्थमित्युक्तं / अनुसमयविरहितोऽनाभोगनिर्वर्तित आहारार्थः समुत्पद्यमान ओज आहारादिना प्रकारेणा वसेयः / (तत्थणमित्यादि) तत्राभोगानाभोगनिवर्तितयोर्मध्येयोऽसावनाभोगनिर्वर्तित आहारार्थः सोऽसंख्ये यसामायिकोऽसंख्ये यैः समयैर्निर्वर्तितम् / यथासंख्ये यसमयनिर्वर्तितं तत् जघन्यपदेऽप्यन्तर्मुहूर्तिकम्भवति / न हीनमत आन्तर्मुहूर्तिक आहारार्थः समुत्पद्यते / किमुक्तं भवति / अन्तर्मुहर्तकालं यावत्प्रवर्तते न परतो नैरयिकाणां हि योऽसावाहारयामीत्यभिलाषः स परिगृहीताहारद्रव्यपरिणामेन यजनितमतितीव्रतरं दुःखं तद्भावादन्तर्मुहूर्तान्निर्वर्तते / तत आन्तर्मुहुर्तिको नैरयि-काणामाहाराच्छ: (नेरइयाणमित्यादि) नैरयिकाणमिति पूर्ववत् किंस्वरूपमाहारयन्ति भगवान्द्रव्यादिभेदतस्तमाहारयन्तीति निरूपयितुकाम आह (गोयमेत्यादि)। किमाहारमाहारयन्ति॥ रइया ण भंते ! किमाहारमाहारेंति ? गोयगा ! दवओ अणंतपदेसियाई खेत्तओ असंखेजपदेसोगाढा इं कालओ अन्नतरकालट्ठितियाइं भावतो वन्नमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताईजाइंभावओ वनमंताई आहारंतिताई कि एगवन्नाई आहारंति जाव किं पंचवन्नाइं आहारंति ! गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच एगवन्नाई पि आहारंति / जाव पंचवन्नाई पि आहारंति विहाणमग्गणं पडुच कालवन्नाइं पि आहारंति जाव सुकिल्लाई पि आहारंति / जाइं वन्नओ कालवन्नाई आहारंति ताई किं एगगुणकालाई आहारंतिजावदसगुणकालाई आहारंति संखिज्ज असंखिज्ज अणंतगुणकालाई आहारंति / गोयमा ! एगगुणकालाई पि आहारंतिजाव अणंतगुणकालाई पि आहारंति एवं जाव सुकिल्लाई / एवं गंधतो वि रसतो वि / जाइंभावओ फासमंताई ताई नो एगफासाइं आहारंति नो दुफासाई आहारंति नो तिफासाइं आहारंति चउफासाई पि आहारंति। जाव अट्ठफासाइं पि आहारंति / विहाणमगाणं पडच कक्ख डाई पि आहारंतिजाव लुक्रवाई पि आहारंति / जाइं फासओ कक्खडाइं आहारंति ताई किं एगगुणकक्खडाइं आहा-रंति। जाव अणंतगुणकक्खडाई आहारंति गोयमा ! एगगुणकक्कडाई पि आहारंति जाव अणंतगुणकक्कडाई पि आहारंति एवं अट्ठविहफासा भाणियटवा / जाव अणंतगुणलुक्रवाई पि। आहारंति / जाइं भंते ! अंणतगुणलुक्खाइं आहारंति ताई किं पुट्ठाई आहारंति अपुट्ठाई ! गोयमा ! पुट्ठाई आहारंति नो अपुट्ठाई आहारंति जहा भासुद्देसए जाव नियमाछद्दिसिं आहारंति ओसन्नं कारणं पडुच वन्नओ कालनीलाइं गंधओ दुटिभगंधाई रस ओ तित्तरसकडुयाई फासओ कक्खडगरुयसीतलुक्रवाई तेसिं पोराणा वन्नगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विपरिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अन्ने अपुष्वे वनगुणे गंधगुणे फासगुणे उप्पाडेत्ता आयसरीरखित्तोगाढे पोग्गले सव्वप्पणायाए आहारमा हारेइ // टी. गौतम ! द्रव्यतोद्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायां अनन्त-प्रादेशिकानि द्रव्याणि / अन्यथा ग्रहणासंभवात् न हि संख्यातप्रदेशात्मका असंख्यातप्रदेशात्मका वा स्कंधा जीवस्य ग्रहणयोग्या भवन्ति / क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढानि / कालतोऽन्यतरस्थितिकानि जघन्यस्थितिकानि मध्यम-स्थितिकानि उत्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः। स्थितिरिति चाहारयोग्यस्कंधपरिणामत्वेनावस्थानमवसेयं। भावतो वण्ण-वंति गंधवंति रसवंति स्पर्शवंति च / प्रतिपरमा. ण्वेकैकवर्णगंधरसद्विस्पर्शभावात् / (जाइं भावओ वन्नमंताई) इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह। (गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्चेत्यादि) तिष्ठंति विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यमेकवण द्विवर्णं त्रिवर्णमित्यादिरूपं तस्य मार्गणमन्वेषणं तत्प्रतीत्य सामान्य चिन्तामाश्रित्येति भावार्थः / एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपि इत्यादिसुगमं / नवरं तेषामनन्तप्रादेशिकानां स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादिव्यवहारनयमतापेक्षया / निश्चय नयमतापेक्षया तु अनन्तप्रादेशकस्कंधीयानपिपञ्चवर्ण एव प्रतिपत्तव्यः। (विहाणमग्गणं पडुचेत्यादि) / विव्यक्त-मितरव्यवच्छिन्नं धानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तद्विधान विशेषः कृष्णो नील इत्यादिविशेष इति यावत्तस्य मार्गणं तत्प्रतीत्य त्यक्त्वा सवर्णान्यप्याहारयंतीत्यादि सुगमं / नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यं / निश्चयतः पुनरवश्यं तानि पञ्चवर्णान्येव // जाई वन्नओ कालवन्नाई पीत्यादि।। सुगमं / यावदनन्तगुणसुकिलाई पि आहारंति / एवं गंधरसस्पर्शविषयाणि सूत्राण्यपि भावनीयानि (जाई भंते ! अनन्तगुणलुक्खाई इत्यादि) यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि उपलक्षणमेतत् / एवं गुणकालादीन्यप्याहारयन्तीति तानि च भदन्त ! किं स्पृष्टान्यात्मप्रदेशस्पर्शविषयाण्याहारयन्ति उतास्पृष्टानि / भगवानाह / स्पृष्टानि नो अस्पृष्टानि (जहाभासुद्देसए जाव नियमा / छद्दिसित्ति) अत उज़ यथा भाषोद्देशके प्राक्सूत्रमभिहितं तथात्रापि दृष्टव्यं / तत्र तावत् यावन्नियमाः (छघिसिंति) पदं तच्चैवं / जाइं पुट्ठाई आहरंति ताई भंते ! किं ओगाढाई आहारंति गोयमा ! ओगाढाइं आहारंतिणो अणोगाढाई आहारंति / जाई मंते ओगाढाई आहारंति ताई किं अणंतरोगाढाई आहारंति परंपरोगाढाई आहारंति गोअणंतरोगाढाई आहारंति नो परंपरोगाढाई आहारंति जाइं अणंतरोवगाढाई आहारंति ताई भंते ! किं अणूइं आहारंति बादराई आहारंति? गोयमा ! अणुं पि आहारंति बायराइंपि आहारंति / जाई मंते ! अणूं पि आहारंति बायराई पि आहारंति ताई किं उख्खं आहारंति अहे आहारंति तिरियं आहारंति ! गोयमा! उड्डंपिआहारंति अहे वि आहारति तिरियं पि आहारंति जाई भंते ! उर्ल पि आहारंति अहे पि आहारंति तिरियं पि आहरंति Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 530 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार ताई आई पि आहारंति मज्जे आहारंति पज्जवसाणे आहारति ? गोयमा! आई पि आहारंतिमज्जे वि आहारंति पावसाणे वि आ० 1 जाइं भंते ! आई पि आहारंति मज्जे वि आहारंति पज्जवसाणेवि आहारंति ताई भंते ! किं सविसए आहारंति अविसए आहारंति ? गोयमा! सविसए आहारंति नो अविसए आहारंति। जाइं भंते ! सविसए आहारंतिताई किं आणुपुस्विए आहारंति 1 अणाणुपुट्विए / गो. आणुपुट्विं आहारंति नो अणाणुपुट्विं आहारेति / जाइं भंते आणुपुट्विं आहारंति ताई किं तिदिसिं आहारंति / चउदिसिं आहारंतिपंचदिसिं आहारंति छदिसिं आहारंति? अस्य व्याख्या / इहात्मप्रदेशैः संस्पर्शनेनात्मनः प्रदेशा वगाढात्क्षेत्रादहिरपि सम्भवति ततः प्रश्नयति / (जाइं भंते ! इत्यादि) यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किं अवगाढानि आत्मप्रदेशः सह एक क्षेत्रावस्थायीनि उत अनवगाढानि आत्मप्रदेशावगाढक्षेत्रावहिरवस्थितानि- 1 भगवानाह गौतम ! अवगाढान्याहारयंति नानवगाढानि / उत अवगाढानि आत्म-प्रदेशावगाढक्षेत्रे किमनन्तरावगाढानि / विमुक्तं भवति / यथात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि वैरात्मप्रदेश-स्तान्येवाहारयंतिउता परम्परावगाढानिएकद्याद्यात्मप्रदेशा व्यवहितानि / भगवानाह / गौतम! अनन्तरावगाढानिआहारयंति नो परम्परावगाढानि / यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढान्याहारयति तानि किमणूनि स्तोकान्याहारयन्ति उत बादराणि प्रभूतप्रदेशोपचितानि / भगवानाह / अणून्यप्याहारयन्ति वादराण्यप्याहारयन्ति / इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया वेदितव्ये इति / यानि भदन्त! अणून्यप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमूर्ध्व मूर्ध्वप्रदेशस्थितान्याहारयन्ति अधस्तिर्यग्वा / इह ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्त्वंयावति क्षेत्रे नैरयिको ऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयं / भगवानाह ।ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति ऊर्ध्वप्रदेशावगाढान्यप्याहारयति एवमधोऽपि तियंगपि / यानि भदन्त!ऊर्ध्वमप्याहारयन्ति अधोऽप्याहारयन्ति तिर्यगप्याहारयन्ति तानि किमादावाहारयन्ति मध्ये आहारयन्ति पर्यवसाने आहारयन्ति / अयमत्राभिप्रायो नैरयिका ह्यनन्तप्रादेशिकानिद्रव्याण्यन्तर्महूर्त कालं यावदुपभोगोचितानि गृहन्ति ततः संशयः किमुपभोगोचितस्य काल-स्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादौ प्रथमसमये आहारयन्ति उत मध्ये मध्येषु समयेषु आहोस्वित्पर्यवसाने पर्यवसानसमये ? भगवानाह / गौतम ? आदावपि मध्येऽपि पर्यवसाने ऽप्याहारयन्ति / किमुक्तं भवति / उपभोगोचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्यादिमध्यावसानेषु समयेषु आहारयन्ति उतअविषयाणि स्वोचिताहारयोग्यान्याहारयन्ति / भगवानाह / गौतम ! स्वविषयानाहारयन्ति नो अविषयान् / यानि भदन्त ! स्वविषयानाहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्त्या आहारयन्ति अनानूपूर्व्या ? आनुपूर्वी नाम यथासन्नं / तद्विपरीता अनानुपूर्वी भगवानाह / गौतम ! आनुपूर्व्या सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या प्राकृतत्वात् यथा आचाराङ्गे (अगणिपुट्ठा) इत्यत्र आहारयन्ति नो अनानुपूर्व्या ऊर्ध्वमधस्ति-ग्वा यथासन्नं नातिक्रम्याहारयन्तीति भावनीयानि / भदन्त ! आनुपूर्व्या आहारयन्ति तानि किं (तिदिसिंति)। तिस्रोदिशः समाहृतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितान्याहारयन्ति चतुर्दिशि पंचदिशि षड् दिशि वा इह लोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदे त्रिदिग्व्यवस्थितमेकदिग्व्यवस्थितंवा अतस्त्रिदिश आरम्भ प्रश्नः कृतः। भगवानाह / गौतम ! नियमात् षड्दिशि व्य-वस्थितान्याहारयन्ति / नैरयिका हि त्रसनाड्यांमध्ये व्यवस्थितास्तत्रचावश्यषदिक्संभव इति / (ओसन्नकारणं पडुचेत्यादि) ओसन्नशब्दो बाहुल्यवाची / यथा ओसन्नं देवासायं वेयणं वेयंतीत्यत्र / तत ओसन्नकारणं बाहुल्यकारणं प्रतीत्य किंतदाहुल्यकारणमिति चेदुच्यते / अशुभानुभाव एव / तथापि प्रायो मिथ्यादृष्टयः कृष्णादीन्याहारयन्ति न तु भविष्यत्तीर्थकरादयः। तत ओसन्नेत्युक्तं / वर्णतः कालनी लादि 1 गन्धतो दुरभिगन्धाद्रि / रसतस्तिक्तकटुकानि / स्पर्शतः कर्कशगुरुशीतक्षादि इत्यादि तेषामाहार्य्यमाणानां पुद्गलानां पुराणान् अग्रेतनान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् स्पर्शगुणान् (विपरिणामइत्ता परिपीलदत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता) एतानि चत्वार्यपि पदान्येकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपाद कानि नाना देशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि विनाश्य किमिति आह / अन्यानपूर्वा न्वर्णगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणानुत्पाद्य आत्मशरीरक्षेत्रावगाहान् पुद्रलान् (सव्वप्पणयाए) सर्वात्मना सवरेवात्मप्रदेशैराहारमाहाररूपानाहारयन्ति || प्रज्ञा पद२८ / जी०प्र०१। भ. श०६ उ.४॥ नेरइया णं मंते ! जे पोग्गला अत्तमायाए आहरंति ते किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमाए आहारंति अणंतरखेत्तोगाढेपोग्गले अत्तमायाए आहरंति परं पर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहरंति ? गोयमा ! आयसरीरंखे तोगाढे पोग्गले अत्तमाया एआहारंति नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति नो परंपर खेत्तोगाढे जहा नेरइया तहा जावे वेमाणियाणं दंडओ // टी. नरेइयाणमित्यादि ! (अत्तमाएत्ति) / आत्मना आदाय गृहीत्वेत्यर्थः / जीवाधिकारादेवेदमाह / (आयसरीरे खेत्तो-गाढेत्ति)। स्वशरीरक्षेत्रे अवस्थितानीत्यर्थः (अणंतरखेत्तो-गाढेत्ति)। आत्मशरीरावगाढ़क्षेत्रापेक्षया यदनन्तरं क्षेत्रं तत्रा-वगाढानीत्यर्थः (परंपरखेत्तागाढेत्ति) आत्मक्षेत्रानन्तरक्षेत्राद्यत्परं क्षेत्र तत्रावगाढानीत्यर्थः) || भ. श०६ / ऊ२०॥ नेरइयाणं भंते सव्वओ आहारंति सव्वओ परिणामंतिसव्वओ ऊससन्ति सवओ नीससंति अभिक्खणं 2 आहारंति अभिक्खणं 2 परिणामन्ति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति आहब आहारंति आहच परिणामंति आहच ऊससंति आहब नीससंति / हंता गोयमा! णेरइया सवओ आहारंति एवं चेद जाव आहब नीससंति णेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारंति कहभागं आसायंति? गोयमा! असंखेनइ भागं आहा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 531 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार रंति अणंतभागं आस्साएंति रइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंतिते किं सव्वे आहारंति नोसवे आहारंति! गोयमा! ते सव्वे अपरिसेसिएआहारंति // (नेरइया णं भंते इत्यादि) प्रश्रसूत्रं सुगम / (नेरइयाणभंते ! जे पोग्गलाइत्यादि) नैरयिका णमिति पूर्ववत् भदन्त ! यान् पुद्गलानाहारतया गृहन्ति नैरयिकास्तेषां गृहीतानां पुद्गलानां (सेकालंसि) एष्यत्काले ग्रहणकालोत्तरकालग्रहणकालमित्यर्थः (कइभागं ति) कतिथं भागमा हास्यन्ति आहारतयोपभुजंते तथा ! कतिभाग कतिथं भागमामाहा~माणपुद्गलानामास्वादं गृण्हंति। न हि सर्वे पुद्गलाआहार्यमाणान्यास्वादमायान्ति इति पृथक् प्रश्नः / भगवानाह। गौतम! असंख्येयं भागमाहारयन्ति / अन्ये तुगवादिपृथमवृहद्ग्रासग्रहण इव परिसटति ! आहा-र्यमाणानांच पुद्गलानामनन्तभागमास्वादयन्ति। शेषास्त्व-नास्वादिता एव शरीरपरिणाममापद्यन्ते इति॥ णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसिं पोग्गला कोसत्ताए मुजो मुजो परिणमंति ? गोयमा ! सो इंदियत्ताए जाव फार्सिदियत्ताए अणिहत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए अमणुनाए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्जियत्ताए अहत्ताए नो उड्डत्ताए दुक्खात्तए नो सुहत्ताए एतेसिं भुजो भुञ्जो परिणमंति असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी? हंता! आहारट्ठी / एवं जहा णेरइयाणं तहा असुरकुमाराणं विभाणियव्वम् जाव तेसिं भुञ्जो 2 परिणमन्ति / तत्थ णं जेसे आभोगनिव्वत्तिए सेणं जहन्नेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं सातिरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ओसन्न-कारणं पडुच वन्नओ हालिहसुकिल्लाई गंधओ सुरिभगंधाई रसओ अविलमहुराई फासओ मउलहुयणिधुण्हाई तेर्सि पोराणं वन्नगुणे जाव फासिंदियत्ताए जाव मणामत्ताए इच्छियत्ताए भिज्जियत्ताए उट्टत्ताए नो अहत्ताए सुहत्ताए नो दुहत्ताए तेसिं भुजोरपरिणमंति सेसं जहाणेरइयाणं एवं जाव थणियकुमाराणं / नवरं आभोगनिव्वत्तिए उकोसेणं दिव सपहुत्तस्स आहरटे समुप्पञ्जइ // नैरयिका णमिति पूर्ववत् यान्पुद्रलानाहारतया गृहं तिइह ग्रहणं विशिष्टमवसेयं / ततो ये उज्जितशेषाः केवला हारपरिणामयोग्या एवावतिष्ठन्ते ते ऽत्राहारतया गृह्यमाणाः पृष्टा द्रष्टव्याः / अन्यथा निर्वचनसूत्रमपेक्ष्य पूर्वापरविरोधप्रसङ्गो नच भगवद्द्वचने विरोधसम्भावनाऽप्यस्ति तत इदमेव व्याख्यानं सम्यक् / अत एवंविधपूर्वापरे विरोधाशङ्काव्युदासार्थे पूर्व-सूरिभिः कालिकसूत्रस्यानुयोगः कृतः उक्तञ्च / "जं तह सुत्ते भणियं तहेव तं जइ वियालणा नत्थि। किं कालियाणुजोगो दिह्रो दिट्टिप्पहाणेहिं" || 1 तान् किं सर्वानाहारयन्ति उत नो सान् सर्वेकदेशभूतान् / भगवानाह / तान्सर्वान-विशेषेणाहारयन्ति उज्जितशेषाणामेव केवलाना / माहारपरि-णामयोग्यानां गृहीतः स्यात् (नेरइयाणमित्यादि) नैरयिका णमिति पूर्ववत् / यान्पुद्गलानाहारतया गृण्हन्ति ते पुद्गला णमिति पूर्ववदेव / नैरयिकाणां कीदृक्तया किं स्वरूपतया भूयः२ परिणमन्ते / भगवानाह / गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियतया यावत्करणाचक्षुरिन्द्रियतया घ्राणेन्द्रियतया जिह्वेन्द्रियतयेति परिग्रहः / स्पर्शनेन्द्रियतया इन्द्रियरूपतयापि परिणममाणाः शुभरूपाः किंत्वकांताशुभरूपाः यत आह / (अणिठ्ठत्ताए इत्यादि) इष्टा मनसा इच्छाविषयी कृता यथा "शोभनमिदं जातं यदित्थमिमे परिणता इति" / तद्विपरीता अनिष्टास्तद्धावस्तत्ता तया इह किंचित्परमार्थतः श्रुतमपि केषाञ्चिदनिष्टं भवति / यथा मक्षिकाणां चन्दनकर्पूरादिस्ततआह (अकंतत्ताए) कांताः कमनीयाः अकांता अत्यंताशुभवण्णोपेतत्वात् अत एवाऽप्रिय-तया न प्रिया अप्रिया दर्शनापात कालेऽपि तत्प्रियबुद्धि-मात्मन्युत्पादयंतीति भावः / तद्भावोऽप्रियता तया (असुभत्ताए इति) न शुभा अशुभा अशुभगन्धरसस्पर्शात्मकत्वात् तद्भावस्तत्ता तथा (अमणुन्नत्ताए इति) न मनोज्ञा अमनोज्ञा विपाककाले दुःखजनक-तया न मन प्रह्लादहेतव इति अमनोज्ञा भावः / तद्भावस्तत्ता तथा (अमणामत्ताए) भोज्यतया मन आप्नुवंतीति मन आपा प्राकृतत्वात्पकारस्य मकारत्वे मणाम इति सूत्रनिर्देशः / न मन आपा अमन आपा न जातुचिदपि भोज्यतया जंतूनमनोज्ञान् कुर्वन्तीति भावः / तद्भावस्तत्ता तया अत एव / (अणिच्छियत्ताए इति) अनीप्सिततया भोज्यतया स्वादितुमिष्टा ईप्सिता न ईप्सिता अनीप्सितास्तद्भावस्तत्ता तया / (अभिज्जियत्ताए।) अभिध्यामनभिध्या अभिलाष इत्यर्थः / अभिध्या सजाता येष्विति अभिध्यितास्तारकादिदर्शनादितच् प्रत्ययः / तद्भावस्तत्ता तया / किमुक्तं भवति / ये गृहीताहारतया पुद्गला न ते तृप्तिहेतवोऽभूवन्निति न पुनरभिलषणीयत्वेन परिणमन्ते तथा / (अहत्ताए इति) अधस्तया गुरुपरिणामत-येति भावः। नो ऊर्ध्वतया लघुपरिणामतया अत एव दुःखतया गुरुपरिणाम परिणतत्वात् न सुखतया लघुपरि-णामपरिणतत्वाभावात् / तेपुद्गलास्तेषां नैरयिकाणां भूयः परिणमन्ते एतान्येव आहारार्थिन इत्यादीनि सप्त द्वाराणि / असुरकुमारादिषु भवनपतिषु चिचिंतयिषुरिदमाह (जहा नेरइयाणमित्यादि) यथा नैरयिकाणां तथा असुरकुमाराणामपि भणितव्यं / यावत् तेसिंभुजो 2 परिणमन्तीति पर्यन्तपदं / तत्र नैरयिकसूत्रस्य विशषमुपदर्शयति (तत्थणंजेसे इत्यादि)एवं चोपदर्शित सूत्रन्न मन्दमतीनां यथास्थितं प्रतीतिमागच्छति ततस्तदनुग्रहाय सूत्रमुपदयते (असुरकुमाराणं भंते ! आहार-ट्ठी? हंता आहारट्ठी असुरकुमाराणं भंते ! केवइ कालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ।) अत्र सप्तम्यर्थे षष्ठी कियति कालेऽतिक्रान्ते सति भूय आहारार्थः समुत्पद्यत इत्यर्थः / (असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पन्नत्ते / तंजहा / आभोगनिव्वत्तिए अणाभोगनिव्वत्तिए य / तत्थ णं जेसे अणाभोगनिव्वत्तिए से णं अणुसमयम विरहिए आहारट्टे समुप्पज्जा / तत्थणं जेसे आभोगनिव्वत्तिए सेणं जहन्नेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं साइरेगस्सवाससहस्सस्स आहारट्टेसमुप्पज्जइ।) अत्रतुचउत्थभत्तस्सेति सप्तम्यर्थे षष्ठी / चतुर्थभक्त आगमिकीयं संज्ञा एक स्मि Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 532 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार न्दिवसेऽतिकान्ते इत्यर्थः / भूयो जघन्येनाहारार्थः / समुत्प-द्यते। एतच दशवर्षसहास्नायुषां प्रतिपत्तव्यमुत्कर्षतः सातिरेके अभ्यधिके वर्षसहस्रेऽतिक्रांते ! एतच सागरोपमायुषामबसेयं / / असुरकुमाराणं भंते ! किमाहारमाहारयंति? गोयमा ! दवओ. अणंतप्पएसियाई खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाइं कालओ अन्नयरठियाइं भावओ वनमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई जावनियमा / छहिसिं आहारंति ओसन्नं कारणं पडुच वन्नओ हालिहसुक्किलाई, गंधओ सुरमिगंधाई, रसओ अंबिलमधुराई, फासओ मउयलहुणिधुण्हाई,तेसिं पोराणं वन्नगुणं गंधगुणे फासगुणे जाव इच्छियत्ताए अभिज्जियत्ताए उठ्त्ताए नो अहत्ताए सुहत्ताए नो दुहत्ताए एतेसिं भुजोर परिणमंति यथा चासुरकुमाराणां सूत्रमुक्तं / तथा नागकुमारादीनामपि स्तनितकुमारपर्यवसानानांवक्तव्यवन्नवरमाभोगनिवर्तिताहारथ चिन्तायामुत्कर्षाभिधाना-नुसारेण "उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइं" इति वक्तव्यं / एतच पल्योपमासंख्येयभागायुषां तदधि-कायुषां चावसेयं / शेषं तथैव / तथा चाह / एवं जाव थणियकुमाराणमित्यादि *ll सम्प्रति पृथिवीकायिकानामेतान्सप्ताधिकारान् चिंतयितुकाम माह / पृथ्वीकायिकानाम्॥ पुढवीकाइयाणं मंते ! आहारट्ठी हंता आहारट्ठी / पुढविकाइयाणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। गोयमा ! अणु समयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पन्नइ / पुढविकाइयाणं भंते ! किमाहारमाहारंति / एवं जहा / णेरइयाणं जाव ताई भंते ! कइदिसिं आहारेइ निव्वाघाए णं छद्दिसिं वाघायं पडुब सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं नवरं उसनकारणं न भण्णइ / वन्नओ कालनीललोहियहालिहसुकिल्लाई, गंधओ सुबिभगंध दुम्मिगंधाई, रसओ तित्तरसकडुयकसायअंबिलमहुराइं, फासओ करकडफासगरुयलहुयसीतउसिणणिद्धलुक्खाइं, तेसिं पोराणा वनगुणा। सेसं जहा / नेरइयाणं जाव आहब नीससंति पुढविकाइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति / तेसि णं मंते ! पोग्गलेणं सेयालंसि कतिभागं आहारंति / कतिभागं आसायंति ? गोयमा ! असंखेज्जाइभागं आहारंति अणंतभागं आसायन्ति पुढविकाइयाणं भंते ! जे पुग्गले आहारत्ताएगेण्हति तेकिं सवे आहारंति नो सवे आहारंति जहेव णे रया तहेव / पुढविकाइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति तेणं तेसिं पोग्गलाणं कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ? गोयमा ! फासिदियवेमाणियत्ताए तेसिं भुजो परिणमंति / एवं जाव वणस्सइकाइया / बेइंदियाणं भंते ! आहारट्ठी? हंता गोयमा! आहारट्ठी / बेइंदियाणं भंते! केवइकालस्स आहारटे समुप्पञ्जइ जहा णेरझ्याणं न वरं तत्थणं जेसे आभोगनिव्वत्तिए सेणं असंखेजसमए अंतो मुहुत्तिए आहारट्टे समुप्पाइ सेसं जहा पुढविकाइयाणं जाव आहब नीससंति नवरं नियमा छदिसिं बेइंदियाणं पुच्छाजे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेणं तेर्सि पोग्गलाणं कहभागं आहारंति / कइमागं आसायंति / एवं जहा नेरइयाणं / बेइंदिया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंति। तेसिं किं सवे आहारंति / बेइंदियाणं दुविहे आहारे पण्णते / तंजहा / लोम आहारे य पक्खेवाहारे य / जे पोग्गले लोमआहारत्ताए गिण्हति ते सव्वे अपरिसेसे आहारंति / जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्हंति तेर्सि असंखेज्जइभागमाहारंति अणेगाई च णं भागसहस्साई अफासाइजमाणाणं अणास्साइजमाणाणं विद्धंसमागच्छंति / प्रज्ञा पद२८ / / टी. (पुढविकाइयाणं भंते ! इत्यादि) सर्वं पूर्ववदसुरकुमारवद्भावनीवं नवरं (निव्वाधाएणं छद्दिसिमित्यादि) व्याघातो नाम अलोकाकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्त-स्याभावोनिया॑धातः 1"शब्देयथावदव्ययपूर्वपदार्थनित्य-मव्ययीभाव" इत्यव्ययीभावस्तेन वा तृतीयायामिति विकल्पेन आम्बिधानात्पक्षेत्राम् भावः / नियमादवश्यतया षड्दिशि व्यवस्थितानि षड्भ्यो विग्भ्य आगतानि द्रव्याण्याहारयंतीति भावः / व्याघातम्पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटादौस्यात्कदाचित् / त्रिदिशितिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि कदाचिचतुर्दिग्भ्यः कदाचित्पञ्चदिग्भ्यः / काऽत्र भावनेति चेदुचयते / इह लोकनिष्कुटे पर्यंताधस्त्यप्रतराग्निकोणावस्थितो यदा पृथिवीकायिको वर्तते तदा तस्या-धस्तादलोकेन व्याप्त-त्वादधोदिक पुद्गलाभावः / आग्नेयकोणावस्थितत्वापूर्वदिक् पुद्रलाभावो दक्षिणदिक्पुद्गलाभावश्च / एवमधः पूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणां दिशामलोकेन व्यापन्नता अपास्य याः परिशिष्टा उर्ध्वा अपरा उत्तरा च दिग् व्यहृता वर्तते तत आगतान्पुद्गलानाहारयन्ति यदा पुनस्स एव पृथिवीकायिकः पश्चिमां दिशममुञ्चन् वर्तते तदा पूर्वा दिगभ्याधिका जाता / द्वेच दिशौ दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहृते इति स चतुर्दिगागतान्पुद्गलानाहारयति / यदापुनरूज़ द्वितीयादिप्रतरगतपश्चिमदिगवलम्ब्य तिष्ठति तदा अधस्त्याऽपि दिगभ्यधिका लभते केवलदक्षिणैवैका पर्य्यन्तवर्तिनी अलोकेन व्याहतेति पञ्चदिगागतान्पुद्रलानाहारयन्तीति / शेषं सूत्रं समस्तमपि पूर्ववगणनीयं यस्तुविशेषस्तमुपदर्शयति (न वरमुसन्नकारणं न हवइ इत्यादि) सुगमं (फासिंदियमायत्ताए इति ) विषममात्रा विमात्रा तस्याभावो विमात्रता तया इष्टानिष्टा नानाभेदतयेति भावो न तु यथा नारकाणामेकान्ताशुभतयासुराणां चशुभतयै-वेति / एवं जाववणस्सइकाइयाणंति। यथा पृथिवीकायिकानां सूत्रमुक्तमेवमप्तेजोवायुवनस्पतीनामपि भणनीयं / सर्वेषामपि सकललोकव्यापितयो विशेषाभावात् (बेइंदियाणं भंते! इत्यादि) सुगम नवरं / (लोमाहारे पक्खेवाहारेयत्ति) लोम्न आहारो Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 533 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार लोमाहारः / पक्षिप्यतेऽर्थान्मुखे इति प्रक्षेपः सचासावाहारश्च प्रक्षेपाहारः तत्र यः खल्वोघतो वर्षादिषु पुद्गलप्रवेशो मूत्रादिगम्यस्स लोमाहारः / कावलिकमुखप्रक्षेपाहारः / तत्र यान्पुद्गलान् लोमाहारतया गृण्हाति | तान्सर्वानपरिशेषानाहारयन्ति तेषां तथा 2 स्वभावत्वात् / यान्पुद्गलान्प्रक्षेपाहारतया गृण्हंतितेषा-मसंख्येयतम भागमाहारयन्ति / अनेकानि पुनर्भागसहस्राणि बहवोऽसंख्ये या भागा इति अस्पृश्यमानानामनास्वाद्यमानानां विध्वंसमागच्छति / किमुक्तं भवति / बहूनिद्रव्याण्यंतर्बहिश्च अस्पृष्टान्येवाऽनास्वादितान्येत्र विध्वंसमायान्ति नवरं यथायोगं केचिदतिस्थौल्यतः केचिदतिसौक्ष्म्यतः इति। प्रज्ञा०। | पद / / 28| सम्प्रत्यस्पृश्यमानानामनास्वाद्यमानाच परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराह। एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाणं यकयरे कयरेहिंतो अप्पावा? गोयमा! सव्वत्थो वा पोग्गला अणासाइजमाणा अफासाइज्ज माणा पोग्गला अणंतगुणा // (एएसिणं भंते ! इत्यादि) इह एकैकस्मिन्स्पर्शयोग्ये भागे अनन्ततमो / भाग आस्वाद्यो भवति ततो येनास्वाद्यमानाः पुद्गलास्ते स्तोका एवाऽस्पृश्यमानपुद्गलापेक्षया तेषामनन्त-भागवर्तित्वात् / अस्पृश्यमानास्तु पुद्गला अनन्तगुणाः / / बेइंदियाणं भंते जे पोग्गले आहारत्ताएपु.! गोयमा! जिभिदिय फासिंदियबेमायत्ताए तेसिं भुजोप, एवं जाव चउरिंदिया नवरं अणेगाइं च णं भागसहस्सा इं अणुग्घा-इजमाणाई अफासाइजमाणाई विद्धसमागच्छंति। टी.॥ (जिभिदिय फासिंदिया वेमायत्ताए इति / ) विमात्रतात्रापि प्राग्वद्भावनीया / एवं जाव चउरिंदिया / एवं दीन्द्रियोक्तप्रकारेण / सूत्रं तावद्वक्तव्यं यावच्चतुरिन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिय गतं सूत्रं प्रायः समानवक्तव्यत्वात् / यस्तु विशेषस्स उपदीत नवरमित्यादि यान्पुद्रलान्प्रक्षेपाहारतया गृण्हति तेषां पुद्गलानामेकमसंख्येयतम भागमाहारयन्ति / अनेकानिपुनर्भागसहस्राणि संख्यातीता असंख्येयभागा इत्यर्थः / अनाघ्रायमाणानि अस्पृश्यमानानि अनास्वाद्यमानानि विध्वंसमागच्छन्ति तानि च यथायोगमतिस्थौल्यतोऽतिसौम्यतश्च वेदितव्यानि / अत्रैवाल्पबहुत्वमाह। .. एतेसिणं भंते पोग्गलाणं अणुग्घाइजमाणाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाणं य कयरे कयरेहिं तो अप्पा वा ? गोयमा ! सवत्थो वा पोग्गला अणु ग्घाइजमाणा अणासाइजमाणा अणंतगुणा अफासाइजमाणा अणंतगुणा तेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गले पुच्छा गोयमा ! घाणिदिय जिमिंदिय फासिदिय वे मायत्ताए तेसिं भुजो भुजो परिणमंति। चउरिदियाणं चक्खिदिय जिभि दिय घाणिदिय फासिंदिय वेमायत्ताए तेसिं भुजो भुञ्जो परिणमंति सेसं जहा तेइंदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया नवरं तत्थणं जेसे आभोगनिव्वत्तिए से जहन्नेणं अंतो हुत्तस्स उक्कोसेणं छहभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ / पंचिंदियति रिक्खजोणियाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा, गोयमा! सोइंदिय चक्खिदिय धार्णिदिय जिभिंदिय फार्सिदिय वेमायत्ताए भुजो मुजो परिणमंति / मणूसा एवं चेव नवरं आभोगनिव्वत्तिए जहन्नं अंतोमुहुत्तस्स उक्को. अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ / वाणमंतराजहानागकुमारा एवं जोइसिया वि नवरं आभोगनिव्वत्तिए जहन्नं दिवसप. उक्कोसेण वि दिवसपहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पजइ / एवं वेमाणिया वि नवरं आभोगनिव्वत्तिए जहण्णेणं दिवसप. उक्को तेतीसाए वासस हस्साणं आहारट्टे समुप्पजइ / सेसं जहा असुरकुमा राणंजाव तेसिं मुजो भुजो परिणमंति सोहम्मे आभोगनिव्वत्तिए जहन्नेणं दिवसप, उक्कोसेणं दोण्हं वाससहस्साणं आहारडे समुप्पाइ / ईसाणे पुच्छागोयमा! जहन्नं दिवसपु. सातिरेगस्स उकोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं वास सहस्सा / सणंदकुमाराणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दोण्हं वाससहस्साणं उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं / माहिंदे पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दोण्हं वाससहस्साणं सा तिरेगाणेणं उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं / बंभलोए पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं उक्कोसेणं दसण्हं वाससहस्साणं / लंतए पुच्छा / गोयमा ! जहण्णं दसण्हं वाससहस्साणं उक्कोसेणं चोदसण्हं वाससहस्साणं / महासुक्केण पुच्छा / गोयमा! जहण्हं चोदसण्हं वाससहस्साणं उक्कोसेणं सत्तदसण्हं वास सहस्साणं / सहस्सारे पुच्छा गोयमा ! जहन्नं संत्तदसण्हं वाससहस्साणं उक्कोसेणं अट्ठारसण्हं वाससहस्साणं आणतेणं पुच्छा गोयमा! जहन्नं अट्ठारसह वाससहस्साणं उन्कोसेणं एगूणवीसाए वाससहस्साणं / पाणएणं पुच्छा गोयमा ! जहनं एगूणवीसाए वाससहस्साणं उक्कोसेणं वीसाए वाससहस्साणं / आरणेणं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं वीसाए वाससहस्साणं उकोसेणं एकवीसाए वाससहस्साणं / अचुएणं / पुच्छा! गोयमा! जहन्नेणं एकवीसाए वाससह-स्साणं / उकोसेणं बावीसाए वाससहस्साणं / हेट्ठिम 2 गेविनगाणं पुच्छा गोयमा / जहन्नेणं बावीसाए वाससहस्साणं उक्कोसेणं तेवीसाए वाससहस्साणं / एवं सव्वत्थसहस्साणि भाणियव्वाणि / हे हिममज्जिमाणं पुच्छा, गोयमा / जहन्नं तेवीसाए उक्कोसं चउवीसाए हेहिमउवरिमाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नं चउवीसाए उक्कोसेणं पणदीसा ।मज्जिमहेडिमाणं पुच्छा / जहन्नं पणवीसाए उक्कोसेणं छथ्वीसाए / Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 534 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार मज्जिममज्जिमाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नं छथ्वीसाए उक्कोसेणं सत्तावीसाए / मज्जिम उवरिमाणं पुच्छा / गोयमा! जहन्नेणं सत्तावीसाए / उकोसेणं अट्ठावीसाए / उवरिमहेट्ठिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णं अट्ठावीसाए उक्कोसेणं एगूणतीसाए / उवरिममज्जिरमाणं पुच्छा, गोयमा! जहण्णं एगूणतीसाए उकोसेणंतीसाएउवरिमर-गेविनगाणंपुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं तीसाए उक्कोसेणं एकतीसाए वाससहस्साणं / विजयवेजयंत जयंतअपरा जियाणं पुच्छा | गोयमा ! जहन्नेणं एकतीसाए उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं सव्वट्ठसिद्धदेवाणं पुच्छा, 1 गोयमा! अजहन्नमणुको सेणं तेत्तीसाएवाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ // टी० // एएसिणं भंते ! इत्यादि / इह एकैकस्मिन् भागे स्पर्शयोन्येऽ-- नन्ततमोभाग आस्वादयोग्यो भवति / तस्याप्यनन्त तमोभाग आघ्रायमाणयोग्यः। ततो यथोक्तमल्पबहुत्वं भवति शेषं सर्व सुगम / पंचेन्द्रियसूत्रे-जहन्नेणं अंतो मुहुत्तस्सेति / षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वादन्तमुहूर्ते गते सतिभूय आहारार्थः समुत्पद्यते उत्कर्षतः षष्ठभक्ते ऽत्तिक्रान्ते एतच देवकुरूत्तरकुरु-त्तिर्यक्पंचेद्रियापेक्षया द्रष्टव्यं / मनुष्यसूत्रे उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्सत्ति / उत्कर्षतो ऽष्टमभक्ते ऽतिक्रान्ते / एतच तास्वेव देवकुरूत्तरकुरुषु द्रष्टव्यं व्यंतरसूत्रे नागकुमारसूत्रवत् / ज्योतिष्कसूत्रमपि तथैव यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयति / नवरं (जहन्नेण वि दिवसपुहुत्तस्स उक्कोसेण वि दिवसपुहुत्तस्सत्ति) ज्योतिष्का हि जघन्यतोऽपिपल्योपमाष्टमभागप्रमाणा-युषस्ततस्तेषां जधन्यपदेऽप्युत्कृष्टपदेऽपि दिवसपृथक्त्वेऽतिक्रांते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते / पल्योपमासंख्येय-भागायुषां च स्वरूपत एव दिवसपृथक्त्वातिक्रमे भूय आहारार्थस्समुत्पधयते / वैमानिकसूत्रे-नवरं (आभोगनिव्वत्तिएजहन्नेणं दिवसपुत्तस्स इति) एतत्पल्योपमाद्यायुषामवसेयं / उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं ति / एतदनुत्तरसुराणामव-सेयं / इह यस्या यावन्ति सागरोपमाणि स्थितिस्तस्यास्तावत्सु वर्षतश्च स्थितिपरिमाणं परिभाव्य वैमानिकसूत्र सकलमपि स्वयं विज्ञेयमिति // प्रज्ञा पद० // 28 // संयतशब्दे तदाहारः॥ नैरयिकाः किंवीचिद्रव्याण्यवीचिद्रव्याणि वाहारयति। णेरइयाणं मंते ! किं वीचिं दवाई आहारेंति अवीचिं दव्वाइं आहारैति? गोयमा ! णेरइया वीचिदवाई पिआहारेंति अवीचिदवाई पि आहारैति / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ / णेरइया वीचीतं चेव आहारति! गोयमा ! जेणं णेरड्या एकपदे सूणाइंपि दव्वाइं आहारेंति तेणं णेरइया वीचिदव्वाई आहारति जेणं णेरइया पडिपुण्णाई दवाइं आहारेंति तेणं गेरइया अवीचिदव्वई आहारेंति से तेणटेणं गोयमा ! एवं दुबइ जाव आहारेंति एवं जाव वेमणिया आहारैति / / टी. / वीइंदव्वाइंति / वीचिर्विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण पृथग्भावो 'विचिर पृथग्भाव" इति वचनात् तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेश न्यू-नानीत्यर्थः / एतन्निषेधादवीचिद्रव्याणि।। अयमत्र भावोयावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते स एकादिप्रदेशो नो वीचिद्रव्याण्युच्यते / परिपूर्णस्त्ववीचिद्रव्याणीति टीकाकारः / चूर्णिकार-स्त्वाहारद्रव्यवर्गणा अधिकृत्येदं व्याख्यातवान् तत्र च याः सर्वोत्कृष्टा आहारद्रव्यवर्गणास्ता अवीचिद्रव्याणि / यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति (एगपएसूणाई पि दव्वाइंति) एकप्रदेशोनान्यपि अपि शब्दादनेकप्रदेशोनान्यपीति // भ. १४श०६उ०॥ अनन्तरा हाराः परम्पराहाराः। णेरइयाणं मंते ! अणंतराहारा तत्तो निटवत्तणया तत्तो परियाइणया तत्तो परिणामणया तत्तो परियारणया तत्तो पच्छा विउव्वणया ? हंता गोयमा ! णेरइया अणंतराहारा तत्तो निव्वत्तणया तत्तो परियाइणया तत्तो परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विउव्वणया असुरकुमाराणं भंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइणता तओ परिणामणता तओ विउव्वणयातओपच्छापरियारणाया? हंतागोयमा! असुरकुमारा अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया जाव तओ पच्छा परियारणया / एवं जाव थणियकु मारा / पुढविकाइयाणं भंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइणता तओ परिणामणता तओ परियारणता तओ विउव्वणया? हंता गोयमा! तं चेव जाव परियारणतानो चेव णं विउटवणता एवं जाव चउरिंदिया नवरं वाउकाइया पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा जहा णेरइया वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा // टी० / नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे / भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! परमसुखयो गिन् ! वा अनन्तरमुपपात-क्षेत्रप्राप्तिसमयमेव आहारयन्तीत्यनन्तराहाराः / ततो निव्वत्तणया इति / ततोऽनन्तराहार ग्रहणादारभ्य क्रमेण शरीरस्येति निर्वर्तिता निष्यत्तिर्भवति / तओ परियाइणया इति / ततश्शरीरनिष्पत्तेरारभ्य पर्यादानं यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गैर्लोमाहारादिना समन्ततः पुद्गलादानं / तओ परिणामणया इति। ततः पुद्गलादानादनन्तरं तेषां पुद्रलानाम्परिणामनमिन्द्रियादिरूपतया परिणमत्यापादनं ततो परियारणया इति / तत इन्द्रिया दिरूपतया परिणमत्यापादनादूर्ध्वं परिचारणा यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः ततः पश्चात् विकुर्वणा वैक्रियलब्धिवशात् विक्रिया नानारूपा एवमुक्ते भगवानाहहंता गोयमेत्यादि / हंतेत्य-भ्यनुज्ञायां हंता गौतम! नैरयिका अनंतराहारा इत्यादि / तदेवं यथा नैरयिकाणामनंतराहारादिवक्तव्यतोक्ता तथा असुर-कुमारदीनामपिस्तनितकुमारपर्यवसानानां वक्तव्या नवरं पूर्वविकुर्वणं पश्चात्परिचारणा ते हि विशिष्टशब्दा-धुपभोगवाञ्छायां पूर्वमिष्टं वैक्रियरूपं कुर्वन्ति पश्चात् शब्दाधुप भोगमित्येष नियमः / शेषास्तु शब्दाधुपभोगसंपत्तौ सत्यांहर्ष वशाद्विशिष्टतरशब्दाधुपभोगवाञ्छातो ऽन्यतो वा कुतश्चित्कारणाद्रिकुर्वते / ततस्तेषां पूर्व प्रविचारणा पश्चाद्रिकुर्वणेति पृथिवीकायविषये प्रश्रसूत्रे तथैव उत्तरसूत्रे तावद्वक्तव्यं-यावत्परिचारणा तेषामपि स्पर्शोपभोगसंभवात् / नो चेवणं Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 535 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार विउव्वणयत्ति / न चैव तेषां विकुर्वणा वाच्या वैक्रियलब्धेर-संभवात् / / चिन्तयति / नेरझ्याणं इत्यदि / नैरयिका णमिति वाक्यालङ्कारे / एवामित्यादि / एवं पृथिवीकायवदप्कायादयो वातकायवर्जास्ताव- भदन्त ! यान्पुद्गलानाहारतया गृहन्ति / दध्येतव्या यावच्चतुरिन्द्रियाः सर्वेषामपि वैक्रियलब्धेरसंभवेन सूत्रस्य भगवानाह गौतम ! जानन्त्यवधिज्ञानेन लोमाहारतया तेषासमानत्वात् वातकायान् प्रति विशेषमभिधित्सुः समानगमत्वात्प मतिसूक्ष्मत्वेन नारकावधेरविषयत्वात् / न च पश्यंति चक्षुरिन्द्रियथेन्द्रियतिर्यङ् मनुष्याणामपि वातकायैः सहानिर्देशमाह / विषयाभावात् / द्वीन्द्रिया न जानन्ति / मिथ्या-ज्ञानतया तेषां नवरमित्यादि। जहा नेरइया इति / यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः / सम्यक् परिज्ञानाभावात् / द्वीन्द्रियाणां हि मत्यज्ञानं तदपि किमुक्तं भवति / नैरयिकवद्विकुणाप्येतेषां वक्तव्या वैक्रियलब्धि- चास्पष्टमनःप्रक्षेपाहारमपिन ते स्वयं गृह्यमाणमपि सम्यक् जानन्तिन संभवात् / साच प्रविचारणायाः पश्चादिति / वाणमंतरजोइसियवेमाणिया च पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावात् / एवं त्रीन्द्रिया अपि ज्ञानदर्शनविकला जहा असुरकुमारा इति / असुरकुमाराणमिव व्यन्तरादीनामपि पूर्व भावनीयाः / चतुरिन्द्रियाः / अत्थेगइयत्ति / सन्त्येकके स्वयं विकुर्वणा पश्चात्परिचारणा वक्तव्येति भावः / सुरगणानां सर्वेषामपि तथा गृह्यमाणमप्याहारप्रक्षेपकत्त्वरूपमपि न जानंति / मिथ्याज्ञानित्वात् / स्वाभाव्यात् / उक्तश्च मूलटीकायां "पुव्वं विउव्यणा खलु पच्छा तेषामपि हि द्वीन्द्रियाणामिव मत्यज्ञानं तदपि चाविस्पष्टमिति चक्षुषा परिचारणा सुरगणाणं / सेसाणं पुव्वं परियारणाओ पच्छा विउव्वणया" पुनः पश्यंति चक्षुरिन्द्रियसद्भावात् / तथाहि / पश्यन्ति मक्षिकादयो इति / प्रज्ञा० 34 पद। गुडादिकमिति एवमा हारयन्ति तथा संत्येकके चतुरिन्द्रियाये न जानन्ति सम्प्रत्याहारविषयमाभोगं चिचिन्तयिषुरिदमाह / मिथ्यात्वान्न च पश्यन्ति अन्ध कारादिना चक्षुर्दर्शनस्य व्याहतत्वात् णेरइया णं भंते ! आहारे किं आभोगनिव्वत्तिए अणाभोगनि अनाभोगसंभवाद्वा / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियतिरश्वां चतुर्भगी प्रक्षेपाहारं व्वत्तिए? गोयमा ! आभोगनिव्वत्तिए विअणाभोगनिव्वत्तिए वि / लोमाहारश्चाधिकृत्य भावनीया / तत्र प्रक्षेपाहारमधिकृत्यैवं भावना / एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं नवरं एगिदिया णं नो सन्त्येकके तिर्यक्रपंचेन्द्रिया ये प्रक्षेपमाहारंजानन्ति सम्यग्ज्ञानितया तेषां आभोग निव्वत्तिए अनाभोगनिव्वत्तिए / जेरइया णं भंते ! जे यथा-वस्थितपरिज्ञानात् / पश्यन्ति चक्षुरिन्द्रियभावात् / एवपोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते किं जाणंति पासंति आहारंति माहारयन्ति / सन्त्येकके ये जानन्ति पूर्ववन्न च पश्यन्ति उदाहु न जाणंति न पासंति आहारंति गोयमा ! न जाणंति न दर्शनस्यान्धकारादिना अनाभोगेन वा व्याहत त्वात् / तथा सन्त्येकके पासंति आहारंति / एवं जाव तेइंदिया / चउरिंदियाणं पुच्छा, ये न जानन्ति मिथ्याज्ञानतया सम्यक् परिज्ञाना-भावात् / पश्यन्ति गोयमा ! अत्थेगइयान जाणंति पासंति आहारंति, अत्थेगतिया पुनश्चक्षुरिन्द्रिययोगात् / तथा सन्त्येकके ये न जानन्ति / नजाणंति न पासंति आहारंति / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मिथ्याज्ञानित्वान्न च पश्यंति पूर्ववत् / एवमाहारयन्ति लोमाहारापेक्षया पुच्छा / गोयमा ! अत्थेगतिया जाणंति पासंति आहारंति त्वेवं भावनां सन्त्येकके तिर्यक् पंचेन्द्रिया ये लोमाहारमपि जानन्ति अत्यंगतिया जाणंतिनपासंति आहारंति अत्थेगतियानजाणंति विशिष्टावधिज्ञानपरिकलितत्वात् / पश्यन्ति / तथाविधक्षयोपशमपासंति आहारंति, अत्थेगतिया नजाणंतिनपासंति आहारंति। भावत इन्द्रियपाटदस्यातिविशुद्धत्वात् / एवमाहारयन्ति / यथा सन्त्येकके ये जानन्ति पूर्ववत् / न च पश्यन्ति तथा विधस्येन्द्रियपाटएवं मणुस्सावि / वाणमंतरजोइसिया जहा णेरइया / वस्याऽभावात् / तथा सन्त्येकके न जानन्ति पश्यन्ति तथारूपपाटवावेमाणियाणं पुच्छा 1 गोयमा ! अत्थेगतिया जाणंति पासंति भावादिति एवं मनुष्याणामपि लोमाहारप्रक्षेपाहारौ प्रतीत्य चतुर्भगी आहारंति अत्थेगतिया न जाणंति न पासंति आहारंति / से भावनीया / बाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया / नैरयिकावधिरिव केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइवेमाणिया अत्थेगतिया जाणंति पासंति व्यन्तरज्योतिष्कावधिरपि मनोभक्षित्वेऽप्या हारपुद्रलानामआहारंति / अत्थेगतिया न जाणंति न पासंति आहारंति ? विषयत्वात् / वेमाणियाणं पुवंति / वैमानिकानाम्पृथक् सूत्रं . गोयमा ! वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा माई मिच्छदिट्ठी वक्तव्यं / वेमाणियाणं भंते!जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हंतिते किं जाणंति उववन्नगाय अमाईसम्मदिट्ठीउववन्नगाय / एवं जहा इंदियउद्देसे पासंति उदाहु न जाणंति न पासंति आहरंति इति / भगवानाह पढमे मणिए तहा भाणियध्वं जाव से तेणटेणं गो. एवं दुचइ / / गोयमेत्यादि / माया पूर्वभवकृता विद्यते येषान्ते मायिनो मायया हि टी. आभोगनिर्वर्तितो यदा मनःप्रणिधानपूर्वमाहारं गृण्हाति यथा तथा वादररूपकृतया कलुषकर्मप्रादुर्भावः / कलुषे च शेषकालमनाभोगनिवर्तितःसचलोमाहारोऽवसातव्यः / एवं शेषाणामपि कर्मण्युदयमागते भवप्रत्युदयादप्युपजायमानोऽवधि तिसमीचीनो जीवानामाभोगनिर्वर्तितोऽनाभोग निर्वर्तितश्चाहारो भावनीयः / भवति / एते च सम्यग्दृशो वेदितव्याः तथामिथ्याविपर्यस्ता नवरमेकेन्द्रियाणामतिस्तोका पटुमनोद्रव्यलब्धि संपन्नत्वात् / पटुतर | दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषांन्ते मिथ्यादृष्टयः / आभोगो नोपजायते / इति तेषां सर्वदानाभोगनिर्वर्तित एवाहारो नपुनः मायिनश्च मिथ्यादृष्टयश्च मायिमिध्यादृष्टयस्ते च ते उपपन्नाश्च कदाचिदप्याभोगनिवर्तितः / अधुनाहार्यमाणपुगलविषये ज्ञानदर्शने | मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नास्त एव स्वार्थिकक प्रत्ययविधानात् Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 536 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार मायिमिथ्यादृष्टययुपपन्नकास्ते चोपरितनोपरितनौवेयक-पर्यवसाना आह च मूलटीकाकारः / ते जानन्ति आहारयंति च विशुद्धत्वाविज्ञेयाः / तेषां यथायोगमवश्यं मिथ्यादृष्टित्वस्यमायित्वस्य च भावात्। दवधेरिन्द्रियविषयस्य चातिविशुद्ध-वात्पश्यत्यपि इति / तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्ट-युपपन्नकास्ते चानुत्तरविमानवासिनस्ते- अत्रेन्द्रियविषयस्येति इन्द्रियपाटव स्येतिभावः / उपसंहारवाक्यं षामवश्यं सम्यग्न्दृष्टित्वं पूर्वानंतरभवे नितरां प्रतनुक्रोधमानमाया प्रतीतार्थ / / लोभत्वस्योप-शान्तकषायत्वस्य च भावात् / आह च मूलटीकाकारः सम्प्रत्येकेन्द्रियशरीरादीनामधिकारमभिधित्सुराह॥ (ये माणिया माइमिच्छदिट्ठी उववन्नगा जाव उवरिमगे वेज्जा नेरइयाणं भंते ! किं एगिदियसरीराइं आहारंति जाव अमायिसम्मदिट्ठी उववन्नगा) अनुत्तरा एव गृह्यन्ते इति / एवं जहेत्यादि / पंचिंदियसीराइं आहारंति ? गोयमा ! पुटवभावपन्नवणं एव मुक्तेन प्रकारेण प्राक् यथा इन्द्रियसत्के प्रथमोद्देशके भणितं तथा पडुन एगिदियसरीराइं पि आहारंति जाव पंचिंदिय सरीराई पि भणितव्यं / तच्च तावत्यावत्सर्वान्तिमं / से एणमित्यादिना निगमनवाक्यं आहारंति। पडुप्पन्नभावपन्नवणं पडुच नियमा पंचिंदियसरीराई तच्चैवं पि एवं जाव थणियकुमारा / पुढविकाइ-याणं पुच्छा, गोयमा! तत्थ णं जे ते मायिमिच्छदिविउववनगा तेणं न याणंति न पुथ्वभावपन्नवणं पडुच एवं चेव पडुप्पन्नभावपन्नवणं पडुच्च पासंति आहारंति तत्थ णं जे ते अमायिसम्मदिवि उवव-नगा नियमा एगिदियसरीराइं आहार-ति / बेइंदिया पुष्वभावपन्नवणां तेणं दुविहा पण्णत्ता / तं अणंतरोववन्नगा परंपरोव पडुच एवं चेव पड़प्पन्न-भावपन्नवणं पडुब नियया वनगा य / तथ्य णं जे ते अणंतरोववन्नगा ते न याणंति न बेइंदियसरीराइं आहारंति / एवं जाव चउरिदिया जाव पासंति आहारंति / तत्थ णं जे ते परंपरोववन्नगा ते दुविहा पुय्वभावपन्नवणं पडुच एवं पडुप्पन्नभावपन्नवणं पडुच नियमा पण्णत्ता तिं. पजत्तगाय अपज्जत्तगाय तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा जस्स जइ इंदिया तस्स इंदियसरीराइं ते आहारंति / सेसं ते न याणंति न पासंति आहारंति / जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा जहा नेरइया जाव वेमाणिया / / पण्णत्ता / तं. उवउत्ताच अणुवउत्ताय / तत्थणजे ते अणुवउत्ता ते नयाणंति न पासंति आहारंति / तत्थ णं जे ते उव उत्ता ते टी० / / नेरइयाणं भंते ! इत्यादिप्रश्रसूत्रं सुगमं निर्वचनसूत्र माह / गोयमेत्यादि / पूर्वोऽतीतो भावस्तस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा जाणंति पासंति आहारंति से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ / ताम्प्रतीत्य एकेन्द्रियशरीराण्यपि यावत्करणात् द्वित्रिचतुरिन्द्रिय अत्थेगइया न जाणंतिन पासंति आहारंति अत्थेगइया जाणंति शरीरपरिग्रहः / पंचेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्ति / इयमत्र भावना ।यदा पासंति आहारंति इति / तेषामाहार्यमाणानां पुद्गलानामतीतोभावः परिभाव्यते तदा ते अस्यायमर्थः / सूत्रे ये ते मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नका उपरि किंचित्कदाचित् एकेन्द्रियशरीरतया परिणता आसीरन् / कदाचित् तनोपरितनोपरिगवेयकपर्यवसाना इत्यर्थः / ते मनोभक्ष्या द्वीन्द्रियशरीरतया परिणता आसीरन् / कदाचित् त्रीन्द्रियशरीरतया हारयोग्यान्पुद्गलान् न जानंति अवधिज्ञानेन तदेवावधे स्ते- कदाचिच्चतुरिन्द्रियशरीरतया कदाचित्पञ्चेन्द्रियशरीरतया ततो यदि षामविषयत्वात् / न पश्यन्ति चक्षुषा तथाविधपाटवाभावात् / पूर्वभाव इदानीमध्यारोप्य विवक्ष्यते तदा नैरयिकाएकेन्द्रियशरीराण्यपि येऽप्यमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नका अनुत्तरविमानवासिन इत्यर्थः। ते द्विधा यावत्प-ञ्चेन्द्रियशरीराण्यप्याहारयन्तीति भवति / पडुप्पन्नभावपन्नवणं अनन्तरोपपन्नकाः परम्परोपपन्नकाश्च / प्रथमसमयोत्पन्ना पडुचेत्यादि / प्रत्युत्पन्नो वार्तमानिकः स चासौ भावश्च प्रत्युत्पन्नअप्रथमसमयोत्पन्नाश्चेत्यर्थः / अत्र येते अनन्तरोपपन्नकास्तेन जानन्ति भावस्तस्य प्रज्ञापना तां प्रतीप्य नियमादवश्यतया पंचेन्द्रियशरीन पश्यन्ति प्रथमसमयोत्पन्नतयाऽवधिज्ञानोपयोगस्य चक्षुरिन्द्रियस्या- राण्याहारयन्ति / कथमिति चेदुच्यते / इह प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनां भावात् / किन्त्वेवमेवाहारयति / तत्र ये ते परम्परोपन्नकास्ते करोति नय ऋजुसूत्रो न शेषा नैगमादयः / ऋजुसूत्रश्च क्रियमाणं द्विविधास्तद्यथा पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च / तत्र येते अपर्याप्तकास्तेन कृतमभ्यवहियमाणमभ्यवहृतं परिणम्यमाणं परिणतमभ्युपगच्छति / जानन्तिनच पश्यन्ति पर्याप्तानाम-संपूर्णत्वेनावध्याधुपयोगाभावात् / अभ्यवह्रियमाणाश्च पुद्गलास्ते उच्चयन्ते ये स्वशरीरतया परिणम्यमाना ये ऽपि पर्याप्तास्ते ऽपि द्विविधास्तद्यथा उपयुक्ता अनुपयुक्ताश्च / तत्र ये वर्तन्ते / अभ्यवहियमाणं चाभ्यवहृतं परिणम्यमानञ्च परिणतमिति ते उपयुक्तास्ते जानन्ति अवधावनंशतो यथाशक्तिनियमेन ज्ञानस्य तन्मतेन शरीर-मेवाभ्यवहियते / स्वशरीरञ्च तेषां पंचेन्द्रियशरीरातेस्वविषपरिच्छेदाय प्रवृत्तिसंभवात् / पश्यन्ति चक्षुषा इन्द्रिय-पाटवस्य षामत उक्तं नियमात्पञ्चेन्द्रियशरीराण्याहारयन्तीति / एवमसुरकुमातेषामतिविशिष्टत्वात् / ये त्वनुपयुक्तास्ते न जानन्ति न च पश्यन्ति रादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः / पृथिवीअनुपयुक्तत्वादेव / उपयुक्ता अपि कथं मनोभक्ष्याहारयोग्यान्पुद्रलान् कायिकसूत्रे प्रत्युत्पन्नभावप्ररूपणाचिन्तायां नियमादे केन्द्रियजानन्ति इति चेदुच्यते / इहावश्यकप्रथमपीठिकायामवधिज्ञाना- शरीराण्याहारयन्तीति वक्तव्यं / तेषामेकेन्द्रियतया तच्छरीराणामेधिकारेऽभिहितं " संखेजकम्मदव्वे लोए धोऊणयं पलियं" / / केन्द्रियशरीरत्वात् / एवं द्वीन्द्रियसूत्रे नियमाद्वीन्द्रियशरीराण्याअस्यायमर्थः / कार्मणशरीरद्रव्याणि पश्यन् क्षेत्रतोलोकस्य संख्येयान् हारयन्तीति वक्तव्यं / त्रीन्द्रियसूत्रे नियमात्त्रीन्द्रियशरीराणि भागान्पश्यन्ति / कालतः स्तोकाः पल्योपमं यावत् अनुत्तरास्तु सम्पूर्णा चतुरिन्द्रियसूत्रे नियमाचतुरिन्द्रिय शरीराणीति / तिर्यपञ्चेन्द्रिया लोकनाडीम्पश्यन्ति / " सम्भिन्नलोगनालिलिंपासन्ति अनुत्तरधे वा मनुष्या व्यंतरज्यो-तिष्कवैमानिकाश्च नैरयिकवद्वक्तव्याः तथाचाह " इति वचनात् / ततस्ते मनोभक्ष्याहारयोग्यानपि पुद्गलान् जानन्ति। / (पुढवीकायाणं पुच्छा) इत्यादि / प्रज्ञा प०२८ / / Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 537 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार अधुना लोमाहाराधिकारं विभावयिषुरिदमाह // नेरझ्या णं भंते ! किं लोमाहारा पक्खेवाहारा ? गोयमा ! लोमाहारा नो पक्खेवाहारा / एवं एगिंदिया सवे देवा य माणियव्वा जाव वेमाणिया / बेइंदिया जाव मणुस्सा लोमाहारा विपक्खेवाहारा वि // (नेरइयाणमित्यादि) सुगमं नवरं नैरयिकाणां प्रक्षेपाहारो न भवतीति वैक्रियशरीराणां तथा स्वभावत्वात् लोमाहारोऽपि च पर्याप्तानामवसेयो नापयप्तिानामिति // (एवमेगिंदिया इत्यादि) एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेण एकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवन-स्पतयः सर्वे देवाश्चासुरकुमारादयो यावद्वैमानिका भणितव्या-स्तत्रै केन्द्रियाणां प्रक्षेपाहाराभावो मुखाभावात् / असुरकुमारा-दीनां वैक्रियशरीरितया तथा स्वभावात् द्वित्रिचतुरिन्द्रिया-स्तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया मनुष्याश्चलोमाहारा अपि वक्तव्याः प्रक्षेपाहारा अपि उभयरूपस्याप्याहारस्य तेषां संभवात्। चरममर्थाधिकारमभिधित्सुराह॥ नेरइया णं भंते ! किं ओयाहारा मणमक्खी ? गोयमा ! ओयाहाराणो मणभक्खी एवं सव्वे उरालियसरीरा वि देवासवे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि / तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं मणभक्खणं करित्तए तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेवजे पोग्गलाइट्टाकताजावमणामा तेसिंमणभक्खत्ताए परिणमंति से जहा नामए सीता पोग्गला सीतं पप्पसीतं चेव अतिवइत्ताणं चिटुंति उसिणावा पोग्गला उसिणं पप्पउसिणं चेव अतिवइत्ताणं चिटुंति एवामेव तेहिं मणभक्खणे कए समाणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति // (नेरइया णं भंते! इत्यादि) ओज उत्पत्तिदेशे आहार-योग्यपुगलसमूहः / ओज आहारो येषान्ते ओजआहारा मनसा भक्षयन्तीत्येवं शीला मनोभक्षिणः। तत्रनैरयिका ओज आहारा भवन्ति / अपर्याप्तावस्थायामोजस एवाहारस्य संभवात् मनोभक्षिणस्त्वेते न भवन्ति मनोभक्षणलक्षणो ह्याहारस्स उच्यते / ये तथाविधशक्तिवशान्मनसा स्वशरीरपुष्टिजनकाः पुद्गला अभ्यवह्रियन्ते। यदभ्यवहरणानन्तरञ्च दृष्टपूर्वः परमसन्तोष उपजायते नचैतन्नैरयिकाणामस्ति / प्रतिकूलकर्मोदयवशतस्तथारूपशक्यभावादेवं (सव्वे उरालियशरीरावि) इति / एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेणौदारिकशरीरिणोऽपि सर्वे पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्यवसाना वक्तव्याः / तद्यथा / (पुढधिकाइया णं भंते ! किं ओयाहारा मणभक्खी ? गोयमा ! ओयाहारा नो मणभक्खी त्यादि) देवा इत्यादि देवास्सर्वे यावद्वैमानिका ओजआहारा अपि मनोभक्षिणोऽपि वक्तव्याः / तद्यथाअसुरकुमाराणं मंते ! किं ओयाहारामणोभक्खी? गोयमा! ओयाहारा वि मणभक्खी विजाव वेमाणियाणं पुच्छा गोयमा! ओयाहारा दिमणभक्खी वि॥ सम्प्रति मनोभक्षित्वं देवानां यथा भवति तथोपदर्शयति / तत्र तेषु संसारिषु जीवेषु मध्ये णमिति वाक्यालंकारे / येमनोभक्षिणो | देवास्तेषां णमिति प्राग्वत् / मनः प्रस्ता-वादाहारविषयं समुत्पद्यते। के नोल्लेखेनेत्यत आह इच्छामो अभिलषामो णमिति पूर्ववत् मनोभक्षिणमिति मनसा भक्षणं मनोभक्षणं कर्तुमिति तत एवं तैर्मनसि कृतव्यवस्थापितमनो-भक्षणे सति तथा विधशुभकर्मोदयवशात् क्षिप्रमेव तत्कालमेवेति भावः / ये इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञाः मन आपापुद्गलास्तेषां व्याख्यानं प्राग्वात् / तेषां देवानां मनोभक्षतया परिणमन्ति कथमित्यत्रैव दृष्टान्तमाह (से जहानामए) से शब्दोऽथशब्दार्थः सथात्र वाक्योपन्यासे यथा नामेति विवक्षिताः शीताः पुद्गलाः शीतं शीतयोनिकं प्राणिनं प्राप्य ते शीतत्वमेवातिव्र ज्यातिश-येन गत्वा तिष्ठन्ति किमुक्तं भवति / विशेषतश्शीतीभूय शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्त इति। उष्णा वा पुद्गला उष्णम् उष्णयोनिकं प्राप्य उष्णमेव उष्ण-त्वमेवातिव्रज्यातिशयेनगत्वा तिष्ठन्ति विशेषतस्स्वरूपलाभसम्पत्त्या तस्य सुखित्वायोपतिष्ठन्त इति भावः / एवमेव अनेनैव प्रकारेण तैर्देवैः प्रागुक्तरीत्या मनोभक्षणे कृते सतिस तेषां देवानामिच्छा मन आहारविषयेच्छा प्रधानमनः क्षिप्रमेवापैति तृप्तिभावान्निवर्तत इति भावः / इयमत्र भावना यथा शीत पुद्रलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः सुखित्वायोपकल्पन्ते उष्ण पुद्गला वा उष्णयोनिकस्य तथा देवैरपि मनसाऽभ्यवह्रियमाणाः पुद्रला-स्तेषांतृप्तये परमसंतोषाय चोपकल्पन्ते तत आहारो विषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवतीति / अत्र च ओज आहारादिविभागप्रतिपादिका इमास्सूत्रकृताङ्गनियुक्तिगाथाः / सरीरेणोसयाहारो तयादिफासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइनायव्वो ||1|| ओयाहार जीवा सव्वे अपजत्तगा मुणेयव्वा। पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होति भइयव्वा / / 2 / / एगिदियदेवाणं णेरइयाणं च णत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाणपक्खेवा / / 3 / / लोमाहार एगिदियाओ णेरइयसुरगणा चेव। सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवओ चेव ||4|| ओयाहारामणभक्खिणो यसव्वे विसुरगणा हॉति। सेसा हवंति जीवा लोमे पक्खेवओ चेव ||5|| अथक आहार आभोगनिर्वर्तितःको वाऽनाभोगनिर्वर्तितः इतिचेदुच्यते। देवानामाभोगनिर्वर्तित ओज आहारः स चापर्याप्तावस्थायां लोम आहारोऽपि अनाभोगनिवर्तितस्स चपर्याप्तावस्थायां आभोगनिर्वर्तितो मनोभक्षणलक्षणः स च पर्याप्तावस्थायां आभोगनिर्वर्तितो मनोभक्षणलक्षणनिर्वर्तित आहारोऽपर्याप्तावस्थायां लोमाहारः पर्याप्तावस्थायां नैरयिकवानां लोमाहारो नैरयिकाणां लोमाहार आभोग-निर्वर्तितोऽपि द्वीन्द्रियादीनां मनुष्यपर्यवसानानां यः प्रक्षेपाहारस्स आभोगनिर्वर्तित एवेति॥ नैरयिकादिषु आहारपुद्गलानां चयोपचयादिजीवशब्दे। आहारपदस्य द्वितीये उद्देशोऽर्थाधिकाराः। आहारभवियसन्नीलेस्सादिट्ठीय संजयकसाए। नाणाजोगुवओगे वेदेयसरीरपत्ति ||शा प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारो, द्वितीयो भव्याधिकारो भव्यविशेषिताहाराधिकारः / एवं तृतीयः संज्ञाधिकार, श्चतुर्थो लेश्याधिकारः, पंचमो दृष्ट्यधिकारः, षष्ठःसंयताधिकारः, सप्तमः Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 538 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ / आहार कषायाधिकारो, ऽष्टमो ज्ञानाधिकारो, नवमो योगाधिकारो, दशम उपयोगाधिकार, एकादशो वेदाधिकारो, द्वादशः शरीराधिकार, वयोदशः पर्याप्त्यधिकारः / इह भव्यादिग्रहणेन तत्प्रतिपक्षभूता अभव्यादयोऽपि सूचिता द्रष्टव्याः / तथैवाग्रे वक्ष्यमाणत्वात् // तत्र प्रथमं सामान्यत आहाराधिकारं विभावयिषुरिदमाह। जीवे णं मंते ! किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए / एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए / सिद्धे णं मंते ! किं आहारण अणाहारए? गोयमा ! णोआहारए अणाहारए / जीवेणं भन्ते! इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम भनवानाह / गोयमे त्यादि गौतम ! स्यात्कदाचिदाहारकः कदाचिदनाहारकः कथमिति चेदुच्यते / विग्रहगतौ के वलसमुद्घाते शैलेश्य वस्थायां सिद्धत्वे चानाहारक: शेषास्ववस्थास्वाहारक उक्तं च / " विग्गहगइमावन्ना, केवलिणो समोहया अजोगी य / सिद्धा यअणाहारा, सेसा आहारगा जीवा" // 1 // तदेवं सामान्यतो जीवचिन्तां कृत्वेदानी नैरयिकादिचतुर्विंशतिदण्डक क्रमेणा-हारानाहारकचिन्तां करोति ( सिद्धेणं भन्ते ! किं आहारेत्यादि ) सुगमं तदेवं सामान्यतो जीवपदे नैरयिकादिषु चैकवचनेन आहारकानाहारकत्वचिन्ता कृता / / सम्प्रति बहुवचनेन तां चिकीर्षुराह|| जीवाणं भंते ! किं आहारया अणाहारया ? गोयमा ! आहारया वि अणाहारया वि / नेरइयाणं पुच्छा? गोयमा ! सटवे विताव होज्जा / आहारगा / 1 अहवा आहारगाय अणाहारगे य / / अहवा आहारगा य अणाहारगा य / 3 / एवं जाव वेमाणिया / नवरं / एगिदिया जहा जीवा 1 सिद्धाणं पुच्छा / गोयमा ! नो आहारगा अणाहारगा। प्रश्रसूत्रं सुगमं / भगवानाह / गौतम ! आहारका अपि अना हारका अपि सदैव बहुवचनविशिष्टा उभये ऽपि लभ्यन्ते इति भावः / तथाहि / विग्रहगतिव्यतिरेकेण शेषकालं सर्वेऽपि संसारिणो जीवा आहारका विग्रहगतिस्तु क्वचित्कदा-चित्कस्यचित्तु भवतीति सर्वकालमपि लभ्यमाना सम्प्रति निय तानामेव लभ्यते तत आहारकेषु बहुवचनं अनाहारका अपि सिद्धास्सदैव लभ्यन्ते ते चाभव्येभ्यो ऽनन्तगुणाः / अन्य चिसर्वकालमेकैकस्य निगोदस्य प्रतिसमयसंख्येयभागो विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते ततो ऽनाहारकेष्वति बहुवचनं नैरयिकसूत्रे सर्वे ऽपि तावद्भवेयुराहारकाः 1 किमुक्तं भवति / कदाचिन्नैर-यिकाः सर्वेऽप्याहारका एव भवन्ति न त्वेकोऽप्यनाहारकः कथमितिचेदुच्यते। उपपातविरहात्तथाहि / नैरयिकाणामुपपातविरहो द्वादश मुहूर्ता एतावति चान्त रे पूर्वोत्पन्न-विग्रहगत्यापन्ना अपि आहारका जाता अन्यस्त्वनुत्पद्यमानत्वात् / अथवा आहारका अनाहारकपदे बहुवचनमनाहारकपदे एकवचनमिति भावः / कथमेष भङ्गो घटामियर्तीति चेदुच्यते इह नरकेषु जन्तुः कदा चिदेक उत्पद्यते कदाचिद् द्वौ कदाचित्त्रयश्चत्वारो यावत्संख्याता असंख्याता वा / तत्र यदा एक उत्पद्यते सो ऽपि विग्रहगत्यापन्नः प्रतिसमयमसंख्यातानां वनस्पतिषु प्रतिसमयमनंतानां विग्रहगत्योत्पाद्यमानानां लभ्य-मानतया अनाहारकपदे ऽपि सदैव तेषु बहुवचनस्य सम्भवात् / तथाचाह (एवं जाव वेमाणिया नवरं एगिदिया जहा जीवा इति) // एवं नैरयिकोक्तभङ्गप्रकारेण शेषा अप्यसुर-कुमारादयस्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः / नवरमेकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपाः प्रत्येक यथा उभयत्रापि बहुवचनेन जीवा उक्तास्तरा वक्तव्याः / सिद्धेष्वेक एवं भंगो ऽनाहारका इति सकलशरीरप्रहाणितस्तेषामाहारासंभवात् / बहुनाञ्च सदाभावादिति / गतं प्रथमद्वारम् / द्वितीयं भव्यद्वारमभिधित्सुराह / / भवसिद्धिएणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए एवं जाव बेमाणिए। भवसिद्धिएणं भंते! इत्यादि / भवैः संख्यातैरनन्तैर्वा सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्यस्स्कदाचिदनाहारकः / विग्रहगत्याद्यवस्थायां भवति अन्ये च पूर्वोत्पन्नतया आहारका अभवन् / तदा एष भङ्गो लभ्यते / तृतीयभङ्गमाह-अहवा आहारगा य अणाहारगा य / अत उभयत्रापि बहुवचनं एष च भंगो यदा बहवो विग्रहगत्योत्पद्यन्ते तदा द्रष्टव्यः / शेषभंगकास्तु न संभवन्ति आहारकपदस्य नैरयिकाणां सर्वदैव बहुवचनविषयतया लभ्यमानत्वात् / एवमसुरकुमारादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु द्वीन्द्रियादिषु च वैमानिकपर्य्यन्तेषु प्रत्येक भङ्गत्रिकं भावनीयम् / उपपातविरहभावात् / प्रथम भङ्गस्य एकादिसंख्यतयोत्पत्तेः / शेषस्यच भङ्गद्वयस्य सर्वत्रापिलभ्य-मानत्वात् / एकेन्द्रियेषु पुनः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपेषु प्रत्येकमेकशेष एवैको भंगः / आहारका अपिअनाहारका अपि पृथिव्यप्तेजोवायुषु प्रत्येक जायमाना अनाहारकाः शेषकालं त्वाहारका एवं चतुर्विंशति दण्डकेऽपि प्रत्येकं वाच्यं / तथाचाह- एवं जाववेमाणिए 1अत्रच सिद्धिविषमयं सूत्र न वक्तव्यं मोक्ष-पदप्राप्ततया तस्य भवसिद्धिकत्वायोगात्।। अत्रैव बहुवचनेनाहारकानाहारकत्वचिन्तां चिकीर्षुराह // भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहार गा / जीवेगिंदियज्जो तियं भगो अभवसिद्धिए वि / एवं चेव नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिएणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! नो आहारए अणाहारए एवं सिद्धे वि 1 नो भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया णं भंते / जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा! नो आहारगा अणाहारगा एवं सिद्धा वि // (भवसिद्धिएणं भंते ! इत्यादि) अत्राप्याहारद्वार इव जीव पदे एकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमुभयत्र च बहुवचनेनैक एव भंगो यथा आहारका अपि अनाहारका अपि शेषेषु नैरयिकादिषु स्थानेषु भंगत्रिक कदाचित्केवला आहारका न त्वेकोऽप्यनाहारकः / अथवा कदाहारकः एकोऽनाहारकः / अथवा / आहार का अपि अथवा ऽनाहारका अपि / उभयत्रापि बहुवचनं / तथा चाह / "जीवे गिदियवजो तियभंगो" इति / यथाच भवसिद्धिके एकस्मिन् बहुषु चाहारकानाहारकत्वचिन्ता Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 539 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार कृता तथा अभवसिद्धिकेऽपि कर्तव्या / उभयत्रापि एकवचने न भंगसंख्यायास्सर्वत्रापि समानत्वात् / तथा चाह / अभवसिद्धिए एवं चेव / अभवसिद्धिकोऽपि भवसिद्धिक इव एकवचने बहुवचनेन वक्तव्यमिति / यस्तु न भवसिद्धिको नाप्यभवसिद्धिकः स सिद्धः स हि भवसिद्धिको न भवति भवातीतत्वात् अभव-सिद्धिकस्तु रूळ्या यस्सिद्धिगमनयोग्यो व भवति स उच्यते ततो भवसिद्धिकोऽपिन भवति सिद्धिप्राप्तवात् / तथाच सति नोभव-सिद्धि कानोअभवसिद्धि कत्वचितायां द्वे एव पदे / तद्यथाजीवपदं सिद्धपदश्च उभयत्राप्येकवचने एक एव भंगो ऽनाहारक इति बहुवचने ऽप्येक एवानाहारक इति / संज्ञिद्वारम्।। सन्नीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए / एवं जाव वेमाणिए नवरं / एगिदियविगलिंदिया न पुच्छिज्जेति / सन्नीणं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा गोयमा ! जीवादिओ तिगभंगो जाव वेमाणिया // (सन्नीणं भंते !) इत्यादि / / प्रश्नसूत्रं सुगम निर्वचनसूत्रमाह / गोयमेत्यादि / विग्रहगत्या ऽनाहारकः शेषकालमाहारकः / ननु संज्ञी समनस्तु उच्यते विग्रहगतौ च मनो नास्ति ततः कथं संज्ञीसन्ननाहारको लभ्यते उच्यते इह विग्रहगत्यापन्नोऽपि संज्ञ-यायुष्कवेदनात्संज्ञी व्यवहियते यथा नारकायुष्कवेदनान्नारको न कश्चिद्दोषः / एवमित्यादि। एवं मुपदर्शनेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकाऽवैमानिकसूत्रं, न वरं मेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न प्रष्टव्याः / किमुक्तं भवति तद्विषयसूत्रं सर्वथा न वक्तव्यं तेषाममनस्कतया संज्ञित्वायोगात् / बहुवचनचिंतायां जीवपदे नैरयिकादिपदेषु च प्रत्येकं सर्वत्र भङ्गत्रयं तद्यथा-सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः 1 अथवाऽऽहारकाश्च अनाहारकश्च 2 अथवाऽऽहारकाश्च अनाहारकाच 3 तथाचाह 1"जीवाइयो तियभङ्गो जाव वेमाणिया' इति / तत्र सामान्यतो जीवपदे प्रथमभंगे सकललोकापेक्षया संज्ञित्वेनोत्पातविरहाभावात् / द्वितीयभंगेएकस्मिन् संज्ञिनि विग्रहगत्यापन्ने तृतीयभंगे बहुषु संशिषु विग्रहगत्यापन्नेषु, एवं नैरयिकादिपदेष्वपि भंगभावना कार्या।। असंज्ञिद्वारम्॥ असन्नी णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए एवं रइए जाव वाणमंतरे नवरं जोइसियवेमाणियान पुच्छिति / असन्नीणं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! आहारगा वि अणाहारगा वि एगोमंगो / असन्नीणं भंते ! णेरड्या किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! आहारगा वा अणाहारगा वा अहवा अहारए य आणाहारए य अहवा आहारए य / अहवा आहारगा य अणाहारए य / अहवा आहारगा य अणाहारगा य एवं एते छभंगा / एवं जाव थणियकुमारा, एगिदियेसु, अभंगकं बेइंदिय जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस तियभंगो मणुस्सवाणमतरेसु छभंगा नो सन्नी नो असन्नीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए। एवं मणुस्से वि / सिद्धे अणाहारए पुहुत्तेणं नो सन्नी नो असन्नी जीवा आहारगा वि अणाहारगावि मणुस्सेसु तियभंगो सिद्धा अणाहारगा। (असन्नीणं भंते ! इत्यादि ) अत्रापि विग्रहगतावनाहारक: शेषकालमाहारकः (एवं जाव वाणमंतरे इति) एवं सामान्यतो जीवपद इव चतुर्विशतिदंड कक्रमेण तावद्वक्तव्यं / यावद्वानव्यन्तरो वानव्यंतरविषयसूत्रं / अथ नैरयिका भव नपतयो वानव्यन्तराश्च कथमसंज्ञिनो येनासंज्ञिसूत्रे तेऽपि पठ्यंत इति उच्यते / इह नैरयिका भवनपतयो व्यन्तराश्च संज्ञिभ्योऽप्युत्पद्यन्ते / संज्ञि-भ्योऽपि असंज्ञिभ्यश्चोत्पद्यमाना असंज्ञिन इतिव्यवह्रियन्ते / संज्ञिभ्य उत्पद्यमानाः संज्ञिनस्ततो संज्ञिसूत्रेऽपि ते उक्तप्रकारेण पठ्यन्ते / ज्योतिष्कदैमा निकास्तुसंशिभ्य एवोत्पद्यन्ते / नासंज्ञिभ्यः असंज्ञित्वव्यवहाराभावादिह तेन पठ्यन्ते / तथाचाह / "जोइसियवेमाणिया नपुच्छिजंति'' किमुक्तं भवति / तद्विषयसूत्रं न वक्तव्यं तेषामसंज्ञित्वाभावादिति / बहुवचनचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे एक एव भंगस्तद्यथा आहारका अपि अनाहारका अपि प्रतिसमयमे के न्द्रिया-णामनन्तानां विग्रहगत्यापन्नानामत एवानाहारकाणां सदैव लभ्यमानतयाहारकपदेऽपि सर्वदा बहुवचनभावात् / नैरयिकपदेषड्भंगाः / तत्र प्रथमो भंग आहारका इति अयं च भंगो यदाऽन्यो संज्ञी नारक उत्पद्यमानो विग्रहगत्यापन्नो न लभ्यते / पूर्वोत्पन्नास्त्वसंज्ञिनः / सर्वेऽप्या हारका जातास्तदालभ्यन्ते। द्वितीयोऽनाहारक इति एष यदा पूर्वोत्पन्नोऽ संज्ञी नारक एकोऽपि न विद्यते / उत्पद्यमानास्तु विग्रहगत्यापन्ना बहवो लभ्यते तदा विज्ञेयः / तृतीय आहारकश्च अनाहारकश्च द्वित्वेऽपि प्राकृते बहुवचनचिन्तायामेषोऽपि भंगस्समीचीन इत्युपन्यस्तः / तत्र यदा चिरकालोत्पन्न एको संज्ञी नारको विद्यते / अधुनोत्पद्यमानोऽपि विग्रहगत्यापन्न एकस्तदायं भंगः चतुर्थः आहारकश्चानाहारकाश्च एकश्चिरकालोत्पन्ने एकस्मिन्नसंज्ञिनि नारके विद्यमाने बहुष्वधुनोत्पद्यमानेषु असंज्ञिषु विग्रहगत्यापन्नेषु द्रष्टव्यः पंचमः आहारकाश्चानाहारकश्चायं चिरकालोत्पन्नेषु बहुषु असंज्ञिषु नारके षु अधुनोत्पद्यमाने विग्रहगत्यापन्ने एक स्मिन्नसंज्ञिनि विज्ञेयः / षष्ठः आहारकाश्चानाहारकाश्चैषु बहुषु चिरकालोत्पन्नेषूत्पद्यमानेषु चासंज्ञिषु वेदितव्यः। एवमेते षड्भंगा एवमुपदर्शितेन प्रकारेण एते षड् भंगास्तद्यथा / आहारक पदस्य के वलस्य बहुवचनेनैकः1१1 अनाहारकपदस्य केवलस्य बहुवचनेन द्वितीयः / आहारकपदस्यानाहारकपदस्य च युगपत्प्रत्येकमेकवचनेन तृतीयः / 3 / आहारकपदस्यैकवचनेन अनाहारकपदस्य बहुवचनेन चतुर्थः // 4 // आहारकपदस्य बहुवचनेन अनाहारकपदस्यैकवचनेन पञ्चमः / / 5 / / उभयत्रापि बहुवचनेन षष्ठः // 6 // शेषास्तु भंगा न सम्भवन्ति / बहु-वचनचिन्तायाः प्रक्रान्तत्वात् / एते च षड्भंगा असुरकुमारा-दिष्वपि स्तनितकुमारपर्यवसानेषु वेदित व्यास्तथा चाह "एवं जाव थणियकुमारा एगिदिएसु अभंगमिति' एकेन्द्रियेषु पृच्छिव्य-प्लेजोवायुवनस्पतिरूपेष्वभंगकं भंगकाभावः / एक एव भंग इत्यर्छः / सचाऽयं आहारका अपि अनाहारका अपि / तत्राहारका बहवः सुप्रसिद्धा अनाहारका अपि प्रतिसमयं पृथिव्यप्तेजो Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 540 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार वायवः प्रत्येकमसंख्येयाः / प्रतिसमयं वनस्पतयो ऽनन्ताः सर्वकालं लभ्यन्ते इति तेऽपि बहवः सिद्धाः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिंद्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु प्रत्येकं भंगत्रिकं / तद्यथा / आहारका अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च / अथवा आहारकाश्चानाहरकाश्च तत्र द्वीन्द्रियान् प्रतिभावना यदा द्वीन्द्रिय एकोऽपि विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते तदा पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽप्याहारका इति प्रच्छमो भंगः / यदा पुनरेको विग्रहगत्यापन्न स्तदा पूर्वे सर्वेऽप्याहारका उत्पद्यमानस्त्वेकोऽनाहारक इति / यदा तूत्पद्यमाना अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः / एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यक् पञ्चेन्द्रियेष्वपि भावना कार्या / मनुष्यव्यंतरेषु षड्भंगाः / ते च नैरयिकेषु च भावनीयास्तथा-चाह / "बेइंदियजावपंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु / तियभंगो मणूसवाणमंतरेसु छभंगा // 1 // " इति / नो संज्ञी नो असंज्ञी च केवली सिद्धश्च / ततो नोसंज्ञिनोअसंज्ञित्वचिन्तायां त्रीणि पदानितद्यथा / जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदश्च / तत्र जीवपदे सूत्रमाह'नो सन्नी नोअसन्नीण भंते! जीवे" इत्यादि / स्यात्कदादिदाहारकः केवलिनः समुद्घाताद्यवस्थाविरहे आहारकः / स्यात्कदाचिदनाहारकः / समुद्घातावस्थायां सिद्धत्वावस्थायां वा भावनीयं / सिद्धेअणाहारए इति / सिद्धेसिद्धविषये सूत्रे / अणाहारए इति वक्तव्यं (पुहुत्तणंति) पृथक्त्वेन बहुत्वेन चिन्तायामिति प्रक्रमः (आहारगा वि अणाहारगा वि इति) तत्राहारका अपि बहूनां के वलिनां समुद्घाता-द्यवस्थारहितानां सदैव लभ्यमानत्वात् / अनाहारका अपि सिद्धानां सदैव भावात्तेषां चानाहारकत्वादिति (मणुस्सेसु तियभंगो इति) मनुष्यविषयं भंगत्रिकं तद्यथा / आहारका एष भंगो यदा न कोऽपि के वली समुद्घाताद्यवस्थागतो भवति / अथवा / आहारकाश्चानाहारकश्च / एष भंगो एकस्मिन्केवलिनि समुद्घाताद्यवस्थागते सति लभ्यते अथवा आहार-काश्चानाहारकाश्च / एषु बहुषु केवलिषु समुद्घाताद्यवस्थागतेषु सत्सु वेदितव्यः / प्रज्ञा / लेश्याद्वारम्। सलेसेणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारएसिय अणाहारए एवं जाव वेमाणिए सलेस्सा णं भंते ! जीवां किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! जीवेर्गिदियवजो तियभंगो / एवं कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्साए वि ! जीवेगिंदिय तियभंगो तेउलेस्साए पुढविआउवणस्सइकाइयाणं छ भंगा सेसाणं जीवादिओ तियभंगो जेसिं अत्थितेउलेसा पम्हलेसाए सुक्कले-साएयजीवादिओ तियभंगो अलेस्साजीवा मणुस्सा सिद्धा एगत्तेण विपुहुत्तेण वि नो आहारगा || टीका / सामान्यतः सलेश्यसूत्रमाह / (सलेसणं भंते! जीवे इत्यादि) इदं सामान्यतो जीवसूत्रमिव भावनीयं / अत्रापि सिद्धसूत्रं वक्तव्यं सिद्धानामलेश्यत्वात् / बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पृथिव्यादिषु प्रत्येकमेक एव भंगस्तद्यथा / आहारका अपि अनाहारका अपि उभयेषामपि सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / शेषेषु तु नैरयिकादिषु प्रत्येकं भंग त्रिकं / तद्यथा। सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः 1 अथवाऽऽहाकाश्चा-नाहारकश्च 2 अथवा आहारकाश्च अनाहारकाच 3 | अमीषाञ्च भावना प्राग्वत्। तथाचाह / “जीवेगिंदियवज्जोतियभंगो इति' एवमित्यादि / एवं यथा सामान्यतः सलेश्यसूत्रमुक्तं तथा कृष्णलेश्याविषयमपि नीललेश्याविषयमपि कापोतलेश्या-विषयमपि सूत्रं च वक्तव्यं / सर्वत्र सामान्यतोजीवपदेएकेन्द्रियेषु च प्रत्येकमभङ्गक शेषपदेषु भङ्गत्रिकं / तेजोलेश्याविषयमपि सूत्रमेकत्वं प्राग्वत् बहुत्वं पृथिव्यप्वनस्पतिषुषड्भङ्गाः तेषु कथं तेजोलेश्यासंभव इति चेदुच्यते / भवनपतिव्यन्तरज्यो-तिष्कसौधर्मेशानांदेवानां तेजोलेश्यावतातत्रोत्पादभावात् / उक्तञ्चास्या एव भगवत्याः प्रज्ञापनायाश्चूण्णो "जेणं तेसु भवणवइ बाणमंतरजोइसियसोहम्मी साणया देवा // उववजन्ति तेणं तेउलेस्सा लब्भई?" इति / ते षड् भङ्गा इमे सर्वे आहारकाः // 1 // अथवा सर्वेऽनाहारकाः२ अथवा आहारकश्वानाहरकः३अथवा आहारकश्वाहारकाश्च 4 अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च 5 अथवा आहारकाश्चानाहारकाश्च / 6 / शेषाणां जीवपदादारभ्य सर्वत्रापि भङ्गत्रिकं / तथाचाह / (तेउलेस्साएपुढवी आउवणस्सइकाइयाणं छभंगा से साणं जीवाइओ तियभंगो इति) आह किं सर्वेषामविशेषेण जीवपदादारभ्य भङ्गत्रिक मुत केषां चिदत आह (जेसि अत्थि तेउलेसा इति) येषामस्ति तेजोलेश्या तेषामेव भङ्गत्रिकं वक्तव्यं नशेषाणां / एतेन किमावेदितं भवति / नैरयिकविषयं तेजोवायुविषयं द्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयञ्च तेजोलेश्यासूत्रं वक्तव्यमिति तथा पद्मलेश्यासूत्रं वक्तव्यमिति तथा पद्मलेश्या च येषां संभवति तद्विषयं तयोः सूत्रं वक्तव्यं तत्र पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च / तिरर्यक्पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येषु वैमानिकेषु च लभ्यते न शेषेष्विति / तयोः प्रत्येकं चत्वारि पदानि / तद्यथा / सामान्यतोजीवपदं तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिपदं मनुष्यपदंवैमा-निकपदञ्च सर्वत्राप्येकवचनचिन्तायां स्यादाहारक इति भंगो बहुवचन चिन्तायां भङ्गत्रिकं / तद्यथा / सर्वेऽपि तावद्भवे-युराहारकाः१अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च 2 अथवा आहारकाश्चानाहारकाच 3 / तथाचाह (पम्हलेसाए सुक्कलेसाए जीवाईओ तियभंगोत्ति) अलेश्या जीवास्ते चायोगिकेवलिनः सिद्धाश्च ततः स्यात्त्रीणि पदानि / तद्यथा / सामान्यतो जीवपदं मनुष्याः सिद्धाश्च / सर्वत्राप्येकवचनेन बहुचनेन चानाहारगा इति / / सम्प्रति सम्यग्दृष्टि द्वारम्॥ सम्मदिट्ठीणं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! सियआहारगा सिय अणाहारगा / बेइंदिय तेइंदिय चउरिदियछमंगा / सिद्धा अणाहारगा अवसेसाणं तियभंगा / मिच्छ दिट्ठीसु जीवे गिदियवओ तिय भंगो / सम्मा मिच्छदिट्ठीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! आहारए नो अणाहारए एवमे गिदियविगलिंदियवलं जाव वेमाणिए एवं पुहुत्ते वि / / सम्यग्दृष्टि श्वे होपशमिकसम्यक् त्वेन सास्वादनसम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकसम्यक्त्वेन क्षायिकसम्यक्त्वेन वा प्रतिप्रत्तव्यः सामान्यतउपादानात्तथैव चाग्रे भङ्गचिन्तायामपि करिष्यमाणत्वात् / तत्रोपशमिकसम्यग्दृष्ट्यादयः सुप्रतीताः वेदक सम्यग्दृष्टिः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पादयन् चरमग्रासमनुभवन्नवसे यः / एकत्वे सर्वेष्वपि जीवादिपदेषु प्रत्येकमेष भंगः स्यादाहा Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 541 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार रकः स्यादनाहारक इति नवरमत्र पृथिव्यादिविषयसूत्रन्न वक्तव्यं तेषां सम्यग्दृष्टित्वायोगात् उभयाभावो (पुढवाइएसु) इति वचनाद्रहुवचन-- विषयसूत्रं / सामान्यतो जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपीत्येष एव भंगः उभयेषामपि सदा सम्यग्द्रष्टीनां बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / नैरयिकभवनपतितिर्यक्रपंचे-न्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु प्रत्येकं भंगत्रिकं। तद्यथा कदाचित्सर्वेत्याहार का एव 1 कदाचिदाहारका एकश्चानाहारकः२ कदाचिदाहारका अनाहारकाश्च 3 द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु नो षड्भंगाः / ते च प्राग्वद्भावनीयाः / द्वीन्द्रियादीनां च सम्यग्द्रष्टित्वमपर्याप्तावस्थायां सम्भवति / सास्वादनसम्य-कत्वापेक्षया द्रष्टव्यं / सिद्धास्त्वनाहारकाः / एतेषां क्षायिक-सम्यक्त्वयुक्तत्वात्। तथा चाह (वेइंदियतेइंदियचतुरिदिएसु छ भंगा सिद्धा अणाहारगा अवसेसाणं तियभंगो) मिथ्यादृष्टिष्वपि एकवचने सर्वत्र स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं / बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येकमाहारका अपीति उभयेषामपि सर्वदैव तेषु पदेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वेनशेषेषुतु सर्वेषु स्थानेषु भंगत्रिकं सिद्धसूत्रं चात्र न वक्तव्यं / सिद्धानां मिथ्यात्वापगमादेतदेवाह / / " मिच्छादिट्ठिसुजीवेगिदियवज्जो तियभंगो सम्मामिच्छदिट्ठीणं भंते ! जीवे" || इत्यादि प्रश्रसूत्रं सुगमं / भगवानाह / गौतम! आहारको नो अनाहारकः कस्मादिति चेदुच्यतेइह संसारिणामनाहारकत्वं विग्रहगतौ न सम्यग् मिथ्यादृष्टिर्विग्रहगत्यभावतोऽनाहारकत्वाभावः। एवं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण सर्वत्रापि वक्तव्यं / नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्यास्तेषां सम्यग् मिथ्याष्टित्वासंभवात् / एवं बहुवचनेऽपि वक्तव्यं तद्यथा।। *सम्मा मिच्छ दिट्ठीणं मंते ! जीवा किं आहारगा ! गोयमा ! आहारगा नो आणाहारगा सम्मामिच्छदिट्ठीणं भन्ते ! नरेइया किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! आहारगा नो अणाहारगा / एवमेगिंदियविंगलिंदियवजा जाव वेमाणिया ||* इति // गतं दृष्टिद्वारम् / / सम्प्रति संयतद्वारम् / / संजएणं भंते! किं आहारए अणाहारए? गोयमा! सिथ आहारए सिय अणाहारए एवं मणुस्से वि / पुहुत्तेणं तियभंगो असंजए पुच्छा, गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए पुहुत्तेणं जीवेगिंदियवजो तियभंगो संजतासंजतेजीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे एते एगत्तेण विपुहत्तेण वि आहारगा नो अणाहारगा नो संजते नो असंजए नो संजयासंजए जीवे सिद्धे य एते एगत्तपुहत्तेण विनो अहारगा अणाहारगा // संयतत्वं मनुष्याणामेव तत्र द्वे पदे / तद्यथा / जीवपदं मनुष्यपदश्च / तत्र जीवपदे सूत्रमाह (संजएणं भंते ! जीवे इत्यादि) सुगमं नवरं / अनाहारकत्वं केवलिसमुद्घातावस्थायाम-योगित्वावस्थायां वेदितव्यं शेषकालमाहारकत्वं / एवं। (मणुस्सेवित्ति) एवं मनुष्यविषयं सूत्रं वक्तव्यं / तद्यथा / (संजएणं भते! मणूसे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए) भावनान्तरमेवोक्ता (पुहुत्तेणं तिय-भंगोत्ति) पृथक्त्वे न बहुवचनेन जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकं भंगत्रिकं / तचैवं / सर्वेऽपि तावन्द्भवेयुराहारका एष भंगो यदावं कोऽपि केवलिसमुद्धातमयो गित्वं वा प्रतिपन्नो भवति वेदितव्यः / अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च एष एकस्मिन् केवलिनिसमवहतेशैलेशीगते वा प्राप्यते अथवा आहारकाश्च अनाहारकाश्च एषु बहुषु केवलिषु समवहतेषु शैलेशीगतेषु वा लभ्यते। असंयतसूत्रे एकवचने सर्वत्र स्यादाहारक इति वक्तव्यं / बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिषु च पदेषु प्रत्येकमाहारकाअनाहारका अपि इत्येष भङ्गः / शेषेषु तु नैरयिकादिषुस्थानेषु प्रत्येकं भंगत्रिक संयतासंयतदेशविरतास्तेच तिर्यक्पंचेन्द्रियामनुष्या वानशेषाः शेषाणां स्वभावतएव देशविरतिपरिणामाभावादेव चैतेषांत्रीणि पदानि / तद्यथा / सामान्यतो जीवपदं तिर्यक्पञ्चेन्द्रियपदं मनुष्यपदचैतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु एकवचने बहुवचने च आहारका भवन्ति / भवान्तरगतः केवलिसमुद्घाताद्यवस्थासु च देशविरतिपरिणामाभावात् नो संयतो नो ऽसंयतो नो संयतासंयतो / गतं संयतद्वारम् / तचिंतायांद्वेपदे / तद्यथा / जीवपदं सिद्धपदश्च / उभयत्रा ऽप्येकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेववक्तव्यं नत्वाहारकत्वम् / सिद्धानाम-नाहारकत्वात्।। सम्पत्ति कषायद्वारम्॥ सकसाईणं भंते ! जीवे किं आहा. अणा. सिय आहा. सिय अणाहा. एवं जाववैमाणिए पुहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियमंगो / कोहकसाईसु जीवाईसु एवं चेव नवरं देवेसु छमंगा माणकसाईसु मायाकसा ईसु देवणेरइएसु छभंगा अवसेसाणं जीवेगिंदियवञ्जोतियमंगो / लोभकसाईसु नेरइएसु छभंगा। अवसेसेसु जीवेगिंदियवजो तियमंगो अकसाई जहा नो सन्नी नो असन्नी। (सकसाईणं भंते ! जीवे ) इत्यादि // एकवचनविषयं सूत्रं सुगमं / बहुवचने (जीवेगिंदियवज्जो तियभंगोत्ति) जीवपदे पृथिव्यादिषु च पंचसु पदेषु प्रत्येकं आहारका अपि अनाहारका अपि वक्तव्यं / उभयेषामपि सकषायाणां सदैव तेषु स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्। शेषेषुतुस्थानेषु भंगत्रिकं / कोहकसाए एवंचेवत्ति क्रोधकषाय्यपि एवमेव सामान्यतः सकषायवदवसेयः / तत्रापि जीवपदे पृथिव्यादि पदेषु चाभङ्गक शेषेषु तु स्थानेषु भंगत्रिकमिति भावः / किं सर्वेष्वपि शेषेषु स्थानेषु भंगत्रिकं नेत्याह / (नवरं देवेसुछ भंगा) देवा हि स्वभावत एवं लोभबहुला भवन्ति / न क्रोधादिबहुलाः / ततः क्रोधकषायिण एकादयोऽपि लभ्यन्ते। इति षड्भङ्गास्तद्यथा / कदाचित्सर्वेऽप्याहारका एव क्रोधकषायिण एकस्यापि विग्रहगत्यापन्नस्यालभ्यमानत्वात् 1 कदाचित्सर्वेऽप्यनाहारका एकस्यापि क्रोधकषायिणस्ततआहारकस्या-प्राप्यमाणत्वात् क्रोधोदयो हि मानाद्युदयविविक्त एवेह विवक्ष्यते / न मानाद्युदयसहितोऽपि तेन क्रोधकषायिणः ततः कदाचिदाहारकस्य सर्वथाऽप्यभावः // 2 // तथा कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः // 3 // कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहारकाः // 4 // कदाचिद्हव आहारका एकोऽनाहारकः // 5 // कदाचिद्र Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 542 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार हव आहारका बहवोऽनाहारकाः // 6 // इति मानकषायसूत्रं मायाकषायसूत्रं चैकवचनेप्राग्वत् / बहुवचने विशेषमाह / (माणकसाईसु) इत्यादि 1 मानकषायिषु मायाकषायिषु बहुवचने चिन्त्यमानेषु देवेषु नैरयिकेषु च प्रत्येकं षड्भंगाः / नैरयिका हि भवस्वभावतः क्रोधबहुला देवास्तु लोभबहुलास्ततो देवानां नैरयिकाणाञ्च मानकषायो मायाकषायश्च प्रविरल इति प्रागुक्त-प्रकारेण षड्भंगाः / जीवपदे पृथिव्यादि पदेषु च प्रत्येक-मभंगकमाहारकाणामनाहारकाणां च मानकषायिणां मायाक-षायिणाञ्च प्रत्येकं सदैवतेषु स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / शेषेषुतुस्थानेषुभंगत्रिकं / लोभकषाय सूत्रमप्येकवचने तथैव बहुवचने विशेषमाह (लोभकसाईसु इत्यादि) लोभकषायिषु नैरयिकेषु षड् भंगास्तेषां लोभबहुलतया षड्भग्यसंभवात् / जीवेष्वेकेन्द्रियेषु च प्राग्वदेष एव भंगः / आहारका अप्यनाहारका अपीति (अकसाई जहा नो सन्नी नो असन्नीति) अकषायिणो नोसंज्ञिनो नोऽसंज्ञिनो उक्तास्तथा वक्तव्याः किमुक्तं भवति / अकषायिणोऽपि मनुष्याः सिद्धाश्च / मनुष्या उपशांतकषायादयो वेदितव्याः / / अन्येषां सकषायित्वात् / तत एतेषामपि त्रीणि पदानि / तद्यथा / सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदञ्च तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे च प्रत्येकमे कवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति वक्तव्यं / सिद्धपदेष्वनाहारकएवेति / बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपीति। केवलिनामाहारकाणां सिद्धानामनाहारकाणां सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / मनुष्यपदे भंगत्रिकं / सर्वेऽपि तावद्भवेयु-राहारकाः। अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च 2 अथवा आहार-काश्चनाहारकाच 3 भावना प्रागेवानेकशः कृता सिद्ध पदे त्वनाहारक एक एव // सम्पत्ति ज्ञानद्वारम् / / नाणी जहा सम्मदिट्ठी / आमिणिबोहियनाणी सुयनाणीस बेइंदियतेइं दियचउरिदिएसु छभंगा / अवसेसु जीवादिओ तियभंगो / जेसिं अस्थि ओहिनाणी पंचिंदियतिरिक्-खजोणिया मणूसा व आहारगा नो अणाहारगा अवसेसेसु जीवादिओ तियभंगो जेसिं ओहिनाणं मणपज वनाणं जीवा मणूसाय एगत्तेण वि पुहत्तेण वि आहारगा नो अणाहारगा केवलनाणी जहा नो सन्नी नो असन्नी अन्नाणीमति अनाणी सुयअन्नाणी जीवेगिंदियवलो तियमंगो विभंगनाणी पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य आहारगा नो अणाहारगा अवसेसेसु जीवादिओ तियभंगो || (तत्र नाणी जहासम्मदिट्ठीति) ज्ञानी यथा प्राक्सम्यग्द्र-ष्टिरुक्तस्तथा वक्तव्यस्तद्यथा // *नाणीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए? गो सिय आहारए सिय अणाहारए नाणीणं भंते ! नेरईए किं आहारए अणाहारए ? गो. सिय अहारए सिय अणाहारए एवमेगिंदियवझं जाव वेमाणिए नाणीणं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गो. आहारगावि अणाहारगावि नाणीणं भंते ! रझ्या किं आहारगा अणाहारगा गो. सव्वे विताव होज्जा आहारगारअहवा | आहारगा य अणाहारगे य२ अहवा आहारगा य अणाहारगा य एवं जाव थणियकुमारा / बेइंदियाणं पुच्छा गो. सव्वे वि ताव होमर आहारगा अहवा अणाहारगायअहवाआहारगेय३अहवा आहारगे य अणाहारगा यअहवा आहारगाय अणाहारगे य५ अहवा आहारगा य अणाहारगाय एवं तेइंदियचउरिंदिया वि भाणियव्वा अवसेसा जाव वेमाणिया जहा नेरइयाणं सिद्धाणं पुच्छा गो // * (अणाहारगा इति) आभिनिबोधिकज्ञानसूत्रे चैकवचने प्राग्व-दवसेयं / बहुवचने द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु भङ्गाः / अथ शेषेषु जीवा-दिस्थानेष्वेकेन्द्रियवर्जेषु भङ्गत्रिकं तचैवं // * आमिनिबोहियनाणी णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! सव्वेवि ताव होज आहारगा अहवा आहारगा य अणाहारगे यर अहवा आहारगा य अणा-हारगा य 3 इत्यादि / तथा चाह / आमिनिबोहियनाणी सुयनाणी सुयबेइंदियचउरिंदियेसु छमंगा अवसेसेसुजीवाइओ तियमंगो तेसिं अत्थि इति* सुगमं / नवरं जेसिं अत्थि येषां जीवानामाभिनिबोधिक-ज्ञानश्रुत ज्ञानेस्ता / तेषु भंगत्रिकं वक्तव्यं न शेषपृथिव्या-दिष्विति / अवधिज्ञानसूत्रमेकवचने तथैव बहुवचनचिंतायां पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिका आहारका एव नत्वनाहारकाः / कस्मा-दिति चेदुच्यते / इह पंचेन्द्रियतिरश्चामनाहारकत्वं विग्रहगतौ / न च तदानीं तेषां गुणप्रत्ययतोऽवधिसंभवो गुणानामे वासंभवान्नाप्यप्रतिपतितावधिदेवोमनुष्यो वा तिर्य सूत्पद्यते / ततोऽवधिज्ञानिनः सन्तः पंचेन्द्रियतिरश्चोऽनाहारकत्वायोगः / शेषेषु तु स्थानेष्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेषु प्रत्येकं भंगत्रिकं / एतदेवाह / "ओहिनाणीणं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा अवसेसेसु जीवाइ ओ तियभंगो / जेसिंअस्थि ओहिनाण मिति // " मनः पर्यायज्ञानं मनुष्याणामेव ततो द्वे पदे / तद्यथा / जीवपद मुभयत्रापि चैकवचने बहुवचने च मनः पर्यायज्ञानिन आहारका एव वक्तव्याः नत्वनाहारका विग्रहगत्याद्यवस्थायां मनः पर्यायज्ञानासंभवात् / केवलज्ञानी यथा प्राक् नो संज्ञी नोऽसंज्ञी उक्तस्तथा वक्तव्यः / किमुक्तं भवति केवलज्ञान-चिन्तायामपि त्रीणि पदानि / तद्यथा / सामान्यतो जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदञ्च तत्र सामान्यतो जीवपदे मनुष्यपदे चैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारकः इति वक्तव्यं सिद्धपदे त्वनाहारक इति बहुवचने सामन्यतो जीव पदे आहारका अपि अनाहारका अपि मनुष्यपदे भंगत्रिकं / तच्च प्रागेवोप-दर्शितं सिद्धपदे त्वनाहारका अपि अज्ञानिसूत्रं मत्त्यज्ञानिसूत्रं श्रुताज्ञानिसूत्रं च एकवचने प्रागेव बहुवचनचिन्तायां जीवपदे एकेन्द्रियेषु पृथिव्यादिषु प्रत्येकमाहारका अनाहारका अपि इति वक्तव्यं शेषेषुभंगत्रिकं / विभङ्ग-ज्ञानिसूत्रमप्येकवचने तथैव बहुवचनचिन्तायां पञ्चेन्द्रिय-तिर्यक् योनिका मनुष्या आहारका एवं वक्तव्याः / नत्वनाहारका त्रिभङ्गज्ञानसहितस्य विग्रहगत्या तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियेषु Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 543 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार मनुष्येषु चोत्पत्तिसम्भवात् / अवशेषेषुस्थानेषुएकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जेषु | प्रत्येकं भंगत्रिकं / गतं ज्ञानद्वारम् // संप्रति योगद्वारम् // सजोगीसुजीवेगिंदियवजो तियमंगोमणजोगी वइजोगीय जहा सम्मामिच्छादिट्टी / नवरं वइजोगी विगलिंदियाण वि कायजोगीस जीवे गिंदियवजो तियभंगो / अजोगी जीवमणूससिद्धा अणाहारगा / दारम् // तत्र सामान्यतःसयोगीसूत्रमेकवचने तथैव बहुवचनेजीवैकेन्द्रियपदानि वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिक, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च पुनः प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति भङ्ग उभयेषामपि सदैवतेषु स्थानेषु बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छादिट्ठीयत्ति / मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च / यथा प्राक् सम्यगमिथ्यादृष्टय उक्तास्तथा वक्तव्याः / एकवचने बहुवचने वाऽऽहारका एव वक्तव्या नत्वनाहारका इति भावः (नवरं वइजोगी विगलिंदियाणवित्ति) नवरमिति / सम्यगमित्थादृष्टिसूत्रादत्रायं विशेषः / सम्य-गमिथ्यादृष्टित्वं विकलेन्द्रियाणां नास्तीति तत्सूत्रं तत्रोक्तं। वागयोगः पुनर्विकलेन्द्रियाणामप्यस्ति तत्सूत्रमपि वागयोगे वक्तव्यं / तचैवं / / *मणजोगीणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! आहारएनो अणाहारए एवमेगिंदियवझंजाव वेमाणिए एवं पुहुत्तेण वि * काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतः सयोगिसूत्रमिव (अजोगीणं भंते ! जीवे किं आहारए) तेनात्र त्रीणि पदानि / तद्यथा जीवपंद मनुष्यपदं सिद्धपदं च त्रिष्वपि स्थानेष्वेकवचने बहुवचनेनाहारकत्वमेव // अधुना उपयोगद्वारम् // सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिंदियवजो तियभंगो सिद्धा | अणाहारगा / दारम् / / तत्र साकारोपयोगसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने सर्वत्र स्यादनाहारक इति वक्तव्यं सिद्धपदे त्वनाहारक इति बहुवचने जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु चाहारका अपि अनाहारका अपीतिभङ्गः / शेषेषु भङ्गत्रिकं / सिद्धास्त्वनाहारका इति सूत्रोल्लेखस्त्वयं // * सागारोवओगोवउत्तेणं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय आहारए सिय अणाहारए / * गतमुपयोगद्वारं // वेदद्वारम् // सवेदजीवे गिदियवजओ तियभंगो / इत्थिवेयपुरिसवेएस जीवाइओ तियभंगो / नपुंसगवेदए जीवेगिंदियवज्जो तिय-मंगो। अवेयए जहा केवलनाणी // सामान्यतः सवेदसूत्रमे कवचने स्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति बहुवचने जीवपदे एकेन्द्रियाश्च वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु भङ्गत्रिकं जीवपदे एकेन्द्रियेषु च पुनःप्रत्येकमभंगकं आहारका अनाहारका अपीति स्त्रीवेदसूत्रं पुरुसवेदसूत्रं च एकवचने तथैव नवरमत्र नैरयिकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्यास्तेषां नपुंसकत्वात् बहुवचने जीवादिषु प्रत्येक भंगत्रिकं / नपुंसकवेदेऽपि सूत्रमेकवचने तथैव नवरमत्र भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका न वक्तव्याः / तेषां न नपुंसकत्वाद्रहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु भंगत्रिकं / जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पृथि-व्यादिषु पुनरभंगकं प्रागुक्तस्वरूपमिति / अवेदो यथा केवली तथा एकवचने बहुवचनेच वक्तव्याः ।जीवपदेमनुषयपदेच एकवचनेस्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति बहुवचने जीवपदे आहारका अपि अनाहारका अपि मनुष्येषु भंगत्रिकं सिद्धे त्वनाहारका इति वक्तव्यमिति भावः / / गतं वेदद्वारम् // शरीरद्वारम् // ससरीरे जीवेगिंदियवसो तियभगो / उरालियसरीरिस जीवमणूसेस तियभंगो / अवसेसा आहारगा नो अणाहारगा जेसिं अस्थि उरालियसरीरं वेउव्वियसरीरी आहारगसरीरी य अणाहारगा जेसिं अत्थि तेयगकम्मगसरीरी जीवेगिंदियवो तियभंगो / असरीरी जीव सिद्धाय नो आहारगा अणाहारगा // शरीरद्वारे सामान्यतः शरीरसूत्रे सर्वत्रैकवचने स्यादाहारकः स्यादनाहारक इति / बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु शेषेषु स्थानेषु प्रत्येक भंगत्रिकं / जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च प्रत्येक मभङ्गकं प्रागुक्तमिति / औदारिकसूत्रमेकवचने तथैव नवरमत्र नैरयिकभवन पतिव्यंन्तरज्योतिकवैमानिका नवक्तव्यास्तेषामौदारिकशरीरा भावात् / बहुवचने जीवपदे मनुष्यपदेषु च प्रत्येकं भंगत्रिकं / तद्यथा / सर्वेऽपि तावद्भवेयु राहारका एष भंगो यदा न कोऽपि केवली समुद्धातगतयोगी वा / अथवा आहारकाश्चानाहारकश्व एष एकस्मिन्केवलिनि समुद्धातगते ऽयोगिनि वासति प्राप्यते / अथवा आहारकाश्चानाहारकाचएष भंगो बहुषु केवलिषु समुद्धातगतेषु अयोगिषु वा सत्सुवेदितव्यः / शेषास्त्वेकेन्द्रियद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियतिर्यक् पंचेन्द्रिया आहारका एव वक्तव्याः नत्वनाहारकाः / विग्रहगत्युत्ती-पर्णानामेवौदारिक शरीरसम्भवात् / वैक्रियाहारकशरीरिणश्च सर्वे ऽप्येकवचने बहुवचने चाहारका एव नत्वनाहारका नवरं येषां वैक्रियमाहारकंवा संभवतितएव वक्तव्या नान्ये। तत्र नैरयिक भवनपतिवायुकायिकतिर्यक्रपंचेन्द्रियमनुष्यव्यंतरज्यो तिष्कवैमानिकेषु आहारकं मनुष्येष्वेव / सूत्रोल्लेखश्चायं / *वेउव्वियसरीरिणं | भंते जीवे किं आहारए अणाहारए? गोयमा ! आहारए नो अणाहारए | वे उब्वियसरीरेणं मंते ! नेरइए कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए नो अणाहारए।।* इत्यादि / तैजसकामणशरीरसूत्रे चैकवचने सर्वत्र स्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति / बहुवचने जीवैकेन्द्रियवर्जेषु स्थानेषु भंगत्रिक जीवपदे एकेन्द्रियेषु पुनरभंगकं / अशरीरिणस्सिद्धास्तेनतत्रद्वेएवपदे। तद्यथा / जीवास्सिद्धाश्च / तत्रैकवचन बहुवचने चोभयत्राप्यनाहारक एव / गतं शरीरद्वारम् / / सम्प्रति पर्याप्तिद्वारम् // आहारपत्तिात्तए सरीरपत्तीपजत्तए इंदिय पत्तिपनत्तए आणापाणू पनत्तीपज्जत्तए एतासु चउसु वि पछत्तीसु जीवेसु मणू से सु य तियभंगो अवसे सा Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 544 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार आहारगानो अणाहारगा भासामणपजत्तिपंचिंदियाणं अवसेसाणं नत्थि आहारपञ्जत्ती अपञ्जत्तए नो आहारए अणाहारए एगत्तेण वि पुहत्तेणवि / सरीरपज्जत्तिअपजत्तिए सिय आहारए सिय अणाहारए / चउरिलियासु चउसु अपञ्जत्तीसुणेरड्यदेवमणूसेसु छ भंगा / अवसे साणं जीवे गिदियवज्जो तियभंगो / भासामणपज्जत्तीए जीवेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणीएसु य तियभंगो / जेरइयत्ते देव-मणूसेसु छ भंगा / सव्व पदेसु एते एगत्तपुहत्तेणं जीवादिओ दंडगोपुच्छाए भाणियप्वो जस्स जं अत्थि तस्स तं पुच्छिज्जइ ज नत्थि तं न पुच्छिजइ जाव भासामणपञ्जत्तीएसु अपञ्जत्तएसु णेरइयदेवमणूसएस छभंगा सेसेसु य तियभंगा // तत्रागमे पर्याप्तयः पञ्च भाषामनः पर्याप्त्योरेकत्वेन विवक्ष-णात् / तथाहारपर्याप्तया पय्यप्ति शरीरपर्याप्त्या पर्याप्त इन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्त प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्ते भाषामनःपर्याप्त्या पर्याप्ते चिन्त्यमानेऽत्रैव सर्वसंकलनामाह / एतासु पञ्चस्वपि पर्याप्तिषु समर्थितासु चिन्त्यमानास्विति शेषः / प्रत्येकमेकवचने जीवपदे मनुष्यपदे च स्यादा-हारकरस्यादनाहारक इति / शेषेषु चु स्थानेषु आहारका इति बहुवचने (जीवेसु मणूसेसु य तियभंगोत्ति) जीवपदे मनुष्यपदे च भङ्गत्रिकञ्च वक्तव्यं / तयौदारिकशरीरसूत्रमिव भावनीयं / अवशेषास्सर्वेऽप्याहारका वक्तव्याः नवरं भाषामनः पर्याप्तिपञ्चेन्द्रियाणामेवेति / तत्सूत्रे एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न वक्तव्याः किन्तु शेषाः / तदेवाह / भासामणपज्जत्ती पंचिंदियाणं नस्थि इति / आहारपर्याप्त्यपर्याप्तसूत्रे एकवचने सर्वत्राप्यनाहारको वक्तव्यो नो आहारक आहारपर्याप्त्या ह्यपर्याप्तो विग्रहगतावेव लभ्यते उपपातक्षेत्रप्राप्तस्य प्रथम समय एवाहारकपर्याप्त्या पर्याप्तत्वभावादन्यया तस्मिन्समये आहारकत्वानुपपत्तेर्बहुवचने त्वनाहारका इति / शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तिसूत्रे एकवचने सर्वत्र स्यादाहारक इति / तत्र विग्रहगतावनाहारक उपपातक्षेत्रप्राप्तस्तु शरीरपाप्तिपरिसमाप्ति यावदाहारक इति / एवमिन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तिसूत्रे प्राणापानपर्याप्त्या पर्याप्तसूत्रे भाषामनः पर्याप्त्या पर्याप्तिसूत्रे च प्रत्येकमेकवचने स्यादाहारकस्स्यादनाहारक इति वक्तव्यं / बहुवचने ( उबरिल्लिया) इत्यादि / उपरितनीषु शरीरपर्याप्तिप्रभृतिषु चतसृसु अपर्याप्तिषु चिन्त्यमानासु प्रत्येकं नैरयिकदेवमनुष्येषु षड्भंगा वक्तव्यास्तद्यथा / कदा चित्सर्वेऽप्याहारका एव १कदाचित्सर्वेऽप्यनाहारका एव 2 कदाचिदेक आहारक एकोऽनाहारकः 3 कदाचिदेक आहारको बहवोऽनाहारकाः 4 कदाचिद्रहव आहारका एकश्चानाहारक: 5 कदाचिदहव आहारका बहवश्वानाहारकाः 6 अवशेषाणां नैरयिकदेवमनुष्यव्यतिरिक्तानां जीवैकेन्द्रियवर्ज भङ्गत्रिकं वक्तव्यं / तद्यथा / सर्वेऽपि तावद्भवेयुराहारकाः 1 अथवा आहारकाश्चानाहारकश्च 2 अथवा आहारकाश्चानाहारकाश्च 3 जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च पुनश्शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तिसूत्रे इन्द्रिपयाप्त्या पर्याप्तिसूत्रे प्राणापानपर्याप्तिसूत्रे च प्रत्येकमभङ्गक आहारका अपि अनाहारका अपि / उभयेषामपि च सदा बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् / भाषामनः पर्याप्त्यपप्तिकास्त्वेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया न भवन्ति किन्तुपञ्चेन्द्रिया एव / येषां हि भाषामनः पर्याप्तिसंभवोऽस्तितएव तत्पर्याप्ताः प्रोच्यन्ते न शेषा इति / ततस्तत्सूत्रं / बहुवचने जीवपदेऽपि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिपदे च भङ्गत्रिकं / पंचेन्द्रियतिवेंचो हि सम्मूर्छिमाः सदैव बहवो लभ्यन्ते / ततो यावदद्याप्यन्यो विग्रहगत्यापन्ने लभ्यमाने द्वितीयो भङ्ग आहारकाश्चानाहारकश्च इति / यदा तु विग्रहगत्यापन्ना अपि बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयो भङ्गः / आहारकाश्चानाहारकाश्चेति जीवपदेऽपि भङ्गत्रिकमेतदपेक्षया / (रइयत्ति) नैरयि-कदेवमनुष्येषु प्रत्येक षड्भंगाः / तेच प्रागेवोक्ताः / इह भव्यपदादारभ्य प्राय एकत्वेन बहुत्वेन च विवक्षितानि सूत्राणि जीवादिदण्डकक्रमेण नोक्तानि ततो माभून्मन्दमतीनां सम्मोह इतितद्विषयमतिदेशमाह (नसव्वपएसुएगत्ते) इत्यादि / एते जीवादयो दण्डकास्सर्वपदेषु सर्वेष्वपि पदेषु एकत्वेन बहुत्वेन च पृच्छया उपलक्षणमेतन्निर्वचने च भणितव्याः / किं सर्वत्राप्यविशेषेण कर्तव्या / नेत्याह / यस्येत्यादि / यस्य यदस्तितस्य तत्पृच्छति तद्विषयं सूत्रं भण्यते यस्य पुनः यन्नास्ति न तस्यतत्पृष्टव्यंन तद्विषयं तस्य सूत्रं वक्तव्यमिति भावः / कियडूरं यदेव कर्तव्यमिति शङ्कायां चरमदण्डकवक्तव्यतामुपदिशति (जाद भासामणपज्जत्तीएसु) इत्यादि भावितार्थं इहाधि-कृतार्थभावनार्थमिमाः पूर्वाचार्य्यप्रतिपादिता गाथाः। सिद्धेगिंदियसहिया, जहिं तु जीवा अभंगयं तत्थ / सिद्धेगिंदियवछे-हिं होइ जीवेहिं तियभंगो // 1 // असन्नीसु य नेरइय, देवमणुएसु हाँति छन्भंगा / पुढविदगतरुगणेसु य, छन्भंगा तेउलेसाए // 2 // कोहे माणे माया, छब्मंगा सुरगणेसु सवेसु / माणे मायालोभे, नेरइएहिं पि छन्भंगा // 3 // आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे खलु तहेव सम्मत्ते / छन्भंगा खलु नियमा, बियतियचउरिंदियेसु भवे // 4 // उबरिल्लउपजत्ती-सु चउसुनेरइयदेवमणुएसु / छम्भंगा खलु नियमा, वज्जे पढमा उपजत्ती // 5 // सन्नी विसुद्धलेस्सा, संजयहिहिलतिसुयनाणेसु / त्थीपुरिसाणयवेदेवि, छन्भंगा खलु तियभंगो // 6 // सम्मामिच्छमणवइ, मणनाणे बालपंडियवेउदी। आहारसरीरंमि य, नियमा आहारया होति / / 7 / / ओहिम्मिवि भंगमि, नियमा आहार याउ नायव्वा / पंचिंदिया तिरिच्छा, मणुया पुण हॉति विभंगा / / 8| ओरालसरीरम्मिय, पज्जत्तीणं च पंचसु तहेव / तियभंगो जियमणुएसु हाँति आहारगा सेसा // 9 // णो भव अरूविलेसा, अजोगिणो तहय होति असरीरी। पढमाए अपजतिए, तउनियमा अणाहारा // 10 // सन्नासन्नविउत्ता, वेयकसाइणो य केवलिणो। तियभंग एकवयणं सिद्धाणाहारया हॉति ||11|| एताश्च सर्वा अपि गाथा उक्तार्थप्रतिपादकत्वाद्भावितार्था Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 545 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार इति न भूयो भाव्यन्ते / ग्रन्थगौरवभयात् / न वरं / (एक्कवयणे सिद्धाणाहारया होंति इति / ) एकवयणे इत्यत्र तृतीयार्थे सप्तमी / एकवचनेन एकार्थेनेति भावः / सर्वत्र सिद्धा अनाहारका भवन्तीति विज्ञेयम् / / प्रज्ञा०२८ पद / / जीवः कं समयमनाहारकः / तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं- वयासी जीवेणं भंते ! कं समयमणाहारए भवइ? गोयमा ! पढमे समये सिय आहारए सिय अणाहारए, वितिए समये सिय आहारए सिय अणाहारए, तइए समये सिय आहारए सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए, एवं दंडओ जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए सेसा तइएसमए / भ०-७श.१ उ. / / (कं समयमणाहारएत्ति) परभंव गच्छन् कस्मिन्समयेऽनाहारको भवतीति प्रश्नः / उत्तरन्तु यदा जीव ऋजुगत्योत्पादस्थानं गच्छति तदा परभवायुषः प्रथम एव समय आहारको भवति / यदा तु विग्रहगत्या गच्छति तदा प्रथमसमये वक्रेऽनाहारको भवति, उत्पत्तिस्थानाऽनवाप्तौ तदाहरणीयपुद्गलानामभावादत आह (पढमे समए सिय आहारए सिय अणाहारएत्ति) तथा यदा एकेन वक्रेण द्वाभ्यां समयाभ्यामुत्पद्यते तदा प्रथमेऽनाहारको द्वितीये-त्वाहारको यदा तु वक्रद्वयेन त्रिभिः समयैरुत्पद्यते तदा प्रथमे द्वितीये चानाहारक इत्यत आह (बीयसमये सिय आहारए सिय अणाहारएत्ति ) तथा यदा वक्र द्वयेन त्रिभिस्समयैरुत्पद्यते तदा द्वयोरनाहारकस्तृतीये त्वाहारको यदा तु वक्रत्रयेण चतुर्भिस्समयैरुत्पद्यते तदाद्ये समयत्रयेऽनाहारकश्चतुर्थे तु नियमादाहारक इति कृत्वा (तइए समए सिय.) इत्याधुक्तं वक्रत्रयं चेत्थं भवति / नाड्या बहिर्विदिगव्यवस्थितस्यसतो यस्याधोलोकादूर्ध्वलोके उत्पादो नाड्या बहिरेव दिशि भवति सोऽवश्यमे के न समयेन विश्रेणितस्समश्रेणी प्रतिपद्यते द्वितीयेन नाडीम्प्रविशति तृतीयेनोर्द्धलोकं गच्छति चतुर्थेन लोकनाडीतो निर्गत्योत्पत्तिस्थान उत्पद्यते / इह चाद्ये समयत्रये वक्रत्र-यमवगन्तव्यं / समश्रेण्यैव गमनात् / अन्ये त्वाहुः वक्रचतुष्टयमपि सम्भवति / यदाहि विदिशो विदिश्येवोत्पद्यते तत्र समयत्रयं प्राग्वत् / चतुर्थसमये तु नाडीतो निर्गत्य समश्रेणी प्रतिपद्यते पञ्चमेन तूत्पत्तिस्थानं प्राप्नोति / तत्र चाद्ये समयचतुष्टये वक्रवतुष्कं स्यात्तत्र चाना हारक इति / इदञ्च सूत्रे न दर्शितं प्रायेणेत्यमनुत्पत्तेरिति (एवं दंडओत्ति) अमुनाऽभिलापेन चतुर्विशतिदण्डको वाच्यस्तत्र च जीवपद एकेन्द्रियपदेषु च पूर्वोक्तभावनयैव चतुर्थे समये नियमादाहारक इति वाच्यं / शेषेषु तु पदेषु तृतीयसमये नियमादाहारक इति / तत्र यो नारकादित्रसस्त्र सेष्वेवोत्पद्यते / तस्य नाड्या बहिस्तादागमनं गमनञ्च नास्तीति तृतीयसमये नियमादाहारकत्वम् / तथाहि यो मत्स्या दिर्भरतस्य पूर्वभागादैरवत-पश्चिमभागस्याऽधो नरकेषत्पद्यते / स एकेन समयेन भरतस्य पूर्वभागात्पश्चिम भागंयाति द्वितीयेन तुतत ऐरवतपश्चिम भागं ततस्तृतीयेन नरकमिति / अत्र चाद्ययोरनाहारकस्तृतीयेत्वाहारक एतदेव दर्शयति (जीवाय एगिदियायचउत्थे समये सेत तइयसमएत्ति॥ कास्मिन् समये सर्वाल्पाहारकः। जीवेणं मंते ! के समयं सव्वप्पाहारए भवइ ? गोयमा ! पढमसमयोववण्णाए वा चरिमसमयभवत्थे वा एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवइदंडओ भाणियव्योजाव वेमाणि-याणं। म.-७ श.१ उ. / / कस्मिन् समये सर्वाल्पः सर्वथास्तोको न यस्मादन्यः स्तोकतरोऽस्ति स आहारोयस्य सः सर्वाल्पाहारः स एव सर्वाल्पाहारकः (पढमसमयोववण्णएत्ति) प्रथमसमय उत्पन्नस्य यस्य प्रथमो वा समयो यत्र तत्प्रथमसमयं / तदुत्पन्नमुत्पत्ति यस्य स तथा उत्पत्तेः प्रथमसमय इत्यर्थः / तदाहार ग्रहणहेतोः शरीरस्या ऽल्पत्वात्सर्वाल्पाहारता भवतीति / (चरमसमय-भवत्थेवत्ति)। चरमसमये भवस्य जीवितस्य तिष्ठतियः स तथा आयुषश्चरमसमय इत्यर्थः / तदानी प्रदेशानां संहतत्वेनाऽल्पेषु शरीरावयवेषु स्थितत्वात्सर्वाल्पाहारतेति / वनस्पतिः सर्वाल्पाहारकः / वणस्सइकाइया णं भंते ! कं कालं सवप्पाहारगा वा सव्वमहाहारगा वा भवंति? गोयमा ! पाउसवरिसा रतेसुणं एत्थणं वणस्सइकाइया सव्वमहाहारगा भवंति / तयाणंतरं च शंसरए, तयाणंतरं चणं हेमंते, तयाणंतरचणं वसंते, तयाणंतरं चणं गिम्हासु,णं वणस्सइकाइया सव्दप्पाहारगा भवंति / जइ णं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सध्यप्पाहारगा भवंति / कम्हाणं मंते ! गिम्हासुबहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरिय गरेरिख-माणा सिरीए अतीव अतीव उपसोभेमाणा उवचिट्ठति ? गोयमा ! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए वकर्मति विरक्कमति चयंति उव-वति / एवं खलु गोयमा ! गिम्हासुबहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया जाव चिट्ठति / से नूर्ण भंते ! मूला मूलजीवफुडा कंदा कंदजीव फुडा जाव बीया बीयजीव वफुडा? हंता गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीफुडा / जइणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवफुडा कम्हाणं मंते ! वणस्सइकाइया आहारंति परिणामंति ? गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा पुठवीजीवपडिवद्धा तम्हा आहारंति तम्हा परिणामंति कंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारंति तम्हा परिणामंति एवं जाव बीया बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारंति तम्हा परिणामति / (वणस्सइ) इत्यादि / (कं कालंति) कस्मिन्काले / (पाउसेत्यादि।) प्रावृडादौ बहुत्वान्जलस्नेहस्य महाहारतोक्ता प्रावृट् श्रावणादिर्वषारात्रोऽश्वयुजादिः / (सरएत्ति) शरन् मार्षशीर्षादिस्तत्र चाल्पाहारा भवन्तीति ज्ञेयं / ग्रीष्मे सर्वाल्पाहारतोक्ता / अत एव च शेषेष्वप्यल्पाहारता क्रमेण द्रष्टव्येति / (हरितगरेरिज्जमाणत्ति / ) हरितकाश्च ते नीलका रेरिज्यमानाश्च देदीप्यमाना हरितकरेरिज्यमानाः / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 546 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार (सिरीएत्ति / ) वनलक्ष्म्या / (उसिणजोणिएत्ति / ) उष्ण मेव योनिर्येषान्ते उष्णयोनिकाः / (मूलामूलजीवफुडत्ति) / मूलानि मूलजीवैः स्पृष्टानि व्याप्तानीत्यर्थः / यावत्करणात् (खंधाखंधजीवफुडा) एवं (तया साला पवाला पत्ता पुप्फा फलत्ति) दृश्यं / (जइण) मित्यादि / यदि भदन्त ? मूलादीन्येव मूलादिजीवैः स्पृष्टानि तदा (कम्हत्ति) / कस्मात्केन हेतुना कथमित्यर्थः / वनस्पतय आहारयति / आहारस्य भूमिगतत्वान्मूलादिजीवानां च मूलादिव्याप्त्यै वावस्थितत्वात्केषाञ्चिच परस्परव्यवधानेन भूमेर्दूरवर्तित्वादिति / अत्रौत्तरं / मूलानि मूलजीवस्पृष्टानि केवलं पृथिवी जीवप्रतिबद्धानि / (तम्हत्ति) / तस्मात्तत्प्रतिबन्धाद्धेतोः पृथिवीरसं मूलजीवा आहारयन्ति कन्दाः कन्दजीवस्पृष्टाः केवलं मूलजीव प्रतिबद्धा स्तस्मात्तत्प्रतिबंधान्मूलजीवोपात्तं पृथिवीरसमाहारयंतीत्येवं स्कंधादिष्वपि वाच्यं // भ. श०७ उ०२॥ आहारकाणां कायस्थितिः (कायटिइ) शब्दे उक्ता / / अदत्तमाहारमाहारयति / / जे भिक्ख् आयरिय उवज्जाएहिं अदिन्नं आहारं आहारेइ आहारंतं वा साइजइ / / 22 // जे भिक्खु आयरियउवज्जाएहिं अविदिन्नं विगयं आहारेति आहारतं वा साइजइ // 23 / / आचार्य उपाध्यायः / असहीणोवायरिए उवज्जाओ पुच्छि-जह / अथवा उवज्जायगहणेणं जोजंपुरतो काउं विहरति सो तेण पुच्छियव्यो अविदिण्णं अदत्तं अणुण्णा यं अण्णायं अण्णतरं गहणतोणवविगत्तीओ जो आहारेइ तस्समासलहुं एस सुत्तत्थो / नि, चू४ // ओषधीराहारयति // जे भिक्खू कसिणाओ ओसहीओ आहारेइ आहारतं वा साइजइ // 24 // कसिणा, संपुण्णा दव्वतो अभिण्णा ओसहीओ सालिमातियाओ आहारेति जतितस्स मासलहुँ कसिणत्ते ओसहीए दव्वभावेहिं चउभंगो कायव्वो दव्वतो॥ कसिणत्तमोसहीणं, दवे भावे व उक्कभयणाउ / दवेण जातु सकला, जीवजुताभावितो कसिणा ||25|| कसिणा सम्पुण्णा अखंडिता अप्फुडिता भावकसिणा जा सचेयणा / / सतुसा सचेयणा विय, पढम मंगोउ ओसधीणी / वितिओ सचेतणा अतुसा ओखण्डिता अतिच्छडिता।। जा सतुसा दव्वतो अभिण्णा सचेयणा य एस पढमभंगो जा सचेयणा अतुसाचेयणा तंदुला सउसावा खंडिता अतिच्छडा एगदुच्छडा वा कता एस वितियभंगो॥ णियगाठितिमतिकंता सतुसा वीयाउ ततियओभंगो / पढममतिविवरीओ चउत्थमंगोमुणे तटवो // 27 // णियगा आत्मीयस्थिति मतिकन्ता अचेतना इत्यर्थः / दव्यतो पुण सतुसा अखंडिता अप्फुडिता एरिसाजाओसहीओएसततियभंगो भावतो / णियगद्वितिमतिक्कन्ता दव्वतोभिण्डो एस पढमभंगविवरीतो चतुर्थभंगो भवतीति। एतेसु चउभंगेसुइमपच्छित्तं / दोसु लहुया दोसु लहुओ, तवकालविसेसिता जधा कमसे परित्तोसधीणसोधी, एसे व गुरुअणंताणं / / 2 / / आइलेसुदोसुभंगेसुचउलहुँ / पच्छिमेसुदोसुभंगेसु मासलहुं जहाकर्म आतिल्लातो समारब्भ तवकालविसेसिया कायव्वा / पढमे दोहिं वि गुरु वितिए तव गुरु ततिए कालगुरु चउत्थे दोहिं वि लहु एवं परित्ते भणियं अणंतवीएसु एवं पच्छित्तं गुरुगं दत्तव्वं / चोदगआह / अण्णोण्णेण विरुद्धं तु, सोविसुतंव मा भणसा / संघट्टणे तुसोही, पंचाहा मुंजतो सुत्तं / / 29 / / सुत्तगहणतो इहसुत्ते वितिएसु मासलहुं सो विग्गहणाउ इहेव पढिगाए अत्थेवीएसु पाणगं दत्तं एए दो वि अण्णोण्ण विरुद्धा एवं मा भणाहि आचार्याआह सातु संघट्टणे पच्छद्धं पंच राइ-न्दिया अत्थेण जे वीएसु भणिता ते संघट्टणा इमं पुण भुंजओ सुत्ते मासलहुं अंतो भणियं तम्हातो अण्णोण्णविरुद्ध अण्णे आयरिया वक्खाणेति / अत्थतो चोइए आचार्य उत्तरमाह अण्णेण्णेण गाहा शेषं पूर्ववत् / पुणरवि चोयगआह। गाजं च वीएसु पंचावो, कुंडरोट्टेसु मासियं / तत्थपाती तु सो वीयं, कुंडरोतुणिचसाउ | // 30 // प्रचोदको भणति वीएसुसंघट्टिएसुपणगकुंडरोट्टेसुसंघट्टितेसुमासलहुं एत्थ किं कारणंतुसमुहीकणिया कुक्कसमीसा कुडगंभणति असत्थो वहतो आमो चेयणं च तंदुले लोट्टो भणति आयरिओ भण्णति तत्थे पाती तु पच्छद्धं चोइते तत्थेव उत्तरं भणति पाति रक्खति सो तुसो तं बीयं तेणं तत्थपणगं कुंडरोट्टे पुण णितुसा वेण वत्थमहंततवरी पीडा अतो तत्थ मासितं / गा.- एते सामण्णतरं, कसिणं जोऊ अघिउ आधारे / सा आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराधणं पावे ||31|| तिलमुग्गमासचवलगा गोधूम चणयसालिकंगुमातीयाणं अणंतरं कसिणं भुंजति सो आणाती दोसे पावति इमे दोसा / गा. पलिमंथोअणाइण्णं,जो णिग्धातो असंजमे / अतिमुत्ते य आयाए, पत्थारंमि पसज्जणा ||32|| चमलयमातीयासुसंगासु सचित्तासु अचित्तासुवा पलिमंथो पगरि सिणं संजमो मंयिजति जेण सो पलिमंथो साहूण वा तओ अण्णाइएणा जोणीभूते बीए जोणी धातो भवतीत्ति सचित्ते असंजमो भवति रसाले वा अतिभुत्ते विसूइयत्ति आयविराहणा अण्णतरे वा दीहे रोगायके भवति तत्थपत्थारसंगोप्रसूरणं प्रस्तारप्रसंग:उत्तरोत्तरदुःखसंभव इत्यर्थः / तत्थ परितावमहादुक्खे // गा.- वितियपदं गेलाणे, अट्ठाणे चेव तह य उमंमि / / कसिणोसहीणगहणो, जतणाए कप्पती काउं / / 33 / / वेजुवदेसागिलाणो भुजति भत्तालभेअट्ठाणे अकचं ता वा उमेकसिणो वा उमेकसिणोसही गहणं करेज्ज तं पि लयणाए पण्णगातिमासपत्तो पच्छाचरिमभंगेण ततो तत्तियभंगे, ततो वितियभंगे, ततो पढमेण एवं गहणं काउंकप्पति॥ यावजीवं कियद्भुक्ते॥ चत्वारि य उसासको डिसए जाव चत्तालीसं च Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 547 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार ऊसास सहस्साई जीवतो अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ / कहमाउसो अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ / गोयमा ! दुय्वलाए खंडियाणं वलियाए छडियाणं खयरमुसलपचाहयाणं ववगयतुसकणियाणं अखण्डाणं अफुडियाणं फलगसरीयाणं एकिकं वीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थयणं सेवियणं पत्थ ए मागहए कल्लंपत्थो 1 सायंपत्थो 2 चउसहितंदुलसाहस्सीओ मागहओ पत्थो विसाहस्सिएणं कवलेणं बतीसं कवलापुरिसस्स आहारो 1 अट्ठाविसं इत्थीयाए 2 चउवीसं पंडगस्स 3 एवमेवआउसो एयाए गणणाए दो असईओ पसई 1 दो पसईउ सेइया होइ 2 चउवीसं पंडगस्स 3 एव मेव आउसो चत्तारी सेइयाकुलउ चत्तारिकुलया पत्थो 4 चत्वारि पत्था आढगं 5 सट्ठीएआढगाणं जहन्नए य कुंभे६ असीए आढगाणं मज्जिमेकुंभे 7 आढगसयं उक्कोसए कुम्भे 8 अट्ठव आढगसयाणि बाहो एएणं वाहपमाणेणं अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ ते य गणिय निविट्ठा "चत्तारिय कोडिसया, सढिंचेव य हवंति कोडियो / असीई चतंदुलसय-सहस्सा हवंतित्ति विक्खायं" 4608000000 तं एवं अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजतो अद्धछडे मुगाकुंभे मुंजइ / अद्धछट्टे मुगाकुम्भे मुंजंतो चउवीसं नेहाढगसयाई भुंजइ चउवीसं नेहाढगसयाई भुंजंतोबत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजइ बत्तीसं लवणपलसहस्साहं भुजंतो छप्पडगसाडगसयाइं नियंसेइ दोमासीएण परियट्टणएणं मासिएण वा परियट्टेणं बारसपडसाडगसयाई नियंसेइएवमेव आउसो वाससयाउयस्स सव्वं गणियं तुलियमवियं नेहलवणभोयणं छायणंपि एयं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं महरिसीहिंजस्सत्थि तस्स गुणिज्जइ जस्स नत्थि तस्स किं गणिज्जइ' 'ववहारगणियदिटुं, सुहमं निच्छयगय मुणेयव्वं / / जइ एयं नविएयं, विसमा गणणा मुणेयवां ॥शा चत्वारि उच्छ्वासकोटिशतानि यावचत्वारिंशदुच्छवास-सहस्राणि जीवन्सार्द्ध द्वाविंशति तंदुलवाहान् वक्ष्यमाणस्वरूपान्भुनक्ति / कथं हे आयुष्मन् ! हे सिद्धार्थनंदन ! सार्द्ध द्वाविंशतितं दुलवाहान् भुनक्ति संसारीति हे गौतम ! दुर्वलिकया स्त्रिया कंडितानां वलवत्या रामया छूटितानांशूर्पादिना खदिरमुशलप्रत्याहतानां व्यपगततुषकणिकाणां अखंडानां संम्पूर्णवयवानां अस्फुटितानां राजिरहितानां (फलगसरियाणं) फलक वीनितानां कर्करादिकर्षणेन एकैकबीजानां वीननार्थ पृथक् 2 कृतानामित्यर्थः / एवं विधानां सार्द्धद्वादशपलानां तंदुलानां प्रस्थकोभवति णं वाक्यालंकारे / पलमानं यथा पंचभिर्गुजाभिर्माषः षोडशमाषाः कर्षः अशीतिगुंजाप्रमाण इत्यर्थः / स यदि कनकस्य तदासुवर्ण संज्ञः नान्य स्यरजतादेरितिचतुर्भिः कर्षः पलमिति विंशत्यधि-कशतत्रयगुंजाप्रमाणमित्यर्थः (320) सोपि च प्रस्थकः मगधे भवो मागध इत्युच्यते कल्लन्ति श्वः प्रातः कालइत्यर्थः प्रस्थो भवति भोज नायेति सायमिति संध्यायां प्रस्थो भोजनायेति 1 एकस्मिन्मागधप्रस्थके कति तंदुला भवन्ति इत्याह / चउसट्ठि चतुः षष्टितंदुलसाहसिको मागधप्रस्थोभक्त्येकः एवं कवलं कतिभिः तंदुलैः स्यादित्याह (विसाहस्सिएणकवलेणंति) द्विसाहस्रीकेण तंदुलेनकवलो भवति तत्र गुंजा कति भवन्ति यथा एकविंशत्यधिकशतप्रमाणः किचित्न्यूना एका गुंजाचेति अनेन कवलमानेन पुरुषस्य द्वात्रिंशत् कवलरूप आहारो भवति 1 स्त्रिया अष्टाविंशतिकवलरूप आहारः 2 पंडकस्य नपुंसकस्य चतुर्विंशतिकवलरूप आहारः 3 (एवमेवेति) उक्तप्रकारेण वक्ष्यमाणप्रकारेण च हे आयुष्मन् एतया गणनया एतन्मानं भवति / अथासत्यादिमानपूर्वकं अष्टाविंशतिहस्राधिकलक्ष तंदुलमान चतुः षष्ठीकवलप्रमाणं प्रस्थद्वयं प्रतिदिनं भुंजन्- प्रतिवर्षेण कति तंदुलवाहान् कतितंदुलांञ्च भुनक्तीत्याह (दो असईओ पसई इत्यादि) धान्यभृतोऽवाड्मुखीकृतोहस्तोऽसतीत्युच्यते द्वाभ्यामसतीभ्यां प्रसृतिः 1 द्वाभ्यां प्रसृतिभ्यां सेतिका भवति 2 चतसृभिः सेतिकाभिः कुडवः३ चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः४चतुर्भिः प्रस्थैराढकःषष्ठयाआढकैर्जघन्यकुंभः 6 अशीत्याढकै मध्यकुंभः 7 आढकशतेनोत्कृष्टः कुंभः 8 अष्टभिराढकशतैः वाहोभवति 9 अनेनवाह प्रमाणेन सार्द्धद्वाविंशति तंदुलवाहान्भुनक्ति वर्षशतेनेति तेच वाहोक्त तंदुला गणयित्वा संख्यां कृत्या निर्दिष्टाः कथिताः यथा चत्वारिकोटिशतानि षष्टिचैवकोटयः अशीतिस्तंदुलशतसह-स्राणिभवंतीत्याख्यातं कथितंएकेनप्रस्थेन चतुः षष्टिस्तंदुल-सहस्राणि भवन्ति प्रस्थद्वयेनाष्टाविंशतिसहस्राधिकंलक्षं भवति प्रतिदिनं द्विभॊजनेन एतावत्तंदुलान् भुनक्तीति अतोष्टाविंशतिसहस्राधिकलक्षं वर्षशतेन षट् त्रिंशदिनसहसमानत्वात् षट्त्रिंशत्सहस्त्रैर्गुण्यन्ते / शून्यानि पंच भवन्ति चत्वारि-कोटिशतानि षष्टि कोटयः अशीतिलक्षणि / 4608000000 तंदुलानामिति (तंएवंति) तदेवंसार्द्धद्वाविंशति तंदुलवाहान् भुजन् सार्द्धपंचमुद्गकुंभान् भुनक्ति सार्द्धपंचमुद्गकुंभान् भुंजन् चतुर्विंशति स्नेहाढकशतानि भुनक्ति चतुर्विंशति स्नेहाढकशतानि जन् षट्त्रिंशल्लवणपलसहस्राणि भुनक्ति षट्त्रिंशल्लवणपलसहस्राणि जन्षट्पटकशाटकशतानि (नियंसे इति) परिदधाति / द्वाभ्यांमासाभ्यां (परियट्टएणन्ति) परावर्त्तमानत्वेनेति वा अथवा मासिकेन परावर्तित्वेन द्वादश-शतशाटक शतानि नियंसे इति परिदघाति (एवमेवेत्ति) उक्तप्रकारेण हे आयुष्मन् वर्षशतायुषः पुरुषस्य सर्वगुणितं तंदुलप्रमाणादिनातुलितं पलप्रमाणादिनामवित्तमसत्तीप्रसृत्यादिना प्रमाणे नतत्किमित्याहस्नेहलवणभोजना-च्छादनमिति एतत्पूर्वोक्तं गणितप्रमाणं द्विधाभणितं महर्षिभिः यस्य जन्तोरस्ति तंदुलादिकं तस्य गुण्यते यस्य तु नास्ति तस्य किं गुण्यते न किमपीति व्यवहारगणितदृष्टं स्थूलन्यामंगीकृत्य कथितं सूक्ष्म निश्चयगतं ज्ञातव्यं यदिएतन्निश्चयगतं भवती तदाएत द्व्यवहारगणितं नास्त्येव अतो विषमा गणना ज्ञातव्येति? आहारकारणानि / / छहिं ठाणेहि समणे निग्गन्थे आहारमाहारेमाणे णाइक्कमइ तंजहा "वेयण वेयावर्च, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए / तह पाणिवत्तियाए, छठं पुण धम्मचिंताए"॥ / / टी० / / कएठ्यन्नवर माहारमशनादिक माहारयन्नभ्य वह Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 548 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार रन नातिक्रामत्याज्ञां पुष्टिकारणत्वादन्यथात्वतिक्रामत्येव रागा दिभावा त्तद्यथा वेदनेत्यादिगाथा वेदनाच क्षुद्वेदनावैयावृत्यं चाचार्यादिकृत्यकरणं वेदना वैयावृत्यं तत्र विषये भुञ्जीत वेद नोपशमनार्थ वैयावृत्यकरणायर्थं चेति भावः ई गमनं तस्याः विशुद्धियुगमात्रनिहितदृष्टित्वमीर्याविशुद्धिस्तस्यै इदमीर्या-विशुध्यर्थे इह च विशुद्धिशब्दलोपादीर्यार्थमित्युक्तं बुभुक्षितो हीर्या शुद्ध्यावशक्तः स्यादिति तदर्थमिति च समुच्चये संयमः प्रेक्षोत्प्रेक्षाप्रार्मजनादिलक्षणस्तदर्थं तथेति कारणान्तरस मुच्चये प्राणा उच्छ्वासादयोबलंवा प्राणास्तेषां तस्य वा वृत्तिः पालनं तदर्थ प्राणसंधारणार्थमित्यर्यः षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिन्तायै गुणनानुत्प्रेक्षार्थमित्यर्थः इत्येतानि षट् कारणानीति स्था०६ ठाणा / अधुनाकारणे द्वारमाह / छहिं कारणेहिं साहू, आहारेन्तो य आयरइ धम्म / छहि चेव कारणेहिं, नहिन्तो वि यायरइ / / षभिर्वक्ष्यमाणस्वरूपैः साधुराहारयन्नप्याहारमाचरति धर्म षड्भिरेवकारणे वक्ष्यमाण स्वरूपै भोजनकारणनिबंधनैः (निहिन्तो वित्ति) परित्यजन्नप्याचरतिधर्मतत्रयैः षड्भिः कारणैराहारमाहारयति तानि निर्दिशति "वेयण वैयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमहाए / तहपाणिवत्तियाए, छटुं पुण धम्म चिन्ताए" इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् (वेयणत्ति) क्षुद्वेदनोपशमनाय तथा आचार्यादीनां वैयावृत्तिकरणाय तथा ईर्यापथि संशोधनार्थ तथा प्रेक्षादिसंयमनिमित्तं तथा प्राण-प्रत्ययार्थ प्राणसंधारणार्थं षष्ठं पुनः कारणं धर्मचिन्ताभिवृद्धार्थ भुज्जीतेति क्रियासंबन्धः / एनामेव गाथां विवृण्ववन्नाह / नत्थि छुहाए सरिसा, वियणा मुंजेज तप्पसमणट्ठा / छामो वेयावचं,न तरइ काउं अओ मुंजे // इरियं न विसोहेई, पेहाईयं च संजमं काउं / थामो वा परिहायई, गुणनमणुप्पेहासु य असुत्तो / नास्ति क्षुधाया बुभुक्षाया सदृशी वेदना उक्तं च "पंथसमानस्थि जरा, | दालिद्दसमो य परिभवो नत्थि / मरणसमं नत्थिभयं, खुहासमा वेयणा नत्थि // तनत्थि जन्न वाहइ, तिलतुसमित्तंपि यए कायस्सासन्निज्ज सव्वदुहाई, देंति आहारहिययस्स" ततस्तत्प्रशमनार्थं भुंजीत तथा क्षामो बुभुक्षितः सन् वैयावृत्त्यं न शक्नोति कर्तु / तथाचोक्तं / "गलइ बलं उच्छाहो, अवेइ सिढिले इसयलवावारे / नासइ सत्तं अरई, विवट्ट असणरहियस्स" अतो वैयावृत्त्यकरणाय भुंजीत / तथा बुभुक्षितःसन्नीपिथे न शोधयत्यशक्तत्वादतस्तच्छोधननिमित्तं वा अश्नीयात् तथा क्षुधातः सन् न प्रेक्षादिकं संयमं विधातुमलमतः संयमाभिवृद्ध्यर्थं भुंजीतं तथा स्थामं बलं प्राण इत्येकार्थः ततः बुभुक्षितस्य परिहीयते परिहानि याति / ततोऽश्नीयात् तथा गुणनं ग्रन्थपरावर्तनमनुप्रेक्षा चिन्ता तयोरुपलक्षणमेतत् वाचनादिष्वपि बुभुक्षितः सन् असक्तोऽसमर्थो भवति ततोऽश्नीयात इत्यंभूतैश्च षभिः कारणैः समयैरन्यतमेन वा कारणेनाहारयन्नति क्रामति / संप्रत्यभोजनकारणप्रतिपादनार्थं संबंधगाथामाह / अहवं न कुआहारं, छहि ठाणेहिं संजओ / पच्छा पच्छिमकालाम्मि, कार अप्पखमं खमं // अथवा षड्भिः स्थानैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैः संयतः आहारं न कुर्यात् तत्र विचित्रा सूत्रगतिरिति षष्ठं शरीरव्यवच्छेदलक्षणं कारणं व्याख्यानयति (पच्छा इत्यादि) पश्चात् शिष्यनिष्पादनादि सकलकर्तव्यतानंतरे पश्चिमे काले पाश्चात्त्ये वयसि (अप्पक्खमंति) संलेखनाकरणेनात्मानं क्षपयित्वा यावजीवमशनप्रत्याख्या-नकरणस्य क्षमं योग्यमात्मानं कृत्वा भोजनं परिहरेन्नान्यथा। एतेन शिष्यनिष्पन्नाद्यभावे प्रथमेवा द्वितीये वा वयसि संलेखनामन्तरेण वा शरीरपरित्यागार्थमशनप्रत्याख्यानकरणे जिनाज्ञाभङ्गमुपदर्शयति / पिंड // (भावत एवाहरेदिति अस्मिन्नेव शब्द।) आहारत्यागकारणानि / छर्हि ठाणेहिं समणे निग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइकमइ तंजहा "आतंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए / पाणिदया तवहेउं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए" (वोच्छिंदमाणेत्ति) परित्यजन् आतंके ज्वरादावुपसर्गे राजस्वजनादिजनिते प्रतिकूलस्वभावे तितिक्षणे अधिसहने कस्याः ब्रह्मचर्यगुप्तेः मैथुनव्रतसंरक्षणस्याहारत्यागिनो हि ब्रह्मचर्य सुरक्ष स्यादिति / प्राणिदया च संपातिम-त्रसादिसंरक्षणं / तपश्चतुर्थादि षण्मासान्तं प्राणिदया तपस्तच तद्धेतुश्च प्राणिदया तपो हेतुस्तस्मात् प्राणिदया तपो हेतोर्दयादिनिमित्तमित्यर्थ-स्तथा शरीरव्यवच्छेदार्थ देहत्यागाय आहारं व्यवच्छिन्दन्ना-तिक्रामत्याज्ञामिति प्रक्रम इह गाथे। "आर्यको जरमाई, रायासन्नाइगयवसम्गे / बंभवयपालणट्टा, पाणिदया वासमहि-याई // 1 // तवहेउ चउत्थाइ, जाव य छम्मासिओ तवो होइछिटुंसरीरवोच्छे यणट्ठयाहोंति अणाहारोत्ति // 2 // " स्था०६ ठा०॥ संप्रत्यभोजनकारणानि निर्दिशति / आयंके उवसग्गे, तितिक्खए बंभचेरगुत्तीस / पाणिदया तवहेउ,शरीरवोच्छेयणट्ठाए // आतंकेज्वरादावुत्पन्ने सतिन मुंजीत / तथा उपसर्गेराजस्वजनादिकृते देवमनुष्यतिर्यक्कृत वा संजाते स ति तितिक्षार्थ मुपसर्गसहनार्थं तथा ब्रह्मचर्यगुप्तिस्विति / अत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमी / ततोऽयमर्थः ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय तथा-प्राणिदयार्थ तथा तपोहतोस्तपः करणनिमित्तं तथा चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थ सर्वत्रनभुंजीतेति क्रियासंबन्धः / एनामेव गाथां विवृण्वन्नाह !! आयंको जरमाई,रायासन्नाइ गय उवसग्गे / बंभवयपालणहा, पाणिदया वासमहियाई // आतंको ज्वरादिस्तस्मिन्नुत्पन्ने सति न भुंजीत यत उक्तं " बलावरोधिनिर्दिष्टं ज्वरादौ लंघनं हितं / कृतेऽनिलसमक्रोध शोककामक्षतज्वरान., राजस्वजनादिकृते उपसर्गे यद्वा देव मनुष्यतिर्यकृते उपसर्गे जाते सति तदुपशमनार्थ नाऽश्नीयात् / तथा मोहोदये सति ब्रह्मव्रतपालनार्थं न भुंजीत भोजननिषेधेहि प्रायो मोहोदयोविनिवर्तते / तथा चोक्तम् // "विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः / रसवऊं रसोऽप्येवं, परंट्टष्ट्रा निवर्तते" / तथा / वर्षे वर्षति मिहिकायां वा निपतन्त्यां प्राणिदयार्थ नाश्री-यात् / आदिशब्दात् सूक्ष्ममंडूकादिसंसक्तायां भूमौ प्राणि-दयार्थमटनं परिहरन्न भुञ्जीत। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 549 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार तवहेउ चउत्थाई, जाव छम्मासिओ तवो होई। छटुं शरीरवोच्छे-यणट्ठया होइ अणाहारो। तपोहेतोस्तपः करणनिमित्तं न भुंजीत तपश्चतुर्थादिकं चतुर्थादारभ्य तावद्भवति यावत्पाण्मासिकं षण्मासप्रमाणं परतो भगवद्वर्द्धमानस्वामितीर्थे तपसः प्रतिषेधात् षष्ठं पुनः प्रागुक्तविधिना चरमकाले शरीरव्यवच्छेदनार्थ भवत्यनाहारः / तदेव-मुक्तं कारणद्वारं पिं / उत्तः / अ०३०।। जह कारणं तु तंतू, पडस्स तेसिंच हॉति पम्हाई। नाणाइतिगस्सेवं, आहारो मोक्खनेमस्स // यथा पटस्य तन्तवः कारणं तेषामपिच कारणं पक्ष्माणि भवन्ति / एवमेव प्रकारेण ज्ञानादित्रिकस्य (मोक्खनेमस्सत्ति) नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः ततो मोक्षो नेमः कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः / पिं / निचू.१ उ. ! आहारप्रमाणद्वारम् बत्तीसं किर कवला, आहारोकुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला // पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यप्रमाणो द्वात्रिंशत्कवलः किलेत्याहारस्य मध्यमप्रमाणतासूचकः / महिलायाः कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिकवलः / नपुंसकस्य चतुर्विंशतिः स चात्र न गृहीतो नपुंसकस्य प्रायः प्रव्रज्यनर्हत्वात् कवलानाञ्च प्रमाणं कुकुट्यण्डम् ! कुक्कुटी च द्विधा / द्रव्यकुक्कुटी भावकुक्कुटी च / द्रव्यकुकुट्यपि द्विधा / उदरकुक्कुटी गलकुकुटी च / तत्र साधोरुदरं यावन्मात्रेणाहारेण न न्यूनंना ऽप्याध्मातं भवति स आहार उदरकुकुटी। उदरपूरक आहारः कुक्कुटी च उदरकुकुटीति मध्यमपदलोपिसमासाश्रयणात् / तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डकं तत्प्रमाणः कवलः स्यात्तथा गलः कुक्कुटीव गलकुक्कुटीगल एवं कुक्कुटीत्यर्थः / तस्यान्तरालमण्डकम्। किमुक्तं भवति / अविकृतस्य पुंसो गलान्तराले यः कवलोऽविलग्नः प्रविशति तावत्प्रमाणं कवलमश्नीयात् / अथवा शरीरमेव कुक्कुटी तन्मुखमण्डकं तत्राक्षिकपोलभुवां विकृतिमनापाद्य यः कवलो मुखे प्रविशति तत्प्रमाणम् / अथवा कुकुटी पक्षिणी तस्या अंडकं प्रमाणं कवलस्य / भावकु कुटी येन आहारेण भुक्तेन न न्यूनं नाऽप्यत्याध्मातमुदरम्भवति / धृतिञ्च समुद्वहति / ज्ञानदर्शनचारित्राणाञ्च वृद्धिरुपजायते / तावत्प्रमाण आहारो भावकुक्कुटी। अत्र भावस्य प्राधान्यविवक्षणादेष प्रागद्रव्य-कुक्कुट्यप्युक्तः / इह भावकुक्कुटी उक्तः / तस्य द्वात्रिंशत्तमोभागो अण्डकप्रमाणो तत्कवलस्य / एत्तो किणईहीणं, अद्धं अद्धद्धगं च आहारं / साहुस्स वेंति धीरा, जायामायं च ओमं च // एतस्मात्द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणादाहारात् (किणई इति) किञ्चिन्मात्रया एकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा कवलैः खाधोहीन हीनतरं यावदर्द्धमर्द्धस्याऽप्यर्द्धमाहारं यात्रामात्र माहारं धीरास्तीर्थकृदादयो ब्रुवते न्यूनञ्च एष यात्राहार एष एव वाऽव-माहार इति भावः / पिं० / / ___ संप्रति प्रमाणदोषानाह || पगामं च निगामंच, पाणीयं भत्तपाणमाहारे / अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्यो / यः कामं निकामं प्रणीतं वा भक्तपानमाहारयति तथाऽतिबहु - कमतिबहुशश्च तस्य प्रमाणदोषा ज्ञातव्याः / / संप्रति प्रकामादिस्वरूपमाह // वत्तीसाइपरेण, पगाम निश्चतमिव उ निकामं / जं पुण गलितसिहं, पणीयमिति तं दुहा विति // द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परेण परतोभुञानस्य यद्भोजनंतत्प्रकामभोजनं तदेव तत्प्रमाणातीतमाहारं नित्यन्तं प्रतिदिवसमतो निकामभोजनम्। यत्पुनर्गलितस्नेहं भोजनं तत्प्रणीतं बुधास्तीर्थकृदादयः ब्रुवते / तथाअइबहुयं अइबहुसो, अइप्पमाणेण भोयणं भुत्तं / हाएज व वामेलव, मारेन व तं अजीरंतं // अतिबहुकं वक्ष्यमाणस्वरूपमतिबहुशोऽनेकशोऽमृष्यता सता भोजनं भुक्तं सत् हादयेत् अतीसारं कुर्यात् तथा वामयेत्यद्वातदजीर्यन्मारयेत् / तस्मान्न प्रमाणातिक्रमः कर्तव्य इति / संप्रति अतिबह्वादिस्वरूपमाह। बहुयातीयमइबहु, अइबहुसो तिन्निसिनि परेणं / तंचिय अइप्पमाणं, मुंजेलइ वा अतिप्पंतो // बहुकातीतमतिशयेन बहु अतिशयेन निजप्रमाणाभ्यधिकामित्यर्थः / तया दिवसमध्ये यस्त्रीन् वारान् भुंक्ते त्रिभ्यो वा वारेभ्यः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः / तदेव च वारत्रयातीत-मतिप्रमाणमुच्यते अइप्पमाणे त्यवयवो व्याख्यातः / अस्यैव प्रकारांतरेण व्याख्यानमाह // भुक्ते यदा अतृप्यन् एष अइप्प-माण इत्यस्य शब्दस्यार्थः / अइप्पमाण इत्यत्र च शानच् प्रत्ययस्ताच्छील्यविवक्षायां यद्वा प्राकृतलक्षणवशादिति। संप्रति प्रमाणयुक्तहीनतरादिभोजने गुणानाह / हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा / न ते विजा चिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा / / हितं द्विधा द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतोऽविरुद्धानिद्रव्याणि भावत एषणीयं तदाहारयति ये ते हिताहाराः / मितं प्रमाणो-पेतमाहारयन्तीति मिताहाराः द्विात्रिंशत्कवलप्रमाणा-दप्यल्पमल्पतरं वा आहाराः / सर्वत्र वा बहुव्रीहिःहित आहारोयेषां ते हिताहारा इत्यादि एवंविधाये नरास्तान् वैद्यान चिकित्संति हितमितादिभोजनेनतेषां रोगस्यैवा संभवात् किं त्वेते स्वत एव रोगोत्थानप्रतिषेधकरणेनाऽऽत्मनैवात्मनस्ते चिकित्सकाः। सांप्रतमहितहितस्वरूपमाह || तेल्लदहिसमा जोगा, अहितं उखीरदहिकंजियाणं च / पत्थं पुण रोगहरं, विनासग होइ रोगस्स / दधितैलयोस्तथा क्षीरदधिकांजिकानां च यः समायोगः सोऽहितो विरुद्ध इत्यर्थः / तथा चोक्तं शाक्रमूलफलपिण्या-ककपित्थलवणैः सह करीरदधिमत्सयैश्च प्रायः क्षीरं विरुध्यतेइत्यादिअविरुद्धद्रव्यमेलनं पुनः पथ्यं तच रोगहरं प्रादूर्भूत रोगविनाशकरं न च भाविनो रोगस्य हेतुः कारणम् / उक्तंच "अहिताशनसम्पर्को, बहुरोगोद्भवो यतः / तस्मात्तदहितं पथ्यं, न्याय्यं पथ्यनिषेवणम्"। सांप्रतं मितं व्याचिख्यासुराह / अट्ठमसणस्स सव्वं, जणस्स कुजा दवस्स दो भागे। वाउपवियारणहूं, छभायउऊणयं कुजा | इह किल सर्व सुन्दरं षड् भिर्भागविभज्यते तत्राद्धं भागत्रय Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 550 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार रूपमशनस्य सव्यंजनस्य तक्र शाकादिसहितस्याधारं कुर्यात् तथा द्वौ भागौ द्रव्यस्य पानीयस्य षष्ठं तु भार्ग वायु प्रविचरणार्थ न्यूनं कुर्यात् इह कालापेक्षया तथा तथा आहारस्य प्रमाणं भवति / कालश्च विधा तथा चाहसिओ उसिणो साहारणो य, कालो तिहा मुणेयवो / साहारणंमि काले, तत्थाहारे, इमामत्ता // त्रिधा कालो ज्ञातव्यस्तद्यथा शीत उष्णः साधारणश्च तत्र तेषु कालेषु मध्ये साधारणे काले आहारविषया इयमनंतरोक्ता मात्रा प्रमाणम् // सीए दवस्स एगा, भत्ता चत्तारि अहव दो पाणी / उसिणे दवस्स दोन्नि उ, तिन्निव सेसा उ भत्तस्स / / शीते अतिशयेन शीतकाले द्रव्यस्य पानीयस्यैको भागः कल्पनीयश्चत्वारि भक्तस्य / मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ तस्तु भागा भक्तस्य / वा शब्दो मध्यमशीतकाल संसूचनार्थः / तथा उष्णे मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ द्रव्यस्य पानीयस्य कल्पनीयौ शेषास्तु त्रयो भागाः भक्तस्य। अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रव्यस्य शेषौ द्वौ भागौ भक्तस्य / वा शब्दोऽत्रात्युष्णकालसंसूचनार्थः सर्वत्र च षष्ठो भागो वायुप्रविचरणार्थमुक्तोऽतो मोक्तव्यः / संप्रति भागानां स्थिरचरविभागप्रदर्शनार्थमाह / एगो दवस्स भागो, अवट्ठितो भोयणं दो भागा।। वडुंति व हाइंति व, दो दो भागा उ एक्केके ||3|| एको द्रव्यस्य भागोऽवस्थितो द्वौ भागौ भोजनस्य शेषौ तौ द्वौ भागौ एकैकस्मिन् भक्त पाने चेत्यर्थः / वर्द्धते वा हीयेते वृद्धिं वा व्रजेते हानिंवा व्रजेते इत्यर्थः / तथा हि / अतिशीतकाले द्वौ भागौ भोजनस्य वर्धते अत्युष्णकाले च पानीयस्य / अत्युष्णकाले चद्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले पानीयस्य / एतदेव स्पष्टं भावयति // एत्थ उतइयचउत्था, दोन्निय अणवट्ठिया भवेभागा / पंचमछटो पठमो, विइओ विअवट्ठिया भागा // 1 // आहारविषयौ तृतीयचतुर्थी भागावनवस्थितौ तौ ह्यति-शीतकाले भवतोऽत्युष्णकाले चन भवतः / तथाऽयं पानविषयः पंचमो भागो यश्च वायुप्रविचरेणार्थषष्ठो भागोयौ च प्रथमद्वितीयावाहारविषयावेतेसर्वेऽपि-- भागा अवस्थितान कदाचिदपि भवंतीतिभावः / तदेवमुक्तं प्रमाणद्वयम् / पिं / सूत्र०१ श्रु०७अ | "आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं, स्यादाहारः प्राणसंधार-णार्थ / / प्राणाधार्यास्तत्त्वजिज्ञासनार्थ, तत्त्वज्ञेयं येन भूयो न भूयात्" / / ||1|| आचा० अ०३ उ०१॥ प्रणीताहारभोजनं न युक्तं ब्रह्मचारिण इति (बम्हचेरसमाहि) शब्दे / स्तोकाहारफलं (पडिक्कमण) शब्दे॥ आहारस्यांगारधूमादिदोषाः (अंगारधूमादि) शब्देषु उक्ताअपि संग्रहेणाह।। अह मंते ! सइंगालस्स सधूमस्स संजायेणादासेदुट्ठस्स | पाणभोयणस्य के अटे पण्णत्ते ? गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असणपाण२ पडिग्गहेत्ता समुच्छिए गिद्धे गढिए अज्जोववण्णए आहारं आहारेइ एसणं गोयमा ! सइंगाले पाणभोयणे जेणं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिलं असण 4 पडि ग्गहेत्ता महया अप्पत्तियकोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ एसणं गोयमा! सधूमे पाणमोयणे जेणं निग्गंथे वाजाव पडिग्गहेत्ता गुणुप्पायणहेउं अण्णदवेणं सद्धिं संजोएत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! संजोयणादोसदुढे पाणभोयणे एएणं गोयमा ! संशालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुट्ठस्स पाणभोयणस्स अट्टे पण्णत्ते / / (संइगालस्सत्ति) चारित्रेन्धनमगारमिवयः करोति भोजनविष यरागाग्निःसोऽङ्गार एवोच्यते तेन सह यद्वर्तते पानकादितत्साझारं तस्य (सधूमस्सत्ति) चारित्रेन्धनधूमहेतुत्वाद्भूमो द्वेषस्तेन सह यत्पानकादि तत्सधूमं तस्य (संजोयणादोसदुट्ठस्सत्ति) संयोजना द्रव्यस्य गुणविशेषार्थ, द्रव्यान्तरेण योजनं स इव दोषस्तेन दुष्टं यत्तत्तथा तस्य (जेणंति) विभक्तिपरिणामाद्यमाहारमाहारयन्तीति संबन्धः (मुच्छिएत्ति) मोहवान् दोषानभिज्ञत्वात् (गिद्धेत्ति) तद्विशेषाकांक्षावान् (गढिएत्ति) तद्गतस्नेहतन्तुभिः संदर्भितः (अज्जोववण्णत्ति) तदेकाग्रतां गतः (आहारमाहारे त्ति) भोजनं करोति (एसणंति) एष आहारः साङ्गारं पानभोजनम् (महयाअप्पत्तियंति) महदप्रीतिकमप्रेम (कोहकिलामंति) क्रोधात्क्लमः शरीरायासः कोधत्क्लमोऽतस्तं (गुणुप्पायणहेउ-ति) रसविशेषोत्पादनायेत्यर्थः // भ०७ श०१ उ० / __ उत्तरगुणानधिकृत्याह || सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा। अमुच्छिएण ज्जुववन्नएवा // घितिमं विमुक्केण य पूयणट्ठि। न सिलोयगामीय परिष्वएज्जा // 23 // निक्खम्म गेहाउ निरावकंखी / कार्यवि उस्सेज नियाणछिन्ने / णो जीवियं णो मरणावकंखी। चरेन्ज मिक्खू वलयाविमुक्केत्तिबेमि ||24|| (सुद्धेसिया इत्यादि) उद्गमोत्पादनैषणाभिः शुद्ध निर्दोषे स्यात् कदाचिद्याते प्राप्ते पिंडे सति साधू रागेद्वषाभ्यां न दूषयेत् / उक्तं च "बायालीसेसणसं, कडंमि गहणमि जीव नहु च्छलिओ / इण्हिं जह न छलिजसि, भुंजतो रागदोसेहिं" तत्रापि रागस्य प्राधान्यख्यापनायाह। न मूर्छितोऽमूर्छितः सकृदपि शोभनाहारलाभे सति गृद्धिमकुर्वन्नाहारयति / तथा नाऽध्युपपन्नस्तमेवाहारं पौनः पुन्येनानभिलषमाणः केवलं संयम यात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत् प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टा-हारसन्निधावभिलाषातिरेको जायत इत्यतोऽमुर्छितोऽनध्यु पपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् / उक्तं च " भुत्तभोगो पुरा जो वि, गीयत्थो वि य भाविओ। संते साहारमाईसु, सोविखिप्प तु खुज्जइ"|| सूत्र० श्रु.१ अ० 10 // Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 551 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार शास्त्रातिक्रान्त आहारः / / अह भंते ! सत्थातीयस्स, सत्थपरिणामियस्स, एसियस्य, वेसियस्स, समुदाणियस्स, पाणभोयणस्स, के अट्ठपण्णत्ते ? गोयमा! जेणं निग्गंथे वार निक्खित्तसत्थमुसले ववगयमालावण्णगविलेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेहं जीवविप्पजढं अकयमकारिमसंकाप्पियणाहूयमकिय-कडमणुद्दिष्टुं नवकोडिंपरिसुद्धं दसदोसविप्पमुकं उग्गमउप्पायणेसणासु परिसुद्धं वीइंगालं वीइधूमं संजोयणादोसविप्पमुक्कं असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडिं अक्खोवंजणवणाणुलेवणुभूयं संजमजाया मायावत्तियं संजमभारवहणट्ठयाए विलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेइ एसणं गोयमा ! तस्यातीयस्स, सत्थपरिणामियस्स, जाव-पाणभोयणस्स, अयमढे पण्णत्ते तं चेव सेवं भंते ! भंतेत्ति || (सत्थातीतस्सत्ति) शस्त्रादायादेरतीतमुत्तीर्ण शस्त्रातीतम् एवं भूतंच तथाविधप्रयुकादिवदपरिणतमपि स्यादत आह (सत्थपरिणामियस्सत्ति) वर्णादीनामन्यथा करणेनाचित्ती-कृतस्येत्यर्थः / अनेन प्रासुकत्वमुक्तम् (एसियस्सत्ति)एषणीय-स्य गवेषणाविशुद्ध्या गवेषितस्य (वेसियस्सत्ति) विशेषेण विविधैर्वा प्रकारैरेषितंव्येषितंगृहणैषणाग्रासैषणाविशोधितं तस्य अथवा वेषो मुनिनेपथ्यं स हेतुाभे यस्य तद्वैषिकं आकारमात्रदर्शनादवाप्तं नत्वावर्जन या अनेन पुनरुत्पादनादोषापोहमाह / (समुदाणियस्सत्ति) ततस्ततो भिक्षारूपस्य किं भूतो निर्ग्रन्थ इत्याह / (निक्खित्तसत्थमुसलेत्ति) त्यक्तखङ्गादिशस्त्रमुसलः (ववगयमालावण्णगविलेवणेत्ति) व्यपगपुष्प-मालाचंदनानुलेपनः स्वरूपविशेषणे चेमे / नतुव्यवच्छेदार्थे निर्गन्थानामेवं रूपत्वादेवेति (ववगयचुयचइयचत्तदेहति) व्यपगता स्वयं पुथग्भूता भोज्यवस्तुसंभवा आगंतुका या कृत्यादयश्च्युता मृताः स्वत एव परतो वाऽभ्यवहार्यवरत्वात्मकाः पृथिवीकायिकादयः / (चइयति) त्याजिता भोज्यद्रव्यात् पृथक्कारिता दायकेन (चत्तंत्ति) स्वयमेवदायकेन त्यक्ता भक्ष्यद्रव्यात् पृथक् कृता देहाभेदविवक्षयादेहिनो यस्मात् स तथा तमाहारम् / वृद्धवायख्या तु व्यपगत ओघतश्चेतनापर्याया-दपेतश्च्युतो जीवनक्रियातो भ्रष्टश्चयावितस्तत एवाऽऽयुष्कक्षयेण भ्रंशितस्त्यक्तदेहः परित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवोपचयस्तत एषां कर्मधारयो ऽतस्तं किमुक्तं भवतीत्याह (जीवविप्पजढंति) प्रासुकमित्यर्थः (अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूयमकीथकडमणुट्ठि) अकृतं साध्वर्थमनिर्वर्तितंदायकेन एवमकारितं दायकेनैव अनेन विशेषणद्वयेनानाधाकर्मिक उपात्तः असंकल्पितं स्वार्थ संस्कुर्वता साध्वर्थतया न संकल्पितं अनेनाप्यनाधाकर्मिक एव गृहीतः स्वार्थ मारब्धस्य साध्वर्थ निष्ठां गतस्याऽपि आधाकर्मिकत्वात् / न विद्यते आहूतमाह्वानमामन्त्रणं नित्यं मद्गृहे पोषमात्रमन्नं ग्राह्यमित्येवं रूपं कर्मकराद्याकरणं या साध्वर्थ स्थानान्त शदन्नाद्यानयनाय यत्र सोऽनाहूतोऽनित्यपिण्डो ऽनभ्याहृतोवेत्यर्थः / स्पर्धया वाऽऽहूतं तनिषेधादनाहूतो दायके नास्पर्धयादीयमान इत्यर्थः / अनेन भावतोऽपरिणता-भिधान एषणादोषनिषेध उक्तोऽतस्तस्तमक्रीतकृतं क्रयेण साधुदेयं न कृत मनुद्दिष्टमनौद्देशिकं (नवकोडीपरिसुद्धति) इह कोटयो विभागास्ताश्चेमा बीजादिकं जीवं न हन्ति न घातयति घ्नन्तं नानुमन्यते / 3 / एवं न पचति / 3 / न क्रीणाति / 3 / इत्येवं रूपाः (दसदोसविप्पमुक्कंति) दोषाः शंकितम्रक्षितादयः / (उग्गममुप्पायणेसणासुपरिसुद्धति) उगमश्च आधाकादिः षोडशविधः / उत्पादना च धात्रीदूत्यादिका षोडशविधैव उद्गमोत्पादने एतद्विषया या एषणा पिण्ड विशुद्धिस्त या सुष्ठु परिशुद्धो यः स उद्गमोत्पादमैषणासु परिशुद्धो ऽतस्तम् अनेन चोक्तानुक्त संग्रहः कृतः / वीतांगारादीनि क्रियाविशेषणान्यपि भवन्तिः प्रयोऽनेन च ग्रासैषणा विशद्धिरुक्ता (असुरसुरंति) अनुकरणशब्दोऽयम् एवं (अचवचवमित्यपि) (अदुयंति) अशीघ्रं (अविलंवियंति) नातिमन्थरम् (अपरिसाभिंति) अनवययोज्जितं (अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयंति) अक्षोपांजनं च शकटधूम्रक्षणं व्रणानुलेपनं च क्षतस्यौषधेन विलेपनं अक्षोपांजनव्रणानुलेपने ते इव विवक्षितार्थसिद्धिरसादिनिरभिष्वङ्गतासाधाद्यः सोक्षोपांजनवणानुलेपनभूतोऽतस्तं क्रियाविशेषणं वा ॥५॥(संजमजायामायावित्तियत्ति) संयमयात्रा संयमानुपालनं सैव मात्रा आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रा मात्रा तदर्थं वृत्तिः प्रवृत्तिर्यत्राहारे स संयमयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं संयमयात्रामात्रावृत्तिक वा यथा भवति संयमयात्रामात्रा वा प्रत्ययो यत्र स तथाऽतस्तं संयमयात्रा मात्राप्रत्ययं वा यथा भवति / एतदेव वाक्यान्तरेणाह / (संजमभारवहणट्टयाएत्ति) संयम एव भारस्तस्य वहनं पालनं स एवार्थः संयमभारवहनार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्यै (बिलंमिव एण्णगभूएणं अप्पाणेणंति) विले इव रन्ध्र इव पन्नगभूतेन सर्पकल्पेनात्मना करणभूतेन आहारमुक्त विशेषणं आहारयति शरीरकोष्ठके प्रक्षिपति / यथा किलबिले सर्प आत्मानं प्रवेशयति पार्शनसंस्पृशन्नेवं साधुर्वदनकंदरपाश्र्वानसंस्पृशन्नाहारेण तदसंचारणतो जठरबिले आहारं प्रवेशयतीति / (एसणंति) एषोऽनंतरोक्तविशेषण आहारः शस्त्रातीतादिविशेषणस्य पानभोजनस्यार्थो ऽभिधेयः प्रज्ञप्तः / भ०७ श०१ उ० / / अनु० / वि। आहारपरिष्ठापना (परिट्ठावणा) शब्दे // भक्तपरिज्ञा तु समाध्यर्थमाहारो दीयते / (इति भत्तपरिणा) शाब्दे / युगलिनः कन्दाद्याहारा आसन् ऋषभस्वामिना-ऽन्नाहारिणः कृताः / सूत्रं / जे भिक्खू पिउमंदपलासयं वा पडोलपलासयं वा विल्लपलासयं वा सीउदगवियटेण वा उसिणोदगवियटेण वा संफाणिय संफाणिय आहारेइ आहारंतं वा साइज्जइ / / 14 / / पिचुमंदो निंबो पलासं पत्तं संफाणियंति धोविउं अहवा संफोडिउं मेलितुमित्यर्थः। गा-आहारमणाहारस्स, मग्गणा णिमसा कता होति / निंबपडोलादीहि, दियराओ चउक्कभयणाओ / 38 / को आहारो को वा अणाहारो एतेहिं लिंबपडोलाइएहिं मग्गणा कता भवति आहार आणाहारे दियरे वा रातिं चउभंगो दियागहियं दियाभुत्तं एवं च भंगो // गा.-जा हट्ठस्साहारो, चउविहो परियासियं तं तु / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 552 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहार जिंबपडोलादीयं सति लाभे जं व परिवसति // 39 // हट्ठोणिरोगो णिव्याधितो समत्तो तस्स जो आहारो असणाइचउव्विहो तं परियासिउं जो भुंजति चउभंगेण तस्सपच्छित्तं / इमं / गा-आहारे चउभंगे, चउगुरुगेतरे व चउलहुगा / / सुत्तं पुण तदिवसं जो धुवति अचेतणा पलासो ||40 // आहारे परियासिते चउसु चउगुरुगं इतरे अणाहारिमेसु चउसु विभंगेसु चउलहुं इमे पुण सुत्तं जो तद्देवसियं अचित्तंधुविओ भुंजति तस्स भवति अणाहारियं परियासियं पडुच्च भण्णति // गा-भयणपदाण चउण्हं, अण्णतराएण जो तु आहारे / णिवपडोलादीयं, सो पावति आणमादीणि / / 41 // चउरोभंगा भयणापदात्तेहिं जो आहारेति तस्स आणादिदोसा संफाणंति सुत्तपदंतेस्सिं मावक्खा // गा.- सतिणव उसिणेणव, वियडेणं धोवणानुफंसण्णा / अहवा जायं धोवति, संफाहो एगहाणेगाहं / / 42 / / एगाहाणेगाहं एगाणेगदिवसपिंडिताणि धोवति इमा विराहणा। गा.-छट्ठवतविराधणता, पाणादीया समुच्छंति / तदिवसधोवणवा, तं णिस्सितघाती भुजंतो / / 43 / / छटुं रातीभोयणवयं तं विराहिज्जति मच्छियातिपाणा तत्थतिलिंति ते गिहिकोइलिया तिणंति किजंतेसु वा पिंडिएसु कुंयुमाती संमुच्छति / आद्य शब्दः तर्कणादिदोषादिप्रतिपादनः यथा गवाद्यां ब्राह्मणान् परिभोजयेत् एते परिवासितेदोसा इने तद्देवसिते वि लिंबपत्ताति अणट्ठा घेत्तुं धोविउं भुजंतस्स तण्णिसियपाणिघातो भवति धावंतस्स य प्लावणदोसो अतो तद्देवसियंपि ण कप्पति भुंजिउं कारणाकप्पति // वितियपदं गेलण्णो, वेजुवएसे य दुल्लभंदव्वं / दविसंजत्तणाए, वीयं गीयत्थसंविग्गे / / 44 // गिलाणकारणे वेज्जुवदेसेण संफाणे दुल्लभं दव्वं वा अणेगदिवसे संफाणेतितद्देवसियं पुण परसंफाणियं गेण्हंति असति अप्पणा वि संफाणेति तद्देवसिंयमि अलभंते वितियमिति आगाढे पओयणे गीतत्थे संविग्गे सविगरणं पि करेज तं पुण पित्तादिरोगाणं पसमणट्ठा इमं गेहे // पउमप्पलमाउलुंगे, एरंडे चेव णिबुपत्ते य / वेज्जुवदेसे गहणं, गीतत्थे विकरणं कुञा // 45 // पित्तुंदए य पउमप्पलासपिणं वाए निंबाए मातुलुंगं वा एरंडो संभेणिं च पत्ता तद्दिवस जयणाएत्ति / अस्य व्याख्या / वेब्रुवएसे गहणति / वितियं संविग्गेत्ति / अस्य व्याख्या / गीयत्थे विकरणं कुजाएतदेवार्थं स्फुटतरं करोति // संफाणितस्स गहणं, असती घेत्तूण अप्पणा धोवे / तद्दिवसिगिलंभासति, णेगा विणिसातु संफाणो 1145 || तदेवसियस्स अलाभे अणेगदिवसे वि करेति // निचू०२ उ०॥ (सचित्तवृक्ष मधिष्ठायनाहारः कार्य इति सचित्तरुक्खशब्दे / ) (आहारग्रहणविधिः-गोयरचरिया, शब्दे // ) संसार चक्कवाले, सवे ते पुग्गलामए बहुसो / अहारिया य परिणा-मियाय न यहं गओ तत्तिं / / 25 / / आहारनिमित्तेणं, अह यं सव्वेस नरयलोएस / उववन्नोमिय बहुसो, सव्वासु य मिच्छजाईसु / 23 / / आहार निमित्तेणं, मिच्छा गच्छंति दारुणे नरए / सचितो आहारो, न खमइमणसा वि पच्छेउं / / 24 / / महा. प. // आहियते इत्याहारः / ओदनादौ, |सूत्र || 1 श्रु.प्र. अ./ चउविहे आहारे प.तं असणे पाणे खाइमे साइमे // स्था०४ वा. // अट्ठविहे आहारे पण्णत्ते तं // मणुण्णे असणे पाणे खाइमे साइमे अमणुण्णे असणे पाणे खाइमे साइमे / स्था०८ वा. // असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। एसो आहारविही, चउविहो होइ नायव्वो || 36 / / अशनं मंडकौदनादि पानं चैव द्राक्षापानादिखादिम फलादि स्वादिम गुडादिएष आहारविधिश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इतिगाथार्थः / आव / ६अ। सांप्रतं समयपरिभाषया शब्दार्थनिरूपणायाह / / आसुंखुहं समेइं, असणं पाणाणुवग्गहे पाणं / खे माइ खाइमंति, साएइ गुणे तओ साइ / / 37 / / सम्वो वि अ आहारो, असणं सटवो वि बुचई पाणं / सव्वो वि खाइमंति अ, सव्वो वि अ साइमं होई // 38 / / जइ असणं चि असवं, पाणगमविवञ्जणंमि सेसाणं / हुवइ असेसविगेगो, त्तेण विभत्ताणि चउरोवि / 39 / असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा / एवं परूविरं मीस- दहि ओ जे मुही होइ // 40 // (आसुति) आशु शीघ्रं क्षुधां बुभुक्षां समयतीति अशनम् / तथा प्राणानामिन्द्रियादिलक्षणानामुपग्रहे उपकारे यद्वर्तते इति गम्यते तत्पानमिति / खमित्याकाशंतच मुखविवरमेव तस्मिन्मातीतियतस्ततः खादिमम् ।स्वादयतिगुणान् रसादीन संयमगुणान्या यतस्ततः स्वादिमं / हेतुत्वेन तदेवास्वादयतीत्यर्थः / विचित्रनिरुक्तिपाठाभ्रमति रौति तभ्रमरइत्यादिप्रयोगदर्शनात्साधुरेवाऽयमन्वर्थः इतिगाथार्थः // 37 // उक्तः पदार्थ पदविग्रहस्तु समासभाक् पदविषय इतनिोक्तः अधुना चालना-माह || (सव्वो वि यत्ति) यद्यनंतरोदितपदार्थपेक्षया अशनादीनीति / यतः सर्वोऽपि चाहारश्चतुर्विधोऽपि तथा / अशनं सर्वोऽपि चोच्यते / पानकं सर्वोऽपि च खादिमं सर्व एव च स्वादिम भवति अन्वर्थाविशेषात् / तथा हि यथैवाशन-मोदनमंडकादि क्षुधं शमयति एवं पानमपि तत्तथैव द्राक्षाक्षीरपानादि / खादिममपि फलादि, स्वादिममपि गुडादि / यथा च पानं प्राणानामुपग्रहे वर्तते एवमशनादीन्यपि तथा चत्वार्यपि खे मान्तिचत्वार्यपि वा स्वादयन्ति अस्वाद्यते चेति न कश्चिद्विशेषस्त स्मादयुक्त एवं भेद इति गाथार्थः / / 38 / / इयं चालना / प्रत्यवस्थानं तु यद्यपि एतदेव तथापि तुल्यत्वार्थप्राप्तावपिरुढितो नीति प्रयोजनं च संयमोपकारकमस्त्येवं कल्पनया अन्यथा दोषस्त था चाह (जइ असणत्ति) यद्यशनमेव सर्वमाहारजातं गृह्यते ततः शेषापरिभोगेऽपि पानकाद्यवर्जने उदकापरित्यागे शेषाणामाहारभेदानां निवृत्तिन कृता भवतीति Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार 553 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहारग वाक्यशेषः ततः का नो हानिरिति चेत् भवति विशेषविवेकः अस्ति च शेषाहारभेदपरित्यागः न्यायोपपन्नत्वात् प्रेक्षापूर्व नेत्यर्द्ध कुक्कुट्या पठ्यते अर्द्ध प्रसवाय कल्पत इत्यपरिणतानां श्रद्धा च न जायते एवं सामान्यविशेषभेदनिरूपणया सुखाव सेयं सुखश्रद्धेयं च भवतीति गाथार्थः / / 38 // तथा चाह-असणंगाहा, असनं पानकं चैव खादिम स्वादिमंतथा / एवं प्ररूपिते सामान्यविशेषभावनाख्याते तथ्यावबोधात् श्रद्धा प्रवर्तते उपलक्षणार्थत्वाद्दीयते पाल्यते च सुख मिति गाथार्थः / 40 / / उपस्कृतसंपन्नादिना आहारचातुर्विध्यम् चउविहे आहारे पं.तं. उवक्खरसंपन्ने उवक्खड संपन्ने सभावसंपन्ने परिजुसिय संपन्ने || उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करो हिग्वादिस्तेन संपन्नो युक्त उपस्क रसंपन्नस्तया उपस्करमुपस्कृतं पाक इत्यर्थस्तेन संपन्न ओदनकमंडकादिः उपस्कृतसंपन्नः पाठान्तरेण नो उपस्कारसंपन्नो हिंग्वादिभिरसंस्कृत ओदनादिः / स्वभावेन पाकं विना संपन्नः सिद्धः द्राक्षादिः स्वभावसंपन्नः (परिजुसियत्ति) पर्युषितं रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः इड्डरिकादिः यतस्ताः पर्युषिता-कलनीकृता आम्लरसा भवंति। आहारस्य लौकिकालौकिकोत्तरिकाश्च भेदाः (पिंडशब्देवक्ष्यंते) पिंडरूपत्वात् तस्य। आहारपरिश्रावणम् / / / सूत्र-जे भिक्खू असणं वा४अणागाढे परिसावेइ परिसावंतं वा साइज्जइ / / 184 // जे भिक्खू परिसावियस्स असणं वा / तया पमाणं वा मुंजप्पमाणं वा विंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ आहारंतं वा साइजइ / / 185|| अश् भोजनो / खाद भक्षणे / पा पाने / स्वद आस्वादंनेएते चतुरो तिण्णि दो अण्णयरं वा जे रातो अणागाढेण आगाढं अणागाढं तंमि जो परिवसावेति तस्स चउगुरुं आणाति विराहणा य भवति इमा निज्जुत्तिगाहा। जे भिक्खू असणादि,रातो अणागाढणिक्खवेजाहि सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराहणं पावे / 175) (आगाढचातुर्विध्यमागाढशब्दे) अणागाढे इमं सुत्तं अणागाद परिवसावेति तस्स य सोहि संजमो य विराहणादोसा य तत्थ संजमे इमा विराधणा / / संमुच्छंति तहिं वा, अण्णे आगंतुगावलग्गंति / परनोपरगलमाणा, विसएमेव असणादि / / 189|| असणादिए परिवेसाविते किमिरसगादीपाणा संमुच्छंति अण्णे वा मुच्छियमसगमक्कोडपिवीलिगादी पडति तक्कों ति परंपरतो वा भवंतितं परिवासिदव्वं मच्छियगपइंगमुसगा दिताति, मच्छियातो गिहिकोइलिया तक्केति, गिहकोइलगं मजारो तक्केति, मज्जारं साणो तक्केति, एस तक्कंति, परंपरओ अह च भायणं परिगलिति तत्थ वि परिगलितं एवं चेव तक्केत्त परंपरओ, अत्र मधुवेंदोपाख्यानं दृष्टव्यं एसा संजमविराहणा लाला तया विसो वा, उंदरपिंडी व पडणसुक्कंवा / घरकोइलसत्तेजा पिवीलगा मरणतो णाणं / / 192 / / भत्ते पाणे वा परिवासियवविते सप्पादिणा जंघासणेण लालाविससंमिस्सा मुक्को हवेजातया विसेण वा फंसितं हवेजा तेहिं वासगतेहिं दीयं निसंठं तं पडेजा / घरकोइलो वा सुत्तेज्जा गिहकोकिल अवयवसंमिस्सेण भुत्तेण पोट्टे किलगिहकोइला संमुच्छंति मुइंगा संमुदि वा पडिपायत्थ मुइंगासु मेहा परिहायति / मेहापरिहाणीए णाणं विराहणा सेसेसु आयविराहण परियावणा परियावणादि जाव चरिमं पावती वितियपदे आगाढो कारणे निक्खिवंतो अदोसो तंच इमं // वितियपदं गेलण्णो, अट्ठाणो मे य उत्तमट्टय / एतेहि कारणेहि, जयणाए णिक्खमे भिक्खू / / 193 // गिलाणस्स पदं दिण्णं अलभंते अट्ठाण पावं नाणं असंथरणे दुब्भिक्खे य असंथेरंते उत्तमट्ठपडिवन्नस्स असमाहाणे तक्खणमलंभे एवमादिकारणेहिं जयणा ते परिवासेज्जा इमा जयणागाहा // सवडपमुहे वा, ददरमतणातीअपरिभुजंते / उंदरभए सरावं, कंटियठवरिअहेभूति / / 194 / / लाउए सवोढं उज्जतिअप्पमुहे वाकुडमुहादिसुतत्थबोढुंचम्मेण धणेण वा चीरेण दद्दरेति दद्दरासतिसरावादीपिधाणं दातुंसंधिभयणेण लिंपति छगणेण मट्टियाए वा ततो अव्वा बाहे एगंत गवेंति, जत्य उंदरभयं तत्थ सिक्कं एकातुंचेहासेतवेंति, जदिरजएउंदरा अवतरंति तत्थंतरा सरावं ठवेंति, कंटकाउ काउंवा कद्दमे उद्धंमुहा करेंति / एसा उवरिरिक्खा भूमिठियस्सवा अहोभूती करेंतिपरिगलणभया चेहासट्ठियस्स अहोभूती करिजति जत्थ पिवीलिगभयं तसगायणस्थि रजवा मूसगेहि छिदेण भयं तत्थिमा आलयविही। ईसिं भूमिमपत्तं, असणं वा विच्छिणरक्खहा // पडिलेहउभयकालं, अगीय अंतरं न अण्णंतु / 175 / भूमिए ईसिं अपत्तं रज्जूए उसारेंति आसण्णं वाहेट्ठा अणप्फिडतं ठवंत्ति किमेवं ठविज्जति जदि मूसगेण रजूछिजति तो सपाणभोयणं पडितं पिण भिजति ररिकयं भवति पुव्वा वरासुय सज्जासु पडिलेहपमजणा करेंति अगीतगिलाणा जत्थ वसहीए, तत्थ उवेंति ते वा अगीय- गिलाणा अण्णत्थ ठवेत्ति / नि० चू,१९ उ. / / आहारप्रतिपादकत्वात्प्रज्ञापनाया अष्टाविंशे पदे, च / प्रज्ञा.१ पद // आहारएसणा- स्त्री०(आहारौषणा) आहारस्य एषणा ग्रहणाद् गवेषणादिग्रहणस्तदर्थसूचकत्वादाहारैषणा / दूमपुष्पिका नाम नि दशवैकालिकस्य प्रथमे अध्ययने, दश०१ अ // आहारओ-अव्य(आहारतस्) ल्यप् लोपे कर्मणि पंचमी / आहारमाश्रित्येत्यर्थे, "आहारओ पंचकवजणेण" आहार माश्रित्य पञ्चकं वर्जयन्ति / "लसणं पलांडुः करमीक्षीरं गोमां सं मद्यं चेत्येतत्पंचकवर्जनेन मोक्षं वदन्ति / " सूत्र 1 श्रु०७ अ० // आहारग-न०(आहारक) चतुर्दशपूर्वविदाऽऽहियतेगृह्यते इत्याहारकमथवा ऽऽहियन्ते गृह्यन्ते के वलिनः समीपे सूक्ष्म जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् / अनु विशे० / स्था० / वा०२ / शरीर भेदे, स. / अणाहारगशब्दे दंडकमुक्तम् / / ओ जो लो मप्रक्षेपाहाराणामन्यतमाहारमाहारयतीति आहारकः / अनाहारक विलक्षणे जीवे, कर्म || चतुर्दशपूर्वविदा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारगंगो 554 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहारपच तथाविधकार्योत्पतौ विशिष्टलब्धिवशादाह्रियते निवर्यते इत्याहारका | आहारजतित्ति-स्त्री. (आहारजतृप्ति) भोजनजनितबुभुक्षोपशमे, पंचा० अथवाऽऽहियंते गृह्यते तीर्थकरादि सभीपे सूक्ष्मजीवादयः पदार्था 630 // अनेनेत्याहारकं / कृबहुलमिति कर्मणि करणे वा णकः / यदवादि आहारजाइ-स्त्री०(आहारजाति)अभ्यवहार्यसामान्ये, पंचा०५० 'कजंमि समुप्पन्ने, सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए / जं इत्थ आहरिज्जइ, आहारजात-न०(आहारजात) अभ्यवहार्यसामान्ये पंचा० 10 10 भणंति आहारगं तं तु // 1 // " कार्य चेदं / पाणिदय-रिद्धिदरिसण, छम्मत्थो वग्गहण हेऊ वा संसयवुच्छे यत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि। आहारणीइ-स्त्री०(आहारनीति) संस्कृताहारभक्षणप्रकारे, ऋषभकर्मः / एतचाहारकं कदाचनापिलोके सर्वथा पि न भवति तद्याऽभवनं स्वामिनो गृहावासात् पूर्वमसंस्कृताहारेण आसन् ते च तदा जघन्यत एक समयमुत्कर्षतः षण्मासान् यावत् / उक्तंच "आहारगाई ऋषभस्वामिनाऽन्नाहारिणः कृताः इति उसभशब्दे उक्तं / आ. चू० // लोके छम्मासा जा न होति विकयाई / उक्कोसेणं नियमा, एवं समयं आहारणीहार-पुं०(आहारनिहार) विसर्जने, विङ्यिसर्जने, नि. चू२ऊ // जहन्नेणं,,जी०१प्र० / प्रज्ञा०२० पद : पं० सं०। द्वा० / आव / सूत्र। आहारपइण्णा- स्त्री०(आहारपरिज्ञा) आहारस्य परिज्ञाप्ररूप के आहारकशरीरं चतुः कृत्वा मोक्ष इति न सर्वस्य चतुर्दशपूर्विण इति / सूत्रकृतांगस्य 2 श्रु. द्वितीयेऽध्ययने, स्था० 7 ठा० / आव० / प्रश्र०२ (समुग्घाय) शब्दे / / ओगाहणशब्दे तदवगाहना / / आहारकाः अ / द्वा० // सदैवानाहारका विग्रह गतौ सदैवानाहारकाः भवन्ति, स्था०२ ठा० // | आहारपञ्चक्खाण-न०(आहारप्रत्याख्यान) सदोषाहारपरिहारे, तत्फलं आहारकशरीर वति, विशे० / / आहारकशरीरलब्धिसंपन्ने कल्प० / / यथा // आहारगंगोवंगणाण- न०(आहारकाङ्गोपाङ्गनामन्) अभोपाङ्गनाम- आहारपचक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? आहारपञ्चकर्मभेदे, यदुदयादाहारकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्रला नामङ्गोपाङ्ग- क्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वेच्छिंदइ जीविया संसप्पओगं विभागपरिणतिरुपजायते, कर्म || वोच्छिंदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ / / 35 / / उत्त. आहारगजुगल-न०(आहारकयुगल) आहारशरीराहारकां गोपांङ्गलक्षणे 29 अ० // आहारकद्विके,कर्म। हेभदन्त !आहास्य प्रत्याख्यानेन सदोषाहारत्यागेन उपवासादिना आहारगणाम- न०(आहारकनामन्) आहारकनिबंधने नाम्नि कर्म / / जीवः किं फलं जनयति गुरुराह हेशिष्य ! आहारप्रत्याख्यानेन आशंसा आहारगदुग-न०(आहारकद्विक) आहारकशरीराहारकांगो पांगलक्षणे अभिलापस्तस्याः प्रयोगो व्यापारो जीवि ताशासंसप्रयोगस्तं व्यवच्छिनत्ति निवारयति जीविताशंसा रहितो मुनिन क्लेशभाक् स्यात् नामकर्मोत्तरप्रकृतिद्वयेऽर्थे, पं. सं. // इति भावः // आहरगलद्धि- स्त्री०(आहारकलब्धि) आहारकशरीरकरण शक्ती, आहारकशरीरं च हस्तप्रमाणमेकस्मिन् भवे, द्विः संसारे च चतुः दु-ति-चऊविहारेसुकप्पम् लघुप्रवचने यथाकृत्वस्तीर्थकरस्फीतिदर्शनार्थचतुर्मासाः / ग०२ अधि / प्रक० // भटुं धन्नं सव्वं, बदाम अक्खोडउच्छुगंडुलिया। आहारगवग्गणा-स्त्री०(आहारकवर्गणा)आहार एवाहारक स्तत्प्रायोग्य फलपक्कन्नं सव्वं, बहुट्विहं खाइमं मेयं / / 4 / / वर्गणा आहारकवर्गणा आहारकशरीग्रहणकप्रा योग्यवर्गणायाम कर्म. दंतवणं तंबोलं, चित्तं तुलसी कुहेडगाईयं // प्र / वग्गणाशब्दे स्वरूपं / महु पिप्पली सुंठि मरी, पण्णगं जाइफलाणं च // 49 / / आहारगसमुग्घाय - पुं०(आहारकसमुद्घात) आहारके प्रारम्भ माणे एलदुगं लविंगं अजमोयतियं तियं च अभयाणं / / समुद्धात आहारकसमुद्धातः / प्रवः || आहारकर्मविषये, पं० सं० // स कप्पुर-कविट्ठाई, हिंगुलवणयाण असणगं च / / 10 / / चतुर्दशपूर्वविद आहारकलब्धिमंत कचित्संदेहापगमाय तीर्थंकरांति- विडलवण बडिंगय्वुल, कंटकरुक्खाणच्छलिया सव्वा। कगमनार्थमाहारकशरीरं समुपादा तुंबहिरात्म-प्रदेशप्रवेशे, आचा० // फोफलकसेल्लपुक्खा, रजवासपण्णकूलगयच्छल्ली / / आहारकसमुद्घातस्तु जीवप्रदेशान् शरीरादेर्य हिनिष्क्रम्य तिव्वुय सुगंधि धण्णय, पत्तजडी पप्पडी वरट्टा य / / वाहल्यमात्रमायामतश्चसंख्येयानि योजनानि दण्ड निसृजति निसृज्य च रसजाई भेसज्जपमुहं साइमं अणेगविहं / / 12 / / यथा स्थूलाना-हारकशरीरनामकर्मपुद्गलान्शातयति / / स्था. ठा०७ / दुविहारे कप्पिज्जइ, पाणं साइमणेगहासव्वं // प्रज्ञा॥ तिविहारे पाणं, पुण चउहारे किमवि नो कप्पं // 53 / / आहारगसरीरकायप्पओग-पुं०(आहारक शरीरकायप्रयोग) / साइमगयासिमासि, न कप्पए तह पसंग दोसाओ / / आहारकशरीरनिवृत्तेः प्रधानेऽङ्गे / भ०८ श.१ उ / गुरुलवणहिंगुसींधव, जीरय धरणा वरट्टा य // 54 // आहारगुत्त-त्रि०(आहारगुत्त) अनतिमात्राऽस्निग्धाहारमोजिनि, आव०४ अजमो अतियं कविलु, आमलगं च तह कपूरकंदा य / / अ / सूत्रः // अंबोलगं च सूया, एमाइं असणववहारो // 55 // * सुहुमंपच्छावगहणहेउं, इति पाठो जीवाभिगम टीकायाम् / चउहारे रयणीए, कप्पिज्जइ जाणिमाणि वत्थूणि // Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपज्जत्ति 555 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहीर समभागकया तिहला, भूनिंबोसीर चंदणयं / / 16 / / आहारिजस्समाण- त्रि०(आहरिष्यमाण) अनागते काले आहारं गोमुत्तं कडुरोहिणी, वग्धी अमया य रोहिणी तुग्गा / / करिष्यमाणे भ,१श / ऊ / गुग्गुलवया करीरय, लिंबपंचग भासगणो / / 57 / / अहारित्तए-अव्य० अहर्तुम् अभ्यवहर्तुमित्यर्थे आचा० / तह आसगंधि बंभी, चीडहलिद्दा य कुंदरुकुठ्ठा / / आहारित-त्रि०(आहारित)भुक्ते, तं० / / आहारत्वेनगृहीते, अनु० // विसनाइ य धमासो, बोलय बीया अरिहा य / / 58 / / आहारेयव्व-त्रि०(आहर्तव्य)अभ्यवहार्ये स्था०३ ठा० / / मींडल मजिट्ठकंकेलि, कुमारि कथेरं बेरकट्ठा य / / आहारेमाण-त्रि०(आहारयत्) अभ्यवहरति, स्था०६ वा. आचा० / / कप्पारुबीय पत्तय, अगुरुतुरुष्काय तंतु वडा / / 59 / / आहारेसणा- स्त्री. (आहारैषणा)अभ्यवहर गवेषणायांदश 1 अ / धवखयरपलासाई, कंटकरुक्खाणबुल्लियासाणा / / आहारोवचय-त्रि०(आहारोपचय) आहारेणोपचयोऽस्य / आहारोजं कडुयरसपरिगयं, आहारं पिच्छ अणाहारं ||60 / / पचिते, "आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा'' आचा०७ अ०२ उ० / इचाइ जं अणिटुं, पंकुवमंतं भवे अगाहारं // आहारोवचिय-त्रि०(आहारोपचित) आहाररूपतया संचितेषु, भ, 16 जं इच्छाए भुंजइ, तं सव्वं हवइ आहारं ||61 / / श,२उ / आहारपञ्जत्ति-स्त्री. (आहारपर्याप्ति) आहारपुगलग्रहणपरिणमन- आहावणा-स्त्री. (आभावना) उद्देशमात्रे अपरिगणनायाम् पिं / / हेतावात्मनः शक्तिविशेषे, -पं० सं० // यथा बाह्यमा हारमादाय आहि-पुं०(आधि) शारीरमानसपीडाविशेषे, षो०१५ विव० / खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः / कर्म 40 / दर्शक / मनः पीडायां, I भ.१ श०१ उ० / जी०१०। नं / प्रज्ञा, 1 पद || प्रक, / / पर्याप्ति म शक्तिस्तत्र यथा आहिंडग-पुं०(आहिण्डक)भ्रमणशीले गच्छनिर्गतसाधौ, औ० / शक्त्या करणभूतया भुक्तमा हारंखलरसरूपंच या करोति सा // वृ०१ऊ / इदानीमाहिंडकान् प्रतिपादयन्नाह || आहारपूइ- स्त्री (आहारपूति) (असिवे ओमोयरिए, रायढे भए वगेलन्ने / अद्धाण रोहए वा गहणं आहारपूइए 309) इत्युक्तक्षणायामाहारशुझौ, उवएस अणुवएसा, दुविहा आहिंडगा समासेणं / नि, चू.१ उ.1 उवएसदेसदसण, थूभाई हुंति णुवएसा / / 27 / / आहारपोसह-पुं०(आहारपोषध)आहारः प्रतीतस्तद्विषय स्तन्निमित्तं तत्र एके उपदेशहिंडका अपरे अनुपदेशहिंडका एवमेतत् द्विधा अहिंडका पोषधश्वाहारपोषधः / आहारविशेषत्यागे, "आहा रपोसहो दुविहो, देसे मुणितव्यास्तत्र उवदेसन्ति / द्वारपरामर्शः (देस-दसणत्ति) देशदर्शनार्थ द्वादशवर्षाणि यः पर्यटतिस सूत्रार्थी गृहीत्वा एति उपदेशहिंडका सव्वे य देरो स अभुगाविगतिआयंविल एकसि वादो वा१ सव्वे चउविहोत्ति अनुपदेशत्वमी भवंति (थूभाई होंति णुवएसा) स्तूपादिगमनशीला आहारो अहोरत्तं पचक्खा" आव-६अ, ! आहारपोषधो देशतो विवक्षिते अनुपदेशा हिंडकाः और / व्यः / विकृतेरवि कृते एवाऽऽम्लस्यवा सकृदेव द्विरेव वा भोजनमिति सर्वतस्तु चतुर्विधस्याहारस्याहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानं ध, 2 अधि / आहिंडिऊण-अव्य०(आहिड्य) परिभ्रम्येत्यर्थे, / संथा / आहारसण्णा- स्त्री (आहारसंज्ञा) द्वेदनीयोदयात्कावलि काद्याहारार्थ आहिक्क- न०(आधिक्य) सजातीयपरिणामप्राचुर्ये / द्वा०।। पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनया तस्या नित्याहारसंज्ञा / / भ७ श.८ आहिदेविय- न०(आधिदैविक) यक्षराक्षसग्रहाद्यावेश हेतुके दुः खादौ, उ / स्था, 10 वा. / / आहारा-भिलाषरूपे क्षुद्वेदनीय प्रभवे स्था, ठा, // आत्मपरिणामविशेषे, कर्म || अभिलाषश्च ममैवरूपं वस्तु पुष्टिकारि आहिभोतिय- न०(आधिभौतिक) मनुष्यपशुपक्षिभृगसरी सृपस्थावतद्यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं शब्दार्थोल्लेखानुबद्धः रनिमित्ते दुः खादौ, स्था,वा० / / स्वपुष्टिनिमित्तभूत-प्रतिनियत वस्तुप्राप्त्यध्यवसायरूपः / जी, प्रा। आहिय-त्रि०(आख्यात) प्रतिपादिते, कथिते, / सूत्र.१ श्रु।स्था० अनुः / प्रज्ञा 7 उ आख्यानकप्रतिबद्धे, सू-प्र० / आविर्भाविते, भावे क्तः अभिप्राये, संज्ञाशब्दवक्तव्यता (सण्णा) शब्दे / इहमेगेसि आहियं / सूत्र, / / श्रु अ चउहिं वाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जइ / तं जहा ओमकोट्टयाए *आहित-त्रि प्रवचन ऋषिभाषितादौ आत्मनि वा व्यवस्थिते सूत्र०छुहावेयमिजस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदट्ठोवओगेणं / / स्था, व्यवस्थापितै, स्था० 4 वा० / निवेशिते, जं / ढौकि ते, अनुष्ठिते, / सूत्र, / प्रयोगविश्रसाभ्यां स्वकर्मपरिणत्या वा जनिते। आचा० / ४वा / / समंताद्वितेच,सूत्र // टी,- अवमकोष्ठतया विक्तोदरतया मत्या आहारकथाश्रवणा आहियग्गि-पुं०(आहिताग्नि) कृतावसथादिब्राह्मणे, दश अ९ उ.१। दिजनितया तदर्थोपयोगेन सततमाहारचिन्तयेति / / अग्निं गृहीत्वा ऋषभचितायां स्थापितवन्तस्तेन कारणे-नाहिताग्रयः आo आहारतृष्णाक्ये कर्मणि, मोहाभिव्यक्तचैतन्यस्य, द्वा० 30 द्वा। म.प्र.॥ आहारादिचागणुट्ठाण- न०(आहारादित्यागानुष्ठान) भोजन देह- / आहियविसे सत्त- न०(आहितविशेषत्व) शेषपुरुषवचनापेक्षया सत्काराऽब्रह्मव्यापारपरिहारकरणे / पंचा, 10 10 // शिष्टोत्पादनमतिविशेषतायां / रा० / सत्यवचनातिशये, / सम। आहारिजमाण-त्रि०(आहियमाण) संगृह्यमाणे, अभ्यवहि यमाणेच, भ, आहीर- पुं० (आभीर) गो चारिप्रधाने देशभेदे / कल्प. १श, उ. ।।खाद्यमाने, स्था,१० ठा, / | (आभीर देशे अचलपुरासन्ने कृष्ण वे णानद्यो मध्ये ब हा मा Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहु 556 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 आहिय द्वीपः / कल्प० / अहिर इतिख्याते शूद्रजातीये, सूत्र०१ श्रु०१ अ॥ #आहेण-न विवाहोत्तरं वधूप्रेवशे वरगृहे क्रियमाणे भोजने / आचा०२ आहु-त्रि०(आहोतृ) दातरि, / ज्ञा० 1 अ० / औ / श्रु.१ अ०४ उ० // आहुणिज्ज-त्रि०(आहवनीय)सम्प्रदानभूते ज्ञा० 1 अ / औ० // आहे वन- न०(आधिपत्य)अधिपतेः कर्माधिपत्यम्-रक्षार्थम् जं. / कल्प० / स. ! भ० / प्रज्ञा० / आ० / भ० म. फ आहुणिज्जमाण- त्रि०(आधूयमान) कम्पमाने विद्रवमुपागते, / ज्ञा०९ | 30 / ज्ञा० / वि० / स्वामितायाम् / स्था०७ग / तदा-श्रितलोकेभ्यः अ। औ० // आधिक्येन तेष्ववस्थायित्वे, औ० / / आहुणिय-पुं०(आधुनिक)अष्ठाशीतेर्महाग्रहाणां पंचमे, दो आहुणिया, आहेवण-न०(आक्षेपण) पुरक्षोभादिकरणे, प्रश्र०२द्वा० // स्था०५ वा० / कल्प | जं / सू० / प्र० // आहोहिय-पुं०(आधोऽवधिकः) नियतक्षेत्रयित्वेविषयाव धिज्ञानिनि / / आहूय-त्रि०(आहूत) कृताव्हाने, वाच. / अउ० / भ७ श०७ उस प्रज्ञा ! आहूय-अव्य, उपादायेत्यर्थे, (कम्मआहूय जंच्छणं) कर्माहूय / / आचा० / | *आभोगिकः पुं०-आभोग उपयोगः स प्रयोजनं यस्य तदा भोगिकम् आहेऊ-अव्य० (आधातुं) आधानं कुर्तमित्यर्थे / सूत्र०, 1 श्रु०७ अ०। उपयोगप्रधाने, / कल्प० // इति श्रीमद्वृहत्सौधर्मातपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक - जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीविजयराजेन्द्रसूरीविरचिते अभिधानराजेन्द्र "आकारादिशब्दसङ्कलनम्" समाप्तम्॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम्। अभिधानराजेन्द्रः। इo इइ(ति०) (इकार) इ-पुं० (इ) अस्य विष्णोरपत्यम् अ० इञ् कामदेवे, गायत्री। एका० सहि रुक्मिण्यां विष्णोरंशात् कृष्णात् जातः / तत्कथा च यथा-रुक्मिण्यां वासुदेवाच, लक्ष्म्यां कामो धृतव्रतः / शम्बरानतकरो जज्ञे, प्रद्युम्नः कामदर्शनः / हरि० 163 अ० / एवं व्युत्पत्तिमत्त्वेन कामदेवस्यैव इशब्दार्थता नाभिलाषस्येति बहवः / कामदेवदैवत्याच अभिलाषे औपचारिक इत्यन्ते। वाचाकम्पे, सायके, सर्प, सरसीरुहकेसरे,। शक्रचापे, बाणे कमलायाम, रचनायाम, क्षोणीभृत्कुहरे, पद्मदले, ज्ञाने, गतौ च / एका०। नञर्थकस्य अइत्यस्येदम् अइञ्। भेदे 3 सरोषोक्तौ, 5 निराकरणे, 5 अनुकम्पायाम्, 6 गदे,७ विस्मये, 8 निन्दायाम् / सम्बोधने, च / अव्य० चादि / निपातैकाच् कत्वात् अस्य प्रगृह्यसंज्ञा तेनइ इन्द्र इत्यादौ न सन्धिः / वाच० वाक्यालंकारे, च। सहि निपातः पादपूरणाय प्रयुज्यते ''इड्डी वा जुई वा' इ शब्दो निपातो वाक्यालङ्कारार्थ इति। औप०। ज्ञा०१अ०।"उसभेइवा पढमरायाइ वा, पढमभिक्खा यरे इवा, पढमजिणे इवा पढमतित्थंकरे इ अ" क० सू० इकारः सर्वत्र वाक्यालंकारे इति वृत्तिः। कल्प०। (सुत्तमि अणुण्णाई इह इं पुण अत्थतो (निसेहेह) व्य० / इ पादपूरणे इति वृत्तिः व्य०५ उ०॥ तथा चाह वररुचिः स्वप्राकृतलक्षणे / 'इजेरापादपूरणे इति' आ० म० द्वि० / "इह ई भणिया पुरिसजाया'' | व्य० सू० / इ इति पादपूरणे इति वचनात् सानुस्वारता प्राकृतत्वात् / प्राकृते हि पदान्ते सानुस्वारता भवतीति। व्य०१ उ०। इ इगतौ--स्वादि० सकर्म० अनिट्अयति ऐषीत् इयाय ईयतुः ईयुः इययिथ इयेथ आयन्। इई इति प्रश्लेषात् अयं च धातुः कटी गतौ इत्यत्र लब्धः / सि० कौ०। वाच०॥ इ (क्) इक् स्मरणे इति वचनादिति भ० 1 श०२ उ० / अधिपूर्वक एव कित्। कित्करणमधीगर्थेत्यादौ विशेषार्थम्। अदादि० पर० सक० अनिट् अध्येति अध्यैषीत्। वाच०। इ(छ) इङ्-अध्ययने 'इङ् अध्ययने इति वचनादिति" भ०१श०१ उ०॥अध्ययने अधिपूर्व एव डित् अदा० आत्म० सक० अनिट् अधीते अधीयीत अध्यष्ट / वाच०। इ (ण) इण गतौ "इण गताविति वचनादिति भ०१श०१ उ० // णित् इडो भेदार्थम् अदा०पर० सक० अनिट् एति इतः यन्ति इयात् इहि ऐत् आयत् अगात्। वाच०॥ इ (त)-त्रि० (इत्) एति गच्छति इक्विप् गत्वरे, व्याकरणोक्ते प्रक्रियाकालोचारिते अस्थायिनि वर्णभेदे, यथा तिप् सिप इत्यादी पकारादि / वाच०। इ(स)-त्रि०(इष) इष् इच्छायांछिपा इच्छायुक्ते 1 कर्मणि विप् इष्यमाणे, २त्रि०३ अन्ने, इष्यते इष् अन्तर्भूतण्यर्थेकर्मणि क्विप, 4 एषणीये, इष् - गतौ भावे क्विप् / 5 यात्रायाम्, स्त्री० वाच०। इह (ति)-अव्य० (इति) इण क्तिन् 1 आद्यर्थे "गई इय' इति शब्दआद्यर्थस्ततश्च 'गइइंदियकाए'' इत्यादि द्वारकलापे-ऽवधिर्वक्तव्य इति / विशे० / इयत्ताप्रदर्शने, माने० वाच० (सम्मत्तंति) इति शब्दः इयत्ताप्रदर्शनार्थः एते क्षुधादयः सम्यक्त्वान्ता द्वाविंशतिरिति न न्यूनाधिकाः परिषहा भवन्ती-ति। प्रव०५४ द्वा०। उपप्रदर्शने, "महया जणसद्देइवा" इह संधिप्रयोगादितिशब्दे द्रष्टव्यः सचोपदर्शने इतिवृत्तिः / ज्ञा०१अ०। "इति चोदकदिट्ठतं पडिहंतुं कधिज्जते ससब्भावो उवदं सणे इति,,।नि० चू०३ उ०॥ औप० स्था० ठा० 3 / सूत्र०२ श्रु०४ अ० / विशे०। "इचेवं संवच्छरियं थेरकप्पं" इतिः रूपप्रदर्शने तं पूर्वोपदर्शितं सांवत्सरिक स्थविरकल्पमिति वृत्तिः। कल्प०नि० चू०४ उ०। "असोगवणेइ वा" इति शब्द उपप्रदर्शने अनुस्वारलोपः संधिश्व प्राकृतत्वादिति भ० 1 श०१ उ01 औप० / प्रश्न० 1 गच्छा० / "इति भो इति भोत्ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई। करणिज्जाई पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति" (इति भोत्ति) एतत् कार्यमस्ति भोशब्दश्चामन्त्रणे इति। भ० 3 श०१ उ०॥"उल्लेखे'' इतिशब्द उल्लेखार्थ इति।२०। "तएणं से पालए देवे तस्स णं दीवस्स जाणवि माणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विउव्वइ से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा'' इत्यादि इति। शब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतक इति आ० म०प्र०। इति शब्दाः सर्वेऽपिस्वस्वोपमाभूतवस्तुसमाप्तिद्योतका इति,जंगा राय०॥"तत्थ णं जे ते किण्हाभणीतणा य तेसि णं अयमेया रूवेवण्णा वासे पण्णत्ते तंजहा से जहा णामएजीमूतेइ वा' इत्यादि सूत्रं इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः इति। जं०॥ एवकारार्थे, अहवा इतिशब्द एवकारार्थे दट्ठव्व इति नि० चू०२ अ०॥"अहवा इतिसद्दो एवार्थे' नि० चू० अ०१५ // एवं प्रकारार्थे, उक्तप्रकारेणेत्यर्थे, षो० प्र० 10 / "महब्भयं दुःक्ख त्ति बेमि" || इतिशब्द एवमर्थे, एवमहं ब्रवीमीत्यर्थः / आचा०६ अ०1 अमुना प्रकारेणेत्यर्थे, / सूत्र०२ श्रु०४ अ० / "मिच्छा पावयणेति य इत्येवं प्रकारे" स्था० ठा०६ / / पूर्वक्रान्तपरामर्श, / / "इतिकम्मंपरिण्णाय,, इतिः पूर्व प्रक्रान्तपरामर्शक इति। आचा०२ अ०६ उ०।। उचियं खलु कायध्वं, सवत्थ सया णरेण बुद्धिमता। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंखिणिया० इह फलसिद्धी णियमा,एस चिय होइ आणत्ति। नैष / प्रकारे, 'इति मदमदनाभ्यां रागणिः स्पष्टरागाः" माध० इत्यनेनोचितकरणेन फलसिद्धिरिति वृत्तिः / पंचा०६ बृ० इह प्रकाशार्थे, "इतिहरि" इत्यादौ अव्ययी०। इदमर्थे, विरोधिसिद्धमितिविजामणुसंचरे' इतीत्वेवंरूपां विद्यां सम्यग् ज्ञानपालन रूपामन्विति कर्तुमुद्यतं / प्रकरणे, इति कृत्यमिति कर्तव्यम् इति वृत्तम्। वाच० / / इण लक्षीकृत्य संचरेत् सम्यक्संयमाऽध्वीन यायादिति, इत्येतत्पूर्वोक्त गतौ भावे क्तिन् / आव० / गतौ; संथा० / चेष्टायाम् / आव० / ज्ञाने, नीत्योचावचस्थानोत्पादादिकामिति वृत्तिः आचा०१ अ०३ उ० / वाच०। प्रवृत्तौ, च स्त्री० / स्था०। द्वा०८। "थिरसंघयणं तिकटुत्तं अणुप्पविसामि'' इति कृत्वा इति हेतोस्तदनु / इह (ति) कह-त्रि०(इतिकथ) इति इत्थं कथ यस्य / प्रविशामिति वृत्तिः। भ० 15 श० 1 उ० "अधारणिज्जमितिकट्ठ तुरए | अर्थशून्यवाक्यप्रयोक्तरि, अश्रद्धेयवचने, वाच०। निगिण्हइ" इति कृत्वा इति हेतोरित्यर्थः। भ०१३ श०७ उ०। समाप्तौं, इइ (ति) कायव्वया-स्त्री०(इतिकर्तव्यता) इत्येवं रूपा कर्तव्यानां भावः ज्ञा०२ अ०ा परिसमाप्तिप्रदर्शने, "से हुमुणी परिण्णाय कम्मेति बेमि' कर्तव्यता। इतिशब्द एतावानयमात्मपदार्थविचारः कर्मबन्ध हेतुविचारश्व सर्वत्रानाकुलता, यतिभावाव्ययपरा समासेन। सकलोद्देशकेन परिसमापित इति प्रदर्शकः आचा० 1 अ०१ उ० सूत्र० / कालादिग्रहणविघौ, क्रियेति कर्तव्यता भवति / / सम० / विपा० / वाक्यसमाप्तौ, इति शब्दो वाक्यसमाप्त्यर्थ इति। इत्युक्तलक्षणं क्रियायाम्, इति कर्तव्यता माह (सर्वत्रेत्यादि) सर्वत्र विशे०। यथा-“गिहत्थधम्माओ चुकंति' गादर्श०। वाक्यार्थसमाप्तौ सर्वस्मिन्ननाकुलता निराकुलता अत्वरा यते भविः सामापंचा०। यथा- "से अट्ठी संजयोत्ति' इति शब्दो व्यवस्थितवाक्यार्थ यिकरूपस्तस्याऽव्ययपराव्ययाभावनिष्ठाऽनाकुलता वा यतिपरिसमाप्तौ, प्रश्न० सं० द्वा० 4 // अधिकारपरिसमाप्तिद्योतके, यथा भावाव्ययपरा न किंचिद्यतिभावाद् व्येत्यपगच्छतीति कृत्वा तथोच्यते "से केणटेणं भंते। एवं इइ भरहे वासे'।। इति सूत्रेण नामार्थ प्रच्छतो विशेष्यत्वात् क्रियाभिसंबध्यते समासेन संक्षेपेण कालादिग्रहणविधी गौतमस्य प्रति वचनाय "तच्थणं विणीआए रायहाणीए भरहे णाम राया कालस्वाध्यायादिग्रहणविधिविषया क्रिया चेष्टा स्वशास्त्रप्रतिद्धा चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था" इत्यादिसूत्रैर्भरतचरित्रं प्रपञ्चितं तच इतिकर्तव्यता भवति इत्येवं रूपा कर्तव्यानां भावः कर्तव्यतोच्यते परिसमाप्तमित्यर्थः / जं०।स्वरूपपरामर्श, अस्माद्धे तोरित्यर्थे, उत्त०। षो०३ विव०। जाणाहि मे जायण जीविणोत्ति, सेसावसेसं लभओतवस्सी। इइ (ति) ह-अव्य० (इतिह) इति एवं ह किल द्वन्द्वः / उपदेशपरंपरायाम् जानीतावगच्छत (मेत्ति) सूत्रत्वात् मां (जायजीविणोत्ति) याचनेन ___ यथाऽत्र वटे यक्ष इत्युपदेशपरंपरैव न तु केनापि दृष्ट्वा तथा कथितमिति जीवनं प्राणधारणमस्येति याचनजीवनं आर्षत्वादिकारः पठ्यते च | तस्य प्रसिद्धिमात्रमा इति होचुवृद्धाः। सि० कौ० / वाच०। "जायणजीविणोत्ति' इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकस्तत एवं स्वरूपं इइ (ति) हास-पुं०( इतिहास) इतिह पारम्पर्योपदेश आस्तेऽस्मिन्। यतश्चैवमतो मह्यमपि ददध्वमिति भावः / कदाचिदुत्कृष्टमेवासौ यावत् आस् आधारेघञ्-६त० वाच० पुराणे,-(इतिहास पचमाणं) इतिहासः इति तेषामाशयः स्यादत आह। अथवा जानीत मा याचनजीवितं याचनेन पुराणं पंचमो येषां ते तथेति / कल्प० / इतिहासः पुराणमुच्यते इति / जीवनशीलत्वात् द्वितीयार्थे षष्ठी। पावन्तरे तु प्रथमा। इतीत्यस्माद्धे औप० / पुरुषस्य द्वासप्ततिकलान्तर्गते कलाविशेषे, कल्प० तोः किमित्याह-शेषा विशेषमुद्धरितस्थाप्युद्धरितमन्तः प्राप्तमित्यर्थः। "धर्मार्थकाममोक्षाणामपुदेशसमन्वितम् / पूर्ववृत्तकथायुक्तमितिहासं लभतां प्राप्नोतु तपस्वी यतिर्वराको वा। उत्त०१२ अ०॥ प्रचक्षते' / उक्तलक्षणे पुरावृत्तप्रकाशके भारतादिग्रंथे, // वाच०। जामिएगे इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थे, स्था० 3 ठा०॥ इओ (त्तो)(एत्तो) अव्य० (एतस्) इदम्-तसिन् इशादेशः "तो दो प्रकाशने, निदर्शने, प्रकारे, अनुकर्षे, प्रकरणे, स्वरूपे, सान्निध्ये, तसो वा" प्रा०॥बा२।१६०॥ इति प्राकृतसूत्रेण तो दो इत्यादेशौ विवक्षानियमे, मते, प्रत्यक्षे, व्यवस्थायाम, परामर्श, माने, प्रकर्षे, उपक्रमे वैकल्पिकौ / पंचाशके / एत्तो इति। अस्मादित्यर्थे, वाच० (इओ चुतेसु च। तत्र स्वरूपद्योतकता त्रिधा॥"शब्दस्वरूपद्योतकता प्रातिपदिकार्थ दुहमट्ठदुग्गं) इतः स्थानाच्युतो जन्मान्तरं गत इति। सूत्र०१ श्रु०१० द्योतकता वाक्यार्थद्योतकताचेति तत्र शब्दस्वरूपद्योतकत्वे तद्योगेन अ०॥ (इउ आउक्खए चुया) इतो मनुष्यजन्मनः सकाशादायुः क्षये प्रथमा "वीरेतिमङ्गलंनामयस्य वाचि प्रवर्तते ॥"अतएव गवित्याह, मरणे सतिच्युता इति प्रश्न०१ द्वा०। (एतोऽणाभोगमि विपण्णवणिजो भूसत्तायमितीदृशमिति" भर्तृहरिः / / प्रातिपदिकार्थद्योतकत्वे प्रथमा। इमो होइ) एतोत्ति इतोऽस्मादाज्ञारुचित्वात् प्रज्ञापनीयो भवतीतियोगः / "क्रमादमुनारद इत्यबोधिसः" (इत्यादौ) माघ०। वदन्त्यपाणैतिच पंचा०३ वृ०॥ इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीर्नेत एवार्हति क्षयम्। 'इतो निषीदेति तां पुराविदः / कुमारसम्भ० / वाक्यार्थद्योतकत्वेन प्रथमा / विसृष्ट भूमिः" || कुमा०। प्रयुक्तमप्य स्वमितो वृथा स्यात्" रघुः / निपातेनाभिहिते प्रातिपदिकार्थे एव प्रथमाविधानात् / वाक्यस्य च वाच०। शक्त्या लक्षणया वा एकार्थबोधकत्वाभावेन प्रातिपदिकत्वाभावात्।। इंखिणिया - स्त्री० (इंखिणिका) परनिन्दायाम् / "अदु इंखिणिया भूसत्ता-यामितीदृशं' भर्तृ०। "श्रुतार्थस्यपरित्यागादश्रुतार्थस्य कल्प- उपाविया'' इंखिणिया परनिंदा तु शब्दस्यैवकारार्थत्वात् पापिकैव नात् / प्राप्तस्य बाधादित्येवं परिसंख्या त्रिदोषिका,, मीमांसकाः / तत्र दोषवत्येव अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिकेति वृत्तिः। सूत्र०१ श्रु० हेतौ इतीवधारामवधीर्य,, / नैष०। 'इति स्म सा कारुतरेण लेखितं' | 2 अ०। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंखिणी 559 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंगिणीभरण इंखिणिका हि कर्णमूले घंटिकां चालयन्ति ततो यक्षाः खल्वागम्यतासां कर्णेषु किमपि प्रष्टुर्विवक्षितं कथयंतीत्युक्तलक्षणे नैमित्तिकविशेषे, च (इंखिणियारूयं वा पुच्छा) इति आ० म०प्र०नि० चू०॥ इंखिणी-स्त्री०(इङ्किणी) अन्यनिन्दायाम्, (अह सेयकरी अनेसि इंखिणी) अथाऽनंतरमसौ अश्रेयस्करी पापकारिणी इंखिणीति निन्दा अन्येषामतो नकार्येति वृत्तिः / सूत्र०१ श्रु०२ अ०। इंग-पुं०(इङ्ग) इगि भावे घञ्। 1 चलने, 2 कम्पने, 3 इङ्गिते, च कर्तरि अच् / जङ्गमे, त्वया सृष्टमिदं सर्व, यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति भा०व० अद्भुते, चावाचा इंगाल-पुं०(अङ्गार) विगतधूमज्वाले दह्यमाने इन्धनादिके, उत्त० 36 अ०। अंगार इत्येतत् प्रकरणे एवंविधाः शब्दाः। इंगालकम्म-न०(अङ्गारकर्मन) अंगारकरणपूर्वकस्तद्विक्रय एवं यदन्यदपि वह्निसमारम्भपूर्वकं जीवानामिष्टकादिपाकरूपं तदङ्गारकर्म तस्मिन्, / / उपा० अ०१॥ इंगिअ (य)-न०(इङ्गित) प्रा० इगि भावेक्तः। चलने, हृद्गतभावावेदके, वाच० / निपुणमतिगम्ये प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचके ईषद्भूशिरः कंपादिके आकारे चेष्टाविशेषे, उत्त०१ अ०॥"इंगिअचिंतियपत्थियवियाणिया" उत्त० अ०१। इङ्गितेन नयनादिचेष्टाविशेषेण चिन्तितंपरेण हदिस्थापित प्रार्थितं चाऽभिलषितं च जानन्ति यास्तथा ताभिरिति वृत्तिः / दशा० / "आलोइयं इंगियमेव णचा, जो छंदमाराहइ एस पुज्जो' / दश० अ० 3 उ०। अगोपांगादिमोटनात्मके स्वचित्तविकारसूचके चेष्टाविशेषे, च (न जं पियं इंगियपेहियं वा-इंगितमङ्गोपाङ्गादिमोटनं स्वचित्तविकारसूचकं तच स्त्रीणां न साधुना रागेण द्रष्टव्य मिति / उत्त०। इंगिअन्ज-पुं०(इंगितज्ञ) "ज्ञोत्र" पाद०२-सू० 83 इति सूत्रेण ञस्य लुग्वा / नयनादिचेष्टाविशेषज्ञे, प्रा० व्या०।। इंगिअण्णु-पुं०(इंगितज्ञ) नयनादिचेष्टाविशेषज्ञ, प्रा० व्या०1 इंगिअ(य)मरण-न०(इंगितमरण) इंगिते प्रदेशे मरणमिंगितमरणम्, मरणविशेष, तद्वक्तव्यता इंगिणीमरणशब्दे / ग0 पंचा० / दश० / इंगिणी-स्त्री०(इंगिनी) इंग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्याम नशनक्रियायामितीङ्गिनी श्रुतविहिते क्रियाविशेषे, तद्विशिष्ट यावत्कथिकानशनतपोभेदे, च। ध०३ अधि०। उत्त०। सम०। इंगिणीमरण-न०(इंगिनीमरण) इंग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्मामनशनक्रियायामिति इंगिनी श्रुतविहितः क्रिया विशेषस्तद्विशिष्टमनशनर्मिगिनी तया मरणमिङ्गिनी मरणम्। सम० 17 स०। तदुपलक्षितं वा मरणमिङ्गिनीमरणम् / / ध० 3 अधि० / उत्त०५ अ० / प्रव० / पण्डितमरणविशेषे, / तद्धिचतुर्विधाराहारस्य प्रत्याख्यातुनिष्पत्तिकर्मशरीरस्येङ्गितदेशाभ्यंतरवर्तिन एवेति। सम०१७ सातल्लक्षणं चेदम्॥"इंगियदेसंमिसयं, चउवि-हाहारचायनिष्फन्न / उव्वत्तणाइजुत्तं, नन्नेण उ इंगिणीमरणं" ||21|| स्या० 2 ठा०।। अत्र नियमाचतुर्विधाहारविरतिः परपरि-कर्मविवर्जनं च भवति / स्वयं पुनरिंगितदेशाऽभ्यंतरे उद्वर्तना-दिचेष्टात्मक परिकर्म यथासमाधि विदधाति / प्रव० द्वा० दश०संथा०॥ धर्मसंग्रहेऽपि "इंगिनीमरणं चेष्टा, वतामाहरवर्जनात् / / " आहारवर्जनात्सर्वाहारपरित्यागात् चतुर्विधाहारपरित्यागेनेत्यर्थः / इंगिनीमरणमुक्तलक्षणं चेष्टावतां परिमितचेष्टासहितानां सर्वाहारत्यागाद्भवति / अयं भावः / अस्य प्रतिपत्त्या तेनैव क्र मेणायुषः परिहाणिमवबुध्य तादृशसंहननाभावात्पादपोपगमन-कर्तृमशक्तः स्तोककालजीवितानुसारेण संलेखनां कृत्वा प्रव्रज्याकालादारभ्य च विकटनां दत्वा चतुर्विधाहारं नियमा-त्प्रत्याख्याति। तथाविधे एव च स्थाण्डिले एकाकी छायात उष्णं उष्णतश्च छायां संक्रामन्नितींगितदेशे सचेष्टः सम्य-पध्यानपरायणः प्राणान् जहाति / अयं च परकृतपरिकर्मरहितः स्वयं तत् करोति। ध०३ अधि०। अथ भक्तपरिज्ञातोऽस्याः को विशेष इत्याहआयप्परपडिकम्म, भत्तपरिन्नाय अणुण्णाता। परवजिया य इंगिणि, चउविहाहारविरई या॥ भक्तपरिज्ञायां वे अपरिज्ञाते तद्यथा आत्मना स्वयं परिकर्म परेण च इंगिनी पुनः परवर्जिता परस्तत्र परिकर्मन कार्यते। तथा भक्तपरिज्ञायां चतुर्विधस्य त्रिविधस्याहारस्य विरतिर्भवति इंगिन्यां तु नियमाचतुविधाहारविरतिः। परपरिकर्मविवर्जनमेव भावयतिठाणं निसीय तुवट्टण, इत्तरियाई जहा समाहीए। सयमेव य सो कुत्ति, उवसग्गपरीसहाय अहियासे॥ संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुच्छा सुएण अंगावा। इंगिणियातोवगम, नीहारी वा अनीहारी।। स्थानं उर्ध्वस्थानं निषीदनमुपवेशनं च त्वग्वर्तनं शयनं एतानि इत्वरकाणि स यथासमाधि स्वयमेव करोति न तु परतः कारय-ति / तथा दिव्यादीन् उपसर्गान् क्षुधादिपरिसहांश्च सम्यगध्यास्तेसहते। तथाहि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानात्तस्य पानकमपि भव-ति / नाप्यपवादतश्चरमाहारदानमिति / तथा संहननेन त्रयाणामाद्यानामन्यतमेन धृत्या च युक्तस्थान श्रुतेन सूत्रतो यस्य पूर्वाणि नवदश वा केवलानि अंगानि। स इङ्गिनीमरणं प्रतिपद्यते / व्य० द्वि०१० उ०। निशीथचूर्णी तुजाव अव्यो णिच्छित्ति ताव णेयव्वं पंचधाउ लेउणं इंगिणीम-रणं / परणओ इंगिणीए आयं वेयावचं परो न कहेइणियमा चउविहाहारविरई जइ वहिं पडिवजइ तो अणीहारिमं अह गच्छे तो णीहारिमं पढमविइयसंघयणी पडिवज्जइ जेण अहीयं णवमपुटवस्स तइयं आयारवत्थु एक्कारसंगी वा पडिवज्जइ धितियवज्जकुड्डसामाणं सव्वाणि उवसग्गाणि अहियासेइ। नि० चू०११ उ०॥ इंगिनीमरणमाह - पव्वजादी काउं, नेयव्वं जाव होइवोच्छित्ती। पंच तुलेऊण तवो, इंगिणिमरणं परिणओ उ॥ प्रव्रज्यादिकं प्रव्रज्या शिष्या ग्रहणं व्रतारोहः अर्थग्रहणमनियतं वा संगच्छस्यपरिपूर्णस्य निवृत्तिं गच्छनिवृत्तिकरणेनचतीर्थस्या-व्यवच्छेदः कृतः तत आह। तावद् ज्ञातव्यं यावद्भवति व्यवच्छित्तिः तत्पयतं कृत्वा पंचतपः तत्र सत्वैकत्वबललक्षणानि तोलयित्वा स इंगिनीमरणं परिणतः प्रतिपन्नो भवति। व्य०१० उ०॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंगियारसंपराण 560 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 (अस्य सविचाराविचारत्वसपरिकर्माऽपरिकर्मत्वनिर्दारित्वा- गुरुभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारा-दिगिताकारशब्देनोक्तं तेन निहारित्वानि मरणशब्दे।) संपन्नो युक्तः स इत्युक्तविशेषणान्वितो विनीतो विनयान्वित इति (अस्य पण्डितमरणेषु मध्यमत्वं पण्डियमरण शब्दे)। सूत्रपरामर्शेनोच्यते। तीर्थकृद्रणधरादिभिरिति गम्यते। उत्त० 1 अ०। इंगिनी मरणं विशिष्टतरधृति संहननवतामेव भवतीति इंगुई-स्त्री०(इंगुदी) वनस्पतिविशेषे, तत्फलेन तैलविधानं भवतीति / पण्डियमरणशब्दे। - आचा० अ० उ०॥ इंगिनीमरण ञ्चाणक्यः प्रतिपन्नस्तद्यथा / / इंत-त्रि०(यत्) आगच्छति, (इंतस्स पञ्चुगच्छणया) आगच्छतो पाडलिपुत्तंमि पुरे, चाणको नाम विस्सुओ आसी। गौरस्याऽभिमुखं गमनमिति भ० / श०१४ उ०३॥ सवारंभनिवत्तो, इंगिनीमरणं अह निवत्तो।। इंद-पुं०(इन्द्र) इन्दतीतीन्द्रः / अनु० / इदि परमैश्वर्ये इति पाटलीपुत्रे पुरे चाणक्यनामा मन्त्री विश्रुतः ख्यात आसीत् धात्वनुसारादिन्दनादिन्द्र आत्मा / संर्वद्रव्योपलब्धिसर्वोपभोगसर्वारम्भनिवृत्तः त्यक्तसर्वराज्यव्यापारः इंगिणीमरणं इंगित- रूपपरमैश्वर्ययोगात्। आत्मनि, (जीवे) नं० १द्रा०। आ०म० स्था०। भूप्रदेशादहिर्निर्गमरूपं मरणमथ निवृत्तः सुप्तः आस्त ततः गोवाटके इन्दो जीवो सव्वोवलद्धिभोगपरमेसरत्तएओ। इंगिनीमरणं प्रतिपद्य तस्मिन्करीषे सुप्तः इंगिनीमरणेन व्यवस्थितः / इदम्।। इदिपरमैश्वर्ये इन्दनात्परमैश्वर्ययोगादिजीवः। परमैश्वर्यमस्य कुत इंगियदेसंमि सयं चउट्विहाहारवाय निप्पन्नं / इत्याह (सव्वो) इत्यादि आवरणाभावे सर्व स्यापि वस्तुन अप्पडिकम्मे नियमा अन्नेण य इंगिणीमरणं / उपलंभान्नानाभावेषु सर्वस्यापि त्रिजगद्गतस्य वस्तुनः परिभोगाच इह यचाणक्यस्य इंगिनीमरणं भणितं न पुनरिंगनीमरणमेव यतः परमेश्वरो जीव इति तस्य परमैश्वर्य्यम् / विशे०। श्रावकाणां पादपोपगमेंगिनीमरणनिषेधः। यदाह। इन्दनादिन्द्रः परमैश्वर्ययुक्त इत्यर्थः एवं भूतेन चार्थेन युक्तमिदं नाम। "सव्वाविय अजाउ, सव्वे वियपढमसंघयणवजा। सव्वे वि देसविरया, परमार्थतस्त्रिदशाधिपे एव वर्तते तस्य तात्विक-परमैश्वर्ययुक्तत्वात्। पचक्खाणओ मरंति" इति ! संथा आ० म०प्र० / अनु०॥ इन्द्रः शक्रः पुरन्द-रः / सूत्र०२ श्रु०७ अ०। इंगिनीमरणविधानम् यथा अष्ट०। राज०। सहस्राक्षः। प्रति०। इति पर्यायाः। परमैश्वर्ययोगादिन्द्रः प्रभौ, (परमेश्वरे,) स्था० ठा०४। महति, च / स्था०४ ठा० / इंगिणिमरणविहाणं, आएवजंतु विअडणं दाओ ऐश्वर्यान्विते त्रि० नृपमात्रे, उपमितसमासे उत्तरपदस्थ: संलेहणं च काओ, जहासमाही जहाकालं / / श्रेष्ठत्वद्योतकमनुजेन्द्रः वारणेन्द्र इत्यादि। वाच०। इंगितमरणविधानमेतदाप्रव्रज्यमेव प्रव्रज्याकालादारभ्य विकटनां इन्द्रशब्दस्य निक्षेपः स्थानाङ्गे दर्शितो यथा० कृत्वा संलेखनां च कृत्वा यथासमाधि द्रव्यतो भावतश्च यथा कालमिति तओ इन्दा पण्णत्ता तंजहा नामिन्दे ठवणिदे दटिवदे।। गाथार्थः। (तओ इन्देत्यादि) व्याख्या सा च सुकरैवन वरं। पचक्खइ आहारं, चउव्विहं णियमओ गुरुसमीवे। नामेन्द्रः। इंगिअदेसंमि तहा, चिटं पि हु इंगिअंकणइ // प्रत्याख्यात्याहारमशनादिचतुविधं नियमात्तान त्रिविधं गुरु समीपे इन्दनादैश्वर्यादिन्द्रः नाम संज्ञा तदेव यथार्थ-मिन्द्रत्यक्षरात्मकमिन्द्रो नामेन्द्रः / अथवा सचेतनस्याचेतनस्य वा यस्येन्द्र इत्ययथार्थ नाम इंगितदेशे तथा परिमिते चेष्टामपींगितं करोतीति गाथार्थः / क्रियते सनामनामवतोर-भेदोपचारात् नाम चासाविन्द्रश्चेति नाभेन्द्रः। उव्वत्तइ परिअत्तइ, काइअमाईस होइ विभासाउ। अथवा नाम्नैवेन्द्र इति इन्द्रार्थ शून्यत्वान्नामेन्द्र इति। किपि अप्प णचि, अख्खं जइ नियमेण धिइबले उ॥ नामलक्षणं पुनरिदम्। उद्धर्तते परावर्तते कायिकादिषु भवति विभाषा प्रकृतिमात्मसात्करोति "यद्वस्तुनोऽभिधानं, स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षं / / वा न वा कृत्यमप्यात्मनैव युक्ते। उपाधि-प्रत्युपेक्षणादिनियमेन धृतिबली पर्यायानभिधेयं, च नाम यादृच्छिकं च तथा" ||1|| इति स भगवानिति गाथार्थः / पं०व०२ द्वा०। अथमर्थः यद्वस्त्वित्यादिना यथार्थमिन्द्रइत्याद्युक्तं स्थित-मिथ्यादिना (इङ्गितमरणवक्तव्यता मरणशब्दे वक्ष्यते) त्वयथार्थं गोपालादाविन्द्रेत्यादियादृच्छिकमनर्थकं डित्यादीति। अथवा इंगियागारसंपण्ण-पुं०(इंगिताकारसंप्रज्ञ) इंगितं निपुणमतिगम्य यदिन्दनाद्यर्थनिरपेक्ष गोपालादि वस्तुन इन्द्र इत्यादिकमभिधानमप्रवृत्तिनिवृत्तिसूचक मिषद् भूशिरःकंपादि आकारः स्थूलधीसंवेद्यः यथार्थतया शक्रादावन्यत्रार्थे स्थितं तन्नामेति / इन्द्रादिवस्तुनोवाऽप्रस्थानादिभावाभिव्यंजको दिगवलोकनादिः अनयोर्द्वन्द्वे इंगिताकारौ भिधानमिन्दनाद्यर्थनिरपेक्षं सगोपालादावन्यत्रार्थे स्थितं तन्नामेति / सम्यक् प्रकर्षण जानातीति इङ्गिता कारसंप्रज्ञः। इङ्गिताकारयोः प्रकर्षण स्था०३ ठा०। ज्ञातरि, / उत्त०१ अ०। अत्ताभिप्पायकया, सत्ता चेयणमचेयणे वावि। इंगिताकारसंपन्न-पुं० (इंगिताकाराभ्यां) संपन्नो युक्तः इंगिता- ठवणादीनिरविक्खा, केवलसत्ताउ नामिंदो। कारसंपन्नः / इंगिताकारभ्यां युक्ते, उत्त० 1 अ०। चेतनेऽचेतने वा द्रव्ये या आत्माभिप्रायेण स्वेच्छया इन्द्रइंगियागारसपण्णो, से वीणीए त्ति वुच्चइ'' इंगिताकारीता-वदर्थात् प्रभृतिसंज्ञा कृता साऽपि स्थापनादिसापेक्षा स्यादत आह / गुरुगतौसम्यक् प्रकर्षणजानाति इंगिताकारसंप्रज्ञः यद्वा इंगिताकाराभ्यां स्थापनादीनां स्थापनाद्रव्यभावादीनां निरपेक्षा / कि मुक्तं Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद 561 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 भवति / यत्र स्थापनादीनामेकमपि नास्ति किन्तु केवला एका संज्ञा तदर्थनिरपेक्षा स नामेन्द्रः। उक्तं नामेन्द्रलक्षणम् / वृ०१ उ० / / स्थापनेन्द्रमाह॥ तथा इन्द्राद्यभिप्रायेण स्थाप्यत इति स्थापना लेष्यादिकर्म सैवेन्द्रः स्थापनेन्द्रः / इन्द्रप्रतिमा साकारस्थापनेन्द्रः अक्षा-दिन्यासस्त्वितर इति / स्थापनालक्षणमिदम् / यत्तु तदर्थवियुक्तं, तदभिप्रायेण यच्च तत्करणम् / लेष्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालञ्चेति // 1 // तथा "लेपगहत्थीहत्थित्ति एस, सब्भाविआभवेठवणा। होइ असब्भावो पुण, हस्थिति निरागिई अक्खोत्ति" || स्था०३ ठा०। अधुना स्थापनेन्द्रलक्षणमाहसन्मावमसन्मावे, ठवणा पुण इंदकेउ माईया। इत्तरमणित्तरा वा, ठवणा नामं तु आवकहं।। स्थापना स्थापनेन्द्रः पुनस्सदावेऽसद्भावे च इन्द्रके त्वादि का इन्द्रकेतुप्रभृतिको द्रष्टव्यः / अत्रादिशब्दादिन्द्रप्रतिमा क्षवराटकादिपरिग्रहः / इयमत्र भावना / या इन्द्र इति स्थापना अक्षवराटकादिष्वसद्भावेन या चेन्द्रके त्विन्द्रप्रति मादिषु सद्भावतः स स्थापनेन्द्रः / इह नामस्थापनयोः कः प्रति विशेष उच्यते (इतर इत्यादि) स्थापना इत्वरा च भवति यावद्रव्यभाविनी अथावद्रव्यभाविनी चेत्यर्थः / नाम पुन नियमात् यावत्कथिकं यावद्रव्य भावी एष प्रतिविशेषः / वृ० 1 उ०॥ संप्रति नामेन्द्रस्थापनेन्द्रयोः प्रकारान्तरेण प्रतिविशेष-मभिधित्सुराह। जह ठवणिंदो वुचइ, अणुग्गहत्थी हि तह न नामिन्दो। एसे व दय्वभावे, पूथाथुतिलद्धिनाणत्तं॥१॥ यथा स्थापनेन्द्रः अनुग्रह एवार्थोऽनुग्रहार्थः स येषामस्ति अनुग्रहार्थिनस्तैर्वाभिः स्तूयते पुष्पादिभिरुर्च्यते च न तथा नामे-न्द्रो माणवकस्ततो महान् नामेन्द्रस्थापनेन्द्रयोः प्रतिविशेषः। एवमेव अनेनैव प्रकारेण द्रव्येन्द्र भावेन्द्रे च पूजास्तुति-लब्धिभिर्नानात्वमवसातव्यम् तद्यथा / द्रव्येन्द्रोऽपि नामेन्द्र इवानुग्रहार्थिभिः न स्तूयते नापि पूज्यते यस्तु भावेन्द्रः स स्थापनेन्द्र इव स्तूयते पूज्यते च ततो द्रव्येन्द्रभावेन्द्रयोरपिमहान् प्रतिविशेषः। अन्यच्च द्रव्येन्द्र इन्द्रलब्धिहीनो यस्तु भावेन्द्रः स तल्लब्धिसंपन्नस्तथाहि स सामानिकत्रायस्विंशकादिपरिवृतो विशिष्ट द्युतिमान् स्फीतं राज्यमनुभवति उपयोगचिन्तायामपि भावेन्द्र उपयोगलब्धिमान् द्रव्येन्द्र उपयोगलब्ध्या परित्यक्त इति वृ०१ उ०॥ द्रव्येन्द्रमाहतथा द्रवति गच्छति तांस्तानपर्यायान्दूयते वा तैस्तैः पर्याय्यैीर्वा सत्ताया अवयवो विकारो वा वर्णादिगुणानांद्रावस्समूह इतिद्रव्यम्। तच्च भूतभावं भाविभावं चेति आह च "दवए दूयते दोरव, यवो विगारो गुणाणसंदावो॥ दव्वं भव्वं भावस्स भूयभावंच जंजोग्गत्ति॥ तथा "भूतस्य भाविनोवा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं गदितम्" ॥१॥तथा अनुपयोगो द्रव्यमप्रधानञ्चेति तत्रद्रव्यंचासाविन्द्रश्चेति द्रव्येन्द्रः || स्था०३ ठा०॥ सच द्विधा / आगमतो नो आगमतश्च। तत्रागमतः खल्वागमम-धिकृत्य | ज्ञानापेक्षयेत्यर्थः / ना आगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य तत्रागमत इन्द्रशब्दोऽध्येताऽनुपयुक्तो द्रव्येन्द्रोऽनुपयोगो द्रव्यमिति वचनात् / अयमेवार्थो मङ्गलमाश्रित्य भाष्ये उक्तस्तथाहि "आगमओणुवउत्तो, मंगलसद्दाणुवासिओवत्ता / तन्नाणलद्धि-जुत्तो, विणोव उत्तोत्ति नो दव्वंति" तथा नो आगमतस्त्रिविधो द्रव्येन्द्रस्तद्यथा ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रो भव्यशरीरद्रव्येन्द्रो ज्ञशरीरभव्य-शरीरव्यतिरिक्तो द्रव्येन्द्रश्चेति // तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं ज्ञशरीर-मेव द्रव्येन्द्रः ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रः एतदुक्तं भवति / इन्द्रपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकालानुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्ध-शिलातलादिगतमपि घृतघटादिन्यायेन नो आगमतो द्रव्येन्द्र इति / इन्द्रज्ञानशून्यत्वाच्च तस्येह सर्वनिषेध एव नोशब्दार्थः / तथा भव्यो योग्य इन्द्रशब्दार्थ ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति सभव्यः इति तस्य शरीरम्भव्यशरीरं तदेव भव्येन्द्रोभव्यशरीर-द्रव्येन्द्रः अथमत्र भावार्थो भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्येन्द्रोपयोगा-धारत्वान्मधुघटादिन्यायेनैवतद्वालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्येन्द्र इति नो शब्दः पूर्ववत्। उक्तञ्च मङ्गलमधिकृत्य "मंगलपथ-त्थजाणय, देहोभव्यस्स वा सजीवो वि। नो आगमओ दव्वं, आगमरहिओत्तिजंभणियं ति"ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्येन्द्रो भावेन्द्रकार्येष्वव्यापृत आगमतोऽनुपयुक्तद्रव्येन्द्रवत्। तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वातीतभावेन्द्रपरिणामन्तचोभयातिरिक्तद्रव्येन्द्रो ज्ञशरीरद्रव्येन्द्रवत् / तथा यो भावेन्द्रपर्यायशरीरयोग्यः पुद्रलराशिर्यच भावीन्द्रपर्यायमात्मद्रव्यं तदप्युभयातिरिक्तो द्रव्येन्द्रः भव्यशरीरद्रव्येन्द्रवत् / सचावस्थाभेदेन त्रिविधस्तद्यथा एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्चेति / तत्रैकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भावेन्द्रतयो-त्पत्स्यते इति स चोत्कर्षतस्त्रीणिपल्योपमानि भवन्ति देवकुर्वादि-मिथुनकस्य भवनपत्यादीन्द्रतयोत्पत्ति संभवादिति / तथा स एवेन्द्रायुर्बन्धानन्तरं बदमायुरनेनेति बद्धायुरुच्यते। सचोत्कर्षतः पूर्वकोटित्रिभागं यावदस्मा त्परतःआयुष्कबन्धाभावात्। तथा अभिमुखे सम्मुखेजघन्योत्कर्षाभ्यां समयांतर्मुहूर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे इन्द्रसम्बन्धिनीयस्य स तथा। तथा भावैश्वर्ययुक्ततीर्थकरादिभावेन्द्रापेक्षयाऽप्रधानत्वाच्छक्रादिरपि द्रव्येन्द्र एवं द्रव्यशब्दस्याप्रधानार्थेऽपि प्रवृत्तेः / स्था० ठा०३।। // द्रव्येन्द्रलक्षणमाह।। दव्वं पुण तल्लद्धी, जस्सातीता भविस्सते वा वि। जीवो वि अणुवउत्तो, इंदस्स गुणो परिकहेइ।। द्रव्यं द्रव्यविषयः पुनरिन्द्रीयस्सतल्लब्धिरिन्द्रलब्धिरतीता भविष्यति सच प्रतिपत्तव्यः। किमुक्तं भवति। यस्सर्वमिन्द्रत्वं प्राप्तो यश्च प्राप्स्यति स यथाक्रमं भूतभावत्वाद्भाविभावत्वाच द्रव्येन्द्रः। उक्तं च / "भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके / तद्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतनाचेतनं कथितम्" यो वापि इन्द्रस्य गुणान् परस्मै परिकथयति परमनुपयुक्तः सोऽपि द्रव्येन्द्रः अनुपयोगो द्रव्यमिति वचनात्वृ०१उ०॥ उक्तोद्रव्येन्द्रः॥ भावेन्द्रमाह। भावेन्द्रस्त्विह त्रिस्थानकानुरोधान्नोक्तस्तल्लक्षणं चेदम्भावमिन्दनक्रियानुभवनलक्षणपरिणाममाश्रित्येन्द्रः इन्दनपरिणामेन भवतीति वा स चासाविन्द्रश्चेति भावेन्द्रो यदाह "भावो विवक्षितक्रिया-नुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः। सर्वरिन्द्रादिवदिहें दनादिक्रि यानुभवात् / / 1 / / सच द्विधा आगमतो नो आगमतश्च तत्रगमत इन्द्रज्ञानोपयुक्तो जीवोभावेन्द्रः कथ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 - मिहेन्द्रोपयोगमात्रात्तन्मयतावगम्यते / नह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रि याप्रसाधकत्वा भावादिति चेन्नाभिप्रायापरिज्ञानात् / संविद्ज्ञानमवगमो भाव इत्यनान्तरं / तत्रार्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनाधेया इति सर्ववा-दिनामविसंवादस्थानं यथा कोऽयंघटः किमयमाह घटशब्दं किमस्यज्ञानंघट इति अग्निरिति च यजज्ञानं तद्व्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते / अन्यथा तज्ज्ञानेसत्यपि नोपलभ्येता-ऽतन्मयत्वात् प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषान्तरवद्वान वानाकारं तत्पदार्थान्तरवद्विवक्षितं पदार्थापरिच्छेदप्रसंगात् बन्धाद्यभावश्च ज्ञानाऽज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वादाकाशवनचानलः सर्वएव दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधको भस्मच्छन्नाग्रिना व्यभिचारादिति कृतं प्रसंगेनानो आगमतो भावेन्द्र इन्द्रनामगोत्रे कर्मणी वेदयन् परमैश्वर्यभाजनं सर्वनिषेधवचनत्वानोशब्दस्य यतस्तत्र नेन्द्रपदार्थज्ञानमिन्द्रव्यपदेशनिबन्धनतया विवक्षितमिन्दन-क्रियाया एव च विवक्षितत्वात् / अथवा तथाविधज्ञान-क्रियारूपो यः परिणाम स नागम एव केवलोनचानागम इत्यतो मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्य नो आगमत इत्याख्यायत इति / ननु नामस्थापनाद्रव्येष्विन्द्राभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वात् द्रव्यत्वं च समानं वर्तते अतश्च क एषां विशेषः आहच "अभिहाणं दव्यत्तं, तदत्थसुत्तत्तणं चतुल्लाई। को भाववज्जियाणं नामाईणं पइविसेसोत्ति" ||1| अत्रोच्यते यथा हि स्थापनेन्द्रः खलु इन्द्राकारो लक्ष्यते तथा कर्तुः सद् भूतेन्द्राभिप्रायो भवति तथा द्रष्टुस्तदाकारदर्शना दिन्द्रप्रत्ययस्तथा प्रणतिकृतधियश्च फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्तन्ते, फलं च प्राप्नुवन्ति / केचिद्देवता-नुग्रहान्न तथा नामद्रव्येन्द्रयोरिति तस्मात्स्थापनायास्तावदित्थं भेद इति / आह च "आगाराभिप्पाओ, बुद्धिकीया फलंच पाएण / जह दीसइ ठवणिन्दे, न तहानामिन्द दविन्देत्ति,,। यथा च द्रव्येन्द्रोभावेन्द्रकारणतां प्रतिपद्यते तथोपयोगापेक्षायामापि तदुपयोगतामादयत्यवाप्तवांश्च न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेष इति। आहच "भावस्स कारणं जह, दव्यं भावो यतस्स पञ्जाओ।उवओगपरिणमइओ, नतहा नामंन वाठवणंत्ति" / स्था०३ ठा०।। अत्र पर आह॥ न हि जो घडं वियाणइ, सो उ घडी भवइ नो य वा अग्गी। नाणत्तिय भावोत्तिय, एगट्ठमतो अदोसोत्ति।१।। न हि यो घटे विजानाति स घटी भवति यस्य वा–ग्निविज्ञानं सोऽग्निः प्रत्यक्षे विरोधात्ततो यदुक्त 'मिन्दस्सवाहिगारं विजाणमाणो तदुवउत्तो इति, तन्मिथ्या / अत्र सूरिराह / ज्ञान मिति भाव इति वा च शब्दादध्यवसाय इति उपयोग इति वा एकार्थमतोऽदोषः / इयमत्र भावना / अर्थाभिधानप्रत्यया-स्तुल्यनामधेयास्तथाहि घटोऽपि बाह्यो घट इत्युच्यते घटशब्दो-ऽपि घट इति घटज्ञानमपि घट इति। ज्ञानं च ज्ञानिनोऽपृथक्घटज्ञान्यपिघट इत्युच्यते अग्निज्ञान्यपि अग्निरित्यदोषः। एतदेव भावयतिजमिदं नाणं इन्दो, तव्वतिरिचति ततोय तन्नाणी।। तम्हा खलु तब्भावं, वयंति जो जत्थ उवउत्तो / / 1 / / यदिदमिन्द्र इति ज्ञानं तस्मात्तज्ज्ञानी इन्द्रज्ञानी व्यतिरिच्यते तस्माद्यो यत्रेन्द्रादावुपयुक्तः तस्य तद्भावमिन्द्रादिभावंतत्त्व-विदस्सूरयो वदन्ति। ज्ञानज्ञानिनोरभेद एव कथं सिद्ध इति चेदुच्यते विपक्षेऽनेकदोषप्रसंगात्।। तमेवाहचेयणस्स उजीवा,जीवस्स उचेयणा उ अन्नत्ति। दवियं अलक्खणं खलु, हविजन य बन्धमोक्खाउ॥ चैतन्यस्य जीवा जीवस्य चेतनाया अन्यत्वे द्रव्यं जीवद्रव्य मलक्षणं चेतनालक्षणोजीव इति लक्षणरहितं भवेत्। चेतनाया घटादिवज्जीवादप्येकान्तव्यतिरिक्तत्वाल्लक्षणाभावे च लक्ष्यस्याऽन्प्यभाव इति खरशृंगवदत्यन्तमसन् जीवोऽप्यत्यन्तमसन् स न बध्यते बन्धस्य वस्तुधर्मत्वान्नापि मुच्यते बन्धाभावादिति बन्धमोक्षावपिन स्यातामय मन्येथा अचेतनोऽपि संबध्यते मुच्यते चेति तदप्ययुक्तमचेतनानामप्येवंधर्मास्तिकायादीनां बन्धमोक्षप्रसक्तेस्तस्मात्साधूक्तमिन्द्रशब्दार्थ जानन् तदुपयुक्तोभावेन्द्र इति / वृ० 1 उ० // उक्ता नामस्थापिनाद्रव्येन्द्राः। इदानीं भावेन्द्रं त्रिस्थानकावतारेणाहतओ इंदापण्णत्ता तंजहाणाणिन्दे दंसणिंदे चरित्तेन्दे। (तओइंदेत्यादि) कंठ्यं नवरं ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः परमेश्वरो ज्ञानेन्द्रोऽतिशयवत् श्रुता द्यन्यतरज्ञानवशविवेचित-वस्तुविशरः केवली वा एवं दर्शनेन्द्रः क्षायिकसम्यग्दर्शनीचारित्रेन्द्रो यथाख्यातचारित्रः एतेषां च भावेन सकलभावप्रधान-क्षायिकलक्षणेन विवक्षितक्षायोपशमिकलक्षणेन वा भावतः परमार्थतो वेन्द्रत्वात् सकलसंसार्यप्राप्तपूर्वगुणलक्ष्मीलक्षण-परमैश्वर्ययुक्तत्वात् भावेन्द्रतावसेयेति। भावेन्द्रलक्षणमाहजो पुण जहत्थ जुत्तो, सुद्धणयाणं तु एस भाविन्दो। इन्दस्सव अहिगारं, वियाणमाणो तदुवउत्तो // 1 // यः पुनर्यथार्थेन यथावस्थितेन अर्थेन परमैश्वर्यलक्षणेन इदि परमैश्वर्य इति वचनात् साक्षादिन्द्रना गोत्राणि कर्माणि वेदयमान इत्यर्थः स भावेन्द्रः / एष शुद्धनयानां शब्दादीनां यथावस्थिता-र्थग्राहकाणां वर्तमानविषयिकाणां संमतो न शेषोनामेन्द्रादिः / अथवा इन्द्रस्य इन्द्रशब्दस्याधिकारमर्थं जानन् तदुपयुक्तस्त-स्मिन्निन्द्रशब्दार्थ उपयुक्तो भावेन्द्रः उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात् / / उक्तमाध्यात्मिकैश्वर्यापेक्षया भावेन्द्रत्रैविध्यम्। अथवा झैश्वर्यापेक्षया तदेवाह-- तओ इन्दा पण्णत्तातं जहा-देविंदे असुरिंदे मणुस्सिदे। तओ इंदेत्यादि भावितार्थन्नवरं देवा वैमानिका ज्योतिष्क-वैमानिका वा रूढेः / असुरा भवनपतिविशेषा भवनपतिव्यंन्तरा वा सुरपर्युदासात् मनुजेन्द्रश्चक्रवादिरिति / स्था० 3 ठा०॥ तेचेन्द्रा स्थानाङ्गे चतुःषष्टिदर्शितास्तत्र देवेन्द्रा यथा। दो असुरकु मारिंदा पन्नत्तातंजहा चमरे चेव बली चेव / दो नागकु मारिंदा पन्नत्ता तंजहा धरणे चेव भूयाणंदे चेव। दो सुवण्णकु मारिंदा पन्नत्ता तंजहा वेणुदेवे चेव वेणुदाली चेव / दो विजकुमारिंदा पं०तं० हरिचेव हरिस्सहे चेव / दो अग्गिकु मारिंदा पं०० अग्गिसिहे चेव अग्गिमा णवे चेव / दो दीवकु मारिंदा पं०० पुग्ने चेव वसि Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद 563 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ हे चेव / दो उदधिकुमारिंदा पं० 20 जलकंते चेव जलप्पभे ___ सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं० त० सके चेव ईसाणे चेव / दो दिसाकुमारिंदा पं० 20 अमियगई चेव अमियवाह चेव एवं सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु दो इंदापं०२० सणंकुमारे चेव। दो वाउकुमारिंदा पं० तं० वेलवे चेव पमंजणे चेव।। चेव माहिंदे चेव / बंभलो य लंतगे दो इंदा पं० तं० बंभे चेव दो थणियकुमारिंदा पं० 20 घोसे चेव महाघोसे चेव। लंतए चेव महासुक सहस्सारेसु णं कप्पेसु दो इंदा पं० तं० (दोअसुरेत्यादि) अधुएचेवेत्येतदन्तं सूत्रं सुगमम्। नवरं असुरादीनां महासुके चेव सहस्सारे चेव आणय-पाणया-रण-बुतेसु णं दशानां भवनपतिनिकायानां मेपेक्षया दक्षिणोत्तरदिगद्वयाश्रितत्वेन कप्पेसु दो इंदा पं०२० पाणए चेव अचुए चेव // द्विविधत्वाविंशतिरिन्द्रास्तत्र चमरो दाक्षिणात्यो बली त्वौदीच्य इत्येवं सौधर्मादिकल्पानान्तुदशेन्द्राः स्था०२ठा०॥ अंतिम देवलोक चतुष्ठय सर्वत्र स्था०॥२ ठा०॥ इन्द्रद्वय सद्भावादिति भ०३ श०६ उ०॥ इत्येवं सर्वेऽपिचतुःषष्ठिरिति एतेषां सङ्ग्रहो यथा॥ 'देवेन्द्रस्तव' प्रकीर्णकच सर्वे इन्द्रा गाथया प्रदर्शिता स्तद्यथा॥ "चमरे 1 धरणे 2 तह वेणुदेव 3 हरिकंत 4 अग्गिसीहे य 5 // पुण्णे 6 वत्तीसा देविंदा, जस्स गुणेहिं उवहम्मिया छायं। जलकं ते वि य, 7 अमिय 8 विलंबे यह घोसेय" ||10|| एते नो तस्स वि यच्छेयं, पायच्छायं नु वेहामो॥६॥ दक्षिणनिकायेन्द्र इतरे तु "बलि 1 भूयाणंदे 2 वेणुदालि 3 हरिस्सहे 4 बत्तीसं देविंदत्ति, भणियमित्तं निसापि यं भणइ। अग्गिमाणव 5 वसिढे 6 जलप्पभे 7 अमियवाहणे 8 पहंजणे / अंतरभासं ताहे, को होमा को वहल्लेणं // 7 // महाघोसे" / / भ० टी०१३ श०१ उ०। कयरे ते बत्तीसं, देविंदा को व कत्थ परिवसइ। व्यंतरेन्द्रायथा। केवइया कस्स ठिई,को भवणपरिग्गहो तस्स ||8|| दो पिसायइंदापं० 20 काले चेव महाकाले चेव। दो भूयइंदा केवइया च विमाणा, भवणा नगरा च हुंति केवइया / पं० तं० सूरूवे चेव पडिरूवे चेव / दो जक्खिदा पं० तं० पुढवीण य बाहुल्लं, उच्चत्तविमाणवन्नो वा // 6 // पुण्णभद्दे चेव माणिभद्दे चेव / दो रक्खसिंदा पं० तं० भीमे चेव कारंति व कालेण, उकोसं मज्झिमजहन्नं / महाभीमे चेव / दो कि नरिंदा पं० 20 किन्नरे चेव किंपुरिसे उस्सासो निस्सासो, ओही विसओ व को केसिं॥१०॥ चेव। दो किं पुरिसिंदा पं० तं० सप्पुरिसे चेव महापुरिसे चेव / विणय उवयार उवहंमि, या इहा स व समुथ्यहंतीए। दो महोरगिंदापं० 20 अइकाये चेवमहाकाये चेव। दो गंधविंदा पडिपुच्छि उ पियाए, भणसु अणु तं निसामेह ||11|| पं० तं०1 गीयरई चेव गीयजसे चेव / स्था०॥ सुअणाणसागराओ, सुविणं उपडिपुच्छणाई यं लद्धं / एवं व्यंतराणामष्टनिकायानां द्विगुणत्वात् षोडशेन्द्राः।स्था०।२ ठा० // पुण वागरणावलिअं, नामा वलियाइ इंदाणं / / 12 / / एतैषु च प्रतिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ द्वाविन्द्रौ स्याताम्। सुणु वागरणावलि, रयणं वयणं सियं च वीरेहि। अणपन्निकायादीनां व्यंतरविशेष वाणव्यन्तरनिकायाना मिन्द्र यथा। तारावलिव्व घवलं, हियएण पसन्नचित्तेणं / / 13|| दो अणपनिंदापं० तं०संनिहिए चेव समाणेचेव / दोपणपनिंदा रयणप्पभाई कुड निकुड, वासीसु तणु तेउलेसागा। पं०तं० धाए चेव विधाये चेवा दो इसिवा इंदापं० तं० इसिबवे वीसं विकसियणयणा, भवणवई मे निसामेह॥१४|| इसिवाले चेव / दो भूयवाय इंदा पं० तं० ईसरे चेव महेसरे दो भवणवई इंदा, चमरे वइरोअण असुराणं / चेव ।दो कंदिंदा पं० तं० सुवत्थे चेव विसाले चेव दो महाकंदिदा दो नाग कुमारिंदा, भूयाणंदे य धरणे य // 15 // पं० 20 हासे चेव हासरई चेव। दो कुंभइंदा पं० तं० सेए चेव दो सुयणु सुवणिंदा, वेणुदेवेय वेणुदालिंदा। महासेए चेव / / दो पयगिंदा पं० तं०पए चेव पयगवई चेव / / दो दीवकुमारिंदा, पुने य तहा वसिडे य // 16|| अणपन्निकायादीनामप्यष्टानामेवव्यंतरविशेषनिकायानांद्वि-गुणत्वात् दो उदहिकुमारिंदा, जलकंते जलप्पभे य नामेणं / षोडशेति। स्था० 2 ठा०॥ अमियगइ अमियवाहण, दिसाकुमाराण दो इंदा॥१७॥ ज्योतिष्कदेवानामिन्द्रा यथा / दो वा उ कुमारिंदा, वेलबं पभंजणा य नामेणं / जोइसियाणं देवाणं दो इंदा पं० तं० चंदे चेव सूरे चेव / / दो थणिय कुमारिंदा, घोसे य तहा महाघोसे // 1|| ज्योतिष्काणां त्वसंख्यातचन्द्र सूर्य्यत्वेऽपि जातिमात्रा-श्रयणादावेव दो विजुकुमारिंदा, हरिकंत हरिस्सहे य नामेणं / चन्द्रसूर्याख्याविन्द्रावुक्तौ / / स्था०२ ठा०।। अग्गिसिह अग्गिमाणव, हूयासणवइ वि दो इंदा।।१६।। सौधर्मादिकल्पेन्द्रा यथा।। एए विकसियनयणे दस, दिसीविय सिय जसा भए कहिया। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदगोवगा सुण वाणमंतराणं भवणवई आणुपुथ्वीए॥६७|| दिवसे, कल्प०। सूर०ा जीर्णपुरस्थेस्वनामख्याते श्रेष्ठिदारके, (तत्कथा पिसाय भूअजक्खा य, रक्खसा किन्नराय किंपुरिसा। सामाइय शब्दे) अष्टव्याकरणान्तर्गत व्याकरण विशेषे, आव०२ अ०॥ महोरगा य गंधवा, अट्ठविहा वाणमंतरा // 68|| कुटजवृक्षे रात्रौ, च धरणिः। भारतवर्षीय द्वीपभेदे, शब्द मा०।छंदो ग्रथं एए विउ समासेणं, कडिया भे वाणमंतरा देवा / प्रसिद्धे, षण्मात्रा प्रस्तावे, आद्यन्तगुरुद्वयेन लधुद्वयमध्येन युते चतुर्थे पत्तेयं पियवुच्छं सोलस इंदे महिड्डिए / / 66 // भेदे, इन्द्रवारुण्याम् स्त्री०टाप्॥ वाच०॥ काले य महाकाले, सूरूव पडिरूव पुन्न भद्देय / *ऐन्द्र-त्रि० इन्द्रस्येदम् इन्द्रसम्बन्धिनि, (ऐन्द्र धामहीदिस्मृत्वा) ऐन्द्र अमरवई माणभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे / / 7 / / मिति / इदिपरमैश्वर्ये इति धात्वनुसारादिन्द्रा आत्मा तस्य सम्बन्धि ऐन्द्र धामेति।नयो०। किन्नर किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अईकाय महाकाए, गीयरई चेव गीयजसे // 71 / / इंदकंत-न०(इन्द्रकान्त) विमानविशेषे सम० 16 स०॥ सन्निहि ए सामाणे, धाए विधाये इसीए इसिवाए। इंदका(गा)इय-पुं०(इन्द्रकायिक) त्रीन्द्रियसंसारसमापन्न-जीवविशेषे, इस्सर महिस्सरेया हवइ सुवत्थे विसालेय / / 72 / / प्रज्ञा०१पद० जी०। (बोधव्वा इंदगाईका) उत्त०३६ अ०। कायिका इत्यपिकुत्रचिल्लोकप्रसिद्धा स्वीन्द्रियाः। उत्त० टी०॥ हासे हासरई वि असेए अतहा भवे महासेए। पयए पययवई, विय नेयव्वा आणुपुटिवए // 73|| इंदकील-पुं०(इन्द्रकील) गोपुरावयवविशेषे / औप० / (गोमेज्झमयाइंदकीला) संपाटितकपाटद्वयाधारभूतः प्रवेशमध्यभाग अप्पड्डिया उतारा, नरकत्ता खलु तओ महड्डिए। इति / राज०। गोपुरकपाटयुगसंनिवेशस्थानमिति भ०३ श०२ उ०। नक्खते हिं तु गहा गहेहिं सूरा तउ चंदा // 66|| जं० / इन्द्रस्य कील इव अत्युच्चत्वात् मन्दरपर्वते इन्द्रस्य कील इव कप्पवई विय तुच्छं, बारस इंदे महिड्डिए / / 6 / / इन्द्रध्वजे। न० / वाच०॥ पढमो सोहम्मवई,ईसाणवइए सवण्णिओ बीओ। इंदकुंजर-पु०(इन्द्रकुञ्जर) 6 त० ऐरावते, तस्याऽमृतमन्थन काले तत्तो सणंकुमारो, हवइ चउत्थोउ माहिंदो॥६५।। इन्द्रेण गृहीतत्वात्तथात्वम् यथाह "श्वेतैर्दन्तैश्चतुर्भिस्तु, महाकायस्ततः पंचमए बलिंदो,छट्ठो पुण लंत उड्डदेविंदो। परम् / ऐरावतो महानागोऽभवद्वज भृताधृतः / / भा० आ० / सत्तम ओ महसुक्को, अट्ठमउ भवे सहस्सारो॥६६|| इन्द्रगजशक्रगजादयोऽप्यत्र०।वाच०॥ नवमो अ आणतिंदो, दसमो पुणपाणतें ददे विंदो। इंदकुंभ-पु० (इन्द्रकुम्भ) कुम्भानामिन्द्रः इन्द्रकुम्भो राजदन्ता आरण इक्कारसमो, वारसमो अचुए इंदो॥६७।। दिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः / महाकलशे, राज० / एए बारस इंदा, कप्पवई कप्पसामिया भणिया / महिंदकुंभसवाणा) कुम्भाना मिन्द्र इन्द्रकुभो महाँश्वासाविन्द्रकुंभश्चतस्य आणाईसरियं, वा तेण परं नत्थि देवाणं // 65 // दे०पं० समाना महेन्द्रकुंभसमाना महाकलशप्रमाणा इति जं०१ प्र० / जी० इन्द्राणां भवनस्थित्यादिवक्तव्यता तत्तच्छब्दे / / राज० वीतशोकाया राजधान्या उत्तर पूर्व दिग्भागस्थिते उद्याने, अनीकानि तदधिपतश्चाऽणीक शब्दे॥ (तीसेण वीयसोगाए रायहाणीए उत्तर पुरच्छिमं दिसीभाए इंदकुभकामं उजाणे इति, ज्ञा०६ अ०। नेमिजिनस्य प्रथम शिष्ये, चासम०२४ स०। अग्रमहिष्यो ऽमामहिसी शब्दे॥ इंदकुमारिया-स्त्री०(इन्द्रकुमारिका) स्वनाम ख्यातायां योषि ति। आ० उत्पातपर्वता उप्पायपव्वय शब्दे कल्पेन्द्रा कप्प शब्देऽपि।। म०१ अ० परिषदः परिच्छद-शब्दे विमानानि विमाण शब्दे॥ इंदकेउ-पु०(इन्द्रकेतु) इन्द्रयष्ट्याम, प्रश्न० 4 द्वा० (सोइंदकेउं पासेत्ति लोकपाला लोकपाल शब्दे॥ लोकेण महिज्जंतं) इति आ० चू०॥ सामानिकाः सामाणिय शब्दे॥ इंदगोवग-पुं०(इन्द्रगोपक) इन्द्रं गोपायतीति। नि० चू०। गोपोरक्षकोऽस्य इंद्राणामेकाऽवतारित्वान्नेकावतारित्वादि-प्रश्नोत्तरमुखेन प्रतिपादितं वर्षाभवत्वात्तस्य। वाच० / प्रथमप्रावृट्कालभाविति। राज०। आ-मयथा। सम्प्रति ये इन्द्राः संति ते सर्वेऽप्येकातवारिणो नवेति प्रश्नः / प्र०। प्रज्ञा०। ज्ञा०।आचा० जी०। (इंदगोवगसमप्पभेसु॥) इन्द्रगोपको संप्रति ये इन्द्राः संति तेषां मध्ये केचनैकावतारिणो न सर्वे इत्युत्तरमिति। वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समाप्रभा येषां ते तथा तेषु रक्तेष्वित्यर्थः / हीर० / इन्द्रायतने, च ज्ञा० / अयश्च विकलेन्द्रियजीवविशेष इति-अनु० / स च इंदस्स वा जावकोदृकिरियाए वा उवलेवण संमज्जणआव संसारसमापन्नत्रीन्द्रियजीवविशेष इति-प्रज्ञा० पद०१। जी० / रिस्सणधूवपुप्फगंधमल्लादिआई दवावस्सयाइं करेंति॥ (इंदगोवमाइया णेगहा एवमाइओ) इन्द्रगोपालिकाःइन्द्रगोपको अत्रोपचारादिन्द्रादिशब्देन तदायतनमप्युच्यत इति-अनु० टी० इन्द्र (ममोला) इति प्रसिद्ध एवमादिकास्त्रीन्द्रिया अनेकधा जीवा इति, उत्त० देवताके ज्येष्ठा नक्षत्रे, अधिष्ठातरि अधिष्ठेयस्योपचारात् / जं 7 व०। 3 अ०। चउरिदिय इंदगोवादि। नि० चू० 1 अ०। स्था० 2 ठा० / अनु० जेट्ठा इंददेवयाए। इति ज्यो० / विष्कुम्भादिषु / इंदग्गह-पुं० (इन्द्रग्रह) ग्रहविशेषे, / जी०३ प्र०। योगेषु षड्विंशे योगे, वाच०॥ इंदग्गि-पुं०(इन्द्राग्नि) द्वि० व० इन्द्रश्चाग्निश्च देवताद्वन्द्व० / कृष्णस्य शुक्लस्य च पक्षस्य पञ्चदशदिवसेषु स्वनामख्याते सप्तमे | शक्राग्न्योर्मिलितयोर्देवतयोः / वाच० / विशाखानक्षत्राधिष्ठातरि Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदचंदण 565 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदट्ठाण देवे, अनु० / "दो इंदग्गी" अष्टाशीतिमहाग्रहान्तर्गत सप्तत्रिंशत्तमे महाग्रहे च। स्था०२ ठा० / विसाहा इंदग्गिदेवयाए इति। ज्यो०। तदधिष्ठातृके विशाखानक्षत्रे च / अधिष्ठातर्याधिष्ठे यस्योपचारादिति। जं०७ वक्ष०ा कल्प। इंदचंदण-न०(इन्द्रचन्दन) इन्द्रप्रियं चंदनम् शा० त० हरिचन्दने, वाच०। इंदचिब्भिडी-स्त्री०(इन्द्रचिर्भिटी) इन्द्रस्यात्मनः प्रिया चिर्भिटी शा० त०लताभेदे, साच इन्द्रतुल्यवर्णकुसुमा पुष्पान्वितमञ्जरीका दीर्घवृन्ता युग्मफलान्विता कट्वी शीतवीर्या पित्त श्लेष्मकासव्रणदोषकृमिनाशिनी चक्षुप्या च / राजनिघं। वाच०। इंदजव-न०--पु०(इन्द्रयव) इन्द्रस्य कुटजवृक्षस्य यवा-कृतिबीजत्वात् यव इव बीजम् / कुटजवृक्षस्य यवाकारे तिक्तरसे स्वनामख्याते बीजे, "ऐन्द्रो यवस्त्रिदोषघ्रः, संग्राही कटुशीतलः / ज्वरातिसाररक्तार्शःक्रमिवीसर्पकुष्टनुत्॥ दीपनो गुदकी लास्रवातास्रश्लेष्मशूलजित्। भाव० प्र०। वाच०॥ इंदजसा-स्त्री०(इन्द्रयशस्) पांचालदेशस्थकांपिल्यनगरस्य ब्रह्मनामकराज्ञोभार्यायाम, तस्यच चतस्रो भार्याः। "इंदवसु १इंदजसा 2 इंदसिरी 3 चुल्लणीदेवी 4 य" / उत्त०१३ अ०॥ इंदजाल-न०(इन्द्रजाल) द्वासप्ततिकलान्तर्गत कलाविशेषे, कल्प० / इन्द्रेण कौशल्याद्यैश्वर्येण जालंद्रष्टुर्नेत्रावरणं यथास्थितवस्तुदर्शनाक्षमत्वासाधनात् / इन्द्रस्य परमेश्वरस्य जालं मायेव वा मन्त्रौषधादिना अन्यथास्थितस्य वस्तुनोऽन्यथात्वेन दर्शनसाधने (कुहक) (वाजी) 1 पदार्थे, 2 मायारूपे जाले च / इन्द्रेण इन्द्रकृतेन योगविशेषेण जालं क्षुद्रोपायभेदेच। इन्द्रजालं च द्रव्यविशेषसंयोगेन अद्भुतवस्तुदर्शकव्यापारः (क्यामेष्टरि) इति आंगलभाषाप्रसिद्धः / मन्त्रद्रध्य विशेषेण वस्तुनोऽन्यथाकरणञ्च वाच०। इंदजालि(न)-त्रि०(इन्द्रजालिन्) वेषरधनादिस्वपरहा सोत्पादके विस्मापके, स्था० 4 ठा०॥ इंदजालिय-त्रि०(इन्द्रजालिक) इन्द्रजालं शिल्पतयास्त्यस्य ठन्। इन्द्रजालकारके, इन्द्रजालिकीत्यप्यत्र स्त्रियां डीपवाच० आ०म०। विशे०। इंदज्झय-पु०(इन्द्रध्वज) इन्द्रत्वसूचको वा ध्वज इन्द्रध्वज इति / अतिमहति ध्वजे, / प्रव० 40 द्वा०॥ "आगासगओ कुडिभी सहस्स परिमंडियाभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छइ“॥ (आगासग ओत्ति) आकाशगतोऽत्यर्थं तुङ्गमित्यर्थः (कुडि-भित्ति) लघुपताकः संभाव्यते / तत्सहस्रैः परिमण्डितश्चासावभिरामश्वातिरमणीय इति विग्रहः / (इंदज्झओत्ति) शेषध्वजापेक्षयाऽतिमहत्वात् इन्द्रश्वासौध्वजश्च इन्द्रध्वज इति। (पुरओत्ति) जिनस्याग्रतो गच्छतीति दशमोऽतिशयः। सम०३४ स०॥ इंदज्झया-स्वी०(इन्द्रध्वजा) इन्द्रसम्बन्धिन्यां तत्संतोषाय स्थापितायां ध्वजायाम, वाच० / तदुत्पत्तिरावश्यकचूर्णी भरतकथामधिकृत्योक्ता यथाताहे सो सक्कं भणति तुज्झेहिं के रिसेण रूवेण तत्थ अत्थ हति ताहे सक्को भणति ण सक्का तं माणुसेणं दटुं / ताहे सो भणति / तस्स आकिति पेच्छामि। ताहे सक्को भणति जेण तुम उत्तमपुरिसो तेण ते अहं दामि एग पदेसं ताहे एगं अंगुलिं सव्वालंकारविभूसितं काऊण दाएति सो तंदठूणं अतीव हरिसं गतो। ताहे तस्स अट्ठाहियं महिमं करेति ताए अंगुलीए आकिर्ति काऊण पच्छास इंदज्झया एवं वरिसे वरिसे इंदमहो पव्वत्तो। पढम उस्सवो भरहो भणति तुमं सि देविंदो अहं मणुस्सिंदो मित्तामो एवं होउत्ति। आ० चू०२० अ०॥ इंदट्ठाण-न०(इन्द्रस्थान) भवननगरविमानरूपेचमरादि-सम्बन्ध्याश्रये, स्था०६ ठा०॥ तत्रेन्द्रोपपातविरहितकालो यथा इंदट्ठाणे णं भंते ! केवतियं कालं विरहिते उववाते णं पण्णते? गो०! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा (इंदट्ठाणेणमित्यादि) इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तम्। भगवानाहगौतम! जघन्येनैकं समयं यावत् उत्कर्षतः षण्मासान्। जी०३ प्र० / / भ०॥ . स्थानाङ्गेपि। एगमेगे णं इंदट्ठाणे उक्कोसेणं छम्मासे विरहिए उववाएणं (एगेत्यादि) एकैकमिन्द्रस्थानं चमरादिसम्बन्ध्याश्रयो भवननगरविमानरूपस्तदुत्कर्षेण षण्मासान् यावद्विरहितमुपपाते नेन्द्रापेक्षयेति। स्था०६ ठा०॥ इन्द्रोपपातविरहिते इन्द्रस्थाने किं भवतीति जीवाभिगमे प्रतिपादितम् / तद्यथा तेसिंणं मंते ! जया देवाणं इंदे चयति से कहमिदाणी पकरेंति? गो०! चत्तारि पंच सामाणिया तट्ठाणं उवसंपञ्जित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवति।। पुनः प्रश्नयति (तेसिणं भंते इत्यादि) तेषां भदन्त! ज्योतिष्कदेवानां यदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते देवा इदानीं इन्द्रविरह काले कथं प्रकृर्वति। भगवानाहा गौतम! यावच्चत्वारः पंच वा सामानिका देवाः समुदितीभूय तत्स्थानमुपसंपद्य विहरंति तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदतआह यावदन्यस्तत्र इन्द्र उपपन्नो भवति। जी०३ प्र०॥ एवं बाह्यज्योतिष्कदेवेन्द्रस्थानेऽपितथाच सूर्यप्रज्ञप्तौ। तातेसिणं देवाणं जाव इंदे चयति से कथमिदाणिं पकरेंति ता चत्तारि पंच सामाणियदेवा तहाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति जाविंदा तत्थोववण्णगा इत्थं इंदे उववण्णे भवति ता इंदट्ठाणे केवतियं कालं विरहिते उववाते पण्णत्ते ताजहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासे // (ता तेसिणत्ति) ता इतिपूर्ववत् तेषां ज्योतिष्काणां देवानां यदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते देवा इदानीं इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति भगवानाह ता इत्यादि पूर्ववत् चत्वारि पंच वा सामानिका देवाः समुदितीभूय तच्छुन्यमिन्द्रमुपसम्पद्य विहरंति तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्तीति चेदत आह। यावदिन्द्रः तत्रेन्द्र उपपन्नो भवति (ता इंद ट्ठाणेणेत्ति) ता इति पूर्ववत् इन्द्रस्थानं कियत्कालमुपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तं ? भगवानाह (ता इत्यादि) जघन्येन एकं समयं यावत् उत्कर्षण षण्मासान्। सूर्य०१६ पा०॥ इन्द्राणांप्रत्येकंस्थानानितत्तद्देवस्थाननिरूप Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदणक्खत्त 566 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंददत्त० णावसरे (ठाण) शब्दे / इन्द्रयष्टिस्थापनाय कृते स्थाने च। जेणेव इन्दट्ठाणे तेणेव उवागए। (इंदट्ठाणेत्ति) यत्रेन्याष्टिरूर्वी क्रियत इति। अन्त०। इंदणक्खत्त-न०(इन्द्रनक्षत्र) इन्द्रस्वामिकं नक्षत्रम्। ज्येष्ठानक्षत्रे, तस्य तत्स्वामिकत्वात्तथात्वम्। इन्द्रनामकं नक्षत्रम्। फाल्गुनीनक्षत्रे च। वाच०। इंदणाग-पुं०(इन्द्रनाग) वसंतपुरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिकुमारे, तेन च बालतपसा सामायिकं लब्धमिति (सामाइय) शब्दे / आ० म० द्वि० / / इंदणील-पु०(इन्द्रनील) इन्द्र इव नीलः श्यामः / वाच० / खरबादरपृथिवीकायात्मके नीलरत्नविशेषरूपे मणिविशेषे, उत्त० सूत्र० २श्रु० 3 अ०। राजा जी०। प्रज्ञा० / कल्प० / औप०। (नीलम) इति ख्याते भरकतमणौ, तल्लक्षणमुक्तं रत्नपरीक्षायाम् / 'क्षीरमध्ये क्षिपेन्नीलं क्षीरचेन्नीलतां व्रजेत्। इन्द्रनील इति ख्यातं सर्व्वरत्नोत्तमोत्तमम्" वाच०। इंदतोया-स्त्री०(इन्द्रतोया) इन्द्रमैश्वर्यान्वितं तोयमस्याः, इन्द्रेण पूरितं तोयमस्या वा / गन्धमादनसमीपस्थे नदीभेदे // इन्द्रतोयां समासाद्य गंधमादनसन्निधौ / भा०प०२४ वाच०॥ इंददत्त-पु०(इन्द्रदत्त) स्वनामख्यातेऽभिनंदनजिनस्य प्रथमभिक्षादातरि, सम०२४ स०।आ० म०ावासुपूज्यजिनस्य पूर्वभवके एतन्नामधेये च / सम०२४ स० // इन्द्रपुरनगरस्थे स्वनामख्याते नृपे, तत्कथा मानुष्यदुर्लभत्वे। तितिक्षायाम् शीले चसम्भवति आ० म०।आ० क०। आ० चूल। उत्त०। पं०व०। आव० / व्य०। विपा०। नि० चू० / इन्द्रपुरं नगरं इंददत्तो राया। इति / आ० चू०२ अ०। इन्द्रपुरे इंददते या व्य०२ खं०६ उ०। इंद पुरइंददत्ते, वावीससुआ सुरिंददत्ते अ। महुराए जिअसत्तू सयंवरो निय्बुई एव // oll अस्य व्याख्या // कथानकादवसेया! तचेदं। इदंपुर नगरं इंददत्तो राया तस्स इट्ठाणं देवी से वावीसं पुत्ता अन्ने भणंति एगाए देवीए ते सव्वे रन्नो पाणसमा अन्ना एक्का धूया अमच्चस्स साजं परिणय तेण दिट्ठा सा अन्नया कयाइ न्हाया स माणी अत्थइ ताहे रायाए दिट्ठा का एसा तेहिं भणियं तुज्झं देवी ताहे सो ताए समं एक रत्तिपुत्तो वेलाजंच रायाए उल्लवियं सत्तंकारो तेण तं पत्तए लिहियं सो य सारवेइ नवन्हं मासाणं दारओ जाओ तस्स दारचेडाणि तदिवस जायाणि तं अग्गियओ पव्वयओ वहुलिया सागरग ताणि सह जायाणि तेण कलायरियस्स उवणीओ तेण लेहाइयाओ बावत्तरिकलाओगहियाउ जाहे ताओ गाहेइ आयरिओताहे ताणि कट्ठति किं ठिय पुव्वपरिचएण ताणि रोडेंति सो वि ताणि न गणेइ गहियाओ कलाओ ते अन्ने गाहिजंति बावीसं पि कुमारा जस्स ते अप्पिजंति आयरियस्सतं पिट्टति मत्थएहिं य हणंति अह उवज्झाओते पिट्टेइ अपढ़ते ताहे सहें ति माइमिस्सिगाणं ताहे ताओ भणंति / किं सुलभाणि पुत्तजम्माणि ताहे न सिक्खियाइ उय महुराय जितसत्तुराया तस्स सुया निव्वुइनाम कन्नगा सा अलंकियपन्नाउवणीया राया भणइ जो ते रोयइ सो ते भत्ता ताहे ताए नायं जो सूरो वीरो वक्रतो सा पुण रज्जे देज्जा ताहे सा तं बलवाहणं गहाय गया इंदपुरं नगरं रायसपुत्ता बहवे अहवा दूओ पयविउ ताहे आवाहिया सव्वे रायाणो ताहे तेण रायाणएण सुयं जहासाए हहतुहाउसियपडागं नगरं कयं रंगो कओतत्थ चक्कं तत्थ एगमि अक्खे अटुं वक्काणि तेसिं पुरउ धूया ठविया सा पुण पुच्छिमि विधेयव्वा राया सन्नद्धो निग्गतो सहपुत्तेहिं ता हे सा कन्ना सव्वालंकारभूसियाए मंडिया से अत्थए सो रंगो रायाणय ते पत्तेयदंडभटभोयणा जारिसो दोवती ए ए तत्थ रन्नो जेट्टपुत्तो सिरिमालीनामकुमारो भणिओ एस दारिया रज्जं च भोत्तव्वं सो वि तुट्ठो अहं नूणं अन्नेहितो रातिहिं अब्भहिओताहे सो भणति विदेहित्ति ताहे सो अकयकरणो तस्स समूहस्समज्झेतंधणुघेत्तुं चेवन दातेइ किहविणेण गहियं तेण जंतो वव्वइत्तो वच्चउत्ति कडं मुंडं तं भग्गं एवं कासइणा अरयंवो लीणं कासइ दो तिन्नि अन्नेसिं वाहिरेण चेवणिति तेण वि अमचेण सो णत्तगो ण साविओ तदिवसमाणिओ तत्थ अत्थइ ता राया ओहयमणसंकप्पो करयलपल्लत्थमुहो अहो अयं लोयमज्झे पुत्तेहिं धरिसिओत्ति अत्थइ ताहे सो अमचो पुच्छइ किं तुज्झ देवाणुप्पिया ओ हया जाव ज्झायह ताहे सो भणइ एएहिं अप्पहाणो कओ ताहे भणइ अत्थि पुत्तो अन्नो वि तुद्यं कहिं कहिं सुरिंददत्तो नाम कुमारो तं सो वि ताव विन्नासेउ ताहे तं राया पुच्छइ कहं मम एरिसो पुत्तो ताहे ताणि सिट्ठाणि रहस्साणि ताहे राया तुट्ठो भणइ सेयं तवपुत्ता एते अट्ठवक्को भेत्तूण रजसोक्खं निवुत्तिदारियं पावित्तए ताहे सो कुमारो ठाणं आलीढं ठाउऊण गेहइ धनुलक्खाभिमुहं सरं संधेइ ताणि तस्स रूवाणि ते य कुमारा सव्व ओरोडावेंति अन्ने यदोन्निपुरिसा असिव्वग्गहत्थो ताहे सो पणामं रन्नो उवज्झायस्स य करेइ सो वि से उवज्झाओ भयं दाएइ एए दोन्नि पुरिसा जइ फिडसि सीसं ते फिडइ तेसिं दोन्नवि पुरिसाणं तेण चत्तारितेय वावीसं अगणेतो ताणं अट्ठन्ह रहचक्काणं छिंदाणि जाणिऊण एगम्मि छिदे नाऊण अप्फिडयाए दिट्ठिए तंमि लक्खत्तेण अन्नमियमणं आऊणमाणेण साधीतीया अच्छिमि विद्धा तत्थ उकुट्ठसीहनादसाधुक्कारो दिन्नो एसा दवतितिक्खा एस चेद विभासाभावे वि उपसंहारो / जहा कुमारोतहा साहू, जहा ते चत्तारितहा चत्तारि कसाया, जहा ते वा वीसं कुमारा तहा वावीसं परीसहा, जहा ते रूवे मणूसा तहा रागदोसा, जहा पुत्तलिगा विधेयव्वा तहा आराहणा, जहा निव्वु त्तिदारिया तहा सिद्धितितिक्खत्ति गयं // आव०४ अ०! "आसीदिन्द्रपुरं नाम, नगरं गुरुकं गुणैः। तत्राभवच्छ्रियामिन्द्र, इन्द्रदत्तो महीपतिः // 11 // प्रीतिपात्रः कलत्राणां, तस्य द्वाविंशतिः सुताः / / बभूवुर्भूमिपालस्य, प्राणेभ्योऽप्यतिवल्लभाः // 2 // अन्या भार्या भवत्तस्य, भूपस्यामात्यपुत्रिका / सा च तेन परं दृष्टा, पाणिग्राहं प्रकुंवता // 3 // अथान्यदा कदाचित्सा, ऋतौ स्नाता विलोकिताः // राज्ञा पृष्टाश्च पार्श्वस्था, यथैषा कस्य का च भोः // 4 // ते ऊचुर्देव देवी ते, ततो राजा तया सह॥ रात्रिमेकामुदासाथ, तस्या गर्भोऽभवत्तदा // 5 // साच पूर्वममात्येन, भणिताऽऽसीद्यदा तव / / गर्भो भूतो भवेद्भद्रे, तदा त्वं मे निवेदयः / / 6 / / ततः सा गर्भसंभूति, राजसंवासवासरं॥ मुहूर्तराजजल्पं च पितुः सर्वंन्यवेदयन्।७।। सत्यंकाराय तत्सर्वं, व्यलिखत्सोऽपि पत्रके / / सम्यक् तां पालयामास, काले चाजनि दारकः // 8 // तदिने दासरूपाणि, ययुश्चत्वारि तद्गृहे // Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंददत्त 167 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदपुर अग्निकः पर्वतश्चाथ, बहुलीसागरस्तथा / / 6 / / सुरेन्द्रदत्त इत्येषा, राजसूनोः कृताभिधा / / कलासूरेरसौ पार्वे, कलाः काले गृहीतवान्॥१०॥ गृह्णतश्च कलास्तस्य, चक्रिरे तानुपद्रवान्। न चासौ भाविभद्रत्वान्नृपस्तत्तु व्यजीगणत्।।११।। ते च द्वाविंशतिः पुत्रा ग्राह्यमाणाः कलाः किल॥ निघ्नन्तिस्म कलाचार्य , गालीस्तस्य तथा ददुः // 12 // सूरिणा ताडितास्ते तु. स्वमातृभ्यो न्यवेदयन्॥ तंच ताः कुपिताः शापै-श्चक्रुरुद्वेगभाजनम्॥१३॥ एवं ते ययुरज्ञाना, सूरिणा समुपेक्षिताः। इतश्च मथुरानाथ, आसीत्पर्वतको नृपः / / 14|| तत्सुता निवृतिर्नाम, यौवनोद्भेद सुन्दरा॥ वरार्थं तेन सावाचि, भरि वृणु वाञ्छितम्॥१५|| सा पुनस्तमनुज्ञाप्या चलदिन्द्रपुरं प्रति!। राजपुत्र यतस्तत्र भूयांसः सन्तिसद्गुणाः॥१६॥ ततः सेन्द्रपुरं प्राप-दाप्रलोकसमन्विता। तुष्टेन चेन्द्रदत्तेन राज्ञाऽकारि पुरे महः ||17|| निर्वृत्या भणितं राज्ञो, राधावेधं करिष्यति / / यः कुमारः स मे भर्ता भविष्यत्यपरो न तु // 18 // तदाकर्ण्य नृपो रंगं कारयमास तत्र च / / एकत्राक्षेऽष्ट चक्राणि तत्पुरः पुत्रिका तथा॥१६॥ सा च चक्षुषि वाणेन, भेत्तव्याधो विवर्तिना। ततः सैन्ययुतो राजा, रंगे तस्थौ सपुत्रकः।।२०।। निर्वृतिश्चैकदेशेऽस्य, स्थितालड्कृतविग्रहा।। यथास्वं च निविष्ठेषु, सामंतनागरादिषु / / 21 / / आदिष्टो ज्येष्ठपुत्रोऽथ, राज्ञा श्रीमालिनामकः / / भित्वा राधां गृहाणेमां, कन्यां राज्यं च पुत्रक / / 22 / / ततः सोऽशिक्षितत्वेन, साध्यसोत्कंपिविग्रहः।। शशाक नैव तां भेत्तु-मेवं ते शेषका अपि॥२३॥ ततो राजा स्वपुत्राणां, मूर्खतां वीक्ष्य तत्क्षणात्। शुशोच हस्तविन्यस्तगंडो भून्यस्तदृष्टिकः॥२४॥ ततोऽमात्यस्तमापृच्छत्, देवः किं दैन्यवान् भवान्॥ सोऽवोचत्दुःसुतैरेतैरह भोधर्षितो जने॥२५॥ ततोऽमात्योऽवदद्भूपं यथान्योपिच ते सुतः॥ विद्यते सोऽपि देवेन राधावेघे नियुज्यतां // 26 // राजाऽवोचत्कुतो मेऽन्यः, सुतोऽमात्योऽप्युवाच तम्॥ मद्दौहित्रस्ततः पत्रं दर्शयामास तस्य तत्॥२७|| संजातप्रत्ययो राजा संतुष्टस्तं बभाण च। आनयाऽमात्य तत्पुत्रं, तस्य तं सोऽप्यदर्शयत्॥२८॥ आलिङ्ग्य मूर्ध्नि चाघ्राय, तंबभाषे सुतोत्तमम्॥ कन्यां गृहाण राज्यञ्च भित्वा राधां त्वमद्भुतां / / 26 / / यदादिशति तातस्तत्करोमीत्यभिधाय सः // धनुर्वेदोपदेशेन राधां भेत्तुमुपस्थितः॥३०॥ तान्यस्य चेटरूपाणि तेच द्वाविंशतिः सुताः।। उद्धृतासीनरौ द्वौ च नाना चक्रुरुपद्रवान् // 31 // कलाचार्योऽप्यऽवोचत्तं न चेद्राधां विभेत्स्यति / तदेतौ च शिरो वत्स छेत्सयेते दारुणौ नरौ॥३२॥ ततोसाववगण्यैतान् लब्धलक्षोऽप्रमादवान् // चक्राणामंतरं ज्ञात्वा राधां द्रागिति विद्धवान् // 33 // ततश्चास्फालितं तूर्य साधुकारः कृतो जनैः।। राजादिस्तोषितो लोक ऊढाकन्या च तेन सा // 34 // पंचा०। श्रावस्तीवास्तव्ये कपिलपितुः काश्यपस्य मित्रे, कपिलस्योपाध्याये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, उत्त०७ अ० / तथा च कपिलकथायाम् "सावत्थीए णयरीए पिइमित्तो इन्ददत्तो नाम माहणो इति" उत्त० / तत्कथा कपिलशब्दे। मथुरानगरस्थेस्वनामख्यातेपुरोहितेचे।तत्कथा यथा-मथुरायां इन्द्रदत्तः पुरोहितोऽस्ति स जिनशासनप्रत्यनीकः स्वगवाक्षस्थःसन् अधोनिर्गच्छतोजैनयतेर्मस्तकोपरि निजचरणं विततं करोति / एवं निरन्तरं कुवाणं तं दृष्ट्वा साधुन कोपि कुप्यति परमेकः श्रावकः कुपितः तत्पादच्छेदप्रतिज्ञामकरोत् अन्यानि तच्छिद्राणि अलभमानेन, तेन श्रावकेण तत्स्वरूपं गुरोः पुरः कथितम् / गुरुणोक्तं सह्यते सत्कारपुरस्कारपरीषहः साधुनेति / तेन स्वप्रतिज्ञा कथिता। गुरुभिरुक्तम्। अस्य गृहे किं जायमानमस्ति तेनोक्तं नवीनप्रासादे राजा निमन्त्र्यमाणोऽस्ति पुरोहितेन / गुरुभिरुक्तं तर्हि त्वंतत्प्रासादेप्रविशन्तं राजानं करे धृत्वा प्रासादोऽयं पतिष्यतीति कथय। अहंच प्रासादं विद्यया पातयिष्यामि / ततस्तेन तथाकृते / प्रासादः पतितो राज्ञोक्तं किमिदजातं / श्रेष्ठिनोक्तं महाराज ! अनेन तव मारणाय कपट मणिडतमभूत् ततो रुष्टेन राज्ञा स पुरोहितस्तस्य श्रेष्ठिनोऽर्पितः सच श्रेष्ठी इन्द्रकीलके तस्य पादं क्षिप्त्वा प्रतिज्ञापूरणार्थं च पिष्टमयं पादं कृत्वा च्छिन्नवान् उक्तवांश्च सर्व तत्स्वरूपं पुरोहितेनोक्तमतः परं नैवेदृशं करिष्यामीति / जानुकंपेन श्रावकेण स मुक्तः। उत्त०२ अ०॥ इत्थमिदद्त्तो पुरोहिओगवक्खट्ठिओ मिच्छदिट्ठी अहोवचंतस्ससाहुस्स मत्थए उवरि पायं कुणंतो सेट्टेण गुरुभत्तिए पायहीणो कओ" ती०।। इंददार-पुं०(इन्द्रदारु) इन्द्रस्य तद्ध्वजस्य साधनं दारु देवदारु वृक्षे इन्द्रदुमादयोप्यत्र ! वाच०॥ इंददिण्ण-पुं०(इन्द्रदिन्न) कौटिकगच्छस्थे सुस्थितसुप्रसिबुद्धा परनामधेययोः कौटिककाकन्दकयोः शिष्ये स्वनामख्याते आचार्ये, "सुवियसुप्पडिबुद्धाणं कोडियकाकंदगाणं वग्घावच सगुत्ताणं अंन्तेवासी थेरे अजइंददिण्णे कोसियगुत्ते / / इति"- कल्प०1"तदनु च सुहस्तिशिष्यौ, कौटिककाकंद कावजायेताम् / सुस्थितसुप्रतिबुद्धौ, कौटिकगच्छस्ततः समभूत्। तत्रेन्द्रदिन्नसूरि-भगवान् श्रीदिण्णसंज्ञसूरीन्द्रः॥ इति गच्छा०॥ अयं च खरतरगच्छपट्टावल्ल्यनुसारेण वीरजिनात्त्रयोदशः / / तपोगच्छपट्टावलीप्रमाणतो दशमः। इंदपव्वय-पुं०(इन्द्रपर्वत) इन्द्रनामकपर्वतः / महेन्द्रपर्वते, इन्द्रवर्णः पर्वतः। नीलवर्णे गिरिभेदे, वाच०॥ इंदपाडिवया-स्त्री०(इन्द्रप्रतिपत्) अश्वयुक्पूर्णिमायां अनन्तरभावि न्याम्महाप्रतिपदितस्यां चास्वाध्याय इति- | स्था०४ ठा०। इंदपुर-न०(इन्द्रपुर) इन्द्रदत्तनृपस्य भारतवर्षस्ये स्वनामख्याते नगरे, आव०४ अ०६ ठा० / / आ० चू०। आ०म० / स्था०। इहेव जंबूदीवे भारहेवासे इंदपुरणामणयरे, // इति विपा०१० अ०व्य०।"पुरमिन्द्रपुर नाम साक्षादिन्द्रपुरं किल'' || आ० क०। माणीपुरस्थे स्वनामख्याते नगरेच॥"माणी पुरंणयरंणागदते गाहावई इंदपुरे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे इति'' विपा०७ अ०॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदपुरग 568 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदभूइ इंदपुरग-न०(इन्द्रपुरक) (वेसवाडिय) गणस्य चतुर्ष कुलेषु चतुर्ये कुले,। तह होइ इंदपुरगंच। कल्प०इंदपुरोहित-पुं०(इंद्रपुरोहित) 6 तासुराचार्य्यबृहस्पतौ-वाच०। इंदभूइ-पु०(इन्द्रभूति) स्वनामख्याते महावीरस्य प्रथमगणधरे प्रथमगणनायके प्रथमशिष्ये, प्रव० 8 द्वा०। सम०। सूत्र०। "समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई अणगारे गोयमसगोत्तेणं इति / कल्प० / अन्त०। विपा०। “जिणवीरस्सेक्कारस पढमो से इंदभूइयत्ति णामेण इंदभूइत्ति गोयमो वंदिऊण विविहेण' / चं० प्र०१ पा० // तत्कथाच-"इंदभूईणामो पंचखंडियसयपरिवारो सव्वप्पहाणो मगहा विसए सो य जन्नदीक्खितो मक्खितोय मज्झिमा य अच्छति इय अजाणो देवुज्जाव पासित्ता हरि सियमणो चिंतेऊणं भासति तेसिं पुरओ अहो मया मंतेहिं सुरा आहूया जे जन्ने समुवट्ठिया एवं वोत्तूणं खंडिगेहिसह निग्गतो उजाणे अपासमाणो उत्तरपुरच्छिमे दिसि भाए देवसन्निवायं पासति भासति किमेतंति / अन्नेहिं से कहितं जहा एस सिद्धत्थरायपुत्तो महावीरवद्धमाणो तवं काउं केवली जाओ किल सवण्णू सव्वभावदरिसी तं वयणं सो ओ भासति अमरसिओ को अन्नो ममाहितो अब्भहितो जस्स देवा एति ताहे वचामो जण्णं पराजिणंमि किं सो जाणति एति ण पणिहाणेण पहावितो पंचखंडियसतपरिवारो वेदप दाणय अत्थो भगवता से कहिंतो एत्थ समंतो संबुद्धो य भणइपंचखंडियसते एस सव्वण्णु अहं पव्वयामि तुम्भे जहि च्छितं करेहि ते भणंति जदि तुन्भे एरिसगा होता पव्वयह तो अहं का अन्ना गमित्ति एवं सो पंचसयपरिवारो पव्वत्ति तो। आ० चू०१ अ०॥ ते हि देवाः स्वं यज्ञवाट परिहृत्य समवसरणभुवि निपति तवन्तः तांश्च तथा दृष्ट्वा लोकोऽपि तत्रैव जगाम भगवन्तं त्रिद शलोकेने पूज्यमानं दृष्ट्वा अतीव हर्ष चक्रे प्रवादश्च सञ्जातः / सर्वज्ञोऽत्र समवसृतस्तं देवाः पूजयन्तीति / अत्रान्तरे खल्याक र्णितसर्वज्ञप्रवादो ऽमर्षाध्नातइन्द्र भूतिर्भगवन्तं प्रतिप्रस्थितः "सोउण कीरमाणिं, महिमं देवेहिं जिणवरिंदस्स।। अह अहं माणीय, अमरिसिओ इंदभूइत्ति" ||1|| श्रुत्वा जनपरंपरात् आकर्ण्य पाठान्तरतो दृष्ट्वा वा महिमां पूजां देवैः क्रियमाणां जिनवीरेन्द्रस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः अथास्मिन् प्रस्तावे एति आगच्छति भगवत्समीपं अहमेव विद्वानिति मानोऽस्येति अहं मानी अमर्षो मत्सरविशेषः स संजातोस्य सोऽमर्षितः मयि सति कोऽन्यः सर्वज्ञ इत्यपनयाम्यद्य सर्वज्ञवादमित्यादिसंकल्पकलुषितान्तरात्मा कोऽसावित्याह / इंद्रभूतिरितिनाम्ना प्रथितः स च भगवत्समीपं प्राप्य भगवन्तञ्च चतुस्विंशदतिशयसमन्वितं देवासुरनरेश्वरपरिवृतं दृष्ट्वा माशङ्कत्तदग्रतस्तस्थौ। एतदेव सविस्तरं भाष्यकार आहमोत्तूण ममं लोगा, किं वच्चइ तस्स पायमूलंमि। अन्नो वि जाणइ मए, ठियंमि कत्तो चियं एयं / / मां सकलशास्त्रपारगं मुक्त्वा किर्मष लोकस्तस्य पादमूलं व्रजति नचासौ मदपेक्षया किमपि जानाति तथाहि मयि प्रतिवादिनि स्थिते अन्योऽपि किमपि जानातीति कौतस्त्यमे-तत् / नैवतै त संभवतीति भावः॥ पुनरप्याहववेज च मुक्खजणो, देवा उ कहमणेण विम्हयं नीया। वंदंति संथुणंति य, जेण सव्वण्णुबुद्धीए / वृजेद्वा तत्पादमूलं मूर्खजनो मूर्खतया युक्तायुक्तविवेक विकल-त्वात् देवास्तु कथमनेन विस्मयं नीता येन विस्मय नयनेन सर्वज्ञबुद्ध्या तं वन्दन्ते संस्तुवन्ति च। अहवा जारिसतोचिय, सो नाणी तारिसा सुराते वि। अणुसरिसो संजोगो, गामनडाणं च मुक्खाणं / / अथवा यादृश एव स ज्ञानी तेऽपि सुरास्तादृशा एव मूर्खा इत्य-र्थः / ततोऽनुसदृशोऽनुरूपः संयोगस्तस्य ज्ञानिनः एतेषां च देवानाम् / कयोरिवेत्याह-ग्रामनटयोरिव मूर्खयोर्यथा ग्रामे मूर्खा नटोऽपि तथाविधविद्याविकलत्वात् मूर्ख इति परस्परं तयोः संयोगोऽनुरूपमेवमेषोऽपीति // काउंहयप्पयावं, पुरतो देवाण दाणवाणंच। नासे हं नीसेसं,खणेण सव्वन्नुवायं से। देवानां च दानवानां च पुरतोऽग्रे तथाविधप्रश्नजालैर्हतप्रताप कृत्वा क्षणमात्रेण (से) तस्य सर्वज्ञवादं निःशेषमहं नाशयामि।। इय वोत्तूणं पत्तो, दठूणतिलोकपरिखुडं वीरं। चोत्तिसातिसएहि, ससंकितो वहितो पुरतो।। इति पुर्वोक्तमुक्त्वा प्राप्तो भगवत्समीपं दृष्ट्वा च भगवन्तं वीरं त्रैलोक्यपरिवृतं चतुस्त्रिंशदतिशयनिधिं सशङ्कितः पुरतोऽवस्थितः॥ अत्रान्तरेआभट्ठोय जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं / नामेण य गुत्तेण य, सव्वन्न सव्वदरिसीणं / / आभाषितः संलपितो जिनेन भगवता महावीरेण जातिः प्रसूतिर्जरावयोहानिलक्षणा मरणञ्च दशविधप्राणविप्रयोग रूपमेभिर्विप्रमुक्तस्तेन कंथमाभाषित इत्याह नाम्ना हेइन्द्रभूते ! न इत्येवंरूपेण तथा गोत्रेण च यथा हेगौतमगोत्र ! किं विशिष्टेन जिनेनेत्याह / सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, आह-योजरामरणविप्रमुक्तः स सर्वज्ञ एवेतिगतार्थमिदं विशेषणमितिचेन्न नयवाद-परिकल्पितजात्यादिविप्रमुक्तनिरासार्थत्वात्। तथाहि-कैश्चित् गुणविप्रमुक्तमोक्षवादिभिरचेतना मुक्त इष्यते ततस्तन्निरासार्थमूचे / सर्वज्ञेन सर्वदर्शिनेति इत्थं नामगोत्राभ्यां संलपितस्य तस्य चिन्ताऽभवत् तथा चाहहे इंदभूइ गोयमा! सागयमुत्ते जिणेण चिंतेइ। सो मं पि मे वियाणइ अहवा को मंन याणाई। हे इंद्र भूते! गोतम! स्वागतमिति जिनेनोक्ते स चिन्तयति अहो नामापि मे विजानाति अथवा सर्वत्र प्रसिद्धोऽहं को मां न जानाति / जइ वा हिययगय मे, संसय मन्नेज अहव च्छिदेजा। ततो होज विम्हतो मे, इय चिंतंतो पुणो भणिओ। यदि मे हृद्गतं संशयं मन्येत जानीयात् अथवा छिन्द्यादप नयेत् ततो मे विस्मयो भवेत् भविष्यति इति चिन्तयन् पुनरपि भगवता भणितः। किं भणित इत्याह Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 569 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदभूइ किंमन्ने अत्थि जीवो, उयाहू नत्थित्ति संसओ तुजा। वेयपयाण य अत्थं,नयाणसी तेसिमो अत्थो। हे गौतम ! किं मन्यसे अस्ति जीव उत नास्तीति नन्य यमनुचित एव संशयो यतोऽयं संशयस्तव विरुद्धवेदपद श्रुतिनिबंधन इति। तान्यमूनि वेदपदानि "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यतिन प्रेत्यसंज्ञास्तीत्यादि"तथा स वै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादीनि च एतेषां च वेदपदानामयमों भवतश्चेतसि विपरिवर्त्तते / विज्ञानमेव धनानन्दादिरूपत्वात् विज्ञानघनः स एव एतेभ्योऽध्यक्षतः परिच्छिद्यमानस्वरूपेभ्यः पृथिव्यादिलक्षणेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय उत्पद्य पुनस्ता-न्येवानुविनश्य ति तान्येव भूतानि अनुसृत्य विनश्यति तत्रैवाव्यक्तरूपतया संलीनां भवतीति भावः न प्रेत्यसंज्ञास्ति मृत्वा पुनर्जन्मप्रेत्येत्युच्यतेतत्संज्ञास्तिन परलोकसंज्ञाऽस्तीति भावः / ततः कुतो जीवः युक्त्योपपन्नश्चायमर्थ इति ते मतिः यतो नासौ प्रत्यक्षेण परिगृहाते अतीन्द्रियत्वात् नाप्यनुमानेन यतस्तल्लिङ्ग लिङ्गिसम्बन्धपूर्वकञ्च / न चात्र लिङ्गिना सह सम्बन्धः प्रत्यक्षगम्यो लिङ्गिनोऽतीन्द्रियत्वात् / नाप्यनुमानगम्यो ऽनवस्थाप्रसक्तेस्तदपि हि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपूर्वकं तत्रापि चेयमेव वार्ता, इत्यनवस्थानुषङ्गः। नाप्यागमगम्यः परस्पर-विरुद्धार्थतया तथागमानां प्रमाणत्वाभावात्। तथाहि केचिदेव-माहुः "एतावानेव लोकोऽयं, यावदिन्द्रियगोचरः / भद्रेवृकपदं पश्य यद्वदन्त्य बहुश्रुताः" इत्यादि। अपरे प्राहुर्नरूप मीक्षवः पुद्रला इत्यादि पुद्गले रूपं निषेधयन्ति अन्तर्भूत आत्मे त्यर्थः अन्ये पुनरेवम् "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता" इत्यादि। अपरेएवम् "सवै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि, नचैते सर्व एव प्रमाणम् परस्परविरोधात् व्यर्थाभिधायकपरस्परविरुद्धवाक्यपुरुषवातवत् आत्मानं विद्यः किमस्ति नास्तीत्ययं तवाभिप्रायः। तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि च शब्दात् युक्ति द्वयं च / तथाहि वेदपदानामयमर्थः विज्ञानघन एवेति ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्तयत्वात् आत्मा विज्ञानघनः प्रतिप्रदेशमनन्त विज्ञानपर्यायः संपातात्मकत्वात् वा विज्ञानघन एव शब्दोऽवधारणे विज्ञानधनादनन्यधनत्वात् विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः क्षित्युदकादिभ्यः समुत्थाय कथंचिदुत्पद्येतिघटविज्ञानपरिणतो हि आत्मा घटाद्भवति तद्विज्ञानक्षयोपशमनस्य तत्राक्षेपत्वात् अन्यथा निरालम्बनतया तस्य मिथ्यात्वप्रसक्तेरेवं सर्वत्र भावनीयम्। तत उक्तं तेभ्यः समुत्थाय कथंचिदुत्पद्येति पुनस्तानेव भूतानि अनु विनश्यति ते विवक्षितेषु भूतेषु व्यवहितेषु वा आत्मापि तद्विज्ञानघनात्मना उपरमते अन्यविज्ञानात्मना उत्पद्यते यदिवासामान्यचैतन्यरूपतयाऽवतिष्ठत इति न प्रेत्यसंज्ञास्ति न प्राकृति-कघटा दिविज्ञानसंज्ञाऽवतिष्ठते / सांप्रतविज्ञानोपयोगनिधितत्वात् अथवा एवं व्याख्या विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवानुविनश्यतीत्येतन्न यतः प्रेत्यसंज्ञास्ति परलोक संज्ञास्ति / यदप्युक्तं नासौ प्रत्यक्षेण परिगृह्यते इति तदप्यसमीचीनमात्मनः प्रत्यक्षसिद्धात्तद्गुणस्य ज्ञानस्य स्वसंवेदन प्रमाणसिद्धत्वात्तथाहि स्वसंविहिताएवावग्रहहापायादय उदयन्तेलीयन्ते वा ततस्तद्गुणस्य स्वसंविदितत्वात् सिद्धमात्मनः प्रत्यक्षत्वम् / अथ व्रवीष्व भूतगुणाश्चैतन्यं तथा वेदेप्युक्तम् "एतेभ्यो भूतेभ्यस्समुत्थायेत्यादि" ततः कथं ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे ते आत्मनः प्रत्यक्षत्वं ज्ञानस्यात्मत्राणत्वा भावात्-तदयुक्तम् भूतगुणत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्यैव सर्वत्र सर्वदा चोपलंभप्रसंगात्।नच सर्वत्र सर्वदा चोपलभ्यते चैत्यन्य लोष्ठादौ मृतावस्थायां चानुपलम्भात्। अथ तत्रापि चैतन्यमस्ति केवलं शक्तिरूपेण ततो नोपलभ्यते तदसम्यग्विकल्पद्वयानतिक्रमात् सा-हि शक्तिश्चैतन्याद्विलक्षणा उत चैतन्यमेव यदि विलक्षणा ततः कथमुच्यते शक्तिरूपेण चैतन्यमस्तिन हि पटे विद्यमाने पटरूपेण घटस्तिष्ठतीति वक्तुंशक्यं तथाचाहान्योऽपि "रूपान्तरेण यदि तत्तदेवास्तीतिमारटीः। चैतन्यादन्यरूपस्य भावे तद्विद्यते कथम् / अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि चैतन्यमेव तत्कथमनुपलभ्यः आवृतत्वादनुपलम्भ इतिचेत्तत्त्वावृत्तिरावरणं तच्चावरणं किं भूतानां विवक्षितपरिणामाना-मुत परिणामान्तर-माहोस्विदन्यदेव भूतातिरिक्त किश्चित् / तत्र न तावद्विवक्षितपरिणामाभावः एकान्ततु च्छरूपतया तस्यावारकत्यायोगात् अन्यथा तस्याप्य-तुच्छरूप तया भावरूपतापत्तिर्भावत्वे पृथिव्यादीनामन्यतमो भावो भवेत् 'पृथिव्यादीन्येव भूतानि तत्त्वमिति वचनात्' पृथिव्यादीनि च भूतानि चैतन्यस्य व्यञ्जकानि नावारकाणीति कथमावारकत्वं तस्योपपत्तिमत्-अथपरिणामान्तरं तदयुक्तं परिणामान्तरस्यापि भूतस्वभावतया भूतवद्व्यञ्जकत्वस्योपपत्ते - वारकत्वस्य, अथान्यदेव भूतातिरिक्तं किञ्चित् तदतीवासमीचीनम् / भूतातिरिक्ताऽभ्युपगमे चत्वार्येव पृथिव्यादीनि भूतानि तत्त्वमिति तत्त्वसंख्याव्याघातप्रसंगात् अपि चेदं चैतन्यं प्रत्येकं वा भूतानां धर्मः समुदायस्य वा न तावत्प्रत्येक मनुपलम्भात् नहि प्रतिपरमाणुसंवेदनमुपलभ्यते। अपिच यदि प्रतिपरमाणुसंवेदनं भवेत्तर्हि पुरुष सहस्रचैतन्यवृन्दमिव परस्परं भिन्नस्वभावमिति नैकरूपं भवेत्। अथ चैकरूपमुपलभ्यते अहं पश्यामि अहं करोमीत्येवं सकलशरीराधिष्ठितानेकस्वरूपतयानुभवात् अथ समुदायस्य धर्मस्तदप्यसत्प्रत्येकमसत्समुदायेऽपि न भवति यथा रेणुषु तैलं स्यादेतन्मद्याङ्गेषु प्रत्येक मदशक्तिरदृष्टापि समुदा येऽपि भवन्ती दृश्यते तद्वचैतन्यमपि भविष्यति को दोषः तद् सम्यक् प्रत्येकमपि मद्याङ्गेषु मदशक्त्यनुयायिमाधुर्यादिगुणदर्शनात् तथाहि दृश्यते माधुर्यमिक्षुरसे धातकीपुष्पे च मनाक् विकलतोत्पादि, न चैवं चैतन्यं सामान्यतोऽपि भूतेषु प्रत्येकमुपलभ्यते ततः कथं समुदाये तद्भवितुमर्हति मा प्रापत्सर्वस्य सर्वत्राभावप्रसक्तातिप्रसङ्गात् / किं च यदि चैतन्यं भूतधर्मत्वेन प्रतिपन्नं ततोऽवंश्यमस्यानुरूपो धर्मः प्रतिपत्तव्यः आनुरूप्याभावे जलकाठिन्ययोरिव परस्परधर्मधर्मभावोऽनुपात्तः नच भूतानामनुरूपो धर्मी वैलक्षण्यात् तथाहि चैतन्यं बोधस्वरूप-ममूर्त च भूतानि तद्विलक्षणानि ततः कथमेषां परस्परं धर्मधर्मिभावः / नापि चैतन्यमिदं भूतानां कार्यमत्यंत विलक्षणतया कारणभावस्याप्ययोगात् तथा चोक्तम् "काठिन्या-बोधरूपाणि, भूतान्यध्यक्षसिद्धितः / चेतनाभगतद्रूपासा कथं तत्फलं भवेत् " अपिच यदिभूतकार्य चैतन्यं तर्हि किं न सकलमपि जगत् प्राणिमयं भवति परिणतिविशेषसद्भावा भावादिति चेन्ननु सोऽपि परिणतिविशेषसद्भावः सर्वत्रापि कस्मान्न भवति सोऽपि हि भूतमात्रनिमित्तक एव ततः कथं तस्यापि क्वचित् कदाचिद्भावः / अन्यच्च स किंरूपः परिणतिविशेष इति वाच्यं कठिनत्वादिरूप इति चेत्तथाहि काष्ठादिषु दृश्यन्ते घूणादिजन्तवो जायमानास्ततो यत्र कठिनत्वा Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 570 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदभूइ दिविशेषस्तत्प्राणिमयं न शेषमिति तदप्यसत् व्यभिचारदर्शना तथाह्यविशिष्टे ऽपि कठिनत्वादिविशेष कृचिद्भवन्ति क्वचिच कठिनत्वादिविशेषमन्तरेणापि संस्वेदजा नभसि च मूञ्छिता जाय किंच समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थानाः प्राणिनो दृश्यन्त / तथाहिगोमयाद्येकयोनिसंभविनोऽपि केचिन्नीलजन्तवोऽपरे पीतकायाः अन्ये विचित्रवर्णा : संस्थानमप्येतेषां परस्परं विभिन्नंतद्यदि भूतमात्रनिमित्तं चैतन्यं ततएकयोनिकाः सर्वेप्येक-वर्णसंस्थाना भवेयुर्नभवन्ति तस्मादात्मन एव तत्तत्कर्मवशात्तथा तथोत्पद्यन्ते इति / स्यादेतत् आगच्छन् गच्छन् वा आत्मा नोपलभ्यते के वलं देहे सति संवेदनमुपलभामहे देहाभावे च तस्यामेवावस्थायांन, तस्मान्नात्मा किंतु संवेदनमा त्रमेवैकं तच देहकार्य देहे एव च समाश्रितं कुड्यचित्रवत् नहि चित्रं कुड्यविरहितमवतिष्ठते नापि कुड्यांतरं संक्रामति आगमनं वा कुड्यांतरात् किंतु कुड्य एवोत्पन्नं कुड्य एव च विलीयते एवं संवेदनमपि तदप्यसत् आत्मा हि स्वरूपेणामूर्त आन्तरमपि शरीरमतिसुक्ष्मत्वान्न चक्षुर्विषयस्तदुक्तमन्यैरपि "अन्तरा नवदेहे पि सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते। निष्क्रामन् प्रविशन्वात्मानाभावो नीक्षणादपि" ततआन्तरशरीरयुक्तोप्यात्मा आगच्छन् गच्छन्वा नोपलभ्यते लिंगतस्तूपलभ्यते। तथाहि कृमेरपिजन्तोस्त-त्कालोत्पन्नस्याप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रतिबन्धः उपघातमुप-लभ्य पलायनदर्शनात् यश्च यद्विषयप्रतिबन्धः स तद्विषयपरिशीलनाभ्यासपूर्वकस्तथादर्शनात् न खल्वत्यन्तापरिज्ञातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह उपजायते ततो जन्मादौ शरीराग्रहः शरीरपरिशीलनाभ्यासजनितसंस्कारनिबन्धन इति। सिद्धमात्मनो जन्मान्तरादागमनं तथा च केचित्पठन्ति "शरीराग्रहरूपस्य नभसः संभवो यदा। जन्मादौ देहिनो दृष्टः किंन जन्मान्तरा गतिः, // अथागतिः / प्रत्यक्षतो नोपलभ्यते ततः / कथमनुमानादवसीयते नैष दोषः अनुमेयविषये प्रत्यक्षवृत्त-रेनभ्युपगमात् परस्परविषयपिरहारेण हि प्रत्यक्षानुमानयोः प्रवृत्तिरिष्यते ततः कथं स एव दोषः / आह च "अनुमेयेऽस्तिनाध्यक्षमिति कैवात्र दुष्टता। अध्यक्षस्यानुमानस्य विषयो विषयो न हि" अथ तज्जातीयेऽपि प्रत्यक्षवृत्तिमन्तरेण कथमनुमानमुदयितुमुत्सहते न खलु यस्याग्निविषया प्रत्यक्षवृत्ति-महानसेऽपि नासीत्तस्यायत्र क्षितिधरादौधूमाझूमध्यवजानुमानं भवति तदन्यसम्यक् अत्रापि तज्जातीये प्रत्यक्षवृत्तिभावात् तथा याग्रहोन्यत्र परिशीलनाभ्यासप्रवृत्तः प्रत्यक्षत एवोपलब्धस्तत-स्तदुपष्टम्भेनेहान्यनुमानं प्रवर्तते उक्तंच "आग्रहस्तावदभ्यासात् प्रवृत्त मुपलभ्यते / अन्यत्राध्यक्षतः साक्षात्ततो देहेऽनुमान किम्"यो पिच दृष्टान्तः। प्रागुपन्यस्तः सोप्ययुक्तो वैषम्यात् तथाहि चित्रमचेतनं गमनस्वभावरहितञ्च आत्मा च चेतनः कर्मवशागत्यागती च कुरुते ततः कथं दृष्टान्तदान्तिकयोः साभ्यं ततो यथा कश्चिद्देवदत्तो विवक्षिते ग्रामे कतिपयदिनानि गृहारंभं कृत्वा ग्रामान्तरे गृहान्तरमास्थायावतिष्ठतेतद्वदात्मापि विवक्षिते भवेदेहं परिहाय भवान्तरे देहान्तरमारचय्यावतिष्ठते / यचो क्तम् तच संवेदनं देहकार्यमिति चाक्षुषादिकं संवेदनं देहाश्रितमपि कथंचित् भवतु चक्षुरादीन्द्रियद्वारेण तस्योत्पत्तिसंभवात् यत्तु मानसं तत्कथं न हि तद्देहकार्यमुपपत्ति मत् युक्तययोगात् / तथाहि तन्मानसं ज्ञानं देहादुत्पद्यमान मिन्द्रियरूपान्दा समुद्धातानीन्द्रियरूपाद्धा केशनखादिलक्षणा त्तत्र न तावदाद्यः पक्ष इन्द्रियरूपादुत्पत्ताविन्द्रियबुद्धि वद्वर्तमानार्थ-ग्रहणमसक्तेः इन्द्रियं हि वार्तमानिक एवार्थे व्याप्रियतेतत्सामर्थ्या-दुपजायमानं मानसमपिज्ञानं इन्द्रिय ज्ञानमिव वर्तमानार्थ-ग्रहणपर्यवसितसत्ताकमेव भवेत् अथ यदा चक्षुरूपविषये व्याप्रियते तदा रूपे विज्ञानमुत्पादयति न शेषकालं ततस्तदपिविज्ञानं वर्तमानार्थाविषयं वर्तमाने एवार्थे चक्षुषो व्यापारात्। रूप विषयव्याप्रीयभावे, च मनोज्ञानं ततो न तत्प्रतिनियतकालविषयम् एवं शेषेष्वपि इन्द्रियेषु वाच्यम् ततः कथमिव मनोज्ञानस्य वर्तमानार्थग्रहण प्रसक्तिस्तदसाधीयो यत इन्द्रियाश्रितं तदुच्यते यदीन्द्रियव्यापारमनुसृत्योपजायते इन्द्रियाणां च व्यापारः प्रतिनियते एव वार्तमानिके स्वस्वविषये मनोज्ञानमपि यदान्द्रिय व्यापराश्रितं तत इन्द्रियज्ञानमिव वार्तमानिकार्थग्राहकमेव भवेत् अन्यथा इन्द्रियाश्रितमेव तत्रस्यात्तथा च केचित्पठन्ति "अक्षव्यापारमाश्रित्य भवदक्षजमिप्यते। तव्यापारो न तत्रेति कथ मक्षभवं भवेत् / " अथानीन्द्रिय रूपादिति पक्षस्तदप्ययुक्तस्तस्याचेतनत्वात् नन्वचेतनत्यादिति कोर्थः यदीन्द्रिय-विज्ञान रहितत्वादिति तदिप्यते एव यदि नामोन्द्रिय विज्ञानं ततो न भवति मनोविज्ञानंतु कस्मान्न भवति। अथ मनोविज्ञानंनोत्पादयतीत्यचेतनत्वं तदा तदेव विचार्यमाणमिति प्रति-ज्ञार्थकदेशासिद्धो हेतुः तदप्यसत् अचेतनत्वादिति किमुक्तं भवति स्वनिमित्तविज्ञानैः स्फुरचिद्रूपतयानुपलब्धेः स्पर्शादयो हि स्वस्वनिमित्तविज्ञानैः स्फुरचिद्रूपानुपलभ्यन्ते ततस्तेभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते इति युक्तं केशनखादयस्तु न मनोज्ञानेन तथा स्फुरचिद्रूपा उपलभ्यन्ते कथं तेभ्यो मनोज्ञानं भवतीति प्रतिध्यायन्तु सुधियः आह च "चेतयन्तोन दृश्यन्ते केशस्मश्रुनखादयः। ततस्तेभ्यो मनोज्ञानं भवतीत्थतिसाहसम्" अपि च यदि केशनखादिप्रतिबद्धं मनोज्ञानं ततस्तदुच्छेदे मूलत एव न स्यात् तदुपधाते चोपहतं भवेन्न च भवति तस्मान्नायं पक्षः क्षोदक्षमः / किंच मनोज्ञानस्य सूक्ष्मार्थनेतृत्वस्मृतिपाटवादयो विशेषा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यत्यासपूर्वका दृष्टाः तथाहि तदेव शास्त्रमीहापोहादिप्रकारेण यदि पुनः पुनः परिभाव्यते ततः सूक्ष्मसूक्ष्मतरार्थावबोधे उल्लसति स्मृतिपाटवं चापूर्वमुखम्भते एवं चैकशास्त्रे अभ्यासतः सुक्ष्मार्थनेतृत्वशक्तौ पाटवशक्ती चोपजातायामन्येष्वपि शास्त्रांतरेषु अनायासेनैव सूक्ष्मार्थावबोधः स्मृतिपाटवं चोल्लसति तदेवमभ्यासहेतुकाः सूक्ष्मार्थनेतृत्वादयो मनोज्ञानस्य विशेषदृष्टाः। अथच कस्यचिदिह जन्माभ्यासव्यतिरेकेणापि दृश्यन्ते ततोऽवश्यं पारलौकिकाभ्यास हेतुका इति प्रतिपत्तव्यं कारणेन सह कार्यस्यान्यथानुप-पन्नत्वप्रतिबन्धेन दृष्टतत्कारणस्यापि तत्कार्यत्वविनिश्चितेः / ततः सिद्धः परलोकयाथी जीवः / सिद्धे च तस्मिन् परलोकयायिनि यदि कथांचिदुपकारी चाक्षुषादेर्विज्ञानस्य दे हो भवेत् न कश्चिद्दोषः क्षयोपशमहे तुतया देहस्यापि कथंचिदुपकारित्वाभ्युपगमात्, नचैतावता तन्निवृत्तौ सर्वथा तन्निवृत्तिः नहि वह्निरासादित-विशेषो घटो वहिनिवृत्तौ समूलोच्छेदं निवर्त्तते केवलं विशेष एव कश्चनापि यथा सुवर्णस्य द्रवता एवमिपाहि देहनिवृत्तौ ज्ञानविशेष एव कोऽपि तत्प्रतिबद्धो निवर्तते न पुनः समूलं ज्ञानमपि यदि पुनर्देहमात्रनिमित्तकमेव विज्ञानमिष्यते देहनिवृत्तौ च निवृत्तिमत् तर्हि देहस्य तस्य भस्मावस्थायां मा भूत्तदेहे तु तथाभूते एवावति-ठमाने मृतावस्थायां कस्मान्नभवतिप्राणापानयोरपि हेतुत्वात्तद Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 171 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदमूह भावेन भवतीति चेन्नप्राणापानयोर्ज्ञानहेतुत्वायोगात् ज्ञानादेव चतरोयपि प्रवत्तिस्थताहि यदि मन्दौ प्राणापानौ विस्रष्टुमिष्यते ततो मन्दौ भवतः दीघौं चेत्तर्हि दीर्धाविति यदि पुनर्देह मात्रनिमित्तौ प्राणापानौ प्राणापाननिमित्तं च विज्ञानं तर्हि नेत्थमिच्छावशात् प्राणापानप्रवर्त्तमाना दृष्टप्राणापाननिमित्तं च यदि विज्ञानं ततः प्राणापाननिहासातिशयसंभविज्ञानस्यापि निहासातिशयौ स्याताम् अवश्यं हि कारणे परिहीयमाने अभिवर्द्धमाने च कार्यस्यापि हानिरुपचयश्च भवति यथामहति मृत्पिण्डे महान् घटोऽल्पे चाल्पीयान् अन्यथा कारणमेव तत्र स्यात् भवतः प्राणापाननिहासातिशयसंभवे विज्ञानस्यापि विनिहासाविशयौ, विपर्ययस्यापि भावात् मरणावस्थायां प्राणापानातिशयसंभवेऽपि विज्ञानस्य ह्रासदर्शनात्। स्यादेतत्तत्तदानीं वातपित्तादिभिर्दोषैर्देहस्यविगुणीकृतत्वात् प्राणापानातिशयसंभवेऽपि चैतन्य स्यातिशयसंभवोडत एव मृतावस्थायामपि चैतन्यदेहस्य विगुणीकृत्वात् तदसमीचीनतरमेवंसति मृतस्यापि पुनरुज्जीवनप्रसक्तेः / तथाहि मृतस्य दोषाः समीभवन्ति समीभ वंन च दोषाणमवसीयते ज्वरादिविकारादर्शनात् समत्वं चा रोग्यं तथाचाहुवृद्धाः "तेषां समत्वमारोग्यं क्षयवृद्धी विपर्यय" इति / आरोग्यलाभत्वाद्देहस्य पुनरुज्जीवनं भवेत् अन्यथा चेह कारणमेव चेतसो न स्यात् तद्विकाराभावनाभावान्तु विधानात् एवं हि देहकारणता विकारस्याश्रद्धया स्यात् यदि पुनरुज्जीवनं भवेत स्यादेतदयुक्तमिदं पुनरुज्जीवनप्र संगोपादानं यतो यद्यपि दोषा देहस्यावैगुण्यमाधाय निवृत्तास्तथापि नतत्कृतस्य वैगुण्यस्य निवृत्तिः न हि दहनकृतो विकारः काष्ठे दहनविवृत्तो निवर्तमानो दृष्टः तदयुक्तमिह हि क्वचित्किंचिदनिवर्त्य विकाराम्भकम्। यथा वह्निः काष्ठे श्यामतामात्रमपि वह्निना कृतं काष्ठे वह्निनिवृत्तौ निवर्तते किंत्पुिनः क्वचिन्निवर्त्यविकारारम्भकं यथा स एवाग्रिः सुवर्णे तथाहि अग्निना क्रमात्सुवर्ण भवति अग्निनिवृत्तौ निवर्तते तत्र वाता दयो दोषा निवृर्त्य विकारारम्भ-काश्चिकित्साप्रयोगदर्शनात् / यदि पुननिवर्त्य विकारारम्भका भवेयुस्तर्हिनतद्वि कारनिवर्त्तनाय चिकित्सा विधीयेत वैफल्यप्रसंगता न च वाच्यं मरणात् प्राग्दोषा अनिव य॑विकारारम्भका मरणकाले च निवर्त्यविकारा इति एकस्य एकत्रैव निवानिवर्त्य विकारा रम्भकत्वायोगात् / न ह्येकमेव तत्रैव निवर्त्यविकारारम्भकं चानुभवितुमर्हति तथा दर्शनात्। ननु द्विविधो हि व्याधिः साध्योऽसाध्यश्च। तत्र साध्यो निवर्त्यस्वभावस्तमेव चाधि कृत्य चिकित्सा फलवती असाध्योऽनिवर्त्तनीयः नच साध्या साध्यभेदोन वा व्य धिद्वैविध्यमप्रतीतं सकललोकप्रसिद्धत्वात् व्याधिश्च / तत्र साध्यो निवर्त्य-स्वभावस्तमेव चाधि कृत्य चिकित्सा फलवती असाध्योद्धनिवर्तनीयः नच साध्या साध्यभेदो न वाव्याधि-द्वैविध्यमप्रतीतं सकललोकप्रसिद्धत्वात् व्याधिश्च दोषेण कृतस्ततः कथं दोषाणां निवत्यानिवत्याविकारा रम्भकत्वमनुपपन्नामिति तदप्यसत् भवन्मते साध्यासाध्यव्याध्य नुपपत्तस्तथाह्यसाध्यता व्याधेः क्वचिदायुःक्षया च तथाहि तस्मिन्नवव्याधौ समानेडप्यौपधवैद्यसंपर्क कश्चिचन्मियते कश्चिन्नक्वचि त् पुनः प्रतिकूलकर्मो दयात् प्रतकिलकर्मोदयजनितो हि श्वित्रादि व्याधिरौषधसहस्रैरपि कश्चिदसाध्यो भवति एतच्च द्विविधमपि व्याधेरसाध्यत्वमर्हतामेव मते संगच्छते न भवतो भूतमात्र तत्त्ववादिनः क्वचित्पुनरसाध्यो व्याधिर्दोषकृतविकारनिवर्त्तन समर्थोनिषेधस्याभावात् वैद्यस्य वा वैद्यौषधसंपक्काभावे हि व्याधिः प्रसप्पन् सकलमप्यायुरुपक्रमते न तु वैद्यौपधसंपर्का-भावादे वास्माकमपि पुनरुज्जीवनं भविष्यति न हि तदस्ति किञ्चिदौषधं वैद्यो वा यत्पुनरुज्जीवयति तदप्ययुक्तं वैद्यौषधौ हि दोषविकारनिवर्त्ततार्थमिष्येते नपुनरत्यन्तासतश्चैतन्य-स्येतित्पादनार्थ तथाभ्युपगमात् दोषकृता श्व विकारा मृतावस्थाया स्वयमेव निवृत्ता ज्वरादेरदर्शनात्ततः किं वैद्यौषधान्वेषणेनेति तदवस्थ एव पुनरूज्जीवनप्रसंगः अपि कश्चिद्दोषामामुपशमेप्यकस्मान्मियते कश्चिचातिदोषदुष्टत्वेऽपि जीवति तदेतद्भवन्मते कथमुपपत्तिमर्हति तथा च केचि ब्रुवते "दोष स्योपशमेप्यस्ति मरणं कस्यचित्पु-नर्जीवनं दोषदुष्टत्वेप्येतन्नस्याद्भवन्मते" अर्हतांतुशासने यावदायुः कर्मविजृम्भते तावदोषैरतिपीडितोऽपि जीविति आयुःकर्मक्षये च दोषा णामधिकृता वपि म्रियते तन्नदेहमात्रकारणं संवेदनम्। अन्यच देहः कारणं संवेदनस्य सहकारिभूतं वा भवेदुपादानभूतं वा यदि सहकारिभूतं तदिष्यत एव देहस्यापि क्षयोपशमहेतु तथा कथंचिद्विज्ञानहेतुत्वाब्युपगमात्। अथोपादानभूतं तद युक्तमुपादानं हि तत्तस्य यद्विकारेणैव यस्य विकारो यथा मृद्घटस्य नच देहविकारेणैव विकारः संवेदस्य देहविकाराभावेऽपि भयशोकादिना तद्विकारदर्शनात् तत्र देहउपादानं संवेदनस्य तथा च पठन्त्युपादानलक्षणपरे अधिकृत हि यद्वस्तुना यः पदार्थो विकार्यते उपादानं तत्तस्य युक्तं गोगवयादिवत् एतेन यदुच्यते मातापितृचैतन्यमेतच्चेतनस्योपादानमिति तदपि प्रतिक्षिप्त तत्रापि तद्विकारे विकारित्वं तदविकारे वा विकारित्वमिति नियमादर्शनात् / अन्यच्च यत् यस्योपादानं तत्तस्मादभेदेन व्यवस्थितं यथा मृदो घटः मातापितृचैतन्यं सुत चैतन्यस्योपादानं ततःसुतचैतन्यं मातापितृचैतन्यादभेदेन व्यवतिष्ठेत नव्यवतिष्ठते तस्माद्यत्किञ्चिदेतत् तत्र भूतधर्मो भूतकार्य वा चैतन्यं किंचा त्मनो गुण इति तद्गुणस्य प्रत्यक्षसिद्ध आत्मा अनुमानसिद्धश्च तच्चानुमानमिदं रूपादीन्द्रियाणि विद्यमानप्रयोजकानि कर्मकरणत्वे सति ग्राह्यग्राह करूपत्वात् यः कर्मकरणे सति ग्राह्यग्राह करूपस्सद्विद्यमानप्रयोजको यथा शंदंशोयः पिण्डेकर्मकरणरूपाणि च सन्ति ग्राह्यग्राहकरूपाणि रूपादीन्द्रियाणि ततो विद्यमानप्रयोजकानीति नचेन्द्रियाणां स्वत उपलम्भकत्वं येन रूपादिग्रहणं प्रति तेषां कर्तृत्वमेवोपगम्येत न करणत्वमचेतनत्वेन स्वत उपलम्भकत्वायोजनात् तथा चात्र प्रयोगः यदचेतनं तन्नोपलब्धं यथा घटोऽचेतनानि च द्रव्येन्द्रियाणि न चायमसिद्धो हेतुः यतः खलु द्रव्येन्द्रियाणि निर्वृत्त्युपकरणरूपाणि निर्वृत्त्युपकरणेच पुद्गलमयं पुद्रलमयं च सर्वमचेतनं पुद्गलानां काठिन्यावबोधरूपतया चैतन्यं प्रति धर्मित्वायोगात् धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धर्मी यथा काठिन्यं प्रति पृथिवी यदिपुनरनुरूपत्वाभावेपि धर्माधर्मिभावो भवेत् ततः काठिन्यजलयोरपि संभवेत् तन्न भवति तस्मादचेतनाः पुद्रलाः तथाचोक्तं "वाहसनावममुत्तं, विसयपरिच्छेयगं च चेयन्नं / विवरीयसहावाणि य, वूयणि जगप्पसिद्धाणि ||1|| ता धम्मधम्मिभावो, कहमेएसिं अणुब्भवगामेय / अणुरूपत्ताभावे, काठिन्नजलाण किं न भवे // 2 / ततः स्वत उपलम्भकत्वाभावात् रूपादिग्रहणं प्रतीन्द्रियाणां करणभाव एव न कर्तृभाव इति स्तिम् / अथ चेदमनुमानं स भोक्तृ कमिदं शरीरं भोग्यत्वात् स्थालस्थितौदनवत् भोग्यता च शरीरस्य जीवेन तथा निवसता भुज्यमानत्वात्दयोरपि च प्रयो-गयोः साध्यसाधनप्रतिबन्धसिद्धदृष्टान्ते प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धेति नोक्तलिङ्गलिङ्गी संबन्धानहरूपदोषावकाशः / आगमगम्योप्येष जीवः तथा चागमः "अणिंदियगुणं जीवं, दुग्नेयं मंसचक्खुणा। सिद्धं पस्संति Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 172 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदभूइ सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो" अत्र ज्ञानसिद्धाः साधवो भवस्थकेवलिनः शेषं सुगमम् नचागमानां परस्परविरुद्धार्थ तथा सर्वेषामप्यप्रामाण्यमभ्युपेयं सर्वज्ञमूलस्यावश्यं प्रमाणत्वेनाभ्युपगमार्हत्यादथाप्यसम्यक् प्रमाणाप्रमाणविभागा परिणतेः प्रेक्षावतां क्षितिप्रसंगात् / अथ कथमेतत् प्रत्येतं यथायमागमः सर्वज्ञमूल इति उच्यते यदुक्तोऽर्थः प्रत्यक्षेणानुमानेन वान बाध्यतेनापि पूर्वापरव्याहतः सोवसीय सर्वज्ञ प्रणीतोऽन्यस्य तथारूपत्वासम्भवात्ततस्तस्माद्यन्सिद्ध तत्सर्वं सुसिद्धम्। उक्तञ्च "दिटेणं इटेण य, जंमि विरोहो न हुजइ कहिं वि। सो० आगमतत्तो जं, नाणं तं सम्भनाणं ति / / ततः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणसिद्धत्वाद्वेदपदप्रतिष्ठित त्वाच सौम्य ! अस्ति जीव इति प्रतिपत्तव्यम् // आ०म० द्वि० // (इह वेद पदोपन्यासस्तेन वेदानां प्रमाणत्वेनाङ्गीकृतत्वात्) आहचछिन्नंमि समयंमि, जाइजरामरण विप्पमुक्केणं / सो समणो पव्वइओ पंचहिं सह खंडियसएहिं / / उक्त प्रमाणेन जिनेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना जरामरणाभ्यामुक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्त इव विप्रमुक्तः तेन छिन्ने निराकृते शंशयेस इन्द्रभूतिः पंचभिः खण्डिकशतैः छात्रशतैः सह श्रमणः प्रव्रजितः सन् साधुः संवृत्त इत्यर्थः / आ० म० द्वि० / आव० // आ० चू० / कल्पसुबोधिन्यामिन्द्रभूतेः कया विस्तरेण एवं प्रतिपादिता यदा भगवान् महावीरो विहरन् अपापापूर्यां महसेनवने जगाम तत्र च यज्ञं कारयतः सोमिलविप्रस्य गृहे बहवो ब्राह्मणाः मिलिताः (कल्प०) अन्येऽपि उपाध्याय शङ्कर ईश्वर शिवजी जानी गङ्गाधर महीधर भूधर लक्ष्मीधर श्रीधर पिंड्या विष्णु मुकुन्द गोविन्द पुरुषोत्तम नारायण दुवे श्रीपति उमापति विद्यापति गणपति जयदेव व्यास महादेव शिवदेव गङ्गापति गौरीपति त्रिवाडी श्रीकण्ठ नीलकण्ठ हरिहर रामजी रावल मधुसूदन नरसिंह कमलाकर जोसी पूनो रामजी शिवराम इत्यादयो मिलिताः सन्ति अत्रान्तेर च भगवन्नमस्यार्थ मागच्छतः सुरासुरान् विलोक्य ते अचिन्तयन् अहो यज्ञस्य महिमा यदेते सुराः साक्षात्समागताः अथतान् यज्ञमण्डपं विहाय प्रभुपाक् गच्छतो विज्ञाय द्विजाः विषे दुस्ततोऽमी सर्वज्ञ वन्दितुं यान्ति इति जनश्रुत्या श्रुत्वा इन्द्र भूतिः सामर्षश्चिन्तयामास / अहो मयि सर्वज्ञे सत्यपि अपरोऽपि स्वं सर्व ख्यापयति दुःश्रवमेतत् कर्णकटु कथं नाम श्रूयते। किं च कदाचित्कोऽपि मूर्खः केनचिधूर्तेन वच्यते अनेन सुरा अपि वञ्चिताः यदेवं यज्ञमण्डपं विहाय तत्समीपं गच्छन्ति। अथवा यादृशोऽयं सर्वज्ञस्तादृशा एवैते सुरा अनुरूप एवं संयोगः यतः"पश्यानुरूपमिन्दि-न्दिरेण माकन्दशेखरो मुखरः / अपि च पिचुमन्दमुकुल-मौकुलिकुलमाकुलं मिलति" ||1|| (तथापि नाहमेतस्य सर्वज्ञाटोपं सहे) . यतः / व्योम्नि सूर्यद्वयं किं स्या-गुहायां केसरिद्वयम् / प्रत्याकारे च खगौ द्वौ, किं सर्वज्ञावहं स च / / 2 / / ततो भगवन्तं वन्दित्वा प्रतिनिवर्तमानान् सोपहासं जनान् पप्रच्छ भो भो दृष्टः स सर्वज्ञः कीदृशः किंस्वरूप इति जनैस्तु "यदि त्रिलोकी गणनापरः स्या-त्तस्यासमार्सियदि नायुषः स्यात् / / पारपराध्यं गणितं यदि स्यात्, गुणेयनिश्शेषगुणोपि स स्यात् / / 1 / / इत्याधुक्ते सति स दध्यौ / / नूनमेष महाधूर्तो मायायाः कुलमंदिरम् // कथं लोकसमस्तोऽपि, विभ्रमे पातितोऽमुना' / / 2 / / न क्षमे क्षणमात्रं तु तं सर्वज्ञ कदाचन।। तमस्तोममपाकर्तु, सूर्यो नैव प्रतीक्षते // 3 // वैश्वानरः करस्पर्श केशरोल्लुचने हरिः / / क्षत्रियश्च रिपुक्षेत्रं न सहन्ते कदाचन // 4 // गता गौडदेशोद्भवा दूरदेशं भयाजर्जरा गौर्जरास्त्रासमीयुः / मृता मालवीयास्तिलाङ्गास्तिलंगो-द्रवा जज्ञिरे पण्डिता मद्भयेन,, // 5 // अरे लाटजाताः क याताः प्रणष्टाः प्रदिष्टा अपि द्राविडा द्रीडवार्ता ॥अहो वादिलिप्सातुरे मय्यमुस्मिन्, जगत्युत्कटेवादिदुर्भिक्षमेतत्॥६॥"तस्य ममागे कोऽसौ, वादी सर्वज्ञमानमुद्वहति // इति तत्र गन्तुमुक्तं, तमग्रिभूतिर्ज गादेवम्,, // 7 // "किं तत्र वादिकीटे, तव प्रयासेन यामि बन्धोऽहम् // कमलोन्मूलनहेतो-नेंतव्यः किं सुरेन्द्रगजः,, ||8|| अकथयदथेन्द्रभूतिर्यद्यपि मद्भातृजय्य एवासौ। तदपि प्रवादिनाम श्रुत्वा स्थातुं न शक्रोमि।। चित्रं चैव त्रिजगति सहस्रशो निर्जिते मया वादैः / / क्षिप्रचटस्थाल्या मिव ककुंदु कोऽसौ स्थितो वादी // 10 // अस्मिन्नजिते सर्वं जगज्जयोद्भूतमपि यशो नश्यते / अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् वियोजयति / / 11 / / छिद्रे स्वल्पेऽपि पोतः किं, पाथोधौ न निमञ्जति। एकस्मिन्निष्टके कृष्ट, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते // 12 // इत्यादि विचिन्त्य विरचितद्वादशतिलकः स्वर्णयज्ञोप वीत-भूषितः स्फारपीताम्बराडम्बरः कैश्चित्पुस्तकपाणिभिः कैश्चित् कमण्डलुपाणिभिः कैश्चिद्दर्भपाणिभिः सरस्वतीकण्ठाभरण वादिविजयलक्ष्मीशरणवादिमदगजनवादिमुख भजन-वादिगजसिंह-वादीश्वरलिहवादिसिंहाष्टापद-वादिविजयविशद-वादिवृन्दभूमिपालवादिशिरिकालवादिक दलीकृपाणवादितमभाण-वादिगोधूमघरदृमर्दित-वादिमरट्टवादिघटमुद्र-वादिघूकभास्कर-वादिसमुद्रागस्तिवादितरून्मुलनहस्ति-वादिसुरेन्द्र-वादिगरुडगोविन्द-वादिजनराजवादिकंसकृष्ण-वादिहरिणहरि-वादियूथमल्ल-वादि हृदयशल्यवादिगणजीक-वादिशलभप्रदीपक-वादिचक्र चूडामणि-पंण्डितशिरोमणि-विजितानेकवादिसरस्वती लब्धप्रसाद इत्यादिविरुदवृन्दमुखरितदिक चक्रैः पंचभिश्छात्र शतैः परिवृत इन्द्रभूतिवीरसमीपं गच्छंश्चिन्तयामास। अहो धृष्टनानेन किमेतत् कृतम्। यदहं सर्वज्ञाटोपेन प्रकोपितः। यतः "समीराभिमुखस्थेन, दवाग्निज्वा॑लितोऽमुना // कपिकच्छूलता देह-सौख्यायालिङ्गिता ननु // 1 // " (कि मेतेन अधुना नित्तरीकरोमि यतः) तावगर्जति खद्योतस्तावद्गर्जति चन्द्रमाः। उदिते तु सहस्रांशौ न, खद्योतो न चन्द्रमाः // 2 // सारङ्गमातङ्ग तुरङ्गपूगाः पलाय्यतामाशु वनादमुष्मात् // साटोपकोपस्फुट केशरश्रीमृगाधिराजोऽयमुपेतवान् यत् // 3 // मम भाग्यभराद्यद्वा, वाद्ययं समुपस्थितः // अद्य तां रशनाकण्डू-मपनेष्ये विनिश्चितम् // 4 // लक्षणे मम दक्षत्वं साहित्ये संहिता मतिः / / तर्के कर्कशतात्यर्थं व शास्त्रे नास्ति मे श्रमः / / 5 / / अभेद्यं किमु वज्रस्य, किमसाध्यं महात्मनां // क्षधितस्य न किं खाद्यं किं न वाच्यं खलस्य च // 6 // Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 573 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदभूइ तथा ममापि त्रैलोक्य-जित्वरस्य महौजसः / / अजेयं किमिवास्तीह तद्गच्छामिजयाम्यमुम्॥७॥ इत्यादि चिन्तयन् प्रभुमवेक्ष्य सोपानसंस्थितो दध्यौ। किं ब्रह्मा किं विष्णुः सदाशिवः शङ्करः किं वा / / 8 / / चन्द्रः किं सन यत्कलङ्ककलितः सूर्योऽपि नो तीव्ररुक्। मेरुः किं न सयन्नितान्तकठिनो विष्णुर्न यत् सोऽशितः।। ब्रह्मा किं नजरातुरः स च जराभीरुन यत्सोऽतनु तिं दोषविवर्जिताखिलगुणाकीर्णो न्तिमस्तीर्यकृत् // 6 // हेमसिंहासनासीनां सुरराजनिषेवितम् // दृष्ट्वा वीरं जगतत्पूज्यं चिन्तयामास चेतसि // 10 // कथं मया महत्त्वं हा, रक्षणीयं पुार्जितम्॥ प्रासादं कीलिकोहेतो- तु को नाम वाञ्छति // 4 // एकेन चाजितेनापि मानहानिस्तु का मम / / जगज्जैत्रस्य किं नाम करिष्यामि च सांप्रतम् / / 5 / / अविचारितकारित्व महो मे मददुर्धियः।। जगदीशावतारं य-जेतुमेनं समागतः।।६।। अस्याग्रेऽहं कथं वक्ष्ये पार्श्वे यास्यामि वा कथम्॥ संकटे पतितोऽस्मीति शिवा रक्षतु मे यशः / / 7 / / कथञ्चिदपि भाग्येन चेद्भवेदत्र मेजयः॥ तदा पण्डितमूर्द्धन्यो भवामि भुवनत्रये // 8 // इत्यादि चिन्तयन्नेष सुधा मधुरया गिरा।। आभाषितो जिनेन्द्रेण नामगोत्रोक्तिपूर्वकम् // 6 // हे गोतमेन्द्रभूते त्वं सुखेनागतवानसि॥ इत्युक्तेऽचिन्तयद्वेत्ति नामापि किमसौ सम ||10|| जगत्रितयविख्यातं को वा नाम न वेत्ति माम्॥ जनस्याबालगोपालं प्रच्छन्नः किं दिवाकरः / / 11 / / प्रकाशयति गुप्तं चेत्संदेहं मे मनःस्थितम्॥ तदा जानामि सर्वज्ञ-मन्यथा तु न किंचन / / 12 / / चिन्तयन्तमिति प्रोचे प्रभुः को जीवसंशयः / / विभावयसि नो वेद पदार्थं श्रृणु तान्यथ // 13 // समुद्रो मथ्यमानः किं गङ्गापरोऽथवा किमु / / आदिब्रह्मध्वनिः किं वा वीरे वेदध्वनिर्बभौ // 14 / / वेद पदानि च "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यतिनप्रे त्यसंज्ञास्तीति" त्वं तावदेतेषां पदानामर्यमेवं करोषि यत् विज्ञानघनो गमनागमनादिचेष्टा वान् आत्मा एतेभ्यो भूतेभ्यः पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशेभ्यः समुत्थाय प्रकटीभूय मद्यांगेभ्यो मदशक्तिरिव ततस्तानि भूतान्येव अनुविनश्यति तत्रैव विलयं याति जले बुदबुद इव ततो भूतातिरिक्तस्य आत्मनो-ऽभावात्न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति मृत्वा पुनर्जन्म नास्तीति / परमयुक्तोऽयमर्थः शृणु तावदेतोषामर्थम् / विज्ञानघन इति को ऽर्थः विज्ञानघनोज्ञान दर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्माऽपि विज्ञानघनः प्रति देशं प्रदेशमन्तनज्ञानपर्यायात्मकत्वात् स च विज्ञानधन उपयोगात्मक आत्मा कथंचिद्भूतेभ्यस्ताद्विकारेभ्यो वा घटा दिभ्यः समुत्तिष्ठते उत्पद्यत इत्यर्थः / घटादिज्ञानपरिणतो हि जीवो घटादिभ्य एव हेतुभूतेभ्यः भवति घटादिज्ञानपरिणामस्यघटादिवस्तुसापेक्षत्वात्। एवं च एतेभ्यो भूतेभ्यो घटादिवस्तुभ्यस्तत्तदुपयोगरूपतया जीवः समुत्थाय समुत्पद्य तान्येव अनुविनश्यति कोऽर्थःतस्मिन् घटादौ वस्तुनि नष्ट च्यवते वा जीवोऽपि तदुपयोगरूपतथा नश्यति अन्योपयोगरूपतया उत्पद्यतेसामान्यरूपतया अवतिष्ठते ततश्च न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति कोर्यःन प्राक्तनी घटाधुपयोगरूपा संज्ञा अवतिष्ठते वर्तमानोपयोगेन तस्या नाशितत्वादिति। अपरं च सवै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि, तथा दददकोर्थः दमो दानं दया इति दकारत्रयं योवेत्तिस जीवः किंच विद्यमानभोकृक मिदं शरीरं भोग्यत्वात् ओदनादिवत् इत्याद्यनुमानेनापि तथा "क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्ठे ऽग्रिः सौरभं सुमे। चन्द्र कान्ते सुधा यद्व-तथात्माप्यङ्गतः पृथक् // एवं च प्रभुवचनैश्छिन्नसंदेहः श्रीइन्द्रभूतिः पंचशतपरिवारैः प्रद्रजितः / तत्क्षपाच" उत्पन्नेइ वा 1 विगमेइ वा 2 धुवेइ वा 3 इति" प्रभुव दनात्रिपदीं प्राप्य द्वादशाङ्गी रचितवान्। कल्प० / / इन्द्रभूतिवर्णको यथातेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतोवासी इंदभूती णामं अणगारे गोयम गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वजारिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपन्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे धोरगुणे घोरतवस्सि घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे / संखित्तविउल्लतेउलेस्से चउद्दसपुथ्वी चउणाणोवगए सवक्खरसण्णिवाती। समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्डजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ (तेणमित्यादि) तेन कालेनतेन समयेन श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जेडेत्ति) प्रथमः (अन्तेवासित्ति) शिष्यः अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसंघनायकत्वमाह (इंदभूएत्ति) इन्द्रभूतिरितिमातृपितृकृतंनामधेयं (नामंति) विभक्तिविपरिणामात् नाम्नेत्यर्थः अन्तेवासी किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह / (अणगारत्ति) नास्त्यगारं विद्यत इत्यन गारः अयञ्चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत आह (गोतम गोत्तेणंति) गौतमसगोत्र इत्यर्थः / अयश्च तत्कालोचितदेह मानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपिस्यादित्यत आह (सतुस्सेहेत्ति) सप्तहस्तोच्छ्यः अयंच लक्षणहीनोऽपि स्यादित्य आह (समचउरंससंठाणसंठिएत्ति) समं नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तचतुरस्रं च प्रधानं समचतुरस्रमथवा समाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणा विसंवादिन्यश्चतस्रोऽश्रयो यस्य तत्समचतुरस्रम / अश्रयस्त्विह चतुर्दिभागोपलक्षिताः शरीरावयवा इति / अन्ये त्वाहु:-समाअन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यश्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम् अश्रयश्च पर्यंकासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् आसनस्य ललाटो-परिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं वाम-स्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति अन्ये त्वाहुविस्तारोत्सेधयोः सम त्वात् समं चतुरश्रं तच तत्संस्थानं चाकारः सम-चतुरश्रसंस्थानं तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा। अयं च हीनसंहननोऽपि स्यादित्य आह (वजरिसहणारायसंघयणेत्ति) इह संहननमस्थिसंचयविशेषः वज्रादीनां लक्षणमिदम् - "रिसहो य होई पट्टो, वजं पुण कीलियं विजाणाहि। उभ ओमक्कडबंधो णारायं तं, वियाणाहि त्ति" तत्र वज्र च तत्कीलिका-कीलितकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्य युक्तत्वात्। ऋषभश्च लोहा-दिमयपट्टवद्धकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वात्। वर्षभः स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठसम्पुटोपम Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदभूइ 574 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदवसु सामो पेतत्वात् वज्रर्षभनाराचं तत्संहननमस्थिसंचयवि किंविधः संस्तत्र विहरीतत्यह आह (उड्ढुजाणुत्ति) ऊर्ध्व जानुनी शेषोऽनुत्तमसामर्थ्यायोगाद्यस्यासौ वज्रर्षभनाराचसंहननः / अन्ये तु यस्यासावूर्वजानुः शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया कीलिकादिमत्त्वमस्थ्नामेव वर्णयन्ति अयश्च निन्धवर्णोऽपि स्यादित्यत अभावाचोत्कुटुकासन इत्यर्थः (अहोसिरेत्ति) अधोमुखो नोर्द्ध तिर्यग्वा आह (कणयपुलयनिघसपम्हगोरे) कनकस्य सुवर्णस्य (पुलगत्ति) यः विक्षिप्तदृष्टिः किंतु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः / / पुलको लवस्तस्य यो निकषः कषपट्ट के रेखालक्षणः तथा (पम्हत्ति) (झाणकोट्ठोवगएत्ति) ध्यानं धय॑ शुक्लं वा तदेव कोष्ठः कुसूलो पद्मपक्ष्माणि केसराणि तद्वद्रौरो यःस तथा। वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य ध्यानकोष्ठस्तमुपगतस्तत्र प्रविष्ठोध्यानकोष्ठोपगतोयथाहि कोष्ठके ध्यानं न लोहादेर्यःपुलकः सारो वर्णतिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो रेखा तस्य प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवत्येवं स भगवान् ध्यानतो विप्रकीर्णेन्द्रियान्तःयत्पक्ष्म बहुलत्वं तद्वद्गौरो यः स तथा अथवा कनकस्य यःपुलकोद्भूतत्वे करणवृत्तिरिति (संजमेणंति) संचरेण (तवसत्ति) अनशनादिन चशब्दः सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशोयः स तथा (पम्ह त्ति) पद्यं तस्य समुच्चचार्थो लुप्तोऽत्र द्रष्टव्यः संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्व चेह प्रस्तावात्केसराणि गृह्यन्ते ततः पद्मवद्गौ रो यः स तथा / ततः ख्यापनार्थं प्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तप सश्च पदद्वयस्य कर्मधारयः अयश्च विशिष्ट चरणरिहतोऽपि स्यादित्यत आह पुराण-कर्मनिर्जरणहेतुत्वेन भवति चाभिनवकर्मानुपादा नात् पुराण(उग्गतदेत्ति) अग्रमप्रधृष्यं तपोऽनशनिद यस्य स उग्रतपाः यदन्येन कर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति / / (अप्पाणं भावेमाणे प्राकृतपुंसान शक्यते चिन्तयितुमपितद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः (दित्त विहरइ इति) आत्मनां वासयं स्तिष्ठतीत्यर्थः / भ०१२०१ उ०। चंद्र।। तवेत्ति) दीप्तं जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतथा पद्मग्रहणेन पद्मकेस राण्युच्यन्तेअवयवेसमुदायोपचारात्यथा देवदत्तस्य ज्वलिंत तपोधर्मध्यान्नादि यस्य स तथा (तत्ततवेत्ति) तप्तं तपो थेनासौ हस्ता ग्ररूपोऽवयवोऽपि देवदत्तः तथा च देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्ट्वा लोको तप्ततपाः एवं हिन तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि सन्ताप्यन्ते न तपसा वदतिदेवदत्तो मया स्पृष्ट इति०।सू०प्र० पा० चन्द्र० (गणधर शब्देऽस्य स्वात्माऽपि तपोरूपः सन्तापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति मातापितृपुरादीनि) (महातवेत्ति) आसं-शादोषरहितत्वात् प्रशस्ततपाः (उरालेत्ति) भीम | इंदभेसज्ज-न० (इन्द्रभेषज) इन्द्रेण प्रकाशितं भेसजम् / शुण्ठ्याम्। उग्रादिविशेषण विशिष्टतपःकरणात्पाईस्था नामल्पसत्त्वानां भयानक शब्दरत्ना वाच०। इत्यर्थः / अन्ये त्वाहुः / / (उरालेत्ति) उदारः प्रधानः (घोरेति) घोरो इंदमह-पु० (इन्द्रमह) इन्द्रः शक्रस्तस्य महःप्रतिनियतदिवसभावी उत्सव निघृणः परिषहेन्द्रियादिरिपुणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थः / / अन्ये इन्द्रमहः / प्रतिनियतदिवसभाविनि इन्द्रसन्तोषार्थे महोत्सवरूपे त्वात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः (घोरगुणेत्ति) घोरा अन्यैर्दुरनुधरा गुणा महामहभेदे, जी०३ प्र०।०।ज्ञा० आचा०रा०।"इंदमहेश्वा" / मूलगुणादयो यस्य स तथा (घोरतवस्सित्ति) घोरैस्तपोभिः भ० श०९ उ०३३ // विपा०। इंदमहो आसोयपुण्णिमाए भवतीति। स्तपस्वीत्यर्थः (घोरबंभचेरवासित्ति) घोरं दारुणमल्प आ० चू० अ०४ / / आव० स्था०। प्रव०नि० चू०1"इंदाइमहापायं सत्त्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद्ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा पइनियता ऊसवा होति" || उत्सवाः प्रायः प्रतिनियता वर्षमध्ये (उच्छूढसरीरेत्ति) उच्छूढं उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन प्रतिनियतमाविन इन्द्रादिमहा इति। आ० म०प्र०।अयंच भरतकालादेव तत्संस्कारत्यागात्स तथा (संखित्तविउलतेय लेसेत्ति) संक्षिप्त प्रवृत्त इति / आ०म०प्र० (प्रवृत्तिकारणमिंदज्झया शब्दे)। शरीरान्ती नत्वेन ह्रस्वतां गता विपुला विस्तीर्णा इंदमहकामुग-पु० (इन्द्रमहकामुक) इन्द्रमहे वर्षादिकाले कामुकः अनेक योजनप्रमाण क्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या कामयिता। कुक्कुरे, वर्षादावेव तेषां व्यवायधो लोकप्रसिद्धः। वाच० // विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा / इंदमुद्धाभिसित्त-पु०(इन्द्रमूर्छाभिषिक्त) एकैकपक्षस्य पञ्चदशदिवसेषु मूलटीकाकृता तु (उच्छूढसरीरसंखित्तविउलतेयलेसेत्ति) कर्मधारयं स्वनामख्याते सप्तमे दिवसे, "इंदमुद्धा-भिसित्तेय' चं० 10 पाहु०। कृत्वा व्याख्यातमिति (चउद्दसपुवित्ति) चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य ज्यो०। जं०॥ तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुदर्शपूर्वी अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह स इंदय-पु० (इन्द्रक) इन्द्रशब्दार्थे, स्था०६ ठा०। चावधिज्ञानादिविकलोपि स्यादत आह (चउनाणेवगणएत्ति) केवलज्ञानवर्जन-ज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः उक्तविवेषणद्वययुक्तोऽपि इंदयणिरय-पु० (इंद्रकनिरय) निरयेन्द्रकमहानिरये, स्था०६ ठा०! कश्चिन्न समयश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदां षट् इंदराय-पुं० (इन्द्रराज) इन्द्रे,"घणसमए इंदरायस्स'' ति०॥ स्थानकपतितत्वेन श्रवणादित्यत आह (सव्वक्खरसन्निवाइत्ति) सर्वे च इंदलट्ठि-स्त्री (इन्द्रयष्टि) इन्द्रके तौ, निव्वत्तमहे व्व इंदलट्ठी ते अक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः सर्वेषां चाक्षराणां सन्निपाताः विमुक्कसंधिबंधणा / ज्ञा० 1 अ०॥ सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य जेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती। इंदवइरा-स्त्री० (इन्द्रवजा) स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः उक्ते श्राव्याणि वा श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं ___ द्वादशाक्षरपादके वर्णवृत्तभेदे, वाच०। वृत्तर०॥ शीलमस्येति श्राव्याक्षरसन्निवादी स च एवं गुणविशिष्टो भगवान् | इंदवंसा-स्त्री (इन्द्रवंशा) स्यादिन्द्रवंशा ततजैरसंयुतैः वृत्त 20 उक्त विनयराशिरिव साक्षादिति कृत्वा शिष्याचारत्वाच्च (समणस्स भगवओ ___ द्वादशाक्षरपादके वर्णवृत्तभेदे, वाच०॥ महावीरस्स अदूरसामंते विरहतीति) योगस्तत्र दूरंच विप्रकष्ट सामन्तञ्च इंदवसु-स्त्री० (इन्द्रवसु) पांचालदेशस्थकांपिल्यनगरनिवासि-ब्रह्मदत्तस्य सनिकृष्ट तन्निषेधाददूरसामन्तं तत्र नातिदूरे नातिनिकट इत्यर्थः / भार्यायाम्। उत्त० 13 अ०॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदवागरण 575 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय इंदवागरण-न० (इन्द्रव्याकरण) शब्दशास्त्रभेदे, कल्प०। अहोनिवासीणंट' // 45|| संघसू०। (स्वरूपमधिपतयश्च अणिय शब्दे) / तच्च भगवत ऋषभदेवस्य समये संजातम् / / जंबूमंदरोत्तर वर्तिन्यां रक्तवतीम्महानदी समुफ्या-त्याम्महानद्याम् / अह तं अम्मा पियरो, जाणित्ता अहियअट्ठवासं तु। स्था० 10 ठा०। कयकोउयलंकारं, लेहायरियस्स उवणेति // इंदा-स्त्री० (इन्द्रा) इदिरन् इन्द्रवारुण्याम, राजनि० शच्याम, शब्दर०॥ अथ भीषणानन्तरं कियत्कालातिक्र मे भगवन्तमधिकाष्ट वर्ष वाच० / / जम्बूमन्दरोत्तरवर्त्तिन्या रक्तवती महानदी समुपयान्त्याम्भमातापितरौ ज्ञात्वा कृतानि कौतुकानि रक्षादीनि अलङ्काराश्च केयूरादयो हानद्याम, स्था० १०ठा०।धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य स्वनामख्यातायस्य स तथा तं प्रवरहस्तिस्कन्धगतंतु परितो-मुक्ताजालमाल्यदाम्ना | यामग्रमहिष्याम्, स्था०६ ठा०। छत्रेण ध्रियमाणेन चामराभ्यां वीज्यमा नै मित्रज्ञातिपरिजनसमेतं *ऐन्द्री-स्त्री० इन्द्रो देवता यस्याः सा ऐन्द्री। पूर्वस्यान्दिशि स्था। 100 लेखाचार्याय उपाध्यायाय उपनयतः / पाठान्तरं वा "उवणीसु" ठा० / भ० / विशे०। "इंदा विजयदाराणुसारतो" ! ऐन्द्री दिक् उपनीतवन्तौ उपाध्यायस्य महा-सिंहासनं रचितं अत्रान्तरे देवराजस्य विजयद्वारानुसारतः प्रतिपत्तव्या यत्र विजयद्वारं सा ऐन्द्रीति भावार्थः / खल्वासनकम्पो बभूव। अथावधिनाच प्रयोजनविधि विज्ञाय अहोखल्य- आ०म०वि०मा यारुचकात् विजयद्वारानुसारेण विनिर्गता दिक्सा ऐन्द्री। पत्यस्नेहविलिति बुवनत्रयगुरुं प्रति मातापित्रोर्येन भगवन्मपि एन्द्री नामपर्वेत्यर्थः / / आ०म०वि०॥ लेखाचार्यायापनेतुमभ्युद्यताविति संप्रधार्यागत्य च उ पाध्या- इंदाणी-स्त्री० (इन्द्राणी) इन्द्रस्य पत्नी / डीप आनुक् च / इन्द्र यपरिकल्पिते वृहदासने भगवन्तं निवेश्यशब्दलक्षणं पृष्ठवान्। कल्प० / / स्याग्रमहिष्याम, / स्था०४ ठा०। अमुमेवार्थ प्रतिपादयति। इंदायरिय-पु० (इन्द्राचार्य) योगविधिकारके स्वनामख्यातेआचार्ये, सक्को य तस्समक्खं, भयवंतं आसणे निवेसित्ता। जैन२०॥ सदस्स लक्खणं पुच्छे, बागरणं अवयवा इंदं / / इंदासण-पु० (इन्द्रासन) इन्द्र आत्मा अस्यते विक्षिप्यतेऽनेन असु क्षेपे शक्रो देवराजस्तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थक रमासने करणे ल्युट्। (सिद्धि) संविदावृक्षे तत्सेवने हि आत्मनो विक्षिप्तत्वात्तस्य निवेश्य शब्दलक्षणं पृच्छति भगवता च व्याकरण मभ्यधायि। तथात्वम्। पञ्चमात्रिकस्य प्रस्तावे आदिलघुके शेषगुरुद्वयात्मके प्रथमे "व्याक्रियन्ते लौकिका सामयिकाश्च शब्दा अनेनेति व्याकरणं" भेदे, वाच०॥ शब्दशास्त्रं तदवयवाः केचन उपाध्यानेय गृहीतास्ते च संदर्भितास्ततः / इंदाहिट्ठिय-त्रि० (इन्द्राधिष्ठित) इन्द्रयुते, "इंदाहिट्ठिया" इति / ऐन्द्रं व्याकरणं संजातम्। आ० म०वि०1आच० चू०॥ इन्द्राधिष्ठितातधुक्तत्वादिति। भ०३श०१ उ०।"दशकप्पा इंदहिट्ठिया इंदसत्तु-पुं० (इन्द्रशत्रु) इन्द्रः शत्रुःशातयिता यस्य। वृत्रासुरे, वाच०॥ पण्णत्ता" / सौधर्मादीनामिन्द्राधिष्ठितत्वमेते-ष्विन्द्राणां निवासादिति इंदसम्म (न)-पुं० (इन्द्रशमन्) आस्थिकग्रामस्थस्य शूल- वृत्तिः। स्था० 10 ठा०। पाणियक्षस्यार्च के ब्राह्मणे, "इन्द्रशर्मा भृतिन्दत्वा ग्राम्यैस्त-स्यार्चकः इंदाहीण-त्रि० (इन्द्राधीन) इन्द्रवश्ये, भ०३ श०१ उ०। कृतः" इति।आ० क०।आच०च्छ! "तत्थ इंदसम्मो नाम पडियारगो इंदाहीणकज-त्रि० (इन्द्राधीनकार्य्य) इन्द्रवश्यकार्ये, भ०३ श०१ उ०। कओ" |आ०म० द्वि०। मोराकसन्निवेशस्थे स्वनामक्याते गृहपतौ च इंदिय-न० (इंन्द्रिय) इदि परमैश्वर्य इदितो नुम् इन्दनादिन्द्र आत्मा (तत्कथा महावीरस्य मोराकसन्निवेशं गतस्य विहारसमयेमहावीरशब्दे (जीव) सर्व विषयोपलब्धि (ज्ञान) भोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्तस्य लिङ्गं वक्ष्यते) चिन्हमविनाभाविलिङ्गसत्तासूचनात् प्रदर्शना-दुपलम्भाद् व्यञ्जनाच इंदसलह-पुं० (इन्द्रशलभ) इन्द्रजातःवर्षाकालजातशलभः / इन्द्रगोपे, जीवस्य लिङ्गमिन्द्रियलिङ्गमिन्द्रिय-विषयोपलम्भात् ज्ञापकत्वसिद्धिः वाच०॥ तत्सिद्धौ उपयोगलक्षणो जीव इति जीवत्वसिद्धिः / अष्ट० / आ० म० इंदसिरि-स्त्री० (इन्द्रश्री) पंचालदेशस्यथकाम्पिल्यनगरनिवासिनो ब्रह्म द्वि०। तेन दृष्ट सृष्टं जुष्ट दत्तमिति वा इन्द्रियम्।स्था०५ ठा०। इन्द्रियमिति (राज) दत्तस्य भार्यायाम्, उत्त० 13 अ०। निपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः नं० / जी० / विशे० / पा० / पं०सं०। *ऐन्द्रश्री-स्त्री० इन्द्रोजीवस्तस्येयमैन्द्री सा चासौ श्रीश्चन्द्रश्रीः / / इन्द्रशब्दादियप्रत्यय इति / प्रज्ञा० 15 पद | आ० चू० / / आत्मगुणलक्ष्म्यान्, 'ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लीलालग्नमिवाखिलम् श्रोत्रादौ, / उत्त० 16 अ० / सूत्र०) नयनवदनजघनवक्षःस्थ सचिदानन्दमग्नेन, पूर्ण जगदवेक्ष्यते।१।" अष्ट०१प्र०। लनाभिकज्ञादौ, उत्त०१६ अ० "नो निग्गंथे इत्थीणं इंदियाइंमणोहराई इंदसे ढि-स्त्री० (ऐन्द्र श्रेणि) इन्द्राणामियमैन्द्री सा चासौ श्रेणि श्चेति | मणोरमाइं आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवति" उत्त०। ऐन्द्रश्रेणी। इन्द्रपंकी, "ऐन्द्रश्रेणिनता प्रतापभवनं भव्याङ्गिनेत्रामृतं इंदो जीवो सव्वो-वलद्धिभोगपरमेसरत्तणउ। सिद्धान्तोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रणामी कृता / मूर्तिः स्फूर्तिमती सोत्ताइभेयमिदिय-मिह तल्लिंगाइ भावाउ॥ सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन्मो होन्मा-दघनप्रमादमदिरामत्तैर- इदिपरमैश्वर्ये इन्दनात्परमैश्वर्ययोगादिन्द्रोजीवः परमैश्वर्यमस्य कुत इत्याह नालोकिता" ||1|| प्रति०। (सव्वो इत्यादि) आवरणाभावे सर्वस्यापि वस्तुन उपलम्भानाभावेषु इंदसेणा-स्त्री० (इन्द्रसेना)६तका इन्द्रस्थ कटके, "गंधव्वनट्ट हयगय- सर्वस्यापि त्रिजगद्गतस्य वस्तुनः परिभोगाचपरमश्वरोजीवइतितस्यपरमैश्वर्य रहभडअपिवाप्पसव्वइंदाणं / वेमाणियाणि वसहा, महिसाय तस्येन्द्र स्य जीवलिङ्गं चिन्हं तेन दृष्टं वा निपातनादिहेन्द्रियमुच्यते Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 576 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय तल्लिङ्गादिभावादिति। तच्च श्रोत्रादिभेदं श्रोत्रनयनघ्राणरसनस्पर्शनभेदात्पञ्चविधमित्यर्थः / विशे०॥ स्था० / प्रव० / सूत्र० / पञ्च स्पर्शादीनि बुद्धीन्द्रियाणि वाक् पाणिपादपायूपस्थरूपाणि पञ्चकर्मेन्द्रियाणि एकादशं मन इति सांख्याः। सूत्र०१श्रु०१०। तस्य च नोइन्द्रियत्वं स्थानाङ्गे उक्तम्। तद्यथाछहिं इन्द्रियत्था पण्णत्ता तंजहा सोइंदियत्थे जाव फासिंदियत्थे नो इंदियत्थे। तत्र श्रोत्रेन्द्रियादीनामा विषयाः शब्दादयः मनस आन्तर करणत्वेन करणत्वात्करणस्य चेन्द्रियत्वात्तत्रान्तररूळ्या वा मनस इन्द्रियत्वात्तद्विषयस्येन्द्रियार्थत्वेन षडिन्द्रियार्था इत्युक्तम् / औदारिकादित्वार्यपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्म द्वयोपेतमिन्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधा-नोइन्द्रियमनः सादृश्यार्यत्वाद्वा नोशब्दस्यार्थपरिच्छेदकत्वे नेन्द्रियाणां सदृशमिति तत्सहचरमिति वा नोइन्द्रियं मनस्तस्यार्थो विषयो जीवादि नो इन्द्रियार्थ इति। स्था०६ठा०।। 1. इन्द्रियाणां पञ्चत्वेऽपि नामादितश्चातुर्विध्यं द्रव्यादितो द्वैविध्यं तत्संस्यानञ्च। 2. इन्द्रियाणां बाहुल्यपृथ्क्त्वप्रदेशावगाहनास्तद्घात वेदना च। 3. इन्द्रियाणां पृथुत्वं तदवगाहना च। 4. इन्द्रियाणामल्पबहुत्वं तद्गुणाश्च / 5. नैरयिकादिषु संस्थानाद्यल्पबहुत्वचिन्तनम्। 6. इन्द्रियाणां वर्तमानार्थग्राहकत्वम् / 7. इन्द्रियाणां स्पृष्टास्पृष्टविषयता तद्ग्रहणप्रकारश्च / इन्द्रियाणां प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तनम्। 6. श्रोत्रलक्षणादीन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं नयनमनसोरप्राप्यकारित्वम्। 10. इन्द्रियाणां विषयनिरूपणम्। 11. इन्द्रियासंभृतत्वस्वरूपस्येन्द्रियासम्बरदोषस्य चाभिधानम्। 12. इन्द्रियाणां गुप्तागुप्तदोषाभिधानम्। 13. अनामितानि चेन्द्रियाणि दुःखाय भवन्ति इत्यत्रोदाहरणानि / 14. इन्द्रियाश्रितत्वे जीवानां भेदाः। (1) इन्द्रियाणां पञ्चत्वेऽपि नामादितश्चातुर्विध्यं द्रव्या-दितोद्धैविध्यं तत्संस्थानञ्च। कइणं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचिंदिया पण्णत्ता तंजहा सोइंदिए चक्खिदिए घाणिदिए जिभिदिए फासिं-दिए। कति कियत्संख्याकानि णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! इन्द्रियाणि प्रागनिपतितशब्दार्थानि वक्तव्यानि भगवानाह / गौतम ! पञ्चेन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि तान्येव नामत आह "सोई दियए' इत्यादि। प्रज्ञा०१५ पद। एतानि च पञ्चापि इन्द्रियाणि नामादिभेदाचतुर्विधानि तं नामाइ चउद्धा, दव्वं निवित्ति उवगरणं च / आगासे निवित्ति, चिंतावज्झायमाउन्नो। तन्नामेन्द्रियस्थापनेन्द्रियमित्यादि भेदाचतुर्दा तत्र ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यं द्रव्येन्द्रियं निर्वृत्तिरुपकरणं चेति द्विभेदम्। विशे०। भावतो लब्ध्युपयोगात्मकानि आह च तत्त्वार्थसूत्रकृत् निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियलब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियमिमि / तत्र निर्वृत्तिनम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः साऽपि द्विविधाः वाह्याभ्यन्तरा च तत्र वाह्या पर्पटिकादिरूपा सा च विचित्रा न प्रतिरूप नियतरूपतयोपदेष्टु, शक्यते / / तथाहि मनुष्यश्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वतो भाविनी भुवौ चोपरितनश्रवणबन्धापेक्षया समे वाजिनीनेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि जातिभेदान्नानाविधा आभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समानता मेववाधिकृत्य वक्ष्यमाणानि संस्थानादिविषयाणि सूत्राणि केवलं स्पर्श-नेन्द्रि यस्य निर्वृत्तेर्वाह्याभ्यन्तरभेदा न प्रतिपत्तव्याः पूर्वसूरिभि-निषेधात् / प्रज्ञा० 15 पद / आ०म०वि० / तत्वार्थमू लटीकायामनभ्युपगमात् / जी०१प्र०। इन्द्रियाणां संस्थानान्याह। पुप्फ कलंबुयार, धन-मसूरादिमुत्तचंदो य / होई खुरुप्पनाणा, किई य सोइंदियाईणं // श्रोत्रस्यान्तर्निवृत्तिः कदम्बपुष्पाकारमांसगोलकरूपादृष्टव्या। चक्षुषस्तु धान्यमसूराकारा, घ्राणस्य अतिमुक्तककुसुमचन्द्रका-कारा, रसनस्यक्षुरप्राकारा, स्पर्शनं तु नानाकृतिर्द्रष्टव्यमित्येष श्रोत्रादीनां तन्निवृत्तेराकार इति। विशे०। तथाच प्रज्ञापनाया पञ्चदशे पदे। सोइंदिए णं भन्ते ! किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! कलंबुयापुप्फसंठाणसंठिए पण्णत्ते चक्खिदिएणं पुच्छा गोयमा ! मसूरा चंदसंठाणसंठिये पण्णत्ते, घाणिदिएणं पुच्छा गोयमा! अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते, जिभिदिएणं पुच्छा गोयमा ! खुरुप्पसंठाणसंठिए पण्णते फासिंदिएणं पुच्छा गोयमा ! नाणासंठाणसंठिएपण्णते, तत्रान्तः श्रोत्रेन्द्रियस्यान्तर्मध्ये नेत्रगोचरोऽतीता के वलिदृष्टा अतिमुक्तककुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति शब्दग्रहणोपकारे वर्तते चक्षुरिन्द्रियस्यान्तर्मध्ये केवलिगम्या धान्यमसूराकारा काचिन्निर्वृत्तिरस्ति या रूपग्रहणोपकारे वर्तते / घ्राणेंद्रियस्यान्तर्मध्ये केवलिदृष्टा अतिमुक्तककुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्तिया गन्धग्रहणापेकारे वर्तते। रसेन्द्रियस्यान्तर्मध्ये जिनगम्या क्षुरप्रहरणाकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या रसग्रहणोपकारे वर्तते / स्पर्शनेन्द्रियस्यान्तः केवलिदृष्टा देहाकार काचिन्निर्वृत्तिरस्ति या स्पर्शग्रहणोपकारे वर्त्तते॥ तंदु०॥ उपकरणं खङ्ग स्थानीया बाह्या निर्वृतिर्या खगधारासमाना - स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निर्वत्तिस्तस्याः शक्तिविशेषः इदचोपकरणरूं द्रव्येन्द्रियमन्तरेनिवृत्तेः कथं चिदर्थान्तरं शक्तिशक्तिमतोः कथंचिदं भेदात्कथशिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वत्तौ द्रव्यादिनापकरणस्य विघातसम्भवात् तथाहि-सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरनिर्वृत्ता वतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्तयुपघाते सति नपरिच्छे तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति / प्रज्ञा० 15 पद। विसयग्गहणसमत्थं, उवगरणिंदियं तरं तं पि। जंते ह तदुवघाए गिण्हए निव्वत्तिभावे वि॥ तस्य एव कदम्बपुष्पकृतिमांसगोलकरूपायाः श्रीवाद्यन्तर्नि Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 177 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय वृत्तद्विषयग्र हणसमर्थे शक्तिरूपमुपकरणं द्रव्येन्द्रियमुच्यते इति शेषः। जंकिर वउलाईणं,दीसइ सेसेंदिओवलंभो वि॥ यथा खङ्गस्य छेत्री शक्तिर्वा दाहादिकासक्तिस्थतेदमपि तेण त्थि तदावरण-क्ख ओवसमसंभवो तेसिं / / 1 / / श्रोत्राद्यन्तर्निवृत्तर्विषयग्रहणसमर्थशक्तिरूपं द्रष्टव्यम्।तन्ति-निवृत्तिरेव यस्मात् किल बकुलचंपकतिलकविरहकादीनां वनस्पति विशेषाणां तत्तच्छक्तिरूपत्वान्न पुनर्भेदान्तरमित्याशंक्याह / तदपीन्द्रियान्तरं स्पर्शनाच्छेषाणि यानि रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणा नीन्द्रियाणि द्रव्येन्द्रियस्य भेदान्तरमित्यर्थः कुत इत्याह (जमित्यादि) यस्मादिह तत्संबन्ध्युपलम्भो दृश्यते तेन ज्ञायते तेषामपि बकुलादीनां कदम्बपुष्पाधाकृतेमा सगोलकाकारायाः श्रोत्राद्यंतर्निवृत्ते | तदावरणक्षयोपशमसंभवो रसनादीन्द्रियावार ककर्मक्षयोपशमस्य या शब्दादेविषयच्छेत्री शक्तिस्तस्या वातपित्ता-दिना उपघाते विनाशे सति। च यावती मात्रा अस्तीति अन्यथा हि बकुलस्य श्रृंगारितकामिनीयथोक्तांतर्निवृत्तिसगावेतिनशब्दादिविषयं गृह्णाति जीवन इत्यतो ज्ञायते वदनाप्र्पितचारुमदिरागण्डूषेण चंपकस्यातिसुरभिगन्धोदकसेचनेन अस्त्यन्तर्निवृत्ति-शक्तिरूपमुपकरणेन्द्रियं द्रव्येन्द्रियस्य द्वितीयो भेद तिलकस्य कामिनीकटाक्षविक्षेपेण विरहकस्य पञ्चमोद्रारश्रवणेन इति। विशे० "इंदियाणि दुविहाणि दविदियाणि भावेदियाणि अ पुष्पपल्लवादि संभवो न घटेत। विशे० // यद्यपि द्रव्यरूपं भावरूपं ददिवदियं दुविहं णिव्वत्तणाए उवकारणे य णि त्तव्वणाएजहा लोहकारो चेत्थमिन्द्रियमनेकप्रकार तथापीह बाह्यनिर्वृत्तिरूपमिन्द्रियं पृष्टमव भणितो एतेण लोहेण परसुं वासिं थोभणयं च णिवत्तेहिंति तेण णं गहाय गन्तव्यं तदेवाघृित्य व्यवहारपृवत्तेः तथाहि बकुलादयः पञ्चेन्द्रिया इव ततेहिं पमाणेहिं खंडियाणि जाव कम्मस्स समत्थाणि सा णिव्वत्तणा भावेन्द्रि-यपञ्चकविज्ञानसमन्विता अनुमानतः प्रतीयन्ते तथापि न ते कजसमत्थाणि जायाणि उवगरणाइं" // आ०चू० 2 अ० / / पञ्चेन्द्रिया इति व्यवहियंते बाह्येन्द्रियपञ्चकासंभवात्। जी०१प्र०! भावेन्द्रियमपिद्विधा लब्धिरुपयोगश्च तत्र लिब्धः श्रोत्रेन्द्रियादि पंचिंदियव्य बउलो, नरोय्व सव्वविसयोवलंभाउ॥ विषयस्तदावरणक्षयोपशमः उपयोगः स्वस्वविषये लब्ध्यनुसारेणात्मनः तह विन भण्णइपंचें-दिओत्ति वझिदियाभावा / / 1 / / परिच्छेदव्यापाराः / जी०१प्र०।"भावें दियं दुविहं लद्धिए उवओगत्तो | पंचेंद्रिय इव बकुल इति प्रतिज्ञा सर्वेषामपि शब्दरूपादिवि य जाणि जेण जीवेण लद्धाई इंदियाणि सा लद्धा एगिदियाणं एगा शेषाणामुपलम्भादिति हेतुः नरवदिति दृष्टान्तः / ननु बकुलस्य फासिंदियलद्धि दियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचेंदियाणं पंचविहो रसनेन्द्रि योपलम्भ एवोक्तस्तत्कथमस्य सर्वविषयोपलम्भसंभव इति उवओगोजाहे जेण इंदिएण उवजुञ्जत्ति सव्वजीवाय किर उवओगं पडुचइ सत्यम् मुख्यस्तावत्स एव संभवति गौणवृत्त्या तु शेषेन्द्रियविषयोपएगिदिया" आ०-घू०२ अ०। लम्भोऽप्यस्य संभावते शृङ्गारितस्वरूप तरुणीमदिरागंडूषार्पणात्तस्यां च तनुलतास्पर्शाधररस चंदनादिगन्धशोभनरूपमधुरोल्लापलक्षणानां तदाह॥ पञ्चानामपीन्द्रि यविषयाणां संभवादिति अन्यथा वा पञ्चेन्द्रियत्वमस्य लद्धवओगो भाविंदियं तु लद्धित्ति जो खउवसमो। सुधिया भावनीयं तडॅकेन्द्रियो बकुलः कथं प्रसद्धिः पञ्चेन्द्रियोऽपि होइ तदावरणाणं, तल्लामे चे सेसं पि॥१॥ कस्मान्न व्यपदिश्यत इत्याह। तथापि पञ्चेन्द्रियोऽसौ न भण्यते बाह्यानां लब्ध्युपयोगो भावेंद्रियं तत्र यदावरणानां तेषामिन्द्रियाणा निवृत्त्यादि द्रव्येन्द्रियाणामभावादिति // मावारककर्मणां क्षयोपशमो भवति जीवस्य सा लब्धिः शेषमपि अमुमेवार्थ कुंभकार व्यपदेशदृष्टांतेन समर्थयन्नाह।। द्रव्येन्द्रियं तल्लाभ एव लब्धिप्राप्तावेव भवतीति द्रष्टव्यमिति // सुत्तो विकुंभनिव्यत्ति, सत्तिजुत्तोत्ति जह सघडकारो। उपयोगः क इत्याह॥ लद्धे दिएण पंचें-दिओ तहाबज्झिरहिओ वि॥ जो सविसयवावारो, सो उवओगो सचेगकालम्मि॥ सुबोधार्थामिन्द्रियाणां लाभक्रम उच्यते। तत्र यदा द्रव्येन्द्रियसामान्य एगेण होइ तम्हा, उवओगाओ उसवो वि||१|| भावेन्द्रियसामान्यं वाश्रित्य पृच्छ्यते तदा तल्ला मे चैव "सेसं-पित्ति" यः श्रोत्रादीन्द्रियस्य स्वविषये शब्दादौ परिच्छेद्य व्यापारः स उपयोगः / प्रागुक्तवचनाल्लब्धिमाश्रित्य प्रथमं भावेन्द्रियलाभस्ततो द्रव्येन्द्रियलाभ स चैकस्मिन्काले एकेनैव श्रोत्राद्यनन्तरेण इन्द्रियेण भवतिन बुद्ध्यादिभिः इति द्रष्टव्यम् / यत्तु द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रिय-सामान्याद्भिन्नः कृतो लाभः तस्मादुपयोगमाश्रित्य सर्वो पि जीव एकेन्द्रि य एव सर्वस्मिन्काले पृच्छ्यते विशेषरूपतया पृछ्यते इत्यर्थः तदित्थं द्रष्टव्यं देवादीनामप्येकस्यै व श्रोत्राद्यनन्तरेन्द्रियोपयोगस्य सद्भावादिति / प्रथममिन्द्रियावरणक्षयोपशमरूपा लब्धिर्मवतिततो बाह्यान्तरभेद भिन्नं यधुपयोगतः सर्वोपि जीव एकेंद्रियस्तॉकेंद्रियो द्वींद्रिय इत्यादिर्भेदः निर्वृत्तेः शक्तिरूपमुपकरणं तदनन्तरं चेन्द्रियार्थोप योग इत्येतदेवाह / / कथमागमनिर्दिष्ट इत्याह-- लाभकम्मे उलद्धी, निबउवगरणउवओगो। एगेंदियाइभेया, पडुच सेसेंदियाणि जीवाणं / / या दव्वेदिय भाविं-दिय सामन्नओ कओ मिन्नो / / अहवा पडुच लद्धिंदियं पिपंचेदिया सव्वे / / 1 / / व्याख्यातार्था तदेवव्याख्यातमिंद्रियस्वरूपम्। विशे० नं०। तं०। आ० अतो जीवानामे के न्द्रियादयो भेदाः शेषाणि निवृत्त्युपकरण म० द्वि०। प्रज्ञा०। जी०। स्था०। पा० / अष्टOI आचा०। लब्धीन्द्रियाणि प्रतीत्य द्रष्टवंय तानि यस्य यावन्ति तावद्भिर्व्यपदेश इति द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियभेदाः यथान तूपयोगतः अथवा लब्धीन्द्रियमप्याश्रित्य वक्ष्यमाण-युक्तितः सर्वे कतिविहा णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पृथिव्यापदयोऽपि जीवाः पञ्चेंद्रिया एवेति कुतः सर्वे पञ्चेंद्रिया इत्याह। पण्णत्ता, तं जहा दविदिया य भाविंदिया य। कहणं भंते ! Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 578 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय दविदिया पणत्ते ? गोयमा! अट्ठदविदिया पण्णत्ते, तंजहादो सोत्ता दो नेत्ता दो घाणा जीहा फासे / नेरइ याणं भंते ! कइ दविदियापण्णत्ता ? गोयमा ! अहाएते चेव एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराण वि। पुढविकाइयाणं भंते ! कइदविदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! एगेफासिंदिए पण्णत्ते / एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / बेइं दियाणं भंते ! कइदविदिए पण्णत्ते? गोयमा! दो दविदियापण्णत्ता, तं जहा फासिंदिए य जिम्मिदिए य। तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! चत्तारि दटिबंदिया पण्णत्ता दो घाणा जीहा फासिं-दिए / चउरिंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! छदटिवदिया पण्णत्ता, तं जहा-दो नेत्ता दो घाणा जीहा फासे सेसाणं जहा नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया दविदिया अईया ? गोयमा ! अणंता / केवइया वद्धेल्लगा ? गोयमा ! अट्ठ। केवइया पुरक्खडा ? गोयमा ! अट्ठ वा सोलस वा सत्तरस वा संखेज वा असंखेज वा अणंता वा / एगमेगस्स णं मंते ! असुरकुमारस्स केवइया दविदिया अतीता? गोयमा ! अणंता / केवइया बद्धेल्लगा? अट्ठा केवइया पुरक्खडा? अहवानव वा संखिज्जा वा असंखिज्जा वा अणंता वा / एवं जाव थणियकुमाराणं ताव माणि यव्वं / एवं पुढविक्काइयआउक्काइयवणस्सइकाइयस्स वि नवरं केवइया बद्धेल्लगत्ति पुच्छा, एवं उत्तरं एके फासिंदिए दविदिए एवं तेउक्काइय / वाउक्काइयस्स वि नवरं पुरक्खडा नव वा दस वा / एवं वेइंदियाण वि नवरं बद्धेल्लगपुच्छाए, दोपिण। एवं तेइंदियस्स वि बद्धे ल्लगा चत्तारि / एवं चउरिंदियस्स वि नवरं बद्धेल्लगा / पंचिं दियतिरिक्खजोणियमणुस्सवाणमंतरजोइसिय सोहम्मीसाण-गदेवस्स जहा असुरकुमारस्स / नवरं मणु स्सस्स पुरक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ वा नव वा संखिजावा असं खिजा वा अणंता वा / सणंकु मारमाहिंदबंभलंतगसुक्कसहस्सार आ णयपाणयआरणअघुयगेविजग-देवस्स जहा नेरइय स्स / एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत ---अप राजियदेवस्स केवइया ददिवदिया अतीता? गोयमा! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा ? अह / केवइया पुरक्खडा ? अट्ठवासोलसवाचउवीसावासंखेज्जावा। सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स अतीता अणंता बद्धेल्लगा अट्ठपुरक्खडा अट्ठानेरइया णं मंते ! केवइया दव्विंदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता / केवइया बद्धेल्लगा? गोयमा! अणंता। केवइया बद्धेल्लगा? गोयमा! असंखि-ज्जा / केवइया पुरक्खडा? गोयमा ! अणंता / एवं जाव गेवेज्जगदेवाणं नवरं मणुस्साणं बद्धेल्लगा सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा विजयवे जयंतजयंत अपराजियदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! अतीता अणंता बद्धेल्लगा असंखिज्जा पुरक्खडा असंखिजा सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं पुच्छा, गोयमा! अतीता अणंता वा बद्धेल्लगा संखिज्जा पुरक्खडा संखेजा। (कइविहाणं भंते इंदिया पण्णत्ता इति) द्रव्येन्द्रियं सुगम प्राग भावितत्वात् / (कइविहेणं भंते ! दविदिया पन्नत्ता इति) द्रव्येन्द्रियसंख्याविषयं दण्डक सूत्रच पाठसिद्धम् / एकै क जीवविषयातीतबद्धपुरस्कृतद्रव्येन्द्रियचिन्तायाम्-यो नैरयिकोऽनन्तरमनुष्यत्वमवाप्यसेत्स्यति तस्य मानुषभवसम्ब-धन्धीन्यष्टी, यः पुनरन्यतरभवे तिर्यक् पञ्चेन्द्रियत्वमवाप्य तत उद्वृत्तो मनुष्येषु गत्वा सेत्स्यति तस्याष्टौ तिर्यक्-पञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीन्यष्टौ मनुष्यभवसम्बन्धीनीति षोडशायः पुनरनन्तरं नरकादुद्वृतस्तिर्यक् पञ्चेन्द्रियत्व मवाप्यतदनन्तर मेकभवे पृथिवीकायादिको भूत्वा मनुष्येषु समागत्य सेत्स्यति तस्याष्टौ तिर्यक्पञ्चेन्द्रियभवसम्बन्धीनि एकं पृथिवीकायादि भवसम्बन्धि अष्टौ च मनुष्यभवसम्बन्धीनि इति सप्तदश संख्ये यकालं संसारावस्थाविनःसंख्येयानि असंख्येयकालमसंख्येया नि अनन्तकालमनन्तानि, असुरकुमारारसूत्रे-पुरक्खडा अट्ठ वा नव वा इत्यादि / तत्रासुरभवादुवृत्त्यानन्तरभवे मनुष्यत्वभवाप्य सेत्स्यत्यतोऽष्टो, असुरकुमारादयस्त्वीशानपर्यन्ताः पृथिव्यब्वनस्पतिषूत्पद्यन्ते ततो योऽनन्तरभवे पृथिव्यादिषु गत्वा तदनन्तरं मनुष्यत्वमेवाप्य सेत्स्यति तस्य नव संख्येयादिभावना प्राग्वत् पृथिव्यवनस्पतिसूत्रे पुरक्खडा अट्ठ वा नव वेति / / पृथिव्यादयो ह्यनन्तरमृद्धृत्य मनुष्येपूत्पद्यन्ते सिद्ध्यंति च तत्र योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य मनुष्य भव सम्बन्धीन्यष्टौ यस्त्वनन्तरमेकं पृथिव्या भवमवाप्य तदनन्तरं मनुष्यो भूत्वा सेत्स्यति तस्य नव तेजोवायवोऽनन्तरमुवृत्ता मनुष्यत्वमेव न प्राप्नुवन्ति द्वित्रिनतुरिन्द्रि यात्स्वनन्तरं मनुष्यत्वमवाप्नुवन्ति परं न सिद्ध्यन्ति, ततस्तेषां सूत्रेषु जघन्यपदे नवनवेति वक्तव्यं शेषभावना प्रागुक्तानु सारेण कर्तव्या, मनुष्यसूत्रे पुरस्कृतानिद्रव्येन्द्रियाणि कस्यापि सन्ति कस्यापि नसन्तीति तद्भव एवसिद्ध्यतो न सन्ति शेषस्य सन्तीतिभावः यस्यापि सन्ति सोऽपि यद्यनन्तरभवे भूयोऽपि मनुष्यो भूत्वा सेत्स्यति तस्याष्टौ याः पुनः पृथिव्याघेकभवान्तरितो भूत्वा सिद्धिगामी तस्यनव शेभभावना प्राग्वत्। सनत्कुमारादयो देवा अनन्तरमुवृत्ताःन पृथिव्यादिष्वायान्ति किन्तु पञ्चेन्द्रियेषु ततस्ते नैरयिकवद्धवक्तव्याः तथाचाह - "सणंकुमारमाहिंद बंभलोयलं तगसुक्कसहस्सार आणय पाणय आरण अचुय गेवेञ्जगदेवस्सय जहा नेरइयस्स" विजयादिदेवचतुष्टयसूत्रेषु योऽनन्तरभवे मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्याष्टौ यः पुनरेकवारं मनुष्यो भूत्वा भूयोपि मनुष्यत्वमवाप्य सेत्स्यति तस्य षोडश यस्त्वपान्तराले देवत्वमनुभूय मनुष्यो भूत्वा सिद्धिगामी तस्य चतुर्विंश-तिर्मनुष्यभवेऽष्टौ देवभवेऽष्टौ भूयोपि मनुष्यभवे अष्टाविति संख्येयानि संख्येयं कालं संरारावस्थायिन इह विजयादिषु चतुर्भुगताः प्रभूतमसंख्येयमनननतंवा कालं संसारे नावतिष्ठन्तेततःसंखेज्जा वा इत्येवोक्तं "मा संखेज्जा अणंता वा' अति सर्वार्थ सिद्धस्त्वनन्तरभवे नियमतः सिद्ध्यति तत स्तस्याऽजघन्योत्कृष्टपुरस्कृता अष्टाविति / बहुवचनचिन्तायां नैरयिकसूत्रे बद्धानि द्रव्ये न्द्रियाणि असंख्ये ययानि नैरयिका Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 579 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय णामसंख्यातत्वात् एवं शेषसूत्रेभ्वप्युपयुज्य वक्तव्यं नवरं मनुष्यसूत्रे असंखिज्जा वा अणंता वा / एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स "सियसंखेज्जा" इह सम्मूर्छिभमनुष्याः कदाचित्सर्वथा न सन्ति विजयवेजयंतजयंतअपराजितदेवत्तेके वइया दटिंवदिया तदन्तरस्य चतुर्विंशतिमुहूर्तप्रमाणस्य प्रागभिधानात्, तत्र यदा अतीता ? नत्थि केवइया बद्धेल्लगा ? नत्थि / केवइया पृच्छासमये सर्वथा न सन्ति तदा संख्येयानि गर्भजमनुष्याणां पुरक्खडा ? कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ संख्येयत्वात् / यदा तु संमूञ्छिमाअपि सन्ति तदा असंख्ये-यानि। वा सोलस वा / सव्वट्ठ सिद्धदेवत्ते अतीता नत्थि, बद्धेल्लगा सर्वार्थसिद्धमहाविमानदेवाः संख्येया बादरत्वे महाशरीरत्वे च सन्ति नत्थि, पुरक्खडा कस्स अस्थि कस्सनत्थि जस्स अस्थि अट्ठ। परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् ततो बद्धानि पुरस्कृतानि वा तेषां द्रव्येन्द्रियाणि एवं जहा नेरइए दंडओ नीतो तहा असुरकुमारेणवि नेयव्वो संख्येयानि॥ जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं नवरं जस्स सहाणे जइ एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया दटिव दिया बद्धिल्लगा तस्सतइ माणियवा। एगमेगस्सणं भंते ! मणुस्सस्स अतीता ? गोयमा ! अणंता / केवइया वद्धेल्लगा ? अट्ठ। नेरइयत्ते केवइया दटिवदिया अतीता? गोयमा! अणंता केवयिा केवइया पुरक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि। बद्धेल्लगा नत्थि केवइया पुरक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अटुं वा सोलसंवा चउवीसं वा संखेज्जावा जस्स अत्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसं वा संखिज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा। जाव एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते असंखिज्जा वा अणंता वा / एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते के वइया दटिवदिया अतीता? गोयमा ! नवरं एगिदिय बिगलिंदियएसु जस्स जत्ति पुरक्खडा तस्स तत्तिया भाणियव्वा / एगमेगस्स णं भंते ! मणुस्सस्स मणुस्सत्ते अणंता / केवइया वद्धेल्लगा ? गोयमा ! नत्थि / केवइया केवइया दविदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता। केवलइया पुरक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि / जस्स बद्धेल्लगा ! गोयमा ! अट्ठ, केवइया पुरक्खडा कस्सइ अस्थि अस्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसंवा संखेज्जा वा असंखेचा वा कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अह्र वा सोलसं वा चउवीसं वा अणंता वा / एवं जाव थणियकुमारत्ते / एगमेगस्सणं संखिजावा असंखिज्जावा अणंता वा। वाणमंतरजोइसिय जाव भंते ! नेरइगस्स पुढविकाइयस्स के वइवा दर्टिवदिया गेवेज्जगदजेवत्ते जहा नेरइयत्ते / एगमेगस्स णं भंते ! मणुस्स्स अतीता ? गोयमा ! अणंता / के वइया बद्धेल्लगा ? विजय-वेजयतजयंतअपरजियदेवत्ते केवइया दविदिया अतीता? गोयमा ! णत्थि केवइया पुरक्खडा? गोयमा! कस्सइ अत्थि गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अहं वा कस्सइ णत्थि जस्स अस्थि एक्कोवा दो वा तिन्निवा संखेज्जा वा सोलसं वा। केवइया बद्धेल्लगा णत्थि / केवइया पुरक्खडा असंखेला वा अणंता वा / एवं जाव वणस्सइकाइयत्ते / कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अटुं वा सोलसं एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स वेइंदियत्ते केवइया दविदिया वा। एगमेगस्स णं भंते ! मणुस्सस्स सवह सिद्धगदेवत्ते केवइया अतीता? गोयमा ! अणंता? केवइया बद्धेल्लगा ? गोयमा ! ददिदिया अतीता? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि णत्थि, केवइया पुरक्खड़ा ? गोयमा ! कस्स अत्थि कस्स जस्स अत्थि अह, केववइया बद्धेल्लगा णत्थि, केवइया नत्थि / जस्स अत्थि दो वा चत्तारि वा छ वा संखिज्जा वा पुरक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ / असंखिजा वा अणंता वा / एवं तेइंदियत्तेवि नवरं पुरक्खडा वाणमंतरजोइ सिया जहा नेरइए। सोहम्मगदेवेवि जहा नेरइए चत्तारिवा अट्ठ वा वारस वा संखिज्जा वा असंखिञ्जा वा अर्णता नवरं सोहम्मगदेवस्स विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवत्ते वा। एवं चरिंदियत्तेवि नवरं पुरक्खडा छ वा वारस वा अट्ठारस केवइया अतीता? कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि वा संखिज्जा वा असं खिज्जा वा अणंता वा / अट्ठ के वतिया बद्धेल्लगा णत्थि, के वतिया पुरक्खडा पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते जहा असुरकुमारत्ते। मणुस्सत्ते वि कस्स अत्थि कस्सइ णत्थि जस्स अस्थि अट्ट वा सोलस एवं चेव नवरं केवइया पुरक्खडा अट्ठवा सोलस वा चउवीसं वा वा / सस्वट्ठसिद्धदेवत्ते जहा ने रइयस्स एवं जाव संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, सव्वेसिं मणुस्सवजाणं | गेवेज्जगदेवस्य सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते ताव नेयव्वं / एगमेगस्सणं पुर क्खडा मणुस्सत्ते कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थित्ति एवं न भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स नेर इयत्ते वुबइ। वाणमंतरजोइसियसोहम्मगजाव गेवेज्जगदे वत्ते अतीता केवइया दविया अतीता? गोयमा ! अणंता, के वइया अणंता। बद्धेल्लगानत्थि। पुरक्खडा कस्स अत्थिकस्सनत्थि | बद्धेल्लगा ? णत्थि, केवतिया पुरक्खडा? नत्थि / एवं जस्स अस्थि अटुं वा सोलसं वा चउवीसं वा संखिज्जा वा | जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ते / मणुस्सत्ते अणंता Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 580 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय - अतीताबद्धल्लेगा णत्थि, पुरक्खडाअट्ठवा सोलसवाचउवीसं वा संखेजा वा / वाणमंतरजोइसियत्ते जहा ने | रइयत्ते / सोहम्मदेवत्ते अतीता अणंता बद्धेल्लगा अस्थि पुरक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि अट्ठ वा सोलस वा चउवीसं वा संखेमा वा / एवं जाव गेवेग्जगदेवत्ते विजयवेजयंतजयंत अपराजितत्ते अतीता कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि अट्ठ। केव तिया बद्धेल्लगा अट्ट, के वतिया पुरक्खडा कस्स अस्थि कस्स नत्थि जस्स अत्थि अट्ठ / एगमेस्स णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवस्स सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते / के वइया दविदिया अतीता? गोयमा ! णत्थि / के वतिया बद्धेल्लगा णत्थि, केवतिया पुरक्खडा कस्सइअस्थि कस्सइणत्थि जस्स अस्थि अट्ठ। एगमेगस्सणं भंते। सव्वट्ठसिद्धदेवस्स नेरइयत्ते केवतिया दटिवदिया अतीता ? गोयमा ! अणंता / केवइया बद्धेल्लगा नत्थि, पुरक्खडा नत्थि / एवं मणुस्सवजं जाव गेवेअगदेवत्ते मणुस्सत्ते अतीता अणंता, केवइया बद्धेल्लगा नत्थि। केवइया पुरक्खडा अट्ट विजयवेजयंतापराजिय देवेत्ते अतीता कस्सइ अत्थि कस्सइनत्थि, जस्स अस्थि अट्ठा केवइया बद्धेल्लगा? णस्थि / केवइया पुरक्खडा? णत्थि एगेमगस्स णं भंते ! सव्वट्ठसिद्ध देवस्स सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते के वइया दविंदिया अतीता? गोयमा ! अस्थि केवइया बद्धेल्लगा? अट्ठ। केवइया पुरक्खडा, नस्थि / नेरइयाणं भंते ? नेरइयत्ते के वइया दविदिया-अतीता? गोयमा ! अणंता। केवइया बद्धेल्लगा? असंखेजा। केवइया पुरक्खडा ? अणंता / नेरइयाणं मंते ! असुरकुमारत्ते केवतिया दविदिया अतीता? गोयमा! अणंता। केवइया बद्धेल्लगा ? नत्थि, केवइया पुरक्खडा ? अणंता / एवं जाव गेविजगदेवत्ते / नेरइयाणं भंते ! विजयवेजयंत जंयतापराजियदेवत्ते केवइया दविदिया अतीता ? नत्थि / केवतिया बद्धेल्लगा? नत्थि, केवइया पुरक्खडा? असंखेजा। एवं सव्वट्ठसिद्धदेवत्तेवि एवं जाव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते भाणियवं / नवरं वणस्सइ काइयाणं विजयवेजयंतजयंतापराजियदेवत्ते सव्वट्ठसि द्धदेवत्ते य पुरक्खडा अणंता। सवेसिंमणुस्ससव्वट्ठसिद्धगवजाणं सहाणं बद्धेलगा असंखेखा परहाणे बद्धेल्लगानस्थि। मणुस्साणं भंते ! नेरइयत्ते अतीताअणंता। बद्धेल्लगानत्थिा पुरक्खडा अणंता। एवं जाव गेविजदेवत्ते नवरं सहाणे अतीता अणंता। बद्धेल्लगा सिय संखिजा सिय असंखिजा। पुरक्खडा अणंता। मणुस्साणं भंते ! विजयवेजयंतजयंतापराजितयदेवत्ते केवतिया दविदिया अतीता? गोयमा ! संखिजा दविदिया अतीता केववतिया बद्धेल्लगा नत्थि, केवतिया पुरक्खडा सिय संखिजा सिय असंखिजा। एवं सव्वट्ठसिद्धेवत्ते विवाणमंतरजोइसियाणं देवाणं एवं चेव सोहम्मदेवाणं एवं चेव नवरं विजयवेजयंतजयंता पराजियदेवत्ते अतीता असंखेजा बद्धल्लेगा नत्थि, पुरक्खडा असंखिजा / सव्वट्ठसिद्धदेवत्ते अतीता नस्थि बद्धेल्लगा नत्थि पुरस्खडा असं खिज्जा / एवं जाव गेविजदेवाणं / विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं देवाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया दविदिया अतीता ! गोयमा ! अणंता / केवइया बद्धेल्लगा नत्थि / के वइया पुरक्खडाणस्थि / एवं जाव जोइसियत्ते नवरं एसिं मणुस्सत्ते अतीता अणंता केवइया बद्धेल्लगानत्थि, पुरक्खडा असंखेजा। एवं जाव गेवेग्जगदेवत्ते सहाणे अतीता असंखेजा। केवइया बद्धेल्लगा असंखेमा / केवइया पुरक्खडा असंखेजा / सव्वदृसिद्धगदेवत्ते अतीता णस्थि, बद्धेल्लगा णत्थि, पुरक्खडा असंखेजा / सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते।नेर इयत्ते केवइया अतीता? गोयमा! अणंता, केवइया बद्धेल्लगा णत्थि। केवइया पुरक्खडानस्थि। दारं कतिणं भंते! भाविंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंचभाविंदिया पण्णत्ता तंजहा-सोइंदिए जाव फासिंदिए / नेरइयाणं भंते ! कइ भाविंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंच माविंदिया पण्णत्ता, तुंजहा-सोइंदिए जाव फासिंदिए / एवं जस्स इंदिया तस्स तत्तिया भाणियध्वा / जाव वेमाणियाणं / / एगमेगस्स णं मंते ! नेरइयस्स के वइया भाविंदिया असीता गोयमा ! अणंता। केवइया बद्धेल्लगा पंच / केवइया पुरक्खडा पंच वा दस वा एकारस वा संखेजजा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। एवं असुरकुमारस्स वि नवरं पुरक्खडा पंच वा दस वा छ वा संखेज्जा वा असंखेला वा अणंता वा अणंता वा / एवं जाव थणियकुमारस्स / एवं पुठविकइया आउकाइया वणस्सइकाइस्स वि। वेइंदिया-तेइंदियचउरिदियस्सदि। तेउकाइयवाउकाइयस्स वि।एवं चेव नवरं पुरक्खडाछवासत्त वा संखिया वा असंखिजा वा अणंतावा। पंचिंदियतिरिक्खोणियस्सजाव ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स। नवरं मणुस्सस्स पुरक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइनस्थित्ति भाणियव्वं / सणंकुमार जाव गेवेगस्स जहा नेरइयस्स / विजय-वेजयं त-जयंतअपराजियदेवस्स अतीता। अणंताबद्धेल्लगा पंच, पुरक्खडा पंच वा दस वा पन्नरस वा संखिजा वा। सव्वट्ठसिद्धग-देवस्स अतीता, अणंता, बद्धेल्लगा पंच, केवइया पुरक्खडा पंच / नरेइयाणं भंते ! के वइया भावि दिया अतीता ? Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 581 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय गोयमा ! अणंता, केवइया बद्धल्लगा असंखेडा, केवइया पुरक्खडा अणंता / एवं जहा दविदियासु पोहत्तेणं दंडओ मणिओ तहा भाविदिएसु पोहत्तेण दंडओ माणियप्वो / नवरं वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगावि अणंता॥ एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया भाविंदिया अतीता ? गोयमा ! अंणता, बद्धेल्लगा पंच,पुरक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइनत्थि जस्स अस्थिपंच वादसवापन्नरस वा संखेजावा असंखेजावा अणंता वा / एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं / नवरं बद्धेल्लगा नत्थि | पुढाविकाइयत्ते जाव बेइंदियत्ते जहा ददिवदिया, तेइंदियत्ते तहेव नवरं पुरक्खडा तिण्णिवाछवानव वा संखेजा वा असंखेना वा अणंता वा। एवं चउरिदियत्ते वि नवरं पुरक्खडा चत्तारिवा अहवाबारस वा संखेखावा असंखेडा वाअणंता वा। एवं तेचेव गमोचत्तारिनेयव्वो,जेचेव दटिवदिएस नवरं ततिय-गमो जाणियटवो, जस्स जइ जे इंदिया ते पुरक्खडे सु मुणेयटवा, चउत्थगमो जहे व दविदिया जाव / सबह सिद्धगदेवाणं सवठ्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया भार्विदिया अतीता / नत्थि / बद्धेल्लगा संखेजा पुरक्खडा नस्थिति। (एगमेगस्सणं भंते नेरइयस्स नेरइयत्ते इत्यादि कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थित्ति) यो नरकादुद्वृत्तो भूयोऽपि नैरयिकत्वं नावाप्स्यति तस्य न भवन्ति यस्त्ववाप्स्यति तस्य सन्ति सोपि यद्येकवारमागामी ततोऽष्टी द्वौ वारी चेत्तर्हि पोशड यदि वा त्रीश् वारान् ततश्चतुर्विंशतिसंख्येयानि वारान् आगामी न संख्येयानीत्यादि मनुष्यत्वचिन्तायां कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि इति न वक्तव्यं मनुष्यागमनस्यावश्यंभावित्वात् ततो जधन्यपदेऽष्टौ / उत्कर्षतोऽनन्तानीति वक्तव्यं विजयवेजयंत जयंतापराजितचिन्तायामी तानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्ति कस्मादिति चेदुच्यते इह विजयादिषु चतुर्युगतोजीवो नियमात्तत उद्त्तोनजातुचिदपि नैरयिकादिपञ्चेन्द्रियतिर्यक् पर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु मध्ये समागमिष्यति तथा स्वाभाव्यान्मनुष्येषुसौधर्मादिषु वा गमिष्यति तत्रापि जघन्यतएकं द्वौ वा भवानुत्कर्षतः संख्येयान्न पुनरसंख्येयाननन्तान्वा ततो नैरयिकस्य विजयादित्वे अतीतानि द्रव्येन्द्रियाणि न सन्तीत्युक्तं पुरस्कृतान्यष्टौ षोडश वा विजयादिषु द्विरुत्पन्नस्यानन्तरभवे नियमतो मोक्ष गमनात् / एवं यथा नैरयिकत्वादिषु चतुर्विंशतौ स्थानेषु चिन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनामपि प्रत्येकं कर्तव्या / पूर्वोक्तभावनानुसारेण स्वयमुपयुज्य परिभावनीया भावेन्द्रिय-सूत्राण्यपि सुगमान्येव केवलं द्रव्येन्द्रियगतभावनानुसारेण तत्र भावना भावयितव्या इति / प्रज्ञा० 15 पद। तत्र यानिद्रव्येन्द्रियाणि तानि जीवानां पर्याप्तौ सत्त्यां भवन्ति यानिच भावेन्द्रियाणि तानि संसारिणां सर्वावस्थाभावीनीति-तं. (2) इन्द्रियाणां बाहुल्य-पृथक्तप्रदेशावगाहना-स्तद्धा तवेदना च॥ तब बाहुल्यादि यथासोइंदिए णं भंते ! के वइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजइभागे बाहल्लेणं पण्णत्ते एवं फासिदिए (सो इंदिएणं भंते! केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते इत्यादि) इदमपि पाठसिद्धं उक्तश्चायमर्थोऽन्यत्रापि "बाहल्लतो य सव्वाइं अंगुलअसंखेजभागमिति" अत्राह-यघड्गुलस्यासंख्येयभागो बाहुल्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य ततः कथं खङ्गारिकाद्यभिधाते अन्तःशरीरस्य वेदनानुभवः तदेतदसमीचीनं सम्यग् वस्तुतत्त्वा परिज्ञानात्त्वगिन्द्रियस्य विषयः शीतादयः स्पर्शाः यथा चक्षुषो रूपं गन्धो घ्राणस्य स्पर्दनं च खङ्गारिकाद्यभिघाते अन्तः शरीरस्य शीतादिस्पर्शवेदनमस्ति किन्तु के वलं दुःख वेदनं तच्च दुःख-रूपवेदनामात्मा सकलेनापि शरीरेणानुभवति न केवले न त्वगिन्द्रियेण ज्वरादिवेदनावत् ततो न कश्चिद्दोषः अथ शीतल-पानकादिपाने अन्तःस्पर्शवदनाप्यनुभूयतेततः कथंसा घटा-मटाट्यते इति उच्यते-इहत्वगिन्द्रियं सर्वत्रापि प्रदेशपर्यन्तवर्त्ति विद्यते तथा पूर्वसूरिभिः व्याख्यानात्तथा चाह मूलटीकाकारः सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वाच त्वचोभ्यंतरोऽपि शुषिरस्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यतेततः शीतस्पर्शवेदनानुभवः / / प्रज्ञा०१५ पद (तदृधातवेदनापिलेशतोव्याख्याता) (3) इन्द्रियाणां पृथुत्वं तदवगाहनाच। पृथुत्वविषयं सूत्रमाह।। सोइंदिए णं भंते ! केवइयं पोहत्तेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजइमागे पोहत्तेणं पण्णत्ते एवं चक्खिदिए घाणिदिए वि जिम्मिदिएणं पुछा, गोयमा! अंगुलपुहत्तेणं पण्णत्ते फासिदिएणं पुच्छा, गोयमा ! सरीरममाण मेत्तेणं पण्णते। (पोहत्तेणं पण्णत्ते इत्यादि) इह पृथुत्वं स्पर्शनिन्द्रियव्यति रेकेण शेषाणामिन्द्रियाणामात्माङ्गुलेन प्रतिपत्तव्यं स्पर्शनेन्द्रियस्य उच्छ्यांगुलेन। ननु देहाश्रितानीन्द्रियाणि देहश्वोच्छ्याङ्गुलेन प्रमीयते "उस्सेहपमाणतो मिणसुदेहमितिवचनात्" ततः इन्द्रियाण्यप्युच्छ्या गुलेन मातुं युज्यन्ते / नात्मागुलेनेति / तदयुक्तम् जिहादीनामुच्छ्यांगुलेन पृथुत्वं प्रमिताभ्युपगमे त्रिगव्यूतीनां मनुष्यानां रसाभ्यवहारोच्छेद प्रसक्तेस्तथाहि-त्रिगव्यूतादीनां मनुष्यानां षड्गव्यूतादीनांच हस्त्यादीनांस्स्वशरीरानुसारितया अतिविशालानि मुखानि जिह्वाश्च ततो यधुच्छ्याङ्गुलेन तेषांक्षुरप्राकारतयोक्तस्याभ्यन्तरनिर्वृत्त्यात्मकस्य जिहेन्द्रियस्यागुलपृथुत्वलक्षणो विस्तारः परिगृह्यते तदाअल्पतथा नतत्सर्वं जिह्नांव्याप्नुयात् सर्व-व्यापित्वाभावे चयोऽसौ बाहुल्येन सर्वात्मना जिह्वाया रस-वेदनलक्षणप्रतिप्राणप्रसिद्धो व्यवहारः स व्यवच्छे दमाप्नुयादेवं घ्राणादिविषयेपि यथायोगं गन्धादिव्यवहारोच्छेदो भावनीयः तस्मादात्माङ्गुलेन जिहादीनां पृथुत्वमवसेयं नोच्छ्यांगुलेनेति। आह च भाष्यकृतः "इन्द्रियमाणे विणय, भणियज्जं जंति गाउयाईणं / जिभिदियाइमाणं, संववहारं विरुज्झेज्जा" अस्या अक्षरगमनिका तत उच्छ्यांगुलमिन्द्रियमानोपि आस्ता मि-न्द्रियविषयपरिणाम चिन्तायामित्यपिशब्दार्थः। भजनीयं विकल्पनीयं क्वापि गृह्यते इत्यर्यः किमुक्तं भवति स्पर्शनेन्द्रिय पृथुत्वपरिणामचिन्तायां ग्राह्यमन्येन्द्रियपृथुत्वपरिणामचिन्तायां न ग्रां तेषामात्माङ्गुलेन परिणामकारणादिति कथ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 582 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय मेतदवसेयमितिचेदत आह यद्यस्मात्सर्वेषामपीन्द्रियाणा मुच्छ्याङ्गुलेन परिणामकारणम् त्रिगव्यूतादीनामादिशब्दात् द्विगव्यूतादि परिग्रहो | जिह्वेन्द्रियादिमानं सूत्रोक्तसंव्यवहारं विरुध्येत / यथानन्तरमेव भावितमिति। सम्प्रति कतिप्रदेशावगाहनोते प्रतिपादयति। सोइंदिए णं मंते ! कइ पदेसिए पण्णते ? गोयमा ! अणंतपदेसिए पण्णत्ते एवं जाव फासिंदिर सोइंदिए णं भंते ! कइ पदेसोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेज पदेसोगाढे एवं जाव फासिंदिए। (टीका न गृहीता) (4) इन्द्रियाणामल्पबहुत्वं तद्गुणाश्च / एते सिणं भंते ! सोइंदिय चक्खुइंदियघाणे दियजिम्भिदियफासिंदियाणं ओगाहणट्ठयाए पदेसट्टयाए ओगा हणपदेसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वागोयमा! सव्वत्थोवे चक्खिं दिए ओगाहणट्टयाए / सोइंदिय ओगाहणट्ठयाए संखिज्जगुणे / घाणिदिय ओगाहणट्ठयाए संखे जगुणे / जिभिदियओगाहणट्ठयाए संखिजगुणे / फासिंदिय ओगाहणट्ठयाए असंखेजगुणे / पदेसट्टयाए सव्वत्थोवे / चक्खिदिएपदेसट्टयाए सोईदिए पदेसट्टयाए संखेनगुणे / घाणिदिए पदेसट्टयाए संखेज्जगुणे / जिन्भिदिएपदेसट्टयाए / संखेज्जगुणे / फासिंदियपदेसट्टयाए असंखेजगुणे / ओगाहणपदेसट्टयाए सम्वत्थोवे / चक्खिदिए ओगाहणपदेसट्टयाए सोइंदिए ओगाहणट्टयाए संखेनगुणे। पाणिदिए ओगाहणट्ठयाए संखेज्जगुणे। जिभिदिए ओगाहण-ट्टयाएसंखेनगुणे फासिंदिए ओगाहणट्ठयाए अ-संखेनगुणे / फासिदिंयस्स ओगाहणट्ठयाएहिंतो चक्खिदिएपदेसट्टयाए अणंतगुणे / सोइंदिए। पदेसट्टयाए संक्खिजगुणे। घाणिदिए पदेसट्टयाए संखिजगुणे। जिभिदिए पदेसट्टयाए संखेनगुणे फासिंदिए पदेसट्टयाए असंखिजगुणे। (एएसि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोकं चक्षुरिन्द्रियमवगाहनार्थतथा किमुक्तं भवति सर्वस्तोकप्रदेशावगाढं चक्षुरिन्द्रियं ततः श्रोत्रेन्द्रियमवगाहनार्थतथा संक्षेपगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यऽवगाहनाभावात् ततोऽपि घ्राणेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाहनोपपत्तेस्ततोऽपि जिह्वेन्द्रियमवगाहनार्थतया असंख्येयगुणं तस्याङ्गुल-पृथक्त्वपरिमाणविस्तारात्मकत्वात् यस्तु दृश्यते पुस्तकेषु पाठः संख्येयगुण इति सोऽपि पाठो युक्तयुपपन्नत्वात्तथाहिचक्षुरादीनित्रीण्यपीन्द्रियाणि प्रत्येकमगुलासंख्येयभागविस्ता-रात्मकानि जिह्वेन्द्रियं त्वगुलासंख्येयपृथक्त्वविस्तार-मतोऽसंख्येयगुणमेव तदुपपद्यते नतु संख्येयगुणमिति ततः स्पर्शनेन्द्रियमसंख्येयगुणम् / तथा ह्यङ् गुलपृथक्त्वप्रमाणविस्तारं जिह्वेन्द्रियंप्रथक्त्वं द्विप्रभृत्या नवभ्यः स्पर्शनन्द्रियं तु शरीर प्रमाणमिति सुमहदपि तदुपपद्यते संख्येयगुणमिति / यस्तु बहुषु पुस्तकेषु दृश्यते पाठोऽसंख्येयगुणमिति सोऽपपाठो युक्ति-विकलत्वात् / तथा ह्यात्माङ्गुलप्रथक्त्वपरिणामं जिह्वे न्द्रियं शरीरपरिमाणं तु स्पर्शनेन्द्रियशरीरमुत्कर्षतोऽपिलक्षयोजनप्रमाणं ततः कथमसंख्येयगुणमुपपद्यत इति। अनेनैव क्रमेण प्रदेशा-र्थतयापि सूत्रम् भावनीयम्। उक्तप्रकारेणैव चोभयसूत्रमपि। इदानी मिन्द्रियगुणविषयकं सूत्रमाह। सोइंदियस्सणं भंते ! केवतिया कक्खडगरुयगुणा पणत्ता? गोयमा ! अणंता कक्खडगरुयगुणा प.एवं जाव फासिंदियस्स सोइंदियस्स णं भंते ! के वइया मउयलहुयगुणा पणत्ता ? गोयमा ! अणंता / एवं जाव फासिंदियस्स, एतेसि णं भंते ! सोइंदियचक्खिदियघाणिदिय जिभिदिय फासिंदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कक्ख-डगरुयगुणमउयलहुगुणाणय कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा.? गोयमा ! सम्वत्थो वा चक्खिदियस्स कक्खडगरुयगुणा। सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / धाणिंदियस्स- कक्खडगुरुयगुणा अणंतगुणा / जिम्भिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / फासिदियस्स कक्ख-डगरुयगुणा अणंतगुणा / मउयलहुयगुणाणं सव्वत्थो वा फासिंदियस्स मउयलहुयगुणा जन्मि-दियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / घाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / सोइंदियस्स मउय-लहुयगुणा अणंतगुणा / चक्खिदियस्स मउयलहुय-गुणाअणंत गुणा / कक्खडगरयगुणाणं मउयलहूय गुणाण य सवत्थो वा चक्खिदियस्स कक्खडगरुयगुणा / सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / घाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / जिभिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा / फासिंदियस्स कक्खडगरुयहिंतोतस्सचेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा। जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / धाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / सो-इंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / चक्खिदियस्स महुयलहुयगुणा अणंत गुणा। यानि कर्कशगुरुगुणादि सूत्राणि तानि पाठसिद्धानि नवर मल्पबहुत्वे चक्षुःश्रोत्रघ्रायणजिह्वार्पशनेन्द्रियाणां यथोत्तरं कर्कशगुरुगुणा अमीषामेव च पश्चानुपूर्त्यां यथापूर्व मृदुलघुगुणा अनन्तगुणास्तथैव यथोत्तरं कर्कशतथा यथापूर्वं चातिकोमलतयोपलभ्यमानत्वात्युगपदुभयाल्पबहुत्वसूत्रे फासिंदिय-कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा इति सरीरेहिं कति पया एव, प्रदेशा उपरि वर्तिनः शीतातपादिसम्पर्कतः कर्कशा वर्तन्ते। अन्ये तुबहवः तदन्तर्गता अपि मृदव इतिघटन्ते। स्पर्शनेन्द्रियस्य कर्कशगुणेभ्यो मृदुलधुगुणा अनन्तगुणा इति। प्रज्ञा०१५ पद। (5) अमून्येव संस्थानादीन्यल्पबहुत्वपर्यन्तानि द्वाराणि नैरयिकादिकेषु चिन्तयति।। नेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पण्णत्ता ! गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता तंजहा सोइंदिए जाव फासिं दिए / नेरइया Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 583 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय णं भंते ! सोइंदिए किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! कलं बुयासंठाणसंठिए पण्णत्ते / एवं जहा ओहिया वत्तव्वयो भणिया तहेव नेरइयाणं पि अप्पा वा बहुया वादोण्णिवि नवरंनरइयाणं मंते ! फासिंदियस्स किं संठिए पण्णत्ते गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा भवधारिणिज्जे य उत्तर वेउदिवए य तत्थ णं जेसे भवधारिणिज्जे सेणं हुंडगसंठाण संठिए तत्थ णं जे से उत्तर विउविएते चेव सेसंतं चेव। असुरकुमाराणं भंते ! कइइंदिया पण्णत्ता ? गोयमा! पंचिंदिया पण्णत्ता एवं जहा ओहियाणं जाव अप्पाबहुगाणि दोणि विनवरं फासिंदिए दुविहे पण्णत्ते तं जहा भव धारिणिज्जे उत्तरवेउदिवए य तत्थणं जे ते भवधारिणिज्जे से णं समचउरससंठाणसंठिए पण्णत्ते तत्त्थणजे ते उत्तरवेउविए सेणं नाणासंठाणसंठिए सेसंतंचेव एवं जाव थणियकुमाराणं। पुढविकाइयाणं भंते ! कइ इंदिया पण्णता ? गोयमा ! एगे फासिंदिए पण्णत्ते पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए किं संठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! मसरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते पुढविकाइयाणं फासिदिए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते पुढबिकाइयाणं फासिं दिए के वइयं पोहत्तेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्तेणं पण्णत्ते पुढविकाइयाणं फासिंदिए कतिपदेसे पण्णत्ते ? गोयमा ! अणंतपदेसिएपण्णत्ते पुढविकाइयाणं भंते ! फासिं दिए कह पदे सोगाढे पण्णते ? गोयमा ! असंखेज्जपदेसोगाढे पण्णत्ते एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स ओगाहणट्ठयाए पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा? गोयमा! सव्वत्थो वा पुढविकाइयाणं फासिंदिए ओगाहणट्टयाए तेचेव पदेसट्टयाए अणन्तगुणे। पुढविकायियाणं भंते ! फासिंदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता एवं मउयलहुयगुणा वि एतेसि णं भंते ? पुढ विकाइयाणं फासिं दियस्स कक्खड गरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्थो वा पुढविकाइयाणं फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा एवं आउक्काइयाणं विजाव वणस्सइकाइयाणं नवरं संठाणे इमो विसेसो दहटवो आउकाइयाणं वि वुगविंदुसंठाणसंठिएपण्णत्ते / तेउकाइयाणं सूइकला-पसंठाणसंठिए पण्णत्ते। वाउकाइयाणं पडागारसंठाण संठिए पण्णत्ते / वणस्सइकाइयाणं णाणासंठाण संठिए पण्णत्ते / बेइंदियाणं भंते ! कइइंदियां पण्णत्ता ! गोयमा ! दो इंदिया पण्णत्ता तंजहा जिम्मिदिए य फासिंदिए य दोण्हं पि इंदियाणं संठाणं बाहल्लं पोहत्तं पदेस ओगाहणा य जहा ओहियाणं भणिया तहा भाणियवा नवरं फासिं दिए हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते इमो विसेसो एतेसिणं मंते ! बेइंदियाणं जिभिदियफासिं दियाणं ओगाहणट्ठयाए पदे सहयाए उगाहणपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4 ? गोयमा। सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिभिदिए ओगाहणट्ठयाए फासिंदिए ओगाहणट्ठयाए असंखेजगुणे पदेसट्टयाए सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिभिदिए पदेसहयाए फासिंदियपदेसट्टयाए असंखेनगुणे ओगाहणपदेसट्टयाए सम्वत्थोवे बेइंदियस्स जिभिदिए ओगाहणट्टयाए फासिं दिय ओगाहणट्ठयाए असंखेजगुणे फासिंदियस्स ओगाहणट्ठयाएहितो जिभिदियपदेसठ्ठयाए अणंतगुणे फासिंदिएपदेसट्टयाए असंखेज्जगुणे बेइंदियाणं भंते / जिभिदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा प.? गोयमा ! अणंता एवं फासिंदियस्स वि एवं मउयलहुयगुणा वि एतेसि णं बेइंदियाणं जिम्मिदियफासिंदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाण य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा 4? गोयमा ! सध्वत्थो वा बेइंदियाणं जिम्मिदियस कक्खडगरुयगुणा फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणेहितो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अर्णतगुणा जिम्भिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा एवं जाव चउरिदियत्ति नवरं इंदियपरिवुद्धिकायव्वा तेइंदियाणं घाणिदिए थोवे चाउरिदियाणं चक्खिदिए थोवे सेसं तं चेव / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा नेरइयाणं नवरं फासिंदिए छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते तंजहा समचउरंसोणिग्गोहपरिमंडले सादिखुजे वामणे हुंडे वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुर कुमाराणं // नेरइयाणं भंते! इत्यादि।सुगमनवरं नेरइयाणं भंते फासिदिए किंसंठिए पन्नत्त इत्यादि। द्विविधं हि नैरयिकाणां शरीरं भवधारणीयमुत्तरवैक्रिय चतत्र भवधारणीयं तेषां भवस्वभावत् एव निर्मूलं विलुप्तपक्षोत्पादितसकलग्रीवादिरोमपक्षशरीर-वदतिबीभत्ससंस्थानोपेतं यदप्युत्तरवैक्रिय तदपि हुण्डसंस्थानमेव तथाहि यद्यपि तेवयमतिसुन्दर शरीरं विकुर्विष्याम इत्यभिसन्धिना वैक्रियशरीरमारभन्ते तथापि तेषां अत्यन्ताशुभं तथाविध-नामकर्मोदयादतीवाशुभतरमेवोपजायते इति असुरकुमारसूत्रे, भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानं तथा स्वाभाव्यात् उत्तरवैक्रियन्तु नानासंस्थितं स्वेच्छया तस्य निष्पत्तिभावात् प्रथिव्यादिविषयाणि तु सूत्राणि सुप्रतीतान्येव प्रज्ञा०१५ पद।। (6) इन्द्रियाणां च वर्तमानार्थग्राहकत्वम् अत्थे य पडुप्पण्णे, विणियोगे इंदियं लहइ। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 584 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय इन्द्रिय पुनश्चक्षुरादिकं विनियोग व्यापार लभते प्रत्युत्पन्ने वर्तमानार्थविषयं नातीतानागतार्थविषयमिति भावः // वृ०१ उ.। इन्द्रियं हि वार्त्तमानिक एवार्थे व्याप्रियते तत स्तत्सामर्थ्या-दुपजायमानं मानसमपि ज्ञानमिन्द्रियज्ञानमिव वर्तमानार्थग्रहण-पर्यवसितसत्ताकमेव भवेत्। अथ यदा चक्षुरूपविषये व्याप्रियते तदा रूपविज्ञानमुत्पादयतिन शेष कालं ततस्तद्रूपविज्ञानं वर्तमानार्थविषयं वर्तमान एवार्थे चक्षुषो व्यापारात् स्वरूप-विषयव्यावृत्त्यभावे च मनोज्ञानं ततो न तत् प्रतिनियतकालविषय-मेवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु वाच्यमानं०।। (7) श्रोत्रेद्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपादयिषुरादौ विषयांस्तद्ग्रहणप्रकारचाह // *दोहिं ठाणेहिं आया सहाइंसुणेइतं देसेण वि आया सहाई सुणेइ सव्वेण वि आया सहाई सुणेइ एवं रूवाइं पासइ गंधाई आघायइ रसाइं आसाएइ फासाई पडि संवेएइ।।* (देशेणवित्ति) देशेन शृणोत्येकेन श्रोत्रेणैकश्रोत्रोपघाते सति सर्वेण वा ऽनुपहतश्रोत्रेन्द्रियो यो वा संभिन्नश्रोत्राभिधानलब्धियुक्तः स सर्वरिन्द्रियैः शृणोतीति सर्वेणेति व्यपदिश्यते एवमिति यथा शब्दान् देशसर्वाभ्यां एवं रूपादी नपि नवरं जिह्लादेशस्य प्रसुप्त्या-दिनोपघाताद्देशेनास्वाद यतीत्यवसेयमिति। देशसर्वाभ्यां सामान्यतः श्रवणायुक्तं विशेषविवक्षायां प्रधानत्वात् देवानां तानाश्रित्य तदाह। दोहिं ठाणेहि देवे सदाइं सुणेइ तंजहा देसेण वि देवे। सहाई सुणेइ सवेण विसद्दाई सुणेइ जाव णिचरेइ॥ (दोहीत्यादि) एतदपि विवक्षितशब्दादिविशेषापेक्षया सूत्रचतुर्दशकं नेयमिति देशतः सर्वतो वेति अनन्तरोक्ता भावाः शरीर एव सति सम्भवन्तीति देवानां च प्रधानत्वात्तेषा मेव। स्था०२ ठा०। पुट्ठाई भंते ! सहाई सुणेह अपुटाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ नो अपुट्ठाई सहाई सुणेइ पुट्ठाई भंते ! रूवाई पासंति अपुट्ठाई रूवाइं पासंति ? गोयमा ! नो पुट्ठाई रूवाई पासंति अपुट्ठाई रूवाई पासंति पुट्ठाई भंते ! गंधाई अग्धाति अपुट्ठाइं गंधाइं अग्घाति ? गोयमा ! पुट्ठाइं अग्याइनो अपुट्ठाई अग्घाइ। एवं रसाण विफासाण विनवरं रसाइं आस्साइ फासाइं पडिसंवेदेति अभिलाओ कायवो।। (सद्दाइंसुणेइ इत्यादि) प्राकृतत्वात्सूत्रशब्दशब्दस्य नपुंसकत्वमन्यथा पुंस्त्वं प्रतिपत्तव्यं / स्पृष्टान् भदन्त ! श्रोत्रेन्द्रि-यमिति कर्तृपदं सामर्थ्याल्लभ्यते।शब्दान् शृणोति तत्र स्पृश्यन्ते इति स्पृष्टास्तान्तनौ रेणुमिवालिङ्गितमात्रानि त्यर्थः "पुढे रेणुं व तणुंमि'' इति वचनात् शब्द्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते अर्था एभिरिति शब्दाः तान् शृणोति गृण्हाति उपलभ्यते इति यावत्। विमुक्तं भवति। स्पृष्टमात्राण्यत्र च शब्द द्रव्याणि श्रोत्रेन्द्रियमुपलभन्ते। न तुघ्राणेन्द्रियादिवत् बद्धस्पृष्टानीति कस्मादिति चेदुच्यते इह शब्दद्रव्याणि घाणेन्द्रियादिविषयभूतेभ्योद्रव्येभ्यः सूक्ष्माणि / तथा नि तथा तत्क्षेत्रभाविशब्दयोग्यद्रव्यवासकानि च ततः सूक्ष्मत्वादतिप्रभूतत्वात् तदाऽन्यद्रव्यवासक त्वाचात्मप्रदेशः स्पृष्ट मात्राण्यपि निवृत्तेन्द्रियमध्ये प्रविश्य झटित्युपकरणेन्द्रियमभिव्यञ्जयन्ति / श्रोत्रेन्द्रियं च घाणेन्द्रियाधपेक्षया | स्वविषयपरिच्छेदे पढ़तरंततःस्पृष्टमात्राण्यपितानि श्रोत्रे-न्द्रियमुपलभंते नास्पृष्टान् सर्वथात्मप्रदेशैः संबन्धमप्राप्तान् श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्तविषयपरिच्छेदस्वभावात् यथा च श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्तकारितातथा नन्द्यध्ययनटीकादौ चर्चितमिति ततोऽवधार्यम् (पुट्ठाई भंते ! रूवाई इत्यादि)।। सुगमं निर्वचनमाह / गौतम ! न स्पृष्टानि रूपाणि पश्यति चक्षुः किन्त्वस्पृष्टानि चक्षुषोऽ-प्राप्तिकारित्वाच्च तचाप्राप्तिकारित्वं तत्त्वार्थटीकादौ सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोवधारणार्थ गन्धादि विषयाणि सूत्राणि सुप्रसिद्धानि नवरं स्पृष्टान् गन्धानाजिघूतीत्यादियद्यप्युक्तं तथापि बद्धस्पृष्टानीति द्रष्टव्यम् यत उक्तमावश्यकनियुक्ती (पुढे सुणेईत्यादि) तत्र स्पृष्टानीतिपूर्ववत् बद्धानितिआत्मप्रदेश रात्मीकृतान् “बद्धमप्पीकथं पएसेहिं" इति वचनात्-विशेषणसमासश्च बद्धाश्च ते स्पृष्टाश्च बद्धस्पृष्टास्तान् इहस्पष्टास्पर्शमात्रेणापि भवन्ति / यथा शब्दस्ततः स्पर्शमात्रव्यवच्छेदेन स्पर्शविशेषप्रतिपत्तिरव्याहता स्यादिति बद्धग्रहणं बद्धरूपा ये स्पृष्टास्तान् परिच्छिनत्ति नान्यानि कस्मादेवमितिचेदुच्यते गन्धादि द्रव्याणां बादरत्वादल्पत्वादभावकत्वाचघाणादीन्द्रियाणामपि श्रोत्रेन्द्रियापेक्षया मन्दशक्तिकत्वादिति। प्रज्ञा पद०१५। इन्द्रियाणां प्राप्याऽप्राप्यकारित्वम् / चत्तारि इंदियत्था पुट्ठा वेति। तंजहा। सोइंदियत्थे। घाणिंदियस्थे२ जिभिदियत्थे३फासिंदियत्थे। (पुट्ठत्ति) स्पष्टा इन्द्रियसंबद्धा (वेएतित्ति) वेद्यन्ते आत्मना ज्ञायन्ते नयनमनोवर्जानां श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थपरिच्छेदस्वभावत्वादिति / / स्था४ ठा आह च॥ पुढे सुणेइ सह, रूवं पुण पासई अपुढे तु // गंध रसं च फासंच, बद्धपुट वियागरे ||1| श्रोत्रेन्द्रियां कर्तृशब्दं कर्मतापन्नं शृणोति। कथंभूतमित्याह / / स्पृशत इति स्पृष्टस्तं स्पृष्ट तनौ रेणुवदालिङ्गितमात्रमित्यर्थः / इदमुक्तं भवति स्पृष्टमात्राण्येव शब्दद्रव्याणि श्रोत्रमुपलभन्ते यतो घ्राणादीन्द्रियविषयभूतद्रव्येभ्यस्तानि सूक्ष्माणि बहूनि भावुकानि च पटुतरं च श्रोत्रेन्द्रियंविषयपरिच्छेदे घ्राणेन्द्रियादिगणादिति श्रोत्रेन्द्रियस्य च कर्तृव्यं शब्दश्रवणा न्यथानुपपत्तेर्लभ्यते / एवं घ्राणेन्द्रियादिष्वपि वाच्यम् तानि पुनः कथं गन्धादिकं गृ-ण्हन्तीत्याह / गन्ध्यत इति गन्धस्तमुपलभते व्राणेन्द्रियम्। रस्यत इति रसस्तं च गृण्हाति रसनेन्द्रियम् स्पृशतं इति स्पर्शस्तं च जानाति स्पर्शनेन्द्रियम् / कथंभूतं गन्धादिकमित्याह / बद्धस्पष्टं तत्र स्पृष्टमितिपूर्ववदेव बद्धं तु गाढतरमाश्लिष्टमात्मप्रदेशस्तोयवदात्मीकृतमित्यर्थः / ततश्च गंधादिद्रव्यसमूह स्पृष्टमा-लिङ्गितं ततश्च स्पर्शनानन्तरं बद्धमात्मप्रदेशैर्गाढतर-भागृहीतमेवोपलभते घ्राणेन्द्रियादिकमित्येवं व्यागृणीयात् प्ररूपयेत् प्रज्ञापकः / यतो घ्राणेन्द्रियादिविषयभूतानिंगन्धादिद्रव्याणि शब्दद्रव्यापेक्षया स्तोकानि बादराण्यभावुकानि च विषयपरिच्छेदे श्रोत्रापेक्षया पटूनिच घ्राणादीन्यतो बद्धस्पृष्ट मेव गन्धादिद्रव्यसमूहं गृह्णन्ति न पुनः स्पृष्टमात्रमितिभावः ननु यदि स्पर्शनान्तरं बद्धं गण्हन्ति तर्हि 'पुट्ठबद्ध' मिति Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 585 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय पाठे युक्त इति चेदुच्यते। विचित्रत्वात्सूत्रगतेरित्थं निर्देशोऽर्थतस्तु यथा त्वयोक्तं तथैव द्रष्टव्यम्। अपरस्त्वाह। यद्वद्धतत्स्पृष्टं भवत्येव विशेषबन्धे सामान्यबन्धस्यान्तर्भावात् ततः किं स्पृष्टग्रहणेनेति तदयुक्तं सकल श्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्य प्रपञ्चितज्ञानग्रहार्थमापत्तिगम्यार्थाभिधानेऽप्यदोषादिति चतुरिन्द्रियं त्वप्राप्त-मेव विषय गृह्णातीत्याह "रूवं पुण पासइ अपुढे त्विति' रूपं कर्मतापन्नं च चक्षुरस्पृष्टमप्राप्तमेव पश्यति पुनः शब्दस्य विशेषणार्थत्वाद स्पृष्टमपि योग्यदेशस्थमेव पश्यतिनायोग्य-देशस्थसौधर्मादिकटकुड्यादिव्यवहितं वा घटादीति नियुक्तिगाथार्थः / / अर्थे तद्व्याख्यानाय भाष्यम्॥ पुढे रेणुंव तणुम्मि, बद्धमप्पीकयं पएसेहिं। छिक्काई चिय गिण्हइ, सहदव्वाइजुत्ताइं॥ बहुसुहुमभावुगाई,जं पड़यरयं व सोत्तंविण्णाणं। गंधाई दवाई, विवरीयाई जओ ताई। फरिसाणत्तरमत्तर, मत्तप्पए समीसीकयाई। घेप्पंति पटुयरविणाइं जंच न घाणाइकरणाई। स्पृष्टमित्यस्य व्याख्यानम्। (पुट्ठरेणुंवतणुम्मित्ति) यथा रेणोस्तनौ संबन्धः इत्येतावन्मात्रेण यद्वस्तु संबद्धं तदिह स्पृष्टमुच्यत इति भावः / / (बद्धमित्यादि) यदात्मीकृतमात्मना गाढतरमागृहीतमात्मप्रदेशस्तनुलग्नतोयवन्मिश्रीभूतं तद्वद्धमुच्यते इत्यर्थः। तत्र (छिक्काई चि) अतिस्पृष्टान्येव शब्दद्रव्याणि गृह्णाति श्रोतं यतस्तानि बहूनि सूक्ष्माणि भावुकानि च वासकानिचेत्यर्थः। पटुतरंच श्रोत्रविज्ञानं गन्धादिद्रव्याणितु विषरीतानि स्तोकबादराभावुकानि यतोऽतस्तानि स्पर्शानन्तरमात्मप्रदेशर्मिश्रीकृतानि स्पृष्टबद्धानि गृह्णान्ते / घ्राणादिभिः पटुतरविज्ञानानि च न भवन्ति यतो घ्राणादिकारणानीति गाथात्रयार्थः / अथ रूवं पुण पासइ अप्पुटुंत्वित्यत्रोपपत्तिमाह। "अप्पत्तकारिनयणं, णेयं नयणस्स विसयपरिमाणं। आयंगुलेण लक्खं, अइरित्तं जो अणाणतु" प्रागुक्तयुक्त्या अप्राप्तकारि अप्राप्तस्यैव वस्तुनः परिच्छेदकारियतो नयनमनश्च ततोऽस्पृष्टमेव रूपंपश्यति नयनेन्द्रियम्। विशे(अधिकं तु विस्तरभयान्न प्रपञ्च्यतेतत्तुतत्रैव दृष्टव्यम्) (8) सम्प्रतीन्द्रियाणाम्प्रविष्टाप्रविष्टविषयचिन्तां कुर्वन्नाह॥ पविट्ठाई भंते ! सद्दाइं सुणेइ अपविट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाई सुणेइ नो अपविट्ठाइं सुणेइ एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविठ्ठाणि॥ (सद्दाइं इत्यादि) पाठसिद्ध नवरं स्पर्शस्तनौ रेणोरिवाऽपि भवति। प्रवेशो मुखे कवलस्येवेति शब्दार्थस्य भिन्नत्वात् भिन्नविषयता स्पृष्टप्रविष्टसूत्राणामिति-प्रज्ञा०१५ पद०। (9) श्रोत्रलक्षणादिचतुरिन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं नयन मनसोस्त्वप्राप्यकारित्वम्। प्राप्तकारीणिन्द्रियाण्यप्राप्कारीणिवेति तत्र प्राप्तकारीण्ये वेति कणभक्षाक्षपादमीमांसकसाङ्ख्याः समाख्यान्ति / चक्षुः श्रोत्रेतराणि तानि तथेति ताथागताः। चक्षुर्वर्जानीति तुतथा स्याद्वादावदातहृदयाः। तत्र प्रथमे प्रमाणयन्ति। चक्षुःप्राप्त मर्ति करोति विषये बाटेन्द्रियत्वादितो। यदाोन्द्रियतादिना परिगतं तत्प्राप्तकारीक्षितं / / जिहावत् प्रकृतं तथा च विदितं तस्मात्तथा स्थीयतां। नाऽत्रासिद्धिमुखश्चदूषणकणस्तल्लक्षणानीक्षणात्।। अद्रिचन्द्रकलनेषु या पुनर्त्यांगपद्यधिषणा मनीषिणाम्। पद्मपत्रपटलीविलोपव-त्सत्वरोदयनिबन्धनैव सा / / 2 / / प्रथमतः परिसृत्य शिलोचयं निकटतः क्षणमीक्षणमीक्षते / तदनु दूरतराम्बरमण्डली तिलककान्तमुपेत्य सितत्विषम्।। कुर्महेऽत्र वयमुत्तरकेली कीदृशी दृगिह धर्मिमतयोक्ता। किन्तु मांसमयगोलकरूपा सूक्ष्मताभृदपरा किमु काऽपि / 4 / आदिमा यदि तदापि किमर्थों लोचनानुसरणव्यसनी स्यात्। लोचनं किमुत वस्तुनि गत्वा संसृजोत्प्रिय इव प्रणयिन्याम् / / प्रत्यक्षबाधः प्रथमप्रकारे प्राकारपृथ्वीधरसिन्धुरादिः / संलक्ष्यते पक्ष्मपुटोपटंकी प्रत्यक्षकाले कलयाऽपि नो यत् / पक्षेऽपरत्राऽपि स एव दोषः सर्पन्न वस्तु प्रतिवीक्ष्यतेऽक्षि। संसर्पणे वाऽस्य सकोटरत्वप्राप्त्यापुमान् किंन जरहमास्यात्।।९।। चक्षुषः सूक्ष्मतापके सूक्ष्मता स्यादमूर्तता। यद्वाल्पपरिणात्व-मित्येषा कल्पनोभयी / / 6 / / स्याङ्ख्योमवद्व्यापकता प्रसक्त्या सर्वोपलम्भः प्रथमप्रकारे / प्राकारकान्तारविहारहार मुख्योपलम्भो न भवेद् द्वितीये / / न खलु न खलु शास्वं स्वप्रमाणात्प्रथिष्ठे षटकटशकटादौ भेदकारि प्रसिद्धम् / अथ निगदसि तस्मिन् रस्मिचक्रं, क्रमेण, प्रसरति तत एतत्स्यादनल्पप्रकाशम् / / 10 / / तथाहि-प्रोद्दाममाणिक्य-कणानुकारी दीपाकुरस्त्विट्पटली प्रभावात् / किं नैव कश्मीरजकज्जलादीन् प्रथीयसोऽपि प्रथयत्यशेषान् ॥१शा नन्वेवमध्यक्षनिराक्रिया स्यात्पक्षे पुरस्तादुपलक्षितेऽस्मिन् / प्रौढप्रभामण्डलमण्डितोऽर्थो नाभासते यत्प्रतिभा समानः / / 12 / / अथाप्यनुभूततया प्रभायाः पदार्थसंपर्क जुषोप्यनीक्षा सि-द्धिस्तदानीं कथमस्तु तस्या ब्रवीषि चेत्तैजसताख्य हेतोः // 10 // रूपादिमध्ये नियमेन रूपप्रकाशकत्वेन च तेजसत्वम् / प्रभाषसे चक्षुसि संप्रसिद्धं यथा प्रदीपाकुरविधुदादौ // 14 // तदिदंघुसणविमिश्रणमंध्रपुरन्ध्रीकपोलपालीनाम् / अनुहरते व्यभिचाराद्रूपक्षणसंनिकर्षण ||15|| द्रव्यत्वरूपेऽपि विशेषणे स्याद्धेतोरनैकान्तिकताञ्जनेन / तस्यापि चैत्तेजसतां तनोषि, तन्वादिना किन्तु तदाऽपराद्धम्॥१६|| सौवीरसौर्चलसैंधवादि निश्चिन्वते पार्थिवमेव धीराः कृशानुभावोपगमोऽस्य तस्मा दयुक्त एव प्रतिभात्यमीषाम्।।१७।। तथाच-सौवीरसौवर्चलसैन्धवादिकं स्यादाक रोद्भतिवशेन पार्थिवम् / मृदादिवन्न व्यभिचारचेतनं चामीकरणानुगुणं निरीक्ष्यते // 18 // चामीकरादेरपि पार्थिवत्वं लिंगेन तेनैव निवेदनीयम् / शाब्दप्रमाणेन न चाऽत्रवाधापक्षस्य यन्नास्तितदत्र सिद्धम्।।१९|| अञ्जनमरिचरोचनादिकं पार्थिवं ननु तवापि सम्मतम् / अञ्जनेऽपि तदसौ प्रवृत्तिमानप्रयोजकविडम्बडम्बरी |20|| हनूमल्लोललांगूललम्बात्ते साधनादतः। न सिद्धिस्तैजसत्वस्य दृष्ट सुस्पष्ट दूषणात् ||21|| चक्षुर्न तैजसमभास्वरतिग्मभावादम्भोवदित्यनुमितिप्रतिषेधनाच / सिद्धि दधाति नयनस्य न तैजसत्वं तस्मादमुष्य घटते किमु रश्मिवत्ता ||22|| अपिच / प्रत्यक्षबाधःसमलक्षि पक्षे न रश्मयो यदृशि दृष्टपूर्वाः / तथा च शास्त्रेण तवैव कालातीतत्वदोषोऽप्युदपादि हेतोः / / 23 / / अनुगवद्रूपजुषो भवेयुश्चेद्रश्मयस्तत्र ततो न दोषः / नन्वेवमेत स्य पदार्थसार्थप्रकाशकत्वं न सुवर्णवत् स्यात् // 24 // आलोक साचिव्यवशादथास्य प्रकाशक त्वं घटनामियति / नन्वेवमेतत्सचिवस्य किं स्यात्प्रकाशकत्वं न कुटीकुटादेः / / 25|| Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 586 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय अथास्तु कामं ननु तैजसत्वमुत्तेजितं किं न भवेत्त्वयास्य / तथा च नव्यस्त्वदुज्ञ एषोऽद्वैतप्रवादोऽजनि तैजसत्वे 26 उत्पद्यन्ते तरणिकिरणश्रेणिसंपर्चतश्चेत्तत्रोद्भूताः सपदि रुचयो लोचने रोचमानाः। यद्गृह्यन्ते न खलु तपनालोकसं पत्प्रतानस्तस्मिन् हेतुर्भवति हि दिवा दीपभासामभासः // 27 / / अत्रेयं प्रतिक्रियामुष्टिग्राह्ये कुवलयदलश्यामलिम्नाऽविलिप्ते स्फीते ध्वान्ते स्फुरति चरतो घूककाकोदरादेः। किं लक्ष्यंते क्षणमपि रुचो लोचनेनैव यस्मादालोकस्य प्रसरणकथा काचिदप्यत्र नास्ति।।२८।। उत्पत्तिरुद्भूततयाथतासां तत्रैव यत्रास्तिरवि प्रकाशः। काकोदरादेरपि तर्हि नैताः कीटप्रकाशे कुशला भवेयुः / / 29 / / अविवरतिमिरव्यतिकरपरिकरितापवर कोदरे वचन / वृषदंश दृशि न | दृष्टा मरीचयः किमु कदाचिदथ // 30 // अत एव विलोकयन्ति सम्यक्तिमिराङ्कूरकरंबितेऽपि कोणे। मूषकपरिपन्थिनः पदार्थान् ज्वलनालोकविजृम्भणं विनैव // 31 // अत्रोत्तरम्-चाकचिक्यप्रतीभास- / मात्रमत्रास्ति वज्रवत्। नांशवःप्रसरन्तस्तु,प्रेक्ष्यन्तेसूक्ष्मका अपि // 32 // | माजरिस्य यदीक्षण प्रणथिनः केचिन्मयूखाः सखे विद्येरन् न तदा कथं निशि भृशं त्तचक्षुषा प्रेक्षिते / प्रोन्मीलत्करपुञ्जपिञ्जरतनौ संजा तवत्युन्दरे प्रोजृम्भेत तवापि हन्त धिषणा दीपप्रदीपाद्यथा // 33 / / कृशतरतथा तेषां नोचेदुदेति मतिस्तव प्रभवति कथं तस्याप्यस्मिन्नसौ निरुपप्लवा / घटनविपुणा साक्षात्प्रेक्षाविधौ हि ततिस्त्विषां न खलु न समा धीमन् ! सा चोभयत्र विभाव्यते // 34 // अमूदृग्मूषिकारीषां तस्मादस्ति स्वयोग्यता। यया तमस्यपीक्षन्ते, नचक्रश्मिवत्पुनः॥३५|| इत्थं न चक्षुषि कथंचिदपि प्रयाति, संसिद्धिपद्धतिमियं खलु रश्मिक्त्ता। तस्मात्कथं कथय तार्किकचक्षुषः स्यात् प्राप्यैव वस्तुनि मतिः प्रतिबोधकत्वम् // 36 // बहिरर्थग्रहोन्मुख्यं बहिः कारणजन्यता / स्थायित्वं वा बहिर्देशे किं बाह्येन्द्रियता भवेत्।।३७।। तत्रादिमायां भिदि चेतसा स्थादेतस्य हे तोर्व्यभिचारचिह्नम् अप्राप्यकारि प्रकरोति यस्मान्मन्दा किनी मन्दरबुद्धिमेतत् / / 38 / / दोषः स एवोत्तरकल्पनायां यदात्मनः पुद्गल एष बाह्यः / चेतश्च तस्मादुपजायमान मेतद्वहिःकारणजन्यताभृत् / / 39 // चेतः सनातनतया कलितस्वरूपं सर्वापकृष्टपरिमाणपवित्रितं च / प्रायः प्रिय प्रणयिनीप्रणयातिरेकादेतत्करोति हृदये ननु तर्कतज्ज्ञाः 140ll एतदत्र विततीक्रियमाणं प्रस्तुतेतरदिव प्रतिभाति / विस्तराय च भवेदिति चिन्त्यं तद्विलोक्य गुरुगुम्फितवृत्तिम् // 41|| पक्षे तृतीये विषयप्रदेशः शरीरदेशो यदि वा बहिः स्यात् / स्थायित्वमाद्ये विषयाश्रितत्वं यद्वा प्रवृत्तिर्विषयोमुखी स्यात् // 42 / / प्राचीनपक्षे प्रतिवाद्यसिद्धिः कलङ्कपङ्कः समुपैति हेतोः / स्यावादिना यत्प्रतिवादिनास्य नाङ्गीकृतं मेयसमाश्रितत्वम्॥४३॥ पक्षे तथा साधनशून्यतास्मिन् दृष्टान्तदोषःप्रकटः पटूनाम्। जिह्वेन्द्रियं नार्थ समाश्रितं यद्विलोकयामासुरमी कदाचित् / / 4 / / द्वितीयकल्पे किमसौ प्रवृत्तिराभिमुख्य न विसर्षणं स्थात् // आश्रित्थ किं वा विषयप्रपञ्चप्रतीतिसंपत्प्रतिबोधकत्वम् ||11|| पक्षे पुरश्चारिणि सिद्धिबन्ध्यं स्यात्साधनं जैनमतानुगानाम् / यस्मान्न तैलोचनरश्मिचक्रमङ्गीकृतं वस्तुमुखं प्रसर्षत् ।।४क्षा निदर्शनस्यस्फुटमेव दृष्टं / वैकल्यमत्रैव हि साधनेन / पदार्थसाथ प्रति यन्नसपजिह्वेन्द्रियं केनचिदिष्टपूर्वम् / / 47|| पक्षान्तरे तु व्यभिचारमुद्रा किं चेतसा नैव समुज्जजृम्भे / यस्मात्तद-प्राप्तसुपर्वशैलस्वर्गे समुत्पादयति प्रतीतिम् ||शरीरस्य बहिर्देशे स्थायित्वं यदिजल्प्यते। बाह्येन्द्रियत्वमत्रस्यात्संदिग्धव्यभिचारिता // 49 / / अप्राप्तार्थपरिच्छेदे नापि सार्द्ध न विद्यते। हेतो ह्येन्द्रियत्वस्य विरोधो वत कश्चन || क्वचित्साध्यनिवृत्त्या तु हेतुव्यावृत्तिदर्शनात् प्रतिबन्ध-प्रसिद्धिश्चेत्तदात्रापि कथं न सा // 11 // रसन-स्पर्शन-घ्राण-श्रोत्रान्येन्द्रियता बलात् / चक्षुरप्राप्तविज्ञातृमनोवत् प्रतिपाद्यताम् // 12 // साध्यव्यावृत्तितोऽत्रापि हेतुव्यावृत्तिरीक्षता / नच कश्चिद्विशेषोऽस्ति, येनैकत्रैव सा मता // 13 // बाह्येन्द्रियत्वं सकलङ्कमेव न तार्किकान् प्रीणयितुं तदीष्टे / भूविभ्रमो दुर्भगभामिनीनां वैदग्धभाजो भजते न चेतः ||54 // किं चात्र संसूचितमादिशब्दात् वृत्ते पुरश्चारिणि कारकत्वं / यत्प्राप्यकारित्वसमर्थनाय नेत्रस्य तत्काणदृगञ्जनाभम् ||15|| यस्मादिदं मन्त्रजपोपसर्प-त्योद्दामरामाव्यभिचारदोषात् / उत्तालवेतालकरालके लि-कलंकितश्रीकमिवावभाति ||16|| तथाहि / कनकनिकषस्निग्धां मुग्धां मुहुर्मधुरस्मितां चटुलकुटिल-भूविभ्रान्तिं कटाक्षपटुच्छटाम् / त्रिजगति गतां कश्चिन्मंत्री समानयति क्षणात् तरुणरमणीमारान्मन्त्रान्मनोभुवि संस्मरन् // 57 // कश्चिदत्र गदति स्म यत्पुनमन्त्रमन्त्रणगवी समानयेत् / युक्तमेव मदिरेक्षणादिकं तेन नाभिहितदूषणोदयः / / 58 मन्त्रस्य साक्षाद्घटना प्रियादिना परंपरातो यदिवा निगद्यते।साक्षान्न तावद्यदयं विहायसोध्वनिस्वरूपस्तव सम्मतो गुणः / / 19 / / ततोऽस्य तेनैव समं समस्ति संसक्तिवार्तानतुपक्ष्मलाक्ष्या। अथाक्षरालम्बनवेदनं स्यान्मन्त्रस्तथाप्यस्त्वियमात्मनैव / / 60 / / अथापि मन्त्रस्य निवेद्यते त्वया संसक्तिरेतत्पतिदेवतात्मना। संतोषपोषप्रगुणा च सा प्रियां प्रियं प्रतिप्रेरयति स्वयोगिनीम्॥६|| ब्रूमहेऽत्र ननु देवतात्मनां मन्त्रवर्णविसरस्य का घटा। अम्बरस्य गुण एव तत्कथं देवतात्मनि भजेत संगतिम् ||6|| आश्रयद्वार-तोऽप्यस्य संसर्गो नास्ति सर्वथा / ध्यापकद्रव्ययोर्यस्मात्संसर्गो नामुना मतः // 63|| व्यापकेषु वदति व्यतिषङ्गयस्तु तेन मनसा ध्वनिना वाऽतीतवस्तुविषयेण विमृश्य स्पष्ट एव विलसन् व्यभिचारः // 64 // अयस्कान्तादनेकान्तस्तथाऽत्र परिभाव्यताम् / आक्षेपश्च समाधिश्च ज्ञेयो रत्नाकरादिह / / 6 / / कारकत्वमपि तन्न शोभते प्राप्यकारिणी यदीक्षणे मतम् / प्राप्य वस्तु वितनोति तन्मतिं नैव चक्षुरिति तत्त्वनिर्णयः / / 66|| अद्रिचन्द्रकलनेषु येत्यदःप्राक् प्ररूपितमुपैति नो घटाम्। रश्मिसंचयविषञ्चितं हि तत्ते च तत्र नितरां व्यपाकृताः॥६७।। किंच। चक्षुरप्राप्यधीकृत, व्यवधिम-तोऽपि प्रकाशकं यस्मात्। अन्तःकरणं यदृष्ट्यतिरेके स्यात् पुना रसना / / 8 / / अथ द्रुमादिव्यवधानभाजः प्रकाशकत्वं ददृशे न दृष्टौ / ततोऽप्य यं हेतुरसिद्धतायां धौरेयभावं बिभरांबभूव / / 69 // एतन्न युक्तं शतकोटिकाचस्वच्छोदकस्फाटिक भित्तिमुख्यैः / पदार्थपुजे व्यवधानमाजि संजायते किं नयनान्न संवित्।।७। दम्भोलिप्रभृतिप्रभिद्यभिदुराश्चेद्रोचिषश्चक्षुषः संसर्गोप-गताः पदार्थपटलीं पश्यन्ति तत्र स्थिताम् / एवं तर्हि समुच्छलन्मलभरं भित्वा जलं तत्क्षणात्तेनाप्यन्तरितस्थितीननिमिषा नालोकयेयुर्न किम् / / 71 / / विध्याता Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 587 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय स्तेन तेचे द्विमलजलभरात्कि भजन्ते न शान्ति, किं चाम्भ: काचकूपोदरविवरगतं निष्पतेत्तत्तदानीम् / दोषश्चेन्नैष तूर्णं यदयमुदयते नूतनव्यूहरूपः सर्पेयुस्तर्हि नैताः कथमपि रुचयोलोचनस्यापि तस्मिन् ||72 / / भवति परिगमश्चे द्वेगवत्त्वादमीषां कतिपयकलयास्तु क्षीरपातस्तदानीम्।नचभवति कदाचि-दुद्दस्यापितस्मात्प्रपतनमिति युक्तस्तस्य नाशः किमाशु // 73 / / किंच / / कलशकुलिशप्राकाराद्यत्रिविष्टपकन्दराकु हरकलितं विश्वं वस्तु प्रतीक्षणभंगुरम् / ज्वलनकलिकावरिकत्व-स्मिन्निरन्तरताभ्रमः प्रभवति वदन्नित्थं शाक्यः कथं प्रतिहन्यते७४|| तस्थौ स्थेमा तदस्मिन् व्यवधिमद मुना प्रेक्ष्यते येन सर्वम् तत्सिद्धा नेत्रबुद्धिर्व्यवधिपरिगतस्यापि भावस्य सम्यक् / कुड्यावष्टब्धबुद्धिर्भवति किमु न चेन्नेदृशी योग्यतास्य प्राप्तस्यापि प्रकाशे प्रभवति न कथं लोचनागन्धबुद्धिः 1175|| किं वा न प्रतिभासते शशधरे कर्मापि तद्रूपवत् दूराचेद्विलसत्तदस्य उदये लक्ष्येत किं लाच्छनम्। तस्माचक्षुषि योग्यतैव शरणं साक्षी चनः प्रत्ययस्तत्तर्कप्रगुण प्रतीहि नयनेष्वप्राप्यधीः कर्तृताम्॥७६|| रत्ना०२ परि०५ सूत्रे / तथा। च विशेषावश्यकेऽपि नन्विन्द्रियत्वे तुल्येऽपि केयम्मुख परीक्षिका यच्चतुर्ष स्पर्शनोदीन्द्रियेषु प्राप्यकारिताऽभ्युपगम्य नतु नत्रमवसोरित्याह। उवघाया णुग्गहओ, जंताई पत्तकारीणि। तत्र विषयभूतं शब्दादिकं वस्तुप्राप्तं संश्लेषद्वारेणासादितं कुर्वन्ति परिच्छिन्दन्तीति प्राप्तकारीणि प्राप्तकारीणि स्पृष्टार्थग्राही-णीत्यर्थः / कुतः पुनरेतान्येव प्राप्यकारीणीत्याह / उपघातश्चानुग्रहश्चोपधातानुग्रही तयोर्दशनात्कर्कशकंबलादिस्पर्शने, त्रिकटुकाधास्वादने, अशुच्यादिपुद्गलाघाणे, भेर्यादिशब्दश्रवणे, त्वक् क्षणनाद्युपघातदर्शनाचंदनादिस्पर्शने, क्षीरशर्कराधास्वादने, कप (पुद्गलाघ्राणे, मृदुमन्दशब्दाद्याकर्णने तु शैत्याद्यनु-ग्रहदर्शनादित्यर्थः / नयनस्य तु निशितकरपत्रप्रोल्लसद्भल्ला-दिवीक्षणेऽपि पाटनाद्युपधातानवलोकनाचन्दनागरुकर्पूरा-धवलोकनेऽपि शैत्याद्यनुनाहाननुभवात्। मनसस्तु वया-दिचिन्तनेपिदाहाद्युपघ्रातादर्शनाजलचन्दनादिचिन्तायामपिच पिपासोपशमानुग्रहाऽसंभवाचेति। अत्र परः प्राह। जुज्जइ पत्तविसयया, फरिसणरसणेन सोत्तघाणेसु। गिण्हंति सविसयं चिउ, जुत्ताई मिन्नदेशंपि॥२०५।। प्राप्तः स्पृष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो यथोस्ते प्राप्तविषये तयो र्भावः प्राप्तविषयता सा युज्यते घटते / कस्मिन्नित्याह / स्पर्शनं रसनं चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् स्पर्शनरसनेन्द्रिय इत्यर्थः / अनभिमतप्रतिषेधमाह। न श्रोत्राघ्राणयोः प्राप्तविषयता युज्यते / यद्यस्मात्कारणादितो विवक्षितात्स्वदेशादिन्नदेशमपि स्वविषयमेव गृह्णीतोस्यार्थस्यानुभवसिद्धत्वात् न हि शब्दः कश्चिच्छ्रोत्रेन्द्रिये प्रविशन्मुपलभ्यते नापि श्रोत्रेन्द्रियं शब्ददेशे गच्छन् समीक्ष्यते न चाभ्यामन्येनापि प्रकारेण विषयस्पर्शनं घटते। दूरे एष कस्यापि शब्दः श्रृयत इत्यादि जनोक्तिश्च श्रूयते कर्पूरकुंकुमकुसुमादीनां दूरस्थानामपि गन्धो निर्विवादमनुभूयतेच तस्मात् श्रोत्रध्राणयोः प्राप्तविषयतान युज्यत एवेति गाथार्थः। अत्रोच्यते पावंति सहगंधा, ताई गंतुं सयं न गिण्हंति। जं ते पोग्गलमइया, सकिरिया वाउवहणाउ||२०६|| धूमोव्व संहरण उ, दाराणु विहाणओ विसेसेणं। तोयव्य नियंबाइसु, पडिघायाओ यवाउव्व / / 207 / / (पावंति सद्दगंधा ताइंति) शब्दगन्धौ कर्तृभूमौ ते श्रोत्र घाणेन्द्रिये कर्मतापने अन्यत आगत्य प्राप्नुतः स्पृशत इति प्रतिज्ञा / अनभिमतप्रकारप्रतिषेधमाह। गंतुसयंन गिण्हतित्ति) ताइंति-संबध्यते अत्रापि / ततश्च ते श्रोत्रघ्राणे कर्तृभूते पुनः स्वयं शब्दगन्धदेशं गत्वा न गृहीतःशब्दगन्धाविति विभक्तिव्यत्ययेन संबध्यते आत्मनोऽबाह्यकरणत्वाच्छ्रोत्रघ्राणयोः स्पर्शनरसनवदिति। ननु शब्दगन्धावपि श्रोत्रध्राणे कुतः प्राप्नुत इत्याह (जं ते पोग्गलमइया सक्किरियत्ति) यस्मात्कारणात्तौ शब्दगन्धौ सक्रियौ गत्यादिक्रियावन्तौ तस्मादन्यत आगत्य श्रोत्रघ्राणे प्राप्नुतः कथंभूतौ सन्तौ सक्रियौ तावित्याह। पुनः पुद्गलमयौ यदि पुनरपौद्रलिकत्वादमूर्ती स्यातां तदा यथा जैनमतेन सक्रियेष्याकाशादिषु गतिक्रिया नास्ति तथैव तयोरपि न स्यादित्यालोच्य पुगलमयत्वविशेषणभकारि पुगलमयत्वे सति सक्रि याविति भावः / यचैवंभूतं तत्र गतिक्रियास्त्येव यथा पुनस्कन्धेष्वित्याह-ननु पुद्गमयत्वेऽपि सति शब्दगन्धयोर्गतिक्रियाऽस्तीति कुतो निश्चीयत इत्याह(वा उवहणाउ धूमोध्वत्ति) वायुना वहनं नयनं वायुवहनं तस्मादिदमुक्तं भवति यथा पवनाधूम इव गति-क्रियाभाजौ तौ तथाविशेषण द्वारानुविधानतस्तोयवत्तद्वन्तावेतौ तथा पर्वतनितम्बादिषु प्रतिघातात्प्रतिस्खलनाद्वायुवदेतौ गतिक्रियाश्रयाविति गाथाद्वयार्थः / हेत्वन्तरेणापि शब्दगन्धयोः सुयुक्तिकं गति क्रियावत्वं समर्थयन्नाहगेण्हंति पत्तमत्थं, उवघायाणुग्गहोवलद्धीओ॥ वाहिजपूइनासा-रिसादओ कहमसंबद्धे / / 20 / / प्राप्तमन्यत आगत्यात्मना सह संबद्धं शब्दगन्धलक्षणमर्थ गृह्णीतः श्रोत्रघाणेन्द्रिये इति गम्यते। एतेन शब्दगन्धयारोगमनक्रिया प्रतिज्ञाता भवति कुतः प्राप्तमेव गृह्णीत इत्याह उपघात-श्चानुग्रहश्चोपघातानुग्रही तयोरुपलब्धः तथाहि भेर्यादिमहाशब्दप्रदेशे श्रोत्रस्य बाधिर्यरूप उपधातो दृश्यते कोमलशब्दश्रवणे त्वनुग्रहः घ्राणस्याप्यशुच्चादिगन्धप्रवेशे पूतिरोगाऽर्शोव्याधिरूप उपधातोऽवलोक्यतेकर्पूरादिगन्धप्रवेशे त्वनुग्रहः शब्दगन्धा-संबन्धेऽपि श्रोत्रघ्राणयोरेतावनुग्रहोपधातौ भविष्यत इति चेदित्याह (वाहिज्जेत्यादि) बाधिर्यच पूतिश्चनासाकोयलक्षणोरोगविशेषः नासाऑसि च तानि आदिर्थेषां शेषोपघाताऽनुग्रहाणां ते यथा भूताः कथमुपगच्छे यु : क्व सति इत्याह (असंबद्धेति) स्वहेतुभूते शब्दगन्धलक्षणवस्तुनीति गम्यते। इदमुक्तं भवति। श्रोत्रघ्राणाभ्यां सह संबद्धा एव शब्दगन्धाःस्वकार्यभूतंबाधिर्योपघातमनुग्रहं वाजनयितुमलं नान्यधा सर्वस्यापि तज्जननप्राप्तेरतिप्रसङ्गादिति गाथार्थः / तदेवं स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्राणां प्राप्यकारित्वं समर्थितम्। विशेoll आ.चूoा। ___ साम्प्रतं नयनमनसोरप्राप्यकारित्वसमर्थनायाह। * कथमप्राप्यकारित्वं तथोरवसीयते उच्यते विषयकृतानुग्रहो पघाताभावात् तथाहि यदि प्राप्तमर्थ चक्षुर्मनो वा गृह्णीयात् तर्हि यथा स्पर्शनेन्द्रियं सक् चन्दनादिकमगारादिकं च प्राप्तमर्थ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 588 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय पक परिछिन्दत्तत्कृतानुग्रहोपघातभाग भवति तथा चक्षुर्मनसी अपि भवेतां विशेषाभावात् न च भवतस्तस्मादप्राप्तकारिणी तेन तु दृश्यते एवं चक्षुषो विषयकृतावग्रहोपघातौ / तथाहि घनपटलविनिमुक्त नभसि सर्वतो निबिडतरतमोऽपेतकरप्रसरमभि सर्पयन्तमंशुमालिनमनवरतमवलोकमानस्य भवति चक्षुषो विघातः शशाङ्ककरकदम्बकं यदि वा तर ङ्गमालोपशोभितंजलं तरुमण्डलंचशाडवलं निरन्तरं निरीक्ष्यमाणस्य चानुग्रहः / तदेतदप-रिभावितभाषितं यतो न ब्रूमः सर्वथा विषयकृतावनुग्रहोपधातौ न भवतः किं त्वेतावदेव वदामो यदा विषयं विषयतया चक्षुरवलम्बते तदा तत्कृतावनुग्रहोपघातौ तस्य न भवत इति तदप्राप्यकारि | शेषकालं तु प्राप्तेनोप वातके नोपघातो भविष्यत्यनुग्राहकेण वानुग्रहस्तत्रांशुमालिनो रश्मयः सर्वत्रापि प्रसरमुपाददाना यदांशुमालिनः सन्मुखमीक्ष्यते तदा ते चक्षुर्देशमपि प्रापुवन्ति ततश्चक्षुः संप्राप्तास्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरुपघ्रन्ति शीतांशुरश्मयश्च स्वभावत एव शीतलत्वादनुग्राहकास्ततस्ते चक्षुः संप्राप्तास्सन्तस्तत्स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरनु गृह्णति तरङ्गमालासंकुलजलावलोकने च जलकणसंपृक्तसमीरावयवसंस्पर्शतोऽनुग्रहो भवति शाड्वलतरुमंडलावलोकनेपि शाड्वलतरुच्छायासंपर्कशीतभूतसमीरणसंस्पर्शात् शेषकालं तुजलाधवलोकने अनुग्रहाभिमान उपघाताभावादवसेयो भवति / चोपघाताभावेऽनुग्रहाभिमानो यथातिसूक्ष्माक्षरनिरीक्षणाद्विनिवर्त्य यथा सुखं नीलरत्नवस्वाद्यवलोकने इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा समासेन संपर्के यथा सूर्यमीक्षमाणस्य सूर्येणोपघातो भवति तथा हुतवहजलशूलाद्यालोकने दाहक्लेदपाटनादयो पि कस्मान्न भवन्ति अपिच यदि चक्षुः प्राप्यकारि तर्हि स्वदेशगतरजोमलाञ्जनशलाकादिकं किंन पश्यति तस्मादप्राप्यकार्येव चक्षुः। ननु यदि चक्षुरप्राप्तकारि तर्हि मनोवत् कस्मादविशेषेण सर्वानपि दूरं व्यवहितानान्न गृह्णाति यदि हि प्राप्तं परिच्छिन्द्यात्तर्हि यदेवानावृतमदूरदेशं वा तदेव गृह्णीयात्नावृतंदूरदेश वा तत्रचक्षूरश्मीना गमनासंभवे संपर्कासंभवात् ततो युज्यते चक्षुतो ग्रहणाग्रहणेनान्यथा तथाचोक्तम् 'प्राप्यकारि चक्षुरुपलब्ध्यनुपलब्ध्योरनावरणेतरापेक्षणाच" यदि हि चक्षुरप्राप्तकारिभवेत्तदावरणभावादनुपलब्धिरन्यथोपलब्धिरिति न स्यात् / नहि तदावरणमुपघातकरणसमर्थ प्राप्यकारित्वे तु मूर्तद्रव्य-प्रतिघातादुपपत्तिमानव्याघातात् अतिदूरे च गमनाभावादिति प्रयोगश्चात्र न चक्षुषो विषयपरिमाणमप्राप्यकारित्वान्मनोवत् तदेतदयुक्ततरं दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात्न खलु मनो प्यशेषान् विषयान् गृह्णाति तस्यापि सूक्ष्मेप्वागमगमादि प्यर्थेषु मोहदर्शनात् तस्माद्यथा मनो प्राप्यकार्यपि स्वावरण क्षयोपशमापेक्षत्वानियतविषयं तथा चक्षुरपि स्वावरणक्षयो पशमसापेक्षत्वाद प्राप्यकार्यपि योग्यदेशावस्थितनियतविषयमिति नव्य-दहितानुपलम्भ प्रसंगो नापि दूरदेशस्थितानामिति / अपिच दृष्ट मप्राप्यकारित्वेऽपि तथा स्वभावविशेषाद्योग्यदेशापेक्षणं यथा ऽयस्कान्तस्य न खल्वयस्कान्तोऽयसोऽप्राप्यकर्षणे प्रवर्तमानः सर्वस्याप्ययसोजगदर्तिन आकर्षको भवति किंतु प्रतिनियतस्यैव / शङ्करस्वामी प्राह अयस्कान्तोऽपि प्राप्यकारी अयस्कान्तश्छायाणुभिः समाकृष्यमाण वस्तुनः संबन्धभावात् केवलं तेछायाणवः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते इति तदेतदुन्मत्त प्रलपितं तदाहक प्रमाणाभावात् नहि तत्र छायाणु संभवग्राहक प्रमाणमस्ति न चाप्रमाणकं प्रतिपत्तुं शक मः अथास्ति तद्ग्राहक प्रमाणमनुमानम्-इह यदाकर्षणं तत्संसर्गपूर्वकं यथाऽयोगोलकस्य संदंशेनाकर्षणं चायसोऽयस्कान्तेन तत्र साक्षादयस्कान्ते संसर्गः प्रत्यक्षबाधित इति अर्थात् छायाणुभिः सह दृष्टव्य इति तदपि बालि शजल्पितं हेतोरनैकांतिकत्वात् मन्त्रेण व्यभिचारात् / तथाहि-मन्त्रः स्मर्यमाणोऽपि विवक्षितं वस्तु आकर्षति न च कोऽपि तत्र संसर्ग इति। अपिच यथा छायाणवः प्राप्तमयः समाकर्षन्ति तथा काष्ठादिकमपि प्राप्त कस्मान्न कर्षन्ति शक्ति प्रतिनियमादिति चेन्मनसः शक्तिप्रतिनियमोडप्राप्तावपि तुल्य एवेति व्यर्थं छायाणुपरिकल्पनम् अन्यस्त्वाह अस्ति चक्षुषःप्राप्यकारित्वे व्यवहितार्थानुपलब्धेरनुमानं प्रमाणं तदयुक्तमत्रापि हेतोरनैकान्तिकत्वात्। काचाभ्रपटलस्फटिकैरन्तरित-स्याप्युपलब्धेः अथैवमाचक्षीथाः नयनरश्मयो निर्गत्य तमर्थं गृह्णन्ति नायनाश्च रश्मयस्तैजसत्वान्न तेजोद्रव्यैः प्रतिस्खल्यन्ते ततो न कश्चिद्दोषः तदपि न मनोरमं महाज्वलादौ स्खलनो-पलब्धेस्तस्मादप्राप्यकारिचक्षुरिति स्थितम् नं आम.(मनसो ऽप्राप्यकारिता मनः शब्देपि) तथाच विशेषावश्यकेनयनमनसोरप्राप्यकारित्वमभिधित्सुर्नयनस्य तावदाहलोयणमपत्तविसयं, मणो व्व जमणुग्गहाइ सुण्णंति। जलसूरालोयाइसु. दीसंति अणुग्गहोवधाया। अप्राप्तोऽसंबद्धोऽसंश्लिष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो यस्य तद प्राप्तविषयं लोचनमप्राप्यकारीत्यर्थः इति प्रतिज्ञा / कुत इत्याहयद्यस्मादनुग्रहादिशून्यमादिशब्दादुपघातपरिग्रहः बाह्यवस्तुकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वादित्यर्थः अयच हेतुः मना वदिति दृष्टान्तः / यदि हि लोचनं ग्राह्यवस्तुनासह संबध्यतत्परिच्छेदं कुर्यात् तदाग्न्यादिदर्शने स्पर्शनस्येव दाहाद्युप घातः स्यात् कोमलतल्पाद्यवलोकने त्वनुग्रहो भवेत् व चैवं तस्माद प्राप्यकारि लोचनमिति भावः मनस्यप्राप्यकारित्वं परस्यासिद्धमिति कथं तस्य दृष्टान्तत्वेनोन्यास इति चेत्सत्थं किन्तु वक्ष्यमाणयुक्तिभिस्तत्र तत्सिद्धमिति निश्चित्य तस्येह दृष्टान्तत्वेन प्रदर्शनमित्यदोषः। अथ परो हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्नाह (जलसूरेत्यादि) आदिशब्द आलोकशब्दश्च प्रत्येकमभिसम्बध्यते ततश्च जलादीनामालोके लोचनस्याऽनुग्रहो दृश्यते सूरादीनां त्वालोके उपघात इत्य-तोऽनुग्रहादिशून्य त्वादित्यसिद्धो हेतुरित्यर्थः / इदमुक्तं भवति जलघृतनीलवसनवनस्पतीन्दुमण्डलाद्यवलोक ने नयनस्य परमाश्वासलक्षणोनुग्रहः समीक्ष्यते सूरसितभित्त्यादिदर्शने तु जलविगलना दिरूप उपधातः संदृश्यत इत्यतः किमुच्यते (जमणुग्गहाइसुण्णंतीति) गाथार्थः / / अत्रोत्तरमाहडज्झेल पावित्रं रवि-कराइणा फरसणंव को दोसो।। मणिशाणुग्गहं पिव उवघायाभावओ सोम्मे / / 210 / / अथमत्रभावार्थः अस्मदभिप्रायानभिज्ञोऽप्रस्तुताभिधायी परो न हि क्यमेतद्यूमोयचक्षुषः कुतोऽपिवस्तुनः सकाशात्कदापिसर्वथैवानुग्रहोपधातौ नभवतस्ततोरविकरादिना दाहात्मकतो-पघातवस्तुना परिच्छेदानन्तरं पश्चाचिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुश्चक्षुः प्राप्य समासाद्य स्पर्शनेन्द्रियमिव दह्येत दाहादिलक्षणस्तस्योपघातः क्रियत इत्यर्थः एतावता चाप्राप्यकारिचक्षुर्वादिनामस्माकंकोदोषोन कश्चिदृष्टस्य बाधितुमशक्य Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 589 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय त्वादितिभावः / तथा यत्स्वरूपेणैव सौम्यं शीतलं शीतरश्निजलघृतचन्द्रादिकंवस्तुतस्मिंश्विरमवलोकिते उपघाता-भावादनुग्रहमिव मन्येत चक्षुः को दोषः इत्यत्रापि संबध्यतेन कश्चिदित्यर्थः इति गाथार्थः आह यधुक्तन्यायेनोपघातका-नुग्राहकवस्तुभ्य उपघातानुग्रहाभावं चक्षुषो न ब्रूषे तर्हि यब्रूषे तत्कथय इत्यासङ्क्याह॥ गंतुंन रूवदेसं,पासइ पत्तं सयं च नियमो यं। एत्तेण उ मुत्तिमया उवघायाणुग्गहो होला। अथं नियमः इदमेवाऽस्माभिर्नियम्यत इत्यर्थः किं तदित्याह रूपस्य देशो रूपदेशः आदित्यमण्डलादिसमाक्रान्तप्रदेशरूपस्तं गत्वा उत्प्लवनतस्तं समालिख्य चक्षुर्न पश्यति न परिच्छिनत्त्यन्यस्याश्रुतत्वादूपमिति गम्यते (पत्तंसयंचत्ति) स्वयं वा अन्यत आगत्थ चक्षुर्देशं प्राप्तं समागतं रूप चक्षुर्न पश्यति किंत्वप्राप्तमेव योग्यदेशस्थं विषयं तत्पश्यति अत्राह परो नन्वनेन नियमेनाप्राप्यकारित्वं चक्षुषः प्रतिज्ञातं भवति नच प्रतिज्ञामात्रेणैव हेतुपन्या समन्तरेण समीहितवस्तु सिद्धिरतोहेतुरिहवक्तव्यः (जमणुग्गहाइ सुण्णंती) त्यनेन पुर्वोक्ता गाथावयवेन विषयकृतानुग्र होप वातशून्यत्वलक्षणोयमभिहित एवेति चदेहो जराविधुरितस्येव सूरेविस्मरणशीलता यतो (जमाणुग्गहाइसुण्णंतीत्यनेन) विषयादनुग्रहोपघातौ चक्षुषो निषेधयति (डज्झेज पाविउं रविकराइणा फरिसणंचे) त्यादिना तु पुनरपि ततस्तौ तस्य समनुजानीत अतो न विद्मः कोप्येष वचन क्रम इति नैतदेव-मभिप्रायापरिज्ञानाद्यतः प्रथमत एव विषय परिच्छेदमात्र-कालेऽनुग्रहोपघातशून्यताहेतुत्वेनोक्ता पश्चातु चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुः प्राप्तेन रविकिरणादिना चन्द्रमरी चिनीलादिना वा मूर्तिमता सर्गत एव केनाप्युपघातकेनानुग्राहकेन च विषयेणोपघातानुग्रही भवेताम् / अपीत्येतदे वाह / (एतेण उ मुत्तिमया इत्यादि) अनेनाभिप्रायेण तौ पुनरपि समनुज्ञायेतेन विस्मरणशीलतया यदिपुनर्विषयपरिच्छित्तिमात्रमपितमप्राप्तचक्षुर्न करोतीति नियम्यते तदा वह्निविषजलधिक ण्ट क-करवालक रपत्र-सौ वीराजनादि परिच्छित्तावपि तस्य दाहस्फोटक्लेदपाटननीरोगतादि लक्षणो पघातानुगृहप्रसङ्गः नहि समानायामपि प्राप्तौ रविकरादिना तस्य भवन्ति दाहादयो न वन्ह्यादिभिः। तस्माठ्यवस्थितमिदं विषयमप्राप्तौवं चक्षुः परिच्छिनत्ति अंजनदनादिकृतानुग्रहोपधातशून्यत्वान्मनोवत् / परिच्छेदानन्तरं तु पश्चात्प्राप्तेन केनाप्युपघातकेन अनुग्राहकेण वा मूर्तिमता द्रव्येण तस्यो पघातानुग्रहौ न निषिध्येते विषशर्करादिभक्षणे मूस्विास्थ्यादय इव मनसइति। अत्राऽपरः प्राह-नयनान्नायना रश्मयो निर्गत्य प्राप्य च रविबिम्बरश्मय इव वस्तुप्रकाशयन्तीति नयनस्य प्राप्यकारिता प्रोच्यते सूक्ष्मत्वेन च तेषां वन्ह्यादिभिर्दाहादयो न भवन्ति रविरश्मिषु तथा दर्शनात्तदेतदयुक्ततरं तेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणाग्राह्यत्वेन श्रद्धातुमशक्यत्वात्तथाविधानाम-प्यस्तित्वकल्पनेऽति प्रसङ्गाद्वस्तुपरिच्छेदान्ययानुपपत्तेस्ते सन्तीति कल्प्यत इति चेन्न तानन्तरेणापितत्परिच्छेदोपपत्तेः नहि मनसोरश्मयः सन्तिनचतदप्राप्तं / वस्तु परिच्छिनत्ति वक्ष्यमाणयुक्तिभ्यस्तस्य तत्सिद्धेः न च रविरश्म्युदाहरणमात्रेणाचेतनानां नयनरश्मीनां वस्तुपरिच्छेदो युज्यते नखदन्त-भालतलादिगतशरीररश्मीनामपि स्पर्शविषयवस्तुपरिच्छेदप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः / तदेव मञ्जनज्वलना- | दिविषयविहितानुग्रहोपघातशून्यत्वलक्षहणहे तोर प्राप्यकारितां चक्षुषः प्रसाध्य हेत्वन्तरेणापि तस्य तांप्र-साधयितुमाहजइ पत्तं गिण्हिजउ तग्गयमंजणरओमलाइयं // पिच्छेन यं न पासइ अपत्तकारि तओ चक्खु / / 12 / / यदि तु प्राप्तं विषयं चक्षुर्गृहीयादित्युच्यते तदा तद्रतमात्मसंबद्धमजनरजोमलशलाकादिकं पश्येदवगच्छेत् तस्य निर्विवादमेव तत्प्राप्तत्वेनोपलब्धेः यस्माच न पश्यति ततो-ऽप्राप्तकारि चक्षुरिति स्थितम् / यद्यप्राप्यकारि चक्षुस्त प्राप्त त्वाविशेषात्सर्वस्याऽप्यर्थस्थाविशेषेणग्राहकं स्यान्न प्रतिनियत स्येति चेन्न ज्ञानदर्शनावरणादेस्तत्प्रतिबन्धकस्य सद्भावान्मनसा व्यभिचाराच्च तथा ह्यप्राप्यकारित्वे सत्यपि नाविशेषेण सर्वार्थषु मनः प्रवर्तते इन्द्रियाद्यप्रकाशितेषु सर्वथा अदृष्टा श्रुतार्थेषु तत्प्रवृत्यदर्शनादित्यलं प्रसंगेनेति गाथार्थः / तदेवं व्यवस्थापिता चक्षुषोऽप्राप्यकारिता-विशे।। तदेवं नयनमनासोर्विस्तरेणाप्राप्यकारितायां साधितायां नयन पक्षेऽद्यापि दूषणशेषमुत्पश्यन् परः प्राह-- जइ नयणिंदिय पत्तकारि सव्वन्न गिण्हए कम्हा॥ गहणागहणं किंकयमपत्त विसयत्त सामने 11|| यद्युक्तं युक्तिभ्यो नयनेन्द्रियमप्राप्तकारि तर्हि सर्वमपि त्रिभुवनान्तर्वर्ति वस्तुनि कुरम्बं कस्मान्न गृह्णाति अप्राप्ति-त्वाविशेषादेतठ्यक्तीकरोति अप्राप्तो विषयो यस्य तदप्राप्तिविषयं तद्भावोऽप्राप्तविषयत्वं तस्मिन् सामान्येऽविशिष्टऽपि सति यदिदं कस्यचिदर्थस्य ग्रहणं कस्यचिदग्रहणं तत्किकृतं किं निबन्धनं नेह किंचिन्निबन्धनमुत्पश्याम इतिभावः इतिगाथार्थः / तस्मादो आचार्य? तस्य चक्षुषो विषयपरिमाणोऽनयत्यमापोतीत्येतदेवाहविसयपरिमाणमनिययमपत्त क्सियति तस्स मणसोव्व। मणसो वि विसय नियमो नक्कमइजओ समवत्थ। विषयस्य ग्राहकस्य परिमाणमनियतमपरिमितं प्राप्नोति तस्य चक्षुष इति ज्ञानहेतुमाह अप्राप्तविषय इति कृत्वा मनसहावेति दृष्टान्तप्रयोगः यदप्राप्तमपि विषयं परिच्छिनत्तिन तस्य तस्परिमाणं युक्तं यथा मनसः। अप्राप्तं विषयमनुगच्छति चक्षुस्तस्मान्न तस्य तत्परिणाम युक्तमिति / अथेह प्रयोगे दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्ये सूरिरूपदर्शयति मनसो दृष्टान्तीकृतस्याप्राप्यकारिणो विषयनियमोऽस्त्येवेति शेषः / कुत इत्याह / (मन सत्ति) तदपिमनः सर्वेष्वर्थेषु न क्रामति न प्रसरति इति गाथार्थः। तथाहि अत्थगहणेसु मुज्झुइ सत्तेसु वि केवलाई गम्मेसु / तं किं कयमग्गहणं अपत्तकारित्तसामण्णो॥ अर्थाएव मतेर्दुः प्रवेशत्वाद्गहनानि तेष्वनन्तेषु सत्स्वपि विद्यमानेष्वपि कथंभूतेष्वित्याह / केवलं केवलज्ञानमादिये-षामवधिज्ञानागमादीनां तानि केवलादीनि तैर्गम्यन्ते ज्ञायन्ते के वलादिगम्यानि तेष्वेवं भूतेष्वर्थगहनेषुसत्स्वपिकस्य-चिन्मन्दमतेर्जन्तर्मनोमुह्यतिकुण्ठी भवति। तदवगमनाय न प्रभवति तान् गहनभूतान् केवलादिगम्यान्सतोऽप्यन्न गृह्णाति तात्पर्य तत्रतदत्राहमपिभवन्तं पृच्छामि तदेतन्मनसोऽग्रहणमर्थानां किं कृतं किं निबन्धनमप्राप्तकारित्वसामान्येऽप्राप्तकारित्वे Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 590 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 'इंदिय तुल्येहीत्यर्थः / तस्मान्मनसोऽपि विषयपरिमाणसद्भावादनन्तरगाथोक्तसाध्यविकलो दृष्टान्त इति स्थितमिति गाथार्थः / / / तत्किंकृतमग्रहणमर्यानामपीत्यत्रपराऽभिप्राय आशङ्कमानः प्राह कम्मोदय उवसाहा चउव्व नणु लोयणे वितं तुल्लं। तुल्लो व उवालंभो एसो संपन्न विसए वि॥ यत्केषांचिदर्थानां मनसो ग्रहणं तत्तदावरणकर्मोदयाद्वा स्वभावाद्वा इति परो ब्रूयान्नत्वेतल्लोचनेपि तुल्यं यतस्त-दप्यप्राप्यकारित्वे तुल्योऽपि कर्मोदयात् तत्स्वभावाद्वा कां-श्चिदेवार्थान गृह्णाति न सर्वानिति तदेवं नयनस्य प्राप्तकारि-त्वेऽतिप्रसङ्गलक्षणं प्राप्तकारिवादिना यदूषणमुक्तं तत्परिहृतम् अथवा योनयनमनसोःप्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छति तस्याप्येतंदूषणमापतत्येव यचद्वयोर्दूषणंनतदेकस्यदातुमुचित-मित्येतचेतसि निधाय प्राह 'तुल्लोवेत्यादि' वा इत्ययवा एषोऽतिप्रसंगलक्षणउपालम्भस्तुल्यः समानः क्लेत्याह संप्राप्तविषयत्वेपि नयनमनसोरभ्यु पगम्यमाने तथाह्यत्रापि शक्यते वक्तुं यदि प्राप्तमर्थ गृह्णाति चक्षुस्तीतिसंप्राप्तनयनाञ्जन-रजोमलशलाकादीन् कस्मान्नगृह्णाति / मनोऽपि प्राप्तान् सर्वानपि किमिति न गृह्णाति घटप्राप्तिकाले पटादयो न प्राप्तां एवेति चेन्न तदप्राप्ती हेत्वभावात्तथाहि न तावत्कटकुटपादयस्तेषामाधारकास्तरन्तरितानामपि मेर्वादीनां मनसोऽपरिच्छेदानुभवा-त्कर्मोदयात्स्वभावाद्वा प्रतिनियतमेव मनः प्राप्नोतीति चेन्नन्वेतदप्राप्यकारिणो नयनस्यापि समान मिति गाथार्थः। तस्मात्किमिह स्थितमित्याह / / सामत्थामावाओ मणोव्व विसवपरउ पगिण्हेइ॥ कम्मक्खओवसमओ साणुग्गहओय सामत्थं |शा चक्षुः सिद्धान्तनिर्दिष्ट नियतविषयपरिणामात्परतोन गृह्णातीति प्रतिज्ञा चक्षुषश्चेह कर्तृत्वं प्रक्रमाद्य्यतेसामर्थ्याभावादिति हेतुर्मनोवदिति दृष्टान्तः सामर्थ्य भावो नयनस्य कुत इत्याह (कम्मक्खओ इत्यादि) तदावरणकर्मक्षयोपशमात्स्वानुग्रहतश्चाऽप्राप्तेष्ट्यपि केषुचिद्योग्यदेशावस्थितेष्वर्थेषु परिच्छेदे कर्तव्ये लोचनस्य सामर्थ्य भवति इदमुक्तं भवति अप्राप्तत्वे समानेऽपि येष्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्मक्षयोपशमो भवति तथा स्वस्यात्मनो रूपालोके नमस्कारादिसामरयाः। सकाशादनुग्रहो भवति तेष्वर्थेषु कर्मक्षयोपशमवसद्भावाच्छेषसामग्रयनुग्रहाचक्षुषो ग्रहणसामर्थ्य भवति येषु त्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्म-क्षयोपशमः शेषसामग्रयनुग्रहश्च नास्ति तेषु तस्य सामर्थ्या भाव इत्यर्थापत्तित एव गम्यते तस्मादव्यवस्थितमप्राप्यकारित्वं नयनस्य / विशेष इहसुगतमतानुसारिणःश्रोत्रमप्राप्यकारि प्रतिपद्यन्ते तथाच तद्रन्थाः चक्षुः श्रोत्रं मनोऽप्राप्यकारीति तदयुक्तमिहाप्राप्यकारितत्प्रतिपत्तुं शक्यते यस्य विषयकृतानुग्रहोपघाताभावो यथा चक्षुर्मनसोः / श्रोत्रेन्द्रियस्य च शब्दकृत उपधातो दृश्यते सद्यो जातबालकस्य समीपे महाप्रयत्नताडितझल्लरीरणत्कार श्रवणतो यद्वा विद्युत्प्रपाते तत्प्रत्यासन्नदेशवर्तिनां निर्घोषश्रवणतो व धिरीभावदर्शनात् / शब्दपरमाणवो हि उत्पत्तिदेशादारभ्य सर्वतो जलतरंगन्यायेन प्रसरमभिगृहानां श्रोत्रेन्द्रियदेशमागच्छन्ति ततः संभवत्युपपातः। ननु यदि श्रोत्रेन्द्रियं प्राप्तमेव शब्दंगृह्णातिनाप्राप्तं तर्हि यथा गन्धादौ गृह्यमाणेन तत्र दूरा सन्नादिभेदप्रतीतिरेवं शब्दोऽपि न स्यात् प्राप्तो हि विषयः परिच्छिद्यमानः सर्वोषि सन्निहित एव तत्कथं तत्र दूरासन्ना दिभेदप्रतीतिर्भवितुमर्हति अथ च प्रतीयते शब्दो दूरासन्नादि तथा तथा च लोके वक्तारः श्रूयते कस्यापि दूरे शब्द इति। अन्यच्च यदि प्राप्तः शब्दो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तर्हि चाण्डालोक्तोऽपिशब्दः श्रोत्रेन्द्रियेण श्रोत्रेन्द्रियसंस्पृष्टो गृह्यते इति श्रोत्रेन्द्रियस्य चाण्डालस्पर्शदोषप्रसंगः तन्न श्रेयः पदवीप्रतिष्ठाममितिष्ठति श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वं तदेतदिति महामोह मलीमसभाषितं यतो यद्यपि शब्दोऽप्राप्तो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तथाऽपि यत उत्थितःशब्दस्तस्य दूरासन्नत्वे शब्देऽपि स्वभाववैचित्र्यसंभवात् दूरासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवति। तथाहि-दूरोदात्तः शब्दः क्षीणशक्तित्वात् खिन्न उपलक्ष्यते स्पष्टरूपो वा ततो लोके लोको वदति दूरे शब्दः श्रूयते यस्य च वाक्यस्यायं भावार्थो दूरादागतः शब्द श्रूयते इति स्यादेत देवमतिप्रसंगः प्राप्रोति तथाह्येतदपि वक्तुं शक्यते दूरे रूप मुपलभ्यते किमुक्तं भवति दूरादागतं रूपमुपलभ्यते ततश्चक्षुरापे प्राप्यकारि प्राप्नोति न चेष्यते तस्मान्नैतत्समीचीनमिति तदयुक्तं यत इह चक्षुषो रूपकृतावनुग्रहोपघातौ नोपलभ्येतेश्रोत्रेन्द्रियस्य तु शब्दकृत उपघातोऽस्ति एतच प्रागेवोक्तं ततोनातिप्रसंगादानमुपपत्तिमत्। अन्यच्च प्रत्यासन्नोऽपि जनः पवनस्य प्रतिकूलमवतिष्ठमानः शब्दं न शृणोति पवनवमनि तु वर्तमानो दूरदेशस्थितोऽपिशृणोति तथाच लोके वक्तारोन वयं प्रत्यासन्ना अपित्वदीयंवचः श्रुणुमः पवनस्य प्रतिकूलमवस्थानात्यदिपुनरप्राप्तमेव शब्दं रूपमिव जनाः प्रमिणुयुस्तर्हि वातस्य प्रतिकूलमप्यवतिष्ठमाना रूपमिव शब्दं यथावस्थितं प्रत्यासन्नाः प्रमिणुयुर्न च प्रमिण्वन्ति तस्मात्प्राप्ता एव परमाणवः श्रोत्रेन्द्रियेण परिगृह्यन्ते इत्यवश्यमभ्युपगन्तव्यं तथा च सति पवनस्य प्रतिकूलमप्यवतिष्ठमानानां श्रोत्रेन्द्रियं न शब्द परिमाणवो वैपुल्येन पाप्नुवन्ति तेषामन्यथा वातेन नीयमानत्वात् ततोनतेशृण्वन्तीतिन काचित् क्षितिः। यदपि चोक्तं चाण्डालस्पर्शदोषः प्रापोतीति तदपि चेतनाविकलपुरुषभाषितमिवासमीचीनं स्पर्शास्पर्शव्यवस्था या लोके काल्यनिकत्वात् तथाहि न स्पर्शस्य व्यवस्था लोके पारमार्थिकी तथाहि यामेव भुवमग्रे चाण्डालः स्पृशन् प्रयाति तामेवपृष्ठतः श्रोत्रियोऽपि, तथा यामेव नावमधिरोहतिस्म चाण्डालस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतश्चाण्डालमपि स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शदोषव्यवस्था तथा शब्दपुद्गलसंस्पर्शेऽपि न भवतीति न कश्चिद्दोषः / अपि च यदा लोके केतकीदलनिचयं शतपत्रा-दिपुष्पनिचयं वा शिरसि निबध्य वपुषि वा मृगमदचन्दनाधवलेपन मारचय्य विपणिं वीथ्यामागत्य चाण्डालोऽवतिष्ठते तदा तद्गतकेतकीदलादिगन्धपुद्गलाः श्रोत्रियादिनासिकास्वपि प्रविशन्ति ततस्तत्रापि चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोतीति तद्दोषभयाना सिकेन्द्रियमप्राप्यकारि प्रत्तिपत्तव्यं नचैतद्भवतोऽप्यागमे प्रति पाद्यते ततो बालिशजल्पितमेतदितिकृतं प्रसंगेनेति / नंळा आम तथाचरत्नावतारिकायाम् "बौद्धाः पुनरिदमाहुः श्रोत्रं न प्राप्य बुद्धिमाद्धत्ते! दिग्देशत्यपदेशान् करोति शब्दे यतो दृग्वत्।।७७।। तथाहि / प्राच्यामत्रविजृम्भते जलमुचा मत्यूजितं गर्जितं प्रोन्मीलत्यलमेव चातकरवो क्षामक्षण दक्षिणः / केकाः केकिकुटुम्बकस्य विकसन्त्येताः कलाः काननादिग्देश-व्यपदेशवानितिन किं शब्देस्ति संप्रत्ययः / / 7 / / प्राप्यकारि यदि तु श्रवणं स्यात्तर्हि तत्र न कथंन न सैषः / प्रस्तुतः समुदयाद्व्यपदेशः शर्करास्पृशि यथा रसनायाम् // 79|| वेश्या नुरागप्रतिमं तदेतत् सुस्पृष्टदृष्टव्यभिचारदोषात् / घ्राणं यदेतद् Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 591 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय ट्यपदेशभाजं प्राप्तप्रकाशं कुरुते मनीषाम् ||90 / / तथाच "मन्दमन्दमुदेत्ययं परिमलप्राग्माधवीमण्डपाद्भूयः सौरभ-मुद्रमंन्त्युपवने फुल्लाःस्फुटं मल्लिकाः / गन्धो बन्धुर एष दक्षिणदिक्षाः श्रीचन्दात्प्राप्तवानित्येतन्ननु विद्यते तनुभृतां घ्राणात्तथा प्रत्ययः // 8 // अस्ति त्वगिंद्रियेणापि व्यभिचारविनिश्चयः / शेमुषीमादधानेन दिग्देशव्यपदेशिनी // 8220 तथाहि / सेयं समीरल हरीहरिचन्दनेन्दुसंवादिनी वनभुवः प्रसभं प्रवृत्ता। स्फीतस्फुरत्पुलकपल्लवितांगयष्टिमामातनोति तरुणी करपल्लवश्च 8 अयानुमा-नादधिगम्य तेषां हेतूंस्ततस्त-व्यपदेशिनीधीः / न घ्राणतः स्पर्शनतश्च ताइक् प्रत्यक्षरूपा प्रथते मनीषा // 84!! श्रोत्रेपि सर्व तदिदं समानमालोकमानोऽपि न मन्यसे किम् / दृष्टव्यलीकाम-पिकामीनी यत्संमन्यते कामुक एव साध्वीम् 85 स्मृत्वा यथैव प्रतिबन्धमाशु शंखादिशब्दोऽयमिति प्रतीतिः। प्राच्यादिदूरादिगतेऽपि शब्दे तथैव युक्ता प्रतिपत्तिरेषा॥८६॥ दिग्देशानां श्रुतिविषयता किंच नो युक्तियुक्ता युक्तत्वे वा भवति न कथं ध्यानरूपत्वमेषाम् / तस्माद्भिन्नप्रमिति विषयास्ते विशिंषन्ति शब्द सिद्धे चैवं भवतु सुतरां साधने साध्य सिद्धिः / / 78|| अपिच / गृह्यते यदि विनैव संगतिं किं तदानुगुणमारुते ध्वनौ / दूरतोपि धिषणा समुन्मिषेदन्यथा तु निकटेऽपि नैव सा / / 8 / / मुहुर्मरुति मन्यरं स्फुरति सानुलोमागमे समुल्लसितवल्लकीवणकला-कलापप्लुता। सकामतनकामिनी कलितयोजनाडम्बरा न किं निशि निशम्यते सपदि दूरतः काकली // 89|| पटुघटित-कपटसंपुटौघे भवति कथं सदनेऽपि शब्दबुद्धिः। पटुघटित-कपाटसंपुटौघे भवति कथं सदनेऽपिगन्धबुद्धिः // 90 / / तथाहि / कर्पूरपारीपरिरंभभाजी श्रीखण्डखण्डे मृगनाभिमिश्रे। धूमायमाने पिहितेप्यगारे गन्धप्रबन्धो बहिरभ्युपैति // 91|| द्वारावृतेऽपि सदने प्रणयप्रकर्षा-देवं प्रिये स्फुरदपत्रपया स्खलंती। द्वारि स्थितस्य सर साकुल-बालिकायाः कर्णातिथीभवति मन्मथसूक्तिमुद्रा // 92 / / एवं च प्राप्त एवैष शब्दः श्रोत्रेणगृह्यते / श्रोत्रस्यापि ततः सिद्धानिधिा प्राप्यकारिता, 193|| रत्ना०२५०॥ (10) संप्रति इन्द्रियाणां विषयपरिमाणनिरूपणार्थमाह सोइंदियस्स णं मंते ! के वतिए विसर पण्णते ? गोयमा !जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागे उकोसेणं बारसहिं जोयणे हिंतो छिन्ने पुग्गले पुढे पविट्ठाई सद्दाइं सुणेइ। चक्खिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स संखेअइभागो उकोसेणं सातिरेगाओ जोयणसयसहस्साओ अच्छिन्ने पुग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूवाई पासति / घाणिंदियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो उक्कोसेणं नवहिं जोयणेहिं छिन्ने पोग्गले पुढे पविट्ठाई गंधाई अग्धाइं / एवं जिन्मिंदियस्स वि / फासिंदियस्स वि॥ इह श्रोत्रादीनि प्राप्तविषयपरिच्छे दत्वात् अङ्गुलासंख्येयभागादप्यागतं शब्दादिद्रव्यं परिछिन्दन्ति नयनं वा प्राप्यकारीति तज्जघन्यतोऽगुलसंख्येयभागादव्यवहितं परिच्छिनत्ति किमुक्तम्भवति जघन्यतोऽङ्गुलसंख्येयभागमात्रे व्यवस्थितं पश्यन्ति नतु ततोप्यतिरिक्तमिति प्राणिप्रसिद्धश्चायमर्थः / तथाच नातिसन्निकृष्टमञ्जनरजोमलादिकं चक्षुः पश्यति ! उक्तञ्च -- “अचरमसंखेजगुणं भागातो नयणवजाणं / संखेज्जंगुलभागा नयणस्सइत्ति" उत्कर्षतस्तु | श्रोत्रेन्द्रियं द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतान् अच्छिन्नान अव्यवहितान्नान्यैः शब्दान्तरैर्वातादिकैर्वा प्रतिहतशक्तिकानित्यर्थः पुद्गलान् अनेन पौद्रलिकशब्दोनाम्बरगुण इति प्रतिपादितम् / यथाच शब्दस्य पौगलिकता तथा तत्वार्थटीकायाम् प्रपञ्चितमिति न भूयः प्रपश्च्यते स्पृष्टान् स्पृष्टमात्रान् शब्दान् प्रविष्टान् निर्वृतीन्द्रियमध्यप्रविष्टान् शृणोति न परतोऽप्यागतान् कस्मादिति चेदुच्यते परत आगतानां तेषां मन्दपरिणामत्वभावात्तथाहि परतः आगताः खलु ते शब्दपुद्गलास्तथा स्वाभाव्यात् मन्दपरिणामास्तथो पजायन्ते येन स्वविषयं श्रोत्रविज्ञानं नोत्पादयितुमीश्वराः। श्रोत्रेन्द्रियस्यापितत्तथाविधमद्भुततरंबलं न विद्यते येन परतोऽपि आगतान् शब्दान् शृणुयादिति चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकान् यो जनशत-सहस्रादारभ्याछिन्नान् कटकु ड्यादि भिरव्यवाहितान् पुद्गलान् अस्पृष्टान् दूरस्थितान् अत एवाप्रविष्टान् (रूवाइत्ति) रूपत्मकान् पश्यतिपरतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे चक्षुषः शक्तयभावात् नन्वङ्गुलमिह त्रिधा तद्यथा आत्माङ्गुलमुच्छ्रयाङ्गुलं प्रमाणागुलञ्च तत्र "जेणं जयामणा सा तेसिं जं होइ माणरूवं तं / तं भणियमिहायांगुलमणियपमाणं पुण इमन्तु" इत्येवं रूपमात्माङ्गुलं “परमाणु तसरेणु रहरेणू अम्गयं च वालस्न्स। लिक्खा जूया य जवा अद्वगुणा विवड्डि या कमसो / तत्रेन्द्रिय-विषयपरिमाणं किमात्माङ्गुलेनाहोश्चित् उच्छ्यांगुलेन उच्यते आत्माङ्गुलेन तथा चाह चक्षुरिन्द्रियविषयपरिमाणचिंतायां भाष्यकृत् "अप्पत्तकारि नयणं मणो यनयणस्स विसयपरिमाणं। आयांगुलेण लक्खं अयरित्तं जोयणाणं तु" प्रज्ञा०१५ पदा अंगुलजोयणलक्खो समहिओ नव वार मुक्कसो विसओ। चक्खू तिय-सोयाणं अंगुल अस्संखभागियंते / / अस्या व्याख्या-स्वं च तदंगुलं च स्वांगुलं भगवदृषभादेरारभ्य यस्ययद्भवति तेनांगुलेन योजनलक्षः समधिकः किंचिद्विषयोत्थपरिच्छित्तेश्चक्षुषः नव द्वादशयोजनानि सांगुलेनेत्यत्रापि द्रष्टव्यः / उत्कर्षत उत्कृष्ट ततस्त्रिश्रोत्राणां यथाक्रमं योज्यंतत्र त्रायाणां स्पर्शनरसनघ्राणानां नव योजनानि श्रोत्रेन्द्रियस्य पुनदश जघन्यतः पुनरंगुलासंख्येयभागिति गाथार्थः / दर्श. / ननु देहप्रमाणमुच्छ्यांगुलेन क्रियते देहाश्रितानि चेन्द्रियाणि ततस्तेषां विषयपरिमाणमपि उच्छ्यांगुलेन कर्तुमुचितं कथमुच्यते आत्मांगुलेनेति नैष दोषः यद्यपि हि नाम देहाश्रितानीन्द्रियाणि तथापि तेषां विषयपरिमाणमात्मांगुलेनैकदेहानन्यत्वा-द्विषयपरिमाणस्य तथा चामुमेवार्थमाक्षेपपुरस्सरं भाष्य कृदप्या। "नणु भणियमुस्सयंगुल, पमाणतो जीवदेहमाणाई। देहपभाणं तंचियनउइंदियविसयपरिमाणं" ||| अबदेहपमाणन्तं चिय इति यत्र उच्छ्रयांगुलमेयत्वं नोक्तं तदेहप्रमाणमात्रमेव नत्वि-न्द्रियविषयपरिमाणं तस्यात्माङ्गुलप्रमेयत्वादिति अथ यदि विषयपरिमाणमिन्द्रियाणामुच्छ्याङ्गुलेन स्यात्ततः को दोष आपद्येत पञ्चधनुःशतानि मनुष्याणां विषयव्यवहाराविच्छे-दस्तथाहि यद्भरतस्यात्मागुलं तत्किल प्रमाणागुलं तच प्रमाणागुल मुच्छ्रयागुलसहस्रेण भवति- "उस्सेहंगुलमेगं हवइपमाणांगुलसहसगुणमितिवचनात्"। ततो भरतसगरादिचक्र वर्तिनां या अयोध्यादयो नगर्यो ये तु स्कन्धावारा आत्माङ्गुलेन द्वादशयोजनायामतया सिद्धान्ते प्रसिद्धास्तेउच्छ्याङ्गुलप्रमित्या अनेकानि योजनसहस्राणि स्युः तथा च सति तत्रायुधशालादिषु ताडितभेर्यादिशब्दश्रवणेनसर्वेषामा Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 592 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय पद्येत "बारसहिंजोयणेहिं आभिगिण्हएसई" इतिवचनात् / अथ च समग्रनगरव्यापी समस्तस्कन्धावारव्यापी च विजयढक्कादिशब्द आगमे च प्रतिपाद्यते तथैवं च जनव्यवहारस्तत एवमा गमे प्रसिद्धः पञ्चधनुः शतादिमनुष्याणां विषयव्यवहारो व्यवच्छेदं माप्रापदित्यात्माङ्गुलेनेन्द्रियाणां विषयपरिमाणमवसातव्यं नोच्छ्यांगुलेन तथाभाष्यकृत-"जंतेणपंचधणुसय,नरादि विसय-विवहारवोच्छेओ। पावइ सहस्सगुणियं. जेण पमाणंगुलं तत्तो" ||शा अत्र तस्मादात्माङ्गुलेनैवेन्द्रियाणां विषयपरिमा णं नोच्छेधागुलेनेति / उपसंहारवाक्यं स्वतः परिभावनी यम् // प्रज्ञा० 15 पद।। अपिच यानि देहस्यात्मभूतान्येवेन्द्रियाणि तान्यपितावत्सर्वाण्युच्छ्रयांगुलेन मीयन्ते किंपुनरिन्द्रियविषयपरिमाणमिति दर्शयति / / इंदियमाणे वि तयं, भयणिजं जंति गाउआइणि। जिभिंदियाइमाणं, संववहारे विडज्झेजा। इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि तानि चेह "कायव्व पुप्फुगोल य मसूरअइमुत्तयस्स कुसुमं" चेत्यादिना प्रोक्तानि द्रव्येन्द्रियाणि गृह्यन्ते तेषां मानं प्रमाणमगुलासंख्येयभागादिकं तत्रापि- कर्तव्ये गृहीतव्ये बोधव्य वा तदुच्छ्यांगुलं भजनीयं वापि व्यापार्यते कापि नेत्यर्थः स्पर्शनेन्द्रियमेकं तेन मीयते शेषाणि त्वात्मांगुलेनैवेति भावः कुत इत्याह (जमित्यादि) यद्यस्मात्रिगव्यू तीत्यादिमानानां युगलधर्मिणां जिहे न्द्रियादिमानं यधुच्छ्यांगुलेन गृह्यते तदा संव्यवहारे कल्पद्रुमरसादिपरिज्ञान लक्षणे विरुद्ध्येतनघटनेत्य-र्थः / इदमुक्तं भवति "बाहल्लओ य सव्वाई अंगुल असंखभागं एमेव पुहुत्तओ नवरं अंगुल पुहत्तस्स णं इत्यादि वचनात् अंगुलप्रथक्त्वविस्तरं जिहेन्द्रियं निर्णीतं त्रिगव्यूतादिमानानां च जन्तूनां च तदनुसारितया विशालानि तुषानि जिहां च ततो यधुच्छयांगुलेन तेषां क्षुरप्राकारतयोक्तस्य जिह्वेन्द्रियस्यांगुलपृ-थक्त्वलक्षणो विस्तरो गृह्यते तदाऽत्यल्पतया सर्वामपि जिह्वां न व्याप्नुयात् ततश्च सर्वव्यापितया रसवेदनलक्षणो व्यवहारो न घटते तस्मा-दात्मांगुलेनैव जिहादिमानं घटते ततश्च देहात्मभूतानीन्द्रियाण्यति सर्वाण्युच्छ्यांगुलेन यदा न मीयन्ते तदा इन्द्रिय विषयपरिमाणस्य दूरे वार्ता इति गाथार्थः / तदेवं "उस्सेहपमाणओ मिणे देह' इत्यत्र पारिशेष्याहिशब्देन यल्लभ्यते तदर्शयन्नाहतणुमाणं चिय तेणं, हविज्ज भणियं सुए वितं चेव / एएण देहमाणाइ, नारयाईण मिजत्ति। तस्मादिन्द्रियपरिमाणे इन्द्रियविषयपरिमाणे चैकान्तेनोच्छ्यांगुलेनेष्यमाणे दोषस्य दर्शितत्वात्पारिशेष्यात्वनुमानमेव तेनोत्सेधांगुलेन भवेन्न पुनरिन्द्रियपरिमाणं विषयपरिमाणं वेति भावः।। युगलधर्मिणां रसवेदनव्यवहारस्य चक्रवर्तिभरतनगर्या-दिषु भेर्यादिशब्दश्रवणव्यवहारस्य चाऽभावप्रसङ्गस्य दर्शितत्वादिति / किंचेन्द्रियपरिमाणं तद्विषय परिमाणं चोच्छ-यांगुलेन परः स्वमनीषिकयाऽर्था पत्त्यैव ब्रूतेन पुनः श्रुते साक्षादेतत् क्वाप्यऽभिहितं किं पुनस्तर्हि साक्षात्तत्राऽभिहितमित्याह (भणि सुए वितं चेवेत्यादि) श्रुतेपि तदेव देहमानमेवोच्छ्यांगुलेन भणितं नान्यदिति केन पुनर्निग्रन्थे नैत्च्छुते ऽभिहितमित्याह (एएणेत्यादि) अर्थनिर्दु श एवायं सूत्रालापकस्त्वेष द्रष्टव्यस्तद्यथा "इचएणं उस्सेहंगुलपमाणेणं नेरइय तिरिक्खजोणिय मणुस्सदेवाणं सरीरोवगाहणा उ मिजत्ति" // तदस्मिन् सूत्रे शरीरावगा-हनैवोच्छ्यांगुलमेयत्वेनोक्तो नत्विंन्द्रियपरिमाणोद्यतस्तदात्मांगुलेनैव द्रष्टव्य मिति गाथार्थः // विशे तस्मात्सर्वमिन्द्रियविषयपरिमाणमात्माङगुलेनैवेति स्थितं ननुभवत्वात्मांगुलेन विषयपरिमाणं तथाधिकृतसूत्रोक्तं चक्षुरिन्द्रिय विषयपरिमाणं न घटते अधिकस्यापि तद्विषय परिमाणस्यागमान्तरे प्रतिपादनात् तथाहि-पुष्करद्वीपार्द्धमानुषोत्तर पर्वतसमीपवर्तिनो मनुष्याः कर्कसंक्रान्तौ प्रमाणांगुलनिष्पन्नैः सातिरेकैः एकाविंशति योजनलक्षैर्व्यवस्थित मादित्यमवलोकमानाः प्रतिपाद्यन्ते।शास्त्रान्तरे च तथा तद्ग्रन्थाः "इगवीसंखलु लक्खा, चउतीसंचेव तह सहस्साई तह पंचसया भणिया, सत्ततीसाए अतिरित्ता ||1|| इइ नयण विसयमाणं, पुक्खरवरदीवद्धवासमणुयाणं / पुव्वेण य अवरेण य. पिहिं पिहिं होइ मणुयाणं ॥शा इत्यादि / ततः कथमधिकृत सूत्रात्मांगुलेनापि घटते प्रमाणांगुलेनापि व्यभिचारिभावात् / उक्तञ्च- "लक्खेहिं एक्कवीसाए, सायरंगेहिं पुवखरद्धमि।। उदए पेच्छन्ति नरा, सूरं उक्कोसए दिवसं||३|| ण य णिंदियस्स तम्हा, विसयप्पमाणं जहा सुए भणियं / आउस्सेहपमाणं गुलाणएक्केण विन जुत्तं // 4 // " प्रज्ञा० 15 पद। ननुपुष्करवरद्वीपस्य मानुषोत्तरपर्वतद्विधाकृतस्याग्भिा -गवर्तिन्यर्द्ध मानुषोत्तरसन्निधावुत्कृष्टे दिवसे कर्कटकसंका-त्यामुदये उपलक्षणत्वादस्तसमये च नरा मनुष्याः सूरमा दित्यं पश्यन्ति अवलोकयंति, कियडूरं व्यवस्थितमित्याह सातिरे-कैरेकविंशतिलक्षोजनानां। एतदुक्तं भवति" सिया लीससहस्सा, दोयसया जोयणाण तेवड्डा। एगवीससट्ठिभागाकक्कडमा-इम्मिपेच्छनरा'' इति वचनाद्यर्थादत्र कर्कसंक्रातावुत्कृष्ट दिवसे एतावतिदूरे व्यवस्थितं सूर्य मनुष्याः पश्यन्ति यथा--पुष्करा-र्द्धमानुषोत्तरसमीपे प्रमाणं गुलनिष्पन्नेः साति रेकैरेकविंशतियो-जनलक्षैर्व्यवस्थितमादित्यं तत्र दिने तन्नि वासिनो लोकाः समवलोकयन्ति तत्र भ्रमति बाहुल्यात्सूर्याणां च शीघ्रतरगतित्वादुक्तं च"इगवीसमित्यादि" तस्मान्नयनेन्द्रियस्य सातिरेकयोजनलक्षणस्वरूपं विषयपरिमाणं यथा श्रुतेप्रज्ञा-पनादिकेऽभिहितं तथा तेन प्रकारेणात्मांगु लोत्सेधांगुल-प्रमाणांगुलानामेकेनापि गृह्यमाणं न युक्तं प्रमाणां गुले निष्पन्नस्यापि योजनलक्षस्य च निष्पन्नसातिरेकैक विंशतियोजनलक्षेभ्यः एकविंशतितमभागवर्तित्वेन वृहदन्तरत्वात्तस्मादेकत्र सातिरेकं लक्षमन्यत्र सातिरेकै कविंशतिलक्षाणि योजनानां नयनस्य विषयप्रमाणंबुवतः श्रुतस्य पूर्वापरविरोध इति परस्योक्तमिति गाथाद्वयार्थः / / विशे। तथा-नयनस्य विषयोऽप्रकाशकवस्तुपर्वताद्याश्रित्यात्मांगुलेन सातिरेकं योजनलक्षणं स्यात् प्रकाशकेत्वादित्यचन्द्रादिवदधिकमपिविषयपरिमाणं स्यात् नात्र विषये नियमः कोपि निर्दिष्टोऽस्ति सिद्धान्ते यतः पुष्करवरद्वीपादि मानुषोत्तरपर्वतसमीपे कर्क संक्रान्तौ मनुष्याः प्रमाणांगुलभवैः सातिरेकैरेकविंशति योजनलक्षैर्व्यवस्थितं रविं पश्यन्तः प्रोच्यन्ते शास्त्रान्तरे इति। तंदु। सत्यमेतत् / के वलमिदं सूत्रं प्रकाश्यविषयं द्रष्ट व्यं न तु प्रकाशक विषयं ततः- प्रकाशको धिकरणमपि विषयपरिमाणं न विरुध्यते-इति न कश्चिद्दोषः। कथमेव विधोऽर्थोऽवसीयत Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 593 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय इति चेदुच्यते पूर्वसूरिकृतव्याख्यानात् सकलमपि हि कालिकश्रुतं पूर्वसूरिकृतव्याख्यानानुसारेणैव व्याख्यानयन्ति महाधियो न यथाक्षरमात्रसन्निवेशं पूर्वगतसूत्रार्थसङ्ग्रहपरतया, कालिकस्तु तस्य क्वचित्ससिप्तस्याप्यर्थस्य महता बिस्तारेण वचिद्विस्तारवतोप्यतिसंक्षेपेणाभिधाने अक्तिनैः स्वमति यथा वस्थितार्थतया ज्ञातुमशक्यत्वादत एवोक्तमिदमन्यत्र - "जं जह भणियमित्यादि" तस्मात् पूर्वसूरिकृतव्याख्यानान्नाधिकृत ग्रन्थविरोधः॥ आहच भाष्यकृत् "सुत्ताभिप्पाओयंपयासयणिजे तयं न उपयासए। वक्खाणओ विसेसो न हि संदेहादिलक्खणया। प्रज्ञा० 15 पद।। सातिरेकयोजनलऑनयनविषयप्रमाणं ब्रुवतः सूत्रस्यायमभि प्रायः इयं विवक्षा यदुत स्वयं तेजोरूपप्रकाशरहितत्वात्पर-प्रकाशनीयं यद्वस्तु पर्वतगर्तादिकं तत्रैव तत्सातिरेकयोजन-लक्षनयनविषयप्रमाणतया द्रष्टव्यं / नतु स्वयमेव तेजोयुक्तत्वेन प्रकाशे चन्द्रार्कादिकं प्रकाशके वस्तुनि, एतदुक्तं भवति कश्चिन्निर्मलचक्षुर्जीवः सातिरेकयोजनलक्षे स्थितं पर्वतादिकं वीक्ष्य त इति प्रकाशनीयपर्वतगर्तादिके वस्तुनि नयनस्य तद्विषयप्रमाणमुक्तं प्रकाशकत्वादित्यादिकेऽनियमः / कुतः पुनरयं सूत्राभिप्रायो गम्यत्, इत्याह-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः कर्तव्या नतु संदेहादुभयपक्षोक्तिलक्षणत्वात्सूत्रस्य सर्वज्ञप्रणीतस्यालक्षताऽसमञ्जसाभिधायिता व्यवस्थापनीया व्याख्यानात्सूत्रं विषयविभागेन धारणीयं न तूभयपक्षोक्ति-मानभ्रमितैस्तद्विरोध उद्भावनीय इत्यर्थः / उक्तंच / 'जं जह सुत्ते भणियं तहेव जइ तं वियालणा नत्थि / किं कालियाऽणुओगो दिट्ठो दिट्टिप्पहाणे हिं / / " तदेवभप्राप्तकारिता विचारप्रक्रमेण नयनस्य विषयप्रमाणुक्तम्। विशे० / / तथा घ्राणेन्द्रियजिह्वे न्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणि गन्धादीनुत्कर्षतो नवयोजनेभ्यः आगतान् अच्छिन्नान् द्रव्यान्तरैरप्रतिहतशक्तिकान् परिच्छिन्दतिन परत आगतान् परत आगतानां मन्दपरिणाम-त्वाभावात् घ्राणादीन्द्रियाणां च तथारूपाणामपि तेषां परिच्छेदं कर्तुमवशक्यत्वात् - आह च भाष्यकृत् "बारसहिंतो सुत्तं, सेसाणं नवहि जोयणेहिंतो। गिण्हंति पत्तमत्थं एतो परतो न गिण्हति" (प्रज्ञा. 15 पद) मेघगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतोद्वादशयोजनेभ्यः समायातंगृह्णाति श्रोत्रम्, उक्तशेषाणि त्विन्द्रियाणि घ्राणरसनस्पर्शनलक्षणानि गन्ध रसस्पर्शलक्षणमर्थमुत्कर्षतो नवयोजनेभ्यः प्राप्तं गृह्णन्ति / / इतः परतोऽप्यायातं शब्दादिकमेतानि न गृह्णन्ति। ननु मेघगर्जितादि विषयः शब्दः प्रथमप्रावृषि दूरे प्रथममेघवृष्टौ सत्यां मृत्तिकादिगन्धश्च दूरादप्यायातो गृह्यमाणः समनुभूयते रसस्पर्शी तु कथमिति चेदुच्यतेदूरादागतानां गन्धद्रव्याणां रसोपि तावत्कश्चिद्भवत्येव स च तेषां जिह्वासंबन्धे सति यथासंभवं कदाचित् केनचित् गृह्यत् एव / तथा च वक्तारो भवन्ति "कटुकस्य तीक्षणादेर्वा वस्तुनः संबंधी अयं गन्ध" इति। यदिह कटुकत्वंतीक्षणादित्वं चोच्यतेतद्रसस्यैवधर्मस्ततश्च ज्ञायते जिलासंबन्धि तेषां कटु कादिरसोऽपि गृह्णीत इति स्पर्शो ऽपि शीतादिदूरादपि शिशिरः पद्मसरः सरित्समुद्रादेमध्येनाया तस्य यातादेरनुभूयत एवेति। यद्येवं तहिंद्वादशनवयोजनेभ्यः परतोप्यायाताः शब्दगन्धादयः किमिति न गृह्यन्त इत्याह ... दव्वाणं मंदपरिणा-मत्ता परओन इंदियबलंपि। अवरमसंखिजंगुल-भागओ नयणवाणं॥ द्वादशनवयोजनेभ्यः परतः समायातानां शब्दादिगन्धादि द्रव्याणां मन्दपरिणामत्वान्न खलु परतः समायातानां तेषां तथाविधपरिणामो भवति येन श्रोत्राघ्राणादि विज्ञानं जनयेयुः / श्रोत्रादीन्द्रियाणामपि च तथाविधं बलं न भवति येन परतः समायातानिशब्दादिद्रव्याणि गृहीत्या स्वविज्ञानं जनयन्तुतदेवमुक्तमिन्द्रियाणां उत्कृष्टं विषयपरिमाणम्। अथ जघन्यं तद्विभणिषुराह (अवरमित्यादि) अवरंजघन्यं विषयप्रमाण मुच्यते किमित्याह / असंख्यात-तमादगुलादसंख्येयभागादागतं गन्धादिकं घ्राणादीनि गृह्णन्ति किमेतत्सर्वेषामपीन्द्रियाणां जघन्यविषयप्रमाणं नेत्याह नयनवर्जानां नयनस्य तर्हि का वार्ता इत्याह -- संखिजइ भागाओ, नयणस्स मयस्स न विसयपमाणं / पोग्गलमित्तनिबंधा, भावाओ केवलस्सेवा।। अगुलासंख्येभागाद गुलसंख्येयभागमवधौ कृत्वा नयनस्य जधन्यं विषयपरिमाणमतिसं निकृष्ट स्याञ्जनशलाकारजो मलादेस्तेनानुपलम्भादिति भावः / मनसस्तु क्षेत्रतो नास्त्वेव विषय-प्रमाणं नियमेन दूरे आसन्ने च तत्प्रवर्तत इत्यर्थः कुत इत्याह / पुद्रलमात्रस्य निबन्धो नियमस्तस्याः भावान्मूर्तामूर्तसम-स्तवस्तुविषयत्वेन पुद्रलेष्वेवेदं प्रवर्तत इत्येवं भूतस्य नियम-स्याभावात्केवलस्येवेत्यर्थः / इह यत्पुद्गलमात्रनिबन्धं नियतं न भवति न तस्य विषयपरिमाणमस्ति यथा के वलस्य, पुदलमात्रनिबंधाऽनियतं च मनस्ततो नास्य विषयपरिमाणं यस्य तु विषयपरिमाणं तत्पुद्गलमात्रनिबंधरहितमपि न भवति यथा-ऽवधिमनःपर्यायज्ञाने इति। अत्राह-नन्वऽनैकान्तिकोऽयं हेतुर्मतिश्रुतज्ञानाभ्यां व्यभिचारात्तथाहि मूर्तामूर्तसमस्तवस्तु-विषयत्वेन तावन्नैते पुद्गलमात्रनिबन्धनियताऽथ च दृश्यते श्रोत्रादीन्द्रियप्रभवेयोस्तयोदशयोजनादिकं क्षेत्रतो विषयप्रमाणमिति तदेतदसमीक्षिताभिधानमेव यतः इन्द्रिय-प्रभवयोरेवतयोरिदं विषयपरिमाणं इन्द्रियाणि च पुद्गलमात्र-निबन्धनियतान्येवेति कुतो व्यभिचारः / मनः प्रभवयोस्तु तयोरस्ति पुद्रलमात्रनिबन्धाभावः केवलं तयोः क्षेत्रतो विषयपरिमाणपि नास्त्यतः कुतोऽनैकान्तिकतेत्यलंविस्तरेणेति / विशे० / आ. म. प्र. तंदु, आ. चू। इन्द्रियाणि च रक्षणीयानि। उक्तंच "इन्द्रियाणि न गुप्तानि लालितानि न चेच्छया। मानुष्यं दुर्लभम्प्राप्य न भुक्तन्न विशेषितम्" इति। आचा०१ श्रु०२ अ०२ ऊ। (11) अथेन्द्रियासम्भूतानां स्यरूपस्येन्द्रियासंवरदोषस्य चाभिधायकं गाथाकदंबकं ज्ञाताधर्मकथायाः सप्तदशेऽध्ययने यथाकरलरिभिय महुरतंती-ताल ताल वंसककुदाभिरामेसु / सेहसु रममाणा रमंति सोइंदियवसट्टा ||1|| सोइंदियदुदंत-तणस्स अह एत्तिओ हवइदोसो।। दिविगरूवमसहंतो, बहवंधं तित्तिरो पत्तो॥शा थण-जहण-वयण-कर-चरण-णयण-गव्विय विलसियंगइसु / रूवेसु रजमाणा, रमंति चक्खिदियवसट्टा / / 3 / / चक्खिदियदुइंत-तणस्स अह एइओ हवइदोसो।। जं जलणंमि जलंते, पयइ पयंगो अबुद्धीओ ||4|| अगुरुवरपवरधूवण-उयमल्लाणुलेवण विहीसु॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 594 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय गंधेसु रज्जमाणा, रमंति वाणिदियवसट्टा / / 5 / / घाणिंदियदुदंत-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो॥ जं ओसहिगंधेणं, विलओ णिद्धावई उरगो ||6|| तित्त-कडुय-कसायं, महुरं-बहु खज्ज-पेज-लेज्जेसु / / आसायंमि उ गिद्धा, रमंति जिभिदियवसट्टा / / 7 / / जिभिदियहृत-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो।। जंगललग्गक्खित्तो, फुरइ थलविरेल्लिओ मच्छो / / 8 / / उउभयमाणसुहे सुय, सविभवहिययगमणणिव्वुइकरेसु। फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिंदियवसट्टा ||9|| फासिंदियदुदंत-तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो।। जं खणइ मत्थयं कुं-जरस्स लोहंकुसो तिक्खो ||10|| कलरिमियमहुरतंती-तलताल वंसककुहाभिरामेसु // सद्देसु जेण गिद्धा, वसट्टमरणं ण ते मरए ||11|| थणजहण वयण कर चरण गब्विय विलासियगइसु // रूवेसु जेण रत्ता, वसट्टमरणं ण ते मरए ||12|| अगुरुवर पवर धूवण, उउयमल्लाणु सेवणविहीसु / / गंधेसु जेण गिद्धा, वसट्टमरणं ण ते मरए / / 13 / / तित्तं कडुयकसायं, महुरं बहु खज पेज लेजेस / / सादेसु जे ण गिद्धा, वसट्टमरणं ण ते मरए ||2|| उउभयमाणसुहेसु य,सविभवहिययमाणणिवुइकरेसु। फासेसु जे ण गिद्धा, वसट्टमरणं ण ते मरए / / 15 / / सद्देसु य भहेसु य, पावएसु सोय विसयमुवगएसु // तुट्टेण व रुटेण व, समणेण सया ण होयध्वं / / 16 / / रूवु य भद्दगेसु, पावएसु चक्खुविसयमुवगएसु / / तुट्टेण व रुटेण व, समणेण सया ण होयट्वं / / 17 / / गंधेसु य भद्देसुय, पावएसु घाणविसयमुवगएसु / / तुढेण व रुद्वेण व, समणेण सया ण होयव्वं / / 18 / / रसेसु य भदएसुय, पावएसु जिब्भविसयमुवगएसु / / तुह्रण व रुट्टेण व, समणेण सयाम होयव्वं / / 19 / / फासेसु य भद्देसुय, पावएसु कायविसयमुवगएसु॥ तुटेण व रुद्रुण व, समणेण सया ण होयव्वं / / 20 / / (कलरिभियमहुरतंतीत्ति) कला अत्यन्तश्रवणहृदयहरा अव्यक्तध्वनिरूपाः अथवा कलावन्तः परिमाणवन्त इत्यर्थः / रिभिता स्वरघोलना प्रकारवन्तः मधुराः श्रवणसुखकराये तन्त्रीतलतालवंशास्ते तथा। तत्र तन्त्री वीणा तलताला हस्तताला अथवा तला हस्तास्तालाः कंसिकाः वंशावेणवः इह चतन्त्र्यादयः कलादिभिःशब्दधमैर्विशेषिताः शब्दकारणत्वात्ते च ते ककुदाः प्रधानाः स्वरूपेणाभिरामाश्च मनोज्ञा इति कर्म-धारयोऽतस्तेषुरमन्ते रतिं कुर्वन्तीतियोगः। (सद्देसुरजमाणा रमंति सोयंदियवसद्देत्ति) शब्देषु मनोज्ञध्वनिषु श्रोत्रविषयेषुरज्यमाना रागवन्तः श्रोत्रेन्द्रियस्य वशेन बलेन ऋताः पीडिता इति विग्रहः ये शब्देषु रज्यन्ते तत्कारणेषु तन्त्र्यादिषु श्रोत्रेन्द्रियवशाद्रमन्ते इति वाक्यार्थः / अनेन च कार्यतः श्रोत्रेन्द्रियस्वरूपमुक्तम्॥१॥ (सोइंदियदुदंतेत्ति) कण्ठ्या॥ नवरं शाकुनिकपुरुषसंबन्धी पंजरस्थतित्तिरिर्दीपिक उच्यते / तस्य यो रवस्तमसहमानः स्वनिलयान्निर्गतो बन्धममरणं बन्धं च पंजरबंधनं प्राप्त इति ॥२।(थणजघणवयणेत्ति) स्तनादिषु तथा गर्वितानां सौभाग्यमानवतीनां स्त्रीणां या विलासिता जातविलासाः सविकारा गतयः तासु चेत्यर्थः (रूवेसु रज्जमाणा रमंति)। प्रतीतमेव // 3 // (चक्खिदियत्ति) // 4 // कंठ्या / / (अगरुवरपवणेत्ति) कंठ्या नवरम् अगरुवरः कृष्णागरुः प्रवरधूपनानि गन्धयुक्क्युपदेशविरचिताधूपविशेषाः (उउयत्ति) ऋतौर यान्युचितानि तानि आर्तवानि माल्यानि जात्यादिकुसुमानि अनुलेपनानि च श्रीखण्डकुंकुमादीनि विधय एतत्प्रकारा इति / / 1 / / (घाणिं-दियदु।त्ति // 6|| कंठ्या / (तितकडुयत्ति) पुर्ववन्नवरं तिक्तानि निम्बवटकादीनि कटुकानि शृंगवेरादीनि कषायाणि मुद्रादीनि अम्लानि तक्रादिसंस्कृतानि मधुराणि खंडादीनि खाद्यानि कूरमोद कादीनि पेयानि जलमधुदुग्धादीनि लेह्यानि मधुशिखरिणी प्रभृतीनि आस्वादे रसे / / 7 / / (जिभिदियत्ति) कण्ठ्या / नवरं गलं बडिशं तत्र लग्नः कण्ठे विद्धत्वात् उत्क्षिप्तो जलादुद्भुतस्ततः कर्मधारयः स्फुरति स्पन्दते स्थले भूतले (विरल्लिओत्ति) प्रसारितः क्षिप्त इत्यर्थः यः स तथा। उउभयमाणेकंठ्या // नवरं ऋतुषु हेमंतादिषु भजमानानि सेव्यमानानि यानि सुखानि सुखकराणि तानि तथा तेषु सविभवानि समृद्धियुक्तानि महावचनानीत्यर्थः। हितकानि प्रकृत्यनुकूलानि सविभावानां वा श्रीमतां हितकानि यानि तानि तथा मनसो निवत्तिकराणि यानि तानि तथा ततः पदत्रयस्य तवयस्य वा कर्मधारयस्तत्तेस्रक्चन्दनाङ्गनावसनतुल्यादिषु द्रव्येष्विति गम्यते // 9|| फासिंदियदुदंतेत्ति-भावनाप्रतीतैव / / 10 / / अथेन्द्रियाणां संवरे गुणमाह - (कलरिभियमुहुरेत्ति) पूर्ववन्नवरमिह तन्त्रादयः शब्दकारणत्वेनोपचाराच्छब्दा एव व्यवस्थिताः अतः शब्देष्वित्येव तस्य विशेषणतया व्याख्येयास्तथावशे नेन्द्रियपारतन्त्र्येणऋताः पीडिता वशार्ताः वशंवा विषयपारतन्त्र्यंऋताः प्राप्ताः वशार्ताः तेषां मरणं वशार्तमरणं वशार्त्तमरणं (वा नतेमरएत्ति) नियन्ते छान्दसत्वादे कवचनप्रयोगेपि बहुवचनं व्याख्यातमिति // 11|| (थणजघणेत्ति) // 120 एवमन्यास्तिस्रोगाथा पूर्वोक्ता वाच्या ||15|| उपदेशमिन्द्रियाश्रितमाह (सद्देसुयभदत्ति) कंठ्यम् / नवरं / भद्रकेषु मनोज्ञेषु पापकेष्वमनोज्ञेषु क्रमेण तुष्टेन रागवता रुष्टन रोषवतेति // 16 // एवमन्या अपि चतस्रोऽध्येतव्याः। इहविशेषोपनयमेवमाचक्षते "जह सो कालियदीवो, अणुवमसोक्खो तहेवजाइधम्मोय।जह आसा तह साहु, वणियव्वणुकूलकारि जणो|१|| जह सद्दाइअगिद्धो, पत्ता नो पासबंधणं आसा / तह विसएसु अगिद्धा, वठभंति न कम्मणो साहू // 2|| तह सच्छंदविहारो, आसाणं तह इहं वरमुणीणं / जरामरणाइवज्जियसायत्ताणंदनिव्याणं / / 3 / / जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेह विसयरया। पावेंति कम्मबंध परमा सुहकारणं घोरं / / 40 जह ते कालियदीवा णीया अण्णत्थ दुहगणं पत्ता / तह धम्मपरिन्भट्ठा, अधम्मपत्ता इह जीवापा पावंति कम्म-नरवइवसया संसार बाहियालीए। आसप्पमद्दएहि व नेरइ-याइहिंपिदुःक्खाइंति। ज्ञा० 17 अ / (12) पञ्चेन्द्रियेषु गुप्तागुप्तयोर्गुणदोषौ ज्ञाताधर्मकथायां कूम्माभिधाने चतुर्थेऽध्ययने यथा Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 595 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदिय तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी होत्था वण्णओ तीसेणं वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयगंतीरबहे णामं दहे होत्था अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयजले अच्छविमलस-लिलपलिछिन्ने संछन्नपत्तपुप्फपलासे बहुउप्पलापउमकुसु मनलिनसुमगसो गंधियपुड रियमहापुडरीयसयपत्तसहस्सपत्तकेसरपुप्फोवचिए पासादिए / 4 / तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छत्ताण य गाहाण य मगराण य सुसुमाराण य सयाणि य साहस्सियाणि य जूहा य निब्भयाइं णिरुट्विगाई सुहं सुहेणं अमिरममाणाई विहरंति तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामते एत्थणमहं एगेमालुया कच्छए होत्था वण्णओ तत्थणं दुवे पावसियालगा परिवसंति पावा चंडालरुद्दा तलिच्छा साहस्सिया लोहितपाणिआमिसत्थी आमिसाहाए आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रत्तिवेयालचारिणो दिया पच्छिणया वि चिट्ठति तएण ताओ मयंगतीरहहातो अन्नया कयाई सूरियं सि चिरत्थमयंसि लिलयासज्झाए य विरलमाणुसं सिणिसंतं पडिनिसंतंसि दुवे कुम्मगा आहारत्थी आहारंति गवेसमाणा सणियं 2 उत्तरंति तस्स मयंगतीरदहस्स परिपरे तेणं सव्वतो सम्मंता परिघोलेमाणे 2 वित्तिं कप्पेमाणे विहरंति तयाणंतरं च णं ते पावसिया लगा आहारत्थी आहारं जाव गवेसमाणा मालूया कच्छ यातो पडिणिक्खमंति जेणेव मयंगतीरदहे तेणेव उवागच्छंति तस्सेव मयंगतीरदहस्स परिपरे तेणं सव्वओ समंता परिघोलेमाणा वित्तिं कप्पेमाणे विहरंति तएणं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति जेणेव कुम्मए तेणेव पहारेत्थगमणा ते तएणं ते कुम्मगा ते पावसियाले एजमाणे 2 पासंतिरत्ता भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया हत्थे य पाए य गीवाओ सएहिं काएहिं संहरत्ति 2 ताणिचला णिप्फंदा तुसणिया संचिट्ठति तएणं ते पाव सियाला जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता ते कुम्मगा सव्वतो सम्मंता उच्चतेत्ति आसारेत्ति चालेत्ति घट्टेत्ति फंदेत्ति खो ति नेहेहिं आलुपंति दंतेहि य आखोडेंति नो चेव णं संचाएत्ति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स अवा वाहं वा उप्पात्तित्तए छविच्छेयं वा करित्तएतएणं ते पावसियालगा ते कुम्मए दोचं पि तच्चं पि सव्वतो समंता उव्वत्तेत्ति जाव नो चेव णं संचाएत्ति करित्तए ताहे संता तंता परितंता णिव्विणा समाणासणियं पच्चोरुहत्ति एगंतमवकमंति | णिचला णिप्फंदा तुसिणिया संचिट्ठति तए णं एगे कुम्मए ते / पावसियालए चिरगते दूरं गए जाणेत्ता सणियं 2 एगं पायं निक्खुभंति तत्थ णं ते पाव सियाला तेणं कुम्मएणं सणियं 2 एगं पायं तिणियं पासतिश्त्ता सिग्घं चवलं तुरियं चंड जइणवेगसियं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छइरत्ता तस्सणं कुम्मस्स तं पायं नहिं आलुपंति दंतेहिं आखाडेंति ततो पच्छा मंसंच सोणियं च आहारेत्तिश्त्ता ते कुम्मगं सव्वतो सम्म उध्वत्ते त्ति नो चेव णं संचाएत्ति करेत्तए ताए दोचं पि तचं पि अवक्कमति एवं चत्तारिपाया जावसणीयंगीवं णिणेइंश्त्ता तएणं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं गीवंता य पासंति त्ता सिग्धं चवलं नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडे तिश्त्तातं कुम्मगं जीवियाउ ववरोवेंति मंसंच सोणियं च आहारेंति एवामेव समणाउसो जो अम्ह णिग्गंथो वा निग्गंथीवा आयरियउवज्झायाणं वा अंतिते पव्वए समाणे पंच य से इन्दिया अगुत्ता भवंति सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं हीलणीजे परलोगे विय णं आगच्छइं बहूणं दंडणाणि य जाव अणुपरियट्टइ जहा व से कुम्मए अगुत्तिदिए तएणं ते पापसियालगा जेणेव से दोच्चे कुम्मए तेणेव उवा गच्छइश्त्तातं कुम्मए सव्वतो संमंता उवत्तिंति जाव दंतेहिं निखो.त्ति जाव करित्तए तएणं ते पावसियालगा दोचं पिजाव नो संचाए त्ति तस्स कुम्मस्स किंचि अवा वाहं वा जाव छविच्छेयं वा करित्तए ताहे तंता परितंता णिटिवणा समाणा जामेव दिसंपाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया तएणं से कुम्मए तेणेव पावसियालए चिरए दूरगए जाणित्ता सणियं गीवंतिणेत्ति 2 दिण्णलोयं करेंति जमगसमगं चत्तारि पाए नीणेइश्त्ता ताए उकिट्ठाए तुरियाए कुम्मगतीए वतीवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ रत्ता मित्तणाइनियगसयण संबंधि परियणेणं सद्धि अभिसमण्णागए यावि होत्था ए वामेव समणाउसो जो अम्हं समणो वा२पंच य से इंदिया तिगुत्ताई भवति जाव जहा से कुम्मए गुत्तिदिए। (टीका सुगमत्वाठ्याख्यातापि न गृहीता) नवरं "विसएसु इंदियाई, रुभंता रागदोसनिम्मुक्का। पावंति निव्वुइ सुहंकुम्मुव्व मयंगदहसोक्खं // इयरे उअणत्थ, परंपराउ पावंति पावकम्म-वसा। संसारसागरगया, गोमाउ गसियकुम्मो व्व। ज्ञा० 4 अ॥ (13) तानि चानामितानि दुःखाय भवन्तीत्यत्र घ्राणेन्द्रिये उदाहरणकुमारो गंधप्पिओ सो अणवरयं नागकडएण खेल्लइ / माइ सवतीए एयरस मंजूसाए विसं छोण नदीए पवाहियंतेणं हिट्ठा उत्तारिया उग्घाडेऊण पलोइउ पवत्तो पडिमंजूसाइए हि ओ समुग्गको दिट्ठो सो अण्णेण उग्घाडिऊण जंघित्तो मत्तो य एवं दुक्खायगाणिंदियं / आ. म. द्वि. / / फासिंदिए उदाहरणम्वसंतपुरे नयरे जियसत्तूराया कुसुमालिया से भज्जा तासे Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय 596 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इंदिय अतीव सुकुमालो फासो राया रत्तिदिनं चिंतेइ सो ताए निच मेव परिभुज्जमाणो अत्थई एवं कालोबव्वई निचेहिं समं मति ऊण तीए सह निच्छूढो पुत्तो जेट्ठरवितो ते अडवीए वचंति सातिसाइया जलं मग्गई। अच्छीणि से बद्धाणि माबीहेहित्ति / सिरारुहिरं पज्जिया रुहिरे मूलिया बूड्डा जेण न थिजइ / छुहाइया उरूमंसं दिन्नं उरूग सो रोहिणीए रोहियांजणवयं पत्ताणि आभरणगाणि साववियाणि एत्थ वाणियत्तं करेइ पंगुय से वीहाए सो वग्गो घटितो सो भणई नसक्णोमिएगागिणी गिहे वि चिट्ठउं विइज्जयंलाभाहिं चिंतियं वणेण निव्वाकपंगूसोभणो यततो नेणसो नेडुवालो निउत्तो तेणगीयच्छलियकहाइहिं आवजिया पच्छासातत्थेव लग्गा भत्तारस्स छिद्दाणि भग्गई जाहे न लहइ ताहे उझाणिया एगतो सुविछवो वहुमजं पाएता गंगाए पक्खित्तोसा वि तंदव्यखाइऊणतं वहइ गायंतिधरेघरे पुच्छिया भणइ मायापिईहिं एरिसो दिनो किं करेमि सोय रायाए कच्छनगरे उच्छलितो रुक्खच्छायाए पमुत्तो न पराक्तइछाया तत्थ राया अपुत्तो मतो आसो अहिवासितो तत्थ गतो जयजयसद्देण परिवोहितो राया जातो ताणि वितत्थगयाणि रण्णो कहियं अण्णो वि याणि सा पुच्छियासाकहइ / अम्मापिईहिं दिन्नो राया भणइ "बाहुभ्यां शोणितं पीतं उसमांसं च भक्षितम् / गंगायां वाहिता भर्ता साधु साधु पतिव्रते" निविसयाणि आणत्ताणि एवं फासिंदिय दोण्हं वि दुक्खाय विसेसिता सुकुमालियाए किं च "शब्दाःसङ्गे यतो दोषा मृगादीनां शरीरजाः। सुखार्थी सततं विद्वान् शब्दे किमिव संगवान् 1 पतंगानां क्षयं दृष्ट्वा सद्यो रूप प्रसंगतः। स्वच्छ चित्तस्य रूपेषु किं व्यर्थः संगसंभवः // 2 // उरगान् गंधदोषेण परतन्त्रान् समीक्ष्य कः / गंधासक्तो भवेत्कोयं स्वभावं वान चिन्तयेत्॥३॥ रसास्वादप्रसंगेन मत्स्या उत्सादिता यतः। ततो दुःखादिजनने रसे कः संगमाप्नुयात् // 4 // स्पर्शातिरिक्तचित्तानां हस्त्यादीनां समैक्षत अस्वातंत्र्यं समीक्ष्यापिकःस्यात्स्पर्शनसंगतः 1दा एवं विधानीन्द्रियाणि संसारवर्द्धकानि विषयलालसानि दुर्जयानि दुरन्तानि / आ० म. द्विः। आ. (अथान्यान्युदाहरणानि 'सोइंदियादि' शब्दे) (14) इन्द्रियमाश्रित्य जीवानां भेदा यथादुविहा सध्वजीवा पण्णत्ता तंजहा सेंदिया चेव अणिंदियाचेव॥ दुविहेत्यादि / कंठ्या चेयं नवरं सेन्द्रियाः संसारिणोऽनिन्द्रिया अपर्याप्तकेवलीसिद्धाः / स्था०२ ठा०। अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा एगिदिया जाव पचिंदिया अणिंदिया। स्था०६ ठा। एकेन्द्रियाः द्वीन्द्रियाःत्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः असंज्ञिसंज्ञि-भेदभिन्नाश्च पंचेन्द्रियाः एते च सर्वोपि प्रत्येकमपर्याप्ताश्च / तत्र एक स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पृथिव्य-प्लेजोवायुवनस्पतयः ते प्रत्येकं द्विधा सूक्ष्मा बादराश्च तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः सकललोकव्यापिनः बादरनामकर्मोदयात् बादरा लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः। तथा द्वेस्पर्शनरसनलक्षणे इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः शंखश्च सूक्तिका-चंदनक कपर्दक जलूकी क्रमि गंडोलक पूत्तरकादयः। तथा त्रीणि स्पर्शन-रसन-घ्राणलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां तेत्रीन्द्रियाः यूकामत्कुण-गर्दभेन्द्रगोप-कुंथु-मक्कोट-पिपीलि-उदेहिका कर्पा-सास्थिकअपुस-वीजक-तुस्थुरुकादयः। चत्वारि स्पर्शनरसन-घ्राणचक्षुर्लक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः / भ्रमरमक्षिका दंश-मशक-वृश्चिककीट-पतंगादयः। पंचस्पर्शनरसन घ्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते पंचेन्द्रियाः / मत्स्य-मकर मनुजादयः ते च / द्विभेदाः / संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च तत्र संज्ञानं संज्ञा चेतनवद्भाविनावश्यंभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां तेसंज्ञिनः विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः / यथोक्तं / मनो विज्ञान विकला असंज्ञिनः एते च सर्वोपि प्रत्येक सपर्याप्ताश्च / पं. सं०१ द्वा० अनिन्द्रिया अपर्याप्ताः केवलिनः सिद्धश्चेति। स्था०६ ठा० / एकेन्द्रियादीनाम्बहवो भेदास्तत्तच्छब्देऽपि दृष्टव्याः (इन्द्रियमाश्रित्य बन्धोदयसत्तासंबन्धानां विचारः 'कम्म' शब्दे) रेतसि, वीर्य, च / वाच / *ऐन्द्रिय-त्रि. इन्द्रियेण प्रकाश्यते अण् / इन्द्रियप्रकाश्ये प्रत्यक्षात्मके ज्ञानभेदे, तस्येदं अण् इन्द्रियसंबंधिनि, वाच / इंदियअवाय-पु. (इन्द्रियापाय) इन्द्रियैरपाय ईहितस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायः इन्द्रियापायः। ईहितं शाङ्गएवायम् / शाङ्गएवायमित्यादिरूपेन्द्रियैः कृतेऽवधारणात्मके निर्णये,। "कइविहेणं भंते! इंदियअवाए पण्णत्ते सोइंदिए अवाए जाव फासिंदिय अवाए एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ इंदिया अस्थि / प्रज्ञा० 15 पद। इंदियउग्गहणा-स्त्री. (इन्द्रियावग्रहणा) इन्द्रियैः परिच्छेदे, सच परिच्छेदो ऽपायादिभेदादनेकधेति। तद्भेदादि प्रज्ञापना याम् यथाकइविहाणं भंते / इंदियओगाहणा पण्णता? गोयमा। पंचविहा इंदियओगाहणा पण्णत्ता तंजहा-सोइंदिय ओगाहणा जाव फासिंदिय ओगाहमा एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइइंदिया तस्सतइ अत्थि।। (कतिविहेत्ति)। कतिविघं कतिप्रकारं भदन्त ! इद्रियैरवग्रहणं परिच्छेदे प्रज्ञप्तः। प्रज्ञा 15 पद। (अपायेहा वग्रहादयस्तत्तच्छब्दे द्रष्टव्याः)। इंदियउवओगद्धा-स्त्री. (इन्द्रियोपयोगाद्धा) इन्द्रियोपयोगस्याद्धाकाले, सच यावन्तं कालमिन्द्रियैरुपयुक्त आस्ते तावत् काल इति। प्रज्ञा० 15 पद। कति विहाणं भंते ! इन्दियउवओगद्धा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियउवओगद्धा पण्णत्ता तंजहा सोइंदियउव ओगद्धा जाव फासिंदियउवओगद्धा एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि / एतेसि णं मंते / सोइंदिय चक्खिदियघाणिं दिय जिभिदिय फासिं दियाणं जहनियाए उवओगद्धाए उको सियाए उवओद्धाए जहन्नुकोसियाए उव ओगद्धाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4 गोयमा! सव्वत्थो वा चक्खिदियस्स जहनिया उवओगद्धा सोइं दियस्स जहन्निया उवओगद्धा विसेसाहिया, धाणिंदि यस्स जहन्निया उवओगद्धा विसेसाहिया, जिभिदि यस्स जहनिया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासिंदियस्स अप्पासोईदिउवओग Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदियउवचय 597 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदियजय जहनिया उप्पओगद्धा विसेसाहिया, उक्कोसियाए, उवओ गद्धाए | इंदियग्गाम-पु. (इन्द्रियग्राम)६त. इन्द्रियसमुदाये, "बलवानिन्द्रियग्रामः सव्वत्थो वाचविखदियस्स उकोसिया उवओगद्धा, सोइंदियस्स / पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति" आचा. 1 श्रु०५१०४ उ। उकोसिया उवओगद्धा विसेसा हिया,घाणिंदियस्स उकोसिया | इंदियचोर-इन्द्रियचौर-इन्द्रियरूपेचोरे, "जिणवयण अणु गया मे, उवओगद्धा विसेसाहिया, जिभिदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा होउमईज्झामजोगमल्लीणा। ताहे इंदियचोरा, करितितवसंजमविलोमं विसेसाहिया, फासिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, | // 7 // " महा. प०॥ जहन्नु कोसियाए उवओगद्धाए सव्वत्थो वा / चक्खिदियस्स | इंदियजय-पु. (इन्द्रियजय) इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां जयः। इन्द्रियजयः। जहनिया उवओगद्धा सोइंदियस्स जहनिया उवओ गद्धा इन्द्रियाणामत्यन्ताशक्तिपरिहारेण स्वस्व-विकारनिरोधे,ध०१ अधिः / विसेसाहिया, धाणिंदियस्स जहनिया उवओगद्धा विसेसाहिया, "अजिइंदिएहि चरणं, कट्टवघुणेहिं कीरइ असार तो धम्मस्थिहिदढे, जिभिदियस्सजहन्निया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासिंदियस्स जइअव्वं इंदियजयम्मिा जहन्निया उवओगद्धा विसेसाहिया, फासिंदियस्स जहनियाहितो इन्द्रियपराजयग्रन्थे, तत्स्वरूपपञ्चाष्टके यथा--- उवओगद्धा हिंतो, चक्खिदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसा हिया, सोइंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया, विभेषि यदि संसारान्मोक्षप्राप्तिञ्च कांक्षसि। घाणिं दियस्स उबोसिया उवओगद्धा विसे साहिया, तदेन्द्रियजयं कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम्॥१॥ जिटिंभदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसे साहिया, वृद्धास्तृण्णाजलापूणरालबालैः किलेन्द्रियैः। फासिंदियस्स उक्कोसिया उवओगद्धा विसेसाहिया। प्रज्ञा.१५ मूच्छमितुच्छां यच्छन्ति विकारविषपादपाः / / 2 / / . पद। (टीका सुगमत्वान्न व्याख्यातेति न गृहीता.) सरित्सहस्रदुष्पूरस्समुद्रोदरसोदरः। इंदियउवचय-पु. (इन्द्रियोपचय) उपचीयते उपचयन्नीयते तृप्तिमानिन्द्रियग्रामो ऽभवत्तृप्तोऽन्तरात्मा // 3 // इन्द्रियमनेनेत्युपचयः प्रायोग्यपुद्गलसंग्रहणसम्पत् इन्द्रियाणा मुपचयः आत्मानं विषयैः पाशैर्भववासपराङ्मुखैः। इन्द्रियापेचयः इन्द्रियोपचयलक्षणः परिणामः (भ० 20 श.३ उ) इन्द्रियाणि निबध्नन्ति मोहराजस्य किङ्कराः॥४॥ इन्द्रियपर्याप्तौ, प्रज्ञा / तद्भेदाः यथा गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन्धावतीन्द्रियमोहितः। कइविहे णं भंते ! इंदियउवचए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे अनादिनिधनं पार्श्वे ज्ञानधनं न पश्यति // 5|| इंदियउवचए पण्णत्ते तंजहा-सोइंदियउवचए चक्खिदियउवचए पुरस्पुरस्स्मरन् तृष्णा मृगतृण्णांनुकारिषु / घाणिदियउवचए जिभिदियउवचए फासिंदियउवचए नेरइयामं इन्द्रियार्थेषु धावन्ति त्यक्त्वा ज्ञानामृतं जडाः // 6|| भंते ! कतिविहे इंदियउवचए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पतङ्गमीनेभभृङ्ग-सारङ्गायान्तिदुर्दशाम्। इंदियउवचए पण्णत्ते तं जहा सोइंदियउवचए जाव एकैकेन्द्रियदोषाच दुष्टैस्तेषां न पञ्चभिः / / 7 / / फासिंदियउवचए एवं जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया विवेकद्विपदैर्यक्षैस्समाधिधनतस्करैः। तस्स तइ विहो चेव इंदियनवचओ भणियव्वो।। इन्द्रियैर्न जितो योऽसौ धीराणां धुरि गण्यते // 6 // अष्टoll (इंदियोपचएपण्णत्ते इत्यादि) सुगम (जस्स जइ इंदिया इत्यादि) यस्य "संयमाद् ग्रहणादीनामीन्द्रियाणां जयस्ततः"। नैरयिकादेर्यति यावन्ति इन्द्रियाणि सम्भवन्ति तस्य ततिविधस्तावत्प्रकार इन्द्रियोपचयो वक्तव्यः तत्र नैरयि कादीनां टी-संयमादिग्रहणादयो ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वानि तत्र स्तनितकु मारपर्यवसानानां पञ्चविधः पृथिव्यप्तेजोवायु वन- ग्रहणमिन्द्रियाणां विषयाभिमुखीवृत्तिः,स्वरूपं सामान्येन प्रकाशकत्वम्, स्पतीनामे कविधो द्वीन्द्रियाणां द्विविधः त्रीन्द्रियाणां त्रिविध- अस्मिता अहंकारानुगमः, अन्वयार्थवत्त्वे प्रागुक्तलक्षणे / तेषां यथाक्रम श्वतुरिन्द्रियाणां चतुर्विधः तिर्यक् पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरजोति- संयमादिन्द्रियाणां जयो भवति / तदुक्तं ग्रहणस्वरूपास्मितान्वष्कवैमानिकानां पञ्चविधः। क्रमश्चैवं स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः-श्रोत्राणीति यार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजय इति। द्वा०२६ द्वा।''आपदां कथितः पन्था // प्रज्ञा० 15 पद। इन्द्रिया णामसंयमः / तज्जयः संपदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम् / / इंदियगोयर--पु. (इन्द्रियगोचर) इन्द्रियस्य गोचरः विषयः / शब्दादिषु इन्द्रियाण्येव तत्सर्वं यत्स्वर्गनरकावुभौ / निगृहीतानि सृष्टा नि स्वर्गाय विषयेषु, ते हि प्रतिनियतमेकैकस्योन्द्रियस्य ग्राह्या यथा श्रोत्रस्य ग्राह्यः नरकाय चेति' सर्वथेन्द्रियजयस्तु यतीनामेव इह तु सामान्यतो शब्दः, त्वगिन्द्रियस्यस्पर्शस्तद्विशिष्टद्रव्यञ्च, चक्षुषो रूपंतदाश्रयव्यञ्च, गृहस्थधर्म एवाधिकृतस्तेनैवमुक्तं युक्त मिति। ध०१ अ / पंचानामपि रसनाया रसः घ्राणस्य गन्ध इत्यादि। एवमन्यान्यपि न्यायादिमते स्पर्शादीनामिन्द्रियाणां जयो दमनं यस्मादसाविन्द्रियजयः तत्तदिन्द्रियग्राह्याण्युक्तानि यथा"घ्राणस्य गोचरो गन्धो गन्धत्वादिरपि स्मृतः। तथा रसो रसज्ञायास्तथा शब्दोऽपि च श्रुतेः" / आदिपदात् इन्द्रियजयहेतुत्वादिन्द्रियजयः / तपोविशेषे, - तल्लक्षणादि यथा सुरभित्यासु रभित्वयोर्ग्रहणं तथा रसत्वं माधुर्यादिसहितः एवं शब्दत्व "पुरिमड्डेकासणं निव्विगई अआयंविलोववासेहिं / एगलयाइ य पंचहिं तारत्व मन्दित्वादि सहितः "उद्धृतरूपं नयनस्य गोचरो द्रव्याणि होइ तवो इंदिये जओत्ति" तपति निर्दहति दुष्कर्माणीति तपः तत्तु तदन्ति पृथक्त्वसंख्ये। विभागसंयोगपरापरत्वस्नेहद्रवत्वं परिमाण- नानाविधो पाधिनिबन्धनत्वादनेकप्रकारं तत्त्वेन्द्रियजयमूलत्वाजिनयुक्तम्" वाच // धर्मस्य प्रथममिन्द्रियजयास् यत्तपः तत्प्राह प्रथमदिने पूर्वार्द्ध Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदियट्ठाण 598 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंदियपज्जत्ति द्वितीयदिने एकाशनकं तृतीयदिने विकृतिकं चतुर्थदिने आचाम्लं / न्योपयोगावरणे, व्य. 100 उ०। (एतद्भेदादिदृष्टान्ताः परिणामय-शब्दे) पञ्चमदिने उपवासः इत्येवं पञ्चभिस्तपोदिनैरेकालताश्रोणिः परिपाटी | इंदियत्थ-पु. (इन्द्रियार्थ) इन्द्रियैरर्थ्यन्ते अधिगम्यन्त इतीन्द्रिया-र्थाः / चेत्येकार्थाः / एकैकं चेन्द्रियमाश्रित्यैवं स्व रूपा एकैका लता क्रियते ततः ठा०४ / अर्थ्यन्तेऽभिलष्यन्ते क्रियार्थिभिरित्यर्थाः इन्द्रियाणामर्था पञ्चभिलताभिः पञ्चविंशत्या दिवसैरिन्द्रियजयाख्यस्तपोविशेषो भवति इन्द्रियार्थाः।स्था०५ठा०। प्रकका नि.चू।"चत्वारि इंदियत्था पुट्ठावेदेति इन्द्रियाणां स्पर्श नादीनां पञ्चानामपि जयो दमनं तंजहा सोइंदियत्थे, घाणिंदियत्थे, जिभिदियत्थे, फासिंदियत्थे" टी. यस्मादसाविन्द्रियजयः / इन्द्रियजयहेतुत्वादिन्द्रियजयः / यद्यपि (पुट्ठत्ति) इन्द्रियसम्बद्धा वेद्यन्ते आत्मना ज्ञायन्ते नयनमनोवर्जानां सण्यिपि तपांसी न्द्रियजये प्रभूविष्णुनि तथापीन्द्रियजयमालम्ब्य श्रोत्रादीनां प्राप्तार्थ परिच्छेदस्वभावादिति / उक्तञ्च / "पुढेसुणेइसद्दक्रियमाणत्या दस्यैव तपसस्तद्धेतुत्वं पूर्वसूरिभिरभिहितमेवमुत्तस्त्रापि मित्यादि'' || स्था०४। "पंच इंदियत्था पण्णत्ता तंजहा सोइंदियत्थे वाच्यम्। प्रव० 270 द्वा०il जाव फा-सिंदियत्थे" श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं तच तदिन्द्रियं श्रोत्रेन्द्रियं इंदियद्वाण-न. (इन्द्रियस्थान) स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रा तस्यार्थो ग्राह्यः श्रोत्रेन्द्रियार्थः शब्दः एवं क्रमेण रूपरस गन्धे स्पर्शाख्यानीन्द्रियाणि तेषां स्यानान्यवकाशाः / श्रोत्रादीन्द्रिया श्वक्षुराद्यर्था इति। स्था००५ ठा० / अस्य षङ्विधत्वमपि "छइंदियत्था णामुपादानकारणेषु आकाशादिषु, / (पंचिंदियट्ठाणाणि) इन्द्रियाणां पण्णत्ता तंजहा सोइंदियत्थे जाव फासिंदियत्थे नो इंदियत्थे" स्था, चामूनि स्थानानि तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियस्याकाशं सुषिरात्मकत्वात् / ६ठा। घ्राणेन्द्रियस्य पृथिवी तदात्मकत्वात्। चक्षुरिन्द्रियस्य तेजस्तद्रूपत्वात्। इन्द्रियार्थानामतीतप्रत्युत्पन्नानागतभेदा यथा-- रसनेन्द्रियस्यापः। स्पर्शनेन्द्रियस्य वायुरिति। सूत्र०१ श्रु०१ अ॥ दस इंदियत्थातीता पण्णत्तातंजहा देसेण विएगे सदाइंसुणिंसु इंदियणिग्गह-पु. (इन्द्रियनिग्रह) इन्द्रियाणां श्रोत्रादीनां निग्रहो नियन्त्रणं सव्वेण वि एगे सद्दाइं सुणिंसु / देसेण वि एगे रूवाई पासिंसु स्पर्शादिविषयेषु लाम्पठ्यपरिहारेण वर्त्तनम्। तदात्मके संयमभेदे, ध०३ सव्वेण वि एगे रूवाइं पासिंसु / एवं गंधाई रसाइं फासाइं जाव अधि०। इष्टतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणे च / "इंदियाणं च निगहो" सव्वेण वि एगे फासाइं पडिसंवे-देसु। दस इंदियत्था पड़प्पन्ना इन्द्रियाणां च श्रोत्रादीनां निग्रह इष्टतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरण पण्णत्ता तंजहा देसेण विएगे सद्दाई सुर्णेति सव्वेण वि एगे सद्दाई मनगारगुणः / आव, 4 अ॥ सुणेति / एवं जाव फासाइं। दस इंदियत्था अणागया पण्णत्ता तंजहा देसेण वि एगे सद्दाइं सुणिस्सइ सव्वेण वि एगे सहाई इंदियाणिरोह-पु. (इन्द्रियनिरोध) इन्द्रियाणां स्पर्शनरसन सुणिस्सइ। एवं जाव सव्वेणवि एगे फा साई पडि-संवेदिस्सइ। घ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणां निरोधः स्वस्वविषयेभ्यो निवर्त्तनम् / इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाभावे,ध०३अधिः // चक्षुरादिकरणपश्चकसंयमे, (दस इंदियेत्यादि) कंठ्या नवरं (देशेणवित्ति) विवक्षितशब्द समूहापेक्षया देशेन देशतः कांश्चिदित्यर्थः एकः कश्चित् श्रुतवानिनि सम्मा तदात्मके करणभेदे च। ध०३अधि० ओघ / (सव्वेणवित्ति) सर्वतया सर्वानित्यर्थः। इन्द्रियापेक्षया वा श्रोत्रे-न्द्रियेण इंदियणिवत्तणा-स्त्री (इन्द्रियनिर्वर्तना) इन्द्रियाणां निवर्त्तना बाह्याभ्य देशतः संभिन्नश्रोतो लब्धियुक्तावस्यायां सर्वेन्द्रियैः सर्व-तोऽथवैकवर्णेन न्तररूपा या निर्वृत्तिराकारमात्रस्य निष्पादनम् / इन्द्रियाकारमात्रस्य देशत उभाभ्यां सर्वत एवं सर्वत्र। स्था१ ठा। निष्पादने, तद्भेदादि यथा तुल्ले वि इंदियत्थे, एगो सज्जइ विरजई एगो। कतिविहे णं भंते ! इंदियनिव्वत्तणा पण्णता ? अब्भत्थं तु पमाणं, न इंदियत्था जिणावेंति / / गोयमा ! पंचविहा इंदियनिव्वत्तणा पण्णत्ता तंजहा सोइंदियनि तुल्येऽपि समानेऽपि इन्द्रियार्थे इन्द्रियविषये रूपादौ रागहेतावेको रज्यते व्वत्तणा जाव फासिंदिय निव्वत्तणा एवं नेरइयाणं जाव रागमुपगच्छति / द्वितीयो विरज्यते विषयपरिणामस्य दारुणसा वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इदिया अस्थि तस्स तइया चेव परिभावयम् विरक्तो भवति / तस्मात्प्रायश्चित्तापत्त्यनापत्तिविषये सोइंदियनिव्वत्तणा णं भंते ! कइ समझ्या पण्णत्ता ? गोयमा ! अध्यात्मनान्तरपरिणामस्य प्रमाणं न इन्द्रियार्था इति जिना भगवन्तः असंखे जा समया अंतो मुहुत्तिया पण्णत्ता / एवं जाव सर्वज्ञा ब्रुवते। व्य. प्र.२ उ०॥ फासिदियनिव्वत्तणा / एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। (इन्द्रियार्थेषु रागकरणे प्रायश्चित्तं-विसय-शब्दे) (इन्द्रियार्थसंवेदननिर्वर्तना नाम बाह्याभ्यन्तररूपा या निर्वृत्तिराकारमात्रस्य निष्पादनं प्रकार-इंदिय-शब्दे) तदनन्तरं सा निर्वर्तना कति समया भवतीति प्रवेऽसंख्येयाः इंदियत्थ(वि) कोवण-न. (इन्द्रियार्थ (वि) कोपन) इन्द्रियार्थानां समयास्तस्या भवेयुरिति निर्वचनं वाच्यम्। प्रज्ञा. 15 पद। शब्दादिविषयाणां विकोपनं विकोप इन्द्रियार्थविकोपनम्। कामविकारे, इंदियणाण-न. (इन्द्रियज्ञान) इन्द्रियेण जनितं ज्ञानम् / प्रत्यक्ष ज्ञाने, स्था.९ ठा० / (एतस्य रोगोत्पत्ति कारणता रागुप्पत्ति-शब्दे)॥ वाचा इंदियपञ्जत्ति-स्त्री. (इन्द्रियपर्याप्ति) यथा धातुरूपतया परिणमितइंदियणाणावरण-न. (इन्द्रियज्ञानावरण) इन्द्रियशब्दा-दिसामान्योप माहारमिन्द्रियरूपतया परिणामयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः / तथा योगावरणे, व्य. 10 उ०। (एतद्देदादिदृष्टान्ताः परिमामय-शब्दे) चायमर्थोऽन्यत्रापि भंग्यन्तरेणोक्तः पश्चानामिन्द्रियाणां इंदियणाणावरण-न. (इन्द्रियज्ञानावरण) इन्द्रियशब्दादिसामा- प्रायोग्यान्पुद्रलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिर्वर्तितेन वीर्येण Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदियपय 599 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इंधण तद्भा-वनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति, पर्याप्तिभेदे, प्रज्ञा०१ पद / विषयग्रहणपाटवमिन्द्रियबलम् / इन्द्रियाणां स्वविषय गहणपाटवे, प्रव! कर्म / नं / पं. सं०॥ (इंदियबलपुट्टिबद्धाणं) इन्द्रियबलस्य पुष्टिरतिशायी पोषः इंदियपय-न० (इन्द्रियपद) इन्द्रियवक्तव्यता प्रतिबद्ध प्रज्ञा इन्द्रियबलपुष्टिस्तांवर्द्धयन्ति नन्द्यादित्वादन। इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनाः। पनायाःपञ्चदशेपदे, भ.२श०४ऊ। अत्रच द्वावुद्देशकौ तत्र च प्रथमोद्देशके जी०३ प्रति (अस्य बहुभेदावीरियशब्दे द्रष्टव्याः) ये ऽर्थाधिकारास्तत्सङ्ग्रहकमिदं गाथाद्वयाम्। इंदियमोहिय-त्रि. (इन्द्रियमोहित) विषयासक्ते, अष्टः / / संठाणं वाहल्लं, पोहत्तं कइ पदेस ओगाढे। इंदियलद्धि-स्त्री. (इन्द्रियलब्धि) इन्दियाणां लब्धिः / तदावरण अप्पा बहुपुट्ठपीठट्ठ वि, विसय परिमाण अणगारे ||1|| कर्मक्षयोपशमरूपायां पञ्चेन्द्रियत्वप्राप्तौ, / प्रज्ञा. 15 पद / तद्भेदा यथा अहाय असियमणी, पुट्ठपणे तेल्लफाणियवसाय। "कति विहाणं भंते! इंदियलद्धिपण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा इंदियलद्धि कंबलथूणाथिग्गल, दीवोदहि लोगलोगे य / / 2 / / पण्णत्ता तंजहा-सोइंदियलद्धी जावफासिंदियलद्धी। एवं नेरइयाणं नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि तस्स तावइया भाणियव्वा" प्रज्ञा० 15 पद।। (संहाणं बाहल्लइत्यादि) प्रथममिन्द्रियाणां संस्थानं वक्त इंदियवसट्ट-त्रि (इन्द्रियवशात) इन्द्रियवशेन तत्पारतन्त्र्येण ऋतः। व्यम्। सस्थानं नाम आकारविशेषः ततो बाहुल्यं वक्तव्यं बाहुल्यं नाम पीडितः-इन्द्रियवशातः इन्द्रियवशंवाऋतोगतः इन्द्रियवशार्तः। इन्द्रियबहुलता पिण्डत्वमिति भावः / तदनन्तरं पुथुत्वं विस्तारः / तदनन्तरं (कतिपदेशत्ति) कतिप्रदेशमिन्द्रियमिति वक्तव्यम्। ततः (ओगाढमिति) पारतन्त्र्येण पीडिते, इन्द्रियपारतन्त्र्यं गते च। भ०१२ श०२ उ०। कति प्रदेशावगाढ मिन्द्रियमिति वाच्यम् / तदनन्तरमवगाहनादिविषयं इंदियविजय-पु. (इन्द्रियविजय)तपोविशेषे, पंचा०१८ वि०। (एतद्वक्तव्यता कर्कशादिगुणविषये चाल्पबहुत्वं ततः (पुट्टत्ति) स्पृष्टग्रहणमुपलक्षणं तेन इंदियजय शब्दे) स्पृष्टास्पृष्टविषयं सुत्रं वक्तव्यं तदनन्तरं (पविट्ठत्ति) प्रविष्टाप्रविष्टविषय- / इंदियविभत्ति-स्वी. (इन्द्रियविभक्ति) इन्द्रियविभागे, सा च पञ्चथाचिन्ताविषयं ततो विषय-परिमाणं ततोऽनगारविषयं तदनन्तरं वशाविषयं एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्। सूत्र०१ श्रु.५० ततः कम्बलविषयं ततः स्थूणाविषयं तदनन्तरं (थिग्गलत्ति) इंदियविसय-पु. (इन्द्रियविषय) इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां विषया आगासथिग्गलविषयं ततो द्वीपोदधिविषयं ततो लोक विषयं | मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयाः / चक्षुरादीनां विषयेषु रूपादिषु, उत्त०५ तदनन्तरमेवालोक-विषयमिति। प्रज्ञा०१५ पद 1 उ / अ। इन्द्रियविषयभेदा इन्द्रियविषयपुद्गलपरिणामभेदाश्च भगवत्यास्तृभवद्वितीये त्वर्थाधिकारसंग्राहकं गाथाद्वयम्। तीयशतकदशमोद्देशके जीवाभिगमस्यज्यौतिष्को-द्देशके च प्रतिपादिता इंदिय उवचयनिव्व-तण्णायसमया भवे असंखेजा। (विसय शब्दे द्रष्टव्या) लद्धी उवओगद्धा, अप्पा बहुए विसेसहिया ||1|| इंदियविसयवसगय--त्रि. (इन्द्रियविषयवशगत) इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां विषया मनोज्ञरूपादयस्तद्वश गताः प्राप्ता इन्द्रियवशगताः / ओगाहणा अवाए, ईहा तह वंजणा वग्गहे य। रूपदिविषयवशगते, उत्त,५ अ॥ दविंदिय भाविंदिय, तीया बद्धापुरेक्खडाया यशा इंदियवीरिय-न. (इन्द्रियवीर्य्य) श्रोत्रेन्द्रियादीनां स्वस्वविषय(इंदिय उवचयइत्यादि) प्रथमतइन्द्रियाणामुपचयो वक्तव्यः उपचीयते ग्रहणसामर्थ्य, सूत्र 1 श्रु, 8 अ / (तद्भेदा निक्षेपावसरेवीरिय-शब्दे, उपचयन्नीयते इन्द्रियमनेनेत्युपचयः प्रायोग्यपुद्गल-संग्रहणसम्पत् बलशब्दे च)। इन्द्रियपर्याप्तिरित्यर्थः / तदनन्तरं निर्वर्तना वक्तव्या। निर्वर्तना नाम बाह्याभ्यन्तररूपाया निर्वृत्तिराकारमात्रस्य निष्पादनं तदनन्तरं सा इंदियसंवरण-न. (इन्द्रियसंवरण) पञ्चेन्द्रियाणि तेषां संवरणं इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाभ्यां प्रवर्तमानानां निग्रहणमिन्द्रिय-संवरणम्' निर्वर्तना कति समया भवतीति प्रश्श्रेऽसंख्येयाः समयास्तस्या भवेयु रिति निर्वचनं वाच्यं तत इन्द्रियाणां लब्धिस्तदावरणकर्म क्षयोपशमरूपा इन्द्रियाणां निग्रहणे, / पा. सू. 11 वक्तव्या। तत उपयोगाद्धा तदनन्तरमल्प बहुत्वे चिन्त्यमाने पूर्वस्याः 2 इंदियससण्णिगरिस-पु. (इन्द्रियसन्निकर्ष) इन्द्रियस्य स्वस्वविषयैः सह उत्तरोत्तरा उपयोगाद्धा विशेषाधिका वक्तव्या ततः (ओगाहणा इति) सन्निकर्षः सम्बन्धभेदः / प्रत्यक्षसाधने इन्द्रियस्य स्वस्व-विषयैः अवग्रहणं परिच्छेदो वक्तव्यः स च परिच्छेदोऽपायादि-भेदादनेकधेति संबन्धभेदरूपे-प्रत्यक्षजनकव्यापारे,। वाचा तदनन्तरमपायो वक्तव्यस्तत ईहा तदनन्तरं व्यञ्जनावग्रहश्च इंदियावरण-न. (इन्द्रियावरण) इन्द्रियविषयेष्ये व शब्दादिषु वि शब्दस्यानुक्तार्थसमुदायकत्वादविग्रहश्च वक्तव्यः / तदनन्तरं शेषोपयोगावरणे, व्य. द्वि०१० उ. I (एतद्देदादिवक्तव्यता दृष्टान्तद्रव्योन्द्रियभावेन्द्रियसूत्रं ततोऽतीतबद्धपुर स्कृतानि द्रव्येन्द्रियाणि परिणामक शब्दे) तदनन्तरं भावेन्द्रियाणि विचिन्तनी यानि / प्रज्ञा 15 पद०२ उ / इंदीवर-न. (इन्द्रीवर) हरितभेदेवनस्पतिविशेषे, / प्रज्ञा.१ पद नीलोत्पले इंदियपरिणाम-पु. (इन्द्रियपरिणाम) इन्दनादिन्द्रः आत्मज्ञान उत्पलमात्रे च। वाच, निलुप्पलं वियाणहकुवलय-मिंदीवरंच।।प्रा. ना०॥ लक्षणपरमैश्वर्ययोगात्तस्येदमिन्द्रियमिति / निपातनादिन्द्र | इंदु-पु. (इन्दु) उन्दति चन्द्रिकया भुवं क्लिन्नां करोति उन्द्-उआदेरिश्च / शब्दादियप्रत्ययः। इन्द्रियाण्येव परिणामः इन्द्रियपरिणामः / इन्द्रियरूपे चन्द्रे, प्राना०॥ जीवस्य परिणामभेदे, पज्ञा० 12 पद। इंदुत्तरवडिंसग-न० (इन्द्रोत्तरावतंसक) विमानविशेषे, सम 19 स! इंदियबल-न. (इन्द्रियबल) इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं स्वस्व | इंधण-न. (इन्धन) इध्यतेऽनेन इन्ध्करणेल्युट् / काष्ठतृणकरी Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंधनधूम 600 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इक्खु षादौ, "जह चिरसंचियमिंधण मन लोयवण सहिओ दुहं डहइ'' इन्धनं काष्ठादीनि। आव० 5 अ / कोदवपलालमादी इंधणेण फलाइ पचंति / नि. चू.१५ उ / दाह्ये, काष्ठादौ च ! "ओसारिए धणभरो जह परिहाइ कमसो दुआसो वा" अपसारितेंधनभरोऽपनीतदाह्यसंघात इति। आव०५अ। इन्धयति इन्धन णिच-ल्यु. दीपनकर्तरि, त्रि. भावे ल्युट्। उज्वालने, नावाचा उद्दीपने, उत्त, 14 अध्य,। इंधणधूम-पु. (इन्धनधूम) दारुधूमे, नि. चू.१ उ. इंधणपलियाम-न० (इन्धनपाम) इन्धनपक्के आम्रफले, कोद्दव पलालमादी इंधणेण फलाइ पञ्चत्ति। जहा कोद्दव पलालेणं अंदगादि फलाणि चेटे ता पाविजं आदिग्रहणेण सालिपलालेण वितत्थजेण पक्का पला ते इंधण पलियामं भणति। नि० चू०१५ उ। इंधणसाला-स्त्री. (इन्धनशाला) यत्र तृणकरीषकचवरास्तिष्ठत्न्ये वम्भूते गृहे, वृ.२ ऊ / इंधणसाला जत्थ तणा करिसताराअत्यत्ति" / नि. चू 16 उ.। इंधिय-त्रि. (इन्धित) प्रज्वालिते, "सद्देहिं रूदेहि य गंधिते तु मो हग्गि सदिप्पत्ति हिणसत्ते" स्त्रियाः शब्दे यैश्च इन्धितः प्रज्वलितो मोहाग्निः कस्यापि हीनसत्त्वस्य भुक्तभोगिनो ऽभूत् भोगिनो वा संदीप्पत इति। कृ.४उ। इक-न. (इक) देशी-क्वापि प्रवेशने, तथा च विशेषावश्यके सामयिकनिरुक्तिमधिकृत्योक्तम् "इकमप्पए पवेसण मेयं सा सामाइयं नेयं'' इकशब्दो देशीवचनः क्वापि प्रवेशार्थे प्रवर्तते इति। विशे० / / इक्कड-न (इक्कड) ढंढणसदृशे तृणविशेषे,। प्रश्न।।३सं द्वा पर्व क (ग) जातीये वनस्पतिविशेषे, / प्रज्ञा० 1 पद सूत्र० / वणस्सइ भेआ इक्कडा लाडाणं पसिद्धा इति। नि. चू. 2 ऊ / आचा। वृ०। इकडमय-त्रि (इक्कडमय) इक्कडो वनस्पतिभेदः (नि.चू०२ उ.) तन्मये संस्तारकादौ, वृ. ३उ। इक्खण-न. (ईक्षण) ईक्ष भावे ल्युट् / पर्यालोचने, "तम्हादवि इक्खपंडिए" ईक्षस्व तद्विपाकं आलोचयेति सूत्र 1 श्रु० 2 अ० 2 उ / दर्शने, करणे, नेत्रे, वाच॥ इक्खाग (गु)-न. (इक्ष्वाकु) आर्यकुलभेदे, अनु० / प्रज्ञा / तच प्रथमप्रजापतेभियस्य भगवत ऋषभदेवस्य कुलमिति। स्था०६ठा० / कुलार्येषु ऋषभदेवस्वामिवंशोद्भवेषु, / औप. कल्प० / भ. / आचा० / केशल जनपदे च / यत्रायोध्या नगरीति, ज्ञा०८ अ / *ऐश्वाक-पु. इक्ष्वाकुवंशोद्भवे, आक० / ऋषभदेवस्वा मिनो वंशस्य तद्वंशजानां चैक्ष्वाकुनामकरणं यथा "देसूणगं च परिसं सक्कागमणं च वंसठवणा य" आ. म. प्र.। सक्को वंसट्टवणे इक्खू अगू तेण होंति इक्खागा'' ति०। कथानकशेष "जीयमेवंतीय पञ्चुप्पण्णमणागयाणं देवाणं पढमत्थियराणं वंसट्ठवणं करेत्तए ततो तियसगण संपरिवुडो सक्को आगतो पच्छा किहरिक्क हत्थतो पविसामित्ति महंतं इक्खु लटैि गहाय आगतो इतो य नाभिकुलगरो उसभसामिणा अंकगएण अत्थए सक्केण य उवागएण इक्खुलट्ठिहच्छ गएणं जएणं विजएणं भयवं बद्धाविओ। भयवया लट्ठीसु दिट्टी पाडिया ताहे सक्कण भणियं भयवं इक्खू अगू अकू भक्षणे भक्षयसि ताहे सामिणा पसत्थ लक्षणधरो अलं कियविभूसिओ दाहिणहत्थो पसारितो अतीव भगवयस्स तासु हरिसो जातो तएणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अयमेयारूवे संकप्पेसमुप्पञ्जित्ता जम्हा भयवं तित्थयरो इक्खं अभिलसइ तम्हा इक्खागुवंसो भवउ / आ. म. प्र. / गाथाक्षरगमनिका अथ सञ्जातकिञ्चिदूनवर्षे भगवति प्रथमजिनवंशस्थापनं / शक्रः स्वजातमिति विचिन्त्य कथं रिक्तपाणिः स्वामिस मीपं यस्यामीति महतीमिक्षुयष्टिमादाय नाभिकुलकराङ्कस्थस्य प्रभोरग्रे तस्थौ दृष्ट्वा चेक्षुयष्टिं दृष्टवदनेन स्वामिना करे प्रसारिते इक्षु भक्षयसीति भणित्वा तां दत्वा इक्ष्वभिलाषात्स्वामिनो वंश इक्ष्वाकुनामा भवतु / कल्प० / आ. चू / शक्रः सौधर्मेन्द्रो वंशस्थापने प्रस्तुते इक्षं गृहीत्वा आगतः अक अग कुटिलायां गतौ अनेकार्थत्वाद्धातूनां अक् धातो रौणदिके उण प्रत्ययः अकुशब्दोऽभिलाषार्थः ततः स्वामी इक्षोः आकुनाभिलाषेण कर प्रासारयत् शक्रः आर्पयत् तेन कार णेन भवति। इक्ष्वाकुवंशभवाः ऐक्ष्वाकाः आ. क० / 'आसी य इक्खु भोई इक्खागा तेण खत्तिया होति" क्षत्रिया येन कारणेन बाहुल्येनेचुभोजिन आसन् तेन कारणेन ते क्षत्रिया इक्ष्वाकवोलोको ख्याताः / आ. म०प्र० / आ. चू। इक्खाग (गु)कुल-न (इक्ष्वाकुकुल) इक्ष्वाकूणां कुलं इक्ष्वाकुकुलम्। ऋषभेदवस्वामिवंशे, / आ. म. प्र.। इक्खाग(गु) भूमि-स्त्री. (इक्ष्वाकु भूमि) अयोध्यायाम्, तीर्थ "इक्खागभूमिउज्झा, सावत्थि विणीय कोसलपुरं च" आव०२ अ इक्खाग (गु)राय-पु. (इक्ष्वाकुराज) इक्ष्वाकूणामिक्ष्वाकुवंशजानामथवा इक्ष्वाकुजनपदस्य राजा। इक्ष्वाकुंवशीयानां कोशलजनपदस्य वा नृपे, / ज्ञा०८ अ / उत्त / पडिबुद्धी इक्खागराया" स्था० 7 ठा०। इक्खाग(गु)वंश--पु. (इक्ष्वाकुवंश) ऋषभेदवस्य वंशे, "आसीइक्खाग वंस संभूओ नाभिनामकुलागरो" इति ति० / (वक्तव्यता इक्खाग (गु) शब्दे) इक्खु(उच्छु)-पु. (इक्षु) इष्यतेऽसौ माधुर्यात् "इक्सु प्रवासीक्षौ'' इति प्राकृत सूत्रेणादेरत उत्वम् प्रा. व्या०१ पाद८ अध्या. आर्षे इक्खु इतिच भवति प्रा. व्या०। मधुररसो पेते असिपत्रे स्वनामख्याते, वाच / पर्वकवनस्पतिकाय भेदे, उत्त, / प्रज्ञा, / चतुर्विशतिधान्यान्र्तगते धान्यभेदे, प्रक, 156 द्वा० / इक्षुवरट्टिका सम्भाव्यत इति। धर्म१ अधिक "उच्छु जवसालिकालिया इति" औप, इक्षुग्रहणाग्रहणे यथा- 'से भिक्खुवा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा उच्छवणं उवागच्छित्तएजे तत्थ इसरे जाव उग्गहंसि अह भिक्खू इच्छेज्जा उच्छुभोत्तए वा पायए वा सेज़ उच्छू जाणेज्जा स खंडं जाव णो पडिगाहेज्जा अतिरिच्छच्छिण्णं तहेव तिरि-च्छच्छिण्णं तहेव से भिक्खूवा भिक्खुणीवा सेजं पुण अभिकंखेज्जा अंतरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगंवा उच्छुसालगंवा उच्छुडालगं या भोत्तए वा पायए वा सेजं पुणजाणेज्जा अंतरुच्छुयं वा जाव डालगंवास अंडं जाव णो पडिगाहेजा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण जाणेज्जा अंतरुच्छ्रयं वा जाव डालगंवा अप्पंडंजाव पडिगाहेजा अतिरिच्छाच्छिण्णं तहेव पडिगाहेज्जा / इक्षुसूत्रत्रयमप्या-म्रवन्नेयमिति नवरं अंतरुच्छूयंति पर्वमध्यमिति आचा०२ श्रु.१०२ उ। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्खुकरण 601 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छक्कार जे भिक्खू वा जाव समाणे सेजं पुण जाणेजा उच्छु वा काणं | इक्खु(उच्छु)गंडिया-स्त्री. (इक्षुगण्डिका) सपर्वेक्षुशकले,। आचा. 1 अंगारियं संमिस्सं विगसितं वा वेत्तगंवा कंदलित्तइउसुयगंवा | श्रु.१ अ० 10 उ०। अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं जाव / आचा०२ श्रु. इक्खु(उच्छु)घर-न. (इक्षुगृह) दशपुरनगरस्थे उद्याने, यत्रार्य्यरक्षि१०८ उ। तस्तोशलिपुत्रादाचाद्दिीक्षा जग्राहेति / विशे० / आ. म० / आ. चू। सचित्ताचित्तेक्षुभक्षणाभक्षणे प्रायश्चित्तम् यथा इक्खु (उच्छु)चोयग-न (इक्षुचोदक) पीलिते क्षु क्षोदिकाजे भिक्खू वा सचितं उच्र्छ भुंजइ भुंजतं वा साइज | जे याम्, / आचा०१ श्रु.१ अ.१० उ.। मिक्खू सचित्तं उच्छु विडंसइ विडंसंतं वा साइजइ 11 जे इक्खु (उच्छु)जत-न. (इक्षुयंत्र) इक्षोर्निष्पीडनं यन्त्रं शा. त० / भिक्खु सचित्तं उच्छु वा, उच्छुपेसियं वा, उच्छुभित्तिं वा, इक्षुनिष्पीडके यन्त्रे, वाच / उच्छुसालगं वा, उच्छुडालगंवा उच्छु चोयगंवा विडंसइ विडंसंतं इक्खु (उच्छु)डालग-न. (इक्षुडालक) इक्षुशाखैकदेशे, आचा०१ श्रु०१ वा साइजइ 6 जे भि. सचित्तं उच्छु वा उच्छु पे, वा. अ० 10 उ० / अवल्कले इक्षुच्छेदे च / डालगम वक्किलच्छेदो इति। नि. उच्छुमित्तिवा उच्छु चोयगवा विडंसइ.७ जे मिक्खू सचित्तं चू०१ उ०। पइट्ठियं उच्छु भुंजइ भुंजंतंवा साइज्जइ जे भिक्खू सचित्तं इक्खु(उच्छु)पेसिया-स्त्री० (इक्षुपेशिका) इक्षुगणिकायाम् नि, चू, 16 उ०। पइट्ठियं उच्छं विडंसइ विडंसंतं वा साइजह || जे भिक्खू इक्खु(उच्छु)मित्ति-स्त्री. इक्षुभित्ति इक्षुखण्डे, नि. चू०१६ / सचित्तं पइट्ठियं उच्र्छ वा उच्छुपेसियं वा उच्छुत्तिभिं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा उच्छुचोयगं वा भुंजइ भुजंतं इक्खु(उच्छु)मेरग-न. (इक्षुमेरक) अपनीतत्वचीक्षुगण्डि-कायाम्, वासाइजइ।१०। जे भिक्खू सचित्तं पइष्टियं उच्छु वा उच्छपेसियं आचा०१ श्रु.१ अ० 10 ऊ। वा उच्छुभित्तिं वा उच्छुसालगं वा उच्छुचोयगं वा विडंसइ इक्खु (उच्छु)लहि-स्त्री (इक्षुयष्टि) इक्षुदण्डे, आ. चू०२ अ / आ. म० विडंसंतं वा साइज्जइ / 11 प्रा प्रा. व्या। अण्णे दो सचित्तपइट्ठिते सुत्ता। इक्खु(उच्छु)वण-न (इक्षुवन) इक्षोः पर्व (ग) कवनस्पति विशेषस्य वने, आचा.१श्रु अ० 10 ऊ / मुंजंतिजे भिक्खू तो सिला पुण विडंसति णायव्वा जीवजुअं सचित्तं अचित्तं सवेयणपतिद्वं। इखु(उच्छु)वाड-पु. (इक्षुवाट) इक्षोः पर्वगवनस्पतिविशेषस्य वाटे," सुचिरं पियत्थमाणो नलथंभो उच्छुवाडमज्झंमि" आव०३ अ / एतेसिं चेव चउण्हं सुत्ताणं इमो अतिदेशो। इखु (उच्छु) वाडिया-स्त्री. (इक्षुवाटिका) पर्वगवनस्पतिका यभेदे, सचित्तं च फलेहिं, पण्णरसे जोग मो समक्खातो। प्रज्ञा.१पद। सो चेव णिक्खमेसो, सोलसमे होति उक्खंमि।।३१८ इक्खु (उच्छु)सालग-न (इक्षुसालग) इक्षोर्दीर्घशाखायाम, / आचा. कंठ्या अणादियाय दोसा चउलहुं पच्छित्तं इमे तत्थ विभा गसुत्ता जे 1 श्रु.१ अ० 10 उ, 1 बाह्यछल्यां च "सालगं पुण तस्स वाहिरा बल्ली" भिक्खू सचित्तं अंतरुच्छग वा भुंजति इत्यादिजे सचित्तं अंतरुच्छग वा नि चू. 16 उ०। विडंसइइत्यादि अण्णे सचित्त पइट्टिते दो सुत्तं / इचा-अ० (इत्त्वा) ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०१०३ उ / पय्वसहितं तु खंडं, तत्थ वि य अंतरुच्छुयं होइ। इच्चेवं-अ (इत्येवम्) पूर्वप्रक्रान्तपरामर्श, "इच्चेवं पडिलेहंति'' सू.१ श्रु डगमलवकिलछेदो, मा य पुण बल्लिपल्लिपरिहीणं / 319 / 3 अ.। "इचेवमाहु से वीरे" सूत्र०१ श्रु०४ अ। परं उभयो पव्वदेससहितं खंड पुव्वं उभयो पेरुरहियं अंत रुच्छियं चक्कडिच्छेदछिण्णं डगले भण्णत्ति सोयं अब्भतरो गिरा। *इच्छ–इष्-धा. वाञ्छायाम, तुदा. पर, सेट् वेट्क्तः ''गमि-ष्यमासा छः" इति प्राकृतसूत्रेण छकारः इच्छइ-इच्छति। प्रा. व्या०८ अध्या०४ चोयं तु होइ हीरो, सगले पुण तस्स बाहिरा छल्ली। पाद / "इच्छामि खमासमणो वंदि उं' इषु इच्छायामित्यस्योत्तमकोणं पुण सक्कं मा, इतरजुतं तप्पइहं तु / 320/ पुरुषैकवचनम्। आव.३ अ० / अनु+अन्वेषणे, प्रति प्रतिग्रहे, प्राप्तौ च। वंसहीरसंठितो चोपयं भण्णत्तिसालगंवा हरिच्छली भण्णतिपुण कामिय परिxअन्वेषणे च। अभि+सम्यगिच्छायाम्। वाचः / / अंगारइयं वा वुभयं सियालादीहिं वा खइयं उवरि सुक्कं इयरंति सचित्तत्तं इच्छं झाण-न. (इच्छाध्यान) इच्छा संभाव्यमानलाभस्याअहो सचित्तत्तमि सचित्तविभागे पतिठ्ठयं भण्णति। नि, चू०१६ उ.। र्यस्याभिलाषातिरेकस्तस्या ध्यानमिच्छाध्यानम् / द्विमाषर्थिनः (गोचरचर्यायां सचित्तेक्षुग्रहणाग्रहणे-गोयरचरिय-शब्दे) कोटिसुवर्णलाभेऽपि प्रवर्द्धमानलोभस्य कपिलस्येव सम्भाइक्खु (उच्छु)करण-न (इक्षुकरण) क्षेत्रकरणभेदे, तच लागलादिना | | व्यभानलाभार्याभिलाषातिरेकध्याने, / आतुर / / संस्कारयति / सूत्र 1 श्रु१ अ / इक्षवः क्रियन्ते यत्र तदिक्षुकरणम्। | इच्छंत-त्रि. (इच्छत) वाञ्छति, "इच्छंतो हियमप्पणो" उत्त. 1 अ०। इक्षुवाटे, वृ०१ उम इच्छक्का (च्छाका)र-पु. (इच्छाकार) एषणमिच्छा स्वाभिप्राय स्तया इक्खु(उच्छु)खंड-न. (इक्षुखण्ड) पर्वसहितेक्षुच्छेदे, नि. चू०१६ ऊा / करणं सत्कार्य निर्वर्त्तनमिच्छाकारः / गच्छा०२ अधिः / विवइक्षुखण्ड चापरिणतं तद्धि पर्वतोयद्वर्तते तदनाचरित-मिति। दश०३ अ॥ क्षितक्रियाप्रवृत्यभ्युपगमः / अनु० / इच्छया बलाभियोगमन्तरेण Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छक्कार 602 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छक्कार कारः इच्छाकारः इच्छाक्रियेत्यर्थ इति / स्था. 10 ठा० / प्रयः / आ. म०प्र० / इच्छायाः करणमिच्छाकार इति। वृ०१ऊ। स्वकीयाभिलाषे,। "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसिअं आलोएमि" इच्छाकारेण निजेच्छयेति / आत्मीयेच्छयेति / स्वकीयाभिलाषेण न पुनर्बलाभियोगेनेति च। ध० 2 अधिः / तदात्मके पष्ठे सामाचारीभेदे च। इच्छाकारो अ छडओ इति / उत्त० 26 अ / इच्छाकारेण ममेदं कुरु इच्छाप्रधानया क्रियया न बलाभियोगपूर्विकयेति / स्था० / 10 ठा० / इच्छाकारेण ममेदं कुरुतत्रचाहं करोमीति निर्देशोऽभ्युपगमो वा इच्छाकार इति। ध०३ अधिः / प्रक। आ. म प्र / वृ०॥"इच्छाकारो य सारेण" इति / उत्त० 26 अ० / सारेण इति औचित्येनात्मनः परस्य वा कृत्यं प्रतिप्रवर्तते / तत्रात्मसारेण यथेच्छाकारेण युष्मचिकीर्षित कार्यमिदमहंकरोमीति / अन्यसारेण च मम पात्रलेपनादि इच्छाकारेण कुरुतेति ग.२ अधिः / अस्य च प्रयोगः स्वार्थम्परार्थ वा चिकीर्षन्यदा परमभ्यर्थयते इति। स्था०१० ठा. "इच्छाकारपओगो णाम जं इच्छया करणं तं बलाभियोगादिणा इच्चेयस्स अत्थस्स संपयत्थं इच्छकार सड़ पउज्जंति। आ. चू. 2 अ / उत्सर्गतः साधूनां सति सामर्थ्य कार्यार्थपरो नाभ्यर्थयितव्यः अभिगूहितबलवीर्येण भाव्यं तत्कार्यस्य असामर्थे अप्रावीण्ये वा रत्नाधिकं विहायान्येषाभ्यर्थनाविषयमिच्छाकारं करोति। यदि वा नाभ्यर्थितोऽपि कोऽप्यन्यस्तत्प्रयोजनकरणशक्तो निर्जरार्थी साधुः कंचन साधु चिकीर्षितकार्य विनाशयन्तं गुरुतरकार्यकरणासमर्थमविनाशयन्तमप्यभ्यर्थयन्तं वाभिलषितकार्यकरणायान्यतरं साधुं दृष्ट्वा तत्कार्यं कर्तुकामस्तत्रापि इच्छाकारं प्रयुञ्जीत / इच्छाकारेण युष्मदी यमिदं कार्य करोमीति युष्माकमिच्छाक्रियया करोमि न बलादित्यर्थः / ध०३ अधि। तत्रेच्छाकारो येष्वर्थेषु क्रियते तत्प्रदर्शनार्थमाह। जइ अब्भत्थेअ परं, कारणजाते करेज सो को वि। तत्थ वि इच्छाकारो, न कप्पइ बलाभिओगो उ।। यदि इत्यभ्युपगमे अन्यथा साधूनामकारणे अभ्यर्थना नैव कल-पते। ततश्च यदि अभ्यर्थयेत् परमन्यं साधुग्लानादौ कारणजाते समुत्पन्ने सति ततस्तेनाभ्यर्थयमानेन इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः। यदिवा अनभ्यर्थितोऽपि कोऽप्यन्यः साधुः (से)तस्य कर्तुकामस्य कस्यचित् साधोः कारणजातं कुर्यात् / तत्रापि तेनानभ्यर्थितेन साधुना तस्य चिकीर्षितं कर्तुकामेन इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः / इह विरलाः केचिदनभ्यर्थिता एव परकार्यकर्तार इति कोपातिग्रहणम्। अथ कस्मादिच्छाकार प्रयोगः क्रियते। उच्यते-- बलाभियोगो मा भूदिति हेतोस्तथा चाह अतो न कल्पते बलाभियोगः साधूनाम् तत इच्छाकार प्रयोगः कर्तव्यः।तुशब्दः क्वचिद्वलाभियोगो मा भूदिति कल्पते इति सूचनार्थः। उक्तगाथावयवार्थप्रतिपादनार्थमाह। अन्मुवगमंमि निजइ, अब्भत्थेउं न वदृइ परो उ। अणिगूहियबलविरिएण, साहुणा ताव होयव्वं // यदि अभ्यर्थयेत्परमित्यस्मिन्यदिशब्दप्रदर्शिते अभ्युपगमे सति ज्ञायते। किमित्याह / अभ्यर्थयितुं न वर्तते न युज्यते परः। किमित्यत आह-न निगूहिते बलवीर्ये येनासावनिगूहितबलवीर्यस्तेन / बलं शारीरं, वीर्य मानसशक्तिविशेषः तावच्छब्दः प्रस्तुतार्थप्रदर्शकः / एवमनिगृहित बलवीर्येण तावत्साधुना भवितव्यम् / पाठान्तरं वा "अणिमूहियबलवीरिएण जेण साहुणा होयव्वं' अस्यायमर्यो येन कारणेन अनिगृहितबलवीर्येण साधुना भवितव्यमिति युक्तिः अतोऽभ्यर्ययितुंन युज्यते पर इति आहेत्थं तद्दभ्यर्थना-विषयेच्छाकारोपन्यासोऽनर्थकः / उच्यतेजइ होज्ज तस्स अनलो, कज्जस्स वियाणाइ न तं वाणं / गिलाणाइ विहिपहोजा, वावडो कारणेहिं सो।। यदि भवेत्तस्य प्रस्तुतस्य कार्यस्यानलो समर्थः यदि वा न विजानाति तत्कार्य कर्तु वाणमिति निपातः पादपूरणार्थ: ग्लानादिर्वा भवेत् व्यापृतः कारणैरसौ तदा संजातद्वितीय-पदाभ्यर्थनागोचरमिच्छाकारं रत्नाधिक विहायान्येषां करोति। तथा चाह रत्ताणि य वजेत्ता, इच्छाकारं करेइसेसाणं। एयं मजं कजं, तुम्भह करेह इच्छाणं॥ रत्नानि द्विविधानि द्रव्यरत्नानि भावरत्नानि च / तत्र मरकतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि सुखमधिकृत्य तेषामनैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च / भावरत्नानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि सुखनिबन्धनतामङ्गीकृत्य तेषामैकान्तिकत्वात् आत्यन्तिकत्वाच भावरत्नमधिको रत्नाधिकस्तं वर्जयित्वा इच्छाकारं करोति। शेषाणां कथमित्-याह / एतन्मम कार्यं वस्त्रसीवनिकादिरूपं कुरुत इच्छया न बलाभियोगे नेति। तत्र यदुक्तम्। (जइ अब्भत्थेज परं कारण जाते इति) तत्र प्रथमगाथया यदीत्यस्य भावार्थ उपदर्शितः / द्वितीयगाथया कारणजातानि कथितानि। अनया तु पूर्वार्द्धना-भ्यर्थनाविषयो दर्शितः / उत्तरार्द्धन त्वभ्यर्थनायाः स्वरूपम् / संप्रति "करेजवासे कोई" इति अस्य गाथावयस्यावयवार्थः प्रति पादनीयस्तत्रान्यकरणसंभवकारप्रतिपादनायाह // अहवा वि विणासंतं, अब्भत्थं तं च अण्णदठूणं / अन्नो कोइ भणिज्जा,त्तं साहुनिज्झरट्ठाउ / / अथवेति "जइ अब्भत्तेज परं कारणजाए" इत्यपेक्षया प्रकाशं ततो द्योतनाथ विनाशयन्तं चिकीर्षित कार्यमपिशब्दात् सोऽन्यस्मिन् गुरुतरे कार्ये समर्थस्ततो यदि स तत्र व्यापृतो भवति तर्हि तेन गुरुतरप्रयोजन सीदतीति परिभाव्य विनाशयन्तमपि, यदि वा स्वयमसमर्थतथा अभिलाषितकार्यकरणाय साधुमन्यमभ्यर्थयन्तं दृष्ट्वा निर्जरार्थी कोऽप्यन्यः साधुः साधु भणेत्। किं भणेदित्याह - अह यं तुज्झेमेयं, करेमि कजं तु इच्छकारेण / तत्थ वि से इच्छा से, करेइ मज्जायमूलीयं / / अहमित्यात्मनिर्देशे युष्माकमेतत् कर्तुमभीष्टं कार्यं करोमि इच्छाकारेण युष्माकमिच्छाक्रियया न बलादित्यर्थः तत्रापि सकारापकः साधुः इच्छति इच्छाकारं (से) तस्य स्वयमिच्छाकारेण कर्तुमभ्युद्यतस्य करोति नत्वसौ तेनेच्छाकारेण याचितस्ततः किमर्तमिच्छाकारं करोतीत्यत आहमर्यादामूलीयम्। मर्यादा साधूनां व्यवस्था तस्या मूलं मर्यादामूलंतत्रभवो मर्यादामूलीय इच्छाकारस्तं निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति हेतोर्द्वितीया / ततोऽयमर्थः मर्यादामूलभूत इच्छाकारस्तयाहि-साधूनामियं मर्यादा न किंचिदवस्याव्यतिरेकेण कश्चित्कारयितव्यः। तदेवं व्याख्यातोऽधिकृतो गाथावयवः / / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छक्कार 603 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छक्कार संप्रति तत्थवि इच्छाकार इत्यत्र योऽपिशब्दस्तस्य विषयं प्रद-शति-- अहवा सर्ग करेतं, किं वा अन्नस्य वा वि दणं / तस्स वि करेइ इत्थं, मजं पि इमं करेहेत्ति || अथवा स्वकमात्मीयं पात्रलेपनादि किं कुर्वते अन्यस्य वा किंचित् कुर्वन्तं दृष्ट्वा तस्यापि आस्तां प्रायुक्तस्येत्यपि शब्दार्थः आपन्नप्रयोजनः सन् इच्छाकारं कुर्यात्-कथमित्याह-ममापीदं पात्रलेपनादि इच्छाकारेण कुरुतेति॥ इदानीमभ्यर्थितसाधुविषयं विधिं प्रदर्शयति॥ तत्थ वि सो इच्छं से, करेइ दीवेइ कारणं वा वि। इहरो अणुग्गहत्थं, कायव्वं साहुणा किचं // तत्रापि एवमभ्यर्थनेऽपि साधोरभ्यर्थितसाधुरिच्छाकारं करोति इच्छाम्यहं तव करोमि / अथ तेन गुर्वादिसत्कं कार्यान्तरं कर्तव्यं तर्हि दीपयतिकारणं वापि इतरथा गुर्वादिकार्यकर्तव्याभावे सत्यनुग्रहार्थमवश्यं साधोः कृत्यं कर्तव्यमिति / अपिशब्दात् क्षिप्तेच्छाकारविषयविशेषप्रदर्शनार्यवाहअहवा नाणाईणं, अट्ठाइ जइ करेज कियाणं / / वेयावचं किंची, तत्थवि तेसिं भवे इच्छाशा अथवा ज्ञानादीनामादिशब्दादर्शनचारित्रपरिग्रहः / अर्थाय यदि कुर्यात् कृत्यानामाचार्यादीनां वैयावृत्त्यं कश्चित्साधुपाठान्तरं च किंचीति किंचिद्धि श्रावणादि तत्रापि तेषां कृत्यानां-तं साधुं वैयावृत्त्ये नियोजयतां भाव इच्छति भवेदिच्छाकार इच्छाकारपुरसरं योजनीय इत्यर्थः किमित्यत आह यस्मात्आणा बलाभियोगो, निग्गंथाणं न कप्पए काउं। इच्छा पउंजियव्वा, सेहए रयणिए तह / / आज्ञापि ममाज्ञा भवतेदं कार्यमेवरूपा तथा विवक्षितं कार्यमाज्ञापितस्याप्यकुर्वतो बलात्कारेण नियोजनं बलाभियोग एतैवपि निर्गन्थानांन कल्पते कर्तुं किन्तु इच्छेति इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः प्रयोजनेऽनुत्पन्ने सति शैक्षके तथा रवाधिके च आलापादिप्रष्टुकामेन आद्यन्तग्रहणान्मध्यस्यापि ग्रहणमिति व्याख्यायान्येषु च एषु तावत्स उक्तः / अपवादतस्त्वाज्ञाबलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ तेन चेहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते बहुजनादिकारणप्रतिबद्धतया त्वपरित्याज्यः अयं विधिः प्रथममिच्छाकारेण योज्यते कुर्वन्नाज्ञया पुन बलाभियोगेनेति आहच॥ जह जबवाहलाणं, आसाणं जणवएसु जायाणं / सयमेव खलिणगहम, अहवावी बलाभियोगेणं / / पुरिसज्जाए वि तहा, विणीय विणयंमि नत्थि अभियोगो। सेसंमि उ अभिओगो, जणवयजाए जहा आसो।। यथा जात्थवालिकानामश्वानां जनपदेषु मगधादिषु जातानां च शब्दलोपोत्र द्रष्टव्यः स्वयमेव खलीनग्रहणं भवति / अथवाऽपि बलाभियोगेन खलीनं कविकं किमुक्तं भवति / यथा जात्यवाह्रीकानामश्वानां स्वयमेव खलीनग्रहणं भवति जनपदजातानां च वलाभियोगेन एवं पुरुषज्ञातेपि ज्ञातशब्दाः प्रकारवचनः पुरुष प्रकारेऽपि कथंभूते इत्याह (विणीय विणय इति) विविधप्रकारं नीतः प्रापितो विनयो येन स विनीतविनयस्तस्मिन्नास्याभियोगः स्वयमेव विनये प्रवर्तनात्खलीनग्रहणे जात्यवाहीकस्येवातः (सेसंमि उ अभियोगोत्ति) शेषे विनयरहिते अभियोगो बलाभियोगः प्रवर्तते कथानकाजनपदजाते यथा चैष गाथा-द्वयसमुदायार्थः / अवयवार्थस्तुदवसेयस्तच्चेदं / "वाहलविसए एगो आसकिसोरो सो दमिजिउकामो वेयालियवेलाए' अहियासऊणि एमाए! अत्थेऊण वाहियालीए नीओ खलिणं से ढोइयं सयमेव तेणगहियं विणीय इत्ति राया सयमेवारूढो मोयहिय इच्छियं वूढो रना उयरिउण आहारलयणादिणा सम्म पडियारेउ पइदियंह च मुद्धत्तणं तो एवं वहति न तस्स बलाभिओगो पवत्तइ / अवरोपुण मगहादिजणवयजाओ आसो सो दमिजिउकामो वियालवेलाए हिअ वासित्तो मायरं पुच्छत्ति किमयति ताए भणियं पुत्त ! विणयगुणफलं ते एयं कल्लं पुण मा खलीणं पडिच्छिहसि मा वा वहिसि तेण तहेव कयं रन्ना चिरं कोरकरेण पिढितो बलाविकवियं दाऊण वाहिओ पुणा जवसंसे निरुद्धे तेण माऊए कहिए सा भणइ पुत्त ! दुव्वे दिट्ठियपलमिणं तं दिट्ठो भयमग्गो जो मग्गो ते रुच्चइ तं करेहिसि एस दिलुतो अयमुवणतो जो सयं न करेइ वेयावच्चादि तत्थ बलाभि-ओगो विपयट्टा विजइजणवयजाए जहा आसो इति" तस्माद्वलाभियोगमन्तरेणैव मोक्षार्थिना स्वमेव प्रत्युतेच्छाकार दत्वा अनभ्यर्थितेनैव वैयावृत्त्यादिकर्तव्यम् / तथापि अनभ्यर्थि तस्य स्वयमिच्छाकारकरणं न युक्तमित्याशक्याहअब्भत्थणाए माओ, वानरओ चेव होइ दिद्वंतो। गुरुकरणे सयमेव य, वाणियगा दोन्नि दिटुंता / / अभ्यर्थनायां मरुको द्रष्टान्तः पुनः शिष्यनोदनायां वानरकश्चैव भवति द्रष्टान्तः गुरुकरणे स्वयमेव तु द्वौ वणिजौद्रष्टान्तः एष गाथा समासार्थों व्यासार्थः कथानकेभ्योऽवसातव्यस्तानिचामूनि 'एगस्ससाहुस्सलद्धी अत्थि सो न करेइ वेयावचं बालबुड्डाणं आयरिएण चोइओ भणइ को मं अब्भत्थेइ आयरिएण भणितो तुम अब्भत्थणं मग्गंतो चुक्किहिसि जहा सो मरुगो नाणमयमत्तो कत्तियपुन्निमाए नरिंदजणवएसुदाणं देउमभुट्टिएसु न तत्थ वच्चई भजाए भणितो जाहे सो भणइ एणं ताव सुद्दाणं परिणहं करेमि विषयं घरं तेसिंगच्छामि जस्स आसत्तमस्स कुलस्स कजं सो मम अणेत्ता देउ एवं सोजाव जीवाए दरिदो जातो एवं तुमं पि अत्थणं मगमाणो चुक्तिहिसि निघए एतेसिं वालबुड्डाणं झाणे चेव अहं अप्पणो वेयायचं करेमि अन्ने अस्थिवरंतगा तुज्झ चिए सलिद्ध एवं चेव विराहिति ततो से एवं भणिओ एवं सुंदरं जाणंता अप्पणा कीस न करेह / आयरिया भणति सरिसो तुमं तस्स वानरस्स जहा एगो वानरो रुक्खे अत्थइ वासासु सीतवातेहिं झडिजतोताहे सुधराए सउणिगाए भणिओ वानर ! पुरसोसि तुमं निच्छये वहसि बाहुदंडाइजो पायवस्स सिहरेणं करेसि कुडिपडालिं वासो एवं विभणिओ तुन्नि को अत्थइ ताहे सो दोचंपि तचंपि भणइ ततो सो रुट्ठोतं रुक्खं दुरिहिउ माढत्तोसा नट्ठा तेण तीसे तंघरं सुवं विक्खिन्नं भणइ न विसिसमं महतरिआ न विसिसमं सोहि वावणिट्ठा वा सुधरे अत्थसु विघरा जा वड्डसि लोग तित्तिसु सुहं इदाणिं अत्थ एवं तुमं पि मर्म चेव उवरिएण जाओ किंच मम अन्नं पि निज-दारं अस्थि तेण मम बहुतरियाणि घरा तं लाहं चुकिहामि जहा सो वाणियगो दो वाणिं जाव ववहरंतिएगो पढमपाउसो मल्लंदायव्वं होहितित्ति सयमेव आसाढपुण्णिमा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छमाण 604 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छा एघर पुच्छा इतो वीराणं अटुं वा तिभागं वा दाऊण वा विससयं ववहरइ तेण तदिवसं विकुणो लाहलद्धो इयरो चुक्को एवं तो अचिंतणेण सुत्तत्था नासंति ते हियते नटेहिं गच्छसारवणा भावेण गच्छस्स अपडियप्पणो बहुतरं में नासइ इति तथाचाह सुत्तत्थेसु अचिंतण, आदेसे वुड्ढसेहगेलन्ने / वाले खमगे चाइ, इड्डीमायी अणिड्डिया 1 एएहिं कारणेहिं-तुबभूतो न होइ आयरिओ। वेयावचे करणं, कायव्वं तस्स सेहेहिंजेण कुलं आयत्तं, तपुरिसं आयरेण रक्खेजा। नहि तुंबंमि विणढे, अरया साहरया होंति 3 आदेशे प्राघूर्णके वृद्धे शैक्षके ग्लाने तथा वाले लघुवयसि क्षपके च यद्याचार्यः स्वयं वैयावृत्त्यं करोति तर्हि सूत्रार्थयोरचिन्तनं भवति तथा वादिनि आगते ऋद्धिमतिच नगरश्रेष्ठ्यादौ आदिशब्दाद्राजादिपरिग्रहः। आचार्ये वैयावृत्त्याय पानकादिगते प्रवचनलाघवं भवति अनर्द्धिका एते अनीश्वरप्रव्रजिता एते इत्यर्थः। तत एतैः कारणैराचार्य शेषसाधूनामरकप्रायाणां तुम्बभूतो भवति ततो वैयावृत्त्यविषये यत् करणं करणीयं तत्तस्य शेषैः कर्त्तव्यं न पुनः स स्वविषये परविषये वा वैयावृत्त्ये प्रवर्तमान उपेक्षणीय एतदेवाह (जेणेत्यादि) येन पुरुषेण कुलमायत्तं तं पुरुषमादरेण रक्षेत् यतो नहु नैव तुम्बे विनष्ट अरकाः साधारकाः साधारा भवन्ति आह इच्छाकारणाहं तत्र प्रथमालिकादिकमानयामीत्याद्यभिधाय यदा लब्ध्याभावान्न संपादयति तदा निर्जरालाभविकलस्तरस्येच्छाकारस्ततः किं तेनेत्याशक्याह वेयावच्चे अब्भुट्टियस्ससद्धाएकाउकामस्स / लाभो चेव तवसिस्स होइ यद्दीणमणस्स वैयावृत्त्ये संयमव्यापारे अभ्युत्थितस्य, तथा श्रद्धया प्रसन्नेन मनसा इह लोकपरलोकाशंसाविप्रमुक्तेन कर्तुकामस्य (लाभो चेव तवस्सिस्सत्ति) प्रकारणान्निर्जराया लाभ एव तपस्विने भवति अलब्ध्यादौ अदीनं मनो यस्यासावदीनमनास्तस्यादीनमनसः / आ. म. द्वि। पंचा० / आ. चू। इच्छमाण-त्रि (इच्छत्) अभिलष्यति, पंचा५ विक० / / इच्छा-स्त्री. (इच्छा) एषमणिच्छा-इषु इच्छायाम्। इष-भावेश प्रत्ययः स्था० 10 ठा० / आ. म. प्र. / मायाकषायभेदे, सम०५२ स. अभिलाषे, प्रश्न 5 द्वा०। पंचा। आव। सूत्र० / दश। स्था०। / "इच्छामि ठामि (इउं) का उस्सगं" इषु इच्छा-यामित्यस्योत्तमपुरुषकवचनस्य "इषुगमयमां छ' इति छत्वे इच्छामीति भवति इच्छाम्यभिलषामि स्थातुमिति। आव०५अ 1 सम्भाव्यमानलाभस्यार्थस्याभिलाषातिरेके, आतु, / आगता-नागतान्यतरार्थप्रार्थनायाम, ध.३ अधिः / अभिप्राये, न० / ग विशे। चेतःप्रवृतौ, आचा.१ श्रु०४ अ०१ उ / अभ्युपगमे, ध०२ अधि प्रीती, द्वा०२० द्वा० प्रीतिसाधकभावाभिलाषे, अष्ट२७। स्पृहायाम, अष्ट० 11 / परिग्राह्यवस्तुविषयकवाञ्छाकरणे, संथा। पंचा० / अन्तःकरणप्रवृत्तौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ / इन्द्रियमनोनुकूलायाम्प्रवृत्ती, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ / विवक्षितक्रियाप्रवृत्त्यभ्युपगमे, अनु० / / एतस्य निक्षेपो यथानामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे अ। एसो खलु इच्छाए, निक्खेवो छविहो होइशा नामस्थापने गतार्थे द्रव्येच्छा सचित्तादिद्रव्याभिलाषः / अनुप-युक्तस्य वेच्छामीत्येवं भणतः क्षेत्रेच्छामगधादिक्षेत्राभिलाषः। कालेच्छा रजन्यादिकालाभिलाषः "रयणिमहिसारियाउ, चोरा परदारिया य इच्छंति। तालायरा सुभिक्खं, बहुधन्ना केइ दुडिभक्खं" भावेच्छा प्रशस्तेतरभेदा प्रशस्तज्ञानाद्यभिलाषः। आव०३अ / आ. चू०॥ विस्तरेणेच्छानिक्षेपमाह॥ जाई इच्छह अत्थं, नामादि तस्स सा हवई इच्छा। नामंमि जंतु नाम, इच्छसि नाम व जं जस्सि ||2|| यो नाम समर्थ नामादिलक्षणमिच्छति तस्य सा भवति इच्छा यो नाभेच्छसि तस्या नामेच्छा / स्थापनामिच्छतः स्थापनेच्छा / एवं द्रव्येच्छादिकमपि भावनीयम्। इच्छायाश्च निक्षेपः षोढा। तद्यथा--नामेच्छा स्थापनेच्छा द्रव्ये च्छा क्षेत्रेच्छा कालेच्छा भावेच्छा / तत्र नामेच्छामभिधित्सुराहनाममित्यादिना तु नामविषया इच्छा इयं नाम देवदत्ता दिकस्य नाम इच्छा नामेच्छेति भावः / अथवा यस्येति नाम स नामनामवतोरभेदोपचारात् नाम चासौ इच्छाच नामेच्छा। स्थापनेच्छामाह। एमेव होइ ठवणा, निक्खिप्पइ इच्छ एव जंठवणं। सो मित्ताई जह सं-भवतु दव्वादिसु भणसु / / 3 / / एवमेवानेनैव नामगतेन प्रकारेण भवति स्थापनेच्छा अति-देशोक्तमेव यदिच्छेति निक्षिप्यते सा स्थापना चासाविच्छा च स्थापनेच्छेति व्युत्पत्तेः / अथवा यतः स्थापनामिच्छति सा स्थापनेच्छा स्थापनीया इच्छा स्थापनेच्छेति व्युत्पत्तेः / द्रव्येच्छा द्विधा आगमतो नोआगमतश्च। तत्र आगमत इच्छा पदार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो नोआगमतस्त्रिधाज्ञशरीर-भव्यशरीरे प्राग्वत् तद्व्यतिरिक्ता च यद्दव्यमिति सा च त्रिधा सचित्तद्रव्येच्छा अचित्तद्रव्येच्छा मिश्रद्रयेच्छा।तत्र सचित्तद्रव्येच्छा त्रिधाद्विपदचतुष्पदापदभेदात्। तत्र द्विपदा सचित्त द्रव्येच्छा यत् स्त्रियमिच्छति पुरुषमिच्छति इत्येवमादि / चतुष्पदसचित्तद्रव्येच्छा यदश्चमिच्छति गावमिच्छतीति। अपदसचित्तद्रव्येच्छा आम्रस्येच्छा मातुलिङ्गस्येच्छेत्यादि। अचित्तद्रव्येच्छा सुवर्णद्रव्येच्छा हिरण्येच्छादि। मिश्रद्रव्येच्छा सुवर्णाद्यलंकारविभूषितस्य द्विपदादेरिच्छा अथवा द्रव्यादिषु क्षेत्रकालेषु यथासंभवं स्वामित्वादि। स्वामित्वं त्वकरणा करणानि भणतः स्वामित्वादिभिः प्रकारैः द्रव्यक्षेत्रकालेच्छा वक्तव्येति भावः / तत्र स्वामित्त्वेन द्रव्येच्छा यथा आत्मनः पुत्रमिच्छति इत्यादि करणेन यथा मद्याद्यभ्यवहृतेन तैरिच्छा कामेच्छा वा जायते इत्यादि। अधिकरणे यथा सुप्रतारितायां शय्यायां स्थितस्य कामेच्छा समुत्पद्यते क्षेत्रकालावचेतनौ ततो न तयोः स्वयं स्वामित्वेनेच्छा भवति ततः करणाधिकरणाभ्यां तत्र योजना तत्र क्षेत्रेण लब्धेन क्रीडनेच्छा वपनेच्छा जायते। अधिकरणेन यथा गृहे स्थितस्य भोगेच्छा कामेच्छा वा, सगुरुकुलवासे सम्यगनुष्ठानेच्छा वा समुपजायते इत्यादि। काले करणे यथा यौवनकालेन धनेच्छा कामेच्छा वा जायते इत्यादि / अधिकरणे यथा हेमन्ते रात्री शीतेन पीडितः सूरोद्गमकालमिच्छति / भावत इच्छा द्विधा-आगमतो नो आगमतश्च तत्रागमतः इच्छेति पदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त "उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् नो आगमत आहभावे पसत्थमपस-त्थिया य अपसत्थियंत इच्छामो। इच्छामो य पसत्थं, नाणादीयं तिविहमित्थं / / 4 / / Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाकाम 605 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इच्छापरि आगमतो भावत इच्छा द्विधा प्रशस्ताऽप्रशस्ता च / मकारो प्रधानस्येच्छायोगत्वे तदङ्गस्यापि तथात्वामिति दर्शयन्नाह। लाक्षणिकः / तत्राज्ञानादिविषया इच्छा अप्रशस्ता, प्रशस्ता साङ्गमप्येककं कर्म,प्रतिपन्ने प्रमादिनः॥ ज्ञानादिविषया / व्य, प्र.३ऊ। न त्वेच्छायोगत इति श्रवणादत्र मजति ||3|| इच्छाविनिवृत्तेः फलं यथा साङ्गमपि अङ्गसाकल्येनाविकलमपिएककं स्वल्पं किंचित्कर्म प्रतिपन्ने कंखिजइजो अत्थो, संपत्तीए न तं सुहं तस्स / / बहुकालव्यापिनि प्रधाने कर्मण्यादृते प्रमादिनः प्रमादवतः इच्छाविणिवित्तीए, जं खलु बुद्धप्पवाओ अं / / 16 / / नत्वेच्छायोगत इति श्रवणादत्र इछायोगे निमज्जति निमग्रं कांक्ष्यतेऽभिलष्यते योऽर्थः आदिसंप्राप्त्या न तत्सुखं तस्या-र्थस्य भवति / अन्यथा हीच्छायोगाधिकारी भगवान् हरिभद्रसूरियोगदृष्टिइच्छाविनिवृत्त्या यत्खलु सुबुद्धप्रावादोऽयमाप्तप्रवादोय मिति गाथार्थः। समुचयप्रकरणप्रारम्भे मृषावादपरिहारेण सर्वतौचित्यारम्भप्रदर्शनार्थं न मुत्तीए वभिचारो, तत्तो जंसा जिणेहि पन्नत्ता। त्विच्छायोगतोयोगमित्या-दिनाविवक्षत्। वाङ् नमस्कारमात्रस्याल्पस्य विधिशुद्धस्यापि संभवात् / प्रतिपत्तस्वपर्यायान्तर्भूतत्वेन च इच्छा विणिवत्तीए, चेव फलं पगरिसंपत्तं // 67|| प्रकृतनमस्कार-स्यापीच्छायोगप्रभवत्वमदुष्टमीति विभावनीयम् / मुक्त्या व्यभिचारस्तत्काङ्क्षणे तत्प्राप्त्यैव सुखभावादेत-दाशड्क्याह। द्वा० १९द्वा०। तत्र यद्यस्मादसौ मुक्तिजिनैः प्रज्ञप्ता तीर्थकरैरुक्ता इच्छाविनिवृत्तेरेव इच्छाणुलोम-त्रि. (इच्छानुलोम) इच्छाऽनुकूले, प्रतिपादयितुर्या इच्छा फलं न पुनरीच्छापूर्वकमिति प्रकर्ष-प्राप्तसामायिकं संयतादेरारभ्यो तदनुलोमा तदनुकूला इच्छा इच्छानुलोमा / भाषाभेदे, त्कर्षेण निष्ठाप्राप्तमिति गाथार्थः। किंच स्त्री० / भ० 10 श०३ उ / इच्छानुलोमा नाम यता कश्चित् किंचित् जस्सिच्छाए जायइ, संपत्तीतं पडचिमं मणि। कार्यमारभ्यमाणः कंचन पृच्छति स प्राह-करोतु भवान् मुत्ती पुण तदभावे, जमणिच्छा केवली भणिया / / 98|| ममाप्येतदभिप्रेतमिति / प्रज्ञा० 11 पद // यस्यार्थस्येच्छया प्रवृत्तिनिमित्तभूतं यजायते संप्राप्तिस्त मर्थ / इच्छाणुलोमिय-त्रि. (ऐच्छानुलोमिक) इच्छा चेतःप्रवृत्तेरविलयादिकं प्रतीत्येदं भणितं काझ्यते इति / मुक्तिः पुन स्तदभावे | भिप्रायस्तस्यानुलोममनुकूलम् तत्र भवमैच्छानुलोमिकम् / इच्छाऽभावे जायते। कुत इत्याह-यद्यस्मादनिच्छाः केवलिनो भणिताः इच्छाभावानुकूल्यताभाजि,!आचा०१ श्रु०३ अ०४ऊ।। "अमनस्काः केवलिन" इति वचनादिति गाथार्थः / पं. व०१द्वा० / इच्छापणीय-त्रि. (इच्छाप्रणीत) इन्द्रियमनोविषयानुकूला प्रवृत्तिरिहेच्छा पक्षस्य पञ्चदशसु रात्रिषुस्वनाम-ख्यातायामेकादश्यां रात्रौ च। ज्यो०४ तथा विषयाभिमुखमभिकर्मबन्धसंसाराभिमुखं वा प्रकर्षण नीतः पा। जं० / / चं॥ इच्छाप्रणीतः। इच्छया विषयाभिमुखं कर्म-बन्धाभिमुखं संसाराभिमुखं ईप्सा-स्त्री. आप्तुमिच्छा आप-सन्-। आप्तुमिच्छायाम् इच्छायां च। वा नीते, "इच्छापणीता वंका णिकेया" ये चैवंभूतास्ते वङ्का निकेता वाचा वङ्कस्यासंयमस्याऽऽमर्यादया संयमावधिभूतया निकेतभूता आश्रया इच्छाकाम--पु. (इच्छाकाम) एषणमिच्छा सैव चित्ताभिलाष- | इति / आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०॥ रूपत्वात्काम इच्छाकामः। इच्छारूपे कामे, "इच्छा पसत्थमपसत्थिगा इच्छापरिमाण-न. (इच्छापरिमाण) इच्छाया धनादिय" / इच्छा प्रसस्ताऽप्रशस्ता च / अनुस्वारो ऽलाक्षणिकः विषयस्याभिलाषस्य परिमाणं नियमनमिच्छापरिमाणम् / देशतः सुखमुखोचारणार्थः। तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोक्षेच्छा / अप्रशस्ता परिग्रहविरतिरित्यर्थः / स्था०५ ठा० / इच्छा परिग्रह्यवस्तुविषया वाञ्छा युद्धेच्छा राज्येच्छा। व्यक्ता इच्छाकामा इति। दश.२ अ। तस्यास्तया परिग्राह्यवस्तूनाम्परिमाणमियत्ता इच्छापरिमाणम् / पंचा. इच्छागहण-न. (इच्छाग्रहण) अभिप्रायपरीक्षणे, वृ०१ उ.। 1 विव / धनधान्यादिनवविधपरिग्रह प्रमाणलक्षणलक्षणे पञ्चमे अणुव्रते, तल्लक्षणं यथाइच्छाछंद-पु. (इच्छाछन्द) यथाछन्दे, "एसो उ अहा छंदो इछाछंदुत्ति एगट्ठा"२८ इति। आव०३अ। परिग्रहस्य कृत्स्नस्याऽमितस्यं परिवर्जनात् // इच्छाजम-पु. (इच्छायम) यमभेदे, - "इच्छायमो यमेष्विच्छा, युता इच्छापरिमाणकृति जगदुः पञ्चमं व्रतम् // 29|| तद्वत्कथामुदा" - इच्छेति तद्वता यमवता कथातो या मुत् प्रीतिस्तया परिगृह्यत इति परिग्रहस्तस्य कीदृशस्य कृत्स्नस्य नवविधस्येत्यर्थः युता सहिता यमेष्विच्छा इच्छायम उच्यते इति। द्वा०२० द्वा०। चतुःषष्टिभेदोप्येष नवविधपरिग्रहे अन्तर्भवतीति न कोपि विरोधः। पुनः कीदृशस्य तस्य अमितस्य परिमामरहितस्य परिवर्जनात्यागात् इच्छाजोय-पु. (इच्छायोग) इच्छाप्रधानो योगो व्यापारः इच्छा-योगः। त्यागनिमित्तभूतेनेत्यर्थः इच्छाया अभिलाषस्य यत्परिमाणमियत्ता योगभेदे, तल्लक्षणं यथा तस्य कृतिःकरणं तां पञ्चमं व्रतं अधि-कारादणुव्रतं जगद्गुरुव चिकीर्षोः श्रुतशास्त्रस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः। ऊचुर्जिना इति संटङ्कः / इदमत्र तात्पर्यम् परिग्रहविरतिर्द्विधा सर्वतो कालादिविकलो योग इच्छायोग उदाहृतः।।२।। देशतश्च / तत्र सर्वथा सर्वभावेषु मूत्यिागः सर्वतः तदेव देशतस्तत्र चिकीर्षोः तथाविधक्षयोपशमाभावेऽपि निर्व्याजमेव कर्तु-मिच्छोः | श्रावकाणां सर्वतः तत्प्रतिप्लुतेरशक्तौ देशतस्तामिच्छापरिमाणश्रुतार्यस्य श्रुतागमस्य अर्थ्यतेऽनेन तत्त्वमिति कृत्वाऽर्थशब्दस्यागम- रूपां प्रतिपद्यते यतः "अपरिमिअपरिग्गरं समणोवासओं वचनत्वात् / ज्ञानिनोऽपि अवगतानुष्ठेयतत्त्वार्थस्यापि प्रमादिनो पचक्खाइ / इच्छापरिमाणं उवसंपज्जइ से अपरिग्गहे दुविहे पण्णत्ते विकयादिप्रमादवतः कालादिन विकलोऽसम्पूर्णो योगश्चैत्यवन्दनादिव्या- तंजहा सचित्त परिग्गहे अचित्तपरिग्गहे अति। ध०२ अधि / परिग्रहणं पार इच्छायोग उदहृतः प्रतिपादितः। परिग्रहः अपरिमितश्चासौ परिग्रहश्चेति समासः अपरिमितप Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छापरिमाण 606 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छापरि. रिमाणस्तत्र श्रमणोपासकः प्रत्याख्याति सचित्तादेः परिमाणात् परिग्रहाद्विरमतीति भावना / इच्छायाः परिमाणं तदुपसंपद्यते सचित्तादिगोचरेच्छापरिमाणं करोतीत्यर्थः / स च परिग्रहः द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथेति प्राग्वत् / सहचित्तेन सचित्तं द्विपदचतुष्पदादि तदेव परिग्रहस्सचित्तपरिग्रहः / अचित्तं वस्तु रतकुप्यादि तदेवा-चित्तपरिग्रहः / आव०६अ। ननु गृहे स्वल्पद्रव्येऽपि सति परिग्रहपरिमाणे तु द्रव्यसहस्रलक्षादिप्रतिपत्त्या इच्छावृद्धिसंभवात् को नाम गुण इति चेन्मैवम् इच्छावृद्धिस्तु संसारिणां सर्वदा विद्यमानैव यतोनमिराजर्षिवचनमिन्द्रं प्रति-"सुवण्ण रुप्पस्सय पव्वया भवे, सियाहु के लोससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतया" एवं चेच्छाया अनन्तत्वे तदियत्ताकरणं महते गुणाय यतः "जह 2 अप्पो ले हो, जह 2 अप्पो परिग्गहारंभो / तह 2 सुहं पवड्डइ, धम्मस्स य होइ संसिद्धी" तस्मादिच्छाप्रसरं निरुध्य सन्तोषे यतितव्यं सुखस्य संतोषमूल-त्वात्। यदाह-आरोगासारिमाणुत्तणं सच्चसारिओ धम्मो। विजा निच्चयसारा, सुहाइँ संतोससाराइं" तदेवमेतद्वतस्याऽत्रापि संतोषसौख्यलक्ष्मीस्थैर्यजनप्रसंसादिफलं परत्र तु नरामरसमृद्धिसिद्ध्यादि / अतिलोभाभिभूततया चैतद्दतस्यास्वीकृतौ विराधनायां दारिद्रयदास्यदौर्भाग्यदौर्गत्यादि / यतः "महारंभयाए महापरिग्गहाए कुणिमाहारेणं पंचिंदिअवहेणं जीवा नरयाउअं अज्ञोइत्ति' / मूर्थावान् हि उत्तरोत्तराशाकदर्थितो दुःखमेवानुभ-वति। यदाह-"उक्खणइ खणइ निहणइ, रत्तिं न सुअइ दिआ विअससंको। लिंपइठएइसययं,लंछिअपडिलंछिअंकुणइ" 9| परिग्रहत्वमपि मूर्छयव मूर्जामन्तरेण धनधान्यादेरपरिग्रहत्वात्। यदाह 'अपरिग्रह एव भवेद्वस्त्राभरणाद्यलंकृतो पि पुमान् / ममकारविरहिते सति, ममकारे सङ्गवान्नग्नः" ||१||तथा "जपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछण।तंपि संजमलझट्ठा, धारिंती परिहरंती अश्न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छापरिग्गहो वुत्तो, इइवुत्तं महेसिणत्ति'' तेन मू नियमनार्थ सर्वमूत्यिागाशक्तस्यैतत् पञ्चममणुव्रतम् / / ध० 2 अधिः / तथाच पञ्चाशके - इच्छापरिमाणं खलु, असयारंभविणिवित्तिसंजणगं। खेत्ताइवत्थुविसयं, चित्तादविरोहओ चित्तं / / 17 / / इच्छा परिग्राह्यवस्तुविषया वाञ्छा तस्यास्तया परिग्राह्यवस्तुनः परिमाणमियत्ता इच्छापरिमाणं खलु वाक्यालंकारे पञ्चमाणुव्रतं भवतीति प्रक्रमः। तचेच्छापरिमाणं किंफलमित्याह। असदारम्भविनिवृत्तिसंजनकमसुन्दरारम्भप्रवृत्तिनिबन्धनम् / भवति हीच्छापरिमाणे कृते इच्छाविषयीकृतकतिपयपदार्थानां किं चिन्न शुभव्यापारैरपि प्राप्तेरसुन्दरतरव्यापारेभ्यो विनिवृत्तिर्यतः - प्रभूतार्थप्रार्थमेव भूतघाताद्यसुन्दरव्यापारेषु प्रायः प्राणिनः प्रवर्तन्ते इति / तच्च क्षेत्रादिवस्तुविषयं क्षेत्रादीनि भूविशेषप्रभृतीनि वस्त्वन्यर्थो विषयो गोचरोऽस्तेति विग्रहस्तदुक्तम् // "धणं धन्नं खेत्तं वत्थु रूप्पं सुवणं कुवयं दुपयं चउप्पयं चेत्यादि'' अत्रचादिशब्दः प्रकारवचने क्षेत्रादयः क्षेत्रप्रकारा धनादय इत्यर्थः / चित्तं मन आदिर्येषा चित्तदेशवंशादीनां ते तया तेषामविरोध आनुकूल्यमनुरूपं चित्ताद्यविरोधस्तस्याः चित्ताद्यविरोधतः (वित्तादविरोहओत्ति) पाठान्तर तत्र च वित्ताद्यविरोधतो वृत्ताद्यविरोधतो वेति व्याख्येयम्। किमित्याह / वित्तं बहुप्रकारमेतत्तथाहि कश्चिन्निः स्वोऽपि विपुलवित्तो भवति अन्यस्त्वन्यथा / तथा कस्यचिद्भरिवित्तमन्यस्य स्तोकम् / तथा क्वचिद्देशेऽत्यन्तं धान्यचतुष्पदादिसंग्रहो विधीयते अन्यत्र तु न तथा / कोऽपि राजवंश्योऽन्यो ब्राह्मणवणिगवंश्यादिस्तस्य च प्रायो राज्यादिसभवा संभवी स्त इत्येवं स्वचित्त वित्तादीनामविरोधेनानेकविधभि स्तद्विधीयमानमनेकधा भवतीति गाथार्थः / / पंचा 1 विवः / (इच्छापरिमाणव्रतस्योदाहरणम्, विस्तरतः स्वरूपपशानन्द कथायामाणंदशब्द)"तत्थय पंचमाणुव्वए अनियतस्स दोसाणि य तस्स गुणा तत्थोदाहरणं / "लुद्धनंदो कुसीमूलियं लुद्धनंदो विणट्ठो साक्गो पुइओ भंडागारवई थवि-ओ।। आव०६अ। परिग्गहे असंतुट्टरस दोसा संतुट्ठस्स गुणा तत्थ उदाहरणमालुद्धणंदो कुसीसा तो उड्डीहिं विकियाता णमंतणए गमणं / पुत्तेहिं णिच्छियातो अदुक्खिज्जती भग्गा लोएण दिट्ठा णो कहितं लुद्धणंदेणं पाया भग्गा सावगो पूजितो / एवं जधा णामोकारे। आ, चू.६अ। अहवा वाणिगिणी रयणाणि विकिणइ छुहाए मरंति सेतुण भणिया एति पडिकओ नत्थि अन्नस्स नियाणि ताए भणइजंजोगंतं देहिं सोतत्थ देइ सुभिक्खे तीए भत्तारो आगओ पुच्छइ रयमाणि केहि भणई वत्तियाणि मे कहिं दिन्नाणि सा भणइ गोहुम सेझ्याए एकेक दिन्नं अमुगस्स वाणियगस्स सो वाणियगो तेण भणिओ रयणाणि अप्पेहि पूरं वा मोल्लं देहि सो नेच्छइतओ रन्नो मूलं ठाओ एरिसे अग्घे वट्टमाणे एयस्स मणिरयणस्स एएण पत्तियं दिन्नं सो विण्णसिओ पढम पुण ताणि रयताणि रयणाणि सावगस्स विक्केण याणि ठाइयाणि तेण परिगह पयाणातिरित्ता इति का ऊंन गहियाणि सावगेण नेच्छइ सो पुइओ, आव०६अ। एवमादिद्रइणा पुणो इमा भावेज संतोसंगहियमादीणि आया मणमाणेण एवं गेण्हिस्साम्मो णं चित्तेजा। आव चू०६अ। इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं तथाचाह। इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइआरा जाणिअव्वा न समायरिअव्वा तंजहा खित्तवत्थुप्पमा णाइक्कमे / 1 / हिरन्नसुवन्नप्पमाणाइकमे।। धणधन्नप्पमाणाइक्कमे / 3 / दुपयचउप्पयप्पमाणाइममे / / कुविअप्पमाणाइमक्के / / इच्छापरिमाणस्य श्रम णोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः। तद्यथा। क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः तत्र सस्योत्पत्तिभूमिः क्षेत्रं तच्च सेतुकेतुभेदाद्विविधं तत्र सेतु-क्षेत्रम-रघट्टादिसेक्यं केतुक्षेत्रं पुनराकाशपतितोदकनिष्पाद्यं वास्त्वगारं तदपि त्रिविधं खातमुत्सृतं खातोत्सृतं तत्र खात भूमिगृहकादि उत्सृतं प्रासादादि खातोत्सृत भूमिगृहकस्योपरि प्रासादादि एतेषां क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः / प्रत्याख्यानकालं गृहीतप्रमाणो-ल्लङ्घनमित्यर्थ इति। तथा हिरण्यसुवर्ण प्रमाणातिक्रमस्तत्र हिरण्यं रजतमघटितं घटितं वानेकप्रकारं द्रव्यादि सुवर्णप्रतीतमेव तदपि घटिताघटितमे तद्ग्रहणाचेन्द्रनीलमरकताधुपलग्रहः अक्षरगम-निका पूर्ववत्। तथा धनधान्यप्रमाणातिक्रमः तत्र धनं गुडखण्ड-शर्करादिगोमहिष्य-जाविकारं प्रतुगादि, धान्य ब्रीहिकोद्रवमुद्ग-माषतिलगोधूमयवादि अक्षरगमनिका प्राग्वदेव / तथा द्विपद-चतुष्पदप्रमाणातिक्रमः। तत्र द्विपदानि दासीदासमयूरहंसादीनि Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छापरि. 607 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इच्छालोभ चतुष्पदादि हस्त्यश्वमहिष्यादीनि अक्षरगमनिका प्राग्वदेव / तथा द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः / तत्र कुप्यमासनशयनभंडकरोट्टकलोहाद्युपस्करजातमुच्यते एतद्ग्रहणाच वस्त्र कंबलपरिग्रहः / अक्षरगमनिकापूर्ववत्। एतान् क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमादीन् समाचरन्नतिचरति पञ्चमाणुव्रतमिति। "एत्थदोसा जीवघायाइया भाणियव्वा' / आव०६ अ / श्राव। तत्थ खेत्तवत्थुपमाणादिसुजं पमाणं गहितं त णातिकमिज्जव्वं / अहवा जंपणं गीहतं तो अहीतं चारेणिओ अदुवेज्जापेडिमूल्ले वा देवा असमत्थो तं धणादिकाउ ताहे खेत्तं वत्थु वा देजा एवं पविरला विरलवित्थरो विभासियव्वो सो य सा वगो चिंतेजा जहा मए दव्वप्पमाणं जं गहितं तं अजावि न पूरेति / एसो य धारणितो तस्स ट्ठाणे इमं देति तिमिसापि किल दव्वलेक्खगो चेव इमं देति ते ममापि किल दव्वलेक्खगे चेव इमं। एवं खेत्तवत्थुप्पमाणातिक्कमणं कुणतो अतियरति / एवमादिविभासा सव्वत्थ एसो विभागे उवसंपुणो सयसह स्से वा कोडिए वा सव्वंगणिजमाणं / तस्स एसेव एक्को अतियारो विभागे पदे पदे अतियारो विभासियव्यो एयाणं थूलप्पमाणे गहिते संववहारेंतेपि वा सया ण कयविक्मयस्स दिवे२परिमाणं करेंति जंधरत्तिण न करेंति। तस्सय पव क्खातित्ति आरंभपरिगहदमणवाहणादि एएसु पदेसु विभाग सियव्वं / जधा-विहं एत्थ भावणा "जह 2 अप्पो लोभो, जध जध 4 अप्पो परिग्गहारंभो / तह 2 सुहं पवड्डति, धम्मस्स य होति संसिद्धी" धन्ना परिग्गहं उजि-ऊण मूलमिह सव्व पावाणं / धम्मचरणंपवन्नो, मणेण एवमविचिंतेजा'" आ० चू०६ अ० धनधान्यक्षेत्रवास्तु, रूप्यं स्वण्णं च पञ्चमे // गोमनुष्यादिकुप्यं चे, त्येषां संख्या व्यतिक्रमः ||47 / / धनं धान्य क्षेत्रं वास्तुरूप्यं सुवर्ण गोमहिष्यादिकुप्यं चेति पञ्चानां संख्या यावज्जीवं चतुर्मासादिकालावधियत्परिमाणं गृहीतं तस्य ये अतिक्रमा उल्लंघनानि ते पञ्चमे पञ्चमाणुव्रतेऽतिचारा ज्ञेयास्तत्र धनं गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदाचतुर्धा यदाह ''गणिमं पुगंफलाइ, धरिमं तु कुंकुमगुडाइ। मेजं चोपडलोणाइ, रयणवत्थाइपरिच्छेछ ।शा धान्य चतुर्विशतिधा व्रताधिकार एवोक्तं सप्तदशधापि यतः "सालि 1 जव२ वीहि 3 कुद्दव, 4 रालय५तिल मुग्ग 7 मास ८चवल९चणा 10 / तुवरि 11 मसूर 12 कुलत्था, 13 गोधूम 14 निप्पाव 15 अयसि 16 सिणा।१७/ धनं च धान्यं चेति समाहारः / अत्राग्रे च समाहारनिर्देशात्परिग्रहस्य पञ्चधात्वेनातिचारपञ्चकंसुयोज्यं भवति। क्षेत्रंच वास्तुचेति समाहारद्वन्द्वः तथा रूप्यं रजतंघटितमघटितंचानेकप्रकारमेवं सुवर्णमपि रूप्यं च स्वर्ण चेति समाहारः गावश्च मनुश्याश्चेति गोमनुष्यं तदादि यस्येति समासः गवादिमनुष्यादि चेत्यर्थः / तत्र गवादि गोमहिषमेषाविककरभसरभहस्त्यवादि मनुष्यादि पुत्रकलत्र-दासदासीकर्मकरशुकसारिकादि, तथा कुप्यं रूप्य स्वर्णव्यतिरिक्तं कांस्यलोहताम्रसीसकरपुमृद्भाण्डत्वाविसार विकारोदंकिकाण्ठमञ्चकमञ्चिकामसूरकरयशकटहलादिगृहोपस्काररूपमिति यच्चात्र क्षेत्रादिपरिग्रहस्य नवविधत्वेन नव संख्यातिचारप्राप्तौ पञ्चसंख्यात्वमुक्तं तत्सजातीयत्वेन शेष भेदानामत्रैवान्तर्भावात्। शिष्यहितत्वेन च प्रायः सर्वत्र मध्य मगतोर्विवक्षितत्वात् पञ्चक- संख्ययैवातिचारपरिगणनमनुचितमतो धनधान्यादिसंख्य यातिचाराणां गुणनमुपन्नमिति धर्मबिन्दुवृत्तौ / ननु प्रतिपन्नसंख्यातिक्रमाभङ्गाएव स्युः कथम तिचारा इत्यत आह॥ बन्धनाद्योजनात् दाना-दर्भतो भावतस्तथा।। कृतेच्छापरिमाणस्य, न्याय्याः पञ्चापि न झमी। बन्धनात्योजनात् दानात् गर्भतो भावत इत्यमी गृहीत-संख्यातिक्रमाः पञ्चामि पञ्चसंख्याका अपि कृतेच्छापरिमाणस्य प्रतिपन्नपञ्चमव्रतस्य श्रावकस्य न्याय्या न घटमाना व्रत-मालिन्यहेतुत्वात्। अयं भावः / न साक्षात्संख्यातिक्रमः किन्तु व्रतसापेक्षस्य बन्धनादिभिः पञ्चभिर्हेतुभिः स्वबुद्ध्या व्रत-भङ्गमकुर्वत एवातिचाराभवन्ति बन्धनादयश्चयथासंख्येन धनधान्यादीनां परिग्रहविषयाणां संबन्ध्यन्ते तत्र धनधान्य-स्यबन्धनात् संख्यातिक्रमो यथा कृतधनधान्यपरिमाणस्य कोऽपि लभ्यमन्यद्वा धनं धान्यं च ददाति तच्च व्रतभङ्गभया-चतुर्मासादिपरतो गृहगतधनादिविक्रये वा कृते गृहीष्यामीति भावनया बन्धनात् नियन्त्रणात् रजवादिसंयमनात्सत्यं-कारदानादिरूपाद्वा स्वीकृत्य तद्गृहे एव स्थापयतोऽतिचारः ॥शा तथा क्षेत्र वास्तुनो योजनात् क्षेत्रवास्त्वन्तरमीलनात् गृहीत-संख्यातिक्रमोऽति चारो भवति तथाहि किलैकमेव क्षेत्रं वास्तु चेत्यभिग्रहवतोऽधितकरतदभिलाषे सति व्रत भङ्ग भयात् प्राक्तनक्षेत्रादिप्रत्यासन्नं तद् गृहीत्वा पूर्वेण सह तस्यैकत्वकरणा-थं वृत्तिभीत्याद्यपनयने च तत्तत्र योजयतो व्रतसापेक्षत्वा-त्कथंचिद्विरतिबाधनाचातिचारः॥शा तथा रूप्यस्वर्णस्य दानाद्वितरणाद्गृही तसंख्यायाः अतिक्रमः / यथा के नापि चतुर्मासाद्यवधिना रूप्या दिसंख्या विहिता तेन च तुष्टराजादेः सकाशादधिकं तल्लब्धं तचान्यस्मै व्रतभङ्ग भयात् ददाति पूर्णे ऽवधौ ग्रहीष्यामीति भावनये ति व्रतसापेक्षत्वात्कथंचिद्विरतिबाधायातिचार इति // 3 // गोमनुष्यादेर्गर्भतः संख्या-तिक्रो यथा किल केनापि संवत्सराद्ययधिना द्विपदचतुष्पदानां परिमाणं कृतं तेषां च संवत्सराद्यवधिमध्य व प्रसवेऽधिक-द्विपदांदिभावाव्रतभङ्ग स्यादिति तद्भयात्कियत्यपि काले गते गर्भग्रहणं कारयतो गर्भस्यद्विपदादिभावेन बहिर्गततदभावेन च कथंचिद् व्रतभङ्गादतिचारः ||4|| कुप्यस्य भावतः संख्यातिक्रमो यथा कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथंचिद् द्विगुणत्वे भूते सति व्रतभ्रङ्ग भयात्तेषां द्वयेनैकेकं महत्तरं कारयतः पर्यायान्तरकरणेन संख्यापूरणात् स्वाभाविकसंख्याबाधनाचातिचारः / अन्ये त्याहुः तदर्थित्वेन विवक्षितकालावधेः परतोहमेतत् करोटिका दिकुप्यं ग्रहीष्याम्यतो नान्यस्मै देयमिति पराप्रदेयतया व्यय स्थाप-यतोऽतिचारः। नामत उक्ताः पञ्चातिचाराः // 302 अधि। इच्छापरिमाणाकिइ-स्त्री. (इच्छापरिमाणकृति) इच्छाया अभिलाषस्य यत्परिमाणमियत्ता तस्य कृतिः करणं इच्छापरिमाणकृतिः। पञ्चमेऽणुव्रते, ध०२ अधिः / (तद्वक्तव्यता इच्छापरिमाण शब्दे) इच्छामि(मे)त्त-न० (इच्छामात्र) अभिप्रायमात्रे, सूत्र 1 श्रु०७ अ। इच्छामुच्छा स्त्री॰ (इच्छामूर्छा) इच्छाच परधनं प्रत्यभिलाषः मूर्छा तत्रैव गाढभिष्वङ्गरूपा तद्धेतुकत्वाददत्तग्रहणस्येति। इच्छामू त्रिंशत्स्वधर्मेषु सप्तविशेऽधर्मद्वारभेदे,प्रश्न०५ द्वा० / इच्छालोभ-पु. (इच्छालो भ) इच्छा अभिलाषः सा चासौ लोभश्च इच्छालोभः / शुक्लशुक्लोऽतिशुक्लो यथा। महालोभे, Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छालोमिय 608 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ इट्टाल "इच्छालोभो उ उवहिमइरेगोत्ति" स्था०६ ठा० / "इच्छा लोभ न | धर्मद्वययोगात्-अत्यन्ता दरख्यापनाय चैवं निर्देशः / ज्ञा० 1 अ / सेवेजा" / इच्छारूपो लोभः इच्छालोभश्चक्रवर्तिद्रव्या भिलाषादिको "इच्छियमेयं देवाणु प्पिया पडिच्छियमेयं देवाणु प्पिया निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेक्षी न सेवेत सुरर्द्धिदर्शनमोहितो इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया" इच्छियमेयंति ईप्सितं तत् ब्रह्मदत्तवन्निदानं न कुर्यादित्यर्थः / आचा.१ श्रु०८ अ०८ उ.। "इच्छालोभे पडिच्छियमेयंतिप्रतीष्ट युष्मन्मुखाद्यत्तदेव गृहीतमिच्छियपडिच्छियंति मोत्तिमगस्स पलिमंथूआहा-रोवहिदेहेसुइच्छालोभे उसजई" स्था. उभयधर्मोपेतम् / कल्प। ६ठा। इच्छियव-त्रि. (ईप्सितव्य) सर्वैरपि मुमुक्षुभिरीप्स्यते प्राप्तुमर्थ्यत इच्छालोभिय-त्रि. (इच्छालोभिक) इच्छालोभो यस्यास्ति स / इतीप्सितव्यः। व्यवहारे, "तत्तोय इच्छियव्वे, आयारे चेव ववहारे" इच्छालोमिकः / महेच्छे, अधिकोपधौ, स्था०६ठा. (अस्य / व्यवहारस्यैतान्येकार्थिकानि / व्य. १ऊ। मुक्तिमार्गपरिमन्थत्वं पलिमंथशब्दे) *एष्टव्य-त्रि. इषुवाञ्छायाम् तव्य। प्रार्थनीये, / आव०४ अ०। इच्छालोल-पु. (इच्छालोल) इच्छा अभिलाषः सा चासौ | इजंजलि-पु. (इज्याञ्जलि) यजनामिज्या इत्यर्थः तद्विषयो लोलश्वेच्छालोलो महालोभ इत्यर्थः यथा निद्रानिद्रामहानिद्रेति / जलस्याञ्जलिः इज्याञ्जलिः यागदेवतापूजावसरभावीति हृदय-म्। अधिकोपकरणादिमेलनलक्षणे महालोभे, "इच्छालोलेय उवहि अथवा यजनमिज्या पूजा गायत्र्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां मतिरागात्" इच्छालोलस्तु स उच्यते यल्लोभाभिभूतत्वे- सन्ध्यार्चनमित्यर्थस्तत्राञ्जलिः इत्याञ्जलिः अथवा देशीय-भाषया नोपधिमतिरिक्तं गृह्णाति इति। "इच्छालोले मोक्खमग्गस्सपलिमन्थू" इज्येति माता तस्या नमस्कारविधौ तद्भक्तः क्रियमाणः इच्छालोलौ मोक्षमार्गस्य प्रतिमन्थुः सच"इच्छालोलेयउवहिमतिरेगा करकुञलमीलनलक्षणोञ्जलिरिज्याञ्जलिः / यागदेवतापूजालहुओ तिविहं च तहिं अतिरेगे जे भणिय दोसा" वृ०६ उ०। वसरभाविनि जलाञ्जलौ, विप्राणां गायत्र्यादिपाठपूर्वक - इच्छिय-त्रि० (इच्छित) इच्छा संजाताऽस्येति इच्छितः तार- सन्ध्यार्चनविषयके जलाञ्जलौ,-मातुर्नमस्कारार्थन्छद्भक्तैः क्रियमाणे कादित्वादितच् / स्पृहायुक्ते, वाच. करकुललमीलने च / अनु० (कुप्रावचनिकभावावश्यक मधिकृत्य ईप्सित-त्रि आप सन् क्तः / मनोवाच्छिते, तं / पं. चू / जं. ! पं० व्याख्यातम्) भा० / ज्योः / ज्ञा० / "इच्छियमेयं देवाणुप्पिया" इति-कल्प० / / हजंति-स्त्री. (इयन्ती) आगच्छन्त्याम्-"दिव्वंसो सिरिमिजंति, दंडेन क्रियापलेन प्राप्तुमिष्ट, कर्तुरीप्सिततमं कर्म। पाळा" निर्वत्यञ्च विकार्य पडिसेहए" दश०८ अ०२ ऊ / थ प्राप्यश्चेति त्रिधा मतम्। तचोप्सिततमं कर्म, चतुर्दान्यत्तु कल्पितम्" इज्जा-स्त्री. (इज्या) यजनमीज्या यज्-भावे क्यप् स्वीत्वादाप् / यागे, भर्तृ. इच्छाविषये,-वाच (देवपूजायाम्) अनु पूजायाम्, स्था० 10 ठा० / भ० / औप० / यजनभिज्या इच्छियकामकामि(न)-त्रि (ईप्सितकामकामिन्) ईप्सितान पूजा गायत्र्यादिपाठपूर्वके विप्राणां सन्ध्यार्चने, देशीभाषया मातरि च। मनोवाञ्छितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्ते अर्थात् भुज्यन्ते इत्येवं अनु। यजेदानार्थत्वात् 2 दाने, संग्रामेच। कर्मणि क्यप४ प्रतिमायाम्, शीला ये ते तथा ईप्सितकामकामिनः / मनोवाञ्छितशब्दादि ५कुट्टिमन्याञ्च। जूके, अमर / वाचः। विषयभोक्तरि,। "इच्छित कामकामिणो इति" / जं.।२ वक्ष इजिस-त्रि. (इज्यैष) इज्यां पूजामिच्छत्येषयति वा यः स इज्य इच्छियत्थ-पु. (ईप्सितार्थ) मनोवाञ्छितेऽर्थे, पं. भा० / सुत्तत्थ / षः। पूजाभिलाषिणि, भ०९श०३३ जाइज्यां पूजां इछन्त्येषयन्तिवाये णिजराओ मोक्खो वा इच्छियत्थोत्तु-पं०भा० / एवं गुणजुत्तो विशेष्यः ते इज्यैषास्त एव / स्वार्थ इकप्रत्ययविधानादिज्यैषिकाः / ईप्सितानाननुप्राप्नोति लभत इत्यर्थः / पं. चू। पूजाभिलाषिकः, -- भ.। इच्छियपडिच्छ्यि-त्रि. (इच्छितप्रतीच्छित) इच्छासञ्जाताऽस्येति इज्झ-इन्ध-दीप्तौ-रुधा. आ. अक-सेट्-निष्ठायामनिट् वर्तमाने चातो इच्छितं प्रतीच्छा संजाताऽस्येति प्रतीच्छितम् इच्छितंचतत्प्रतीच्छितं निष्ठा / वाच. इन्धौ झा-इति-प्रा-सूत्रेण संयुक्तस्य झा इत्यादेशः / च इच्छितप्रतीच्छितम् / इच्छाप्रतीच्छोभयधर्मे, / "इच्छियपडि इज्झइ-इन्धे–प्रा. व्या०२ पा०८ अ.। च्छियाएण" इच्छाया अवग्रह इच्छितप्रतीच्छितेन इच्छितप्रतीच्छितम् इज्झमाण-त्रि. (इध्यमान) दीप्यमाने, पुव्वावरदाहिष्णुत्तराग एहिं वा आभवनव्यवहारस्थापना यथा यत्पथि तन्यते तदस्माकं यद्ग्रामे तत् एहिं मंदायं मंदा इमे इज्झमाणा, इति। राज० // युष्माकम् यदिवा यत्सचित्तं तदस्माकं यदचित्तं तद्युष्माकम्। अथवाया इट्टगा-स्त्री. (इष्टका) इष तकन् टाप / इष्टिका पितृदैवत्ये इति स्त्रीव्रतग्रहणार्थमुपतिष्ठति सा अस्माकं पुरुषो युष्मा कम् / यद्वा बालो नियमान्नेत्वम् / (ईट) मृदादिनिर्मिते मृतखण्डभेदे, - दारत्तिदुवारं युष्माकं वृद्धोऽस्माकम्। अथवा यः सार्थेन सह व्रजता लाभः सोऽस्माकं भण्णति तं पुवकयमिट्टगाहिं ठइय मुग्घाडेति / नि, चू.१ उ / अस्माकं सार्थे -युष्माकम् / यदि वा-यो यल्लभते तत्तस्यैव एवं पिं.। "पयावेह इट्टकाओ ममघरट्टयाए'' पाचयत चेष्टका गृहार्थ-मिति। भूतेनेच्छितप्रतीच्छितेन य आभ वनव्यवहारः स इच्छाया अव-ग्रहः। प्रश्न.२ द्वा०॥ व्य, द्वि०४ ऊ। इगापाग-पु. (इष्टकापाक) इष्टकापचने, पिंड / / ईप्सितप्रतीप्सित-त्रि० (ईप्साप्रतीप्सोभयधर्मोपेते, / ज्ञा० 1 अ० इट्टा-स्त्री. (इष्टा) ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे 8 अ०२ पा० / इति प्रा० सूत्रेण इष्टा *इष्टप्रतीष्ट-त्रि इच्छाप्रतीच्छोभयधर्मोपेते, "इच्छियमेयं पडिच्छियमेयं | शब्दस्य निषेधान्न ठः / प्रा० / इष्टकायाम्, स्था०८ ठा० / / इच्छियपडिच्छियमेयं" इच्छियंति-इष्टां ईप्सितं वा पडिच्छियंति प्रतीष्ट | इट्टाल-न (इट्टाल) इष्टकायाम, "होज कट्ठसिलं वा विव इट्टालं प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतमित्यर्थः इष्टप्रतीष्टमीप्सितप्रतीपप्सितं वा। वा वि एगया ठवियंसं कमट्ठाए, तं च होज चलाचलं 65" Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इट्टावाय 609 अमिधानराजेन्द्रः माग२ भवेत् काष्ठं शिला वापि इट्टालं वाप्येकदा एकस्मिन् काले प्रावृडादौ / अविरोधिफलनिष्पत्तौ, ल॥ स्थापित संक्रमार्थतच भवेचलाचलमप्रतिष्ठितं नतुस्थिरमेवेति सूत्रार्थः। | इट्ठरूव-त्रि (इष्टरूप) इष्टस्वरूपे, "सुबाहुकुमारे इ8 इहरूवे'। विपा०२ दश०५ अ॥ अ०१ श्रु॥ इट्टावाय-पु. (इष्टापाक) इष्टकायाः पचनस्थाने,-"इट्टा वाएइ वा / | इट्टवं-त्रि (इष्टवत्) यज-इषक्त-वतुस्त्रीयांडीपायजनकर्तरि, इच्छायुक्ते स्था०८ ठा०॥ च / इष्टकर्मकर्तरि, त्रि, स्त्रियां डीप / वाच॥ इट्ठ-त्रि. (इष्ट) इष्यतेस्म प्रयोजनवशात् अर्थ क्रियार्थिभिरितीष्टः। स्था० / इट्ट सह-प. (इष्ट शब्द) वीणादिसंबन्धिनि शब्दे, वीणादिसं२ ठा० / विपा। औप, भिकाजं / इष्कर्मणिक्तः।ष्टस्यानुष्ठेष्ट्रासंदष्ट 8 अ० बन्धाद्भवन्तीष्टाः शब्दादयः इति। प्रज्ञा०२३ पद। 2 पा० / इति-प्रा. सूत्रेण ठः प्रा. व्या० / अभिप्रेते, "आरंभ मिट्ठोजति इसिद्धि-स्त्री. (इष्टसिद्धि) अभिमतार्थनिप्पत्तौ, "सो उ मंगलसदं सुगंमि आसवाय" यथाऽऽ-रम्भस्तयाऽऽस्र वाय कर्मोपादानायेष्टोऽभिप्रेत जहा उइट्ठसिद्धित्ति" श्रुत्वा आकर्ण्य मङ्गलमित्येवंरूपो मङ्गलभूतो वा इति / वृ०३.०। अभिमते, / प्रश्न 3 द्वा० / विशे० | पंचा। षो। विजयसिद्ध्यादिशब्दो मङ्गलशब्दस्तं शकुने शकुनविषये यथा युयद्वदेव अभिलाषणीये, आव० 4 अ ! अभिलाषाविषयेभूते, ज्ञा० 8 अ / इष्टसिद्धिरभिमतार्थनिष्पत्तिर्भवति। पंचा०४ विव० / / अभीप्सिते, जी०३ प्रतिः / अविरोधिनि, - ल / इच्छाविषये, तं० / इहसुय-पु. (इसुत) वल्लभे पुत्रे, "इट्ठसुयं पेच्छिऊण कीलंतं'' पंचा०७ राज / मनस इच्छामापन्ने, जी.१ प्र. / इन्द्रियमनःप्रमोददायिनि,-द्वा० विव०॥ १८द्वा०। ईप्सिते, पंचा०१२ विक, योग्ये, विशेविल्लभे, प्रिये, औप० / अष्टा ज्ञा०नि०। पंचा। "इटेहिं कंतेहिय विप्पहूणा--" सूत्र.१ श्रु५अ० इहस्सर-पु. (इष्टस्वर) वल्लभस्वरे, प्रज्ञा०२३ पद।। १ऊ। विहिते, - उत्त. 16 अ। इष्टञ्च इच्छाविषयः तच द्विविधं गौण इहापुत्त-न. (इष्टापूर्त) इष्टं च पूर्तं चद्वयोः समाहारद्वन्द्वः। पृषोदरादित्वात् मुख्यं च / तत्र इतेरच्छानधीनेच्छाविषयो मुख्यं त द्वाधनं गौणम् / तत्र पूर्वपदस्य दीधः / इष्ट सब्दोक्ते ऋत्विग्भिरिति लक्षिते दाने, मुख्यमिष्टं सुख दुःखाभावश्च / तदिच्छाया इतरेच्छानधीनत्वात्। "वापीक् पतडागादि-देवतायतनानि च / अन्नप्रदानमारामतत्साधनं पाकभोजनादि गौणं सुखं दुःखाभावेच्छयैव तदिच्छायः पूर्तमित्यभिधीयते' इति / पूर्ते च / प्रति. वाच / इष्टापूर्तेर्दासमुन्मेषात्। अनिष्टमिष्टमिश्रञ्च त्रिविधं कर्म चोच्यते। इच्छया कल्पिते, क्षिणपुरुषत्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना बद्ध्यते-इति - "इष्टकृतिरष्टगुणिता व्येकालिता विभाजितेष्टन" लीला-1 वाच / "इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्टं नान्यच्छ्रेयो येभिनन्दन्ति मूढाः। "नाकस्य यज् भावेक्तयज्ञादौ,-न आव.१ अ।आ० म.प्र.। कर्मणिक्त-पूजिते, पृष्ठे तेन सुकृतेन भूत्वा इमं लोकं हीनतरं वा विशन्तीति वचनात्, स्या. -औप० / एरण्डवृक्षे.पु. संस्कारे,न / वाच, ऋत्विर्भिमन्त्रसंस्कारै-- 15 श्लो। "स्तोकानामुपकारः स्यादारम्भाद्यत्र भूयसां तत्रानुकम्पा न ब्राह्मणानां समक्षतः / अन्तर्वेधां हि यद्दत्तमिष्टं तदभिधीयते / / द्वा०१ मता यथेष्टापूर्तकर्मसु / " द्वा०१ द्वा० / इष्टापूर्त न मोक्षाङ्गं द्वा० / प्रति / 'एकाग्निकर्महवनं त्रेतायां यच दूयते। अन्तर्वेद्याञ्च यद्दत्तमिष्ट सकामस्योपवर्णितम्। प्रतिः। तदभिधीयते" जातुकर्णोक्ते धर्मकार्ये, न / "इष्टं दत्तमधीतं वा इट्ठावत्ति--स्त्री. (इष्टापत्ति)६तकर्मधा, वा। इष्टस्यापत्तौ, इष्टायामापत्तौ विमृश्यतेत्यनुकीर्तनात्'-देवलः। ज्ञानतोषिते, / वाच / च / वादिना दर्शितापत्तेः प्रतिवादिन इष्टत्वे हि सा भवति इष्टापत्तौ इद्वगंध-पु. (इष्टगंध) कर्मधारय / सुगन्धौ, इष्टो गन्धोऽस्य। सुगन्धिद्रव्ये, दोषान्तरमाह। वाच। त्रि. वालुकायाम्, न मेदिः / ज्ञा० / पंचा। ओ० / वाञ्छिते, / पंचा० 12 इडिक-पु. (इडिक्क) वनभवे छागे, हेम० / अपवृषे, चालनी-छादितशिर विवः / औ०। इडिक्केऽथाधिरूढवान् ।आ. क०। इद्रुतत्तदंसणवाइ(न)-पु. (इष्टतत्त्वदर्शनवादिन) बौद्ध भेदे, ल। इड्डि(द्धि)(रिद्धि)-स्त्री. (ऋद्धि) ऋध भावे-क्तिन् / इत्कृपादौ 8 अ 2 इट्ठतर-त्रि (इष्टतर) अभीप्सिततरे, / "तेणं किण्हमणी एतो इठ्ठयएए पा० / इति प्राकृतसूत्रेणेत्वम् -प्रा०॥ रिः केव लस्य 8 अ०१ पा० / इति चेव" / ते कृष्णमण्य इति जीमूतादेरिष्टतरका एवं कृष्णेन वर्णेन सूत्रेण रि इत्यादेशः प्रा० / श्रद्धार्द्धमुर्द्धिऽन्ते वा / 8 अ 2 पा० / इति अभीप्सिततरका एवेति। राजा जी / सूत्रेण वा ढः / तपोमाहात्म्यरूपायामामर्षोष-ध्यादिकायां लब्धौ, (सम्पदि) उत्त० 3 अ दश / स्था। नं। विशे / आचा / आ.चू / षो० इद्वपुर-न. (इष्ट पुर) इष्टं पुरं पत्तनमिष्ट पुरम् / / इष्ट पत्तने, - (ऋद्धिभेदाः लब्धिशब्दे व्याख्यास्यन्ते-अस्य विस्तरतः सर्वे भेदाः "अडविंसपचवायं, वोलेत्ता देस ओवदेसेण। पावंति जहिट्टपुरं भवाडविं पितहा जीवा' अटवी प्रतीता सप्रत्यपायां व्याघ्रा-दिप्रत्यपायबहुलाम् लद्धिशब्दे ऋद्धेर्बहुवक्तता समिद्धि शब्देऽपि) "नार्थनूणं परे लोए, इड्डिवा वि तवस्सिणो / अदुवा वंचिओ मित्ति, इइ भिक्खू न चिंतए" // (बोलता) उल्लङ्घ्य देशकोपदेशेन निपुण-मार्गज्ञोपदेशेन प्राप्नुवन्ति उत्त०३०। यथा इष्टपुरमिष्टपत्तनम्। आ. म. द्वि.। ऋद्धिर्वा तपो माहात्म्यरूपा अपिः पूरणे कस्य तपस्विनः सा च इट्ठफल-त्रि. (इष्टफल) इष्टं वाञ्छितं फलं साध्यं यस्य तदिष्ट आमर्पोषध्यादिः पादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः क्षणात्कुर्युः फलम् / वाञ्छितसाधके, अभिमतेऽर्थे, ईप्सितेऽर्थे च / पंचा त्रिभुवनविस्मयं जनान् दधुः कामांस्तृणाग्राद्वा "धर्मा द्रत्नोविव०। 4 अविरोधिनि फले, ल। मिश्रित-काञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् / अद्भुतभीमोरुशिलासइट्ठफलसाहग-त्रि. (इष्टफलसाधक) ईप्सितार्थनिष्पादके, पंचा० 4 विव०। हस्रसंपातशक्ति" श्चेत्यादिका च तस्या अप्युनुपलभ्यमानइट्ठफलसिद्धि-स्त्री० (इष्टफलसिद्धि) अभिमतार्थनिष्पत्तौ, पंचा०४ विव०। / त्वादिति भावः / उत्त 3 अ० / ईश्वरत्वे, "णेगविहाइड्डीओ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इड्डिअप्पवट्टण णेगविहत्ति णाणप्पगारा का ता इड्डीओ इड्डित्ति इस्सरियत्तं तं पुण प्रवचने निश्शङ्कितादित्वं प्रवचनप्रभावकशास्त्रसम्पदा / चारित्रर्द्धिः विजामंतं तवोभतं वा विउव्वणागासगमथविभंगणा णादि ऐश्वर्य-मिति निरतिचारता ||6|| सचित्ता शिष्यादिका अचित्ता वस्त्रादिका मिश्रा नि. चू.१ उ / स्था०॥ नरेन्द्रपूजाचार्यत्वादिके, स्था०३ठा / शक्तौ / भ० तथैवेति इहच विकुर्वाणादि ऋद्धयोऽन्येषामपि भवन्ति केवलं देवादीनां 1. श०३ उ / आत्मशक्तौ प्रव० 214 द्वा० / चक्रवर्तिमप्यधो विशेषवत्यस्ता इति तेषामेवोक्त इति। स्था० 3 ठा० / नयेदित्यादिकायां विकरणशक्ती, "अप्प-रएमहड्डिए" ऋद्धिर्विकुर्वाणा देवानामृद्धयो यथा / / तथा सहित इति। उत्त०१ अ / सम्पत्तौ, पंचा०८। "इड्ढीण मूलमेसो" सोधम्मीसाणं देवाणं के रिसगा इड्डी पण्णत्ता ? गोयमा ! ऋद्धीनां सम्पदां मूलमिव मूलं कारणमेष धर्म इति / पंचा० 08 विव० / महिड्डिया महज्जुईया जाव महाणुभागाइड्डी पण्णत्ता जाव अचुओ परिवारादिके, प्रज्ञा००२ पद / तं / ओ० स्था। वस्त्रसुवर्णादिसम्पत्तौ,। गेवेजअणुत्तरा या सवे महिड्डिया जाव सव्वे महाणुभावा अणिद्दा विपा०३ अ० दशा० / सम / स्था। प्रभूतवस्त्रपात्रादिके, स्था०५ ठा० / जाव अहमिंदाणामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो // राज्यैश्वर्यादिके आतु. ! विभूतौ, आव० 4 अ / स्था० / (सोहम्मीत्यादि) सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवाः कीदृशा ऋद्ध्या विमानवस्त्रभूषणादिकायां समृद्धौ, स्था०३ ठा० / उप० / तृणाग्रादपि प्रज्ञप्ता भगवानाह -- गौतम ! महर्द्धिका यावन्महानुभागा अमीषां पदानां हिरण्यकोटिरित्यादिरूपायां समृद्धौ, उत्त० 1 अ० / ऋद्धर्भदा यथा व्याख्यानं पूर्ववत् एवं तावद्वक्तव्यं याव-दनुत्तरोपपातिका देवाः / जीवा. धम्मिड्डी भोगिड्डी इअ तिहा भवे इड्डी ध०२ अधि।। 4702 उ / / तिविहा इड्डी पन्नता तंजहा देविड्डी राइ इड्डी गणिड्डी। देविडी सर्वजीवानां येषु यथा शक्ति स्ति तथा आह॥ तिविहा पण्णत्तातंजहा विमणिड्डी विगुट्विणिड्डी परियारा-णिड्डी। छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं णस्थि इड्डीति वा जाव पर क्कमेति अहवादेविड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा सचित्ता अचित्तामीसिया। वा-तं. जीवं वा अजीवं करणयाए अजीवं वा जीवं करणयाए राइड्डी तिविहा पण्णत्ता तंजहा रण्णो अइयाणिड्डी रण्णो एगसमएणं वा दो भासाओ भासित्तए सयं कडं वा कम्मं वेएमि णिजाणिड्डी रण्णो बलवाहणकोस कोट्ठागारिड्डी। अहवा राइड्डी वा मा वा वेएमि / परमाणु पोगलं वा छिदित्तए वा मिंदित्तए वा तिविहापण्णत्तातंजहा सचित्ता अचित्ता मीसिया। गणिड्डी तिविहा अगणिकाएण समोदहित्तए वहिया वा लोगंता गमणयाए। ' पण्णत्ता तंजहा णाणिड्डी दंसणिड्डी चरित्तिड्डी अहवा गणिड्डी (छहीत्यादि)। षट्सु स्थानेषु सर्वजीवानां संसारिमुक्तस्व रूपाणां तिविहा पण्णत्ता तंजहा सचित्ता अचित्ता मीसिया।। नास्ति ऋद्धिर्विभूतिरिति इत्येवं प्रकारा यथा जीवादिरजीवादिः क्रियते (तिविहा इड्डीत्यादि) सूत्राणि सप्त सुगमानि नवरं देवस्येन्द्रादेः वा विकल्पेएवं द्युतिः प्रेमा माहात्म्यमित्यर्थः / याव-त्कारणात्। "जसेइ ऋद्धिरैश्वर्य देवद्धिरेवं राज्ञश्चक्रवादेर्गणिनो गणाधिपतेरा-चार्यस्येति वा बलेइवा वीरिए वा पुरिसक्कारपरक्कमेइवत्ति'' इदंच व्याख्यातमनेकश विमानानां विमानलक्षणा वा ऋद्धिः समृद्धिात्रिंश-ल्लक्षादिकं बाहुल्यं इति न व्याख्यायते तद्यथा- || जीवं वेत्यादि-जीवस्याजीवस्य महत्वं रत्नादिरमणीयत्वं चेति-विमानद्धिर्भवति च द्वात्रिंशल्लक्षादिकं करणतायां जीवमजीवं कुर्तमित्यर्थः१ अजीवस्य वा जीवस्य करणताया सौधर्मादिषु विमानबाहुल्यं यथोक्तम्। वत्तीसट्ठावीसा, वारस अट्ट चउरो 2 (एगसमएणंवत्ति) युगपद्वा द्वे भाषे सत्यासत्यादिके भाषितुभिति३त्वयं सयसहस्सा / आरणे बंभलोगे, विमाणसंखाभवे एसा ||1|| कृतं वा कर्मवेदयामि वा मावा वेदयामि इत्य-त्रेच्छावशेवेदनेऽछेदने वा पंचासचत्तछचेव, सहस्सालंतसुक्क सहस्सारे // सय चउरो आणय, नास्ति बलमिति प्रक्रमोऽयं अभिप्रायो नही च्छावशतःप्राणिनां पाणएसु तिन्नारणचुयए॥२॥ एक्कारसुत्तरं हेट्टी-मेसु सत्तुत्तरं चमज्झिमए / कर्मणाःक्षपाक्षपणणौस्तो बाहुबलिन इवापि त्वनाभोगनिवर्तिते ते सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तर विमाणत्ति / / 3 / / उपलक्षणं चैतत् भवतोऽन्यत्र के वलिसमुद्धातादिति 4 परमाणुपुद्गलं वा छेत्तुं भवननगराणामिति वैक्रियकरणलक्षणा शद्धिर्वक्रि यऋद्धिः / खङ्गादिनाद्विधीकृत्य भेत्तुवा सूच्यादिना विदूधवा छे दादौ वैक्रियशरीरैर्हि जम्बूद्वीपद्वयमसंख्यातान्वा द्वीपसमुद्रान पूरयन्तीत्युक्तञ्च परमाणुत्वहानेरग्रिकायेन वा समवदग्धम-तिसूक्ष्मत्येनादाह्यत्वात्तस्येति भगवत्यां चमरेणं भंते ! के महिड्डिए इत्यादि / परिचारण कामसेवा त 5 बहिस्ताद्वा लोकागमनतायाम् 6 अलो कस्यापि लोकतापत्तेरितिदृष्टिः अन्यान् देवान् अन्यसत्का देवी स्वकीया देवीरभियुज्यात्मानं च जीवमजीवं कर्तुमित्त्युक्तम्। स्था०६ठा० / गोचरचर्या भूमिभेदे, यस्यामेकां विकृत्य परिचारयति इ-त्येवमुक्तलक्षणेति ||1|| सचित्ता दिशमभिगृ-ह्योपाश्रयान्निर्गतः प्राञ्जलेनैव यथासमश्रेणिव्यवस्थितगृहस्वशरीराग्रमहिष्यादिविषया सचेतनवस्तुसंपद चेतना वस्त्राभरणादि- पङ्क्तौ भिक्षां परिभ्रमन् तावद्याति यावत्पङ्क्तौ चरमगृहं ततो भिक्षा विषया। मिश्रा अलंकृतदेव्यादिरूपा ॥शा अतियानं नगरप्रवेशस्तत्र गृण्हन्नेवा पर्याप्तऽपि प्राञ्जलेयैव गत्या प्रतिनिवर्तते सा ऋद्धि-रिति। वृ० ऋद्धि-स्तोरणहदृशोभाजनसंमर्दादिलक्षणा निर्माण नगरान्निर्गमस्त- 1 उ. / वृद्धौ, सम्पत्ती, सिद्धौ च / (ऋद्धिदर्शनेन सामायिकंलभ्यते त्रऋद्धिःहस्तिकल्पनसा मन्तपरिवारादिका ||3|| बलञ्चतुरङ्ग-बाहनानि तत्कथाच दसारणभद्दशब्दे) वेगसरादीनि कोशो भाण्डागारं कोष्ठाधान्यभाजनानि तेषामगारं गृहं गेहं | इडि(द्धि)-न० (अप्पवट्टण) ऋध्दयप्रवर्तन ऋद्धीनामामोषध्याकोष्ठागारं धान्यगृहमित्यर्थः तेषां तान्येव वा ऋद्धिर्या सा तथा // 4 // दीनामनुपजीवनेनाप्रवर्तनमव्यापारणम् / आमर्पोषध्यादीनामप्रवर्तने, सचित्तादिका पूर्ववतावनीयेति।पा। ज्ञानद्धिर्विशिष्टश्रुतसंपत्-दर्शनर्द्धिः द्वा० 18 द्वा०। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इड्ढिगारव 611 अभिधानराजेन्द्रः भाग२. इत्तर इडीगारव-न (ऋद्धिगौरव) ऋद्या नरेन्द्रादिपूजालक्षणया गुरूण्यादरविषया यस्य सोऽयमृद्धिरससातगुरुकः / अथवा आचार्यत्वादिलक्षणया वाऽभिमानादिद्वारेण गौरवम् / ऋद्धं वा एभिर्गुरुकस्तेषां प्राप्तावभिमानतोऽप्राप्तौ च प्रार्थनातोऽशुभ भावोपात्तगौरवमृद्धिगौरवम् / भावगौरवभेदे,-तच ऋद्धिप्रत्यभिमान- कर्मभारतया लघुः। ऋद्धिरससातानामादरकारके,-ऋद्धिरससातैरप्राप्तिप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभो भावो भावगौरवमित्यर्थः / स्था०३ ठा०। लघौ च / स्था०३ ठा इडिगारवझाव-न (ऋद्धिगौरवध्यान) राज्यैश्वर्यादिरूपा ऋद्धिस्तया इड्डिरससायगुरुया छज्जीवनिकायघायनिरयाए। गौरवमात्मोत्कर्षरूपं तस्य ध्यानं दशार्णभद्रस्येव ऋद्धिगौरवध्यानम् / जे उवदिसंति मग्गं कुमगमग्गस्सिता ते उ|२५|| दुनिभेदे, आतु०॥ (इड्डिरसेत्यादि) ये केचन अपुष्ट धर्माणः शीतलविहारिणः इडिपत्त-पुं.(ऋद्धिप्राप्त)ऋद्धिरामोषध्यादिलक्षणां तां प्राप्तः ऋद्धिप्राप्तः ऋद्धिरससातगौरवेण गुरुका गुरुकर्माण आधाकर्माधुपभोगेन आमाँषध्यादिलक्षणामृद्धिम्प्राप्ते, | न. ऋद्धिञ्च प्राप्नोति प्रथमतो षड्जीवनिकायव्यापादरताश्चापरे तेभ्यो मार्ग मोक्षमार्गविशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वार्थप्रतिपादकं श्रुत-मवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यत- मात्मानुचीर्णमुपदिशन्ति तथाहि शरीरमिदमाद्यं धर्मसाधनमिति मत्वा स्तीव्रतीव्रतर शुभभावनामधिरोहन्न प्रमत्तः सन्। उक्तञ्च"अवगाहतेच कालसंहननादिनेश्वाधाकर्माद्युपभोगोषि न दोषाये त्येवं प्रतिपादयन्ति। स श्रुतजलधिं प्राप्रोति चावधिज्ञानम् / मनसः पर्यायं वा ज्ञानं तचैवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमार्गा-स्तीर्थकरास्तन्मार्गाश्रिता भवन्ति कोष्ठादिबुद्धिर्वा" इति। प्रज्ञा०२१ पद॥ तु शब्दादेतेऽपि स्वयूथ्या एतदुपदिशन्तः कुमार्गाश्रिता भवन्तीति किं *प्राप्तद्धि-पुं आमर्षी षध्यादिका ऋद्धिः प्राप्ता यैस्ते प्राप्तद्धयः पुनस्तीर्थिका इति। सूत्र, नि०१ श्रु.११ अll प्राप्तामर्षांषध्यादिके, "इड्डीपत्ते य वोच्छामि" इह गाथाभङ्ग- इडिविभूसा-स्त्री (ऋद्धिविभूषा) ऋद्ध्या सत्कारेण निर्यामितायां भयाव्यत्ययोऽन्यथा निष्ठान्तस्य बहुब्रीहौ पूर्वनिपात एव भव- विभूषायाम्, "इविविभूसा य परिकम्मे" इड्डिसक्कारेण निजामिया तीति / विशेला विभूसेति। आव०५ अ॥ इड्डिपत्ताणुओग-पुं०(ऋद्धिप्राप्त्यनुयोग) प्राप्तामोंषध्या-दिकस्य | इडिसंजुत्त-त्रि.(ऋद्धिसंयुक्त) ऋद्धयो नानाप्रकारा आम-षिध्यादयो व्याख्याने, विशेा (तच विस्तरतो लद्धिशब्दे दृश्यम्) लब्धयस्ताभिः संयुक्तः समन्वितः। आमाँष-ध्यादिलब्धिसमन्विते,। इडिपत्तारिय-पु.(ऋद्धिप्राप्ताN) आर्यभेदे,- "से किंतं इड्डिपत्तारिया षो०१५ विवा छविहा पण्णत्ता तंजहा अरिहंता चक्कवदी बलदेवा वासुदेवा चारणा इकिसकारसमुदय-पुं.(ऋद्धिसत्कारसमुदय) ऋद्धिस-त्कारसमुदाये, विजाहरा'' प्रज्ञा०१ पद। स्था। "इड्डीसक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेह'' ऋद्ध्या ये इडिमं(त)-त्रि(ऋद्धिमत्) ऋद्धिरामर्षांषध्यादि सम्पत्तदेवं रूपा प्रचुरा सत्काराः पूजाविशेषास्तेषां यः समुदायः स तथा तेन अथवा प्रशस्ताऽतिशायिनी वा ऋद्धिर्विद्यते येषान्ते ऋद्धिमन्तः / ऋद्धिसत्कारसमुदायैरित्यर्थः। समुदयश्च जनानां सङ्घ इति। भ०१५ श०१ प्राप्तामोषध्यादिऋद्धिके, / स्था०५ ठा.। "इविमं णाम ईसरोत्ति" उ। शङ्ख्या, वस्त्रसुवर्णादिसम्पदा सत्कारः पूजाविशेषस्तस्य समुदायो निचू.१५ ऊ / महर्द्धिके, "एगेणं इड्डिमंतेण वाणि-एणं' ऋद्धिमत्त्वे यः स तथेति। विपा०३ अा महर्द्धिकतायामिति, / वृ०३ उ०। सम्पदुपेते, दश०७ अ० तद्भेदा यथा। इड्डिसिय-(इड्विसिय) इड्डिसियत्ति रूढिगम्या इतिभ०९ श०३३ उला। "पंचविहा इड्डिमंता मणुस्सा पण्णत्ता तंजहा अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा इणं-त्रि (एतत्) विप्रकृष्टवर्तिनि, देनाoll वासुदेवाभावियप्पाणो अणगारा" |भावितः सदासनथावासित आत्मा इणमो-त्रि.(एतत्) अदूरवर्तिनि, देना। यैस्ते भावितात्मानोऽनगारा इति एतेषां च ऋद्धिमत्त्वमामर्षांषध्यादिभिः इण्डिं-अ०(इदानीम्) एतत्कालेऽर्थे, दे ना०ll अर्हदादीनां तु चतुर्णा यथा-संभवमाम(षध्यादिनाऽर्हत्वादिना चेति। इत्त-मत्-प्र. अस्त्यर्थे, आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेत्तेरमणामतोः 59 इति स्था०५ ठा०२ उ।।"इद्धिमंतंनरिंदस्स, इद्धिमंतंतु आलवे" ऋद्धिमन्तं मतोरित्तेत्यादेशः यथा--कव्वइत्तो माणइत्तो" प्रा०८ अ०२ पा०। सम्पदुपेतं नरं दृष्ट्वा किमित्याह / ऋद्धिमन्तमिति ऋद्धिमानयमित्येवमालपेत्। व्यवहारतो मृषावादादिदोषपरिहारार्थामिति सूत्रार्थः। इत्तर-त्रि (इत्वर) इण वरप१पथिके 2 नीचे ३क्रूरकर्मणि च 4 खण्डे-- पु. स्त्रियां क्वरबन्तत्वान डीप सा चाभिसारिकायां स्विथा-शा वाच० / दश०७ अका स्तोके (अल्पे) अनु। उत्त। निचू अल्पकाले, अल्पकालीने, ध०२ इड्डिमपुत्त-पुं.(ऋद्धिमत्पुत्र) राजादौ,-इड्डिमपुत्तो वा राजादीत्यर्थ इति अधिः। पंचा। परिमित काले, / प्रक०६ द्वा। / दशः। / नि.चू.१ उll अल्पावस्थायिनि, / "इयमित्तरा णिवित्ती" विषयोपभोगकालइडिरससायगारवपर-त्रि.(ऋद्धिरससातगौरवपर) ऋद्यादिषु पर्यन्तभाविनी इत्वराऽल्पावस्थायिनी निवृत्तिरिति / श्राol गौरवमादरस्तत्प्रधाना ऋद्धिरससातगौरवपरा / ऋद्धिरस- इत्वरमल्पकालं यावचतुर्मासादिकालावधित्वेनेत्यर्थ इति / पंचा। सातादरप्रधाने, ऋद्धिरससायगारवपरा बहवे करणालसा पूरुवें-ति। (इत्वरानशनस्य वक्तव्य ता 'असणण' शब्द / चित्राक्षादिगतप्रश्न.२ द्वारा स्थापनाया इत्वरत्वं 'छवणा' शब्दे ! इत्वर व्रतानि 'वय' शब्दे / इडिरससायगुरुय-त्रि (ऋद्धिरससातगुरुक) ऋद्धिराचार्यत्वादौ इत्वरचारित्राणि 'चरित' शब्दे! स्थविर-कल्पस्येत्वत्वं 'कल्प' शब्दे) नरेन्द्रादिपूजा रसा मधुरादयो मनोज्ञाः सातं सुखमेतानि | प्रतिक्रमण विशेषे च / तच्च स्वल्पकालिकं दैवसिकरात्रिकादि। स्था. "इति पचविता वासतिर एगणं हा Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तरकाल 612 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इथिकलेवर 6 ठा। पडिक्कमणं देवसि राइअं च इत्तरिअं" इत्यरं स्वल्पकालिकं | इत्थंथ-त्रि (इत्थंस्थ) इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थः।आ०म०द्विता प्रज्ञा / अनेन देवसिकादि इति। आव०४ अा प्रकारेण स्थिते, विशे। 'इत्थंथं च वयइ सव्वसो सिद्धेवा हवइ सासए" इत्तरकाल-त्रि(इत्वरकाल) स्वल्पकाले, अनु।। दश०९ अ०४ उ.। इत्तरपरिग्गहा-स्त्री०(इत्वरपरिग्रहा) इत्वरमल्पमुच्यते तत इत्वरमल्पं | इत्थि(त्थी) आणमणी-स्त्री (स्त्र्याज्ञापनी) आज्ञाप्यतेआज्ञासम्पादने परिग्रहो यस्याः सा इत्वरपरिग्रहा इत्वरकालं परिग्रहो यस्याः सा तथा प्रयुज्यतेऽनया सा आज्ञापनी। स्त्रिया आज्ञापनी स्त्रयाज्ञापनी। स्त्रिया कालशब्दलोपोऽत्र दृष्टव्यः / अथवा इत्वरीप्रतिपुरुषमय-नशीला आदेशदायिन्याम्भाषायाम्। प्रज्ञा०२ पद। वेश्येत्यर्थः परिगृह्यत इति परिग्रहा कंचित्कालं भाटीप्रदानादिना संगृहीता इत्थि(त्थी) कम्म-न (स्त्रीकर्मन) स्त्रियो नरतिरश्च स्तासां कर्म इत्वरी चाऽसौ परिग्रहा च सा तथा पुंवद्भावश्चात्र कार्यः / प्रव०७ द्वा०। वशीकरणादिकर्म / स्त्रीणां वशीकरणादिकर्मणि, "परि-ग्गहित्थिकम्म भाटीप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिकं स्ववशीकृतायां चतं विजं परिजाणिया" सूत्र०१ श्रु०८ अll वेश्यायाम्, आव०६ अा (तां चासेवमानरूपस्य चतुर्थाणुव्रतस्य स्वदारसन्तोषस्यातिचार इति 'सदारसंतोस' शब्दे) इत्थि(त्थी)कला-स्त्री. (स्त्रीकला) महिलागुणे, ते च चतुइत्तरपरिग्गहिया--स्त्री. (इत्वरपरिगृहीता) इत्वरकालं परिगृहीता षष्टिसंख्याकाः।"चोसहिँ महिलागुणे" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ तु चतुष्षष्टिः कालशब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, कियन्तमपि कालं दिवसमा-सादिकं स्त्रीकलाश्वेमाः / नृत्यम् 1 औचित्यं 2 चित्रं 3 वादित्रं 4 मन्त्रम् 5 ज्ञानं 6 भाटीप्रदानेन स्ववशीकृतायाम् वेश्यायाम् आव०६ अाधा विज्ञानं दण्डः 8 जलस्तम्भः९गीतगान 2 तालमानं 11 मेघवृष्टिः१२ फलाकृष्टिः १३तन्त्रम् 14 आरामगोपनम् १५आकारगोपनं 16 धर्मविचारः इत्तरपरिग्गहियागमण-न०(इत्वरपरिगृहीतागमन) इत्तरमल्पकालं 17 शकुनसारः 18 क्रियाकल्पः 19 संस्कृतजल्पः 20 प्रासादनीतिः 21 भाटीप्रदानतः केनचित्स्ववशीकृता वेश्या तस्यां गमनम् / धर अधि०। भाटीप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिकं स्ववशीकृतायां धर्मरीतिः 22 वर्णिकावृद्धिः 23 स्वर्णसिद्धिः 24 सुरभितैलकरणं 25 लीलासंचरणं 26 हयगजपरीक्षणं२७ पुरुषस्त्रीलक्षणं 28 हेमरत्नभेदः 29 मैथुनासेवने, आव०६अ।। (चतुर्थाणुव्रतरूपस्वदारसंतोषस्थायमतिचार अष्टादशलिपिपरिच्छेदः३० तत्कालबुद्धिः३१ वस्तुसिद्धिः 32 कामविक्रिया इति 'सदार संतोस' शब्दे) 33 वैद्यकक्रिया 34 कुम्भभ्रमः 35 सारिभ्रमः 36 अञ्जनयोगः 37 चूर्णयोगः इत्तरवास-पुं.(इत्वरवास) स्तोकनिवासे, 'इह जीवियमेव पासहा, तरूणे 38 हस्तलाघवं 39 वचनपाटवम् 40 भोज्यविधिः 41 वाणिज्यविधिः 42 एव वाससयस्स तुट्टत्ती / इत्तरवासे य बुज्झह, गिद्धनरा कामेसु मुखमण्डलं 43 शालिखण्डनं 44 कथाकथनं 45 पुष्पग्रन्थनं 46 वक्रोक्तिः मुच्छ्यिा " |8|| साम्प्रतं सुबह्नप्यायुर्वर्षशतं तच तदन्ते त्रुट्यति। तच्च सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेष प्रायत्वात् इत्वरं वासकल्पं वर्तते 47 काव्यशक्तिः 48 सर्वभाषाविशेषः 49 अभिधानज्ञानं१० भूषणपरिधान स्तोकनिवासकल्पमित्येव बुध्यध्वं यूयमिति। सूत्र०१ श्रु०२ अoll 51 भृत्योपचारः 52 गृहाचारः 53 वेशरचनं ५४व्याकरणं 55 परनिकारणं 56 रन्धनं 57 केशबन्धनं 58 वीणानादः५९ वितण्डावादः६० अंकविचारः इत्तरिय-त्रि (इत्वरिक) इत्वरे स्तोके काले भवमित्वरिकम् 61 लोकव्यवहारः 62 अन्त्याक्षरिका 63 प्रश्न प्रहेलिका 64 इति / नियतकालावधिके, उत्त०३० अ०। इत्वरः स्तोकः कालो यत्रास्ति तदित्वरिकम् / मुहूर्तादिप्रमाण / पंचा०१० विवा इत्यरोऽल्पः कालो अत्रोपलक्षणादुक्तातिरिक्ताः स्त्रीपुरुष कला ग्रन्थान्तरे लोके च प्रसिद्धा वत्सरादिर्थस्यास्ति यावृत्त्यादेरसावित्वरिकः / पंचा०१२ विव० ज्ञेयाः / अत्र च पुरुषकलासु स्त्रीकलानां स्त्रीकलासु च पुरुषकलानां स्वल्पकालीने, इत्तरियं णाम थोवं इति" नि.चू.२ उछ। (इत्वरिकाऽ सङ्कर्ये तदुभयोपयोगित्वात्। ननु तर्हि 'चोसद्धिं महिलागुणे इति' ग्रन्थ नशनस्य वक्तत्थता 'अणसण" शब्दे। इत्व-रिकमरणवक्तव्यता'मरण' विरोध उच्यते न ह्ययं ग्रन्थः स्त्री-मात्रगुणख्यापनपरः किंतु शब्दे / इत्वरिकोपपधिप्रतिलेखना पडिलेहणा' शब्दे / इत्वरिक स्त्रीस्वरूपप्रतिपादकस्तेन क्वचित् पुरुषगुणत्वेऽपि न विरोधः / सामायिक वक्तव्यता 'सामाइय' शब्दे इत्वरिक वैयावृत्त्यवक्तव्यता कलाद्वयस्योक्त संख्याकत्वं तु प्रायो बहूपयोगित्वादित्यऽलंविस्तरेण। वेयावच्च शब्दे)। जं०२ वक्ष इत्तरी-स्त्री०(इत्वरी) इत्वरी प्रतिपुरुषमथनशीला / भाटीप्रदानेन | इत्थि(त्थी)-कलेवर-न (स्त्रीकलेवर) योषिच्छरीरे, स्तोककालं परिगृहीतायां वेश्यायाम्। पंचा०१ विका अव्वंभे पुण विरई, मोहदुगछां स तत्तचित्ता य / इत्तिअ-त्रि.(एतावत्) एतत्परिमाणे, / एतदः परिमाणे डावत् प्रत्ययः / इत्थीकलेवराणं, तव्विरएसुं च बहुमाणो ||46|| 'यत्तदेतदोऽतोरित्तिअएतल्लुक्च' / / 16 / इति प्राकृत-सूत्रेण- अब्रह्मणि स्त्रीपरिभोगलक्षणे पुनःशब्दे विशेषणे तद्भावना चैवं एतदं भक्त्वा डावत् स्थाने इत्तिअ आदेशः / प्रा. व्या०। गुर्वादिषु स्मरणं कर्त्तव्यमब्रह्मणि पुनर्विरतिर्निवृत्तिः कार्या तथा इत्तो(इदो)-(इओ) अव्य.(इतस) इदम्-तसिल् अस्मादित्यर्थे 'त्तो मोहजुगुप्सा स्त्रीपरिभोगहे तु वेदादिमो हनीयनिन्दा यथा दो तसो वा' / / 2 / 10 / इति प्राकृतसूत्रेण तसः स्थाने तो दो इत्यादेशौ यल्लज्जनीथमति-गोप्यमदर्शनीयं बीभत्समुल्वणं मलाविलवा। प्रा.व्याला अस्मिन्नित्यर्थे च / वाच॥ पूतिगन्धि तद्याचते कामिकृमिस्तदेवम्। किंवा दुनोति न मनोभवं इत्थम् अव्य.(इत्थम) इदम्-थमु-इदं प्रकारेण इत्थं भावः इत्थं भूतः। वा मनसा इत्यादि / तथा स्वतत्त्वचिन्तास्वरूपचिन्तनं केषां वाच / इदं प्रकारमापन्ने, / प्रज्ञा०२ पद / अनेन प्रकारेणेत्यर्थे च। विशेः। स्त्रीकलेवराणां योषिदेहानां यथा शुक्रशोणितसम्भूतं नवच्छिद्र उक्तप्रकारेणेत्यर्थे, / द्वा०२१ द्वा०।। पूर्वोक्तप्रकारेणेत्यर्थे, / द्वन।। मलोल्वणमस्थिशृङ्खलिकामात्रं हन्त यो षिच्छरीरकं तद्विर Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिकहा 613 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिकाम तेष्वब्रह्मनिवृत्तेषु मुनिषु। चशब्दः समुचये बहुमानोत्तरङ्गप्रीतिरूपो विधेयो इत्थिकहं करेंतस्स अप्पणो मोहोदीरणं भवति-जस्स वा करेत्ति परस्स यथा-धन्यास्ते वन्दनीयास्ते तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितं / यैरेष भुवनक्लेशी तस्स मोहोदीरणं भवति-इत्थिकह करेंतो सुओ लोएणं उड्डाहो अहो काममल्लो निपातितः। पंचार विव०। ज्झाणोवउत्ता तवस्सिणो जाव इत्थिकह करेंति ताव सुत्तपरिहाणी इत्थि(त्थी)कहा-स्त्री (स्त्रीकथा) स्त्रीणां स्त्रीषु वा कथा स्त्री- आदिसद्दातो अत्थस्स अण्णेसिंचउ संजमो गाणं बंभव्वए अगुती भवति कथा / स्त्रीकथाविकथाभेदे, इथं च कथेत्युक्तापि स्त्रीविषयत्वेन भणियं च "वसहि कहणि सेजिंदिय, कुटुंतरपुव्वकीलियपणीते / संयमविरुद्धत्वाद्विकथेति भावनीयेति। स्वीकथाया भेदा यथा अतिमायाहारविभू-सणा यणं चबंभगुत्तीओ" || एवं अगुत्ती भवति पसंग इत्थी कहा चउविहा पण्णत्ता तंजहा इत्थीणं जाहकहा। एव दोसो पसंग दोसो कहापसंगाओवादोसा भवंति ते य गमणादी गमणं इत्थीणं कुलकहा इत्थीणं रूवकहा इत्थीणं नेवत्थकहा। उणिक्खमई आदिसहाओ वा कुलिंगी भवति स लिंगठितो वा आगारिं ब्रह्मणी प्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जाते पडिसेवति संजतिं वा हत्थकम्मं वा करेति स्वीकथायां प्रायश्चित्तम् / कथेति जातिकथा। यथा-धिक् ब्राह्मणी र्धवाभावे, या जीवन्ति मृता इत्थीणं कहा-इत्थिकहा सा चउव्विहा इमाइव / धन्या मन्ये जनैः शूद्रीः पतिलक्षेप्यनिन्दिता ||1|| एव जातीकधं कुलकधं, रूवकधं बहुविहं च सिंगारं। मुग्रादिकुलोत्पन्नानामन्यतमायाः यत्प्रशंसादि सा कुलकथा / यथा- एता कधा कधिंते, चतुजमला कालगा चतुरो / / 119|| अहो चौलुक्यपुत्रीणां, साहसं जगतोधिकं / पत्युर्मृत्यौ विशत्यग्नौ, या जातिमादिया उ (चउजमलत्ति) चत्तारि जमला मासठविजंति प्रेमरहिता अपि ॥शा आन्ध्रीप्रभृतीनामन्यतमायाः रूपस्य यत्प्रशंसादि माससामण्णे किं गुरुगा लहुगा भण्णति (कालगा) कालगतिगुरुगा मासा सा रूपकथा / यथा-चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी, सद्रीः पीनघनस्तनी। किं तेहिं चउहि मासेहिं चउगुरुगत्ति भणियं भवति एरिसगा चउगुरुगा चउरो लाटी नामतः सा स्या देवानामपि दुर्लभा / / 3 / / तासामेवान्यतमायाः भण्णत्ति भवंति जाइकहाए चउगुरुं, कुलकहाए चउगुरुं, रूवकहाए कच्छबन्धादि नेपथ्यस्य यत्प्रशंसादि सा नेपथ्यकथेति / यथा- चउगुरुं, सिंगारकहाए चउगुरुं एवं चउरो जातिए तवकालेहिं लहुगं घिड्नारीरौदीच्या, बहुवसनाच्छादिताङ्गलतिकत्वात्। यद्यौवनंनयूनां, कुले कालगुरुं तवे लहुगं रूवे तवगुरुगं काललहुं सिंगारे दोहिं वि गुरु चक्षुर्मोदाय भवति सदा। स्था०४ ठा. अहवा चत्तारि जमला जातिमातिसु भवंति के ते कालगा चउरो तत्र जातिकथा-ब्राह्मणी प्रभृतीनामन्यतमा प्रशंसति द्वेष्टि वा | चउगुरुगंति भणियं भवति तवकालविसेसो तहेव अहवा चउरोति संखा कुलप्रसूतानामन्यतमां, रूपकथा आन्ध्री प्रभृतीनामन्यतमाया रूपं जमलं दो ते य तवकाला ताणि तव काला जुयलाणि चउरत्ति भणियं प्रशंसति "आन्ध्रीणां च ध्रुवं लीला चलितं भूतले मुखे / आसज्य भवति कालगाइति बहुवयणाचउगुय ताणि चउगुरुगाणि चउरो अग्गद्धस्स राज्यभारं स्वं,सुखं स्वपिति मन्मथ-इत्यादिना द्वेष्टि वा तथा वक्खाणगाहा इमा // नेपथ्यकथान्धी प्रभृतीनामेवान्यतमायाः कथादिनेपथ्यं प्रशंसति द्वेष्टि माति समुत्थातिपिति, वंसकुलं अहव ओग्गादी। वा। आव०४ अा जाति कथायां ब्राह्मणी प्रभृतीनामन्यतमा प्रशंसति द्वेष्टि बण्णाकित्तियरूवं, गतिपेहिति भास सिंगारे / / 120 / / वा, कुलकथानां पुनरुग्रादिकुलप्रसूतां वा / रूपकथा या रूपोद्देशेन माउप्पसादा रूवं भवति जहा सोमलेएणं एवं जा कहा सा जाइकहा। विधीयते यथा।"आन्ध्रीणां रूपसौन्दर्य, कालिझ्या जघनं वरम् / पिउपसादा रूवं भवति जहा एगो सुवण्णगारो अव्वत्थं रुवस्सी गणिगाहिं लाट्या विलसितं चारुकर्णाट्यास्तुरतिप्रदा'' || अथवा निन्दति / भाडिदाउं णिज्जति रिउकाले जातेण जाया सा रूवस्सिणी भवति एवं मालविकी त्वनाला प्या, वराकी रूपवर्जिता / सौराष्ट्री कच्छजातापि, त्याज्या दुर्भगशेखरा / नेपथ्यं केशचीवरसमारचनरूपं तद्रूपकथा कुलकहा सेसं कंठं। निचू.१ उ०।। नेपथ्यकथा-यथा / लाट्यास्तु कञ्चुकश्चरुरांध्यासीमन्तको नघः / इत्थि(त्थी)काम पुं०(स्त्रीकाम) स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः / वेणिबन्धस्तु सौराष्ट्रयाः कालिङ्ग्या नीविबन्धनम्। दर्शन।। इत्थिकहा स्त्रियोपलक्षिता वा काम्यन्त इति कामाः स्थीकामाः स्त्र्यादिवि-षयेषु पसंसा निंदा सरूवा जहा सा तणुय तणू सुभगा सोममुही पउम मदनकामविषयभूतासु स्त्रीषु कामेषु, शब्दादिषु च / स्त्रीकामेषु पत्तनयणिल्ला गुरुयनियंबा उन्नयप ओहरा ललियगयगमणा // तहा प्रसक्तानान्नरकयातना भवतीति यथाकरहगई कागसरा य दुब्भगा लंबजठरा पिगच्छी दुःसीला दुप्भासा एवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना धिद्धीकोनिय इति ग०१ अधिा आ चूस्वीकथा दूरतस्त्याज्या तथा च जाव वासाइंचउपंचमाइंछदसमाइवा अप्पतरो वा मुज्जतरो वा "सा तन्वी सुभगा मनोहररुचिः कान्तेक्षणा भोगिनी, तस्याहारि कालं मुंजित्तुं भोगभोगाइं पविसुत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता वहूई नितम्बबिम्बमथवा विप्रेक्षितं सुभुवः / धिक्तामुष्ट्रगतिं मलीमसतनुं पावाई कम्माइं उसन्नाइं संभारकडेण कम्मणा से जहा णामए काकस्वरां दुर्भगा--मित्थं स्त्रीजनवर्णनिन्दन कथा दूरेस्तुधर्मार्थिनाम्' अयगोलइ वा सेलगोलइ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उद।। इति।। धर०। (स्त्रीकथापरित्यागस्य ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानत्वं गतलमइवइत्ताइ अहे धरणितलपइट्ठाणे मवइ एवमेव तहप्पगारे 'बंभचेरस-माहिट्ठाण' शब्दे 'बंभचेरगुत्ति' शब्दे च) पुरिसजाते वजबहुले धूतबहुले पंक बहुले वेरबहुले आयपरमोहुदीरण उड्डाहो सुत्तमाइपरिहाणी। आपत्तियबहुले दंभबहुले णियडिवहुले साइबहुले वंभवए य अगुत्ती, पसंगदोसाय गमणाइ / / 121 / / अथसबहुले उसन्नतसपाणघाती कालमासे कालं किचा Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथिकाम 614 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिगब्भ धरणितलमइवत्ताइ अहे जरगतलपइट्ठाणे भवइ / / 65|| स्त्रीकाम ग्रहणं तत्र चासक्ताः यावन्तं कालमासते तत्सूत्रेणैव दर्शयति। तेच विषयासक्ततथा एतत्कुर्वन्तीत्येतद्दर्शयितुमाह (एवमेव इत्यादि) यावद्वाणि चतुः पञ्चषड्दशकानि।अर्थच मध्यमकालो गृहीतः / एताएवमेव पूर्वोक्तस्वभाव एवं ते निष्कृपा निरनुक्रोशा बाहाभ्यन्तरपर्षदोरपि वत्कालोपादानं च साभिप्रायं प्रायस्तीर्थिका अतिक्रान्तवयसएव कर्णनासाविकर्तनादिना दण्डपात-नस्वभावाः / स्वीप्रधानाः कामाः प्रव्रजन्ति तेषां चैतावानेव कालः संभाव्यते यदि वा मध्यग्रहणात्तत स्त्रीकामाः यदि वा स्त्रीषु मदनकामविषयभूतासु कामेषु च शब्दादिषु ऊर्ध्वमधश्च गृह्यते इति दर्शयति। तस्माचोपात्तादल्पतरप्रभूततरो वापि इच्छाकामेषु मूर्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपन्नाः एते च शक्रपुरंदरादिवत् कालो भवति। तत्र च ते त्यक्त्वापि गृहवासं भुक्त्वा भोगभोगान् इति पर्यायाः कथञ्चिद्भेदं वाश्रित्य व्याख्येयाः। ते च भोगासक्ता व्य स्त्रीभोगे सति अवश्यं शब्दादयो भोगा भोगभोगास्तान् भुक्त्या ते च पगतपरलोकाध्यवसाया यावद्वर्षाणि चतुः पञ्चषट् सप्त वा दश वाल्पतरं किल वयं प्रव्रजिता इति नच भोगेभ्यो विनिवृत्ताः यतो मिथ्यादृष्टि तथा वा कालं भुक्त्वा भोगासक्ततया च परपीडोत्पादनतो वैरायतनानि ज्ञानान्धत्वात्सम्यग्विर-तिपरिणामरहितास्ते चैवंभूतपरिणामाः स्वायुषः वैरानुबन्धाननुप्रसूयोत्पाद्य विधाय तथा सञ्चयित्वा सश्चिन्त्योपचित्य कालमासे कालं कृत्वा निकृष्टतपसोपि सन्तोऽन्यतरेष्वासुरिकेषु बहूनि प्रभूततरकालस्थितिकानि क्रूराणि क्रूरविपाकानि नरकादिषु किल्विषिकेषु स्थानेषूत्पादयितारो भवन्ति। ते ह्यज्ञानतपसा मृता अपि यातनास्थानेषु क्रकचपाटन-शाल्मल्यवहारोहणतप्तत्रपुपानात्मकानि किल्विषिकेषु स्थानेषूत्पत्स्यन्ते तस्मादपि स्थानादायुषक्षकर्माण्यष्ट प्रकाराणि बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थानि विधाय तेन च यादिप्रमुच्यमानाच्युताः किल्विषिकबहुलास्तत्कर्मशेषेणैल-वन्मूका संभारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तत्कर्मगुरवो वा नरकतलप्रतिष्ठानां भ एलमूकास्तद्धावेनोत्पद्यन्ते। किल्विषिकस्थानाच्चयुतः सन्ननन्तरभवे वा वन्तीत्युत्तरक्रिययापादितबहुवचनरूपयेति संबन्धः / अस्मिन्नेवार्थे मानुषत्वमवाप्य यथैलमूकोऽव्यक्तवाक् समु-त्पद्यत इति / तथा सर्वलोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह (से जहा णामएत्ति) तद्यथा नाभायोगोल (तम्यत्तायेत्ति) तमस्त्वेन जात्यन्धतया अत्यन्ताऽज्ञानावृततया वा तथा कोऽयस्पिण्डः शिलागोलको वृत्ताश्मशकलं वाउदके प्रक्षिप्तः जातिमूकत्त्वेनापगतवाच इह प्रत्यागच्छन्तीति। सूत्र०२ श्रु०२ अ। दश०।। समानसलिलतलमतिवातिलध्याऽधोधरणीतले प्रतिष्ठानोभवति।। इत्थि(त्थी)कामभोग-पु. (स्त्रीकामभोग) स्त्रीप्रधाना स्वि-योपलक्षिता अधुना दाष्टान्तिकमाह (एवमेवेत्यादि) यथासावयोगोलको वा काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगाः स्त्रीकामभोगाः / वृत्तत्वाच्छीघ्रमेवाधो यात्येवमेव तथा प्रकारः पुरुषजातः तमेव लेशतो स्त्र्यादिकामभोगेषु, स्त्रीकामभोगासक्तानां परिणाममाहदर्शयति / वजवरजं गुरुत्वात्कर्म तद्रहुलस्तत्करणप्रचुरस्तथा एवमेव ते इत्थिकामभोगेहिं मच्छिया गिद्धा गढिया बध्यमानकर्म गुरुरित्यर्थः। तथा धूयत इतिधूतं प्रारबद्धं कर्म तत्प्रचुरः / अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसट्टा ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति, पुनः सामान्येनाह पङ्कयतीति पडू पापं तद्हुलस्तथा / तदेव कारणतो ते णो परं समुच्छेदें ति, णो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई दर्शयितुमाह / वैरबहुलो वैरानुबन्धप्रचुरस्तथा (पत्तियंति) मनसो सत्ताईसमुच्छेदें ति, पहीणा पुथ्वसंजोगं आयरियं मग्गं असंपत्ता दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानस्तथा दम्भो मायया परवञ्चनं तदुत्कटस्तथा इति ते णो हचाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसन्ना ||19|| निकृतिर्मायावेष भाषापरावृत्तिछान्ना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयस्तथा एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेण स्त्रीप्रधानाः स्त्रियोपलक्षिता वा काम्यन्त इति सातिबहुल इति सातिशयेन द्रव्येणापरस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः कामा भुज्यन्त इति भोगास्तेषु सातबहुलतयाऽजितेन्द्रियाः सन्तस्तेषु सातिस्तद्बहुलस्तत्करणप्रचुरस्तथाऽयशोऽश्लाघा सहत्ततया निन्दा कामभोगेषु मुञ्छिता एकीभावतामापन्ना गृद्धाः काङ्क्षावन्तो ग्रथिता यानि यानि परापकारभूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषु कर्मसु अवबद्धा अध्युपपन्ना आधिक्येन भोगेषु लुब्धा रागद्वेषात रागद्वेषवशगा करचरणच्छेदनादिषु अयंशोभाग्भवतीति स एवंभूतः पुरुषः कालमासे कामभोगान्धा वा त एवं कामभोगेषु आश्रवबद्धा सन्तो नात्मानं स्वायुषः क्षये कालं कृत्वा पृथिव्या रत्नप्रभादिका-यास्तलमतिवर्त्य संसारात्कर्मपाशाद्वा समुच्छेदयन्ति मोचयन्ति नापि परं सदुपदेशदानतः योजनसहस्रपरिमाणमतिलध्यनरकतल-प्रतिष्ठानोऽसौ भवति।।६।। कर्मपाशावपाशितं समुच्छेदयन्ति कर्मबंधांस्त्रोटयन्ति नाप्यन्यान् एवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया गरहि या दशविधप्राणवर्तिनः प्राणान् प्राणिनस्तथा वाभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति अज्झोववन्ना जाव वासाई चउपंचमाइं छहसमाई अप्पयरो वा च भूतानि तथा वा आयुष्कधारणाजीवास्तांस्तथा सत्वास्तथाविधभुजयरो वा मुंजित्तुं भोगभोगाइं कालमासे कालं किया वीर्यान्तरायक्षयोपशमापादितवीर्यगुणोपेतास्तान समुच्छेदय-न्ति / अन्नयरेसु आसुरिएसु किबिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति असदभिप्रायप्रवृत्तत्वात् / ते चैवंविधास्तज्जीवत-च्छरीरवादिनो ततो विप्पमुचमाणे मुखो मुजो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइ लोकायतिका अजितेन्द्रियतया कामभोगावसक्ताः पूर्वसंयोगात्पुत्रदारामूयत्ताए पचायति ||2|| दिकात्पहीणाः प्रभ्रष्टा आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्यः इत्यार्थो मार्गः एवमेव पूर्वोक्तेनैव कारणत्वेनातिमूढत्वादिना परमार्थ-मजानानास्ते सदनुष्ठानरूपस्तमसंप्राप्ता इत्येवं पूर्वोक्तयानीत्या ऐहिकामुष्मिकतीर्थकाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः / यदि वा स्त्रीषु कामेषु च लोकद्वयसदनुष्ठानभ्रष्टा अन्तराल एव भोगेषु विषण्णास्तिष्टन्ति। सूत्र०२ शब्दादिषु मूर्छितागृद्धा ग्रथिता अध्युपपन्नाः। अत्र चोत्यादरख्यापनार्थं श्रु०१ अ प्रभूतपर्यायग्रहणं एतच्च स्त्रीषु शब्दादिषु च प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनं प्रधानं इत्थि(त्थी)गण-पुं०(स्त्रीगण) स्त्रीसमूह, / "नो इत्थिगणाणं सेविता संसारकारणं तथाचोक्तं "मूलमेय महम्मस्स महादोससमुस्सय __ भवइ" नो स्त्रीगणानां पर्युपासको भवेदिति। स्था०९ ठा०। मित्यादि'' स्त्रीसङ्गासक्त-स्यावश्यंभाविनी शब्दादिविषयासक्तिरित्यतः | इत्थि(त्थी)गठभ-पु.(स्त्रीगर्भ) स्त्रियाः सम्बन्धी गर्भः स Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिगुम्म 615 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिपरिसह जीवपुगलपिण्डकः स्त्रीगर्भः। स्त्रीसम्बन्धिनि सजीव-पुद्गलपिण्डके, स्खलनात्तुशब्दात्तत्परित्यागो येति / द्वितीये त्वयमर्थाधिकारस्तद्यथा भ०५ श०४ उ०। (तद्वक्तव्यता 'गब्भ' शब्दे) शीलस्खलितस्य साधो रिहैवास्मिन्नेव जन्मनि स्वपक्षपरपक्षकृता इत्थि(त्थी) गुम्म-न (स्त्रीगुल्म) युवतिजने, | "इत्थिगुम्म तिरस्कारादिका विडम्बवना तत्प्रत्ययश्च कर्मबन्धस्ततश्च परिनिब्बुडे'-||स्वीगुल्मेनयुवतिजनेनसार्द्धमपरपरिवारेण सपरिवृतो संसारसागरपर्यटनमिति किंस्त्रीमिः कश्चित् शीलात्प्रच्याव्यात्मवशकृतो वेष्टित इति। दशा०२० अl येनैव मुच्यते कृत इति दर्शयितुमाह-- इत्थि(त्थी)चिंध-न (स्त्रीचिन्ह) स्त्रिया असाधारणं चिह्नम् / योनौ, सूरामो मन्नंता, कति ववियाहि उवहिप्पहाणाहिं। स्त्रिया असाधारणे चिहे, स्तनादौ, स्त्रीलक्षणे, वाचा गहियाहुं अभय पञ्जोय-कूलबालादिणो बहवे / / 19|| इत्थि(त्थी)चोर-पु.(स्त्रीचौर) स्त्रियाः सकाशात् स्त्रीमेव चोरयन्ति बहवः पुरुषा अभयप्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः स्त्रीरूपा वा ये चौरास्ते स्त्रीचौराः। चौरविशेषे, प्रश्न०३ द्वाoll मो इति निपातो वाक्यालंकारार्थः कृत्रिमाभिः सद्भावरहिताभिः इत्थि(त्थी)जण-पुं.(स्त्रीजन) योषिजने आचा०१ श्रु०४ अा स्त्रीभिस्तयोपधिर्माया तत्प्रधानाभिः कृतकपटशताभिर्गृहीत्वा आत्मवशतां नीताः केचन राज्यादपरे शीलात् प्रच्याव्येहैव विडम्बनां इत्थि(त्थी)जिय-त्रि (स्त्रीजित) स्त्रिया जितः जिक्त स्त्रीवश्ये, प्रापिताः। अभयकुमारा-दिकथानकानिच मूलादावश्यकादवगन्तव्यानि स्त्रीजितस्पर्शमात्रेण सर्वं पुण्यं प्रणश्यति।न भूमौ पातकी पापात् पापिना कथान-कत्रयोपन्यासस्तु यथा क्रममर्त्यबृद्धिविक्रमात्यन्तबुद्धिस्त्रीजितात्परः। वाच। विक्रमतपस्वित्वख्यापनार्थ इति। इत्थि(त्थी)ट्ठाण-न (स्त्रीस्थान) स्त्रियः तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि यत एवं ततो यत्कर्तव्यं तदाह।। निषद्याः स्त्रीस्थानानि / स्त्रीणां निषद्यायाम, "नो इत्थिट्ठाणाई सेवित्ता तम्हाण उ वीसंभो, गंतव्वो णिचमेव इत्थीस / / भवई'' स्था०९ ठा.॥ पठमुद्देसे भणिया, ते दोसा ते गणंतेणं / / 7011 इत्थि(त्थी)णपुंसग-न(स्त्रीनपुंसक) नपुंसकभेदे, "इत्थिण-पुंसगा (तम्हेत्ति) यस्मात स्त्रियः सुगतिमार्गागला माया प्रधाना वञ्चना अपञ्चावणिज्जत्ति' नि.चू०१ उछ।। निपुणास्तस्मादेतदवगम्य नैव विश्रम्भो विश्वासस्ता सां विवेकिना नित्यं इत्थि(त्थी)णाम-न (स्त्रीनामन्) कर्मविशेषे, स्त्रीपरिणामः स्त्रीत्वं सदा गन्तव्यो यातव्यः कर्तव्य इत्यर्थः / ये दोषाः प्रथमोद्देशके यदुदयाद् भवति। ज्ञा०८ अ०। अस्योपलक्षणार्थत्वात् द्वितीये च तान् गणयता पर्यालोचयता तासां इत्थि(त्थी)णामगोमकम्म-न०(स्त्रीनामगोत्रकर्मन्) स्त्री नाम मूर्तिमत्कपटराशिभूतानामात्महितमिच्छता न विश्वसनीयमिति। सूत्र.१ स्त्रीपरिणामः स्त्रीत्वं यदुदयाद्भवति तत्स्वीनाममिति गोत्रमभिधानं यस्य श्रु०४ अ०१ उछ। (विस्तरतः एतदध्ययनार्थाः 'इत्थी' शब्दे) तत् स्त्रीनामगोत्रम् / अथवा यत्स्त्रीप्रायोग्यं नाम कर्मगोत्रं च तत् इत्थि(त्थी)परिण्णा-स्त्री (स्त्रीपरिज्ञा) सूत्रकृताङ्गस्य चतुर्थेऽध्ययने, स्त्रीनामगोत्रकर्म। स्त्रीप्रायोग्ये नाम कर्माणि, गोत्रकर्मणि चा ज्ञा०८ अ०d सम०२३ सा इत्थि(त्थी)तित्थ-न. (स्त्रीतीर्थ) स्त्री योषित्तस्यास्तीर्थ इत्थि-(त्थी)परिसह-पु.(स्त्रीपरिषह) स्त्रीयाः परिषहणं च करत्वेनोत्पन्नायास्तीर्थं द्वादशाङ्ग संघो वा स्त्रीतीर्थम् / मल्लि तन्निरपेक्षत्वम् ब्रह्मचर्यमित्यर्थः / भ०८ श०८ उ०। तीर्थकरप्रणीते द्वादशाङ्गे, तत्सम्बन्धिनि संघे च / स्था०१० ठा. (स्त्रीतीर्थस्थाश्चर्य्यत्वम् 'अच्छेर' शब्दे) स्त्र्यायतेः स्तृणातेर्वा ड्रटि टित्वान् डीपि स्त्री सैव तद्गगतरागहेतु गतिविभ्रमेङ्गिताकारविलोकनेऽपि "त्वग् रुधिरमांसमेदस्नायव इत्थि(त्थी)दोस पुं.(स्त्रीदोष) स्त्रीणांदोषे, "इत्थिदोष संकिणो होंति" स्थिशिराव्रणैः सुदुर्गन्धः।कुचनयनजघनवदनोरुमूञ्छितोमन्यते रूपम् स्त्रिया सह जल्पन्तं दृष्ट्वा स्त्रीदोषाशनिश्च ते भवन्तीति। सूत्र०१ श्रु०४ १तथा "निष्ठीवनं जुगुप्सत्यधरस्थं पिपति मोहितः प्रस-भम् / अ०१ ऊ(तेच स्त्रीदोषा 'इत्थी' शब्दे द्रष्टव्याः) कुचजघनपरिश्रावं नेच्छति तन्मोहितो भजते ॥२शा इत्यादि इत्थि(त्थी)पच्छाक ड-पुं०(स्त्रीपश्चात्कृत) पश्चात्कृत भावनातोऽभिधास्यमाननीतितश्च परिषह्यमाणत्वात्परिषहः स्त्रीस्त्रीत्वे,(इत्थिपच्छा कडो बंधइ) भावप्रधानत्वान्निद्देशस्य स्त्रीत्वं परिषहः / उत्त०२ अ०। प्रव०। परिषहभेदे, अस्यायमर्थो न स्त्री पश्चात्कृतं भूततां नीतं येनावेदकेनासौ स्त्रीपश्चात्कृत इति। भ०८ श०८ उ०।। तस्यामङ्ग प्रत्यङ्ग स्थानहसितललितविभ्रमाद्याश्चित्ताक्षेपकारिणीइत्थि-(त्थी)पण्णवणी-स्त्री (स्त्रीप्रज्ञापनी) स्त्रीलक्षण-प्रतिपादि- चेष्टाश्चिन्तयेन्न जातुचिचक्षुरपि निक्षिपेन्मोक्षमार्गार्गलासु ललनासु कायाम् योगिद्दुत्वमस्थैर्य्य मुग्धतेत्यादिरूपायाम्भा पायाम्, प्रज्ञा०११ कामबुद्धयेति / प्रव०८६ द्वा० आवळा उक्तं च "दुविसङ्ग पङ्का हि पद। (तद्वक्तव्यता भासा' शब्दे) मोक्षाद्वारार्गलाः स्त्रियः / चिन्तिया धर्मनाशाय चिन्तयेदिति नैव इत्थि(त्थी)परिणज्झयण-न (स्त्रीपरिज्ञाध्ययन) सूत्रकृताङ्गस्य ताः" / चतुर्थेऽध्ययने, तत्र द्वाबुद्देशकौ तदर्थसङ्ग्रहसूत्रकृताङ्ग निर्युक्तौ यथा- संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगंमि इथिओ॥ पढमे संथवसंलव, माइहि खलणाउ होति सीलस्स।। जस्स एया परिन्नाया, सुकडं तस्स सामणं ||16|| वितिए इहेव खलिय-स्स अवस्था कम्मबंधोयं / / 8 / / एवमादाय मेहावी, पंकभूया उ इथिओ।। प्रथमे उद्देशके अध्ययनार्थाधिकारः तद्यथा स्त्रीभिः सार्ध संस्तवेन नो ताहि विहन्नेखा, चरेछत्तगदेसए।।१७।। परिचयेन यथा संलापेन भिन्नकथाद्यालापेनादिग्रहणा-दङ्गप्रत्यङ्ग- सञ्जन्ति आसक्तिमनु भवन्तिरागादिवसगा जन्तवोऽत्रै ति निरीक्षणादिनाकामोत्काचकारिणो भवेदल्पसत्वस्यशीलस्य चारित्रस्य / सङ्गएषोऽनन्तरं वक्ष्यमाणो मनुष्याणां पुरुषाणाम्। तमेवाह। जा Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिपरिसह 616 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिपरिसह ओतीत्थविशेषाभिधानं ततो यः काश्चन मानुष्यो देव्य-स्तिरश्च्यो वा (लोगंमित्ति) लोके तिर्यग्लोकादौ स्त्रियो नार्याएताश्च हावभावादिभिरत्यन्तमासक्तिहेतवो मनुष्याणामित्येवमुक्तमन्य-था हि गीतादिष्वपि सञ्जति एव मनुष्याः मनुष्योपादानं च तेषामेव मैथुनसंज्ञातिरेकः प्रज्ञापनादौ प्ररूपित इति अतः किमित्याह / (जस्सेति) यस्य यतेः एताः स्त्रियः (परिनायेत्ति) सर्वप्रकारंज्ञाताः परिज्ञातास्तत्र ज्ञपरिज्ञयेह परत्र च महानर्थहेतुतया विदिताः तथाचागमः "विभूसा इच्छि संसग्गी, पणीयं रसभोयणं / णरस्स-त्तगवेसिस्स, विसंतालओडं जहा'' ||1|| प्रत्याख्यानकपरिज्ञया च तत एव च प्रत्याख्याताः (सुकडति) सुकृतं सुष्ठवनुतष्ठितं पाठान्तरः सुकरं वा सुखेनैवानुष्ठातुं शक्यं (तस्सत्ति) सुषव्य-त्ययात्तेन (सामणंति) श्रामण्यं व्रतं किमुक्तं भवत्यवद्यहेतुत्यागो हि व्रतरागद्वेषावेव तत्त्वतस्तद्धेतू उक्तनीतितश्चन स्त्रीभ्यः परं तन्मूलमिति तत्प्रत्याख्यानत्वसुकुतत्वं श्रामण्यस्य यद्वोक्तनीतितः स्त्रिय एव दुस्त्यजास्ततस्तत्त्यागे सक्तमेवापरमिति तत्प्र-त्याख्यानतः सुकृतत्वं श्रामण्यस्योच्यते। वक्ष्यति हि "एए उ संगे समइक्कमित्ता, सुहत्तरा चेव भवंति सेसा / / जहा महासागरमुत्त-रित्ता, णई भवेजा वियगा समाणा" ||2|| अतः किंविधयमित्याह / (एवमादाय) एवमित्यन्तरोक्तप्रकारेणात्यन्तासक्तिहेतुत्व-लक्षणेनाज्ञाय स्वरूपाभिव्याख्या अवगम्य मेधाव्यवधारणशक्तिमान् पङ्कः कईमस्तद्भूता मुक्तिपथप्रवृत्तानां वि-बन्धकत्वेन मालिन्यहेतुत्वेन च तदुपमास्तुरवधारणार्थः / ततः पङ्कभूता एव स्त्रियः / पठ्यते च "एवमादाय मेहावी जहा एया लहुस्सिगत्ति। एवमन्तरमेव वक्ष्यमाणमर्थमादाय बुद्ध्या गृहीत्वा मेधावी तमेवाह यथेत्युपदर्शने एताः स्त्रियः (लहुस्सिगत्ति) तुच्छाशयत्वादिना लब्धास्ततः किमित्याह / नो नैव ताभिः स्त्रीभिर्विनिहन्यात् विशेषणसंजमजीवितव्यव्यपरोषणा-त्मके नातिशयेन च सामस्त्यतदुच्छेदरूपेणातिपातयेदात्मानमिति गम्यते। कृत्यमाह चरेत् धर्मानुष्ठानमासेवेत। आत्मानं गवेषयेत् कथं मयात्मा भवान्निस्तारणीय इत्यन्वेषयेत "आत्मगवेषकः सिद्धिस्वरूपापत्ति'' रिति वचनात् / सिद्धिर्वात्मा ततः कथं ममासौ स्यादित्यन्वेषकः आत्मगवेषको यद्वात्मानमेव गवेषयते इत्या-त्मगवेषकः किमुक्तं भवति चित्रालंकारशालिनीरपि स्त्रियोऽ-वलोक्य तद् दृष्टिन्यासस्य दुष्टतावगमात् झगिति तान्यो दृगुपसंहारत आत्मान्चेष्टैव भवति उक्तहि "चित्तभित्तिं न निजाए, नारिं वा सुअलंकियं / भक्खरं पिव द?णं, दिदि पडिसमाहरे॥ संप्रति प्रतिमाद्वारं विवृण्वन् यस्यैताः परिज्ञाता इत्यादि सूत्रसूचितं चैदयुगीनजनदायॊत्पादकं दृष्टान्तमाह! उसम पुरं रायगिहं, पाडलिपुत्तस्स होइ उप्पत्ती। णंदे सगडालथूल-भद्दसिरीयेगा बररुई य॥३६।। तिण्हं अणगाराणं, अभिग्गहो आसि चउण्हमासाणं। वसहीमेत्तनिमित्तं, को हिंउसिओ णिसामेह ||37|| गणियाघरम्मिएको, वितियो उसितो उवग्घवसहीए। ततितो सप्पवसहिए,को दुक्करकारओ एच्छ / / 38 / / वग्यो वा सप्पो वा, सरीरपीलाकरो उ वत्तव्वो। णाणं च दंसणं वा, चारित्तं वा ण पचलो भेत्तुं // 39|| भगवं पिथूलभद्दो, तिक्खेचंकमिओ ण पुण छिण्णो। अग्गिसिहाए वत्थो, चाउम्मासे ण पुण दद्धो // 40 // अन्नो वि य अणगारो, भणमाणो हंपिथूलभद्दसमो। कंबलओ य चंदणियाए मईलितो एगराईए ||4|| (उभस गाथाषट्क) वृषभपुरं राजगृहं पाटलिपुत्रस्य भवत्यु-त्पत्तिः नन्दः शगडालः स्थूलभद्रश्रीयकौ वररुचिस्त्रयाणा-मनगाराणामभिग्रह आसीत् (चउण्हमासाणं) सुव्वयत्याच्चतुर्ष मासेषु वसमिमात्रनिमित्तं कः कुत्रोषितो निशामयत। गणिकागृहे एको, द्वितीय उषितस्तुव्याघ्रवसती, सर्पवसतौ तृतीयः, को दुष्करकारकोऽत्र तेषु मध्ये व्याघ्रो वा सप्पो या शरीरपीडाकरस्तु वक्तव्यो ज्ञानं वा दर्शनं वा चारित्रं वा न प्रत्यलो भेत्तुं भगवानपि स्थूलभद्रस्तीक्ष्णे निशितासिधारादौचक्रमितो न पुनः छिन्ने अग्निशिखायामुषितश्चातुर्मास्यां न पुनः दग्धः अन्यो पि चानगारो भणन्नहमपि स्थूलभद्रसमः कम्बलकश्चंदनिकायामुचारभूमौ मलिनित इति नियुक्ति गाथाषट्काक्षरार्थः। एतदर्थस्तु वृद्ध-संप्रदायादवसेयः। उत्त०३ अा। स च थूलभद्द-शब्दे) "जहा थूलभद्दे णित्थिपरिसहो अहियासितो तहाहियासियव्वा ण उण तेण णाहियासिओत्ति' उत्त०३ अ(स्थूलभद्रकथा 'थूलभद्द शब्दे) स्त्रीपरिषहोपपत्तौ किंविदध्यादित्याह - से पभूतदंसी प भूतपरिण्णाणे उवसंते समिते सहिते सया जए दळु विप्पडिवेदेति अप्पाणं किमेस जणो करिस्सति एस से परमारामो जाओ लोगंमि इथिओ मुणिणा हु एवं पवेदितं उवाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं अवेणीव्व लासए अविओमोदरियं कुजा अवि उड्बं ठाणं ठाइजा अविगामाणुगामंदूइजा अवि आहारं वोच्छिदिज्जा अवि चए इत्थीसु मणं पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुव्वं फासा पच्छा दंडाइचे ते कलहा संगकरा भवंति पडिलेहाए आगमेत्ता आणविज्जा अणासेवणाएत्ति बेमि।। (सेइत्यादि) स साधुः प्रभूतं प्रमादविपाकादिकमतीता-नागतर्वमानं वा कर्म विषाकं द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी सांप्रतेक्षितया न यत्किञ्चनकारीत्यर्थः / तथा प्रभूतं सत्व-रक्षणोपायपरिज्ञानं संसारमोक्षकारणं परिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः यथावस्थितसंसारस्वरूपदर्शीत्यर्थः / किञ्च उपशान्तः कषायानुदयादिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमाद्वा तथा पञ्चभिः समितिभिः समितः सम्यग् वा मोक्षमार्गमितस्स मितस्तथा ज्ञाना-दिभिः सहितः समन्वितः सह हितेन वा सहितः / सदा सर्वकालं यतः सदायतः / स एवंभूतो ऽप्रमत्तो गुरोरन्तिकमावसत् प्रमाद-जनितस्य कर्मणोन्तं विधत्ते स च स्त्र्याद्यनुकूलपरीषहोपपत्तौ किं विदध्यादित्याह (दठूइत्यादि) दृष्टवा अवलोक्य स्त्रीजनमुप-सर्गकरणायोद्यतमात्मानं विप्रतिवेदयति प-लोचयति तद्यथा सम्यग्दृष्टिरस्मि तथोत्क्षिप्तपञ्चमहाव्रतभारशरच्छशांक-निर्मलकुललब्धजन्माकार्याकारणतयोस्थित इत्येवमात्मानं पालोचयति तं च स्त्रीजनं किमेष स्त्रीजनो मम त्यक्तजीविताशस्योज्झितैहिकसुखाभिलाषस्योपसर्गादिकं कुर्यादथवा वैषयिकसुखस्य दुःखप्रतीकाररूपत्वात्किमेष स्त्रीजनः सुखं विदध्यादन्यो वा पुत्रकलत्रादिको जनो मम मृत्युना जिघृक्षितस्य व्याधिना वा दित्सितस्य Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिपरिसह 617 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिमज्झगय किं तत् प्रतीकारादिकं कुर्यादिति यदिवैनं स्त्रीजनस्य स्वभावं णोपासणीएणो संपसारएणो ममाए णो कयकिरिए ययगुत्ते अज्झप्पसंखुडे चिन्तयेदिति सूत्रेणैव दर्शयति (एससे इत्यादि) स एष स्त्रीजन परिवजए सदा पावं एवं मोणं समणुवासेन्जासि त्ति वेमि॥ आरामयतीत्थारामः परमश्वासावारामश्च परमारामः ज्ञात तत्त्वमपि जनं (से णो काहिएत्ति) स स्त्रीसङ्गपरित्यागी स्त्रीनेपथ्यकथां शृङ्गारकथां हासविलासोपाङ्ग निरीक्षणादिभिर्विव्योकै मो- हयतीत्यर्थः याः वा न कुर्यादवं च तास्त्यक्ता भवन्ति तथा (णो पासणीए) तासां काश्चनास्मिँल्लोके स्त्रियस्ता मोहरूपाः विज्ञाय यावन्न परित्यजन्ति नरकवीथीनां स्वर्गापवर्गमार्गार्गलानामङ्ग प्रत्यङ्गादिकेन पश्येद्यतस्ततावत् स्वत एष परित्यजेत् एतच तीर्थकरेण प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह निरीक्ष्यमाणं महतेऽनर्थाय भवतीत्युक्तंच"सन्मार्गेतावदास्ते प्रभवति (मुणिणा इत्यादि) मुनिना श्रीवर्द्धमानस्वामिना उत्पन्नज्ञानेनैतत्पूर्वोक्तं पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते यथा स्वियो भावबन्धनरूपाः प्रवेदितं प्रकर्षेणादौ व्याख्यातमिति एतच वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह (उव्याहिज्ज इत्यादि) उत्प्राबल्येन तावदेव / भूचापाकृष्ट मुक्ताः श्रवणपयजुषो नीलपक्ष्माण एते, मोहोदयादाध्यमानः पीड्यमानः कैमिधर्मामाइन्द्रियग्रामा-स्तेषां यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति" / तथा (णो धाःस्वभावा यथा स्वविषयेषु वर्तनं तैरुद्राध्यमानो गच्छान्तर्गतः सन् संपसारए) ताभि-नरकविश्रम्भूमिभिः सार्द्ध न संप्रसारणं गुर्वादिनानुशाश्यते कथमनुशाश्यत इत्यत आह (अवि इत्यादि) अपि पर्यालोचनमेकान्ते निजस्वस्रादिभिरपि कुर्यादित्युक्तञ्च ‘‘मात्रा स्वस्रा संभावनायां निर्बलं निस्सारमन्तः प्रान्तादिकं यद्दव्यं तदाशक्तस्तद्भोजी दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् / बलवानिन्द्रियग्रामः पण्डितोप्यत्र स्याद्यदि वा निर्गतं बलं सामर्थ्यमस्थेति निर्बलं एवंभूतः मुहाती" त्येवमादि / तथा (णो ममाए) न तासु स्वार्थपरासु ममत्वं सन्नाशीतबलाभावे च ग्रामधर्मोपशमदर्शनाद्रल-हानिश्चाहारहान्या कुर्यात्तथा (णोकयकिरिए) कृतानुष्ठिता तदुपकारिणी मण्डनादिका क्रिया स्यादिति दर्शयति अप्पवमौदर्थं कुर्याद्यदि ह्यन्तप्रान्तासिनोपि न येन सकृतक्रिय इत्येवंभूतो न भूयान्न स्त्रीणां वैयावृत्त्यं कुर्यात्काययोग मोहोपशमः स्यात्ततस्तदपि वल्लचनकादिना द्वात्रिंशत् कवलमात्रं निरोध इति भावस्तथा (क्यगुत्ते) तथैताः शुभानुष्ठानपरिपथिनीन गृह्णीयात्तेनाप्यनुपशमे कायोत्सर्गादिना कायक्लेशं कुर्यादित्येतद्दर्शयति वाग्मात्रेणाप्यालापयेदिति वाग्योग-निरोधस्तथा (अज्झपसंवुडे) अप्पूर्वस्थानं तिष्ठेच्छीतोष्णादौ कायोत्सर्गेणातापनांकुर्यात्तेनाप्यनुपशमे आत्मन्यध्यध्यात्म मनस्तेन संवृतोऽध्यात्मसंवृतः स्त्रीभोगादत्तमनाः ग्रामानुग्राममपि विहरेन्निष्कारणे विहारो निषिद्धो मोहोपशमनार्थन्तु सूत्रार्थोपयुक्तनिरुद्ध-मनोयोग एवं भूतश्चकिमपरं कुर्यादित्याह (परि कुर्यात् किम्बहुना येन येनोपायेन विषयेच्छा निवर्तते तत्तत्कुर्यात्पर्यन्ते इत्यादि) परिः समन्तागर्जयेत् परिहरेत् सदा सर्वकालं पापं किल्विषं आहारमपि व्यवच्छिन्द्यादपि पातमपि विदध्यात् अप्युदून्धनं कुर्यान्न च तदुपादानं वा कर्म उपसंहरणार्थमाह (एयं इत्यादि) एतद्यदुद्देशस्त्रीषु मनःकुर्यादित्याह (अवी इत्यादि) अपिः समुच्चये स्त्रीषु यन्मनःप्रवृत्तं कादेरारभ्योक्तं मुनेरिदं मौनं मुनिभावोवा तदात्मनि समनुवास-येदात्मनि तत्परित्यजेत तत्परित्यागे हि कामाद्विरूपा अपि दूरत एव परित्यक्ता विदध्यात्। आचा०१ श्रु० अ०४ उ०२। भवन्त्युक्तञ्च "कामा ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात्किलं जायसे / न त्वां इत्थि(त्थी)परिसहविजय-पु.(स्त्रीपरिषहविजय) एकान्तेष्वारामसंकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि" किं पुनः कारणं स्त्रीषु मनोन विधेयमित्याह (पुव्वं इत्यादि) स्त्रीसङ्ग प्रसक्तानामपरमार्थदृशां भवनादिप्रदेशेषु नवयौवनमदप्रमत्तासु शुभमनः- सङ्कल्पमपहरन्तीषु पूर्वप्रथममेव तत्सङ्गाविच्छेदार्थमर्थोपार्जनप्रवृत्तस्य कृषिवाणि प्रमदास्वत्यन्तसंवृतेन्द्रियान्तःकरणस्याशुचि-कुणपपिण्ड एष ज्यादिक्रियाः कुर्वतोऽगणितक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिपरीषहस्यैहिक इत्येवमशुभभावनावशतो यत्त दतललितहसितमृदुभाषणसविलासरूपाश्चदुःखे दण्डास्तेच स्त्रीसंभोगात्प्रथममेव क्रियन्त इति पूर्वमित्युक्तं निरीक्षणचङ्कमणादिरूपाणां मन्मथशराणां विफलताकरणमेष पश्चाच विषयनिमित्तजनितकर्मविपाकापादितनरकादि दुःखविशेषाः स्त्रीपरिषहविजयः / स्त्री-परिषहविफलताकरणे, / पं.सं०४ द्वा०। स्पर्शा भवन्ति यदि वा स्याद्यकार्यप्रवृत्तस्य पूर्व दण्डपाताः इत्थि(त्थी)पोसय-पुं.(स्वीपोषक) स्त्रियं पोषयन्तीति स्त्री-पोषकः / पश्चाद्धस्तपादच्छेदादिकाः स्पर्शाभवन्ति यदि वा पूर्व स्पर्शाः स्त्रीपोषकेऽनुष्ठानविशेषे, "ओसियाओ वि इत्थि पोसे" स्त्रियं पश्चाद्दण्डपाता इति अथवा पूर्वं दण्डास्ताडनादिकाः पश्चात् स्पर्शाः पोषयन्तीति स्वीपोषकाः अनुष्ठानविशेषास्तेषूषिता अपि व्यवस्थिता संबाधनालिङ्गनचुम्बनादिकास्तद्यथा बन्धानीतावरुद्धराजकुमारीग- अपि पुरुषा मनुष्या भुक्तभोगिनोऽपि स्त्रीणां वशं व्रजन्तीति / सूत्र वाक्षक्षिप्तपतदाचीलग्रहणाद्राजपुरुषाव-लोकनताडनेन मूञ्छिता श्रु०४ अ०१ उ०॥ राजकुमारी, तद्दर्शनतो वणिगिन्द्रदत्तस्थाग्रतो दण्डाः पश्चात् स्पर्शा इति / इत्थि(त्थी)पुंसलक्खणा-स्त्री.(स्त्रीपुंसलक्षणा) स्वीपुंसयोः पूर्व वा सुखादिस्पर्शाः पश्चाद्दण्डो ललिताङ्गकस्येवान्येषाञ्चोपप लक्षणमस्याम् / स्तनश्मश्रुप्रभृतिस्त्रीपुरुषचिह्नधारिण्यां स्त्रीयाम् तीनामिति / किञ्च (इचेए इत्यादि) इत्येते स्त्रीसंबन्धाः कलहः पोटायाम्, / अमरः / / संग्रामस्तत्रासङ्गः सबन्धः कलहासङ्गस्तत्करा भवन्ति यदिवा कलहः क्रोध आसङ्गोराग इत्यतो रागद्वेषकारिणो भवन्ति यद्येवं ततः किं इत्थि(त्थी)भाव-पुं.(स्त्रीभाव) कटाक्षसंदर्शनादिके भावे, "सिंगारियाई कुर्यादित्याह (पडिले हाए इत्यादि) ऐहिका मुष्मिकापायतः इत्थिभावाई उवदंसेमाणि' शृङ्गार रसवत् स्त्रीस्वभावान् स्त्रीसङ्ग प्रत्युपेक्षया (आगमितेत्ति) ज्ञात्वा आज्ञापयेदा कटाक्षसन्दर्शनादीनीति। उपा०८ अ०। त्मानमनासेवनयेति इति अधिकार परिसमाप्तौ ब्रवीम्यहं तीर्थ- | इत्थि(त्थी)भोग-पुं०(स्त्रीभोग) स्त्रिया सहहास्यादिकरणे, तच करवचनानुसारेण। जिनमन्दिरस्यान्तर्निषिद्धमिति / दर्श. / / दुःखं च ताः परिहर्तुमिति पुनरपि तत्परिहणोपायमाह -से णो काहिए | इत्थि(त्थी)मज्झगय-त्रि (स्त्रीमध्यगत) ऊ 'इत्थीसु उभ - Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिरज्ज 618 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इथिलिंगसिद्ध योहियासु मज्झं भवति' तत्र गते, मज्झंदोण्हतगत इति। नि०चू०८ उ०।। इत्थि(त्थी)रज-न (स्त्रीराज्य) स्त्रीस्वातन्त्र्ये, तच्चनिषिद्धमेव, स्त्रीराज्यस्थातिनिन्दनीयत्वमाह // घणगजियहयकुहए, विजुदुग्गिज गूढहिययाओ। अजा अवारियाओ, इत्थीरनं नतं गच्छं ||5|| यत्र गच्छे आर्या (अवारिआओत्ति) अनिवारिताः अकृत्यं कुर्वन्तः तत्परिवर्तकेनानिषिद्धा निरङ्कुशा इत्यर्थः वर्तन्ते / कथंभूताः आर्या (घण गजिए इत्यादि) अत्र कुहकशब्देन धावतोऽश्वस्य उदरप्रदेशसमीपे संमूञ्छिवायुविशेष उत्पद्यते स प्रोच्यते यत उक्तं परिशिष्टपर्वणि श्रीहेमचन्द्रसूरिपादैः / "दध्यौ न स्वर्गकारोपि, चरितं योषितामहो / अश्वानां कुहकारावमिव को वेत्तुमीश्वरः ||1|| तथैकारोव्यत्ययनिर्देशश्चार्षत्वात्ततोऽयमर्थः / घनगर्हितहयकुहकवविद्युदचक्रमेण गूढं मायाकरण्ड-त्वेनाऽकलनीयाशयं दुर्ग्राह्यं चास्थिरत्वेन गृहीतुमशक्यभाशयं हृदयं यासां तास्तथा संभवति चार्याणामपि कासांचित् स्त्रीजातित्वेन एवंविधत्वे यत उच्यते स्त्रीमधिकृत्य लोकेपि-"अश्वप्लुतं माधवगर्जितंचस्त्रीणां चरित्रं भवितव्यतां च। अव-र्षणचाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः॥शा तथा" जलमज्झे मच्छपयं, आगासे पक्खियाण पयपंती। महिलाण हिययमग्गो, तिन्नवि लोए न दीसंति |2|| तथा यदि स्थिरा भवेत् विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि वाथवः। दैवात्तथापि नारीणां, न स्थेम्ना स्थीयते मनः॥३॥ तत्स्त्रीराज्यमुच्यते न स गच्छ आर्याणां हि स्त्रीजातित्वेन सर्वकालं तथाविधपरिवर्तकपारतन्त्र्येणैवावस्थानं समुचितं नतु स्वातन्त्र्येण कदाचिदपि यतो लोकेऽप्युच्यतेपिता रक्षति कौमारे, भर्ती रक्षति यौवने। पुत्रस्तु स्थविरे भावे, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति। ग०२ अधि०। (आर्थ्याणां स्वातन्त्र्यनिषेधः अज्जा शब्दे विस्तरेण द्रष्टव्यः)। इत्थि(त्थी)रयण-न०(स्त्रीरत्न) पञ्चेन्द्रियरत्नाविशेषे, स्था०७ ठा०। स्त्रीरत्नमत्यद्भुतकाम सुखनिधानमिति / प्रव. 214 द्वा. स्त्रीरत्नस्पर्श लोकपुरुषस्य गलनं यदा स्त्रीरत्नं लोहपुरुष स्पृशति तदा स गलति तत्कथमिति प्रश्नः / स्त्रीरत्नस्पर्शाल्लोह-पुरुषगलनमुत्कृष्टातिशयितकामविकारजनित प्रबलोष्ण-तापविशेषादित्युत्तरम् / ही। इत्थि(त्थी)राग-पुं.(स्त्रीराग) भामिन्यभिलाषे, द्वा०२६ द्वा०। इत्थि(त्थी)रूव-स्त्रीरूप-स्त्र्याकारे, / तं। इत्थि(त्थ) लक्खण-न (स्त्रीलक्षण) सामुद्रिक प्रसिद्धे (जं.) द्वासप्ततिकलान्तर्गते कलाविशेषे,। ज्ञा० अ० ओघ, कल्पस्त्रीलक्षणं रक्तकरचरणादिकम् / इति। तत्प्रतिपादके पापश्रुताध्ययने च। सूत्र०२ श्रु०२ अ० इत्थि(त्थी)लिंग-न०(स्त्रीलिङ्ग) स्त्रीया लिङ्ग स्त्रीलिङ्गम्। स्त्रीत्वे, तब त्रिधा वेदः शरीरनिवृत्तिः नेपथ्यं च / प्रज्ञा०१ पद। आ०म०प्र०ा नं.। स्त्रिया इव लिङ्गं तत्कायं यस्य तत् स्त्रीलिङ्गविहित-व्याकरणोक्तसंस्कारयुक्ते शब्दभेदे, पुक्षत स्त्री. सच नदीमहीत्यादिरिति-अनु। चिलॅन स्तनादौ न / वाचा इत्थि(त्थी)लिंगसिद्ध पुं.(स्त्रीलिङ्गसिद्ध) स्त्रिया लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः / तच्च त्रिधा / वेदः शरीरनिर्वृत्तिर्नेपथ्यं च / तत इह शरीरनिर्वृत्या प्रयोजनंनवेदनेपथ्याभ्यां वेदेसति सिद्धत्वाभायात् नेपथ्यस्य चा प्रमाणत्वात्। आह च नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत "इत्थीए लिंग इथिलिंग इत्थि उवलक्खणं ति वृत्तं भवइ तं च तिविहं वेदो सरीरनिव्वत्तीए नेवत्थे च इह सरीरनिव्वतीए अहिगारोन वेयनेवत्थे हिं ति' ततस्तस्मिन् लिङ्गे वर्तमानाः सन्तो ये सिद्धास्तेस्त्रीलिङ्गसिद्धाः। प्रज्ञा०१ पदः। आम.प्र. ना सिद्धभेदे, तथा च ललितविस्तरायाम् (तीर्थसिद्धावतीर्थसिद्धतीर्थकरसिद्धा ऽतीर्थकरसिद्धाः स्वयं - बुद्धसिद्धप्रत्येकबुद्धसिद्ध बुद्धबोधितसिद्धान्प्रतिपाद्योक्तम्) एतेच सर्वेपि स्त्रीलिङ्गसिद्धाः केचित् पुँल्लिङ्गसिद्धाः केचि-न्नपुंसकलिङ्गसिद्धाः इति आह तीर्थकरा अपि लिङ्गसिद्धा भवन्तीत्याह यत उक्तं सिद्धप्राभृते "सव्वत्थो वा तित्थयरी सिद्धा तित्थगरितित्थणो तित्थगरसिद्धा संखेज्जगुणा इति" ला स्त्रीणां सिद्धिर्यथा / एगोवि णमुक्कारो, वीरवरवसहस्स वद्धमाणस्स। संसारसागराओ, तारइ नरं व नारिंवा॥ इति महावीरस्तुतिम्प्रतिपाद्योक्तम् / स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थं वचः / यथोक्तं यापनीतंत्रेण 'णो खलु इत्थि अजीवो, ण यासु अभव्वाणया विदंस णविरोहिणी, णो अमाणुसा, णो अणारिउप्पत्ती, णो असं खेज्जाउया, णो अइकूरमई, णोण उवसंतमोहा, णो ण सुद्धाचारा णो असुद्धबोंदि ववसायवज्जिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी, णोऽणवगुण-ट्ठाणरहिया, णो अजोग्या लद्धिए, णो अकल्लाणभायणं ति, कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति' तत्र न खल्विति / नैव स्त्री अजीवो वर्तते। किन्तु जीव एव जीवस्य चोक्तमधर्मसाधकत्वाविरोधस्तथादर्शनात् / न जीवोऽपि सर्वउत्तमधर्मसाधको भवत्य भव्येन व्यभिचारात् / तव्यपोहायाह न चास्वभव्यजातिप्रतिषेधोऽयं। यद्यपि काचिदभव्या तथापि सर्वैवाभव्या न भवति संसारनिर्वेदनिर्बाधधर्माद्वेषशुश्रूषादिदर्शनात् / भव्योऽपि कश्चिद्दर्शनविरोधी योन सेत्स्यति तन्निरासायाह। नो दर्शनविरोधिनी। दर्शनमिह सम्यग्दर्शनं परिगृह्यते तत्वार्थ-श्रद्धानरूपं न तद्विरोधिन्येवास्तिक्यादिदर्शनात् / दर्शनाविरोधिन्यपि अमानुषी नेष्यत एव तत्प्रतिषेधायाह / नो अमानुषी / मानुष्यजातौ भावात् / विशिष्टकरचरणोरुग्रीवाद्यवयवसन्निवेशदर्शनात् / मानुष्यप्यनार्योत्परित्तरनिष्टा तदपनोदायाह / / नो अनार्योत्पत्तिः अनार्येष्वप्युत्पत्तेः तथा तास्वदर्शनात् / आर्योत्पत्तिरप्यसंख्येयायुर्नाधिकृतसाधनायेत्येतदधिकृत्याह। नो असंख्येयायुः। सर्वैव संख्येयायुर्युक्ताया अपि भावात् तथा दर्श-नात्। संख्येयायुरपि क्रूरमतिः प्रतिषिद्धा तन्निराचिकीर्षयाह / नातिकू रमतिः सप्तमनरकायुर्निबन्धनरौ द्रध्यनाभावात् / / तद्वत्प्रकृष्टशुभध्यानाभाव इतिवत् / न तेन तस्य प्रतिबन्धाभावात् तत्फलवदितरफलभावेनानिष्ठप्रसङ्गात् / अक्रू रमतिरपि रतिलालसाऽसुन्दरैव तदयोहायाह / नो न उपशान्तमोहा काचिदुपशान्तमोहापि संभवति तथा दर्शनात् / उपशान्तमोहाप्यशुद्धा-चारा गर्हिता तत्प्रतिक्षेपायाह / नो नशुद्धाचारा काचित् शुद्धाचारापि भवत्यौचित्येन पराकरणवर्जनाद्याचारदर्शनात्। शुद्धाचाराप्यशुद्धवो (स्वीराग) मा त्या) Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथिलिंगसिद्ध 619 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इथिलिंगसिद्ध दिरसाध्वी तदपनोदायाह ! नो अशुद्धवोदिः / काचित् शुद्धा तनुरपि भवति। प्राक्कातुवेद्यतः संसर्जनाद्यशुध्य दर्शनात्। कक्षास्तनादिदेशेषु शुद्धवोदिरपि व्यवसायावर्जिता निन्दितैव तन्निरासायाह / नो व्यवसायवर्जिता काचित्पर लोक व्यवसायिनी शास्त्रात्तत्प्रवृत्तिदर्शनात् सव्यवसायाप्य पूर्वकरण विरोधिन्येव तत्प्रतिषेधमाह / नो अपूर्वकरणविरोधिनी / अपूर्वकरणासंभव-स्य / स्त्रीजातावपि प्रतिपादितत्वात् / अपूर्वकरणवत्यपि नवगुणस्थानरहिता नेष्टसिद्धये इष्ट सिध्यर्थमाह / नो नवगुणस्थानरहिता तत्संभवस्य तस्याः प्रतिपादितत्वान् / नवगुण स्थानसंगतापि लब्धयोग्या अकारणमधिकृतविधिरित्येत्प्रतिक्षेपायाह। नायोग्या लब्धः। आमर्पोषध्यादिरूपायाः कालौचित्येनेदानीमपि दर्शनात् कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेधः तथाविधविग्रहे ततो दोषात् / श्रेणिपरिणतौ तु कालगभ्यवद्भावतो भावो विरुद्ध एव / लब्धियोग्याप्यकल्याणभाजनोपधातान्नाभिलषितार्थसाधनायालमित्यत आह नाकल्याण भाजनं तीर्थकरजननात् नातः परं कल्याणमस्ति यतएवमतः कथंनोत्तमवर्मसाधिकेत्युत्तमधर्मसाधिकेव अनेनतत्तत्कालापेक्षयैता-वगुणसंयमान्वितैर्वोत्तमधर्मसाधिकेति विद्वांसः / केवल-साधकश्चायं सति च केवले नियमान्मोक्ष इति। ला एतेन यदाहुराशाम्बराः-न स्त्रीयां निर्वाणमिति तदपास्तं द्रष्ट-व्यम्। स्वीनिर्वाणस्य साक्षादनेन सूत्रेणाभिधानात् / तत्प्रतिषेधस्य युक्तयनुपपन्नत्वात् / तथाहि-मुक्तिपथो ज्ञानदर्शनचारित्राणि / "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति वचनात्" सम्य-ग्दर्शनादीनि पुरुषाणामिव स्त्रीणामप्यविकलानि दृश्यन्ते। तथाहि दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानाः जानते च षडावश्यककालिकोत्कालिकादिभेदभिन्नं श्रुतं, परिपालयन्ति सप्तदशप्रकारमकलडूंसंयम, धारयन्तिचदेवासुराणामपिदुर्द्धर ब्रह्मचर्य, तप्यन्तेच तपांसि मासक्षपणादीनि, ततः कथमिव न तासां मोक्षसंभवः। (नमः) एतदस्ति स्त्रीणां सम्यग्दर्शनं ज्ञानं वा न पुनश्चारित्रं संयमाभावात् तथाहि स्त्रीणामवश्यं वस्त्र परिभोगेन भवितव्यमन्यथा विवृताङ्ग्यस्तास्तिर्यक् स्त्रिय इव पुरुषाणामभिभावनीया भवेयुः।लोके च गोपजायेत ततोऽवश्यं ताभिर्वस्वं परिभोक्त-व्यम् / वस्त्रपरिभोगे च सपरिग्रहता सपरिग्रहत्वे च संयमाभाव इति / (सैद्धान्तिकः) तदसमीचीनं सम्यक् सिद्धान्तापरिज्ञानात्परिग्रहो हि परमार्थतो मूर्छाभिधीयते "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो'' इति वच-नात्। तथाहि मूर्छा रहितो भरतश्चक्रवर्ती सान्तः पुरोप्या दर्शकग्रहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते / अन्यथा केवलोत्पादो न संभवेत् / अपिच-यदि मूच्र्छाया अभावेऽपि वस्त्र संसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत्ततो जिनकल्पप्रतिपन्नस्य कस्य चित्साधोस्तुषारकणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषह्योपनिपातमद्यशीतमिति विभाव्य धर्मार्थिना शिरसि वस्वे प्रक्षिप्ते तस्य सपरिग्रहता भवेत् / नचैतदिष्ट तस्मान्न वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहः किन्तु मूच्र्छा / सा च स्त्रीणां वस्त्रादिषु न विद्यते धर्मोपकरणमात्रतया तस्योपादानात् / न खलु ता वस्त्रमन्तरेणात्मानं रक्षयितुमीशतेनापिशीतकालादिषु वाग्दशायां स्वाध्यायादिकं कर्तुं ततो दीर्घतरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुजाना न ताः परिग्रहवत्थः / अथोच्येत संभवविनाम स्त्रीणामपि सम्यग् दर्शनादिकं | रत्नत्रयं परं न तत्संभवमात्रेण मुक्तिपदप्रापकं भवति किन्तु प्रकर्षप्राप्तमन्यथा दीक्षानन्तरंमेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तिः सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयप्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्भवी ततो न निर्वाण-मिति। तदप्य युक्तं स्त्रीषु रत्नत्रयप्रकर्षस्सम्भवति सम्भवग्राहक प्रमाणं विजृम्भते देशकालविप्रकृष्टेषु प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेस्तदप्रवृत्ती चानुमानस्याप्यसम्भवात्। नापितासुरत्नत्रयप्रकर्षा-सम्भवप्रतिपादकः कोप्यागमो विद्यतेप्रत्युत सम्भवप्रतिपादकः स्थाने२ऽस्ति यथा इदमेव प्रस्तुतं सूत्रंततोन तासांरत्न-त्रयप्रकर्षासम्भवोऽथमन्येथाः स्वभावत एवातपेनेवेच्छया विरुध्यते स्त्रीत्वेन सह रत्नत्रयप्रकर्षस्ततस्तद संभवोनुमीयते तदयुक्तमुक्तं युक्तिविरोधात् तथाहि रत्नत्रयप्रकर्षः स उच्यते ततोऽनन्तरमुक्तिपदप्राप्तिः स चायोग्यवस्था चरमसमयभावी अयोग्यवस्थाचास्मादृगप्रत्यक्षा ततः कथं विरोधगतिः नहि अदृष्टन सह विरोधःप्रतिपत्तुं शक्यते मा प्रापत पुरुषेष्वपि प्रसङ्गः।। (ननः) ननुजगतिसर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टनाध्यवसाये नावाप्यते नान्यथा एतचो भयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यबलतः सिद्धम् / सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं च। तत्र सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं सप्तमनरकपृथ्वी अतः परं परमदुःखस्थानस्याभावात् / सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं तु निःश्रेयसम्। तत्रस्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिद्ध निषेधस्य च कारणं तद्गमनयोग्यतथाविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः / ततः सप्तमपृथिवीगमनवत्त्वाभावात् संमूञ्छिमादिवत् / अपिच यासां वादलब्धौ विकुर्वणत्वादिलब्धौ पूर्वगतश्रुताधिगतौ च न सामर्थ्यगतिस्तासां मोक्षगमन सामर्थ्यमित्यति दुःश्रद्धेयम्॥ (सैद्धन्तिकः) तदेतदयुक्तं यतोयदिनामस्त्रीणांसप्तमनरकपृथिवीगमन प्रति सर्वोत्कष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावस्तत एतावता कथमवसीयते नि श्रेयसमपि प्रति तासां सर्वो-त्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो ? नहि यो भूमिकर्षणादिकं कर्म कर्तुं न शक्नोतिस शास्त्राण्यप्यवगाढं न शक्रोतीति प्रत्येतुं शक्यं प्रत्यक्षविरोधात् / अथ संमूछिमादिषूभयत्रापि सर्वोत्कृ ष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो दृष्टस्ततोत्रावसीयते / ननु यदि तत्र दृष्टस्तर्हि कथमात्रावसीयते न खलु बहिया प्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवति किंत्वन्ताप्तया, अन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिबन्धबलेन। नचात्र प्रतिबन्धो विद्यते न खलु सप्तमप्रथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य कारणम् नापि सप्तमपृथिवीगमनाविनाभाविनिर्वाणगमनम् चर मशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाणगमनाभावात् / न च प्रतिबन्धमन्तरेण एकस्याभावेऽन्यस्यावश्यमभावो मा प्रापत् यस्य तस्य वा कस्यचिदभावे सर्वस्याभावप्रसङ्गः। यद्येवं तर्हि कथं सम्मूच्छिमादिषु निर्वाणगमनाभाव इति। उच्यते-तथा भवस्वाभाव्यात्। तथाहि संमूछिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यग्दर्शनादिकं यथावत्प्रतिपत्तुं शक्यन्ते ततो न तेषां निर्वाण संभवः / स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथा वत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पद्योग्या-स्ततस्तासां न निर्वाणगमनाभावः / अपिच भुजपरिसप्पाः द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति नपरतः परपृथिवीगमनहेतुस्तथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात् तृतीयां यावत् पक्षिणश्चतुर्थी चतुष्पदाः पञ्चमीमुरगाः। अथ च सर्वेष्यूर्द्धमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति तत्राधोगतिविषयं मनोवीर्यपरिणमिवैषम्यादर्शना-दूर्ध्वगतावपि च न तद्वैषम्यम् / आह च "विषमगतयोप्यधस्ता-दुपरिष्ठात्तुल्यमा Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथिलिंगसिद्ध 620 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इथिलिंगसिद्ध सहस्रारम् / गच्छन्ति च तिर्यञ्च-स्तदधोगत्थूनता हेतुः / / 2 / / तथाच सति सिद्धं स्त्रीपुंसामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाणं समम्। यदप्युक्तमपि च यासांवादलब्धावित्यादितदप्यश्लीलं वादविकुर्वणत्वादिल-ब्धिविरहेपि विशिष्टपूर्वगतश्रुताभावेऽपि मानुषादीनां निःश्रेयसपदाधिगमश्रवणादाहच वादविकुर्वण-त्वादिलब्धि-विरहश्रुते कनीयसि च जिनकल्पमनः पर्यवविर-हेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति। अपिच यदि वादादिलब्धिभाववत् निःश्रेयसाभावोऽपि स्त्रीणामभविष्यत् ततस्तथैव सिद्धान्ते प्रत्यपादयिष्यत् यथा जंबुयुगद्वारात् केवलज्ञानाभायो, न च प्रतिपाद्यते तस्मादुपपद्यते स्त्रीणां निर्वाणमिति कृतं प्रसङ्गेन। प्रज्ञा०१ पदका ना रत्नावतारिकायामपि अथ दिक्पटाः प्रकटयन्ति भवत्वेता-दृशस्वरूपो मोक्षः स उपात्तस्त्रीशरीरस्यात्मनः इति न मृष्यामहे / न खलु स्त्रीयो मुक्तिभाजो भवन्ति / तथाच प्रभाचन्द्रः / स्त्रीणां न मोक्षः पुरुषेभ्यो हीनत्वान्नपुंसकादिवदिति / अत्र ब्रूमः सामान्येनात्र धर्मित्वेनोपात्ताः स्त्रियो विवादास्पदीभूता वा प्राचि पक्षे पक्षकदेशसिद्धसाध्यता असंख्यातवर्षायुष्कदुःषमादिकालो-त्पन्नतिरश्चीदेव्यभव्यादिस्त्रीणां भूयसीनामस्माभिरपि मोक्षा-भावस्याभिधानात्, द्वितीये तु न्यूनता पक्षस्य विवादास्पदीभूतेति विशेषणं विना नियतस्त्रीलाभाभावात् / प्रकरणादेव तल्लाभे पक्षोपादनमपि तत एव कार्य न स्यात् तथाप्युपादाने नियतस्यैव तस्योपादानमवदातं यथा धानुष्कस्य नियतस्यैव लक्षस्यो-पदशर्नमिति हेतूकृतः पुरुषादकर्षोऽपि योषिता कुतस्त्यः किंसम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभावेन विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वेन पुरुषानभिवन्द्यत्वेन स्मारणाद्यकर्तृत्वेनामहर्द्धिकत्वेन माया-दिप्रकर्षकत्वेन वा / प्राचि प्रकारे कुतः स्त्रीणां रत्नत्रयाभावः सचीवरपरिग्रहत्वेन चारित्राभावादिति चेत्तदचतुरस्रम् / यतः परिग्रहरूपता चीवरस्य शरीरसंपर्कमात्रेण परिभुज्यमानत्वेन मूच्छहितुत्वेन वा भवेत्। प्रथमपक्षे क्षित्यादिना शरीरसंपर्किणाप्य परिग्रहेण व्यभिचारः / द्वितीयप्रकारे चीवरपरिभोगस्तासाम-शक्यत्यागतया गुरूदेशशाद्वाः। नाद्यः पक्षो यतः संप्रत्यपि प्राणानपि त्यजन्त्यो याः संदृश्यन्तेतासामेकान्तिकात्वन्तिका नन्दसंपदर्थिनीनां बाह्यचीवरं प्रति का नामाशक्यत्यागता।नप्रयोगिन्यश्च काश्चिदिदानीमपि प्रेक्ष्यन्त एव द्वितीयपक्षोऽपिनसूक्ष्मः यतो विश्वजनीनेन विश्वदर्शिना परमगुरुणा भगवता मुमुक्षुपक्ष्मलाक्षीणां यदेव संयमोपकारि तदेव चीवरोपकरणं "नो कप्पइ निग्गंथीए अवेलाए होत्तएत्यादिनो पदिष्ट प्रतिलेखनकमण्डलूप्रमुखवदिति कथं तस्य परिभोगात्परिग्रहरूपता प्रतिलेखनादिधर्मोपकरणस्यापि तत्प्रसङ्गात। तथा च यत्संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणं धर्मस्य हि तत्साधनमोऽन्यदधिकरणं महार्हन् उपकारकं हि करणमुपकरणम् अधिक्रियन्ते घाताय प्राणिनोऽस्मिन्नितित्वधिकरणम् अथ प्रतिलेखनं तावत्संयमप्रतिपालनार्थ भगवतोपदिष्टं वस्त्रं तु किमर्थमिति तदपि संयमप्रतिपालनार्थमेवेति ब्रूमः। अभिभूयन्ते हिप्रायेणाल्पसत्वतया विवृताङ्गोपाङ्गसंदर्शनजनितचित्तभेदैः पुरुषैरङ्गना अकृतप्रावरणा घोटिका इव घोटकैः / ननु यासामतितुच्छसत्वानां प्राणिमात्रेणाप्यभिभवस्ताः कथं सकलत्रैलोक्याभिभावककर्मराशिप्रक्षयलक्षणं मोक्षं महासत्वप्रसाध्यं प्रसाधयन्तीति चेत्तदयुक्तम् यतो नात्र शरीरसामर्थ्यमतिरिक्तं यस्य भवति तस्यैव निर्वाणोपार्यजनगोचरेण सत्वेन भवितव्यमिति नियमः समस्त्यन्यथा पडगुवामनात्यन्तरोगिणः पुमांसोपिस्वीभिरभिभूयमाना दृश्यन्त इति तेऽपितुच्छशरीरसत्वाः कथं तथाविध्रसिद्धिनि बन्धनसत्वकभाजो भवेयुः / यथा तु तेषां शरीरसामर्थ्यासत्वेऽपि मोक्षसाधनसामर्थ्यमविरुद्धं तथा स्त्रीणामपि। सत्यपि वस्खे मोक्षाभ्युपगमे गृहिणः कुतो न मोक्ष इति चेन्ममत्वसद्धावान्नहि गृही वस्त्रे मनत्वरहितो, ममत्वमेव परिग्रहः / सति हि ममत्वे नग्रोऽपि परिग्रहवान् भवति शरीरेपि तद्भावात्। आर्यिकायाश्च ममत्वाभावादुपसर्गाद्यासक्तमिवाम्बरमपरिग्रहः / न हि यतेरपि ग्रामं गृह वनंवा प्रतिवसतोममत्वादन्यच्छरणमस्ति नच निगृहीतात्मनां महात्मनां कासां चित्कचिदपि मूर्छास्ति। तथाहि "निर्वाण-स्त्रीप्रभवपरप्रीतिती व्रस्पृहाणां, मूर्छा तासां कथमिव भवेत्वापि संसारभागे। भोगे रागे रहसि सजने सज्जने दुर्जने वा, यासां स्वान्तं किमपि भजते नैव वैषम्यमुद्राम्। उक्तञ्च ''अवि अप्यणो विदेहमि, नायरंति ममाइयंति' एतेन मूर्छा हेतुत्येनेत्यपि पक्षः प्रतिक्षितः शरीरवचीवरस्यापि काश्चित्प्रतिमूच्छहितुत्याभावेन परिग्रहरूपत्वाभावात्। तन्न सम्यग् रत्नत्रयाभावेन स्त्रीणां पुरुषेभ्योपकर्षः नापि विशिष्टसामर्थ्या-सत्वेन, यतस्तदपितासां किं सप्तमपृथ्वीगमनाभावेन वादा-दिलब्धिरहितत्वेनाल्पश्रुतत्वेनानुपस्थाप्यता पाराञ्चित-शून्यत्वेन वा भवेत्। न तावदाद्यः पक्षो यतोऽत्र सप्तम-पृथ्वीगमनाभावो यत्रैव जन्मनि तासां मुक्तिगामित्वं तत्रैवोच्यते सामान्येन वा प्राचि पक्षे चरमशरीरिभिरनेकान्तः। द्वितीयेत्वयमाशयो यथैव स्त्रीणां सप्तमपृथ्वीगमनसमर्थतीव्रतराशुभपरिणामे सामर्थ्याभावादपकर्षस्तथा मुक्तिगमनयोग्योत्कृष्टशुभपरिणामेऽपि चरमशरीरिणान्तु प्रसन्नचन्द्ररानर्षिप्रमुखाणामुभयत्रापि सामर्थ्यान्नकत्राप्यपकर्षस्तदयुक्तं यतो नायमविनाभावः प्रामाणिको यदुत्कृष्टाशुभगत्युपार्जनसामर्थ्याभावे सत्यु त्कृष्टशुभगत्युपार्जनसामर्थ्येनापि न भवितव्यम् / अन्यथा प्रकृष्टशुभगत्युपार्जनसामर्थ्याभावे प्रकृष्टाशुभगत्युपार्जनसामर्थ्य नास्ती-त्यपि किं न स्यात्तथा चाभयानां सप्तमपृथिवीगमनं न भवेत् / अथ वादादिलब्धिरहितत्वेन स्त्रीणां विशिष्टसामर्थ्यासत्त्वं यत्र खल्वैहिकवादिविक्रिया चारणादिलब्धीनामपि हेतुः संयमविशेषरूपं सामर्थ्यं नास्ति तत्र मोक्षहेतुस्तद्भविष्यतीति कः सुधीः श्रद्दधीत तदचारु व्यभिचारात् / मासतुषादीनां तदभावेपि विशिष्टसामोपलब्धेः। नच लब्धीनां संयमविशेषहेतुक-त्वभागमिकं कर्मोदयक्षयक्षयोपशमोपशमहेतुकतया तासां तत्रोदितत्वात्तथा चावाचि "उदयखयखउवसमोवसमस-मुत्थाबहुप्पगाराउ / एवं परिणामवसा, लद्धीओ हवंति जीवाणं" चक्रवर्तिबलदेववासुदेवत्वादिप्राप्तयोऽपि लब्धयो नच संयम सद्भावनिबन्धनात्तत्प्राप्तिः सन्तु वा तन्निबन्धनाल्लब्धयस्तयापि स्त्रीषु तासां सर्वासामभावोऽभिधीयते नियतानामेव वा / नाद्यः पक्षश्चक्रवादिलब्धीनां कासांचिदेव तासु प्रतिषेधादामौषध्यादीनां तु भूयसीनां भावात् / द्वितीयपक्षे तु व्यभिचारः पुरुषाणां सर्ववादादिलब्धयभावेऽपि विशिष्टसामर्थ्यस्वीकारात्। अकेशवानामेवातीर्थकरचक्रवादीनामपि च मोक्षसंभवात् अल्पश्रुतत्वमपि मुक्तयवाप्त्यानुमितविशिष्टसामर्थ्यासितुषादिभिरेवानैकान्तिकमित्यनुद्घोष्यमेव / अनुपस्थाप्यता पाराश्चितकशून्यत्वेनेत्यप्ययुक्तं, यतो नतन्निषेधाद्विशिष्टसामार्थ्याभावः प्रतीयते योग्यतापेक्षो हि चित्रः शास्त्रे वि Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इथिलिंगसिद्ध. 621 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थिविप्परियासिया शुध्युपदेः उक्तं च / संवरनिर्जररूपो बहुप्रकारस्तोविधिः शास्त्रो | इत्थि(त्थी)वउ-स्त्री (स्त्रीवाक् ) खट्वालतेत्यादिलक्षणायां रोगचिकित्साविधिवत्कस्यापि कथं चिदुपकारी' पुरुषान भिवन्द्यत्वमति स्त्रीलिंङ्गप्रतिपादिकायाम्भाषायाम, - प्रज्ञा० 11 पद // योषितां नापकर्षाय / यतस्तदपि सामान्येन गुमाधिकपुरुषापेक्षं वा। इत्थि(त्थी)वयण-न. (स्त्रीवचन) वचनभेदे, स्त्रीवचनं वीणा कन्यादीति। आद्ये असिद्धतादोषः तीर्थकरजनन्यादयो दिपुरंदरादिभिरपि प्रणताः आचा०२ श्रु.१ अ०३ उ०। प्रज्ञा० / / किमङ्ग ! शेषपुरुषैः। द्वितीये तु शिष्या अपि आचार्य भिवन्धन्त एवेति इत्थि(त्थी)वस-पु. (स्त्रीवश)६ त. स्त्रीवशीभूते, ख्यायत्त तायां च / ते ति ततोऽपकृष्यमाणत्वेन निर्वत्तिभाजो न भवेयुः / नैचवं वाच / व्यः / "इत्थी वसंगथा बाला" स्त्रीय शङ्गता यतो चण्डरुद्रादिशिष्याणां शास्त्रे तच्श्रवणादिति मूलहेतोर्व्यभिचारः। एतेन युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते बाला अज्ञा रागद्वेषोपहतचेतस इति।सूत्र०१ श्रु. स्मरणाधकर्तृत्वमत्र विवक्षितं नतु स्मारणाधकर्तृत्वमात्रम्।नच स्त्रियः कदाचन पुंसां स्मारणादीन् कुर्वन्तीतिन व्यभिचार इति चेत्तर्हि पुरुषेति ३अ०४ उ.। विशे-षणं करणीयं करणेप्यसिद्धतादोषः स्त्रीणामपि कासा स्त्रीवसङ्गतानासधमत्वञ्च यथाचित्पारगतागमरहस्यवासितसप्तधातूनां वापितथाविधावसरे सडंगुलि वगुड्डावे, किंकरे तित्थण्हायए चेव / समुच्छ् खलप्रवृत्तिपराधीनसाधुस्मारणादेरविरोधात् / अथा- गद्धावरं खिहद्दण्ण, एएपुरिसाधमाछत्त।। महर्द्धिकत्वेन स्त्रीणां पुरुषेभ्योऽपकर्षः सोऽपि किमाध्यात्मिकी जदा इत्थी भणितो रधेहिं तदा भणंति अहं उट्टेमि ताव तुमं समृद्धिमाश्रित्य बाह्यां वा। नाध्यात्मिकी सम्यग्दर्शना-दिखत्रयादेस्ता- अधिकरणीतित्थारं अवणेहित्ति तस्सत्थारे अवणीतेसडंगुलीतो भणति सामपि सद्भावात् / नापि बाह्या मेवं हि महत्वायस्तीर्थकरलक्ष्म्या इत्थीवयणाओ दग माणेति सोय लोगसं कितो अप्पभाए व सुहसुत्ते पगे गणधारदयश्चक्रधरादिलक्षम्याश्चेतरक्षत्रियादयो न भाजनमिति रो.तो आणेतित्ति वग्गु डायो किंकरो पभाते उत्थितो इत्थी भणति तेषामप्यमहर्द्धिकत्वेनाप-कृष्यमाणत्वान्मुक्तयभावो भवेत्। अथ यासौ किंकरेमि त्तिज भणति तं करेतित्ति तित्थहाय तो जयासिणं मग्गति च पुरुषवर्गस्यमहती समृद्धिस्तीर्थकरत्वलक्षणा सा स्त्रीषु तदा इत्थी भणतिगच्छा तडागं तत्थण्हातो कल सं भरेतुमा गच्छाहित्ति नास्तीत्यमहर्द्धिकत्वमासां विवक्ष्यते तदानीमप्यसिद्धता स्त्रीणामपि गद्धावरखी भोयणकाले परिवेसणाए इतो वाहित्ति भणिताहे गिद्धो परमपुण्यपात्रभूतानां कासांचित्तीर्थकृत्त्वाविरोधात्तद्विरोधसाधक इवरिक्खंतो भोयणं उदृत्ति इत्थी भणितो कम्मं करेहित्ति ताहे पडिभणति प्रमाणस्य कस्याप्यभावादेतस्याद्यापि विवादास्पदत्वादनुमानान्तरस्य हंद अण्णयं हंदत्ति गेण्ह अत्तयं पुत्तभडं एवं गेण्ह जा कम्मं करेमीत्यर्थः। चाभावात्। मायादिप्रकर्षवर्ध्वनत्यप्यप्रशस्यं तस्य स्त्रीपुंसयोस्तुल्यत्व एतेत्थ पुरिसा अधमा। नि, चू.१५ ऊ। दर्शनादागमे च श्रवणात् श्रूयते हि चरमशरीरिणामपि नारदादीनां धिं तेसिं गामनगराणं, जेसिं इत्थी पणायिगा। मायादिप्रकर्षवत्त्वं तत्र पुरुषेभ्यो हीनत्वं स्त्री निर्वाणनिषेधे साधीयान् ते य धिक्कया परिसा,जे इत्थीण बसंगया। हेतुः यत्पुनर्निर्वाणकारणं ज्ञाना-दिपरमप्रकर्षः स्त्रीषु नास्ति, परमप्रकर्षत्वात्सप्तमपृथ्वी-गमनकारणापुण्यपरमप्रकर्षवदिति तेनैवोक्तं धिनिन्दायां तेषां ग्रामनगराणां येषां स्त्रीप्रणायिका प्रकर्षण स्वतन्त्रतया तत्रमोहनीय-स्थितिपरमप्रकर्षण स्त्रीवेदादिपरमप्रकर्षेण चव्यविभाचर : नायिका अत्र धिग्योगे द्वितीयाप्राप्तावपि षष्ठी प्राकृतत्वात्तथा तेऽपि पुरुषा नास्ति स्त्रीणां मोक्षः परिग्रहवत्त्वात् गृस्थवदित्यपि न पेशलं धर्मो- धिकृता धिक्कार प्राप्तवन्तो ये स्त्रीणां वशमायत्ततां गताः। तथा। पकरणचीवरस्यापरिग्रहत्वेन प्रसाधितत्वादिति स्त्रीनिर्वाणे संक्षेपेण इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। बाधकोद्धारः / साधकोपन्यासस्तु मनुष्यस्त्री काचिन्नित्यि- सो गामो नगरं वावी, खिप्पमेव विणिस्सई॥ विकलतत्कारणत्वात्पुरुषवत् / निर्वाणस्य हि कारणमविकलं यत्र ग्रामेषु नगरेषु वा स्त्रीयो बलवत्यः स ग्रामो नगरं वा क्षिप्रमेय सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयं तच्च तासु विद्यत एवेत्यादि एवोक्तमि विनश्यति। बहुवचनेनोपसंहारो जातौ बहुवचनमेकवचनं भवतीतिः ति नासिद्धमेताद्विपक्षानपुंसकादेरत्यन्तव्यावृत्तत्वान्न विरुद्ध ज्ञापनार्थः / / व्य प्र.१ऊ। मनैकान्तिकं वा तथा मनुष्यस्वीजातिः कयाचिद्व्यक्तया इत्थि(त्थी)विग्गह-पु. (स्त्रीविग्रह) स्त्रीशरीरे, / व्य.-प्र०२ उ०। आचा० / मुक्तयविकलकारणवत्त्या तद्वती प्रव्रज्याधिकारित्वात्पुरुषवत् / न चैतदसिद्ध साधनं "गुव्वणी बालवच्छा य पव्वावेउं न कप्पइ इति" इत्थि(त्थी)हिण्णवणा-स्त्री. (स्त्रीविज्ञापना) युवतिप्रार्थनायाम्, सिद्धान्तेन तासां तदधिकारित्वप्रतिपादनाद्विशेषनिषेधस्य (रमणीसम्बन्धे) सूत्र. 1 श्रु० 3 अ 4 उ. (अत्र दोषादोषविचारः इत्थी शेषाभ्यनुज्ञानान्तरीयकत्वात् दृश्यन्ते च सांप्रातमप्येता: शब्दे) कृतशिरोलुचना उपात्तपिच्छिका कमण्डलुप्रमुखयतिलिङ्गाश्चेति कुतो इत्थि(त्थी)विप्पजह-पु. (स्त्रीविप्रजह) त्रियो विविधैः प्रकारैः प्रकर्षण नैतासां प्रव्रज्याधिकरित्वसिद्धिर्यतो न मुक्तिः स्यादिति / रत्ना०1७ चजहाति त्यजतीति स्त्रीविप्रजहः उणादयो बहुलमिति बहुलवचनाच्छः / परि०॥ स्त्रीपरित्यागवति, "नारीसु नो पगिग्झिज्जा इत्थीविप्पजहे अणगारे" इत्थि(त्थी)लिंगसिद्धकेवलनाण-स्त्रीलिंगसिद्धकेवलज्ञानन, स्त्रीलिंगे इति--उत्त० 8 अ वर्तमाना ये सिद्धास्तेषां केवलज्ञानं स्त्रीलिंग सिद्ध-केवलज्ञानम्। | इत्थि(त्थी)विप्परियासिया स्त्री. (स्त्रीविपर्यासिका) स्वाप्रान्तिकेवलज्ञानभेदे, / आ०म०प्र० ! इथिलिंगेण सिद्धाणं जं नाणं तं कक्रियाविशेषे, "इथिए विप्परियासो इत्थी-विपरियासो। स्वप्ने स्त्रिया इथिलिंगसिद्धकेवलनाणिंति / आ. चू१ आ०॥ ब्रह्मचर्यविनाश इत्यर्थः विपर्यासोनाम अबभचरेमिति" आ. चू.४अ०॥ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थिविलोयण 622 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी इत्थि(त्थी)विलोयण-म (स्त्रीविलोचन) तैतिलापरनामधेये चलसंज्ञके संयमशरीराश्यन्ति। सूत्र 1 श्रु.४०१ऊ। स्त्रीभिःसार्द्धमेकत्र वसतौ, / / करणभेदे, विशे (तदानयनादिकरणशब्दे वक्ष्यते) एवं विवेगमादाय, संवासो न विकप्पए दविए।। इत्थि(त्थी)वेय-पु. (स्त्रीवेद) स्त्रियं यथावस्थितस्वभा- तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानमादाय प्राप्य विवेकमिति वतस्तत्सम्बन्धविपाकतश्य वेदयति ज्ञापयतीति स्त्रीवेदः। वैषयि कादिके वा वचित्पाठस्तद्विपाकं विवेकञ्चादाय गृहीत्वा स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिस्त्रीस्वभावाविर्भावके कामशास्त्रे, / "सुपुरिसा इत्थिवेय खेयण्णा" नीभिः सार्ध संवासो वसतिरेकत्र न कल्पते न नुद्यते कस्मिन्द्रव्यभूते स्वीवेदे खेदज्ञाः स्त्रीवेदो मायाबहुल इति निपुणा अपि स्त्रीणवशं मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ यतस्ताभिः सार्धं संवासोऽवश्यं व्रजन्तीति / सूत्र.१ श्रु. 4 अ. 1 उ. / वेद्यत इति वेदः स्त्रियाः वेदः स्वीवेदः विवेकिनामपि सदनुष्ठान-विघातकारीति। सूत्र. 1 श्रु० 4 अ० 1 उ० / स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष / तद्विपाकवेद्यं कर्माऽपि स्त्रीवेदः स्त्रियाः इत्थि(त्थी) संसत्त-त्रि. (स्त्रीसंसक्त) स्त्रीभिः संगते, "ऊरुपुमांसं प्रत्यभिलाषः / तद्विपाकवेद्ये नोकषा यवेदनीयकर्मविशेषे च / कोप्परमादीहिं सघ8तो संसत्तो भवति दिट्ठीए वा परोप्परं संसत्तो संगतो प्रज्ञा० 23 पद. 1 यद्वशास्त्रियाः पुरुषं प्रत्याभिलाषो भवति / यथा इति" तथा चा नियुक्तिः संमत्ते ऊरुगादिघट्टतो इति॥ रिपत्तवशान्मधुरद्रव्यं प्रति स फुफमदिहसंमः यथा 2 ज्वाल्यते तथा२ दुविधं च होति मज्झं, संसत्ता दिहिदिहिअंतो वा॥ ज्वलति दहति च एवमबलापि यथा 2 संस्पृश्यते पुरुषेण तथा 2 अस्या भावो वतासु णिहितो, एमे वित्थीण पुरिसेसु / / 11 / / अधिकतरोऽभि लाषो जायते भुज्यमानायान्तु छन्नकारीषदाह च सद्दाओ संसत्तं पिदुविधं ऊरुगादिघदेत्तो संसत्तो दिट्ठिएवा इत्थीण तुल्योऽभिलाषो मन्द इति स्त्रीवेदोदयः। कर्म / स्था। पं. संवा सम्प्राप्तः वा मज्झे अहवासंसत्तस्स इमं वक्खाणं तेण तासुभावो णिहितो णिवेसितो स्त्रीवेदकर्मोदयजनितो यः स्त्रीवेद सकिंस्वरूप इत्यावेदयन्नाह ! ताहि वा तमिणि सेवितो परस्पर गृद्धानीत्य-र्थः / निचू / स्त्रीभिः इत्थिवेदेणं मंते ! किंपकारे पं.गो. फुफअग्गिसमाणे पण्णत्ते समाकीणे (सेविते) स्थानादौच। स्था.१० ठा० (तच साधुभिर्वर्जनीयमिति सेत्तं इत्थियाओ! बंभचेरगुत्ति शब्दे) (इत्थीवेदेणं भते इत्यादि) स्त्री वेदणमिति पूर्ववत् भदन्त-किंप्रकारः इत्थि(त्थी) सडा-स्त्री. (स्वीश्रद्धा) स्त्रीश्रद्धाने, सूत्र. 1 श्रु० 4 अ.१ उ० / किंस्वरूपः प्रज्ञप्तः / भगवानाह गौतम ? फुफुकाग्नि समानः फुफुका (तत्कथादिकं इत्थी शब्दे) शब्दो देशीरूपत्वात् कारिषवाचकस्ततः कारिषा-निसमानः इत्थि(त्थी)सहाव-पु. (स्त्रीस्वभाव) स्त्रीया इव स्वभावो यस्य / परिमलनमदनदाहरूप इत्यर्थः प्रज्ञप्तः / जी. 2 प्रतिः // (स्त्रीवेदस्य अन्तःपुररक्षके महल्लके.६त. स्त्रीणांशीले च। वाच / सूत्र। (स्त्रीस्वस्थितिः ठिई शब्दे / स्त्रीणां स्वभावादि इत्थी शब्दे)। भावपरिज्ञाने कथनाकं इत्थी शब्दे) इत्थि(त्थी)वेयण्ण-पु. (स्त्रीवेदज्ञ) स्त्रीवेदोमायाप्रधान इत्येवं निपुणे,। / इत्थित्थी)सेवा-स्त्री. (स्त्रीसेवा) 6 त. स्त्रीसम्भोगे, व्यवाय सधर्मेण सूत्र. 1 श्रु० 4 अ.१ऊ। नारीसेवने, वाच / स्त्रीसेवादय इह परत्र वा अक-ल्याणकारिण इति। इत्थि(त्थी)संकिलिट्ठ-त्रि (स्त्रीसंक्लिष्ट) स्त्रीप्रतिषेविनि, प्रव० / व्य। "अन्नपानैहरद्वाला यौवनस्थां विभू-षया / वेश्या स्त्रीमुपचारेण वृद्धां कर्कशसेवया'' इति-आ. म. द्वि. आ. चू। इत्थि(त्थी)संग-पु. (स्त्रीसङ्ग) स्त्रीषु प्रवर्तने, सूत्र 2 श्रु२ अ॥ (तच्च प्रधानं संसारकारणमिति इत्थी शब्दे) इत्थी-स्त्री (स्त्री) स्त्र्यायतेस्तृणातेर्वा कटि टित्वाद्डीपि स्त्रीति प्रव०८६ द्वा / उत्त / "स्त्रिया इत्थी' 130 इति सूत्रेण स्त्रीशब्दस्य इत्थी इत्यादेशो इत्थि(त्थी) संपक-पु. (स्त्रीसम्पर्क) स्त्रीभिः सहसंवासे, सूत्र 1 श्रु०४ वा-पक्षे–थीति। प्रा०८ अ०२ पा. योषिति-अनु० / पंचा। तं। अ.१ उ०। (सच साधुभिर्न विधेय इति इत्थी शब्दे) (1) स्त्रीलक्षणं तच्छब्दनिक्षेपश्च। इत्थि(त्थी) संपरिवुड-त्रि. (स्त्रीसंपरिवृत) स्त्रीभिःसमन्तात्परिवेष्टि, (2) स्त्रीवक्तव्यता तद्भेदवर्णनश्च! समंता परिवेट्टिओ परिवुडो भण्णति परिमाण जाव तिण्णि चउरो पंच वा वागरणाणि परतो छट्ठादिअपरिमाणं कहं कहेतस्स चउगुरुगं आणादिया (3) स्त्रीणां स्वभावादिपरिज्ञानस्यावश्यकता। तत्कृत्यवर्णनश्च। य दोसा एस सुत्तत्थो इमा णिज्जुत्तीगाहा-- (4) स्त्रीसम्बन्धे दोषाः। मज्झं दोण्हतीगतो, ससंति ऊसगादि वड्डेतो।। (4) कतमाभिः स्त्रिभिस्साढ़े न विहर्त्तव्यम्। चउदि सिठिताहिंतुवडो, पास गताहिव अप्फुसंतो।। (6) इह लोके एव स्त्रीसम्बन्धविपाकः। अहवा एगदिसि वियाहिं वि अफुसंतीहि परिखुडो भण्णति। नि. चू.२ ॐ / / (7) स्त्री संस्पर्श दोषाः। इत्थि(त्थी)संवास-पु. (स्त्रीसंवास) स्त्रीभिः सार्द्ध परिभोगे, (e) भोगीनां विडम्बना। (9) स्त्रियो विश्वास्याकार्यं कुर्वन्ति। जतुकुंभे जोइउवगूठे, आसुमि तत्तेणासमुवयाइ। एवि त्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ||27|| (20) स्त्रीणां स्वरूपस्य शरीरस्य चातिनिन्दनीयत्वम्। (11) स्त्रीचरित्रं वैराग्योत्पादनाय द्रष्टव्यम्। (जतुकुंभेत्यादि) यथा जातुषः कुम्भो ज्योतिषानिनोपगूढः समालिङ्गितोऽभितप्तोनिनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रंनाशमुपैति (12) स्त्रीणामशुचत्त्वं सर्वस्वापकर्षकत्वञ्च। द्रवीभूय विनश्यत्येवं स्वीभिः सार्धं संवसनेन परिभोगेनानगारा / (13) स्त्रीणां बन्धनकारणत्वं तत्प्रेहानुगतस्यदुःखानि च। नाशमुपयान्ति सर्वथा जातुषु कुम्भवत् व्रत काठिन्यं परित्यज्य | (14) स्वीसंसर्गस्य सर्वथा परित्याज्यत्त्वं तत्त्यागेकारणानि च। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थि 623 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी (15) स्त्रीपुशक्तस्य परिग्रहित्वं तासु सर्वेन्द्रियगुप्तेन भाव्यम्। (26) स्त्रीकरस्पर्शादिनिषेधः। (17) स्त्रिया सार्द्ध विहारस्वाध्यायाहारोचारप्रस्रवणपरिष्ठा-पनिका धर्मकथादिनिषेधः। (18) स्त्रीणां निानादिनिषेधः। (19) स्वीस्थानदूषणं तत्प्रसङ्गत्यागस्तत्सङ्गातिक्रमे गुणाश्च / (20) मतान्तरीयपूर्वपक्षदूषणानि। (1) स्त्रीलक्षणं तच्छब्दनिक्षेपो यथा। "योनेसृदुत्वमस्थैर्य-मुग्धता क्लीबता तनौ / पुंस्कामितेति लिगानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते इति। तथान्यत्राप्युक्तम्।"स्तनकेशवती स्त्रीस्यादिति" स्था०३ठा०।जी। स्त्रीशब्दस्य निक्षेपो यथा-तत्रनाम स्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य स्त्रीशब्दस्य द्रव्यादिनिक्षेपार्थं नियुक्तिकार आह दव्वाभिलाव चिंधे, दवे भावे य इत्थिणिक्खेवो। अहिलावेतह सिद्धी, भावे वेयंमि उवउत्तो ||16|| तत्र द्रव्यस्त्री द्वेधा।आगमतो नो आगमतश्च / आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो ऽनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा नो आगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्ता त्रिधा / एकभविका बद्धाऽयुष्काभिमुखनामगोत्रा वेति। चिह्नयते ज्ञायतेऽनेनेति चिह्नस्तननेपथ्यादिकं चिह्नमात्रेण स्वीचिह्नस्त्री। अपगतस्त्रीवेदछद्मस्थः केवली वा अन्यो वा स्त्रीवेषधारी यः कश्चिदिति। वेद स्त्री तु पुरुषाभिलाषरूपः स्त्रीवेदोदयः / अभिलाषभावौ तु नियुक्ति कृ देव गाथापश्चार्द्धनाह / अभिलाष्यते इत्यभिलाषः स्त्रीलिङ्गाभिधान-शब्दः / तद्यथा। शाला माला सिद्धिरिति / भावस्त्री तुद्वेधा। आग-मतोनो आगमतश्च / आगमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्त उपयोगो भाव इति कृत्वानो आगमतस्तुभावविषये निक्षेपे वेदे स्त्रीवेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तदुपयोगानन्यत्वाद्भावस्वी भवति। यथा अग्नावुपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवत्येवमत्रापि। यदि वा स्त्रीवेद निवर्तकान्युदयप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषूपयुक्तेति तान्यनुभवन्ति भावस्त्रीति एतावानेव स्त्रियो निक्षेप इति। सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ऊ। (2) स्त्रीवक्तव्यता तद्भेदवर्णनञ्च। से किं तं इत्थीओ 2 तिविहाओ पण्णत्ताओ तंजहा तिरिक्खजोणित्थीओ मणुस्सत्थीओ देवित्थीओ से किं तं तिरिक्खजोणित्थीओ 2 तिविधाओ पण्णत्ताओ तंजहा जलयरीओ थलयरीओ खहयरीओ। से किं तं जलयरीओर पंचविधाउ पण्णत्ताउ तंजहा मच्छीउ जाव सुसुमारीउ से त्तं जलयरीउ। से किं तं थलयरीउ दुविहाउ पण्णत्ताओ तंजहा चउप्पदीउ य परिसप्पिणीउ य / से किं तं चउप्पदीउ 2 चउविहाउं पण्णत्ता तंजहा एगखरीउ जाव सणप्पईउसे किं तं परिसप्पिणीउदुविहापण्णत्ता तंज हा उरगपरिसप्पिणीउ य भुयगपरिसप्पिणीओ य / से किं तं उरगपरिसप्पिणीओ 2 तिविधाओ पण्णत्ताओ तंजहा अहीओ अयगरीओ महोरगीओ सेत्तं उरगपरिसप्पिणी / से किं तं मुयपरिसप्पिणी 2 अणेग विधाओ पण्णत्ताओतंजहा गोहीओ णउलीओ सेधाओ सेल्ला ओ सेरडीओ सेरिंधीओ सावाओ खराओ पंचलोइया ओ चउप्पइयाओ मूसियाओ सुसुंसियाओ धरोलियाओ गोहियाओ जोहियाओ थिरावलियाओ सेत्तं भुय परिसप्पिणीओ। से किं तं खहयरीओश्चउट्विहा पण्णत्ताओ तंजहा चम्मपंखीओ जाव सेत्तं खहयरीओ सेत्तं तिरिक्खजोणित्थियाओ / से किं तं मणु स्सित्थियाओ 2 तिविधाओ पण्णताओ तंजहा कम्मभूमियाओ अकम्म भूमियाओ अंतरदीवियाओ।से किं तं अंतरदीवियाओ२अट्ठावीसतिविधाओपण्णत्ता तंजहा एगुरुईओ आभीसाओ जाव सुद्धदंताओ सेत्तं अंतरदीवे | से किं तं अकम्मभूमियाओ 2 तीसतिविधाओ पण्णत्ता तंजहा पंचसु हेमवएसुपंचसु एरण्णवएसुपंचसुहरिवासेसुपंचसु रम्मगवासेसु पंचसुदेवकुरुसु पंचसु उत्तरकुरुसुसेत्तं अकम्मभूमगमणुस्सीओ। से किं तं कम्मभूमियाओ२पण्णरसविधाओ पण्णत्ताओ तंजहा पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएसु पंचसु महाविदेहेसु सेत्तं कम्मभूमगमणुस्सीओ३/ (सेकिंतमित्यादि) अथ कास्ता स्वियः सूरिराह स्त्रियस्विविधाः प्रज्ञप्तास्तिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवस्त्रियश्च (सेकिंत-मित्यादि) तिर्यग्योनिस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो देवस्त्रियश्च (सेकिंत- भित्यादि) तिर्यग्यो निस्त्रियस्त्रिविधास्तद्यथा जलचर्यः स्थलचर्यः खचर्यश्च (सेकिंतमित्यादि) मनुष्यस्त्रियोऽपि त्रिविधास्तद्यथा कर्मभूमिका अकर्मभूमिका अन्तरद्वीपिकाश्च / कृष्यादिकर्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः भरतादिका पञ्चदशधा तत्र जाताः कर्मभूमिजा एवमकर्मभूमिजा नवरमकर्मभूमि गभूमिरित्यर्थः / देवकुर्वादिका त्रिंशद्विधा अन्तरे मध्ये समुद्रस्य द्वीपा येते तथा तेषु जाता आन्तरद्वीपास्त एवान्तरद्वीपिकाः। स्था०३ठा। से किं तं देवित्थियाओ 2 चउव्विहाओ पण्णत्ताओ तंजहा भवनवासिदेवित्थियाओवाणमंतरदेवित्थियाओजोतिसियदेवित्थियाओ वेमाणियदेवित्थियाओ से किंतं भवणवासिदेत्थियाओ 2 दसविधाओ पण्णत्ताओ तंजहा असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थणितकुमार भवणवासिदेवित्थियाओ सेत्तं भवणवा सिदेवित्थियाओ।से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ अट्ठविधाओ पण्णत्ताओ तंजहा पिसायवाणमंतरदेवित्थियाओ जाव सेत्तं वाणमंतरदेवित्थियाओ।से किं जोतिसियदेवित्थियाओ२पंचविहाओ पण्णत्ताओ तंजहा चंदविमाणजोति सियदेवित्थियाओ सूरविमाणदेवित्थियाओ गहविमाण देवित्थियाओ णखत्तविमाणदेवित्थियाओताराविमाणजोतिसियदेवित्थियाओ सेत्तं जोतिसियदेवित्थियाओ। से किं तं वेमा-णियदेवित्थियाओ२ दुविहाओ पण्णत्ताओतंजहा सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ ईसाणकप्पवेमा-णियदेवित्थियाओ सेत्तं वेमाणित्थियाओ।जी. २प्रति। (सुगमत्वाट्टीका न व्याख्याता) स्त्रियो देवमानुषभेदाद द्विविधा एताश्च सचित्ताः अचित्तास्तु प्रस्तरले प्याचित्रादिनिर्मिताः / ध.२ अधिः / शब्देन वयसा च स्त्री त्रिविधा मन्दशब्दा मध्यमशब्दा तीव्र शब्दा चेति / वय Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 624 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी सातुस्थविरा मध्यमा तरुणी चेति। पुनरेकैका त्रिविधा अपद्रावणभर्तृका प्रोषितभर्तृका स्वाधीनभर्तृका चेति। वृ.१ उ. / मुग्धा मध्या प्रौढा चेति। उत्त. 16 अ / "इत्थीओ दुविधा अदुगुंछिता य बंभणखत्तियवेसिसुद्दियदुगंछिता संभोईय अक्खरिया ओ अहवा णडवरुडादियाओ असंभोइअइत्थियाओ एताओ वि दुविधा सपंग्गिहा अपरिग्गहाओ य / नि० चू०१६ अ॥ चत्तारि धूमसिहाओपण्णत्ताओ तंजहावामा णाममेगा वामावत्ता || एवामेव चत्तारिस्थियाओ पण्णत्ता तंजहा वामा णाममेगा वामावत्ता / / चत्तारि अग्गिसिहाओ पण्णत्ताओ तंजहा वामाणाममेगावामावत्ता हा एवामेव चत्तारि त्थियाओपण्णत्ताओ तंजहा वामा णाममेगा वामावत्ता 4 चत्तारि वायमंडलिया पण्णत्ताओ तंजहा वामाणाममेगा वामावत्ता / 4 / एवामेव चत्तारि त्थियाओ पण्णत्ताओ तंजहावामा णाममेगा वामावत्ता / 4 / धूमशिखा वामा वामपार्श्ववर्तितयाऽनुकूलस्वभावतया वा वामत एवावर्तते या तथा चलनात्सा वामावर्त्ता 10 स्त्रीपुरुषवद् व्याख्येया कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धुमशिखादिदृष्टान्तानां स्त्रीदाष्टान्तिके शब्दासाधर्म्यणोपपन्नतरत्वाद्भेदेनोपादानमिति 11 एवम-ग्निशिखापि 12 वातमण्डालिका मण्डलेनोलप्रवृत्तो वायुरिति इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्याभिप्रायेण तासु धूमशिखादृष्टान्ततयोपन्यास इति। उक्त"चवला मइलणसीला, सिणेहपरिपूरिया वियावेइ। दीवयसिहि व्व महिला, लद्धप्पसरा भयं देइ ति॥ चत्तारि कूडागारसालाओ पण्णत्ताओ तंजहा गुत्ता णा मेगा गुत्तदुवारा, गुत्ताणामेगा अगुत्तदुवारा, अगुत्ता णा मेगा गुत्तदुवारा, अगुत्ताणामेगा अगुत्तदुवारा। एवामेव चत्तारित्थीओ पण्णत्ताओ तंजहा गुत्ता णामेगा गुत्तिं दिया गुत्ताणामेगा अगुत्तिंदिया।४|| तथा कूटस्येव आकारो यस्याः शालायाः गृहविशेषस्य सा तथा। अय च स्त्रीलिङ्ग दृष्टान्तः स्त्रीलक्षणदार्टाकार्थसा धर्म्यवशात्तत्र गुप्ता परिवारा वृता गहान्तर्गता वस्त्राच्छादिताङ्गा गूढस्वभावा वा। गुप्तेन्द्रिया तु निगृहीतानौचित्यप्रवृत्तन्द्रिया एवं शेषा भङ्गा ऊह्याः। स्था० 4 ठा० / पधिनी चित्रिणी हस्तिनी शखिनीति चतुर्विधाः स्त्रिय इति / उत्तः / १६अ। एतासांलक्षाणादिकम् -'पधिनी चित्रिणी चैव शङ्खिनी हस्तिनी तथा। शशो मृगो वृषोऽश्वश्च स्त्री पुंसोर्जाति लक्षणम् / भवति कमलनेत्रा नासिकाऔद्रगन्धा आवरलकु चयुग्मा चारुके शी कृशाङ्गी / मृदुवचनसुशीला गीतवाद्यानुरक्ता सकलतनुसुवेशा पद्मनी पद्मगन्धा 1 भवति रतिरसज्ञा नातिखर्वा न दीर्घा तिलकुसुमुनासा स्निग्धनीलोत्पलाक्षी / धनकठिनकुचाद्या सुन्दरी वद्धलीला सकलगुणसमेता चित्रिणी चित्रवक्रा / दीर्घातिदीर्घनया वरसुन्दरी या कामोपभोगरसिका गुणशीलयुक्ता / रेखात्रयेण च विभूषितकण्ठदेशा सम्भोगकेलिरसिका किलशतिनी सा।३।स्थूलाधरा स्थूल नितम्बभागा स्थूलाङ्गुली स्थूलकुचा सुशीला / कामोत्सुका गाढरतिप्रिया या नितम्बखर्वा करिणी मता सा 4 शशके पद्मिनी तुष्टा चित्रिणी रमते मृगे। वृषभे शशिनी तुष्टा हिस्तनी रमते हये।५ पद्मिनी पद्मगन्धा च मीनगन्धा | च चित्रिणी / शाकिनी क्षारगन्धा च मदगन्धा च हस्तिनी / 6 वाच० स्त्रीणामुष्णस्वभावत्वं "गिमहो इत्थित्ति' ग्रीष्मास्त्री भवतीति। औप० // (3) स्त्रीणां स्वभावादिपरिज्ञानस्यावश्यकता तत्कृत्यवर्णश्च तत्र स्वभावपरिज्ञानं यथा / / जस्सिस्थिओ परिणाया सव्वकम्मावहाओ से दक्खू / / यस्य स्त्रियः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता भवन्ति / सर्व कविहन्तीति सर्वकर्मावहाः सर्वपापोपादानभूताः स एवा द्राक्षीत्स एव यथावस्थितं संसारस्वभावं ज्ञातवानिति / एतदुक्तं भवति स्वीस्वभावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् पर-मार्थदर्श्वभूदिति। आचा००१ श्रु०३अ०१ऊ। स्त्रीणां स्वभावादिपरिज्ञानञ्च निर्युक्तौ यथा। सुसमत्थावमच्छा, कीरंति अप्पसत्तिया पुरिसा।। दीसंतीसूरवादी, णारीवसगा ण ते सूरा / / 6 / / परानीकविजयादौ सुष्टुसमर्था अपि सन्तः पुरुषाः स्त्रीभिरा-त्मवर्शकृता असमर्था भूक्षेपमात्रभीरवः क्रियन्तेऽल्पसात्विकाः स्त्रीणामपि पादपतनादिचाटु करणेन निःसाराः क्रियन्ते / तथा दृश्यन्ते प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्ते। शूरमात्मानं वदितुं शीलं येषां ते शूर-वादिनोऽपि नारीवशगाःसन्तो दीनतां गताः एवंभूताश्च न ते शूरा इति / तस्मात् स्थितमेतदविश्वास्याः स्त्रिय इति। उक्तंचाको वीससेज्ज तासिं, कतिवय भरियाण दुचियहाणे / खणरत्त विरत्तेणं, धिरत्थु इत्थीण हिययाणं // 10 अण्णं भणंति पुरओ, अण्णं पासेइ विजमाणीओ। अन्नं च तासिं हियए, जं च खमं तं करिंति पुणो ||2|| को एयाणं णाहिए, वेत्तलया गुम्मगुविलहिययाणं / भावं भग्गासाणं, तत्थुप्पन्नं भणंतीणं / / 3 / / महिलायरत्तमेत्ता, उच्छुखंडंच सक्करा चेव / सा पुण विस्तमित्ता, जिंब कूरे विसे सेति / / 4 / / महिला दिज्ज करेज व, मारिज वसं ठविज्जवमणुस्सांतुट्ठा जीवाविजा, अहवरणर कं च पावेज्जा / / 5|| ण वि रक्खं तेसु कयं, ण वि णेहं ण वि य दाण सम्माणं / / ण कुलं ण पुचयं आय-तं च शीलं महिलियाओ।६मा वी संभह ताणं, महिलाहिययाण कवडमरियाणं / णिपणेह निद्दयाणं, अलियवयणजपणरयाणं / / 7 / / मारेइ जियंतं पि हु मयं पि अणुमरइ काइ भत्तारं / / विसहरगइवचरियं, वंकवियंकं महेलाणं / / गंगाए वालुयं सा-गरे जलं हिमवओ य परिमाणं / / जाणंति बुद्धिमंता, महिला हिययं ण जाणंति // 9 // रोवावतिरुवंतिय, अलियं जपंति पत्तियावंति // कावडेणय खंति विसं, मरंति ण य जंति सब्भाव।।१०। चिंतिति कञ्जमण्णं, अण्णं संठवइ भासई अण्णं / आढवइ कुणइ अण्णं, माइणग्गूणियडि सारो॥११० असयारंभाण तहा, सव्वेसिं लोगगरहणिज्जाण / परलोगवैरियाणं, कारणयं चेय इत्थीओ।१२। अहवा को जुवईणं, जाणइ चरियं सहावकुडिलाण / दोसाण आगरो चिय, जणे सरीरे वसइ का सा / / 13 / 0 मूलं दुचरियाणं, हवइ उ णरयस्स वत्तिणी विवुला / मोक्खस्स महाविग्धं, वजेयव्या सया नारी // 14|| धण्णा ते वरपुरिसा, जे चिय मोत्तूम णिययजुवईओ / पव्वइया कयनियमा, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता // 15 // " अधुना यादृक्षःशूरो भवति तादृशं दर्शयितुमाह। धम्मम्मि जो दढमई,सोःसूरो सत्तिओ य वीरो य॥ णहु धम्मणिरुस्साहो, पुरिसो सूरो सुबलिओ य|६|| Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 625 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्था धर्मे श्रुतचारित्राख्ये दृढा निश्चला मतिर्यस्य स तथा एवंभूतः स इन्द्रियनोइन्द्रियारिजयाच्छूरस्तथा सात्विको महासत्वो-पेतोऽसावेव वीरः स्वकर्मदारुणसमर्थोऽसावेवेति किमिति यतो नैव धर्मनिरुत्साहः सदनुष्ठाननिरुद्यमः सत्पुरुषाचीर्णमार्गपरिभ्रष्टः पुरुषः सुष्ठ बलवानपिशूरो भवतीति॥ एतानेव दोषान् पुरुषसंबन्धेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह। एते चेव य दोसा, पुरिससमाए विइत्थियाणं पि। तम्हाण अप्पमाओ, विरागमग्गंमितासिं तु ||63|| ये प्राक् शीलप्रध्वंसादयः स्त्रीपरिचयादिभ्यः पुरुषाणामभिहिता एत एव न न्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समयः संबन्धस्तस्मिन् वीणामपि यस्माद्दोषा भवन्ति तस्मात्तासामपि विरागमार्गे प्रवृत्तानां पुरुषपरिचयादिपरिहारलक्षणोऽप्रमाद एव श्रेयानिति! स्त्रीपरिज्ञाध्ययने / च विस्तरेण स्वापरिज्ञानम्प्रतिपादितम् तद्यथाजे मायरं च पियरं च, विप्पजहा य पुथ्वसंजोगं। एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेहुणो विवित्तेसुशा यः कश्चिदुत्तमसत्त्वो मातरं पितरंजननी जनयितारमेत-द्रहणादन्यदपि भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोग तथा श्वशूश्वशुरादिकं पश्चात्संयोगश्च विप्रहाय त्यकूत्वा चकारौ समुचयार्थी एको मातापित्राद्यभिष्वङ्ग वर्जितः कषायरहितोवा तथा सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रैः स्वस्मै वा हितः स्वहितः परमार्थानुष्ठानविधायी चरिष्यामि संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञः। तामेव प्रतिज्ञां सर्वप्रधानभूतां लेशतो दर्शयति आरतमुपरतं मैथुनं कामामिलाषो यस्यासावारतमैथुनस्तदेवं भूतो विविक्तेषु स्त्रीपशुपण्डकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुस्थानेनोत्थाय विहरतीति क्वचित्पाठे (विवित्तेसित्ति) विविक्तं स्त्रीपण्डकाद्विरहितं स्थानं संयमा-नुपरोध्येषितुं शीलमस्य तथेति / तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधर्यद्भवत्यविवेकिस्त्रीजनात्तद्दर्शयितुमाह - सुहमे णं तं परक्कम्म, छन्नपएण इथिओ मंदा। उवायं पिता उजाणंसु, जहा लिस्संति मिक्खुणो एगे // 2 // तं महापुरुषं साधु सुक्ष्मेणापरकार्यव्यपदेशभूतेन छन्नपदेनेति छद्मना कपटजालेन पराक्रम्य तत्समीपमागत्य यदि वा पराक्रम्येति शीलस्खलनयोग्यतापत्या अभिभूय काः स्त्रियः कूलवा-लकादीनामिव मागधगणिकाद्या नानाविधकंपटशतकरणदक्षा विविधविब्बोकवत्यो भावमन्दाः कामोद्रेकविधायितया सदस-द्विवेकविकलाः समीपमागत्य शीलात्ध्वंसयन्ति। एतदुक्तं भवति भ्रातृपुत्रव्यपदेशेन साधुसमीपमागत्य संयमाद्भशयन्ति तथा चोक्तम्। "पियसुत्ते भाइकिडगा, णत्तूच किडगा यसयणकिडगा य॥ एते जोव्वणकिडगा, पच्छन्नपइमहिलियाणं" यदि वा छन्नपदेनेति गुप्ताभिमानेन / तद्यथा। "काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषुमिथ्या न भाषामि विशालिनेत्रे, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु" इत्यादि / ताः स्त्रियो मायाप्रधानाः प्रताणोपायमपि जानन्त्युत्पन्नप्रतिभतया विदन्ति। पाठान्तरं वा ज्ञातवत्यः यथा श्लिष्यन्ते विवेकिनोऽपि साधव एके तथाविधकर्मोदयात्तासु सङ्ग मुपयान्ति॥ तानेव सुक्ष्मप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाहपासे भिसं णिसीयंति, अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिंति। कायं अहेवि दंसंति, बाहू उद्धठु कक्खमणुव्वज्जे ||3|| पार्श्वे समीपे भृशमत्यर्थमुरः पीडमतिरोहमाविष्कुर्वत्यो निषीदन्ति विश्रम्भमापादयितुमुपविशन्तीति / तथा कामं पुष्णातीति पोषं कामोत्काचकारि शोभनमित्यर्थः / तच तद्वस्त्रं तदभीक्षणमनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन परिदधति स्वाभिलाषमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निबधन्तीति। तथाऽधःकायमूर्वादिकमनङ्गोद्दीपनाय दर्शयन्ति प्रकटयन्ति तथा बाहुमुद्धृत्य कक्षामादाऽनुकूलं साध्वभिमुखं व्रजेत् गच्छेत् संभावनायां लिङ् संभाव्यतेएतदनङ्गप्रत्यङ्गसंदर्शकत्वं स्त्रीणामिति // 3 // अपिचसयणासणेहिं जोगेहिं, इथिओ एगता णिमंतंति॥ एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि |4|| शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यङ्कादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनमासन्दकादीत्येवमादिना योग्येनोपभोगार्हण कालोचितेन स्त्रियो योषित एकदेति विविक्तदेशकालादौ निमन्त्रयन्त्यभ्युपगमं ग्राहयन्ति। इदमुक्तं भवति / शयनासना-धुपभोग प्रति साधुं प्रार्थयन्ति / एतानेव शयनासननिमन्त्रणरूपान् स साधुर्विदितवेद्यः परमार्थदर्शी जानीयादवबुध्येत / स्त्री-संबन्धिकारिणः पाशयन्ति बघ्नन्तीति पाशा स्तान्विरूपरूपान् नानाप्रकारानिति / इदमुक्तं भवति / स्त्रियो ह्यासन्नगामिन्यो भवन्ति। तथाचोक्तं। "अंबं वा निबं वा, अज्झासगुणेन आरुहाइ वल्ली। एवं इत्थी तो वि, जं आसन्नं तमिच्छति" १तदेवं भूताः स्त्रियो ज्ञात्वा नताभिः सार्ध साधुः सङ्गं कुर्याद्यतस्तदुपचारादिकः सङ्गोदुष्पहिार्यो भवति। तदुक्तं। "जं इच्छसि घेत्तुंजे, पुधितं आमिसेण गिण्हाहि। आमिसपासनिबद्धो, काहिएकजं अकजं वा / / 2 / / 4 / / किञ्च - नो तासु चक्खु संधेजा, नो वि य साहसं सममिजाणे / / णो सहियं पि विहरेजा, एवमप्पासु रक्खिओ होइ / / 1 / / नो नैव तासु शयनासनोपमन्त्रणपाशावपाशिकासु स्वीषु चक्षुर्नेत्रं संदध्यात्संधयेद्वा न तदृष्टौ स्वदृष्टिं निवेशयेत् / सति च प्रयोजने ईषदवज्ञया निरीक्षेत / तथाचोक्तं / "कार्ये पीषन्मतिमानिरीक्षते योषिदङ्गमस्थिरया। अस्निग्धया दशाऽवज्ञया ह्याकुपितोपि कुपित इव ||1|| तथा नापि च साहसमकार्यकरणं तत्प्रार्थनया समनुजानीयात्प्रतिपद्येत / तथा ह्यसति साहसमेतत्संग्रामावतरणवद्यन्नरकपातादिविपाकवेदिनोपिसाधोोषिदासजनमिति। तथा नैव स्त्रीभिः सार्ध ग्रामादौ विहरेत् गच्छेत् / अपिशब्दान्न ताभिः सार्ध विविक्तासनो भवेद्यतो महापापस्थानमेतद्यतीनां यत् स्त्रीभिः सहसाङ्गत्यमिति / तथाचोक्तम् "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् // बलवानिन्द्रियग्रामः पण्डितोप्यत्र मुह्याति ||1|| एवमनेन स्त्रीसङ्ग वर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति / यतः सर्वापायानां स्त्रीसंबन्धः कारणमतः स्वहितार्थी तत्सङ्ग दूरतः परिहरेदिति / / 5 / / कथं चैताः पाशा इव पाशिका इत्याह। आमंतिय उस्सविय, भिक्खुआयसा निमंतंति।। एताणि चेव से जाणे, सहाणि विरूवरूवाणि ||6|| स्त्रियो हि स्वभावेनैवाकर्तव्यप्रवणाः साधुमामन्त्रय यथाहममुकस्यां वेलायां भवदन्तिकमागमिष्यामीत्येवं संकेतं ग्राहयित्वा तथा (उस्सवियत्ति) संस्थाप्योचावचैर्विश्रम्भजनकैरालापैर्विश्रम्भे पातयित्वा पुनर कार्य करणायात्मना निमन्त्रयन्त्या Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 626 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इत्थी त्मनोपभोगेन साधुमभ्युपगमं कारयन्तिा यदि वा साधोर्भयाप-हरणार्थ ता एव योषितःप्रोचुस्तद्यथा भरिमामन्त्र्यापृच्छ-याहमिहायाता तथा संस्थाप्य भोजनपदधावनशयनादिकया क्रिययोपचर्य ततस्तवान्तिकमागतेत्यतो भवता सर्वा मद्भर्तृज-नितामाशङ्का परित्यज्य निर्भयेन भाव्य, मित्येवमादिकै वचो-भिर्विश्रम्भमुत्पाद्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ते। युष्मदीयमिदं शरीरकं यादृक्षस्य क्षोदीयसो गरीयसो वा कार्यस्य क्षमं तत्रैव निमज्जतामित्येवमुपप्रलोभयन्ति / स च भिक्षुरवगतपरमार्थएतानेव विरूपरूपान्नानाप्रकारान् शब्दादीन् विषयान् तत्स्वरूप-पनिरूपणतो ज्ञपरिज्ञया जानीयाद्यथैते स्त्रीसंसर्गापादिताः शब्दादयो विषयादुर्गातिगमनैकहेतवः सन्मार्गिलारूपा इत्येवमवबुध्येत। यथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तद्विपाकागमने परिहरेदिति / 6 / / (4) स्त्रीसम्बन्धे दोषा यथामणबंधणेहिं णेगेहि, कलुण विणीय मुवगसिताणं / / अदु मंजुलाई भासंति, आणवयंति भिन्नकहाहि / / 7 / / मनो बध्येत यैस्तानि मनोबन्धनानि मजुलालापसिग्धावलोकनाङ्ग प्रत्यङ्गप्रत्यङ्गप्रकटनादीनि / तथाचोक्तं / "णाहपियकं तसामियदतियजियाओ तुम मह पिओ त्तिा जीएजीयामि अहं पहवसितं मे शरीरस्य ||शा इत्यादिभिरनेकैः प्रपञ्चैः करुणालापविनयपूर्वकम् (उवगसिताणंति) उपसंश्लिप्य समीपमागत्याऽथ तदनन्तरं मञ्जुलानि पेशलानि विश्रम्भ-जनकानि कामोत्काचकानि वा भाषन्ते / तदुक्तं "मितमहुररिभय जंपुल्ल एहि इसीकडक्खहसिएहिं। सविगारेहि व रागं हिययं पि हियं मयत्थीए शा तथा भिन्नकथाभी रहस्यालापैमैथुनसंबद्धैर्वचोभिः साधोश्चित्तमादाय तमकार्यकरणं प्रत्याज्ञाप-यन्ति प्रवर्तयन्ति स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्मकरवदाज्ञां कारयन्तीति।।७। अपिचसीहं जहा च कुणिमेणं, निब्भयमेगचरंति पासेणं / / एवं थियाउ बंधंति, संवुडं एगतियमणगारं / / 8 / / यथेति दष्टान्तोपदर्शनार्थे / यथा बन्धनविधिज्ञा सिंह पिशि तादिना मिषेणोपप्रलोभ्य निर्भयं गतभीकं निर्भयत्वादेवैकचरं पाशेन गलयन्त्रादिना बधन्ति बध्वा त्त बहुप्रकारं कदर्थयन्त्येवं स्त्रियो नानाविधैरुपायैः पेशलभाषणादिभिः (एगतियंति) कंचन तथाविधमनगारं साधु संवृतमपि मनोवाक्कायगुप्तमपि बधन्ति स्ववशं कुर्वन्तीति। संवृतग्रहणंच स्त्रीणां सामोपदर्शनार्थम्यथाहि। संवृतोपि ताभि बंध्यते किंपुनरपरोऽसंवृत इति।।८।। किञ्च। अह तत्थ पुणो णमयंती, रहकारो व णेमि अणुपुष्वी।। बद्धे मिए व पासेणं,फंदेते विण मुच्चए ताहो ||9|| अथेति स्ववशीकरणादनन्तरं पुनस्तत्र स्वाभिप्रेते वस्तुनि नमयन्ति प्रहूं कुर्वन्ति। यथा रथकारोवार्धकिर्नेमिकाष्ठं चक्रबारभ्रमिरूपमानुपूर्व्या नमयत्येवंता अपि साधुंस्वकार्यानुकूल्ये प्रवर्तयन्ति। सच साधुर्मुगवत् / पाशेन बद्धो मोक्षार्थ स्पन्दमानोपिततः पाशान्न मुच्यत इति // 9 // किश्च / अह सेणु तप्पई पच्छा, भोचा पायसं च विसमिस्सं / / एवं विवेगमादाय, संवासोन विकप्पए दविए।।१०।। अथासौ साधुः स्त्रीपाशावबद्धो मृगवत् कूटके पतितः सन् कुटुम्बकृते अहर्निशं क्लिश्यमानः पश्चादनुतप्यते। तथाहि गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं संभाव्यते / तद्यथा। "कोधाय ओको समवित्तु कोहो वणाहिं काहो विजउ वित्तको उग्घाकउ पहियउ परिणीयउ कोवकुमारओ पडियतो जीवखडप्पकेहि परबंधइ पवेह भारओ" || तथा "यन्मया परिजन स्यार्थेकृतं कर्म सुदारुणम्। एकाकी तेन दह्येहं गतास्ते फलभागिनः" |1|| इत्येवं बहुप्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बकूटके पतिता अनुतप्यन्ते। अमुमेवा) दृष्टान्तेन स्पष्टयति / यथा कश्चिद्विषमिश्र भोजनं भुक्त्वा पश्चात्तत्र कृतावेगाकुलितोऽनुतप्यते। तद्यथाकिमेतन्मया पापेन साम्प्रतेक्षिणा सुखरसिकतया विपाककटुकमेवंभूतं भोजनमास्वादितमिति। एवमसावपि पुत्रपौत्रदुहितृजामातृस्वसृभातृव्य भागिने यादीनां भोजनपरिधानपरिणयनालङ्कारजातमृतकर्म तद्व्याधिचिकित्साचिन्ताकुलोपगतस्वशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहर्निशं / तद्व्यापारव्याकुलितमतिः / परितप्यते / तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानस्यादाय प्राप्य विवेकमिति वा क्वचित्पाठस्तद्विपार्क विवेकं चादाय गृहीत्वा स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिनीभिः सार्धं संवासो वसतिरेकत्र न कल्प्यते न नुद्यते कस्मिन्द्रव्यभूते मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ। यतस्ताभिः सार्ध संवासोऽवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्ठान-विघातकारीति॥१०॥ स्त्रीसंबन्धदोषानुपदोपसंहरन्नाह। तम्हा उ वञ्जए इत्थी, विसलित्तं च कंटंग नचा। उए कुलाणि वसवत्ती, आघाते ण से वि णिग्गंथे||११|| यस्माद्विपाककटुः स्त्रीभिः सह संपर्कस्तस्मात्कारणात् स्त्रियो वर्जयेत्। तुशब्दात्तदालापमपिन कुर्यात्। किंतदित्याह। विषोपलिप्तं कण्टकमिव ज्ञात्वाऽवगम्य स्त्रियं वर्जयेदिति। अपिच। विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्रः सन्ननर्थमापादयेत् स्त्रियस्तु स्मरणादपि / तदुक्तं / "विषस्य विषयाणां च दूरम-त्यन्तमन्तरम् / उपयुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि" ||शा तथा 'वरिविसखटुमं विसय, सुहुइक्क सुविसिणमरंति // विसयामिसपुणघाहिया, णरणरएहिं पडंति'' ||1|| तथौजएकोऽसहायः सन् कुलानि गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवर्ती तन्नि-र्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो धर्ममाख्याति योऽसावपि न निर्ग्रन्थो न सम्यक् प्रव्र जितो निषिद्धाचरणसे वनादवश्यं तत्रापायसंभवादिति / यदा पुनः काचित्कुतश्चिन्निमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भवेत्तदा परिसहायः साध्वभावे एकाक्यापि गत्थाऽपरस्त्रीवृन्दमध्यगतायाः पुरुषसमन्विताया वा स्त्रीनिन्दा विषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति॥११॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोर्थः सुगमो भवतीत्यभिप्रायवानाह। जे एय उंछमणुगिद्धा, अन्नयरा हुंति कुसीलाणं // सुतवस्सिए वि से भिक्खू नो विहरे सहाणमित्थीसु / / 12 / / . ये मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः सांप्रतेक्षिण एतदनन्तरोक्तम् (उछ ति) जुगुप्सनीयं गर्दा तदत्र स्त्रीसंबन्धादिकमेकाकी स्त्रीधर्मकथनादिकं वा द्रष्टव्यं / तदनु तत्प्रति ये गृद्धा अध्युपपन्ना मूर्छि तास्तेहि कु शीलानां प्रार्थस्थावसन्नकु शीलसंसक्तयथाच्छदरूपाणामन्यतरा भवन्ति यदि वा काथिकप्पस्यक संप्रसार कमार्मक रूपाणां वा कु शीलानामन्यतरा भवन्ति तन्मध्यवर्तिनस्तेपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः / यत एवमतः सुतपस्च्यिपि विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोपि भिक्षुः साधुरात्महितमिच्छ - Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 627 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी नस्त्रीभिः समाधिपरिपन्थिनीभिः सहन विहरेन्न क्वचिद्गच्छेन्नापि संतिष्ठेत सत्यन्यास्मिन् दातव्येऽन्य-द्दद्यात्ततस्ते स्त्रीदोषाशङ्किनो भवेयुर्यथेयं तृतीयार्थे सप्तमी। णमिति वाक्यालंकारे। ज्वलिता-ङ्गापुजवदूरतः दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति / निदर्शनमत्र यथा कथाचिद्वध्वा स्त्रियो वर्जयेदिति भावः // 11 // ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षणैकगतचित्तया पतिश्वशुरयोर्भो जनार्थमु(५) कतमाभिः पुनः स्त्रीभिः सार्धं न विहर्तव्य पविष्टयोस्तण्डुला इति कृत्वा राइकाः संस्कृत्य दत्तास्ततोऽसौ मित्येतदाशक्याह॥ श्वशुरेणोपलक्षिता निजपतिना कुद्धेन ता डिता अन्यपुरुषगतअविधूयराहि सुण्हाहिं, धातीहिं अदुव दासीहिं।। चित्तेत्याशङ्ग्य स्वगृहा-निर्घाटितेति॥१५| महतीहि वा कुमारीहि, संथवं से न कुज्जा अणगारे ||13|| कुव्वंति संथवं ताहिं, पब्मट्ठा समाहिजोगेहिं॥ अपिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। (धूयराहिति) दुहितृभिरपि सार्धन तम्हा समणा ण समें-ति आयहियाएसण्णिसेज्जाओ॥१६॥ विहरेत्तथा स्नुषाः सुतभार्यास्ताभिरपि सार्धं न विविक्तास नादौ ताभिः स्त्रीभिः सन्मार्गार्गलाभिः सह संस्तवं तद्गृहगमनास्थातव्यम् / तथा धात्र्यः पञ्चप्रकाराः स्तन्यदायिन्यो जननीकल्पा लापदानसंप्रेक्षणादिरूपं परिचयं तयाविधमोहोदयात्कुर्वन्ति विदधति। स्ताभिश्च साकंन स्थेयम् / अथवा सतां तावदपरा योषितो या अप्येता किंभूताः प्रकर्षेण भ्रष्टाः स्खलिताः समाधि योगेभ्यः समाधिर्धर्मध्यानं दास्यो घटयोषितः सर्वापसदास्ताभिरपि सह संपर्क परिहरेत् / तथा तदर्थ तत्प्रधाना वा योगाः मनोवाका-यत्र्यापारास्तेभ्यः प्रच्युताः महतीभिः कुमारीभिर्वाशब्दाल्लध्वीभिश्च साधु संस्तवं परिचय शीतलविहारिण इति। यस्मात् स्त्रीसंस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति प्रत्त्यासत्तिरूपंसोऽनगारो न कुर्यादिति / यद्यपि तस्यानगारस्य तस्यां तस्मात्कारणात् श्रमणाः सस्साधवो (णसमेंति) न गच्छन्ति / सच्छो दुहितरि स्नुषादौ वा न चित्तान्यथात्वमुत्पद्यते तथापि च तत्र भनाः सुखो त्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निषद्या इव निषधा स्त्रीभिः कृता विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्त-च्छङ्कानिरासार्थ स्त्री संपर्कः माया यदि वा स्त्रीवसतिरिति आत्महिताय स्वहितं मन्यमानाः एतच परिहर्तव्य इति॥१३|| स्त्रीसंबन्धपरिहरण तासामप्यहिकामुष्मिकापायपरिहाराद्धित-मिति / अपरस्य शङ्का यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाह / / क्वचित्पश्चार्द्धमेवं पठ्यते / / तत्प्राह 'समणाउ जहाहि अहिताओ सन्निसेजाओ" अयमस्यार्थः यस्मात्स्त्रीसंबन्धो-ऽनर्थाय भवति तस्मात् अदुणा इणं च सुहीणं वा, अप्पियं ददव एगता होति।। हे श्रमण साधो तु शब्दो विशेषणार्थः विशेषेण सन्निषद्या गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण पोसणे मणुस्सोसि ||4|| स्त्रीवसतिस्तत्कृतोपचाररूपा वा माया आत्महितोद्धेतो हाहि विविक्तयोषिता सार्धमनगारमयैकदा दृष्ट्वा योषिज्जातीनां सुहृदां वा | परित्यजेति // 16 // अप्रियं चित्तदुःखासिका भवत्येवं च ते समाशङ्करन्यथा सत्त्वाः प्राणिन किं केचनाभ्युपगम्यापि प्रवज्यायां स्त्रीसम्बन्धं / इच्छामदनकामैगुद्धा अध्युपपन्नास्तथाटेवंभूतोऽप्ययं श्रमणः स्त्रीवदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्तनिजव्यापारोऽनया सार्ध कुर्युर्यनैवमुच्यते ओमित्याह / / निहीकस्तिष्ठति। तदुक्तम् / मुण्डं शिरोवदनमेतदनिष्ठगन्धि, भिक्षाटनेन बहवे गिहाई अवहट्टु, मिस्सीभावं पत्थुया य एगे। भरणं वहतोदरस्य। गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि मनसो धुवमग्गमेव पवयं-ति वाया वीरियं कुसीलाणं / / 17 / / मदनेऽस्ति वाञ्छा // 1|| तथातिक्रोधा-ध्मातमानसाश्चैवमूचुर्यथा रक्षणं बहवः केचन गृहाण्यपहृत्य परित्यज्य पुनस्तथा-विधमोहोदयापोषणं चेति विगृह्य समाहारद्वन्द्वः तस्मिन् रक्षणपोषणे सदादरं कुरु / न्मिश्रीभाव इति द्रव्यलिङ्ग मात्रसद्भावाद्भावतस्तु गृहस्थसमकल्पा यतस्त्वमस्या मनुष्योऽसि मनुष्यो वर्तसे यदि वा परंवयमस्या इत्येवंभूता मिश्रीभावं प्रस्तुताः समनुप्राप्ता न गृहस्था एकान्ततो नापि रक्षणपोषणव्यापृतास्त्वमेव मनुष्यो वर्तसे यतस्त्वयैव सार्द्धमि प्रव्रजितास्तदेवंभूता अपि सन्तोध्रवो मोक्षः संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति यमेकाकिन्य हर्निशंपरित्यक्तनिजव्यापारा तिष्ठतीति !|14|| तथाहि ते वक्तारोभवन्ति ययाऽयमेवा-स्मदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान् किंचान्यत्॥ तथा ह्यनेन प्रवृत्तानां प्रव्र-ज्यानिर्वहणं भवतीति तदेतत्कुशीलानां समणं पि दठु दासी-णं तत्थ वि ताव एगे कुप्पंति / / वाचाकृतं वीर्यं नानुष्ठानकृतम्। तथाहि-तेद्रव्यलिङ्गधारिणो वाङ्मात्रेणैव अदु भोयणेहि णत्थेहि, इत्थिदोससंकिणो होति / / 16 / / क्यं प्रव्रजिता इति ब्रुवते नतु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां श्राम्यतीति श्रमणः साधुः अंपिशब्दो भिन्नक्रमः / तमुदासीनमपि शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं वीर्यमस्तीति।।१७।। अपिच।। रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा श्रमणग्रहणं तपःखिन्नदे-होपलक्षणार्थ सुद्धं रवति परिसाए, अह रहस्सम्मि दुक्कडं करेंति। तत्रैवंभूतेऽपि विषयद्वेषिण्यपि साधौ तावदेके केचन रहस्यस्त्रीजल्प जाणंति य णं तहाविया, माइल्ले महासडेयं ति ||18|| नकृतदोषत्वात्कुप्यन्ति / यदि वा पाठान्तरं "समणं दणुदासीणं" सकुशीलो वाड्मात्रेणाविष्कृतीवर्यः पर्षदिव्यवस्थितो धर्मदेशनावसरे श्रमणं प्रव्रजन्तं उदासीनं परित्यक्तनिजव्यापारां स्त्रिया सह जल्पन्तं सत्यात्मानं शुद्धमपगतदोषमात्मानमात्मीया-नुष्ठानं वा रौति भाषते। दृष्टोपलभ्य तत्राप्येके केचन तावत् कुप्यन्ति किंपुनः कृतविकारमिति अथाऽनन्तरं रहस्येकान्ते दुष्कृतं पापं तत्कारणं वाऽसदनुष्ठानं करोति भावः / अथवा स्त्रीदोषाशङ्किनश्च ते भवन्ति ते चामी स्त्रीदोषाः विदधाति तच तस्यासदनुष्ठानं गोपायतोपि जानन्ति विदन्ति के भोजनैर्नानाविधैराहारैयस्तैः साध्वर्थमुप-कल्पितरेतदर्थमेव तथारूपमनुष्ठानं विदन्ती-ति तथाविदः इङ्गि ताकारकुशला संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमिहागच्छतीति। यदिवा भोजनैः निपुणास्तद्विद इत्यर्थः / यदि वा सर्वज्ञाः एतदुक्तं भवति। यद्यप्यपरः श्वशुरादीनांन्यस्तैरर्धदत्तैः सद्भिः सावधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता | कश्चिदकर्त्तव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति तत्परिज्ञाननैव Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 628 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी किं न पर्याप्त यदि वा मायावी महासठश्चायमित्येवं तथाविदस्ताद्विदो जानन्ति / तथाहि प्रच्छन्नकार्यकारी न मां कश्चिज्जानातीत्येवं रागान्धो मन्यते अथ चतं तद्विदो वदन्ति। तथाचोक्तं। "नयलोणं लोणिज्जइणय ओपिज्जइ वयं च तेल्लं वा / कि हसक्का वंचे उअत्ता अणहूय कल्लाणो" ||शा 18 किंचान्यत्॥ सयं दुकडं च न वदति, आइहो विपकत्थति बाले। वेयाणु वीइमाकासी, चोइज्जतो गिलाइसे भुजो // 19|| स्वयमात्मना प्रच्छन्नं यदुष्कृतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो न वदति न कथयति यथाहमस्याऽकार्यस्य कारीति स च प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा परेणादिष्टश्चोदितोपि सन् बालोऽज्ञो रागद्वेषकलितो वा प्रकत्थते आत्मानं श्लाघमानोऽकार्यमपलपति वदति च यथाहमेवंभूतमकार्य कथं करिष्ये इत्येवं धाश्यत्प्रिक-त्थते। तथा वेदः पुंवेदोदयस्तस्यानुवीच्याऽऽनुकूल्यं मैथुनाभिलाषं तन्माकार्षीरित्येवं भूयः पुनश्चोद्यमानोऽसौ ग्लायति ग्लानि-मुपयात्यकर्णश्रुतं विधत्ते मर्मविद्धो वा सखेदमिव भाषते / तथा चोक्तम् / “संभाव्यमानपापोहमपापेनापि किं मया। निर्विष-स्यापि सर्पस्य, भृशमुद्विजते जन'' इति अपिच। उसिया विइत्थिपोसे सुपुरिसा इत्थिवेयखेदना। पण्णा समनितावेगे, नारीण वसं उवकसति / / 20 / / स्त्रियं पोषयन्तीति स्त्रीपोषका अनुष्ठानविशेषास्तेषूषिता व्यवस्थिता अपि पुरुषा मनुष्या भुक्तभोगिनोपीत्यर्थः स्त्रीवेदज्ञाः स्त्रीवेदोमायाप्रधान इत्येवं निपुणा अपि तथा प्रज्ञया औत्पत्ति-क्यादिबुध्या समन्विता युक्ता अप्येके महामोहान्धचेतसो नारीणां सम्यक् स्त्रीणां संसारावतरणवीथीनां वशं तदायत्ततामुपसामीप्येन कषन्ति व्रजन्ति यद्यत्ताः स्वप्रायमाना अपि कार्यमकार्य वा ब्रुवते तत्तत्कुर्व ते न पुनरेतज्जानन्ति यथैता एवं भूता भवन्तीति। तद्यथा "एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतो-विश्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति / तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीया ||1|| तथा "समुद्रवीचीव चलस्वभावाः संध्याभ्ररेखेव मुहुर्तरागाः / स्त्रियः कृतार्थाः पुरुष निरर्थक निष्पीडितालक्तकवत्त्यजन्ति // 2 // " अत्र च स्त्रीस्वभावपरिज्ञाने कथानकमिदम्। तद्यथैको युवा स्वगृहान्निर्गत्य वैशिकं कामशास्त्रमध्येतुं पाटलिपुत्रं प्रस्थितः / तदन्तरालेऽन्यतरग्रामवर्तिन्यैकयायोषिताऽभिहितस्तद्यथा सुकुमारपाणिपा-दशोभनाकृतिस्त्वंक्च प्रोऽसि तेनापि यथास्थितमेव तस्य कथितम्। तया चोक्तं वैशिकं 5. त्या मम मध्ये नागन्तव्यं तेनापि तथैवाभ्युपगतम् / अधीत्य चासौ मध्येनायातस्तया च स्नानभाजनादिना सम्यगुपचरितो विविधहावभावैश्वापहृतहृदयः संस्तां हस्तेन गृह्णाति ततस्तया महताशब्देन फूत्कृत्य जनागमनावसरे मस्तके वारिवर्द्धनिका प्रक्षिप्ता। ततोलोकस्य समाकुले एवमाचष्टे यथायं गले लग्नेनोदकेन मनाक् मृतःततो मयोदकेन सिक्त इति गते च लोके किं त्वया वैशिकशास्त्रोपदेशेन स्त्रीस्वभावानां किं परिज्ञातमित्येवं स्त्रीचरित्रंदुर्विज्ञेयमिति नात्रास्था कर्तव्येति तथाचोक्तम् / "हृद्यन्यद्वाच्यन्यत्कर्मण्यन्यत्पुरोध पृष्ठेऽन्यत्॥ अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां सर्वं किमप्यन्यत्" ||20|| साम्प्रतमिहलोक एव स्त्रीसम्बन्धविपाकं दर्शयितुमाह। अवि हत्थपादच्छेदाए, अदुवा बद्धमंस उक्कते। अविते य साभितावणानि, निब्भत्थिय खारसिंचणाइं च / / स्त्रीसंपर्को हि संसर्गिणां हस्तपादच्छेदनाय भवति / अपि संभावने संभाव्यत एतन्मोहातुराणां संबन्धाद्धस्तपादच्छेदादिकम् / अथवा बर्नमांसोत्कर्तनमपि तेजसाग्निनाऽभितापनानि स्त्रीसंबन्धिभिरुत्तेजितैराजपुरुषैर्भटित्रकाण्यपि क्रियन्ते या दारिकास्तथा वास्यादिना तक्षयित्वा क्षारोदकसेचनानि च प्रापयन्तीति॥२१॥ अपिचअदु कण्णणासछेदं, कंठच्छेदणं तितिक्खंति॥ इत्थ पावसंतत्ता, न य विंति पुणो न कार्हिति / / 2 / / अथ कर्णनासिकाच्छेदं तथा कण्ठच्छेदनं च तितिक्षन्ते स्वकृतदोषान्सहन्ते इत्येवं बहुविधां विडम्बनामस्मिन्नेव मानुषे च जन्मनि पापेन पापकर्मणा संतप्ता नरकातिरिक्तां वेदनामनुभवन्ती-ति / न च पुनरेतदेवं भूतमनुष्ठानं करिष्याम इति ब्रुवत इत्यवधारयन्तीति यावत्। तदेवमैहिकामुष्मिका दुःखविडम्बना अप्यङ्गीकुर्वन्ति न पुनस्तदकरणतया निवृत्तिं प्रतिपद्यन्त इति भावः / / 2 / / किंचान्यत् - सुतमेतमेवमेगेसिं, इत्थि वेदेति हु सुयक्खायं // एवं पितावदित्ताणं, अदुवा कम्मणा अवकरेंति / / 23|| श्रुतमुपलब्धंगुर्वादः सकाशाल्लोकतो वा एतदिति यत्-पूर्वमाख्यातम्। तद्यथा / दुर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः स्त्रीसंबन्ध विपाकस्तथा चलस्वभावाः / स्त्रियो दुष्परिचारा अदीर्धप्रेक्षिण्यः प्रकृत्या लध्व्य भवन्त्यात्मर्गीविताश्चेत्येवमेकेषां स्वा ख्यातं भवति लोकश्रुतिपरंपरया चिरंतनाख्यासु वा परिज्ञातंभवति / तथा स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्सबंन्धविपाकतश्च वेदयति ज्ञापयतीति स्त्रीवेदो वैशिकादिकं स्त्रीस्वभावाविर्भावकं शास्त्रमिति। तदुक्तम्। "दुर्ग्राह्य हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्ग-दुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते / चित्त पुष्करपत्रतोयतरलं नैकत्र संतिष्ठते नार्यो नाम विषाकुरैरिव लता दोषैः समं वर्धिता ||1|| अपिच / 'सुटु विजयासु सुठु वि, पियासु सुटु लद्धपसरासु / अडईसु माहि लियासु य, वीसंभो नेव कायब्वो // 1|| उज्झेउ अंगुलीसो, पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि / कामे त एण नारी, जेणन पत्ताइ दुःखाई॥शाअह एयाणं पगई सव्वस्त करेंति येमणस्साई। तस्स ण करेंति णवरं, जस्स अलं चेव कामेहिं / / 3 / / किंच कार्यमहं न करिष्यामीत्येवमुक्त्वापिवाचा (अदुवति) तथा पि कर्मणापि क्रिययाऽप कुर्वन्तीति विरूपमाचरन्ति / यदिवा ऽग्रतः प्रतिपाद्यापि शास्तुरेवापकुर्वन्तीति // 23 // सूत्रकार एवं तत्स्वरूपाविष्करणायाह / / अन्नं मणेण चिंतेति वाया अन्नं च कम्मणा अन्नं / / तम्हाणसद्दर्हि भिक्खू बहुमायाओ इत्थिओ ण चा ||24|| पातालोदरगम्भीरेण मनसाऽन्यचिन्तयन्ति तथा श्रुतमात्रपेशलया विपाकदारुणया वाचा अन्यद्भाषन्ते / तथा कर्मणानुष्ठाने मान्यन्निष्पादयन्ति यत एवं बहुमायाः स्त्रिय इति एवं ज्ञात्वा तस्मात्तासां भिक्षुः साधुन श्रद्दधीत तत्कृतया माययाऽऽत्मानं न प्रतारयेत् / दत्तावैशिकवत् / अत्र चैतत्कथानम् / दत्तावैशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोपि तां नेष्टवान् ततस्तयोक्तं मया कि दौर्भाग्यक लङ्काङ्कितया जीवन्त्या Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 629 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी प्रयोजनमहं त्वत्परित्यक्ताऽग्निं विशामि ततोसाववोचत् मायया इदमप्यस्ति वैशिके तदाऽसौ पूर्व सुरङ्गामुखे काष्ठसमुदायं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरङ्गया गृहमागता / दत्तकोपि इदमपि चास्ति वैशिके इत्येवमसौ विलपन्नपि वातिकैश्चिता-यांप्रक्षिप्तस्तथापि नासौ तासुश्रद्धानं कृतवानेवमन्येनापि न श्रद्धातव्यमिति // 24 // किंचान्यत्॥ जुवती समणं बूया विचित्तलंकारवत्यगाणि परिहिता / / विरता चरिस्सहं रुक्खं धम्ममाइक्खणे भयंतारो / / 21 / / युवतिरभिनवयौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालंकारविभूषितशरीरा मायया श्रमणं ब्रूयात्। तद्यथा। विरताहं गृहपासान्न ममानुकूलो भर्त्ता मा चासौ नरोचते परित्यक्ता चाहं तेनेत्थतश्चरिष्यामिधर्ममाचक्षाणेति अस्माकं हे भयत्रातर्यथाहमेवं दुःखानां भाजनं न भवामि तथा धर्ममावेदयति / / किंचान्यत्अदु साविया पवारणं, अहमासि साहाम्मिणीय समणाणं / जतुकुंभेजह उपजोइ, संवासे विदु विसीएजा // 26 // अथवा ऽनेन प्रवादेन व्याजेन साध्वन्तिकं योषिदुपसर्पत / यथाहं श्राविकेति कृत्वा युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणरित्येवं प्रपञ्चेन नेदीयसी भूत्वा कूलवालुकमिव साधुंधर्माद्भशयति एतदुक्तं भवति योषित्सान्निध्यं ब्रह्मचारिणां महते ऽनर्थाय तथाचोक्तम् "तज्ज्ञानंतच विज्ञानंतत्तपः स च संयमः / सर्वमेकपदे भूष्टं सर्वथा किमपि स्त्रियः१" अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह यथा जातुषः कुम्भो ज्योतिषोनेः समीपे व्यवस्थित उपज्योतिर्वर्ती विलीयतेद्रवत्येवं योषितांसंवासे सान्निध्ये विद्वानप्यास्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धर्मानुष्ठान प्रति विषीदेत शीतलविहारी भवेदिति // 26 // (7) एवं तावत्स्त्री सान्निध्ये विपाकान् प्रदर्श्य तत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाहजतुकुंभे जोइ उवगूढे, आसुमितत्तेण समुवयाइ। एवि त्थियाहिं अणगारा, संवासेणणासमुवयंति / / 27 / / यथा जातुषः कुम्भो ज्योतिषग्निनोपगूढः समालिङ्गितिोऽभिततोऽग्निनाभिमुख्येन संतापितः क्षिप्रं नाशमुपैति द्रवीभूय विनश्यत्येवं स्त्रीभिः सार्धं संवसनेन परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति सर्वथा जातुषकुम्भवत्। व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराद्धृश्यन्ति।२७। कुव्वंति पावगं कम्म, पुट्ठा वेगे व माहिसु॥ नोहं करेमि पावंति, अंके साइणी ममे सत्ति / / 28 / / तासु संसाराभिष्वङ्गिणीष्वभिसक्ता अवधीरितैहिका-मुष्मिकापायाः पापं कर्म मैथुनासेवनादिकं कुर्वन्ति विदधति। परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानादेके केचनोत्कटमोहा आचार्यादिनां चोद्यमाना एवमाहुर्वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः। तद्यथा नाहमेवंभूतकुलप्रसूतः एतदकार्यं पापोपादानभूतं करिष्यामि ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वमङ्गे शायिनी आसीत् तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्गं विधास्य इति। किंचबालस्स मंदयं बीजं,जंच कडं अवजाणई भुजो॥ दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसनेसी॥२५|| बालस्याज्ञस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमार्थदृश एतद्वितीय माद्यम- | ज्ञत्वमेकतावदकार्यकरणेनचतुर्थव्रतभङ्गो द्वितीयं तदपलपनेन मृषावादः। तदेव दर्शयति यत्कृतमसदाचरणं भूयः पुनरपरेण वोद्यमानोऽपजानीतेऽपलपति नैतन्मया कृतमिति स एवं भूतोऽसदनुष्ठानेन तदपलपनेन च द्विगुणं पापं करोति / किमर्यम-पलपतीत्याह / पूजनं सत्कारपुरस्कारस्तत्कामस्तदभिलाषी न मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रच्छादयति। विषण्णो-ऽसंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषण्णेषी। किंचान्यत्॥ संलोकणिज्जमणगारं, आयगयं निमंतणेणाहंसु / / बत्थं च ताय पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गहे ||30|| संलोकनीयं संदर्शनीयमाकृतिमन्तं कंचनानगारं साधुमात्मनि गतमात्मगतमात्मज्ञमित्यर्थः। तदेवं भूतं काश्चन स्वैरिण्यो निमन्त्र-णेन निमन्त्रणपुरःसरमाहुरुक्तवत्यः। तद्यथा हेशयिन्। साधो वस्त्रं पात्रमन्य द्वा पानादिकं येन केनचिद्भवतः प्रयोजनं तद हं भवते सर्व ददामीति मद्गृहमागत्य प्रतिगृहाण त्वमिति उपसंहारार्थमाह।। णीवारमेवं बुज्झेजा, णो इच्छे अगारमागंतुं / / बद्धे विसयपासेहि,मोहमावज्जइ पुणो मंदि||३१|| एतद्योषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं बुध्येत जनीयात् यथाहि नीवारेण केनचिद्भक्ष्यविशेषेण सूकरादिवशमानीयते एवमसावपि तेनामन्त्रणेन वशमानीयते अतस्तं नेच्छे दगारं गृहं गन्तुम् / यदिव गृहमेवावर्तो गृहावर्तो गृहं भ्रमस्तं नेच्छेत् नाभिलष्येत्। किमिति यतो बद्धो वशीकृतो विषया एव शब्दादयः पाशा रज्जुबन्धनानि तैर्बद्धः परवशीकृतः स्नेहपाशानपत्रोटयितुमसमर्थः सन्मोहं चित्तव्याकुलत्वमागच्छति / किं कर्तव्यमूढो भवति पौनःपुन्येन मन्दोऽज्ञो जडइति / उक्तः प्रथमोद्देशकः / सांप्रतं द्वितीयः समारभ्यते। अस्य चायमभिसंबन्धः इहानन्तरोद्देशके स्त्री संस्तवाचारित्रस्खलनमुक्तं स्खलितशीलस्य या अवस्था इहैव प्रादुर्भवति तत्कृतकर्मबन्धश्च तदिह प्रतिपाद्यते इत्यनेन संब-न्धेनायातस्योद्देशकस्यादिमसूत्रम्।। ओए सया ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरओज्जा / / भोगे समणाण सुणेह, जह मुंजंति भिक्खुणो एगे / / 1 / / अस्य चानन्तरं परस्परसूत्रसंबन्धो वक्तव्यः / स चायं संबन्धो विषयपाशैर्मोहमागच्छति। यतोऽत ओज एको रागद्वेषवियुतः स्त्रीषु रागं न कुर्यात् / परस्परसूत्रसंबन्धस्तु संलोकनीयमनगारं दृष्ट्वा च यदि काचिद्योषित् साधुमशनादिन नीवारकल्पेन प्रतारयेत्तत्रौजः सन्न रज्येतेति तत्रौजो द्रव्यतः परमाणुर्भावतस्तुरागद्वेषवियुतः स्त्रीषुरागादिहैव वक्ष्यमाणनीत्था नानाविध विडम्बना भवन्ति तत्कृतश्च कर्म बन्धस्तद्विपाकाचामुत्र नरकादो तीव्रा वेदना भवन्ति यतोऽत एतन्मत्वा भावौजः सन् सदा सर्वकालं वाऽनर्थखनिषु स्त्रीषु न रज्येत / तथा यद्यपि मोहोदयात् भोगाभिलाषी भवेत्तथाप्यै-हिकामुष्मिकापायान् परिगणय्य पुनस्ताभ्यो विरज्येत। एतदुक्तं भवति कर्मोदयात्प्रव्रत्तमपि चित्तं हेयोपादेयपर्यालोचनया ज्ञानाङ्कुशेन निवर्तयेदिति / तथा श्राम्यन्ति तपसा खिद्यन्तीति श्रमणास्तेषामपि भोग इत्येतच्छृणुत यूयम् / एतदुक्तं भवति गृह स्थानामपि भोगा विडम्बनाप्राया यतीनांतु भोगा इत्येतदेव विडम्बनाप्रायं किं पुनस्तत्कृतावस्था। तथाचोक्तं मुण्ड शिर इत्यादि पूर्ववत् / यथा यथा च भोगानेकेऽपुष्टधर्माणो भिक्ष Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 630 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी वो यतयो विडम्बनाप्रायान् भुञ्जते तथोद्देशकसूत्रेणैव वक्ष्यमाणेनोत्तरत्र महता प्रबन्धेन दर्शयिष्यामि / अन्यैरप्युक्तम् / "कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः क्षुधा क्षामोजीर्णः पिठरककपालार्दितगलः। वृणैः पूयक्लिन्नैः कृमिकुलश-तैराविलतनुः शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।।" (e) भोगिनां विडम्बनां दर्शयितुमाह / / अह तं तु भेदमावन्न-मुच्छितं भिक्खु काममतिवर्ल्ड / / पलिमिंदियाणं तो पच्छा, पादु द्धट्टमुद्धिपहाणंति ||2| अथेत्यानन्तार्थः / तुशब्दो विशेषणार्थः स्त्रीसंस्तवादनन्तरं भिक्षुसाधु भेदंशीलभेदंचारित्रस्खलनमापन्नं प्राप्तंसन्तं स्त्रीषु मूर्छितंगृद्धमध्युपपन्नं तमेव विशिनष्टि / कामेष्विच्छामदनरूपेषु मतेर्बुद्धेर्मनसो सा वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः कामाभिलाषुक इत्यर्थः / तमेवंभूतं परिभिद्य मदभ्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपन्नो मदशक इत्येवं परिज्ञान यदि वा परिभिद्य परिसार्यात्मसात्कृतं चोचार्येति / तद्यथा मया तव लुचितशिरसो जल्लमलाविलतया दुर्गन्धस्य जुगुप्सनीयकक्षावक्षोवस्ति-स्थानस्य कुलशीलमर्यादालज्जाधर्मादीन् परित्यज्यात्मादत्तस्त्वं पुनरकिंचित्कर इत्यादि भणित्वा प्रकुपितायास्तस्या असौ विषयमूर्छितस्तत्प्रत्यापनार्थं पादयोर्निपतितः / तथा चोक्तम् / "व्याभिन्नकेसरबृहच्छिरसश्च सिंहा नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोलैः। मेधाविनश्च पुरुषाः समरे च शूराः स्त्रीसन्निधौ परम-कापुरुषा भवन्ति" // 1 // ततो विषयेष्वेकान्तेन मूर्छिते इति परिज्ञानात्पश्चात्पादं निजवामचरणमुद्धृत्योत्क्षिप्य मूर्धि शिरसि प्रघ्नन्तिताडयन्त्येवं विडम्बना प्रायन्तीति" ||| अन्यच्चजह केसिआणं मए भिक्खु, णो विहरे सह णमिथिए। केसाण वि हलुचिस्सं, नन्नत्थ मए चरिझासि / / 3 / / केशाः विद्यन्ते यस्याः सा केशिका णमिति वाक्यालंकारे। हे भिक्षो! यदि मया स्त्रिया भार्यया केशवत्या सह नो विहरेस्त्वं सकेशया स्त्रिया भोगान् भुञानोब्रीडां यदिवहसि ततः केशानप्यहं त्वत्सङ्गमाकाक्षिणी लुञ्चिष्याम्यपनेष्यामि / आस्तां तावदलंकारादिकमित्यर्पि शब्दार्थः अस्य चोपलक्षणार्थ-त्वादन्यदपि दुष्करं विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये त्वं पुनर्नमया रहितो नान्यत्र चरेः। इदमुक्तं भवति मयारहितेन भवता क्षणमपि न स्थातव्यमेतावदेवाहं भवन्तं प्रार्थयामि अहमपि यद्भवानादिशति तत्सर्व विधास्य इति॥३|| (9) इत्येवमतिपेशलैर्विश्रभजननैरापातभद्रकैरालापै-विश्रम्भयित्वा यत्कुर्वन्ति तद्दर्शयितुमाह!। अहणं स होई उवलद्धो, तो पेसंति तहा भूएहि। अलाउच्छेदं पेहेहिं, वग्गुफलाइं आहराहित्ति ||4|| अथेत्यानन्तर्यार्थः णमिति वाक्यालंकारे विश्रम्भालापानन्तरं यदासौ साधुर्मदनुरक्त इत्येवमुपलब्धो भवत्याकारैरिङ्गितैश्रेष्टया वामद्वशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः कपटनाटकनायिकाभिः स्त्रीभिस्ततस्तदभिप्रायपरिज्ञानादुत्तरकालं तथाभूतैः कर्म-करव्यापारैरपशब्दैः प्रेषयन्ति नियोजयन्ति / यदि वा तथाभूतैरिति लिङ्गस्थयोग्यैव्यापारैः प्रेषयन्ति तानेव दर्शयितुमाह / अलाबुतुम्बु छिद्यते येन तदलाबुच्छे दं पिप्पलकादिशास्त्रं (पेहाहित्ति) प्रेक्षस्व निरूपय लभस्वेति येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुखादि क्रियत इति तथा वल्गूनि शोभ नानि फलानि नारीकेरादीनि अलाबुकानि वा त्वमाहरानयेति / यदि वा वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वाचो यानि फलानि वस्त्रादिलाभरूपाणि तान्याहरेति ॥क्षा अपिच / / दारूणि सागपागाए, पज्जोउ वा भविस्सती राओ। पाताणि य मेरयावेहि, एहि तामेपिट्ठओ मद्दे ||1| यथा दारूणि काष्ठानि शाकं पक्ववस्तुलादिकं त्रपशाकं तत्पाकार्थ क्वचिदन्नपाकायेतिपाठस्तत्रान्नमोदकादिकमिति रात्रौ रजन्यां प्रद्योतो वा भविष्यतीति कृत्वा अतो अटवी तस्तमाहरेति / तथा पात्राणि पतद्गृहादीनि रञ्जयलेपय येन सुखेनैव भिक्षा-टनमहंकरोमि। यदि वा पादावलक्तकादिना रञ्जयेति। तथा परित्यज्यापरं कर्म तावदेह्यागच्छ मे मम पृष्ठमुत्प्राबल्येन मर्दय बाधते ममाङ्ग मुपविष्टाया अतः संहारयपुनरपरं कार्यशेषं करिष्यसीति ||5|| किंचवत्थाणि य मे पडिलेहेहिं, अन्नं पाणं च आहरा हित्ति। गंधं च रओहरणं च, कासवर्ग मे समणु जाणाहि॥। वस्त्राणि च अम्बराणि मे मम जीर्णानि वर्तन्तेऽतः प्रत्यु-पेक्षस्वान्यानि निरूपय यदि वा मलिनानि रजक स्य समर्पय मदुपछि वा मूषिकादिभयात्प्रत्युपेक्षस्वेति / तथा अन्नपानादिकमाहरानयेति तथा गन्धं कोष्ठपुटादिकग्रन्थि वा हिरण्यं तथा शोभनं रजोहरण तथा लोच कारयितु महमशक्ते त्यतः काश्यपं नापितं मच्छिरो मुण्डनाय श्रमणानुजानीहि येनाहं वृहत्केशानपनयामीति ||6|| किंचान्यत्अदु अंजणिं अलंकारं, कुकुडयं मे पयच्छाहि।। लोद्धं च लोद्धकुसुमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च / / 7 / / कुटुं तगरं च आगरुं, संपिटुं सम्म उसिरेणं / तेल्लं मुहभिजाए, वेणुपलाइं सन्निधानाए / अथ शब्दोधिकारान्तरप्रदर्शनार्थः पूर्वलिङ्ग स्थोपकरणान्यधिकृत्याभिहितमधुना गृहस्थोपकरणान्यत्यिाभिधीयते तद्यथा (अंजणीमिति) अजणिकां कज्जलाधारभूतां नलिकां मम प्रयच्छस्वेत्युतरत्र क्रिया / तथा कटककेयूरादिकमलंकारं वा तथा (कुक्कुडयंति) खुंखुणकं मे मम प्रयच्छ येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता वीणाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि। तथा लोधं च लोध्रकुसुमं च। तथा (घेणुफलासियंति) वंशात्मिका लक्षणत्वक काष्ठिका सा दन्तर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्तेन वीणावद्वाद्यते / तथौषधगुटिकां तथाभूतामानय येनाहमविनष्यौवना भवामीति॥७॥ तथा (कुट्टमित्यादि) कुष्ठमुत्पलकुष्ठ तथाऽगरं तगरं च एते द्वे अपि गन्धिकद्रव्ये एतत्कुष्ठादिकमुशीरेण वीरणीमूलेन संपिष्टं सुगन्धि भवति यतस्तत्तथा कुरु तथा तैलं लोध्रकुड्कुमादिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य (भिंजएत्ति) अभ्यगाय ढोकयस्व / एतदुक्तं भवति / मुखाभ्यङ्गार्थ तथाविधं संस्कृतं तैलमुपाहरेति येनकान्त्युपेतं मे मुखंजायेत (वेणुफलाइति) वेणुकार्याणि करण्डकपेटिकादीनि सन्निधिः सन्निधानं वस्त्रादेय॑वस्थानं तदर्थमानयेति // 6 // किंचनंदी चुण्णगाइं पाहराहिं, छत्तोवाणहं च जाणाहिं / / सत्थं च सूवच्छेज्जाए, आणीलं च वत्थयं रयावेहि।।९।। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 631 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी सुफणिं च सागपागाए आमलगा इंदगाहणं च। तिलगकरणिमंजणसलागं प्रिंसु मे विहूणयं विजाणेहिं / 10 (नंदी चुण्णगाइंति) द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठमृक्षणचूर्णो-ऽभिधीयते। तेमवंभूतं चूर्ण प्रकर्षेण येन केनचित्प्रकारेणाहरान-येति। तथाऽऽतपस्य वृष्टी संरक्षणाय छत्रंतथोपानहौ च ममानुजानीहिन मे शरीरमेभिर्विना वर्ततेततोददस्वेति। तथाशस्त्रंदात्रादिकं सूपच्छेदनायपत्रशाकच्छेदनार्थ ढौकयस्व / तथा वस्त्रमम्बरं परिधानार्थं गुलिकादिना रञ्जय यथा नीलमीषन्नीलं सामस्त्येन वा नीलं भवत्युपलक्षणार्थत्त्वाद्रक्तं यथा भवतीति।।९।। तथा (सुफणिं चेत्यादि) सुष्ठु सुखेन वा फण्यते क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र तत्सुफणिस्थालिपिठरादिकं भाजनमभिधीयते तच्छाकपाकार्थमानय / तथा आमलकानि धात्रीफलानि स्नानार्थं पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थं वा / तथोदकमाव्हियते येन तदुदकाहरणं कुटवर्धनिकादि अस्य चोपलक्षणार्थत्वाद् धृततैलाद्याहरणं सर्वं वा गृहोपस्करं ढौकस्वेति। तिलकः क्रियते यया सा तिलककर्णी दन्तमयी सुवर्णात्मिका वा शलाका यया गोरोचनादियुक्तया तिलकः क्रियते इति / यदि वा गोरोचनया तिलकः क्रियतेसाच तिलककर्णीत्युच्यते। तिलकाः क्रियन्ते पिष्यन्ते वा यत्र सा तिलककण्णीत्युच्यते तथाञ्जनं सौवीरकादि शलाका अगोरञ्जनार्थं शलाका अञ्जनशलाका तामाहरेति। तथा ग्रीष्मे उष्णाभितापे सति मे मम विधूनकं व्यजनकं विजा-नीहि // संडासगंच फणिहंच, सीहलि पासगं च आणाहि। आदसगं च पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पवेसाहि||११|| पूयफणं तंबोलयं, सूई सुत्तगं च जाणाहि। कोसंयमो च मेहाए, सुप्पु खलगं च खारगालणं च ||12|| एवं संडासिकं नासिकाकेशोत्पाटनं फणिहं केशसंयम नार्थ कङ्कतकं तया (सीहलिपासगंति) वीणासंयमनार्थमूर्णामयं कङ्कणं चानय ढौकयेति / एवमासमन्तादृश्यते आत्मायस्मिन् स आदर्शः स एव आदर्शकस्तं प्रयच्छ ददस्वेति। तथा दन्ताः प्रक्षाल्यन्ते अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं दन्तकाष्ठं तन्मदन्तिके प्रवेशयेति // 11|| (पूयफलं चेत्यादि) पूगफलं प्रतीतंताम्बूलं नागवल्लीदलं तथा सूचीं च सूत्रं च सूच्यर्थं वा सूत्रं जानीहि ददस्वेति / तथा कोशमिति वारकादिभाजनंतन्मोचमेहाय समाहर तत्र मोचः प्रस्त्रयणं कायिकेत्यर्थः / तेन मेहः सेचनं तदर्थं भाजनं ढौकय / एतदुक्तं भवति बहिर्गमनं कर्तुमहमसमर्था रात्रौ भयादतो मम यथा रात्री बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु। एतचान्यस्या-प्यधमतमकर्तव्यस्योपलक्षणं द्रष्टव्यम्। तथा शूर्प तण्डु-लादिशोधनार्थं तथोलूखलं तथा किंचन क्षारस्य सर्जिकादेगालनकमित्येवमादिकमुपकरणं सर्वमप्यानयेति / / 12 / / किंचान्यत् // चंदालगं च करगं च, वचघरं च आउसो खणइ। सरपायं च जयाए, गोरहगं च सामणए य ||13|| घडियं च सडिंडिमयं च, चेलगोलं कुमार भूयाए। वासं समभि आवण्ण, आव सहं च जाण भत्तं च / / 14 / / चंदालकमिति देवतार्चनिकाद्यर्थं ताममयं भाजनमेतच मथुरायां चन्दालकत्वेन प्रतीतमिति / तथा करको जलाधारो महिराभाजनं वा तदानयेति क्रिया। तथा वषैगृहं पुरीषोत्सर्गस्थानंतदायुष्मन्मदर्थ खन संस्कुरु।तथा शरा इषवः पात्यन्ते क्षिप्यन्तेयेनतच्छरपारं धनुस्तजाताय मत्पुत्राय कृते ढौकय / तथा (गोरहगंति) त्र्यहायणं बलीव ढौकयेति (सामणएत्ति) श्रमणस्थापत्यं श्रामणिस्तस्मै श्रामणये त्वत्पुत्राय गन्त्र्यादिकृते भविष्यतीति / / 13 / / तथा (घडिगंचेत्यादि) घटिकां मृन्ययकुल्लुडिकां डिण्डिमेन पटहकादिवादित्रवि शेषेण सह तथा (चेलगोलंति) वस्त्रात्मकं कं दुकं कुमारभूताय क्षुल्लक भूताय राजकुमाररूपाय वा मत्पुत्राम् क्रीडनार्थमुपानयेति / तथा वर्षमिति / प्रावृटकालोऽय-मभ्यापन्नो भिमुखं समापन्नोऽत आवसथं गृहं प्रावृट्टकालनि-वासयोग्यं तथा भक्तं च तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं जानीहि निरूपय निष्पादय येन सुखेनैवाऽनागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृ-ट्कालोऽतिवाह्यत इति / तदुक्तं "मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा / तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते" // 14 // एवं च। आसंदियं च नवसुत्तं, पाउल्लाइं संकमट्ठाए। अदुपुत्तदोहलट्ठाए-आणप्पा हवंति दासा वा||१५|| मौजे काष्ठपादुके बा संक्रमणार्थं पर्यटनार्थं निरूपय यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं समर्थेति। अथवा पुत्रे गर्भस्थे दौहृदः पुत्रदौहृदः अन्तर्वत्नी फलादावभिलाषविशेषस्तस्मैतत्संपादनार्थ स्त्रीणां पुरुषाः स्ववशीकृता दासा इव क्रयक्रीता इवाज्ञाप्या आज्ञापनीया भवन्ति / यथा दासा अलज्जितैर्योग्यत्वादाज्ञाप्यन्ते एवं तेऽपि वराकाः स्नेहपाशावपाशिता विषयार्थिनः स्त्रीभिः संसारावतरणवीथीभिरादिश्यन्त इति // 15 // अन्यच्चजाए फले समुप्पन्ने, गेहं सुबाणं अहवा जहाहि। अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहे हवंति उट्टावा ||16|| जातपुत्रः स एव फलं गृहस्थानाम्, तथाहि पुरुषाणां कामभोगफलं तेषामपि फलं प्रधानं कार्य पुत्रजन्मेति। तदुक्तम्। 'इदं तत्स्नेहसर्वस्वं, सममाढ्यदरिद्रयोः / अचन्दनमनौशीरं, ददयस्यानुलेपनम् / / 1 / / यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्त-भाषिणाहित्या सौख्यं च योग च, तन्मे मनसि वर्तते-" |शा यथा लोके पुत्रसुखं नाम द्वितीयं सुखमात्मन इत्यादि / तदेवं पुत्रः पुरुषाणां परमाभ्युदयकारणं तस्मिन्समुत्पन्ने जाते तदुद्देशेन याः विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति। अमुं दारकं गृहाण त्वमहन्तु कर्मासक्ता न मे ग्रहणावसरोऽस्ति / अथ चैनं जहाहि परित्यज नाहमस्य वार्तामपि पृच्छाम्येवं कुपिता सती ब्रूते भयाऽयं नव मासानुद-रेणोढस्त्वं पुनरुत्सङ्गे नाप्युद्वहने स्तोकमपि कालमुद्विजस इति / दासदृष्टान्त-स्त्वादेशदानेनैव साम्यं भजते नादेशनिष्पादनेनैव तथाहि दासभयात्रु-दन्नोदशं विधत्ते स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानो मुदितश्च तथा देशं विधत्ते "यदेव रोचते मां, तदेव कुरुते प्रिया / इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्करोत्यसौ // 1|| ददाति प्रार्थितप्राणान्मातरं हन्ति तत्कृते। किन्नदद्यात्किन्न कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः // 2 / / ददाति शौच पानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि श्लेष्माणमपि गृण्हाति, स्त्रीणां वशगतो नरः // 3 // तदेवं पुत्रनिमित्तमन्यद्वायत्किंचिन्निमित्तमुद्दिश्य दासमिवादिशन्ति / अथ तेऽपि पुत्रान् Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 632 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी पोषितुं शीलं येषां ते पुत्रपोषिण उपलक्षणार्थत्वादस्य सवदिश-कारिण एके केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निदेशवर्तिनो-ऽपहस्तितैहिका- | मूष्मिकापाया उष्ट्रा इव परवशा भारवाहा भवन्तीति / / 16 / / किंचान्यात् // राओ वि उठ्ठिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा। सुहिरामणा वि ते संता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा ||17|| रात्रावप्युत्थिताः सन्तो, रुदन्तं दारकं धात्रीवत् संस्थापयन्त्यनेकप्रकारैरुल्लापैः / तद्यथा॥ "सामिउसणीगरस्स यणक्कउरस्स य हत्थकप्पगिरिपट्टणसीहपुरस्स चउणयस्स भिन्नस्स य कुच्छिपुरस्सय कणकुज्जआयामुहसोरियपुरस्स य' इत्येवमादिभिरसंबद्धः क्रीडनकलापैः स्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरुषास्तत्कृर्वन्ति येनोपहास्यतां सर्वस्य व्रजन्ति सुष्टुन्हीर्लज्जा तस्यां मनोन्तःकरणं येषां ते सु-हीमनसो लज्जालवोऽपितेसन्तो विहाय लज्जास्त्रीवचनात्सर्वजधन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते तान्येव सूत्रावयवेन दर्शयति। वस्त्रधावका वस्त्रप्रक्षालका हंसा इव रजका इव भवन्ति अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्यदपि उदकवाहनादिकं कुर्वन्ति // 17 // किमेतत् केचन कुर्वन्तीति येनैवमभिधीयते। वाढं कुर्वन्तीत्याह॥ एवं बहुहिकए पुवं, भोगत्थाए जो भियावन्ना। दासेमिव पेसे वा, पसुभूतेव सेण वा केई / / 18 / / एवमिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकारणं पुत्रपोषणवस्वधावनादिकंतद्वहुभिः संसाराभिष्वङ्गिभिः पूर्वं तथापरे कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ये भोगकृते कामभोगार्थमै हिकामुष्मिकापायमपालोच्याभिमु-ख्येन भोगानुकूल्येनापन्ना व्यवस्थिताः सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्ना इति यावत्। तथा यो रागान्धः स्त्रीवशीकृतः स दासवदशङ्किता-भिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते। तथा वागुरापतित-परवशो मृग इव धार्यते नात्मवशो भोजनादिक्रियाऽपि कर्तुं लभते / तथा प्रेष्य इव कर्मकर इव क्रीत इव वर्चःशोधनादावपि नियोज्यते / तथा कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहार-शून्यत्वात् पशुभूत इव यथाहि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहाभिज्ञ एवं केवलमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात्पशुकल्पः / यदि वा स स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्यपशुभ्यो प्यधमत्वान्न कश्चित्, एतदुक्तं भवति सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयेत / अथवा न स कश्चिदित्युभथभ्रष्टत्वात् / तथाहि न तावत्प्रव्रजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वान्नापि गृहस्थस्ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वा-ल्लोचिकामात्रधारित्वाच। यदिवा ऐहिकामुष्मिकानुठायिनां मध्ये न कश्चिदिति // 18 // सांप्रतमुपसंहारद्वारेण स्त्रीसङ्गपरिहारमाह। एवं खु तासु विनप्पं, संथवं संवासं च वजेजा। तजातिआइमे कामा, वञ्जकरा य एवमक्खाए|१९|| एतत्पूर्वोक्तं खु शब्दो वाक्यालंकारे तासु यत्स्थितं तासां वा स्त्रीणां संबन्धि यद्विज्ञप्तमुक्तं / तद्यथा / यदि सकेशया सह न रमसे ततोहं केशानप्यपनयामिइत्येवमादिकम्।तथा स्त्रीमिः सार्धं संस्तवं परिचयं तत्संवासं च स्त्रीमिः सहकैत्र निवासं चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायभीरुस्त्यजेज्जह्यात् / यतस्ताभ्यो जातिरुत्पत्तिर्येषां ते कामास्तजातिकामा रमणीसंपर्कोत्थास्तथाऽवद्यं पापं वजंवा गुरुत्वादधः | पातकत्वेन पापमेव तत्करणशीला अवधकरा वज्रकरा वेत्येवमाख्यातास्तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिता इति // 19 / / सर्वोपसंहारार्थमाह।। एवं भयं ण से याय इइ, से अप्पणं निलंमित्ता। णो इत्थिणो पसुभिक्खुणो सयं पाणिणा णलजेज्जा / / 20 / / एवमनन्तरनीत्या भयहेतुत्वात्स्त्रीभिर्विज्ञप्तं तथा संस्त-वस्तत्संवासश्च भयमित्यतः स्त्रीभिःसाधू संपर्को न श्रेयसे असदनुष्ठानहेतुत्वात्तस्येत्येवं परिज्ञाय स भिक्षुरवगत-कामभोगविपाक आत्मानं स्त्रीसंपर्काभिन्नरुध्य सन्मार्गेप्यव-स्थाप्य यत्कुर्यात्तदर्शयति।न स्त्रियं नरकवीथिप्रायां नापि पशुं लीयेताश्रयेत स्वीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत् / "स्वीपशुपण्डकवर्जिता शथ्येति" वचनात्तथा स्वकीयेन पाणिना हस्तेना - वाच्यस्य (णलिजेजति) न संबाधनं कुर्यात् / यतस्तदपि हस्तसंवाधनं चारित्रं शवली करोति। यदि वा स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पणिनानस्पृशेदिति ||20|| अपिच। सुविसुद्ध लेसे मेहावी, परकिरिअंच वजए नाणी॥ मणसा वयसा काएण, सव्वफाससहे अणगारे ||2|| सुछ विशेषेण शुद्धा स्त्रीसंपर्कपरिसंहाररूपतया निष्कलङ्कालेश्यान्तः करणवृत्तिर्यस्य स तथा स एवं भूतो मेधावी मर्यादायी परस्मैस्त्र्यादिपदार्था क्रिया परक्रिया तां च ज्ञानी विदितवेद्यो वर्जयेत्परिहरेत्। एतदुक्तं भवति। विषयोपभोगोपाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यात् नाप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत् / एतय परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत्तथा ह्यौदारिक-कामभोगार्थ मनसा न गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानु-जानीते एवं वाचा कायेन च सर्वेप्यौदारिके नव भेद एवं दिव्वे ऽपि नव भेदास्ततश्चाष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रह्म विभूयात्। यथाच स्त्री-स्पर्शपरिषहः सोढव्य एवं सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणादिस्पर्शानपि सहेत / एवे च सर्वस्पर्श सहोऽनगारः साधुर्भवतीति।२१।। क एवमाहेति दर्शयति। इचेव माहु से वीरे, धुअरए धुअमोहे से मिक्खू / तम्हा अब्मत्थ विसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाएपरिव्वएनासि // (पाठान्तरं विहरे आमुक्खाए त्तिवेमि) इच्चेवमाहुरित्यादि (इत्येवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्वं स वीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरत आह उक्तवान् / यत एवमतो धूतमपनीतं रजः स्त्रीसंपर्कादिकृतं कर्म येन स धूतराजाः / तथा धूतो मोहो रागद्वेषरूपो येन स तथा / पाठान्तरं वा धूतोऽपनीतो रागमार्गो रागपन्था यस्मिन् स्त्रीसंस्त-वादिपरिहारात्तत्तथा तत्सर्वभगवान् वीर एवाह / यत एवं तस्मात्सभिक्षुरध्यात्मविशुद्धः सुविशुद्धान्तःकरणः सुष्टु रागद्वेषा-त्मके न स्त्रीसंपर्के ण मुक्तः सन्नामोक्षायाशेषकर्मक्षयं यावत् परि समन्तात्संयमे ऽनुष्ठाने व्रजेद्गच्छेत्संयमोद्योगवान् भवेदिति।। सूत्र०॥२ श्रु०४ अ०1 (10) स्त्रीस्वरूपस्य स्त्रीचरित्रस्य चातिनिन्दनीयत्वम्। तत्रस्वरूपनिन्दा यथाहा असुइसमुप्पनिया, निग्गया जेण चेव दारेणं / सत्ता मोहपसत्था, रमंति तत्थेव असुइदारम्मि||३|| हा इति खेदे अशुद्धिसमुत्पन्ना अपवित्रोत्पन्ना ये नैव द्वारेण निर्गताः चशब्दाद्योगत्वमापन्नाः सत्वा जीवाः मोहप्रसक्ता विषमरक्ताः रमन्ते क्रीडयन्ति / तत्रैवाशु चिद्वारे छे दोक्तं - Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 633 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी समुद्रप्रसूतकुमारवदिति। एवं शरीराशुचित्वे सति शिष्यः प्रश्न-यति। किह ताव घरकुडीरी, कइसहस्सेहिं अपरितं तेहिं। वन्निजइ असुइविलं, जघणंति सकञ्जमूढेहिं / / 4 / / हे पुज्याः! कथं तावद् गृहकुड्याः स्त्रीदेहस्येत्यर्थः अपरितः तैरश्रान्तैः परिश्रममगणद्भिः स्वकार्यमूद्वैः स्वस्वार्थमौढ्यगतैः कविसहस्रः (जधणंति) स्त्रीकट्यग्रभागं भगरूपमित्यर्थः वर्ण्यते वचनविस्तारेण विस्तार्यते। किंभूतं जघनम् अशुचिविलं परमापवित्रविवरम् उक्तं च "चर्मखण्डं सदाभिन्नमपानोगा-रवासितम्। तत्र मूढाः क्षयं यन्तिप्राणैरपिधनैरपि" // 4aa (तत्र प्राणैः शाक्यादयः क्षयङ्गताः धनैर्धम्मिल्लादय इति) रागेण न जाणंति, वराया कलमलस्स निद्धमणं / ताणं परिणदंती, फुल्लं नीलुप्पलवणं च ||5|| हे शिष्य! तीव्रकामरागेण नजानन्तिहृदये, च शब्दादन्येषां न कथयन्ति वरकास्तपस्विन् कलमलस्यापवित्रमलस्य निर्द्धमनं खालु इति (ताणंति) णं वाक्यालङ्कारे तज्जघनं (परिणदंतीत्ति) परमविषयासक्ता वर्णयन्ति कथं वक्तार इवार्थ इव उत्प्रेक्षते फुल्लं प्रफुल्लं विकसितमित्यर्थः नीलोत्पलवनमिन्दीवरकाननम् // 1|| कित्तियमित्तं वन्ने, अमिञ्जमइयंमि वचसंघारो। रागो हुन कायय्वो, विरागमूले सरीरम्मि Ji!! कियन्मानं कियत्प्रमाणं (वन्नेत्ति) वर्णयामि शरीरे वपुषि हु यस्मादेवं तस्माद्रागो नकर्त्तव्यः / स्थूलभद्रवजूस्वामिजम्बूस्वा-म्यादिवत्। किंभुते अमेध्यं प्रचुरमस्मिन्निति अमेध्यमये गूथात्मके इत्यर्थः / वर्चस्वसंघाते परमापवित्रविष्ठासमूहे (विरागमुलेत्ति) विशिष्टो रागो विरागः मनोज्ञराग इत्यर्थः / तस्य मूलं कारणं कामासक्तानामगारवतीरूपदर्शने चण्डप्रद्योतस्येव / यद्वा विगतो रागो मन्मथभावो यस्मात्स विरागो वैराग्यमित्यर्थः तस्य मूलं कारणं काष्ठश्रेष्ठेरिव तस्मिन्विरागमूले // 6 // किमिकुलसयसंकिण्णे, असुइयमचुक्खे असास यमसारे। सेयमलपुच्चडम्मी, निचेयं वचहसरीरे / / 7 / / कृमिकुलशतसंकीर्णे (असुइयमचुक्खत्ति) अशुचिके अपवित्र-मलव्याप्ते (अचुक्खे) अशुद्धे सर्वथा धौतुमशक्यत्वात् / अशास्वते क्षणं क्षणं प्रतिविनश्वरत्वात् / असारे सारवर्जिते (सेयमल-पुच्चडम्मित्ति) दुर्गन्धिस्वेदमलचिगचिगायमाने एवंविधे शरीरे जीवा यूयं निर्वेदवैराग्यं व्रजत गच्छत विक्रमयशोनृपस्येवेति // 7 // दंतमलकनगुहग, सिंहाणमले य लालमलबहुले / एयारिसबीभत्थे, दुगुच्छणिज्जम्मिकोराओ दन्तमल-कर्णमल-गूथकसिंधाणमले चशब्दः शरीरगतानेकमलग्रहणसूचनार्थः / लालामलबहुले एतादृशबीभत्से जुगुप्सनीये सर्वथा निन्द्ये वपुषि को रागः / / को सडणपडणविकिरण-विद्धंसणचयणमरणधम्मम्मि। देहम्मी अहिलास, कुहियकडणकट्ठभूयम्मि / / 8 / / देहे शरीरे कोऽभिलाषो वाञ्छा किं भूते शटनपतनविकिरण | विध्वंसनच्यवनमरणधर्मे। तत्र शटनं कुष्ठादिनाङ्गुल्यादेपतनं बाहादें: खड्गच्छेदाहिना विकिरणत्वं विनश्वरत्वं, विध्वंशनं रोगज्वरादिना जर्जरीकरणम्, च्यवनं हस्तपादादेर्देशक्षयः मरणं सर्वथा क्षयः / पुनः किंभुते कुथितकठिनकाष्ठभूते। विनष्ट-कर्कशदारुतुल्ये।।दा कागसुणगाण भक्खे, किमिकुलभत्ते य वाहिभत्ते य / देहम्मि मत्थभत्ते, सुसारभत्तम्मि को रागे // 30 // देहे को रागः / किंभूते काकश्वानयोः घूकारीभषणयोर्भक्ष्ये खाद्ये कृमिकुलभक्ते च व्याधिभक्ते च मत्स्यभक्ते स्मशान भक्ते च // 10 // असुई अमिज्झपुग्नं, कुणिमकलेवरकुडियपरिसवंति। आगंतुथसंठवियं, नवछिद्दमसासयं जाणे // 15|| अशुचि सदाऽविशुद्धममेध्यपूर्व विष्ठाभृतम् (कुणिमकलेवर कुडीति) मांसशरीरहडयोहम् (परिसवंतीत्ति) परिस्रवत् सर्वतो गलत् आगन्तुकसंस्थापितं मातापित्रोः शोणितशुक्रपुद्गलैर्निष्पादितं नवच्छिद्रं नवरन्ध्रोपेतम्। अशाश्वतमस्थिरम्। एवंविधं यपुस्त्वं जानीहीति|११|| पिच्छसि मुहं सतिलयं, सविसेसं राएण अहरेणं / / सकडक्खं सवियारं, तरलच्छि जुटवणत्थीए।शा (जुव्वणत्थीएत्ति) यौवनस्त्रियास्तरुण्या मुखं तुण्डं नरकतुण्ड साधुसंयमनृपविषखण्डं त्वं पश्यसि नन्दिषेण शिष्याहन्नकस्थूलभद्रसतीर्थ्यकवत् किं भूतं सतिलकं सपुण्डूम् सविशेष कुकुमकजलादिविशेषसहितं केन सह रागेण ताम्बूला-दिरागवता अधरेणोष्ठन सह सकटाक्षमर्द्धवीक्षणसहितम् सविकारं भूचेष्टा-सहितंयथा तपस्विनामपि मन्मथविकारजनकं तरले चपले काकलोचनवत् अक्षिणी यत्र तत्तरलाक्षि इति। पिच्छसि बाहिरमटुं, न पिच्छसी उज्जरं कलिमलस्स / / मोहेण न चयतो, सीसघडिकं जियं पियसि / / 13 / / एवं त्वं बहिर्मुष्ट बहिर्भागे मठारितं पश्यसि सरागदृष्ट्या विलोकयसिन पश्यसि अन्धवन्न विलोकयसि (उज्जरंति) मध्यगतं कुचेष्टां कुर्वन् (सीसघडी कंजियपियसित्ति) मस्त कघ-टीरसमपवित्रं पिवसि पानं करोषि चुम्बनादिप्रकारेणेति // 13 // सीसघडी निग्गालं, जं निट्ठहसी दुगुच्छसीजं च। तं चेव रागरत्तो, मूढो अइमुच्छिउं पियसि / / 14|| मस्तकोद्भवापवित्ररसं यन्निष्ठे नयसि मूत्कृतयसि जुगुप्ससे कुत्सा करोषीत्यर्थः / यच्च त्वं तदेवरागरक्तो विषयासक्तो मूढो महामोहं गतः अतिमूञ्छितः तीव्रगृद्धिं गतः पिबसि // 14 // पूइयसीसकवालं, पूइयनासं च पूइदेहं च / पूइयछिद्दविछिदं पुझ्यचम्मेण यं पिणद्धं // 15|| पूतिकशीर्षकपालं दुर्गन्धिमस्तककर्पर पूतिकनासमपवित्र-नासिक पूतिदेहं दुर्गन्धिमात्र पूतिकछिद्रविछिद्रम् अपवित्रलघु-विवरवृद्धविवरं पूतिकचर्मणा अशुभाजिनेन पिनद्धं नियन्त्रितम्।१५) अंजणगुणसुविशुद्धं, न्हाणुव्वट्टणगुणेहि सुकुमालं / पुप्फुमीसियकेशं, जणई बालस्स तं रागं / / 16 / / अञ्जनगुणसुविशुद्धं तत्राञ्जनं लोचनकज्जलं गुणा नाडक - गोफणक राखडिकादयस्तैः सुष्ठ विशुद्धमत्यर्थ शोभायमानं Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 634 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी स्नानोद्वर्तनगुणैः सुकुमारम् / तत्र स्नानमनेकधा क्षालन मुद्वर्तनं पिष्टिकादिना मलोत्तारणं गुणा धूपनादिप्रकाराः यद्वा स्नानो-द्वर्तनाभ्यां गुणास्तैर्मृदुत्वं गतं पुष्पमिश्रितं केशमनेककुसुमवासितकुन्तलमेवंविधं तन्मुखं मस्तकं शरीरं वा बालस्य मन्मथकर्मशबाणविद्धत्वेन तदसद्विवेकविकलस्य जनयति उत्पादयति राग मन्मथपारवश्यं येन गुर्वादिकमपि न गणयति नन्दिसेणाषाढभूतिमुन्यादिवत्।।१६।। जं सीसपूरओ त्ति य, पुप्फाइँ भणंति मंदविनाणा। पुप्फाई चिय ताई, सीसस्स य पूरयं सुणह / / 17 / / मन्दविज्ञाना मन्मथग्रहग्रथिलीकृताः (जंति) यानि पुष्पाणि कुसुमानि शीर्षपूरको मस्तकाभरणमिति भणन्ति कथयन्ति पुष्पाण्येव तानि शीर्षस्य पूरकं शृणुत यूयमिति॥ मेओवसायरसिया, खेले सिंघाणए य छुभए यं / अहसीसपूरओ भे नियगसरीरम्मि साहीणो।।१८। मेदोऽस्थिकृत् बसावस्नसा चशब्दोऽने कशरीरान्तर्गतावयवग्रहणार्थः / रसिका व्रणाद्युत्पन्नाः (खेलेत्ति) कण्ठमुखश्लेष्मा (सिंघाणेत्ति) नासिकाश्लेष्मा (एयंति) वर्चस्कमेतन्मेदादिकं (छुभएयं) क्षपध्वं मस्तके प्रक्षेपयत / अथ शीर्षपूरको (भे) भवतां निजकशरीरे स्वाधीनः स्वायत्तो वर्तते // 18 // सा किरदुप्पडिपूरा, वचकुडी दुप्पया नवच्छिद्दा। उकडगंधविलित्ता, बालजणो अइमुच्छियं गिद्धो ||19|| सा वर्चस्ककुटी विष्ठाकुटीरिका (किरत्ति) निश्चये दुष्प्रतिपूरा पुरयितुमशक्येत्यर्थः। किंभूता द्विपदा नवच्छिद्रा उत्कटगन्ध-विलिप्ता तीब्रदुर्गन्धव्याप्ता एवंविधा शरीरकुटी वर्तते। तां च बालजनो मूर्खलोकः अतिमूर्छितं यथा स्थात्तथा गृद्धो लम्पटत्वं गतः / / 19 / / कथं गृद्ध इत्याहजं पेमरागरत्तो, अवयासेऊण गूढमुत्तोलिं। दंतमलचिक्कणंगं, सीसघडिकंजियं पियसि / / 20 / / यस्मात्प्रेमरागरक्तः कामरागग्रथिलीकृतो लोकः (अवयासे-ऊणत्ति) अवकाश्य प्रकाश्य प्रकटीकृत्येत्यर्थः (गूढ-मुत्तोलिंति) अपवित्रंरामाभगं पुश्चिहं वा जुगुप्सनीयं दन्तानां मलः पिप्पिका दन्तमलस्तेन सह चिक्कणाझं चिगचिगायमानमहं शरीरमालिङ्गय च शीर्षघटीकाञ्जिकं कपालकप्रखट्टरसं चुम्बनादिप्रकारेण (पियसीत्ति) पिवसि अतृप्तवत् घुण्टयस्यतः॥२०॥ दंतमुशलेसु गहणं, गयाणमंसे य ससयमीयाणं। बालेसु य चमरीणं, चम्मनहे दीवियाणं च / / 2 / / गजानां दन्तमुसलेषु (गहणंतीति) ग्रहणमादानं लोकानां वर्तते। मांसे चशब्दाद्वसाशृङ्गादौ शशकमृगाणां ग्रहणं वर्तते। चमरीणां बालेषु ग्रहणं द्वीपिकानां चित्रकव्याघ्रादीनां चर्मनखे ग्रहणं चशब्दादनेकतिरश्चामनेकावयवग्रहणं वर्तते। को भावः यथा गजादीनां तिरश्चां दन्तादिक सर्वेषां भोगाय भवति तथा मनुष्यावयवो न भोगाय भवति पश्चादतः कथ्यतेऽनेनादौ जिनधर्मो विधेय इति // 21 // पूइयकाए य इह, चवणमुहे निचकालवीसत्थो॥ आइक्खसु सम्भावं, किम्हिसि गिद्धो तुम मूढ / / 2 / / इह पूतिककाये अपवित्रवपुषि च्यवनमुखे मरणसन्मुखे | नित्यकालविश्वस्तः सदा विश्वासं गतः (आइक्खसुत्ति) आख्याहि कथय सद्भाव हार्द (किम्हिसित्ति) कस्मादऽसि गृद्धस्त्वं मूढो मूर्खः यता हे मूर्ख यद्वा हे मूढ ब्रह्मदत्तदशमुखादिवत् // 22 // दंता वि अकजकरा, बाला विविवडमाणबीभत्था। चम्मं पि य बीभत्थं, भय किं तसितं गओ राग |23|| दन्ता अपि अकार्यकरा बाला अपि विवर्द्धमानाः सर्पवत् बीभत्सा भयंकराः चापि च बीभत्संभण कथय किं (तसित्ति) तस्मिन् शरीरे (तमित्ति) त्वं रागं गतः // 23 // सिंभे पित्ते मुत्ते, गृहम्मि य वसाइ दंत कुडीसु / / भणसु किमत्थं तुझं, असुइमिवि वडिओ रागो ||24|| (सिंभेत्ति) कफे पित्तमायुषि मूत्रे प्रस्रवणे गूथे विष्ठायां (वसाइत्ति) वसायाः (दन्तकुडीसुत्ति) हडभाजने यद्वा मकारोऽलाक्षणिकः दन्तकुड्यां यद्वा (दंतकुडीसुत्ति) दंष्ट्रासु भण कथय किमर्थं तवाशुचावपि वर्द्धिते रागः // 24 // जंघट्ठियासु ऊरू, पइट्ठिया तट्ठिया कडीपिट्ठी। कडियद्विवेट्ठियाई, अट्ठारसपिट्ठिअट्ठीणी / / 25| (जट्ठियासुऊरुत्ति) जंचास्थिकथोरूरुप्रतिष्ठितौ स्थापितौ यदा जङ्घास्थितयोरूरू भवतः (पइट्ठियत्ति) अत्रायं पदसम्बन्धः तथोरूर्वोः स्थिता तत्स्थिता कटिः श्रोणिर्भवति कट्यां प्रतिष्ठिता स्थापिता (पिट्टित्ति) पृष्ठिर्भवति कट्यास्थिवेष्टितानि अष्टादश 18 पष्ठयस्थीनि भवन्ति शरीर इति // 25 // दो अच्छि अहियाई, सोलस गीबहियामुणेयव्वा। पिटिप्पइट्ठियाओ, बारस किल पंसुली हुँति / / 26 / / द्वे अक्ष्यस्थिनी भवतः षोडशग्रीवास्थीनि ज्ञातव्यानि पृष्ठि प्रतिष्ठिताः द्वादश किलेति प्रसिद्ध पंशुल्यो भवन्ति / / 26 / / अद्विय कठिये सिरन्हा, रूबंधणे मंसचम्मलेवम्मि। विट्ठा कोट्ठागारे, को वचघरो व मे रागो।। अस्थिभिः (कठिणे) कठिने यदा कठिनानि अस्थिकानि यत्र तत्तथास्मिन् सिराश्रसानां लध्वीतराणां बन्धनं यत्र तत्तथा तस्मिन्, मांसचमलेपे विष्ठाकोष्ठाकारे वर्चस्कग्रहोपमे कलेवरे रे जीव तव को रागः // 27 // जह नाम वचकूवो, निचं भिणि मिणि भणंतकायकली। किमिएहि सुलसुलायइ, सो एहिं य पूइयं वहइ / / 2 / / यथेति दृष्टान्तोपदर्शने नामेति कोमलामन्त्रणे संभावनेवा (वचकूवोत्ति) वर्चस्ककूपो विष्ठाभृतकूपो भवति किंभूतः भिणिभिणीशब्द (भणंतत्ति) भणन् भृशं कथयन् काककलियससंग्रामो यत्र स भिणिभिणित्यभणत्काककलिः क्रमिकैर्विष्ठानीलङ्गुभिः सुलुसुलेत्येवं शब्दं करोतीति सुलुसुलायते श्रोतोभिश्व रेल्लकैः पूतिकं परमदुर्गन्धं वहति सवति इत्यर्थः यथा विष्ठाकूपः तथेदमपि शरीरं ज्ञातव्यं मृतावस्थायां रोगाद्यवस्थायां वेति // 28 // अथ शरीरस्य शवावस्थां दर्शयति गाथात्रयेण / उद्धियनयणं खगमुह, विकट्टियं विप्पइन्नबाहुलयं / अंतविकट्टियमालं, सीसघडीपागडीधोरं।। भिणि भिणि भणंत सई, विसप्पियं सुबुसलिंतमंसार्ड। मिसि मिसि मिसंत किमियं, थिवि थिवि थिवि अंतबीभच्छं। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 635 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी पागडिएणं पसुलियं, विगरालं सुक्क संधिसंघायं / पडियं निचेणयं, सरीरमेयारिसं जाण ||31|| उद्धृते निष्कासिते काकादिभिर्नयेन लोचने यस्य शवस्य यस्मिन् यस्माद्वा तदुद्धृतनयनं खगमुखैर्विहङ्गतुण्डैः (विकदृियत्ति) विकर्तितं विशेषेण कर्तितं पाटितं खगमुखविकर्तितम् विप्रकीर्णी अवकीर्णीविरलावित्यर्थः। (बाहुलयंति) बाहू प्रविष्टौ यस्य शवस्य तत् प्रकीर्णबाहुः (अंतविकदियमालंति) विकर्षितान्त्रमालं गालादिभिरिति (सीस घडियाघडित्ति) प्रगटया शीर्षघटिकया तुम्बलिकया धोरं रौद्रम् |29|| (भिणिभिणीति भणंतत्ति) धातूनामनेकार्थत्वादुत्पद्यमानः भिणिभिणीति शब्दो यत्र तत् भिणिभिणिभणच्छब्दं मक्षिकादिभिर्गणगणायमानमित्यर्थः / अङ्गादिशिथिलत्वेन विस्तारंव्रजन (सुलुसुलंतमंसपोडंति) सुलुसुलायमानमांसपुटम् (मिसिमिसिमिसंतकिमियंति) मिसिमिसीति मिसन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र तन्मिसिमिसिमिसत्कृमिकं (थिविथिविथिविअंतबीभच्छंति) छवछबायमानैरन्त्रबीभत्सं रौद्रमित्यर्थः ||30|| प्रकटिताः प्रकटत्वं प्राप्ताः पांशुलिका यत्र तत्प्रकटितपांशुलिकं विकरालं भयोत्पादकम् / शुष्काश्च ततः संधयश्च शुष्करांधयस्तासां संघातः समुदायो यत्र तच्छुष्कसंघातं पतितं गर्तादौ निश्चेतनकं चैतनयवर्जितं शरीरं वपुः एतादृशं पूर्वोक्तधर्मयुक्तं त्वं (जाणत्ति) जानीहि 'जाण' इति पाठे तु निश्चेतनकं शरीरमहमीदृशं जानामीति ||31|| वचाओ असुइतरं, नवहिं सोएहिं परिलगतेहिं। आमममल्लगरूवे, निव्वेयं वच्चहशरीरे ||32|| नवभिः श्रोतोभिः परिगलद्भिः वर्चस्कादगूथात् अशु-चितरमपवित्रतमम् (आमममल्लगरूवेत्ति) अपक्वशरावतुल्ये शरीरे निर्वेदं वैराग्यं व्रजत-- विष्णुश्रीशरीरे विक्रमयशोराजस्येव / / 3 / / दो हत्था दो पाया, सीसं उच्चं पियं कबंधम्मि। कलमलकोट्ठागारं, परिवहसि दुयादुयं वच्चं / / 33 / / द्विहस्ते द्विपादे (सीसं उचपियंति) शीर्षमुत्प्राबल्येन चम्पितं यत्र तच्छी!चम्पितं तस्मिन्यद्वा शीर्षे उत्प्रावल्येन चम्पितमाक्रमितं यत्तत्तथा तस्मिन् / प्राकृतत्वात् अनुस्वारः शीर्षोचम्पिरे कलमलकोष्ठागारे एवंविधेकबन्धे (दुयादुयंति) शीघ्रं शीघ्रं किं वर्चस्कं परिवहसि त्वमिति अत्र यथोयोगं विभक्तिविपरिणामो ज्ञेय इति // 33 // तं च किर रूववंतं, वच्चतरायमग्गमाइण्णं / परगंधेहिं सुगंधयं, मन्नंतो अप्पणो गंधं // 34|| चपुनस्तच्छरीरं (किरत्ति) संभावनायां रूपवत् व्रजत् राजमार्ग (आइण्णंति) प्राप्तं तत्र परगन्धैः पाटलचम्यकादिभिः सुगन्धकं जातं तत्र च त्वमात्मनो गन्धं (मन्नंतोत्ति) जानन् हर्षयसीति // 34 / / परगन्धं दर्शयतिपाडलचंपयमल्लिय-अगरूयचंदणतुरुक्ख मीसं वा। गंधं समोयरंतो, मन्नतो अप्पणो गंधं // 35|| पाटलचम्पकमल्लिकागुरुकचन्दनतुरुष्कमिश्र वा अथवा मिश्र संयोगोत्पन्नं यक्षकर्दमादिकं गन्धकस्तृर्यादिकं किंभूतं (समोयरंतोति) सर्वतो विस्तरत् एवंविधं परगन्धमात्मगन्धमिति (मन्नंतोत्ति) जानन् हर्षयसीति ||35|| सुहवाससुरहिगंध, वायसुहं अगरुगंधियं अंग। केसा न्हाणसुगंधा, कयरो ते अप्पणो गंधो // 36 / / शुभवासैः सुन्दरचूर्णःसुरभिगन्धं सुष्टुगन्धं शुभवाससुरभि गन्धं वातैः शीतलादिभिः सुखं शुभं वा यत्र तत् वातसुखम् अगरुगन्धो धूपनादिप्रकारेण जातोऽस्येति अगरुगन्धि तमेवंविधमङ्ग गात्रं वर्तते (केसान्हाणसुगंधत्ति) ये च केशाः कचाः ते स्नानेन सवनेन सुगन्धा वर्तन्ते अथ कथन त्वं कतरः कतमः ते तवात्मनो गन्ध इति॥३६|| अच्छिमलो कन्नमलो, खलो सिंघावओ य पूओ य। असुई मुत्तपुरिसो, एसो ए अप्पणो गंधो / / 37 / / अक्षिमलो दूषिकादिः कर्णमलः श्लेष्मा कण्ठ मुखश्लेष्मा (सिंधाणओत्ति) नासिका श्लेष्मा चशब्दादन्योऽपि दन्तमलजिह्वामलगुह्यमलकक्षामलादिः किंभूतः (पूओयत्ति) पूतिको दुर्गन्धः तथा अशुचि सर्वप्रकारैरशुभं मूत्रपुरीषं प्रश्राव-गूथमेषोऽनन्तरोक्तस्ते तवात्मनो गन्धः // 37 / / (11) अथ वैराग्योत्पादनार्थ स्त्रीचरित्रं दर्शयति यथाजाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अणे गे हिं क इवरसहस्सेहिं विविपासपडिबद्धेहिं कामरागमोहेहिं वन्नियाओ ताओ वि एरिसाओ-तंजहा पगइविसमाओ१ पियवयणवल्लरीओ२ कइयवपेमगिरितडिओ 3 अवराहसहस्सघरणीओ 4 पभवो सोगस्स विणा सो बलस्ससूणा पुरिसाणं नासो लज्जाए। संकरो अविणयस्स 9 निलओ नियडीणं 10 खणी वइरस्स 11 सरीरं सोगस्स 12 भेओ मझायाणं 13 आसाओ रागस्स 14 निलओ दुचरियाणं 15 माइए संमोहो 16 खलणा नाणस्स 17 चलणं शीलस्स 18 विग्यो धम्मस्स 19 अरी साहूणं 20 दूसणं आयारपत्ताणं२१ आरामो कम्मरयस्स 22 फलिहो मुक्खमग्गस्स 23 भवणं दरिहस्स 24 अवि याओ इमाओ आसीविसो विव कुवियाओ 25 मत्तगओ विव मयणपरवसाओ 26 वग्घी विव दुहिययाओ 27 तणच्छन्नकूवो विव अप्पगासहिययाओ 28 मायाकारओ विव उवयारसयबंधणपओत्ताओ 29 आयरियसविधं पिव बहुगिज्झ सब्भावाओ 30 फुफुया विव अंतोदहणसीलाओ 31 नग्गयमग्गे विव अणवट्ठियचित्ताओ 32 अंतो दुट्ठवणो विव कुहियहिययाओ 33 किण्हसप्पो विव अविसस्सणिज्जाओ 34 संघारो विव छन्नमायाओ 35 संज्झब्भरागो विव मुहुत्तरागाओ 36 समुददीची विव चलस्सभावाओ 37 मच्छो विव दुप्परियत्तणसीलाओ३८ वानरो विवचलचित्ताओ 39 मचु विव निव्विसेसाओ 40 कालो विव निरणुकंपाओ 41 वरुणो विव पासहत्थाओ 42 सलिलमिव निम्मगामिणीओ 43 किवणो विव उत्ताणहत्थाओ 44 नरओ विव Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 636 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी त्तासणिज्जाओ४५ खरो विव दुःसीलाओ४६ दुट्ठा सो विवदुइमाओ 47 वालो इव मुहुत्तहिययाओ 48 अंधयारमिव दुप्पवेसाओ 49 विसवल्ली अणल्लीय णिज्जाओ 50 दुग्गहा इव वापी अणवगाहाओ५१ ठाणभट्ठो विव इस्सरो अप्पसंसणिज्जाओ५२ किं पागफ लमिव मुहमहुराओ 53 रित्तमुही विव बाललोभणिज्जाओ 54 मंसपेसीगहणमिव सोवद्दवाओ 55 जलियचुडली विव अमुचमाणडहणसीलाओ 16 अरिहमिव दुल्लंघणिज्जाओ 57 कूडकरिसावणो विव कालविसंवायणसीलाओ 58 चंडसीलो विव दुक्खरक्खियाओ 59 अइविसाओ६. दुग्गंछियाओ६१ दुरुवचाराओ६२ अगंभीराओ 63 अविस्ससणिजाओ६४ अणवत्थियाओ६५ दुक्खरक्खियाओ 66 दुक्खपालियाओ 67 अरइकराओ 68 कक्कसाओ 69 दढवेराओ 70 रूवसोहग्गमउमत्ताओ 71 भुयगगइकुटिलहिययाओ 72 कंतारगईठाणभूयाओ 73 कुलसयणमित्तभयेण कारिकाओ 74 परदोसपगासियाओ 75 कयग्घाओ 76 बलसोहियाओ ७७एगतहरणलोकाओ७८ चंचलाओ 79 जोईभंडोवरागो विवमुहरागविरागाओ 80 अवि याइं ताओ अंतरंगभंगसय 81 अरज्जुओ पासो 82 अदारुया अडवी 83 अणालयस्स निलओ 84 अइक्खेवयरणी 85 अणामियावाहि 86 अवि ओगो विप्पलावो 87 अरु उवसग्गो 88 रइवतो 89 चित्त विन्भमो 90 सवंगओ दाहो 91 अणब्भयावज्जासणी 92 असलीलप्पवाहो 93 समुद्दरओ 94 // (जाओ चिय इमाओ) इत आरभ्य (समुद्दरओ) इतिपर्यन्तं गाया इव इमा वक्ष्यमाणाः स्त्रियः अनेकैः कविवरसहौः विवि-धपाशप्रतिबद्धैः कामरागमोहैर्मन्मथरागमूतैः (वन्नियाओत्ति) वर्णिताः शृङ्गारादिवर्णनप्रकारेणेति (ताओ वित्ति) ता अपि ईदृशा वक्ष्यमाणस्वरूपा ज्ञातव्याः तद्यथा (पगइतिसमाओत्ति) प्रकृत्या स्वभावेन विषमा वक्रभावयुक्ता आवश्यकोक्तपतिमारिकावत् 1 (पिय.) प्रियवचनवल्लयों मिष्टवाणीमजोज्ञातासूत्रोक्त-जिनपालजिनरक्षितोपसर्गकारिणी रत्नद्वीपदेवीवत् 2 (कइय.) कैतवप्रेमगिरितट्यः कुशिष्यफूलबालकपातिका मागधिका-गणिकावत् 3 (अवरा०) अपराधसहस्रगृहरूपाः ब्रह्मदत्त-मातृचुलनीवत् 4 (पभवो.) अथं स्त्रीरूपो वस्तुस्वभावप्रभव उत्पत्तिस्थानं कस्य शोकस्य सीतागते रामस्येव 5 (विणा०) विनाशो बलस्य पुरुषबलस्य क्षयहेतुत्वात्। उक्तंच। "दर्शन हरते चित्तं, स्पर्शने हरते बलम् / सङ्गमे हरते वीर्य, नारी प्रत्य-क्षराक्षसी" || इति यद्वा विनाशःक्षयः कस्य बलस्य शैन्यस्य कोणिकस्त्रीपद्मावतीवत (सूणा.) पुरुषाणां शूना बधस्थानं शूरिकन्ताराज्ञीवत् 7 नाशो लज्जाया लज्जाभावरहितत्वात् लक्ष्मणप्रार्थनकारिकासूर्पणखावत् / यद्वा लज्जानाशः अस्याः सङ्गे पुरुषस्य लज्जानाशो भवति गोविन्दद्विजपुत्रवत् / यद्वा नाशः क्षयः लज्जायाः पतिलज्जायां संघस्याऽऽषाढभूतियतिचारित्रलुण्टिकानटपुत्रीवत् 8 (संक.) संकरउत्करुटकऊकरडउ इति जनोक्तिः कस्य अविनयस्य श्वेतागुल्यादिपुरुषाणां भार्यावत्९ (निल.) निलयो गृहं कासां प्रकृत्यान्तरदम्भानामित्यर्थः चण्डप्रद्योतप्रेषिता अभयकुमारवञ्चिकावेश्यावत् 10 (खणीति) खानिराकरः कस्य वैरस्य जमदनितापसस्त्रीरेणुकावत् ११शरीरं शोकस्य वीककादम्बिकस्त्रीवनमालावत् 12 भेदो नाशः मर्यादायाः कुलरूपायाः श्रीपतिश्रेष्ठिपुत्रीवत् यथा मर्यादायाः संयमलक्षणाया विनाशः आर्द्रकुमारसंयमस्यार्द्रकुमारपूर्व-भवस्त्रीवत् 13 (आसाओत्ति) आशा वाञ्छा रागस्य कामरागस्य तद्धेतुकत्वात्। यद्वा आश्रयः स्थानं रागस्य उपलक्षणत्वाद् द्वेषस्यापि आर्षत्वादाकारः। यद्वा आईषदपि अइति स्वादः आ अस्वादः कस्य (रागस्सत्ति) धर्मरागस्य 14 (निल.) निलयो गेहं केषां दुश्चरित्राणां भूयंगमचौरभगिनीवीरमतीवत् 15 (माई.) मातृकायाः समूहः कमलश्रेष्ठिसुतापद्मिनीवत् 16 (खल०) स्खलनाः खण्डनाः ज्ञानस्य श्रुतज्ञानादेः उपलक्षणाचारित्रादे रण्डाकुरण्डामुण्डिकादिबहुप्रसङ्गे तदभावत्वात् / अर्हन्नक-क्षुल्लकवत् 17 (चल०) चलन शीलस्य ब्रहाव्रतस्य ब्रह्मचारिणां तस्याः सङ्गे तन्न तिष्ठतीति भावः 18 (विग्यो.) विघ्नमन्तरायं धर्मस्य श्रुतचारित्रादेः 19 (अरी.) अरिर्निर्दयो रिपुः केषां साधूनां मोक्षपथसाधकानां चारित्रप्राणविनाशक हेतुत्वात् महानरककारागृह प्रक्षेपकत्वाच्चकूलवालुकस्य मागधिकावेश्यावत् 20 (दूस०) दूषणं कलङ्कः केषां (आया.) ब्रह्मवताद्याचारापन्नानाम् 21 आरामः कृत्रिमवनं कस्य कर्मरजसः कर्मपरागस्य / यद्वा कर्म च निविडमोहनीयादि, रश्चकामः, चश्च चौरः,रचं तस्यारामं धाटिका 22 (फलिहोत्ति.) अर्गला यद्वा झम्पकः मोक्षमार्गस्य शिवपथस्य 23 भवनं गृहं दरिद्रस्य 24 (अवियाउइमाउत्ति) अपिच या इमा वक्ष्यमाणाः स्त्रियः एवंविधा भवन्ति (आसिवि.) विव शब्द इवार्थे आशीविषवत् दंष्ट्राविषभुजंगमवत् कुपिताः कोपङ्गता भवन्ति 25 (मत्त.) मतंगज उन्मत्तमतंगज इव मदनपरवशा मन्मथविह्वला भवन्ति अभयाराज्ञीवत् 26 (वग्घी.) व्याघ्रीवत् दुष्टहृदयाः दुष्टचित्ताः पालगो मात्रपरमातृमहालक्ष्मीवत् 27 (तण.) तृणच्छन्नकूप इव तृणसमूहाच्छादितान्धवत् अप्रकाशहृदयाः शतकश्रावकभारिवतीवत् 28 (माया.) मायाकारक इव परवञ्चकमृगाधिबन्धक इव उपचारशतबन्धनशतप्रयुक्ताः प्रयोक्त्र्यो वा तत्रोपचारशतानि उपचारिकवचनचेष्टादि शतानि बन्धनानि रज्जुस्नेहानि बन्धनशतानि च तेषां (पओत्ताओत्ति) प्रयोगकर्त्यः 29 (आयरि०) अत्रापि च इवार्थे आचार्यसविध-मिवानुयोगकृतसमीपमिव बहुभिरनेकप्रकारैरनेकषुरुषैर्वा ग्राह्यो ग्रहीतुं शक्यः / यद्वा आर्षत्वात् (अगिज्झत्ति) अग्राह्यः सर्वथाग्रहीतुमशक्यः सद्भाव आन्तरचित्ताभिप्रायो यासांता बहुगाह्यसद्भावाः। बलग्राह्यसद्भावा वा 30 (फुफु.) फुपुकः करीषाग्निः कोउकस्तद्वत् अन्तर्दहनशीलाः पुरुषाणामन्तर्दुः-खाग्निज्वालनत्वात्। उक्तचं- "पुत्रश्च मूल् विधवा च कन्या, शठं च मित्रं चपलं कलत्रम् / विलासकालेपि दरिद्रता च विनाग्रिना पश दहन्ति देहम्" 31 (नग्गय.) विषमपर्वतमार्गवत् अनवस्थित-चित्तानैकत्रस्थापितान्तः करणा इत्यर्थः अनङ्ग सेन सुर्वर्णकारजीवस्त्रीवत् यद्वा नग्रकमार्गवत् जिनकल्पिकपथ वत् / नैकत्रचित्ताः यद्वा नग्नकमार्गवत् भूतावेष्टिताचारवत् Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 637 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी नैकत्र स्थानचित्ताः 32 (अंतोदु.) अन्तर्दुष्टव्रणवत् कुथितहृदयाः तिलभट्टोन्मत्तरामावत् 33 (किण्ह.) कृष्णसर्पवत् (अवि.) विश्वासंकर्तुमयोग्या इत्यर्थः 34 (संघा.) संहारवत् बहुजन्तु क्षयवच्छन्नमायाः प्रच्छन्नमातृकाः 35 (संज्झ०) सन्ध्याभरागवत् मुहूर्तरागाः / तथाविधदुष्ट वेश्यावत्-३६ (समुद्द०) समुद्रवीचिवत्सागरतरङ्गवच्चलस्वभावाः चञ्चलस्वाभिप्रायाः 37 (मच्छो०) मत्स्यवहदुष्परिवर्तनशीलाः महता कष्टेन परिवर्तनं पश्चादालयितुं शीलं स्वभावो यासां तास्तथा 38 (वानर०) वानरवत् चलचित्ताः 39 (मञ्च विव) मृत्युवत् मरणवत् निर्विशेषाः विशेषबर्जिताः 40 (कालोत्ति.) दुर्भिक्षकाल एकान्त-दुःषमाकालो वा यद्वा लोकोक्तो दुष्टसर्पस्तद्वत् निरनुकम्पादयांशवजिता कीर्तिधरराजभार्यासुकोसलजननीवत्। 41 (वरु०) वरुणवत् पाशहस्ताः पुरुषाणामालिङ्ग नादिभिः कामपाशबन्धनहे तुहस्तत्वात् 42 (सलि.) सलिलमिव जलमिव प्रायो नीचगामिन्यः स्वकान्तनृपनदीप्रक्षेपिका अध-मपड्गुकामिका राशीवत् 43 (किव) कृपणवत् उत्तानहस्ताः सर्वेभ्यो मातृपितृबन्धुकुटुम्बादिभ्यो विवाहादावादानहेतुत्वात् 44 (नरओ०) नरकवत् त्रासनीया दुष्टकर्मकारित्वात् महाभयङ्कराः लक्ष्मणासाध्वीजीववेश्यादांसीघातिका कुलपुत्रभार्यावत् 45 (खरो.) खरवत् विष्ठाभक्षकगईभवत् दुःशीलाः दुष्टाचाराः निर्लज्जत्वेन यत्र तत्र ग्रामनगरारण्यमार्गक्षेत्रग्रहोपाश्रयचैत्यगृहगर्तवाटिकादौ पुरुषाणां वाञ्छाकारित्वात् / तथा-विधवेश्या दुष्टदासीरण्डिकामुण्डिकादीनामिव 46 (दुट्ठस्सो.) दुष्टाश्ववत् कुलक्षणघोटकवत् दुर्दमाः सर्वप्रकारैर्निलजीकृता अपि पुनः पुरुषसंयोगे स्वकामाभिप्रायकर्षण हेतुत्वात् 47 (बालो) बालवत् शिशुवत् मुहूर्तहृदयाः मुहूर्तानन्तरं प्रायोऽन्यत्र रागधारकवत् कपिलब्राह्मणासक्तदासीवत् 48 (अंधकार.) कृष्णभूतेष्टादिभवमन्धकारमरुण वरसमुद्रोद्भवतमस्कायं वा तद्वत् दुष्प्रयेशाः मायामहान्धकारगहनं येन देवानामपि दुष्प्रवेशत्वात् 49 (विस.) विषवल्लीवत् हालाहलविषलतावत् (अणा.) अनाश्रयणीयाः सर्वथा सङ्गादिकर्तुमयोग्यास्तात्कालप्राणप्रयाण हेतुत्वात् पर्वतकराजस्य नन्दपुत्रीविषकन्यावत् 10 // दुबगाहा इव] दुष्टग्राहा नियमहामकरादिजलजन्तुसेवितावापीवत् / अनवग्राह्या महता कष्टेनापि अप्रवेशयोग्याः सुदर्शनश्रेष्ठिवत्५१ [ठाणभ०] स्थानभ्रष्टः ईश्वरी ग्रामनगरादिनायकस्तद्गतं / यद्वा स्थानं चारित्रगुरुकुलवासादिकं तस्माद्दष्टः ईश्वरश्चारित्रनायकः साधुरित्यर्थस्तद्वत्। यद्वा स्थानं सिद्धान्तव्याख्यानरूपं तस्माद्दष्टः उत्सूत्रप्ररूपणेन ईश्वरो गणनायक आचार्य इत्यर्थः तद्वत्।यद्वास्थानभ्रष्टो दुष्टाचारे रक्त इत्यर्थः ईश्वरः सत्यकीविद्या धरस्तद्वत् अप्रशंसनीयाः साधुजनैः प्रशंसांकर्तृ योग्या नेत्यर्थः 52 (किंपाग.) किंपाकफलमिव मुखे आदौ मधुरा महाकाम-रसोत्पादिका परं पश्चाद्विपाकदारुणाः ब्रह्मदत्तचक्रिवत् 53 (रित्तुमु०) रिक्तमुष्टिवत् पोल्लकमुष्टिकवत् बाललोभनीयाः अव्यक्तजनलोभनयोग्या वल्कलचीरीतापसवत् 54 [मंस.] मांसपेसीग्रहणमिव सोपद्रवा यथा केनापि सामान्यपक्षिणा कुतश्चित् स्थानान्मांसापेशीप्राप्तौ तस्य अन्यदुष्ट पंक्षिकृतानेकशरीरपीडाकरिण उपद्रवा भवन्ति तथा रामाग्रहणेऽनेके इह भवे परभवे दारुणा उपद्रवा जायन्ते। यद्वा यथा मत्स्थानां मांसपेशीग्रहणं सोपद्रवं तथा नराणामपीति 55[ जलि. ] अमुञ्चन्ति अत्यजमानाः [जलियचुडिलीविवत्ति] प्रदीप्ततृणपूलिकेव दहनशीलाः ज्वालनस्वभावाः 56 [अरि] अरिष्टमिवदुर्लङ्घनीयाः 17 [कूड] कूटकार्षापण इवासत्यनाणकविशेष इव कालविसंवादनशीला काल विधातस्वभाव अकालचारिण्य इत्यर्थः 58 [चंड] चण्डशील इव तीव्रकोपीव दुःखरक्षिता ५५[अतिविसाओत्ति०] अतिविषादा दारुणविषाद हेतुत्वात्यद्वा [अतीति] अतिक्रान्तो गतोऽकार्यकरणे विषादः खेदो यासां तास्तथा यद्वा अतीति विषं अतिविषम् आ समन्तात् ददति पुरुषाणां सूरिकान्तावत् यास्ता अतिविषादाः यदा अतीति भृशं दीति नानाविधः स्वादो विषयलाम्पट्यो यासांता अतिविषादाः अथवा अतिविषयात्प्रबलपञ्चेन्द्रियलाम्पट्यात् षष्ठी नरकभूमिं यावत् सुसढमातृवत् गच्छन्ति यास्ता अतिविषयगाः प्राकृतत्वात्यकारलोपे सन्धिः / यद्वा स्वेन्द्रियविषयाप्राप्तौ अति विषादा इति। यद्वा अतिवृषं तीव्रपुण्यं येषान्ते अतिवृषाः मुनयस्तेषामासमन्तात् वसत्यन्तो बहिश्च कायन्ति यमयन्ति यम इवाघरन्ति चारित्रप्राणकर्षणत्वेन यास्ताः अति वृषाकाः यद्वा कायन्ति अनयन्ति समितिगृहज्वालनत्वेन यास्ताः अतिवृषाकाः यद्वा लोकानामतिवृषे तीव्रपुण्यधने आभृशं चायन्तिचोरयन्ति यास्ताः अतिवृषाचाः६० (दुगुछि) जुगुप्सिकाः जुगुप्सां कर्तुं योग्याः मुनीनाम् 61 (दुरु.) दुरुपचाराः दुष्टोपचारान्वितो वचनादिविस्तारो यासां तास्तथा 62 अगम्भीरा गम्भीरगुणरहिताः६३ (अवि.) अविश्वसनीया विश्रम्भ कर्तुमयोग्याः 64 (अण.) अनवस्थिताः नैकस्मिन् पुरुष तिष्ठन्तीत्यर्थः 65 (दुक्ख.) दुःखरक्षिता कष्टन रक्षणयोग्याः यौवनावस्थायाम् 66 (दुक्खपा.) दुःखपालिता दुःखेन पालयितुं शक्या बालावस्थायाम् 67 (अरइ.) अरतिकराः उद्वेगजनिकाः 68 (कक्क.) कर्क शा इह परत्र कर्कशदुःखोत्पादकत्वात् 69 दृढवैरा इह परत्रदारुणवैरकारणत्वात् 70 [रूव ] रूपसौभाग्यमदमत्ताः तत्र रूपं चार्वाकृतिः सौभाग्यं स्वकीर्तिश्रवणादिरूपं मदोमन्मयजगर्वः 71 (भुय.) भुजगगतिवत् कुटिलहृदयाः 72 [कंता.] कान्तार गतिस्थानभूताः कान्तारे दुष्टश्वापदाकुले महारण्ये गतिश्चैकाकित्वेन गमनं स्थानं चैकाकित्वेनवसनं तथोर्भूतास्तुल्याः दारुणमहाभयोत्पादकत्वात् 73 (कुलस.) कुलस्वजनमित्रभेदनकारिकाः वंशज्ञातिसुहृद्विनाशजनिकाः 74 [पर] परदोषप्रकाशिकाः अन्यदोषप्रकट कारिकाः 75 (कय.) कृतं वस्वाभरणपात्रादिप्रदत्तं प्रन्ति सर्वथा नाशयन्तीमेवं शीलाःकृतघ्नाः 76 [बलसो.] बलं पुरुषवीर्य प्रतिसङ्गमसङ्ग वा शोधयन्तिगालयन्तीत्येवं शीला बलशोधिकाः / यद्वा बलेन स्वसामर्थ्यलक्षणेन च निशादौ जारपुरुषादीनां शोधिकास्तच्छुद्धिकारिका बलशोधिकाः / यद्वा बलयोरलयोरैक्याद्वरशोधिकाः स्वेच्छया पाणिग्रहणकरणत्वात् धम्मिलस्त्रीवृन्दवत् 77 (एग.) एकान्ते विजने हरणं नेतव्यं पुरुषाणां विषयार्थमे कान्तहरणम् यद्वा एकान्ते दूरग्रामनगरदेशादी स्वकुटुम्बादिजनरहिते हरणंतत्रपुरुषाणां विषयाथ लात्वा गमनमित्यर्थः तत्र कौलाः वनसूकरतुल्याः यथा सूकरः किमपि सारं कन्दादिकं भक्ष्य प्राप्त विजने गत्वा भक्षयति तथेमाः 78 [चंच०] चञ्चलाश्चपलाः 79 [जोइभंडो.] ज्योतिर्भाण्डोपरागवत् अग्निभाजनसमीपरागवत् [मुहरा०] मुखरागविरागा यथाग्नि-भाजनसमीपे मुखं रागवद्भवति अन्ते विरागं तथेमाः / यद्वा (जोहभंडोवरागाओत्ति) पाठे तु ज्योति भण्डस्येवो - Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 638 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ इत्थी परागाः यथा ज्योतिर्भाण्डमग्निभाजनमुपसमीपे रागवद्भवति तथेमाः वस्त्रा-दिभिरुप समीपे रागवत्यो भवन्तीत्यर्थः 80 [अवियाइंति) अपि चेति अभ्युच्चये आ इति वाक्यालंकारे [तओत्ति] ताः स्त्रियः [अंतर] अन्तरङ्गसङ्गशतमभ्यन्तरविघटनशतम् अस्या-पेक्षयायात पुरुषस्य परस्परं मैत्र्यादिवि नाशहेतुत्वात् / यद्वा अन्तर्मध्ये रंगत्ति] पुरुषाणां ब्रह्मव्रतचारित्रदिरागस्तस्य भङ्गशतं तस्य विघ्नहेतुत्वात् 81 (अरज्जु) अरज्जुकाः पाशः रज्जुकं विना बन्धनामित्यर्थः 82 [अदा] अदारु काष्ठादिरहिता अटवी कान्तारं यथा दारुका अटवी मृगतृष्णाहेतुर्भवति तथेमाः यथा काष्ठादिरहिता अटवी कदापि न ज्वलति यथेयमपि पापं कृत्वा न ज्वलति न पश्चात्तापं करोतीत्यर्थः वृषभकलङ्कदात्रीश्रावकभार्यावत् / 83 [अणाल] न आलस्यमनुत्साहो ऽनालस्यं तस्य निलयः अकार्यादौ सादरं प्रवृत्ति हेतुत्वात् 84 [अइक्खेवयरणीत्ति०] ईक्षदर्शनाङ्कनयोरिति वचनात् अनैक्षवैतरणी अदृक्ष्यवैतरणी परमा धार्मिकविकुर्वितनरकनदी तस्सङ्गे तदवाप्तिहेतुत्वात् अतीक्ष्णवैतरणी वा 85 [अणा०] अनामिको नामरहितो व्याधिरसाध्यरोग इह परत्र तत्कारणत्वात् 86 [अविओ.] न वि योगः पुत्रमित्रादिविरहः अवियोगः विप्रलापः तीव्रखेदः 87 अरुक् रोगरहित उपसर्गः [अरु.) यदा आर्षत्वाद्वकारलोपे अरूपो रूपरहित उपसर्ग उत्पातः 88 [रइ.] रतिः कामप्रिया विद्यतेऽस्येति रतिमान् कन्दर्पोऽयमिति 89 (चित्त विब्भम) चित्रभ्रमकारणम् यद्वा रतिमान् सुखदायी मनोभ्रमो मनोविकारः 90 [सव्वंग] सर्वाङ्गगः सर्वशरीर व्यापीदाहः 91 [अणडभया वज्जासणीति] अनभ्रका अभ्ररहिता वाशनिर्विद्युत् / यता इयं स्त्री॰ [असणीत्ति] अशनिर्विद्युत् किंभूता अनभ्रका मेघरहितावापुनः किंभूता वज्रा वज्रतुल्या इत्यर्थः दारुणविपाका [अप्पसूया वजासणीत्ति] पाठे अग्रसूता अपत्यजन्मरहिता [वजेत्ति] वा सुन्दराकारा एवंविधा रामा असणि.] अशनिर्विादालानां नरकादौ दारुणदहन हेतुत्वात् "अप्पसुथावज्जासुणीति' पाठे तु अप्रसूता नवयौवना परिणीता अपरिणीता वा सालङ्कारा अनलङ्कारा वा मुण्डा अमुण्डा वा एवंविधा रामा (सुणीति) हडक्किकाशुनीवत् मण्डलीवत् (वजेति) वा सर्वथा साधुभिर्मोक्ष का दिः ब्रह्मचारिभिश्चतुर्थव्रतरक्षां काश द्भिर्वर्जनीयेत्यर्थः / कायवाङ्मनोभिरिति 92 [असलिलप्पवाहोत्ति.] अजलप्रवाहः "असलिलप्पलावोत्ति" पाठान्तम्। अजलप्लावः जलं विनारेल्लिरित्यर्थः 93 [समुद्दरओत्ति समुद्रवेगः केनापि धर्तुमशक्यत्वात् 'समद्धरओत्ति' पाठे तु सम्यगर्द्धं यस्मात्स समर्द्धः एवंविधाः (रओत्ति) वेगः परमोहवतां बान्धवानां परस्परं स्त्रीकलहे सति गृहार्द्धकरण हेतुत्वात् भद्रातिभद्राख्यौ श्रेष्ठिपुत्राविव 94 // अवि याइं तासिं इत्थियाणं अणेगाणी नाम निरुत्ताणि पुरिसे कामरागपडिबद्धं नाणाविहेहि उवायसयसहस्सेहिं वहबंधणमाणयंति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरीअस्थि ओत्ति नारिओ तंजहा नारी समाननराणं अरिओ नारिओ नाणा विहे हिं कम्मेहिं सिप्पयाइहिं पुरिसे मोहंतित्ति महिलाओ२ पुरिसे मत्ते करेतित्ति पमयाओ 3 महंतं कलिजणयंतित्ति महिलियाओ 4 पुरिसे हावभावमाईहिं रमंतित्ति रामाओ५ पुरिसे अंगाणुराए करंतित्ति अंगणाओ६ नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडविसु मुहाण-गिन्हणसीउन्हदुक्खकिलेसमाईसु पुरिसे लालयंतित्ति ललणाओ७ पुरिसे जोगनिओ एहिं वसे ठावंतित्ते जोसियाओ८ पुरिसे नाणाविहेहिं भावेहिं वण्णंतित्ति वणियाओ 9 काई पमत्तभावं काई पयणं सविब्भमं काई समदंसासिव्व ववहरंति काई सत्तुवरोरो इव काई पयएसु पणमंति काई उवणएसु उवणमंति काई कोउय नमंतिओ काओ सुकडक्खनिरिक्खिएहिं सविलासमहुरेहि उवहसिएहिं उवग्गाहिएहिं उवसद्देहिं गुरुगदरिसणेहिं भूमिलि-हणविलिहणेहिं च आरुहणन दुणे हिं च वालयउवगुहणेहिं च अंगुलिफोडणघणपीलणकडितडजायणाहिं तज्जणाहिं च अवियाई ताओ पासोववसिउं पंकुव्वखुप्पिउंजे मचुव्व मरिउंजे अगणिव्व डहिउं जे असिव्व छिजिउं जे॥ (अवियाइंति) पूर्ववत् (तासिं इति) तासामुक्तवक्ष्यमाणानां स्त्रीणामधमाधमानां दासीकुरण्डादीनामनेकानि विविधप्रकाराणि नामनिरुक्तानि नामपदभञ्जनानि भवन्ति पुरिसे इत्यादि यावत् [नारीओत्ति] खण्डयति कथं ना-आ-अरि-इति ना इति नानाविधैरुपायशतसहसैः कामरागप्रतिबद्ध पुरुषेबधबन्धनं प्रति, आइति आणयन्ति प्रापयन्ति [अरीत्ति] पुरुषाणा च नान्यदृशः अरिः शत्रुरस्तीति नार्यः [तंजहत्ति] तत्पूर्वोक्तं यथेति दर्शयति नारीति [ तन्दु.] [नार्यादिशब्दानां व्युत्पत्तयस्तत्तच्छब्दे द्रष्टव्याः] [काइपमत्तभावंति काश्चित् कामिन्यः प्रकर्षेण मत्त-भावमुन्मत्तभाव व्यवहरन्ति स्वचेष्टा दर्शयन्तीत्यर्थः / क इव स्वासीव स्वासरोगीवत् / पुरुषाणां रोह भावोत्पादनार्थं [काईस.] काश्चित् शत्रुवेत् प्रवर्तयन्ति मारणार्थ मर्मस्थानग्रहणेन। यद्वा स्वभादीनां भयोत्पादनार्थ रिपुवत्प्रवर्तयन्ति [ रोरो] काश्चित् कामतृष्णातृषिताः रोर इव रङ्गइवरपुरुषाणामपि पादयोः पादान् वा प्रणमन्ति लगन्तीत्यर्थः / [काईउव.] काश्चित् उपनयनै त्यप्रकारैरुप नमन्ति स्वसकलाङ्गादिदर्शनार्थम् (काईकोउत्ति.) काश्चित् कौतुकं वचननयनादिभयं कृत्वा विधाय नमन्ति नराणां हास्याधुत्पादनार्थम् / काओ इति पदमग्रे पियोग्यम् (सुकडविखनिरक्खिएहिति) काश्चित् सुकटाक्षनिरीक्षिकैः सुष्टु नैत्रविकारनिरीक्षणैालानापातयन्तीति विशेषः तैः काश्चित् पुरुषानामोहयन्ति इति (उपहसिएहिंति) उपहसितैः काश्चित् हास्यचेष्टाकरणैः कामिनां हास्यमुत्पादयन्तीति (उवग्गहिएहिति) उपग्रहीतानि पुरुषस्यालिङ्गनैः कान्तनयनालिङ्गग्रहणकर ग्रहणादीनि तैः काश्चित्नराणां स्वप्रेमभावं दर्शयन्तीति (उवसहिएहिंति) उपशब्दानि सुरतावस्थायां बलबलायमानादीनि शब्दकरणानि प्रच्छन्नसमीपशब्दकरणानि वा तैः काश्चित् कामिनां कामरागं प्रकटयन्तीति (गुरुगदरिसणे हिंति) गुरुकाणि च प्रौढानि पयोधरनितम्बादीनि स्थूलोचत्वात्सुन्दराणिवा यानि दर्शनानिच आकृत्यः तानि गुरुकदर्शनानि तैर्दूरस्था एव काश्चित् कामिनां स्ववशं कुर्वन्तीति / यद्वा (गु) इति गुह्यप्रकाशनेन पुरुषं पातयन्ति / यद्वा गु इति गुरुं स्वजनकभादिकम Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 639 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी पि विप्रतार्याकार्ये प्रवर्तयन्तीति (१)रु इति रोदनकरणेन पुरुष सरोह करांवालकज्जलतुल्यानाम्। अयमाशयः यथाखङ्गः पण्डेिततरार्गरान्निकुर्वन्ति (2) ग इति स्वपितु हगमनादिप्रस्तावे पुरुषमत्यन्तरागवन्तं र्दयतया छेदयति तथा अनार्या नार्योऽपि नरानिह परत्र कुर्वन्तीति (3) द इति दर्शनेन रक्तकृष्णा-दिदन्तदर्शनेन कामिनो दारुणदुःखोत्पादनेन छेदयन्ति / यथ न कज्जलं स्वभावेन कृष्णमस्य मोहयन्तीति (4) रि इति संभाषणे रे मां मुञ्च रे मां मा श्वेतपत्रादिसंगमे सति तस्य कृष्णत्वं जनयति, तथोन्मत्तनारी स्वभावेन कदर्थयेत्यादिकथनेन कुरामाः पुरुष सकामं कुर्वन्तीति आर्षत्वात् रि कृष्णा दुःष्टान्तःकरणत्वात्तत्संगमे उत्तमकुलोत्पन्नानामुत्तमानामपि इति। यद्वा अरि इति रतिकलहे अरे मया सहमा कुरु उपहासमित्यादि कृष्णत्वमुत्पादयति यशोधनक्षयराजविडम्बनादिहेतुत्वात् / पुनः रति-कलहकरणेन पुरुषं क्रीडयन्तीति आर्षत्वात् अरिइति (5) सइति किंभूतानां कान्तारकपाटचारकसमानाम् अरण्यकपाटकारागृहअन्योक्तशृङ्गारगीतादिक शब्दकरणेन साधूनपि सकामान्कुर्वन्तीति (6) तुल्यानाम् / अयमाशयः / यथा गहनं वनं व्याघ्राद्याकुलं जीवानां ण इति सकजलकवि-कारसजलाभ्यां नेत्राभ्यां पुरुषं सकामं स्ववशंग भयोत्पादकं भवति तथा नराणांनार्या पिभयं जनयन्ति द्रदं स्वकार्य-कारमपराधभोक्तारं कुर्वन्तीति (7) गुरुगदरिशनैरिति। धनजीवितादिविना शहेतुत्वेनेतियथा प्रतोल्यां कपाटे दत्ते केनापि गन्तुं (भूमिलिहणविलिणेहिं चेति) भूमिलिखनानि भूमौ पदादिनाऽक्षर- न शक्यते तथा नरे नारीकपाटहृदये दत्ते सति केनापि कुत्रापिधर्मवनादौ लेखनानि विलिखनानि विशेषतो रेखास्वस्तिकादिकरणानि तैः स्वगृह्यं गन्तुं न शक्यते। यथा च जीवानां कारागृहं दुःखोत्पादकं भवति तथा पुरुषान् ज्ञापयन्तीति भूमि-लिखनविलिखनैरिति चकारोऽत्र समुच्चयार्थः नराणां नार्थोपीति / पुनः किंभूतानां (घोरनि.) घोरा रौद्राः प्राणनाश (आरुहणनट्टणेहिंचेत्ति) आरोहणानि वंशाग्रादिचटनानि नर्तनानि भूमो हेतुत्वात्। निकुरम्बंधनं अगाधमित्यर्थः यत्कमिति जलं तस्य दरो भयं नृत्यकरणानि तरारोहणनर्तनैः पुरुषादिकमाश्चर्यवन्तं कुर्थन्तीति (बालय यस्माद्भावात्साङ्के तपुराधिपदेवरतिराजस्येव स निकुरम्बकन्दरः / उवगृहणेहिंचेति) बालकाः मूर्खाः कामिन इत्यर्थः तेषामुपगूहनानि कमिति अव्य यशब्दं उपकवाचक्रः चलन् पुरुष 2 प्रति भ्रमन् बीभत्सो प्रच्छन्नरक्षणादीनि तैर्बालकोपगृहनैः कुरण्डाः स्वकामेच्छां पूरयन्तीति / भयङ्करः इह परत्र महा-भयोत्पादकत्वादेवंविधो भाव आन्तरमायायक्रयद्वा बालकाः केश-कलापास्तैरुपगृहनानि रचनाः स्वच्छवस्त्राच्छा स्वभावो यासां ता घोरनिरकुम्बकन्दर चलदीभत्सभावास्तासां दितादीनि तैर्मन्मथग्रस्तानधमाधमान् स्ववशं कृत्वा बलीववत् घोरभावानाम् || वाहयन्ती-ति / च शब्दात्क पिवद्रामयन्ति अश्ववारयन्ति दोससयगम्गरीणं, अजससयविसप्पमाणहिययाणं। श्रेणिकभार्याधन-श्रीराज्ञीवत् / स्वार्थाप्राप्तौ प्राणत्यागमपि कुर्वन्तीति कइयवपन्नत्तीणं, ताणं अन्नायसीलाणं / / 2 / (अंगुलि.) अङ्गुलीस्फोटनानि क्रीडिकाकरणानि / यद्वा अड्गुलीनां दोष शतगर्गरिकाणां दोषाः परस्परकलहमत्सरगालिप्रदान मर्मोद्धाटनपरस्परं ताडनानि। स्तनपीडनानि कराभ्यां पयोधर चापनानिहस्ताभ्यां कलङ्कप्रदानजल्पनशापप्रदानस्वपरप्राणधात-चिन्तनादयस्तेषां शतानि कुचमर्दनानि वा कटितटयातनानि श्रोणिभागपीडनानि कराभ्यां तेषाम् / गर्गरीका भाजनविशेषास्तासां दोषशतगर्गरिकाणाम् [अजस०] वक्रगत्या वा तैः कामिनां चित्तान्यान्दोलयन्तीति (तज्जणहिं चेति) न यशः शतानि अयशः शतानि तेषु विसर्पद्विस्तारं गच्छद्भुदय मानसं तर्जनानि अड्गुलिमस्तकतृणादिचालनानि तैर्मन्यथपीडा-मुत्पादयन्ति यासांताः अयशः शतविसर्पद्धदयास्तासाम्।तथा कइयवत्ति ] कैतवानि कामिनांचशब्दा दुद्भटनेपथ्यकरणैराभरण-शब्दोत्पादनैः सविलासगत्या कपटानि नेपथ्यभाषामार्गगृहपरावर्तादीनि पन्नत्तीत्ति प्राज्ञाप्यन्ते चतुप्पयादौ प्रवर्तनरित्याद्यनेक-प्रकारैर्नरान् वृषभतुल्यान् कुर्वन्त्यतः याभिस्ताः कैतवप्रज्ञप्तयः यद्वा कैतवानांदम्भानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो ज्ञानानि संयमार्थिभिः साधुभिरासां सङ्गस्त्याज्य इति / तथा (अवियाईति) कमलश्रेष्ठिसुतापामिनीवद्यासुताः कैतवप्रज्ञप्तयः। यद्वा कैतवेषु प्रज्ञाया पूर्ववत् "ता-ओपासोववसिउंजे" इति प्राकृतत्वालिङ्ग व्यत्ययः / या बुद्धरातिप्तरादानं यासांतास्तासां कैतवप्रज्ञाप्तीनाम्। तथा ताणंति] तासा कुरण्डादयः स्त्रियः सन्ति जगति [ताओत्ति] ताः पुरुषान् पाशवत् नारीणां अज्ञातशीलानां पण्डि-तैरप्यऽज्ञातस्वभावानाम् / यदुक्तंनागपाशवागुरादिबन्धनवत्वसितुधातूनामनेकार्थत्वात् बन्धितुंवर्तन्ते "देवाणदाणवाणं, मंतं निमंतनिउणाजे। इत्थीचरियम्मि पुणो, ताण वि इह परभवे नराणां बन्धनकारणत्वात् [पंकुव्वखुप्पि उपेत्ति] ताओत्ति मंता कहं नट्ठा 1 जालंधरेहिं भूमिहरेहिं विविहेहिं अंगरक्खेहिं / अग्रेपिअनुवर्तते याः कुटिलादयः सन्ति ताः नराणां पङ्ग-वत्। अगाधा निवरक्खियावि लोए, रमणीयब्भमग्गाय 2 मच्छपेय जलमज्झे आगासे इव बहुलसमुद्रादिकर्दमवत् क्षपितुं वर्तन्ते / [मचुव्वमरि उंजेत्ति] याः पंखियाण पयपंती। महिलाण हिययमग्गो, तिन्नि विलोए न दीसंति३" स्वैरिण्यादयः सन्ति ताः नराणां मृत्युवत् कृतान्तवत् मारयितुं इति यद्वा न ज्ञातं नाङ्गीकृतं शीलं ब्रह्मस्वरूपं याभिस्ता अज्ञातमारणार्थमित्यर्थः प्रवर्तन्ते। [अगणिव्वहिं उंजेत्ति] या जगतिगणिकादयः शीलास्तासाम्। यद्वा नञः कुत्सार्थत्वात्कुत्सितं ज्ञातं शीलं साध्वीना सन्ति ताः कामिनामग्निवदग्धं ज्वालयितुं परिभ्रमन्ति [असिव्वच्छिजि याभिः परिव्राजिकायोगिन्यादिभिस्ता अज्ञात-शीलास्तासां मुनिवरैः उंजे त्ति] या मृगाक्षवामाक्षतरुणी परिव्राजिकादयः सन्ति ताः प्रसङ्गै कान्तजल्पनैकत्रवासविश्वास-सहचलनादिव्यापारो वर्जनीय कौटिल्यकरण्डाः साधूनपि असिवत्खङ्गवच्छेत्तुं द्विधाकर्तुमुत्सहन्ते। इति // 2 // अथ स्त्रीवर्णनं पद्येन वर्णयति यथा अन्नं रयंति अन्नं, रमंति अन्नस्स दिति उल्लावं। असिमसिमारित्थीणं, कंतारकवाडचारयसमाणं। अन्नो कड्यंतरिओ, अन्नो पडयंतरे ठविओ ||3|| घोरनिउरंबकंदर, चलंतवीभत्थभावाणं // 2 // द्वित्र्यादिपुरुषसंभवे अन्य स्वभावसमीपस्थं नरं रञ्जयन्ति नारीणां सर्वथा विश्वासो न विधेयः। किंभूतानाम् असिम सीसदृशीनां | अर्द्धवीक्षणादिना कामरागवन्तं कुर्वन्तीत्यर्थः / पल्ली Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 640 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी पतिलघुभ्रातरं प्रति अगडदत्तस्त्रमिदनिमञ्जरवित। यद्वा स्वकुशीलत्वं केनापि ज्ञाते सति (अन्नं रयतिति) अन्याद्विष भक्षणकाष्ठभक्षणादिकं रचयन्ति कपटेन निष्पादयन्ति / यद्वा जारस्य स्वान्तःकरणाज्ञापनाय (अन्नरयंतित्ति) अन्यदात्म-व्यतिरिक्तं तृणतन्तुदण्डादिकं रदन्ति उत्पादकं कुर्वन्तीत्यर्थः / रद विलेखने इति विलेखनमुत्पाटनमिति / यदा अन्य रयन्तीति अन्यं स्वकान्तव्यतिरिक्तं पुत्रभ्रातृकान्तमित्रादिक प्रति रामा अधमकामाः रथ गतौ रबु गतौ वा रयन्ते रबंति वा गच्छन्ति / तथा [ अन्नरमंतित्ति] अन्यं स्वकान्तव्यतिरिक्तं नरं रमन्ते मैथुनतत्पराः क्रीडयन्तीत्यर्थः पातालसुन्दरीवत् / द्यूतादि प्रकारेण क्रीडयन्ति वा [अन्नस्सदिति उलावंति] अन्यस्योक्तव्यतिरिक्तस्य ददति प्रयच्छन्ति उल्लापं वचनं बोलरूपम्। यद्वा अनेक नरपरिवृता अपि अन्यस्य नरस्य मार्गादिगच्छतः स्थितस्य वा उत्प्राबल्येन लापं मन्मथोद्दीपनशब्द ददतीति / उल्लापयन्ति पाठे तु कामिनरद्वित्र्यादि संभवे सति उन्मत्ताकुरामाः अन्यस्मै ददति उल्लातं प्रबल-पादप्रहारमित्यर्थः। तथा अन्यः कश्चिद्वलीवर्द्दरूपः कटान्तरितः कटान्तर्वर्ती प्रछन्नरहितो भवतीति / तथा अन्यस्त-त्कटाक्षबाणसमूहेन ग्लानीकृतः। पटकान्तरे वस्त्रविशेषान्तरे स्थापितो भवेत् ग्लानवत् इति // 3|| गंगाए वालूयाए, सागरजलं हिमवओय परिमाणं। उग्गस्स तवस्स गइ, गम्भुप्पत्तिं च विलयाए॥ll सिंहे कुंडबुयारस्स, पुलकुकुहाइयं अस्से / जाणंति बुद्धिमंता, महिलाहिययं नयाणंति / / 6 / / गङ्गायां वालुकां वालुकणान्सागरे समुद्रे जलं जल-परिमाणमित्यर्थः / हिमवतो महाहिमवन्नगस्य परिमाणमुधिस्तिर्यकपरिधिप्रतरघनमानम् / उग्रस्य तीव्रस्य तपसो गतिं फल प्राप्तिरूपां गर्भोत्पत्तिं च (वियाएत्ति) वनिताया नार्याः सिंहे कुडंबुयारमिति रूढिगम्यं (पुट्टलंति) जठरोद्भवं (कुकुहाइयंति) गतिकाले शब्दाविशेषमश्वघोटके जानन्ति अवगच्छन्ति बुद्धिमन्तः प्रज्ञावन्तः महिलायाः कटकपटद्रोह परवञ्चन परायाः प्रबलमन्मथाग्निधगधगायमानायाः अतर्कितातुच्छो च्छलितकलकण्ठोदृगच्छद्गीयमानमधुरगेयध्वनिमृगीकृतमुनि वरायाः ललाटे पट्टतटघटितघनश्रीखण्ड तिलक चन्द्रचकोरीकृतचतुरायाः पीनपयोधरपीठलु ठन्निर्मलामलकस्थूलमुक्ताफलहारश्वेतदृग विषभुजगमगतविवेकचैतन्यकृतानेकपाण्डितायाः हृदयं गूढान्तः करणं न जानन्ति न सम्यगवगच्छन्तीति / उक्तंच-"स्त्रीजातौ दाम्भिकता, भीरुकता भूयसी वणिरजातौ / रोषः क्षत्रियजातो, द्विजातिजाती पुनर्लोभः॥शानस्नेहेनन विद्ययानच धिया रूपेण शोर्येण वा, नेप्वाद भयार्थदानविनयक्रोधक्षमामार्दवैः / लज्जायौवनभोगसत्य करुणासत्वादिभिर्वा गुणैर्गृह्यन्तेन विभूतिभिश्चललना दुःशील चित्ता यतः'' ||2|| एरिसगुणजुत्ताणं, ताणं कइयव्व संठियमणाणं। नहु मे वीससियट्वं, महिलाणं जीवलोगम्मि / / ईदृशगुणयुक्तानामुक्त वक्ष्यमाणलक्षणान्वितानां तासां नारीणां कपिवद्वानरवत्संस्थितमनसां नैव भवद्भिः विश्वसितव्य महिलानां जीवलोके इति ||6|| निद्धन्नयं च खलयं, पुप्फेहिं विवजियं च आराम। निदुद्धियं च घेणुं, लोए वि अतिल्लिय पिंडं | 7|| यादृशमिति गम्यते निर्धान्यकं धान्यकणविवर्जितं चारामंता दृशं तरुणी मण्डलं शुभभावनाकुसुमरहितत्वात् / यादृशा निर्दुग्धिका दुग्धरहिता धेनुर्गीस्तादृशाभ्रष्टव्रतिनीधर्मध्यानदुग्धाभावात्तथा लोके अपि शब्दः पूरणार्थे यादृशं (अतिल्लियंति) सर्वथा तैलांशरहितं पिण्ड खलखण्ड तादृशं महिलाव्याघ्रीमण्डलं परमार्थेन स्नेहतैलविवजितत्वात् / / 7 / / जेणंतेरणलोय-णाणि निमिसंति तेण य वियसंति। तेणंतरे वि हिययं, चित्तसहस्साउलं होइदा स्त्रीणां येन परमवल्लभेन सर्वार्थसंप्राप्तिकारकेणान्तरेण विना लोचनानि प्रफुल्लनेत्राणि तत्क्षणे निमिषन्ति संकुचितभावं गच्छन्तीत्यर्थः च पुनस्तेनैव परमवल्लभेन स्वार्थप्राप्त्यकारकेणान्तरेण विना विकसन्ति प्रफुल्लनेत्राणि भवन्तीत्यर्थः / तेणं तरे इति प्राकृतत्वात्तृतीयार्थे सप्तमी अपि शब्द एवार्थे तथा कुलस्त्रीणां हृदयं कदाचित्स्ववल्लभे प्रवर्तते स्ववल्लने सत्यपि कदाचित्तासां चित्तं स्वमानसं सहस्राकुलं स्वकान्तव्यतिरिक्त-पुरुषान्तरसहस्रेषु आकुलं मन्मथभावेन परिभ्रममाणं भवतीत्यर्थः / शाकिनीवत्। अतो मुनिवरैरत्नत्रयरक्षणपरैर्मुक्तगृहारम्भभरैरासां कुरण्ड-मुण्डीदासीयोगिन्यादीनां यथा कथंचित्परिचयो न कार्य इति / अस्या अन्यदपि व्याख्यान्तरं सद्गुरुप्रसादात्कार्यमिति ।तन्दुः।। (12) स्त्रीणामशुचित्वं यथा"मंसं इमं मुत्तपुरीसमीसं, सिंहाणखेलाण य निज्जरंतं / एवं अणिचं किमिआण वासं, पास नराणं भइबाहिराणं" इत्यादि-धर्म / सर्वस्वापकर्षवत्वं यथानो रक्खसीसु गिज्झि-जा गंडवत्थासुणेगचित्तासु। जाओ पुरिसंपलोभित्ता, खेलंति जहावदासेहिं / / 18| नो नै वराक्षस्य इव राक्षस्यः स्त्रियस्तास्तु यथा हि राक्षस्यो रक्तसर्वस्वमपकर्षन्ति जीवितं च प्राणिनामपहरन्त्येवमेता अपि तत्त्वतो हि ज्ञानादीन्येवं जीवितं स्वार्थं च तानि चताभिरपव्हियन्त एव तथा च हारिल: "वातोद्भूतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव / ज्ञानं शीलं विनय विभवौदार्यविज्ञानदेहान्सर्वानर्यान् दहति वनिता मुष्मिकानैहिकांश्च'' (गिभिज्झति) गृद्धयेदभिकाङ्क्षावान् भवेत् कीदृशीषु (गंडवत्थासुत्ति) गण्ड गण्ड इह चोपचितपिशितपिण्डरूपतथा गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासंभवाच तदुपमत्वाद्गण्डे कुचावुक्तौ / तेवक्षसियासांतास्तथाभूतास्तासु वैराग्योत्पादनार्थ चैवमुक्तम्।तथा अनेकान्यनेकसयानि चञ्चलतथा चित्तानि मनांसि यासां तास्तासु अनेकचित्तासु आहच "अन्यस्याङ्के ललति विशदं चान्यमालिङ्गय शेते, अन्यं वाचा वपति हसयत्यन्यमन्यं चरौति।अन्यं द्वेष्टि स्पृशतिकशति प्रोणुते चान्यमिष्ट, नार्यो नृत्यत्तडित इव धिक् चञ्चलावालिकाश्च" तथा (जाउत्ति) याः पुरुष मनुष्यं कुलीनमपीति गम्यते प्रलोभ्यत्वमेव शरणत्वमेव च प्रीतिकृदित्यादिकाभिर्वाग्भिर्विप्रतार्य क्रीडन्ति (जहावत्ति) वा शब्दस्यैवकारार्थत्वाद्यथैव दासैः एह्यागच्छ मा वद त्वं मायासीरित्यादिविवक्षितप्रभृतिक्रीडाभिर्विलसन्ती.ते सूत्रार्थः ||18|| पुनस्तासामेवातिहेयतां दर्शयन्नाह। नारीसु नो पगिज्झिज्जा, इथिविप्पयहे अणगारं / Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 641 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी धम्मं च पेसलं नचा, तत्थ विज मिक्खुमप्पाणं ||19|| नारीषु नो नैव प्रगृद्ध्येत्प्रशब्द आदिकर्मणि ततो गृद्धिमारभेतापि न / किं पुनः कुर्यादिति भावः (इत्थीविप्पहियत्ति) स्त्रियो विविधैः प्रकारैः प्रकर्षेण च जहाति त्यजति इति स्त्रीविप्रजह उणादयो बहुलमिति बहुलवचनाच / यद्वा (इत्थित्ति) स्त्रियो (विप्पजहेत्ति) विप्रजह्यात्पूर्वत्र नारीग्रहणान्मनुष्यस्त्रिय एवोक्त इह च देवतिर्यक् -संबन्धियोपि त्याज्यतयोच्यन्ते इति न पौनरुक्तयमुपदेशत्वाद्वा / अणगारः प्राग्वत्। उत्त०८ अoll (स्त्रीणां दुर्गाह्यहृयत्वम् 'इत्थिरज्ज' शब्द) (13) स्त्रीणां बन्धकारणत्वं यथावाउव्वं जलमचेति पिया लोगंति इथिओ। इथिओ जे ण सेवंति आइमोक्खा हु ते जणा।। जे जणा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं / / 9 / / वायुर्यथा सततगतिरस्खलितयाऽग्निज्वाला दहनात्मिकामप्येति अतिक्रामति पराभवति न तया पराभूयते एवं लोके मनुष्यलोके हावभावप्रधानत्वात्प्रिया दयितास्तत्प्रियत्वाच दुरतिक्रमणीया अत्ये त्यतिक्रामति न ताभिर्जीयते तत्स्वरूपा वगमातज्जयविपाकदर्शनाचेति। तथा चोक्तम्।। स्मितेन भावेन मदेन लज्जया, पराङ्मुखैर कटाक्षवीक्षितैः / वचोभिरीयाकलहेन लीलया, समस्तभावैः खलु बन्धनं स्त्रियः ||1|| स्त्रीणां कृते भ्रातृयुगस्य भेदः संबन्धिभेदे स्त्रिय एव मूलम् / अप्राप्तकामा बहवो नरेन्द्रा, नारीभिरुत्सादितराजवंशाः ॥शा इत्येवं तत्स्वरूपं परिज्ञाय तज्जयं विधत्ते नैताभिजीर्यत इति स्थितम्। अथ किं पुनः कारणं स्त्रीप्रसङ्गाश्रवद्वारेण शेषाश्रवद्वारोपलक्षणं क्रियते न प्राणातिपातादिनेति / अत्रोच्यते केषां चिद्दर्शनिनामङ्गनोपभोग आश्रवद्वारमेव न भवति / तथा चोचुः / "न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला" // इत्यादि तन्मतव्युदासार्थमेव मुपन्यस्तमिति। यदि वा। मध्यमतीर्थकृतां चतुर्याम एव धर्म इह तु पञ्चयामो धर्म इत्यस्यार्थस्याविर्भावनायानेनोपलक्षणभकारि। अथवा। पराणि व्रतानि सापवादानीदं तु निरपवादमित्यस्यार्थस्याविर्भावनाय प्रकटनायैवमकारि / अथवा / सर्वाण्यपि व्रतानि तुल्यानि एकखण्डे न सर्वविराधनमिति कृत्वा येन केनचिन्निर्देशो न दोषायेति / [इथिओ इत्यादि] ये महासत्त्वाः कटुविपाकोऽयं स्त्रीप्रसङ्ग इत्येवमवधारणतया स्त्रियः सुगतिमार्गार्गलाः संसारवीथीभूताः सर्वाविनयराजधान्यः कपटजालशताकुला महामोहनशक्तयोनसेवन्तेन तत्प्रसङ्गमभिलषन्ति ते एवंभूता जना इतरजनातीताः साधवः आदौ प्रथमं मोक्षोऽशेषद्वन्द्वो परमरूपो येषान्ते आदिमोक्षाः / हुरवधारणे / आदिमोक्षा एव तेऽवगन्तव्यः / इदमुक्तं भवति सर्वाविनयोस्पदभूतः स्त्रीप्रसडो यैः परित्यक्तस्य एवादिमोक्षाः प्रधानभूतमोक्षाख्यपुरुषार्थोद्यताः / आदिशब्दस्य प्रधानवाचित्वान्न केवलमुद्यतास्ते जनाः स्त्रीपाशबन्धनोन्मुक्ततयाऽशेषकर्मबन्धनोन्मुक्ताः सन्तो नावकङ्कन्ति नाभिलषन्ति असंयमजीवितम परमपि परिग्रहानिकं नाभिलषन्ति / यदि वा परित्यक्तविषयेच्छाः सदनुष्ठानपरायणा मोक्ष कताना जीवितं दीर्घकालजीवितं नाभिकांक्षन्ति इति // 9|| सूत्र०२ श्रु.१५ अ। नारीस्नेहे दुःखं यथा"नारीनेहाणुगया, गणइन सीलंकुलंधणं धन्न। दाणं पाणेन गुणे, गुरुवयणं कुगइगमणंपि'' दर्शका (14) स्वीसंसर्गश्चावश्यम्परित्याज्यस्तथा च। वशीकुर्वन्ति ये लोके, मृगान् दर्शनतन्तुना / संसर्गवागुराभिस्ते, स्त्रीव्याधाः किन्न कूर्वते" पंचा०१० विक०। स्त्रीसंसर्गपरित्यागे कारणमाह। जहा कुकुडपोयस्स, निचं कुललओ भयं / एवं खुबंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं / / 14 / / यथा कुक्कुटपोतस्य कुक्कुटचेल्लकस्य नित्यं सर्वकालं कुल-लतो मार्जाराद्भयमेवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् स्त्रीशरी-रात् विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि भयख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः / यतश्चैव मतःचित्तमित्तिं न निज्झाए, नारिं वासुअलंकियं / भक्खरं पिव दतॄणं, दिष्टुिं पडिसमाहरे ||5|| चित्रभित्तिं चित्रगतां स्त्रियं न निरीक्षेत न पश्येत् नारी वा सचेतनामेवं स्वलंकृतामुपलक्षणमेतदनलंकृतांवान निरीक्षेत कथंचि-दर्शनयोगेऽपि भास्करमिवादित्यमिव दृष्टवा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् द्रागेव विनिवर्तयेदिति सूत्रार्थः। किंबहुनाहहत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्नं नासं विगप्पियं। अवि वाससयं नारी, बंभयारी विवजए / / 16 / / हस्तपादप्रतिच्छिन्नामिति प्रतिच्छिन्नहस्तपादां करण-नासाविकृतामिति विकृतकर्णनासामपि वर्षशतिका नारी मेवंविधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणी तान्तु सुतरामेव ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधन इव तस्करान् विवर्जयेदिति। अपिच। विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं / नरस्सत्तगवेसिस्स, विसंतालउड जहा।।१७।। विभूषा वस्वादिराढा स्त्रीसंसर्गः येन केनचित्प्रकारेण संबन्धः प्रणितं रस भोजनं गलत्स्नेहरसाभ्यवहारः एतत्सर्वमेव विभूषादि नरस्यात्मगवेषिणः आत्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितमिति सूत्रार्थः / अंगपचंगसंठाणं, चारुल्लवियपीहियं। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवडणं 1158| अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानमित्यङ्गानि शिरःप्रभृतीनि प्रत्यङ्गाः निनयनादीनि एतेषां संस्थान विन्यासविशेषस्तथा चारुशोभनं लपितं जल्पितं प्रेक्षित निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि तदङ्ग-प्रत्यङ्गसस्थानादि न निरीक्षेत न पश्येत् / किमित्यत आह / कामरागविवर्द्धनमिति एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषान् मैथुना-भिलाषं वर्द्धयति अत एवास्य प्राक् स्वीणां निरीक्षणप्रतिषे-धाद्गतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थो भेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः / दश०८ अoll तथा चान्यत्रापि "आवर्तः संशयानमविनयभवनं पत्तनं साहसानां, दोषाणां सन्निधानं कपटशतगृहं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् / स्वर्गद्वारस्य विघ्नं नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्ड, स्त्रीयन्त्र केन सृष्टं विषमविषमयं सर्वलोकस्य पाशः |1|| नो सत्येन मृगाङ्क एव वदनीभूतो न चेन्दीवर-द्वन्द्र लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गयष्टिः कृता / किन्त्येवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्व विजानन्नपि, त्वङ्मांसास्थिमयं वपुर्मुगदृशां मत्वा जनः सेवते // 2 // यदेतत्पूर्णेन्दुधुतिहर-मुदाराकृतिधर, मुखाब्जं तन्वङ्गायाः किल वसति पत्राऽधरमधुः / इदं तषित पाक द्रमफलमिवातीव वि Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 642 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी रसं, व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिव भविष्यत्यसुखदम् // 3 // दीर्घेणाक्षिचलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना, नीलाब्जद्युतिनाऽहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा // दष्टे सन्ति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण पुण्यार्थिनो, मुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य न हि मे वैद्यो न वाप्यौषधम् // संसार! तव निस्तर पदवी न दवीयसी। अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः / / 5 / / नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा, ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् / याभिर्विलोलतरलांशुकदृष्टिपातैः, शक्रादयोपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः ll जल्पन्ति सार्द्धमन्येन, पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः। हृदये चिन्तयन्त्यन्यं, प्रियः को नाम योषिताम् / / सव्वत्थे इत्थिवग्गम्मि, अप्पमत्तो सया अविस्सत्थो। नित्थरइबंभचेरं, तव्विवरीओ न नित्थरइ / / 7 / / सर्वत्र सर्वस्मिन् प्रव्रजिता प्रवृजितरूपे स्त्रीय, अप्रमत्तः निद्राविकथादिप्रमादरहितः सदा सर्वकालमविश्वस्तो विश्वा-सरहितः श्वसन् निस्तरति पालयतीत्यर्थः ब्रह्मचर्य मैथुनत्यागरूपं तद्विपरीतः उक्तविशेषणरहितोन निस्तरतिन निर्वहति ब्रह्मचर्यमिति गाथार्थः / ग०२ अधि। साध्वीसंसर्गो दोषायेति 'अज्जिया' शब्दे / / स्त्रीसंसर्गादि परित्यागो बंभचेरगुत्ति शब्दे] | (15) स्वीषु सक्तस्य परिग्रहोऽवश्यं भवतीतियथाइत्थीसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुय्वमाणे | स्त्रीषु रमणीष्वासक्तो ऽध्युपपन्नः पृथक् पृथक् तद्भाषितहसित बिव्वोकशरीरावयवेष्विति बालबद्वालोऽज्ञः सदसद्विवेकविकलस्तदवसक्ततया च नान्यथा द्रव्यमन्तरेण तत्सं-प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपायेन तदुपायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुचिनोतीति / सूत्र०१ श्रु०१० अ० [स्त्रीषु कामेषु चासक्तानामयश्यं नरकयातना भवतीति इत्थिकाम' शब्दे] स्त्रीषु च सर्वेन्द्रियगुप्तेन भाव्यम् तथा च।। सविदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के। सर्वाणि च तानीन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरभिनिर्वृतः संवृते-न्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः / क्व प्रजासु स्त्रीषुतासु हिपञ्च प्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्तेतथा चोक्तम्।"कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि। रतानि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोपि गन्धोऽपि च चुम्बनादेः / / 1 / / तदेवं स्त्रीषु पञ्चेन्द्रियविषयसम्भवात्तद्विषये संवृतसर्वेन्द्रियेण भाव्यमेतदेव दर्शयति चरेत्संयमानुष्ठानमनुतिष्ठेन्मुनिः साधुः सर्वतः सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तो निःसङ्गो निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः / सूत्र०१ श्रु०१ अा स्त्रीणां दर्शननिषधो यथा"स्त्रीरम्याड़े-क्षणतरलितविलोचनो हि दीपशिखायां शलभ इव विनाशमुप-याति। ध०३ अधि० [ अत्र प्रायश्चित्तं रायपिंड शब्दे ] [16] स्त्रीकरस्पर्शादिनिषेधो यथाजत्थित्थीकरफरिसं, अंतरिय कारणे वि उप्पन्ने / दिट्ठी विसदित्तग्गी, विसं व मुणिवजए गच्छे / / 3 / / यत्र गणे स्त्रीकरस्पर्शः अथवा स्त्रियाः करेण स्पर्शःस्त्रीकरस्पर्शस्तमुपलक्षणत्वात् स्त्रीपादादिस्पर्श च कथंभूतम् [अंतरियंति] अपि शब्दस्येहापि सम्बन्धादन्तरितमपि वस्त्रादिना जातान्तरमपि किं पुनरनन्तरितं कारणेऽपि कण्टकरोगोन्मत्तत्वादि उत्पन्ने सजाते सति किं पुनः अकारणे दृष्टिविषश्च सर्पविशेषः दीप्ताग्निश्च ज्वलितवहिर्विषं च हालाहलादीनि समाहरद्वन्द्वः तदिव वर्जयेत् उत्सर्गमार्गेण दूरतः त्यजेन्मुनिः समुदायः [गच्छत्ति] स गच्छः स्यादिति शेषगाथा छन्दः / बालाए बुडाए, नत्तु अदुहिआइ अह य भइणीए। नय कीरइ तणुफरिसं, गोयम ! गच्छं तयं भणियं / / 84) इहाङ्गस्पर्शस्य सर्वत्र सम्बन्धात् बालाया अपि अप्राप्तयौवनाया अपि किं पुनः प्राप्तयौवनायाः वृद्धाया अपि अतिक्रान्त यौवनाया अपि किंपुनरनतिक्रान्तयौवनायाः एवंविधायाः कस्या इत्याह / नतृका पौत्री तस्या अपि दुहिता पुत्री तस्या अपि अथवा भगिनी स्वसा तस्या अपि नालबद्धोपलक्षणत्वादस्य दौहित्रीभ्रातृ-जातामातुलीपितृष्वसृमातृष्वसृजननीमातामही ग्रहः / कोर्थः नतृकादिकानामेकादशानां नालबद्धानामपि स्त्रीणां किं पुनरनालबद्धानां तनुस्पर्श : उपलक्षणत्वात्सविलासशब्दश्रवणादि च यत्र गच्छे न च नैव क्रियते हे गौतम! स गच्छो भणित इति इह हिसम्बधिन्या अपि स्त्रिया अङ्गस्पर्शादि वर्जनं स्वीस्पर्शस्यो-त्कटमोहोदय हेतुत्वात्॥ जत्थ त्थीकरफरिसं,लिंगी अरिहो विसयमवि करिज्जा। तं निच्छयओ गोयम ! जाणिज्जा मूलगुणभटुं // 85 / / यत्र गणे स्वीकरस्पर्शम् लिङ्ग विद्यते अस्याऽसौ लिङ्गी साधु वेषवान् अर्होऽपि पदव्यादिप्राप्त्यादियोग्योऽपि स्वयमपि अपेरेवकारार्थत्वात् स्वयमेव कुर्यात्तं गच्छं निश्चयतो हे गौतम ! जानीयान्मूलगुणभ्रष्टं चारित्ररहितमिति // 85|| स्त्रीकरस्पर्शादिकमुत्सर्गपदेन निषिध्याथापवादपदेनापि निषिध्यति। कीरइ बीयपएणं,सुत्तममणियं न जत्थ विहिणाओ॥ उप्पन्ने पुण कजे, दिक्खा आयंकमाईए।८६|| अपेर्गम्यमानत्वादुत्सर्गपदापेक्षया द्वितीयपदेनापि अपवादपेदनापीत्यर्थः [सुत्तम भणियति मकारस्यालाक्षणिक-त्वात्सूत्राभणितं सूत्राननुज्ञातं सर्वथागमनिषिद्धंस्त्रीकरस्पर्शा-दिकमित्यर्थः। ग०२ अधिः। [कण्टकोद्धरणवक्तव्यता विस्तरेण कण्टकुद्धरण शब्दे] (17) स्त्रियाः सार्द्ध विहारस्वाध्यायाहारोचारप्रस्रवणपरिष्ठापनिकाधर्मकथादिनिषेधो यथा जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गहावइसुगहा वइकुलेसु वा परियागसहेसु वा एगो एगइत्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा आहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ अण्णयरं वा अणरियं मेहणं अस्सणं पाओगकहं कहेइ कहंतं वा साइजइ |शा निचू. उा कहिता खलु आगारो, ते उ कहिं कतिविधा उ विण्णेया। आगंतागारादिसु, सविगारविहारमादीया॥ सत्तमस्स अंतसुत्ते त्थीपुरिसागारा कहिता ते कहिं हवेज आगंतागारादिसु ते आरामादिसु ते आगंतरादि इह समाणं कतिविहा ते आगारा विण्णे या / इह अपुध्वरूवियाणि Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 643 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इत्थी एगो साहू एगाए इत्थियाए सद्धिं समाणं गामाओ गामंतरो अहवा गतागतं चंकमणं सज्झायं करेति असणादियं वा आहारेति उचारं पासव णं परिहवेति एगो एगित्थीए सद्धिवियारभूमिं गच्छति अणारिया कामकहा णिरतरं वा अप्पियं कहं कहेति काम-निठुरकहाओ एता चेव असमणपाउग्गं अथवा देसभत्त-कहादिसंजभोवकारिका ण भवति सा सव्या असमाणपाउग्गा। आगंतारे आरा-मा गारमिह कुलावसहे य। पुरिसिथिएगणेगं, चउक्कमयणा दुपक्खे वि||२|| एगे एगित्थिए सद्धिं, एगे अणेगितिथए सद्धिं, अणेगा एगित्थी ए. आणेगा अणेगिथिए। जा कामकहा साहो, तणारिया लोकिकी च उत्तरिया। णिठुरभल्ली कहणं, भागवतपदोसखामणया ||3|| तत्थ लोइया णरवाहणरधकधा लोगुत्तरिया तरंगवती मलयवती मगधसेणादिणिठुरंणामवल्ली घरकहणं एगो साधू भरू-दखिण्णयह सच्छेहेणयामो य भागवएण पुच्छितोकिमेयं भल्ली घरंति तेण साहुणा वारवतिदाहतो आरब्भ जहा वासुदेवे यपयाओ जहा य कूरवागा भंजणं कोसंवीरण्णपवेसो जहा जरकुमारागमो जहा य जरकुमारेण भल्लिणा हओमओय एवं भल्लिघरुप्पत्ति सव्वा कहिया ताहे सो भागवतो यदुट्टो चिंतेति। जइएयं न भविस्सतितोएससमणो घातेयव्वो सो गहिओ दिट्ठो यणेण पादे भल्लिए विद्धोताहे आगंतूण तं साहुंखामेति भणतिय मए एवं चिंतियमासी तं खमेजसि एवमादी णिठुरा एवमादिपुरिसाणं वित्ताणं जुजेति कहिओ किमु वा एगित्थियाणं॥ अवि मायरं पि सद्धि, कथा तु एगागियस्स पडिसिद्धा। किं पुण अणारयादी, तरुणत्थीहि सहगतस्स / / 4 / / माइभगिणीमादीहिं अगम्मित्थिहिं सद्धिं एगाणियस्स धम्मकहावि ण वट्टति किं पुण अण्णाहिं तरुणित्थिहि सद्धिं // अण्णावि अप्पसत्थीस, कधा किमु अणारिय असज्झा। चंकमणसज्झायभोयण-उच्चारेसुं तु सविसेसा |5|| अणाइ विधम्मकहा अविसद्दाओ सवेरगं सावित्थीएसएगा-गिथासु विरुद्धा किंपुण अणारिया जोग्गा अणारिया सा य कामकहा असभा जोग्गा असज्झा / अहवा असभा जत्थ उल्लविजंति चंकमणे सति विज्झमग्रतितागारं दद्वं मोहुब्भवो भवति सज्झाए मणहरसद्देण भोयणदाणग्गहणातो विसंभे उच्चारे ऊण गादित्थणंगदरिसणं॥ भयणपदा चउण्हं, अण्णतरजुते तु संजते संते। जे भिक्खू विहरेजा, अहवा विकरेज सज्झायं / / 6 / / भयणपदा चउत्थगो पुव्वुत्तो। असणादी वीहारे, उच्चारादिव आतरेजा। हिट्तुरमसावुजुत्तं, अण्णतरकधं व जो कधए / 7 / / सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविगाहणं दुविधं / पाविति जम्हा तेणं, एते तु पदे विवजेता ll दितु संभोइगापि जम्हा एते दोसा तम्हा ण कप्पति विहारादि काउं कारणे पुण करेजा / वितिय पदमणप्पजे, गेलण्णुवसग्गरोट्टगट्ठाणे / संभमभयवासासु य, खत्तियमादीसु विण्णायं / / 9 / / अण्णवज्झो सो सवाणि विहारादीणि करेज / इदाणिं गेलण्णे ||9|| खमण सद्देसम्मि वओत्थे, गेलण्णे जा विधी समक्खाता। साचेव य वितियपदे, गेलण्णे अट्ठमुद्देसे ||10|| कंठ्या। निचूट उला इदाणिं सत्तमयवासं तिण्णिवि दाराए एगगहापदेसत्ति आकुयय गाहा। आउमादिया संभमाबोहियमच्छादिभय गोयर-अडता वासेण अब्भवहतो एगणिलए वि होज्जाजलसंभमे थलादिसु, चिटुंताणं भवेज चउभंगो। एगतरुवएसए वा, वूढगलं ते व सव्वत्तो ||6|| एग तरज्झामिए उ, वसयमिडज्झेज्ज वावि भावसदी। एमेवय वा तम्मिवि, तेण भयावाण्णि लुक्कारं / / 66|| भोइतमाई विरुद्धे, रोधेरहादिणं तु संभमो होज्जा। वोहियमित्थ भएत्ता, गुत्तिणिमित्तं च एगत्था |67 / / एगोएगत्थीएसम हवेज्ज आउक्कायसंभमेण उदगवाहगे एगं उण्णय थल पव्वयं डोग्गरं वा तत्थ चिट्ठताणं चउभंगसंभवे वा खेत्ताओ खेत्तं संकमज्जा इत्थ वि चउभंगसंभवो। एगतर वसहीए वा खेत्ताउ खेत्तं कमिजंति। एवं चउभंग संभवो हवेज्जा एवं वा तो वि चउभंगसंभवो तेणगभएण वा गुत्ते चउभंगसंभवेण णिलुका अच्छंति / भोइस्स भोतियस्स विरोहा एवं गामस्सयरट्ठस्सय परिसंभमे चउभंगसंभवो तेणगभएण वा गुत्ते हवेजा। बोहियमच्छभएण पलायाणं चउभंगसंभवेण विहारसज्झायं असणादिया . उच्चारादिया वा एकत्थ णिलुक्कारसंभवो हवेचा गुत्ती वा रक्खणं करेत्ताणं संभवेजा। पुष्वपविट्ठेगतरे, वासभएणं विसेज अण्णतरा। तत्थ रहिते परमुहो, णयसुंणेसु जतीटुंति / / वासासु वासावासे पडते संजतो संजती वा किंचि णिरोवणरि संठाणपविहवेजपच्छाइयरंपविसिञ्जा विच्छऊण विरहिये दोविपरोप्पर मुहा अच्छंति। सज्झायहाय सुठुविवासे पडते संजती सुण्णट्ठाणे णो पविसंति।नि चू०८ उ०। जे भिक्खू उजाणंसिवा उज्जाणगिहंसिवा। उज्जा णसालंसिवा णिज्जासिणंसि वा णिज्जाणगिहंसि वा सिञ्जाणसालंसि वा एको एगित्थीए सद्धि विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा 4 आहारेइ उच्चारं वापासवणं वा परिट्ठवेइअण्णयरंवा अ-प्रणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइज्जइ। उजाणं जत्थलोगो उजाणियाए वचतिजं वाइसिणगारस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं / रायादियाण णिगमणठाणं णिज्जाणिया नगरागमे वा जं पियं वियं तं णिज्जाणं एतेसु चेव गिहा किरिया उज्जाणणिजाणगिहणगरेपा-गारो तस्सेवदेसे अट्टालगपागारस्स अहो अट्ठोहत्थोरहमग्गोवरिया बलाणगंदार दाबलाणगापागार-पडिनिबद्धा तण अंतरंगोपुरंजेणजणो दगस्स वचति सो दगपदो दगवाहो दगमग्गो दज्झासं दगतीरं सुण्णं गिहं सुण्णागारं देसे पहिय सढियं भिन्नागारं अधोविसालं च उवरि संवट्टि तं कूडागारं धन्ना Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 644 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी गारं कोट्ठागारं दज्झादितणहाणं अवोपगासंतणसलोसालिमादितुसट्ठाण तुससालो मुग्गादियाणं तुसा गोकरिसो गोमयं गोणादि जत्थ चिट्ठति सा गोसालो गिहंच जुगादिजाणा अकुड्डासाला सकुटुंगिहं अस्सादिअवाहणा ताणं सालगिहं वा विक्केयं भंड जत्थ छुट्ठति सा सालागिह वा पासंडिणो परियागा तेसिं आवासथो सालागिह वा छूहादिया जत्थ कमविजंति सा कम्मंतं सालागिह वा महंतं पाहुण्णे बहुते वा महंतं गिह महागिहं बहूसुवा उचारएसु महागिहं महाकुलपिइज्झकुलादी पाहुण्णे बहुजणो अणाइ बहुत्ते इमा संगहगाहा॥ उजाणट्ठाण दगे, सुण्णाकूडावतुसतुसे गोमे। गोमग्गाणापणिगा, परियागमहाकुले सेव / / 85!! एवंतिजहा पच्छिमसुत्ते एवं एतेसुउस्सग्गाववातेण चउभंगसंभवो क्त्तव्यो इमं उजाणंवक्खाणं। संभमदुजाणगिहा-णिग्गमणगिहा विणियमाईणं / इतरेणगरादिणिग्गमे, सुयसभादिणिज्जाणगेहा उ11८६|| उज्जाण संभमादिया गाहा इयवेत्ति णिजाणे वणियमादिया णिग्गमगहियं कथं णिज्जाणगिहं अहवा पच्छवेणं वित्तियं वक्खाणं सालगिहाण इमो विसेसो॥ सालातुअरे पविट्ठा, गेहं कुडसहितं तु णेगविधं / वणिभंडसालपरिमि-च्छुगादिमहबहुगवाहण्णे / / 7 / / जे भिक्खू अटुंसि वा अट्टालियंसि वा चरियंसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा एक्को एगित्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेह असणं वा 4, आहारेइ उचारं वा पासवणं वा परिहवेइ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइजह / / 3 / / जे भिक्खूदगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतिरंसि वा एगो एरित्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ असणं वा 4. आहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिहवे इ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहंतं वा साइज्जइक्षिा जे मिक्खू सुण्णगिहंसि वा सुण्णसालंसि वा जिण्णगिहंसि वा जिण्णसालंसि वा भिण्णगिहंसि वा भिण्णसालंसि वा कूडागारंसि वा कोट्ठागारंसि वा एगो एगित्थीए सिद्धिं विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा,आहारेइ उचारं वा पासवणं वा परिहवे इअण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्पवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइजइ ||1|| जे मिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि वा तुसगिहंसि वा तुससालंसि वा भुसगिहंसि वा भुससालंसि वा एको एगित्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा४, आहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेह अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइजइ / / 6 / जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुग्गसालंसि वा मुसगिहंसि वा मुससालंसि वा एगो एगित्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा 4, आहारेइ उचारं वा पासवणं वा परिहवेइ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइअइ 11711 जे भिक्खू पणियसालंसि वापणियगिहंसिवा कुवियसालंसि वा कुवियगिर्हसि वा एगो एगित्थीए सद्धि विहार वा करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा 1, अहारेइ उच्चारं वा पासवणं वा परिहवे इ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइजइ / / 6 / / जे भिक्खू गोणसालंसि वा गोणगिहंसि वा महाकुलंसि वा महागिहं वा एगो एगित्थीए सद्धिं विहारं करेइ सज्झायं वा करेइ असणं वा 4, आहारेइ उचारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ अण्णयरं वा अणारियं मेहुणं अस्सवणपओगकहं कहेइ कहतं वा साइजइ 19|| जे भिक्खू राओ वा वियाले वा इत्थीमज्झगए इत्थीसंसत्ते इत्थिपरिवुडे अपरिमाणाए कहं कहेइ कहंतं वा साइजइ ||10|| संझाराती भणिता, संझाएतु विगतो वियालो उ। केसिवीवोव्वत्थं, एछण्णतरे दुविधकाले ||8|| रातीति रातिसंझातीए विगमो वियालो अथवा जेसिं काले चोरादिया रंजति साराती संझावगमेत्यर्थः। तेव्वियम्भिकाले विगच्छंति सो वियालो संझेत्यर्थः।। इत्थीणं मज्झम्मि, इत्थी संसत्तपरिवुडे ताहि। चतुपरिमाणं तेण, परं कहं तस्स आणादि।।८९|| इत्थीसु भयो वियासु मज्झं भवति उरूकोप्परमादीहिं संघट्टतो संसत्तो भवति दिट्ठीए वा परोप्परं संसत्तो संद्धत्तो समंता परिवेडिओ परिवुढो भण्णति परिमाणं जाव तिण्णि चउरो पंच वा वागरणाणि परतो छट्ठादि अपरिमाणकहं कहें तस्स चउगुरुगं आणादिया पक्षे सा एसा सुत्तत्था इमा णिजुत्ती // मज्झं दोण्हतगतो, संसत्ते ऊसगादिवढेतो। चतुदिसि ठिताहिं तुवडो, पासगताहि व अप्फुसंतो / / 9 / / अहवा एगदिसि वियाहिं वि अप्फुसंतीहिं परिवुडो भण्णति दुविधं च होति मज्झं, संसत्ता दिहिदि ट्ठिअंतो वा। भावो व तासु णिहितो, एमेवित्थीअ पुरिसेसु // 91|| चसद्दाओसंसत्तंपि दुविधमुरुगादि घडेतो संसत्तो दिट्ठीए वा इत्थीए वा मज्झे अथवा संसत्तस्स इमं ववखाणं तेण तासु भावो णिहितो णिवेसितो परस्परगृद्धानीत्यर्थः इमे दोसा॥ इत्थीणातिसुहीणं, अवियतं असि यावणा छेदो। आतपरतदुमए वा, दोसा संकादिगा चेव / / 12 / / इत्थीणं जेण ततो भाया पिया पुत्तभवयमादी ताणवा जेसुही मित्ता एतेसिं अवियत्तं हवेज अवियत्ते वा उप्पण्णे दिया असिया वेंति व रातो व तेसिं अण्णेसिं वा वसहिमादियाणं वोच्छेदं करेजा आय-परआ भयसमुत्थाण एक्कतो मिलिया ण दोसा होज अहवा संकतिए ते रातो मिलिता किं पुण अणायारं करेज संकिते चउगुरु णिर संकिते मूलं Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 645 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इत्थी गेण्हणादिया दोसा तम्हा णो रातो इत्थीणं धम्मो कहेयव्वो भवे कारणे।। वितियपदमणप्पजे,णातीवग्गो य संणिसेज्जासु। णाती वा रुवसग्गे, रण्णो अंतेपुरादीसु / / 13 / / अणवजो वाणातिवर्ग वा सो विरस्स गतो ताहे भणेज्जा रत्तिधम्मं कहेह ताहे सो कहेज वरं कोइ धम्मपध्वज वापडिवज्जेज्ज सावगसेज्जातरकुलेसु वा असंकणिज्जेसु अदुट्ठसीले वा णाणायारेसु उवसग्गा वा जहा अंतेपुरे अभिजुत्तो अहवा राया भणेज अंतेपुरस्स धम्मं कहेह ताहे कहेजा तत्थिम विधाणं // 93 // णो सण्णम्मिठिओदि-हिमियसंवतो इसेसि विकिठीसु। वेरग्ग पुरिसविमिस्स, तासु किढिगा जुताणं वा / / 94|| सण्णं ठिता भणइ य दूर ठायह मायाम संघट्टेहतासुदिलुि असंवतो/ इसवुड्ढासु दिद्विबंधे तो वेरग्गकहं कहेति पुरु सविमिस्साणं वा कहेति अहवा सव्वा इत्थीओ ताहे थेरविमिस्साणं कहेंति। जे भिक्खू सगणिव्वियाए वा णिग्गंथिए सद्धं गामाणुगामं दुइज्जमाणे पुरओ गच्छमाणे पिट्ठउरियमाणीये ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरं संविविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए विहारं वा करेइ जाव कहंतं वा साइजइ ll सगणेचियाससिस्सिणि, अथवा विसगच्छवासिणी भणितो। परसिस्सिणि परगच्छे, णातव्वा परिगणिचाओ ||95// सगणेच्चिया ससिस्सिणी वा समच्छवासिणी वा परगणेचिगा। पुरतोवग्गमतो वा, सपव्ववाते य पिट्टतो। वचंताणं तेसिं, चउक्कभयणा अवोचत्थं / / 96|| तो अग्गतो अग्गतो ठितो साहू वच्चति अथवा पिट्टितो साधु वचति एत्थ चउभंगो॥ पुरतो वचति साधू, अथवा पिट्टेण एत्थ चउभंगो। अथव ण पुरतो वा उ, पिट्टे वा एत्थ वा चउरो / / 7 / / पुरतो साधू वचति णो मग्गतो पुरतो मग्गओ वचति बहूसु पुरतो वि मग्गतो भणोपुरतोणो मरगतो पक्खापक्खीसुणोवा अहवा इमोचउभंगो। पुरतो सा वायणो पिट्टतो णो पुरतो पिट्टओ सावायं, पुरतो वि सावातं पिट्टतो वि, सावातं णो पुरतो णो पिट्टतो, सावातं णिज्झए अवोच्चत्थं गंतव्वं पुरओ साधू पिट्टतो सतीतो॥ भयणयदोण चतुण्हं, अणंतरा तेण संजती सहिते। ओहतमणसंकप्पे, जे कुजविहारमादीणि ||9|| संजतिसहिओ जइ ओइयमणसंकप्पो विहरति। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणा तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, एते तु पदे विवजेज्जा / / 99|| सो पुण किं ओहयमणसंकप्पो विहरति भण्णति॥ अतित्ति करणे पुच्छा, किं कहितेणं अणिग्गह समत्थे। दुक्खमणाए किरिया, सिट्टे सत्तिं ण हावेस्स ||100ll ताओ ओहयमणसंकप्पं दटुं पुच्छति जेट्ठतो किं अधिई करेइ ताहे संजतो भणेज्जा जो णिग्गहमसत्थो ण भवति तस्स किं कहिएणं ताहे संजतीओ भणति दुक्खे आणा ते किरिया ण कज्जति णाए पुण दुक्खापडिआरो सो अप्पणो सत्तिण हावेस्स एवं भणिते तहवि गारवेण अकहते संजतीताई भणंति॥ अम्हं करेति अरती, सुइतहक्खं इमं असीसंतं। इति अणुरतं भावं, णातु भावं पदंसेंति / / 10 / / असीसंतं अकहिज्जंतं ताओ अणुगतभावाओणाउं अज्झुट्ठधम्मो अप्पणो भावं दंसेति आकारविकाराय करेज्ज एवं सपरोभयसमुत्था दोसा भवति किं-चान्यत्॥ पंथे तिण वरिणेम्म, उवस्सगादीस एस चेव गमो। णिस्संकिता हु पंथे, इत्थमणिच्छे य वा ताहे ||10|| णिज्झमेतंणेमंताणपुरतोउवस्सए वि ओहियमणसंकप्पेण अत्थियव्यं संजती जइ इच्छोति लाहे चरितविशणामह प्रो इच्छति ताहे संजयस्त आयविराहणाति ताए वेहाण संकरेज्ज / कारणेवितियपदमणप्पजे, गेलण्णुनिसग्ग दुविधमट्ठाण। उवधासरीरतेणग-संभमतयखेत्तसंकमणे ||13|| अणपज्झो ओहयमणसंकप्पो भवे गेलण्णे इमं / पाउग्गस्स अलंभे, एगागिगिलाणखत्तिआदिसु वा। डंडिगमादि उसग्गा, मुन्चेज कथं व इति चिंता ||14|| गिलाण पाउग्ग वा लब्भति ताहे अट्ठितिं करेन्ज खत्ति आदि सु बा गिलाणिसु अट्ठिति करेज उवसग्गे इमं मंडिएण उवसग्गिजंतो उवस्सग्गिजतिसुवा चिंतं करेज उवसग्गे डंडिएणं अप्पणो संजतीणं वा उवसग्गे करिति कहं मुंचेजामो त्तिचिंत करेज उवही-सरीरतेणएत्तिअस्य व्याख्या-- उवधिसरीरचरित्ता, भावमुच्चेज किण्हु आवाय। ववसाय सहायस्स वि,सीतति चित्तंधितिमतो वि / / 205|| उवधि तेण सरीरत्तेणगा य संजती वा चारि तगेण वा कहिं एतेहिंतो अबिग्घेण णित्थरेज्ज एरिसे कज्जे समत्थस्सविचित्तं सीदति। अट्ठाणेतिपरिसंतो अट्ठाणे, दगग्गिभयसंभमे वरोतण्हा। वोहियमेत्थ भए वा, तिविताए होति एगस्स / / 206|| अट्ठाणपरिसंतो तण्हा खुहंतो वा अट्ठाणं कहं णित्थरेज दगवाहसंभमे अग्गिसंभमे भयादिसंभमे वा चिंता भवे वोहियमेत्थ भयेणा वा चिंताए परो भवेज्ज / नि.चू०८ उका (18) स्त्रीणां निानादि निषेधो यथाएवइयं वइयरं सोचा, दुक्खस्संतग वे सिणा इत्थीपरिग्गहारंभो, वचाघोरं तवं चरे ||3|| वियासणत्था सयिया परं मुही, अलंकिया वा अनलंकिया वा, निरिक्खमाणोपमयाहिं दुब्बलं, मणुस्समाले हगयावि किस्सइ ||2|| चित्तमित्तिं न निज्झाए, नारिं वासु-अलंकियं / भक्खरं पिव दतुणं, दिट्टि पडिसमाहरे // 3|| हत्थपायपलिच्छिन्नं, कण्णनासोट्ठ कत्तियं / यप्पयं सडमाणीय, कुट्ठवाहोदरोरुयं || तमवित्थियं दुर-यणेणं, बंभयारी विवज्जए। थेरभजए जा इत्थी, पच्वंगुब्भड जोवणा ||1|| जुन कु मारी पउत्थ-वइबालविहवं तहेव य / अंतेउरवासिणी चेव, Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 646 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी परपासंडसंसियं ||6|| दिक्खियं साहुणी वा वि, वेसं तहय नपुंसगं / कहिं गोणिं खरिं चेव, वडविं अविल अवि तहा।।७।। सप्पित्थि पसुलिं वा वि, जमरोगमहिलं तहा / विरिसं सहमचेलिक्खं, एवमादीय वित्थिओ / / गर्मति जत्थ रयणीए, अह परिक्खे दिणस्स वा / तं वसहिं सन्निवेसंवा, सव्वोवाएहि सव्वहा / / 1|| दूरउसुदूरदूरेणं, बंभयारी विवजए। एएसिं सद्धिं संलावं, अट्ठाणं वा वि गोयमा ! ||10|| अन्नासु वा वि इत्थीसु, खणद्धं पि विवजए / से भयवं ! किमत्थीयं, णोणं णिज्जाएज्जा गोयमा ! णो णंणिज्जाएजा / से भयवं ! किंसुणियच्छवत्थालंकस्थिविहूसियं इत्थीयं नो णं निजाए उयाहु ण विणियं स णं? गोयमा ! उभे पहाविणं णो णं णिज्जाए। से भयवं ! किमित्थियं नो आलावेजा गोयमा ! नो णं आलावेज्जा / से भयवं ! किमित्थीसु सद्धिं खणद्धमवि नो वसेज्जा, गोयमा ! णो णं संवसे-जा / से भयवं ! किमित्थीसु सद्धिं नो अड्डायं पडिवजे-जा / गोयमा ! एगो बंभयारी एगत्थीए सद्धिं नो पडिवजेज्जा / से भयवं ! केणटेण एवंवुच्चइ जहाणं नो इत्थीण निजाएजा नो ण मालवेजा नोणं तिए सद्धिं परिवसेज्जा नो णं अद्धाणं पडिवजेज्जा गोयमा ! सव्वएयारोहिणं सव्वित्थिओ अश्वत्थमओक्कडताए ओगेणं संबंधु किज्जमाणी कामग्गीए संपलित्ता सहावओचेव विसएहिं वाहिज्जमाणी अणुसमयं छदिसिं विदिसासु णं सव्वत्थ विसए पच्छिज्जा जाव णं सव्वत्थ विसए पछिज्जा ताव णं सव्वत्थ पयारेहि णं सव्वत्थ सय्वहापुरिसे संकप्पज्जा / ताव णं सोइंदिओवओगत्ताए चक्खुइंदि ओवओगत्ताए रसणिदिओवओगत्ताए पाणिदिओवओगत्ताए फासिंदि ओवओगत्ताए जत्थ णं केइपुरिसे कंत रूवेइ वा अकंतरूवेइ वा पडुप्पन्न-जोव्वणेइ वा अपडुपन्नजोवणेइ वा गययोव्वणेइ वा दिड्डपुव्वेइ वा इडिमंतेइ वा अणिडिमंतेइ वा इड्डिपत्तेइ वा अणिड्डिपत्तेइ वा विसया उरेइ वा निविनकामभोगेइ वा उद्धयावों दिएइ वा अणुद्धपों दिएइ वा / महासत्तेइ वा हीणसत्तेइ वा माहापुरिसेइ वा कापुरिसेइ वा समणेइ वा माहणेइ वा अन्नयरेइ वा निंदियाहिं महीणं जाइएहिं वा तत्थणं ईहापोहवीमंसं पउंजित्ताणं जावणं संयोगसंपत्तिं परिकप्पे ताव णं से चित्ते संखुद्धे भवेजा। जाव णं से चित्ते संखुद्धे भवेज्जा तावणं से चित्ते विसंवएजाजावणं से चित्ते विसंवरजातावणं से देहेमए णं अद्धासेज्जा / जाव णं से देहेमए अद्धासेज्जा तावणं से दरविदरे इहपरलोगावाए पम्हसेज्जा / जाव णं से दरविदरे इहपरलोगावाए पम्हसे जाताव णं वेचालज भयं अयसं अकित्तिमेरं उचठाणाओ नियट्ठायं ठाएजा।जावणं उचट्ठाणाओ नियट्ठायं ठाएजा ताव णं [चणेज्जा] वच्चेजा असंखेयाओ समयावलियाजावणं नीयंति असंखेज्जाओसमयावलिओ[ताव णं जं पढमसमयाउ] ताव णं जं पढमसमयाओ कम्मट्ठिइयं तं वीयसमयं पडुबावइया दिणाणं समयाणं संखेनं असंखेज्जं अणतं वा अणुक्कमसो कम्महिइं संचणिज्जा जावणं अणुक्कमसो अणंतं कम्मट्टिइं संचिणइ ताव णं असंखे जाइं अवसप्पिणी कोडिलक्खाईजावणं काले णं परिवत्तंति तावइयं कालं दोसुं चेव नरयतिरिच्छासु गतीसु उक्कोसहिइयं कम्मं आसंकलेज्जा जावणं उक्कोसद्वितीयं कम्ममासं कलेजा ताव णं सेविण्णजुत्ति विवण्णकं तिं विवलियलावण्णसरीयं निन्नट्ठदित्तेया वों दी भवेजा। जाव चुयकति लावण्णसिरियं दित्तेया बोंदी भवेजा जावणं से सिइजा फरिसिदिएतावणं सव्वहा विवट्टेजा सव्वत्थ चक्खुरागे जावणं सव्वत्थ विवट्टेञ्जा चक्खुरागे तावणं रागारुणे नयणजुयले भवेजा / जावणं रागारुणे नयणजुयले य भवेज्जा ताव णं रागंधत्ताए ण गणेज्जा सुमहंतगुरुदोसे वयभंगे न गणेजा सुमहंत गुरुदोसे नियम भंगे न गणेञ्जा / सुमहंतघोरपावकम्मसमायरणं सील खंडणं न गणेज्जा सुमहंतसव्वगुरुपावकम्म समायरणं संजमं विराहणन गणेज्जा घोरंधयारं परलोगदुक्खभयं न गणेज्जा / आइयं न गणेजा। सकम्मगुण-ट्ठाणगं न मणेजा। स सुरासुरस्स विणं जगस्स अलंगणिज्ज आणं न गणेज्जा अणंतहुतो चुल-सीइजोणिलक्खपरिवत्तगब्भयरं परं अलद्धणिमिसिद्धसोक्खं चउगइसंसारदुक्खं ण पासिज्जा जं पासिणिज्ज पासेज्जाणं अपासणिज्जणं सव्वजासमूहज्झसन्निविट्ठट्ठियाणि वन्नवक्क मिय-निरक्खिजमाणी वा दिप्पंतकिरणजालं दसदिसी पयासयत्त-वंततेय यसी सूरिए वि तहावि ण पासेजा। सुन्नंधयारे सवे दिसाभाएजाव णं एगधत्ताए ण गणेजा। सुमहल्लगुरु दोसे वयभंगे नियमभंगे सीलखंडणे संजमविराहणे परलोगभए आणाभंगाइक्कमो अणंतसंसार भए पासेज्जा / अपासणिजे सव्वजणपयडदिणयरे वि ण मन्नेज्जा सुनंधयारे सव्वेदिसाभाए जाव णन गणेज्जा सुमहल्लगुरुदोसे वयभंगे नियमभंगे सीलखंडणीया अञ्चंतनिटभट्ठसोहग्गाइसाए वित्थीए रागारुणपंडुए दुईसणिज्जे अणिरिक्खणिज्जे वयणकमले भवेजा। जाव णं अचंतनिब्मट्ठ जाव भवेज्जा ताव णं फुरफुरेजा सणियं सणियं पोंडफुडिनियंव बत्थोरुहत्थ बाहुलइय-उरकं ठपएसे जाव णं फुरफु रे ति पोंड - Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 647 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी फुड नियंवबत्थोरुहत्थबाहुलइयउरु कंठप्पएसे तावणं / मोढायमाणी अंगपाडियाहिं निरुबलक्खे वा सोवलक्खे वा मंजेज्जा सव्वंगोवंगे जावणं मोढायमाणी अंगपालियाहिं भंजेज्जा सवं गोवंगे ताव णं मयणसरसन्निवाएणं जज्जरियसंमिन्ने सव्वरोमकूवे तणू भवेजा। जावर्णमयणसरसन्निवाएणं विद्धसिए वोंदी भवेजा तावणंतहा परिणमेज्जा! तणू जहाणं मणगं पयलंति धातूवो जाव णं मणगं पयलंति धातूओ ताव णं अचत्थं वाहिजंति पोग्गलनियं बोरुबाहुलझ्याओ जाव णं अबत्थं बाहुं बाहिजइ नियंवंतावणं दुक्खेहि धरेजा गत्तयढिंजावणं दुक्खेणं घरेज्जा गत्तयढि तावणं से णो बलक्खेज्जा तियंसरीरावत्थं जाव णं णोवलक्खेज्जा / अतीयं सारीरवत्थं ताव णं दुवालसेहिं समएहिं दरनिव्वटुंभवे बोंदी जावणं दरनिव्वटुं भवे वो दी ताव णं पडिक्खलेजा। से ऊसासे नीसासे ताव णं मंदं मंदं ऊसा सेज्जा मंदं मंदं नीसासेजा जाव णं एयाइं इतियाइ भावंतर अवत्थेतराई विहारज्जा ताव णं जहा गहद्धत्थे केइ पुरीसेइ वा इथिए वा विसंतुलाए पिसायाए भार तिए असंबद्धं संबलियं विसंखुलं तं अचत्थं उल्लविज्जा एवं सिया णं इत्थीयं विसमावन्नमोहणमम्मणुल्लावेणं पुरिसे दिट्टपुटवेइ वा अदिठ्ठपुवेइ वा कंतरूवेइ वा अकंतरूवेइ वा गइजोव्वणेइ वा पडुपन्नजोवणेइ वा महा सत्तेइ वा हीणसत्तेइ वा सप्पुरिसेइ वा कापुरिसेइ वा इड्डिमतेइ वा अणिड्डिमंतेइ वा विसउद्धेइ वा | निस्विन्न कामभोगेइ वा समणेइ वा माहणेइ वा जाव णंअन्न यरे वा केई निंदिया हमहीण जावइए वा अब्भत्थेणं समजसे णं आमंतेमाणि उल्लावेजा जाव णं संखेज भेदभिन्नेणं सरागेणं सरेणं दिट्ठिएइ वा पुरिसोल्लावेजा निजाएज वा ताव णं जं न असंखेजाइं अवसप्पिणीए सप्पिणीको डिलक्खाई दोसुं नरयतिरिच्छासु गतिसु उकोसद्वितीयं कम्मं आसंकलिउं आसिउं तं निबंधिज्जा नो णंबद्धफुटुं करेजा। सेविणं जं समयं पुरिसस्स णं सरीरावय-वफरिसिणाभिमुहं भणिज्जा णोणं फरिसेज्जातं समयं चेव तं कम्मट्टिइंबद्ध पुढे करेजा ? नो णं बद्धपुट्ठनिकायंतिएयाव सरिम्हिओ गोयम ! संजोगेणं संजुञ्जेज्जा से वि णं संजोए पुरिसाय ते पुरिसों वि णं जेणं णं संजुजे से धण्णे जेणं संयुजे से अधण्णे / से भयवं ! केणतुणं एवं वुबइ जहा पुरिसे विणं ण संजुब्जे से धन्ने जे णं संजुझे से णं अधन्ने गोयम ! जेणं सत्तीए इत्थीए पावए बद्धपुट्ठकम्मठिई चिट्ठइसेणं पुरिससंगणं निकाइज्जइ। तेणं तु बद्धपुट्ठनिकाइएणं कमेणं सा वराई तं तारिसं अज्झवसायं पडुचा एगिदियत्ताए पुढवादिसु गया समाणी अणंतकालपरियट्टेण विणं णोणं पावेजा वेइंदियत्तणं एवं कहवि बहुके सेणं अणंतकालाओ एगिदियत्ताणं खविय बेइंदियत्तणं तेइंदियत्तणं चउरिंदियत्तमविसेय णं वेइयत्ता पंचिंदियत्तेणं आगया समाणि दुब्भगित्थिस पंडतेरिच्छा वेयमाणी हाहाभूयकट्ठसरणासिविणेवि अदिवसोक्खा निचं संतावुचेसिया सुहिसयणबंधवविज्जिया / आजम्मं कुच्छणिलं गेहणिज्जं निंदाणिलं खंस णिज्जं बहुकम्मं तेहिं अणे गबाहुसएहि लद्धोदरभरण सव्वलोगपरिभूया चउगइए संसारेज्जा अन्नं च णं गोयम ! जाव इयतीए पायइत्थीए। बद्धपुट्ठनिकाइककम्मट्टिइं समज्झियं इत्थियं अभिलसिउकामे पुरिसा उक्किट्ठ उक्विट्ठ यरं अणंतकम्मट्टिइंबद्धपुट्ठनिकाइयं समज्झिणेजा (समुचिणेजा) तेणं अटेणं गोयम ! एवं वुचइ जहा णं पुरिसेवि णं जेणं नो संजुजे सेणं धन्ने जेणं संजुजे सेणं अघन्ने / भयवं ! पुरिसेवं पुच्छा जावणं च णं वयासि, गोयम!छ विहे पुरिसे नेयं तंजहा अहमाहते 1 अहमे 2 वि मज्झिमे 3 उत्तमे 4 उत्तमुत्तमे 5 सवुत्तमुत्तमे 6 तत्थ णं जे सवुत्तमुत्तमे पुरिसे सेणं पुटवंगुब्भडयोव्वणं सव्वुत्तमरूबलावन्नकंतिकलियाए वि इत्थए नियं वा रूढो वा स सयं पि चिट्ठिज्जाणो णं मणसा वितं इत्थियं अमिलसेज्जा। जेणं से उत्तमुत्तमे से णं जइ कहवितुडितिहाएणं मणसासममेकं अभिलसेजा तहवि वीयसमए मणसं निरुं भिय अत्ताणं अन्नाणं निंदेजा गरहेजान पुणो वीएणं तत्थ मे इत्थियं मणसा वि उ अमिलसेज्जा / जेणं से उत्तमे सेणं जइ कहवि खणमुहुत्तं वा इत्थियं कामेज्जमाणे पक्खेजा तओ मणसा अमिलसेजा जाव णं जामद्धजामं वा णो णं इत्थीए संकप्पं विकप्पं समायरेज्जा / जइ णं बंभयारिकियपचक्खाणाग्गहे अहाणं तो बंभयारी नो कयपचक्खाणाभिग्गहे तो णं नियकलत्ते भयणाण उण तिव्वे कामेसु अभिलासे भविज्जा तस्स एयस्सणं गोयम ! अत्थि बंधे किंतु अणंतसंसारइत्तणं नो निबंधेज्जा / जे णं सेजा जे णं से वि मज्झिमेणं से णं नियकलत्तेणं सद्धिं नियमं समायरिजा णो णं परकलत्तेणं एसे य णं जइ पच्छा उग्गबंभयारी नो भवेज्जा नो णं अज्झवसायविसेसं तं तारिसमंगीकाऊण अणंतसंसारियत्तणे भयणा जओ णं जे केइ अभिगयजीवाइप-यत्थो सव्वभध्वसत्ते आगमाणुसारेणं सुसाहुणं धम्मोवटुंभदाणाइदाणसीलतव-भावणामई स चउविहे धम्मखंधे समणुटेजा / सेणं जइ कहइ निय Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 648 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी मवयभंग न करेजा तओ णं सायपरंपरएणं सुमाणु सत्तंसुदेव- इत्थीसुतहाणं नेइजोवणं कमेइ ठिई समजेजा णवरं पुरिसस्स त्ताए। जावणं अपरिवडियसम्मत्ते निसग्गेण अभिगमणे वा जाव | णं संचिक्खणंगे संबेत्थरुहोवरतलपक्खएसु लिंगे य अहारससीलंगसहस्सधारी भवित्ताणं निरुद्धा सव्वदारे अहिययरंरागमुप्पजे एवं एते चेव छ पुरिसविभागे कासिं च विहूयरयमले पावकम्मं खवेत्ताणं सिज्झेजा। जे य णं से अहमे इत्थीणं गोयमा ! भव्वसत्तं सम्मत्तदढत्तं च अंगीकाऊणं जावणं सेणं सपरिदारासत्तमाणा से अणु समयं कू रज्झ- सटवुत्तमे पुरिसविभागे ताव णं चिंतणिज्जे नोणं सवेवसायज्झवसियचित्तेहिं सारंभपरिम्गहाइसु अभिरइ भवेज्जा तहा सिमित्थीणं / एवं तु गोयमा ! जीए इत्थीए तिकालं णं जे य से अहमाहमे सेणं महापावं कम्मं सवाओ इत्थीओ पुरिससंजोगसंपत्तीण संजया अहाणं पुरिससंजोगसंपत्तीए वि वाया माणसा य कम्मुणा तिविहं तिविहेणं / अणुसमयामिलसेज्जा साहुणीए जाव णं तेरसमे चोहसमे पन्नरसमे णं च समयेणं तहा अचंतकूरव-ज्झवसाय अज्झवसिएहिं सारंभपरिसत्ते पुरिसेण सद्धि ण संजुत्ता णो वि यं संसमायरियं सेणं जहा कालगमेजा एसिं दोण्हंपिणं गोयम ! अणंतसंसारयत्तणं णेयं / घणकट्ठतणदारुसमिद्धे केइ गामेइ वा नगरेइ वा रण्णेइ वा भवयं ! जेणं से अहमे जे विणं से अहमा माहमे पुरिसे तेसिंच संपलित्ते चंडानिलसुधुक्किए य पलित्ताणं णिड ज्झिय दोण्हं पियं अणंतसंसारियत्तणं समक्खायं तो य णं एगे अहमे णिडज्झिय, चिरेणं उवसमेजा एवं तु णं गोयमा ! से इत्थी एगे अहमाहमे एतेसिं दोण्हंपि पुरिसावत्था णं को पइ विसेसो कामग्गीसंपलित्ता समाणिणिडज्झिय णिडज्झिय समयचउक्केणं गोयम ! जेणं से अहम पुरिसे सेणं जइवि उसपरदारासत्तमाणसे उवसमेजा एवं इगवीसइमे वावीसइमेजावणं सत्ततीसइमे समए कू रज्झवसायअज्झवसिएहिं सारंभपरिग्गहासत्तविते जहाणं पदीवसिहा वावन्ना पुणरवि उसयं वा तहा विहेणं तहविणं दिक्खियाहिं साहुणीहिं अन्नयरासुंच सीलसंरक्खणपोसहोववासनियराहिं दुक्खियाहिं गारस्थीहिंवा सद्धिं आबडिअ चुन्नयोगेणं वा पयलेज्जा एवं सा इत्थी पुरिसदसणेण वा पिल्लि-यामंतिए वि समाणे णो वियमं समायरेन / जे य णं से पुरिसालावगदसणेण वा मदेणं कंदप्पेणं कामग्गीए पुणरविउ अहमाहमे पुरिसे से णं नियजणणिपभई जावणं दिक्खियाइहिं पयलेज्जा एत्थं च गोयमा ! जत्थियं भएण वा लजाए वा साहुणीहिपि समं वियमं समारिजा तेणं चेव से महापावकम्मे कुलंकुसेण वा जावणं धम्मसद्धाएणं वा तवे यणं अहियासेज्जा सव्वहमाहमे समक्खा एसेणं गोयमा ! पइविसेसे तहा य जेणं नोणं वियमं समायरिज्जा से णं धन्ना से पुण पुण्णा, से य गं से अहमपुरिसे सेणं अंणतेणं कालेणं बोहिणं पावेजा। जओणं बंदा, से णं पुज्जा, से णं दट्ठय्वा, से णं सव्वलक्खणा, से णं से अहमाहमे महापावकारी दिक्खियाहिं पि साहुणीहिं पि समं सवकल्लाणं कारया, से णं सव्वुत्तममंगलनिही, से णं वियमं समायरिज्जा सेणं अणंतहुतो वि अणं तसंसार सुयदेवया, से णं सरस्सती, से णं अंबुहुंडी, से णं अचुया, से माहिंडिऊणंपि बोहिं नो पावेज्जा / एसे य णं गोयम ! वितिए णं इंदाणि, सेणं परमवित्तुतमसिद्धी मुत्तीसासयासिवगइत्ति। जे पइविसेसे तत्थ णं जे से सव्वुत्तमे सेणं छउमत्थ वीयरागेण य इत्थियं ते चेवणं नो अहियासेज्जा वियमं वा समायरेज्जा से णं जेणं तु से उत्तमुत्तमे सेणं अणिड्डिपभित्तीए जावणं उवसमायरेज्जा अधन्ना, से णं अवंदा, से णं अपुजा, से णं अदट्ठवा, से णं तावणं निउणीएजेणंच से उत्तमे सेणं अप्पमत्तसंजएणो एवमेएर्सि अलक्खणा, से णं भग्गलक्खणा सेणं सव्व-अमंगलअकल्लानिरूवणाकुञ्जाजे उणं मिच्छदिट्ठी भवित्ताणं उग्गबंभयारी भवेजा णमायणा, से णं भट्ठसीला, से णं भट्ठायारा, से णं हिंसा-रंभपरिग्गहाइणं वीरइ सेणं मिच्छदिट्ठी चेव णेए णोणं परिभट्ठचारित्ता, से णं निंदणिया, से णं गरहिणिया, से णं सम्मदिट्ठी तेसिंचणं अविइयजीवाइपयत्थ सम्भावाणं गोयम ! खिसणिज्जा, सेणं कुच्छिणिज्जा, सेणंपावा, सेणं पावपावा, सेणं नो णं उत्तमुत्तमे अभिनंदणिज्जे वा संसणिज्जेवा भवइ जे उत्तमेणं महापावा, सेणं उपवित्तत्ति एवं तु गोयमा! वपुलणत्ताए, भीरुत्ताए, ते अणंतरभविए दिव्वोएलए विसए पच्छेज्जा अच्छंवकथादिइ ते कायरत्ताए, लोलत्ताए, उम्मायओ वादप्पओ वा कंदप्पओ वा दिग्वित्थियादओ संविक्खियत्तउणं बंभव्वयाओ परिहरिना अणप्पवसओवा।आउट्ठियएवाजमित्थियं संजमाओपरिभस्सिय णियाण कडे वा हवेज्जा जे य णं से वि मज्झिमे सेणं तं तारि- दूरट्ठाणे वा गामे वा नगरे वा रायहाणीए वा वेसग्गहणं अच्छडिय समज्झवसायमंगीकिचा ण विहरिज्जा विरयाविरए दट्ठय्वे तदा पुरिसे णं सद्धि वियमं समायरेजा भूओ भूओ पुरिसं कामेजा वा णं जे अहमे जे य णं से अहमाहमे तेसिं तु णं एगंतेणं जहा | रामेज वा अहाणं तमेवा दोयत्थियं कञ्जमई परिकप्पेताणं तमा Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 649 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी इवेज्जातं चेव आई व माणीय सिया णं उम्मायओवा दप्पओ वा कंदप्पओ वा अणवस्सओ वा आउट्ठियाए वा कइया परिए वा सामन्नं संजप्पइ वा रायसंसिए वा वामयलद्धिजुत्तेइ वा तवोलद्धिजुत्तेइ वा जोगचुम्नलद्धिजुत्तेइ वा विन्नाणलद्धिजुत्तेइ वा जुगुप्पहाणेइ वा पवयणप्पभावगेइ वा तमित्थियं अन्नं वा रामेज वा कामेज वा अमिलसेज वा मुंजेज वा परिभुजेज वा जावणं वियमं वा समायरेजा। से णं दुरंतपंवलक्खणे, अहन्ने, अवंदे, अदहव्वे अपवित्ते, अपसत्थे, अकल्लाणे, अमंगल्ले, निंदणिजे, गरहणिजे, खिसणिज्जे,कुच्छिणिजे, से णं पावे, से णं पावपावे, से णं महापावे, से णं महापावपावे, से णं भट्ठसीले से णं भट्ठायारे, से णं निब्मट्ठचारित्ते महापावकम्मकारिजयणं पायणि पायछित्तमन्मट्ठिजा तओगं मंदतुरगेणं, वइरेणं सरीरेणं, उत्तमेणं संघयणेणं, उत्तमेणं पोरसेणं उत्तमेणं सत्तेणं उत्तमेणं तत्तपरिमाणेणं, उत्तमेणं वीरियसामत्थेणं, उत्तमेणं संवेगेणं, उत्तमाए धम्मसदाए, उत्तमेणं आउक्खएणं तपायच्छे तमणुचरेज्जा / तेणं तु गोयमा ! साहूणं महाणुभागाणं अट्ठारसपरिहारट्ठाणाई णंवबंभचेरगुत्तिउवागरिज्जत्ति / से भयवं ! किं पच्छित्तेणं सुज्झेजा गोयम ! अत्थेगे जेणं सुज्झेजा अत्थेगे जेणं नो सुज्झेज्जा / से भयवं ! केणढेणं एवं वुचई जहा णं गोयम ! अत्थेगे जेणं सुज्झेजा अत्थेगे जेणं नो सुज्झेजा। गोयम ! अत्थेगेजेणं नियडिप्पहाणे सङ्घसीले वंकसमायरे से णं असल्लेया लोइत्ताणं ससल्ले चेव पायच्छित्तमणुचरेज्जा सेणं अविसुद्धसकलुसं से णं णो सुज्झेज्जा अत्थेगे जेणं उज्जु पद्धरसरलसहावे जहावत्तं णीसल्लं णीसंकं सुपरिफुडं आलोइत्ताणं जहोवइह चेव पायच्छित्तमणुचेट्ठिजा से णं निम्मलनिकलुसविसुद्धासए विसज्जेज्जा / एतेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयम ! अत्थेगे जेणं सुज्झेज्जा अत्थेगे जेणं नो सुज्झेला तहा णं गोयम ! इत्थीण णामं पुरिसाणं महंमाणं सवपावकम्माणं वसुहारातमरय पंकखाणी सोग्गईमग्गसणं अग्गला नारयावयारस्स अंसमोयरनवेन्नणी अभूमयं विसकं दलिं अणग्गिणियं चटुलिं अभीयणं विसूइयं अणामियं वाहिं अवे यणं मुच्छं अणोवसगं मारि अणियलं गत्तिं अरुज्झए पासे आहओ मचू तहा य णं गोयम ! इत्थी संभोगे पुरिसाणं मणसावेणं अचिंतिणिजे अवण्णज्झवसणिज्जे अप्पसत्थणिझे अपसत्थाणिज्जे अहीणिजे अवियप्पणिज्जे असंकप्पणिजे अण-मिलसणिज्जे असंभरणिझे तिविहं जओणं इत्थीणं नाम पुरिस्स णं गोयम ! | सव्वप्पगारेसु पिदुस्साहियं विजंपिवा दोसुप्पायणं सरंभसंजगं / पि वा अपुट्ठधम्म अलिय-चारित्तं पि व अणालोइयं अणिदियं अगरहियं अकय-पायच्छत्तज्झवसायं पडुच्च अणंतसंसारपरियण दुक्खसंदोहं कयपायच्छित्तं विसोहिं पि व पुणो असंजमायर णं महंत पावकम्मसंचयहिंसं पि व सयलतेलोकनिंदियं अदिटुं परलोगपचवायघोरंधयारणरयवासो इव णिरंतराणेग दुक्खनिर्हिति अंग-पचंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं अच्छी णं तं न णिज्झाए कामरागविवडणं तहाय इत्थीओ नाम गोयम ! पलय-कालरयणीमिव सव्वकालं तणो वलित्ताओ भवंति विज्जु इव खणदिट्ठनद्वपेमाओ भवंति सरणागयवायगा इव एकजमियाओ तक्खणपसूयजीवंतमुद्धनियसि-सुभक्खओ इव महापावकम्माओ भवंति / खरपबणु हचा-लियलवणोदहिवेला इव बहुविहविकप्पकल्लोलमालाहिं ण खणंपि एगत्थ असंठियमाणुसाओ भवंति सयंभुरमणोवहीमिव दुक्खगाहकइतवाओ भवंति पवणो इव चटुलसहावाओ भवंति अग्गी इव सय्वभक्खाओ / वाओ इव सव्वफ रिसाओ तक्करो इव परत्थलोलाओ साणो इव दाणमेत्तमत्तिओ मच्छो इव हत्थपरिचत्तनेहाओ एव माई अणे गदोसलक्खपडिपुग्न-सवंगोवंगसभितरबाहिराणं महापावकम्माणं अवि-णयविसमंजरीणं तत्थुप्पन्नअणत्थगस्थ पसूईणं इत्थी य णं अणावरयनिब्भरंतदुग्गंधा सुइविलीण कुच्छणिज निंदणिज्ज खिसणिज्ज सवंगोवं गाणं सभितरवा हिएणं परमत्थओ महासत्ताणं निविनकामभोगाणं गोयम ! सव्वुत्तमुत्तमपुरिसाणं के नाम सुइत्तेसु विन्नाया धम्माहम्मेखणमवि अमिलासंगच्छिज्जा जासिं च णं अभिलसिऊणं कामे पुरिसे तजेणिसंमुच्छिमं पंचि-दियाणं एक्कपसंगणं चेव णवण्हं सयसहस्सेणं णियमाओ उद्द वगे भवेज्जा ते य अश्चंतसुहमुत्ताओ मंसचक्खुणोणपासिया एएणं अट्ठणं एवं वुच्चई जहाणं गोयमा ! णो ईत्थी णं आलवेजानो असंलवेजा नो उल्लवेज्जा नो इत्थी णं अंगोवंगाई संणिरिखेज्जाजावणंनो इत्थीए सद्धिं रागे बंभयारि अद्धाणं पडिवजेजा। महार अशा (20) स्त्रीस्थानदूषणमाह। जहा विरालावसहस्समूले,नमूसगाणं वसहीपसत्था। एमेव इत्थी नियलस्स मज्झे, नबम्भयारिस्सखमो निवासो ||13|| यथा विडालावसथस्य मूले विडालस्य आवसथं गृहं विडा लावसथं तस्य मूले समीपे मूषकाणां उन्दुराणां वसतिः स्थितिःन प्रशस्ता न समीचीना भवति विडालगृहसमीपे मूषक - स्थितिम रणायैव एवममुना दृष्टान्तेन स्त्रीनिलयस्य स्त्रिया Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 650 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी सहितो निलयो गृहं स्त्रीनिलयस्तस्य स्त्रीनिलयस्य मध्ये ब्रह्मचारिणो निवासः क्षमो युक्तो नास्ति / तत्र वसमानस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्यस्य नाश एव स्थादिति भावः // 13 // स्त्र्यादिरहिते स्थाने वसमानेनापि स्त्रीसम्पाते किं कर्तव्यं तदाह। न रूपलावण्णविलासहावं, न जंपियं इंगियपेहियं वा। इत्थीणचित्तं सिनिवेसइत्ता, दट्टुं ववस्से समणे तवस्सी॥१४॥ तपस्वी श्रमणः स्त्रीणामेतत्सर्वमेतचेष्टितं चित्ते स्वकीये मनसि सन्निवेश्य सम्यगवधार्य द्रष्टुं न व्यवस्येत दर्शनायसोद्यमो न भवेत्। कोर्थः साधुः स्त्रीणामेतचेष्टितं स्वहृदिधृत्वा एतचेष्टितं द्रष्टुं व्यवसायं न कुर्यात् / यतो हि। पूर्व मनसः इच्छायाः प्रवृत्तिस्ततश्चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां प्रवृत्तिरिति। तत्स्त्रीणां किंकिञ्चेष्टितं तदाह रूपं स्त्रीणां गौरा दिवर्णो लावण्यं नयनालादकः कश्चिद्गुणविशेषः विलासो विशिष्टनयनचेष्टाविशेषः, अथवा मन्थरगतिकरणादिको, हास्यं स्मितमीषद्दन्तानां जल्पितं मन्मनोल्लापादिकम् इङ्गितमङ्गोपाङ्गादिमोटनं स्वचित्तविकारसूचकं, वीक्षितं वक्रावलोकनम्रूपञ्चलावण्यं च विलासश्च हास्य चरूपलावण्यविलासहास्यानितेषांसमाहारो रूपलावण्यविलासहास्यमेतत्सर्वं स्त्रीणां साधुना रागेन न द्रष्टव्यमिति भावः। अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हियं सयावम्भवए रयाणं ||15|| ब्रह्मव्रते ब्रह्मचर्ये रतानां सावधानानां साधूनामेतदार्यध्यानं योग्यं हितं वर्तते। आर्य च तद्ध्यानं च आर्यध्यानं सम्यग्ध्यानं धर्मशुक्लादिकं तस्य योग्यंहितं पथ्यं धर्मध्यानस्य स्थैर्यकारको भवति कोर्थः यदा हि ब्रह्मचर्यधारिणः एतत् कर्वन्ति तदा तेषां धर्मध्यानं स्थिरं स्यादित्यर्थः। तत्कि किमार्यध्यानयोग्यं तदाह / स्त्रीणामदर्शनं रागेण अनवलोकनं च पादपूरणे एव निश्चये / पुनः किं स्त्रीणामप्रार्थनमभिलाषस्याकरणं पुनः स्त्रीणामचिन्तनं यत् कदाचित् रूपादिकं दृष्टं तस्य चेतसि न स्मरणमपरिभावनमित्यर्थः / पुनः स्त्रीणामकीर्तनं यत्कदाचिद्रूषेण नाम्ना गुणेन वा न कीर्तनमकीर्तनं नाम गुणोचारणस्य अकरणम् यदि ब्रह्मचारी स्त्रीणां दर्शनं प्रार्थनं चिन्तनं कीर्तनं करोति तदा तस्य आर्यध्यानस्य उत्तमध्यानस्य स्थैर्य नस्यात् एतद्धर्मध्यानस्य योग्य हितं नास्ति। ननु कश्चिद्वक्ष्यति "विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषांन चेतांसि तएव धीराः" तत् किं विविक्तशयनासनसेवनेन इति चेत्तत्राह। कामं देवेहिं विभूसियाहिं, नचाइया खोभइउं तिउत्ता। तहा वि एगंतहियंति नचा, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ||16|| हे शिष्य! तथापि मुनीनां विविक्तभाव एकान्तस्थाननिवासः प्रशस्तः। किं कृत्वा विविक्तभावमेकान्तहितं मत्वा तथा इति कथं यद्यपि त्रिगुप्तास्तिसृभिर्गुप्ताः मुनयः काममत्यर्थ देवीभिः क्षोभयितुं ध्यानाचालयितुं न 'चाइया' इति न शङ्किताः कीदृशीभिर्देवीभिः आभूषणयुक्ताभिः / यदि देवाङ्गनाभिराभरणालङ्कृताभिरपि साधवो ध्यानान्न चालितास्तदा मानुषीभिस्तु क्षोभं प्राप-यितुमशक्या एव तथापि स्त्रीप्रसङ्गत्यागं मुनीनामेकान्तहितं ज्ञात्वा स्त्र्यादिरहितोपाश्रये स्थितिः श्रेयसीति भावः / / 16 / / स्त्रीप्रसङ्गत्यागं पुनरपि दृढयति। मोक्खाभिकंखिस्स विमाणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे। नतारिसंदुत्तरमत्थि लोए, जहित्थिओ बालमणोहराओ / / 7 / / मोक्षाभिकाङ्क्षस्य मोक्षाभिलाषुकस्य मानवस्य संभारभीरोरपि तथा धर्मे स्थितस्य श्रुतधर्मे स्थितस्य अत्र संसारेतादृशंदुस्तरमन्यत् किमपि नास्ति यथा लोके संसारे स्त्री दुस्तरास्ति / कीदृशी स्त्री बालमनोहरा बालानामविवेकिनां मनांसि हरतीति बालमनोहरा / तुशब्दः पादपूरणे विशेषार्थे च। स्त्रीसङ्गातिक्रमे गुणमाह। एएयसंगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरिता, नई भवे अविगंगा समाणा ||18|| मनुष्याणामेतान् स्त्रीसंबन्धिसङ्गान् समतिक्रम्य शेषाः धनधान्यादिसंबन्धाः सुखोत्तराश्चैव भवन्ति। सुखेनोत्तीर्यन्ते इति सुखोत्तराः यथा महासागरं स्वयंभूरमणसदृशं समुद्रमुल्लङ्घय गङ्गा नदी अपि सुखोत्तरा सुखोल्लच्या एव तथा येन स्त्रीस-ङ्गस्त्यक्तस्तस्य अन्यसङ्गो धनधान्यादिसंयोगः सुत्यज एव (अत्र गाथायां चतुर्थपादे छन्दोनुरोधात् "गंगा भवेजा विणई समाणा'' इति पाठो युक्तः) 18 // उत्त० 32 / अ०। स्त्रीस्थानदर्शनादि-परिहारस्य ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानत्वे श्लोकाः प्रतिपादिताः। जं वि वित्तमणाइन्न, रहियं इत्थिजणेणय / बंभचेरस्स रक्खट्टा, आलयं तुनिसेवए ||1|| साधुर्ब्रह्मचारी तमालयं तमुपाश्रयं निषेवते। तुः पादपूरणे तं कंय आलयो विविक्त एकान्तभूतः तत्रत्यवास्तव्यस्त्रीजनेन चशब्दात् पशुपण्डकैरपि रहितः पण्डकशब्देन नपुंसक उच्यते कालाकालविभागागतसाध्वीजनं श्राद्धीजनं चश्रित्य विविक्तत्वं ज्ञेयं यदुक्तम्- "अट्ठमी पक्खिये मोत्तुं वयणा कालमेव या सेसकालम्मिइंतीओ, नेया उ अकालचारीओ''||१|| तस्मात्य आलयस्त्र्यादिभिरसेवितस्तमालयं ब्रह्मचारी साधुश्च निषेवते इत्यर्थः / पुनर्यश्चालयः अनाकीर्णो गृहस्थानां गृहाद्दूरवर्ती किमर्थं ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ यो हि स्वब्रह्मचर्यं रक्षितुमित्छति स एतादृशमुपाश्रयं निषेवते अत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात्।।१।। मणपण्हाय जणवी, कामरागविवड्डवी। बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवजए ||12|| अथ द्वितीयं ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः स्त्रीकथां विवर्जयेत् स्त्रीणां कथा स्त्रीकथा तां त्यजेत् कीदृशीं कथां मनःप्रह्लादजननीमन्तःकरणस्य हर्षोत्पादिकां पुनः कीदृशीं कामरागविवर्द्धनीं विषयरागस्य अतिशयेन वृद्धिकर्तीम् / / 12 / / समं च संथबंथीहिं, संकहं च अभिक्खणं / बम्मचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए।।३।। ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुर्नित्यशो निरन्तरं सर्वदा स्त्रीभिः समं सं स्तवं अर्थात् एकाशने स्थित्वा परिचयं च पुनः अभीक्षणं वारं वारं संकथां स्वीजातिभिः सह स्थित्वा बह्रीं वार्ता परिवर्जयेत् सर्वथा त्यजेत् // 3 // Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 651 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी अंगपञ्चगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं।। बभचररओ त्थीणं, चक्खू गिज्झं विवजए|ll ब्रह्मचर्यरतः साधुः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानचक्षुह्यं विवर्जयेत्। अङ्गं मुखं प्रत्यङ्ग स्तनजघननाभिकक्षादिकं संस्थानकं कटिविषये हस्तं दत्वा ऊर्ध्वस्थायित्वं पुनः स्त्रीणां चारुल्लपित प्रेक्षितं चक्षुग्राह्यं विशेषेण वर्जयेत् / चारु मनोहरं यदुल्लपितं मन्मानांदि जल्पनं प्रकृष्टमीक्षितं वक्रावलोकमेतत्सर्वं परित्यजेत् कोऽर्थः ब्रह्मचारी हि स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गं संस्थानंचारुभणितं कटाक्षैरवलोकनमेतत्सर्वं दृष्टिविषयमागतमपिततः स्वकीय-ञ्चक्षुरिन्द्रिय, बलान्निवारयेदित्यर्थः // 4 // कूइयं रुइयं गीयं, हसियं थणियकंदियं / वंभचेररओत्थीणं, सोयगिज्झं विवज्जए |1|| ब्रह्मचर्येरतः स्त्रीणां कूजितंरुदितं गीतहसितंस्तनितंक्रन्दितं श्रोत्रग्राह्य कर्णाभ्यां गृहीतुं योग्यं विशेषेण वर्जयेत् न शृणुयादि-त्यर्थः / / 1 / / हासं कीडं रयं दप्पं, सह भुत्तासणणिय। बंभचेर रओ थीणं, नाणुचिंते कयाइ वि / / 7 / / ब्रह्मचर्यरतो ब्रह्मचारी स्त्रीणां हास्यं पुनः क्रीडां तथा रतं मैथुनप्रीतिं दर्प स्त्रीणां मानमर्दनादुत्पन्नं गर्वं पुनः सहसा अपत्रासितानि सहसा कारेण आगत्थ पश्चात्पराङ्मुखस्थितानां स्त्रीणां नेत्रे हस्ताभ्यां निरुध्य भयोत्पादनहास्योत्पादनानि सहसा वित्रासितानि उच्यन्ते एतानि पूर्वानुभुतानि कदापि न अनुचिन्तयेत् न स्मरेत् (अत्र सहसाद वित्तासणाणिय'' इति वचित्पाठस्तदनुसारेण व्याख्यातम्) / अथ च सह भुक्तासनानि न अनुचिन्तयेत् सह इति स्त्रिया सार्द्ध भुक्तमेकासने उपविशन् पूर्व भोजनानि कृतान्यतिनस्मरेत् सहासनभुक्तानि इति वक्तव्ये सह भुक्तासनानि इतिप्राकृतत्वात्।।७।। उत्त०१६ अ (स्त्रीप्रसङ्गे दोषस्तत्र दोषा दोषविचारश्च मेहुण शब्दे)। __ सांप्रतं मतान्तरं दूषणाय पूर्वपक्षयितुमाह। एवमेगे उपासत्था, पन्नवंति अणारिया। इत्थी वसंगया बाला, जिणसासण परम्मुहा।।९।। जहा गंडं पिलागं वा, परि पीलेज मुहुत्तगं / एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ को सिया||१०|| तु शब्दः पूर्वस्माद्विशेषणार्थः / एवमिति वक्ष्यमाणया नीत्या यदि वा | प्राक्तन एव श्लोकोत्रापि संबन्धनीयः (एवमिति) प्राणातिपातादिषु वर्तमाना एक इत्या दि बौद्धविशेषानीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः सदनुष्ठानात् पायें तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः स्वपूथ्यावापार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजितास्त एव प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति अनार्याः अनार्यकर्मकारित्वात् / तथाहि / ते वदन्ति। "प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः / प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा' / किमित्येवं तेऽभिदधतीत्याह। स्त्रीवशंगताः यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते बाला अज्ञारागद्वेषोपहतचेतस इति रागद्वेषजितो जिनास्तेषां शासनमाज्ञाकषायमोहोपशमहेतुभूता तत्पराङ्मुखाः संसारा-भिष्वङ्गिणो जैनमार्गाविद्वेषिण एतद्वक्ष्यमाणमूचुरिति // 9 // यदूचुस्तदाह (जहा गंडमित्यादि) यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। यथा येन प्रकारेण कश्चित् गण्डी पुरुषो गण्डं समुत्थितं पिटकं वा तज्जातीयकमेव तदाकृतोपशमनार्थ परिपीड्य पूयरुधिरादिकं निर्माल्य मुहुर्तमात्रंसुखितो भवति न च दोषेणानुषज्यते / एवम-त्रापि स्वीविज्ञापनायां युवतिप्रार्थनायां रमणीसंबन्धेगण्डपरिपीडनकल्पेदोषस्तत्र कुतः स्यात् / न होतावता क्लेदापगममात्रेण दोषो भवेदिति / स्यात्तत्र दोषो यदि काचित्पीडा भवेत्॥१०॥ दृष्टान्तेन दर्शयति॥ जहामंधादए नाम, थिमि मुंजतीदगं। एवं विन्नवोणत्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ ||11|| जहा विहंगमा पिंगा, थिमिअं मुंजतीदगं। एवं विनवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिआ।।१२।। एवमेगे उपासत्था, मिच्छदिट्ठी, अणारिआ। अज्झोववन्ना कामेहि, पूयणे व्वतरुण्णए ||13|| यथेत्थमुदाहरणोपन्यासार्थः / मन्धादन इति मेष नामशब्दः संभावनायाम्यथा मेषस्तिमितमनालोडयन्नुदकं पिबत्यात्मानं प्रीणयति न च तथान्येषां किंचनोपघातं विधत्ते / एवमत्रापि स्त्रीसंबन्धे न काचिदन्यस्य पीडा आत्मनश्च प्रीणनमतः कुतस्तत्र दोषः स्यादिति॥११|| अस्मिन्नेवानुपघातार्थे दृष्टान्तबहुत्व-ख्यापनार्थं दृष्टान्तान्तरमाह। (जहाविहं गमा इत्यादि) यथा येन प्रकारेण विहासया गच्छतीति विहं गमा पक्षिणी (पिंगेति) कपिञ्जला साकाश एव वर्तमाना स्तिमितं निभृतमुदकमा-पिबत्येवमत्रापि गर्भप्रधानपूर्विकया क्रियता अरक्ता द्विष्टस्य पुत्राद्यर्थ स्त्रीसंबन्धं कुर्वतोपि कपिञ्जलाया इव न तस्य दोष इति / सांप्रतभेतेषां गण्ड पीडनतुल्यं स्त्रीपरिभोगं मन्यमानायां तथैडकोदकपानसदृशं परपीडाऽनुत्पादकत्वेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकत्वेन किल मैथुनं जायत इत्यध्यवसायिनां तथा कपिञ्जलोदकपानं यथा तडागोदकासंस्पर्शन किल भवत्येवमरक्तद्विष्टतथा दर्भाधुत्तारणात् स्त्रीगात्रस्पर्शेन पुत्रार्थं न कामार्थ ऋतुकालाभिगामितया शास्त्रोक्तविधानेन मैथुनेपि न दोषानुषङ्गस्तथोचुस्ते "धर्मार्थ पुत्रकामस्यस्वदारेष्वधिकारिणः। ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते" इति एव मुदासीनत्वेन व्यवस्थितानां दृष्टान्तेनैव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह / [जह णाममडलग्गे ण, सीसंछित्तूण कस्सइ मणसो।। चिट्टेञ्ज पराहुत्तो, किं नाम ततो ण घेप्पेजा ||13|| जह णाविसगंडूसं, कोतीघेत्तूण नाम तुण्हिक्को। अण्णेण अदीसंतो, किं नाम ततो नबमरेज्जा ||14|| जह नाम सिरिघराउ, कोइरयणेण णामघेत्तूणं / अत्थेज पराहुत्तो, किं णाम ततो नघेप्पेला ||15||) यथा नाम कश्चिन्मण्डलाग्रेण कस्याविच्छिरश्छित्वा पराङ्मुखस्तिष्ठेत्। किमेतावतोदासीनभावावलम्बनेनन गृह्येत नापराधी भवेत्। तथा यथा. कश्चिद्विषग्ण्डूषं गृहीत्वा पीत्वा नाम तूष्णीं भावं भजे दन्येन वाप्यदृश्यमानोसौ किं नाम ततो सावन्यादर्शनात् न म्रियेत। तथा यथा कश्चिच्छ्रागृहागाण्डा गाराद्रत्नानि महााणि गृहीत्वा पराङ्मुखस्तिष्ठेत् किमेतावता सौ न गृह्येतेति। अत्र च यथा कश्चित् शठतया अज्ञतया वा Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थी 652 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इत्थी शिरश्छेदे विषगण्डूषरत्नापहाराख्ये सत्यपि दोषत्रये माध्यस्थ्यमवलम्बेत नचतस्य तदवलम्बनेपि निर्दोषतेति। एवमाप्यवश्य भाविरागकार्यमैथुने सर्वदोषास्पदे संसारवर्द्धके कुतो निर्दोषतेति / तथाचोक्तम् "प्राणिनां वाधकं चैतच्छास्त्रैर्गीतं महर्षिभिः। नलिकातप्तकणक प्रवेशज्ञानतस्तथा |शा मूलं चैतदधर्मस्य भवभावप्रर्धनम् / / तस्माद्विषान्नवत्त्याज्यमिदं पापमनिच्छतेति" नियुक्तिगाथात्रयतात्पर्यार्थः // 12 // साप्रतं सूत्रकार उपहारव्याजेन गण्डपीडनादिदृष्ठान्तवादिनां दोषोद्विभावयिषयाह। (एवमेगे इत्यादि) एवमिति गण्डपीडनादिदृष्टान्तबलेन निर्दोषं मैथुनमिति मन्यमाना एके स्त्रीपरीषहपराजिताः सदनुष्ठानात्पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था-नाथवादिकमण्डलधारिणः तुशब्दात् स्वपूथ्या वा तथा विपरीता तत्त्वाग्राहिणी दृष्टिदर्शनं येषां ते। तथा आराडूरे यातागता सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्थान आर्या अनार्याः / धर्म विरुद्धानुष्ठानात्त एवंविधा अध्युपपन्ना गृध्नव इच्छामदनरूपेपु कामेषु कामैर्वा करणभूतैः सावद्यानुष्ठानेष्विति। अत्रलौकिकं दृष्टान्तमाही यथा वा पूतनाडाकिनी तरुणके स्तनन्धये ऽध्युपपन्ना एवं तेप्यनार्याः कामेष्विति। यदिवा (पूयणत्ति) गडुरिका आत्मीये ऽपत्येऽध्युपपन्ना एवं ते ऽपीति कथानकं चात्र / यथा किल सर्वपशूनामपत्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थं क्षिप्तानि तत्र चापरा मातरः स्वकीयस्तनंधयशब्दाकर्णनेपि कूपतटस्था रुदन्त्यस्तिष्ठन्ति / उरभ्री त्वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्त-वतीत्यतो ऽपरपशुभ्यः स्वापत्ये ऽध्युपपन्नेति। एवं ते ऽपि कामाभिष्वङ्गिणां दोषमाविष्कुर्वन्नाह / अणागयमपस्संता, पचुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउम्मिजोवणे // 14|| जेहि काले परिकतं, न पच्छा परितप्पए। ते धीरा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीविअं॥१५|| अनागतमेष्यत् कालमनिवृत्ता नरकादियातनास्थानेषु महा दुःखमपश्यन्तो ऽपर्यालोचयन्तस्तथा प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमेव वैषयिक सुखाभासमन्वेषयन्तो मृगयमाणा नानाविधैरुपायैर्भोगान् प्रार्थयन्तस्ते पश्चात् क्षीणे स्वायुषि जातसंवेगा यौवने वा अपगते परितप्यन्ते शोचयन्ते पश्चात्तापं विदधति। उक्तचं। "हतं मुष्टिभिराकाशं तुषाणां कण्डनं कृतम् / यन्भया प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नादरः कृतः // 11 // तथा। ''विहवा वलेवनडिएहिं जाई कीरंति जोव्वणभएण॥ क्यपरिणामे सरियाईताइहिं अपक्खुडुक्कंति॥१॥ 14 // ये तूत्तमसत्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुद्यम विदधति न ते पश्चाच्छोचन्तीति तदर्शयितुमाह (जेहिंकालेइत्यादि) यैरात्महितकर्तृभिः काले धर्मार्जनावसरे पराक्रान्तमिन्द्रियकषायपराजयाद्युद्यमो विहितो न ते पश्चान्मरणकाले वृद्धावस्थायां वा परितप्यन्ते न शोकाकु ला भवन्ति / एकवचनानिर्देशस्तु सौत्रच्छान्दसत्वादिति। धर्मार्जनकालस्तु विवेकिनां प्रायशः सर्व एव। तस्मात्स एव प्रधानपुरुषार्थः प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो घटां प्राञ्चति / ततश्चायं बालात्प्रभृत्यकृतविषयासङ्गतया कृततपश्चरणास्ते धीराः कर्मविदारणस हिष्णवो बन्धनेन स्नेहात्मकेन कर्मणा चोत्प्राबल्येन मुक्ता नावकाक्षन्ति असंयमजीवितम् / यदि वा जीविते मरणे वा निस्पृहाः संयमोद्यममतयो भवन्तीति॥१५|| अन्यच जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमता। एवं लोगांसि नारीओ, दुत्तरा अमईमया ||16|| जेहिं नारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठतो कता॥ सव्वमेयं निराकिचा, ते ट्ठिया सुसमाहिए / / 17 / / य थेत्युदाहरणोपन्यासार्थः यथा वैतरणी नदीनां मध्ये - ऽत्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच दुस्तरा दुर्लध्या एवमस्मिन्नपि लोके नार्योऽमतिमता निर्विवेकेन हीनसत्त्वेन दुःखेनोत्तीर्यन्ते। तथाहि। ता हावभावैः कृतविद्यानपि स्वीकुर्वन्ति। तथाचोक्तं "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्ताव-देवेन्द्रियाणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव // भुचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते यावल्लीलावतीनां न दृदिधृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति,। तदे वंवैतरणी नदीवत् दुस्तरा नार्यो भवन्तीति॥१६॥ अपिच (जंहीत्यादि) यैरुत्तमसत्त्वैः स्त्रीसङ्ग विपाकवेदिभिः पर्यन्तकटवो नारीसंयोगाः परित्यक्तास्तथा तत्सङ्गार्थमेव वस्त्रालंकारमाल्यादिभिरात्मनः पूजनाकामविभूषा पृष्ठतः कृता परित्यक्तेत्यर्थः / सर्वमेतत्स्त्रीप्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादि प्रतिकूलोपसर्गकदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपथं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिना स्वस्थचित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थिता नोप सगैरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रक्षोभ्यन्ते / अन्ये तु विषयाभिष्वङ्गिणः स्त्र्यादिपरीषहपराजिता अङ्गारोपरिपतितमीनवद्रागग्निना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठन्तीति // 27 स्त्र्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह। एते ओधं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो। जत्थपाणा विसन्नासि, किचंति सयकम्मणा ||28| तं च भिक्खू परिण्णाय, सुव्वते समिते चरे॥ मुसावायं च वञ्जिजा-दिनादाणं च वोसिरे।।२९|| य एते अनन्तरोक्तानुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतार एते सर्वे ओघं संसार दुस्तरमपि तरिष्यन्ति ! द्रव्यौघदृष्टान्तमाह / समुद्र लवणसागरमिव व्यवहारिणः सांयात्रिका यानपात्रेण तरन्त्येवं भवौघमपि संसारसंयमयानपात्रेण यतयस्तरिष्यन्ति। तथा तीस्तरन्ति चेति / भवौधमेव विशिनष्टि। भवौघे संसारसागरे प्राणाः प्राणिनः स्त्रीविषयसङ्गाद्विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते पीड्यन्ते स्वकृतेनानुष्ठितेन पापेन कर्मणा असद्वेदनीयोदयरूपेणेति // 18 // सांप्रतमुपसंहारव्याजेनोपदेशान्तरविधित्सयाह / (तंचभिक्खूइत्यादि) तदे तद्यथा प्रागुक्तं यथा वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो यैः परित्यक्तास्ते समाधिस्थाः संसार तरन्ति स्त्रीसङ्गिनश्च संसारान्तर्गताः स्वकृतकर्मणा कृत्यन्त इति तदेतत्सर्व भिक्षणशीलो भिक्षुः परिज्ञाय हेयोपादेयतया बुध्वा शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यनेनोत्तरगुणवेदनं कृतमित्ये-वम्भूतश्चरेत्संयमानुष्ठानं विदध्वात् / तथा मृषावादमसद्भूतार्थभाषणं विशेषेण वर्जयेत्तथा अदत्तादानञ्च व्युत्सृजेद्दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात्। आदिग्रहणात् मैथुनादेः परिग्रह इति। तच मैथुनादिकं यावजीवमात्माहितं मन्यमानः परिहरेत् / सूत्र०१ श्रु०३ अ॥ (स्त्रियां जातमपत्यं पुरुषस्यै वे ति-अपच्च-शब्दे / स्त्रीपुरुषयोरन्तरं 'अणतर' शब्दे / स्त्रीगर्भवक्तव्यता 'गब्भ' शब्दे / स्त्रीभ्यो दृष्टिवादो न दीयत इति 'दिद्विवाय' शब्दे / स्वीणां Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 653 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इय मोक्षसिद्धिः 'इथिलिंगसिद्ध शब्दे। स्त्रीवसङ्गतस्य निन्दा 'इस्थिवस' शब्दे / स्त्रीशब्दयुक्ते स्थाने न स्थातव्यमिति 'वसही' शब्दे / स्त्रीसंसक्तस्थानादिनिषेधो 'बंभचेरसमाहिट्ठाण' शब्दे 'बंभचेर गुत्ति' शब्दे च। स्त्रीणां स्वातन्त्र्यनिषेधः 'इत्थिरज शब्दे') इदं-त्रि.(इदम्) 'इति कमि नलोपश्च / पुरोवर्तिनि, / सूत्र०१ श्रु०३ अ.l प्रत्यक्षे, / नि.चू.१ उ.. प्रत्यक्षासन्ने च / आ.चू०४ अा इण्णमेव खणविजाणिया" / इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०l "आरंभं जं दुक्खमिणंति णया" इदमिति प्रत्यक्षगोचरापन्नमिति / आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। सूत्रका प्रश्ना "दुहावेदं सुयक्खायं" || प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदम इति / सूत्र श्रु०८ अ० अस्य च सर्वस्याम् विभक्तौ / / इदम इमः 83/72 / इति प्राकृतसूत्रेण इमादेशः इमो-इमेइमं / इमेण-स्त्रीयामपि इमासौ "पुंस्त्रियोर्नवाऽयमिमिआ सौ" 8.373 / इति प्राकृत सूत्रेण अयमिति पुंल्लिङ्गे इमिआ इति स्त्रीलिङ्गे वैकल्पिक आ-देशः। अहवा अंक अकजो-इमिआ बाणिअधूआ। पक्षे इमो इमा" षष्ठीसप्तम्योः स्सिस्सयोरत्" 374 / इति प्राकृतसूत्रेणेदमः स्सिस्स इत्येतयोः परयोर्वा अद्भवति अस्सि अस्स। पक्षे इमादेशोपि। इमस्सिं इमस्स-बहुलाधिकारादन्यत्रापि अद् भवति। एहि-एसु-आहि एभिः एषु आभिरित्यर्थः 'डेम न हः,३७वा इति प्राकृतसूत्रेण कृतेमादेशात्परस्य डे:स्थाने मेन सह वैकल्पिके हादेशे,इह पक्षे इमस्सि इमम्मि। नन्थः 113/76 // इति प्राकृतसूत्रेण इदमः परस्य :स्सिम्मित्था इतिप्राप्तस्त्थो निषिध्यते। इह इमस्सि इमम्मिाणोऽम् शस्टामिसि 6377 / इति प्राकृतसूत्रेणाम् शस्टाभिस्सु इदमो वा ण इत्यादेशो भवतिणं पेच्छ।णे पेच्छ। णेण–णेहिं कपक्षे इमं इमे इमेण इमेहिं / द्वितीयैकवचनेऽमि / अमेणम् / / 378 // इति प्राकृतसूत्रेणामा सहितस्येदम स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति इणं पेच्छ पक्षे इमं सौअमिच नपुंसके।" क्लीबेस्यमेदमिणमौच"८८३७९। इति प्राकृतसूत्रेण स्यम्भयां सहितस्थ इदम इणमो इणम् च नित्यमादेशो भवति। इदं इणमो इणं / धणं चिट्ठा पेच्छ वा / प्रा.व्यात इदा(या)णि इयहि अव्य.(इदानीम्) इदमीदानीम्। सम्प्रत्यर्थे, वाचन इआणिं कोणो कं वत्तव्वयं इच्छइ-। अनु०! 'इयहिए गच्छं' / / इदानीं गच्छामीति। स्था०३ ठा०। कामंखलु आउसो इदाणिं ति'-आचा०२ श्रु०१ अ०१० उ.। "मांसादेर्वा / इति प्राकृतसूत्रेणानुस्वारस्य विकल्पेन लोपे इयाणि इयाणिं / दाणिं दाणि / प्रा.व्या.। इदुर-न(इदुर) कोष्टिकामुखगन्त्र्या उपरि दीयमाने सुवादिव्यूते ढंचनकादिके, अनु। महति पिठके, येन समस्तापि रसवतीस्थग्यते - राजा इदं-पु.(इद्दण्ड) भूमरे, देना०॥ इद्ध-न०(इद्ध) इन्ध भावे क्त-आतपे, दीप्तौ, आश्चर्ये च / कर्त रिक्त। दीप्ते, गन्धे च त्रि.। वाचा इध-अव्य (इह) 'इहहचोर्हस्य' इति प्राकृतसूत्रेण शौरसैन्यांधः। प्राव्या इदं हइशादेशः / अस्मिन्काले देशे दिशि वा इत्यर्थे, वाचा इंध-(चिण्ह)-न(चिह्न) चिह्नन्धो वा' / इति वान्धादेशः। ण्हा पवादः पक्षे सोपि / 'कगचजतदपयवां प्रायो लुक' // इति प्राकृतसूत्रेण वा चस्य लुक् / लक्षणे, प्रा. व्या इन्भ-पुं(इभ्य) इभो हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हतीति इभ्यः / अनुः। दण्डादित्वाद् यत् / वाचला हस्तिप्रमाणद्रविणरासिपतौ, / औप। यद्रव्यस्तूपान्तरित उच्छ्रितकदलिका दण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति जनश्रुतिरिति / स्था०६ ठा। जं०महाधनपतौ, भ०९ श०३३ उ०। आ०म० / अधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इति। अनु। "अड्डा इन्भा धणिणो। इति।प्रा. को। नृपे, हस्तिपके च। पुं। वाचा स्वनामख्याते वसन्तपुरस्थे श्रेष्ठिनि च / 'वसन्तपुरनामास्ति, वसन्तर्तुं समं पुरम् / श्रेष्ठी तत्रेभ्यनामाऽभूत्प्रेयसी तस्य धारिणीति' / आ०का वणिजि, देना०/ इब्भग(य)-त्रि.(इभ्यक) स्वार्थे कन् इभ्यशब्दार्थे, / आम०प्र०! स्त्रियां तु टापि वा अत इत्वम् / इभ्यका इन्यिकाइभाढ्यायां स्त्रि-याम्। वाचा इन्भगडिंभ-पु.(इभ्यक डिम्भ) इभ्यवालके, इब्भगडिंभाणि नाणाविहभक्खहत्थगयाणि स गिहेहितो निग्गयाणि / आ.म.प्र.) इब्भजाइ स्त्री.(इभ्यजाति) आर्यजातो, छव्विहा जाइ आरिया मणुस्सा पण्णत्ता तंजहा अंवट्ठा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगाइया / हरिया चुंचुणा चेव, छड्भेया इभजाइओ ||1|| जातिर्मातृकः पक्षस्तथा आर्या अपाया निर्दोषा जात्यार्या विशुद्धमातृका इत्यर्थः / अम्बष्ठेत्याद्यनुष्ठप्प्रतिकृतिः षडप्येता इभ्यजातय इति / इभमर्हन्तीतीभ्या यद्रव्यस्तूपान्तरित उ-च्छ्रितकदलिका दण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुति स्तेषां जातय इभ्यजातयस्ता एता इति। स्था०६ ठा० इन्भदास-पु.(इभ्यदास) स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, / ती इभ-पुं.(इभ) इण-भ-किच / हस्तिनि, / जं०२ वा अनु०। इमही-स्त्री.(इमही) इ: कामस्तस्य मह्यः कामिन्यः स्त्रियाम्, गा। इ(मा)(मिआ)मी-स्त्री.(इयम्) प्रत्यक्षायाम् "पुंस्त्रीयोर्नवायमिमिआ सौ-८७३। इति प्राकृतसूत्रेण स्त्रीलिङ्गे इमि आदेशः। आजातेः पुंसः / / 3 / 3 / इति जाति वाचिनः पुलिङ्गाद्वा आत्वम्। इमिए, इमाए, इमिणं इमाणं / प्रा.व्या./ इय-देशी (इक) क्वापि प्रवेशार्थे, -इकमिति देशीपदं क्वापि प्रवेशार्थे वर्तते इति आ.म.द्वि. एतस्य निक्षेपो यथा इकमपि चतुर्की तद्यथा नामेकं स्थापनेक द्रव्येकं भावेकं च / तत्र नामस्थापने प्रतीते / द्रव्येकं "दोहारस्सठिईठाइमेयाइं तु दव्वाइं" दारे इति सूत्रे दवरके मौक्तिकान्यधिकृत्य भाविपर्यायापेक्षया हारस्य मुक्ताफलकलापस्य विनिवेशनं प्रवेशनम् "ए आ अंतुदव्वम्मि" एतान्युदाहरणानि द्रव्ये द्रव्यविषयाणि 'नाणाइतियं तस्साया पोयणं भावसामाई" तस्येति सामादि सम्बन्धे / तस्य सामादेरात्मनि प्रोतनमात्मनि प्रवेशनं भावेकमिति। आलम द्वि / आ.चू०। इत-त्रि गते, समियं उदाहु सम्यक् इतं गतमिति। सूत्र.२ श्रु०६अ। आचा०। स्थाol ज्ञाते, परिच्छिन्ने, / आचा०१ श्रु०८ अ०७ उ.। प्राप्ते, विशे। इतो इतः स्थित इत्यनान्तरम् / नं.। विशेा भावे क्तः। गतौ, ज्ञाने च / वाच। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयर 654 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरिया 'इतो तो वाक्यादौ' / इति प्राकृतसूत्रेण वाक्यादौ इति अत्र त्रय उद्देशा उद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह नियुक्तिकारः शब्देकारस्याकारः / 'इअजं पिआ वसाणे' इअविअसिअ कुसुम-सरो सव्वेवि यदवि इरिय विसोहि-कारगा तहवि अस्थिपविसेसो। इति। प्रा०व्या। इति एवमर्थे, "इय सिद्धाणं सोक्खं" इति एवं सिद्धानां उद्देसे उद्देसे, वोच्छामि समासओ किंपि / / 28 / / सौख्यमिति / औप.। "इय सव्वगुणाहाणं" एवमुक्तेन प्रकारेण पढमे य उवागमणि-गमो य अद्धाज्झीण च जयणा। सर्वगुणाधानम् इति। आवळा नि चूना वितिए आरूढ छलणं, जंघा संतारपुच्छाया / / 29|| इयर-त्रि.(इतर) कामेन तीर्यते तृ अप् / तरति पचाद्यच्चा / नीचे, तइयम्मि अदंसणया अप्पडिबंधो य होइ उवहिम्मि। पामरे, / वाचा वञ्जयव्वं च सया, संसारियरायगिहगमणं // 30 // इत्तरिए अय अहमंसिपुण विसिट्ठजाइकुल बलाइगुणोदयेए एवं अप्पाणं (सव्वेत्यादि) सर्वेपि त्रयोपि यद्यपीर्याविशुद्धि कारकास्तथापि समुक्कस्से॥ प्रत्युद्देशकमस्ति विशेषस्तं च यथाक्रमं कि शिवक्ष्यामि इति इतरोयं जघन्यो हीनजातिकः कुलबलादिभिर्दूरमपभ्रष्टः यथाप्रतिज्ञातमाह (पढगाहा) प्रथमोद्देशके वर्षाकालादावुपागमनं स्थान सर्वजनावगीतोयमिति / अहं पुनर्विशिष्टजातिकुलबलादिगुणोपेत तथा निर्गमश्च शरत्कालादौ यथा भवति तदत्र प्रति-पाद्यमध्वनि यतना एवमात्मानं समुत्कर्षयेदिति। सूत्र०२ श्रु०२ अ।। "इयराइयरहिं कुलेहि। चेति द्वितीयोद्देशकेन वादावारूढस्य छलनं प्रक्षेपणं व्यवर्ण्यते जंघा संतारे इतरे सामान्यसाधुभ्यो विशिष्टतराः साधव इति। आचा०१ श्रु०६ अ०२ ऊ। च पानीये यतना तथा नानाप्रकारे च प्रश्ने साधुनां यद्विधेयमेतच इयरकुल-न०(इतरकुल) अन्तप्रान्तकुले, आचा.१ श्रु०६ अ०२ उता प्रतिपाद्यमिति (तइयम्मि गाहा) तृतीयोद्देशके यदि कश्चिदुदकादीनि इयरेयर-त्रि.(इतरेतर) इतरद्वित्वं समासवभावश्च। अन्योन्य शब्दार्थे,। पृच्छति तस्य जानताप्यदर्शनता विधे येत्ययमधिकारः उत्तर अ० तथोपधावप्रतिबन्धो विधेयस्तदपहरणे च स्वजनराजगृहगमनञ्च इयरेयरसंजोग-पुं०(इतरतरसंजोग) इतरेतरस्य परस्परस्य संयोगो वर्जनीयं न च तेषामाख्येयमिति। आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०) घटना / परस्परघटनायाम्, तदात्मसंयोगभेदे च उत्त०१ अ०। इरियट्ठ-त्रि (ईर्थि) ईर्ष्याविशुद्ध्यर्थे, तदर्थमाहरकरणीहे नातिक्रमः (तद्वक्तव्यतासंजोगशब्दे) 'इरियट्ठाए य' ईर्यागमनं तस्या विशुद्धिर्युगमात्रनिहितदृष्टित्वमी-- इयरेयरसावेक्ख-त्रि०(इतरेतरसापेक्ष्य) परस्पराविरोधिनि, विशुद्धिस्तस्यै इदमीर्याविशुद्ध्यर्थम्। इह च विशुद्धिशब्दलोपादीार्थइतरेतरसापेक्षात्वेषां पुनराप्तवचनपरिणत्या इतरेतरसापेक्षा मित्युक्तम् वुभुक्षितो ही- शुद्धावशक्तः स्यादिति / स्था०६ ठा। परस्पराविरोधिनीति ! षो। (तदर्थमाहरकरणे नातिक्रम इति 'आहार' शब्दे) इयरेयरस्सय-पु.(इतरेतराश्रय) इतरेतर आश्रयति आ-श्रि--अच् | इरिया-स्त्री (ईO) ईरणमीर्याईरगतिप्रेरणयोरस्माद्भावे ण्यत्। गमने, अन्योन्याश्रये तर्कदोषभेदे, वाचः। आचा०१ श्रु०२ अ.१ उ.। आ०चूल। स्थाol आवळा उत्तसूत्रा इयरेयराभाव-पुं.(इतरेतराभाव) इतरेतरस्मिन्नभावः / अभाव-विशेषे, ई-निक्षेपणार्थं नियुक्तिकृदाह। इतरेतराभावं वर्णयन्ति स्वरूपान्तरात्स्वरूपव्यावृत्ति रितरेतराभाव इति / णामं ठवणा इरिया, दम्वे खेत्ते य कालभावे य / स्वभावान्तरान्न पुनः स्वस्वरूपादेव तथाऽसत्त्वप्रसक्तेः स्वरूपव्यावृत्तिः एसो खलु इरियाए, णिक्खेवोछव्विहो होइ ||23|| स्वस्वभावव्यवच्छेद इतरे तराभावो ऽव्यापोहनमानिगद्यते / दव्वइरिया उतिविहा, सचित्ताचित्तमीसगाचेव। उदाहरणमाहुर्यथास्तम्भ-स्वभावात्कुम्भस्वभावव्यावृत्तिरिति। रत्ना। खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जोए॥२४|| इर-ध(इर) ईर्षायाम्, कण्ड्वादित्वाद् यक् / उभ०। इर्यति इर्य्यते वाच०। तत्र द्रव्येर्या सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिविधा ईरणभीर्यागमनमित्यर्थः / "कियेरे रहिर किलार्थ वा २८६इति सूत्रेण किलार्थे तस्य तत्र सचित्तस्य वापुरुषादेव्यस्य यद्गमनं सा सचित्तद्रव्येर्या एवं प्रयोगबोधनात्। तस्स इर किलार्थे, प्रा.व्या०। पादपूरणे च। अव्य, व्य। परमाण्वादिद्रव्यस्य गमनमचित्तद्रव्येया / तथा मिश्रद्रव्ये ईजे इराः पादपूरणे / 8 / 2 / 17 / इति सूत्रात् 'गेण्हइर कलमागोवि' / रथादिगमनमिति। क्षेत्रेर्या यस्मिन् क्षेत्रे गमनं क्रियते ई वा वर्ण्यते। एवं इति / प्रा कालेापि द्रष्टव्येति। आचा। भावे-प्रतिपादनायाह - इरमंदिर-पुं०(इरमन्दिर) करभे, देना भावइरिया उदुविहा, चरणगई संजमगई य। इराव-देशी(इराव) गजे, देनाका समणस्स कहं गमणं, दोसं होइ परिसुद्धं ||25|| इरिआ-स्त्री०(ई) कुट्याम्, देना। भावविषये द्विविधा चरणेा संयमेर्या च / तत्र संयमे इरिण-देशी(इरिण) कनके, देना। सप्तदशाविधसयमानुष्ठानं यदि वा असंख्ये येषु संयमइरियज्झयण-न.(ईर्याध्ययन) आचाराङ्ग श्रुतस्कन्धस्य प्रथम स्थानेष्वेकस्मात्संयमस्थानाद परं संयमस्थानंगच्छतः संयमेर्या भवति / चूलिकान्तर्गते तृतीयेऽध्ययने, तचाचाराङ्ग पञ्चमाध्यय- चरणेर्या तु अभूवभूमभूचरगत्यर्थाः चरतेभवि ल्युट् चरणं तद्रूपेऱ्या नावन्त्याख्यस्य चतुर्थोद्देशकसूत्रम्। गामाणुगामंदुइज्जमाणस्स दुज्झायं चरणेाः चरणं गतिः गमनमित्यर्थः तच श्रमणस्य कथं केन प्रकारेण दुपरक्खमित्यादिनेसंक्षेपेण व्यावर्णितत्यत इर्याध्ययनं नियूंढमिति। भावरूपगमनं निर्दोष भवतीत्याह Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियापचय 655 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरियावहियबंध आलंवणे य काले, मग्गे जयणा य चेव परिसुद्धं / भंगेहिं सोलसविधं, उपरिसुद्धं पसत्थं तु // 26 // तंप्रवचनसंघगच्छाचार्यादिप्रयोजनकालः साधूनां विहर-णयोग्योवसरे मार्गो जनैः पद्भ्यां क्षुण्णः पन्था यतना उपयुक्तस्य युगमात्रदृष्टित्वं तदेवमालम्बनकालो मार्गयतना पदैरेकैकपद-व्यभिचाराधे भङ्गास्तैः षोडशविधं गमन भवति तस्य च यत्परिशुद्धम्। तदेव प्रशस्तं भवतीति दर्शयितुमाहचउकारण परिसुद्धं, अहवा वि होज कारणालाइ। आलंवण जयणाए, काले मग्गेय जइयव्वं // 27 / / चतुर्भिः कारणैः साधोर्गमनं परिशुद्धं भवति तद्यथा आलम्बनेन दिवा मार्गेण यतनया गच्छत इति अथवा अकालेऽपिग्लानाद्यालम्बनेन यतनया गच्छतः शुद्धमेव गमनं भवत्येवं भूते च मार्गे साधुना यतितव्यमिति। आचा०२ श्रु.३ अ१ उ। (गमनंच यथा कर्तव्यन्तथे-ध्ययने आचाराने प्रतिपादितं विहार-शब्दे द्रष्टव्यम्) "इरियं च पचक्खायेज्जा" ईरणमी- तां च सूक्ष्मां कायवाग्गतां मनोगतां वा प्रशस्तां प्रत्याचक्षीत इति। आचार श्रु०८ अ 7 उ०। ईरणमीर्या गमनम्। तत्कार्ये कर्मणि च। एगेगस्स पसंतस्स, न होंति इरियादयो गुणा'' ईरणमी-गमनमित्यर्थः इह इ-कार्यं कर्म ईर्ष्याशब्देन गृह्यते कारणे कार्योपचारादिति। आत्मद्वित। इसिमितौ, "धणुपरक्कम किचा जीवं च इरियं सया" जीव प्रत्यञ्चाश्चर्यामी-समितिमिति। उत्त ईरणमीर्य्या तत्सूत्राचोरणपुरस्सरकायात्सेगात्मक सामाचारिभेदे च। ग०२ अधि०। इरियापचय-न०(इप्रित्यय) ईरणमीया गमनं तेन जनितमी- | प्रत्ययम्। कर्मभेदे, सूत्र०१ श्रुर अ॥ (एतद्वक्तता इरियावहिय शब्दे) इरियावह पुं०(इथ्यापथ) ईरगतिप्रेरणयोरस्माद्भावे ण्यत्। ईरणमीतस्याः (तयावा) पन्था 'ई-पथः। सूत्र०२ श्रु०२ अ० स्थानईरणमीगमनं तद्विशिष्टः पन्था ईपिथः / प्रव०३ द्वार / ईर्ष्या गमनं तद्विषयः पन्था इपिथः / भ०११ श०१० उा आवळा गमनमार्गे, भ.३ श०३ उ०। कश्चर्यायाः पन्था भवति यदाश्रिता सा भवतीति / आचा०२ अ०१ उ। ईरणमी- तत्सम्बद्धः पन्था इ-पथस्तत्प्रत्ययं कर्मेपिथम्। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०। ई-पथप्रत्ययमी-पथम्। प्रति०। कर्मभेदे, सूत्र.१ श्रुर अ०एतदुक्तं भवति पथि च्छतो यथा कथंचिदनभिसन्धेर्यत्प्राणिव्यापादनं भवतीति / सूत्र०१ श्रु०२ अ (अस्य बन्धनकारणत्वविचारः कर्मबंध शब्दे)। इरियावहकिरिया --स्त्री.(ईय्यपिथक्रिया) क्रियाभेदे, सा च यदुपशान्तमोहादेरेकविधकर्मबन्धनमिति। स्था०५ ठा। ईर्ष्यापथ क्रिया तूपशान्तमोहादारभ्यसयोगिकेवलिनं यावदिति। सूत्र०२ श्रु०२ अ०(एतस्था विस्तरेण वक्तव्यता इरियावहिया शब्द) इरियावहिय-न (ईपिथिक) ईरगतिप्रेरणयोरस्माद्भावेण्यत् ईरणमी- तस्याः पन्था ईपिथस्तत्र भवमी-पथिकम् / आचार श्रु०२ अ०१ उ। ईरणमी- तस्यास्तया वा पन्था इ-पथः स विद्यते यस्य तदी-पथिकम्। एतच शब्दव्युत्पत्तिमात्रम् प्रवृत्तिनिमित्तं तु इदम् | सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीक्षितमनोवाक्कायक्रियस्यया क्रिया तया यत्कर्म तदीपिथिकम्। सूत्र०२ श्रु०२ अ० *ऐपिथिक-न ईरणमीा गमनन्तत्प्रधानः पन्था मार्गः ईर्यापथस्तत्र भवमैपिथिकम्। केवलयोगप्रत्यये कर्मभेदे, भ०८ श०८ उ०। कश्वेर्यायाः पन्था भवति यदाश्रिता सा भवत्येतच व्युत्पत्तिनिमित्त यतस्तिष्ठतोपि तद्भवति प्रवृत्तिनिमित्तं तु स्थि-त्यभावस्तयोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां भवति / सयोगिकेवलिनोऽपि हि तिष्ठतोपि सूक्ष्मगात्र सञ्चारो भवत्युक्तच "केवलीणं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा ओगाहित्ताणं पडिसाहरेज्जा पभूण भंते ! केवलीतेसु चेवागासपदेसेसु पडिसाहरित्तए णो इणढे समढे / कह केवलिस्सणं बलाई सरीरोवगरणाई भवंति क्लोवगरणाई भवंति रणत्ताए के वलिणो संचाएत्ति तेसु चेवागासपदे से सु हत्थं वा पायं वा पडिसाहरित्तए" तदेवं सूक्ष्मेतरगानुसञ्चाररूपेण योगेन यत्कर्म बध्यते तदीपिथिकमीहितुकमित्यर्थः। तच द्विस-मयस्थितिकमेकस्मिन् समये वेदितं तृतीयसमये तदपेक्षया चाकर्मातेति कथमित्युच्यते यतस्तत्प्रकृतितः सातावेदनीयम-कषायत्वात् स्थित्यभावेन बध्यमानमेवं परिशटति असुभावतोनुत्तरोपपातिक सुखातिशायिप्रदेशतः स्थूलसूक्ष्म-शुक्लादिबहुप्रदेशमिति उक्तचअप्पं बायरमउयं, बहुं च लुक्खं च सुकिलं चेव। मंदं महव्वतंतिय साताबहुलं च तं कम्मं / / अल्पं स्थितितः स्थितेरेवाभावात् बादरं परिणामतोनुभावतो मृदनुभावं बहु प्रदेशे सूक्ष्म स्पर्शतो वर्णेन शुक्लमन्दं लोपतः स्थूलचूर्ण मुष्टिमुक्तं कुड्यापतित लेपवत् महाव्ययमेकसमयेनैव सर्वापगमात्सतो बहुलमनुत्तरोपपातिकसुखातिशा (श) या यान्ति उक्तमीर्यापथिकम् / आचार श्रु०२ अ०१ उ० (एतस्य बन्धविचारः कम्मबंध शब्दे) त्रयोदशे स्थाने च / आवळा ऐय्यापथिकः के वलयोगप्रत्ययः कर्मबन्ध उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्ध इति। सम०१३ स० (विस्तरेणैतस्य वक्तव्यता इरियावहिया शब्दे) इरियावहियबंध-पु.(ऐ-पथिकबन्ध) ई- गमनम् तत्प्रधानः पन्था ईपिथस्तत्र भवमै-पथिकम् / केवलयोग प्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धस्स तथा। ऐय्यापथिककर्मणो बन्धे,। तद्वक्तव्यता यथा। इरियावहियाणं भंते ! कम्मं किं णेरइओ बंधइ, तिरिक्ख जोणिओ बंधइ, तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मनुस्सो बंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ देवी बंधइ ? गो. ! णो णेरइओ बंधइ, णो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, णो तिरिक्खजोणिणीबंधइ, णो देवो बंधइ, णो देवी बंधइ, पुथ्वपडिवण्णए पडुच मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति / पडिवज्जमाणए पडुच मणुस्सो वा बंधइमणुस्सी वा बंधइ मणुस्साय वा बंधंति मणुस्सीओ य वा बंधंति अहवामणुस्सो य मणुस्सीय बंधइ। अहवा मणुस्सो य मणुस्सीआ ये बंधंति / अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधइ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहियबंध 656 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरियावहियबंध अहवा मणुस्सा य मणुससीओ य बंधं ति / तं भंते ! किं इत्थी बंधंइ, पुरिसो बंधइ, णपुंसगो बंधइ, इत्थीओ | बंधंति पुरिसा बंधंति णपुंसगा बंधंति / णो इत्थी णो पुरिसो णो णपुंसगो बंधइ ? गोयमा ! णो इत्थी बंधइ णो पुरिसो बंधइ, जाव णो णपुंसगा बंधति / पुव्वपडिवण्णए पडुच अवगयवेदा बंधंति, पडिवजमाणए पडुच अवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा बंधति / जइ भंते ! अवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा बंधति तं भंते ! किं इत्थी पच्छाकडो बंधइपुरिसपच्छाकडो बंधइ२ णपुंसगपच्छाकडो बंधइ 3 इत्थी पच्छाकडा बंधंति ? पुरिसपच्छाकडाबंधंतिणपुंसगपच्छाकडा बंधंतिघा उदाहु / इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ 1 उदाहु इत्थी पच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधंति 2 उदाहु इत्थी पच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ 3 उदाहु इत्थी पच्छाक डाय पुरिसपच्छाक डा य बंधंति 4 उदाहु इत्थीपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ 4 उदाहु पुरिसपच्छाकडो यणपुंसगपच्छाकडोय बंधइ 4 उदाहु इत्थी पच्छाकडो य पुरिपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ 8 एवं एए छव्वीसं भंगा। जाव उदाहु इत्थी पच्छाकडा च पुरिसपच्छाक डा य णपुंसगपच्छाक डा य बंधंति / गोयमा! इत्थी पच्छाकडो पिबंधइ, पुरिसपच्छाकडो वि बंधइ, णपुंसगपच्छाकडो वि बंधइ / इत्थी पच्छाकडा वि बंधंति, पुरिसपच्छाकडा वि बंधति, णपुंसग-पच्छाकडा विबंधति / / 6 / / अहवा इत्थीपच्छाकडोय पुरिसपच्छाकडो य बंधइ 12 एवं एए छव्वीसं मंगा भाणियव्वा जाव / अहवा इत्थी पच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा यणपुंसगपच्छाक डा य बंधंति, / तं भंते ! किं बंधी बंधइ, बंधिस्सइ 1 बंधी बंधइ न बंधिस्सइ 2 बंधी न बंधइ बंधिस्सइबंधी न बंधइ न बंधिस्सइ 4 न बंधी बंधइ बंधिस्सइन बंधी बंधइ न बंधिस्सइन बंधी न बंधइ बंधिस्सइनबंधी नबंधइन बंधिस्सइ 8 गोयमा ! भवागरिसं पडुच अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सव्वं जाव / अत्थगेइएनबंधी न बंधइ नबंधिस्सइ। गहणागरिसं पडुच अत्थेगइए बंधी बंधइबंधिस्सइ एवं जाव अत्थेगइएन बंधी बंधइबंधिस्सइणो चे वणं न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ / अत्थेगइए न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ / अत्थेगइए न बंधी न बंधइन बंधिस्सइ / तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बंधइ, साइयं अपज्जवसियं, बंधइ अणाइयं सपज्जवसियंबंधइ अणाइयं अपज्जवसियंबंधइ ? गोयमा! साइयं सपज्जवसियं बंधइ, णो साइयं अपज्जवसियं बंधइ, णो अणाइयं सपञ्जवसियं बंधइ णो अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ। (नो नेरइओ इत्यादि) मनुष्यस्यैव तद्वन्धो यस्माद्वन्धादुपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनामेव तद्वन्धनमिति (पुव्वपडिवण्णए इत्यादि) पूर्वं प्राक्काले प्रतिपन्नमैर्यापथिक बन्धकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपन्नकास्तान्तद्वन्धकत्वद्वितीया-दिसमयवर्तिन इत्यर्थः / तेच सदैव बहवः पुरुषा स्त्रियश्च सन्ति उभयेषां केवलिनांसदैव भावादत उक्तम् "मणुस्साय मणुस्सीओ य बंधंतित्ति' (पडिवजमाणयेत्ति) प्रतिपद्यमानकानैर्यापथिक-कर्मबन्धनप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः / एषां च विरहसम्भवादेकदा मनुष्यस्य स्त्रियाश्च एकयोगे एकत्त्वबहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः,द्विकयोगे तथैव चत्वारः एवमेते सर्वेऽप्यष्टावेतदेवाह (मणुस्सो वा इत्यादि) एषां च पुंस्त्वादि तत्तल्लिङ्गापेक्षया न तु वेदापेक्षया क्षीणोपपशान्तवेदत्वात्। अथ वेदपिक्षस्त्रीत्वाद्यधिकृत्याह "तं भंते ! किमित्यादि नो इत्थी इत्यादिना' च पदत्रयनिषेधेनावेदकः प्रश्नितः उत्तरे तु षण्णां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदस्तत्र च पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपाद्यमानकाश्च भवन्ति तत्र पूर्वप्रतिपन्नकानां विगतवेदानां सदाबहुत्वभावादाह (पुव्वपडीत्यादि) प्रतिपद्यमानकानान्तु सामयिकत्वात् विरहभावेनैकादिसम्भवाद्विकल्पद्वयमत एवाह / (पडिवजमाणेत्यादि) अपगतवेदमेवैर्यापथिकबन्धमाश्रित्य स्त्रीत्वादिभूतभावापेक्षया विकल्पयन्नाह / "जह इत्यादि तं भंते ! तदा भदन्त ! तद्वा कर्म इत्थी पच्छाकडेति भावप्रधानत्यान्निर्देशस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं भूतता नीतं येनावेदकेनासौ स्त्रीपश्चात्कृत एवमन्यावपि इहैकेकयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां षड्विकल्पाः द्विकयोगेतु त्रिषु द्विकयोगेषु तथैव द्वादश, त्रिकयोगे पुनस्तथैवाष्टावेतेच सर्वेषड्विशतिः। सूत्रेच चर्तुभङ्गयष्टभङ्गीनां प्रथमं विकल्पा दर्शिताः सन्तिमश्चेति / अथैर्यापथिककर्मबन्धनमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह (तं भंते इत्यादि) तदैर्यापथिककर्मबन्धी बद्धवान् बधाति भन्स्यति चेत्येको विकल्पः / एवमन्ये ऽपि सप्त भङ्गा एषां च स्थापना उत्तरन्तु (भवेत्यादि) भवे अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्तया आकर्षएापथिककर्मानुग्रहणं भवाकर्षस्तंप्रतीत्य अस्त्येको भवत्येकः कश्चिजीवः प्रथम-वैकल्पिकः / तथाहि पूर्वभवे उपशान्तमोहसत्ये सत्वैर्यापथिकं कर्म बद्धवान् वर्तमानभवे चोपशान्तमोहत्ये बधाति अनागत च उपशान्तमोहावस्थायां भन्स्यति / / द्वितीयस्तु यः पूर्वस्मिन् भवे उपशान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्तमाने च क्षीणमोहत्व प्राप्तः स पूर्व बद्धवान् वर्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्भन्त्स्यति।श तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशान्तमोहत्वेबद्धवान्तत्प्रतिपतितोन बधातिअनागतेच मोहावस्थायां भन्त्स्यति।३। चतुर्थस्तुशैलेशीपूर्वकाले बद्धवान् शैलेश्यां च न बधाति न च पुनर्भन्त्स्यति।। पञ्चमस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहत्वं लब्धवानितिन बद्धवान् अधुना लब्धमिति बनाति पुनरप्येष्यत्काले उपशान्तमोहाद्यवस्थायां भन्त्स्यतीति।। षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवान् न पूर्व बद्धवान्। अधुनातुक्षीणमोहत्वंलब्धमिति बधाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्य तीति / 6 / सप्तमः पुनर्भव्यस्य, स हि अनादौ काले न बद्धवान् Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहियबंध 657 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरियावहिया अधुनापि कश्चिन्न बध्नाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति 7 अष्टमस्त्वभव्यस्य सतुप्रतीत एव। (गहणागरिसमित्यादि) एकस्मिन्नेव भवे ऐर्यापथिककर्मपुद्गलानां ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षस्तं प्रतीत्यास्त्येकः कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः / तथाहि-उपशान्तमोहादिर्यापथिकं कर्म बध्नाति तदातीतसमयोपेक्षया बद्धवान् वर्तमानसमयापेक्षया च बधाति अनागतसमयापेक्षया तु भन्त्स्यतीति 1) द्वितीयस्तु केवली स ह्यतीतकाले बद्धवान् वर्तमाने च बधाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति / / तृतीयस्तु उपशान्तमोहत्वे बद्धवांस्तत्प्रतिपतितस्तुन बधाति पुनस्तत्रैव भवे उपशमश्रेणिप्रतिपन्नो भन्त्स्य तीति एकभवे चोपशमश्रेणी द्विः प्राप्यत एवेति।३। चतुर्थः पुनः सयोगित्वे बद्धवान् शैलेश्यवस्थायां न बधाति न च भन्त्स्यतीति / / पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादिन लब्धमिति न बद्धवान् अधुना तु लब्धमिति बधाति / तदद्धाया एव चैष्यत्समये तु पूर्व पुनर्भन्स्यतीति।। षष्ठस्तुनास्त्येवतत्र न बद्धवान् बनातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपिन भन्त्स्तीत्यस्यानुपपद्यमानत्वात्, तथाह्यायुषः पूर्वभागे उपशानतमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवांस्तल्लाभसमये च बनाति ततोऽनन्तर समयेषु च भन्त्स्यत्येव न तु न भन्त्स्यति समयमात्रस्य बन्धस्येहाभावात्, यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ षष्ठविकल्पहेतुस्तदनन्तरमैर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य भवान्तरवर्तित्वात् ग्रहणाकर्षणस्य चेह प्रक्रान्तत्वात् / यदि पुनः सयोगिचरमसमये बधाति ततोऽनन्तरं न भन्स्यतीति विवक्ष्येत तदा यत्सयोगिचरमसयमे बधातीति तद्वन्धपूर्वकमेव स्यान्नाबन्धपूर्वकं तत्पूर्वसमयेषु तस्य बन्धकत्वात्। एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यान्न पुनः षष्ठ इति।६। सप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य, अष्टमस्त्वभव्यस्येति। इह च भवाकर्षापेक्षेषु अष्टासु भङ्गकेषु "बंधी बंधइ बंधिस्सइ'' इत्यत्र प्रथमे भने उपशान्तमोहः। 'बंधी बंधन न बंधिस्सइ' इत्यत्र द्वितीये क्षीणमोहः / 'बंधी न बंधइ बंधिस्सइ' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमोहः। बंधी न बंधइन बंधिस्सइइत्यत्र चतुर्थे शैलेशीगतः।'न बंधी बंधइ बंधिस्सइ, इत्यत्र पञ्चमे उपशान्तमोहः / 'न बंधी बंधइन बंधिस्सई' इत्यत्र षष्ठे क्षीण-मोहः / 'न बंधी नबंधइ बंधिस्सइ' इत्यत्र सप्तमे भव्यः / 'न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' इत्यत्राष्टमे ऽभव्यः / ग्रहणापेक्षेषु पुनरेतेषु एव प्रथमे उपशान्तमोहः क्षीणामोहो वा, द्वितीये तु केवली,तृतीये उपशान्तमोहः, चतुर्थे शैलेशी गतः पञ्चमे उपशान्तमेवः क्षीणमोहो वा, पष्ठे शून्यः, सप्तमे भव्या भाविमोहोपशमो भविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य इति अथैर्यापथिकबन्धमेव निरूपयन्नाह "तमित्यादि'' तदैर्यापथिकं कर्म साइयं सपज्जवसियमित्यादिचतुर्भङ्गी, तत्र चैर्यापथिककर्मणः प्रथम एव भङ्गे बन्धोन्येषु तदसम्भवादिति, भ०८ श० ऊ इरियावहिया-स्त्री०(ई-पथिका) ईरणमी-गमनमित्यर्थः पथिजाता पथिका ई- चासौ पथिका च ईर्यापथिकेति / गमनप्रधानमार्गोत्पन्ने, आ.चू०४ अ *ऐपिथिकी-स्त्री. ईरणमी- गमनं तद्विशिष्टस्तत्प्रधानो वा पन्था ईपिथस्तत्र भवा ऐयापथिकी। स्था०२ ठा। आव०४ अ / व्युत्पत्तिमात्रमिदं प्रवृत्तिनिमित्तं तुयः केवलयोगप्रत्यय उपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनीयकर्मबन्धः सा ईर्यापथिकी। प्रव०१२१ द्वा०ा क्रियाभेदे, अजीवकिरिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा इरिआवहिआ चेव संपराइया चेव। यत्केवलयोगप्रत्ययमुपशान्तमोहादित्रयस्य सातवेदनी-यकर्मतया जीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐपिथिकी। क्रिया। इह जीवव्यापारेप्यजीवप्रधानत्वविवक्षया जीवक्रियेमुक्ता कर्मविशेषावेापथिकी क्रियोच्यते यतोभिहितम् “इरियावहिया किरिया दुविहा वज्झमाणा वेइज्जमाणायजा पढमसमये बद्धा, वीयसमये वेइया सा बद्धा पुट्ठा वेइया णिज्जिता से य काले अकम्मं वा वि भवइत्ति / स्था०२ ठा०। तत्स्वरूपं यथाएसाउ लोभवत्ती, इरिआवहिअं अओ पचक्खामि। इह खलु अणगारस्स, समिई गुत्तीसु गुत्तस्स ||6oll सययं तु अप्पमत्तस्स, मावओ जाव चक्खुपम्हंपि। निवयइ ता सुहुमा हु, इरिआवहिआ किरिअएसा ||6|| इह खल्वनगारस्य साधोः समितिषु ईर्यासमित्यादिषु मनो-गुप्त्यादिषु गुप्तस्य संवृतस्य सततमेवाप्रमत्तस्य उपशान्तमाह क्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणस्थानकत्रयवर्तिनः / अन्येषां तु अप्रमत्तानामपि कषायप्रत्ययकर्मबन्धसद्भावेन केवलयोगनिमित्तकर्मबन्धोदयसंभवान्नाप्रमत्तशब्देनात्रग्रहणं भगवतः पूज्यस्य यावचक्षुः पक्ष्मापि निपतति स्यन्दतेइदं च योग-स्योपलक्षणंततोऽयमों यावच्चक्षुर्निमेषोन्मेषमात्रोपि योगः संभवति तावत्सूक्ष्मा एकसामयिकबन्धत्वेनात्यल्पा सातबन्धलक्षणा क्रिया भवति। एषा हु स्फुटमैर्यापथिकी क्रिया त्रयोदशीति। प्रव०१२१ द्वा०। आवा विस्तरेण तस्याः स्वरूपं सा कस्य भवति किंभूता वा क्लिष्टकर्मफला वा इत्येतद्दर्शतितुमाहअहावरे तेरसमे किरियाहाणे इरियावहिएति आहिजइ इह खलु अतत्ताएसंवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स उचारपासवणखेलसिं घाणजल्लपारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वयसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुतिंदियस्स गुत्तबंभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णि-सियमाणस्स आउत्तं तुयदृमाणस्स आउत्तं भुजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणि वा यमवि अस्थिविमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया नाम कन्जइसा पढमसमए बद्धापुट्ठा वितीयसमए वेइया तइय समए णिजित्ता सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया णिजित्ता सेयं काले अकम्मयावि भवंति एवं खलु तस्स तप्पतियं सा वजंति आहिज्जइ तेरसमे किरियाष्ट्ठाणे इरियावहिएति आहिजइ / से वेमि जे य अतीता जे य पड़पन्ना जे य अगिमिस्सा अरिहंता भगवंता सटवे ते एयाइ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहिया 658 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरियावहिया चेव तेरसकिरियाहाणाई भासिंसु वा भासें ति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा पन्नविंति वा पन्नविंस्संति वा एवं चेव तेरसमं किरियाहाणं सेविंसु वा सेविंति वा सेविस्संति वा ||23|| इह जगति प्रवचने संयमे वा वर्तमानस्य। खलु शब्दोऽवधारणेऽलंकारे वा। आत्मनो भावः आत्मत्वं तदर्थमात्मत्वार्थं संवृतस्य मनोवाक्कायैः परमार्थत एवंभूतस्यैवात्म भावोऽपरस्य त्वसंवृतस्यात्मतत्वमेव नास्ति सद्भूतात्मकार्यकारणात् / तदेवमात्मार्थ संवृतस्यानगारस्ये-- पथिकादिभिः पञ्चमिः समितिभिर्मनोवाकायैः समितस्य तथा तिसृभिगुप्तस्य पुनर्गुप्तिग्रहणमेताभिरेव गुप्तिभिर्गुप्तो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनायात्यादरख्यापनार्थ वेति तथा गुप्तेन्द्रियस्य नवब्रह्मचर्यगुप्त्यु पेतब्रह्मचारिणश्च सतस्तथोपयुक्तं गच्छतस्तिष्ठतो निषीदतो मुनेस्त्वग्वर्तनां कुर्वाणस्य तथोपयुक्तमेव वस्त्र पतद् गृहं कम्बलं वा पादपुञ्छनकं वा गृह्णतो निक्षिपतो वा यावच्चक्षुः पक्ष्मनिपातमप्युपयुक्तं कुर्वतः सतोऽत्यन्तमुपयुक्तस्याप्यस्तिविद्यते। विविधामात्रविमात्रा तदेवं विधा सूक्ष्माक्षिपक्ष्भसंच-लनरूपादिके पिथिका नाम क्रिया केवलिनापि क्रियते। तथाहि सयोगिजीवोनशक्रोतिक्षणमप्येकं निश्चलः स्थातुमग्निना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयन्नेवास्ते। यथाचोक्तं "केवलीणं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु' इत्यादि तदेवं केवलिनोपि सूक्ष्मगात्रसंचारा भवन्तीह च कारणे कार्योपचारात्तया क्रियया यवध्यते कर्म तस्य कर्मणो या अवस्थास्ताः क्रियाः ता एव दर्शयितुमाह। (सापढमसमये इत्यादि) या सावकाषायिणः क्रिया तथा यद्वध्यते कर्म तत्प्रथमसयम एव बद्धं स्पृष्टं चेति कृत्वा तक्रियैव बद्धस्पृष्टत्युक्ता तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुभूता तृतीयसमयेऽतिजीर्णा 1 एतदुक्तं भवति / कर्मयोगनिमित्तं बध्यते तस्थितिश्च कषायायत्ता तदभावाच न तस्य सांपरायिकस्येव स्थितिः किंतु योगसद्भावाद्वध्यमानमेव स्पृष्टतां संश्लेषं याति / द्वितीयसमये त्वनुभूयते तच्च प्रकृतितः सातावनीय स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः शुभानुभावनुत्तरोपपातिकदेवसुखातिशायि देशतो बहुप्रदेशमस्थिरबन्धं बहुव्ययं च। तदेवं सेर्यापथिका क्रिया। प्रथमसमये बद्धस्पृष्टा द्वितीयसमये उदिता वेदिताऽतिजीर्णा भवति (सेयंकालेत्ति) आगामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षया कर्मतापि च भवति / एवं तावद्वीतरागस्येप्रत्ययिकं कर्माधीयते संबध्यते / तदेतत्रयोदशं क्रियास्थानं व्याख्यातम्। ये पुनस्तेभ्योऽन्ये प्राणिनस्तेषां सांपरायिको बन्धस्ते तु यानि प्रागुक्तानीर्याफ्थवानि द्वादश क्रियास्थानानि तेषु वर्त्तन्तेतेषांतद्वर्तिनामसुमतां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगनिमित्तः सांपरायिको बन्धो भवति / तत्र च प्रमादस्तत्र कषायायोगाश्च नियमाद्भवन्ति। कषायिणश्च योगा योगिनस्त्येते भाज्याः। तत्र प्रमादकषायप्रत्ययिको बन्धोऽनेक प्रकारा स्थितिः / तद्रहितस्तु केवलयोगप्रत्ययिको द्विसमयस्थितिरेवेर्याप्रत्ययिक इति स्थि-तम् / / सूत्र०२ श्रु०२ अ. भ.। आवा आ.चू। (चतुर्विशतिदण्ड-केऽस्या वक्तव्यता किरिय शब्दे) ऐापथिक्याः प्रति-क्रमणावश्यकता यथा ईर्यापथ प्रथमप्रतिक्रमणं कृत्वा न किंचिदन्यत् कुर्यात्तदशुद्धतापत्तेरिति / दश चूलि। तथा च महानिशीथेगोयमा णं अप्पडिताए इरियावहियाए न कप्पइ चेव काउं | किंचि चिइवंदणा झायाइयं फलासायममिकंखुगाणं एएणं अटेणं गोयमा ! एवं वुचइ जहाणं गोयमा ! समुत्तत्थोभ-यपंचमंगला थिरपरिचयं काऊणं तओइरियावहियं अब्भीए से भयवं कय एए विहिए तमिरियावहीए महीए गोयमा ! जहा णं पंचमंगलमहसुयं खंधे से भयवमिरियावहियमहिज्झित्ताणं / महा.१ अ. एतस्याः प्रतिक्रमणं स्वरूपञ्च यथाइच्छामि पडिक्कमिउंइरियावहियाए। विराहणाएगमणागमणे / पाणकमणे बीयकमणे हरियकमणे / ओसा-उत्तिंगपणगदगमट्टीमकडासंताणासंकमणे जेमे जीवा विराहिया एगिंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया अभिहया वत्तिया लेसिया / संघाइया संघट्टिया परियाविया किलामिया उद्दविया ठाणओठाणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया तस्स मिच्छामि दुक्कम। इच्छाम्यभिलषामि प्रतिक्रमितुं निवर्तयितुमीर्यापथिकायां विराधनायां योऽतिचार इति गम्यते। तस्येति योगः अनेन क्रियाकालमाह 'मिच्छामि दुक्कडंति' अनेन तुनिष्ठाकालमिति तोरणमी-गमनमित्यर्थः तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः तत्र भवा ईर्यापथिका तथा किंविशिष्टायामित्यत इति आह। विराध्यन्तेदुखंस्थाप्यन्तेप्राणिनोऽनयेति विराधना क्रिया तस्यां विराधनायां तस्या योऽतिचार इति वाक्यशेषस्तस्येति योगः विषयमुपदर्शयन्नाह गमनं चागमनं चेत्येकवद्भावस्तस्मिस्तत्र गमनं स्वाध्यायादिनिमित्तं वसतिरिति आगमन प्रयोजनपरिसमाप्ती पुनर्वसतिमेवेति तत्रापि यः कथं जातोतिचार इत्यत आह। 'पाणक्कमणे, प्राणिनो द्वीन्द्रियादयस्त्रयो गृह्यन्ते तेषामाक्रमणं पादेन क्रीडनं प्राण्याक्रमणं तस्मिन्निति तथा वीजाक्रमणे अनेन बीजानां जीवत्वमाहहरिताक्रमणे अनेन तु सकलवनस्पतिरेव तथा अवश्यायोतिङ्गपनक दगमृत्तिकामर्कट संतानसंक्रमणे सति तत्रावश्यायोजलविशेषः इह चावश्यायग्रहणमिति स यतः शेषजल संभोगपरिहरणार्थ मित्येवमन्यत्रापि भावनीयम् उत्तिंगा गई-भाकृतयो ये जीवाः कीटिका नगराणि वा पनक इल्लिदगमृत्तिका विखल्लः अथवा दगग्रहणादप्कायः मृत्तिकाग्रहणात्पृथिवीकायः मर्कट संतान कोलिकाजालमुच्यते ततश्चावश्या-यश्वोत्तिङ्गा श्चेत्यादिद्वन्द्वः अवश्यायोत्तिङ्गपनक दगमृत्तिकामर्कट-संतानास्तेषां संक्रमणमाक्र मणं तस्मिन्किंबहुना कियन्तो भेदेनाख्यास्यन्ते सर्वे ये मया जीवा विराधिता दुःखेन स्थापिताः एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयःद्वीन्द्रियाः कृम्यादयः त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयश्चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः पञ्चेन्द्रिया मूषिकादयः अभिहता अभिमुख्येन हताश्चरणेन घट्टिताः उत्क्षिप्य विक्षिप्ता वा वर्तिताः पुजीकृताः धूल्या वा स्थिता इति श्लेषिताः श्लिष्टा भूरित्यादिषु वा लगिताः संघातिताः अन्योन्यंगात्रैरेकत्र लगिताः संघट्टिताःमनाक्स्पृष्टाः परितापिताः समन्ततः पीडिताः क्रामिताः समुद्धातं नीताः ग्लानिमापादिता इत्यर्थः / अपद्राविताः उत्रासिताः स्थानात्स्थानं संक्रामिताः स्वस्थानात्परस्थानं नीताः जीविताव्यपरोपिता मारिता इत्यर्थः एवं यो जातोतिचारः तस्येत्येतावता क्रियाकालमाह / तस्स मिच्छामि दुक्कडमनेन निष्ठाकालमाह मिथ्यादुष्कृतं पूर्ववदेवं तस्येत्युभयत्र Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियासमिइ 659 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इरियासमिइ योजना सर्वत्र कार्या / आव०४ अ। इच्छामि पडिक्कमितु तिपुव्वभणितं एस संखेवत्थो इरियावहियाए" विस्तरस्तुगमणेत्यादि। आ.चू०४ अ०। ननु द्वयोः श्राद्धयोः प्रतिक्रमणकरणसमयेऽथवा सामायिके कृते सति एकस्य हस्तादपरेण चरवलके पातिते उभयोर्मध्ये कस्येर्यापथिकी समायाति किमुभावपि प्रतिक्रामतः एको वेति / (उत्तरम्) अत्र द्वयोः श्राद्धयोः प्रतिक्रमणकरणादौ सावधान-तयैकेन चरवलको गृहितो भवति अथ यदि द्वितीयहस्तलगनेन हेतुना पतति तदा तस्येपिथिकी समायाति यदि च गृहीतो प्यसावधानतयेव तदोभयोरपीपिथिकी समायातीति ||1|| तथा यः शुद्धक्रियां कुर्वाणः शुद्धाचारं च पालयन् ईर्यापथिकी मागतां न जानाति सकियद्भिर्मुहूर्तस्ता प्रतिक्रामतीति (उत्तरम् ) अत्र शुद्धक्रियायां क्रियमाणायां सोपयोगतया प्रमार्जनादिविधि-नोपवेशनादिषु ईर्यापथिकी नायाति यतस्तामाश्रित्य कालमानमुक्तं ज्ञातं नास्ति तथापि क्रियान्तरे क्रियमाणे ईर्यापथिकी प्रतिक्राम्यते यतो महत्थां वेलायां मनोवचः कायोपयोगानां सम्यगवबोधो न भवतीति॥२॥ ईर्ष्या गमनं तस्याः पन्था मार्ग ई-पथ स्तत्र भवा या समितिः ई-समितिलक्षणा सा ऐपिथिकी। समितिभेदे, स्था०६ ठा (तद्वक्तव्यता इरियासमिइ शब्दे / ऐपिथि-क्यापरिमन्थुः कप्प शब्दे / उच्चारादौ ईर्याप्रतिक्रान्तव्या इति पडिकमण शब्दे) इरियासमिइ-स्त्री०(ईयासमिति) सम्यगितिः प्रवृत्तिः समितिः ईर्यायां गमने, समितिश्चक्षुयापारपूर्वतयेती-समितिः समिति-भेदे / स्था०८ ठा०। आव०। पा० सम०। प्रवः। तत्स्वरूपं धर्मसंग्रहे यथात्रसस्थावरजन्तुजाताभयदानदीक्षितस्य मुनेरावश्यके प्रयोजने गच्छतो जन्तुरक्षानिमित्तं स्वशरीररक्षानिमित्तं च पादाग्रादारभ्य युगमात्रक्षेत्र यावन्निरीक्ष्य ईरणं ईर्या गतिस्तस्यां समितिरीर्यासमितिर्यदाहुः "पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे। वजंतो वीअहरिआई, पाणे अदगमट्टि ||1|| उवायं विसमं खाणु, विजलं परिवज्जए / संकमेण न गच्छेजा, विजमाणे परक्कमे"२एवंविधोपयोगेनगच्छतो यतेः कथंचित्प्राणिवधोऽपि प्राणिवधपापं न भवति यदाह "उचालिअम्मि पाए, इरिआस-मिअस्स संकमट्ठाए / वा वञ्जिकुलिंगी मारेज्ज तज्जोगपासज्ज |1|| नय तस्स तत्तिमित्तो, वंसुद्दमो विदेसिओ समए / यजोउवओगे, सव्वभावेण सो जम्हा 2 तथा "जिअदुवमरदुवजीवो, अजदारस्स निच्छओ हिंसा। पयदस्सणत्थिबंधो, हिंसा मित्तेण समिदस्स" | ध०३ अधिo! प्रका जीवसंरक्खण जुगमेत्तंतरदिट्ठस्स अप्पमादिणो संजमो व करणुप्पायणाणिमित्तं जा गमणकिरिया सा इरियास-मिती। निचू.१ उा ईर्ष्यासमिति म रथशकटयानं वाहनाक्रान्तेषु सूर्यरश्मिप्रताषितेषु प्रासुकविविक्तेषु पथिषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्त्तव्यमिति। आव०४ अा ईसिमितेर्विस्तरेण स्वरूपमाह। आलंबणेण काले, मग्गेण जयणाए य। चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरियं रिए। आलम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च चतुः कारणै रेभिरेव आलम्बनादिभिः परिशुद्धा निर्दोषा चतुः कारणपरिशुद्धा तां संयतो यतिरीगिति (रिएत्ति) रीयेतानुष्ठानंविषयतया प्राप्नुयात् यद्वा सुब्व्यत्ययाचतुः कारणपरिशुद्ध्या ईारीयेत गच्छेत् आलम्बनादीन्येव व्याख्यातुमाहा तत्थालंबणं णाण-दसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते, मग्गाउप्पहविवज्जए।। वजए तत्र तेष्वालम्बनादिषु मध्ये आलम्बनं यदालम्ब्य गमनमनुज्ञायते निरालम्बनस्य हिनानुज्ञातमेव गमनं ततः किमित्याह-ज्ञानं सूत्रार्थोभयात्मकागमरूपं दर्शनं दर्शनप्रयोजनं चरणं चारित्रं तथा शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थत्वेन द्वित्वादि-भङ्गसूचकस्ततोयमर्थः प्रत्येक ज्ञानादीन्याश्रित्य द्विकादिसंयोगेन वा गमनमनुज्ञातमालम्बनेति व्याचष्टे कालश्च प्रस्तावादीर्यया दिवस उक्तस्तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते रात्री ह्यचक्षुर्विषयत्वेन पुष्टतरालम्बनं विना नानुज्ञातमेवं गमनं मार्गेणेति द्वार व्याख्यातुमाह मार्ग इह सामान्येन पन्थाः स उत्पथेनोन्मार्गेण वर्जितो रहितः उत्पथवर्जितः उक्तसबन्धः उत्पथेहि व्रजत आत्मसंयमविराधनादयो दोषाः। यतनेति द्वारंवुवूर्षुराह। दव्वओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता, तं मेवि तयओ सुण। (दव्वओ इत्यादि) सुगममेव नवरं तामिति चतुर्विधयतनां मे कीर्तयतः सम्यक् प्ररूपाभिधानद्वारेण संशब्दयतः शृण्वा कर्णय शिष्येति गम्यते। यथा प्रतिज्ञातमेवाहदवओ चक्खुणा पेहे, जुगमेत्तं च खेत्तओ। कालओ जावरीएज्जा, उवउत्ते व भावओ। द्रव्यत इति जीवादिक द्रव्यमाश्रित्येयं यतना यचक्षुषा दृष्टया प्रेक्षतावलोकयेत्प्रक्रमात् जीवादिकं द्रव्यमवलोक्यं च संयमात्मविराधना परिहारेण गच्छेदितिभावो युगमात्रं च चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात्क्षेत्रं प्रेक्षेत इयं क्षेत्रतो यतना कालतो यतना यावत् (रीएजत्ति) रीयते यावन्तं कालं पर्यटति तावत् कालमिति गम्यते उपउक्तश्च भावतो दत्तावधानो यद्रीयते इयं भावमङ्गीकृत्य यतना। उपयुक्तत्वमेव स्पष्टयितुमाह / इंदियत्थे विवज्जत्ता, सज्झायं च पंचहा। तस्सुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्तो रियं रए। इन्द्रियार्थान् शब्दादीन् विवयं तदनाध्यवसानतः परिहृत्य स्वाध्यायं चैव चः समुचये एवकारोऽपि शब्दार्थस्ततो यमर्थान् केवलमिन्द्रियार्थान् विवयं किंतु स्वाध्यायं चापि पञ्चधेति वाचनादिभेदतः पञ्चप्रकार गत्युपयोगापधातित्वात्ततश्च तस्यामेव ईर्यायां मूर्तिः शरीरमर्थाद् व्याप्रियमाणा यस्याऽसौ तन्मूर्तिस्तथा तामेव पुरष्करोति तत्रैवोपयुक्ततया प्राधान्ये नाङ्गीकुरुते इति तत्पुरस्कारोऽनेन कायमनसोस्तत्परतोक्ता वचसो हि तत्र व्यापार एवन समस्ति एवमुपयुक्तः सन्नीर्या रीयेत यतिरिति शेषः / सर्वत्र च संयमात्मविराधनैव विपक्षे दोष इति सूत्रपञ्चकार्थः। उत्त०४ अ० ईसिमिती उदाहरणं यथा-एको साहू समणगुणभाविओ इरियासमिइए जुत्तो विहरइ। एत्थंतरे सक्कआसणं चलियं / पउत्तावही साहु दट्टुं परमभत्तीए वंदइ पसंसइ य देवसभामज्झगओ तओ मिच्छदिट्ठी एगो देवो असद्दहतो समागओ साहुस्स, वियारभूमि पइट्ठियस्स पुरओ मच्छियप्पमाणाओ मंदुक्कलियाओ विउव्वइ / पच्छओ य मत्तहत्थि तहा वि गई न भिंदइ / तओ हस्थिणा उक्खिविऊण भूमिए पाडियो न यसो भयं च न य सरीर गणेइ। किंतु सत्ता मे मारियत्ति। जीवदयापरिणओ अत्थइ। स देवोवि अचलियं तं साहुं पेहत्त इंदव्युत्तं तं निवेयत्ता देवलोगं गओत्ति" पा। "अहवाअर Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियासमिइजोग 660 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इलियागइ हणओ समितो असमितो देवताए पादो छिण्णो अण्णए संधितो इलापुत्रस्य नाट्यस्था ऽवसरोऽदायि भूभुजा। इत्यधिकम्"आ.चू०४ अ (अस्याः प्रवचनमात्रत्वम्पक्यणमायाशब्दे) स्वयं शान्तःपुरः सोथ पौराः सर्वेपि चाविशन् / / 12 / (इसिमितौ अनाभोगप्रतिषेवणं भवतीति पडिसेवणाशब्दे) न्यस्तस्तत्र महान् वंशः फलकं तस्य चोपरि। (ईसिमितेः परिमन्थवः कप्पशब्दे) न्यस्तौ दो दौ तथा लोहकीलको फलकान्तयोः ||13|| इरियासमिइजोग-पुं.(ई-समितियोग) ई-समितिव्यापारे, "जे एवं तस्योपरि ननर्तोरिलापुत्रो धनाशया। इरियासमिइजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पाइति प्रश्न द्वा०। धनिनां द्वारि सौवर्ण-यट्यां क्रीडां मयूरवत् // 14|| इरियासमिय-पु.(ईसिमित) ईरणं गमनमी- तस्यां समितः (सम्यक अधस्तान्मंखपुत्र्या च गायकीवृन्दयुक्तया। प्रवृत्तः भ०२ श०१ उ.) (उपयुक्तः। प्रव०७२ द्विादत्तावधान ईसिमितः / गीतं गीतं रसस्फीतं प्रीतं सामानिकर्थतः||१५|| पुरतो युगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामिनि, आचा०२ श्रु०६ अ०आव. "इरियासमिए सया जये" ईरणमी- गमनं तस्यां समितः सम्यक् सच्छिद्रपादुकापादः करोपात्तासिखेटकः। प्राप्तः ईया समितः ईर्यासमितता प्रथमभावना यतोऽसमितः उत्पत्योत्पत्य गगने ददानः किरणानि सः ||16|| प्राणिनोहिंस्यात् सदाऽतो यत्तः सर्वकालमुपयुक्त इति / आव०४ अप्रव०। अप्रमत्तःसप्तसप्तपुरः पश्चान्मुखानि च। (इसिमितस्य विस्तरेण वक्तव्यता इरियासमिइ शब्दे) फलकप्रान्तकीलेषु प्रवेशयति पादुके ||17|| (ईर्ष्यासमितस्य प्राणातिपातविरमणव्रतस्य प्रथम भावना भवतीति एवं कृते भवल्लोकः सर्वः सर्वस्वदानधीः / प्राणा-इवायवेरमण शब्दे भावनाशब्दे च द्रष्टव्यम्) राज्ञा दत्ते परं त्यागे प्राक् पश्चाइदते परे / / 18|| इला-स्त्री.(इला) इल् -क-भूमौ, वाचला जम्बूद्वीपान्तर्गते वर्षभेदे, नट्यां रक्तो नृपस्तानि भूयो भूयोऽप्यदापयत् / आoका इलावर्धनगरस्थायां स्वनामख्यातायां देवतायाम्। आ.म.द्वि०। तन्मृत्युमीहते राजा स पुनर्धनमीहते ||19|| आ.चू (तत्कथा इलापुत्त शब्दे) पश्चिमरुचकवास्तव्ये दिकुमारीभेदेची ति०/ ज्ञातं तेनाप्यथ यथा नट्यां राजापि रागवान। इलाकूड-न. (इलाकूट) क्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतस्थे इलादेव्यधिष्ठिते सच तत्र स्थितो दृष्टवा निकटे श्रेष्ठिनो गृहे // 20 // कूटभेदे, स्था०४ ठा युवतीः सादरं साधु प्रतिलाभनतत्पराः। इलादेवी-स्त्री(इलादेवी) पश्चिमरुचकवास्तव्ये दिक्कुमारी भेदे आक०/ साधुदृष्टिः पुनर्भक्त-शुद्धौ तासांन वीक्षणे ||21|| जा आ.म.प्रका स्थाo दध्यौ निविषया ह्येते धिलां विषयरागिणम्। इलादेवीकूड-न(इलादेवीकूट) क्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतस्थे इलादेव्य तदेवं भावयन् प्राप ज्ञानं तत्रैव केवलम् / / 22 / / धिष्ठिते कूटभेदे,जं२ वक्षा राज्ञोदुश्चिन्तितध्यानात्तल्लेभे मनपुत्र्यपि। इलापुत्त-पुं०(इलापुत्र) इलावर्द्धनपुरस्थे इलादेवी प्रसादाजाते पट्टरायपि तत्तद्भावयन्ती समासदत्॥२३|| स्वनामख्याते श्रेष्ठिसुते, तत्कथा यथा। श्रुत्वापरागं स्वं लोकाद्ध्यात्वा दुश्चिन्तितं च तत्। एकस्मिन् कुत्रचिद्ग्रामे श्रुत्वा धर्म गुरोःपुरः। विरक्तो भावनासक्तःप्राप भूपोऽपि केवलम् ||24|| द्विज एकः सपत्नीकः परिव्रज्यामुपाददे ||1|| चतुर्णा केवलोत्पत्तौ तत्रेयुय॑न्तरामराः। तप्यते स्म तपस्तीन प्रीति गात्परं मिथः। साधुवेषं ददुस्तेषां वंशं स्वर्णात्पलं व्यधुः // 25|| धिग्जेति स्त्रीशूद्रसङ्गाविचिकित्सा व्यधात्पुनः ||2|| आख्यद्धर्ममिलापुत्रः प्रत्यबुध्यत्ततो जनः। मृत्वा तौ जग्मतुः स्वर्ग तत्र सौख्येन तिष्ठतः। सम्यक्त्वाभिग्रहादीनां कोपि किंचित्प्रपन्नवान् / / 26 / / इंतश्च भरतेऽमुष्मिनिलामण्डलमण्डनम् / / 3 / / आक०आ.चू। आलम द्वित। विशे०। इलावर्धननाम्नास्ति पुरं प्रस्पर्द्धितं परैः। सत्योपयाचिता तस्मिन्निलानाम्न्यस्ति देवता॥ इलावह-पु.(इलापति) ऐलापत्यगोत्रस्य प्रकाशके आद्यपुरुषे, नं०। एका च श्रेष्ठिनी तत्र सिपेवे तां सतार्थिनी। इलवचा-स्त्री.(इलापत्या) स्वनामख्यातायां तृतीयरात्रौ, कल्प०। सच द्विजामरः स्वर्गाच्च्युत्वा तस्याः सुतोऽभवत् / / 5 / / इलावद्धण-न०(इलावर्द्धन) इलापुत्रस्य निवासस्थाने पुरभेदे, इतश्च तस्येलापुत्र इत्याख्या चक्रेत्युत्सवपूर्वकम् / भरतेऽमुष्मिनिलामण्डलमण्डनम् / इलावर्द्धननामास्ति पुरं स्त्रीजीवो विचिकित्सातःसंजझे मंखपुत्रिका ||6|| प्रस्पर्द्धितम्परैः। इति। आकot आ०म०। आ चूछ। प्राप्तौ स्मरकरिक्रीडा-वनं दावपि यौवनम् / इलिया-स्त्री (इलिका) तृणपत्रनिसृते द्वीन्द्रियजीवविशेषे, / आचा।। नृत्यन्ती मंखपुत्रीं ता-मिलापुत्रोन्यदैवत / / 7 / / द्वीन्द्रियेलिकायाश्चतुरिन्द्रियत्वे हीरप्रश्ने पण्डित-विरावर्षिगणिकृत प्रश्नेषु प्रश्नो यथा-द्वीन्द्रियेलिका स्फुटित्वा चतुरिन्द्रियभ्रमरी कथं अभवत्प्राग्भवे प्रेम्णानुरागस्तस्य तां प्रति। भवति / उत्तरम् / इलिकाकलेवरमध्ये इलिकाजीवोऽपरो वा नैव तस्य ददुस्ते तां सुर्वेणनापि तोलिताम् / 6 / / भ्रमरीत्वेनागत्योत्पद्यत इति। ही। अक्षयो निधिरस्माकमियं नेमां ददामहे। इलियागइ-स्त्री०(इलिकागति) इलिकाया इव गतिरिलि कागतिः यदि नः सहचारी स्यादस्मद्विधा च शिक्षते ||9|| परलोकगमनार्थ गतिविशेषे, तस्याः स्वरूपं यथा-"इलिका तदेनामेव लभते भूयमापि धने न च / पुच्छदेशमपरित्यज्य स्वमुखेनातनं स्थानं शरीरप्रसारणेन संस्पृश्य ततः मुक्तवा कुटुम्बं तत्कामस्तेषां सोथानुगोऽभवत् ||10|| तथा पुच्छे संहरति एवं जीवोपि कश्चित्स्वभवान्तकाले शिक्षितः सोथ तद्विधां विवाहायार्जितुं धनम्। स्वप्रदेशैरुत्पत्तिस्थानं संस्पृश्य परभवायुः प्रथमसमये शरीरं वेन्नातटपुरे गत्वा ययाचेऽवसरं नृपः||१३|| परित्यजति / पं.सं०२ द्वा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्ल 661 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इसिभहपुत्त इल्ल-इल्ल-मतुवर्थके प्रत्यये, “मतुवत्थं च मुणेज्जह आले इल्लचणं च / इसिणिया-स्त्री.(इसिनिका) इसिनामकानार्यदेशोद्भवायां नार्याम्, मतुवं च इति" पं.सं०३ द्वाळा आवळा प्रज्ञा.१ पद। इल्ली-देशी. शार्दूले, सिंहे, वर्षत्राणे च। देना। इसितडाग-पु.(ऋषितडाग) तोशलिदेशस्थे शैलपुरनगरस्थे इल्लीर-देशी वृष्ट्याम्, वृष्टिवारणे गृहद्वारे च, देनाका स्वनामख्याते सरसि, "सेलपुरेइसितडागम्मि होति अट्ठाहिया। महिमा इल्लो-देशी. दरिद्र, कोमले, प्रतीहारे, लवित्रे, कृष्णवर्णे च दे. ना। तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्ष महता इव-अव्य (इब) सादृश्ये, उत्प्रेक्षायाम, तंला ईषदर्थे वाक्यालंकारद्योतकता विच्छनाष्टाहिका महती महिमा भवतीति। वृ.१ उ। तोश-लिनगरस्थे चास्य तत्र उपमायामिवेन नित्यसमासो विभक्त्यलोपश्चेति वार्तिकन स्वनामख्याते सरसि च / "तोसलीनगरम्मि इसि-वालो,, नित्वसमासः। विभक्तेर्लोपाभावश्च। वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। तोशलिनगरवास्तव्येन वणिज्जा ऋषिपालो नाम वाणमन्तर उज्जयनी रघुः अस्य च "मिवपिव विव व्य व विउ इवार्थे वा २८श इति कुत्रिकापणात्क्रीत्वान्ते बुद्धिमाहात्म्येन सम्यगारा-धितस्ततस्तेन प्राकृतसूत्रेणेवार्थे एतेषामेव प्रायः प्रयोगो भवति। कुमुअंमिव-चंदणं पिव ऋषितडागनाम सरः कृतमिति वृ०३ उ० हंसो विवसाअरोव्व खारोओ, सेसस्सव निम्मोओ (फुल्लंनीलुप्पलवणं इसिदास-पुं.(ऋषिदास) राजगृहस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, अणु०३ व०३ वातं.) कमलंविअपक्षे निलुप्पलमाल इवेति / प्रा.व्यात अा (तद्वक्तव्यता धनश्रेष्ठिवत् अणुत्तरो ववाइय शब्दे) इस-इष गतौ, सर्पणे च। दिवा. पर सक० सेट् इष्यति ऐष्यत्-ऐषीत् इसिदासज्झयण-न(ऋषिदासाध्ययन) ऋषिदासवक्तव्यता इषित एषित्वा। अनु-अन्वेषणे, गवेषणे। वाच०। प्रतिबद्धेऽनुत्तरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य तृतीयेऽध्ययने, अणुः / इ(रि)सि--पु.(ऋषि-) पश्यन्तीति ऋषयः / औपा उपा०। वाचनान्तरापेक्षया प्रथमेऽध्ययने च। स्था०१० ठा०। ऋणवृषमत्वृषौ वा 49 इति सूत्रेण वैकल्पिको 'रि' इत्यादेशः। इसिदिण्ण (दत्त)-पु.(ऋषिदत्त) भरतवर्ष वासिसुमतिजिन रिसी पक्षे / इत् कृपादौ 1228 // इति सूत्रेणेकारा-देशः / इसी। समानकालिके ऐरावतवर्षवासिनी जिनभेदे, -- "सुमई य भरहवासे अतिशयज्ञानिनि साधौ, औ०। अवध्यादिज्ञानवति, उपा०। ज्ञानिनि। इसिदिण्णजिणो यएरवणयवासे य'ति / सम। सुस्थि-तसुप्रतिबुद्धानां भ०९ श०३२ उ०। प्रत्येकबुद्धसाधौ, / पाता। ऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्ट कौटिककाकन्दकानां शिष्ये, काश्यपगोत्रोत्पन्ने स्वनामख्याते स्थविरे परमर्षिभिः। हिंसादोषनिवृत्तानां वृतशीलविवर्धनम्॥७॥ पश्यन्ति यथा च। कल्प वदस्त्विति ऋषयो मुनय इति। हा। मूलोत्तरगुणयुते साधौ, ध०३० अधि०। इसिदत्तय-पुं.(ऋषिदत्तक) स्थविरात् रिसिगुप्तान्मानवगणस्य द्वितीये मुनौ, उत्त०१२ अ। गणधरव्यतिरिक्ताः शेषाः जिनशिष्या ऋषयः इति। कुले, कल्प। सम०।२४ सा पं०चू। जे णामिवं "ता इसिणास एसो, / स एष ऋषिर्वर्तते इसिपरिसा-स्त्री.(ऋषिपरिषत्)पश्यन्तीति ऋषयोऽवध्यादि ज्ञानयन्तः येन ऋषिणाहं वान्यात्यक्तेति। उत्त०१२ अ०। (उपा०२ अ.) त एव परिषत्परिवारः ऋषिपरिषत् अतिशयज्ञानिऋषेर्लक्षणं यथा।। साधूनाम्परिवारे, और महइमहालियाए परि-साए" / पश्यन्तीति अनिए अवासो समुआणचरिआ, अण्णाय उंछं पयरिक्कया ___ ऋषियो ज्ञानिनस्तद्रूपा पर्षत्परिवारः ऋषिपर्वत्तस्यै। भ०९ श०३३ ऊ। य / अप्पोवहीकलवविवज्जणा य, विहार चरिआ इसिणं इसिवाल-पु.(ऋषिपाल) स्वनामख्याते ऋषिवादिव्यन्तरनिकाये पसत्था ||6|| इन्द्रभेदे, स्था०२ ठा। स्वनामख्याते वाणव्यन्तरे च / स च अनियतवासोमासकल्पादिना अनिकेतवासोवा अगहे उद्यानादौ वासः तोशलिनगरवास्तव्येन वणिजा ऋषिपालो नाम वाणव्यन्तर तथा समुदानचर्या अनेकत्र याचितभिक्षाचरणम् अज्ञातोच्छं उज्जयनीकुत्रिकापणात् क्रीत्वा तेन बुद्धिमहात्म्येन सम्यगाराधित इति। विशुद्धोपकरणग्रहणविषयं (पइरिक्कयो य) विजनैकान्तसेविता च वृ.३ऊ अल्पोपधित्त्वमनुल्वण युक्तस्तोकोपधिसेवि त्वे कलहविव- इसिवालिय-पु.(ऋषिपालित) ऋषिवादिव्यन्तरनिकायेन्द्रभेदे, जना च तथा तद्वासिना भण्डनविवर्जना विवर्जनं विवर्जना इसिवालियमयमहिया इति-इसिवालियस्स भद्दसुरघरकारयस्सवीरस्स श्रवणकथादिना परिवर्जनमित्यर्थः / विहारचर्या विहरण- जेहिंसया पुवंता सव्वे इंदापवरकित्तिया३।०७ पढ़ा आर्यशान्तिसैनिकस्य स्थितिर्विहरणमर्यादा इयमेवं भूता ऋषीणां साधूनां प्रशस्ता माठरसगोत्रस्य शिष्ये, स्वनामख्याते स्थविरे च / तन्निर्गतायां व्याक्षेपाभावात् / आज्ञापालनेन भावचरणसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थः। स्वनामख्यातायां शाखायाम् स्त्री-टाप "थेरेहिंतो अज्जुइसिवालिएहिं दश०२ चूलिका कपिलादीनामृषीणामिति / द्वा०२३ द्वारा स्वनामख्याते तो इत्थणं अजुइसिवालिया साहा णिग्गया इति" कल्पना ऋषिवादीन्द्रभेदे च। स्था०२ ठा। इसिभहपुत्त-पु.(ऋषिभद्रपुत्र) स्वनामख्याते श्रावके, ऋषिइसिगुत्त-पु. (ऋषिगुप्त) वशिष्ठसगोत्रस्यार्यसुहस्तिनः शिष्ये, वशिष्ठसगोत्रे | भद्रपुत्रवत्संविग्नगीतार्थगुरुसमीपश्रवणसमुत्पन्नप्रवचनार्थ कोशलेन स्वनामख्याते स्थविरे , / तस्मान् माणवगणो निर्गतः तथाच "थेरेहिं भावश्रावकेण भाव्यमिति / धरा तो णं इसिगुत्तेहिंतो वासिट्ठ सगोत्तेहिं तो एत्थ णं माणवगणे णामं गणे ऋषिभद्रपुत्र कथाचैवंणिगए इति। तेणं कालेणं तेणं समएणं आलंभियाणाम णयरी होत्था स्वनामख्यांते माणवगणस्य प्रथमे कुले च / / कल्प०। वण्णओ संखवणे चेइण वण्णओ तत्थणं आलंभियाए इसिण-पु.(इसिन) अनार्यदेशभेदे, ज्ञा० अ०। णयरीए बहवे इसिमद्दपुत्तप्पमोक्खा समणोवासगा परि Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिमद्दपुत्त 662 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 इसिभद्दपुत्त वसंति अड्ढे जाव अपरिभूए अभिगयजीवा जीवा जाव विहरंति तएणं तेसिं समणोवासयाणं अण्णदा कया-विएगयओ समुवागयाणं सहियाणं समुविट्ठाणं सण्णि सण्णाणं अयमेयारूवे मिहाकेहा समुल्लावे अन्मत्थिए समुप्पजित्था देवलोएसु णं अज्जो देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? तएणं से इसिमपुत्ते समणोवासए देवट्ठिइगहिय? ते समणोवासए एवं वयासि देव लोएसुणं अञ्जो देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइंठिई पण्णत्ता तेण परं समाहिया दुसमयाहिया जाव दससमयाहिया संखेजसमयाहिया असंखेज्जसमयाहिया उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमहिई पणत्ता तेण परं बोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य तएणं ते समणोवासगा इसिभद्दपुत्तस्स समणोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमटुंणो सद्दहंति णो पत्तियंति णो रोयंति एयमटुं असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसिंपाउन्भूया तामेवदिसंपडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसड्ढे जाव परिसापज्जुवासइ तएणं ते समणोवासगा इमी से कहाए लद्धट्ठा समाणा हद्वतुट्ठा एवं जहा तुंगियोद्देसए जाव णमंसंति / तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणो-वासगाणं तीसेय महई धम्मकहा जाव आणाए आराहइ भवई / तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा उट्ठाए उट्टेति उठूइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति वदित्ताणमंसित्ता एवं वयासि एवं खलु भंते! इसिभहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाइक्खइजाव एवं परूवेइ देवलोएसुणं अज्जो ! देवाणं जहण्णेणं दस-वासससहस्साई ठिई पण्णत्तातेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य / से कहमेयं भंते ! एवं अज्जो ! त्ति समणं भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी जेणं अजो ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवमाइक्खई जाव परूवेइ देवलोगे सुणं अज्जो देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता तं चेव समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य सच्चेणं एसमढे अहं पुण अजो ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि देवलोगेसुणं अज्जो ! देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साईतं चेव जाव तेणपरं वोच्छिण्णा देवा य देवलोग्गा य सच्चेणं एसमटे / तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ एयमटुं सोचा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छइत्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदंति णमंसंति एयमढें सम्मं विणएणं भुजो भुञ्जो खामेति / तएणं ते समणोवासगा पसिणाई पुच्छंति पुच्छिं ति त्ता अट्ठाई परियादियंति परियादियंति त्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति वंदइत्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया भंतेति? भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ 2 त्ताएवं वयासी पभूणं मंते ! इसिभहपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंजे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! णो इणढे समढे गोयमा ! इसि भद्दपुत्तेणं समणोवासए बहुहिं सीलप्वय गुणव्वय वेरमण पञ्चक्खाण पोसहोववासेहिं अहापरिग्गएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूर्हि वासाइंसमणोवासगपरियागं पाउणिहितिश्त्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झुसेहितिरत्ता सट्ठिभत्ताई अणसणाइछेदेइ छेदेइत्ता आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्ची सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहित्ति। तत्थणं अत्थे गइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता तत्थणं इसिमद्दपुत्तस्स देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई भविस्सई। सेणं भंते ! इसिभहपुत्ते देवत्ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं उवजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिति सेवंभंते भंतेत्ति / भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्ण या कयावि आलंभियाओण-यरीओसंखवणाओ चेइयाओ पडिणिक्खमई पडि-णिक्खमइत्ता बाहिरिया जणवयविहारं विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं आलंभिया णाम णयरी होत्था / वण्णओ संखवणे चेइए वण्णओ तत्थणं संखवणस्स चे इयस्स अदूरसामंते पोग्गले णामं परिष्वाएपरिवसइ। रिउव्वेय जउव्वेय जाव नएसु सुपरिनिटि ए छटुं छटेणं अणिक्खितेणं तवोकम्मेणं उर्ल्डवाहाओजाव आया-वेमाणे विहरइ। तएणं तस्स पोग्गलस्स छठें छट्टेणं जाव आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए जहा सिवस्स जाव विभंगे णामं अण्णाणे समुप्पण्णे सेणं तेणं विभंगे णामं अण्णाणेणं समुप्पण्णेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिई जाणइपासइ। तएणं तस्सपोग्गलस्स परिव्वागयस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिएजाव समुप्पज्जित्था। अत्थिणं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता तेण परं समयाहिआ दुसमयाहिया जाव असंखेन Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिभासिय 663 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इसिवाइय समयाहिया उक्कोसेणं दससागरविमाइं ठिई पण्णत्ता तेण परं अवरण्हेवि छाया न परियत्तइ तओ एक्को भणइ तुब्भे एसा लद्धावीओ वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता भणइ तुम्भंति। तउ एक्को काइयभूमिंगउंजाव छाया तहेव अत्थइ तउ वि आयावणभूमीओ पचोरुभइ पचोरुभइत्ता तिदंड-कुंडिआजाव इउ विगउंतत्थवि तहेव अत्थइ तेहिं नायं जहान एक्कस्स विलद्धी। तउ धाउरत्तवत्थाओय गेण्हतिगेण्हति त्ताजेणे व आलंभिया णयरी समीपुच्छिओ भयवया भणियं जहा इहेव सोरियपुरे समुद्दविजउं राया जेणेव परिप्वायगावसहे तेणेव उवागए भंडगणिक्खेवं करेइ आसि जन्नदत्तो तावसो। सोमजसा तावसी ताण पुत्तो नारउं ताणिउं करेइत्ता आलंभियाएणयरीए सिंगाडग जाव पहेसुअण्णमण्णस्स छवित्तीणि एक दिवसं जिमंति एक्कदिवसं उववासं करेंति। अन्नया ताणि एवमाइक्खइजाव परवेइ अत्थिणं देवाणुप्पिया!मम अतिसेसे तं नार थं पुव्वाण्हे असोगपायवस्स हेट्ठा छवे ठवेऊणं उच्छंति इउ यव्वे णाणदंसणे समुप्पण्णे देवलोएस णं देवाणं जहण्णेणं यहाउ वेसमणकाइया तिरियं जं भगादेवा तेणं तेणं वीइवयं ता पेच्छंतितं दसवाससहस्से तहेवजाव वोच्छिण्णा देवाय देवलोगायतएणं दारयं उहिणा आभोइति। सो ताउचेव देवनिकायाउतउ ते तस्साणुकंपाए आलंमियाएणयरीए एवं एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्सतंचेव तं छायां थभंतित्ति / एवं सो उस्सुक्कबालभावो अन्नया तेहिं जं भगदेवेहिं जाव से कहमेय मण्णेय एवं ? सामी समोसड्ढे जाव पन्नति पाउयाउं विजाउ पाढिउ तउ कंचणकुंडियाए मणियाओ याहिं परिसापडिगया भगवं गोयमे तहेव भिक्खापरियाए तहेव आगार्से हिंडइ अन्नयावारवइंगओवासुदेवेण पुच्छिओ किं सोयंति सोन बहुजणसई निसामेइ तहेव सव्वं भाणियध्वं जाण अहं पुण मरति कहेउं तओ अन्नकहा एवं खेवं काऊण अहिट्ठिओ गओ पुव्वविदेह गोयमा ! एवमाइक्खामि एवं भासामिजाव परवेमि देवलोएसु तत्थ य सीमंधरं तित्थयरं जुगबाहुवासुदेवो पुच्छइ / किं सोयंति णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता तेण परं तित्थगरेण भणियं सव्वं सोयंति जुगबाहुणा एक्कवयणेणं विसव्वं उवलद्धं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं नारओ वितं निसुणित्ता उप्पइऊणं अवरविदेहे गओ तत्थ वि जुगंधरं ठिई पण्णत्ता तेण परं वोच्छिण्णा देवा यं देवलोगा य / अस्थि तित्थयरं महाबाहु वासुदेवा तं चेव पुच्छइ / भगवया वि तं चेव वारियं णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दव्वाइं सवण्णाइंपि अवण्णाइपितहेव महाबाहुस्स वितं सव्यमुवगय नारओ वितंसुणित्ता वारवइगओवासुदेव जाव हंता अस्थि / एवं ईसाणे वि एवं जाव अचुए वि एवं भणइ किं ते तदा पुच्छिय वासुदेवो भणइ किं सोयंति नारओ भणइ सव्वं गेविजविमाणेसु अणुत्तरबिमाणेसुविईसिप्पभाराए विजाव हंता सोयंति। वासुदेवो भणइकिं सव्वंतितओ नारओ खुमिओन किंचि उत्तरं अत्थि / तएणं सा महई महालिया जाव पडिगया / तएणं देइ / तओ कण्ह वासुदेवेण भणियं / जत्थ ते तं पच्छियं तत्थ एयंपि आलंभियाए णयरीए सिंगाडगतिगअवसेसं जहा सिवस्स जाव पुच्छियव्वं जुत्तं तिखिसिओ ताहे नारओ भणइसव्वं भट्टारओ नपुछिउत्ति सव्वदुक्खप्पहीणे णवरं तिदंडकुंडियंजाव धाउरत्तवत्थ-परिहिए चिंतेउमारद्धो जा ईसरिया संबुद्धो पढममज्झयणं सोयव्यमेव इचइयं परिवडियविभंगे आलंभियं णयरं मज्झं णिगच्छद जाव वदति एवं सोणिवि दट्ठवाणित्ति / / पाल। उत्तराध्यनादिके उत्तरपुरच्छिमंदिसीभागं अवकामह, अवकमइत्ता तिदंडकुंडियं (देवेन्द्रस्तवादिके) श्रुतविशेषे, आ.म.प्र.। 'इसिभासिए य जहा' च जहो खंदओ जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स जाव ऋषिभाषितेषूतराध्ययनादिषु / सूत्रा अव्वाबाहं सोक्खमणुभवंति सासयं सिद्धा सेवं भंते भंतेति। इसिभासियज्झयण-न०(ऋषिभाषिताध्ययन) प्रश्नव्याकरणभ०११ श०१२ उ. दशायास्तृतीयेऽध्ययने, स्था०१० ठाoll इसिभासिय-न०(ऋषिभाषित) ऋषयः प्रत्येकबुद्धसाधवस्तेचात्र इसिया-स्त्री.(इषिका) मुजागर्भभूतायां शलाकायाम्, 'से जहाणामइ नेमिनाथतीर्थवर्तिनो नारदादयो विंशतिः।पार्श्वनाथतीर्थवर्तिनः पञ्चदश __ केइ पुरिसे भुंजाओ इसियं अभिणिव्वट्टित्ता णं उवदंसेजा इसियंति' वर्द्धमानस्वामितीर्थवर्तिनो दश ग्राह्यास्तैर्भाषितानिपञ्चचत्वारिंशत्सं तदर्भभूतां शलाका प्रथकृत्य दर्शयदिति। सूत्र०२ श्रु०२ अा ख्यान्यध्ययनानि श्रवणाद्यधिकारवति ऋषिभाषितानि अङ्गबा ह्येषु इसिवंस-पुं.(ऋषिवंश) गणधरव्यतिरिक्ताःशेषा जिनशिष्या ऋषयस्तेषां उत्कालिकाश्रुतविशेषेषु, वंशे, तद्वंशप्रतिपादके समवायाङ्गादिश्रुते च। 'इसिवंसे इय' गणधरवंश अत्रवृद्धसंप्रदायः / “सौरियपुरे नयरे सुरंबरो नाम जक्खो धणंजओ इतिच गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तद्वंशप्रतिपादकत्वासेट्ठी सुभद्दा भज्जा तेहिं अन्नया सुरंवरो विन्नाओ जहा / / जइ अम्हाणं दृषिवंश इति च / तत्प्रतिपादनं चात्र पर्दूषणाकल्पस्य समस्तस्य पुत्तो होहिइतोतुब्भे महिससयंदोमात्ति। एवं ताणं संजाओ पुत्तो एत्थंतरे / ऋषिवंशपर्यवसानस्य सम-वसरणप्रतिक्रमेण भणितत्वात्। सम०२ स.। भगवंबद्धमाणसामी ताणि संबुज्झिहितित्ति सोरियपुरमागओ तओ सेट्ठी इसिवाइन)-पु.(ऋषिवादिन) पिशाचादिव्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिनि सज्झानिग्गओसंबुद्धोअणुब्वयाणि गहियाणि सोजक्खा सुविणए महिसे व्यन्तरनिकायविशेषे, और मग्गइ तेण विसेट्ठिणापिट्ठमया दिन्नति / सामिणो दुन्निसीसा धम्मघोसो इसिवाइय-पु.(ऋषिवादिक) पिशाचादिव्यन्तरनिकायानामु-परिवर्तिनि धम्मजसो य एगस्स असोगवरपायवस्स हेट्ठा परियट्ठति। ते पुटवण्णेट्ठिया | व्यन्तरजातिविशेषे, प्रश्न०४ द्वा प्रवा Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसिसत्त 664 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर *ऋषिवादित-पुं. पिशाचादिव्यन्तरनिकायानामुपरि वर्तिनि तत्तन्निवासिनामेव तेषां जन्तूनां कर्मकारणमवसेयं नान्यत्तथाच दृश्यते व्यन्तरनिकायभेदे, प्रव०१२ द्वा० एव पुण्यवति राज्यमनु शासति भूपतौ तत्कर्मप्रभावतः सुभिक्षादयः इसिसत्त-पु.(ऋषिसप्त) ऋषितासप्तऋषिसप्तःमदीयतषः प्रभावान्नपुंसको / प्रवर्तमाना कर्म च जीवाश्रितं जीवाश्च बुद्धिमन्तश्चेतनात्त्वात् ततो भव त्वमिति ऋषिशापाजाते नपुंसकभेदे, ग.१ अधि० (अस्य प्रव्रज्याया बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितत्वे चेतनावत्कृतत्वे च साध्यमाने सिद्धसाधनम्। युक्तायुक्तत्वविचारोणपुंसग शब्द) अथ बुद्धिमान् चेतनावान् वा विशिष्ट एवेश्वरः कश्चित्साध्यते तेन न इसिसेह-पुं०(ऋषिश्रेष्ठ) मुनिश्रेष्ठ, सिद्धसाधनं तर्हि दृष्टान्तस्य साध्यविकलता वास्यादौ घटादौ जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु / चेश्वरस्थाधिष्ठायकत्वेन कारणत्वेन वा व्याप्रियमाणस्याखत्तीणसेटे जह दंतवक्के, इसीण सेढे तह बद्धमाणे // नुपलभ्यमानत्वात् वर्द्धकिकुम्भकारादीनामेवंतत्रतत्रान्य-यव्यतिरेकता व्याप्रियमाणानां निश्चीयमानत्वात् / अथ वार्द्ध-क्यादयोपीश्वरप्रेरिता योधेषु मध्ये ज्ञातो विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वा हस्त्य एव तत्र तत्र कर्मणि प्रवर्तन्तेन स्वतस्ततोनदृष्टान्तस्य साध्यविकलता। श्वरथपदातिचतुरङ्ग बलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनश्चक्र नन्वेवं तर्हि ईश्वरोप्यन्येनेश्वरेण प्रेरितः स्वकर्मणि प्रवर्तते न स्वतो वर्ती यथाऽसौ प्रधानपुष्पेषु च मध्ये यथाऽरविंदप्रधानमाहुः तथा विशेषाभावात् सोऽप्यन्येनेश्वरेण प्रेरित इति विकालसंध्यायां तमः क्षतात्त्रायन्त इति क्षत्रियास्तेषां मध्ये दान्ता उपशान्तायस्य वाक्येनैव संततिरियादृष्ट पर्यन्तान्ध्यान्ध्यमापादयन्ती प्रसरत्यनबस्था / शत्रवः सदान्तवाक्यश्चक्रवर्ती / यथा ऽसौ श्रेष्ठः तदेवं बहून दृष्टान्तान् अथमन्येथा वर्द्धक्यादिको जन्तुः सर्वोपि स्वरूपेणाज्ञस्ततः सप्रेरित एव प्रशस्तान् प्रदाऽधुना भगवन्तं दार्शन्तिकं स्वनामग्राहमाह / तथा स्वकर्मणि प्रवर्तते भगवांस्त्वीश्वरःसकलपदार्थज्ञाता ततो नासौ ऋषीणां मध्ये श्रीमान् वर्द्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति // 22 / / सूत्र। 1 श्रु०६ अ०l स्वकर्मण्यन्यं स्वप्रेरकमपेक्षते तेन नानवस्था, तदप्यसत् इसु-पु.(इषु) शरे, सूचकत्वात् इषूपमया भिक्षा ग्रहणविध्यर्थक इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् तथाहि सकलपदार्थ यथावस्थितस्वरूपद्रुमपुष्पिकाध्ययने, "जह रहितो अणुवउत्तो इसुणा लक्खं न विंधइ ज्ञातृत्वे सिद्ध सत्यन्याप्रेरितत्वसिद्धिः अन्याप्रेरितत्वसिद्धौ च तहेव। साधू गोयरपत्तो संजमलक्खंपि णायव्वो' दश०१ 0 सकलजगत्कारणयः सर्वज्ञत्वसिद्धि रित्येकासिद्धावन्यतरस्याप्यसिद्धिः। इस्स(ईस) र पुं.(ईश्वर) ईश्-वरच्-ईश् ऐश्वर्ये ऐश्वर्येण युक्त ईश्वरः। अपिच यद्यसौसर्वज्ञोवीतरागश्वतत्किमर्थमन्थं जनमसद्व्यवहारे प्रवर्तयति नि.चू.९ अ। ईश्वरश्च अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्ते क्लेशकर्मविपाकाशयै- मध्यस्था हि विवेकिनः सद्व्यवहार एव प्रवर्तयन्ति नासद्व्यवहारे, सतु रपरामृष्ट सर्वजगत्कारके पुरुष विशेषे, " अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर विपर्ययमपि करोति ततः कथमसौ सर्वज्ञोवीतरागो वा / अथोच्यते इत्येक" / जीवा०३ प्रति। स्था०। आचा। अनु०॥ "तथा च पतञ्जलिः। सद्व्यवहारविषयमेव भगवानुपदेशं ददाति तेन सर्वज्ञो वीतरागश्च क्लेशकर्मविपाकाशयैर-परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर इति। सम्मा द्वा०। यश्चाधर्मकारिजनसमूहः तंफलमसदनुभावयति येन स तस्मादधर्माव्याईश्वरवादिनश्च सर्वं जगदीश्वरकृतं मन्यन्ते ईश्वरं च सह सिद्धं वर्तते तत उचि तफलदायित्वाद्विवेकवानेव भगवानिति न कश्चिद्दोषः ज्ञानवैराग्यधर्मेश्वर्य्यरूपंचतुष्टयं प्राणिनां चस्वर्गापवर्गयोः प्रेरकमिति तपप्यसमीक्षिताभिधानं यतः पापेपि प्रथमं स एव वर्तयति नान्यो न च तदुक्तं "ज्ञानमप्रतिघंयस्य, वैराग्यंचजगत्पतेः। ऐश्वर्य चैवधर्मश्च सहि स्वयं प्रवर्तते तस्याज्ञत्वेन पापे धर्मे वा स्वयं प्रवृत्तेरयोगात्ततः पुर्व पापे सिद्धं चतुष्टयम्" |1|| अज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मनः सुखदुःखयोः / प्रवर्तयते तत्फलमनुभाव्य पश्चाद्धर्मे प्रवर्तयतीति के यमीश्वरस्य ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा / / 2 / / तदसमीचीनम् / प्रेक्षापूर्वकारिता / अथ पापे ऽपि प्रथम प्रवर्तयति तत्कर्माधिष्ठित एव ईश्वरग्राहकप्रमाणाभावात् / अथास्ति तद्ग्राहकप्रमाणमनुमानम् / तथाहि तदेवं तेन जन्तुना कृतं कर्म यदशात्पाप एव प्रवर्यंत ईश्वरोपिच तथाहि यत् स्थित्वाऽभिमतफल संपादनाय प्रवर्तते भगवान् सर्वज्ञः तथा रूपं तत्कर्म साक्षात् ज्ञात्वा तं पाप एव प्रवर्त्त यति तद्बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं यथा वास्या द्वैधीकरणादौ प्रवर्तते च स्थित्वा तत उचितफलदायित्वान्नाप्रेक्षा-पूर्वकारीति। ननुतदपि कर्म तेनैव कारितं सकलमपि विश्व स्वफलसाधनायेति नखलुवास्यादयः स्वत एव प्रवर्तन्ते ततस्तदपि कस्मात्प्रथमं कारयतीति स एवाप्रेक्षापूर्वकारिताप्रसङ्गः तेषामचेतनत्वान् स्वभावत्एव चेत् प्रवर्तन्तेतर्हि सदैव तेषां प्रवर्तनं भवेत् अथाधर्ममसौ न कारयति किंतु स्वत एव सोऽधर्मामाचरति / न च भवति तस्य स्थित्वा स्थित्वा प्रवर्तनं केनचित्प्रेक्षावता प्रवर्तकन अधर्मकारिणं तु तत्तत्फलमसदनुभावयति तदन्येश्वरवत् / यथाहि भवितव्य सकलस्यापि च जगतः स्थित्वा स्थित्वा स्वफलं साधयतः तदन्ये श्वरराजादयो नाम धर्म जनं प्रवर्तयन्ति अधर्मफलं तु प्रवर्तक ईश्वर एवोपपद्यते नान्यः इतश्विरसिद्धिः / तथा अपरमनुमानं प्रेक्षादिकमनुभावयन्ति तद्वद्भगवानीश्वरोपि, तदप्पुयक्तमन्येहीश्वराः यत्पारिमाण्डल्यादिलक्षणसन्निवेशाविशेषभाक् तच्चेतनावता कृतं यथा पापप्रतिषेधं कारयितुमीशाः नहि नाम राजानोपि उग्रशासनाः पापे घटादिपारिमाण्डल्यादिस-निवेशविशषभाक् भूभूधरादिकमपि मनोवाक्कायनिमित्ते सर्वथा प्रतिषेधयितुं प्रभविष्णवः स तु भगवान् तदेतदयुक्तं सिद्धसाधनेन पक्षस्य प्रसिद्धसंबन्धत्वात्तथाहि सकलमपीदं धर्माधर्मविधिप्रतिषेधविधापनसमर्थ इष्यते तत्कथं पापे प्रवृत्तं न विश्ववैचित्र्यं कर्मनिबन्धनमिच्छाओ यतोऽमी वैताळ्यहिमवदादयः पर्वता प्रतिषेधयति अप्रतिषेधश्च परमार्थतः स एव कारयति तत्फलस्य भरतैरावतविदेहान्तरद्वीपादीनि च क्षेत्राणि तथा तथा प्राणिनां पश्चादनुभावनादिति तदवस्थ एव दोषः / अथ पापे प्रवर्तमानं सुखदुःखादिहेतुतया यत्परिणमन्ते तत्र तथा तथा परिणामने / प्रतिषेधितुमशक्त इष्यते तर्हि नैवोक्ककै रिदमभिधातव्यं सर्व Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 665 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर मीश्वरेण कृतमिति / अपिच यद्यसौ स्वयमधर्म करोति तथा धर्ममपि करिष्यति फलं च स्वयमेव भोक्ष्यन्ते ततः किमीश्वर कल्पनया विधेयमिति। उक्तचं "अशक्तयाऽन्येश्वराः पाप-प्रतिषेधं न कुर्वते। स त्वत्यन्तमशक्तेभ्यो, व्यावृत्तमतिरिष्यते१ अथाप्यशक्त एवासौ, तथा सति परिस्फुटम् / नेश्वरेण कृतं सर्वमिति वक्तव्यमुचकैः / / 2 / / पापवत्स्वार्थकारित्वात् धर्मादिरपि किं तत" इति / अथ बुवीथाः स्वयमसौ धर्माधर्मा करोति तत्फलं त्वीश्वर एव भोजयति तस्य धर्माधर्मफलभोगे स्वयमशक्तत्वादिति, तदप्यसत् यतो यो नाम स्वयं धर्माधर्मी विधातुमलं स कथं तत्फलं स्वयमेव न भोक्तुमीशो नहि पक्तुमोदनं समर्थो नहि भोतुमिति लोके प्रतीतम्। अथवा भवत्वेतदपि तथापि धर्मफलमुन्मत्त-देवाङ्गनासंस्पर्शादिरूपमनुभावयतु तस्येष्टत्वादधर्मफलं तु नरकप्रयातादिरूपं कस्मादनुभावयति नहि मध्यस्थभाव-मषलम्बमानाः परमकरुणापरीतचेतसः प्रेक्षावन्तो निरर्थक परपीडाहेतौ कर्मणि प्रवर्तन्ते क्रीडार्था भगवतः तथा प्रवृत्तिरिति चेत् यद्येवंतर्हि कथमसौ प्रेक्षावान्तस्य हि प्रवर्तने क्रीडामात्रमेव फलं ते पुनः प्राणिनः स्थाने स्थाने प्राणैर्वियुज्यन्ते / उक्तचं 'क्रीडार्था तस्य वृत्तिश्चेत्प्रेक्षापूर्वक्रिया कुतः। एकस्य क्षणिका तृप्तिः, अन्यः प्राणैर्वियुज्यते // 21 // " अपिच क्रीडा लोके सरागस्योपलभ्यते भगवांश्च वीतरागस्ततः कथं तस्य क्रीडा सङ्गतिमङ्गति / अथ सोपि सराग इष्यते तर्हि शेषजन्तुरिवावीतरागत्वान्न सर्वज्ञो नापि सर्वस्य कर्तेत्यापतितम् / अथ रागादिकृतोऽपि स सर्वज्ञः सर्वस्य कर्ता च भवति तथा स्वभावत्वात् ततो न कश्चिद्दोषो नहि स्वभावे पर्यनुयोगो घटनामुपपद्यते / उक्तचं / "इदमेवं नवेत्येतत्, कस्य पर्यनुयोज्यताम्। अग्निर्दहति नाकाशं, कोत्र पर्यनुयोज्यताम्" / / तदेतदसम्यक् यतः प्रत्यक्षतः तथारूपे स्वभावेच गते यदि पर्यनुयोगो विधीयते तत्रेदमुत्तरं विजृम्भते / यथा स्वभावे पर्यनुयोगो भवतीति यथा प्रत्यक्षेणोपलभ्यमाने वहेर्दाह्यं दहतो दाहकत्वरूपे स्वभावे, तथाहि यदि तत्र कोपि पर्य्यनुयोगमाधत्ते यथा कथमेष वह्रिाहकस्वभावो जातो यदि वस्तुत्वेन तर्हि व्योमादिकं न दाहकस्वभावं भवति वस्तुत्वादविशेषादिति तत्रेदमुत्तरं विधीयते दाहकत्वरूपो हि स्वभावो वः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यते ततः कथमेष पर्यनुयोगगमर्हति न हि दृष्टे ऽनुपपन्नता नाम तथा चोक्तम् / स्वभावोऽध्यक्षतः सिद्धेर्यदि पर्यनुयुज्यते / तत्रेदमुत्तरं वाच्यं, न दृष्टे नुपपन्नता / / 9 / / ईश्वरस्तु सर्वजगत्कर्तृत्वेन सर्वज्ञत्वेन च नोपलब्धस्ततस्तत्र तथास्वभावत्वकल्पनादवश्यं पर्यनुयोगमाश्रयते। यदि पुनरदृष्टपि तथा स्वभावत्वकल्पनापर्यनुयोगानाश्रयोभ्युपगम्यते तर्हिसर्वोपि वादी तं तं पक्षमाश्रयन् परेण विक्षोभितस्तत्र तत्र तथा तथा स्वभावताकल्पनेन परं निरुत्तरीकृत्य लब्धजयपत्ताक एव भवेत्।। उक्तंच / अन्यथा "यत्किचिदात्माभिमतं विधाय, निरुत्तरस्तत्र कृतः परेण // वस्तुस्वभावैरिति वाच्यमित्थं, तदुत्तरः स्थाद्विजयी समस्तः // किंच॥ सर्वं यदि जगदीश्वरकृतं मन्यते तर्हि सर्वाण्यपि शास्त्राणि सकलदर्शनगतानि तेन प्रवर्तितानीति प्राप्तं तानि च शास्त्राणि परस्परं विरुद्धार्थानि ततो वश्यं कानिचित्सत्यानि कानि-चिदसत्यानि ततः सत्यासत्योपदेशदानात्कथमसौ प्रमाणम् / उक्तंच / "शास्त्रान्तराणि सर्वाणि यदीश्वरविकल्पतः।। सत्यासत्योपदेशस्य,प्रमाणंदानतः कथम् ||1|| अथ सकलानि शास्त्राणि ईश्वरकारितानि किंतु सत्यान्येव ततोन कश्चि-दोषावकाशस्तर्हि शास्त्रान्तरवदेव नरेश्वरेणान्यदपि व्यधायीति हता तव पक्षसिद्धिरिति / अन्यच यादृग्भूतं संस्थानादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेनोपलब्धं तादृग्भूतमेवान्यत्रापि बुद्धिमन्तमात्मनो हेतुमनुमापयति यथा जीर्णदेवकुलकूपादिगतं न शेषं नहि सन्ध्याभ्ररागवल्मीकादिगतं संस्थानाद्यात्मनो बुद्धिमन्तं कर्तारमनुमापयति तथा प्रतीतेरभावात् तद्गतस्य संस्थानादेबुद्धिमत्कारणत्वेन निश्चया भावात् तथा भूभूधरादिगतमपि संस्थानादिकं न बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन निश्चितमिति कथं तद्वशागुद्धिमतः कर्तुरनुमानम् / अथ मन्येथास्तदपि संस्थानादि तादृग्भूतमेव संस्थानादिशब्दवाच्यत्वात् नचैवं तत्कर्तुर्बुद्धि-मतोऽनुमाने काञ्चिदपि बाधामुपलभामहे ततः सर्वं सुस्थितमिति तदयुक्तं शब्दादिरूढवशाजात्यन्तरेपि प्रवर्तन्ते ततः शब्दसाम्यात् / यदि तथारूपवस्त्वनुमानं तर्हि गोत्वाच्छागादीनामपि विषाणितामनुमीयतां विशेषाभावात् / अथ तत्र प्रत्यक्षेण बाधोपलभ्यते ईश्वरानुमानेन ततो न कश्चिद्दोष इति तदेतदतीव प्रमाणमार्गानभिज्ञातासूचकं यतो यत एवं तत्र प्रत्यक्षेण बाधोपलम्भोऽत एव नान्यत्रापि शब्दसाम्यात्तथारूपवस्त्वनुमानं कर्तव्यं प्रत्यक्षत एव शब्दसाम्यस्य वस्तुतथारूप्येण सहाविनाभावित्वस्याभावावगमात् / न च बाधकमत्र नोपलभ्यते इत्येवानुमानं प्रवर्तते किंतु वस्तुसंबन्धबलात् तथाचोक्तम् "ननु बाध्यत इत्येव-मनुमानं प्रवर्तते॥संबन्धदर्शनात् तस्य प्रवर्तन मिहेष्यते" इति सच संबन्धोऽत्र न विद्यते तद् ग्राहक प्रमाणाभावात् ततोऽनैकान्तकता हेतोरित्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमन्यथा यो यो मृद्विकारः स स कुम्भकृतो यथा घटादिम॒द्विकारश्वायं वल्मी-कस्तस्मात्कुम्भकारकृत इत्यप्यनुमानं समीचीनतामाचनीस्कद्येत बाधकमात्रादर्शनात् / तथाहि यदि तत्र कुम्भकारः कर्ता भवेत्तर्हि कदाचिदुपलभ्येत न चोपलभ्यते तस्मादेव तदयुक्तमिति तदेतदीश्वरानुमानेपि समानम्॥ यदि हि सर्वस्यापि वस्तुजातस्येश्वरः कर्ता क्वचित्कदाचिदुपलभ्येत न चोपलभ्यते तस्मादप्यलीकमिति कृतं प्रसङ्गेन। नंता अथ तदभिमतभीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगम मिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपयन्नाह / / कर्तास्ति कश्चिज्जगतः सचैकः, स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः / इमाः कुहेवाक विडम्बनाःस्यु-स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् / / 6 / / जगतः प्रत्यक्षादि प्रमाणोपलक्ष्यमाणचराचररूपस्य विश्वत्रयस्य कश्चिदनिर्वचनीयस्वरूपः पुरुषविशेषः कर्ता स्रष्टाऽस्ति विद्यते / तेहीत्थं प्रमाणयन्ति उर्वीपर्वततर्वादिकं सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं कार्यत्वाद्यद्यत्कार्यं तत्तत्सर्वं बुद्धिमत्कर्तृकं यथा घटस्तथाचेदं तस्मात्तथा / व्यतिरेके व्योमादि / यश्च बुद्धिमांस्तत्कर्ता स भगवानीश्वर एवेति / नचायमसिद्धो हेतुर्यतो भूभूधरादेः स्वस्वकारणकलापजन्यतया अवयवितया वा कार्यत्वं सर्ववादिनां प्रतीतमेव। नाप्यनैकान्तिको विरुद्धो वा विपक्षादत्यन्त-व्यावृत्तत्वात् / नापि कालात्ययापदिष्ट प्रत्यक्षानुमानागमाबाधित धर्मधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वात् / नापि प्रकरणसमः तत्प्रतिपन्थिधर्मो पपादनसमर्थ प्रत्यनुमानाभावात् / न च वाच्यमीश्वरः पृथ्वीपृथ्वीधरादेर्विधातो न भवति अशरीरित्वान्निर्वृत्तान्मवदिति प्रत्यनुमानं तदाधकामिति Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर ६६६अमिधानराजेन्द्रः भाग२ यतोऽवेश्वररूपो धर्मी प्रतीतोऽप्रतीतो वा प्ररूपितः / न तावदप्रतीतो हेतोराश्रयासिद्धिप्रसङ्गात / प्रतीतश्चेद्येन प्रमाणेन स प्रतीतस्तेनैव किं स्वयमुत्पादितं स्वतनुर्न प्रतीयते इत्यतः कथमशरीरत्वं तस्मान्निरवद्य एवार्य हेतुरिति। सचैक इतिचः पुनरर्थेस पुनः पुरुषविशेष एकोऽद्वितीयः बहूनां हि विश्व-विधातृत्वस्वीकारे परस्परविमतसंभावनाया अनिवार्यत्वादेकै कस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया निर्माणे सर्वमसमसञ्जसमापद्येतेति तथा (स सर्वग इति) सर्वत्र गच्छतीति सर्वगः सर्वव्यापि तस्य हि प्रतिनियतदेशवर्तित्वेऽनियतदेशवृत्तीनां विश्वत्रयान्तर्वर्तिपदार्थसार्थानां यथावन्निर्माणानुपपत्तिः कुम्भकारादिषु तथा दर्शनात् / अथवा सर्व गच्छतिजानातीति सर्वगः सर्वज्ञः सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात् सर्वज्ञत्वाभावे हि यथोचितोपादानकारणाद्यनभिज्ञत्वादनुरूपकार्योत्पत्तिर्नस्यात्।तथा सस्ववशः स्वतन्त्रः सकलप्राणिनां स्वेच्छया सुखदुःखयोनुभावनसमर्थत्वात्तथा चोक्तम् "ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेववा, अज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मनः सुखदुःखयोरिति" पारतन्त्र्येतुतस्य परमुखप्रेक्षितया मुख्यकर्तृत्वव्याघा-तादनीश्वरत्वापत्तिः / तथा (स नित्य इति) अप्रच्युतानु-त्पन्नस्थिरैकरूपस्तस्य ह्यनित्यत्वे परोत्पाद्यतया कृतकत्व प्राप्तिः। अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः स्वभावनिष्पत्तौ कृतक इत्युच्यते यश्चापरस्तत्कर्ता कल्प्यते स नित्योऽनित्योवा स्थान्नित्यश्चदेधिकृतेश्वरेण किमपराद्धम् / अनित्यश्चेत्तस्या प्युत्पादकान्तरेण भाव्यं तस्यापि नित्यानित्यत्वविकल्पकल्पनायामनवस्थादौस्थ्यमिति तदेवमेकत्वादिविशेषणविशिष्टो भगवानीश्वरस्त्रिजगत्कर्ते ति पराभ्युपगममुपदोत्तरार्द्धन तस्य दुष्टत्वमाचष्टे / इमा एता अनन्तरोक्ताः कुहेवाकविडम्बनाः कुत्सिताः हेवाका आग्रहविशेषाः कुहेवाकाः कदाग्रहा इत्यर्थः त एव विडम्वना विचारचातुरीबाह्यत्वेन तिरस्काररूपत्वाद्धिगोप-कप्रकारा स्युर्भवेयुस्तेषां प्रामाणिकापसदानां येषां हे स्वामिन्! त्वं नानुशासकोन शिक्षादाता तदभिनिवेशानां विडम्बनारूपत्वज्ञापनार्थमेव पराभिप्रेतपुरुषविशेषणेषु प्रत्येकं तत्तच्छब्दप्रयोगमसूयागर्भमाविर्भावयांचकार स्तुतिकारः। तथाचैवमेव निन्दनीयं प्रति वक्तारो वदन्ति "स मूर्खः स पापीयान् स दरिद्रः इत्यादि" त्वमित्येकवचनसंयुक्तयुष्मच्छब्दप्रयोगेण परेशितुः परमकारुणिकतयाऽनपेक्षितस्वपर पक्षविभागमितरशास्त्रिणामसाधारणमद्वितीयं हितोपदेशकत्वं ध्वन्यते / अतोऽत्रायमाशयो यद्यपि भगवान् विशेषेण सकलजगज्जन्तुजाते हितावहां सर्वेभ्य एव देशनावाचमाचष्टे तथापि सैव केषांचिन्निचितनिकाचितपापकर्मकलुषितात्मनांरुचिरूपतया नपरिणमते अपुनर्बन्धकादिव्यतिरिक्तत्वेनायोग्यत्वात्तथाच कादम्बर्यां बाणोपि बभाण "अपगतमले हिमनसि स्फटि-कमणाविव रजनिकरगभस्तयो विशन्ति सुखमुपदेशगणा गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति / श्रवणस्थित शूलमभव्यस्येति" यतो वस्तुवृत्त्या न तेषां भगवाननुशासक इति / नचैतावता जगद्गुरोरसामर्थ्यसंभावना, नहि कालदष्टमनुज्जीवयन् समुज्जीवितेतरदष्टको विषभिषगुपालम्भनीयोऽतिप्रसङ्गात्। स हि तेषामेव दोषः / न खलु निखिलभुवनाभोगमवभासयन्तोपि भानवीया भानवः कौशिकलोकस्यालोकहेतुतामभजमाना उपालम्भसंभावनास्पदम् तथा च श्रीसिद्धसेनः "सद्धर्भबीज-वपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभून् / तन्नाद्भूतंखगकुलेष्विह तामसेषु सूर्यांशवो | मधुकरीचरणावदाताः ||1|| अथ कथमिव तत्कु हे वाकानां विडम्बनारूपत्वमिति ब्रूमः यत्तावदुक्तं परैः "क्षित्यादयो बुद्धिमत्कर्तृकाः कार्यत्वात् घटबदिति तदयुक्तं व्याप्तेरग्रहणात्। साधानं हि सर्वत्र व्याप्ती प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गमयेदिति सर्ववादिसंवादः / स चायं जगन्ति सृजन सशरीरोऽशरीरो वा स्यात् सशरीरोपि किमस्मदादियदृश्यशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिवददृश्य-शरीरविशिष्टः / प्रथमपक्षे पत्यक्षबाधस्तमन्तरेणापि च जायमाने तृणतरुपुरन्दरधनुभ्रादौ कार्यत्वस्य दर्शनात् / प्रमेयत्वादिवत्साधारणानैकान्तिको हेतुः / द्वितीयविकल्पे पुनरदृश्यशरीरत्वे तस्य माहात्म्यविशेषः कारणमाहोस्विदस्मदाद्यदृष्टवैगुण्यम्। प्रथमप्रकारः कोशपानप्रत्यायनीयः तत्सिद्धी प्रमाणाभावात् / इतरेतराश्रयदोषापत्तेश्च / सिद्धे हि माहात्म्यविशेषे तस्या-दृश्यशरीरत्वं प्रत्येतव्यं तत्सिद्धौ च माहात्म्यविशेषसिद्धिरिति। द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संवरत्येव विचारगोचरे संशयाऽनिवृत्तेः / किं तस्यासत्वाददृश्यशरीरत्वं बान्ध्येयादिवतृ किंवाऽस्मदाधदृष्टवैगुण्यात्पिशाचादिवदिति निश्चयाभावात्। अशरीरश्चेत्तदा दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्याद्विरुद्धो हेतुः / घटादयो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका दृष्टा अशरीरस्य च सतस्तस्य कार्यप्रवृत्तौ कुतः सामर्थ्यमाकाशादिवत् / तस्मात्सशरीराशरीरलक्षणे पक्षद्वयेपि कार्यत्वहेतोाप्त्यसिद्धिः। किंच त्वन्मतेन् कालात्ययापदिष्ठोष्ययं हेतुः धर्येकदेशस्य तरुविधुदभ्रादेरिदा-नीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यक्षबाधितधर्म्यनन्तरहेतुभणनात्तदेवं न कश्चिजगतः कर्ता / एकत्वादीनि तु जगत्कर्तृत्वव्यवस्थापनायानीयमानानि तद्विशेषणानि षण्डं प्रति कामिन्या रूपसंपनिरूपणप्रायाण्येव तथापि तेषां विचारासहत्वख्यापनार्थं किंचिदुच्य तेत्रैकत्वचर्चस्तावत्बहूनामेक-कार्यकरणे वैमत्यसंभावनेति नायमेकान्तः / अनेककीटिकाशतनिष्पाद्यत्वेपि शक्रमोऽनेकशिल्पिकल्पितत्वेपि प्रासादादीनां नैकसरघानिर्वतितत्वेपि मधुच्छत्रादीनां चैकरूपताया अविगानेनोपलम्भात् / अथैतेष्वप्येकएवेश्वरः कर्तेतिब्रूषे एवं चेद्भवतो भवानीपतिप्रति निष्प्रतिमा वासना तर्हि कविन्द्र-कुम्भकारादितिरस्कारेण पटधटादीनामपि कर्ता स एव किं न कल्प्यते। अथ तेषां प्रत्यक्षसिद्धं कर्तृत्वं कथमपह्रोतुं शक्यं तर्हि कीटिकादिभिः किं तव विराद्धं यत्तेषामसदृशतादृशप्रयाससाध्यं कर्तत्वमेकहेलयैवापलप्यतेतस्माद्वैमत्येभयान्म-हेशितुरेकत्वकल्पनाभोजनादिव्ययभयात्कृपणस्यात्यन्तवल्लभपुत्रकलत्रादिपरित्यजनेन शुन्यारण्यानी सेवनमिव / तथा सर्वगतत्वमपि तस्य नोपपन्नं तद्धि शरीरात्मना ज्ञानात्मना वां स्यात्। प्रथमपक्षे तदीयेनैव देहेन जगत्रयस्य व्याप्तत्वादितर-निर्मेयपदार्थानामाश्रयानवकाशः / द्वितीयपक्षे तु सिद्धसाध्यताऽस्माभिरपि निरतिशयज्ञानात्मना परमपुरुषस्य जगत्रयक्रोडी-करणाभ्युपगमात्। यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन विरोधः / तत्र हि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम् / "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पादिति श्रुतेः" यचोक्तम्। तस्य प्रतिनियतदेशवर्तित्वंत्रिभुवनगतपदार्थानामनियतदेशवृत्तीनां यथावन्निर्माणानुपपत्तिरिति / तत्रेदं पृच्छ्यते स जगत्रयं निर्मिमाणस्तक्षादिवत्साक्षाद्देहव्यापारेण निर्मिमीते यदि वा संकल्पमात्रेण / आद्ये पक्षे एकस्यैवभूभूधरादेर्विधानेऽक्षोदीयसः कालक्षेपस्य संभवाग्रहीयसाप्यनेहसान परिसमाप्तिः। द्वितीयपक्षे तु सकल्पमात्रेणैव Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 667 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर उचितकार्यकल्पनायां नियतदेशस्थायित्वेपि न किंचिद्दषण-मुत्पश्यामः नियमदेशस्थायिनां सामान्यदेवानामपि संकल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसंपादनप्रतिपत्तेः / / किंच तस्य सर्वगतत्वेङ्गीक्रियमाणेऽशुचिषु निरन्तरसन्तमसेषु नरकादिस्थानेष्वपि तस्य वृत्तिः प्रसज्यते तथाचानिष्टापत्तिः / अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदाज्ञानात्मना सर्वजगत्रयं व्यापोतीत्युच्यते / तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपलम्भसंभावनान्नारकादिदुःखस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसङ्गाचानिष्टा-पत्तिस्तुल्यैवेति चेत्तदेतदुपपत्तिभिः प्रतिकर्तृमशक्तस्य धूलिभिरेवावकरणं यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थलस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति न पुनस्तत्र गत्वा तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः। तर्हि भवतोप्यशुचिज्ञानमात्रेण तद्रसास्वादानुभूतिस्तद्भावे हि सक्चन्दनाङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रेणैव तृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयत्नवैफल्यप्रसक्तिरिति / यत्तु ज्ञानात्मना सर्वगतत्वे सिद्धसाधनं प्रागुक्तं तच्छक्ति मात्रमपेक्ष्य मन्तव्यं तथाच वक्तारो भवन्ति / "अस्य मतिः सर्वशास्त्रेषु प्रसरति इति" | न च ज्ञानं प्राप्यकारि तस्यात्मधर्मत्वेन बहिर्निर्गमाभावाबहिर्निर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्त्याऽजीवत्सप्रसङ्गान्नाहि धर्मो धर्मिणमतिरिच्य वचन केवलो विलोकितः / यञ्च परे दृष्टान्तयन्ति "यथा सूर्यस्य किरणा गुणरूपा अपि सूर्यान्निष्क्रम्य भुवनं भासयन्त्येवं ज्ञानमप्यात्मनः सकाशाद्वहिर्निर्गत्य प्रमेयं परिच्छिनत्तीति" तत्रेदमुत्तरं किरणानां गुणत्वमसिद्धं तेषां तैजसपुगलमयत्वेन द्रव्यत्वात्। यश्च तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग्भवतीति। तथाच धर्मसंग्रहण्यां श्रीहरिभद्राचार्यपादाः "किरणा गुणा नदव्वं, तेसिं पयासो गुणो न वा दव्वं! जं नाणं आयगुणो, कहमदव्यो स अन्नत्थ१" गंतूण नपरिछिदइ, नाणं नेयं तयम्मिदेसम्मि। आयत्थम्मि य नवरं, अचिंतसत्तीउ विन्नेयं ॥२शा लोहोवलस्स सत्ती, आयत्था चेव भिन्नदेसम्मि। लोहं आगरिसंती दीसइ इह कज्जपचक्खा // 3 / / एवमिह नाणसत्ती, आयत्था चेव हंदिलोग तं। जइपरिछिंदइ सव्वं, कोणु विरोहो भवे तत्थ' ||4|| इत्यादि अथ सर्वगः सर्वज्ञः इति व्याख्यानं तत्रापि प्रतिविधियते। ननु तस्य सार्वज्ञयं केन प्रमाणेन गृहीतं प्रत्यक्षेण परोक्षण वा / न तावत्प्रत्यक्षेण तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नतयाऽ तीन्द्रियग्रहणासामर्थ्यात् / नापि परोक्षेण तद्धि अनुमानं शाब्दं वा स्यात् / न तावदनुमानं तस्य लिङ्गग्रहणं लिङ्गि लिङ्गसंबन्ध-स्मरणपुर्वकत्वान्न च तस्य सर्वज्ञत्वेऽनुमेयं किंचिदव्यभिचारि-लिङ्गं पश्यामस्तस्याऽ-- त्यन्ताविप्रकृष्टत्वेन तत्प्रतिबद्धलिङ्गसंबन्ध-ग्रहणाभावात्। अथ तस्य सर्वज्ञत्वं विनाजगद्वैचित्र्यमनुपपद्यमानं सर्वज्ञत्वमर्थादापाययतीति चेन्न अविनाभावा ऽभावात् / न हि जगद्वैचित्री तत्सार्वयं विनाऽन्यथा नोपपन्ना / द्विविधं हि जगत् स्थावरजङ्गमभेदात्तत्र जङ्गमानां वैचित्र्यं स्वोपात्तशुभा शुभ-कर्मपरिपाकवशेनैव / स्थावराणां तु सचेतनानामियमेव गतिः अचेतनानां तु तदुपभोगयोग्यतासाधनत्वेनानादिकालसिद्धमेव वैचित्र्यमिति / नाप्यागमस्तत्साधकः / सहि तत्कृतोऽन्यकृतो वा स्यात् / तत्कृत एव चेत्तस्य सर्वज्ञतां साधयति / तदा तस्य महत्त्वक्षतिः स्वयमेव स्वगुणोत्कीर्तनस्य महतामनधिकृतत्वात्।अन्यच तस्य शास्त्रकर्तृत्वमेव नयुज्यते।शास्त्रं हि वर्णात्मकम्। तेच ताल्वादिव्यापारजन्याः। सचशरीर एव सम्भवी। शरीराऽन्युपगमे च तस्य पूर्वोक्ता एष दोषाः / अन्यकृतश्चेत्सोऽन्यः सर्वज्ञोऽसर्वज्ञो वा। | सर्वज्ञत्वे तस्य द्वैतापत्त्या प्रागुक्त-तदेकत्वाभ्युपगमबाधः / तत्साधकप्रमाणचर्चायामनवस्थापातश्च / असर्वज्ञश्चेत् कस्तस्य वचसि विश्वासः अपरं च भवदभीष्ट आगमः प्रत्युत तत्प्रणेतुरसर्वज्ञत्वमेव साधयति पूर्वाऽपर-विरुद्धाऽर्थवचनोपेतत्वात् / तथाहि "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" इति प्रथममुक्त्वा पश्चात्तत्रैव पठितम् 'षट्शतानि नियुज्यन्ते पशुनां मध्यमे ऽहनि / अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः / " तथा "अग्नीषोमीयं पशुमालभेत'' सप्तदश प्राजापत्यान् पशूनालभेत" इत्यादिवचनानि कथमिव न पूर्वापरविरोधमनुरुध्यन्ते। तथा 'नानृतंब्रूयात्' इत्यादिनाऽनृतभाषणं प्रथमं निषिध्य पश्चाद् "ब्राह्मणा-र्थेऽनूतं ब्रूयादित्यादि" तथा "ननर्मयुक्त वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चाऽनृ-तान्याहुरपातकानि ||1|| तथा "परद्रव्याणि लोष्ठवत्" इत्यादिना अदत्तादानमनेकधा निरस्य पश्चादुक्तं "यद्यपि ब्राह्मणो हठेन परकीयमादत्ते छलेन वा, तथापि तस्य नाऽदत्तादानम्। यतः सर्वमिदं ब्राह्मणेभ्यो दत्तम् / ब्राह्मणानां तु दौर्बल्यावृषलाः परिभुञ्जते तस्मादपहरन् ब्राह्मणः स्वमादत्तेस्वमेव ब्राह्मणो भुड़े वस्ते स्वं ददातीति। तथा "अपुत्रस्य गतिनास्ति' इति लपित्वाऽनेकानि सहस्राणि कुमारा ब्रह्मचारिणां दिवंगतानि विप्राणामकृत्वा कुल संतति, मित्यादि कियन्तो वादधिमाषभोजनात्कृपणा विवेच्य-न्ते। तदेवमागमोपि न तस्य सर्वज्ञता वक्ति / किं च सर्वज्ञः सन्नसौ चराचरं चेद्विरचयति तदा जगदुपप्लवकरणस्वैरिणः पश्चादपि कर्त्तव्यनिग्रहान् सुरवैरिण एतदधिक्षेपकारिणश्चास्मदादीन् किमर्थं सृजतीति तन्नायं सर्वज्ञः। तथा स्ववशत्वं स्वातन्त्र्यं तदपि तस्य न क्षोदक्षमम्। स हि यदि नाम स्वाधीनः सन् विश्वं विधत्ते परमकारुणिकश्च त्वयावर्ण्यते तत्कथं सुखितदुःखिताद्यवस्थाभेदवृन्दस्थपुटित घटयति भुवनमेकान्तशर्मसंपत्कान्तमेव तु किं न निर्मिमीते / अथ जन्मान्तरोपार्जिततत्तदीयशुभाशुभकर्मप्रेरितः संस्तथा करोतीति दत्तस्तर्हि स्ववशत्वाय जलाञ्जलिः / कर्मजन्ये च त्रिभुवनवैचित्र्ये विशिष्ट हेतुक विठपसृष्टिकल्पनायाः कष्टकफलत्वादस्मन्मतमेवाङ्गीकृतंप्रेक्षा-वता। तथा चायातोऽयं "घटकुट्यां प्रभातमिति' न्यायः / किंच प्राणिनां धर्माधर्मावपेक्षमाणश्चेदयं सृजति प्राप्तं तर्हि यदयमपेक्षते तन्न करोति इति / नहि कुलालो दण्डादि करोति एवं कर्मा-पेक्षश्चेदीश्वरोजगत्कारणं स्यान्नहि कर्मणीश्वरोऽनीश्वरःस्यादिति। तथा नित्यत्वमपि तस्य स्वगृह एव प्रणिगद्यमानं हृद्यम् / स खलु नित्यत्वेनैकरूपः सन् त्रिभुवनसर्गस्वभावोऽतत्स्वभावो वा प्रथमविधायां जगन्निर्माणात् कदाचिदपिनोपरमेत। तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः। एवं च सर्गक्रियायाः अपर्यवसानादेकस्या-पि कार्यस्य न सृष्टिः / घटो हि स्वारम्भक्षणादारभ्यापरिसमाप्ते रुपान्त्यक्षणं यावन्निश्वयनयाभिप्रायेण न घटव्यपदेश-मासादयति जलाहरणाद्यर्थ क्रियायामसाधकतमत्वात् / अत-त्स्वभावपक्षेतुनजातुजगन्ति सुजेत्तत्स्वभावायोगागमनवत्। अपिच तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वेसृष्टिरिव संहारोपिनघटतेनाना रूपकार्यकारणे नित्यत्वापत्तेः / स हि येनैव स्वभावेन जगन्ति सृजेत्तेनैव तानि संहरेत्स्वभावान्तरेण वा तेनैव चेत् सृष्टि-संहारयोर्योगपद्यप्रसङ्गः स्वभाषाभेदात्। एकस्वभावात्कारणादनेकस्वभावकार्योत्पत्तिविरोधाता स्वभावान्तरेण चेन्नित्यत्वहानिः / स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः / यथा Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 668 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहकृतस्य प्रत्यहमपूर्वापूर्वोत्पादेन स्वभावभेदादनित्यत्वम् / इष्टश्च भावानां सृष्टिसंहारयोः शम्भौ स्वभावभेदः / रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्विकतया च स्थिती, तस्य व्यापारस्वीकारात् एवं चावस्थाभेदस्तद्भेदे चावस्थावतोऽपि भेदान्नित्यत्वक्षतिः / अथास्तु नित्यस्तथापि स कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते / इच्छावशाच्चेन्ननु ता अपीच्छाः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलाभाः सदैव किं न प्रवर्तयतीति स एवोपालम्भः / तथा शम्भोरष्टगुणाधिकरणत्वे कार्यभेदाऽनुमेयानां तदिच्छानामपि विषमरूपत्वान्नित्यत्वहानिः केन निवार्यते इति / किंच प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्ता ततश्चायां जगत्सर्गेव्याप्रियते स्वात्किारुण्याद्वा न तावत्स्वार्थात्तस्य कृतकृत्यत्वात् / न च कारुण्यात्पर दुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यं ततः प्राक् सज्जिीवानामिन्द्रियशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेच्छाकारुण्यम् / सर्गोत्तरकाले तु दुःखिनोऽवलोक्य कारुण्याभ्युपगमे दुरुत्तरमितरेतराश्रयम् / कारुण्येन सृष्टिः सृष्ट्या च कारुण्यमिति / नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिध्यति तदेवमेवंविधदोषकलुषिते पुरुषविशेषे यस्तेषां सेवाहेवाकः स खलु केवलं बलवन्मोह विडम्बनापरिपाक इति। अत्र च यद्यपि मध्यवर्तिनो नकारस्य घण्टालोलान्यायेन योजनादर्थान्तरमपि स्फुरति यथा 'इमाः कुहेवाकविडम्बनास्तेषां न स्युर्येषां त्वमनुशासक इति' तथापि सोऽर्थः सहृदयैर्न हृदये धारणीयोऽन्ययोगव्यवच्छेदस्याधि-कृतत्वादिति काव्यार्थः। स्था०६श्लोका ईश्वरस्य जगदकर्तृव्यं यथा। उवगरणाभावाउ मिचेट्ठामुत्तयाइ उवावि। ईसरदेहारंभे वितुल्लया वा णवत्था वा / / नायमीश्वरःजीवादिरकशिरीरादिकार्याण्यारभते उपकरणाभावाद्दण्डाद्युपकरणरहितकुलालवत् / न च कर्म विना शरीराद्यारम्भिजीवादी नामन्यदुपकरणं घटते / गर्भाद्यवस्थास्वन्योपकरणासंभवाच्छु क्र शोणितादिग्रहणस्याप्यकर्मणोऽनुपपत्तेः / अथवा ऽन्यथा प्रयोगः क्रियते निश्चेष्टेत्यादिना कर्मशरीरा-द्यारभते निश्चेष्टत्वादाकाशवत्तथा ऽमूर्तत्वादादिशब्दादशरीर-त्वान्निष्क्रियत्वात्सर्वगतत्वादाकाशवदेव तथा एकत्वादेकपरमाणु व दित्यादि। अत्रोच्यते शरीरवानीश्वरः सर्वाण्यपि देहादिकार्याण्यारभते। नन्वीश्वरदेहारम्भोपि तर्हि तुल्यता पर्यनुयोगस्य तथाह्यकर्मा नारभते निजशरीरमीश्वरो निरुप-करणत्वाद्दण्डादिरहितकुलालवदिति / अथान्यः कोपीश्वरस्तच्छरीराम्भाय प्रवर्तते ततः सोपि शरीरवानशरीरो वा यद्यशरीरस्तर्हि नारभते निरुपकरणत्वादित्यादि सैव वक्तव्यता अथशरीरवान् तर्हि तच्छरीराम्भेपि तुल्यता सोप्यका निजशरीरं नारभते निरुपकरणत्वादित्यादि। अथ तच्छरीरमन्यः शरीर-वांस्तर्हि तच्छरीराम्भेपि तुल्यता नारभते ऽतस्तस्याप्यन्त इत्येवमनवस्था / अनिष्टं च सर्वमेतत्तस्मान्नेश्वरो देहादीनां कर्ता किंतु कर्म सद्वितीयो जीव एव निष्प्रयोजनश्चेश्वरो देहादीन् कुर्वन्नुन्मत्तकल्प एव स्यात् / सप्रयोजनकर्तृत्वे पुनरनीश्वरप्रसङ्गः / न चानादिशुद्धस्य देहादिकारणेच्छा युज्यते तस्याराग-विकल्परूपत्वात्। विशे। तथाच 'इणमन्नं तु अन्नणं, इहमेगेसि-आहियं / ईसरेण कडेलोए' इत्युपक्रग्य 'असोत्तत्तमकासीयं अयाणंतामुसंवहे' इत्युपसंजहार। सूत्र०१ श्रु.१ अ "ईश्वरकर्तृके सुखदुःखे अपि न भवतः यथासावीश्वरो मूर्तोऽ-मूर्तो वा / यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरूषस्येव सर्वकर्तृत्वाभावः / अथाऽमूर्तस्तथा सत्याकाशस्येव सुतरां निष्कियत्वम् / अपिच यद्यसौ रागादिमात्रस्ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेकाद्विश्वस्याकर्तव। यथासौ विगतरागस्तत स्तत्कृतं सुभगदुर्भगेश्वरदरिद्रादि जगद्वैचित्र्यम् न घटां प्राञ्चति ततो नेश्वरः कर्तेति। सूत्रों यथा कथंचिदीश्वरस्य कर्तृत्वं सूत्रकृताले प्रतिपादितम्। तथेश्वरोपि कर्ता आत्मैवहि तत्र तत्रोत्पत्तिद्वारेण सकलजगद्व्यापनादीश्वरः / तस्य सुखदुःखोत्पत्तिकर्तृत्वं सर्ववादिनामविगानेन सिद्धमेव। यचात्र मूर्तादिदूषणमुपन्यस्तं तदेवंभूतेश्वरसमाश्रयेण दूरोच्छेदितमेवेति।सूत्र.१ श्रु० अ०२ ऊा ऐश्वर्येण ज्ञानाद्यतिशयलक्षणेन युक्त ईश्वरः परमब्रह्मवादीनां मुक्ते-बौद्धानाम्बुद्धे अर्हतां जिने च। द्रा०१६ द्वा. यो. वि। तेषामीश्वरत्वं यथामहेशानुग्रहात्केचि-द्योगसिद्धिं प्रचक्षते। क्लेशाद्यैरपरामृष्टः पुंविशेषः स चेष्यते / / के चित्पातञ्जला महेशानुग्रहात् योगस्योक्तलक्षणस्य सिद्धिमयोगक्षेमलक्षणां प्रचक्षते प्रकथयन्ति सच महेशः पुंविशेषः पुरुषविशेषः इष्यते। कीदृश इत्याह क्लेशाद्यैः क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टोऽस्पृष्टस्त्रिष्वपि कालेषु तथाच सूत्रं "क्लेश-कर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष इष्यते। कीदृश इत्याहई-श्वर इति अत्र क्लेशा अविद्यास्मिता रागद्वेषाभिनिवेशा वक्ष्य-माणलक्षणाः क्लेशमूलाः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः अस्मिन्नेव जन्मन्यनुभवनीयो दृष्टजन्मवेदनीयो जन्मान्तरानु-भवनीयोऽदृष्टजन्मवेदनीयस्तीव्रसंवेगेन हि कृतानि पुण्यानि देवताराधनादीनि कर्माणि इहैव जन्मनि फलं जात्यायुर्भोगलक्षणं प्रयच्छन्ति / यथा नन्दीश्वरस्य भगवन्महेश्वराराधनबलादिहैव जन्मनि जात्यादयो विशिष्टाः प्रादुर्भूता न चैतदनुपपत्तिः स दनुष्ठानेन प्रतिबन्धकापनयने केदारान्तरेजलापूरणवत्पाश्चा-त्यप्रकृत्या-पूरणेनैव सिद्धिविशेषोपपत्तेस्तदुक्तम्। "जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः सिद्धिश्चोत्कर्षविशेषः कायकारणस्य जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्या पूरान्निमित्तप्रयोजकं प्रकृतीनां चरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवदिति / सति मूले तद्विपाको जा-त्यायुर्भोगः सति मूले क्लेशरूपबीजे तेषां कुशलाकुशलं कर्मणां विपाकः फलं जात्यायुर्भोगा भवन्ति जातिमनुष्यादिरायुश्विरकाले शरीरसंबन्धो भोगा विषयाः इन्द्रियाणि सुखदुःखसंविच कर्मकरणभावसाधनव्युत्पत्त्या भोगशब्दस्य, इदमत्र तात्पर्यम्। चित्तंहि द्विविधं साशयमनाशयं च। तत्र योगिनामनाशयं तदाह / ध्यानजननाशयम् अत एव तेषाम-शुक्लाकृष्णं कर्म तदाह कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषां शुभफलदं कर्मयागादिशुक्लम् अशुभफलदं ब्राहत्यादिकृष्णम् उभयसंकीर्ण शुक्लकृष्णम्। तत्र शुक्ल दानतपःस्वाध्यायादिमतां पुरुषाणां कृष्णं नारकिणां, शुक्लकृष्ण मनुष्याणां योगिनां तु विलक्षणमिति साशयंचित्तमयोगिनाम् तत्र फलत्यागानुसंधानाभावात्फलजनकं कर्माशयस्ततस्तद्विपाकानुगुणाना-मेवाभिव्यक्तिर्वासनानां द्विविधा हि कर्मवासनाः स्मृतिमात्रफलाजा त्यायुर्भोगफलाश्च तत्राद्या येन कर्मणा यादृक् शरीरमारब्धं देवमानुषतिर्यगादिभेदेनजात्यन्तरशतव्यवधानेनपुनस्तथाविधस्यैव शरीरस्यारम्भे तदनुरूपामेव स्मृतिं जनयन्ति, Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 669 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ अन्यादृशीं चन्यग्भावयन्ति देवादिभवे नारकादिशरीरोपभोगस्मृतिवत्। न चातिव्यवहितयोःस्मृतिसंस्कारयोर्जन्यजनकभावानुपपत्तिर्दूरानुभूतस्याप्यविचलितचित्ते वासनात्मना स्थितस्योद्बोधविशेषसहकारेण स्मृतिविशेष-परिणामे व्यवधानाभावात्तदुक्तम् / जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्थस्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्ताश्व सुखसाधना वियोगाध्यवसायसङ्कल्पस्य मोहलक्षणस्य बीजस्यानादित्वादादिरहितास्तदुक्तं तासामनादित्वमाशिषो नित्यत्वात् द्वितीयाया अपि चित्तभूमावेवानादिकालं संचिता यथा यथा पाकमुपयान्ति तथा तथा गुणप्रधानभावेन स्थिता जात्यायुर्भोगिलक्षणं कार्यमारभन्त इति / तदेतत्कर्माशयफलं जात्यादिविपाक इति / यद्यपि सर्वेषामात्मनां क्लेशादिस्पर्शो नास्ति तथापि ते चित्तगतास्तेषां व्यपदिश्यन्ते यथा योधगतौ जयपराजयौ स्वामिनः, अस्य तु त्रिष्वपि कालेषु तथाविधोपि क्लेशादिपरामर्शो नास्तीति विलक्षणोयमन्येभ्यः // 1 // ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसद्धिं चतुष्टयम् / / 2 / / सात्विकः परिणामोत्र, काष्ठा प्राप्ततयेष्यते। नाक्षप्रणालिकाप्राप्त, इति सर्वज्ञतास्थितिः / / 3 / / ऋषीणां कापिलादीना-मप्ययं परमो गुरुः / तदिच्छया जगत्सर्व, यथाकर्म विवर्त्तते || ज्ञानादयोह्यत्राप्रतिपक्षाः सहजाश्च शुद्धसत्वस्यानादि संबन्धात् यथा हीतरेषां सुखदुःखमोहतया विपरिणतं चित्तं निर्मले सात्विके धर्मात्मपक्षे प्रतिसंक्रान्तंचिच्छायासंक्रान्तं संवेद्यं भवति नैवमीश्वरस्य किन्तुतस्य केवल एव सत्विकः परिणामो भोग्यतया व्यवस्थित इति / किंच प्रकृतिपुरुषसंयोगवियोगयोरीश्वरेच्छाव्यतिरेकेणानुपपत्तेरनादिज्ञानादिमत्त्वमस्य सिद्धम्॥शा अत्रेश्वरे सात्विकपरिणामः काष्ठाप्राप्ततयाऽत्यन्तोत्कृष्टत्वेनेप्यतेतारतम्यक्तांसातिशयानांधर्माणां परमाणावल्पत्वस्येवाकाशे परममहत्त्वस्येव काष्ठा प्राप्तिदर्शनात् / ज्ञानादीनामपि चित्तधर्माणं तारतम्येन परिदृश्यमानानां क्वचिनिरतिशयत्वे सिद्धेन पुन रक्षप्रमाणालिकयेन्द्रियद्वाराप्राप्तमुपनीतमिति हेतोः सर्वविषयत्वादेतचित्तस्य सर्वज्ञतया स्थितिः प्रसिद्धिस्तदुक्तम् तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् // 3|| अयमीश्वरः कपिलादीनामपि ऋषीणां परम उत्कृष्टो गुरुस्तदुक्तं 'स पूर्वेषामपि गुरुः का-लेनानवच्छेदादिति तस्येश्वरस्येच्छया सर्व जगत् यथाकर्म कर्मानतिक्रम्य विवर्त्तते उच्चावचफलभाग्भवति न च कर्म-गैवान्यथासिद्धिरेककारकेण कारकान्तरानुपक्षयादिति भावः // एतद्दूषयतिनैतधुक्तमनुग्राह्य-तत्स्वभावत्वमन्तरा। नाणुः कदाचिदात्मा स्या-देवतानुग्रहादपि ||5|| उभयोस्तत्स्वभावत्व-भेदे च परिणामिनि। अत्युत्कर्षच धर्माणा-मन्यत्राति प्रसञ्जकः।।६।। एतदीश्वरानुग्रहजन्यत्वं योगस्य न युक्तमनुग्राह्ये तत्स्वभावत्वमनुग्राह्यस्वभावत्वमन्तरा विना यतः देवतायाअनुग्रहादपि अणुतरात्माभवत्वितीच्छालक्षणो कदाचिदपि अणुरात्मा न स्यात् स्वभावापरावृत्ते: 14 / / उभयोरीश्वरात्मनोस्तत्स्वभावभेदे च व्यक्तिकालफलादिभेदेन विचित्रानुग्राह्यानुग्राह्यकस्वभावभाजनत्त्वे च परिणामिता स्यात् स्वभावभेदस्यैव परिणामभेदार्थत्वात्तथाचायं / सिद्धान्तः। ज्ञानादिधर्माणामप्युत्कर्षेणेश्वर सिद्धिरित्यपि च नास्ति यतो धर्माणामप्युत्कर्षः साध्यमानो ज्ञानादाविवान्यत्राज्ञानादावतिप्रसञ्जकोऽनिष्टसिद्धिकृत् अत्युत्कृष्टज्ञानादिमत्तये श्वरस्वेव तादृशाज्ञानादिमत्तया तत्प्रतिपक्षस्यापि सिद्ध्यापत्ते रित्थं च ज्ञानत्वमुत्कर्षापकर्षाऽऽश्रयवृत्ति उत्कर्षापकर्षा श्रपवृत्तित्वान्महत्त्ववदित्यत्र ज्ञानत्वं न तथा चित्तधर्ममात्रवृत्तित्वाद-ज्ञानत्ववदिति प्रतिरोधो द्रष्टव्यः / प्रकृतिपुरुषसंयोगावियोगौ च यदि तात्विको तदात्मनोऽपरिणामित्वं न स्यात् तयोढेिष्ठत्वेन तस्य जन्यधर्मानाश्रयत्वक्षतेः / नो चेत्कयोः कारणमीश्वरेच्छा। किंच प्रयोजनाभावादपि नेश्वरो जगत् कुरुते / न च परमकारुणिकत्वाद्-भूतानुग्रह एवास्यप्रयोजनमिति भोजस्य वचनं साम्प्रतम्। इत्थं हि सर्वस्यायमिष्टमेव संपादयेदित्यधिकं शास्त्रवार्तासमुच्चयविव-रणः। आर्थ व्यापारमाश्रित्य, तदाज्ञापालनात्मकम्। युज्यते परमीशस्या-नुग्रहस्तत्र नीतितः 117 / / एवं च प्रणवेनैत-अपात्प्रत्यूहसंक्षयः। प्रत्यक् चैतन्यलाभश्च-त्युक्तं युक्तं पतञ्जले / / 8 / / प्रत्यूहा व्याधयः स्थानं, प्रमादालस्यविभ्रमाः। संदेहा विरती भूम्य-लाभश्चाप्यनवस्थितिः / / 9 / / धातुवैषम्यजो व्याधि-स्थानं चाकर्मनिष्ठता। प्रमादो यत्न आलस्य मौदासीन्यं च हेतुषु / / 10 / / आर्थं ततः सामर्थ्यप्राप्तं न तु प्रसह्य तेनै व कृतं तदाज्ञापालना-त्मकं व्यापारमाश्रित्य परं के वलं तत्र नीतितोऽस्मत्सिद्धान्तनीत्या ईशस्यानुग्रहो युज्यते तदुक्तम्। आर्थं व्यापारमाश्रित्य तत्र दोषोपि विद्यत इति // 7 // एवं चार्थव्यापारेणोशानुग्रहादरेचप्रण-वेनोंकारेणैतस्येश्वरस्य जपात्प्रत्यूहानां विध्नानां संक्षयः विषयप्रातिकूल्ये नान्तः करणाभिमुखमञ्चति यत्तत्प्रत्यक् चैतन्यं ज्ञानं तस्य लाभश्चेति पतञ्जलेरुक्तं युक्तं तस्य वाचकः प्रण-वस्तजपस्तदर्थभावनं ततः प्रत्यक्चैतन्याधिगमोन्तरायाभावा-श्चेति सूत्रप्रसिद्धेर्गुणविशेषवतः पुरुषस्य प्रणिधानस्य महाफलत्वात्॥व्याधिस्थानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्ति-दर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानिचित्तविक्षेपास्तेन्तराया इति / / 9 / / धातुवैषम्यजो धातूद्रेकादिजनितो व्य धिवरातीसारादिः स्थानं चाकर्मनिष्ठतादित एव कर्मप्रारम्भः प्रमादो यत्नः आरब्धेऽप्यनुत्थानशीलता आलस्यं च हेतुषु समाधिसाधनेष्यौदासीन्य माध्यस्थ्यं न तु पक्षपातः // 10 // विभ्रमो व्यत्ययज्ञानं, संदेहः स्यान्नवेत्ययम्। अखेदो विषयावेशा-द्भवेदविरतिः किल।।११ भुम्यलाभः समाधीनां, भुवःप्राप्तिः कथंचन / लामेपि तत्र चित्तस्या-प्रतिष्ठात्वनवस्थितिः॥१२|| रजस्तमोमयाद्दोषा-द्विक्षेपाचेतसो ह्यमी। सोपक्रमाजपपान्नाशं,यन्ति शक्तिं हर्ति परे||१३|| प्रत्यक चैतन्यमप्यस्मादन्तज्योतिःप्रथामयम्। बहिर्व्यापाररोधेन, जायमानं मतं हि नः॥१४॥ योगातिशयतचायं, स्तोत्रकोटिगुणः स्मृतम्। योगदृष्ट्या बुधैर्दष्टो, ध्यानविश्रामभूमिका ||15|| Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 670 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर विभ्रमो व्यत्ययज्ञानं रजते रङ्ग बुद्धिवदिष्टसाधनेपि योगः इष्टसाधनत्वं निश्चयः संदेहोयं योगः स्याद्वा नचेत्याकारविषयावेशाबाह्येन्द्रियार्थव्याक्षेपलक्षणादखेदोनुपरमलक्षणः किलाविरतिर्भवेत् 11 (भूम्यलाभइति) कुतोपि हेतोः समाधीनां भुवः स्थानस्याप्राप्तिर्भूम्यलाभः लाभेपि समाधिभूप्राप्तावपि तत्र समाधिभुवि चित्तस्याप्रातिष्ठानिवेशस्त्वनवस्थितिः // 12 / / अमी हि रजस्तमोमयाद्दोषाचेतसोविक्षेपे एकाग्रताविरोधिनः परिणामाः सोपक्रमा अपवर्तनीयकर्मजनिताः सन्तो जपाद्भगवत्प्रणिधानान्नाशं यान्ति परिनिरुपक्रमा शक्तिं हतिंदोषानुबन्धशक्तिभङ्ग मुभयथापि योगप्रतिबन्धसामर्थ्य मेवापगच्छन्तीति भावः / / 13 // अस्माद्भगवज्जपादहियापाररोधेन शब्दादिबहिरर्थग्रहत्यागेनान्तर्योतिः प्रथाज्ञाना दिविशुद्धिविस्तारस्तन्मयं प्रत्यक् चैतन्यमपि हि जायमानं मतं नोस्माकं तथैव भक्तिश्रद्धाद्यतिशयोपपत्तेः // 14 // योगातिशयतश्चाभ्यन्तरपरिणामोत्कर्षाचायं जपः स्तोत्रकोटिगुणः स्मृतश्चिरंतनाचार्यैः वाग्योगापेक्षया मनोयोगस्याधिकत्वादत एव मौनविशेषेणैव जपः प्रशस्यते तथा बुधैर्विशारदैयोगदृष्ट्या योगजप्रातिभज्ञानेन ध्यानस्य विश्रामभूमिका पुनरोरोहस्थानं दृष्टः / / 15 / / ननु यदि यादृश ईश्वरोभ्युपगतस्तादृशस्य भवद्भिरनभ्युपगमात्कथमार्थव्यापारेणापि तदनुग्रहसिद्धिरित्याशङ्कायां विषयविशेषपक्षपातेनैव समाधानाभिप्रायवानाह / / माध्यस्थ्यमवलम्ब्यैव, देवता तिशयस्य च / सेवा सर्व धरिष्टा, कालातीतोऽपि यजगौ // 16 / / माध्यस्थ्यमनिर्णीतविशेषकलहाभिनिवेशाभावलक्षणमवलम्ब्य देवतातिशयस्य च विशिष्टदेवताख्यस्य च सेवा स्तवनध्यानपूजनादिरूपा सर्बुधैरिष्टा तन्निमित्तकफलार्थत्वेनाभिमता स्तवनादिक्रियायाः स्वकर्तृकायाः फलदानसमर्थत्वेपि स्तवनीयाद्यालम्बनत्वे ततस्तस्यास्तोत्रादेः फललाभस्य स्तो तव्यादिनिमित्तकत्वव्यवहाराद्यद्यस्मात्कालातीतोपि शास्त्र-कृद्विशेषो जगौ // 16 // अन्येषामप्ययं मार्गो, मुक्ताविद्यादिवादिनाम् / अभिधानादिभेदेन, तत्त्वनीत्या व्यवस्थितः||१७|| मुक्तो बुद्धोऽर्हन् वापि य-दैश्वर्येण समन्वितः। तदीश्वरः स एव स्या-त्संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् // 18 // अन्येषामपि तीर्थान्तरीयाणां किं पुनरस्माकमयमस्मदुक्तो मार्गा देवतादिगोचरो मुक्तादिवादिनामविद्यादिवादिनां च मतेनाभिधानादीनां नामविशेषणादीनां भेदेपि तत्त्वनीत्या-परमार्थत एकविषयतया व्यवस्थितः प्रतिष्ठितः।।१७।। मुक्तः परमब्रह्मवादिनां बुद्धा बौद्धानाम् अर्हन् जैनानां वापीति समुच्चते यद्यस्मादैश्वर्येण ज्ञानाधतिशयलक्षणेन समन्वितो युक्ता वर्तते तत्तस्मादीश्वरोऽस्मदुक्तः स एव मुक्तादिः स्यात् संज्ञाभेदो नामनानात्वमत्र मुक्तादिप्रज्ञापनायां केवलम् / / 18 / / अनादिशुद्ध इत्यादियों भेदो यस्य कल्प्यते / तत्र तन्त्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ||19|| विशेषस्यापरिज्ञाना-द्युक्तानां जातिवादतः। प्रायो विराधतवैव, फलाभेदाच भावतः ||20|| अविद्या क्लेशकर्मादि, यतश्च भवकारणम्। ततः प्रधानमेवैतत्, संज्ञाभेदमुपागतम् / / 2 / / अनादि शुद्ध इत्येवंरूप आदिर्यस्य स तथा / तत्रानादि शुद्धः सर्व गतश्वशैवानांसोर्हन्न सर्वगतश्च जिनानां स एवप्रतिक्षणभड्गुरः सौगताना यः पुनभेदो विशेषो यस्येश्वरस्य कल्प्यते तस्य तस्य तन्त्रस्य दर्शनस्यानुसारेणानुवृत्यामन्ये प्रतिपद्ये सोपि विशेषः किंपुनः प्रागभिहितः संज्ञाभेद इत्यपि शब्दार्थः निरर्थको निष्प्रयोजनः ||19|| विशेषस्य मुक्तादेवताविशेषगत-स्यापरिज्ञानादग्दर्शितप्रत्यक्षेण तथा युक्तानामनुमानरूपाणां जाति वादतोऽसिद्ध्यादि हेतुदोषोपपातेनानुमानाभासत्वात्प्रायो बाहुल्येन विरोधतश्चैव वेदान्तिबौद्धादियुक्तीनामेकेषां हि नित्य एवात्मा प्रपञ्चाधिष्ठातृत्वादपरेषां चार्थक्रियाकारित्वस्य स्वभावभेदनियतत्वेना नित्य एवेति फलस्य क्लेशक्षयलक्षणस्य गुण प्रकर्षविशेषवत्पुरुषाराधनासाध्यस्य वचिन्नित्यानित्यत्वादौ विशेषे आराध्यगते सत्यभेदादविशेषाच भावतः परमार्थतःगुणप्रकर्षविषयस्य बहुमानस्यैव फलदायकत्वात्तस्य सर्वज्ञमुक्तादावविशेषादिति // 20 / / अविद्या वेदान्तिनां, क्लेशः सांख्याना, कर्म जैनानाम्, आदिशब्दाद्वासनासौगतानां पाशः शैवानां यतो यस्माच्चकारो वक्तव्यान्तर सूचनार्थः भवकारणं संसार हेतु-स्ततस्तस्मादविद्यादीनां भवकारणत्वाद्धेतोः प्रधान मेवैतदस्म-दभ्युपगतं भवकारणं सत्संज्ञाभेदं नामनानात्वमुपागतम् // 21 // अत्रापि परपरिकल्पितविशेषनिराकरणायाह। अस्यापि योऽपरो भेद-श्चित्रोपाधिस्तथा तथा। गीयतेऽतीतहेतुभ्यो, धीमतां सोप्यपार्थकः ||22|| अस्यापि प्रधानस्यापि योऽपरो भवकारणत्वात्सर्वाभ्युपग-तादन्यो भेदोविशेषश्चित्रोपाधिनानारूपमूर्तत्वामूर्तत्त्वा- दिलक्षणस्तथा तथा तत्तद्दर्शनभेदेन गीयते वर्ण्यत अतीतहेतुभ्योनन्तरमेव विशेषस्यापरिज्ञानादित्यादिश्लोकोक्तेभ्यो घीमता बुद्धिमता सोपि किंपुनर्देवतागत इत्यपि शब्दार्थः / अपार्थकोऽपगतपरमार्थप्रयोजनः सर्वैरपि भवकारणत्वेन योगापनेयस्यास्यापगमादन्यस्य विशेषस्य सतोऽप्यकिचित्करत्वात् // 22 // ततोऽस्थानप्रयासोयं, यत्तद्भेदनिरूपणम्। सामान्यमनुमानस्य, यतश्च विषयो मतः ||23|| यत एवं ततः सतो विशेषस्यापार्थकत्वाद्धेतोरस्थानप्रयासोय तत्त्वचिन्तकानां यत्तद्भेदस्य देवादिविशेषस्य निरूपणं गेवषणं यतश्चानुमानस्य देवताविशेषादिग्राह कत्वेनाभिमतस्य सामान्य विषयो मतोऽतोपि सर्वविशेषानुगतस्य तस्याप्रतीते-रस्थानप्रायासोऽयम् इत्थं च भवकारणमात्रज्ञानात्तदपनयनार्थं गुणवत्पुरुषविशेषाराधनं कर्तव्यं विशेषविमर्शस्तु निष्प्रयोजन इति कालातीतमतं व्यवस्थितम् / एतस्माचास्माकमपि / विशेषविमर्शाक्षमस्य स्वाग्रहच्छे दाय सामान्ययोग-प्रवृत्यर्थमनुमतम् अन्यस्य तु निरभिनिवेषस्य शास्त्रानुसारेण विशेषविमर्शा पि भगवद्विशिष्टोपासनारूपतया श्रद्धामलक्षालनेन तत्त्वज्ञानगर्भवैराग्यजीवानुभूतत्वाद्विशिष्ट - निर्जराहेतुरिति न सवथा तद्वैफल्यमित्यभिप्रायः // 23 // आस्थितं चैतदाचार्य-स्त्याजये कुचितिकाग्रहे। शास्त्रानुसारिणस्तर्का-नामभेदानुपग्रहात्॥२४|| एतच्च कालातीतमतमाचार्य : श्रीहरिभद्रसूरिभिरास्थितमङ्गी कृतं कुचितिकाग्रहे कौटिल्यावेशे त्याज्ये परिहार्ये कुचितिकात्या गार्थमित्यर्थः / शास्त्रानुसारिणस्तकदिर्थसिद्धा सत्यामिति Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 671 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर गम्यं नाभेदस्य संज्ञाविशेषस्यानुपग्रहादनभिवेशात्तत्वार्थसिद्धौ नाममात्रक्लेशो हि योगप्रतिपन्थी न तु धर्मवादेन विशेष-विमर्शोपीति भावस्तदिदमुक्तम्। "साधुचैतद्यतो नीत्या, शास्त्रमन्त्रप्रवर्तकम् / तथाभिधानभेदानुभेदः कुचितिकाग्रहः // विपश्चिता न युक्तोयमैदंपर्यप्रियाहिते। यथोक्तास्तत्पुनश्चारु, हन्तात्रापि निरूप्यताम्। उभयोः परिणामित्वं, तथाभ्युपगमाद् ध्रुवम् / अनुग्रहात्प्रवृत्तेश्च, तथाद्धा भेदतः स्थितम्।। आत्मनां तत्स्वभावत्वे, प्रधानस्यापि संस्थिते। ईश्वरस्यापि सन्न्या-याद्विशेषोधिकृतो भवेत्॥ इति॥ अथ विशेषविमर्श शास्त्रतर्कयोर्द्वयोरुपयोगप्रस्थानमाह। अस्थानं रूपमन्धस्य,यथा सन्निश्चयं प्रति। तथैवातीन्द्रियं वस्तु, छद्मस्थस्यापि तत्वतः||२६|| अस्थानमविषयो रूपं नीलकष्णादिलक्षणमन्धस्य लोचनव्यापारविकलस्य यथा सन्निश्चयं विशदालोचनं प्रत्याश्रित्य तथैवोक्तन्यायेनैवातीन्द्रियं वस्त्वात्मादिविशेषरूपं छास्थस्या वाग्दृशः परमार्थतत्वतः परमार्थनीत्या !|25|| हस्तस्पर्शसमंशास्त्र,तत एव कथञ्चन। अत्र तन्निश्चयोपिस्या-त्तथा चन्द्रोपरागवत् ||26|| हस्तस्पर्शसमं तद्वस्तूपलब्धिहेतुहस्तस्पर्शसदृशं शास्त्रमतीन्द्रियार्थगोचरंततएव शास्त्रादेव कथञ्चन केनापि प्रकारेणात्र छास्थे प्रमातरि तन्निश्चयोऽप्यतीन्द्रियवस्तुनिर्णयोऽपि स्यात्तथा वर्द्धमानत्वादिविशेषेण चन्द्रोपरागवचन्द्रराहुस्पर्शवत् / यथा शास्त्रात्सर्वविशेषानिश्चयेऽपि चन्द्रोपरागः केनापि विशेषेण निश्चीयते एव तथान्यदपि अतीन्द्रियं वस्तु तत्तच्छद्मस्थेन निश्चीयत इति भावः // 26 / / इत्थं ह्यस्पष्टता शाब्दे, प्रोक्ता तत्र विचारणम्। माध्यस्थ्यनीतितो युक्तं, व्यासोपि यददो जगौ // 27 / / इत्थमुक्तदृष्टान्तेन हि शाब्दे ज्ञानस्पष्टता प्रोक्ता तत्र स्पष्ट शाब्द ज्ञाने माध्यस्थ्यनीतितो विचारणं युक्तं तर्कस्य प्रमाणा-नुग्राहकत्वात्तेनैवेदंपर्यशुद्धस्तस्याश्च स्पष्टताप्रायत्वात् यद्यस्मा-ददो वक्ष्यमाणं व्यासोऽपि जगौ // 27 // आर्षधर्मोपदेशं च, वेदशास्त्रविरोधिना। यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्म वेद नेतरः॥२८ शास्त्रादौ चरणं सम्यक्, स्यादादन्यायसंगतम्। ईशस्यानुग्रहस्तस्मा–दृष्टेष्टार्थाविरोधिनः ||29|| यद्दातव्यं जिनः सर्व-दत्तमेव तदेकदा। दर्शनज्ञानचारित्र-मयो मोक्षपथः सताम् / / 30 / / जिनेभ्यो याचमानेभ्यो, लब्धं धर्ममनालयं / तं विडलं विना भाग्य, केन मूल्येन लप्स्यते / / 31 / / अनुष्ठानं ततः स्वामि-गुणरागपुरःसरम्। परमानन्दतः कार्य, मन्यमानैरनुग्रहम् / / 3 / / आर्षमित्यारभ्य स्पष्टम्। द्वा०१६ द्वा०ा योबिं! विशेषस्यापरिज्ञानात्, युक्तीनां जातिवादतः। प्रायो विरोधतश्चैव, फलाभेदाच भावतः।। विशेषस्य मुक्तादिदेवता विशेषगतस्याऽपरिज्ञानाद संवेदना-दगिर्शि प्रत्यक्षेण तथा युक्तीनामनुमानरूपाणांजातिवादतो-ऽसिद्धादिहेतुदोषोपघातेनानुमानाभासत्वात् / प्रायो बाहुल्येन चैवेति पूर्ववत् / तथाहि साङ्ख्यः शैवश्च सर्वक्षणिकवादिनं सौगतं प्रत्याह। तुयथा भवदाराध्यो बुद्धोऽर्थक्रियां देशनादिकां स्वक्षणे पूर्व पश्चाद्वा कुर्यादिति त्रयी गतिः / तत्रनतावदाद्यः पक्षः कक्षीकरणीयः समकालभाविनि व्यापाराभावात्। इतरथैक क्षणवर्तिनां समर्थिक्षणानामितरेतरकार्य करणभाव: प्रसज्यते। न चैतदृष्टमिष्ट वा अथ स्वक्षणात् ऊर्ध्वकायं विधत्ते इति मन्येथाएतदप्यसाधीयो विनष्टस्य कार्यकरणाक्षमत्वात् अन्यथा मृतस्य शिखिनः केकायितं स्यात्। एवं च क्षणिकादर्थाद्वयावर्तमानाऽर्थक्रियावीरादर्शशकुनिन्यायेन नित्यानेव भावनाश्रयतया प्रतिपद्यते इति नित्यरूपोऽत एवानादिशुद्ध ईश्वरनामा आप्तविशेषोऽभ्युपगन्तुंमुधोपचित इति / बौद्धः पुनः आह / ईश्वरोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावी भवद्भिरभ्युपगम्यते / नच नित्यस्यकथंचिदप्यर्थक्रिया युज्यते। नित्यो ह्यर्थक्रमेण यौगपद्येन वार्थाक्रियां कुर्वीत ! न तावक्रमेण सन्निहितसर्वशक्तेः सहकारिभिश्चानाधेयातिशयस्य युगपदेव त्रैकालिकसर्वकार्यकरणप्रसङ्गात् / नापि योगपद्येन यतस्तत्र युगपदेव सर्वकार्यकरणेन कृतस्य पुनः करणाभावेन च द्वितीय-क्षणेऽर्थक्रियाविरहलक्षणं बलादसत्वमाढौकमानं न केनापि निरोद्धं पार्यते इति प्रतिक्षणं परिवर्तमानाऽपरापररूपः सर्वार्थ-क्रियाऽक्षमोऽभ्युपगन्तुंयुक्तोऽसाविति। फलाभेदाच फलस्य भेदक्लेशक्षणस्य गुणप्रकर्षरूपपुरुषाराधनासाध्यस्य क्वचिन्नित्यानित्यत्वादौ विशेषे आराध्यगते सत्यप्यभेदादविशेषात् / भावत् परमार्थतः गुणप्रकर्षविषयस्य बहुमानस्यैव फलदायकत्वात् तस्य सर्वत्र मुक्तादावविशेषादिति। यो. बिं। परतीर्थिकाभिमतेश्वरस्य निराकरणम्। नन्वियं त्रिभुवनभवनान्तर्वर्तमानान्तरितानन्तरितपदार्थ प्रया त्वत्तीर्थनाथवृत्तिर्न भवति यतो भूभूधरप्रभृतिपदार्थ प्रबन्धविधानद्वारा प्रमथपतेरेवेयमुपपद्यते यदेतदनुमानमत्र प्ररूप्यतेन्यायताप्पर्यावबोधप्रधानमनोवृत्तिविद्वद्वन्देन विवादपदभूतं भूभूधरादिबुद्धिमद्विधेयं यतो निमित्ताधीनात्मलाभं यन्निमित्ता-धीनात्मलाभ तद्बुद्धिमद्विधेयं यथा मन्दिरं तथा पुनरेतत्तेन तथा न तावन्निमित्ताधीनात्मलाभत्वं वादिनः प्रतिवादिनो वा प्रतीतं यतो भूभूधरादेरात्मीयात्मीयनिमित्तवातनिर्वर्तनीयता भुवनभाविभवभृत्प्रतीतैव / नापि दोलायमानवेदननिमित्त मतिमन्निवर्तनीयेतराम्बरादि पदार्थतोत्यन्तव्यावृत्तत्वेन / नापि विरुद्धतावरोधदुर्धरमम्बरादितोऽत्यन्तव्यावृत्तत्वेनैव नापि तुरीयव्याप्यामता प्रतिबद्धमिन्द्रियवेदनेनानुमाननाम्रा राद्धान्ताभिधानेन वा माने नाबाधिताभि प्रेतधर्मधर्म्यनन्तरप्रतिपादितत्वेन / नापि प्रत्यनुमानापमानता निबन्धनमेतत्परिपन्थिधर्मोपपादनप्रत्यलानुमानाभावेन। ननु भवतीदं तावदनुमानं परिपन्थिधर्मोपपादनप्रत्यलम्। यथा भूताधिभूभूभूधरादिविधाता न भवति वपुर्वन्ध्यत्वेन निर्वत्थात्मवत्तदनवदातं यतोऽत्र त्रिनेत्ररूपो धर्मी धर्मधनेन प्रतिपन्नोऽप्रतिपन्नो वा प्ररूपितः। न तावद प्रतिपन्नो यदेव-माधारद्वारा प्रतीतत्वोपद्रवो वपुर्बन्ध्यताव्याप्योपनिपाती भवन-निरोढुं न पार्यते। यदि पुनः प्रतिपन्नोंय धर्मी तदा येन मानेनप्रतिपत्तिर्मन्मथप्रत्यर्थिनोऽभिधीयते तेन तत्त्वादि विधानव्युत्पन्नमतेरेवेयमिति तत्रोपादीयमाना वपुर्वन्ध्यता बाधितवमवेति न नाम प्रव Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 672 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर र्तितुं पर्याप्नोति। तदेवं निमित्ताधीनात्मलाभताव्याप्यमत्यन्त- पूतरूपं तनूनपादिन्द्रियवेदनेन वेद्यते। तदमनोरमं यतोऽत्रानुमातुय॑वधिर्विद्यते पर्वतादे(मद्धेतुताप्रतिपादनावदातमेवेति तत्राभिधीयते यदिदं व्यवधिमान् पुनः पदार्थोनेन्द्रियालम्बनी भवतीति तदनालम्बनीभूतः तावन्निमित्ताधीनात्मलाभत्वं व्याप्यमालपितं तद्दव्यद्वारा पर्यायद्वारा वेति पर्वततनूनपान्न तेन बाधितुं पार्यते। यदा पुनः प्रमाता तत्र प्रवृत्तो भवति भेदोभयी। यद्याद्यः पन्थाः प्रथ्यते तदानीमप्रतीतिमि व्याप्योपतापः। तदानी-मव्यवधानवानयं तनूनपात्तेनोपलभ्यते / तरुविद्युल्लतायतो द्रव्यरूपतया पृथ्वीपर्वतादेर्नित्यत्वमेव प्रतिवादिनाऽभ्युपेयते। ननु भ्रादिबुद्धिमन्निमित्तं तु तत्र प्रवर्तमानेनापि नितरामवधानवतापि भूभूधराद्यमुत्पादवदवयवित्वेन यदेवं तदेवं यथेन्दीवरमवयविरूपं पुनरिदं नोपलभ्यते ततो भवति तत्रेन्द्रियोद्भवबोधबाधेति ततोपि तदुत्पादं वेत्यनुमानेन तन्नित्यता निर्मूलोन्मूलितैवेति तैतद्धीमद्वृत्ति- तथाविधयधर्म्यनन्तरनिमित्ताधीनात्मलाभत्वरूपव्याप्यप्रतिपादनेन विधानप्रधानं यतो भूभूधरादेरवयवित्वमवयवारभ्यत्वेन। यद्भावयवतात- त्वन्मतेन तुरीयव्याप्त्यामत्वोपनिपातः मन्मतेन त्वन्तया - वर्तमानतया मन्यते न प्रथमविधा विबुधावधानधाम यतो न प्रभावेनानियतप्रतिपत्तिनिमित्तताऽत्र व्याप्यपराभूतिः तथेदं नामैतत्पृथ्वीपृथ्वीधरप्रभृतिद्रव्यमभूतपूर्वमवयववृन्देन निर्वतितमिति निमित्ताधीनात्मलाभत्वम् / यदि तन्मात्रमेव व्याप्यत्वेन प्रतिपाद्यते प्रतिवादिनः प्रतीतिर्विद्यते / यदि पुनरवयववृत्तिभेदोभिधीयते तहनभिप्रेतपदार्थप्रतीतिनिर्वर्तनपर्याप्तमनुपलब्धपूर्वोत्पत्तिव्या-पारेन्द्र तदानीमवयवत्वेन दोलायमानमतेः यतोऽवयवोयमवयवोयमितीत्थं मू? मर्त्यपूर्वत्वप्रतीत्यर्थोपात्तमृन्मयत्ववत् / न नाम निपेन्द्रमूर्नोबुद्धिवेद्यमवयवत्वमवयवितानवृत्ति भवति न पुनरुत्पादपराधीनं म॒न्मयत्वमपि विद्यते। ननु यद्यपि मृन्मयत्वं तुल्यमेवोभयत्रापि तथापि नित्यत्वेन / ननु नार्थोनेन दुर्भेदप्रतिपादनेन प्रतीतोयमवयवी तावद्वादि नेन्द्रमूर्धन्यो मानवपूर्वत्वेन प्रतीतो विद्यते / ततो विवादपदापन्नोप्यय विततरेविवादेन पद्मपत्रपात्रदात्रादिरितिन नाम न प्रतीतोऽपि त्वात्मापि तत्तुल्यत्वेन न मर्त्य निर्वयों भवति तन्नावदातं यतोऽत्रापि न तथा नियमेन प्रतीतो वर्ततेन पुनरुत्पादवानित्यनुमेयतत्तुल्यतद्विरुद्ध- भूभूधरभुवनादि प्रायः पदार्थोऽन्यो बुद्धिमन्निमित्तोपेतः परिभावितो वृत्तितोपद्रवः / यदि तु पर्यायद्वारा निमित्ताधीनात्मलाभत्वं वर्तते / ततो विवादपद्धति प्रतिबद्धोप्ययं न तथा भवितुं लभते। ननु भूभूधरादेरभिधीयते तदा नरामरादिपर्यायद्वारोत्पद्यमानात्मनोपि निपादिर्विद्यते बुद्धिमन्निमित्तोपेतः परिभावितोऽतो विवादापन्नोपितथाऽबुद्धिमदुत्पाद्यत्वमापद्यते / ननु नरामराद्युत्पादनप्रत्यलधर्मधर्मो- नुमातुमनुरूपः। तदवद्यं यतोऽन्यत्रापि निपादिरेवमानवनिर्वयों विभावि त्पाद्यानुभवायतनभूता तथाविधा तनुरेवोत्पद्यते न पुनरात्मा वोविद्यते / ततः पुरंदरमूर्धापि तन्निर्व]न नितरां भवित-व्यम् / ननु लवमात्रतोप्यना-दिनिधनत्वेन यदि पुनरात्माप्युत्पत्तिविपत्तिधर्मो नरनिर्मितनिपादितः पुरंदरमूओं वैरूप्यमुपलभ्यते ततो न तत्र भवति तदानीं भूतमात्रतत्त्ववादिमत्तापत्तिरात्मनः पूर्वोत्तरभवानुयायिनो मर्त्य निर्वर्त्यतानुमानमुपपन्नं यद्येदं तदानीमेतद्वैरूप्यं निपादितो भेदिनोऽनभ्युपेतत्वेनेति, तन्न वन्धुरं यतोयद्यात्मनोऽभिन्नरूपतैवावेद्यते भूभूधरभुवनादेरपि परिभाव्यते यतो निपादिनाऽनुपलब्धबुद्धिमयातदान्यतरनरामरादिभववर्त्यवायमपरिमेयानुभवनी यतत्तद्भव पर्याय पारात्मनाप्युपलब्धेन नियमतो निर्वर्तितोयं मतिमतेति बुद्धिरुत्पाद्यते, प्रबन्धानुभवनेन द्वितीयादिभवानुभववान्न भवितुमुपपद्यते, वेद्यते त्वनेनेयं न पुनर्भुवनादिना। ततो न निमित्ताधीनात्मलाभत्वमानं बुद्धिमद्धेतुत्वभवपर्यायपरंपरेति / तद्रूपतया यमुत्पत्तिमानिति नियम्यते / प्रतीतिविधानबन्धुरं यदा तु धरित्री धरित्रीधर त्रिभुवनादिविधानं न नाप्येवंभूतमात्रतत्त्ववादितापत्तिरात्मनो द्रव्यरूपतया नित्यताभ्युपायेन प्रतीतं तदानीं त्रिनयनो भुवनभवनान्तर्भावि भावव्रातप्रद्योतनप्रबलपूर्वोत्तरभवप्रतीतितः / तन्मतेन तु न नाम द्रव्यतया नित्यं वेदनं वर्तते वेदनप्रदीपवानिति निर्धनदानमनोरथप्रथैवेयमितीत्या-दिवचनद्वयेन यतो भूतधर्मतयानेन प्रतिपादितमेतत् / तथैतदनुमानधर्मीन्द्रियोद् स्यादिकवचनत्रयेण वर्णैस्तुत्रिभिरधिकैर्दशभिरयं व्यधायि शिवसिद्धि'भूतबोधेनार्द्धतो बाध्यते रूपध्वनिरपि नयनोत्थप्रथाप्रत्येयमित्यादिवत्। विध्वंसःऽतिते, सि, टा, डस्, इयत्या एव विभक्तयः तथदधन, पवभम यतोत्र दोलायमानविधानतत्परनरव्यापारः पृथ्वी पृथ्वी धराभ्रतरु- यरलय एते एवात्रवर्णाः।१ रत्ना / (जिनानामीश्वरत्वं जिनमहत्वपुरंदरधनुरादिर्भावतातो धर्मीप्ररूपितः। तत्र त्वभ्रतरुविधुदादेरिदानी- द्वात्रिंशिकायामपि सा च 'जिण' शब्दे) मप्युत्पद्यमानतया वेद्यमानतनोर्विधातानोपलभ्यते। ननु भवत्वेव बाधेयं आढये, वाचा प्रभौ,। दशा०९ अा समः। दर्शल। ग्रामनगरादिनायके, यद्येत-द्विधानावधानप्रधानः पुमानिन्द्रियप्रभवप्रभालम्बनीभूतोभ्यु- तं। ईश ऐश्वर्ये ऐश्वर्यण युक्तः ईश्वरः ग्रामभोगिकादिके, पेतो भवति यावताऽतीन्द्रियोयमिति नायमुपद्रवः प्रभवति अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्ते च / जी०३ प्रति.नि.चू। "ईसर भोइय माई' तदनभिधानीयम् / यतो व्याप्तिप्रतिपादनप्रत्यलं मानमत्रेन्द्रिय- ईश्वरो भोगिका-दिग्रामस्वामिप्रभूतिक उच्यते, वृ०६ उ.पंचा०ा नियुक्ते, द्वारोद्भूतं वेदनं तवाभिमतम् / धूमानुमानवत् धूमानुमितेरपि न आचा०। युवराजादिके, भ०९ श०३३ उ०। राजा माण्डलिके, अमात्ये च। पारावारोद्भवौदर्यतनूनपात्तदितरतनूनपात्तुल्यत्वेन व्याप्ति- इश्वरो युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वेति / अनु०। स्था। ईश्वरो प्रतीतेतीन्द्रियोद्भववेदनवेद्यभावालम्बनेनेवानेनानुमानेन भवित- युवराजस्तदन्येचमहर्द्धिका इति। भ०२ श०१ जा ऐश्वर्यान्वितस्त्रियां टाप। व्यमन्यथा तु तेन व्याप्तिप्रतीतिर्दुरुपपादैव / ततोऽपि तत्र व्य- प्रभवादिमध्ये एकादशेवत्सरेच॥ तत्फलम्।सुभिक्षं क्षेममारोग्यं, कार्पासस्य प्त्यनालम्बनीभूतेन तेन बुद्धिमन्निमित्तेनानुमेयतापिनाद्रियते। तथात्वेन महर्घता / लवणं मधुगव्यं च, ईश्वरे दुर्लभम्प्रिये / वाचा स्वनामख्याते प्रतिपादितत्वे तत्तदतीन्द्रियबोधावबोध्यतया नियमेनाभ्युपेतव्यम् यदि भूतवादिव्यन्तरविशेषनिकायेन्द्र, स्थार ठा. जम्बूद्वीपस्य बाहावेदिकाया तु तथाभ्युपेयते तदा नैतन्निमित्तं तरुविधुदादेरुप लभ्यते। ततोऽनेन उत्तरदिशि स्थिते स्वनामख्याते महापातलभेदे। स्था०४ ठा०। (तद्वक्तव्यता वेदनेनात्र बाधो भवत्येव / ननु धूमान प्रत्याय्य तनुनपातोप्येवमनेन 'महापाताल' शब्दे) मेरोरुत्तरस्यां दिशि वर्तमाने स्वनामख्याते वेदनेन बाधो भवति यतो न तत्रापि विधीयमानानुमानेन प्रमात्रा | महापातालकलशे चाजी०३ प्रति.। (तद्वक्तव्यता ‘महापातलकलस' शब्दे) Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सर 673 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इस्सर (राजपुरीनगरस्थे स्वनामख्याते नृपे, तत्कथा कुकुडेस्सरशब्दे) स्वनामख्याते मुनिवरे च, स चागीतार्थदोषेण दुःखमवाप्य गोशालको जातस्तथा च महानिशीये। से भयवं णो वि याणाहिं, ईसरो कोवि मुणिवरो। किंवा अगियत्थ दोसेणं, पत्तं तेणं कहाहिणो॥ चउवीसिगाए अन्नेवि, एत्थ भरहम्मि गोयमा। पढमे तित्थंकरे जइया, विहीपुव्वेण निव्वुडे / तइया निव्वाणमहिमा ए-तरूवे सुरासुरे। निवयंते उप्पयंते, दठ्ठय एवं तवासिओ। अहो अच्छेरयं अज्ज-मलोयम्मि य पच्छिमो। ण इंदजालसुमिणं वा, विदितु कत्थइ पुणो / एवं विविहापोहाए, पुवी जाइं सरित्तुमो। मोहं गंतूण खणमेचं, मारुयासासिओ पुणो / / थरथरस्स य कपंतो निदिउंगरहिउ चिरं। ' अत्तारं गोयमा ! धणिय, सामत्तं गहिय मुज्झओ।। अह पंचमुट्ठियं लोयं, जा वा ढवइ महायसो। से विणयं देवया तस्स, रयहरणं ताव ढोयई।। उग्गं कंठं तवचरणं, तस्स दवण ईसरो। लोओ पूयकरेमाणा, जाव उ गंतूण पुच्छइ॥ केणं तं दिक्खिओ कत्थ, उप्पन्ने को कुले तव / सुत्तत्थं कस्स वा मूले, साइसयं हेसमज्झिय / / सो पचरागबुढे जाव, सव्वं तस्स विवागरे। जाईकुलं दिक्खा सुत्तं, अत्थं जह य समज्झियं / / तं सोऊण अहन्नो सो, इमं चिंतेइ गोयमा। अलिया अणारिओ एस, लोगहे तेण परिसुसे // ताजारिसमे सभासेइ, तारिसं सो विजिणवरो। णं किंचेत्थ वियारेणं, मुम्हिकेई वरं ठिए। अहवाणाहिहि सो भयवं, देवदाणवपणमिओ। मणासायं पिजं मज्झं, तं पिछिनिज संसयं / / तावे स जो हो उसो होउ, किं वियारेण एत्थ मे। अभिणंदामीह पव्वज्जं, सव्वदोसविमोक्खर्णि। ता पडिगओ जिणंदस्स, सया से जातणक्खई। भुवणेसं जिणवरं, तो वि गणहरमासियं / / ठिओ परिनिव्वुयम्मि, भगवंते धम्मतित्थयरे। जिणाभिहियं सुत्तत्थं, गणहरो जाय रूवई॥ तावमालावगं एयं, वक्खाणम्मि समागयं। पुढवीकाइगमे एगो, वावा एसो असंजओ॥ ता ईसरो वि चिंतेइ, सुहुमे पुढविकाइए। सव्वत्थउद्दविञ्जत्ति, को ताइं रक्खि उंतरले // हुई करेइ अत्ताणं, एत्थं एस महायसो। असद्धेयं जणे सयले, किमट्ठयपव्वइक्खइ॥ अचंतकडयडं एवं, वक्खाणं तस्स वीफुडं। कंठं सोसोयरं लाभे, एरिसं कोणुचिट्ठए। ता एयं विप्पएत्तूणं सामग्गं किंचिमज्झिमं। जं वा तं वा कहे धम्म, तालोउन्हाण उट्ठइ॥ अह वा हाहा अहं मूढो, पावकम्मा णराहमो। णवरं जइ णाणुचिट्ठामि, अन्नो न चिटुंती जणे // जेणायमणंतनाणीहिं, सव्वन्नहिं पवेदियं / जो एहि अन्नहा वाए, तस्स आट्ठो ण वजई।। ताहमेयस्स पच्छित्तं, घोरमइदुक्करं चिरं। लहुं सिग्घमुसिग्घयरं, जाव मत्थूण मे भवे / / आसायणाकयं पावं, आसंजेण विहुव्वती। दिव्वं वाससयं पुन्नं, अह सो पच्छित्तमणुचरे॥ तं तारिसं महाघोरं, पायच्छित्तं सयं मई। काउं पच्छियबुद्धस्स, सया मे पुण वीगओ।। तत्थावि जामुणेवक्खा, ता वहिगारमिमागयं / पुढवादीणं समारंभ, साहू तिविहेण वजए। दढमूढो हुओ जोई, ताईसरो मुक्कमूलको। बिं तेवं जहिच्छजए, को ण ताईसमारभे !! पुढवीए नावए सेव, समासीणो विचिट्ठई। अग्गीए रद्धमक्खाइ, असणखाइमसाइम / / अन्नं व विणा पाणेणं, खणमेकं जीवए कह। ता किं पितं पत्थवक्खेज, संपवुयमच्छंतियं // इमस्सेव समागच्छे,ण उणायं कोइ सद्दहे। ता चिटुंतु ताव एसेत्थं वरं सो चेव गणहरो॥ अहवा एसो उणमज्झं, एकोवि भणियं करे। अलिया एवंविहं धम्म, किंचुद्देसे य तं पिओ। साहिज्जइ जो स वि किंचि,ण तु सामचंतकडयडं। अहवा चिटुंतु तावेद, अहयं सयमेव वागरं / / सुहं सुहेण जं धम्मं, सव्वोवि अणुट्ठए जणो। न कालं कडयडस्सज्ज, धम्मस्सिति जा विचिंतइ / / घडं डिंतो सणीताव, निवडिउ तस्सोवरि। गोयम ! निहणं गओ ताहे, उववन्ना सत्तमा एसो॥ सासण सुयनाणसंसग्ग, पीडणीयत्ताइ ईसरो। तत्थं तं दारुणं दुक्खं, नरए अणुभविउ चिरं / / इहा गओ समुद्दम्मि महामच्छो भवे उण। पुणोविसत्तमाएय, तित्तीसं सागरोवमे।। दुट्विसहं दारुणं दुक्खं, अणुचिट्ठिऊण इहागओ। तिरियपक्खीसु उववन्नो, कागत्ताए स ईसरो॥ तओ वि पढमियं गंतु, उवट्टित्ता इहागओ। दुह्रसाणो भवेत्ताण, पुणरवि पढमियं गओ। उव्वट्टित्ता तओ इहई,खरो होहं पुणो मओ। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्सरकड -674 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इहत्थ उववण्णा रासहत्ताए, छन्मवगहणे निरंतरं। दधिकेन निमित्तेन भाव्यं तच्चेश्वराभ्युपग-मेप्यदृष्टमेवेति दृष्टव्यं नान्यथा ताहे माणुस्स जाईए, एसिमुप्पन्नो मओ। सुखदुःखसुभगदुर्भगादिजगद्वैचित्र्यं स्यादिति। आचा०१ श्रु। भ०। उय्वन्नो वयणरत्ताए, माणुसत्तसमागओ।। (विस्तरेणैतन्मतनिराकरणमिस्सरशब्दे) तओ विमरिउ समुप्पन्नो, मजारत्ता स ईसरो। इस्स(ईस)रविभूइ-स्त्री०(ईश्वरविभूति)६ तत्पुरुष, ईश्वरस्य विभूती, पुणो वि नरयं गंतु (इह) सीहत्तेण पुणो मओ।। नृपे च। वाचा उववज्जियं चउत्थीए, सीहत्तेण पुणोविहं। इस्स(ईस)रसरिस-त्रि.(ईश्वरसदृश) ईश्वरस्थानीये, (ईसरसरितो मरिऊणं चउत्थीए, गंतुं इह समागओ॥ गुरु) ईश्वरसदृश ईश्वरस्थानीय इति। व्य.१ उ.ा वाचता तओ वि नरयं गंतुं, चक्कियत्तेण ईसरो। इस्स(ईस)रिय(या)मय-पुं०(ऐश्वर्यमद) ऐश्वरर्येण मदः ऐश्वर्यमदः / तओ वि कुटिहोऊणं, बहुदुक्खदिओ मओ।। मदस्थानभेदेः, स्था०८ ठा० सम०। प्रश्न०। किमिएहिं खज्जमाणस्स, पन्नासं सहिवच्छरे / इस्स(ईस)रिय(प्र)सिद्ध-स्त्री (ऐश्वर्यसिद्धि) ईश्वरत्वसिद्धौ, जा काम निज्जरा जाया, तीए देवेसु वञ्जिओ॥ साचाष्टगुणा तद्यथा-"अणिमालघिमा गरिमा प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं तओ इहईनरिस्सत्तं,लद्धणं सत्तमि गओ। प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायित्वम् इति। सूत्र०१ श्रु१ अ०३ उ०। एवं नरगतिरिच्छेसु, कुच्छिय मणुएसु ईसरो।। इस्स(ईस)रीकय-त्रि.(ईश्वरीकृत) अनीश्वरे,-ईश्वरीकृते, (ईसरेण गोयमा ! सुइपरिभमिउं, घोरदुक्खसुदक्खिओ। अदुवा गामेणं अणिस्सरे ईसरीकए) ईश्वरेण प्रभुणा अथवा ग्रामेण संपइ गोसालओ जाओ, एससउ वीसरजिओ। जनसमूहेनानीश्वर ईश्वरीकृत इति। सम०२९ सा दशा। तम्हा एहि वियाणित्ता, अचिरागीयत्थेमुणी। इस्सास-पुं.(इष्वास) इषवोऽस्यन्तेऽनेन। असु क्षेप्रे करणेघषष्ठीतत्पु / भवेजा विदियपरमत्थे, सारासारपरत्तुए। इति॥ धनुषि, शरक्षेपके, त्रि. (तीरन्दाज) मेदिला वाच०। महा०६ अ।। स्वनामख्यातेऽभिनन्दनजिनस्य यक्षे च / तथा च इह-अव्य (इह)"इदम इमः // 37 // इति प्राकृतसूत्रेणेदम इमादेशः। डेम न हः 6375 // इति प्राकृतसूत्रेण इदमः कृते मादेशात्परस्य प्रवचनसारे श्रीअभिनन्दनस्येश्वरो यक्षः श्यामकान्तिर्गजवाहनश्चतुर्भुजो स्थाने मे सह ह आदेशो वा / प्रा०ा डे स्सिम्मित्था 3/19 // इति मातुलिङ्गाक्षः सूत्रयुक्तदक्षिणकरकमलद्वयो नकुलाङ्कुशान्वितो प्राकृतसूत्रेण त्थादेशः प्राप्त 'नत्थः' 8373 / इति प्राकृतसूत्रेण वामपणिद्वयश्चेति। प्रव०२७ द्वारा निषिद्धः। इह इमस्सि इमम्मि। प्रा०; अस्मिन् काले देशे दिशिवा इत्यर्थे, इस्स(ईस) रक ड-त्रि (ईश्वरकृत) ईश्वरविरचिते, "ईसरेण तद खिलमिहभूतं भूतगत्या जगत्या। नैषा अनुभूयमाने लोके चावाचा कडेलोए"। सूत्र.१ श्रु०१ अ०३ उ! (जगत ईश्वर कृतत्वनिराकरणम् (इह सावसेसकम्मा) इह तिर्यग्लोके किंभूताः सावशेषकर्माणः। 'जं वि 'इस्सर' शब्दे-) य इह माणुसत्तणं आगया" येऽपि चेह मर्त्यलोके मनुष्यत्वमागता इति। इस्स(ईस)रकडवाइन-पुं.(ईश्वरकृतवादिन्) जगदीश्वरकृतत्व- "अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे" इह जीवलोके हिंसन्ति घन्ति त्रसान् वादिनि वादिविशेषे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ(तन्मतनिराकरणमिस्सरशब्दे) प्राणान् / प्रश्न०१ द्वा। "इह खलु छजीवणिकायाणामज्झयणं' इहेति इस्स(ईस)रकारय-पु.(ईश्वरकारक) जगदीश्वरकृ तत्ववा- लोके प्रवचने वेति। दश०४ अा "इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु'' दिनि वादिविशेष, सूत्र०९ श्रुर अ०२ उता (तन्मतनिराकरण 'मिस्सर' (इहं वित्ति) बिन्दुलोपात् इह वास्मिन् वाऽनुभूयमाने भवे शब्दे)॥ मनुष्यजन्मनीति / पाल। इह खलु अणादिजीवे इहलोक इति- पं.सू।। इस्स(इसर)रवाई (न्)-पुं०(ईश्वरवादिन) ईश्वरस्य जग जेणेह णिव्वहे भिक्खू इहास्मिन् लोके इति --सूत्र०१ श्रु९ अा 'इहेव त्कारणतद्वादिनि प्रवादिविशेषे, सूत्र०३ श्रु०१ अ०२ उ०। तन्मतमा चाराने माणुस्सए भवे' इहैव प्रत्यक्षे मानुष्यके भवे इति / स्था०८ ठा०। 'के वा दर्शितम् -तद्यथा वैशेषिकास्तनुभवनकरणादिक-मीश्वरकर्तृकमिति इओचुयो इहपेच्चा भविस्सामि' कोवादेवादिरितो मनुष्यादेर्जन्मनश्च्युतो प्रतिपन्नास्तदुक्तम् "अन्यो जन्तुरनीशः स्या-दात्मनः सुखदुःखयोः / विनष्ट इह संसारे प्रेत्य जन्मान्तरे भविष्याम्युत्पत्स्यामीति / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा स्वभ्रमेव वे" त्यादिकं प्रवादमात्मीय प्रवाहेन वाक्योपन्यासे, "इह खलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा" पर्यालोचयेत्तद्यथा इन्द्रधनुरादीनां विश्रसा परिणामलब्धात्मलाभानां इहेति वाक्योपन्यासे प्रज्ञापकक्षेत्रे वेति। आ.चा०१ श्रु.१ अ तदतिरिक्तेश्वरादिकारण-परिकल्पनायामतिप्रसङ्ग स्थात्तथा इहगय-त्रि०(इहगत) इह व्यवस्थिते, "से भंते किंइहगएपोग्गले परियाइत्ता घटपटादीनां दण्डचक्रचीवरसलिलकुलालतुरीवेमसलाकाकु विकुव्वइ" इह पृच्छको गौतमस्तदपेक्षया इहशब्दवाच्योमनुष्यलोकस्ततश्च विन्दादिव्यापारा-नन्तरावाप्तात्मलाभानां तदनुपलब्धव्यापारेश्वरस्य इह गतान् नरकलोक-व्यवस्थितानिति। भ०७ शा ऊ०) करण-परिकल्पनायां रासभादेरपि किं न स्यान्नतु करणादीनाभप्यबन्ध्यं इहत्थ-त्रि. (इहार्थ) इहैव जन्मन्यर्थं प्रयोजनम्भोगसुखादिर्यस्य स्वकृतकर्मापादितं वैचित्र्यं कर्मणोनुपलब्धेः कुत एतदिह चेत्समानः | सः। भोगपुरुर्ष, स्था०४ ठा० पर्यनुयोगोऽपिचतुल्ये मातापित्रादिके कारणे अपत्य-वैचित्र्यदर्शनात्त- / इहस्थ-त्रि इहै व जन्मन्यास्था वा इदमेव साध्विति बुद्धि Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहपरलो. 675 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इहभव र्यस्य स इहास्थः / भोगपुरुष, इह लोकपरिबद्धे च / स्था०४ ठा०। इहस्थइहैव विवक्षिते ग्राभादौ तिष्ठतीति इहस्थस्तत्प्रतिबन्धात्। विवक्षिते ग्रामादौ प्रतिबद्धे,-स्था०४ ठाला इहपरलोयविरुद्ध-त्रि (इहपरलोकविरुद्ध) इहलोकविरुद्ध निन्दादिके, परलोकविरुद्धखर कर्मादिके, इहलोकपर-लोकविरुद्ध गर्दभादिके च। धर०। इह लोके विरुद्धकारिणो वधबन्धादयो दोषाः परलोके च नरकगमनादय इति तथाचाहइह परलोयविरुद्धं, न सेवए दाणविणयसीलड्डो। लोयप्पिओ जणाणं, जणेइ धम्मम्मि बहुमाणं // इह लोकविरुद्धं परनिन्दादि यदुक्तं / "सव्वस्स चेव निंदा विसेसओ | तहय गुणसमिद्धाणं / उजुधम्म करण हसणं रीढा जण पूयणिजाणं" ||1|| बहुजण विरुद्धसंगो, देसादावार लंघणं तहय। उच्चण भोगोयतहा दाणाइवियड मन्नेसिं ॥शा साहु वसणम्मि तो सो सइसामत्थम्मि अपडियारो य / एमाइयाइं इत्थं लोगविरुद्धाइं नेयाणित्ति" ||3|| परलोकविरुद्धं खरकर्मादितद्यथा।"बहुधा खरकर्मित्वं सीरपतित्वं च शुक्लपालत्वम् / विरतिं विनापि सुकृति करोति नैवं प्रकाराद्यम्' / उभयलोकविरुद्धंद्यूतादि॥ तद्यथा"धूतंचमांसंच सुरा च ३वेश्या ४पापर्द्धि५ चौर्य६ परदार सेवा७। इतानिसप्त व्यसनानिलोकेपापाधिके पुंसि सदा भवन्ति // इहैव निन्द्यते शिष्टर्व्यसनासक्तमानसः / मृतस्तु दुर्गति याति, गतत्राणे नराधम्" इति / धर०। इहपरलोयावाय-पुं०(इहपरलोकापाय) ऐहिकामुष्मिकविरोधिनि --- तथाचावश्यकेरागहोसकसाया, सवाइ किरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावाए, झाइजा वञ्जपरिवजी॥ रागद्वेषकषायाश्रवादिक्रियासु वर्तमानानामिह परलोकापायान्ध्यायेत् / यथा रागादिक्रियैहि कामुष्मिकविरोधिनी / उक्तंच "रागसंपद्यमानोपि, दुःखदो दुष्टगोचरः / महाव्याध्यभिभूतस्य, अपथ्यान्नाभिलाषवत् ।श द्वेषः संपद्यमानोऽपि, तापयत्येव देहिनम् / कोटरस्थोचलन्नाशु, दावानल इव द्रुमम् / / दृष्ट्वा तद्भेदभिन्नस्य, रागस्यामुष्मिकंफलम्। दीर्घः संसार एवोक्तः, सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभि रित्यादि 13 / दोसाऽनलसंतत्तो, इहलोगे चेव दुक्खिओ जीवो / परलोगम्मि य पावो, पावपनियानलं तत्तो !|4|| इत्यादि तथा कषायाप्रायाः क्रोधादयस्तदपायाः पुनः। "कोहो पीइं विणासेइमाणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो 5 कोहा य माणो य अणिग्गहीया, माया यलोभो य पवट्टमाणा। चत्तारिएए कसिणो कसाया, सिंचंति मूलाइँ पुणब्भवस्स"६ तथा आश्रवाः कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वादयस्तदपायाः पुनः। मिच्छत्तमोहियमती,जीवो इह लोग एव दुःखाई। निस्सोवमाइयादो, पावति य समाइगुणहीणे 7 / "अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योपिसर्वदोषेभ्यः। अर्थ हितमहितं वान वेत्ति येनावृतो लोकः हा जीवा पावंतिण्हं पाणवधादविरतियपावेए। नियसु य घायणमादी, दोसे जणगरहिय पावे।। परलोगम्मिवि एवं, आसव किरियाहि अजिए कम्मे। जीवाणचिरगवायणि-रयादिगतिगमंताणं 10 इत्यादिआदिशब्दः स्वगतानेकभेदज्ञापकः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धः भेदग्राहक | इत्यन्ये / क्रियासुकायिक्यादिभेदाः पञ्चएताः पुनरुत्तरत्र संक्षेपेण वक्ष्यामः। विपाकः पुनः "किरि, यासु वट्टमाण, काइगमाईणु दुक्खिया जीवा। इह चेव यपरलोगे संसारपवट्टगा भणिया' ततश्चैवं रागादि क्रियासु वर्तमानानामपायान्ध्यायेत् / किं विशिष्टः सन्नित्याह / वर्त्यपरिवर्जी तत्र वर्जनीयं वर्ण्यमकृत्यं परिगृह्यते तत्परिवर्जी अप्रमत्त इति गाथार्थः। आव०४ अ! इहभव-पु.(इहभव) अत्र भवे,-दशा०१ अ। इहमवेएगेभवे तस्स विप्पनाससि सव्वनासोत्ति एवं जप्पति मुसावायी। इह भवे एव प्रत्यक्षजन्मैव एको भव एकं जन्म नान्यः परलोकोऽस्तिप्रमाणाविषयत्वात् तस्य शरीरस्य विविधैः प्रकारैः प्रकृष्टो नाशः प्रणाशस्तस्मिन् सति सर्वनाश इति नात्मा शुभाशुभरूपं वा कर्माविनष्टमवशिष्यते / एतमेवोक्तप्रकारेण (जंपति) जल्पन्ति मृषावादिनः मृषावादिनां चैषां जातिस्मरणादिना जीवपरलोकसिद्धेरिति / प्रश्न०२ दाता (परलोकसिद्धेर्बहुवक्तव्यता परलोगशब्दे) यो यादृगिह भवे परत्र भवे स तादृशोऽन्यादृशो वेति निर्णीतं यथा. अणंते निइएलोए नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तःन निरन्वयनाशेन नश्यति इत्युक्तं भवतीति। तथाहि यो यादृगिह भवे स तादृगेव परभवेप्युपपद्यत पुरुषः पुरुष एवाङ्गनाङ्गनैवेत्यादि-सूत्र०२ श्रु.१ अ०l विस्तरेणैतद्वक्तता सुधर्मगणधरसंवादे यथाकिं मन्ने जारिसो इह, भवम्मि सो परभवे वि। वेयपयाण य अत्थं, न याणसी तेसि मो अत्थो / / त्वमेवं मन्यसे यो मनुष्यादिदृश इहभवे स तादृशः परभवेपि नन्वयमनुचितस्ये संशयो यतो धर्मो विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्तते। तानि चामूनि "पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, पशवः पशुत्वमित्यादि। तथा "शृगालो वै एष जायते यः सुपुरीषो दह्यते इत्यादि एषां च वेदपदानाममुमेवार्थ मन्यसे त्वं पुरुषो मृतः सन्परभवे पुरुषत्वमेवाश्नुते प्राप्नोति। यथा पशवो गवादयः पशुत्वमेवेत्यादि। अमूनि किल भवान्तर गतजन्तुसादृश्य प्रतिपादकानि। तथा शृगालो वैत्यादीनिवैशदृशाख्यापकानीत्यतस्तव संशयः / अथं चायुक्त एव यतो अमीषां वेदपदानां नायमर्थः किन्तु वक्ष्यमाणलक्षण इति। अत्र भाष्यम्। कारणसरिसं कजं, वीयस्सेवंकुरोत्ति मण्णंतो। इहभवसरिसं सवं, जमदेसि परेसि तमञ्जुत्तं / / सुधर्माणं प्रति भगवानुवाच / इह कारणानुरूपमेव कार्यं भवति यथा यवबीजानुरूपो यवाड्कुरः इह भवकारणं चान्यजन्म ततस्तेनापि इहभवसदृशेन भवितव्यमित्येवं मन्यमानस्त्वं यदिह भवसदृशं सर्व पुरुषादिकं परभावेष्यवैषि तदयुक्तमेवेति कुत इत्याह / जाइसरोर्सिगाउ, भूतणओ सासवाणुलित्ताउ। संजायइ गोलोमा-विलोमसंजोगउ दुव्वाइ॥ रुक्खायुवेदेजोणि-विहाणेयविसरसेहिंसो। दीसइ जम्हा जम्म, सुहम्मतो नायमेगत्तो।। ततः कारणानुरूपं कार्यमिति / सुधर्मनायमेकान्ततो यतः शृङ्गादपि शरो जायते तस्मादेव च सर्षपानुलिप्ताद्भूतृणकः इष्पसंघातो जायते / तथा गोलोमाविलोमाभ्यां दूर्वा प्रभवति Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहभव 676 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ इहभव इत्येवं वृक्षायुर्वेद विलक्षणानेकद्रव्यसंयोगजन्मानो वनस्पतयो दृश्यन्ते। तथा योनिविधाने च योनिप्राभृते विसदृशानेक- द्रव्यसंयोगयोनयः सर्वहिंसादिप्राणिनो मणयो हेमादयश्च पदार्थानानारूपाः समुपलभ्यन्ते अतः केयं कार्यस्य कारणानुरूपतेति / अथवा यत एव कारणानुरूपं कार्यमत एव भवान्तरे विचित्ररूपता जन्तूनामिति दर्शयति। अहव जउद्वियविया-गुरूविजम्मं मयं तओ चेव। जीवं गिण्णभवाओ, भवंतरे चित्तपरिणामं // जेण भवंतरबीयं, कम्मविचित्तं तओभिहियं / हेउविचित्तणउ, भवंकुरविचित्तया तेणं॥ जइ पडिवनं कम्म, हेउ विचित्तत्तउ विचित्तं च / नो तप्फलं विचित्तं, पज्जवसंसारिणो सोम्म॥ अथवा यत एव बीजानुरूपं कारणानुगुणं कार्याणां जन्म मतं तत एवेह भवाद्भवान्तरे जीवं गृहाण प्रतिपद्यस्व। कथंभूतं जातिकुलबलैश्वर्यरूपादि विचित्रपरिणामम् / यदि नाम बीजानुरूपं जन्म तथापि कथं भवान्तरे विचित्रता जीवानामित्याह / जेण भवंकुरेत्यादि येन यस्मान्नारकतिर्यगादिरूपेण भवनं भवः स एवाड्कुरस्तस्याश्रीजमिह कमवावसेयं तच मिथ्यात्वाविरत्यादि हेतु वैचित्र्याद्विचित्रं तस्मान्मयाभिहितं तस्मात्तजन्यस्य भवाकुरस्यापि जात्यादिभेदेन विचित्रता। ततो यदि त्वया कर्म प्रतिपन्नं हेतुवैचित्र्याच यदिच तद्वैचित्र्यमभ्युपगतं ततः ससारिणो जीवस्य तत्फलमपि नारकतिर्यड्मनुष्यामररूपेण भवनरूपं सौम्य ! विचित्ररूपं प्रतिपद्यस्वेति। अत्र प्रमाणमुपचरयन्नाह। चित्तं संसारितं, विचित्तकम्मफलभावओ हेऊ। इहचित्तं चित्ताणं, कम्माणफलंच लोगम्मि॥ चित्रं संसारिजीवानां नारकादिरूपेण संसारित्वमिति प्रतिज्ञा विचित्रस्य कर्मणः फलरूपत्वादिति हेतुः / इह यद्विचित्रहेतुकं तद्विचित्रमुपलभ्यते यथेह विचित्राणां कृषिवाणिज्यादि कर्मणां लोक इति। तदेवं कर्मवैचित्र्ये प्रमाणमाह। चित्ता कम्मपरिणई,पोग्गलपरिणामउ जहा बज्झा। कम्माण चित्तया पुण, तद्धेउ विचित्तभावाउ।। इह चित्रा कर्मपरिणतिः पुद्गलपरिणामात्मकत्वादिह यत्पुद्गलपरिणामत्मकं तद्विचित्रपरिणतिरूपं दृश्यते / यथा बाह्यो भ्रादिविकारो वा पृथिव्यादिविकारो वा यत्तु विचित्रपरिणतिरूपं न भवति तत्पुद्गलपरिणामात्मकमपि न भवति यथा आकाशम् / यः पुनः पुगलपरिणामसाम्येपि कर्मणामावर्णादिभेदेन विशेषतो विचित्रता सा तद्धेतुवैचित्र्याद वगन्तव्या विचित्राश्च मिथ्यात्वादयः प्रद्वेष मनिह्नवादयश्च कर्महेतव इति। अथ पराभ्युपगमेनैव परभवे जीवानां वैसदृश्यं साधयन्नाह। अहवा इहभवसरिसा, परलोगो वि जइ सम्मओ तेणं / कम्मफलं पिइहभव-सरिसं पडिवज्ज परलोए।। किं भणियमिहं मणुया, नाणागइकम्म कारिणो संति / जइ ते तप्फलभाजो, परे वि तो सरिसया जुत्ता। अथवा यदि इह भवसदृशः परलोकसंमतो भवतः ततः कर्मफलमपि परलोके इह भवसदृशं इहत्थ विचित्र-शुभाशुभक्रियानुरूपं विचित्रं / प्रतिपद्यस्वेति। एवं मुकुलितं प्रतिपद्यैतदेव भावयति (किंभणियमित्यादि) किमेतावता प्रतिपादितं भवति इह तावन्मनुष्याः नानागतिहेतुभूतविचित्रक्रियानुष्ठायिनः सन्तीति प्रत्यक्षत एव लभ्यन्ते ततो यदि ते परलोके तक्रियाफलभाज इष्यन्ते ततो यथैहत्यक्रियाणां स सदृशता तथा परलोकगतजन्तूनामपि सैव युक्ता। ननु योत्र यादृशः स परत्रापि तादृश एवेति अत्र पराभिप्रायमाशक्य परिहरन्नाह। अह इहसफलं कम्म,न परेत्तो सव्वहान सरिसत्तं। अकयागमकयनासा, कम्माभावो ह वा पत्तो। कम्माभावेह कओ, भवंतरं सरिसया व तदभावे। निकारणउव्वन्ना, जइ तो नासो वि तह चेव / अथैवं ब्रूषे इह सफलं कर्मेति इह भव संबन्धेतत्कृष्यादि क्रियारूपं कर्म सफलंनतुपरभविकदानादिक्रियारूपं कर्म। ततश्च तत्फलं भवान्नपरलोके जन्तुवैसदृश्यम्। अत्रोत्तरमाह। (तोसव्वहेत्ति) तत एवं सति यत्तवाभिप्रेतं तत्सर्वथा परभवे जीवानां सदृशत्वं न स्यात्तद्धि कर्मणा जन्यते // तच्च नास्तिपारभविक क्रियाणां त्वया निष्फलत्वाभ्युपगमत्वान्निष्फलत्वे च काभावादय काभावेपि भवेत्सादृश्यं तहकृतस्यैव तस्यनिर्हेतुकस्यागमः प्राप्नोति कृतस्य चदानहिंसादिक्रियाफलरूपस्य कर्मणो नाशः प्रसञ्जति / अथवा मूलत एव कर्मणा मभावः प्राप्तः दानहिंसादिक्रियाणां निष्फलत्वाभ्युपगमान्मूलत एव कर्मणो बन्धोपिन स्यादिति भावः / ततः किमित्याह / कर्माभावेच कारणभावात्कुतो भवान्तरं तदभावे च दूरोत्सारितमेव सादृश्यम्। अथ कर्माभावेपि भव इष्वते तर्हि निष्कारण एवासौ स्याद्यदि चैवमयमिष्यते ततो नाशोपि तस्य भवस्य निष्कारण एव स्यादतो व्यर्थस्तपोनियमाद्यनुष्ठानप्रयासः / निष्कारणे च भवे ऽभ्युपगम्यमाने वैसादृश्यमपि जीवानां निष्कारणं किं नेष्यते विशेषाभावादिति। अथ प्रेरकमाशक्य परिहरन्नाह। कम्माभावे वि मई, को दोसो होज जइ सभावोयं / जह कारणाणुरूवं, घडाइकजं सहावेणं / / अथ परस्यैवंभूता मतिः स्याद्यदुतकर्माभावेऽपि यदिसद्भावरूपः स्वभाव एवायं सचेत्तर्हि को दोषः स्याद्विनापि कर्म यदि स्वभावादेव भवः स्यात्तर्हि कि दूषणं भवेन्न किंचिदित्यर्थः / दृष्टान्तमाह / यथा कर्म विनापि मृत्पिण्डादिकारणानुरूपंघटादिकार्य स्वभावेनैवोत्पद्यमानं दृश्यते तथा सदृशप्राणिजन्मपरंपरारूपो भवोपिस्वभावादेव भविष्यति। अत्रोच्यते। ननुघटोऽपिस्वभावत एव जायते कर्तृकरणाद्यपेक्षित्वात्तस्य, ततश्चेहापि कर्तुरात्मनः पारभविकस्य च शरीरादिकार्यस्य करणं संभाव्यते / तच कर्तृकार्याभ्यां भिन्नं लोके पि दृश्यते / कुलाल घटाभ्यां चक्रादिवद्यचेहात्मनः शरीरादि कार्यं कुर्वतः करणं तत्कम्र्मेति प्रतिपद्यस्वेति / स्यादेतद्धटादेः प्रत्यक्षसिद्धत्वाद्भवन्तु कुलालादयः कर्तारः, शरीरादिकार्य त्वभ्रादिविकारवत्स्व-भावतोपि भविष्यति ततो न कर्मसिद्धिस्तदयुक्तम् / यतो न स्वाभाविक शरीरादि आदिमत्प्रतिनियताकारत्वाद्धटवदिति / किंचि कारणानुरूपमेव कार्यमित्येवं परभवे सादृश्यं त्वया ऽभ्युपगम्यते तदपि स्वभाववादिनस्तवाभादिविकारदृष्टान्ते परिहीयते / अभ्रादिविकारस्य स्वकारणभूतपुद्गलद्रव्यादतिविलक्षणत्वादिति। अपिच। होज सहावो वस्सु, निकारणया च वत्थुधम्मो वा। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहभव 677 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 इहभव जइ वत्थु नत्थि तओ, गुवलद्धीओ खपुष्पं च // अचंतमणुवलद्धो, विअ अह तउ अस्थि नत्थि तो कम्म। हेऊ वि तदत्थित्तो, जो नणुकम्मस्स विसयव्व / / कम्मस्स वाभिहाणं, होज सभावो त्ति होउ को दोसो। निचं च सो सभावो, सरिसो पत्थं च को हेऊ / / एतद्गाथात्रयमपि प्रायः पाठेनैव व्याख्यातार्थ नवरं निश्चमित्याह तृतीयगाथोत्तरार्द्धम् / इदमत्र हृदयं स स्वभावो नित्यंसदृश एव त्वयाभ्युपगन्तव्यो भवान्तरे सदृशस्यैव मनुष्यादिभवस्य जननात्तस्य च स्वभावस्य नित्यसदृशत्वे को हेतुर्न कश्चिदित्य-भिप्रायः / स्वभावतः यद्ययं स्वभावः सदृश इति चेन्ननुभवविस-दृशतायामप्येतद्वक्तुं शक्यत एवेति। किंच मुत्तो वा मुत्तो वा, जइ मुत्तो तो न सव्वदा सरिसो। परिणामो पयं पिव, न देहहेऊ जइ अमुत्तो। उवगरणाभावाओ, न य हवइ सुहम्म सो अमुत्तो वि। कजसुमुत्तिमत्ता, सुन्सास्तिाहिमोशेव। सस्वभावो मूर्तोऽमूर्तो वा यदि मूर्तस्तर्हि कर्मणा सह तस्य को विशेषः संज्ञान्तरमात्रविशिष्टकमवेत्थमुक्तं स्यादिति। न चासौ सर्वदैव सर्वथा सदृशो युज्यते परिणामित्वाद्दुग्धादिवदथवा मूर्तत्वादेवाभ्रादिविकारवदिति / अमूर्तोऽसौ स्वभावस्तर्हि नैष देहादीनामारम्भको ऽनुपकरणत्वाद्दण्डादिविकलकुलालवद-मूर्तत्वादाकाशवत् (नय हवइ सुहम्मसो अमुत्तो वित्ति) किंच सुधर्मन्नितोऽपि स स्वभावोऽमूर्तो न युक्तः शरीरादेस्तत्कार्यस्य मूर्तिमत्त्वान्नह्यमूर्तस्य नभस इव मूर्त कार्यमुपपद्यते / तथा सुखसंवित्त्यादेश्च नायं मूर्तः / इदमुक्तं भवति। कर्म तावद्भवता नेष्यते स्वभाववादित्वात्ततश्च शरीरादीनि सुखदुःखसंवित्यादीनिचस्वभावस्यैव कार्याण्येष्टव्यानि नतस्य वा मूर्तत्वेनैतान्युपपद्यन्ते। ततो यथा द्वितीयगणधरवादे कार्यस्य मूर्तत्वात्सुख-संवित्त्यादेश्च कर्मणोमूर्त्तत्वंसाधितंतथेहस्वभावस्यापिसाधनी-यम्। तथाच प्रागुक्तम् आह। "नणु मोत्तमयमुत्तं, चिय कज्जमुत्ति मत्ताउ। इहजह मुत्तित्तणओ, घडस्स परमाणओ मुत्ता। तह सुह संवित्तीउ, संविधिवेयणुब्भवाओ य। वन्भवलाहाणीउ, परिणामा माउयविण्णेयमिति' अथनिष्कारणता स्वभावमिति द्वितीयविकल्पमधिकृत्याह अहवा कारणउ चिय, समावउत्तो विसरिसया कत्तो। किमकारणाउन भवे, विसरिसया किंच विच्छित्ती॥ अथ स्वभावत एव भवोत्पत्तिरित्यत्र अकारणत एवेत्य-यमथोभिप्रेतः (तावित्ति) तथापि हन्त ! परभवे सदृशता कुतः कोऽभिप्राय इत्याह / यथा कारणतः सदृशता भवंति तथा किमित्यकारणत एव विसदृशता न स्यादकस्माचाकारणतो भवविच्छित्तिः कस्मान्न स्यादकस्भाच भवेत्खरविषाणादिरपि भवेच्छशरीरादीनां च कारणत्वात्तेन चाभ्रादीनामिव प्रतिनियता कारणत्वादिरूपता न स्यात्तस्मान्नाकारणता स्वभावत इति। अथ वस्तुधर्मोसाविति तृतीयविकल्पमाश्रित्याह। अहव सहावो धम्मो, वत्थुस्सन सो विसरिसओ निश्च / उप्पायट्टिइभंगा, चित्ता जंवत्थुपजाया।। अथ वस्तुनो धर्मस्वभावः सोपिसर्वदैव सदृशोनघटत इति। किं कथं सर्वदैव शरीरादीनां सदृशतांजनयेत्कथं पुनरस्य सदैवसदृ-शतानघटत | इत्याह / / (उप्पायेत्यादि) यद्यस्मादुत्पादस्थिति-भङ्गादयश्चित्रा वस्तुपर्याया न च ते सदैवावस्थितसादृश्याः नीलादीनां वस्तुधर्माणां प्रत्यक्षत एवान्यान्यरूपतया परिणतिदर्शनात् / किंच वस्तुधर्मोसौ भवत्स्वभाव आन्मधर्मो -वासौ स्यात्पुद्गलधर्मो वा / यद्यात्मधर्मस्तर्हि नासौ शरीरादीनां कारणम् अमूर्तत्वादाकाशादिवदथ पुद्गलधर्मस्तर्हि कम्मैवासौ कर्मणोपि हि पुद्गलास्तिकायधर्मत्वेनास्माभिरभ्युपगतत्वादिति। किंच॥ कम्मस्स वि परिणामो, सुह धम्मधम्मो सपोग्गलमयस्स। हेऊ चित्तो जगओ, होइ सहावोत्ति को दोसो।। सुधर्मन्नसौ वस्तुधर्मो भवत्स्वभावो धर्मो भवति को दोषो न कश्चित् युक्तियुक्तत्वात्किविशिष्टोधर्म इत्याह! परिणामकस्य कर्मणः कथंभूतस्य पुद्गमयस्य कथंभूतो यः कर्मपरिणाम इत्या-ह / हेतुः कस्य जगतो जगद्वैचित्र्यस्य तदेवं कर्मलक्षणस्य वस्तुनः परिणामरूपो धर्मो भवति स्वभावो नात्र काचिद्दोषापत्ति रस्माकमपि सम्मतोऽयमर्थः केवलं सर्वदा सदृशोसौ न भवति किन्तु चित्रो मिथ्यात्वादिहेतुः वैचित्र्याद्विचित्रो विविधस्वभावः। अतो नातामात्परभवे सादृश्यमेव किन्तु विचित्ररूपतेति यदिवा किमनेनाव्यापकेन मिथ्यारूपेण चैकान्तवादेन, सर्वव्यापकमवितथरूपंचानेकान्तवादमेव दर्शयन्नाह॥ अहवा सव्वं वत्थु, पइक्खणं चिय सुहम्म धम्मेहि। संभवइ चेइ केहि वि, केहि वि तदवत्थमचंतं // तं अप्पणो विसरिसं,न पुथ्वधम्मेहिं पच्छिमिल्लाणं। सयलस्स तिहुयणस्सव, सरिसं सामण्ण धम्मे हिं।। अथवा सुधर्मन्किमेक एव परभवः सर्वमेव हि घटपटादिकं भुवनान्तर्गत वस्तु कैश्चित्पूर्वपर्यायैः समानासमानपर्यायैः प्रतिक्षणमुपपद्यते / कैश्चित्पुनरुत्तरपर्यायैः समानासमानपर्यायै-व्ये ति व्युपरमति / कैश्चित्तदवस्थमेवास्ते। ततश्चैवं सति तद्वत्यात्मनो पूर्व धम्म॑रुत्तरोत्तरधर्माणां न सदृशं किं पुनरन्यवस्तूनाम् / सामान्यधर्मस्तु सर्वस्यापि त्रिभुवनस्य समानं किंपुनरकस्यैव निजपूर्वजन्मन इति। ततः किं स्थितमित्याह। सो सव्वहेव सरिसो, सरिसो वा इहभवे परभवे वा। सरिसासरिसं सवं, निचानिचाइरूवं च / / को ह्यथोऽर्थान्तरैरात्मना वा स इहमवेपि सर्वथा सदृशोऽसदृशो वा किं पुनः परभवे / तस्मात्सर्वमपि वस्तु स्वधर्मेणापि सह समानासमानरूपमेवेहभवेपीति कुतः परभवे सादृश्यमेव प्रतिज्ञायते। इति भवत इति भावः / तथा सर्वमपि नित्यानित्याद्यनन्त धम्मत्मिकमिति। अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन प्रतिपादयितुमाह। जह नियएहिं विसरिसो, न जुवा भुवि बालबुङ्क धम्मेहिं। जगओ विसमो सत्ताइ, एहिं तह परभवे जीवो।। यथेह युवा निजैरप्यतीतानागतैबर्बालवृद्धत्वादिपर्यायैरात्मनोपि सर्वथा न समानः सत्तादिभिस्तु समान्यपर्यायैर्जगति न के नचिन्न समानस्तथायमपि जीवः परलोकंगतःसर्वेणापिसह समा-नासमानरूप एवेति। कुतः सर्वथा सादृश्यमिति। एतदेव दृष्टान्तेन भावयति॥ मणुओ देवीमूओ, सरिसो सत्ताइएहि जगओ वि। / मजा Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहभवि. 678 अमिधानराजेन्द्रः भाग२ इहलोइय. देवीईहि वि सरिसो, निचानिचो वि एमेव / / इहरा इति इतरथार्थे वा प्रयोक्तव्यं / पक्षे यथा प्राप्तम् अन्यथार्थे, "इहरा मनुष्यो मृत्वा देवत्वमापन्नो जगत्त्रयस्यापि सत्तादिभिः पर्यायः सदृशो नीसासन्नेहिं पक्षे इअरहा। प्रा०नि०चू।''इहरा सपरूवधाओ' इतरथा देवत्वादिभिस्तु विसदृशः इति नैकान्तेन क्वापि सदृशता / तथा अन्यथेति। दर्श। "इहरा समूहसिद्धो" इतरथोक्तप्रकारादन्यथा समूहो द्रव्यतयासौ नित्यः पर्यायतया त्वनित्य इत्याद्यपि वक्तव्यमित्याह / रत्नानां सिद्धो निष्पन्न इति-सम्म. इहरा वि य दीयमेयस्स" नन्वस्माभिरपि नैकान्तेन परभवे सादृश्यमभ्युपगम्यते किंतु इतरथान्यथा भाव-व्यतिरेकेणेत्यर्थः इति / पंचा०२ विव० "इहरा समानजात्यन्वयमात्रमेवेष्यते पुरुषादिम॑तः पुरुषादिरेव भवतीति / अणत्थगंत" पंचा०६ विव० एतदप्ययुक्तं कर्मजनितो हि परभव इति साधितम् / तच्च मिथ्यात्वादि | इहलोइय-त्रि०(ऐहलौकिक) इहलोके भवः ठञ् द्विपदवृद्धिः वाच / विचित्रहेतुजन्यत्वा-द्विचित्रमेवेत्यतस्तजन्यः परभवो विचित्र एव युज्यते ऐहिके,- 'अन्नस्स पाणस्सिह लोइयस्स' अन्नस्स पानस्य वा कृते नतु समानजात्यन्वयः सिध्यतीति। किंच॥ ऽन्यस्य वैहिकार्थस्य वस्त्रादेः कृते इति / सूत्र०१ श्रु०७ अol उक्करिसा वक्करिसा, न समाणाए वि जेण जाईए। इहलोक प्रयोजने, 'इहलोइया वि किं पुण' ऐहलौकिकी सरिसग्गाहे जम्हा, दाणाइ फलं विही तम्हा।। इहलोकप्रयोजनापि कृष्यादिकापीत्यर्थः / पंचा०४ विव. इहलोगते, "इहलोइया विहाणित्ति" ऐहलौकिक्यपि इह लोकगताऽपि न केवलं सदृशग्रहे समानजातीयताग्रहे सति येन यस्मादीश्वरदरिद्र परलोकगता हानिरिति / पंचा०३ विवा इहलोककृते, इहजन्मभवे च कुलीनाकुलीनारूपेणोत्कर्षापकर्षों नघटां प्राञ्चतः।यो हियादृशः इहभवे "इयलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणुगरूवाइं अविसुभिदुभिगंधाई स यदि परभवेपि तादृश एव तर्हि य इहभवे ईश्वरः स परभवेपि तादृश एव सद्दाइं अणेगरूवाइं" इहलोके भवा ऐहलौकिका मनुष्यकृताः केते स्पर्शा एवं दरिद्रेष्वपि वाच्यं ततश्चेह भवात्परभवे सर्वप्रकाररैरप्युत्कर्षापकर्षान दुःखवि-शेषाः / यदिवा इहैव जन्मनि ये दुःखयन्ति दण्डप्रहारादयः स्यातां किंत्वे कान्तसदृशतैव भवेत् (तम्हत्ति) तस्मान्मोक्तव्योयं प्रतिकूलोपसर्गास्त इहलौकिका इति। आचा०१ श्रु०९ अ०३ उल। इहलोके सादृश्यग्रह इति प्रक्र मादृष्टव्यम् / अथेत्थमाचक्षीथाः मा भव ऐहलौकिकः / व्यवसायभेदे, य इह भवे वर्तमानस्य निश्चयोऽनुष्ठानं भूतामुत्कर्षापकर्षों का नो हानिरित्याह (जम्हा दाणाइ फलं विहित्ति) वा स ऐहलौकिको व्यवसाय इति स्था०३ ठाक। चकारस्य गम्यमानत्वाद्यस्माचेत्थं परत्रोत्कर्षापकर्षयोरभावेदानादिफलं इहलोय-पुं.(इहलोक) इदम् प्रथमार्थे ह / कर्म इहलोकः समानलोकः वृथा संपद्यते लोको हि परत्र देवादिसमृद्धिप्राप्त्या आत्मन उत्कर्षार्थ सदृशलोको यथा मनुजो मनुष्यस्य तिर्यतिरश्च इति / दर्शन! अस्मिन् दानाहि प्रवृत्तिं विदधाति यदिचोक्तं युक्तया उत्कर्षाधभावाद्दरिद्रो लोके, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ. "इहलोगदुहावहंविऊ" इहास्मिन्नेव लोके दानतपस्तीर्था-वगाहनाद्यपि कृत्वाऽमुत्रदरिद्र एवस्यात्तर्हि व तद्दानादि हिरण्यस्वजनादिकं दुःखमावहतीति। सूत्र०१ श्रु.२ अ०२ उ०। मनुष्यलोके, फलमित्यपार्थिका दानादौ प्रवृत्तिस्तस्मान्न विधेयः सादृश्यग्रह इति / स्था०३ ठा०आव०"इहलोगपडिणीए" इहलोकस्य प्रत्यक्षस्य अपिचैतस्मिन् सादृश्यग्रहे वेदपदानामप्यप्रमाण्यमापद्यत इति मानुष्यत्वलक्षणपर्यास्य प्रत्यनीक इति / भ०८ श० 8 उ० इहलोगो दर्शयन्नाह। मणुस्सस्स लोगो इति। आ०चू०। अस्मिन् जन्मनि, आचा०९ श्रु.५ अ०४ जं च सिलोगो वइए, स जायए वेयविहियमिचाइ। ऊ। मनुष्यजन्मनि, स्था०४ ठा०। सग्गीयं जं च फलं, तमसंबद्धं सरिसयाए / इहलोगगवेसग-त्रि (इहलोकगवेषक) अन्योन्यभक्त-पाना-धुपभोगेन यच शृगालो वैएष जायते यः स पुरीषो दह्यत इत्यादि वेद विहितं तदपि केवलस्येहलोकस्यैवान्वेषके, वृ.१ उ०। परभवसदृशताग्रहे संबद्ध एव स्यात्पुरुषादेरमुत्र शृगालताद्यनुपपत्तेः तथा इहलोगपडिणीय-त्रि(इहलोकप्रत्यनीक) इहलोकस्य प्रत्यक्षमानुष्ययद्यप्यग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः स त्वन्यथाऽग्निष्टोमेन यमराज्यम त्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीकः इन्द्रियार्थप्रति-कूलकारित्वात्पञ्चाग्निभिजायत इत्यादिकं स्वर्गाय फलसूचकत्वात्स्वर्गीय फलं तदप्यसंबद्धं तपस्विवदिह लोकप्रत्यनीकः / इन्द्रियार्थ-प्रतिकूलकारिणि, भवेन्मनुष्यस्यत्वदभिप्रायेण देवत्वानुपपत्तेरिति पुरुषो वैपुरुषत्वमश्नुते गतिम्प्रतीत्य मनुष्यलोकप्रत्यनीकरूपे प्रत्यनीकभेदे, -इहलोकोपपशवः पशुत्वमित्यादीनां च वेदानामयमर्थः। कोपिपुरुषः खल्विह जन्मनि कारिणां भोगः साधनादीनामुपद्रवकारिणि, इहलोको मनुष्यलोकस्तस्य प्रकृत्या भद्रको विनीतः सानुक्रोशोऽमत्सरश्च मनुष्यनामगोत्रे कर्मणि च प्रत्यनीकता तद्वि-तथप्ररूपणेति इहलोकप्रत्यनीकः / मनुष्यलोकस्य मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते नतु नियमेन सर्व एव अन्यस्यान्यकर्मवश वितथ-प्ररूपणाकर्तरि च। स्था०३ ठा०। गस्यान्यथाप्युत्पत्तेः। एवं पशवोपि केचिन्मायादिदोषवशात्पशुनामगोत्रे इहलोकपडिबद्ध-त्रि (इहलोकप्रतिबद्ध) निर्वाहादिमात्रार्थिनि कर्मणि बद्धा परभवे पशवो जायन्ते नतु सर्वेपि नियमेन कर्मापेक्षित्वार्थे प्रव्रज्याभेदे, स्त्री-टाप इहलोकप्रतिबद्धा निर्वाहादिमात्रार्थिनामितिजीवगतेरिति / विशे० / (च्युतिसमये इहभवः परभवोवेति करणशब्दे स्था०४ ठा०(विशेषार्थस्तु पवज्जा शब्दे) चिन्तयिष्यामि) इहलोइयपरलोइय-त्रि.(ऐहलौकिकपरलौकिक) इह परत्र च भव इहमवियाउय-पुं०(इहभविकायुष्) वर्तमानभवायुषि, 1 भ०५ श०३ उ० ऐहलौकिकपारलौकिकः / इह परत्र च भवे तदात्मके व्यवसायभेदे च / इहय-त्रि.(इहक) "स्वार्थ कश्चवा श६४" इति प्राकृत सूत्रेण स्वार्थे यस्त्विह परत्र च स ऐहलौकिकपारलौकिक इति। स्था०३ ठा०। कः। प्रा०। अस्मिन्नित्यर्थे,-वाच०। इहलोइयपरलोइयकज्ज-न (ऐहलौकिकपारलौकिककार्य) वर्तमान इहरा अव्य (इतरथा) "इहरा इतरथा'' पा०२।२२। इति प्राकृत सूत्रेण | भवपरभवप्रयोजन साध्ये, Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहलोगभय 679 अभिधानराजेन्द्रः भाग२ ईरण . . . . . . . . . . . . . 0 00000 ईकार इहलोइयपारलोइय-कजाणं पारलोइयं अहिगं / विहितमाप्तागमे विधेयतयानुमतं यदनुष्ठानं क्रिया तद्विहिता-नुष्ठानमिदं तं पि हु भावपहाणं, सो विय इयकजगम्मोत्ति / / जिनभवनादिकरणलक्षणमिति / अनेनोल्लेखेन एवमनेन भावस्तवाऐहलौकिकपारलौकिक कार्ययोर्वर्तमानभवपरभव प्रयोजनयोः नुरागलक्षणेन सूत्रविधिलक्षणेन वा प्रकारेण एतज्जिनभवनादिविधानं सदा साध्ययोर्मध्ये पारलौकिकं पारभविकं प्रधानतरं विशेषतस्तस्य सर्वकालं कुर्वतां विदधतां भवति जायते। चरणस्य सर्वविरतिरूपचारित्रसाधनीयत्वात्तदसाधने बहुतमानर्थसंभवात्पारलोकिककृत्यं च स्य हेतुर्निमित्तम् / तदेव जिनभवनादि। उक्तविपर्यये यद्भवति तदाह नो जिनपूजेत्यतो नान्यदुपयोगस्थानं लष्टतरं प्रवरसाधनानामिति। तत्र च नैव इह लोकाद्यपेक्षया ऐहभविककीर्त्यादिपारभविकदेवत्वराज्यायत्प्रधानं तद्दर्शयितुमाह। (तं पि हुत्ति) तत्पुनः पारलौकिककार्य भाव दिपदार्थालम्बनेन / चरणस्य हेतुर्भवति एतज्जिनभवनादिविधानं आत्मपरिणामः प्रधानः साधकतयोत्तमो यस्मिस्तद्भावप्रधान निदानहृषितत्वादिति गाथार्थः / पंचा०६ विवा शुभभावसाध्यमतोसौ भावविशेषो विशिष्टपारलौकिककार्यार्थिनां / इहलोगासंसप्पओग-पुं.(इहलोकाशंसाप्रयोग) इहलोकोनरलोकसमाश्रयणीय इति हृदयम्। यदिभावप्रधानंततः किमित्याह (सोवियत्ति) स्तत्राशंसा राजा स्थामित्याद्यभिलाषस्तस्याः प्रयोगोः व्यापार इह स पुनः पारलौकिककार्यहेतुभूतो भाव इति कार्यगम्य इत्येवंविध- लोकाशंसाप्रयोगः। धर्म२ अधि अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजोषमनन्तरोक्तं यत्कार्य भावस्य कृत्यं पूजार्थप्रवरपुष्पा-धुपादानरूपं तेन णाराधनाया अतिचार-विशेषे, उपा। सच श्रेष्ठी स्यां जन्मान्तरे ऽमात्यो यो गम्यो निश्चेतव्यः स इति कार्यगम्यः / इति शब्दः समाप्ताविदमुक्तं वेत्येवं रूपाप्रार्थनेति। उपा० अ० श्राव आव०। भवति। परलोकसाधन हेतुभूतशुभ-भावकार्यत्वात्प्रवरसाधनोपादानस्य शुभभावं सफलयद्भिस्त-द्विधेयं भवतीति गाथार्थः। पंचा०४ विवछ। इहलोगभय-न (इहलोकभय) इहलोकः समानलोकः सदृश-लोको यथा मनुजो मनुष्यस्य तिर्य तिरश्चस्तस्माद्भयमिहलो-कभम् / दर्शका मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद्भयं भवति तदिहलोकभयम् / इहाधिकृतभीतिमतो जातौ लोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः / स्था०७ ठा। आव० सम० भयभेदे--तच्च यथा राजामात्यरक्षकादेरकार्यकरणं प्रति प्रजादीनां सिंहादेर्वा मृगादीनामिति-दर्शनी ई-अव्य(ई) चिप विषादे, दुःखभावनायाम, क्रोधे, अनुकम्पायां, प्रत्यक्षे, इहलोगवेयण-न०(इहलोकवेदन) इहास्मिन् लोके जन्मनि वेदनमनु- सन्निधौ, सम्बोधने, वाच."ई: कुत्सार्थे पिपापेपि निषेधे, नयनभ्रमे।६। भवनमिहलोकवेदनम्। इहलोकानुभवने, आचा०९ श्रु०५ अ०४ उड़ा एका०। पादपूरणे च / "ई जेरा पादपूरणे" / 17 / इति / इहलोगवेयणवेज-त्री (इहलोकवेदनवेद्य) इहास्मिन् लोके वेदन प्रा.मेदिन्यामयं सान्ततया पठितः। पृषोदरादित्वात्साधुः। वाच। मनुभवनमिहलोकवेदनं तेन वेद्यमनुभवनीयमिहलोक वेदनवेद्यम्। *ई-स्त्री लक्ष्म्याम्, वाचः। ई रमा मदिरा मोहे, महानन्दे शिरोभ्रमे / इहलोकानुभवेनानुभवनीये, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। स्त्रीलिङ्गोयमुणाद्यन्तो, नातोस्माल्लोपनं सुपः ईॉयोत्र जसो रूपं, इहलो गवे यणवेजावडिय-त्रि (इहलोक वे दनवेद्यापतित) स्यादमारूपमीः शसि / ई शब्दो द्रव्यपर्याय व्ययं वृद्धैः प्रदर्शितम् / / ऐहिकभवानुबन्धिनि, "इह लोगवेयणवेजावडियं / जं आउट्टीकम्मं तं एका परिण्णाय विवेगमेति" इहास्मिन् लोके जन्मनि वेदनमनुभवनमिह ईति-पुं.(ईति) ईयते ई-क्तिच् (1) डिम्बे,२ उत्पादिते, त्रि०। लोकवेदनं तेन वेद्यमनुभवनीयमिहलोकवेदन-वेद्यं तत्रापतितमिह ३प्रवासे,"अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभाः मूषिकाः खगाः। प्रत्यासन्नाश्च लोकवेदनवेद्यापतितम् / इहमुक्तं भवति-प्रमत्तयतिना ऽपि यदकामतः राजानः षडेताईतयः स्मृताः 'इत्युक्ते कृषरुपद्रवभेदे च। स्त्री.निरातङ्का कृतं कर्म कायसंघट्टादिना तदैहिकभवानुबन्धि तेनैव भवेन निरीतयः' रघुः / वाच, ईतिर्धान्याधुपद्रवकारी प्रचुरमूषिकादिप्राणिगण क्षप्यमाणत्वादिति। आचा०१ श्रु०५ अ इति / सम० 34 स० / जं० / प्रचुरशलभशुकमुषिकाद्या इहलोग संवेगिणी-स्त्री.(इहलोकसंवेगिनी) इहलोको मनुष्यजन्म धान्यादिविनाशका इति। प्रव०१० द्वारा प्रायो वर्षासु शस्योपद्रवकारिणो तत्स्वरूपकथनेन संवेगिनी इहलोकसंवेगिनी सर्वमिदं मूषिकादय इति। दर्शक मानुषत्वमसारमध्रुवं कदलीस्तम्भसमानमित्यादिरूपे संवेगिन्याः ईरण-न(ईरण) ईर् -भावे ल्युट् प्रेरणे, आव०४ अ। 'इन्द्रिकथायाः प्रथमे भेदे, स्था०४ ठाना याणि समीरए'' इन्द्रियाणीष्टानिष्टविषयेभ्यः सकाशाद्रागइहलोगावेक्खा-स्त्री०(इहलोकापेक्षा) इहलोकालम्बन, द्वेषाकरणतया सम्यगीरयेदिति। आचा० श्रु०९ अ. उ० गतौ, आ.म.द्वित) विहियाणुट्ठाण मिणति-एवमेयं सयाकरेत्ताण। स्था आचा। कथने, 'घोर धम्मे उदीरए" उत्प्राबल्येन ईरितः कथितः होइ चरणस्स हेऊ, णो इह लोगादवेक्खाए ll प्रतिपादित-स्तीर्थकरगणधरादिभिरिति। आचा०१ श्रु०८ अ०७ उछ। युच् Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईरिय 680 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईसाणिंद ईरणा तत्रैव स्त्री. / नन्द्या-ल्यु प्रेरके, त्रि. समीरणः प्रेरयिता | ईसाण-पु. (ईशान) सकलविमानप्रधानेशानावतंसकविमान-विशेषे, भवेति-कुमा० / वाच। अनु / सकलविमानप्रधानेशानावतंसकविमान-विशेषोपलक्षिते ईरिय-त्रि० (ईरित) प्रेरिते, -- आव 4 अ / दर्श. / चोदिते 'समीरिया स्वनामख्याते ऊर्ध्वलोकविशेषे, - अनु० / कल्पभेदे,-स्था० 10 ठा० / कोट्टवलिं करिति" समीरिताः पापेन कर्मणा चोदितास्तान्नारकान् विशे० / आ. चू। देवलोकभेदे, / तल्लोकवासिनि कल्पोपन्नके कुट्टयित्या खण्डशः कृत्वा नगरवलिवनिन्दतश्चेतश्चाक्षिपन्तीत्यर्थः इति। वैमानिकदेवभेदे, प्रव द्वा० / विशे ईशानकल्पस्थे ईशानदेवेन्द्रे च। स्था० सूत्र.१ श्रु०५२ उ कथिते, प्रतिपादिते, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ.। 10 ठा. विशे / समः। ईशानस्थानशब्दे वक्तव्यता-(इशानेन्द्रवक्तव्यता "संक्षेपान्निरपेक्षाणां यतीनां धर्म ईरित." ईरितः प्रोक्त इति-धर्म 4 ठाणशब्दे ईसाणिंदशब्देऽपि-)। प्रभौ, / "उतामृतत्वस्येशानः" अधिः / जनिते,- कृते च / "ससद्दफासाफरुसा उदीरिया" अमृतत्वस्यामरणभावस्य मोक्षस्येशानः प्रभुरिति। विशे०। आम. द्वि० / उत्प्राबल्येनेरिता जनिता कृता इत्यर्थ इति / आचा। ईश-ताच्छील्ये चानश-ऐश्वर्यशीले, - रुद्रमूर्तिभेदे, पुं। "अहोरात्रभवेषु ईसओ-देशी, रोझाख्ये मृगे, दे, ना०।। त्रिंशन्मुहूर्तेषु स्वनामख्याते एकादशे मुहुर्ते, - जं.७ वक्ष० / दश प० / कल्प।ज्यो / समयायांगे तु षोडशो मुहूर्त इति। सम० 3 स. / ईसक्ख-त्रि (ईशाख्य) ईश ईश्वर इत्याख्या प्रसिद्धिर्येषां ते ईशाख्याप्रसिद्ध ईश्वरे, ईशनमीशो भावे धप्रत्ययः / ऐश्वर्यमित्यर्थः। ईसाणकप्प-पु. (ईशानकल्प) मेरोरुत्तरवर्तिनि परिपूर्ण चन्द्रईश ऐश्वर्ये इति वचनात् / तत ईशमैश्वर्व्यमात्मनः ख्यान्ति मण्डलसंस्थानसंस्थिते कल्पविशेषे, राजा तद्वक्तव्यताठिइ-शब्दे-) अन्तर्भूतण्यर्थतयाऽऽरव्यापयन्ति प्रथमयन्तीति ईशा-ख्याः। आत्मन ईसाणवडिं सय-पु. (ईशानावतंसकः) ईशानकल्पस्थसकलऐश्वर्य्यस्य प्रसिद्धिकारके, जी०३ प्रतिः / प्रज्ञा / विमानप्रधाने स्वनामख्याते विमाने,- अनु० / तथाचईसत्त-न. (ईशत्व) सर्वत्र प्रभविष्णुतारूपे सिद्धिविशेषे, द्वा० 26 द्वा० / प्रज्ञापनायाम्पञ्चविमानावतंसकान्प्रतिपाद्योक्तम् "मज्झइत्थे ईसाण वडिसए' मध्ये ईशानावतंसक इति-प्रज्ञा०२ पद० / / ईसत्थ-न. (इषुशास्त्र) चतुष्षष्ठिकलान्तर्गते कलाभेदे, ज्ञा०१ | अ। सच धनुर्वेदः- प्रश्न. 5 द्वा० / ईसत्थंति प्राकृतशैल्या इषु शास्वं ईसाणिंद-पु. (ईशानेन्द्र) ईशानकल्पस्थवैमानिकदेवानामिन्द्रे, तद्वर्णको नागबाणादिदिव्यास्त्रादिसूचकं शास्त्रम् इति जं. 2 वक्षः / सम, यथातथाचावश्यके भगवत ऋषभदेवस्य वर्णनमुपक्रम्योक्तम् "ईसत्थं तेणं कालेणं तेण समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूल पाणी धणुवेयो'' इषु शास्त्र नाम धनुर्वेदः सच तदैव राजधर्मे सतिप्रावर्त्ततेति- वसहवाहणे उत्तरवलोगा हिवई अट्ठावीसविमाण वाससयसआ. म. प्रा हस्साहिवई अरयंवर वत्थधरे अलइयमालमउडे नवहेमचारुईस-पु. (ईश) ईश-क- ईश्वरे, प्रज्ञा०२ पद / जी०। परमेश्वरेषु, महादेवे, चित्तचलचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे जाव दसदिसाओ रुद्रसङ्ख्यातुल्यसङ्ख्याकत्वात् एकादशसंख्यायाम्, आद्रानक्षत्रे च। उज्जोवेमाणे उज्जोवेमाणे ईसाणकप्पे ईसाणवडिंसए विमाणे जहेव वाचा ईशानमीशोभावे घऊ ऐश्वर्ये, ईश ऐश्वर्ये इति वचनात्प्रक्षा०२पद / रायप्पसेणइजे जाव दिव्वं देविड्डि। ईस-देशी कीलके, दे ना०। (जहेव रायप्पसेणइज्जेत्ति) यथैव राजप्रश्रीयाख्ये अध्ययने सूरिकाभदेवस्य वक्तव्यता तथैवचेहेशानेन्द्रस्य किमन्तेत्याह (जावदिव्वे ईसमित्त-न० (ईशमित्र) कुबेरे, - प्रा. को। देवडिमिति) सा चेयमर्थसंक्षेपतः सभायां सुध-र्मायामीशाने सिंहासने ईसर-देशी मन्मथे, दे. ना। अशीत्या सामानिकसहवैश्व-तुर्भिर्लोकपालैरष्टाभिः सपरिवाराभिरईस सह-पु. (ईशसख) षष्ठीतत्पु टच-समा. कुबेरे-बहु. नटच् ईशसखा ग्रमहिषीभिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिश्वसृभिश्चाशीतिभिराइत्येव ईशमित्रादयोप्यत्र-वाच।। त्मरक्षकदेवसहस्राणामन्यैश्च बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च परिवृतो महता ईसा-स्त्री. (ईया) परगुणासहने, उत्त० 34 अ। नृत्तनाठ्यादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुजानो विहरति स्म। ईया-स्त्री. (ईj) भावे स्त्रीत्वात् टाप् / अक्षमायाम्पर- जाव जामेव दिसिं पाउडभए तामेव दिसिं पडि गए वृद्ध्यसहिण्णुतायाम्, / वाचः / प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो भंते ! त्ति भगवं ! गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदई नमसइ 2 मत्सरविशेष ईये ति। आव०४ असमआ. म. द्विा पैशून्यं साहसं त्ता एवं बयासी अहोणं भंते ! ईसाणे देविंदे देव राया महिड्डिए द्रोहमीया सूयाऽथ दूषणम् / वाग्दण्डजञ्चपारुष्यं क्रोधजोऽपि ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्वा देविड्डी कहिं गते कहिं अणुपगणोऽष्टकः / मनुः। एतेषाञ्च। क्रोधप्रवर्तकत्वात् क्रोधजत्वम्। अत एव / विहे ? गोयमा ! सरीरं गए से केणढेणं भंते ! एवं वुचई "कुधदुहेासूयार्थानां यं प्रति कोपः - पा. दुहादयोऽपि कोपप्रभावा सरीरं गए ? गोयम ! से जहा नामए कूडागार सालासिया एव गृह्यन्तेऽतो विशेषणंसामान्येन यं प्रति कोप इति सि. कौ० / धरणेन्द्रभव दुहओ लित्ता गुत्तागुत्त दुवारा णिवाया णिवायगंभीरा नपतीनामग्रमहिषीनां प्रथमपर्षदि - स्था०३ ठा० / तीसेणं कूडागारं जाव कूडागारसालादिड्ढतो भाणियव्वा ईषा-स्त्री. (ईश)-क-शकटस्य दोषकाष्ठे, हलयुगयोर्मस्थकाष्ठे, इसाणेणं भंते! देविंदे देवरन्नो सा दिव्वादेविड्डी दिव्वा देवजुत्ती लाङ्गलदण्डे च। वाचा दिवे देवाणुभावे किन्नालद्धे किन्नापत्ते किन्ना अमीसमण्णागए Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसालु 681 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईसिपब्भाग केवाएस आसी पुव्व भवे किन्नामएवा किंगोत्तेवाकयरेसिगामंसि प्रतिसेव्यमानां वनितां विलोक्य प्रकाममीाऽभिलाषो जायते स वा नयरंसि वा जाव सन्निवसंसि वा किं वा दबा किं वा भोचा ईर्ष्यालुरिति / ग.१ अधि। धoi प्रवला ईष्यालु म यस्य प्रतिसेव्यमानं किं वा किचा किंवा समयारित्ता कस्सवातहारूवस्स समणस्स दृष्टवा ईर्ष्या मैथुनाभिलाष उत्पद्यते सोऽपि निरुद्धवेदः कालान्तरेण वा माहणस्सवा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा त्रैराशिको भवतीति-वृ४ उ. निसम्म जेण्णं ईसाणेणं देविंदेणं देवरणं सा दिव्वा देविड्डि / ईसालु-त्रि (ईवित्) "आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेन्तेरमणाजाव अभिसमणागया एवं खलु गोयमा ! मतोः" / / 19 / इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थानेआलुरादेशः / इतश्च जम्बूद्वीपमवधिनाऽऽलोकयन् भगवन्तं महावीरं राजगृहे ददर्श ईष्र्यायुते / प्रा दृष्टवा च ससम्भ्रममासनादुत्तस्थौ उत्थाय च सप्ताष्टानि पदानि | ईसि(ईसिं)(ईसी)-अव्य.(ईषत्) ईष प्रति-: स्वभादौ दा२। तीर्थकराभिमुखमाजगाम / ततो ललाटतटघटितकरकुड्यलो ववन्दे इतिप्राकृतसूत्रेणेत्वम् / वा स्वरेमश्च / 1 / 24 / इतिप्राकृतसूत्रेण वन्दित्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दयाञ्चकार / एवं च तानवादीत् गच्छत बाहुलकाधिकारान्मकारादन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः भो राजगृहं नगरं महावीरं भगवन्तं वन्दध्वं योजन-परिमण्डलञ्च क्षेत्रं "अन्त्यव्यञ्जनस्य" इति प्राकृतसूत्रेण वा लुक् प्रा.। अल्पे, शोधयत कृत्वा चैवं मम निवेदयत / तेपि तथैव चक्रुः / ततोसौ सम०३४ सा स्तोके, प्रज्ञा०३६ पद, अल्पभावे, नि.चू.१ उा मनागित्यर्थे, पदात्यनीकाधिपतिं देवमेवमवादीत् भो२ देवानु-प्रिय ! ईशानावतंसके प्रज्ञा०१७ पद जी औपला आ.म.प्रा जंक। "ईसिं असोगवरयायवे'' ईषत् विमाने घण्टामास्फालयन घोषणां कुरु यदुत गच्छति भो ईशानेन्द्रो मनागिति-राजा "ईसिंपाडेई" मनागनगारं भूम्यां पातयति- इतिमहावीरस्य वन्दनाय ततो यूयं शीध्र महङ्ख्या तस्यान्तिकमागच्छत / भ०१६ श०३ उ०। 'इसिं खंध समल्लीणे" / इह स्कन्धस्युडमित्युच्यते कृतायां च तेन तस्यां बहवा देवाः कुतूहलादिभिस्तत्समीपमुपागतास्तैश्च तस्याशोकवरपादपस्य ईषन्मनाक्सम्यग्लीनस्तदासन्न इत्यर्थः / राज०। परिवृतोसौ योजन-लक्षप्रमाणयानविमानारूढो ऽनेकदेवगणपरिवृता किञ्चिदर्थे चसूः मार्थे च / ईषत्प्राग मारख्ये लोकाग्रस्ते पृथिवीविशेषे नन्दीश्वरद्वीपे कृतविमानसंक्षेपो राजगृहनगरमाजगाम / ततो भगवन्तं चस्या०९ ठा। औप०। (तद्वक्तव्यता ईसिपब्भारा शब्दे) त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य चतुर्भिरङ्गुलै वमप्रातं विमानं विमुच्य ईसिअं-देशी, शवरशिरः पत्रपुटेवशायितेचा देना। भगवत्समीपमागत्य भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपास्ते स्म / ततो धर्म ईसिं(ईसि)(ईसी)उट्ठावलंबि(न)-त्रि.(ईषदाष्ठावलम्बिन्) ईषत् श्रुत्वैवमवादीत्। भगदन्त! यूयं सर्वजानीथ पश्यथ केवलं गौतमादीनां मनाक् ततः परमास्वादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्ठे अवलम्बते महर्षीणां दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयितुमिच्छा-मीत्यभिधाय दिव्य मण्डपं लगतीत्येवं शील ईषदोष्ठावलम्बी / मनागोष्ठावलम्बिनि / ''ईसिं विकुर्वितवान्। तन्मध्ये मणिपीठिकांतत्रच सिहासनंततश्च भवन्तं प्रणम्य उट्ठावलम्बिणी" प्रज्ञा०१७ पदका तत्रोपविवेशाततश्च तस्य दक्षिणा जादष्टोत्तरं शतं देवकुमाराणां वामाच ईसि(ईसिं) (इसी) तंवच्छि करणी-स्त्री.(ईषत्ताम्राक्षिकरणी) देवकुमारीणां निर्गच्छतिस्म / ततश्च विविधातोघरवगीतध्वनि ईषन्मनाक्ताने अक्षिणी क्रियेते अनया इति ईषत्ताम्राक्षिकरणी। मदियाम् रञ्जितजनमानसं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदर्शयामासेति (तएणं से -मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथा स्वभावत्वादिति -प्रज्ञा०१७ पदक। दिसाणे देविंदेश्तं दिव्वं देवड्डी) यावत्करणादिदमपरं वाच्यं यदुत "दिव्वं / ईसि(ईसिं-इसी) तुंग-त्रि (इषत्तुङ्ग) मनागुणे, जं०६ वक्ष / देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरइपडिसाहरइत्ता खणेण जाए एगभूए तएणं इसाणो 3 समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता ईसिदंत-पुं.(ईषद्दन्त) मनाग्दन्ते, औपळा नियगपरियालसंपरिबुडेत्ति'' (परियालत्ति) परिवारः / (कूडागार | ईषद्दान्त-त्रि मनागाहिलशिक्ष्ये गजादौ, जं.३ वक्षः। सालादिड्ढतोत्ति) कुटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला या सा तथा ईसि(ईसिं-ईसी) पण्णवणिज्ज-त्रि.(ईषत् प्रज्ञापनीय) मनाक् तया दृष्टान्तो यः स तथा। सचैवं भगवन्तं गौतम एवमवादीत ईशानेन्द्रस्य प्रज्ञापयितुं शक्ये, पंचा०१२ विव०। सा दिव्या देवर्द्धिः क्व गता / गौतम ! शरीरकमनुप्रव-विष्टा / अथ | ईसि(इसिं-इसी) पब्मार-त्रि.(ईषत्प्राग्भार) ईषत्कुब्जे पंचा०१८ विव०। केनार्थेनैवमुच्यते ? गौतम! यथा नाम कूटाकारशाला स्यात् तस्याश्चादूरे | ईसि(ईसिं, ईसी) पब्भारगय-त्रि.(ईषत्प्रारभारगत) ईषदवनते, अत महान् जनसमूहस्तिष्ठति सच महाभ्रादिकमाग-च्छन्तं पश्यति दृष्टवा च 9 अ! ईषत्कुब्जे, नद्यादिदुस्तटीस्थिते च / (ईसीपब्भारगओ) तां कुटाकारशालामनुप्रविशति एवमीशानेन्द्रस्य सा दिव्या देवर्द्धिः ईषत्प्राग्भारगत ईषत्कुब्जो नद्यादिदुस्तटी-स्थितो वासौ स्यादिति / शरीरकमनुप्रविष्टेति / भ०३ श०१ उड़ा (शक्रेशानयार्विवादः विवायशब्दे) पंचा०१८ विव। शक्रस्येशानसमीपे प्रादुर्भावः प्राउब्भाव शब्दे) (इशानेन्द्रस्य ईसि(इसिं-ईसी) पब्भारा-स्त्री०(ईषत्प्राग्भारा) इषपूर्वभवकथानामलि शब्दे वक्ष्यामि यावत्तस्य तत्र स्थितिः) दल्पारत्नप्रभादिपृथिव्या इव महान् प्रागभारो महत्त्व यस्याः ईसालु-त्रि. (ईर्ष्यालु) ईा लाति-ला-वा-डु-ईायुक्ते, वाच०। साईषत्प्राग्भारा / औपः। ईषदल्पो रत्नप्रभाद्यपक्षया प्राग्भारईलिवो हि अन्तरुपतापपरा एव भवन्ति निष्कारणमेवेति यतः "यद्यपि उच्छयादिलक्षणो यस्याः सा ईषत्प्राग्भारा / ऊर्ध्वलोकाका नो हानिः परकीयां चरति रासभो द्राक्षाम् / असमञ्जसं तु दृष्टवा ग्रस्थे सिद्धानां निवासभूते प्रथीवीभेदे, (इसिपडभारापुढवी) तथापि परिखिद्यते चैतः" इति / द्रव्या नपुंसकभेदे, / सच यस्य | ईषत्प्राग्भारा ऊर्ध्वलो के भवतीति / स्था०४ ठा०। (ईसीप tor Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसिपब्भारा 682 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईसिपब्भारा भाराणामा य) (इसित्ति) अल्पभावे प्र इति प्रायो वृत्या भार इति भारतस्स पुरिसस्स पायं पायसो ईसेणयं भवति जाए वट्ठिता सा पुढवी ईसीपब्भारा णाम इति एतमभिहणतस्स सायदव्व-सिद्धविमाणाओ | उवरिं वा रसेहिं जोयणेहिं भवति तेण सा ऊलोगचूला भवतीति। नि.चू.१ उ०। अस्या अयं स्वरूपो ह्यौपपातिके यथा। बहुसमरमणिज्जओ भूमिभागाओ उद्धं चंदम्मि सूरियग्गहगणणक्खत्ततारारूवाणं बहुइं जोयणसहस्साई बहुई जोयणसयसहस्साई बहुइं जोयणकोडीओ बहुजोयणकोडाकोडीओ उतरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणं कुमारमाहिंदवंभलंतगमहासुक्कसहस्सारआणत-पाणतआरणचुयतिन्निय अट्ठारे गेविनविमाणवासते विती वइत्ताविजयवे जयंतजयंतअपराजियसव्वट्ठसिद्धस्सय हाविमाणस्स सव्वउपरिल्लातो थूभियग्गतो दुवालसजोयणाई अवाहाए एत्थणं इसीपब्भारा णाम पुढवी पण्णत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगाजोयणकोडी बयालीसं सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिरएणं इसियपब्भाएणं पुढवीए बहमज्झूदेसमाए अट्ठजोयणणक्खत्ते अट्ठजोयणाई बाहुल्लेणं तयाणंतरं च णं माताएपडिहायमाणी२ सय्वेसु चरिमपेरंतेसु मच्छियपत्तातो तणुय-तरा अंगुलस्स असंखेजइमागबाहुल्लेणं पण्णत्ता। (बहुसमेत्यादि) बहुसत्वेन रमणीयो यः स तथा स्यात् (अवाहेत्ति) अबाधयान्तरेण / औप०। ईषत्प्राग भारायाः पृथिव्या बहुमध्यदेशभागे अष्टयोजनिकमायाम-विष्कम्भाभ्यामष्टयोज-नप्रमाणं क्षेत्रं चाष्टौ योजनानि बाहुल्येन चोचत्वेनोचैस्त्वेनेति भावः प्रज्ञप्ता तदनन्तरं सर्वासुदिक्षु विदिक्षु च मात्रयास्तोकया 2 प्रदेशप्रहाण्या परिहीयमाना सर्वेषु चरमान्तेषु मक्षिकापत्रतो-ऽप्यतितन्वी अगुलासंख्येयभागं बाहुल्येन प्रज्ञप्ता स्थापना। प्रज्ञा पद। ईसीपब्भाराए, सायाए जोयणस्स लोगंतो। बारसहिंजोयणेहि, सिद्धीसव्वट्ठसिद्धातो।। ईषत्प्राग्भारा सिद्धभूमिस्तस्या सीताया इति द्वितीयं नाम ऊर्ध्वं योजने इति कान्ते लोकान्तः सापि च ईषत्प्रारभाराख्या सिद्धिः सर्वार्थसिद्धा / द्वारविमानादूज़ द्वादशभिर्योजनैर्भवति / अन्ये तु व्याचक्षते सर्वार्थसिद्धाद्विमानाद्वादशभिर्योजनैर्लोका-न्तक्षेत्रलक्षणेपि तत्त्वं पुनः के वलिनो विदन्ति तस्मिन् लोकान्ते ईषत्प्राग्भारोपलक्षिते मनुष्यक्षेत्रपरिमाणे सिद्धाः प्रतिस्थिताः / उक्तचं 'अत्थीसीपब्भारोवलक्खियं मणुयलोय परिमाणं / लोगग्ग-नभोभागो सिद्धक्खेत्तं जिणक्खाय, सम्प्रति परिधिप्रतिपादनेस्या एवोपायतः प्रमाणमभिधित्सुराह। एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सहस्साइं। / तीसं चेव सहस्सा, दो चेव सया अउध्वना / / इह ईषत्प्राग्भारो य आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षाणि | प्रमाणम् / अंतो विक्खंभवग्गह, गुणकरणी वदृस्स परिरओ होइ। इति परिधिगणितेन परिधिपरिमाणमेका योजनानां कोटी द्वाचत्वारिंशल्लक्षाणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे शते एकोनपश्चाशदधिके 14230249 शेष त्वधिकमल्पत्वान्न विवक्षितं प्रज्ञापनातो वाऽवसेयमिति / सम्प्रति तस्या एव बाहुल्यं प्रतिपादयति। बहु मज्झ देशभागे, अढे व य जोयणाणि बाहुल्लं / चरिमंते सुय तणुई, अंगुल संखेन्नई भागं / / मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशभागो बहुशब्दस्य स्तोकपरिहारार्थमात्रत्वात् / स च बहुमध्यदेशभाग आयामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनप्रमाणस्तत्र बाहुल्यमुच्चैस्त्वमष्टै वायोजनानि ततो यथोक्तप्रमाणान् बहुमध्यदेशभागान् चरमेषु सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च योजनं गत्वा अङ्गुलपृथक्त्वं तथाङ्गुलप्रमाणे (परिहाइत्ति) परिहीयते एवमनेन प्रकारेण हानिभावे सति तस्यास्तावत्प्र-माणमहत्याः पृथिव्याः / अपि शब्दो भिन्नक्रमो मक्षिकापत्रादपि तनुतराः किमुक्तं भवति / घृतपूर्णतथाविधकरोटिकाकारेति भावस्थापना। आ.म.द्वि०। अस्याः स्वरूपमौपपातिके यथाईसीपब्भाराणं पुढवीसे या संखतलविमल सोल्लियमुणालदगरयतुसार गोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सय्वजुण सुवण्णमई अच्छासण्हालण्हा घडामट्ठाणीयरा णिम्मला णिप्पंका णिकं कडच्छाया-समरीचियासुप्पमा पासादिया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा इसीपडमारा। औपः। सा च ईषत्प्राग्भारा पृथिवी श्वेता श्वेतत्वमेवोपमया प्रकटयति (संखदलविमलेत्यादि) शङ्खदलस्य शङ्खदलचूर्णस्यविमलो निर्मलः स्वस्तिकः शङ्खदलविमलस्वस्तिकः स च मृणालं चन्द्रकरजश्व तुषारं च हिमं च गोक्षीरं च हारश्च तेषामिव वर्णो यस्याः सा / तथा उत्तानकमुत्तानीकृतं यच्छत्रं तस्य यत्संस्थान येन संस्थिता उत्तानच्छत्रसंस्थानसंस्थितत्वं च प्रागुपदर्शितस्थापनातो भावनीयम्। (सव्वजुणसुवण्णमयी) सर्वात्मना श्वेतसुवर्णमयी। प्रज्ञा०२ पद / आ.म.द्विती सव्वट्ठविमाणाउ, सव्वु परिसाउथुब्भिय / बारसहि जोयणेहि, ईसिपब्भार पुढवीउ / / 16 / / निम्मलदगरयवन्ना, तुसार गोक्खीरहारसरिखना। उत्ताणगछत्तसंठाणा, भणिया जिणवरिंदेहि // 27 // ईसी पन्माराए, सायाए जोयणम्मि लोगते। वारसहि जोयणेहि, सिद्धा सव्वट्ठसिद्धाओ ||18il पणयालीसं आयाम, वित्थडा होइ सत्तसहस्साई। तं पि तिगुणं विसेसं, परिरओ होइ बोधय्वो ||19|| एगा जोयणकोडी, वायालीसंच सयसहस्साई। तीसं च सहस्साई, दो य सया अउणवीसाउ // 20 // खेत्तसमयविधिना अ-टेवजोयणाई बाहल्लं / परिहाइयचरिमंते, मच्छियपत्ता तणुययरा |21|| गंतूण जोयणं जोय, णंतु परिदाइ अंगुलपहत्तं / संखतलसंनिगासा,पेरंता हो ति पत्तणूसा / / 2 / / Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसिपब्भारा 683 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईसिरहस्स - अक्कण सुनगमया, नामेण सुदंसणा पभासा य / स्वभावेन स्वरूपेण उत्तानकमूर्ध्वमुखं यच्छत्रमेव छत्रक तंत्संस्थिताच संखतल संनिगासा, वत्तागारायसा पुढबी।२३। ती. द.प.। भणितोक्ता जिनवरैः प्राक् सामान्यतः छत्रसंस्थितेव भणितोक्ता उत्तराऽध्ययनेऽपि यत्संस्थाना यत्प्रमाणा यद्वर्णा च तदभिधानायाह / जिनवरैः / प्रागित्युक्तामिह तत्तानत्वं तद्विशेष उच्यत इति न पौनरुक्तयम्। संखाककुंदानि प्रतीतानि तत्संकाशा वर्णतस्तत्सदृशी अत बारसहिंजोयणेहिं, सव्वट्ठस्सुवरिंभवे / एव (पंडुरत्ति) पाण्डुरा श्वेता निर्मला निष्कलङ्का शुभा ईसीपमारनामा, पुढवी छत्तसंठिया॥ अत्यन्तकल्याणवहा सुखावहा सुखहेतुत्वेन इतिसार्द्धसूत्रयार्थः उत्त०३६ द्वादशभियोजनैः प्रकृत्यादित्वात्तृतीया सर्वार्थस्य सर्वार्थनाम्नो अ। ईषत्प्रागभाराया अष्टौ नामधेयानि यथा। विमानस्योप!वं भवेत्तस्मादीषत्प्राग्भारेतिनाम यस्याः सा इसिप्पभाराएणं पुढवीए अट्ठनामधेजा पण्णत्तां तं जहाईसीह ईषत्प्राग्भारनामा। अनो बहुव्रीहेरिति निषेधान्नान्तत्वेपि डीप नभवति। वा ईसिप्पभाराइ वा तणुइ वा तणुतणुइ वा सिद्धिइ वा ईषदादिनामोपलक्षणं चैतदनेकनामयाभिधेयत्वात्तस्या उक्तहि "ईसीती सिद्धालएइ वा मुत्तीइ वा मुत्तालएइ वा स्था०८ ठा०। वाईसीपडभारा वा तणुतणुत्तीति वा सिद्धीति वा सिद्धालएति वा सुत्तीइ प्रज्ञापनायां द्वादश नामधेयानि यथा-- वा सुत्तालएइ वा लोयगोइ वा लोयगाथूभइ वा लोयपडिबुज्झणाइ वा ईसीपब्भाराएणं पुढवीए दुवालसनामधेजा पण्णत्ता तंजहासव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहाइ- वेत्यादि" पृथिवी भूमिः छत्रमातपत्रं ईसीति वा, ईसीपब्माराइ वा, तणुत्ति वा, तणुतणुयरीति वा, तत्संस्थितमिव संस्थितं संठानमस्या इति छत्रसंस्थिता / इह च सिद्धित्ति वा, सिद्धालएत्ति वा, मुत्तिइवा, मुत्तालएइ वा, लोयग्गेति विशेषानभिधानेपि उत्तानमेव छत्रं गृह्यते यत आह / भगवान् भद्रबाहुः / वा लोयग्गथुभियाति वा, लोयपडि बुज्झणाइ वा उत्ताणयछत्तय संठियाओ भणिया जिणवरेहिंति, सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहाइवा। प्रज्ञा०२ पद। पणयालीस सय सहस्सा, जोयणाणं तु आयया। ईसीइवत्ति-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् (तणुत्तिवा) तन्वी वा ताबइयं विच्छिन्ना, तिगुणा तस्सेव साहिय परिरया॥ शेषपृथिव्यपेक्षयाऽतितनुत्वात् / तनुभ्योऽपि जगत्प्रसिद्धेभ्यस्तन्वी अट्ठजोयण बाहल्ला, सामजम्मि आहिया। मक्षिकापत्रतोऽपि पर्यन्तप्रदेशेऽतितनुत्वात्तनुतन्वी। सिद्धिरिति वापरिहायमाणपरं, तामच्छीय पत्ताओ तणुयरी॥ सिद्धिक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात् / सिद्धिक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतपञ्चचत्वारिंशत्सहस्राणि योजनानांतु पूरणे आयतता दीर्घता (तावइयं योपचारात्सिद्धा नामालयः सिद्धालयः एवं मुक्तिरिति वा मुक्तयालय इतिवेत्यपि परिभावनीयम्। तथा लोकाग्रे वर्त्त-मानत्वाल्लोकाग्रमिति चेवत्ति) तावतश्चैव प्रमाणत्सहस्राद्विस्तरतोपि च पञ्चचत्वारिंशच्छतसह लोकाग्रस्य स्तूपिकेव लोकाग्रस्तूपिका तथा लोकाग्रेण प्रत्यूह्यते इति स्रप्रमाणेति भावस्त्रिगुणाः (तस्सेवत्ति) प्राग्वत्। तस्मादुक्तरूपादयो याः लोकाग्रप्रतिवाहिनी (लोय-गपडिबुज्झत्ति) लोकाग्रमिति प्रतिबुध्यते परिधयः परिधिरिह च त्रिगुण इत्थभिधानेऽपि विशेषाधिकं द्रष्टव्यं अवसीयते या लोकाग्रं वा प्रतिबुध्यते यया सा तथेति (सव्वपाणेत्ति) "सव्वंवढूति गुणं सवि-सेसमिति" वचनादन्यथाहि पञ्चत्रिंशल्लक्षा प्राणा द्वि-त्रिचतुरिन्द्रिया इति भूतास्तरवो जीवाः पञ्चेन्द्रियाः शेषाः धिकयोजन-कोटिरेवैतत् परिमाणं स्यात्तथा च सूत्रान्तरविरोधो प्राणिनः सत्त्वा उक्तञ्च-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता भूताश्च तरवः स्मृताः। यत्सूत्रोक्तं "एगा जोयणकोडी बायालीसं भवे शय सहस्सा। तीसं चेव जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेया श्शेषा सत्त्वा उदीरिताः" सर्वेषां प्राणसहस्सा दो चेव सया अउणवन्नत्ति" / पठन्ति च भूतजीवसत्त्वानां सुखावहा उपद्रवकारित्वाभावात्सर्वप्राण"तिओणसाहियपरिरयत्ति" अष्टौ अष्टसंख्यानि योजनानि बाहुल्यं भूतजीवसत्त्वसुखावहाः / प्रज्ञा०२ पद / / एतेषाञ्च पृथिव्यादितया स्थौल्यमस्या इत्यष्ट-योजनत्वाबाहुल्या (से) तस्येषत्प्राग्भारा किं तत्रोत्पन्नानां सा सुखावहा शीतादिदुःखहेतूनामभावादिति / औप० सर्वत्राप्येवमाह। आदिमध्ये मध्यप्रदेशा व्याख्याता किमित्येवमत आह। ईषदिति वा नामरत्नप्रभाद्यपेक्षया हस्वत्वात्तस्य एवं प्राग्भापरिसमन्ताद्धीयमाना (परिहियमानी चरिमंतेत्ति) चरिमान्तेषु रस्य-हस्वत्वात्तस्या ईषत्प्राग्भारेति वा अत एव तनुरिति वा तन्वीत्यर्थः / सकलदिग्भागवर्तिषु पर्यन्तप्रदेशेषु मक्षिकायाः पत्रं पक्षो अतितनुत्वात्तनुतनुरिति वा / सिद्ध्यन्ति तस्यामिति सिद्धिरिति वा / मक्षिकापत्रमपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् तस्मादपि तनुतरी सिद्धानामाश्रयत्वासिद्धालय इति वा / मुच्यन्ते सकलकर्मभिअतिपरिकृ शेति यावत् / हानिश्चात्र विशेषानविधाने पि प्रति स्तस्यामिति मुक्तिरिति वा मुक्तानामाश्रय-त्वान्मुक्तालय इति वेति / स्था०८ ठा। ईसीति वा ईषदल्पा पृथिव्यन्तरापेक्षया इति-शब्द उपदर्शने योजनमण्डलपृथुत्वं द्रष्टव्या तथाचान्यत्रावाचि "गंतूण जोयणं तुपरिहोइ वा शब्दो विकल्पने औप। अंगुलपुहत्तति" अत्र केचित्पठन्ति। ईसि(ईसिं)(ईसी) पुरेवाय-त्रि(ईषत्पुरोवात) मनाक् सस्नेहवाते,अजुण सुवण्णगमई,सा पुढवी निम्मला सभावेण / भ०५ श०१ उ. उत्ताणगछत्तगसं-ठिया य भणिया जिणवरेहिं।। ईसि(ईसिं) (ईसी)मत्त-त्रि(ईषन्मत्त) यौवनारम्भवर्तित्वान्म-नाग्मत्ते संखककुंदसंकासा पंडरा निमला सुसुभा॥ गजादौ, जं०३ वक्षः। औप०। तत्र च अर्जुनं शुक्लं तच तत्सुवर्णकं तेन निर्वृताऽर्जुनसुवर्ण कमयी | ईसि(ईसिं)(इसी)रहस्स-त्रि.(ईषद्धस्व) ईषत्स्पृष्टे-ह स्वे सतीषत् प्राग्भारा (निम्मला) स्वच्छा / किमुपाधिवशत इत्याह।। "ईसिं रहस्स पंचक्खर उचारणद्धाए" (ईसिंति) ईषत्स्पृष्टानि Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसिविच्छेय. 684 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईहा हस्वानि च यानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुचारण तस्य योऽद्धा कालस्तस्य तथेति। औप। ईसि(ईसिं)(ईसी)विच्छेयकडुआ-स्त्री.(ईषद्विच्छेदकटुका) ईषद् मनाक् व्यवच्छेदे सति तत ऊर्ध्व कटुका एलादिद्रव्यसम्पर्कत उपलक्ष्यमाणत्यक्तवीर्येति / मनाव्यवच्छेदे सति उपलक्ष्यमाणत्यक्तवीर्य्यायाम्मदिरायाम्। प्रज्ञा०१७ पद। ईसिं(ईसि) (ईसी) सिलिंद(ध)पुप्फ पगास-स्त्री, (ईषचशिलीन्द्र(सिलीन्ध्र) पुष्पप्रकाश ईषन्मनाक् शिलीन्द्रपुष्पप्रकाशानि शिलीन्द्रपुष्पसदृशवर्णानि-ईषच्छिलीन्द्र-पुप्पसदृशवणे, जी०३ प्रति / ईषचश्वेते 'ईसिं सिलिंध-पुष्फप्पगासाइति मनाक् सिलीन्ध्रकुसुमप्रभानि ईषत्सितानि इत्यर्थः / सिलीन्धं भूमिस्फोटकं छत्रकम्। औप। ईसित्त-न०(ईशित्व)अष्टसिदयन्तर्गत-सूत्र०२ श्रु०१ उ०! ईहण न०(ईक्षण) ईक्ष भावे ल्युट् दर्शने, करणे ल्युट्२ नेत्रे, तत्र दर्शने,। वाचा ईहणिय-त्रि (ईक्षणिक) ईक्षणं हस्तरेखादीक्षणेन शुभाशुभ दर्शन शिल्पमस्य ठन शुभाशुभफलकथनेनोपजीविनि सामुद्रिके, स्त्रियां टाप् मङ्गला देशवृत्ताश्च भद्राश्चैक्षणिकैः सह / मनु / वाच०। ईहा-स्त्री.(ईहा) ईह-अ-चेष्टायाम्, उद्यमे, वाञ्छायाञ्च वाच। वित सम। ईह चेष्टायाम् ईहनमीहा (आभिनिबोधिकज्ञान) मीतज्ञानविशेषे, विशे। आ.चू.। आ०म०प्र०ा ओघा प्रव०। प्रज्ञा। सा च सतामन्ययिनां व्यतिरेकिणां चार्थानां पालोचना / विशे। तथाच भाष्यम् / "ईसासेसासव्वं" शेषाभिधानानि त्वीहा विमर्षणमार्गणगवेषणा संज्ञालक्षणानि सर्वाण्यपि ईहान्त वीनि द्रष्टव्यानीति / विशेला प्रज्ञा वियालणंति वा मग्गणंति वा ईहणंति वा एगट्ठति / आ.चू.१ अ०। अन्ययव्यतिरेकधर्मपालोचनरूपा ईहे ति विशे। ईहा दीर्घपालोचनमिति / नं. "तहवियारणेईहा" तथेत्यानन्तर्ये विचारणं पालोचनमर्थानामिति वर्तते। ईहनमीहा तांब्रुवत इति योगः। आम.प्र.। नं। ईहा स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिश्चेष्टे ति ज्ञा०३ अा दश। नं। 'थाणुमनुसाणुगया, जह ईहादेवदत्तस्स'' ईहा सदर्थपर्या-लोचनात्मिका स्थाणु मनुष्याऽनुगता किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा यथेहा देवदत्तस्यजीवतो धर्म इति / ग०२ अ। पूर्वपरपालोचनमीहेति दर्श। 'ईहएवावि'' पूर्वापराविरोधनं पालो चयति अपिशब्दः पालोचने किं चित्स्वबुद्ध्या-प्युत्प्रेक्ष्यत इति सूचनार्थ : नं.। आ०म०प्र० सदर्थाभिमुखो वितर्क इति / ज्ञा०९ अ शुद्धवस्त्वन्वेषणरूपा चेष्टा ईहत्युच्यत इति / ओघा अवगृहीतविषयाकाङ्क्षणमीहेति / सम्म०। तदर्थगत-सद्भूतविशेषालोचनमीहेति / राजा ईहा किमिदमित्यभुतान्यथेत्येवं सहार्थालोचनाभिमुखा मतिचेष्टा इति / औप,। "ईहायाः स्वरूपं यथा। ईह चेष्टायामीहनमीहा सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः किमुक्तं भवति / अवग्रहादुत्तरकालमवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषेपादानाभिमुखा असद्भूतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखाः प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधर्मादृश्यन्ते न कर्क-शनिष्ठुरतादयः शाङ्गादि शब्दधर्मा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा। आहच भाष्यकृत् "भूयाभूयविशेषा दाणचायाभिमुहमीहा'" प्रज्ञा०१५ पद / नं। आम०प्र०। अवगृहीतार्थविशेषाकाङ्गणमीहेति अवगृहीतोऽवग्रहेण विषयीकृतो योऽर्थोऽवान्तर मनुष्यत्वा-दिजातिविशेषलक्षणस्तस्य विशेषः / कर्णाटलाटादिभेद-स्तस्याकाङ्क्षणं भवितव्यता प्रत्ययरूपतया ग्रहणाभिमुख्य-मीहेत्यभिधीयते। रत्ना.१ परि / तथाच-ईहां व्याचिख्यासुराह। इथ समाण्णग्गहणा, णंतरमीहा सदत्थमीमंसा। किमिदं सदो सद्दो, को होजव संखसंगाणं / / इति शब्द उपदर्शने इत्येवं प्रागुक्तेन प्रकारेण नैश्चयिकार्थावग्रहे यत्सामान्यग्रहणं रूपाद्यव्यावृत्त्या व्यक्तवस्तुमात्रग्रहणमुक्तं तथा व्यवहारावग्रहेपि यदुत्तरविशेषापेक्षया शब्दादिसामान्यस्य ग्रहणमभिहितं तस्मादनन्तस्मीहा प्रवर्तते कथंभूतेयमित्याह सतस्तत्र विद्यमानस्य गृहीतार्थस्य विशेषविमर्शद्वारेण मीमांसा विचारणा केनोल्लेखेनेत्याह / किमिदं वस्तु मया गृहीतं शब्दोऽशब्दो वा रूपरसस्पर्शरूपः इदं च निश्चयार्थावग्रहानन्तरभाविन्या ईहायाः स्वरूपमुक्तम् / अथव्यवहारार्थावग्रहानन्तरभाविन्याः स्वरूपमाह। (को होज्जवेत्यादि) वा इत्यथवा व्यवहारावग्रहेण शब्दे गृहीते इत्थमीता प्रवर्तते शानशाईत्योर्मध्ये / कोऽयं भवेच्छब्दः शाङ्क: शाङ्गों वेति / ननु किं शब्दोऽशब्दोवेत्यादि किं संशय ज्ञानमेव कथमीहा भवितुम-र्हति सत्यं किन्तु दिग्मात्रमेवेदमिह दर्शितं परमार्थतस्तु व्यतिरेकधर्मानिराकरणपरोऽन्वयधर्मघटनप्रवृत्तश्चापायाभिमुख एव बोध ईहा दृष्टव्या / तद्यथा 'अरण्यमतत्सवितास्तमागतो, न चाऽधुना संभवतीह मानवः / प्रायस्तदेतनखगादिभाजा, भाव्यं रतिप्रियतमारिसमाननाम्नेति' एतच प्रागुक्तमपि मन्दमति-स्मरणार्थ पुनरप्युक्तमिति गाथार्थः / विशे। प्रव०। ईहा पञ्चविधा यथाकति विहाणं भंते ! ईहा पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता तंजहा सोइंदियईहा जाव फासिंदियईहा एवं जाव वेमाणियाणं नवरं जस्स जइ इंदिया। प्रज्ञा०१५ पद। ईहापि मनः सहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात्षोदैव-प्रव०२१ द्वा। तथाचाह॥ से किं तं ईहा ईहा छव्विहा पण्णत्ता तंजहा सोइंदिय ईहा चक्खिदियईहा घाणिंदियईहा जिन्मिंदियईहा फासिंदियईहानो इंदियईहा तीसेणं इमे एगट्ठिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति तंजहा आभोगणया मग्गणया गवेसणया चिंता वीमंसा सेत्तं ईहा। अथ केयमीहा। ईहा षड्विधा प्रज्ञप्ता तद्यथा। श्रोत्रेन्द्रियेहा इत्यादि। तत्र श्रोत्रेन्द्रियेणेहा श्रोत्रेन्द्रियेहा। श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहमधिकृत्य या प्रवृत्ता ईहा सा श्रोत्रेन्द्रिये हा इत्यर्थः / एवं शेषा अपि भावनीयाः (तीसेणमित्यादि) सुगम नवरं सामान्यत एकार्थिकानि विशेषचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि तत्र (आभोगण-यत्ति) आभोग्यतेऽनेनेति आभोगनम् अर्थावग्रहसमयमनन्तमेव सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमालोचनं तस्य भाव आभोगनता / तथा मार्थते अनेने ति मार्गण सद्भूतार्थविशेषा-भिमुखमेव तदुर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणं तद्भावो Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईहा 685 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ईहिय मार्गणता तथा गवेष्यते ऽनेनेति गवेषणं तत ऊर्ध्वं सद्भूता- ईहामई-स्त्री०(ईहामति) ईहैव मतिः। तदर्थविशेषालोचनरूपे मतिभेदे,र्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेक-धर्मपरित्यागतोन्वयधर्माध्या-सालोचनं भेयग्गहणमिहेहो' स्था०५ ठा, तस्याश्च षड्विधत्वं / तथा-"छविहा तद्भावो गवेषणता। ततो मुहर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगतसद् ईहामई पण्णत्ता तंजहा खिप्पमीहईवज्जुमीहइ जाव आसिंदिद्धमीहइ" भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता तत ऊर्ध्व क्षयोपशमविशेषात्स्पष्टतरं स्था०६ ठा०। (टीका अवग्गहमइ शब्दे) सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेक-धर्मपरित्यागतोऽन्वयधा ईहामिय-पुं०(ईहामृग) ईहां मृगयते अए ईहाप्रधानो मृगः / पशुभेदे वृके, परित्यागतोऽन्वयधर्मविमर्शनं विमर्शः। सेत्तमीहेति निगमनम्।नंटी। अत्र केचिदीहां संशयमात्रं मन्वन्तेतदयुक्तम्। संशयो हि नामाज्ञानमिति -औपळा राजा ज्ञा। आ०म०प्र०ा जी। कल्प! इहामृगा वृका वरगडा ज्ञानांशरूपा चेहाततस्सा कथमज्ञानरूपा भवितुमर्हतीति नं। उक्तंच! जीवा इति लोके / कल्प.। इहामिय उसभ तुरग मकर विहग वालग ईहा संसयमेत्तं केइ मत्तयंजओतम-नाणं। मइनाणं सो नेहा कहमन्नाणतई किंनर रूरू सरभकुंजर वणलय पउमलय भत्तिचित्तं तत्र ईहामृगा वृकाजुत्तं" | आ०म०। नन्वीहापि किमयं शाङ्कः किंवा शाङ्ग इति एवंरूपतया भ०११ श०११ उ०ा कल्पना दिव्ये नाट्य-विधिविशेष, तथाच राज प्रश्नीये प्रवर्तते संशयोपि चैवमेव ततः कोऽतयोः प्रतिविशेषः / उच्यते इह यद् सूर्याभस्याज्ञया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके समागतैर्देवकुमारैज्ञानं शाङ्खशाङ्गादिविशेषाननेकालम्बनेन चासद्भूतं विशेषमपासितुं देवकुमारीभिश्च दर्शितं द्वात्रिंशद्धेदनाट्यविधिमुपक्रम्योक्तम्-तत्तेणं ते बहवे शक्नोति किन्तु सर्वात्मना संशयानमिव वर्तते कुण्ठीभूतं तिष्ठतीत्यर्थः। देवकुमारा य देवकुमारीय ता य समणस्स भगवओ महावीरस्स ईहामिय सदसद्भूतविशेषापर्युदासपरिकुण्ठितं संशयज्ञान-मुच्यते, यत्पुनः उसभ तुरगणरमगर विहग वालग किण्णर रुरु सरभ चर कुंजर वणलय सद्भूतार्थविशेषविषये हेतूपपत्तिव्यापारपरतया सद्भूतार्थविशेषोपा पउमलय भत्तिचित्तं णाम दिव्वं णट्टविहं उवदंसेइ -ईहया समिया दानाभिमुखमसद् भूतविशेषत्यागाभिमुखंच तदीहा। आहच भाष्यकृत् ईहासाध्यो मृगः / कृत्रिममृगे, अलंकारशास्त्रलक्षिते नाटकभेदे, राजा "जमणेगत्थालंबण-मपज्जुदास-परिकुंठियं चित्तं। सइइव सव्वप्पणओ, ईहिय-त्रि (ईक्षित) ज्ञाते "जस्सिमाओ सव्वओ सुप्पडिलेहि आओ तं संसयरूवमन्नाणं // 1|| जंपुण सयत्थहेऊ, वयत्ति वावारतप्परममोहं। भवन्ति सुष्टु शङ्कादिव्युदासेन प्रत्युपेक्षिताः प्रति उप सामीप्येन ईक्षिता भूयाभूयविसेसो, पादाणाभिमुहमीहा' नं०। बुद्धिभेदे, -अवग्रहे बुद्धिः / ज्ञाता भवन्तीति। आचा. अपावधारणे मतिरिति-नं०। बुद्धिगुणभेदे, पंचा०७ विव०। मतिसम्पढ़ेदे, / ईहित-त्रि ईहक्त चेष्टिते, निष्पादिते, "सड्डीमा गंतुमीहियं" श्रद्धावतास्था०८ ठा०। सा च तदर्थ विशेषालोचनमिति-दशा०४ अ०। न्येन भक्तिमताऽपरानागन्तुकानुदिश्येहितंचेष्टितं निष्पादितमिति-सूत्र०१ अवगृहीतस्यार्थस्यास-द्भूतविशेषपरित्यागेन सद्भूतविशेषा- श्रु०१ अ०३ उ। "नजई नाणीहियं, नचानीहितमविचारितं दानाभिमुखो बोधविशेष ईहेति--व्य द्वि०१० उ.।। ज्ञायतेऽपायविषयं तायातीति / / विशेता इति श्री-वृहत्सौधर्मतपागच्छीय- कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्री 1008 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि-विरचिते अभिधानराजेन्द्रे इकारेकारादि शब्द सङ्कलनं समाप्तम्। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः। (उकार) उदादिण्ण बलवाहण-पुंस्त्री (उदीर्णबलवाहन) उदी-र्णमुदयप्राप्तं बलं येषां तानि उदीर्ण बलानि / उदीर्ण बलानि वाहनानि यस्य स उदीर्णबलवाहनः / उदयप्राप्तबलयुग्वाहने, बलं चतुरङ्गं गजाश्वरथसुभटरूपं वाहनं शिविकावेसरप्रमुखम्, बलंच वाहनंच बलवाहने, उदीर्णे उदयप्राप्ते बलवाहने यस्य स उदीर्ण बलवाहनः / उत्त०१८ अ०/ उ अव्य.(उ) उ-क्विप् न तुक् सम्बोधने, कोपवचने, अनुकम्पायाम्, उदीर्णमुदयप्राप्तं बलं चतुरङ्ग वाहनं च गिल्लिथिल्ल्यादिरूपं यस्य नियोगे, अङ्गीकारे,प्रश्ने चाहेमचन्द्रः अवधारणे, आ.म.द्वितचकारार्थे, सोथमुदीर्णबलवाहनः / बलं शारीरं सामर्थ्य वाहनं गजाश्वादि, न। अन्तिके, विशे० भृशार्थे, (भ्रश शब्दस्यार्थ) आम.द्वि.। पदात्युपलक्षणं चैतत्। उदय-प्राप्तबलवाहनविशिष्टे, "कंपिल्लेणयरेराया (उपयोगकरणे) "उत्ति उवओगकरणी उइत्येतदक्षरमुपयोगकरणे, "उ उदिण्णबलवाहणे णामेव संजओणामम्मिगवउवणिग्गए" उत्तर अ त्ति य उस्सक्कणाकम्मे" उ इति अष्वष्कणाकर्मणि वर्तते / आ.म.द्वि०। उहादिण्णमोह-त्रि.(उदीर्णमोह) 6 ब० उत्कट (वेद) मोहनीये अतति सातत्येन तिष्ठति अत-डु-शिवे, वाचा ब्रह्याणि, गा. तोये, "अणुत्तरोववाइयाणं भंते ! देवा कि उदिण्णमोहा उवसंतमोह तोयधौ, धरणिधरे, अवसाने, वितर्के, वञ्चनायाम, व्यसने, अव्य. खीणभोहा'' भ०५ श०४ उ० हरमौलौ, श्रुचौ, हरौ, तपसि, द्रुमाड़े,चन्द्राभायां, गिरौ, भूमौ विलोकने, उददिण्णवेय-त्रि (उदीर्णवेद) उदीर्णो विपाकापन्नो वेदो यस्य स तथा एका / उपाध्याये, तस्या ऽऽद्याक्षरेण ग्रहणात्। गा० उशब्दात् स्वरूपार्थे // वेदानां विपाकमप्राप्ते, उदीर्णवेदो हि पुमान् स्त्रियं कामयते, साऽपीतरं, कारः उकारः पञ्चमस्वरे, सच उदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् प्रथमं त्रिधा। नपुंसकस्तूभयमिति।। आचा०१ श्रु०१ अ6001 पुनः अनुनासिकाननुनासिकभेदेन प्रत्येकं द्विधेति षड्-विधः / उददि] य-त्रि (उदित) वद-क्त. संप्र. गदिते, निष्पन्नस्यैवं खलु कारतकारानुत्तरस्तु-हस्वंदीर्घप्सुतभेदेन प्रत्येकं त्रिविधोऽपिप्रत्येक जिनबिम्बस्योदिता प्रतिष्टा - | षो। उद्गते, ज्ञा०१ अ "उग्गयति वा प्रागुक्तभेदषट्कात् अष्टादशविधः / चन्द्रमण्डले च। तत्र मकारान्तस्यैव उइउत्ति वा एगट्ठमिति। निचू०१० उ० तन्नामतेति बहवः। उइत्येतदक्षरस्य निपातत्वात्प्रगृह्यसंज्ञेति।अच्परत्वे उहादियत्थमिय–त्रि(उदितास्तमित) उदितश्चासौ तथैव अस्तमितश्च नसन्धिः उ उमेशः। सचचादिगणीयः। वाचा भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वाद्दुर्गतिगतत्वाञ्चेति उदितास्तमितः / उअत्ततं-त्रि.(उद्वर्तमान) उद्धृत्य वर्तमाने, उअत्तंतम्मि बहो पाणाणं तेण पूर्वमुदिते पश्चादस्तमिते, यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती / स हि पूर्वमुदित पुव्व उसित्त। उअत्तंतम्मि इति प्राकृतत्वात्पुंस्त्वनिर्देशः। वृ०१ उ. उन्नतकुलोत्पन्नत्वादिना स्वभुजोपार्जित-साम्राज्यत्वेन च उअविय-त्रि.(उदपित) उच्छिष्टे, "इहरा भेणिसिभत्तं उअविअंचेव पश्चादस्तमितः / अतथाविधकारणकु पित-ब्राह्यणप्रयुक्त पशु गुरुमादी" वृ०१ऊ पालधनुगाँ लिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षि- गोलकतया उह(दि)ओइ(दि)अ-त्रि (उदितोदित) उदितश्चासावुन-तकुलबल- | मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकवेदनाप्राप्ततया वेति, स्था०४ ठा०। समृद्धिनिरवद्यकर्मनिरत्युदयवान् / उदितश्च परमसुखसंदोहोद- उई(दी)ण-त्रि.(उदीचीन) उत्तरे, स्था०५ ठा० येनेत्युदितोदितः / सर्वथोदयवति पुरुष, यथा भरतः / उदितोदितत्वं उई(दी)णा-स्त्री.(उदीचीना) उत्तरस्यां दिशि, "दो दिसाउ कप्पइपाईणं चास्य सुप्रसिद्धम् / स्था०४ ठा०। पुरिमता लाऽधिपतौ राजभेदे, | चेव उदीणं चेव'' स्था०२ ठा० / उई (दी) णदाहिण वित्थिपणे उदितोदितस्य राज्ञः श्रीकान्तपतेः पुरिमतालपुरे राज्यमनुशासतः अद्धचंदसंठाणसंठिए उदग्दक्षिणविस्तीर्णोऽर्द्धचन्द्रसंस्थान-संस्थितः। श्रीकन्तपतेनिमित्तं वाणारसी वास्तव्येन धर्मरुचिना राज्ञा सर्वबलेन / राजा समागतम्। नं। आ.चू उई(दी)णपाईण-स्त्री (उदीचीनप्राचीन) उदगेव उदीचीनं प्रागेव च उइ(दि)ण्ण-त्रि.(उदीर्ण) उदयप्राप्ते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उा प्रश्ना उत्तका प्राचीनमुदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत्प्राच्याः प्रज्ञा० उदिते, स्था०५ ठा। उत्त। भ. विपाकोदयमागते, / प्रज्ञा०१९ प्रत्यासन्नत्वादुदीचीनप्राचीनं दिगन्तरम्। क्षेत्रदिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिशि, पद / आचा। उदीरणाकरणेनोदिते, भ.१ श०७ उ। उत्कटे, स्था०५ ठा० | (जम्बूदीवेणं दीवे सूरिया उदीणपाईणमुगच्छइ) भ०५ श०१ उ. *उदीच्य-त्रि. उत्तरे, उत्तरदिग्भवे, आम.द्वित। उई(दी)णवाय-पुं.(उदीचीनवात) उदीचीन उत्तरः वातः उदीचीनवातः। उइ(दि)ण्णकम्म-त्रि (उदीर्णकर्मन्) उदीर्णमुदयप्राप्त कटुविपाकं कर्म | उदीच्या दिशः समागच्छति वादरबायुकादिकभेदे, प्रज्ञा०२ पदा स्था०। येषां ते तथा / मिथ्यात्वहास्यरत्थादीनामुदये वर्तमानेषु, | उई(दी)त्ता अव्य (उदीरयित्वा) उत्प्राबल्येन ईरयित्वा कथयित्वेत्यर्थे, "उदीण्णकम्माण उदिण्णकम्मा पुणो पुणो ते सरहं दुहेति" सूत्र०१ श्रु०५ / "अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता'। सूत्र०१ श्रु०६अ। अ०१ उ. उई (दी)रण-न०(उदीरण) उद-ईर-ल्युट् उच्चारणे -वाच / ol Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 687 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा अनुदयप्राप्तस्य (दलिकस्य) करणेनकृष्योदये प्रक्षेपणे, स्था०४ ठा० / उई (दी)रणा-स्त्री.(उदीरणा) अनुदयप्राप्तं कर्म दलिकमुदीर्यत उदयावलिकायां प्रवेश्यते यथा सा उदीरणा / उदयावलिकातो बहिर्वर्तनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैः सहितेन वा योगसंज्ञितेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदये प्रवेशनरूपे करणभेदे, पं.सं.। तेषामेव कर्म पुगलानामकालप्राप्तानां जीवसामर्थ्य विशेषादुद्वलिकायां प्रदेशनमुदीरणा तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्धसंक्रमाभ्यां लब्ध्वाऽत्मलाभानां निर्जरणसंक्रमणक्लृप्तस्वरूपप्रच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता। कर्मा आन्तरशक्तिविशेषे,। द्वा। "जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पायकम्म उदीरेई तंजहा। अज्झोवगमिया चेव वेयणाए उवक्कमियाए चेव वेदणाए एवं वेदेति एवं णिज्जरेंति अज्झो. वे. उव, वेय." (व्याख्या स्वस्व शब्दे) स्था०२ ठा। सूत्रों अस्या निश्शेषा वक्तव्यता यथा तत्र चैते अर्थाधिकारास्तद्यथा लक्षणं, भेदः, साधनादि प्ररूपणा, स्वामित्वम्, उदीरणा, प्रकृतिस्थानानि तत्स्वामित्वं चेति / / तत्र पुरतो लक्षणभेदयोः प्ररूपणार्थमाह। जं करणे णो कट्टिय, उदए दिज्जए उदीरणा एसा। पगइद्विइ अणुभाग-प्पएसमूलुत्तरविभागा / / 225 / / अत्र पूर्वार्द्धन लक्षणं ततस्तत्प्ररूपणार्थमाह / यत्र यत्परमाण्वात्मकं दलिकं करणेन योगसंज्ञिकेन वीर्यविशेषेण कषाय सहितेन असहितेन वा उदयावलिका बहिर्वर्तिनीभ्यः स्थिति भ्योऽप्याकृत्य उदये दीयते उदयावलिकायां प्रक्षिप्यते एषा उदीरणा च वक्तव्या 'उदयावलिया बाहिरल्लटिईहितो कसायसहिएण वा जोगसन्नेणं करणेणं दलियमाकट्ठिय उदयावलियाए पवेसयाणं" उदीरणत्ति सा च किंभूतेत्यत आह / प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशमूलोत्ता विभागा। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशैर्मूल-प्रकृतिभिरुत्तरप्रकृतिभिश्च कृत्वा विभागो भेदो यस्याः सा तथा। इदमुक्तं भवति। सा उदीरणा चतुर्विधा तद्यथा प्रकृत्युदीरणा स्थित्युदीरणा अनुभागोदीरणा प्रदेशोदीरणा च / एकैकापि द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च। तत्र मूलप्रकृतिविषया अष्टधा उत्तरप्रकृतिविषया चाष्टपञ्चाशदधिकशतभेदा तदेवमुक्तौ लक्षणभेदौ / सम्प्रति साद्यनादिप्ररूपणा कर्तव्याः / सा च द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च॥ तत्र प्रथमतो मूलप्रकृतिविषयामाह / / मूलप्पगईसु पंचण्हं, तिहा दोण्हं चउव्विहा होई॥ आउस्स साइअधुना, दसुत्तरसयउत्तरासिं पि।।२२६।। मूलप्रकृतिषु मध्ये पञ्चानां, मूलप्रकृतीनां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां यावन्मोहगुणस्थानं यस्य समया-वलिकाशेषो न भवति तावत्सर्वजीवानामुदीरणाऽवश्यं भाविनी नामगोत्रयोस्तु यावत्सयोगिचरमसमयस्तावत् / ततः एषामनादिरुदीरणा ध्रुवा अभव्यानां अधुवा, भव्यानांतुधर्विदनीयमोहनीययोरुदीरणा चतुविर्धा तद्यथा सादिरनादिधुंवाऽध्रुवाच। तत्र वेदनीयस्य प्रमत्तगुणस्थानकंयावत् उदीरणा न परतः / मोहनीयस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं यावत् न परतः / ततो-ऽप्रमत्तादिगुणस्थानकेभ्यः प्रतिपतितो वेदनीयस्य उपशान्त-मोहगुणस्थानकभ्येःश्व प्रतिपतितमोहनीयस्योदीरणा सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत्। आयुषः पुनरुदीरणो सादिरध्रुवा च / तथा ह्यायुषः पर्यन्तावलिकायां नियमादुदीरणान भवन्ति / ततो ऽध्रुवा पुनरपि परभवोत्प-त्तिप्रथमसमये प्रवर्तते ततः सादिरिति तदेवं मूलप्रकृतिषु साद्यनादिप्ररूपणा / सप्रत्युत्तरप्रकृतिषु तांचिकीर्षुराह (दसुत्तरेत्यादि) सादिरध्रुवा चेत्यनुवर्त्यते। उत्तरासामपि उत्तरप्रकृतीनामपि / दशोत्तरशतसंख्यानां पञ्चविधज्ञानावरण दर्शनावरणचतुष्टयमिथ्यात्वतैजससप्तक वर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरशुभाशुभगुरुधुनिर्माणान्तराय। पञ्चकरूपाष्टाचत्वारिंशद्व-जानां सर्वशेषप्रकृतीनां मित्यर्थः / उदीरणा द्विधा तद्यथा। सादिरध्रुवा चासाच साद्यध्रुवता अध्रुवोदयत्वादेव सिद्धा। मिच्छत्तस्स चउद्धा, तिहाय आवरण विग्ध चउद्दसगे। थिरसुभ शेयर उवग्धा, यवज्झधुव बंधिनामेय ||227|| मिथात्वस्योदीरणा चतुर्धा / तद्यथा सादिरनादिः ध्रुवा अध्रुवा च तत्र सम्यक्त्वं गतस्य पुनरनादिर्भवति। ततोऽसौ सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य त्वनादिः / अभव्यानां ध्रुवा, भव्यानामध्रुवा / तथा ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चकरूपाणां चतुदर्शप्रकृतीनामुदीरणा त्रिःप्रकारा / तद्यथा अनादि ध्रुवा अध्रुवा च / तथा ोतासां प्रकृतीनां ध्रुवोदयत्वेनानादिरुदीरणा / अभव्यानां धुवा / भव्यानां तु क्षीणमोहगुणस्थानके आवलिकाशेषे व्यव-च्छेदे भवा ध्रुवा / तथा स्थिरशुभे सेतरे / अस्थिराशुभसहितयो-स्तयोरुपघातं वर्जयित्वा शेषाणामध्रुवबन्धिनीनां च तैजससप्तकागुरुलघुवर्णादिविंशतिनिर्माणलक्षणानां सर्वसंख्यया त्रयस्त्रिंशत्संख्यानामुदीरणा त्रिधा / तद्यथा अनादिध्रुवा अध्रुवा च / तत्रानादित्वं ध्रुवोदयत्वात् ध्रुवा अभव्यानाम् / अध्रुवा भव्यानां सयोगिकेवलचरमसमये व्यवच्छेदाभावात्। शेषाणां चाध्रुवोदयानां दशोत्तरशतसख्यानामध्रुवोदयत्वात् उदीरणा सादिरध्रुवा च प्रागेवोक्ता। तदेवं कृता साद्यनादिप्ररूपणा। सम्प्रति मूलप्रकृत्युदीरणास्वामिनमाह। घाईणं छउमत्था, उदीरगा रागिणो य मोहस्स। तइया उणप्पमत्ता, जोगंता उत्ति दोण्हं च / / 22 / / घातिप्रकृतीनां ज्ञानावरणीयान्तरायदर्शनावरणीयान्तराय-रूपाणां सर्वेपि छद्मस्था क्षीणमोहपर्यवसाना उदीरकाः मोहनीयस्य तु रागिणः सरागास्सूक्ष्मसंपरायपर्यवसाना उदीरकाः तृतीयवेदनीयस्य आयुषश्व प्रमत्ताः प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ताः सर्वेप्युदीर-काः / केवलमायुषः पर्यन्तावलिकायां नोदीरका भवन्ति। तथा द्वयोरप्यनामगोत्रयोर्योग्यता सयोगिकेवलपर्यवसानाः सर्वे-प्युदीरकाः / इतिशब्दो भिन्नक्रमो गाथापर्यन्ते योजनीयः / स च मूलप्रकृत्युदीरणापरिसमाप्तिद्योतको वेदितव्यस्तदेवं मूल-प्रकृत्युदीरणास्वाम्युक्तः। साम्प्रतमुत्तरप्रकृत्युदीरणास्वामिनमाह / विग्धा वरण धुवाणं, छउमत्थो जोगिणो उधुवा। उवधायस्स तणुत्था, तणुकिट्टीणं तणुयरागा / / 229 / / विध्न इति अन्तरायं ततोऽन्तरायपञ्चकं ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां चतुर्दशानां ध्रुवोदयप्रकृतीनां सार्थच्छद्मस्था उदीरकाः / तथा (धुवाणंति) नाम ध्रुवोदयानां Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 688 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा यरिंशत्संख्यानां तैजससप्तकवर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरशुभाशुभगुरुलघुनिर्माणरूपाणां योगिनः सयोगिकेवलिपर्यन्ता उदीरकाः / उपघातिनाम्नस्तु तनुस्थाः शरीरस्थाः शरीरपर्याप्त्यपर्याप्त्युदीरकाः तनुकिट्टीकृतां सूक्ष्मकिट्टीकृताम् अर्थात् लोभसत्कानां तनुकरागाः सूक्ष्मसंपराया यावचरमसमयावलिका न भवति तावदुदीरकाः। तसबायरपज्जत्ते, सेयरगइजाइ दिट्टिवेयाणं। आऊणं तन्नामा पत्तेयसरीरस्स उ तणुत्था / / 230 / / सवादरपर्याप्तानां सेतराणां संप्रति ज्ञापना स्थावरसूक्ष्मपर्याप्तसहितानामित्यर्थः। तथा चतसृणांगतीनां, पञ्चानांच जातीनां, तिसृणां दृष्टीनां दर्शनानां मिथ्यादर्शनादीनां, त्रयाणां वेदानां नपुंसकवेदादीनां, चतुर्णा चायुषां सर्वसंख्यया पञ्च-विंशतिप्रकृतीनां यथास्वं तन्नामास्तन्नामप्रकृतिनामान उदी-रणास्तद्यथा त्रसनाम्नस्त्रसास्ते च शरीरे अपान्तराले गतौ च वर्तमाना उदीरकाः। एवं सर्वेषामपि भावनीयम् तथा प्रत्येकनामानः शरीरस्य तनुस्था देहस्थाः तुरेवार्थे देह स्था एव भवन्तीति गाथार्थः / / 230 // आहरयओ णिचा, सरीर दुगवेयप्पामोत्तूणं / ओरालाए एवं, तदुवंगाए तसज्जियाओ व्ब 1231|| ये नरा मनुष्यास्तिर्यञ्च आहारका ओजोलोमप्रक्षेपाहारकारणामन्यतममाहारं गृह्णन्ति तत औदारिक उपलक्षणमेतत् औदारिकबन्धनचतुष्टयस्यौदारिकसंघातस्या औदारिकाः किं सर्वेपि नित्याः शरीरद्विकवेदकान् प्रमुच्य शरीरद्रिकं आहार-कवैक्रियलक्षणानां तत्स्थानात्परित्यज्यन्ते हीनौदारिकसनातस्य औदरिकाः किं सर्वेपि नेत्याह / शरीरद्विकवेदकान् प्रमुच्य शरीरद्विकमाहारकवैक्रियलक्षणं तत्स्थावरा एवमुक्तेन प्रकारेण (तदुवगाएत्ति) तदङ्गोपाङ्गनाम्नः औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्न उदीरका वेदितव्याः / केवलं ते त्रसकायिका एव न स्थावरास्तेषां तदुदयाभावात्। वेउव्विगाय सुरने-रइया आहारगानरो तिरिओ। सन्नी बायरपवणो, लद्धिपज्जत्तगो होज्जा / / 23 / / वैक्रियशरीरनाम्नः उपलक्षणमेतत् वैक्रियसंघातस्य सुरा नैरयिका वा गृह्णन्तो यश्च नरस्तिर्यङ् वा सज्ञी वैक्रियलब्धिवान् यश्च वादरपवनो दुर्भगनामोदयी लब्धिपर्याप्तको वैक्रियशरीर-लक्षणलब्ध्या पर्याप्तस्ते सर्वेप्युदीरकाः। वेउव्वियंग उवंगतणु-तुल्ला पवणबायरं हिचा। आहरगाय विरओ, विउव्वंतो पमत्तेय / / 233|| वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्न उदीरकास्तनुतुल्या वैक्रियशरीरनाम्न उदीरकाः प्रागुपदिष्टास्त एव वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोऽपि वेदितव्या इत्यर्थः / किं सर्वेऽपि नेत्याह। बादरापवनं बादरवायुकायिकं हित्वा परित्यज्य शेषा द्रष्टव्याः। आहारक शरीरनाम्नोपि विरतसंयतस्तत् आहारकशरीरं कुर्वन् प्रमत्तः प्रमादमुपगतस्सन् उदीरको भवति। छण्णं ठाणं संघय-णाणं सगला तिरिय नरा। देहत्था पज्जत्ता, उत्तमसंघयणाणो सेढी / / 234|| सकलाः पञ्चेन्द्रियास्तिर्यचो मनुष्याश्च देहस्थाः शरीरनामोदये वर्तमाना | लब्ध्या पर्याप्ताः षण्णां संहननानामुदीरका भवन्ति / इहोदयप्राप्तानामेवोदीरणा प्रवर्तते नान्येषां ततो यत्स्थानं यत्संस्थानं संहननं वा उदयप्राप्तं वा भवति तत्तदा उदीयते। नान्यदा चेति द्रष्टव्यम्। तथा उत्तमसंहननो वजर्षभनाराचसंहननः श्रेणीः क्षपकश्रेणीर्भवति न शेषसंहननः / तेन क्षपक श्रेणिं प्रतिपन्ना वज्रर्षभनाराचसंहननमेवोदीरयन्ति न शेषसंहननानि उदया-भावादित्यवसेयम्। चतुरंसस्स तणुत्था, उत्तरतणु सगलभोगभूमिगया। देवा इयरे हुंडा, तस तिरिय नरा य सेवट्टा / / 235 / / चतुरस्रस्य समचतुरस्रसंस्थानस्य तनुस्थाः शरीरस्था: उत्तरतनव आहारकोत्तरवैक्रियशरीरिणौ मनुष्यास्तिर्यश्चः सकलाः सकलेन्द्रियाः पजेन्द्रिया इत्यर्थः / तथा भोगभूमिगता देवाश्च उदीरका भवन्ति (इयरेहुंडत्ति) इतरे उक्तशेषाः एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियनैरयिका अपर्याप्तकाश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्या एते सर्वेऽपि शरीरस्थाः हुंडसंस्थानस्योदीरका भवन्ति (तस तिरियनरा यसेवट्टित्ति) अत्र इतरे इत्यनुवर्तते उक्तशेषास्त्रसा द्वीन्द्रियादयः ! पञ्चेन्द्रियतिर्यड्मनुष्याश्च सेवार्ताः सेवार्तसंहननोपेताः सेवार्तसंहननस्योदीरकाः। संघयणाणि न उत्तरे, तणुसु तन्नामगा भवंतरगे। अणुपुवीणं परघा-इस्स उदेहीण पज्जत्ता / / 236 / / उत्तरतनुषु वैक्रियाहारकशरीरेषु संहनना न भवन्तीति षण्णां संहननानामेकतरमपि संहननंन भवतितेनएकस्यापि संहनन स्योदीरका न भवन्ति / तथा आनुपूर्वीणां नारकानुपूर्यादीनां चतसृणां तन्नामिका तत्तदानुपूर्व्यापि नारकादिनामानो भवापान्तरालगतौ वर्तमाना उदीरका वेदितव्याः। तद्यथा-नारकानुपूर्व्या नारको भवापान्तररालगतौ वर्तमान उदीरकस्तिर्यगानुपूास्तिर्यक् इत्यादि / तथा पराघातनामः शरीरपर्याप्ता-पर्याप्ताः सर्वेप्युदीरकाः। बायर पुढवी आयव, णामवज्जियत्तु सुहुमतसा। उज्जोयणामतिरिए, उत्तरदेहे य देवजई / / 237 / / आतपनामा बादरप्रथ्वीकायिक उदीरकः चशब्दस्यानुक्तार्थ समुचायकत्वात् बादरपृथ्वीकायिको पर्याप्तो द्रष्टव्यः / तथा सूक्ष्मान् सूक्ष्मैकेन्द्रियान् सूक्ष्मत्रसांश्च तेजोवायुकायिकान् वर्जयित्वा शेषास्तिर्यञ्चः पृथिव्यम्बुवनस्पतयो विकलेन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः लब्धिपर्याप्ता उद्योतनामानो यथासंभवमुदीरकाः भवन्तिा तथा उत्तरदेहे उत्तरशरीरे यथासंभवं वैक्रिये आहारकेच वर्तमानो देवोयतिश्च उद्योतनामा उदीरको भवति / / 237 // सगलो पइट्टगई, उत्तरतणुदेवभोगभूमिगया। इट्ठसराय तसो विय, इतरासिं सनेरइया ||238|| सकलः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् मनुष्यो वा शरीरपर्याप्तापर्याप्तः प्रशस्तविहायोगतिः उदये वर्तमानस्तथा उत्तरस्यां तनौ वैक्रिय शरीररूपायां वर्तमानाः सर्वे तिर्यञ्चो मनुष्याश्च तथा सर्वे देव भोगभूमिकागता द्रष्टव्याः। इष्टगते प्रशस्तविहायोपगतेरुदीरकः / तथा इष्टस्वराः सुस्वरनामानस्त्रसा द्वीन्द्रियादयोऽपि शब्दा-त्प्रागुक्ताश्च पञ्चेन्द्रियतिर्यगादयो भाषापर्याप्त्यापर्याप्ता यथा-संभवमुदीरकाः। तथा इतरस्यामप्रशस्तविहायोगतिदुःस्व-रनामनस्वसा विकलेन्द्रियाः सनैरयिका नैरयिकसहितास्तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याः केचन यथासभवमुदीरका वेदितव्याः। उस्सासस्स सराण य, पञ्जत्ता आणपाणमासासु। सव्वण्णूणुस्सासो,भासा विय जानुरुज्जति / / 239|| Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 689 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा उच्छ्रवासस्वरशब्दयोः एतत्प्राणभाषाशब्दाभ्यां सह यथा-संख्येन युक्तमुक्तं "ते ते बंधतगा कसायाणमिति' तत्र मिथ्याष्टिसास्वादना योजना / सा चैव उच्छ्वासनामः प्रायः पान-पर्याप्तापर्याप्ताः अनन्तानुबन्धिनामुदीरकास्तेषां तद्वेदकत्वात् / अप्रत्याख्यासर्वेप्युदीरकाः (सराणयत्ति) द्वित्वेपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्। ततः स्वरयोः नावरणानां देशविरतिपर्यन्ताः संज्वलन-क्रोधमानमायालोभानां सुस्वरदुःस्वरयोः प्रागुक्ता उदीरकाः सर्वेपि भाषा-पर्याप्तापर्याप्ता द्रष्टव्याः / स्वस्वबन्धव्यवच्छेदादक उदीरकाः हास्यादिषट्कस्यापूर्वगुणयद्यपि स्वरयोः प्रागेवोदीरका उक्तास्तयापि ते भाषापर्याप्तापर्याप्ता स्थानका उदीरकाः। एवोदीरका वेदितव्या इति विशेषोपदर्शनार्थं पुनरुपादानम् / तथा जावूण खणो पढमो, संहरइ हासाणमेव मियरासिं। सर्वज्ञानां केवलिनामुच्छ्रवासभाषे यावन्नाद्यापि निरोधमुपगच्छतस्ता- देवा नेरइया भव-ट्ठिई केइ नेरइया ||24|| वदुदीरितेऽत्र निरोधानन्तरमुदयाभावान्नोदीरणा भवति / यावत् प्रथमः क्षणः किश्चिदूनो भवति प्रथममन्तर्मुहूर्त देवोसुभगाएय,णामगब्भवकंति उदयकित्तीए। यावदित्यर्थःतावन्नियमोद्देवाः सुस्वररतिहास्यानामुदीरका वेदितव्याः। पञ्जत्तो वज्जियास, सुहमे नेरइया सुहुमतेसु तसे / / 240 / / परस्त्वनियम एवं किंचिदून प्रथमक्षणं यावन्नैरयिका इतरासामसातादेवो इत्यादौ जातावेकवचनं केचिद्देवाः केचित्तिर्यङ् मनुष्या- वेदनीयारतिशोकप्रभृतीनां नियमादुदीरकाः / परस्तु तीर्थकरकेवलगर्भव्युत्क्रान्ताः सुभगादेयनामान उदीरकोपेतास्तदुदये वर्तन्ते / तथा ज्ञानलाभादौ विनिर्यासोपि भवति / केचित्पुन रयिकाः सकलामपि सूक्ष्मैकेन्द्रियसहितान् नैरयिकान् सूक्ष्मत्रसांश्चवर्जयित्वा शेषाः भवस्थितिं यावत् असात-वेदनीयारतिशोकानामुदीरका भवन्ति / पर्याप्तकनामोदये वर्तमाना यशः कीर्तेरुदीरकाः।। एवमेकैकप्रवृत्त्युदीरणास्वामित्वमुक्तम्। संप्रति प्रकृत्युदीरणास्थानमाह। गोउत्तमस्स देवा, नराय दयणो चउण्हमियराइ। पंचण्हं च चउण्डं च एकाईजा दसण्हं तु।। तव्वइरित्ता त्तित्त्थ-गरस्ससव्वसायापभवे / / 241|| तिगहीणाए मोहे, मिच्छे सत्ताएजावदसए।।२४६।। सर्व देवा मनुष्या अपि केचिदुच्चैःकुलसमुत्पन्नास्तथा प्रकृतिनो द्वितीयकर्मणि दर्शनावरणीयलक्षणे पञ्चानां चतसृणां प्रकृतीनां नीचैर्गो त्रिणोऽपि पञ्चमहाव्रतसमलङ्कृतगात्रयष्टयः उच्चै \- युगपदुदीरणा भवति। तत्र चतसृणां चक्षुरचक्षुरवधिदर्शना-वरणरूपाणां त्रस्योदीरकास्तथा इतरासां चतसृणां प्रकृतीनां दुर्भगानादेयायशः ध्रुवा छद्मस्थानामुदीरणा / एतासां मध्ये निद्रापञ्चकमध्यादन्यतमकीर्तिनीचैर्गोत्राणं तद्व्यतिरिक्तानामुक्तव्यतिरिक्ता नांवेदित-व्यास्तत्र प्रकृतिप्रक्षेपे पञ्चानामुदीरणा / तथा मोहे मोहनीये एकादित्रिकहीना दुर्भगानादेययोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंमूच्छिम-तिर्यड्मनुष्यनैर- तावत् द्रष्टव्या यावद्दशानामेतदुक्तं भवति मोहनीये कर्मणि यिकाः / अयशः कीर्तेःसर्वे सूक्ष्माः सर्वे च नैरयिकाः सर्वे सूक्ष्मास्त्रसाः उदीरणामधिकृत्य एकादीनि त्रिकहीनानिद शपर्यन्तानि नव प्रकृत्या सर्वेप्यपर्याप्तकनामोदये वर्तमानाः। नीचैर्गोत्रस्य पुनः सर्वे नैरयिकाः सर्वे स्थानानि भवन्ति / तद्यथा हालचस्व तिर्यञ्चो मनुष्या अपि विशिष्टकुलोत्पन्नान् व्रतिनश्च मुक्त्वा शेषाः संप्रत्येषामुदीरणास्थानानां स्वामिनमाह ! / 'मिच्छे सत्ताइ जाव' दश सर्वेप्युदीरका द्रष्टव्याः। तथा तीर्थंकरनामः सर्वज्ञतायां सत्यां भवेदुदीरणा मिथ्या दृष्टः सप्तादीनि दशपर्यन्तानिचत्वारिउदीरणास्थानानि भवन्ति। नान्यदा उदयाभावात्। तद्यथा सप्त अष्टौ नव दश / तत्र मिथ्यात्वमप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानाइंदिअपज्जत्तीए, दुसमयपज्जत्तगाय पाउग्गा। वरणसंज्वलनक्रोधादीनामन्यमे त्रयः क्रोधादिकाः। यत एकस्मिन् क्रोधे निद्दा पयलाणंखी-णरागखवगेय परिवन्जिय / / 24 / / उदीयमाने सर्वे क्रोधा उदीयन्ते / एवं मानमायालोभेषु द्रष्टव्याः / न च इन्द्रियपर्याप्तापर्याप्तास्ततो द्वितीयसमयादारभ्य इन्द्रियप- युगपदुदीरणेत्यन्यतमे त्रयो गृह्यन्ते तथा त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः। याप्त्नन्तरसमयादारभ्य इत्यर्थः / निद्राप्रचलप्रायोग्या भवन्ति। किं सर्व तथा हास्यरत्यरतियुगले रतिशोकयुगलयोरन्यतरदयुगलम् / एतासां नेत्याह। क्षीणरागान क्षपकांश्च परित्यज्य उदीरणाहि उदये सति नान्यथा सप्तप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टौ उदीरणा ध्रुवा / अत्र च भङ्गाश्चतुर्विशतिस्तद्यथा न च क्षीणक्षपकयोर्निद्राप्रचलयोरुदयः संभवति "निद्दाद्गस्स उदओ हास्यरत्यरतियुगले अरतिशोकयुगले च प्रत्येकमेकैको भङ्गः प्राप्यते खीणखवगे परिवज्जति" प्रामाण्यात् ततस्तान वर्जयित्वा शेषा इति द्वौ भङ्गौ तौ च प्रत्येकं त्रिष्वपि देवेषु प्राप्येते इति। द्वौ त्रिभिर्गुणितौ निद्राप्रचलयोरुदीरका वेदितव्याः॥ जाताः षट् / ते च प्रत्येकं क्रोधादिषु चतुर्षु प्राप्यन्ते इति षट् निहानिद्दाईण वि, असंखवासा य मणुयतिरिया य॥ चतुर्भिगुणिताश्चतुर्विंशतिरिति / एतस्मिन्नेव सप्तके भये वा वेउव्वियाहारतणू, वजित्ता अप्पमत्ते य / / 243 / / जुगुप्सायामनन्तानुबन्धिना वा क्षिप्ते अष्टानामुदीरणानां भयादौ असंख्येयवर्षायुषो मनुष्यतिर्यञ्चो वैक्रियशरीरिणो प्रमत्तसंयताश्च मुक्त्वा प्रत्येकमेकैकाभङ्गकानां चतुर्विंशतिः प्राप्यते इति तिस-श्चतुर्विंशतयोत्र शेषाः सर्वेपि निद्रानिद्राप्रचलस्त्यानींनामुदीरकाः वेदितव्याः। द्रष्टव्याः। ननु च मिथ्यादृष्टरवश्यमनन्तानुबन्धिनामुदयः संभवति उदये वेयणीयणप्पमत्ता, ते ते बंधगा कसायाणं / च सत्यवश्यमुदीरणा तत्कथं मिथ्यादृष्टिरनन्तानुबन्ध्युदयरहितः हासाई छक्कसयं, अपुटवकरणस्सचरमंते // 244|| प्राप्यते सप्तानामष्टानां वा अनन्तानुबन्धरहितानामुदीरणा संभवेत् / वेदनीययोः सातासातरूपयोः प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्ताः उच्येत् इह सम्यग्दृष्टीनां सतां केनचित्प्रथमतोऽनन्तानुषबन्ध्युदयसर्वेऽप्युदीरकाः तथा ये जीवो येषां कषायाणां बन्धकास्ते तेषां रहितः प्रयोजता तत्रैव च स विश्रान्तो न मिथ्यात्वादिक्षयाय कषायाणामुदीरका वेदितव्याः / यतो यानेव कषायान् वेदयते तानेव उक्तस्तथाविध-सामध्यभावात्। ततः कालान्तरे मिथ्यात्वं गतः सन् बध्नाति। "जे वेयइ संबंधे" इति वचनात् / उदये च सत्युदीरणा ततो | मिथ्यात्वप्रकृ तयो भूयोप्यनन्तानुबन्धिनो / ततो बन्धा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 690 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा वलिकाया यावन्नाद्या-प्यतिक्रामति तावत्तेषामुदयो न भवति- अत्रैका भङ्गकांनां तिसश्चतुर्विं शतयः / तथा तस्मिन्नेव चतुष्के उदयाभावाच्च उदीरणाया अप्यभावः / बन्धावलिकायां पुनरतीता- भयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्वानामन्यतमस्मिन् प्रक्षिपते पञ्चा-नामुदीरणा। यामुदयसंभवाद्भवत्येवोदीरणा / ननु कथं संबन्धसमयादारभ्य अत्र भङ्ग कानां भयजुगुप्सावेदकसम्यक्त्वेषु युगपत् प्रक्षिप्तेषु आवलिकायामतीतायामुदयोपि / संभवति ततोऽबाधाकलक्षये सति सप्तानामुदीरणा अत्रैका चतुर्विंशतिर्भङ्गकानां भयजुगुप्सानाम् / उदयः / अबाधाकालश्चानन्तानुबन्धिना जघन्य-तोन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः संप्रत्यपूर्वकरणस्योदीरणास्थानान्याह (छच्चोवरिल्लिम्मित्ति) वरिता चत्वारि वर्षसहस्राणि इति / नैष दोषः यतो बन्धसमयादारभ्य तेषां उपरितेन अपूर्वकरणेनचतुरादीनि षट्पर्यन्तानित्रीण्युदीरणास्थानानि तावत्सत्ता भवति / सत्तायां च सत्यां पतद्ग्रहता तस्यां च सत्यां आह। तद्यथा चतस्रः पञ्चषट्। तत्र चतुर्णा संज्वलनक्रोधादीनामेकतमः। शेषप्रकृतिदलिकं संक्रामति सक्रम्य तस्य च स संक्रमावलिकाया- क्रोधादित्रयाणां वेदानामन्यमतो वेदः / द्वयोर्युगलयोरन्यतरधुगलममतीतायामुदयः उदये च सत्युदीरणा / ततो बन्धसमयादनन्तर- मित्येतासां चतसृणां प्रकृतीनां विरतस्य क्षायिकसम्यग्दृष्टिा उदीरणाऽत्र मावलिकायामतीता-यामुदीरणाभिधीयमाना न विरुध्यते / तथा द्वे चतुर्विशती भङ्ग कानामेताश्वोपूर्वकरणसत्का भयजुगुप्सयोस्तु तस्मिन्नेव सप्तके भयजुगुप्सानन्तानुबन्धिनां बन्धिषु प्रक्षिप्तेषु युगपत्प्रक्षिप्तयोः षण्णामुदीरणा / अत्र चैका चतुर्विंशति-भङ्गकानाम् दशानामुदीरणा। अत्रत्यैव भङ्गकानां चतुर्विंशतिस्तदेवं मिथ्यादृष्टर्मोह- एताश्चापूर्वकरणसत्काश्चतुर्विंशतयः अस्मिन्नेव चतुष्के भयजुगुप्सायां वा नीयस्योदीरणास्थानान्युक्तानि / क्षिप्तानां पञ्चानामुदीरणा। अत्रद्वे चतुर्विशती भङ्गकानां भयजुगुप्सयोस्तु साम्प्रतं सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनामाह। युगपत्प्रक्षिप्तयोः षण्णामुदीरणा / अत्रैका चतुर्विंशतिः / चतुर्विशतयः सासायणम्मि सत्ताइ, नव अविरइए छाइ परम्मि पंचाइ। परमार्थतः प्रमत्ता-प्रमत्तचतुर्विंशतिका भिन्नस्वरूपा इति न प्रथा अट्ठविरए चउराइ, सत्त छचोवरिल्लिम्मि / / 247 / / गणयिष्यन्ते। सासादने सम्यग्दृष्टौ सम्यग्मिथ्यादृष्टौ च सप्तादीनि नव पर्यन्तानि त्रीणि सम्प्रत्यनिवृत्तिबादरस्योदीरणास्थानान्याह। त्रीण्युदीरणास्थानानि भवन्ति तद्यथा सप्त अष्टौ नव / तत्र अनियट्टम्मि दुगेगं, लोभो तणुग्गजोग्ग चउवीसा। सासादनसम्यग्दृष्टौ अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्या- एक्कग छक्ककार-दससत्तचउक्क एकाउ॥२४८|| नावरणसंज्वलनक्रोधादीनामन्यतमे चत्वारः क्रोधादिकाः / त्रयाणां (अनियट्टत्ति) अनिवृत्तिबादरे द्वे उदीरणास्थाने। तद्यथाद्वेप्रकृती एका वेदानामन्यतमो वेदः / द्वयोर्युगलयोरन्यतरयुगलमिति / सप्तमिति च तत्र चतुर्णा संज्वलनक्रोधादीनामे कतमे क्रोधादित्रयाणां सप्तनामुदीरणा ध्रुवा / अत्र प्रागुक्तक्रमेण भङ्गकानामेका चतुर्विंशतिः / वेदानामन्यतमो वेदः / अत्र त्रिभिदैश्चतुभिः संज्वलनैदश भङ्गाः / सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टित्वानन्तानुबन्धिवर्जास्त्रयो-ऽन्यतमे क्रोधादयः वेदेषु क्षीणेषूपशान्तेषु वा संज्वलनक्रोधादीनामेकतमं क्रोधादित्रयाणां त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः / द्वयोर्युगल-योन्यतरदृयुगलं सम्यग् वेदानामन्यतममुदीरयन्ति / तत्र चत्वारो भङ्गाः (लोभोतणुएजोग्गत्ति) मिथ्यात्वं चेति सप्तानामुदीरणा / अत्र च द्वे चतुर्विंशती भङ्ग कानां तनुरागयोग्यस्य सूक्ष्मसंपरायस्य सूक्ष्मलोभकिट्टीर्वेदयमानस्य लोभ भयजुगुप्सयोस्तु युगपत्प्रक्षिप्तयोः सप्तानामुदीरणा / अत्रापि एवैको मोहनीयमध्ये उदीरणायोग्यो भवति। संप्रतिचतुरादिषु दशपर्यन्तेषु तिसश्चतुर्वि शतयोऽत्र चैका चतुर्विंशतिः / अस्मिन्नेव षट् के उदीरणास्थानेषु विरतायां यावत्यश्चतुर्विंशतयो भवन्ति तावतीनिरूपयति भयजुगुप्सावेदकसम्यक्तवानामन्यत-रक्षिते सप्तानामुदीरणास्थानानि -(चउवीसेत्ति) दशोदीरणायातेका चतुर्वि-शतिः नवोदीरणायां षट् अष्टो भवन्ति / तद्यथा षट् सप्त अष्टौ नव / तत्रौपशमिकसम्यग्दृष्टे : दीरणायामेकादश सप्तोदीरणायां दश षड़दीरणायां सप्त पञ्चकोदीरणायां क्षायिकसम्यग्दृष्टेर्वा अविरतस्य अनन्तानुबन्धिवस्त्रियोन्यतम- चतस्रः चतुरु-दीरणायाम-केति। एताश्चतुर्विंशतयः प्रागेव भवन्ति। केवलं क्रोधादिकाः / त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः द्वयोर्युगलयोरन्यतर- संज्ञिनाममात्रमिहै कं स्वधिया परिभावनीयम् / तदेवमुक्तानि युगलमिति षण्णामुदीरणा / अत्र चैका चतुर्विंशतिर्भङ्गकानां "परम्मि मोहनीयस्योदीरणास्थानानिदश। तद्यथा एकचत्वारिंशद् द्विचत्वारिंशपंचाइ अट्ठत्ति'' विरतसम्यग्दृष्टि परस्मिन् देशविरते पञ्चादीनि त्पञ्चाशत एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् अष्टपर्यन्तानि चत्वारि उदीरणास्थानानि / तद्यथा पञ्च षट् सप्त अष्टौ तत्र षट्पञ्चाशचेति। तत्र तैजससप्तकं वर्णादिविंशतिरगुरुलघु-स्थिरास्थिरे प्रत्या-ख्यानावरणसंज्वलनसंज्ञौ क्रोधादीनामन्यतमो द्वौ क्रोधादिकौ।। शुभाशुभे निर्माणमित्येतासां त्रयस्त्रिंशत् प्रकृतीनामुदीरणा ध्रुवा / तत्र त्रयाणां वेदानामन्यतमो वेदः / द्वयोर्युगलयोरन्यतरद् युगलम्। एतासा मनुष्यगतिप-चेन्द्रियजातित्रसवादरपर्याप्तसुभगादेययश कीर्तिरूपे अष्टके पञ्चानां प्रकृतीनां देशविरतस्योदीरणा ध्रुवा। एषा चौपशमिकसम्यग्दृष्टः प्रक्षिप्ते सति एकचत्वारिंशद्भवति एतासां चैकचत्वारिंशत्प्रकृतीनां क्षायिकसम्यग दृष्टा अवगन्तव्या / अत्र च प्रागुक्तक मेण केवलिसमुद्धातागतः काभणकाययोगे वर्तमानः केवली उदीरको भवति / चतुर्विशतिर्भङ्गकानाम् / संप्रति प्रमत्ता-प्रमत्तभेदयोर्भावात् युगपत् एषैव चैकचत्वारिंशत्तीर्थंकरना-मसहिता द्विचत्वारिंशद्भवति / तस्याश्च उदीरणा स्थानान्याह "विरइए चउराइ सत्तत्ति' विरते प्रमत्ते अप्रमत्ते तीर्थकरकेवली समुद्धातगतः कार्मणकाययोगे वर्तमान उदीरकः / च चतुरादीनि सप्तपर्यन्तानि चत्वारि उदीरणास्थानानि भवन्ति। तद्यथा तस्यामेवैकचत्वारिंशति औदारिकसप्तकं षण्णां संस्थानानामेकैचत्वारि पञ्चषट् सप्त। तत्र संज्वलनक्रोधादीनामन्यतम एकः क्रोधादिः / कमेतत्संस्थानं वज्रऋषभनाराचसंहननम्। उपघातप्रत्येकमित्येकादशके त्रयाणां वेदाना-मन्यतमो वेदः / द्वयोरन्यतरधुगलमित्येतासां चतसृणां प्रक्षिप्ते सति द्विपञ्चाशद्भवति। अत्र षभिः संस्थानः षड् भङ्गास्ते प्रकृतीनां विरतस्य क्षायिकसम्यग्दृष्टरौपशमिकसम्यग्दृष्टाउदीरणा धुवा | च वक्ष्यमाणाः सामान्यमनुष्यभङ्ग ग्रहणेन गृहीता द्रष्टव्याः। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 691 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा एवमुत्तरत्रापि / एतस्याश्च द्विपञ्चाशत्सयोगिकेवलिसमुद्धातगतौदारिकमिश्रकाययोगे वर्तमाने उदीरकः एषैव च द्विपञ्चाशत्तीर्थकरनामसहिता त्रिपञ्चाशत्किवलमिह संस्थानं समचतुरस्रमेव वक्तव्यम्। अस्या अप्युदीरकाः सयोगकवेलतीर्थ करौदारिकमिश्रकाययोगे वर्तमाना वेदितव्याः / तथा सैव द्विपञ्चाशत् पराघातः उच्छ्रवासनामप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिरन्यतरा विहायोगतिः सुस्वरदुःस्वरयोरन्यतरनामेति प्रक्षेपात्त्रिपञ्चाशत् षट्पञ्चाशद्भवति / एवं च सयोगिके वल्यौदारिककाययोगे वर्तमानं उदीरकः सप्तपञ्चाशद्देव-वाग्योगनिरोधे षट्पञ्चाशत् उच्छ्वासे पि च निरुद्ध चतुः पशाशत् अत्र द्विपञ्चाशचतुःपञ्चाशद्धर्येषु शेषेषुतु पञ्चसुतीर्थकृताम्। तदेवमुक्तानि केवलिनामुदीरणास्थानानि / संप्रत्येकन्द्रियाणा-मभिधीयन्ते / एकेन्द्रियाणामुदीरणास्थानानि पञ्च / तद्यथा द्विचत्वारिंशत्पञ्चाशत् एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचेति तत्र तिर्यग्गतियंगानुपूर्यो। स्थावरनाम एकेन्द्रियज्ञातिः बादर सूक्ष्मयोरेकतरयोः पर्याप्तापर्याप्तयोरेक तरं दुर्भगमनादेयंयशः कीर्त्ययशः कीयोरेकतरमित्येता नवप्रकृतयः। प्रागुक्ता-भिधुवोदीरणाभिस्त्रयस्त्रिंशत्संख्याकाभिः सह सम्मिश्रा द्विचत्वारिंशद् भवन्ति / अत्र च भङ्गाः पञ्च। तद्यथा बादर-सूक्ष्माभ्यां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्ताभ्यामयशः कीर्त्या सह चत्वारि, बादरपर्याप्तयशः कीर्तिभिश्चैकः / सूक्ष्मापर्याप्ताभ्यां सह यशः कीर्तेरुदयो न भवति, तदभावाच नोदीरणेति कृत्वा तदाश्रिता विकल्पा न भवन्ति / एषा द्विचत्वारिंशदपान्तरालगतौ वर्तमानस्य वेदितव्या / ततः शरीरस्थस्यौदारिकशरीरौदारिकसंघातौदा-रिकबन्धनचतुष्टयहुंडसं स्थानोपघातप्रत्येकसाधारणाभ्या-मयशःकीा सह द्वौ सूक्ष्मस्य पर्याप्तापर्याप्तकप्रत्येकसाधार-गैरयशः कीर्त्या सह चत्वारि इति दश बादरवायुकायिकस्य वैक्रियं कुर्वतः औदारिकषट्कस्थाने वैक्रियषट्कमवगन्तव्यम् / ततश्च तस्यापि पञ्चाशदेवोदीरणा योग्या भवन्ति केवलमिह बादरपर्याप्तप्रत्येकायशः कीर्तिपदैः एष एव भङ्गः तैजसकायिक वायुकायिकयोर्हि साधारणपशःकीयॊरुदयो न भवति तदभावाच नाप्युदीरणा ततस्तदाश्रिता भङ्गा न प्राप्यन्ते / तदेव सर्वसंख्यया पञ्चाशदेकादशभङ्गास्ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघात उच्छ्वासक्षिप्ते एकपञ्चाशद्भवति / अत्र भङ्गाः षट् / तद्यथा-बादरस्य प्रत्येकसाधारणयशः कीर्त्ययशः कीर्तिपदैश्चत्वारः। सूक्ष्मप्रत्येकसाधारणाभ्यामयशःकीर्त्या सह द्वौ बादरवायु-कायिकस्य च वैक्रियं कुर्वतः शरीरपर्याप्तापर्याप्तपराघाते क्षिप्ते एका प्रागुक्ता पञ्चाशत् भवति पञ्चाशदत्र च प्रागवदेक एव भङ्गः / सर्वसंख्यया चैकपञ्चाशदतः सप्त भङ्गाः। ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वास क्षिप्ते द्विपञ्चाशद्भवति। अत्रापि भङ्गाः षट् / तद्यथा बादरस्योद्योतेन सहितस्य प्रत्येकसाधारणयशः कीर्त्ययशः कीर्तिपदैश्चत्वारः। आतपसहितस्य प्रत्येकयशः कीर्त्ययशः कीर्तिपदैवी भङ्गौ / बादरवायुकायिकस्य वैक्रियं कुर्वतः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वासे क्षिप्ते प्रागुक्ता एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् भवति / तत्र च प्राग्वदेक एव भङ्गः / तैजसकायिकवायुकायिकयोर्हि आतपोद्योतयशः कीर्तिनामुदयाभावात् उदीरणा न भवति। ततस्तदाश्रिता भङ्गाः अत्रन प्राप्यन्ते। सर्वसंख्यया द्विपञ्चाशद्भङ्गास्त्रयोदश तथा प्राणापानपर्याप्ता-पर्याप्तस्य उच्छ्वाससहितायां द्विपञ्चाशत्। आतपोद्योतयोर-न्यतरस्मिन् क्षिप्ते त्रिपञ्चाशद्भवति अत्र भङ्गाः षट् / अत्र भङ्गाः ये प्रागातपोद्योतत्वान्यतरसहितायां द्विपञ्चाशदभिहिताः सर्वसंख्यया चैकेन्द्रियाणां भङ्गा द्विचत्वारिंशत् द्वीन्द्रिया-णामुदीरणास्थानानिषट्। तद्यथा द्विचत्वारिंशदपान्तरालगतौ वर्तमानस्यावसेयाः / अत्र च भङ्गास्त्रय तद्यथा अपर्याप्तकनामोदये वर्तमानस्यायशः कीर्त्या सह एको भङ्गः पर्यापतकनामोदये वर्तमानस्य यशः कीर्त्ययशः कीर्तिभ्यां द्वाविंशतिः। ततः शरीरस्थस्यौदारिकसप्तकं हुंडकसंस्थानसे वार्तसंहननमुपघातनामप्रत्येकनामेत्येकादशकं प्रक्षिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते। ततो जाता द्विपञ्चाशत् / अत्र च भङ्गास्त्रयस्ते च प्रागिव द्रष्टव्याः। ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य विहायोगतिपराघातयोः प्रक्षिप्तयोः चतुःपञ्चाशत् भवति / अत्र यशः कीर्त्ययशः कीर्तिभ्यां द्वौ भङ्गौ ततः प्राणापानपर्याप्तस्य उच्छ्वासे क्षिप्ते पञ्चाशत् सुस्वरदुःस्वरयोरेकतरस्मिन् पञ्चाशद्भवति। अत्रापि प्रागिव द्वौ भङ्गो। अथवा शरीरपर्याप्तौ उच्छवासे अनुदिते तदुद्योतनाम्नि तूदिते पञ्चापञ्चाशद्भवति / अत्र दुःस्वरसुस्वरयशः कीर्त्ययशः कीर्तिभ्यां द्वौ भङ्गौ सर्वेऽपि षट्पञ्चाशति षट् भङ्गाः ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य स्वरसहितायां षट्पञ्चाशति उद्योतनाम्नि प्रक्षिप्ते सप्त पञ्चाशद्भवति अत्र सुस्वरदुःस्वर-योर्यशःकीर्त्ययशः कीर्तिपदैश्चत्वारो भङ्गाः सर्वे वीन्द्रियाणां भङ्गा द्वाविंशति / एवं त्रीन्द्रियजातिश्चतुरिन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियजातिर-भिधातव्या / प्रत्येकं भङ्गा द्वाविंशतिरवसेया। सर्वसंख्यया विकलेन्द्रियाणा भङ्गाः षट्षष्टिः / तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणां वैक्रियलब्धिरहितानामुदीरणास्थानानि षट् / तद्यथा द्विचत्वारिंशत् द्विपञ्चाशत् षट्पञ्चाशत् सप्तपञ्चाशचेति। तत्र तिर्यग्ग-तितिर्यगानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिस्त्रसनामबादरनामपर्याप्ता पर्याप्तयोरेकतरं सुभगादेययुगलदुर्भगानादेययुगलयोरेकतरं युगलं यशः कीर्त्ययशः कीोरेकतरोऽन्ये तावन्नव प्रकृतयः प्रागुक्ता-स्त्रयस्त्रिंशत्संख्यकाभिधुवोदीरणामिः सह चत्वारिंशत् अपान्त-रालगतौ वर्तमानस्य वेदितव्याः / अत्रच भङ्गाः पञ्च / तत्र पर्याप्त-कनामोदये वर्तमानस्य सुभगादेययुगलदुर्भगानादेययुगला-कीर्त्ययशः कीर्तिभिश्चत्वारो भङ्गाः। अपर्याप्तकनामोदये वर्तमानस्य दुर्भगानादेयायशः कीर्तिभिः एक एव भङ्गः / इह सुभगादेये दुर्भगानादेये वा युगपदुदयमायातस्तत उदीरणापि युगपदेवेतिपञ्चैव भङ्गाः। अपरे पुनराहुः। सुभगादेय-योर्दुर्भगानादेययोर्वा नैरयिका वा तेन युगपदेका उभयोर्भावनिय-मोऽन्यादर्शनात् / ततः पर्याप्तकनामोदये वर्तमानस्य सुभगदुर्भगादेयानादेययशः कीर्त्ययशः कीर्तिभिरष्टौ भङ्गाः। अपर्याप्तकनामोदये वर्तमानस्यतुदुर्भगानादेयायशः कीर्तिभिरेक इति / सर्वसंख्यया द्विचत्वारिंशत् नव ततः शरीरस्यस्यौदारिकसप्तकं षण्णां संस्थानानामेकतमसंहननमुपधातं प्रत्येकनामेत्येकादशकं प्रक्षिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयते ततो द्विपञ्चाशद्भवति अत्र भङ्गानां पञ्चचत्वारिंशत् तद्यथा पर्याप्तकस्य षड्भिः संस्थानैः षड्भिः संहननैः सुभगादेयानादेयायशःकीर्तिभिरेक इति / तत्र पर्याप्तकस्य षड्भः संस्थानः षड्भिः संहननैः सुभगदुर्भगाभ्यामादेयानोदयाभ्यां यशः कीर्त्ययशः कीर्तिभ्यां वे शते अष्टाशीत्यधिके / अपर्याप्तकस्य तु प्रागुक्तस्वरूप एक एवेति / तस्यामे व द्विपञ्चाशति शरीरपर्याप्तापातपराघातप्रश Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 692 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा स्ताप्रशस्तान्यतरविहायोगतौ च प्रक्षिप्तायां चतुःपञ्चाशद्भवति / त्र पर्याप्तानां प्राक् चतुश्चत्वारिंशतं भड़कानामुक्तम्। तदेवमुक्तविहायोगतिद्विकगुणितमवगन्तव्यम् तथाच सत्यत्र भङ्गानां द्वेशते अष्टाशीत्यधिके भवतः मतान्तरेण पुनः पञ्च शतानि षट् सप्तत्यधिकानि ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्र-वासक्षिप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति। अत्रापि प्रागिव भङ्गानां वे शते अष्टाशीत्यधिके मतान्तरेण पञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छवासक्षिप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति अत्रापि प्रागिव सर्वसंख्यया पञ्चाशति स्वमतेन भङ्ग कानां पञ्च शतानि षट्सप्तत्याधिकानि / मतान्तरेण तु द्विपञ्चाशदधिकानि एकादश शतानि / ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य सुस्वर- दुःस्वरयोरन्यतरस्मिन् क्षिप्ते षट्पञ्चाशद्भवति / तत्र स्वमतचिन्तायां उच्छ्रवासेन द्वे शते अष्टाशीत्यधिके भङ्गकानां प्राक् लब्धे ते इह स्वरद्विके तुगण्यतेततो लब्धानि पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकानि। मतान्तरेण पुनरिह द्विपञ्चाशद्भवति। अत्र स्वमतचिन्तायां प्रागिव द्वे शते अष्टाशीत्यधिके भङ्गकानां मतान्तरेण पञ्च शतानि षट्सपतत्यधिकानि सर्वसंख्यया स्वमतेन षट्पञ्चाशति भङ्गा अष्टशतानि चतुःषष्ट्यधिकानि / मतान्तरेण सप्तदशशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ततः स्वरसहितायां षट् पञ्चाशत्शतानि षट्सप्तत्यधिकानि / मतान्तरेण द्विप-ञ्चाशदधिकानि एकादश शताति त एवात्राऽपि द्रष्टव्याः / तथा तेषामेव तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां वैक्रि यं कुर्वतामुदीरणास्थानानि पञ्च भवन्ति तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् षट्पञ्चाशचेति / तत्र वैक्रिय सप्तकं समचतुरस्रसंस्थानमुपघातं प्रत्येकमिति प्रकृतिदशकं प्रागुक्तायां तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां प्रायोग्या द्विचत्वारिंशत्प्रक्षिप्यते तिर्यगानुपूर्वी चापनीयतेतत एक-पञ्चाशद्भवति। अत्र सुभगादेययुगलदुर्भगानादेययुगलयशः कीर्त्ययशः कीर्तिपर्याप्तिपदैश्चत्वारो भङ्गाः / मतान्तरेण पुनः सुभगदुर्भगाभ्यामादेयानादेयाभ्यां यशः कीर्त्ययशःकीर्तिभ्यां च पर्याप्तके न सहाष्टौ भङ्गाः ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघाते प्रशस्तविहायोगतौ च प्रक्षिप्तायां पञ्चाशद्भवति। अत्रापि प्रागिव चत्वारो भङ्गाः।मतान्तरेण पुनरष्टौ ततः प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्रवासनानि प्रक्षिप्ते चतुःपञ्चाशद्भवति / अत्रापि प्रागिव स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो मन्तान्तरेणाष्टौ सर्वसंख्यया चतुःपञ्चा-शत्। स्वमतेनाष्टौ भङ्गाः। मतान्तरेण षोडश / ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वाससहितायां पञ्चपञ्चाशति उद्योते क्षिप्ते षट्पञ्चाशद्भवति अत्रापि भङ्गाः स्वमतेन चत्वारो मतान्तरेणा-ष्टौ / सर्वस्वसंख्यया वैक्रियं कुर्वतां तिर्यक्यञ्चेन्द्रियाणां भङ्गाः ऽष्टाविंशतिः मतान्तरेण षट्पञ्चाशत् / समान्येन तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणां स्वमतेन भङ्गाश्चतुर्विशतिशतानिद्वादशाधिकानि, मतानतरेण एकोनपञ्चाशच्छतानि द्विषष्ट्यधिकानि। सम्प्रतिमनुष्याणामुदीरणास्थानानि प्रतिपाद्यन्ते / तत्र केवलिनां प्रागेवोक्तानि अन्येषां तु पञ्च / तद्यथा द्विचत्वारिंशद्-द्विपञ्चाशचतुः पञ्चाशत्पञ्चपञ्चाशत् षट् पञ्चाशचेति। एतानि सर्वाण्यपि यथाप्राक् तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणामुक्तानि तथैवात्रापि वक्तध्यानि नवरं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्योःस्थाने मनुष्यमतिमनुष्यानुपूयॊ वक्तव्ये पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशच उद्योतरहिता वक्तव्या वैक्रियाहारकसंयतान्मुक्त्वा स्वमतेन द्विचत्वारिंशतिपञ्च द्विपञ्चाशति पञ्चाशतानि षट् सप्त-त्यधिकानि परमतेन तु य याक्र मम् शाखाधावा वैक्रियमपि कुर्वतां मनुष्याणासुदीरणास्थानानि पञ्च भवन्ति / तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुः पञ्चाशत् षट्पञ्चाशचे-ति / तत्र एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशच तथा प्राग्वैक्रियं मुक्त्वा तथात्रापि दृष्टव्या चतुःपञ्चाशत् उच्छ्रवाससहितायां प्रागिव स्वमतेन चत्वारो भङ्गाः मतान्तरेणाष्टौ / उत्तरवैक्रियं कुर्वतां संयतानामुद्योतनामोदयं गच्छति नान्येषां ततस्तेन सह चतुः-पञ्चाशदुच्छ्वासप्रशस्त गच्छति नान्येषां ततस्तेन सह चतुः-पञ्चाशदुच्छ्वासप्रशस्तएवैको भङ्गो भवति संयतानां दुर्भगानादेयायशः कीर्युदयाभावात् / सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् / स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो मतान्तरेणाष्टौ / अथवा संयतानां स्वरे अनुदिते उद्योतनाम्नि तूदिते पञ्चपञ्चाशद्भवति। अत्रापि प्रागिव एक एव भङ्गः सर्वसंख्यया पञ्चपञ्चाशति स्वमतेन पञ्च भङ्गाः मतान्तरेण नव पञ्चपञ्चाशति सुस्वरसहितायामुद्योते क्षिप्तेषट्पञ्चाशद्भवति तस्याञ्चैक एव प्रशस्तो भङ्गः / सर्वसंख्यया वैक्रि यमनुष्याणामन्यमतेनैकोनविंशतिभङ्गा मतान्तरेण पञ्च-त्रिंशत्। संप्रत्याहारकं कुर्वतामुदीरणास्थानान्युच्यन्ते आहारकसंयतानामुदीरणास्थानानि पञ्च। तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशच्चतुः पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशच्चेति। तत्राहारकसप्तकं समचतुरस्रसंस्थानमुपघातं प्रत्येकमिति / प्रकृतिदशकं प्रागुक्तायां मनुष्यगतिप्रायोग्यातां द्विचत्वारिंशति प्रक्षिप्यते मनुष्यानुपूर्वी चापनीयते / ततः एकपञ्चाशद्भवति केवलमिह सर्वाण्यपि प्रदानि प्रसत्ताति एवेति कृत्वा एक एव भङ्गः / शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य प्रशस्तविहायोगतिपराघातरोः प्रक्षिप्तयोस्त्रिपञ्चाशद्भवति / अत्राप्येक एव भङ्गः शरीरपर्याप्तः / ततः प्राणापानपर्याप्ता-पर्याप्तस्य उच्छ्रवासेक्षिप्ते चतुःपञ्चाशद्भवति / अत्राप्येक एव भङ्गः / सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशतिौ भङ्गौ ततो भाषापर्याप्ता-पर्याप्त उच्छ्वाससहितायां चतुःपञ्चाशति सुस्वरे क्षिप्ते पञ्चपञ्चाशद्भवति / अत्रापि प्राग्वदेक एव भङ्गः / अथवा प्राणापानपर्याप्तापर्याप्तस्य स्वरे अनुदिते उद्योतनाम्रि उदिते पञ्चपञ्चाशति भवति अत्राप्येक एव भङ्गः सर्वसंख्यया पञ्चपञ्चाशतिर्ती भङ्गौ। ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य स्वरसहितायां पञ्चपञ्चाशति उद्योते क्षिप्ते षट्पञ्चाशद्भवति / अत्राप्येक एव भङ्गः आहारिकशरीरिणोः सर्वसंख्यया सप्त भङ्गाः / तदेवं मनुष्याणां सामान्यवैक्रियशरीराहारकशरीरकेवलिनां भङ्गाः सर्वसंख्यया त्रयोदश शतानि चतुस्विशत्यधिकानि भवन्ति / परमतेन षड्वि शतिशतानि पञ्चाशदधिकानि। देवानामुदीरणास्थानानि षट्। तद्यथा द्विचत्वारिंशत् एक-पञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्-पञ्चाशच्चेति / तत्र देवगतिदेवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिः। उसनामवादरनामपर्याप्तनामशुभगादेययुगलदुर्भगानादेययुगलयोरेकतरं युगलं यशः कीर्त्ययशः कीयोरेकतरेभ्यो नवप्रकृतयो नवोदीरणाभिस्त्रयस्त्रिंशत्संख्याकाभिः सह संमिश्राद्विचत्वारिंशद्भवति / अत्र शुभगादेयदुर्भगानादेययुगलयशः कीर्तिभ्यां चाष्टा भङ्गाः ततश्शरीरस्थस्य वैक्रि यसप्तकं समचतुरस्रसंस्थानमुपघातं प्रत्येकमित्येता दश प्रकृतयः प्रक्षिप्यन्ते देवानुपूर्वी चापनीयते / ततः एकपञ्चाशत् भवति / अत्रापि प्रागिव स्वमतेन चत्वारो भङ्गा: मतान्तेरणाष्टौ / ततः शरीरपथ्यप्तिापातस्य पराघातप्रशस्तविहायो गत्यो: Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 693 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा प्रक्षिप्तयोः त्रिपञ्चाशद्भवति / अत्रापि प्रागिव स्वमतेन चत्वारो भङ्गा मतान्तरेणाष्टौ देवानां प्रशस्तविहायोगतेरुदया भावात् तदाश्रिता भङ्गा न प्राप्यन्ते / ततः प्राणापानपर्याप्तापयापतस्य उच्छ्वासे क्षिप्ते चतुःपञ्चाशद्भवति / अत्रापि स्वमतेन चत्वारो भङ्गाः मतान्तरेणाष्टौ / अथवा शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्रवासे अनुदिते उद्योतनाम्नि तूदिते चतुःपञ्चाशद्भवति अत्रापि प्रागिव स्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो, मतान्तरेणाष्टौ / अथवा शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वासे अनुदितेउद्योतनाम्नि तूदितेच सर्वसंख्यया चतुःपञ्चाशत् स्वमतेनाष्टौ भङ्गा मतान्तरेण षोडश ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वाससहितायां चतुःपञ्चाशति सुस्वरे क्षिप्ते पञ्चापञ्चा-शद्भवति अत्रापिस्वमतेन भङ्गाश्चत्वारो मतान्तरेणाष्टौ सर्व संख्यया पञ्चपञ्चाशत् / स्वमतेनाष्टौ भङ्गा मतान्तरेणापि तु षोडश भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य सुस्वरसहितायां पञ्चपञ्चाशति उद्योते क्षिप्ते षट्पञ्चाशद्भवति / अत्रापि स्वमतेनैव चत्वारो भङ्गा मतान्तरेणाष्टौ सर्वसंख्यया देवानां स्वमतेन द्वात्रिंश भङ्गाः मतान्तरेण चतुःषष्टिः। नैरयिकाणामुदीरणास्थानानि पञ्च। तद्यथा-द्विचत्वारिंशदेकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चा-शत्पञ्चपञ्चाशचेति। तत्र नरकगतिनरकानुपूर्योः पञ्चेन्द्रिय-जातित्रसबादरपर्याप्तदुर्भगानादेयायशः कीर्तिशय इत्येता नव प्रकृतयो ध्रुवोदीरणाभिस्त्रयस्त्रिंशत्सख्यकाभिः सह सम्मिश्रा | द्विचत्वारिंशद्भवति। अत्र च सर्वाण्यपि पदानि अप्रशस्तान्येवेति कृत्वा एक एव भङ्गः / ततश्शरीरस्थस्य वैक्रियसप्तक हुंडक-संस्थानमुपघातप्रत्येकमिति दश प्रकृतयः प्रक्षिप्यन्ते / नरकानुपूर्वो चापनीयते / तत एकपञ्चाशद् भवति / अत्राप्येक एव भङ्गः / ततः शरीरपर्याप्तापर्याप्तस्य पराघातप्रशस्तचिहायोगत्योः प्रक्षिप्तयोः तिपञ्चाशद्भवति।। अत्राप्येक एव भङ्गः। ततः प्राणापान-पर्याप्तापर्याप्तस्य उच्छ्वासे क्षिप्ते चतुःपञ्चाद्भवति / अत्राप्येक एव भङ्गः / ततो भाषापर्याप्तापर्याप्तस्य दुःस्वरे क्षिप्ते पञ्च-पञ्चाशद्भ-वति। अत्राप्येक एव भङ्गः। सर्वसंख्यया नैरयिकाणां पञ्च भङ्गाः। तदेवमुक्तानि नामकर्मणोरुदीरणास्थानानि। संप्रत्येतान्येव गुणस्थानकेषु दर्शयति। गुणिस्सु नामस्स तव, सत्त तिणि अटुं च छप्पं च / अप्पमत्ते दो एक,पंचसु एकम्मि अट्ठ / / 249 / / नाम्नो मकर्मणोर्गुणिषु गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टिप्रभृतिषु सयोगिकेवलिपर्यन्तेषु यथासंख्ययानवादिषु सख्यान्युदीरणा स्थानानि भवन्ति। तत्र मिथ्यादृष्टिषु नवोदीरणास्थानानि / तद्यथा द्विचत्वारिंशत् पञ्चाशद् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशदेकपञ्चाशद् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् षट्पञ्चाशचेति / अमूनि च सर्वाण्यपि मिथ्यादृष्टीन्ये केन्द्रियादीन्यधिकृत्यं स्वयं परिभावनीयानि / सास्वादनसम्यग्दृष्टरुदीरणास्थानानि सप्त / तद्यथा द्विचत्वारिंशत् पञ्चाशत् एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशत्सप्तपञ्चाशचेति। तत्र द्विचत्वारिंशत् बादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिय तिर्यक् - पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानां सास्वादनसम्यदृष्टीनामपान्तरालगतौ वर्तमानानामवसेयाः। तथा एकेन्द्रियाणां शरीरस्थानां पञ्चाशत् देवानां / शरीरस्थानामेकपञ्चाशद्विकलेन्द्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय-मनुष्याणां शरीरस्थानां द्विपञ्चाशत् एवं नैरयिकाणां पर्याप्तानां सासादनसम्यक्त्वे वर्तमानानां पञ्चपञ्चाशत् / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानां पर्याप्तानां षट्पञ्चाशत् / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामुद्योतवेदकानां पर्याप्तानां सप्तपञ्चाशत् / सम्यग्मिथ्या-दृष्टे स्त्रीण्युदीरणास्थानानि / तद्यथा पञ्पञ्पाशत्सप्तपञ्चाशचेति / तत्र देवनैरयिकाणामेव पञ्चपञ्चाशदविरतसम्यग्दृष्टरष्टाबुदीरणास्थानानि तद्यथा द्विचत्वारिंशदेकपञ्चाशचेति / तत्र नैरयिकदेवत्रिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां द्विचत्वारिंशद् देवनैरयिकाणामेकपञ्चाशत् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां द्विपञ्चाशत् देवनैरयिकतिर्यड्मनुष्याणां त्रिपञ्चाशत् देवन-रयिकाणामेकपञ्चाशत् सप्तपञ्चाशचेति / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियवैक्रियतिर्यड्मनुष्याणां त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चाशदेतेषामेव पञ्चपञ्चाशदपि तदेव तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां षट् पञ्चाशत् तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणामुद्योतवेदिकायां सप्तपञ्चाशत्, देशविरतस्योदीरणास्थानानि षट्। तद्यथा एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत्षट्पञ्चाशत् सप्तपञ्चाशचेति। तत्र एकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशचतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशचेति / तिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियशरीरे वर्तमानानामवगन्तव्या। तिर्यग्मनुष्याणामेव स्वभावस्थानां वर्तमानामवगन्तव्या। तिर्यग्मनुष्याणामेव स्वभावस्थानां वैक्रियशरीरिणां षट्पञ्चाशत् तेषामेव तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणामुद्योतसहितानां सप्तपञ्चाशत् प्रमत्तसंयतानामुदीरणास्थानानि पञ्च तद्यथा एकपञ्चाशद् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुः-पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट् पञ्चाशचेति / तत्र पञ्चाप्येतानि वैक्रियशरीरिणामाहारकशरीरिणां वा द्रष्टव्यानि षट् पञ्चाशत् पुनरौदारिकस्थानमवगन्तव्यम्। अप्रमत्तसंयतानांद्वे उदीरणा-स्थानेतद्यथा पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशचेति / तत्र षट् पञ्चा-शदौदारिके स्थाने इह केषांचित् वैक्रि यशरीरस्थानामाहारक-शरीरस्थानां वा संयतानां वा सर्वपर्याप्तापर्याप्तानां कियत्का-लप्रमत्तभावो पि लभ्यते इति ये तेषां द्वे अप्युक्तरूपे उदीरणास्थाने / एकः पञ्च मुहर्ताः पञ्चसु गणुस्थानिकेषु अपूर्वकरणानि वृत्तबादरसूक्ष्म संपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहरूपेषु एकमुदीरणास्थानं भवति / षट् पञ्चाशत् सा च औदारिकशरीरस्थानमिति (एक्कम्मिअट्ठत्ति) एकस्मिन् सयोगिकेवलगुणस्थानिके अष्टाकुदीरणास्थानानि तद्यथा एकचत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत् द्विपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशत् सप्तपञ्चाशचेति। एतानि च प्रागेव सप्रपञ्च भावितानि इति नेह भूयो भाव्यन्ते / तदेवं चिन्तितानि गुणस्थानकेषु उदीरणा स्था-नानि। संप्रति कस्मिन्नुदीरणास्थाने कति भङ्गाः प्राप्यन्ते इति चिन्तायां तन्निरूपणार्थमाह। ठाणकमेण भंगा, वि एकतीसेकारस। इगवीस वा वारस-सएय इगबीसछचसया ||250 / / छह अहिया नव सया य, एगहिया य अऊणुत्तारि। णाओ चउदस सयाणि, गुण नउइसया पंच // 251 / / स्थानक्रमेण एकचत्वारिंशत्येको भङ्गाः / स च तीर्थंकरके वलिनः द्विचत्वारिंशति त्रिंशद्भङ्गाः। तत्र नैरयिकानधिकृत्य एकः एकेन्द्रियानधिकृत्य पञ्चद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्यप्रत्येकंत्रिकंत्रिकंप्राप्यतेइतिनव। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्च, मनुष्यानप्यधिकृत्य पञ्च, तीर्थकरमधि Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 694 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 उईरणा कृत्य एकः। देवानधिकृत्य चत्वारः।येपुनः सुभगा-देययोर्दुर्भगानादेययोश्च के वलके वलयोरप्युदयमिच्छन्ति तन्मतेन द्विचत्वारिंशति त्रिचत्वारिंशद्भङ्गाः / यतस्तन्मतेन तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य नव, मनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधित्याष्टौभङ्गाः प्राप्यन्ते शेषं तथैव / पञ्चाशत्येकादश भङ्गास्ते चैकन्द्रियान्देवानधिकृत्य शेषं तथैव / पञ्चाशत्येकादश भङ्गास्ते चैकन्द्रियान्देवानधिकृत्य प्राप्यन्ते। अन्यत्र पञ्चाशतः प्राप्यमाणत्वात् / एकपञ्चाशत्येकविंशति भङ्गा। तत्र नैरयिकानधिकृ त्य चत्वारो वैक्रि यमनुष्यानधिकृत्य चत्वारः आहारकशरीरिणः संयतानधिकृत्य नव देवानाश्रित्य चत्वार इत्येकविंशतिः / मतान्तरेण पुनर्वैक्रियतिर्यड्मनुष्यदेवा-नधिकृत्य प्रत्येकमष्टावष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते इत्येकपञ्चाशति तद-पेक्षया तयस्त्रिंशदङ्गाः / (सवारसतिंसययत्ति) त्रिंशद्वादशाधिका त्रिंशति भङ्गानां द्विपञ्चाशतिरवगन्तव्याः / तत्र एकेन्द्रियानश्रित्य त्रयोदश द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येकं त्रिकं प्राप्यते इति नव। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्चत्वारिंशतं मनु-ध्यानप्यधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशतम् / अत्रापि मतान्तरेण तियक्पञ्चेन्द्रियान् मनुष्यांश्चाधिकृत्य प्रत्येकं द्वे द्वे शते भङ्गा-नामेकोनवत्यधिके प्राप्येते इति तदपेक्षया द्विपञ्चाशद्भङ्गाना शतानि षट् प्राप्यन्ते। त्रिपञ्चाशति भङ्गानामेकविंशतिः तद्यथा मनुष्यांश्चाधिकृत्य प्रत्येकं द्वे द्वे शते भङ्गानाकेकोननवत्याधिके प्राप्येते तदपेक्षया मनुष्यदेवानधिकृत्य प्रत्येक मष्टाष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते इति तदपेक्षया त्रिपञ्चाशति त्रयस्त्रिंशद्भङ्गाः चतुःपञ्चाशति भङ्गानां षट्शतानि षडुतराणि तद्यथा नैरयिकाणां प्रत्येकमष्टाष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते इति तदपक्षया त्रिपञ्चाशति त्रयस्त्रिंशद्भङ्गाः चतुःपञ्चाशति भङ्गानां षतिर्यक्यपञ्चेन्द्रियान् स्वभावस्थानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीयतधिके वैक्रि यतिर्यक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्याष्टौ स्वभावस्थान्मनुष्यानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके वैक्रियमनुष्यानधिकृत्य द्वेशते अष्टाशीत्यधिके चत्वारः संहतान् वैक्रियशरीरिणः संयतानधिकृत्य द्वौ देवानधिकृत्योद्योतेन सहै कः। आहारिकशरीरिणः संयतानधिकृत्य पञ्चशतानि षट् सप्तत्यधिकानि वैक्रि यतिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य षोडश मनुष्यानधिकृत्य पञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियमुनष्यानधिकृत्य नव देवानधिकृत्य षोडश भङ्गाः प्राप्यन्ते शेष तथैवेति तदपेक्षया चतुःपञ्चाशदधिकानि द्वादश शतानि पञ्चशतानि भङ्गानां नव शतानि एकाधिकानि / तद्यथा नैरयिकानधिकृत्यैकः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः 2 प्राप्यन्ते इति द्वादश / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान्स्वभावस्थानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः प्राप्यन्ते इति द्वादश तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान् स्वभावस्थानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य चत्वारः वैक्रियसंयतानधिकृत्योद्योतेन सहकः आहारकशरीरिणोऽधिकृत्य चत्वारः तीर्थ-करमधिकृत्यैकः देवानधिकृत्याष्टाविति / मतान्तरेण तिर्यक्-पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिकान्येकादश शतानि। वैक्रियतिर्यक पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य षोडश मनुष्यान स्वभावस्थानधिकृत्य पञ्चशतानिषट्सप्तत्यधिकानि वैक्रि-यमनुष्यानधिकृत्य नव देवानधिकृत्य षोडश भङ्गाः प्राप्यन्ते शेषं तथैवेति / तदपेक्षया पञ्चपञ्चाशतिं पञ्चाशीत्यधिकसप्तदश शतानि षट्पञ्चाशति भङ्गानामेकोनसप्तत्यधिकानि चतुर्दश शतानि तद्यथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येकं षट्प्राप्यन्ते इति अष्टादश। | तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान स्वभा-वस्थानधिकृत्याष्टौ शतानि चर्तुदशशतानि चतुःषष्ट्यधिकानि वैक्रियशरीरिणोऽधिकृत्य चत्वारः मनुष्यानधिकृत्य पञ्चशताति षट्सप्तत्यधिकानि, वैक्रियशरीरिणः संयतानधिकृत्योद्योतेन सहकः / आहारकशरीरिणः संहतानधिकृत्यैकः तीर्थकरमाश्रित्यकः देवानधिकृत्य चत्वारः / अत्र मतान्तरेण तिर्यक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य सप्तदश शतानि भङ्गानां भवति सप्तपञ्चाशद् भङ्गानां पञ्चाशति एकोननवत्यधिकानि प्रत्येकं चत्वारः२ प्राप्यन्ते इतिद्वादश। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्च शतानि एकादश शतानि भङ्गानां प्राप्यन्ते षट्सप्तत्यधिकानि तीर्थंकरमाश्रित्यक इति। अत्रापि मतान्तरेण तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य द्विप-ञ्चाशदधिकानि एकादश शतानि भङ्गानां प्राप्यन्ते शेषं तथैवेति / तदपेक्षया सप्तपञ्चाशत् पञ्चषष्ट्यधिकान्येकादश शतानि भङ्गानां भवन्ति। (अनयोक्ख्या पुस्तकान्तरे एवं दृश्यते। तद्यथा) "स्थानक्रमेण एकचत्वारिंशत्येको भङ्गः / स च तीर्थ-करकेवलिन: द्विचत्वारिंशति त्रिंशगङ्गाः / तत्र नैरयिकानधि-कृत्य एकः एकेन्द्रियानधिकृत्य पञ्च द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतु-रिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येक त्रिक त्रिकं प्राप्यते इति नव / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाधिकृत्य पञ्च, मनुष्यानष्यधिकृत्य पञ्च, तीर्थकरमधिकृत्य एकः देवानधिकृत्य चत्वारः / ये पुनः सुभगादेययोर्दुभंगानादेययोश्च केवलकेवलयोरप्युदयमिच्छन्ति तन्मतेन द्विचत्वारिंशति द्विचत्वारिंशद्भङ्गाः यतस्तन्मतेन तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाण्यधिकृत्य नव, मनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधिकृत्याष्टौ भङ्गा प्राप्यन्ते शेषं तथैव / पञ्चाशत्वेकादश भङ्गास्तेचै केन्द्रियानेवाधिकृत्य प्राप्यन्ते अन्यत्र पञ्चाशतो ऽप्राप्यमाणत्वात् एकपञ्चाशत्येकविंशति भङ्गाः तत्र नैर-यिकानधिकृ त्य चत्वारो वैक्रियमनुष्यानप्यधिकृत्य चत्वारः आहारिकशरीरिणः संयतानधिकृत्य एकः देवानाश्रित्य चत्वारः इत्येकविंशतिः। मतान्तरेण पुनवैक्रियतिर्यड्मनुष्यदेवानधिकृत्य प्रत्येकमष्टावष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते इत्येकपञ्चाशति तदपेक्षया त्रयस्त्रिंशद्भङ्गाः (सवारसतिसययत्ति) स द्वादशाधिका त्रिंशतिभङ्गानां द्विपञ्चाशत्यवगन्तव्या / तत्र एकेन्द्रियानाश्रित्य त्रयोदशद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येक त्रिकं प्राप्यते इति नव, तियक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशतं मनुष्यान्नष्यधिकृत्य पञ्चचत्वारिंशतमिति / अत्रापि मतान्तरेण तिर्यकपञ्चेन्द्रियान् मनुष्यांश्चाधिकृत्य प्रत्येक द्वे द्वे शते भङ्गानामेकोननवत्यधिके प्राप्येते इति तदपेक्षया द्विपञ्चाशति भङ्गानां शतानि षट् प्राप्यन्ते / त्रिपञ्चाशति भङ्गानामेवविंशतिः / तद्यथा नैरयिकानधिकृत्य एकः एकेन्द्रियानधिकृत्य षट् वैक्रियतिर्यक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य चत्वारः वैक्रियमनुष्यानप्यधिकृत्य चत्वारः आहारिक शरीरिणो धिकृत्य पुनरे कस्तीर्थकरमप्याश्रित्यकः देवानप्यधिकृत्य चत्वारः अत्रापि मतान्तरेण वैक्रियतिर्यक् पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानधिकृत्य प्रत्येक मष्टावष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते इति तदपेक्षया त्रिपञ्चाशति त्रयस्त्रिंशद्रङ्गाः चतुःपञ्चाशति भङ्गानां षट् शतानि षडुत्तराणि / तद्यथा नैरयिकानधिकृत्यैकः द्वीन्द्रियांस्त्रीन्द्रियांश्चतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येक द्वौ द्वौ प्राप्येते इति षट् / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान् स्वभावस्थानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके वैक्रि यतिर्यक् पञ्चेन्द्रियानाधिकृ त्याष्टी स्वभावस्थान्मनुष्यानधिकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके वैक्रिय Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा मनुष्यानधिकृत्य चत्वारःसंयतान् वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य चत्वारः / / संयतानधिकृत्य द्वौ, देवाधिकृत्योद्योतेन सहकः,आहारिकशरीरिणः संयतानधिकृत्यद्वौ,देवानाधिकृत्य षोडशमनुष्यानधिकृत्य पञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि चाष्टाविति / अत्रापि मतान्तरेण प्रकृतिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्यधिकनि वैक्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य षोडश मनुष्यानधिकृत्य पञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियमनुष्याधिकृत्य नव,देवानधिकृत्य षोडश भङ्गाः प्राप्यन्ते शेष तथैवेति। तदपेक्षया चतुःपञ्चाशति व्यधिकानि द्वादश शतानि पञ्च शतानि भङ्गानां नव शतानि एकाधिकानि तद्यया नैरयिकानधिकृत्यैकः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः प्राप्यन्ते इति द्वादश / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान् स्वभावस्यानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः प्राप्यन्ते इति द्वादश / तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सतत्यधिकानि वैक्रियशरीरिणोधिकृत्याष्टा, मनुष्यान्स्वभावस्थानविकृत्य द्वे शते अष्टाशीत्यधिके,वैक्रियशरीरिणोधिकृत्य चत्वारः, वैक्रियसयतानधि-कृत्योद्योतेन सहकः,आहारिकशरीरिणोधिकृत्य द्वौ, तीर्थकरमधिकृत्यैकः,देवानधिकृत्याष्टाविति।मतान्तरेण तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिकान्येकादशशतानि वैक्रियतिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य षोडश मनुष्यान् स्वभावस्यानधिकृत्य पञ्च शतानि षट्सप्तत्यविकानि, वैक्रियमनुष्यानधिकृत्य नव, देवानधिकृत्य षोडश भङ्गाः प्राप्यन्ते। शेषं तथैवेति तदपेक्षया पञ्चपञ्चाशति पञ्चाशीत्यधिकानि सप्तदश शतानि षट् पञ्चाशति भङ्गानामकोनसप्तत्यधिकानि चतुर्दश शतानि तद्यया द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येक षट्प्राप्यन्ते इति अष्टादश,तिर्यक्पञ्चेन्द्रियान स्वभावस्थानधिकृत्याष्टौ शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि,वैक्रि यशरीरिणोधिकृत्य चत्वारः मनुष्यानधिकृत्य पञ्चशतानि षट्सप्तत्यधिकानि वैक्रियशरीरिणः संयतानधिकृत्य उद्योतेन सह एकः, आहारकशरीरिणः संयतानधिकृत्यैकः तीर्थकरमाश्रित्त्यैकः, देवानाश्रित्य चत्वारः / अत्र मतान्तरेण तिर्यक्पञ्चकन्द्रियानधिकृत्याष्टो, मनुष्यानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति। सप्तपञ्चाशति भङ्गानां पञ्चशती एकोननवत्यधिका! तद्यथा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानधिकृत्य प्रत्येकं चत्वारः 2 प्राप्यन्ते इति द्वादश,तिर्यक् पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य पञ्चाश (तानि) ति एकादश शतानि भङ्गानां प्राप्यन्तेषट्सप्तत्यधिकानि। तीर्थकरमाश्रित्यैक इति। अत्रापि मतान्तरेण तिर्यक्पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य द्विपञ्चाशदधिकानि एकादश शतानि भङ्गानां प्राप्यन्ते / शेषं तथैवेति / तदपेक्षया सप्तपञ्चाशति पञ्चषष्ट्यधिकान्येकादश शतानि भङ्गानां भवन्ति / ___संप्रति गतिमाश्रित्य स्थानप्ररूपणां करोति। पणनवगछक्काणि,गइसुहाणि सेसकम्माणं। एगेगमेव मेने य,साहित्तिगे य पगईओ॥२५२|| नरकगतावुदीरणास्थानानि पञ्च तद्यथा द्विचत्वारिंशत् एकपञ्चाशत् | त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत्पञ्चपञ्चाशचेति। तिर्यमगतावेकवत्वारिंशत् वानि शेषाणि नवोदिरणास्थानानि मनुष्यगतावपि सयोगिकेवल्यादीनधिकृत्य पञ्चाशत्वानि शेषाणि नवोदीरणास्थानानि देवगतौ षडु दीरणास्थानानि मनुष्यगतिसयोगिके वली तद्यथा द्विचत्वारिंशदेकपञ्चाशत् त्रिपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत् षट्पञ्चाशचेति / एतानि च सर्वाण्यपि प्राक् सप्रपञ्चं भावितानीति नेह भूयो भाव्यन्ते। तदेवमुक्तानि नामकर्मणः सप्रपञ्चमुदीरणास्थानानि। संप्रति शेषकर्मणामुदी-रणास्थानप्रतिपादनार्थमाह (सेसकम्माणत्ति) शेषकर्मणां ज्ञानावरणवेदनीयायुर्गोत्रान्तरायलक्षणानामुदीरणास्थानमेकैकमवगन्तव्यं तद्यथा ज्ञानावरणान्तरायदोः पञ्चप्रकृत्यात्मकमेकैकमुदीरणास्थानं वेदनीयायुर्गोत्राणान्तु वेद्यमानैकप्रकृत्यात्मक नह्यमीषां द्वित्र्यादिकाः प्रकृतयो युगपदुदीर्यन्ते युगपदुदयाभावात् एतच्च ज्ञानावरणीयवेदनीयानामेकैकमुदीरणास्थानं प्रागुक्तकप्रकृत्युदीरणायां स्वामित्वं साधयित्वा निश्चित्य गुणस्थानेषु नारकादिषु गतिषु स्वयमेव ज्ञेयं ज्ञातव्यम् / तदेवमुक्ताः प्रकृत्युदीरणाः / सम्प्रति स्यित्युदीरणाभिधानावासरस्तत्र चेति अर्थाधिकारास्तद्यथा लक्षणं भेदः साधनादिप्ररूपणा अद्धाच्छेदः स्वामित्वं चेति॥ तत्र लक्षणभेदयोः प्रतिपादनार्थमाह। संपत्तिए य उदये,पओगओ दिस्सए उईरणा सा। सेचिकाठिईहिं जाही, दुविहा मूलोत्तगाए य / / 253 / / इह द्विविध उदयः संप्राप्त्युदयोऽसप्राप्त्युउदयश्च। तत्र यत्कर्म दलिक कालप्राप्तं सदनुभूयते स संप्राप्त्युदयः। तथाहि कालक्रमणे कर्मदलिकस्योदये हेतुद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीसंप्राप्तौ सत्यामुदयः संप्राप्त्युदयः / यत्पुनरकालप्राप्तं कर्म तद्दलिकमुदिरणा तथा चाह या स्थितिरकालप्राप्तापि सती प्रयोगेणउदीरणाप्रयोगेण संप्राप्त्युउदये पूवोक्ते स्वरूप प्रक्षिप्ता सती दृश्यते केवलचक्षुषा सा स्थित्युदीरणा / एष लक्षणनिर्देशः / अधुना भेद उच्यते (सेचिकेत्यादि) इह यासां स्थितीनां भेदः परिकल्पना संभवतिताः पुरुषपरिभाषया सेचिका इत्युच्यन्तेताश्च द्विधा उदीरणायाः प्रायोग्याः अप्रायोग्याश्च काश्चाप्रायोग्या इतिचे दुच्यतेबन्धावलिका गताः संक्रमावलिकागताश्च उदयावलिकागताश्च प्रायोग्याः "सकम्मबंध उदयवट्टणालिइईणा करणाइ'' इति वचनप्रामाण्यात् शेषाश्च सर्वा अपि प्रायः प्रायोग्याः तत्रोदये सति यासां प्रकृतीनामुत्कृप्तबन्धः संभवति तासामुत्कर्षत आवलिका द्विकहीना सर्वाप्युत्कृष्टा स्थितिरुदीरणाप्रायोग्या तथाहि उदयोत्कृष्टबन्धानां तु यथासंभवमुदीरणा प्रायोग्याः। आवलिकाद्विकहीनायाश्चोत्कृष्टा स्थितेर्यावन्तः समयास्तावन्त उदीरणायाः प्रभेदाः तथाहि उदयावलिकाया उपरिवर्तिनी समयमात्रा स्थितिः कस्याप्युदी-रणाप्रायोग्यस्य तावत्यवशेषीभूता तिष्ठति एवं कस्यापि द्विसमयमात्रा कस्यापि त्रिसमयमात्रा एव / तावद्वाच्यम् आवलिका द्विकहीना कस्यापि सर्वाप्युत्कृष्टा स्थितिरिति। अक्षरयोजना त्वियम् सचि-कास्थितिभ्य उदीरणाप्रायोग्याभ्यो यकाभ्यो यावतीभ्य आवलि-काद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसमयप्रमाणाभ्य इत्यर्थः उदीरणाप्रायोगेण समाकृष्य स्थितिः संप्राप्युदये दीयते तावती तावद्भेद-प्रमाणा सा एषा उदीरणा। तदेवं कृता भेदप्ररूपणा / संप्रति साद्यनादिप्ररूपणा संकर्तव्या। सा च द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया चय। तत्र मूलप्रकृतिविषयां साधनादिप्ररूपणार्थमाह। मूलटिइ अजहन्ना, मोहस्स चउव्विहा तिहा सिया। वेउणिया उण दुहासे, सविगप्पा उ उजासिं॥२५४।। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा मूलस्थितशब्दात्प्राकृतत्वात् प्रत्येकं षष्ठीविभक्तिलोपः ततोऽयमर्थः मूलप्रकृतीनांमध्ये मोहस्यमोहनीयस्थितेरुदीरणा अजघन्या चतुर्विधा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिधुंवाऽध्रुवाच। तथामोहनीयस्यजधन्या स्थित्युदीरणा सूक्ष्मसंपराय क्षेपकस्य स्वगुणस्थानकसमयादिकावलिका शेषे वर्तमानस्य भवति शेषकालं त्वजघन्या नामाशेषे वर्तमानस्य भवति / ततोऽन्यत्र सर्वत्राप्यजघन्या सा चोपशान्तमोहगुणस्थानकेषु न भवति ततः प्रतिपाते च भवति ततोसौ सादिः तत्स्थानमप्रातस्य पुनरनादिः / ध्रुवा अभव्यानाम्, अध्रुवा भव्यानां, शेषा ज्ञानावरणदर्शनावरणनामनोगोत्रान्तरायाणां स्थित्युदीरणा। अजघन्या त्रिधा त्रिप्रकारा तद्यथा अनादिधुवा अधुवा च तथाहि ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां जघन्या स्थित्युदीरणा क्षीणकषायस्य स्वगुणस्थानसमयाधिकावलिकाशेषे वर्तमानस्य भवति शेषकालं त्वजघ-न्या सा चानादिसदैव भावात् ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् / नामगोत्रयोस्तु जघन्या स्थित्युदीरणा सयोगिकेवलचरमसमये सा चानादिरध्रुवा च ततोऽन्या सर्वाप्यजघन्या सा चानादिः ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् / वेदनीयायुरजघन्या स्थित्युदीरणा द्विधा तद्यथा सादिरध्रुवा च तया सर्वा हि वेदनीयस्य जघन्या स्थित्युदीरणो एकेन्द्रियस्य सर्वस्तोकस्थितिसत्कर्मणोलभ्यते ततस्तस्यैव समयान्तरे प्रवर्द्धमानसत्कर्मणो ऽजघन्या ततः पुनरपि जघन्येति जघन्या। अजघन्या च सादिरधुवा च आयुषः पर्यन्तावलिकायां न भवति परभवोत्पत्तिसमये च भवति साच सादि रधुवा च। तया सर्वासां प्रकृतीनां शेषविकल्पा उत्कृष्टा उत्कृष्टजघन्यलक्षणः द्विधा द्विप्रकारा यथा सादयो ध्रुवाश्च तथाहि सर्वेषामपि कर्मणामायुर्वर्जाना-- मुत्कृष्टा स्थित्युदीरणा मिथ्यादृष्टरुत्कृष्टः संक्लेशे वर्तमानस्य किय-- त्कालं प्राप्यते। ततः समयान्तरेतस्याप्यनुत्कृष्टाततः पुनरपि समयान्तरे उत्कृष्टा संक्लेशे विशुद्धा प्रायः प्रतिसमयमन्यथाभावात् ततो द्वे अपि साद्यध्रुवे। जघन्या च द्विधा प्रागेव भाविता अयुषां तु विकल्पत्रये युक्तिः प्राक्तन्येव प्रायोऽवसेया / तदेवं कृता मूलप्रकृति-विषया साधनादिप्ररूपणा। ___ संप्रत्युत्तरविषयां तां चिकीर्षुराह। मिच्छत्तस्सचउद्धा, अजहण्णा ध्रुवं उदीरणाण तिहा। सेसविगप्पा दुविहा, सव्वविगप्पाय सेसाणं / / 255 / / मिथ्यात्वस्य अजघन्या स्थित्युदीरणा चतुर्विधा तद्यथा सादिरनादिधुवाध्रुवा चातत्र मिथ्यादृष्टेः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतो मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितौ समयाधिकावलिका शेषायां जघन्या स्थित्युदीरणा सादिरध्रुवा च सम्यक्त्वाच्च प्रतिपतितो जघन्या सा च सादिस्तत्स्थानप्राप्तस्य पुनरनादिः धुवाध्रुवे अभव्यभवयापेक्षया। तथा ध्रुवोदीरणानां पञ्चविधज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणपञ्चविधान्तरायतैजससप्तकवर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरशुभाशुभगुरुलघुनिर्माणाख्यानामजघन्या स्थित्युदीरणा त्रिधा / तत्र प्रथमानादिधुंवाध्रुवा च तथाहि ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणरूपाणां चतुर्दशप्रकृतीनां क्षीणकषायस्य स्वगुणस्थानकसमयाधिकावलिका शेषे वर्तमानस्यास्थित्युदीरणा। सा च सादिरध्रुवाच। शेषा सर्वाप्य-जघन्या सा चानादिः सदैव भावात् ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् / तैजससप्तका-दीनां च त्रयस्त्रिंशत्संख्याकानां नाम च प्रकृतीसना जघन्या स्थित्यु-दीरणा | सयोगिकेवलिचरमसयमे सा च सादिरधुवा च ततोन्या सर्वा प्यज्धन्या सा चानादिः / धुवाधुवे पूर्ववत् / एतासामेव मिथ्यात्वादिप्रकृतीनामष्टचत्वारिंशत्संख्याकानां शेषविकल्पाउत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्यलक्षणा द्विप्रकारास्तद्यथा सादयो ध्रुवाश्च / तया होतासामुत्कृष्टा स्थित्युदीरणा मिथ्यादृष्टरुत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमानस्य कियत्कालं लभ्यते ततः समयान्तरेतस्याप्यनुत्कृष्टा ततोद्वे अपि साद्यधुवे जघन्या च प्रागेव भाविता (सव्वविकप्या य सेणाणं ति) शेषाणां शेषप्रकृतीनां दशोत्तरशसख्यानां सर्वे विकल्पाउत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्यरूपा विकल्पास्तद्यथा सादयो ध्रुवाश्च साद्यधुवत्वं चा ध्रुवोदयत्वोद्भावनीयम् कृता साधनादिप्ररूपणा // __संप्रत्युद्धाछेदस्य स्वामित्वस्य च प्रतिपादनार्थमाह / / अद्धाओ सामित्तं, पिठइ संकमे जहा नवरि।। तचेइसु निरइयगई, एवा विनिसुहिहिम्मखीईसु // 256|| अद्धाच्छेदः स्वामित्वं च यथा स्थितिसंक्रमेऽभिहितं तथैवात्राप्यवगन्तव्यं नवरमयं विशेषसंक्रमकरणे तदावेदेष्वपि स्थितिसंक्रम उक्तः / उदयाभावेऽपि संक्रमस्य भावात् / उदीरणा पुनरियं तदुदयेष्वेव वेदितव्या / उदयाभावे उदीरणया अभावात् / इदमपि संक्षिप्तमुक्तमिति किंचिद्विशेषतोभाव्यते / तत्र येषां कर्मणामुदये सति बन्धोत्कृष्टा स्थितिस्तेषां ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयतैजससप्तकवर्णादिविंशतिनिर्माणस्थिराशुभागुरु लघुमिथ्यात्वषोडशकषायत्रसनादरपर्याप्तप्रत्येकदुःस्वरदुर्भभानादेयायशः कीर्ति वैक्रियसप्तकपञ्चेन्द्रियजातिहुंडोपघातपराघातोच्छ्वासतपोद्योताशुभविहायोगतिनीचैर्गोत्ररूपाणां षडशीतिसंख्यानां बन्धावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी सर्वापिस्थितिः उदीरणाप्रायोग्या केवलं तानि कर्माणिवे-दयमानानां वेदितव्या / उदयसत्तेवोदीरणाया अभावात्। बन्धावलिकारहिता च सर्वास्थितिः / इह आवलिकाद्विकरूपोऽद्धाच्छेदतदुभयवतस्तूदीरणा स्वामिनः येषां तु कर्मणां मनुजगतिसातवेदनीयस्थिरादिषट्कहास्यादिषट्कवेदत्रय-शुभविहायोगतिप्रथमसंस्थानपञ्चकप्रथमसंहनन पञ्चकोचैर्गोत्ररूपाणामेकोनस्विंशत्संख्याकानामुदये सति संक्रमेणोत्कृष्टा स्थितिः। तेषामावलिका त्रिकहीना सर्वास्थिति-रुदीरणा प्रायोग्या केवलं तानि कर्माणि वेदयमाना वेदितव्या अत्र बन्धावलिका संक्रमावलिरहिता च सर्वा स्थितिर्यत्स्थितिरिह आवलिकात्रिकरूपोद्धाच्छेदस्तदुदयवन्तस्तदीरणास्वामिनः / एवमुत्तरत्रापि यावत् यावानुदीरणाया अयोग्यः कालस्तावानद्धाच्छेद-स्तदुदयवन्तस्तूदीरणास्वामिनो वेदितव्याः / तथा सप्ततिसागरोपमकोटीप्रमाणमिथ्यात्वस्य स्थितिर्मिथ्यादृष्टिना सताद्धा च ततोऽन्तर्मुहूर्तकालं यावन्मिथ्यात्वमनुभूय सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ततः सम्यक्त्वे सम्यड् मिथ्यात्वे चान्तमुहूर्ताना मिथ्यात्वस्थितिः सकलामपि संक्रमयति संक्रमावलिकायां चातीतायामुदीरणा योग्या तत्र संक्रमावलिकातिक्रमेपि सान्तर्मुहूर्तो नैव ततः सम्यक्त्वमनुभवतः सम्यक्त्वस्यान्तमुहूर्ताना सप्ततिसागरोप-मकोटा-कोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणा योग्या ततः कश्चित् सम्यक्त्वेप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा सम्यगमिथ्यात्वं प्रतिपाद्यते ततः सम्यग्मिथ्यात्वमनुभवतः सम्यङ् मिथ्यात्व Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 697 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा स्यान्तर्मुहूर्त द्विकोना सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिप्रमाणा उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति / तथा आहारकसप्तमप्रमत्तेन सता तद्योग्योत्कृष्टसंक्लेशेनोत्कृष्टस्थितिकं बद्धतत्कालोत्कृष्टस्थितिकं मूलप्रकृत्यभिन्नप्रकृत्यन्तरदलिकं च तत्र संक्रमितमतस्तत्सर्वोत्कृष्टा तत्तत्सागरोपमकोटाकोटीस्थितिकं जातं बन्धानन्तर चान्तर्मुहूर्तमतिक्रम्य आहारकशरीरमारभते / तचारभमाणा लब्द्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादभाग्भवति ततस्तस्य प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरमुत्पादयतः आहारकसप्तस्यान्तर्मुहूर्तांना उत्कष्टास्थितिरुदीरणायोग्या / अत्र प्रमत्तस्य सत आहारकशरीरारम्भत्वात् उत्कृष्टस्थित्युदीरणा स्वामित्वप्रमत्तसंयत एव वेदितव्या। शेषप्रकृतीनां सूत्रकृदेव विशेषमाचष्टे (निरयगएवावित्ति) नरकगतेरपिशब्दात् नरकानुपूर्दोश्च तियक्पञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वा उत्कृष्टां स्थिति बध्वा उत्कृष्टस्थितिबन्धानन्तरं चान्तर्मुहूर्ते व्यतिक्रान्ते सति तिसृषु अधस्तनपृथवीषु मध्ये अन्यतरस्यां समुत्पन्नस्तस्य प्रथमसमये नरकगतेरन्तर्मुहूर्त्तहीने सर्वापि स्थितिर्विशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणा उदीरणा योग्या भवति नरकानुपूर्वी चापान्तरालगतौ समयत्रयं यावदुत्कृष्टास्थितिरुदीरणायोग्या भवति / अधस्तनपृथिवीत्रयग्रहणे किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते। इह नरकगत्यादीनामुत्कृष्टां स्थितिं बध्नन् अवश्यं कृष्णलेश्यापरिणामोपेतो भवति कृष्णलेश्यापरिणामः पञ्चमपृथिव्यामुत्पद्यते / मध्यम-- कृष्णलेश्यापरिणामः षष्ठपृथिव्यामुत्कृष्टकृष्णलेश्या परिणामः सप्तमपृथिव्यामित्यधस्तनपृथिवीत्रयग्रहणं कृतम्॥ देवगतिदेवमणुआ-णुपुटिव आयावविगलसुहमतिगे। अंतोमुहत्तभागा, ताव ए गूणंतदुक्कस्स // 257 / / देवगतिर्देवानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीणामातपस्य विकल्पत्रिकस्य द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रयजातिरूपस्य सूक्ष्मत्रिकस्य सूक्ष्मसाधारणापर्याप्तकलक्षणस्य स्वस्वोदये वर्तमाना अन्तर्मुहूर्तभागा उत्कृष्टा स्थितिबन्धाध्यवसायानन्तमुहूर्त कालं यावत्परिभ्रष्टाः सन्तस्तावदूनामन्तर्मुहूर्तोनांतत्तदुत्कृष्टां देवगत्यादिना उत्कृष्टां स्थितिमुदीरयन्ति। इयमत्र भावना / इह कश्चित् तथाविधपरिणामविशेषभावतो नरकगतेरुत्कृष्टां स्थिति दशसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणां बद्धमारभते ततस्तस्यां देवगतिस्थितौ बध्यमानायामावलिका उपरि वन्धावलिकाहीना आवलिकामात्रहीना जाता देवगतिं च बध्नन् जघन्यैषाप्यन्तमुहूर्त कालं यावत् बध्नाति बन्धानन्तर च कालं कृत्वा अनन्तरसमये देवो जातस्ततस्तस्य देवत्वमनुभवतो देवगतिरन्तर्मुहूर्तोना विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणा उत्कृष्टा स्थित्युदीरणायोग्या भवति / ननूक्तयुक्त्यनुसारेणावलिकाधिकान्तर्मुहूर्तोना प्राप्नोति कथमुच्यते अन्तर्मुहूर्तोनेति नैष दोषः यत आवलिका प्रक्षेप्येति तदन्तर्मुहूर्तमेव केवनं गृहान्तरमवगन्तव्यमित्येवं देवानुपूर्व्या अपि वाच्यम् / तथा कश्चिन्नरकानुपूर्व्या उत्कृष्टां स्थिति विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणं बध्वा ततः शुभपरिणामविशेषतोमनुष्यानुपूर्व्या उत्कृष्टां स्थितिं पञ्चदशसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणं बर्द्धमारभते ततस्तस्यां मनुष्यानुपूर्त्या स्थितो बध्यमानायामावलिकायामुपरि बन्धावलिकाहीनामावलिकामुपरितनीं सकलामपि नारकानुपूर्वी स्थितिं संशमयति ततो मनुष्यानुपूर्व्या अपि विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणा स्थितिरावलिकामात्रहीना जाता मनुष्यानुपूर्वी च बध्नन्जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त कालं | यावद्भवति तच्चान्तर्मुहूर्तमावलिकोनविंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणा उदीरणा योग्या / ननु मनुष्यगतेरपि पञ्चदश सागरोपमकोटाकोट्योर्बन्धेनोत्कृष्टा स्थितिः प्राप्यते तथा मनुष्यानुपूर्व्या अपि नत्वेकस्या अपि विंशतिस्तत उभयोरपि संक्रमोत्कुष्ट संक्रमोत्कृष्टत्वात् विशेषे च कथं मनुष्यगतेरिव मनुष्यानुपूर्व्या अपि आवलिकात्रिकहीनोत्कृष्टा स्थितिरुदिरणायोग्या न भवति तन्न युक्तं मनुष्यानुपूर्व्या अनुदयसक्रमोत्कृष्टत्वात् तदुक्तं "मणुयाणुपुस्विमीसग, आहारग देवजुअलविगलाणि / सुहमा तिगं तिव्व अणूदय संकमणं उक्कोसा, अनुदयः संक्रमोत्कृष्टानां च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तोनाया एवोत्कृष्टस्थितेरुदीरणायोग्यत्वात् मनुष्यगतिस्तूदयसंक्रमोत्कृष्टा तदुक्तं "मणुयगई साईयं सम्मं विरहा सइय छवेय सुभ। खगई रिसभ चउरंगइ पणुच उदसंकमुक्कोसा" ततस्तस्या आवलिकात्रिकहीने चोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्या भवति एवमातपादीनामप्यन्तर्मु-हूर्तोना उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणा योग्या भवतु आतपानामनुबन्धो-त्कृष्ट ततस्तस्य स्थितीनां प्रकृतीनामन्तर्मुहूर्तांना उत्कृष्टा स्थि-तिरुदीरणायोग्या भवतु आतपानामनुबन्धोत्कृष्टा ततस्तस्य बन्धोदयावलिकाद्विकरहिते चोत्कृष्टस्थितिरुदीरणा प्रायोग्या भावनीया। ननु अनुदयस क्रमोत्कृष्टा स्थितीनां प्रकृतानामन्तर्मु-हूर्तों ना उत्कृष्टास्थितिरुदीरणा योग्या भवतु कथमुच्यते अन्त-मुहूतोनेति उच्यते इह देवएवोत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमान एकेन्द्रियाणामेकोन्द्रियप्रायोग्याणामातपस्थावरैकेन्द्रियजातीनामुत्कृष्टां स्थिति बध्नाति नाऽन्यः च तां बध्वा तत्रैव देवभवे अन्तर्मुहूर्त कालं यावत् अवतिष्ठते ततः कालं कृत्वा बादरपृथ्वीकायिकेषु मध्ये समुत्पद्यते समुत्पन्नस्सन् शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तः आतपनामोदये वर्तमानस्तदुदीरयति तत एवं सति तस्यान्तर्मुहूर्ते / नैवोत्कृष्टा स्थितिरुदीरणा योग्या न भवति आतपग्रहणं चोपलक्षणं तेनान्यासामपि स्थावरैकेन्द्रियजातिनरकाद्विकतिर्यगद्विकौदारिक सप्तकान्त्यसंहनननिद्रापशक रूपाणामकोनविंशतिसंख्याकानामनुदयबन्धोत्कृष्टानामन्तर्मुहूर्तोना उत्कृष्टा स्थितिरुदीरणायोग्यावेदितव्या। तत्र स्थावरैकेन्द्रियजातिनरकद्विकानां भावना कृता शेषाणां क्रियते। तत्र नारकस्तिर्यग्द्विकौदारिकसप्तकान्त्यसंहन-नानामुत्कृष्टां स्थिति बध्वा ततो मध्यमपरिणामस्तत्र तत्र चान्तर्मुहूर्ते गते सति निद्रोदये उत्कृष्टोदीरणां करोति। तित्थयरस्स पल्लासं, खिज्जइमे जहन्नगे इत्तो। थावर जहन्नसंते,ण समं अहिगं व बंधंतो // 258|| गंतूणावलिमित्तं, कसाय बारसगभय दुगंठाणं। निहाय पंचगस्सय, आया उज्जो य नामस्स // 25 // इह पूर्व तीर्थकरनाम्नः स्थितिशुभैरध्यवसायैरपवापवर्त्यपल्योपमासंख्येयभागमात्रा शेषीकृता ततोऽनन्तरसमये उत्पन्नकेवलज्ञानः स तामुदीरयति उदीरयतश्च प्रथमसमये उत्कृष्टा उदीरणा सर्वदैव च इयन्मात्रैव स्थितिरुत्कृष्टा तीर्थकरनामतः उदीरणायोग्या प्राप्यते नाधिकेति / तदेवमुत्कृष्टस्थित्युदीरणास्वामित्वमुक्तम् / संप्रति जधन्यस्थित्युदीरणास्वामित्वमाह / (जहन्नगेइत्तोत्ति) इत ऊर्व जघन्ये जघन्यस्थित्युदीरणायाः स्वामित्वमभिधीयते प्रतिज्ञातमेव निहियति / (जावसजहन्नेत्यादि) स्थावरस्य सतोऽसजधन्यस्थित्युदीरणा सर्वस्तोकं स्थितिसत्कर्मा तेन समधिकं वा मनाग मात्रे Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा ६९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा णाभिनवकर्मा स एव जघन्यस्थितिकर्मा स्थावर एकेन्द्रियो बध्नन् बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः / आद्य द्वादशकषायभयजुगुप्सानिद्रापञ्चकातपोद्योतनाम्नामेकविंशतिप्रकृतीनां जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति इहातपोद्योतवर्जानामेकोनविंशतिप्रकृतीनां धुवबन्धित्वादातपोद्योतयोस्तु प्रतिपक्षाभावात् अन्यत्र जघन्यतरा स्थितिर्न प्राप्यते ततः एकेन्द्रिय एव यथोक्तस्वरूपम् / आसां प्रकृतीनां जघन्यस्थित्युदीरणास्वामी। एगिंदिय जोग्गाणं, इयरा बंधत आलिगं गंतु। एगिदियागए तट्टिय जाईणमवि एव्वं // 260|| एकेन्द्रियाणामेव उदीरणा संप्रति या योग्याः प्रकृतयस्ता एकेन्द्रिययोग्याः / एकेन्द्रिया जातिस्थावराः सूक्ष्मसाधारणनामानस्तासामेकेन्द्रियो जघन्यास्मिन् स्थितिः सत्सत्कर्मा इतरा एकेन्द्रियजात्यादिप्रतिपक्षभूता द्वीन्द्रियजात्यादिकाः प्रकृतीबध्नाति / तद्यथा एकेन्द्रि-- यजातिद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रिय जातिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरसूक्ष्मसाधारणानां बसबादरप्रत्येकनामानि ततः एकेन्द्रियजात्यादीन बध्नाति ततो बन्धावलिकां गत्वा अतिक्रम्य बन्धावलिकायाश्चरमसमये एकेन्द्रियजात्यादीनां जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति / इयमत्र भावना एकेन्द्रियः सर्वजघन्यस्थितिसत्कर्मा द्वीन्द्रियजातीः सर्वा अपि परिपाट्या बध्नाति ततस्तावद्गन्धानन्तरमेकेन्द्रियजातिबद् धुमारभते ततो बन्धावलिकायाश्चरम समये पूर्वबद्धायास्तस्या एकेन्द्रियजाति-जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति। इह बन्धावलिकाया अनन्तरसमये बन्धावलिका प्रथमसमयबद्धा / अपि च ता उदीरणामायान्ति ततो जघन्या स्थित्युदीरणान प्राप्यते इति कृत्वा बन्धावलिकायाश्चरम-समये इत्युक्तं यावता कालेन प्रतिपक्षभूताः प्रकृतीर्बध्नाति तावता कालेनान्यूना एके न्द्रियजातिस्थितिर्भवति ततस्तो कतरा प्राप्यते, इति प्रतिपक्षभूतप्रकृतिबन्धोपादानम् / एवं स्थावरसूक्ष्मसाधारणानामपि भावना कर्तव्या केवलमेतेषां प्रतिपक्षभूताः प्रकृतयः त्रसबादरप्रत्येकनामानो वेदितव्याः। (एगेंदियागएत्ति) जातीनामपि द्वीन्द्रियादिजातीनामपि एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एकेन्द्रियादागतस्तत्स्थितिक एकेन्द्रिययोग्यतया जधन्यस्थितिका जघन्या स्थित्युदीरणां करोति / अत्रापीयं भावना / एकेन्द्रियो जघन्यस्थितिः सत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुवृत्य द्वीन्द्रीयेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततः पूर्वबद्धां द्वीन्द्रियजातिमनुभवितुमारभते। अनुभवप्रथमसमयादारभ्य च एकेन्द्रियजातिर्दीर्घ कालं बडु लग्नस्ततस्तथैव त्रीन्द्रियजार्तिबधुमारभते ततो बन्धावलिकायाश्चरमसमये तस्या। द्वीन्द्रियजातिरेकेन्द्रियजातिभवोपार्जितस्थितिसत्कमापेक्षया , अन्तर्मुहूर्ते चतुष्टयबन्धावलिकाचरमसमये ग्रहणे च कारणं प्रागेवोक्तम् / एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजात्योरपि भावना कार्या। वेयणियनो कसाया, सम्मत्तस्संघयणपंचनीयाण। तिरिय दुगअयसदुभगणा, पुजाणं च संतिगए।२६१॥ सातासातवेदनीयहास्यरत्यरतिशोकपर्याप्तकान्तिमपञ्चसंहनननीचर्गोत्रतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्व्ययशः कीर्तिदुर्भगानादेयडपाणामष्टादशप्रकृतीनां संज्ञिपञ्चन्द्रियगतेजघन्या स्थित्युदीरणा। भावना त्वियम् / एकेन्द्रिया जघन्यस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुवृत्य पर्याप्तसंज्ञि पञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः उत्पत्तिप्रथमसमयादारभ्य च सातवेदनीयमनुभवन् असातवेदनीयं वृहत्तर मन्तर्मुहूर्तं कालं यावत् बध्नाति ततः पुनरपि सातंबधुमारभतेततो बन्धावलिकायाश्चरमसमये पूर्वबद्ध-स्य सातवेदनीयस्य जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति एवमसातवेदनी-यस्यापि द्रष्टव्यं के वलं सातवेदनीयस्थाने असातवेदनीयमुच्चारणीयम्। असातवेदनीयस्य सातवेदनीयमिति हास्यरत्यरससातवद्भावना कार्या आसमाप्तम् / अपर्याप्तकम् नाम एकेन्द्रियो जघन्यस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुद् वृत्य पर्याससंज्ञिपश्शेन्द्रियमध्ये समुत्पन्न उत्पत्तिप्रथमसमयादारभ्य चपर्याप्तकनाम वृहत्तरमन्तर्मुहूर्तु कालं यावद् बध्नाति ततः पुनरपि अपर्याप्तकनाम बद्धमारभते बन्धावलिकायाश्चरमसमये पूर्वबद्धस्यापर्याप्तकनाम्नो जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति संहननपञ्चकस्य तु मध्ये वेद्यमानं संहननं मुक्त्वा शेषसंहननं प्रत्येकं बन्धकालोऽतिदीर्घो वक्तव्यः / ततो वेद्यमानसंहननस्य बन्धे बन्धावलिकाचरमसमये स्थित्युदीरण नीचैर्गोत्रमसातवद्वेदितव्यम् / तथा तेजस्कायिको वायुकायिको बादरसर्वजघन्यस्थितिसत्कर्मा पर्याप्तसंज्ञितिर्यक्पञ्चेनिद्रयेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो वृहत्तरमन्तर्मुहूर्त कालं यावन्मनुजगतिं बध्नाति तद्बन्धानन्तरं च तिर्यग्गतिं बधुमारभते / तत आवलिकायाश्चरमसमये तस्यास्तिर्यग्गतिर्जधन्यां स्थित्युदीरणां करोति एवं तिर्यगानुपूर्व्या अपि वक्तव्यं नवरमपान्तरालगतौ तृतीय-समये जधन्या स्थित्युदीरणा वाच्या अयशःकीर्तिदुर्भगानादेयानां चासातस्यैव भावना कार्या केवलमिह प्रतिपक्षप्रकृतीनां यशः कीर्तिसुभगादेयाना बन्धो वाच्यः। अमणागयस्स विरइअंत, सुरनरयगइउवंगाणं / अणुपुथ्वीति समइगे, नराण एगें दिआ गयगे॥२६॥ अमनस्कादसंज्ञिपञ्चेन्द्रियादुद्वृत्त्य देवेषु वा मध्ये समागतस्य सुरगतिनरकगतिवैक्रियाङ्गापाङ्गनाम्ना स्वस्वायुर्दैर्घ्य स्थित्यन्तरे जघन्या स्थित्युदीरणा / एतदुक्तं भवति असंज्ञिपञ्चेन्द्रियः सर्वजघन्यां सुरगतिस्थितिंबध्वा बन्धानन्तरंचदीर्घकालं तत्रैव स्थित्वा देवेषु नारकेषु वा मध्ये पल्योपमासंख्येयभागमात्रायुः स्थितिकः समुत्पन्न-स्ततस्तस्य देवस्य नारकस्य वा स्वस्वायुषश्विरस्थित्यन्ते चरमसमये वर्तमानस्य यथायोगं देवगतिनरकगतिवैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नां जघन्या स्थित्युदीरणा स एवासंज्ञिपञ्चेन्द्रियो देवस्य नरकस्य वा भवस्या-पान्तरालगतौ वर्तमानो यथासंख्यं देवानुपूर्वी नारकानुपूर्योश्च तृतीयसमये जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति / (नराण एगेंदिआगयगेत्ति) एकेन्द्रियः सर्वजघन्यमनुष्यानुपूर्वीस्थितिः सत्कर्मा एकेन्द्रियभवादु-दृत्य मनुष्येषु मध्ये उत्पद्यमानो ऽपान्तरालगतौ वर्तमानो मनुष्यानुपूर्यास्तृतीयसमये जधन्यस्थित्युदीरणास्वामी भवति। समया हिग्गलगाए, पढमट्टिइओ सेसवेलाए। मिच्छत्ते वेरासु य, संजलनासु वि य सम्मत्ते // 263 / / इह अन्तरकरणे कृते अधस्तनी स्थितिः प्रथमा स्थितिरित्युच्यते। उपरितनी तु द्वितीयेति। तत्र प्रथमस्थितेः शेषवेलायां समयाधिकावलिकाप्रमाणायां मिथ्यात्ववेदत्रिकं संज्वलनचतुष्टयं सम्यक्त्वानां जघन्यस्थित्युदीरणा भवति नवरं सम्यक्त्वसंज्वलनलोभयोः क्षये उपशमे वाजघन्या स्थित्युदीरणा द्रष्टव्या। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 696 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा पल्लासंखियभागणुदए, एगिदिआगए मिस्से। वेसत्तभागवेउ-छिआए पवेणस्स तस्स // 26 // पल्योपमासंख्येयभागानभ्युदये एकं सागरोपमं तावन्मात्रं | सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिसत्कर्मा एकेन्द्रियभवादुदत्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियमध्ये समयतस्तस्य यतः समयादारभ्य अन्तर्मुहूर्तानन्तरं सम्यमिथ्यात्वस्योदीरणापगमिष्यति तस्मिन्सम्यङ् मिथ्यात्व-- प्रतिपन्नस्य चरमसमये सम्यङ् मिथ्यात्वस्य जघन्या स्थित्युदी-रणा एकेन्द्रियस्तत्कर्मणो जघन्यस्थितिसत्कर्मणश्च सकाशादधो-विर्तमानं सम्यड् मिथ्यात्वमुदीरणायोग्यं न भवति तावन्मात्रस्थि-तिके तस्मिन्नवश्यं मिथ्यात्वोदयसम्भवस्तद्वलनसंभवात् / तथा यैः सप्तभिर्भागैस्सागरोपम भवति तौ द्वौ सप्तभागौ यस्य वैक्रिय-षट्कस्य वैक्रि यशरीरवै क्रि यसंघातवै क्रि यबन्धनचतुष्टयरूपस्य तद्द्विसप्तभागैक्रियं ततो विशेषणसमासः प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वनिर्देशः। इहापि च "पल्लासंखियभागेण'' इत्यनुवर्तते ततश्च द्विसप्तभागबँक्रियषट् कस्य पल्योपमासंख्येयभागहीनस्य पवनस्य बादरवायुकायिकस्य तस्य वैक्रियपर्यन्तसमये जघन्या स्थित्युदीरणा। एतदुक्तं भवति बादरवायुकायिकः पल्योपमासंख्येयभागहीनसागरोपमद्विसप्तभागप्रमाणैक्रियषट्कस्य जघन्यस्थितिसत्कर्म बहुशो वैक्रि यमारभ्य चरमसमये वैक्रियारम्भे चरमसमये वर्तमानो जघन्यस्थित्युदीरणां करोति अनन्तरसमये च वैक्रियषट् कमेकेन्द्रियसत्कर्मजघन्यषट्कर्मापेक्षया स्तोकतरमिति कृत्वा उदीर-णायोग्यं न भवति। किंतूद्वलनायोग्यम्। चउरुवसमत्तपेम्म, पच्छामिच्छंखवेत्तु तेत्तीसा। उक्कोससंजमद्धा, अंते सुतणुउवंगाणं // 26 // संसारपरिभ्रमेणन चतुरो वारान् प्रेम मोहनीयमुपशमय्य ततो मिथ्यात्वमुपलक्षणमेतत् सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं क्षपितं क्षपयित्वा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिको देवो जातः। ततो देवभवाच्च्युत्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो वर्षाष्टकानन्तरं तत्समयसंयमप्रतिपन्नेऽप्रमत्तभावे चाहारकसप्तकं बद्धवांस्ततो देशानां पूर्वकोटिं यावत्संयम परिपालितवांस्ततो देशोनपूर्वकोटिपर्यन्ते आहारकशरीरं कृत्वा (सुतणुत्ति) आहारकशरीरम् (उवंगत्ति) आहारकाङ्गोपाङ्ग बहुवचनादाहारंकबन्धनचतुष्टयाहारकसंघातपरिग्रहः तेषां जघन्यां स्थित्युदीरणां करोति इह मोहोपशमं कुर्वन् शेषनामकर्मप्रकृतीनां घातादिभिः प्रभूतं स्थितिसत्कर्म घातयति। देवभवे चापवर्त्तनाकरणेनापवर्तयति ततः आहारकसप्तकं बन्धकाले स्तोकमेव स्थितिसत्कर्म संक्रमयति ततो देशोनपूर्वकोट्युपादानम्। छउमत्त्थ खीणरागे, चउदससमयाहि गालिगढिइए। सेसाणुदीरणंते, भिन्नमुहुत्तो ठिईकालो // 266|| छद्मस्थक्षीणरागस्य पञ्चविधज्ञानावरणचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणपञ्चविधान्तरायलक्षणानां चतुर्दशप्रकृतीनां समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ जघन्या स्थित्युदीरणा शेषाणां च प्रकृतीनां मनुजग-- तिपञ्चेन्द्रियजातिप्रथमसंहननौदारिकसप्तकसंस्थानषट्कोपघातप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकशुभगसुस्वरादेय-यशः कीर्त्तितीर्थकरोथैर्गोत्रलक्षणानां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनां पूर्वोक्तानां च नाम ध्रुवोदीरणायां त्रयस्त्रिंशत्प्रकृतीनां सर्वसंख्यया पञ्चषष्टिसंख्या कानां सयोगिकेवलचरमसमये जघन्या स्थित्युदीरणा तस्याश्च जघन्यायाः कालो भिन्नमुहूर्तोऽन्तर्मुहूर्त्तमित्यर्थः। आयुषामप्युदीरणा-न्ते जघन्या स्थित्युदीरणा / संप्रति भागोदीरणावसरस्तत्र च इमे अर्थाधिकारास्तद्यथा संज्ञाशुभाशुभविपाकसूचनार्थमाह! अणुभागुदीरणाए, सन्ना य शुभाशुभविभागो य। अणुभागबंधभणिआ, ताणत्तं पचया चेमे // 267 / / अनुभागोदीरणायां संज्ञाशुभाशुभविपाकश्चय यथा शतकाख्ये ग्रन्थे अनुभागा बन्धाश्वाभिधानावसरे भणितास्तथाऽत्रापि द्रष्टव्याः / तत्र संज्ञासंज्ञिद्विभेदात्स्थानसंज्ञाघाति संज्ञाच। संज्ञा चतुर्विधा एकस्थानको द्विस्थानकस्त्रिस्थानकश्चतुःस्थानकश्च / घातिसंज्ञा त्रिप्रकारा तद्यथा सर्वघाती देशघाती अघातीचा तथा शुभकर्मणामनुभागः क्षीरखण्डोपमः / अशुभकर्मणां त्वशुभघातिघोषातकीनिस्वरसोपमः / एषाच स्थानसंज्ञा घातिसंज्ञा शुभाशुभप्ररूपणाच प्रागनुभाग-संक्रमाभिधानावसरे सप्रपञ्चं कृतेति न भूयोविज्ञायते। विपाकश्चतुर्विधः पुद्गलविपाकः क्षेत्रविपाको भवविपाको जीवविपाकश्च / तत्र पुद्गलानधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः स पुद्गलविपाकः / स च संस्थानषट्कसंहननषट् कातपशरीरपञ्चकाङ्गोपाङ्गत्रयोद्योतनिर्माणस्थिरास्थिरवर्णादिचतुष्कागुरुलघुशुभाशुभपराघातोपघातप्रत्येक साधा-रणनाम्ना षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामवगन्तव्यः। तथाहि संस्थाने गाभादीनि औदारिकादिपुद्गलानेवाधिकृत्य स्वविपाकमुपदर्शयन्ति तत आसांरसः पुद्गलविपाक एव / नन्वनया युक्त्याऽरत्योरत्योरपि रसः पुगलविपाक एपा प्राप्नोति।तथाहि कण्टकादिसंस्पर्शादरतिविपाकोदयो भवति सक् चन्दनादिसंस्पर्शात्तु रतेः तत्कथं स नोक्तः। उच्यते रत्यरतिविपा-कस्य पुद्गलव्यभिचारात्। तथाहि कण्टकादिसंस्पर्शव्यतिरेकेऽपि प्रियस्मरणादिना कदाचिदुपरत्योर्विपाकादयोदृश्यन्ते ततोऽनयोरनुभागजीवविपाक एव युक्तो न पुद्गलविपाक एवं क्रोधादिविपाको भावनीयाः। उक्तं च। अरइ रईणं उदयो किन्न भवे पोग्गलानि संपप्पा। __ अप्पुढेहि विकन्नो एवं कोहाइयाणं पि।। अस्याश्चाक्षरगमिनिका। अरतिरत्योरुदयो विपाकोदयः पुगलान्प्राप्य किन्न भवति भवत्यवेति भावः। ततः कथं तयोः रसपुगलविपाको नोच्यन्ते अत्राचार्यः काचा प्रत्युत्तामाह (अप्पुढेहिं वि कन्नो) अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ततोऽयमर्थः / अस्पृष्टष्वपि पुद्गलेषु किं न तयोरत्यरत्योर्विपा-कोदयो भवति भवत्येवेति भावः / ततः पुगलव्यभिचारात् तयो रसपुद्गलविपाको न भवति किं तु जीवविपाक एव एवं क्रोधादीनामपि वाच्यम् / तथा क्षेत्रविपाकः / स च चतसृणामानुपूर्वी णामवगन्तव्यः / तथा भवमधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः स रसो भवविपाकः स च चतुर्णामायुषामवसेयः / अथोच्यते ततः कथं तासां रसो भवविपाको नाभिधीयते तदयुक्तं व्यभिचारात् / तथाहि आयुषां स्वभवमन्तरेण परभवे संक्रमेणाप्युदयो भवति ततः सर्वथा स्वभवाव्यभिचारात्तानि भवविपाकान्युच्यन्ते गतीनां पुनः परभवेऽपि संक्रमणोदयो भवति ततः स्वभवव्यभिचारात् न ता भव Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा ७००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उईरणा विपाकशुन्याः। उक्तं च "आउव्वभवविवागाई गईत आउस्स परभवे जम्हा। नो सव्वहा वि उदओ गईण पुण संकमणट्ठि" सुगमा शेषाणां त्वष्टसप्ततिसख्यानां प्रकृतीनां जीवविपाको रसः जीवमधिकृत्य विपाको यस्यासौ जीवविपाकः (नाणत्तं पञ्चयामेत्ति) नानात्वं विशेषो यत्तत्र शतकाख्ये ग्रन्थे अनुभागबन्धेनोक्तं तदिह वक्ष्ये उक्तस्य च विशेषमित्यर्थस्तथा तत्रबन्धमाश्रित्य अन्ये एवं मिथ्यात्वादयः प्रत्ययाः उक्ताः / इह उदीरणामाश्रित्य अन्ये एवं वक्ष्यमाणा ज्ञातव्याः तत्र नानात्वप्ररूपणार्थमाह। मीसुदुवाणे सव्वघाइ, दुट्ठाण एगट्ठाणे या सम्मत्तमंतरायंच, देसघाई अचक्खूअ॥२६८|| सम्यङ् मिथ्यात्वं स्थानसंज्ञामधिकृत्य द्विस्थानकं द्विस्थानकरसोपेतं घातिसंज्ञामधिकृत्य सर्वघातिसम्यक्त्वं पुनरुत्कृष्टोदीरणामधिकृत्य द्विस्थानकरसोपेतं जघन्योदीरणांत्वधिकृत्य एकस्थानकं घातिसंज्ञामधिकृत्य च देशघाति वेदितव्यम्। एतच तत्र सर्वथा नोक्तं किंत्विहैव यत्र तत्राऽनुसारेण भागबन्धमाश्रित्य शुभाशुभप्ररूपणा कृता / नच सम्यक्त्वसम्यङ् मिथ्यात्वयोर्बन्धः संभवति तत एतद्वर्जा एव तत्राशुभप्रकृतयो निर्दिष्टाः उदीरणा त्वेतयोरपि भवति तत इह विशेषेणैव तयोरुपादानम्। तथान्तरायपञ्चकप्रकारम्। उत्कृष्टामनुभागोदीरणामधिकृत्य द्विस्थानके एकस्थानके च धातिसंज्ञामधिकृत्यदेशघाति वेदितव्यम्। बन्धं प्रतीत्य पुनश्चतुः प्रकारेऽपि रसस्तद्यथाचतुःस्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके एकस्थानके च / अचक्षुर्दर्शन धातिसंज्ञामधिकृत्य देशघाति। ठाणेसु चउसु अपुमं, हुंठाणे कक्खडचगुरुकंच। अणुपुव्वीओ तीसं, नरतिरियगत जोग्गा य॥२६॥ नपुंसकवेदो बन्धं प्रतीत्य त्रिप्रकारे रसे / तद्यथा चतुः स्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके च / अत्र तूत्कृष्टामनुभागोदीरणामधिकृत्य चतुःस्थानके अनुत्कृष्टां त्वधिकृत्य चतुःस्थानके त्रिस्थानके एकस्थानके च / ननु बन्धाभावे कथमुदीरणायामकस्थानको रसो नपुंसकवेदस्य प्राप्यते उच्यते क्षेपणाकाले रसघातं कुर्वतः तस्य एक स्थानकस्यापि रससंभवात्। तथा कर्कशनाम गुरुनाम च बन्धं प्रतीत्य चतुःस्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके च / इह त्वनुभागोदीरणामधिकृत्य द्विस्थानके तथा चतस आनुपूयॊ यावचरतिरश्चामुदयं प्रतिएकान्त-योग्यास्त्रिंशत् / प्रकृ तयस्तद्यथा-मनुष्यायु स्तिर्य गायुगतिर्मनुष्यगतिरकेन्द्रियजातिद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिश्चौदारिकसप्तकम् / आयन्तवर्जसंस्थानचतुष्टयसंहननषट् कमातपस्थावरसूक्ष्मपर्याप्तसाधारणं चेति / ता अपि बन्धं प्रतीत्य चतुःस्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके च / इह त्वनुभागोदीरणामुत्कृष्टानुत्कृष्टां | चाधिकृत्य द्विस्थानके रसे वेदितव्याः। वेया एगट्ठाणे, दुट्ठाणे वा अचक्खुचक्खू अवेदा। जस्सत्थि एगमवि, अक्खरंतु तस्सेगठाणाणि // 270|| स्त्रीवेदः पुरुषवेदोऽनुभागोदीरणामुत्कृष्टामधिकृत्य द्विस्थानके अनुत्कृष्टां त्वधिकृत्य द्विस्थानके एकस्थानके वा ऽवगन्तव्यौ / एवमचक्षुश्चक्षुर्दर्शनावरणे च बन्धं प्रतीत्य पुनः स्त्रीवेदश्चतुः स्थानके विस्था नके द्विस्थानके वा पुरुषवेदो ऽचक्षुर्दर्शनावरणे चक्षुर्दर्शनावरणे च चतुः प्रकारेऽपि / तद्यथा चतुःस्थानके त्रिस्थानके द्विस्थानके एकस्थानके च / ननु "देसघाई अचक्खुयत्ति' प्रागेवोक्तं तत्किमर्थं पुनरिहाचक्षुर्दर्शनावरणोपादानमुच्यते स्थाननियमार्थम् / पूर्व हि देशधातित्वमेवाचक्षुर्दर्शनावरणस्योक्तमत्र तुरसस्थाननियमः। (जस्सस्थिएत्ति) यस्य जीवस्य एकमप्यक्षरं सर्वपर्यायैः परिज्ञातं वर्त्तते तस्य श्रुतकेवलिनो मतिश्रुतावधिदर्शनावरणप्रकृतीनामनुभागोदीरणायामकस्थानको रसः प्राप्यते संज्वलनानांतुबन्धे अनुभागोदीरणायांचचतुःप्रकारेऽपि रसः। तद्यथा। चतुःस्थानकः त्रिस्थानको द्विस्थानक एकस्थानकश्च / मणनाणं सेससमं, मीसगसम्मत्तमविय पावेसु। छट्ठाणवडियहीणा, उक्कोसाणुभागुदीरणा कुणइ // 271 / / मनः पर्यायज्ञानं शैषैः कर्मभिः समं वेदितव्यम् / इयमत्र भावना। यथा शेषकर्मणामनुभागोदीरणा चतुःस्थानकस्य त्रिस्थानकस्य द्विस्थानकस्य चरमस्य भवति तथा मनः पर्यायज्ञानावरणकर्मणामनुभागोदीरणा वरणस्यपि द्रष्टव्या एवं पुनर्मनःपर्यायज्ञानावरणस्य चतुःप्रकारोऽपि रसो भवति शेषकर्मणां तु बन्धे त्रिप्रकारास्तद्यथा चतुःस्थानकस्त्रिस्थानका द्विस्थानकश्च / तानि च शेषकर्माण्यमूनि / तद्यथा केवलज्ञानावरणं निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणं च सातासातवेदनीये, मिथ्यात्वं द्वादश कषायाः षट् नोकषायाः नरकायुर्देवायुः नरकगतिर्देवगतिः पञ्चेन्द्रियजातिस्तैजससन्तकं वैक्रियसप्तकमाहारकसप्तकं समचतुरससंस्थानहुंडकसस्थानं वरणपञ्चकं गन्धादिक रसपञ्चकं स्निग्धरूक्षमृदुलघुशीतोष्णरूपं षट्कम् अगुरुलघूपघात पराघात मुच्छ्वासोद्योतप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतित्रस बादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुभदुर्भग दुःस्वरसुस्वरानादेययशः कीर्तिनिर्माणतीर्थंकराचैर्गोत्रनीचैर्गोत्राणि च / एतेषां च एकोत्तरशतं संख्यानां शेषकर्मणामुत्कृष्टामनुभागोदीरणामधिकृत्य चतुःस्थानको रसः / अनुत्कृष्टां त्वधिकृत्य चतुः स्थानकरित्रस्थानको द्विस्थानकश्व मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानावरण चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणानामुत्कृष्टामनुभागोदीरणामधिकृत्य रसः / स च घाती अनुत्कृष्टां त्वधिकृत्य सर्वघाती देशघाती वा / केवलज्ञानावरणनिद्रापञ्चकमिथ्यात्वद्वादशकषायाणामुत्कृष्टामनुष्कृष्टां वा अनुभागोदीरणामधिकृत्य रसघाती सर्वघाती सातासातवेदनीयायु श्चतुष्टयसकलनामप्रकृतिगोत्रद्विकानामुत्कृष्टामनुत्कृष्टां वा उदीरणामधिकृत्य रसः सर्वघाती अनुत्कृष्टांत्वधिकृत्य सर्वघाती वा प्रतिपत्तव्यः / इदानी मशुभप्रकृतिविषयविशेषमाह (मीसगसम्मत्तेत्ति) अपि च सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं चानुभागोदीरणामधिकृत्य पापेषु पापकर्मसु मध्येऽवगन्तव्यम् / घातिस्वभावतया तयो रसस्य अशुभत्वात् शेषप्रकृतयस्तु यथाशतकग्रन्थे अनुभागबन्धे शुभाशुभाचोक्तास्तथात्राप्यवगन्तव्याः / कीदृशे अनुभागसत्कर्मणि वर्तमान उत्कृष्टामनुभागोदीरणां करोति उच्यते--(छट्ठाणवडियहीणेत्ति) अनुभागसत्कर्मणि षट्स्थापनाः पतितहीनादपि उत्कृष्टामनुभागोदीरणां करोति उच्यते प्रवर्तते एतदुक्तं भवति यत्सर्वोत्कृष्टमनुभाग सत्कर्म तस्मिन् अनन्तभागहीने वा संख्यातभागहीने वा असंख्येयगुणहीने वा अनन्तगुणहीने वा उत्कृष्टा अनुभागोदीरणा प्रर्वत्तते यतोऽनन्तानन्तस्पर्द्धकानामनुभागे Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 701 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उईरणा क्षपते अनन्तानि स्पर्द्धकानि उत्कृष्टरसान्यद्यापि तिष्ठन्ति / ततोऽनन्तभागेऽपि शेषे मूलानुभागसत्कर्मापेक्षयाऽनन्तगुणहीना उत्कृष्टानुभागोदीरणा लभ्यते किं पुनरसंख्येयगुणहीनादावनुभागकर्मणीति। संप्रति विपाके विशेषमाह। विरियंतरायकेवल-दसणमोहणीयणाणवरणाणं / असमत्थपत्तएसु, सव्वदव्वेसु वि विवागो॥ 272 / / वीर्यान्तरायकेवलदर्शनावरणाष्टाविंशतिविधमोहनीयपञ्चविधज्ञानावरणानां पञ्चत्रिंशत्प्रकृतीनां समस्तपर्यायेषु सर्वद्रव्येषु सर्वजीवद्रव्येषु विपाकः / तथाहि इमा वीर्यान्तरायाः पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयो द्रव्यतः सकलमपि जीवद्रव्यमुपघ्नन्ति पर्यायतस्तु न सर्वानपि यथा मेधैरतिनिचिततरैरपिसर्वात्मनान्तरितयोरपिसूर्याचन्द्रमसोर्न तत्प्रभा सर्वथाअपनेतुं शक्यते उक्तंच “सुट्ठविमेहसमुदिए, होइपहाचंदसुराणं पि" तथा अत्रापि भावनीयम्। गुरुलघुगाणंतपए, सिएसु चक्खुस्स रूवदव्वेसु। ओहिस्स गहणधारण,जो गइससंतरायाणं / / 273 / / चक्षुषश्चक्षुर्दर्शनावरणगुरुलघुकाः अनन्तप्रादेशकाः स्कन्धास्तेषु विपाकः अवधिदर्शनावरणस्य रूपिद्रव्येषु शेषान्तरायाणां दानलाभोभोगान्तरायाणां ग्रहणधारणयोग्येषुपुद्गलद्रव्येषु विपाकोन शेषेषु यावत्येव हि विषये चक्षुर्दर्शनादीनि व्याप्रियन्ते तावत्येव विषये चक्षुर्दर्शनावरणादीन्यपि तत उक्तरूपो विषयनियमो न विरुद्ध्यते / शेषप्रकृतीनां तु तथा प्रागविपाकोऽभिहितः पुगलविपाकादिस्तथैवात्रावगन्तव्यः / संप्रति प्रत्ययप्ररूपणा कर्तव्या प्रत्ययोऽपि द्विधा परिणामप्रत्ययो भवप्रत्ययश्च / तत्र परिणामप्रत्ययमधिकृत्याह। वेउव्वीय तेयग, कम्मवन्नरसगंधनिद्धलुक्खाउ। सीउण्हथिरसुमेयर, अगुरुलघुगा य नरतिरिय // 274 // वैक्रियसप्तकं तैजसकार्मणग्रहणात्तैजससप्तकं गृहीतम्।तथा वर्णपञ्चकं गन्धद्विकरसपञ्चकं स्निग्धरूक्षशीतोष्णस्थिरास्थिरशुभाशुभगुरुलघूनि चानुभागोदीरणामधिकृत्य तिर्यग्मनुष्याणां परिणामप्रत्ययानि वैक्रियसप्तकं तिर्यङ्मनुष्यगतिमनुष्याणां गुणविशेषसमुत्थलब्धिप्रत्ययं ततस्तदुदीरणापि तेषां गुणपरिणामप्रत्यया तैजससप्तकादयस्तु तिर्यड्मनुष्यैरन्यथाऽन्यथा विपरिणमय्य उदीर्यन्ते ततस्तासामपि प्रकृतीनामनुभागोदीरणा तिर्यग्मनुष्याणां परिणामप्रत्यया। चतुरंस मउय लहुगा, परघाउज्जुप्पइट्ठखगइसरा। पत्तेगतणू उत्तरतणू, सो दोसोवि य तणुतईया।। 275|| समचतुरखसंस्थानमृदुलघुपराघातो द्योतप्रशस्तविहायोगतिसुस्वरप्रत्येकनामानोऽष्टौ प्रकृतयः / उत्तरतन्वर्थे वैक्रियाहारकलक्षणयोरनुभागोदीरणामधिकृत्य परिणाममधिकृत्य परिणामप्रत्यया वेदितव्या यत उत्तरवैक्रिये आहारके वा शरीरे सति समचतुरस्रसंस्थानामनुभागोदीरणां प्रवर्तमाना उत्तरवैक्रियादिशरीरपरिणामापेक्षा / ततः एषापि परिणामप्रत्यया वेदितव्या तथा तृतीया तनुराहरकशरीरमाहारकशरीरग्रहणाचाहारकसप्तकं गृहीतं द्रष्टव्यम् / तत अनुभागोदीरणामधिकृत्य परिणामप्रत्ययं वेदितव्यम् / आहारकसप्तकं हि मनुष्याणां गुणपरिणाम प्रत्ययं भवति। ततस्तदनुभागोदीरणामधिकृत्य परिणाम प्रत्ययं वेदितव्यम्। आहरकसप्तकं हि मनुष्याणां गुणपरिणामप्रत्ययं भवति ततस्तदनुभागोदीरणापि गुणपरिणामप्रत्ययवेति। देसविरयविरयाणां,सुभगाएजसकित्तिउव्वाणं। पुव्वाणुपुव्वगाए, असंखभागो त्थियाईणं / / 276 // देशविरतानां विरतानां च सुभगादेययशः कीत्युबैगोंत्राणामनुभागोदीरणा परिणामकृता तथाहि सुभगादिप्रत्यक्षभूतदुर्भगादिप्रकृत्युदये युतेऽपियो देशे विरतिं वा प्रतिपद्यते तस्यापि देशविरत्यादिगुणप्रभावतः सुभगादीनामेव प्रकृतीनामुदयकोटिपूर्वकमुदीरणायोग्या गुणपरिणामे च प्रत्ययतो वेदितव्या। इदमुक्तं भवति। स्त्रीवेदादीनामतिजघन्यानुभागस्पर्द्धकादारभ्य क्रमेण संख्येयो भागो देशविरतादीनामुदीरणा योग्यो गुणप्रत्ययतो भवति / परस्त्यनुभागोदीरणामिति। तित्थंकरधाईण य, परिणामप्पचयाणि सेसाओ। भवपच्चया उ पुत्ता, वियपुव्वत्तसेसाणं / / 277 // तीर्थकरघातिकर्माणि च पञ्चविधज्ञानावरणनवविधदर्शनावरणनवनोकषायवा मोहनीयपञ्चविधान्तरायरूपाणि सर्वसंख्यया एकोनचत्वारिंशत्प्रकृतयोऽनुभागोदीरणामधिकृत्य तिर्यड्मनुष्याणां परिणामप्रत्ययाः / एतदुक्तं भवति / आसां प्रकृतीनामनुभागोदीरणा तिर्यड्मनुष्याणां परिणामप्रत्यया भवति परिणामो ह्यन्यथाभावेन नयनम् / तत्र तिर्यञ्चो मनुष्या या गुणप्रत्ययेन अन्यथा बद्धानामन्यथा परिणामप्य एतामुदीरणां कुर्वन्ति / ( सेसाओभवपचयाउत्ति ) शेषाः प्रकृतयः सातासातवेदनीयआयुश्चतुष्टयं पञ्चकौदारिकसप्तकं संहननषट्कंप्रथमवयं स्वस्थानपञ्चककर्कशगुरुस्पर्शानुपूर्वीचतुष्टयोपघाततपोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतिवसस्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तसाधा-रणदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माणनीचैर्गोत्ररूपाः षट्पञ्चाश-त्संख्या अनुभागोदीरणामधिकृत्य भवप्रत्यया वेदितव्याः। एतासामनुभागोदीरणा भवप्रत्ययतो भवतीत्यर्थः / (पुव्वत्तावित्ति) पूर्वोक्ता अपि प्रत्ययाः पूर्वोक्तशेषाणां प्रागुक्ततिर्यड्मनुष्यव्यतिरिक्तानां भवप्रत्यया अनुभागोदीरणा वेदितव्या / तथाहि देवनारकैर्ऋतरहितैश्च तिर्यड्मनुष्यैर्नवानां नोकषायाणां पश्चानुपूर्व्या उत्कृष्टानुभागस्पर्द्धकादारभ्येत्यर्थः / असंख्येया अनुभागा भवप्रत्ययादेवोदीर्यन्ते / तथा वैक्रियसप्तकं तैजससप्तकवर्णपञ्चकगन्धद्विकरसपञ्चकस्निग्धरुक्षशीतोष्णस्पर्शस्थिरास्थिरशुभाशुभगुरुलघुप्रकृतीनां देवा नैरयिकाश्च भवप्रत्ययतोऽनुभागोदीरणां कुर्वन्ति ! तथा समचतुरस्रसंस्थानस्य भवधारणीये शरीरे वर्तमाना भवप्रत्ययादनुभागोदीरणां देवाः कुर्वन्ति। मृदुलघुस्पर्शापराघातोद्योतप्रशस्तविहायोगतिसुस्वर-प्रत्येकनाम्नामुत्तरवैक्रियशरीरिणामुक्ताःशेषाणां भवप्रत्ययतोऽनुभागोदीरणा प्रवर्त्तते / सुभगादेययशः कीर्युचैर्गोत्राणामनुभागोदीरणा गुणहीनास्य भवप्रत्ययतोऽवसे या / गुणवतां तु गुणप्रत्यया / तथा सर्वेषां पराघातिकर्मणामनुभागोदीरणा भवप्रत्यया देवनारकानां तदेव प्रत्ययप्ररूपणा / संप्रति साद्यनादिप्ररूपणा कर्तव्या सा च द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषयाचा तत्र प्रथमतो मूलप्रकृतिविषयां तां कुर्वन्नाह। घाईणं अजघन्ना, दोण्हमणुयक्कोसिया तिविहाओ। वेयणिएणुक्कोसो, अनुजहन्ना मोहणीये / / 278 // Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 702 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उईरणा सादिअणाईधुव, अधुवा य तस्सेसिगाय दुविगप्पा। तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / धुवाध्रुवे पूर्ववत् / कर्कशगुरुस्पआउस्स साइअधुवा, सव्वविगप्पाउ विनेया॥२७६॥ योर्जघन्यानुभागोदीरणा आहारकशरीरसंयतस्य केवलिसमुद्धातामोहनीयवानां त्रयाणां घातिकर्मणामजघन्या अनुभागोदीरणा त्रिधा निवर्तमानस्य षष्ठसमये भवति सा च सादिरधुवा च / समयत्रिप्रकारा तद्यथा अनादिधुंवा अध्रुवा च तथा येषां क्षीणकषायस्य मात्रत्वात्ततोऽन्या सर्वाप्यजघन्या सापि केवलिसमुद्धातान्निवर्तमानस्य समयाधिकावलिकायां शेषायां स्थितौ जघन्या अनुभागोदीरणा च सप्तमे समये भवतीत्यादि सादिः / धुवाधुवे पूर्ववत् / तथा तेजसादिरधुवा च / शेषकालं त्वजघन्या सा चानादिधुवोदीरणात्वात् / ससप्तकमृदुलघुवदशुभवर्णाद्येकादशगुरुलघुस्थिरशुभनिर्माणनामां ध्रुवाध्रुवे अभव्यभव्यापेक्षया तथा द्वयोर्नामगोत्रयोरनुत्कृष्टानुभागोदीरणा विंशतिप्रकृतीनामनुत्कृष्टाऽनुभागोदीरणा त्रिधा तद्यथा अनादिर्धवा त्रिधा तद्यथा अनादि वा अध्रुवा च तथा ह्यनयोरनुत्कृष्टानुभागोदीरणा अधुवा च। तथा हतासामुत्कृष्टानुभागोदीरणा सयोगिकेवलिचरमसमये सयोगिकेवलिनि साच सादिरध्रुवाच।शेषकालं त्वनुत्कृष्टा सा चानादि- ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टासा चानादिधुवोदीरणत्वात्। ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् / धुंवोदीरणात्वात्। ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत्। तथा वेदनीये अनुत्कृष्टा मोहनीये वा तथा पञ्चविधज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवधिके वलदर्शनावरणकृष्णनीजघन्यानुभागोदीरणा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिधुंवाध्रुवा च / लदुरभिसुरभिगन्धतिक्तकटुरूक्षशीतास्थिराशुभपञ्चविधान्तरायरूपाणां तथाहि उपशान्तश्रेण्या सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने यद्न्धसातवेदनीयं तस्य त्रयोविंशतिप्रकृतीनामजघन्या अनुभागोदीरणा त्रिधा तद्यथा सर्वार्थसिद्धि संप्राप्तौ प्रथमसमये या उदीरणा प्रवर्त्तते सा उत्कृष्टा / साच अनादिधुवाधु वा च / तथा ह्ये तासां स्वस्यो दीरणापर्यवसाने सादिरध्रुवा च ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सा थाप्रमत्तगुणस्थानकादौ न जघन्यानुभागोदीरणा सा च सादिरध्रुवा च। ततोऽन्या सर्वाप्यजघन्या भवति ततः प्रतिपाते च भवति ततोऽसौ सादिःतत्र स्थानमप्राप्तस्य सा थानादिध्रुवोदीरणत्वात् ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् ( एयाणसेसविगप्पत्ति) पुनरनादिःधुवाध्रुवे पूर्ववत् / तथा मोहनीयस्य जघन्यानुभागोदीरणा एतासांपूर्वोक्तानां शेषप्रकृतीनां शेषविकल्पा मृदुलघुविंशतीनां जघन्या सूक्ष्मसंपरायस्य क्षपकस्य समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ भवति जघन्योत्कृष्टा मिथ्या- त्वगुरुकर्कशत्रयोविंशतीनां चोत्कृष्टजघन्याः सा च सादिस्तदनन्तरसमये वा भावादध्रुवा शेषकालं त्वजघन्या सा सादयोऽध्रुवाश्च भवन्ति / तथाहि मृदुलघुविंशतीनां जघन्या अजघन्या चोपशान्तमोहगुणस्थानके न भवति। ततः प्रतिपाते च भवति ततोऽसौ चानुभागोदीरणा मिथ्यादृष्टौ पर्यायण लभ्यते ततो द्वे अपि साद्यध्रुवे सादिः / तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / धुवाधु वे पूर्ववत् / ( उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता / तथा कर्कशगुरुमिथ्यात्वत्रयोविंशतीनां तस्सेसियदुविगप्पत्ति ) तच्छेषा रीतिः उक्तरीतिव्यतिरिक्ता विकल्पा चोत्कृष्टजघन्या सादयो ध्रुवाश्च भवति। तथाहि मृदुलघुविंशतीनामुत्कृष्टा द्विप्रकारा ज्ञातव्या तद्यथा सादयो धुवाश्च / तथाहि चतुर्णा अनुत्कृष्टा चानुभागोदीरणा मिथ्यादृष्टौ पर्यायणलभ्यते अशुभप्रकृतित्वात् घातिकर्मणामुत्कृष्टा अनुत्कृष्टा च अनुभागोदीरणा मिथ्यादृष्टौ पर्यायेण ततो द्वे अपि साधधुवे जघन्या च प्रागेव भाविता / शेषाणामुक्तव्यतिलभ्यते / ततो वे अपि साद्यधुवे उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता / तथा रिक्तानां प्रकृ तीनां दशोत्तरशतसङ्ख्यानां सर्वे विकल्पा नामगोत्रवेदनीया जघन्याअजघन्यावानुभागोदीरणा मिथ्यादृष्टौ पर्यायेण उत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्यरूपाः सादयोऽध्रुवाश्चावगन्तव्याः / सा च लभ्यते ततो द्वे अपि साद्यधुवे उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता। आयुषां तु साद्यधुवता अध्रुवोदीरणत्वादवसेया। कृता साधनादिप्ररूपणा। संप्रति सर्वे विकल्पाः साद्यधुवाः सा च साधध्रुवता अध्रुवोदीरणात्यादवसेया। स्वामित्वमभिधातव्यं तच द्विधा उत्कृष्टोदीरणाविषयं जघन्योदीरणातदेवं कृता मूलप्रकृतिविषया साधनादिप्ररूपणा। विषयं च तत्र प्रथमत उत्कृष्टोदीरणाविषयं स्वामित्वमाह! संप्रत्युत्तरप्रकृतिविषयां तां चिकीर्षुराह। दाणाइ अचक्खूणं, जेट्ठा आयविहीण लद्धिस्स। मउलहुगाणुक्कोसा, चउव्विहा तिहमवि य जहण्णा। सुहमस्स चक्खुणो पुण, तेइंदियसव्वपञ्जत्ते / / 282 // इगघुवा य अधुवा, वीसाए होय णुक्कोसा / / 280 // सूक्ष्मस्स सूक्ष्मैकेन्द्रियस्य हीनलब्धिकस्य सर्वस्तोकदानाद्यतेवीसाए अजहण्णा, ठिया पयासिसेसविगप्पा। चक्षुदर्शनविज्ञानलब्धियुक्तस्यादौ प्रथमसमये वर्तमानस्यपञ्चविधान्तसव्वविगप्पा सेसा, णवावि अधुवा य साई य॥२८१॥ राया चक्षुर्दर्शनावरणरूपाणां षण्णां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागोदीरणा मृदुलघुस्पर्शयोरनुत्कृष्टा अनुभागो दीरणा चतुर्विधा तद्यथा भवति / तथा त्रीन्द्रियस्य सर्वाभिः पर्याप्तस्य पर्याप्तिचरमसमये सारिनादिधु वा अधुवा च तथा ह्यनयोरुत्कृष्टानुभागोदीरणा चक्षुर्दर्शनावरणस्योत्कृष्टा अनुभागोदीरणा। आहारक शरीरस्य संयतस्य भवति / सा च सादिरधुवा च निजयपंचगस्स य, मज्झिमपरिणामसंकिलिट्ठस्स। ततोऽन्यासर्वाप्यनुत्कृष्टा सापि चाहारकशरीरमुपतसंहरतः सादि अपुमादि असायाणं, निरये जेट्टट्ठिई सम्मत्तो / / 283 // स्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / ध्रुवाधुवे पूर्ववत् / तथा त्रयाणां मध्यमपरिणामस्यतत्प्रायोग्यसंक्लेशयुक्तस्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तस्य मिथ्यात्वगुरुकर्कशानामजधन्यानु-भागोदीरणा चतुर्विधा तद्यथा निद्रापञ्चकस्योत्कृष्टानुभागोदीरणाअत्यन्तविशुद्धस्यअत्यन्तसंक्लिष्टस्य सादिरनादि वाऽधुवा च। तत्र सम्यक्त्वं संयमंच युगपत्प्रतिपत्तुकामस्य वा निद्रापञ्चकस्योदये एव भवतीति कृत्वा मध्यमपरिणामग्रहणम् / जन्तोर्मिथ्यात्वस्य जघन्यानुभागोदीरणा सा चानादिरंधुवा च / तथा अपुमादीनां नपुंसकवेदादीनां रतिशोकभयजुगुप्सानामसातस्य ततोऽन्या सर्याप्यजघन्या सा च समयक्त्वात्प्रतिपतितसादिः / चोत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी नैरयिको ज्येष्ठस्थितिक उत्कृष्ट Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 703 अमिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उईस स्थितिकः समाप्तःसर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वसंक्लिष्टो वेदितव्यः। पंचेदियतसवायर-पज्जत्तगसायसुसुरगईणं। वेउव्वियसासाणं, देवो जेट्टट्ठिई सम्मत्तो / / 284 / / देवोज्येष्ठस्थितिकः उत्कृष्टस्थितिक-स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकः समाप्तः सर्वाभिःपर्याप्तभिः पर्याप्तः सर्वविशुद्धःपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसातवेदनीय-सुस्वरदेवगतिवैक्रियसप्तकोच्छ्वासरूपाणां दशप्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी। सम्मत्तमीसगाणं,सेकाले गहिहि तित्त्थमिच्छत्तं। हस्सरईणसहस्सा-रगस्सपज्जत्तदेवस्स।। 285 / / योऽनन्तरे समये मिथ्यात्वं ग्रहीष्यते तस्य सर्वसंक्लिष्टस्य सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्यथासंख्यं संभवमुदये सत्युत्कृष्टानुभागोदीरणा / तथा सहस्रारकदेवस्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तस्य हास्यरत्योरुत्कृष्टानुभागोदीरणा। गइहुंडवघायाणि-दुखगइवीयाण दुहचउक्कस्स। निरउकस्सम्मत्ते, असमत्ता पन्नरसंते॥२६॥ नैरयिक उत्कृष्टस्थितौ वर्तमानः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वोत्कृष्टसंक्लेशयुक्तोनरकगति हुंडसंस्थानोपघातोऽप्रसस्तविहायोगतिनीचैर्गोत्राणां (दुहचउक्कस्सत्ति )दुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिरूपस्य सर्वसंख्यया नवानां प्रकृतीनां हुंडसंस्थानमुत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी। तथा अपर्याप्तकनानो मनुष्योऽपर्याप्तश्चरमसमये वर्तमानः सर्वसंक्लिष्ट उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी / संज्ञितिर्यक्पञ्चेन्द्रियादपर्याप्तान्मनुष्योऽपर्याप्तसंक्लिष्टतर इति तिर्यग्मनुष्यग्रहणम्। कक्खडगुरुसंघयणा, पुच्छी पुमसंठाणतिरियनामाणं। पंचिंदियतिरिक्खो,अट्ठमवासहवासाउ॥२७॥ कर्कशगुरुस्पर्शयोरादिवानाञ्च पञ्चानां संहननानां स्त्रीवेदपुरुषवेदयोःआद्यन्तवानां चतुर्णा संस्थानानां तिर्यग्मतेश्च सर्वसंख्यया चतुर्दशप्रकृतीनां तिर्यक्संज्ञिपञ्चेन्द्रियोष्टवर्षायुरष्टमे वर्तमाने सर्वसंक्लिष्ट उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी। मणुओदालियसत्तग-वजरिसहनारायसंघयण। मणुओतिपलपज्ज-त्तो आउग्गं पिसंकिट्ठो॥२८॥ मनुष्यःपल्योपमायुःस्थितिकः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वविशुद्धौ मनुष्यगतौदारिकसप्तकवजर्षभनाराचसंहननरूपाणां नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी / तथासर्वोत्कृष्टस्वस्वस्थितौ वर्तमानः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तश्च स्वकीयानामायुषां सर्वविशुद्धौ नारकायुषस्तुसर्वसंक्लिष्ट उत्कृष्टानुभागोदी-रको भवति / हस्सटिइपजत्ता, तन्नामविगलजाइसुहमाणं / थावर निगोयएगि-दियाणमवि बायरो नवरि॥२८६।। ह्रस्वस्थितिकाः पर्याप्तकास्तन्नामानो द्वीन्द्रिया जातिसूक्ष्मकर्मानुसारिनाम्नो विकलेन्द्रियजातीनां सूक्ष्मनाम्नश्चोत्कृष्टानुभागोदी-- रणास्वामिनः / एतदुक्तं भवति द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सूक्ष्माश्च सर्वजघन्यस्थितौ वर्तमाना/सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः सर्वसंक्लि-ष्टया यथासंख्य द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिनाम्नां सूक्ष्मनाम्नोश्चोत्कृष्टानुभागोदीरणस्वामिनः ह्रस्वस्थितौ वर्तमाना/ सर्व- संक्लिष्टा भवन्ति इति कृत्वा तदुपादागम् / तथा स्थावरसाधारणैकेन्द्रियजातिनाम्नां जघन्यस्थितौ वर्तमानो बादरै केन्द्रियः सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वसंक्लिष्टः स्थावरनाम्नः स्थावरसाधारणनाम्नः साधारण एकेन्द्रियजातेविपि उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामिनी भवतः। बादरस्य महान् सर्वसंक्लेशो भवतीति कृत्वा तदुपादानम्। आहारतणूपज्जत्त, गोउचरं समयओ य लहुगाणं / पत्तयखगइपराघा-याहारतणूण य विसुद्धो / / 260 // समचतुरस्रसंस्थानमृदुलघुस्पर्शप्रत्येकप्रशस्तविहायोगतिपराघाताहारकसप्तकरुपाणां त्रयोदशप्रकृतीनामाहारकशरीरी संयतस्य सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तः सर्वविशुद्ध उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी। उत्तरवेउव्विजो-यणामघाइखरपुढवी। निरयगईणं भणिआ, तइए समयाणुपुटवीणं / / 261 / / उत्तरवैक्रिये वर्तमानो धातिः सर्वाभिः पर्याप्ताभिः पर्याप्तः सर्वविशुद्ध उद्योतनाम्न उत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी तथा खरपृथिवीकायिक उत्कृष्टायां स्थितौ वर्तमानः सर्वपर्याप्तिपर्याप्तः सर्वविशुद्ध आतपनाम्नः उत्कृष्टानुभागो दीरणास्वामी तथा मनुष्यदेवतानुपूयॊविशुद्धा नरकतिर्यगानुपूर्योः संक्लिष्टा निजकगतीनां तृतीयेसमये वर्तमाना उत्कृष्टानुभागोदीरकाश्च भवन्ति। लोगंते सेसाणं, सुभाणमियरासि चउसु विगई। पज्जत्तकडमिच्छस्सो, हीणमणोकिलट्ठस्स / / 262 // योगिनः सयोगिकेवलिनस्तेसर्वापवर्तमानस्य शेषाणामुक्तव्यतिरिक्तानां शुभप्रकृतीनां तैजससप्तकमृदुलघुवय॑शुभवर्णाद्येकादशकागुरुलघुस्थिरशुभ-शुभगादेययशःकीर्तिनिर्माणोचैर्गोत्रतीर्थंकरनाम्नां पञ्चविंशतिसंख्यानामुत्कृष्टानुभागोदीरणा भवति इतरासां च शुभप्रकृतीनां मतिश्रुतमनः पर्यायकेवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणमिथ्यात्वषोडश-कषायकर्कशगुरुवय॑शेषकुवर्णादिसप्तकास्थिराशुभरूपाणामे कत्रिंशत्प्रकृतीनां चतसृष्वपि गतिषु मिथ्यादृष्टे : सर्वपर्याप्तिपर्याप्तस्य उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमानस्योत्कृष्टानुभागोदीरणा भवति तथा अवधिज्ञानावरणदर्शनावरणयोस्तस्यैव चतुर्गतिकस्य मिथ्यादृष्टरनवधिकस्य वधिलब्धिरहितस्योत्कृष्टानुभागोदीरणा भवति अवधिलब्धियुक्तस्य हि प्रभूतोऽनुभागः क्षयं यातितत उत्कृष्टो न लभ्यते इतिनलब्धिकस्येत्युक्तम्। तदेवमुक्तमुत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामित्वम्। सम्प्रति जघन्यानुभागोदीरणास्वामित्वं प्रतिपादयन्नाह। सुयकेवलिणो मइसुय-अचक्खुचक्खुणुदीरणा मंदा। विपुलपरमोहिणाणं,मणणाणेहि दुगसावि / / 263 // मतिश्रुतज्ञानावरणचक्षुरचक्षुर्दर्शनावरणानां श्रुतकेयलिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्य क्षीणकषायस्य समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ वर्तमानस्य मन्दा जघन्यानुभागोदीरणा वर्तते! तथा क्षीणकषायस्य विपुलमतिमनः पर्यायज्ञानस्य समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ वर्तमानस्यायधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोर्जघन्यानुभा-गोदीरणा। खवणाएविग्यकेवल, संजलणाण य नो कसायाणं। सयसयउदीरणंते, निद्दापयलाणमुवस्संते॥ 264|| क्षपणायोस्थितस्य पञ्चविधान्तरायके वलज्ञानावरणके वलदर्शनावरणसंज्वलनचतुष्टयनवनोकषायरूपाणां विंशतिप्रकृ-- Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 704 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उईरणा तीनां स्वस्वौदीरणापर्यवसाने जघन्यानुभागोदीरणा / तथा निद्राप्रचलयोरुपशान्तमोहे जघन्यानुभागोदीरणा लभ्यते तस्य सर्वविशुद्धत्वात्। निहानिहाईणं, पमत्तविरये विसुज्झमाणम्मि। वेयगसम्मत्तस्स, सगखवणोदीरणा चरमे / / 265 / / निद्रानिद्रादीनां निद्रा निद्रा प्रचला प्रचला स्त्यानीनां प्रमत्तस्य संयतस्य विशुध्यमानस्य अप्रमत्तभावाभिमुख्यजघन्यानुभागोदीरणा प्रवर्तते / तथा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पादयतो मिथ्यात्वसम्यड्मिथ्यात्वयोः क्षपति / तयोर्वेदकसम्यक्त्वस्य क्षयोपशमिकस्य क्षपणकाले चरमोदीरणायां समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ सत्यां प्रवर्तमानायां जघन्यानुभागोदीरणा भवति सा च चतुर्गतिकानामन्यतरस्य वेदितव्या। से काले सम्मत्तं, संसंजमगिण्हओय तेरसगं। सम्मत्तमेव मीसे,आऊण जहन्नहिईसु / / 266 // अनन्तरेकाले द्वितीयसमयेयः सम्यक्त्वंसंयमसहितंग्रहीष्यतितस्य त्रयोदशानां मिथ्यात्यानन्तानुबन्धिचतुष्टयाप्रत्याख्यानावरणरूपाणां प्रकृतीनां जघन्यानुभागोदीरणा / अयमिह संप्रदायः / योऽनन्तरसमये सम्यक्त्वं संयमसहितं ग्रहीष्यति तस्य मिथ्यादृष्टर्मिथ्यात्वेनानन्तानुबन्धिनाम्, तथायो विरतिसयये संयम ग्रहीष्यति तस्याप्रत्या-ख्यानावरणकषायाणां जघन्यानुभागोदीरणा मिथ्यादृष्ट्यपेक्षया हि अविरति सम्यग्दृष्टिरनन्तगुणविशुद्धस्ततोऽपि देशविरतोऽनन्तरगुणाविशुद्ध इत्युक्तक्रमेणैव जघन्यानुभागोदीरणासंभवः / तथा सम्यक्त्वमवसीयते इति यः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरनन्तरसमये सम्यक्त्वं प्रतिपत्स्यते तस्य सम्यग्मिथ्यात्वस्य जघन्यानुभागोदीरणा सम्यमिथ्यादृष्टियुगपत सम्यक्त्वंसयमंचन प्रतिपाद्यते तथा विशुद्धेरभावात् किन्तु केवलं सम्यक्त्वमेवेतिकृत्वतदेवं केवलमुक्तम् / तथा चतुर्णामायुषामात्मीयामात्मीयजघन्यस्थितौ वर्तमाना जघन्यमनुभागमुदीरयन्ति / तत्र त्रयाणामायुषां संक्लेशादेव जघन्यस्थितिबन्धो भवतीति कृत्वा जघन्यानुभागोऽपि तत्रैव लभ्यते / तथा नरकायुषो विशुद्धिवशाजघन्यः स्थितिबन्धः ततो जघन्यानुभागोऽपि नरकायुषस्तत्रैवलभ्यते। तथा च सतित्रया--णामायुषामतिसंक्लिष्टो जघन्यायुभागोदीरकः नरकायुषस्त्वति-विशुद्ध इति॥ पोग्गलविवागियाणं, भवाइसमये विसेसमवि चासिं / आइतणूणं दोण्ह, सुहुमो वाउअप्पाउ ||27|| पुद्गलविपाकिन्यः प्रकृतय : तासां सर्वासामपि भवादपि समये भव-- प्रथमसमये जघन्यानुभगोदीरणा एतच सामान्यो नाक्तं ततः अनुकस्यामुक उदीरक इत्येवंरूपं विशेषमपि चासां प्रकृतीनां वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति / (आइ इत्यादि) आद्योद्वि-योस्तन्वोश्शरीस्योरौदारिकवैक्रियरूपयोर्यथासंख्य सूक्ष्मो वायुकायिकश्शाल्पायुर्जघन्यानुभागोदीरकः / इह शरीरग्रहणेनवाता अपि गृहीता द्रष्टव्याः / तत एतदुक्तं भवति औदारिकशरीरौदारिकसंघातौदहारिकबन्धनचतुष्टयरूपस्यौदारिकषट्स्याप्यपर्याप्तकसूक्ष्मैकेन्द्रियो वायुकायिकवैक्रियषट्कस्य च पर्याप्तौ बादरवायुकायिकोऽल्पायुर्जघन्यानुभागोदीरको भवति। बेइंदिअप्पाउग, तिरयचिरट्ठिई असण्णिणो वावि। अंगोवंगाण हारग, जइणो अप्पाकालम्मि / / 268|| द्वयोरङ्गोपाङ्ग योरौदारिकाङ्गोपाङ्गवैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नाये संख्यमल्पायुर्वीन्द्रियस्तथा असंज्ञी सन् जातो नारकश्विरस्थितिक: स च जघन्यानुभागोदीरको भवति इयमत्र भावना द्वीन्द्रियोल्पायुरौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्न उदयप्रथमसमये जघन्यमनुभागमुदीरयति तथा संज्ञिपञ्चेन्द्रियः पूर्वोद्वलितेवैकिङ्गोपाङ्गस्तोककालं बध्वा स्वभूमिकानुसारेण चिरस्थितिको नैरयिको जातस्तस्य वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम् उदयप्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यानुभागोदीरणा / तथाऽऽहारकस्य प्राकृतत्वात् अत्र स्त्रीत्वनिर्देशः शरीरग्रहणेन च बन्धनसंघाता अपि गृह्यन्ते तत आहारकसप्तकस्य यतेराहारकशरीरमुत्पादयतःसंक्लिष्टस्य अल्पे काले प्रथम-समये इत्यर्थः जघन्यानुभागोदीरणा। अमणो समचउरंसु, रिसभएय ओसगचिरट्टिई सेसे। संघयणाणयमाणु,ओहुंडवगघायाणमवि सुहमो।। 296 // असंज्ञिपञ्चेन्द्रियोऽल्पायुरिति संक्लिष्टप्रथमसमयेतद्भवस्थ आहारकः समचतुरस्रसंस्थानवज्रर्षभनाराचसंहनन-योर्जघन्यमनुभागमुदीरति अल्पायुर्ग्रहणं संक्लेशार्थम् / तथा असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय एवात्मीयायामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमान आहारको भवप्रथमसमये शेषे इति। तथा शेषाणां संहननानां से वार्तवज्रर्षभनाराचवर्जानां पूर्वकोट्यायुर्मनुष्या आहारकस्वभवप्रथमप्रसमये वर्तमाना जघन्यानुभागोदीरकाः इह दीर्घायुग्रहणं विशुद्धतिर्यक् पञ्चेन्द्रियापेक्षया च प्रायोग्या मनुष्या अल्पबला इति मनुष्योपादानम् / तथा सूक्ष्मैकेन्द्रियः सुदीर्घायुः स्थितिकः आहारकप्रथमसमये हुंडोपघातिनाम्नोर्जधन्यानुभागोदीरकः। सेवट्टस्स बेइंदिय, बारसवासस्स मउयलहुगाणं। सन्निविसुद्धाणुणा-हारगस्स बीसा अइकिलट्टे // 300 / / दीन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य स्वभूमिकानुसारेणाऽतिविशुद्धस्यानाहारकस्य जघन्यानुभागोदीरणा / तथा तैजससप्तकमृदुलघुवर्जशुभ वर्णाद्ये कादशकागुरुलघुस्थिरशुभनिर्माणरूपाणां विंशतिप्रकृतीनां संक्लिष्टोऽपान्तरालगतौ वर्तमानोऽनाहारकोमिथ्यादृष्टिर्जघन्यानुभागोदीरणास्वामी वेदितव्यः। पत्तेगमुरालसमं, इयरं हुडेण तस्स परघाओ। अप्पाउस्स य आया, उज्जोयाणमवि तज्जोगो॥३०१॥ प्रत्येकनाम औदारिकेण समं वक्तव्यम् / औदारिकस्येव प्रत्येकनाम्नोऽपि सूक्ष्मैकेन्द्रियसमये वर्तमानो जधन्यानुभागोदीरको वेदितव्य इत्यर्थः / तथा हुंडेन समानमेतत् साधारणनाम्रो वक्तव्यम् / तथा सूक्ष्मैकेन्द्रियस्याहारकस्य प्रथमसमये हुंडनाम्नोर्जघन्यानुभागोदीरणा प्रागभिहिता तथा साधारणनाम्नोऽपि वक्तव्येत्यर्थः / तथा सूक्ष्मैकेन्द्रिय सूक्ष्मपर्याप्तस्याल्यायुष इति संक्लिष्टस्यापर्याप्तचरमसमये वर्तमानस्य पराधातनाम्नो जघन्यानुभागोदीरणा / तथा आतपोद्योतनाम्नोस्तद्योगः प्रथिवीकायिकः शरीरपर्याप्तापर्याप्तः प्रथमसमये वर्तमानः संक्लिष्टो जघन्यानुभागोदीरकः। जानाउज्जोयकरणं, तित्थगरस्स नवगस्स जोगते / करकडगुरूणमंते, नियत्तमाणस्स केवलिणो / / 302 / / आयोजिकाकरण नाम केवलिसमुद्धातादर्वाक् भवति तत्रामर्यादायाम् आमर्यादया केवलदृष्ट्या योजनव्यापारणमा योजनं च तच्चातिशुभयोगानामवसेयमायोजनमायोजिकातस्याः करणमायोजिकाकरणं केचिदाचार्या वर्जितकरणमित्याहुस्तत्रायं शब्दार्थः आवर्जितनामाभिमुखीकृतस्तथा च Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 705 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उईरणा लोके वक्तारः आवर्जितोऽयं मया संमुखीकृत इत्यर्थः / ततश्च तथा भवत्वेनावर्जितस्य मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं शुभयोगव्यापाराणामावर्जितकरणम् / अपरे "जानाउस्सियकरण" मिति पठन्ति तत्रायं शब्दसंस्कारेऽवश्यंकरणम् तथाहि समुद्धांत केचित्कुर्वन्ति केचिन्न कुर्वन्ति / इदं त्वावश्यकरणं सर्वेपि केवलिनः कुर्वन्तीति तच्चायोजिकाकरणमवश्यंकरणम् तथाहि समुद्धातं केचित्कुर्वन्ति च / करणमसङ्ग्रेयसमयात्मकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् / यत उक्तम्। प्रज्ञापनायाम् “कइ समए णं भंते ! आउजियाकरणे पण्णते गोयमा ! असंखिङ् समईए अंतोमुहूत्तए पन्नत्ते / इति तज्जा" तत्राद्या प्रारभ्यते। तावत्तीर्थकरकेवलिनः तीर्थकरनाम्नो जघन्यानुभागोदीरणा आयोजिकाकरणो हि प्रभूतानुभागोदीरणा प्रवर्तते इत्यर्वाग् ग्रहणम् तथा नीलकृष्णदुरभिगन्धतिक्त क टुशीतरू क्षस्थिराशु भरू पस्य प्रकृतिनवकस्य सयोगिकेवलिचरमसमये जघन्यानुभागादीरणा तस्यैव सर्वविशुद्धत्वात्। कर्कशगुरुस्पर्शयोस्तु केवलिसमु-द्धातिनि वर्तमानस्य केवलिनः प्रथमसंहारसमये जघन्यानुभागोदीरणा। सेसाण य गइवेइम-मज्झिमपरिणामपरिणयउ होना। पचयशुभाशुभविय, चियट्ठए नउ विहागे य / / 303 / / शेषाणां सातवेदनीय गतिचतुष्टयजातिपञ्चकानुपूर्वी चतुष्टयोच्छयासावहायोगतिद्विकत्रसस्थावरबादरसूमपर्याप्तापर्याप्तसुभगसुस्वरदुःस्वरानादेयायशःकर्त्ययशः कीर्युच्चैर्गोत्रनीचैर्गोत्राख्यानां चतुस्त्रिंशतसंख्यानां प्रकृतीनां तत्प्रकृतीनां सादेयवर्तमानाः सर्वेऽपि जीवा मध्यमपरिणामपरिणता जघन्यानुभागोदीरणामपरिसाता जघन्यानुभागोदीरणास्वामिनो भवन्ति / सा च सर्वासां प्रकृतीनां सामान्येन जधन्योत्कष्टानुभागोदीरणा / स्वामित्वपरिज्ञानार्थमुपायोपदेशमाह (पचत्यादि) प्रत्ययपरिणामप्रत्ययो भवत्यप्रत्ययश्च प्रकृतीनां शुभत्वमशुभत्वं च विपाकादि एतान् सम्यक् चिन्तयित्वा परिभाव्य जधन्योत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामी यथावज्ज्ञेयोऽवगन्तव्यः / तथाहि / परिणामप्रत्ययानुभा-गोदीरणा प्राय उत्कृष्टा भवति भवप्रत्यया तुजधन्या शुभानाञ्च संक्लेशप्रयोजनं जघन्यानुभागोदीरणा अशुभानां च विशुद्धौ विपर्यासे तूष्कृष्टा इत्यादि परिभाव्य तत्तत्प्रकृत्युदयवतां जघन्योत्कृष्टानुभागोदीरणास्वामित्वमवगन्तव्यम् / इति तदेवमुक्ता अनुभागोदीरणा / संप्रति प्रदेशोदीरणाभिधानावसरस्तत्र च द्वावर्याधिकारौ / तद्यथा साधनादि प्ररूपणार्थमाह सा च द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च तत्र मूलप्रकृतिविषयां साधनादिप्ररूपणां चिकीर्षुराह। पंचण्हमणुक्कोसा, तिहा पएसे चउव्विहा दोण्हं। सेसविगप्पा दुविहा, सव्वविगप्पा य आउस्स॥३०४।। ज्ञानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायरूपाणां पञ्चानां मूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टा प्रदेशविषया उदीरणा त्रिधा त्रिप्रकारा तद्यथा अनादिधुंवध्रुवा च। तया तासामुत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा गुणितकर्मांशस्वस्वोदीरणापर्यवसाने लभ्यते सा च सादिरध्रुवा च ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सा चानादिधुंवोदीरणत्वात् धुवाधुवे अभव्यभव्यापेक्षया तथा द्वयोर्वेदनीयमोहनीययोरनुत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा चतुर्विधा तद्यथा सादिरनादिधुंवाधुवा च। तथाहि वेदनीयस्योत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा प्रमत्त भावाभिमुखस्य सर्व-विशुद्धय मोहनीयस्य पुनः स्वोदीरणा पर्यवसाने सूक्ष्मसंपरायस्य ततो द्वयोरपि एषा साधनादीअधुवा ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सापिचाप्रमत्तगुणस्थानकात्प्रतिपतितो वेदनीयस्यापशान्तमोहगुणस्थानकाच प्रतिपतितो मोहनीयस्य सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य द्वयोरप्यनादिः ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् (सेसविगप्पति) एतासां सप्तानामपि मूलप्रकृतीनां शेषा उक्तव्यतिरिक्ता विकल्पा जघन्योत्कृष्टा द्विध द्विप्रकारास्तद्यथा सादयोऽध्रुवाश्च / तथा तासा सप्तानामतिसंक्लिष्टा मिथ्यादृष्टौ जघन्या प्रदेशोदीरणा सा च सादिरधुवा च / संक्लेशपरिणामाच च्युतस्वमिथ्यादृष्टिरप्यजघन्यतः सापि सादिरधुवा च / उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता आयुषः सर्वे पि विकल्पा जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टा द्विविधास्तद्यथा सादयोऽध्रुवाश्च। सा च साद्यध्रुवता अध्रुवोदीरणत्वादवसेया। सप्रत्युत्तरप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणामाह। पिच्छत्तस्स चउद्धा, सगयालाएहि तिहा अणुक्कोसा। सेसविगप्पा दुविहा, सव्वविगप्पाय सेसाणं॥३०५ / / मिथ्यात्वस्यानुत्कुष्टा प्रदेशोदीरणा चतुर्विधा / तद्यथासादिरनादिधुंवाधुवा च तथाहि योऽनन्तरसमये सम्यक्त्वं संयमसहित प्रतिपत्स्यते तस्य मिथ्यादृष्टमिथ्यात्वस्योत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा सा च सादिरधुवा च समयमात्रत्वात् ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सापि च सम्यक्त्वात्प्रतिपतिपतिताभवति सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्यपुनरनादिः। ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत्। तथा सप्तचत्वारिंशत्प्रत्कृतीनामनुत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा त्रिधा / तद्यथा / अनादिधुवा ध्रुवत्वात् / तथाहि / पञ्चविधज्ञानावरणपञ्चविधान्तरायचतुर्विधदर्शनावरणरूपाणां चतुर्दशप्रकृतीनां क्षीणकषायस्य गुणितकर्माशस्य स्वस्वोदीरणापर्यवसाने उत्कृष्टाप्रदेशोदीरणा। सा च सादिरधुवा च ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सा च अनादिः धुवोदीरणत्वाद धुवाधु वे पूर्ववत् / तथा तैजससप्तक वर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरशुभाशुभ-गुरुलघुनिर्माणनानां त्रयस्त्रिंशत्संख्याकानां प्रकृतीनां गुणितकर्माशोऽस्य सयोगिकेवलिनश्चरमसमये उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा / सा च सादिरध्रुवा च / ततोऽन्या सर्वाप्यनुत्कृष्टा सा चानादिधुवोदीरणत्वादासां ध्रुवाध्रुवे पूर्ववत् ( सेसविगप्पादुविहत्ति) उक्तशेषा विकल्पा जघन्याजघन्योत्कृष्टरुपा द्विविधास्तद्यथा सादयो धुवाश्च / तथाहि सर्वासामप्युक्तप्रकृतीना-मतिसंक्लिष्टपरिणामेति मिथ्यादृष्टौ जघन्या प्रदेशोदीरणा लभ्यते अतिसंक्लिष्टस्य परिणामप्रच्यवने वा जघन्या ततो द्वे अपि साद्यध्रुव उत्कृष्टा च प्रागेव भाविता शेषाणां चोक्तव्यतिरिक्तानां प्रकृतीनां दशोत्तरशतसंख्यानां सर्वेऽपि विकल्पा जघन्याजघन्योत्कृष्टा द्विविधास्तद्यथा सादयो ध्रुवाश्च साद्यध्रुवता च ध्रुवोदीरणत्वादवसेया। कृता साधनादिप्ररूपणा। संप्रति स्वामित्वमभिधातव्यं तच द्विधा उत्कृष्टजघन्याप्रदेशोदीरणास्वामित्वात्। तत्र प्रथमत उत्कृष्टोदीरणारवामित्वमाह। अणुभागुदीरणा ए, जहण्णसामीव एस जेहाए। घाईणं अन्नयरो, ओहीण वि णोहिलंभेण / / 306 // घातिकर्मणां सर्वेषामपि अनुभागोदीरणायां यो यो जघन्यानुभागोदीरणास्वामी प्राक्प्रतिपादितः स एवोत्कृष्टप्रदेशोदीरणायाः स्वामी गुणितकर्माशो वेदितव्यः नवरमन्यत इति श्रुतकेवली इतरो वा अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोरवधिलब्धिहीनोत्कृष्टप्रदेशोदीरकोवसेयः / (असीति) वेदमतिसंक्षिप्तमुक्तमिति विशेषता विभाव्यते अवधिज्ञानावरणवानां चतुर्णा ज्ञानावरणानां चक्षुरचक्षुः केवलदर्शनावरणानां Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 706 अभिधानराजेन्द्रः | भाग 2 उईरणा क्षीणकषायश्रुतिकेवलिन इतरस्य वा गुणितकर्माशस्य समयाधिकावलिका शेषायां स्थितौ उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा अवधिज्ञानावरणयोः पुनरवधिलब्धिरहितस्य क्षीणकषायस्य समयाधिकावलिका शेषायां / स्थितौ उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा निद्राप्रचलयोरुपशान्तकषायस्य प्रमत्तसंयते अप्रमत्तभावाभिमुखे स्त्यानद्धित्रिकस्य मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायाणामनन्तरसमये सम्यक्यं सयमसहितं प्रतिपत्तुंकामस्य मिथ्यादृष्टचरमसमये सम्यमिथ्यात्वस्य सम्यक्त्वप्रतिपत्त्युपान्त्यसमये अप्रत्याख्यानावरणकषायाणां प्रदेशविरतस्यानन्तरसमयाधिकावलिका शेषायां चरमसमये क्षपकस्य हानिः हानादिषट्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानकचरमसमये सर्वत्र गुणितककर्माशस्योत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा वेदितव्या। वेयाणियाणां गहिहि, से कालिअप्पमाईमिय विरओ। संघयणपगतणुदुग, उज्जो वा अप्पमत्तस्स // 307 / / यः प्रमत्तो द्वितीये समये अप्रमादंग्रहीष्यति सोऽप्रमत्तो भविष्यति प्रमत्तो न पञ्चकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकोद्योतनाम्नामुत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा। देवनिरयाउ गाणं, जहन्नजेट्ठहिई गुरुअ साए। इयराउण वि अट्ठम वासे,णेयो अट्ठवासाउ।। 308 / / देवनारकायुषोर्यथाक्रमं देवनारको जघन्योत्कृष्ट स्थितिको / गुरुदुःखयोरुदये वर्तमानौ उत्कृष्ट प्रदेशोदीरको वेदितव्यौ। एतदुक्तं भवति। देवो दशवर्षसहस्रायुस्थितिको गुरुदुःखोदये वर्तमानो देवायुष उत्कृष्ट प्रदेशो-दीरकस्तथा नैरयिकस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुःस्थितिको गुरुदुःखोदये वर्तमानो नारकायुष उत्कृष्टप्रदेशोदीरकः प्रभूतं हि दुःखमनुभवन् प्रभूतान् पुद्गलान् परिसाटयति इति तदुपादानम् / इतरा युषोस्तिर्यग्मनुष्यायु-षोर्यथासंख्यं तिर्यग्मनुष्योष्टवर्षायुवोऽष्टमे वर्षे वर्तमानो गुरुदुःखोदये युक्त उत्कृष्टप्रदेशोदीरको भवति। एगंततिरिगजोग्गा, नियग विसिट्टे तसु तह अपज्जत्तो। संमुच्छिममणुअंते, तिरियगई देसविरयस्स।।३०६॥ एकान्तेन तिरश्चामेवोदयं प्रति प्रायोग्याः प्रकृतयस्तासामे केन्द्रियजातिद्वीन्द्रिय जातित्रीन्द्रियजातिचतु-रिन्द्रियजात्यातपस्थावरसूक्ष्मासाधारणनाम्नामष्टानां निजकविशिष्टेषु निजनिज प्रकृतिविशिष्टेषु यथा एकेन्द्रियजातिस्थावरनाम्नो बादर प्रथिवीकायिके सर्वविशुद्धे आतपनाम्नः खरबादरपृथिवीकायिके सूक्ष्मस्य पर्याप्तसाधारण विकलेन्द्रियनाम्नां तन्नामसुपर्याप्तषु सर्वविशुद्धेषु उत्पृष्टा प्रदेशोदीरणां देशविरतस्य तस्य सर्वविशुद्धत्वात्। अणुपुथ्वीगइदुगाणं, सम्मदिट्ठीउ दुभगईणं। नीयस्स य से काले, गहियविरयत्ति सो चेव // 310 // चतसृणामानुपूर्वी णां तस्यां तस्यां गतौ वर्तमान तृतीये समये सर्वविशुद्धसम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टप्रदेशोदीरकः केवलं नरकतिर्यगानुपूर्योः क्षायिकसम्यग्दृष्टिवक्तव्या देवनारकगत्योरपि स एव क्षायिकसम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टप्रदेशोदीरकः तथा योऽनन्तरसमये संयमं प्रतिपत्स्यते स एवाविरतसम्यष्टिदुर्भगादीनां दुर्भगदुःस्वरानादेयायशः कीर्तीनां नीचैर्गोत्रस्योत्कृष्टप्रदेशोदीरकः। जागं उदीरगाणं, जोगते सरदुगाणुपाणूणं / नियन्ते के वलिणो, सध्वविशुद्धीए सवासिं // 311 / / योग्यन्तदीरणायोगी सयोगी केवली अन्ते चरमसमये उदीरको यासांता गोग्यन्तोदीरकास्तासां मनुजगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कप्रथमसंहननवर्णादिविंशत्यगुरुलघूपघातपराधातविहायोगतिद्विकत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुभगादेययशः किर्तिनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्राणां द्विषष्टिसङ्ख्यानां प्रकृतीनां संयोगिकेवली चरमसमये उत्कृष्ट प्रदेशोदीरकः। तथा केवलिनः स्वरद्विकप्राजापानयोर्निजकान्ते स्वस्वनिरोधकाले उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा तथाहि स्वरनिरोधकाले सुस्वरदुःस्वरयोःप्राणापाननिरोधकाले च प्राणापाननान उत्कृष्टा प्रदेशोदीरणा इह सर्वकर्मणामुत्कृष्ट प्रदेशोदीरणायामेषा परिभाषा “यो यः स्वस्वोदीरणाधिकारी स स तस्य कर्मणः स्वामी वेदितव्यः" आयुर्व्यतिरेकेण चान्यत्र सर्वत्रापि गुणितकाशत्वेन दानान्तरायादीनामपि पञ्चानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशोदीरणास्वामित्वं चेति। संप्रति जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामित्वमाह। तप्पगइ उदीरगत्ति, संकिलिट्ठभावे असव्वपगईण। णेयो जहण्णसामी, अणुभागो य तित्थयरे॥३१२॥ यस्तासां प्रकृतीनामुदीरकः सोऽतिसंक्लिष्टभावोऽति संक्लिष्ट - परिणामः क्षपितकाशः सर्वप्रकृतीनां स्वस्वयोग्यानां त्रयाणां दर्शनावरणीयानां सातासातवेदनीययोर्मिथ्यात्वस्य षोडशानां कषायाणां नोकषायाणां सर्वसंख्यया पञ्चत्रिंशत्संख्यानां प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिः सर्वपर्याप्तिपर्याप्तः सर्वसंक्लिष्टो निद्रापञ्चकतत्प्रायोग्यसंक्लेशयुक्तो जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी। तथा योऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं यास्यति सोऽतिसंक्लिष्टः सम्यक्त्वसम्यड्मिथ्यात्वयोर्जधन्यप्रदेशोदीरणास्वामी भवति।तथा गतिचतुष्टयपञ्चेन्द्रियजात्थौदारिकसप्तकवैक्रियसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कवर्णादिविंशतोपराघातोपघातागुरुलघूच्छ्वासोद्योतविहायोगतिद्विक त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुभदुर्भगसुस्वरदुःस्वरादेयानादेययशःकीर्तिनिर्माणोधैर्गोत्रपञ्चविधान्तरायरूपाणां एकोननवतिसंख्यानां प्रकृतीनां संज्ञिपर्याप्तसर्वोत्कृष्टसंक्लेशयुक्तो जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी आहारकस्य वाऽऽहारशरीरी तत्प्रयोगसंक्लेशयुक्त आनुपूर्वीणामपि आतपस्य खरबादरपृथिवीकायिकः सर्वसंक्लिष्टएकेन्द्रिजातिस्थावरसाधारण-नाम्नामेकेन्द्रियःसर्वोत्कृष्ट संक्लेशयुक्तः सूक्ष्मनाम्नः सूक्ष्मैकेन्द्रियसर्वसंक्लिष्टो जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी अपर्याप्तकनाम्नः पुनरपर्याप्तमनुष्यसर्वसंक्लिष्टश्वरमसमये वर्तमानो जघन्यप्रदेशोदीरको भवति / तथा द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातीनां यथाक्रमं द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सर्वाः संक्लिष्टा जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामिनः (अणुभागोयतित्थयरत्ति) तीर्थकरनाम्न एव जघन्यानुभागोदीरणास्वामी / प्राक् प्रतिपादितः स एव जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी अपि वेदितव्यः तीर्थकरकेवली यावदद्यापि योजिकाकरणमारभते तावत्तीर्थकरनाम्नो जघन्यप्रदेशोदीरको वेदितव्य इत्यर्थः। ओहि ओहिजुए अइ-सुहवेयआउगाणं तु। पढमस्स जहन्नटिइ, सेसाणुक्कोसगढिईउ / / 313 / / अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयो रवधिलब्धियुक्तः सर्वसंक्लिष्टो जघन्यप्रदेशोदीरणास्वामी। अवधिद्विक क्षेत्रादितो बहवः पुद्गलाः परिक्षीणा इत्यवधिलब्धिग्रहणम् / तथा चतु Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरिजमाण 707 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 णामप्यायुषां स्वभूमिकानुसारेणातीव सुखमनुभवन् जघन्यप्रदेशोदीरको भवति / तत्र प्रथमस्य नरकायुषो दशवर्षसहस्रप्रमाणं जघन्यस्थिती वर्तमानो नैरयिकः स हि शेषनारकापेक्षया अतिशयेन सुखी शेषाणां च तिर्यग्मनुष्यदेवायुषामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमानो नैरयिकः। स हि शेषनारकः स्वस्वयोग्यतानुसारेण परमसुखिनो यथासंख्यंतिर्यड्मनुष्यदेवा जघन्याप्रदेशोदीरणास्वामिनो वेदितव्याः / इति उदयोदीरणयोः स्वामित्वेन भेदो नास्ति। उई ( दी) रिजमाण त्रि० ( उदीर्यमाण ) उद्-ईर-य-शानच् / उदीरणानामनुदये प्राप्तं चिरेणागामिना कालेन यद्वेदितव्यं कर्म दलिकं तस्य विशिष्टाऽध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणं सा चाऽसंख्येयसमयवर्तिनी तया च पुनरुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय एव / भ० 1 श० उ० / उदयमुपनीयमाने, प्रज्ञा० 23 पद / " उदीरिजमाणो उदीरए" भ०१श०१ उ०। उई (दी) रिय त्रि०(उदीरित) उत्प्राबल्येनेरितो जनितः / कृते, "ससद्दफासाफरुसाउदीरिया" अकिंकृते, आचा०। “महागुरूणिस्स यराउदीरिता" उत्प्राबल्येनेरितः कथितः। प्रतिपादिते, 'धीरे धम्मे उदीरिए' आचा०७ अ०३ चू०। उत्प्राबल्येन प्रेरिते, राइयाणं वेइयाणं चालियाणं घट्टियाणं खांभियाणं उदीरियाणं केरिसएसद्दे भवति। राज०। / जी०। उदयमुपनीते, प्रज्ञा०२३ पद। भ०। उदीरितास्तु स्वभावतोऽनुदितान् पुद्गलान् उदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषेण प्रक्षिप्य यान् | वेदयते इति तत्वम्। भ०१श०१ उ०। उई (दी)रेंत त्रि० (उदीरयत्) वस्त्वन्तरं प्रेरयति, स्था०७ ठा०। उउपुं०(ऋतु)ऋतु किच! “उत्वादौ 8/1 / 3 / " ऋतु इत्यादिषु शब्देष्वादेत उद्भवति प्रा०।ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः इति मनूक्ते स्त्रीणां शोणितदर्शनयोग्यगर्भ-धारणसमर्थे काले,। वाच० / नि० चू० / लोकरूढ्या षष्ट्यहोरात्रप्रमाणद्विमासात्मके कालविशेषे, व्य०१ उ०जी० स्था०।भाजी०। “दो मासा उऊ'। भ०६श०७ उ०। अनु० स्था०।ज्ञा०। औ०। जं०।तेचषट् “तत्थ खलु इमे छ उऊपण्णत्ता तंजहा पाउसे 1 वरिसारते 2 सरहे 3 हेमन्ते 4 वसन्ते 5 गिम्हे 6 / ता सव्वे विणं पडिचंदे उऊदुवे दुवे मासानि च उप्पण्णेणं आदाएणं गणिज्जमाणसातिरेगाई एगूणसट्टि एगूणसट्ठि रातिदिनाई रातिदियग्गेणं आहितेत्ति" | तत्राऽस्मिन् मनुष्य-लोके प्रतिसूर्यायनं प्रतिचन्द्रायनं चखल्विमेषट्ऋतवः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-प्रावृट्, वर्षारात्रः शरदो, हेमन्तो, वसन्तो, ग्रीष्मः / इह लोके अन्यथाभिधाना ऋतवः प्रसिद्धास्तद्यथा प्रावृट् शरद्, हेमन्तः शिशिरो, वसन्तो ग्रीष्मश्चेति / जिनमते तु यथोक्ताभिधाना एव ऋतवः / तथाचोक्तम् " पाउस वासारत्तो, सरओ हेमंत वसंत गिम्हो या एए खलु छ प्पि उऊ, / जिणवरदिट्ठा मए सिट्ठा" चं० प्र०१२ पाहु सू०प्र०। स्था०।जं०। ऋतुपरिमाणविचारः। एतो उउपरिमाणं,वोच्छामि अहाणूपुटवीए। एतो मण्डलेषु नक्षत्रसूर्यशशिनां प्रतिमुहूर्त गतिपरिमाणप्रतिपादितानामनन्तरमृतुपरिमाणं सूर्यर्तुपरिमाणं चन्द्रर्तुपरिमाणं च यथानुपूर्व्या क्रमेण वक्ष्यामि / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामः प्रथमतः सूर्यर्तुपरिमाणं प्रतिपादयति। वे याइचा मासा,एकसद्विते भवंतहोरत्ता। एयं उउपरिमाणं,अवगयमाणो जिणा विति॥ यौ द्वावादित्यौ मासौ सूर्यमासौ यावदहोरात्रिपरिगणनया एकषष्टिरहोरात्रा भवन्ति / तथाहि सूर्यमासस्त्रिंशदहोरात्र एकस्य चाहोरात्रस्य चार्द्ध ततो द्वौ सूर्यमासावेकषष्टिरहोरात्रा भवन्ति / एतत् एतावत्क्रमतः सूर्यर्ताः परिमाणमपगतमानाः।मानग्रहणमुपलक्षणमपगतसकलक्रोधमानादिवर्गाः जिनास्तीर्थकृतो भवति। सांप्रतभीप्सितसूर्यनियने करणमभिधित्सुराह। सूरउउस्साणयणे, पव्वपंचरसगुणं नियमा। तिहि संक्खित्तं संतं, वावट्ठिभागपरिहीणं / / दुगुणे गट्ठीए जुयं, वावीससएण भाइए नियमा। जं लंद्धं तस्स पुणो, छहिहिय सेस उऊहोइ।। सेसाणं अंसाणं, वेहि उभागाहि तेसि जं लंद्ध / ते दिवसा नायव्वा, हो ति सचत्तस्स अयणस्स। सूर्यस्य सूर्यसंबन्धेन ऋतोरानयने पर्वपर्वसंस्थानं नियमात्पञ्चदशगुणं कर्तव्यम्। पर्वणां पञ्चदशतिथ्यात्मकत्वात्। इयमत्र भावना। इह ऋतव आषाढादिप्रभवाः युगं च प्रवर्तते श्रावणबहुलपक्षे प्रतिपद आरभ्यते।ता युगादितः प्रवृत्तानि यानि पर्वाणि तत्संख्या पञ्चदशगुणा क्रियते कृत्वा च पर्वणामुपरि या विवक्षितदिनमभिव्याप्य तिथयस्तास्त्वत्रसंक्षिप्यन्ते इत्यर्थः। ततो “वावट्ठीभागपरिहीणंति" प्रत्यहोरात्रमेकैकेनद्वाषष्टिभागेन परिहीयमाने ये निष्पन्ना अवमरात्रास्तेऽप्युपचारात् द्वाषष्टिभागास्ते परिहीनपर्वसंख्यानं कर्त्तव्यं ततो (दुगुणत्ति) द्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा च एकषष्ट्यायुतं क्रियते / ततो द्वाविंशेन शतेन भाजितं यल्लब्धं तस्य षड्भिर्भागे हृते यच्छेषं स ऋतुरनन्तरातीतो भवति / येऽपि अंशा शेषा उद्भरिताः तेषां द्वाभ्यां भागे हृते यल्लब्धं ते दिवसाः प्रवर्तमानस्य ऋतोर्ज्ञातव्याः। एष करणगाथाक्षरार्थः / संप्रति करणभावना क्रियते। तत्र युगे प्रथमे दीपोत्सवे केनापि पृष्टः कः सूर्यर्तुरनन्तरमतीतः को वा संप्रति वर्तते / तत्र युगादितः सप्तपर्वाण्यतिक्रान्तानीति संप्रध्रियन्ते। तानि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते / जातं पञ्चोत्तरशतम् / एतावति विकाले द्वाववमरात्रावभूतामिति द्वौ ततः पात्येते स्थितं पश्चात्युत्तरं शतं (103) ततो द्वाभ्यां गुण्यतेजाते। षडुत्तरे ( 206) तत्रैकषष्टिः प्रक्षिप्यते द्वेशते सप्तषष्ट्यधिके ( 267) तयोविंशतेन भागो ह्रियते लब्धौ द्वौ तौ षड् भिर्भागं न सहेते इति न तयोः षड्भिर्भागहारः। शेषास्त्र्यंशा उदरन्ति त्रयोविंशतिः। तथा समर्द्धिजाता एकादश अर्द्ध च सूर्यर्तुश्वाषाढादिस्तत आगतं द्वावृतू अतिक्रान्तौ तृतीयश्च ऋतुः संप्रति प्रवर्तते / तस्य च प्रवर्तमानस्यैकादश दिवसा अतिक्रान्ता द्वादशो वर्तते इति / तथा युगे प्रथमायामक्षयतृतीयायां केनापि पृष्टं के ऋतवः पूर्वमतिक्रान्ताः को वा संप्रति वर्तते तत्राक्षयतृतीयायां प्रथमायाः प्राज्ञयुगस्यादितः पण्यितिक्रान्तान्येकोनाविंशतिः ततः एकोनविंशतिः पञ्चदशभिर्गुण्यते जाते द्वे शते पञ्चाशीत्यधिके (285) अक्षयतृतीयायां किल पृष्टमिति पर्वणामुपरितन्यस्तिययः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वे शेते अष्टाशीत्यधिके (288) तावति काले अवमरात्राः पञ्च भवन्ति / पञ्च ततः पात्यन्ते Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उईरणा 708 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 3 उईरणा जाते द्वे शते त्र्यशीत्यधिके ( 283 ) ते द्वाभ्यां गुण्यते जातानि पञ्च शतानि षट्षष्ट्यधिकानि (566 ) तान्येकषष्टिसहितानि क्रियन्ते जातानिषट् शतानि सप्तविंशत्यधिकानि (627) तेषां द्वाविंशेन शतेन भागो ह्रियते लब्धाः पञ्च पश्चाद शादुद्वरन्ति सप्तदश तेषामर्द्ध लब्धाः साद्धा अष्टौ / आगतं पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्तमानस्याष्टौ दिवसा गताः नवमो वर्तते। तथा युगे द्वितीये दीवोत्सवे केनापि पृष्टं कियन्तऋतवोऽतिक्रान्ताः को वा संप्रतिवर्तते। तत्रैतावति काले पर्वाण्यतिक्रान्तानि एकत्रिंशत्पञ्चदशभिर्गुण्यते जातानि चत्वारि शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि ( 465 ) अवमरावाश्चैतावति' काले व्यतिक्रामत्यष्टौ तताऽष्टौ पात्यानि शेषाणि चत्वारि शतानि सप्तपञ्चाशताधिकानि ( 457 ) तानि द्विगुण / क्रियन्ते जातानि नवशतानि नवशतानि चतुदशोत्तराणि (314) तथैकषष्टिप्रक्षेपे जातानि नवशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि (675) एतेषां द्वाविंशत्यधि-कशतेन भागहरणं, लब्धाः सप्त उपरिष्टादशादुदरन्ति एकविंशतिशतं ( 121) तस्य द्वाभ्यां भागे हृत लब्धाः षष्टिसार्धाः सतानां च ऋतूनां षड्भिर्भाग हृते लब्धएककः / एक उपरिष्टान्न तिष्ठन्ति आगतमेकसंवत्सरोऽतिक्रान्तः। एकस्य च संवत्सरस्योपरि प्रथम ऋतुः प्रावृड्नाम निगतो द्वितीयस्य च षष्टिर्दिनान्यतिक्रान्तान्येकषष्टितम वर्तते इति एवमन्यत्रापि भावना कार्या। सांप्रतममूनामृतूनां नामान्याह। पाउस वासारत्ता, सरओ हेमंत वसंत गिम्हो य। एए खलु छप्पि उउ, जिणवरदिट्ठा मए सिट्ठा / / प्रथम ऋतुः प्रावृड्नामा द्वितीया वर्षारात्रा तृतीया शरश्चतुर्थो हेमन्तः, पञ्चमो वसन्तः, षष्ठो ग्रीष्मः / एते षडपि ऋतवः एवं नामतो जिनवरदृष्टाः सर्वज्ञदृष्टा मया शिष्टाः कथिताः / साम्प्रतमेतेषामृतूनां मध्ये क ऋतु: कस्यां तिथौ समाप्तिमुपयातीति परस्य प्रश्नमाशक्य तत्परिज्ञानाय करणमाह। इच्छा उऊदुगुणितो, रुवोणगुणिओ उपव्वाणि। तस्सद्ध होइ तिही, जत्तसमत्ता उऊतीसं / / यस्मिन् ऋतौ ज्ञातुमिच्छा स ऋतुः ध्रियते तत्संख्या ध्रियते इत्यर्थः ततः स द्विगुणितः सन् रूपोनः क्रियते। ततः पुनरपि स द्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा च प्रतिराश्य तद्विगुणितश्च सन् भवन्ति तावन्ति पर्वाणि द्रष्टव्यानि तस्य च प्रतिराशि तस्यार्द्ध क्रियते / ततश्चाधं यावत् भवति तावत्यस्तिथयः प्रतिपत्तव्याः / यासु युगभाविनीस्त्रिंशदपि ऋतवः समाप्ताः समाप्तिमैयरुरिति करणगाथाक्षरार्थः / सम्प्रति करणभावना विधीयते / किल प्रथम ऋतुतुिमिष्टो यथा युगे कस्यां तिथौ प्रथमतः प्रावृड्लक्षण ऋतुः समाप्तिमुपयातीति / तत्र एकका ध्रियते स द्वाभ्यां गुण्यत जाते वे स्वरूपोनः क्रियते। जात एकक एवं स भूयोपि द्विगुण्यते द्वे रूप प्रतिराश्यते तयोरट्टे जातमेकं रूपमागतं / युगादौ द्वे पर्वणी अतिक्रम्य प्रथमायां तिथौ प्रतिपदिप्रथमः प्रावृड्नामा ऋतुः समापत्। तथा द्वितीये ऋतौ ज्ञातुमिच्छति द्वौ स्थापितो तथा द्वाभ्यां गुणने जाताश्चत्वारस्ते रूपोनाः क्रियन्ते। जातास्त्रयस्तेभूयो द्विर्गुण्यन्ते जाताः षट्ते प्रतिराश्यन्ते प्रतिराशीनां चार्द्धः क्रियते जातास्त्रय आगतं युगादितः षट् पर्वाण्यतिक्रम्य तृतीयायां तिथौ द्वितीय ऋतुः समाप्तिमुपागमत्। तथा तृतीये ऋतौ ज्ञातुमिच्छति त्रयो ध्रियन्ते। द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताः षट् ते रूपोनाः कृताः सन्तो जाताः पञ्च ते भूयो द्विगुण्यन्ते जाता दश ते प्रतिराशीनां चाढ़े लब्धाः पञ्च / आगतं युगादित आरभ्य दश पण्यितिक्रम्य पञ्चम्यां तिथौ तृतीय ऋतुः समाप्तिमियाय। तथा षष्ठे ऋतौ ज्ञातुमिच्छति षट् स्थाप्यन्ते / ते द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता द्वादश रूपोनाः सन्तो जाता एकादश ते द्विर्गुण्यन्ते / जाता द्वाविंशतिः / सा प्रतिराशि तयोश्चार्द्ध क्रियते। जाता एकादश। आगतं युगादितो द्वाविंशतिपर्वाण्यतिक्रम्य एकादश्यां तियौ षष्ठ ऋतुः समाप्नोति / तथा युगे नवमे ऋतौ ज्ञातुमिच्छता नव स्थाप्यन्तेते द्वाभ्यां गुण्यन्तेजाता अष्टादश ते रुपोनाः क्रियन्ते। जाताः सप्तदश ते भूयो द्विगुण्यन्ते जाताश्चतुस्त्रिंशत्। संप्रतिराश्यते तस्या अर्द्ध क्रियते जाताः सप्तदश आगतं युगादितश्चतुस्विंशत्पण्यितिक्रम्य द्वितीये संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे द्वितीयस्यां तियौ नवम ऋतुः परिसमाप्तिं गच्छति। तथा त्रिंशत्तमे ऋतौ जिज्ञासति त्रिंशद् ध्रियते सार्द्धिगुण्यते जाता षष्टिः सा रूपोना क्रियते जाता एकोनषष्टिः सा भूयो द्वाभ्यां गुण्यते जातमष्टादशोत्तरं शतं तत् प्रतिराश्यते तस्यार्द्ध क्रियते जाता एकोनषष्टिः / आगतं युगादितोऽष्टादशोत्तरपण्यितिक्रम्य एकोनषष्टितमायां तिथौ / किमुक्तं भवति। पञ्चमे संवत्सरे प्रथमे आषाढमासे शुक्लपक्षे चतुर्दश्यां त्रिंशत्तम ऋतुः समाप्तिमुपायासीत् व्यवहारतः प्रथमाषाढपर्यन्त इत्यर्थः संप्रति वर्षाकाले शीतकाले ग्रीष्मकालेषु चतुर्मासप्रमाणेषु यस्मिन् पर्वणि कर्ममासापेक्षयाऽधि कोहोरात्रः सूर्यर्तुपरिसमाप्तौ भवति तत्प्रतिपादयन्नाह। वइयम्मि उ कायत्त, अतिरत्तं सत्तम पचम्मि। वासहिमागम्हकाले, चाउम्मासे विहीयत्ते।। वर्षाहिमग्रीष्मकालेषु प्रत्येकं चतुर्मासेषु चतुर्मासप्रमाणेषु पृथक् अतिरात्रा अधिका अहोरात्रा विधीयन्ते तद्यथा एकातृतीयपर्वण्यपरा सहिमपर्वणि। इयमत्र भावना। सूर्यर्तुचिन्तायां कर्ममासपेक्षया वर्षाकाले श्रावणादौ तृतीये पवणि गते कोऽधिकोऽहोरात्रो द्वितीयः सप्तमे पर्वणि हेमन्तकाले पि एकस्तृतीये पर्वणि द्वितीयः सप्तमे ग्रीष्मकाले पि एकस्तृतीये पर्वणि द्वितीयः सप्तमे। अत्राह पूर्वपूर्वावमरात्रसहितमुक्तम्। इदानीं त्वधिकरात्रोपेतमिति किमत्र पर्वकरणमत आहे। उउसहियं अतिरत्तं, जुगसहियं होइ अउमरत्तं तु। रविसहियं अइरत्तं, सहितहियं अमरत्तं तु / / इह पर्वऋतुसहितं विवक्षते तदा विवक्षितं तृतीयादिकवर्षाकालादिसम्बन्धि अतिरात्रमधिकारात्रम् / सूर्यर्तुपरिसमाप्तिचिन्तायां तस्मिन् विवक्षिते तृतीयादौ पर्वणिकर्ममासापेक्षयाधिकोऽहोरात्रो भवति। तथाहि कर्ममासस्त्रिंशता दिन : सूर्यभासस्त्रिंशता मासद्वयात्मकश्च ऋतुः / ततः सूर्यर्तुपरिसमाप्तौ कर्ममासापेक्षयकोधिकोहोरात्रो भवतीति / तथा युगं चन्द्राभिवर्द्धितरूपं संवत्सरपञ्चकान्ते च पञ्चापि संवत्सराश्चन्द्रमासापेक्षया ततो यदि पर्ययुगसहितं चन्द्रमासोपेतं विवक्ष्यत तदा विवक्षितं पर्वतृतीयादिकं वर्षाकालादिसम्बन्धे अवमरात्रोपेतं भवति कर्ममासापेक्षया तस्मिन् तृतीयादौ पर्वणि नियमादेकोऽहोरात्रः पततीति भावः / एतदेवाह Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उउ 706 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 ਚ ( रविसहियमित्यादि ) रविसहितमिति रात्रं किमुक्तं भवति / रविमासनिपाद्यमानर्तुचिन्तायां तस्मिन् तृतीयादौ वर्षाकालादिसंबन्धिनि पर्वणि तत्र सूर्यर्तुपरिसमाप्तौ कर्ममासापेक्षया एकैकोऽधिकोहोरात्रः प्राप्यते इति शशिसहितमवमरात्रं चन्द्रनिपादितास्तिथीरधिकृत्य कर्ममासापेक्षया विवक्षितं तृतीयादि पर्वहीनरात्रं भवतीत्यर्थः / सम्प्रति येषु मासेषु सूर्यर्तुपरिसमाप्तिचिन्तायां पूर्वपूर्वसूर्यर्तुगततिथ्यपेक्षयाधिकोहोरात्रः परिवर्द्धते तान् प्रतिपादयति / आसाढ बहुलपक्षे तथा भाद्रपदमासे बहुलपक्षे एवं कार्तिके पौषे फाल्गुने वैशाखे चातिरात्रं बोद्धव्यम् / पूर्वपूर्वसूर्यर्तुगतितिथ्यपेक्षया एतेषु षट् सु मासेषु अधिकोऽहोरात्रो ज्ञातव्यो न शेषेषु मासेषु / एतदेव सविशेषमाह। एकतरिया मासा, तिही य जासु ता उऊसमप्पति। असाढाईमासा, भइवयाइ तिहि सव्वा / / इह सूर्यर्तुचिन्तायां मासा आषाढादयो द्रष्टव्याः आषाढमासादारभ्य. ऋतूनां प्रथमतः प्रवर्तमानत्वात् तिथयः सर्वा अपि भाद्रपदादिषु मासेषु प्रथमादीनामृतूनां परिसमाप्तत्वात् / तत्र येषु मासेषु यासु वा तिथिषु ऋतवः प्रावृडादयः परिसमाप्नुवन्ति ते आषाढादयो मासास्ताश्च तिथयो भद्रपदादिमासानुगताः सर्वा अपिएकान्तरिता वेदितव्याः। तथा हि प्रथम ऋतुः भाद्रपदे मासि समाप्तिमुपैतिततएको मासश्च युगलक्षणमपान्तराले उक्तः / कार्तिके मासे द्वितीय ऋतुः परिसमाप्तिमिनति / एवं तृतीयः पौषमासे, चतुर्थः फाल्गुने, पञ्चमो वैशाखे, षष्ठः आषाढे, एवं शेषा अपि ऋतवः षट्सुमासेष्वेकान्तरेषु परिसाप्तिमाप्नुवन्ति नाशेषेषु मासेषु। तथा प्रथम ऋतुः प्रतिपदि समाप्तिमेति द्वितीयःतृतीयस्या, तृतीयःपञ्चम्यां, चतुर्थःसप्तम्यां पञ्चमो नवम्यां, षष्ठःएकादश्यां, सप्तम-स्त्रयोदश्यामष्टमः पञ्चदश्याम् एते सर्वेऽपि ऋतवो बहुलपक्षे ततो नवम ऋतुः शुक्लपक्षे द्वितीयायां, दशमश्चतुर्थ्या मेकादशःषष्ठ्यां, द्वादशोऽष्टम्यां, त्रयोदशी दशम्यां, चतुर्दशो द्वादश्यां पञ्चदशश्चतुर्दश्याम्एते सप्त ऋतवः शुक्लपक्षे / एते ऋतवः शुक्लपक्षे भाविनः। पञ्चदशापि ऋतवो युगस्पार्द्ध भवन्ति। तत उक्तक्रमेणैव शेषा अपि पञ्चदश ऋतवो द्वितीये युगस्पार्द्ध भवन्ति। तद्यथाषोडशः ऋतुर्बहुलपक्षे प्रतिपदि, सप्तदशः तृतीयायामष्टादशः पञ्चम्यामेकोनविंशतितमः सप्तम्यां, विंशतितमो, नवम्या,मेकविंशतितम एकादश्यां, द्वाविंशतितमः त्रयोदश्यां त्रयोविंश-तितमः पञ्चदश्यामेते षोडशादयस्त्रयोविंशतिपर्यन्ताः / अष्टौ बहुलपक्षे ऋतवः शुक्लपक्षे द्वितीयायां चतुर्विशतितमः पञ्चविंशतितमश्चतुर्थ्यां, षट्त्रिंशत्तमः षष्ठ्यां, सप्तविंशतितमोऽष्टम्याम् अष्टाविंशतितमो दशम्या, मेकोनत्रिंशत्तमो द्वादश्यां त्रिंशत्तमश्चतुर्दश्यामेवमेते सर्वेऽपि ऋतवो मासेष्वेकान्तरितेषु तिथिष्वपि चैकान्तरितासु भवन्ति। सांप्रतमेतेषु ऋतुषु चन्द्रनक्षत्रयोगं च प्रतिपादयिषुस्तद्विषयं करणमाह। तित्तिसया पंचहिगा, अंसा छेओ सयं च चोत्तीसं। एगाइ वि उत्तरगुणा, धुवरासीए स बोधव्वा॥ त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि अशा विभागाः किंरूपच्छेदकृताएते इत्याह च्छेदशतं चतुस्त्रिंशं किमुक्तं भवति चतुस्त्रिंशदधिकशतच्छेदेन छिन्नं यदहोरात्रं तस्य सक्तानि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराण्यंशोनामिति अयं ध्रुवराशिर्बोद्धव्यः / एष च ध्रुवराशिरेकादिद्युत्तरगुण ईप्सितेन ऋतुना एकादिना त्रिंशत्पर्यन्तेनाद्युत्तरेण एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्वमुत्तरवृद्धेन गुण्यतेति गुणो गुणितः कर्तव्यस्ततोऽस्मात् शोधकानि शोधयितव्यानीति प्रतिपादनार्थमाह। सत्तट्ठि अड्डखेत्ते, दुगतिगगुणियासमेदिवड्डखित्ते। अट्ठासीई पुस्से-सोज्झा अभिइम्मि बायाला || इह यत्र अर्द्धक्षेत्रं तत्र सप्तषष्टिं शोध्यानि च सप्तषष्टिः समे समक्षेत्रे द्विगुणिता सती शोध्या एकोत्तरे द्वेशते तत्र शोध्ये इति भावः। इह सूर्यस्य पुण्यादीनि नक्षत्राणि शोध्यानि चन्द्रस्याभिजिदादीनि तत्र सूर्यनक्षत्रयोगचिन्तायां पुष्ये पुष्यविषया अष्टाशीतिः शोध्यानि चन्द्रनक्षत्रयोगचिन्तायामभिजिति द्विचत्वारिंशत्। एयाणि सोहइत्ता, जं संतं तु होइ नक्खत्तं / रविसोमाणं नियमा,तीसाए उउसमत्तीसु॥ एतानि अनन्तरोदितानि अर्धक्षेत्रव्यर्धक्षेत्रविषयाणि शोधकानि शोधयित्वा यदुक्तप्रकारेण नक्षत्रं शेषं भवति सर्वात्मना शुद्धिमश्नुते तत्र क्षेत्रं रविसोमयोः सूर्यस्य चन्द्रमसश्च नियमाद् ज्ञातव्यम् / क्व इल्याह त्रिंशत्यपि ऋतुसमाप्तिषुएवं करणगाथात्रयाक्षरार्थः। संप्रति करणभावना क्रि यते तत्र प्रथम ऋतुः कस्मिश्चन्द्रनक्षत्रे समाप्तिमुपैतीति जिज्ञासायामनन्तरोदितः पञ्चोत्तरत्रिंशत्प्रमाणो धुवराशिधियते स एकोनगुणितस्तदेव भवतीति ततोऽनेनध्रुवराशिर्जातस्तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थिते पश्चाद् द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके ( 263 ) ततश्चतुस्विंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः। शेषजातमेकोनत्रिंशच्छतं ( 126) तेन च धनिष्ठा शुद्ध्यति तत आगतमेकोनत्रिंशं शतं चतुस्त्रिंशदधिकशतं भागानाम् धनिष्ठासक्तमवगाह्य चन्द्रःप्रथमे सूर्यत्तुं समापयति / यदि द्वितीयसूर्य जिज्ञासा तदा स धुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्विभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (615) तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ( 873) ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणशुद्धिमुपगत स्थितानि शेषाणि सप्त शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि (736) ततोपिचतुस्त्रिंशेन शतेन धनिष्ठा शुद्धा जातानिषट्शतानि पञ्चोत्तराणि (605 ) ततोपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् शुद्धा स्थितानिपश्चात्पश्चशतानि अष्टत्रिंशदधिकानि (538) तेभ्योपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा स्थितानि चत्वारि शतानि चतुरधिकानि ( 404 ) ततो द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदा शुद्धा स्थिते शेषे त्रिकोनसप्ततिचतुस्त्रिंशदधिकं शतं भागानामवगाह्य द्वितीयं सूर्यतुं चन्द्रः परिसमापयति / एवं शेषेष्वपि ऋतुषु भावनीयम् / संप्रति सूर्यनक्षत्रयोगभावना क्रियते स एव पञ्चोत्तरशतप्रमाणो ध्रुवराशिः प्रथमसूर्यर्तुजिज्ञासायामेके न गुण्यते एकेन च गुणने तावानेव जातस्तत्र पुष्यसत्कावष्टासीती शुद्धा स्थिते शेषे द्वे शते सप्तदशोत्तरे ( 217 ) ततः सप्तषष्ट्या अश्लेषा शुद्धा स्थितं शेषं सार्द्धशतं ( 150) ततोऽपि चतुस्त्रिंशच्छतेन मधा शुद्धा स्थिताः षोडश आगतं पूर्वाफ ल्गुनीनक्षत्रस्यषोडश चतुस्त्रिंशदधिकानिशतभागानवगाह्य सूर्यः प्रथमर्तु समापयति / तथा द्वितीयसूर्यर्तुजिज्ञासायांध्रुवराशिः पञ्चोत्तरशत Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 710 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 ਚਰੇ त्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (615) तताऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धिमगमत् स्थितानि पश्चादष्टौ शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ( 827) तेभ्यः सप्तषष्ट्या अश्लेषा शुद्धा स्थितानि शेषाणि षट् शतानि षड्दिशत्वधिकानि (626) तेभ्यश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन पूर्वफाल्गुनी शुद्धा स्थितानि पश्चाच्चत्वारि शतानि द्विनवत्यधिकानि ( 462 ) ततोऽपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरफाल्गुनी शुद्धा स्थिते द्वेशते एकोनवत्यधिके (२८९)ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतन हस्तः शुद्धं स्थितं पश्चात्सप्तपञ्चाशदधिकं शतं ( 157) ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन चित्रा शुद्धा स्थिता पश्चात्त्रयोविंशतिः आगतं स्वातेस्त्रि-योविंशति चतुस्त्रिंशदधिकशतं भागानामवगाह्य सूर्यो द्वितीयं ऋतुंपरिसमापयति। एवं शैषेष्वपि ऋतुषु भावनीयम् तदेवमुक्ताः सूर्यर्तवः। संप्रति चन्द्रर्तुप्रतिपादनार्थमाह। चत्तारि उसयाई वि, उत्तराईजुगम्मि चंदस्स। तेसिं पि य करणविहिं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए॥ इह एकस्मिन् नक्षत्रपर्याये षट् ऋतवो भवन्ति यथा सूर्यस्य चन्द्रस्यापि च नक्षत्रपर्याया युगसप्तषष्टिसंख्यास्ततः सप्तषष्टिः षड्भिर्गुण्यते जातानि चत्वारि शतानिद्व्युत्तराणि एतावन्तो युग चन्द्रस्य ऋतवा भवन्ति तेषामपि चन्द्रप्नां परिज्ञानाय करणविधिं यथानुपुर्व्या क्रमेण वक्ष्यामि / तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामः प्रथमतश्चन्द्रर्तुपरिमाणमाह। चंदस्स उ परिमाणं, चत्तारिय केवलं अहोरत्ता। सत्तत्तीसं अंसा, सत्तसहिकरणछेएण॥ चन्द्रस्य चन्द्रसंबन्धिन ऋतोः परिमाणं चत्वारः केवलाः परिपूर्णा अहोरात्राः सप्तषष्टिच्छेदकृतेन च च्छेदेन सप्तत्रिंशदंशाः। किमुक्तं भवति सप्तविंशतसप्तषष्टिभागा दिनस्य तथा ह्येकस्मिन् नक्षत्रपर्याये षट् ऋतव इति प्रागेव भावितम् / नक्षत्रपर्यायचन्द्रविषयस्य परिमाणं सप्तविंशतिरहोरात्र एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः तत्राहोरात्राणां षभिर्भाग हृते लब्धानि चत्वारि दिनानि, त्रीणि शेषाणि तिष्ठन्ति तानि सप्तषष्टिभागकरणार्थं सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते जाते वे शते एकोत्तरे ( 201) तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जाते द्वे शते द्वाविंशे ( 222) तेषां षभिर्भागे हृते लब्धाः सप्तत्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति। संप्रति चन्द्रऋतोराननयनार्थ करणमाह। चंदं उउ आणयणे, पन्नरस संगुणं नियमा। तिहि संखित्तं संतं, वावट्ठी भागपरिहीणं / / चोत्तीससयाभिहियं,पंचुत्तरतिसयं संजयं वि भए। छहि उदसूतारहियं,सएहि लद्धा उऊहोति॥ विवक्षितास्य चन्द्रलॊरानयने कर्तव्ये युगादितोऽयनपर्वसंख्या नमतिक्रान्तं तत्पञ्चदशगुणं नियमात् कर्तव्यं ततस्तिथिसंक्षिप्तमिति यास्तिययः पर्वणाभुपरि विवक्षितान् दिनान् प्रागनिष्कान्तास्तास्तत्र संक्षिप्यन्ते ततो द्वाषष्टिभागे द्वाषष्टि भागनिष्पन्नेऽवमरात्रे परिहीनं विधेयं तत एवं भूतं सच्चतुस्त्रिंशेन शतेनाभिहितं कर्तव्यं तदनन्तरं च पश्चोत्तरैत्रिभिः शतैः संयुक्तं सत् षभिदेशोतरैः शतैर्विभजेत विभक्केच ) सति ये लब्धा अङ्कास्ते ऋतवो भवन्ति ज्ञातव्याः / एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः / संप्रति करणभावना क्रियते / कोपि पृच्छति युगादितः प्रथमे पर्वणि पञ्चम्यां कश्चन्द्रर्तुर्वर्तते तत्रैकमपि पर्व परिपूर्णमत्र नाद्याप्यभूदिति युगादितो दिवसा–पोना ध्रियन्ते ते चात्र चत्वारस्ते चतुस्त्रिंशेन शतेन गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतानि षट् त्रिंशदधिकानि (536) तत्र भूयस्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते जातान्यष्टौ शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि (841) तेषां षड्भिः शतैर्दशोतरैर्भागो ह्रियतेलब्धः प्रथम ऋतुः अंशा उदरन्तिद्वेशते एकत्रिंशदधिके (231) तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागहरणं लब्ध एकः अंशानां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागे हृते यल्लभ्यते ते दिवसा ज्ञातव्याः शेषास्त्वंशा उदरन्ति सप्तनवतिस्तेषां द्विकेनापवर्तनायां लब्धाः सार्धा अष्टाचत्वारिंशत् सप्तषष्टि भागा आगतं युगादितः पञ्चम्यां प्रथमः प्रावृड् लक्षण ऋतुरतिक्रान्तो द्वितीयस्य एको दिवसौ गतो द्वितीयस्य च सार्धा अष्टचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः। तथा कोपि पृच्छति युगादितो द्वितीये पर्वणि एकादश्यां कश्चन्द्रतुरिति तत्रैकं पतिक्रान्तमिति एको ध्रियते स पञ्चदशभिर्गुण्यतै जाताः पञ्चदश एकादश्यां किल पृष्टमिति तस्याः पाश्चातयादश ये दिवसास्तेप्रक्षिप्यन्ते जाता पञ्चविंशतिः सा चतुस्त्रिंशेत शतेन गुण्यते जातानि त्रयस्त्रिंशत् शतानि पञ्चाशदधिकानि (3350) तेषु त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि प्रक्षिप्यन्ते जातानि षट्त्रिंशत् शतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि (3655) तेषां षड्भिः शतैर्दशोतरैर्भागो हियते लब्धाः पञ्च अंशा अवतिष्ठन्ते षट् शतानि पञ्चोत्तराणि (605 ) तेषां चतुस्त्रिंशेन शतेन भागे हृते लब्धाश्चत्वारो दिवसाः ( 4 ) शेषास्त्वं शा उदरन्ति एकोनसप्ततिः (66) तस्या द्विकोनापवर्तनायां लब्धाः साश्चितुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः आगतं पञ्च ऋतवोऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य यऋतोश्चत्वारो दिवसाः पञ्चमस्य च दिवसस्य सार्भाश्चतुश्चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः। एवमन्यस्मिन्नपि दिवसे चन्द्रर्तुरखगन्तव्यः। ___संप्रति चन्द्रर्तुपरिसमाप्ति दिवसानयनाय करणमाह। रविधुवरासी पुट्वंच, गुणिय भयएसणेण छेएण। जं लद्धं सो दिवसो, सोमस्स उऊसमत्तीए।। इहयः पूर्वसूर्यर्तुप्रतिपादने ध्रुवराशिरभिहतः पञ्चोत्तराणि त्रीणि शतानि चतुस्त्रिंशद्भागाःतस्मिन् पूर्वगुणिते ईप्सितेन एकादिना व्युत्तरचतुः शततमपर्यन्तं न व्युत्तरवृद्धेन एकस्मादारभ्य तत ऊर्ध्व स्वन्तरवृद्ध्या प्रवर्द्धमानेन गुणितस्वकेनात्मीयेन च्छेदेन चतुस्त्रिंशदधिकशतरूपेण भक्ते सति यल्लब्धं सोमस्य ऋतुसमाप्तौ दिवसो ज्ञातव्याः / यथा केनापि पृष्टं चन्द्रस्य ऋतुः प्रथमः कस्यां तिथौ परिसमाप्तिं गत इति तत्र ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रियते (305) स एकेन गुण्यते जातस्तावानेव ध्रुवराशिस्ततःस्वकीयेनच्छेदेन चतुस्त्रिंशदधिकशतप्रमाणेन भागो ह्रियते लब्धौ द्वौ शेषस्तिष्ठति सप्तत्रिंशद् द्विकेनापवर्तना क्रियते जाताः सार्धा अष्टादश / आगतं युगादितो द्वौ दिवसावतिक्रम्य तृतीये दिवसेऽष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु प्रथमश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्ति गच्छति द्वितीयचन्द्रर्तुपरिसमाप्तिजिज्ञासायां स ध्रुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्त्रिभिर्गुण्यते जातानि पञ्चदशोत्तराणि नव शतानि (615) तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाः शेषमुरति एकादशोत्तरशतं तस्य द्विक Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उउ 711 अमिधानराजेन्द्रः। भाग 2 नापवर्तानायां लब्धाः सार्धाः पञ्चपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः आगतं युगादितः षट्षु दिवसेष्वतिक्रान्तेषु सप्तमस्य च दिवसस्य सार्द्धषु पञ्चपञ्चाशत्संख्येषु भागेषु द्वितीयश्चन्द्रर्तुः परिसमाप्तिं गच्छति व्युत्तरचतुः-शततमजिज्ञायां सधुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोऽष्टभिः शतैस्त्र्युत्तरैगुण्यते व्युत्तरवृद्ध्याहि व्युत्तरचतुःशततमस्य व्युत्तराष्टशतप्रमाण एव राशिर्भवति। तथाहि यस्य एकस्मादूर्ध्वद्ध्यत्तरवृद्ध्या राशिर्लभ्यते तस्य स द्विगुणो रूपोनो भवति तथा द्विकस्य त्रीणि त्रिकस्य पञ्च चतुष्कस्य सप्त अत्रापि च व्युत्तरचतुः शततमप्रमाणस्य राशेर्युत्तरवृद्ध्या राशिश्चि-न्त्यते ततोऽष्टौ शतानि व्युत्तराणि भवन्ति एवं भूतेन च राशिना गुणने जातेद्वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (244615 ) तेषां चतुस्त्रिंशच्छतेन भागो ह्रियते लब्धानि अष्टादश शतानि सप्तविंशत्यधिकानि (1927) अंशाश्वोद्वरन्ति सप्तनवतिस्तस्या द्विकेनापवर्तना लब्धाः सार्धा अष्टाचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः आगतं युगादितोऽष्टादशसु दिवसशतेषु सप्तविंशत्यधिकेष्वतिक्रान्तेषु ततः परस्परसार्द्धष्वष्टाचत्वारिंशत्संख्यासु सप्तषष्टिभागेषु व्युत्तरचतुः शततमस्य चन्द्रौः परिसमाप्तिरिति। संप्रति चन्द्रर्तुषु नक्षत्रयोगपरिज्ञानाय करणमाह। सो चेव धुवो रासी, गुणरासी वि य हवंति चेव / नक्खत्तं सोहणणिय, परिजाण पुव्वभणियाणि || युगे चन्द्रानक्षत्रयोगपरिज्ञानार्थ स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो | ध्रुवराशिर्वेदितव्यः गुणराशयोऽपि गुणकारराशयोऽपि एकाद्युत्तरवृद्ध्या तएव भवन्ति ज्ञातव्या ये पूर्वमुद्दिष्टाः नक्षत्रशोधनान्यपि च परिजानीहि। तान्येव यानि पूर्व भणितानि द्विचत्वारिंशत्प्रभृतीनि ततः पूर्वकरणे विवक्षिते चन्द्रौ नक्षत्रयोग इति जिज्ञासायां स एव पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणो ध्रुवराशिः ध्रियते (305) स एकेन गुण्यते एकेन गुणितः सन् स तावेनेव भवति ततो जातो वाचत्वारिंशत् शुद्धा शेषे तिष्ठतो द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके (263 ) ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धः स्थिते पश्चादेकोनत्रिंशच्छतं ( 126 ) तस्य द्विकेनापवर्तना क्रियते जाताः सार्भाश्चतुःषष्टिभागाः आगतं धनिष्ठायाः सार्द्धमैकेन चतुःषष्टिभागानावगाह्य चन्द्रः प्रथमं स्वऋतुं परिसमापयति द्वितीयश्चन्द्रर्तुजिज्ञासायांस एव धुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणस्विर्गुण्यते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (615) तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा स्थितानि शेषाण्यष्टौ शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि ( 873) ततश्चतुस्त्रिंशेन शतेन श्रवणः शुद्धमुपगतः स्थितानि शेषाणि सप्तशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि (736 ) ततो पि चतुस्त्रिंशेन शतानि धनिष्ठा शुद्धा जातानि षट्शतानि पञ्चोत्तराणि ( 605 ) ततोपि सप्तषष्ट्या शतभिषक् शुद्धा स्थितानि पश्चात्पञ्च शतानि अष्टत्रिंशदधिकानि ( 538 ) एतेभ्योऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन पूर्वभद्रपदा शुद्धा स्थितानि चत्वारि शतानि चतुरधिकानि (404) तेभ्योपि द्वाभ्यां शताभ्यामेकोत्तराभ्यामुत्तरभद्रपदाशुद्धा स्थिते शेषे द्वेशते त्र्युतरे ( 203) ताभ्यामपि भागानवगाह्य द्वितीयं स्वं ऋतुं चन्द्रः परिष्ठापयति / तथा ह्युत्तरचतुःशतत मचन्द्रर्तुजिज्ञासायां धुवराशिः पञ्चोत्तरशतत्रयप्रमाणोऽष्टभिः शतैस्त्व्युत्तरैर्गुण्यते जाते द्वे लक्षे चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि (244615) तत्रार्द्धक्षेत्रेषु षट्सु नक्षत्रेषु प्रत्येक सप्तषष्टिरंशाव्यर्द्धक्षेत्रेषु षट् सु नक्षत्रेषु प्रत्येकं चतुस्त्रिंशच्छतमिति षट्सप्तषष्ट्या गुण्यन्तेजातानिचत्वारिशतानि झ्युत्तराणि (402) तथा षट् पञ्चोत्तरेण शतद्वयेन गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि दशोत्तराणि। (1210) एते च त्रयोपि राशय एकत्र मील्यन्ते मीलयित्वाऽवतिष्ठन्तेऽभिजितो द्वाचत्वारिंशत् प्रक्षिप्यन्तेजातानि षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि ( 3660) एतावानेको नक्षत्रपर्यायस्तत एतत्पूर्वस्य राशेर्भागो ह्रियते लब्धाः षष्टिनक्षत्राणि पर्यायाः पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चपञ्चाशदधिकानि त्रयस्त्रिंशच्छतानि ( 3355 ) तत्राभिजितो द्वाचत्वारिंशच्छुद्धाः स्थितानि शेषाणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि त्रयोदशाधिकानि (3313) तेषां त्रिभिः सहस्रैर्दयशीत्यधिकैरनुराधान्तानि नक्षत्राणि शुद्धानिशेषं ते द्वेशते एकत्रिंशदधिके (231) ततः सप्तषष्ट्या ज्येष्ठा शुद्धा स्थित चतुःषष्ट्यधिकं षोडशशतं ( 1664 ) ततोऽपि चतुस्त्रिंशेन शतेन मुलं शुद्धं स्थिता पश्चात् त्रिंशत् (30) आगतं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्य त्रिशतं चतुस्त्रिंशदधिकशतं भागानामवगाह्योत्तरचतुःशततमं स्वऋतुंचन्द्रः परिसमापयति।ज्यो०१४ पाहु०॥ चं० प्र०। उउंबरपुं० [(उंबर)/उ(डु) दुंबर] उंशम्भुवृणोति खउम्बरः पृषो० दस्य वा डत्वम्। वाच० "दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतनपादपीठेऽन्तर्दः / 8 / 2 1270 / " इति उदुम्बरशब्दमध्यवर्तिनः वा लुक् / प्रा०। (गूलर) इति प्रसिद्ध बहुबीजके वृक्षविशेषे,जी०१ प्रति०। आचा०। देहल्याम्, आ० म० द्वि० / गृहेलुके, गृहावयवविशेषे, आचा०। ताने, नपुंसके, कुष्टभेदे चावाच०। प्रज्ञा०। उउंब ( उंब) रदत्त पुं० ( उदुम्बरदत्त ) पाटलीखण्डनगरवास्तव्ये सागरदत्तसार्थवाहसुते, / तद्वक्तव्यता यथापाटलीखण्डे नगरे सागरदत्तसार्थवाहसुत उदुम्बरदत्ता नाम्राऽभूत् स च षोडशभी रोगैरेकदाऽभिभूतो महाकष्टमनुभूय मृतः / स च जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथनाम्नोधन्वन्तरिनामा वैद्य आसीत् मांसप्रियो मांसोपदेष्टा चेति कृत्वा नरकङ्गतवानिति। स्था० 10 ठा०। जइ णं भंते उक्खेवो सत्तमस्स एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे णयरे वणसंडे उज्जाणे उंबरदत्ते यक्खे तत्थ णं पाडलिसंडे णयरे सिद्धत्थ राया तत्थ णं पाडलिसंडे णयरे सागरदत्तसत्थवाहे होत्था / अड्डे गंगदत्ता भारिया तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए उंबरदत्ते णामं दारए होत्था। अहीणं तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसागया तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमं तहेवए जेणेव पाडलिसंडे णयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता पाडलिसंडे णयरे पुरच्छिमेण दुवारेणं अणुप्पविसत्ति तत्थ णं पासइ एगं पुरिसं कच्छ्रनं कोडियंदो उपरियं भगदलियं अरिसिलं कासिलं सासिल्लं सूय मुहं सूयहत्थं सूयपायं सडियहत्थंगुलियं सडियपायं Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 ਚ गुलियं सडियकण्णणासियं रसियए य पूरण य थिवि थिवित्तं वणमुहं किमिउण्णुयतपगलंतपूयरुहिरं लालापगलंतकण्णणासं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरक वले य | किमियकवले य वममाइ कट्ठाइं कलुणाई वीसराई कूवमाणं मच्छिया चडगरपहगरेण अणिज्जमाणमग्गं फट्टहडाहडसीसं दंडं खंडवसणं खंडमल्लखंडहत्थगयं गिहे गिहे देहं बलियाए वितिं कप्पेमाणे पासइपासइत्ता तदा भगवं गोयमे उच्चणियजाव अडइ अहापज्जत्तं गिण्हइ गिरहइत्ता पाडलीसंडाओ जयराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव समणे भगवं तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ समणेणं अब्भण्णु ण्णाए जाव विलमिव पण्णगभूए अप्पाणे णं आहारमाहारेइ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ तएणं से भगवं गोयमे दोचंपि छट्ठखमणपारणगंमि पढमाए पोरसीए सज्झाई जाव पाडलिसंडं णयरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविस्सइ / तं चेव पुरिसं पासइ पासइत्ता कच्छूल्लं तहेव जाव संजमेणं विहरइ तएणं से गोयमे तचं छठें तहेव जाव पचच्छिमिल्लेणं दुवारेणं अणुप्यविसमाणे तं चेवपुरिसं कच्छूल्लं पासइ पासइत्ता चउत्थं छटुंउत्तरेणं इमे अज्झस्थिए समुप्पण्णे / अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं जाव एवं वयासी एवं खलु अहं भंते ! छट्ठस्स जाव रियंते जेणेव पाडलिसंडे णयरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता पाडलिपुरे पुरच्छिमिलेणं दुवारेणं अणुप्पवितु तत्थ णं एगं पुरिसं पासइ कच्छूल्लं जाव कप्पेमाणे। तंजहा अहं दोचं छट्ठपारणए दाहिणिल्ले दारए तहेव तचं छटुं पचच्छिमेणं तहेव ते अहं चउत्थं छहपारणए पाडलि उत्तरदारे अणुप्पविढे तं चेव पुरिसं पासामि कच्छूल्लं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ चिंता मम पुथ्वभवे पुच्छा वागरेइ / एवं खलु गोयमा तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे जंबूद्दीवे मारहे वासे विजयपुरे णामं णयरे होत्था रिद्धइ तत्थ णं विजयपुरे णयरे कणगरहे णामं राया होत्था / तस्स णं कणगरहस्स रणे धणंतरिणामे वेजे होत्था अटुंगाउवेदे पाढए तंजहा कोमार मिश्र 1 सालागे 2 सल्लकहत्ते 3 कायतिगिच्छा 4 जंगोले 5 भूयवेजे 6 रसायणे 7 जाजीकरणे सिव हत्थे। सुहत्थे 10 लहुहत्थे 11 तएणं धणंतरीवेजे विजयपुरे णयरे कणगरहस्स रपणे अंतेउरे अण्णेसिं च बहुणं राईसर जाव सत्थवाहण आण्णेसिं च बहूणं दुव्व लाण य गिलाणाण य बाहियाण य रोगियाण य राणा हाण य अणाहाण य समणाण य माहणाण य भिक्खु णाण य करोडियाण य कप्पडियाण य आउराण य अप्पेगइयाणं मच्छमंसाइं उवदिसाइ अप्पेकच्छभमंसाइंअप्पेगाहमंसाई अप्पेमगरमसाई अप्पेसुसमारमंसाइं अयसंमाइं एवं एलोरोज्झ सूयरमिगससयगोमंसा महिसमं सा अप्पे तित्तिरमंसा अप्पेवटकलावककवोतकुक्कुडमयूरमं सा अण्णेसिं च बहूणं जलयरथलयरखहयरामाईणं मंसा अप्पाणं वीयसंसे धनंतरियवेजे तेहिं मच्छमंसेहिय जाव मयूरमंसेहिय अण्णेहिय बहूहिं जलयरथलयरखहयरमंसेहि य जाव मयूरसएहि य सोल्लहि य तिलिएहिय भन्जिएहि य सुरं च 5 आसाएमाणे 4 विहरइ तएणं से धणंतरी वेजे एए कम्मे 4 सुबहु पावं समजिणित्ता वत्तीससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसं वावीसं सागरोवमाइं उववण्णे तएणं णरगा उवट्टित्ता इहेव पाडलिसंडे णयरे सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्ता भारिया जायणिंदूया विहोत्था। जा जा जाया दारगा विणिधायमावजंति तएणं तीसं गंगदत्ताए सत्थवाहिए अण्णया कयावि पुटवरत्तावरत्तकाल समयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणे जागरमाणे अयं अज्झत्थि ए 4 समुप्पण्णे एवं खलु अहं सागरदत्ते णं सत्थवाहे णं सद्धिं बहुहिं वासाइ उरालाइ माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ णो चेव णं अहं दारगं वा हारियं वा या याभिहितं धणाउणं ताओ अम्मआयो संपुण्णाओ कयत्थाओ कयपुण्णाओ कयलक्खणाओ सुलद्धेणं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफ ले जासिं मण्णो णियगकुच्छिं संभूयगाई थणदुद्धलुद्धगाई मम ण पयंपि याति थणमूलक्खदेसभागं अतिसरमाणगई मुद्धगाइं पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिरिहऊण उच्छंगं णिवेसियाई दिति समुल्लावए सुमहुरे पुणो मंजुलप्पम णिए अहण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा एत्तो एकतरम विणपत्ता तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलंते सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छित्तासुबहु पुप्फवत्थगंधमलालंकारे गहाय बहुहिं मित्तणाइ णियगसयणसंबंधि परिजणरहियाइंसद्धिं पाडलिसंडाओणयराओ पडिणिक्खमइ पडि णिक्खमइत्ता बहिया जेनेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणेतेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता तत्थ णं उंबरदतस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फ चणं क रेइ करे इत्ता जाणुपायव-डियाए उवाएत्तए जइणं अहं देवाणुप्पिया दारगं वा दारियं वा पथामि तो णं अहं जावं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवेड्ड सा समित्तिकट्टउववाय उवाइणित्तए एवं संपहइत्ता संपहइत्ता कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सागरदत्तं सत्थवाह एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया तुब्भेहिं सत्थिं जाव Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबरदत्त 713 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उऊंबरवच णं पत्ता तं इच्छामि णं तं देवाणुप्पिया तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता तएणं ताओ मित्त जाव उवाइणित्तए तएणं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्तं भारियं जाव महिलाओ गंगदत्ता सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करेइ एवं वयासी ममंपिणं देवाणुप्पियाए सचेव मणोरहे कहणं तुम तं सा गंगदत्ताहिं मित्त अण्णेहिं बहुहिं णयरमहिलाहिं सद्धिं तं दारगं वा दारियं वा पयाएजामि गंगदत्तं मारियं एवमटुं विपुलं असणं 4 सुरंच 6 आसाएमाणीदोहलं विणेइ विणेइत्ता अणुजाणीइ। तएणं सा गंगदत्ता भारिया एय मटुंअब्भणुण्णाया जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया ते एवं सा गंगदत्ता समाणी सुबहुजाव मित्तणाइं सद्धिं ताओ गिहाओ पडिणिक्खमइ भारिया पसत्थ दोहला तं गभं सुहं सुहेणं परिवसइ तएणं सा पडिणिक्खमइत्ता पाडलिसंडं णयरं मज्झं मज्झेणं णिगच्छइ गंगदत्ता णवण्हं मासाणं जाव दारयं पयाया ठिया जाव णामे णिगच्छइत्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जम्हाणं अम्हं इमेदारए उंबरदत्तस्स जक्खस्स उवाइय लद्धत्ते पुक्खरिणीए तीरे सुबहुपुप्फगंधमल्लाउकारं ठवेइ ठवेइत्ता दारए पंचधाइं परिगाहिए परिवड्डइ तएणं तस्स उंबरदत्तस्स पुक्खरिणीओ गाहेइ गाहेइत्ता जलमज्जणं करेइजलकीडं करेइ दारगस्स अण्णया कयावि सरीरगंसि जमगसमगमेव करेइत्ता ण्हाया कयकोउयमंगला उल्लपडिसाडिया पुक्खरिणी सोलसरोगायंका पाउब्भूया तंजहा सासे 1 खासे 2 जाव कोढे पचुत्तरह पयुत्तरइत्तातं पुप्फुगिण्हइ गिण्हइत्ता जेणेव उंबरदत्त तएणं से उंबरदत्ते दारए सोलसरोगाइं कहिं अभिभूए समाणे सडियहत्थं जाव विहरइ एवं खलु गोयमा उंबरदत्ते दारए पोरा स्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता उंबरदत्तस्स जक्खस्स आलोएपणामं करेइ करेइत्ता लोमहत्थं पुराणाणं जाव विहरइ तएणं उंबरदत्ते दारए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति कहिं उववञ्जिहिंति गोयमा उंबरदत्ते परामुसइ परामुसइत्ता उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थएणं पमनइ दारए वावत्तारिं वासाई परमाउसं पालइ पालइत्ता कालमासे पमञ्जइत्ता दगधाराए अभुक्खेइ अमुक्खेइत्ता पम्हलगाइलद्धीओ कालं किया इमी से रयणाए णेरइयत्ताए उववजिहित्ति संसारो लूहेइ सेयाइं वत्थाई परिहेइ महरिहं पुप्फारुहाणं वत्थारहाणं तहेव पुढवीए तओ हत्थिणाउरे णयरे कुकुडुत्ताए पञ्चायाहिंति मल्ला गंधा चुण्णारहाणं करेइ करेइत्ता धूवं डहइ डहइत्ता जायामित्ते चेव गोहिलवहिंति तत्थेव हत्थिणाउरे णयरे सेट्ठी जाणुपायपडिया एवं वयासी जइ णं अहं देवाणुप्पिया दारगं कुलंसि बोही सोहम्मे महाविदेहे सिझिहिंति निक्खेवो सत्तगं दारियं पयामि तोणं जाव उवाइणइ उवाइणइत्ता जामेव दिसिं अज्झयणं सम्मत्तं / वि०७ अ०। पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया तएणं से धणंतरी वेज्जे ताओ पाटलिखण्डस्य नगरस्य नवखण्डे उद्याने पूज्यमाने यक्षे च। वि० गरगाओ अणंतरं उवट्टित्ता इहेव जंबूहीवे जंबूद्दीवे मारहे वा से 7 अ०॥ पाडलीसंडे णयरे गंगदत्ताए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे तएणं उउंब ( उंब) रपणग न० ( उदुम्बरपञ्चक ) उदुम्बरकेणोपलक्षितं तीसे गंगदत्ताए भारिया तिण्हं मासाणं बहु पडिपुण्णाणं पञ्चकमुदुम्बरपञ्चकम्।वट 1 पिप्पलो 2 दुम्बर ३प्लक्ष 4 काकोदुम्बरी अयमेवारूवे दोहले पाउन्भूए धण्णाउणं ताओ अम्मयाओ जाव 5 फललक्षणे फलविशेषपञ्चके, मशका कारसूक्ष्मबहुजीवनिचितत्वाफलं जाओणं विपुलं असणं 5 उवक्खडावेइ उवक्खडावेइत्ता द्वर्जनीयं ततो योगशास्त्रे उदुम्बरवटप्लक्षकाकोदुम्बरशाखिनाम् / बहुहिं जाव मित्तपरिबुडाओ तं विपुलं असणं सुरं च 6 पुष्फ पिप्पलस्य च नाश्नीयात्फलं कृमिकुलाकुलम् / 1 / लोकेपि "कोपि जाव गहाइ पाडलिसंडं णयरं मज्झं मज्झेणं पडिणिक्खमइ वापि कुतोपि कस्यचिदहो चेतस्यकस्माज्जनः। केनापि प्रविशत्युदुम्बरफ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ - लप्राणिक्रमेण क्षणात् / येनास्मिन्नपि पाटिते विघटिते विस्फोटिते उवागच्छइत्ता पुक्खरिणीउ गाहेइ गाहे इत्ता बहाया जाव त्रोटिते निष्पिष्ट परिगालिते विदलिते निर्यान्त्यसौ वा न वा " ध०२ पायच्छित्ताओ तं विपुलं असणं 4 बहुहिं मित्तण्हाई जाव सद्धिं अ०। द्वाविंशत्यभक्ष्ये, पञ्चा भक्ष्याणीति भ० 6 श०३३ उ०। आसाएइ 4 दोहलं विणेइ एवं संपेहेइ कल्लं जाव जलते जेणेव उउंब ( उंब) रपुप्फु ( प्फ) न० ( उदुम्बरपुष्प ) (गूलरफूल) सागरदत्तसत्थवाहे गंगदत्ता भारिया एयमई अणुजाणइतएणं सा | उदुम्बरवृक्षकुसुमे, “उंबरपुप्फुपिव दुलहे " उदुम्बरपुष्पंह्यलभ्यंभवति गंगदत्तेणं सत्थवाहेणं अब्मणुण्णाया समाण विपुलं असणं / अतस्तनोपमानम्। भ०६ श०३३ उ०। उक्खडावेइतं विउलं असणं 4 सुरं च सुबहु पुप्फंपरिगिण्हावेइ उउंब (उंब ) रवन न० ( उदुम्बरवर्चस् ) उदुम्बरफलसमाकीर्णे, परिगिण्हावे इत्ता बहुहिं जाव ण्हाया कयवलिकम्मा जेणेव __ "उंबरस्स फला जत्थ किरिवडे उच्चविजंति तं उंबरवचं भण्णति " / उंवरदत्तजक्खस्स जक्खायतणे जाव घूवं डहेइ डहेइत्ता जेणेव / नि० चू०३ उ०। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उऊंबरीय 714 अमिधानराजेन्द्रः / भाग 2 ਚੰਨ उउंब ( उंब) रीय पुं० (उदुम्बरीय ) प्रत्युदुम्बरं रूपको दातव्य इत्येवं | उउ (ऊ) संधि-पुं० (ऋतुसंन्धि ) ऋतोः पर्यवसाने, आचा० 2 श्रु०१ लक्षणे करे, “जोयंत उंबरीयस्स" बृ०३ उ०। अ०१3०1 उउ(ऊ) परियट्टपुं०(ऋतुपरिवर्त)ऋत्वन्तरे, आचा०२ श्रु०१० उउसंवच्छर-पुं० (ऋतुसंवत्सर ) ऋतवो लोकप्रसिद्धा वसन्तादय१ उ०। स्तत्प्रधानः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः। चन्द्र०१पा०त्रिंशदहोरात्रप्रमा-- उउदेवी स्त्री० (ऋतुदेवी ) वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्तशिशिरोभि दिशभिर्ऋतुमासैः श्रावणमासकर्ममास-पर्यायैर्निष्पन्नेषष्ट्यहोरात्रधानदेवतासु, पंचा०२ विव०१ शतत्रयमाने, / स्था० 5 ठा० / सावन संवत्सरपर्याये संवत्सरभेदे, तत्वं उउबद्ध पुं० ( ऋतुबद्ध) शीतकाले, उष्णकाले च। औ० / अष्टौ भासा च यथा। ऋतुबद्धसंज्ञकाः। आचा०२ श्रु०१ अ०१ उ०। आ० म०। विसमं पवालिणो परि--णमंति अणदुसुति पुष्फफलं। उउमास पुं० (ऋतुमास ) ऋतुः किल लोकरूढ्या षष्ट्यहोरात्रप्रमाणो वासं ण सम्मवासइ, तमाहु संवच्छर कम्मं / / द्विमासात्मकस्तस्यार्द्धमपि मासोऽवयवः समुदायोपचारात्ऋतुरेवार्था विषमेण वैषम्येण प्रवालं पल्लवाडरस्तद्विद्यते येषां ते प्रवालिनो वृक्षा त्परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणो मासःऋतुमासः ! कर्ममासापरपर्याये मासभेदे, एष एव ऋतुमासः। कर्ममास इति वा व्यवहियते। उक्तं च " इतिगम्यते। परिणमन्ति प्रवालवत्तालक्षणया अवस्थया जायन्ते। अथवा एसोचेव उउमासो कम्ममासो सावणमासो भण्णइ" इति। व्य०१खं० प्रवालिनो वृक्षाः परिणमन्ति अड्डरोद्भेदाद्यवस्था यान्ति / तथा अनृतुषु १उ०। "उदुमासो तीसदिणो, आइयो तीस होइ अटुंच" 5 व्य० प्र० अस्वकाले ददति प्रयच्छन्ति पुष्पफलं यथा चैत्रादिषु कुसुमादिदायिनोपि 10 / नि००। स्वरूपेण चूताः माधादिषु पुष्पादि प्रयच्छन्तीति यथा वर्ष वृष्टिं मेघो न पंच संवच्छरियस्सणं जुगुस्स रिउमासेणं मिजमाणस्स इगसर्व्हि सम्यग्वर्षति यत्रेति गम्यते तमाहुर्लक्षणतः संवत्सरं कार्मणं यस्य स उऊमासा पण्णत्ता। ऋतुसंवत्सरः सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ। स्था० 5 ठा० / जो०। अथैकषष्टिस्थानकं तत्र पश्चेत्यादि पञ्चभिः संवत्सरैर्निक्तमिति ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तब उउसंवच्छरस्स पञ्चसांवत्सरिकम् / तस्य णमिति वाक्यालङ्कारे युगस्य उउमासेति स तिमुहुत्तेणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवतिए रातिंकालमानविशेषस्य ऋतुमासेन चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः दियग्गेणं आहितातिवदेजा। ता तीसेणं राइंदियग्गेणं आहितेति ऋतुमासा प्रज्ञप्ताः। इह चायं भावार्थः युगं हि पञ्चसंवत्सरान्नि-व्पादयति वदेज्जा / ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेपुच्छा ता णवमुहुत्तसताई तद्यथा चन्द्रश्चन्द्रोभिवर्द्धितश्चेति / तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच णवमुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा। ता एस णं अद्धादुवालसद्विषष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवं प्रमाणेन 26 / 32 / 62 / खुत्तकडा उउसंवच्छरे ता सेणं के वतिते राइंदियग्गेणं कृष्णप्रतिपदामारभ्य पौर्णमासीनिष्ठितेन चन्द्रमासेन द्वादश आहितेति।ता तिण्णि सढेरातिंदियसते राइंदियग्गेणं आहितेति मासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदम्। त्रीणि शतान्यहां चतुः वदेला / ता से णं के वतिते मुहुत्तग्गेणं आहिते ता पञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्टिभागा दिवस्य 354 / 12462 // तथा दसमुहुत्तसहस्सातिं अट्ठ यमुहुत्तसताई मुहुत्तग्गेणं आहिता। एकत्रिंशदहामेकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतं भागाना तृतीयं ऋतुसंवत्सरविषयं प्रश्वसूत्रं सुगमम् / भगवानाह / दिवसस्येत्येवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमास इति। एतेन 31 / 121 / 125 / च (तातीसेणमित्यादि) ता इति पूर्ववत् त्रिंशद्रात्रिंदिनानि ( 30) मासेन द्वादशमास-प्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति स च प्रमाणेन रात्रिंदिवाग्रेण ऋतुमास आख्यात इति वदेत / तथाहि ऋतुमासयुगे त्रीणि शतानि अहा त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्य 383 / 14 / 62 / तदेवं त्रयाणां चन्द्रसंवत्सराणं एकषष्टिस्ततो युगसत्कानां त्रिंशदधिकानामहोरात्राणामेकषष्ट्या भागो हियते लब्धाः त्रिंशदहोरात्राः (30) (तासेणमित्यादि ) मुहूर्तविषय द्रयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरेकीकरणे जातानि दिनानां त्रिंशदुत्तराणि अष्टादश शतानि अहोरात्राणाम् 1830 ऋतु मासश्च प्रश्नसूत्रं सुगमम् भगवानाह “ता नव मुहुत्तसयाई" इत्यादि / नव त्रिंशताहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता भागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमासा इति। मुहुर्त्तशतानि मुहूर्ताग्रणाख्यात इति वदेत् / तथाहि त्रिंशद्रात्रिंदिनानि स०६१ स०॥ ऋतुमासपरिमाणमेकैकस्मिश्च रात्रिंदिवे त्रिंशन्मुहूत्तस्तितः त्रिंशत्त्रिंशता उउय त्रि० (ऋतुज ) कालोचिते, “उउयपिंडम-निहारिसगंधिएसु" गुण्यते नव शतानि भवन्तीति। (ता एएसिणमित्यादि) प्राग्वद्भावनीयम् / प्रश्न०५ द्वा०। चं०१२ पा०॥ उउलच्छि स्त्री० (ऋतुलक्ष्मी) ऋतुसंपदि, ज्ञा० 6 अ०। उउसुह-त्रि० (ऋतुसुख ) ऋतौ कालविशेषे सुखः सुखहेतुःऋतुसुखः / उउलच्छिसमत्थजायसोह त्रि० (ऋतुलक्ष्मीसमस्तजातशोभ) कालोचितसुखप्रदे, "उउसुहसिवच्छायसमणु वद्धेण" ऋतौ कालविशेषे ऋतुलक्ष्म्येव सर्वर्तुककुसुमसंपदा समस्ता सर्वा समस्तस्य वा जाता सुखा सुखहेतुः ऋतुसुखा शिवा निरुपद्रया छाया आतपवा-रणलक्षणा शोभा यस्य स तथा / सर्वर्तुषु कुसुमसम्पदा सामस्त्येन शोभमाने," तथा समनुबद्धमनवच्छिन्नं यत्तत्तथा / तेन छत्रेण / औ०! उउलच्छिसमत्थजाय सोहोप इट्टगंधधूया-भिरामो" ज्ञा० अ०। / *ऋतुशुम-पुं० कालोचिते, प्रश्न० 4 द्वा० / उउवासपुं०(ऋतुवर्ष)द्व० स०।ऋतुबद्धकालवर्षाकालयोः “उउवासे / | उंछ-न० (उञ्छ) उञ्छ्यते अल्पाल्पतया गृह्यते इत्युञ्छः / भक्तपानादौ, पणगचउमासे” प्रव०७० द्वा०। स्था० 4 ठा० जुगुप्सनीये भैक्ष्ये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उंछजीविया 715 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उक्कप्प तन्निक्षेपो तथा " अण्णा उंछं दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्यं / उकंठा स्त्री० ( उत्कण्ठा)" अणनो व्यञ्जनो" 811 / 25 / दव्वुछणेगविहं लोगरिसीणं मुणेयव्यं" व्य० द्वि०१० उ०। (एतद्व्याख्या इत्यनेन णकारस्यानुस्वारो वा / प्रा० / वर्गेऽन्त्यो वा 8 / 1 / 30 / अण्णायउंछअभिग्गह शब्दे ) उञ्छमिवोञ्छम् / अल्पाल्पगृहीते भक्ष्ये, इत्येनानुस्वारस्य णकारो वा / प्रा०। इष्टलाभाय कालासहनरूपे प्र०१द्वा०। अज्ञातपिण्डोञ्छसूत्रकत्वादेतत्पदस्य" उञ्छमिति द्रुमपु- औत्सुक्ये, 2 वाच०। ष्पिकाऽध्ययने, द०१०॥ उकंपिय त्रि०(उत्कम्पित) चञ्चलीकृते, कल्प०। उंछजीविया स्त्री० (उञ्छजीविका ) एषणायाम्, स्था० 4 ठा०। उकं बण न० ( उत्कम्बन ) दण्डकोपरि कम्बीनां बन्धनरूपे उंछजीवियासंपण्ण त्रि० (उच्छजीविकासम्पन्न) एषणानिरते, स्था० | वसतिपरिकर्मणि, बृ०१ उ० ग०। नि० चू०। 4 ठा०। उक्कंबिय त्रि० (उत्कम्बित) वंशादिकम्बाभिरवबद्धे, आचा०१ श्रु०॥ उंछवित्ति त्रि० (उञ्छवृत्ति) कणश आदानरूपेण उञ्छेन जीविकावति, उक्कच्छिया स्त्री० (औपकच्छिकी) कक्षायाः समपिमुपकक्षं तत्र भवा तत्पुत्रो नारदस्तेषामुञ्छवृत्याच भोजनम्।तदप्येकान्तरं ते चाऽशोकाधो औपकक्षिक : अध्यात्मादित्यादिकण प्रत्ययः। साध्व्युपकरणभेदे। वृ० नारदं सुतम्। आ० क०। आव०। 3 उ० / साप्येवंविधा स्यूता समचतुरस्रा सार्द्धहस्तमाना चतुरोभागं उंजण न०(उञ्जन) उत्सेचने,“णउंजिजाणघट्टिज्जा, णोणं णिव्वावर दक्षिणपार्श्व पृष्टं चाच्छादयति। वामस्कन्धेवामपााच वीटकप्रतिबद्धा मुणी" द०८ अ०। परिधीयते। यदुक्तम् “छाए 3 अणुकुइए उरोरूहे कंचुओ असीविअओ। उंजायण पुं० (उञ्जायन) वाशिष्ठगोत्रे ऋषिभेदे, तत्प्रवर्तितेगोत्रजेच। एमेव य उक्कच्छिअसा नवरं दाहिणे पासे त्ति। ध०३ अधि०1 वेगछिया स्था०७ठा० उपज्जे कंवुकमुत्कट्ठियं च छादोति। संघाडओ उचउरो तत्थ दुहत्थाउ उंडिया स्त्री० ( उण्डिका ) अभिनवनगरादेर्निवेश्यमानस्य वसधीयदुत्ति / वृ०३ उ०। योगभूमियोग्यनार्थायामक्षरसहितमुद्रायाम, बृ०१ उ०। उक्कट्ठि अव्य०(उत्कृष्टतस्) उत्कर्षवशेनेत्यर्थे, सू०प्र०१६ पा०। उंडी स्त्री०(उण्डी) पिण्ड्याम् , ज्ञा०३ अ०। बृ०। उक्कड त्रि० (उत्कट) प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनि, प्रश्न०१द्वा०ातीव्र,आचा०। उंडेरियन० (उण्डेरिक ) तिलकुट्टिकया अर्चनीये स्वादिमभेदे, यदीप्सितं उद्धृते, कल्प० / प्रचुरे, आव० 5 अ०। कलुषत्वे, व्य० 2 खं०२ उ० / लप्स्यामहे तदा तवोंडरकादि दास्यामः / स्था० 4 ठा०। आ०म० द्वि०। उक्कडफुडकुडिल जडुलकक्खडवियडफडा डोयकरणदच्छं। उत्कटो उंदुर (रू) पुं० [उन्दर (रू )] स्त्री उन्द उरु मूषके, आ० म०प्र०। बलवतान्येनाध्वंसनीयत्वात् स्फुटो व्यक्तप्रयत्नविहितत्वात् कुटिलो उंदुरो वा लालं सुत्तमुक्कं वा मुंचज्जो। नि० चू०११ उ०। वक्रस्तत्स्वरूपत्वाजटिलः स्कंन्धदेशे केसरिणामिवाहीनां केसरसद्भावात् उंदुरक न० ( उन्दुरक ) देवतादि पुरतो वृषभगर्जितादिकरणे, ग०२ कर्कशो निष्ठुरोबलवत्त्वात् विकटो विस्तीर्णो यः स्फटाटोपः फणासंरम्भः अधि०। तत्करणे दक्षो यः स तथा तम्। भ०१५ श०१उ०। रक्तक्षौ, शरे च। पुं० उंदर (रू ) माला स्त्री० [ उन्दुर (रू) माला ] मूषकसजि, उपा० विषमे, त्रि० सैंहीलतायां च स्त्री० / वाच०। 1 अ०॥ उक्कडगंधविलित्त त्रि०(उत्कटगन्धविलप्त ) तीव्रदुर्गन्धव्याप्ते, नं०। उंदुरमालापरिणद्धसुकयचिण्ह त्रि० (उन्दरमालापरिणद्धसुकृ-चिह) उक्कत्त त्रि० ( उत्कृत्त ) शरीराडूरीकृतचर्मणि, "कप्पिओ फालिओ उन्दुरमालया मूषकस्रजा परिणद्धं परिणतं सुकृतं सुष्टु रचितं चिह __ छिण्णो उक्कत्तोय अणेगसो" उत्त०१६ अ०। स्वकीयलाञ्छनं येन तत्तथा तस्मिन्। उपा०१ अ०। उक्कडग पुं०(उत्कर्तक) चौरभेदे, ये गेहाद् ग्रहणं निष्काशयन्ति प्रश्न० उंवर पुं० ( उम्बर ) उमित्यव्यक्तशब्दं वृणाति वृ० अच्-द्वारोर्ध्वकाठे, ३द्वा०। वाच०। देहल्याम, 2 आ०म० द्वि०। आव०। गन्धर्वभेदे च / वाच०। / उकत्तिअ त्रि०(मुत्कर्तित ) धूर्तादित्वात् र्तभागस्य नटः। उच्छिन्ने, उंम प० (उम्भ-धा-भ्वा) पूरणे, आ० म० द्वि० / विशे०। प्रा०॥ उकुक्कुर धा० (उत्स्था )(उठना) स्थित्याधारादुर्ध्वपतने उदष्टकुक्करी उक्कप्प पुं० ( उत्कल्प ) ऊर्ध्वं कल्प उत्कल्पः उद्गमैषणोत्पादना८।४।१७। इति उत्पूर्वस्य स्थाधातोः कुक्कर इत्यादेशः। उकुक्कुरइ शुद्धसमाचारे, / पं० भा० / उक्कप्पो उ इदाणिं, उद्धं कप्पादि होति उत्तिष्ठति / प्रा०। ओकप्पो। अहवा विच्छिण्णकप्पो, उक्कप्पो अहवण अवेत्तो / / उक्क त्रि०(उत्क) उद्गतं मनोऽस्य उनि०क० वाच०।उत्कण्ठिते, उग्गमउप्पामउप्पायणए-सणेसुणिक्खो कंदमूलफले गिहिये पावडियासु "अणुक्कसाई अप्पिच्छे अण्णाएसी अलोलुए' उत्त०। य, ओकप्पं तं वियाणाहि / णामणिथंभणि लेसणि, वेताली चेव उझं चणन० (उत्कञ्चन) शूलाधारोपणार्थमूर्ध्वकुञ्चने, सूत्र०२श्रु०२ अद्धवेताली / आदाणपाउणेसु य, अण्हेसु य एवमादीसु / अ० / ज्ञा० उत्कोचायां च / दशा० 2 अ० / तच हीनगुणस्य तसएगिदियमुच्छणसंसेइमच्छणामअ भिओगोरोहाइ थव्यण तहबंभ, गुणोत्कर्षप्रतिपादनम्। ज्ञा०२ अ०॥ दीनानूज़ दण्डयतः भ०११श० दंड्थंभेय अगिणस्स। णामाणि रुक्खफलाणं, पडिमाणं देउलाणथूभादि। 11 उ० / मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धरक्षणार्थं क्षणक्षणम- थंभणिपदम मिण चलति, लेसणिलेसेत्ति अंगाई। विद्दिवाणं य आणणि व्यापारतयाऽवस्थानम् / उपा० 1 अ० / औ० / मूर्ख प्रति अहवण अवेत्तो / उग्गमउप्पायणएसणेसुणिक्खो कंदमूलफले गिहिवे तत्प्रतिरूपदानादिकमसद्व्यवहारं कर्तुप्रवृत्तस्य पार्श्ववर्तिविचक्षणमयात् पावडियासु य, ओकप्पं तं वियाणाहि / णामणिथंभणि लेसणि, वेताली क्षणे यत्तदकरणमुत्कुञ्चनमित्यन्ये। ज्ञा०१८ अ० "उमंचणं बज्झातिणा चेव अद्धवेताली / आदाणपाउणेसु य, अण्हेसु य एवमादीसु / "वसतेन्द्यिादिना कचवरनिष्काशनमिति संभाव्यते। नि० चू०५ उ०। तसएगिंदियमुच्छणसंसेइमच्छणामअ मिओगोरोहाइ थव्यण तहबंभ, उकंछण न० ( उत्कञ्छन) दण्डकोपरिकम्बीनां बन्धनरूपे वसति- दंडथडेय अगिणस्स। णामाणि रुक्खफलाणं, पडिमाण देउलाणथूभादि। परिकर्मणि, ग०१ अधि०॥ थंभणिपदममिण चलति, लेसणिलेसेत्ति अंगाई। विदिहाणं य आणणि Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कम 716 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उक्कारियाभेय अहव णिलुक्कावणम्मि वेताली। उट्टविऊण णिवातो, तक्खणए स्था०३ ठा०। उत्कण्ठायाम, का मादिजातायां स्मृतौ, कोरके, हेलायां सुद्धवेताली / गम्भाणं आदाणं, करेति तह साडणं च गम्भाणं / च। हेमा अभिओगवसीकरणे, विजा जोगादिहिं कुणति। विच्छिगमच्छिगभमरे, उक्कलियावाय पुं० ( उत्कलिकावात ) वायुकायविशेषे, स्थित्वा मंदुक्के मच्छए तहा पक्खी। सम्मुच्छा वेमादी, जो जोणी पाहुडेणं च / स्थित्वोत्कलिकाभियों वाति स उत्कालिकावातः। आचा० 1 श्रु०१ पसुउद्दवियं जागं, आहव्व णं संतरोद्दकम्मेयं / कोहादिवंभदंडो, अ०७ उ० / उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिः सम्मिश्रोयो वातः स थंभणिअगणिस्समंतेणंएमादि अकरणिजं, निक्कारणे जे करेतितुभिक्खू। उत्कलिकावातः / जीवा० 1 प्रति० / उत्त०। सव्वो सो उक्कप्पो,दारं पं०भा०। पं० चू०।। उक्क स पुं० ( उत्कर्ष ) उत्कृष्यते आत्मा दध्मिातो उक्कम पुं० ( उत्क्रम ) उत्-क्रम-घञ्-अवृद्धिः / पश्चादानुपूर्वीभवने, विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षः / माने, “उक्कसं जलणं णूनमज्झत्थं च विगिचए" वि०७ अ० / विशे०। उत्क्रान्तौ ऊर्ध्वगतौ च / वाच० / सूत्र०१ श्रु०२ अ०। भावे घञ् / प्राशस्त्ये, अतिशये, उत्कर्षान्विते, उक्कमंत त्रि०(उत्क्रममाण) ऊर्ध्वं क्रामति, “उक्कमंतेसु पाणेसु"आ० उत्पाट्यकर्षणे, उद्धरणे, वाच०। म०प्र०। उक्कसणन० (उत्कर्षण ) उत्क्रमणे, निवर्तने, उद्गतेण प्रेरणमुक्कसणम्। उसमवोच्छिज्जमाणबंधोदया स्त्री० ( उत्क्र मन्यु च्छिद्य- | नि० चू०१८ उ० / गर्वकरणे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। मानबन्धोदया) उत्क्रमेण पूर्वमुदयः पश्चाद्वन्ध इत्येवं लक्षणेन उक्कस्स त्रि० ( उत्कर्षवत् ) अष्टमदस्थानानामन्यतमेनोत्सेकं कुर्वति, व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासांता उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः। सूत्र०१ श्रु०१ अ०। बन्धव्यवच्छित्तिपूर्वकोदयव्यवच्छित्तिमतीषु प्रकृतिषु, पं० सं०। उक्कस्समाण त्रि० (अपक (र्ष ) सत् ) हसति, स्था० 5 ठा०। उक्कमसेली स्त्री० ( उत्क्रमशैली ) विपरीतपरिभाषायाम्, द्व०। उक्कस्समाणी त्रि० [अपक(र्ष)सन्ती] पङ्कपनकयोः परिहसत्याम, उक्कमित्त त्रि० ( उपक्रान्त ) उपक्रमकारणैरुपक्रान्ते क्षीणे, "अहवा णिग्गथे णिग्गंथी सेसंसि पा पंकसि वा पणगंसि वा उदगंसि वा उक्कमित्तेभवंतिए" सूत्र०१ श्रु०२ अ०। उक्कस्समाणि वा। स्था०५ ठा०। वृ०। उक्कर पुं० ( उत्कर ) समूहे, कल्प० / संधाते, आव० 4 अ०। / उकसावंत त्रि० (उत्कर्षयत् ) उत्क्रामयति, स्थानान्तरं नयति णावं उन्मुक्तकरे, करस्तु गवादीन् प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम् / भ० 11 श० उकसावेइ उकसावंतं वा साइजइ उक्कसावेइ स्थल स्थाञ्चले कारयति 11 उ०। ज्ञा० ज०। जलस्थानस्थले कारयति। नि० चू० 10 उ०। उकरड पुं० ( उत्करट ) करटस्य सहाऽध्यायिनि, आ० म० द्वि०। / उक्का स्वी० ( उल्का) उष् दाहे, क नि षस्य लः। सर्वत्र लवरामचन्द्र (तत्कथा वद्धकरण शुद्ध) ||2|76 / इति ललुक् / प्रा० / " अनादौ शेषादेशयोर्द्धित्वम् / उक्करिजमाण त्रि० (उत्कीर्यमाण) छुरिकादिभिरुत्करिकया-भिधमाने, 286 इत्यनेन ककारस्य द्वित्वम्। प्रा०।चुडुल्याम्, जी०१ प्रति। आ० म०प्र०। सा च सरेखा प्रकाशयुक्ता उल्का व्य० द्वि०८ उ०। प्रव० / आव०। उक्कयाभेय पुं० ( उत्कारिकाभेद ) एरण्डवीजानामिव वीजभेदे भ०५ प्रज्ञा० / नं० / उपरि प्रकाशमधस्तादन्धकार ईदृक् छिन्नमूलो दिग्दाह श०४ उ०। उल्का आ० चू०। नि० चू०। “उक्कामहत्तरारेहा पगासकारिणी य श्रहवा उक्करिसपुं० (उत्कर्ष) उत्कर्षणे, उत्सेके, “अतसमुक्करिसत्थं " सूत्र० रेहा। विरहितो विप्फुलिंगो, “गसकरो" आ० चू०४ अ०। निपततो 1 श्रु०२ अ०२ उ०। ज्योतिः पिण्डस्य रेखायुक्तस्योल्केत्त्याख्या। ओ०।ये मूलाग्नितो वित्रुट्य उकल त्रि० ( उत्कट) प्रकृष्ट, स्था०५ ठा०। वित्रुट्याग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का उच्यन्ते / जी० 2 प्रति / उल्का गगनाग्निः / दश०४ अ०। उल्का अग्निपिण्डः / स्था०८ ठा०। उद्योतो *उत्कल त्रि० वृद्धिमति। भूमायप्रतिष्ठितो गगनतलवर्ती दिग्दाह इति प्रसिद्ध उल्का / स्था० पंच उक्कला पण्णत्ता तंजहा दंडुक्कले रजुक्कले तणुक्कले देसुक्कले आव० उत्त०।शुष्कतृणवस्त्रादिवेष्टिते (मशाल इति प्रसिद्धे) दीपभेदे, सत्तुकले। ज्योतिषोक्ते नाक्षत्रिकदशाभेदे च / वाच०। उत्कटा उत्कला वा तत्र दण्ड आज्ञापराधिदण्डनं वा सैन्यं वा उत्कटः। उक्कामुह पुं० ( उल्कामुख ) अश्वकर्णनाम्नोऽन्तर्वीपस्य पूर्वोत्तरस्या प्रकृष्टो यस्य तेन वोत्कटो यः स दण्डोत्कटो दण्डेन वोत्कलति वृद्धिं / विदिशि अष्टौ योजनशतानि अतिक्रम्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भे याति यः स दण्डोत्कल इत्येवं सर्वत्र / नवरं राज्यं प्रभूता स्तेनाश्चौरा एकोनत्रिंशदधिक-पञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपे पद्मवरवेदिकाबन-- देशो मण्डलं सर्वमेतत्समुदयति। स्था० 5 ठा०। खण्डमण्डितपरिसरे जम्बूद्वीपवेदिकातो ऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरे *औत्कल उत्कलाऽभिजनोऽस्य अण औत्कलः। तद्देशानां राजनि, अन्तरद्वीपे,तद्वास्तव्ये मनुष्ये च। स्था०२ ठा०। (अंतरदीप शब्दे वर्णक वाच० फाल्गुमत्या भ्रातरि कलिङ्गस्य सहोदरेपल्लीवास्तव्ये, 2 आचा० उक्तः) उल्केव मुखमस्य। प्रेतभेदे, जन्तुभेदे, स्त्री० डीप्वाचा २श्रु०२ अ०११ उ०। (सञ्जानिक्षेपेकथा) उक्कारियाभेय पुं० ( उत्कारिकाभेद ) एरण्डबीजानामिष पुगलभेदे, उक्कलिअंड न० ( उत्कालिकाण्ड) लूतापुटाण्डे अण्डसूक्ष्मे, कल्प०। स्वरूपं च। उक्कलिआ स्त्री० (उत्कालिका ) लघुतरे समुदाये, औ० / भ० / सेकितं उक्कारियाभेदे उकारियाभेदे जाणंमूसया ण वा तिलत्रीन्द्रियजीवभेदे, (लूतेति संभाव्यते ) प्रज्ञा० 1 पद। जी०। ज्ञा० / सिंगाण वा मंडूसाण वा मुग्गसिंगाण वा माणसिंगाण वा एरंडवीलहरौ, देवोत्कलिकादेव लहरिः इति लहरिपरत्वेन उत्कलिकाशब्दस्य याण वा फडिया उकरियाए भवति सेत्तं उक्कारियाभेदे / प्रज्ञा० व्याख्यानात् स्था० 4 ठा। अन्यत्र देवोत्कलिका तत्समवायविशेषः। 11 पद / स्था०। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कालिय 717 अभिधानराजेन्द्रः 1 भाग 2 उकुडुग उक्कालिय न० (उत्कालिक) उर्ध्व कालात्पठ्यत इत्युत्कालिकम्। | उक्किट्ठि स्त्री० (उत्कृष्टि) हर्षविशेषप्रेरिते ध्वनिविशेषे, आ० म०द्वि०। दशवैकालिकादीनि / स्था० / कालवेला ( पञ्चविधस्वाध्यायिक ) __ आनन्दमहाध्वनौ, औ० / वि० / वकारपूर्वके कलकले, अत्र मात्रवय॑शेषकालानियमेन पठ्यमाने श्रुतविशेषे, अनु० / पा० / “जं __ चतुर्थप्रायश्चित्तेन शुद्धिः / जीत०।। पुण कालबेलावजं पढिजइ तं उक्कालियंति नं०।" उक्किण्ण त्रि० ( उत्कीर्ण ) उत् कृत-नष्टे, आ० चू०२ अ० / अतीव सेकिंतं उक्कालिअं उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्ता तंजहा व्यक्ते, प्रज्ञा०1 शिलादिषु उत्कीर्य्यकृते नामकादिरूपे पदभेदे, दश०२ दसवेयालियं कप्पिया कप्पियं चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं अ०। उद-कृ-कर्तरि श उल्लिखिते, कृतबेधे, उर्ध्वक्षिप्ते लिखिते च / उववाइयं रायपसेणियं जीवाभिगमो पण्णवणा महापण्णवणा वाचा पमायप्पमायं नंदी अणुओगदाराईदेविंदत्थओ तंदुलवेयालियं उक्किण्णंतर त्रि० (उत्कीर्णान्तर ) व अतीव व्यक्तान्तरे, प्रज्ञा० / चंदाविजयं सूरपण्णत्ति पोरिसिमंडलं मंडलप्पवे सो जी०। उकिणंतरविउलगंभीरखायफलिहा ( असुरकुमारावासाः ) विजाचरणविणिच्छिओ गणिविजा झा णविवत्ती मरणविवत्ती उत्कीर्णभुवनमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमन्तरालं ययोस्ते उत्कीर्णान्तरे आयविसोही वियरागसुयं संलेहणासुयं विहारकप्पो चरणविही ते विपुलगम्भीरे खातपरिखे येषां तानि उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरआउरपचक्खाणं महापच्चक्खाणं एवमाइ सेत्तं उक्कालियं / नं०। खातमध उपरिचसमम्परिखा उपरि विशाला अधः संकुचिता तयोरन्तरेषु पा०। अनु०। आ०म० द्वि०] पाली अस्तीति भावः / स० उक्कावाय पुं० (उल्कापात)६ त०। उल्का आकाशजातस्यापात उकित्तण न०(उत्कीर्तन) उत् कृत् ल्युट् संशब्दने, विशे० / आव०। उल्कापातः / स्था०।व्योम्नि सम्मूच्छितज्वलनपतनरूपे लोकप्रसिद्ध आ० म०वि० / व्य० / अनु० / नत्त्वा जिनं प्रवक्ष्यामि पर्यायोत्कीर्तनं सादिपारिणामिकेऽर्थे, अनु० / जी० / सरेखे सोद्योते वा तारकस्यैव मुदा० द्र० / देवनामादेरुच्चैः कीर्तने च / वाच० / पाते, भ०३०६ उ०। उल्कापातादिदोषाश्च वायव्यादिमण्डलेषु भवन्तः उकित्तणाणुपुटवी स्त्री० ( उत्कीर्तनानुपूर्वी ) उत्कीर्तनं संशब्दन शस्त्राग्निक्षुत्पीडाभिधायिनो भवन्ति / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। मभिधानोचारणं तस्यानुपूर्वी अनुपरिपाटिः / आनुपूर्वीभेदे, अनु०। उक्कास-पुं० ( उत्कास) अभिमानात्स्वकीयसमृद्ध्यादेः प्रकाशनरूपे उक्कित्तिय त्रि० (उत्कीर्तित) कथिते, चं०२ पाहु०। मोहनीयकर्मभेदे, भ०१२ श०५ उ०। उकिरिजमाण त्रि० ( उत्कीर्यमाण ) क्षुरिकादिभिरुत्कारिकया उक्कासहस्स न०(उल्कासहस्र) अग्निपिण्डसहस्रे, स्था०८ ठा०। भिद्यमाने, जं०१ वक्ष० / कोट्ठपुडाण वा उक्करिजमाणा ण व उक्कि (क्क)त्रि० ( उत्कृष्ट ) कृषि विलेखने इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य विक्करिजमाणाण वा। आ० म०प्र०। जी०। उक्कीरमाण त्रि० (उत्कीरत्) वेधनकेन विकिरति, लेखन्यादिना मृष्ट निष्ठान्तस्येदं रूपम्। उत्-कृष-क्त दश 1 अ०। इत्कृपादौ / 11 // कुर्वाणे, तं च केइ उक्कीरमाणं पासित्ता वएज्जा किं भवं उक्कीरसि, अनु० / 128 / इति ऋत इत्वम् / प्रा० / आर्षे तु " तदा संवरमुक्कट्ठति " कर्म०॥ प्राकृतशैल्या उत्कृष्टम् / दश० 4 अ० / प्रधाने, " धम्मो उक्कु जिय न० ( उत्कूजित ) उत्-कूज-भाक्त उपरि हुमिति करणे, मंगलमुक्कट्टमहिंसा संजमो तवो"।दश०१ अ०। भ०। प्रशस्ते, जी०३ उवरिहुत्ति करणं उक्कुज्जिय। नि० चू०। कर्तरिक्तःकृ-ताव्यक्तमहाध्वनी, प्रति० / प्रव० / कर्षणयुक्त क्षेत्रादौ च / वाच० / उन्मुक्तकृष्ट, कृष्ट कर्षण प्रश्न०१ द्वा०। लभ्यग्रहणायाः कर्षणम् जं०३ वक्ष० / उत्कर्षवति, वि०३ अ० / *उत्कु डज्य अव्य० ऊर्ध्व कायमुन्नम्य ततः कुब्जीभूयेत्यर्थे , " हर्षवशाज्जायमाने उत्कर्षे, आ० म०प्र०। कल्प० / गेरुयवणियसेढिय, असंजए भिक्खू पडियाए उकुज्जिया आवउकुज्जिया" आचा०२ श्रु० सोरहि पिट्टकुक्कसकए य / उक्किट्ठम-संसट्ट, संसढे चेव बोधटवे " 1 अ०७ उ०। उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालाबुत्रपुषफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि उकुट्ठ न०(उत्कृष्ट ) पीलुपर्णिकादेरुदूखलचूर्णिते आर्द्रपर्णचूर्णे आचा० भण्यन्ते। दश०१ अ०। २श्रु०१अ०६ उ०। सचित्तवणस्स 3 चुण्णा उकुट्ठो भणइ। नि० चू० 4 उक्किट्ठवण्णगपुं०(उत्कृष्टवर्णक) प्रधानचन्दनके, उछिट्टवण्ण-गोपरि, उ०। उक्कुट्टोणाम सचित्तवणस्स इपत्तकुरुफलाणि वा उक्खले बुज्झति / समवसरणबिंबरूपस्स" पंचा०२ विव०। नि० चू०१ उ०। उक्किट्ठसंकिलेस पुं०(उत्कृष्टसंक्लेश) इह सर्वोत्कृष्टस्थितिजनकानि उक्कुडुग न० ( उत्कुटुक ) यथास्थानमनवस्थिते, जं० 2 वक्ष० / चरमपङ्क्तिनि दशितानि यानि स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थानानि तेषां यथास्थानमनिविष्ट, भ०७ श०६ उ० / आसने, पुतालगने शा० 1 मध्ये यचरममध्यवसायस्थानं तदुत्कृष्टसक्लेश उच्यते। अथवा चरम अ० / भूमावन्यस्तपुततयोपविष्ट, प्रव०६७ द्वा० पंचा०। "आगम्मुस्थितिबन्धाध्यवसाय-स्थानमुत्कृष्टसंक्लेश उच्यते / इति परिभाषि कुकुडओ संतो पुच्छेजा यंजलिउडो" गुरोः समीपमागत्य उत्कुटकोन्मुतेऽर्थे, कर्म०। तासनः कारणतः पादपुञ्छनादिस्थः सन् शान्तो वा / उत्त०१ अ० / उकिट्ठसरीर त्रि० (उत्कृष्टा) उत्कर्षवच्छरीरे," उक्किट्ठे उभिट्टसरीरे आ०म०। यथा कुकुडिया पादं पसारी तुलहुंचेव। झटिति एवं साहु जाहे भविस्सइ" वि०७ अ०। आ०म०। परिततो ताहे भूमि अच्छिवंतोपसारेतिलहुवा उद्रुतं सथारपट्टए टवें ति। उकिट्ठा स्त्री० ( उत्कृष्टशरीर ) प्रशस्तायां गतौ, जी०३ प्रति० / आ० चू०४ अ०1" उछाडेवा जाव पलाले वा तस्स लाभे संवसेज्जा तस्स मनोहरायां गतौ, कल्प० / “उक्किट्ठाए तुरियाए चंडाए चवलाए जयणाए अलाभे उकुडुए वाणे सज्जिए व विहरेज्जा छट्टा उग्गहपडिमा" आचा०२ उद्धयाए दिव्याए देवगईए" राय०। श्रु०२ अ०२ उ०। जिनकल्पं प्रतिपन्नःपुनर्नियमादुत्कुटुकः। बृ०१ उ०। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कुडुया 718 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उक्खा उकुडुया स्त्री० ( उत्कुटुका ) आसनालनपुतः पादाभ्यामवस्थितः उकोसहिइय पुं० (उत्कर्षस्थितिक) उत्कर्षा उत्कर्षवत्संख्याउत्कुटुकस्तस्य या सा उत्कुटुका / निषद्याभेदे, स्था०५ ठा० आo समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा / तेषामसंख्यातसमयस्थितिम० द्वि०। कानामित्यर्थः। तेषु, स्था० 11 ठा० / उक्कुडुयासण न० ( उत्कुटुकासन) पीठादौपुतालगनेनोपवेशने, स्था० उकोसपएसिय पुं० (उत्कर्षप्रदेशिक) उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः उत्कर्षवन्तः 5 ठा० वृ०॥ उत्कृष्ट संख्याः परमान्ताः प्रदेशा अणवस्ते सन्ति येषान्ते उकुडुयासणियपुं०(उत्कुटुकासनिक) उत्कुटुकासनंपीठादौ पुताल उत्कर्षप्रदेशिकाः / तेषु, स्था० 1 ठा० / गनेनोपवेशनरूपमभिग्रहतो यस्यास्ति स उत्कुटु कासनिकः / उक्कोसपद न० (उत्कृष्टपद) उत्कृष्टत्वे,“ उक्कोसपदे अट्ठ अरिहंता" उत्कुटुकासनेनैवोपविशामीत्यभिग्रहधारिणि साधौ उत्कुटुकासनिकत्व- / उत्कृष्टतोऽष्टावर्हन्तो भवन्ति स्था०८ ठा०। मभ्यनुज्ञातं तीर्थकृता कायक्लेशाख्यतपोभेदे एषः / स्था० 5 ठा०। / उक्कोसमयपत्त त्रि० ( उत्कर्षमदप्राप्त ) उत्कर्षेण मदं प्राप्त उक्कुरुडपुं०(उत्कुरुट) इष्टकाकाष्ठादिराशिरूपेऽर्थेकचवरपुजे, “छिंडीइ / __उत्कर्षमदप्राप्तः / उत्कर्षतो मत्ते, जी० 3 प्रति०। पचवाया तणपुंजपलालगुम्मउक्कुरडे" वृ०१ उ० / आ० म० द्वि०। उक्कोसिय पुं० (उत्कौशिक ) गोत्रविशेषप्रवर्तक ऋषिभेदे, “थेरस्सणं उकुस धा० ( गम ) गतौ, भ्वादि “गमेरइ अइच्छाणु वजावसज्जोकुसे अजवइरसेणस्स उक्कोसियगोत्तस्स" कल्प०। 814 / 162 // इति सूत्रेण गम्धातोरुकुसादेशः उकुसइ गच्छति। प्रा० / उक्कोसिया स्त्री० ( उत्कर्षिका ) उकर्षवत्याम, पञ्चा० 8 विव० / उक्केर पुं० ( उत्केर ) उप्पको उप्पीलो उक्केरो पहयरोगणो पयरो प्रा० उत्कृष्टायाम, सू० प्र० 1 पाहु०। को०७ / उत्पीडने, उत्कारिकाभेदेन भिन्ने,“ दुंदुभिसमारोहे भेए उक्ख पुं०(उक्ष ) सम्बन्धे, नं0 आ० म०प्र० परिधानवस्वस्यैकदेशे, उक्कारिया य उक्केरे" सूत्र०१ श्रु०१ अ० उ०। आह च निशीथचूर्णिकृत् / परिधानवत्थस्स अडिभतरचुसाए उक्कोडमंग पुं० ( उत्कोटभङ्ग ) खोटभङ्गशब्दार्थे, " खोडभंगो त्ति वा उवरिंकण्णेणाभिहेट्ठा उक्खो भणइ एस संयतीनां भवति बृ०१ उ०। एगटुं" व्य० प्र०१ उ०। उकोडा स्त्री० ( उत्कोटा ) उत्कोचायां लञ्चायाम, औप० / ज्ञा० / नि० चू० / अवसेक्तरि, सिक्ते, वाच०। उक्ख ( क्खा )अ न० (उत्खात ) उत्-खन् क्त, आत्वम् / वा "उक्कोडाहिय पराभवेहि य दिजेहि य" वि०१ अ०। उक्कोडालंचणपसमग्गणपरायण त्रि० ( उत्कोटालञ्चनपार्श्वमार्गण यव्योत्खातादावातः।।१।६७।इत्यनेनादेरकारस्यात्थविकल्पः / परायण) उत्कोटालञ्चयोर्द्रव्यबहुत्वेत-रत्वादिभिलॊके प्रतीतभेदयोः ऊर्ध्वमवदीर्णे, प्रा०। पाश्र्थात् गुप्तिगतनरसमीपादुन्मार्गणं याचनं तत्परायणस्तनिष्ठाः / चौर्य उक्खंभ पुं०(उत्तम्भ ) उत्-स्तम्भ-घउत्प्रावल्पेन स्तम्भने, संथा०। विशेषतत्परेषु, “उक्कोडालंचणपास मग्गणपरायणेह गोम्मिगभंडहिं" उक्खंभिय त्रि० ( उत्तम्भिक ) उत् प्राबल्येन स्तम्भनमुत्तम्भः उत्तम्भ प्रश्न०३द्वा०। एव उत्तम्भिकः स्वार्थे इकण प्रत्ययः / अवष्टम्भनकेः प्रतिस्तम्भवहउक्कोडिय त्रि० ( उत्कोटिक ) उत्कोटा उत्कोचा लश्चेत्यर्थः / तया ये कादौ, उत्तम्भ्यते स्थिरीक्रियते जीवो मुक्तिकारणेषु यनोति पर्यन्ताव्यवहारन्ति औत्कोटिकाः। लञ्चया ऽसद्व्यवहारिषु, औ० / ज्ञा०। राधने, " भणकेरिसस्स भणिओ संथारो केरिसे वओ गासे" संथा०। उकोया स्त्री० (उत्कोचा) लञ्चायाम, मूर्ख प्रति तत्प्रतिरूपदानादिक उक्खडमडु ( देशी ) पुनः पुनः शब्दार्थे, उक्तं “च उक्खडमडुत्ति वा मसद्व्यवहारं कर्तुं प्रवृत्तस्य पार्श्ववर्तिविचक्षणभयात् विचक्षेण यत्तद-- भुजो भुजोत्ति वा पुणो पुणो त्ति वा एगटुं" व्य० द्वि० 1 उ० / करणम् / ज्ञा० 18 अ०। उक्खणण न० (उत्खनन) उत्पाटने, प्रश्न०१ द्वा०। उक्कोसपुं०(उत्कर्ष) उत्कृष्यत इत्युत्कर्षः। उत्कृष्ट, “एसा खलु गुरुभत्ती उक्खणिऊण अव्य० (उत्खाय) उत्खन्-ल्यप् उत्पाट्येत्यर्थे , अप्पणो उक्कोसो एस वा ण धम्मो उ" पञ्चा 2 विव० / चं० प्रव० / गुणाभिमाने, ___ अच्छी भल्लीए उक्खणिऊण सिवगस्स लाएति" नि० चू०१ उ० / स्था० 4 ठा०। सूत्र०। आत्मनः परस्य वा मानात्क्रियो-त्कृष्टताकरणे, उक्खलंपिय अव्य० (उत्खW ) कण्डूयनं कृत्वेत्यर्थे , आचा०२ श्रु० भ०१२ श०५ उ०।तत्स्वरूपे मोहनीयकमर्णि,। स०५२ स०। प्रकर्षे, १अ०६ उ०। तद्योगात्कर्षतीतिवाव्युत्पत्तेः। उत्कृष्टे, "तओ वियडदत्तीओपडिगाहित्तए उक्खलग न० (उदूखल) (ओखली ) इति प्रसिद्धे कण्डनोपकारिणि तंजहा उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा" स्था० 3 ठा०। गृहोपकरणे,“ को संयमो चमेहाए सुथ्युक्खलगं च खारं गालणं च " * उत्कृष्ट त्रि० उत् कृष् त तेनाष्फुण्णादयः / 8 / 1256 / इति सूत्र०१ श्रु०४ अ०। उत्पूर्वस्य कृष धातोः क्तसहितस्य उक्कोसादेशः / उत्कर्षवति, प्रा०) / उक्खलिया स्त्री० ( उत्खलिका ) स्थाल्याम, उवखलिया थाली जा * उत्क्रोशपुं० कुररे, प्रश्न० १द्वा०। ऊच्चैःक्रन्दिनि, त्रि०।तत चतुरर्थ्याम् | साधुणिमित्तं सा अहाकम्मिया" नि० चू० 1 उ० / उत्करा उत्क्रोशीयः तत्सन्निहिते देशादौ, वाच०।। उक्खवित्तु अव्य० ( उत्क्षिप्य ) उत् क्षिप् ल्यप उर्वक्षिप्त्वेत्यर्थे, तं उकोसंत त्रि० ( उक्रोशत् ) क्रन्दति, प्रश्न०१ द्वा०। उक्खवित्तु न णिक्खेवे आसण्णउछड्डए" दश०५ अ०। उक्कोसग पुं० (उत्कर्षक ) उत्कर्षतीत्युत्कर्षः / उत्कर्ष एवोत्कर्षकः | उक्खा स्त्री० (ऊखा ) स्वाल्याम्, पिंड० / एगाओ उक्खातो परिए “उत्कृष्ट, तताणं च उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवई" सिजमाणे पहाए एकस्मात्पिठरकात् गृहीत्वा कूरादिकम् आचा०२ श्रु० चंद्र 1 पाहु० / सु०प्र०। आव०। 1 अ०१ उ01 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खित 716 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गगंध उक्खित-त्रि० (उरिक्षत) सिक्ते, "चंदणोक्खित्तगाय सरीरे" सूत्र०२ | उक्खिप्पमाण त्रि० (उत्क्षिप्यमाण) ऊर्ध्व क्षिप्यमाणे, (उक्खिप्पश्रु०२ अ॥ माणेहिं" प्रकीर्णकैरुक्षिप्पमाणैरित्यर्थः। प्रश्न०७४ द्वा)। * उत्क्षिप्त त्रि० उत्। क्षिप्-क्त अर्ध्वमाकाशे क्षिप्ते, ज्ञा० 10 अ०। उक्खिवंत त्रि० (उत्क्षिपत्) उत् क्षिप्-शत्। उत्क्षिपेर्गुलु गुञ्छोत्थंघा जलादुद्धृते, ज्ञा० 17 अ० उत्पाटिते, आवा० 1 अ० प्रथमतः | ल्लत्थे, 8 / 4 / 154 इत्यादिसूत्रस्य वेकल्पिकत्वाद् गुलुगुञ्छादयः समारभ्यमाणे गेयभेदे, रा०ा जंगा उचाटितेच धुस्तूरे पुं० वाचा | प्रेरणे, प्रा०। उक्खित्तकण्णणास त्रि० ( उत्क्षिप्तकर्णनास ) ब० उत्पाटितकर्ण | उक्खिवणा स्त्री०(उत्क्षेपणा) उद्घाटनायां साधूनां संघाहिः करणे, नासिके, वि०१अ०। ___ “अच्छिंदओय उक्खवणा" वृ०१०।। उक्खित्तचरग पुं० (उत्क्षिप्तचरक) स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुवृतं | उक्खुड धा० (तुइ) भेदे, तुदा० कुटा० पर. सक, सेट. ( तुडेस्तो तदर्थमभिग्रहविशेषाचरतितद्गवेषणाय गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः। स्था० टतुदखुडोक्खुडोल्लुक्कणिल्लुक्कलुक्कोच्छूराः 8 / 4 / 16 / इति ५ठा०। दायकेन पूर्वमेव भाजनादुद्धृतस्य गवेषके, प्रतिग्रहविशेषा- | तुडेरुक्खुडादेशः उक्खुडइतुडतिप्रा०। धारिणि, ध०३ अधि०। भिक्षाचरकभेदे, औप०। पं०व०॥ उक्खेव पुं० (उत्क्षेप ) उत्-क्षिप्-घउत्पाटने, ओ० कर्तरि अच उक्खित्तणायन०(उत्क्षिप्तज्ञात ) मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे वर्तमानेन | उत्क्षेपकारके, त्रि० वाच० प्रारम्भ वाक्ये, निर०। यः पाद उत्क्षिप्तस्तेनोपलक्षितं मेधकुमारचरित-मुत्क्षिप्तमेवोच्यते। | उपक्षेप-पुं० उपोद्घाते “उक्खेवो तइयरस"उपा०१अ.हस्ता दुत्पाटने, उत्क्षिप्तमेव ज्ञातमुदाहरणं विवक्षितार्थसाधन-मुक्षिप्तज्ञातम्।। (उक्खेवेणं देतिणिवावि उवणाति) व्य. 3 उ०। मेघकुमारचरितरूपे ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमाऽध्ययनोक्ते मेघकुमार- | उक्खेवग त्रि० (उत्क्षेपक) उद्-क्षिपण्वुल्ऊर्ध्वप्रक्षेपे, उत्क्षिप्याहारके चरिते, ज्ञातभावोऽस्येवं भावनीयोदयादिगुणवन्तः सहन्त एव देहकष्ट- | चौरे च / वाच० वंशदलादिमये मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागे, वायूदीरणके मुत्क्षिप्तेकपादो मेधकुमारजीवो हस्ती वेति। एतदर्थाभिधायके वस्तुनि, भ०६श०३३ उ०। ज्ञा०१ प्रश्न०८/ ज्ञाताधर्मकयायाः प्रथमे ऽध्ययने च। ज्ञा०१ अ० स० आव०। प्रश्नका | उक्खेवण न० (उत्क्षेपण) उत्-क्षिप्ल्यु ट् उत्खनने, समुद्धरणे, सूत्र० उक्खित्तणिक्खित्तचरय पुं० ( उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरक) पाकभाजना- 2 श्रु०१ अ०।न्यायवैशेषिकप्रसिद्धे, पञ्चानां कर्मणामन्यतमस्मिन् तच दुत्क्षिप्य निक्षिप्तं तत्रेवान्यत्र च स्थाने यत्तदुत्क्षिप्तनिक्षिप्तम् / अथवा यदूर्वाधः प्रदेशाभ्यां संयोगविभागकारणं कर्मोत्पद्यते। यथा शरीरावयवे उत्क्षिप्त च निक्षिप्तं च यश्चरति स तथोच्यते अभिग्रह विशेषधारणि तत्सम्बन्धे वा मूर्तिमति मुसलादौ द्रव्ये ऊर्श्वभाग्भिराकाश-प्रदेशोद्यैः भिक्षाचरके, औ०। सूत्र। संयोगकरणमधोदिग्भागोवच्छिन्नैश्च तैर्विभागकारणं प्रयत्नवशाद्यत्कर्म उक्खित्तपसिणवागरण त्रि० ( उत्क्षिप्तप्रश्नव्याकरण ) उत्क्षिप्तानी--- तदुत्क्षेपणमुच्यते। सम्म। वोत्क्षिप्तानि अविस्तारिरूपाणि प्रच्छनीयत्वात्प्रश्नाव्याक्रियमाणत्वाच | उग्गलफणग न० ( उग्गालफलक ) आर्यकप्रभृतीनांवेल्या सभागते व्याकरणानि यानि तानि तथा।संक्षिप्तप्रश्नोत्तरेषु / भ०१६ श०५ उ०। चम्पकपट्टादिफलके, व्य०४ उ०। उक्खिवत्तपुय्ववसहि पुं० (उत्क्षिप्तपूर्ववसति ) पुं० क० स० अस्यां उगहिया त्रि० (उद्भहिता) पञ्चम्यामनेषणायाम, आचा०२ श्रु०१ अ० वसत यूयमिति साधूनामादौ दर्शितायां वसतौ, आचा०२ श्रु०२ अ० १०उ01 3 उ०। उग्ग धा० (उद्-घट ) उद्घट चेष्टायाम, णि. उद् घटेरुग्गः।।। उक्खित्तभत्त न० ( उत्क्षिप्तभक्त) न० पूज्यभक्ते, पूज्यभक्तमुत्क्षिप्त- ३३।उत्पूर्वस्य घटेय॑न्तस्य उग्ग इत्यादेशः। उग्गइ उद्घटयति। प्रा०। भक्तं पट्टकभक्तमेतान्येकार्थिकानि। वृ०२ उ०। *उग्र पुं० उच्. रक्गश्चान्तादेशः। क्षत्रियादूढायां शुद्रायामुत्पन्ने संकीर्णवणे, उक्खिवत्तविवेग पुं० ( उत्क्षिप्तविवेक) उत्क्षिप्तस्य शुष्कौदनादिभक्ते वाच० उग्रदण्डकारित्वादुनः कल्प०।आ० म०प्र० आदिदेवावस्थापिते निक्षिप्तपूर्वस्याचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्याद्रवविकृत्यादि- आरक्षवंशजे क्षत्रियभेदे, ज्ञा०१ आ० स्थ० आचा०।१०। कल्प०। द्रव्यस्य विवेको निःशेषतया पृथकरणमुद्धरणमुत्क्षिप्तविवेकः। अनु०। औ० भ०।दुष्टे, अतिउग्गदंडणिद्धम्मे आयरिया उग्गा दुत्ति वुत्तं आचामाम्लादिप्रत्याचक्षाणानां भोक्तव्यद्रव्यास्याऽ कल्पनीयद्रव्येण भवति नि० चू०। स्वभावत उदात्ते, भ० 104 उ०। प्रज्ञा० तीव्र, तं०। संस्पर्श तदुद्धरणरूपे प्रत्याख्यानाकारे,। “आयंविलं पच्चक्खाइ अप्रधृष्ये, ज्ञा० 1 अ०। रा०। चं०। संस्था। उत्कटे, उत०२० अ०। अण्णत्थणा भोगे णं सहसागारेणं लेवालेवेणं उक्खित्तविवेगेणं" पंचा 5 | उग्गकुल न० ( उग्रकुल) 6 त० आरक्षिकाणां कुले, आचा०२ श्रु०१ विव०॥ ध०। आ० चू०। अ०२ उ01 उक्खित्ताय न० ( उत्क्षिप्तक ) उत् क्षिप्-क्त-ककारात्पूर्व दीर्घत्वं उग्गच्छ अव्य० (उद्गत्य ) क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थे , भ०५ श० प्राकृतत्वात्। प्रथमतः समारभ्यमाणे गेयादौ, ज०१ वक्ष०जी०रा०। १उ०। स्था०। उग्गगंध पुं० ( उग्रगन्ध ) उग्रः गन्धः पुष्पादावस्य चम्पके, कट्फले, उक्खिप्प अव्य०(उत्क्षिप्य) उत् क्षिप् ल्यप् “क्षिप्त्वेत्यर्थे अर्जकवृक्षे, लशुने, च। हिडनि, न०। उत्कटगन्धाढ्ये त्रि०।यवान्याम, उक्खिप्पपादं रीएज्जा" आचा०२ श्रु०२ अ०३ उ०। वचायाम्, अजमोदायां, च / स्त्री० टाप् मेदिनी०। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गतव 720 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गम उग्गतव त्रि० ( उग्रतपस् ) उग्रमप्रधृष्यं तपोऽनशनादि यस्य स तथा। रा०वि०। भ०। तीव्रतपसि, संथा०। यदन्येन प्राकृतेनपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा ( तेन ) विविधेन तपसा युक्ते, रा०। उत्त० / स्था०। ज्ञा०नि०। उम्गतेय त्रि०(उग्रतेजस्)६ब०॥ तीव्रप्रभावे, तीव्रविषे, “आसीविस उग्गतेयकप्या" प्रश्न०१सं० द्वा०। उग्गपव्वइयपुं० (उग्रप्रव्रजित) उग्राः सन्तः प्रव्रजिताः। दीक्षामाश्रितेषु, आदिदेवेनारक्षकत्वेन नियुक्तानां वंशजेषु, औ०। उग्गपुत्त पुं० ( उग्रपुत्र ) 6 त० उग्राणां पुत्राः / उग्राणां कुमारेषु, क्षत्रियजातिविशेषेषु, सूत्र०२ श्रु०१३ अ०भ०। उग्गपुरिस पुं० ( उग्रपुरुष ) उग्रपुरुषविशेषे, स्था० / (व्याख्या पुरिसशब्दे) उग्गम पुं० (उद्गम ) उद्गमनमुद्गमः पिण्डादेः प्रभवे, तत्थुग्गमोपसूई, पभओ एमादि हॉति एगट्ठा। सो पिंडस्सिह पगओ, तस्स य दोसा इमे होति / / तत्रेत्युगमोत्पादनैषणासुमध्ये उद्गमनमुद्गमः। प्रसवनं प्रसूतिः। प्रभवनं प्रभवः ( एमाइत्ति ) एवामदयः आदिशब्दादुद्भवादिपरिग्रहः भवन्ति स्युरेकार्थाः / अनन्याभिधेयाः शब्दा इति गम्यम् (सोत्ति ) स चोद्गमः सचेतनाचेतनमिश्रद्विपदादिद्रव्यविषयत्वेन बहुविषयोपि सन् पिण्डस्य भैक्ष्यस्याधिकृतः प्रस्तुतः / इह पिण्डाधिकारे दोषा दूषणानि तस्य पिण्डोद्रमस्य इमे वक्ष्यमाणा भवन्ति वर्तन्ते / ये हि साध्वर्थ पाकस्थापनप्रकाशनादयो भक्तादिवस्तुनो भक्तस्थापितत्वप्रकटत्वादिरूपेण भवनलक्षणमुद्गमं दूषयन्ति ते उद्गमदोषा इतिगाथार्थः / पंचा० 13 विव० / तत्र प्रथमत उद्गमस्य एकार्थिकानि नामानि नामादिकांश्च भेदान् प्रतिपादयति। उग्गम उग्गोवण मग्गणाय एगट्ठियाणि एयाणि। नामां ठवणा दविए भायम्मि य उग्गमो होइ।। उद्गम उद्गोपना मार्गणाच एकाथिकान्येतानि नामानि सच उद्गमश्चतुर्दा भवति तद्यथा (नामंति) नामोद्गमः यत् उद्गम इति नाम अथवा जीवस्य अजीवस्य वा यदुद्गम इति नाम स नामनामवतोरभेदोपचारात् / यता नाम्ना उद्गमो नामोद्म इति व्युत्पत्ते मोद्गमः / स्थापनोद्रम उद्गमः स्थाप्यमानो द्रव्ये द्रव्यविषयो भावभाव विषयः। तत्र द्रव्योगमो द्विधा आगमतो नो आगमतश्च / नो आगमतोपि त्रिधा / ज्ञशरीर भव्यशरीर तद्व्यतिरिक्तभेदात्। तत्र आगमतो नो आगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपौ द्रव्यगवेषणावत् भावनीयौ। ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्योद्गमम्। तथा नो आगमतो भावोद्वं च प्रतिपादयति। दव्वम्मि लडुगाई, भावे तिविहोग्गमो मुणेयव्यो। दसणनाणचरित्ते, चरितुग्गमेणेत्थ अहिगारो॥३॥ द्रव्ये द्रव्यविषये उद्गमो लड्डुकादौ लड्डुकादिविषयो लडुकादेः संबन्धी वेदितव्यः / अत्रादिशब्दाज्ज्योतिरादिपरिग्रहः / तथा भावे भावविषये त्रिविधात्रप्रकारो ज्ञातव्यः / तद्यथा दर्शने दर्शनविषयो ज्ञाने ज्ञानविषयश्चारित्रे चारित्रविषयः / अत्र तु चारित्रोद्गमेनाधिकारप्रयोजनम् चारित्रस्य प्रधानमोक्षाङ्गत्वात् / तथाहि ज्ञानदर्शने सती अपि न चारित्रमन्तरेण कर्ममलापगमाय प्रभवतः श्रेणिकादौ तथोपलम्भात् चारित्रपुनरवश्यं ज्ञानदर्शनाविनाभाविस्वरूपेणापि वाभिनवकोपादाननिषेधपूर्वोपार्जितकम्मपिगमकरणस्वरूपम् ततस्तत्प्रधानमोक्षस्याङ्गं तत्प्रधानानुयायिन्यश्च प्रेक्षावतां प्रवृत्तयः / ततोत्र चारित्राद्रमेन प्रयोजनम्। लड्डुकादेरित्यत्रादिशब्देन लब्धं ज्योतिरुद्रमादिरूपं द्रव्योगमं विवरीतुमाह। जोइसतणोसहीणं, मेहरिणकराणमुग्गमो दव्वे / सो पुण जत्तो य जया, जहा य दव्वुग्गमो ददो।। 83|| ज्योतिषां चन्द्रसूर्यादीनां तृणानां दर्भाणामौषधीनां शाल्यादीनां जीमूतानां ऋणस्य उत्तमर्णा यदा तव्यस्य कराणां राजदेयभागानाम्। उपलक्षणमेतत्। अन्येषामपि द्रव्याणांय उद्गमः सद्रव्यसंबन्धी वेदितव्यः / स पुनद्रव्योगमो यतो यस्मात्सकाशात्सयदा यस्मिन् काले यथा च येन प्रकारेण भवति तथा वाच्यः / तत्र ज्योतिषां मेघानां च आकाशदेशात् तृणानामौषधीनां च भूमेर्ऋणस्यव्यवहारादेः कराणां नृपतिनियुक्तपुरुषादेः तथा यदि ज्योतिषां मध्ये सूर्यस्य प्रभाते शेषाणां तु कस्यापि कस्यांचिद्वेलायां तृणादीनां प्रायः श्रावणादौ तथा यथेति ज्योतिषा मेघानां चाकोशे प्रसरणेन तृणानामौषधीनां च भूभी स्फोटयित्वा उर्व निस्सरणेन ऋणस्य पञ्चकशतादिवर्द्धनरूपेण कराणां प्रतिवर्ष गृहस्य द्रम्मद्वयादिग्राह्यमित्येवंरूपेण / एवं शेषाणामपि द्रव्याणां यतो यदा यथा च यथासंभवमुद्रमो भावनीयः। इह प्राक् “दव्वम्मिलड्डुगाइ" इत्युक्तं तेन च लड्डुकप्रियकुमारकथानकं सूचितमतस्तदेवेदानी गाथात्रयेणोपदर्शयति। वासहरा अणुजत्ता, अत्थाणी जोग्गकिडुकाले य। घडगसरावेसु कया उ, मोयगा लडुगपियस्स / / 84 // जोग्गा अजिण्ण्मारुय, निसमुन्भवो सुइसमुत्थो। आहारुग्गामचिंता, असुइ त्ति दुहा मलप्पभवो।।५।। तस्सेवं वेरुग्ग-गमेण सम्मत्तनाणचरणाणं। जुगवंकमुग्गमो वा, केवलनाणुग्गमो जाउ // 86 // वासगृहात्वासभवनात् अनुयात्रानिर्गमः / तत आस्थान्य योग्या क्रीडा सा व्यधीयत / ततः काले भोजनवेलायां तस्य लड्डुकप्रियस्य मोदकप्रियस्य कुमारस्य योग्या घटेषु सरावेषु च कृत्त्वा मोदका जनन्या प्रेषिताः / ते च परिजनेन सह स्वेच्छं तेन भुक्तास्ततो भूयोपि योग्यक्रीडानिरीक्षणासक्तचित्ततया तस्य रात्रौ जागरणभावतस्ते मोदका न जीर्णास्ततोऽ जीर्णदोषप्रभावतोऽतीव पूतिगन्धिमारूतनिसगर्गोऽभवत् / तत आहारोद्गमचिन्ता जाता / यथा त्रिसमुत्था घृतगुडकणिक्कासमुद्भवा एते मोदकास्ततः शुचिसमुत्थाः / सूत्रे च जातावेकवचनम् / केवलं द्विधा मलप्रभवोऽयं देहस्ततस्तत्संपर्कतोऽशुचयो जाता इत्येवंतस्य वैराग्योद्गमेन ज्ञानदर्शन चारित्राणां युगपक्रमेण वा उद्गमो जातस्ततः के वलज्ञानोद्गम इति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्तुकथानकादवसेयस्तचेदम्। श्रीस्थलकं नाम नगरं तत्र राजा भानुस्तस्य भार्या रुविमणी तयोः सरूपनामा तनयः स च यथासुखं पञ्चभिर्धात्रीभिः परिपाल्यमानः प्रथमसुरकुमार इवानेकसुजनहृदयाभिनन्दिनं कु मारभावमधिसरोह / ततः शुक्लपक्षचन्द्रबिम्बमिव प्रतिदिवसं कलाभिरभिबर्द्धमानः क्रमेण कमनीयकामिनीजनमनः प्रह्लादकारिणी यौवनिकामधिजगाम / तस्मै च स्वभावत एव Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरगम 721 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गम रोचन्ते मोदकास्ततो लोके तस्य मोदकप्रिय इति नाम प्रसिद्धिमगमत्। / स च कुमारोऽन्यदा वसन्तसमये वासभवनात्प्रातरूत्थाय आस्थानमण्डपिकायामाजगाम / तत्र च निजशरीरलवणिमापात्कृतसुरसुन्दरीरूपाहंकारमनोहरविला-सिनीजनगीतनृत्यादिकं परिभावयितुं प्रावर्तत / तत्र च स्थितस्य भोजनवेलायामागतायां भोजननिमित्तं जननी प्रधानसरावसंपुटेषु शेषपरिजननिमित्तं च घटेषु कृत्वा मोदकान् प्रेषितवती / ततस्तेन परिजनेन सह मोदका यथेच्छं बुभुजिरे। ते च रात्रावपि गीतनृत्यादिव्याक्षिप्तचित्ततया जागरणभावतो न जीर्णास्ततो ऽजीर्णदोषप्रभावतोऽधोवतोऽतीव पूतिगन्धिर्निर्जगाम / तद्गन्धपुद्गलाश्च सर्वतः परिभ्रमन्तस्तन्नासिकांप्रविविशुः। ततस्तथारूपं पूतिगन्धमाघ्राय चिन्तयामास / यथामी मोदका घृतगुडकणिक्कादिनिष्पन्नास्ततः शुचिद्रव्यसमुत्था एवैते / केवलमयं यो देहो जननीशोणितजनकशुक्ररूपो द्विधा मलप्रभवत्वादशुचिरूपस्तत्संपर्कवशतोऽशुचिरूपो जातः। दृश्यन्ते च कर्पूरादयोऽपि पदार्थाः स्वरूपतः सुरभिगन्धयोऽपि देहसंपर्कतःक्षणमात्रेण दुरभिगन्धयो जायमानाः / क्षणान्तरे शरीरगन्धस्यैव पूत्यात्मकस्योपलम्भात्तत इत्थमशुचिरूपस्याने कापायशतसंकुलस्य शरीरस्यापि कृते ये गृहमासाद्य नरकादिकुगतिविनिपातकारीणि पापकर्माणि सेवन्ते ते सचेतना अपि मोहमयनिद्रोपहतविवेकचेतनत्वादचेतना एव परमार्थतो वेदितव्याः / यदपि च तेषां शास्त्रादिपरिज्ञानं तदपि परमार्थतः शरीरायासफ्लम् / यद्वा तदपि पापानुबन्धिकर्मोदयतस्तयाविधक्षायोपशमनिबन्धनत्वाद-- शुभकर्मकार्येवेति तत्त्ववेदिनामुपेक्षास्पदम् / विद्वता हि सा तत्त्ववेदिनां प्रशंसाऱ्या या यथावस्थितवस्तुविविधहेयोपादेयहा- नोपादानप्रवृत्तिफ ला यां तु सकलजन्माभ्यासप्रवृत्या कथमपि परिपाकमागतापि सती सदैव तथाविधपापकर्मोदयवशत एकान्ताशुचिरूपेष्वपि युवतिजनवदनजघनवक्षोरुहा-दिशरीरावयवेषु रामणियकव्यावर्णनफ्ला सा इह लोकेपि शरीरायासफला परलोके च कुगतिविनिपातहेतुरित्युपेक्षणीया ये पुनः परमर्षयः सर्वदैव सर्वज्ञमतानुसारितागमशास्त्राभ्यासतो विदितयथावस्थितहेयोपादेयवास्तव इत्थं शरीरस्याशुचिरूपतां परिभाव्य युवतिकलेवरेषु नाभिरज्यन्ते नापि कर्माणि स्वशरीरकृते पापानि समाचरन्ति किंतु शरीरादिनिस्पृहतया निरन्तरं सम्यक्शास्त्राभ्यासतो ज्ञानामृताम्भोधिनिमग्नाः सममित्रशत्रवः परीषहादिभी रजिताः सकलकर्मनिर्मूलनाय यतन्ते धन्यास्ते तत्त्ववेदिनस्तानह नमस्करोमि। तदनुष्ठितं च सर्वमिदानीमनुतिष्ठामि इत्येवं तस्य मोदकप्रियस्य कुमारस्य वैराग्योद्गमेन सम्यद्गर्शनज्ञानचारित्राणामुद्गमो बभूव / ततः केवलज्ञानोद्गम इति तदेवमुक्तं मोदकप्रियकुमारकथानकम्। संप्रति यदुक्तं चारित्रोद्गमेनाधिकार इति तत्र चारित्रोद्गमेनाधिकारः शुद्धस्य द्रष्टव्यो नाशुद्धस्य / अशुद्धस्य मोक्षलक्षणकार्यसंपादकत्वायोगात् न खलु वीजमुपहतमडुरं जनयति। सर्वत्राप्यनुपहतस्थैव कारणस्य कार्यजनकत्वात् चारित्रस्य च शुद्धौ कारणं द्विधा तद्यथा / आन्तरं बाह्यं च। ते द्वे अपि प्रतिपादयति। दसणनाणप्पभवं, चरणं सुद्धेसु तेसु तस्सुद्धी। चरणेण कम्मसुद्धी, उम्गमसुद्धी चरणसुद्धी य॥ इह यतो ज्ञानदर्शनप्रभवं चारित्रं ततस्तयोः सुद्धयोस्तस्य चारित्रस्य शुद्धेर्भवति नान्यथा / तस्मादवश्यं चारित्रशुद्धिनिमित्तंचारित्राणा सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शनेच यतितव्यम्।यतश्चनिरन्तरं सद्गुरुचरणकमलपर्युपासनापुरस्सरं सर्वज्ञमतानुसारितांगमशास्त्राभ्यासकरणम्। एतेन चारित्रशुद्धेरान्तरं कारणमुक्तम्। अथ चारित्रशुद्ध्यापि किं प्रयोजनं येनेत्थं तच्छु द्धिरन्वेष्यते। अत आह / “चरणेणकम्मसुद्धी" चरणेन विशुद्धन कर्मणा ज्ञानावर-णीयादिकस्य शुद्धिरपगमो भवति। तदपगमे चात्मनो यथावस्थितस्वरूपलाभात्मको मोक्षस्ततो मोक्षार्थिना चरणशुद्धिरपेक्ष्यते तथा न के वलयोरेव ज्ञानदर्शनयोः शुद्धौ चारित्रशुद्धिः किन्तूद्रमशुद्धौ च चारित्रशुद्धिरेतेन बाह्य कारणमुक्तम् / ततश्वरणशुद्धिनिमित्तं सम्यदर्शनज्ञानवतापि नियमत उद्गमदोषपरिशुद्ध आहारो ग्राह्यः। ते च उद्गमदोषाः षोडश। तानेव नामतो निर्दिशति। आहाकम्मुद्देसिय, पूइकम्मे य मीसजाए य। ठबणा पाहुडियाए, पाऊपरकीयपामिचे / / परियट्टिए अमिहडे, अभिन्ने मालोहडेई य। अच्छिज्जे अणिसिट्टे, अज्झोयरए यसोलसमे / / (एतद्व्याख्या अहाकम्मशब्दे) दर्श०1 पं० चू०। ध०। केचित्पञ्चदश मन्यन्ते ते चैवं व्याख्यानयन्ति नतु चामी षोडश उच्यन्ते "अज्झोयरओमीसजायंचदोहिं पिएको चेव"भेदआधाकर्मादीनां व्याख्या अन्यत्र अहाकम्मादिशब्देषु विशोधिकोट्यविशोधिकोटिविभागः। संप्रत्येतेषामेव विभागमाह। एसो सोलस भेओ, दुहा कीरइ उग्गमो। एगा विसोहिकोडी, अविसेही उवावए।। षोडशभेद उद्गमः सामान्येन द्विधा तद्यथा एकाविशोधिकोटिः एको भेदोविशोधिकोटिरूपः। अपरा चाविशोधिकोटि-रविशोधिकोटिरूपः / द्वितीयो भेद इत्यर्थः। तत्र यद्वा दोषदुष्ट भक्तेतावन्मात्रे अपनीले सति शेष कल्प्यते स दोषो विशोधिकोटिः शेषस्त्वविशोधिकोटिः / तत्र प्रथमतोऽविशो धिकोटिमाह। आहाकम्मुद्देसिय, चरमतिगं पूइमीसजाए य। वायरपाहुडिया विय, अज्झोयरए चरिमदुगं / / आधाकर्मप्रभेदमौद्धेशिकस्य विभागौद्देशिकस्यान्त्यभेदत्रयं तथा पूतिभक्तं पानरूपं मिश्रजातं पाषण्डिगृहमिश्ररूपं साधु गृहमिश्ररूपम्। वादराप्राभुतिका अध्यवपूरकस्य च चरमद्विकं स्वगृहपाषण्डिमिश्रस्वगृहसाधुरुपम्। एते उद्गमदोषा अविशोधिकोटिरूपाः अनया चाविशोधि कोट्या स्पृष्टं शुद्धं भक्तम्। यघोषदुष्टं भवति तद्दोषमाह। उद्रमकोडीअवयव-लेवालेवे य अकयए कप्पेकंजिय अयामगवाउ, लोयसंसहपूईओ उद्गमकोट्या उद्गमदोषरूपया अविशोधिकोट्या अवयवेन शुष्कसिक्तादिना तथालेपेन तक्रादिना अलेपेन वल्लचनका दिना संसृष्ट तद्भक्तं तस्मिन्नुज्झितेपि कृते अकृते कल्प्ये। अकृतकल्प्यत्रये इत्यर्थः पात्रे यत्पश्चात्परिगृहाते तत्पूरितमव गन्तव्यम् / इह कश्चित् मतिदौर्बल्यादित्थं विकल्पते / यथा तदेव साधूनाधाय निर्वर्तितं तदेवैकमोदनमाधाकर्मभवतिन शेषमवश्रावणकाञ्जिकादितत्संसृष्टपूति न भवतीति ततस्तदभिप्रायनिराकरणार्थमाह ( कंजिएत्यादि ) इह Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गम 722 -अभिधानराजेन्द्रः | भाग 2 उग्गम साध्वर्थमोदने निर्वय॑माने यत्तत्सकाञ्जिकादि तदप्याधा कर्मादि तदवयवरुपत्वात्। ततः काञ्जिकेन आयामेन अवरणेन वा उष्णोदकेन च यत्संसृष्टं तदपि पूतिर्भवति / एतदेव रूपकत्रयेण भाष्यकृत् व्याख्यानयति। शुक्केणं विजं छिकं तु, असुइणा धावए जहा लोए। इह सुक्केण विछिकं, धोवइ कम्मेण भाणं तु / लेबालेवत्ति जं वृत्तं,जंपिदय्वमलेवुडं। तं पि घेत्तूण कप्पंति, तक्काकिइमलेवडं। आहाइ जं कीरइ तंतु कम्म, वजेहि उप्पण्ण्ममग्गणं व।। सौवीर विस्सामणतंदुलोया, कम्मति तो तग्गहणं करेति।। सुगमं नवरम्। आद्यरूपकेणावयव इति पदं व्याख्यातं द्वितीयरूपकेण लेवालेवईत्ति तत्रायं भावार्थः यदपि वल्लचनकादि द्रव्यमलेपकृत् तदपि प्रथममनाभोगादिकरणतः पात्रे गृहीत्वा पश्चात्कथमपि परिज्ञाते परित्यज्य पात्रं कल्पयति। कल्पत्रयेण प्रक्षालयति। किं पुनस्तक्रादिकं लेपकृद् गृहीत्वा तत्र सुतरां कल्पत्रयेण प्रक्षालनं कर्त्तव्यमिति परिज्ञापनार्थ / लेपालेप इत्युक्तत् / तथा यदेव मुख्यवृत्त्या साधूनाधाय क्रियते तदेवाधाकर्मनान्यदिति बुद्ध्या शिष्या वर्जयिष्यन्ति ओदनमेकैकं केचलं न शेषं तन्दुलोदकादिकं ततो गुरवो भद्रबाहुस्वामिनः सौबीरां विश्रामणतन्दुलोदकान्यप्याधाकर्मेति परिज्ञापनार्थं तद्ग्रहणं सौवीरादिग्रहणं विशेषतः कुर्वन्ति। तदेवं शोधिकोटिरुक्ता। संप्रति विशोधिकोटिमाह। सेसा विसोहिकोडी, भत्तं पाणं विगिंच जहसत्तिं। अणलक्खिय मीसदव्वे, सव्वविवेगे य वा सुद्धो / / शेषा औद्देशिकं नवविधमपि च विभागौद्देशिकमुपकरणं पूतिर्मिश्रस्याद्यो भेदः स्थापना सूक्ष्मप्राकृतिका प्रादुष्करणं कृतं प्रामित्यकं परिवर्तितमभ्याहृतमुद्भिन्नं मालापहृतमाच्छेद्यमनिसृष्ट- मध्यवपूरकस्याद्यो भेदश्चेत्येवंरूपाणि विशोधिकोटि: विशुध्यति शेषं शुद्धं भक्तम् यस्मिस्तूवृत्ते यद्वा विशुद्धयति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नुज्झिते सा विशोधिः साचासौ कोटिश्च भेदश्च विशोधिकोटिः। उक्तंच "उद्देसियम्मि नवगं, उवगरणं जं च पूइयं होइ, / जावंति य मीसगयं च, अज्झोयरए पढमपयं। परियट्टिए अभिहडे, उब्भिन्ने मालोहडेई य अच्छिज्जे अणिसट्टे, पाउयरकीयपामिचे। सुहमा पाहुडिया विय, ठवियगपिंडो य जो भवे दुविहो / सव्वोविएसिरासी, विसोहिकोडी मुणेवव्वो। अत्र विधिमाह ( विगिंच जह सत्ति) अनया विशोधिकोट्या यत्संसृष्टं मन्नं पानं वा तद्यथाशक्ति विगिंच परित्यज / इयमत्र भावना / भिक्षामटता पूर्वं पात्रे शुद्धं भक्तंयस्मिन्नेव तत्रैवानाभोगादिकरणवशतो विशोधिकोटिदोषं गृहीतं पश्चाच कथमपि ज्ञातं यथैतद्विवक्षितं विशोधिकोटिदोषदुष्टं मया गृहीतमिति ततो यदि तेन विनापि निर्वहति तर्हि सकलमपि तद्विधिना परिस्थापयति / अथन निर्वहति तर्हि यदेव विशोधिकोटिदोषदुष्टं तदेव तावन्मानं सम्यक्परिज्ञाय त्यजति। पुनरलक्षितेन सदृशवर्णगन्धादितया पृथक् परिज्ञातुमशक्येन मिश्रितं भवति। यद्वा द्ररूपेण भक्तादिना अन्यत् भक्तादि तदा सर्वस्यापि तस्याविवेकः कृते च सर्वात्मना विवेके यद्यपि केचित्सूक्ष्मा अवयवा लयिता भवन्ति यथापि तत्र पात्रे ऽकृतेकल्पे ऽष्यन्यत्परिगृह्णन् शुद्धो यतिस्त्यक्तभक्तादेर्विशोधि कोटित्वात् / विवेकश्चतुर्की भवति। तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतौ भावतश्च / तथाचाह / दव्वाइओ विवेगो, दव्वे जं जं जहिं खित्ते। काले अकालहीणं, असढो जं पस्सई भावो / द्रव्यादिको द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयो विवेकः तत्र यद्रव्यं परित्यजति स द्रव्यविवेकः। तथापरित्याज्यं यत्रपरित्यज्यतेस क्षेत्रविवेकः क्षेत्रेविकः क्षेत्रविवेकः इति व्युत्पत्तेः। तथा यद्विशोधिकोटिदोषदुष्टमकालहीनं शीघ्र परित्यजति एष कालतो विवेकः / इह यदेव दोषदुष्ट भक्तादिपरिज्ञातं तदेव तत्कालविलम्बाभावेन परित्यक्तव्यम्। परित्यागबुद्ध्या वा पृथक् भिन्ने स्थाने कर्तव्यमन्यथा भावतस्तत्परिग्रहात्संयमहानिप्रसक्तेः। तत उक्तमकालहीनमिति तथा यः असठोऽरक्तद्विष्टः सन् दोषदुष्ट पश्यति दृष्ट वा कालहीनं शीघ्रं परित्यजति स भावे भावतो विवेकः। इह निर्वाह सति विशोधिकोटिदोवसन्मिभंसकलमपि परित्यक्तम्। अनिवहि तुतावन्मात्र तत्र विधिमुपदर्शयितुकामः प्रथमतश्चतुर्भङ्गिकामाह। सुक्कोलसरिसपाए, असरिसपाए य एत्थ चउभंगो। तुल्ले तुलनिवाए, तत्थ दुवे दुन्नतुलाउ।। अत्र शुष्कस्य आर्द्रस्य च सदृशे समाने ऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पाते सति तथाऽसदृशे असमाने ऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पाते सति चतुर्भङ्गी भवति। सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात्। चत्वारो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः ते चामी।शुष्के शुष्क पतितं, शुष्के आर्द्रम्, आर्द्र शुष्कम्, आर्टे , आर्द्रमिति / तत्र येन येन पदेन यौ यौ भनौ लब्धौ तौ तौ तथा दर्शयति (तत्थत्ति) तत्रतुल्ये समाने सति अन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये तुल्यनिपाते सति चतुर्भङ्गी सदृशस्य वस्तुनः प्रक्षेपे द्वौ प्रथमचतुर्थरूपौ भङ्गो लग्धौ तौ च " सुक्कोल्लसरिसपाए" इत्यनेन पदेन सूचितौ।तथा द्वौ भड़ौ द्वितीयतृतीय रूपौ। अतुल्यात् विसदृशत्वात् प्रक्षिप्यमाणौ लब्धौ। तौ च "असरिसपाए य" इत्यनेन पदेनोक्तौ तदेवं चतुर्भङ्गिकामभिधाय सप्रत्यनेनैवोद्धरणविधिमाह। सुक्के सुकं पडियं, विगिंचिउ होइ तं सुहं पढमे / वीयंमि दव्वं छोड़े, गालंति दव्वं करं दाउं // तइयंमि कर छोद्धं, उल्लिंचइ उयणाइ जं तरह। दुल्लहदव्वं चरिमे, तल्लियमेत्तं विगिचंति। शुष्के वल्लचनकादौ मध्ये यत् शुष्कं वल्लचनकादि पतितं तत्सुखं जलादिकमनन्तरेण " विगिंचिउ होइ" परित्युक्तं भवति। परित्याज्यं भवतीत्यर्थः / एष प्रथमो भङ्गः / तथा द्वितीयो भङ्ग तथा द्वितीये भङ्गे शुष्के वल्लचनकादौ मध्ये आर्द्र तीमनादिविशोधिकोटिदोषवत्पतितमित्येवंरूपे द्रवं काञ्जिकादितत्रमध्ये ऽपसृतंप्रक्षिप्य पश्चात्पात्रमवनम्य पात्रकर्णकदेशे च शुद्धभक्तपानरक्षणार्थ करंच दत्वा सर्व द्रवंगालयन्ति। तथा तृतीये शुद्धम्। आर्दै तीमनादौ मध्ये पतितंशुष्कतरं वल्लचनकादिरूपमोदनमित्येवंरूपे तत्र तीमनादौ मध्ये कर हस्तं प्रक्षिप्य ओदनादि यद् यावन्मानं शक्रोति तावन्मात्रमशठः सन् उल्लिञ्चति आकर्षति ततः शेष तीमनादिकलभते / तथा चरमे आर्दै आर्द्र पतितमित्येवंरूपे यदि तव्यं दुर्लभमन्यत्र न प्राप्यते तत्र उद्देशतस्तावन्मात्रं परित्यज्यन्ति। तथाचाह। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्गम 723 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गम संथरे सव्वमुज्झंति, चउभंगो असंथरे। असाढा सुज्झई जेसु, मायावी जेसु वज्झई।। संस्तरे निर्वाहे सति सर्वमपि पात्रे स्थितं विशोधिकोटिसंसृष्टमुज्झति। असंस्तरे अनिर्वाहे पुनश्चतुर्भङ्गी चत्वारोऽन्तरो क्ता भङ्गा / सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् / कथंभूतास्ते भङ्गा इत्याह / येषु भङ्गेषु असठोऽरक्तद्विष्टः सन् वर्तमानः शुद्ध्यति शुद्धमापद्यते / मायावी च येषु बध्यते तदेवं विशोधिरूपं कोटिद्वयं सप्रपञ्चमुक्तमिदानीं तदेवोपसंहारव्याजेन संक्षेपत आह! कोडीकरणं दुविहं, उग्गमकोडी विसोहिकोडीय। उग्गमकोडीछिकं, विसोहिकोडी अणेगविहा॥ कोडीकरणं दुविहं द्विप्रकारं द्विधा कोटिरित्यर्थः तद्यथा उद्रमकोटिर्विशोधिकोटिश्च / तत्रोद्गमकोटिषट्कमाधाकर्मिकोद्देशि- कान्त्यतो दातृकादिषड्भेदा / विशोधिकोटिः पुनरनेकविधा / औद्देशिकादिरूपा। संप्रत्यन्यथाकोटीः प्रतिपादयति। नव चेव अट्ठारसगं, सत्तावीसा तहेव चउपन्ना। नउह दो चेव सयाउ, सत्तरा होइ कोडीणं / / प्रथमतः कोटयो नव भवन्ति। तद्यथा स्वयं हननमन्येन घातनमपरेण हन्यमानस्यानुमोदनम् / तथा स्वयं पचनमन्येन पाचनं तत्परेण पच्यमानस्थानुमोदनं तथा स्वयं करणम् अन्येन कारणं करणपरेण क्रियमाणस्यानुमोदनम्। इहाद्याः षट् विशोधिकोटयोऽनियमास्तु तिस्रो विशोधिकोटयः। एता अपि नवकोटीः कोपि रागेण सेवते कोपि द्वेषण ततो द्विकेनगुणिता अष्टादश भवन्ति। अथवा एवं ताः कोऽपि मिथ्यादृष्टिः कुशास्त्रसंपर्कसमुत्थवासनावसतो निःशवंसेवते।कोपि सम्यग्दृष्टिः सन् विरतोऽप्यनाभोगादिकारणतोऽपरिज्ञानतः कोपि पुनः सम्यग्दृष्टिरपि सन् अविरतत्वेन गार्हस्थ्यमवलम्बमानः ततो मिथ्या- त्वादिरूपेण त्रिकेण नवगुणितां शप्तविंशतिर्भवति / रागद्वेषौ त्वत्र पृथग्विवक्ष्येते यदा पृथग्विक्ष्येते तदा ताभ्यां सप्तविंशतिर्गुणिता चतुः पञ्चाशद्भवति / तथा तथैव नव कोटयः कदाचित् पुष्टमालम्बनमधिकृत्य दशविधकान्त्यादिधर्मपरिपालनार्थ सेव्यन्ते। यथा दुर्भिक्षे। यदातुपृथक् विवक्ष्येते तदा ताभ्यां सप्तविंशतिर्गुणिता कान्तारे वान्येन फलादिना ऽभ्यवहृते नाहं देह धृत्वा क्षान्तिमार्दवार्जवं यच्च ब्राह्य पालयिप्यामीति (हंतीति ) एवमन्येन घातनाद्यपि भावनीयम् / ततो नव दशभिर्गुणिता जाता नवतिः / इयं च सामावृत्तेः चारित्रनिमित्ता केचित्पुनश्चारित्रनिमित्ता विशिष्टज्ञानलाभसंभवनिमित्ता च यथास्मिन् कान्ता रादावनेन फलादिना ऽभ्यवहृतेन देहमहं धृत्वा क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि प्रभूतानि च शास्त्राण्यधिष्ये इति (हंतीत्यादि ) एषा च ज्ञानस्य प्रधान्यविवक्षणात् ज्ञाननिमित्ता भण्यते / के चित् पुनश्चारित्रनिमित्ता दर्शनस्थिरीकरणहेतुशास्त्रपरिज्ञाननिमित्तां च यथाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फ लादिनाभ्यवहृतेन देहं परिपाल्य क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि दर्शनं च निर्मलं विधास्ये इति ( हंतीत्यादि ) एषा च दर्शनस्य प्राधान्यविवक्षणादर्शननिमित्ताभिधीयते / तत एवंप्रकारा नवतिरिति त्रिभिर्नवतिर्गुण्यते ततो द्वे शते सप्तत्यधिके कोटीनां भवति। उक्तंच " रागाइमिच्छाइरागाई समणधम्म नाणाई। नव नव सत्तावीसा, नवन उईए उगुणेकारा"या तुदर्शनस्थिरीकरणार्थ प्रभूतशेषशास्त्रावगाहनार्थ चारित्रार्थं च सेव्यते सा सामान्यतश्चारित्रनिमित्तायामन्तर्भाव्यते ततोतस्तत्रोक्तभेद संख्यानियमव्याघातः / संप्रत्युद्गमद्वारदोषाणां वक्ष्यमाणोत्पादनाद्वारदोषणां च यतः संभवस्तदुत्थितान् वैवक्तयेनाह। सोलस उग्गमदोसे, गिहिणेउसमुट्ठिए वियाणाहि। उप्पायणाय दोसे साहू उसमुडिओ जाण॥ एतान् अनन्तरोक्तान् षोडशसंख्यान् उद्गमदोषान् गृहिणः सकाशादुत्थितान् विजानीहि / तथा ह्याधाकर्मादिदोषदुष्ट भक्तादिगृहस्थरेव क्रियते येतु उत्पादनाया दोषा वेक्ष्यमाणास्तान् साधुतः साधोः सकाशादुत्थितान् जानीहि / धात्रीत्वादीनां साधुभिरेव क्रियमाणत्वात् / तदेवमुक्तमुद्गमद्वारम् / पिं० / पञ्चा० / इहाधाकर्म औदेसिकचरमभेदत्रयम् / आहारादतिमिश्रजातान्त्यभेदद्वयं बादरप्रभृतिका अध्यवपूर्विकान्त्यभेदद्वयं चाविशोध्यन्ते कोटि पुरीषलवेनेव तदवयवेनापि स्पृष्टं सर्वमाहरतोप्यविशुद्धकोटयः / तत्संपृक्तं चान्नादिसंस्तरे साधवः सर्वं त्यजन्ति / असंस्तरे तु विविच्य तदेव त्यजन्ति घृतादिकमपि तावन्मात्रमेव त्यजन्ति शेषं यद्यपि तदवयवयोगस्तथापि शुद्धत्वमिति। जीत०। प्रव० स्था०) उग्गमं से य पुच्छेज्जा, कस्सट्ठा केण वा कडं / सोचा निस्संकियं सुद्धं,पडिगाहिज्ज संजए। उद्गमं तत्प्रसूतिरूपं (से) तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृच्छेत्तत्स्वामिनं कर्मकरं वा यथा कस्यार्थमेतत्केन वा कृतमिति श्रुत्वा तद्वचनं न भवदर्थ किंत्वन्यार्थमित्येवंभूतं निःशङ्कितं शुद्धं सत् ऋजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात्संयतः विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः / तथा " असणं पाणगंवाविखाइमं साइमंतहा। पुप्फेसु होज्जऊमीसं बीएस हरिएसुवा" दश०५ अ००। षोडशानामुद्गमदोषाणां प्रायश्चित्तमभिधित्सुराह / गुरुगा आहय चरमतिग, मीसवायरसपव्ववायहडे / कडपूइए य गुरुगो, अज्झायरए य चरमदुगे।। आधाकर्मगृह्णतःप्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः (चरमंतियत्ति) औद्देशिक द्विविधमोघेन विभागेन च। तत्र विभागतो द्वादश विधं तद्यथा उद्दिष्ट कृतं कर्म च / उद्दिष्ट चतुर्विधमौद्देशिकं समुद्देशिकमादेशिकं समादेशिकम्। कृतमपि चतुर्विधं तद्यथा उद्देशकृतं समुद्देशकृतमादेशकृतं समादेशकृतं च / कर्मापि चतुःप्रकारं तद्यथा उद्देशकर्म समुद्देशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च / त्रयचतुष्कका द्वादश इह यावन्तः केचन भिक्षाचराः समागच्छन्ति तावतः सर्वान् उद्दिश्य यत् क्रियते तदौउद्देशिकमुच्यते। पाषण्डिन उद्दिश्य क्रियमाणं समुद्देशं श्रमणानुद्दिश्यादेश निर्ग्रन्थानधिकृत्य समादेशम्। उक्तंच "जावंतिय उद्देसो, पासंडीणं भवे समुद्देसो। समणाणं आदेसो, निग्गंथाणं समादेसो"एतस्मिन् द्वादशविधे विभागोद्देशके यचरमं त्रिकं समुद्देशकर्म आदेशकर्म समादेशकर्म च तत्र गृह्यमाणे प्रत्येकं चत्वारो गुरुकास्तपःकालविशेषिताः (मीसंति) मिश्रजातं त्रिविधं यावन्तिकमिश्रे पाषण्डिकमिश्रं स्वगृहमिश्रं च / तत्र पाषण्डिकमिश्रे स्वगृहमिश्रेच प्रत्येकं चत्वारो गुरुकास्तपः कालगुरुवः ( बायरत्ति ) द्विविधा प्राभृतिका सूक्ष्मा बादराच तत्र बादरायां गृह्यमाणायां चत्वारो गुरुकाः ( सपचवायाहडेत्ति ) यत्र यत्र ग्रामादौ सप्रत्यपाय Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गम 724 अमिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गम मभ्याहृतंतत्र तत्र चत्वारो गुरुकाः। तदेव येषूद्रम भेदेषु गुरुकास्ते उक्ताः। संप्रति येषु मासगुरु तान् प्रतिपादयति (कडयइएय इत्यादि) कृते औद्देशिके चतुः प्रकारोपि प्रत्येकं मासगुरुकं तपः काल-विशेषितम्। तद्यथा यावन्तिके मासगुरु समुद्देशकृते तपोगुरुकं मासगुरु, आदेशकृते कालगुरुकं मासगुरु समा देश कृते मासगुरु द्वाभ्यां गुरुकं तपोगुरुकं कालगुरुकंच (पूतिएत्ति ) भावपूतिकं द्विविधं सूक्ष्म बादरं च। तत्र सूक्ष्मे नास्ति प्रायश्चितं बादरं द्विविधम् उपकरणे भक्तपाने च / अत्र भक्तपानपूतिकं मासगुरु ( अज्झोयरएय चरम दुगत्ति ) अध्यवपूरकं त्रिविधं तद्यथायावन्तिकमध्यवपूरकंपाषण्डाध्यवपूरकं स्वगृहाध्यवपूरक च। तत्र पाषण्डाध्ववपूरकेस्वगृहाध्यवपूरके च प्रत्येकं मासगुरु उक्तानि गुरुकप्रायश्चित्तान्यधुना लघुकप्रायश्चित्ताण्यभिधित्सुराह / ओहविभागुद्देसे, चिरठविए पागडे य उवगरणे। लोउत्तरपामिचे, परियट्टियकाय पर भावे / / सग्गामभिहडिग विजहन्न, जावंति आयरे लहुओ। इत्तरठविए सुहुमा, पणगं लहुगा य सेसेसु॥ ओधौद्देशिकेमासलघु, विभागौद्देशिके उद्देसे मासलघु, समुद्देशे मासलघु तपो गुरु आदेशे मासलघु कालगुरु, समा देशं मासलघु। द्वाभ्यां गुरु। स्थापितं द्विविधं चिरस्थापित मित्वरस्थापितं च / तत्र चिरस्थापिते मासलघु , प्रादुष्करणं प्रकाशकरणम् / तत्र प्रगटकरणे मासलघु, उपकरणपूतिके मासलघु, प्रामित्यं द्विविधं, लौकिकं लोकोत्तरिकं च / लोकोत्तरिके मासलघु / परिवर्तितमपि द्विधा लौकिकं लोकोत्तरि कं च / तत्र लोकोत्तरिके परिवर्तिते मासलघु / क्रीतं द्विविधम् / द्रव्यक्रीतं भावक्रीतं च / तत्र द्रव्यक्रीतं द्विविधम् आत्मद्रव्यक्रीतं परद्रव्यक्रीतं च। भावक्रीतमपि द्विधा आत्मभावक्रीतं परभावक्रीतं च तत्र परभावक्रीते मासलघु स्वग्रामाभ्याहृतेमासलघु (गंठित्ति) ग्रन्थिपिहितमुच्यते। यत्र गुडघृतादिभाजनमुखे पोतेन चमर्णा वा स्थगयित्वा दवरकेणोप रिग्रन्थिीयते ग्रन्थिसहिता मुद्रा वा तदुपचाराद ग्रन्थिरित्यर्थ तस्मिन्नुद्भिद्यमाने मासलघु मालापहृतं द्विविधं जघन्यमुत्कृष्टं च तत्र मालापहते मासलघु तथा यावन्तिके ऽध्यवपूरके मासलघु तदेवं यत्र मासलधुत्वात्स्थानमुक्तमिदानीं ययोः पञ्चरात्रिंदिवानि ते उच्यते (इत्तरठविय इत्यादि) इत्वरस्थापिते पञ्चरा त्रिदिवानि सूक्ष्मप्राभृतिकायामपि पञ्चरात्रिंदिवानि (लघुकाय सेसेसुत्ति ) येन्ये उद्गमदोषास्तेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकं चत्वारो लघुकास्तद्यथा / औद्देशिक कर्मणि यावन्तिके 1 मिश्रजात 2 प्रकाशकरणे 3 आत्मद्रव्यक्रीते 4 परद्रव्यक्रीते 5 आत्मभावक्रीते लौकिके प्रामित्ये 7 लौकिके परिवर्तिते 8 परगामाभ्याहृतनिःप्रत्यपाये : पिहितोङिभन्ने 10 कपाटोद्भिन्ने 11 उत्कृष्टमालापहृते १२अच्छेद्ये 13 अनिसष्टे 14 एतेषु चतुर्दशसुस्थानेषु चत्वारो लघुकाः बृ०१ उ० } जीतकल्पे तु यथायथमाचाम्लं पुरिमार्द्धनिर्विकृतिकं वा प्रायश्चित्तम्। उद्देसियचरिमतिगे, कम्मेपासंडसुघरमीसे य। वायरपाहुडियाए, सपञ्चवयाहडे लोभे॥ अयरं अणंत निविणतं, पिहिय साहय मीसियाईसु। संयोग सयंगाले, दुविहनिमित्ते य खमणं तु / / औद्देशिकचरमत्रिके कमद्दिशकर्मसमादशेलक्षणे कर्मणि आधाकर्माख्यपाषण्डामिश्रेषु गृहामिश्रे च सुष्वतिशयेन गृहाः सुगृहा अनगारास्तैःसह मिश्रजाते इत्यर्थः / बादरप्रभृतिकायां सप्रत्यपाये परग्रामात् हृते लोभपिण्डे अदूरतिरोव्यवधाने नितरां तिरोव्यवहितमनन्तरितमित्यर्थः तचानन्तररितमनन्तर काये निक्षिप्तम् / तथा संहृतमनन्तरकायेन पिहितम् तथा मिश्रितम् आदिग्रहणादनन्तरकायापरिणतमनन्तरकायछर्दितंच / तेषु अन्तरेन्तरनिक्षिप्तसंहृतपिहितमिश्रितादिषु संयोगसागरयोः सर्वप्रकारयोः संयोगसागारान्वितभाजने च द्विविधनिमित्ते च वर्तमाननिमित्तं भविष्यति। निमित्तकथने क्षपणं तु इह सूत्रे धिक् पदमधिकमक्षरंकाधिकार्य संसूचकं भवति / अत्र च तुःशब्दोऽधिकस्तेन गुर्वचित्तापिहते गुरुसंहृते गुरुणि शिलापुत्रकादिके दर्वाकरोटिकादेरुपरिभोगासंहते उत्क्षेपोत्सारिते गलत्युष्टपादुकारूढयोश्वेति सूच्यते एतेषु सर्वेषु क्षपणं प्रायश्चित्तमित्यर्थः / अध्ववपूरकादिदोषप्रायश्चित्त माह। अज्झोयरकडपूइय, मायाणं ते परंपरगए। मीसाणं ताणंतर गयाई एगमासणयं / / सूचकत्वात् सूत्रस्य ( अज्झोयरत्ति ) अध्यवपूरकान्त्यभेद द्वये (कडत्ति) कृतोद्देशकृतसमुद्देसकृतदेशाख्ये विभागोद्देशिकद्वितीयभेदचतुष्टये ( पूइयत्ति ) भक्तपानपूतिकर्मणि मायायां मायापिण्डे ( अंणतेत्ति) एकारो लाक्षणिकः ( परंपगयत्ति ) गतशब्दो निक्षिप्तवाची चकारात्पिहितादिग्रहः। ततश्च सचित्तोनन्तकायपरंपरनिक्षिप्तपिहितसंहृतछर्दितंचेत्यर्थः। तथा मिश्रानन्तानन्तरगतादिकेच अत्रापि गतशब्दो निक्षिप्तार्थः आदिशब्दात्पिहितादिग्रहस्तेन सचित्ताचित्तरूपानन्तकायादिविहितनिक्षिप्तपिहितसंहृतोन्मिश्रापरिणछड़िते इत्यर्थः (एगमासणयति) एष्वेकाशनं प्रायश्चित्तम्। इदानीं येषु पुरिमा प्रायश्चित्तं तान् गाथात्रयेणाह! ओहविभागुहेसो-वगरणपूइय ठबियपागडिए॥ लोगुत्तरपरियट्ठिय, पमेय परभावकीए व // सग्गामाहडदद्दर-जहन्नमालोहज्झरेपढमे // सहमितिगिच्छासंथव, तिगम विवयदायमोवहए।। पत्तय परंपरठविय-पिहियं मीसे अणंतराईसु / / पुरिमंढं संकाए, जं संकइ तं समावजे / / सामान्यौद्देशिकं विभागोद्देशोद्दिष्टोद्देशसमुद्देशोउद्दिष्टसमादेशाख्यं विभागोद्देशिकप्रथमभेदचतुष्टयम् / उपकरणं पूतिकाचिरस्थापना-- कपट करणम् / एषां द्वन्द्वस्तस्मिन् लोकोत्तरपरिवर्तते प्रामित्थयोः परभावक्रीते अत्रापिद्वन्दः।। ४१॥स्वग्रामाहृतेदर्दरोद्भिन्नेजधन्यमालापहृते (हज्झरे पढमेत्ति ) चकारोत्रलाक्षणिकत्वाद् यावदर्थिकः मिश्राख्ये ऽध्यवपूरकप्रथमभेदे इहापि द्वन्द्वःसूक्ष्मचिकित्सा-वचनसंप्राप्तिका पूर्व पश्चात्संस्तवमुदका-म्रक्षितमिप्रकइमम्रक्षितरूपं प्रथ्वीमुक्षितमुदकामक्षितंमिश्रमक्षितोत्कृष्ट्याख्यत्रिविधप्रत्येक मक्षितं चेति त्रिकंमक्षितं पिञ्जनं लोचयन्ती कर्त्तयन्ती दायका य दत्ते तत्तदायकोपहृतम्। एषामपि द्वन्द्वः तस्मिन् यथोक्तम्। “वाले वुड्ढे मत्ते उम्मतेवएयजरिए याएएति से वसवञ्जाएसिंदायगोवहय॥१॥"तदत्रपुरिमार्द्रप्रस्तावनानंयमाएतेभ्यो दायके भ्यो ग्राहकाणामाचामाम्ल प्रायश्चित्तस्यो क्तत्वात् / Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गमउप्पायणे० 725 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग-२ उग्गह (पत्तेयपरंपरठवियपिहिबत्ति) सुब्लोपः प्राकृतत्वादेकशब्दस्य | उग्गविस पुं० (उग्रविष) उग्रं दुर्जरत्वाद्विषं यस्य स उग्रधिषः ।दुर्जरविषे चोपलक्षणत्वात् सचित्तपृथिव्यादिषट्कायपरस्थापिततः पिहितेष्विति सर्प, ज्ञा०६ अ०जी०। उपा०। प्रज्ञा०।। ज्ञेयम् / स्थापितं निक्षिप्तमुच्यते / बहुवचनात्संहृतच्छतितोच उग्गाविहार पुंक (उग्रविहार) उत्कृष्ट विहरणे, "अस्युग्रकर्मदहनो (मीसयणंतराईसुत्ति) सूचकत्वात्सूत्रस्य मिश्रपृथिव्यादिषटकायानन्तर दहनोग्रविहारसः / ध०४ अधि०। निक्षिप्तसंहतोन्मिश्रापरिणतच्छड़ितेष्वित्यर्थः / उन्मिश्रापरिण- उग्गाविहारि त्रि० (उग्रविहारिन्) सदनुष्ठानल्वादुदात्ताचारे, भ० 10 तयोश्चानन्तरे विशोधने योज्यम् / किं तर्हि मिश्रषट्कायोन्मिश्र श०४ उ० मिश्रषट्कायापरिणतं चेत्येव योज्यम् एषु सर्वेषु मासा प्रायश्चित्तशङ्कायां उग्गसेण पुं० (उग्रसेन) उग्रा सेना यस्य / धृतराष्ट्रपुत्रभेदे, कुरुवंश्ये दोषमाशङ्कतेतस्यामप्येकान्तदोषश्च प्रायश्चित्तमापद्यते। जीत०नि०। नृपभेदे, यदुवंश्ये नृपभेदे, वाच०।"वसुदेवहिण्ड्या मस्य वक्तव्यता तत चूल आव० (नावादिविषय उद्गमदोषोणावादिशब्द) एवाऽवसेया। उग्गसेणपामोक्खाणं सोडएहं राइसहस्साणं"आ०म० उम्गमउप्पायणेसणासुपरिसुद्ध त्रि० (उद्गमोत्पादनैषणासु-परिशुद्ध) द्वि०। अन्त०।"अहं च भोगरायस्स तं च सिअंधगवहिणो'' दश०२ उद्गमश्च आधाकर्मादिः षोडशविधः उत्पादना च धापीदूत्यादिका अ०|ग०। षोडशविधैव उद्गमोत्पादने एतद्विषया या एषणा पिण्डविशुद्धिस्तया उग्गसेणगढन० (उग्रसेनगढ़) जीर्णगढे, "उग्गसेणगढं ति वाखंगारगढ़ सुष्टुपरिशुद्धो यः स उद्गमोत्पादनैषणासुपरिशुद्धः / दाचत्वारिंशत्पि- तिवा, जुण्णगद तिवा, जुण्णगढस्स णामाई" ती०। पडदोषरहिते, भ० श० 170 / उग्गह पु०(अवग्रह) अवग्रहः अनिर्देश्यसामान्यमात्र-रूपार्थग्रहणरूपे उग्गमदोस पुं०(उद्गमदोष) उद्गमनमुद्गमः पण्डादेः प्रभव इत्यर्यः। तस्य श्रुतनिश्रित मतिज्ञानभेदे, तं आह च चूर्णिकृत् "सामण्णस्स रूवादि दोषः / स्था० 3 ठा० / उद्गमविषयो दोषः / आधाकर्मादिषु विससणरहियस्स अणिद्दसस्स अबग्गहेणमवग्गेह-इति।नं०। विशे० / पिण्डप्रभवदोषेषु, आचा०। उत्त०। (तेच उग्गमशब्देदर्शिताः) रूपरसादिभेदैरनिर्देश्यस्याप्यु क्तस्वरूपस्य सामान्यर्थस्यावग्रहणं उगममाण त्रि० (उद्गच्छत्) प्रवृद्धिंगच्छति, "सव्वो वि किसलजोखलु, परिच्छेदनमवग्रहः / “अत्थाणं उम्गहणं अवग्गह इति" नियुक्तिगाथा उग्गमाणे अणंतओ भणिओ'। प्रज्ञा०१पद। व्याख्यानयन भाष्यकृदाह" सामण्णत्त्थावग्गहण्मुग्गहो" विशे० / उग्गमविसोहि स्त्री० (उद्रमविशोधि) भक्तनिरवद्यतारूपे उद्गमोपाधिके, (व्याख्या आभिणिवो हिय शब्दे) सम्म० / आ०म०प्र० / तत्र विशोधिभेदे च। स्था० 10 ठा०॥ विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाधग्रहणमवग्र हो विषयस्य द्य उग्गमित त्रि० (उद्गमित) उपार्जिते, "वत्थपादातिउनेणउग्गमिया। दव्यपर्यायात्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निवृत्युपकरणलक्षणस्य नि० चू०२ उ०। द्रव्येन्द्रियस्येत्युपलब्ध्युपयोगस्वभावोन्द्रियस्य विशिष्ट पुद्गलउग्गमोवघायपुं० (उद्गमोपघात) उद्गगमनमुद्गमः पिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः / परिणतिरूपस्यार्थग्रहणयोग्यतास्वभावस्य च यथाक्रमेण सन्निपातो इह चाभेदविवक्षया उद्गमदोष एवोद्रमोऽतस्तेन (स्था० 3 ठा०) योग्यदेशावस्थानं तदनन्तरोद्भतं सत्तामात्रदर्शन स्वभावदर्शनमनुत्तरआधाकर्मादिना षोडशविधेनोपहननं विरानधं चारित्रास्याकल्प्यता परिणामस्वविषयव्यवस्थापनविकार-रूपप्रतिपाद्यमयग्रहः / व्य० द्वि० भक्तादेः स उद्गमोपघातः। स्था०१० ठा०। पिण्डादेरकल्पनीयताकरणे 10 उ०। उपघातभेदे, स्था०३ठा०॥ (1) अवग्रहभेदाः। उग्गय त्रि० (उद्गत) उद्-गम्-क्त-। अग्रिमभागे / मनागुन्नते, राय. / (2) अवग्रहे दण्डकः। ऊर्ध्वगते, व्यवस्थिते च। ज्ञा०१ अ०। संभूते, आव०३ अ०। उदिते,। अवग्रहनिक्षेपः। उग्गय इति वा उइउत्ति वा एगट्टमिति। नि० चू०१० उ० / भावे क्तः। द्रव्यादितश्चातुर्विध्यं देवेन्द्रादितः पञ्चविधत्वं तावलीययत्वे उद्तौ, / 'कंटुग्गएणगंधारं' / कण्ठाद्वा यदुद्गतमुद्गतिः। स्वरोद्गमलक्षणा तारताम्यनिरूपणम्। क्रियातेन। स्था०६ ठा०। (5) अदत्तादानदोषनिवृत्तयर्थमवग्रहानुज्ञापनम्। *उग्रक त्रि० (उत्कटे) स्था०६ ठा०। विधवाप्यनुज्ञापनीया। उग्गयमुत्तिपुं०स्त्री० (उद्गतमूर्ति) मूर्तिः शरीरमुद्गते रवौ प्रतिश्रयाबहिः (7) साधर्मिकावग्रहे उपनिमन्त्रणम्। प्रवादवती मूर्तिरस्येत्युद्गममूर्तिकोमध्यम-पदलोपीसमासः। सूराद्गतावेव अवग्रहयोग्यं क्षेत्रमवग्रहप्रतिषेधश्च। आहारग्राहके, वृ०२ उ०। नि०चू०। (6) ब्राह्मणाद्यवगृहीते अवग्रहः। उग्गयवित्तिपुं०स्त्री० (उद्गतवृत्ति) उद्गते आदित्ये वृत्ति र्जीवनोपायो यस्य (10) पथ्यवग्रहः। स उद्गतवृत्तिकः / सूर्योद्गमने सति मिक्षयित्वा भोक्तरि, "उग्गयवित्तीसुत्ती (11) आमेावनादाववग्रहे आम्रफलादिभोजनं लशुनवना मणसंकप्पेय हॉति आण ता" उगते रवौ वृत्तिर्वर्तनं यस्य स उद्गतवृत्तिः / दाववग्रहश्च। पाठान्तरेणोद्गत मूर्तिरिति वा। उगते सूर्ये वृत्तिः शरीर वृत्तिनिमित्तं बहिः (12) स्वामिना त्यक्ते अत्यक्ते वावग्रहः। प्रचारो यस्य स उद्गगतवृत्तिः / वृ०२ उ०। नि०चू०१ उ०"भिक्खू य (13) राजावग्रहो देवेन्द्रावग्रहश्च / उग्गयवित्तिए आणत्थमिय संकप्पे संघडिए'' वृ०२ उ० / (व्याख्या (14) राजपरिवर्ते ऽवग्रहः। राइभोयणशब्दे) (15) अवग्रहक्षेत्रमानम्। उग्गवई खी० (उग्रवती) लोकात्तररीत्या नन्दानाम्न्यां प्रथमतिथिरात्रौ, (16) क्षेत्रात्यामसमवागतेषु तपरेप्यवग्रह परिवृत्तिः। जं०७ वक्ष०। सू०प्र०। चं० प्र०।। (17) अवग्रहे सप्त प्रतिमा। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 726 अभिधानराजेन्द्रः-भाग 2 उग्गह (1) अवग्रहभेदानाह-- से किं तं उग्गहे२ दुविहे पण्णत्ते तंजहा अत्थोग्गहे य वंजणुग्गहे यासे किं तं वंजणुग्गहे? वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते तंजहा सोइंदियवंजणुग्गहे घाणिंदिय वंजणुग्गहे जिभिदियवंजणुग्गहे फासिंदियवंजणुग्गहे सेत्तं वंजणुग्गहे / से किं तं अत्थुग्गहे 2 छविहे पण्णुत्ते तंजहा सोइंदियअत्थुग्गहें चक्खिदियअत्थुग्गहे घाणिंदियअत्थुग्गहे जिटिभदियअत्थुग्गहे फासिंदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्थुग्गहे / तस्स णं इमे एगडिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंचनामधिज्जा भवंति / तंजहा उगिण्हणया उगिण्हओ अवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा सेत्तं उग्गहे।। अथकोऽयमवग्रहः सूरिराह / अवग्रहो द्विविधस्तद्यथा अर्थावग्रहश्च व्यञ्जनावग्रहश्च / / नं०। (तस्सणमित्यादि) तस्य सामान्येनावग्रहस्य णमिति वाक्याऽलंकारे अमूनि वक्ष्यमाणनि एकार्थिकानि (नाना घोसाणित्ति) घोषा उदात्तादयः स्वरविशेषाः / आह चूर्णिकृत् "धोसाउ उदत्ताओसरविसेसा''नाना घोषा येषांतानि नानाघोषाणि। तथा नाना व्यञ्जनानि कादीनि येषां तानि नानाव्यञ्जनानि / पञ्चनामान्येव नामधेयानि भवन्ति तद्यथेति तेषामेवोपदर्शने (उगिण्हणया इत्यादि) यदा पुनरवग्रहविशेषाननपेक्ष्यामूनि पञ्चापि नामधेयानि चिन्त्यन्ते तदा परस्परं भिन्नार्थानि वेदितव्यानि / तथाहि इहावग्रह स्त्रिधा तद्यथा व्यञ्जनावग्रहः सामान्यार्थवग्रहः विशेषसामान्यार्थावग्रहश्च / तत्र विशेषसामान्यार्थावग्रहः औपचारिकः स चानन्तरमेवाग्रे दर्शयिष्यते। नं०। कर्म विशे०। तत्थुग्गहो दुरूवो, गहणं जहोजवंजणत्थाएं। वंजणओ य जमत्थो, तेणाई एतयं वोच्छं / / तत्रावग्रहणमवग्रहो द्विरुपो यथा भवति तथा प्रोच्यते। कथमित्याह यद्यस्माद्ग्रहणं व्यञ्जनार्थयोरेव भवेदन्यस्य ग्राह्यस्याभावत्ततश्च विषयद्वैविध्यादवग्रहो द्विविध इति भावः। अपरं यद्यस्मात्कारणाद्वक्ष्यमाणन्यायन प्राप्यकारिष्विन्द्रियेषु व्यजनावग्रहादनन्तरमेवार्थो ऽर्थावग्रहो भवति तेनादौ प्रथमतस्तकं व्यञ्जनावग्रहमेव वक्ष्ये दति गाथार्थाः। विशे० नं०। आ०चूक! प्रव० भ०। (व्यजनावग्रहादीनां व्याख्याऽन्यत्रा व्यञ्जनावग्रहे मल्लक प्रतिबोधक दृष्टान्तश्च आभिणिबोहिय शब्दे)। (2) अवग्रहे दण्डकः। नेरइयाणं भंते! कतिविहे उग्गहे पण्णत्ते? दुविहे उग्गह पण्णत्ते तंजहा अत्थोवग्गहे वंजणोवग्गहे एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं पुढविकाइयाणं भंते! कतिहिवे उग्गहे पण्णते? गोयमा! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते तंजहा अत्थोग्गहेय वंजणोग्गहे य पुढविकाइयाणं भंते! वंजणोग्गहे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! एगे फासिंदियवंजणोम्गहे पण्णत्ते। पुढविकाइयाणं भंते! कइविहे अत्थोग्गहे पण्णत्ते / एगे फासिंदिय अत्थोग्गहे पण्णत्ते एवं जाव वणस्सइकाइयाणं एवं वेइंदियाणवि / नवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पण्णत्ते एवं तेइंदिय चउरिंदियाण वि नवरं इंदियपरिबड्डी कायव्वा। चउरिंदियाणं वंजणोग्गहे तिविहे पण्णत्ते अत्थोवग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते सेसाणं जहा नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। टीका सुगमत्वान्न गृहीता अवधारणमवग्रहः / सुन्दरा एत इत्यवधारणम्। उत्त०। लम्भे,०। आ०चू० / अयं गृह्णातीत्यवग्रहः / उपधौ, ओघ०। पतद्रहे, "खुरमुंडो लोएणं उग्गहं च घेत्तूणं-"पंचा०३ विव०।''भगद्वारे अवग्रह इति योनिद्धारस्य सामायिकी.संज्ञा' बृ०३ उ० / प्रव० / अवगृह्यते स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः / राजावग्रहादौ, प्रति०। अवग्रहणीये वस्तुनि,-प्रश्न०३ट्ठा०। आश्रये,"उग्गहं च अजाइता, अविदिन्ने उ उग्गहे"ध०३ अधि०। (3) अवग्रहनिक्षेपो यथा। नामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। एसो अवग्गहस्स, निक्खेवो छव्विहो होई॥ सचित्तादिद्रव्यग्रहणं द्रव्यावग्रहः क्षेत्रावग्रहोयोयं क्षेत्रामवगृह्णाति तत्र वसामः। ततः सक्रोश योजनं कालावग्रहो योयंकालमवगृह्णातिवर्षासु चतुरो मासान् ऋतुबद्धे मासे भावावग्रहः / प्रशस्तेतरभेदः। प्रशस्तो ज्ञानाधवग्रह इतरस्तुक्रोधाद्यवग्रह इति। अथवावग्रहः पञ्चधा। द्रव्यादितश्चातुर्विध्यमाह। (4) द्रव्यादितश्चातुर्विध्यं देवेन्द्रादितः पञ्चविधत्वं तबलीयस्त्वे तारतम्यनिरूपणं च। तत्र। दव्वे खेत्ते काले, भावे विय उग्गहो चउद्घाउ। देविंदराय उग्गहो, गिहवइसागरियसाहम्मी।।३४।। दव्वुग्गहोउ तिविहो, सचित्ता चित्तमीसिओ चेव। खेत्तुरगहो वितिविहो, दुविहो कालग्गहो होइ।।३५ / / द्रव्यावग्रहः क्षेत्रावग्रहः कालावग्रहो भावावग्रहश्चेति / एवं चतुर्विधोऽवग्रहः। यदिवा सामान्येन पञ्चविधोऽवग्रहस्तद्यथा देवेन्द्रस्य लोकमध्यवर्ती रुचकदक्षिणार्द्धमवग्रहः राज्ञश्चक्र-वादेर्भरतादिक्षेत्रा गृहपतेाममहत्तरा देभिपाठकादिकमवग्रहः / तथा सागारिकस्य शय्यातरस्य पाठशालादिकसाधर्मिकाः साधयो / ये मासकल्पेन तत्रावस्थितास्तेषां व सत्यादिरवग्रहः / सपादयोजनमिति तदेवं पञ्चविधोऽवग्रहः / वसत्यादि परिग्रहं च कुर्वता सर्वार्थतेति यथावसरमनुज्ञाप्या इति। आ०म०प्र०। आचा० / प्रव०। भ०। तेणं कालेणं तेणं समयेणं सक्केदेविंदे देवराया वजायाणी पुरंदरे जाव भुजमाणे विहरइ इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवे 2 विउले ओहिणाणे आनाएमाणे 2 पासइ समणं भगवं महावीरं जंबूदीवे दीवे जहा ईसाणे तईयसए तहेव सक्केणवि णवरं आभिओगेणं सद्दावेइपायत्ताणियाहिवई हरीसुघोसघंटापालओ विमाणकारी पालगं विमाणं उत्तरिल्ले णिजाणमग्गे दाहिण्णपुरच्छि Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 727 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह मिल्ले रत्तिकरपव्वए सेसं तं चेव णामगं सावेत्ता पजुवासइ धम्मकहा जाव पडिगया तएणं से सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं धम्मं सोचाणिसम्म हट्टतुट्ठसमणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी कइणं भंते? उग्गहेपण्णत्ते सक्का पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते तंजहा देविंदोग्गहे रायोग्गहे गहवइउग्गहे सागारियउग्गहे साहम्मियउग्गहे जे इमे अज्जत्ताएसमणा णिग्गंथा विहरंति एसिणं अहं उग्गहं अणुजाणामी तिकट्ट भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ दुरूहइत्ता जामेव दिसिंपाउन्भूएतामेव दिसिंपडिगए भंतेत्ति। भगवं गोयम! समणं भगवं महावीरं वंदइणमंसइ वंदइ २त्ता एवं वयासी जंणं भंते! सक्के देविंदे देवराया तुन्भे एवं वन्दति सच्चेणं एसमटे हंता सच्चेणं / म०१६ श०२ उ०। अथ कतिऽविधोऽयमवग्रह उच्यते देविंदरायगहवइ, उग्गहो सागारिए असाहम्मि। पंचविहम्मि परूविए, नायव्वा जो जहिं कमइ।। देवेन्द्रः शक ईशानो वा सयावतः क्षेत्रस्य प्रभवतितावान् देवेन्द्रावग्रहः राजा चक्रवर्तिप्रभृतिको महर्द्धिकः पृथ्वीपतिः सयावतः षट्खण्डभरतादेः क्षेत्रास्य प्रभुत्वमनुभवति तावान् राजावग्रहः / गृहपतिः सामान्यमण्डलाधिपतिस्तरस्याऽप्याऽधिपत्यविषयभूतं यद्धभिखण्डं स गृहपत्यवग्रहः। सागारिकः शय्यातरस्तस्य सत्तायां यगृहपाटकादिकं स सागारिकावग्रहः / साधर्मिकाः समानधर्माणाः साधवस्तेषां संबन्धि सक्रोशयोजनादिकं यदा भव्यं क्षेत्रां स साधर्मिकावग्रहः / एष पञ्चविधोऽवग्रहः। एतस्मिन् पञ्चविधेऽवग्रहे वक्ष्यमाणभेदे प्ररूपिते सति ज्ञातव्यो विधिरित्युपस्कारो यो या देवेन्द्रादौ क्रमतेऽवतरति स तत्रावतारणीय इति संग्रहगाथा समासार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुरमीषां पञ्चानांमध्ये कः कस्मादलीयानिति जिज्ञासायां तावदिदमाह। हेतुल्ला उवरिल्लेहिं, वाहिया नउ लहंति पाहन्नं / पुव्वाणुना भिनवं, चउसुभयपच्छिमेभिनवा।। अधस्तना देवेन्द्रावग्रहादय उपरितनै राजवग्रहादिभिर्यथा क्रमं बाधिता द्रष्टव्याः। अत एव नतु नैव लभन्ते प्राधान्यमुत्त मत्वम्। किमुक्तं भवति। राजावग्रहे राजैवप्रभवति न देवेन्द्रस्ततो देवेन्द्रानुज्ञातेप्यवग्रहे यदि राजा नानुजानीते तदा न कल्प्यते तदवग्रहे स्थातुम / अथानुज्ञातो राज्ञा स्वविषयावग्रहः परं नगृहपतिना ततस्तद्वग्रहे पिन युज्य तेऽवस्थातुम्। अथानुमतंगृहपतिना स्व भूमिखण्डेऽवस्थानं परं न सागारिकेण स्वावग्रहे ततोऽपिन कल्प्यते वस्तुम् / अथानुज्ञातः सागरिकेण स्वावग्रहः परं न साधर्मिकै स्तथापि न कल्प्यते इत्येवमुपरितनैरधस्तना बाध्यन्ते तथानुपूर्वामनुज्ञामभिनवां चतुर्यु भजनां विकल्प्य केषांचित्साधूनां पूर्वानुज्ञा तदपरेषाम भिनवेति भजना कार्येत्यर्थः / अथ केयं पूर्वानुज्ञा काऽभिनवानुज्ञेत्युच्यते। ईहाया अवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः स यत्पाश्चात्यैरेवमेव परिभुज्यते न भूयोऽनुज्ञाप्यते सा पूर्वानुज्ञा यथा चिरंतनकालवर्तिभिः साधुभिर्देवेन्द्र यदवग्रहमनुज्ञापितः सैव पूर्वानुज्ञा। सांप्रतकालीनसाधुना मप्यनुवर्तते न पुनर्भूयोप्यनुज्ञाप्यते अभिनवानुज्ञानामभावाद् / यदा किलान्यो देवेन्द्रः समुत्पद्यते तदा तत्कालवर्तिभिः साधुभिर्यदसाव भिनवोत्पन्नतयाऽग्रहोऽनुज्ञाप्यते सा तेषामनभिवाऽनुज्ञा तदपरेषां पूर्वानुज्ञा एवं शेषनृपतिगृहपतीनामपि पूर्वाभिनवानुज्ञे भावनीये / सागारिकोपि प्रथमत उपागतः साधुभिर्यदुपाश्रयमनुज्ञाप्यते सा तेषामभिनवानुज्ञा तेषु साधुषु तत्रा स्थितेषु यदन्ये साधवः समागत्य तदनुज्ञापितवग्रहं परिभुञ्जते सा पूर्वानुज्ञा तदेवं चतुर्ध्ववग्रहेषु पूर्वाभिनवानुज्ञयो भजना भाविता। तथा पश्चिमे साधर्मिकावग्रहेभिनवानुज्ञैव भवति न पुर्वानुज्ञा / तथाहि यो यदावग्रहार्थं साधर्मिकमुपसंपद्यतेस सर्वोपि तदानीं तमनुज्ञाप्यैवावतिष्ठते नान्यथेत्यभिनवानुज्ञैवैका। अथामीषां पञ्चानामपि भेदानाह। दवाई एक्कक्के, चउहा खित्तं तु तत्थ पाहन्ने। तत्थेव य जे दवा, कालो भावो असामित्ते।। एकैकोऽवग्रहश्चतुर्की द्रव्यतः क्षेत्रातः कालतो भावतश्च। तत्र प्रथमतः क्षेत्रावग्रहः प्ररूप्यते कुतोहेतोरिति चेदुच्यते क्षेत्रांपुनः स्वतन्त्रेषुद्रव्यादिषु मध्ये प्राधान्येन वर्तते इहावग्रहस्य प्ररूप्यमाणत्वात्तस्य च तत्वतः शक्रादिक्षेत्रारूपतयाभिधीय-मानत्वादिति भावः / यतश्च तत्रौव क्षेत्र यानि द्रव्याणि यश्च कालो भावश्च एतेषां क्षेत्रमध्ये भूतत्स्वामित्वे वर्तते क्षेत्रस्यैव संबन्धित्वादन्येषां तस्मिश्च प्रथमं प्ररूपिते द्रव्यादयस्तदन्तर्गताः प्ररूपिता एव भवन्तीति प्रथमतः क्षेत्रवग्रहं प्ररूपयतिक पुवावरायया खलु, सेढीलोगस्स मज्झयारम्मि। जो कुणइ दुहा लोगं, दाहिण तह उत्तरद्धं च / / इह सर्वस्यापि लोकस्य मध्यकारे मध्यभागे मन्दरस्य पर्वतस्योपरि श्रेणिराकाशप्रदेशपक्तिरेकप्रादेशिकी पूर्वापरयो -दिशोरायता प्रदीर्घा समस्ति या श्रेणिों कमेकरूपमपि द्विधा करोति / तद्यथा दक्षिणालोकार्द्धमुत्तरलोकार्द्ध च / तत्र दक्षिणलोकर्द्धस्य शक्र: प्रभुत्वमनुभवति उत्तरलोकार्द्धस्य पुनरीशानकल्पनायकस्तथादक्षिणलोकार्द्ध यान्यावलिका -प्रतिष्टानि पुष्पावकीर्णानिवा विमानानि शक्र स्यैव भाव्यानि यानि पुनरुत्तरार्द्ध तानि सर्वाण्यपि द्वितीयकल्पाधिपतेः। अथ यानि मध्यमश्रेण्यांतानि कस्याभवन्तीत्याह। साधारण आवलिया, मज्झम्मि अबद्धचंदकप्पाणं। अद्धं च परिक्खेत्ते, तेसिं अद्धं च सक्खित्ते / / अपार्द्धचन्द्रकल्पयोरर्द्धचन्द्राकारयोः सौधर्मेशानकल्पयो: पूर्वापरायतायां मध्यमश्रेण्या या विमाननामावलिकासा साधारणा शक्रेशानयोः। किमुक्तं भवति। तस्यां मध्यमश्रेण्या पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि त्रयोदशस्वपि प्रस्तटेषु यानि विमानानि तानि कानिचित् शक्रस्य कानिचिदी शानस्याभाव्यानि। तत्र यानि वृत्ताकाराणि तानि सर्वाण्यपि शक्रस्यैव, यानि पुनस्यत्राणि चतुरस्राणि वा तान्येक शक्रस्य एकमी शानस्येत्येवमुभयोरपि साधारणानि तथाचोक्तम् "दक्खिणेन इंदा दाहिणओआवली भवेतेसिंजे पुण उत्तरइंदा, उत्तरओ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्गह ७२८-अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उग्गह आवली तेसिं / पुट्वेण पच्छिमेण य जे वट्टा ते विदाहिणल्लस्स / तंसचउरसंगा पुण, सामन्ना हुंति दुण्डंपि" तेषां च मध्यमश्रेणिगतानां विमानानामर्द्ध स्वस्वक्षेत्रो कल्पसीमनि प्रतिष्ठितं तदपरमर्द्ध परक्षेत्रो परकल्पसीमनीति। अथ शक्रमुदिश्य क्षेत्रावग्रह प्रमाणमाह। सेढीइ दाहिणेणं, जो लोगा उडमासकविमाणा। हेट्ठावि अलोगंते, खित्तं सोहम्मरायस्स।। सौधर्मराजस्य सौधर्मकल्पाधिपतेरेतावत्क्षेत्रमाधिपत्य विषयभूतं तिर्यग्दिशमाधिकृत्य श्रेण्याः पूर्वोक्ताया. दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि यावल्लोक इति तीर्यग्लोकपर्यन्तऊर्ध्वदिशमाश्रित्य आ पादपूरणे यानि स्वामिनी विमानानि स्तूपध्वजकलितानी अधोदिशमुद्दिश्य यावदधस्ततो लोकान्त इति भावितो देवेन्द्रक्षेत्राऽवग्रहः। सम्प्रति चक्रिणः क्षेत्रावग्रहमाह। सरगोयरो अतिरियं, वावत्तरिजोयणाई उद्धं तु। अह लोगगामगत्ताइ, हेहओ चक्किणो खित्तं / / यावच्छरस्य वाणस्य गोचरो विषयस्तावच्चक्रिण स्तिर्यक्षेत्राम्। इदमुक्तं भवति / चक्रवर्ती दिग्विजययात्रां कुर्वन् मागधादिषु तीर्थेषु यन्नामाङ्कितं बाणं निसृजति स पूर्वदक्षिणापरसमुद्रेषु द्वादशयोजनान्त यावद्गच्छति एतावदन्तश्चक्रि णस्तिर्यगवग्रहः / स एव बाणः क्षुल्लहिमवत्कुमारदेव साधनार्थं चक्रिणैव निसृष्ट ऊर्ध्व हासप्ततियोजनानि यावद्गच्छति तावानूर्ध्वमवग्रहः। अधःपुनरधोलोकग्रामास्तथा गर्ता आदि शब्दाद्वापीकूप-भूमिगृहादिपरिग्रहः / इयमत्र भावना / जम्बूद्वीपा परविदेहवर्तिनलिनावती वप्राभिधानविजयुगल समुद्भवा योजनसहस्रा द्वेधा समयप्रसिद्धा / ये अधोलोकग्रामास्तेषु ये चक्रवर्तिनः समुत्पद्यन्ते तेषां त एवाधः क्षेत्रावग्रहास्तदपरेषां तुगर्ता कूपभूमिग्रहादिकमिति प्ररूपितो राज्ञःक्षेत्रावग्रहः। अथगृहपतिसागारिकयोस्तमाह। गहवइणो आहारो, चउदिसि सागरियस्स घरवगडा। हेहा अवागडाई, उर्ल्ड गिरिगहधयरुक्खा।। गृहपतेमण्डलेश्वरस्य यावानाधारो विषयः प्रभुत्वविषयभूतश्चतसृषु दिक्षु तावानस्योत्कृष्टतिर्यगवग्रहः / सागारिकस्य शय्यातरस्य गृहवगडागृहवृत्तिपरिक्षेप उत्कृष्टतिर्यग वग्रहः द्वयोरपि चाधस्तादपागतागडादयः अपाग” हृदो या अगडः कूपः आदिशब्दाद् वाप्यादय ऊर्ध्वगिरिंगेह ध्वजवृक्षाः गिरयः पर्वता गृहध्वजा गृहोपरिवर्तिन्यः पताका वृक्षाः सहकारादयः। साधर्मिकाणांतु क्षेत्रावग्रहः कुतोपितोत्रा नोक्तः परं वृहद्भाष्ये इत्थमभिहितः "खित्तोग्गहो सकोसंजोयण साहम्मियाण बोधव्यं / छद्दिसिजा एगदिसि उज्जाणं वा मडवाई" मडम्बादौ उद्यानं यावदुत्कृष्टः क्षेत्रावग्रहः शेष सुगमम्। अथ जघन्यक्षेत्रावग्रहअभिधातुकाम आह। अजहन्नमणुक्कोसो, पढमो जो आविचक्कवट्टीणं / सेसनिव रोहगाइ, सुजहन्नओगहवईणं च।। प्रथमो देवेन्द्रावग्रहोऽजघन्योत्कृष्टो न जघन्यो नचोत्कृष्टः किन्तुभयविवक्षारहितः सर्वदैवेकरूपत्वा यश्चाप्यवग्रहः चक्रवर्तिना संबंधी सोऽप्यजघन्योत्कृष्टः चक्रवर्तिनामाधिपत्य स्येकरूपत्वात्। शेषनृपाणां चक्रवर्तिव्यतिगिक्तानां नृपतीनां ग्रहपतीनां च रोधकादिषु जघन्यःक्षेत्रावग्रहो द्रष्टव्यः।रोधनंरोधकः परचक्रेण नगरादेर्वेष्टनम आदि शब्दादन्यस्याप्येवंविधस्य परिग्रहः / इयमा भावना। कोऽपि बलवान राजा मण्डलेश्वरो वा कस्याप्यल्पबलस्य नरपतेर्ग्रह-पतेर्बाह्यनिर्वृतमात्मसात्कृत्य यदा तदीयं नगरादिनिरुध्यावतिष्ठते तदा तस्य तावान्नगरादिमात्रको जघन्यः। नगराइ निरुद्धघरे,रायाणुनाउ दुचरिमजहन्नो। उकोसे उ अनियओ, अचकिमाई चउण्हंपि।। द्वौ चरमो सागारिकसाधर्मिको तयोरयं जघन्यः क्षेत्रावग्रहो नगरादौ केनचिद्राज्ञा निरुद्ध बहिर्वास्तव्यजनैरभ्यन्तरत प्रविशद्भिःशय्यातरगृह साधर्मिमकोपाश्रयो वा यदा प्रेर्यंत तदा या काचित्तषामनुज्ञा यथैतायति प्रदेशे युष्माभिः स्थातव्यमेतावत्यस्माभिरिति स जघन्यक्षेत्रावग्रहः / उत्कृष्टः पुनरवग्रहोनियतः कस्याप्यल्पीयान्कस्यापि भृयानिति भावः / केषामित्याह अचत्रयादीनां चतुण्णमपि यश्चक्रवर्ती न भवति किं तु सामान्यपार्थिवः स नञः पर्युदासप्रतिषेधात्तत्सदृशग्रा हकत्वादचक्री भण्यते। आदिशब्दाद्गृहपत्यादयो गृह्यन्ते। अथसागारिकावग्रहस्य विशेषत उपयोगित्वा द्विधिमाह। अणुनाए वि सव्वम्मि, उग्गह घरसामिणा। तहाविन सीमं छिंदंति, साहू तप्पियकारिणो।। गृहस्वामिनी शय्यातरेण भाजनधावनकायिक्यादिव्युत्सर्जनस्वाध्यायादिकं यत्रा या भावनां रोचते तत्रा तत्र कुरुते ते च यद्यप्यसावप्यवग्रहेऽनुज्ञातस्तथापि साधवस्तस्य सागारिकस्य प्रियकारिणः समाधिविधित्सवः सीमां मर्यादां न छिन्दन्ति निर्धायन्ति व्यवस्थां पालयन्तीत्यर्थः / तामेव सीमामभिधत्ते। झणट्ठया भायण धावणाई, वोहट्ठया अत्थण हेउगम्मि। अभिग्गहं चेव अहिट्ठियंते, मासो वअन्नो व करेजमंतुं।। ध्यानार्य भाजनधावनबोधनाद्यर्थं द्वयोरुचारप्रश्रवणयोराय (अत्थाणत्ति) उपविश्यावस्थानं तद्धेतुकं च तन्निमित्तकं मितायग्रहमेव परिमितमेवावग्रहमधितिष्ठन्ति / किमुक्तंभवति / साधवो व्यवस्था स्थाययन्तः शय्यातरमामन्त्र्य बुवते श्रावक! वयमियति प्रदेशेऽध्याशिष्यामहे नेतः परम्। अत्र भाजनानि धाविष्यामो नान्यत्र यदि नाम ग्लानादेरात्रावुचारसंभवो भवेत्तताऽत्र परिष्ठापयिष्यते। अत्र पुनः कायिकी व्युत्सृज्यते इह पुनः साधवो भाजनरज्जनादि कं कुर्वन्तः किय तीमपि वेलामासिष्यन्तेएवं व्यवस्थाप्य मितमेवावग्रह मधितिष्ठन्ति। कुत इत्याह अमात्यो वा सागरिकोऽन्यो वा तदीयो वयस्यस्वजनादिः स बालवृद्धाकुलेन गच्छेन नातिप्राचुयेणाक्रान्ते कायिक्यादिना वा विनाशितेऽवग्रहे मन्युमप्रीतिक कुर्यात्। अपिच तथा साधुभिरप्रमत्तैस्तत्र स्थातव्ये तथा शय्यातरश्चिन्तयेत् अहो निभृतस्वभावा अमी मुनयो यदेतावन्तोऽपि सन्तः स्वसमयोदितमाचारमाचरन्तोऽपि परस्परं विकयादिकमकुर्वन्तो नियापारा इव लक्ष्यन्ते तत्सर्वथा कृतार्थोस्म्यहममीषां भगवतां शय्यायाः प्रदानेन तीर्ण प्रायो मयायमपारोऽपि संसारपारावार इति प्ररूपितः क्षेत्रावग्रहः / / संप्रति द्रव्यावग्रहमाह।। वयण मचित्तमीसग, दव्वा खलु उग्गहेसु ए एसु। जो जेण परिग्गहिओ, सो दवे उग्गहो होइ।। एतेषु देवेन्द्राद्यवग्रहेषु यानि चेतनानि स्त्रीपुरुषादीनि अचि Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 726 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गह तानि वस्त्रपादीनि मिश्राणि सभाण्डोपकरणस्त्री पुरुषादीनि यानि द्रव्याणि स द्रव्ये द्रव्यविषयऽवग्रहः। कथभूत इत्याह। योयेन शक्रादिना परिगृहीतः स तस्य संबंधी द्रव्यावग्रहः / किमुक्तं भवति / देवेन्द्रावग्रहेऽत्र यानि स चित्तासचित्त मिश्राणि द्रव्याणि तानि सर्वाण्यपि देवेन्द्र द्रव्यावग्रहः। एवं राजावग्रहादिप्वऽपि भावना कार्या। अथ कालावग्रहमाह दोसागराउ पठमो, चक्की सत्तसय पुव्वचुलसीई। सेसनिवंसि मुहुत्तं, जहन्नमुक्कोसए भयणा।। प्रथमो देवेन्द्रावग्रहः स द्वे सागरोपमे यावद्भवति शक्रस्य द्विसागरोपमस्थितिकत्वात् चक्री चक्रवर्त्यवग्रहे जघन्यतः सप्तवर्षशतानि ब्रह्मदत्तवत्। उत्कर्षतः पुनश्चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि भरतचक्रवर्तिवत्। तथा च चूर्णिः " चक्कवदि उग्गहो जहन्नेणं सत्तवाससया बंभदत्तस्स उक्कोसेणं चुरासीइ पुव्वसय सहस्साई भरहस्स" अत्रा परः माह। तत्रा ब्रह्मदत्तः कुमारतायामष्टाविंशतिमाण्डलिकत्वे षट्पञ्चाशतं दिग्विजये षोडशवर्षाण्यातिक्रम्य षट्वर्षशतान्येव चक्रवर्तिपदवी-मनुबभूव / भरतोऽपि सप्तसप्ततिपूर्वलक्षाणि कु मारभावमनुभूय वर्षसहस्रं माण्डलिकत्वमनुपाल्य षष्टिवर्षसहस्राणि विजययात्रायां व्यतीत्य ततः किं चिन्न्यूनानि षट्पूर्वलक्षाणि सर्व भूमिश्रियं बुभुजे ततः कथमनयोः सप्तवर्षशतानि चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि च यथाक्रमं चक्रवर्त्यवग्रहः प्रतिपाद्यमानोन विरुध्यत। नैष दाषः यतो योग्यतामङ्गीकृत्य भरतादयो जन्मन एव चक्रवर्तिनो मन्तव्याः / यत उत्पन्नमात्र एव चक्रवर्तिनि तदीयतथाविधाद्भुतभाग्यसंभारसमावर्जितास्त दाभाव्यक्षेत्रानिवासिदेवता उत्पन्नोऽयं सकलमही-वलयस्वामीति प्रमादभाजस्तदा नुकूल्यवृत्तयस्तथा-विधाभिलाषिणस्तत्प्रत्यनीकयुक्तप्रत्यूहापहाराय प्रवर्तन्त इति समीचीनमेव यथोक्तमवग्रहकालमानम् / अन्यथा वा बहुश्रुतैरुपयुज्य निर्वचनीयमिति (सेस निवंसिमुहत्तंति) चक्रवर्तिनं मुक्तवाषः शेषो नृपस्तस्य जघन्यतो मुहुर्त कालावग्रहः / कृतराज्याभिषेकस्यान्तमुहूर्तादूचं मरणाद्राज्यपदपरिभ्रंशाद्वा शेषनृपतीनामुत्कृष्ट कालावग्रहे भजना कार्या : किमुक्तं भवति / अन्तर्मुहूर्तादारम्य समयवृद्ध्या वर्द्धमानानि चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि यावद्यान्यायुः स्थानानि तेषां मध्ये यद्येषां नृपतीनामायुस्थानं निर्वर्तितं यो वा यावन्तं कालं राज्यैश्वर्यमनुभवति तस्य स उत्कृष्ट : कालावग्रहः। एवं गहवइसागारिए विचरिमे जहन्नओ मासा। उकोसो चउमासा, दोसुवि भयणा उ कञ्जम्मि।। एवं गृहपतिसागारिकयोरपि शेषनृपतिवञ्जघन्योत्कृष्टश्च कालावग्रहो द्रष्टव्यः / इह च यद्यपि शेषनृपतिगृहपतिसा-गारिकाणामायूंषि पूर्वकोटिपर्यवसितान्यपि संभाव्यन्ते तथा पि चूर्णिणकृता किमपि बाहुल्यादिकारणमुद्दिश्य चतुरशीति पूर्वलक्षपर्यन्तान्येवाभिहितानित्यत्रापि तदनुरोधेन तथैव व्याख्यातानि। तथा चरमे साधर्मिकावग्रहे ऋतुबद्धे मासकल्पविहारिणां जघन्यो मासमेकमुत्कृष्टो वर्षासु चतुरो मासान् कालावगृहः (दोसु वि भयणाउ कजम्मित्ति) द्वयोरपि जघन्योत्कृष्टयोः कार्ये समापतिते भजना। किमुक्तं भवतिग्लानादिभिः कारणैः कदाचिदृतुबद्धौ मासौवर्षासु चत्वारोमासान प्रतिपूर्येरन्नतिरिक्ता वा भवेयुः / गतः कालावग्रहः।। अथ भावावग्रहमाह। चत्तारो दइअम्मि,खओवसमियम्मि पच्छिमो होइ। मणसीकरणमणुन्नं च, जाण जं जत्थ कम्मइ।। चत्वारो देवेन्द्रराजगृहसागारिकाणामवग्रहा औदयिके भावे वर्तन्ते ममेदं क्षेत्रामित्यादि मूर्छायास्तेषु सद्भावातस्याश्च कशायमोहनीयोदयजन्यत्वात् / पश्चिमः साधर्मिकावग्रहः स क्षायोपशमिके भावे वर्तते कषायमोहनी यक्षायोपशमयुक्त तया ममेदं क्षेत्रां ममायमुपाश्रय इत्यादिमूर्छायाः साधूनामभावात् / एष भावावग्रहः / तदेवं प्ररूपितः पञ्चविधोऽप्यवग्रहः / अथ यदुक्तं द्वारगाथायां ''पंचविहम्मि परूवियनायव्वो जो जहिं कमइत्ति' तदिदानीं भाव्यते " मणसीकरणमणुन्नं चेत्यादि " मनसि करणमनुज्ञां च जानीहि / यद्या देवेन्द्रवग्रहादौ कामति अवतरतितका मनसिचेतसि करणमनुजानीताम् / यस्यावग्रह इति मनस्येवानुज्ञापनमिति हृदयं यत्पुनर्वचसानुज्ञाप्यते साऽनुज्ञाऽन्तर्भूतण् यर्थत्वादनुज्ञापनोति भावः तत्रा देवेन्द्रे राजावग्रहयोर्मनसैवानुज्ञापनं करोति गृहपत्यव -नियमाद्वचासऽनुज्ञापना। यथानुज्ञापना यथानुजानीतारमाकं शय्यां वस्त्रपात्राशैक्षादिकं चेत्यादि। अथ भावावग्रहं प्रकारान्तरेणाह।। भावावग्गहो अहव दुहा, मइगहण अत्थ वंजणे उ मई। गहणे जत्थ उ गिण्ह, मणसीकरण अकरणतिविहं।। अथवा भावावग्रहो द्विधा मतिभावावग्रहो ग्रहणभावावग्र हश्च / तत्र मतिर्मतिज्ञानरुपो भावावग्रहो भूयोपिद्विधा ध्यञ्जनावग्रहोऽविग्रहश्च गाथायां बन्धानुलोम्येन पूर्वमर्थशब्दस्य निर्देशः ग्रहणे ग्रहणविषये भावावग्रहः / यत्रा तु यस्मिन पुनर्देवन्द्रावग्रहादौ यदा साधुः किं चिद्वस्तुजातं गृह्णाति सचित्तमचित्तं मिश्रं वा तस्य तदाग्रहणं भावावग्रहः (मणसिकरणत्ति) मनसि करणस्योप-लक्षणत्वादनुज्ञापनायाश्याकरणे त्रिविधं प्रायश्चितम् / एतदेव सविशेषमाह। पंचविह परूविएस, उग्गहो जाणएण घेत्तव्यो। अन्नाएउग्गहिए, पायच्छित्तं भवे तिविहं।। पञ्चविधेऽवग्रहे प्ररूपितेसतीदं तात्पर्यमभिधीयते स एवं विधोवग्रहो ज्ञापकेनपञ्चप्रकारोवग्रहः स्वरूपवेदितो गृहीतव्यो नाज्ञापकेनकुत इत्याह अज्ञातेऽनिधिगमे सति यद्यवग्रहमवगृह्णाति ततस्तस्मिन्नवगृहीते त्रिविधं प्रायश्चितं भवेति तदेवाह। इकडकठिणे मासो, चाउम्मासो अपीडफलएसु। कहकलिंचे पणगं, छारे तह मल्लगाईसु।। इक्कमःदढणी कठिनः शररस्तम्बस्तयोः संस्तारकेमासलघु-काष्ठमयेषु पीठेषुफलेषु च प्रत्येकं चत्वारो मासलघवः काष्ठं च काष्ठशफलं कलिञ्चं च वंशदलं काष्ठकलिञ्चं तत्र तथा क्षारे भस्मनि मल्लकादिषु मल्लक शरावमादि शब्दात्तृणडगलादिपरिग्रहः / एतेषु सर्वेष्वपि पञ्चक पश्चारात्रिंदिवानि इति त्रिविधं प्रायश्चित्त-मज्ञातावग्रह रूपस्यावग्रहणे द्रष्टव्यम्। उक्तोऽवग्रहकल्पिकः व्य०१ उ०। साम्प्रतं द्रव्याद्यवग्रहप्रतिपादनायाह। दवुग्गहो उतिविहो, सचित्ताचित्तमीसिओ चेव। खेत्तुग्गहो वि तिविहो, दुविहे कालग्गहो होइ।। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह ७३०-अभिधानराजेन्द्रः-भाग-२ उग्गह द्रव्यावग्रह स्त्रिविधः शिष्यादेः सचित्तो रजोहरणदेरचित्तः शिष्यरजोह- परिसमाप्ते यस्तत्कार्यभूतो ऽवग्रहस्तस्यापि व्यवच्छेदो भवति कारण रणादेर्मिश्रः / क्षेत्रावग्रहोऽपि सचित्तादिस्त्रिविधि एव / यदिवा भावे कार्यस्याभावात् वस्तु मन्यते। कालातीते विनावग्रहस्य व्यवच्छेदस्तं ग्रामनगरारण्यभेदादिति। कालावग्रहस्तुऋतुवर्षाकालभेदाद्विधेति / प्रति दृष्टान्तमाह। भावाऽवग्रहप्रतिपादनार्थमाह / / आगासकुच्छिपूरो, उग्गहपडिसेहियम्मि कालम्मि। मइउग्गहो य गहणोग्गहो य भावग्गहो दुहा होइ। नहु होति उग्गहो सो, काले दुगे वा अणुण्णातो।। इंदियणोइंदिअत्थवंजणोग्गहोहोइ दसहा य / / यथा कोऽपि पुरुषो बुभुक्षया पीडितः सन् चिन्तयति भावावग्रहो द्वेधा तद्यथा मत्यवग्रहो ग्रहणावग्रहश्च / तत्रा मत्यवग्रहो पूरयाम्युदरमाकाशेन मे बुभुक्षापगच्छति।सयथा आकाशस्य एवमेवायग्रहे द्विधा अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च तत्रार्थावग्रह इन्द्रियनो प्रतिषेधितो यः कालो वर्त्तते तस्मिन्नुत्पादितः सोऽवगृहो ऽवग्रहोन भवति इन्द्रियभेदात्षोढा व्यञ्जनावग्रहस्तु चक्षुरिन्द्रियमनोवर्जश्चतुर्दा स एष प्रतिषिद्धकालाचीर्णत्वात् / अथवा प्रकारान्तरेण कालद्विकेनानुसर्वोऽपि मतिभावावग्रहो दशधेति। ज्ञातोऽवग्रहः कथमिति चेदाह। ग्रहणावग्रहार्थमाह / / गिण्हाणं चरिमासो, जहि कत्तो तत्थ जति पुणो वासं। गहणोग्गहम्मि अपरिग्गहस्स गहणस्सगहणपरिणामो। वायंति अन्नखेत्तो, संती दोसुंपि तो लाभो।। कह पडिहरियापाडिहारियं व होइजइयव्वं / / यत्रा ग्रीष्माणामुष्णकालस्य चरमः पश्चादाषाढनामा मासःकृतस्तत्र अपरिग्रहस्य साधोयंदा पिण्डवसति वस्त्रपात्रग्रहणपरिणामो भवति यदि पुनरन्यक्षेत्रोऽसति तथाविधान्यक्षेत्राभावतोवर्ष च वर्षाकालं तिष्ठित तदा सग्रहणभावावग्रहो भवति तस्मिश्च सतिकथं केन प्रकारेण ममेदं ततो द्वयोरपि कालयोीष्मचरममा सयोर्वर्षा चेत्यर्थता लाभो भवति / वसत्यादिकं प्रतिहारिकमप्रतिहारिकं वा भवत्येवं यतितव्यमिति / एवं करणवतो द्वयोरपि कालयोः सचित्तादिलाभो ऽनुज्ञात इत्यर्थः / प्रागुक्तश्च देवेन्द्राद्यवग्रहः पञ्चविधोऽप्यस्ति सग्रहणावग्रहे द्रष्टव्य इति। एमेव य समतीते, वसे तिणि दसगा उ उक्कोसो। आचा०७ अ०। वासनिमित्त वियाणं,उग्गहो मासउक्कोसे।। एमेव बहूर्णपि, पिंडे नवरोग्गहस्स उ विभागो। एवमेव अनेनैव प्रकारेण वर्षे वर्षाकाले समतीते यदि मेघो वर्षति ततो किं कतिविहो कस्स कम्मिव, केवइयं वा भवे काले।। ऽन्यदिवसदशकं स्थीयते तस्मिन्नपि समाप्तिमुपगते यदि पुनर्वर्षति ततो अत्र प्रथमपदव्याख्याऽनुपयुक्तत्वान्न गृहीता अत्रावग्रहस्य विभागो | द्वितीय दिवसदशकं स्थातर्व्य तस्मिन्नप्यतीतेपुनर्वृष्टौतृतीयमपि दशकं वक्तव्यस्तमेवाह / किं कतिविधः कस्य वा कस्मिन्वा कियन्तं कालं तिष्ठित। एवमुत्कर्षतस्त्रीणि दिवसदशकानि वर्षानिमित्तस्थिताना मुत्कृष्टो भवत्यवग्रहः / तत्र किमित्याद्यद्वारव्याख्यानार्थमाह ऽवग्रहः षण्मासप्रमाणो भवति / तद्यथा एको ग्रीष्मचरममासश्चत्वारो किं उग्गहोत्ति भणिए, तिविहो उहोति चित्तादी। वर्षाकालमासाः षष्ठो मार्गशीर्षों दिवसदशकायलक्षण इति / व्य०४ एकोको पंचविहो, देविंदादी मुणेयव्वा।। उ०। नि० चू०५।। किमवग्रह इति भणिते पृष्ट सूरिराह / त्रिविधो भवत्यवग्रहश्चित्तादिः अदत्तादानदोषनिवृत्त्यर्थमवग्रहोऽनुज्ञापनीयः।। सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च / पुनरैकैकः कतिविधः इति प्रश्नमुपजीव्याह समणेभविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसुपरदत्तभोगी एकैकः / पञ्चविधः पञ्चप्रकारो ज्ञातव्यः कोऽसावित्याह देवेन्द्रादि पावं कम्मंणो करिस्सामीति समुट्ठाए सव्वं भंते! अदिण्णादाणं देवेन्द्रावग्रहोः राजावग्रहो माण्डलिकावग्रहः शय्यातरावग्रहः पचक्खामि से अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणिं वा णेवा साधर्मिकावग्रहश्च। सयं अदिनं गिण्हेजा जेवण्णेणं अदिनं गिण्हावेजा णेवण्णेणं गतं कतिविधद्वारमिदानी कस्य न भवतीति प्रतिपादयति। अदिण्णं गिण्हतं पिसमणुजाणेजा। जेहिं विसद्धिं पव्वइए तेसिं कस्स पुण उग्गहोति, परपासंडीण उग्गहो नत्थि। पियाइं भिक्खू छत्तयं वा मत्तयं वाडंडगंवा जाव चम्मच्छेदणगं निण्हे सेते संयति, अगीते गीतणक्के वा।। वा तेसिं पुटवामेव उग्गहं अणणुण्णविया अपडिले हिया कस्य पुनरवग्रहो भवतीति शिष्यप्रश्नमाशक्य प्रोच्यते अपमजिया णो गिण्हेजवा पगिहेज वा तेसिं पुव्वामेव उग्गह परपाषण्डिनामवग्रहो नास्ति ये च निहवा ये च सन्नायाश्च संयत्यो अणुण्णविय पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयमेव उगिण्हेज वा गीतार्थरपरिग्रहीता ये चागीतार्था गीतार्थनिश्रामनु पपन्ना यश्च पगिण्हेज वा से आगंतारेसु वा 4 अणुवीइउग्गहं जाएजा / जे निष्कास्णमेकाकी गीतार्थ एतेषां सर्वेषामप्यवग्रहो नास्ति (अस्य तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिट्टाए ते उग्गहं अणुण्णवेज्जा कामं बहुवक्तव्यता उर्वसंपयाशब्दे) खलु आउसो अहालंदं अहापरिणातं वसामो कामं खलु आउसो बुड्डावासातीते, कालातीतेन उग्गहो तिविहो। अहालंदं अहापरिपणातं वसामो जाव आउसो जाव आउसंतस्स आलंबणे विशुद्धो, उग्गहो उ कज्जवुच्छेओ। उग्गहे जाव माहम्मियाए जाव उग्गहं उगिहिस्सामो तेण परं वृद्धावासातीते मरणेन प्रतिभग्नतया वा आरोगीभूतेन वा ऋणेन वा विहरिस्सामो।। वृद्धावासे वा अतीते काले अतीते ऋतुबद्धे काले मासाधिके श्राम्यतीति श्रमणस्तपस्वी यतोऽहमत एवं भूतो अवग्रहस्त्रिविधोऽपि न भवति / सचित्तस्याचित्तस्य मिश्रस्य च ग्रहणं न भविष्यामीति दर्शयति / अनगारोऽगा वृक्षास्तै निप्पन्नमगारं कल्पयते इति भावः / कुत इत्याह / आलम्बने वृद्धावासलक्षणे विशुद्ध | तन्न विद्यत इति अनगारस्त्यक्तगृहपाश इत्यर्थस्तथा अकिं चनो न Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्गह ७३१-अमिधानराजेन्द्रः-भाग-२ उग्गह विद्यते किमप्यस्येत्यकिंचनः निष्परिग्रह इत्यर्थः / तथा अपुत्रः स्वजनबन्धुरहितो निर्मम इत्यर्थः / एवमपशुः द्विपदचतुष्पदादिरहितः यत एवमतः परदत्तभोजी सन् पपं कर्म न करिष्यामीत्येवं समुत्थायैतत्प्रतिज्ञो भवामीति दर्शयति / यथा सर्व भदन्तादत्तादानं प्रत्याख्यामि दन्तशोधनमात्रामपि परकीयमदत्तं न गृह्णामीत्यर्थः तदनेन विशेषणकदम्बकेनापरेषां शाक्यसरजस्कादीनां सम्यक् श्रवणत्वं निराकृतं भवति / स चैवं भूतोऽकिंचनः श्रमणोऽनुप्रविश्य ग्राम वा यावद्राजधीनी वा नैवस्वयमदत्तं गृह्णीयान्नैवापरेण ग्राहयेन्नाप्यपरं गृह्णन्तं समनुजानीयाद्यैर्वा साधुभिः सह सम्यक्प्रब्रजितस्तिष्ठति वा तेषामपि संबन्ध्युपकरणमननुज्ञाप्यनगृह्णीयादिति दर्शयति। तद्यथा छत्रकमिति छद्अपवारणे छादयतीति छत्र वर्षाकल्पादि। यदिवा कारणिकः कचित् कुंकणदेशादावतिवृष्टिसंभवाच्छत्राकमपि गृह्णीयाद्यावचमच्छेदनकमप्यननुझाय प्रत्युप्रेक्ष्य च नावगृह्णीयात्सकृत्प्रगृह्णीयादनेकशः तेषां च संबंधि यथा गह्णीयात्तथा दर्शयति / पूर्वमेव ताननुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणदिना सकृदनेकशो वा गृह्णीयादिति किञ्च (सेइत्यादि)स भिक्षुरागन्तागारादौ प्रविश्यानुविचिन्त्य चपर्यालोचयति विहारयोग्य क्षेत्रांततोऽवग्रहं वसत्यादिकंयाचेता यश्चयाच्यस्तंदर्शयति। यस्तोश्वरो गृहस्वामी तथा यस्तत्राधिष्ठाता गृहपतिना निक्षिप्तभरः कृतस्तानवग्रहं क्षेत्रावग्रहमनुज्ञापयेद्याचेत कथमिति दर्शयति (काममिति) तवेच्छाया खल्विति वाक्यालंकारे / आयुष्मान्! गृहपते (अहालंदमिति) यावन्मानं कालं भवाननुजानीते (अहारपरिणयंति) यावन्मानं क्षेत्रमनुजानीषे तावन्मात्र कालं तावन्मानं च क्षेत्रमाश्रित्य वयं वसाम इति यावदिहायुष्मन् यावन्मानं कालमिहायुष्मतोऽवग्रहो यावन्तश्च साधर्मिकाः साधवः समागमिष्यन्ति तावन्मात्रमवग्रह ग्रहीष्यामस्तत ऊर्ध्वं विहरिष्याम इति। आचा०५ श्रु०७ अ०१०।। (6) विधवाप्यनुज्ञापनीया। सागारियअहिगारे,अणुवत्तं तम्मि का विसो होति। संदिट्ठो वपनू वा, विहवा सूत्तस्स संबंधो।। इह पूर्वसूत्रात्सागारिकाधिकारः शय्यातराधिकारोऽनुवर्तते तस्मिन् अनुवर्त्तमाने सूत्रो कोऽपि स सागारिकः कोऽपि प्रभुरिति प्रतिपाद्यमित्येष विधवा सूत्रास्य संबंधः / अस्य व्याख्या। न विद्यते धवो भर्ता यस्याः सा विधवा ततो दुहिता जातिकुलवासिनी पितृगृहवासिनी वा इत्यादि। अथवा समासकरणादिदं द्रष्टव्यम् या दुहिता विधवा या च ज्ञातिकुल वासिनी दुहिता / ज्ञातिकुलवासिनी नाम या गृहजामातुर्दत्ता साप्यवग्रहमनुज्ञापयितव्या किमङ्ग! पुनः पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा स सुतरामनुज्ञापयितव्यः / तथा चाह (से यावतीत्यादि) ततो द्वावप्यवग्रहमवग्रहीतव्याविति सूत्राक्षरार्थः।।। संप्रति भाष्यकारो व्याख्यानमाह। विगयधवा खलु विधवा, धवं तु भत्तारमहु नेरुत्ता। धारयति धीयते वा, दधाति वा तेण उ धवोत्ति।। विगतधवा खलु विधवा / विगतो धवोऽस्या इति व्युत्पत्तेः धवं तु भरिमाहुर्ने रुक्ता निरुक्तिशास्त्रविदः / कया व्युत्पत्येत्याह / धारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन पुंसा सा स्त्री दधाति सर्वात्मना पुष्णाति तेन कारणेन निरुक्तिवशात् धवइत्युच्यते।। विधवा वा णुण्णविजइ, किं पुण पिय माइभायपुत्तादी। सो पुण पभुवाऽपभुवा, अपभू पुण तत्थिमो होइ।। विधवाऽप्यनुज्ञाप्यते किं पुनः पिता माता भ्राता पुत्रादि स सुतरामनुज्ञाप्यः केवलं पुनः पुत्रभ्रातृप्रभृतिको द्विधा / प्रभु भवेदप्रभुर्वा / तत्र पुनरप्रभवइमे वक्ष्यमाणा भवन्ति तानेव नियुक्तिकृदाह। आदेसदासमइए, विरिङ्गजामाइए उ दिण्णाय। अस्सामिमासो लहुतो, सेसपमुणुग्गहेणं वा।। आदेशः प्राघूर्ण को दासो ऽकिंचनो भृतकः कर्मकरो विरिक्तो गृहीतरिक्तादिभागः पुत्रो भ्राता अन्यो वा तथाऽन्यत्र पृथगगृहे जामातरि एतेऽस्वामिनोऽप्रभव एतान् यदि अनुज्ञापयति तदा प्रायश्चितं मासलघु शेषाः प्रभवः स्वामिनस्तान् अनुज्ञापयेत (अणुग्गहेणंवंति) अप्रभूणामपि येषां प्रभुणानुग्रहः कृतो यथा त्वया कृतं दत्तं वा तत्प्रमाणमिति तेन वा अनुग्रहेणाप्रभूनपि अनुज्ञापयेत नान्यथा। अप्रभूणामनुज्ञापने दोषमाह। दियरातो निच्छुहणा, अप्पहुदोसा आदिन्नदाणं च। तम्हा उ अणुण्णवए, पमुंच पभुणा च संदिटुं।। गहपतिगहवतिणिवा, अविभत्तसुतो अदिण्णकण्णा वा।। अप्रभूणामनुज्ञापने दोषा दिवा रात्रौ वा निष्काशनं तत्रा जनगर्हाविनाशादयो दोषा न केवलं निष्काशनमदत्तादानं च / यस्मादप्रभूणामनुज्ञापने एते दोषास्तस्मात्प्रभुंप्रभुसंदिष्टंवा ऽनुज्ञापयेत् / तमेव दर्शयति (गहपतित्ति) वाशब्दादवि भक्तभ्रातृपितृव्यादि प्रभवति / अथवा या दुहिता विधवा निसृष्टा गृहे प्रमाणीकृता सापि प्रभवति / यदि वा यः स्वय दातुं प्रभुणा आदिष्टः सोऽपि प्रभवति / एताननुज्ञापयेत्। व्य०७ उ०। (7) अवगृहीते चावग्रहे उत्तरकालविधिः साधर्मिकागमने उपनिमन्त्रणम्। से किं पुण तत्थोग्गहंसि पवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया संमोतिय समणुण्णा उवागच्छिज्जाजे तेण सयमेसियाए असणो वा / तेण ते साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवणिमंतेजा णो चेव णं परवडियाए उगिज्झिय उगिण्हिय उवणिमंतेजा से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहं सि पवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा। जे तेणं संयमसियए पीढे वा फलए वा सेज्जासंथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुण्णे उवणिमंतेजा णो चेव णं परिवडियाए उगिज्झिय उगिव्हिय उवाणिमंतेजाते आगंतारेसु वा 4 जाद। (से इत्यादि) तदेवमवगृहीतेऽवग्रहेससाधुः किंपुनः कुर्यादिति दर्शयति / ये तत्र केचनप्राधूर्णकाः साधर्मिकाः साधवःसंभोगिकाएकसामाचारीप्रविष्टाः समनोज्ञा उद्युक्तविहारिण उपागच्छेयुरतिवयसो भवेयुस्ते चैवंभूता ये तेनैव साधुना परलोकार्थिना स्वयमेषितव्यास्ते च स्वयमे वागता भवेयुस्तांश्चाशनादिना स्वयमाहृतेन स साधुरुपनिमन्त्रयेद्यथा गृह्णीत चूयमेतन्मयानीतमशनादिकं क्रियतां ममानुग्रह इत्येवमुपनिमन्त्र Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 732 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गह येन्नचैवं (परवडियाएत्ति) परानीतं यदशनादि तत् भृशमवगृह्याश्रित्य नोपनिमन्त्रयेत् / किं तर्हि स्वयमेवानीतेन निमन्त्रायेदिति / तथा (सेइत्यादि) पूर्वसूत्रावत्सर्व नवरमसांभोगिकान् पीठफलकादिनोपनिमन्त्रयेद्यस्तेषां तदैव पीठकादि संभोग्यं नाशनादीति। (सूत्रम्) अत्थिया इत्था केइ उदस्सय परियावन्नए यअचित्ते परिहरणे रिह सवे व उग्गहस्स पुटवाणुण्णवणा चिट्ठइ | अहालंदमवि उग्गहो।। अस्य संबन्धमाह। असहीणेसु विसाहम्मि, तेसुइतिएस उग्गहो वुत्तो। अयमपरो आरंभो, गिहीवि जढे उग्गहे होइ।। अत्राधीनेष्वपि क्षेत्रान्तरंगतेषु साधर्मिकेषु इत्येषोऽवग्रहः प्रोक्तः। अयं पुनरपरः प्रकृतसूत्रास्यारम्भो गहिभिर्विजढः परित्यक्तो यः प्रतिश्रयस्तद्विषयेऽवग्रहो भवति। अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / अस्ति वात्रानन्तरस्तत्रा प्रस्तुते प्रतिश्रये किंचिदाहारार्थ भक्तादिकं गृहस्थसत्कमुपाश्रये पर्यापन्नं विस्मृतंपरित्यक्तमुपाश्रयपर्यापन्नम् अचित्तं प्राशुकं परिहरणार्थ साधूनां परिभोक्तुं योग्यं ता सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठतितत्रोपाश्रये तिष्ठद्भिः पूर्वमेवानुजानीत प्रायोग्यमित्येव यदवग्रहोऽनुज्ञापितः सैवानुज्ञापना पश्चादुपाश्रयं पर्यापन्नग्रहणेऽप्यवतिष्ठते न पुनरभिनवमनुज्ञापनं कर्तव्यमिति भावः / कियन्तं कालमित्याह। यथालन्दमपि मध्यमलन्दमात्रमपि कालं यावदवग्रह इति सूत्रार्थः। अथामुमेव सूत्रार्थ भाप्यकृत्प्रतिपादयति। आहारो उवही वा, आहारो मुंजणारिहे कजा। दुविहपरिहार अरिहो, उवही विय कोयि णवि कोयि।। इह सूत्रो किंचिद्ग्रहणेन आहार उपधिर्वा गृहीतः परिहरणार्हग्रहणेन तु संप्रवरपरिभोगार्हाः / तन्नाहारः कश्चिद्भोजनार्हो भवति कश्चित्तु न भवतीति / उपधिरपि कश्चिद्विविध परिहारसाधारणार्ह परिभोगरूपस्याहॊ भवति कश्चिच्च न भवति। तथाहि। संसत्तावपिसियं, आहारो अणुवभोज इत्यादि। सुसिरतिणवंकलइयो, परिहारे अणरिहो उवही।। संसक्तं द्वीन्द्रियादिजन्तुमिश्र भक्तपानम् / आसवो मद्यम् पिशितं पुगलम् / इत्यादिक आहारो अनुपभोज्यः / साधूनामुप भोक्तुनयोग्यः शुषिरतृणवल्कलादिक उपधिरपि परिहारस्यानर्हामन्तव्या। अर्थादापन्न ओदनादिक आहारो वस्त्रादि कश्चापधिः परिभोगार्ड इति। वायंते अणुण्णवणा, पायेग्गे होइ तप्पढमयाए। सो चेव उग्गहो खलु, चिट्ठइ कालो उलंदक्खा।। साधुभिः प्रतिश्रये तिष्ठाद्भिस्तत्प्रयमतया या प्रायोग्यस्यानुज्ञापना कृता भवति सा एवोपाश्रयपर्यापन्नस्यापि ग्रहणे अवगृहस्तिष्ठति। न पुनर्भूया ऽनुज्ञाप्यते / या तु सूत्रो लन्दाख्या लन्द इत्यानिधानं स कालः प्रतिपत्तव्यः इति कृता सूत्रव्याख्या भाष्यकृता। संप्रति नियुक्तिविस्तरः। पुथ्वंसहा दुविहे, दवे आहार जाव अवरण्हे। उवहिस्स ततियदिवसे, इतरे गाहियम्मि जयणाए।। पूर्व प्रथमं तिष्ठत एव वृषभाः समन्तादुपाश्रयमेवावलोकयन्तो द्विविधे द्रव्ये उपयोग प्रयच्छन्ति / द्विविधं द्रव्यं नाम आहार उपधिश्च / तत्प्राधूर्णकादयो गृहिणो विस्मृत्य परित्यज्य वा गता भवेयुः। तेषु गतेषु यावदपराहो भवति तावदाहारं न गृहन्ति परतस्तुगृह्णन्ति उपधेस्तुतृतीये दिवसे गते ग्रहणं कुर्वन्ति इतरन्नाम अर्थजातं तत्कदाचिदगारिणां विस्मृतं भवेत् तदेकान्तं निक्षेपणीयम् (गहियं-तित्ति) यदि धनिकादिभिर्गृहीतं तथा प्रतिवासिकैर्नष्टो भवेत्तथा तत्रापि यत्तेषां विस्मृतं तद्यथोक्तविधिना गृह्णन्ति। एष नियुक्तिमाथासमासार्थः / सांप्रतमेनामेव विवृणोति।। पायं सायं मज्झं-ने यउसमा उवस्सयसमंता। एहिं ति अपिहाए, लहुगो वेसाइमे तत्थ।। प्रातः प्रभातेसायंसंध्यायांमध्याह्वेचकालत्रये वृषभा उपाश्रयं समन्तात् प्रत्युपेक्षन्ते अप्रत्युपेक्षमाणानां लघुको मासम् / दोषाश्च मे / तत्राप्रत्युपेक्षणे भवन्ति।। साहम्मियण्णधम्मिय, गारच्छिण्णिखिवणवोसिरणजु / गिण्हणकट्टणववहार, पच्छकदृड्डाहणिव्विसए।। सधर्मिणी संयमी अन्यधर्मिणी परतीर्थका अगारस्थी अविरतिका एता प्रद्विष्टाः सत्यः साधुप्रतिश्रयसमीपे अर्थजातस्य निक्षेपणं कुर्युः / यद्वा बालकं व्युत्सूज्य गच्छेयुः। परिषहपराजितोवा कोऽपि संयतो रज्जुबन्धनेन प्रियते। तत्रा राजपुरुषैति सति ग्रहणाकर्षलव्यवहारः पश्चात्कृतोड्डानिर्विष याज्ञापनादयो दोषा भवन्ति। इदमेव भावयति।। नोदणकु विय साहम्मिणि, परतिस्थिणिगीउदिद्विरागेण अणुकंपजहिच्छदा-रिजवालं अगारीवा।। सधर्मिणी काचिच खण्डितशीला गर्भवती उड्डाहोऽयमिति मन्यमानैः साधुभिढिं नितरां रजोहरणादिलिङ्ग बहिः कृत्वा भवेत् ततः सा मदीयलिङ्ग मपहृतमिति मन्यमाना तयानोदनया कु पिता सती स्वयमपत्यजातं तदाश्रयसमीपे परित्यजेत् परतीर्थिनी तु दृष्टिरागेण अस्माकमपयश प्रवाहो भविष्यतीति कृत्या संयतानामुपाश्रयसंनिधौ बालकं व्युत्सृजेत परं लोकश्चिन्तयिष्यति एतैरेवतजनितमिति। अथवा अगारी काचिदनुकम्पया यदृच्छया बालकं तत्रा प्रक्षिपत् तत्रानुकम्पया नाम दुष्कालादौ काचिददुस्था योषिजीवानाय स्वापत्यं तदाश्रयान्तिके त्यजति वरमेते अनुकम्पापरायणा अमुं बालकं शय्यातरस्यापरस्य वा ईश्वरस्य गृहे निक्षेप्स्यन्तीति यदृच्छया अभिसंधिमन्तरेणैवमेव व्युत्सृजति।। हाउं व तरेउं वा, अचयंता तेणगा भिवत्थादी। एएहिं वि य जणियं, तहिं व दोसा उजुणदिट्टा।। स्ते नकादयो वस्त्रादिकं हर्तुं वा तरीतु वा (अचयता) अशक्नुवन्तः साधूनां प्रतिश्रयसन्निधौ परित्यजेयुः / उपलक्षणमिद तेनान्यतीर्थिकादयः प्रत्यनी कतया हिरण्यसुवर्णादिकमपहृत्य तत्रा निक्षिपेयुः ततो यदि वृषभाः त्रिसंध्यं च सति प्रत्युपेक्षन्ते तदा लोको ब्रूयात एतैरेवैतदपत्यभाण्ड जनित सुवर्णार्यमत्र प्रक्षिप्तमिति / यस्तु देहे द्रोही द्रव्यार्थवैरादिक रणव्यपरोपितस्य पुरुषादेः शरीरमित्यर्थस्तका प्रतिचरणा कर्तव्या। सम्यक् प्रतिचर्य यदि कोऽपि न पश्यति तदा परिष्ठापनीयमिति हृदयम् / तच परावग्राहपरकीयनिवेशनादौ (निवोज्झंति) परित्यजन्ति / किंतु परैरपि गृहीते तश्च नाग इति Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 733 अमिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह अप्पडिचरपडिचराणं, दोसाय गुणा य वणिया एए। विनाशयमामाङ्गषत रक्षकृति यावत्कल्पस्थकादिकमन्यैर्दृष्टमिति। एत्तेण सुत्तं न कतं, सुत्त निवातो इमो तत्थ / / बोलं पभायकाले, करिति जणजाणदयावसमा। अप्रतिचरणप्रतिचरणयोः प्रतिश्रयस्याप्रत्युपेक्षणाप्रत्युपेक्षणयोर्यथा- पडियरणा पुण देहे, परग्गहेणेव उन्भति।। क्रममेते दोषा गुणाश्च वर्णिताः। परमेतेन पर्यन्त सूत्रांन कृतं न विहितं यत्ता हिरण्सुवर्णादि केनचित्परित्यक्तं भवति तत्प्रभात काल एव किंतु समाचारीप्रकाशनार्थ सर्वमेत- व्याख्यातमिति / सूत्रानिपातः प्रत्युपेक्षमाणाः सम्यनिरीक्ष्य वृषभाजनज्ञापनार्थ वोलं कुर्वन्ति। यथा पुनरयं तोति सूत्रानिपातस्यैवोपदर्शनार्थः।। केनचित्पापिनेदं हिरण्यादिकमस्मदपयशोऽथ निहितम् पूर्वाशैक्षादयश्च आगंतुगागारट्ठियाणं, को आदेसमादिणा कोइ। द्विविधस्यापि व्यस्य द्वार कर्तव्यः / किं कारणमाहरे तेपराह्न वसिउं विस्समिउंवा, छड्डित्तुगया अणाभोगा।। यावत्प्रतिचरन्तीत्युच्यते। इह यत्रागारिण आगत्यागत्य तिष्ठन्ति तदागन्तुकागारम्। तत्र कार्ये वोच्छिन्नई ममत्तं, परेण तेसिंच तेण जति कजं / कारणविशेषतः स्थितानां प्रकृतसूत्रमवतरित कथमित्याह / गिण्हंता वि विसुद्धा, जतिविण वोच्छिज्जती भावो।। आदेशप्राधूर्णकास्तत्रा केचित्पथिका आगन्तुकागारे रजन्यां वासमुपगता अपराह्वात्परतस्तेषां पथिकानामाहारममत्वं व्यवच्छिद्यते / तेषा दिवा वा भोजनार्थं विश्रामं कृतवन्तस्तत उषित्वा विश्रम्य वा किंचित् साधूनां च यदितेनाहारेण कार्य भवति ततो गृहृतोऽपि विशुद्धाः। यद्यपि द्रव्यजातमनाभोगमनिच्छन्तो गताः। किंतु सत्यजेदित्याह। च भावस्तेषां तदुपरि न व्यवच्छिद्यते तथाप्यपसभयादूर्ध्व गृह्णतां न समिइसत्तुसागरस-सिणेहगुललोणमादिआहारो। कश्चिद दोषः / उपधिं तु तृतीयदि वसे पूर्ण गृह्णन्ति एतावता ओहे अवग्गहम्मि य, होउवही अट्ठजातं वा।।। तद्विषयममत्वस्य व्यवच्छेदात्। इहाहार उपधिश्चेति द्विविधं द्रव्यं भवति / तत्राहारः अव्वोच्छिन्ने भावे, विरागयाणं पितं पयंसिंति। समितिसक्तुशाकरसस्नेहगुडलवणादिकः / समितिः कणिक्का शेष पण्णवणमणिच्छंते, कप्पं तु करें ति परिभुत्ते।। प्रतीतम् / उपधिस्तु द्विधा भवति ओघ उपधिः उपग्रहे वा / अथ तेषामद्यापि भावो न व्यवच्छिद्यते ततोऽव्यवच्छिन्ने भावे तेषां ओघोपधिरुपग्रहोपधिश्चेत्यर्थः / अर्थजातं द्रव्यं यद्धा। परित्यक्तुं भवेत् स्ववस्त्राणि गवेषयतां चिरादायातानामपि तमुपधिं तु दर्शयन्ति / एवं च तयाहारोपधिविषयं तावद्विधिमाह। तेषां प्रज्ञापनां कुर्वन्ति। अस्माभिरेतानि वस्त्राणि स्वीकृतानिततोऽनुग्रह काऊण स सागरिए, पडियरणा हारजात अवरण्हे। मन्यमानाः साधूनामनुजानीथ एवमुक्ते यद्यनुजानते ततः सुन्दरम्। अथ एमेव य उवहिस्सवि, सुण्णे दोसा य गहणाइ।। नेच्छन्त्यनुज्ञातुंतानिवस्त्राणि परिभुक्तानि तत आत्मव्रतरक्षणार्थं कल्पं आहारसागरिके प्रदेशे कृत्वा तावत्प्रतिचरणं कुर्वन्ति यावदपराह्नः कुर्वन्ति। संजायते / एवमेवोपधेरपि शून्ये भूभागे स स्यापनीयः अन्तिकं वा अथार्थजात विषयविधिमाह। अपहृतमेव तत्रजनदृष्ट मतिदोषा ग्रहणकर्षणादयो भवेयः।। पत्तो नियत्तपुट्ठा, करीदिदापति पत्थणां एथे। अहवा छुभेज कोयि, उग्गामगवेरियं च हंतूणं / दरिसिंति अपिच्छंतो, को पुच्छति केण ठवियं च / / देहाण मइत्थी वा, परिसहपराजितो वा वि।। इहोपाश्रये यद्यर्थजातं पतितमुपलभ्यते तदा तदप्यल्पसागारिके अथवा कश्चिदुद्ग्रामकं पारदारिकं वैरिणं वा हत्वा प्रत्यनीकतया तत्र स्थाप्यते / शैकतादयश्च दूरे कर्तव्याः / प्रत्यवनिवृत्तैश्च भूयस्ताव प्रक्षिपेत् / स्त्री वा काचिदत्यन्तदुःखिता वैहायसमरणमुपाश्रयसमीपे समायातैहिभिः पृष्टाः कुत्रास्माकं तदर्थजातमिति ततः करादिना कुर्यात्। परीषहपराजितोवासंयत एव कोऽपिरज्जुबन्धनेन भ्रियेत् "वरं हस्ताङ्गुल्या दिसंज्ञया दर्शयन्ति / अत्र प्रदेशे एनं प्रेक्षध्वम् / अथ ते न प्रदग्धुंज्वलितं हुताशनं नवापि भग्नं चिरसंचितं व्रत" मिति कृत्वा। पश्यन्ति ततः स्वयमेव तदर्थजातं दर्शयन्ति। यदि ते पृच्छेयुः केनेदमा दवियट्ठ संखडे वा, पुरिसत्था मेहुणो विसेसो वि। स्थापितं ततो वक्तव्यं के पृच्छन्ति केन स्थापितं चेति। एवं तावदुपाश्रय एमेय समागम्मि, चित्तं काए गिण्हणादीणि।। पर्यापन्ने आहारादौ विधिरुक्तः। कोऽपि कंचित्पुरुषं द्रव्यार्थं जातनिमित्तं यद्वा असंखडं कलहो अथ शय्यातरादिगृहपर्यापन्नो विधिमाह। वैरमित्यर्थः तेन वा कंचिद्व्यपरोप्य संयतोपाश्रयसमीपे परित्यजेत्एवं भडमाहइभयणढे, गहियागहिएस सिज्झादी। स्वियमपि कांचिद्विनाशय प्रक्षिपेत्। नवरं मैथुने विशेषः। किमुक्तं भवति |. गेण्हंति असंचइओ, संचइयं वा असंथरणे।। सपत्नी चतुर्थव्रतविघ्नकारिणी मत्वा अपरोऽप्यत्र तत्र व्युत्सृजेन भटा राजपुरुषास्तदादिभयात् नष्ट शय्यातरादौ अथवा शय्यिकाः अनायास प्रयासा भूयादिति कृत्वा / एवमेव श्रमणेऽपि गन्तव्यम्। तमपि प्रातिवेस्मिकास्तैर्गृहीतृभिर्धनकैरागृहीता ऋणं दापयितुमारब्धास्ततकश्चिदुपकरणदुव्यार्थ वैरेण वा मारयेदित्यर्थः / तत्र साधून् शङ्करन् स्तेषु शय्यिकादिषु नष्टेषु तत्रा य आहारोऽसंचयिको दधिघृतादिस्तं ततो ग्रहणाकर्षणादीनि पदानि प्राप्नुवन्ति यत एवमतः। गृह्णन्ति / अथ असंस्तरणे तत्रा संचयिकमप्युपध्यादिकं गृह्णन्ति। कालम्मि पहुप्पंते, वचरमादी ठवित्तु पडिरयणं / सो विक्खेतरणढे, एमेव य होइ उवहिगहणं पि। रक्खंति साणमादी,छण्णजादिट्ठमणोहिं।। पुष्वागएसु कहणं, भुजंति दिण्णो व मटेवि।। त्रिसंध्य वृषभैः समं ततो वसतिः प्रत्युपेक्षणीया / प्रत्युपेक्षितायां च प्रातिवेश्मिकादिसापेक्षो वा नष्टो भवेत् इतरो वा निरपेक्षः / यदि किञ्चित् कल्पस्थकादिकं पश्यति कालश्च पूर्यते ततश्चत्वरादिषु | सापेक्षो नाम भूयस्तौ वागन्तुकास्तद्विपरीतो निरपेक्ष स्त स्थापयित्वा प्रतिचरणं कुर्वाणः प्रच्छन्नावकाशस्थिताः श्वानमार्जारादिना / सोभयस्मिन्नपि नष्टे एवमेवाहारवदुपधेरपि ग्रहणं कुर्वन्ति / Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 734 -अमिधानराजेन्द्रः | भाग 2 उग्गह सापेक्षतष्टेषु च प्रत्यागतेषु कथयन्ति कथिते च दत्तमनुज्ञातं सत्परिभजन्ति / ये तु निरपेक्षनष्टास्तेषु निर्विवादमेव परिभुजते / एवं (अट्टेवित्ति) अर्थजातेऽपि ग्रहणं मन्तव्यम्। अौवाक्षेपरिहारावाह / पाउग्गमणुण्णवियं, जति मण्णसि एवमतिपसंगोत्ति। आउरभेसज्जवमा, तह संजमसाहगं जंतु।। यद्येवं मन्यसे प्रायोग्यं साधूनामुचितं यत्तदेव साधुनामनुज्ञापित नेतरत्प्रायोग्यमर्थजातादि तत एवमननुज्ञापितमप्यर्थजातं गृह्णतामतिप्रसङ्गो भवति तत्राप्यभिधीयते नेकान्तेमार्थ जातमप्रायाग्यं यत आतुरो रोगी तस्य भेषजोपमा कर्तव्या। यथा पुनरस्याभिनवोदीणे ज्वरादौ यदौषधं प्रतिषिध्यते तदेवान्यस्यामवस्यायां तस्यैवानुज्ञाप्यते एवमर्थजातमपि पुष्टकारणाभावे प्रतिषिदुम् / यत्तु दुर्भिक्षादौ संयमस्य साधकं तदनुज्ञातमेव। वृ०३ उ०। किंच। से किं पुण तत्थोग्गहसि पवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा सूती वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा णहच्छेदणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स देज वा अणुपदेज वा सयंकर-णिज्जं तिकट्ट सेत्तमादाए तत्थ गच्छेज्जा 2 पुवामेव उत्ताणए हत्थे कटु भूमीए वा ठवेत्ता इमं खलु इमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा णो चेवणं सयं पाणिणा परपाणिंसिपचप्पिणेज्जा।। (8) स सागरिकानुदकस्त्री कमुपाश्रयमवग्रहं नानुज्ञापयेत्यत्र कर्मकरा आक्रोशन्ति यावत्स्नान्ति तत्रापि नावग्रहः / से भिक्खू वा भिक्खूणी वा सेजं पुण उग्गहं जाणेज्जा अणंतरहियाए पुढवीए ससणिद्धाए पुढवीए जाव संप्तणाए तहप्पगारं उग्गहं णो उग्गिण्हेजा 2 से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण उग्गहजाणेज्जाथूणंसिवा 4 तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे जाव णो उम्गहं उगिण्हेज्जा 2 से भिक्खू वा 2 सेजं पुण उग्गहं जाणेज्जा कुलियंसि वा जाव णो उगिण्हेज वा से भिक्खू वा 2 खंधंसि वा अण्णयरे वा तहप्पगारे जाव णो उगिण्हेज वा 2 सेजं पुण उग्गहं जाणेजा ससागरिय सगणियं सउदयं सइत्थि सक्खुर्छ सपसु समत्तपाणं णो अण्णस्स णिक्खमणपवेस जाव धम्माणु जोगचिंताए सेवं णचा तहप्पगारे उवस्सए ससागारिए जाव सक्खुडुपसुभत्तपाणे णो उग्गहं उगिण्हेज वा 2 से भिक्खू वा 2 सेजं पुण उम्गहं जाणेजा गाहावइ कुलस्स मज्झं मज्झेण गंतुं पंथे पडिबद्ध वाणो अण्ण स्स जाव से एवं णचा तहपग्गारे उवस्सए णो उग्गहं उग्गिण्हेज वा 2 से भिक्खू वा 2 सेजं पुण उग्गहं जाणेज्जा / इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अकोसं ते वा तहेव तेल्लादि-सिणाणदिसीओ दगवियडादि ण गिण्हवियजहा सेज्जाए आलावगा / णवरं उग्गहवत्तावता / स भिक्खू वा 2 सेजं पुण उग्हं जाणेज्जा | आहण्णं सलेक्खाणो अण्णस्स जाव चिन्ताए तहप्पगारे उवस्सए जो उग्गहं उगिण्हे जाव एयं खलु तस्स भिक्खुस्सवा 2 ससग्गियं उग्गहपडिमाए। पढमो उद्देसओ सम्मत्तो। (E) ब्राह्मणाधवगृहीतेऽवग्रहः। से आगंतारेसु वा 3 अणुवीयि उम्गहं जाएज्जा जे तत्थ ईसरे समाहिट्ठाए ते उग्गहं अणुण्णवित्ता कामं खलु आउसो अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मियाए ताव उग्गहं उगिण्हेस्सामो तेण परं विहरिस्सामो। से किं पुण तत्थ उग्गहंसि पवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा दंडए वा छत्तए वा जाव चम्मच्छे दणए वा तण्णो अंतोहिंतो वाहिणीणेज्जा बाहिया वा णो अंतोपवेसेजा णो सुत्तं वाणं पडिवोहेज्जा णो तेसिं किंचि वि अप्पतियं पडिणीयं करेजा। सभिक्षुरागन्तागारादावपरब्राह्मणाधुपभोगसामान्ये कारणिकः सन्नीश्वरादिकं पूर्वक्रमेणावग्रहं याचेत। तस्मिंश्चाव गृहीते अवग्रहे यत्तत्रा श्रमणब्राह्मणादीनां छत्राधु करणजातं भवेत्तठौवाभ्यन्तरतो बहिनिष्कामयेन्नापि ततोऽम्यन्तरं प्रवेशयेन्नापि ब्राह्मणदिकं सुप्त प्रतिबोधयेन्नच तेषां (अप्पतियंति) मनसः पीडां कुर्यात्तथा प्रत्यनीकता प्रतिकूलतां न विदध्यादिति। आचा०२ श्रु०७ अ०२ उ०। (10) पथ्यऽवग्रहोऽनुज्ञापायतव्यः। अणुन्नवेयन्तो अस्य संबन्धमाह। उग्गहहुम्मि दिडे, कहियं पुण सो अणुण्णवेयव्यो। अट्ठाणादीएसु वि, संभावणसुत्तसंबंधो।। अवग्रहस्य प्रभोदृष्ट क्व पुनः सोऽवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः इति चिन्तायामाधिकृतसूत्रोणोच्यते पथ्यप्यवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः / अपि शब्दः संभावनायामास्तां ग्रामे नगरे वा किंतु संभावनायामध्वन्यपि / तथा चाह अध्वादिकेष्वप्मनुज्ञापयितव्यः / एष संभावनासूत्रस्य संबंधः / संप्रति भाष्यविस्तरः। अदाण पुटवभणियं, सागारियमग्गणा इई सुत्ते। मग्गए परिगहिए सा, गारियसेसभयणाय।। अध्वनि यद्वक्तब्धे तत्सर्वं कल्पाध्ययने भणितमितीह पुनः सूत्रेऽध्वानं व्रजतां सागारिकमार्गणा शय्यतरमार्गणा क्रियते तथा केनाचित्परिगृहीते वृक्षादौ सतिशेषसागरिके भजनाय विस्तारन्ति तर्हि यावद्भिस्तद्गृहीतंवृक्षादितावतः शय्यातरान् करोति असंस्तरणे एकमपि शय्यातरामीति भावार्थः। संप्रति पूवार्द्धव्याख्यानमाह। दिणे दिणे जस्स उवल्लियंती, भंडी हवंते व पडालियं वा। सागरिये होंति स एगए व, रीडागए सुन्नु जहिं बसंति / / दिने दिने यक्ष्य भंडी गन्त्री वहन्तीमु प्लीयन्ते आश्रयन्ति साधवो यदि वा पडालिका नाम यत्रा मध्याई साधर्मिकास्तिष्ठान्ति यत्रा वा वसन्ति तत्रा वस्त्रादिमयं कुवलयन कुर्वन्ति तां वा यस्य दिने उपजीयन्ते तदा स एवैकः सागारिक Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 735 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह शय्यातरो भवति। रीढागतेषु तु अवज्ञया यत्र तत्र गतेषु साधुसु यत्र रात्री प्रतिगृह्णीयादिति। किंच (सेत्यादि) स भिक्षुर्यत्पुनरा-ममल्पाण्डमल्यवसन्ति तद्दिवसंस शय्यातरः / इयमत्र भावना। यस्य न नियमन भडी वा सन्तानकं वा जानीयात्किंत्यतिरश्चीनच्छिन्नं तिर–श्चीनमपाटितम्। तथा पडालिका वा प्रतिदिनमुपलीयन्ते किंतु यदृच्छया कस्मिन् दिने कस्यापि व्यवच्छिन्नं न खण्डितं यावदप्रासुकं न प्रति-गृह्णीयादिति / तथा तदा यां यां रात्रिं यस्य भण्ड्यादिकमुप-लीयन्ते तस्मिन् 2 दिने स (सेइत्यादि) स भिक्षुरल्पाण्डमल्पसंतानकं तिरश्चीनच्छिन्नं तथा शय्यातरः वयवच्छिन्नं यावत्प्रासुकं कारणे सतिगृह्णीया-दिति। एवमानावयव एव वीसमंता वि छायाए,जे तहिं पढमंतिया। संबन्धिसूत्रत्रयमपि नयमिति / नवरम् (अंबभित्तयं) आम्रार्द्धमानपेसी पुच्छिउँ तेवि चिट्टेय, पंतिए किंमु जहिं वसो // आम्रफली (अंबचोयगंति) आमच्छल्ली सालगं रसं (डालगत्ति) विश्राम्यन्तोऽपिछायायां ये तत्र पथिकाः प्रथमं स्थितास्तिष्ठन्ति तानपि आम्रशूक्ष्मखण्डानीति।। दृष्ट्वा तत्र तिष्ठते नान्यथा किं पुनर्यत्र च साधुस्तत्र सुतरां ते इक्षुवनादाववग्रहः अनुज्ञापयितव्यास्ततो भवन्ति ते शय्यातराः संप्रति एगए परिग-हिए से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकं खेज्जा उच्छु वणं सागारिय सेसए भयणा" इति व्याख्यानयन्नाह उवागच्छित्तएजे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि अह भिक्खू इच्छेजा उच्छुभोत्तए वा पायए वा सेजं उच्छु जाणेज्जा से अंडं जाव णो वसतिं वा जहिं रत्तिं, एगणेगपरिग्गहे। पडिगाहेजा अतिरिच्छच्छिण्णंतहेव तिरिच्छच्छिण्णं तहेव से तत्तिए उत्तरे कुज्जा, वा वंते गमसंथरे / / भिक्खू वा मिक्खुणी वा सेज्जं पुण अभिकंक्खेज्जा अंतरुच्छुयं यत्र वृक्षस्याधस्तादन्यत्र वा एकस्य वा परिग्रहे अनेकस्य वा परिग्रहे वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगंवा उच्छुसालणं वा उच्छुडालगं अनेकस्य वा पथिकस्य संघस्तस्य परिग्रहे साघयो रात्रौ वसन्ति तर्हि वा। भोत्तए वा पायए वा सेजं पुण जाणेज्जा / अंतरुच्छुयं वा सर्वानपि तान् शय्यातरान कुर्युः / अथ न संस्तरन्ति तदा-त्ममध्ये एक जाव डालगं वा स अडं जाव णो पडिगाहेज्जा वा से भिक्खू वा शय्यातरं स्थापयति। शेषान् निर्विशन्ति / एषा शेषे सागारिके भजना। भिक्खुणी वा सेज पुण जाणेजा अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा व्य० द्वि०७ उ०) अप्पंडं जाव पडिगाहेजा अतिरिच्छच्छिण्णं तिरिच्छच्छिण्णं आमेक्षुवनादाववग्रहं आम्रफलादिभोजनं लशुनवनादाववग्रहश्च / तहेव पडिगाहेजा। तत्र आम्रवनादौ अवग्रहे आम्रफलभोजनम्। लशुनवनादाववग्रहः से मिक्ख वा भिक्खुणीवा अभिकंखेज्जा अंबवणं उवागच्छि- से मिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकंक्खेज्जा ल्हसणवणं उवात्तए जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिहाए ते उग्गहं अणुजाणा- गच्छित्तए तहेव तिण्णिवि आलावगा णवरं ल्हसुणं से भिक्खू वा वेजा कामं खलु जाव विहरिस्सामो से किं पुण तत्थोग्गहंसि वा भिक्खुणी वा अभिकं क्खेजाल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा पवोग्गहियंसिवा भिक्खू वा भिक्खुणीवा इच्छेजा अंबंभोत्तए वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणडालगं वा भोत्तर वा पायए वा सेज्जं सेज्जं पुण अंबं जाणेज्जा स अडं जाव संसताणं तहप्पगारं अंवं | पुण जाणेज्जा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणवीयं वा स अंडं जाव णो अफासुयं जाण णो पडिगाहेजा। से भिक्खू वार सेजं पुण अंबं पडिगाहेजा / एवं अतिरिच्छच्छिण्णे वि तिरिच्छच्छिण्णे जाणेजा अप्पडंजाव संताणगं अतिरिच्छाच्छिण्णं अवो-च्छिण्णं पडिगाहेज्जा / / आचा०२ श्रु०७ अ०३ उ०। अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा / सो भिक्खू वा 2 सेजं पुण सागारिकेण भाटक प्रदानेन स्वीकृतेऽवग्रहः / (सागारियशब्दे) अंबंजाणेजा अप्पंडं जाव संताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वोच्छिण्णं (12) स्वामिना त्यक्ते अत्यक्ते वाऽवग्रहः। फासुयं जाव पडिगाहेजा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा (सूत्रम्) से वत्थुसु अव्वावडेसु अव्वोगडेसु अपरपरिग्गहेसु अभिकंखेज्जा अंवमित्तगं वा, अंबपेसियं वा, अंबचोयतं वा, | अमरपरिग्गहिण्सु सव्वे व उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ / अंबसालगं वा, अंबदालगं वा, भोत्तए वा पायए वा सेज्जं पुण / अहालंदमवि उग्गहे॥ जाणेञ्जा अंबमित्तगं जाव अंबदालगं वा स अंडं जाव संताणगं अस्य संबन्धमाह। अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गिहिउगह सामिजढे, इति एसो उग्गहो समक्खातो। सेजं पुण जाणेज्जा अंबभित्तगं वा अप्पंडं वा जाव संताणगं सामिजढे अजढे वा, अयमण्णो होइ आरंभो / / अतिरिच्छच्छिण्णं वा अफासुयंजावणोपडिगाहेजा।से भिक्खू स्वामिना जढः परित्यक्तो यो गृहिणां संबन्धी अवग्रहस्तद्विषय इत्येषो वा भिक्खुणी वा सेजं पुण जाणेजा अंबभित्तिगंवा अप्पंडं जाव ऽवग्रहोऽवग्रहविधिः समाख्यातः। अयं पुनरन्यः प्रस्तुत-सूत्रस्यारम्भः संताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वोच्छिण्णं फासुयं जावपडिगाहेजा / / स्वामिना त्यक्ते अत्यक्ते वा अवग्रहो भवति अनेन संबन्धेनायातस्यास्य स भिक्षुः कदाचिदानवनेऽवग्रहमीश्वरादिकं याचेत तत्रस्थश्च सति कारणे व्याख्या (से) तस्य निर्ग्रन्थस्य वास्तुषु गृहेषु कथभूतेषु अव्यापृतेषु आनं भोक्तुमिच्छेत्तचानं साण्ड ससन्तानकमप्रासुकमिति च मत्वा न शटितपंतिततया व्यापारविरहितेषु अव्याकृतेषु दायादिभिरविभक्तेषु / Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह अथवा पुनीताले केनाप्यनुज्ञातमिति न ज्ञायते यत्तदव्याकृतं तेषु। तथा अपरपरिगृहितेषु परैरन्यैरनधिष्ठितेषु अमरपरिगृहीतेषु देवैः स्वीकृतेषु सैवावग्रहः नअपूर्वानुज्ञापुना तिष्ठति।यथा लंदमप्यव-ग्रहे किमुक्तं भवति यावन्तं कालं तानि वस्तूनि तेषां पूर्वस्वामिनामवग्रहे वर्तन्तेतावन्तं कालं सैव पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति न पुनभूर्यो ऽप्यवहोऽनुज्ञापनीय इति सूत्रार्थः। संप्रति नियुक्तिविस्तरः।। खित्तं वत्थु सेतुं, केतुं साहारणं च पत्तेयं / अव्वोवडमय्वोअड-अपरमभरपरिम्गहंचेव॥ इह वास्तु सामान्यतो द्विधा क्षेत्रं वास्तु गृहं वास्तु च / क्षेत्रं द्विधा सेतु केतुगृहं च तत्र अरघट्टजलेन यत्सिच्यतेतत्सेतु। वृष्टिजलेनतुयनिष्यद्यते तत्केतु। गृहपुनः खातोत्थितोभयभेदात्रिधा वक्ष्यते। क्षेत्रं गृहं चोभयमपि द्विधा / साधारणं प्रत्येकं च / साधारणे बहूनाम्, सामान्यं प्रत्येकम् एकस्वामिनस्तत्र पदानि पश्चार्द्धन संग्रहीतुमाह / अव्यापृतमव्याकृतमपरपरिगृहीतममरपरिगृहीतं चेति। अथ साधारणपदं विवृणोति। होइ य गणगोट्ठीणं, सेणिसाधारणं च दुगमाई। वत्थुम्मि एत्थ यपयं, उत्थितखाते तदुभयम्मि। गणगोष्ठीनां श्रेणीनां वा (दुगमाइत्ति) द्वित्रिप्रभृतिसंख्यकानां द्वित्र्यादिजनप्रतिबद्धानां वा यत्क्षेत्रं वास्तु वा सामान्यं तत्साधारणमुच्यते। अत्र तु वास्तुना अधिकारोन क्षेत्रेण तच वास्तु त्रिधा। उत्थितं खातंतदुभयं च उत्थितं प्रासादः। खातं भूमिगृहं तदुभयमधो भूमिगृहयुक्तः प्रासादः। अव्यापृतादिपदानि व्याचष्टे / सडियपडियं न कीरइ, जहिगं अय्वावडं तयं वत्थू / अव्वोगडमविभत्तं, अणहिट्ठियमण्णपक्खेणं। यत् शटितं पतितं यत्र व्यापारः केनापि न क्रियते यत्तद्वास्तु अव्यापृतमुच्यते / अव्याकृतं नाम यद्दायादैरविभक्तम् अपर परिगृहीतं नाम यदन्यपक्षणान्यदीयवशंनेनाधिष्ठितं नास्य परिगृहीतं स्वयमेव तस्य शय्यातर इति भावः / इदानीमेव भावयति। अवरो सुव्वियसामी, जेण विदिण्णं तु तप्पढमताए। अमरपरिग्गहियं पुण, इउलिया रुक्खमादी य / / अपरो नाम तत्प्रथमतया साधूनां यद्दत्तं स एव तस्य स्वामी नान्यः कश्चित् / न परोऽपर इति समासाश्रयणात् ! अमरपरिगृहीतं पुनर्देवकूलिका वा वृक्षादिकं वा वानमन्तरधिष्ठितं मन्तव्यम् / अथाव्याकृतादिषु दृष्टान्तानुपदर्शयति। अव्वावडे कुटुंवी, काणिकावोगडे य रायगिहे। अपरपरोसादेवउ, अमरसक्खे पिसायघरे।। अव्यापृते गृहे कुटुम्बिदृष्टान्तः / अव्याकृते तु राजगृहे (काणिकति) पाषाणमधः पक्केष्टका वा वलिकामहत्यश्च काणिक्का उच्यन्ते तन्मध्ये गृहकारापको वणिग् दृष्टान्तः / परपरिगृहीते ऽपि स एव दृष्टान्तः / अंपरपरिगृहीते वृक्षपिशाचगृह वा निदर्शनं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुः कुटुम्बिदृष्टान्तमाह। नम्मवणं पासाए , संखडिजक्खेसु मिणायकंदीय। अण्णं वावोरणं, कुणंति अंवावडं तेणं / / कुडुविएणं सुंदरं घरं कारियं सभत्तं तंमि संखइंकाउंकल्ले पवि-मामित्ति चिन्तेइ नवरं वाणमंतरेण रत्तिं भण्णति। जइ पविसिहिसि तो ते कुलं उत्थाएमि तेणं कंटियाहि फलिहिऊण मुक्कं वावारं वासेन करेइ। अन्नया साहुहिं आगएहि सो कुटुंबीअणुन्नविउ तेण भणइ दिवयाए परिग्गहियं। ततो से अवाओ भविस्सइ। साहूहि भणितो अणुजाणसुतुमलंभिस्सामो वयं देवयाए तओ तेण अणुन्नाए तेहिं काउस्सग्गेण जक्खो आकंपिओ भण्णइ / उवरिल्लभुमियं मोत्तुं वासस्था अत्थ हते ट्ठिया तेसु गतेसु जे अन्ने साहुणो इतिते तत्थेव ठायंति। सव्वेव उग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा। अथ गाथाक्षरार्थः / कुटुम्बिना प्रासादस्य निर्मापणं कृतं ततः संखडिः कर्तुमारब्धो यक्षेण चस्वप्ने निवेदितं यदिप्रासादं प्रवेक्ष्यसि ततः सकुटुम्बं भवन्तं व्यपरोपयिष्यामितितेन कण्टिकाभिः परिक्षिप्तं तद्गृहम् अन्यमपि चव्यापारंतत्र न करोति तेनाव्यापृतमुच्यते। अव्याकृते दृष्टान्मावाह! दत्तू असीयंवधरं महल्लं , कालेण तं खीणधणं च जायं / ते उंदरीयस्स मयाउ कुट्ठी, दाउंय मोलंवघरं जईणं / / समेणं इद्धिमंतेण वाणिएण रायगिहे नयरे स जालमाला वा घालपंकट्टगाहिं गिह कारियं सोयं तम्भि निम्माविय पंच तीहओ पुत्ती सो पुल्ली जाओ। क्षीणविभव इत्यर्थः / तत्थयं उंबरीउकरो घिप्पइ ते त दाउं अवयंता एगपासे कुट्टियं काउंठिया तं च तेहिं संजयाण दित्तं अथाक्षरगमनिका। ऋद्धिमत्वेमहर्द्धिकतायां कस्यापि वणिजो गृहं महल्लं महाजनाकुलमासितं कालेन तत्क्षीणधनं च शब्दादल्पमानुषं च संजातं तेच तदीयाः पुत्रा उंबरीयस्य प्रत्युदुम्बरं रूपको दातव्य इत्येवलक्षणस्य करस्य भयादेकस्मिन् पार्श्वे कुटीं कृत्वा मोलंच गृहपतीनांदत्या कुटीरके स्वयं स्थिताः। एतदव्याकृतमुच्यते। अथ पूर्वानुज्ञापना व्याख्याति। पुट्विट्टियणुण्णविय-द्वायं तण्णेवि तत्थ ते य गता। एवं सुण्णवसुण्णे, सो चेव य उग्गहे होइ / / अव्यापृते अव्याकृतेवा पूर्व साधवोऽनुज्ञाप्य स्थिताः तेषां मास-कल्पे वर्षावासे वा पूर्णे शून्यभूतेतत्र प्रतिश्रये अपूर्णे वा कल्पे अशून्यपदोपाश्रये अन्ये साधवस्तिष्ठन्ति ततः पूर्वसाधवः कल्पं समाप्यान्यत्र गताः परंशून्ये अशून्येवा तत्र तिष्ठतां तेषां स एवावग्रहो भवति नपुनर्भूयोऽनुज्ञापयन्ति / अपरपरिगृहीतं व्याचष्ट। अपरपरिग्गहितं पुण, अपरे जत्ती जइ उ चिंति। अव्वोकडं पितं चिय, दोण्णि वि अच्छी अपरसडो।। पुनःशब्दो विशेषणार्थः स चैतद्विशिनष्टि अपरिगृहीतं नाम येन साधूनां तहत्तं स एव स्वामी नान्य इतितावदपरिगृहीतस्यैकाऽर्थः प्रयुक्तः। यद्वा नपरे अपरा यतयस्तत्रोपयन्ति तेन तदपरपरिगृहीतमव्याकृतमपि तदेव मन्तव्यम् / सर्वेषामपि साधूनां साधारणमिति कृत्वा तदेव द्वावप्यविपरशब्दे भवतः / एको न परोऽपरस्तेन परिगृहीतमपरपरिगृहीतम् द्वितीयोऽपरैः साधुभिः परिगृहीतमपरपरिगृहीतमिति / अमरपरिगृहीतं तु वृक्षे वृक्षस्याधस्ताद्वा गृह मन्तव्यम्। तत्र गृहे यदि पूर्व साधवो ऽनुज्ञाप्य स्थितास्तदा शेषाणां स एवावग्रहो भवति। अथ वृक्षविषयं विधिमाह। भूयाइपरिग्गहिते, दुगम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं / Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 737- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह एगेण अणुण्णविए, सो चेव य उग्गहो होइ॥ भूतादिना व्यन्तरेण परिगृहीतो यो द्रुमस्तत्र स्वाध्यायार्थ कदाचिद्गन्तव्यं भवति / तं च ध्यन्तरमनुज्ञाप्य स्वाध्यायं करोति / एवमेकेना पि तस्मिन्ननुज्ञापिते शेषाणां साधूनां स वृक्षादाववग्रहो भवति। अथासौ वृक्षः परपरिगृहीतोऽप्यस्तिततः सामी अणुण्णविजइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीण। कूरसुरपरिग्गहिते, दूमम्मि कणिहगाण गमो।। यस्तस्य द्रुमस्य स्वामी सोऽनुज्ञाप्यते / अथासौ न स्वाधीनस्त तोऽस्वाधीने तस्मिन् यस्यायमवग्रहः सोऽनुजानीतामित वक्तव्यम्। अथासौ द्रुमः क्रूरसुरपरिगृहीतस्ततो येषामगारिणां सत्कस्तेषामागन्तुमसौ न ददात तत्र कणेष्टका गृहगमो मन्तव्यः / तं सुरं कायोत्सर्गेणानुकम्प्य स्वाध्यायादिकुर्वन्तीति भावः। तत्र चायं विधिः। निच्छंतेण व अण्णे, ईसालुसुरेण जं अणुण्णायं / तत्थ वि सो चेव गमो, सागारपिंडम्मि मग्गणता / / ईर्ष्यालुसुरेण अन्येन गृहिणा आगच्छता वृक्षमूलादिकं साधूना-मनुज्ञातं तत्रापि स एव गमः पूर्वानुज्ञापनावस्थानलक्षणे विज्ञेयोनवरं तत्र स्थितानां सागारिकपिण्डस्यमार्गणा कर्तव्या। तामेवाह। जक्खो वि य होइ तरो, वलिमादी गिण्हणा भवे दोसा। सुविणा उवरिंएवा, संखडिकारोवणाभिक्खं॥ येन यक्षेण स द्रुमः परिगृहीतः स एव तत्र स्थितीनां तरूणां शय्या-तरो भवति। ततो यस्तस्य बलिकूरादि निवेद्यते स शय्यातरपिण्ड इति कृत्या परिहियते। बृ०३ उ०। राजावग्रहो देवेन्द्राऽवग्रहश्च। (सूत्रम्) से अणुकड्डेसु वा अणुभित्तिसु वा कुणरियासु वा अणुफरियासु वा अणुपंथेसु वा अणुमग्गेसु वा संघेवग्गहर पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमविग्गहे। अस्य संबन्धमाह। जे चेव दोण्णि य गता, सागारियरायउग्गहो होति। तेसिं इह परिमाणं, णिवोग्गहम्मी विसेसेणं / / यावेव द्वौ सागारिकराजावग्रहौ पूर्वसूत्रयोः प्रकृती तयोरेवेह सत्रे परिमाणमुच्यते तथापि नृपावग्रहपरिमाणं विशेषेणाभिधीयते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या (से) तस्य नम्रन्थस्य अनुकुड्येषु वा कुड्यसमीपवर्तिषु प्रदशेषु एवमनुवृत्तिषु वा अनुपरिखासुवा अनुपथेषु वा अनुमर्यादासु वा इह परिखानगरप्राकारयोरपाल्त-राले हस्ताष्टकप्रमाणो मार्गः। परिखा खातिका मर्यादा सीमा शेष प्रतीतम्। एतेषु सैवावग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति यथालन्दमपि कालमवग्रह इति सूत्रार्थः / अथ नियुक्तिविस्तरः। अणुकुड्डे भित्तीसुं, वरियाण गारपंथफरिहासु। अणुमग्गे सीमाए, णायव्वं जं जहिं कमति] अनुशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अनुकुड्यानुभित्त्योः अनुवरिकाप्राकारपयपरिखासु च (अणुमग्गसीमाए) मर्यादा सीमाततोऽनुमर्यादायामनुसीमायामित्ये कोऽर्थः / पथ्यनुज्ञातव्यम् / यपात्र | सागारिकराजाद्यवग्रहानुज्ञापनम्। एनां नियुक्तिगाथा व्याख्यानयति। उवकुडं अणुकुडं, कुड्डसमीवं व होइ एगहुँ / एमेवाससएसु वि, तेसि पमाणं इमं होइ॥ अनुशब्दस्य समीपार्थद्योतित्वादनुकुड्यमुपकुड्यं कुड्यंसमीप-मिति चैकार्थम् / एवमेव शेषेष्वपि अनुभित्त्यादिषु पदेषु मन्तव्यम् / तेषामनुकुड्यादीनामवग्रहविषयमिदं प्रमाणं भवति। वतिमित्तिकडगकुड्डे, पंथेपगएउग्गहो रयणी। अणुवरियाए अट्ठउ, चउरो रयणी उपरिहाए / वृत्तौ वर्तुलादिपरिक्षेपरूपायां भित्ताविष्टकादिनिर्मितायां कटके वलये च कुड्ये पथिधर्ममर्यादायां (वरंपणित्ति) एकहस्तमाना-वग्रहो भवति / अनुवरिकायामष्टौ हस्ताः परिखायां चत्वारो रत्नयः। इदमेव भावयति। वतिसामिणोवतीतो, हत्थो सोवग्गहोण खंतिस्स। तहि ममकारो जति विय, पणणिम्मग्गभूमीए / / गृहपतिविवक्षिताया वृत्तेः स्वामी तस्यवृत्ते परतो हस्तमात्रमवग्रहो भवति शेषस्तु सर्वोऽपि नरपतेरवग्रहो मन्तव्यः। अथ किंकारणं वृत्तिस्वामिनो वृत्तेः परतोऽप्यवग्रहो भवति इत्याह तस्य गृहपतेः परतोहस्तप्रमाणे भूभागे ममकारो भवति / अतो यद्यपि (निम्मा-णित्ति) मूलपादान्ते च तावद्विवक्षितगृहसत्का भूमिस्तथापि वृत्तेः परतो हस्तमेकं तस्यावग्रहः एवं भित्तिकुड्यादिष्वपि भावनीयम्। हत्थ हत्थं मोत्तुं, कुड्डादीणं तु मज्झिमो रण्णो। जत्थ न पूरइ हत्थो, मज्झे तिभागो वही रन्नो // तेषामेव कुड्यादिनांहस्तं हस्तमुभयोरपि गृहयोर्मुक्त्वा मध्यमः सर्वोऽपि राज्ञोऽवग्रहः / यत्र तु गृहस्यापान्तरालस्यातिस्तोकतया हस्तो न पूर्यते तत्र मध्यमत्रिभागो राज्ञः शेषौ द्वौ गृहस्वामिनोः / एतदवग्रहपरिमाणमुक्तम् / अत्र चोचरादीनि स्थाननिषदनादीनि वा कुर्वन् यदि कुड्यादीनां हस्ताभ्यन्तरे करोति ततो गृहपत्थवग्रहो मनसि क्रियते हस्तादहिश्चरिकाप्राकारपरिखादिषु च राजावग्रहो-ऽनुज्ञाप्यते / अटव्यामपि यद्यसौ राजा प्रभवति तदा तस्यैवावग्रहः स्मर्यते। अथासौ तत्र न प्रभवति ततो देवेन्द्रावग्रहो मनसि क्रियते। वृ०३ उ०॥ (14) राजपरिवर्तेऽवग्रहः।। "सेरज्जपरियमुसु" इत्यादिसूत्रद्वयस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह। सागरियसाहम्मिय-उग्गहगहणउत्तमाणम्मि। सुत्तमअंतिमसुत्तं, ठवंति राउग्गहे थेरा। पूर्वसूत्रेभ्यः सागारिकावग्रहग्रहणमनुवर्तते ततोऽपि परतरेभ्यः साधर्मिकावग्रहणं तस्मिन् अनुवर्तमाने अवग्रहग्रहणप्रस्तावात् सप्तमोद्देशकस्यान्तिम सूत्रम् / सूत्रद्वयं राजावग्रहे स्थविराः करिः स्थापयन्ति एषोऽधिकृतसूत्रद्वयसंबन्धोऽनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या(से) तस्य भिक्षो राजपरावर्तेषु राजपरावर्तो नामागेतनो राजा कालगतो नवोऽभिषिक्तस्तेषु / पुनः कथंभूतेषु इत्याह संस्तृतेषु न कोऽपि तद्राज्यं विलुम्पतीति भावः / तथा अव्याकृतेषु येषां दायादानां सामान्यं तद्राज्यं तैरविभक्तेषु। अनवच्छिन्नेषु तस्मिन्नेव वंशे अनुवर्तमानेषु अतएवापरपरिगृहीतेषु सैवावग्रहस्य पूर्वा अनुज्ञापना तिष्ठति या तस्य वंशस्यादावनुज्ञापना कृता कि यन्तं कालं पुनः सैव पूर्वानुज्ञा तिष्ठति तत आह यथालन्दमप्यवग्रहः / किमुक्तं भवति यावन्तं कालं स वंशोऽनुवर्तते तावन्तमपि कालमवग्रहे Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 738 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह राजावग्रहे सैव पूर्वानुज्ञापना वर्तते न पुनरन्यस्मिन् राज्ञि उपविष्ट स भूयोऽवग्रहोऽनुज्ञापयितव्यः / एष प्रथमसूत्रस्यार्थः / द्वितीय-स्योच्यते (से) तस्य भिक्षो राजपरावर्तेषु अन्येषु राज्यं प्रतिपन्नेषु असंस्तृतेषु त्रुटितपूर्वराज्यसंस्थितिषु व्याकृतेषु अन्यवंशीयैर्दायादैर्वा विभज्य समीकृतेषुव्यवस्थितेषुपूर्ववंशेषु अत एव परपरिगृहीतेषु भिक्षुभावस्यार्थाय भिक्षुभावो नाम ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेषामैव भिक्षुशब्दप्रवृत्तिनिमित्तवादेतदेव प्रथमोद्देशके सप्रपञ्च भावितंतस्यार्थाय स भिक्षुभावः परिपूर्णो भूयादित्येवमर्थमित्यर्थः। अन्यथा सचित्तादीनामनुज्ञापनेऽदत्तादानं स्यात् / द्वितीयेऽपि वारमवग्रहो ऽनुज्ञापयितव्यः एष द्वितीयस्यापि सूत्रार्थः। सांप्रतमेनामेव व्याख्यां भाष्यकृदप्याह। संथडमो अविलुत्तं, पडिवक्खो वा न विज्जत्ती जस्स। अणहिट्ठियमत्तेणव, अववोगडदाइसामन्नं / / संस्तृतं नाम राज्यं यदविलुप्तं मो इति पादपूरणे यस्य वा प्रतिपक्षो न विद्यते नाप्यन्येन केनाप्यधिष्ठितम्। अव्याकृतं नाम दायिनां सामान्य न पुनस्तैर्विभक्तम्। अव्वोगडं अविगडं, संदिटुं वा विजं हवेजाहि। अव्वो च्छिन्नपरंपर-मागयतस्सेववंसस्स। अव्याकृतं नाम यदविकृतंन केनापि विकारमापादितम् यदि वा यद्भवेत् पूर्वराजेन संदिष्ठं यथा एतस्मै राज्यं देयमिति तत अव्या--कृतम्।। अव्यच्छिन्नं नाम यत्तस्यैव वंशस्य परंपरया समागतमिति। पुव्वाणुना जा पुव्व-एहिं राईहिं इह अणुनाया। लंदंतु होइ कालो, चिट्ठइ जा उग्गहो तेसिं / / पूर्वानुज्ञा नाम या पूर्वकै राजभिरनुज्ञाता। "जहालंदमवीत्यत्र लंदो नाम भवति कालस्ततोऽयमों यावन्तं कालं तेषामवग्रहस्तवन्तमपि कालं सैवावग्रहे पूर्वानुज्ञा / तदेवं प्रथमसूत्रव्याख्या कृता / संप्रति द्वितीयसूत्रव्याख्यानार्थमाह। जं पुण असंथडं वा, सगडं मह वोगउं व वोच्छिन्नं / नंदमुरियाण व जहा, वोच्छिन्नो जत्थ वंसो उ॥ यत्पुनरसंस्तृतं शकटमिवशरारुतया संवरीतुमशक्नुवत् तथा व्याकृतं दायादैरन्यवंजैर्वा विभज्य अङ्गीकृतम्। व्यवच्छिन्नं यत्र नन्दमौर्याणामिव वंशो व्यवच्छिन्नः। तत्थ उ अणुन्नविजइ, भिक्खुभावट्ठमग्गहो निययं / दिक्खा भिक्खूभावो, अहवातइयव्वयादीउ॥ तत्र नियतमवश्यंभावेन भिक्षुभावार्थी यथावस्थितभिक्षु भावः तत्रैव भिक्षुभाव इत्याह / दीक्षादिरादिशब्दात्सम्यग ज्ञानादिपरिग्रहः / भिक्षुभावो ऽथवा तृतीयव्रतादिकं भिक्षुभावः / तत्रैव भिक्षु-शब्दस्य परमार्थत्वात्तदेवं कृता सूत्रव्याख्या। संप्रति नियुक्तिविस्तरः। रण्णा कालगयम्मि, अथिरगुरुगा अणुण्णवे तम्मि। आणादिणो य दोसा, विराहणा इमेसु गणासु / / राज्ञि कालगते ये द्वौ वा त्रयो वा दायिनस्तेषां मध्ये यः स्थिरः | सोऽनुज्ञापयितवयः। यदि पुनरस्थिरमनुज्ञापयन्ति तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः आज्ञादयश्च देषास्तथाविराधना आत्मविराधना संयमविराधना वा। एषु वक्ष्यमाणेषु स्थानेषु तान्येवाह। धुवमण्णे तस्स मज्झे, वसथेरेथेरमज्झ संताहे। दोसो गयपरदोसो, अणणुण्णवणेथिरे गुरुगा। ध्रुवमन्यस्मिन्नन्यवंशजे अस्थिरे तस्य वा पूर्वराजस्य संबन्धिनां दायिनामेकस्मिन् अस्थिरे संयतिरनुज्ञाषितः सन् चिन्तयति स तथा विचिन्तनास्ति। तथा भावस्यान्यथाभाव इति स एको मुक्तसन्नाहो वर्तते। तंच विश्वस्तंज्ञात्वाऽन्यदा सोऽन्येन दायादिना मारितो राज्यमधिष्ठितम् ततः स राजा चिन्तयति। संयतैर्ममामित्रपरिगृहीतैर्येन कारणेनासाववग्रहमनुज्ञापितस्ततः स प्रसिद्धो द्वयोरेकतरस्य प्रद्वेषं कुर्यात् / किमुक्तभवति निर्विषयत्वादि कुर्यात्।जीवचारित्रयोर्वा भेदं कुर्यात्तस्मात् यः स्थिरः सोऽनुज्ञापयितव्योऽननुज्ञापने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अणणुण्णविए दोसा, पच्छा वा अप्पितो अवण्णे वा। पत्तेपुव्वममंगल,निच्छुभणे य दोसपत्थारो।। यदि स्थिरो नानुज्ञाप्यते तदा एतस्मिन्नननुज्ञापिते दोषाः सर्वे सामान्यपाखण्डाः समीपमागता निर्गन्थानां पुनरवज्ञां कृत्वा स्थितास्ततः प्रद्वेषितो निष्काशनादि कुर्यात्तस्माद्व्यविच्छन्नवंशे सोऽवश्यमयग्रहमनुज्ञापयितव्यः / किं पूर्व पश्चान् मध्ये वा तत्र यदि सर्वेरन्यैः पाखण्डै रनु ज्ञापिते स पश्वादनुज्ञाप्यते ततः स चिन्तयति अहमेतेषामप्रियोऽवज्ञा यतो ममैतेः क्रियते तेन पश्चादागताः। अथ प्राप्ते राज्ये पूर्वमनुज्ञाप्यते तदा कदाचिदमङ्गलं मन्येत ततो (निच्छुभणंति) निष्काशनं कुर्यात्प्रद्वेषतः प्रस्तारो जीवनात् व्यपरोपणं क्रियेत तस्मान्मध्येऽनुज्ञापयितव्यः / यदि पुनर्भद्रक इति ज्ञातो भवति चानुज्ञाप्यमाना मङ्गलमिति मन्यते तदा पूर्वमपयनुज्ञापनीयः / अथ कथमस्थिरा ज्ञातव्यः कथंवा भद्रकः कथं वा पूर्वकमनुज्ञाप्यमानो मङ्गलं मन्यते इति तत आह। ओहादी आभोगण निमित्तविसरण वा वि नाऊण / महगपुष्वमणुण्णा, वपंतमण्णाय मज्झम्मि / / अवध्यादीनामतिशयेनादिशब्दान्मनः पर्यवज्ञानश्रुतातिशयविशेषपरिग्रहोऽथवा निमित्तविशेषेण / अथात्मनोऽवध्याघतिशयो निमित्तविशेषो वा न विद्यते तदा अन्यानवध्याधतिशयिनो निमित्तविशेष ज्ञात्वा दृष्टा भद्रकमनुज्ञापयेत। प्रान्तमनुज्ञातं वा मध्ये। एएणं विहिणाउ, सो णुण्णवितो जहेव रजेहिं। राया किं देमित्ति य, जं दिण्णं अण्णरादीहिं / / एतेनानन्तरोदितेन विधिना सोऽनुज्ञापितो राजा यदा वदेत किं ददामीति तदा वक्तव्यं यद्दत्तमन्यै राजभिस्तदेहीति। जाणतो अणुजाणइ, अजाणओ ब्रूति तेहिं किं दिण्णं / पायोग्गंति य भणिए, किं पाउग्गं इमं सुणसु / / एवमुक्ते जानानः सर्वमनुजानाति अज्ञायको ब्रूते तैरन्यै राजादिभिः किं दत्तं तत्र प्रायोग्यमिति भणितव्यम् / तस्मिन् भणितेषु न ब्रूते किं प्रायोग्यमिति ततो वक्तव्यं शृणुत इदं प्रायोग्यं तदेवाह। आहर उवहिसेज्जा, ठाणनिसीयणतुयट्टगमणादी। थीपुरिसाण य दिक्खा, दिण्णा णो पुथ्वराईहिं / / नोऽस्माकं पूर्वराजैराहार उपधिः शय्या स्थानमूर्ध्वस्थानं निषदनं त्वग्वत्तॊ गमनमादिशब्दादागमनपरिग्रहस्तथा स्त्रीपुरुषाणां दीक्षा अनुज्ञाद्वारेण दत्ता। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 736 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह भद्दो एव्वं विरइ-प्पंते पुण दिक्खवजमियराणि / / इम सिट्ठा इम काउं, निग्गं ते गुरुगाय आणादी।। एवं कथितेसति यो भद्रकः ससर्वविरतिप्रान्तः पुनर्दीक्षावर्ज-मितराणि सर्वाण्यप्याहारादीनि अनुजानाति प्रव्रज्यांपुनर्नाज्ञापयति तत्र यदितस्य राज्ञोऽनुशिष्टमकृत्वा आदिशब्दात् विद्यादिवा प्रभुकरणं वा अकृत्वा यदि तद्विषयात् निर्गच्छन्ति तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका आज्ञादयश्च दोषाः। चेइय सावगपव्वइउ-काम अंतरंतबालवुड्डा य। जत्ता अजंगमा वि य, अभत्ति तित्थस्स परिहाणी॥ अन्यच चैत्यानि तेन परित्यक्तानि श्रावका ये च प्रवजितु - कामास्तथा ।अतरन्तो ग्लाना बाला वृद्धा अजङ्गमाश्चैते सर्वे परित्यक्ता अभक्तितस्तीर्थकराङ्गाखण्डनात्। तीर्थस्य च परिहा--णिरापदिता तथा हि ये तत्र विषये प्रव्रजितुकामास्ते न प्रवजिप्यन्ति श्रावका अपि सम्यक्तवमणुव्रतानि च गृह्णन्तो न ग्रहीप्यन्ति ततो भवति तीर्थस्य व्यवच्छेदः / यद्येवंतर्हि तत्रैव तिष्ठन्तु। तत्राप्याह।। अत्थंताण वि गुरुगा, अभत्ति तित्थस्स हाणि जावुत्ता। भणमाण भाण चेत्ता, अत्थंति अणेत्थ वचंति।। तत्र तिष्ठतामपि प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः देशान्तरे भव्यपोण्डरीकस्याप्रतिबोधेन लोभ्ज्ञतो भ्रष्टत्वात्। तथा तीर्थकरा--णामभक्तिं तिष्ठद्भिः कृत्वा तदाज्ञाखण्डनात्तीर्थस्य हानिरापादिता तथा स्वयमेव तेन राज्ञोक्ते स्त्रीपुरुषा न दीक्षितव्या इति / यद्येवं तर्हि किं कर्तव्यमत आह। स्वयं भणन्तः प्रज्ञापयन्तोऽन्यैर्भाणयन्तस्तिष्ठन्ति / तथापि चेत्स नेच्छेत्तर्हि ततो देशात् ब्रजन्ति। अह पुण हवेज दोन्नी, रजाइं तस्स नरवरिंदस्स। तहियं अणुजाणतो , दोसुवि रज्जेसु अप्पवहुं / / अथ पुनस्तस्य नरवरेन्द्रस्य स्क्यमन्यैर्वा प्रज्ञाप्यमाणस्य कदाचिद्दे राज्ये भवतस्तत्र तयोद्वेयोराज्ययोर्मध्ये एकत्रक्वाप्यनुजानाति / यथा मम द्वे राज्ये तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये यत्रैकत्र भवद्भ्यो रोचते तत्र प्रव्राजयत द्वितीये नानुजानामि / एवमुक्ते अल्पबहु परिभाव्ययत्र भूयान् तीर्थप्रव्रज्यादिलाभस्तत्र स्थातव्यमेतदेव स्पष्टतरमाह।। एक्काहि विदिन्नं रज्जे, रज्जे एगत्थ होइ अवि दण्णं / एगत्थ इत्थियत्तो, पुरिसवायाय एगत्थ।। एकत्र एकस्मिन राज्ये वितीर्णमनुज्ञातं भवति। एकस्मिन्राज्ये वितीर्ण यत्रानुज्ञातं तत्र स्त्रियाः पुरुषा वा अनुज्ञाताः / अथवा एकत्र राज्ये स्त्रियोऽनुजानीत एकत्र पुरुषाननु जानीते। थेरा तरुणा य तहा, दुग्गया अद्दया य कुलपुत्ता। जाणवयानागुरुया, अब्भतरयो कुमारा य। अथवा एकत्र राज्ये स्थवराननुजानात्येकत्र तरुणान्। अथवा एकत्र दुर्गतकान् परत्र आद्यान् / यदि वैकत्र कुलपुत्रानपरत्राभीरान् एवमेकत्र जानपदानन्यत्र नागरकान्। एकत्राभ्यन्तरकान् अभ्य-न्तरका नाम ये राजानमतिप्रत्यासन्नीभूयावल्गन्ति कुमारा राज्ञो दायादाः / एवमनुज्ञातेकिं कर्तव्यमित्याह। ओहीमादीउ जत्थ, बहुतरया उपव्वयंति तहिं। ते विति समणुजाणसु, असती पुरिसेवजे बहुगा / / अवध्यादिनादिशब्दात् श्रुतातिशयविशेषण निमित्तविशेषेण वा ज्ञात्वा यत्र बहुतरकाः अनुज्ञाताः सन्ति अवध्यादेनिमित्तविशेषस्य वा अभावे ये बहवः पुरुषास्तानेवानुज्ञापयति न शेषान् स्तोकानष्टप्रभृतीनिति॥ एयाण वि धरति तहिं, कम्मघणो पुण भणेज तत्थ। इम दिहा उ अमंगल्ल, मा वा दिक्खेज अत्थत्ता। एतानि अनन्तरोदितानिप्रान्तोऽपि मनाग भद्रकः सन्तत्रात्मीये राज्ये वितरति / यः पुनः कर्मधनो निवडपापकर्मा तत्रानुज्ञापनायां क्रियमाणायामिदं ब्रूयात् दृष्टा अपि सन्तो यूयममङ्गलास्तस्मादप्रतिष्ठन्तो मा कंचनदीक्षयेयुरिति / वा शददो व्यपेक्षया विकल्पने। मा वा दच्छामि पुणो, अमिक्खणं वेंति कुणति निव्विसए पभवंतो भणति ततो, भरहाहिवति सति तुमंति॥ यदि वा मा पुनर्भूयो द्रक्ष्याम्येतान् / अभीक्ष्णं वा ब्रुवन्ति स्वयमन्यैर्वा पुनः पुनर्विज्ञपन्तीति कृत्वा निर्विषयान्करोति ततो यः प्रभवन् वक्ष्यमाणगुणोपेतो ब्रूते नासि त्वं सकलस्य भरतस्यापि पतिर्येन निर्विषयत्वाज्ञापनेऽस्माकं भयं स्यात्त्र स्थातु न दास्यसि ततो ऽन्यत्र यास्यामः / तथा इदमपि ब्रूते। केवइयं वा एयं, गोपयमेत्तं इमं तुहं रनं / जं पेल्लिउ नासिपगं,मंतिय मुहुत्तमित्तेण / / कियद्वा एतद्रगोष्पदमात्रमिदंच राज्यं यत्प्रेयं मुहूर्तमात्रेण तं दृष्ट्वा गम्यते : एवमुक्ते स राजा प्राह। जं होउ तं होउ, पभवामि अहं तु अप्पणो र / सो भणइ नीहमिजं, रजा तो किं बहुं णाउं / स राजा ब्रूते यत् यावन्मात्रं तावन्मात्रं वा भवतु आत्मनो राज्ये तावदह प्रभवामि / तस्मात्किमत्र बहुना मम राज्याचूयं निर्गच्छतेति / एवमुक्ते यत्कर्तव्यं तदाह। अणुसट्ठी धम्मकहा, वजनिमित्तादिएहिं आउट्टो। अहिए य सुण्णकरणं, जहा कथं विण्हुणा पुट्वि / / अनुशिक्षया अनुशासनेन धर्मकथया विद्यया निमित्तेन आदिशब्दान्मन्त्रेण चूर्णयोगैर्वातंराजानमावर्तयेत् अनुकूलयेत्। अत्रैवमपि नतिष्ठति तर्हि तस्मिन् अस्थिते प्रभोरन्यस्य करण कर्तव्यम्। यथा कृतं विष्णुना विष्णुकुमारेण / अथ कीदृशस्तं राजानमन्यप्रभुकारणे प्रेरयन्तीत्यत आह। वेउव्वियलद्धी वा, ईसत्थे विजतो रसवली वा। तवलद्धिपुलातो वा, पेल्लेति तमेतरे गुरुगा।। यो वैक्रियलब्धिमान् यो वा इषुशास्त्रे निर्मातोऽनेकैरपि पुरु-- षमहास्वैर्दुर्जयः। अथवा विद्यावलवान् यदि वौरसवली साधर्मिको-ऽथवा तपोलब्धिपुलाकः स तमन्यप्रभुकरणेन प्रेरयति।यस्तु सत्यामपि शक्ती प्रभुमन्यं न करोति तस्मिन्नितरस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / कथंमन्यं प्रभुं करोतीत्यत आह। तं घेत्तु बंधिऊण, पुथ्वरजं ठवेंति उसमत्थो। असती अणुवसमंते, निग्गंतव्वं ततो ताहे / / तं राजानं गृहीत्वा बन्धनेन च बध्वा समर्थस्तस्य पुत्रं राज्ये स्थापयति / असति सामर्थ्य अनुशिष्यादिभिरुपशमयति / स च तथोपशम्यमानोऽपि नोपशाम्यति तर्हि ततो देशान्निर्गन्तव्यम् / तथाध्वनि यतनामाह। पदाहा Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 740- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह भत्तादिफासुएणं, अलब्ममाणे य पणगहाणीए। अट्ठाणे कायव्वा, जयणा उग्गा जहिं भणिया / / अध्वनिमार्गे प्राशुके भक्तादावलभ्यभानेपञ्चकहान्या यतना कर्तव्या। यत्र ग्रामे नगरे अरण्ये वा पूर्व कल्पाध्ययने भणिता।व्य० द्वि०७ उ०॥ (15) अवग्रहक्षेत्रमानम्। (सूत्रम्) सगामंसि वा जाव संनिवेसं वा कप्पइ निग्गथाण वा निग्गंथीण वा सव्वउसमंता सकोसं जाणणं उग्गहं तु गिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए॥ अस्य संबन्धमाह। गामाइयाण वेसिं, उग्गहपरिमाणजाणणासुत्तं / कालस्स वा परिमाणं, वुत्तं इहइंतु खेत्तस्स / / तेषामनन्तरसूत्रोक्तानां ग्रामादीनां कियानवग्रहो भवतीति शङ्कायामवग्रहपरिमाणज्ञापनार्थमिदं सूत्रमारभ्यते / यद्वा पूर्वसूत्रेषु "अहालिंदमवि उग्गहे इत्यादि' भणता अवग्रहविषयकालस्य परिमाणमुक्तमिहं तु क्षेत्रस्य तदेवोच्यते। एतेन संबन्धेनायातस्या-स्य व्याख्या अथ ग्रामे वा नगरे वा यावत्सनिवेशे वा कल्प्यते निर्ग्रन्थानां चावग्रहः सर्वः सर्वासु दिक्षु समन्तात् चतसृष्वपि विदिक्षु सक्रोशं योजनमवग्रहमवगृह्य स्थातुमिति सूत्रार्थः / अथ भाष्य-विस्तरः। उड्डमहे तिरियं पि य, सक्कोसं होइ सव्वतो खित्तं। इंदपदमाइएसुं, विदिसिं सेसेसु चउपंच॥ ऊर्ध्वदिगधो दिग् (तिरियंपियंति) तिर्यकपूर्वदक्षिणापरात्तरालक्षणाश्चतस्रो दिशः एतामुपदिक्षु गिरिमार्गस्थितानां सर्वतः सक्रोश-योजनं क्षेत्रं भवति तच्च इन्द्रपदादिषु संभवति इन्द्रपदो नाम गजाग्रपदगिरिस्तत्र [परिष्टात् ग्रामो विद्यते। अधोऽपि ग्रामो मध्यमश्रेण्यामपि ग्रामस्तस्य चतसृष्वपि दिक्षुग्रामाः सन्ति ततो मध्यमश्रेणिग्रामे स्थितानां षट्सु दिक्षु क्षेत्रं भवति। आदिशब्दादन्योऽपि य ईदृशः पर्वतस्तस्य परिग्रहः शेषेषु चतसृषु पञ्चसु वा क्षेत्रं सक्रोशं योजनक्षेत्रं भवति समभूमिकायां व्याधाताभावे दिक् चतुष्टयक्षेत्रं व्याधातं प्रतीत्य पुनरित्थम्। एग व दो व तिण्णि व, दिसा अकामं तु सम्वतो वा वि। सव्वत्तोतं अकोसे, अगुञ्जणोउ जा खेत्तं / / एकदिग्भाविना पर्वतादिव्याधातेन किंचिद् ग्रामादिकमेकस्यां दिशि अक्रोशं भवति सक्रोशयोजनावग्रहरहितमित्यर्थः / एवं दिग्द्वयभाविना व्याघातेन द्वयोर्दिशोरक्रोशं त्रिदिग्भाविना तिसृषु दिक्षुदिक्चतुष्टयभाविना तु सर्वतोऽप्यक्रोशं भवति। तत्रच सर्वतोऽक्रोशे ग्रामादौ बाह्यान्यावत्क्षेत्रं ततः परमक्षेत्रमिति। किं च। संजमआयविराहण, जत्थ भवे देहउवधितेणावि। तं खलु ण होइ खेत्तं, उग्घेयव्वं च किं तत्थ / / यत्र ग्राभादौ प्राप्तानां संयमात्मविराधना भवति यत्र च देहोपधिस्तेना भवन्ति तत् खमु क्षेत्रं न भवति। किंवा तत्रावग्रहीतव्यं येन क्षेत्रमुच्यते। अथ किं पुनः क्षेत्रमित्याह। खेत्तं चलमचलं वा, इंदमणिंदं सकोसमक्कोसं / वाघतम्मि अकोसं, अडविजले सावए तेणे / / यत्रावग्रहो विचारयितुमुपक्रान्तस्तत् क्षेत्रं चलमचलं वा भवेत् / चलं व्रजिकादिः अचलं ग्रामादिः / पुनरेकै क द्विधा इन्द्रमिन्द्रकीलादियुक्तमिनिन्द्रं वा तद्विपरीतम् / तत्र यदचलमनिन्द्रं वा तस्मात्सक्रोशमक्रोशं वा पश्चानुपूर्व्या / अथ तानेव भेदान् व्याचिख्यासुरिदमाह। (वाघायम्मीत्यादि) यत्र यस्यां दिशिव्याघातस्तत्रस्थमक्रोश भवति / कः पुनयाघात इति चेदत आह / अटवी तस्यां दिशि वर्तते (जलेत्ति) समुद्रो नदी वा ये श्वापदा वा सिंहव्याघ्रादयस्तत्र सन्ति। स्तना वा उपधिशरीरहरा विद्यन्ते एतैः कारणैः ग्रामादिकनिरुद्धा ग्रामा गोकुलाद्यभावादवग्रहीतव्यं किमपि तत्र नास्ति। अथ सक्रोशमाह। सेसे सकोसमंडल, मूलनिबंधणअणुमयंताणं / पुव्वहिताण उग्गहो, सममंतरपल्लिगा दोण्हं / / शेषनाम यदनन्तरोक्तव्याघातरहिततत्रमूलनिबन्धन मण्डलम-सुमतां सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहो भवति / कथमिति चेदुच्यते / मूलग्रामादेकैकस्यां दिशि योजनार्द्धमईक्रोशेन समधिकं तावदवग्रहो भवति / स च पूर्वापराभ्यां दक्षिणोत्तराभ्यां वा कृत्वा सक्रोशं योजन भवति। यद्वा गतिप्रत्यागतिभ्यामेकस्यामपि दिशि योजनं मन्तव्यं तत्र सक्रोशे अक्रोशे वा ये पूर्वस्थितास्तेषामवग्रहो भवति / यत्र समकमनुज्ञापितं तत् क्षेत्रं साधारणम् / अथ संवट्टेषु क्षेत्रेषु समकमेवाप्रज्ञापितं ततो यदि द्वे अन्तरपल्लिके तत एकेषामेका अपरेषामप्येका / अथैकैवान्तरपल्लिका ततो द्वयोरपि साधारणः / अथ बहवस्तत्रान्तरपल्लिकास्ततः को विधिरित्याह। खेत्तरसंतो दूरे, आसण्णं वा ठिताण समगंतुं। अद्धद्धं वा दुगाई, गच्छाण साहारणा होई॥ द्वित्रिप्रभृतिषु संबन्धेषु क्षेत्रेषु समकमनुज्ञाप्य स्थितानां काश्चिदन्तरपल्लिकाः क्षेत्रान्तः क्षेत्रस्याभ्यन्तरे भवन्ति (दूरेत्ति) काश्चित्तु दूरे याभ्यः समुदानमूलग्रामानीयमानं क्षेत्रातिक्रान्तं भवतीति कृत्वा प्रथममालिकायां तन्निबाईते (आसन्नेत्ति) काश्चित्पुनरासन्ने याभ्यः समुदानं मूलग्राममानीयमानं क्षेत्रातिक्रान्तं न भवति ततो यावत्यस्ता अन्तर पल्लिकास्तासां सर्वासामपि अर्द्ध वा अर्धार्द्ध वा चतुर्भाग इत्यर्थः / वा शब्दात्रिभागादिकं चाविकादीनां द्वित्रिप्रभृतीनां गच्छानां साधारणं भवति अथात्रैव भाव्यनोभाव्य-विधिमाह। तणडगलच्छारमल्लग, संथारगभत्तपाणमादीणं। सलिलं ते अस्सामी, खेत्तिय ते मोत्तु णुण्णवणा। तृणडगलक्षारमल्लकसंस्थारकभक्तपानादीनां सति विद्यमाने प्राघूर्णे लाभे क्षेत्रिका अस्वामिनः अक्षेत्रिकाणामप्येतान्याभवन्तीत्यर्थः / (ते मोत्तु गुण्णवणत्ति) येषां तृणादीनां क्षेत्रिकैरनुज्ञापना कृता तानि मुक्त्वा तान्यक्षेत्रिकाणां नो भवन्तीति भावः / किंपुनः क्षेत्रिकाणां भवतीत्युच्यते। ओहो उवग्गहो विय, सचित्तं वा विखेत्तियस्सेते। मोत्तूणं पडिहारिय, संथरंतेवणुण्णवणा / / ओघोपधिरुपग्रहोपधिश्च / सचित्तं वा शैक्षादिकम् / एतानि क्षेत्रिक स्याभवन्ति / यद्यक्षे त्रिका एतेषमिक तर गृह्णन्ति तदा प्रायश्चित्तं परं मुक्त्वा प्रातिहारिकं द्विविधमप्युपछि त गृहस्थेभ्यो मार्गयन्तो न प्रायश्चित्तभाज इति हृदयम् / यः पुनर प्रातिहारिक स्तं न लभन्ते / अथ शीतादिना परिताप्यन्ते तत Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 741 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गह एवमसंस्तरद्भिर्वस्त्रादेरनुज्ञापना कर्त्तव्या क्षेत्रिकैरपि संस्मरद्भि तेषामनुज्ञाकर्तव्या। जइ पुण संथरमाणा, ण दिति इतरे व तेसिं गहति। तिविधं आदेसो वा, तेण विण जाय परिहणी।। यदिपुनः संस्तरन्तः क्षेत्रिकाः असंस्तरन्तः सक्षेत्रिकाणां वस्त्रादिकंन प्रयच्छन्ति इतरे वा अक्षेत्रित्रका असंस्तरन्तोऽपि तेषां क्षेत्रिकाणामनापृच्छच्च वस्त्रमोटिका वा गृहन्ति ततस्विविध जघन्यमध्यमोत्कृष्टनिप्पन्नं पञ्चकमासलधुचतुर्लधुलक्षणं प्रायश्चितम्। सूत्रस्यादेशाद्वा नवमं तेन व स्त्रादिना जायते परिहाणिस्तन्निप्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तम्। इदमेव व्यक्तीकरोति।। जे खेतिया मोत्तिण देंति थागं, लंभेवि जागंतु वयं तहाणं। पेल्लंतिवागंतु असंथरम्मि, चिरं वदोण्हपि विराहणाओ। ये क्षेत्रिका वयमिति कृत्वा भक्तपानादेः प्राचुर्येण लाभेऽपि अन्येषां (थागं) अवकाशं न प्रयच्छन्ति तत आगन्तुकानां व्रजतां या परिहाणिर्भवति ततस्तेषां प्रायश्चितम् / अथ क्षेत्रिणामसंस्तरणेऽप्यागन्तुकाः प्रेरयन्ति प्रेष्यं विना तिष्ठन्ति ते चागन्तुकाः आदेशिकाः प्राघूर्णकाश्चततश्विरं वा प्रभूतं कालं वा- शब्दादल्यं वा कालंन संस्तरणं तेषां भवेत् ततो द्रयेषाम- प्यागन्तुकानां वास्तव्यानां च या विराधना तन्निप्पन्न प्रायश्चित्तम् / यत एवमतः। अस्थि हु वसभग्गामा, कुदेसणगरोवमासुहविहारा। बहुवत्युवग्गहकरी, सामच्छेदेण वसियट्वं / सन्ति विद्यन्ते वृषभग्रामा इहाचार्य आत्मद्वितीयो गणावच्छेदकश्चात्मतृतीय एष पञ्चको गच्छो भवति। ईदृशास्त्रयो गच्छाः पञ्चदश जनाः एते यत्र ऋतुबद्धे निर्वहन्ति वर्षासु पुनः सप्तको गच्छस्तद्यथा आचार्य आत्मतृतीयो गणावच्छेदक आत्मचतुर्थः। ईदृशास्त्रयो गच्छाः पञ्चविंशतिजना भवन्ति / एते या वर्षावासे जघन्येन निर्वहन्ति ते वृषभग्रामा उच्यन्ते तेच कीदृशा इत्याह। कुदेशस्य यन्नगरं तेनोपमा येषां ते कुदेशनगरोपमास्ते च सुखविहाराः सुलभभक्तपाना निरुपद्रवाश्च / अत एव बहूनामन्थतरोक्तप्रमाणानां त्रिप्रभृतीनां गच्छानामुपग्रहकरस्ततस्तेषु सीमाच्छेदेन बहुभिरपि गच्छैर्वस्तव्यम् / न कैरपि परस्परं मत्सरो विधेय इति भावः / सीमाच्छे दो नाम साहिका ग्रामार्द्धवाटकादिविभजनम्।यथा अस्यां साहिकायां भवद्भिपर्यटनीयम् अस्यां पुनरस्माभिरित्यादि। यद्वा येता क्षेत्रो समकं प्राप्तास्तैः समच्छेदेन वस्तव्यं यथा युष्माकं सचित्तमस्माकम-चित्तम्। अथवा युष्माकमन्तः अस्माकं बहिः युष्माकं स्त्रियो ऽस्माकं पुरुषाः युष्माकं श्राद्धाः अस्माकमश्राद्धाः। अथवा यो यल्लप्स्यते तत्तस्यैव नदातव्यम्। इदमेव व्याख्यानयति।। एकवीस जहण्णेणं, पुटवट्टिते उग्गहो इतरे। पल्लीपडिवसभेवा,सीमाए अंतरागासे। पूर्वोक्तनीत्या वर्षासु एकविंशतिजना उपलक्षणत्वादृतुबद्धे पञ्चदशजना या जघन्येन संस्तरन्ति स वृषभग्राम उच्यते। उत्कर्षतस्तु द्वयोरपि कालयोभत्रिंशत्सहरासंख्याको गच्छो या सस्तरति स वृषभग्रामः। या ये सीमाच्छेदो विधातव्यः / कथमित्याह (पल्लीइत्यादि) युष्माभिरन्तरपल्लयां पर्यटनीयमस्माभिः प्रतिवृषभग्रामेप्रतिवृषभो नाम मूलग्रामाद र्द्धयोजने महान्ग्रामः / अथवा अन्तरपल्ल्याः प्रतिवृषभस्य वा अर्द्ध युष्माकमर्द्धमस्माकमेवं सीमायां मूलग्रामस्य प्रतिवृषभग्रामस्य चान्तरा योग्रामस्तस्याप्यर्द्धयुष्माकमर्द्धमस्माकमेत चलमनिन्द्रं च क्षेत्रा मन्तव्यम्। अथाचलसैन्द्रक्षेत्रमाह।। इंदरकीलमणोग्गहो, जत्थ य राया जहिं च पंच इमो। सत्थसन्तपुरोहिया, सेणाव तिसत्थवाहे य।। इन्द्रकीलको नाम इन्द्रस्थूणा सा यत्रोत्तिष्ठति इदं मातृकायास्तत्रायमवग्रहो न भवति / अनिन्द्र कीलकोऽपि या राजा मूर्धाभिषिक्तः परिवसति (रायाजहिंपंचत्ति) या पञ्चवसन्ति / श्रेष्ठी अमात्यः पुरोहितः सेनापतिः सार्थवाहश्चेति। अहण सीए व समोसरे वा विराहण अणुयाणे। एतेसु णत्थि उग्गहो, वसहीएय मग्गणं अखेत्ते / / अथ शीर्षकं नाम यतः परं समुदायेन गन्तव्यं सम्यग्मार्ग वहना त्तत्र मिलितानाम् समवसरणं नाम कुलसमवायो गण समवायः संघसमवायो वा एतेषु वसता तदवग्रहस्य मार्गणा कर्तव्या अथ किमर्थमेतेष्वग्रहो न भवतीत्युच्यते। बहुजणसमागते तेसु, होति बहुगच्छमणिवातो य। मो पुव्वं तु तदट्ठा-पेल्ले व अकोविया खेत्तं / / तेष्विन्द्रकीलकादिषु बहु प्रभूतस्य जनस्य समागमो भवति अध्वशीर्षकादिषु च बहूनां गच्छानां सन्निपातो मीलको भवति। अतः केचिदकोविदस्तदर्थ क्षेत्रमदिमस्माकमेवाभाव्यं भवत्विति कृत्वा पूर्वमन्ये इह प्रथमं समागत्य मा क्षेत्रं प्रेरयेयुरित्येतेषु भावावग्रहो ऽधिक्रियते। इदमेव भावयति। सद्धादलं ता उवहिम्मि सिद्धा, सिद्धे रहस्सम्पि करेज गंतुं। एमावयंते यणमच्छरेणं, तित्थस्स सद्धी दुहतो विहाणी।। तथेन्द्रकीलादौ श्राद्धा केषांचिदाचार्याणामुपधिं वस्त्राधुपकरणं दातुं लग्नास्ते च न वर्तन्ते अस्माकमिदं गृहीतुमिति भणित्वा ते निषिद्धाः ततः श्राद्धाः पृच्छेयु प्रेषणीयान्यप्यन्नानि वस्त्राणि किमिति न कल्प्यन्ते ततो दूरत्वान्नास्माकममूनि आभवन्तीति लक्षणं तेषां पुरतः कथयितव्यम्। तदेव विशिनष्टि कथिते सति ते श्राद्धाः मन्युमप्रीतिं वा कुर्वीरन् / ये च सलब्धयो धर्मकथादिलब्धिसंपन्नास्ते मत्सरिणः वयं किमपि तावन्न लप्स्यामहे अतः किमर्थमेवं प्रयासंकुर्म इत्यनुशयेन तीर्थं धर्मकथादिना नप्रभावयन्तिाततो (दुहतो विहाणित्ति) द्वयोरपि सचित्ताचित्तलाभयोः परिहाणिर्भवति। तत्र सचित्तहानिः कोऽपि देश-विरतिं वा न प्रतिपद्यते। अचित्त हानिराहार वस्त्रादि तथाविधं न प्राप्यते अत एव तेषु नावग्रहो भवति / वसतिं प्रतीत्य पुनरेतेष्वपि भवति कथमित्याह। एगालहियाणं, तुमग्गणा दूरिमग्गणा नत्थि। आसण्णे तुठियाणं, तत्थ इमा मग्गणा होइ।। एकालय एक स्यां वसतो स्थितानामवग्रहस्य मार्गणा भवति तत्रा यः पूर्व तस्यां वसतौ स्थितस्तस्य सचित्तमचित्तं वा आभवति असमकं द्वौ बहवः स्थितास्तदा साधारण सा वसतिः / ये तु तस्या वसते र्दूरे स्थितास्तेषामवगह Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 752 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग-२ उग्गह स्य मार्गणा मास्ति। ये पुनरासन्ने स्थितास्तेषामियमवग्रहस्य मार्गणा | तत्क्षेत्राम् / अथ काचिवजिका पूर्वं साधुभिरवगृहीता तत्रान्ये साधवो भवति। ऽन्यया वजिकाया सहिताः पश्चादागतास्तत्रा च वजिकायां स्थितास्तदा सज्झायकालकाइय-निल्लेवण अत्थणा असति अंतो। ते पश्चादागता अप्रभवः पूर्वस्थिता एव स्वामिन इति। वसहिगमो पेल्लंते, वसहा पुण जसेसु पुण।। अन्नोन्नं णीसाए, ठिताण साधारणं तु दोण्हं पि। अन्तः प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरे यदि स्वाध्यायभूमेः कायिकभूमेः णीसट्ठिताए अपत्ते, तत्थ वत्थण्णत्थववसंता। पात्रनिर्ले पनभू मेरासनं ध्यानादिनिमित्तमुपवेशनं तद्भूमे - अथ पूर्वास्थिताः पश्चादागता अन्योन्यं परस्परं निश्रया स्थितास्तेषां श्चाभावस्ततो या बहिः स्वाध्यायभूमिप्रभृतयस्ताः समकमनुज्ञापिताः द्वयेषामपि साधारणं क्षेत्राम्। अथ पूर्वस्या वजिकाया निश्रया स्थितायाः साधारणाः / अथैके पूर्वस्थिता अपरे च पश्चात्ततः पूर्वस्थितानामवग्रहः आगन्तुकव्रजिकायां ये साधवो वर्तन्स ते ऽत्रा तव अन्यत्रा ये वसन्तो पश्चादागतास्तुपूर्व-स्थिताननुज्ञापयन्ति यदि तेप्रेर्यमाणा अवकाशेन ऽवग्रहस्याप्रभवो न स्वामिनः किमर्थमन्यस्या वजिकाया निश्रां सा जानन्ति इतरे च तै तमप्रेर्यमाणं प्रेषयन्ति ततो वसतिविषयेऽपि स एव व्रजिका प्रतिपद्यते। उच्यते। प्रायश्चित्तादिगमो भवति / यः पूर्व क्षेत्रां प्रेरयतामुपलक्षणत्वादन- दुग्गाट्ठिआवीरअहिट्ठिए वा, करेण वाणेव ठिएहिं पुव्वं / नुज्ञापियतुं चोक्तः वसतिः पुनरिह या समापूर्णा श्रमणराजकुला तस्याः भएणा तेयस्सव कारणेणं, वपंतगाणं खलु होइ णिस्सा // प्ररेणायां दोषाः मन्तव्याः। उक्तमचलक्षेत्राम्। दुर्गे स्तेनपरचक्राद्यगम्यस्थाने स्थिता साडन्या जिका / यद्वा वीरेण अथ चलमाह। स्वामिना अधिष्ठिता अथवा तैः प्रथमवजिकासबंन्धिभिर्गोकुलिकैस्तका वइगामत्थो सेणा, संवढे चउविहं चलंखेत्तं। निपानं जलपानस्थानं कुतस्त्यमस्ति ततो यस्य वा कारणेनं तस्या एतेसिंणाएत्तं,वोच्छामि अहाणुपुव्वीए।। व्रजिकायां तिष्ठतामपरेषां गोकुलिकानां निश्रा भवति एवमादिका वजिका वजिकार्थसेनासंवत इति चतुर्विधंचलक्षेत्रम्। एतेषां चतुर्णामपिनानात्वं येन कारणेन पूर्वस्या निश्रा प्रतिपद्यते तदमिहितम् / अथ गन्तुकायाः वक्ष्यामि यथानुपुर्व्या प्रतिज्ञातमेव करोति। मिश्रा यथा पूर्व प्रतिपद्यते तथा दर्शयति।। जेणोग्गहिता वइगा, मागंतह दूहमंडिपरिभोगा। भयेण उत्थेउ मणा, वइगा अण्णाय तत्थ जइ पञ्जा। समवइगपुव्वउम्गह साहारण जं वणीसाए।। पच्छापत्ते निस्सा, जे पुटवट्ठियाण ते पभुणे।। येन साधुना सा जिका पूर्वभवगृहीता स वजिकावग्रहस्य स्वामी काचिद् व्रजिका भयेनोत्थातुमना प्रचलितुकामा अन्या च नवा जिका भवति / तस्य वजिकावग्रहस्य किं प्रमाणमिति चिन्तायां नैगमपक्षाश्चिता यदि तत्रागच्छेसा च बलवता परिग्रहीता ततः पश्चात्याप्राप्ताया अपि इमे आदेशाः / तौक आचार्यदेशीयो भणति यावत्प्रमाणं भूभागं तस्या निश्रा पूर्व प्रतिपद्यते ततो ये पूर्वस्थिताः साधवस्ते अवग्रहस्य न गावश्चत्वारश्चरितुंव्रजन्ति तावान् व्रजिकाया अवग्रहः / अपरोक्वीति। प्रभवः किंतु पश्चात्प्राप्ता इति / अथ जिकाया एव प्रकारान्तरमाह। (तहत्ति) तीर्थं जलपानस्थानमित्येकोऽर्थस्तत्र जलपानार्थ गावो वइयाए उ ट्ठियाए, अत्यंते अहव होञ्ज गेल्लन्नं / यावद्गच्छन्ति अन्यः प्राह (दुहत्ति) यत्रोपस्थाने गावो दुह्यन्ति। आचार्यः अण्णे तत्थ पविट्ठा तम्मिव अण्णम्मि वा होतु।। प्राहायोऽप्येते अनादेशाः अयन्तु समीचीन आदेशः (भंडिपरिभोगेत्ति) यस्यां वजिकायां साधवः स्थिताः / अन्याच तत्रागन्तुकामा तैः श्रुता यावति भूभागेभण्डिका गन्त्र्य स्तिष्ठन्ति यावच वजिकायाः समीपे तत उत्थितायामपि वजिकायां तिष्ठताम् / अथवा ग्लानत्वं कस्यापि गोभिःपरिभुक्तं एतावद्वजिकावग्रहस्य प्रमाण मन्तव्यम् / तत्र च यदि साधोर्भवेत् ततस्तत्रैव स्थितानामन्ये गोकुलिकाः साधुनिः सहितास्तत्र समकं द्वौ साधुवर्गावकस्यांवजिकायां स्थितां तदा साधारणा सा व्रजिकास्थाने प्रविष्टास्ते च तत्रा अन्यत्र तीर्थे गाः पानीयं पातुंययुरन्यत्रा व्रजिका / अथैकः पूर्व स्थितो द्वितीयस्तु व्रजिकान्तरेण समं वा ततोऽत्रावग्रहमार्गणा क्रियते। पश्चादायातस्ततः पूर्वस्यावग्रहो भवति। अथ परस्परनिश्रया स्थिस्ततः जइ वा कुडीपडालिसु, पुविल्लकतासु ते ठिता संता। साधारणं तत् क्षेत्रम् / यस्याश्च द्रजिकाया निश्रया द्वितीया वजिका आणम्मिवि पज्जेत्ता, तुहे अस्सामिणो होति।। स्थिता तस्यां ये साधवस्तेषामवग्रह आभवतीति संग्रहगाथासमासार्थः / वा शब्दः प्रकारान्तरद्योतकः यदि ते आगन्तुका पूर्वगोकुलि ककृतासु अथैनामेव विवरीषुरगादेशत्रयं निरस्याचार्यो नतं तावद्विभावयति। कुटीपडालिकासु स्थितास्ततो ऽन्यस्मिन्नापि तीर्थे गाः णिगोयरे णोबणगोणियाणं, णोबद्धदुन्मेति व जत्थ गावे। पाययन्तोऽस्वामिनो भवन्ति ततो यदि ते पूर्वस्थिताः साधवो अन्नत्थगेणेदिसु जत्थ खुण्णं, सउग्गहो सेसमणुग्गहो तु।। निष्करणिकास्तदा न प्रभवः / अथ ग्रानादिकारणे स्थितास्तदा ते नगोचरोगवां चारिस्थानं नैव च गवां यत्र पानं नैव यत्रो पस्थाने गावो स्वामिनो नागन्तुकास्तत्रावग्रहस्य प्रभव दुह्यन्ते किंतु जिकाया अटव्यामेव गवादिभिर्यावत्क्षुण्णम् / आदि अन्नत्थ वावि काउं, पाइंति कइल्ल पञ्जइ निव्वाणो। शब्दागन्त्रीभिश्चयावदाकान्तं तावानवग्रहः शेषं तु गोचरदिस्थानं ते खलु न हुंति पहुणो, स भवे तहे पहू हुंति / / सर्वमप्यनवग्रहः। यद्वा पूर्वकताः कुटीपडालिका वर्जयित्वा अन्यत्र स्थाने स्थिता जइ समगं दो वइगा-द्वितानुसाधारणं ततो खेत्तं। आगान्तुका गोकुलिका यदि पूर्व : कृते निपाते गाः पाययन्ति तदा ते अणवइगापसहिता, तत्थेवण्णेष्टित्ता अप्पत्ता।। आगन्तुकाः साधवो न प्रभवो भवन्ति। यदि तु स्वभवे तीर्थे स्वाभाविके यदि समकमेकस्यां व्रजिकायां द्वौ गच्छौ स्थितौ ततः साधारणं / निपाते पाययन्ति तदा आगन्तुकाः साधवः प्रभव इति। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 743 - अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह एमेव मासकप्पे, अतीरिए उट्ठिया य पत्तियरा। पुटिवल्ला हुंति पइ-पुण्णे हठिए न लहंति।। एवमेय अतिरिक्ते असंपूर्ण मासकल्पे उत्थिता या पूर्वजिका तच्च प्राप्ता ततः पूर्वसाधव एव प्रभवः। अथ मासकल्पः पूर्णस्ते च दृष्ट्वा अग्लाना अपि तौव स्थितास्ततो नावग्रहं लभन्ते पश्चात्प्राप्ता एव ता प्रभव इति। फासुगगोयरभूमी, उचारे चेव वण्णवसहीए। इट्ठावि लभंते व, तदभावे पच्छ जे पत्ता / / अथ तत्रा प्रासुका गोचरभूमिः उच्चारभूमिश्च विद्यते वसतिश्च छन्ना प्राप्यते। अन्यत्र तत्रा तथाविधमाम्रि ततो दृष्ट्वा अथैवममन्तरोक्तयुक्तया लभन्ते तद्भावे अनन्तरोक्तकारणाभावे ये पश्चात्प्राप्तास्त एव लभन्ते। गतं वज्रिकाद्वारम्। अथसार्थद्वारमाह। जेणग्गहिओ सत्थो, जेण य सत्थ होइ समदोण्हंति। जा वइया पडिसत्था, पुव्व ट्ठियसाहारणं जंच।। येन साधुना सार्थः पूर्व गृहीतो येन वा सार्थवाहः पूर्वमनुज्ञा पितस्तस्यावग्रह आभवति। अथसमकमनुज्ञापितस्ततोद्वयोरप्ववग्रहः यावन्तश्च प्रति सार्था मीलनार्थमल्लिघुतरास्ता समागत्य मिलन्ति तेषु ये साधवस्ते पूर्वस्थितानामुपसंपन्ना भवन्ति / यत्रा परस्परंनिश्रया द्वौ सारं तिष्ठतस्ततःसाधारणं मन्तव्यमिति। एतदेव स्पष्टयति। सत्थे सहप्पघाणा, एक्कणक्केण सत्थवाहेउ। ओपुच्छियावि दिण्णो, दोण्हवि मिलिया व एगट्ठा। सार्थे येकेऽपिअथवा प्रधानाः पुरुषास्तेएकेनानुज्ञापिता एकेन साधुना सार्थवाह आदिष्टस्ताभ्यां चोभयोरपि वितीर्णमनुज्ञापितं ततो येन कृतं नातिक्रम्यते तेन यस्मै प्रदत्तं तस्यावग्रहः।। अथ द्वावप्यन तिक्रमणीयौ ततो द्वयोरपि साधारण क्षेत्रम् / अथ द्वावप्येकत्र मिलितौ अनुज्ञापितौ ततो येन पूर्वमनुज्ञापितस्तस्यावग्रह इति। इंतं महल्लसत्थं,डहरा गोपडिच्छएण तो पभुणो। तुरियं वा आधावति, मएण एमेव अस्सामी।। महल्लं वृहत्तरं कमपि सार्थमागच्छन्तंडहरको लघुतरः / सार्थप्रतिकृते ततो ये लघुतरसार्थवासिनः साधवस्तेनावग्रहस्य प्रभवः। यो वा सार्थो भयेन त्वरितं वृहत्तरसाथ मिलनाय धावति तत्रापि ये साधवस्ते एवमेव स्वामिनः / वृहत्तरवासिन एवावग्रहस्य स्वामिन इति भावः। अह वीमज्झंगिणादी, दुग्गं वा एत्थ दोवि वसिऊणं। वाले हामो पभाए, णिस्सा साधारणं कुणइ / / दौसार्थमका मिलितौ परस्परमित्थं निश्रांकुरुते यथा यदिदमटवीमध्ये नदी दुर्ग वा विद्यते अत्र द्वयेऽपि जना रात्रा वुषित्वा प्रभाते चलयिष्यामः / पुरतो गमिष्यामः इति परस्पर साधारणां निश्रां या कुरुतस्तत्र सचित्तादिकं सर्वमपि साधारणम् / गतं सार्थद्वारम्। अथ सेनाद्वारमाह। सेणाए जत्थ राया, अरणे अहो जत्थ पविट्ठो। सो सेसम्मि उग्गहो, जो उ वडगा यसो इहइं।। यत्रा यस्यां सेनायां राजा भवति तत्रावग्रहो न भवति यत्रा वा ग्रामादौ क्षेत्रो स राजा प्रविष्टस्तत्र यद्यप्यन्ये साधवः पूर्वं स्थिताः सन्ति तथापि यावन्तं कालं स तत्रास्ते तावन्नावग्रहः।। शेष नाम या ग्रामादौ राजा न प्रविष्टो यो वा शून्यसेनो राजक इत्यर्थस्तत्रत्रावग्रहो भवति परं तत्र यो व्रजिकायां गम उक्तः स इहापिमन्तव्यः / गतं सेनाद्धारम्। अय संवर्तद्वारमाह। नागर गो संवट्ठो, अणोग्गहो जत्थ वा य विहो सो। सेसम्मि उग्गहो जो, गामाउ सत्थम्मि सो इहई।। नागरको नगरसंबंधी संवत्ततॊ ऽनवग्रहो न तशावग्रहो भवति। यत्र वा ग्रामादौ स नागरकः संवर्तः प्रविष्टस्तत्रापि नावग्रहः / शेषो ग्रामेयकसंवतस्तत्रावग्रहो भवति परं य एव सार्थे ग्राम उक्तः स एवेह द्रष्टव्यः।। वृ०३ उ०। (16) क्षेत्रात्यागसमय एवागता अपरे तर्हिस एवावग्रहः / (सूत्रम्) जदिवसं समणे निरगंथा सिज्जासंथारयं विप्पजहंति / तदिवसं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छिज्जासवे व उम्गहस्स पुटवाणुण्णवणा चिट्ठइ अहालंदमविग्गहो।। अस्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह। उग्गहए व उवगतो, सागरिय उज्झहा उसाधम्मी। रहितं व होइ खित्तं, केवतिकाले स संबंधो।। पूर्वसूत्रो तावदवग्रह एव प्रकृतः प्रस्तुतो वर्तते। "दोवंपि अप्पुण्णवित्ता" इति वचनात् / इदमपि प्रकृतसूामवग्रहविषयम् / यद्वा पूर्वसूत्राद्वये सागारिकावग्रह उक्तः इह तु सागरिकावग्रहादनन्तरं साधर्मिकावग्रहः प्रतिपाद्यते।अथवा पूर्वसूत्रेषुसंस्तारकं प्रत्यर्प्यविहारः कर्तव्य इत्युक्तमत्र तु विहारे कृत तैः साधुभिर्विह-रितमपि तत्क्षेत्र कियन्तं कालमवग्रहयक्तं भवतीति निरूप्यते एष संबंन्धः / अनेनायातस्यास्य व्याख्या (जदिवसंति) प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया ततो यस्मिन्दिवसे श्रमणा निर्गन्थाः शय्या च वसतिः संस्तारकश्च / तृणफलकात्मकं शय्यासंस्तारकम् अत्र शय्याग्रहणेन ऋतुबद्धकालः सूचितः संस्तारकग्रहणेन तु वर्षाकालः / अथ कारणजाते ऋतुबद्धो यः संस्तारको गृहाते इति कृत्वा संस्तारकग्रहणेन द्वावपि गृहीतौ ततः मासकल्पे वर्षावासे वा पूणे शय्या संस्तारकं वा यस्मिन् दिवसे पूर्वस्थिताः साधवो विप्रजहति परित्यजन्ति तदिवस एवापरे श्रमणा निर्गन्थास्तका क्षेत्रो हटवं शीघ्रमागच्छेयुः ततः क्षेत्रेवग्रहस्य पूर्वानुज्ञापना तिष्ठति। किमुक्तं भवति / य एव ततः क्षेत्रान्निर्गतास्तेषमेवावग्रहेण ततक्षेत्र यत्तु तदिवसमन्ये आगतास्ते क्षेत्रोपसंपन्ना इति कृत्वा यत्तत्रा सचित्तादिकं तत्पूर्वस्थितानामाभाव्यं कियन्तं कालं यावदित्याह (अहालंदमविग्गहे) इह यस्यां वेलायां ते साधवो निर्गतास्तावती वेलां यावद् द्वितीयेऽप्यहि तेषामेवाक्ग्रहो भवतीति वक्ष्यते / यतो यथालन्दमिहाष्टपौरुषीप्रमाणं मध्यमं गृह्यते एतावन्तमपि कालं तदीय एवावग्रहे तत्क्षेत्रम् अतो यद्यागन्तुकास्तत्रा सचित्तादिग्रहणं कुर्वन्ति तदा साधर्मिकाः स्तन्यप्रत्ययं प्रायश्चित्तमा पद्यन्ते / अा तु सचित्तनोधिकार इति सूत्रार्थः / अथ नियुक्तिविस्तरः / तत्र सचित्तावग्रहशैक्षविषय इति कृत्वा प्रथमतस्त दुत्पत्तिं दर्शयति। सुत्तत्थतदुभयोवि-सारए य धम्मकहिवाई।। कालदुअम्मि व संते, उवसंतो स अण्णगामजणो।। कालधर्मे ऋतुबद्धवर्षावासलक्षणे क्वचित्क्षेत्रो वसतां स्वग्रामजनसकोशयोजनाभ्यन्तर वय॑न्यग्रामजनश्चोपशान्त प्रतिबद्धः Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 744 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह कथमित्याह / सूत्रमर्थस्तदु भयविशारद आचार्यः सातिशयं प्रवचनव्याख्यानं करोति / क्षपको मासक्षपणादितपस्तप्यतो धर्मकथाक्षीराश्रवादिलब्धिसंपन्नतया वैराग्यजननीं धर्मकथां विदधाति / वादी परवादिनं निरुत्तरी करोति / एवमादिभिः प्रभावकै: स्वग्रामीणऽन्यग्रामीणश्च भूयान् जातः प्रव्रज्यायां परिणतः कृतः॥ नीरोगेण सिवेण य, वासो वासासु णिग्गया साहू। अण्णे विय विहरंता, तं चेवय आगता खित्तं / / नीरोगेणग्लान्यभावेन शठेन च राजादौ स्थाय्युपल्लवाभावेन वर्षावासं कृत्वा ते साधवो निगाः। इह वर्षावासे भूयान्काल एका स्थीयते ततः प्रभूतलोकस्योपशमो भवतीत्यभिप्रायेण वर्षावासग्रहणं कृतम्। अन्यथा ऋतुबद्धेऽपि मासकल्पा नन्तरमेव विहारः संभवति एवं ते ततः क्षेत्रान्निर्गताः अन्ये च साधवो विहरन्तस्तदेव क्षेत्रमागतास्तत्रावग्रह चिन्तां चिकीर्षुराह। खित्तोग्गहप्पमाणं, तहिवस केति के तहोरत्तं। जं वेला णिग्गयाणं, तं वेलं अण्णदिवसम्मि।। इह केचिदाचार्याः क्षेत्रावग्रहस्य कालप्रमाणं ब्रुवते यस्मिन्दिवसे ते निर्गतास्तमेवैकं दिवसमवग्रहस्तत ऊर्ध्व रात्रावधग्रहो व्यवच्छिद्यते। केचित्तु भणन्ति अहोरात्रामवग्रहः / द्वितीये ऽह्नि सूर्योदयेऽवग्रहो व्यवच्छिद्यत इति भावः / सूरिराह द्वावप्येतावनादेशौ अयं पुनरादेशो यस्यां वेलायां निर्गतास्त स्यामेव वेलायां यावदन्यस्मिन् दिवसे अवग्रहो भवति ततः परं व्यवच्छिद्यते इत्थं कालतः प्रमाणमुक्तम् / क्षेत्रातस्तु सर्वतः क्रोशयोजनमवग्रहस्तत ऊर्ध्वमनवग्रह इति। खित्तम्मि य वसहीयय, उग्गहो तहिं सिक्खमग्गणा होइ। ते वि य पुरिसा दुविहा, रूवं जाणं अजाणं व।।। इहावग्रहः क्षेत्रो या भावेवा वसतौ वायदिन्द्रकीलादिवर्जितंग्रामनगरादि तदिह क्षेत्र मन्तव्यं तत्रावग्रह प्रतीत्य शैक्षमार्गणा कर्त्तव्या। कस्य भवति कस्य वा नेति विचारयितव्यमित्यर्थः। यत्पुनरिन्द्रकीलकादियुक्तं तदवग्रहयोग्य क्षेत्रन भवतीत्य क्षेत्रमभिधीयते तत्रा वसतिविषया शैक्षमार्गणां भवति / सा चोपरिष्टात्करिष्यते / क्षेत्रविषयां तावत्करोति (ते वि य इत्यादि) ये पुरुषास्तत्र क्षेत्र प्रव्रज्यां ग्रहीतुमाया तास्ते द्विविधाः एके रूपं जानन्तो परे अजानन्तः / इदमेव व्यक्ती करोति। जाणंता जानंता, चउव्विहा तत्थ हॉति जाणंता। उमयं रूपं सद, चउत्थओ होइ जसकित्ती।। जानन्तोऽजानन्तश्चेति शैक्षा द्विविधाः / तत्रा जानन्तस्तावश्चतुर्विधास्तद्यथाएकः शैक्षो विवक्षितक्षेत्रस्थितस्याचार्यादिरुभयं रूपं शब्द च जानाति / धर्मकथाश्रवणार्थं शिष्यः समागतो रूपेण च तमुपलक्षयतीत्यर्थः / द्वितीयो रूपं जानाति न शब्दम् तृतीयः शब्दं न तद्रुपं चतुर्थश्च पुनर्यशः कीर्ति जानाति यशः सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सैवैकादिग्गामिनी कीर्तिः यश उपलक्षिता कीर्तिर्यशः कीर्तिरिति समासः / यस्तु रूपशब्दयशःकीर्तीनामेकमपि न जानाति सोऽजानान उच्यते अथ द्वितीयभङ्गमादौकृत्वा यथाक्रमममूनेव भङ्गान् व्याचष्टे। उचारचेतिमातिसु, पासति रूपं विणिग्गयस्सागो। रत्तिं उचिंतर्णितो, कासगमाढीमुणति सव्वं / / चाउत्थो जसकित्ति, सुणइ सगेमेव सगिहवासी वा। उभयं रूवं सह, कित्तिं व ण जाणते चरिमो।। उच्चारभूमिचैत्यवन्दनादिषु कार्येषु विनिर्गतस्याचार्याद रूपं पश्यति चैको द्वितीयः शैक्षः पश्यतिन पुनः स्वरेण जानीते उपाश्रये तस्यानागमनात्। तृतीयस्तु शैक्षः कर्षणादिकर्षकः कृषीवलस्तत्प्रभृतिकः सकलमपि दिवसं क्षेत्रादौ स्थित्वा रात्रौ प्रदोषे गृहमुपागच्छन् प्रभाते च भूयोऽपि निर्गच्छेत् / धर्मकथायांप्रवर्तते न तु रूपमवलोकते चतुर्थस्तु शैक्षः स्वग्रामवासी वा दूरस्थः सन्तद्रूपं पश्यतिनचधर्मकथा दिशब्दं शृणोति किन्तु लोकमुखेन तेषामाचार्यदीनां यशः कीर्ति शृणोति / यस्तु चरमोऽजानानः शैक्षः स रूपशब्दात्मकमुभयं कीर्ति च न जानाति परं गृहवासनिर्विण्णतया प्रव्रज्जयां ग्रहीतुमायातः / वास्तव्यशैक्षः पञ्चविध उक्तः। वायादुओति एवं, पंचविट्ठो आणुपुटवीए। एएसिं संहाणं, पत्तेयं मग्गणा इणमो।। वाचादूतो नाम आगन्तुकः शैक्षः सोऽप्येवमेव तस्य शैक्षवत्पञ्चविध आनुपूर्व्या यथोक्तपरिपाट्या वक्तव्यः / अथैतेषां दशानामपि शैक्षाणां प्रत्येकं पृथक्-पृथक् इयमेतेषु द्वारेषु मार्गणादि वारणा भवति तान्येव द्वाराण्यभिधित्सुः श्लोकचतुष्टयमाह। अव्वाघाए पुणो होइ, जावजीवपराजिए। वाघाओ संपए वावि, उढिओ विहरंतिते।। पढमे विय दिवसे तु, कहकप्पो उजाणते। जाणाविए कहं कप्पो, पच्छच्चे तहडेविया।। उत्ताअणुक्कए यावि, कहं कप्पो भिधारणे। एगगामे अमिच्छंते, कहं कप्पो विहिज्जते।। दुविहा मग्गणा सीसे, एगपिहा य पडिच्छए। पडिसे हियवचंते, कहं कप्पो विहण्णइ।। न विद्यते व्याघातः प्रवज्यविघ्नो यस्यासा अव्याघातः शैक्षपूर्वसाधुषु क्षेत्रान्निर्गतेष्वपि प्रव्रज्यां गृह्णाति न पुनः कालक्षेपं करोतीतिभावः (पुणेहोइत्ति) पुनभूयोऽपि यदा किलते साधवः समायास्यन्ति तदा प्रव्रजिष्यामीति कश्चित् शैक्षोब्रूयात (जावज्जीवपराजिणत्ति) यदा यदा अहं प्रव्रजितुमभिलषामि तदा तदा भवैर्विघेरुत्तिष्ठमानवजीवमई पराजितः अत एवं मे सांप्रतमपि व्याघात उत्थितो यदेवं साधवो विहारं कृतवन्त इति कश्चिद ब्रूयात। एषां शैक्षाणामेकतरे प्रथम द्वितीयदिवसयोः प्रव्रजितुमुपस्थिते ज्ञायके कथचन प्रकारेण कल्पः पूर्वसाधुसमीपे प्रेषणादिको विधिर्विधीयते तथा वास्तव्ये वाचनाहृते वा त्वमस्माकं न भवसीति ज्ञापिते कथं कल्पो भवेत् / ऋजु म य आचार्यादिरेतान् शैक्षान् पूर्वसाधुसमीपे प्रहिणोति तद्विपरीतो अनृजुः / एतयोश्चिन्ता कर्तव्या। अभिधारणमेकमेनकान् वा साधून सम्यगाधाय शैक्षस्य गमनं तत्र कथमाभाव्यानाभाव्यता क्रियते (एगगामेत्ति) यत्रा ग्रामे क्षेत्रिका स्थितास्तौव केनापि धर्मकविना कोऽपि मिथ्यादृष्टिरुपशमितः स कस्याभवति (अइच्छंतेत्ति) कमप्याचार्यमभिधार्यातिक्रामति विवक्षितक्षेत्रमतीत्याग्रतो गच्छति शैक्षे कथं कल्पो विधीयते / तथा शिष्ये शिष्यविषया द्विधा अज्ञातके शैक्षके द्विप्रकारा मार्गणा भवति प्रतीच्छके च एकविधा केवलमज्ञातक विषया मार्गण (पडिसेहियव) Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 745- अभिधानराजेन्द्रः | भाग 2 उम्गह चंतेत्ति) भगवता प्रतिषिद्धग्लानप्रतिचारणव्यापृतैः शैक्षो न प्रव्राजनीयो ये तु तं प्रव्राज्यान्यत्रा प्रेषयन्ति तैः प्रेषिते तस्मिन् गच्छान्तरं प्रव्रजति कथं कल्पो विधीयते। इत्येतत्सर्व निरूपणीयम्। तत्रा संगारः संकेतः स दत्तो यस्य शैक्षस्यस संगारदत्तः। अहिताग्न्यादेराकृतिगणत्यातक्तान्तस्य परनिपातः / तस्मिन्नपि कथं कल्पो विधीयते / इत्येतत्सर्व निरूपणीयमिति द्वारश्लोकचतुष्टयसमासार्थः / अथ विस्तरार्थ विभणिषुः प्रथमतो ये पूर्वमुभयज्ञादयः पुरुषा उक्तास्तद्विषयवक्ष्यमाणः प्रेषणभेदसंग्रहायाह। चत्तारिणवगजाणं-तगम्मि जाणादिए विचत्तारि। अभिधारणम्मि एए, खित्तम्मि विपरिणया वा वि।। यः पूर्वमुभयज्ञरूपज्ञादिभेदाच्चतुर्दा ज्ञापक उक्तस्तत्र प्रत्येकं चत्वारो नवकाः प्रेषणनवप्रकाररूपा भवन्ति तथा यो ऽजानानः सन् साधुभिस्त्वमस्माकं न भवसि किंतु पूर्वसाधूनामित्येवं ज्ञापितः तत्रापि चत्वारो नवकाः। अभिधारणं नाम मनसि करणं ततः क्षत्रिकं मनसिकृत्य यद्येते अव्याधातदय आगताः तदा विपरिणता अपि क्षेत्रस्वामिन एव भोग्या इति संग्रहगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुरव्याधातद्वारमङ्गीकृत्य तावदाह। पियमप्पियसभावे, दटुं पुच्छति भावसाहंति) कुत्थगता ते भगवं, पुट्ठव्वे भणंति किं तेहिं।। क्षेत्रिकेषु निर्गतेषु यः साधुरुभयज्ञः शैक्षः सन् प्रव्रजामीत्यभिप्रायेणागतो यावदागन्तुकान साधून पश्यति ततस्ते साधवस्तस्य प्रियमप्रियं वा भावं प्रहसितमुखतया दीनमुखतया वा दृष्ट्वा पृच्छन्ति किमेवं प्रहृष्टवदनश्चिन्तापरो वा पश्यसिएवं दृष्ट्वा तेन स्वरूपे कथिते सति (साहति) सावं कथयन्ति यथागतास्ते अन्यविहारेणेति समास्वस्य यानेवं पृच्छेत् कुत्रा गतास्ते भगवन्तः एवं पृष्टाः सन्तो भणन्ति किं तैर्भवतः प्रयाजनम् स प्राहपवइहिंतिय-पणेते, अनुगच्छगया वयंति दिक्खेओ। तेसि समीवं णमो, णयवाहण ते नयं सोयं / / प्रव्रजिष्याम्यहमिति तेन भणिते साधवो वदन्ति ते क्षेत्रिका अमुकता ग्रामादौ गताः वयं भवन्तं दीक्षयित्वा प्रव्राज्य तेषां समीपे नयामः / सच तकमनन्तरोक्तं वचनं तव नैव व्याहन्तिन विकुट्टयति तथेति प्रतिपद्यते इत्यर्थः एषोऽव्याघात उच्यते। संघाडग एगेणं, पंडवपसेव मुंडिए तिण्णि / तराणेमज्झेथेरे, एकेके तिण्णि नव एते।। ततः साधवस्तं प्रव्राज्य संघाटकेन सह क्षेत्रिकाणामन्तिकं प्रेषयन्ति। अथ संघाटको न पूर्यते तत एकं साधु सहायं दत्त्वा चालयन्ति तस्याप्यभावे एकाकिनमपि विसर्जयन्ति परं पन्थानमुपदिशेयुः। यतः तरुणस्य त्रयः प्रकाराः मध्यम- स्थविरयोरप्येवमेव प्रत्येकं त्रयः एते नव भवन्ति एष प्रथमो नवकः। पढमदिणेसग्गामे, एको णवगो वितिजए वितिओ। एमेव परग्गामे, पढमे वितिए य जे णवगा।। एष एकः प्रथमो नवकः प्रथमदिने स्वग्रामे प्रव्राज्य प्रेषयतां मन्तव्यः। द्वितीये दिवसे एवमेव द्वितीयो नवकः एवं ग्रामे द्धौ नवको उक्तौ / परनामेडप्येवमेव प्रथमद्वितीयदिवसयोी नवकौ एवमेते चत्वारोनवकाः मुण्डितं प्रेषयतां भवन्ति। एमेव य मुंडिस्स वि, चउरो नवगा हवंति कायव्वा / एमेव य इत्थीणवि, णावगाण चउक्कगा दुण्णि।। एवमेव वा मुण्डितस्यापि प्रेष्यमाणस्य चत्वारो नवकाः कर्तव्या भवन्ति एवमेते द्वे नवकचतुष्टये पुरुषाणामुक्ते स्त्रीणामप्येवमेव द्वौ नवकानां चतुष्का संघाटकात्मद्वितीयादिभिः प्रकारैः कर्तव्यौ / अथ क्षेत्रिकाणामन्तिके न प्रेषयन्ति किंतु स्वयमेव स्वीकुर्वन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः। अय किमर्थममुण्डितं प्रेषयन्तीत्युच्यते। सागारियसंकाए, णिच्छति घिच्छंति वा सयं मासे। तत्थ अदु पुणरवि, पच्छिह ममुंडितो एवं / / सागारिकाः संज्ञातकास्तेषां शङ्कया माममी उपवाजयेयुरिति बुद्ध्या स्वग्रामे नेच्छति स शैक्षः प्रव्रजितुम् / यद्वा अमी साधवः प्रव्रजितं न मां ग्रहीष्यन्ति यदिचतान् साधून्नद्रक्ष्यामि ततः पुनरपि अौव प्रत्येष्यामि प्रत्यागमनं करिष्ये इति बुद्धवा नागन्तुकैरात्मानं मुण्डापयति एवममुण्डितं प्रेषयन्ति एतं तावदुभयज्ञविषयो विधिरुक्तः। अथ रूपज्ञादिविषयं तमेवातिदिशन्नाह। एमेव य णवगकमो, सई रूवं च होइ जाणंतो। जो पुण कित्तिं जाणति, ण ते वयं सिस्सते तस्स।। एष एव नवकक्रमः शब्द रूपंच जानाति शैक्षे वक्तव्यः शब्दमेव रूपक्षेत्रे इत्यर्थः / यः पुनः शैक्षः कीर्तिमेव जानाति न रूपं न वा शब्दं तस्य शिष्यत्वे निवेद्यते ते वयं न भवामो येषां सकाशे भवान् प्रव्रजितुमायात इति ततो ब्रूयात। किं न व कप्पइ तुब्भे, दिक्खेउं तेसि तो न अम्हाणं / तत्थ वि सो चेव गमो, णावगाणं जो पुरा भणितो।। किंवा युष्माकंदी क्षयितुं न कल्प्यते ततः साधु भिर्वक्तव्यं तेष- मेव त्वमाभवसि नास्माकमेवमुक्ते यद्यसौ भणति यद्येवंतर्हि मां प्रवाज्य तत्र प्रेषयत अमुण्डितं वा विसर्जयत ततस्तत्रापि स एव गमः प्रकारो यं संघाटकात्मद्विती यादिभिर्भेदैनिष्पन्नानां नवकानां पुरा भणितः।। अथ "अभिधारणम्मिएए, खित्तमि विपरिणयावावि'' इति पश्चार्द्ध व्याचष्टे / विपरिणया निजतिते, अम्हे तुब्भ भणंत लंतेहिं। तह विय ण विते तेसिं, अव्वाहयमादिया होंति।। ये अव्याघातादयो वाताः शैक्षा अत्र प्रस्तुतास्ते क्षत्रिकमभिधार्य प्रथममागता अपि कुतोऽपि हेतोस्तंप्रति विपरिणतास्ततो यद्यागन्तुकान् भणन्ति वयं युष्माकं सकाशे प्रव्रजिष्यामोऽलं प्रर्याप्तं तैः पूर्वसाधुभिरिति तथा ऽप्येवं बुवाणे अपि ते अव्याघातादयस्ते चागन्तुकानां न भवन्ति किंतु क्षेत्रिकस्यैव भवन्ति / गतमव्याघातद्वारम् / अथ पुणो दाइं ति द्वारमाह। एहिंति पुणो दाई, पुढे सिद्धम्मिई य मणसाणा। बहुदोसे माणुस्से, अणुसासणणवग तह चेव।। आगन्तुकसाधूनां समीपे कुत्र गता इति पृष्ट ततस्तैः शिष्टाः अमुकता गता इति कथिते स शैक्षौ बूयात (एहिंतिपुणो हाइंति) यदा ते पुनरप्यत्रागमिष्यन्ति तदा प्रव्रजिष्यामि य एवं भणति स वक्तव्यः। सौम्य! बहुदोषे बह्वन्तराये मानुष्ये मा प्रमादं कुरु एवमनुशासनं कृत्वा तथैव नवकगमेन प्रेषणं कर्त्तव्यम् / अनुशासनमेव विशेषत उपदर्शयति। जंकल्ले कायव्वं, णरेण आजेव तं वरं काउं। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 746 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह मचू अकल्लुणाहियओ, न हुदीसति आवयंतो वि।।। यदा दीक्षाग्रहणादिकार्य कल्ये द्वितीयदिने नरेण कर्त्तव्यं तदद्यैव कर्तु वरं प्रशस्यं यतो मृत्युरकरुणहृदयः स्वभावादेव कठोराशयस्तथा कथमप्यापतितायथा आपतन्नपिनदृश्यतेउक्तं "स्वकार्यमथ कुर्चीतपूर्वाल्हे, यत्पराह्निकम् / को हितद्वेत्ति कस्याद्य, मृत्युसेना पतिष्यति।" तथा। तुरहा धम्म काउं, मा हुपमायं खणं पि कुय्वीथ / बहुविग्यो हुत्तोमा, अवरणं पडिच्छावि।। भव्यास्त्वरध्वं धर्म कर्तुं मा क्षणमपि प्रमादं कुरुध्वं कुत इत्याह।। बहवश्चलविषविश्वविकाशमुपघातग्रिदाहादिभेदादने के विघा जीवितान्तरायाः। यस्मादसौ बहुविघ्नो हुशब्दो यस्मादर्थे अपिशब्दस्य वानुक्तस्यापि गम्यमानत्वात् / यस्मान्मुहूर्तोऽपि बहुविघ्नः आस्तां प्रहरदिवसादिरतो महाभाग मा प्रव्रज्याग्रहणे अपराह्नमपि प्रतीक्षिष्ठाः। एवमेव कृत्वा चतुर्भिर्नवकैस्तथैव प्रेषणीयम् / गतं पुणो दाइंति द्वारम्। अथ यावज्जीवपराजितद्वारमाह।। बहुसो उवट्ठियस्सा, विग्धा उद्धिति जज्जियति भोमि। अणुसासणपचवणा, णवगा य भावसमुमुयरे / / क्षेत्रिकाणां गमनवृत्तान्तं ज्ञात्वा कोऽपि शैक्षो ब्रूयाद्बहुशोऽनेकशः प्रव्रज्याग्रहणोपायस्थितोऽहं वारंवारं विधानवनवा उत्तिष्ठन्ति अतो यदयं जावज्जीवमहं तैर्विधैर्जितोऽस्मि यदेते साधवो विहृतवन्तः अतः परं तेषु समागतेषु प्रव्रजिप्यामि। एवं ब्रुवाणस्यानुशासनं कर्त्तव्यम्। भद्र! साप्रतं तव चारित्रावारकाणामनुदयो वर्तते अतो मा प्रमादीः को जानाति भूयोऽपि तेषामुदयो भवेत् / आवश्यकादिनिहितश्च कूर्मवर्मदृष्टान्तस्तत्पुरतः प्ररूपणीयः / एवमनुशिष्य प्रस्थापनं कर्तव्यं तत्र च तथैव मुण्डितेन तयोः प्रत्येकं चत्वारो नवका भवन्ति / एवं प्रथमद्वितीयदिवसयोरव्याहतादीनां कल्पो विधीयते। अथ ज्ञापिते कथं कल्पो वास्तव्ये वाताहतेऽपि वेति द्वारमाह। वाताहते विणवगा, ता हव जाणाविए अइयरे य। एमेवय वत्थव्वे, णवगाण गमो अजाणते।। वाताहृतो द्विधा ज्ञापित इतरश्च / यः क्षेत्रिकाणां यशःकीर्तिमपि न जानाति स आगन्तुकसाधुभिस्त्वमस्माकं न भवसि ये गतास्तेषामेवाभवसीति सद्भावावगमं कारितो ज्ञापित उच्यते / इतरो नाम यशःकीर्तिज्ञस्तत्र ज्ञापिते इतरस्मिन् वाताहृते प्रव्रजितुमायाते तथैव चत्वारो नवका भवन्ति / वास्तव्वोऽपि शैक्षोऽयं क्षेत्रिकाणां यशः / कीर्तिमपि न जानाति तत्रापि नवकानां गम एवमेव मन्तव्यः / अथ वास्तव्यो वाताहतो वा यः कीर्तिमपि न जानाति स कीदृशो भवेदुच्यते। वत्थव्वे वायाहड, सेवगपरतिस्थिवणियएएय। सव्वे ते उजुगाअ-प्पिणाइलेलाइ वा जत्थ।। वास्तव्योवा वाताहृतो वायो राजकुलसेवको यो वा परतीर्थिको यश्च पणिक् एते असन्निहितत्वेन यशःकीर्तिमपि गुरूणां न जानीयुः परं प्रथमद्वितीयदिवसयोः प्रव्रजितुमायातास्तेऽपि क्षेत्रिकाणामाभाव्याः / अथ ऋजुअनृजुद्वारचिन्ता क्रियते।यआचार्य ऋजुर्भवतिस सर्वानप्येतान क्षेत्रित्रकाणामर्पयति। यत्रा वा क्षेत्रिका भवन्ति तत्रसंघाटकादिभिः प्रकारैः प्रेषयित्वा तौ सह मीलयति। माइल्ले वारसगं, जाणगजाणं वि एय चत्तारि। पच्छवे वायहडे,ण लमति चउरो अणुग्घाया।। यस्तु मायावी अनृजुः सन्प्रेषयति तत्रच प्रकाराणां द्वादशकं भवति। तानेवाग्रे वक्ष्यति / तथा ज्ञापके ज्ञापिते च समुदिताश्चत्वारः प्रकारा भवन्ति / तद्यथा ज्ञापकं प्रथमदिववसे न प्रेषयति। 1 द्वितीये तमेव न प्रेषयति। एवं ज्ञापितस्यापि द्वौ प्रकारौ एतैर्वक्ष्यमाणैश्च प्रकारैर्वास्तव्यं वाताहृतं वा अप्रेषयतश्चत्वारोऽनुद्घातामासाः नच तान् शिक्षान् लभते कुलस्थविरादिभिवेलात्क्षेत्रिकाणां दाप्यते इत्यर्थः / / अथाव प्रायश्चित्तवृद्धिमाह सत्तरतं तवो होति, ततो च्छेदो पहावई। छेदेण छिण्णपरियाण, ततो मूलं ततो दुर्ग।। प्रागिव द्रष्टव्यम् प्रकारद्वादशकमाह। तरुणे मज्झिमथेरे, तद्दिणवितिए य छक्कगं इक्कं / एमेव परग्गामे, छक्कं एमेव इत्थीसु।।। पुरिसित्ति गाण एते, दो वारसगा उ मुंडिण होति। एमेव व ससिहम्मिय, जाणगजाणविए भयणे।। तरुणमध्यमस्थविरान्प्रत्येकं तद्दिवसे द्वितीयदिनो वा प्रेषयत् एकं प्रकारषट्कं भवति एतश्च स्वग्रामविषयं परग्राम एवमेव प्रकाराषट्कं सर्वेऽप्येते द्वादश प्रकाराः पुरुषेषु भणिता एवमेव च स्त्रीस्वपि प्रकारद्वादशकं भवति। एते द्वे द्वादशके पुरुषस्त्रीणां मुण्डितविषये भवतः / एवमेव च शैक्षकेऽपि शैक्षद्वादशद्वयं तदेवं ज्ञापिते च प्रत्येकं (भयणत्ति) भङ्गक विकल्पास्तेषां चत्वारिद्वादशकानि भवन्ति / अथवा।। अव्वाहायपुणोघात,जावजीवपराजिया। तद्दिणेपेसणीया-सग्गामे पकारवारसहा।। अव्याघातपुनरागत प्रव्रजितयावजी पराजिताश्चेति त्रयः शैक्षाः। एतान् तदिने वा प्रेषयन् प्रकारषट्कम् / एतश्च स्वग्रामे इतरस्मिन् वा परग्रामे भवतीति कृत्वा द्वाभ्यां गुणितं द्वादशधा भवति / अथ ऋजु अनृजुलक्षणमाह। जाणंतमजाणते,णाइवायसेवाअमाइल्लो। सो चेव उजुओ खलु, अणुजुओ जाणअप्पेति।। जानतोऽजानतो वा शैक्षान् योऽमायावी सक्षेत्रिकाणां समीपे स्वयं याति परहस्तेन वा प्रेषयति स एवं ऋजुक उच्यते। अनृजुस्त्वसौ अभिधीयते यो न समर्पयति न वा प्रेषयति / अथैते वास्तव्यवाताहृता जानन्तोऽजानन्तो वा अनृजुभिः प्रव्राजितास्ते स्वयं पश्चात्परिज्ञायन्ते। उच्यते ततोऽनुयानादिषु यत्रा मिलितास्तत्र क्षेत्रिकैः कश्चिदनृजुः प्रव्रजितो वाताहृतः पुष्टः कथं भवान्प्रव्रजितः स भणति। तुज्झे विय नीसाए, अहमागतो दिक्खिणो बलेहिं। अम्हे किं न पवइया, पुट्ठावणते परिकहेसुं। युष्माकमेव निश्रया अहमागतः। अमीभिः स्ववलाद्दीक्षितःमया भृशममी पृष्टास्तत एभिराख्यातं वयं किं प्रवर्जिता न भवामो यदेव तान् मार्गयसि / यद्वान पृष्टाः सन्तः किमपि व्याख्यातवन्तः। एवं रूपशब्दे यशः कीर्तिज्ञो वक्ति। यस्तुकीर्तिमपि न जानाति स ब्रूयात। वायाहडो तु पुट्ठो, भणाइ अमुगदिण अमुगकालम्मि। Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 747 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गह एतेहिं दिक्खितो हं,तुम्हे वि सुणासि तत्थासि।।। तुशब्दस्य विशेषणर्यतया यो वाताहृतो यशःकीयोरपि अज्ञायकः स पृष्टो भणति / अमुकदिने प्रतिपदादौ अमुष्मिन्काले मार्गशीर्षादौ मासे दीक्षितोऽहमेतैः दीक्षानन्तरं च शृणोमि। यथा स्वयमपि तत्रासीरन्निति। एमेव य जसकीतिं, जाणते जदा तदा जाणाति। तस्स वितहेव पुच्छा, पावयणिओ वा जहा जातो।। एवमेव वास्तव्यो ऽपि यो यश कीर्तिजानाति तस्यापि तथैव स्नानादौ यदा पृच्छा कृता भवति तदा जायते।यदा वा असौ प्रावचनिको बहुश्रुतो जातस्तदा स्वयमेव जानाति नाह -ममीषामाभाव्यः / एवं तावत् सचित्तविषयो विधिरुक्तः। अथाचित्तादिविषयं तमेव निर्दिशन्नाह। एमेव य अचित्ते, दुविहे उवहिम्मि मीसते चेव। पुच्छा अपुव्वमुवहिं, दुद्रूण अणुज्जु पूयाणं। एवमेते अचित्ते द्विविधे ओघोपग्रहोपधिभेदाद् द्विप्रकारे उपधौ मिश्रके चसोपधिकशैक्षै विधिमन्तव्यः / कथं पुनरसावा भाव्यो वा ज्ञायते इत्याह / अपूर्वं सारतरमुपधिं दृष्ट्वा अनृजुभूतानां तेषामन्तिके पृच्छा भवति। क्षेत्रिकैरयं कदा कुत्र वा गृहीत इत्येवं ते प्रष्टव्या इति भावः। एवं वासावासे, उदुबद्ध पंथे जत्थ वा ठाति। सव्वत्थ वा होति उग्गहो, केसिं विपदीवदिटुंतो।। एवं वर्षावासे ऋतुबद्धेवामासद्वयं दिवसपञ्चकं पूर्वावग्रह इति। पथिवा व्रजतो यत्रा क्वापि आचार्यस्तिष्ठति ता सर्वतः सक्रोशं योजनमवग्रहो भवति तत्राप्येवमेव सचित्तादीना माभाव्यानानाभाव्य विधिरवसातव्यः / केषांचिदाचार्याणामयमऽभिप्रायः मार्ग गच्छतां पृष्ठतो नास्त्यवग्रहः।। अयं वा नादेशः कुत इत्याह प्रदीपदृष्टान्तोऽत्रा भवति। यथाहि प्रदीपः सर्वतः प्रकाशयति नैकामपि दिशं प्रकाशशून्यां करोति एवमवग्रहोऽपि सर्वतो भवतिनकुत्रचिन्न भवत्यपीति। एवंतावत् क्षेत्र सचित्तादिविषयो विधिरुक्तः। ___ अधाक्षेत्रे तमेव निर्दिशति। अक्खित्ते वसधीए, जाणविए वि एमेव / उज्जुगमणुज्जुगे या, सो चेव गमो हवइ तत्थ।। अक्षेत्रो इह कालादियुक्ते, नगरादौ सक्रोशं योजनमवग्रहो भवति किं तु तत्र यस्यां वसतौ यः पूर्वस्थितस्तस्यां सचित्तादिकं यदुपतिष्ठते तत्तस्याभवति न पश्चादागतानां तत्रापि य एव क्षेत्र गम उक्तः स एव सर्वोऽपि ज्ञापके ज्ञापिते च ऋजुके अनृजुके च वक्तव्य इति / अथ कथं कल्पोऽभिधारणीय इति निर्वचन्नाह। अणिदिट्ठसण्ण सण्णि, गहितागहिए य सच्छंदो। णिहिट्ठलिंगसहितो,सण्णी तस्सेव णस्सस्स।। अभिधारणं प्रव्रज्यार्थभाचार्यादेर्मनसा संकल्पनम् तच द्विधा अनिर्दिष्टं निर्दिष्ट च अनिर्दिष्ट नामधारयन् कमप्याचार्य विशेषतो न निर्दिशति सच अभिधारको द्विधा संज्ञी असंज्ञी चपुनरैकेको द्विधा गृहीतलिङ्गोऽगृहीतलिङ्गश्च एष सर्वोऽप्योघतः सामान्येनाचार्यविशेषनिर्दिश्य प्रव्रजन स्वच्छन्द आभाव्यो भवति यस्यान्तिके प्रव्रजति तस्यैवासौ शिष्य इत्यर्थः / निर्दिष्ट पुनरभिधारणं तदुच्यते यत्रामुकस्याचार्यस्य समीपे प्रवजिप्यामीति निर्देशं करोति एषोऽपि द्विधा संज्ञी असंज्ञी च / भूय | एकैको द्विधा लिङ्गसहितो लिङ्गरहितश्च / तत्र लिङ्गरहितश्च / तत्रा लिङ्ग सहितः संज्ञी यमाचार्यमभिचार्य गच्छति / विपरिणतोऽपि तस्यैवासौ भवति नान्यस्य। निद्दिद्वेव असण्णी, गहियागहिए य अगहिए सण्णी। तस्सेव अविपरिणतेवि, परिणते जस्स इच्छाया।। असंज्ञी नाम गृहीतलिङ्गोऽगृहीतलिङ्गौवा भवतु यस्तु संज्ञी श्रावकः सोऽगृहीतलिङ्ग एते त्रयोऽप्यपरिणते भावे यं निर्दिष्टमाचार्यमभिधार्य गच्छन्ति तस्यैव भवन्ति / अथ तं प्रति भावो विपरिणतस्ततो यस्य सकाशे तेषां प्रव्रजितुमिच्छा तस्यैव ते शिष्याः।। अथ किंकारणं लिङ्गसहितो व्रजतीत्याह।। वारियसमुदाणहा, तेण व गिहभन्ति धम्मसवा वा। एएहि लिंगसहितो, सण्णी व सिया असण्णीव।। वारिको हरिकस्तद्विषया शङ्का मा भूदिति बुद्ध्या लिङ्ग गृहीत्वा व्रजति तथा समुदानं भैक्षं तदर्थ लिङ्गं गृह्णाति गृहीतलिङ्गों हि सुखेनैव भिक्षामानोति। स्वभावापान्तराले गृहिभ्रान्त्या धर्मश्रद्धालवो वा तिष्ठन्ति एतैः कारणैः संज्ञी वा असंज्ञी साधुसमाचारीनिपुणो लिङ्गसहितः स्यादिति / इह यो निर्दिशन प्रव्रजति एकमनेकान् वा निर्दिशेत तत्र योऽनेकान् निर्दिशति स एवं संकल्पयति यो मे प्रतिभाषिष्यते तस्य सकाशे प्रव्रजिष्यामि। तद्विषयं विधिमाह। णेगा उदिस्स गतो, लिंगेणं फालितो तु एक्केणं / दटुं च अचक्खुस्स, णिट्ठिणं गतो तस्स।। अनेकानाचार्यानुद्दिश्य लिङ्गेन सहितानां बहूनां निर्दिष्टानामन्तिके गतस्ता चैकेनास्फालितः सादरमाभाषितो यदि तमभ्युपगतस्तदा तस्यैवासौ शिष्यः। अथाभाषितोऽपि तमचक्षुप्यमनिर्दिष्ट दृष्ट्वा निर्दिष्टमेव कमप्यन्यमुपगतस्तदा तस्या भवति। इदमेव सविशेषमाह। निहिट्ठमनिद्दिटुं, अब्भुवगयलिंगिनो लभइ अण्णो। लिंगी व अलिंगी वा, सच्छंदेणय अणि हिट्ठो।। निर्दिष्टमनिर्दिष्ट वा आचार्यमभिधार्य गच्छन् लिङ्गी लिङ्गसहितः शैक्षो यमाचार्यमभ्युपगतस्तस्यैवाभयति नैवान्यस्तं लभते / यस्त्वनिर्दिष्टो नाद्यापि कमप्यभ्युपगतः स लिङ्गी वा भवतु अलिङ्गी वा स्च्छन्देन यमभिलषति तस्याभवति। एमेव असिह सण्णी, णिदिट्ठस्सुवगतोण अण्णस्स। अब्भुवगतो विससिहो, जस्सिच्छति दो असण्णीव।। लिङ्गसहितः संज्ञी निर्दिष्टानांबहूनांमध्ये यमेवाभ्युगतस्तस्यैवाभवति एवमेव शिखाकोऽपि संज्ञी बहून् निर्दिश्यागतो वा यस्यैव निर्दिष्टस्यान्तिके उपगतः प्रव्रजितुं परिणतस्तस्यैवासौ शिष्यो भवति नान्यस्य यस्तुं सशिखाकः संज्ञी सकप्यभ्युपगतोऽपि यदि पश्चाद्विपरितस्तदा यस्यान्तिके प्रव्रजितुमिच्छति तस्याभवति (दोहअसन्नत्ति) द्वौ वा शिखाकसशिखाकलक्षणौ यौ असंज्ञिनौ तावपि पूर्वं कंचनाभ्युपगतौ पश्चाद्विपरिणतौ स्वच्छन्देन यदुपकण्ठे प्रव्रजतस्तस्या भाव्यौ / अस्यैवार्थस्य सुखावबोधाय भङ्गकानाह। निहिस्सससन्नि, अब्भुवगतेतरअट्ठ लिंगिणो भंगा। एवमसिहे विससिहे वि, अट्ठ सव्वे चउव्वीसं / / कमप्याचार्य निर्दिश्य गच्छत्त निर्दिष्टः सज्ञी श्रायक: अभ्य Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 748 अभिधानराजेन्द्रः / भाग 2 उग्गह पगतः प्रव्रजितुं परिणतः / एतै स्त्रिभिः पदैः (इयरत्ति) प्रतिपक्षपदसहितैरष्टो भङ्गा लिङ्गिनो लिङ्गसहितस्य गच्छतो भवन्ति। तथाहि निर्दिष्टः संज्ञी अभ्युपगतः 1 निर्दिष्टः संज्ञी अनभ्युपगतः / / निर्दिष्टो ऽसंज्ञी अभ्युपगतः 3 निर्दिष्टो ऽसंज्ञी अनभ्युपगतः 4 अनिर्दिष्टपदेनाप्येवंचत्वारोभङ्गालभ्यन्तेएते अष्टौ भङ्गालिङ्गिनउक्ताः। अशिखाके चैवमेव प्रत्येकमष्टौ भङ्गा भवन्ति सर्वे ऽप्येते मीलिताश्चतुर्विशतिभङ्गा जायन्ते एतेषु विधिमाह। पढम विति ततिय पंच, सत्तम नवम तेरसेसु भंगेसु। विपरिणतो वि तस्सेव, होइ सेसेसु सच्छंदो।। प्रथमद्विती यतृतीयपञ्चमसप्तमनवमत्रायोदशेषु विपरिणतोऽपि यं निर्दिश्यागतोयं वा अभ्युपगतस्तस्यैवाभवति शेषेषु चतुर्थषष्ठाष्टमदशमैकादशद्वादशचतुर्दशादिषु चतुर्विशतिषु सप्तदशसु भङ्गेषु स्वच्छन्दः स्वेच्छः यः प्रतिभावी तस्यैवाभवतीत्यर्थः / इदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह। सव्वो लिंगी असिहो य, भावतो जस्स अब्भुवगतो सो। णिहिट्ठमण्णलिंगी, तस्सेवाणब्भुवगतो त्ति।। सर्वो लिङ्गी अशिखाकश्च श्रावको यस्यान्तिके ऽभ्युपगतः स एव तं लभते। किमुक्तं भवति यो लिङ्गसहितोऽभ्युपगतः स निर्दिष्टोऽनिर्दिष्टो वा संज्ञी असंज्ञी वा भवतु यश्चाशिखाकः श्रावको ऽभ्युपगतः सोऽपि निर्दिष्टो वा भवतु एष सर्वोऽपि यमेवाभ्युपगतो विपरिणतोऽपि तस्यैवाभवति एतेन प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमनवमत्रयोदशभङ्गास्टूचिताः। तथायो लिङ्गी निर्दिष्टः संज्ञीच स यद्यप्यनभ्युपगतस्तथापि यमेव निर्दिश्यागतस्तस्यैवाभवति न पुनर्विपरिणतोऽप्यन्यस्यानेन द्वितीयो भङ्गो गृहीतः। शेषेषु तु सप्तदशस्वपि गतेषु यत्राभ्युपगतस्तत्रा विपरिणतस्तस्यैव विपरिणततस्तु स्वेच्छायां यत्र तु नाभ्युपगतस्तत्र विपरिणतोऽविपरिणतो वा यथा स्वच्छन्दमाभाव्य इति गतं कथं कल्पो ऽभिधारण इति द्वारम्। __ अथैकग्रामे इति द्वारमाह। असन्नी उपसमितो अ-पण्णो इच्छीइ अण्णहिं तस्स। दवणं च परिणए, उवसमिते जस्स वा खेत्तं / / केनचिद्धर्मकथिना कश्चिदसंज्ञी मिथ्यादृष्टिरुपशमितः प्रव्रज्याभिमुखीकृतः स यावन्नाद्यापि सम्यक्तवं प्रतिपद्यते तावत्प्रव्रजन् क्षेत्रिकस्याभवति। अथ सम्यक्तवं प्रतिपन्नस्तस्य क्षेत्रमन्यस्याचार्यस्य सत्कं ततोऽसावात्मन इच्छया आभवति यदि क्षेत्रिकस्योपविष्टतस्तत स्तस्यैव अथोपशामयत उपस्थित स्तत्रोपशमेयत् एव एतौ धौ मुक्तवा अन्यस्य नाभवति (अन्नहित्ति) अथान्य क्षेत्राद्वहिरुपशमितस्तदा तस्योपशमकस्या भवति / अथ के नापि नो कथितः परमन्यं कमप्याचार्यादिकं दृष्ट्वा स्वयमेव प्रव्रज्यायां परिणतस्ततोऽसौ क्षेत्रावहिरुपशान्त उपशामत आभवति / मूर्तिदर्शनद्वारेणोपशमनकारिण इत्यर्थः / अथ क्षेत्रान्तरुपशान्तस्ततो यस्य सत्कं क्षेत्रं तस्याभव्यः। अमुमेवार्थं सविशेषमाह। परखित्ते वसमाणो, अइक्कमंतो व ण लभति असण्णत्थिं / दहण पुथ्वसण्णी, गाहितस्साति सा लमति।। परक्षेत्रो मासकल्पे वर्षावासे वा वसन् अतिक्रामन् वा पर क्षेत्रामग्रतो गन्तुमनास्तत्रावस्थितोऽसंज्ञिनमप्रतिपन्नसम्यक्तवं स्वयमुपशमितमपि न लभते / अय कंचिन्मिथ्यादृष्टिं सम्यक्तवमादिशब्दादणुव्रतानि वा ग्राहयित्वा क्षेत्रान्तरं गतः भूयोऽप्यन्यदा। तदैव क्षेत्रभायातः स च प्रागुपशमित इदानीं पूर्व संज्ञी लभ्यते ततस्तं पूर्वसंज्ञिनं सम्यक्तवादिग्राहितंस उपशमच्छदेन लभते। किमुक्तं भवति। उपशमिक क्षेत्रिकं वा यमभिरोचयति तस्याभवति / एवं त्रयाणां वर्षाणामागतो मन्तव्यः। त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु सपूर्वसंज्ञी क्षेत्रिकस्यैवाभाव्यो नोपशमयतः। आहच चूर्णिकृत " तिसु वरिसेसु पुण्णेसु खेत्तियस्स वा भवति / तो उवसामितस्सत्ति' गतमेकग्रामद्वारम्।। अथातिक्रामन् द्वारमाह। मग्गंतो अण्णखित्ते, अभिधारितो उभावतो तस्स। खित्तिम्मि खित्तियस्स, वाहिं वा परिणतो तस्स।। शैक्षः कंचिदाचार्य मार्गयन्व्रजति तस्यचान्यक्षेत्रे परकीयक्षेत्राभ्यन्तरे पथि गच्छतः कश्चिद्धर्मकथी मिलितः स यद्याकर्षणहेतोस्तस्य धर्म कथयति तदा यमाचार्यमभिधारयन व्रजति तस्याभवति / अथ भावतः स्वभावादेव कथयति ततस्तस्य धर्मकथिकस्याभवति। तुशब्दो विशेषणे सचैतद्विशिनष्टि यदि क्षेत्राभ्यन्तरेस्वभावतः कथयति ततः क्षेत्रिपरिणतः प्रव्रयाभिमुखीभूतः क्षेत्रिकस्य भवति बहिस्तु परिणतस्तस्य कथयत आभाव्य इति। इदमेव व्याचष्ट।। अभिधारत्तो वचति, पुच्छित्तो साहुवचतो तस्स। परिसगतो व कहइ, कट्टण हेउं न तं लभति।। कंचिदाचार्यमभिधारयन् शैक्षो व्रजति तस्य कोऽपि साधुः पथि गच्छन् मिलितस्तेन च पुष्टोऽमुक आचार्यः कुत्रास्ते साधुराह किं तेन भवतः प्रयोजनम् / स प्राह / तस्यान्तिके प्रव्रजितुकामोऽहं परं दृष्ट्वा तस्य व्रजत एवाकर्षणहेतोः (साहत्ति) धर्म कथयति यद्वा ग्रामे वापि पर्षदन्तर्गतस्य धर्म कथयते उपस्थितस्ततो वन्दित्वा तथैव स्वाभिप्राये कथि ते स आकर्षण हेतोर्विशेषतो धर्म कथयति कथिते च यद्यसौ प्रव्रजितुमभिलषति ततो न तं शैक्षं लभते। अभिधारिता चार्यस्यैव स आभवति।। उज्जुकहए परिणतं, अंतोखित्तस्स खित्तिओ लभइ। खित्तबहिं तु परिणयं, लभउज्जुकहीण खलु माई।। अथासौ कथको धर्मकथी ऋजुकः सद्भावतः कथयति नाकर्षण हेतोः स च प्रव्रज्यायां परिणतः क्षेत्रान्तः परिणतेक्षेत्रिको लभते क्षेत्रावहिः परिणंत तु ऋजुको धर्मकथी लभते न खलु मायी मायावान्। परिणमइ अंतरा अंतरा य भावोणियत्ति तत्तो से। खित्तम्मि खित्तियस्स, वहिं तु परिणतो तस्स। अथअन्तरान्तरा तस्य भावः प्रव्रज्यायां परिणमते निवर्त्तते वा ततः क्षेत्रो परिणतः क्षेत्रिकस्याभवति बहिस्तु परिणतस्तस्य धर्मकथिकस्याभवतीति। गतमतिकामन् द्वारम् / अथ द्विधा मार्गणा शिष्य एकविधा च प्रतिच्छके इति यदुक्तं तत्र प्रतीच्छकविषयांतावदेकविधां केवलसज्ञातीय विषयां मार्गणामाह। माया पिया य भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धुत्ताय। छप्पेते नालबद्धा, सेसेए भवंति आयरिया।। माता पिता भाता भगिनी पुत्रास्तथैव दुहिता वा पडप्येते अन्नन्तरवल्लीमधिकृत्य नालबद्धा मन्तव्याः / एते च अभिधारयन्तः प्रतीच्छक स्याभवन्ति / उपलक्षणमिदं तेन परावल्लीबद्धा अपि वक्ष्यमाणाः षोडश जना अभिधारयन्तस्तस्यै वाभवन्ति / शेषास्तु ये नालबद्धा भवन्ति तेषु आचार्या Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 746 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह प्रभवन्ति न प्रतीच्छकः इदमेव व्यक्तीकुर्वन् परंपरावल्ली प्रतिपादयति। माओ माया पिया माया, भगिणी य एव पिउणा वि। मायादिपुत्तधूता, सोलसर्ग छच वावीसं / वावीस लसति एए, पडिच्छओ जति य तमभिधारंति। अमिधारमणभिधार,णायमणाते तरेण लमे॥ मातुः संबन्धिनो माता पिता भ्राता भगिनी चेति चत्वारो जनाः पितुः संबन्धिनोऽप्येवमेव चत्वारोजनाः (भायादिपुत्तधूयति) भ्रातुः संबन्धिनः पुत्रो दुहिता चेति जनद्वयम् आदिशब्दात् भगिन्या अप्यपत्यं भागिनेयः भागिनेयी चेतिद्वयम्।पुत्रस्यापत्यं पौत्राः पौत्री चेतिद्वयम्। दुहितुरपत्यं दौहित्रौ दौहित्रौ चेति। सर्वसंख्यया षोडशकं भवति / षटवाऽनन्तर वल्लीजना अत्रा प्रक्षिप्यन्ते ततो द्वाविंशतिर्भवति द्वाविंशतिमप्येतान जनान् प्रतीच्छको लभते / यदि च तं प्रतीच्छ कमभिधारयन्तस्ततरतेऽच्याचार्यस्यैवाभाव्या इति नव इतरे उक्ताः ये व्यतिरिक्तास्तानभिधारयतो वा ज्ञातकान्व अज्ञातकान वा प्रतीच्छको लभते / अथ शिष्यविषयां द्विविधां मार्गणामाह। नायगमणायगा पुण, मीसे अमिधारमणमिधारे य / दो क्खरदिटुंता सव्वे वि भवति आयरिए।। द्विविधा मार्गणा तत्र ये शिष्यस्य ज्ञातकाः स्वजना ये चाज्ञातका अस्वजनास्ते तमभिधारयन्तो वा अनभिधारयन्तो वा सर्वेऽप्याचार्यस्याभवन्ति न शिष्यस्य कुत इत्याह व्यअक्षरस्वरदृष्टान्तात'' दासेणसेस्वरो किओ दासो वि सेस्वरोविमे इति'' निदर्शनात्। अथ पडिसेहय कहं कप्पो विहज्जइ इति द्वारं निरुपयन्नाह। दुय्वुप्पन्नह गिलाणे, असंथरं ते य चउगुरुच्छेहं। वयमाणइमे संघा-पच्छप्पेतण लभंति।। एकत्र ग्रामे गच्छः स्थितस्तेषां च ग्लान उत्पन्नस्तत्प्रतिचरणे साधवो व्यापृताः सन्तः सर्वेऽपि भिक्षामटितुं न प्रभवन्ति ततश्च संस्तरणं संज्ञानमेव ग्लानोऽपूर्वोत्पत्तेरसंस्तरणं शैक्ष उपस्थितस्ते च ग्लानकार्यभृत्यतया शैक्षं दापयितुंनं पारयन्ति। अतो भगवद्भिः प्रतिषिद्धं न तैः शैक्षो दीक्षणीयः / यदि दीक्षयन्ति कृत्वा प्रेषयन्ति (वयमाण इत्यादि) तं शैक्षं मुण्डयित्वा व्रज त्वमेकाक्येवामुकाचार्यसन्निधाविति वदन्तो विसर्जयन्ति। यद्वा तस्यैकं कमपि सहायं संघाटकं वा समर्पयन्ति एते त्रयः प्रकारा मुण्डितस्य भवन्ति। अमुण्डितस्याप्येते त्रयः एतेषडपितं शैक्षं न लभन्ते। षड्भिः प्रकारैः प्रेषयन्त इत्यर्थः / येषां समीपे प्रेषयन्ति तेषामेवासौ शिष्यः / अथात्मसमीपे स्थापयन्ति तत इमे दोषाः। आयरिय गिलाण गुरुगा, सहस्सा अकरणम्मि। चउलहुगा परितावण, णिप्फणदुहतो भंगे य मूलं तु।। शैक्षं प्रव्राज्य तद्वैया वृत्त्यव्याकुलाः सन्तो यद्याचार्याणां ग्लानस्य या वैयावृत्तिं न कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकः / अथ शैक्षस्य न कुर्वन्ति ततश्चतुर्लघुकः / अथग्लानादीनामनागाढमागाढं वा परितापना भवति तत आम्लनिष्पन्नम् (दुहतो भंगेयत्ति) शैक्षस्य यन्निष्क्रमणंग्लानस्य च यन्मरणमेष द्विधा भङ्ग उच्यते तत्रा मूलं भवति। अथ द्वितीयपदमाह। संथरमाणे पच्छा, जायं गहिते व पच्छगेलन्नं / अप्पव्वइते पव्वइए, संघाडगे व वयमाणे।। इह गच्छे विद्यते परं नागाढं ग्लानत्वं ततः संस्तरति ते शैक्षमपि वर्तापयितुमाचार्याणामपि कर्तुमेवं प्रवाजिताः। शैक्षः पश्चात्त्वग्लानत्वमागाढं समजनिततो वर्तनपरिवर्तना दिव्यापृताय चेलावद्भिक्षांन हिण्डते येऽपि हिण्डन्ति ते ऽपि न शक्नुवन्ति सर्वेषामपि पर्याप्तमानेतुमेवमसंस्तरणं जातम यद्वा मूलत एव ग्लानत्वं पूर्व नासीत् किंतु पाश्चात् शैक्षे गृहीते प्रव्रजितेसतिग्लानत्वमुत्पन्नं ततोऽसौ षड्भिः प्रकारैः प्रेषणीयः। तद्यथा अप्रव्रजितो ऽमुण्डितः प्रव्रजितो मुण्डितः एष द्विविधोऽपि त्रिधा संघाटकेन एकसाधुना (वयमाणत्ति) एकाकी व्रजते व्रजमानैरेकाकित्वेनेत्यर्थः। अथ संथरमाणे पच्छा जायंति पदं विशेषतो व्याचष्टे। नागाढं पउणिस्सइ, अचिरेणं तं च जायमागाढं। सेहं वट्ठा वेओ, ण भवति गिलाणकित्तं वा।। पूर्वमनागाढंग्लानत्वं भवेत् ततः शैक्षेउपस्थिते चिन्तितम्। अचिरेणैवायं ग्लानः प्रगुणीभविष्यति / ततः शैक्षे प्रव्रजिते तद्ग्लानत्वमागाढं जातं ततस्ते शैक्षं वर्तापयितुं ग्लानकृत्यं च कर्तु समकमेव च चरन्ति न शक्नुवन्ति। अतोऽन्येषां समीपे प्रेषयन्तः शुद्धाः। अपडिच्छाण तरेसि जं, सेहविया वडाउपाति। तं चेव पुव्वभणियं, परितावणसेहभंगाइ। इतरे नाम येषां समीपे प्रेष्यते। यदि तेन प्रतीच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकः। यच ते शैक्षव्यापृताः प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं तेषामप्रतीच्छतां प्रायश्चित्तम् / किं पुनस्ते प्राप्नुवन्तीत्याहा तदैव पूर्वभणितंपरितापनशैक्षभङ्गादिकमत्रा दोषजातं मन्तव्यम्। किमुक्तं भवति ग्लानो ऽप्रतिचर्यमाणः परिताप्येत शैक्षो वैयावृत्त्येऽभिधीयमाने प्रतिभज्येत। आदिशब्दाद् ग्लानस्य मरणं वा भवेत्। संखडिए वा अट्ठा, अमुंडियं वाय पेसंती। वयमाणे एगेण य, संघाउएण ण लभंति।। संखडिकरणंतस्या वा अर्थाय मनोज्ञाहारलम्पट-शैक्षममुण्डितं वा प्रेषयन्ति तत्रापि (वयमाणित्ति) एकाकितया प्रेषणेन एकसाधुना संघाटकेन चषट् प्रकारा भवन्ति। एतैः षड्भिरपि प्रेषयन्तो न लभन्ते। इदमेव व्याख्यानयति। होहिं तिण मग्गाइं,आवाह विवाह पव्वयमहादी। सेहस्सव सागारियं, विबाविस्सइविनेसिंति।। इह शैक्षः केषांचिदुपस्थितस्तत्रचावाहविवाहपर्वतमहादीनि प्रकारिणी नवाग्राणि प्रत्यासन्नाणि भविष्यन्ति आवाहो बहादरगृहानयनं विवाहः पाणिग्रहणं पर्वतमहः प्रतीतः। आदिशब्दात्तडागनदी हृदादिपरिग्रहः / शैक्षस्य च तत्रा सागरिकस्तत्प्रव्राजनभयम् / यद्वा यद्येष शैक्षोऽत्र स्थास्यति तदा संखडिभोजनगृहमाविद्रास्यति। स विनश्यति। यदि च वयमनेनैव सहगच्छामस्ततः संखडेः स्फिटामः अत एवमन्यत्रा प्रेषयाम इति विचिन्त्य षड्भिः प्रकारैस्तं प्रेषयन्ति / ते च लभन्ते येषामन्तिके प्रेषयन्ति तेषामेव स चाभवतीति / गतं प्रतिषिद्धे व्रजति कथं कल्पो विधीयत इति द्वारम् / संप्रति संगारदत्ते कथं कल्पो विधीयते इति द्वारमाह। पिहियाणं संगारो, संगारं संगिते करेमाणे / अणुमोयति सोहिंसं, पव्वावितो जेण तस्सेव।। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 750 अभिधानराजेन्द्रः। भाग 2 उग्गह गृहिणां संबन्धी यः संगारो युष्मदन्तिके अस्माभिरसंयतः कालादूर्ध्व प्रव्रज्या ग्रहीतव्येति संकेतस्तं प्रतीच्छन् संयतः स्वयं च तैः सार्द्ध संगारममुष्मिन् दिनेऽमुष्मान् प्रव्राजयिष्यामीति लक्षणं कुर्वन् हिंसा यावदसौन प्रव्रजतितावते कालं षट्काय- विराधनालक्षणामनुमोदयति स च शैक्षस्तं प्रति विपरिणतो येन प्रावजितस्तस्यैवाभवति न संकेतदायिन इति। किंच। विप्परिणमइ सव्वं व, परओ असण्णअण्ण तित्थीव। मोत्तुं वासावासं,ण होइ संगारतो इहरा।। संकेतकरणनन्तरं शैक्षः स्वयं वा विपरिणमति परतो वा परेण / स्वजनादिनास विपरिणम्येत आसन्नविहारिषु वा प्रव्रजेत् अयन्तीर्थिको भवेत् / अतो वर्षावासं मुक्तवा इतरथा पुष्टालम्बनं विना संगारो न प्रतीच्छनीयो न वा कर्त्तव्यः किमर्थं पुनः संगारमसौ करोतीत्याह। संखडसण्णयावी, खित्तं मोत्तध्वयं वमा होजा। एएहिं कारणेहिं, संगारकरंति चउगुरुगा।। संखडिस्तत्रा ग्रामे उपस्थितानां परिहर्तुं न शक्रोति संज्ञातका वा तस्य तत्र भूयांसस्तेषामाग्रहात् शक्रोति गन्तुं क्षेत्रां वा तदतीव सस्निग्धमधुराहारादिलभापन्नं शैक्षस्य चतत्र सागारिकं ततस्तमोक्तव्यं माभूत। एतैरेवामदिभिः कारणैः। शैक्षस्य संगारं यः करोति तस्य चतुर्गुरु / अथ गृहस्थाः किमर्थं संगारं कुर्वन्तीत्याह। रिणवाहि मोक्खेउं, कुडुंबवित्तिं वतिथि ते गिण्हे। एमादि अणाउत्ते, करिति गिहिणो उ संगारं।। ऋणं वा व्याधिंवा मोक्षयितुं अपनेतुं कुटुम्बस्य वापश्चान्निर्यह णायोग्यां वृत्तिं संपादयितुं यद्वा ग्रीष्मस्तदानीमतिक्रान्तो वर्षावास आयातः एवमादिभिः कारणैः शैक्षस्यानायुक्ते अक्षणिकतायां गृहिणः संगारं कुर्वन्ति / अथ द्वितीयपदेन संगारे प्रतीष्यमाणे आभाव्यविधिमाह। अगविट्ठोमित्ति अहं,लब्मति असढेहिं विपरिणतो वि। वोयं तप्याहिंति व, ते वियणं अंतरा गंतु / / संगारे कृते यश्च शठेग्लानादिकार्याव्यापृतैः स शैक्षो न गयेषितस्तदाऽसावगवेषितो नैकमपि वारमहममी भिर्गवेषित इति बुद्ध्या विपरिणतोऽपि लभ्यते तेषामेवाभवतीत्यर्थः / परं तेऽपि साधवस्तमन्तरा गन्तुं वा नोदयेयुरिति संकेतस्मारणपुरस्सरं शिक्षयन्ते अथ स्वयं गन्तुंन प्रभवन्ति ततः (तप्पाहिति) संदेशं तस्य प्रेषयन्ति। एवं खलु अच्छिन्ने, वेला तहेव दिवसेहिं। वेला पुण्णमपुण्णे, वाधाए होइ चउभंगो।। एवं तावदच्छिन्ने अनियते संगारे विधिरुक्तः यस्तु छिन्नः संगारस्तत्र विधिराभधीयते छिन्नो नाम क्षेत्रातः कालतश्च प्रति नियतः / क्षेत्रातो ग्रामवनखण्डादौ प्रव्रज्यादानार्थ भवद्भिः समागन्तव्यं कालतो वेलया दिवसैर्मासेश्च प्रतिनियतैस्तत्रा च वेलाया उपलक्षणत्वादिवसैश्च (पुण्णमपुण्णत्ति) पूणे अपूर्णे वा संगारे काले व्याघातो भवेत्। तत्र चेयं चतुर्भगी। कालपूर्णो निर्घातं प्राप्तः, 1 कालः पूर्णः संधातः, 2 संजातकालोऽव्याघातपूर्णपरं निर्व्याघातंता प्राप्तः, 3 कालोऽप्यपूर्णो व्याघातोऽपि जात, इति / अथवा अन्यथा चतुर्भङ्गी संयतस्यव्याघातो न गृहस्थस्य, गृहस्थस्य व्याघातो न संयतस्य / द्वयोरपि व्याधातः। द्वयोरप्यव्याघातः। तका संयतस्य व्याघाते विधिमाह। मंदहिगा ते तहियं वि पत्ते, जे तिमणा ते य सढा ण हों ति। .स लब्भतीअण्णगतो तहेव, दप्पट्ठिया जे ण उ ते लमंति।। या ग्रामादौ संकेतः कृत आसीत् तत्र स शैक्षः प्राप्तः साधवस्तु न प्राप्तास्ततो यद्येवं मन्यते मन्दार्थिनस्ते सद्विषये मन्द प्रयोजना अत एव नायाता इति बुद्ध्या विपरिणतः। तेच साधवो यदिशठप्रव्रजिकादिप्रतिबन्धयुक्ता न भवन्तिग्लानादिकार्यव्यापृता यतो याता इति भावः ततः स शैक्षोऽन्यगतोऽप्यन्यमाचार्यमभ्युपगतोऽपि तैः साधुभिर्लभ्यते। ये तु दर्पतः स्थितास्तेनैवतं लभन्ते येन प्रव्राजितस्तस्यैवासौ शिष्य इति। पंथेधम्मकहिस्सा, उवसंतो अंतरा उ अण्णस्स। अभिधारितो न तस्स उ, इयरे पुण जो उ पव्वाये।। यद्यसौ येन साधुना संकेतो दत्तस्तदभिमुखं प्रस्थितः पथिगच्छन् अन्तरा अन्यस्यधर्मकथिनः समीपे धर्ममाकार्योपशान्तः सच स्वयमभिधारयन् गच्छति तदा तस्यैवाभिधारित स्याभवति / इतरः पुनरनभिधारयिता ततो धर्मकथी प्रव्राजयति। इदमेव व्याचष्ट। पुण्णेहिं पि दिणेहिं, उवसंतो अंतरा उ अण्णस्स। अभिधारित्तो तस्स उ, इयरं पुण जो उ पच्छावे / / पूर्णैरपिशब्दादपूर्णैरपि दिवसैरन्तरा पथि वर्तमानो ऽन्यस्य सकाश उपशान्तः सन् अभिधारयति प्रव्रजामि तावदह समीषां समीपे पर पूर्वेषामेवाहं शिष्यः एवमभिधारयन्तस्यैव पूर्वाचार्यस्याभवति इतरो नाम यः पूर्वेषां विपरिणतस्तं प्रव्राजयति तस्यैव स शिष्यः / नियमप्रदर्शनार्थमिदमाह। णूणादिसमोसरणे, दटूण वित्तं तु परिणतो अण्णं / तस्सेव से ण पुरिसे, एमेव पहम्मि दव्यं ते।। न्यूनादौ समवसरणे तं पूर्वाचार्य दृष्ट्वाऽपि यद्यन्यमेव परिणतः प्रतिपन्नस्तदा तस्यैवासौ शिष्यो न पूर्वस्य एवमेव पथि व्रजतामप्यनाघातानाभाव्यविधिरवगन्तव्यः / अथ कः संयतस्य गृहस्थस्य वा व्याघातो न भवतीत्याह। गेलण्णतेणग नदी, सावयपइण्णीयवालमहिया वा। इइसमणे वाघातो,महिगा वज्जा उसेहस्स॥ ग्लानत्वं तस्य साधोरुत्पन्ना स्तेनका वा अन्तराले द्विविधा नदी वा पूर्णा स्वापदा वा व्याघ्रादयः / पथि तिष्ठन्ति प्रत्यनीको वा तं प्रतिचरन्नास्ते व्यालाः सप्पस्तेि वा पथि गच्छन्तं दशन्ति महिका वा पतितुमारब्धा य एवं श्रमणे व्याघातः संभवति शैक्षस्यापि महिकावर्जः सर्वोऽप्येष एव व्याघातो वक्तव्यः / पूर्व स्वयं विपरिणतमाश्रित्य विधिरुक्तः / अथान्येन विपरिणामितस्य विधिमाह।। विप्परिणामियभावो,ण लभते तं च णो वियाणामो। विप्परिणामियकहणा, तम्हा खलु होति कायव्वा / / विपरिणामितो विवक्षिताचार्यादुत्तारितो विपरिणामकस्यविपरिणामितभावः एवंविधः शैक्षो लभ्यते भावो यस्यस विपरिणामकस्य भवतीति भावः1 शिष्यः प्राह तमेव विपरिणमनं तावद्वयं न विजानीमः / सूरिराह। यत एवं भवतो जिज्ञासा तस्माद्वि परिणामनं विपरिणामितं तस्य कथना प्ररूपणा कर्तव्या भवति। तामेवाह। दिट्ठमदिट्ठविदेसत्थ, वि गिलाणे मंद धम्म अपसुत्ते। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरगह 751 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गह णिप्पत्ति णत्थि तस्स, तिविहंगरहं व सावजति॥ ज्ञाने दर्शने चारित्रे चेति त्रिविधा गहीं भवति / तत्र ज्ञानगर्दा नाम न शैक्षः कमप्याचार्यमभिधार्य गच्छन् मार्गे कमपि साधुं दृष्ट्वा पच्छति उपस्थितेनैव किंतु तदीयेन ज्ञानेन / दर्शनगर्हा तु मिथ्यादृष्टि स्तिअमुक आचार्यो भवद्भिः कदाचित् दृष्ट उताहो न दृष्टः एवं दृष्टे स कप्रायोऽसौ / चारित्रगर्दा सातिचारं चारित्रो ऽचारित्री वासौ। अथवा सूत्रे साधुर्विपरिणामनं बुद्धा भणति / किं तैः करिष्यसि शैक्षः प्राह / अर्थे तदुभये चेति त्रिविधा गरे / तत्र सूत्रं तस्य शङ्कितं स्खलितमर्थ प्रव्रजितुकामोऽहं तेषां समीपे एवं श्रुत्वा साधुर्दृष्टानपि तान् न मया दृष्टा | पुनरवबुध्यते 1 यता अर्थं नावबुध्यते सूत्रं पुनर्जानाति 2 उभयमपि वा इति अथवा स्वदेशस्थानपि भणति विदेशस्थास्ते एवमग्लानानपि| तस्याविशुद्धं जानाति वा किमपीति 3 अथवा कायवाग्मनोभेदात् त्रिधा ग्लानास्ते व्रज त्वमपि तस्य द्वितीयः / अथवा प्रवीति यस्तस्य | गरे / तत्र कायगर्हा तेषामाचार्याणां शरीरं हुण्डादिसंस्थानं विरूपं वा। पार्श्वे प्रव्रजति सोऽवश्यंग्लानो ग्लानवैयावृत्त्ये वा नित्यं व्याप्तो भवति।। वाग्गीं मन्मनं काहलं वा ते जल्पन्ति / मनो गर्दा न तेषां अथवा मन्दधर्मिणस्ते ततः किं तव मन्दधर्मता रोचते / यद्वाऽसौ तथाविधोहापोहपाटवं भवाग्रहणसामर्थ्यमिति / अथैषा त्रिविधा गर्दा अल्पश्रुतस्त्वं च ग्रहणधारणासमर्थस्तस्य पार्श्वे गतः किं करिष्यसि त्वमेव भवति। वा तं पाठयिष्यसीति / अथवा तस्य शिष्याणां निष्पत्तिरेव नास्ति यं __ प्रकारान्तरेण गर्हामेवाह। प्रव्राजयति स सर्वोऽपि व्रती भज्यते म्रियते वेति भावः / त्रिविधां वा| पव्वयसि ओम कस्स सकासे अमुगस्स निद्दिट्ठो। नामवाकायभेदात् ज्ञानदर्शनचारित्रभेदावा त्रिप्रकारांगहीं वक्ष्यमाणरीत्या आयपराधिगसंसी, उवहणति परं इमेहिं तु || यदाऽसौ करोति सा विपरिणामता मन्तव्या। एनां कुर्वन्तश्चतुर्गुरुकम्न कोऽपि शैक्षः केनापि साधुना पृष्टः प्रव्रजसि त्वं स प्राह ओम् कस्य चतं शैक्षलभते अतो नैवंकथनीयम्। किंतु दृष्टादिपेदषु सद्भावः कथनीयः। सकाशे इति पृष्टः सन् भूयोऽप्याह अमुकस्य समीपे। एवं निर्दिष्ट उक्ते स कथमित्याह। साधुः आत्मानं परस्मादधिकं शंसितुमाख्यातुं शीलमस्येत्यात्मपराधिजइ पुण तेण ण दिट्ठा,णेव सुया पुच्छितो भणति / कशंसी परममीभिः वचनैरुपहन्मि। तद्यथा। अण्णे गया विदेसं, तो साहइ जत्थ ते विसए।। अबहुस्सुतो वि एट्वं, जहच्छंदा तेसु वा संसग्गी। योऽसौ शैक्षेण पृष्टस्ततो यदिते सूरयो न दृष्टा नैव श्रुतास्ततः पृष्टः सन् ओसण्णा संसग्गी व, तेसु एकेक्कए दुन्नि।। भणति अहं नजानामि। अन्यान् अपरान् साधून्पृच्छ। अथ जानाति ततो | अहं बहुश्रुतः सोऽबहुश्रुतः। अहं विशुद्धपाठकः सपुनरविशुद्धपाठी। यद्वा यथा वस्थितं कलनीयं यदि विदेशगतास्ततो यत्र विषये देशे ते वर्तन्ते तं यथाच्छन्दास्ते आचार्यास्तैर्वा यथाच्छन्दैः सह ते गाढतरं संसर्गिणः / कथयति / अथ नाख्याति हीनाधिकं वा आख्याति ततोऽपरिणामेना गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी / अव सन्ना वा तैः सार्द्ध संसर्गिणो वा एवं भवति। पावस्थादायप्येकैकस्मिन् भेदौ द्वौ द्वौ दोषवेवमेव वक्तव्यौ। सेसेसु असम्भावं,णातिक्खमंदधम्मवज्जेसु। अथ कायवाड्मनोगर्हामेव प्रकारान्तरेणाह। गृहयते सम्भावं, विप्परिणति हीणकहणे वा। सीसोकंपणहत्थे, कण्णदिसा अत्थि काइगी गरहा। वेला अहो य हात्तिय, णामत्ति काइगी गरहा / / शेषेषुग्लानादिषुपदेषु मन्दधर्मेवर्जेषु सद्भावं व्याख्याति यद्यप्यसौग्लानो शीर्षकम्पनं हस्तविलम्बनं कर्णस्य अन्यस्यां दिशि स्थापनम् / ऽल्पश्रुतोवा शिष्यनिप्पत्तिर्वा तस्य नास्ति तथापितत्र कथनीयम्। यस्तु | अक्षिनिमीलनमनिमिषलोचनस्य वा क्षणमवस्थानम् / एषा सर्वाऽपि मन्दधर्मपार्श्वस्थादिस्तत्र सद्भावः कथनीयो मा संसारं पारं गन्तुकामः | कायिकी गर्दा यत्तु यस्यां वेलायां नाम न ग्रहीतव्यम् अहो कष्ट सुतरां संसारे पतिष्यतीति कृत्वा यस्तु ज्ञानदर्शनचारित्रतपःसंपन्नो वादी हाहाकारकरणं नाम च तस्य कदापि न ग्रहीतव्यमित्यादिभाषणं सा धर्मकथी संग्रहोपग्रहकारी तद्विषयं सद्भावं यदि गृहयति अपलपति कायिकी गरे। हीनकथनं वा करोति अधिकमप्यान्याचार्येभ्यो हीनं कृत्वा अह माणसिगी गरहा, निजाति णित्तवत्तरागेहिं। कथयतीत्यर्थः / एषा विपरिणामता मन्तव्या / अथ त्रिविधां गहीं धीरत्ताण ण यं पुण, अमिणंदइ य तं वयणं / / व्याचिख्यासुस्तत्स्वरूपं तावदाह। अथानन्तरं मानसिकी गर्दा मनसि तमाचार्य जुगुप्सते कथमेतत् ज्ञायते सीसो कंपणगरिहा, हत्थविलंवि य अहो य हक्कारो। इत्याह नेत्रवत्क्रयोः संबन्धिनोर्ये रागा मुकुलनविच्छायभवनादयो वेलाकरणाय दिसा, चिष्ठतिणामण घेत्तट्वं / / विकारास्तैः सूच्यते मानसिकी गति भणिता साध्विदं गर्दा नाम शैक्षेण पृष्टस्सन् शीर्षाकम्पनं करोति हस्तौ वा धुनीते कृत्यमेतद्दव्यानामित्यादिवचोभिर्न तदीयं वचनमभिनन्दतिधीरतया वा विलम्बितानि वा करोति हस्तावोष्ठौ वा विलम्बयतीत्यर्थः। यद्वा ब्रवीति।। तूष्णीकमास्ते / एवमन्यतरस्मिन् गर्दाप्रकारे कृते तस्य शङ्का भवति अहो प्रव्रज्या हाकारं वा करोति हाहा कष्टं यदेवं नष्टो लोकः (वेलत्ति) अवश्यमकार्यकारी स आचार्यादिः संभाव्ते / नचामी साधवोऽलीक नामापिन वर्तते। अस्यां वेलायां गृहीतुमिति। कौँ वा तदीयनामग्रहणे भाषन्ते / अहमपि तत्र गत आत्मानं नाशयिष्यामीति। स्थगयति यस्यां वा दिशि स तिष्ठति तस्यां न स्थातव्यमिति ब्रवीति / एताणि य अण्णाणि य, विपरिणमणपदाणि सेहस्स। उपलक्षणत्वादक्षिणी वा निमीलयति यद्वा तामपि तस्यातिरात्रेन | उवहिणियइप्पहाणो, कुय्वति अणज्जया केइ। ग्रहीतव्यमतः आस्तामेतद्विषयं पृच्छादिकमिति। एतानि चानन्तरोक्तानि अन्यानि च द्रव्यक्षेत्रकालभावाः नाणे दंसणचरणे, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव। शैक्षस्य विपरिणमनपदानि भवन्ति / तत्र द्रव्यतो मनोज्ञाहरादि अह होति तिहागरहा, कायो वाया मणो वावि।। ददाति / क्षेत्रतः प्रवातनिवाते मनोनुकूले प्रदेशे तं स्थाप Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गह 752- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहणंतग यति / कालतो वेलायामेव भोजयति / भावतस्तस्यावर्ष-1 पडिमा इचेतासिं सत्तण्हं पडिमाणं अण्णयरं जहा पिंडेसणाए णार्थं हितयुतमपदेशं ददाति / एवं केचिदनृजुकाः शठा उपधिः सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं / इह खलु थेरेहि परवञ्चनाभिप्रायो निकृतिः कैतवार्थं प्रयुक्तवचनाकाराच्छादनं ते प्रधाने | भगवंतेहि पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते तंजहा देविंदोग्गहे रायोग्गहे येषां ते तथाविधविपरिणामनपदानि कुर्वन्ति। गाहावइउग्गहे सागारियउग्गहे साहम्मियउग्गहे एयं खलु तस्स उपसंहरन्नाह। भिक्खू वा भिक्खुणी वा सामग्गियं उग्गहपडिमा समत्ता / / एए सामग्णयर, कप्पं जो अतिचरेअ लोभेण / स भिक्षुरागन्तागारादाववग्रहे गृहीते ये तत्र गृहपत्यादयस्तेषां थेरे कुलगुणसंधे ,चाउम्मासा भवे गुरुगा॥ संबंधीन्यायतनानि पूर्वं प्रतिपादितान्यतिक्रम्येत्येतानि च वक्ष्यमाणानि एतेषामव्याहतादिद्वारकलापप्रतिपादितानां कल्पानामन्यतरकल्पं कर्मो पादानानि परिहृत्यावग्रहं ग्रहीतुं जानीयाः / अथ भिक्षुः सप्तभिः विधाय आचार्यादिर्लोभदोषतो ऽतिचरेत् अतिक्रामेत् तं सम्यक् ज्ञात्वा प्रतिमाभिरभिग्रहविशेषैरवग्रहं गृहीयात्तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा। तद्यथा स कुलगणस्थविरं कुलादिसमवायेन वा तस्य पात्तिं शैक्षमाकृष्य चत्वारो भिक्षुरागन्तागारादौ पूर्वमेव विचिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यः मासा गुरुकास्तस्य प्रायश्चित्तं दातव्यम् / अथ स्थविरैः समवायेन वा | नान्यथाभूत इति प्रथमा। तथास्य च भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति तद्यथा भणितोऽपि तं शैक्षं न समर्पयति ततः कुलगणसंघबाह्यः क्रियते।। वृ०३ अहं चखल्वन्येषां साधूनां कृतेऽवग्रहंग्रहीष्यामियाचिष्ये अन्येषां चावग्रहे उ०॥ (साधारणवग्रहस्थितानां कस्य क्षेत्रमिति खेतशब्दे) वर्षास्ववग्रहः गृहीते तरितु पालयिष्ये वत्स्यामीति द्वितीया प्रतिमा। सामान्येन इयं तु पञ्जुसणा शब्दे ) (अवग्रहस्य ऊर्ध्वतो मानं सागारिय शब्दे)। गच्छान्तर्गतानां संभोगिकानामसंभप्रेगिकानां चोद्युक्त विहारिणां (17) अवग्रहे सप्त प्रतिमाः। यतस्तेऽन्योन्यार्थ याचन्त इति / तृतीया त्वियं अन्यार्थमवग्रहं याचिप्ये साम्प्रतमवग्रहविशेषानधिकृत्याह। ऽन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीति एषा त्वाहालं दिकानां यतस्ते से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आगंतारेसु वा जावोग्गहियंसि सूत्रार्थविशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्ते आचार्यार्थ याचन्ते / चतुर्थी जे तत्थ गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा इन्चेयाइं आयतणाई। पुनरहमन्येषां कृते ऽवग्रहं न याचिप्ये अन्यावगृहीते च वत्स्यामीतीयं तु गच्छ एवाभ्युद्यतविहारिणं जिनकल्पाद्यर्थे परिकर्म कुर्खताम्। अथापरा उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जाइमाहिं सत्तहिं पडिमाहिं उग्गह पञ्चमी अहमात्मकृते ऽवग्रहमवग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुःपञ्चाउगिण्हित्तए तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा। से आगंतारेसु वा नामिति। इयं तु जिनकल्पिकस्य। अथापरा षष्टी यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि अणुवी ति उग्गहं जाएजा जाव विहरिस्सामो पढमा पडिमा। तदीयमवक्कडादि संस्तारकं ग्रहीष्यामीतरथोत्कुटुको वा निपण्ण उपविष्टो अहावरा दोचा पडिमा जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति अहं च वा रजनी गमयिप्यामित्येषापि जिनकल्पिकादेरिप्ति / अथापरा सप्तमी खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उम्गहं गिहिस्सामि अण्णेसिं एषैव पूर्वोक्ता नवरं यथा संस्कृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति भिक्खूणं उग्गहिए उग्गहे उवल्लिस्सामि दोचा पडिमा। अहावरा शेषमात्मोत्कर्षवर्जनादिपिण्डैषणावन्नेय-मिति / किञ्च (सुयमित्यादि) तचा पडिमाजस्सणं भिक्खुस्स एवं भवति अहं च खलु अण्णेसिं श्रुतं मया आयुष्मता भगवतैवमाख्यातम् / इह खलु स्थविरैर्भगवन्द्रिः भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं गिहिस्सामि अण्णेसिंच उम्गहिए उग्गहे पञ्चविधो ऽवग्रहो व्याख्यातस्तद्यथा देवेन्द्रावग्रह इत्यादि सुगम णो उवल्लिस्सामि तचापडिमा। अहावरा चउत्था पडिमा जस्स यावदुद्देशकसमाप्ते रिति। आचा०२ श्रु०७ अ०१चू०। णं भिक्खुस्स एवं भवति अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए तिहिंउत्तराहिं तिहिं रोहिणीहिं कुज्जा उग्गहवसहिवाणं द०प० / उग्गहं णो उगिहिस्सामि अण्णे सिंच उग्गहे उग्गहिए आभवनव्यापारे, व्य० द्वि० 4 उ० / अवष्टम्भे, ओ० / गृहस्थण्डिले, उवल्लिस्सामि चउत्था पडिमा। अहावरा पंचमा पडिमा जस्सं उपाश्रयान्तर्वर्तिनि अवगाह्ये वस्तुनि च / प्रश्न०। वृष्टिजलप्रतिबन्धे, णं भिक्खुस्स एवं भवति अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए उग्गहं अनावृष्टौ, च निग्रहे, गजसमूहे। अवग्राहस्तु शापे, वाचा उगिहिस्सामि णो दोण्हं णो तिण्णं णो चउण्हं पंचण्हं पंचमा | पचना*उद्ग्रह पुं० विधिग्रहणे द्वा०। पडिमा / अहावरा छट्ठा पडिमा से मिक्खू वा से भिक्खुणी वा उग्गहजायण न० (अवग्रहयाचन) अनुज्ञापितपानान्नाशने, आलोच्याऽवग्रजस्सेव उग्गहे उवल्लिएजा जे अहासमणागते तंजहा / उक्कडे हयाचाऽभीक्ष्णाऽवग्रहयाचनम् / ध०२ अधि०। उग्गहणंतग न० वा जाव पलाले वा तस्स लाभे संवसेजा तस्स अलाभे उक्कुडुए (अवग्रहानन्तक) अवग्रह इति योनिद्वारस्य सामयिकी संज्ञा वा सजिए वा विहरेज्जा छट्ठा पडिमा। अहावरा सत्तमा पडिमा तस्याऽनन्तकं वस्त्रमवग्रहानन्तकम् / पुस्त्वं प्राकृते / नौनिभे से भिक्खू वा से भिक्खुणी वा अहासंथडमेव उग्गहं जाएज्जा मध्यभागविशाले पर्यन्तभागस्योस्तु तनुके गुह्यरक्षार्थ क्रियमाणे तंजहा पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे | उपकरणभेदे, वृ०३ उ०॥ तच निर्गन्थैर्न ग्राह्य निर्गन्थीभिस्तु ग्राह्यम्। संवस्सेज्जा तस्स अलाभे उक्कुडुए वा णेसजिउ वा विहरेज्जासत्तमा | (सूत्रम्) नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणंतगं वा उग्गह Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग 753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहणंतग पट्टगं वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा। भिक्षां गच्छन्त्या अवगाहनं प्रसरणमन्येषु दिवसेषु अवग्रहानन्तकपट्टाभ्यां अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह। निवारितमासीत् परं तद्दिसमग्रहीतयोरुधिरमवगाढं ततो लोकस्तद् दृष्ट्वा उभयम्मि विय विसिटुं, वत्थग्गहणं तु वण्णिय एयं। उपहसनं कुर्यात्। कथमिति चेदुच्यते॥ जं जस्स होति जोग, इदाणि तं तं परिकहइ / / खाइगयाए निग्गय, रुहिरं दहमसंजतो वदे। उभयं भिन्नाभिन्ने सूत्रद्वयमेतस्मिन्नविशिष्टमिदं साधूनां कल्पते न कल्पते | विगहेवत केणयं जणो, दोसमिणं असमिक्खदिक्खिओ।। वा इत्यादि / विशेषरहितमिदमनन्तरोक्तं वस्त्रग्रहणं वर्णितमिदानीं तु भिक्षायां गतायास्तस्या रुधिरं निर्गतं दृष्ट्वा असंयता वदेयुः बत यद्यस्य संयत्या वा योग्यं तत्तत्सूत्रेणैव साक्षात्परिकथयतीत्यनेन इत्यामन्त्रणे भो भो लोका घिगहो केनायं स्त्रीलक्षणोजनोऽमुंदोषमसमीच्य संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। नो कल्पते निर्ग्रन्थानामवग्रहानन्तकं वा दीक्षितः / अपिच। गुह्यदेशविधानवस्त्रं तस्यैवाच्छादकं पट्ट धारयितुं वा परिहर्तु वा इति सूत्र | छकायाण विराहणा, पडिगमणादीणि जाणि ठाणाणि / संक्षेपार्थः। अथ नियुक्तिविस्तारः। तब्भाव पिच्छिऊणं, वितियं असती अहव जुण्णा / / निग्गंथोग्गहधरणे, चउरो लहगा य दोस आणादी। शोणिते परिगलिते षट्कायानां विराधना भवतिसाच द्रष्टव्यमिति कृत्वा अतिरेगओवहित्ता, लिंगभेदवितियं अरिसमादी। प्रतिगमनान्यन्यतीर्थिकगमनादीनि यानि स्थानानि कुर्यात् तन्निष्पन्नं निर्ग्रन्थानामवग्रहानन्तकपट्टयोर्धारणे चत्वारो लघुमासाः। आज्ञादयश्च प्रवर्त्तिन्याः प्रायश्चित्तम् / सचासौ शोणितपरिगलनलक्षणो भावश्च दोषाः। अतिरिक्तोपधित्वादधिकरणं भवेत्। तथा लिङ्गभेदः कृतो भवति / तद्भावस्तं प्रेक्ष्य विलोक्य तरुणा उपसर्गयेयुरिति वाक्यशेषः / साधूनां लिङ्गनिश्चितं न भवतीत्यर्थः / द्वितीयपदविषयमझे रोगादिकं | द्वितीयपदमात्राभिधीयते (असइत्ति) नास्त्यवग्रहान्तकमथवा जीर्णा स्थविरा सा संयती अतो विद्यमानमपि न गृह्णीयादपि। तत्रावग्रहानन्तकं पट्टकं वा धारयेत् द्वितीयपदमेव भावयति। अथेदमेव भावयति। भगंदलं जस्सरिसा व णिचं, गालेंति पूयं वि ससोणियं वा। उड्डाह सज्झायदयाणिमित्तं,सो उग्गहं बंधति पट्टगं च / / दिटुं तदिहव्वमहं जणेण, लज्जाए कुजा गमणाइगाई। भगंदरः गुह्यसंधौ व्रणविशेषो ऽर्शा सि वा यस्य नित्यं पूर्व वा रसिकां वा लज्जाइमंगो वहविज्जती से, शोणितं वा गलतिस उड्डाहः स्वाध्यायदयानिमित्तम् अहो अमी ईदृश एव लज्जाविणासे य स किं न कुजा।। धाव्यन्ते यो भगन्दरादिरोगवान् बहिर्गन्तुमसहिष्णुस्तस्य पट्टो रुधिरं यत्पुनद्रष्टव्यं तत् दृष्टं तावञ्जनेन अतो नाहमत्र स्थातुं शक्रोमीति कृत्वा चोपाश्रये कचिन्मात्रे धाव्यते ततस्तद्धावनं हस्तशताबहिः / अथासौ लज्जया गमनादीनि गृहवासे यानादीनि कृर्यात् / यद्वा तस्याः संयत्या बहिर्गन्तुमसहिष्णुस्ततो विचारभूमौ गतः स्वयमेवावग्रहपट्टकं रुधिरं च लज्जाया भङ्गो भवेत् लज्जाविनाशे च सा कि नामाकृत्यं न कुर्यात्। तथा। धावति / पट्टबन्धने विधिमाह। तं पासिउं भावमुदिण्णकम्मा, ते पुण होति दुगादी, दिवसंतरिएहिं वज्झए तेहिं। दल्लेज वा सा वि य तत्थ भजे। अरुगं इहरा कुत्थइ, तेवि य कुवंति णिचोला। तं लोहियं वा विसरक्खमादी, ते पुनरवग्रहानन्तकपट्टा द्विकादयो द्वित्रिप्रभृतिसंख्याकाः कर्तव्याः / / विजा समालब्भति जोययंति।। तैर्दिवसान्तरितैव्रणो बध्यते। किमुक्तं भवति येनावग्रहा नन्तकेन पट्टकेन तं रुधिरपरिगलनरूपं भावं दृष्ट्वा केचित्तरुणा उदीर्णकर्माणश्चतुर्थयोऽद्य व्रणो बद्धः द्वितीयदिवसेस उन्मोच्य प्रक्षाल्य वा परिभोग्यो विधेयः। प्रतिसेवनार्थे प्रेरयेयुः / साऽपि च संयति तत्र भजेत् सङ्ग कुर्यात् यद्वा यः पुनराद्यदिनेन परिभुक्तः तेन तस्मिन् दिने व्रणो बन्धनीयः / इतरथा तल्लोहितं सरजस्कादयः कापालिकप्रभृतयः समालभ्य गृहीत्या प्रतिदिनं तेनैव पट्टेन बन्धे दीयमाने अरुकं व्रणः कुथ्यति विद्याप्रयोगेणाभियोजयन्ति वशीकुर्वन्ति यत एवमतः। प्रतिभावमुपगच्छति / तेऽपि च पट्टाः प्रतिदिन बध्यमानतया नित्यं अंतो धरस्सिं वय तं करेति, जहा णडी रंगमुवेउकामा। सदैवार्द्राः सन्तः कुथ्यन्ति। अतो व्यादयः पट्टाः कर्तव्याः॥ लज्जापहीणा अहसा जणोघं, संपप्पते ते य करोति हावे॥ (सूत्रम्) कप्पइ निग्गंथा उग्गहणंतर्ग वा उग्गहपट्टगं वा / यथा नटी नर्तकीरङ्ग नाट्यस्थानमुपैतुकामा गृहस्यैवान्तर्मध्ये जयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। लज्जाया अभिभवं करोति / अथानन्तरं सा लज्जाग्रहीणा सती जनौघं अस्य व्याख्या प्राग्वत्। अथ भाष्यविस्तारः / जनसमुदायं संप्राप्य तान् भावानङ्गविक्षेपादीन् करोति / एवं संयत्यपि निग्गंथीण अगिण्हे, चउरो गुरुगा य आयरियमादी। भिक्षां गन्तुमनाः प्रतिश्रयमध्य एवावग्रहानन्तका-दिभिरुपकरणैरात्मानं तचतिणिय ओगाहण, णिवारणे निउहसण्णं / / प्रावृतं करोति ततोभिक्षा पर्यटन्ती त्वरणादिष्वनवलोकमानेष्वपि सुखेनैव निर्ग्रन्थीनामवग्रहानन्तकस्य पदकस्य वा अग्रहणे चतुर्गुरुकाः। इदं लज्जां पराजयते। अथ द्वितीयपदमाह। सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिनी न कथयति चत्वारोगुरवः / प्रवर्तिनी संयती न | असईया णंतगस्स उ, पणतिणिगा वण्णओ गेण्हे। कथयलि चत्वारो गुरवः / आर्यिका न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु भिक्षादौ निग्गमणं पुण दुविहं, विधि अपही तत्थिमा अविहो / / गच्छन्ती यद्यवग्रहानन्तकं वा न गृह्णाति तत एते दोषाः। तच त्रिकस्य अवग्रहानन्तक स्याभावे पञ्चपञ्चाशद्वर्षे भ्य उत्तीणी वा संयती Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग 754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहणंतग ग्लानयोनिकतया न गृह्णीयादपि। इह च भिक्षाया निर्गमनं द्विविधं विधिना | औपक्षिकाद्युपरितनोपकरणरहिता अभिवसिता च / अथावग्रहानन्तअविधिना च। तत्र तावदयमविधिः। काद्यधस्तनोपकरणवर्जिता भवति। किं च 'ण भूसणं भूसयते सरीरं", उग्गहमादीहि विणा, दुण्णिवसिया वा विउक्खुलणवत्था। भूषणशरीरं न भूषयति किंतु शीलं ब्रह्मचर्य हीश्च लज्जा एतदेव द्वयं स्त्रिया एक्का दुएय अविहा, चउगुरु आणाय अणवत्था।। विभूषणम्। अमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया दृढयति। गीर्वाणी संस्कारयुक्ताऽपि अवग्रहानन्तकादिभिर्विना भिक्षां निर्गच्छति / दुर्निवसिता वा भिक्षां संसदि सभायां यद्यसाधुवादिनी जकारमकराद्यसभ्यप्रलापिता तदा पर्यटति। एका वा द्वे वा भिक्षायां गच्छतः एष सर्वोऽप्यविधिरुच्यते। अत्र अपेशला। शिष्टजनजुगुप्सनीयतया न शोभना भवति एवमियमपि स्त्री चतुर्गुरुकाः / आज्ञा च भगवतां विराधिता स्यात् / अनंवस्था च हारादिविभूषिताऽपि यदि विशाललज्जाविकला तदा शिष्टजनस्य एकामविधिना निर्गच्छन्तीं दृष्ट्वा अन्याऽपि निर्गच्छतीत्येवंलक्षणा भवति। जुगुप्सनीया भवति। अतः स्त्रियाः शीलं लज्जा च विभूषणम्। एतच्च शील तथा। लज्जाद्वयं संयत्या विधिप्रावरणे अतस्तदेवाभिधित्सुराह। मिच्छत्तपवडियाए, वायण चउव्वयम्मियाउवरो। पट्टडोरगचलणी, अंतोवहरादिराणियं सणिया। गोयरगयावगहिया, धरिसणदोसे इमे लहति / / संजामिक्खुज्जकरणी, अणेगतो वसतिकाले // अवग्रहानन्तकादिभिविना भिक्षां गता सहसा मूर्छादिना प्रपतेत् ततः पट्टकोऽरुकश्य चालनिका अन्तर्निवसति बहिर्निवसति संघट्टिका प्रपतिताया वातेन वा प्रावरणे समृद्धृते अप्रावृतत्वं दृष्ट्वा लोका मिथ्यात्वं कुब्जकरणी उपलक्षणत्वादवग्रहानन्तकं कम्ब्रुक औपक्षिकी वानागत एव गच्छेत् / यथा नास्त्यमीषाममुष्य दोषस्य प्रतिषेधः कथमन्यथेयमित्थं वसतिकाले भिक्षासमये दृढतराण्युपकरणानि साध्व्या प्रावरणीयानि निर्गच्छेत् / गोचरगता वा काचिदविधिनिर्गता केनचिद्विटेन गृहीता इदमेव विभावयिषुराह। धर्षणदोषानमून् वक्ष्यमाणान् लभते। ते चोपरि दर्शयिष्यन्ति। उग्गहणंतगविएहिं, अवाओ अतुरिया उभिक्खास्स ! . अथ विधिनिर्गमे गुणमाह।। जोहोव्वलंखिया वा, अगिण्हणे गुरुग आणादी।। अडोरुगादीहमिया सणादी, सा रक्खिया होति पदेवि जाव।। अथावग्रहानन्तकादिभिरुपकरणैरार्याः संयत्यो भिक्षात्वरिता आत्मान तिण्हपिचेलण जणाोभिजातो, एवं वराविप्पमुचेति णासं।। भावयन्ति क इवेत्याह। योध इव लंखिकेव वा यथा योधः संग्रामशिरसि या अोरुकदीर्घनिवसनादिभिः सुप्रावृता निर्गता सा के नचि प्रवेष्टमानः सन्नाहं पिनाति यथा च लंखिका रङ्गभुवं प्रविशन्ती पूर्व द्धर्षितुमारब्धाऽपिपटादावपि यावत् संरक्षिता भवति तिसृणांच संयतीनां चलनकादिना गूदाऽपिनष्टमिवात्मनं करोतिएवमार्याऽप्यवग्रहानन्तकादिषु बोलेनाभिजातः शिष्टो जनो भूयान् मिलती ति शेषः / या पुनरेकाम्बरा निर्गच्छति सा क्षिप्रं शीघ्रं विनाशं संयमपरिभ्रंशमुपैति। प्रावृता निर्गच्छति / अथैतान्युपकरणानि न गृह्णाति ततश्चतुर्गुरुकाः उध्वल्लिए गुज्झम पस्सतो सा, हाहक्कितस्सेव महाजणेणं / आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः। अथ विशेषज्ञापनार्थमिदमाह। जोहोमरुंडजडो, णाइणी लंखिया व यलिखंभो। धिधित्ति उच्छुक्किततालियस्स, पत्तो समं रण्णदवो व वेदो।। अजामिक्खग्गहणा, आहरणा हॉति णायव्वा / / विधिनिर्गतयोः केचित्प्रत्यनीकेनोद्वेल्लिते उत्सारितेऽपि बाह्योपकरणे यादवसौ गुह्यं न पश्यति तावन्महाजनैन हाहाकृतो धिग्धिगिति भणनपूर्वकं आर्याया भिक्षाग्रहणे यदुपकरणप्रावरणं तत्रैतानि उदाहरणानि च छुक्कितो गाढं जुगुप्सितस्ताडितश्चासौ ततस्तस्यैवंविधां विडम्बना ज्ञातव्यानि / तद्यथा योधः प्रतीतः मरुण्डजड्डो मरुण्डस्य रजोहस्ती 2 प्रापितस्य वेदो मोहोदयोऽरण्यदव इव सद्यः शमं प्राप्तः। नाटकिनी नर्तकी 3 लडिका वंशाग्रनर्तकी 4 कदलीस्तम्भः प्रतीतः। तत्र अथ विधिनिर्गमने दोषामाह। योधदृष्टान्तमाह। तत्थे व य पडिबंधो, पडिगमणादीणी ठाणाणि / विणिओ पराजितो मारिओय संखे अवमितो जोहो। हिंडीय बंभचेरे, विधिणिग्गमणे पुणो वोच्छं / / सावरणो पडिपक्खो, भयं च कुरुते विवक्खस्स // येन सा अविधिनिर्गता धर्षिता तथैव प्रतिबन्धोऽनुरागो भवेत् तदनुरक्ता योधः संख्ये संग्रामे अवमितः प्रविशन् व्रणितः पराजितो मारितो वा वसतिप्रतिगमनादीनि स्थानानि करोति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं प्रवर्तिन्या जायते / व्रणितो नाम परैः प्रहारजर्जरीकृतः पराजितः पराभग्नः मारितः ऋतुसमयगृहितायाश्च कस्याश्चित् हिंडिमबन्धो भवेत् ततश्च महती पञ्चत्वं प्रापितः / यस्तु सावरणस्तस्य प्रतिपक्षो वक्तव्यः / किमुक्तं भवति प्रवचनापभ्राजना ब्रह्मचर्यविराधना च परिस्फुटव तस्याः संजायते। यः सन्नाहं पिनह्य रणशिरशि प्रविशति स न प्रहारैर्जर्जरीभवति न वा विधिनिर्गमने पूनर्भूयोऽपि गुणान वक्ष्ये। एतच सांन्यासिकीकृत्य प्रथम पराजयते न वा मरणमासादयति। प्रत्युत विपक्षभयं कुरुते। एव मायाऽपि विधिनिर्गमने दोषशेषमाह। यथोक्तोपकरणप्रावरणमन्तरेण भिक्षां प्रविष्टा तरुणैरुपद्रूयते सुप्रावृतातु न केवलं जा उविहम्मिआ सती, सर्वथैव तेषामगम्या भवति। उक्तो योधदृष्टान्तः। संप्रति मरुण्डजकुदृष्टान्त सवच्चतामेति मधूमुहे जणा। गाथाचतुष्टयेनाह। उवेति अन्ना विउ वचपत्ततं, विहिवसता उ मुरुंडं, आपुच्छति पव्वया महं कत्थ। अपाउता जा अणियस्सिया य / पासंडे य परिक्खति, वेसग्गहणेण सो राया। न केवलमेव सती साध्वी विधर्मिता शीलधर्माद्भाविता सैव मधुसरे च | डों वेहिं व धरिसणा, माउग्गामस्स होइ कुसुमपुरे। जने दुर्जनलोके सवाच्यतां सकलङ्कतामुपगच्छति / अन्याऽप्येत | उज्जावणा पययणे, णिवारणे पावकम्माणं / / द्वयतिरिक्ताऽपि वाच्यपात्रं वचनीययोग्यतामुपैति / याऽप्रावृत्ता | उज्झसु चीरे साया, विणिवयहेसु यति जे जहा चायं / Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग 755 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहणंतग उच्छूरिया णडा विव,दीसति कुप्पस्सगादीहिं।। घिधिकतो वहेक्का, तो य लोएण तजितो मिठे / उल्लोहिते णयणि वारितो ततो रायसीहेण / / 14 // कुसुमपुरे नगरे मुरुंडो राया तस्स भगिणी विहवा सा अन्नया रायं पुच्छइ, अहं पव्यइउकामा तो आइसह कत्थ पव्वयामित्ति। तओ राया पासंडीणं वेसग्गहणेण परिक्खं करेइ। हत्थिमिछ संदिट्ठा जहा पासंडिगाओ गामेसु हत्थिं सन्निज्जाह भणिज्जाह या पोत्तं सुयाहि अन्नहा इमिणे उवट्ठवेस्सामित्ति / एकम्पिय मुक्केमा वादिह तो वग्गहा देह जीवसत्थे सुक्का तओ एगेण मिंठेण चाए रायपहे तहाकयं जाव नग्गीभूया रन्ना सव्वं | दिटुं नवरं अज्जा वि हीए पविट्ठा रायपहोत्तिणाएहत्थिसन्निओ सुयसुपुन्नति तएपढम मुहपोत्तिया मुक्का ततो निसिज्जा एवं जाणिवाहरिल्लाणि त्रीवराणि ताणि पढम मुयइ जाव बहूहिं ताहं वि मुक्केहिं नडी वि व कंवुकादीहिं। सुप्पाउया दीसइ ताहे लोगेण अकंदो कओ हा पाव किमेवं महासई तवस्सिणं अभिववेसित्ति रन्नावि ओलोयणवारिओ वितियं व एस धम्मो सव्वन्नुदिट्ठो अन्नेण यबहजणेण कया सासणस्स पसंसा॥ अथाक्षरार्थो विधवा स्वसा मुरुण्डं राजानमापृच्छति कुत्रा प्रव्रजामिति / ततः स राजा वेषग्रहणेन पाखण्डिनः परीक्षते परीक्षार्थमेवं चक्रे हस्तिमिठैः कुसुमपुरे मातृग्रामस्य पाखण्डिस्त्रीजनस्य धर्षणा भवति वर्तमाननिर्देशस्तत्कालापेक्षया तदानीं प्रवचनस्योद्भावना प्रभावना समजनि। येच पापकर्माणः संयतीरभिद्रवितुमिच्छन्ति ते निवारणाय न शक्यन्ते। अतस्तदेवं विधेन एषा धनच्छलयितुमिति कृत्वा कथं पुनरेतत् संवृतमित्याह (उज्झचीवरेइत्यादि) विधिनिर्गता संयति अभिहिता उज्झ परित्यज चीवराणि साऽप्येवमभिहितवती नृपपथे राजमार्गे यानि यथा बहिरुपकरणानि तानि मुञ्चति एवं बहुषु वस्त्रेषु मुक्तेप्वपि यदा सानटीवत् कार्यासिकादिभिः काञ्चकादिभिर्वस्वैरुच्छुरिता सुप्रावृत्ता दृश्यते तदा लोकेन स मिंठा धिग्धिकृतो हा हा कृतश्च तथा तर्जितो गाढं निर्भर्त्तितः ततश्चावलोकन स्थितेन गवाक्षोपविष्टन राजसिंहेनासौ निवारितः सर्वज्ञ दृष्टश्चायं धर्म इति कृत्वा साधूनां समीपे भगिनीप्रव्रज्याग्रहणार्थ विसर्जितति उक्तो मुरुण्डजडदृष्टान्तः। अथ नर्तकीलंखिकादृष्टान्तद्वयमाह। पाए वि उक्खिवंती, नलज्जती णट्टिया सुणेवत्था। उच्छुरिया वा रंगम्मि, लंखिया उप्पयंतीति।। यथा नर्तकी सुनेपथ्या सती पादावप्युत्क्षिपन्ती न लज्जते। लंखिका वा रङ्गचत्वारे उत्पतन्ति परिकरणशतान्यपि कुर्वती यथा उच्छुरिता सुप्रावृता | सती न लज्जते / एवं संयत्यपि सुप्रावृता न लज्जत इति उपनयः। अथ | कदलीस्तम्भदृष्टान्तमाह। कयलीखंभो व जाह, उवविलेउं सुदुक्कर होति / इय अज्जा उवसग्गे, सीलस्स विराहणा दुक्खं / / कदलीस्तम्भो यथा पटलबहलत्वादुद्वेल्लयितुमुद्वेष्टयितुंसुदुस्करं भवति एवमार्यिकाऽपि बहूपकरणप्रावृता नोद्विष्टयितुं शक्या इत्येवं योधादिभिर्दृष्टान्तैर्विधिनिर्गताया आर्यायाःकेनचिदुपसर्गे क्रियमाणेऽपि शीलस्य विराधना दुस्करा मन्तव्या। किंच। एका मुक्काय धरिसिया, णिवेदणजतणाय होति कायव्वा। वाहडिता जहि तथा, सज्जातरादी सयं वावि।। एका काचिद्विधिनिर्गताऽपि मुक्ता एका परैर्धर्षिता ततो यतनया यथा शेषसंयतसंयतीजनो न जानाति तथा गुरूणां निवेदना कर्तव्या। अथ सा वाहाडिता ततो न परित्यक्तव्या किंतु शय्यातरादिना स्वयं वा तस्य वार्तापन विधेयमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवृणोति। विहिणिग्गताउ एक्का, सायरियाए गहिता गिहत्थेहिं। संवरिए भावेण य, फिडिया अविराहियचरित्ता।। एका काचिद्विधिनिगर्ता गोचरचार्यायां पर्यटन्ती गृहस्थैर्गृहीता परं संवृतप्रभावेण सुप्रावरणमाहात्म्येन सा अविराधितचारित्रा स्फिटिता / / लोएणा वारितो वा, दट्टण सयं च तं सुणेवत्थं / सुदिटुं तु वसंतो, सविण्ह उरमामयतीय।। येन सा धर्षितुमारब्धा स लोकेन धिक्कारपुरस्सरं वारितः। स्वयं वा तां संयतिं सुनेपथ्यां सुप्रावृतां दृष्ट्वा सुदृष्टममीषां धर्मरहस्यमिति कृत्वा उपशान्तः सन् सविस्मयः पश्चात्तां संयतिक्षामयति। अणाभोगपमादेण व, असती पट्टस्सणि अवग्गहणे / विहिणिग्गतमाहव्व, वाहाडितधाडणे गुरुगा / / सा कदाचिदनाभोगेनात्यन्तस्मृत्या प्रमादेन वा विकथानिद्रादि प्रमत्ततया अवग्रहपट्टस्य वा अभावे एवमेव भिक्षार्थ निर्गता एवमविधिनिर्गता वा (आहव्व) कदाचित्प्रच्छन्ने अवकाशे गृहीता ततो गुरूणां यतनया निवेदनीयम् / अथ सा कदाचिद्वाहाडिता ततो यस्ता वाहडयति निष्काशयतीत्यर्थः तस्य चतुर्गुरुकाः।। कुत इत्याह। निम्बूढपदुट्टा सा, भणेइ तेहिं कत्तमेत्तं च / राएगिहीहि सयं वा, तंच सासंतिमा वितियं / / सानियुढा निष्काशिता सती साधूनामुपरि प्रद्वेषं यायात् प्रद्विष्य च भणति / एतैरेव श्रमणैरित्थं ममैतत् क्षतमिति ततो न परित्यक्तव्या येन च धर्षिता तमनवस्थाप्रङ्गवारणार्थं राज्ञा प्रशासयन्ति गृहिभिर्वा शिक्षयन्ति यदि प्रभवस्ततः स्वयमपि शासन्ते मा द्वितीयं वारमित्थं प्रवर्तयेयमिति कृत्वा / अथ तस्याः सारणविधिमाह। दुविहाणायमणाया, अगीयअनायसण्णिमादीतु। समावेसिंकहिते, सारिता जाव णं पि यती।। या वाहाडिता सा द्विधा ज्ञाता अज्ञाताच ज्ञातगर्भा अज्ञातगभी चेत्यर्थः / तत्र या अज्ञाता सा अगीतार्था यथा न जानन्ति तथा संज्ञी श्रावकस्तदादिकुलेषु स्थाप्यते। तेषां संज्ञिप्रभृतीनां सद्भावः प्रथममेव कथनीयः कथिते च सद्भावे ते मातापितृसमानतया तां तावत् सारयन्ति प्राशुकेन प्रत्यवतारेण पालयन्ति यावत्तदीयस्तनयः स्वभाण्डस्तन्यं पिवति स्तन्यपानान् निवर्तत इत्यर्थः॥ जत्थ उजणेण णातं, उवस्सया तत्थ णय निक्खं / किं सक्का छड्डेठ, बेंति अगीते असति सद्दे / / यत्र तु जनेन ज्ञातव्यं यैषा वाहाडिता तत्रोपाश्रय एव स्थाप्यते न श्रावकादिकुलेषु / नच सा भिक्षायां हिंडापयितव्या किंतु शेषसाध्वीभिः साधुभिर्वा तस्याः प्रायोग्यं भक्तपानमानीय दातव्यम् / यद्यगीता भणन्ति कि मेवं कीदृश्याः सं Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग 756 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहणंतग ग्रहः क्रियते ततः सूरयो ब्रुवते यदि नाम न संगृह्यते ततः कथयत किं एएसिं असतीए, सण्णायगणालबद्धकिढफासुं। सांप्रतमेषाशक्या परित्यक्तुम्। अथैवं प्रज्ञापिता अपिन प्रतिषेधन्ते ततः अण्णो वि जो परिणतो, सिट्ठवेसइतरागारीए।। श्राद्धान् प्रज्ञापयन्ति / यथा। तेषां संज्ञिप्रभृतीनामभावे ये तस्याः संयत्याः संज्ञातकास्तेषां गृहेषु दुरतिक्कम खु विधियं, अवि य अकामा तवस्सिणी गहिता। स्थाप्यन्ते अभावे यः संयतो नालबद्धः सोऽपि यदि किढो वृद्धस्तदाऽसौ को जीणति अण्णस्स वि,वित्तंतं सारवो तेणं // श्रेष्ठिवेषं कार्यते ततस्ते पुत्रकाद्वारेण यापयन्तौ तिष्ठतः। नालबद्धस्याभावे खुरवधारणे दुरतिक्रममेव प्रतिकर्तुमशक्यमेव केनाप्यकार्यकारिणेद-| अन्योऽपियो वयसा परिणतःस श्रेष्ठिपुत्रवेषं कार्यते इतरा अगारीवेषं करोति मकार्य विहितं ततः किं क्रियते। अपि च अकामा अनिच्छन्ति बलादेव इतराऽपि गृहिलिङ्गं करोति / अत्रेयं प्रायश्चित्तमार्गणा / / तेनपापात्मना तपस्विनी गृहीता।ततः को जानाति अन्यस्या अप्येवंविधो मुलं वा जाव सणो, छेदो छगुरुगं जं जहा लहुआ। वृत्तांतः परवशतया भवेत्। तदेनां संप्रति सारयामः परिपालयाम इत्यर्थः / वितियपदे असतीए, उवस्सए व अहव जुण्णा / / मा य अवण्णकाहिह, किं ण सुतं केसि सच्चईणं ते। यदि तया प्रतिसेन्यमानया स्वादितं ततो मुलम् / वाशब्द उत्तरापेक्षया जमणे णय वयभंगो,संजातो तेसि अजाणं // विकल्पार्थः (जाव यणनि) पश्चा व्याख्यासयते / गर्भमाहृतं दृष्ट्वा हं हं विध्वस्तशीलेयमित्येवमस्यास्त्ववर्णमवज्ञां वा मा कार्युः / किं न स्वादयति छेदः। अपत्यं जातं दृष्ट्वा सहायकं मे भविष्यातीति स्वदयन्त्याः श्रुतं भवद्भिः कसिसत्यकि नोर्जन्म / यथा तावार्यिकाभ्यां षड्गुरवः / यया पुनरस्वादितं तस्याः परप्रत्ययनिमित्तं यत्किमपि यथा पुरुषसंवासमन्तरेणापि कथंचिदुपात्तवीर्यपुद्गलाभ्यां प्रमुखवातेन च लघु प्रायश्चित्तं दातुं युज्यते तद्दातव्यं (जावत्ति) यावत्तस्या अपत्य तयोरार्यिकयोर्न व्रतभङ्गः संजायते विशुद्धपरिणामत्वात् / अनयो स्तन्यपानोपजीवि भवति तावत्तपार्ह प्रायश्चित्तं न दातव्यम्। द्वितीयपदे कथाक्रमः पञ्चकल्पावश्यकटीकाभ्यामवसातव्यः। अवग्रहानन्तकस्याभावे उपाश्रये वा तिष्ठन्ति। अथवा जीर्णाः स्थाविराः अवि य हु इमेहिं पंचर्हि, ठाणेहि त्थीअ संवसंतीवि। शासयन्ति अतोऽवग्रहानन्तकं नगृह्णात्यपि। अस्या एव पूर्वार्द्ध व्याख्याति॥ पुरिसेण लभति गब्भ,लोएण वि गीइयं एयं / / सेविजंते अणुमए मूलं छेओ डिंडिमं दिस्स। अपिचेत्यभ्युचये हु निश्चितं तदेतैः पञ्चभिः स्थानैः स्त्री पुरुषेण होहिति सहागतं मे, जातं दद्दूण छग्गुरुगा। सममवसन्त्यपिगर्भ लभतेन केवलमस्माभिरेतदुच्यते। किंतु लोकेनापि सेव्यमानया यद्यनुमतं ततो मूलम्। अथ डिण्डिमंग दृष्ट्वा हर्षमुद्वहति गीतं संशब्दितमेतत्। तान्येवोपदर्शयति। ततश्चेदः पुत्रभाण्डं दृष्ट्वा सहायकं मे भविष्यतीत्यत्रानुमन्यतेषट् गुरवः / दुट्वियडदुण्णिसण्णा, रायं परो वासि पोग्गले बुभति। तेण परं चउगुरुगा, छम्मासा जाण ताव पूरिंति। वत्थे वा संसट्टे,दगआयमणेण वा पविसे / / जातु तवारिहसोही, अणुवत्थणिए तण्णतं दें ति।। विवृता अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुःशब्देन विशेष्यते। दुष्ठु विवृता दुर्विवृता परिधानवर्जितत्यर्थः / एवं दुर्विवृता सती दुर्निषण्णा ततः परं जन्मान्तरं यावत्षण्मासान पूर्यन्ते तावद्यत्र यत्र स्वादयति तत्र 2 चतुर्गुरवः / यावत्तस्या अर्हा सेधिरुक्ता तामनपगतस्तन्ये दुष्ठु विरूपतयोपविष्टा साचासौदुर्विवृतादृर्विवृतदुर्निषण्णा साशुक्रपुद्रलान् स्तन्यपानादनपगते अपत्यभाण्डेनददातिमा शून्यं भविष्यतीति कृत्वा। कथं चित्पुरुषनिःसृतान् संगृह्णीयात् स्वयं वा पुत्रार्थितया शीलरक्षिकतया चशुक्रपुद्गलान्योनावनुप्रवेशयेत्। परो वा श्वश्रूप्रभृतिकः पुत्रार्थमेव (से) मेहुण्णे गन्भेआहिते य सा निज्जियं जति णतीए। तस्या योनौ प्रक्षिपेत् वस्त्रं वा शुक्रपुद्गलसंसृष्टमुपलक्षणत्वात्तथा परपचया लहुसग्गं,तहावि सेउदिति पच्छित्तं // विधमन्यदपि केशत्वक् कण्डूयनार्थ रक्त निरोधार्थ वा तया प्रयुक्तं तदनु मैथुने प्रतिसेव्यमाने गर्भे च आहृते यद्यपि तया न स्वादितं तथापि प्रविशेत्। अनाभोगेन वा तथाविधं वस्त्रं परिहितं सद्योनिमनुप्रविशेत्। के | परप्रत्ययार्थ मा भूगीतार्थानामप्रत्यय इत्यर्थः यथा लघुकं प्रायश्चित्तं जानते न वा तस्या आचम्यन्त्याः पूर्वपतिता उदकमध्यवर्तिनश्च तस्याः सूरयः प्रयच्छन्ति। अथ यस्तस्याः खिंसां करोति प्रायश्चित्तमाह। शुक्रपुद्गलाः अनुप्रविशेयुः। एवं पुरुषसंवासमन्तरेणापि गर्भसंभवे भवन्तो खिंसाए होति गुरुगा, लज्जाणिच्छक्कतोय गमणादी। नास्या अवज्ञां कर्तुमर्हन्ति। एवं प्रज्ञाप्य तेषां श्राद्धानां गृहे तो स्थापयन्ति / / दप्पकते वाउट्टे, जति खिंसति तत्थ वि तहेव / / गता ज्ञातविषया यतना। यस्तस्याः खिंसां विध्वस्तशीलत्वान्मलिनेयमित्वेयं करोति तस्य अथाज्ञातविषयां तामाह।। संयतस्य संयत्या वाचतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम्। सा च खिंसिता सती लज्जया अविदियजणगब्मम्मिय, सण्णिगादीसु तत्थ वण्णत्था। प्रतिगमनादीनि कुर्यात् निच्छाका वा निर्लज्जा भवेत् तत एव लाति फासुएणं, लिंगविवेगो यजा पिवति / / सर्वजनप्रकटमात्मानं प्रतिसवयेत्। अथ दर्पतस्तया मैथुनं प्रतिसेवितं जनेनाविदितो यो गर्भस्तत्र ये मातापितृसमानाः संज्ञिन आदि-1 परं पश्चादावृत्ता आलोचनाप्रयश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना प्रतिनिवृत्ता तामपि शब्दाद्यथाभद्रका वा तेषां गृहेषु तत्र वा अन्यत्र वा ग्रामे स्थापयन्ति ते च | यः खिंसति तस्यापि तथाव चतुर्गुरुः / किं कारणमिति चेदत आह। संज्ञिप्रभृतयस्ता प्राशुकेन प्रत्यवतारेण लाढयन्ति यापयन्तीत्यर्थः।। उम्मग्गेण वि गंतुं, ण होति किं सा तवाहिणीसलिला / यावचापत्यं भाण्डस्तन्यं पिवति। तावत्तया लिङ्ग- विवेकः कर्तव्यः॥ | कालेण फुफुगा वि य, विलयं वह सहे सेऊणं / / Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहणंतग 757 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उग्गहिय आह! उन्मार्गेणापि गत्वा सलिला नदी पश्चात्विं श्रोतोवाहिनी मार्गगामिनी उपहृतस्तत्रानन्तरं त्रिविधं द्विविधं वा प्रगृहीतमुक्तमनेन संबंधेनायातनभवति भवत्येवेति भावः / फुपुकारीषानिः सोऽपि (वहसहेसेऊणंति) स्यास्य व्याख्या। त्रिविधमवगृहीतं प्रज्ञप्तं यदवगृह्णाति यच्च संहरति यच्च जाज्वलित्वा भृशमुद्दीप्तो भूत्वेत्यर्थः कालेन गच्छति विलीयते विलयं आस्यके प्रक्षिपति। एके एवमाहुर्द्विविधमवगृहीतं प्रज्ञप्तं यदयगृह्णाति यच याति उपनययोजना सुगमा वृ०३ उ०11०। प्रव०। संहृतं। एष सूत्राक्षरसंस्कारः। संप्रति भाष्यविस्तारः। उग्गहपट्ट पुं० (अवग्रहपट्ट) अवग्रहस्य योनिद्वारस्य पट्टः / गुह्यदेशपि पग्गहियं साहरियं, पक्खियंतं च आसए तह य। धानवस्त्रे, स च बीर्यपातसंरक्षणार्थी चधनं घनवस्त्रेण पुरुषसमानकर्क- तिविहं दुविहं पुण,पग्गहियं चेव साहरियं / / शस्पर्शपरिहरणार्थं च मसृणं मसृणवस्त्रेण क्रियते प्रमाणेन च देहं यत्प्रगृहीतं यच्च संहृतं यचासये प्रक्षिप्यमाणमेतत्त्रिविधमवगृहीतं / द्विविधं स्त्रीशरीरमासाद्य तद्विधीयते। देहा हि कस्याश्चित्तनुः कस्याश्चित्तुस्थूलः | पुनरवगृहीतमादेशानन्तरेणेदं प्रगृहीतं संहृतंच।अथादेशस्य किंलक्षणमत ततस्तदनुसारेण विधेयमित्यर्थः। पट्टो वि होइ एको, देहपमाणेण सो उ भइयव्वो। बहुसुतमाइण्णंतु, नयाहयण्णेहिं जुगपहाणेहिं। छादंतोग्गहणंतं, कडिबद्धो मल्लकच्छो वा।। आदासो सो उ भवे, अहवा विनयंतरविगप्पो।। पट्टोऽपि गणनयैको भवतिसचपर्यन्तभागवर्तिवाटकबन्धबद्धः प्रभुत्वेन यद्हुश्रुतैराचीण्णं नचान्यैर्युगप्रधानैर्वाधितं स भवति नाम आदेशः / चतुरङ्गुलप्रमाणः समतिरिक्तो वा दीर्घेण तु स्त्रीकटीप्रमाणः स च अथवा नयान्तरविकल्प आदेशः। तद्वशातसूत्रमेव-मुपन्यस्तमिति।। देहप्रमाणेन भक्तव्यः। पृथुलधुकटीभागयोर्दीर्घः। संकीर्णकटीभागयोस्तु सांप्रतमवगृहीतादिपदव्याख्यानार्थमाह। ह्रस्व इत्यर्थः / वृ०३ उ०। (स च निर्ग्रन्थीभिरेव ग्राह्यो न निर्घन्टारिति साहीरमाण गहियं, दिजंतं जंच होइ पाउग्गं / उग्गहणंतग शब्दे)। पक्खेवए दुगुंछा, आदेसो कुडमहादीसु॥ उग्गहपडियमा स्त्री० (अवग्रहप्रतिमा) अवगृह्यत इत्यवग्रहो | इह अनानुपूर्व्या ग्रहणं बन्धानुलोमतस्तत एवं द्रष्टव्यं / गृहीतं नाम यद्दीयमानं यच्च भवति प्रायोग्यं संहृतं नामसंह्रियमाणं / आस्येप्रक्षिप्यमाणं वसतिस्तत्प्रतिमा अभिग्रहः अक्ग्रहप्रतिमा वसतिविषयकाभिग्रहेषु. (ताः प्रतीतं / अत्राह ननु, “जं च आसगम्मि पक्खिवई इत्यस्यायमर्थ यत् सप्त उग्गह शब्दे दर्शिताः) तत्प्रतिपादके आचाराङ्गस्य षोडशे अध्ययने आस्ये मुखे प्रक्षिपति तचोच्छिष्टमिति लोके जुगुप्सा ततः कथं तद् गृह्यते च / आचा०२ श्रु०१अ०१उ० प्रश्न०। स०। आव०। स्था०। सूरिराह (आदेसो कुडमहादीसु) कुटो घटस्तस्य यन्मुख तदादिष्वादिउग्गहमइसंपया स्त्री० (अवग्रहमतिसम्पद्) सामान्यार्थस्य शब्दात् पिठरमुखादिपरिग्रहस्तत्र आदेशव्याख्यानं / किमुक्तं भवति अशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यरूपादेरवग्रहणमवग्रहः स चासौ मति पिठरमुखादीन्यधिकृत्य, "जं च आसगम्मि पक्खिवति", इति सूत्रं संपञ्चावग्रहमतिसम्यद् / मतिसंपद्भेदे, दशा 04 अ०। (मइसंपया | व्याख्यातमतो न कश्चिद्दोषाः / अथापहृतसूत्रस्यावगृहीतसूत्रस्य च परस्परं शब्देऽस्या भेदाः) कः प्रतिविशेषस्त-माह।। उग्गहसमिइजोग पुं० (अवग्रहसमितियोग) अवग्रहणीय-तृणादिविषय उग्गहियम्मि विसेसो, पंचमपिंडेसणाउछट्ठीए। सम्यक् प्रवृत्तिसंबंधिनि, प्रश्न०३ द्वा०॥ तं पिहु अलेवकडं, नियमा पुटवद्धडं चेव || उ(ओ)ग्गहाइकहणा स्त्री० (अवग्रहादिकथना) अवग्रहस्य, उपहृतसूत्रे पञ्चमी पिण्डैषणा उक्ता अवगृहीतसूत्रे पुनरस्मिन् अयं विशेषो देविंदरायगहवइसागारसाहम्मिउग्महो चेवेत्येवंविध्रस्यादिशब्दा यत्पञ्चपिण्डेपणातः पराया षष्ठी पिण्डैषणा तस्या अभिधानमिति। तदपि द्राजरक्षितास्तपस्विनो भवतीत्यादेश्च यदाह, क्षुद्रलोकाकुले लोके, धर्म चहु निश्चितं यल्लेपकृतं नियमाच पूर्वोद्धतमिति। कुर्युः कथं हिते।क्षान्तदान्तार्यहन्तार, स्तांश्चेद्राजान रक्षतीति, कथना संप्रति दिजंतं जंच होति पाउग्गमित्यस्य व्याख्या। प्ररूपणा अवग्रहादिकयना। देवेन्द्राद्यवग्रहस्य राजवर्णनस्य प्ररूपणायाम्", भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं च तेण उ। विसयपवेस रण्णे, उदंसणं उम्गहाइ कहणा य, पंचा०६ विव०। जहन्नोवहडं तं तु, हत्थस्स परियत्तणे // उग्गहियन० (अवग्रहीत) परिवेषणार्थमुत्पाटिते, स्था०१8०। परिवेषकः पट्टिकायां क्रूरं गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन तलं प्रायोग्यस्य *अवग्रहिक न० अवग्रहोऽस्याऽस्तीति / वसतिपीठफलकादौ दातुकामस्तस्य भाजने क्षिपामीति व्यवसितं तच तथा भुजानस्याक्षिप्त औपग्रहिकदण्डकादिके उपधिजाते, स्था० 10 ठा०। तद्भेदाः॥ न भुञ्जानेन प्रतिषिवं पर्याप्त मा मह्यं देहि। अस्मिन् देशकाले साधुना तत्र (सूत्रम्) तिविहे उग्गहिए पण्णत्ते जं च साहरइ जंच आसगम्मि प्राप्तेन धर्मलाभितं ततः परिवेषको ब्रूते साधो ! धारय पात्रमेतद्गृहाण पक्खिवति॥ ततः साधुना पात्रं धारितं तत्रानेन प्रक्षिप्तमिदं हस्तस्य हस्तमात्रस्य अस्य सम्बन्धमाह॥ परिवर्तनात्, गाथाया सप्तमी पञ्चम्यर्थे जघन्यमुपहृतं भवति / एतेन पगया अभिग्गहा खलु, सुद्धपरा ते य जोगबुद्धीए। दीयमानमपिव्याख्यातं / यच्च भवति प्रायोग्यमित्यनेन शुद्धसंसृष्टयोः इति उवहडसुत्तत्तो, तिविहं च अवग्गहिय एए। प्रागुक्तयोरन्यतरद् गृहीतम् / तदेवं, “जं च उगिण्हइ इति व्याख्यातं / प्रकृताः खल्वनन्तरसूत्रे शुद्धोपहृतादिष्वभिग्रहास्ते चाभिग्रहाः शुद्धतरा | संप्रति, जं च साहरियमिति व्याख्यानाय तत्साहरिएति गाथाशकलमुक्तं भवन्ति / योगवृद्या उत्तरोत्तरयोगवृद्धिकरणेन इति अस्मात् कारणात् | तद्भावयति। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्गहिय 758 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उचिअत्थापायण अहसाहरिमाणं तु, वड्डेउं जो उदावए। दिनानिततो मासापेक्षया पूर्वतपःपञ्चविशतितमं तदई सार्द्धद्वादशकं तेन ठाणादचलितो तत्तो,छट्ठा एसा विएसणा। संयुतं मासार्द्धजातानि सप्तविंशतिदिनानि सार्दानीत्येवं कृत्वाय यद्दीसते अथ वर्धापयितुंसंह्रियमाणं यो दापयेत्तस्य वचनतः स परिवेषकस्त-| तल्लघुमासदानमेवमयान्यपि। स्था० 3 ठ०। स्मात्स्थानतो मनागप्यचलितो दद्यात् एतत्संह्रियमाणमुच्यते / एषाऽपि | उग्घाड पुं०(उद्घाट) उद्घ घाला वाच०। अदत्तार्गले, ईषत्स्थगिते षष्ठी एषणा द्रष्टव्या। व्य० द्वि०। 8 उ०। आचा०। च। आव०४ अन उग्गहिया स्त्री० (अवगृहीता) भोजनकाले भोकुकामस्यशरावादिषूपहृतमेव | उग्घाडकवाड त्रि० (उद्घाटकपाट) निरर्गलितकपाटे, ओ०। भोजनजातंयत्नतो गृह्णतः पञ्चम्यां पिण्डषणायाम, स्था०७०।पंचा०।| उग्घाडकवाडउग्घाडणा स्त्री० (उद्घाटकपाटोद्घाटना) उद्घामदध०सूत्र०। (पिंडेसणाशब्देऽस्याः स्वरूपं) तार्गलतीषत्स्थगितं वा किं तत्कपाटं तस्योत्पाटनं सुतरां प्रेरणमुद्घाटउग्गाहन०(उद्गाढ) उद्गाह क्त०।अतिशये, अत्यन्ते, अतिशययुक्ते, त्रि० कपाटोद्घाटनमिदमेवोद्घाटकपाटोद्धाटना। कपाटमुद्घाट्य भिक्षणरूपे वाच० / प्रगुणी भूते च ।“इयाणिं किं भणिहामो जं तुज्झ ह पजुत्तं तं भिक्षातिचारे, “पडिकमामि गोयरचरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए", उग्गादम्मि काहामो" वृ०१ उ०। आव०४ अ०। उग्गालपुं० (उद्गार) उद्-गृऋदोरपंवाधित्वा, “उन्न्योः इतिघा उद्भमने, | उग्घाडणन०(उद्घाटन) कपाटस्य सुतरांप्रेरणे, आव०४ अ० वाच० / आचीले, प्रव० 38 द्वा० / उदारश्चाजीर्ण रोगलिङ्ग उग्घाडिय त्रि० (उद्घाटित) उद्घट् णिचा किञ्चितत्स्थगिते, आ० चू० नागवायुकार्य्यम्", वाच० (रात्रावुगारे आगते तस्य प्रत्युद्रिरणे दोषस्तं च 4 अ० / अनावृते, "तस्स उ अणंतभागो, णिचुग्धाभो य सव्वजीवाणं" राइभोयण शब्दे दर्शयिष्यामि) विशे० / “ते वि तेण उग्घिडिया", आ० म० द्वि०ा आच्छादनरहिते (सूत्र) जे भिक्खू राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे प्रकाशिते, आवरणरहिते प्रकाशिते, आवरण रहिते कृतोद्घाटने, वाच०। उग्गाले आगच्छेनं तं विगिंचमाणे वर विसोहेमाणे वा उग्घाडियण्ण त्रि० (उद्घाटितज्ञ) उद्घाटितं प्रकाशितं यथा तथा णाइक्कमइ तं उगिलेत्ता पचोगिलमाणे राइभोयणपडि जानाति / विज्ञे, वाच०। कथितमात्रज्ञे विनेये, नं०। सेवणपत्ते जो तं पञ्चागिलंतं वी साइजइ / / 341 // उग्घाय पुं० (उद्घात) उद् हत् घन। (ठोकर लगना) प्रतिधाते आरम्भे, उत्तुङ्गे, मुद्गरे, शास्त्रे, ग्रन्थपरिच्छेदे, वाच० लघूकरणलक्षणे, रातिवियालाण पुटवकतवक्खाण सह पाणेण सपाणं सहभोयणेण प्रायश्चित्तदानायाभागपाते, स्था०३ ठा०। आचारप्रकल्पाऽध्ययने च। सभोयणं उडिरण रलयोरेकत्वात्स एव उग्गालो भण्णति। सित्थ विरहियं आव०४ अ०॥ केवलं उद्दोएण सह गच्छतीत्यर्थः भत्तं वा उद्दोएण सह आगच्छति उभयं उग्घायण न० (उग्घायतन) प्रवाहत एव पूज्यस्थाने, तडागजलप्रवेशाय वा तं जो उग्गिभत्ता पच्चोगिलति अण्णं वा सातिजति कह पुण सातिज्जति मार्गे च। “उग्घायणेसु वा सेयणवहंसि वा अण्णयरंसिवा सहप्पगारंसि"२ कस्सवि उग्गालो आगतो तेण अण्णस्स सर्व्हि उग्गालो मे आगती आचा०२ श्रु०३अ०॥ पचुग्गिलिउत्तए तेण भणियं सुंदरं कयं एसा सातिज्जणा तस्स पायच्छित्तं उग्घुसधा० (मृज) शुद्धौ, भूषणे च। “मृजेरुग्घृस"1८1१1१०५। इति चउगुरु आणादिया य दोसाओ सुत्तत्थो। नि० चू०१० उ०। मृजेरुग्घुसादेशः। उग्घुसइ मार्जयति। प्रा० उग्गिण्ण त्रि० (उद्गीर्ण) वान्ते, ज्ञा० 1 अ०॥ उग्घोसिय त्रि० (उद्धृष्ट) समार्जिते, “उग्धोसियसुणिम्मलंव प्रश्न०५।द्वा०। उग्गोवणास्त्री० (उद्गोपना) विवक्षितस्यपदार्थस्य जनप्रकाशचिकी रूपा-| | उग्घोसेमाण त्रि० (उद्घोषयत्) उद्घोषणां कुर्वति, "सद्देणं उग्घोसेमाणे" राou यामेषणायाम, पिं०1 उचिअत्रि० (उचित) शस्ते, परिचिते, युक्ते, वाच०। योग्ये, ज्ञा०१ अ०॥ उग्गोवेमाण त्रि० (उद्गोपयत्) विमोहयति, उग्गोवेमाणे उग्गोवेइ। भ०१६ | __ सङ्गते,पंचा०१ विव०।अनुरुपे, आव०३ अ० श०६ उन उचिअ(य)करणन०(उचितकरण) आज्ञाराधनायाम्, पंचा०६ विव०॥ उग्धव-पूरि धा० पूर पूर्ती, णिच्, “पूरेग्घाडोग्धवोद्धमांगुमांगु- उचिअ (य) करणिज्जत्रि०(उचितकणीय) विहितकर्तव्ये,पंचा०१विव०। माहिरे",1||६इति पूरेरुग्धवादेशः। उग्धवइ। पूरयति। प्रा०।। उचिअ(य) किच त्रि० (उचितकृत्य) यथार्हदानादौ ध०२ अधिo उग्घाइम न० (उद्घातिम) उद्घातो भागपातस्तेन निर्वृतमुघ्रातिमम् / उचिअ(य)जोग पुं० (उचितयोग) उचितः स्वभूमिकायोग्यो योगो लघुनि, स्था० 300 / व्यापारः / स्वाध्यायाध्ययनादिके संगतव्यापारे, पंचा०५ विव०। उग्घाइय त्रि० (उद्घातित) उद्घातो भागपातो यत्रास्ति तदुद्घातिक उचिअ(य) द्विइस्त्री० (उचितस्थिति) अनुरुपप्रतिपत्ती, ध०१ अधि० म् / लघुनि प्रायश्चित्ते, स्था० 5 ठ० / (अणुग्धाइय शब्देऽस्य निक्षेपः)| पंचा०। विनाशिते, स्था० 10 ठ०। उचिअ(य)त्तन० (उचितत्व) योग्यतायाम्, पंचा० 10 विव०। यतउक्तम्, "अद्धेण छिन्नसेसंपुव्वद्धेणं तुसंजुयं काउं। दिल्जाइलहुयदाणं | उचिअ(य)त्थपायण न० (उचितार्थापादन) अनुरूपवस्तुगुरुदाणं तत्तियं चेवत्ति / / 1 / / भावना मासार्द्धन छिन्ने जातानि पञ्चदश संपादने,पंचा०६ विव०॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचिअपवि 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उचिआचरण उचिअ(य)पवित्तिप्पहाण न० (उचितप्रवृत्तिप्रधान) सच्चेष्ठासारे, पंचा०॥ (सविसेसंति) जनकान्मातुः पुज्यत्वादपि यदाह मनुः उपाध्यायाह११ विव०। शाचार्या आचार्येभ्यः शतं पिता। सहस्रंतु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते"। उचिआ(या)चरण न० (उचिताचरण) ६त० उचितकार्यस्या चरणे, तच्च | उचिएअंपि सहो अरम्मिजं निअइ अप्पसममेअं। पित्रादिविषयं नवविधमिहापि स्नेहवृद्धि कीयादिहेतुर्हितोपदेशमाला-1 जिटुं च कणिटुं पि हु, बहु मन्नइ सव्वक सु / / 8 / / गाथाभिः प्रदर्श्यते। दंसइन पुढो भावं, सब्मावं कइ पुच्छइ अतस्स। सामन्ने मणुअत्ते, जं केई पाउणंति इह कित्ति। ववहारम्मि पयदृइ, न निगृहइथेवमाविहविणं // 6 // तं सुणह निप्पिअप्पं, उचिआचरणस्स माहप्पं ||1|| अविणीअं अणुअत्तइ, मित्तेहिं तो रहो उवालभइ। तं पुण पिइ 1 माइ 2 सहो सयणजणाओ सिक्खं, दावइ अन्नावए सेणं / / 10 / / अरेसु 3 पणयिणी 4 अवच 5 सयणेसु 6 / हिअए ससिणेहो विहु, पयडइ कुविअंव तस्स अप्पाणं। गुरुजण 7 नयर 8 परति पडिवन्नविणयमगं, आलवइ अधम्मपिम्मपरो॥११|| थिएसु पुरिसेण कायव्वं // 2 // तप्पणइणिपुत्ताइसु, समदिट्ठी होइदाणसम्माणे। तत्र पितृविषयं कायवाग्मनांसि प्रतीत्य त्रिविधमौचित्यं क्रमेणाह। सावक्कम्मि उ इत्तो, सविसेसं कुणइ सव्वं पि।।१२।। पिउणो तणु सुस्सूसं, विणएणं किं करुय्व कुणइ सयं / (पयट्टइति) व्यवहारे प्रवर्तते नत्वव्यवहारे इति॥ वयणं पिसे पडिच्छइ, वयणाओ अपडिअंचेव // 3 // (समादिट्ठित्ति) स्वपत्न्यपत्यादिप्विव समदृष्टिः (सावक्कमिति) तनुशुश्रूषां चरणक्षालनसंवाहनोत्थापननिवेशनादिरूपा देशकालसा- सापल्येऽपरमातृके भ्रातरितत्र हिस्तोकेऽप्यन्तरे व्यक्तिकृते तस्य वैचित्य त्म्यौचित्येन भोजनशयनीयवसनाङ्गरागादिसंपादन-रूपां च विनयेन जनापवादश्च स्यात्। एवं पितृमातृभ्रातृतुल्येष्वपि यथाहेमौचित्यं चिन्त्यं / नतूपरोधावज्ञादिभिः स्वयं करोतिनतु भृत्यादिभ्यः कारयति। यतः "गुरोः" यतः “जनकचोपपकर्ता च यस्तु विद्याप्रयच्छकः। अन्नदः प्राणदश्चैव पुरो निष्णणस्य, या शोभा जायेत सुते। उच्चैः सिंहासनस्थस्य शताशेनापि | पञ्चैते पितरः स्मृताः 1 राज्ञः पत्नी गुरोः पत्नी पत्नीमाता तथैव च / सा कुताः 1 (अपडियंत्ति) वदनादपतितमुचार्यमाणमेवादेशं प्रमाणमेष स्वमाता चोपमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः 2 सहोदरः सहाध्यायी, मित्रं करोमीति सादरं प्रतीच्छति न पुनरनाकर्णितशिरोधूनकालक्षेपार्द्ध-1 वा रोगपालकः / मार्गे वाक्यसखा यस्तु पञ्चैते भ्रातरः स्मृताः 3, भ्रातृभिश्च विधानादिभिरवजानाति। मिथो धर्मकार्यविषये स्मरणादि सम्यकार्यम्। यतः, 'भवगिहमज्झम्मि चित्तं पिहु अणुअत्तइ, सव्वपयत्तेण सव्वक सु। पमायजलण जलिअम्मि मोहनिदाए। उट्ठवइ जोसुअंतं, सो तरस जणो उवजीवइ बुद्धिगुणे, निअसब्भावं पयासेइ॥३४|| परमबंधू 1, भ्रातृवन्मित्रेप्येवमनुसतव्यं / स्वबुद्धिविचारितमवश्यविधेयमपि कार्य तदेवारभते यत्पितुर्मनो- इअभाइगयं उचि, पणइणिविसयंपि किं पिजं पेमो। ऽनुकूलमिति भावः / बुद्धिगुणान् शुश्रूषादीन् सकलव्यवहार-1 सप्पणयवयणसम्माण, णे ण तं अमिमुहं कुणइ // 13 // गोचरांश्चोपजीवति / अभ्यस्यति बहुदृश्यानो हि पितृप्रभृतयः | सुस्सूसाइपयट्टइ, वत्थाभरणाइसमुचिअंदेइ। सम्यगाराधिताः प्रकाशयन्म्त्येव कार्यरहस्यानि निजसद्भावं चित्ताभिप्राय नाडयपित्थणयाइसु, जणसंमद्देसु वारेइ॥१४॥ प्रकाशयंति। रंभइ रयणिपयारं, कुसीलपासंडिसंगमवणेइ। आपुच्छिउं पयदृइ, करीणज्जेसु निसेहिओ ठाइ। गिहकजेसु निओअइ, न विओअइ अप्पणा सद्धिं / / 15 / / खलिए खरंपि भणिओ, विणीअयं न हु विलंघे // 5 // रजन्यां प्रचारं राजमार्गवेश्भगमनादिकं निरुणद्धि धर्मावश्यकादिसविसेसं परिपूरइ, धम्माणुगए मणोरहे तस्स। प्रवृत्तिनिमित्तं च जननीभगिन्यादिसुशीलललितावृन्दमध्यगताएमाइउचिअकरणं, पिउणो जणणीइ वितहेव // 6 // मनुमन्यत एव (नविओइत्ति) न वियोजयति यतो दिनसाराणि प्रायः तस्य पितुरितरानपि मनोरथान् पूरयति श्रेणिकचिल्ल- प्रेमाणि यथोक्तम्। “अवलोअणेण आलावणेण गुणकित्तणेण दाणेणं / णादेरमभयकुमारवत् / धर्मानुगतांस्तु देवपूजागुरु पर्युपास्तिधर्मश्रवण- छंदेण वट्टमाणस्स, निडभरं जायए पिम्मं 1 असणेण अइदं सणेण दिटुं विरतिप्रतिपत्त्यावश्यकप्रवृत्तिसप्तक्षेत्री वित्तव्ययतीर्थयात्रादीननाथोद्ध- अणलवंतेणं / माणेण पवासेण य, पंचविहं जिजए पिम्म 2 / रणादीन्भनोरथान् सविशेष बह्वाटरेणेत्यर्थः कर्तव्यमेव चैतत् सदपत्यतिह अवमाणं न पयासइ, खलिए सिक्खेइ कुविअमणुणेइ। लोकगुरुषु पितृषु नचाहद्धर्मसंयोजनमन्तरेणत्यन्तं दुष्प्रतिकारेषु तेषु / धणहाणिवुविधम्म,न वइअरं पयडइन तीसे ||16|| अन्योऽस्ति प्रत्युपकारप्रकारः। तथाचस्थानाङ्गसूत्रम्, “तिण्हे दुप्पडिआरं अपमानं निर्हेतुकं नास्यै प्रदर्शयति स्खलिते किंचिदपराधे निभृतं समणाउसो / तंजहा अम्मापिउणो 1 भट्टिस्स 2 धम्मायरिअस्स 3 शिक्षयति / कुपितां चानुनयति / अन्यथा सहसाकारितया इत्यादि समग्रोप्यालापको वाच्यः॥ कूपपातद्यप्यनर्थ कुर्यात् (पयडइत्ति) धनहानिव्यतिकरं न प्रकटयति अथ मातृविययौचित्ये विशेषमाह॥ प्रकटिते तु धनहानिव्यतिकरे तुच्छतया सर्वत्र तवृत्तान्तं व्यञ्जयति। नवरंसेसविसेसं,पयडइभावाणुवित्तिमप्यडिमं। धनवृद्धिव्यतिकरे च व्यक्तीकृते निरर्गलव्यये प्रवर्तते तत एव गृहे स्त्रियाः इत्थिसहावसुलह, पराभवं वहइ न टु जेणं // 7 // प्राधान्यं न कार्यम्। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचिआचारण 760- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उच्चट्ठाण सुकुलग्गयाहिं परिणय-वयाहिं निद्धम्म धम्मनिरयाहिं। जत्थं सयं निवसिजइ, नयरे तत्थेव जे रि वसंति। सयणे रमणीहिं पि, पाउणइ समाणधम्माहिं / / 17 / / सप्तमाणवित्तिणो ते, नायरया नाम वुचंति|३५|| रोगाइसु नो विक्खिइ, सुसहाओ होइ धम्मक सु। सममुचिअमिणमो तेसिं, जमेगचित्तेहिं समसुहदुहेहिं। एमाइपणइणिगायं, उचिअंपारण पुरिसस्स|१८|| वसणूसवतुल्लगमा- गमेहिं निचं पि होअव्वं // 36|| पुत्तं यइ पुण उचिअं, पिउणो लोलेइ बालभावम्मि। कायट्वं कजे विहु, नइक्कमिक्केण दंसणं पहुणो। उम्मीलिअबुद्धिगुणं, कलासु कुसलं कुणइ कमसो // 16| कजो न मंतभेओ, पेसुन्नं परिहरेअव्वं // 37 / / गुरुदेवधम्मसुहिसयण, परिचयं कारवइ निचंपि। समुवडिए विवाए, उलासमाणेहिं चेव ठायव्वं / उत्तमलोएहिं समं, मित्तीभावं रयावेइ॥२०॥ कारणसाविक्खेहि, विहुणे अव्यो न नयमग्गो // 38 // गिहावेइ अपाणिं, समाणकुल जम्मरूव कन्नाणं / बलिएहिं दुब्बलजणो, सुंककराईहिं नामिभविअव्वो। गिहभारम्मि निजुंजइ, पहुत्तणं वि अ रइक्कमेण // 21 / / थोवावरोहदोसे, विदंडभूमिं न नेअव्वो // 36 // पचखं न पसंसइ, वसणोवहयाण कहइ पुरवत्थं / कारणिएहिं समं, कायव्वो जो न अत्थसंबंधो। आयं वयमवसेसंच, सोहए सयमिमेहिं जो / / 22 / / किं पुण पहुणा सद्धिं, अप्पहियं अहिलसंतेहिं / / 10 / / प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्रबान्धवाः / कमन्तेि दासभृत्याश्च पुत्र एअंपरप्परं ना-यराण पाएणं समुचिआचरणं / नैव मृताः स्त्रियः 1 इति वचनात्पुत्रप्रशंसा नैव युक्ता / अन्यानिर्वाहा परतित्थिआण समुचिअ, मह किं पि भणामि लसेणं // 41|| दर्शनादिहेतुना चेत्कुर्यात् तदाऽपि न प्रत्यक्षं गुणवृद्ध्यभावाभिमानादि एएसिं तिथिआणं, मिक्खट्ठमुवट्ठिआण निअगेहे। दोषापत्तेः / द्यूतादिव्यसनिनां निर्द्धनत्वन्यक्कारतर्जनताडनादिदुरवस्था कायध्वमुचिअकिञ्चं, विसेस ओ रायमहि आणं / / 4 / / श्रवणै तेऽपि नैवव्यसने प्रवर्तन्ते आयव्ययं व्यायादुत्कलितशेषं च पूत्रेभ्यः जइ विमणम्मि न भत्तिं, न पक्खवाओ अमग्गयगुणेसु / शोधयति। एवं चपल्याः प्रभुत्वं पुत्राणां स्वच्छन्दत्वमपास्तमां उचिअंगिहागएसु, तहवि हु धम्मो गिहीण इमो॥४३।। दंसेइ नरिंदसमं, देसंतरभावपयडणं कुणइ। गेहागयाणमुचिअं, वसणावडिआण तह समुद्धरणं / इन्चाइअवचगयं, उचिअंपिउणो मुणेअव्वं / / 23 / / दुहिआण दया एसो, सव्वेसिं सम्मओ धम्मे॥४४|| सयणेसु समुचिअमिणं,जं तेनिअगेहबुड्डिकज्जेसु। मुंचंति न मज्जायं,जलनिहिणो नाचलाविहु चलंति। सम्माणिज्जसया वि हु, करिजहाणीसु वि समीवे // 24 // न कयावि उत्तमनरा, उचिआचरणं विलंघंति॥४५॥ सयमवितेसिं वसण, सम्वे सुहो अव्वंमति अम्मिसया। तेणं चिअ जगगुरुणो, तित्थयरा वि हु गिहत्थवासम्मि। खीणविहवाणरोगा, उराणकायव्वमुद्धरणं // 25 // खाइज पिट्टिमंसं, न तेसि कुज्जा न सुक्ककलहं च / अम्मापिऊणमुचिअं, अब्भुट्ठाणइ कुव्वंति।।४६|| नदमित्तेहिं, न करिज करिज मित्तेहिं।। 26 / / इत्थं नवधौचित्यम् / इत्थं च व्यवहारशुद्ध्यादिभिरर्थोपार्जनं विशेषतो तयभावे तग्गेहे, न वइज्ज वइज्ज अत्थ संबंधं / गृहिधर्म इति निष्कर्षः // टीका सुगमत्वान्न गृहीता धर्म 2 अधि०। गुरुदेवधम्मकज्जेसु, एगचित्तेहिं होअव्वं // 27 // उचिआ(या)णुट्ठाण न०(उचितानुष्ठान) आप्तोपदिष्टवेन विहितक्रियाएमाइसयणोचिअ, मह धम्मायरिअसमुचिअंभणिमो। रूपत्वे, “उचियाणुढाणओविचित्त जइजोगतुल्लमोएस",पंचा०६ विव० / भत्तिबहुमाणपुव्वं, तेसितिसं जं पिपणिवाओ॥२८|| उच्च त्रि०(उच) उत्क्षिप्य बाहु चीयते उपर्युपरि निविष्टैरवय-वैश्चीयतेऽसौ तबंसिअनीईए, आवस्सयपमुहकिचकरणं च / वा उद् चि० इ० वाच० / समुच्छ्रिते,उपा०२ अ०। उच्चं द्रव्यभावभेदाद् धम्मोवएससवणं, तदंतिए सुद्धसद्धाए|२६|| द्विधा / द्रव्योच्च धवलगृहवासि, भावोच्चं जात्यादियुक्तं / द०५ अ०1 आएसं बहुमन्नइ, इमेसि मणसा वि कुणइ नावन्नं / उत्कृष्ट, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊर्वी कृतकन्धरुभइ अवनवायं, थुइवायं पयडइ सया वि।।३०।। रतया वाद्रव्यतो, भावतस्त्वहो अहंलब्धिमानिति मदाघ्मातमानसः उत्त० न हवइ छिहप्पेही, सुहिव्व अणुअत्तए सुहदुहेसु। 1 अ०। “उचं अगोत्तं च गतिं उवें ति", उच्चां मोक्षाख्यां सर्वोत्तमा वा गति पडिणीअपनवार्य, सव्वपत्तेण वारेइ॥३१॥ व्रजन्ति। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। खलिअम्मि चोइओ गुरुजणेण मन्नइ तहत्ति सव्वं पि। उच्च (अ) अव्व० (उचैस्) उद् चि डैसि० / “उचैर्नीचरायः अ०८ चोएइ गुरुजणं पि हु, पमायखलिएसु एगते // 32 // 111154aa इति उचैः शब्द घटकस्यैतोऽत्वम् प्रा०। उच्चशब्दात् सिद्धमिति कुणइ विणओवयारं, मत्तीए समयसमुचिअंसव्वं / केचित् उच्चैः शब्दस्य रूपान्तरनिवृत्त्यर्थं वचनम् / प्रा० तृङ्गत्वे, गाढं गुणानुराय, निम्मायं वहइ आयम्मि॥ 33 // महति,उच्चदेशजाते, वाच०॥ भावोवयारमेसिं, देसंतरिओ वि सुमिरई सया वि। | उच्चंतय-पुं०(उच्चन्तग) दन्तरोगे, जी० 3 प्रति० / जं०। रा०। इअ एवमाइगुरुजण, समुचिअमुचिअं मुणेअव्वं / / 34 // उचट्ठाण--न०(उच्चस्थान) गहाणामादित्यादीनां मेषादिषु Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचट्ठाण 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उच्चारपास० अनीचस्थानेषु तीनि च दशादिषु व्यंशांशकेष्वेवमवसे यानि / / जलिप्रग्रहादिरूपपूजालाभश्च तदुच्चैर्गोत्रम् ! कर्म० / इक्ष्वाकुवंशादिके, अजवृषभमृगाङ्गनाकर्कमीनवणिजांशकेष्विनाद्युचाः / दश० 10 शिख्य उच्चैर्गोत्रमेषामित्युच्चैर्गोत्राः / उच्चैर्गोत्रोद्भवेषु इक्षाकुहरिवंशादिकुलोद्३ष्टाविंशति 28 तिथी 15 न्द्रिय 5 त्रिधन 27 विशेषु / ज्ञा०" [ भवेषु, उचागोयावेगेणीयागोयावेगे। सूत्र०२ श्रु०१ अ० उचढाणाट्ठिएसुगहेसु" अर्काथुचान्यज 1 वृष 2 मृग 3 कन्या४ कर्क५ मीन | उच्चणागरी-स्त्री०(उचनागरी) सुस्थितसुप्रतिबुद्धस्थविरान्निग तस्य वर्णिजोंऽशैः / दिग्दहनाष्टाविंशति 28 तिथी 15 षु५ नक्षत्र 27 विंशतिभिः कौटिकगणस्य प्रथमशाखायाम्, कल्प // / 20 / अयं भावः मेषादिराशिस्था सूर्यादय उच्चास्तत्राऽपि दशादीनंशान उचागोयणिबंध-पुं०(उच्चै! अनिबन्ध)लोकपूज्यता निबन्धनोचैर्गोत्रायावत्परमोचाः / एषां फलं तु। सुखी 1 भोगी 2 धनी 3 नेता 4 जायते | भिधानकर्मबन्धने, “उच्चागोयणिबंधो सासणवण्णो य लोगम्मि" पंचा 15 मण्डलाधिपः / / नृपतिश्चक्रवर्ती च क्रमादुच्चग्रहे फलम् / / 1 / / “तिहिं विव०॥ उच्चेहिं नरिंदो, पंचहिं तह होइ अद्धचक्की। छहिं होइ चक्कवट्टी सत्तहिं | उच्चाडण-न०(उच्चाटन) उद् चट् णिच् ल्युट् / उत्पाटने, स्वस्थानाद् तित्थंकरो होइ, कल्प०। विश्लेषणे, "उच्चाटनं स्वदेशादेर्भशनं परिकीर्तितम्" इत्युक्ते षट् उच्चत्त-न०(उच्चत्व) उच्चत्व / उच्छ्रये स्था० 2 ठा० / वस्तुनो-| कर्मान्तर्गतेऽभिचारभेदे च। वाचा ह्यने कधोच्चत्वमूर्ध्वस्थितस्यैकमपरं तिर्यक् स्थितस्याऽन्यत् | उच्चायप्यमाण-त्रि०(उच्चात्मप्रमाण) उच्चमात्मप्रमाणं येषां ते तथा / गुणोन्नतिरूपम्। स्था० 1 ठा० (ज्योतिषिकाणामुचत्वं जोइसिय शब्दे)| स्वप्रमाणात उच्चे, कल्प० / उच्चत्तमयग-पुं०(उच्चत्वभृतक) भृतकभेदे, मूल्यकालनियमं कृत्वा यो | उचार-पुं०(उचार) उद् चर्०-णिच् घज् / उच्चारणे, उल्लङ्घा चारो नियतं यथावसरं कर्म कार्य्यते स उच्चत्वभृतकः। स्था० 4 ठा०। / गतिः / गृहादीनां राशिनक्षत्रान्तरसञ्चारे, वाच० / शरीरादुत्प्राबल्येन उच्चत्तरिया-स्त्री०(उच्चत्तारिका) बाह्यलिपेर्भ दे,स०। च्यवतेऽपयाति उच्चरतीति चोचारः। विष्ठायाम्. आचा०२ श्रु०३ अ०१३ उच्चपिय-त्रि०(उच्चम्पित) प्राबल्येनाक्रमिते, "सीसं उचं पियं कबंधम्मि | उ० / स० / आव० / ज्ञा० / कल्प० / तं० / दशा० / स्था०। (अस्य य, तंग परिष्ठापनं पारिट्ठावणिया शब्दे वक्ष्यते) वृहच्छरीरचिन्तायाम् दर्श० / उच्चफल-त्रि०(उच्चफल) उच्चं चिरकालभावि फलं यस्मात्स उच्चफलः।। विडिवसर्जने, ध०२ अधि० / जं० (पुरीषोत्सर्गप्रक्रिया-थंडिल शब्दे) चिरकालेनोपकारिणी, उच्चफलो अह खुड्डो, स उणित्थो,व्य०प्र०३ उ०॥ (आचार्य्यस्य वसतावेव विड्विसर्जनमतिसय शब्दे)। उचक्खित्त-त्रि०(उचक्षिप्त) यदृष्टरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तु ग्रहणाय | उचारणिरोह-पुं०(उच्चारनिरोध) विसिसृक्षायां सत्यामपि बलात्पुरीषरोधे पात्रं ध्रियते तत्र व्याप्रियमाणे, पिं०। एष च रोगकारणम्। स्था०६ ठा०। उच्चय-पुं०(उच्चय) उद् चि० अच्छ। ऊर्थ्यचयने, भ० 5 श०६ उ०। उचारपडिकमण-न०(उचारप्रतिक्रमण) उचारोत्सर्ग विधाय पुष्पादेरुत्तोलने, नारीट्यं शुकग्रन्थौ, "नीविः स्यादुच्चयोऽथ यम्", ईर्यापथिकप्रतिक्रमणरूपे प्रतिक्रमणभेदे, स्था०६ ठा०। उत्कृष्टाश्रये। वृहत्समुदाये, च / कर्मणि अच्० हस्ताभ्यामुद्धृत्यावचिते, | उबारपासवण-(उच्चारप्रस्रवण) उच्चारः प्रस्रवणं च द्वन्द्वः पूरिषमूत्रयोः निवारे, वाच०॥ तद्विसर्गप्रतिपादके आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य तृतीये ऽध्ययने उच्चयबंध-पुं०(उच्चयबन्ध)उच्चय ऊर्ध्वं चयनं राशीकरणं तद्रूपो बन्ध | च / आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०। उचयबन्धः / अल्लियाबणबन्धभेदे, भ०८ श०६ उ०। उचारपासवणकि रिया-स्त्री०(उच्चारप्रस्रवणक्रिया) उचारप्रस्र उच्चवेउं-अव्य०(उच्चयित्वा) उच्चैः कृत्येयर्थे, वृ० 1 उ०॥ वणकर्तव्यतायाम, उच्चारपासवणकिरियाएउव्वाहिज्जमाणे आचा०२ श्रु० उच्चसह-पुं०(उचशब्द) वृहति शब्दे, व्य० द्वि०७ उ०। ३अ०१उ०। उचाकुइय-पुं०(उच्चाकुचिक) अनीचाऽपरिष्यच्शय्याके, “आणापाणमेयं | उचारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमइ-उच्चारअभिग्गहियसिज्जासणियस्स उचाकु इयस्स" उच्चाऽकुचशय्यावक्त्वं प्रस्रवणखेलश्रङ्गाणजल्लपारिष्ठापनिकसमिति-स्वी० उच्चारादीनां सप्रयोजनं पक्षमध्ये सकृच्च शय्याबन्धकत्वं / कल्प०। पारिष्ठापनिकारूपा समितिः / समितिभेदे, “इत्थ इमं आहारणं एगेणं उच्चाकुया-- स्त्री०(उच्चाकुचा) उद्या हस्तादि यावत् येन पिपीलिकादेबंधो खुड्डगेण वि वसंते किहव्व विनयेहि य थंडिलं काइयलोयतोराया थंडिलं न स्यात् सदिर्वा दंशो न स्यात् अकुचा कुच परिस्पन्द इति वचनात् | नापेहयंती नवोसिरो देवयाए श्लेष्मा जल्लो मलः सामउज्जोओ अणुकंपाए परिस्पन्दरहिता निश्चलेति यावत् ततः कर्मधारये उच्चाकुचा / / य कउ दिट्ठा भूमित्ति वासरियंति, / पा० / सूत्र० स्था० / अनीचाऽपरिस्पन्दायां कम्बादिमय्यां शय्यायाम् कल्प० / / उच्चारपासवणखेलसिंघाण-गपारिट्ठावणियासमितीए / एत्थ वि सत्त उच्चागय-त्रि०(उचागज) उचो योऽगः पर्वतो हिमवान्तत्र जातमुच्चागजम् / भंगा। तत्थ उदाहरणं / धम्मरुई पारिवावणिया समितो समाहिपरिट्टावणे हिमाचलोद्भवे, उचागयट्ठाणलट्ठसंहि। कल्प०॥ अभिग्गहणं सक्कासणचलणं मिच्छदिडि आगमणं किं बिल्लिया विउव्वणं उच्चागोय- न०(उच्चैर्गोत्र) गोत्रकर्मभेदे, यदुदयात्पुनर्निधर्नः कुरूपो] काइया ससंजता। वाहाडिउपमत्तउ निग्गतोपेच्छति। ताहे सरंतो साहू बुद्ध्यादिपरिहीणोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोकात्पूजां लभते | जं किलामिजति त्ति / एवंणातो देवेण वारितो वंदित्ता गतो / वितिय तदुचर्गोत्रम् / यदुदयादुत्तमजातिकुलप्राप्तिसत्काराभ्युत्थाना-| दिहवागए चेल्लओ तेण थंडिल न पडिले हिता वियाले सा Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चारपास० 762 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उच्छादणया रत्ति काइयाडो। जातो न पेहितंति न वोसिरंति। देवताए उज्जोतो कतो| सुपेसलाई, उत्त० 15 अ० / क० / स० शेषव्रतापेक्षया महाव्रतेषु, उत्त० अणुकंपाए दिट्ठा भूमित्ति वोसिरियं / एस समित्तो / वितिओ असमितो। 1 अ०। चउव्वीसं उचारपासवणभूमीसु / तिण्णि कालभूमीओ न पडिलेहेति| उच्चासण-न०(उच्चासन)उन्नतासने, जी० 3 प्रति० / गुरोरासनाभणति। किमेत्थ उट्ठोउवविसेज देवता उड्डरूवेण तत्थ ठिता ठितियाएगतो| दुबैरासने, ध०२ अ० 1 अलावे संलावे उच्चसेणा समासणे अंतरभासाए तत्थ विएवं ततियाए ताहे तेण उट्ठवितो तत्थ देवताए पडिचोदितो कीस उवरिभासाए जं किंचि मज्झं ममविणयपरिहीणं सेहे राइणियस्स सत्तवीसं न पडिलेहेसि समं पडिवण्णा / एस पारिट्ठावणियासभिती॥ उचासणम्मि संचिद्वित्ता णिसीइत्ता वा तुयट्टित्ता भवति आसायणासेहस्स। आ० चू०। आव०४ अ०। उचारपासवणभूमि-स्त्री० (उच्चारप्रस्रवणभूमि) पुरीषमुत्रोत्सर्ग-| उच्चिय-न०(उचित)उच्चताकरणे, उत्पाटनेच! औ०। स्थण्डिले, पंचा० 1 अ० ! उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ भ 2 श०१ | उचुप्-धा० (चट) भेदे० भ्वा० पर० सक० सेट्-धातवोऽर्थान्तरेऽपि उ०। (अत्रोत्सर्गोऽस्याः प्रत्युपेक्षणं च थंडिल शब्द)। 1811158 | इत्यनेन चटतेरुचुप् / उचुपइ चटति प्रा०। उचारपासवणविहिसत्तिक य-पुं०(उच्चारप्रस्रवणविधिसप्तकक)| उचूर-त्रि०(उचूर) नानाविधे, व्य० प्र०३ उ०। पुरीषमूत्रोत्सर्ग प्रतिपादके आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयचूडा | उचे-अव्य०(उचैस)उ चि० डैसि०।तुङ्गत्त्वे, उन्नते, महति,ऊर्ध्वदेशजाते, याश्चतुर्थे ऽध्ययने, स्था०७ ठा० / आचा०॥ वाच०, नाइ उच्चेव नीए वा णासपणे नाइदूरओ, उच्चैः स्थाने मालादौ, उच्चारभूमिसंपण्ण-त्रि०(उच्चारभूमिसंपन्न) उच्चारप्रस्रवणा-दिभूमियुक्ते, उत्त०१ अ०। तत्राऽस्य विषयतृष्णा प्रभक्त्युच्चै दृष्टिसम्मोहः, उचैरत्यर्थे, "उचारभूमिसंपण्ण इत्थिपसुविवज्जियं", दश! न० षो०। प्रति०। उचैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु। उच्चैरतीव कल्पितेषु इष्टानिष्टेषु, उच्चारिय-त्रि०(उचारित) उच्चार--तारका-इतच्। कृतविष्ठोत्सर्गे, उद्चर् | द्वा०१८ द्वा०। णिच् कर्मणि क्तायस्योच्चारणं कृतं तादृशवर्णादौ, उद्-अन्तर्भूतण्यर्थे , | उच्छ (क्षाण) पुं०(उक्षन) उझ कनिन् ! छोऽक्षादौ / 8 / 2 / 17 / इति चरक्त / उच्चारितोऽप्युक्तार्थे, वाच० // "उद्यारिय सरिसाइं-सेसाई वि| संयुक्तस्यच्छः / प्रा०, पुंस्यन आणो राजवच / 8 / 3156 / इति अनः कोवणवाए।" वृ०॥ दशा स्थाने आण इत्यादेशः / वृषभे, प्र०। उच्चाइय-अव्य०(उच्चाल्य) उद् चल० ल्यप् / ऊर्ध्वमुत्क्षिप्येत्यर्थे, | उच्छंग-पुं०(उत्सङ्ग)स आधारे घञ् / मध्यभागे, वाच० / "उच्छो उचालिय णिहाणीसु / आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। णिवसेत्ता", आ०म० द्वि०वि०। उत्सङ्ग इव उत्सङ्गः। पृष्ठदेशे, औ०। उचलिय- त्रि०(उच्चालयितृ) अपनेतरि, "उचालइ यं तं जाणेजा। ज्ञा०। उत्क्रान्तः सङ्गम् अत्या० स०। सन्यासिनि, सङ्गरहिते तत्त्वज्ञे, दुरालइयं"। आचा०१श्रु०३ अ०। प्रा०स०। ऊर्ध्वतःसंसर्गे चावाच०। *उचालित-त्रि० उद्, चल, णिच्,क्तला उत्पाटिते, "उच्चालियम्मि पाए| उच्छंघ-धा०(उन्नमि)उद् नम् णिच् "उन्नमेरुत्थड घोल्लालइरियासमियस्स संकमट्ठाए", ओ०। नि० चू०। गुलुगुच्छोप्पेला"||४|३६॥इति उत्पूर्वस्य नमेर्ण्यन्तस्य उच्छंघ उचावइत्ता-अव्य०(उचैःकृत्वा) उत्पाट्येत्यर्थे, "दो विपाए, उन्नावइत्ता | आदेशः। उच्छंघइ उन्नमयति। प्रा०। सव्वओ समंता समभिलोएज, द्वावपि पादौ उच्चैःकृत्वा द्वावपि पार्णी | उच्छत्त- न०(अपच्छत्र)अपशब्दं विरूपं छत्रं स्वदोषाणां परगुणानां उत्पाट्येत्यर्थ, प्रज्ञा० 17 पद०। चावरणमपच्छत्रम् चतुर्दशे गौणालीके, प्रश्०१द्वा०। उच्चावय-त्रि०(उच्चावच)उच्चं च अवचं च उच्चावचम् / उत्त० / | *उच्छत्र-न० उच्छत्रं वा न्यूनत्वम्। चतुर्दशे गौणालीके, प्रश्न० 1 द्वा०। अनुकूलप्रतिकूले, भ०१श०६उ०। अधमोत्तमेषु नानाप्रकारे,सूत्र०१/ उच्छरंत-त्रि०(आस्तृण्वत्) आच्छादयति, "अणिएहिं उच्छरंता अभिभूय श्रु० 1 अ०। 'हसंता नाभिगच्छेज्जा कुलं उच्चावए सया", उच्चं| हरंति परधणाई, प्रश्न द्वा०। द्रव्यभावभेदाद् द्विधा द्रव्योच्यं धवलगृहवासि भावोजात्यादियुक्तमेवमपि | उच्छलणा-स्त्री०(उच्छलना) अपवर्तनायाम, अपप्रेरणायाम, प्रश्न०३ द्वा०। द्रव्यतः कुटीरकवासी भावतो जात्यादिहीनमिती, दश०५ अ० उच्छलिय-त्रि०(उच्छलित) ऊर्ध्वं गते, प्रश्र०३ द्वा०। "उचावयावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खू थामवं ऊर्ध्वचित्ता', उच्चा | उच्छल्ल-धा०(उच्छल)उद्शल भ्वा० ऊर्ध्वपतने, उच्छल उत्थल्लः। उपलिप्ततलाद्युपलक्षणमेतत् यद्वा शीतातपनिवारकत्वादिगुणैः। 8 / 4 / 174 / उच्छलतेरुच्छल्लादेशः। उच्छल्लइ उच्छलति प्रा०। शय्यान्तरोपरिस्थितत्वेनोचास्तद्वि-परीतास्त्ववचा अनयोर्द्वन्द्रे | उच्छल्ल-पुं०(उच्छलत्) ग्रहणे, "तज्जणगलुच्छल्ल उच्छल्लणाहिं," उच्चावचाः। नानाप्रकारा वोचावचास्ताभिः शय्याभिर्वसतिभिः। उत्त०८| गलुच्छल्लंतिगलग्रहणम्। प्रश्न०३ द्वा०। अ०। सूत्र०।"अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेजा, उच्चावचं शोभनादौ | उच्छल्लिय- अव्य०(उच्छल्य)एकपार्श्वेन स्थित्वेत्यर्थ, "पत्तगबंधे, मनः कुर्यादिति। तत्रोचं नाम मैवं कुर्वन्तु अवचं नाम एवं कुर्वन्त्विति। पइरित्तुच्छल्लिय पुणो पहे उरणिया", नि० चु०१ उ०। आचा०२ श्रु०२ अ० 1 उ० / उत्कृष्टतरे, औ० / असमञ्जसे, | उच्छव-पुं०(उत्सव)उद् सू० अप्"सामोत्सुकोत्सवे वा",14 "उन्यावयाहिं आउसणाहिं", भ० 15 श० 1 उ०। स्था०। 2 / 22 / एषु संयुक्तस्य छो वा भवति। प्रा० / आनन्दजनक व्यापारे, *उच्चव्रत-न० उचनि महान्ति व्रतानि येषां तानि उच्चव्रतानि आकारः | विवाहादौ, वाच० / इन्द्रोत्सवादौ, ज्ञा० 1 अ०। प्राकृतत्वात् / महाव्रतधरेषु, उच्चावयाई मुणिणो चरंति, ताई तु खेत्ताई | उच्छादणया-स्त्री०(उच्छादनता) सचित्ताऽचित्ततगतनस्तू Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छादणया 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जममाण च्छेदने, अंगाणं संभुत्तराणं घाताए वाहाए उच्छादणयाए", भ०१५ ध०] १पाहु० / सू० प्र०ा शरीरसंस्कारं प्रति निस्पृहत्वात्यक्तशरीरकल्पे तादृशे १उ01 | मुनौ, ज्ञा० 1 अ० / औ० / भ० / नि० / 'घोरतवस्सी घोरबंभयारी उच्छायणा-स्त्री ०(उच्छादना) जातेरपि व्यवच्छेदने, ज्ञा० 18 अग| उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से।" वि०१०। उच्छाय-पुं०(उच्छ्राय) उद् श्रि करणे अच् प्रञ् वा / उत्सेधे, स्था० उच्छूट सरीरगि (घ)र-त्रि०(उच्ढशरीरगृह) उच्छूटत्यक्तंशरीरगृहं यैस्ते ७ठा०। उच्छूटशरीरगृहाः। शरीरगृहयोनिःस्पृहत्यात्त्यक्तपरिकर्मसु, संस्था०। उच्छार-धा०(आक्रम) भ्वा० आत्म० आक्रमणे, "आक्रमेरोहावो- उच्छूर धा० तुट भेदे तुदा० कुटा० पर० सेट् / तुडेस्तोड तुट्ट खुट्ट च्छारच्छन्दाः"| |५|आक्रमेरेते आदेशा भवन्ति। उच्छारइ खडोक्खडोल्लकणिल्लुकल्लुकोच्छराः।४।१६। इत्येनन सूत्रेण आक्रामति (ते) (केवलस्तु परस्मैपदी) प्रा०॥ तुडेरुच्छूरादेशः। उच्छूरइ तुटति। प्रा०) उच्छाह-पं०(उत्साह) उदसह घञ्। "वोत्साहे थो हश्चरः" |8|| सचन्द्र (ण) त्रि० उच्छेदिनी नाशके दा०२१ दा०। उत्साह शब्दे संयुक्तस्यथो वा भवति, "तत्सन्नियोगेच हस्य रः। उत्थारो उच्छेद (य) पुं०(उच्छेद) उद् छिद्भावेघञ्। उत्प्राबल्येन छेदो विनाशः। रच्छाहो,"थाऽभावे।"हस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले"||२।२१॥ एकान्तोछेदे, निरन्वये नाशे, दश०१ अ०। आ० म० द्वि० "उच्छेओ इतित्सभागस्यच्छः।"अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे"८/१।११४॥ इत्यत्र | सुत्तत्था ण ववच्छेउत्ति वुत्त भवति। नि० चू०१ उ०। उत्साहपर्युदासात् च्छपरस्यादेरुत ऊत्वं न। प्रा०। पराक्रमे, जोगोत्ति उच्छेच-पुं०(उत्क्षेप) यत्र पतितुमारब्धंतत्राऽन्यस्येष्टकादेः संस्थापने, व्य० वा विरियं ति वा सामत्थं तिवा परक्कमंति वा उच्छाहोति वा एगट्ठा। आ० द्वि०४ उ० चू०१ अ०। पं० सं०। आ० म०। वीयें , सम० / श्रवणादिविषये उच्छोभ-न०(उत्क्षाभ)उत्प्राबल्येन गता शोभा सौभाग्यं सर्वजनवल्लभता उत्कलिकाविशेष, चं०२०पा० उद्यमे, सू०प्र०२० पा०। अध्यवसाये, यस्मात्तदुच्छोभम् / / पैशुन्ये कर्णजपत्वे, "इहरा सयरुवघाओ कर्तव्यकृत्ये, स्थिरतरे प्रयत्ने, कल्याणे, श० रत्ना० / सूत्रे, मेदि० उच्छोभाइहिं अंतणो लहुया। दर्श०॥ कार्यारम्भेषु संरम्भःस्थेयानुत्साह उच्यते सा०द० उक्तलक्षणेवीररस्य उच्छोलंत-त्रि०(उच्छोलत् ) उन्मूलयति, रा० सकृत्पादादेः प्रक्षालनं स्थायिभावे च / वाच०। कुर्वति च। "उच्छोलतं वी पधावंतं वा साइजई नि० चू०१७ उ०। उच्छाहिय-त्रि०(उत्साहित) त्वमेवाऽस्य कार्यस्य करणे समर्थ | उच्छोलण-न०(उच्छोलन) सकृदुदकेन क्षालने आचा०, एक्कसिं इत्येवमुत्कर्षिते, पिं०। उच्छोलणा, नि० चू०२ उ०। मुखनयनकक्षाहस्तपादानां प्रक्षालने, व्यः उच्छिंपग-पुं०(अवच्छिम्पक) चौरविशेष, प्रश्न०। 3 द्वा०। द्वि०७ उ०। अयतनया शीतोदकादीनां हस्तपादादिप्रक्षालने, "उच्छोण. उच्छिपण-न०(उत्क्षेपण)जलमध्यान्मत्स्यादीनामाकर्षण, प्रश्न०२ द्वा०। उच्छिण्ण-त्रि०(उच्छिन) उद् छिद् निर्मष्टसत्ताके, स्था० 5 ठा०। च ककंचतं विजं परियाणिया' सूत्र 1 श्रु०६ अ०। (उच्छोलनाऽप्यत्र)। उच्छिण्णसामिय-त्रि०(उच्छिन्नस्वामिक) निःसत्तीभूतप्रभुषु / उच्छोलणापहोय-त्रि०(उच्छोलनाप्रधौत) उच्छोलनेन प्रभूतजलउच्छिण्णसामियाई वा उच्छिण्णसेउपाई वा उच्छिण्णगोत्तागाराई वा | क्षालनक्रियया धौता धौतगात्रा ये ते तथा / प्रचुरजलेन धौतशरीरेषु, धनानि। भ०३ श०७ उ०॥ औ०। उच्छिय-त्रि०(उच्छ्रित) उद् श्रि कतरिक्त। उन्नते, संजाते, समुन्नद्धे, उच्छोलनापहोइ-त्रि०(उच्छोलनाप्रधाविन्)उच्छोलनयोद कायतनया प्रवृद्धे। मेदि० वाच० ऊर्वीकृते , औ०। प्रकर्षेण धावति पादादिशुद्धिं करोति यःस तथा। अयतनया प्रभूतजलेन इच्छु-पुं०(इक्षु) इष्यते ऽसौ माधुर्यात् इष् कसु। प्रवासीक्षौ / 8 / 1 / 65|| पादादिप्रक्षालके, दश० 4 अ० इति आदेरिति उत्वम् वा / प्रा० / मधुररसयुक्ते असिपत्रे, वाच० उच्छोलावंत-त्रि०(उच्छोलयत्) अन्येन सकृजलेन क्षालनं कारयितरि (इक्षुशब्दस्य व्याख्या इक्खुप्रकरणे उक्ता) "उच्छोलावंतं वी पधोवावंतं वा साइजई", नि० चू० 16 उ०। उच्छुअ-त्रि०(उत्सुक) उत्सुकवति, प्रेरणे, "मितदादित्वात्डुकन्| | उज्जम-पुं०(उद्यम) उद्यम् धन्। न वृद्धिः। प्रयासे, प्रयत्नभेदे, उद्योगे, सामोत्सुकोत्सवे वा' 14/2 / 22 / इति संयुक्तस्य त्सभागस्य वा उत्तोलनेच। वाच० अनालस्ये, ग०१अधि० ज्ञानतपोऽनुष्ठानादिषूत्साहे, छः। उच्छुओ ऊसुओ प्रा०। इष्टावाप्तये कालक्षेपासहिष्णौ, इष्टार्थोद्युक्ते। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। औ.। च / वाच०॥ उज्जमंत-त्रि०(उद्यच्छत्) उद्यम कुर्वति, प्रतिका अत्यर्थमपि प्रयतमाने, इच्छुभइत्ता-अव्य०(अवक्षिप्य) अपसदं किञ्चित् क्षिप्त्वेत्यर्थे / अप्पचंतकायसुट्ठवि उज्जमंता तद्विवसुअत्तकम्म कयदुक्खसंठवियउच्छुभइत्ता सावत्थीए, णयरीए,भ० 15 श०१ उ०। सित्थपिंडसंचयपरा" / प्रश्न० 3 द्वा० / त्रिविधायामपि सामाचा उच्छूढ-त्रि०(उच्छूढ) मुषित, "उच्छूढेवि तदुभये सपक्खपरपक्- यथाशक्ति उद्यमं कुर्वति, व्य० प्र०१उ०। खतदुभयं होइ', वृ० 1 उ० / त्यक्ते, संस्था० / स्वस्थानादवक्षिप्ते, | उज्जमन-न०(उद्यमन) उद्यमकरणे,।व्य० प्र० 130 / उत्क्षेपणे उत्तोलने, निष्काशिते, आयाणफलियउच्छूढदीहवाहू। तं० / औ०। वाच०॥ उच्छूटसरीर-पुं०(उच्छढशरीर) उच्छूढमुज्झितमुज्झितमिव उज्झितं | उज्जममाण–त्रि०(उद्यच्छत् ) उद्यम कुर्वति, "ण करोति दुक्खमोक्खं संस्कार परित्यागाच्छरीरं येन स उच्छूढशरीरः। चं० प्र० | उज्जममाणावि संजमतवेसु"। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०| Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जममाण 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जयत उज्जममाणस्स गुणा, जह हुँति ससत्तिओ तवसु। एमेव जहासत्ती, संजममाणे कहं न गुणा 2" उद्यच्छत उद्यम कुर्वतः तपःश्रुतयोरिति योगः गुणास्तपो ज्ञानाव्याप्तिनिर्जरादयो यथा भवन्ति स्वशक्तितः स्वशक्त्युद्यमवत एवमेव यथाशक्ति शक्त्यनुरूपमित्यर्थः (संजममाणे) कह ण गुणत्ति) संयममाने संयमं पृथिव्यादिसंरक्षणादिलक्षणं कुर्वति सति साधौ कथं न गुणाः गुणा एवेत्यर्थः / अथवा कथं गुणा येनाविकल संयमानुष्ठानरहितो विराधकः प्रतिपाद्यत इत्यत्रोच्यते॥ आव०३ अ०। उज्जय त्रि०(उद्यत)उद्यम् कर्तरिक्त / उद्यमयुक्ते, कृतोद्यमे, भावे क्तः उद्यमेन यमेन यमेनियमनार्थत्वे कर्माणि क्तः / उत्तोलिते, याचा उद्यतविहारिणि, व्य० प्र०१ उ०|| उज्जयंत-उज्जयन्त-पुं०रैवतकगिरौ, हेमला वाचा यत्रारिष्टनेमिः सिद्धः / आ० म०प्र०।तद्वक्तव्यता यथा / / नामभिः श्रीरैवतको, जयन्ताद्यैःप्रथामि तम्। श्रीनेमिपाठितं स्तौमि, गिरनारगिरीश्वरम्।।१।। स्थाने देशः सुराष्ट्राख्यं, विभर्ति भुवनेष्वसौ। यद्भूमिकामिनीभाले, गिरिरेष विशेषकः / / 2 / / शृङ्गारयन्ति खङ्गाराः दुर्ग श्रीऋषभादयः। श्री पार्श्वस्तेजलपुरं, भूषितैतदुपत्यकम्॥३॥ योजनद्वयतुङ्गेऽस्य, शृङ्गे जिनगृहावलिः। पुण्यराशिरिवाभाति, शरद्वन्ध्वंशुनिर्मला ||4|| सौवर्णदण्डकलशामलशारकशोभितम्। चारु चैत्यं चकास्त्यस्यो-परि श्रीनेमिनःप्रभोः॥५॥ श्रीशिवासूनुदेवस्य, पादुकात्र निरीक्षता। स्पृष्टार्चिताऽवशिष्टानां, पापव्यूह व्यपोहति॥६॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्य, जरत्तृणमिव प्रभुः। बन्धून विधूय च स्निग्धान्प्रपेदेऽत्र महाव्रतम्।।७।। अत्रैव केवलं देवः, स एव प्रतिलब्धवान्। जगज्जनहितैषि स, पर्यणैषीच निर्वृतिम्।।८। अत्र एवात्र कल्याण, त्रयमन्दिरमादधे / श्रीवस्तुपालोमन्त्रीशश्चमत्कारितभव्यकृत् / / 6 / / जिनेन्द्रबिम्बपूर्णेन्दु-मण्डपस्था जनाइह। श्रीनेमिर्मजन कर्तुमिन्द्रा इव चकासति॥१०॥ गजेन्द्रपदनामास्य, कुण्ड मण्डयते शिरः। सुधाविधैर्जलैः पूर्ण,स्नानार्ह तत्स्वनक्षमैः॥११।। शत्रुजयावतारे च, वस्तुपालेन कारिते।. ऋषभः पुण्डरीकोष्टा-पदानन्दीश्वरास्तथा।।१२।। सिंहयाना हेमवर्णाः, सिद्धबुद्धसितान्वयाः। कम्राम्रलुम्बभृत्यानि,रत्नं वा संघविघ्नहृत्॥१३॥ श्रीनेमिपत्पद्मसूत-मवलोकननामकम्। विलोकयन्तः शिखरं, यान्ति भव्याः कृतार्थताम्॥१४॥ शाम्बोजाम्बवतीजातस्तुङ्गे शृङ्गेऽस्य कृष्णजः। प्रद्युम्नश्चमहाद्युम्नस्तेपाते दुस्तपंतपः।।१५।। नानाविधौषधिगणा, जाज्वल्यन्त्यत्र रात्रिषु। किंच घण्टाक्षरच्छत्र-शिलाशालन्त उच्चकैः // 16|| सहस्राम्रवणं लक्षा-रामोन्येऽपि वनव्रजाः। मयूरकोकिलाभृङ्गी-संगीतशुभगा इह // 17 / / नसवृक्षानसा वल्ली, न तत्पुष्पं न तत्फलम्। नश्यतेऽत्राभियुक्तैर्यदित्यैतिह्याविदो विदुः||१८|| राजीमतीगृहागर्भ , कैन नामात्र वन्द्यते। रथनेमिर्ययोन्मार्गात्सन्मार्गमवतारितः।।१६।। पूजास्तवनदानादि,तपश्चात्र कतानि वै। संपद्यन्ते मोक्षसौख्य- हेतवो भव्यजन्मनाम्॥२०॥ दिग्भ्रमावपि योत्राद्रौ, क्वाप्यमार्गेऽपि संचरेत्। सोऽपिपश्यति चैत्यस्था, जिनास्तेिपितार्चिताः।।२१।। काश्मीरगतरत्नेन, कूष्माण्डसदृशेन च। लेप्यबिम्बास्पदे न्यस्ता, श्रीनेमेर्मूर्तिराश्मनी॥२२॥ नदीनिर्झरकुण्डाना, खनीनां वीरुधामपि। विदांकरोच्चात्र संख्या, संख्यावानपि कः खलु // 23 / / आसेवनकरूपाय,महातीर्थाय तायिने। चैत्यालंकृतशीर्षाय,नमः श्रीरैवताद्रये // 24 // स्ततु मयेति सूरीन्द्र, वर्णितो वृजिनप्रभ!। गिरिनारस्तु रैहेम-सिद्धभुमिमुदेस्तु वः॥२५॥ -*अस्थि सुरट्ठिविमाणं उचिंत्तो नाम पव्वओ रम्मो। तस्सिहरै आरुहिओ, भत्तीए नमह नेमिजिणं / / 1 / / अंबाइअंबदेविं,ण्हवणचणगंधधूवदीवहिं। पूइयकयप्पणामा, ता जोअह जेण अत्थत्थि।।२।। गिरिसिहरकुहरकंदर, निज्झरणकवाडविअडकूवेहिं। जोएह खत्तवायं,जह भणियं पुव्यसुरीहिं॥३॥ कंदप्पकप्पराग, कुगइविद्दवणनमिनाहस्स। निव्वाणसिलानामेण, अस्थिभुवणम्मि विण्णेया।|४|| तस्सय उत्तरपासे, दसधणुहेहि अहो मुहविवरं। दारम्मि तस्स लिंग, अवयाणेधणुह चत्तारि॥५॥ तस्स पसुमुत्तगंधो, अत्थिरसो पलसएणसयतंब। विधेवि कुणइ तारं, ससिकुंदसमुज्जलं सहसा॥६॥ पुव्वदिसाए धणुह, तरैसुतस्सेव अस्थि जागवई। पाहणमाया दाहिण, दिसागए वारस धहिं।।७।। दिस्सइ अतस्स पयडो, हिंगुलवण्णो अदिचरसो। बिंधेइ सव्वलोहे,फरिसेणं अग्गिसंगेणं॥८॥ उज्झिते अत्थिनई, विहलानामेण पव्वई पडिमं। दावेइ अंगुलीए, फरिसरसो पव्वई दारं / / 6 / / सक्कावयार ऊज्झित, गिरिवरे मस्स उत्तरे पासे। सोवाणं पंतिआए, पारेवय वण्णिआ पुढवी // 10 // पंचगवण्णे बद्धा, पिंडी धमिया करेइ वरतार। फेढइ दारिद्ववाहि, उत्तराइदुक्खकंतारं॥११॥ सिहरे विसालसिंगे, विसंत पाय कुट्टिमा जत्थ। तस्सासन्ने सिहरे, कव्वडहडपाम होतारं।।१२।। उज्जतरे वयवाण, तत्थय सुद्दारवानरो अत्थिा सोवामकण्णछिन्नो, उग्घाडइ विवरवरदारं / / 23 / / हत्थसएण पविट्ठो, दिक्खइसोवण्णवण्णिआ सक्खो। नीलराणंसवता, सहस्सवे हीर सो नूणं ||14|| तग्गहिऊण निउत्तो, हणुवंतं छिवइ वामपाएण। सो ढक्क्ड वारदारं,जेणन जाणइजणा को वि॥१५॥ उजिंतसिहर उवरिं, कोहि डहरं खुनात विक्खायं। अवरेण तस्सय सिला, तदुभयपासे मुओ संतु॥१६॥ तं अयसि तिल्लमीसं, थंभइ पडिवायबंगिअंवगं। दोगच वाहिहरणं, परितुट्ठा अंबिआ जस्स।।१७।। वेगवई नामवई, मणसिजवण्णाइ तत्थपाहाणा। तो पिंडधम असंते,समसुद्धाहोइवरतारं||१८|| उज्जंते नाणसिला, तस्स अहोकणय वणिआपुढवी। छक्केडयमुत्तपिंडी, खइरंगारे भवे हेमं / / 16 / / Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उजयंत 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जाण नाणसिला कयपुढवी, पिडिबद्धाय पञ्चगव्वेण। दढपाए वसइ रसो, सहस्सवेही हवइ हेमं॥२०॥ गिरिवरमासन्नठिअं, अण्णायं तित्तविसारणं नाम। सिलबद्धगाढपीडे, वेला का तत्थ धम्माणं॥२१॥ सण्ण नामेण नई,सुवण्णातित्थम्मि लद्ध अपहाणा। पडिवाएणय सुच्चं, करेति हेमंन संदेहो॥२२॥ चिल्लक्खयम्मिनयरे,मअहरं अत्थि सेलगं दिव्वं / तस्स यमज्झिम्मि ठिओ, गणवइरसकुंड उवरिव।।२३।। उववासी कयपूओ, गणवइओ वल्लिऊण एवरक्खा। मा खेवी अस्थि अत्थं, भइवं गंतव्य संदेहो|२४|| सहसा सवंति तित्थंकरंच रुक्खेण मणहरंसम्म। तत्थ यतु रयावारा, पाहाणा तेसि दो भाया||२५|| इक्के पारयभाओ, पिट्ठो सुत्तेण अंधमूसाए। धमिओकरेइ तारं, उत्तारइदुक्खकंतारं // 26 // अवलोअणसिहरसिला, अवरेणं तत्थवररसो सवईसु। अपरोकेसरिवण्णो, करेई सुच्चंवर हेमं॥२७॥ गिरिपज्जुन्नवयारे, अंबिअ आरत्तमएपंच। नामेण तत्थ वियआ, पुढवी हिमवाय होइवरहेमं॥२८॥ नाणसिला उज्जंते, तस्सयमूलम्मि मट्टिआपीआ। साहामि अलोवेणं,छायामुक्कं कुणइ हेमं॥२६॥ उज्जंतपढमसिहरे, आउहिओदाहिणेण अवयरिओ। तिणि धणूसयमित्ते, पूइकरविलं नाम।।३०।। उग्घाडि विलं दिक्खिऊण निउणेण तत्थ गंतव्वं / दंडतराणि वारस, दिव्वुरसोजंबुफलसरिसो॥३१।। जउघोलिअम्मि भंडे,सहस्सभाएण विधएतारं। हेमं करइ अवस्सं, हदृतं सुंदरं सहसा॥३२॥ को हंडिभवण पुव्वेण, उत्तरे जावताव सा भूमी। दीसइ अतत्थ पडिमा, सेलमया वासुदेवस्स॥३३॥ तस्सुत्तरेण दीसइ, हत्थेसु अदससुपव्वई पडिमा। अवराह मुहर अंगुडि, आइसा दावए विवरं // 34 // नवधणुहाइपविट्ठो, दिक्खइतुडाइंदाहिणुत्तरओ। हरियाललक्खवण्णो, सहस्सवेहीरसोनूणं॥३५॥ उजिंते नाणसिलो, विक्खाया तत्थ अत्थि पाहाणं। ताणं उत्तरपासे, दाहिण य अहोमुहो विवरो॥३६|| तस्सय दाहिणभाए, देसधणुभुमी इहिंगुलुयवण्णो। अत्थिरसोसयवेही, विंधइ सुच्चंनसंदेहो॥३७|| उसहरिसहाइकुडे, पाहाणा ठाणसंगतो अत्थि। गयवरलिंडा किण्णा, मज्झिमफरिसेण ते वेही॥३८|| जिनभवणदाहिणेणं, नउईधणुहेहिं भूमिजलु अयरी। तिरिमणु अरत्तरविद्धा, पडिवाएबंवए हेमं॥३६।। वेगवई नामनई, मणसिलवण्णा य तत्थ पाहाणा। सव्वस्स पंचवेहं सवंति धमिआतयं सिग्धं / / 4 / / इयउज्जयंतकप्पं, अविअप्पंजो करेइ जिणभत्तो। कोहंडिकयपणामो, सोपावइ इत्थियं सुक्खिं॥४१।। ती०। उज्जयगन०(उद्यतक) प्रामित्याऽपरनामके उद्गमदोषके || आचा०१श्रु०२ अ०५ उ०। उज्जयमइ त्रि०(उद्यतमति)६व० प्रवृत्तचित्ते, संजममिउउज्जयमइस्स। दश०५ अ०॥ उज्जयमरण न०(उद्यतमरण) इङ्गिनीमरणादिके पण्डितमरणे, आचा०१ श्रु०८ अ०७ उ०। (वर्णनर्मिगिनीमरणशब्दे उक्तम्) उज्जयल त्रि० (उज्ज्वल) उद्ज्व ल अच् / दीप्ते, विशदे, वाच०। निर्मले, औ० / रा० / जी० / प्रशस्ते, तं० / भास्वरे, रा० / स०। शुद्धे, रा०। विपक्षलेशेनाप्यकलङ्किते, प्रश्र० 1 द्वा० / भ०। स्था०। ज्ञा० / "उज्जलचलंतकिसकुसुमालपबालसीहिपवरकुरणसिहए", औ०। "तेणं तत्थ उज्जलं विउलं विउलंपगाढे वेयणं पचणुभवमाणा विरहरंति", तामुज्वला तीव्रानुभावनोत्कटामित्यादि / सूत्र 2 श्रु०२ अ० उज्वला दुःखरूपतया जाज्वल्यमानांसुखलेशेनाप्यकल-ङ्कितामिति भावः / जी० 2 प्रति०। शृङ्गारे रसे, स्वर्णे,न० वाच०। उज्जलंत-त्रि०(उज्वलत्) भासमाने, नं०। उज्जलणेवत्थ-न०(उचलनेपथ्य) निर्मलवेषे, भ०७श०८ उ०] उज्जलणेवत्थहव्वपरिवच्छिय त्रि०[उज्वलनेपथ्यशीघ्र (हव्य) परिक्षिप्त] उज्वलनेपथ्येन निर्मलवेषण (हव्यंति) शीघ्रंपरिक्षिप्तः परिगृहीतः परिवृतो यःस तथा। कृतसत्वरसुवेषे , भ०७ श०८ उ०। उज्जलिय-त्रि०(उज्ज्वलित)उगता ज्वाला यस्य स तथा ऊर्ध्वगतज्वालायुक्तेऽनौ,जी०३ प्रति०। उद्ज्व ल क्त उद्दीप्ते, औ०। उद्दीपने, ज्ञा०१अ०। उज्जल्ल-त्रि०(उज्जल्ल) उद्गतो जल्लः शुष्कप्रस्वेदो यस्य सः / उद्गशुष्कप्रस्वेदवति, "मुंडा कंडूविणटुंगा उज्जल्ला असमाहिता", सूत्र १श्रु०३ अ० उजवण-न०(उद्यापन) या० णिच् पुक० ल्युट। व्रतसमाप्तिकृत्ये, तस्य कर्तव्यता / तथा नमस्कारावश्यक सूत्रोपदेशमालादिज्ञानदर्शनविविधतपःसंबन्धिषूद्यापने जघन्यतोऽप्येकैकं तत्प्रतिवर्ष - विधिवत्कार्य नमस्कारस्योपधानोदहनादि विधिपूर्वकमालारोपणेनावश्यकादिसूत्राणामेवं गाथासंख्यचतुश्चत्वारिंशदधिकपञ्चशत्यादिमोदकनालिकेरादिढौकनादिना उपदेशमालादीनां सौवादिगर्भदर्शनतोदकलम्भनादिना दर्शनादिना शुक्लपञ्चम्यादिविहवधतपसामपि तत्तदुपवासादि संख्यानाणक चर्तुलिकानालिके रमोदकादिनानाविधवस्तुढौकना-दिनोद्यापनानि कर्याणि || ध०२ अधि। उज्जाण-न०(उद्यान) वस्त्राभरणादिसमलंकृतविग्रहाः सन्निहितासनाद्याहारा मदनोत्सवादिषु क्रीडार्थं लोक उद्यन्ति यत्र तच्चम्पकादितरुखण्डमण्डितमुद्यानम् / अनु०ऊर्ध्वं यानम-स्मिन्नित्युद्यानम् / आव० 4 अ० / ऊर्ध्व विलम्बितानि प्रयोजनाभावाद्यानानि यत्र तदुद्यानम्। नगरात्प्रत्यासन्नवर्तिनि यानवाहनक्रीडागृहाद्याश्रये, रा० / पुष्फलोपेतवृक्षशोभिते बहुजनभोग्ये उद्यानिकस्थाने, कल्प० / भ० / पुष्पादिमद् वृक्षसंकुले उत्सवादी, बहुजनभोग्ये कानने, प्रश्न० 5 द्वा० रा० जी०।दादशा०। भ०1 अनु०। ज्ञा०ा स्था०। जंगा"उजाणाइ वा वणाइ वा वणसंडाइ वा वावीइ वा पुक्खरणीइ वा", उद्यानानि पत्रपुष्पफलच्छायोपशोभितानि बहुजनस्य विविधवेष-स्योन्नतमानसस्य भोजनार्थ यानं येष्विति। स्था० 2 ठा० / स० / सामान्यवृक्षवृन्दयुक्ते नगरासन्ने, ज्ञा० 1 अ० जनक्रीडास्थाने, दश०५ अ०। 'उज्जाणं जत्था लोगो उज्जाणियाए वचतिजं वा इसिंणगरस्स उवकंठं ठियंत उज्जाणं नि० चू०८ उ०। प्रतिलोमगामिनि, त्रि०। चू०१ उ०। ऊर्ध्वं यानमस्मिन्नित्युद्यानम् / ऊर्ध्वं यानमुद्यानम् / मार्गस्योन्नते भागे, उदके तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसिव दुब्बला।" सूत्र०१ श्रु०३ अ०। आव०। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उजाणजत्ता 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उजुगा उज्जाणजत्ता-स्त्री०(उद्यानयात्रा) उद्यानगमने, ज्ञा०१०। *उद्योत-पुं० उद्योतयतीत्युद्योतः पचादित्वाद् च / आर्षत्वादुञ्जति उज्जाणसठिय-त्रि०(उद्यानसंस्थित) उद्यानाकृती, ता उजाणसंसंठिताणं| प्रकाशे, "भजापइ सीउण्हं तसुउज्जुच्छायातवे चेव / उत्त 1 अ०। ताव क्खेत्ते, चन्द्र०२ पाहु०। उज्जुआयया-स्त्री०(ऋज्वायता) ऋज्वी सरलासा चासावायता च दीर्घा उज्जाणसिर-न०(उद्यानशिरस्) उट्टकमस्तके, "तत्थ मंदा विसीयंति ऋज्वायता। श्रेणि (प्रदेशपंक्ति) भेदे, स्था० 7 ठा०। यया जीवदया उजाणंसि जरग्गवा, सूत्र०१ श्रु०२ अ०। ऊर्ध्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यान्तीति / भ० 25 श०३ उ०। उज्जाणियलेण-न०(औद्यानिकलयन) उद्यानजगतजनानामुप-| उखुकड-त्रि०(ऋजुकृत) ऋजु मायाविरहितं कृतमनुष्ठितमस्यनिकारकगृहे, नगरप्रवेशगृहे च / भ०१४ श०१ उ०। मायितपोधर्मयुक्ते, "अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारंभउज्जाणिया-स्त्री०(उद्यानिका) वस्त्राभरणादिखमलंकृतविग्रहाणां| नियतदोसा।" उत्त०१४ अ० सन्निहितासनाद्याहारमदनोत्सवादिषु कीडार्थमुद्याने गमने, अनुग] *ऋजुकृत्-त्रि०ऋजुरकुटिलसंयमदुष्प्रणिहितमनोवाझायनिरोधः "उजाणे उज्जाणियाए गया" आ० म० द्वि०। सर्वसत्वसंरक्षणप्रवृत्तत्वायैकरूपः सर्वत्राकुटिलगतिरिति। यावत् / यदि उज्जाबल-न०(ऊर्जाबल) प्रभूततरभाषणेऽपि प्रवर्धमानबले, 1 व्य० वा मोक्षस्थानगमनर्जुश्रेणिप्रतिपत्तिः सर्वसञ्चारसंयमात्कारणे कार्योपचार उज्जालण-न०(उज्जवालन) उद् ज्वल् ल्युट् / 'अर्द्धविध्मातस्यानेः कृत्वा संयम एव सप्तदशप्रकार ऋजुस्तकरोतीति ऋजुकृत् ऋजुकारिणी, सकृदिन्धनक्षेपेण ज्वालने', दश०५ अ०। अशेषसंयमानुष्ठायिनि संपूर्णानगारे, "जहा अणगारे उज्जुकडे उज्जालिय-अव्य०(उज्ज्वाल्य) अर्ध विध्मातं सकृदिन्धनप्रक्षेपे ण णिपायपडिवण्णे" आचा०१ श्रु०१अ० उ० ज्वालयित्वेत्यर्थे, दश०५ अ०| उज्जुग (य) न०(ऋजुक) दृष्टिवादस्य अष्टाशीतिसूत्रेषु प्रथमसूत्रे, सम०। उज्जालेत्ता अव्य०(उज्जवाल्य) उज्जवालनं कृत्वेत्यर्थे, “उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता *ऋजुग-त्रि० ऋजु यथातथा गच्छतिगम्ड०। सरलव्यवहारिणि, वाणे, कायं आयावेजा" आचा०१ श्रु०७ अ०३ उ०! पुं०वाच०।मायारहिते, पिं। सरले, उपा० 10 // सूत्र०ा ज्ञा०ा आचा०॥ उजिंत-पुं०(उज्जयन्त) गिरिनारननामके पर्वतविशेषे, पंचा०२० विव०॥ अवक्रे, तंला "उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।' आचा०१ श्रु०१ "उजिंतए चेव पवंदिया उ सुर8, आव० 4 अ० यत्र, उज्जिंतसेलसिहरे अ०1"से हु समणे सुयधारए उज्जुए संजए।" प्रश्न०५ द्वा० / संस्फुटे, पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं अरिष्टनेमिः सिद्धः", कल्प। आ० तिविहे ते गच्छम्मि उज्जुयवाउलणसाहणा चेव०। ऋजुसंस्फुटमेव म०प्र०। (तद्वर्णनं उज्जयंत शब्दे उक्तम्) व्यावृतसाधना व्यावृतक्रिया कथनं कर्तव्यम् 1 व्य० प्र०१ उ०। जी०। उजिंभ-पुं०(उज्जृम्भ) उद् भिघञ्। विकाशे, स्फुटने, उद्गता जृम्भा उज्जुयसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्धआए अलडहरोमराई', ऋजुका न यस्मात् प्रा०व० मुखविकाशनभेदे, कर्तरि अच् / प्रकाशान्यिते वक्रा समाना न क्वाप्युद्दन्तुरा संहिता संतता नत्वपान्तराले व्यवच्छिन्ना उज्जृम्भावति, वाच०। सुजाता सुजन्मा न तु कालादिवैगुण्यतो दुर्जन्मा अत एव जात्या प्रधाना उज्जृ-त्रि०(ऋजु) अर्जयति गुणान् अर्ज कु नि० ऋजादेशः। ''उदृत्वादी' तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा कृष्णमपि किंचित् निर्दीप्तिकं 1811 / 6 / अनेनादेर्ऋत उत्वम् प्रा। प्रगुणे, सूत्र०२ श्रु०। अवक्रे, औ०। भवति तत आह स्निग्धा आदेया दर्शनपथमुपगता सती उपदेया सुभगा सूत्र० स्था०। "तं मम्मे उज्जुपाक्त्तिा ओहं तरति दुत्तरं", अजु प्रगुणं इति भावः / एतदेव विशेषणद्वारेण समर्थयते / लटहा सलवणिमा अत यथाऽवस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावक्रम्। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। आदेया तथा सुकुमारा अकठिना / तत्राकठिनमपि किश्चित् रागद्वेषवक्रत्ववर्जिते, स्था०४ ठा०। अविपरीतस्वभावे, स्था० 2 ठा०। कर्क शस्पर्श भवति तत आह मृद्धी अत एव रमणीया रम्या कौटिल्यरहिते, आचा०१ श्रु०१ अ०। प्रज्ञा०। सरले, ज०२ वक्ष०।। रोमराजिस्तनूरुहपतिर्येषां ते ऋजुकसमसंहितजात्यतनुकृष्णा औ०। अव्युत्पन्नबुद्धौ, पंचा। संयमे, सूत्र०२ श्रु०१ अ० मायारहिते | सुगन्धादेयलटह -सुकुमारमृदुरमणीयरोमराजयः।। जी०३ प्रति। संयमवति, दश० 5 अ० अमायाविनि, नि० चू०१ उ०। "धम्मविदुति | उज्जुग(य) भूय-त्रि०(ऋजुकभूत) सरलीभूते, सोहि उज्जुयभूयस्सधम्मो उज्जु आवट्टे", ऋजोनिदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानाद-] सुद्धस्स चिट्ठइ। उत्त० विलरूपे लयनसूक्ष्म भेदे॥ कल्प०॥ कुटिलः यथावस्थितपदार्थस्वरूपपरिच्छेदाद्वाऋजुः सर्वो पाधिशुद्धोऽवक्र | उजुग (य) या-स्त्री०(ऋजुकता) ऋजुकभावे, कर्मणि-वा-तल०। इति। आचा०१ श्रु०२ अ० "उवेहमाणो सद्दरूवेसु उज्जुमाराभिसंकी, | अमायिनो भावे कर्मणि च / स्था० 3 ठा०। शब्दरूपादिषु यौ रागद्वेषौ तावुपेक्षमाणः अकुर्वन् ऋजुर्भवति यतिर्भवति | उजुगा (या) स्त्री०(ऋज्वी) ऋजु स्त्रियां वाडी।आर्जववत्या स्त्रियाम, यतिरेव परमार्थत ऋजुःपरस्त्वन्यथाभूतस्त्र्यादिपदार्थान्यथाग्रह-1 वाच०॥ माया भगिणी धूया मेहावी उज्जुयाय आणतीय, ऋजुकामकुदिलाणाद्वक्रः / आचा०१ श्रु०२ अ०।पियधम्मो दढधम्मो संविग्गो जिइंदिओ| ___ माज्ञप्ताम् / व्य० द्वि०७ उ०। अष्टसु गोचरभूमिषु प्रथमगोचरभूमौ, उल्लू' आ० म० द्वि०ा मार्गभेदे, ऋजुरादावन्तेऽपि ऋजुः प्रतिभाति | उज्जुग्गआदिओ चेवबहिरंतो उजुगं जातितो राउ स णिदृइ / / पं० व०। तत्वतोऽपि ऋजुरेवेति तत्कल्पे पुरुषभेदे यः पूर्वापरकालापेक्षया ऋज्वी स्ववसतेजुमार्गेण सभश्रेणिव्यवस्थितगृहपङ्क्तौ भिक्षाग्रहणेन अन्तस्तत्वबहिस्तत्वापेक्षया वेति। स्थ०३ठा०वसुदेवपुत्रभेदे, पुं० वाच०|| पङ्क्ति समापनेततो द्वितीयपंक्तो पर्याप्तेऽपि भिक्षाग्रहणेन ऋ - Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उजुगा 767- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उजुवबहार जुगत्यैव निवर्तने च भवन्ति / ध० 2 अधि०॥ यस्मामेका सो उजुमति भन्नति / आ० चू० 1 अ० / ऋजुतयस्तु सर्वतः दिशमभिगृह्योपाश्रयान्निर्गतः प्राञ्जलिनैव यथासमश्रेणिव्यवस्थितः, सार्द्धद्व्यङ्गुलाधिके मनुष्यक्षेत्रे स्थितानां सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनोगतं गृहपङ्क्तौ भिक्षां परिभ्रमन तावद्याति यावत्पंक्तौ च रमगृहं ततो जानन्ति / कल्प० / प्रव०। (अस्य शेयविषयमानं मणपज्जव शब्दे) भिक्षामगृहन्नेव अपर्याप्तेऽपि प्राञ्जलिर्यवगत्या प्रतिनिवर्तते सा ऋज्वी। मार्गप्रवृत्तबुद्धौ च। "तवोगुण पहाणस्स उज्जुमइखंति संजमारस्स", दश० ग०१०। 4 अ०। उज्जुजबु-पुं०(ऋजुजड) ऋतवोऽशठास्ते च तेजडाश्च विशिष्टो-| उज्जुमउयपीवरपुट्ठसंहयंगुलि-त्रि० (ऋजुमृदुकपीवरपुष्ट- संहताङ्गुलि) हावैकल्येननोक्तमात्रग्राहिण ऋजुजडाः / पंचा०१६ अ० शिक्षाग्रहण- | ऋजवोऽवक्रा मृदवोऽकठिनाः पीवराः अकृशाः पुष्टा मांसलसः संहताः तत्परतया ऋजुषुदुष्प्रतिपाद्यतया मूर्खेषु प्रथमतीर्थकृत्साधुषु, पुरिमा | सुश्लिष्टाः अङ्कलयो यस्सस तथा। स्वलक्षणयुक्ताङ्गुलिके, जी०३ प्रति। उज्जुजडाओ वक्क जड्डा य पच्छिमा, उत्त०२६ अ०1 (एषां स्वरूपं | उजुया--स्त्री०(ऋजुता) निकृतिपरेऽपि मायापरित्यागे, द्वा। नटदृष्टान्तेन कप्प शब्दे दर्शयिष्यते)। उज्जुयार-त्रि०(ऋजुचार) अकौटिल्येन प्रवर्तमाने यथोपदेशं यः प्रवर्तते उजुत्त-त्रि०(उद्युक्त) उद्युक्ता उद्यमवति, संस्था०। उद्यते, आव०३ | नतु पुनर्वक्रतयाऽऽचार्यादिवचनं विलोमयति प्रतिकूलयति, "जच्चण्णिए अ०।सावधाने, "तम्हा चंदगविजं सकारणं उज्जुएण पुरिसेण", आतु०॥ | चेव सुउज्जुयारे", सूत्र०१ श्रु०५ अ०। उद्यमपरे, विशेअप्रमादिनि, नं०ा गला सूत्रार्थतदुभयग्रहणे अपरितान्ते, | उज्जुवालिया-स्त्री०(ऋजुपालिका) स्वनाभख्याते नदी विशेषे, सा पं०चूला उपयुक्ते, व्य० प्र०१ उ०। जृम्भिकग्रामनगरस्य बहिर्वहति यस्यास्तीरे भगवतो वीरस्य केवलज्ञानउज्जुदंसि (ण) पुं०(ऋजुदर्शिन्) ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात् संयमस्तं मुत्पन्नम्। कल्प०॥ पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः / संयमप्रतिबुद्धे, "णिग्गंथा उजुववहार- पुं०(ऋजुव्यवहार) ऋजु प्रगुणं व्यवहरणमृजु व्यवहारः / उज्जुदंसिणो", दश०३ अ० एकविंशतिभावश्रावकगुणानां चतुर्थे गुणे / अधुना ऋजुट्यवहारीति उजुधम्मकरणहसण-न०(ऋजुधर्मकरणहसन) ऋजूनामव्यु चतुर्थभावकलक्षणं यथा। त्पन्नबुद्धिनां धर्मकरणेस्बुऱ्यानुसारेण कुशलानुष्ठानासेवने हसनमुपहासः उजुववहारो चउहा, जहत्थभणणं अवंचगाकिरिआ। ऋजुधर्मकरणहसनम् ।अव्युत्पन्नमतीनां धर्मानुष्ठाने प्रवृत्तानाम् हुंतावायपगासण, मित्तीभावो असन्मावो।। धूर्तविडम्बिनः खल्वेत इत्यादि रूपे उपहासे, एतल्लोकविरुद्धत्वात्याज्यम्। बहवो ह्यव्युत्पन्ना एव लोकस्तेच तद्धर्माचारहसने सति विरुद्धा ऋजु प्रगुणं व्यवहरणं ऋजुय्यवहारः / स चतुर्दा यथार्थभणनमएवं भवन्तिा पंचा०२ विव०। विसंवादिवादिवचनम् 1 अवञ्चका पराव्यसनहेतु क्रियामनोवाकायव्या पाररूपा 2 (हूतावायपगासण्णत्ति) हुंतत्ति प्राकृतशैल्या भाविनोशुद्धउज्जपण्ण- पुं०(ऋजुप्राज्ञ) ऋजुवश्च प्राज्ञाश्च ऋजुप्राज्ञाः शिक्षाग्रहणतत्परेषु, प्रकृष्टबुद्धिषु च, ! मध्यमतीर्थकृत्साधुषु, "मज्झिमा व्यवहारकृतो येऽपायास्तेषां प्रकाशनं प्रकटनं करोति भद्र ! मा कृथाः उज्जुपण्णाओ, तेण धम्मे दुहा कए",उत्त०२६ अ० (नटप्रेक्षादर्शने तेषां पापानिचौर्यादीनि इह परत्र चानर्थकारिणीत्याश्रितं शिक्षयति 3 मैत्रीभावः स्वरूपविवेकः कप्प शब्दे) अकुटिलमतौ, तिला उज्जुपपणे मणुव्विग्गे, सद्भावो निष्कपटतायाः 4 / ध०२ अधि० / इत्युक्त ऋजुव्यवहारे अवक्खित्तेण चेयसा, दश०५ अ०।। यथार्थभणनस्वरूपःप्रथमो भेदः। संप्रति द्वितीयं भेदमाह / (अवंचिगाउजुभाव-पुं०(ऋजुभाव) सरलत्वे, से उज्जुभावंपडिवजसंजए, णिव्वाणमग्गं किरियत्ति) "अवञ्चिका पराव्यसनहेतुः क्रिया मनोवाक्कायव्यापाररूपा विरए उवेइ, // उत्त०२१ अ०॥ तत्र द्वितीय-मृजुव्यवहारलक्षणम् उक्तंचतप्पडिरूव गविहिणा, उलापलाई उज्जुभावासेवण-न०(ऋजुभावासेवन) 6 त०। कौटिल्पत्यागरूपस्य हिऊण मन्भहियं / दितो लिंतो वि परं, नववए सुद्धधम्मत्थी" ||1|| वंचणकिरियाइइह पि केवलं पावमेव पिच्छतो। तत्तो हरिनन्दी इव, नियत्तए ऋजुभावस्यानुष्ठाने, तच ऋजुभावासे वनमिति / ऋजुभावस्य सव्यहासु मई 2, इति कः पुनरयं हरिनन्दी तत्कथोच्यते। कौटिल्यत्यागरूपस्यासेवनमनुष्ठानं देशकेनैव कार्य्यमेवं हि तस्मिन् / अविप्रतारणकारिणि, संभाविते / स हि शिष्यस्तदुपदेशान्न कुतोऽपि उद्येणिपुरवरीए, वहिया वणवीहिया इ ववहरइ। हरिनंदि वणी दारिह-रुद्ददंदोलि दुम विहगो / / 1 / / दूरवार्तः स्यादिति। ध०१ अधि०। आसन्नसंनिवेसा उ, अन्नया आगया वणे तस्स। उजु (रिउ) मइ-स्त्री०(ऋजुमति) "रिजुसामन्नं तम्मतगाहिणी रिज्जुमइ आहीरी ववहरिउं, एगा घयमाइ चित्तूण // 2 // मणोनाणं / पायं विसेसविमुहं घडमित्तं चिंतियं सुणइ", पा०। आ० चू०। विकिणिउं किणिउं वा, लोणतिल्लाइसापयं पेइ। मननं मतिः संवेदन मित्यर्थः ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिर्ऋजुमतिः / / सिद्धिविसिटू रूवग, दुग्गस्स कप्पासमप्पेसु // 3 // भ० आ० म०प्र० सामान्यग्राहिण्यां मतौ, नं०। सा च घटोऽनेन चिन्तित सो य समग्यो समए, तम्मि य तो तोलिउंदुवे वारे। इत्यध्यसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छितिरिति / भ० कर्म० / इगरूवगस्स अप्पइ, सा मुद्धा बंधए गिठि।।४।। अर्द्धतृतीयोच्छ्याङ्गुलन्यूनमनुष्यक्षेत्र-वर्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्य तं तह दर्दु सिट्ठी, विचिंतए परपवंचणानिउणो। प्रत्यक्षीकरणहेतुमनः पर्याय ज्ञानभेदे। ग०१ अधि०। सामानयघटादि अन्ज मए अजिणिओ, अकिलेसं रूवगो एगो।। 5|| वस्तुमात्रचिन्तनप्रवृत्तं मनः परिणामग्राहि किञ्चितदविशुद्धतरम तृतीया इय चिंतिउं विसज्जइ, इमा अणुद्युतमुज्जयं सव्यो। कुलहीन मनुष्यक्षेत्र विषयं ज्ञानमृजुमतिः लधिभेदः। प्रव०॥ इत्तो नवणिनिमित्तं, पत्तो सगेहिणी तत्थ / / 6 / / *ऋजुमति-त्रि० ऋज्वी मतिर्यस्यासावृजुमतितिः ऋजुमतिलब्धिप्राप्ते सा चवणिं उवणेउं, भणिया घयखंडसामिय मईणि। भ०। उजुमती नाम मणोगतं भावं पडुच्च सामत्थतेमग्गाहिणी मती जस्स | एयाई गिण्ह सिग्धं, करेसुतं घेउरे पउरे।।७।। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुववहार 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उजुववहार सा ताई गहिय सगिहे, गंतुं तुट्ठा करइ घयपुग्ने। इत्युक्तऋजुव्यवहारेऽवञ्चिकाक्रियेति द्वितीयो भेदः। सिट्टी उट्ठियहट्ठाउहाउं पत्तो नई इत्तो / / 8 / / संप्रति भाव्यपायप्रकाशनस्वरूपं तृतीयं भेदमाहकत्तोय आगओत-ग्गिहम्मि जामाउओ वयस्सजुओ। (हुतावायपगासणहुंतत्ति) प्राकृतशैल्या भाविनोऽशुद्धव्यवहारकृतो अइओ सगुत्तिभुत्ते, ते घयपुन्ने गओ तुरिया येऽपायास्तेषां प्रकाशनं प्रकटनं करोति भद्र ! मा कृथाः पापानि चौर्यादीनि अहहाउगिहे पत्तो, सिट्ठी साहावियं चिय कुभत्तं। इह परत्र चानर्थकारीणीत्याश्रितं शिक्षयति / भद्रश्रेष्ठीव निजपुत्रं धनं न परिविढि दटुं सुटु रुहओ भणइ इय भजे ! // 10 // पुनरन्यायप्रवृत्तमभ्युपेक्षत इति भावः। किं अलसे धयपुत्रा, न कया सा भणइ ते कया किंतु।। भद्र श्रेष्ठिकथा चैवम्॥ अणुताव तावियमण्णो, इय अप्पं निंदए सिट्ठी // 15 // हरिदेहं पि व भद्दिल, पुरमत्थि सुवनसंगयं सुगयं / हा वेचिया मुहाए, धण तव लुद्धेण सा भए सुद्धा / तत्थ सुपसत्यनयकुंज-केसरी केसरी राया // 1 // अन्नेहिं तयं भुतं, पावं मह चेव संजायं / / 13 // सिट्ठी भद्दो भद्दो, दंतीव दाणपसरदुल्ललिओ।। हट्ठी इचिरकालं, परवंचणपवणमाणसेण मए। तस्स य यंचणपवणो धणलुद्धमणो धणो तणओ।।२।। दुसहदुहनरयदामग्गिइंधण कह कओ अप्पा // 14 // मुणिचित्तं च सकरुणं, सअजुणं पंडवाण सिन्नं च। इय झूरंतो जाजइ, किं पि भूभागमग्गओ ताव। ते कीलिउं कया विहु, दुवे वि उज्ज्ञाणमणुपत्ता // 3 // मग्गम्मि मुणी एगं, गच्छंतं दट्टमिय भणइ॥१५॥ उच्छूढसभा भारं, निवूढदयं परूढगुरुवंसं। भयवं ! पडिक्खसुखणं, भणइ इमो गच्छिमो सकज्जेण। से लंपि वसुपइट्ठ, सुपइट्ठमुणिं नियतं तहिं // 4|| सिट्ठी वि आह किं को वि, नाह परिममइ परकब्जे // 16|| ते तं समणुत्तम्ममुत्तमंगसुनिविठ्ठकरयला नमिओ। अइसयनाणी साहू, भणेइ तं चिय भमेसि परकजे। निसियंति उवियठाणे , तो धम्मं कहइ इय सुमुणी // 5 // सामं मे इव पुट्ठो, बुद्धो तेणेव वयणेण // 17 // कमलसरं पिव मरुम-डलम्मि तमसम्मि रयणदीवं च / हरिनंदी आणंदिय-हियओ वंदिय मुणिं भणइ कत्थ। नरभवमिह दुलह लहिय, कुणह सत्तीइ जिणधम्मं // 6 // चिट्ठह तुब्भे भयवं ! भणइ मुणी इत्थउज्जाणे // 18|| तो मुणीकहियं धम्म, सोउं विन्नवइपहु तुह समीवे / इय सुणिउं पियपुत्ता, पहिट्ठचित्ता गहिंतु गिहधम्म / गिहिस्महं दिक्खं, नवरं पुच्छियससयणग्गं / / 19 / / मुणिचरणे जयसरणे, नमिओ पत्तानिए सरणे / / 7 / / पणमित्तु मुणिं गेहे, पत्तो मेलित्तु जंपए सयणे। भाविबहुभद्द सहोद्द, सुंदरो भद्दमाणसो भद्दो। इह तारिसो न लाभो, ता दिसि जत्ताइ गच्छामि।।२०।। वववहारसुद्धिनिरओ, गिहिधम्म पालयइ विसुद्धं / / 8 / / इत्थ दुवे सत्थाहा, एगो नियरयणपणगमप्पेइ। हट्टम्मि ठिओ निचं, धणो पुणो लुद्धओ धणे धणियं / तह नेइ इच्छिय पुरं, पुव्व वि उत्तं न मग्गेइ॥२१॥ कूडक्कयतुल्लमणो, कुडाईहिंच ववहरइणिचं / / 6 / / बीओ न देह किं चि वि, इच्छिय नयरं च नहु पराणेइ। अणविक्खिउं अपाए, तेणाणीयं पि लेइ पच्छन्नं / पुवञ्जियं पि गिण्हइ, वयमित्तो भणह केण समं / / 22 / / तं नाउ सो उ पिउणा, मिउणा वयणेण इय भणियो // 10 // ते विंति पढमएणं, सिट्ठी वजरइनियह आगंतु। वच्छ अवत्थ पच्छा-अपत्थभत्तं व दोसपडिहत्थं। तो ते पमोय कलिया, चलिया सह तेण मग्गम्मि / / 23 / / अन्नाएण दविण्णस्स, ण अज्जणं सज्जणा विति / / 11 / / हयवसहाई अदटुं, भणंति ते कत्थ सत्थवाहो सेो। अन्नाएण विढत्तं, दव्वमसुद्धं असुद्धदव्वेण। नियहनिसन्नमोग-हिट्टओ संसए सिट्ठी॥२४॥ आहारो वि असद्धो, तेण अशुद्धं सरीरं पि॥१२॥ तो तिविम्हइयमणा, सयणा नमि मुणिं समासीणा। देहेण असुद्धेण, जं जं किज्जइ कयावि सुहकिच्च। पणमिय पुच्छइ सिट्ठी, को इत्थ पसत्थ सत्थाहो // 25 // तं तं न होइ सफलं, बीयं पिव चऊसरनिहत्तं // 13 // साहू साहइ इह सव्वभावभेया दुहा उसस्थाहो। किंचि भविअवाय अन्ना नयपहपहियाणंपराण चिंतेसु / तत्थ य पढमो नियओ, सगुञ्जुओ सयणुवग्गुत्ति // 26| निजियकज्जलपसरो, अजसभरो फुरइ भवणम्मि |14|| सो दुहियस्स वि जीवस्स, देइन य कहवि किंपि सुकयधणं / / इह य पिवि हुंति कारा, पवासवहबंधहत्थछेयाई। परभवपहे पयट्टस्स, तस्सन पयं पि सह चलइ॥२७॥ परलोए पुण दारुण, नरगाईसुदुक्खर छोली // 15 // कलहाइएहिं एसो, लुंपइ पुष्वज्जियं पि सुकयलवं / संपासंपायवलं, जलजलण नरिदमाइसाहीणं / बीओ पुण सत्थाहो, सुगरू गुणरयणगणकलिओ॥२८॥ विहविलवं नाउ अनाय, उज्जुओ काह विज इहं // 16 // जिणसासणसुद्धागर, संभूए निम्मले य सत्थाए। वच्छ वियाणसु अन्नाय, अज्जियं पि विहवभरं। सो संमं देइ निए, पंचमहव्वयमहारयणे // 26 // पजते अइविरसं, सुजय भवथूलभावं च / / 17 / / जं तेहि पंचरयणेहिं, अज्जियं सुहकर सुकयदव्वं / अइलोहनेहपूरिय, अन्नायपईवभाविणा इमिणा / नय त कयावि गिण्हइ, कमेण पावेइ सियनयरं // 30 // नियवयभरभंजण खंजणेण कोमलइलए अप्पं // 18 // इय सोउं संविग्गो, हरिनंदी गिहए समणधम्म। इय जं पिओ वि पिउणा, सो गुरुणा लोह कम्मणा मलिणो। सयणा विससत्तीए, धम्मं गहिउँ गया सगिहे॥३१॥ न हु किंपितं पवजइ, चिट्ठइ पुव्वं व अनयपरो।। 16 हरिनंदीपरवचणकिरिया सक्किरियाई सो सणिकरवि। अह चोरे णिक्केणं, वरकुंडलजुयलसंजुयं हारं। कयसकिरिओ अकिरिय ठाणम्मि कमेण संपत्तो॥३२ उवणीयं जत्ति धणो, धणेण थोवेण गिण्हेइ / / 20 / / इत्यवेत्य हरिनन्दिवजनाः पापसंतमसदर्शयामिनीम्। चोरकराओ कइया, वि जाव रयणावलिं स गिण्हेइ। तां विमुच्य परवञ्चिकां क्रियां, सक्रियाःस्त यदिवा क्रियेच्छवः निवसिरिहरिओ विमलो, तो पत्तो मस्स हदृम्मि // 21 // इति हरिनन्दिकथा॥ तेण य भणिओ वरसिय, संचए दंसए धणो जाव। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुववहार 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जुववहार ताव घण उट्टियाए, पडियारणावलीज्झत्ति // 22 // तं गहिउं उवलक्खिय, विमलो चुच्छेइ सिटि किं एयं। जा किं पि न सो जंपइ, खुहिओ ता जंपए विमलो।।२३।। अन्नं पि इमीइ समं, नट्ठवरहारकुंडलाईयं / तुह पासे तं पि अहं, मन्ने तालहु महप्पेसु // 24 // अन्नह निवेण नाणे, धणेण देहेण वा न छुट्टिहिसि। अह हण हणित्ति भणिओ , संपत्तो तलवरो तत्थ / / 2 / / बद्धो तेण धणो विमलपुच्छिओ सो भणइ जहा अज। लद्धो इक्को चोरो, से हिज्जंतेण इमो।। 26 // कहिओ मो सट्ठाणं, नरवरआहरणमाइसव्वाणं। तो रयणावलिसहिओ, स तेण नीओ निवसमीये // 27 // तो भिउडिभासुरेण निवेण से हाविओ धणो अहियं / रयणावलिकुंड लहा-- रमाइसव्वं समप्पेइ // 28 // इय सोऊण अखुद्दो, भद्दो गंतूण निवइपासम्मि। दाउपभूयविह वं कह कहमवि मोयए पुत्तं // 26 // तो नाउ बहुअवायं, चइऊण पुहावि दुजणं वधणं। दिक्खं गिव्हिय जाओ भद्दो भदाण आभागी // 30 // मुक्कववहारसुद्धी, सुमहंतसमुल्लसंतधणगद्धी। परिचत विमलभावो, नरए पत्तो धणो पायो // 31|| इत्येमाकर्ण्यसकर्णलोका , भद्रस्य भद्रकरणं चरित्रं / तद्भाव्यपायापसरेण मुक्तां, श्रयन्तु नित्ये व्यवहारशुद्धिं // 32 // इति भद्रश्रेष्ठिकथा।। इत्युक्तऋजुव्यवहारे भाव्यपाय प्रकाशनमिति तृतीयो भेदः। संप्रति सद्भावतो मैत्रीभाव इति चतुर्थ भेदमाह।। (मित्तीभावो यसब्भवत्ति) मित्रस्य भावः कर्मवा मैत्री तस्या भावो भवनं सत्ता सद्भावान्निष्कपटतया सुमित्रवन्निष्कपटमैत्री करोतीत्यर्थः। मित्रकपटभावयोश्छायातपयोरिव विरोधात् / उक्तंच, शाठ्येन मैत्री कलुषेण धर्म, परोपतापेन समृद्धिभावम् / सुखेन विद्यां पुरुषेण नारी वाच्छन्ति ये व्यक्तमपडितास्ते। इति चतुर्थ ऋजुव्यवहार भेदः। सुमित्रकथा चैवं। सुपुरिस पुरइवसुकरे, वरवत्थे सिरिपुरम्मि नयरम्मि। सिट्टी आसिनदीणो, समुद्ददत्तो समुद्दव्व॥१॥ सब्भावसारामित्ती, महंतदिप्पंतकंति कयसोहो। पुत्तो तस्स सुमित्तो, मित्तुव्व परं असत्तासो |2|| निद्धम्मो चत्त पुणो,लोहमओ मग्ग्णुव्य पीइहरो। परमम्मवहेणपरो, मित्तो तस्स त्थि यसुमित्तो ||3|| गुन्नविय कहसि पिउणो, ववहरणत्थं सुमित्त वसुमित्तो। संगहिय पउरपणिया, वणिया देसंतरे चलिया // 4 // मित्तपओसी दो सु-करिसपरो कोसिउव्व वसुमित्तो। उद्धमणो मित्तधणे, कुणइ विवायं इय पहम्मि॥५॥ जीवाण जओ धम्माओ, किं व पावाउ कहसु मह मित्त / भणइ सुमित्तो धम्मओ, नाणुजओ न उण पावाउ॥६॥ (यतः)दविणमलं कुलममलं, आणस्सरियं अभंपुरं विरियं / सुरसंपयं सिवपयं, धम्मा उचियजियाण धुवं / / 7 / / जइ पुण पावेण बुद्धि, रिद्धिसंसिद्धिमाइयो हुजा। तो हुजन को वि इहं, जडो दरिदो असिद्धो य॥८॥ रक्खियमिगे वि मयलं-छणो ससी हयमिगो वि मिगनाहो। सीहो तउ पावा जइति इय भणइ वसुमित्तो / / 6 / / इय वियवंता दुन्नि वि, सव्वस्स पणम्मि निम्मयपइन्ना। अन्नायधम्मनामे, कमेण कमिवि गया गामे // 10 // तत्थ य वसुमित्तेणं, मच्छरभरपूरिएण नियपक्खं। पुट्ठा गामीणजणा, पावा उ जउत्ति जंपति।।११।। जे परवंचणपउणा, विगलियकरुणा सया असचधणा। तप्पचक्खं पिच्छह, अतुच्छलच्छीइसंपन्ना।।१२।। अन्यैरप्युक्तम् नातीव सरलैर्भाव्यं, गत्वा पश्य वनस्थलीम्। सरलास्तत्र छिद्यन्ते कुब्जास्तिष्ठान्ति पादपाः // 13 // गुणानामेव दौरत्म्याधुरि धूर्यो निकल्पते। असंजातकिणस्कन्धः सुखं जीवति गौगलिः॥१४|| उत्तरदाणअसत्तो तस्स सुमित्तो मुरुक्खसत्थस्स। वसुमित्तेणं सत्था, उद्याडिओ गहियसव्वस्सं॥१५॥ सो एगागी अडवी-इनिवडिओ आहिदुक्खतत्तो वि। पगईइमित्तभावेण, परिगउ चिंतए एवं // 16 // भुजंतो रेजियपुव्व, जम्मकडुकम्मरुक्खफलमेयं / काऊणं संतोसं, वसुमित्ते वज्जिसुपओसं॥१७॥ इय चिंतिउंसुमित्तो, निसाइसावयगणाण वीहंतो। इक्कस्स निलुक्को गरु-यविडवविडविस्स कुहरम्मि॥१८॥ इत्तो निसुणइ दीवं-तरो उवत्ताण रुक्खसिहरम्भि। सो पक्खीणुल्लवियं, महल्लविहगेण पुट्ठाणं / / 16 / / भो विहगा कहह मह, कत्तो को इत्थ आगओ इण्हि। दीवंतरमिक्खेणं, किंकिरदढ व निसुयं वा // 20 // तेहि विजंजह दिह, सुय व दीवंतरेसु वा सव्वं। तह चेव तस्स कहियं एगो पुण भणइ तत्थ इमं / / 21 / / ताय अह पज्जपत्तो, सिंहलदीवा उ तत्थ नरवइणो। अस्थि जियमयणधूरिणि, धूया धूयाभयरणेहा / / 22 / / तीसे य अस्थि वियणइ-पिडियाए तइजओ मासो। विजेहि विपडिसिद्धा, तो पिउण दाविओ पडहो।।२३।। जो मह धूयं पउणेइ, तस्स वि य रेमि रज्ज अद्धमहं। सीइसमं विय नय को वि, पडहपछियइ पुण तथा।।२४।। अज्ज दिणं छट्ठीपढ-हयस्स तातीनयणरोगस्स। किं नत्थि ओसहमिह, किंवा अत्थत्ति मह कहसु // 25 // अह भणइ बुड्ढपक्खी , जाणंतेहिं विजह तहा एयं। दिवसम्मि विन कहिज्जइ, कि पुण रयणीइ हेपुत्तो॥२६|| तेणुत्तं महगरुयं, कुंटुं न य कोइ सुणइ इह ताय। ताकहसु आह सो विह,सुयपुव्वं वत्थमह एयं // 27|| अद्धाणं पवभमेहिं, इह निसि वसिएहिं जइणसाहहिं। संलक्खणुत्ति कहिओ, एस तरु नयणरोगहरो॥२८|| जइ कोइ एइतरुणो, पत्तरसेतीइ अत्थि सखिविज्जा। तो सा पउणिज्जइ लहु, इयं सा उचिंतइ सुमित्तो॥२६| छज्जीवहियामित्तीइ, मंदिरं दुइय दहणजलवाहा। सन्नाणरयणजलही, न अन्नहा बिंति जइणमुणी // 30 // इय नत्थिय तरुणं सर-जदलाइंगहित्तु सो अप्पं। वंधइ सिंहलदीवा, गयभारुंडस्स चरणरम्मि॥३१॥ नीओ तेण तहिं सो, छिविउं पडहं गओ निवइ पासे। विहिओ वि य पडिवत्ती,रन्ना पुट्टो कुसलवत्तं // 32 / / वाहरिय मयणरेह, वलिमडलमाइकाउनिवइ पासे। लोयणवेयणरहियं, करेइ तेणं दलरसेणं // 33 // परिणाविय निवकन्नं, दिन्नं रन्नय तस्स रज्जद्धं / सो तत्थच्छइ सुत्थिय, हियओ सव्वेसि हियनिरओ॥३४॥ वसुमित्तो वहणेणं, कया वि तत्थागयो विणिजेण। निवदंसरणाइपत्तो, गहिउं कोसल्लियं बहुयं / / 35 / / तत्थ सुमित्तं सुमहं-तराय लच्छीइ घटु दिप्पंतं। सो चत्तमित्रभावो, धसक्किओ चिंतए एवं // 36 / / Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुववहार 770 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जुसुत्त एसो पयउपउंसो, जइ कहमवि मज्ज वइयरं रन्नो।" अन्यथा भणनयथार्थजल्पनमादिशब्दावश्चक क्रियादोषापेया पायडइ तओ अहुणा, हिय सव्वस्सो विणस्सामि।।३७।। सद्भावमैत्रीपरिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्येति भावः। अबोधेर्धर्माप्राप्तेबीज केणावि उवाएणं, ताएयं मारिमुत्तिचिंते। मूलकारणं परस्य मिथ्यादृष्टर्नियमेन निश्चयेन भववतीति शेषः / तथाहि पाहुडमप्पितुनिवइ-रायपासम्मि आसीणो॥३८॥ श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः संभवन्ति धिगस्तु जैनं शासनं यत् विजणं जाणित्तु इमो, सुमित्तंभवणम्मि जाइ मायाए। श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकभाषाणादौ कुकर्मणि निवृत्तिापि पुच्छियकुसलोदंता, परुप्परं जाव अच्छति॥३६॥ दृश्यते इति निन्दाकरणादमी प्राणिनो जन्म कोटिष्वपि बोधिं न ताव सुमित्तणुत्तं, सुमित्तवरमित्त कइवयदिणाणि। प्राप्नुवंतीत्यबोधिबीजमिदमुच्यते। ततश्चाबोधिबीजादवपरिवृद्धिर्भवति मा मं जाणा विजसु, रन्नो तेणावि पडिवन्नं / / 40 तन्निन्दाकारिणस्तन्निमित्तभूतस्य श्रावकस्यापि यदवाचि / अण्णदिणे वसुमित्तो, रहम्मि विन्नवइनरवयं एवं। शासनस्योपघातोयोऽनाभोगेनापि वर्ततेस तन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषा परदोसग्गहणं जइ वि देवक्षुत्ततसुपुरिसाणं / / 41 / / प्राणिनामिति / / 1 / / बध्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् / विपाक तहवि हुगुरुअववाओ, पहुणो मा होउ इय पयंपेमि। दारुणं घोरं, सर्वानर्थविवर्द्धनमिति। ततस्तस्मात्कारणादुदयाद्भावे ऋजु एसो उह जामाऊ, अम्ह पुरे विज्जडुंबसुओ।॥४२॥ व्यवहारी प्रगुणव्यवहारवान् प्रकृतो भावश्रावक इति / उक्तमृजुव्यवहार तं सोऊण विसन्नो, करालकूलिसाहओव्व नरनाहो। इति चतुर्थं भावश्रावकलक्षणम्। ध०२०॥ तं वुत्तंतं सव्वं, सुबुद्धिसचिवस्ससाहेइ॥४३॥ उज्जसंधिसंखेडय-पुं०(ऋजुसन्धिसंखेटक) सरले गन्तव्य दिग्विभागे, सोपडिभणेइ जइ देव, एवमेयं तओ गुरुअयसो। "मग्गाउ उज्जुसंधि, संखेड्यं पवेदेइ / उजुसंधिसंखेडया वा सगडमम्म ववहारयारहाणं,जमिमादिवेसु तुह नयरी।।४४|| सहसा निवो विजपइ, जा पडहवइन हुइमं लाए। पवेदेइ, नि० चू०१३ उ०। तो पच्छन्नं एयं वा वायसुमंति तम्हत्ति॥४५|| उज्जुसुत्त (य)-पुं०(ऋजुसूत्र) अतीतानागताभ्युपगमकुटिलता-परिहारेण आमंति मंतिणुत्ते, रहम्मि पुट्ठा निवेश नियधूया। ऋज्वकुटिलं वर्तमानकालभावि वस्तु सूत्रयतिगमयति अभ्युपगच्छतीति किं अकुलीणवियारो सव्वविओ को विते पइणा // 46 // ऋजुसूत्रः। अतीतानागतयोर्विनाशानुत्पत्ति-भ्यामभ्युपगमश्च कुटिल इति साभणइ अविकलंको, ससिणो किर अस्थि न उण मह पइणो। भावः / ऋज्वक्र श्रुतमस्ये मि ऋजुश्रुतः / शेषज्ञानैमुख्यतया केवलगुणमयसुत्ती, पडुच्चपरगुज्झरक्खट्ठा / / 47 / / तथाविधपरोपकारसाधनश्रुतज्ञानमेवैकमित्यर्थः / उक्तं च, सुयनाणे नियपच्चइ नरेहिं इत्तो पिच्छणय पिच्छणमिसेण। अणिउत्तं, केवले वयणंतरं / / अप्पणा य परेसिंच, जम्हा तं परिभावग", सचिवेण लहु सुमित्तो, संझासमयम्मि बाहिरओ॥४८|| मिति स्वनामख्याते सप्तानां मूलनयानां चतुर्थे नये, अनु०। प्र०ा द्राग० पुन्नभरपेरिएणं, तेण वि नियवेसमप्पउं तइया। स्थल। सूत्र०ा अष्ट०|| अयं हि द्रव्यं सदपि गुणीभावान्नार्पयति पर्यायास्तु पढ़विओ वसुमित्तो, सुबुद्धिपुरिसेहि सो निहिओ॥४६।। क्षणध्वंसिनः प्रधानतया दर्शयतीति / उदाहरन्ति- यथा सुखविवर्तः तं नाउं ति निवो कह, मह दुहिया होहि जाव झूरेइ। संप्रत्यस्तीत्यादिरिति। अनेन हि वाक्येन क्षणस्थायि सुखाख्यं पर्यायमात्र साताव तत्थ आगंतु पुच्छिए किं इमं ताय॥५०|| प्राधान्येनापि दर्श्यते। तदधिकरणभूतं पुनरात्मद्रव्यं गौणतया नार्पयति। तुह वेहव्वकरोह, वच्छे पावुत्ति जंपिए रन्ना। आदिशब्दाद् दुःखपर्यायोऽधुनास्तीत्यादिकं प्रकृतनयनिदर्शनमसा भणइ तुज्झ जामा-उगो गिहे चिट्ठए ताय // 51 // भ्यूहनीयम्। तं आयन्नियरन्ना, रहम्मि पुट्ठो पयंपइ सुमित्तो। अस्य निरुक्तिगर्भमतम्। मब्भत्थमणो सव्वं, तं वसुमित्तस्स बुत्तंतं // 52 / / पचुप्पन्नग्गाही, उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो। ता चिंतई नरिंदो, मित्तीभावत्तणं इमस्स अहो। अयं च नयो वर्तमानमपीच्छन् स्वकीयमेवेच्छति परकीयस्य गम्मच्छरभीरुत्त, महो अहो धम्मसुधिरतं / / 53 / / स्वाभिमतकार्यासाधकत्वेन वस्तुतोऽसत्वादिति / अपरं च भिन्नइय चिंतिओ चमक्किय-मणो निवो कहइ मंतिपउराण। लिङ्गैभिन्नवचनैश्वशब्दैरेकमपिवस्त्वभिधीयतइतिप्रतिजानीते यथा तटः सब्भावरुइरमित्ति, जुत्तं वित्तं सुमित्तस्स // 54|| तटी तटमित्यादि / यथा गुरुर्गुरव इत्यादि तथा इन्द्रातयणु सुमित्तेणं तहिं, पियरो आणाविया पहिडेण / देमिस्थापनादिभेदात्प्रतिपद्यते वक्ष्यमाणनयस्त्वतिविशुद्धात्या नयरिपवेसो रन्ना, कराविओ गुरु विभूईए॥५५॥ लिङ्गवचनभेदाद्वस्तुभेदं प्रतिपत्स्यते / नामस्थापना द्रव्याणि च जायायवं ससुद्धी, स परेसि सुहाणकारको जाओ। नाभ्युपगमिष्यतीति भावः। इत्युक्त ऋजुसूत्रः अनु०। पडिवज्जियपव्व्जो, कमासुमित्तो गओ सुगई।५६।। एतदेव विस्तरेणाह मित्ती भावविरहिओ, अहिओ सपरेसि सययवसुमित्तो। उज्जुसुयं नाणमुजु-सुयमस्स सो यमुज्जुसुओ। मरिऊण गओ नरए, भमिही संसारमइघोरं / / 57 / / सूचयइ वा जमुजु, वत्थु तेणु त्ति सुत्तेत्ति / / एवं सुमित्रस्य समस्त सर्व-संदेहमित्रस्य निशम्य वृत्तम्। ऋजुश्रुतं ज्ञानं बोधरूपं ततश्च ऋज्ववक्रं श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतः। वा भव्या जना दुस्कलनालवित्र्या सद्भावमैत्र्यां भृशमाद्रियध्वम् / / 58||| अथवा ऋज्ववक्रं वस्तुसूचयतीतिऋजुसूत्र इति। कथंपुनरेतदभ्युपगतस्य इति सुमित्र कथा // वस्तुनोऽवक्रत्वमित्याहइत्युक्त ऋजुव्यवहारे सद्भाव मैत्रीलक्ष्णश्चतुर्थो भेदस्तदुक्तो निरुदितं पचुप्पन्नं संयम-मुप्पन्नं जंच जस्स पत्तेयं / चतुर्विधमप्यूजुव्यवहारस्वरूपम्। तं ऋजुतदेव तस्स, त्थि उ वक्कमन्नं निजमसंतं / / सांप्रतमस्यैव विपर्यये दोषदर्शनपूर्वकं विधेयतामाह यत्सांप्रतमुत्पन्नं वर्तमानकालीनं वस्तु यच्च यस्य प्रत्येकमात्मीयं अन्नह भणणाईसु, अबोहिवीयं परस्स नियमेण। तदेतदुभयस्वरूपं वस्तु प्रत्युत्पन्नमुच्यते तदेवासौ नयः तत्तो भवपरिवड्डी, तं होञ्जा उज्जुववहारं / / 46il प्रतिपद्यते तदेव वर्तमानमात्मीयं च वस्तु तस्य ऋजुसूत्रनय Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुसुत्त 771 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जुसुत्त स्याऽस्ति अन्यत्तु शेषमतीतानागतं परकीयं च यद्यस्मादसदवि-द्यमानं ततोऽसत्वादेव तद्वक्तुमिच्छत्यसाविति अत एवोक्तं नियुक्तिकृता एतन्मतमेव प्रमाणतःसमर्थयन्नाह! न वि गयमणागयं वा, भावो णुवलंमओ खपुष्पं च / नय निप्पओयणाउ, परकीयं परधणमिवत्थि।। विगतं विनष्टमतीतमनागतं त्वनुत्पन्नम् / एतदुभयरूपमपि न भावे न वस्त्वनुपलम्भात्खपुष्पवदिति / न च परकीय वस्त्वति निष्प्र-- योजनत्वात्प्रयोजनाकर्तृत्वात्परधनवदिति। अथ व्यवहारनयं युक्तितः स्वपक्षं ग्राहयन्नाह। जइन मयं सामन्नं, संववहारोवलद्धिरहियंति। नाणुगयमस्स व तहा, परक्कमवि निप्फलतणओ॥ हेव्यवहारनयवदिन्! यदि तव व्यवहारानुपयोगादनुपलम्भाच सामान्य न मतं संग्रहस्य सम्मतमपि नेष्टमित्यर्थः / ननु तथा तेनैव प्रकारेणैव व्यवहारानुपयोगादनुपलम्भाच गतमतिक्रान्तमेष्यच्चा-नागतं वस्तु नाभ्युपगतस्त्वंयुक्तेः समानत्वात्तथापरकमपि परकीयमपि वस्तुमैषीः स्वप्रयोजनासाधकत्वेन निष्फलत्वात्पर-धनवदिति / अथ यदसौ नयोऽभ्युपगच्छतितत्सर्वमुपसंहृत्य दर्शयति।। तम्हा निययं संपय-कालीणं लिंगवयणमिन्नं पि। नामाइभेयविहियं, पडिवज्जइ वत्थुमुज्जुसुओ॥ तस्मादृजुसूत्रनयः प्रतिपादितयुक्तितो वस्तु प्रतिपद्यते / कथं भूतं निजकमात्मीयं न परकीयं तदपि सांप्रतकालीनं वर्तमानं न त्वतीतानागतरूपम्तच्च निजं वर्तमानंच वस्तु लिङ्गवचनभिन्नमपि प्रतिपद्यते। तत्रैकमपि त्रिलिङ्गं यथा तटस्तटी तटमित्यादि / तथैकमप्येकवचनं बहुवचनवाच्यं यथा गुरुर्गुरवः आपो जलं दाराः कलत्रमित्यादि। तथा नामादिभेदविहितमप्यसौ वस्तु अभ्युपगच्छति / नामस्थापनाद्रव्यभावरूपाश्चतुरोऽपि निक्षेपान् सामान्यत इत्यर्थः तदिह लिंगवयणेत्यादिना अभ्युपगमद्वयोपन्यासेन वक्ष्यमाणशब्दनयेन सहास्याभ्युपगमभेदोदर्शितःशब्दनयो हि लिङ्गभेदाद्वचनभेदाच वस्तुनो भेदमेव प्रतिपत्स्यते न पुनरेकत्वम् / तथा नामादिनिक्षेपेऽप्येकमेव भावनिक्षेपं मंस्यते न तु शेषनिक्षेपत्रयमिति तदेवमुक्तः ऋजुसूत्रनयः विशे०। (एतन्मतदूषणं सद्दनयशब्दे)। भावत्वे वर्तमानत्व-व्याप्तिधीरविशेषिता। ऋजुसूत्रश्रुतः सूत्रे, शब्दार्थस्तु विशेषितः॥२६॥ भावत्वे वर्तमानत्वव्याप्तिधीरतीतानागतसंबन्धाभावव्याप्यत्वोपगन्तृता अविशेषिता शब्दाद्यभिमतविशेषापक्षपातिनी सूत्रे ऋजुसूत्रनयः श्रुतः सूत्रं च "पचुप्पण्णग्गाही, उज्जुसूओयण विहि मुणेयव्वोत्ति' अत्र प्रत्युत्पन्नमेव गृहातीत्येवं शीलः इत्यत्रार्थे तात्पर्यादुक्तार्थलाभः / अविशेषितपदकृत्यमाह शब्दार्थस्तु विशेषित इति / तथाच विशेषितार्थग्राहिणि शब्दादिनये नातिव्याप्तिरिति भावः / सतां सांप्रतनामाद्यर्थानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्र इति तत्वार्थभाष्यम्। व्यवहारातिशायित्वलक्षणमभिप्रेत्य तदतिशयप्रतिपादनीयमेतदुक्तं व्यवहारो हि सामान्य व्यवहारानङ्गत्वान्न सहते कथं तह्यर्थमपि परकीयमतीतमनागतं चाभिधानमपि तथाविधार्थवाचकं ज्ञानमपि तथाविधार्थविषयमविचार्य सहेतेत्यस्याभिमानो न चायं वृथाभिमानः स्वदेशकालयोरेव सत्ताविश्रामात् / यथा कथंचित्संबन्धस्य सत्ताव्यवहाराङ्गत्वे प्रतिप्रसङ्गात् / नच देशकालयोः सत्त्वं विहायान्यदतिरिक्तंसत्वमस्ति तद्योग्यता प्रकृते स्यादसत्ताबोधोऽपि चात्र तत्र खरशृङ्गादाविव सत्ताप्रतिक्षेपी। विकल्पसिद्धेऽपि धर्मिणि निषेध प्रवृत्ते-स्तत्र तत्र व्यवस्थापितत्वादिति दिग्॥२६॥ अन्यमप्यत्र विशेषमाह। इष्यतेऽनेने नैकत्रा-वस्थान्तरसमागमः। क्रियानिष्टाभिदाधार-द्रव्यभावाद्यथोच्यते॥३०॥ अनेनर्जुसूत्रनयेनैकधर्मिणि अवस्थान्तरसमागमः भिन्नावस्थावाचकपदार्थान्वयो नेष्यतेन स्वीक्रियते कुतः क्रिया साध्यावस्थाऽनिष्ठा घ सिद्धावस्था तयोर्या भिदा भिन्नकालसंबन्धस्तदाऽऽधारस्यैकद्रव्यस्याभावादत्रार्थेऽभियुक्तसंमतिमाह यथोच्यतेऽभियुक्तैः पलालं न दहत्यनि-भिद्यते न घटः क्वचित् / नासंयतःप्रव्रजति, भव्यासिद्धो न सिध्यति॥३१॥ अत्र दहनादिक्रियाकाल एव तन्निष्ठाकाल इति, दह्यमानादेर्दग्धत्वाद्यव्यभिचारात्तदबस्थाविलक्षणपलालाद् व्यवस्थावच्छिन्नेन समं दहनादिक्रियान्वयस्यायोग्यत्वात्पलालंन दहयाग्निरित्यादयो व्यवहारा निषेधमुखा उपपद्यन्ते। विधिभुखस्तु व्यवहारोऽत्रापलालं दह्यतेऽघटो भिद्यते संयतःप्रव्रजति सिद्धः सिध्यतीत्येवमाकार एव दृष्टव्यः / अत एव "सो समणे पव्वइओइ'" चेति नये कृतकरणपरिसमाप्तिः सिद्धस्याऽपि साधने करणव्यापारानुपरमादिति / नयो०।। अथऋजुसूत्रनयस्य भेदमाह। स्वानुकूलं वर्तमान-मृजुसूत्रो हि भाषते। तत्र क्षणिकपर्यायं, सूक्ष्मः स्थूलो नरादिकम् // 13 // हि निश्चितं ऋजुसूत्रो नयः / वर्तमानं केवलमतीतानागतकाल-रहित भाषते मनुते। तदपि कीदृशं स्वानुकूलं स्वस्यात्मनोऽनुकूलं कार्यप्रत्ययं मनुते परंतु परप्रत्ययं न मनुते / सोऽपि ऋजुसूत्रो द्विभेदो द्विप्रकारः / एकः सूक्ष्म ऋजुसूत्रः / 1 / अपरः स्थूल ऋजुसूत्रः / / तत्र सूक्ष्मस्तु क्षणिकपर्यायं मनुते क्षणिकाः पर्यायाः परतोऽव-स्थान्तरभेदात्पर्यायाणां स्ववर्त्तमानतायां क्षणावस्थायित्वमेवो-चितमिति / स्थूलस्तु मनुष्यादिपर्यायं वर्तमानं मनुते अतीताना-गतादिनारकादिपर्यायं न मनुते यो हि व्यवहारनयः कालत्रयवर्ति--पर्यायग्राहकस्तस्मात् स्थूल ऋजुसूत्रव्यवहारनयेन शंकरत्वं न लभते / अथ च ऋजुवर्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्रप्राधान्यतः सूत्रयन्नभिप्राय ऋजुसूत्रनय इति अतीतानागतकाललक्षणकौटिल्यवैकल्यात्प्राञ्जलमिति॥द्र०६अ। पर्यायनयभेदाः / ऋजुसूत्रादयः। "तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याच्छुद्धपर्यायसंश्रिता। नश्वरस्यैव भावस्य, भावास्थितिवियोगतः।। देशकालान्तरसंबन्धस्वभावरहितं वस्तुतत्वं सांप्रतिकमेकस्वाभावमकुटिलमृजुसूत्रयतीति / ऋजुसूत्रः न ह्येकस्वभावस्य नानादिकालसंबन्धित्वस्वभावमनेकत्वं युक्तमेकस्यानेकत्वविरोधात्। न हि स्वरूपभेदादन्यो वस्तुभेदः स्वरूपस्यैव वस्तुत्वापत्तेः / तथाहि विद्यमानेऽपि स्वरूपे किमपरमभिन्नं वस्तु यद्रूपनानात्वेऽप्येकं स्यादिति / यद्वस्तुरूपं येन स्वभावेनोपलभ्यते तत्तेन सर्वात्मना विनश्यति न पुनः क्षणान्तरसंस्पर्शीति क्षणिक क्षणकान्तरसम्बन्धे तत् क्षणकान्तरस्य क्षणान्तराकारविशेषाप्रसङ्गात् अतो जातस्य यदि द्वितीयक्षणसंबन्धः प्रथमक्षणस्वभावं नापनयति तदा कल्पान्तरावस्थानसंबन्धोऽपि तत्रापनयन स्वभावभेदे वा कथं न वस्तुभेदः अन्यथा सर्वत्र सर्वदा भेदा भावप्रसक्तिः / अक्षणिकस्यक्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियानुपप Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जुसुत्त 772 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जोय तेरसत्त्वं सह कार्युपढौकितातिशयमनङ्गीकुर्वतस्तदपेक्षायोगाद-क्षेपेण कार्यकारिणस्सर्वकार्यमकदैव विदध्यादिति न क्रमकर्तृत्वम् न वा कदाचनापि स्वं कार्यमुत्पादयेत् निरपेक्षस्य निरतिशयत्वान्न हि निरपेक्षस्य कदाचित्करणमकरणं वा विरोधात् तत्कृतानुकारं | स्वभावभूतमङ्गीकुर्वतः क्षणिकत्वमेव / व्यतिरिक्तत्वे वा संबन्धासिद्धिरपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्रसक्तिः / युगपदपि न नित्यस्य कार्यकारित्वं द्वितीयेऽपि क्षणे तत्स्वभावात् / ततस्तदुत्पत्तितः तत्क्रमप्रसक्तेः क्रमाक्रमव्यतिरिक्तप्रकारान्तरभावाच्च न नित्यस्य सत्वमर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात्तस्य प्रध्वंसस्य च निर्हेतुकल्वेन स्वभावतो भावात् स्वरसभङ्गुरा एव सर्वे भावाः इति पर्यायाश्रितर्जुसूत्राभिप्रायस्तदुक्तम्। अतीतानागता देव, कालसंस्पर्शिव-र्जिजम्। वर्तमानतया सर्व-मृजुसूत्रेण सूत्र्यते // सम्म० / स्था० (अयं च नयो मूलनयत्वेनानुयोगद्वारादिषूक्तः संमतिकृता पुनः पर्यायनयभेदत्वेनाभ्युपगतः पञ्जायणय शब्देऽस्य विस्तरतो वर्णनं करिष्यते) (क्षणिकवादः खणियवायशब्दे) एकत्वानेकत्वसमस्तधर्मकलापविकलतायास्तदपि विज्ञानवादिपरिकल्पितम् विज्ञानशून्यरूपेण ऋजुसूत्रयतीति ऋजुसूत्रः / माध्यमिकदर्शनाऽवलम्बिनि सर्वभावानां नैरात्म्यं प्रतिपादयति पर्यायास्तिकनयभेदे, (तन्मतं सुण्णवाय शब्द) उज्जुसुत्त(य)वयणविच्छेद पुं०(ऋजुसूत्रवचनविच्छेद) ऋजुवर्तमानसमयं वस्तुस्वरूपावच्छिन्नत्वात्तदेव सूत्रयति परिच्छिनत्ति नाजीतानागतं तस्यासत्त्वेन कुटिलत्वात् तस्य वचनं पदं वाक्यं वा तस्य विच्छेदोऽन्तःसीमेति यावत् ऋजुसूत्रवचनस्येति कर्मणि षष्ठी। ऋजुसूत्रस्यैवायमर्थो नान्यस्येति प्ररूपयतो विच्छिद्यमाने वचने, "मूलणिमेणं पज्जव–णयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो, तस्स उ सद्दाई आसाहपसाहासुहमभेआ" सम० उज्जुसुत्ता(या)मास पुं०(ऋजुसूत्राभास) ऋजुसूत्रवदाभासते ऋजुसूत्राभासः / सर्वथा द्रव्यापलापिनि, ऋजुसूत्रवदाभासमाने नयाभासे, र०॥ उज्जुसेढि स्त्री०(ऋजुश्रेणि) ऋजुः सरला चासौ श्रेणी च / सरलाकाशप्रदेशपङ्क्तौ, / (उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई अड्ढे एगसमइएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ) उत्त० 26 अ01 उज्जेणी स्त्री०(उज्जयिनी) अवन्तीजनपदराजधान्याम् "उज्जेणीए नयरीए अवंति नामेण य विस्सुओ" संस्था०(उज्जेणि अदृणे खलु०) आव०४ अ०॥ उज्जेणगपुं०(उज्जयनक) स्वनामख्याते श्रावकभेदे, उज्जेणगस्स सावगस्स तत्थ णियलिंगणं कालगयस्स मिच्छत्तं जायं, आव०४ अ०॥ उज्जोइय त्रि०(उद्योतित) उत् द्युत्क्त 0 रत्नप्रदीपादिभिः प्रकाशिते, ग०१अधि० ध०। तं०। औ०॥ उज्जोएमाण त्रि०(उद्योतयत्) प्रकाशयति, "दसदिसाउ उज्जोएमाणा पभासेमाणा" जीवा०३ प्रति० / स्थूलवस्तूपदर्शनतः प्रकाशयति, स्था०८ ठा०। सूत्र० ! औ० / उपा०॥ उज्जोय पुं०(उद्योत) उद् द्युत्- अच् / वर्तितृणचुडाकाष्ठादिभिः अग्निप्रकाशने, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ० / वस्तुप्रभासने, स्था० 4 ठा०। वस्तुविषये प्रकाशे, नं0। आ० म०प्र० / औ०। "देवुञ्जोयं करेंति" रा०। "उज्जोओ तह य अंधकारोपएसो दुसालाभं परिणामो" सूत्र०१ अ०।अस्य निक्षेपः। सांप्रतमुद्योत उच्यते तत्राहदुविहो खलु उज्जोओ, नायव्वो दय्वभावसंजुत्तो। अग्गीदव्वुजोओ, चंदो सूरो मणी विज्जू / / द्विविधो द्विप्रकारः खलुशब्दो मूलभेदापेक्षया न वक्त्रपेक्षयेति विशेषणार्थः / उद्योत्यते प्रकाश्यते अनेनेति उद्योतो ज्ञातव्यो वि-ज्ञेयो द्रव्यभावसंयुक्तः / द्रव्योद्योतो भावोद्योतश्चेति भावः / तत्र द्रव्योद्योतोऽग्निश्चन्द्रः सूर्यो मणिश्चन्द्रकान्तादिलक्षणो विद्युत् प्रतीता। एते द्रव्योद्योताः / एतैर्घटादीनामुद्योतनेऽपि तद्गतायाः सम्यक् - प्रतीतेरभावात् सकलवस्तुधानुद्योतना च न ह्यन्यादिभिः सदसन्नित्याद्यनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः सर्व एव धर्माधर्मास्तिका यादयो वा द्योत्यन्ते तस्मादग्न्यादयो द्रव्योद्योता इति। अधुना भावोद्योतमाह। नाणं भावुजोओ, जह भणियं सव्वभावदंसीहिं। जस्स उवओगकरणे, भावुजोयं वियाणाहि॥ ज्ञायते यथावस्थितं वस्त्वनेनेति ज्ञानम् / सतो भावोद्योतः तेन घटादीनामुद्योतने तद्गतायाः सम्यक् प्रतिपत्तेः स्वभावात्तस्य तदात्मकत्वात् / एतावता वा विशेषेणैव ज्ञानं भावोद्योत इति प्राप्तमत आह यथा भणितं यथावस्थितं सर्वभावदर्शिभिस्तथा यद् ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति भावः / तत्रापि विशेषेणोद्योतः किं तु तस्य ज्ञानस्योपयोगकरणे सति भावोद्योतं विजानीहि नान्यदा तदेव तस्य वस्तुनोऽतत्वसिद्धेः / इत्थमुद्योतस्वरूपमभिधाय सांप्रतं येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जना भवन्ति किंतु तीर्थकरनाम-कर्मोदयतोऽनु सत्वार्थसंपादनेन भावोद्योतकराः पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशतिरिति। अत्र पुनःशब्दो विशेषणार्थः / स चैतत् विशिनष्टि। आत्मानमधिकृत्य के वलज्ञानेनो द्योतकरा लोक प्रकाशकवचनप्रदीपोपेक्षया तु शेषकतिपयभव्यविशेषादधिकृत्योद्योतकरा अत एवोक्तं भवन्ति कोऽर्थः न भवन्ति न तु भवन्त्येवं कांश्चनप्राणिनोऽधिकृत्योद्योतकरत्वस्यासंभवात् / चतुर्विशतिग्रहणमधिकृतावसर्टिपणीगततीर्थकरसंख्याप्रतिपादनार्थमुद्योतनाधिकारे एव द्रव्योद्योतः। द्रव्योद्योतोद्योतभावोद्योतोद्योतयोर्विशेषप्रतिपादनार्थमाह। दव्वुजोओजोओ, पभासई परमियम्मि खित्तम्मि। भावुलोओजोओ, लोगालोग पगासेइ॥ द्रव्योद्योतोद्योतो द्रव्योद्योतप्रकाशः पुद्गलात्मकत्वात्तथाविधपरिणामयुक्तत्वाच प्रकाशयति / पाठान्तरं प्रभासते परिमिते क्षेत्रे अत्र यदा प्रकाशयति तदा प्रकाश्यं वस्तु अध्याहियते यदा तुप्रभासते तदा स एव दीप्यते इति गृह्यते भावोद्योताधोतोलोकं प्रकाशयति प्रकटार्थम्। उक्तः उद्योतः। आ०म०द्वि०॥ आ०चूला उद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतपः चन्द्रगतः प्रकाश इति तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते इति / सूत्रकृदाह "उज्जोवेंति तवंति पगासेंति आहितेति वदेज्जा''चं०३ पाहु०। दिवा उद्योतो रात्रावन्धकार इति दण्डकश्च अंधयार शब्दे उक्तः। ऊर्ध्वलोके तिर्यग्लोके च उद्योतः॥ उडलोगेणं चत्तारि उज्जोयं करेंति तंजहा देवा देवीओविमाण आभरणा तिरिक्खलोगेणं चत्तारि उज्जोयं करेंति चंदा सूरामणी जोती। स्था०४ ठा०॥ उज्जोयकरण न०(उद्योतकरण) प्रकाशकरणे, आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ०॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उञ्जोयग 773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्झाअ उज्जोयग त्रि०(उद्योतक) उद्योतयति प्रकाशयति केवलिज्ञानदर्श- मानसू रिगुरौ वटगच्छस्य प्रथमाचार्ये, 'तस्माच्च विमलचन्द्रः, नाभ्यामिति। अवयवतः स्फुटप्रकाशके, "सव्वजगुजोयगस्स" नं०॥ सहेमसिद्धिर्वभूव सूरिवरः / उद्योतनश्च सूरिः, शोषितदुरि ताकुरव्यूहः / उज्जोयगर त्रि०(उद्योतकर) उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान्लोकस्य अथ युगनवनन्द(६६२) मिते, वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते / पूर्वावनितो के वलालोकेन तत्पूर्वकवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरण- विहरन्, सोऽर्बुदसुगिरेः सविधमागात् / तत्र वटेलीखेटकशीलानित्यर्थः / उद्योतकरणशीले तीर्थकृदादौ, आ०म० द्वि०। / सीमावनिसंस्थवरवटाधः। सुमुहुर्ते सूपदेष्टान सूरीन् संस्थापयामास। प्रकाशकारिणि, प्रश्न०२ सं० द्वा०। ख्यातस्ततो गणोऽयं वटगच्छाहोऽपि वृद्धगच्छ इति। ग०। पं०व०। अयं लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। च विक्रमसंवत् (664) मालवदेशाच्छ-त्रुज्जयं गच्छन् मार्ग एव देवलोकं अरिहंते कित्तइस्सं,चउवीसं पिकेवली||१|| गतः। जै०३०॥ उसभमजिअंच वंदे,संभवमभिणंदणं च सुमइंच। उज्जोयणाम न०(उद्योतनामन्) उद्योतनिबन्धनं नाम नामकर्मभेदे, पउमप्पहं सुपासं, जिणंच चंदप्पहं वंदे॥२॥ अणुसिणपयासरूवं, जियंगमुज्जोयएइ हुजोया। सुविहिं च पुप्फदंतं,सीअलसिजंस वासुपुजं च। जइ देवुत्तरविक्किय,जोइसखज्जोयमाइव्व / / 15 / / विमलमणंतं च जिणं,धम्म संतिं च वंदामि // 3 // इहोद्योतादुद्योतनामोदयेनजीवाङ्ग जन्तुशरीरमुद्योतत्वे उद्योतं करोति कथमित्याह। अनुष्णप्रकाशरूपमुष्णप्रकाशरूप हि यन्हिरप्युद्योतत इति कुंथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमि जिणं च। तद्व्यवच्छेदार्थमनुष्णप्रकाशरूपमित्युक्तम्। आह क इवोद्योतोदयावंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च // 1 // जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्तीत्याह। यतिदेवोत्तरवैक्रियएवं मए अमिथुआ, रयमलापहीणजरमरणा। ज्योतिष्कखद्योतादय इव / तत्र यतयश्च साधवो देवाश्च शूरा यतिदेवाः चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु // 5|| यतिदेवैर्मूलशरीरापेक्षयोत्तरकालं क्रियमाणं वैक्रियं यतिदेवोत्तरवैक्रियं कित्तियवंदियमहिया, जे एलोगस्स उत्तमा सिद्धा। ज्योतिष्काश्चन्द्रग्रहनक्षत्रताराःखद्योताः प्रतीताः ततो यतिदेवोत्तरवैक्रिय आरुग्गबोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दिंतु॥६| च ज्योति-ष्काश्च खद्योताश्च ते आदिर्येषां रत्नौषधी प्रभृतीनां ते चंदे सुनिम्मलयरा, आइचेसु अहियं पयासयरा। यतिदेवोत्तरवैक्रियज्योतिष्कखद्योतादयस्त इव / अत्र मकारो सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु // 7 // लाक्षणिकः / अयमर्थः यया यतिदेवोत्तरवैक्रियं चन्द्रग्रहादिज्योतिष्काः अस्यव्याख्या तल्लक्षणंचेदम्।"संहिताच पदं चैवपदार्थः पदविग्रहः / एव खद्योतरत्नौषधीप्रभृतयश्चानुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं विदधति तथा चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्यषविधाः तत्रास्खलितपदोचारणं | यदुदयाज्जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमातपमातन्वन्ति तदुद्योत नामेत्यर्थः / कर्म०। पं०सं०। प्रव०। श्रा०॥ संहिता सा च प्रतीता अधुना पदानि लो-कस्योद्योतकरात् धर्मतीर्थकरान जिनान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि चतुर्विंशतिमपि केवलिन उज्जोयदुग न०(उद्योतद्विक) उद्योतातपलक्षणे नामकर्मप्रकृति युग्मे, इति / अधुना पदार्थः लोक्यते प्रणिना दृश्यते इति लोकः / अयं चेह कर्म०॥ तावत्पञ्चास्तिकायात्मको गृह्यते / तस्य लोकस्य उद्योतकरणशीला उज्जोयफुड त्रि०(उद्योतस्पृष्ट) प्रकाशसंयुते, उज्जोयफुडम्मितुदप्पणम्मि उद्योतकरास्तान् के वलालो के न तत्पूर्वकवचनदीपेन वा संजुज्जते जया देहो हेति ततो पडिबिंब छायावए भाससंजोगा, नि०चू० सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः / तस्माद् दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं | 13 उ०॥ धारयतीतिधर्मः। उक्तंच! "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तूनस्माद्धारयते ततः। उजोवित त्रि०(उद्योतित) उद्-द्युत्- णिच्- / क्त-। रत्नप्रदीपाधत्ते वै तान् शुभस्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः / / " तीर्यते दिभिर्दीप्ते, नि० चू० 5 उ०।।। संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थ उज्झअत्रि०(उज्झक) सद्विवेकशून्ये, "लित्ता तिव्वाभितावेणं उज्झआ तत्करणशीला धर्मतीर्थकरास्तान्। तथा रागद्वेषकषायोदयपरीषहोप असमाहिआ" सद्विवेकशून्या भिक्षा पात्रादित्यागात्परसर्गाऽष्ट प्रकारकर्मजेतृत्वाजिनास्तान् तथा अशोकाद्यष्टमहा- गृहभोजितयोद्देशकादिभोजित्वात्। सूत्र०१ श्रु०३ अ०।। प्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि उज्झण न०(उज्झन) उज्झ्-ल्युट्- / बहिर्नयने, विशे०। परित्यागे, स्वनामभि स्तोष्ये चतुर्विशतिरितिसंख्या। अपिशब्दो भावतस्तदन्य- ओ० समुच्चयार्थः केवलज्ञानमेषां विद्यते इति केवलिनः तान् केवलिन इति उज्झणविहि पुं०(उज्झनविधि) परिष्ठापनविधौ, व्य० द्वि०७ उ०। पदार्थः / पदवि-ग्रहोऽपि यानि समासभाजि पदानि तेषु दर्शित एव। | उज्झणा स्त्री०(उज्झना) उज्झ० णि० युच् ! उत्सर्गे अवकिरणे, संप्रति चालनावसरस्तत्र तिष्ठतुतावत्सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिरेयोच्यते। स्व- __ आव०४ अ०॥ स्थानत्वात् / उक्तं च " अक्खलियसंहियाइ-वक्खाणचउक्कए उज्झर पुं०(अवझर) पर्वततटादुदकस्याऽधःपतने, भ० ५श, दरिसियम्मि / मुत्तप्फासियनिनुत्ति, वित्थरत्थो इमो होई" आ० 7 उ०। निर्झरविशेषे, ज्ञा०५ अ० प्रवाहे च, नं०। जं०। म०वि० / ध। ईश्वरसिद्धिविषये कृतबहुश्रमे विद्वतेंदे, उद्योतकरस्तु उज्झररव पुं०(अवझररव) निर्झरशब्दे, ज्ञा०६ अ०॥ प्रमाणयति / भुवनहेतवः / प्रधानपरमाणवोऽदृष्टाः स्वकार्यो- उज्झरवण्णी स्त्री०(अवझरपणी) उदकपाते, दगवाते सीतभारा साय त्पत्तावतिशयवद्बुद्धिमन्तमधिष्ठातारमपेक्षन्ते स्थित्वा प्रवृत्तेस्तन्तु- उज्झरवण्णी भण्णति, नि०चू०५ उ०॥ तुर्यादिवदिति / / सम्म०॥ उज्झाअ पुं०(उपाध्याय) उप,अधि०इ० अण० / "ऊचोपे" उज्जोयणसूरि पुं०(उद्योतनसूरि) देवसूरिशिष्यनेमिचन्द्रशिष्येवर्द्ध | // 1 // 37 // Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्झाय 774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्झियय उपशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ऊत् ओचादेशौ वा | उज्झियथोवमाहार पुं०(उज्झितस्तोकाहार) उज्झितधर्मो स्तोकः भवतः। इति ऊत्वे संयोगादित्वावस्वः / पाठके,प्रा०॥ स्वल्प आहारो यस्य स उज्झितस्तोकाहारः / सप्तमपिण्डैउज्झिउं अव्य०(उज्झित्वा) परित्यज्येत्यर्थे, 'उज्झिउं वाले वेरस्स | षणाविषयकाभिग्रहधारके, / / आव० 3 अ०। आभागी भवन्ति" सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उज्झियधम्मग त्रि०(उज्झितधर्मक) परित्यक्तजनधर्मके, 'अप्पेसिया उज्झिऊण अव्य०(उज्झित्वा) उज्झ त्वा इट् / परित्यज्येत्यर्थे, भोयणजाए बहु उज्झियधम्मए' आचा०१ श्रु०१अ०६उ०। 'अपसत्थं पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं। द०८अ०। उज्झियधम्मा स्त्री०(उज्झितधर्मा) यत्परित्यागार्ह भोजन-जातमन्ये उज्झित्तए अव्य०(उज्झितुम्) सर्वस्यादेशविरतेस्त्यागतः परित्य- च द्विपदादयो नावकाङ्क्षन्ति तदर्द्धत्यक्तं वा गृह्णतः सप्तभ्यां तुमित्यर्थे, उपा 02 अ०॥ "सीलवयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपो- पिण्डैषणायाम, पंचा०१८ विव०। स्था०11०। सूत्र०। आ०चू० सहोववासाइंचालित्तए वा खोभित्तए खंमित्तए भंजित्तए वा उज्झित्तए" उज्झियधम्मिय त्रि०(उज्झितधर्मिक) उज्झितं परित्यागः स एव धर्मः ज्ञा०८अ० पर्यायो यस्यास्ति तदुज्झितधर्मिकम् / सप्तमपिण्डैषणापरि--शुद्धे / उज्झिय न०(उज्झित) परित्यागे,अनु०॥ उज्झ, कर्मणि० क्त०।रहिते, अणु०।। अह उज्झियधम्मिया पुव्वदेशे किर पुटवण्ह रजं जंतं अवरण्हे अष्ट० भिन्ने, भिणंति वा उज्झियंति वा एगट्ठमिति। आव० 4 अ०। परिद्वविजति साधुआगमणं च तंपि भक्ष्यणगतं वा देजा हत्थगं वा देखा चतुर्थ्यां वस्त्रपात्रादि प्रतिमायाम्॥ कप्पति जिणकप्पितस्स पंचविहिग्गहणंथेराणं सत्तविहिं एतासिं सत्तण्हं दवाइदव्वहीणा-हियं तु अमुगं च मे न घेत्तव्वं / पिंडेसणाणं केइ पढंति सत्तण्हं पाणेसणाणं एवं पणेए विचउत्थी अप्पलेवा दोहि विभावनिसिटुं, तमुज्झिउभट्ठणो महें। तिलोदगादी। आ०चू० 4 अ०॥ उज्झितं चतुर्दा। द्रव्यक्षेत्रकालभावोज्झितभेदात्तत्र द्रव्योज्झितं यथा उज्झियय पुं०(उज्झितक) विजयमित्रसार्थवाहस्य सुभद्रायां केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातमियत्प्रमाणात् हीनाधिकं पात्रममुकं वा भाव्यामुत्पन्ने सुते, तद्वक्तव्यता दुःखविधाकानां द्वितीये ऽध्य-यने कमठकप्रतिग्रहादिकं पात्रं मया न गृहीतव्यं तदेव केनचिदुपनीतं ततः दर्शिता तद्यथाप्रागुक्तयुक्त्या द्वाभ्यामपि भावतो निसृष्टं तदेव भाषितमन-वभाषितं वा जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स दीयमानं द्रव्योज्झितम्। अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते दोच्चस्सणं भंते ! अज्झयणस्स क्षेत्रोज्झितमाह। दुहविवागाणं समजेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते तएणं सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी / एवं खलु जंबू तेणं कालेणं अमुगुब्भवं णधारे,उवणीयं तं च केणई तस्स / तेणं समएणं वाणियगामे णाम णयरे होत्था रिद्ध 3 तस्स णं जं तुज्झेतरहाई, सदेस बहुपत्तदेसे वा / / वाणियगामस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए दुईप्पलासे णाणं उजाणे अमुकदेशोद्भवं पात्रंनधारयामि तदेवच केनचिदुपनीतं तदुभा-भ्यामपि होत्था। तत्थ णं दुईपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खायतणे पूर्वोक्तहेतोः परित्यक्तं क्षेत्रोज्झितम्यता पात्रमुज्झेयु-र्भरतादयो भरतो होत्था। वण्णओ तत्थ णं वाणियगामे मित्ते णामं राया होत्था। नटः आदिशब्दाचारणादिपरिग्रहः स्वदेशंगताः सन्तो बहुपात्रदेशे वातदपि तत्थ णं मित्तस्स रण्णो सिरीणामं देवी होत्था। वण्णओ तत्थ क्षेत्रोज्झितम्। णं वाणियगामे कामज्झया णामं गणिया होत्था / अहीण जाव कालोज्झितमाह। सुरूवा वावत्तरिकलापंडिया चउसहिगणिया-गुणोववेया दगदोद्धिगाइ पुवे-काले जुग्गं तदन्नहिं उज्झे। एकू णतीसे विसे से रममाणी एकतीसरइगुणप्पहाणा होहिइ वएस्स काले, अजोग्गयमणागयं उज्झे / वत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेदोग्धिकं तुम्बकं दकस्य जलस्य यदिग्रयते तुम्बकं तदादिशब्दा-तत्र सीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसाइगीयरइगंधव्वणट्टकुतुम्बकादिकं च यत्पूर्वस्मिन् ग्रीष्मादौ काले योग्यं तदन्यस्मिन् सलासंगयगयभणियविहियविलासललियसंलावनिउणजुत्तोवर्षाकालादायुज्झेत् भविष्यति वा एष्यति काले ऽयोग्यमतोऽना-गतमेव वयारकुसला सुंदरथणजहणवयणकरचरणलावण्णविलायदुज्झेत् तदेतदुभयथापिकालोज्झितं ज्ञातव्यम्। सकलिया उसियधयासहस्सलंभा विदिण्णछत्तचामरवालवेभावोज्झितमाह / यणिकयाकणीरहप्पयाया होत्था। बहुणं गणियासहस्साणं लक्षूण अण्णमण्णे, पत्ते दो देइ अन्नस्स। आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्ठित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं करेमाणी पालेमाणी विहरइ। तत्थ णं वाणियग्गामे विजयमित्ते सो वि अनिच्छह ताई, भावुज्झिय एवमाईयं // णामं सत्थवाहे परिवसइ / अड्डे तस्स णं विजयस्स मित्तसुभलब्ध्वा अन्यान्यभिनवानि पात्राणि पुराणानि स गृही अन्यस्य हाणामं भारिया होत्था / अहीण तस्स णं विजयमित्तस्स कस्यचिद्ददाति अपि च तानि दीयमानानि अपि यदा नेच्छति तदा पुत्ते सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झिए णामं दारए होत्था / एवमादिकं भावोज्झितं द्रष्टव्यम्। वृ०१ उ०। नि०चू०। स्था०। अहीण जाव सुरूवा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे उज्झियकप्प पुं०(उज्झितकल्प) उज्झितरूपे कल्पनीयेऽर्थे , भगवं जाव समोसो परिसा निग्गया राया विनिग्गया अंडगमुज्झियकप्पे, नयभूमि खणंति इहरहातिण्णि असज्झाइ- जहा कूणिओ निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया यप्पमाणं अंडयं भिण्णंति वा उज्झियंति वा एगटुंतं च कप्पे वा उज्झियं पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ भूमीए जइ कप्येता कप्पं // आव०४ अ०। महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूइ जाव तेयलेसे छटुं छटेणं Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्झियय 775 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्झियय जहा पण्णत्तीए पढमं जाव जेणेव वाणियगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता वाणियउचनीयकुलाई अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता तत्थर्ण बहवे हत्थी पासई सणद्धबद्धवम्मियगुडिए उप्पीलियकयत्थे उदामिय घंटे णाणामणिरयणविविहगेवेज्जे उत्तरंकचुइग्जे पडिकप्पिएझयपडागवरपंचामेला आरूढे हत्थारोहे गहिया उहपहरणेए अण्णे य तत्थ बहवे आसे पासई सण्णद्धबद्धवम्मियगुडिए आविद्धगुडे उसारियपक्खरे उत्तरकंचुझ्यओचूलमुहचंडाधरचामरथासकपरिमंडियकडिए आरूढस्सारोहे महियाओहप्पहरणे तेसिं च णं पुरिसाणं मज्झगयं एगं पुरिसं पासइ अवउडगबंधणं उक्कतकण्णणासं णेहतुप्पियगयं बज्झकरकडिंजुयणियत्थं कंठेप्प गुणरत्तमल्लदामं चुण्णगुडियगायं चुण्णयं वम्भपाणीपीयं तिलं 2 चेव छिज्जमाणं काकणिमंसाइं खावियंतं णवीखक्खरसएहिं हम्ममाणं अणेगणरणारिसंपरिबुडे चच्चरे चच्चरे खंडपडहएणं उग्धोसिज्जमाणं इमंचणं पयारूवं उग्धोसणं सुणेइ णो खलु देवाणुप्पियाउज्झियगस्स दारगस्स केई राया रायपुत्तो वा अवरजइ / अप्पणो से सयाई कम्माई अवरजइ तएणं से भगवं, गोयमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झथिए / अहोणं इमे पुरिसे जाव णिरयपडिरूवयं वेयणं वेएसि त्ति कटु वाणियगामे णयरे उचणीयकुले 2 जाव अडमाणे अहापज्जत्तं समुदाणं गेण्हइ वा णियगामं णयरं मज्झं मज्झेणं जाव पडिदंसेइ समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ एवं वयासी एवं खलु अहं भंते तुब्मेहि अब्भणुण्णाए समाणे वाणियगामं जाव तहेव निवेएइ सेणं भंते पुरिसे पुटवभवे के आसि जाव पचणुभवमाणे विहरह। एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे मारहे वासे हत्थिणाउरे णाम णयरे होत्था। रिद्ध तत्थ णं हत्थिणाउरे णयरे सुणंदे णामं राया होत्था / महियाहिमवंतमलयमंदरतत्थ णं हथिणाउरे णयरे बहुमज्झदेसभाए तत्थणं महं एगे गोमंडवे होत्था। अणेगखंभसयसणिविढे पासाईए तत्थ णं बहवे णयरे गोरुवासणाहा य अणाहा य णयरगावीओ य णयरवलीवद्दा य णयरपडियाओ य णयरमहिसओयणयरवसभाय पउरतणपाणीय णिब्भया णिरुविया सुहं सुहेणं परिवसइ। तत्थणं हत्थिणाउरे भीम-णामे कूडग्गाहे होत्था / अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे तस्स णं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला णामं भारिया होत्था / अहीणं तएणं साउप्पला कूडग्गाहिणी अण्णया कयाइ आवण्णसत्ता जाया वि होत्था / तएणं तीसे उप्पलाए कूडग्गाहिणीए तिण्हं मासाणं | बहुपडिपुण्णाणं अयमेया रूवे दोहले पाउन्भूए धण्णाउणं ताओ अम्मयाओ४ जाव सुलद्धे जाऊण बहुणं बहुणं णयरगोरूवाणं सण्णहाण य जाव वसभाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छिप्पाहि य कुकुहेहिय वहहिय कण्णेहि य अक्खिहि य णासाहि य जिब्भाहि य ओडेहि य कंवलेहि य सोलेहि य तलंतेहि य मन्जिएहि य परिसुकेहि य लामण्णेहि य सुरं च महुं च मेगरं च जाई च सिधुं च पसण्णं च आसाए माणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिमुंजमाणीओ दोहलं विणज्जति तं जईणं अहमवि बहुणं णयरं जाव विणिजामि तिकटु तसि दोहलसिअविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा उलग्गाउलग्गसरीरा नित्तेयादीणं च मणवयणा पंडुल्लुइयमुही इमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूड-गाहणीए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता उहय जाव पासइपासइत्ता एवं बयासी। किण्णं तुमं देवाओ हयज्झिया हिंसि तएणं सा उप्पला भारिया भीमकूडग्गाहं एवं बयासी। एवं खल देवा ममं तिहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दोहलं पाउब्भूए धण्णाणं 4 जाउणं बहुणं गोरूवाणं ऊहेहि य जाव लावण्णएहि य सुरं च 6 आसाएमाणीओ दोहलंविणिंति तए णं अहं देवा-गुप्पिया तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाव ज्झियामि / तएणं से भीमकूडग्गाहे उप्पलं भारियं एवं बया० माणं तुमं देवाणुप्पिया उहज्झियासि अहण्णं तं तहा करिस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव समासामेइतएणं से भीमे कूडग्गाहे अद्धरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सण्णद्धजावपहरणे साओ गेहाओ णिगच्छइ णिगच्छइत्ता हत्थिणाउरं मज्झं मज्झेणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छ इत्ता बहुणं णयरगोरूवाणं जाव वसभाण य अप्पेग-इयाणं ऊहोच्छिदइ अप्पैगइयाणं कंबलए छिंदइ अप्पे गइयाणं अण्णमणाणं अंगोवंगाइ विइंगेइ विइंगेइत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता उप्पलाए कूडग्गाहणीए ववण्णेइतएणं सा उप्पला मारिया तेहिं बहुहिंगोमंसेहिं सोल्लेहिं सुरंच आसाएमाणीए 4 तंदोहलं विणेइतएणं सा उप्पला कूडग्गा-हणी संपुण्णदोहला समाणीयदोहला विच्छिण्णदोहला संपण्णदोहला तं गब्मं सुहं सुहेणं परिवसइ। तएणं सा उप्पला कूडग्गाही अण्णया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया।तएणं तेणं दारएणं जायमित्तेणं चेव महया 2 सद्देण विधुढे विसरे आरसिए तएणं तस्स दारगस्स आरोयसदं सोचा णिसम्म हत्थिणाउरे णयरे बहवे णयरगोरूवा जाव वसभाण य भीया 4 उव्विग्गा सव्वओ संमंता विप्पलाइत्तातएणं तस्सदारगस्स अम्मापियरो अयमेया रूवे णामधेनं करेइ जम्हा णं अम्हं इमेणं दारएणं जायामेत्ते णं चेव महया 2 सद्देणं विघटे विस्तरे आरस्सिए तएणं Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्झियय 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्झियय एयस्स दारगस्स आरसियसद्दे सोचा णिसम्म हत्थिणाउरे वहवे णयरे गोरूवाजाव भीया 4 सवओ समंता विप्पलाइत्ता तह्माणं / होउं अो दारए गोत्तासे णामे णामेणं तए णं से गोत्तासे दारए | उम्मुक्कबालभावे जाव जाएयावि होत्था।तएणं से भीमे कूडग्गाहे अण्णया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते तएणं से गोत्तासे दारए बहुणं मित्तणाई णियगसयणसबंधिपरिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे रोयमाणे कंदमाणे वियवमाणे भीमस्स कूडग्गाहस्स णीहणं करेइ करेइत्ता बहुइलोइयमयकिचाइ करेइ करेइत्ता तएणं से सुणंदेराया गोत्तासं दारयं अण्णयाकयावि सयमेव कूडग्गाहेत्ताए ठवेहातएणं से गोत्तासे दारए कुडग्गाहे जाएयाविहोत्था। अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे तएणं से गोत्ता से दारए कूडग्गाहे कल्लाकल्लिं अद्धरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सण्णद्धबद्धकवए जाव गहिया उहपहरणे साओगिहाओ णिज्जइ जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता बहु णं णयरमोरूवाणं सणाहा यजाव वियंगत्तेइ वियंगत्तेइत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता तएणं से गोत्तासेपूडग्गाहे तेसिं बहुहिं गोमंसेहिं सोल्लेहिं सुरं च 6 आसाएमाणे 4 विहरइ तए णं से गोत्तासे कूडग्गाहे एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसगमायारे सुबहुपावं कम्मं समजिणित्ता पंचवाससयाई परमाउं पालइत्ता अदृदुहटोवगए कालमासे कालं किचादोच्चाए पुढवीए उक्कोसं तिसागरो णेरइयत्ताए उववण्णे / तएणं सा विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया जाइ जिंदुया वि होत्था / जाया दारगाविणी हायमावज्जति तएणं से गोत्तासे कूडग्गाहे दोचाओ पुढवीओ अणंतरं उटवट्टित्ता इहेव वाणियग्गामे णयरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा भारिया कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववण्णे / तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही अण्णया कयावि णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारयं पयाया। तएणं सा सुभद्दा सत्थवाही तं दारगं जायमेवयं चेव एगते उकुरुडियाए उज्झावेइ उज्झावेइत्त दोचं पि गिण्हावेइ गिण्हावेइत्ता आणुपुवेणं सा रक्खमाणी गोवेमाणी संवड्डेइ तओ णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे णिवत्ते संपत्ते बारसाहे अयमेवारूवे गोणं गुणणिप्पण्णं णामधेनं करेइ जरा णं अह्ये इमं दारए जायमेत्ताए चेव एगते उक्करुडियाए उज्झिए तह्याणं होउं अमंदारए उज्झियणामेणं तए णं से उज्झिए दारए पंचधाई परिग्गहिए तंजहा खीरधाई 1 मजणधाई 2 मंडणधाई 3 कीलामण अंकधाई 5 जहा दड्डपइण्णे जाव णिव्वाय णिव्वाधायगिरिकंदरमल्ली व चंपगपायवे सुहं सुहेणं विहरइ। तए णं से विजयमित्ते सत्थवाहं अण्णया गणिमं च धरिमं च मेजं च पारिच्छेजं च चउव्विहं मंडगं गहाय लवणसमुई पोयवहणेणं उवगए / तएणं से विजयमित्ते तत्थ लवणसमुद्दे पोत्ते विवत्तए णिबुडं भंडस्सारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते तएणं तं विजयसत्थ वाहं जे जहा बहवे ईसरतलवरकोडं बियइन्भसिट्ठिसत्थवाहा लवणसमुद्दो पोयविवत्तियं निवुड भंडसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणे इ ते तहा हत्थणिक्खेवं च बाहिरभंडसारं च गहाइ एगं तं अवक्कमइ / तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुद्दे पोएविवित्तिं णिव्वुडं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेइ सुणेइत्ता महया पइसोएणं आपण्णा ममाणीपरसुनियता विव चंपगलया धसइ धरणीतलंसि सव्वं गेहिं सण्णिपडिया तएणं सा सुभद्दा मुहुत्तंतरेणं आसत्था समाणी बहुहिं मित्त जाव परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजयमित्तं सत्थवाहं लोइयाई मयं किन्चाई करेइ करेइत्ता तएणं सा सुभद्दा अण्णया कयावि लवणसमुद्दोतरं चलच्छिविणासंच पोतविणासंच पतिमरणं च अणुचिंतेमाणी 2 कालधम्मुणा संजुत्ता / तएणं णायरगुत्तिया सुभदं सत्थवाहिं कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सओ गिहाओ णिच्छुभंति उच्छुभंतित्ता तं गिहंअण्णस्स दलयंति / तएणं से उज्झियदारए सयाओ गिहाओ निच्छुढे समाणे वाणियग्गामे णयरे सिंघाड गजावपहेसुजूयखलएसु वेसियाघरएसु पाणागारेसु य सुहं सुहेणं परिवड्डइ / तएणं से उवज्झिए दारए अणोहट्टए अणिवारए सच्छंदमइसयरप्पयारे मज्जप्पसंगी चोरजूयवेसदारप्पसंगी जाएयावि होत्था। तए णं से उज्झिए अण्णया कामज्झियाए गणियाए सद्धिं संपलिग्गे जाएयावि होत्था कामज्झियाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइतएणं तस्स मित्तस्स रण्णो अण्णया कयावि सिरीए देवीए जोणीसूलपाउडभूए या वि होत्था। णो संचाएइ मित्ते राया सिरीए देवीए सद्धिं उरालाई माणुसगाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहइ विहरित्तए तए णं से मित्ते राया अण्णया कयावि उज्झियए दारए कामज्झियाए गणियाए गिहाओ णिच्छुभावेइ णिच्छुभावेइत्ता कामज्झियं गणियं अमितरयं वेइ। कामज्झियाए गणियाए सद्धिं उरालाई जाव विहरइ तएणं से उज्झियदारए कामज्झियाए गणियाए गिहाओ णिच्छुभविसमाणे कामज्झियाए गणियाए मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे अण्णत्थ कत्थइ सुयं च रतिं च धितं च अबिंदमाणे तचित्ते तम्मण्णे तल्लेसे तदज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविए कामज्झियाए गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे 2 विहरइ। तए णं से उज्झिए य दारए अण्णया कामज्झियं गणियं अंतरं Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उझियय 777- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उटुंत लभेइ कामज्झियं गणियं गेहिं रहस्सइगं अणुप्पविसइ / उज्झिया स्त्री०(उज्झिका) धनसार्थवाहसुतस्य धनपालस्य अणुप्पविसइत्ता कामज्झियाए गणियाए सद्धिं उरालाइं जाव भार्यायाम् / ज्ञा०७ अ०।। विहरइ / इमं च णं मित्ते रायाए हाए जाव कयवलिकम्मा कय उज्झे (यूयम्) युष्मान्-- मे तुम्मे उज्झे तुम्ह तुरहे उरहे जसा कोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसियमाणस्स वागुराए |||31|| वो तुब्भे उज्झे तुम्हे उरहे भे शसा।।८।३।१३।इति च परिखित्ते जेणेव कामगणियाए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवाग युष्मच्छब्दस्य जसा सह शसा सह च उज्झे इत्यादेशः / यूयं पदस्य च्छइत्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाए सद्धिं युष्मान् पदस्य चार्थे , प्रा०|| उरालाइं जाव विहरमाणं पासइ पासइत्ता आसुरुते 4 तिवलिं मिउडि लिलाडे साहटु उज्झियं दारयं पुरिसेहिं गिण्हावेइ उट्टपुं०,स्त्री(उष्ट्र) उष्ष्ट्र न् किच०ष्ट्रस्यानुष्ट्रे ष्टा संदष्टे / / 8 / 2 / 34 // गिण्हावेइत्ता अद्विमुट्ठिजाणुकोप्परप्पहाणं संभग्गमहियमत्तं करेइ इति उष्ट्रपयुंदासात् ष्ट्र भागस्य न ठः / प्रा०। (ऊंट) इति प्रसिद्धे करेइत्ता अवउडगबंधणं करेइ करेइत्ता एएणं विहारेणं बज्झं करभपाये चतुष्पदभेदे, अणु०। प्र०। 'अह भंते उट्टे गोणे खरे घोडए' आणावेइ / एवं खलु गोयमा ! उज्झियण दारए पुरा पोराणाणं प्रज्ञा०११ पद। स्त्रियां जातित्वान् ङीष् वाच०। कर्म०। जलचरविशेष जाव पचणुप्पन्नं विहरइ। उज्झएणं भंते दारए पणवीसं वासाई च०। मम्गुउट्टादगरक्खसो सूत्र०१ श्रु०७ अ०।। परमाउं पालइत्ता अजेवइभागावसेसे दिवसे सूलभिण्णे कए उट्टपाय पुं०(उष्ट्रपाद) 6 त० करभचरणे, / धण्णस्स कडिय दृस्स समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिंति कहिं उववजि- इमेयारूवे वे जमणामए उट्टपाएति वा'' उष्ट्रपाद इति वा करम-चरणो हिंति? गोयमा ! उज्जियए दारए पणवीसं वासाइं पर० अज्जेवइ हि भागद्वयरूपोन्नतश्चाधस्तात् भवतीति तेन युक्तप्रदेशस्य साम्यम् / भागावसेसे दिवसे सूलभिण्णे कए समाणे कालमासे कालं किया अणु०॥ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएणेरइयत्ताए उववजिहिंति सेणं तओ उट्टलिंड न०(उष्ट्रलिण्ड) क्रमेलकपुरीषपिण्डे, दश० / उष्ट्रलिण्डअणंतरं उवञ्जित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयवगिरि संसूचितकथा जावग शब्दे) पायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उववजिहिंति सेणं तत्थ उट्टिय त्रि०(औष्ट्रिक) उष्ट्राणामिदमौष्ट्रिकम् / (उष्ट्रसम्बन्धिनि.) उम्मुक्कबालभावे तिरियभोए समुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे उष्ट्रलोममये सूत्रभेदे, अनु० / स्था० / उणियं कंबलं उट्टियं कंवल वा जाए वाणरपल्लेएवहेइ / एय कम्मे 4 कालमासे कालं किंचा पायपुच्छणं भवति, नि०चू० 16 उ० / / "उचितप्रमाणे, णण्णल्थ' इहेव जंबूदीवे भारहे वासे इंदपुरेणयरे गणियाकु-लंसि पुत्तत्ताए अट्ठहिं उट्टिएहिं उदगस्स घडएहिं" उष्ट्रिका वृहन्मृण्मयभाण्ड पञ्चायाहिंति तएणं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्ते कं बद्धेहिंति। तत्पूरणप्रयोजना ये घटास्ते उष्ट्रिका उचितप्रमाणा नातिलघवो महान्तो तएणं तस्सदारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्तवा-रसाहे दिवसे इमं एयारूवं णामधेजं करेहिंति। होउणं पियसेणे णपुंसए तएणं से वेत्यर्थः। उपा०१ अ०। पियसेणे णपुंसए उम्मुक्क बालभावे जोवणु-गमसुपत्ते / उट्टिया स्त्री०(उष्ट्रिका) उष्ट्रस्याकारः पृष्ठावयय इव आकारोऽस्याः ठन्। विणयपरिणयमित्ते रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठे मृण्मये मद्यभाण्डभेदे, सुरातेलादिभाजनविशेषे, उपा०७ अ० / उक्किट्ठासरीरा भविस्सइ। ताएणं से पियसेणे णपुंसए इंदपुरे "उट्ठियाकभल्ल संठाणसंट्ठियं उष्ट्रिकाभाजन विवेषस्तस्या-कभल्लं णयरे बहवे राइंसर जाव पभियओ बहुहिय विजापओ-गेहि य कपालं तत्संस्थानं तत्संस्थितम्। उपा०२ अ०। मंतचुण्णेहि य उड्डावणेहि य णिन्हवणेहि य पण्हवणेहि य | उट्टियासमणा पुं०(उष्ट्रिकाश्रमण) उष्ट्रिका महामृन्मयोभाजनविवसीकरणेहिय अभिओगेहि य आभियोगित्ता उरालाइमाणुस्सए शेषस्तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति तपस्यान्तीत्युष्ट्रिकाश्रमणाः / आजीभोगभोगाई मुंजमाणे विहरिस्सइ / तए णं से पियसेणे णपुंसए वकश्रमणभेदेषु, औ०॥ एयकम्मे 4 सुबहुपावकम्मं समञ्जिणित्ता इकवीसं वाससयं उट्टी स्त्री०(उष्ट्री) उष्ट्रजातिस्त्रियाम्, "उट्टीणं ताणि णो हुति'' उष्ट्रीणां परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए तानि दध्यादीनिन भवन्ति माहुटभावादिति। पं०व०।०। पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिंति / तओ सिरिसिवे सुसंसारो उट्ठ धा०(उद्स्था ) उदः परस्य तिष्ठतेः ठकुकुरइत्यादेशौ वा भवतः। तहेव जाव पढमो जाव पुढविसेणं तओ अणंतरं उवट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे चंपाए णयरीए महिसत्ताए पचायाहिं ति सेणं उत्थाने, उट्टइ उकुकुरइ। प्रा०॥ तत्थ अण्णया कयावि गोटेल्लएहिंजीवि-याओ विवरोविसमाणे उट्ठ पुं०(ओष्ठ) उष्यते उष्णाहारेण उष् कर्मणि थल / दशनच्छदे, तत्थेव चंपाए णयरीए सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिं ति सेणं निरुपपदोष्ठशब्दश्च प्रायेण उत्तरोष्ठ एव कविभिः प्रयुज्यते ताम्रौष्ठतत्थ उम्मुकबालभावे तहा रूवाणं थेराणं अंतिए केवलं पर्य्यस्तरुचः स्मितस्य,कुमा० उपपदे तूभयतः उमामुखे विम्बफबोहियअणगारे सोहम्मे कप्पे जहापढमो जाव अंतं करेहिंति लाधरोष्ठे / वाच० / उपचियसिलप्पवाल बिंवफलसण्णिहाहरोहा। णिक्खेवोविइयं अज्झयणं सम्मत्तं / वि०२ अ० / / (टीका प्रज्ञा०२ पद०। शब्दार्थमात्रदर्शिनीत्युपेक्षिता) उटुंत त्रि०(उत्तिष्ठत्) उत्थानं कुर्वति / प्रा० / / Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदृच्छिण्णग 778 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उडुवइ उच्छिण्णग त्रि०(ओष्ठच्छिन्नक) ६ब० खण्डितोष्ठे, और उहाय अव्य०(उत्थाय) उद्० स्था० ल्यप० / उद्यतविहारं प्रतिउद्या स्त्री०(उत्था) उत्थानमुत्था ऊर्ध्ववर्तने, "उट्ठाण उद्वेइ" नि०। पद्येत्यर्थे, "अहासुयं वंदिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठायसंखाए" रा० वि० / / उत्थानमुत्था ऊर्ध्ववर्त्तनं तया उत्तिष्ठति ऊर्वी भव-ति। आचा०१ श्रु०८ अ० १उ०। इह उठे इत्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयेत तथा वक्तुमुत्तिष्ठत इति उट्ठिअ(य)त्रि०(उत्थित) उद्० स्था०क्त०। उदयप्राप्ते, रा०ा अभ्युद्गते, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तमुत्थायेति उपागच्छतीत्युत्तरक्रिया-पेक्षया "उट्ठियं पि सूरे" अभ्युद्गते आदित्ये , / अनु० / सो उद्वितो चिंतेइ" उत्थानक्रियायाः पूर्वकालताभिधानायोत्थायोत्थायेति क्त्वाप्रत्ययेन आ०म०द्वि० / समुपजाते, प्रश्न० 3 द्वा०। औ० भावोत्थानेन निर्दिशति / यद्यपि द्वयोः क्रिययोः / पूर्वोत्तरनिर्देशाभ्यां पूर्वकाल संयमानुष्ठानरूपेण उत्प्रावल्येन स्थित उत्थितः। आचा०१श्रु०६ अ० आक्षेपलभ्य एव तथापि भुञ्जानो व्रजत इत्यादौ द्वयोः क्रिययोर्योग- 5 उ०।धर्मचरणायोद्यतेषु ज्ञानदर्शनचारि-त्रोद्योगवत्सु, आचा०१ श्रु० पद्यदर्शनादानन्तर्यसूचनार्थमित्थमुपन्यासः उत्थानक्रियासव्यपेक्षत्त्वा- 4 अ०१3०1"अह पासविवेगमुट्ठिए अवि तिन्ने इह भासई धुवं'" सूत्र०१ दुपागमनकियाया इति जं० १वक्ष०। श्रु० 2 अ० / नि० चू० / उदसिते, वृ० 3 उ० / ओ० / वृद्धियुक्ते, उट्ठाण न०(उत्थान) उद्० स्था० ल्युट् / ऊर्वीभवने, भ०।७ श०७ उत्थानयुक्ते, अनुपविष्ट उत्पन्ने च / वाच० / / 'एओ वि उहिआ संता उ० / श्रवणाय गुरुं प्रत्यभिमुखगमने, चं०प्र० 20 पाहु० / सू०प्र०। दारगंच संठवंतिधाई वा” सूत्र०१ श्रु० 4 अ०॥ गुरुमागच्छन्तं दृष्ट्वा ऊर्ध्वभवने, वृ०३ उ०। उत्थानमुप-विष्टः सन् उद्वित्ता स्था०(उत्थाय) उद्-ल्यप-उत्थानं कृत्वेत्यर्थे , "संकाभीओ यदुर्वीभवति, उपा०६ अ०। औ०। देहचेष्टा विशेष, प्रज्ञा०२३ पद। न गच्छेजा-उद्वित्ता-अण्णमासणं' || उत्त० 26 अ०। स्था०। उत्पत्तौ, ज्ञा० 14 अ०।उद्वसने, नं० प्रथममुद्रमने, उत्त०११ उहिअ(य)दंड पुं०(उस्थितदण्ड) 6 त० / कृतप्रायश्चित्त शुद्धौ, अ०। चित्तदोषे, उत्थाने निर्वेदात् करण-मकरणोदयं सदैवास्थाः षो० उट्ठियदंडो साहू अचिरेण उवेति सासयं ठाणं। पच्छित्तेण जया उहित पावं 1 विव० / करणे ल्युट्। रणे, उत्साहे, पौरुषे, हर्षेच। अधिकरणे ल्युट्। भवति तदा। विसुद्धचरणो मुक्खं पावत्तिः / नि०चू०२० उ०। राज्यचिन्तरूपे तन्त्रे, प्राङ्गणे चैत्ये प्रबोधे च / वाच० / / उद्वित्तु अव्य०(उत्थाय) उद्-- स्था० ल्यप् / उत्थानं कृत्वेत्य-र्थे, उहाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमउत्थानकर्मबलवीर्य्यपुरुष- उठ्ठित्तु सपरिवारो" पं०व०। कारपराक्रम-उत्थानं चेष्टाविशेषः कर्म च भ्रमणादिक्रिया बलं च उद्यमहइत्ता (अवष्ठीव्य) अवष्ठीवल्यप्। निष्ठीवनं कृत्येत्यर्थे , उट्ठभहइत्ता शरीरसामर्थ्य वीर्य च जीवभवं पुरुष-कारश्चाभिमानविशेषः पराक्रमश्च सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु आकट्ठवि कट्टि करेमाणे० भ० पुरुषकार एव निष्पादितस्वविषय इति विग्रहे द्वन्द्वैकवद्भावः / | 15 श०७०। वीयान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुत्थजीवपरिणामविशेषाणा- उडंक पुं०(उटुक) आयोदधैम्यशिष्यवेदनामकस्य मुनेः शिष्यभेदे, भार्गव मुत्थानादीनां समूहे, न० / एतेषु प्रत्येक-शब्दो योजनीयो गौतमस्य शिष्यभेदे च।वाच०। "इंदण उडकरिसिपत्तीरूव-वती दिवाए वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमवैचित्त्यतः प्रत्येकं जघन्यादिभेदैरनेकत्वेऽप्ये- ___ समं अधिगमं गतो सो तओ णिग्गच्छंतो उडंकेण दिट्ठो, नि०चू०१२ उ०। षामेकजीवस्यैकदा क्षयक्षयोपशममात्राया एकविधत्वादेक एव | उडय पुं०न०(उटज) उटेभ्यो जायते जन० ड। पत्रादिनिर्मितशाजघन्यादिरेतद्विशेषो भवति कारणमात्राधीनत्वात्कार्यमात्राया इति लायाम्, वाच०॥ तापसाश्रमे, नि०।जी०। स्था०।"जेणेव सए उडए सूत्रभावार्थः / शेषं प्राग्वदिति। स्था०१ ठा०॥ तेणेव उवागच्छति किढिणसंकाइयं ठवेति" नि०"जमहं दियाय राओ उहाणपारियावणिय न०(उत्थानपारियापनिक) परियानं य, हुणामिमहुसप्पिसं। तेण मे उडओदट्ठो, जायं सरणओभयं" नि०चू० विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियापनिकञ्चरितमुत्थानाज-न्मन १उन आरभ्य पारियापनिकमुत्थानपारियापनिकम् / भ० 15 श०१ उ०। | उडु स्त्री०(उडु) न० उड्-वा० कु०। नक्षत्रे, उत्त० 11 अ०। जले च। उत्थानं चोत्पत्तिः पारियापनिका च कालान्तरं यावस्थि-तिरिति | स्त्रीत्वे वा ऊङ्। कौ० वाच०! उत्थानपारियापनिकम् / आजन्मचरित्रे जीवनचरित्रे, “सव्वं च स | *ऋतु पुं० प्रावृडादौ, चं०प्र०। (उउ प्रकरणे सर्वेऽर्था दर्शिताः) उहाणपारियावणियं परिकरेह" ज्ञा० 17 अ० / गोसा-लस्स उडुज्झमाण त्रि०(अपोह्यमान) नियमने, पंकसि वा पणगंसि वा मंखलिपुत्तस्स उट्ठाणपारियावणियं परिकहियं' / भ०१५ श०१ उ०। | उक्कसमाणिं वा उडुज्झमाणि वा अपोह्यमानां वा पङ्केन उदकेन वा उट्ठाणसुय न०(उत्थानश्रुत) उत्थानमुद्वसनंतद्धेतुः श्रुतमुत्थान-श्रुतम्। नीयमानाम् / वृ०६ उ०। कालिकश्रुतभेदे, नं०1"परियट्टिजइ अहियं उट्ठाणसुयं तु तत्थ उठेइ''|| उडुवइपुं०उडु(डू)पति उडूनां नक्षत्राणां पतिः प्रभुरुडुपतिः चन्द्रे, उत्त० यत्र प्रणिधाय उत्थानश्रुतं परावर्त्यते तत्र कुलग्राम-देशादिउत्तिष्ठति 11 अ०। प्रश्नकाजातं० औ०।"चन्द्रः शशी निशाकरो रजनिकर उव्वसीभवतीत्यर्थः "तच त्रयोदशवर्षपर्यायस्य दीयतेव्य० द्वि०१ उ०। उडुपतिरित्येवमादयः चन्द्रपर्यायाः। आ०म०द्वि०। तच शृङ्गनादिते कार्ये उपयुज्यते अत्रचूर्णिकारकृता भावना सजेस्सेगस्स जहा से उडुवई चंदे, नक्खत्तयपरिवारिए। कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्स वा रायहाणीए वा समणे कयसंकप्पे पडिपुण्णे पुण्णमासीए,एवं हवइ बहुस्सए।।२५।। आसुरुत्ते चंडक्किए अप्पासत्ते अप्पसत्तलेसे वि समासुहाणत्थे उवउत्ते यथा स उडूनां नक्षत्राणां पतिः प्रभुरुडुपतिः / क इत्याह समाणेउढाणसुयमज्झ-यणं परियट्टेइ तं च एक दो वा तिणि वा वारे चन्द्रः शशी नक्षत्रैरश्विन्यादिभिरुपलक्षणत्वाद् ग है स्ताराताहे से कुले वागामे वाजावरायहाणी वा ओहयमणसंकप्पे विलबंते दुर्य भिश्च परिवारः परिकरः संजातोऽस्ये ति परिवारितो दुयं पहावेंति। ते उड्डेइ उव्वसइत्ति भणियं होत्ति। नं०। पा०। नक्षत्रपरिवारितः प्रतिपूर्णसमस्तकालोपेतः / स चेदृक् कदा भवत्यत Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उडुवइ 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उडत्तासामण्ण आह। पौर्णमास्यामिह च चन्द्र इत्युक्ते मा भूतरामचन्द्रादावपि संप्रत्यय "तम्हा उटुंति पासहा अद्दक्खु कामाइ रोगवं" ऊर्ध्व मोक्ष इत्युडुपतिग्रहणम्। उडुपतिरपि च कश्चिदेकाक्येव भवति मृगपतिवदत योषित्परित्यागादूर्ध्वं यद्भवति सूत्र०१ श्रु०२अ०। उत्पाटिते, हेम०। उक्तं नक्षत्रपरिवारितः / सोऽप्यपरिपूर्णोऽपि द्वितीयादिषु संभवतीति अनुपविष्ट, दण्डायमाने, उत्क्षिप्ते, वाच०।शुभेच। अनु०।वमने, न०। परिपूर्णः पौर्णमास्यामित्युक्तमेवं भवति बहुश्रुतोऽसावपि हि वृ०१ उ०। नक्षत्राणामिवानेकसाधूनामधिपतिस्तथा तत्परिकरितः सकलक- उड्डक न०(उड्डक) मार्गस्योन्नते भूभागे, सूत्र०१श्रु०२ अ०। लोपेतत्वेन प्रतिपूर्णश्च भवतीति सूत्रार्थः / उत्त० 11 अ०। चन्द्रमण्डले, उड्ड(क)जाणु-त्रि०ऊर्ध्व(र्द्ध)जामुऊर्ध्वं जानुनी यस्यासावूर्ध्व-जानुः ज्यो० जलशे, वरुण च० / वाच०॥ शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाचोत्कु-टुकासने, उडुवर पुं०(उडुवर) सूर्ये, "तिणि सहस्से सगले छच्च सए उडुवरो "उड्डे जाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए" भ०१श०१ उ०। जं०। सू० हरइ," तं०। प्र०ा औ०। वि०। चन्द्र०। ज्ञा०। सो उड्डजाणू अहोसिरो चिंततो चिट्ठइ उडुवाडियगण पुं०(उडुपाटितगण) भ्रदजशनिर्गते गणे, "थेरेहितो आव०४ अ०। भद्दजसेहिंतो भारद्दायसगोत्तेहिंतो एत्थणं उडुवाडियणामंगणे णिग्गए" | उड्डकंडूयग त्रि०(ऊर्ध्वकण्डूयक) तापसभेदेषु, ये नाभेरुपर्येव कण्डूयन्ति कल्प। नाधः / भ०११ श०६ उ०। उडुविमाणन०(उडुविमाण) सौधर्मेशानयोः प्रथमप्रस्तटवर्तिनिचतसृणां उड्ढकाय पुं०न०(ऊर्ध्वकाय) ऊर्ध्वं कायस्य एकदे०३ त०। देहविमानावलिकानां मध्यभागवर्तिनि वृत्ते स्वनामख्याते विमानकेन्द्रे, स्यो_भागे, काके च "ते ऊङ्घकाएहिं पखज्जमाणा अवरेहिं। खंति "उडुविमाणे णं विमाणे पणयालीसं जोयणसय-सहस्साई सणप्फएहिं" द्रोणैः काकैः वैक्रियैः प्रखाद्यमानाः। सूत्र०१ श्रु०५ अ०७ आयामविक्खंभेणं" पं०सं०। सौधर्मकल्पे प्रथमे विमाने, स्था०४ ठा०॥ उनुगारवपरिणाम पुं०(ऊर्ध्वगौरवपरिणाम) आयुःपरिणामभेदे, येन उड्ड पुं०उ(ओ)डू प्राच्यदेशभेदे, स च मिथिलादेशात्पूर्वस्यां दिशीति आयुः स्वभावेन जीवस्योर्ध्वदिशि गमनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति स प्रतीयते। वाच०॥ तद्देशजे मनुष्येच। सचदेशोऽनार्यक्षेत्रम्। लद्वासी ऊर्ध्वगौरवगमनशक्तिलक्षणपरिणामो भवति स ऊर्ध्वगौरवपरिणामः / जनश्चम्लेच्छजातीयः। प्रव०२७ अधि०।सूत्र०। प्रश्नावाच०।सर्वत्र इह गौरवशब्दो गमनपर्यायः। स्था० 10 ठा०। उडशब्दश्रवणात् उकारादित्वम् / रघुनन्दनेन तु ओडश उडचर त्रि०(ऊर्ध्वचर) उपरिचरे गृद्धादौ, आचा०१ श्रु०८अ०८ उ०। "देशव्यवस्थितमित्युक्तत्वात्"ओकारादित्वमपि अस्य देशवाचित्वात् / उङ्कणिरोह पुं०(ऊर्ध्वनिरोध) वमननिरोधे, "उड्डणिरोहे कुटुं, ऊर्ध्व तस्य राजा तदस्याभिजन इत्यर्थे च। अण् ओड / तद्राजे , तद्वासिनि वमनं तन्निरोधे कुष्ठं भवति / वृ०३ उ०।। च। बहुषु तस्य लुक् / उड़ तद्राजेषु तन्निवासिषु चावाच०। उड्डत्ता स्त्री०उर्ध्व(द्ध)तामुख्यतायाम्, अहत्ताए नो उड्डुत्ताए दुक्खत्ताए उडुंचगपुं०(उड्डुञ्चक) व्याकुष्टौ, उड्डेचगा वाउट्टी, नि०चू०१3० उहुंचका नोसुहत्ताए भुजो परिणमंति, भ०६ श०३ उ०। उद्घटकास्तान् कुर्वन्ति" वृ०१ उ०॥ उत्तासामण्ण नऊर्ध्व (द्ध)तासामान्य ऊर्ध्वमुल्लेखिताऽनुगउडं (ई)मग पुं०(उद्दण्डक) वानप्रस्थतापसभेदेषु, ऊवीकृतदण्डा ये ताकारव्यत्ययेन परिच्छिद्यमानमूर्द्धतासामान्यम् / सामान्यभेदे, सञ्चरन्ति / ओ०। भ०॥ तत्स्वरूपं यथा पूर्वापरपरिणामसाधारणद्रव्यमूर्खतासामान्य उड्डय न० उद्गारित(डकार) इति प्रसिद्ध उद्गारे, "जंभाइएणं उड्डएणं कटककङ्कणाद्यनुगमिकाञ्चनवदिति पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं द्रव्य द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति व्युत्पत्त्या त्रिकालानुयायी यो वायणिसग्गेणं" आव०५ अ०ाल०। वस्त्वंशस्तदूर्ध्वतासामान्यमित्यभिधीयते निदर्शनमुत्तानमेव / 20 // उड्डावण न०(उड्डापन) आकर्षणे,"हियउड्डायणे का उडावणहेउ" (अत्रक्षणिकवादिबौद्धपूर्वपक्ष उत्तरंच खणियशब्द) हृदयोड्डापनं चित्ताकर्षणहेतुः। ज्ञा०१४ अ०) अथ सामान्यं द्विप्रकारं दर्शयन्नाह। उड्डाह पुं०(उड्डाह) उपघाते, "गेलण्णं दिट्ठ उड्डाहो, उड्डाह उपधातः ऊर्ध्वतादिमसामान्यं, पूर्वापरगुणोदयम्। प्रवचनस्य भवति / ओ०। प्रवचनलाघवे, उड्डाहो नाम अहो अमीषामनुकम्पा ये विविक्तानामपि अस्माकं चीवराणि न प्रयच्छन्ति। पिण्डाश्रितादिसंस्थाना-नुगेका मृद्यथा स्थिता ||4|| वृ०१ उ०। उड्डाहो नाम एते मायावन्तः पापा वा परोपघातकारिणश्च / पूर्वः प्रथमोऽपरोऽग्रेतनो यो गुणो विशेषस्तयोरुदयकरणं पूर्वावृ०३ उ०। मालिन्ये, व्य० प्र०२ उ०। खिंसायां च / " "वोच्छेय परगुणोदयं पूर्वापरपर्याययोरनुगतमेकं द्रव्यं त्रिकाली यो वस्त्वंपओसाई उड्डाहमनाणि वाओ य" प्रवचनस्य उड्डाहः खिंसा। पिं०। शस्तदूर्ध्वतासामान्यमित्यभिधीयते। निदर्शनमुत्तानमेव। यथा पिण्डो नि० चू०॥ मृत्पिण्डः आश्रितः कुसूल इत्यादयोऽनेके संस्थामा आकृतयस्तासु अनुगता पूर्वापरसाधारणपरिणामद्रव्यरूपा मृत्तिका तथाकारा स्थिता उडेत त्रि०(उड्डीयमान) प्रत्यासन्नमाकाशे परिभ्रमति, रा०। एतदूर्ध्वतासामान्यं कथ्यते यदिच पिण्डकुसूलादिपर्यायेषु अनुगतमेकं उड्डोय पुं० देशी०(डकार) इति प्रसिद्ध उद्गारे, उड्डोए वा वातणिसग्गे वा मृगव्यं नं कथ्यतेतर्हि घटादिपर्यायेषु अनुगतं घटादिद्रव्यमपिन कथ्यते करेमाणे आचा०२ श्रु०॥ तदा च सर्वं विशेषरूपं भवतः क्षणिकवादिबौद्धमतमायाति अथवा उड्डत्रि०(ऊर्ध्व) उद्-हाङ्-ड-पृषो० ऊरादेशः। उच्चे, उपरि उपरितने सर्वद्रव्येषु एकमेव द्रव्याणां गच्छतीति ततः घटादिद्रव्ये अथवा च। वाच० उदृ दूरं वीइवइत्ता। स०। ऊर्ध्वमुपरि, अनु०। ऊर्ध्वलोके, तदन्तर्वर्तिसामान्यमृदादिद्रव्ये वानुभवानुसारेण परोवंतासामान्यमप्रश्न० अध०३ द्वा०। स्था०। सर्वोपरिस्थिते मोक्षे, "बहिया उड्डमाया वश्यमङ्गीकर्तव्यम्।घटादिद्रव्याणिस्तोकपर्यायव्यापीनिपुनर्मुदादिद्रव्याणि य णावकंखे कयाइ वि" ऊर्ध्वलोकाग्रस्थानं मोक्षम् / उत्त०६ अ० / बहुपर्यायव्यापीनि सन्ति इत्थं नरनारकादिद्रव्याणां विशेषो ज्ञातव्यः / Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उडतासामण्ण 780- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उड्डोववण्णग तत्सर्वमपि नैगमनयमतम्।तथा शुद्धसंग्रहनयमतेतुसदद्वैतवादेन एकमेव उड्वरेणु स्त्री०(ऊर्ध्वरेणु) जालप्रभाभिव्यङ्ग्यः स्वतः परतो वा द्रव्यमापद्यते इति ज्ञेयम्। द्र०॥ ऊर्ध्वाधस्तिय॑क्चलनधा रेणुरूवरेणुः / प्रव० 254 द्वा०।। उडदिसाइक्कम पुं०(ऊर्ध्वदिगतिक्रम) दिग्वतस्यातिचारभेदे, उपा० ऊवधिस्तिर्यक् चलनधर्मोपलभ्ये रेणौ, तद्रूपेऽष्टश्लक्ष्णश्ला१अ०। क्ष्णीकालक्षणे प्रमाणभेदे, भ०६ श०७ उ०। ज्यो०।। उड्डदिसिप्पमाणाइक्कम पुं० ऊर्ध्व(द्ध)दिक्प्रमाणातिक्रम दिग्वतग्रहणे, उडलोम पुं०(ऊर्ध्वरोमन्) ऊर्धानि रामाण्यस्य / ऊर्द्धमुखतयाऊर्ध्वदिशियावत्प्रमाणं परिगृहीतं तस्याति-लङ्घनरूपे, दिव्रतातिचारे, विकटरोमिण यमदूतादौ, कुशद्वीपसीमापर्वतेच। ऊर्द्धमुखरोमयुक्ते, त्रि० आव०६ अ०।। उपा०। वाच०। "घोडयपुच्छं व तस्स कविलफरुसाउ उड्डलोमाओ, परुषे उडदिसिव्वय न०(ऊर्ध्वदिग्वत) ऊर्ध्वं दिक् तत्सम्बन्धि तस्या व्रतम्। कर्कशस्पर्श ऊर्द्धरोमिकेन तिर्यगवनतेनेत्यर्थः दंष्ट्रिके उत्तरोष्ठरोमणि, एतावती दिगृर्ध्वपर्वताधोरोहणादवगाहनीया न परत इत्येवंभूते उपा०।२ अ०॥ दिग्वतभेदे, आव०६अ। उड्डलोग(य) पुं०(ऊर्ध्वलोक) ऊर्ध्वमुपरिव्यवस्थितो लोकऊर्ध्वलोकः उड्डदेह पुं० न०(ऊर्ध्वदेह) ऊर्ध्वं देहस्य शरीरस्योर्द्धदेहे "खाणु व्व अथवा ऊर्द्धशब्दः शुभपर्यायस्तत्र च क्षेत्रस्य शुभ-त्वात्तदनुभावाद् उडदेहो, काउस्सगंतुठाइजा" स्थाणुरिवोर्ध्वदेहो निष्प्रकम्पः। आव०१ द्रव्याणां प्रायः शुभा एव परिणामा भवन्त्यतःशुभपरिणामद्रव्यायोगादूर्द्ध 6 अ०|| शुभो लोक ऊर्द्धलोकः। उक्तंच "उड्डति उवरि जं चिय, सुभखेत्तं खेत्तओ उड्डपाअ त्रि०(ऊर्ध्वपाद) 6 त० ऊर्ध्वचरणे, "कंदतो कंदुकुंभीसु य दव्वगुणा / उप्पज्ज़ ति सुभावा, तेण तओ उड्डलोगोत्ति' उद्धृपाओ अहोसिरो" उत्त०१६ अ०॥"उड्डपाया सुवइ तहातुमं मरणं रुचकप्रतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादुपरितनप्रतरादारभ्योर्द्ध नवयोजनकरहोहित्ति" आ०म०प्र०|| शतानि परिहृत्य परतः किञ्चिन्न्यूनसप्तरज्ज्वायते क्षेत्रलोकभेदे, अनु० / उडबद्ध पुं०(ऊर्ध्वबद्ध) वृक्षशाखादौ बद्धे "रसंतो कंदुकुंभीसु, उड्डबद्धो आ०म०वि० अबंधवो"|| उत्त० 16 अ० उडलोगचूला स्त्री०(ऊर्ध्वलोकचूला) "उड्ढलोगस्य चूला सिहा' उड्डभागि(ण) त्रि०(ऊर्ध्वभागिन) गगनतलभागिनि, उड्डवाएसु उड्डभागी ऊर्ध्व लोकस्य चूडा शिखा / ऊर्ध्वलोकचूडा। ईषत्प्राग्भाराख्पे भवति ऊर्ध्य गतेषु वातेषूर्वभागी भवत्यप्कायो गगनगत वातवशादिवि क्षेत्रचूडाभेदे, नि०चू०१उ०।"ईसीपब्भारा णामा य ईसित्ति' अप्पभावे सम्मूर्च्छते जलम्।सूत्र०२ श्रु०३अ०। य इति प्रायोवृत्त्या / भारइत्तिभारकंतस्स पुरिसस्स गयं पायसो ईसेणयं उड्डमुइंग पुं०(ऊर्ध्वमृदङ्ग) ऊर्द्धमुखे मृदङ्गभेदे, भ०११२० भवति जाव एवं ठिता सापुढवी ईसीपब्भारा णाम इति एतमभिहाणंतस्स सायदव्वट्ठसिद्धिविणाउ उवरि वारसेहिं जोयणेहिं भवति तेण सा 100 / उड्डलोगचूला भवति। नि०चू०१उ०।। उनमुइंगाकारसंठिय त्रि०(ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थित) ऊर्ध्वमूर्ध्व-मुखो | उड्डलोगवत्थव्व त्रि०(ऊर्द्धलोकवास्तव्य) ऊर्ध्वलोकवासिनि, यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितोयः सतथा। सरावसम्पुटा-कारे, भ०११ "उड्डलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीओ"ऊर्ध्वलोकवास्तव्या श०११ उ०। नन्दनकूटनिवासिन्य इत्यर्थः। ज्ञा०८ अ० उडमुह त्रि०(ऊर्द्धमुख) ऊर्दू मुखमस्य / ऊर्द्धगतप्रथमप्रसरे, उड्डलोग(य)विभत्ति स्त्री०(ऊर्ध्वलोकविभक्ति) स्थानाश्रयणाऊर्द्धस्थिताग्रभागे, उन्नमितवदने च। स्वाङ्गत्वात् स्त्रियां डीए / ऊर्द्ध मुखस्य एकदेशी तत्पुरुषः / मुखस्योर्ध्वभागे, न० वाच० / क्षेत्रविभक्तिभेदे,। सा च ऊर्ध्वलोकविभक्तिः सौधर्माद्या उपर्युपरि व्यवस्थिता द्वादश देवलोकाः नवग्रैवेयकानि पञ्चमहाविमानानि तत्रापि "उड्डमुहलोमजालसुकु मालणिद्धमउअआवत्तपसत्यलाभविरई विमान के न्द्रकावलि प्रविष्ट पुष्पावकीर्ण क वृत्तव्यग्रचतुरस्र-- असरिवच्छछण्णविउलवत्थे"ऊर्ध्वं मुखं भूमेरुद्गच्छतामडरा-णामिव विमानस्वरूपनिरूपणमिति // सूत्र०१ श्रु०५ अ०। येषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि लोमानितेषां जालं समुहो यत्र स तया। अनेन च श्रीवत्साकारव्यक्तिर्दर्शिता / अन्यथाऽ धोमुखैस्तैः उडवाइयगण पुं०(ऊर्ध्ववातिकगण) श्रमणस्य भगवतो महावीर-स्य श्रीवन्साकारानुद्भवः स्यात् / सुकुमालस्निग्धानि नवनीतपिण्डा नवगणानां पञ्चमे गणे, स्था०६ ठा०। "थेरेहिंतो भद्दजसेहितो दिद्रव्याणि तानीव मदुकानि आवर्तश्चिकुरसंस्थान-विशेषैः प्रशस्तानि भारद्वायसगोत्तेहिंतो एत्थ णं उड्डवाडिय णामं गणे णिग्गए" कल्प०॥ माङ्गल्यानिदक्षिणावर्त्ता नीत्यर्थः / यानि लोमानि तैर्विरचितो यः श्रीवत्सो उडवाय पुं०(ऊर्ध्ववात) ऊर्ध्वमुद्गच्छन् यो वाति वातः सऊर्ध्व वातः। महापुरुषाणां वक्षान्तर्वर्ती अभ्यु-नतोऽवयवस्ततः पूर्वपदेन वादरवायुकायभेदे, जीवा०१ प्रति० / स्था०। प्रज्ञा०ा ऊर्द्धगतो वातः कर्मधारयस्तेन छन्नमाच्छादितं विपुल-वक्षो यस्य स तया / / जं०३ सुश्रुतोक्ते स्वाभाविकगतिरोधेनऊर्द्धगते वायौ, स च मूत्रादिवेगधारणाद् वक्ष०|| भवति! वाच०॥ उड्डरहिय पुं०(औलरथिक) द्रमके, और्द्धरयिकशब्दोऽस्ति उड्डा अव्य०(ऊर्द्धम्) दिग्भेदे, स्था० 6 ठा०। कष्टेनेष्टविशिष्टार्था महापुरीमिव मनुजगतिमनुप्रविशन्ति जन्तवो- उडाइक्कम पुं०(ऊर्ध्वादिक्रम) ऊर्ध्वादिषु ऊर्ध्वाधस्तिरश्चीषु दिक्षु क्रमः ऽनुप्रविश्यापि चास्यामौर्ध्वरथिका इवाकृतसुकृतसंभारा निरीक्षितुमपि क्रमणं विवक्षितक्षेत्रात्परत इति गम्यते अध ऊर्धादिक्रमः / नैनं क्षमन्ते। उत्त०१अ०। उत्तराध्ययनवृहद्वृत्तिप्रथमपत्रे सकस्य वाचकः ऊर्द्धदिक प्रमाणातिक्र माधोदिक् प्रमाणातिक्रमतिर्यग्दिक्प्रमातिइतिहीरविजयसूरि प्रति कल्याणविजयगणिकृत-प्रश्नो यथा अस्योत्तरं क्रमलक्षणे दिग्वतातिचारत्रये,पंचा०१ विव०। हीरविजयसूरिकृतम् / / तथा च ऊर्ध्वरथिकशब्दमाश्रित्य सिद्धान्त- | उड्डोववण्णगपुं०(ऊोपपन्नक) सौधर्मादिभ्यो द्वादशेभ्यः कल्पेभ्यः विषमपदपार्यायान्तर्गतोत्तराध्ययनविषमपर्याये द्रमकवाचकत्वमुक्तमस्ति ऊर्ध्वं ग्रैवेयकानुत्तरविमानेषूपपन्ना उत्पन्नाः। कल्पा-तीतेषु देवेषु, जं० / / 3 / / ही० 7 वक्ष०ाजी०। ऊर्ध्वलोकेषूपपन्नेषु, स्था०२ ठा०। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड्डोववण्णग 781 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उण्हपरिसह जे देवा उड्डोववनगा ते दुविहा पन्नत्ता। कप्पोववन्नगा विमा- उण्णयमण्ण त्रि०(उन्नतंमन्य) उन्नतमात्मानं मन्यते यः स तथा णोववन्नगा। आत्मानमुन्नतिमन्तं मन्यमाने, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०।। ऊर्ध्वलोकस्तत्रोपपन्नका उत्पन्ना ऊोपपन्नकास्ते च द्विधा क- | उण्णयमाण त्रि०(उन्नतमान) उन्नतो मानोऽस्येत्युन्नतमानः / गर्वाल्पोपपन्नकाः सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नकास्तथा विमानोपपन्नकाः ध्माते, "उण्णयमाणे यणरे महृतमोहेण मुज्झसि'' उन्नतो मानोऽस्येति ग्रैवेयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः / स्था० उन्नतमानः। उन्नतं चात्मानं मन्यते स चैवंभूतो नरो मनुष्यो महता मोहेन २ठा०॥ प्रबलमोहनीयोदयेनाज्ञानोदयेन वा मुह्यति कार्याकार्यविकलो उण अव्य०(पुनर) पनस्तुतौ वा अरि पृषो० प्राकृते स्वरादसंयुक्त- भवति / आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०1। स्यानादेः इत्यनुवृत्तिसहितस्य / कगचजतदपयवां प्रायो लुगि" ति | उण्णयावट्ट पुं०(उन्नतावर्त) उन्नत उच्छ्रितः स चासावावर्तश्चेति सूत्रस्य क्वचिदादेरपि लुगविधानात्पकारस्य वा लुक् स उण स पुनः / उन्नतावर्तः / आवर्तभेदे, स च पर्वतशिखरारोहणमार्गस्यवातोत्कप्रा० / द्वितीयवारे, प्रथमे भेदे च / अमरः (पुणशब्दे सर्वेऽर्थाः लिकाया वा। स्था० 4 ठा०। प्रदर्शयिष्यन्ते) उण्णयासण न०(उन्नतासन) उचासने, रा०। जं० जी०॥ उण्ण(उरण) त्रि०(ऊर्ण) ऊर्णा अस्त्यस्य कारणत्वेन अर्श० अच् / उण्णा स्त्री० उ(ऊ)र्णा ऊर्गीयते आच्छादयते, ऊर्गुडा ह्रस्वः मेषलोमरचिते वस्त्रादौ, मेषलोम्नि, स्त्री० ललाटस्या चिन्हभेदे, वाच०। मेषादिलोम्नि, ललाटस्थलोमसमूहात्मके चिहभेदे, वाच० / शब्दे, सच वर्णात्मकोऽर्थः स्थानोर्थालम्बनं तदन्ययो-गपरिभवनम्, दीर्घादिरयमिति बहवः वाच०। स्था० आ०म०प्र०। षो०। 3 विव०। उण्णाग पुं०(उन्नाक) स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र महावीरस्वामिना उण्णइज्जमाण त्रि०(उन्नीयमान) उन्नतिं क्रियमाणे, उन्नतिं प्राप्यमाणे, विहृतम्। "ततो सामी उन्नागं वचति तत्थतए बहूवरं सपडिहुत्तं पईताणि औ०॥ पुण दोवि विरूवाणि दंतुराणि य तत्थ गोसालो भण्णई अहो इमो उण्णकप्पास पुं०(ऊर्णकाशि) कर्म० स० / मेषलोम्नि, उण्णत्तिला मुसंजोगे" आ०म०वि०। डाणगट्टए भवंति तस्स रोमा कव्वणिज्जा कप्पासो भण्णत्ति अहवा उग्णए | उण्णाम पुं०(उन्नाम) प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनमुन्नामः मानवि-शेषे, कप्पासो। जे भिक्खू साणकप्पासा उ वा उण्णकप्पासाउवा। नि०चू० तत्परिणामजनके मोहनीयकर्मणिचा नं० भ०१२ श०५ उ०। स०॥ १उ०। उण्णिद्द त्रि०(उन्निद्र) उद्गता निद्रा मुद्रा यस्य। विकसिते,निद्रा-शब्दस्य उण्णणाम पुं०(ऊर्णनाभ) ऊर्णेव सूत्रं नाभौ गर्भेऽस्य अच् समा० / मुद्रामुकुलीभावरूपनेत्रनिमीलनार्थकत्वेन तथात्वम् निद्रारहिते च / लूतायात्, दीर्घादिरयमिति केचित् / वाच० "ऊर्णनाभ इवाशून्या, वाच० उन्निद्रं विजृम्भितं हसितं उद्बुद्धमित्यादि पर्यायाः। विशे०। चन्द्रकान्त इवाम्भसाम्" उर्णनाभोऽत्र कर्मठको व्याख्यातः। सम०। उण्णिय त्रि०(और्णिक) ऊर्णाया निमित्तं संयोग उपपातो वा ठञ् / उण्णमणी स्त्री०(उन्नमनी) उण्णामिय जसियं वि, उण्णमणी इति निरुक्ते तन्निमित्तादौ, स्त्रियां डीप् / वाच०। ऊर्णामये सूत्रादौ , आ० म०प्र०। द्वितीयगौणानुज्ञायाम, पं०भा०। नं०॥ ऊर्णरोमनिष्पन्ने वस्त्रे, वृ०२ उ०। नि० चू०॥ उष्ट्रलोममये रजोहरणे, उण्णमिय अव्य०(उन्नम्य) उद् नम्ल्यप्।उन्नतीकृत्येर्थे ।''उद्दिसिय स्था०५ ठा०। जीत०॥ 2 उण्णमिय 2 णिज्झाएजा" आचा०२ श्रु०१ अ०५ उ०। *उन्नीत त्रि० उद्-नी क्त-ऊर्ध्वं नीते, वितर्किते च / वाच० / उण्णय त्रि० उन्नत(य) उद् नम्०क्त०। उचे, रा०। अभ्युन्नते, जं०२ पृथग्व्यवस्थापिते, "द्वाभ्यां नयाभ्यामुन्नीतमपि शास्त्रं कणाशिना'। वक्ष० / तुड़े, तं० / प्रश्न० / गुणवति, औ० "उज्जलय नयो०। चरियदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा"। उन्नतानि गुणव-न्ति उण्णु(नु)इतो पुं०(उन्नुइतो) देशीपदमेतत्। गर्वे वर्तते इत्यस्मिन्नर्थे, उचानि च / ज्ञा०१ अ० / स्था० / उन्नतः द्रव्यतः शरीरेणोच्छ्रितः एवं भणितो संतो उण्णुइतो सो कहेइ सव्वं तु / व्य० द्वि० भावतस्त्वभिमानग्रहग्रस्तः। सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। स्था० (पुरिसजाय 10 उ०। शब्दे विवरणम्) उच्छिन्नंनतं पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमा-नादुन्नतमुच्छिन्नो उण्ह पुं०(उष्ण) उषति दहति जन्तूनित्युष्णःउष् नक् उत्त०१ अ०। वा नयो नीतिरभिमानादेव उन्नयो नयाभाव इत्यर्थः / मानविशेषे, पुं० सूर्यादिपरितापे, पिं०। आहारपाकादिकारणे, ज्वलनाद्यनुगते स्पर्शभेदे, तत्परिणामजनके कर्मणि च नपुं०। भ०१२ श०५ उ० / मोहनीये, कर्म० / ग्रीष्मर्ती, पलाण्डौ च। अर्श० अच्। तद्वति, आलस्यरहिते, दक्षे स०। उण्णयरइयतलिणतंबसुइणिद्ध-क्ख-उन्नतरति दतलिनताम्र- च। वाचणसीएण उण्हेण सिद्धेण लुक्खेण काऊण रूहेण सगेण' आचा० शुचिस्निग्धनखउन्नता ऊर्ध्वं नता रतिदा रमणीया स्तलिनाः 1 श्रु०५ अ०६उ०॥ (उष्णशब्द-निक्षेपः सीउण्ह शब्दे) प्रतलास्तामा ईषद्रक्ताः शुचयः पवित्राः स्निग्धाः स्निग्धच्छाया नखा उण्ह(उसिण)परि(री)सह पुं० उष्णपरि(री)षह उष दाहे इत्य-- यस्य। सुलक्षणयुक्पादाङ्गुलीके, त्रि०जी०३प्रति०।। स्यौणादिकनकप्रत्ययान्तस्य उष्णं निदाघादितापात्मकम-तदेव परीषह उण्णयतणुतंवणिद्धनख त्रि०(उन्नततनुताम्रस्निग्धनख) उन्नता उष्णपरीषहः। उत्त०१अ०। प्र०। सच 'उष्णेन तप्तो नैवोष्णं निन्देच्छायां अनिम्नास्तनवः प्रतलास्ताम्रा अरुणाः स्निग्धाः कान्ताः नखाः चनस्मरेत्। वीजनं व्यजनं गात्राभिषेकादिच वर्जयेत् ।ध०३ अधि०।। पादाङ्गुल्यवयवा यस्य स तथा। सुलक्षणयुक्तपादाडलीके, औ० / पाठान्तरेण / "उष्णतप्तो न तं निन्द-च्छायामपि न संस्मरेत् / जी०ा तं०। स्नानगात्राभिषेकादि-वर्जनं वाऽपि वर्जयेत् " आ०म०वि०। उण्णयमण त्रि०(उन्नतमनस्) प्रकृत्या औदार्यादियुक्तमनसि, स्था० पुढे गिम्हाहि तावेणं, विमणेसुप्पिवासिए।। 4 ठा। तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा / / 5 / / Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उण्हपरीसह 782- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उण्हीस ग्रीष्मे ज्येष्ठाषाढाख्ये अभितापस्तेन स्पृष्टश्छुप्तो व्याप्तः सन्। विमना | धम्मं करेसि। भणति सुहनिमित्तं / सा भणति तो मए चेव समाणं भोगे विमनस्कः सुष्ठु वा अतिशयेन पातुमिच्छा पिपासा तां प्राप्तो नितरां भुंजाहि। सोय उण्हेण तजिओ उवसग्गजितोय पडिभग्गो भोगे भुंजति / तृडभिभूतो बाहुल्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति // तत्र सो साहूहि सव्वेहिं मग्गिओ नो दिट्ठो अप्पसागारि पविट्टो पच्छा से तस्मिन्नुष्णपरीषहोदये मन्दा जडा अशक्ता विषीदन्ति / पराभङ्ग- माया उम्मतिया जाया पुत्तसोगेणणयरंपरिभमंती अरहन्नयं विलवंती जं मुपयान्ति / दृष्टान्तमाह। यथा मत्स्या अल्पोदके विषीदन्ति / जहिं पासति तं तहिं सव्वं भणति अस्थि ते कोवि अरहन्नको दिट्ठो एवं गमनाभावान्मरणमुपयान्त्येवं सम्वाभावात्संयमात् भ्रश्यन्त इति / विलवमाणा भमति जाव अण्णया तेण पुत्तेण ओलोचणगएण दिट्ठा इदमुक्तं भवति / यथा मत्स्या अल्पत्वादुदकस्य ग्रीष्माभितापेन तप्ता पञ्चभिन्नाया तहेव उत्तरिता पाएसुपडिओतपेच्छिऊण तहेव सत्थचित्ता अवसीदन्त्येवमल्पसत्वाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जलमलक्लेदक्लिन्नगात्रा जाया ताए भण्णति पुत्त पव्वयाहि मा दोग्गइंजाहि। सिस्सो भण्णति न बहिरुष्णाभितप्ताः शीतलान् जलाश्रयान् जलाधारगृहचन्दनादीनुष्ण- तरामि काउं संजमं यदि पर अणसणं करेमि एयं करेहि मा असंयतो प्रतीकारहेतूननुस्मरन्त आकुलितचेतसः संयमानुष्ठानं प्रति भवाहि मा संसारं भमिहिसि।पच्छा सोतहेव तत्ताए सिलाए पाओवगमण विषीदन्ति // 5 // सूत्र०१ श्रु०३ अ०। करेति मुहत्तेण सुकुमालसरीरो उण्हेण विलावो पुव्यिं तेणणाहियासिओ उसिणपरियावेणं, परिदाहेण तजिए। पच्छा तेण अहियासितो एवं अहियासियट्वं उण्हे उत्त० पा० प्रिंसु वा परियावेणं, सायं नो परिदेवए॥८|| तगरानगर्यामर्हन्मित्राचार्यपार्श्वे दत्तनामावणिक् भद्रा भाहिन्नकपुत्रेण उष्णमुष्णस्पर्शवशिलादि तेन परितापः तेन तथा परिदाहेन बहिः समं प्रवजितः / पित्रा सर्ववैयावृत्त्यकरणेन इतस्ततः परिभ्रम्य स्वेदमलाभ्यां वह्निना वान्तश्च तृष्णया जनितनिदाघस्वरूपेण तर्जितो भव्यभिक्षाभोजनसम्पा-दनेन स बालोऽत्यन्तं सुखीकृतःउपविष्ट एव भुड् ते कदापि भिक्षायैन भ्रमति। तद्भिक्षार्थं स्वभिक्षार्थश्च पितुरेव भ्रमणात्। भत्सितोऽत्यन्तपीडित इति यावत्। तथा ग्रीष्मे वाशब्दात् शरदि वा अन्यदा पितरि मृते साधुभिः प्रेरितः स बालो ग्रीष्ते मासे भिक्षार्थङ्गतः। परितापेन रविकिरणादिजनितेन तर्जित इति संबन्धः / किमित्याह / तापाभिभूतः प्रोत्तुङ्ग गृहच्छायायामुपविशति पुनस्तत उत्तिष्ठति शनैः सातं सुखं प्रतीति शेषं न परिदेवेत किमुक्तं भवति / शनैर्याति एवं कुर्वन्तमतिसुकुमारं तमहन्नककुमारं रूपेण कन्दर्पा–वतार नारीकुचोरुकरपल्लवोपगूढैः क्वचित्सुखं प्राप्ताः क्वचिदङ्गारैज्वलि दृष्ट्वा काचित्प्रोषितवणिग्भार्या आकार्य गृहे स्थापितवती तथा सह स तैस्तीक्ष्णैः पक्वाः स्म नरके ष्वित्यादि परिभावयन् हा कथं मम विषयासक्तोऽभूत् / अथ तन्माता साध्वी पुत्रमोहेन गृथिली-भूता अरे मन्दभाग्यस्य सुखं स्यादिति न प्रलपेत / यद्वा सातमिति सातहेतुं प्रति अर्हन्नक ! इति निर्घोषयन्ती चतुष्पथादिषु भ्रमति / एकदा गवाक्षस्थेन यथा हा कथं कदा वा शीतकालः शीतांशुकरकलापादयो वा मम अर्हन्नकेन तादृशावस्था माता दृष्टा संजातात्यन्तसंवेगः स गवाक्षादुतीर्य सुखोत्पादकाः संपश्यन्त इतिन परिदेवेत इति सूत्रार्थः।। पादयोः पतित्वा मातरमेवमाह / हेमातः सोऽहम-हन्नक इति तद्वचः उपदेशान्तरमाह। श्रयणात् स्वस्थचित्ता माता तमेवमाह / वत्स भव्यकुलजातस्य तव उन्हाहितत्तो मेहावी, सिणाणं नो विपत्थए। केयमवस्था। स प्राह / मातश्चारित्रं पालयितुमहं न शक्नोमि। सो प्राह गायं नो परिसिंचिजा, नवीएज्जाय अप्पयं / / 6 / / तर्हि अनशनं कुरु मातृवचसा सतप्तशिलाया सुप्त्वा पादो पगमनञ्चकार मेधावी मर्यादानतिवर्ती स्नानं शौचं देशसर्वभेदभिन्नं नाभिप्रार्थयेत सम्यगुष्णपरीषहं विषां समाधिभाग देवत्वं प्राप्तवान् / एवं अन्यैरपि नैवाभिलषेत् पतन्तिच (नो विपत्थइत्ति) अपिर्भिन्नक्रमत्वा-त्प्रार्थयेदपि साधुभिरुष्णपरीषहः सोढव्यः। उत्त 2 अ०। (परीसहशब्देऽन्यत्) न किन्नु पुनः कुर्यात्तथागात्रं शरीरं नो परिसिञ्चन्न सूक्ष्मादेकविन्दु- उण्ह(उसिण)परियावपुं०(उष्णपरिताप) उषमुष्णस्पर्शवभूशि-लादि भिरार्दीकुर्यात् न वीजयेच्च तालवृन्तादिना (अप्पयंति) आत्मालमथ तेन परितापः। उत्त०२ अ० आतापसनादौ, भूशिलाद्यौष्ण्यहेतुके दाहे, वाऽल्पमेवाल्पकं किं पुनर्बहिति सूत्रार्थः। उत्त०१ अ०। साम्प्रतं शिलाद्वारमनुस्मरन् उवरितावेणेत्यादिसूत्रावयवसूचि-- उहफासणाम न०(उष्णस्पर्शनामन) नामकर्मभेदे, यदुदयाजन्तुशरीरं तमुदाहरणं नियुक्तिकृदाह हुतभुजादिवद्भवति तदुष्णस्पर्शनाम। कर्म०। तगराए अरिहमित्तो, अरिहण्ण तोयभद्दा य। उण्हयर न०(उष्णतर) कषायः शोकवेदोदययोश्च दाहकत्वादुष्णः सर्व वण्णियमहिलं चइत्ता, तत्तम्मिसिलायले विहरे॥ वा मोहनीयमष्टप्रकारं वा कर्मोष्णं ततोऽपि तद्दाहकत्वादुष्ण-तरम्। तगरायामर्हन्मित्रो दत्तोहन्नकश्च भद्रा च / वणिग्महिलां त्यक्त्वा तपसि, "डज्झइ तिव्वकसाओ, सोगभिभूओ उइण्णवेओय। उण्हयरो शिलातले विहरेति व्यहार्षीदिति गाथाक्षरार्थो भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदा होइ तवो, कसायमाई विजंडहई"आचा०नि०२ अ०॥ (सीउण्ह शब्दे यादवसेयः। सचायं तगरा नयरी तत्थ अरहमित्तो नाम आयरिओतस्स विवृतिः) समीवे दत्तो नाम वाणियओ भद्दाए भारियाए पुत्तेण य अरहत्तएण सद्धिं उण्हवण न०(ऊष्णापन) ऊष्णीकरणे,पिं०।। पव्वइत्तो। सोतं खुड्डगं कयाई भिक्खाएनहिं-डावेइ पढमालियाईहिं किं उहाभि(हि)तत्त त्रि०(उष्णाभितप्त) उष्णनात्यन्तपीडिते, मिच्छिएहिं पोसेत्तिसो सुकुमालो साहूण अप्पत्तियणतरंति किंचि भणिउं। "उण्हाहितत्तो मेहावी सिणाणं नो विपत्थए' उत्त०२ अ०। अन्नया सो खंतो कालगतो साहूहि दो तिन्नि वा दिवसे दाउंभिक्खस्स उण्हामिहय त्रि०(उष्णाभिहत) सूर्यखप्रतापाभिभूते "उण्हा भिहए उपरितो सो सुकुमालसरीरो गिम्हे उवरिहेट्ठाए डज्झितो तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए"जी०३प्रति०। पस्सेयतण्हाभिभूतो छायाए वीसमंतो पोसियवइयाए वणियमहिलाए उण्हीस पुं० न०(उष्णीष) उष्णमीषते हि नास्ति उष्णम् ईषशक० दिवो उरालसुकुमालसरीरोत्ति काउंतीसे तहिं अज्झोववाओ जाओ। | पररूपम्।"सूक्ष्मश्नष्णस्नहण्हणांण्हः / / 275 / / सूत्रेण ष्ण चेडीएसद्दावितो किं मग्गसि। भिक्खं दिन्ना से मोयगा पुच्छिओ कीस तुमं | भागस्य णकाराक्रान्तो हकारः। प्रा० / शिरोवेष्टनवस्त्रे, (पागडी) Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उण्हीस 783 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तमट्ठपत्त किरीटे च। 'पवित्रं केश्यमुष्णीण, वातातरपरजोऽपहम् / वर्षानिलर- मिच्छत्तमोहणिजा, नाणावरणाचरित्तमोहाउ। जोधर्म हिमादीनां निवारणम्" वाच०॥ तिविहत्तमा उम्मुक्का, तम्हा ते उत्तमा हुति।। 55 / / उण्हादेग न० (उष्णोदक) क०स० अग्निना तप्तजले, क्वथ्यमानपा- मिथ्यात्वमोहनीयास्तथा ज्ञानावरणास्तथा चारित्रमोहादित्यत्र दशेषा‘वशेषपाददिहीनके जले, "अष्टमेनांशशेषेण, चतुर्थेनार्धकन वा। मिथ्यात्वमोहनीयग्रहणेन दर्शनसप्तकंगृह्यते। तत्रानन्तानुबन्धिन श्चत्वारः अथवा क्वथनेनैव, सिद्धमुष्णोदकं वदेदिति / वाच० पुप्फोदएहि य कषायास्तथा मिथ्यात्वादित्रयं च ज्ञानावरणं मतिज्ञानाद्यावरणभेदात्पगंधोदएहि य उण्होदएहि य सुभोदएहि य कल्प०। विधं चारित्रमोहनीयं पुनरेकविंशतिभेदं तच्चानन्तानुबन्धिरहिताः उण्होला स्त्री० (उष्णोपला) तैलपयिकानामके कीटभेदे, सङ्गमकः द्वादशकषायास्तथा नव नोकषया इति अस्मादेव यतस्त्रिविधतमसः सौधर्मकल्पवासी देवः वीरमुसर्गयन् "उण्होला विउव्वइ उण्होलाणाम | किमुन्मुक्ताः प्राबल्येन मुक्ताः पृथग्भूता इत्यर्थः / तस्मात्ते भगवंतः तेल्लपाइया तो तातो तिक्खेहिं तुंडेहिं अतीव दंसति" आ०म०द्वि०।। किमुत्तमा भवंति ऊर्द्ध तमोवृत्तेरिति गाथार्थः।। आव०२ अ०! आ० चू०। उत्तत्रि० (उक्त) वच. दुहा. गौणे कर्मणि क्त.। यस्य ज्ञानाय कथ्यतेतादृशे, उत्तमंगन० (उत्तमाङ्ग)क० स० सर्वावयवानां प्रधानावयवे, स०। शिरसि अनुक्तेनापि वक्तव्यं, सुहृदा हितमिच्छता। गौणकर्म समभिव्याहारे तु च। सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। उत्तानं० मस्तकस्य अङ्गेषूत्तमत्वं मुख्ये कर्मणि क्तः। वाच० / अभिहिते, "तत्शुत्तो तं जिणभवणाइ" चक्षुरादीन्द्रियाधारत्वात्, वाच० / तात्स्थ्यात्केशेषु, "लोयविरपंचा०६ विव० भणिते, आशुरूक्ते, नि० वुत्तं उक्तं भणितमिति लुत्तमंग" अत्र उत्तमाङ्गशब्देन उत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते। पिं। वुत्तशब्दस्योक्ते त्यनुवादः / आव० 5 अ०।। उत्तराध्ययने तु उत्तमकट्ठपत्त त्रि० (उत्तमकष्टप्राप्त) परमकष्टावाप्ते, भ०७श०६ उ०। व्युक्तेत्यनुवादः / उत्त०१ अ०॥ *उत्तमकाष्ठाप्राप्त त्रि० उत्तमावस्थांगते परमकाष्ठाप्राप्ते, "दुसमदुसमाए *उत्त त्रि० उन्द ल्केदने क्त-वा तस्य नः। क्लिन्ने आर्द्रवस्तुनि, वाच०। समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स केरिसए आगार भावपडोयारे पण्णत्ते" स्वनामख्याते वनस्पतिभेदे, पुं०। अनु०। भ०७श०६ उ०। परमप्रकर्षप्राप्ते, प्रकृष्टावस्थां गते, सू०प्र०१पाहु०। *उत्त-त्रि०वप्-त निक्षिप्ते, ध०१ अधि०। कृतवाये धान्या-दौ क्षेत्रे, उत्तमकट्ठा स्त्री० (उत्तमकाष्ठा) प्रकृष्टावस्थायाम्,जं०२ वक्षः। वाच० / कर्षक इव बीजवपनं कृत्वा निष्पादिते, "देव उत्ते अएलोए उत्तमकुल न० (उत्तमकुल) उग्रभोगादिके चान्द्रादिके वा कुले, बंभउत्तेत्तियावरे"। सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। "उत्तमकुले वि जायं णिद्धाडिज्जइ तपंगच्छं" ग०२ अधि०। उत्तण न० (उत्तॄण) उद्गतं तृणमुत्तृणम् / ऊर्द्धगते तृणे, उत्तमगुण पुं० (उत्तमगुण) प्रधानगुणे, पंचा०४ विव०। "खित्तखिलभूमिवल्लराई उत्तणघणसं कडाइं डझंतु" उत्तृणै उत्तमगुणबहुमाण पु० (उत्तमगुणबहुमान) उत्तमगुणेषु प्रधानगुणेषु जिनेषु स्तृणैर्घनमत्यर्थं संकटानि सङ्कीर्णानि यानि तानि तथा। प्रश्न०१द्वा० वीतरागत्वादिषु वा जिनगुणेषु, बहुमानः पक्षपातः उत्तमगुणबहुमानः उद्गतानि तृणानि यत्र उद्गततृणके, "उत्तणाणि वणाणि णिप्पण्णसव्वं वा उत्तमगुणपक्षपाते, "उत्तमगुणबहुमाणो पयमुत्तमसत्तमज्झयारम्मि" मेइणिं' उद्गतानि तृणानि येषु वनेषु तानि तथा। अनु०॥ पंचा० 4 विव०। उत्तत्थ त्रि० (उत्रास्त) उद्गतत्राशे, प्रश्न० अध०३ द्वा० / / उत्तमगुणोघ पु० (उत्तमगुणौघ) अनहकारिणि, "ण करोति अहंकार भयाजातोत्कम्पादिभयभावे, “उत्तत्था तसिया उद्विग्गा संजायभया" एरिसओ उत्तमगुणो य"पं०भा०॥ भ०३ श०१ उ०। उत्तत्थसुण्णभयसंतत्था" प्रश्न० अध०३द्वा०। उत्तमजणसेविय त्रि० (उत्तमजनसेवित) गणधरसेविते, गणधराणामुत्तउत्तप्पसरीर त्रि० (उत्तप्तशरीर) देदिप्यमानशरीरे, रा०। मत्वात् / "उत्तममियं पयं जिणबो हिंलोगुत्तमे हिं पण्णत्तं / उत्तम त्रि० (उत्तम ) उद्-तमस् / स्वरूपतः सुन्दरे, कल्प० / भ०। उत्तमकलसंजणयं, उत्तमजणसेविता लोए" पंचा० 11 विव०। प्रशंसास्पदीभूते, जं०२ वक्ष०। औ०। सर्वोत्कृष्ट, आव० 2 अ०। उत्तमजत्ता स्त्री० (उत्तमयात्रा) प्रधानयात्रायां, पंचा०६ विव० महति, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। प्रधाने, पंचा०६ विव० प्रश्न०। संस्था। उत्तमजोगित्तन०(उत्तमयोगित्व) न० अयोगित्वलक्षणे संवरद्वारे, स्था० "अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे" आचा०१ श्रु०८ अ०। 540 // "बंभचेरं उत्तमतवनियमनाण-दसणचरित्तविणयमूलं" प्रश्न०३ द्वा०। उत्तमट्ठ पुं० (उत्तमार्थ) उत्तमश्चासावर्थश्च उत्तमार्थः / प्रकृष्टपदार्थे, 'इच्चेय प्रज्ञा० / संयमे, पुं० दशा० 5 अ० / गिरीणमुत्तमत्वादुत्तमः। मेरौ, "ता महव्वयउच्चारणा उवत्तया जुत्तपायनाणे परमट्टे उत्तम?" उत्तमांसि पव्वयंसि" चं० प्र०१पाहु०सू०प्र०। अन्त्ये, त्रि० उत्तमैक उत्तमश्चासवर्थश्चोत्तमार्थः / प्रकृष्टपदार्थे, मोक्षफलसाधकत्वेन महाव्रतानां भ्यांच० पा० उत्तमशब्दोऽन्त्यार्थः उत्तानपादस्यपुत्रभेदे, ध्रुवस्य भ्रातरि सर्ववस्तुप्रदानत्वादिति / पा० // उत्तमः प्रधानोऽर्थो मोक्षो यस्मात्स पुं०वाच०॥ उत्तमार्थः / पर्यन्तसमयाराधवरूपे जिनाज्ञाराधने, 'निरहिया णिप्परुई *उत्तमस् त्रि० ऊर्द्धतमसोऽज्ञानाद्यत्तत्तथा अज्ञानरहिते, ज्ञा०१ अ०। उतस्स,जे उत्तमट्टे विवज्जा समेइ" उत्त०२अ० अनशने, "इच्छामि कित्तियवंदियमहिया,जेलोगस्सुत्तमा सिद्धा।।। भंते उत्तमट्ठ पडिकमामि" (अणसणशब्दे विवरणमुक्तम् ) कालधर्मे, कीर्तिताः स्वनामभिः प्रोक्ता वंदितास्त्रिविधयोगेन सम्यक् स्तुता आव०४ अ०। महिताः पुष्पादिभिः पूजिताः / क एते इत्यत आह ये एते लोकस्य उत्तमट्ठगवेसय त्रि० (उत्तमार्थगवेषक) मोक्षाभिलाषिणि. "ण विरुट्ठोण प्राणिलोकस्य मिथ्यात्वादिकर्ममलकभञ्जकभावेनोत्तमाः प्रधानाः वितुतुट्ठो, उत्तमट्ठगवेसओ" उत्त० 25 अ०। ऊर्ध्व वा तमसः इत्युत्तमसः / उत्प्रावल्येनो- र्ध्वगमनोच्छेदनेष्विति उत्तमट्ठपत्त त्रि०(उत्तमार्थप्राप्त) उत्कृष्टानान्प्राप्ते, "सुसुमाए समाए वचनात् / प्राकृतशैल्या पुनरुत्तमा उच्यन्ते। (सिद्धा इति) सितं ध्मातं उत्तमट्ठपत्ताए भरहस्स के रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते" बन्धमेषामिति सिद्धाः कृतकृत्या इत्यर्थः। ल०। उत्तमांस्तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानर्थानायुष्कादीनप्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ताः / अस्यैव व्याख्या नियुक्तिकृदाह भ०६ श०७उ०।। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमट्ठाण 784 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तर उत्तमट्ठाण न० (उत्तमस्थान) मोक्षस्थाने, "धीरो अमूढसण्णीसो गच्छइ / उत्तमट्ठाणं" आतु०॥ उत्तमड्डि (रिद्धि)स्त्री०(उत्तमद्धि) प्रधानविभवे, “सेया य उत्तमा खलु, उत्तमरिद्धिए कायव्वा" पंचा०६ विव०॥ उत्तमणिदंसणन० (उत्तमनिदर्शन) इन्द्रादिलक्षणेषु, प्रधानसत्वज्ञानेषु, पंचा० 16 विव०॥ उत्तमणिदंसणजुय त्रि० (उत्तमनिदर्शनयुत) अहीनोदाहरणवति, "उत्तमणिदंसणजुअं विचित्तणयगब्भणरं चेव" पं०व०॥ उत्तमधम्मपसिद्धि स्त्री०(उत्तमधर्मप्रसिद्धि) प्रधानधर्मस्य पूजाकाले, प्रकृष्टपुण्यकर्मबन्धरूपस्य अशुभकर्मक्षयरूपस्य च कालान्तरक्रमेण यथाख्यातचारित्ररूपस्य निष्पत्तौ, जिनशासनप्रकाशे च / "उत्तमधम्मपसिद्धि पूयाए जिणवरिंदाणं'' पंचा० 4 विव०। उत्तमपसत्थज्झाण न०(उत्तमप्रशस्तध्यान) प्रवृद्धशुभयोगे, "उत्तम पवसत्थज्झाणोहयएणं इमं विचिंतेइ" पं०व०॥ उत्तमपुरिसपुं० (उत्तमपुरुष) तीर्थकृचक्रवर्तिवलदेववासुदेव-लक्षणेषु. प्रधानपुरुषेषु'"अरहन्नचक्कवट्टी, वलदेवा चेव वासुदेवाय / एए उत्तमपुरिसा. नहु तुच्छकुलेसु जायंति. आ० म० द्वि० / "णव दसारमंडलाहोत्था तंजहा उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा. उत्तमपुरुषास्तीर्थकरादीनां चतुःपञ्चाशदुत्तमपुरुषाणा मध्यवर्तित्वात् / स०। कुम्मुण्णया जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं" स्था०३ ठा०। उत्तमपोग्गल पुं० (उत्तमपुद्गल) आत्मनि, प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दस्ततश्चायमर्थः उत्तमोत्तम महतोऽपि महीयसी, "से पडिए उत्तमपोग्गले" सूत्र०१ श्रु०१३ अ०।। उत्तमफलसंजयण त्रि० (उत्तमफलसंजनक) मोक्षजनके,पं०व०। उत्तमबलविरियसत्तजुत्त त्रि० (उत्तमबलवीर्य सत्वयुक्त) उत्तमैर्बलवीर्यसत्वैर्युक्त, उत्तमयोर्बलवीर्ययोः सत्वेन (सत्तया) युक्ते च / भ०६ श०३३ उ०। उत्तमग्ग पुं० (उत्तममार्ग) ज्ञानस्य प्राधान्यं व्यवहारस्य च गौणता-यत्र तस्मिन्, द्र०॥ उत्तमविउव्वि(ण) त्रि० (उत्तमविकुर्विन) उत्तमं विकुर्व- तित्येवंशीलाः। उत्तमविकुर्वणशीलेषु, जी०४ प्रति०। उत्तमसुत्त न० (उत्तमशुत्र) कर्म० स०।छेदश्रुते, दृष्टिवादे च। किंपुणतं उत्तमसुत्तं उचते "छेयसुत्तमुत्तमसुयं, अहवा दिट्ठिवा ओ भण्णई। छेयसुयं कम्हा, उत्तमसुत्तं भणति जम्हा० तत्थ स पायच्छित्तो विधी भण्णति जम्हा य तेण चरणविसुद्धी करेति तम्हा तं उत्तमसुत्तं दिट्ठिवाओ वा" नि०चू०१६उ01 उत्तमसुयण्णिय त्रि० (उत्तमश्रुतवर्णित) प्रधानागमाभिहिते, पंचा०६ विव०। उत्तमा स्त्री० (उत्तमा) पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य तृतीया यामग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० / भ० / (अग्गमहीसीशब्दे सा उक्ता) लोकोक्तरीत्या प्रतिपद्रात्रौ, चं०१पाहु०। कल्प०। जं०। ज्यो०॥ उत्तमागार पुं० (उत्तमाकार) उत्तरङ्गादिरूपे उपरितनेष्वाकारेषु, तेसिणं दाराणं उत्तमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया, राoll उत्तमोत्तम त्रि० (उत्तमोत्तम) महतोऽपि महीयसि, सू०१ श्रु०१३ अ० उत्तरन० (उत्तर) उत्तीर्यते प्रकृताभियोगोऽनेन उद्तृ 0 अच्० उद्तरप् वा। राजसमीपे वादिकृताभियोगापनसदे के उत्तराख्ये व्यवहाराङ्गे, द्वितीयपादे, प्रश्नश्चोद्यधिया प्रश्नस्तस्य खण्डनमुत्तरम्. इत्युक्ते दोषभजनवाक्ये, जिज्ञा सितविषया वेदके वाक्ये , अनन्तरे, वाच०॥ अस्य निक्षेपः॥ णाम ठवणा दविए, खेत्तदिसा ताव खेत्तपण्णवए। पइकालं संचयपहा-णाणायणकमगणणतो भावे / / जहण्णरुत्तरं खलु, उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ। सेसाइं अणुत्तराई, अणुत्तराइंच णायाई।। इह च सुपो यत्रादर्शनं तत्र सूत्रत्वेन छान्दसत्वाल्लुक् तथोत्तरनिक्षेप प्रस्तावात्सूचकत्वात्सूत्रस्य 'कमउत्तरेण य गय' मित्युत्तरत्र श्रवणाच (नामंति) नातोत्तरं (ठवणत्ति) स्थापनोत्तरमित्याधभिलापः कार्यस्तत्र नामोत्तरमिति नामेव यस्य वा जीवादेरुत्तरमिति नाम क्रियते / स्थापनोत्तरमक्षरादि उत्तरमिति वर्णविन्यासो वा द्रव्योत्तरमागतो ज्ञानानुपयुक्तो नोआगमतो ज्ञशरीर भव्यशरीरे तद्व्यतिरिक्तं चातव्यतिरिक्तं त्रिधा सचित्त मिश्रभेदेन तत्रच सचित्तं पितुः पुत्रः अचित्तं क्षीराद्दधि, मिश्रं जननी शरीरतो रोमादिमदपत्यम् / इहच द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यप्राधान्यविवक्षया पित्रादीनां द्रव्योत्तरत्वं भावनीयम् / क्षेत्रोत्तरं मेर्वाद्यपेक्षया यदुत्तरं यथोत्तराः कुरवः यता पूर्व शालिक्षेत्रं तदेव पश्चादिक्षुक्षेत्रं दिगुत्तरमुत्तरा दिग्दक्षिणदिगपेक्षत्वादस्य / तापक्षेत्रोत्तरं यत्तापदिगपेक्षयोत्तरमित्युच्यते यथा सर्वेषामुत्तरो मन्दराद्रिः प्रज्ञापकस्य वामं प्रत्युत्तरमेकदिगवस्थित योर्देवदत्तयज्ञदत्तयोर्देवदत्तात्परो यज्ञदत्तः उत्तरः / कालोत्तरं समयादावलिका आवलीकातो मुहूर्त्तमित्यादि / सायोत्तर यत्सञ्चयस्योपरि यथा धान्यराशेः काष्ठम् / प्रधानोत्तरं त्रिविधं सचिताचित्तमिश्रभेदात्। सचित्तप्रधानोत्तरमपि त्रिविधमेव तद्यथा द्विपद चतुष्पदमपदं च। तत्र द्विपदमनुत्तरपुण्यप्रकृतितीर्थकर नामाद्यनुभवनस्तीर्थकरश्चतुष्पदमनन्य साधारणशौर्यधैर्यादियोगतः सिंहः, अपदं रम्यत्वसुरसेव्यत्वादिभिर्जात्यजाम्बून दादिमयी जम्यूद्वीपं मध्यस्थिता सुदर्शना जम्यूः अचित्तमचिन्त्यमहात्म्य- श्चिन्तामणिः मिश्र तीर्थकर एव गृस्थावस्थायां सर्वालङ्कारालंकृतः। ज्ञानोत्तरं के वलज्ञानं विलीनसकलावरणत्वेन समस्तवस्तु -स्वभावावभासितया च / यद्वा श्रुतज्ञानं तस्य स्वपरप्रकाश कत्वेन केवलादपि महर्द्धिकत्वात्। उक्तं च "सुयनाणं महीवीयं, केवलं तयणंतरं / अप्पणो य परेसिं च जम्हा तं परिभावणत्ति' क्रमोत्तरं क्रममाश्रित्य यद्भवति तच्चतुर्विधिं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च। तत्र द्रव्यतः परमाणेार्द्धिप्रदेशिकस्ततोऽपि त्रिप्रदेशिक एवं यावदन्त्योऽनन्त प्रदेशिकः स्कन्धः क्षेत्रतः एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढः ततोऽपि त्रिप्रदेशावगाढ एवं यावदवसानवर्त्य संख्येयप्रदेशाव गाढः / कालतः एकसमयस्थितेर्द्विसमयस्थिति स्ततोऽपि त्रिसमयस्थितिरेवं यावद संख्येयसमयस्थितिः। भावत एकगुणकृष्णाद्विगुणकृष्णस्ततोऽपि त्रिगुणकृष्ण एवं यावदनन्तगुणकृष्णो यतो वा क्षायोपशमिकादिभावादनन्तरं यः क्षायिकादिर्भवति (गणनुत्तरत्ति) गणना उत्तरमेककाद् द्विकस्ततोऽपि त्रिक एवं यावच्छर्षप्रहेलिका। भावोत्तरं क्षायिको भावस्तस्य केवलज्ञानदर्शनाद्यात्मकत्वेन सकलौदयिकादिभावप्रधानत्वादा हैवमस्य प्रधानोत्तर एवान्तभवादयुक्तं भेदेनाभिधानम् / यदेवमन्योन्यमिदमुच्यते एवं हि नामादिचतुष्टय एव सर्वनिक्षेपाणामन्तर्भावात्तदेवाभिधेयं तत इहान्यत्र यन्नादिचुष्टयाध्किनिपक्षेपा भिधानं तच्छिप्यमतिघ्युत्पादनार्थ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 785 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्ताकुरा सामान्यविशेषोभयात्मक त्वख्यापनार्थं च सर्ववस्तूनामिति शब्दे) भावनीयमिति गाथार्थः // इहानेकधोत्तराभिधानेऽपि क्रमोत्तरमेवाधि- (सूत्रम्) तस्स उत्तरि (री) करणेणं पायच्छित्तकरणेणं करिष्यते विषयज्ञाने च विषयी सुज्ञातो भवतीति मन्वानो यत्रास्य संभवा अत्रस्त्योत्तरकरणेति सूत्रावयवं विवृण्वन्नाहयत्र चासंभवो यत्र चोभयं तदाह / (जहण्णत्ति) जघन्यं सोत्तरं खंडिअविराहिआणं, मूलगुणाणं स उत्तरगुणाणं / / खलुरवधारणे सोत्तरमेव (उक्कोसंति) उत्कृष्ट वाशब्दस्यैवकारार्थस्य उत्तरकरणं कीरइ, जह सगडरहंगगेहाणं / / 66|| मिन्नक्रमत्वादनुत्तरमेव भवति शेषाणि मध्यमान्युत्तराणीति / खंण्डितविराधितानां खण्डिताः सर्वथा भगा विराधिता देशतो भना अर्शआदित्वेनाजन्तत्वान्मतुब्लोपाद्वोत्तरवन्त्यनु त्तराणि च ज्ञेयानि मूलगुणानां प्राणानां प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपाणां सह उत्तरगुणैः द्रव्यक्रमोत्तरादीनि हि जघन्यान्येक प्रदेशिकादीन्युपरि द्वि- पिण्ड्वश्रुद्ध्यादिनिवर्तन्त इति सोत्तरगुणास्तेषामुत्तरकरणं क्रियते प्रदेशिकादिवस्त्वन्तरभावात्सोत्तराण्येव तदपेक्षयैव तेषां जघन्यत्वात्। आलोचनादीनां पुनः संस्करणमित्यर्थः / दृष्टांतमाह यथा उत्कृष्टानि त्वन्त्यान्यनन्तप्रदेशिकादीन्यनुत्तराण्येव तदुपरि शकटरथाङ्गगेहाना बहिश्चक्रगृहाणामित्यर्थः / तथाच शकटादीनां वस्त्वन्तराभावादन्यथोत्कृष्टत्वायोगात्। मध्यमानितु द्विप्रदेशिकादीनि खण्डितविराधितानामक्षरावलिकादिनोत्तरकरणं क्रियत इति गाथार्थः / त्रिप्रदेशिकाद्यपेक्षया सोत्तराण्येकप्रदेशिकाद्यपेक्षया त्वनुत्तराण्युपरितन- आव०५ अ० वस्त्रत्वपेक्षयैव सोत्तरत्वादिति गाथार्थः // उत्त० 1 अ०। (शेषग्रन्थ उत्तरकिरिय न० (उत्तरक्रिय) उत्तरा उत्तरवैक्रियशरीराश्रया गतिलक्ष्णा उत्तरज्झयणशब्दे) अधिके, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० / उत्कृष्ट, उत्त०३ क्रिया यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् / उत्तरवैक्रिय शरीराश्रयगत्या गमने, अ01 प्रधाने, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० / स्था० / तं० / अनु० "उत्तरा "जयाणं वाउयाए, उत्तरकिरिय रीयइ" अनु०॥ महुरुलाव पुत्ता ते ताव खुड्डया" उत्तराः प्रधानाः उत्तरोत्तरजाता वा उत्तरकुरा(रु) पुं, स्त्री०(उत्तरकुरु) प्राकृते चैकवचनमाकारान्तताच। सूत्र०१ श्रु०३ अ०। वृद्धौ, "कइपएसुत्तरा" कति प्रदेशा उत्तरे वृद्धौ जी० 3 प्रति० // जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण यस्या सा तथा भ०१३ श०४ उ०.उपरिवर्तिनि, अनुत्तरविमानाख्येषु गन्धमादनमाल्यवद्भ्यामावृत्तेऽर्द्धचन्द्राकारे उत्तरतो विस्तृते देवेषु, सर्वोपरिवर्तित्वात्तेषाम्। उत्त०२ अ०। ऐरावते भविष्यति द्वाविंशे स्वनामख्याते कुरुभेदे स्था०२ठा०॥ एते चाकर्मभूमिभेदाः। स्था०६ तीर्थकरे, साति०। प्रव० ठा० / प्रव०१ तेषां प्रमाणादिव्यवस्था चेत्थम्। पकुलावभया वा, कजं पिन सेसया उदीरेंति। कहिणं भंते महाविदेहे वासे उत्तरकुराणामंकुरा पण्णत्ता पाएण अहो तोन्निव, उत्तरि सोवाहणेणं ति।। गोयमा ! मंदरस्स पटवयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स पादेनसोपानहा आहत इत्युत्तरसदृशोत्तरकारी उत्तरः। इयमत्र भावना। वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स केनापि कश्चित्सोपानहा पदेनोपहतः तेन च गत्वा राजकुले निवेदिते पुरच्छिमेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्चच्छिमेणं कारणिकैश्च स आकारितः। किंत्वयैष आहतः न मूया किं तु सोपानहा एत्थणमुत्तरकुरा णाम कुरा पण्णत्ता / पाईणपडी णा य या पादेन एवं सोऽपि दुर्व्यवहारं कुर्वन् गीतॊथन सूत्रोपदेशतः उपालब्धः उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिआइकारसजोयणसन्नेतादृशैश्छलवचनैरुत्तरं ददाति / ततः कटूत्तरकरणात्स उत्तर सहस्साइं अट्ठयबायाले जोअणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए इत्युक्तलक्षणे अप्रशंसनीये व्यवहारिणि, व्य० प्र०१ उ०। स्थविरस्या- जोयणस्स विक्खंभेणं तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणा य या य॑महागिरेः प्रथमशिष्ये, व्य० द्वि०१ उ० / "तणविणणसंजयट्ठा दुहा वकःखारपव्वयं पुट्ठा तंजहा पुरच्छिमिल्लाए कोडिए / मूलगुणा उत्तरा पज्जणया" उत्तराः उत्तरगुणरूपाः" वृ० 1 उ०। पुरच्छिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पचच्छिमिल्लाए जाव उत्तरंग न० (उत्तराङ्ग) द्वारस्योपरि तीर्यग्व्यवस्थिमतङ्ग मुत्तराङ्गम् पचच्छिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा ते व णं जोयणसहस्साई द्वारस्योपरितीर्यग्व्यवस्थिते काष्ठे, जं०१ वक्ष०"जोई सामए उत्तरंगे" आयामेणं तीसेणं धणुं दाहिणेणं सड़िजोअणसहस्साइं चत्तारि जी०२ प्रति०। अ अट्ठारसे जोअणसए दुवालसए एगूणवीसइमाए जोयणस्स मारकंचुयपुं० (उत्तरकञ्चक) तनुत्राणविशेष, विपा०२ अ०। परिक्खेवेणं // जसरकट्ठोवगयत्रि०(उत्तरकाष्ठोपगत) उत्तरां दिशमुपगते, स०। क्व भदन्त ! महाविदेहे वर्षे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवःप्रज्ञप्ताः गौतम! उत्तरकरण न० (उत्तरकरण) उत्तरत्र करणमुत्तरकरणम्। द्रव्यकरणभेदे, मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणतो तम "उत्तरकरणं वंजणं अत्थो उ उवक्खरो सव्वे" उत्तरत्र गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वतो वक्ष्यमाणस्वरूपस्य माल्यवतः करणमुत्तरकरणम् कर्णबेधादि। यदि वा तन्मूलकरणं घटादिक पश्चिमतः / अत्रान्तरे उत्तरकुरवो नाम्ना कुरवः प्रज्ञप्ताः प्राक् पश्चिमायता येनोपस्कारेण दण्डचक्रादिना जीभव्यज्यते स्वरूपतः प्रकाश्यते उत्तरदक्षिणविस्तीणी अर्द्धचन्द्राकारा एकादशयोजनसहस्राण्यष्टौ तदुत्तरकरणं कर्तुरूपकारकः सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः (प्रपञ्चतः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य करणशब्दे) भावकरणभेदे, "उत्तरकमसु य जोयव्वणवण्णादी विष्कम्भेन / अत्रोपपत्तिर्यथा महाविदेहविष्कम्भात् (33654) कला भोअणादीसु" सूत्र०१ श्रु०१ अ० (उत्तरकरणं क्रमश्रुतयौवनवर्णादिच- (4) इत्येवंरूपान्मेरुविष्कम्भेऽपनीते शेषस्यार्द्ध कृते उक्ताङ्कराशिः तूरूपम्करणशब्दे दर्शयिष्यते) मूलतः स्वहेतुत उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं स्यात् नतु वर्षवर्षधरादीनां क्रमव्यवस्था प्रज्ञापकापेक्षया अस्ति / यथा विशेषाधानात्मके करणे "उत्तरकरणेण कयंजंकिंचि संखयं तुणायव्वं' प्ररूपकासन्नं भरतंततोहिमवानित्यादिततो विदेहकथनानन्तरं क्रमप्राप्ता उत्त०नि०ाजे भिक्खू सूचीए उत्तरकरणं अण्णउत्थिंएणवा गारथिएण देवकुरुर्विमुच्य कथमुत्तरकुरूणां निरूपणमुच्यते चतुर्दिग्मुखे विदेहे वा कारेति कारेंतं वा साइजइ नि० चू०१ उ०। (सूच्या उत्तरकरणं सूई / प्रायःसर्व प्रादक्षिण्येन व्यवस्थाप्यमानं समये श्रूयते ततप्रथमत उत्तरकु Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकुरा रुकथनं ततः पार्श्वस्थौ विद्युत्प्रभसौमनसौ विहाय गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारप्ररूपणं भरतासन्नविजयान् विहाय कच्छमहाकच्छादिविजयकथनं चेति / अथैतासां जीवानाह (तीसेइत्यादि)तासामुत्तरकुरूणां सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वाञ्जीवा उत्तरतो नीलवर्षधरासन्ना कुरुचरमप्रदेशश्रेणिः पूर्वापरायता द्विधा पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा एतदेव विवृणोति / तद्यथा पौरस्त्यया कोट्या पौरस्त्वं वक्षस्कारपर्वतं माल्यवंतं स्पृष्टा पाश्चात्यया पाश्चात्यं गंधमादननामानं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि आयामेन तत्कथमित्युच्यते। मेरोःपूर्वस्यां दिशि भद्रशालवनमायामतो द्वाविंशतियोजन- सहस्राणि एवं पश्चिमायामपि उभयोर्मीलने जातं चतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि मेरुविष्कम्भे दशसहस्रयोजनात्मके प्रक्षिप्ते जातं चतुःपञ्चाशत्योजनसहस्राणि एकैकस्य वक्षस्कारगिरेः वर्षधरसमीपे पृथुत्वं पञ्चयोजनशतानि ततो द्वयोर्वक्षस्कारगिर्योः पृथुत्वपरिमाणं योजनसहसंततः पूर्वराशिरपनीयते जातः पूर्वराशिस्त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणीति। अथैतासांधनुः पृष्ठमाह (तीसेणं धगुंदाहिणेणमित्यादि) तासां धनुः पृष्ठं दक्षिणतो मेरोसिन्न इत्यर्थः / षष्टियोजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण / तथाहि एकैकवक्षस्कार गिरेरायामस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे षटं च कलाः / ततो द्रयोर्वक्षस्कारयोरायाममीलने यथोक्तं मानमिति॥ जं०४ वक्ष०। अर्थतासां स्वरूपप्ररूपणायाह / / उत्तरकुराएणं भंते ! कुराए केरिसए आगारभावपाडोयारे पण्णत्ते ! गोयमा / बहुसमरमणिभूमिमागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव एवं एगोरुगदीव दत्तव्वया जाव देवलोगपरिग्गहाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो॥ (उत्तरकुराएणं भंते इत्यादि) उत्तरकुरूणां सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् कीदृश आकारभावस्य स्वरूपस्य प्रत्यवतारसंभवः प्रज्ञप्तः! भगवानाह गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभाग उत्तरकुरूणां प्रज्ञप्तः (सेजहानामाए इत्यादि) जगत्युपरिवनखण्डवर्णकवत्तावद्वक्तव्यं यावत्तृणानां मणीनां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दश्च सवर्णकः परिपूर्ण उक्तो भवति / / पर्यंतसूत्रं चेदं दिव्वं नट्टसज्जं गेयं पगीयाणं भवे एयारूवे सिया हंता सिया इति" जी०३ प्रति।। अत्रेदमवधेयम्॥ (सूत्रपाठे जाव एवं एगोरुगदीववत्तव्वया इति / एकोरुकद्वीपवर्णक एव स्मारितः वृत्तिकृता तु एतादृशं पाठममन्यमानेन एकोरुकवक्तव्यतायाम किश्चिदुक्त्वा इहैव व्याख्यातमित्यस्माभिरपि अन्तरदीपशब्दे एकोरुकवक्तव्यतामूलसूत्रैरेय प्रदर्शिता इह तुतादृशानि सूत्राणि परिकल्प्य टीका संयोजिता) उत्तरकुरुषु आकारप्रत्यवतारस्य वर्णकः सुषमसुषमाभरतवर्षस्येव भावनीया सा ओसप्पिणीशब्दे व्याख्यास्ते नवरम्॥ उत्तरकुराणं कुराए छविधा मणुस्सा अणुसज्जंति / तंजहा पम्हगंधा 1 मियकांधा 2 अममा 3 सहा / तेयली 5 सणिचारी 6 (उत्तरकुराएणं भंते इत्यादि) उत्तरकुरूषु कुरुषु भदन्त ! कतिविधा जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या अनुसञ्जति संतानेनानुवर्त्तन्ते भगवानाह-गौतमा षड्विधा मनुजा अनुसजेतितद्यथा पद्मगंधा इत्यादि जातिवाचका इमे शब्दाः अत्र विनेयजनानुग्रहाय उत्तरकुरुविषयसूत्रसंकलनार्थं संग्रहणीगाथात्रयमाह इसुजीवा धणुप४, भूमी गुम्मा य हेरुउद्दाला। निलगलयावणराई, लुक्खामणुया य आहारे।। गेहा गामाय असी, हिरण्णरायाय दासमाया य। आरवरण्णा मत्तवि, वाहमहनट्ठसगडा य॥ आसागावो सीहा, सालीथाणुयगडदंसाही। गहजद्धरोगट्टिइ, उबट्टणा य अणुवट्टणा चेव॥ अस्य व्याख्या प्रथममुत्तरकुरुविषयमिषुजीवाः धनुःपृष्ट प्रतिपादनेक सूत्रं तदनंतरं (भूमिरित्त) भूमिविषयं सूत्रं ततो (गुम्मा इति) गुल्मविषयं सूत्रं तदनंतर हेरुतालवनविषयं सूत्रं ततः। (उद्दाला इति) उद्दालाविषयं तदनंतरं (तिलग इति) तिलकपदोपलक्षितं ततो लताविषयं तदनंतरं वनराजिविषयं ततो (रुक्खाइति) दशविधकल्पपादपविषया दश सूत्रदण्डका (मणुया य इति) त्यो मनुष्यविषयाः सूत्रदण्डकास्तद्यया आद्यः पुरुषविषयो द्वितीयः स्त्रीविषस्तृतीयः सामान्यतः उभयविषयः। तत (आहारे इति) आहारविषयस्तदनंतरं (गेहा इति) गृहविषयौ दण्डको आधो गृहकारवृक्षाभिधायी अपरो गेहाद्यभावविषय इति ततो (गामा इति) ग्रामाधभावस्तदनंतरम् (असीति) अस्याद्यभावविषयस्ततो हिरण्याद्यभावविषयस्तदनंतरं राजाद्यभावविषयस्ततो दासाद्यभावविषयस्ततो मात्रादिविषय स्तदनंतरमरिवैरिप्रभृतिविषयस्तदनंतरं मित्राद्यभावविषय- स्तदनंतरं विवाहपदोपलक्षितस्तत्प्रतिषेधविषयः तदनंतरं महप्रतिषेधविषयः ततो नृत्तपदोपलक्षितप्रेक्षाप्रतिषेधः तदनंतरं शकटादिप्रतिषेधविषयः ततो ऽश्वादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः तदनंतरं स्त्रीगत्यादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः। ततः सिंहादिश्वापदविषयः तदनंतर शाल्याधुपभोगप्रतिषेध विषयस्ततः स्थाण्वादिप्रतिषेधविषयस्तदनंतरं गादिप्रतिषेधविषय स्ततो दंशाद्यभावविषयस्ततोऽह्यादिविषयस्तदनंतरं ग्रह इतिग्रहदण्डादिविषयस्ततो युद्ध इति युद्धपदोपलक्षितो डिम्बादिप्रतिषेधविषयः सूत्रदण्डकस्तता रोगइति रोगपदोपलक्षितो दुर्भूतादिप्रतिषेधविषयस्तदनंतरं स्थितिसूत्रं ततोऽनुषञ्जनसूत्रमिति॥ संप्रति उत्तरकुरुभावियमकपर्वतवक्तव्यतामाह-- कहिणं भंते ! उत्तरकुराए जमगा नाम दुवे पव्वता पण्णता ? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसं जोयणसत्ते चत्तारिय सत्तभागे जोयणसहस्स आबाधाए सीताए महाणतीए उभओ कूले एत्थ णं उत्तरकुराए जमगा णाम दुवे पव्वता पण्णता एगमेगेणं जोयणसहस्सउर्ल्ड उच्चत्तेणं अवजाई जोयणसयाई उवे हेणं मूले एकमेकं जोयणसहस्सं आयामविक्खं भेणं मज्झे अद्धट्ठमाइं जोयणसताई आयामविक्खंभेणं उवरिपंचजोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं मूले तिण्णि जायण-सहस्साइं एकं वा वटुंजोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं दो जायणसहस्साई तिण्णि य वावत्तरे जायणसत्ते किंचि विसेसूण परिक्खेवेणं उवरिं पण्णरस एक्कासीते जोयणसते किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता मूलविच्छिण्ण मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सटवकणगामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा पत्तेयं २पउ मवरवेतिया परिक्खत्ता पत्तेयं 2 वणसंडपरिक्खित्ता वण्णओ दोण्णं वि ते सिणं जमगपव्वयाणं उपि बहुस Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा ७५७-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकुरा मरमणिज्ज भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ जाव आसयंति। क्व भदन्त। उत्तरकुरुषु कुरुषु यमकौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ? भगवानाह गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याचर- मान्ताच्चरम रूपात् पर्यन्तादष्टौ योजनशतानि चतुस्विशानि चतुस्त्रिंश दधिकानि चतुरश्च योजनस्य सप्त भागान अबाधया कृत्वा अपान्तराले मुत्तवेति भावः। अत्रांतरे शीताया महानद्याः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुभयोः कूलयोरत्र एतस्मिन् प्रदेशे यमकौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ। तद्यथा एकः पूर्वकूले एकः पश्चिमकूले प्रत्येकंयोजनसहस्रमुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानियोजनशतानि ऊधिन अवगाहेन मेरुव्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सर्वेषामपि शेषेणोचैस्त्वापेक्षया चतुर्भागस्यावगाहभावात् मूले एकं योजनसहस्रं विष्कम्भः (1000) मध्ये अर्द्धशतोनाष्ट योजनशतानि (750) उपरि पञ्चयोजनशतानि (500) मूले त्रीणि योजनशतानि एकं च द्वाषष्टं द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकंपरिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ (3162) मध्ये द्वे योजनसहस्रे त्रीणि योजनशतानि द्वासप्तत्यधिकानि (2372) किञ्चिद्विशेषाधिकानिपरिक्षेपेण प्रज्ञप्तौ ! उपरि एकं योजनसहस्रं पशशतानि एकाशीतीनि एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि (1581) परिक्षेपेण एवं च तौ मूले विस्तीर्णी मध्ये संक्षिप्तौ उपरि तनुकावत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिती (सव्वकणगमया इति) सर्वात्मना कनकमयौ (अच्छा जाव पडिरूवा इति) प्राग्वत् तौ च प्रत्येक 2 पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्तौ प्रत्येकं 2 वनखण्डपरिक्षिप्तौ पद्मवेदिका वर्णको वनखण्डवर्णकश्च जगत्युपरि पद्मवरवेदिकावनखण्ड- वर्णकवत्वक्तव्यः (जमकपव्वयाणमित्यादि) यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येकं बहुसमरणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः भूमिभागवर्णनं च "से जहानामए आलिंगपुक्खरेइवा'' इत्यादि प्राग्वत् तावद्वक्तव्यं यावद्वाणमंतरा देवा देवीउ य आसयंति सयंति जाव पचणुब्भवमाणा विहरंति॥ तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं 2 पासायबर्डे सका पण्णता तेणं पासायबर्डेसका वावट्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चतेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विदखंभेणं अन्भुग्गतभूसित वण्णाओ भूमिभगाओ उल्लोत्ता दो जोयणाई मणिपेढियाओ उवरि सीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिटुंति। (तेसिणमित्यादि)तयोर्बहुसमरमणीययोभूमिभागयोर्बहु मध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येकं प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः / तौ च प्रासादावतंसको द्वाषष्टिोजनानि अर्द्धयोजनं चोर्द्धमुच्चैस्त्वेन एकत्रिंशद्योजनानि क्रोश चैकं विष्कम्भेन "अब्भुग्गयं मूसिय पहसियाइवे" त्यादियावत्पडिरूवा इति प्रासादावतं-सकवर्णनमुलोचवर्णनं भूमिभागवण्णानं मणिपीठिकावर्णनं सिंहासनवर्णनं विजयदूष्यवर्णनमङ्कुशवर्णनं दामवर्णनं च निरवशेषं प्राग्वद्वक्तव्यं नवरमत्र मणिपीठिकायाः प्रमाणमायामविष्कम्भाभ्या द्वे योजने बाहल्येन एकं योजनं शेषं तथैव (तेसिणं सिंहासणाणमित्यादि) तयोः सिंहासनयोः प्रत्येक (अवरुत्तरेणंति) अपरोत्तरस्यां वायव्यामित्यर्थः उत्तरपूर्वस्यां च दिशि अत्र एतासु तिसृषु दिक्षु यमकयोर्यमकनाम्नो र्यमकपर्वतस्वामिनोदैवयोः प्रत्येक प्रत्येकं चतुण्ाँ सामानिक- सहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। एवमेतेनक्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यो यथा प्राक् विजयदेवस्य (तेसिणमित्यादि) तयोः प्रासादावतंसकयोः प्रत्येकमुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि इत्याद्यपि प्राग्वत्तावद्वत्तव्यं यावत् सयसहस्सपत्तगा इतिपदम्। सम्प्रति नामनिबन्धनं पिपृच्छिषुरिदमाहसे केणढे णं भंते एवं वुचंति जगमा पव्वया 2 गोयमा! जमगेसु णं पव्वतेसु तत्थ 2 देसे 2 तर्हि 2 बहूउ खुड्डियाउवावीउजाव विलवंतियाउ तासुणं खुड्डा खुड्डिया जाव पिलवंतियासु बहूई उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताइं जमगप्पभाई जमगवण्णाई जमगा पत्थ णं दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्ठितिया परिवसंति तेणं तत्थ पत्तेयं 2 चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव जमगाणं पव्वयाणं जमिगाण य रायहाणीणं अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव पालेमाणा विहरति / से तेणटेणं गोयमा ण्वं वुबइ जमगपव्वया 2 अदुत्तरं चेणं गोयमा / जाव णिचा। अथ केनार्थेन केन कारणेन एवमुच्यते यमकपर्वतो यमकपर्वता- विति भगवानाह गौतम ! यमकपर्वतयोःणमिति वाक्यालंकारे क्षुल्लिकासु वापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलपंक्तिषु बहूनि उत्पलानि यावत्सहस्रपत्राणि यमकप्रभाणि यमका नाम शकुनिविशेषास्तत्प्रभाणि तदाकाराणि एतदेव व्याचष्टे यमकवर्णभानि यमकसदृशवर्णानीत्यर्थः यमको च यमकनामानौ च तत्र तयोर्यमकपर्वतयोः स्वामित्वेन द्वौ देवौ महर्द्धको यावन्महाभागौ पल्योपमस्थितिको परिवसतस्तौ च तत्र प्रत्येक प्रत्येक चतुर्णां सामानिकसहस्राणां चतसृणा- मग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणामभ्यन्तरमध्य बाह्यरूपाणां यथासंख्यमप्यादश द्वादशदेवसहस्रसंख्याकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां (जमगपव्व-याणां जमगाण य रायहाणीयमिति) स्वस्य स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्या यमिकाभिधाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वस्वयामिकाभिध राजधानीवास्तव्यानामाधिपत्यं यावद्विहरतः यावत्करणात् 'पारेवचं सामित्तं भट्टित्तमित्यादि" परिग्रहस्ततो यमकाकारय-मवर्णोत्पलादियोगात् यमकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च तौ यमकपर्वतावित्युच्यते / यथा चाह (सेएणढणमित्यादि)। संप्रति यमकाभिधराजधानीस्थानम् / कहिणं भंते जमगाणं देवाणं जमगाओ नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ / गोयमा ! जमगाणं पय्वयाणं उत्तारणंति तिरि यमसंखेजदीवसमुहे वितिकमित्ता अण्णम्मि जंबूद्दीवे 2 वार सजोयणसहस्साई उगाहित्ता एत्थणं जमगाणं देवाणं जमिगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ वारसजोयणसहस्साई जहा विजयस्स जाव महिड्डिया। जमगा देवाः क्व भदन्त / यमकयोर्देवयोः संबन्धिन्यौ यमिके नामराजधान्यौ प्रज्ञप्ते भगवानाह गौतमयमकपर्वतयोरुत्तरतोऽन्यस्मिन् असंख्येयतमे जम्बूद्वीये 2 द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्य अत्रांतरे यमकदेवयोः संबंधिन्यौः यमकराजधान्यौः प्रज्ञप्ते ते चाविशेषण विजयराजधानीसदृश्यौ वक्तव्ये जी०३ प्रति०॥ संप्रति हृदवक्तव्यतामभिधित्सुराहजंबूमंदरउत्तरेणं उत्तरकुराए कुराए पंचमहहहा पण्णत्ता तंजहा नीलवंतदहे एरावणदहे उत्तरकुरुदहे चंददहे माल वंतदहे। नीलवंतमहाहृदो विचित्रचित्रकूटपर्वतसमवक्तध्याताभ्यां यम Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा 788 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकुरा काभिधानाभ्यां स्वसामाननामदेवावासाभ्यां पर्वताभ्यामनन्तरं द्रष्टव्यस्ततो दक्षिणतः शेषाश्चत्वार इति एते च सर्वेऽपि प्रत्येक दशभिर्दशभिः काञ्चनकाभिधानर्योजनशतोच्छ्रितैर्योजन शतमूलविष्कम्भ, पञ्चाशद्योजवमानमस्तकविस्तारैः स्वसमान नामदेवाधिवासैः प्रत्येकं दशयोजनान्तरैः पूर्वापरव्यव स्थितैर्गिरिभिरुपेता एतेषांच विचित्रकूटादिपर्वतह्रदनिवासिदेवानामसंख्येयतमजम्बूद्वीपे द्वादशयोजन- सहस्रप्रमाणास्तन्नामिका नगर्यो भवन्तीति / / नीलवद्हदादीनां विशेषवर्णकः / कहिणं भंते / उत्तरकुराए 2 नीलवंतहहे नाम दहे पण्णत्ते / गोयमा? जमगाणं पव्वयाणं दाहिणेणं अहाचोत्तीसे जोयणसये चत्तारि सत्तभागे जोयणस्स अबाधाए सीताए महाणतीये बहुमज्झदेसमाए एत्थणं उतरकुराए 2 नलवंतबहे नामं दहे पण्णत्ते उत्तरदक्खिणाए पाईपडीणवित्थिपणे एगंजोयणसहस्सं आयामेणं पंचजोयणसयाति विक्खंभेणं दसजोयणाइंउटवेहेणं अच्छे सण्हे रयत्तामत्तकूले चउक्कोणे समतीरे जाव पडिरूवे उमओपासिं दोहियपउमवरवेतियाहिं दोहिंवणसंडेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते दोण्हविण्णओ नीलवंतदहस्स णं तत्थ 2 जाव बहवेत्ति सोमाणपडिरूवका पण्णत्ता वण्णओ भाणियय्वो तोरणेति॥ क्व भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु नीलवन्तहृदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः? भगवानाह गौतम ! यमकपर्वतयोर्दक्षिणत्याचरमान्तादर्वाक् दक्षिणाभिमुखामष्टौ चतुस्विंशानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च सप्त भागान् योजनस्य अबाधया कृत्वेति गीयते प्रपान्तराले मुक्त्वेति भावः। अत्रान्तरे शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे (एत्थणंति) एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु कुरुषु नीलवत् हृदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः स च किं विशिष्ट इत्याह उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः उत्तरदक्षिणाभ्यामवयवाभ्यामायतः उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनापाचीनाभ्यामवयवाभ्यां विस्तीर्णः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः / एक योजनसहसमायामेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भतः दशयोजनान्युद्वेधेन उण्डत्वेन अच्छस्फाटिकवद्भहिनिर्मलप्रदेशः श्लक्ष्ण, श्लक्ष्णपुद्गलनिर्मापितबहिःप्रदेशः / तथा रजतमयं रूप्यमयं कूलं यस्यासौ रजतमयकूल इत्यादि विशेषणकदम्बकं जगत्युपरि वाप्यादिवत्। तावद्वक्तव्यं यावदिदं पर्यन्तपदं "पडिहत्थभमंतमच्छकच्छ - पअणेगसउणमिहुणपरिपरिए इति " (उभयेपासेत्यादि) स च नीलवन्नामहृदः शीताया महानद्या उभयोः पार्श्वयोः बहिर्विनिर्गतः स तथाभूतः सन् उभयोः पार्श्वयोभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वितीये पायें द्वितीयया पद्मवरवेदिकया इत्यर्थः। एवं द्वाभ्यां वनखण्डाभ्यां सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः पद्मवरवेदिकावनखण्डवर्णकश्च प्राग्वत् / (नीलवंत दहस्सणं तत्थ तत्थेत्यादि) नीलवद्हस्य णमिति वाक्यालंकारे तत्र देशे तस्य 2 देशस्य तत्र तत्र / प्रदेशे बहूनि त्रिसोपसनप्रतिरूपकाणि प्रतिशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि / प्रज्ञप्तानि वर्णकस्तेषां प्राग्वद्वक्तव्यः। (तेसिणमित्यादि) तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं 2 तोरणं प्रज्ञप्तं / (तेणंतोरणाइत्यादि) तोरणवर्णनं पूर्ववत्तावद्वक्तव्यम् यादहवो "सयसहस्सपत्तगा" इति पदम्॥ तस्सणं नीलवंतहहस्सणं दहस्स बहुमज्झिदेसमाए एत्थ णं एगे महं पउमे पण्णत्तेजायणं आयामविक्खांभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं दसजोयणाई उव्वहेणं दो कोसे उसिते जलंतीतो सातिरेगाई दसजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते तस्सणं पउमस्स अयमेतारूपे वण्णावासे पण्णत्ते तंजहा वइरामता मूलारिट्ठामते कंदे वेरुलिया मएणालेवेरुलियामता बाहिरपत्ता जंबूणयमया अभंतरपत्ता तव णिज्जमया के सरा कणगामई कणिया नाणामणिमया पुक्खालस्थिरया साणं कण्णिया अर्द्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा तीसेणं कण्णियाए उवरिं बहुसमरमणिज्जदे समाए पण्णत्ते जाव मणीहिं तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थाणं एगे महं भवणे पण्णत्ते कोसं च आयामेणं अद्धकोसंच विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उडं उच्चत्तेणं अणेगक्खं भसतस णिविट्ठ समावण्णओ। तस्सणं भवणस्स तिदिसं ततो दारा पण्णत्तातं जहा पुरच्छिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं तेणं दारा पंचधणुसयाई उखु उच्चत्तेणं अढाइलाई घणुसयाई विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं से ताव कणगथूभियागा जाव वणमालाउत्ति तस्सणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिजभूमिभागं पण्णत्ते से जहानामए आलिंगपुक्खरेति वा जाव मणीणं वण्णओ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मणिपेढिया पण्णत्ता पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अड्डाइजाइंधणुसताइं बाहल्लेण सव्वमणामणिमती। (तस्सणमित्यादि) तस्स नीलवन्नाम्रो हृदस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं पा प्रज्ञाप्तं योजनमायामतो विष्कम्भतश्च अर्द्ध योजनं बाहुल्येन दशयोजनानि उद्वेधेन उण्डत्वेन जलपर्यंतात्द्वौ क्रोशावुच्छ्रितं सर्वाग्रेण सातिरेकाणि दशयोजनानि प्रज्ञप्तानि / तस्य पद्मस्य अयं वक्ष्यमाण एतद्रूपोऽनन्तरमेव वक्ष्यमाण स्वरूपो वण्र्णावासो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा वज़मयं मूलं रिष्टरत्नमयः कन्दो वैडूर्यरत्नमयो तालः वैडूर्यरत्नमयानि बाह्यपत्राणि जम्बूनदमयानि अभ्यन्तरपत्राणि तपनीयमयानि केसराणि कनकमयी पुष्करकर्णिका नानामणिमयी पुष्करस्थिबुका (साणंकणिकाअद्धमित्यादि) सा कर्णिका अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं बाहुल्यतः सर्वात्मना कनकमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा यावत् करणात् 'सण्हा घट्टामट्ठा नरिया इत्यादि परिग्रहः " (तीसेण कनियाए इत्यादि) तस्याः कर्णिकाया उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तस्तद्वण्र्णनं च "सेजहानामएआलिंगपक्खरेइवा'' इत्यादिनी ग्रन्थेन विजयराजधान्या उपकारिकालयनस्येव तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यता परिसमाप्तिः (तस्सणमित्यादि) तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं क्रोशमायामतोऽर्द्धक्रोश विष्कम्तो देशानं क्रोशमूर्द्धमुच्चै स्त्वे अनेक स्तम्भशतसन्नि विष्टमित्यादि तद्ववर्णनं विजयराजधानीगतसुधासभाया इव तावद्वक्तव्यं यावदिदं सूत्रं (दिव्वतुडियसद्दसंपण्णदितेइति) तदनन्तरं सूत्रमाह (सव्वरयणामए इत्यादि) सर्वात्मना रत्नमयं अच्छं यावत् Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा 786 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकुरा प्रतिरूपं यावम् करणात् 'सण्हे जण्हे घटे मढे इत्यादि परिग्रहः / / (तस्सणमित्यादि) तस्य भवनस्य त्रिदिशि त्रिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञाप्तानि तद्यथा पूर्वस्यामुत्तरस्यां दक्षिणस्यां (तेणं दारा इत्यादि ) तानि द्वाराणि पञ्चधनुःशतानि ऊर्द्धमुस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भेन तावदेव अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानीति बावः प्रदेशेन (सेयावरकणगयूभियागा इत्यादि) द्वारवर्णनं विजयद्वारस्येव तावदे विशेषेणावसातव्यं यावत् 'वण्णमालाओ' इतिवनमालावक्तव्यता परिसमाप्तिः (तस्सणमित्यादि) तस्य भवनस्य उल्लोचान्तर्बहुसमरमणीये भूमिभागे मणीनां वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् (तस्सेत्यादि) तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका प्रज्ञप्ता पश्चधनुःशतानि आयामविष्कम्भाभ्यामर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहुल्येन सर्वात्मना मणिमयी अच्छा यावत् प्रतिरूपा इति प्राग्वत्॥ तीसेणं मणिपेढियाए उवरि एत्थणंएगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते देवसयणिज्जस्स वण्णओ से णं पउमे अण्णे णं अहसत्तेणं त्तदद्धचत्तप्पमाणमेत्तेणं पउमाणं सव्वतो समंता संपरिक्षिात्ते तेणं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं दसजोएणाई उवेहेणं कोसं ऊसिया। जलं ताओ सातिरेगर्ति दसजोयणाति सव्वग्गेणं पण्णत्ताई पउमाणं अयमेतारूवे वण्णोवासे पण्णत्ते तंजहा वतिरामयामूला जाव णाणामणिमया पुक्खलत्थिगया ता उणं कणिया उक्कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणसपरिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहलेणं सवकणगामईउ अच्छउ जाव पडिरूवाउ तासिणं कण्णिया उप्पि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा जव मणीणं वण्ण गंधो फासो तस्सणं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं नीलवंत दहकुमारस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारिपउम साहस्सीउ पण्णत्ताउ एवं सव्वो परिवारो नवरिपउमाणं माणियव्वो / सेणं पउमे अण्णे हिं ते हिं पउमपरिक्खेवेणं सव्वोसमंतासंपरिक्खित्ते तंजहा अमितरएणं मज्झिमएणं बाहिरएणं अमितरएणं पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पडमसयसाहस्सीउ पण्णत्ताउ मज्झिमएणं पउमपरिक्खेवो चत्तालीसं उपउमसयसाहस्सी ओपण्त्ताओ बाहिरएणं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीउपण्णत्ताओ एवोमवस पुवावरेणं एगापउमकोडीउ वीसंचपउमसतसहस्सा भवंती तिमक्खाया।से केण?णं मंते एवं वुचतिनीलवंतहहे ? गोयमा ! णीलवंतहहेणं तत्थ 2 जाव उप्पले ति जाव सयसहपत्ताई नीलवंतप्पभाति नीलवंतवण्णाभार्ति नीलवंतहहकुमारेय एत्थ सो चेव गमो जाव णीलवंतहहे 2 // (तीसेणमित्यादि)तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तम्। शयनीयवर्णकः प्राग्वत्। (तस्सणमित्यादि) तस्य भवनस्योपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनिमङ्गलकानि इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यम् यावत् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति मूलत इदमधिकं दृश्यते" (सेणमित्यादि) तत् पद्ममन्येन अष्टशतेन पद्मानां तदोच्चत्वप्रमाणमात्राणां तस्य मूलपद्मप्रमाणास्यार्द्ध तदर्द्ध तच तदुच्चत्वप्रमाणं च तदोच्चत्वप्रमाणं तदोचप्रमाणं मात्रा येषां तानि तथा तेषां सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येवन संपरिक्षिप्तं तदोच्चत्वप्रमाणमेव तेषां भावयति (पउमा इति) तानि पद्मानि प्रत्येकमर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं बाहुल्येन दशयोजनानि उद्वेधेन क्रोशमेकं जलपर्यन्तादुच्छ्रितं सातिरेकाणि दशयोजनानि सर्वाग्रेण (ते सिणमित्यादि) तेषा पद्मानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञाप्तः वज्रमयानि मूलानि रिष्टरत्नमयाः कन्दा वैडूर्यरत्नमया नालाः तपनीयमयानि बाह्यपत्राणि जाम्बूनदमयानि बाह्यपत्राणि तपनीयमयानि के सराणि कनक मय्यः कर्णिका नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागाः (ताउणं कन्नियाउ इत्यादि) ताः कर्णिकाः क्रोशमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्ध क्रोशं बासुल्येन सर्वात्मना कनकमय्यः अच्छाउ जाव पडिरूव इति प्राग्वत् / (तेसिणं कन्नियाणमित्यादि) तासां कर्णिकानामुपरि बहुसमरणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः तस्य वर्णकः पूर्ववत्तावद्धक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शः (तस्सणमित्यादि) तस्य मूलभूतस्य पद्मस्य अपरोत्तरेण अपरोत्तरस्यामेवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां सर्वसंकलनया तिसृषु दिक्षु अत्र नीलवतो नागकुमारेन्द्रस्य नागनुमारराजस्य चतुर्णां सामानिकसहस्राणा योग्यानि चत्वारि पद्मसहस्राणि प्रज्ञतानि (एतेणमित्यादि) एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन यथा विजयस्य सिंहासनपरिवारोऽभिहितस्तथा इहापि पद्मपरिवारो वक्तव्यस्तद्यथापूर्वस्यां दिशि चतसृणामग्रमहिषीणां योग्यानि चत्वारि महापद्यानि दक्षिणपूर्वस्याम भ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्टौ पद्मसहस्त्राणि दक्षिणस्यां मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दशपद्मसहस्राणि दक्षिणापरस्यां बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणं द्वादश पद्मसहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतनां योग्यानि सप्तमहापद्मानि प्रज्ञप्तानि तदनन्तरं तस्य द्वितीयस्य पद्मपरिवेषस्य पृष्ठतश्चतसृषु दिक्षु षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडशपद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि / तद्यया चत्वारि पद्मसहस्राणि पूर्वस्यां दिशि चत्वारि पद्मसहस्राणि पश्चिमायां चत्वारि पद्मसहस्राणि उत्तरस्यामिति। तदेवं मूलपत्रस्य त्रयः पद्मपरिवेषा अभूवन अन्येऽपि च त्रयो यिद्यन्ते इति तत्प्रनिपादनार्थमाह / (सेणंपउमे इत्यादि) तत्पद्ममन्यैरनन्तरोक्तपरिक्षेपत्रिकव्यतिरिक्तैस्त्रिभिः पद्मपरिवेषैः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षिप्तम् / तद्यथा अभ्यन्तरेण मध्यमेन बाह्येन च / तत्राभ्यन्तरपद्मपरिक्षेपे सर्वसंख्यया द्वात्रिंशत् पद्मशतसस्राणि प्रज्ञप्तानि (3200000) मध्यमे परिक्षेपे चत्वारिंशत् पद्मशतसस्त्राणि (4000000) बाह्यपद्मपरिक्षेपे अष्टाचत्वारिंशत्पाशत सस्राणि प्रज्ञप्तानि (4800000) एवमेव अनेनैव प्रकारेण (सव्वावरेणंति) सह पूर्वं यश्च येन वा सपूर्वं तत् अपरं च सपूर्वापरं तेन सपूर्वापरेण पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः एका पद्मकोटि विंशतिश्च पद्मशतसस्राणि भवतीत्याख्यातं मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिरेतेन सर्वतीर्थ कृ तामविसं वादिवचनतामाह / कोट्यादिका च संख्या स्वमीलितायां द्वात्रिंशतादिशतसस्राणामेकत्र मीलने यथोक्तसंख्याया अवश्यं भावात् संप्रति नामान्वर्थ पिपृच्छिषुराह। अथ केनार्थेन एवमुच्यते नीलवद्धदो नीलवद्धद इति भगवानाह। गौतम / नीलवद्धदे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि उत्पलानि पद्मानि यावत् सहस्रपत्राणि नीलवद्धदप्रभाणि नीलवन्नाम हृदाकाराणि नीलवद्वर्णानि नलिवन्नाम वर्षधरपर्वतस्तद्वण्र्णानीति भावः / नीलवन्नामा च नागकुमारेन्द्रो नागकुमार Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा 760 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकुरा राजो महर्द्धिक इत्यादि यमकदेववन्निरवशेष वक्तव्यं यावद्विहरति। ततो यस्मात्तद्गतानि पद्मानि नीलवद्वण्र्णानि नीलवन्नामा च तदधिपतिर्देवस्ततस्तद्योगादसौ नलिवन्नामाह्रदः। तथाचाह (सेएएण?णमित्यादि) कहिणं भंते / नीलवंतहस्सेत्यादि राजधानीविषयं सूत्रं समस्तमपि प्रसग्वत्।। नीलवद्हदे काञ्चनपर्वताः। नीलवंतेणं पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दस दस जोयणाति अबाहाए एत्थणं दस दस कंचणगपव्वता पण्णत्ता तेणं कंचणगपव्वता एगमेगं जोयणसतं उड्डं उच्चत्तेणं पणवीसं 2 जोयणाति उवेहेणं मुले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मज्झे पण्णत्तरि जोयणाई आयामविक्खंभेणं उवरिं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं मूले तिणि सोले जोयणसते किंचिविसेसाहिता। परिक्खेवेणं मझो दोणि सत्ततीसे जोयण सतं किंचि विसेसाहिया। परिक्खिवेण्णं मुले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुया गोपुच्छसंठाणं संठिया सव्वकंचणमया अच्छा पत्तेयं 2 पउमवउतिई पत्तेयं 2 वणखंडपरिक्खित्ता ते सिणं कं चणगपवताणं उप्पि बहुसमरमणि भूमिभागे आसयत्ति पत्तेयं 2 पासायवडेंसगा सदा बावहि जोयणिया उबं एकतीसं जोयणाई कोसं ज विक्खिंभेणं मणिपेढिया दो जोयणिया सिंहासणा सपरिवारा। से केटणे णं भंते एवं वुबइ कंचणगपव्वया गोयमा। कंचणगेसणं पव्वतेसु तत्थ 2 वाविउ उप्पलाई जाव कंचणवण्णा भाति कंचणगा जाव देवा महिड्डिया जाव विहरंति उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणित्ताउ रायहाणीओ अण्हम्मि जंबूतहेव सवं भाणियव्वं / (नीलवंतदहस्सणमिति) नीलवतोहृदस्य (पुरच्छिमपचच्छि मेणं) पूर्व स्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येक दशयोजनान्य बाधया कृत्वेति गम्यते ऽपान्तराले मुक्त्वेतिभावः / दश दश काञ्चनपर्वता दक्षिणोत्तर श्रेण्योः प्रज्ञप्ताःते काञ्चनपर्वताः प्रत्येकमेकं योजनशतमूर्ध्वमुचैस्त्वेन पंञ्चविंशति योजनान्युद्वेधेन मूले एकंयोजनशतं विष्कम्भेन मध्येपञ्चसप्ततिर्योजनानि विष्कम्भेन उपरि पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्भेन मूले त्रीणि षोडशोत्तरराणि योजनशतानि (316) किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण मध्ये द्वे सप्तविंशे योजनशते (227) किंचिद्विशेषाने परिक्षेपेण उपरि एकमष्टापञ्चाश तद्योजनशतं (158) किश्चिद्विशेषोनंपरिक्षेपेण अत एव मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरितनुका अतएव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वातमना कनकमयाः (अच्छा जावपडिरूवाइति) प्राग्वत्। तथा प्रत्येकं प्रत्येक पद्मवरवेदिकयापरिक्षिप्ताः / प्रत्येकं वनखण्डपरिक्षिप्ताश्च पद्मवरवेदिका वनखण्डवर्णनं प्राग्वत्। (तेसिणमित्यादि) तेषां काञ्चनपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः तेषां च वर्णनं प्राग्वत् तावद्वक्तव्य यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनमिति (तेसिणमित्यादि) तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येक प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः प्रासादवक्तव्यता सर्वा यमकपर्वतोपरि प्रासादावतंसकयोरिव निरवशेषा वक्तव्या यावत्परिवारसिंहासन वक्तव्यता परिसमाप्तिः संप्रति नामान्वर्यं पिपृच्छिषुराहसेकेणतुणमित्यादि प्राग्वन्नवरं यस्मादुत्पलादीनि काञ्चननामानश्च देवास्तत्र परिवसन्ति तत्काञ्चनप्रभोत्पलादियोगात् काञ्चनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच ते काञ्चनका इति तथाचाह। सेएणडेणमित्यादि काञ्चनिकाश्च राजधान्यो यामिका राजधानीवद्वक्तवया // उत्तरकुरुह्रदाः॥ कहि णं भंते उत्तरकुराए उत्तरकुरुद्दहे नाम दहे पण्णत्ते? गोयमा! नीलवंतद्दहस्स 2 दाहिणेणं अट्ठाचोत्तीसे जोयणसए एवं चेव गमोणेयव्वो जो णीलवंतद्दहस्स सय्वेसिं सरिसके दहसरिसनामा य देवा सवे सिं पुरच्छिमपञ्चच्छिमे णं कंचणपटवता दस 2 पकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणी अण्णम्मि जंबूद्दीवे चंददहे एरावणदहे मालवंतबहे एवं एकेको णेयव्वो।। क भदन्त ! जम्बूद्वीपे उत्तरद्वीपे उत्तरकुरूषु कुरूषु उत्तरकुरुहृदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः / भगवानाह / गौतम ! नीलवतो हृदस्य दाक्षिणात्याचरमपर्यन्तादष्टौ चतुस्त्रिंशानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च योजनस्य सप्त भागा अबाधया कृत्येति गम्यते शीताया महानद्या बहुदेशभागे अत्र उत्तरकुरु म हृदः प्रज्ञप्तः यथैव प्राक् नीलवतो हृदस्य आयामविष्कम्भाद्वेध पद्मवरवेदिका वनखण्डत्रिसोपान-प्रतिरूपकतोरणमहामूलभूतपद्माष्टशतपद्मपरिवारपाशेष परिधि-परिक्षेपत्रय वक्तव्यतोक्ता तथा अन्यूनानतिरिक्ता वक्तवया / (मूलटीकयोः पाठभेदः) नामकारणं पिपृच्छिषुरिदमाह "से केतुणं भंते इत्यादि प्राग्वत्' नवरमुत्पलादीनि यस्मात् उत्तरकुरूह्रदप्रभाणि उत्तरकुरुहदाकाराणि तेन तानि तदाकारयोगात् उत्तरकुरुनामाऽत्र तत्र देवः परिवसति तेन तद्योगात् हृदोऽप्युत्तरकुरुः नचैवमितरेतराश्रयदोषप्रसङ्ग उभयेषामपि नाम्नादिकाल तथाप्रवृत्तेः / एषमन्यत्रापि निर्दोषता भावनीया। उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तद्वक्तव्यता च नीलवन्नागकुमारवद्वक्त व्या ततोऽप्यसावुत्तरकुरूरिति। राजधानीवक्तव्यता काञ्चचनपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् / चन्द्रहहवक्तव्यतामाह / (कहिणं भंते इत्यादि) प्रसूत्रं सुगमं भगवानाह-गौतम ! उत्तरकुरूहृदस्य दाक्षिणत्याचरमान्तादाक् दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्विशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया कृत्वेति शेषः। शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे अत्र अस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु चन्द्रहदा नाम हृदः प्रज्ञाप्तः / अस्यापि नीलव द्धदस्येव आयाम - विष्कम्भोद्वेधपद्मवर वे दिकावनखण्डत्रिसोपानप्रतिरूपक - तोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रय वक्तव्यता वक्तव्या / नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव नवरं यस्मात् उत्पलादीनि चन्द्रहदप्रभाणि चन्द्रहदाकाराणि चन्द्रवणानि चन्द्रनामा च देवरतत्र परिवसति तस्माचन्द्रहदाम्भो त्पलादियोगात् चन्द्रदेवस्यामिकत्वाचन्द्रहद इति। चन्द्राराजधानी वक्तव्यता काञ्चचनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् / सांप्रतमैरावतहृदवक्तव्यतामाह / कहिणं भंते इत्यादि प्रश्रसूत्रं पाठसिद्धं निर्वचनमाह / गौतम ! चन्द्रहदस्य दाक्षिणात्या- चरमान्तादाक् दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्विशादियोजनशतानि चतुरश्च सप्त भागान् योजनस्याबाधया कृ त्वेति शेषः / शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे अत्र एतस्मिन्नवकाशे ऐरावतह्रदो नाम हद प्रज्ञप्तः। अस्यापि नीलबन्नाम्नो हृदस्येवायामविष्कम्भादि- वक्तव्यता पर्यवसाना वक्तव्या। अन्वर्थसूत्रमपि तथैव नवरं यस्मादुत्पलादीनि ऐरावणहदप्रभाणि ऐरावतो नाम हस्ती तद्वण्णानि च ऐरावतश्च नामा तत्र देव Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकुरा 761 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरचूलिया परिवसति तेन ऐरावत हद इति ऐरावतराजधानीवत् काञ्चनक-- प्रकटं स्युर्भवेयुरिति संबन्धस्तत्रादिशब्दगृहीता भेदास्त्विमे पर्वतवक्तव्यताऽपि राजधानीवक्तव्यता पर्यवसाना तथैव अधुना "पिंडविसोही समिई, भावणपडिमा य इंदियनिरोहो / पडिलेहणमाल्यवन्नामहदवक्तव्यतामाह (कहिणं भंते इत्यादि) सुगमं भगवानाह गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणंतु" धर्म० 3 अधि० (पाठान्तरेण) गौतम! ऐरावतहदस्य दाक्षिणात्याचरमान्तादर्वाक् दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ "पिंडस्स जा विसोही, समिईओभावणा तवो दुविहा। पडिमा अभिग्गहा चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्त-भागान् योजनस्य अबाधया विय, उत्तरगुण मो वियाणाहि" 1 सूत्र० श्रु०१४ अ०। (एतद्व्याख्या कृत्वेति शेषः / शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे अत्र एतस्मिन्नवकाशे पायच्छित्तशब्दे) पिण्ड विशुद्ध्यादयः सार्थाः स्व-स्वस्थाने) उत्तरकुरुषु कुरुषु माल्य-वन्नामा ह्रदः प्रज्ञप्तः / स च नीलवद्ध्दवत् महाव्रताव्रतेषु, सूत्र० / व्य०नि०चू०। पंचा० / जीत० / आव०। आयामविष्कम्भादिना तावद्वक्तव्यो यावत् पद्मवक्तव्यतापरिसमाप्तिः / (मूलगुणानामिवोत्तरगुणानामपि भङ्गो नेष्ट इत्यतिचार--शब्दे उक्तम् ) नामान्वर्यसूत्रमपि तथैव यस्मादुत्पलादीनि माल्यवद्धदप्रभाणि उत्तरगुणकप्पिय पुं०(उत्तरगुणकल्पिक) / माल्यवद्धदाकाराणि माल्यवन्नामा वक्षस्कारपर्वतस्तद्वण्र्णानि आहारउवहिसेजा, उग्गमउप्पादणेसणासुद्धा। तद्वण्र्णाभानिमाल्यवन्नामा चतत्रदेवः परिवसतितेन माल्यवद्धद इति। जो परिगिण्हति णिययं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु॥ माल्यवती राजधानी विजयाराजधानी वद्वक्तव्या काञ्चतकपर्वतवक्तव्यतापर्यवसाना प्राग्वत् / जी०३ प्रति०। (उत्तरकुरुगतजम्बू य आहारोपधिशय्या उद्गमोत्पादनैषणा / शुद्धा नियतं निश्चितं सुदर्शनवर्णकोऽन्यत्र) उत्तरकुर्वधिपतौ देवे, पुं०। परिगृह्णाति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः / इत्युक्तरूपे उत्तअथोत्तरकुरुनामार्थं पिपृच्छिषुरिदमाह। रगुणयुक्तसामाचारीभेदे, वृ०६उ०। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुबइ उत्तरकुरा 2 गोयमा ! उत्तरकुराए उत्तरगुणपचक्खाण न०(उत्तरगुणप्रत्याख्यान) मूलगुणापेक्षया उत्तरकुरुणाम देवे परिवसइ महिड्डिए जाव पलिओमहिइए से उत्तरभूता गुणा वृक्षशाखा इवोत्तरगुणास्तेषु प्रत्याख्यानमुत्तरगुणतेण?णं गोयमा ! एवं वुचइ उत्तरा 2 उत्तरकुराए उत्तरकुरुणाम प्रत्याख्यानम्। प्रत्याख्यानभेदे, // तद्देदा यथादेवे परिवसइ महिड्डिए जाव पलिओवमट्टिई से तेणटेणं गोयमा ! उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं कइविहे पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहे एवं वुच्चइ उत्तरकुराए अदुत्तरं च णं जाव सासए। पण्णत्ता तंजहा सव्वुत्तरगुणपचक्खाणे य देसुत्तरगुणपद्मक्खाणे सेकेणतुणमित्यादि प्रतीतं नवरम् उत्तरकुरुनामाऽत्र देवः परिव-सति य। सव्वुत्तरगुणपचक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! तेनेमा उत्तरकुरव इत्यर्थः / ज०२ वक्ष०ा द्वाविंशतीर्थकृतो दसविहे पण्णत्ते तंजहा अणागयमइक्वंतं, कोडिसहीयं नियंठियं निष्क्रमणशिविकायाम्, स्त्री०। स०। चेव। सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं / / उत्तरकुरुकूड न०(उत्तरकुरुकूट) माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतस्य तृतीये कूटे, अनागतादीनां च व्याख्याऽन्यत्र / / भ०७ श०२ उ० / "मूलगुणस्था०६ ठा०। मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि, माल्यवद्र्षधरपर्वत-स्य तृतीयं उत्तरगुणा, जे मे णाराहिया पमाएणं / तमहं सव्वं णिंदे, पडिक्कमे कूटं हिमवत्कूटप्रमाणं कूटसदृनामकश्चात्रा देवः। जं०४ वक्ष०। महाविदेहे, आगामिस्साणं" इति रूपम् / आतु०॥ पंचा०। आ००। गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, स्था०१० ठा०। जंक। उत्तरगुणपडिसेवणा स्त्री०(उत्तरगुणप्रतिसेवना) उत्तरगुणविषये उत्तरकुरुदहपुं०(उत्तरकुरुहृद) उत्तरकुरुषु तृतीये हृदे, स्था० 6 ठा० / प्रतिसेवनायाम्, "इदाणिं उत्तरगुणपडिसेवणा भण्णति ते (तन्मानादिउत्तरकुरुशब्दे उक्तम्)। उत्तरगुणापिंडविसोहाइ अणेगविहा तत्थ पिंडे ताव दप्पियं कप्पियं च उत्तरकुरुमाणुसच्छरा स्त्री०(उत्तरकुरुमानुषाप्सरस्) उत्तरकुरुषु पडिसेवणं भण्णत्ति' / / नि० चू०१उ०(सर्वं पडिसेवणाशब्दे वक्ष्यते) मानुषरूपासु अप्सरस्सु, प्रश्न० अध०४ द्वा० / उत्तरगुणलद्धि स्त्री०(उत्तरगुणलब्धि) उत्तरगुणाः पिण्डविशुद्ध्याउत्तरकूलगपुं०(उत्तरकूलग) वानप्रस्थतापसभेदेषु, यैर्गङ्गायामु-तरकूले दयस्तेषु चेह प्रक्रमात्तपो गृह्यते तस्य लब्धिः / तपोलब्धौ, एव वस्तव्यम्। नि० भ०॥ "उत्तरगुणलद्धिखममाणस्स विजाचारणलद्धिणाम लद्धि समुपज्जइ''। उत्तरकोडि स्त्री०(उत्तरकोटि) गान्धारग्रामस्य सप्तम्यां मूर्छना-याम, भ०२० श०६ उ०॥ स्था०७ ठा। उत्तरगुणसड्ढा स्त्री० (उत्तरगुणश्रद्धा) प्रधानतरगुणाभिलाषे, पंचा० / उत्तरगंधारा स्त्री०(उत्तरगान्धारा) गान्धारग्रामस्य पञ्चम्यां मूर्छ- उत्तरगुणासेवणासिक्खग त्रि०(उत्तरगुणासेवनाशिक्षक) उत्तरनायाम्, / स्था०७ ठा०॥ गुणविषये सम्यक् पिण्डविशुद्ध्यादिकान् गुणान् आसेवमाने, सूत्र०१ उत्तरगुण पुं०(उत्तरगुण) मूलगुणापेक्षया उत्तरभूता गुणा वृक्षशाखा | श्रु०१५ अ० इवोत्तरगुणाः / भ०७ श०२ उ० / सर्वतः पिण्डविशुद्ध्यादिषु,देशतो उत्तरचावाला स्त्री०(उत्तरचावाला) नगरभिदे, ताहे सामी उतर-चावालं दिव्रतादिषु, पंचा०५ विव०। उच्चती तत्थ अंतरा कणखलं नाम उत्तमपदम्।" आ०चू०२ अ०॥ ततः शेषाः पिण्डविश्रुद्ध्याद्याः,स्युरुत्तरगुणाः स्फुटम्। स्वामी उत्तरचावालां गतः तत्र पक्षेक्षपणपारणेनागसेन-गृहे क्षीरभोजनेन एषां चानतिचाराणां , पालनं ते त्वमी मताः॥४७॥ प्रतिभानानि प्रादुर्भूतानि / आवक० / आ०म० द्वि०॥ शेषा उक्तमूलगुणेभ्योऽवशिष्टास्ते के इत्याह / पिण्डविशुध्द्याद्या इति | उत्तरचूल न०(उत्तरचूड) वन्दनकं दत्वा शब्देन मस्तकेन वन्दे पिण्डविशुद्धिराहारादिनिर्दोषता सा आदौ येषां भेदानां ते / इत्यभिधानरूपे एकोनविंशत्तमे बन्दनकदोषे, ध०२ अधि०। आव०। पिण्डविशुद्ध्याद्याः सप्ततिभेदा इत्यर्थः। उत्तरगुणा उत्तरगुणसंज्ञकाः स्फुटं | उत्तरचूलिया स्त्री०(उत्तचूलिका) 'दाऊणं वंदणगं मत्थए वंदामि Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरचूलिया 792- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरकच्छ . चूलियाए सा" यद्वन्दनकं दत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन वन्दे इति यत्र ब्रूते तदुत्तरचूलिका मन्तव्या। वृ०३ उ०। आव० चू०। उत्तरज्झयणन०(उतराध्ययन) बहुव० उत्तराणि प्रधानानि अध्ययनानि रूढिवशादिनयश्रुतादीनि षट् त्रिंशदुत्तराध्ययनानि सर्वाण्यपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथापि अभून्येव रूढ्या उत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि। नं० अङ्गबाह्यकालिक-श्रुतभेदे, पा०। उत्तराध्ययनशब्दनिरुक्तिं निर्म्युक्तिकृविस्तरेणाह। णामं ठवणा दविए, खेत्तदिसा ताव खेत्तपण्णवए। पइकालं संचयपहा-णणाणयकमगणणतो भावे // जहण्णं उत्तरं खलु, उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ। सेसाइं अणुत्तराई अणुत्तराई च णामाई।। (नामोत्तरव्याख्या उत्तरशब्दे दर्शिता) उत्तरस्थानैकविधत्वेन यदत्र प्रकृतं तदाह। कम उत्तरेण पगयं,आयारस्से व उवरिमाइं तु। तम्हाउ उत्तराखलु, अज्झयणा हॉति णायव्या॥ क्रमापेक्षमुत्तरं क्रमोत्तरं शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदलोपी समासस्तेन प्रकृतमधिकृतमिह च क्रमोत्तरेणेति भावः क्रमोत्तरेणै--तानि हि श्रुतात्मकत्वेन क्षायोपशमिक भावरूपाणि तद्पस्यैवाचाराङ्गस्योपरिपाठ्यमानत्वेनोत्तराणीत्युच्यन्ते अत आह (आयारस्से व उवरिमाई तु) एवकारो भिन्नक्रमस्ततश्चाचारस्यो-पर्येवोत्तरकालमेवेमानीति हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाणि पठितवन्त इति गम्यते। तुर्विशेषणे विशेषश्चायं यथा शय्यंभवं या--वदेष क्रमस्तदाचारतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति (तम्हाउत्ति) तुः पूरणे यत्तदोश्च नित्यमभिसंबन्धस्ततो यस्मादाचा-रस्योपर्यवेमानिपठितवन्तस्तस्मादुत्तराण्युत्तरशब्दवाच्यानि खलुक्यालङ्कारेऽवधारणे वा तत उत्तराण्येषाध्ययनानि विनय-श्रुतादीनि भवन्ति ज्ञातव्यानि अन्यच्च बोद्धव्यानि प्राकृ तत्वाच लिङ्ग व्यत्यय इति गाथार्थः / आह यद्याचारस्योपरि पठ्यमानत्वेनोत्तराण्यमूनि तत्कियन्त एवाचारस्य प्रसूतिरेषामपि तत एवाभिधेयमपि यदेव तस्य तदेवान्यथेतिसंशयापनोदायाह। अंगप्पभवा जिणभा-सियाय पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मोक्खे य कथा, छत्तीसं उत्तरज्झयणा // अङ्गाद् दृष्टिवादादेः प्रभव उत्पत्तिरेषामित्यङ्गप्रभवानि यथा / परीषहाध्ययनम् / वक्ष्यति हि "कम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुड-म्मि जं सुत्तं / सणयं सोदाहरणं, ते चेव इहपि नायव्वं" जिन- भाषितानि यथाद्रुमपत्रकाध्ययनं तद्धि समुत्पन्न केवलेन भगवता महावीरेण प्रणीतं यद्वक्ष्यति "तन्निस्साए भगवं, सीसाणं देइ अणुसट्टि ति" चः समुच्चये | प्रत्येकबुद्धाश्च संवादश्च प्रत्येकबुद्धसंवा-दस्तस्मादुत्पन्नानीति शेषः। तत्र प्रत्येकबुद्धाः कपिलादयस्तेभ्य उत्पन्नानीति। यथा कापिलायाध्ययनम् वक्ष्यति हि "धम्मट्ठयागीअं" तत्र कपिलेनेति क्रमः संवादसंगतः प्रश्नोत्तर-वचनरूपस्तत उत्पन्नानि यथा कैशीगौतमीये वक्ष्यति च / "गौतम केसीओ मा, संवाय समुष्ट्रिय तु जम्हेयमित्यादि मनु स्थविरविरचितान्येवैतानि यत आह चूर्णिकृत् / "सुप्त राण असागभोलि नयध्ययनेऽप्युक्तम् "जस्सजे तिया सिस्सा उप्पतिया एवेणइयाए कम्मयाए पारिणामिया चउविहाए बुद्धीए उववेया तस्स तत्तियाई पइन्नगसहस्साई" प्रकीर्णकानि चामूनि तत्कथं जिनदेशितत्वादि न विरुध्यते / उच्यते तथा स्थितानामेव जिनादिवचसामिह दृष्टत्वेन तद्देशितत्वाधुक्तमिति न विरोधः / बन्धः आत्मकर्मणोरत्यन्तं संश्लेषस्तस्मिन् मोक्षस्तयोरेवात्यन्तिकः पृथग्भावस्तस्मिश्च कृतानि कोऽभिप्रायो यथा बन्धो भवति यथा च मोक्षस्तथा प्रदर्शकानि। तत्र बन्धे यथा "आणाअणिद्देसकरेत्ति'' मोक्षे यथा "आणानिद्देसकरेत्ति" आभ्यां यथाक्रमश्वाविनयो मिथ्यात्याद्यविनाभूतत्वेन बन्धस्य विनयश्चान्तरतपोरूपत्वेन मोक्षस्य कारणमिति तत्वतस्तौ यथा भवतस्तदेवोतं भवति मोक्षप्राधान्येऽपि बन्धस्य प्रागुपादान्मनादित्वोपदर्शनार्थम् / यद्वा "बंधे मोक्खेयत्ति'' च शब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च / ततो बन्ध एव सति यो मोक्षस्तस्मिन् कृतान्यनेनानादिमुक्तमन्तव्यवच्छेदश्च कृतस्तत्र हि मोक्षशब्दार्थानुपपत्तिः सकलानुष्ठानवैकल्यापत्तिश्च किमेवं कतिचिदेव नेत्याह / षट्त्रिंशत्संख्यानि कोऽर्थः सर्वाण्येतदुत्तरध्ययनानीति गाथार्थः। उत्त० १अ० ।तानि च षट्त्रिंशदमूनि। छत्तीसउत्तरज्झयणा पण्णत्ता तंजहा। विणयसुयं 1 परीसहा 2 चाउरंगीजं 3 असंखयं 4 अकामसकाममरणीजं 5 पुरिसविज्जा 6 उरमिजं 7 काविलियं 8 नमिपव्वजा दुमपत्तयं 10 बहुसुयपुजा 11 हरिएसज्जिं 12 चित्तसंभूयं 13 उसुयारिनं 14 सभिक्खुगं 15 समाहिट्ठाणाई 16 पायसमणिनं 17 संजइन्छ 18 मियाचारिया 16 अणाहपध्वजा 20 समुद्दपालि-जं 21 रहनेमिज 22 गोयमकेसीजं 23 समितीओ 25 जन्नतिजं 25 सामायारी२६ खलुकेज 27 मोक्खमग्गगई 28 अप्पमाओ 26 तवोमग्गी 30 चरणविही ३१पमायट्ठाणाइं३२ कम्मपयडी 33 लेसज्झयणं 35 अणगारमग्गे 35 जीवाजीवविभत्ती य 36 / / छत्तीसं उत्तरज्झयणा॥ साव्य०। आव०४ अ०) उत्तरज्झाय पुं०(उत्तराध्याय) उत्तरा प्रधाना अध्याया अध्ययनानि। उत्तराश्च ते अध्यायाश्च उत्तराध्यायाः / विनयादिषु षद त्रिंशत्युत्तराध्ययनेषु, "छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धिए सम्मसत्तिवेत्ति" उत्त०३६ अ०॥ उत्तरडकच्छ पुं०(उत्तरार्द्धकच्छ) कच्छविजयस्य वैताट्यपर्वतेन विभक्तस्य उत्तरार्द्ध, || कहिणं भंते जंबूहीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरडकच्छे णामं विजए पण्णत्ते? गोयमा ! वेअड्ढस्स पटवयस्स उत्तरेण णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेण मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरच्छिणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्चच्छिमेणं एत्थणं जंबूद्दीवे दीवे जाव सिज्झंति तहेवणेअव्वं जं०४ वक्ष० / टीकासुगमत्वान्न गृहीता / / (सिन्धुकूटाद्यन्यत्र) कच्छविजयविभाजकस्य वैताङापर्वतस्याष्टानां कूटानामष्टमे कूटे,०४ वक्षन उत्तरबुभरह न०(उत्तरार्द्धभरत) वैताड्यपर्वतेन द्विधा विभक्तस्य भरतवर्षस्य उत्तरार्द्ध। अथोत्तरार्द्धभरतवर्ष वास्तीति प्रश्नसूत्रमाह। Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरड्डभरह 793 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरड्डभरह जीवावर्गः / अस्य मूले लब्धाः कलाः (276063) शेषकलांशाः (262151) छेदराशिः (552026) कलानामेकोनविंशत्या भागे (145228) [1] अत्र शेषांशानामविवक्षितत्वान्नैकादशकलानां साधिकत्वसूचा / अत्र दक्षिणार्द्धभरतादिक्षेत्रसंबन्धिशरादिचतुष्कस्य सुखेन परिज्ञानाय यन्त्रस्थापना / धनुः पृष्टम् 766 योजन भागः 116 | 6748 योजन भागः 12 / 16 | १०४४३योजन भागः 15/16 | १०७२०योजन भागः 12 / 16 | 488 योजन भागः 1616 / शर प्रमाणम् / वाहाप्रमाणम् | जीवाप्रमाणम् कहिणं जंबुद्दीवे उत्तरङ्कभरहे णामं वासे पण्णत्ते? गोयमा! चूल्लहिमवंतस्सवासहरपव्वयस्सदाहिजेणं वेअङ्कस्स पव्वयस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुदस्सपचच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं / एत्थणं जंबूहीवे दीवे उत्तरडभरहे णामं वासे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहि-णादिविच्छिण्णे पलिअंकसंठिए दुहा लवणसमुहपुढे पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पचच्छिमिल्लाए जाव पुढे गंगासिंधुहिं महाणईहिं तिमागपविभत्ते दोण्णि अहतीसे जोयणसए तिण्णि अ एगुणवीसइमागे जोयणस्स विक्खंभेणं तस्स वाहापुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं अट्ठारसवाणउए जोयणसए सत्तए एगावीसइमागे जोयणस्स अट्ठभागं च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवण-समुदं पुट्ठा तहेव जाव चोहसजोयणसहस्साईचत्तारि अएकहत्तरे जोयणसए छच्च एगुणवीसइमाए जोयणस्स किंचि-विसेसूणे अयामेणं पण्णत्ता। तीसे धणुपिटे दाहिणेणं चोडसजोयणसहस्साइं पंचअट्ठावीसजोयणसए एक्कारसयएगुणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं / / दक्षिणार्द्धभरतसमगमकत्वेन व्यक्त नवरं (पलिअंकत्ति) पर्यङ्कवत्संस्थितं संस्थानं यस्य तत्तथा द्वे शते अष्टात्रिंशदधिके त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेनेनि अस्य शरस्तु प्राच्यशरसहितस्वक्षेत्रविस्तारो योजनतः [526] कलावतस्तु-[१००००] अथास्य वाहे आह इत्यादि तस्योत्तरार्द्धभरतश्च वाहा पूर्वोक्तरूपा पूर्वापरयोर्दिशोरैकैकाष्टादशयोजनशतानि द्विनवति-योजनाधिकानि सप्त चैकोनविंशतिभागान् [1] योजनस्य अर्द्धभागं चैकोनविंशतितमभागस्य योजनस्याष्टत्रिंशत्तमभागमि-त्यर्थः / / अत्र करणं यथा गुरुधनुः पृष्टं कलारूपं [२७६०४३]अस्मात् [204132] कलारूपं लघुधनुः पृष्ट शोध्यते जातं [71911] अर्द्धं कृते जातं कला [३५६५५]कलार्द्ध च तासां योजनानि [1862] कलाः [7] कलार्द्ध चेति एतचैकैकस्मिन् पार्श्वेवाहाया आयाममानम् / अथास्य जीवामाह (तस्सजीवाउत्तरेणमित्यादि) तस्य जीवा प्रागुक्तस्वरूपा उत्तरेणक्षुद्रहिमवगिरिदिशिप्राचीनायता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्ट्वा तथैव दक्षिणार्द्धभरतजीवा सूत्रादेव "जावत्ति पचच्छिमिल्लं लवणसमुई पुढेति' पर्यन्तंसूत्रं ज्ञेयमिति भावः (चउद्दसत्ति) चतुर्दशयोजनसहस्राणि चत्वारि चैकसप्तत्य-धिकानि योजनशतानि षट् चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद्विशेषोनाः प्रज्ञप्ताः / अत्र करणं यथा कलीकृतो जम्बूद्वीप-व्यासः [16] शून्यं [5] इनितः[१६५] शून्यं [4] इषुगुणः[१८६] शून्यं [8] चतुर्गुणः(७५६] शून्यं [8] एष उत्तरभरतार्द्धजीवावर्गः / अस्य वर्गमूलेलब्धाः कलाः [274654] शेषकलांशाः [267884] छेदः [546608] लब्धकलानां [16] भागे योजनं [14471] [4] उद्वरितैः शेषकलाशैर्मध्ये प्रक्षिप्तैः षष्टिकलाः किञ्चिद्विशेषोना विवक्षिता इति। अथास्तु धनुः पृष्टमाह--[तीसेइत्यादि] तस्या उत्तरार्द्धभरतजीवाया दक्षिणापावें धनुः पृष्टम् / अर्थादुत्तरार्द्धभरतस्य चतुर्दशयोजनसहस्राणि पश्चशता-- न्यष्टाविंशत्यधिकानि एकादश चैकोनविंशतिभागान योजनपरि-क्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तमिति शेषः / अत्र करणम् / यथा उत्तरार्धभ-रतस्य कलीकृत इषुः [10000] अस्य वर्गः [1] शून्यं [8] स च षड्गुणः [6] शून्यं [8] सोऽप्युत्तरार्द्धभरतजीवावर्गेण [756-00000000] इत्येवंरूपेण मिश्रितो जातः (762) शून्यम् (8) एष उत्तरार्द्धभरतस्य / भाग: 11116 | 186 योजन | 14471 योजन | 14528 योजन भागः६१६ भागः1१६ 238 योजन भागः 16/16 288 योजन भागः 136 256 योजन भागः६।१० क्षेत्रनाम दक्षिणभरतार्द्ध वैताट्यपर्वतः उत्तरभरतार्द्ध यथा एषां च शरादीनां करणविधिप्रसङ्गतोऽत्र दर्शितः अतः परमुत्तरत्र क्षुद्रहिमवदादिसूत्रेषु स न दर्शयिष्यते विस्तरभयात् तज्जिज्ञासुना तु क्षेत्रविचारवृत्तितोऽवसेय इति॥ अथोत्तरार्द्धभरतस्वरूपं पृच्छति।। उत्तरभरहस्स णं भंते ! वासस्स के रिसए आयरभावपडोयारे पण्णत्ते गोयमा! बहुसमरमाणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव कित्तिमेहिं चेव ।अकित्तिमेहिं चेव / उत्तरड्डभरहे णं भंते ! वासे मणुआणं के रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेणं मणुया बहुसंघयणा जाव अप्पेगइआ सिज्झंति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति॥ उत्तरभरहस्सणमित्यादि व्यक्तम् / अत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छति "उत्तरड्डभरहे" इत्यादि इदमपि प्राग्वत् यावदेके केचन सर्वदुः खानामन्तं कुर्वतीन्ति नन्वत्रत्यमनुष्याणामहदाद्यभावेन मुक्तयङ्गभूतधर्म श्रवलाद्यभावात् कथं मुक्तयवाप्तिः सूत्रस्यौचित्यमशति इति चेदुच्यते चक्रवर्तिकाले अप्रावृतगृहाद्वयावस्थानेन गच्छदागच्छदक्षिणार्द्धभरतवासिसाध्वादिभ्यो वाऽन्यदापि विद्याधरश्रमणादिभ्यो वा जातिस्मरणादिना वा मुक्तयगावाप्तेर्मुक्तयवाप्तिसत्रमचितमेवेति / / (ऋषभकूटवक्तव्यताऽन्यत्र) वैताढ्य-- Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरडभ० 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्तरमहुरा पर्वतस्याष्टमकूटस्योत्तरार्द्धभरतकूटस्य स्वामिदेवेच। जं०१ वक्षा प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् द्विधा / अगुरुलधूपघातपराघातातपोद्योतोच्छउत्तरडभरहकूडन०(उत्तरार्द्धभरतकूट) जम्बूद्वीपेवैताठ्यपर्वत-स्याष्टमे वासप्रत्येकसाधारणत्रसस्थावरशुभाशुभगदुर्भगसुस्वरदुः स्वरसूक्ष्मकूटे, उत्तरार्द्धभरतनाम्नो देवस्य वासभूतं कूटमुत्तरार्द्धभरतकूटम् बादरपर्याप्तकापर्याप्तकस्थिरास्थिरत्वानादेयायशः कीर्त्ययशः मध्यमपदलोपी समासः / तदधिपे च / जं० 1 वक्ष० / (अस्य कीतितीर्थकरनामानि प्रत्येकमेकविधानीति। गोत्रमुच्चनीचभेदात् द्विधा / मानादिवैताठ्यपर्वतवक्तव्यतायां वक्ष्यते) अन्तरायंदानलाभभोगोपभो-गवीर्यभेदात्पञ्चधा। आचा०१श्रु०२ अ० उत्तरडभरहा स्त्री०(उत्तरार्द्धभरता) उत्तरार्द्धभरतकूटस्य स्वा-मिन 130 // उतरार्द्धभरतकूटनाम्नो राजधान्याम् / / जं०१ वक्ष०। उत्तरपञ्चच्छिमिल्ल पुं०(उत्तरपश्चिम) वायव्यकोणे,चं०१ पाहु०।। उत्तरमाणुस्सक्खेत्त न०(उत्तरार्द्धमानुष्यक्षेत्र) मनुष्यक्षेत्रस्या- उत्तरपुरच्छिम पुं०(उत्तरपौरस्त्य) ईशानकोणे, जी०१ प्रति०। भ० / भ्रमर्द्धमनुष्यक्षेत्रमुत्तरं च तदर्द्धमनुष्यक्षेत्रम्। मनुष्यक्षेत्रस्योत्तरे-ऽर्द्ध, तत्र रा०। कला औ०। "तीसे णं मिहिलाए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए भवोऽप्युत्तरार्द्धमानुष्यक्षेत्रः उत्तरार्द्धमनुष्यक्षेत्रभवे "उत्तरढमाणुस्स- एत्थणं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था'' सू०प्र०१ पाहु० / चं०प्र०॥ क्खेत्ताणं छावहि चंदा य भासिं तु"स०। उत्तरपुरच्छिमा स्त्री०(उत्तरपौरस्त्या) ऐशान्या दिशि, स्था० 10 ठा०। उत्तरण न०(उत्तरण) बाहुजङ्घादिना सकृद् वा नद्यादेः पारागमने स्था० उत्तरपोट्ठवया स्त्री०(उत्तरप्रौष्ठपदा) उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रे, असमासे 5 ठा० नावादिना संघट्टादिभिः प्रकारैर्नद्यादेः पारगमने, वृ०६ उ०। "उत्तरा प्रोढुवया उत्तरा प्रौष्ठपदा" सूर्य०४ पाहु०॥ (संयतैर्यथा नदी उत्तीर्य्यत तथा णईशब्दे वक्ष्यते) अवतरणेच॥"उत्तरणं उत्तरफग्गुणी स्त्री०(उत्तरफाल्गुनी) फलति-फलनिष्पत्तौ फले-गुंक्च चंदसुराणं" भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवतरणमाकाशात्स उणा० उनन् गुक् च गौरा० ङीष् - कर्म० अभिजिदादिषु एकोनविंश मवसरणभूम्यां चन्द्रसूर्य्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोर्वभूवेदमप्याश्च- नक्षत्रे, जं०७ वक्ष०ा वाच०।"उत्तरफाणी णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते" य॑मेवेति। स्था० 10 ठा०॥ स्था०२ ठा०। उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य "अर्यमा देवता" ज्यो०॥ उत्तरदारियणक्खत्तन०(उत्तरद्वारिकनक्षत्र) उत्तरं द्वारं येषामस्तितानि उत्तरफग्गुणीसणिच्छरसंवच्छरपुं०(उतरफाल्गुनीशनैश्वरसंव-त्सर) उत्तरद्वारिकाणि तानि च नक्षत्राणि / उत्तरस्यां दिशि गम्यते येषु तादृशेषु शनैश्चरसंवत्सरभेदे, यत्र उत्तरफल्गुनीनक्षत्रेण सह शनैश्चरो नक्षत्रेषु, "साइयाणं सत्तणक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता तंजहा साई योगमुपयाति / जं०७ वक्षा विसाहा अणुराहा जिट्ठा मूलो पुव्वासाढा अत्तराआसाढा'' स्था०७ ठा०। उत्तरबलिस्सहपुं०(उत्तरबलिकसह) स्थविरमहागिरेः प्रथमे शिष्ये,ततो उत्तरदाहिणायय त्रि०(उत्तरदक्षिणायत) उत्तरदक्षिणस्यामायते, निर्गते स्वनामख्याते गणे च / “थेरेहिताणे उत्तरबलि-स्सहेहितो तत्थ "उत्तरदाहिणायए पाईण वित्थिपणे / जं०४ वक्ष०। णं उत्तरबलिस्सहेनामंगणे निग्गए" कल्प०||महावीरस्य नवानां गणानां उत्तरपओगकरणन०(उत्तरप्रयोगकरण) निष्पत्तेरुत्तरम्। निष्पादनरूपे द्वितीये गणे, "उत्तरबलियस्स यगणो उत्तरबलिस्सहगणेत्ति वा'' द्विधा जीवप्रयोगकरणभेदे, आ०चू०२अ०(तस्य स्वरूपं करणशब्दे प्रपञ्चतो रूपोपलब्धिः अनुवादानुपलम्भान्न तत्त्वनिश्चयः॥ स्था०६ ठा०। वक्ष्यते) उत्तरभद्दवया स्त्री०(उत्तरभद्रपदा) अभिजिदादीनांनक्षत्राणां षष्ठे नक्षत्रे, उत्तरपगइ स्त्री०(उत्तरप्रकृति) ज्ञानावरणदर्शनावरणादीनां पञ्च- ज्यो०।"उत्तरभद्दक्याणक्खत्ते दुतारे पण्णत्ता''स्था०६ ठा०। जं०। नवाद्यासु अवान्तरप्रकृतिषु भेदेषु, उत्त०३३ अ०।यथा ज्ञानावरणीयं (उत्तराभाद्रपदनक्षत्राणामभिवृद्धिर्देवनाविषयः सर्वो णक्खत्तशब्दे पञ्चधा मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलावरणभेदात्।तत्र केवलावारक वक्ष्यते) सर्वघाति / शेषाणि देशसर्वघातीन्यपि दर्शनावरणीयं नवधा | उत्तरभद्दवयासणिच्छरसंवच्छरपुं०(उत्तरभद्रपदाशनैश्चर-संवत्सर) निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयभेदात् / तत्र निद्रापञ्चकं प्राप्तद- शनिश्चरसंवत्सरभेदे, यत्र संवत्सरे उत्तरभाद्रपदानक्षत्रेण सह शनैश्चरो शनलब्ध्युपयोगोपघातकारि दर्शनचतुष्टयं तुदर्शनलब्धिप्राप्तेरेवा-त्रापि योगमुपादत्ते / / जं०७ वक्ष०। केवलदर्शनावरणं सर्वघाति शेषाणि तु देशतः / वेदनीयं द्विधा उत्तरमंदा स्त्री०(उत्तरमन्दा) मध्यमग्रामस्य प्रथममूर्छनायाम्, स्था०७ सातासातभेदात्। मोहनीयं द्विधा दर्शनचारित्रभेदात् तत्र दर्शनमोहनीयं ठा०। गन्धारस्वरान्तर्गतायां सप्तम्यां मूर्छनायाम, जी०। विधा मिथ्यात्वादिभेदात् बन्धतस्त्वेकविधम् / चारित्रमोहनीय उत्तरमंदामुच्छिया स्त्री०(उत्तरमन्दामूर्छिता) मूर्च्छन मूर्छा सा षोडशकषायनवनोकषायभेदात् पञ्चविंशतिविधम् / अत्रापि मिथ्यात्वं संजाता अस्या इति मूर्छिता उत्तरमन्दया मूर्च्छिता उत्तरमन्दामूर्छिता। संज्वलनवज्यं द्वादशकषायाश्च सर्वधातिन्यः / शेषास्तु देशघातिन्य उत्तमन्दाभिधया गन्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्छनया मूञ्छितायां इति / आयुष्कं चतुर्धा नारकादिभेदात् / नाम द्विचत्वारिंशद्भेदं वीणायाम् , "से जहाणामऐ वयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके गत्यादिभेदात् त्रिनवतिभेदं चोत्तरोत्तरप्रकृतिभे-दात् / गतिश्चतुर्की / सुपइट्ठियाए" इह गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी जातिरेकेन्द्रियादिभेदात्पञ्चधा / शरीराण्यौदारिकादिभेदात्पञ्चधा उत्तरमन्दा मूर्च्छना किलातिप्रकर्षप्रा-प्ता ततस्तदुपादानं तया च औदारिक वैक्रियाहारक भेदादङ्गोपाङ्ग त्रिधा / निर्माणनाम मुख्यवृत्त्या वादयिता मूर्छितो भवति परमभेदोपचाराद्वीणापि सर्वजीवशरीरावयवनिष्पादकमेकधा / बन्धननाम औदारिक- मूच्छितेत्युक्ता / जं०१ वक्ष०ाजी०|| कर्मवर्गणैकत्वापादकं पञ्चधा / संघातनामौदारिकादि- | उत्तरमहुरा स्त्री०(उत्तरमथुरा) नगरीभेदे, "तेणं कालेणं तेणं समएणं कर्मवर्गणारचनाविशेषसंस्थापकंपञ्चधा। संस्थानानि चतुरस्रादिषोढा / उत्तरमहुरा णामं णयरी होत्था / तत्थ य धणधन्नणा णामसंहननं वज्रऋषभनाराचादि षोडैव स्पशोऽष्ट धा। रसः पञ्चधा / गन्धो णिकणगरयणपडिपुन्नोजउणामसेट्ठी परिवसई" दर्श०। (व्रजान्तर्गता द्विधा / वर्णः पञ्चधा / आनुपूर्वी नारकादिचतुर्की / विहायोगतिः मथुरा नगर्ये वेयमुत्तरमथुरेति संभाव्यते) Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरवाय 795 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उत्ताण उत्तरवाय पुं०(उत्तरवाद) उत्तरवादे, "आणाए मामगंधम्म एस उत्तरवादे उत्तरायणणियट्ट पुं०(उत्तरायननिवृत्त) उत्तरायणादुत्तरदिग्गमनाइह माणवाण, वियाहिते" आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। निवृत्तः / प्रारब्धदक्षिणायने, "उत्तरायण णियट्टेण, सूरिए" स्था० 3 उत्तविउटिवय त्रि०(उत्तरवैक्रिय) भवधारणीयापेक्षयाऽन्यस्मिन्, ठा०। स० "उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्यइरा०। कल्प०। उत्तरासंग पुं०(उत्तरासङ्ग) उत्तरीयस्य देहे न्यासविषेशे, भ०२ श०५ उत्तरवि(वै)कुर्विक त्रि० उत्तरमुत्तरकालभाविन स्वाभाविकमि-त्यर्थः उ० "एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ"आ०म०प्र०। विकुर्विकं विकुर्वणं विकुर्वणेन निर्वृत्तं वैकुर्विक विशिष्ट वस्त्र- उत्तरासंगकरण न०(उत्तरासङ्गकरण) उत्तरीयस्य न्यासविशेषे, विशिष्टाभरणसुश्लिष्टतत्परिधानसमाचीनकुङ् कुमाद्युपलेपनज-- "एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं एकत्तीकरणेणं' ज्ञा०१ अ० नितमतिमनोहारि रामणीयकं यस्य स तथा / व्य०१ प्र०२ उ० उत्तरासाढा स्त्री०(उत्तराषाढा) क०स०अश्विन्यादिनक्षत्रेषु एक-विंशे उत्तरकालभाविवस्त्राभरणादिविचित्राकृतभविभूषाभाविते, "दठूण णडं नक्षत्रे, वाच० / अभिजिदादिषु अष्टाविंशे च नक्षत्रे, जं०७ वक्षः। काई उत्तरवेउव्वियं मयणखिन्ना'" वृ०६ उ०। "उत्तरासाढाणक्खत्ते चउतारे' पं०सं०। स्था०। उत्तरा-षाढानक्षत्रस्य उत्तरवेउटिवया स्त्री०(उत्तरवैकुर्विकी) अपरभवान्तरवैरिमारक विष्वक्देवता। ज्यो०(णक्खत्तशब्देऽन्यत्) प्रतिघातनार्थमुत्तरकालं या विचित्ररूपा वैक्रयिकी अवगाहना सा उत्तरासाढासणिच्छरसंवच्छर पुं०(उत्तराषाढाशनैश्चरसंवत्सर) उत्तरवैकुर्विकी। शरीरावगाहनाभेदे, / / जी०१ प्रतिका शनैश्चरसंवत्सरभेदे, यत्र उत्तराषाढानक्षत्रेण सह शनैश्वरो योगमुपादत्ते जं० उत्तर(रा)समा स्त्री०(उत्तरसमा) मध्यमग्रामस्य चतुर्थमूर्च्छना-याम्, ७वक्ष०॥ स्था०७ ठा०॥ उत्तराहुत्त त्रि०(उत्तराहूत) उत्तराभिमुखे, "थोवावसेसियाए सज्झाए उत्तरसाला स्त्री०(उत्तरशाला) गृहविशेषे, "जत्थ वा कीडापुव्वगच्छति ठाइ उत्तराहुत्तो" आव०४अ० ण वसति ते उत्तरसाला गिहा वत्तव्वा। जे वा पच्छा कीरंतिते उत्तरसाला उत्तरिज(रिअ) न०(उत्तरीय) उत्तरस्मिन् देहभागे भवः / गहा-दित्वात् गिहा अच्छा तिगादिमंडवो उत्तरसाला, हयगयाण वा साला उत्तरसाला, छः "वोत्तरिया नीय तीय कृघेखः" ||18|| इत्युत्त-रीय शब्दे गिहाण इमं वक्खाणं गाहा" "मूल गिहमसंबद्धा" गिहाय उत्तरा होति। ईयभागस्य द्विरुक्तो जो वा | उत्तरिलं उत्तरीअं / प्रा०।। उपरिकायाच्छादनवस्त्रे, ज्ञा०१ अ० / प्रश्न०। उत्तरासङ्गे, कल्प। जत्थ व ण वसत्ति राया, पच्छा कीरंति जावण्णे' नि०चू०८ उ०।। ज्ञा०। "उत्तरिज्जयं विकड्डमाणी"उपा०। 6 अ०। शय्याया उत्तरा स्त्री०(उत्तरा) नक्षत्रभेदे, तिस्र उत्तराः / उत्तरे फाल्गुन्यौ उपच्छिादके प्रच्छदे, "उत्तरिजंणामपाउरणं अहवा सेज्जाए उवरितलं उत्तराऽऽषाढा / उत्तरा भाद्रपद् "आषाढा उत्तरा चेव" स्था०२ ठा०॥ प्रच्छदादि" नि०चू०१५उ० "पुव्वासाढा तहा उत्तरा चेव" अनु०॥ (णक्खत्तशब्देव-क्तव्यता) उत्तरित्तए अव्य०(उत्तरीतुम्) उत० तुमुन्। बाहुजङ्घादिना नद्यादिकं मध्यमग्रामस्य तृतीयमूर्च्छनायाम, स्था०७ ठा०ा स्वनामख्याते दिग्भेदे, लयितुंसकृद्वा लङ्घयितुमित्यर्थे , "दुक्खुत्तो तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए स्था०१० ठा०|| रुचकपर्वतेऽष्टानां दिक्कु-मारीणां षष्ट्यां दिक्कुमार्याम्, वा संतरित्तए वा" वृ०४ उ०। स्था०८ ठा०। अहिच्छत्रास्थेवापीरुपे तीर्थभेदे, "ससिकरणिम्मल उत्तरिय त्रि०(औत्तरिक) उत्तरःप्रधानः स एवौत्तरिकः / प्रधाने, स्था० सलिलपडिपुण्णा उत्तराभिहाणा वावि तत्थ मजणे कए तवड्ढे मट्टिआले 10 ठान वेण कुट्ठीणं कुट्ठरोगोवसमो हवइ" ती०।। दिगम्बरमतप्रवर्तकस्य उत्तरिल्ल त्रि०(औत्तराह) उत्तरस्मिन् कालादौ भवः उत्तरादाहञ० पा० शिवभूतेर्भ-गित्याम्, विशे० आ०म०द्वि०॥ तस्य वक्तव्यता वोडियशब्दे उत्तर आहञ् 0 / उत्तरकालादौ भवे , वाच० / "उज्जुवालि-याए नइए वक्ष्यते। तीरे उत्तरिल्ले कूले"आ०म०वि०मा "उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं *उत्तरात् अव्य० उत्तरदिग्देशकालविषये, I उत्तरमुत्तरस्मादुत्तर उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं" प्रज्ञा०२ पद। स्मिन्नित्यर्थे , वाच०। उत्तरीकरण न०(उत्तरीकरण) अनुत्तरस्योत्तरस्य पुनः संस्कारद्वाउत्तराणंदा स्त्री०(उत्तरानन्दा) ऊर्द्धलोकवास्तव्यानां दिक्कुमारीणां रेणोपरि करणमुत्तरीकरणम् / ध०२ अधि० अनुत्तरमुत्तरं क्रियते इति द्वितीयदिक्कुर्य्याम्, आ००। उत्तरीकरणम् कृतिः कारणमिति, आव०५ अ०॥ यस्याति-चारस्य उत्तरापह पुं०(उत्तरापथ) उत्तरा उत्तरस्यां पन्था अच् समा० उत्तरस्यां पूर्वमालोचनादिकृतं तस्यैव पुनः सिद्धये कायोत्सर्गस्य करणे ''इच्छामि दिशि स्थितेपथि, देशभेदे च। उत्तरपथजन्मानः कीर्तयिष्यामितानपि। ठाउं काउस्सग्गं जो मे देवसिओ तस्सुत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं' कौलकाम्बोजगान्धारान्किरातान्बबरैः सह / वाच० / “पूर्वदिसातो ध०२अधि०(उत्तरकरणशब्दे प्रपञ्चतो व्याख्यातम्) उत्तरापहं गतो" आ०म० द्वि०। "जहा उत्तरापह पच्छा दड्डे तरुणं तणं उत्त(रु)ट्ठ पुं०उत्तरो(रौ)ष्ठ उत्तर उपरितन ओष्ठो वा वृद्धिः / श्मश्रुणि, उढेइ"आव०६अ "उत्तरापहे टंकणा णाम मेच्छा। आ०चू०२ अ०) भमुहा अहरूट्ठा, उत्तरूट्ठा अह पुण एवं जाणिज्जा कल्प० आ०म०प्र०) उत्ताड(ल)ण न०(उत्ताडन) उद् तड् णिच्० ल्युट्० आलिङ्गकु-- उत्तरायण न०(उत्तरायन) उत्तरा उत्तरस्यामयनं सूयदिः (पूर्व- स्तुम्बगोमुखीमर्दलानां वादने, रा० पदात्संज्ञायाम्) पा० सूत्रेणणत्वम्।वाच०। सूर्यादरुत्तरदिग्गमने, स्था० | उत्ताडि(लि)जंत त्रि०(उत्ताड्यमान) वाद्यमाने, आलिङ्ग कुस्तु३ ठा० / उत्तरं च तदयनम् / षण्मासात्मके सूर्यस्य सर्वा- म्बगोमुखीमर्दले, / उत्ताडिज्जताणं ददरियाणं कुडवाणां कालिसियाणं भ्यन्तरमण्डलप्रवेशसमये, (तस्यसकरणवक्तव्यता अयणशब्दे उक्ता)। मडियाणं उत्तालिज्जताणं आलिंगणह कुतुंवीणं गोमुहीणं मद्दलाणं। रा०। उत्तरायणगय पुं०(उत्तरायणगत) सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्रविष्टे उत्ताण त्रि०(उत्तान) उद्गतस्तानो विस्तारो यस्य अभिग्रह कर्कसंक्रान्तिदिने, स०॥ _ विशेषादूर्ध्वमुखशयिते, पंचा० १८विव०। ध०। ऊर्द्ध मुखे च Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्ताण 796 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदउल्लाहड वाच० तादृशे उदके, पुरुषजाते च। स्था० 4 ठा० (पुरुसजायशब्दे गर्दभाकृतयो जीवाः" कल्प०1 आव०। पिपीलिकासंतानके, दशा०३ उत्तानसूत्रे प्रकटीभविष्यति) अ आचा०। कीटिकानगरे, वृ०४उ० तृणाग्रे उदक-विन्दौ, आचा० उत्ताणग पुं०(उत्तानक) उत्तान एव उत्तानकः / पृष्ठतोऽविनतादौ, 2 श्रु०१अ०१उ०। सर्पच्छत्रादौ, च"गहणे सुण्णचिट्ठिजा वीएसु हरिएसु आ०म०द्वि०। उच्चयवृक्षे, वाच० "जीवेणं भंतेगब्भगहसमाणे उत्ताणए वा। उदगम्मितहा निच्चं उतिंगपणगेसुवा" दश०८ अ० छिद्रे, न०न०। वा पासल्लए वा" भ०१श०७ उoll नि०चू०१८ उ० "णावाएउत्तिंग हत्थेण वा पाएण सणवा, उत्तिङ्ग रन्ध्रम, उत्ताणणयणपेच्छणिज त्रि०(उत्ताननयनप्रेक्षणीय) उत्तानैर्नयनैः आचा०२ श्रु० अ०उ०|| प्रेक्षणीयम् / सौभाग्यातिशयादनिमिषैर्लोचनैः प्रेक्षणीये, ज्ञा०१ अ०) उत्तिंगलेण न०(उत्तिङ्गलयन) उत्तिङ्गानां लयनं भूमौ उत्कीर्णं - नि०। उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा पासादीया दरसणिज्जा अभिरूवा गृहमुत्तिङ्गलयनम् / लयनसूक्ष्मभेदे, कल्प०॥ पडिरूवा, औ०॥ उत्तिण्ण त्रि०(उत्तीर्ण) उद् तृ-कर्तरिक्त--निवृत्ते, अष्ट०। पारंगते कर्मणि उत्ताणत्थ त्रि०(उत्तानार्थ) 6 ब०प्रगटार्थे, सूत्रादर्शेषु टीकायां तु दृष्ट तः कृतोत्तरणे नद्यादौ, वाच०॥ इति कृत्वा लिखित उत्तानार्थश्च। सूत्र०१ श्रु०६ अ० उत्तिम त्रि०(उत्तम) उद्तमप्":स्वप्नादौ"||११४६ाइत्या देरस्य उत्ताणहत्थ त्रि०(उत्तानहस्त) प्रतिग्रहीतमूर्ध्वमुखहस्ते, "किवणो विव इत्वम्। उत्कृष्टे, प्रा० / वाच० / आर्षे उत्तम इत्येव बाहुल्ये-नोपलभ्यते उत्ताणहत्थाओ" स्त्रियः कृपणवत्सर्वेभ्यो मातापितृबन्धुकु-टुम्बादिभ्यो इति तथैव उत्तप्रकरणे दर्शितम्। विवाहादावादानहेतुत्वात्, तंoil उत्तिमट्ठ पुं०(उत्तमार्थ) अनशने, नि०चू० १उ० उत्ताणिय पुं०(उत्तानिक) अभिग्रहविशेषात् उत्तानशायिनि, दशा० उत्तिमट्ठपडिवण्ण पुं० स्त्री०(उत्तमार्थप्रतिपन्न) अनशनप्रतिपन्ने, उत्तार पुं०(उत्तार) उद्-तृ-णिच-अच्-"उत्तरणे, अणुसोओ संसारो, नि०यू०१3०1 पडिसोओ तस्स उत्तारो" दश०२ अ०। उद्घमने, उल्लङ्घने, पारगमने उत्तेइय त्रि०(उत्तेजित) उद् तेज-णिच्०क्त०। अधिकं दीपिते, दश० च / उच्चैस्तारः प्रा० स० अत्यन्तौचशब्दादौ, त्रि०ावाच०॥ 3 अ०। उत्कृष्टतोजनानीते "संयमास्त्र विवेकेन शास्त्रेणोत्ते जितं मुनेः'। उत्तारिय त्रि०(उत्तार्य) उद् तृ० णिच् कर्मणि यत् उद्वमनीये ,ल्यप् अष्ट० / प्रेरिते, भावे०क्त० प्रेरणायाम्, उद्दीपने च। न० अश्वगतिभेदे, न०वाच० उद्वमनं कृत्वेत्यर्थे ,अव्य० उद्-तृ-कर्मणिण्यत् उगमनीये, त्रि०-वाच० *उत्तारित त्रि० अवरोहिते, "देवाहिदेवस्स पडिमा कायव्वावीय भए उत्तेड पुं०(उत्तेड) विन्दौ, "उत्तेडा वत्थुयायनं समत्ति'|| पिं० उत्तारिया" आ०म० द्वि०॥ उत्त्थ न०(उक्थ) वच् थक्० / अप्रगीतमन्वसाध्ये स्तोत्रे चतुर्विंशउत्तारेमाण त्रि०(उत्तारयत्) अवरोहिते, स्था० 5 ठा०॥ स्तोत्रभेदे, उपचारात् तत्साध्ये उक्थयोग च। वाच०। विशे०।। उत्ताल त्रि०(उत्ताल) उचूरा०तल प्रतिष्ठायाम्, अच्-प्रतिष्ठिते, महति, उत्थंध धा०(रुध्) आवरणे, रु० उभ० द्वि० अनिट् / रुधेरुत्थंध इत्यादेशो वा भवति। उत्थंधइरुंधइ। प्रा०।रुणद्धि सन्धे इरित् अरुधत् वाचतालस्तु कंसिकादिशब्दविशेषः उत्प्राबल्येन अतीतमस्थानतालं वा उत्तालम्। गेयदोषभेदे, "गायंतो मा पगाहि उत्तालं" स्था० 7 ठा० अरौत्सीत्वाचा अनु० जी० / जंग उद्धा०(क्षिप्) तु० ऊर्द्धक्षेपे, उत्थंधइ उक्खिवइ उत्क्षिपति। प्राol उत्तासइत्ता(त) त्रि०उत्त्रासयिता(तृ) लोष्ठप्रक्षेपादिभिः उत्त्रासकारके, उत्थरमाण त्रि०(उत्तरत्) अभिभवति,"उत्थरमाणे सव्वं महालओ "से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता ऊत्तासइत्ता अकडं करिस्सामि' आचा० पुवमेहणिग्घोसो" आव०४अ०। उत्थल न०(उत्स्थल) उत् उन्नतानि स्थलानि धूल्युच्छ्रयरूपाणि २श्रु०२अ०१उ० उत्तासणय त्रि०(उत्त्रासनक) त्रसी उद्वेगे इतिवचनात् / उत्ता उत्स्थलानि धूलिपुजेषु, भ०७ श०६उ०। स्यतेऽनेनेति उत्त्रासनः उत्त्रासन एव उत्त्रासनकः / स्मरणेनाप्यु उत्थिय त्रि०(अवस्तृत) आच्छादिते, "सुहपुण्ण चत्तचउत्तं तु गोत्थिया होति पासेसु" पंचा०८ विवा द्वेगजनके, भ०३ श०२०। भयंकरे, ज्ञा०८ अ० प्रश्न० / उत्त्रा उत्थुभण न०(अवस्तोभन) अनिष्टोपशान्तये, निष्ठीवनेन घुघुकरणे, सकारिणि, ज्ञा०५ अ०। "भीमा उत्तासणा परम कणहावण्णेणं एतच कौतुकभेदत्वेन साधुभिर्वर्ण्यम् वृ०१ उ०) पं०वं। पण्णत्ता" / प्रज्ञा०२पद / उत्तासणिज्ज त्रि०(उत्त्रासनीय) महाभयंकरे, / 'नरओविव उदउल्ल त्रि०(उदका) 3 त० / गलदुदकबिन्दुयुक्ते, दश० 5 अ०) "उदउल्लं वीयसंसत्तं" दश०६ अ० "उदउल्लं अप्पणो कायं नेव उत्तासणिज्जाओ' स्त्रियः नरकवत् उत्त्रासनीयाः दुष्टकर्मकारित्वात् पुच्छेण संलिहे" दश०८ अ०। "उदउल्लं वा कायं उदउल्लं वा वत्थं महाभयंकराः लक्षणा साध्वी जीववेश्यादासीघातिका कुलपुत्र ससणिद्धं वा काय ससणिद्धं वा वत्थं न मुसेजा न संफुसेज्जा"। दश०। 4 भाऱ्यांवत् / तं०|| अ०(अह पुण एवं जाणेजा णो पुरेकम्मकरेणं इत्थेण वा असणं वा 4 उत्तासिय त्रि०(उत्त्रासित) अपद्राविते, आव० 4 अ०|| अफासुयं अणेसणिज्जंजावणोपडिगाहिज्जा इत्यादि पुरक्कम्मशब्दे वक्ष्यते) उत्ति स्त्री०(उक्ति) वच्-क्तिन्-संप्र० शब्दशक्ती एकयोक्तया पुष्पदन्तौ आचा०२ श्रु०१ अ०५उ०उदका, पुनर्यबिन्दुसहितं भाजनादि दिवाकरनिशाकरी, वाच० / वाचि, अनु०। विशे० भणि-तौ, गलद्विन्दुरित्यर्थः / ओ० / नि० चू०। उदगउल्लेत्यपि रूपं क्वचित् "गंभीराहरणेहि उत्तीहि य भावसाराहिं" पंचा०६ विव०।। दृश्यते // कल्प०॥ उत्तिंग पुं०(उत्तिङ्ग) भूम्यां वृत्तविवरकारिणि गर्दभाकारे जीवे, ध०२ | उदउल्लाहड त्रि०(उदकाहित) उदकाट्टै हस्तेन पुरःकर्म अधिo "उत्तिंगो परुगद्दभो" निचू० 13 उ०|| "उत्तिंगा भूअका | संस्पर्शनानीते पिण्डे, "सागारिय पिंसुद्दे सिय उदतल्लाहडे Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदउल्ल 767- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदग चाउम्मासियं सागारियं पिंडदेसियं उदउल्लाहडे' नि०चू०२० उ०। उदओदर न०(उदकोदर) जलोदररोगे, जं०२ वक्षः। उर्दक पुं०(उदङ्क) उदको ये नोदकमुदच्यतेतस्मिन, जं०२ वक्ष०ा जी०। उदंच त्रि०(उदञ्च) उद् अनच विच-उदकशब्दार्थे , प्रथमान्ता-धर्थे, दिग्देशादौ, वाचन उदंचण न०(उदञ्चन) उद् अनच णिच् करणे ल्युट् / पिधानार्थे पात्रे, (ढक्कन) भावेल्युट्। ऊर्द्धक्षेपणे, कर्तरि ल्युट् / उत्क्षेपके, त्रि० वाच०। अनु०। उदंत पुं०(उदन्त) उद्गतोऽन्तो निर्णयो यस्मात् / वार्तायाम् , / ज्ञा०८ अ० "गोसे मे वहेजह उदंतं" व्य० द्वि०४ उ०। आ०म०प्र०। साधौ, स्वार्थे कन् / तत्रैव उद्गतोऽन्तो ऽस्य पाकवशात् प्रा०व० गतलोपः। पाकवशात् प्राप्तान्ते, वाच०॥ उदंतवाहय त्रि०(उदन्तवाहक) वार्ताहरे, वाच०। उदक पुं०(उदर्क) उद् अर्क-अच् वा घञ् उत्तरकाले, भाविफल के शुभाशुभकर्मणि, वाच०। उदये, "केषांचिद्विषयज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषा-वेगोदर्ककुतर्कमूञ्छितमथान्येषां तु वैराग्यतः" अष्ट। उदग(य) न०(उदक) उन्द ण्वुल्०नि० नलोपश्च / जले, (चत्तारि उदगा पण्णत्ता उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए इत्यादि पुरिसजायशब्दे उत्तानसूत्रावसरे व्याख्यास्यते) (चत्तारि उदगा पण्णत्ता तंजहा कदमोदए खंजणोदए बालुओदए सेलोदए इति सदृष्टान्तो भावशब्दे) उदगं च दुविहं वासुदगंचा नि०चू०१० उ०।तं०। सिरापानीये, दश० 4 अ० "जेणं उदएण मट्टियाएण य" औ० / "तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता" त्रिभिरुदकैर्गन्धोदकोष्णोदकशीतोदकैर्माजयित्वा (स्था० 3 ठा०) उदकात्सिद्धिरिति वादिनः। एगे य सीओदगसेवणेण, हुएण एके पवयंति मोक्खं // तथैके वारिभद्रकादयो भागवतविशेषाः शीतोदकसेवनेन सचिताप्कायपरिभोगेन मोक्ष प्रवदन्ति। उपपत्तिं च ते अभिदधतियथो-दकं बाह्ममलमपनयति एवमान्तरमपि वस्त्रादेश्च यथोदकाच्छुद्धि-रुपजायते एवं बाह्यशुद्धिसामर्थ्यदर्शनादान्तरापिशुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते। एतेषामुत्तरं यथा॥ उदगेण ये सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पावं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेणसिया य सिद्धि, सिचंसु पाणा बहवे दगंसि तथा ये केचन मूढा उदकेन शीतवारिणा सिद्धिं परलोकमुदाहरन्ति प्रतिपादयन्ति सायमपराहे विकाले वा प्रातश्च प्रत्यूषसि च आद्यन्तग्रहणात् मध्याह्ने च तदेवं संध्यात्रयेऽप्युदकं स्पृशन्तः स्नानादिकाःक्रिया जलेन कुर्वन्तः प्राणिनो विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति / एतचासम्यक् / यतो यधुदकस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत उदकसमाश्रिता मत्स्यबन्धादयः क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्ध्येयुरिति / यदपि तैरेवोच्यते। बाह्ममलापनयनसामर्थ्यमुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते। यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमप्यङ्गरागं कुङ्कुमादिकमपनयति / ततश्च पुण्यस्याऽपनयनादिष्टविघातकृ द्विरुद्धः स्यात् / किं च यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषायैव / तथाचोक्तम् / “स्नानं मददर्पकरं, कामाकं प्रथमं स्मृतम्। तस्मात्कामं परित्यज्य,नतेस्नान्तिदमेरताः // अपि च / नोद-कक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते / स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥१४॥" मच्छा य कुम्माय सिरीसिवाय, मग्गू य उहादगरक्खसा य / अट्ठाणमेयं कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति / 15 / किञ्च यदि जलसंपर्कात्सिद्धिः स्यात्ततो ये सततमुद कावगाहिनो मत्स्थाश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च तथा मद्वस्तथोष्ट्रा जलचरविशेषास्तथोदकराक्षसा जलमानुषाकृतयो जलचरविशेषा एते प्रथमंसिद्धेयुर्न चैतदृष्टमिष्टम् ततश्च ये उदके न सिद्धिमुदाहरन्त्येतदस्थानमयुक्तमसांप्रते कुशलनिपुणा मोक्षमार्गाभिज्ञा वदन्ति / 15 / किञ्चान्यत्। उदयं जइ कम्ममलं हरेजा, एवं सुहं इच्छामित्तमेवं / / अंधंवणे यारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा1१६॥ यधुदकं कर्ममलमपहरेदेवं शुभमपि पुण्यमपहरेत्। अथ पुण्यं नापहरेदेव कर्ममलमपि नापहरेत् / अत इच्छामात्रमेवैतद्यदुच्यते जलं कपिरिहारीति / एवमपि व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः क्रिया: स्मार्तमार्गमनुसरन्तः कुर्वन्ति ते यथा जात्यन्धा अपरं जात्यन्धमेव नेतारमनुसृत्य गच्छन्तः कुपथश्रुतयो भवन्ति नाभिप्रेतं स्थानमवाप्नुवन्ति / एवं स्मार्त्तमार्गानुसारिणो जलशौचपरायणा मन्दा अज्ञाः कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलाः प्राणिन एव तन्मयान् तदाश्रितांश्च पुत्तरकादीन् विनिघ्नन्ति व्यापादयन्ति अवश्यं जलक्रि यया प्राणव्यपरोपणस्य संभवादिति / / 16 / / अपिच पावाइँ कम्माई पकुय्वतोहिं, सिओदगं तू जइतं हरिजा। सिज्झंसु एगे दगसत्तघाति, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु।१७। पापानि पापोपादानभूतानि कर्माणि प्राण्युपमर्दकारीणि कुर्वतोऽसुमतो यत्कर्मापचीयते तत्कर्म यधुदकमपहरेत् / यद्येवं स्यात् तर्हि यस्मादर्थे यस्मात्प्राण्युपमर्दकर्मोपादीयते जलावगाहनाचा-ऽपगच्छति तस्मादुदकसत्त्वघातिनः पापभूयिष्ठा अप्येवं सिद्ध्ययुः। न चैतदृष्टमिष्टं वा / जलावगाहनात्सिद्धिमाहुस्ते मृषा वदन्ति / / . किंचाऽन्यत्।। आहंसुमहापुरिसा, पुटिव तत्ततवोधणा। उदयेण सिद्धिमावन्ना, तत्थमंदो वसीयति||१|| केचन अविदितपरमार्था आहुरुक्तवन्तः / किं तदित्याह / यथा महापुरुषाः प्रधानपुरुषावल्कलचीरितारागणर्षिप्रभृतयः। पूर्व पूर्वस्मिन् काले तप्तमनुष्ठितं तप एव धनं येषां ते तप्ततपाधेनाः पञ्चाग्न्यादितपोविशेषेण निष्ट देहास्त एवंभूताः शीतोदकपरिभोगेन उपलक्षणार्थत्वात् कन्दमूलफलाद्युपभोगेन च सिद्धिमापन्नाः सिद्धि गतास्तत्रैवंभूतार्थसमाकर्णने तदर्थसद्भावावेशात् मन्दोऽज्ञः स्नानादित्याजितः प्राशुकादेकपरिभोगभग्नः संयमानुष्ठाने प्रविषीदति। यदि वा तत्रैव शीतोदकपरिभोगे विषीदति लगति निमज्जतीति यावत् / नचासौ वराक एवमवधारयति यथा तेषां तापसादिव्रतानुष्ठायिनां कुतश्चिजातिस्मरणादिप्रत्ययादाविर्भूतसम्यग्दर्शनानां मौनीन्द्रभावसंयमप्रतिपत्त्या अपगतज्ञानावरणादि-कर्मणां भरतादीनामिव मोक्षावाप्तिर्न तु शीतोदकपरिभोगादिति // 1 // किंचान्यत्॥ अभुजिया नमि विदेही, रामगुत्ते य भुंजिया // बाहुए उदगं भोचा, तहा तारा गणे रिसी // 2 // केचन कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः। यदि वा स्ववाः शीतलविहारिण एतद्वक्ष्यमाणमुक्तवन्तस्तद्यथा नमी राजा विदेहो नाम जनपदस्तत्रभवा वैदेहास्तन्निवासिनो लोकास्तेऽस्य Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदग 798 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदगगब्भ सन्तीति वैदेही / स एवंभूतो नमी राजा अशनादिकमभुक्त्वा भोयणं भोचा, मणुण्णं सयणासणं। मणुण्णंति अगारसि, मणुण्णं झायए सिद्धिमुपगतस्तथा रामगुप्तश्च राजर्षिराहारादिकं भुक्त्वैव भुञ्जान एव मुणी।।१।।तथा मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भुक्तमध्ये पानकं चापराहे। सिद्धि प्राप्त इति / तथा बाहुकः शीतोदकादिपरिभोगं कृत्वा तथा द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः / / 11 / इत्यतो नारायणो नाम महर्षिः परिणतोदकादिपरिभोगात्सिद्ध इति // 2 // मनोज्ञाहारविहारादेश्चित्तस्वास्थ्यं ततः समाधिरुत्पद्यते समाधेश्व अपिच मुक्त्यवाप्तिरतः स्थितमेतत्सुखेनैव सुखावाप्तिर्न पुनः कदाचनापि असिले देवले चेव,दीवायणमहारिसी। लोचादिना कायक्लेशेन सुखावाप्तिरिति। स्थितम् इत्येवं व्यामूढमतयो पारासरे दगभोचा, वीयाणि हरियाणि य||३|| ये केचनशाक्यादयस्तत्र तस्मिन्मोक्षमार्गप्रस्तावेसमुपस्थिते आराज्जातः एते पुष्वं महापुरिसा, आहिता इह संमता। सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यो मार्गो जैनेन्द्रशासनप्रतिपादितो मोक्षमार्गस्तं ये भोचा बीओदगं सिद्धा, इति मेयमणुस्सुअं॥४॥ परिहरन्ति। तथाच। परमंच समाधिज्ञानदर्शन-चारित्रात्मकं येत्यजन्ति तेऽज्ञाः संसारान्तर्वर्तिनः सदा भवन्ति / तथाहि / यत्तैरभिहितं असिलो नाम महर्षिर्देवलो द्वैपायनश्च तथा पराशराख्य इत्येवमा-दयः शीतोदकबीजहरितादिपरिभोगादेव सिद्धा इति श्रूयते // 3 // एतदेव कारणानुरूपं कार्यमिति तन्नायमेकान्तो यतः शृङ्गाच्छरो जायते गोमयावृश्चिको गोलोमाविलोमादिभ्यो दूर्वेति / यदपि दर्शयितुमाह। (एते इत्यादि) एते पूर्वोक्ता नम्यादयो महर्षयः (पूर्वमिति) मनोज्ञाहारादिकमुपन्यस्तं सुखकारणत्वेन तदपि विसूचिपूर्वस्मिन्काले त्रेताद्वापरादौ महापुरुषा इति प्रधानपुरुषा आसमन्तात् कादिसम्भवाद्यभिचारीति। अपिचेदं वैषयिकं सुखं दुःखप्रकार-हेतुत्वात् ख्याताः प्रख्याता राजर्षित्वेन प्रसिद्धिमुपगताः इहाप्याहितप्रवचने ऋषिभाषितादौ केचन संमता अभिप्रेता इत्येवं कुतीर्थिकाः स्वयूथ्या सुखाभासतया सुखमेव न भवति / तदुक्तम् / दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः, सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः। उत्कीर्णवर्णवदवा प्रोचुस्तद्यथा एते सर्वेऽपि बीजोदकादिकं भुक्त्वा सिद्धा इत्येतन्मया पंक्तिरिवान्यरूपा, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयो-गात् // 1 // इति भारतादौ पुराणे श्रुतम् // 4 // कुतस्तत्परमानन्दरूपमस्यात्यन्तिकैकान्तिकस्य मोक्षसुखस्य कारणं एतदुपसंहारद्वारेण परिहरन्नाह।। भवति यदपि लोचभूशयनभिक्षाटनपरपरि-भवक्षुत्पिपासादशमतत्थ मंदा विसीयंति, बाहच्छिन्नाव गहमा। शकादिकं दुःखकारणत्वेन भवतोपन्यस्तं तदप्यल्पसत्वानामपपिट्ठतो परिसप्पंति, पिट्ठसप्पीच संभमे // 5 // रमार्थदृशां महापुरुषाणां तुस्वार्थाभ्युपगम-प्रवृत्तानां परमार्थचिन्तकानां इहमेगे उभासंति, सातं सातेण विज्जती। महासत्वतया सर्वमेवैतत्सुखायैवेति। तथा चोक्तम्।तणसंथारनिविण्णो जे तत्थ आरिअंमग्गं, परमं च समाहिए॥६|| वि, मुनिवरो भट्ठरागमयमोहो / जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चकवट्टी (तत्थेत्यादि) तत्र तस्मिन् कुश्रुत्युपसर्गोदये मन्दा अज्ञा नाना- वि।।१।। तथा / सख्यं दुष्कृतसंख्यया च महतां क्षान्तं पदं वैरिणः, विधोपसाध्यां सिद्धिगमनमवधार्य विषीदन्ति संयमानुष्ठानेन कायस्याशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा॥सर्वत्यागमहोत्सवाय मरण पुनरेतद्वदन्त्यज्ञाः। तद्यथा येषां सिद्धिगमनमभूत् तेषांकुतश्विन्नि-मित्तात् जातिः सुहृत्प्रीतये, संपद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुत जातजातिस्मरणादिप्रत्ययानामवाप्तसम्यग्ज्ञानचारित्रा-णामेव इति / / 1|| अपिचैकान्तेन सुखेनैव सुखेऽभ्युपगम्यमाने विचित्रसंसारावल्कलचीरिप्रभृतीनमिव सिद्धिगमनमभूत् न पुनः कदाचि-दपि भावः स्यात्तया स्वर्गस्थानां नित्यसुखिनां पुनरपि सुखानुभूतैस्तसर्वविरतिपरिणामभावलिङ्गमन्तरेण शीतोदकबीजाद्युपभोगेन त्रैवोत्पत्तिः स्यात्तथा नारकाणां च पुनर्दुःखानुभवात्तत्रैवोत्पत्तेर्न नानागत्या जीवोपमर्दप्रायेण कर्मक्षयोऽवाप्यते। विषीदने दृष्टान्तमाह। वहनं वाहो विचित्रता संसारस्य स्यान्नचैतत् दृष्टमिष्ट चेति॥६|| सूत्र०१ श्रु०८ अ० भारोदहनं तेनच्छिन्नाः कर्षितास्त्रुटिता रासभा इव विषीदन्ति / यथा (उदकस्य विषयान्तराणि आउक्काय शब्दे उक्तानि) भविष्यति सप्तमे रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितभारा निपतन्ति एवं ते प्रोज्झ्य संयमभारं तीर्थकरे, स०। वनस्पतिविशेष, यथोक्तम् "उदए अवए पणए इत्यादि" शीतलविहारिणो भवन्ति / दृष्टान्तान्तरमाह / यथा पृष्टसर्पिणो दश० 8 अ०। प्रज्ञा०। जलाशयमात्रे, भ०१ श०८ उ० / 'मेदायंगोत्रे, भग्रगतयोऽग्न्यादिसंभ्रमे सत्युभ्रान्तनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य स्वनामख्यातेपेढालपुत्रे, पापित्यीये निर्ग्रन्थे, पृष्टतः पश्चात्परिसर्पन्ति नाग्रगामिनो भवन्त्यपि तु तत्रैवाग्न्यादिसंभ्रमे अहेणं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिने णियढे मेयजे गोत्तेणं, विनश्यन्त्येवं तेऽपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रति प्रवृत्ता अपि तु न पासावगियो पुच्छियाइओ अज्ज गोयम उदगो सावग-पुच्छा मोक्षगतयो भवन्त्यपि तु तस्मिन्नेव संसारे अनन्तमपि कालं यावदासत धम्म सोउ कहियम्मि उवसंता / सूत्र०२ श्रु०७ अ01 इति॥५। मतान्तरं निराकर्तु पूर्व-पक्षयितुमाह (इहमेगे इत्यादि) इहेति / (उदकस्य गौतमस्वामिनं प्रति प्रश्नः पच्चक्खाणशब्दे वक्ष्यते) मोक्षगमनप्रस्तावे एके शाक्यादयः स्वयूथ्या वा लोचादिनोपतप्ताः / तद्विषयकत्वेन तत्रैवोपन्यसिप्यमाणत्वात् अयं सेत्स्यति / / सूत्रतुशब्दः पूर्वस्मात् शीतोदकापरिभोगाद्विशेषमाह।भाषन्ते ब्रुवते। मन्यन्ते कृतद्वितीयश्रुतस्कन्धे नालन्दीयाध्ययनाभिहित स्तद्यथा-उदकच इति क्वचित्पाठः / किं तदित्याह सातं सुखं सातेन सुखेनैव विद्यते नामानगारः पेढालपुत्रः पार्श्वजिनशिष्यो योऽसौ राजगृहनगरबाभवतीति / तथाच वक्तारो भवन्ति / "सर्वाणि सत्वानि सुखे हिरिकाया नालन्दाभिधानाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि हस्तिद्वीपवन-खण्डे रतानि,सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ति तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, व्यवस्थितस्तदेकदेशस्थं गौतम संशयविशेषमापृच्छय विच्छिन्नसुखप्रदाता लभते सुखानि''||१| युक्तिरप्येवमेव स्थिता / यतः संशयःसन् चातुर्यामं धर्म विहाय पञ्चयाम धर्म प्रतिपेदे इति / / सच कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते। तद्यथा शालिबीजाच्छाल्य-ड्कुरो जायते उत्सर्पिण्यां सप्तमस्तीर्थकरो भविष्यति, स० / कालोन यवा कुर इत्येवं प्रीत्यात्मसुखान्मुक्तिसुखमुपजायते नतु | दायिप्रभृतिष्वेकादशस्वन्ययूथिकेषु चतुर्थे, भ०७ श०१० उ०) लोचादिरूपात् दुःखादिति। तथा ह्यागमेऽप्येवमेव व्यवस्थितम्॥ मणुण्णं | उदग(दग)गब्भ पुं०(उदक गर्भ) (उदक स्य) दक स्यो Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगगब्भ 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदगणाय दस्य वा गर्भ इव गर्भः। स्या० 4 ठा०। कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतौ ___ एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाणामंणयरी होत्था। पुद्गलपरिणामे, भ०२ श०५ उ०॥ पुण्णभद्दे चेइए तीसेणं चंपाए णयरीए जियसत्तू णामं राया चत्तारि उदगगम्भा पण्णत्ता तंजहा हेमगा अब्भसंघडा होत्था। तस्स णं जियसत्तुस्स रण्णो धारिणी णामं देवी होत्था। सीओसिणापंचरूविया॥ अहीणसुकुमाल जाव सुरूवा तस्स णं जियसत्तुस्स रण्णो पुत्ते दकस्योदकस्य गर्भाइव गर्भा दकगर्भाःकालान्तरे जलवर्षणस्य हेतवः धारिणीए अत्तए अदीणसत्तू णामं कुमारे जुवराया वि होत्था / तत्संसूचका इति तत्त्वमिति / अवश्यायः क्षपाजलं महिका धूमिका सुबुद्धी अमचे जाव रज्जधूरा चिंतए समणोवासए अभिगयजीशीतान्यात्यन्तिकानि एवमुष्णो घर्म एते हि यत्र दिने वाजीवे तीसेणं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्था / मेयवसामंसरुहियपूयपडलपोचडे उत्पन्नास्तस्मादुत्कर्षणाव्याहताः सन्तःषभिर्मासैरुदकं प्रसुवते अन्यैः मयगकलेवरसंछण्णे अमणुण्णे वण्णे णं जाव फासेणं जे जहा पुनरेवमुक्तम् / “पवनाभ्रवृष्टिविद्यु-द्रर्जितशीतोष्णरस्मि परिवेषाः / णामए अहिमडेति वा गोमडेति वा जाव मयकुहियविणिट्ठकिजलमत्स्येनसहोक्तो, दशधा चाम्बुप्रजनहेतुः॥१॥' तया-शीतवाताश्च मिणवा वण्णदुरभिगंधकिमिजालाउले संसत्ते असुइविगयवीबिन्दुश्व, गर्जितं परिवेषणम् / सर्वगर्भेषु शंसन्ति, निर्गन्थाः भच्छदरसणिजे भवेयारूवे सिया। णो इणडे समढे एत्तो अणिसाधुदर्शनाः / / 2 / / तथा-सप्तमे सप्तमे मासे, सप्तमे सप्तमेऽहनि / गर्भाः द्वतराए चेव जावगंधेणं पण्णत्ते। तएणं से जियसत्तू राया अण्णया पाकं नियच्छन्ति, यादृशास्तादृशं फलम्॥१॥" हिमं तुहिनंतदेव हिमकं कयाइं हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणातस्यैते हैमकाः हिमपातरूपा इत्यर्थः / / (अब्भसंघउत्ति) अभ्रसंसृतानि लंकियसरीरे बहुहिं राईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं मेधैराकाशाच्छादना-नीत्यर्थः आत्यनिन्तके शीतोष्णे पञ्चानां रूपाणां भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणणिसण्णे विपुलं असणं गर्जितविद्युज-लवाताभ्रलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं तदस्ति येषां ते 5 भुजेमाणा जाव विहरइ / जिमिवयभुत्तुत्तरागए जाव सुइभए पञ्चरूपिका उदकगर्भा इह मतान्तरमेवम् / 'पौष समार्गशीर्षे , तंसि विपुलंसि असणं 4 जाव विम्हएते बहवे ईसर जाव पमिई संध्यारागाम्बु-दासपरिवेषाः / नात्यर्थं मार्गशिरे, शीतं एवं वयासी अहोणं देवाणुप्पिया इमे मणुण्णे असणं 4 वण्णेणं पौषेऽतिहिमपातः / / 1 / / माघे प्रवलो वायु-स्तुषारक लुषद्युती उववेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिजे विस्सायणिज्जे रविशशाङ्कौ / अतिशीतं सघनस्य च, भानोरस्तोदयौ धन्यौ / / 2 / / पीणणिज्जे दीवणिजे सव्विंदियगायपल्हायणिजे तए णं ते बहवे फाल्गुनमासे रूक्ष-श्वण्डः पवनोऽभ्रसंप्लवाः स्निग्धाः / परिवेषाश्च राईसर जावप्पभिईओ जियसत्तूरायं एवं बयासी तहेवणं सामी सकलाः, कपिलस्ताम्रो रविश्च शुभः॥३॥ पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे गर्भाः जणं तुम्भे वयह अहोणं इमे मणुण्णे असणं पाणं खाइमं साइमं शुभाः सपरिवेषाः। घनपवनसलिलविद्युत्स्तनितैश्चहिताय वैशाख बण्णेणं उववेए जाव पल्हायणिजे तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धी इति ||4" तानेव मासभेदेन दर्शयति 'माहे उ हेडमा गभा, फग्गुणे अमचं एवं वयासी अहो णं सुबुद्धि अमचे इमे मणुण्णे असणं अब्भसंघडा। सीओसिणाओय चित्ते, वइसाहे पंचरूविया।।१॥" स्था० पाणं खाइमं साइमं जाव पल्हायणिज्जे तए णं सुबुद्धी अमच्चे 4 ठा०। तस्य कालस्थितिः कायट्टिइशब्दे) जियसत्तू रायस्स य एयमलृ णो आढाहं णो परियाणाई जाव उदगजीव पुं०(उदकजीव) उदकमेव जीवः / उदकरूपे जीवे, तुसिणीए संचिट्ठइ। तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धी अमचं दोचंपि सचित्ताप्काये, आचा०१ श्रु०१ अ०२उ० (आउक्कायशब्दे विषय उक्तः) तबंपि एवं वयासी अहो णं सुबुद्धी अमच्चे इमं मणुण्णे तं चेव उदगजोणिय पुं०(उदकयोनिक) उदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते, जाव पल्हायणिज्जे तए णं सुबुद्धी अमचे जियसत्तुणा दोचंपि 'जलसंभवेषु जीवेषु, "इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंभवा" तचं पि एवं वुत्ते समाणे जियसत्तू रायं एवं वयासी / णो खलु सामी अहं एयंसि मणुण्णंसि असणं पाणं खाइमं सूत्र०२ श्रु०३ अ०॥ साइमंसि केइ विम्हए एवं खलु सामि सुटिमसहा वि पोग्गला उदकस्य योनयः परिणामकारणभूता उदकयोनयस्त एवोदक दुब्मिसत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा विपोग्गला सुटिमसद्दत्ताए योनिकाः / उदकजननस्वभावेषु,"णो बहवे उदगजोणिया जीवा य परिणमंति सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमति / पोग्गला य उदगत्ताय वक्कमंति" स्था०३ ठा०३उ०॥ दुरूवा विपोग्गला सुरूवत्ताएपरिणमंति। सुन्भिगंधा वि पोग्गला उदगणाय न०(उदकज्ञात) उदकं नगरपरिखाजलं तदेव ज्ञातमु दुभिगंधत्ताए परिणमंति 1 दुडिभगंधा वि पोग्गला दाहरणमुदकज्ञातम् / ज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमश्रुतस्य द्वादशाऽध्य सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति, सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए यनोक्ते उदाहरणे, तत्प्रतिपादकेऽध्ययनेच।ज्ञा०१ श्रु०१ अ० आ००। परिणमंति, दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति / आव०। तच्चैवं। सुहफासा वि पोगला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा वि जइ णं भंते समणे णं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते णं पोग्गला सुहफासाए परिणमंति। पओगवीससा परिणया विय एक्कारसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते / बारसमस्सणं णं सामीपोग्गला पण्णत्ता तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स मंते समणे णं भगवया महावीरेणं जावसंपत्ते णं के अद्वे पण्णत्ते। अमबस्स एवमाइक्खमाणस्स 4 एयमटुं णो अड्डाइ णो Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगणाय 500- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदगणाय परियाणइ तुसिणीए संचिठ्ठह तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ पहाए जाव विभूसिए आसंखधवरगए महया भडचड-1 गरआसवाहणिया णिज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्स अदूरसामंते णं बीइयइ तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिजेणं आसगंपिहेइ एगंतं अवक्कमइ अवकमइत्ता ते बहवे राईसरजावपभिइओ एवं बयासी। अहो णं देवाणुप्पिया इमे फरिहोदए अमणुण्णे बण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं से जहाणामए अहिमडेइवाजाव अणामत्तराए चेव तएणं ते राईसरप्पमिइए जाव एवं बयासी। तहेवणं सामी जणं तुम्भे एवं वयह अहोणं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं से जहा णामए अहिमडेइवा जाव अमणामतराए तएणं से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं एवं बयासी अहोणं सुबुद्धि इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं से जहाणामए अहिगडेति वा जाव अमणा मतराए तएणं सुबुद्धि अमचे जाव तुसिणीए संचिठ्ठइ तएणं से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं दो पि तचं पि एवं वयासी अहोणं तं चेव तएणं से सुबुद्धी अमचे जियसत्तुणा रण्णा दोचंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी णो खलु सामी अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए एवं खलु सामी सुन्भिसहावि पोग्गला दुब्भिसहत्ताए परिणमंति तं चेव पओगवीससा परिणया वि यणं सामी पोग्गला पण्णत्ता तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं एवं वयासीमाणं तुम देवाणुप्पिया अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहुहि य असब्भावु-भावणाहि मिच्छित्ताभिणिवेसेणय बुग्गाहेमाणे वुप्पायमाणे विहराही। तएणं सुबुद्धिस्स अमचस्स इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था अहो णं जियसत्तू राया संते तचे तहिए अवितहे संभूए जिण पण्णत्ते भावे णो उवलभंते तंसेयं खलु ममजिय-सत्तुस्स रण्णो सत्ताणं तचाणं तहियाणं अवितहाणं संभूयाणं जिण पणत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमढे उवायणा वेत्तए एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता तिपत्तिएहिं पुरिसेहि सद्धिं अंतरावणाओ णवघडए गिण्हइश्त्ता संज्झाकालसमयंसि पविरलमणुसंसि णिसंत पडिणिसत्तंसि | जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्तातं फरिहोदगं गिण्हावेइ णवएसु घडएसु परिक्खवावेइ 2 त्ता सज्जक्खारं पक्खिवावेइ लंछियमुहिए कारावेइ सत्तरत्तं परिवसावेइ दोचंपि णवएस घडएसु गालावेइ २त्ता णवएसु घडएसु पक्खिवावे रत्ता सज्जक्खारं पक्खिवा-वेइ रत्ता लंछिय मुहिय कारोवे सत्तरत्तं परिवासावेइ२त्तातचंपिणवएसुघडएसुजाव संवसावेइ 2 त्ता एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलाविमाणे अंतरापक्खिवावेमाणे अंतरा अवसावेमाणे 2 सत्तसत्तए राइंदिइं परिवसावेइ २त्तातएणं से फरिहोदए सत्तयंसि 2 परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था / अच्छे पत्थे जचे तणुए फालियवण्णाभे वणे णं उववेए 4 आसायणिजं जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जं तएणं सुबुद्धी अमचे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइरत्ता करयलंसि आसादेइ तं उदगरयणं वण्णेणं गंधेणं रसेणं फासेणं उववेयं आसायणिज्जं जाव सविंदियगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता हट्ठतुढे बहुहिं उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेइ२ त्ता जियसत्तुस्स रण्णो पाणियधारियं पुरिसं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी तुमं णं देवाणुप्पिया इमं उदगरयणं गिण्हाहिं 2 जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइतएणं से जियसत्तू राया पाणियधरए पुरिसे सुबुद्धिस्स अमचस्स एयमटुं पणिसुणेइ 2 ता तं उदगरयणं गिण्हइ 2 ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवइ तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा जाव विहरइ जिमियमुत्तुत्तरागए वि यणं जाव परम सुइभूए तंसि उदगरयणंसि जाव विम्हएते बहवे राईसरजांव एवं वयासी। अहो णं देवाणुप्पिया इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे तए णं ते बहवे राईसर जाव एवं वयासी तहेणं सामी जणं तुब्भे वयह जाव तं चेव पल्हायणिजे तए णं जियसत्तू राया पाणियधरय पुरिसं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी एसणं देवाणुप्पियाउदगरयणे कओ आसादिए तएणं से पाणिधरए जियसत्तू रायं एवं वयासी एस णसामी मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइएतएणं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी / अहो णं सुबुद्धो अहं तव अणिढे 5 जेणं तुम ममं कल्लाकल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं ण उवट्ठवेसि तएणं तुमे देवाणुप्पिया उदगरयणेकओ उवलद्धे तएणं सुबुद्धो अमचे जियसत्तू राय एवं वयासी एस णं सामी सफरिहोदए तएणं से जियसत्तू राया सुबुद्धी अमचं एवं वयासी केणं कारणेणं / सुबुद्धी अमचे एस फरिहोदए तएणं सुबुद्धी अमचे जियसत्तू राय एवं बयासी एवं खलु सामी तुम्हे तइया मम एवमाइक्खमणस्स एयम8 णो सद्दह तए णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिएचिंत्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपञ्जित्था / अहो णं जियसत्तू राया संते जाव भावे णो सद्दहइणोपत्तियइणोरोयइत्तितं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताणं जाव संभूयाण जिणपण्णत्ताणं भावाण अभिगमणट्ठयाए एयमहूं उवायणावेत्तए एवं संपेहेइ २त्ता एवं चेव जाव पाणियधरियं पुरिसं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी तुम णं देवाणुप्पिया उदगरयणं जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेहि तं एएणं कारणेणं Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगणाय 801 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदगमाल सामी एस से फरिहोदएतएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमचस्स तएणं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे सुबुद्धिं अमचं सद्दावइ एवं एवमाइक्खमाणस्स 4 एयमदृ णो सहहइ २त्ता असद्दहमाणो 3 वयासी एवं खलु मए थेराणं जाव पटवयामि तुम णं किं करेसि अभिंतरहणिजे पुरिसे सहावेइ २त्ता एवं वयासी गच्छह णं तए णं सुबुद्धी अमचे जियसत्तू रायं एवं वयासी जाव केअण्णे तुम्मे देवाणुप्पिया अंतरावण्णाओ णवघडए गिण्हह जाव आहारे वा जाव पव्वयामि तं जइणं देवाणुप्पिया जाव पध्वाहि उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारे ह / ते वि तहेव संभारेइ गच्छ णं देवाणुप्पिया जेहपुत्तं कुडुंबे ठावेहिं सहस्सपुरिसवाजियसत्तुस्स रण्णो उवणे इतए णं जियसत्तू राया तं उदगरयणं हिणी सीयं दुरहित्ताणं मम अंतिएसीयाओ जाव पाउन्भवहतएणं करयलं सि आसाएइ आसायणिलं जाव सटिवं दि से सुबुद्धी अमचे सीया जाव पाउब्भवइ / तएणं जियसत्तू राया यगायपल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमचं सहावेइ 2 त्ता एवं कोडुंबियपुरिसे सहावेइ 2 ता एवं बयासी गच्छह णं तुब्भे बयासी सुबुद्धिं एएणं तुमे संता तत्थ जाव संभूया भावा कओ देवाणुप्पिया अदिण्णसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह। उवलद्धा तएणं सुबुद्धी अमच्चं जियसत्तू रायं एवं वयासी एएणं तहेव कोडुबियपुरिसा अमिसिंचइजाव जियसत्तू राया पव्वइए। सामी मए संता जाव भावा जिणवयणाओ उवलद्धा तएणं तए णं जियसत्तू रायरिसी एकारस-अंगाई अहिञ्जित्ता बहूणि जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी तं इच्छामिणं देवाणु वासाणि परियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सिद्धे / तएणं प्पियाणं तव अंतिए जिणवयणं णिसामित्तए। तएणं सुबुद्धी अमचे सुबुद्धी एकारसअंगाई अहिन्जित्ता बहूणि वासाणि जाव सिद्धे एवं जियसत्तुस्स रण्णो विचित्तं केवलिपण्णत्तं चउज्जामं धम्म खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं वारसमस्स परिकहेइ तमाइक्खेति जहा जीवा बुज्झंति जाव पंच अणु णायज्झयणस्स अयमठेपण्णत्तेत्तिवेमि। "मिच्छत्तमोहिमणापाव्वयाणि।तएणं जियसतू राया सुबुद्धिस्स अमचस्स अंतिए धम्म वपसत्ता वि पाणिणो वि गुणा / फरिहोदगं च गुणणो, हवंति सोचा णिसम्म हतुट्टे सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी सद्दहामिणं वरगुरुपसायाओ१" वारसमणायज्झयणं सम्मत्तं 12 ज्ञा०। देवाणुप्पिया णिग्गंथं पावयणं 3 जाव से जहे यं तुब्मे वयह तं इच्छामिणं तव अंतियं पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उदगता स्त्री०(उदकता) अप्कायरूपतायाम्, "णो बहवे उदगजोणिया उवसंपजित्ताणं विहरित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं जीवा य पोग्गला य उदगता य वक्कमंति" स्था०३ ठा०। करेह / तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमचस्स अंतिए उदगदोणि स्त्री०(उदक द्रोणि) जलभाजने, यत्र तप्तलोहं पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजइ / तएणं शीतलीकरणायाक्षिप्यते, "उदगदोणी णिव्वतिए" भ०१६श० 130 / जियसत्तू राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव दश० "फलिहगालणा वाणमलं उदगदोणिणं" उदकद्रोण्योऽरहदृजलपडिलाभेमाणे विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा जेणेव धारिका इति / दश०७ अ०। चंपाणयरीजेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव समवसड्डे जियसत्तू राया उदगपरिणय त्रि०(उदकपरिणत) उदकदायकावस्यां प्राप्ते, स्था० 3 सुबुद्धियणिग्गए सुबुद्धी धम्मं सोचा जं णवरं देवाणुप्पिया ठा०३ उ०। जियसत्तू रायं आपुच्छामि जाव एथ्वयामि अहासुहं देवाणुप्पिया उदगपसूय त्रि०(उदकप्रसूत) जलोत्पन्ने कन्दादौ, "उदगपसूयाणि मा पडिबंधं करेह तए णं से सुबुद्धी अमचे जेणेव जियसत्तू ___ कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा" आचा०२ श्रु०१ अ०॥ राया तेणेव उवागच्छइ २त्ता एवं वयासी एवं खलु सामी मए उदगपोग्गल न०(उदकपौगल) उदकप्रधानं पौद्रलं पुद्गलसमूहे मेघे, थेराणं अंतिए धम्मे णिसम्मे सेवियधम्मेइच्छिए पडिच्छिएतए "तत्थ समुट्टियं उदगपोग्गलं परिणयं वा सिउकामं अन्नदेसंसाहरंति" णं अहं सामी। संसारभओव्विग्गे भीए जाव इच्छामिणं तुम्भेहिं स्था०३ ठा०३ उ०॥ अब्भणुण्णाए समाणे जाव पव्वइत्तएतएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिं उदगमच्छ पुं०(उदकमत्स्य) इन्द्रधनुःखण्डे, 'एष चाशुभसूचक अमचं एवं वयासी इच्छामितावदेवाणु-प्पिया कइवयाईवासाई उत्पातविशेषः, भ०३ श०६ उ०॥ अनु०। उरालाइं जाव मुंजमाणा तओ पच्छाए गयाओ थेराणं अंतिए मुंडे भदित्ता जाव पव्वइस्सामो / तए णं सुबुद्धी णामं अमचे उदगमाल पुं०,स्त्री०(उदकमाला)६ त० उदकशिखायाम्, वेला-याम्, जियसत्तुस्स रण्णो एयमटुं पडिसुणेइ तएणं तस्स जियसत्तुस्स स्था० 10 ठा०॥ रणो सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाइं माणुस्सगाई भोगमोगाई जाव लवणस्सणं समुदस्स केमहालए उदगमाले पण्णते? गोयमा! पचणुभवमाणस्स दुवालसवासाइ वीइक्वंताई / तेणं कालेणं दसजोयणसहस्साइं उदगमाले पण्णत्ते / / तेण समएणं थेरागमणं जियसत्तू राया धम्मं सोचा एवं जंणवरं भदन्त! लवणस्य समुद्रस्य किंप्रमाणा महत्या उदकमाला समपानीयोदेवाणुप्पिया सुबुद्धिं अमचं आमंतेमिजेहपुत्तं रजे ठवेमितएणं परिभूता षोडशयोजलसहस्रोच्छ्रया प्रज्ञाप्पा ? भगवानाहगौतम ! तुम्भे णं जाव पव्वयामि अहासुहं देवाणुप्पिया मापडिबंधं करेह।। दशयोजनसहस्राणि उदकमाला प्रज्ञप्ता। जी०३ प्रति०। Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदगरयण ५०२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय उदगरयण न०(उदकरत्न) उदकमेव रत्नमुदकरत्नम् / उदक-जातो, उ० / उत्पत्तौ,-विशे०) ज्योतिषोक्ते राशेरुदयरूपे लग्ने, आधारे अच् / उत्कृष्ट, "अम्मेहिं इमस्स वम्मियस्स पढमाए वम्माएभिण्णाए उल्ले "यैर्यत्र दृश्यते भास्यान् स तेषामुदयःस्मृतः" इत्युक्त लक्षणे उदगरयणे अस्सादिए" भ०१५ श०१ उ०|| रवेदृष्टियोग्यस्थाने, उदयाचले, पूर्वपर्वते, वाच० / कर्मपुद्गलानां उदगरसपुं०(उदकरस) जलरसे, तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता यथास्थितिबद्धानामबाधाकालक्षयेणापवर्तनविशे-षतो वा तं जहा कालोदे, पुक्खरोदे, सयंभूरमणे, स्था०३ ठा० 1 उ०.। उदयप्राप्तानामनुभवने, विपाकवेदने, क०प्र०। कर्म०। दश० प्रव०। "अप्पेगइयाउ उदगुस्सेणं पण्णत्ता" जं०१ वक्ष०॥ उदयावलिकाप्रविष्टानां कर्मपुद्गलानामुद्भूतसमर्थ-तायाम्, उदग(दग)लेव पुं०(उदकलेप) नावि प्रमाणजलावगाहने, "अंतो आ०म०प्र०। विपाके,-दश०१ अ०। मासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबलो" स०।दशा०। जललेपे, "बहु (1) प्रकृत्युदयः तत्र नानात्वं च। परियावण्णे पाणीसु उदगलेवे तहप्पगारे असणं जाव पडिगाहेज्जा'' (2) जघन्योत्कृष्टस्थित्युदयः। आचा०२ श्रु०१ अ०११ उ०। (3) अनुभागोदयः। उदगवत्थि स्त्री०(उदकवस्ति) जलभृद्भुतौ, जलाधारचर्ममयभाजने, (4) प्रदेशोदयनिरूपणावसरे साद्यनादिप्ररूपणास्वामित्वं / "उदगवत्थिं परामुसइ" ज्ञा०१८ अ०। (5) कस्मिन्गुणस्थाने कियत्यः प्रकृतयो भगवतः क्षीणाः। उदगवद्दलय न०(उदकवादलक) भाविरेणुसंतापोपशान्तये जलवर्षके (6) उदयहेतुः। वार्दसलके, आ०म० द्वि०। (1) तद्वक्तव्यता चैवं तत्र प्रकृत्युदयो यथाउदगविंदु पुं०(उदकविन्दु) जललवे, पंचा०४ विव०। उदओ उदीरणाए, तुल्लो मोत्तूण एकचत्तालं। उदगवेग पुं०(उदकवेग) उदकरये "तिक्खम्मि उदगवेगे विसमम्मि आवरणविग्घसंजलण-लोभवेए यदिहिदुगं॥३८८|| विजलम्मि वचंतो" व्य०प्र०१ उ०॥ आलिगमहिगं वेएति,आउग्गणं अप्पमत्तावि। उदगसंभारणिल न०(उदकसंभारणीय) बालकमुस्तादौ, उद- वेयणियाणि दुयदुसमय-तणुपज्जत्ता दायनिहाउ॥३८॥ कवासादौ,"हठ्ठतुढे बहुहिं उदगसंभारणिज्जेहिं, ज्ञा०१३ अ०) मणुयगइजाइतसवा-यरं च पञ्जत्तसुभगमापनं / / उदगसत्थन०(उदकशस्त्र) उदकंशस्त्रमदकमेव शस्त्रम्। अप्का यारक्षके जसकित्तिमुच्चगोत्तं-पंचाजोगिकेइ तित्थयारं॥३६०।। स्वकायपरकायशस्ने, आचा०१ श्रु०१ अ०३उ०। उदय उदीरणायाः तुल्यः किमुक्तं भवति उदीरणायाः प्रकृत्यादयः उदगसिहा स्त्री०(उदकशिखा) वेलयाम्, स्था० 10 ठा०। प्रागुक्ता या च साधनादिप्ररूपणा यच स्वामित्वमेतत् सर्वमन्यूउदग(दग)सीमय पुं० [उदक (दक)सीम] उदक (दक)स्य नातिरिक्तमुदयेऽपि द्रष्टव्यम् / उदयोदीरणयोः सहभावित्वात्। तथाहि शीताशीतोदपानीयस्य सीमा यत्रासौ उदक (दक) सीमः मनः यत्र उदयस्तत्रोदीरणा यत्र उदीरणा तत्रोदयः किं सर्वत्रा-प्येवमिति चेत् शिलाकस्य बेलन्धरनागराजस्यावासपर्वते,जी०३ प्रति० (तद्वक्तव्यता उच्यते। अत आह। मुक्त्वा एकचत्वारिंशत् प्रकृती-नामासामुदीरणावेलन्धरशब्देवक्ष्यते) मन्तरेणापि कियत् कालमुदयस्य प्राप्यमाणत्वात् / तथाहि उदग(दग)हारा स्त्री०(उदकधारा) उदकविन्दुप्रवाहे, ज्ञा०६ अ०/ ज्ञानावरणपञ्चकं दर्शनावरचतुष्टयान्तरपञ्चकसंज्वलनलोभवेदत्रयउदगुप्पीलास्त्री०(उदकोत्पीला) तडागादिषु जलसमूहे, ||भ०| ३श० सम्यक्त्वसमग्रमिथ्यात्वरूपा विंशतिः प्रकृतीः स्वस्वोदयपर्यवसाने आवलिकामा कालमधिकृत्य वेदयन्ति / उदीरणामन्तरेणाऽपि ६उ०॥ केवलेनोदयेनावलिकामानं कालमनुभवन्तीत्यर्थः // तचावलिकामानं उदग्ग त्रि०(उदग्र) उद्गतमगं यस्य / उन्मेत्त, स्था० 4 ठा० / / त्रयाणं वेदानां मिथ्यात्वस्य चान्तरकरणस्य प्रथमस्थितौ उन्नतपर्यवसाने, भ०२श०१ उ०। उत्त०। उत्कटे, उत्त०१४ अ01 आवलिकाशेषायाम्शेषाणां स्वस्वसत्तापर्यवसाने।तथा चतुर्णामप्यायुषां प्रधाने, "जहा से तिक्ख दाडे, उदग्गे दुप्प हंसए" सीहेमियाण पवरे एवं स्वस्वपर्यवसाने आवलिकामानं कालमुदय एव भवतीति नोदीरणा हवइ बहुस्सुए उत्त०१३ अ०। मनुष्यायुवेदनीययोर्वा प्रमत्ता-प्रमत्तसंयतप्रभृतय उदीरणामन्तरेणापि उदग्गचारित्ततव पुं०,स्त्री(उदग्रचारित्रतपस्) उदग्रं प्रधानेसा-ध्वाचार केवलेनैवोदयेन वेदयन्ते न तथा तनुपर्याप्ताः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्ताः सर्वविरतिलक्षणं दशविधरूपं चारित्रतपो द्वादशविधं यस्य स सन्तो द्वितीयस्य समयादारभ्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरसमयादारभ्य उदग्रचारित्रतपाः। प्रधानचारित्रतपस्के, "चित्तो विकानेहिं विरत्तकामो, इन्द्रियपर्याप्ति-चरमसमयं यावत् उदीरणामन्तरेणापि केवलेनैवोदयेन उदग्गचारित्ततवो महेसी, उत्त०१३ अ०॥ निद्राः पञ्चापि वेदयन्ते। तथा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याउदत्त पुं०(उदात्त) उद्-आ०दा०क्त, वर्णोत्पत्तिस्थानेषु उच्चैरुच्चा-रिते तसुभंगादेययशः कीयुबैर्गोत्ररूपाप नवप्रकृतियोगिके वलिन स्वरे, तद्युक्ते, त्रि०। "अविकत्थनः क्षमावानतिगम्भीरो महाबलः / उदीरणामन्तरेण स्वकालं यावत् केवलिनि नैवोदयेन वेदयन्ते / तथा स्थेयान् निगूढमानो, धीरो दात्तो दृढव्रतः कथितः" सा० द, उक्ते तनुपर्याप्ताः शरीरपर्याप्तापर्याप्ताः सन्तो द्वितीयस्य समया-दारभ्य (पूर्वपदलोपेन) नायकभेदे, वाच०। कर्तरिक्तः। उदारे अयं निजः परो शरीरपर्याप्त्यनन्तरसमयादारभ्य इन्द्रियपर्याप्तिचरमसमयं यावत् वेति, गणनां लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥षो० उदीरणामन्तरेणापि। क०प्र०। 14 विव०। महति, समर्थे, दातरि, च त्रि०। भावे क्त, दाने, वाद्यभेदे, होइ अणाइअणंतो, अणिसंतो धुवोदयाणुदओ। अलङ्कारभेदेच। वाच०1 साइसपनवसाणो, अधुवाणं तदयमिच्छस्स।। उदत्ताभ पुं०(उदात्ताभ) गौतमगोत्रविशेषभूते पुरुषे, तत्प्रवर्तिते गोत्रे, ईदृक् प्रकृतयो द्विधा तद्यथा ध्रुवोदया अध्रुवोदयाश्च / तत्र कर्मप्रतत्र जाते च। "ते उदात्ताभा" स्था०७ ठा०। कृतिका उदयचिन्ताया मप्यष्टपञ्चादशादधिकं प्रकृतीनां शतं मन्यते उदय पुं०(उदय) उद्० इ० अच् प्रादुर्भाव, आचा० 1 श्रु० 106 / अत ऊर्ध्व वा करणाष्टकपरिसमाप्तेः कर्मप्रकृतिभिः प्रायो व Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय ८०३-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय क्ष्यते। ततो ध्रुवोदयाः प्रकृतयोऽष्टचत्वारिंशत्संख्या वेदितव्यास्त-द्यथा ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनावरणचतुष्टयं मिथ्यात्वं वर्णादिविंशतिस्तैजसकार्मणसमकस्थिरास्थिरेषु शुभाशुभे अगुरुलघुनिर्माणमिति / एतासामष्टचत्वारिंशत्संख्या-कानां प्रकृतीनामुदयो द्विधा। तद्यथा अनाद्यनन्तः अनादिसपर्य--वसानस्तत्र अभव्याश्रितानां च ततः कदाचिदपि व्यवच्छेदासंभवात् भव्यानधिकृत्यानादिसपर्यवसानः तेषां मोक्षं प्रतिस्थिताना-मवश्यमुदयव्यवच्छेदसंभवात्। अधुवाणामध्रुवोदयानां प्रकृतीनामुक्तव्यतिरिक्तानां विंशोत्तरशतसंख्यानामुदयसादिपर्यवसानः अध्रुवोदयतः परावृत्त्य 2 तासामुदयभावात् न केवलमध्रुवोदया नामुदयः सादिसपर्यवसानः किन्तु मिथ्यात्वस्य च। तथाहिसम्यक्त्वात्प्रतिपतितमधिकृत्य मिथ्यात्वस्योदयः / सादिः पुनरपि सम्यक्त्वकल्पाभव्यवच्छेदादध्रुवः। तदेवं मिथ्यात्वस्योदयस्त्रिविध आवेदितस्तद्यआ-अनाद्यनन्तानादिसपर्यवसानः। एतौ च द्वावपि भङ्गो धुवोदयत्वात्तद्ग्रहणेन गृहीतौ तृतीयस्तु भेदाः सादिपर्यवसानलक्षणस्तदयमिच्छसेइत्यनेनावयवेन साक्षादुक्तइति पयडिठिइमाइया भेया, पुवुत्ता इहावि विनेया। उदीरणउदयाणं, जह नाणत्तं तयं वोच्छं। यथा-किल पूर्व बन्धविधौ प्रकृतिस्थित्यादयो भेदा उक्तास्तद्यथा प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धोऽनुभागबन्धः प्रदेशब-न्धश्च / तथा इहाप्युदयाधिकारे ज्ञेयास्तद्यथा प्रकृत्युदयः स्थित्यु-दयोऽनुभागोदयः प्रदेशोदयश्च / तत्राचार्यः स्वयमेवाग्रे सप्रपल्व-मुदीरणकरणं वक्ष्यति उदयोदीरणयोश्च प्रायः स्वामित्वं प्रत्यविशेषः सहभावित्वात्। तथाहियत्रोदयस्तत्रोदीरणा यत्रोदीरणा तत्रोदयः। ततो यथा प्रकृत्यादयो भेदा उदीरणाधिकारे वक्ष्यन्ते यच्च स्वामित्वं प्ररूपणादिकं तदेतत्सर्वमन्यूनानतिरिक्तमत्रापि भावनीयम् / यत्पुनानात्वं तदभिधित्सुराह (उदीरणेत्यादि) उदीरणोदययोः प्रकृत्यादिभेदविषये यतो नानात्वं तद्वक्ष्ये शेषं तदुदीरणावद्रष्टव्यमिति भावः। तत्र प्रकृतिभेदविषये नानात्वं दिदर्शयिषुर्गाथाद्वितयमाह। चरिमोदयपुव्वाणं, अजोगिकालं उदीरणा विरहे। देसूणं पुष्वकोडी, मनुयाउगवेयणीयाणं // तइयचिय पज्जत्ती, जातानिहाणहोइ य चउण्डं। उदओ आवलिअंते, तेवीसाए उसेसाणं // चरमोदयानां चरमे अयोगिकेवलिचरमसमये उदयो यासां नामप्रकृतीनां ताश्चरमोदयास्ताश्चेमा नव / तद्यथा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रिय जातित्रसनामबादरनामपर्याप्तनामसुभगनामादेययशः कीर्तिनामतीर्थकृतां च भगवतामयोगिकेवलिनां तीर्थनाम च / एतासां नवानां प्रकृतीनामुचैर्गोत्रस्य च अयोगिकालस्तावत् कालः यावत् उदीरणाविरहेऽपि उदीरणाया अलाभेऽप्युदय एव केवलः प्रवर्तते। तथा मनुष्यायुः सातवेदनीयमसातवेदनीयं चेत्येवंरूपाणां तिसृणां प्रकृतीनां प्रमत्तसंयतगुणस्थानकात्परतः शेषेषु गुणस्थानकेषु वर्तमानानामुत्कर्षतो देशानांपूर्वकोटी यावत् उदीरणामन्तरेण केवलउदयो भवति।सचोत्कर्षत इयान कालः सयोगिकेवलि-गुणस्थानके द्रष्टव्यः शेषस्य गुणस्थानकस्य सर्वस्याप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् / अथ कस्मात्सातासातवेदनीयमनुव्यायुषां प्रमत्तसंयतगुणस्थानकात्परत उदीरणा न प्रवर्तते / उच्यते अमीषां खुदीरणा संक्लिष्टाध्यवसायवशतः प्रवर्तते तथा स्वाभाव्यात् विशुद्धविशुद्धतराध्यवसायवर्तिनश्चाप्रमत्तसंयतादयस्ततस्तेषां वेदनीयद्विकमनुष्यायुषोरुदीरणाया अभावः / तथा शरीरपर्याप्त्यापर्याप्तानां सतां शरीरपर्याप्तिं पर्याप्त्यनन्तरसमयादारभ्य यावत्तृतीया पर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्ति परिसमाप्तिमुपैति तावत्पञ्चानामपि निद्राणां तथा स्वाभाव्यात् नोदीरणा प्रवर्तते किन्तूदय एवा केवलस्तथा शेषाणां ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरण-चतुष्टयान्तरायपञ्चकसंज्वलनलोभवेदत्रयसम्यक्त्वमिथ्यात्वनारकायुषस्तिर्यगायुर्देवायूरूपाणां त्रयोविंशतिप्रकृतीनामावलिकाः। ततोऽन्तर्भूतायामावलिकायामुदय एव केवलोदीरणा / तथाहिपञ्चानां ज्ञानावरणप्रकृतीनां चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणरूपस्य दर्शनावरणचतुष्टयस्य क्षीणकषायस्य पर्याप्तावलिकायां वर्तमानस्यावलिकायां प्रविष्टत्वान्नोदीरणेत्युदय एव केवलः / एषामेव संज्वलनलोभस्य सूक्ष्मसंपरायपर्यन्तावलिकायां मिथ्यात्वस्त्रीपुंनपुंसकवेदानामन्तरकरणे कृते प्रथमस्थित्यामावलिका शेषाणां नारकायुस्तिर्यगायुर्देवायुषां स्वस्वभवपर्यन्तावलिकायामुदय एव केवलो नोदीरणा / आवलिकान्तर्गतस्य कर्मणः सर्वस्याप्युदीरणा तदत्वयात् इहमनुष्यायुष उदीरणाविरहेऽप्युदयकालः प्रागेव देशोनपूर्वकोटीप्रमाणमुक्तस्ततो मनुष्यायुषो मिथ्यादृष्ट्यादीनां पर्यन्तावलिकायामुदीरणाविरहेऽपि य उदयकाल आवलिकामात्रः स तदन्तर्गत एव वेदितव्य इति पृथग्नोक्तः / पूर्वकोट्यभिधाने ह्यावलिकामानं तदेक देशतया भूतसामर्थ्यात् उक्तमवशेष शेषाणां तु प्रकृतीनां यावदुदयस्ताव-दुदीरणा यावदुदीरणा तावदुदय इतितदेव दर्शितः प्रकृत्युदये उदीरणातो विशेषः / संप्रत्यत्रैव मायादिप्ररूपणा कर्तव्या सा च द्विधा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च तां द्विविधामपि चिकीर्षुराह। मोहे चउहा तिविहे, वोससत्तण्डमूलपगईण। मिच्छत्तउदयऊहा, अधुवधुवाणं दुविहतिविहो।। मोहो मोहनीयस्य कर्मण उदयश्चतुर्धा चतुःप्रकारस्तद्यथा सादिरनादिरध्रुवो ध्रुवश्च / तथाहि-उपशान्तगुणस्थानका प्रतिपातिनो भवेत् सादिस्ततस्तत्स्थानमप्राप्तस्यानादिः / धुवा-धुवावभव्यभव्यापेक्षया, अवशेषाणां सप्तानां मूलप्रकृतीनामुदय-स्त्रिविधस्त्रिप्रकारस्तद्यथाऽनादिध्रुवोऽध्रुवश्च / तथाहि-ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामुदयः क्षीणमोहान्तसमयं यावत् वेदनीयनामगोत्रायुषा सयोगान्तसमयम् / न च क्षीणो भूयः प्रदूर्भवति ततः एतासां सप्तानामप्युदयोऽनादिर्भव्यानामधुवः क्षपक श्रेण्यामाहायथोक्तकाले तथा उदयव्यवच्छेभावादभव्यानां ध्रुवः कदाचिदपि व्यवच्छेदासंभवात्। कृता मूलप्रकृतिषु साद्यादिप्ररूपणा। सांप्रतमुत्तरप्रकृतिभूतां करोति। (मिच्छत्तुदउइत्यादि) मिथ्यात्वस्योदयश्चतुर्दा चतुष्प्रकारस्तद्यथा सादिरनादिधुवोऽधुवश्च / तत्र सम्यक्त्वात्प्रतिपतितस्य भवेत् सादिस्ततस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुंवाध्रुवावभव्यभव्यापेक्षया। तथा अध्रुवाणामध्रुवादेयानां प्रकृतीनामुदयो द्विविधो द्विप्रकारस्तद्यथा / सादिरध्रुवश्च / सा च साद्यध्रुवता अध्रुवोदयवद्भावनीया। तथा ध्रुवाणां ध्रुवोदयानां प्रकृतीनां प्रागुक्तस्वरूपाणां मिथ्यात्ववय॑शेषसमचत्वारिंशत्प्र-कृतीनामुदयस्विप्रकारस्तद्यथाअनादिधुवोध्रुवश्च तथाहि घातिधुवोदयानां प्रकृतीनां क्षीणमोहगुणस्थानकचरमसमयः यावदुदयानाम ध्रुवोदयानामयोग्यं न समयस्ततस्तत्स्थान-मप्राप्तानां सर्वेषामपि संसारजीवाना मुदयो ध्रुवोदयो नाम नादिधुवाध्रुवौ प्राग्वत्। उक्तः प्रकृत्युदयः / (2) सम्प्रति स्थित्युदयमाहउदयो ठिहक्खएणं, संपत्तीए सभावतो पढमो। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 804 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय सतितम्मिभाववीओ, पओगउदीरणा उदओ। इह उदयो द्विधा / तद्यथा स्थितिक्षयेण प्रयोगेण वा / तत्र स्थितिरबाध्यकालरूपा तस्याः क्षयेण इत्यक्षेत्राकालभवभावरूपाणा-- मुदयहेतूनामप्राप्तौ सत्यां यः स्वभावत उदयः स स्थितिक्षयेणो-दय उच्यते।यो पुनस्तस्मिन्नुदये प्रवर्तमाने सति प्रयोगत उदीरणाकरणरूपेण प्रयोगेण दलिकमाकृप्यानुभवति स द्वितीया उदीरणोदयाभिधान उच्यते / स च उदयसामान्यतो द्विधा / तद्यथाजधन्य उत्कृष्टश्च / तत्रोत्कृष्टस्थित्युदीरणादुत्कृष्टस्थित्युदयस्थि-त्याभ्यधिकस्तथा चाहउदीरणाजोग्गाणं, अइंदिहिइए य जोग्गो उ। हस्सुंदएगट्टिईणं, निहण्णा सगिलाणए। उदीरणायोग्यानामुत्कृष्टस्थितीला प्रकृतीनामुदीरणायोग्येभ्यः स्थितिभ्यः उदययोग्याः स्थितय एकया उदययोग्यया स्थित्या अभ्यधिका वेदितव्याः / तथा द्युत्कृष्टायां स्थितौ बध्यमानायामवधिकालेऽपि यावद्दलिकं प्ररूपयति तथा बन्धावलिकायामतीतायामनन्तरस्थितौ विपाकोदयेन वर्तमान उदयावलिकान्त उप रिवर्तिनीः सर्वा अपि स्थितीरुदीरयति उदीर्य च वेदयते ततो बन्धावलिकाहीनयो शेषयोः सर्वस्या अपि स्थितेरुदयोदीरणे तुल्ये वेद्यमानायां च स्थितौ उदीरणा न प्रवर्तते किन्तूदय एव केवलस्ततो वेद्यमानायां समयमात्रस्थितिभ्योऽधिका उत्कृष्टस्थित्युदीरणा / तत उत्कृष्टस्थित्युदयाबन्धावलिकोदयावलिकादीनाश्चानुत्कृष्ट-स्थित्युदय उदयोत्कृष्ट प्रधानप्रकृतीः वेदितव्याः / शेषाणां तु यथायोगं तत्राप्युक्तनीत्या उदयस्थित्याऽभ्यधिकोऽवगन्तव्यः / संप्रति जधन्यस्थित्युदये विशेषमाह / (हस्सुदएइत्यादि) प्रागुक्तानां मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशः कीर्तितीर्थकरनामोच्चैर्गोत्रायुश्चतुष्टयसातासातवेदनीयनिद्रापञ्चकज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयसंज्वलनलोभवेदत्रयसम्यक्त्वमिथ्यात्वरूपाणामेकचत्वारिंशत्संख्याकानां प्रकृतीनां निद्रापञ्चकोनानां सतीनां षट्त्रिंशत्संख्यानां ह्रस्वो जघन्यः स्थित्युदय एकस्थितिरवसेया। निद्रायांपुनरेकैकस्थितीनां समये वेदितव्यः। किमुक्तं भवति / उक्तरूपाणां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनां जघन्यः स्थित्युदयः समयमात्रैकस्थित्युदयप्रमाणो वेदितव्य इति / समयमात्रा चैका स्थितिश्चरमा स्थितिरवसेया। निद्रापञ्चकस्य खुदीरणाया अभावेऽपि शरीरपर्याप्त्यनन्तरं विपाकोदयकाले अपवर्तनाऽपि प्रवर्तते / तत एका स्थितिर्न प्राप्यते इति / तदर्जनशेषं तु सर्वमपि साद्यादिप्ररूपणादिक स्थित्युदीरणायामेव निरवशेष-मवगन्तव्यम्। उक्तः स्थित्युदयः।। (3) सम्प्रत्यनुभागोदयमाह। अणुभागुदओ वि उदीरणाए तुल्लो जहण्णए नवरं। आवलिगंतेन सम्मत्तं वेयखीणंतलोभाणं // अनुभागोदयोऽप्युदीरणायास्तुल्यो यथानुभागोदीरणा सप्रपञ्चमत्र वक्ष्यतेतथाऽनुभागोदयोऽपि वक्तव्य इति भावः / किं सर्वथा साम्यमिति चेदत आह / नवरमयं विशेषोऽजघन्यमनुभागो-दयं सम्यक्त्ववेदानां क्षीणान्तानां क्षीणमोहगुणस्थानकपर्यव-सानानां ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां चतुर्दशानां प्रकृतीनां संज्वलनलोभस्य च आवलिकान्ते जानीयात् / इयमत्र भावना / ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चक दर्शनावरणचतुष्टयवेदत्रयसंज्वलनलोभसम्यक्त्वरूपाणामेकोनविंशतिप्रकृतीनां स्वस्वपर्यवसानसमये उदीरणायाव्यवच्छेदे सति परत आवलिकां गत्वा आवलिकाचरमसमये जघन्यानुभागोदयस्य प्राप्यमाणत्वादिति / तदेवमुक्तोऽनुभागोदयः। पं०सं०। (4) संम्प्रति प्रदेशोदयाभिधानावसरस्तत्र चेमौ अर्थाधिकारौ-तद्यवा साधनादिप्ररूपणास्वामित्वं / साद्यनादिप्ररूपणा द्विविधा / मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च / तत्र मूलप्रकृतिविषय साधनादिप्ररूपणार्थमाह। अजहण्णाणुकोसा, चउव्विहा छिण्हचउव्विहा मोहे। आउस्स साइअधुवा, सेसविगप्पायसवेवि।।३९३|| मोहनीयायुर्वर्जानां षण्णां कर्मणामजधन्यः प्रदेशोऽयं चतुर्विधस्तद्यथा सादिरनादिधुवोऽध्रुवश्च / तथाहि कश्चित् क्षपितकम्शो देवलोके देवो जातः स च तत्र संक्लिष्टो भूत्वा उत्कृष्टां स्थिति बघ्नन् उत्कृष्टप्रदेशाग्रमुद्वर्त्तयति ततो बन्धावसाने कालं कृत्वा एकेन्द्रियेषु उत्पन्नस्तस्य प्रथमसमये प्रागुक्तानां षण्णां कर्मणां जघन्यप्रदेशोदयः। स चैकसामायिक इति कृत्वा सादिर-नादिधुवश्च / ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः सोऽपि तस्य द्वितीयसमये भवन् सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुंवाध्रुवौ पूर्ववत् / तथा तेषामेव षण्णां कर्मणामनुत्कृष्टः प्रदेशोदयस्विधा त्रिप्रकारस्तद्यथा अनादिधुंवोऽध्रुवश्च / तथाहि अमीषां षण्णां कर्मणामनुत्कृष्टः प्रदेशोदयः प्रागुक्तस्वरूपस्य गुणितकाशस्य स्वस्वोदयान्तगुण-श्रेणिविवर्तमानस्य प्राप्यते सचैकं सामायिक इति कृत्वा सादिरध्रुवश्च / ततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः स चानादिः सदैव भावात् / ध्रुवाध्रुवौ पूर्ववत् / तथा मोहे मोहनीये अजघन्योत्कृष्टश्च प्रदेशोदयश्चतुर्विधस्तद्यथा सादिरनादिधुवोऽधुवश्च / तथाहि- क्षपितकाशस्यान्तरकरणे कृते अन्तरकरणे पर्यन्तभाविगोपुच्छाकारसंस्थितावलिकामात्रदलिकान्तसमये मोहनीयस्य जघन्यप्रदेशोदयः / स चैकसामायिक इति कृत्वा सादिरध्रुवश्च / ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः सोऽपि ततो द्वितीयसमये भवन् सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादि ध्रुवाधुवौ पूर्ववत् / तथा गुणितकर्माशस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकान्तसमये उत्कृष्टप्रदेशोदयः। स चैक-सामायिक इति कृत्वा सादिरध्रुवश्च ततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः स चोपशमश्रेणीतः प्रतिपतितो भवन् सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुंवाध्रुवौ पूर्ववत् / आयुषि चत्वारोऽपि भेदा उत्कृष्टा जघन्यारूपाः साद्यधुवाः / चतुर्णामपि भेदानां यथायोगं नियत-कालं भावात् / तथा सर्वेषां कर्मणां प्रागुक्तानां षण्णां मोहनीयस्य उक्तशैषौ विकल्पौ उत्कृष्टजघन्यरूपौ साद्यध्रुवौ तौ च प्रागेव भावितौ कृता मूलप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणा। संप्रत्युत्तरप्रकृतीनां चिकीर्षुराह। अजहण्णाणुकोसो, सगयाला एगचउतिहाचउहा। मिच्छत्ते सेसाणं, दुविहा सव्वे य सेसाणं // 364|| तैजससप्तकवर्णादिविंशतिस्थिरास्थिरनिर्माणागुरुलघुशुभाशुभज्ञानावरणपश्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयरूपाणां सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनामजधन्यप्रदेशोदयश्चतुर्विधस्तद्यथार सादिरनादिध्रुवोऽध्रुवश्च / तथाहि-क्षपितकर्माशो देव उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमान उत्कृष्टा स्थिति बध्नन् उत्कृष्ट प्रदेशमुद्वर्तयति / ततो बन्धावसाने कालं कृत्वा एकेन्द्रियेषूत्पद्यते तस्य प्रथमसमये प्रागुक्तानां सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनां जघन्यप्रदेशोदयः / नवर-मधिकृत्य ज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोर्बन्धावलिकाचरमसमये देवस्य जधन्यप्रदेशोदये वेदितव्यः / सचैकसामायिक इति कृत्वा सादिरध्रुवश्व ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः / सच द्वितीयसमये भवन् सादिः / Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 805 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / ध्रुवाध्रुवौ पूर्ववत् / तथा अमूषा-मेव सप्तचत्वारिंशत् प्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः। स चैकसामा-यिक इति कृत्वासादिरध्रुवश्चततोऽन्य सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः सचाना-दिसदैव भावात्। धुवाधुवौ पूर्ववत् / तथा मिथ्यात्वे मिथ्यात्वस्य जघन्योऽनुत्कृष्टश्च प्रदेशोदयश्चतुर्विधः तद्यथा सादिरनादिधुवोऽधु-वश्च / तथाहिक्षपितकशिस्य प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतः कृतान्तरकरणस्य औपशमिकस्य सम्यक्त्वात्प्रच्युतस्य मिथ्यात्वं गतस्यान्तरकरणपर्यन्तभाविगोपुच्छाकारसंस्थितावलिकामात्र-दलिकान्त समये वर्तमानस्य जघन्यतः प्रदेशोदयः स चैकसामायिक इति कृत्वा सादिरध्रुवश्च ततोन्यः सर्वोप्यजघन्यः सोपि द्वितीयसमये भवन् सादिः वेदकसम्यक्त्वाद्वा प्रतिपतितः सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः ध्रुवाध्रुवौ पूर्ववत् / तथा कश्चिद्गुणितकर्माशो यदा देशविरतिगुणश्रेण्यां वर्तमानः सर्वविरतिं प्रतिपद्यते ततस्तन्निमित्तांगुणश्रेणिं करोतीति कृत्वा च तावगतो यावत् द्वयोर्गुणश्रेण्योर्मस्तके तदानीं च कश्चिन्मिथ्यात्वं गच्छति। ततस्तस्य मिथ्यात्वस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः स चैकसामायिक इति कृत्वासादिरधुवश्च ततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः सोऽपि ततोद्वितीयसमये भवन् सादिः वेदकसम्यक्त्वाद्वा प्रतिपतति सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः धुवाधुवौ पूर्ववत् / एतासां च सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनां मिथ्यात्वस्य च उक्तशेषौ विकल्पौ जधन्योत्कृष्टरूपौ द्विधा द्विप्र-कारौ तद्यथा सादी अध्रुवौ तौ च भावितावेव शेषाणामधुवोदयानां प्रकृतीनां दशोत्तरशतसंख्यानां सर्वेऽपि विकल्पा जघन्याजघन्यो-त्कृष्टानुत्कृष्टरूपा द्विधा ज्ञातव्याः तद्यथा सादयोऽध्रुवाश्च सा च साद्यधुवता च अध्रुवोदयत्वादवसेया कृता साद्यनादिप्ररूपणा। सम्प्रति स्वामित्वमप्यभिधानीयंतच द्विधा उत्कृष्टप्रदेशोदय-स्वामित्वं जघन्यप्रदेशोदयस्वामित्वं च / तत्रोत्कृष्टप्रदेशोदयस्वा-मित्वप्रतिपादनार्थं संभवतीति गुणश्रेणिः सर्वा अपि प्ररूपयति।। सम्मत्तुप्पासाविय, विरए संजोयणाविणासे य। दंसणमोहक्खवगे, कसायओ सामगुवसंते॥३६॥ खवगे य खीणमोहे, जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी। तदओतव्विवरीओ, कालो संखेजगुणसेढी॥३६६|| इह एकादशगुणश्रेणयः तद्यथा सम्यक्त्वोत्पादे प्रथमा, द्वितीया श्रावके देशविरततृतीया विरते सर्वविरते, प्रमत्ते चतुर्थी , संयोजना / नामनन्तानुबन्धना विसंयोजने पञ्चमी, दर्शनमोहनीयतृतीयक्षपणे षष्ठी, चारित्रमोहनीयोपशमके सप्तमी, उपशान्तमोहनीये अष्ट-मी, मोहनीयक्षपके नवमी, क्षीणमोहे दशमी, सयोगिके वलिनि अयोगिके वलिनित्वेकादशीति (असंखगुणसेढी उदयओत्ति) सर्वस्तोकसम्यक्त्वोत्पादगुणश्रेण्यां दलिकं ततोऽपि देशविरतिगुणश्रेण्यामसंख्येयगुणं ततोऽपि सर्वविरतिगुणश्रेण्यामसंख्यैयगुणमेवं तावद्वाच्यं यावदयोगिकेवलि गुणश्रेण्यां दलिकमसंख्येयगुणं तस्मात् प्रदेशोदयमप्याश्रित एता गुणश्रेणयो यथाक्रममसंख्येय गुणा वक्तव्याः (तव्विवरीओत्ति) सर्वास्वपि एतासुगुणश्रेणिषु कालस्तद्विपरीत उदयविपरीतः संख्येयगुणश्रेण्या तद्यथा अयोगिकेवलिगुणश्रेणिकालसंख्येयगुण एवं तावद्वाच्यं यावत् सम्यक्त्वोत्पादगुणश्रेणिकालः संख्येयः / गुणस्थापना एषा सम्यक्त्वोत्पादगुण-श्रेणिः / पुनर्यथोत्तरमसंख्येयगुणदलिकाकालतश्च संख्येयगुणाः उपरिष्टाच पृथक्त्वेन यथोत्तरं विशाला विशालतराः / अथोच्यते कथं दलिकं यथोत्तरमसंख्येयगुणं प्राप्यते उच्यते / सम्यक्त्वंयु-त्पादयन् / मिथ्यादृष्टिर्भवति ततस्तस्य स्तोकं गुणश्रेणिदलिकं सम्यक्त्वोत्पत्तौ सत्यां पुनः प्रागुक्तगुणश्रेण्यपेक्षया संख्येयगुणदलिका गुणश्रेणिः विशुद्धत्वात् ततोप सर्वविरतस्य गुणश्रेणिरसंख्येयगुणदलिका तस्यातिविशुद्धत्वात् / एवमुत्तरोत्तरविशुद्धप्रकर्षवशात् यथोक्तमसंख्येयगुणदलिका भावनीया / / संप्रति का गुणश्रेणिः कस्यां गतौ प्राप्यते इत्येतन्निरूपणार्थमाह। तिनविमपढममल्लिओ, मिच्छत्तगए वि होज अन्नभवे / / पगयं तु गुणियकम्मे, गुण सेढी सीसगाणुदये // 367|| आद्यास्तिस्रो गुणश्रेणयः सम्यक्त्वोत्पाददेशविरतिसर्वविरतिनि-मित्ता झटित्येव मिथ्यात्वं गतस्य अप्रशस्तेन चरममरणे झटित्येव मृतस्य अन्यभवे नारकादिरूपपराभवे किञ्चित्कालमुदयमाश्रित्य प्राप्यन्ते शेषास्तु गुणश्रेणय परभवनारकादिरूपे न प्राप्यन्ते नारकादिभवो हि अप्रशस्ते मरणे न प्राप्यते न च शेषासु गुणश्रेणिषु सतीष्वप्रशस्तमरणसंभवः किन्तु क्षीणास्वेव / तथा चोक्तम्। "झत्तिगुणाओ पडिए, मिच्छत्तगयम्मि आइमा तिन्नि / लब्भंति न सेसा साओ, जं हीणासु असुभमरणं" तथा प्रकृतमत्र उत्कृष्ट-प्रदेशोदयस्वामित्वे गुणितकम्माशेन गुणश्रेणिशिरसामुदये वर्तमानेन। आवरणविग्घमोहाणं, जिणोदइयाण वा वि नियगंते। लहुखवणाए ओहीणणो हिलद्धिस्स उक्कस्स // 39|| आवरणं पञ्चप्रकारं ज्ञानावरणं चतुःप्रकारं दर्शनावरणं (विग्धत्ति) पञ्चप्रकारमन्तरायमेतासां चतुर्दशप्रकृतीनां लघुक्षपणायां शीघ्रक्षपणायामर्थमभ्युद्यतस्य। द्विविधा हि क्षपणा लघुक्षपणा चिरक्षपणा च। तत्र योऽष्टवार्षिक एव सप्तमासाभ्यधिकं संयम प्रतिपन्नस्तत्प्रतिपत्त्यनन्तरं चान्तर्मुहूर्त्तन क्षपक श्रेणिमारभते तस्य या क्षपणा सा लधुक्षपणा। यत्तु प्रभूतेन कालेन संयमं प्रतिपद्यते संयमप्रतिपत्ति-रप्यूज़ प्रभूतेन कालेन क्षपकगुणश्रेणिमारभते तस्य या क्षपणा सा चिरक्षपणा तया च प्रभूताः पुद्गलाः परिसटन्ति स्तोका एव च शेषीभवन्ति ततो न तया उत्कृष्टः प्रदेशोदयो लभ्यते। उक्तं लघुक्षपणया अभ्युत्थितस्येति तस्या गुणितकशिस्य क्षीणमोह-गुणस्थानकं चरमसमये गुणश्रेणिशिरसि वर्तमानस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयो भवति नवरम् / (ओहीणणोहिलद्धिस्सति) अबध्योऽवधिज्ञानमुत्पादयतो बहवः पुद्रलाः परिक्षीयन्तो ततो नावधि-युक्तस्योत्कृष्ट प्रदेशोदयद्रव्यलाभ इत्यनवधिलब्धियुक्तस्येत्युक्तम्। तथा मोहानां मोहनीयानां प्रकृतीनां सम्यक्त्वसंज्वलनचतुष्टय-वेदनयाख्यातमष्टानां गुणितकाशस्य क्षपकस्य स्वस्वोदयचरम-समये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः / तथा जिने के वलिनि उदयो यासां ता जिनोदयकास्तासां मध्ये औदारिकसप्तकतैजससप्तकसंस्थानषट्कप्रथमसंहननवर्णादिविंशतिपराघातोपघातादिगुरुलघुविहायोगतिद्विकपर्याप्त प्रत्येक स्थिरास्थिरशुभाशुभनिर्माणरूपाणां द्विपञ्चाशत्प्रकृतीनां गुणितकाशस्यायोगिकेवलिगुणस्थानक-चरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः सुस्वरदुःस्वरनिरोधकालोच्छवासनाम्नः पुनरुच्छ्वासनिरोधकाले तथा अन्यतरवेदनीयमनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशः कीर्तितीर्थकरोच्चैर्गोत्राणां द्वादशप्रकृतीनां गुणितकाशस्यायोगिकेवलिनश्वरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशोदयः। उवसंतपढमगुणसेढीए, निहादुगस्स तस्सेव। यावइ सीसगमुवयंति, जाव देवस्स सुरनवगे॥३६६ उपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रेणीशिरसि वर्तमानस्य सुरनवकस्य वैक्रियसप्तकदेवद्विकरूपस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः। तथास्य वोपशान्तकषायस्यात्मीयप्रथमगुणश्रेणीशीर्षकोदयानन्तरसमये-- प्राप्यतीति तस्मिन् पाश्चात्यसमये जाते देवस्य ततः स्वप्रथमगु Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 806 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय णश्रेणीशिरसि वर्तमानस्य वैक्रि यसप्तकदेवद्विकरूपस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः। मिच्छत्ती मीसाणं-ताणुबंधअसमत्थीण गिट्ठीण। तिरिउदय गंताण य, विइया तइया य गुणसेढी / / 400|| इह केनचित् देशविरतेन सता देशविरतिप्रत्यया गुणश्रेणिः कृता ततः संयम प्रतिपन्नस्ततः संयमप्रत्यया गुणश्रेणिः कृता ततो यस्मिन्काले द्वयोरपि गुणश्रेण्योः शिरसि एकत्र मिलतः तस्तिन् काले वर्तमानो गुणितकाशः कश्चिन्मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते तस्य तदा मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः यदि पुनः सम्य-ग्मिथ्यात्वं प्रतिपन्नस्तर्हि 3 सम्यमिथ्यात्वस्य स्त्यानद्धित्रिकस्य पुनर्मिथ्यात्वं गतस्यागतस्य वा उत्कृष्टः प्रदेशोदयो वाच्यः / यदि स्त्यानद्धित्रिकस्य प्रमत्तस्य संयतेऽप्युदयः प्राप्यते तथा तिर्यक्षु इव उदय एकान्तेन यासां तास्तिर्यगुदयकान्ता एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियस्थावरसूक्ष्मसाधारणनामानस्तयोः पर्याप्तनाम्नश्च तिर्यग्भवप्राप्तौ सत्यां देशविरतिसर्वविरतिगुणश्रेणिशिरसोरेकत्र योगे वर्तमानस्य मिथ्यादृष्टः स्वस्वोदये वर्तमानस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः। अंतरकरणे करणं, होहित्ति जयदेवस्स तं मुहुत्तं तो।। अट्ठहकसायाणं, छण्हं पियनो कसायाणं / / 401 / / इह कश्चिदुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नोऽनन्तरसमये अन्तरकरणं भवि-व्यतीति तस्मिन् पाश्चात्यसमये कालं कृत्वा देवो जातः तस्य देवस्य उत्पत्त्यर्मुहूर्तात् परतोगुणश्रेणिशिरसोरेकत्र योगे वर्तमानस्य मिथ्यादृष्टः स्वस्वोदये वर्तमानस्योत्कृष्टः प्रदेशोदयः / इह कश्चित् उपशमश्रेणिं प्रतिपन्नोऽनन्तरसमये अन्तरकरणं भविष्यतीति एतस्मिन् पाश्चात्यसमये कालं कृत्वा देवो जातः तस्य देवस्य उत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तात्परतो गुणश्रेणिशिरसि वर्तमानस्यप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टके वेदत्रिकवर्जानां षण्णां नोकषायाणामुत्कृष्टः प्रदेशोदयः। हस्सठिई बंधित्ता, अट्ठा जोगाइठिइनिसग्गेणं / उकस्सपएपढमो-देयम्मि सुरनारगाऊणं / / 402|| अद्धा बन्धकालयोगमनोवाक्कायनिमित्तं वीर्यम्। आदिस्थितिः प्रथमा स्थितिः तस्यां दलिकनिक्षेपः आदिस्थितिदलिक निक्षेपः। एतेषामुत्कृष्टपदेसति किमुक्तं भवति उत्कृष्टन बन्धेन कालेन उत्कृष्ट योगे वर्तमानो ह्रस्वां जघन्यां स्थिति बध्वा प्रथमस्थितौ च दलिके निक्षेपस्तमुत्कृष्ट कृत्वा मृतः सन् देवो नारको जातः तस्य प्रथमोदये प्रथमस्थित्युदये वर्तमानस्य देवायुषो नारकस्य नारकायुषउत्कृष्टः प्रदेशोदयः। (अट्ठाजोगुत्ति) भोगभूमिषु तीर्यक्षु मनुष्येषु वा विषये कश्चित् तीर्यगायुः कश्चित् मनुष्यायुरुत्कृष्ट पल्योपमस्थितिकं बध्वा लघुशीघ्रंच मृत्वा त्रिपल्पोपमायुष्के तीर्यक्षु परो मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्तत्र च सर्वाल्पजीवितमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे वर्जयित्वा अन्तर्मुहूर्तकमपवृत्त्येत्यर्थः शेषमशेषमपि स्वस्वापवर्त्तनाकरणेनापवर्त्तयतस्ततोऽपवर्तमानानन्तरप्रथमसमयस्तयोस्तिर्यङ्मनुष्ययोर्यथासंख्यं तिर्यगपिमनुष्यायुषोरुत्कृष्टः प्रदेशोदयः। दूभगणाएजसगई, दुगअणुपुष्वित्थिसगनीयाणं। दंसणमोहे खवणे, देसविरइए व गुणसेढी॥४०३|| इहाविरतसम्यग्दृष्टिदर्शनमोहनीयत्रितयं क्षपयितुमभ्युद्यतो गुणश्रेणिं करोति / ततः स एव देशविरतिप्रतिपन्नस्ततः सर्वविरति-निमित्तां गुणश्रेणी करोति / तत्करणपरिसमाप्तौ सत्यां संक्लिष्टो भूत्वा पुनरप्यविरतो जातः तस्य तिसृणामपि गुणश्रेणीनां शिरसि वर्तमानस्य तस्मिन्नेव भवे स्थितस्य दुर्भगानादेयायशः कीर्तिनी-चैर्गोत्राणामुत्कृष्टप्रदेशोदयः / अथ तिर्यक्षु उत्पन्नस्तर्हि तस्य पूर्वोक्तानां तिर्यग्दिक्सहितानामुत्कृष्टप्रदेशोदयः मनुष्यो जातस्तर्हि मनुष्यानुपूर्वीसंहितानामिति। संघयणापंचगस्सय, वियादीतिनि होति गुणसेढी। आहारगउज्जो वा-गुत्तरतणु अप्पमत्तस्स।।४०४|| इह कश्चिन्मनुष्यो देशविरतिप्रतिपन्नस्ततः सदेशविरतिप्रत्ययां गुणश्रेणिं करोति / यतः स एव विशुद्धिप्रकर्षवशतः सर्वविरतिप्रति-पन्नस्ततः सर्वविरतिप्रत्ययां गुणश्रेणिं करोति / ततः स एव तथाविधशुद्धयशसोऽन्तानुबन्धिनां विसंयोजनायोत्थितस्ततस्तन्नि-मित्तां गुणश्रेणिं करोति। एवं द्वितीयादयस्तिस्रो गुणश्रेणयो भवन्ति ताश्च कृत्वा तांसा शिरसि सुवर्तमानस्य प्रथमसंहननवर्जानां पञ्चानां संहननाना यथायोग्यमुदयप्राप्तानामुत्कृष्टप्रदेशोदयः तथा उत्तरतनौ शरीरे आहारके वर्तमानस्याप्रमत्तभावं गतस्य प्रथमगुणश्रेणिशिरसि वर्तमानस्याहारकसप्तकाट्योस्तयोरुत्कृष्टः प्रदेशोदयः।। वेइंदियमावण्णो, कम्म काऊण तस्सिमं खिप्पं / आयावस्स उतचे, पढमसमयम्मि व वस॒तो / / 405 / / गुणितकर्माशः पञ्चेन्द्रियसमयग्दृष्टिर्जातः सम्यक्त्वनिमित्तां गुणश्रेणि कृतवान् / ततस्तस्यां गुणश्रेणितः प्रतिपतितो मिथ्यात्वं गत्वा द्वीन्द्रियमध्ये समुत्पन्नः तत्र च द्वीन्द्रियप्रायोग्यां स्थिति मुक्त्वा शेष सर्वमप्यपवर्त्तयति। ततोऽपि मृत्वा एकेन्द्रियो जातः। तत्र एकेन्द्रियसमां स्थितिं करोति शीघ्रमेव च शरीरपर्याप्तस्तस्य तद्वेदिन आतपवेदिनः खरबादरपृथिवीकायिकस्य शरीरपर्याप्त्यनन्तरप्रथमसमये आतपनाम्नः उत्कृष्टप्रदेशोदयः एकेन्द्रियो द्विन्द्रियस्थिति झटित्येव स्वयोग्यां करोति न त्रीन्द्रियादि स्थितिमिति द्वीन्द्रियग्रहणम् तदेवमुक्त उत्कृष्टप्रदेशोदयस्वामी। संप्रति जघन्यप्रदेशोदयस्वाम्यत्वमभिधीयते। पयगं तु खवियकम्मे, जहन्नदेवट्टिईभिन्नमुहत्ते॥ सेसे मिच्छत्तगतो, अतिकिलट्ठो कालयं तु खविगए।॥४०६|| एगेंदियगो पढमे, समये वमईसु पावरणे / / केवलदुगमणपज्जव-चक्खुअचक्खूण आवरणा ||407 / / जघन्यस्यामीति भावप्रधानोऽयं निर्देशः प्राकृतत्वाच्च ततः परस्याः सप्तम्या लुक् ततोऽयमर्थः / जघन्यप्रदेशोदयस्वामित्वे प्रकृतमधिकारः क्षपितकमांशेन सूत्रे चात्र सप्तमी तृतीयार्थे वदितव्या / तत्र कश्चित्क्षपितकाशो देवो जघन्यस्थितिर्दशवर्षसहस्रायुरुत्प-त्यनन्तरं मुहूर्ते गते सति सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तच्च सम्यक्त्वं दशव-र्षसहस्राणि देशोनानि यावत्परिपाल्य अन्तर्मुहूर्तावशेषे जीविते मिथ्यात्वं गतः स चातिसंक्लिष्टपरिणामो वक्ष्यमाणकर्मणामुत्कृ-ष्टस्थितिबन्धमारभते प्रभूतं दलिकं तदानीमुद्वर्तयति तायद्यावदन्तर्मुहूर्तम् / ततः संक्लिष्टपरिणाम एव कालं कृत्वा एकेन्द्रियो जातस्तस्य प्रथमसमये मतिज्ञानावरणके वलदर्शनावरणमनः पर्यवज्ञानावरणचक्षुआनावरणाचक्षुर्दर्शनावरणानां जघन्या प्रदेशोदीरणा स्तोका भवति यतस्तस्यानुभागोदीरणा बढी प्रवर्तते। यत्र चानुभागोदीरणा बढी तत्र स्तोका प्रदेशोदीरणा ततो "मिच्छत्तगतो अतिकिलट्ठो' इत्याधुक्तम्॥ ओहीण संजमाउ, देवत्तगए यस्य मिच्छत्तं / / उकोसं बंधठिई बंधे, विकट्टणा आलिगं गंतु // 408|| क्षपितका शः संयम प्रतिपन्नः समुत्पन्नावधिज्ञानदर्शनोऽप्रति Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 807- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय पतितावधिज्ञानदर्शन एव देवो जातस्तत्रचान्तर्मुहूर्त गते मिथ्या-त्वं प्रतिपन्नस्ततो मिथ्यात्वप्रत्ययेनोत्कृष्टां स्थिति बद्धकुमारभते प्रभूतं दलिकं विकर्षयति उद्वर्त्तयति इत्यर्थः। तत आवलिकां गत्वा अतिक्रम्य बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः अवध्योरवधिर्ज्ञानावरणाबधिदर्शनावरणावधिर्जघन्यः प्रदेशोदयः।। वेयणियंतरसोगा, चउहिय्व निद्दपलायस्स।। उकस्स ठिई बंधो, पडिभागा पवेइया नवरं / / 406 // द्वयोर्वेदनीययोः सातासातयोः पञ्चानामन्तरायाणां शोकारत्युचैर्गोत्राणां च जघन्यः प्रदेशोदयोऽवधिज्ञानावरणस्येव वेदितव्यो निद्राप्रचलयोरपि तथैव केवलमुत्कृष्टस्थिति बन्धात् प्रतिभग्नस्य प्रतिपतितस्य निद्राप्रचलयोरनुभवितुं लग्नस्य चेति द्रष्टव्यम् / उत्कृष्टस्थितिबन्धो हि अतिशयेन संक्लिष्टस्य भवति नचातिसं-क्लेशे वर्तमानस्य निद्रोदयसंभवस्तत उक्तमुत्कृष्टास्थितिबन्धात्प्रतिभग्नस्येति द्रष्टव्यम्॥ वरिसवरतिरियथावर, नीयंपि मइसमं नवरं। तिन्नि निहानिद्दा, इंदिय पङ्गुत्तिपढमसमयम्मि||१०|| वर्षवरो नपुंसकवेदस्ततो नपुंसकवेदतिर्यग्गतिस्थाक्रनीचैर्गोत्राणां जघन्यः प्रदेशोदयो मतिज्ञानावरणस्येवास्य निद्रानिद्रादयोऽपि तिस्रःप्रकृतयो जघन्यप्रदेशोदयविषये मतिज्ञानावरणवत् भावनीयाः / नवरमिन्द्रियपर्याप्त्यापर्याप्त्यप्रदेशप्रथमसमये इति द्रष्टव्यम् / ततोऽनन्तरसमये उदीरणायाः संभवने जधन्यप्रदेशोदयासंभवात्॥ दंसणमो तिविहे, उदीरणुदए य आलिगं गंतुं॥ सत्तण्ह एवमेवं, उवसमित्तागए देवे||४११|| क्षपितकर्माशे तस्य औपशमिकस्य सम्यग्दृष्ट रौपशमिकसम्यक्त्वात्प्रच्यवमानस्य अन्तरकरणेन स्थितेन द्वितीयस्थितेन सकाशात्सम्यक्त्वादीनां दलिकानि समाकृष्ययान्यन्तराणि चरमसमये आवलिकामात्रभागे गोपुच्छाकारसंस्थाने रचितानि। तद्यथा-प्रथमसयं प्रभूतं दलिकं द्वितीयसमये विशेषहीनं तेषामुदयो दीरणोदय उच्यते तस्मिन् उदीरणोदये आवलिकामानं गत्वा आवलिका यावचरमसमये विशेषहीनं तेषामुदयोदीरणा उदय उच्यते तस्मिन् उदीरणोदये आवलिकामात्रं गत्वा आवलिकामानं यावचरमसमये विशेषहीन समये सम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वानां स्वस्वोदययुक्तस्य जघन्यप्रदेशोदयः / तथानन्तानुबन्धिवर्जद्वादशकषायवेदपुरुषवेदहास्यरतिभयजुगुप्सारूपाः सप्तदश प्रकृतीरुपमशय्य देवलोकं गत्वा एवमेवेति उदीरणोदयचरमसमये तासां सप्तदशप्रकृतीनां जघन्यः प्रदेशोदयः / आसां हि सप्तदशोपशमय्य देवलोकं गतस्य एवमेवेति उदीरणानामपि प्रकृतीनामन्तरकरणं कृत्वा देवलोकं गतः सन् प्रथमसमये एव द्वितीयस्थितेः सकाशात् दलिकमाकृष्योदयसमयादारभ्य गोपुच्छाकारं विरचयति / तद्यथा उदयसमये प्रभूतं, द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये जघन्यप्रदेशोदयोलभ्यते।। चउरुवसम्मित्तपच्छा, संजोई यदीहकालसम्मत्ता।। मिच्छत्तगए आवलिगाए संयोजयणाणं तु॥१॥ चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य पश्चादन्तर्मुहूर्ते गते सति मिथ्यात्वं गतः ततोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययेनासंयोजनात् अनन्तानु-बन्धिनो बध्नाति ततः सम्यक्त्वंगतस्तच दीर्घकालं द्वात्रिंशत्सा-गरोपमाणांशतं यावदनुपालयन् समयसम्यक्त्वप्रभावतः प्रभूतान् पुद्रलान् अनन्तानुबन्धिनां संबन्धिनः प्रदेशसंक्रमतः परिसाटयति। ततः पुनरपि मिथ्यात्वं गतः मिथ्यात्वाप्रत्ययेन च भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति तस्या आवलिकाया बन्धानवलिकायाश्चरमसमये पूर्वबद्धानामनन्तानुबन्धिन्यः जघन्यः प्रदेशोदय आवलिकायाश्चरमसमये इत्युक्तं संसारे चैकजीवस्य चतुष्कृत्व एव मोहनीयस्योपशमनो भवति न पञ्चकृत्या इति चतुःकृत्वो ग्रहणम्। मोहोपशमनेन किं प्रयोजनमितिचेदुच्यते। इह मोहोपशमं कुर्वन् अप्रत्याख्यानादिकषायेण दलिकमन्यत्र गुणसंक्रमेण प्रभूते संक्रमयति ततः क्षीणमोहे शेषाणां तेषामनन्तानुबन्धिषु बन्धकाले स्तोकमेव संक्रमयति ततो मोहोपशमग्रहणम्। इत्थीए संजमभवे, सव्वनिरुद्धम्मिगंतु मिच्छत्तं। देवीए लहुमिच्छी, जेट्टठिई आलिगं गंतु // 413|| संयमेनोपलक्षितो भवः संयमभवस्तस्मिन् सर्वनिरुद्ध अन्तर्मु--- हूर्तावशेषे स्त्रिया मिथ्यात्वं गतायास्ततोनन्तरभवे देवीभूतायाः शीघ्रमेव पर्याप्ताया उत्कृष्टस्थितिबन्धानन्तरमावलिकां गत्वा आवलिकायाश्वरमसमये स्त्रीवेदस्य जघन्यः प्रदेशोदयः। इयमत्रभावना। क्षपितकर्माशा काचित् स्त्री देशोनां पूर्वकोटिं सावत्संय-ममनुपाल्य अन्तर्मुहूर्ते आयुषोऽवशेषेमिथ्यात्वं गत्वा अन्तरभवे देवी समुत्पन्नाशीघ्रमेव पर्याप्ता ततः उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमाना स्त्रीवेद-स्योत्कृष्टां स्थिति बध्नाति। पूर्वबद्धां च उद्वर्त्तयति तत उत्कृष्ट बन्धारम्भे परतः आवलिकायाश्चरमसमये तस्याः स्त्रीवेदस्य जघन्यः प्रदेशोदयो भवति। अप्पद्धां जोगचियाणं चउणुकस्सगढिईणं ते। उवरित्थोवनिसेगे, चिरंति वासाइ वेईणं॥४१४॥ अल्पया बन्धाद्धया अल्पेन च योगेन चितानां बद्धानां चतुर्णा-मप्यायुषां ज्येष्ठस्थितीनामुत्कृष्टस्थितीनामन्ते वासी अन्तिमे उपरि सर्वोपरितने समये सर्वस्तोकदलिकनिक्षेपे चिरकालं तीव्रा-सातवेदनया ह्यभिभूतानां क्षपितकर्माशानां तत्तदा£वदानां जघन्यप्रदेशोदयः तीव्रासातवेदनया ह्यभिभूतानां बहवः पुद्गलाः परिसटन्तीति कृत्वा तीव्रसातवेदग्रहणम्। संजोयणा वियोजिय, देवभवे जहन्नगे अइनिरुद्ध। बंधियउक्कस्स ठिई,गंतूणो गेंदिया सन्नी॥१५॥ सव्वलहुनरयगए, निरयगई तम्मि सव्वपज्जत्ते। पुण तेअणु पुट्विउ य गई, तुल्ला नेया भवाइम्मि / / 416|| संयोजनात् अनन्तानुबन्धिनो विसंयोगतः विसंयोजने हिशेषा-णामपि कर्मणांभूयांसो पुद्गलाः परिसटन्ति इति तदुपादानं ततो जघन्यदेवत्वं प्राप्तः / तत्र चाभिनिरुद्ध पश्चिमे अन्तर्मुहूर्ते प्रति-पन्नमिथ्यात्व एकेन्द्रियप्रायोग्यांप्रकृतीनामुत्कृष्टां स्थिति बध्वा सर्वसंक्लिष्ट एकेन्द्रियेषु उत्पन्नस्तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा असंज्ञिषु मध्ये समायातः। देवो हि मृत्वा नाऽसंज्ञिषु मध्ये समायातः गच्छतीति कृत्वा एकेन्द्रियग्रहणम् / ततो संज्ञिभवात् लघु शीघ्रं मृत्वा नारको जातः सर्वपर्याप्तिभिश्च शीघ्र पर्याप्तस्तस्मिन् सर्वपर्याप्ति पर्याप्त नारके नरकगतेजघन्यः प्रदेशोदयः / पर्याप्तस्य हि प्रभूताः प्रकृतयो विपाकोदयमायान्ति उदयमागताश्च स्तिबुकसं-क्रमेण न संक्रामन्ति तेन प्रकृत्यन्तरदलिकसंक्रमाभावाजघन्य-प्रदेशोदयः प्राप्यते इति "सव्वपज्जत्त" इत्युक्तम् / आनुपूर्व्यश्च-तस्रोऽपिगतितुल्या भवन्तिस्वस्वगतितुल्याज्ञेया ज्ञातव्याः केवलं भवादौ भवप्रथमसमये वेदितव्याः / तृतीयसमये अन्या अपि बन्धावलिकातीताः कर्मलता उदयमागच्छन्ति ततारे भवप्रथमसमयग्रहणम्! देवगई ओहि समा, उवरि उनो य वेयगो नाहे। आहारजाइअचिर, संजममणुपालिऊणं ते / / 417|| Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 808 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय देवगतौ अवधिसमा ज्ञानावरणसमा अवधिज्ञानावरणस्येति च देवगतेरपि जघन्यप्रदेशोदयो द्रष्टव्यः / किं कारणमिति चेदुच्यते यावदुद्योतस्योदयो न भवति तावदेवगतौ स्तिबुकसंक्रमो न भवति तत उद्योतवेदकग्रहणम्। उद्योतवेदकत्वं च पर्याप्तस्य भवति नापर्याप्तावस्थायां देवगतिर्जघन्यप्रदेशोदयः। तथायश्चिरंकालं देशोनपूर्वकोटिरूपं यावत्संयममनुपाल्य अन्तिमेकाले आहारकशरीरी जात उद्योतंच वेदयते तस्याहारकसप्तकस्याजघन्यप्रदेशोदयः चिरकालसमय-परिपालने हि भूयांसः कर्मपुद्गलाः परिसटिता भवन्तीति कृत्वा चिरकालं संयमग्रहणम्। उद्योतकरणग्रहणं प्रागुक्तमेवानुसतव्यम्॥४१७॥ सेसाणं चक्खुसम,तमिव अन्नम्मिवा भवे अचिरा। तजोगा बहुगीउ, पदेययं तस्स ता ताओ॥४१८|| उक्तशेषाणां प्रकृतीनां चक्षुःसमं चक्षुर्दर्शनावरणसमं वक्तव्यं तावत् यावदेकेन्द्रियोजातस्ततो येषां कर्मणां तस्मिन्नेवैकेन्द्रियभवे उदयो विद्यते तेषां तत्रैव जघन्यप्रेशोदयो वाच्यः / येषां तु कर्मणामनुजगतिद्वीन्द्रियादिजातिचतुष्टयाद्यसंस्थानपञ्चकौदारिकाङ्गापाङ्गसं-- हननषट्कविहायोगतिद्विकत्रससुभगसुस्वरदुःस्वरादिरूपाणां न तत्रोदयसंभवस्तमेकेन्द्रियभवादुद्वृत्य तत्तदुदयायोग्येषु भवेषु उत्पन्नस्य तास्तास्तद्भवयोग्या बह्वीः प्रकृतीवेदनीयमानस्य तद्भ-वयोग्यबहुप्रकृतिवेदनं च पर्याप्तस्योपपद्यते ततः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तस्य जघन्यप्रदेशोदयः। पर्याप्तस्याप्रभूताः बद्धाः प्रकृतय : उदयमागच्छन्ति उदयप्राप्तानां च प्रकृतीनां स्तिबुकसंक्रमो न भवति तथा च सति विवक्षितप्रकृतीनां जघन्यप्रदेशोदयो ज्ञेयः परतो गुणश्रेणीदलिकं प्रभूतमवाप्यते इति स न भवति। क०प्र०। पं०सं०। (5) साम्प्रतमुदयस्य प्रायस्तत्समानत्वाद् दीरणायाश्च लक्षणकथनपूर्वकं कस्मिन् गुणस्थाने कियन्त्यः प्रकृतयस्तस्य भगवतः क्षीणा इत्येतन्निर्दिदिक्षुराह॥ उदओ विवागवो अण-मुदीरणा अपत्ति इह दुवीससयं / सत्तरससएमिच्छे, मीससम्मआहारजिणणुदया।।१३।। इह कर्मपुगलानां यथा स्वस्थितिबद्धानामुदयसमयप्राप्तानां यद्विपाके नानुभवनेन वेदनं स उदय उच्यते (उदीरणाअपत्तित्ति) कर्मापुद्गलानां यथा स्वस्थितिबद्धानां यदप्राप्तकाले वेदनमुदीर-णा भण्यते (इहत्ति) इहोदये उदीरणायां च (दुवीससयंति) द्विवि-शच्छतं द्वाभ्यामधिकविंशं शतं द्विविंशशतं मयूरव्यंसकादित्वात्स-- मासस्तत्सामान्यतोऽधिक्रियते इति शेषः / सप्तदशशतमिच्छन्ति मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने उदये भवति / कथमित्याह (मीससम्मआहारजिणणुदयंत्ति) मिश्रं च (सम्मित्ति) सम्यक्त्वं च (आहारत्ति) इहाहारकशब्देन सर्वत्राहारकशरीर आहारकाङ्गोपाङ्ग लक्षणमाहारकद्विकं गृह्यते ततः आहारकं च (जिणत्ति) जिननाम च मिश्रसम्यक्त्वाहारजिनास्तेषामनुदयात् / इदमत्र हृदयं मिश्रोदयस्तावत्सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान एव भवति सम्यक्त्वोदयस्त्वविरतिसम्यग्दृष्ट्यादौ आहारकद्विकोदयः प्रमत्तादौ, जिननामोदयः सयोगिकेवल्यादौ, भवति / ततइदं प्रकृतिपञ्चकं द्वाविंशतिशतादपनीयते ततो मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने सप्तदशशतं भवतीति // 13 // सुहुमतिगायवमिच्छं, मिच्छंतसासणेइगारसयं / / निरयाणुपुट्विणुदया, उण थावरइगविगलअंतो॥१४॥ सूक्ष्मत्रिकं सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणरूपम् आतपं च मिथ्यात्वं च | सूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वं मिथ्यात्वे मिथ्यादृष्टावन्तो यस्य / तन्मिथ्यात्वान्त एतत्प्रकृतिपञ्चकस्य मिथ्यात्वेऽन्तो भवतीत्यर्थः / अयमत्राशयः / सूक्ष्मनाम्नः उदयसूक्ष्मैकेन्द्रियेषु, अपर्यान्तनाम्नः सर्वेष्वपि अपर्याप्तकेषु , साधारणनाम्नोऽनन्तवनस्पतिषु, आतपनामोदयेषु, बादरपृथिवीकायिकेषु एव नचैतेषु स्थितो जीवः सास्वादनादित्व लभतेनापि पूर्वप्रतिपन्नस्तेषूत्पद्यते सास्वादनस्तुयद्यपि बादरपर्याप्तैकेन्द्रियेषूत्पद्यते तथापि न तस्यातपनामो-दयस्तत्रोत्पन्नमात्रस्यासमाप्तशरीरस्यैव सासादनत्वगमनात् समाप्ते च शरीरे तत्रातपनामोदयो भवति मिथ्यात्वोदयः पुनर्मिथ्यादृष्टावेव तेनैतासां पञ्चप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावुदयस्यान्तस्त-दिदं प्रकृतिपञ्चकं पूर्वोक्तं सप्तदशशतादपनीयते शेष द्वादशशतं सास्वादने उदयं प्रतीत्य भवति। नरकानुपूर्व्यपनयनेच एकादशशतं भवतीत्येतदेवाह। "सासणे इगारसयं नरयाणुपुटिवणुदयत्ति' सास्वादति एकादशशतमुदये भवति नरकानुपूर्व्यनुदयात्नरकानुपूर्व्या उदयो हि नरके वक्रेण गच्छतो जीवस्य भवति / न च सास्वादनो नरक गच्छति यदुक्तं वृहत्कर्मस्तवभाष्ये "नरयाणुपु-व्वियाए, सासण समम्मि होइ नहु उदओ। नरयम्मि जन गच्छइ, अवणिज्जइतेण सा तस्स॥"ततोनरकानुपूर्वी मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्नसूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वलक्षण प्रकृतिपञ्चकं च सप्तदशशतादपनीयते शेषं सास्वादने एकादशशतं भवतीति (2) (अणथावरइगविगलअंतुत्ति) (अणत्ति) अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः / स्थावरनामा (इगत्ति) एकेन्द्रियजातिर्विकलाः पञ्चेन्द्रियजात्यपेक्षया असंपूर्णद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातय इत्यर्थः / इत्येतासां नवानां प्रकृतीनां सास्वादनेऽन्त उदयमाश्रित्य भवति / इयमत्र भावना / अनन्ताऽनुबन्धिनामुदये हि सम्यक्त्वलाभ एव न भवति / यदाहु: श्रीभद्रबाहु स्वामिपादाः "पढमिल्लुयाण उदये, नियमा संजोयणा कसायाण। सम्भईसण- लंभ, भवसिद्धीया वि न लहति'' नापि सम्यग्मिथ्यात्वं कोऽप्यनन्तानुबन्ध्युदये गच्छति योऽपि पूर्वप्रतिपन्नसम्यक्त्वोऽनन्तानुबन्धिनामुदयं करोति सोऽपि सास्वादन एव भवतीत्युत्तरेप्वासामुदयाभावः / स्थावर एकेन्द्रियजातिविकलेन्द्रियजातयस्तु यथास्वमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियवेद्या एव उत्तरगुणस्थानानितु संज्ञिपञ्चे-न्द्रिय एव प्रतिपद्यन्ते पूर्वप्रतिपन्नोऽपि पञ्चेन्द्रियेष्वेव गच्छतीत्युत्तरेष्वासामुदयाभाव इति॥ मीसे सयमणुपुव्वी-णुदयामीसोदएण मीसंतो। चउसयमजए समाणु पुविखेवावि अकसाया / / 15 / / मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ शतमुदये भवति-कथमित्याह / (अणुपुव्वीणुदयत्ति) इहानुपुवीं शब्देन नरानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्वीदेवानुपूर्वीलक्षणा आनुपूर्वीत्रयी गृह्यते तस्या अनुदयान्मिश्रोदयेन च / अयमत्र भावः / नरकानुपूर्वी तावदुदयमाश्रित्य सास्वादने व्यवच्छिन्ना / इह सा न गृह्यते शेषमानुपूवींत्रिकं मिश्रदृष्ट!देति तस्य मरणाभावात्। "नसम्ममीसो कुणइ कालमिति" वचनात् मिश्रप्रकृतिः पुनरत्रोदये प्राप्यते।ततः सास्वादनव्यवच्छिन्न प्रकृतिनवकर्मानुपूर्वीत्रिकं च पूर्वोक्तैकादशशतादपनीयते शेषातिष्ठति प्रकृतीनां नवनवतिः। तत्र मिश्रप्रकृतिप्रक्षेपं जात शतमिति (मीसंतुत्ति) मिश्रगुणस्थाने मिश्रप्रकृतेरन्तो भवति / एतदुदये हि मिश्रदृष्टिरेव भवति नान्य इति (3) (चउसयमजए समाणुपुस्विखिवत्ति) चतुर्भिरधिकं शत चतुः शतमुदये भवति क्वेत्याह / अयते अविरतिसम्यग्दृष्टौ कथमित्याह। (सम्मत्ति) सम्यक्त्वम् (अणुपुस्वित्ति) आनुपूय॑श्वतस्रः तासां क्षेपात्प्रक्षेपात् / इदमुक्तं भवति पूर्वोक्तशतान्मिश्रगुणस्थान Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 806 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदय व्यवच्छिन्नैका मिश्रप्रकृतिरपनीयते शेषा नवनवतिस्तत्र सम्यक्त्यानुपूर्वीचतुष्कलक्षणं प्रकृतिपञ्चकं क्षिप्यते जातं चतुःशतं यतः सम्यक्त्वमत्र गुण उदयत एव तथा विरतसम्यग्दृशां यथास्वं चतस्रोऽप्यानुपूर्व्य इति (वितियकसायत्ति) द्वितीयकषाया अप्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः। मणुतिरिणुपुट्विविउवट्ठ, दुहगअणाइजदुगसत्तरस छेओ। सत्तासीइदेसितिरिगइ, आउनिउज्जोय तिकसाया॥१६|| (मणुतिरिणुपुटिवत्ति) आनुपूर्वी शब्दस्य प्रत्येक योजनान्मनुजानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी (विउव्वट्ठत्ति) वैक्रियाष्टकं वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्ग देवानुपूर्वीदेवायुर्नरकगतिर्नरकानुपूर्वीनरकायुर्लक्षणं दुर्भगमनादेयद्विकम् / अनादेयायशोकीर्तिरूपमित्ये-तासां सप्तदशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टावुदयं प्रतीत्य छेदो भवति ततः इमाः सप्तदश प्रकृतयः पूर्वोक्तचतुःशतादपनीयन्तेशेषाः (सगसीइदेसित्ति) (5) सप्ताशीतिर्देशविरते उदये भवति। इदमत्र तात्पर्यम्। द्वितीयकषायोदयेहि देशविरतेर्लोभ आगमे निषिद्धः / यदागमः "बीयकसायाणुदये, अप्पचक्खाणवरण / नामधिज्जाणं / सम्मइंसणलंभं, विरयाविरयं न उ लहंति" नापि पूर्वप्रपन्नदेश-विरत्यादेर्जीवस्य तदुदयसंभवस्तेनोत्तरेषु तदुदयाभावः मनुजानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्योस्तु परभवादिसमयेषु त्रिष्वपान्तरालगतावुदयसंभवः / स च यथायोगं मनुजतिरश्चां वर्षाष्टकादुपरिष्टात्संभविषु देशविरत्यादिषु गुणस्थानेषु न संभवति / देवत्रिकं नारकत्रिकं च देवनारकवेद्यमेव / न च तेषु देशविरत्यादेः संभवः वैक्रियशरीरवै-क्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोस्तु देवनारकेषूदयः। तिर्यग्मनुष्येषु तु प्राचुर्ये --णाविरतसम्यग्दृष्टयन्तेषु / यस्तूत्तरगुणस्थानेष्वपि केषांचिदागमे विष्णुकुमारस्थूलभद्रादीनां वैक्रियद्विकस्थादयः श्रूयतेस प्रविरलतरत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वोचार्यंण विवक्षित इत्यस्माभिरपि नेह विवक्षित इति दुर्भगमनादेयद्विकमित्येतास्तु तिस्रः प्रकृतयो देशविरत्यादिषु गुणप्रत्ययान्नोदयन्त इत्येता अविरतिव्यवच्छिन्ना इति (तिरिगइआउत्ति) तिर्यक्शब्दस्य प्रत्येकं योगात् तिर्यग्गतितिर्यगायुः (निउज्जोयत्ति) नीचैर्गोत्रमुद्योतं वा (तिकसा यत्ति) तृतीयः कषायः त्रिकषायः मयूरव्यंसकादित्वात्पूरणप्रत्य-यलोपी समासः / प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः (6) अट्ठच्छेओ इगसी, पमत्तिआहारजुगलपक्खेवा। थीणतिगहारदुग, छेओछसयरिअपमत्ते / / 17 / / पूर्वोक्ताष्टप्रकृतीनां देशविरतेः उदयमाश्रित्य छेदो भवति ततः प्रमत्त एकाशीतिर्भवति आहारकयुगलप्रक्षेपात् / इदमत्र हृदयम् / तिर्यग्गतितिर्यगायुषी तिर्यग्वेद्य एव तेषुचदेशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि घटन्ते नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः / नीचैर्गोत्रं तु तिर्यग्गतिस्वाभाव्यात् ध्रुवौदयिकं न परावर्त्तते ततश्च देशविरतस्यापि तिरश्चो नीचैर्गोत्रोदयोस्त्येव मनुजेषु पुनः सर्वस्य देशविरतादेर्गुणिनो गुणप्रत्ययादुचैर्गोत्रः मेवोदेतीत्युत्र नीचे र्गोत्रोदयाभावः / उद्योतनामस्वभावतस्तिर्यग्वेद्यं तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः / यद्यपि यतिवैक्रियेप्युद्योतनामो देति "उत्तरदेहि च देवजई इति वचनात्' तथापि स्वल्पत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचार्यैर्न विवक्षितं तृतीयकषायोदये हि चारित्रजात एव न भवति / उक्त च पूज्यैः "तइयकसाया-णुदए, पञ्चक्खाणा- | वरणनामधिजाणं / देसिक्कदेसविरई चरित्तलंभं न उ लहेंति " न च पूर्वप्रतिपन्नचारित्रस्य तदुदयसंभव इत्युत्तरेषु तदुदयाभावः। इत्येता अष्टौ प्रकृतयः पूर्वोक्तसप्ताशीतेरपनीयन्ते शेषा एकोनाशीति : / तत आहारक युगलं क्षिप्यते यतः प्रमत्तयतिराहारकयुगलस्योदयो भवतीत्येकाशीतिः / (थीणतिगत्ति) स्त्यानर्द्धित्रिकं निद्रा 2 प्रचला 2 स्त्यानर्द्धिरूपमाहारकद्विक-माहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमिति (7) प्रकृतिपञ्चकस्य प्रमत्ते छेदो भवति / ततः पूर्वोक्तैकाशीतेरिदं प्रकृतिपञ्चकमपनीयते / शेषाः षट् सप्ततिरप्रमत्ते उदये भवति अत्रायमाशयः / स्त्यानद्धित्रिकोदयः प्रमादरूपत्वादप्रमत्ते न संभवति आहारकद्विकं च विकुर्वाणो यतिरौत्सुक्यादवश्यं प्रमादवशगो भवत्यत इदमप्यप्रमत्ते उदयमाश्रित्य न जाघटीति / यत्पुनरिदमन्यत्र श्रूयते प्रमत्तयति-राहारकं विकृत्य पश्चाद्विशुद्धिवशात्तत्रस्थ एवाप्रमत्ततां यातीति तत्के नापि स्वल्पत्वादिना कारणेन पूर्वाचान विवक्षितमित्यस्माभिरपि न विवक्षितमिति / / 17 / / समत्तंतिमसंघयण-तियगच्छेओ विसत्तरि अपुटवे। हासाइछकअंतो, विसट्ठि अनियट्टि वेयतिगं|१८|| सम्यक्त्वमन्तिमसंहननत्रिक मर्द्धनाराचसं हननकीलिकासंहननसेवार्त्तसंहननरूपमित्येतत्प्रकृतिचतुष्टयस्याप्रमत्ते छेदो भवति। तत इदं प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोक्तषट्सप्ततेरपनीयते शेषा द्वासप्ततिः (अपुट्वित्ति) अपूर्वकरणे उदये भवतीति। अयमत्राशयः सम्यक्त्वे क्षपिते उपशमिते वा श्रेणिद्वयमारुह्यते इत्यपूर्वकरणादौ तदुदयाभावः / अन्तिमसंहननत्रयोदयेतु श्रेणिरारोढुमेव न शक्यते तथाविधशुद्धेरभावादित्युत्तरेषु तदुदयाभावः (9) (हासाइछक्क-अंतुत्ति) हास्यमादौ यस्य षट्कस्य तत् हास्यादिषट्कं हास्यर-त्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यं तस्यान्तोऽपूर्वकरणे भवति संक्लि-टतरपरिणामत्वादेतस्य उत्तरेषां च विशुद्धतरपरिणामत्त्वात्तेषां तदुदयाभाव इति उत्तरेष्वप्ययमुदयव्यवच्छेदहेतुरनुसरणीयः / तत इदं प्रकृतिषट्कं पूर्वोक्तद्विसप्ततेरपनीयते शेषाः / (10) (छसहि-अनियट्टित्ति) षट्षष्टिरनिवृत्तिबादरे भवति / उदयमाश्रित्येति शेषः। (वेयतिग) वेदत्रिकं स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकयेदाख्यम्। संजलणतिगं छ छेओ, सट्ठिसुहम्मि तुरियलोभंतो। उवसंतगुणे गुणसट्टि, रिसहनारायदुगअंतो ||19|| संज्वलनत्रिक संज्वलनक्रोधमानमायारूपमित्येतासां षण्णां प्रकृतिनामनिवृत्तिबादरे छेदो भवति तत्र स्त्रियाः श्रेणिमारोहन्त्याः स्त्रीवेदस्य प्रथममुदयच्छेः ततः क्रमेण पुंवेदस्य नपुंसकवेदस्य संज्वलनत्रयस्य च पुंसस्तु श्रेणिमारोहतः प्रथम पुंवेदस्योदयच्छे दस्ततः क्रमेण स्त्रीवेदस्य षण्ढवेदस्य संज्वलनत्रयस्य। षण्ढस्य तु श्रेणिमारोहतः प्रथमं षण्ढवेदस्योदयच्छेदः ततः स्त्रीवेदस्य पुंवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चैतत्प्रकृतिषट्कं पूर्वोक्तषट्षष्टरपनीयते शेषाः (सट्ठिसुहमम्मित्ति) षष्टिः सूक्ष्मा संपराये उदये भवति (11) अत्र चतुर्यलोभान्तश्चतुर्थीलोभान्तः संज्वलनलोभव्यवच्छेद इत्यर्थः / तत इयमेका प्रकृतिः षष्टिरपनीयते शेषा उपशान्तगुणे उपशान्तमोहगुणस्थाने एकोनषष्टिरुदये भवति / (रिसहनारायदुग अंतुत्ति) ऋषभनाराचद्विकं ऋषभनाराचसंहनननाराचसंहननाख्यं तस्यामुपशान्तगुणे भवति प्रथमसंहननेनैव क्षपक श्रेण्यारोहणात् इति क्षीणमोहादौ तदुदयाभावः। उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणा-रुह्यते तत इदं प्रकृतिद्वयं पूर्वोक्तैकोनषष्टरपनीयते शेषाः (12) Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय 810- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदयण सत्तावन्नखीणदुचरिमि, निहदुगंतोअचरमिपणपन्ना। काययोगिनामेव तेन हि योगेन पुद्गलग्रहणपरि-णामालम्बनानि ततस्तेषु नाणंतरायदंसण, चउछेओ सजोगिबायाला|२०|| गृहीतेष्वेतेषां कर्मणां स्वस्वविपाकेनोदयो भवति / तेनायोगिकेवलिनि सप्तपञ्चाशत् (खीणत्ति) क्षीणमोहस्य (दुचरिमित्ति) द्विचरमसमये तद्योगाभावात्तदुदयाभावः इत्यतस्त्रिंशत्प्रकृतयः पूर्वोक्तद्विचत्वारिंशतोऽचरमसमयाद द्वितीये समये निद्राद्विकस्य निद्राप्रचनाख्यस्य पनीयन्ते ततः शेषा द्वादश प्रकृतयोऽयोगिके वलिन्युदयमाश्रित्य क्षीणद्विचरमसमयेन्त इत्येतप्रकृतिद्वयं पूर्वोक्तसप्तपञ्चाशतोऽप-नीयते भवन्तीत्येतदेवाह (वारस अजोगीत्यादि) द्वादश प्रकृतयो ततः (चरमित्ति) चरमसमये क्षीणमोहस्येति शेषः (पणपन्नत्ति) ऽयोगिकेवलिनि चरमसमयान्ताश्चरमसमये योगिकेवनिगुणस्थानस्यान्तो पञ्चपञ्चाशदुदये भवति / इदमुक्तं भवति निद्राप्रचलयोः क्षीणमोहस्य व्यवच्छेदो यासां ताश्चरमसमयान्तास्ता एवाह सुभगमादेयम् (जसत्ति) द्विचरमसमये उदयच्छेदः अपरे पुनराहुः उपशान्तमोहे निद्राप्रचलयो यशः कीर्तिनाम अन्यतरवेदनीयं सयोगिकेवलिचरमसमयव्यवरुदयच्छेदः / पञ्चानामपि निद्राणां घोलनापरिणामे भवत्युदयः / च्छिन्नोद्वरितं वेदनीयमित्यर्थः / क्षपकाणां त्वतिविशुद्धत्वान्न निद्रो-दयसंभवः / उपशमकानां तसतिगपणिंदिमणुया-उगइजिणुचंति चरमसमयंता॥ पुनरनतिविशुद्धत्वात्स्यादपीति (नाण-तरायदंसणचउत्ति) ज्ञाना (तसतिगंति) त्रसत्रिकं त्रसबादरपर्याप्ताख्यं (पणिं दित्ति) वरणपञ्चकं मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानावरणरूपमन्त- पञ्चेन्द्रियजातिः (मणुआउगइत्ति) मनुजशब्दस्य प्रत्येकं योगारायपशकं दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाख्यं दर्शनचतुष्कं न्मनुजायुः (जिणत्ति) जिननाम (उचंति) उचैर्गोत्रमिति शब्दो चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणलक्षण-मित्येतासां क्षीणमोहचरमसमये द्वादशप्रकृति परिसमाप्तिद्योतक इति। कर्म०२ क०। पं० सं० एकस्मिन् छेदो भवति। गुणस्थानेषु, (उदयसत्तास्थानयोजनागुणट्ठाणशब्दे / बन्धोदयसत्ता(१३) तदनन्तरं क्षीणमोहत्वादित्येतत्प्रकृतिचतुर्दशकं पूर्वोक्त स्थानचिन्ता तत्संवेधश्च कम्भशब्दे / ये परिषहा यत्कर्मोदयनिमित्ताः पञ्चपञ्चाशतोऽपनीयते शेषैकचत्वारिंशत्तीर्थकरनामोदयाच तत्प्रक्षेपे इत्यादि परिसह शब्दे ! मारणान्तिक उदयसोढव्य इति वेयणा शब्दे) द्वाचत्वारिंशत्सयोगिकेवलिनि भवतीत्येतदेवाह। (सजो-गिबायालत्ति) (6) उदयहेतुं प्रदर्शयति स्पष्टम्।। दव्वं खेत्तं कालो, भवो य भावो य हेयवो पंच। तित्थुदयाउरला थिर-खगइदुगपरित्ततिगछसंठाणा।। हेउसमासेणुदओ,जायइसव्वाणपवईणं॥ अगुरुलधुवण्णचउनिमिण-तेअकम्माइसंघयण // 21 // ईदृक् सर्वासा प्रकृतीनां सामान्यतः पञ्च उदयहेतवस्तद्यथा द्रव्यं क्षेत्र ननु पञ्चपञ्चाशतो ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनच- कालो भवो भावश्च / तत्र द्रव्यं कर्मपुद्गलरूपं यदि चाबाह्यं किमपि तुष्कलक्षणप्रकृतिचतुर्दशकापनयत एकचत्वारिंशदेव भवति ततः तथाविधमुदयप्रादुर्भावनिमित्तं यद्वा श्रूयमाणं दुर्भाषितकथमुक्तं सयोगिनि द्विचत्वारिंशदित्याशङ्कयाह (तित्थुदयत्ति) भावापुद्गलद्रव्यक्रोधोदयस्य क्षेत्रमाकाशं भावः समयादिरूपो भवो तीर्थोदयात्तीर्थकरनामोदयादित्यर्थः / यतः सयोग्यादौ तीर्थकर मनुष्यादिभवः / भावो जीवस्य परितापविशेषः। एतेचनैकैकशउदयहेतवः नामोदयो भवति यदुक्तम् "उदएजस्ससुरासुर-नरवइनिवहेहिं पूइओ किन्तु समुदितास्तथा वा हेतुसमासेन उक्तस्वरूपाणां द्रव्यादीनां हेतुना होइ / तं तित्थयरं नाम, तसुविवागो हु के वलिणो" ततः समासेन समुदायेन जायतेसर्वासांप्रकृतीनामु-दयः केवलं कापि इत्यादि पूर्वोक्तैकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम क्षिप्यते। जाता द्विचत्वारिंश-त्सा च सामग्री कस्याश्चित्प्रकृतेरुदयहेतुरिति-नहेतुत्वव्यभिचारः / उक्ता सयोगिनि भवतीति। (उरला थिरखगइदुग त्ति) द्विकशब्दस्य प्रत्येक उदयहेतवः। पं०सं०। योगात् औदारिकद्विकमौदारिकशरीर औदा-रिकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् / उदयगामिणी स्त्री०(उदयगामिनी) उदयं सूर्योदयं गच्छति मुहूर्तादिना अस्थिरद्विकमस्थिराशुभाख्यम् / खगतिद्विकं शुभविहायोगत्य- व्याप्नोति गम्-णिनि-डीप-सूर्योदयावधिमुहूर्तादि-कालव्यापिन्यां शुभविहायोगतिरूपं (परित्ततिगत्ति) प्रत्येकत्रिकं प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् / तिथौ, कर्माऽनुष्ठाने उदयकाले, कियन्मानस्य ग्राह्य ता / तन्निर्णयो (छसंठाणत्ति) षट्संस्थानानि समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवा- वैष्णवानां कालमाधवे ग्रन्थे। वाच०। मनकुब्जहुण्डस्व-रूपाणि संस्थानशब्दस्य च पुंस्त्वं प्राकृतलक्षणत्वात् उदयजिण पुं०(उदयजिन) भविष्यति सप्तमे तीर्थकरे, स च पूर्वभवे यदाह / पाणिनिः स्वप्राकुतलक्षणे लिङ्ग व्यभिचार्यपि (अगुरुलघुवन्न- शङ्खनामा श्रावकः सप्तममुदयजिनं वन्देजीवंच शङ्खनाम्नः श्रावकस्य / चउत्ति) चतुः शब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् अगुरुलघुचतुष्कमगुरु- प्रव०४६ द्वा०। लघूपघातपराघातोच्छ्वासाख्यं वर्णचतुष्कं वर्णगन्धरसस्पर्शरूपं उदयट्ठाण न०(उदयस्थान) उदयप्रकारे, 1 पं० सं०। (बन्धोदयसत्ता (निमिणत्ति) निर्माणम् / (तेयत्ति) तैजसशरीरम् / (कम्मत्ति) आश्रित्य उदयस्थानेषु भङ्गाः कम्मशब्दे) कार्मणशरीरम् / (आइसंहननं ति) प्रथमसंहननं वज्रऋषभनारा- उदयट्ठि(ण) त्रि०(उदयार्थिन) लाभार्थिनि, ''पण्णं जहा वणिए चसंहननमित्यर्थः॥ उदयट्ठि, आयस्स हेउं पगरेंति संग" सूत्र०२ श्रु०६ अ०। दूसरसूसरसाया, साएगयरं च तीसवुच्छेओ। उदयण न०(उदयन) उद्-इ-भावे-ल्युट्-उदये, समाप्तौ च / बारस अजोगिसुभगा-इज जसन्नयरवेयणिअं|२१|| अगस्त्यमुनौ, कुसुमाञ्जलिप्रभृतिग्रन्थकारके स्वनामख्याते आचार्ये दुःस्वरं सुस्वरं सातं च सुखमसातं च दुःखं सातासाते तयोरेक | च / वाच० / उदनोऽप्याह / नापि प्रतिपक्षसाधनमनिवर्त्य प्रथमस्य तरमन्यतरत्सातं वा असातं वेत्यर्थः / ततः एतासां त्रिंशतः प्रकृतीनां साधनत्वावस्थितिशङ्कितप्रतिपक्षत्वादिति। र०।मुमुक्षुकर्मव्यापारतन्त्रं सयोगिकेवलिन्युदयव्यवच्छेदः / तत्रैकतरवेदनीयं यदयोगिकेवलिनि तत्वज्ञानवृत्ति नवेति विप्रतिपत्तिविधिको-टिरुदयनाचार्याणाम् / न० / वेदयितव्यं तत्सयोगिकेवलियरेमसमये व्युच्छि-नोदयं भवति (14) वीणावत्सराजे, उत्त०३अ०। पुनरुत्तरत्रोदयाभावात् दुःख रसुस्वरनाम्नोस्तुभाषापुद्गलविपाकित्वा (तत्कथा चैवम्।) द्वाग्योगिनामेवोदयः शेषाणां पुनः शरीरपु-गलविपाकित्वात् | जइणं मंते ! पंचमस्स अज्झयणस्स उक्खेवओ एवं खलु Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयण 811 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदयसंठिइ जं तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंवीणामंणयरीहोत्था। रिद्ध घातोच्छ्वासोद्योतविहायोगतयो गुरुलधुतैजसकार्मणनिर्माणोप३ बाहिं चंदोत्तरणे उज्जाणे सेयभद्दे जक्खे तत्थ णं कोसंवी य घातवर्णादिचतुष्कानि स्थिरादिषट्क सादिचतुष्कमसातवेदनीयं णयरीए सयाणिए णामं राया होत्था महया हिमवंत तस्स णं नीचैर्गोत्रं षोडशकषायमिथ्यात्वं ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं सयाणीयस्स रण्णो मियावतीए देवीए अत्तए उदयणे णामं कुमारे दर्शनावरणचतुष्टयमित्येताः षष्टिः प्रकृतयः उदयबन्धोत्कृष्टाः / होत्था। अहीणजुवराया तस्सणं उदयणस्स कुमारस्सपउमावई एतासामुदयप्राप्तानां स्वबन्धनत उत्कृष्टा स्थितिरवाप्यते तत एता णामं देवी होत्था विपा०५ अ०। उदयबन्धोत्कृष्टाभिधेयाः। पं०सं०॥ (उदयनस्य सोमदत्तपुरोहितसुतबृहस्पतिदत्तं पद्मावत्यां स्व- | उदयवई स्त्री०(उदयावती) कर्मप्रकृतिभेदे, तत्स्वरूपं च भार्यायामासक्तं दृष्ट्वा तद्विघातनं तच्च वहप्फइदत्त शब्दे) गब्धर्ववि- "चरमसमयम्मिदलियं, जासिं अन्नत्थसंकमेताउ!अनुदयवइ इयरीओ, द्याप्रगुणे चण्डप्रद्योतभूभूजः पुत्र्या वासवदत्तायाः शिक्षके, आ०का उदयवइ होति पगईओ" इति अनुदयवतिकृप्रतिभ्यः इतराः प्रकृतय आव०। आ०चू० (सेणियशब्दे तत्कथानकम्।यौगन्धरायणसेणियशब्दे उदयवत्यो भवति। पं० सं०॥. तद्विवृतिः) सिन्धुसौवीराधिपतौ च / तद्वृत्तले शोऽयम् / यासांदलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते संप्रति ता एवोदय-वती: सिन्धुसौबीरदेशाधिपतिर्दशमुकुटबद्धभूपसेव्यउदयनराजो विद्युन्मा- प्रकृतीरभिधातुकाम आह। लिसमर्पितश्रीवीरप्रतिमार्चनागतनीरोगीभूतगन्धारश्राद्धार्पितगुटिका- नाणंतरायआउग-दंसणचउवेयणीयमपुमिच्छा। भक्षणतो जाताद्भुतरूपायाः सुवर्णगुलिकाया देवाधिदेवप्रतिमायुताया चरिमुदयउचवेयग-उदेयवई चरिमलोभो य॥ अपहरिं मालवदेशभूपसेव्यं चण्डप्रद्योतराजं देवाधिदेवप्रतिमाप्रत्या ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकमायुश्चतुष्टयं दर्शनचतुष्टयं नयनोत्पन्नसंग्रामे बद्धा पश्चादागच्छन्दशपुरे वर्षासुतस्थौ।वार्षिकपर्वणि सातासातवेदनीये स्त्रीनपुंसकवेदौ चरमोदयान्यमन वकरूपास्ताचस्वयमुपवासं चक्रे। भूपादिष्टसूपकारेण भोजनार्थ पृष्टनचण्डप्रद्योतेन श्चेमाः। मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिवसनामबादरनाम पर्याप्तकनाम विषभिया श्राद्धस्य ममाप्यद्योपवास इति प्रोक्ते धूर्तसाधर्मिकेs शुभनामसुस्वरनामादेयनामतीर्थकरनाम तथा उच्चैर्गोत्रं वेदकसम्यक्त्वं प्यस्मिन्नक्षमिते मम प्रतिक्रमणं न शुध्यतीति तत्सर्वस्वप्रदानतस्तद्भाले चरमलोभः संज्वलनलोभः इत्येताश्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतय उदयवत्यममदासीपतिरित्यक्षराच्छादनाय स्वमुकुटपट्टदानतश्च श्रीउदयन-राजेन स्तथाहि-ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्श-नावरणचतुष्टयरूपाणा श्रीचण्डप्रद्योतः क्षमितोऽत्र श्रीउदयनराजस्यैवाराधकत्वम् / कल्प० चतुर्दशप्रकृतीनां क्षीणकषायान्त्यसमये चरमोदयानां च नाम उदयगामिनि, त्रि०। स्था०५ ठा०। वेदकलक्षणानां सातासातवेदनीययोरुच्चैर्गोत्रस्य च सर्वसंख्यया उदयणसत्त पुं०(उदयनसत्व) उदयनमुदयगामि प्रवर्त्तमानं सत्वं यस्य द्वादशप्रकृतीनामयोगिके वलि चरमसमये संज्वलनलोभस्य स तथा। तथाविधे पुरुषजातभेदे, स्था०५ ठा०॥ सूक्ष्मसंपरायान्त्यसमये वेदकसम्यक्त्वस्य स्वक्षपणपर्यवसानसमये उदयत्थमण न०(उदयास्तमन) उदयवेलायामस्तवेलायां च / स्त्रीनपुंसकवेदयोः क्षपकश्रेण्यामनिवृत्ति-बादरसंपरायद्वयोः संख्येयेषु "उदयत्थमणेसुमुहत्तसुहदसणं" कल्प०| भागेष्वतिक्रान्तेषु तदुदयान्तसमये आयुषां च स्वस्वनवचरमसमये उदयधम्म पुं०(उदयधर्मन्) धर्मकल्पद्रुमकारके आगमगच्छीये स्ववेदनमस्ति तत एता उदयवत्योऽभिधीयन्ते / यद्यपि आचार्ये, जै०३०। सातासातवेदनीययोः स्त्रीनपुंसकवेदयोश्चानुदयवतीत्वमपि संभवति उदयपत्त त्रि०(उदयप्राप्त) उदिते, प्रश्न० सं०५ द्वा०। तथापि प्रधानमेव गुणमवलम्ब्य सत्पुरूषा व्यपदेशं प्रयच्छन्तीति उदयवत्यः पूर्वपुरूषैरुपदिष्टाः। पं०सं०३द्वा०। उदयप्पभसूरि पुं०(उदयप्रभसूरि) नागेन्द्रगच्छीये स्वनामख्याते सूरिभेदे, "प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमत्र, यत्किञ्चिदुक्तं मतिमान्द्य उदयवल्लभ पुं०(उदयवल्लभ) विक्रमराज्यात् अष्टाविंशत्यधिदोषात् / मात्सर्यमुत्सार्य तदार्यचित्ताः, प्रसादमाधाय विशोधयन्तु। 4 / कचतुर्दशशते (1428) वर्षे जाते श्रीपालकयानामग्रन्थकृतो उयामेष सुधाभुजां गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारणो, यत्रेयं लब्धिसागरस्य गुरौ। जै०इ०।। प्रतिभासरादनुमितिर्निर्दभमुज्जृम्भते। किंचामी विबुधाःसुधेतिवचनोगारं उदयरयणगणि पुं०(उदयरत्नगणिन्) स्वनामके मुनिसिंहसूरेः शिष्ये, यदीयं मुदा, शसन्ति प्रथयन्ति तामतितमां संवादमेदस्विनीम् / / अनेन विक्रमराज्यात् अष्टाविंशत्यधिकचतुर्दशशते (1428) वर्षे नागेन्द्रगच्छगोविन्दवक्षोऽलङ्कारकौस्तुभाः / ते रत्नशेखरसूरिकृतश्रीपालचरित्रस्य प्रथमादर्शो लिखितः / जै०इ०। विश्ववन्द्यानद्यास्तुरुदयप्रभसूरयः / अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1220 उदयवीरगणि पुं०(उदयवीरगणिन्) तपागच्छीये संधवीरगणिनोवर्षात् 1277 पर्यन्तं विद्यमान आसीत् / विजयसेनसूरेश्यं शिष्यः ऽन्तेवासिनि, / जै०३०१ वीरधवलमहाराजाऽमात्यवस्तुपालस्य मान्य आसीत् आरम्भसिद्धि- | उदयसंकमुक्किट्ठा स्त्री०(उदयसंक्रमोत्कृष्टा) कर्मप्रकृतिभेदे, यासां धर्माभ्युदयग्रन्थौ व्यरीरचत्। द्वितीयोऽप्येतन्नामा रविप्रभसूरेः शिष्यः। विपाकोदये प्रवर्तमाने सति संक्रमत उत्कृष्टस्थितिसत्कर्म लभ्यते न नेमिचन्द्रसूरिकृतप्रवचनोद्धारस्योपरिवि-षमपदव्याख्यानाम्नी टीका बन्धतस्ता उदयसक्रमोत्कृष्टाः। पं० सं०३ द्वा०।। कृतवानिति / जै० इ०। उदयसंठिइ पुं०(उदयसंस्थिति) सूर्यादरुदयविधौ, चं०प्र०८ पाहु०। उदयबंधु किट्ठा स्त्री०(उदयबन्धोत्कृष्टा) कर्मप्रकृतिभेदे, यासां सू०प्र०। (सूर्यस्य उदयविधौ विप्रतिपत्तिप्रदर्शनपूर्वकसिद्धान्तो यथाप्रकृतिविपाकोदये सति बन्धादुत्कृष्टं स्थितिकर्मावाप्यते ता उदय-- ता कधं ते उदयसंठिती आहितेति वदेज्जा तत्थ खलु बन्धोत्कृष्टसंज्ञाः / पं०सं० / "उदउक्कोसापएणाऊ" अनायुष इमाओ तिण्णि पडिवत्तिओ पण्णत्ताओ तत्थेगे एवमाहंसु ता आयुश्चतुष्टयरहिताः पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियट्रिकहुण्डसंस्थानपरा- जदाणं जंबूदीवे 2 दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तता Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठिइ 812- अमिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उदयसंठिइ णं उत्तरले वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जता णं उ तरड्डे / अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तताणं दाहिणड्डे वि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति।जदाणं जर्बुद्दीवे 2 दाहिणड्डे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवति तयाणं उत्तरड्डे वि सत्तरस मुहुत्ते दिवसे भवति। जया णं उत्तरले सत्तरस मुहुत्ते दिवसे भवति तदाणं दाहिणले विसत्तरस मुहुत्ते दिवसे भवति / एवं परिहावेतव्वं सोलसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे चोडस मुहुत्ते दिवसे भवति तेरसमुहुत्ते दिवसे जाव ता जता णं जंबूदीवे 2 दाहिणड्डेबारसमुहुत्ते दिवसे तया णं उत्तरडेवि बारसुहुत्ते दिवसे भवति / जता णं उत्तरले वारसमुहुत्ते दिवसे भवति तताणं दाहिणड्डे विबारसमुहुत्ते दिवसे भवति ।तता णं जुबंदीवे 2 मंदस्स पव्वयस्स पुरस्थिमं पचच्छिमेणं सत्तपण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति सदा पण्णरस मुहुत्ता राई भवति अवहिताणं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु जता णं जंबूदीवे 2 दाहिणड्डे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तयाणं उत्तरडे वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्डेअट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तता णं दाहिणड्डे वि अट्ठारसमुहुताणतरे दिवसे भवति / जया णं उत्तरड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तता णं दाहिणड़े वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति एवं परिहावंतव्वं सत्तरस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति सोलसमुहुत्ताणंतरे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति एवं परिहावेतव्वं चोद्दसमुहुत्ताणंतरे जाव।। (ता कधंत इत्यादि) ता इति पूर्ववत् कथं के प्रकारेण सूर्यस्थ उदयसंस्थितिस्ते त्वया भगवन्नाख्याता इति वदेत् एवमुक्ते सति भगवानेतद्विषया यावत्यः प्रतिपत्तयः तावतीरुपदर्शयति।(तत्थे-त्यादि) तत्र तस्यामुदयसंस्थितौ विषये तिस्रः प्रतिपत्तयः परतीर्थिकाभ्युपगमरूपा प्रज्ञप्तास्तद्यथा तत्र तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एक प्रथमा परतीर्थिका एवमाहुः (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा णमिति वाक्यालंकारे अस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धपि अष्टादशमुहूर्ता दिवसः / तदेवं दक्षिणार्द्धनियमेनोत्तरार्द्धनियम उक्तः / संप्रति उत्तरार्द्धनियमेन दक्षिणार्द्धनियमनमाह (ताजयाणमिदि) तच यदा उत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा दक्षिणार्द्धपि अष्टादशमुहूर्तो दिवसः (ताजयाणमित्यादि) यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध सप्त-दशमुहूर्तों दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि सप्तदशमुहुर्तो दिवसो भवति यदा चोत्तरार्द्धसप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा दक्षिणा-ऽपि सप्तदश मुहुर्तो दिवसः (एवं इत्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण एकैकमुहूर्तहान्यापरिहातव्यम् परिहानिमेव क्रमेण दर्शयति। प्रथमत उक्त प्रकारेण षोडशमुहूर्तो दिवसो वक्तव्यः तदनन्तरं पञ्चदशमुहूर्तस्ततश्चतुर्दशमुहूर्तस्ततस्त्रयोदशमुहूर्तः सूत्रपाठेऽपि प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयः। सचैवं "जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे सोलसमुहूत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरड्डे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ जयाणं उत्तरड्डे वि सोलसमुहूत्ते दिवसे भवइ | तयाणं दाहिणड्डे वि सोलसमुहूत्ते दिवसे भवइ'' इत्यादि द्वादशमुहूर्तदिवसप्रतिपादकसूत्रं साक्षादाह(ता जयाणमित्यादि) ता इति तत्र यदा जम्बूद्वीपे/दक्षिणार्द्ध द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि द्वादशमुहूर्तो दिवसः यदा उत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्तो दिवसस्तदा दक्षिणा?ऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः। तदा अष्टादशमुहूर्त्तादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे 2 मन्दरस्य पर्वतस्यपूर्वस्यामपरस्यां च दिशि सदासर्वकालं पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति सदैव पञ्चदशमुहूर्तो रात्रिः। कुत इत्याह / अवस्थितानि सकलकालमेकप्रमाणानि णमिति वाक्यालंकारे तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां दिशि रात्रिं दिवानि प्रज्ञप्तानि हेश्रमण! हे आयुष्मन् ! एतच्च प्रथमानां परतीथिकानां मूलभूतं स्यशिष्यं प्रत्यामन्त्रणं वाक्यम्। अत्रैवोपसंहारमाह / (एगे एवमाहंसु) एके पुनरेवमाहुः यदा जम्बूद्वीपे दक्षिणस्मिन्नर्द्ध अष्टादशमुहूर्तानन्तरोऽष्टादशभ्योमुहूर्तेभ्योऽनन्तरो मनाक् हीनो हीनतरो वा यावत्सप्तदशभ्यो मुहूर्तेभ्यः किंचित्समधिक एव प्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽप्यष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति यदा घोत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणार्द्धऽपि अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसः / यदा जम्बूद्वीपे दक्षिणार्द्ध सप्तदशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धपि सप्तदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः यदा उत्तरार्द्धसप्तदशानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणार्द्धऽपि सप्तदशमुहूर्तानन्तरो दिवसः (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारणे एकैकमुहूर्तहान्या परिहातव्यं परिहानिप्रकारमेवाह (सोलसेत्यादि) प्रथमतः षोडशमुहूर्तानन्तरो दिवसो वक्तव्यः / ततः पञ्चदशमुहूनिन्तरस्तदनन्तरं चतुर्दशमुहूर्तानन्तरस्ततस्त्रयोदशमुहूर्तान-न्तरः एतेषां हि मतेन न कदाचनापि परिपूर्णमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति ततः सर्वत्रानन्तरशब्दप्रयोगः। द्वादशमुहूर्तानन्तरं सूत्रं तु साक्षादर्शयति॥ ता जयाणं जंबुद्दीवेरदाहिणड्डे बारसमुहूत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं उतरड्डे वि बारसमुहत्ताणंतरेदिवसे भवति जता णं उत्तरड्डे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तया णं दाहिणड्डेवि बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वतस्स पुरथिमपञ्चच्छिमेणं णो सदापण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति णो सदापण्णरसमुहुत्ता राई भवति अणवट्ठिताणं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमाहंसु 2 ता जदा णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवत्ति तदाणं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवति / जया णं उत्तरडे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं दाहिणड्डे बारसमुहुत्ता राई भवति ता जया णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरड्डे बारसमुहुत्ता राई भवइ। जताणं उत्तरड्डे अट्ठारसमुहुत्ता-णंतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणड्डे बारसमुहुत्ता राई भवति / एवं णितवं सगले हिय अणंतरेहि य एक्के के दो दो आलावका सव्वेहिं दुवालसमुहुत्ता राई भवति जाव ता जता णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणड्डे बारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ताराई भवति जयाणं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं दाहिणड्डे दुवालसमुहुत्ता राई भवति / तता णं Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठिह 813 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदयसंठिइ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपचच्छिमेणं णेवत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति। एवत्थिपण्णरसमुहुत्ता राई भवति वोच्छिण्णाणं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता समणाउसो एगे एवमाहंसु ३वयं पुण एवं वदामो ताजंबुद्दीवे 2 सूरियाउदीणपाईणमुवगच्छंति पाईण दाहिणमागच्छंति पाईण दाहिणमुपगच्छंति दाहिणपडिणमागच्छंति दाहीणपडीणमुग्गच्छंति पडीणमुदीणमागच्छंति पडीणउदीणमुपगच्छंति उदीणपाईणमागच्छंति। ताजता णं जंबूद्दीवेश्दाहिणड्डे दिवसे भवति तातदाणं उत्तरड्डे दिवसे भवति / तदाणं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पटवयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं राई भवति ताजदाणं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं दिवसे भवति तदाणं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवति / ता जदा णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे तदा णं उत्तरड्डेवि उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जताणं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति / ताजताणं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वतस्स पुरच्छिमेणं उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जता णं पञ्चच्छिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जता णं जंबूद्वीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं जहणिया दुवालसमुत्ता राई भवति। एव एएणं गमेणं णेतव्वं / अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवति सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राई सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति सातिरेगतेरसमुहुत्ता राई भवति सोलसमुहुत्ते दिवसे भवति चोहसमुहुत्ता राई भवति / सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति सातिरेगचोहसमुहुत्ता राई भवति। पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगपण्णरसमुहुत्ता राई भवति। चोद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई चोदसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगसोलसमुहुत्ता राई तेरस मुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राई तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साति रेगसत्तरसमुहुत्ता राई जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ एवं भाणितव्वं / ता जदा णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणजे वासाणं पढमे समए पडिवचति तताणं उत्तर विवासाणं पढमे समए पडिवखंति / जताणं उत्तरले वासाणं पढमे समए पडिवजति तता णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणंतरपुरक्खडे कालसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइता जया णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तता णं पञ्चच्छिमेणं वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ। जया णं पचच्छिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवजई तता णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणणं अणंतरपच्छाकयकालसमयंसि वासाणं पढमे समये पडिवण्णे भवति। जहा समओ एवं आवलियाए आणापाणू | थोवे लवे मुहुत्ते अहोरत्ते पक्खे मासे उड़ एवं दस आलावका जधा वासाणं एवं हेमंताणं गिम्हाणं च भाणियव्वा।। (ताजयाणमित्यादि) तत्र यदाजम्बूद्वीपे दक्षिणार्द्ध द्वादश मुहुर्तानन्तरो दिवसस्तदा उत्तरार्द्धऽपि द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिव-सः। यदा चोत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणार्द्धऽपि द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसस्तदा चाष्टादशमुहूतीनन्तरादिदिवस-काले जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यांच दिशिनो नैव सदा सर्वकालं पञ्चदशमुहूर्ता दिवसो भवति नापि सदा पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः कुत इत्याह (अणवट्ठियाणमित्यादि) अनवस्थितानि अनियतप्रमाणानि णमिति खलु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिन्दिवानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण ! हेआयुष्मन् ! अत्रोपसंहारमाह।(एगे एवमाहसु२) एके पुनरेवमाहुः / ता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपे यदा दक्षिणार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्ता रात्रिः / यदोत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा दक्षिणार्द्ध द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः तया यदा दक्षिणार्द्ध (अट्ठारसमुहूत्ताणं तरत्ति) अष्टादशभ्यो मुहूर्तभ्योऽनन्तरो मनाक् हीनो हीनतरो यावत्सप्तदशभ्यो मुहूर्तेभ्यः किञ्चि-दधिक एवं प्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्ता रात्रिः। तथा यदा चोत्तरार्द्ध अष्टादशमुहूर्तानन्तरो दिवसस्तदा दक्षिणार्द्ध द्वादाशमुहूर्ता रात्रिः (काल मित्यादि) एवमुक्तेन एकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्त्रयोदशमुहूर्तानन्तरदिवसवक्तव्यता एकैकस्मिश्च सप्तदशा-दिके संख्याविशेषे सकलैर्मुहूर्तेरनन्तरैश्च किंचिद्नैौ द्वावालापको वक्तव्यौ सर्वत्र च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः तद्यथा। "जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवइ तयाणं उत्तरड्ढे दुवालसमु-हुत्ता राई भवति जयाणं उत्तरड्डे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्डे दुवालसमुहत्ता राई भवइ जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिण-डेसत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तयाणं उत्तरड्डेदुबालसमुहत्ता राई भवइजयाणं उत्तरड्डे सत्तरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे दुबालसमुहूत्ता राई भवइ" एवं षोडशमुहूर्तः / षोडशमुहूर्तानन्तरं पञ्चदशमुहूर्तः पञ्चदशमुहूर्तानन्तरं चतुर्दशमुहूर्तः चतुर्दशमुहूर्तानन्तरंत्रयोदशमुहूर्तः त्रयोदशमुहूर्तान-न्तरं द्वादशमुहूर्तगता अपि नव आलापका वक्तव्या द्वादशमुहूर्तान-न्तरगतमालापकं साक्षादाह- (जयाणमित्यादि) यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्द्ध द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति यदा चोत्तरार्द्ध द्वादशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा दक्षिणार्द्ध द्वादशमुहूर्ता रात्रिः तदाचाष्टा दशमुहूर्तानन्तरादिदिवसकाले जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणंति) पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि नैवास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहूर्तो दिवसो भवति नाप्यस्त्येतत् यथा पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति कुत इत्याह (वोच्छिन्नाणमित्यादि) व्यवच्छिन्नानिणमिति खलु तत्र मन्दरस्य पर्वतस्यपूर्वस्यां पाश्चमायां च दिशि रात्रिंदिवानि रात्रिंदिवानि प्रज्ञप्तानि हेश्रमण ! हेआयुष्मन् ! अत्रैवोपसंहारमाह (एगे एवमाहंसु 3) एताश्च तिस्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा भगवतोऽननुमतत्वाद्। अपिच येतृतीयावादिनः सदैव रात्रिं द्वादशमुहूर्तप्रमाणामिच्छन्ति तेषां प्रत्यक्षविरोधः / प्रत्यक्ष-तोऽत्र हीनाधिकरूपा रात्रेरुपलभ्यमानत्वाद् / / Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठिइ 814 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदयसंठि संप्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयति / (वयंपुणइत्यादि) वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामस्तमेव प्रकारमाह (ताजंबूद्दीवेदीवे इत्यादि) ता इति पूर्ववत् जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो यथायोगमण्डल-परिभ्रम्या भ्रमन्तौ मेरोरुदक्प्राच्यामुत्तरपूर्वस्यां दिशि उद्गच्छतः तत्र चोदत्य प्राग् दक्षिणपूर्वस्यामागच्छतः ततो भरतादिक्षेत्रापेक्षया प्राग दक्षिणपूर्वस्यामुद्गत्य दक्षिणापरस्यामागच्छतस्तत्रापि च दक्षिणापरस्यामपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उद्गत्यापाच्युदीच्यामपरोत्तरस्यामागच्छतस्तत्रापि चापरोत्तरस्यामैरावतादिक्षेत्रापेक्षया उद्गत्य उदक् प्राच्यामुत्तरपूर्वस्यामागच्छतः एवं तावत्सामान्यतोद्वयोरपि सूर्ययोरुदयविधिरुपदर्शितो विशेषतः पुनरयं यदैकः सूर्यः पूर्वदक्षिणस्यामुगच्छति तदा अपरः उत्तरस्यां दिशि समुद्गच्छति दक्षिणपूर्वोद्गतश्च सूर्यो भरतादीनि क्षेत्राणि मेरुदक्षिणदिग्वर्तीनि मण्डलपरिभ्रम्या परिभ्रन् प्रकाशयति अपरोत्तरस्यामुद्रतः सन् तत ऊर्ध्वमण्डलपरिभ्रम्या परिभ्रमन् ऐरावतादीनि क्षेत्राणि मेरोरुत्तरदिग्भावीनि प्रकाशयति भारतश्च सूर्यो दक्षिणापरस्यामागतः सन्नपरविदेहक्षेत्रापेक्षया उदयमासादयति ऐरावतः सूर्यः पुनरुत्तरपूर्वस्यामागतः पूर्व विदेहापेक्षया समुद्गच्छति ततो दक्षिणापरस्यामुद्रतः सन्तत ऊर्द्धमण्डलभ्रम्या परिभ्रमन् अपरविदेहान् प्रकाशयति / उत्तरपूर्वस्यामुद्गतः सन् तत ऊर्द्ध मण्डलगत्या चरन् पूर्वविदेहानवभासयति तत एष पूर्वक्देिहप्रकाशकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां भरतादिक्षेत्रापेक्षयोदयमासादयति अपरविदेहप्रकाशकस्त्यपरोत्तरस्यामिति। तदेवं जम्बूद्वीप सूर्ययोरुदयविधिरुक्तः संप्रतिक्षेत्रविभागेन दिवसरात्रिविभागमाह (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदाणमिति वाक्यालंकारे जम्बूद्वीपे 2 दक्षिणार्द्ध दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि दिवसो भवति एकस्य सूर्यस्य दक्षिणदिशि परिभ्रमणसंभवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमुत्तरदिशि भ्रमणसंभवात् यदा चोत्तरार्द्ध दिवसस्तदा जम्बूद्वीप द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपञ्च-च्छिमेणंति) पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिर्भवति तदानीमेकस्यापि सूर्यस्य तत्राभावात्। (ताजयाणमित्यादि)तत्रयदा जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि दिवसां भवति एकस्य सूर्यस्य पूर्वदिग्भागसंभवे अपरस्य सूर्यस्यावश्यमपरस्यां दिशि भावात् / एतच प्रागेव भावितम् / यदा च पश्चिमायामपि दिशि दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (उत्तरदाहिणेणंति) उत्तरतो दक्षिणतश्च रात्रिर्भवति (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा णमिति प्राग्वत् जम्बूद्वीपे दक्षिणार्द्ध उत्कर्षत उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धपि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः उत्कृष्टो ह्यष्टादशमुहूर्तप्रमाणा दिवसः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारित्वे तत्र च यदैकः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवति तदा अपरोऽप्यवश्यं तत्समायातश्रेण्या सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारी भवतीतिदक्षिणार्द्ध उत्कृष्टदिवससंभवे उत्तरार्द्धऽप्युत्कृष्टदिवससंभवः / यदा उत्तरार्द्ध उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे 2 मन्दरस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपञ्चच्छि-मेणंति) पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतिसवाभ्यन्तरे मण्डलेचारं धरतोः सूर्ययोःसर्वत्रापि रात्रेदिशमुहू-तप्रमाणाया एव भावात् तया (ताजयाणमित्यादि) तत्र यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्थ पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि उत्कर्षत उत्कृष्टो-- ऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिक्सः कारणं दक्षिणोत्तरार्द्धगतं प्रागुक्तमनुसरणीयम्।यदाच मन्दरपर्वतस्य पश्चिमायामपि दिशि उत्कृष्टोऽष्टादाशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (उत्तरदाहिणेणति) उत्तर तो दक्षिणतश्च जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः / अत्रापि कारणं पूर्व पश्चिमार्द्ध रात्रिगतं प्रागुक्तमनुसरणीयम् / (एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदितेन गमेनालापकगमेन वक्ष्यमाणमपि नेतव्यम्। किं तद्वक्ष्यमाणमित्याह। (अट्ठारसमुहुत्ताणंतरइत्यादि) यदा मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणोत्तरार्द्धयोः पूर्वपश्चिमयोर्वा अष्टादशमुहूर्तानन्तरः सप्तदशभ्या मुहूर्तेभ्य ऊर्द्ध किंचिन्त्यूनाष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसस्तदा पूर्वपश्चिमयोदक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वा सातिरेका द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवतीति एवं शेषाण्यपितदानि भावनीयानि सूत्रपाठोऽपि प्रागुक्तालापकगमानुसारेण स्वयं परिभावनीयः / स चैवं "ता जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तया णं उत्तरड्डेवि अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छि-मपचच्छिमेणं सातिरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्सपुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ तयाणं पचच्छिमेण वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे हवइ / जया णं पचच्छिमेण वि अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइतया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पथ्ययस्स उत्तरदाहिणेणं साइरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ' एवं सप्तदशमुहूर्तादिवसादिप्रतिपादका अपि सूत्रालापका भावनीयाः (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा जम्बूद्वीपे दक्षिणार्द्ध वर्षाणां वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपद्यते भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि वर्षाणां प्रथमसमयो भवति समकाले नैयत्थेन दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्ध च सूर्ययोश्वारभावात् यदा चोत्तरार्द्ध वर्षाकाल-स्य प्रथमःसमयो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणंति) पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि (अणंतरपुरक्खडेत्ति) अनन्तरमव्यवधानेन पुरष्कृतोऽग्रे कृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतोऽनन्तरद्वितीय इत्यर्थः / तस्मिन् काले (समयंसित्ति) समयः संकेतादिरपि भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ कालग्रहणं कालश्वासौ समयश्च कालसमयस्तत्र वर्षाकालप्रथमसमयः प्रतिपद्यते भवति किमुक्त भवति यस्मिन् समये दक्षिणार्होत्तरार्द्ध-योर्वर्षाकालस्य प्रथमः सभयो भवति तस्मादूर्ध्वमनन्तरे द्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोवर्षाकालस्य प्रथमसमयो भवति (ताजयाणमित्यादि) तत्र यदा णमिति प्राग्वत् / जम्बूद्वीपे 2 मन्दरस्य पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदा मन्दस्य पर्वतस्य पश्चिमायामपिदिशिवर्षाकालप्रथमसमयो भवति सम-कालनैयत्येन पूर्वपश्चिमयोरपि सूर्ययोश्चारचरणात्। यदाच पश्चिमायामपि दिशि वर्षाकालस्य प्रथमः समयः भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य (उत्तरदाहिणेणंति) उत्तरतो दक्षिणतश्च अनन्तरमव्यवधानेन पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतस्तस्मिन् कालसमये वर्षाकालस्य प्रथमः समयः प्रतिपन्नो भवति भूत इत्यर्थः / इह यस्मिन् समये दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्धं च वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति तदनन्तरेऽग्रतने द्वितीये सगयेपूर्वपश्चिमयोर्वर्षाणां प्रथमसमयो भवतीति / एतायन्मात्रोक्तावपि यस्मिन् समये पूर्वपश्चिमयोर्वर्षाकालस्य प्रथमः समयो भवति ततोऽनन्तरे पश्चाद्धाविनि समये दक्षिणोत्तरार्द्धयोर्वर्षा-कालस्य प्रथमः समयो भवतीति गम्यते तत्किमर्थमस्योपादानम् उच्यते इह क्रमाभ्यामभिहितोऽर्थः प्रपञ्चितज्ञानां शिष्याणामतिसुनिश्चितो भवति ततस्तेषामनुग्रहाय Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठि 815 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदयसंठिइ तदुक्तमित्यदोषः / / (जहासमयइत्यादि) यथा समय यत्तस्तथा एवं जहा लवणे समुद्दे तधेव कालोदे तअभिंतरं पुक्खरद्धेणं आवलिकाद्याणापाणौ स्तोकको लवो मुहुर्तोऽहोरात्रः पक्षोमास ऋतुश्च सूरिया उदीणपाईण-मुग्गच्छं तधेव ता जता णं प्रावृडादिरूपो वक्तव्यः एवं व समयागतमालापकपादिं कृत्वा दश __ अन्मिंतरपुक्खरद्धेणं दाहिणड्डे दिवसे भवति तदा णं उत्तरद्धे आलापका एते भवन्ति ते च समयगतालापकरीत्या स्वप वि दिवसे भवति जता णं उत्तरद्धे वि दिवसे भवति तता ण परिभावनीयास्तद्यया" जयाणं जंबूद्दीवे दीवे वासाणं पढमा आवलिया अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पवताणं पुरच्छिमे पचच्छिमेणं पडिवजइ तयाणं उत्तरड्डे वि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ जयाणं राई भवति सेसं जहा णं जंबुद्दीवे तधेव जाव उस्सप्पिणीओ उत्तरड्डेवासाणं पढमा आवलिया पडिवजइ तयणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स सप्पिणी। पव्वयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं अणंतरपुर-क्खडे कालसमयंसि वासाणं ता जताणमित्यादि सुगमम् / (जहाअयणे इत्यादि) यथा अयने पढमा आवलिया पडिवज्जइता जयाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स आलापको भणितस्तथा संवत्सरे युगे वक्ष्यमाणस्वरूपे पुरच्छिमेणं वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तया णं पञ्चच्छिमेणं च चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चकात्मके वर्षसहस्रे वर्षशतसहस्र पूर्वाने पूर्वे एवं (जाव पढमा आवलिया पडिवज्जइ जया णं पञ्चच्छिमेणं वासाणं पढमा आवलिया सोसपहेलियत्ति) अत्र एवं यावत्करणादमून्यापान्तराले पदानिद्रष्टध्यानि पडिवज्जइ तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं "तुडियंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हूहूयंगे हूहूये उप्पलंगे उप्पले अणंतरप-च्छाकडकालसमयसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवन्ना पउमंगे पउमे नलिणंगे नलिणे अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे अउयंगे अउए भवइ" इदं च प्रागुक्ताव्याख्यानुसारेण व्याख्येयं नवरम् (आवलिया नउयगे नउए चूलियंगे चूलिए सीसपहेलियंगे सीसपहेलिए इति अत्र पडि–बजत्ति) आवलिका परिपूर्णा भवति शेषं तथैव एवं प्राणापानादिका चतुरशीतिवर्षलक्षाण्येकं पूर्वाङ्ग चतुरशीतिपूर्वाङ्गलक्षाणे एकं पूर्वमेव पूर्वः अप्यालापका भणनीयाः (एएइत्यादि) यया वर्षाणां वर्षाकालस्य एते पूर्वो राशिश्चतुरशीतिर्लक्षैर्गुणित उत्तरो राशिर्भवति यावच्चतुरशीतिशीर्षअनन्तरोदिताः समयादिगता अत्र आलापका भणिता एवं (हेमंताणंति) प्रहेलिकाङ्गलक्षाणि एका शीर्षप्रहेलिका एतावान् राशिर्गणितविषयोऽत शीतकालस्य (गिम्हाणंति) ग्रीष्मकालस्योष्णका-लस्येत्यर्थः / प्रत्येक ऊवं गणनातीतः सच पल्योपमादि "पलिउवमे सागरोवमे" अनयोः समयादिगता दश आलापका भणितव्याः / अयनगतं त्वालापकं स्वल्पं संग्रहणीटीकायामुक्तम् / आलापकास्तु स्वयं वक्तव्याः / साक्षात्पठति। अवसर्पिण्युत्सर्पिणीविषयमालापकं साक्षादाह (ताजयाण-मित्यादि) ता जता णं जंबुद्दीवे२ दाहिणड्डे पढमे अयणे पडिवञ्जति तदा तत्रा यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणार्द्ध अवसर्पिणी णं उत्तरडेविपढमे अयणे पडिवजह जताणं उत्तरड्डपढमे अयणे प्रतिपद्यते परिपूर्णा भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि अवसर्पिणी प्रतिपद्यते यदा पडिवजति तता णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पटवयस्स उत्तरार्द्ध अवसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा जम्बूद्वीपे 2 मन्दरस्य पर्वतस्य पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं अणंतरपुरक्खडकालसमयंसि पढमे पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि नैवास्त्य-वसर्पिणी नाप्यस्त्युत्सर्पिणी कुत अयणे पडिवञ्जति ता जता णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स इत्याह अविस्थितो णमिति खजु तत्र पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि कालः पुरच्छिमेणं पढमे अयणे पडिवञ्जति जया णं पञ्चच्छिमेणं प- प्रज्ञप्तो मया शेषैश्च तीर्थकरैः हे श्रमणायुष्मन् ! ततस्त ढमे अयणे पडिवजति तता णं जंबुद्दीवे मंदरस्स पव्वयस्स | जावसर्पिण्युत्सर्पिण्यभावः / (एवमुस्सप्पिणीवित्ति) एवमुक्तेन उत्तरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकडकालसमयंसि पढमे अयणे प्रकारेणोत्सपिण्यवि उत्सर्पि-ण्यालापकोऽपि वक्तव्यः / स चैवं पडिवन्ने भवति जहा अयणे तधा संवच्छरे जुगे वाससते एवं "ताजयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे पढमा उस्सप्पिणी पडिवजइ तयाणं वाससहस्से वाससयसहस्से पुटवंगे पुटवे एवं जाव सीसपहे- उत्तरड्डे वि पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जइ जया णं उत्तरड्डेवि पढमा लिया पलितोवमे सागरोवमे ता जदा णं जंबुद्दीवे 2 दाहिणड्डे उस्सप्पिणी पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पव्वयस्स उस्सप्पिणी पडिवजति तताणं उतरडेवि उस्सप्पिणी पडिवज्जति पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं नेव अत्थि उस्सप्पिणी अवस्सप्पिणी अवट्ठिएणं जता णं उत्तरड्डे उस्सप्पिणी पडिवञ्जति तता णं जंबुद्दीवे 2 तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो'' तदेवं जम्बूद्वीपवक्तव्योक्ता संप्रति मंदरस्स पय्वयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं णेवत्थि ओसप्पिणी लवणसमुद्रवक्त-व्यतामाह (लवणेणं समुद्दे इत्यादि) (तहेवत्ति) यथा णेव अत्थि उस्सप्पिणी अवट्टितेणं तत्थ काले पण्णत्ते जम्बूद्वीपे उद्मविषये आलापक उक्तस्तथा लवणसमुद्रेऽपि वक्तव्यः / समणाउसो एवं उस्सप्पिणी वितालवणे समुद्दे दाहिणड्डे दिवसे सचैवं "लवणेणं सूरिया उईणपाई णमुग्गच्छ पाईणदाहिण-मागच्छंति भवतितताणं उत्तरड्डे दिवसे भवति जताणं उत्तरड्ढे दिवसे भवति पाईणदाहिणमुग्गच्छदाहिणपाईणमागच्छेति दाहिणपाईणमुग्गच्छ तता णं लवणसमुद्दे पुरच्छिमपचच्छिमेणं राई भवति जहा पाईणउईणमागच्छंति पाईणउईणमुग्गच्छ उईणपाईणमागच्छति'' इदं जंबुद्दीवे 2 तहेव जाव उस्सप्पिणी तहा धायइसंडेणं दीवे सूरिया च सूत्रं जम्बूद्वीपगतोद्मसूत्रवत्स्वयं परिभावनीयं नवरमत्र सूर्याश्चत्वारो उदीणं तधवे ताजताणं धायइसंडे दीवे दाहिणड्डेदिवसे भवति वेदितव्याः "चत्तारि य सागरे लवणे इति वचनात्" ते च तता णं उत्तरड्डे वि दिवसे भवति जता णं उत्तरले दिवसे भवति जम्बूद्वीपगतसूर्याभ्यां सह समश्रेण्या प्रति बद्धास्तद्यथा द्वौ सूर्विकस्य तताणं धायइसंड दीवे मंदराणं पव्वताणं पुरच्छिमपचच्छिमेणं जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबद्धौ द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य राई भवंति एवं जंबुद्दीवे 2 तहा तधेव जाव उस्सप्पिणी कालो श्रेण्या अपरौ तत्र यत्रैकः सूर्यो जम्बूद्वीपे दक्षिणापूर्वस्यामुद्रच्छति तदा Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयसंठिय 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदहिमेहला तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ सूर्यों लवणसमुद्रे तस्यामेव दक्षिणपूर्वस्या- आ०चू० / तात्स्थ्यात्तदव्यपदेशः उदररोगे, / वाच० / उदराण्यष्टौ / मुदयमागच्छतस्तदेव जम्बूद्वीपगतेन सूर्येण सह तत्समश्रेण्या प्रतिबद्धौ "पृथक् समस्तैरपिचानिलाद्यैः (4) ल्फीहोदरं (5) बद्धगुदं तथैव (6) द्वावपरौ लवणसमुद्रे अपरोत्तरस्यां दिशि उदयमासादयतः / तत आगुन्तुकं (7) सप्तममष्टमं च जलोदरं चेति भवनित तानि" 1 प्रश्न उदयविधिरपि द्वयोर्दयोर्जम्बूद्वीपसूर्ययोरिव भावनीयः / तेन सं०५ द्वा०। विपा० / तं० / उपा०। दिवसरात्रिविभागोऽपि क्षेत्रविभागेन तथैव द्रष्टव्यः / तथा चाह / | उदरंभरि त्रि०(उदरम्भरि) उदरं विभर्ति-भृ-खि-मुम् च / पञ्चताजयाणमित्यादि सुगम नवरं (जहाजंबुद्दीवेइत्यादि) यथा जंबुद्दीवे यज्ञाद्यकरणेनात्मोदरमात्रपोषके, / वाच०। पुरच्छिमपचच्छिमेणं राई भवइ इत्यादिकं सूत्रमुक्तं यावदुत्सर्पि उद(य)रगंठि पुं०(उदरग्रन्थि) उदरे ग्रन्थिरिव गुल्मरोगे हेम०। ण्यवसर्पिण्यालापकस्तथा लवणसमुद्रेऽप्यन्यूनातिरिक्तं समस्तं उद(य)रत्ताण न०(उदरत्राण) उदरं त्रायतेऽनेन त्रै०ल्युट् (कमरबन्ध) भणितव्यं नवरंजम्बूद्वीपे द्वीप इत्यस्य स्थाने लवणसमुद्दे इति वक्तव्यमिति उदरबन्धवस्त्रे। हेम०। शेष तदेवं लवणसमुद्रगतापि वक्तव्यतोक्ता। संप्रति धातकीखण्डविषयां तामाह धायइसंडणं सूरियाइ इत्यादि " अत्राप्युद्गमविधिः प्राग्वद्भावनीया उदराणुगिद्ध त्रि०(उदरानुगृद्ध) उदरेऽनृगृद्ध उदरानुगृद्धः / उदरभनवरमत्रसूर्याद्वादश"धायइसंडेदीवे वारसचंदा यसूरा य" इतिवचनात्। रणव्यग्रे तुन्दपरिभृजे, "कुलाइँ जे धावति सा उगाई, आधाति-धम्म ततः षट् सूर्या दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपगतलवणसमुद्रगतैः सूर्य : सह उदराणुगिद्धे"। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट् उत्तरदिक्चारिभिः / संप्रत्यत्रापि क्षेत्रविभागेन उदरिय न०(उदरिक) जलोदरिके, विपा०१ श्रु०७ अ01 नि० चू०। दिवसरात्रिविभागमाह (ताजयाणमित्यादि) यदा धातकीखण्डे द्वीपे उदवाह पुं०(उदवाह) उदकं वहति। वह अण् उप० स० जलवाहके मेघे, दक्षिणार्द्ध दिवसो भवति तदा उत्तरार्द्धऽपि दिवसो भवति यदा उतरार्दोऽपि उदकवाहकमात्रे, त्रि०ा वाच० अपकृष्टऽल्पे उदकवाहने, "उदवाहाइ दिवसस्तदाधातकीखण्डे मन्दरयोः पूर्वतयोः पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धगतयोः वा पवाहाइ वा'' अपकृष्टानि अल्पान्युदकवाहनानि तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रत्येकं पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि रात्रिर्भवति एवमित्यादि] एवमुक्तेन प्रवाहाः / भ०३ श०६ उ०। प्रकारेण यथा जम्बूद्वीपे उक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यं तत्र उदहि पुं०(उदधि) उदकानि धीयन्तेऽत्र धा–आधारे कि-उदा-देशः तावद्यावदुत्सपिण्यालापकः। कालोएइत्यादि ] कालोदे समुद्रे यथा समुद्रे, / "जहा से सयंभुउदहीणसेढे णागेसुधरणिंदमाहुसेट्टे'सूत्र०१ लवणेऽभिहितं तथैवाभिधातव्यं नवरं कालोदे सूर्या द्विचत्वारिंशत् श्रु०७ अ०।"जहा से सयंभुरमणे, उदही अक्खओदए''-उत्त०१ अ०। तत्रैकविंशतिर्दक्षिणदिक्चारिभिर्जम्बूद्वीपलवणस-मुद्रधातकीखण्डगतैः (उदधीनां सर्वा वक्तव्यता दीव सागरशब्दे)। ("चत्तारि उदही पण्णत्ता सह समश्रेण्या संबद्धा एकविंशतिरुत्तरदि-क चारिभिः तत तंजहा उज्जाणेणाममेगे" इत्यादि पुरुषजातशब्दे उदधि सूत्रे वक्ष्यते) उदयविधिर्दिवस रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन तथैव वेदितव्यः / / उदययोऽद्धा समयेन स्पृष्टा नवेति फरिसणा शब्दे) धनोदधै, स्था०३ सांप्रतमभ्यन्तरपुष्करवरार्द्धवक्तव्यतामाह [ ता अभि-तरपुक्खरद्धे ठा०२ उ० "पुढवीइ वा उदहीइ वा'' पृथिवी रत्नप्रभादिका इत्यादि] इदमंपिसूत्र सुगम तहेवत्ति तथैवजम्बूद्वीपेइव वक्तव्यं नवरमत्र उदधिस्तदधीलोवनोदधिः। स्था०२ ठा०४ उ०।"वायुपरट्ठिया उदही, सूर्या द्वासप्ततिः तत्र षट्त्रिंशद्दक्षिणदिक्चा-रिभिर्जम्बूद्वीपादिगतैः सह उदहिपइट्ठिया पुढवी'। स्था० 4 ठा०२ उ०५ आर्यसमुद्रनामके समश्रेण्या प्रतिबद्धाः षट्त्रिंशदुत्तरदिक्-चारिभिस्तत उदयविधिर्दिवस- आचार्ये, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०ा नामैकदेशे नामग्रहणात् / रात्रिविभागश्च क्षेत्रविभागेन प्राग्वद-वसेयस्तथाचाह [ताजयाणमित्यादि उदधिकुमारे सप्तमभवन-वासिनि, / भ०१श० १उ० / "दीवदिसा सुगमम् / सू०प्र० 8 पाहु०। उदहीणं जुवलपाणं वावत्तरिमोय सयसहस्सा" स०। प्रश्नकाजलचये, उदयसाय(ग) पुं०(उदयसागर) अञ्चलगच्छीये विद्यासागरसूरिशिष्येन स्था०३ ठा०४ उ०! विक्रम सं०(१८०४) वर्षे पालिताणय नगरे स्नात्रपञ्चाशिका नामग्रन्थो उदहिकुमार पुं०(उदधिकुमार) सप्तमे भवनवासिनि, प्रज्ञा०१ पद / व्यरचि / जै० इ०। स्था०। "उदहिकुमारा णं सव्वे समाहारा सेवं भंते भंतेति / भ०१६ उदयसिंहमुणिपुं०(उदयसिंहमुनि) तपागच्छीये उदयवीरगणिनः शिष्ये, श०१३ उ० / (उदधिकुमारोद्देशवक्तव्यता वर्णादि व्यवस्था अनेन-वि०सं०(१६४६) वर्षे रत्नशेखरसूरि कृतश्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति भवणवासिशब्दे। (अन्तक्रियादिदण्डकास्तु अंतकिरियादिशब्देषु) प्रथमादर्शलिखिता। जै० इ०। उदहिकुमारावास पुं०(उदधिकुमारावास) उदधिकुमाराणां भवनावासे उदयसेण पुं०(उदयसेन) वीरसेनसूरसेनयोरनयोः पितरि आचा०१श्रु० | ठावत्तरि उदहिकुमारा वाससयसहस्सा पण्णत्ता' स०। 4 उ०१उ०। (सम्मशब्दे कथा-) उदहिपइट्ठिय त्रि०(उदधिप्रतिष्ठित) घनोदध्याश्रिते, "उदहिपइ-डिया उदयावलिया स्त्री०(उदयावलिका) षष्ठीतत्पु० उदयवतीनाम- | पुढवी" भ०१ श०७ उ०। नुदयवतीनां च प्रकृतीनामुदयसमयारभ्यावलिकामात्रायां स्थितौ, / उदहिपुहत्त न०(उदधिप्रथक्त्व) उदधिप्रथक्वप्रमाणे प्रभूतसाग"आवलियतिगं पमोत्तूणं" इह उदयवतीनामनुदयवतीनां च रोपमशतप्रमाणे, "उदहिपुहुत्तुक्कस्स इयरं पत्तस्स संखतमभागो' प्रकृतीनामुदयसमयादारभ्यावलिकामात्रास्थितिरुदयावलिका क०प्र०। वेदितव्या तथैव चिरन्तनग्रन्थेषु व्यवहारात्पं० सं०। उदहिमंगल न०(उदधिमङ्गल) समुद्रज्वलनमङ्गले, पश्चा०८ विव०।। उद(य)रन०(उदर)ऋ-अच्० जठरे, प्रश्न०३ द्वा०ा अङ्गान्युपाङ्गानि | उदहिमेहला स्त्री०(उदधिमेखला) उदधिर्मेखला इव यस्याः / चेति द्विधा शरीरावयवास्तत्रेदमङ्गम् स्था०८ ठा० / प्रज्ञा० / उत्त०। / मध्यस्थाने, समुद्रवेष्टितायां पृथिव्याम, वाच०।। Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाइ 817- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदायण उदाइ पुं०(उदायिन्) स्वनामख्याते कूणिकराजसत्कहस्तिनि, उदायिहस्तिनः पूर्वापरभवौ यथा। रायगिहे जाव एवं वयासी उदाईणंभंते ! हस्थिराया कओहिंतो अणंतरं उवदृित्ता उदाई हत्थिरायत्ताए उववण्णे / गोयमा ! असुरकुमारेहिंतो अणंतरं उवदृित्ता उदाई हस्थिराय-ताए उववण्णो / उदाईणं भंते ! हत्थिराया कालमासे कालं किया कहिं गच्छहित्ति कहिं उववजिहित्ति? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि णिरया-वासंसि णेरइयत्ताए उववजिहि त्ति सेणं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहित्ति गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहि जाव अंतं काहिति / भ०१६ श०१ उ०। (टीका सुगमत्वान्न गृहीता) कोण्डिकायनीये गोशालेन षष्ठप्रवृत्तसंहारे गृहीतकलेवरविशिष्ट जीवे, "अहण्णं उदाई णामं कुंडियायणिए अजुण्णस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि'' इति वीरं प्रति मङ्खलिपुत्रो गोशालः। भ०१५ श० 1 उ० कूणिकपुत्रे, तद्वक्तव्यता चैवम् उदायि कोणिकपुत्रो यः कोणिके अपक्रान्ते पाडलिपुत्रं नगरंन्यवीविशत्। यश्च स्वभवनस्य विविक्ते देशे पर्वदिनेष्वाहूय संविग्रगीतार्थसगुरूं तत्पर्युपासनापरायणः परमसंवेगरसप्रकर्षमनुस्मरन् सामायिकपौषधादिकं सुश्रमणोपासकप्रायोग्यमनुष्ठानमन्यवतिष्ठत् / एकदा च निशि देशनिर्धाटितरिपुराजपुत्रेण द्वादशवार्षिकद्रव्यसाधुना कृतपौषधोपवासः सुखप्रसुप्तः कङ्कायः कर्तिकाकण्ठकर्तनेन विनाशित इति / स्था०६ ठा०। आ०क० (विस्तरतोऽयमेवार्यः सेणियशब्दे) अयं च निर्वर्तिततीर्थकृन्नामकर्मा उत्सर्पिण्या, तृतीयः सुपार्श्वनामा तीर्थकरो भविष्यति। तइओ उदायिजीवो सुपासो' ती०। आ०चू०। उदाइंत त्रि०(उदयमान) शोभमाने, ज्ञा०१ अ०॥ उदाण पुं०(उदान) अन्-घञ् / ऊर्ध्व मानोऽस्य कृकाटिकादेशादाशिरोवृत्तौ वायौ, द्वा० 26 द्वा०। वाच०। उदायण पुं०(उदायन) सिन्धुसौवीरेषु वीतिभयनगराधिपतौ स्वनामख्याते राजभेदे, / तद्वक्तव्यता चैवम्। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधुसोवीरेसुजणवएसु वीतभयणाम णयरे होत्था / वण्णओ तस्स णं वीतिभयस्स णयरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसि भाए एत्थणं मियवणे णामं उजाणे होत्था। सय्वोउयवण्णओ। एत्थ णं वीतिभए णयरे उदायणे णामं राया होत्था। महया वण्णओ, तस्स णं उदायणस्स रण्णो पउमावई णाम देवी होत्था। सुकुमालवण्ण-ओ तस्सणं उदायणस्स रण्णो पभावती णामं देवी होत्था। वण्णओ जाव विहरति / तस्स णं उदायणस्सरण्णो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभीइणामं कुमारे होत्था / सुकुमाल जहा सिवमहे जाव पचुवेक्खमाणं विहरइ। तस्सणं उदायणस्सरण्णो णियए भायणिजे केसी णामं कुमारो होत्था सुकुमाल जाव सुरूवे से णं उदायणे राया सिंधुसो वीरप्पमोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीइभयप्पमोक्खाणं तिण्हं तेसट्ठीणं णगरागरवर सयाणं महसेणप्पमोक्खाणं दसण्हं राईणं बद्धमउज्झाणं विदिण्णछत्तचामरबालवियणाणं अण्णेसिं च बहूर्ण राईसरतल जाव सत्थवाहप्पमिईणं आहेवचं पोरेवचं जाव कारेमाणे पाले माणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ / तए णं से उदायणे राया अण्णया कयाई जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जहा संखे जाव विहरइ तए णं तस्स उदायणस्स रण्णो पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मं जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पञ्जित्था धण्णाणं ते गामागरनगरखेडकव्वडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसण्णिवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरइ धण्णाणं ते राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पमिईओ जेणं समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति जाव पजुवासंति / जईणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणु जाव विहरमाणे इहमागच्छेज्जा / इह समोसरेज्जा इहेव वीतीमयस्स णयरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हित्ता संजमेणं जाव विहरेजा तओ णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेजा णमंसेजा जाव पजुवासेजा। तएणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रपणो अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव समुप्पण्णं विजाणित्ता। चंपाओ णयरीओ पुण्णभद्दाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता पुटवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे जेणेव सिंधुसोबीरे जणवए जेणेव वीईभये णयरे जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जाव विहरइ / तए णं वीईभए णयरे सिंघाडग जाव परिसा पञ्जुवासइ / तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाएलद्धढे समाणे हद्वतुट्ठको९वियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी / खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीतिभयं णयरं सभितरबाहिरियं जहा कूणिओ उववत्तिए जाव पञ्जुवासई पउमावइपामोक्खाओ देवीओ तहेव पज्जुवासंति धम्मकहा तए णं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठउट्ठाए उठेइ उठेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी एवमेवं भंते ! तहमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे वदह त्तिकटु जं णवरं देवाणुप्पिया ! अभिइकुमारं रजे ठावेमि तए णं अहं देवाणुप्पिया णं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामिअहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं / तएणं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता तमेव अभिसेकहत्थिं दुरुहइ दुरुहइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव वीइभए णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाएतएणं Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदायण 818- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदायण तस्स उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुपजित्था / एवं खलु अभीइकुमारे मम एगे पुत्ते इढे कंते जाव किमंग पुण पासणया एतं जाणं अहं अभीइकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिअं मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तओ णं अमिइकुमारे रज्जे य रटे य जाव जणवए य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सत्ति तं णो खलु मे सेयं अभीइकुमारं रज्जे हावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए सेयं खलु मेणियगं भाइणिज्जकेसीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए एवं संपेहेइसंपेहेइत्ता जेणेव वीइभएणयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता वीइभयं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छई उवागच्छइत्ता अभिसेकं हत्थिं ठावेइ अभिसेकाओ हत्थीओ पचोरुभइ पचोरुभइत्ता जेणेव सिंहासणेतेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सिंहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहे णिसीयइ णीसीयइत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइसद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीइभयं णयरं सम्भितरबाहिरियं जाव पच्च-- प्पिणंतितएणं से उदायणे राया दोचपि कोडुंबियपुरिसे सदावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स तहेव भाणियव्वो जाव परमाउं पालयाहिं इट्ठजणसंपरिबुडे सिंधुसोवीरप्पामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीइभयप्पामोक्खाणं तिण्णि तेसट्ठीणं णगरागरसयाणं महसेणप्पामोक्खाणं दसण्हं राईणं अण्णेसिं च बहूणं राईसर जाव कारे माणे पालेमाणे विह-राहित्तिकटु जयजयसई पउजंति तएणं केसीकुमारे राया जाए महया जाव विहरइ तए णं से उदायणे राया केसिं रायाणं आपुच्छइ तए णं ते केसीराया कोडुबियपुरिसं सद्दावेइ एवं जहा जमालिस्स तहेव सभितरवाहिरियं तहेव जाव णिक्खमणा-भिसे यं उवट्ठावेत्ति तएणं से के सीराया अणेगगणनायग जाव संपरिबुडे उदायणरायं सीहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहे निसियावेइ निसियावेइत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं एवं जहा जमालिस्स एवं वयासी भण सामि किं देमो किं पयच्छामो किण्णावाते अहे तएणं से उदायणे राया केसिं रायं एवं वयासी इच्छामि णं देवाणुप्पिया कुत्तियावणाओ एवं जहा जमालिस्स णवरं पउमावइ अग्गके से पडिच्छ इ पियविप्पओगओ दूसहा तए णं से के सीराया दोचंपि उत्तरावकमणं सीहासणं रयावेइ रयावेइत्ता उदायणं रायं सीयापीतएहिं कलसेहिं सेसंजहाजमालिस्स जाव सण्णिसणं तहेव अम्मधाई णवरं पउमावई हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सेसं तं चेव जाव सिविआओ पचोरुहइ पचो रहइता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता समणं भगवं महवीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव वंदह णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवकमइ अवक्कमइत्ता सयमेव आभरणमल्ललंकारं तं चेव जाव पउमावई पडिच्छइ जाव घडियव्वं सामी जाव णो पमादीयव्वं तिकट्ठ केसीराया पउमावई य समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता जाव पडिगया तएणं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं सेसं जहा उसभदत्तस्स जावसव्वदुक्खप्पहीणे। भ०३ श०६ उ01 इयमेव वक्तव्यता कथान्तरसंबलिता इत्थम् / भरतक्षेत्रे सौबी-रदेशे वीतभयनामनगरे उदायनो नाम राजा तस्य प्रभावती राज्ञी तयोर्येष्ठपुत्रोऽभीचिनामाऽभवत् तस्य भागिनेयः केसीनामाऽभूत् / सउदायनराजा सिन्धुसौबीरप्रमुखषोडषजनपदानांवीतभय प्रमुखत्रिंशत् त्रिषष्टिनगराणां महासेनप्रमुखाणां दशराजानां बद्धमु-कुटानां छत्राणां चामराणां च ऐश्वर्यं पालयन्नस्ति / इतश्चम्पायां नगर्या कुमारनन्दी नाम सुवर्णकारोस्ति / स चस्त्रीलम्पटो यत्र 2 स्वरूपां दारिकां पश्याति जानाति वा तत्र तत्र पञ्चशत् सुवर्णानि दत्वा तां परिणयति। एवञ्च तेन पञ्चशतकन्याः परिणीताः / एकस्तम्भं प्रासादं कारयित्वा ताभिस्सम क्रीडति / तस्य च भित्रं नागिलो नाम श्रावकोऽस्ति / अन्यदा पञ्चशैलह्रीपवारतुल्यहासाग्रहासाव्यन्तौँ स्तः। तयोर्भर्ता विद्युन्माली नाम देवोऽगित सोऽन्यदा च्युतः ताभिश्चिन्तितं कमपि व्युद्ग्राहयावः सोऽस्माकं भर्ता भवति स्वयोग्यपुरुषगवेषणाय इतस्ततो व्रजन्तीभ्यां ताभ्यां चम्पानगर्यां कुमारनन्दी सुवर्णकारः पञ्चशतस्त्रीपरिवृतो दृष्टः / ताभ्यां चिन्तितम्। एष स्त्रीलम्पटः सुखन व्युद्ग्राहयिष्यते। कुमारनन्दी भणति। के भवन्त्यौ। कुतः समायातेते आहतुः आवां हासाप्रहासादेव्यौ तद्रूपमोहितः कुमारसुवर्णकारस्ते देव्यौ भोगार्थं प्रार्थितवान् / ताभ्या भणितं यद्यस्माद्भोगकार्यः तदा पञ्चशैलद्वीपं समागच्छेः / एवं भणिते देव्यौ उत्पतिते गते स्वस्थानम् / राज्ञः सुवर्ण दत्वा पटहं वादयति स्म / कुमारनन्दीसुवर्णकारं यः पञ्चशैलदीपं नयति तस्य सधनकोटिं ददाति / एकेन स्थविरेण तत्पटहः पुष्टः कुमारनन्दिना तस्य कोटि धनं दत्तं स्थविरोऽपि तद्धनं पुत्राणां दत्वा कुमारनन्दिना सह यानपात्रमारूढः समुद्रमध्ये प्रविष्टः / यावद्दूरे गतस्तावदेकं वटं दृष्टवान् / स्थविर उवाच / तस्य वट स्याधः इदं वाहनं निर्गमिप्यति तत्र जलावर्तोऽस्तीति वाहनं भङ्खयति / त्वं तु एतद्वटशाखामाश्रयेः / वटेऽत्र पञ्चशैलद्वीपात् भारण्डपक्षिणस्समायास्यन्ति सन्ध्यायां तच्चरणेषु स्ववेपुः स्ववस्त्रेण दृढं बध्नीयाः / ते च प्रभाते इत उड्डीनाः पञ्चशैलं यास्यन्ति / त्वमपि तैः समं पञ्चशैलं गच्छेः / स्थविरेण एवमुच्यमाने तद्वाहनं वटाधो गतं कुमारनन्दिना वटशाखावलम्वनं कृतं भग्नञ्च तद्वाहनम्। कुमारनन्दी तु भाण्डपक्षिचरणावलम्बेन पञ्चशैले गतः / हासाप्र-हासाभ्यां दृष्टः उक्तञ्च / तव एतेन शरीरेण नावाभ्यां भोगो विधीयते। स्वनगरे गत्वाङ्गुष्ठत आरभ्य मस्तकं यावज्ज्वलनेन स्वशरीरं दह यथा पञ्चशैलाधीशो भूत्वाऽस्मद्भोगेहां पूर्णीकुरु / Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदायण 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदायण तेनोक्तं तत्राहं कथंयामि। ताभ्यां करतले समुत्पाट्य स नगरोद्याने मुक्तः / ततो लोकस्तं पृच्छति / किं त्वया तत्राश्चयं दृष्टम् / स भणति / दृष्ट श्रुतमनुभूतं पञ्चशैलद्वीपं मया यत्र प्रशस्ते हासाप्रहासाभिधे देव्यौ स्तः / अत्र कुमारनन्दिना तत्र स्वाङ्गुष्ठेऽग्निमारचयित्वा मस्तकं यावत्स्वशरीरं ज्वालयितुमारब्धः / तदा मित्रेणाऽयं वारितः भो मित्र ! तवेदं कापुरुषजनोचितं चेष्टितं न युक्तम्। महानुभाव ! दुर्लभं मनुष्यजन्म मा हारय तुच्छमिदं भोगसुखमस्ति / किं च यद्यपि त्वं भोगार्थी तथापि स्वधर्मानुष्ठानमेव कुरु यत उक्तं / "धणओ धणच्छियाणं, कामत्थीणं च सत्थकामकरो। सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिणदेसिओ धम्मो' |1| इत्यादि शिक्षावादैमित्रेण स वार्यमाणोऽपि इङ्गिनीमरणेन स मृतः। पञ्चशैलाधिपतिजीतः तन्मित्रस्य श्रावकस्य महान् खेदो जातः। अहो! भोगकामार्थे जना इत्थं क्लिश्यन्ति जानन्तोऽपि वयं किमत्र गार्हस्थ्ये स्थिताः स्म इति सश्रावकः प्रव्रजितः।क्रमेण कालं कृत्वा अच्युतदेवलोके समुत्पन्नः / अवधिना स स्ववृत्तान्तं जानाति स्म / अन्यदा नन्दीश्वरयात्रार्थ सर्वदेवेन्द्राश्चलिताः स श्रावकदेवोऽपि अच्युतेन्द्रेण समं चलितः। तदा पञ्चशैलाधिपतेस्तस्य विद्युन्मालिनाम्नो देवस्य गलेपटहो लग्नः उत्तारितो नोत्तरति / हासाप्रहासाभ्यां उक्तम् / इयं पञ्चशैलद्वीपवासिनो स्थितिः यन्नन्दीश्वरद्वीपयात्रार्थ चलितानां देवेन्द्राणां पुरः पटहं वादयन् विद्युन्मालिदेवस्तत्र यातिततस्त्वं खेदं मा कुरु गललग्नमिमं पटहं वादयन् गीतानि गायन्तीभ्यां आवाभ्यां सह नन्दीश्वरद्वीपेयाहि। ततःसतथा कुर्वन्नन्दीश्वर-द्वीपोद्देशेन चलितः / श्रावकदेवस्तंसखेद पटहं वादयन्तं दृष्ट्वा उपयोगेनोपलक्षितवान्। भणति च भोः त्वं मां जानासि स भणति। कः शक्रादिदेवान् नजानाति। ततस्तं श्रावकदेवः तस्य स्वप्राग्भवस्वरूपं दर्शयति स्म / सर्व पूर्ववृत्तान्तमाख्याति / ततः संवेगमापन्नः स देवो भणति / तदिदानीमहं किं करोमि। श्रावकदेवो भणति श्रीवर्द्धमानस्वामिनः प्रतिमां कुरु यथा तव सम्यक्त्वं सुस्थिरं भवति। यत उक्तम्। "जो कुव्वइ जिणपडिम, जिणाण जियरागदोसमोहाणं। सो पावइ अन्नभवे, सुहजणणं धम्मवररयणं' अन्यच्च / / "दारिदं दोहग्गं, कुजाइकुसरीरकुगइकुमईओ / अवमाणरोयसोआ, न हुंति जिणविंवकारीण॥२॥" ततः स विद्युन्माली महाहिमवच्छिखराद्गोशीर्षचन्दनदारु छेदयित्वा श्रीवर्द्धमानस्वामिप्रतिमा निर्वर्तितवान् / ताञ्च मञ्जूषायां क्षिप्तवान् / तस्मिन्नवसरे षण्मासान् यावदितस्ततो भ्रमन् वाहनं वायुभिरा-स्फाल्यमानं विलोकितवान् / तत्र गत्वा चासौ तमुत्पातमुपशामि-तवान् / सांयात्रिकाणां च तां मञ्जूषां दत्तवान्, भणितवांश्च / देवा-धिदेवप्रतिमा चात्रास्ति यत्र चेयं विशेषपूजामाप्नोति तत्रेयं देया देवाधिदेवनाम्नैवेयमुद्घाटयिष्यते भवद्वाहनेऽस्यां स्थितायां न कोऽप्युपद्रवो भविष्यति / ततस्तां लात्वा सांयात्रिका वीतभयपत्तनं प्राप्ताः / तत्रोदायनराजा तापसभक्तस्तस्य सा मञ्जूषा दत्ता। कथितञ्च सुरवचनं मिलितश्च तत्र ब्राह्मणादिको भूरिलोकः भणति च गोविन्दाय नमः इत्युक्ते मञ्जूषा नोद्घाटिता। तत्र के चित् भणन्ति / अत्र देवाधिदेवश्चतुमुखो ब्रह्मास्ति अन्ये केचिद्वदन्ति अत्र चतुर्भुजो विष्णुरेवास्ति / केचिद्भणन्ति अत्र महेश्वरो देवाधिदेवोऽस्ति / अस्मिन्नवसरे तत्रोदायनराजपट्टराज्ञी चेटकराजपुत्री प्रभावती नाम्नी श्रमणोपासिका तत्रायाता। तया तस्या मञ्जूषायाः पूजां कृत्वा एवं भणितं "गयरागदोसमर्माहो, सव्वन्नू अट्ठपाडहरेसंजुत्तो / देवाहिदेवगुरुओ, अइसमे दंसणं देउ।।१।।" एवमुक्त्वा तया मञ्जूषायां हस्तेन परशुप्रहारो दत्तः उद्घाटिता सा मञ्जूषा तस्यां दृष्टाऽतीव सुन्दराम्लानपुष्पमालालकृता श्रीवर्द्धमानस्वामिप्रतिमा जातजिनशासनोन्नतिः अतीवानन्दिता प्रभावती एवं बभाण / 'सव्वन्नु सव्वदं सण, अपुणभवभवियजिनमणाणंद / जय चिंतामणि जय गुरु, जय जय जिणवीर अकलंको॥१॥" तत्र प्रभावत्या अन्तःपुरमध्ये चैत्यगृह कारितं तत्रेयं प्रतिमा स्थापिता। तां च त्रिकालं सा पवित्रा पूजयति / अन्यदा प्रभावती राज्ञी तत्प्रतिमायाः पुरो नृत्यति राजा च वीणां वादयति तदानीं सराजा तस्यां मस्तकं न पश्यति। राज्ञोऽधृतिर्जाता हस्ताद्वीणा पतिता राइया पृष्टं किं मया दुष्टं नर्तितं राजा मौनमालम्ब्य स्थितः / राजा अतिनिर्बन्धे उक्तवान् यस्तव मस्तकमपश्यन्नहं व्याकुलीभूतोहस्ताद्वीणां पातितवान् सा भणति मया सुचिरं श्रावकधर्मः न काधिन्मममरणा-- गीतिरस्ति अन्यदा तत्प्रतिमापूजनार्थं स्नाता सा राज्ञी स्वचेटीं प्रति वस्त्राण्यानयेत्युवाच। तया चरक्तानि वस्त्राण्यानीतानि राज्ञीक्रुद्धा प्राह / जिनगृहे प्रविशन्त्या मम रक्तानि वस्त्राणि ददासीत्युक्त्वा चेटीमादर्शन हतवती मर्मणि प्रत्याहारलग्नात्सा मृता। प्रभावत्या चिन्तितं हा ! मया निरपराधत्रसजीवबधकरणाव्रतं भनमतः परं किं मे जीवितव्येन ततस्तया राइया राज्ञे उक्तम् / अहं भक्तं प्रत्याख्यामि राज्ञा नैवेति प्रतिपादितं तथा पुनस्तथैवोच्यते तदा राज्ञा उक्तं च यदि त्वं देवी भूत्वा मां प्रतिबोधयसि तदा त्वं भक्तं प्रत्याख्याहि / राड्या तद्वचोङ्गीकृतं भक्तंप्रत्याख्याय समाधिना मृता देवलोकं गता देवोऽभूत् / तां च प्रतिमां कुब्जा देवदत्ता दासी त्रिकालं पूजयति। प्रभावती देवस्तु उदायनं राजानं प्रतिबोधयति / न च स तं बुध्यते राजातु तापसभक्तोऽतः स देवस्तापसस्वरूपं कृत्वाऽमृतफलानि गृहीत्वा गतो राज्ञे दत्तवान् / राज्ञा तानि आस्वादितानि पृष्टश्च तापसःक्व एतानि फलानि तापसो भणति। एतन्नगराऽभ्यर्णेऽस्मदाश्रमोऽस्ति तत्रैतानि फलानि सन्ति / राजा तेन सममेकाक्येव तत्र गतः। तापसैस्समाचारैः स हन्तुमारब्धः राजा ततो नष्टः / तस्मिन्नेव वने जैनसाधून ददर्श तेषामसौ शरणमाश्रितः। भयं मा कुर्विति राजाआश्वासितः तापसा निवृत्ताः साधुभिश्च तस्यैवं धर्म उक्तः / 'धम्मो चेवेत्थसत्ताणं, सरणं भव सायरे। देवं धम्म गुरुंचेव, धम्महत्थी परिक्खए // 1 // दस अट्ठदोसरहिओ, देवो धम्मो वि निउणदयसहिओ। सुगुरू य बंभयारी, आरंभपरिगहा विरओ / / 2 // " इत्यादिकोपदेशेन स राजा प्रतिबोधितः / प्रतिपन्नो जिनधर्म प्रभावती देव आत्मानं दर्शयित्वा राजानं च स्थिरीकृत्वा स्वस्थाने गतः। एवमुदायनराजा श्रावको जातः। इतश्च गन्धारदेशवास्तव्यः सत्यनामा श्रावकः सर्वत्र जिनजन्मभूम्यादितीर्थानि वन्दमानो वैतादयं यावद्गतः तत्र शाश्वतप्रतिमावन्दनार्थमुपवासत्रयं कृतवान् तपस्तुष्ट्या तदधिष्ठातृदेव्यास्तस्य शाश्वतजिनप्रतिमा दर्शिता तेन च वन्दिता / अथ तया देव्या तस्मै श्रावकाय कामितगुटिका दत्ता ततः स निवृत्तो वीतभयपत्तने जीवितस्वामिप्रतिमां वनिदतुमायातः गोशीर्षचन्दनमयीं तां ववन्दे / दैवात्तस्याऽतिसारो रोग उत्पन्नः कुब्जया दास्या प्रतिचरितः स नीरुग् जातः तुष्टेन तेन तस्यैकामाङ्गुलिका गुटिका दत्ता कथितश्च तासां चिन्तितार्थसाधकप्र Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदायण 520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदायण भावः। अन्यदा सा दासी अहं सुवर्णवर्णा सुरूपा भवामीति चिन्तयित्वा एकां गुटिकां भक्षितवती सुवर्णवर्णा सुरूपा जाता / ततस्तस्याः सुवर्णगुलिकेति नामजातम्। अन्यदासा चिन्तयतिभोगसुखमनुभवामि एष उदायनराजा मम पिता अपरे मत्तुल्याः केऽपि राजानो न सन्तीति चण्डप्रद्योतमेव मनसि कृत्वा द्वितीयां गुटिकां भक्षितवती तदानीं तस्य चण्डप्रद्योतस्य स्वप्ने देवतया कथितं वीतभयपत्तने उदायनराज्ञोदासी सुवर्णगुलिकानाम्नी सुवर्णव-णाऽतीव रूपवती त्वद्योग्यास्ति / चण्डप्रद्योतेन सुवर्णगुलिकायाः समीपेदूतः प्रेषितः।दूतेन एकान्तेतस्या एवं कथितं चण्डप्रद्योतस्त्वामीहते / तया भणितमत्र चण्डप्रद्योतः प्रथममायातु तं पश्यामि पश्चाद्यथारुच्या तेन सह यास्यामि दूतेन गत्वा तस्या वचनं चण्ड-प्रद्योतस्योक्तं सोऽपि अनिलगिरिहस्तिनमधिरुह्य रात्रौ तत्रायातः। पृष्टस्तया रुचितश्च / सा भणति यदीमा प्रतिमा सार्द्ध नयसि तदाहमायामि नान्यथेति ततस्तेन तत्स्थानस्थापनयोग्यान्या प्रतिमा तदानीं नास्तीति तस्यां रात्रौ तत्र उषित्वा स्वनगरे पश्चाद्गतः / तत्र तादृशीं जिनप्रतिमां कारयित्वा पुनरत्रायातस्तांप्रतिमा तत्र स्थापयित्वा मूलप्रतिमां दासी च गृहीत्वा उज्जयिनीं गतः / तत्रानलगिरिणा मूत्रपुरीषे कृते तद्गन्धेनं वीतभयपत्तनसत्का हस्तिनो निर्मदा जाताः। उदायनराजेन तत्कारणं गवेषितम् / अनलगिरि-हस्तिनः पदं दृष्टम् / उदायनेन चिन्तितं स किमयमत्रायात्ः गृह-मानुषैरुक्तं सुवर्णगुलिका न दृश्यते राज्ञा उक्तं चेटी चण्डप्रद्योतेन गृहीता प्रतिमा विलोकयन्तु तैरुक्तं प्रतिमा दृश्यते परं पुष्पाणि म्लानानि दृश्यन्ते राज्ञा गत्वा स्वयं प्रतिमा विलोकिता पुष्पम्ला-नदर्शनेन राज्ञा ज्ञातं नेयं सा प्रतिमा किं त्वन्येति विषण्णेन राज्ञा दूतश्चण्डप्रद्योतान्तिके प्रेषितः / मम दास्या नास्ति कार्य प्रतिमां त्वरितं प्रेषयेति दूतेन चण्डप्रद्योतस्योक्तं चण्ड प्रद्योतः प्रतिमां नार्पयति तदा सैन्येन समं ज्येष्ठमास एवोदयनश्चलितः / यावन्म-रुदेशे तत्सैन्यमायातं तावज्जलाप्राप्त्या तत्सैन्यःतृषाक्रान्तंव्या-कुलीवभूव। तदानीं राज्ञा प्रभावतीदेवश्चिन्तितः तेन समागत्य त्रीणि पुष्कराणि कृतानि तेषुजललाभात्सर्वं सैन्यं सुस्थं जातं क्रमेण उदायनराजा उज्जयिनी गतः। कथितवांश्व भो चण्डप्रद्योत तव मम च साक्षाद्युद्धं भवतु लोकेन मारितेन अश्वस्थेन रथस्थेन वा त्वया मया च युद्धमङ्गीकुरु चण्डप्रद्योतनोक्तं रथस्थेनैव त्वया मया च योद्धव्यम् / प्रभाते चण्डप्रद्योतः कपटं कृतवान् स्वयं अनलगिरिहस्तिनमारुह्य सङ्ग्रामाङ्गणे समायातः उदायनस्तु स्वप्रतिज्ञानिर्वाही रथारूढः संग्रामाङ्गणे समायातः। तदानीमुदायनेन चण्डप्रद्योतस्यउक्तत्वमसत्यप्रतिज्ञो जातः कपट च कृतवानसि तथापि तव मत्तो मोक्षो नास्तीति भणता उदायनेन रथो मण्डल्यां क्षिप्तः। चण्डप्रद्योतेन तत्प्रष्ठोऽनलगिरिहस्ती वेगेन क्षिप्तः / स च हस्ती यं यं पादमुत्क्षिपति तं तमुदायनः शरैर्विध्यते यावत् हस्ती भूमौ निपतितः। तत्स्कन्धादुत्तरन् प्रद्योतो बद्धः तस्य ललाटे मम दासीपतिरित्यक्षराणि लिखितानि / तत उदायनराजेन चण्डप्रद्योतदशे स्वाधिकारिणः स्थापिताः स्वयंतुचण्डप्रद्योतं काष्ठपञ्जरे क्षिप्त्वा सार्द्धचनीत्वा स्वदेश प्रति चलितः / सा प्रतिमा तु ततो न उत्तिष्ठतीति तत्रैव सा मुक्ता। अव्यवच्छिन्नप्रयाणैश्चलितस्य अन्तरा वर्षाकालः समायातस्तेन रुद्धो दशभीराजभिवूलीप्राकारं कृत्वा मध्ये स रक्षितः / सुखेन तत्र तिष्ठति यत्स्वयंभुङ्क्तेतचण्डप्रद्योतस्यापि भोजयति। एकदापर्युषणादिनमायातं तदा उदायनेन उपवासः कृतः सृपकारैः चण्डप्रद्योतः पृथग भोजनार्थ पृच्छ्यते तैरुक्तमद्य पर्युषणादिने उदायनराजा उपोषितोऽस्तीति यद्भवतो रोचतेतत्पच्यते। चण्डप्रद्योतेनोक्तं ममाप्यद्योपवासोऽस्तिन ज्ञातं मयाद्य पर्युषणा दिनं सूपकारैः चण्डप्रद्योतस्य उक्तमुदायनराजाय तेनापि चिन्तितं जानाम्यहं यथायं धूर्तसाधर्मिकोऽस्ति तथाप्यस्मिन् बद्धे मम पर्युषणानशुध्यति चण्डप्रद्योतो मुक्तः क्षामितश्च तदक्षराच्छादननिमित्तं रत्नपट्टस्तस्य मूर्ध्निबद्धः / स्वविषयश्च तस्य दत्तः। ततः प्रभृति पट्टबद्धा राजानो जाताः / मुकुटबद्धाश्च पूर्वमप्यासन् वर्षारात्रे व्यतिक्रान्ते उदायनराजस्ततः प्रस्थितः व्यापारार्थं योवणिग्वर्गस्तत्रायातः स तत्रैव स्थितः दशभीराजभिर्वासितत्वाद्दशपुरं नाम नगरं प्रसिद्धंजातम्। अन्यदा सउदायनराजः पौषधशालायां पौषधिकः पौषधं प्रतिपालयन् विहरति / पूर्वरात्रिसमय च तस्यैतादृशोऽभिप्रायः समुत्पन्नः धन्यानि तानि ग्रामाकरनगराणि यत्र श्रमणो भगवान् श्रीमहावीरो विरहति / धन्यास्ते राजेश्वरप्रभृतयो ये श्रमणभगवतः श्रीमहावीरस्यान्तिके केवलिप्रज्ञप्त धर्म शृण्वन्ति / पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं श्रावकधर्मश्च प्रतिपद्यन्ते / तथा मुण्डीभूत्वा आगारादनगारितां व्रजन्ति / ततो यदि श्रमणभगवान् श्रीमहावीरः पूर्वानुपूर्त्या चरन् यदीहागच्छेत्त-तोऽहमपि भगवतोऽन्तिके प्रव्रजामि / उदायनस्यायमध्यवसायो भगवता ज्ञातः प्रातश्चम्पातःप्रतिनिष्क्रम्य वीतभयपत्तनस्य मृगवनोद्याने भगवान् समवसृतः / तत्र पर्षन्मिलिता उदायनोऽपि तत्रायातो भगवदन्तिके अहं प्रव्रजिष्यामि परं राज्यं कस्मैश्विद्ददामीत्युक्त्वा भगवन्तं वन्दित्वास्वगृहाभिमुखं चलितः / भगवतापि प्रतिबन्ध मा कार्षीरित्युक्तम् / ततोहस्तिरन्तमारुह्य उदायनराजः स्वगृहे समायातः / तत उदानस्यैतादृशोऽध्यवसायः समुत्पन्नः यद्यहं स्वपुत्रमभीचिकुमार राज्ये स्थापयित्वा प्रव्रजामि तदायं राज्ये जनपदे मानुष्यकेषु कामभोगेषु मूर्छितोऽनाद्यनन्तं संसारकान्तारंभ्रमष्यिति ततः श्रेयः खलु मम निजकं केसिकुमारं राज्ये स्थापयितुम् / एवं संप्रेक्ष्य शोभने तिथिकरणमुहूर्ते कौटुम्बिकपुरुषनाकार्य एवमवादीत् / क्षिप्रमेव के शिकुमारस्य राज्याभिषेकसामग्रीमुपस्थापयत तैः कृतायां सर्वसामग्यां केशिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः / ततस्तत्र केशिकुमारो राजा जातः / उदायनराजश्व केशिकुमारंराजानं पृष्ट्वा तत्कृतनिष्क्रमणाभिषेकः श्रीमहावीरान्तिके प्रव्रजितः बहूनि षष्ठाष्टमदशम-द्वादशमासार्द्धमासक्षपणादीनि तपः कर्माणि कुर्वाणो विहरति / अन्यदा तस्य उदानयराजर्षेरन्तप्रान्ताहारकरणेन महान् व्याधिरुत्पन्नः वैद्यैरुक्तं दध्यौषधं कुरु / स च उदायनराजर्षिर्भगवदाज्ञया एकाक्येव विहरति / अन्यदा विहरन् वीतभयगतः / तत्र तस्य भागिनेयः केशिकुमारराजोमात्यैर्भणितः स्वामिन्नेष उदायनराजर्षिः परीषहादिपराभूतः प्रव्रज्यां मोक्तुकामः एकाक्येव इहायातः / तव राज्य मार्गयिष्यति / स प्राह दास्यामि तैरुक्तं नैप राजधर्मः / पुनः स प्राह तर्हि किं करिष्यति / ते प्राहुर्विषमिश्रमस्य दीयते राज्ञोक्तं ततस्तैरेकस्याः पशुपाल्या गृहे विषमिश्रितं दधि कारितं तेषां शिक्षया तया तस्य तदत्तमुदायनभक्तं यावद्देवतयाऽपहृतम्। उक्तं च तस्य देवतया महर्षे ! तव विषं दत्तं दध्यान्तस्तेन दध्यौषधं परिहर / तद्वाक्याद्दधि परिहतं रोगो बर्द्धितुमारब्धः। पुनस्तेन दध्यौषधं कर्तुमारब्धं पुनरपि तदन्तर्विषं देवतयाऽपहृतम्। एवं वारत्रयं जातम्।अन्यदा देवता प्रमत्ता जाता तैश्च विष दत्तम् / तत उदायनराजर्षिर्बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा मासिक्या संलेखनया केवलज्ञानमुत्पाद्य सिद्धस्तस्य शय्यातरः कुम्भकारस्तदानी क्वचिद्यामान्तरे कार्यार्थं गतोऽभूत् कुपितया च देवतया वीतभयस्योपरि पांशुवृष्टिर्मुक्ता सकलमपि पुरमाच्छादितम् / अद्यापि तथैवास्ति शय्यातरः कुम्भकारस्तु शनिपल्ल्यां मुक्तः / उत्त०१८ अ० / Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदायण 821 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदाहरण 18 अ०। आ००।आ०म०॥ (अभीचिकुमारस्य वक्तव्यता स्वावसरे प्रोक्ता अस्या एव महत्या उदायनवक्तव्यतायाः केचिदंशा अज्जरक्खियनिव्वडियसिक्खादिशब्देषु / उदायनस्य पितृष्वसुर्जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः कथा जयंतीशब्दे) उदार(राल) त्रि०(उदार) उद्-आ-रा-क-दातरि, महति, सरले, दक्षिणे, गम्भीरे, असाधारणे, वाच० 1 निस्पृहत्वातिरेकादौदार्यवति, / भ०२श०१ उ०। उदात्त न०(उदारत्व) अभिधेयार्थस्यातुच्छरूपे, स० / अतिशिष्टगुम्फगुणयुक्ततास्वरूपे अन्यस्वार्थप्रतिपादकतालक्षणे वा द्वाविंशतितमे सत्यवचनातिशये, स०। उदासीण त्रि०(उदासीन)उद्-आस-शानच्०ा रागद्वेषरहितेमध्यस्थे, "उदासीणे फरुसंवयंति" उदासीना रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तास्तान् स्खलितांश्चोदनोद्यतान् कुर्वन्ति। आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ०।। 'समणपि दद्धदासी णं, तत्थ विताव एगे कुप्पंति" सूत्र० १श्रु०४ अ०२ उ०। विवदमानयोरेकतरपक्षानालम्बके जिगीषोर्नृपतेः शत्रुमित्रभूमितो व्यवहितेपरतरे मण्डलादहिरेतस्मादुदासीनो बलाधिकः इत्युक्तलक्षणे राजभेदे, वाच०। उपेक्षमाणे च स्था०६ ठा०। उदाहड त्रि०(उदाहृत) उद्-आ-हु-क्त दृष्टान्ततयोपन्यस्ते कथिते, वाच०। उपन्यस्ते, उदाहृतं तु"समं मईए अहाउ सो विप्परिया समेव" सूत्र०१ श्रु०६अ। उदाहरंत त्रि०(उदाहरत्) प्रतिपादयति, 'सच्चं असचं इति' चिंतयं ता, "असाहु साहुत्ति उदाहरंता"। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। उदाहरण न०(उदाहरण) उदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दार्टान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणम् / दश०१ अ० / उत्पत्तिधर्मकत्वात्सा-- ध्यसाधयत्तिद्धर्मभावे दृष्टान्ते, यथा घट इति वैधोदाहरणं यदनित्यं न भवति तदुत्पत्तिमदपि न भवति यथाकाशमिति / सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। विशे०। __ मूलभेदतो द्वैविध्यं निदर्शन्नाह। तत्थोदाहरणं दुविहं, चउट्विहं होइ एकमेकं तु / हेऊ चउदिवहो खलु, तेण उ साहिजए अत्थ / / तत्र शब्दो वाक्योपन्यासार्थो निर्धारणार्थो वा / उदाहरणं पूर्व-वत्तच्च मूलभेदतो द्विविधं द्विप्रकारं चरितकल्पितभेदादुत्तरभेदतस्तु चतुर्विधं भवति तयोर्द्वयोरेकैकमुदाहरणमाहारणतद्देशतद्दोषोपन्यासभेदात्तका वक्ष्यामः। नायं आहरणं ति, दिटुंतोवमनिदरिसणं चेव। एग8 तं दुविहं, चउव्विहं चेव नायव्वं // 52|| ज्ञायतेऽस्मिन्सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्। अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः / तत्रोदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दाान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणमिति दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः / अतीन्द्रियप्रमाण-दृष्ट संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः। उपनीयतेऽनेनदान्तिकोर्थः इत्युपमानम्। तथा च निदर्शनं निश्चयेन दर्श्यते अनेन दार्शन्तिक एवार्थ इति निदर्शनम् (एगटुंति) इदमेकार्थमे कार्थिक जातम् इह च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि सामान्यविशेषयोः कथंचिदेकत्वादत एव सामान्यस्यापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनाभिधानमेकार्थ-मित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्गमनिकामात्रमेतदिति गाथार्थः। साम्प्रतं यदुक्तं तत्रोदाहरणं द्विविधमित्यादितद्वैविध्यादिप्रदर्शनायाह / चरियं च कप्पियं वा, दुविहं तत्तो चउविहेकेकं / आहरणे तद्देसे , तद्दोसे चेवुपन्नासे / / 53|| चरितं कल्पितं चेति द्विविधमुदाहरणम् / तत्र चरितमभिधीयते यद्वृत्तान्तेन कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते / तद्यथा दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य / तथा कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते तेन कस्यचिद्दान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते / यथा पिप्पलपत्रैरनित्यतायामित्युक्तं च "जह तुभेतह अम्हे, तुडभे विय होहि य जहा अम्हे। अप्पाहेइ पडतं, पंडुयफ्तं किसलयाणं। नवि अत्थिनवि य होही, उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं / उवमा खलु एस कता भवियजणविवोहणढाए'' इत्यादि आहेदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते तस्य च साध्यानुगमादिलक्षणमित्युक्तं च "साध्ये नानुगमो हेतोः साध्याभावे च नास्तिता / ख्याप्यते यत्र दृष्टान्ते, स साधर्म्यतरो द्विधा" अस्य पुनस्तल्लक्षणाभावात्कथमुदाहरणत्वमित्यत्रोच्यते तदपि कञ्चित्साध्यानुगमादिना दार्शन्तिकार्थं प्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरण इहापि च सोऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणतेति साध्यानुगमादिलक्षणमपि सामान्यविशेषोभयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथंचिद्भेदवादिन एव युज्यते नान्यस्यैकान्तभेदाभेदयोस्तद्भावादिति / तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञा दृष्टान्तार्थभेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वा-दिप्रतिबन्धदर्शनमपि कृतानुपयोग्येव भिन्नवस्तुधर्मत्वात्सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्वादित्थमपि च तद्लेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहुवक्तव्यं तत्तुनोच्यतेग्रन्थविस्तरभयादिति। एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदभावो भावनीय इति / अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनितद्धर्भसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवत्यन्यथा तस्मिन् तत्प्रतिपत्त्यसंभव इति कृतं प्रसङ्गेन। प्रकृतं प्रस्तुमः / चरितं च कल्पितं चेत्यनेन विधिना द्विविधम् / पुनश्चतुर्विधं चतुःप्रकारमेकैकं कथमत आह / उदाहरणं तद्देशस्तदोषश्चैवमुपन्यास इति। तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एव। तस्य देशस्तद्देशः / एवं तद्दोषः / उपन्यासनमुपन्यासः स च तद्वस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः / ___ साम्प्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आह। चउहा खलु आहरणं, होइ अवाओ उवायठवणा य। तह य पडुप्पन्नविणा-समेव मढमं चउविगप्पं // 54 // चतुर्दा खलूदाहरणं भवति। अथ चतुर्दा खलूदाहरणे विचार्यमाणे भेदा भवन्ति / तद्यथाअपायः उपायः स्थापना च / तथा च प्रत्युत्पन्नविनाशमेवेति / स्वरूपमेषां प्रपञ्चेन भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यते / दश० नि० 1 अ० / आव० / (अपायादिशब्देषु अपायाधुदाहरणादि) एकदेशप्रसिद्ध्या सकलसिद्ध्यर्थकथने, कर्मणिल्युट्- इष्ट-सिद्ध्यर्थमुच्यमाने दृष्टान्ते, / प्रकृतसिद्ध्यर्थनिदर्शनरूपे उपोद्धृते च / करणे-ल्युट्- न्यायमते प्रतिवादिना प्रयुक्तप्रतिज्ञादिपञ्चकान्तर्गते व्याप्तिपक्षधमताप्रदर्शक, वाक्यभेदे कथनमात्रे, लक्षणसम्बद्धतया प्रामाणिकवाक्योपन्यासे , कथा प्रसङ्गे च / भावेल्युट् वाच० / काल्पनिकमप्युदाहरणं भवति / न चैतदनुपपन्नमारपि काल्पनिकदृष्टान्तस्याभ्यनुज्ञानाद्यदाह भगवान् भद्रबाहुस्वामी "चरियं च कप्पियंवा, आहरणं दुविहमेव पण्णत्तं। अट्ठस्स माहणट्ठाइँ धणमिव तु पणट्ठाण" नं० Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहिय 822 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्दाम उदाहिय त्रि०(उदाहृत) व्याख्याते, "जामा तिण्णि उदाहिया' आचा० यत्र पूर्य्यन्ते, वृ०१ उ०। सुभिक्षे, नि० चू०१० उ० ! दुविहाओ होंति १श्रु०७ अ०१ उ०। उदरा, पेढे तह धन्नभाणिया ते उदरा द्विविधास्तद्यथा पोहदरा उदाहु अव्य०(उताहो) विकल्पे; "किं भवं मुणी मुणीए उदाहो जुया धान्यभाजनदराश्च / पोट्टमुदरं तद्भयाद्दरा पोट्टदराः / धान्यभाजनानि सेजायरए'' उताहो इति विकल्पार्थो निपातः / भ० 15 श० 1 उ० / कटपल्यादयस्तान्येव दरा धान्यभाजनदरा / ऊर्द्ध यत्र पूर्यन्ते "किंजाणया दिण्णं उदाहु अजाणया' आचा०२ श्रु०। कदाचिच्छब्दार्थे , तदूर्ध्वमुदरमुच्यते। वृ०१ उ०नि० चू०। आचा०१ श्रु०७ अ०२उ०॥ उद्दरिय त्रि०(उदृप्त) उद्-दृप-क्त-उद्धते, गर्वान्विते, वाच० / प्राबल्येन *उदाहृतवत् त्रि०व्याकृतिवति, "उयाहुते आयं काफुसन्ति इति उदाहु कर्मशत्रुजयं प्रति दर्पिते, / नं०। धीरे"। आचा० 1 श्रु०७ अ०२ उ० / कथितवर्ति, "एओ वमं तत्थ उद्दवइत्ता त्रि०(अपद्रावयितृ) प्राणव्यवरोपणात् जीवितविनाशके, उदाहु धीरे। सूत्र० 1 श्रु०१५ अ०1" "एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी "उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं अणुत्तरदंसी''। उत्त०६ अ०। उवक्खाइत्ता भवई"। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उदि पुं०(उदि) उत्-उत्कृष्ट इ: कामो यस्य उदिः / उत्कृष्टकामयुक्ते उद्दवण न०(अपद्रावण) जीविताद् व्यपरोपणे, / आचा० 2 श्रु०। 'भर्गो देवस्य धीमहि गा०। अतिपालनविवर्जितपीडायाम्, / "उद्दवणं पुण जाणासु, अइवायउदुब्भेय पुं०(उदको द) गिरितटादिभ्यो जलोद्भवे, भ०३ श०६ उ०॥ विवज्जियं पीड' पिं० / सर्वथा जीवविनाशने च / तच पृथिव्यग्न्योउदूढ त्रि०(उदूढ) वह-त। जढे, स्थूले, घृते, च। विवाहितस्वि-याम्, रभ्यन्तरसंमईनाद्यैः अप्कायस्य तु वह्नितापनदण्डाद्यभिधातपास्त्री०। वाच०। नपादादिक्षालनैः वनस्पतेः पत्रपुष्पाङ् कुरादित्रोटनादिभिः / अत्र उदूढ (देशी) वचनम्-मुषिते च "उदूढ सेसवाहिं अंतोवि पंचगि प्रायश्चित्तमाम्ल इति / जीत। "उद्दवणं मारणं" तत्र प्रायश्चित्तं ण्हनदुहम्" वृ०१उ०॥ नि० चू०। पाराञ्चितम्। नि० चू०१ उ०। उदूहल न०(उदूखल) ऊर्द्ध खं लाति ला० क० पृषो०नि०। उद्दवण पुं०(अपद्रवण) गौणहिंसायाम्, प्रश्न०–अध० 1 द्वा० / तण्डुलादिखण्डनार्थं काष्ठादिरचिते द्रव्ये, गुग्गुलौ चावाच०।"पीढ़ वा विद्ययाऽन्यत्र नयने, वृ० १उ०। फलगं वा णिस्सेणिं वा उदूहलं वा अवहट्टउस्स वि य दुहहेजा" उद्दवणकर पुं०(अपद्रावणकर) मारणान्तिकभेदकारिणि, ग०१ आचा०२ श्रु०॥ अधि०। उह पुं०(उद्र) उनत्ति ल्किद्यति उन्द-रक् / जलविडाले, वाच० / *उपद्रवणकर पुं०धनहरणाद्युपद्रवकारिणि, एषोऽप्रशस्तमनोवि सिन्धुविषये मत्स्ये, तत्सूक्ष्मचर्म निष्पन्ने वस्त्रे च। आचा० 1 श्रु०॥ नयभेदः, ग०१ अधि० औप०।। उइंडगपुं०(उदंडक) वानप्रस्थतापसभेदे, ऊर्द्धकृतदण्डा ये सञ्च-रन्ति, उद्दवणकरी स्त्री०(अपद्रावणकरी) जीवानामपद्रावणकारिण्याम्, नि० चू० 1 उ०। औप० / भ०] "परितावणकरिं उद्दवणकरि भूतोवधाइयं अभिकखणो भासेज्जा'' उदंड विहार पुं०(उद्दण्डविहार) महानगर्यामादिनाथालये, महा- आचा०२ श्रु०॥ नगर्यामुद्दण्डविहारे श्री आदिनाथः / ती०। उद्दविजमाण त्रि०(अपद्राव्यमाण) मार्यमाणे, "किलाविजमाणस्स वा उइंस पुं०(उदंश) उद्दशति-उद्-देश-अच् -मस्तकदंशके, वाच०। उद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणं मायमविहिं सासारगं दुक्खं भयं मधुमक्षिकायाम्, क०। पडिसंवेदेति। सूत्र०२ श्रु०१ अ०) उद्दसडं न०(उदंशाण्ड) षष्ठीतत्पु० मधुमक्षिकाणामण्डरूपे अण्ड- उद्दविय त्रि०(अपद्रावित) उत्रासिते, "परिताविया किलामिया उद्दविया सूक्ष्मभेदे, क०। ठाणाओ ठाणं संकामिया'। ध०२ अधि०। मारिते, भ०२ श०१ उ०। उबंसग पुं०(उदंशक) त्रीन्द्रियजीवभेदे,-प्रज्ञा०१ पद। जी०। उद्दवेयव्व त्रि०(अपद्रावयितव्य) जीविताव्यपरोपयितव्ये "अहं ण उघड पुं०(उद्दग्ध) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वावलिकां सीमन्त- / उद्दवेयव्वा अण्णे उद्दवेयव्वा एवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया''। सूत्र०२ कप्रभान्नरकादिशतितमेऽपक्रान्तमहानिरये, स्था०६ ठा०। श्रु०३ अ०। उद्दडमज्झिम पुं०(उद्दग्धमध्यम) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उत्तरा- | उद्दवेहिंत त्रि०(उपद्राविष्यत्) उपद्रवान् करिष्यति,-भ० 15 श०१३० / वलिकासु सीमन्तकमध्यमान्तरकाविंशतितमेऽपक्रान्तमहानिरये, उद्दह पुं०(उद्रथ) उद्गतो रथो यस्मात् 1 रथकीले, उद्गतरथतुल्यः पक्षो स्था०६ ठा०। यस्य। ताम्रचूडविहगे, / मेदिनी०। उद्दड्डावत्त पुं०(उद्दग्धावर्त) रत्नप्रभायाः प्रथिव्याः पश्चिमायां नरकावल्यां उद्दाइत्ता अव्य०(अपद्रूय) मृत्वेत्यर्थे, "जण्ण जीवा उद्दाइत्ता इत्थेव सीमन्तकावर्तस्यापरेण विंशतितमेऽपक्रान्तमहान-रके,-स्था०६ ठा०। भुञ्जो 2 पञ्चायंति" स्था०१० ठा०। उद्दड्डावसिह पुं०(उद्दग्धावशिष्ट) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पश्चिमायां उद्दाणभत्तारा स्त्री०(उद्दानभर्तृका) भ; परिष्ठापितायां स्त्रियाम्, रनकावल्यां सीमन्तकावर्तस्यापरेण विंशतितमेऽपक्रान्तमहानरके, "उद्दाणभत्तारा भत्तारेण परिठ्ठाविता' नि०चू०१ उ०। स्था०६ ठा०। उद्दाम त्रि०(उद्दाम) उद्गतं दाम्नः अच्-समा० / बन्धनरहिते, "ताहे उद्दहरन०(उर्द्धदर) उर्ध्वं दरः पूर्यते यत्र काले तदूर्द्धदरम्। प्राकृतशैल्या उद्दामं गच्छंतस्स कलिंगे ईसिं पाणिए तलाए पक्खा भग्गा''| आ०म० "उद्दहरं" तेच दरा द्विविधा धान्यदरा उदरदराश्च / धान्यानामाधारभूता द्वि० / अप्रतिनियमे, स्वतन्त्रे, अत्युग्रे च / वाच० / ''एवं दरा धान्यदराः कटपल्यादयः / उदराण्येव दरा उदरदरास्ते उभयेऽपि च कुसलजोगे उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा" पं० चू०। उत्-उत्कृ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्दाम 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस ष्ट श्रेष्ठ दाम पाशाख्यमस्त्रं यस्यावरुणे, पुं०। गम्भीरे, / त्रि०ावाच०। उद्दाल धा०(आ-छिद्) हस्तादाकर्षणे, "आङा ओ आन्दोद्दालौ" ||25|| उद्दालइ-आच्छिन्दइ आच्छिन्दति, प्रा०। *अवदालपुं० अवदलने, पादादिन्यासेऽधोगमने, 'गंगापुलिणवालुयउद्दालसालिसए। ज्ञा० 1 अ०। चं०। क०। भ० / रा० / उद्दालयति भूमिमुद्भिनत्ति उद्-दल-णिच्–ण्वुल्-बहुवारकवृक्षे, वनकोद्रवे, / वाच०। अवसर्पिण्याः प्रथमारके, भरतक्षेत्रे स्वनाम-ख्याते द्रुमभेदे,। ज०२वक्ष०ा भूकेदारभेदे च / वाचा उद्दालित्ता अव्य०(उद्दालयितुम्) चर्माणि लुम्पयितुमित्यर्थे , दशा०१ अ०।जोलेणवा वेतेण वा णेतेण वा तयाइ वा कसेण वा छियाए वा लयाए वा पासाई उद्दालित्ता भवइ" // सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उद्दाव पुं०(उद्राव) उद्-द्रु-घञ्-पलायने, / अमरः। वाच०। उद्दावणया स्त्री०(अपद्रावणता) उत्त्रासने, भ०३ श०६ उ०। उद्दाह पुं०(उद्दाह) प्रकृष्ट दाहे, / स्था० 10 ठा० / उद्दिढ त्रि०(उद्दिष्ट) उद्-दिशक्त० सामान्यतोऽभिहिते, स्था० 5 ठा० / प्रति०। प्रतिपादिते,। सूत्र०१ श्रु०६ अातद्विवक्षिर्ता-यप्रणीते, सूत्र० 2 श्रु०६ अ०। वृ० / निर्दिष्ट, दश० ! नि०चू० / दानाय परिकल्पिते / भक्तपानादिके, / "तस्स अकसिणो इसिणो णायपुत्ता उद्दिभत्तं परिवजयत्ति" सूत्र०२ श्रु०६ अभिलषिते च। वाच०।। उद्दिकड त्रि०(उद्दिष्टकृत) उदिष्टमुद्देशस्तेन कृतं विहितं तद (साध्व) र्थं संस्कृते, "उद्दिट्ठकडं भत्तं विवज्जती किमुपसेसमारंभे"। पंचा०१० विव० / साध्वपेक्षया कृते आधाकदिौ , पंचा०१४ विव०। औद्देशिके, "उद्विवकर्ड भुंजइ, छकायपमद्दणो घणं कुणइ। पचक्खं च जलगए, जो पियइकण्ण सो भिक्खू''। दश० 10 अ०। उद्दिष्ट च कृतं च उद्दिष्टकृतम् आधाकर्मणि, दर्श०। उद्दिद्वपडिमास्त्री०(उद्दिष्टप्रतिमा) दशमासानात्मर्थिनिष्पन्न-माहारंन / भुङ्क्ते इत्येवं रूपायां दशम्यामुपासकप्रतिमायाम्, ध०२ अधि०। उद्दिद्व भत्तपरिण्णाय पुं०(उद्दिष्ट भक्तपरिज्ञात) उद्दिष्टं तदेव श्रावकमुद्दिस्य कृतं भक्तमोदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं येनासाबुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः। दशमीमुपासकप्रतिमा प्रतिपन्ने श्रावके, स०) उद्दिभत्तवजणपडिमा स्त्री०(उद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमा) दशम्या श्रावकप्रतिमायाम्, तत्स्वरूपं चैवम् / उद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमां सा चैव "उद्दिट्ठकई भत्तं, पि वजए किमय सेसमारंभ। सो होई खुरमुंडो , सिंहलिं वधारते को वि तिव्वं तुट्ठोजाणे, जाणेइ वयइनोवेति।पुढ्योदियगुणजुत्तो, दसमासा कालमाणेणं''। उपा०१अ०।तथा श्रमणेति निर्गन्थसद्वेद्यस्तदनुष्ठानकरणात्स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः / चकारः समुच्चये अपिः संभावने भवति। श्रावक इति प्रकृतं हेश्रमण ! हेआयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनमामन्त्रयतोक्तमित्येकादशीति / इह चेयं भावना / पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य इसिमित्यादिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थं गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय भिक्षोयेति भाषमाणस्य कस्त्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिपन्नश्रमणोपासकोऽहमिति ब्रुवाणस्यास्यैकादश मासान् यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति। पुस्तकान्तरे त्वेवं "वाचनादसणसावए प्रथमा कयवयक द्वितीया / कयसामाइए तृतीया / पोसहोववासनिरए चतुर्थी / राइभत्तपरिन्नाए पञ्चमी / सचित्तपरिण्णाए षष्ठी। दिया बंभयारी राओ परिमाणकडे सप्तमी। दिआ वि राओ वि बंभयारी असिणाणपयावि भवति योसट्टकेसरोमनहे अष्टमी। आरंभपरिणाए नवमी। उद्दिष्टभत्त-वज्जए दशमी / समणभूएया वि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति / क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी। प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी / उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति।। स०॥ प्रश्न०॥ उद्दित्त त्रि०(उद्दीप्त) प्रकाशान्विते, वाच०।"उद्दयिते कुड्डाकलिंपणट्ठा। पुढवी दगवारगो य उद्दित्तो (उद्दित्तत्ति) अग्निकायः शीतकाले उद्दवितो भवति। वृ०१ उ०। *उद्रिक्त त्रि०(उद् रिच-क्त)अतिशयिते,अधिके, स्फुटे, वाच०। उहिसावित्तए अव्य०(उद्देसयितुम्) आत्मनो गुरुतया व्यवस्था पयितुमित्यर्थे , वृ०१ उ०। उद्दिसिऊण अव्य०(उद्दिश्य) अनुज्ञाप्येत्यर्थे, / व्य०७ उ०। उद्दिसिजंता त्रि०(उद्दिश्यमान) वाच्यमाने, आ०म० द्वि०। उद्दिसित्तए अव्य०(उपदेष्टुम् ) स्वयंधारयितुमित्यर्थे, "दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तएजहा तस्स गणस्स अप्पतियं सिया''। व्य० द्वि०२ उ०। योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीष्वेदमित्येव-मुद्देष्टुमित्यर्थे, "सजंकायं उद्दिसित्तए'" स्था०२ ठा०। उद्दिसिय अव्य०(उद्दिश्य) उद्-दिश-ल्युप-प्रेक्ष्येत्यर्थे, "से भिक्खू वा 2 उद्दिसिय उद्दिसिय संथारगंजाएज अंगुलियाए उद्दिसिय उद्दिसिय" उद्दिश्य अड्गुली प्रसार्य। आचा०२ श्रु०१ अ०। *उद्दिष्ट त्रि० प्राक् संकल्पिते. "उद्दिसियवत्थं सयं वाण जाएजा आचा० २श्रु०॥ उद्दिस्स अध्य०(उद्दिश्य) उद्- दिश्-- ल्युप- आश्रित्येत्यर्थे , "जतामहूसवो खलु उहिस्स जिणेस कीरई जो उ'' पंचा० 6 विव०॥ अङ्गीकृत्येत्यर्थे च। "तत्थ भवे आसंका उहिस्सजई विकीरए योगो। दश०१०॥ उद्दीविय त्रि०(उद्दीपित) उज्ज्वालिते, "संधुक्किय मुद्दीविय मुजालिययं पदीवियं जाण" को01 उद्देस पुं०(उद्देश) उद्दिश्यते नारकादिव्यपदेशेनेति उद्देशः / लोके / आचा० 1 श्रु०१ अ०। उद्दिश्यते इत्युद्देशः / उपदेशे, सदसत्कर्तव्यतादेशे, नारकादिव्यपदेशे, "उद्देसोपासगस्स णत्थि" उद्दिश्यते इत्युद्देश उपदेशः सदसत्कर्तव्यादेशः स पश्यति इति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य स विद्यते स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य अथवा पश्यतीति पश्यकः सर्वज्ञस्तदुपदेशवर्ती वा तस्य उद्दिश्यत इत्युद्देशो नारकादिव्यपदेश उच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वा स तस्य न विद्यते तस्य प्रागेव मोक्षगमनादिति भावः / आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। गुरुवचने, उत्त०१अ01अध्ययने, तदन्तर्गताधिकारे च। भणिओ वियदुच्छोव्विय छठुद्देसे विसेसेणं' नं०। समस्तार्थिनां कृते कल्पिते, ध०३ अधि०॥ अस्थनिक्षेपः। तत्रोद्देशः षोढा नामोद्देशः स्थापनोद्देशो द्रव्योद्देशः क्षेत्रोद्देशः कालोद्देशो भावोद्देश-श्चेति / नामोद्देशो यस्योद्देश इति नाम क्रियते / स्थापनोद्देश उद्देशवतः पुरुषादेः / स्थापना / द्रव्योद्देश ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्तं स्वयमेव भाष्यकृदाह॥ दवेणं उद्देसा, उद्दिसति जाव जेण दव्वेणं / दव्वं वा उद्दिसते, दव्वभूओ तदट्ठव्वो॥ द्रव्येण रजोहरणादिना यदुद्देशः यो वा येन सचित्तादिना द्रव्येणोद्दिश्यते तत्र सचित्तेन यथा गोभिर्गोमान् तुरगैस्तुरगपतिः गजैर्गजपतिरिति / अचित्तेन यथा दण्डेन च दण्डी छत्रेण Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस छत्री कपालेन कपालीत्यादि / मिश्रेण यथा शकटेन शाकटिको रथेन रथिक इत्यादि। द्रव्यं वा व्याधिप्रशमनं यदुद्दिशति। अमुक-मौषधं द्रव्यं भवता गृहीतव्यमिति / द्रव्यभूतो वा ज्ञानानुपयुक्तः पदं / न श्रुतस्कन्धादिकमुद्दिशति द्रव्यार्थी वा द्रव्य निमित्तं धनुर्वेदा-दिकं यदुद्दिसति एष सर्वोऽपि द्रव्योद्देशः।। खित्तम्मि जम्मि खित्ते, उदिसतीजाव जेण खेत्तेण। एवमेवय कालस्स वि, भावे उपसत्थअपसत्थो॥ क्षेत्रोद्देशे चिन्त्यमाने यस्मिन् क्षेत्रे अङ्ग श्रुतस्कन्धादेरुद्देशः क्रिय-ते व्यावर्ण्यतेवायोवा येन क्षेत्रेणोद्दिश्यते यथा भरते भवो भारतः। सुराष्ट्रायां भवः सौराष्ट्रो मगधेषु भवो मागध इत्यादि / एवमेव च यस्मिन् काले अङ्गादिकमुद्दिश्यते येन वा कालेनोद्दिश्यते यथा सुषमायां भवः सौषमः शरदि जातः शारद इत्यादि एष कालोद्देशः / भावोद्देशो द्विधा प्रसस्तोऽप्रशस्तश्च / उभयमपि दर्शयति!! कोहाइ अपसत्थो, णाणामादीय होइ उ पसत्था। उदओ वि खलु पसत्थो, तित्थकराहार उदयादा।। क्रोधमानादिरौदयिको भावोद्देशः / ज्ञानदर्शनादिक्षयोपशमिक | औपशामिकः क्षायिकोपशमिको वा भावः प्रशस्तो भावाद्देशो भवति उदयोऽप्यौदायिको भावोऽपि तीर्थकराहारयशः कीर्त्या दिसत्कर्मोदयरूपप्रशस्तो भवति / आदिशब्दस्य गाथायां व्यत्ययेन निर्देशो बन्धानुलोम्यात् / वृ० 3 उ० / उद्देशनमुद्देशः / सामान्याभिधाने, यथाऽध्ययनमिति / आ०म०प्र० / विशे०। अनु०॥ उद्देशनिर्देशयोः स्वरूपं भाष्यकृदाह॥ अज्झयणं उद्देसो, अभिहियं सामाइयंति निहसो। सामण्णविसिट्ठाणं, अभिहाणं सत्थनामाणं / / शास्त्रं च नाम च शास्त्रनामनी तयोः सामान्यविशिष्टयोः सामान्यविशेषभूतयोरोघनिष्पन्ने नामनिष्पन्ने च निक्षेपे यदभिधानमभिहितं तायुद्देशनिर्देशौ यथा संख्येन चेह योजना / तद्यथासामान्यस्य शास्त्रस्यौघनिष्पन्ननिक्षेपे यदध्ययनमित्यभिधानमभिहितं त उद्देश इत्युच्यते। नामनिष्पन्ने च निक्षेपे विशिष्टस्य नाम्नो यत्सामायिकमित्यभिधानमभिहितं स निर्देश इत्यभिधीयत इति // अस्यनिक्षेपो यथा।।। नाम ठवणा दविए, खित्ते काले समासउद्देसे। उद्देसम्मि य भावे, एमाई होइ अट्ठमओ॥ नामादिभेदादुद्देशोऽष्टविधस्तद्यथा नामोद्देशः स्थापनोद्देशो द्रव्योद्देशः क्षेत्रोद्देशः कालोद्देश उद्देशोद्देशः समासोद्देशो भावोद्देशो भवत्यष्टमक इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः। तत्र नामोद्देशं व्याख्यातुमाह भाष्यकारः॥ नामंजस्सुद्देसो, नामेणुद्देसए व जो जेण। उद्देसो नामस्सव, नामुद्देसोभिहाणंति॥ यस्यं जीवादेर्वस्तुन उद्देश इति नाम क्रियते स नामोद्देशः / नामरूप उद्देशो नामोद्देशःयथा गोपालदारकादिरुद्देश इति नाम (नामेणुद्देसत्ति) यो वा घटपटस्तम्भादिपदार्थो येन घटपटस्तम्भादिनाम्ना उद्दिश्यते प्रतिपाद्यते सोऽपि घटपटादिपदार्थो नामोद्देश उच्यते / उद्दिश्यतेऽभिधीयते प्रतिपाद्यते निजेन नाम्ना इति कृत्या उद्देशः (नामस्सवत्ति) नाम्नो वा वस्तु सामान्यभिधानस्योद्देश-नमुचारणं नामोद्देशः / किमुक्तं भवतीत्याह (अभिहाणंति) वस्तुनः सामान्य यदभिधानं तन्नामोद्देश इत्यर्थः यथा आमादेः वृक्षादिनामा वा शब्दः सर्वत्र प्रकारान्तरसूचकः। अत्र परोऽतिप्रसङ्ग मुद्भावयन्नाह। एवं नणु सव्वो चिय, नामोद्देसो जओ भिहाणंति। दवाईणं तेहि व, तेसु व विकीरएगस्स।। ननु यदि वस्तुनः सामान्याभिधानमात्रमुद्देशोऽभिधीयते एवं तर्हि सर्व एवायं स्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालाधुद्देशो नामोद्देश एव प्राप्नोति / यतो द्रव्यादीनामपि हेमरजतादीनां हेमादिकं सामान्याभिधान-मिति तैर्वा कुसुम्भहरिद्रादिद्रव्यैर्हेतुभूतैर्वस्त्रादीनां रक्तपीतमित्यादिसामान्याभिधानं प्रवर्तते / तेषु वा दण्डकुण्डलकिरीटादिद्रव्येषु सत्सु दण्डी कुण्डली किरीटीत्यादिकं सामान्याभिधानं प्रवर्तमानं दृश्यते / एवं स्थापनाक्षेत्रादिष्वपि वाच्यम् ततो य एव द्रव्याधुद्देशोऽभिमतः स एव सर्वोऽपि नामोद्देशः प्राप्नोतीति उद्देशस्यैकविधत्वादष्टविधत्वं विशीर्यत इति। अत्र पराभिहितमभ्युपगम्य परिहारमाह। सचं सव्वाणुगओ, नामुद्देशोभिहाणमित्तं जं। नाणत्तं तह वि मयं, मइकिरियावत्थभेएहिं / / सत्यमुक्तं भवता यतो यत्सामान्याभिधानमात्रं नामोद्देशः स खलु सर्वानुगत एव तथापि नामस्थापनाद्रव्याधुद्देशानां नानात्वं भेदरूपं गतं सम्मतमेव परमार्थवदिना कैरित्याह / मतिक्रियावस्तुभेदैस्तथाहियादृशी नामेन्द्रे मतिस्तादृश्येव न स्थापनेन्द्रा दिषूत्पद्यते किंतु विलक्षणैव / नच यां क्रियां नामेन्द्रः करोति तामेव स्थापनाद्रव्येन्द्रादयः किंचित्सदृशीमेव अत एव नामेन्द्रादिवस्तुनां परस्परं भेदो विज्ञेयो भिन्नमित्यादिहेतुत्वात् घटपटादिवस्तुवदिति। करोति तामेव स्थापना द्रव्येन्द्रादिवस्तुवदिति / एवं प्रस्तुतनाम-स्थापनाद्रव्याधुद्देशानामपि मत्यादिभेदाढ़ेदो योजनीय इति॥ अथ स्थापनाद्युद्देशानाह। ठवणाए उद्देसो, ठवणुद्देसत्ति तस्स वा ठवणा। तं तेण तओ तम्मिव, दव्वाइयाणमुद्देसो। हव्वुद्देसो दव्वं, दव्वपई दववंसदव्वो त्ति। एवं खेत्तं खेत्ती, खेत्तपई खेत्तजायत्ति / / स्थापनाया उद्देशनमुचारणं सामान्येनाभिधानं स्थापनोद्देशः तस्य वा उद्देशस्य अक्षरादिषु स्थापना स्थापनोद्देशः / अथ द्रव्योद्देशमाहद्रव्यादीनामुद्देशो द्रव्योद्देशः / आदिशब्दात् द्रव्यवदादिपरिग्रहः कया पुनव्र्युत्पत्त्या द्रव्यादयो वाच्या भवन्तीत्याह (तम्मित्यादि) तदेव द्रव्यमुद्दिश्यते उचार्यते द्रव्यमित्येवं सामान्येनाभिधीयतेद्रव्योद्देशः। द्रव्यं चतदुद्देशश्चेतिकर्मधारयसमासः। अत्रच पक्षे द्रव्यमेवोद्देशशब्दवाच्यम्। अत एव द्वितीयगाथामाह (दव्वमिति) अथवा तेन द्रव्येण हेतुभूतेन य उद्दिश्यते अभिधीयते स द्रव्योद्देशो यथा द्रव्यपतिरित्यादि यदिवा ततस्तस्ताद्रव्यादुद्देशोऽभिधानप्रवृत्तिर्द्रव्योद्देशो यथा द्रव्यवानित्यादि। अथवा तस्मिन् द्रव्ये सत्युद्देशोऽभिधानप्रवृत्तिर्द्रव्योद्देशो यथा स द्रव्य इत्यादि सिंहासने राजा चूते कोकिलः, वने मयूर, इत्यादि वा। एवमुद्दिश्यते तेन वा, इत्यादिव्युत्पत्त्या क्षेत्र क्षेत्री क्षेत्रपतिः क्षेत्रे जातं क्षेत्रमित्यादिकः सर्वोऽपि क्षेत्रोद्देश इति। कालो कालाईयं, कालो वेयंति कालजायंति। संखेवो त्ति समासो, अंगाईणं तओ तिण्हं।। अंगसुयखंधझयणाण, नियनियप्पभेयसंगहओ। Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस होइ समासुद्देसो, जहंगमंगी तदन्भेजा।। एमेव सुयक्खंधो, जह तस्स तयट्ठविण्णाया। अज्झयणं अज्झयणी, तस्स भेया तयत्थण्णो॥ काल एवोद्दिश्यमानत्वादुद्देशकालः कालोद्देशः। तेन वा कालेनो-देशो यथा कालातीतं कालातिक्रान्तमिदं वस्त्विति / ततो वा कालादुद्देशः कालोद्देशो यथा कालोपेतं कालप्राप्तमिति / तस्मिन्वा काले जातं कालजातमित्यादिकः कालोद्देशः / अथ समासोद्देसं विवक्षुराह (संखेवेत्यादि) संक्षेपेणाविस्तरेण संकोचनं समास उच्यतेतत्कोऽयं चेह अङ्गादीनां त्रयाणां विवक्षितः एतदेव दर्शयति (अंगेत्यादि)अङ्गश्रुतस्कन्धोऽध्ययनमित्येष समासो भवति / / कुत इत्याह / निजनिजप्रभेदसंग्रहादिति / अस्याङ्गादिसमासस्योद्देशनमभिधानं समासोद्देशक इति दर्शयति। यथा अङ्गमिति तदेवो-द्दिश्यमानत्वादुद्देश इत्यर्थः / तेन वाङ्गरूपसभासेनोद्देशो यथाङ्गीति (तस्सतयटेत्ति) अङ्गात्मकसमानोद्देशो यथा तदध्येता अङ्गाध्येता इत्यादि / एवं श्रुतस्कन्धात्मकसमास एवोद्दिश्यमानत्वादुद्देशो यथा तदर्थविज्ञाता श्रुतस्कन्धार्थज्ञ इत्यादि। एवमध्ययनात्मकसमास एवोद्दिश्यते इत्युद्देशो यथाऽध्ययनमिति तेन वा उद्देशो यथाऽध्ययनीति। तस्माद्वा उद्देशो यथा तस्याध्ययनयस्याध्येता / तस्मिन्वा अध्ययने सति उद्देशो यथा तदर्थज्ञोऽध्ययनार्थविदित्यादि विवक्षया सर्व भावनीयमिति।। अथोद्देशोद्देशं भावोद्देशं चाह। उद्देसो उसिउद्दे-सणो तयत्थवेत्ता वा। उद्देसुद्देसो यं, भावो भाविति भावम्मि॥ उद्देशः पुलाकोद्देशकादिः स एवोद्दिश्यमानत्वादुद्देशोद्देशः / स चायं विज्ञेयः क इत्याह / पुलाकोद्देशकादिक उद्देशोऽप्युद्दिश्यमानत्वेनोद्देशोद्देश उच्यते। तेन वा उद्देशोऽभिधानं यथा उद्देशीति / तस्माद्वा उद्देशो यथा उद्देशज्ञः। तस्मिन्वा उद्देशो यथा तस्योद्देश-कस्यार्थवेत्ता इत्यादि (भावम्मित्ति) भावविषय उद्देशो भावोद्देशः / क इत्याह (भावोत्ति) औदयिको भाव उद्दिश्यतेऽभिधीयते इत्युद्देशो भावश्चासावुद्देशश्च भावोद्देश इत्यर्थः। तेन वा भावेनोद्देशो भावोद्देशो यथा भावीत्यादि पूर्वोक्तानुसारेण वाच्यमिति गाथानवकार्थः / / अथोद्देशव्याख्यानेन निर्देशमप्यतिदिशन्नाह। एवमेव स णिद्देसो, अट्ठविहो सो वि होइनायव्वो। अविसेसियमुद्देसो, विसेसिओ होइ णिद्देसो। एवमेव यथा उद्देश उक्तस्तथा निर्देशोऽप्यष्टविध एव भवति ज्ञातव्यः। सर्वथा साम्यप्रतिषेधार्थमाह / किं त्वविशेषितसामान्यनामस्थापनादिरूप उद्देशो विशेषितनामादिरूपस्तु स एव निर्देशो भवतीति विशेष इति नियुक्तिगाथार्थः / / 46 // भावार्थं तु भाष्यकारः प्राह / / नाम जिणदव्वाई,ठवणाविसिट्ठवत्थुनिक्खेवो। दव्वो गोमं दंडी, रहीति तिविहो सचित्ताइ / वस्तुनः पुरुषादेर्यत्पुरुषादिकं सामान्य नाम स नामोद्देश उक्तो यत्तु तस्यैव विशेषनामसंग्रह नाम निर्देश उच्यते यथा जिनदत्ता-- दिसामान्यस्य चेन्द्रादेर्वस्तुनः / स्थापना स्थापनोद्देश उक्तः इह तु विशिष्टस्य सौधादिपत्यादिवस्तुनो यः स्थापनारूपो निक्षेपः स स्थापनानिर्देशः / द्रव्यस्यापि त्रिविधस्य सचित्तादेर्विशिष्टस्य यो विशिष्टाभिधानरूपो निर्देशः तत्र सचित्तद्रव्यविशेषस्य निर्देशो यथा गौरित्यादि अचित्तस्य तु दण्ड इत्यादि मिश्रस्य तु रथ इत्यादि रथस्य चाश्वादियुक्तस्येह मिश्रता भावनीयेति / तेन वा सचित्तादिद्रव्यविशेषणनिर्देशो यथा गोमानित्यादि दण्डी रथीत्यादि। अथ क्षेत्रकालनिर्देशावाह / / खेत्ते भरहं तत्थ व, भवोत्ति मगहत्ति मागहीवत्ति। सरउत्तिसारउत्तिय, संवच्छरिउत्तिकालम्मि। क्षेत्रं क्षेत्रीत्यादिकः क्षेत्रोद्देश उक्तः / इह तु तदेव विशिष्ट क्षेत्रं क्षेत्र-निर्देर्शो यथा भरतमित्यादि। अथवा (मगहत्ति) मगधजनपद इत्यादि तस्मिन्वा क्षेत्रविशेषे भवः क्षेत्रमित्युच्यते यथा भारत इत्यादि एतच स्वयमेव दृष्टव्यम् / मगधेसु भवो मागध इत्यादि एतत्तु गाथायामप्यस्तीति काली कालोऽयमित्यादिकः कालोद्देश उक्तः। इह तुतस्यैव कालस्य विशिष्टस्य यो निर्देशो विशिष्टमभिधानं स कालनिर्देशो यथा शर इत्यादि / तत्र वा कालविशेषे भवः कालनिर्देशोऽभिधीयते यथा शरदि भवः शारदः / संवच्छरे भवः सांवच्छरिक इत्यादि। अथ समासनिर्देशमुद्देशं निर्देशं चाह।। आयारो आयारेव, आयारधरे ति वा समासम्मि। आवस्सय मावासयि, तु तत्थ धरोह वायत्ति / / सत्थए परिणाइयव, अब्भया यं समासनिद्देसा। उद्देसयनिद्देसो, सपएसो पोग्गलुद्देसो॥ विस्तरवतो वस्तुनः संक्षेपः समासस्तस्यसामान्याभिधानं समासोद्देशः उक्तः / इह तु तस्यैव समासस्य विशेषाभिधानः समासनिर्देशस्तत्र चाङ्ग श्रुतत्कन्धाध्ययनभेदात्त्रिविधः समासोदेशः पूर्वमुक्त इह तु तेषामेव त्रयाणामगादीनां विशेषाभिधानरूपस्त्रिविध एव समासनिर्देशस्तवा चाह (आयारेत्यादि) आचारप्ररूपणाङ्ग विशेषाभिधाननिर्देश्यमानत्वादाचार इति समासनिर्देशस्तेन वा आचारसमासेन निर्देशो यथा आचारवानित्यादि / तस्माद्वा आचारसमासान्निर्देशो यथा आचारधर इत्यादि / श्रुतस्कन्धसमासनिर्देशो यथा आवश्यकमिति / तेन वा आवश्यकसमासेन निर्देशो यथा आवश्यकीति। अथवा तस्मादावश्यकसमासन्निर्देशो यथा आवश्यकसूत्रार्थधरोऽयमिति / अध्ययनमाश्रित्य समासनिर्देशः क इत्याह। आचाराने प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा इत्यादि तेन वा शस्त्रपरिज्ञासमासविशेषेणनिर्देशो यथा (अज्झे-यायंति) शस्त्रपरिज्ञाध्येता अयमित्यर्थ इत्यादि समासनिर्देशः / उद्देशनिर्देशस्तूच्यते क इत्याह! (पएसो त्ति) अध्ययनस्य प्रदेर्शोऽश इत्यर्थः / यथा भगवत्यां पुद्गलोदेशकस्तस्य निर्देशोऽभिधानमुदेशनिर्देश इत्यादीनि / विशे० ! आ०ग०प्र० / आ०चू० / वाच्यामीति गुरुप्रतिज्ञारूपे, विशे०। इदमध्ययनादित्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेषे,। तद्विधिश्चैवम्॥ तत्राचाराद्यङ्गस्य उत्तराध्ययनादिकालिक श्रुतस्कन्धस्य औपपातिकाद्युत्कालिकोपागाध्ययनस्य चायमुद्देशविधिः / इहायारागाद्य-न्तरश्रुतमध्येतुमिच्छति यो विनेयः स स्वाध्यायं प्रस्थाप्य गुरुं विज्ञपयति भगवन्नमुकं मम श्रुतमुद्दिशत / गुरुरपि भणतीच्छाम इति / ततो विनेयो वन्दनकं ददाति 1 ततो गुरुरुत्थाय चैत्यवन्दनं करोति तत ऊर्ध्वस्थितो वामपाश्वीकृतशिष्यो योगोत्क्षेपनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्छवासमानं कायोत्सर्ग करोति 'चंदेसु निम्मलयरेत्ति" यावश्चतुर्विशतिस्तवं चिन्तयतीत्यर्थः / ततः पारित-- Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 826 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस कायोत्सर्गः संपूर्णचतुर्विशतिस्तवं भणित्वा तथास्थित एव पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं वारत्रयमुचार्य"नाणं पंचविहं पणत्तमित्यादि" उद्देशनंदी भणति। तदन्तेचैवं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य साधोरिद-मङ्गममुं श्रुतस्कन्धं इदमध्ययनं वा उद्दिसामि क्षमाश्रमणानां हस्तेन सूत्रमर्थं तदुभयं च उद्दिष्टमित्येवं वदति / क्षमाश्रमणानामित्यादि त्वात्मनोऽहंकारवजनार्थमभिधत्ते ततो विनेय इच्छामीति भणित्वा वन्दनकं ददाति 2 तत उत्थितो ब्रवीति संदिशत किंभणामीति।ततोगुरुर्वदतिवन्दित्वा प्रवेदयत ततो विनेय इच्छामीति भणित्वा वन्दनकं ददाति 3 ततः पुनरुत्थितः प्रतिपादयति भवद्भिर्ममामुकं श्रुतमुद्दिष्टमिच्छाम्यनुशास्तिम्। ततो गुरुः प्रत्युत्तरयति योगं कुर्विति एवं संदिष्टो विनेय इच्छामीति भणित्या वन्दनकं ददाति 4 ततोऽत्रान्तरे नमस्कारमुच्चारयन्नसौ गुरुं प्रदक्षिणयति तदन्ते च गुरोः पुरतः स्थित्वा पुनर्वदति भवद्भिर्ममामुकं श्रुतमुद्दिष्टमिच्छाम्यनुशास्ति ततोगुरुराह योगं कुर्विति। एवं संदिष्ट इच्छामीति भणित्वा वन्दित्वा च पुनस्तथैव गुरुं प्रदक्षणयति / तदन्ते च पुनस्तथैव गुरुशिष्ययोर्वचनप्रतिवचने तथैव च तृतीयप्रदक्षिणां विदधाति विनेयः / एतानिच चतुर्थवन्दनकादीनि त्रीण्यपिवन्दन-कान्येकमेव चतुर्थं गण्यते एकार्थप्रतिबद्धत्वादिति 2 ततस्तृतीय प्रदक्षिणान्ते गुरुर्निषीदति निषण्णस्य च गुरोः पुरतोऽद्धविनतगात्री विनेयो वक्ति युष्माकं प्रवेदितं संदिशत साधूनां प्रवेदयामि / ततो गुरुराह प्रवेदयेति / तत इच्छामीति भणित्वाविनेयो वन्दनकं ददाति / 5 / प्रत्युत्थितश्चो चारितपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारः पुनर्वन्दनं ददाति।६। पुनरुत्थितो वदति युष्माकं प्रवेदितं साधूनां च तं प्रवेदितं सन्दिशत करोमि कायोत्सर्गम् / ततो गुरुरनुजानीते / कुर्विति ततः पुनरपि वन्दनकं ददाति 7 एतानि सप्तच्छोभवन्दनकानि श्रुतप्रत्ययानि भवन्ति ततः प्रत्युत्थितोऽभिधत्ते अमुकस्योद्देशनिमित्तं करोमि कायोत्सर्गभन्यत्रोच्छ्वसितादित्यादियावद्वयुत्सृजामीति ततः कायोत्सर्गे स्थितः सप्तविंशतिमुच्छ्वासंश्चिन्तयति "सागरवरगम्भीरेत्ति" यावच्चतुर्विंशतिस्तवं चिन्तयति इत्यर्थः / "उद्देशसमुद्देसे, सत्तावीसं अणुण्णवणियाए" इति वचनात् ततः पारितकायोत्सर्गः संपूर्ण चतुर्विंशतिस्तवं भणित्या परिसमाप्तोद्देशक्रियत्वाद्गुरोछोभवन्दनकं ददाति तच न श्रुतप्रत्ययं किं तर्हि श्रुतदातृत्वादिना गुरुः परमोपकारी तद्विनयप्रतिनिमित्तमिति / / अनु०॥ आ०म० द्वि० / (श्रुतस्कन्धस्यैवोद्देश इति अणुओगशब्दे-उक्तम्) वाचनायां सूत्रप्रदाने, व्य० प्र०१3०1 श्रुतस्कन्धाङ्गप-रावर्तनोत्तरकालं च सप्तविंशत्युच्छ्वासकालः कायोत्सर्गः। "उद्देस समुद्देसे सत्तावीसं" जी०१ प्रति०। उद्देशे मुहूर्तम् "पुस्सोहत्थो अभिइई, अस्सिणीय तहेव य। चत्तारि खिप्पकारीणि, विजारंभे सुसोहणा // 27 // विजाणं धीरणं कुज्जा" इति। कियत्पर्यायस्य किं श्रुतं दातव्यमित्याह / णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खुड्डागं वा खुड्डियाए वा अव्वंजणजायस्स आयारकप्पे णामज्भयणे उद्दिसित्तए वा कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डागस्स वा खुड्डियाए वा वण्णजायस्स आयारकप्पेणामं अज्झयणे उद्विसित्तए विशव्य० सू०१० उ०। न कल्पते निर्ग्रन्थानां वा क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकाया वा अव्यजनजातस्य व्यञ्जनान्युपस्थरोमाणि जातानि यस्य स तथा तस्य आचारप्रकल्पो नामाध्ययनं निशीथापरपर्यायमुद्देष्टुम् / अत्र कारण भाष्यकृदाह। अहिअट्ठस्स आयारे, अपठिते न उ कप्पति। अव्वंजणजातस्स, वंजणाण परूवणा / / जहा चरित्तं धारेउ, ऊणट्ठो उ अपञ्चलो। तहा वि वक्कं वुड्डाउ, अववायस्स नो सहू। अधिकाष्टवर्षस्याप्यपठितेऽप्याचारे अव्यञ्जनजातस्य / अत्र व्यञ्जनानांप्ररूपणा कर्तव्या साच सूत्रव्याख्यायां कृता नतुनैव सूरयः प्रकल्पमाचारप्रकल्पनामाध्ययनं ददति कुत इत्याह।(जहेत्यादि) यथा ऊनाष्ट-ऊनाष्टवर्षश्चारित्रं धारयितुमप्रत्यलोऽसमर्थः तथा अजातव्यञ्जनतया अपक्वबुद्धिरपवादभाधारणेन वदति तथा कल्पते निर्गन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकस्य वा क्षुल्लिकायावा व्यञ्जनजातस्य आचारप्रकल्पो नामाध्ययनमुद्देष्टुम् / अथ स्तोककालदीक्षितस्यापि ज्ञातव्यञ्जनस्य दीयते किंवा नेत्यत आह / (अतिवासपरियागस्सेत्यादि) ज्ञातव्यञ्जनस्यापि त्रिवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते आचारप्रकल्पो नामाध्यनमुद्देष्टम् / यदि पुनस्त्रयाणां वर्षाणा अभ्यन्तरत उद्दिशति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः त्रिवर्षपर्यायस्याप्यपरिणामक स्यातिपरिणामक स्य चोदितस्य चतुर्गुरुकम्॥ (सूत्रम्) चउवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ सूयगडे नाम अंगे उद्दिसित्तए पंचवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पति दसा कप्पववहारा उद्दिसित्तए वि अट्ठवास परियागस्स निग्गंथस्स कप्पति ठाणसमवाए उद्दिसित्तए दसवासपरियागस्ससमणस्स निग्गंथस्स कप्पति विवहनामं अंगे उहिसित्तए। चतुर्वर्षपर्यायस्य श्रमणनिर्ग्रन्थस्य कल्पते सूत्रकृतं नामाङ्ग मुद्देष्टुम् / पञ्चवर्षपर्यायस्य दशकल्पव्यवहाराविकृष्टो नाम षड्भ्य आरभ्य नव वर्षाणि यावत् तत्पर्यायस्य स्थानं समवायस्य दशवर्षपर्यायस्य व्याख्या प्रज्ञप्तिः पञ्चममङ्गमेतदेव सहेतुकं वक्तुकामो भाष्यकृदाह चउवासे सूयगड, कप्पवहारस्स पंचवासस्स। विगट्ठट्ठाणस्स,समवरिसविवाहपण्णत्ती।। चतुर्वर्षी पर्यायस्य सूत्रकृतः पञ्चवर्षस्य कल्पव्यवहारावुपलक्षण–मेतत् दशाश्रुतस्कन्धश्चाविकृष्टपर्यायस्य स्थानं समवायश्च दशव-र्षपर्यायस्य व्याख्या प्रज्ञप्तिरुद्दिश्यते किंकारणमेतावत्कालाति-क्रमेण तत आह / / चउवासो गाढमती, न कुसमएहिं तु हीनपज्जाओ। पंचवरिसओजोग्गो, अववायस्सत्ति तो दिति।। पंचण्हुवरिविगिट्ठो, सुयथेरा जेण तेण उवगिट्ठो। ठाणे महिड्डियंति य, तेण दसवरिसपरियाए। सूत्रकृताङ्गे त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां पाषण्डिकशतानां दृष्टयः प्ररूप्यन्ते / ततो हीनपर्यायो मतिभेदेन मिथ्यात्वं यायात् / चतुर्वर्षपर्यायस्तु धर्मे अवगाढमतिर्भवति ततः कुसमयै पहियते। न चतुर्वर्षपर्यायस्य तदुद्देष्टुमनुज्ञातम्। तथा पञ्चमोवर्षोऽपवादस्य योग्य इति कृत्वा पञ्चवर्षस्य दशकल्पव्यवहारान् ददति / तथा पञ्चानां वर्षाणामुपरि पर्यायो विकृष्ट उच्यते / येन कारणेन स्थाने समवाये न चाधीतेन श्रुतस्थविरा भवन्ति तेन कारणेन तदुद्देशनं प्रति विकृष्टपर्यायो गृहीतस्तथा स्थानं समवायश्च महर्द्धिकं प्रायेण द्वादशाना Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहेस 827 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस इत्थं तीसं सुमिणा, वायाला चेव हुँति महसुमिणो / वावत्तरि सव्वसुमिणा, वन्निजंते फलं तेसिं॥ अत्र महास्वप्नभावनाध्ययने त्रिंशत् सामान्यस्वप्नाः द्वाचत्वारिशन्महास्वप्ना वर्ण्यन्ते फलं चैषां स्वप्नानां वर्ण्यते।। (सूत्रम्) पण्णरसवासपरियागस्स समणस्स निगत्थस्स कप्पइ। चारणभावणानाममज्झयणमुद्दिसित्तए। अत्र भाष्यम्।। पन्नरसे चारणभावणं ति उदिसिए उ अज्झयणं / चारणलद्धी तहियं, उप्पजंते उ अहियम्मि।। पञ्चदशे पञ्चदशवर्षपर्यायस्य चारणभावनेत्यध्ययनमुद्दिश्यते तस्य कोऽतिशय इत्याह चारणलब्धिस्तस्मिन्नधीते उत्पद्यते येन वा तपसा कृता चारणलब्धिरुपजायते तदुपवर्ण्यते।। (सूत्रम्) सोलसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ ते अनिसज्जानामंअज्झयणे उद्दिसित्तए सत्तरसवासपरियाग-स्स समणस्सणिग्गंथस्सकप्पतिआसीविसमावणा नामं अज्झयणमुद्दिसित्तए / अट्ठारस वासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पति दिट्ठीविसमावणानामज्झयणमुद्दिसित्तए। एगूणवीसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ दिट्ठि-वायनामंगे उद्दिसित्तए वीसतिवासपरियाए समणे निग्गंथे सव्वसुधाणवाती भवति / मप्यङ्गानां तेन सूचनादिति // तेन तत्परिकर्मितमतौ दशवर्षपर्याय व्याख्या प्रज्ञप्तिरुद्दिश्यते॥ (सूत्रम्) एक्कारसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ खुड्डियाविमाणविभत्ती / महल्लियाविमाणविभत्ती महल्लिया विमाणे पविभत्ती अंगचूलिया विवाहचूलिया नाम अज्झयणमुद्दिसित्तए॥ अस्य व्याख्या / / एक्कारसवासस्सा, खुड्डिमहल्ली विमाणपविभत्ती। कप्पइ य अंगुवंगे, विवाह चेव चूलीयओ॥ अंगाणमंगचूली, महकप्पसुयस्स वग्गचूली उ। विवाहचूलिया पुण, पण्णत्तीए मुणेयव्वा।। एकादशवर्षस्य क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिर्यत्र कल्पेषु विमानानि वर्णयन्ते महती विमानप्रविभक्तिर्यत्र विमानान्येव विमानविस्तरेणाभिधीयन्ते / अङ्गानामुपासकदशाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निरावलिका अङ्गचूलिका महाकल्पश्रुतस्य चूलिकावर्गचूलिका व्याख्याचूलिका पुनः प्रज्ञप्तेर्व्याख्या प्रज्ञप्तचूलिका मन्तव्या / / (सूत्रम्) वारसवासपरियागस्स समणस्स कप्पइ अरुणो ववाए गरुलोववाए वरुणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए। वेलंधरोववाए नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए। अत्र भाष्यव्याख्या। वारसवासे अरुणो-ववायवरुणो य गरुलवेलंधरो। वेसमणुववाय त हा य, ते कप्पंति उद्विसिउं / / द्वादशपर्यायस्य। अरुणोपया लुपरिय-दृतिएतिदेवाउ। अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेत्तादसदिसो उ॥ नागावरुणोवासं, अरुणा गरुला य वीयगं दें ति। आगंतूण पवंती, संदि महा किं करेमित्ति / / तेषामरुणोपपातादीनामध्ययनानां ये दशनामानः खल्वरुणादयो देवास्ते यदि तीन् प्रणिधायाध्ययनानि परावर्तन्ते तदा ते अञ्जलिमुकुलितहस्तादशापि दिश उद्योतयन्ति। समागच्छन्ति समागत्य च किंकरभूताः पर्युपासते तथा नागा धरणनामानो वरुपाश्च गन्धोदकादि वर्षन्ति / अरुणा गरुडाश्च बीजकं सुवर्ण ददतः प्रत्यासन्नमागत्य ब्रुवते संदिशत किं कुर्मो वयमिति। (सूत्रम्) तेरसवासपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ उहाणमुपसमुट्ठाणमुपदेविंदो देववाए मागए परियावणियाए। अस्य व्याख्या। तेरसवासे कप्पइ, उट्ठाणसुए तहा समुट्ठाणे। देविंदपरियावणिया, नागाण तहेव परिण्णाणी।। त्रयोदशवर्षस्य कल्पते उत्थानश्रुतं तथा समुत्थानं समुत्थानश्रुतं | देवेन्द्रपरियापनिका नागानां तथैव परियापनिका नागपरिया-पनिका इत्यर्थः। (सूत्रम्) चउबसपरियागस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पति सुमिणभावणानामं अज्झयणमुद्दिसित्तए। चतुर्दशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य निर्ग्रन्थस्य कल्पते महास्वप्नभा-वना नामाध्ययनमुद्देष्टुम् 'चोद्दसवासुछिसए'' इत्यादि भाष्य-गाथोत्तरार्द्ध सुप्रतीतमधुनार्थमाह! अस्य घ्याख्या तेअनिसज्जासोलस, आसीविसमावणं च सत्तरसे। दिट्टिविसमट्ठारस, एगुणवीसदिहिवाओ उ॥ षोडशवर्षे तेजोनिसर्गो नामाध्ययनमुद्दिश्यते / सप्तदशे वर्षे आशीविषभावनानामोद्दिश्यते दृष्टि विषभावनानामाष्टादशे वर्षे एकोनविंशतितमे वर्षे दृष्टिवादो नाम द्वादशमङ्गमुद्दिश्यते / सांप्रतमेतेषामध्ययनानामतिशयानाह। तेवस्स निसरणं खलु, आसीविसतं तहेव दिह्रिविसं / लद्धीतो समुपजे, समहीएसु तु एएसु।। एतेषु तेजोनिसर्गप्रभृतिष्वध्ययनेषु यथाक्रमं तेजसो निस्सरणमाशीविषत्वं दृष्टिविषमित्येवं लब्धयः समुत्पद्यन्ते / इयमत्र भावना। तेजोनिसर्गेऽध्ययनेऽधीते तेजोनिस्सरणलब्धिरुत्पद्यते येन वा तपसाकृत्वा तेजोलब्धिर्भवति तत एवमुपवण्यते आशीविषभाव-नाया पठितायामाशीविषत्वलब्धियैर्वा समावरणैराशीविषतया कर्म बध्यते तान्युपवर्ण्यन्ते। एवं दृष्टिविषभावनायामपि भावनीयम्।। दिट्ठिवाए पुण होई, सव्वभावाण रूवणं नियमा। सव्वसुयाणवाइ-वीसइवासे उ बोधय्वो॥ दृष्टिवादे पुनर्भवति सर्वभावानां रूपणं प्ररूपणं नियमात् विशतिवर्षः पुनः सर्वश्रुतानुपाती भवति सर्वमपि श्रुतं यथा भणितेन योगेन तस्य पठनीयं भवति / अथ कस्य तीर्थकरस्य काले कियन्ति प्रकीर्णकान्याभवन्त्यत आह। चउद्दसयसहस्साइं, पइण्णगाणं तु बद्धमाणस्स! सेसाण जत्तया खलु, सीसा पत्तेयबुड्ढाउ॥ भगवतो बर्द्धमानस्वामिनः तीर्थे चतुर्दश प्रकीर्णकसहस्राण्यभ-वन् शेषाणां च तीर्थकृतां यस्य यावन्तः शिष्यास्तस्य तावन्ति प्रकीर्णकानि प्रत्येकबुद्धा अपि तस्य तावन्तः। Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस पत्तस्स पत्तकालय, वयाणि जो उ उदिसे तस्स। च प्रमाणमभिधीयते शेषाश्च या लब्धय आचार्याणामुपाध्ययादीनां योग्या निज्जरलाभो विपुलो, किहमाणं पुण तं निसामेह / / याभिः समन्विताः आचार्यतया उपाध्यायादितया वा उद्विश्यन्ते / ता पात्रस्य योगस्य परिणामकस्येत्यर्थः / एते नापात्रेऽपरिणामके अपि प्रतिपाद्यन्ते तत्र श्रुतपरिमाणं "जहन्नेणं आयारप्पकप्पधरे'' विपरिणामके वा ददानो महतीं श्रुतासातनामेतीति प्रतिपादितम् / प्राप्ते इत्यादिनाचारित्रपरिमाणं "तिवासपरियाए'' इत्यादिना शेषपदैर्यथाकाले यथोदिते एतानि प्रकीर्णकानि च उद्दिशति तस्य सुविपुलो योग लब्धयः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / त्रीणि वर्षाणि निर्जरालाभः / कथं पुनः स विपुलो निर्जरालाभः / सू-रिराह तं पर्यायः प्रवृज्यापर्यायो यस्य सत्रिवर्षपर्यायः / श्राम्यति तपस्यतीति विपुलनिर्जरालाभं कथ्यमानं निशमयतो मते कथयति। श्रमणः / स च शाक्यादिरपि भवति। ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह। निर्गन्थ: कम्ममसंखेजभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। निर्गतोग्रन्थात् द्रव्यतःसुवर्णादिरूपाभावतो मिथ्यात्वादि-लक्षणादिति निर्ग्रन्थः / आचारकुशलः ज्ञानादिपञ्चविधाचारुकु-शलः / तत्र कुशल अन्नयरगम्मि जोगे, सब्भायम्मी विसेसेण।। इति द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र यः कुशंदर्भ दात्रेण तथा लुनाति न कर्म ज्ञानावरणीयादिक मसंख्येयभावो पार्जितमन्यतरके ऽपि क्वचिदपि दात्रेण च्छिद्यते स द्रव्यकुशलः / यः पुनः पञ्चविधेनाचारेण योगप्रतिलेखनादावुक्तोऽनुसमयमेव क्षपयति विशेषतः स्वाध्याये दात्रकल्पेन कर्माकुशं लुनाति स भावकुशलः तत्रैवं समासः आचारेण आयुक्तः ज्ञानाद्याचारेण कर्मकुशलः कर्मच्छेदकः आचारकुशलः आचारविषये आयारंगादियाणं, अंगाणं जाव दिद्विवातो उ। सम्यक् परिज्ञानवान् इति तात्पर्यार्थः / अन्यथा तेन कर्मकुशच्छेएस विही विण्णेओ, सव्वेसिं आणुपुव्वीए। दकत्वानुपपत्तेः / एवं सर्वत्र भावनीयम्। संयम सप्तदशविध यो जानात्येव आचारादिकानामङ्गानां यावत् दृष्टिवादो दृष्टिवादपर्यन्तानां स संयमकुशनः समासभावना सर्वत्र तथैव / अथवा यः कुशं लुनन्न सर्वेषामानुपूर्व्या एषोऽनन्तरोदितो विधिविज्ञेयः / पात्रस्योचिते काले क्वचिदात्रेणा-च्छिद्यतेस लोके तत्त्वतः कुशलो नास्तितेन कुशलशब्दस्य यदुचितमङ्गं तद्दातव्यं न शेषमित्यर्थः / / व्य०१० उ०। प्रवृत्तिनिमित्तं दक्षत्वं तच्च यत्रास्ति तत्र कुशलशब्दोऽपि प्रवर्तते इति त्रिवर्षपर्यायो निर्ग्रन्थ आचारादिकुशल आचार्यादितया कल्पते दक्षवाची कुशलशब्दस्तत एवं समासः / आचारे ज्ञातव्ये प्रयो-क्तव्ये वा उद्देशयितुम्॥ कुशलो दक्ष आचारकुशलः।। एवं संयमकुशलः प्रवचने ज्ञातव्ये कुशलः तिवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले प्रवचनकशलः / प्रज्ञप्ति म स्वसमयपरसमय-प्ररूपणा तत्र कुशलः / पवयणकुसले पण्णत्तिकु सले संगहकुसले उवग्गहकु सले संग्रहणं संग्रहः / स द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र द्रव्यत अक्खयायारे असवलायारे अभिण्णायारे असंकिलट्ठायार आहारोपध्यादीनाम् / भावतः सूत्रार्थो तयोििवधेऽपि संग्रहे कुशलः / उप सामीप्येन ग्रहः सोऽपि द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र येषामाचार्य चरित्ते बहुस्सुए वज्झागमे जहण्णेणं आयारकप्पइ उवज्झाय उपाध्यायो वा न विद्यते तान् आत्मसमीपे समानीय तेषामित्वरां दिश त्ताए उद्दिसित्तए 3 सव्वे वर्णसे तिवासपरियाए समणे निग्गंथे नो बुद्ध्वा तावद्वारयति यावन्निष्पाद्यन्ते एष द्रव्यतः उपसंग्रहः ग्रहउपादाने आयारकुशले जाव संकिलिट्ठायारचरिते अप्पस्सुए अवागमे नो इति वचनात् यः पुनरविशेषेण सर्वेषामुपकारे वर्तते स भावतः उपग्रहः / कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्विसित्तए 4 एवं पंचवासपरियाए समणे अक्षताचारता परिपूर्णाचारता च चारित्रे सति भवति / चारित्रवता निगंथे आयारकुसले जाव असंकिलिट्ठायारचरित्ते बहुस्सुए नियमतः शेषाश्चत्वारोऽप्याचाराः सेव्याः चारित्रवतः चारित्रस्थादानतेति वज्झागमे जहण्णेणं दसाकप्पववहारे दारे कप्पइ वचनात्। ततश्चारित्रवानिन्युक्तं द्रष्टव्यम्। नन्वेषोऽप्यर्थ आचारकुशलआयरियउवज्झायत्ताए उद्देसित्तए 5 सच्चेवणं से पंचवासपरि- इत्यनेनोपात्त इति किमर्थमस्योप्यादानमुच्यते चारित्रं खलु प्रधाने याए निग्गंथे जाव अप्पसुए अप्पागमे नो कप्पइ आयरियउव-- मोक्षाङ्गं तदपि कण्ठतो नोक्तमिति तदाशङ्काव्युदासार्थमित्यदोषः / तथा ज्झायत्ताए उद्दिसित्तए 6 अट्ठवासपरियाए समणे निग्गंथे अशबलो यस्य सितासितवर्णोपेतवलीवर्द इव न कर आचारो आयारकुसले जाव असंकिलिहायारचरित्ते बहुस्सुए बज्झागमे विनेयशिष्यभाषा-गोचरादिको यस्यासावशवलाचारः / तथा अभिन्न जहरणोणं वणसमवद्धरे कप्पइ से आसे आयरियत्ताए पवित्ति के नचिदप्यतीचारविशेषेण खण्डित आचारो ज्ञानाचारादिको त्ताए थेरत्ताए गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्देसित्तए 7 सव्वे वर्ण यस्यासावभिन्नाचारः। तथा असंक्लिष्ट इह परलोकाशंसारूपसंक्लेशअट्ठवासपरियाए समणे निग्गंथे णो आयरकुसली जाव संकि विनमुक्त आचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः / तथा बहु श्रुतं सूत्र लिट्ठाणायारचरित्ते अप्पसुए अप्पागमे णो कप्पइ आयरियत्ताए यस्यासी बहुश्रुतः / तथा बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह ागमः / जाव गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए / व्य०सू०।। जघन्ये ना-चारप्रकल्पधरो निशीथाध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः जघन्यत आचार प्रकल्पग्रहणादुत्कर्ष तो द्वादशाङ्ग विदिति सूत्रषट्कम्। अथास्य पूर्वसूत्रेण सह कः सम्बन्धस्तत आह। द्रष्टव्यम् / स कल्पते यो भवत्युपायतयोद्देष्टुमिति प्रथमसूत्रार्थः / भावपलिच्छेयस्स उपरि, णामट्ठाए हो इमं सुत्तं / (सम्वेवणंसे ति वासेत्यादि)। से शब्दोऽथशब्दार्थः / अथ स एव सुयवरणे उपमाणं, सेसा उ हवंति जा लद्धी। त्रिवर्षपर्यायः श्रमणो निर्गन्थो नो आचारकुशल इत्यादि पूर्वव्याद्रव्यभावपरिच्छेदोषेतः स्थविरैरनुज्ञातो गणं धारयति / तद्विपरीतो न ख्यानतसुप्रतीतम्। एवं द्वे सूत्रे पञ्चवर्षपर्यायस्याचार्योपा-ध्यायत्वोः धारयतीति उक्तम् / तत्रेदं सूत्रषट्क भावपरिच्छेदस्य परिणामार्थ देशविषये भावनीये नवरं तत्र जघन्येन दशाकल्पव्यवहारधर इति परिणामप्रतिपादनार्थं भवति वर्तते। यथा चानेन सूत्रषट्केन श्रुतेन चरणे | वक्तव्यम् / 4 / एवमे वाष्ट वर्षपर्यायस्याप्याचार्यो पाध्याय Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस गणावच्छेदित्योद्देशविषये द्वे सूत्रे व्याख्येये केवलं तत्र जघन्येन स्थानसामाचार्या गण इति वाच्यं शेषं तथैव / एष सूत्रषट्क स्य संक्षेपार्थः / अधुना नियुक्तिविस्तरः / तत्र तावत्सर्वेषामेव सूत्रपदानां सामान्येन व्याख्यां चिकीर्षुरिदमाह / भाष्यकृत् // एक्कारसंगसुत्तत्त्थ-धारया नवमपुव्वकडजोगी। बहुसुय बहुआगमिया, सुत्तत्थविसारया धीरा।। एयगुणोववेया, सुयनिघसा णायगामहाणस्स। आयरियउवज्झाय-पवत्तिथेरा अणुनाया। एकादशानामङ्गानां सूत्रार्थमवधारयन्तीत्येकादशाङ्ग सूत्रधारकाः (नवमपुव्वत्ति) अत्रापि सूत्रधारका इति संबध्यते नवमपूर्वग्रहणं च शेषपूर्वाणामुपलक्षणं ततोऽयमर्थः समस्तपूर्वसूत्रधारकाः तथासूत्रोपदेशेन मोक्षाविरोधीकृतो न्यस्तो योगो मनोवाक्कायव्यापारात्मकः सकृतयोगः स येषामस्तिते कृतयोगिनः। बहुश्रुताः प्रकीर्णकानामपि सूत्रार्थधारणात् इह पूर्वधरा अपि तुल्येऽपि च सूत्रे मतिवैचित्र्यतोऽर्थागममपेक्ष्य षट्स्थानपतितास्ततः प्रभूता-वगमप्रतिपादनार्थमाह / बागमाः बहुः प्रभूतः आगमो येषां ते तथा एतदेवाह। सूत्रार्थाविशारदाः तत्कालापेक्षया सूत्रेऽर्थे च विशारदाः तथा धिया औत्पत्तिक्यादिरूपया बुद्ध्याराजन्ते इति धीरा "एतद्गुणोपपेता इत्यादि'' येऽनन्तरगाथायामुक्ता गुणा एतैर्गुणैरुपेता एतद्गुणोपेताः। श्रुतं निघर्षयन्तीति श्रुतनिघर्षाः। किमुक्तं भवति यथा सुवर्णकारस्तापनिकर्षच्छेदैः / सुवर्ण परीक्षते किं सुन्दरमथवाऽसुन्दरमिति। एवं स्वसमयपरसमयान्परीक्षन्तेते श्रुतनिघर्षा इति यथा नायकाः स्वामिनो महाजनस्य स्वगच्छवर्तिनां साधूनामिति भावः / अथवा नायका ज्ञानादिनां प्रापकास्तदुपदेशलाभात् महाजतस्य समस्तस्य संघस्य इत्थंभूता आचार्या उयाध्यायाः प्रवर्तितस्थविरा उपलक्षणमेतद्गणावच्छेदिनश्चानुज्ञाताः तदेवं सामान्यतः सर्वसूत्रपदानामर्थो व्याख्यातः। संप्रत्येकैकस्य सूत्रपदस्यार्थो वक्तव्यस्तत्र येषां पदानां वक्तव्यः तान्युपक्षिपन्नाह॥ आयारकुसलसंजम-पवयणपण्णत्ति संगहोवगहे। अक्खुय असबलभिन्न-संकिलिट्ठायारसंकिण्णे।। अत्र कुशलशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकं सम्बध्यते ततोऽयमर्थः आचारकुशलशब्दस्य प्रवचनकुशलशब्दस्य प्रज्ञप्तिकुशलशब्दस्य संग्रहकुशलशब्दस्य उपग्रहशब्दकुशलस्य च (अक्खुएत्यादि) अत्राचारशब्दसंपन्नः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः / अक्षताचारसंपन्नस्य अक्षताचारशब्दसंपन्नस्य अक्षताचारस्येत्यर्थः / एवमशबलाचारसंपन्नाय अभिन्नाचारसंपन्नस्य संक्लिष्टाचारसंपन्नस्य च व्याख्या कर्तव्या / / व्य० // (कुशलशब्दव्याख्या स्वस्थाने) सांप्रतमक्षताचारादिपदानां सामान्येन व्याख्यानमाह। आहाकम्मुद्देसिय, ठविय रइय कीय कारियं छेज्जं / उमिण्णा हडमाले, वणीमगाजीवण निकाए। परिहरति असणं पाणं, सेजोवहिं पूति संकियं मीसं। अक्खुयमभिन्नमसं-किलिट्ठ वासए जुत्तो। आधाकर्मिकं यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम् औद्देसिकमुदि-। ष्टादिभेदभिन्नं, स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितं, रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्र्यपादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते / तथा क्रीतेन कारितमुत्पादितं क्रीतकारितम् आच्छेद्यं यत् भृतकादिलभ्यमाच्छिद्य दीयते / उद्भिन्नं यत्कुतपादिमुखं स्थगितमप्युच्छिद्य ददाति / आहृतं स्वग्रामाद्याहृतादि (मालत्ति) मालापहृतं 'वनीपकीभूय पिण्ड उत्पाद्यते स पिण्डोऽपि वनीपकः / आजीवनं यदाहारशय्यादिकं जात्याद्याजीवनेनोत्पादित (निकाएत्ति) मम एतावद्रातव्यमिति निकाचितम् एतानि योऽशनपानादिशय्योपधीश्च परिहरति तथा पूतिकं शङ्कितं मिश्रमुपलक्षणमेतदध्यवपूरकादिकं च यश्चावश्यके युक्तः सोऽक्षताचार अभिन्नाचार: संक्लिष्टाचारः / तत्र स्थापितादिपरिहारी अक्षताचारः / अभ्याहृतादिपरिहारी अशबलाचारः जात्योपजीवनादि परिहरन् अभिन्नाचारः / सकलदोषपरिहारी असंक्लिष्टः / संप्रति लाघवाय द्वितीयसूत्रगतानि अक्षताचारादीनि पदानि व्याख्यानयति // ओसन्नखुयायारो, सवलायारो य होइ पासत्थो। भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलिट्ठो उ। अवसन्न आवश्यकादिष्वनुद्यमः कृताचारः / तथा पार्श्वस्थोऽन्योद्मादिभोजी शबलाचारः / कुशीलो जात्याजीवनादिपरो भिन्ना-चारः संसक्तः संसर्गवशात्स्थापितादिभोजी / संक्लिष्टः संक्लि-ष्टाचारः। संप्रत्याचारप्रकल्पधर इति पदं व्याख्यानयति। तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थेय तदुभये चेव / सुत्तधरवजियाणं, तिगदुगपरिवडणा गच्छे / / त्रिविधः खलु प्रकल्पधरस्तथा सूत्रे सूत्रतः अर्थतः तदुभयतश्च / इयमत्र भावना। आचारप्रकल्पधारिणां चत्वारो भङ्गास्तद्यथा सत्रधरोऽर्थधर अर्थधरोन सूत्रधरः सूत्रधरोनार्थधरः सूत्रधरोनाप्यर्थधरः 4 अत्र चतुर्थो भङ्गःशून्यः। उभयविकलतया आचारप्रकल्पधारित्वविशेषणासंभवात्। आद्यानां त्रयाणां भङ्गानां मध्ये तृतीय भङ्गवत्तीं स गणे उद्दिश्यते। यतः स सूत्रधारितया गच्छे गच्छस्य परिवर्द्धको भवति तदभावे द्वितीयभङ्ग वर्त्यपि तस्याप्यर्थधारितया सम्यक्परिवर्द्धकत्वान्न चाद्यभङ्गवर्ती तथाचाह 1 सूत्रधरवर्जितानामाचारप्रकल्पिताना गच्छे सम्यक् परिवर्द्धनात्त्रिके तृतीयभड्ने च ततस्तएवोपाध्यायाः स्थाप्यान प्रथमभङ्गवर्तिनः / एवं दशाकल्पव्यवहारधरादिपदानामपि व्याख्या कर्तव्या।। अत्र पर आह|| पुवं वण्णे ऊणं, दीहं परियायसंघयणसद्धं / दसपुट्विए य धीरे, मज्जार पडियपरूवणया / ननुपूर्वमाचार्यपदयोग्यस्य दीर्घ पर्यायो वर्णितः संहननं चाति-विशिष्ट श्रद्धा च प्रवचनविषयाऽत्युत्तमा आगमतश्चाचार्यपदयोग्यो जघन्यतोऽपिदशपूर्विकास्तथा धरा बुद्धिचतुष्टयेन विराजमाना ततः एवं पूर्व वर्णयित्वा यदेवमिदानी प्ररूप्यते यथा त्रिवर्षपर्याय आचा-- रप्रकल्पधरः उपाध्यायः स्थाप्यते, पञ्चवर्षपर्यायदशाकल्पव्यवहारधर इत्यादि। सैषा प्ररूपणा मार्जारादि न कल्पा / यथाहि मार्जारः पूर्व महता शब्देनारटति पश्चादेवं शनैः शनैरारटति। यथा स्वयमपि श्रोतुं न शक्नोत्येवं त्वमपि पूर्वमुच्चैः शब्दितवान् / पश्वाच्छनैरिति सूरिराह। सत्यमेतत् केवलं यत्पूर्वमुक्तं तद्यथोक्तन्यायमङ्गीकृत्य संप्रति पुनः कालानुरूपं प्रज्ञाप्यते इत्यदोषस्तथाचात्र पुष्करिण्यादौ यो दृष्टान्ती तावेवाह। पुक्खरिणी आयारे, आणयणा तेणगा य गीयत्थे। आयारम्मि उ एए, आहरणा होति नायव्वा / / पुष्करिणी वापी आचार आचारप्रकल्पस्य आनयनं स्तेनकावी Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 830 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस रा गीतार्था एतानि चत्वार्याहणानि दृष्टान्याचार्येण ज्ञातव्यानि इमानि च। सत्थपरिण्णाछकाय-अहिगमपिंडउत्तरज्झयणं। रुक्खेयवसभगावो, गोहा सोही य पुक्खरिणी॥ शस्त्रपरिज्ञा षट्कायाधिगमः षट्जीवनिका इदमेकमुदाहरणं पिण्डः उत्तराध्ययनं उत्तराध्ययनानि वृक्षाः कल्पद्रुमादयः वृषभा क्लीवाः गावः गोधाः शोधिः अत्र दृष्टान्तः पुष्करिणी च सर्वसं-ख्यया त्रयोदश आहरणानि // एतानि व्याचिरव्यासुः प्रथमतः पुष्करिण्याहरणं भावयति। पुक्खरिणीतो पुव्वं, जारिसया उण्ह तारिसा एहिं। तहवि य ता पुक्खरिणी, ता हवंति कज्जइ कीरंति / / पूर्व सुषमसुषमाकाले यादृशः पुष्करिण्योजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ वर्ण्यन्ते इदानीं नतादृश्यस्तथापि च न ता अपि पुष्करिण्यो भवन्ति कार्याणि च ताभिः क्रियन्ते / आचारप्रकल्पानयनाहरणमाह। आयारपकप्पो उ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य। तत्तो व्विय निजूढो, इहाणि य तो किं न सुद्धि भवे / / आचारप्रकल्पः पूर्वं नवमे पूर्वे आसीत्। शोधिश्च ततोऽभवत्। इदानीं पुनरिहाचारानें तत एव नवमान्नि!ह्यानीतः ततः किमेष आचारप्रकल्पो न भवति किं वा तत शोधिर्नोपजायते / एषोऽप्या-चारप्रकल्पः / शोधिश्चास्मादवशिष्टा भवतीति भावः / अधुनास्तेनकदृष्टान्तभावनार्थमाह / / तालुग्धाडिणिं ओसो-वणादिविजाहिं तेणगा आसि। इहिं ते उ न संती, तहा वि किं तेणगा न खलु / / पूर्व स्तेनकाश्चौरा विजयप्रभवादयस्तालोद्घाटिन्यवस्वापिन्यादिभिरुपेता आसीरन् ताश्च विद्या इदानीं नसन्ति। तथापि किं खलु तेन भवन्ति भवन्त्येव तैरपि परद्रव्यापहरणादिति भावः / अधुना गीतार्थदृष्टान्तं भावयति। पुव्वं चउदसपुथ्वी, इण्डिं जहण्णो पकप्पधारीओ। मज्झिमगपकप्पधारी, जह सो उन होइ गीयत्थो / / पूर्व गीतार्थश्चतुर्दशपूर्वी अभवत् / इदानीं स किं गीतार्थो जघन्यः प्रकल्पधारी न भवति भवत्येवेति भावः / शस्त्रपरिज्ञादृष्टान्तमाहपुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीयपढिया य होउ उट्ठवणा। इण्हिं छजीवणिया, किं सा उन होउ उट्ठवणा / / पूर्व शस्त्रपरिज्ञायामाचाराङ्गान्तर्गतायामधीतायामर्थतो ज्ञातायां पठितायां सूत्रत उपस्थापना अभूदिदानी पुनः सा उपस्थापना षड्जीवनिकायां दशवैकालिकान्तर्गतायामधीतायां पठितायां च न भवति / भवत्येवेत्यर्थः / पिण्डदृष्टान्तभावनामाह। वितितम्मि बंभचेरे,पंचम उद्देस आमगंधम्मि। सुत्तम्मि पिंडकप्पि, इह पुण पिंडेसणाएओ॥ पूर्वमाचाराङ्गान्तर्गते लोकविजयनाम्निद्वितीयेऽध्ययने यो ब्रह्मचख्यिः पञ्चम उद्देशकस्तस्मिन् यदामगिन्धिसूत्रम् / “सव्वामगंधं परिण्णाय निरामगंधं परिव्वयय इति" तस्मिन् सूत्रमोऽर्थतश्चाधीते पिण्डकल्पी आसीत् / इह इदानीं पुनर्दशवैकालिकान्तर्गतायां पिण्डैषणायामपि सूत्रोऽर्थतश्वाधीतायां पिण्डकल्पिकः क्रियते सोऽपि च भवति तादृश इति उत्तराध्ययने दृष्टान्तं भावयति। आयारस्स उ उवरिं, उत्तरज्झयणा उ आसि पुवं तु। दसवेयालियउवरिं, इयाणिं किं ते न होंती उ॥ पूर्वमुत्तराध्ययनानि आचारस्याचाराङ्गस्योपर्यासीरन् / इदानीं दशवकालिकस्योपरि पठितव्यानि किं तानि तथा रूपाणि न भवन्ति भवन्त्येवेति भावः / वृक्षदृष्टान्तभावनामाह। मत्तंगादी तरुवर, न संति इण्हिं न होंति किं रुक्खा। महजूहाहिव दप्पिय, पुट्विं वसभाण पुण इण्हिं / / पूर्वं सुषमसुषमादिकाले मत्तङ्गादयो दशविधास्तरुवराः कल्पद्रु-मा आसीरन् इदानीं ते न सन्ति किं त्वन्ये चूतादयस्ततः किं ते वृक्षा न भवन्ति तेऽपि वृक्षा भवन्तीति भावः / वृषभद्रष्टान्तमाह / (महजूहाहिवेत्यादि) पूर्वं वृषभा महायूथाधिपादर्पिकाः श्वेताः सुजाताः सुविभक्तशृङ्गा आसीरन् इदानीं ते तथाभूतान सन्ति किंतु पञ्चदशादि गोसंख्यातास्ततः किं ते यूथा न भवन्ति भवन्त्ये येति भावः / अधुना गोदृष्टान्तभावनार्थमाह // पुव्वं कोडीबद्धा, जूहाओ नंदगोवमाईणं। इण्डिं न संति ताई, किं जूहाइं न हुंती उ॥ पूर्वं नन्दगोपादीनां गवां यूथाः कोटीबद्धाः कोटीसंख्याका आसीरन् इदानीं ते तथाभूता न सन्ति किं तु पञ्चदशादिगोसंख्याकास्तत्किं ते युथा न भवन्ति किंतु भवन्त्येवेति / अधुना योधदृष्टान्तभावनामाह।। साहस्सी मल्ला खलु, महपाणा पुव्वं आसि जोहा उ। ते तुल्ल नत्थि एण्हि,किं ते जोहा न होती तो || पूर्वयोधा महाप्राणाः सहस्रमल्ला आसीरन् इदानीं तेषां तुल्या न सन्ति किंत्वमी ततो हीनास्ततः किं तेयोधा न भवन्ति भवन्त्येव कालौचित्येन तेषामपि योधकार्यकरणादिति भावः। शोधिदृष्टान्तमाह / / पुट्विं छम्मासेहिं, स होउ परिहारेण सोही उ। इण्हिं निव्वडियाहिं, पंचकल्लाणगाईहिं।। पूर्व षभिमसिः परिहारेण वा परिहारतपसा वा शोधिरासी इदानीं निर्विकृतिकादिभिरपि च शोधिः पञ्चकल्याणक दशकल्याणकादिमात्रप्रायश्चित्तदानव्यवहारात् शोधिविषय एव / पुष्करिणीदृष्टान्तमाह॥ किं व पुण एव सोही, जह पुविल्ला सुपच्छिमा सुं च। पुक्खरिणीसुं वत्था, इयाणि सुज्झंति तह सोही।। किं केन प्रकारेण पुनरत्राधुना एवं निर्विकृतिकादिमात्रेण शोधिर्भवति / सूरिराह / यथा पूर्वासु च पूर्वकालभाविनीषु (पुक्खत्ति) प्रभूतजलपरिपूर्णासु वस्त्राणि शुध्यन्तिस्म एवं पश्चिमास्वप्यधुनातनकालभाविनीषु शुध्यन्ति तथा शोधिरपि पूर्वमिवेदानीमपि भवतीति एवं दृष्टान्तानभिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह / / आयरियादिचोइस, पुव्वादि आसि पुट्विं तु। एवं जुवाणरूवा, आयरिया हुंति नायव्वा / / एवमन्तरोदितदृष्टान्तकदम्बकप्रकारेण यद्यपि पूर्वमाचार्यादयश्चतुर्दश पूर्वादयश्चतुर्दशपूर्वधरादय आसीरन् तथापीदानीमाचार्या उपलक्षणमेतत् उपाध्यायाश्च युगानुरूपा दशाकल्पत्र्यवहारधरादयस्तपोनियमस्वा. ध्यायादिषुधुक्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावो चितयतनापरायणा भवन्ति ज्ञातव्याः / संप्रति यावत्पर्यायस्य यावन्ति स्थानानि सूत्रेणानुज्ञातानि तस्य तावन्त्यसंमोहार्थमुपदर्शयिषुराह।। तिवरिसएगट्ठाणं,दोतियट्ठाणा उपंचवरिसस्स। सव्वाणि विकिव्वो पुण, वोढुं वा एति ठाणाई। Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस ८३१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस त्रिवर्षे त्रिवर्षपर्यायस्य एकमेयोपाध्यायलक्षणं स्थानमनुज्ञातं न द्वितीयभाचार्यत्वलक्षणमपि तस्याल्पपर्यायतया प्रभूतखेदसहिष्णुत्वाभावेनाचार्यपदयोग्यताया अभावात् / पञ्चवर्षस्य पञ्चवर्षपर्यायस्य द्वे स्थाने अनुज्ञाते तद्यथा उपाध्यायत्वमाचार्यत्वबहुवर्षवर्षपर्यायतया खेदसहतरत्वाविकृष्टोष्टवर्षपर्यायः पुनः सर्वाण्यपिस्थानानि वोढुंसक्नोति बहुतमवर्षपर्यायत्वात् ततस्तस्य सूत्रेणोपाध्यायत्वमाचार्यत्वं गणित्वं प्रवर्तित्वं स्थविरत्वं गणावच्छेदित्यं वाऽनुज्ञातम् / अथ कथं सर्वाणि यथोक्तानि स्थानानि वोढुं शक्नोति तत आह। नो इंदियाण य कालेण, जायाणि तस्स दीहेण। कायव्वेसु बहूसु य, अप्पा खलु भावितो तेण // तस्य अष्टवर्षपर्यायस्य दीर्घेणाष्टवर्षप्रमाणेन इन्द्रियनोइन्द्रियाणि जातानि भवन्ति कर्तव्येषु च बहूष्यात्मा खलु तेन भावितो भवति ततो योग्यत्वात्सर्वाण्यपि स्थानानि तस्यानुज्ञातानि। निरुद्धप-यस्तदिवसमुद्देष्टु कल्पते॥ (सूत्रम्) निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ तद्दिवसस्स आयरियत्ताए उद्दिसित्तए से किमाहु भंते ? अत्थि णं थेराणं तहारूवाइंकुलाई कडाइंपत्तियाई ठिञ्जाइंवेसासियाई समयाई समुइकराई अणुमयाइं बहुमयाइं भवति / तेहिं कडेहिं तेहिं पत्तिएहिं ठिजेहिं तेहिं विसासीएहिं समुइक रेहिं जेसे निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए / उदिसित्तएतद्विवसं / / व्य०३ उ०। अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध उच्यते। उस्सग्गस्स ववादो, होति विवक्खो उतेणिमं सुत्तं / नियमेण विगिट्ठो पुण, तस्सासी पुथ्वपरियातो।। इहोत्सर्गस्य विपक्षप्रतिपक्षो भवत्यपवादस्तेन कारणेन 'तिवरिसपरियाए समणे निग्गंथे इत्यादि' रूपस्योत्सर्गस्येदमपवादभूतं / सूत्रमुच्यते। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। निरुद्धो विनाशितः पर्यायोऽस्य स निरुद्धपर्यायः। श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पतेयुज्यते तदिवसं यस्मिन् दिवसे प्रव्रज्यार्थ प्रतिपन्नवान् तस्मिन्नेव दिवसे पूर्वपर्यायः पुनस्तस्य प्रभूततर आसीत्। तथाचाह। (नियमेणेत्यादि) नियमेन तस्य पूर्वपर्यायो विकृष्टो विंशति वर्षाण्यासीत् ततस्तद्दिवसं कल्पते। आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम्। अत्र शिष्यः प्राह। (से किमाहु? भंते!) स शद्वोऽथशदार्थः। अथर्किकस्मात्कारणात्भदन्त! परमकल्याणयोगिन्! भगवन्तएवमाहुर्यथा तद्दिवसमेव कल्पते आचार्योपाध्याययोरुद्देष्ट न खलु प्रव्रजितमात्रस्याचार्यत्वादीन्यारोप्यमाणानियुक्तान्यगीतार्थत्वात् अत्र सूरिराह / (अस्थि णमित्यादि) अस्तीति निपातो निपातत्वाच बहुवचनेऽप्यविरुद्धस्ततोऽयमर्थः सन्ति विद्यन्ते णमिति वाक्यालंकारे स्थविराणामाचार्याणां तथा रूपाणि आचार्यादिप्रायोग्यानि कुलानि तेन कृतानि गच्छप्रायोग्यतया निर्वर्त्तितानीत्यर्थः / येन यथा कालं तेभ्य आचार्यादिप्रायोग्यं भक्तमुपधिश्चोप-जायते। उपलक्षणमेतत् तेन केवलं तथा रूपाणि कुलानि कृतानि कित्वार्चायबालवृद्धग्लानादयोऽपि अनेकधा संग्रहोपग्रहविषयी कृता इति द्रष्टव्य न केवलं कुलानि तथारूपमात्राणि कृतानि किंतु(पत्तियाणित्ति) प्रीतिकराणि वैनयिकानि कृतानि (थे जाणित्ति) स्थेयानि प्रीतिकरतया गच्छचिन्तायां प्रमाणभूतानि / अथवा स्थियानीति किमुक्तं भवति / नैकं द्वौ वा वारी प्रीतिकरणानि कृतानि किंत्वनेकश इति (वेसासियाणित्ति) | आत्मनामन्येषां गच्छवासिनां मायारहितीकृततया विश्वासस्थानानि कृतानि विश्वासे भवानि योग्यानि वैश्वासिकानीति व्युत्पत्तेः अत एव सम्मतानि तेषु तेषु प्रयोजनेष्विष्टानि संमुदिकराणि अविषमत्वेन प्रयोजनकारीणि / सोपि च बहुशो विग्रहेषु समुत्पन्नेषु गणस्य संमुदितमकार्षीत् / संमुदिकृततया इष्टेषु च प्रयोजनेष्वनुकल्पेन मतान्यतुमतानि।तया बहूनां विखर्वजडवर्जानां सर्वेषामित्यर्थः। मतानि बहुमतानि भवन्ति तिष्ठन्ति शुभं तस्य स्यादिदं रूपं ततो यद्यस्मात्तेषु कुलेषु तथारूपेषु कृतेषु प्रीतिकरेषुएवं तेषु स्थेयेषु तेषु वैश्वासिकेषु तेषु समुदिकरेष्वित्यपि भावनीयम् स श्रमणो निर्ग्रन्थो निरुद्धपर्यायोऽभवत् तेन कारणे न संकल्पते आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टुं तद्दिवसमिति / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / व्यासार्थं तु भाष्यकृद्विवक्षुः प्रथमतः (सेकिमाहुभंतेइत्यादि) एतस्येदं व्या-ख्यानयति। चोरएयतिवासादी, पूवं वन्नेउंदीहपरियागं। तदिवसमेव इण्हिं, आयरियादीणि किं देह / / चोदयति प्रश्नयति परो यथापूर्व त्रिवर्षादिक दीर्घ पर्याय वर्ण-यित्वा किमिदानीं तदिवसमेव / आचार्यादीनि भावप्रधानोऽयं निर्देश: आचार्यत्वादीनिदत्थ। अत्र सूरिराह। भण्णति तेहिं कायाइ, वेहियाणं तु उवहि भत्ताई। गुरुबालासहुमादी, अणेगकारेहु वज्जिया।। भण्यते अत्रोत्तरं दीयते तैराचार्यादिपदयोग्यनयिकानां विनयमहन्तीति वैनयिका आचार्यादयः तेषां कृताप्युत्पादितानि / उपधिभक्तानि। किमुक्तं भवति। तथारूपाणि स्थविराणां तैनयिकानि कुलानि कृतानि येन तेभ्यो यथाकालमुपधिर्भक्तं चोपजायते इति / एतेन "अत्थिणं थेराणं तयारूपाणि कडाणीति" व्याख्यातम् / न केवल तैस्तथारूपाणि कुलानि कृतानि किं तु गुरुबालसहोदरादयआदिशब्दात् वृद्धग्लानादिपरिग्रहः / अनैक-प्रकारैरुपगृहीताः संग्रहोपग्रहाभ्यामुपष्टम्भे नीताः "पत्तियाणीति" सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातम् तचेत्यत्र द्वितीयं व्याख्यानमाह। ताई पीतिकराई, असई दुय्वत्ति होसि थेजानि। संकियअणवेक्खाए, जिम्हजढा ईति विस्संभो॥ अथ वेति प्रतीतं प्रथमव्याख्यानापेक्षया व्याख्यानान्तरोपदर्शने स्थेयानीति कित्वसकृदिति। तथा वैश्वासिकानीति कोऽर्थः अनपेक्षया स्वपरविशेषाकरणेन प्रभूततराणां संचिताङ्गे नेत्यर्थः / वेष्याणि विशेषत एषणीयान्यभिलषनीयानि कृतानियतस्तानि जिह्मजढानि जिह्यं मायया रहितानि कृतानीति तेषु विश्रम्भो विश्रंभस्थानत्वास्वाद्यध्यपेक्ष्याणीति संमुइकराणीति व्याख्यानार्थमाह। सव्वत्थ अविसमत्ते, ण कारगो होइ संमुदी नियमा। बहुसो य विग्गहेसुं, अकासि गणसम्मुदिं सो उ॥ सर्वत्र सर्वेषु प्रयोजनेषु यो नियमादविषमत्वेनाकुटिलतया कारको भवति (सम्मुदित्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् संमुदिकरः तान्यपिकुलानि तेन तथारूपाणि कृतानि न केवलं तेन कुलानि समुदिकराणि कृतानि / किंतु सोऽपि तुशब्दोऽपिशब्दार्थः / बहुशो बहुभिः प्रकारैर्विग्रहेषु समुत्पन्नेषु तदुपशमनतो गणस्य गच्छस्य सम्मुदिमकार्षीत् शेषाणि तु पदानि सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातानि॥ थिरपरिचियपुव्वसुतो, सरीरयामावहारविजढो उ। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 632- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस पुट्विं विणीयकरणो, करेइ सुत्तं सफलमेयं / / स्थिरो नाम अचपलः / परिचितं पूर्वस्मिन्पूर्वपयाये श्रुतं यस्य स परिचितपूर्वश्रुतः / यदि वा प्रत्यागतस्यापि स्वाभिधानमिव परिचितं पूर्वपठितं यस्य स तथा। ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तथा शरीरस्य स्थानप्राणस्तस्यापहारोऽपलपनं तेन विजढो रहितः शरीरस्थानपहाररहितः। किमुक्तं भवति / पूर्वतेन सारं वलं वैयावृत्यं वाचनादिषु परिहारयितमिति तथा पूर्वं पूर्वपर्याये विनीतानि विशेषतः संयमयोगेषु नीतानि करणानि मनोवाकायलक्षणानि येन स विनीतकरणः संयमयोगादिकं सर्व तेन पूर्वमपरिहीनं कृतमिति भावः / य ईदृशः पूर्वमासीत्। स एतत्सूत्रं सफलं करोति / ईदृशस्य तदिवसमाचार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा उद्दिश्यतेन शेषस्य ततो न कश्चित्पूर्वापरविरोध इति भावः। कह पुण तस्स निरुद्धो, परियातो होज तदिवसतो उ। पुवा कडसावेक्खो, सण्णाईहिं बलानीतो॥ कथं केन प्रकारेण तस्य पूर्वः पर्यायो निरुद्धः कथं तावदैवसिकस्तदिवसभावी पर्यायोऽभवत् / अत्रोत्तरमाह (पुवक डेत्यादि) स्वज्ञातिभिः स्वकीयैः स्वजनैः सापेक्षो गच्छसापेक्षः सन् बलानीतः / सोभूदतः सर्वं संपृष्टनमभूत् एतदेव प्रपञ्चयन्नाह। पव्वजअप्पपंचम, कुमारगुरुमादिउवहिते णयणं / निजं तस्स निकायण, पव्वतिते तद्विवसपुच्छा॥ राजा कोप्यमात्यपुरोहितसेनापतिश्रेष्ठिसहितो राज्यमनुशास्ति तेषामेकैकः पुत्रस्तत्र राजपुत्रो राज्ञा राजा भविष्यतीति संभावितः अमात्यपुत्रो अमात्येनामात्यत्वपुरोहितपुत्रः पुरोहितेन पुरोहितत्वे सेनापतिपुत्रः सेनापतिना सेनापतित्वे श्रेष्ठिना श्रेष्ठित्त्वे तेऽपि पञ्चा पिसह क्रीडन्ति / अन्यदा कुमारो राजपुत्र आत्मपशमोऽमात्यपु रोहितसेनापतिश्रेष्ठिपुत्रैः सहेत्यर्थ प्रव्रज्यामगृहीत् / सर्वे च तेअतीव बहुश्रुता जाता ग्रहणशिक्षामासेवनाशिक्षां चातिशिक्षितवन्तः कुलानि च प्रीतिकरादिरूपाणि कृतानि आचार्येण च तेगुर्वादयः संभाविताः। तद्यथा राजपुत्र अचार्यपदे अमात्यपुत्र उपाध्यायत्वे पुरोहितपुत्रः स्थविरत्वे सेनापतिपुत्रो गणित्वे श्रेष्ठि पुत्रो गणावच्छेदित्वे संभावितः राजादीनां चान्ये पुत्रान विद्यन्तेततस्ते सूरिसमीपमागत्य विज्ञापयन्ति यथा नयाम एतान् स्वस्थानं पश्चादेतैरेव सह समागत्य वयं प्रव्रजिप्यामः एवमुपधिना मातृस्थानेन विज्ञाप्य तेषां ते नयनमुपकरणं कुर्वन्ति / तस्य च राजकुमारस्यात्मपञ्चमस्य नीयमानस्याचार्यो निकाचनं करोति यथा सम्यक्त्वे नियमतोऽप्रमत्तेन भाव्यं अत्र शिष्यस्य पृच्छा भूयः। प्रव्रजिते सति राजकुमारादौ किमिति तदिवसं यस्मिन् दिवसे प्रव्रज्या प्रतिपन्ना तस्मिन्नेव दिने आचार्यादिपदस्थापनाम तोत्तरं वक्तव्यमिति भावार्थः / इति उपधिना तेषां नयनमुक्तं संप्रति प्रकारान्तरेणापहरणमाह। पियरो व तावसादी, पव्वजिउमणा उते फुरावित्ति। ठविया एयादीसुं, ठाणेसुं ते जहा कमसो॥ पितरो वा तेषां। तापसादयः तापसादिरूपतया प्रव्रजितुम नसः। तान् राजपुत्रादीन् (फुरावित्ति त्ति) देसीपदमेतत् अपहारयन्ति। इत्थं च नीताः सन्तस्ते स्वपितृभिर्यथाक्रमं राजादिषु स्थानेषु स्थापिताः। निया वि फासुभोजी, पोसहसालायपोरिसीकरणं। धुवलोयं च करेंता, लक्खणपाढेय पुच्छंती / / जो तत्थ अमूढ लक्खा, रिउकाले तीए एक्कमेकं तु / उप्पाएऊण सूर्य, हाविय ताहे पुणो हों ति।। नीता अपि ते राजकुमारादयः प्रासुकभोजिनः पौषधशालायां प्रतिदिवसं सूत्रपौरुष्या अर्थपौरुष्याश्च करणं ध्रुवमवश्यं लोचं च ते कुर्वन्ति / ब्रह्मचर्य च परिपालयन्ति। नवरं लक्षणपाठकान् दिने पृच्छन्ति। कस्या महिलाया ऋतुकाले गर्भो लगतीति एवं दृष्ट्वा यासां महिलानां लक्षणपाठका भवन्ति तथैतासामृतुकाले नियमनात् गर्भो लगिष्यतीति ततो या ऋतुकाले अमूढलक्षाऋतुकालस्य स्वस्य ज्ञात्री तस्यामात्मीयायामेकैकं वारं गत्वा बीज निक्षिपन्ति। एवं चात्मीयमात्मीयं पुत्रमुत्पाद्य यदा यदायो योस समर्थो जायते। तदा तदातंतं स्वस्वस्थाने स्थापयीत्वा पुनरागच्छन्तीति। अन्भुज्जयमेगपरं, पडिवजिउकामथेरअसति अन्ने। तदिवसमागतेसुं, ठाणेसु ठवंति तस्सेद। यस्मिन् दिवसे ते प्रत्यागतास्तस्मिन्नेव दिवसे स्थविरा आचार्या अभ्युद्यतमेकतरं विहारं जिनकल्पिकं यथालन्दकल्पविहारं वा प्रतिपत्तुकामाः स्थविरत्वात्। अन्यगणधारणेऽसमर्था स्तादृशोन विद्यन्ते ततस्तद्दिवसमागतान् राजकुमारादीन् तेष्वाचार्यत्वादिषु स्थानेषु स्थापयन्ति "पुव्ययते दिवसपुव्वे" यदुक्त तत्र तामेव पृच्छां भावयति। कह दिज्जइ तस्स गणो,तद्दिवसं चेव पव्वइगस्स। भण्णइ तम्मि ठविए, हॉति सुबहुगुणाउ इमे / / कथं तस्य राजकुमारस्य प्रव्रजितस्य तदिवसमेव यस्मिन् दिने प्रव्रज्या प्रतिपन्ना तस्मिन्नेव दिने गणो दीयते / अत्र सूरिराह भण्यते तस्मिन् स्थापने सुष्ट अतिशयने बहवो गुणा इमे वक्ष्यमाणा भवन्ति तानेवाह। साहु विसीयमाणो, अण्णगेलण्णभिक्खउवगरणा। ववहारइत्थियाए, वाएय अकिंचणकरे य॥ एते गुणा हवंती, तज्जायाणं कुटुंबपरिवड्डी। ओहाणं पि य तेसिं, अणुलोमुवसग्गतुल्लं तू // साधुर्विषीदन्तान् तथाभूतान् दृष्ट्वा स्थिरोभवति। आर्यिका अपि तेषु स्वचेतसि स्थिरा उपजायन्ते (गेलण्णत्ति) ग्लानत्वे साधुनामौषधं सुलभ भवति / वैद्योऽपि तेषां प्रभावतोऽनुकूलां क्रियां करोति / यथा एते राजादिपुत्राः तेषां चामी शिष्या इति / तथा भिक्षा उपगरणमपि साधूनामतिसुलभम् (ववहारो इत्थिया) एते स्त्रिया अपहत्तायास्तेषां भयतो व्यवहारो लभते इयमत्र भावना। काचित् रूपवती कुमारश्रमणा केनापि राज्ञा गृहीता स्यात्ततस्तेषां गतानां भयेन सा मुच्यते इति वादे च तद्रौरवात्साधवोऽपरिभूता भवन्ति (अकिंचणकारयचि) सोऽपि कश्चित्साधूनां प्रत्यनीकः सोऽपि तेषां राजादिकुमारप्रव्रजितानां भयतो नकिञ्चित्करोति अथवा किंचनानां साधूनां यदि कथमपि केनाऽप्यर्थजाते प्रयोजनमुपजायते तर्हि तत्सर्वं लोकः प्रायोऽप्रार्थित एव करोति। तदेवमेते अनन्तरोदिता गुणास्तजातानां राजादि जातीयानां यतोऽतस्ते निरुद्धपर्यायाः प्रत्यागताः प्रव्राजितास्तदिवस एवाचार्यादिपदेषु स्थाप्यन्ते / अयं च गुणः कुटुम्बपरिवृद्धिस्तथाहि यदि नामते तथाभूतं राज्यादिकमपहाय धर्म समाचरन्ति ततः किं तेषु तुच्छे भोगोपभोगेषु एवमन्येपि संयमे निष्क्रमन्ति ततो भवति गच्छस्थ महती वृद्धिः / Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 833 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस - एतेषामवधानमुत्प्रव्राजनं तदप्यनुलोमोपसर्गतुल्यम्। किमुक्तं भवति। यथा कस्याऽपि साधोः कश्चिदनुलोमान् उपसर्गान् प्रकृतवान् सचैवं चिन्तयति / यदि परमनेनोपायेनाहं मुच्ये नान्यथा ततः एवं विचिन्त्याशठभावः सपरिसेवेते स च तथाकृतपरिसेवनोऽप्यशठभाव इत्यखण्डचारित्र इति व्यवह्रियते / एवमेतेऽप्यखण्डचारित्रा एव तत्वतो मन्तव्याः एतदेव लेशतो व्याख्यानयन्नाह। साहूणं अजाण य, विसीयमाणा ण होति थिरकरणं / जइ एरिसा वि धम्म, करेति अम्हं किमंग पुण / / साधूनामार्यिकाणां च विषीदतां स्थिरकरणं भवति / तथा हि केचित्साधवो भोगेषु विषीदन्तस्तान् दृष्ट्वा एवं चिन्तयति।यदितावदीदृशा अपि विपुलराज्यादिका अमी देवकुमारिकाः प्रख्या-भिरपि निजमहिलाभिरुपसर्ग्यमाणा धर्मं कुर्वन्ते न पुनर्निजं ब्रह्मचर्य भ्रंशितवन्तोऽत एव ते तद्विवसं एवाचार्या दिपदेषु स्थापिताः किमङ्ग पुनरस्माभिः सुतरां धर्मे समाचरणीयम् / विभवादिपरिभ्रटत्वादिति / आर्यिका अपि चिन्तयति। यदि तावदीदृशाः खल्वस्माकं बान्धवाः संपन्नाः कथममन्दपुण्या एतेषां सुखमपि निरीक्ष्यन्तेन सीदन्ति खल्वेतादृशधीरपुरुषपरिगृहीता आर्यिका केवलमपरिभूताः सदा वर्तन्ते॥ किंच तत्थ ठविएस, लोगो भयं गौरवं करेति। गेलण्णोसहिमाई, सुलभ उवकरण भत्तादी॥ किं च तत्र तेषु राजकुमारादिष्वाचार्यादिपदेषु स्थापितेषु लोको भयं गौरवं बहुमानं च कुर्वते / ग्लानत्वे भवत्यौषधादिकं सुलभमुपकरणभक्तादिच। संजतिमादीगहणे, ववहारे होइ दुप्पधंसो उ। तग्गारवा उ वादे, हवंति अपराजिया चेव / / संजत्यादीनामादिशब्दात्तथाविधक्षुल्लकादिपरिग्रहः / ग्रहणे अपहारे / भवत्यसौ राजकुमारादिदुष्प्रधृस्यः / तथा तद्गौरवात् वादे भवन्ति साधवोऽपराजिता एव। पडिणीयाअकिंचिकरा, होति अवत्तव्वो अट्ठजाएय। तज्जायदिक्खिएणं, होइ विवड्डी वि य गणस्स। प्रत्यनीकाः अकिञ्चित्करा भवन्ति अर्थजाते च समुत्पन्न कश्चिदपि वक्तव्यो न भवति / किंतु सर्वोऽप्यप्रार्थित एव यथोचित्यं करोति / तथा तेन तज्जातेन राजादिजातेन तदिवस एवाचार्यादिपदस्थापितेन गणस्य गच्छस्य वृद्धिर्भवति। शेषं सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातम्। (सूत्रम्) निरुद्धवासपरियाए समणे निग्गंथे आयरियउवज्झायत्ताए उहिसित्तए समुत्थे य कप्पति, तस्स णं कप्पस्स देसे अभिजेए भवंति से आहिजि सामिति अहिजिज्जा एवं से कप्पइ आयरियउवज्झायत्ताए उद्विसित्तए से य अहिज्जे सामित्ति णो अहिज्जा आ एवं से नो कप्पइ आयरियउवज्झा-यत्ताए उद्विसित्तए 10 / निरुद्धवासपरियाए समणे निग्गथे इत्यादि अस्य सम्बन्धमाह . अपवदिहं तु निरुद्धं, आयरियत्तं तु पुटवपरियाए। इमतो पुण अववातो, असमत्तसुयस्स तरुणस्स। निरुद्धे / विनाशिते पूर्वपर्याये सत्याचार्यत्वमपवदितुं प्रव्रज्या दिवस एवाचार्यत्वमनुज्ञातुमनन्तरसूत्रेऽयमनेन सूत्रेणाभिधास्यमानः पुनरपवादोऽसमाप्तश्रुतस्य तरुणस्य। किमुक्तं भवत्यल्पविषयपर्यायस्यासमासश्रुतस्यापिचापवादतोगणधरत्वमनुज्ञायतेततोऽनेनाप्यपवादोऽभिधानतो भवति पूर्वसूत्रेणास्य सम्बन्धः / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या निरुद्धो विनाशितो वर्षपर्यायो यस्य स निरुद्धवर्षपर्यायः / एतदुक्तं भवति। त्रिषु वर्षेषु परिपूर्णेषु यस्य निरुद्धः पूर्वपर्यायो यदि वा पूर्णे त्रिवर्षे समाप्तश्रुतस्य निरुद्धवर्षपर्याय इति। श्रमणो निर्ग्रन्थः कल्पतेआचार्योपाध्यायतया। आचार्यतया उपाध्यायतया वा उद्देष्टु केत्याह समुच्छेदकल्प आचार्य कालगते अन्यस्मिंश्च बहुश्रुते लक्षणसंपूर्णेऽसति तस्य च आचार्यतया उपाध्यायतया उद्देष्टुमपि तस्य आचारप्रकल्पस्य निशीथाध्ययनस्य देशोऽधीतो भवति सूत्रमधीतमर्थोऽद्यापि नाधीयते यदि वार्थो न परिपूर्णोद्याप्यधीत इत्यर्थः / (सेयइत्यादि)स चेदमधीतवान् पाश्चात्यं स्थितं देशमध्येऽधीयतेतत एवं सति कल्पते आचार्योपाध्या यतया उद्देष्टम यदि पुनः सोऽध्येष्ये इति चिन्तयन्नपि नाधीयते इति संभाव्यते। तत एवं सतिन कल्पते। आचार्योपाध्यायतया उद्देष्टुम् एष सूत्रसंक्षेपार्थः / तत्राल्पवर्षपर्यायस्यासमाप्तश्रुतस्यापवादतो गणधरपदानुज्ञानार्थमिदं सूत्रमित्युक्तमतोऽल्पवर्षपर्यायत्वं समाप्तकृतत्वं च भाष्यकृद्भावयति। तिण्णी जस्स अ पुण्णा, वासापुण्णेहि वा तिहिउतं तु। वासेहिं निरुद्धेहिं, लक्खणजुत्तं पसंसंति॥ यस्य त्रीणि वर्षाणि व्रतपर्यायतयाऽद्याप्यपरिपूर्णानि एतस्थामवस्थायां यदि वा त्रिषुपरिपूर्णेषु तस्य तन्निरुद्धवर्षपर्यायत्वमभवत् / स त्रिषु पर्णेषु अपूर्णेषु वा वर्षेषु निरुद्धेषु आचार्ये कालगते अन्यो बहुश्रुतोऽपि लक्षणसंपूर्णो न विद्यते सचासमाप्तश्रुतोऽपि लक्षणयुक्तो ग्रहणधारणासमर्थश्चेति स्थाप्यते / बहुश्रुतोप्यन्यो न स्थाप्यते किं तु सोऽसमाप्तश्रुतोऽपि लक्षणयुक्तः। किं कारणमत आह / लक्षणेत्यादि / लोके वेदे समये च विशारदा नायकत्वपदाध्यारोपे प्रशंसन्ति / लक्षणयुक्तं नेतरं बहुश्रुतमपि ततः स एव स्थाप्यते। अत्र पर आह। किं अम्ह लक्खणेहिं, तवसंजमसुट्टियाणसमणाणं / गच्छविवकिनिमित्तं, इच्छिज्जइ सो जह कुमारो।। किमस्माकं श्रमणानां तपसंयमसुस्थितानां लक्षणैः केवलं लक्ष-- णविहीनोऽपि बहुश्रुतः स्थाप्यतां येनाऽस्माकं स्वाध्यायवृद्धिर्भवति / आचार्य आह / सोऽल्पश्रुतोऽपि लक्षणयुक्ततया गणधरपदस्थापनायामिष्यते गच्छविवृद्धिनिमित्तं यथा राज्यवृद्धिनिमित्त राज्ये कुमारः। एतदेव भावयति॥ बहुपुत्तो नरवई, सामुई भणति कं ठवेमि निवं / दोसगुणएगणेगे, सो वि य तेसिं परिकहेइ॥ कोऽपि बहुपुत्रको नरपतिः सामुद्रिकं सामुद्रलक्षणवेत्तारं भणति। तथा कमहं कुमारं नृपं स्थापयामि एवमुक्तः सोऽपि तेषां कुमाराणां यस्य दोषा गुणा वा एकेऽनेके च विद्यन्ते तत्सर्वं परिकथयति तत्र दोषा इमे। निमगं च डमरं, मारीदुडिभक्खचोरपउराई। धणधनकोसहाणी, बलवति पचंतरायाणो।। निधूमकं नाम अपलक्षणं यत्प्रभावतो राज्यमनुशासति रन्धनीयमेव न भवति डमरं यद्वशाद्राज्यं डमरबहुलं भवति / प्रभूतस्वदेशोत्थोपप्लवा एवोपजायन्ते इत्यर्थः / मारिर्यद्वशान्मारिदोषोपहतं प्रचुरं दुर्भिक्षमुपयाति / चोरप्रचुरं यदहवश्चौरा उच्छलन्ति / धनहानिर्यतः सर्वत्र धनक्षत्रः संभवति। धान्यहानिर्य Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस त्प्रभावादृष्टेऽपि मेघे सस्यनिष्पत्तिस्तादृशी नोपजायते। कोशहानिर्यतः तेषामन्तिके अन्यत्रागमने तत्रैव तान् तथारूपान् कृत्वा सागारिकाणाकोशक्षयः बलवत्प्रत्यन्तराजकं यतो बलवन्तः प्रत्यन्तराजाः सर्वे मभावे तेषामन्तिकेऽधीते एतदेवाह / भवन्ति एते कस्याप्येकः कस्याप्यनेके दोषाः अधुना गुणमाह / / सगणे परगणे वा, मणुण्णअण्णेसिंवा वि असतीए। खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवसग्गं गुणेहिं उववेयं / संविग्गपक्खिएसुं, सरूवि सिद्धे सु पढमं तु / / अभिसिंचंति कुमार, गच्छे वि तयाणुरूवंतु // स्वगणे गणधरपदानह गीतार्थानामन्तिके परगणे वा मनोज्ञे वा क्षेमं नाम सुलक्षण यदशात्सर्वत्र राज्ये नीरोगता शिवं यतः सर्वत्र कल्याण साम्भोगिके तदभावे अन्येषां वा असाम्भोगिकानामन्तिके तेषासुभिक्षसंभवः / निरुपसर्गायतः सकलेऽपि देशे मारिर्डमराद्युपसर्गासंभवः / मप्यसत्यभावे संविग्नपाक्षिकेषु पार्श्वस्थादिषु प्रथममेव प्रतिक्राएतेऽपि गुणाः कस्याप्येकः कस्याप्यनेके कस्याऽपि सर्वे तत्र यथासर्वथा न्ताभ्युत्थितेषु तेषामप्यभावे सरूपिषु संयतरूपिषु प्रतिक्रान्तादोषोपेतमधिकृतैश्च गुणैः सर्वैरप्युपेतं कुमारं राजामात्यादयो भ्युत्थितेषु पश्चात्कृतेषु तेषामप्यभावे प्रथममेव स्वरूपिषु सिद्धेषु सिद्धपुत्रेषु राज्येऽभिषिञ्चन्ति तथा गच्छेऽपि तदनुरूपं राजकुमारानुरूपं सर्वथा एतत्प्रतिक्रान्ताभ्युत्थितानधिकृत्योक्तं तदभावे अन्यत्र विधिमाह। दोषविनिर्मुक्तमेकान्ततो गुणैरुपेतमाचार्यादिपदे / सिञ्चन्ति एतदेव मुंडं च धरेमाणे, सिहं च फेडं च अणिच्छससिहे वि। स्पष्टयति॥ लिंगेण मसागारिए, वंदणगादीण हार्वे ति॥ जह ते रायकुमारा, सुलक्खणा जे सुहा जणवयाणं / ते पश्चात्कृतादयो यदि न प्रतिक्रान्ता अभ्युत्थिताः किं तु लिङ्ग--तो संतमविसुयसमिद्धं, नच वेंति गुणे गुणविहूणं॥ गृहिस्था वर्तन्ते / अन्यत्र गत्वा तान् मुण्डं च धरमाणान् धारयतः यथा ते राजकुमाराः सलक्षणा ये स्थापिताः सन्तो जनपदानां शुभाः। कारयति / यदि पुनः सशिरवाकाः सन्ति ततः शिखां स्फेटयति। अथ कल्याणकारिणः त एव स्थाप्यन्ते न शेषास्तथा सूरयोऽपि शिखास्फेटनं ते नेच्छन्ति ततः सशिखानपि स्थापयित्वा इत्वरं गच्छवृद्धिमपेक्षमाणाः सन्तमपि श्रुतसमृद्धंगुणविहीनं नगणे स्थापयिन्त।। श्रमणलिङ्गं तेषां समर्पयन्ति / व्याख्यानवेलायां च चोलपट्टकं मुखपोतिकां च ग्राहयन्ति तेषामपि तथा भूतानां पार्श्वे पठता यथा लक्खणजुत्तो जइ वि हु, न समिद्धसुतेण तह वि तं ववए। प्रतिरूपश्रुतविनयः प्रयोक्तव्यः। तेषु नवारणीयः। अथ ते अन्यत्र गमनं तस्स पुण होति देसो, असमत्तो पकप्पनामस्स!! नेच्छन्ति तर्हि तत्रैवासागारिके सागारिकसंपातरहिते प्रदेशविशेषे लिङ्गेन लक्षणयुक्तो यद्यपि हुनिश्चित्तं स्थापयेत्। तस्य पुनर्देशो भवत्यसमाप्तः // रजोहरणमुखपोत्तिकादिना श्रमणरूपधारिणः कारयित्वा पठनीयम्। ते प्रकल्पनाम्नो निशीथाध्ययनस्य कथं पुनर्देशोऽसमाप्त इत्याह / / च तत्रापि तथा पठन्तो न वन्दनादीनि हापयन्ति / / देसो सुत्तमधीतं, न तु अत्था अत्थतो व असमत्ती। आहारउवहिसेज्जाए, समणमादीसु होइ जइयव्वं / सगणे अणरिहगीता, सतीपगिण्हेजमेहिंतो।। अणुमोयणकारावण-सिक्खत्तिपदम्मि तो सुद्धो। प्रकल्पं द्विधा शरीरं सूत्रमर्थश्च / तत्र देशः सूत्रमधीतं नत्वर्थः / अथवा तेन तेषां समीपे पठनाहारोपधिशय्यानामेषणादिषु भवति यतिअर्थोऽपि कियानधिगतः केवलमर्थतः समाप्ति भूत् / ततो ये स्वगणे तव्यम् / तदाऽनुमोदने कारापणे चनच कारणकारापणानुमोदनदोषैः स आचार्यलक्षणविहीनतया गीतार्था अपि सन्तोऽनर्हाः आचार्यपदायोग्या- परिगृह्यते। यतः शिक्षा मयाऽस्य समीपे गृह्यते इति द्वितीये पदे वर्तते। स्तेभ्यः आचार्यपदोपविष्टः सन्नर्थं गृह्णीयात् / अथ स्वगणे गीतार्था न ततः स शुद्ध इति। इयमत्र भावना / यदि स पार्श्वस्थः पश्चात्कृतादिः विद्यन्ते। तर्हि तेषामसत्यभावे एभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यो गृह्णीयात्तानेवाह। पाठयन्नात्मनः आहारोपध्यादिकमात्मनैवोत्पादयति ततः सुन्दरम् / संविग्गमसंविग्गे, सारूवियसिद्धपुत्तपच्छिन्ने। आत्मना नोत्पादयति / तत आह। पडिकंत अब्भुत्थिए, संती अन्नत्थ तत्थेव // चोयइ से परिवारं, अकारमाणं भणति वा सद्धे। स्वगणे गीतार्थानामभावे अन्येषां सांभोगिकानां समसुखदुःखानां सव्वोच्छित्तिकरस्स हु, सुयमत्तीए कुणह पूयं // गीतार्थानामन्तिके गत्वाऽधीते तेषामप्यभावेऽन्यसांभोगिकानां गच्छं से तस्य परिवार विनयमकुर्वन्तं चोदयति प्रज्ञापयति / यथा महदिदं प्रविश्य पठति। तेषामप्यभावे पार्श्वस्थादीनां संविग्रपाक्षिका–णामन्तिके ज्ञानपात्रमतः क्रियतामस्योत्कृष्टाहारसंपादनेन विनय इति केवलं तत्संयमयोगेष्वभ्युत्थाप्य एतावता संविग्नेति व्याख्यातम्। अधुना परिवारस्याभावे श्राद्धाचासिद्धपुत्रपुराणेतररूपान् भणति यथा असंविगेत्यादिव्याख्यायते।असंविग्नान् सारूपिकान् संयतरूपधारिणः अव्यवच्छित्तिकरस्यास्य श्रुतभक त्या कुरुत पूजामिति / एतेनानुसिद्धपुत्रप्रच्छन्नान् सिद्धपुत्रान् पश्चात्कृतांश्वाश्रयेत् / कथंभूतानित्याह मोदनकारापणे व्याख्याते। संप्रति स्वयमुत्पादनमाहारादीनां भावयति॥ प्रतिक्रान्ताभ्युत्थितान् असंयमव्यापारान् प्रतिक्रान्तान् संयम दुविहा सत्ती एसिं, आहारादी करेति ते सव्वं / प्रत्यभ्युत्थितान् तेषामप्यसति अभावे अन्यत्र यत्रतेन ज्ञायन्ते तत्र गत्वा पणहाणीए जयंतो, अट्ठत्ताए वि एमेव / / तेषामन्तिके अधीते नान्यत्र तेषामगमने तत्रैव पठेत् यत्र ते स्वव्यापारेण द्विविधस्य प्रतिपरिचारकस्य सिद्धपुत्रादेश्चेत्यर्थः / असत्यभावे स्थिता वर्तन्ते। इयमत्र भावना पार्श्वस्थादीनां संविग्नपाक्षिकाणामभावे तेषां पार्श्वस्थपश्चात्कृतादीनामाहारादिकं स सर्वमात्मना ये पूर्व संविना गीतार्था आसीरन तेषां पश्चात्कृतानां पुनः प्रतिक्रान्ता करोति / तत्रापि स प्रथमतः शुद्धमुत्पादलाभे पश्चकपरिहान्या भ्युत्थितानामन्तिके गृह्णीयात्तेषामप्यभावे संयमयोग प्रत्यभ्युत्थितानां यतमानोऽशुद्धमपि पञ्चकपरिहानियतनानामशुद्धालाभे पक्षकप्रायसिद्धपुत्राणामन्तिके तेषामप्यभावे अन्यत्र तान् संयतरूपकान् कृत्वा / श्चित्तस्थानप्रतिसेवनात् उत्पादयति तदसंभवे दशक प्रायश्चित्त Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 835 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस स्थानप्रतिसेवनात् एवं तावत् यावच्चतुर्गुरुकमसंप्राप्तः / तथापि से तस्योत्पादयति। एवमेवात्मार्थ पञ्चकपरिहान्या यतते। किमुक्तं भवति। उगमादिदोषत्रयशुद्धमलभमानः पञ्चकादियतनया त्रिभिरपि दोषैरशुद्ध गृह्णाति स तथा कुर्वन्नपि ज्ञाननिमित्तं प्रवृत्तत्वात् कृतयतनाविषयपुरुषकारत्वात् रागद्वेषविरहितत्वाच्च शुद्ध इति (आचार्योपाध्यायादिषु मृतेषु नवडहरस्य तत्पदे स्थापना) (सूत्रम्) निग्गंथस्स णं णवडहरतरुणगस्स आयरियउवज्झाए विसंभेजाणो से कप्पइ अणायरियउवज्झायस्स होत्तए कप्पइ से पुटवआयरियं उढिसाविता ततो पच्छा उवज्झायं से किमाहु मंते दुसंगहिए समणे निग्गंथे तं जहा आयरिएणं उवज्झाएणय॥ निग्गंथस्सेत्यादि अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह॥ आयरियाणं सीसो, परियातो वावि अह कितो एस। सीसणके रिसाण व, ठाविजइसोउआयरिओ।। पूर्वसूत्रे आचार्यस्थापनीय उक्तः / आचार्याणां च शिष्या भवन्तीति तद्वक्तव्यतार्थमिदं सूत्रम् अथवा पूर्वसूत्रेषु पर्यायोऽधिकृतोऽस्मिन्नपि च सूत्रे एव पर्यायस्तथा च "नवडहरतरुणग्रहणं" यदि वाऽनन्तरसूत्रे य आचार्यः स्थापनीयः उक्ताः स कीदृशानां शिष्याणां स्थाप्यते / इतीदमनेन सूत्रेणोच्यते। अनेन संबन्धेनायातस्यास्यव्याख्या निर्ग्रन्थस्य णमिति वाक्यालङ्कारे नवडहरतरुणस्य नवस्य डहरस्य तरुणस्य वा आचार्यसहित उपाध्याय आचार्योपाध्यायः। आचार्य उपाध्यायश्चेत्यर्थः / विष्कम्भो यावन्मियते ततः से तस्य नवडहरतरुणस्थानाचार्योपाध्यायस्य सतो भवितुं वर्तितुं न कल्पते किं तु पूर्वमाचार्यमुद्देशाः स्थापयित्वा ततः पश्चादुपाध्यायमुद्देशा अप्येवमाचार्योपाध्यायस्य सतो भवितुं कल्पते। से किमाहुः / से शब्दोऽथशब्दार्थः / अथ भदन्त ! किं कस्मात् कारणात् भगवन्त एवमाहुः सूरिराह 1 द्वाभ्यामाचार्योपाध्यायाभ्यां संगृहीतो द्विसंगृहितः श्रमणो निर्ग्रन्थः सदा भवति। तद्यथा आचार्येणोपाध्यायेन च एष सूत्रसंक्षेपार्थः व्यासार्थ तु भाष्यकृद्विवक्षुर्नवादिशब्दार्थानामर्थमाह तिवरिसो होइ नवो, आसोलसगं तु डहरगं वेंति। तरुणे चत्तासत्तरुण,मज्झिमोथेरतो सीसो॥ प्रव्रज्यापर्यायेण यस्य त्रीणि वर्षाणि नाधिकमित्येष त्रिवर्षो भवति नवः तन्नव पर्यायेण चत्वारि वर्षाण्यारभ्य यावदाषोडशकं वर्षम् अत्राङ् मर्यादायां यथा आपाटलिपुत्रादृष्टो देवः / किमुक्तं भवति / पाटलिपुत्रं मर्यादीकृत्यारतो वृष्टो देवः / इत्यत्र ततोऽयमर्थः / यावत्परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशाद्वर्षादक् तड्डहरकं ब्रुवन्ते समयविदः / ततो जन्मपर्यायेण षोडशवर्षाण्यारभ्य यावचत्वारिंशद्वर्षाणि ताक्त्तरुणः। ततः परं यावत्सप्ततिरेकेन वर्षेणोना तावन्मध्यमः / ततः परं सप्ततेरारभ्य स्थविरः शिष्यः॥ अणवकस्स विडहरग-तरुणगस्स नियमेण संगहं विति। / एमेव तरुणमज्झे,थेरम्मिय संगहो नियमे // यः प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षोत्तीर्णः सोऽनवक उच्यते। तस्यापि आस्तां नवकस्येत्यपिशब्दार्थः / डहरकः सन्तरुणकस्तस्य द्वादशवर्षाण्यारतो यावत्पञ्चदशवर्षाणि तावदित्यर्थः नियमेन संग्रहमभिस्थापिताः आचार्योपाध्यायानां संग्रहणं ब्रुवते अभिनव-स्थापिताचार्योपाध्यायाः संग्रहीतेन तेनावश्यं वर्तितव्यमिति भावः। तथा यः प्रव्रज्यापर्यायेण त्रीणि वर्षाणि नाद्याप्युत्तीर्णः स नवकस्तस्मिन्नवके तरुणे मध्यमे स्थविरे च शब्दाडुहरं च / एवं पूर्वोक्तेनैव प्रकारेण संग्रहं ब्रुवते। किमुक्तं भवति। नवकस्य डहरस्य वा तरुणस्य वा मध्यमस्य वा स्थविरस्य वा नवकत्वादेव नियमाचार्योपाध्यायसंग्रहो वेदितव्य इति।। वा खलु मज्झिमथेर-गीयमगीए य होइ नायव्वं / उद्दिसिणा उगीए, पुटवायरिए उगीयत्थे।। वा शब्दो विभाषायां खलु निश्चितं त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्णत्वेनानक्के मध्यमे स्थविरे च प्रत्येकं गीते अगीते वर्षाणां नानात्वं ज्ञातव्यम् / तदेवाह // (उदिसणाउ अगीते) अगीतार्थे उद्देशना इयमत्र भावना। ये मध्यमाः स्थविरा वा त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्णा अप्यगीतार्थास्ते नियमात् यः स्थापितो गणधरः तस्य शिष्या वयक्ष्यन्ते। इति गीतार्थेषु न स्थविरे मध्यमे च पूर्वाचार्यः पूर्वाचार्यसंग्रहः / ये मध्यमा स्थविराः गीतार्थाः पूर्वाचार्यदिशं धारयन्तीति। नवडहरतरुणगस्सा, विहीए विसंमियम्मि आयरिए। पच्छन्ने अभिसे तो, नियमा पुण संगहे ठाइ॥ नवश्च डहरकश्च तरुणश्च समाहारो द्वन्द्वः। तस्य पुनः संग्रहार्थमा-चार्ये विष्कम्भिते विधिना नियमेनान्यस्य गणधरस्याभिषेकः कर्तव्यः / अविधिना अभिषेककरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः / कोत्र विधिरिति चेदुच्यते। आचार्यः कालगतोन प्रकाश्यते यावदन्यो गणधरो न स्थापितः तथाचाह (पच्छन्नेत्ति) आचार्य कालगते प्रच्छन्ने देशे अभिषेकः करणीयः / एतदेवाह।। आयरिए कालगए,न पगासेज अट्टविहे गणहरस्मि। रण्णेव अणभिसित्ते, रज्जक्खोभो तहा गच्छे। अस्थापिते अन्यस्मिन् गणधरे आचार्यःकालगतो न प्रकाश्यते। अत्र दृष्टान्तो राजा काल गतस्तावन्न प्रकाश्यते यावदन्यो नाभि-षिच्यते। अन्यथा अनभिषिक्ते राज्ञियथा राज्यक्षोभो भवति / दायादेः परस्परविरोधतः सर्व राज्यं विलुप्यते इत्यर्थः तथा गच्छेऽप्यन्यस्मिन्नस्थापिते गणधरे यद्याचार्यः कालगतः प्रकाश्यते तदा गच्छक्षोभो भवति तमेवाह।। अणाहोवहाणसच्छंद, खित्ततेणा सपक्खपरपक्खे। लयकपणा य तरुणे-सारणमाणोवमाणे य॥ केषांचिदनाथा वयं जाता इत्यवधानं भवेत् केषांचित् (सच्छंदत्ति) स्वच्छन्दचरिता अपरे केचित् क्षिप्ताः क्षिप्तचित्ता भवेयुः / तथा स्तेनाः स्वपक्षे परपक्षे चोत्तिष्टन्ति लताया इव साधना कम्पनं तथा तरुणनामाचार्यपिपासयाऽन्यत्रगमनम्। तथाऽसारणा संयमयोगेषु सीदता पुनः संयमाध्वन्यप्रवर्तना। तथा मानापमानं च सांप्रतमेतानेव दोषान व्याचिख्यासुः प्रथमतोऽनाथावधानस्वछन्दचारित क्षिप्तचित्तत्यानि व्याख्यानयति। जायामो अणाहो त्ति, अण्णाहि गच्छंति केइ ओहावो। सच्छंदा व भमंति, केइ खेत्ताउ होजाहि। बाला वृद्धास्तरुणा वा के चिदगीतार्था आचार्याणां विप्रयोगे जातावयमनाथा इति विचिंत्य केचिदन्यत्र गच्छन्ति / केचिदवधावेयुः तथा केचित्मन्दधर्मश्रद्धाका गणादपक्रम्य स्वच्छन्दा भ्रमन्ति / अपरे के चिदाचार्यविप्रयोगतः क्षिप्ता क्षिप्तचित्ता अपगतचित्ता भवेयुः / स्वपक्षपरपक्षस्तेनानुलताकम्पनं चाह। पासत्थगिहत्थादी, उनिक्खावेज खुडगादीओ। लया वा कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति / / स्वपक्षपार्श्वस्थादयः परपक्षे गृहस्थादयः / अत्रापि शब्दात्परती Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस ५३६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस र्थिकग्रहणं क्षुल्लकादीन् उन्निष्क्रामयेयुः। किमुक्तं भवति पार्श्व-स्थादयः तथापि दूरस्थस्यापि पौरुषस्य गौरवेण भयेन वा कोऽपि क्षुल्लकादीन् विपरिणमय्य पार्श्वस्थादीन् कुर्युः / अन्यतीर्थिकाः संयतीनामपन्यायं न करोति। किंतुस्वपक्षे परपक्षे च सुबहुमानो जायते। स्वज्ञातयो गृहस्थानिति / लतेव वातेनेव कम्पमानाः संयमै परीषहै: तथा संयती प्रवर्तिन्याच्छन्दे अवर्तमानाचोदयितुंजे इति पादपूरणे इति केचित्तरुणास्तिष्ठन्ति / इयमत्रभावना / यथा पद्मलताऽन्यस्मिन्नन- वचनात्सुखं भवति। किमुक्तं भवति आचार्योपाध्यायभयतो न काचिदपि वष्टब्धासतीवातेन कम्पमाना तिष्ठति। एवं केचित्तरुणागच्छेऽपि वर्तमानाः | संयती आचारक्षितिमाचरति / याऽपि काचिदाचरति। सापि प्रवर्तिन्या संयमानाः संयमे परापहैः / / कम्पमानास्तिष्टन्तीति। तरुणदोषमस्मा- सावष्टम्भं शिष्यते। अथ शिष्यमाणापि न प्रतिपद्येतततः प्रवर्तिनी ब्रूते। रणादोषं चाह॥ आचार्यस्योपाध्यायस्य चाहं कथयिष्यामि / ततः सा भीता प्रवर्तिन्या आयरियपिवासाए, कालगयं तु सोउ ते विगच्छेज्जा। उपपाते तिष्ठति। एतेआचार्योपाध्यायसंग्रहे गुणाः॥ संप्रति प्रवर्तिनीसंग्रहे गच्छेज्ज धम्मसड्ढा, विसारयिंतगच्छस्स असती॥ गुणानाह। केचित्तरुणा आचार्यपिपासयाऽनाचार्यमन्तरेण ज्ञानदर्शनचारि मिहो कहाभट्ठरविट्टरेहिं, कंदप्पकिड्डावउसत्तणेहिं। त्रलाभोऽनुत्तरो भवति तस्मादवश्यमाचार्यसमीपे वर्तितव्यमित्या- पुष्वावरे ते सुयनिद्दकालं, गिण्हाइ तिणं गणिणीसहीणा। चार्यवाञ्छ्या कालगतं श्रुत्वा तेऽप्यन्यत्र गच्छेयुः। तथा धर्मश्रद्धा अपि मिथः कथापरस्परं भक्तादिविकथाकरणं भट्ठरविट्टरं नाम तेषु केचित् सारयितुरभावे गच्छान्तरं गच्छेयुः। माना पमानदोषमाह। गृहस्थप्रयोजनेषु कुण्डलविण्टलादिषु वा प्रवर्त्तनम्। एताभ्यां कन्दर्पक्रीडा माणिया वा गुरुणं तु, थेरादीत्थकेचिओ नत्थि। कन्दोद्रेकजननीकायबाक्चेष्टावत्कुसत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणम्। माणं तु तओ अन्नो, अवमाणभयाउवगच्छेज्जा।। एताभ्यां च तथा पूर्वरात्रे अपररात्रे च गणिन्या प्रवर्त्तिन्यास्वधीना सती तत्र केचित्स्थविरादय एवं चिन्तयेयुः यथा सर्वकालं मानिता वयं गुरुभिः / संगृह्यते / तथा तत्प्रवर्तिनीसंप्रहोऽपि साध्च्याः श्रेयान् / अत्र गाथायाम्। एतदेवविभावयिषुलॊकेष्वपि स्त्रियास्त्रिविधं संग्रहमाह। पगासिजा कालगयं, एएयदोसरक्खट्ठा। जायं पित्तिवसा नारी, दत्ता नारी पतिव्वसा। अण्णम्मि ववत्थविए, ताहे पगासेज कालगयं / / विहवा पुत्तवसा नारी, नत्थि नारी सयंवसा / / यस्मादेते दोषास्तस्मादेतद्दोषरक्षार्थमाचार्य कालगतंनप्रकाशयेत् यदा जाता सती नारी पितृवशा पितुरायत्ता भवति / दत्ता परिणीता सती पुनरन्या गणधरो व्यवस्थापितो भवति तदाऽन्यस्मिन् व्यवस्थापित नारी पतिवशा भर्तुरायत्ता विधवा मृतपतिका नारी पुत्रवशा। नास्ति एवं कालगतं प्रकाशयेत् आचार्योपाध्यायादिषु मृतेषु निर्गन्थ्या च सति नारी कदाचनापि स्वयंवशा। अमुमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह। आचार्यादिपदोद्देशः। जायंपिय रक्खंती, मातापित्तिसासुदेवरादिण्णं / (सूत्रम्) निग्गंथीएणं णवडहरतरूणियाए आयरियउवज्झाए पतिभायपुत्तविहवं, गुरुगणिगणिणी य अजंपि।। पवित्तिणियं विसंभेजा णो से कप्पइ अणायारिय अणुवज्झा जातामपि नारी रक्षतौ मातापितरौ / दत्तां परिणीतां रक्षन्ति इयत्ताए अपवत्तिणिए य होत्तए कप्पइ से पुटवं आयरियं श्वश्रुदेवरभादयः / देवरग्रहणं स्वसुरभन्देरुपलक्षणम्। विधवां पुनः उहिसावित्ता तओ पच्छा उवज्झायं ततो पच्छा पवितिणियं से पिता भ्राता पुत्रो वा यदि जीवन्ति पित्त्रादयस्तर्हि सर्वेऽपि रक्षन्ति / किमाहु भंतेति संगहिया समणी निम्गंथी तं तह आयरियाणं एवमार्यिकामपि गुरुराचार्यो गणी उपाध्यायः गणिमी प्रवर्तिनी रक्षति॥ उवज्झाएणं पदितिणिएय॥१२॥ एगागिणि अपुरिसा, सकवाडघरपरंतु नोपविसे। निर्ग्रन्थ्या णमिति पूर्ववत्। नवडहरतरुणाया नवाया डहराया-स्तरुण्या सगणे व परगणे वा, पव्वतिया पीयसंगहिया / / वा इत्यर्थः / आचार्योपाध्यायः समासोऽत्र पूर्ववत् आचार्योपाध्यायमेतत्। यथा भर्ताद्यधीनानारी एकाकिनी अपुरुषाभ दिपुरुषरहिता सकपाट प्रवर्तिनी च विष्कंभ्नुयात् मियते ततः (से) तस्या अनाचार्योपाध्यायाया परगृहं न प्रविशति एवं प्रव्रजिता पित्रिसंगृहीता आचार्यो - उपलक्षणमेतत् प्रवर्तिनीरहितायाश्च नो कल्पते भवितुं किंतु पाध्यायप्रवर्तिनीसंगृहीता स्वगणे परगणे वा एकाकिनी न गच्छति। पूर्वमाचार्यमुद्दिश्यापिततः पश्चादुपाध्यायंततः पश्चात्प्रवर्तिनीकया भवितुं आयरियउवज्झाया, सययं साहुस्स संगहो दुविहो। कल्पते से किमाहुरित्यादि। अथ भदन्त ! किं कस्मात्कारणाद् भगवत आयरियउवज्झाया, अजाणपवत्तिणीतइयो॥ एवमाहुः / सूरिराह त्रिभिः संगृहीताः श्रमणो निर्ग्रन्थी सदा भवति। तद्यथा संगृह्णातीति संग्रहः। संग्राहक इत्यर्थः साध्वोः सततं सर्वकालं संग्रहः आचार्येणोपाध्या-येन प्रवर्तिन्या च एष सूत्रसंक्षेपार्थः / अत्रायमाक्षेपः। संग्राहको द्विविध आचार्योपाध्यायौ / अर्यिकाणां त्रिविधस्तद्यथा किं कारणं ननु यत्रिभिः संगृहीता निर्ग्रन्थी भवति। तत्राचार्योपाध्यायसंग्रहे द्रावाचार्योपाध्यायौ तृतीयः प्रवर्तिनी। अत्रैवापवादपदमाह गुणा-नुपदर्शयति। वितियपदे सा थेरी, जुण्णा गीया य जइ खलु भवेजा। दूरत्थम्मि वि कीरइ, पुरिसे गारवभयं सबहुमाणं। आयरियादी तिण्हवि, असतीएन उ दिसा विज्जति॥ छंदेय अवटुंती, चोएउं जे सुहं होइ। द्वितीयपदे अपवादपदे सा प्रव्रजिता स्थविरा वयसा वृद्धा जीर्णा दूरस्पेऽपि पुरुष स्वपरपक्षेण च क्रियते गौरवं भयं सबहुमानं चेत्यर्थः। / चिरकालप्रव्रजिता गीता उत्सर्गापवादसामाचारीकुशलतया इयमत्र भावना यद्यपि नाम आचार्य उपाध्यायो वा संयतीनां दूरे वर्तते | गीतार्था यदि खलु भवेत् ततः आचार्यादीनामाचार्योपाध्यायप्र Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 837 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस वर्तिनीनां तिसृणामप्यभावे न संग्राहकमाचार्यमुपाध्यायं प्रवर्ति-नीं च उद्देशापयेत् दोषासंभवात् आचार्यादिष्ववधावितेषूद्देशः (सूत्रम्) भिक्खू गणाओ अवकम्म मेहुणधम्म पडिसेविञ्जा तिण्णि संवच्छरायं तस्स तप्पतियं णो कप्पइ आयरियत्तं वा उवज्झायं जाव गणावच्छेयत्तं वा उद्दिसित्तएवाधारित्तए वा तिहि संवच्छरेहिं वीतिकंतेहि चउत्थगंसिसंवच्छरंसि पट्ठियंसि उट्ठियंसि ठियंसि उवसंतस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा गणावच्छेयत्तं उधिसित्तए वा धारित्तए वा १३गणावच्छेइयत्तं वा अणिखिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा जाव तस्स तप्पतियं नो से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उहिसित्तए वा धारित्तए वा / 14 / गणावच्छेयए गणावच्छेइयत्तं णिक्खिवित्ता मेहुणधर्म पडिसेविजा तिण्णि संवच्छरायं तस्स तप्पतियं णो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव उहिसित्तए वा धारित्तए वा तिहिं संवच्छरेहिं वितिकतेहिं चउत्थयंसि संवच्छरंसि पवियंसिपट्ठियंसि उवट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स उवरयस्स पडिविरयस्स निविगारस्स एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वागणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तएवाधारित्तए वा।१५॥ एवं आयरियउवज्झायगाविदो आलावगा।१६।१७। अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धस्तत आह। नवतरणे मेहुण्हं, कोई सेवेन्ज एस संबंधो। अचंतभक्खणादि-व्वसंगहो एत्थ विसए वा।। अप्परियाए विगणो, दिवइ वुत्तंति मा अतिपसंगा। सेवियमपुण्णपञ्जय, दाहिति गणं अतो सुत्तं / पूर्वसूत्रे नवतरुणादिकः साधुरुक्तस्तत्र कोऽपि नवतरुणो मोहोदयवशात् मैथुन सेवते कृतमैथुनसेवाकस्य च यथाऽऽचार्यत्वादिकमुद्देष्टव्यं तथाऽनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते इत्येष सूत्रसम्बन्धः / अब्रह्मणादेखैतोरब्रह्मरक्षणादिनिमित्तं संग्रहः / आचार्यादिकोऽनन्तरसूत्रेऽभिहितः अत्रापि स एव संग्रहोऽभिधीयते इति / अथवा पूर्वतरेषु सूत्रेषु अपर्यायेऽपि गणो दीयते इत्युक्तं तद्दिवसाचार्यादिपदानुज्ञानात्त एतत् श्रुत्वा मा अतिप्रसङ्गान्मैथुनं सेवित्वा अपूर्णे पर्याय गणं दास्यन्ति तत एतन्निवारणार्थमिदं सूत्रम् / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। भिक्षुर्गणादपक्रम्य मैथुनं प्रतिसेवते तस्य त्रीणि संवत्सराणि याक्त्तत्प्रत्ययं मैथुनसेवाप्रत्ययं न कल्पते आचार्यत्वमुपाध्यायत्वं यावत्करणात्प्रवर्तित्वं स्थविरत्वमिति परिग्रहः ! गणावच्छे दित्वं वा उद्देष्टुमनुज्ञातुमतोऽपितस्य कल्पते स्वयंधारयितुं किन्तु त्रिषु संवत्सरेषु व्यतिक्रान्तेषु चतुर्थे संवत्सरे प्रस्थिते प्रवर्तितुमारब्धवति तच प्रस्थितत्त्वमभिमुखीभवनमात्रेऽपि भवति तत आह। अस्थिते अवर्तमाने स्थितस्य वर्तमानस्य किं विशिष्टस्य सत इत्याह / उपशान्तस्य उपशान्तवेदोदयस्य तचोपशान्तत्वं प्रवृत्तिनिषेधादवसीयते तत आह उपरतस्य मैथुनप्रवृत्तेः प्रतिनिवृत्तत्वं दाक्षिण्यवशादिमात्रतोऽपि भवति / तत आह मैथुनेच्छाप्रातिकूल्येन विरतः तस्य तदपि च प्रतिविरतत्वं विकारादर्शनतोऽपि मैथुनाभिलाषहेतुकविकाररहितस्तस्य कल्पते | आचार्यत्वं यावत् गणावच्छेदित्वं वा उद्देष्टुं वा धारयितुं वा एष सूत्रसंक्षेपार्थः / ___व्यासार्थं तु भावतो भाष्यकृदाह। दुविहो साविक्खियरो, निरवेक्खो उदिण्ण जाइजयणाए। जोगं च अकाऊणं, जाव स वेस्सादि सेवेखा। द्विविधो द्विप्रकारः खलु मैथुनप्रतिसेवकस्तद्यथा सापेक्ष इतरश्च तरो निरपेक्षः तत्र निरपेक्षो य उदीर्णे वेदोदये यो वा याति योगं यतनया योगमकृत्वा यदि वा स वेश्यादिका सेवेत / एष त्रिविधोऽपि निरपेक्षः गुरुतीर्थकरापेक्षारहितत्वात्।। सावेक्खो उ उदिण्णे, आपुच्छे गुरुं तु सो जति उवेक्खे। ता चउगुरुगा भवति, सीसो व अणापुच्छए गच्छे / / यदि पुनरुदीर्णे उदयप्राप्ते मोहे उदिते वेदे इत्यर्थः / गुरुमापृच्छति समापेक्षः सह अपेक्षा यस्यास्तिस समापेक्ष इति व्युत्पत्तेः / तत्रापृच्छायां यदि स गुरुरुपेक्षां कुरुते ततस्तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुका भवन्ति। सच साधुरनापृच्छ्य गुरुं याति तर्हि तस्यापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः / सा च पृच्छा त्रीन्वारान्कर्तव्या। तथा चाह। अहवा सइ दो वावी, आयरिए पुच्छ अकडजोगीवा। गुरुगा तिण्णि उवारे, तम्हा पुच्छेज आयरिए।। अथवा। सकृदेहं वारं यद्याचार्यान् पृच्छति तथापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकाः अथ द्वौ वारौ पृच्छति न तृतीयमपि वारं तदापि चतुर्गु-रुकाः / अथवा वारत्रयपृच्छायामपि कृतायां यदि अकृतयोगी यतनायोगमकृत्वा गच्छति तदानीमपि चतुर्गुरुकाः / यत एवमेकं द्वौ वा वारौ पृच्छायां प्रायश्चित्तं तस्मात्त्रीन् वारान् आचार्यान् पृच्छेत् लोकेऽपि तथा दर्शनात्तथा चाह। बंधे य घाते य पमारणे य, दंडेसु अन्नेसु य दारुणेसु / पमत्तमत्ते पुण चित्तहेउं, लोए वि पुंछति उ तिण्णि वारे॥ राज्ञा बंधे आदिष्ट यदिवाघाते प्रहारे अथवा प्रमारे कुमरणमारणे अन्येषु च दण्डेषु हस्तपादच्छेछादिषु दारुणेष्वादिष्टषुलोके त्रीन् वारान् राजा पृच्छ्यते / किमर्थमित्यत आह प्रमत्तेनव्याक्षिप्तेन यदि वा मद्यपानेन मत्तेनादिष्टं भवेत् प्रशान्तस्य पुनश्चित्तमुपजायते। यथा मा मार्यतामिति वारत्रयमनापृच्छायां स रुष्यते किमिति स मारित इति। एवं यथा राजा केनापि त्रीन् वारान् पृच्छयते तथा-ऽचार्योऽपि।। आलोइयम्मि गुरुणा, तस्स चिकिच्छा विहीए कायव्या। निविगितिगयादीया, नायव्वा कमेणिमेणं तु॥ आलोचिते वारत्रयमापृच्छायां कृतायां गुरुणा आचार्येण तस्योदितवेदस्य साधोर्विधिना चिकित्सा कर्तव्या सा चिकित्सा निर्विकृतिकादिका क्रमेणानेन वक्ष्यमाणेन ज्ञातव्या तमेव क्रममाह। निव्वायडिय अवमोदरिय, वेयावच्चे तहेव ठाणे य। वाहिंडणे य मंडलि-चोयगवयणं व कप्पट्ठी॥ प्रथमतो निर्विकृतिकं कारयितव्यः तत्र यदि निर्विकृतिकं तपः कुर्वतो नोपशाम्यति वेदस्तहि निर्विकृतिके नावमौदर्य कारयितव्यं तथाप्यनुपश्याम्यति ततश्चतुर्थादिकं कार्यन्ते तथाप्यतिष्ठति वैयावृत्त्यं कारणीयं वैयावृत्त्येनाप्यतिष्ठति स्थानेन ऊर्द्धस्थानेन तिष्ठति तथाप्यनुपशाम्यति आहिंडनं कार्यते। देशकाहिण्डकानां सहायो दीयते इत्यर्थः / तत्र यदि एष परिश्रमणोपशान्तो भवति वेदस्ततः सुन्दरमय नोपशाम्यतिततो यदि सबहुश्रुतस्तर्हिससूत्रमण्डली चदाप्यते। अत्रार्थे चोदक्वचनंयथा किमर्थसमण्डलींदाप्यते। सूरिराहादृष्टान्तोऽत्रकप्पट्ठीति Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 838- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस कुलवधूः। "एगो सेट्ठी तस्स पुत्तोधणोवञ्जणनिमित्तं देसंतरंगतो। भारिया सेविसमीवे मुक्का / सा य सुहभोयणतंबोलविलेवणमंडणपसाहणरया घरवावारमकुणंती अन्नया उम्मत्तिया जाया। दासचेडिं भणइ / पुरिसं मग्गेह तीए सेट्ठिणो कहियं तेण चिंतियं / जावज्ज वि न विणस्सति ताव चिंतेमिउवायं सेट्टिणी भणिया कलहंकाऊण तुमंगच्छजेणसाघरवावारे वुज्झत्ति अण्णहा विणिस्सिहिति / एवं सामत्थेऊण अन्नया सेद्री घरमागओ आमोक्खं मग्गइसान देह तो सेट्ठिणा महतो कलहो कतोसा पेट्ठिऊण निस्सारिया।साय बहूय कलहसदं सोऊण तत्थागया सेट्ठिणा भणिया। भत्ति बहूए तुमे अज्जप्पभिति सव्वो वावारो कायव्वो सा तहेव करितुमारद्धा। तओतीए वावारवाउलाए भोयणमवि वियालवेलाए कुतो मंडणपसाहणं। दासचेडीए भणियं मम्गितो चिट्ठति पुरिसो कया मेलिजइ तीए भणियं मरणस्स वि मे अवसरो नत्थि कतो पुरिसस्स' एवं / यथा तस्या गृहव्यापारव्यापृततया वेदोपशान्तिरभूत्तथाऽस्यापि सूत्रमण्डल्यापि व्यापारव्यापृततया कदाचिद्वेदोपशान्तिः संभाव्यते / ततः सूत्रमण्डलीमर्थमण्डलींच दाप्यत इति व्य०। (अत्राचार्यसाधूनामवधावनविषये बहुवक्तव्यं तच्च व्यवहारभा-- ष्यतोऽवसेयं लेशत एव किञ्चिदत्रोक्तम्) बहुश्रुतोऽपि पापो न कल्पते आचार्यादितया उदेष्टुम्। (सूत्रम्) बहवे भिक्खुणो बहुस्सु तवभागमाबहुसो बहुसु आगाढमासुकारणेसुमाइमुसावाइअसुइपापजीवी जावजीवाए तेसिं तप्पतियं नो कप्पइ जाव उद्विसित्तए वा धारित्तए वा एवं गणावच्छेइएया वि एवं आयरियउवज्झाएयावि बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छे इया बहवे आयरियउवज्झाया बहुसुआ बम्भागमबहुसो बहुसु आगाढागाढे सु माइमुसावाइअसुइपावजीवी जाव जीवाए तेसिंतप्पतिणो कप्पइ आयरियत्तं वा उवज्झायत्तं वा पवत्तिं वा थेरत्तं वा गणधरत्तं वा गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा / इति ववहारस्स तइओ उद्देशो॥३॥ सूत्रसप्तकम् अथास्य पूर्वसूत्रैः सह सम्बन्धमाह।। वयअतियारे पगते, अयमविअन्नोउस्स अइयारो। इत्तिरियपमत्तं वा,दुत्तं इदमावकहियं तु॥ पूर्वसूत्रेषु व्रतस्य मैथुनविरत्यादेरतीचारः प्रकृतोऽधिकृतोऽयमपि चान्यस्तस्य व्रतस्यातिचार इति तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रसप्तक-म्। अथवा पूर्वसूत्रेषु त्रीणि संवत्सराणि यावदाचार्यत्वादीनिन कल्पते इति वचनादित्वरमपात्रमुक्तमिदं पुनः सूत्रसप्तकेनाभिधीयमानमपात्रं यावत्कथिकं बहुशो यावज्जीवमाचार्यत्वादीनि कल्पन्त इति वक्ष्यमाणात्।। अहवा एगहिगारे, उद्देसो तइयओ उ ववहारे। केरिसितो आयरिओ, ठविज्जइ केरिसो नेत्ति / / अथवेति संबन्धस्य प्रकारान्तरोपदर्शन व्यवहारे तृतीयोद्देशका-धिकारे यथा कीदृशः आचार्यः स्थाप्यते कीदृशोन। तत्र यादृशः स्थाप्यो यादृशश्च न स्थाप्यस्तादृश उक्तोऽयमन्यो न स्थाप्यत इति प्रतिपादनार्थमेष सूत्रसप्तकारम्भः॥ अहवा दीवगमेयं,जह पडिसिद्धो अभिक्खमाइण्णो। सागारियसेवि एवं, अभिक्खओहावणकरीय॥ अथति पूर्ववत / दीपकमेतत्सप्तसूत्रकं पूर्वसुत्रेष्वधिकारार्थोद्दी पनार्थमिदं सूत्रसप्तकमधिकमेवार्थमुपदर्शयति / यथानेन सूत्रसप्तके न अभीक्ष्णं मायी बहुशो मायावीयावजीवमाचार्यत्वादिषु पदेषु प्रतिषिद्धस्तथा मैथुनसूत्रपञ्चकमध्ये यो भिक्षुसूत्रे निक्षेपणसूत्रद्वये च सागारिकसेवी मैथुनप्रतिसेवी संवत्सरत्रयातिक्र मे योग्य उक्तः सोऽप्येवमभीक्ष्णं सागारिकसेवी सन् यावजीवं प्रतिषिद्धो द्रष्टव्यः / तस्यापि यावज्जीवमाचार्यत्वादीनि न कल्पन्ते इति भावस्तया अवधावनसूत्रकेऽपि यो भिक्षुसूत्रे निक्षेपणसूत्रद्वये वर्षत्रयातिक्रमेण योग्य उक्तः सोऽपि यदि अभीक्ष्णमयधावनकारी भवति ततस्तस्यापि यावञ्जीवमाचार्यत्वादिपदप्रतिषेधः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। भिक्षुर्बहुश्रुतं सूत्रं यस्यासौ बहुश्रुतः। बहुरागमो-ऽर्थपरिज्ञानं यस्य स बह्वागमः। तथा कुलप्राप्तं गणप्राप्तं यत्सचि-तादिकं व्यवहारेण छेत्तव्यं कार्यं वा आगाढगाढं कारणं तेषु आगा-ढागाढेषु बहुप्रभूतेषु बहुशोऽनेकप्रकारं मायी मायावान् मृषावादी अशुचिराहाद्यर्थमव्यवहारी पापजीवी कोटलाधाजीवी तस्य यावज्जीवं तत्प्रत्ययं मायित्वमषावादिज्वादिप्रत्ययं न कल्पते आचार्यत्वं वा यावत् गणावच्छेदित्वं वा उद्देष्टुं वाऽनुज्ञातुं स्वयं वा धारयितुम् / एष प्रथमसूत्रसंक्षेपार्थः / एवंगणावच्छेकसूत्रमाचार्यो-पाध्यायसूत्रंच भावनीयं पाठोऽपि सुप्रतीतः। यथा च त्रीणि सूत्रा-ण्येकत्वेनोक्तानि इत्येवं त्रीणि सूत्राणि बहुत्वे वक्तव्यानि। सप्तमं बहुभिक्षुबहुगणावच्छदिबह्वाचार्यविषयं तदपि तथैव / अत्रभाष्यकृदाह / / एगत्तबहुमाणं, सव्वेसिंतेसिमेगजातीणं। सुत्ताणं पिंडेणं, वोच्छं अत्थं समासेणं / / एकत्वबहुत्यादिसंबन्धिनां सर्वेषामेतेषां सूत्राणामेकजातीयानामेकप्रकाराणां पिण्डेनाप्युक्तो वैविक्त्येन प्रतीतः / तत्र प्रथममेकत्वबहुत्वविषयावाक्षेपपरिहारावाह।।। एगत्तियसुत्तेसुं, भणिएसुं किं बहु पुणोग्गहणं / चोयगसुणसू इणमो, जं कारणं मो बहुग्गहणं / / एकत्वेनैकवचनेन निर्वृत्तान्यैकत्विकानितेष्वैकत्विकेषु किं पुनर्बहुग्रहणं बहुत्वविशिष्टसूत्रचतुष्टयोपादानं सूरिराह। यत्कारणं येन कारणेन मो इति पादपूरणे बहुग्रहणं बहुत्वविशिष्टसूत्रोपादानंतत्कारणमिदं हे चोदक! श्रृणु तदेवाह। लोगम्मि सयमवज्झं, होइ अदंडं सहस्स मा एवं। होहिति उत्तरियम्मि वि, उत्ता उ कया बहुकए वि॥ लोके बहुभिरकृत्ये सेवितेऽयं न्यायः शतमवद्यं सहस्रमदण्ड्यं तत एवमौत्तरिकेऽपि लोकोत्तरिके ऽपि व्यवहारे प्रसङ्गो मा भूदिति तत्प्रतिषेधार्थं चत्वारि सूत्राणि बहुकेऽपि बहुवचने कृतानि / सांप्रतमागाढागाढकारणादीनि पदानि व्याचिख्यासुराह // कुलगणसंघप्पत्तं, सच्चित्तादी उ कारणागाढं। छिद्दाणि निरीहित्ता,मायी तेणेव असुतीउ।। सचित्तनिमित्तोऽचित्तनिमित्तो वा यो व्यवहारः कुलेक्षिप्तो यथेदं सचित्तादिकं विवादास्पदीभूतं कुलेन छेत्तव्यमिति तत्कुलप्राप्तमेवं गणप्राप्तं सङ्घप्राप्तं भावनीयम् / यत्र यत्सचित्तादिकं विवादास्पदी-भूतं व्यवहारण च्छेद्यतया कुलप्राप्तं वा तत्कारणागाढं कारणम् / तथा कथमहमेनं व्यवहारमाहाराद्युपग्रहे वर्तमानं नोज्झितं छिद्यामिति बुद्ध्या परेषां छिद्राणि निरीक्ष्यमाणो मायी तेनैव मायित्वेनैव सोऽशुचिः तमेवाशुचिंद्रव्यभावभेदतः प्ररूपयति दवे भावे असुती, भावे आहारवंदणादीहिं। Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 836 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस कप्पं कुणइ अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं / / अशुचिर्द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र योऽशुचिना लिप्तगात्रो यो वा पुरीषमुत्सृज्य पुतौ न निर्लेपयति स द्रव्यतोऽशुचिः / भावे भावतः पुनरशुचिराहारबन्धनादिभिर्विविधैर्वा रागद्वेषैः कल्प्यमप्यकल्प्यं करोति। किमुक्तं भवति / आहारोपधिशय्यादिनिमित्तं वन्दननीचैर्वृत्त्यादिना वा तोषितो यदि वा एष मम स्वगच्छसंबन्धी स्वकुलसंबन्धीति रागतोऽथवा न मामेष वन्दते विरूपं वा भाषितवानित्यादिद्वेषतोऽयं श्रुतोऽयं श्रुतोपदेशेनाभाव्यमनाभाव्यं करोति / अनाभाव्यमप्याभाव्यं सोऽव्यवहारी भावतोऽशुचिः। एतदेव सुव्यक्तमाह। दवे भावे असुती, दिव्वम्मीचिट्ठमादिलित्तो उ। पाणतिवायादीहि उ, भावम्मि उ होइ असुईओ।। अशुचिर्द्विधा द्रव्ये भावे च तत्र द्रव्ये विष्ठादिना लिप्त आदिशब्दान्मूत्रश्लेष्मादिपरिग्रहः / भावे प्राणातिपातादिभिर्भवत्यशुचिः।। तप्पत्तियमेतेसिं,आयरियादी न देंति जा जीवं। के पुण भिक्खुइमे य, बहुस्सुयमादिणो हुंति॥ तत्प्रत्ययं मायावित्वादिप्रत्ययं येषां भिक्षुप्रभृतीनां यावज्जीवमाचार्यादीनि भावप्रधानोऽयं निर्देशः / आचार्यत्वादीनि न ददाति। के पुनस्ते आह। भिक्षुक उपलक्षणमेतत् गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायाश्च सूत्रोक्ता न के वलमेते किं त्विमे च बहुश्रुतादयो भवन्याचार्यादिपदानामनर्हास्तानेव नियुक्तिकृदाह।।। अबहुस्सुते य ओमे, पडिसेवओ यतो अप्पचिंते य। निरवेक्खपमत्तमाइ-अणरिहे जुंगिए चेव।। अबहुश्रुतोऽवमः प्रतिसेवको यतः आत्मचिन्तकः निरपेक्षः प्रम-तोमायी अनर्हो जुङ्गि कश्च / एते सूरित्वादिपदानामनर्हाः / सांप्रतमेतानेव व्याचिख्यासुराह। अबहुस्सुतो पकप्पो, अणहीओमा तिवरिसरओ। निकारणे वि भिक्खू, कारणपडिसेवते जो उ। अन्भुज्जयअप्पचिंतो, निरवेक्खो बालमादीसु। अन्नयरपमायजुत्तो, असय्वरुची होइमाईओ। अवलक्खणा अणरिहा, उजावाहादि अजो जुवत्ता।। चउरो य जुंगिया खलु, अचंति य भिक्खुणा एते॥ अबहुश्रुतो नाम येनाचारप्रकल्पो निशीथाध्ययननामकः सूत्रतोऽर्थतश्च नाधीतः अवमो नाम आत्रिवर्षरतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायण त्रीणि वर्षाणि नाद्यापि परिपूर्णानीत्यर्थः / प्रतिसेवको नाम यो भिक्षुः निष्कारणेऽपि कारणाभावेऽपि पश्शकादीनि प्रायश्चित्तस्थानानि प्रतिसेवते / आत्मचिन्तको योऽभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्तुं निश्चितो निश्चितवान् निरपेक्षो वालादिषु चिन्तारहितः प्रमत्तः पञ्चानां प्रमादानामन्यतरेण प्रमादेन युक्तः असत्ये मृषाभाषणे असंयमे वा रुचिर्यस्यासावसत्यरुचिर्भवति। मायी किमुक्तं भवत्यभीक्ष्णं मायाप्रतिसेवनशीलो मायीति अपलक्षणं येषामाचार्यलक्षणानि न विद्यन्ते ये च पूर्वमुक्ता अत्यवधावनादय एते सर्वेऽनर्हाः। जुङ्गिका जातिकर्मशीलशरीरभेदतश्चतुर्धा। एतेऽपि प्रागुक्ता एते सर्वेऽपि भिक्षवोऽत्यन्तमाचार्यत्वादिपदानामनर्हाः। यदि पुनर्बहुश्रुतो भवेत् अवमोऽपि त्रिवर्षपर्यायोत्तीर्णः प्रतिसेवकोऽप्यप्रतिसेवकोऽग्रतोऽन्ययतनातः प्रतिविरतो निरक्षेपः सोपेक्षाभूतः प्रमत्तोऽप्यप्रमत्ततामुपगतस्तदा भवन्त्येतेऽप्याचार्यत्वादिपदानां योग्याः। संप्रति सप्तानामपि सूत्राणां संभवविषयमाह। अहवा जो आगाढ, वंदणआहारमादि संगहितो। कप्पं कुणइ अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं।। माई कुणइ अकलं, को माई जो भवे मुसावाई। को पुण मोसावाई, असुई पावसुयजीवी।। अथवेति सूत्रव्याख्या प्रकारान्तरोपदर्शने यो वन्दनादिभिः वन्दनवैयावृत्त्यादिना आहारादिभिराहारोपधिशय्यादिभिरागाढमत्यर्थ संगृहीतः सन् विविधैश्च रागद्वेषैः प्रामुक्तस्वरूपैः कल्प्यमप्याभाव्यमप्यकल्प्यमनाभाव्यं करोति / सप्तानामपि सूत्राणां विषयः (माई कुणइ इत्यादि) कः पुनरेवमकार्य कल्प्यमप्यनाभाव्यमकल्प्यमप्याभाव्यमित्यर्थः करोति एवं शिष्यस्य प्रश्नमाशक्य सूत्रकृदाह। मायी मायावान् को मायी तत आह यो भवेत् मृषावादी कः पुनः मृषावादी ततआह अशुचिः कोऽशुचिः सूत्रकृदाह पापजीवीएतस्य व्याख्यानं पापश्रुतोपजीवी कोटलादिशास्त्रोपजीवीत्यर्थः। किह पुण कन्जमकजं, करेज्ज आहारमादिसंगहितो। जह कम्मिवि नगरम्मा उप्पण्णं संघकजं तु। कथं पुनराहारादिसंगृहीतः सन् कार्यमुपलक्षणमेतत् आचार्यमपि कार्य करोति / अत्र सूरिनिदर्शनमाह / यथा कस्मिंश्चिन्नगरे किमपि सङ्घ कार्यमुत्पन्नं सचित्तादिनिमित्तं वास्तव्यसङ्घस्य व्यवहारो जात इत्यर्थः / स च वास्तव्यसङ्घन छेत्तुंन शक्यते॥ (अन्यदत्रत्यं ववहारशब्दे) एतद्गुणविप्रमुक्ते पुनर्व्यवहरति सुमहती आशातना व्रतलोपश्च तथा चाह आगाढमुसावादी, वितियतइएउलोवतिवएउ। माई य पावजीवी, असुईकिन्ने कणगदंडे / / आगाढेकुलकार्ये संघकार्येवा आभाव्यस्य वाऽनाभाव्यस्य वा ज्ञानतया रागद्वेषाभ्यां वा भणनात् / मृषा वदतीत्येवं शीलः आगाढे मृषावादी द्वितीयतृतीये मृषावादादत्तादानविरतिरूपे व्रते लोपयति / तत्र द्वितीयव्रतलोपो मृषावादभणनात् तृतीयव्रतलोपो ऽनाभाव्यं ग्राहयतोऽनुमतिदोषभावात् / तुशब्दात् शेषाण्यपि व्रतानि लोपयति / एकव्रतलोपे सर्वव्रतलोप इति वचनात् / मायी सूत्रमुल्लड्घ्य शठोत्तरैर्व्यवहारकरणात् / पापजीवी दुर्व्यवहारादिकरणात् / परदत्तापहाराण्युपजीवनात्। अत एवाशुचिर्भूषावादित्वादिदोषदुष्ट-त्वात्। अशुचित्वादेव यथा कनकदण्डः संज्ञालिप्तः स्प्रष्टुं न कल्पते एवमेषोऽपि नकल्पते यावज्जीवमाचार्यत्वादिषुपदेषु स्थापयितुमिति / / व्य०३ उ०। (गणान्तरे उद्देशना उद्देसणा शब्दे) नव्यतिकृष्टादिशमुद्दिशेत्॥ (सत्रम्) णो कप्पति णिग्गंथीणं वितिकिट्ठयं दिसंवा उद्दिसित्तए वाधारित्तए वा कप्पति णिग्गंथाणं वितिगिट्ठियं दिसंवा अदिसं वाउदिसित्तए वा धारित्तए वा।। न कल्पते निर्ग्रन्थीनां व्यतिकृष्टामतिशयेन क्षेत्रतो भावतश्च विकृतां दिशमनुदिशं वा उद्देष्टुमनुज्ञातुं नापि स्वयं धारयितुं वा इत्येष सूत्रद्वयाक्षरार्थः। संप्रति भाष्यम्। दुविहं पिय वितिगिठें, णिगंथीणुदिसंति चउगुरुगा। आणाइणो य दोसा, दिटुंतो होइ कोसलए॥ द्विविधामपि विकृष्टां क्षेत्रविकृष्टां भावविकृष्टां चेत्यर्थः / निर्ग Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देस 840 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देस र्थीनां दिशमुद्दिशति / अस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः आज्ञा दयश्च गमणुस्सुएण चित्तेण, सिक्खातोविन गेण्हइ। दोषास्तत्र विकृष्टां दिशमुद्दिशतो ये दोषास्तत्र को भवति दृष्टान्तस्तमेव वारिजंती वि गच्छिज्जा, पंथदोसे इमे लभे।। भावयति। गमनोत्सुकेन चित्ते शिक्षा अपि नानाप्रकारा ग्रहणशिक्षा आसेउवसामिया जघनेण, कोसलेणं गते य मातम्भि। वनाशिक्षाश्च न गृह्णाति / तथा वार्यमाणाऽपि तस्य क्षेत्रविकृष्टस्यातं चेव दिसंतीय, निक्खंता अन्नगच्छम्मि॥ न्यस्याचार्यस्य समीपं गच्छेत् तत्र च पथि दोषानिमान वक्ष्यमाणान् वारिखंती वि गया, पडिवण्णा साय तेण पावेणं / लभते / अत्र यदुक्तं प्राक् एतैर्वक्ष्यमाणैर्दोषैस्तानपि नोदिशेदिति जिणवयणबाहिरेणं, कोसलएणं अकुलएणं / / तद्दव्याख्यानावसरस्तानेव दोषानाह / / मिच्छत्तसोहिसागा-रियादिपासंडतेणसच्छंदा। एकः कोशलकः कोशलदेशोत्पन्न इत्यर्थः। तेनान्यदेशं गतेन यतमानेन सदनुष्ठानपरायणेन कापि श्राविका उपशामिता स च कोशलकस्तं देश खेत्तविगिट्टे दोसा, अमंगलं भवविगिट्ठम्मि।। गतः तस्मिश्च गते सा श्राविका अन्यस्मिन् गच्छे तत्रागते तस्य समीपे मिथ्यात्वं मिथ्यात्वगमनं शोधेरभावस्तथा सागारके अगारस-हिते निष्क्रमितुमुपस्थिता यथा मां निप्कामयत परं मम स एव कोशलक: आदिशब्दादनागारे एकाकिन्या उपाश्रये दोषाः / तथा पाषआचार्यः एवं सातमेवव्यपदिशन्ती तैर्दीक्षिता। साचदीक्षाप्रतिपत्त्यनन्तरं ण्डैर्विपरिणामनं स्तेनैरपहारस्तथा स्वच्छन्दा स्यात् / न गच्छाधीना वार्यमाणाऽपि कोशलसमीपे गतासाच पापेन जिनवचनबाह्येनाकुलजेन तथा च सति भूयांसो दोषाः / एते क्षेत्रविकृष्टे उद्दिश्यमाने दोषाः / कोशलेन प्रतिपन्ना / एष दोषः क्षेत्रविकृष्टां दिशमुद्दिशतः। भावविकृष्टे उद्दिश्यमाने अमङ्गलं तेन संयमजीविताद्भवजीविताद्वा भ्रश्येत्तस्माद्भावविकृष्टोऽपि नोद्देव्यः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / अत्र पर आह॥ सांप्रतभेनामेव विवरीषुः प्रथमतो मिथ्यात्वद्वारं शोधिद्वारं चाह / / कोसलएहि कारण, गहणं बहुदोसलाउ कोसलगो। उवदेसो तसिं अत्थि, जेणेगागी उ हिंडए। तम्हा दोसुक्कडया, गहणं इह कोसले कारणमओ / / इति मिच्छं जणो गच्छे, कत्थमाहिं च कुजउ / / कोशलकस्य ग्रहणं कृतम्। सूरिराह यस्मात्कोशलको देशः स्वभावात् / उपदेशः तासामेकाकिनीनां नास्ति येन स तादृशः स्त्रीजन एकाकी बहून् दोषान् लाति आदत्ते अतिबहुदोषलो बहुदोषवान् तस्मात् हिंडते / तत इति अस्मात्कारणादुपदेशाभावलक्षणाज्जनः स्त्रीजनो दोषोत्कटतयाऽत्र कोशलस्य ग्रहणम् अपि च। मिथ्यात्वं गच्छेत् / गतं मिथ्यात्वद्वारम् // शोधिद्वारमाह / क्षेत्रप्राअंधं अकूरमययं, अवियमरहदयं अवोगिल्लं। यश्चिमापन्ना सती कुत्र शोधिं कुर्यात् / नैव कुत्रापीति भावः एकाकोसलयं च अपावं,सएस एकं न पेच्छामो।। किनीत्वान्न च प्रायश्चित्तस्थानमप्रायश्चित्तस्थानं वा सा जानाति तत अन्ध्रमन्ध्रदेशोत्पन्नमक्रूरमतकमब्राभिप्रायमपि च महाराष्ट्रक- इतोऽपि शोध्यभावः / सागारिकादिद्वारं पाषण्डद्वारमाह। मवोगिल्लमवाचालं कोशलकं चापापंशतेषु मध्ये एकं न प्रेक्षामहे इति सागारमसागारे, एकाए वस्सुए भवे दोसा। प्रसिद्धिरतः कोशलग्रहणम्। पुनरपि प्राह चरिगादिविपरिणामण-सपक्खपरपक्खनिण्हादी।। कोसलए जे दोसा, उहिस्संतुम्मि किन्न सेसाणं। सागारे आगारसहिते असागारे आगाररहिते उपाश्रये एकस्या ते तेसि होजवन वा, इमेहि पुण नोहिसे तेवि॥ एकाकिन्या दोषा भवन्ति। तत्र सागारे दीपस्पर्शनादयो दोषाः। अनागारे ये दोषा कोशलके दिशमुद्दिशन्ति ते किं नशेषाणां दिशमुद्दिश-न्ति किं कुलटाजारादिप्रवेशनम् / गतं सागारिकादिद्वारम् / पाषण्डद्वारमाह न भवन्ति भवन्त्येवेति भावः / सूरिराह / ते दोषास्तेषां भवेयुर्वा न वा (चरगादित्यादि) स्वपक्षे परपक्षे च विपरिणमनं तत्र स्वपक्षे कोशलके पुनर्नियमाद्भवन्ति देशविशेषजन्मनोऽपि गुणदोषहेतुत्वात्ततः निवादिभिरादिशब्दात्पार्श्वस्थादिपरिग्रहः / परपक्षे चरकादिभिः / कोशलोपादानम् / एते पुनर्वक्ष्यमाणास्तानपि शेषदेशोत्पन्नान स्तेनद्वारं स्वच्छन्दद्वारं चाह।। तेणेहि वा विहिज्जइ, सच्छंदुट्ठाणगमणमादीया। क्षेत्रविकृष्टान्नोदिशेत्। अन्यच। दोसा भवंति एए, किंचन पावेज सच्छंदा॥ अन्नं उद्विसिऊणं, निक्खंता वा सरागधम्मम्मि। स्तेनैर्वा द्रव्यापहारिभिर्वासार्धगच्छन्ती हियतेतथा स्वच्छन्द-मुत्थान अण्णोण्णम्मि मतं न तु,अग्गाणं पि संभवति / / स्वच्छन्दगभनमित्यादयश्चैते दोषा एकाकिन्या भवन्तिा किंवा स्वच्छन्दा वा शब्दो दूषणान्तरसमुच्चये अद्यकालभाविनि सरागधर्मे अन्य- | सती सा किं न प्राप्नुयात्सर्वदुःखस्थानमाप्नुयादित्यर्थः / संप्रति माचार्यमुद्दिश्य निष्क्रान्ता परमन्योन्यस्मिन् परस्परस्मिन् यन्ममत्व तत् / भावविकृष्ट दोषानाह। व्यग्राणमापिव्यग्रचित्तानामपिनतुनैव भवति कित्वे-कचित्तानामुपजायते गोरवमयसमीकरा, अविदरत्थे वि होइ जीवत्ते। सा चैकचित्तता अत्र नास्ति तथा चाह। को दाणिसमुग्घातस्य, कुणइ न य तेण जं किचं / / सुचिरं पिसारिया गच्छइत्ति ममयाइगच्छस्स। अपि दूरस्थेऽपि जीवति सति तद्विषया गौरवभयसमीकरा भवन्ति सीयंतचोयणासुय, परिभूयामित्ति मन्नेञ्जा।। भूयस्तन्मिलनादिप्रत्याशासंभवात्। इदानीं पुनस्तस्य समुद्धा-तस्य सुचिरमपि कालं सारिता शिक्षिता सती गमिष्यतीति मन्यमानस्य को गौरवं भयं समीकारं वा करोति नैव कश्चित् यत् यस्मात् नच नैव तेन गच्छस्य न तस्या विषये ममता ममत्वं मायातिसीदन्त्याः संयमयोगेषु सर्वप्रयोजनातीतत्वात्।। शिथिलीभवन्त्या याश्चोदनाः शिक्षास्तासु दीयमानासु साऽन्यत्र कोसलवज्जा नत्थिय, दोसा सविसेसभवविगिट्ठम्मि। गन्तुमनाः परिभूताऽस्मीति मन्यते ततस्तस्या अपि न गच्छस्योपरि दुविहं पी वितिगिटुं, तम्हा उन उहिस्सेजाहि।। ममता। किं च एवं दोषा ये मिथ्यात्वगमनादयः क्षेत्रविकृष्टे ऽभिहितास्त एव Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहेसणकप्प 541- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसणकप्प सविशेषा भावविकृष्टऽपि ज्ञातव्याः केवलं कोशलवर्जाः कोशलदोषा हि य एव पूर्व मिथ्यात्वादयो दोषा उक्तास्तेऽपि तस्यैकाकिनोऽपि गच्छतो भावविकृष्ट न भवन्ति मृतत्वेनासंभवात्तस्मात् द्विविधमपि व्यतिकृष्ट न भवन्ति ज्ञाततत्वत्वात्संविग्नत्वाच्च इति हेतोस्तस्य दूरगतेऽपि क्षेत्रविकृष्टं भावविकृष्ट च नोद्दिशेत्। क्षेत्रविकृष्टऽपि गुरावुद्देशनं भवति। अत्रैवापवादपदमाह॥ गीयपुराणोवढें, धारंतो सततमुदिसतं तु। वितियं तिवणुरागा, संबंधी वा न ते य सीयंति। ओसन्नं उद्दिसइ, पुव्वदिसंवा सयं धरए। इत्तरदिसाउ नयणं, अव्वहाए य दूरम्मि॥ चोइज्जतो जो पुण, उज्जमिहिति तं पि नाम बंधंति। द्वितीयपदमपवादमधिकृत्य क्षेत्रविकृष्टमपि उद्दिशेत् / यदि सा सो सततं उदिसणा, इति भयणा खेत्तवितिगिट्ठो॥ धर्मग्राहिण्याचार्ये तीव्रानुरागा भवेत् स चाचार्यस्तस्याः संबन्धि- गीतो नाम सूत्रार्थनिष्पन्नः / पुराणः पश्चात्कृतश्रमणभावः स स्वजनो नच ते आचार्याः संयमयोगेषु सीदन्ति उद्यतविहारिण इत्यर्थः निष्क्रमितुकामोऽन्येषामाचार्याणामुपस्थितस्तस्य च पूर्वाचार्यो-ऽवसन्नो केवलं तस्या इत्वरा दिशोऽनुबन्धनीयाः यावत्ते स्वक आचार्यो न मिलति विदेशस्थश्च स तं सततमेवाभिधारयति येषां च समीपे तावद्वयमाचार्या एते उपाध्याया इयं प्रवर्तिनीति ततः स्वाचार्यसमीपे निष्क्रामितुमुपस्थितस्तान्प्रति उद्दिशति भणतीत्यर्थः / मम स एवाचार्य विधिना नयनमव्याघातं च दूरे ते आचार्यास्ततः संदेशं कथयन्ति यथा इति तं गीतं पुराणमुपस्थितपूर्वमाचार्यमवसन्नमभिधारयन्तं वचसा युष्मदीयधर्मशिष्याऽस्माकं पार्वे प्रतिपन्नदीक्षिका वर्तते सा तमेवोद्दिशन्तं च प्रति यस्य समीपे निष्क्रमितुमुपस्थितः स पूर्वाचार्यो प्रतिग्राह्या। विदेशस्थः योऽन्यस्तस्य संबन्धी संविग्नस्तमुद्दिशति यथा स तवाचार्य भावविगिटे वि एमेव, समुज्जातोत्ति वान वा। इति-अथवा स्वयं तेनात्मीयावसन्ना दिक् धारयितव्या न पुनः स तेन तत्थ आसंकिए बंधो, निस्संक उन बज्झति॥ तत्रोद्देशयितव्यः तस्यावसन्नत्वा-द्यदि या तमप्यवसन्नमुद्दिशति / भावविकृष्टेऽप्येवमेव द्वितीयपदमवगन्तव्यमिति भावः कथमित्याह। किं केवलमनेन प्रकारेण / केनेत्यत आह (चोइज्जतो इत्यादि) यः पुनञ्जयते समुद्धातकालागतः किंवा नेत्येवं तस्मिन् भावविकृष्ट तस्याबन्धः क्रियते चोद्यमानः शिष्यमाण उद्यस्यति संविग्नो भविष्यतितमपि नामते आचार्या निःशङ्किते तु भावविकृष्ट सान वध्यते। बध्नन्ति यथा ते तवाचार्य इति। ये पुनर्जायन्ते न चोद्यमानाः संविना अत्रैव प्रकारान्तरमाह। भविष्यन्ति तेषु शेषेषु नोद्देशनमिति भजना। गतं क्षेत्रविकृष्टम् / / अहवा तस्स सीसंतु, जति सा उ समुद्धिसे। संप्रति भावविकृष्टमाह। विकप्पटे तहिं खेत्ते, जयणा जा उ सा भवे / / एमेव य कालगते, आसन्ने तं च उद्दिसइ गीयत्थो। अथवा यदि सा तस्य शिष्यं समुद्दिशति कथयति ममते एवाचार्या अहं पुटवदिसधारणं वा, अगीयमुत्तूण कालगयं / / तुतच्छिष्यसमीपे स्थास्यामीति तदा भावविकृष्टऽपि तस्या बन्धः क्रियते | एवमेव अनेनैव प्रकारेण कालगते तस्य मूलाचार्यो यदि स्वयं गीतार्थो तत्र या विकृष्ट क्षेत्रे यतनोक्ता सात्रापि भवति ज्ञातव्या तदेवं निर्ग्रन्थीसूत्रं भवति तदा तस्य येऽन्ये आसन्ने आचार्यास्ते वा उद्दिशन्ति पूर्वदिशं वा व्याख्यातमधुना कप्पइत्ति द्वारम्। धावन्ति / अथ स स्वयमगीतार्थस्तदा तस्य कालगतं मुक्त्वा शेषोऽन्य निग्गंथाण वि विगिट्ठो, दोसा ते चेव मोत्तुकोसलयं / उद्दिश्यते इति। व्य०द्वि७ उ०। (व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायो नोद्देष्टय्य सुत्तनिवातो निगए, संवग्गे य सेसइत्तरिए। इति सज्झाय शब्दे) उद्देशफलमाह परः किमत्र पुनः कारणं यदुद्देशः निर्ग्रन्थानामपि विकृष्टे उद्दिश्यमाने य एव निर्ग्रन्थीनां दोषामि क्रियते। अनुद्दिष्ट कस्मान्न पठ्यते तत्राह। थ्यात्वादय उक्तास्त एव कोशलकमेकं दोषं मुक्त्वा शेषाः सर्वे निरवशेषा बहुमाणविणयआउ-त्तताय उद्देसतो गुणाहुति / द्रष्टव्याः। यद्येवं तर्हि सूत्रमनर्थकमविषयत्वादत आह "सूत्रनिपातोऽ पढमाए सो उसव्वो, एत्तो वुच्छं करणकालं / / भिगते संविग्नेच शेष इत्वरिकः" इयमत्र भावना। अभिगतो ज्ञाततत्व: उद्देशे हि क्रियमाणे श्रुतस्य श्रुताधारस्य वाऽध्यापकस्योपरि श्राद्धः पुराणो वा संविग्नः स्वयं योऽपि तस्य धर्मदेशक आचार्यः सोऽपि बहुमानमान्तरः प्रीतिविशेषो भवति विनयश्च प्रयुक्तः स्यादायुक्तता च संविग्रस्तस्मिन् सूत्रनिपातो यस्तु शेषः स्वयंनसम्यक् ज्ञाततत्वस्तस्य महती भवति एते उद्देशतो गुणा भवन्ति एव सर्वोप्यङ्गादिविषय उद्देशः पथि व्रजतोमिथ्यात्वादयो दोषास्तस्य दीक्षामाधाय इत्वरिको दिग्बन्धः प्रथमोद्देशः॥ व्य०७ उ०॥ क्रियते पुनः प्रेष्यते एतदेव व्याचिख्यासुराह। (आचार्येऽवसन्ने उद्देशविधिरवधावनंच ओहावण शब्दे वक्ष्यते) उद्सडो पुराणो वा जइ, लिंगं घेत्तूण वयति अन्नत्थ। दिश्-घञ् - अनुसंधाने, अन्वेषणे, अभिलाषे, उपदेशे च / आधारे तस्स वि विगिट्ठबंधो, जा इच्छइ ताव इत्तरिको / / घञ् / उपदेशे, यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम्। वाच०। श्राद्धः श्रावकः पुराणः पश्चात्कृतो वाशब्दो विकल्पने अधिगतत-त्वः | उद्देसण न० (उद्देशन) अङ्गादौपठनेऽधिकारित्वे, स्था०४ ठा०३ उ० / स्वयं संविग्रो योऽपि तस्यधर्मग्राहक आचार्यः सोऽपि संविनः स इत्थंभूतो | उद्देसणकप्प पुं० (उद्देशनकल्प) वाचनासामाचार्याम्,। यदि लिङ्ग गृहीत्वाऽन्यत्र क्षेत्रविकृष्टमूलाचार्यसमीपे व्रजति तस्य विकृष्टो एसुवसंपदकप्पो, वोच्छं उद्देसकप्प महुणाओ। दिग्बन्धः कर्तव्यो याव तत्र तिष्ठति तावत्तस्यात्मीय इत्वरिको उद्दिसणवायणमि य, पाठणता चेव एगट्ठा।। दिग्बन्धः / / सुत्तत्थ तदुमयाई, पवायते ताव जाव संधाणं / मिच्छत्तादी दोसा, जे वुत्ता ते उगच्छतो तस्स। बहुपचवायपाए, विजढे भजियं तु संधाणं / / एगागिस्स विन भवे, इति दूरगते वि उदिसणा॥ संधाणमंतगमणं, असिवादी पच्चवादणेगविहा। Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसणकप्प 842 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसणकाल विजढे तोणिक्खित्ते, जोगे रुइओ पुणक्खेवा / / गिलाणस्स पाहुणयाणं वा पाउग्गं गेण्हावेंतो इड्डित्ति इड्डिए य रायमत्तं जदि कारणेण केण वि, णिक्खित्तो तो सउक्खिव पुणो वि। दंडभडभोइया वा आगया धम्म सुणेमो त्ति जाव आयरियं भिक्खं गया ते अहदप्पाणिक्खित्तो, तो णं उक्खिप्पती भुजो॥ खिंसिऊण पडिगया एरिसा आयरिया भिक्खं पिसे न कोइ आणेइ। अह उद्दिदुम्मिय अंगे, सुयखंधम्मि य तहेव अज्झयणे। अत्यंतो तेसिंधम्मं कहतो ते पव्वयंता वा सावगा वा हुंता अहा भद्दया वा दाणसङ्घा वा हुंता पवयणउवग्गहकरा वा हुंता तेसिं चंदगवेज्झसरिसो आसज्जपुरिसकरणं, तिहाणे हों ति पडिसेहा।। आगमो "जहा एगेण रन्ना अमच्चेण य धम्मो सुओ ते य अक्खित्ता तेहिं अंगादि उदिह्रो पुरि-संदठूण अपरिणामादी। गंतूण अंतेउरं कहियं जहाएरिसातारिसा य आयरिया पच्छा विययदिवसे अत्थति वसट्टरादिहि, अवणीया दीवणाऊणं॥ महादेवी अमच्चा य समागया धम्मं निसामेति जाव भिक्खं गया पच्छा ताहे णिक्खिप्पत्तीसु, तिट्ठाणे जंतु भणितपडिसेहो। खिंसिउं पडिगया ताओ विय पव्वयंताओ विसावियाओवा हुंताओ एए तं सुत्तमत्थतदुभए, एतेसिं तिण्ह पडिसेहो // 60 भा०। दोसा। वाई वा आगओ पुच्छइ किं आयरिया केणइ सिटु भिक्खाए गया इयाणिं वाहणाकप्पो गाहा। पच्छा वाई भणइ किह सो अत्था ण जाणिहिइ जो दिवसं भिक्खं हिंडतो सुत्तमत्थतदुभय, पुण सुत्तत्थ तदुभयं वा। अत्थइ अहवा परिस्संतो त्ति काऊण नीसडावेइ सो वि उव्याओ न तरइ ताव वाएइ जाव, संधाणं नाम जणअद्धं // उत्तरंदाउंपच्छा पवयणोब्भावणया अह अच्छंदोपच्छा सत्थाणि चितंतो न परवाइहेउणा वा निमित्तेण वा पराइणं तो पच्छा पवयणउब्भा-वणया किं निमित्तं न समाणेइजण अद्ध होज्जा। उच्यते बहुपचवायताए विजढे कया हुँता गाहा "गणहारिस्सा हारो" गाहा "सिद्धं उद्दिट्टम्मि" जोगे निक्खित्ते भणियं होइ भइया य संवणा य संवणा नाम पुरवि जो न उयंगसुयंगअज्झयेण उछिट्टे आसज्जणाम प्राप्य पुरिसं उहिसावेउं ताहे उक्खेवो समाणणंति वुत्तं होइ जइ असिवाइ कारणेहिं निक्खित्तो जोगो अत्थइ अदूरवदूरेहिं अहवा अविणीओ वि गइपडिबद्धो वा अविओ स वि तो से पुणो वि सारिजई। अह दप्पेण सड्डयाए वा निक्खवइ ताहे न य पाहुडोत्ति एवमादी दोसा पच्छा नाया ताहे निक्खिप्पइ जोगो तिट्ठाण उक्खिप्पइ पुणो जोगो अहाचार्यो किमर्थ भैक्षं न पर्यटति वैयावृत्त्यं वान णागसुत्तत्थतदुभएसु पडिसेहो कारणो वा असिवाइमतिवाएजा एस करोति उच्यतेवाएपिते आयरिओ जो हिंडइउण्हकालंसीयकालंवासासु वायणाकप्पो। पं० चू०॥ हिंडं तो वाएण घेप्पइ सो वाएसु घडं तो कवाडाइं उग्घाडेतो उद्देसणकाल पुं०(उद्देशनकाल) उद्देशसमुद्देशानुज्ञानार्थ षड्वन्दसुत्तत्थतदुभयाणं परिहाणी गच्छस्स सीस पडिच्छगाणं गिलाणा रोवणा नकदानकायोत्सर्गत्रयसमयप्रसिद्ध क्रियाविशेष, ध०३ अधि० / / व उण्हकाले वा पित्ताइरोइओ अइबहुयं वा पाणयं पीउ उचाई उन तरइ उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने च यावन्त्यध्ययनानि उद्देशका वा समुद्दिसिओ उवगरणं च पडिलेहंतो वाएण घेप्पेज्जा तत्थ वि तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला उद्देशावसराः श्रुतोप-चाररूपाः इति / सुत्तत्थाइपरिहाणी गणालोए जहा गोवालो गावीओ तिहि बेलाओ "छव्वीसंदसाकप्पववहाराणं उद्देसणकाला पण्णत्ता" / सम०। ते चैव पलोएइ पुव्वण्हगडभण्हावरणेसु तहा आयरिओ वि पुव्वण्हे ताव दशाश्रुतस्कन्धस्य दशस्वध्ययनेषु दशसु च कल्पस्य षट्सु च आवासयसुत्तत्थमंडलीए गणालोयं करेइ / मज्झण्हे समुद्देसवेलाए व्यवहारस्योद्दशके ष्विति तैरविधिना गृहीतैः ध०३ अधि० / अवरण्हे वि पुणो सज्झायवेलाए आवासए वा को आगओ अणागओवा षड्वंशतिरुद्देशनकाला दशाकल्पव्यवहाराणं तत्र गाथा "दस परीसहपराइओ वा पिव मुच्छाए वा पडिओ तत्थ नाहिंडइ अत्यंतो उद्देसणकाला, दसाण छच्चेव हुंति कप्पस्स / दस चेव ववहारस्स, सव्वाणि जाइक्कायकिलेसो य हिंडंतस्स पच्छा किलेसाभिभूओ दसाकप्पस्स हुंति छव्वीसं। प्रश्न० सं०५ द्वा०। सुत्तत्थाणि चिंति-ऊण देइ न य नासेइ मेढीपमाणं आधार इत्यर्थः / खुड्डियाएणं विमाणपविमत्तीए तइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणदव्वमेढीएवइच्छा परिग्गहिया सुहं भमंति भावमेढीएआयरिया मेढीभूया काला पण्णत्ता महालियाएणं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे तम्मि यसव्वे सनियट्टति जाणंति य अत्यंता कोस्य हिंडइ गिहिनिसेचं तेयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता महालियाएणं विमाणपविभवा जो वाहेइ तं जाणंतिअत्यंता अकारए आयरिआणं हिंडताणं जं त्तीएचउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता महालियासरीरस्स अकारयं अंवक्खलमाहनीणियं जइ गेण्हइ समुद्दिसइ य एणं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसणकाला सरीरापच्छं गिलाणाइ दोसा अपडिसेहेइ अकारिकमिति ताहे लोओ पण्णत्ता नवण्हं बंभचेराणं एकावण्णं उद्देसणकाला पण्णत्ता / / उड्डहइ। आयरिओ चेव अजिइंदिओ जंपिति निच्छइ किं पव्वइयत्थ (बंभचेराणंति) आचाराः प्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शस्त्रपरिवालेण सुएण वा खज्जेजा गिलाणारोवणासुत्ताइपरिहाणी गच्छवि-णासो ज्ञादीनाम्। तत्र प्रथमे सप्तोद्देशका इति सप्तैवोद्देशनकाला एवं द्वितीयादिषु य मणचिंता गणं च चिंतेइ हिंडता वालवुड्डे गिलाणसेहपाहु- क्रमेण षट्चत्वारः षट्सप्तैवमेकपञ्चाशदिति। णयाइवालवुड्डा य न तरति दीहभिक्खायरियं हिंडिओ गिलाणस्स न अयारस्सणं सचूलियागस्स पंचासीइ उद्देसणकाला पण्णत्ता। कोइवावारितओ गेण्हंतओवा अहवा वारें ति गिलाणस्स गेण्हह पाउग्गं तत्राचारस्य प्रथमाङ्गस्य नवाध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्धते य न गेण्हं ति अहवा जंवा तं वा आणेति ताहे जइ भणंति किं एरिसं रूपस्य (सचूलियागस्स इति) द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे गिलाणस्स नाणीयं ताहे तेहिं भण्हइ केरिसाएहिं तुडभे सयमेव हिंडता पञ्च चूलिकास्तासु च पशमी निशीथाख्येह न गृह्यते भिन्नकिं लभह दीसंता तुब्भे पडिरूवा लाभीणं एवं सेहपाहुणाणं पि न कोइ प्रस्थानरूपत्वात्तस्यास्तदन्याश्चतस्रस्तासु च प्रथमद्वितीये सप्तगेण्हंतओ संदिसंतो वा जइ पुण अच्छंतो वालबुड्डादयो सव्वे चिंतते सप्त्यध्ययनात्मिके तृतीयचतुर्थ्यां चैकै काध्ययनात्मिके तदेवं Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसणकाल 843 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसणा सह चूलिकाभिर्वर्त्तत इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला भवन्तीति प्रत्यध्ययनमुद्देशनकालानामेतावत्संख्यत्वात्तथाहि प्रथमश्रुतस्कन्धे नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्त षट्चत्वारश्चत्वारः षट्पञ्च अष्ट चत्वारः सप्त चेति द्वितीयश्रुतस्कन्धे तु प्रथम-चूलिकायां सप्तस्वध्ययनेषु क्रमेण एकादश त्रयस्त्रयः चतुर्षु द्वौ द्वौ द्वितीयायां सप्तकसराणि अध्ययनान्येवं तृतीयैकाध्ययनामिका एवं चतुर्थ्यपीति सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति / सम०। उद्देसणा स्त्री०(उद्देसना) वाचनायाम, पाठने, पं०भा० / अन्या- 1 चार्योपाध्यायोद्देशना॥ (सूत्रम्) भिक्खू य इच्छिज्जा, अन्नं आयरियउवज्झायं विहरितए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छे इयं वा आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरिया जाव गणावच्छेइयं वा अन्नं आयरियउवज्झायं उहिसावित्तए ते से विपरिता एवं से कप्पइ अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए नो से कप्पइ तेसिं कारणं अदावित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए कप्पइसे तेसिं कारणं दीवित्तं अन्नं आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए। अस्य व्याख्या प्राग्वत् / नवरमन्यदाचार्योपाध्यायमुद्देशयितुमाचार्यश्चोपाध्यायश्चाचार्योपाध्यायं समाहारद्वन्द्वः / यता आचार्ययुक्त उपाध्याय आचार्योपाध्यायः शाकपार्थिवत्वान्मध्यमपदलोपी समासः आचार्योपाध्यायावित्यर्थः तावन्यानुद्देशयितुमात्मन इच्छेत् ततो नो कल्पते अनापृच्छ्याचार्यं वा यावद्गणावच्छेदकंवा इत्यादि प्राग्वत् द्रष्टव्यम् तथात्वकल्पने तेषामाचार्यादीनां कारणमदापयित्वा अनिवेश्य अन्यमाचार्योपाध्यायमुद्देशयितुमात्मनो गुरुतया व्यवस्थापयितुमेष यद्यन्य आचार्य उद्दिश्यते तद्दर्शनार्थं गन्तव्यं चारित्रार्थं पुनरुद्देशेन पूर्व प्रागुक्त एव गमो भवति / अथवा तत्रैते आदेशा प्रकारा भवन्ति। आयरिओवज्झाए, ओसण्णोहाविते विकारगते। ओसण्णे छविहे खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया।। आचार्य उपाध्यायो वा अवसन्नः संजातः अवधावितो वा गृहस्थीभूतः कालं गतो वा यद्यवसन्नस्ततः षड्विधो भवेत् पार्श्वस्थोऽवमग्नः कुशीलः संसक्तो नित्यवासी यथाच्छन्दश्चेति / यश्च तस्य शिष्य आचार्यपदयोग्यः स व्यक्तोऽव्यक्तो वा भवेत्तत्रेयं मार्गणा। वत्ते खलु गीयत्थे, अव्वत्ते वयण अहव अगीयत्थे। वत्तिच्छसारपेच्छण, अहवा सण्णे सयं गमणं / / अत्र चत्वारो भङ्गाः। तत्र वयसा व्यक्तः षोडशवार्षिकः श्रुतेन च व्यक्तो गीतार्थः / एष प्रथमो भङ्गः। वयसा व्यक्तः श्रुतेनाव्यक्तएषोऽर्थतो द्वितीयः / श्रुतेन व्यक्तः वयसा अव्यक्तः / अयमर्थतस्तृतीयः अव्यत्ते वयण अहव अगीयत्थति चतुर्थो भङ्गो गृहीतःस चायं वयसाऽप्यव्यक्तः श्रुतेन चाव्यक्त इति 4 तत्र प्रथमभङ्गे द्विधाऽपि व्यक्तस्य इच्छा अन्यमाचार्यमुद्दिशति तावत्तमासन्नीभूतमाचार्य सारयितुंसाधुःसंघाटकं प्रेषयति। अथासन्नः सआचार्यस्ततः स्वयमेवगत्वानोदयति नोदनायां चैवं कालपरिमाणम् / / एगाहपणगपक्खे, चाउम्मासोवरिस जत्थ वा मिलइ। चोयइ चोयवेइ वा, णेच्छंते सयं तु वढाओ। एकाहं नाम दिने गच्छो नोदयति एकान्तरितं वा तथा पञ्चाहं पश्चानां दिवसानामन्ते एवं पक्षे चातुर्मासे वर्षान्ते वायत्र वा समवसरणादौ मिलति तत्र स्वयमेव नोदयति अपरैर्वा स्वगच्छीयैर्नोदनं कारयति यदि सर्वथापि नेच्छति ततः स्वयमेव तंगणं वापयति। उद्विसइ व अन्नदिन्नं, पयावणट्ठा न संगहवाए। जइ णाम गारवेण वि, सुपज्जाणिच्छे सयं वाइ।। अथवा स उभयव्यक्तोऽन्यां दिशमपरमाचार्यमुद्दिशति / तय तस्यावसन्नाचार्यस्य प्रतापनार्थं न पुनर्गणस्य संग्रहोपग्रहनिमित्तं स च तत्र गत्वा भणति / अहमन्यमाचार्यमुद्दिशामि यदि यूयमितस्थानान्नोपरमध्ये ततः स चिन्तयेत् अहो अमी मयि जीवत्यप्यपरमाचार्य प्रतिपद्यन्ते मुञ्चामि पार्श्वस्थतां यदि नामैवं गौरवेणापि पार्श्वस्थत्वं मुश्चेत्ततः सुन्दरं अथ सर्वथा नेच्छत्युपरन्तुं ततः स्वयमेव गच्छाधिपत्ये तिष्ठति गतः प्रथमो भङ्गः। अथ द्वितीयपदमाह। सुअवत्तो वयावत्तो, भणइ गणं तेन सारितुं सत्ता। सारेहिं सगणमेवं, अण्णं च क्याम आयरिअं॥ यः श्रुतेन व्यक्तो वयसा पुनरव्यक्तः स स्वयं गच्छं वर्तापयितुमसमर्थः / / ततः आचार्य भणति। अहमप्राप्तवयास्तेनत्वदीयं गणं सारयितुं न शक्तः / अतःसारय स्वगणमेनं अहं पुनरन्यस्य शिष्यो भविष्यामि अथवा अहमेते चान्यमाचार्यं व्रजामः उदिशामीत्यर्थः। आयरियउवज्झायं, निच्छंते अप्पणा य असमत्थे। तिगसंवच्छरपद्धं कुलगणसंघे दिसाबंधो॥ एवं भणित आचार्य उपाध्यायो वा यदि ने च्छति संयमे स्थातु सचात्मना गणं वापयितुमसमर्थः / ततः कुले सत्कमाचार्यमुपाध्यायं वा उद्दिशति / तत्र त्रीणि वर्षाणि तिष्ठति तमाचार्यं सारयति ततः त्रयाणां परमः स चिन्तादिकं कुलाचार्यो सूत्रार्थः। अथ भाष्यम्। सुत्तम्मि कट्टियम्मि, आयरियउवज्झाय उडिसा विति। तिण्हव्व उद्विसिज्झा, णाणे खलु दंसणचरित्ते। सूत्रे सूत्रार्थे आकृष्ट उक्तम् / नियुक्तिविस्तर उच्यते / आचार्यों - पाध्यायमभिनवमुद्देशयन् त्रयाणामर्थायोदिशेत् / ज्ञानार्थं दर्शनार्थ चारित्रार्थ चेति॥ नाणे महकप्पसुतं, सिस्सित्ते को पि उवगए। तस्सह उद्दिसिज्जा, साखलु सेच्छाण जिणआणा / / ज्ञाने तावदभिधीयते / केषांचिदाचार्याणां कुले गणे वा महाकल्पश्रुतमस्ति तैश्च गणसंस्थितिः कृतायोऽस्माकं शिष्यतया गच्छति तस्यैव महाकल्पश्रुते देयं नान्यस्य तत्रोत्सर्गतो नो गन्तव्यम् यद्यन्यत्र नास्ति तदा तस्य महाकल्पश्रुतस्यार्थाय तमप्याचार्यमुद्दिशेत्। उद्दिश्य वाऽधीते तस्मिन् पूर्वाचार्याणामेवान्तिके गच्छेन्न तत्र तिष्ठेत् / कुत इत्याह / सा खलु तेषामाचार्याणां स्वेच्छा न जिनाज्ञा नहि जिनैरिदं भणितं शिष्यतयोपगतस्य श्रुतं दातव्यमिति।। अथ दर्शनार्थमाह विजामंतनिमित्ते, हेऊ सत्तट्ठदंसणट्ठाए। चरित्तह पुथ्वगमो, अहव इमे हुंति आएसा॥ विद्यामन्त्रनिमित्तार्थं हेतुशास्त्राणांच गोविन्दनियुक्तिप्रभृतीनामर्थाय | Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसणा 844 -अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसणा हरतीति कृत्वा गणाचार्यमुद्दिशति तत्र संवत्सरं स्थित्वा संघाचार्य-स्य दिग्बन्धं प्रतिपद्य वर्षार्द्ध षण्मासान् तत्र तिष्ठति / कुलगणाच संघं सं क्रामन्नाचार्यमिदं भणति। सचित्तादिहरंता, कुलंपि णेच्छाम जं कुलं तुज्झ। वचामो अण्णगणं, संघं च तुमं जइन वयसि // यत् त्वदीयं कुलं त्वदीया आचार्या अस्माकं वर्षत्रयादूज़ सचित्तादिकं हरन्ति अतः कुलमपि नेच्छामो यदि त्विदानीमपि न तिष्ठति ततो वयमन्यगणं संघंवा व्रजामः।। एवं पि अद्धीयंते, नाहेत्तअङ्गपंचमे वरिसे। संजमे व धारइगणं, अनुलोमेणं च सारे॥ एवमर्द्धपञ्चमे वर्षे पूर्वाचार्यो नोदनाभिः प्रतापितोऽपि यदि न तिष्ठति तत एतावता कालेन स श्रुतव्यक्तो वयमपि व्यक्ता जाता इति कृत्वा स्वयमेव गणं धारयति। यत्रच पूर्वाचार्य पश्यति तत्रानुलोमवचनैस्तथेव सारयति। अहव जइ अत्थि थेरा, सत्तापरिकट्टिऊण तं गच्छं। दुहा वत्तसरिसस्स, तस्स उगमो मुणेयवे / / अथवा यदितस्य श्रुतव्यक्तस्य स्थविरस्तंगच्छं परिवर्तयितुं शक्तस्ततः कुलगणसंघेषु नोपतिष्ठेत किन्तु स स्वयं सूत्रार्थी शिष्याणां ददाति / स्थविरास्तु गच्छं परिवर्तयन्ति एवं च द्विधा व्यक्तसादृश्यस्यास्य गमो ज्ञातव्यो भवतिगतो द्वितीयभङ्गः। अथ तृतीयं भङ्गमाह। वत्तवओ उ अगीओ, जइथेरा तत्थ केइ गीयत्था। ते मंतिए पढंतो, चोएइ असइ अण्णत्थ।। यो वयसा व्यक्तः परमगीतार्थस्तस्य गच्छे च यदि केऽपि स्थविरा गीतार्थाः सन्ति ततस्तेषां स्थविराणामन्तिके पठन्गच्छमपि परिवर्तयति अवसन्नाचार्य चान्तरतो नोदयति तेषां गीतार्थस्थ-विराणामभावे गणं गृहीत्वा अन्यत्रोपसम्पद्यते गतस्तृतीयो भङ्गः। अथ चतुर्थभङ्गमाह। जो पुण उभय अवत्तो, वडावग असइ सो उदिसई। सव्वे वि उद्दिसंता, मोत्तूणं उहिसंति इमे।।। यः पुनरुभयथा श्रुतेन वयसा वाव्यक्तस्तस्य यदि स्थविराः पाठयितारो। विद्यन्ते / अपरे च गच्छवपिकास्ततोऽसावपि नान्यमुद्दिशति। स्थविराणामभावेस नियमादन्यमुद्दिशति सर्वेऽपि भङ्गचतुष्टयवर्तिनोऽन्यमाचार्यमुद्दिशतोऽमून मुक्त्वा उद्दिशन्ति तद्यथा। संविग्गमगीयत्थं, असंविग्गं खलु तहेव गीयत्थं। असंविग्गमगीयत्थं, उद्दिसमाणस्सचउगुरुगा। संविनमगीतार्थमसंविग्नं गीतार्थमसंविनमगीतार्थं चेति त्रीनप्याचार्यत्वेनोद्विशतश्चतुर्गुरुकाः एतेन यथाक्रमं कालेन तपसा तदुभयेन चतुर्गुरुकाः कर्तव्याः / अथैवं प्रायश्चित्तवृद्धिमाह॥ सत्तरतं तवो होइ, तओ छेओ य हावई। तेणच्छिण्णपरीआए, तओ मूलं तओ दुर्ग / / एतानयोग्यानुदिशतो वर्तमानस्य प्रथम सप्तरात्रंचतुर्गुरु, द्वितीयं सप्तरात्रं षट्लघुतृतीयं षड्गुरु, चतुर्थ चतुर्गुरुकच्छेदः / पञ्चमंषट्-लघुकः षष्ठं षड्गुरुकस्ततएकदिवसे मूलं द्वितीये अनवस्थाप्यं तृतीये पाराश्चिकम्। अथवा षट्गुरुकतपोऽनन्तरं प्रथमत एव सप्तरात्रं षड्गुरुकच्छेदस्ततो मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकानि प्राग्वत्। यद्वा तपोऽनन्तरं पञ्चकादिच्छेदः सप्तसप्तदिनानि भवन्ति तेषां प्रायश्चित्तं विज्ञाय संविनोगीतार्थः उद्देष्टव्यः / तत्रापि विशेषमाह। छट्ठाणविरहियं वा, संविग्ग वा वि वयइ गीयत्थं / चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / षभिः स्थानैर्वक्ष्यमाणैर्विरहितमपि संविग्नं गीतार्थ यदि स दोषकायिकादिसहितं न वदति आचार्यत्वेन उद्दिशति तदा चत्वारोऽनुद्घातास्तत्राप्याज्ञादयो दोषाः / इदमेव व्याचष्टे / / छट्ठाणाजोणियगो, तत्थ रहियकाइयाइ ता चउरो। तं विय उद्विसमाणो, छट्ठाणगयाण जे दोसा / / षट्स्थानानिनाम पार्श्वस्थः अवसन्नः कुशीलः संसक्तो यथाच्छ-न्दो नियतवासी चेति एतैः षभिर्विरहितो ये कथिकादयः कथिकप्राश्रिकनामाकसप्रसारकाख्याश्चत्वारस्तानप्युद्दिशतस्तएव दोषा ये षट्स्थानेषु पार्श्वस्थादिषुगतानां प्रविष्टानां भवन्ति। एष सर्वोऽप्यवसन्ने आचार्य विधिरुक्तः / अथावधावितकालगतयोर्वि-धिमाह // ओहावियकालगते, जो अव्वत्तो स उहिसावेत्ति। अन्नत्ते तिविहे वा, णियमा पुण संगहट्ठाए। अवधाविते कालगते वा गुरौ त्रिविधेऽपि प्रथमभङ्गवर्जे भङ्ग त्रये-ऽपि योऽव्यक्तः स यदा इत्थं भवति तदा अन्यमाचार्यमुद्देशयति अथवा त्रिविधेऽपि कुलसत्के गणसत्के संघसत्केवा चार्योपाध्याये आत्मना उद्देश कारयति स चाव्यक्तत्वान्नियमात् संग्रहोपग्रहार्थमेवोदिशति आचार्य गृहीभूतमवसन्नं वा यदा पश्यत्तदेत्थं भणति। ओहाविय ओसन्ने, भणइ अणाहो वयं विणा तुज्झे। कमसासमसागरिए, दुप्पडिएगंगतो तिण्हं / / अवधावितस्यावसन्नस्य वा गुरोः क्रमयोः शीर्ष सागारिके प्रदेशे कृत्वा भणति भगवन् अनाथा वयंयुष्मान् विना अतः प्रसीद भूयः संयमे स्थित्वा समाधीकुरु डिम्भकल्पान्नस्मान् / शिष्यः पृच्छति तस्य गृहीभूतस्याचारित्रस्य वा चरणयोः कथं शिरोविधीयते गुरुराहदुष्प्रतिकरं दुःखेन प्रतिकर्तुं शक्यं यतस्त्रयाणां तद्यथा मातापित्रोः स्वामिनो धर्माचार्यस्य च यदुक्तं "तिण्हं दुप्पडिआरं समणाउसो अम्मापिउस्स भद्दिस्स धम्मायरियस्स य इत्यादि / तत एवमवसन्नेऽवधाविते वा गुरौ विनयो विधीयते। किञ्च। जो जेण जम्मि ठाणम्मि, ठाविओ दंसणे व चरणे वा। सो तं तओ वुत्तंत-म्मिवि, काउं भवे निरणो॥ यो येनाचार्यादिना यस्मिन् स्थापितस्तद्यथा। दर्शने वा चरणे वा स शिष्यस्तं गुरुं ततो दर्शनाद्वाच्यते तत्रैव दर्शने चरणे या स शिष्यस्तं गुरु कृत्वा स्थापयित्वा अनृण ऋणमुक्तो भवति। कृत-प्रत्युपकार इत्यर्थः। अथ"कप्पइ तेसिं कारणं दीविता इत्यादि" सूत्रावयवं व्याचष्टे / तिस्सु वि दीवियकजा, विसजिता जइ अतत्थ तं णत्थि / णिक्खिवह वयंति दुवे, भिक्खुकिंदाणि निक्खिवत / / त्रिष्वपि ज्ञानदर्शनचारित्रेषु व्रजन्तो भिक्षुप्रभृतयो दीपितकार्याः पूर्वोक्तविधिना निवेदितवन्तः स्वप्रयोजनेन गुरुणा विसर्जिता गच्छन्ति / यदि च तत्र गच्छे त दवसन्नादिकं कारणं नास्ति तत उपसंपद्यते नान्यत्रेति। (सूत्रम्) गणावच्छेदइए य इच्छिज्जा अन्नं आयरियउवज्झायं Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसणा 545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसिय उहिसावित्तए नो से कप्पइगणावच्छेइयत्तं अनिविक्खवित्ता अन्नं अर्थवास्तव्याचार्यस्य साधवोनपूर्यन्तेततः एकंसंघाटकंतस्य प्रयच्छति आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए कप्पइ से गणावच्छेइ-यत्तं तं युक्त्वा शेषानात्मना गृह्णाति / अथ वास्तव्याचार्य: णिक्खिवित्ता अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावित्तए नो से सर्वथैवासहायस्ततः सर्वानपि गृह्णाति॥ कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा 3 अन्नं सुह असुहस्स वि तेण वि, वेयावचाइसव्वकायव्वं / उद्दिसावित्तए कप्पइ से आपुच्छित्ता जाव उद्दिसावित्तए नो से तेतेसि अणाए सा, वावारेउं न कप्पंति॥ कप्पति तेसिं कारणं अदीवित्ता अन्नं आयरिओज्झायं तेनापि प्रतीच्छकाचार्यादिना तस्याचार्यस्य सहिष्णोरसहिष्णो उद्दिसावित्तए कप्पइ से तेसिं कारणं दीवित्ता अन्नं जाव उद्दि वैयावृत्त्यादिकं सर्वमपि कर्त्तव्यं तेऽपि साधवस्तेषामाचार्याणामासावित्तए कप्पइ आयरियउवज्झाए य इच्छेजा। अण्णं आय देशानन्तरेण व्यापारयितुंन कल्पन्ते। वृ०४ उ०॥ रिओवज्झायं उदिसावेत्तए। नो से कप्पइ आयरियउवज्झाएतं उद्देसिय(उ) न०(औद्देशिक) उद्देशनमुद्देशः यावदर्थिकादिप्रणिअनिक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं उदिसावित्तए कप्पइ धानमित्युद्गमदोषस्तेनोद्गमेन निर्वृत्तं तत्प्रयोजनं चौद्देशिकम् / आयरियउवज्झाइत्तं निक्खिवित्ता अन्नं आयरियउवज्झायं द्वितीयोद्गमदोषदुष्टे भक्तादौ, तदभेदोपचारात् द्वितीयो गमदोषेचा पंचा० उद्दिसावित्तएणो से कप्पति अणापुच्छित्ता। आयरियं वा जाव 13 विव०। पिं०। प्रव०। द०। स्था०। गणावच्छेयं वा / / अण्णं आयरियउवज्झायं उहिसावेत्तए कप्पति अस्य नियुक्तिर्यथासे आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं आयरियउवज्झायं उदिसावेत्तएयतं से वितरंति एवं से कप्पति उद्देसिअसाहुमाई, ओमचए तिक्खुविअरणं जंच। एवं नो से कप्पइ जाव विहरित्तए तेसिं कारणं अदीवेत्ता अण्णं उचरियं मीसेउ, तविअंउद्देसिअंतं तु // 44 // आयरियउवज्झायं उद्दिसावित्तए कप्पइ तेसिं कारणं दीवित्ता उद्दिश्य वाचा साध्वादीन्निर्गन्थशाक्यादीनवमात्यये दुर्भिक्षापगमे जाव उदिसावित्तए। भिक्षांवितरणं प्राभृतकादीनां यत उद्विष्टोद्देशिकम् यचोद्वरितमोद-नादि सूत्रद्वयव्याख्या प्राग्वत् अथ भाष्यम्"निक्खिवयवयंति दुवे इत्यादि मिश्रयित्वा व्यञ्जनादिना वितरणं तत्कृतौद्देशिकं यच तप्त्वागुडादिना पश्चाद्ध द्वौ गणावच्छेदकौआचार्य उपाध्यायश्च यथाक्रमं गणावच्छे मोदकचूरीबन्धवितरणं तत्कौद्देशिकमित्येवं चेतसि निधाय दित्वमाचार्यत्वमुपाध्यायत्वं निक्षिप्य व्रजन्तु यस्तु भिक्षुः स किमिदानी सामान्येनोपसंहरत्यौद्देशिकं तदेतत् तुशब्दः स्वगर्तभेदविशेषणार्थ इति निक्षिपतु गणाभावान्न किमपि तस्य निक्षेपणीयमस्ति तस्य निक्षेपणं गाथार्थः / पं०व०। साधुयोगे सति यदुद्दिश्य कृत्वा दीयते तदौदेशिकम नोक्तमिति भावः। अथ गणावच्छेदकाचार्ययोर्गणनिक्षेपणविधिमाह उत्त० 24 अ० / आधकर्मिके, कल्प० / यत्पूर्वमेव सरडूचूर्णकादि दुण्हवाए दुण्हवि, णिक्खिवणं होइ उज्जमंतेसु / साधूनुद्दिश्य पुनरपि संतप्तगुडा-दिना संस्क्रियते तदुद्देशिकम्। आचा०२ श्रु०२ अ०। "उद्देसियं तुकम्म एत्थं उद्दिस्स कीरए जति" पंचा०१७ सीयंतेसुय सगाणा, वचइमा ते विणासिज्जा // विव० / अर्थिनः पाखण्डिनः श्रमणान्थोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं द्वयोनिदर्शनयोरर्याय गतयोयोरपि गणावच्छेदकाचार्ययोः स्वगणस्य वितीर्यते तदौद्देशिकमिति स्था०६ ठा० निक्षेपणं ये उद्यच्छन्तः संविग्ना आचार्यास्तेषु भवति अथ सीदन्तस्त तद्भेदा यथा तच समासतो द्विधा भवति / द्वैविध्यमाह। ततस्तं स्वगणं गृहित्वा व्रजन्ति न पुनस्तेषामन्तिके निक्षिपन्ति / कुत इत्याह मा ते शिष्यास्तत्र मुक्ताः सन्तो विनश्येयुः। इदमेव / इदमेव ओहेण विभागेण, उहवप्पं तु वासयविभागे। भावयति॥ उद्दिट्टकडेकम्मे, एकेके चउक्कओ भेओ॥ वत्तम्मि जो गमो खलु, गणवच्छे सो गमो उ आयरिया। द्विविधमौद्देशिकं तद्यथा ओघेन विभागेन च / तत्र ओघः सामा-न्यं निक्खिवणे तम्मि चत्ता,जमुहिसे तम्भिते पच्छा। विभागः पृथक् करणम् / इयं चात्र भावना नादत्तमिह किमपि लभ्यते ततः कतिपयां भिक्षां दद्म इति बुद्ध्या कतिपयाधिकतन्दु-लादिप्रक्षेपेण योगम उभयव्यक्ते भिक्षावुक्तः स एव गणावच्छेदके आचार्य च मन्तव्यः / यन्निवर्तमशनादितदोघोद्देशिकम् ओघेन सामान्येन स्वपरपृथग्विभागनवरंगणनिक्षेपं कृत्वा तावात्मद्वितीयावात्मतृतीयो या वर्ततेततः स्वगच्छे करणाभावरूपेणोद्देशिकमोघोद्देशिकमित व्युत्पत्तेस्तथा विवाहप्रकरएव यः संविनो गीतार्थः आचार्यादिस्तत्रात्मीयसाधून्निक्षिपति / णादिषु यदुद्वरितं तत् पृथक् कृत्वा दानाय कल्पितं सद्विभागौद्देशिक अथासंविग्रस्य पार्वे निक्षिपति ततस्ते साधवः परित्यक्ता मन्तव्याः विभागेन स्वसत्ताया उत्तीर्य पृथक्करणेनौद्देशिकं विभागौद्देशिकमिति तस्मान्न निक्षेपणीयाः किन्तु येन केन प्रकारेणात्मना सह व्युत्पत्तेः तत्र ओघेओघविषयमौद्देशिकं तत्स्याप्यंनात्र व्याख्येयं किं नेतव्यास्ततोऽयमाचार्यः सगणावच्छेदक आचार्यो पधिमुद्दिशति तस्मिन् त्वग्रे व्याख्यास्य इति भावः / यत्तु विभागविषयं तद् (वासत्ति) तान् आत्मीयसाधून पश्चान्निक्षिपति। सूचनात्सूत्रमिति न्यायाद् द्वादश-प्रकारम् / द्वादशप्रकारतामेव यथाहं युष्माकं शिष्यस्तथा इमेऽपि युष्मदीयाः शिष्या इति भावः। सामान्यतः कथयति (उद्दिद्रुत्यादि) प्रथमतस्त्रिधा विभागोद्देशिकम्। इदमेवाह। तद्यथा उद्दिष्ट कृतं कर्म च / तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं जह अप्पगं तहाते, ते ण य हप्पंत तेण घेत्तव्वा / भिक्षाचराणादानाय पृथक् कल्पितं तदुद्दिष्टम् / यत् पुनरुद्वरित अपहुप्पंते गिण्हइ, संघाडं मुत्तु सव्वे वा / / सत्स्थाल्योदनादिकंभिक्षादानायकरम्बादिरूपतया जातंतत्कृतमित्युच्यते। यथा आत्मानं तथा तानपि साधून्निवेदयति तेनाप्याचार्येण प्रमाणेषु यत्पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्वरितं मोदकचूर्णादि तद् भूयोऽपि भिक्षाचराणां साधुषु ते प्रतीच्छकाचार्यसाधवो न ग्रहीतव्याः तस्यैव तान् प्रत्यर्पयति।। दानाय गुडघृतादिदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्मेत्यभिधीय Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसिय 846 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसिय ते / एकै कस्मिश्च उद्दिष्टादिक भेदे चतुष्क को वक्ष्यमाणश्चतुः संख्यो भेदो भवति। त्रयश्चतुर्भिर्गुणिता द्वादशततो विभागोद्देशिकं द्वादशधा। संप्रत्योघोद्देशिकस्य पूर्वस्थापिततया मुक्तस्य प्रथमतः संभवमाह।। जीवामु कहंवि उमे, निययं भिक्खाविता कइदमोहे। दिहु नत्थि अदिन्नं भु-अह अकयं न य फलेइ॥ इह भिक्षानन्तरं केचिद् गृहस्था एवं चिन्तयन्ति। कथमपि महता कष्टन जीविता अवमदुर्भिक्षे ततो नियतं प्रतिदिवसं भिक्षां दद्यो यतो हुनिश्चितं हन्दीति स्वसंबोधनेनास्त्येतत्यदुत भवान्तरे अदत्तमिह जन्मनि भुज्यते नापीह भवे अकृतं शुभं कर्म परलोके फलति / तस्मात्परलोकाय कतिपयभिक्षाप्रदानेन शुभं कर्मोपार्जनीयमित्यर्थीद्देशिकसंभवः। . संप्रत्योघौद्देशिकस्वरूपं कथयतिसा उ अविसेसियम्मेव, भत्तम्मि तंडुले छुहइ। पासंडीण गिहीण व, जो एहि इयस्स भिक्खट्ठा।। सा तु गृहनाथिका योषित्प्रतिदिवसं यावत्प्रमाणं भक्तं पच्यते तावत्प्रमाण एव भक्ते पक्तुमारभ्यमाणे पाखण्डिनां गृहिणां वा मध्ये यः कोऽपि समागमिष्यति तस्य भिक्षार्थं भिक्षादानार्थमविशेषितमेव / स्वार्थमेतावदेतावच भिक्षादानार्थमित्येवं विभागरहितमेवतन्दुलानधिकतरान् प्रक्षिपति एतदप्यौद्देशिकम् / अत्र परस्य पूर्वपक्षमाशङ्क्योत्तरमाह - छउमत्थो उद्देसं, कहं वियाणाइ चोइए य भणइ / उवउत्तो गुरु एवं, गिहत्थसहाइनेहाए॥ छदास्थः केवली कथमोघौद्देशिकं पूर्वोक्तस्वरूपं विजानाति न ह्येवं छद्मस्थेन ज्ञातुं शक्यते यथा स्वार्थमारभ्यमाणे पाके भिक्षा-दानाय कतिपयतन्दुलप्रक्षेप आसीदिति। एवं नोदिते प्रेरणे कृते गुरुर्भणति। एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण गृहस्थशब्दादिचेष्टायामुपयुक्तो दत्तावधानो जानानीति / एतदेव भावयति। देना उ ताउ पंच वि, रेहा उ करेइ देइव गणंती। देहइ उमा य इओ, अवणेहय एत्तिया भिक्खा। यदि नाम भिक्षादानसंकल्पतः प्रथमत एवाधिकतन्दुलप्रक्षेपः कृतो भवेत्तर्हि प्राय एवं गृहस्थानांचेष्टाविशेषा भवेयुः यथा दत्तास्ताः पञ्चापि भिक्षाः / इयमत्र भावना। कोऽपि गृहे भिक्षार्थं प्रविष्टाय साधवे तत्स्वामी निजभार्यया भिक्षांदापयतिसाच साधौ शृण्वति एवेत्थं प्रत्युत्तरं ददाति। यथा ताः प्रतिदिवसं संकल्पिताः पञ्चापि भिक्षा अन्यभिक्षाचरेभ्यो दत्ता इति। यद्वा भिक्षां ददन्ती दत्तभिक्षापरिगणनाय भित्त्यादिषु रेखां करोति / अथवा प्रथमेयं भिक्षा द्वितीयेयं भिक्षेत्येवं गणनाय ददाति यदि वा काचित् कस्या अपि सन्मुखमेवं भणति यथा अस्मदद्दिष्टभक्तसत्कपिटकादेर्मध्याद्देहि माइत इति। अथवा प्रथमतः साधौविवक्षितगृहे भिक्षार्थ प्रविष्ट काचित् कस्याः संमुखमेवमाह अपनय पृथक् कुरु विवक्षितात्स्थानादेतावती भिक्षां भिक्षाचरेभ्यो दानायेति / तत एवमुल्लापश्रवणरेखाकर्षणादिदर्शनेनैव छद्मस्थेनाप्यौदेशिकं ज्ञातुं शक्यते ज्ञात्वा च परिहियते। ततो न कश्चिद्दोषः अत्र चायं वृद्धसंप्रदायः। संकल्पि-तासु दत्तासु पृथगुद्धृतासुवा शेषमशनादिकं कल्प्यमवसेयमिति इह उपयुक्तः सन्शुद्धमशुद्धं वा आहारं ज्ञातुं शक्नोति। तानुपयुक्तस्ततो गोचरविषयां समान्यत उपयुक्ततां प्रतिपादयति।। सवाइएसु साहू मुच्छंन कारेज गोयरगओ य। एसणजुत्तो होजा, गोणीवच्छो गवत्तेव्व // इह साधुर्गोचरींगतो भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् शब्दादिषु शब्दरूपर-सादिषु मूछ न कुर्यात् किंत्वेषणायुक्त उद्गमादिदोषगवेषणाभियुक्तो भवेत् यथा गोवत्सो (गव्वत्ति) गोभक्त इव। गोवत्सदृष्टान्तमेव गाथाद्वयेन भावयति। ऊसवमंडणवग्गा, न पाणियं वच्छए न वा वारो। वणियागमअवरहे, वच्छगरडणं खरंटणया।। पंचविह विसयसोक्खे,खणी बहू समहियं गिहं तं तु। न गणेइ गोणिवच्चा, मुच्छियगढिओगवत्तम्मि / / गुणालयं नाम नगरं तत्र सागरदत्तो नाम श्रेष्ठी तस्य भार्या श्रीमती नाम श्रेष्ठिना च पूर्वतरं जीर्णमन्दिरं भङ्त्वा प्रधानतरं मन्दिरं कारयामासे। तस्य चत्वारस्तनयास्तद्यथा गुणचन्द्रो गुणसेनो गुणधूडो गुणशेखरश्च / एतेषां च तनयानां क्रमेण चतस्र इमा वध्वस्तया प्रियंङ्गुलतिका प्रियंगुरुचिका प्रियंगुसुन्दरी प्रियंगुसा-रिकाचा कालेनचगच्छता श्रेष्ठिनो भार्यामरणमुपजगाम / ततः श्रेष्ठिना प्रियंगुलतिकैव सर्वगृहसंभारे समारोपिता गृहे च सवत्सा गौर्विद्यतेतत्र गौर्दिवसे बहिर्गत्वा चरतिवत्सस्तु गृह एव बद्धोऽवतिष्ठते / तस्मै चारि पानीयं च चतस्रोऽपि वध्वो यथायोगं प्रयच्छन्ति। अन्यदा चगुणचन्द्रप्रियंगुलतिकापुत्रस्य गुणसागरस्य विवाह दिवस उपतस्थे / ततस्ताः सर्वा अपि वध्वस्तस्मिन् दिने सविशेषमाभरणविभूषिताः स्वपरमण्डनादिकरणव्यापृता अभूवन्। ततो वत्सस्तासां विस्मृतिं गतो न काचिदपि तस्मै पानीयादि ढौकितवती। ततोमध्याह्ने श्रेष्ठी यत्र प्रदेशे क्त्सोवर्तते तत्र कथमपिसमायातः वत्सोऽपि च श्रेष्ठिनप्रायान्तं पश्यन्नारटितुमारब्धवान्ततो जज्ञे श्रेष्ठिना यथाद्यापि वत्सो बुभुक्षितस्तिष्ठतीति। ततः कुपितेन तेन ताः सर्वा अपि पुत्रवध्वो निर्भत्सयामासिरे ततस्त्वरितं प्रियंगुलतिका अन्या च यथायोगं चारि पानीयं च गृहीत्वा वत्साभिमुखं चचाल वत्सश्च ताभिः सुरसुन्दरीभिरिव समलंकृतमपितादृशंगृहं नावलोकते नापिताः सरागदृष्ट्या परिभावयति / किं तु तामेव चारिं पानीयं वा समानीयमानं सम्यक्परिभावयति। सूत्र सुगमं नवरं (पंच विहेत्यादि) पञ्चविधविषयसौख्यस्य खनय इव खनयो या यध्वस्ताभिः समधिकमतिशयेन रमणीयतया अधिकतरं तद्गृहं न गणयति न दृष्ट्वा परिभावयति नापि ता वधूरेवं साधुरपि भिक्षार्थमटन रमणी नावलोकयेत् नापि गीतादिषु चित्तं बध्नीयात्-किंतु भिक्षामात्रानयनादानाधुपयुक्तो भवेत्। तथा च सति जानातिशुद्धमशुद्ध वा भक्तादिकम् तथाचाह। गमणागमणुक्खेवे, भासियसोयाइइंदियाउत्तो। एसणमणेसणे वा, तह जाणइ तम्मणो समणो॥ गमनं साधोभिक्षादानार्थं भिक्षानयनाय दात्र्या वजनम् आगमनं भिक्षा गृहीत्वा साधोरभिमुखं चलनम् / उत्क्षेपो भाजनादीनामूर्द्धमुत्पाटनमुपलक्षणमेतत्तेन निक्षेपपरिग्रहस्ततो गमनादिपदानां समाहरो द्वन्द्वस्तस्मिन् / तथा भाषितेषु जल्पितेषु देहि भिक्षामस्मै साधवे इत्यादिरूपेषु श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयुक्तस्तथा वत्स इव तन्मनाः स्वयोग्यभक्तपानाय परिभावनमनाः सन् श्रमण एषणामनेषणां वा सम्यग्जानाति ततो न कश्चिद्दोषः / उक्तमोघौद्देशिकम्। संप्रति विभागौद्देशिकं विभणिषुः प्रथमतस्तावत्तस्य संभवमाह / / महईए संखडाए, उव्वरिय कूरवंजणाईयं / पउरं दठूण गिही, भणइ इमं देहपुन्नट्ठा / इह संखडि नाम विवाहादिक प्रकरणं संखण्ड्यन्ते व्यापा Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसिय 547 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसिय (साहणंति) कथनं करोति वाशब्दो यदि साधवो बहुप्रमाणास्तत एकस्यावस्थानमिति सूचनार्थं स सर्वेभ्यो निवेदयति यथात्रास्मिन् गृहेऽब्राजिषुरनेषणा वर्तत इति। एवमपियैः संघाटकैः कथमपि न ज्ञातं भवति तेषां परिज्ञानायायमाह। मा एयं देह इमं, पुढे सिट्ठम्मि तं परिहरंति। जं दिन्नं तं दिन्नं, संपइ देहि गिण्हंति।। साधुनिमित्तं कुतोऽपि स्थानाद् भिक्षामाददती कथाचिन्निषिध्यते मा एतद्देहि किंचिदविवक्षितभाजनस्थं देहि तत एव कृते निषेधिते साधुः पृच्छति किमेतन्निषिध्यते किं वा इदंदाप्यते इति ततः सा प्राह। इदमेव दानाय कल्पितम् नेदमिति तत एवं शिष्टे कथिते साधवस्तत्परिहरन्ति। यदि पुनर्यद्दतं तद्दत्तं मा शेष संप्रति दद्यादिति निषिध्यात्मार्थीकृतमौद्देशिकं भवति तदा तत्कल्पते इति कृत्वा गृह्णन्ति तदेवमुक्तमुद्दिष्टौद्देशिकम्। संप्रति कृतौद्देशिकस्यसंभवहेतून स्वरूपंच प्रतिपादयति। रसमायणहेउं वा, मा कुच्छीहिं इमा सुहं च दाहोमि। दहिमाई आयत्तं, करेइ कूडं कडं एयं // मा कोहिंति अवघ्नं, परिकट्टम्मियं व दिज्जइ सुहं तु / वियडेण फालिएण व, मिटेण समं तु वटुंति॥ रसेन दध्यादिना रुद्धमिदं भाजनं तस्मादेतेन दध्यादिना यदुद्व-रितं शाल्योदनादि तत् करम्बीकृत्य इदं भाजनं करोमि येनान्यत्प्रयोजनमनेन क्रियते इति। रसभाजनहेतोर्यद्वा इदंद्रव्यादिना अमिश्रितं क्वथिष्यते / न च क्वथितं पाषण्ड्यादिभ्यो दातुं शक्यते। यद्वा दध्यादि सन्मिश्रमेकेनैव प्रयासेन सुखंदीयत इत्यादिना कारणजातेन द्रव्याद्यायत्तं दध्यादिसन्मिभं करोति करम्बौदनम् / एतत् कृतं ज्ञातव्यम्। तथा यदि भिन्न भिन्नं मोदकाशोकवादिचूर्ण दास्यामि ततो मे पाषण्ड्यादयोऽवर्णमश्लाघां करिष्यन्ति यद्वा परिकट्टलितमेकत्र पिण्डीकृतं सुखेन दीयते / अन्यथा क्रमेण मोदकाशोकवादिचूर्णः स्वस्वस्थानादानीयानीय दाने भूयान गमनागमनप्रयासो भवति / अपान्तराले साचूर्हिस्ताक्षरित्वा पतति ततो विकटेन मद्येन देशविशेषापेक्षमेतद्यद्वा फाणितेन कक्कवादिना यद्वा स्निग्धेन घृतादिना मोदकचूर्णादिसमं वर्तयति पिण्डतया बन्धन्ति / अत्र द्वयोर्गाथयोः पूर्वार्धाभ्यां संभवहेतव उक्ता उत्तरार्धाभ्यां तु स्वरूपम्। संप्रति कौ देशिकस्य संभवहेतून स्वरूपं चातिदेशेनाह। एमेव य कम्मम्मि वि, उण्हवणे तत्थ नवरि नाणत्तं। तावियविलीणएणं, मोयगचुन्नी पुणकरणं // यथा कृतस्य संभवस्वरूपं चोक्तमेवं कर्मण्यति द्रष्टव्यं नवरंतत्र कर्माणि उष्णापने उष्णीकरणे नानात्वं विशेषस्तथा हितापितविलीनेन तापितेन विलीनेन च गुडादिना मोदकचूयाः पुनर्मोदकत्वेन करणं नान्यथा तथा तुवर्यादि भक्तमपि रात्र्युषितं द्वितीयदिने भूयः संस्कारापादनेन कर्मतया निष्पाद्यमानं नाग्निमन्तरेण निष्पाद्यते ततोऽवश्यं कर्मण्युष्णापने नानात्वम् / संप्रत्यत्रैव कल्प्यकल्प्यविधिमाह // असुगंति पुणो रद्धं, दाहमकप्पं तमारओ कप्प। खेत्ते अंतो बाहिं, कालेसु इत्थं परेचं वा / / भिक्षार्थ प्रविष्टं साधुप्रति यदिगृहस्थो भणति यथान्यस्मिन् गृहे विहृत्य व्यावर्त्तमानने त्वया भूयोऽपि मद्गृहे समागन्तव्यं यतोऽह-ममुकं मोदकचूर्णादि भूयोऽपि राद्धगुडपाकादिदानेन मोदकादि कृत्वा दास्यामि एवमुक्ते तथा कृत्वा चेददाति तर्हि तन्न कल्पते कर्मोद्देशिकत्वात् / आरात् भूयः पाकारम्भादक् िपुनः कल्प्यं दोषाभावात् / तथा क्षेत्रेऽन्तर्बहिर्वा काले स्वस्तनं परतरदिनभवं वा अकल्प्यमारतः कल्प्यम्। इयमत्र भावना। यद् गृहस्यान्तर्बहिर्वा मोदक चूर्णादिकं मोदकादितया उपस्करिष्यामि कालविवक्षायां यदद्य स्वः परतरे वा दिने भूयोऽपि पक्ष्यामि तत्तुभ्यं दास्यामीत्युक्ते तथैव चेत् कृत्वा ददाति ततो न कल्पते भूयोऽपि पाकादारतस्त्वसंसक्तं कल्पते // तथा चाह॥ जं जह व कयं दाहं, तं कप्पइ आरओ तहा अकयं / कय पाकमणिहत्त-ट्ठियं पि जावत्ति यं मोत्तुं / यत्सामान्यतो द्रव्यं यद्वा यथा क्षेत्रनिर्धारणेन वा भूयोऽपि कृतं दास्यामीत्युक्ते तथैव कृतं चेद्ददाति तदान कल्पते तथा अकृतं तुभूयोऽपि पाकादारतः कल्पते / यत्तु निर्धारितक्षेत्रकालव्यतिकरण पच्यते तन्न दातु संकल्पितमिति कल्पते यत्तु क्षेत्रे कालनिर्धारणविवक्षिते च सामान्यतो भूयोऽपिपक्त्वा दास्यामीति संकल्पितं तदन्तर्बहिर्वा स्वस्तने परतरदिने वा न कल्पते। अथ कौशिकं कृतपाकमात्मार्थीकृतमपि यावदर्थिकं मुक्त्वा शेषमनिष्टं नानुज्ञातं तीर्थकरगणधरैर्यावदर्थिक त्वात्मार्थीकृतं कल्पते / अथ आधाकर्मकौदेशिकयोः परस्परं प्रतिविशेष उच्यते। यत्प्रथमत एव साध्वर्थं निष्पादितं तदाधाकर्म यत् पुनाराद्धं सद्भूयोऽपि पाक-करणेन संस्क्रियते तत्कौद्देशिकमिति। उक्तमौदेशिकद्वारम्।। पिं०। दर्श०। नि०चू०। प्रव०पंचा०ा ग०। जीताव्य असणं पाणगं वा वि,खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं / / 47 / / अशनं पानकं वापि खाधं स्वाद्यम् अशनमोदनादि पानकं वारनालादि खाद्यं लड्डुकादिस्वाद्यं हरीतक्यादियजानीयादामन्त्रणादिना शृणुयाद्वा अन्यतः यथा दानार्थं प्रकृतमिदं दानार्थं प्रकृतं नाम साधुवादनिमित्तं यो ददात्यव्यापारपाषण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिकप्रभृतिरिति सूत्रार्थः। तारिस भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 48|| तादृशं भक्तपानंदानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकं यत-श्चैवमतः ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः। असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, पुन्नट्ठा पगडं इमं ||4|| तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 50 // असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं // 51 // तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 52 // असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं // 53|| तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं 1 // 54 // उद्देसियं कीयगडं, पूइकम्मं च आहडं। Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसिय 948- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसिय द्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति संखडिरिति व्युत्पत्तेस्तस्यां संखड्यां यदुद्वरितं कूरव्यञ्जनादिकं शाल्योदनदध्यादिकं प्रचुरं तद्दृष्ट्वा गृही भणति स्वकुटुम्बतृप्तिकारकमेतत् यथा इदं देहि पुण्यार्थ भिक्षाचरेभ्यः / तत्र यदा तथैव ददाति तदा तदुद्दिष्ट यदा तु तद्देयं करम्बादिकं करोति तदा तत्कृतं यदा तु मादेकादिचूर्णिप्रायोऽपि गुडपाकदानादिना मोदकादि करोति तदा तत्कर्म / एवं विभागौद्देशिकस्य संभवस्तथा चाह। भाष्यकृत "तसियम्मेवं संभवइ पुव्वमुद्दिट्ट संभवति"। संप्रति तदेव विभागौद्देशिकं विना तत्रोदरिते प्रच्छुरे करम्बदावेवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण विभागौद्देशिकं पूर्वमुद्दिष्टं संभवति / संप्रति तदेव विभागौद्देशिकं विभागतो भेदेन शिष्यगणहितार्थ ग्रन्थकारो भणति। उद्देसियं समुद्दे-सियं च आएसियं समाएसं। एवं कडे य कम्मे, एक्कक्के चउट्विहो भेओ।। विभागौद्देशिकं चतुर्दा / तद्यथा औद्देशिकं समुद्देशिकमादेशं समादेशं च / एवं कृते च कर्मणि एकैकस्मिन् चतुष्कश्चतुः संख्यो भेदो दृष्टः सर्वसंख्यया द्वादशधा विभागौद्देशिकम् / संप्रत्यौद्देशिकादिकं व्याचिख्यासुराहजावंतिय मुद्देस, पासंडीणं भवे समुद्देसं। समणाणं आएसं, निग्गंथाणं समाएसं // 250 / / इह यदुद्दिष्ट कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः समागमिप्य–न्ति पाषण्डिनो गृहस्था वा तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि दातव्यमिति संकल्पितं भवति तदा तदौद्देशिकमुच्यते / / पाषण्डिनां देयत्वेन कल्पितं समुद्देशं श्रमणानामादेशनिर्ग्रन्थानां समादेशम्। संप्रत्यमीषामेव द्वादशानां भेदानामवान्तरभेदानाह। छिन्नमछिन्नं दुविहं, दवे खेत्ते य कालभावे य॥ निप्पाइयनिप्पन्न, नायव्वं जं जहिं कमइ।। उद्दिष्टमौद्देशादिकं प्रत्येकं द्विधा तद्यथा छिन्नमच्छिन्नं च / छिन्नं नियमितमच्छिन्नमनियमितम् पुनरपि छिन्नमच्छिन्नंचचतु तद्यथा द्रव्ये क्षेत्रे काले भावेच। एवं यथा उद्दिष्टमौदेशिकं प्रत्येकमष्टधातथा निष्पादितं निष्पन्नमिति निष्पादितेन गृहिणा स्वार्थ कृतेन निष्पन्नं यत्करम्बादि मोदकादि वा तन्निष्पादितं निष्पन्नमित्युच्यते।ततो यन्निष्पादितं निष्पन्नं यत्र कृते कर्मणि वा क्रामति घटते यथा यदि करम्बादि तर्हि कृते, अथ मोदकादि तर्हि कर्मणि / तत्प्रत्येकमौद्देशिकादिभेदभिन्नं छिन्नमच्छिन्नं वेत्यादिनर प्रकारेणाष्टधा ज्ञातव्यम्। संप्रत्यमुमेव गाथार्थं व्याचिख्यासुः प्रथमतो द्रव्याद्यच्छिन्नं व्याख्याति॥ भत्तुवरितं खलु संखडिए, तद्विवसमन्नदिवसे वा। अंतो बहिं च सव्वं, सव्वदिणं देइ अच्छिन्नं / / यत्संड्या भक्तमुद्वरितं तदिह प्रायः संखड्या भक्तमुरितं प्राप्यते इति संखडिग्रहणमन्यथात्वन्यत्रापि यथासंभवं द्रष्टव्यम्। (तदिव-समिति) व्यत्ययोऽप्यासामिति प्राकृतलक्षणवशात्सप्तम्यर्थे प्रथमा ततोऽयमर्थः यस्मिन् दिवसे संखडिस्तस्मिन्नेव दिवसे यद्वाऽन्यस्मिन् दिवसे गृहनायको भार्यया दापयति यथा यदन्तर्गृहस्य यच बहिरनेन क्षेत्राच्छिन्नमुक्तं तत्सर्व समस्तमनेन द्रव्याच्छिन्नमुक्तं सर्वदिनं सकलमपि दिनं यावदुपलक्षणमेतत्तेन कर्मरूपं मोदकादि प्रभूतान्यपि दिनानि यावदिति दृष्टव्यम्। अनेन कालाच्छिन्नमुक्तं अच्छिन्नमनवरतं तद्देहि / भावाच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूह्यं तचैवं यदि तव रोचते यदि वा न रोचते तथाऽप्यवश्य दातव्यमिति // संप्रति द्रव्यांदिच्छिन्नमाह। देह इमं मा सेसं, अंतो बाहिं गयं व एगयरं। जाव अमुगत्ति वेला, अमुर्ग वेलं व आरब्भ / / इदं शाल्योदनादिकमुद्वरितं देहि मा शेष कोद्रवकूरादि अनेन द्रव्यच्छिन्नमुक्तं तदपि च शाल्योदनादिकमन्तर्व्यवस्थितं वा एकतरं न शेषम् / अनेन क्षेत्रच्छिन्नमुक्तम् / तथा अमुकस्या वेलाया आरभ्य यावदमुका वेला यथा प्रहारादारभ्य यावत्प्रहरद्वयं तावद्देहि / अनेन कालच्छिन्नमुक्तम् / भावच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूह्यम् / तच्चैवं यावत्ते रोचते तावद्देहि मा स्वरुचिमतिक्रम्यापि / संप्रत्युद्दिष्ट मधि-कृत्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह। दव्वाइच्छिन्नं पि हु, जइ भणइ कोवि मा देह। नो कप्पइ छिन्नं पिहु, अच्छिन्नकडं परिहरंति / / इह यद्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथग्निर्धारितं तदतिरिच्य शेषं समस्तमपि कल्पते / तस्य दानार्थ संकल्प्य स्थापितत्वाभावात् / केवलं द्रव्यादिच्छिन्नमपि दृष्ट्वा द्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथनिर्धारितमपि हुनिश्चितं यदि गृहस्वामी आरत एव देयस्य वस्तुनो नियतादवधेरगिपि भणति। यथा मा इत ऊर्द्ध कस्मायपि देहीति / यथा प्रहरद्वयं यावत् पूर्व किञ्चिदातुं निरोपितं ततो दानपरिणामाभावादगेव निषेधति / मा इत ऊर्द्ध दद्यादिति तच्छिन्नमपि कल्पते / तस्य संप्रत्यात्मसत्तापि कृतत्वाद्यत्पुनरच्छिन्नकृतमच्छिन्नमनिर्धारितं कृतं वर्तते तत्परिहरन्ति अकल्प्यत्वादित्थमेव भगवदाज्ञाविज़म्भणात् / यदा त्वच्छिन्नमपि पश्चाद्दानपरिणामाभावादगिव आत्मार्थीकृतं भवति तदा तत्कल्पते / / संप्रति संप्रदानविभागमधिकृत्य कल्प्यविधिमाह / / अमुगाणं ति वि दिजउ, अमुकाणं न एत्थ उ विभासा। जत्थ नईणविसिट्ठो, निद्देसो तं परिहरंति॥ अमुकेभ्यो दद्यान्मा अमुकेभ्य इत्येवं संप्रदानविषये संकल्पे कृते विभाषा द्रष्टव्या कदाचित् कल्पते कदाचिन्न / तत्र यदा कल्पते तदादेयं तदाह (जत्थेत्यादि) यत्र देयवस्तुनि यतीनामप्यविशेषेण निर्देशो भवति यथा ये केचन गृहस्था अगृहस्था वा भिक्षाचरा यदि वा ये केचित्पाषण्डिनो यद्वा ये केचनं, श्रमणास्तेभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्ति / यत्र तु यतीनामेव विशेषेण निर्देशो यथा यतिभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्त्येव नात्र कश्चित्संदेह इति तत्र पृथग्विशेषेण नोक्तम् / यदि पुनर्गृहस्येभ्य एव दीयतां यदि वा चरकादिभ्य एव पाषण्डिभ्यो न शेषेभ्यस्तदा कल्पते। अपिच // संदिस्सते जो सुणइ, कप्पए तस्स सेसए ठवणा। संकलियसाहणं वा, करेति असुएइमा थेरा।। यन्नाद्याप्यौद्देशिकं जातं वर्तते के वलं तदानीमेवोद्दिश्यमानं वर्तते यथा इदं देहि मा शेषमित्यादिश्यमानमर्थिभ्यो दानाय वचनेन संकल्पमानं यः साधुः शृणोति तस्य तत्कल्पते तदैव दोषाभावात्तदपि च उद्दिष्टौद्देशिकादि द्रष्टव्यं न कृतं कर्म च / 'यत उक्तं मूलटीकायाम् अत्र चायं विधिः "संदिस्संतं जो सुणइ, साहुद्देसुद्देसयं / पडुच न य कडं, कमाइ तं कप्पए'' तदैव दोषाभावादिति यस्तु संदिश्यमानं न शृणोति तस्य न कल्पते कुत इत्याह (ठवणत्ति) स्थापनादोषात्। स च निर्गतः सन्नन्येभ्यः साधुभ्यो निवेदयति / तथा चाह (संकलितयेत्यादि) अश्रुते शेषसाधुभिरनाकर्णित इयं पूर्वपुरुषाची मर्यादा यदुत संकलिया एक संघाट कोऽन्यस्मै कथयति सोऽप्यन्यस्मै इत्येवं रूपया Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदेसिय ८४६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्देसियचरिमतिग अज्झोयरपामिचं, मीसजायं विवञ्जए॥५५॥ आयरियं अभिसेए, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ। एवं पुण्यार्थ प्रकृतं नाम साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति तिक्खुत्तडविपवेसे, चउपरियट्टे ततो गहणं / / एवं वनीपकार्थं वनीपकाः कृपणाः एवं श्रमणार्थमिति श्रमणा निर्ग्रन्थाः आचार्ये अभिषेके भिक्षौ वा ग्लाने संजाते सति आधाकर्मणो भजना शाक्यादयः अस्य प्रतिषेधः पूर्ववत् / अत्राह पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे सेवनाऽपि क्रियते / तथा अटवीविप्रकृष्टोऽध्वा तस्यां प्रवेशे कृते यदि शिष्टकुलेषु वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः। शुद्धंन लभ्यते ततस्त्रिः कृत्वा शुद्धमन्वेषितमपि यदि नलब्धं ततश्चतुर्थे तथाहि न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव क्षुद्रसत्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति परिवर्ते आधाकर्मणो ग्रहणं कार्यं गतमौद्देशिकद्वारम्। वृ०६ उ०॥ नैतदेवमभिप्रायापरिज्ञानात् स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव सालीघतगुलगोरसण-वेसु वल्लीफलेसु जातेसु / पुण्यार्थकृतस्य निषेधात् / स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्व दाणट्टकरणसट्टा, आहाकम्मेण मंतणता / / रयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति एतेनादेय आहाआहेयकम्मे, आयाहम्मेय अत्तकम्मे य। दानाभावः इत्युक्तं देयस्यैव यदृच्छादानोपपत्तेः कदाचिदपि वादेन तं पुण आहाकम्मे, णायव्वं कप्पती कस्स / / यदृच्छादनोपपत्तेः तथा व्यवहारदर्शनात् अनीदृशस्यैव प्रतिषेधात्। तदा संघस्स पुरिमपच्छिम-समणाणं तह य चेव समणीणं। रम्भदोषेण योगात् यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्ते सौ तदर्थ इत्या-रम्भदोषायोगात्। दृश्यते च कदाचित्सृतकादाविव सर्वेभ्य एव चउरो उवगमगाणं, पच्छा सहायगा समणं / / प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति विहितानुष्ठानत्वाच संघस्स मज्झिमे पच्छिमे य समणाण तह य समणीणं / तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गे ना क्षरगमनिकामात्र चतुरो पडिस्स ताणं, पुच्छा सण्हायगा गमणं // फलत्वात्प्रयासस्य॥दश०५ अ०1"आहट्टदेसियंतं चेतियं सियातणो उज्ज य जड्डा सवे, पुरिमा चरिमा य वक्कजड्डा तु। सयं भुंजई" सूत्र०२ श्रु०१अ०॥ तम्हा तेसिं संर-क्खणट्ठ सवं परिकुट्ठ। अत्र प्रायश्चित्तम्। अवगतजड्डा मज्झिम--साहु तह चेव ते परिणमंति / / "उद्देसिय जावंतिय उद्देसिए मासलहु दोहिं विलहुं पासंडसमुद्देसिए कप्पाकप्पं दंसिय, तेसिं वज्ज परिकुटुं। मासलहुं कालगुरु समणाए सए मासलहुयं तवगुरु निगंथसमाएसिए परिसाण दुविसोब्भो, चरिमो पुण दुरणुपालओ कप्पो। मासलहुं दोहिम्मि गुरू जावन्ति कडे मासलहुं दोहिं वि लहुं पासंडकडे मज्झो विसुद्धचरणो, एवं कप्पो गुगंतव्वो॥ मासगुरुंकालगुरुंसमणकडे मासगुरुंतवगुरु निगथसमादेसकडे मासगुरुं आयरिए अभिसेगे, भिक्खम्मि गिलाणगम्मि भयणा तु। होहिं वि गुरुं जावंति कम्मे चउलहु दोहिं लहु यासंडसमुद्देसकम्मे चउगुरु तिक्खुत्तो अडविपवे-सणम्मिचउपरियदतओ गहणं / / समणादेसकम्मे चउगुरु तवगुरु निग्गंथसमाएसकम्मे चउगुरू दोहिंगुरू४ असिवे ओमोदरिए, रायदुढे विवाददुढे वा। पं०चू० / उद्देशिके चरमत्रिके कर्मादेशकर्मसमादेशलक्षणे कर्मणि क्षपणं प्रायश्चित्तम् / जीत०। कर्मोद्देशिके विभागौद्देशिके आचामाम्लम् / अद्धाणे गेलण्हे, आहाकम्मं तु जयणाय। उद्देशिकमाधाकर्मिकमित्यर्थः / साधुनिमित्तं कृतमशनपानखादिम जदिसवे गतित्था, ताहे आलोयणा गहे भणिता।। वस्त्रपात्रवसतिप्रमुखम्।तच प्रथमचरमजिनतीर्थे एकंसाधुमेकं साधुस-- अह होति मीसगजणो, पायच्छित्तं तवोकम्मं / मुदायमेकमुपाश्रयं वा आश्रित्य कृतं तत्सर्वेषां साध्वादीनां न कल्पते चउरो चउत्थभत्ते, आयामेगासणे य पुरिमड्डे / / द्वाविंशतिलिनतीर्थे तु यं साध्वादिकमाश्रित्य कृतं तत्तस्यैव णिव्वितितं दातवं, सतं व पुष्वोम्गहं कुजा। अकल्प्यमन्येषां तु कल्पते इति द्वितीयः। कल्प०। संपस्सेह विभागे, समणा समणीय कुलगणस्सेव।। आहा आधयकम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य / कडमिह ठितेण कप्पति, अहितकप्पे जमुहिस्स। तं पुण आहाकम्मं, कप्प विण व कप्पती तस्स / / आयरिए अभिसेगो, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा तु / / आधाकर्म अधःकर्म आत्मनमात्मकर्मचैत्योद्देशिकस्य साधून-द्दिश्य अडविपवेसे असीते, तिय परियट्टे तवोगहणं / पं०भा०। कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि। यत्पुनराधाकर्म तत्कस्य कल्पते कस्य इयाणिं उद्देसियं अहाअहे य कम्मो तं पुण उद्देसियं पुरिमपच्छि-- वान कल्पते एवं शिष्येण पृष्ट सूरिराह॥ याणसंघस्स ओघेण य समणाणं वा समणीणं वा कुलगणस्स वा जइ संघस्सोहविभाए, समणासमणीण कुलगणे संघे। ओहेण व करेंति ठियकप्पे वि अट्ठियकप्पे वि न कप्पइ / जया पुण कडमिहट्ठिय ण कप्पति, अहिअकप्पे जमुहिस्स। रिसभसामिसंतयाणं अजाणं अज्जियाणं वा उद्दिस्स करेइ तं अस्य व्याख्या सविस्तरं तृतीयोद्देशके कृता। (यस अकप्पट्ठिय-शब्दे रिसभसामिसंतयाणं दोण्हवि न कप्पइ अजियसामिसंतणया गेण्हति उक्ता अतोऽत्राक्षरार्थमात्रमुच्यते) ओघतो वा विभागतो वा सङ्घस्य अजियसामिसंतयाणं अक्षयाणं कयं अज्जियाणं कप्पइ अज्जियाणं वा कयं श्रमणानां श्रमणीनां कुलस्य गणस्य वा संघस्य वासंकल्पेन यत् अज्जयाणं कप्पइ पडिस्सए विजइएकम्मिगामे गणेतु करेइएणं दो वाज भक्तपानादिकं कृतं तत्स्थितकल्पितानां प्रथमपश्चिमसाधूनां न कल्पते तत्थ ण गणेइ पडिस्सयंतेसिं कप्पइगणिएसु विपडिस्सएसुजे पाहुणया ये पुनरस्थितकल्पे स्थितास्तेषां यदुद्दिश्य कृत तस्यैवैकस्य न कल्पते पच्छासन्नातके जहा कप्पेसुपं० चू०। अन्येषांतु कल्पते द्वितीयपदेतुस्थितकल्पिकानामपि कल्पतेयत आह // | उद्देसियचरिमतिगन० (औद्देशिकचरमत्रिक) कम्मौद्देशिकस्य Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसियचरिमतिग 850 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्धारपलिओवम पाषण्डश्रमणनिर्ग्रन्थविषये भेदत्रये, "कम्मुदेसियचरमतिगं पूर्य | उद्धत्थ (देशी) विप्रलब्धे, देवना०। मीसचरिमपाहुडिया' दश० 5 अ०॥ उद्धपूरित त्रि०(ऊर्ध्वपूरित) श्वासपूरितोड़काये, ऊर्द्धस्थितेधूल्या उद्देहगण पुं०(उद्देहगण) वीरस्य गणानां तृतीयगणे, स्था०६ ठा०। पूरिते, शरीरदण्डदण्डिते, // प्रश्न०३ द्वा०। "थेरेहिंतो णं अज्जरोहणेहिंतो कासवगुत्तेहिंतो तत्थ णं उद्देहगणे नामं उद्धमंत त्रि०(उद्धमायमान) कृतोध्मानेषु शंखादिषु, "उद्धमंताणं गणे निग्गए तस्सिमाओ चत्तारि साहाओ निग्गयाओ छच्च कुला | संखाणं सिंगाणं संखियाणं खरमुहीणं पिरिपिरियाणं" रा०।। एवमाहिज्जंति / तंजहा से किं तं साहाओ एवमाहिज्जंति तं जहा। उद्धमाण न०(उद्ध्मान) शङ्खशृङ्गशटिकाखरमुखीपेयापिरिपिरि-काणां उदंबरिजिया 1 मासपूरिया 2 मइपत्तिया 3 पन्नपत्तिया 4 सेत्तं साहाओ वादने, रा०। से किंतंकुलाइं२ एवमाहिज्जंतितं जहा "पढमंच नागभूअं१ वाअंपुण उद्धय त्रि०(उद्धय) उद्धृत्यर पानकर्तरि, / वाच० उद्धरे, ज्ञा०१ अ०। सोमभूइ होइ। 2 / अहउल्लं गच्छतइयं, चतुत्थयंहत्थलिज्जं तु // पंचमगं नंदिलं, छटुंपुण पारिहासयं होइ उद्देहगणस्सेए, छय कुला हुंति उद्धया स्त्री०(उद्धता) दतिशयेन गतौ, "तुरियाए चवलाए चंडाए सीहाए नायव्वा" || कल्प०। उद्धयाए छेयाए दिव्वाए गईए" भ०११ श०१० उ०। सदर्याया देवगतौ उद्देहलिया स्त्री०(उद्देहलिका) कुहणभेदे, आचा०१ अ०५ उ०। च। भ०५ श० 4 उ०। उद्देहिगा स्त्री०(उद्देहिका) उद्गतो दोहोऽस्य क० 5 अत इत्वम् उद्धरण न०(उद्धरण) उद्- हृ० भावे-ल्युट्-मुक्ती, वमने, ऋणशुद्धौ, उन्मूलने, उत्तारणे, उत्थापने, उद्धृत्य हरणे परिवेषणे, बहिर्निष्काशने, त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद / जी०। "काष्ठनिश्रिता पुणोद्देहिका" उत्पादने, वाच०। विकर्तने, सूत्र०१श्रु०४ अ० अपनयने च,। सूत्र०१ आचा०१ अ० 4 उ०। तेइंदियाण उद्देहिकाइ जं वा वए वेज्जो उद्देहिकया श्रु० अ०। उच्छिष्टे, दे०ना०। सक्तया मृत्तिकया, / ओ०। "तओउद्देहिगंतओ विवणप्फई" महा०॥ उद्देही (देशी) उपदेहिकायाम् / दे० ना० / उद्धरिउ अव्य०(उद्धृत्य) आकृष्येत्यर्थे , "उद्धरिउ अवउज्झइ सल्लेण मल्लिज्जइ णेउ'' पंचा०१६ विव०। उद्धंसण न०(उद्धर्षण) उद्-धृष ल्युट्बधे, ओ०।दुष्कुलीनेत्या-दिभिः उद्धरित्ता अव्य०(उद्धृत्य) उत्पाट्येत्यर्थे "तंलयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता कुलाद्यभिमानपातनार्थे वचने, स्त्री 0 / ज्ञा० 16 अ०। "उत्तावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेई / भ० 15 श०१ उ० / उन्मूलनायामाक्रोशे, समूला य" उत्त० 23 अ०।। ओ०॥ उद्धरित्तु अव्य०(उद्धृत्य) निष्कृष्येत्यर्थे , "अणाउत्तो उद्धरित्तु गालिंति सोणियचउत्थे" पंचा० 16 विव०॥ उद्धंसिय त्रि०(उद्धर्षित) खरण्टिते, "उद्धंसियायतेणंसुटु विजाणाविया य अप्पाणं''। वृ०३ उ०। आ०म०। अवभाषिते, उद्धंसियमो लोगंसि उद्धरिय त्रि०(उद्धृत) उद्-धृक्त। उत्पाटिते, 'फलेइ विसभक्खीणं भागहारी व होहितीमोण, नि०चू०४ उ०॥ साओ उद्धरिया कह' / उत्त०२३ अ० पृथगवस्था-पिते "उद्धरियं उद्धघणभवण न०(ऊर्ध्वधनभवन) उच्चाविरलगेहेषु, ||भOII रुदसुयसमुद्दाउ" पं०व० "जेणुद्धरिया विजा, आगासगमा श० महापरिण्णाउ" आ०म०वि०। 33 उ०॥ उद्धरियसवसल्ल त्रि०(उद्धृतसर्वशल्य) कृतालोचने, पंचा० उद्धचलणबंधण न०(ऊर्ध्वचरणबन्धन) ऊर्द्धचरणस्य बन्धनरूपे 16 विव०। शरीरदण्डे, प्रश्न० अध०३ द्वा०। उद्धविय (देशी) आर्घिते, देना। उद्धच्छरिअ (देशी) निषिद्धे, देना। उद्धट्ठाण न०(ऊर्ध्वस्थान) कायोत्सर्गेऽवस्थाने,ध०४ अधि०) उद्घाउ (देशी) विषमोन्नतप्रदेशश्रांते, संघाते च। देवना०। उद्धायमाणग त्रि०(उद्धावत्) उत्तिष्ठति, "बहुचंदुदुट्ठसावयसभाहउद्धट्ट अव्य०(उद्धृत्य) ऊर्धीकृत्येत्यर्थे , “पलिभिंदियाणं तो पच्छा पादुटुमुद्धिपहाणंति'' निजं वामचरणमुद्धृत्योतिक्षप्य मूनि शिरसि यउद्धायमाणागरपूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं' प्रश्न० अध०२द्वा०। प्रध्नन्ति ''वाहू उडु कक्खमणुव्बजे" वाहुमुद्धृत्य कक्षा-मादानुकूलं उद्धार पुं०(उद्धार) उद्धियते उद्-हु-भावे-घन मुक्ती, ऋणशुद्धौ, साध्वभिमुखं व्रजन्ति / सूत्र०१ श्रु०४ अ०। "उद्बठ्ठपादं रीएजा' पादं उद्धारणे, वाच० / अयोद्धरणे, अपहरणे, अनु० / अपवादे,। व्य०८ उ०। संहृत्यागेतलेनपादं पातप्रदेश वा तत्रातिक्रम्य गच्छेत् आचा०२ श्रु०। कर्मणि-घञ्। सर्वधनादुद्धत्य ज्येष्ठादिभ्यो देये अंशभेदे वाचा अवकृष्येत्यर्थे चा व्य० प्र०२ उ०।। उद्धारणा स्त्री०(उद्धारणा) "पावल्लेणउवेच्च चउट्ठयपयधारणाउद्धारो' उद्धडा स्त्री०(उद्धता) तृतीयपिण्डेषणायाम्, सा च स्वव्यापारेण उत्प्रावल्येन उपेत्य वा उद्धृतानामर्थप्रदाना धारणा उद्धारणा / मूलभाजनाद् भाजनान्तरे भक्तमुद्धृतं स्थाल्यादौ स्वयोगेन धारणाव्यवहारे, व्य० 10 उ०। भोजनजातमुद्धृतं तच्च साधोण्हतः उद्धृता भिक्षा भवति / धर्म०३ उद्धारपलिओवमन०(उद्धारपल्योपम) वक्ष्यमाणस्वरूपवाला-ग्राणां अधि० / स्था०। नि० चू०। (तांच सूत्रतः पिंडेसणा शब्दे वक्ष्यामि) तत्खण्डानां वा तद्द्वारेण द्वीपसमुद्राणी वा प्रतिसमयमुद्धा-रण उद्धत(य)त्रि०(उद्धत) उद् हन्-क्त० / वाक्यादिचञ्चले, अविनीते, मपोद्धरणमपहरणमुद्धारस्तद्विषयं तत्प्रधानं वा पल्योपममुद्धाप्रगल्भे, उद्गते, वाच० / उत्पाटिते च। ज्ञा०१०। रपल्योपमम् / पल्योपमभेदे, / / उद्धततमंधकार पुं०,न०(उद्धततमोऽन्धकार) अतिशयप्रबले तमिशे, तत्स्वरूपं यथाप्रश्न० अध०३द्वा०॥ से किं तं उद्धारपलिओवमे 2 दुविहे पण्णत्ते तं जहा सु Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धारपलिओवम 851 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उद्धारपलिओवम हुमे अ ववहारिए / तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे तत्थ णं जे | धिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीत्यर्थः / स पल्यः (एगाहिय से ववहारिए से जहानामए पल्लेसिआजोयणं आयामविक्खंभेण वेयाहियत्ते आहियत्ति) षष्ठीवचनलोपादेकाहिकद्व्याहिकत्र्याहिजोअणं उद्धं उच्चत्तेणं तं तिगुणं सविसेसंपरिक्खेवेणं सेणं पल्ले कमुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां भृतो वालानकोटीनामिति संबन्धः / तत्र एगाहिअ वेआहिअ तेआहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संसट्टे मुण्डिते शिरस्येकेनासा यावत्प्रमाणा वालग्रकोटय उत्तिष्ठन्ति ता संनिचिते भरिते वालाग्गकोडीणं तेणं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा एकाहिक्यः द्वाभ्यांतुया उत्तिष्ठन्तिता द्वाहिक्यः / कथमत इत्याह संसृष्टम् नो वाऊ हरेजा नो कुहेजा नो विद्धंसिञ्जा णो इपुत्ताए हव्वमा- आकर्णपूरितः संनिचितप्रचयविशेषान्निविडीकृतः किंबहुना एवंभूतोऽसौ गच्छेज्जा तओ णं समए 2 एगमेगं वालम्ग अवहाय जावइएणं भृतो येन तानि वालाग्राणि नानिर्दहेन्न वायुरपहरेदतीव निचितत्वादकालेणं से पल्लेक्खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवइसेत्तं ववहा- ग्निपवनावपि न तत्र क्रामत इत्यर्थः (णो कुत्थेजत्तिग) नो कुथ्येथुः रिए / उद्धारपलिओवमे एएसिं पल्लवाणं कोडाकोडी हवेज प्रचयविशेषादेव सुषिराभावात् वायोर-संभवाच नासारतां गच्छेयुः अत दसगुणिया तं ववहारिअस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे एव च (नो परिविद्धं सेजत्ति) कतिपयपरिसादनमप्यङ्गीकृत्य न परिमाणं 2 एएहिं ववहारिअ उद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं किं परिविध्वंसेयरित्यर्थः अतएव च (नो पूइत्ताएहव्वमागच्छेजति)नपूतित्वेन पओअणं एएहिं ववहारिअपलिओ वमसागरोवमे हिं णत्थि कदाचिदप्यागच्छेयुर्न कदाचिदुर्गन्धितां प्राप्तेयुरित्यर्थः (तओणंति) तेभ्यो किंचिप्पओअणं केवलं पण्णवणा पण्णविजइ सेत्तं ववहारिए बालाग्रेभ्यः समये समये एकैक बालाग्रमपहृत्य कालो मीयते इति विशेषः / उद्धारपलिओवमे / से किं तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे 2 से ततश्च (जावई एणमित्यादि) यावता कालेन स पल्यः क्षीणो बालाजहाणामए पल्ले सिआ जोअणं आयामविक्खंभेण जोअणं ग्रकर्षणात् क्षयमुपागतः अपकृष्टधान्यकोष्ठागारवत्तया (नीरयेत्ति) निर्गतो उबेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहिअ रजः सूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत्तथा (निल्लेवि त्ति) वेआहिअ तेआहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संसट्टे संनिचिते अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतां गतवालाग्रलेपापहारान्निर्लेपः अपनीतमित्यादि भरिते बालग्गकोडीणं तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिज्जाइ गतधान्यलेपकोष्ठागारवदेभिस्त्रिभिः प्रकारैर्निष्ठितो विशुद्ध इत्यर्थः / खंडाइ कन्जइतेवालग्गदिट्ठीणं ओगाहणाउ असंखेजइ भागमेत्ता एकार्थिका वा एते शब्दाः अत्यन्तविशुद्धिप्रतिपादनपराः / सुहुमस्स पण्णगजीवस्स सरीरोगाहणाउ असंखेन्ज-गुणा तेणं वाचनान्तरदृश्यमानम् अन्यदपि पदमुक्तानुसारेण व्याख्येयम् वालग्गा णो अग्गी डहेजा नो वाऊ हरेजा णो कुहेजा णो एतावत्कालस्वरूपं बादरमुद्धारपल्योपमं भवति एतच पल्यान्तर्गतविद्धसिजा नो पुइत्ताए हटवमागच्छेज्जा तओ णं समए 2 एगमेगं बालाग्राणां संख्येयत्वात्संख्येयैः समयैस्तद पहारसंभवात्संख्येयवालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्लेखीणे नीरए निल्लेवे समयमानं द्रष्टव्यम् / सेत्तमित्यादि निगमनं व्यावहारिकं पल्योमपं निरूप्याथ सागरोपममाह / (एएसिं पल्लाणगाहा) एतेषामनन्तरोक्तणिट्ठिए भवइ से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे एएसिं पल्लवाणं पल्योपमानां दशभिःकोटाकोटि-भिरेकं सागरोपमं भवतीति तात्पर्यम् / कोडाकोडी हवेज दसगुणिआ तं सुहुमस्स उद्धार शिष्यः पृच्छति एतैया॑वाहारिकपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनं कोऽर्थः सागरोवमस्स एगस्सभवे परिमाणं एएहिं सुहमउद्धारसागरो साध्यते तत्रोत्तरं नास्ति किंचित्प्रयोजनं निरर्थकस्तर्हि तदुपन्यास वमेहिं किं पओअणं एएहिं सुहुमउद्धारपलिओपमसागरोवमेहिं इत्याशङ्कयाह केवलं प्रज्ञापना प्रज्ञाप्यते प्ररूपणामात्रं क्रियत इत्यर्थः / दीवसमुदाणं उद्घाराणंघेप्पइकेवईआणं भंते दीवसमुद्दा उद्धारेणं ननु निरर्थकस्य प्ररूपणयाऽपि किं कर्तव्यमतो यत्किचिदुन्मत्तवाक्यपण्णत्ता गोयमा ! जावइआणं अङ्गाइजाणं उद्धारसा० वदेवमभिप्रायापरिज्ञाना देवं हि मन्यते वादरे प्ररूपिते सूक्ष्मं सुखावसेयं उद्घारसमयाए वइआणंदीवसमुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता सेत्तं सुहुमे स्यादतो बादरप्ररूपणा सूक्ष्मोपयोगित्वान्नैकान्ततो नैरर्थक्यमनुभवति / उद्धारपलिओदमे सेत्तं उद्धारपलिओवमे।। तर्हि नास्ति किंचित्प्रयोजनमित्युक्तमसत्यं प्राप्नोतीति चेन्नैवमेतावत्प्र(सेकिंतं उद्धारपलिओवमे इत्यादि) उद्धारपल्योपमं द्विविधं प्रज्ञप्त योजनस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादेव वादराद्धापल्योपमा द्वावपि वाच्यम्। तद्यथा वालाग्राणां सूक्ष्मखण्डकरणात् सूक्ष्मं च तेषामेव (सेकिंतं सुहमे इत्यादि) गतार्थमेव "जाव तत्थ णं एगमेगे वालागगे सांव्यवहारिकप्रत्यक्षव्यवहारिभिर्गह्यमाणानामखण्डानां यथाव असंखेन्जाइमित्यादि' पूर्व वालाग्राणि सह जात्यैव गृहीतान्यस्थितानां ग्रहणात्प्ररूपणामात्रव्यवहारोपयोगित्वाद्व्यावहारिकं चेति / त्रत्वेकैकमसंख्येयखण्डी कृतं गृह्यत इति भावः। एवं सत्येकैकखण्डस्य तत्र यत्सूक्ष्म तत्स्थाप्यम् / तिष्ठतु / तावद्व्यावहारिकप्ररू यन्मानं भवति तन्निरूपयितुमाह (तेणं वालग्गदिट्ठीओग्गहणाओ इत्यादि) पणापूर्वकत्वादेतत्प्ररूपणा पश्चात्प्ररूपयिष्यते इति भावस्तत्र यत्त तानि खण्डीकृतवालाग्राणि प्रत्येकं दृष्ट्यवगाहनात् किमसंख्येयभागव्यावहारिकमुद्धारपल्योपमं तदिदमिति शेषस्तदैव विवक्षुराह (से मात्राणि दृष्टिश्चक्षुरोत्पन्नदर्शनरूपासावगाहते परिच्छेदद्वारेण प्रवर्तते जहानामए इत्यादि) तद्यथा नाम धान्यपल्य इव पल्यः स्यात्स च तत्र वस्तुनितदेव वस्तु दृष्ट्यपगाहना प्रोच्यते ततोऽसंख्येयभागवती नि वृत्तत्वादायामविष्कम्भाभ्यां दैयविस्ताराभ्यां प्रत्येकमुत्सेधाड- प्रत्येकं वालाग्रखण्डानि मन्तव्यानीदमुक्तं भवति यत् पुद्गलद्रव्यं लकमनिप्पन्नंयोजनमूर्ध्वमुच्चत्वेनापितद्योजनं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण विशुद्धचक्षुर्दर्शनः छमस्थः पश्यति तदसंख्येयभागमात्राण्येकैकभ्रमितिमङ्गीकृत्ये ति सर्वस्यापि वृत्तपरिधेः किं चिन्नयून- शास्तान्येव भावतो द्रव्यतो निरूप्याथ क्षेत्रतस्तन्मानमाह (सुहुम-- षड्भागाधिकात्रिगुणत्वादस्यापि पल्यस्य किञ्चिन्नयूनषड्भागा- | स्सेत्यादि) अयमत्र भावार्थः सूक्ष्मपनकजीवशरीरं यावत्क्षेत्र Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धारपलिओवम 852 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्ति मवगाहते ततोऽसंख्येयगुणानि प्रत्येकं तानि भवन्ति बादरपृथि- तुरियचवलजइणसिग्घवेगाहिं," औ०। "अदृदृहासं काऊण उ–प्पइयं'' वीकायिकपर्याप्तशरीरतुल्यानीति वृद्धवादः / एषां च वालाग्रखण्डा- आ०म०प्र०। उद्भूते, "णचा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहट्टिए" उत्त०२ नामसंख्येयत्वात् प्रतिसमयमुद्धारे किल संख्येया वर्षकोट्योऽति- अ० / 'उप्पइय पडिवयमाणे वसघ" आचा०। 1 श्रु०६ अ०४उ० / क्रामन्त्यतः संख्येयवर्षकोटिमानमिदमवसेयं शेष तूक्तार्थप्रायं यावत् ऊर्ध्वगते च। त्रि०वाच०। जावइया अड्डाइजाणमित्यादि / यावन्तोऽर्द्धतृतीयसागरोपमेषू- उप्पइयपडिवयमाण त्रि०(उत्पतितप्रतिपतत्) पूर्वं संयमारोहणाद्धारसमया वालाग्रोद्धारोपलक्षिताः समया उद्धारसमयाः एतायन्तो दुत्पतिते पश्चात्पाकोदयात्प्रतिपतति, आचा०१ श्रु०६ अ०। 4 उ०॥ द्विगुण 2 विष्कम्भावीपसमुद्रयथोक्तेनोद्धारेण प्रज्ञप्ताः असंख्येया उप्पंक (देशी०) उच्छ्ये , समूहे, पङ्के, बले च। दे० ना०। इत्यर्थः / उक्तमुद्धारपल्योपमम् / अनु० / कर्म०॥ उप्पड पुं०(उत्पट) उत्पटति, उद् पट् गतौ-अच् ! वृक्षादीनां त्वचउद्धारसमय पुं०(उद्धारसमय) वालाग्रोद्धारोपलक्षितेषु समयेषु, अनु० // | मुद्भिद्य उद्गते निर्यासे, वाच०1 त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। उद्धारसागरोवम न०(उद्धारसागरोपम) उद्धारविषयं तत्प्रधानं वा उप्पण्ण त्रि०(उत्पन्न) उद्० पत्०क्त० प्रादुर्भूते, ग०। प्रश्न०।संजाते, सागरोपममुद्धारसागरोपमम् / दशभिः कोटाकोटीभिर्गुणिते दर्श०1"उप्पण्णम्मि अणं तेण, ठम्भिच्छाउमथिए णाणे / सागरोपमभेदे, स्था०१ ठा०1 (तच सूक्ष्मव्यवहारिकभेदेन द्विधा उत्पतितस्वभावेच।"उप्पण्णेइवा विगमेइवाधुवेइवा" सत्तालक्षणम् उद्धारपल्योपमभेदे दर्शितम्) आ०म०द्वि०। विशे०। उद्धावणा स्त्री०(उद्धावना) शीघ्रंतस्य कार्य्यस्य निष्पादने,व्य०१३० उप्पण्णकोउहल्ल त्रि०(उत्पन्नकुतूहल) उत्पन्न प्रागभूतं कुहूहलं यस्य उत्प्रावल्येन धावना / गच्छोपग्रहार्थं दूरक्षेत्रादौ गमने, ध०३ अधि०॥ उत्पन्नौत्सुक्ये, सू०प्र०१ पाहु०। उद्धिय त्रि०(उद्धृत) उद्रूढे, कृतनिर्वाहे, "नामनिमित्तं तत्वं यथा तथा उप्पण्णगारव त्रि०(उत्पन्नगौरव) उत्पन्नमभिलषणीयतया जात गौरवं चोद्धृतं पुरा यदिह" षो०|| यस्यस तथा / कमनयितया जातगौरवे, "उप्पण्णगारवे एवं गणित्ति उद्धियकंटक त्रि०(उद्धृतकण्टक) उद्धृता स्वदेशत्याजनेन जीवी- परिकंखिडं। व्य०४ उ०॥ तत्याजनेन वा कण्टका यत्रतदुद्भुतकण्टकम्। प्रतिस्पर्द्धिगोत्रज-रहिते, उप्पण्णणाणदसणधर पुं०(उत्पन्नज्ञानदर्शनधर) सादिकेवलरा०ा औ०॥ ज्ञानदर्शनोपयुक्ते, "समणे भगवं महावीरे उपण्णणाणदंसणधरे अरहा उद्धियदंड पुं०(उद्धृतदण्ड) उद्धृत उत्पाटितो गृहीतो दण्डो येन स जिणे केवली" उत्पन्नज्ञानदर्शनधरोनतु सदा संसिद्धः भ०१२०७ उ०। उद्धृतदण्डः गृहीतप्रायश्चित्ते, व्य०१ उ०। (उद्धियदंडो निहत्थोदंडशब्दे उप्पण्णदुक्ख त्रि०(उत्पन्नदुःख) संजातदुःखे, "इह खलु भोगपव्वइएण वक्ष्यते) उप्पण्णदुक्खेणं संजमे अरइसमावण्ण चित्तेणं" दश०१ चूलि०। उद्धियसत्तु त्रि०(उद्धृतशत्रु) उद्धृताः शत्रवो यत्र तदुद्धृतशत्रुः देश- उप्पण्णसंसय त्रि०(उत्पन्नसंशय) उत्पन्नानवधारितार्थज्ञाने, रा० / निर्वासितागोत्रजवैरिणि, औ०। रा०। सू०प्र०। उद्धीमुह त्रि०(ऊर्ध्वमुख) ऊर्धी कृतमुखे, "उद्धीमुहकलंवुतापुप्फग उप्पण्णसङ्घ त्रि०(उत्पन्नश्रद्ध) उत्पन्ना प्रागभूता सती भूता श्रद्धा संठाणसंठिया आहित्ति वदेजा''|| चंद्र० 4 पाहु०। यस्यासौउत्पन्नश्रद्धः। जातश्रद्धे, "उप्पण्णसड्ढेसंजायसड्ढे समुप्पणसड्ढे उद्धमय त्रि०(ऊर्ध्वमात) आपूर्णे, उद्धमायशब्द आपूर्णपर्यायः यत उठाए उट्टेइ” जं०१ वक्ष०। रा० / सू० प्र०। ज्ञा०॥ उक्तम् "अभिमाचिन्हेनपडिहत्थमुद्धमायं आहिरेइयंचजाणआउण्णे'। उप्पण्णणुप्पण्ण त्रि०(उत्पन्नानुत्पन्न) उत्पन्नश्चानुत्पन्नश्च उत्पन्नानं०। नुत्पन्नः / मयूरव्यंसकादय इति समासः / यथा कृताकृतं भुक्ताभुउद्धम्माण त्रि०(उद्भूममान) उत्पाट्यमाने, "उदुम्ममाण दगर क्तमित्यादि / एवं प्रकाराश्च समासः स्याद्वादिन एव युक्तिमियर्ति न यरयंधआरचरकेण"|| औ० प्रश्न०॥ शेषस्य एकान्तवादिन एकत्रैकदा परस्पपरविरुद्धधर्मानभ्युपग-मात् / उद्धय त्रि०(उद्भूत) उद्धू ०क्त० उद्भूते उत्क्षिते, उगते, ज्ञा०१अ०। कस्यचिन्नयस्य मतेनोत्पन्ने कस्यचिदनुत्पन्ने, "उप्पण्णाणुप्पण्णो, एत्थ इतस्ततो विप्रसृते, "कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क-धूवमघमघंतगंधु गया णेगमस्सणुप्पण्णे सेसाणं उप्पण्णो, जइ कत्तो तिविहसामित्ता' द्भुयाभिरामे' चं०२ पाहु०। सूर्य० / स०। औ०। रा०। प्रकटीकृते, आ०म० द्वि०। (नमुक्कारशब्दे उत्पत्तिद्वारे स्पष्टीभविष्यति) क० / उत्कम्पिते, 'वाउटुयविजयवेजयंती" औ०। “वाउ यविजय उप्पत्ति स्त्री०(उत्पत्ति) उत्पादनमुत्पत्तिः / प्रसूतौ, विशे० उत्पादने, वेजयंती छत्तातिछत्तकलिया'' जी०३ प्रति० चं०। उत्कटे च / स०। उद्भूती, आ०चू०। (उत्पत्तौ नयानां मतानि नमुकारशब्दे उत्पत्तिरद्वारे उद्धया स्त्री०(उद्धृता) वातोळूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इवगतो, स्पष्टी भविष्यन्ति) साच चतुर्की उत्पत्तिश्चतुर्दा जीवाजीवस्योत्पत्तिर्यया रा०ा जीवा०। मातापितृभ्यां पुत्रस्य 1 जीवादजीवस्योत्पत्तिर्यथा सजीवदेहान्नउद्धर त्रि०(उद्धर) उद्गताधूरस्मात् प्रा०व० अच्० स० / निरक्षे, खके शादेः / अजीवाजीवस्योत्पत्तिर्यथा काष्ठाघुणकस्य / भारशून्ये, दृढे, उच्चे, वाच०। उद्घते, आ० म०प्र० अजीवादजीवस्य दुग्धाधनः / ग01 निदानकारणे, "उप्पत्ती रोगाणं उद्धस्सिय त्रि०(ऊध्वॉच्छ्रित) ऊर्ध्वमुच्छ्रिते, "से जोयणे णवणवति तस्स मणओसहयविभंगी''नि० चू० 20 उ०। उपमाने, प्रव०। ऊर्द्ध सहस्से उद्धस्सितो हेट्ठसहस्समेगं' सूत्र०१ श्रु०७ अ०। पतने, ऊर्द्धगतौ च / उत्पद्यतेप्रथमतो ज्ञायतेऽनेन उद्पद करणे क्तिन्। उन्नावंत त्रि०(उन्नमयत्) ऊर्द्ध नमयति, प्रा०। प्राथमिक प्रतीति विष-यप्रवृत्तिसाधनेष्ट साधनताबोधक उप्पइय न०(उत्पतित) उद् पत्०क्त० उत्पतने, 'उवइयउप्पइय- | कर्मस्वरूपज्ञापके विधिवाक्ये, वाच०॥ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्तिया उप्पत्तिया स्त्री०(औत्पत्तिकी) उत्पत्तिरेव न शास्त्रभ्यासकर्मपरिशीलनादिकं प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी तदस्य प्रयोजनमिति इकण / / ना। अदृष्टाश्रुताननुभूतविषयादकस्माद् भवनशीलायां बुद्धौ, रा०। ननु सर्वस्याः बुद्धेः कारणं क्षयोपशमः तत्कथमुच्यते उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इति उच्यते क्षायोपशमः सर्वबुद्धिसाधारणः ततो नासौ भेदेन प्रतिपत्तिनिबन्धनं भवति / अथ च बुद्ध्यन्तरभेदेन प्रतिपत्यर्थ व्यपदेशान्तरं कर्तुमारब्धं तत्र व्यपदेशान्तरनिमित्तमत्र न किमपि विनयादिकं विद्यते केवलमेवमेव तथोत्पत्तिरिति सैव साक्षानिर्दिष्टा / नं0 औत्पत्तिक्या लक्षणम्। पुटवमदिट्ठमसुयम-वेइयतक्खणविसुद्धगहिअत्था। अय्वाहयफलजोगा, वुद्धी ओप्पत्तिया नाम // 2 // पूर्व बुद्ध्युत्पादात्प्राक् स्वयं चक्षुषा न दृष्टो नाप्यन्यतः श्रुतो मनसाऽप्यविदितोऽपर्यालोचितस्तस्मिन् क्षणेषु बुझ्युत्पादकाले विशुद्धो यथावस्थितो गृहीतोऽवधारितोऽर्थो यस्याः सा तथा। पुव्वमदिद्रुत्यादौ मकारोऽलाक्षणिकः। तथा अव्याहतेन अवाधितेन फलेन परिच्छेद्येनार्थेन योगो यस्याः सा अव्याहतफलयोगा बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम / संप्रति विनेयजनानुग्रहायास्याः स्वरूप प्रतिपादनार्थमुदाहरणान्याह। भरहसिलपणियरुक्खे, खुङगपडसरडकायउच्चारे। गयपायणगोलखंभे, खुड्डगमग्गित्थिपइ पुत्ते / / 3 / / भरहसिलं मिढ कुकुड, तिलवालुयहत्थिअगडवणसंडे।। पायसअइया पत्ते, खाडहिलापंचपियरोय॥४॥ महुसित्थमुदिअंकेइ, नाणए भिक्खचेडगनिहाणे। सिक्खाय अत्थसत्थे, इच्छायमहसयसहस्से / / 5 / / आसामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः / तानि च कथानकानि विस्तरतोऽभिधीयमानानि ग्रन्थगौरवमापादयन्ति ततः संक्षेपेणोच्यन्ते / उज्जयिनी नाम पुरी तस्याः समीपवर्ती कश्चिन्नटानामेको ग्रामः तत्र च भरतो नाम नटः तस्य भार्या परासुरभूत् तनयश्चास्य रोहकाभिधोऽद्याप्यल्पवयास्ततस्तेन स्वस्य तनयस्य च शुश्रूषाकरणायान्या समानिन्ये वधूः / सा च रोहकस्य सम्यग्न वर्तते ततो रोहकेण सा प्रत्यापादि मातन मे त्वं सम्यक् वर्तसे ततो ज्ञास्यसीति ततः सा सेय॑माह रे रोहक ! किं करिष्यसि? रोहकोऽप्याह। तत्करिष्यामि येन त्वं मम पादयोरागत्य लगिष्यसीति ततः सातमवज्ञाय तूष्णीमतिष्ठत् रोहकोऽपि तत्कालादारभ्य गाढसंजाताभिनिवेशोऽन्यदा निशि सहसा पितरमेवमभाणीत् भो भो पितरेष पलायमानो गोहो याति तत एवं वालकवचः श्रुत्वा पितुराशङ्का समुदपादि नूनं विनष्टा मे महेलेति तत एवमाशङ्कावशात्तस्यामनुरागः शिथिली बभूव। ततो नतांसम्यक् संभाषते नापि विशेषतस्तस्यै पुष्पताम्बूलादिकं प्रयच्छति दूरतः पुनरपास्तं शयनादिततः सा चिन्तयामास नूनमिदं बालकविचेष्टितम् अन्यथा कथमकाण्ड एवैष दोषाभावे पराङ् मुखो जातः ततो बालकमेवमवादीत्वत्स रोहक! किमिदं त्वया चेष्टितं तव पिता मे संप्रति दूरं पराङ् मुखीभूतः रोहक आह किमिति तर्हि त्वं सम्यग्न वर्तसे तयोक्तमित ऊर्द्ध सम्यग् वर्तिष्ये / ततो बालक आह भव्यं तर्हि मा खेदमाकार्षीस्तथा करिष्ये यथा मे पिता तथैव त्वयि वर्तते इति ततः सा तत्कालादारभ्य सम्यग् वर्तितु प्रवृत्ता। रोहकोऽप्यन्यदा निशि निशाकरप्रकाशितायां प्राक्तनकदाशङ्कापनोदायबालभावं प्रगटयन् निजच्छायाममुल्यग्रेण दर्शयन् पितरमेवमाह भो पितरेष गोहो याति गोहो यातीति। तत एवमुक्ते स पिता परपुरुषप्रवेशाभिमानतो निष्प्रत्याकारं कृपाणमुद्गीर्य प्राधावत रे कथय कुत्र यातीति ततः स बालको बालक्रीडां प्रकटयन्नडल्यग्रेण निजच्छायां दर्शयति पितरेष गोहो यातीति ततः स वीडित्वा प्रत्यावृत्तश्चिन्तयतिस्म च स्वचेतसि प्राक्तनोऽपि पुरुषो नूनमेवंविध एवासीदिति धिग्मया बालकवचनादलीकं संभाव्य विप्रियमेतावन्तं कालं कृतमस्यां भार्यायामिति पश्चात्तापादाढतरमस्यामनुरक्तो बभूव / सोऽपि रोहको मया विप्रियं कृतमास्तेऽस्या इति कदाचिदेषा मा विषादिना मारयिष्यतीति विचिन्त्य सदैव पित्रा सह भुङ्क्तेन कदाचिदपि केवलः। अन्यदाच पित्रा सहोजयिनी पुरीमगमत् दृष्टा च तेन त्रिदशपुरीवोजयिनी सविस्मयचेतसा च सकलाऽपि यथावत्परि-भाविता / ततः पित्रैव सह नगर्या निर्यातुमारेभे पिता च तत्र किमपि विस्मृतमिति रोहकं सिप्रातटेऽवस्थाप्य तदानयनाय भूयोऽपि नगरी प्राविक्षत्। रोहकोऽपि च तत्र सिप्राभिधसिन्धुसैकते बाल-चापलवशात् सप्राकारां परिपूर्णामपि पुरं सिकताभिरालिखत् / इतश्च राजा अश्ववाहनिकायामश्वं वाहयन् कथंचिदेकाकीभूतस्तेन पथा समागन्तुं प्रावर्तत तं च स्वलिखितनगरीमध्येन समागच्छन्तं रोहकः अवादीत् भो राजपुत्र माऽनेन पथा समागमः / तेनोक्तं किमिति / रोहक आह / किं त्वं राजकुलमिदं न पश्यति / ततः स रजाकौतुकवशात्सकलामपि नगरी तदालिखितामवैक्षत पप्रच्छच तं बालक रे अन्यदाऽपि त्वया नगरी दृष्टाऽऽसीत् न वा / रोहकः प्राह नैव कदाचित्के वलमहमद्यैव ग्रामादिहागतः। ततश्चिन्तयामास राजा अहो बालकस्य प्रज्ञातिशयः / ततः पृष्टो रोहकः वत्स किं ते नाम क्व वा ग्राम इति / तेनोक्तं रोहक इति मन्नाम प्रत्यासन्ने च पुरोग्रामे वसामीति। अत्रान्तरे समागतो रोहकस्य पिता चलितौ चस्वग्राम प्रति द्वावपि राजा च स्वस्थानमगमत् चिन्तयति स्म च ममैकोनानि मन्त्रिणां पञ्चशतानि विद्यन्ते तद्यदि सकलमन्त्रिमण्डलमूर्धाभिषिक्तो महाप्रज्ञातिशायी परमो मन्त्री संपद्यते ततो मे राज्य सुखेनैवैधते बुद्धिबलोपेतो हि राजा प्रायः शेषबलैरल्पबलो-ऽपि न पराजयस्थानं भवति परांश्च राज्ञो लीलया विजयते / एवं चिन्तयित्वा कतिपयदिनानन्तरं रोहकबुद्धिपरीक्षानिमित्तं सामान्यतो ग्रामप्रधानपुरुषानुदिश्यैवमादिष्टवान्यथायुष्मद्ग्रा-मस्य बहिरतीव महती शिला वर्तते तामनुत्पाट्य राजयोग्यमण्ड-पाच्छादनं कुरुत / तत एवमादिष्ट सकलोऽपि ग्रामलोको राजादेशं कर्तुमशक्यं परिभावयन्नाकुलीभूतमानसो बहिः सभायामेकत्र मिलितवान् पृच्छति स्म परस्परं किमिदानी कर्त्तव्यं दुष्टो राजादेशोऽस्माकमापतितो राजादेशाकरणे च महाननर्थोपनिपातः। एवं चचिन्तयाव्याकुलीभूतानां तेषां मध्यदिनमागतं रोहकश्च पितरमन्तरेण न भुक्ते पिता च ग्राममेलापके मिलितो वर्तते। ततः स क्षुधापीडितः पितुः समीपे समागत्य रोदितुं प्रावर्तत पीडितोहमतीव क्षुधया ततः समागच्छ गृहे भोजनायेत / भरतः प्राह वत्स ! सुखितोऽसि त्वं न किमपि ग्रामकष्ट जानासि। स प्राह पितः किं तदिति / ततो भरतो राजादेशं सविस्तरमचकथत् / ततो निजबुद्धिप्रागल्भ्यवशात् झटिति कार्यस्य साध्यतां परिभाव्य तेनोक्तं मा आकुलीभवत यूयं खनत शिलाया राजोचितमण्डप - निष्पादनायाधस्तात् स्तम्भाश्च यथास्थानं निवेशयत भित्तीश्वोपलेपादिना प्रकारेणातीव रमणीयाः प्रगुणीकुरुत। तत एवमुक्ते सर्वैरपि ग्रामप्रधानपुरुषैभव्यमिति प्रतिपन्नम् / गतः सर्वोऽपि Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 854 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्तिया ग्रामलोकः / स्वगृहे भोजनाय भुक्तवा च समागतः शिलाप्रदेशे प्रारब्धं तत्र कर्म कतिपयदिनैश्च निष्पादितः परिपूर्णो मण्डपः / कृता च शिला तस्य आच्छादनं निवेदितं राज्ञे राजनियुक्तैः पुरुषैर्देवनिष्पादितो ग्रामेण देवादेशः। राजा प्राह कथमिति ततस्ते सर्वमपि मण्डपनिष्पादनप्रकार कथयामासुः। राजा पप्रच्छ कस्येयं बुद्धिस्ते ऽवादिषुर्देव ! भरतपुत्रस्य एषारोहकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः / एवं सर्वेष्वपि संविधानकेषु योजनीय ततो भूयोऽपि राजा रोहकबुद्धिपरीक्षार्थ मेढकमेकं प्रेषितवान् / एष यावत्पलप्रमाणः संप्रति वर्तते पक्षातिक्रमेऽपि तावत्पलप्रमाण एव समर्पणीयो न न्यूनो नाप्यधिक इति तत एवं राजादेशे समागते सतिसर्वोऽपि ग्रामो व्याकुलीभूतचेता बहिः सभायामेकत्र मिलितवान् सगौरवमाकारितो रोहकः आभाषितश्च ग्रामप्रधानैः पुरुषैः वत्स ! प्राचीनमपि दुष्टरा-जादेशसिन्धुं त्वयैव निजबुद्धिसेतुबन्धेन समुत्तारितः सर्वोऽपि ग्रामः। ततः संप्रत्यपि प्रगुणीकुरु निजबुद्धिसेतुबन्धेनास्यापि दुष्टराजादेशसिन्धोः पारमधिगच्छाम इति। तत उवाच रोहको वृकं प्रत्यासन्नं धृत्वा मेण्टकमेनं यवसदानेन पुष्टीकुरुतयवसं हि भक्षयन्नेष नदुर्बलो भविष्यति वृकंच दृष्ट्वा न वृद्धिमाप्स्यते ततस्तैतथैव कृतवन्तः पक्षातिक्रमे च तं राज्ञः समर्पयामासुः तोलने च तावत्प-लप्रमाण एव जातः / ततो भूयोऽपि कतिपयदिनानन्तरं राज्ञाकुर्कुटः प्रेषितः एष द्वितयं कुर्कुट विना योधयितव्य इति एवं संप्राप्ते राजादेशे मिलितः सर्वोऽपि ग्रामो बहिः संभायामाकारितो रोहकः कथितश्व राजादेशः / ततो रोहकेणादर्शको महाप्रमाण आनायितो निसृष्टश्च भूत्या सम्यक् ततो घृतः पुरो राजकुछुटस्तस्य ततः स राजकुक्कुटः प्रतिविम्बमात्मीयमादर्श दृष्ट्वा मत्प्रतिपक्षोऽयमपरः कुक्कुट इति मत्वा साहंकारं योद्धुं प्रवृत्तो जडचेतसो हि प्रायस्तिर्यञ्चो भवन्तिा एवं च परकुक्कुटमन्तरेण योधिते राजकुक्कुटे विस्मितः सर्वोऽपि ग्रामलोकः संपादितो राजादेशः निवेदितं च राज्ञो निजपुरुषैः / ततो भूयोऽपि कतिपयदिवसातिक्रमे राजा निजादेशं प्रेषितवान् युष्मद्ग्रामस्य सर्वतः समीपे रमणीया वालुका विद्यते ततः स्थूला वालुकामया कतिपया दवरकाः कृत्वा शीघ्र प्रेषणीया इति एवं राजादेशेसमागते भिलितः सर्वोऽपि बहिः सभायां ग्रामः पृष्टश्च रोहकस्ततो रोहकेण प्रत्युत्तरमदायि नटा वयं ततो नृत्यमेव वयं कर्तुं जानीमो न दवरकादि / ततो राजादेशश्वावश्यं कर्तव्यः ततो वृहद्राजकुलमिति चिरन्तना अपि कतिचिद्वालुकामया दवरका भविष्यन्तीति तन्मध्यादेकः कश्चित्प्रच्छन्दभूतः प्रेषणीयो येन तदनुसारेण वयमपि वालुकामयान् दवरकान् कुर्म इति / ततो निवेदितमेवं राज्ञो नियुक्तपुरुषैः / राजा च निरुत्तरीकृतः तूष्णीमास्त। ततः पुनरपि कतिचिदिनानन्तरं जीर्णहस्ती रोगग्रस्तो मुमूर्षुग्राम राज्ञा प्रेषितः यथाऽयं हस्ती मृत इति न निवेदनीयोऽथ च प्रति-दिवसमस्य वार्ता कथनीया अकथने ग्रामस्थ महान् दण्डः / एवं च राजादेशे रामागते तथैव मिलितः सर्वोऽपि ग्रामो बहिः सभायाम् / पृष्टश्च रोहकस्ततो रोहकेणोक्तं दीयतामस्मै यवसः पश्चाद्यद्भवष्यति तत्करिष्यामः। ततोरोहकादेशने दत्तोयवसस्तस्मै रात्रौ च स हस्ती पञ्चत्वमुपगतः / ततो रोहकवचनतो ग्रामेण गत्वा राजे निवेदितम् / देवाऽद्य हस्ती न निषीदति नोत्तिष्ठति न कवलं गृह्णाति न नीहार कराति नाप्युच्छ वासनिःश्वासौ विदधाति किं बहुना देव ! कामपि सचेतनचेष्टांन करोति। ततोराज्ञा भणितं किंरे मृतो हस्तीततो ग्रामलोक आह देव ! देवपादा एवं ब्रुवते न वयमिति। ततएवमुक्ते राजा मौनमाधाय | स्थितः। आगतोग्रामलोकः स्वग्रामे। ततो भूयोऽपि कतिपयदिनातिक्रमे राजा समादिष्टवानस्ति यौष्माकीर्ण ग्रामे सुस्वादुजलसंपूर्णः कूपः स ही सत्वरं प्रेषणीयः। तत एवमादिष्टो ग्रामो रोहकं पृष्टवान्। रोहक प्राह / एष ग्रामेयकः कूपो, ग्रामेयकश्व स्वभावाद्भीरुर्भवति न च सजातीयमन्तरेण विश्वासमुपगच्छति ततो नागरिकः कश्चिदेकः कूपः प्रेष्यतां येन तत्रैष विश्वसय तेन सह समागमिष्यति इत्येवं निरुत्तरीकृत्य मुत्कलिताः राजनियुक्ताः पुरुषाः तैश्च राज्ञो निवेदितं राजा च स्वचेतसि रोहकस्य बुद्ध्यतिशयं परिभाव्य मौनमवलम्ब्य स्थितस्ततो भूयोऽपि कतिपयदिवसातिक्रमेऽभिहितवान् / वनखण्डो ग्रामस्य पूर्वस्यां दिशि वर्तमानः पश्चिमायां दिशि कर्तव्य इति अस्मिन्नपि राजादेशे समागते ग्रामो रोहकबुद्धिमुपजीव्य वनखण्डस्य पूर्वस्यां दिशि व्यवतिष्ठते ततो जातो ग्रामस्य पश्चिमायां दिशि वनखण्डःनिवेदितंच राज्ञोराजनियुक्तैः पुरुषैः / ततःपुनरपि कालान्तरे राजा समादिष्टवान् वहिसंपर्कमन्तरेण पायस पक्तव्य-मिति तत्रापि सर्वो ग्राम एकत्र मिलितोरोहकमपृच्छत् रोहकश्चोक्तवान् तन्दुलानतीव जलेन भिन्नान् कृत्वा दिनकरकरनिकरसन्तप्तकरीषपलालादीनामुष्मणि तन्दुलपयोभृता स्थाली निवेश्यतां येन परमानं संपद्यते तथैव कृतं परमान्नं निवेदितं राज्ञो विस्मितं तस्य चेतः। ततो राज्ञा रोहकस्य बुद्ध्यतिशयमवगम्य तदाकारणाय समादिष्ट येन वालकेन मदादेशाः सर्वेऽपि प्रायः स्वबुद्धिवशात्संपादितास्तेन चावश्यमागन्तव्यम् परं न शुक्लपक्षे न कृष्णपक्षे न रात्रौ न दिवा न च्छायया नाप्यातपेन नाकाशेन नापि पादाभ्यां न पथा नाप्युत्पथेन न स्नातेन नास्नातेन तत एवमादिष्टे स रोहकः कण्ठस्नानं कृत्वा गन्त्रीचक्रस्य मध्यभूमिभागेन ऊरणमारूढो धृतचालनीरूपातपत्रः संध्यासमयेऽमावश्याप्रतिपत्संगमेनरेन्द्र-पार्श्वमगमत्। स च रिक्तहस्तो न पश्येच राजानं देवतां गुरुमिति लोकश्रुति परिभाव्य पृथिवीपिण्ड मेकमादाय गतः प्रणतो राजा मुक्तश्च तत्पुरतः पृथिवीपिण्डस्ततः पृष्टो राज्ञा रोहकः। रेरोहक! किमेतत् ? रोहकः प्राह देव ! देवपादाः पृथिवीपतयः ततो मया पृथिवी समानीता। श्रुत्वा चेद प्रथमदर्शन मङ्गलवचः तुतोष राजा मुत्कलितः शेषग्रामलोकः रोहकः पुनरात्मपायें शायितः गते च यामिन्याः प्रथमे याने रोहकः शब्दितो राज्ञा, रे रोहक ! जागर्षि किं वा स्वपिषि / देव ! जागर्मि रे तर्हि किं चिन्तयसिस प्राह देव अश्वत्यपत्राणां किं दण्डो महान् उत शिखेति तत एवमुक्त राजा संशयमापन्नो वदति साधु चिन्तितं कोऽत्र निर्णयः / ततो राजा तमेव पृष्टवान् रे कथय कोऽत्र निर्णय इति तेनोक्तं यावदद्यापि शिखाग्रभागो न शोषमुपयाति तावद्वे अपि समे ततो राज्ञा पार्श्ववर्ती लोकः पृष्टः तेन च सर्वेणाप्यविज्ञानतः प्रतिपन्नं ततो भूयोऽपि रोहकः सुप्तवान् पुनरपि न द्वितीययानेऽपगते राज्ञा शब्दितः पृष्टश्च रे किं जागर्षि किंवा स्वपिषि रा प्राहदेव ! जागर्मि किं रे चिन्तयसि देव! छागिकोदरे कथं भ्रभ्युत्तीर्णा इव वर्तुलगुलिका जायन्ते तत एवमुक्ते राजा संशयापनस्तमेव पृष्टवान् कथय रे रोहक ! कथमिति स प्राह देव संवर्तकाभिधानवातविशेषात् / ततः पुनरपि रोहकः सुष्वाप तृतीयेयामेऽपगते भूयोऽपि राज्ञा शब्दितः रे किं जागर्षि किं वा स्वपिषि सोऽवादीत् देव ! जागर्मि किं रे चिन्तयन्वर्तसे देव खाडहिलाजीवस्य यावन्मानं शरीरं तावन्मानं पुच्छमुत हीनाधिकमिति तत एवमुक्ते राजा निर्णयं कर्तुमशक्तः तमेवापृच्छत रेकोऽत्र Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 855 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्तिया निर्णयः देव सममिति ततो रोहकः सुप्तः प्राभातिके च मङ्गलप-1 ग्रामेयकेण चिन्तितं हस्ती हस्तिना प्रेर्यतेततोधूर्त एष नागरिको वचनेन टहनिस्वने सर्वत्र प्रसरमधिरोहति राजा प्रबोधमुपजमाम शाब्दि-समय मां दलितवान वापरनामरिकमन्तरेण पधारकर्तु वपते दाने me रोहकः स च निद्राभरमुपारुढो न प्रतिवाचं दत्तवान् / ततो राजा कतिपयदिनानि व्यवस्थां कृत्वा नागरिकधूनिवलगामितथैव कृतं दत्ता लीलाकङ्कतिकया मनाक्तं स्पृष्टवान्ततः सोऽयगतनिद्रो जातः सपृष्टश्च चैकेन नागरिकधूर्तेन तस्मै बुद्धिस्ततः तबुद्धिबलेन पूपिकापणे रेकिं स्वपिषि स प्राह देव जागर्मि किंरे तर्हि कुर्व स्तिष्ठसि देव! चिन्तयन्। मोदकमेकमादाय प्रतिद्वन्द्विनं धूर्तमाकारितवान् साक्षिणश्च किं चिन्तयसि देव एतचिन्तयामि कतिभिर्जातो देव इति / तत एवमुक्ते सर्वेऽप्याकारिताः ततस्तेन सर्वसाक्षिसमक्षमिन्द्रकीलके मोदकोऽराजा सव्रीडं मनाक् तूष्णीमतिष्ठत् तत्क्षणानन्तरं पृष्टवान् कथय रे स्थाप्यते भणितश्च मोदकः याहि रे याहि मोदक ! सन याति ततस्तेन कतिभिरहं जात इति। स प्राह देव पञ्चभिः राजा भूयोऽपि पृष्टवान् केन साक्षिणोऽधिकृत्योक्तं मयैवं युष्मत्समक्ष प्रतिज्ञातं यद्यहं जितो भविष्यामि के नेति रोहक आह एकेन तावद्वैश्रमणेन वैश्रमणस्येव भवतो तर्हि स मया मोदको यः प्रतोलीद्वारेण न निर्गच्छति एषोऽपि न याति दानशक्तेर्दर्शनात् / द्वितीयेन चाण्डालेन वैरिसमूह प्रति चण्डालस्येव तस्मादहं मुत्कल इति एतच साक्षिभिरन्यैश्च पार्श्ववर्तिभिर्नागरिकैः कोपदर्शनात्। तृतीयेन रजकेन यतो रजक इव वस्वं परिनिपील्य तस्य प्रतिपन्नमिति प्रतिजितः प्रतिद्वन्द्वी धूर्तः / द्यूतकारनागरिकधूर्तसर्वस्वमपहरन् दृश्यते। चतुर्थेन वृश्चिकेन यन्मामपि बालकं निद्राभरसुप्त स्यौत्पतिकी बुद्धि H // 2 // लीला-कङ्कतिकाग्रेण वृश्चिक इव निर्दयं तुदसि! पञ्चमेन निजपित्रा येन (रुक्खेत्ति) वृक्षोदारहणं तद्भावना क्वचित्पथि पथिकानां सहयथावस्थितन्यायं सम्यक्परिपालयसि। एवमुक्त राजा तूष्णीमा-स्थाय कारफलान्यादातुं प्रवृत्तानामन्तरायं मर्कटका विदधते ततः पथि-काः प्राभातिककृत्यमकार्षीत् जननी च नमस्कृत्यैकान्ते पृष्टवान् / कथय सवबुद्धिवशाद्वस्तुतत्वं पर्यालोच्य मर्कटानां संमुखं लोष्टकान् प्रेष्यामासुः मातः ! कतिभिरहं जात इति सा प्राह वत्स! किमेतत् प्रष्टव्यं निजपित्रा ततो रोषाबद्धचेतसो मर्कटाः पथिकानां संमुखं सहकारफलानि प्रचिक्षेषुः त्वं जातः। ततो रोहकोक्तं राजा कथितवान् वदति च मातः स रोहकः पथिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः 3 तथा (खुड्डकत्ति) अङ्गुलीयकाभरणं प्रायोऽलीकबुद्धिर्न भवतीति। ततः कथय सम्यक् तत्त्वमिति तत एवमति तदुदाहरणभावना राजगृहं नगरं तत्र प्रसेनजितः प्रसेनरिपुसमूहविजेता निर्बन्धीकृते सति सा कथयामासायदा त्वद् गर्भाधानमासीत् तदाऽहं राजा भूयांसस्तस्य तनयाः तेषां च सर्वेषामपि मध्ये श्रेणिको राजा बहिरुद्याने वैश्रवणपूजनाय गतवती वैश्रवणं च यक्षमतिशयरूपं दृष्ट्वा नृपलक्षणसंपन्न स्वचेतसि परिभावितोऽत एव च तस्मैन किञ्चिदपि ददाति हस्तसंस्पर्शन च संजातमन्मदोन्मादा भोगाय तं स्पृहितवती / नापि वचसापि संस्पृशति मा शेषैरेष परासुर्विधीयेतेति बुद्ध्या स च अपान्तराले च समागच्छन्तो चण्डालयुवानमेकमतिरूपमपश्यं किञ्चिदप्यल-भमानो मन्युभरवशात्प्रस्थितो देशान्तरं जगाम / क्रमेण ततस्तमपि भोगाय स्पृहयामि स्म / ततोऽक्तिने भागे समागच्छन्ती वेन्नातटं नगरम् तत्र च क्षीणविभवस्य श्रेष्ठिनो विपणौसमुपविष्टः तेन च तथैव रजकं दृष्टाऽभिलषितवती / ततो गृहमागता सती श्रेष्ठिना तस्यामेव रात्रौ स्वप्ने रत्नाकरो निजदुहितरं परिणयन् दृष्ट तथाविधोत्सववशात् वृश्चिकं कणिक्कामयं भक्षणाय हस्से न्यस्तवती। आसीत् तस्य च श्रेणिकपुण्यप्रभावतः तस्मिन् दिने चिरसंचित प्रभूतक्रया--णकविक्रयेण महान लाभः समत्पादि म्लेच्छहस्ताचाततस्तत्संस्पर्शतोजातकामोद्रेका तमपि भोगायाशंसितयतीतत एवं यदि स्पृहामात्रेणापि पितरः संभवतितर्हि सन्तु परमार्थतः पुनरेक एव ते पिता ऽनाणि महारत्नानिस्वल्पमौल्येन समपद्यन्त ततः सोऽचिन्तयत् अस्य सकलजगत्प्र-सिद्ध इति / तत एवमुक्ते राजा जननीं प्रणम्य महात्मनो मम समीपमुपविष्टस्य पुण्यप्रभाव एषः यन्मया महती भूतिः रोहकबुद्धिविस्मितचेताः स्वावासप्रासादमगमत्। रोहकं च सर्वेषां मन्त्रिणां एतावती समासादिता आकृतिं च तस्यातिमनोहरामवलोक्य स्वचेतसि कल्पयामास स एष रत्नाकरो यः स्वप्ने मया रात्रौ दृष्टः ततस्तन मूर्धाभिषिक्तं मन्त्रिणमकार्षीत् तदेवं भरहसिलेति व्याख्यातम् // 1 // कृतकराञ्जलिसंपुटेन विनयपुरः सरमाभाषितः श्रेणिकः। कस्य यूयं संप्रति पणयंति व्याख्यायते / द्वौ पुरुषौ एको ग्रामेयकः अपरो प्राघूर्णिकाः। श्रेणिक उवाच भवतामिति। ततः स एवंभूतवचनश्रवणतो नागरिकः / ततो ग्रामेयकः स्वग्रामाचिमिटिका आनयन् प्रतोलीद्वारे वर्तते धाराहतकदम्बपुष्पमिव पुलकितसमस्ततनुयष्टिः सबहुमानं स्वगृहं तं प्रति नागरिकाः प्राह यद्येताः सर्वा अपि तव चिभिटिका भक्षयामिततः नीतवान् श्रेणिकं भोजनादिकं च सकलमप्यात्मनाऽधिकतरं किं मे प्रयच्छसीति ग्रामेयकः आह योऽनेन प्रतोलीद्वारेण मोदको न संपादयामास पुण्यप्रभावं च तस्य प्रतिदिवसमात्मनो धनलाभवृद्धियाति तं प्रयच्छामि ततो द्वाभ्यामपि बद्धं पणितं कृताः साक्षिणो जनाः संभवेनासाधारणमभिसमीक्ष्यमाणः कतिपयदिनातिक्रमे तस्मै ततो नागरिकेणताः सर्वा अपि चिटिकाः मनाक् 2 भक्षित्वा मुक्ताः उक्तं स्वदुहितरंनन्दानामानंदत्तवान् श्रेणिकोऽपि तयासह पुरंदर इव पौलोम्या च ग्रामेयकं प्रति भक्षिताःसर्वा अपि त्वदीयाः चिर्भिटिकास्ततो मे प्रयच्छ मन्मथमनोरथनापूरयत्पञ्चविधभोगलालसो बभूव / कतिपयवासयथा प्रतिज्ञातं मोदकमिति / ग्रामेयकः प्राह न मे चिभिटिका भक्षिताः रातिक्रमे च नन्दाया गर्भाधानमभूत् इतश्च प्रसेनजित्स्वान्तसमयं ततः कथं ते प्रयच्छामि मोदकमिति नागरिकः प्राह / भक्षिता मया सर्वा विभाव्य श्रेणिक स्य परंपरयावार्तामधिगम्य तदाकारणाय अपि चिभिटिका यदिन प्रत्येषि तर्हि प्रत्ययमुत्पादयामीति। तेनोक्तमु- सत्वरमुष्ट्रवाहनान् पुरुषान् प्रेषयामास ते च समागत्य श्रेणिकं त्पादय प्रत्ययम् ततो द्वाभ्यामपि विपणिवीथ्यां विस्तारिता विक्रयाय विज्ञप्तवन्तो देव ! शीघ्रमागम्यतां देवः सत्वरमाकारयति ततो नन्दा चिमिटिकाः समागतो जनःक्रयाय ताश्च चिर्भिटिका निरीक्ष्यलोको वक्ति समापन्नसत्वामापच्छ "अम्हे रायगिहे पंडुरखुड्ड गोपाला / जइ ननु भक्षिताः सर्वा अपि त्वदीया चिर्भिटिकाः तत्कथं वयं गृह्णीमः एवं अम्हेहि कजं तो एज्वहंत्ति" एतद्वाक्यं क्वचित् लिखित्वा श्रेणिको राजगृहं लोकेनोक्ते साक्षिणां ग्रामेयकस्य च प्रतीतिरुदपादिक्षुभितो ग्रामयेकंः हा प्रति चलितवान् नन्दायाश्च देवलोकच्युतमहानुभावगर्भ-सत्वप्रभावतः कथं नुनाम मया तावत्प्रमाणां मोदको दातव्यः। ततः स भयेन कम्पमानो एवं दौहृदमुदपादि यदहं प्रवरकुञ्जरमधिरूढा निखिलजनेभ्यो विनयनम्रो रूपकमेकं प्रयच्छति नागरिको नेच्छति ततो द्वे रूपके दातुं धनदान-पुरस्सरमभयप्रदानं करोमीति पिताच तदित्थंभूतदौहृदमुत्पन्नं प्रवृत्तः तथापि नेच्छति। एवं यावच्छतमपि रूपकाणां नेच्छति ततस्तेन ज्ञात्वा राजानं विज्ञप्य पूरितवान् कालक्र मेण च प्रवृत्ते Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया ८५६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्पत्तिया प्रसवसमये प्रातरादित्यविम्बमिव दश दिशः प्रकाशयन्नजायत ततस्तस्यैवमजायत शङ्का नूनमुदरे मे सरटः प्रविष्टः ततो गृहं गतो परमसूनुस्तस्य च दौहृदानुसारेण अभय इति नाम चक्रे सोऽपि महतीमधृतिं कुर्वन्नगऽतीव दुर्बलो बभूव वैद्यं च पप्रच्छ वैद्यश्च चाभयकुमारो नन्दनवनान्तर्गतकल्पपादप इव तत्र सुखेन परिवर्द्धते ज्ञातवानसंभवमेतत् केवलमस्य कथंचिदाशङ्का समुदपादि ततः शास्त्रग्रहणादिकमपि यथाकालं कृतवान्। अन्यदा च स्वमातरं पप्रच्छ सोऽवादीत् यदि मे शतं रूपकाणां प्रयच्छसि ततोऽहं त्वां निराकुलीकरोमि मातः ! कथं मे पिताऽभूदिति ततः सा कथयामास मूलत आरभ्य सर्व तेन प्रतिपन्नं ततो वैद्यो विरेचकौषधं प्रदाय तस्य लाक्षारसखरण्टितं यथावस्थितं वृत्तान्तं दर्शयामास च लिखितान्यक्षराणि / ततो कृत्वा सरटं घटे प्रक्षिप्य तस्मिन् घटे पुरीषोत्सर्ग कारितवान्ततो वैद्येन मातृवचनतात्पर्यावगमतो लिखिताक्षरार्थावगमतश्च ज्ञातमभयकुमारेण दर्शितः तस्यपुरीषखरण्टितोघटे सरटो व्यपगता तस्य सर्वा शङ्का जातो यथा मे पिता राज़गृहे राजा वर्तते इति एवं च ज्ञात्वा मातरमभाणीत् बलि-ठशरीरो वैद्यस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः / / 6 / / व्रजामो राजगृहे सार्थेन सह वयमिति। सा प्रत्यवादीत् वत्स ! यगणसि (कायत्ति) काकोदाहरणं तद्भावना चेन्नातटे नगरे केनापि सौगतेन तत्करोमीति ततोऽभयकुमारः स्वमात्रा सह सार्थेन समं चलितः प्राप्तो कोऽपि खेतपटक्षुल्लकः पृष्टः भो क्षुल्लक ! सर्वज्ञाः किल राजगृहस्य बहिः प्रदेश ततोऽभय-कुमारस्तत्र मातरं विमुच्य किं प्रवर्तते तवार्हन्तस्तत्पुत्रकाश्च यूयं तत्कथय कियन्तो अत्र पुरे वसन्ति वायसाः संप्रति पुरे कथं वा राज्ञा दर्शनीय इति विचिन्त्य राजगृहं प्रविष्टः / तत्र पुरः ततः क्षुल्लकश्चिन्तयामास शठोऽयं प्रतिशठाचरणेन निर्लोठनीयः ततः प्रवेशे एव निर्जलकूपतटे समन्ततो लोकः समुदायेनावतिष्ठते पृष्टं स्वबुद्धिवशात् इदं पठितवान्-"सट्टि कागसहस्सा, इह यं छिन्नायडे चाभयकुमारेण किमित्येष लोकमेलापकः ततो लोकेनोक्तम्। अस्य मध्ये परिवसतिं / जइ ऊणगय वसिया, अब्भहिया पाहुणा आया" ततः स राज्ञोऽङ्गुल्याभरणमास्ते तत्यो नाम तटे स्थितः स्वहस्तेन गृह्णाति तस्मै भिक्षुः प्रत्युत्तरं दातुमशक्नुवन् लकुडाहतशिरस्क इव शिरः कण्डूयमानो राजा महतीं वृत्तिं प्रयच्छतीति तत एवं श्रुते पृष्टाः प्रत्यासन्न-वर्तिनो मौनमाधाय गत इति क्षुल्लकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः / / अथवा अपरो राजनियुक्ताः पुरुषाः तैरप्येवमेव कथितं ततोऽभयकुमारणोक्तमहं तटे वायसदृष्टान्तः कोऽपि क्षुल्लकः केनापि भागवतेन दुष्टबुद्ध्या पृष्टो भोः स्थितो गृहीष्यामि राजनियुक्तैः पुरुषैरुक्तं गृहाण त्वं यत्प्रतिज्ञातं राज्ञा क्षुल्लक ! किमेष काको विष्ठामितस्ततो विक्षिपति क्षुल्लकोऽपि तस्य तदवश्यं करिष्यते ततोऽभयकुमारेण परिभावितमङ्गुल्याभणं दृष्ट्वा सम्यक् दुष्टबुद्धितामवगम्य तन्मर्मवित् प्रत्युत्तरं दत्तवान् युष्मत्सिद्धान्ते च जले तत आर्द्रगोमयेनाह तंसंलग्नं तत्तत्र ततस्तस्मिन् शुष्के मुक्तं स्थले च सर्वत्र व्यापी विष्णुरभ्युपगम्यते ततो यौष्माकीणं सिद्धान्तमुपकूपान्तरात्पानीयं भृतो जलेन परिपूर्णः स कूपः तरति चोपरि श्रुत्य एषोऽपि वायसोऽचिन्तयत् किमस्मिन् पुरीषे समस्ति विष्णुः किं वा नेति ततः स एवमुक्तो वाणाहतमर्मप्रदेश इव धूर्णितचेतनो मौनमवलम्ब्य सोऽङ्गुल्याभरणः शुष्कगोमयस्ततस्तटस्थेन सता गृहीतमङ्गुल्या रुषा धूमायमानो गतः इति क्षुल्लकस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः // 7-8|| भरणमभयकुमारेण कृतश्चानन्दकोलाहलो लोकेन, निवेदितं राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैराकारितोऽभयकुमारो राज्ञा, गतो राज्ञः समीपं मुमोच (उच्चारेति) उच्चारोदाहरणं तद्भावना क्वचित्पुरेकोऽपि धिग्जातीयः तस्य पुरतोडल्याभरणं पृष्टश्च राज्ञा वत्स !कोऽसि त्वम्। अभयकुमारेणोक्तम् / भार्या अभिनवयौवनोद्धेदरमणीया लोचनयुगलवक्रि मावलोहेदेव ! युष्मदपत्यं राजा प्राह कथम्। ततः प्राक्तनवृत्तान्तं कथितवान् कनमहाभल्लीनिपातनताडितसकलकामिकुरङ्ग हृदया प्रबलकाततो जयाम महाप्रमोदं राजा चकारोत्सङ्गे अभयकुमार चुम्बितवान्सनेहं मोन्मत्तमना आसीत् सोऽन्यदा धिग्जातीयः-तया भार्यया सह देशान्तरे गन्तुं प्रवृत्तोऽपान्तराले च धूर्तः कोऽपि पथिको मिलितः। सा चधिग्जातीया शिरसि पृष्टश्च श्रेणिकेनाभयकुमारो वत्स ! क्वते माता वर्तते देव ! बहिः भार्या तस्मिन् तिबद्धवती ततो धूर्तः प्राह मदीया एषा भार्या धिग्जातीयः प्रदेशे ततो राजा सपरिच्छदः तस्याः सन्मुखमुपागमात्।अभयकुमार प्राह मदीयेति ततो राजकुले व्यवहारो जातः / ततः कारणिकैयोरपि श्वाग्रे समागत्य कथयामास सर्व नन्दायाः ततः सात्मानं मण्डयितुं प्रवृत्ता पृथक् कृत्य ह्यस्तनदिनभुक्त आहारः पृष्टो धिग्जातीयेनोक्तं मया निषिद्धा च अभयकुमारेण मातन कल्पते कुलस्त्रीणां निज ह्यस्तनदिने तिला भक्षितास्तद्भार्यया च। धूर्तेनान्यत्किमपि उक्तं ततो पतिविरहितानां निजपतिदर्शनमन्तरेण भूषणं कर्तुमिति समागतो राजा दत्तं तस्याः कारणिकैर्विरकोषधं जातो विरेको दृष्टाः पुरीषान्तर्गतास्तिला पपात राज्ञःपादयोनन्दा सन्मानिता च भूषणादिप्रदानेनातीव राज्ञा दत्ता सा धिग्जातीयस्य निर्धाटितो धूर्तश्च / कारणिकानामौत्पत्तिकीसस्नेहं प्रवेशिता महाविभूत्या नगरं सपुत्रा स्थापितश्चाभय बुद्धिः कुमारोऽमात्यपदे इति अभयकुमारस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः // 4 // (गयत्ति) गजोदाहरणं तद्भावना वसन्तपुरे नगरे कोऽपि राजा तथा (पडित्ति) पटोदाहरणसद्भावना द्वौ पुरुषौ एकस्य आच्छा-दनपट: बुद्ध्यतिशयसपन्नं मन्त्रिणमन्वेषमाणः चतुष्पथे हस्तिनमालान-स्तम्भे सौत्रिकोऽपरस्योपामयः तौ च सह गत्वा युगपत्स्नातुं प्रवृत्ती बन्धयित्वा घोषणामचीकरत् योऽमुंहस्तिनं तोलयति तस्मै राजा महती तत्रोमियपटस्वामी स्वपटं विमुच्य द्वितीयसत्कं सौत्रिकं पटं गृहीत्वा वृत्तिं प्रयच्छतीति इमां घोषणां श्रुत्वा कश्चिदेकः पुमान् तं हस्तिनं गन्तुं प्रस्थितो द्वितीयो याचते स्वपटं स न प्रयच्छति ततो राजकुले च महासरसि नावमारोपयामास तस्मिंश्वारूढे यावत्प्रमाणा नौर्जले निमग्ना व्यवहारो जातः ततः कारणिकैयोरपि सिरसी कंकतिकयाऽवलेखिते तावति प्रमाणे रेखामदात् ततः समुत्तारितो हस्ती तटे प्रक्षिप्ता ततोऽवले खने कृते सति ऊर्णामयपट स्वामिनः शिरसः गाण्डशैलकल्पानावि ग्रावाणस्ते च तावत्प्रक्षिप्ताः यावत् रेखा मर्यादीकृत्य ऊर्णावयवाविनिर्जग्मुः ततो ज्ञातं नूनमेष न सौत्रिकपटस्य स्वामीति जले निमग्ना नौस्ततस्तोलिताः सर्वे ते पाषाणाः कृतमेकत्र पलपरिमाणं निगृहीतोऽपरस्य समर्पितः सौत्रिकपटः कारणिकानामौत्पत्तिकी निवेदितं राज्ञे देव एतावत्पलपरिमाणो हस्ती वर्तते ततस्तुतोष राजा बुद्धिः / / 5 / / (सरडत्ति) सरटोदाहरणंतद्भावना कस्यचित्पुरुषस्य कृतो मन्त्रि मण्डलमूर्धाभिषिक्तः परमो मन्त्रीतस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः पुरीषमृत्सृजतः सरटोगुदस्याधस्ताद्विलं प्रविशन् पुच्छेन मुदं स्पृष्टवान् / १०(पायणेति) भण्डस्तदुदाहरणं विटो नाम कोऽपि पुरुषो राज्ञः Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 557- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्तिया प्रत्यासन्नवतीं तं प्रति राजा निजदेवीं प्रशंसति अहो निरामया मे देवी या न कदाचिदपि वातनिसर्ग विदधाति / विटः प्राह देव ! न भवतीदं जातुचित् / राजा अवादीत् कथं विट आह देव धूर्ता देवी ततो यदा सुगन्धिपुष्पाणि चूर्णवासा त्वां समर्पयति नासिकाग्रे तदा ज्ञातव्यं वातं मुञ्चतीति ततोऽन्यदा राज्ञातथैव परिभावितं सम्यगवगते च हसितं ततो देवी हसननिमित्तकथनाय निर्बन्धं कृतवती ततो राजाऽतिनिर्बन्धे कृते पूर्ववृत्तान्तमचकथत्। ततश्चुकोप तस्मै विटाय देवी आज्ञप्तो देशत्यागेन। तेनापि जज्ञे नूनमकथयत् पूर्ववृत्तान्तं देवो देव्यास्तेन मे चुकोप देवी। ततो महान्तमुपानहां भरमादाय गतो देवीसकाशं विज्ञापयामास देवीम्। देवि ! यामो देशान्तराणि देवी उपानहां भरं पार्श्वे स्थितं दृष्ट्वा पृष्टवती किमेष उपानहांभरः / सोऽवादीत् देवि यावन्ति देशान्तराण्येतावतीभि रुपानदिर्गन्तुं शक्ष्यामि तावत्सु देव्याः कीर्तिर्विस्तारणीया तत एवमुक्ते मा मे सर्वत्राप्यपकीर्तिजयितेति परिभाव्य देवी बलात् तं धारयामास / विटस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः // 11 // (गोलोत्ति) गोलकोदाहरणं तद्भावना लाक्षागोलकः कस्यापि बालकस्य कथमपि नासिकामध्ये प्रविष्टः तन्मातापितरावतीव आर्ती बभूवतुः दर्शितो बालकः सुवर्णकारस्य तेन च सुवर्णकारेण प्रतापाग्रभागया लोहशलाकया शनैः 2 यत्नतो लाक्षागोलको मनाक् प्रताप्य सोपि समाकृष्टः सुवर्णकारस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः।१२। (खंभत्ति) स्तम्भोदाहरणं तद्भावना। राजा मन्त्रिणमेकंगवेषयन्महाविस्तीर्णतटाकमध्ये स्तम्भमेकं निक्षेपयामास तत एवं घोषणां कारितवान् यो नाम तटस्थितोऽमुं स्तम्भ दवरकेण बध्नाति तस्मैराजा शतसहस्र प्रयच्छति तत एवं घोषणां श्रुत्वा कोऽपि पुमान् एकस्मिन् तटप्रदेशे कोलके भूमौ प्रक्षिप्य दवरकेण बध्वा तेन दवरकेण सह सर्वतस्तटे परिभ्राम्यन् मध्यास्थितं तं स्तम्भं बद्धवान् लोकेन च बुद्ध्यतिशयसंपन्नतया प्रशंसितो निवेदितश्च राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैः तुतोष राजा ततस्तं राजा मन्त्रिणमकार्षी त् तस्य पुरुषस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः १३(खुल्लत्ति) क्षुल्लको दाहरणं तद्भावना कस्मिश्चित्पुरे काचित्परिव्राजिका सा यो यत्करोति तदहं कुशककर्मा सर्व करोमीति राज्ञः समक्ष प्रतिज्ञा कृतवती राजा च तत्प्रतिज्ञासूचकं पटहमुद्घोषयामास / तत्र च कोपि क्षुल्लको भिक्षार्थमटन पटहशब्द श्रुतवान् श्रुतश्च प्रतिज्ञार्थः तता धृतवान् पटह प्रतिपन्नो राजसमक्ष व्यवहारो गतो राजकुले क्षुल्लकस्ततस्तं लघुदृष्टा सा परिवजिकात्मीय मुखं विकृत्यावज्ञयाभिधत्ते कथय कुतो गिलामि तत एवमुक्ते क्षुल्लकः स्वंमेद्रं दर्शितवान्ततो हसितं सर्वैरपि जनैरुघुष्टं च जिता परिवजिका तस्या एवं कर्तुमशक्तत्वात्ततः क्षुल्लकः कायिक्या पद्ममालिखितवान् सा कर्तुं न शक्नोति ततो जिता परिवाजिका / क्षुल्लकस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः / 14 (मग्गति) मार्गोदाहरणं तद्भावना कोऽपि पुरुषो निजभार्या गृहीत्वा वाहनेन ग्रामान्तरं गच्छति अपान्तराले च क्वचित्प्रदेशे शरीरचिन्तानिमित्तं तद्भार्यावाहनादुतीर्णवतीतस्यां च शरीरचिन्तानिमित्तं कियभूभागं गतायां तत्प्रदेशवर्तिनी काचित् व्यन्तरी पुरुषस्य रूपसौभाग्यादिकमवलोक्य कामातुरा तद्रूपेणागत्य वाहनं विलग्ना सा च तद्भार्या शरीरचिन्तां विधाय यावद्वाहनसमीपमागच्छति ताक्दन्यां स्त्रियमात्मसमानरूपां वाहनरूढां पश्यति सा च व्यन्तरी पुरुषं प्रत्याह एषा काचित् व्यन्तरी मदीय रूपमाचर्य्यतव सकाशमागच्छतिततः खेटय सत्वरं ततः स पुरुषः तथैव कृतवान्। सा चारटन्ती पश्चाल्लग्ना समागच्छति पुरुषोऽपितामारटन्तीं दृष्ट्वा मूढचेता मन्द 2 खेटयामास ततः प्रावर्तत तयो स्तद्वार्याव्य-- न्तॉर्निष्ठुरभाषणादिकः परस्परं कलहः ग्रामे च प्राप्ते जातः तयो राजकुले व्यवहारः पुरुषश्च निर्णयमकुर्वन्नुदासीनो वर्तते। ततः कारणिकैः पुरुषो दूरे व्यवस्थापितो भणिते च द्वे अपि स्त्रियौ युवयोर्मध्ये या काचिदमुं प्रथम हस्तेन संस्पृक्ष्यति तस्याः पतिरेष न शेषायाः / ततो व्यन्तरी दूरतः हस्तं प्रसार्य प्रथमं स्पृष्टवती ततो ज्ञातं कारणिकैरेषा वयन्तरीति / ततो निर्धाटिता द्वितीया च समर्पिता स्वपतेः। कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः 15 (इस्थित्ति) स्त्र्युदाहरणं तद्भावना मूलदेवकण्डरीको सह पन्थानं गच्छतः इतश्च कोऽपि सभार्याकः पुरुष तेनैव पथा गन्तुं प्रावर्तत कण्डरीकश्च दूरस्थितः तद्भागितमतिशायि रूपं दृष्ट्वा साभिलाषो जातः कथितं च तेन मूलदेवस्य यदीमा मे संपादयसि तदाहंजीवामि नान्यथेति ततो मूलदेवोऽवादीत मात्वरीभूरहं ते नियमतः संपादयिष्यामि। ततस्तौ द्वावप्यलक्षितौ सत्वरं दूरतो गतौ ततो मूलदेवः कण्डरीकमेकस्मिन्वनलिकुञ्ज संस्थाप्य पथिऊर्ध्वस्थितौ वर्तते ततः पश्चादायातः सभार्याकः स पुरुषो भणितो मूलदेवेन / भो महापुरुषः! महिलाया मेऽस्मिन्वननिकुञ्ज प्रसवो वर्तते ततः क्षणमात्रं निजमहिलां विसर्जय, विसर्जिता तेन आगता कण्डरीकपार्च ततः क्षणमात्रं स्थित्वा समागता। "आगंतूण य तत्तो, पडयं घेत्तूण मूलदेवस्स। धुत्ती भणइ हसंती, पियं खुणे दारओ जाओ" द्वयोरपि तयोरौत्पत्तिकी बुद्धिः / / 16 / / (पइत्ति) पतिदृष्टान्तः तद्भावना द्वयोभ्रत्रिोरेका भार्या लोके च महाकौतुकमहो द्वयोरप्येषा समानुरागेति एतच्च श्रुतिपरंपरया राज्ञाऽपि श्रुतं परं विस्मयमुपागतो राजा / मन्त्री ब्रूते देव ! न भवति कदाचिदप्येतदवश्यं विशेषः कोऽपि भविष्यति राज्ञोक्तं कथमेतदवसेयम्। मन्त्रीब्रूते देवाचिरादेव यथा ज्ञास्यते तथा यतिष्यते / ततो मन्त्रिणा तस्याः स्त्रिया लेखः प्रेषितो यथा द्वावपि निजपती ग्रामद्वये प्रेषणीयावेकः पूर्वस्यां दिशि विवक्षितेग्रामेऽपरोऽपरस्यां दिशि। तस्मिन्नेव च दिने द्वाभ्यामपि गृहे समागन्तव्यम् / ततस्तया या मन्दवल्लभः स पूर्वस्यां दिशि प्रेषितोऽपरोऽपरस्यां दिशि। पूर्वस्यां दिशि यो गतः तस्य गच्छतः आगच्छतश्च संमुखः सूर्यः / यः पुनरपरस्यां दिशि गतः तस्य गच्छतः आगच्छतश्च पृष्टतः एवं च कृते मन्त्रिणा ज्ञातमयं मन्दवल्लभोऽपरोऽत्यन्तबल्लभः। ततो निवेदितं राज्ञो राज्ञाचन प्रतिपन्न यतोऽवश्यमेकः पूर्वस्यां दिशि प्रेषणीयो-ऽपरोऽपरस्यां दिशि / ततः कथमेष विशेषोऽवगम्यते ततः पुनरपि मन्त्रिणा लेखप्रदानेन सा महेलोक्ता द्वावपि निजपती तयोरेव ग्रामयोः समकं प्रेषणीयौ तया च तौ तथैव प्रेषितौ मन्त्रिणा च द्वौ पुरुषौ तस्या समीपे समकं तयोः शरीरापाटवनिवेदको प्रेषितौ द्वाभ्यामपिच सा समकमाकारिता ततो यो मन्दबल्लभशरीरपाटवनिवेदकः पुरुषस्तं प्रत्याहस देवो मन्दशरीरी द्वितीयोऽत्यातुरश्च वर्तते ततस्तं प्रत्यहं गमिष्यामि / तथैव कृतं ततो निवेदितं राज्ञो मन्त्रिणा प्रतिपन्न राज्ञा तथेति। मन्त्रिण औत्पत्तिकी बुद्धिः // 17 // (पुत्तत्ति) पुत्रदृष्टान्त तद्भावना कोऽपि वणिक् तस्य द्वे पत्न्यौ एकस्य पुत्रोऽपरा बन्ध्या परं सा पितं पुत्रं सम्यक्पालयति ततः स पुत्रो विशेषं न जानीते यथेयं मे जननी इयं नेति सोऽपि वणिक सभार्या पुत्रो देशान्तरं गतो गतमात्र एव परासुरभूत् ततोद्वयोरपि तयोः कलहोऽजायत / एका भणति ममैष पुत्रस्ततोऽहं Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 858 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पत्तिया गृहस्वामिनी द्वितीया तु वक्ति का त्वं ममैष पुत्रः ततोऽहमेवगृहस्वामिनीति / एवं तयोः परस्परं कलहे जाते राजकुले व्यवहारो जातः / ततोऽमात्यः प्रतिपादयामास निजपुरुषान् भो पूर्वद्रव्यं समस्तं विभज्य ततो दारकं द्वौ भागौ करपत्रेण कुरुत कृत्वा चैकं खण्डमेकस्यै समर्पयत द्वितीयं द्वितीयस्यै। तत एतदमात्यवाक्यं शिरसि महाज्वलासहस्रावलीढवजोपनिपातकल्पं पुत्रमाता श्रुत्वा सोत्कम्पहृदयान्तः प्रविष्ठतिर्यशिलेव दुःखं वक्तुं प्रवृत्ता हे स्वामिन् ! महामात्य न ममैष पुत्रो न मे किचिदर्थेन प्रयोजनमेतस्या एव पुत्रो भवत्वियं गृहस्वामिनीच अहं पुनरमुंपुत्रं दूरस्थितापिपरगृहेषु दारिद्रयमपिकुर्वती जीवन्तंद्रक्ष्यामि तावताच कृतकृत्यमात्मानं प्रपत्स्ये। पुत्रेण विनापुनरधुनापि समस्तोऽपि मे जीवलोकोऽस्तमुपयाति इतरा च न किमपि वक्ति ततोऽमात्येन तां सुदुःखां परिभाव्य उक्तमेतस्याः पुत्रो नास्याइति।सैवच सर्वस्य स्वामिनी कृता द्वितीया तु निर्धाटिता अमात्यस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः 18 भरहसिलमेढेत्यादिका च गाथा रोहक संविधानसूचिका सा च प्रागु-- तकथानकानुसारेण स्वयमेव व्याख्येया। (मधुसिक्केत्यादि) मधुयुक्तं सिक्थंतदृष्टान्तभावना कश्चित्कौलिकःतस्य भार्या स्वैरिणी सा चान्यदा केनापि पुरुषेण सह क्वचित्प्रदेशे जालिका-मध्ये मैथुनं सेवितवती मैथुनस्थितया च तया उपरि भ्रामरमुत्पन्नं दृष्ट क्षणमात्रानन्तरं च गृहे समागता। द्वितीये च दिवसे स्विभर्ता मदनं क्रीणस्तया निवारितो मा क्रीणीहि मदनं महत् भ्रामरमुत्पन्नं दर्शयामि / ततः सक्रयणाद्विनिवृत्तो गतौ च तौ द्वावपि तां जालिं न पश्यति सा कथमपि कौलिकी भ्रामरं न दृष्टवती ततो येन संस्थानेन मैथुनं सेवितवती तेन संस्थानेन स्थिता ततो भ्रामरं दृष्टवती दर्शयामास च कौलिकाय कौलिकोऽपि च तथारूपं संस्थानभव-लोक्य ज्ञातवान्नूनमेषा दुराचारिणी ति / कौलिकस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः // 16 // (मुद्दियति) मुद्रिकोदाहरणं तद्भावना क्वचित्पुरे कोऽपि पुरोधाः सर्वत्र ख्यातसत्यवृत्तिर्यथा परकीयान्निक्षेपानादाय प्रभूतकाला-तिक्रमेऽपि तथास्थितानेव समर्पयतीति एतच ज्ञात्वा कोऽपिद्रमकः तस्मै स्वनिक्षेप समर्घ्य देशान्तरं प्रभूततरमगमत् प्रभूतकालातिक्रमे च भूयोप तत्रागतो याचते स्वं निक्षेपं पुरोधाश्च मूलत एवापलवति कस्त्वं कीदृशो वा तव निक्षेप इति। ततः स रङ्को वराकः स्वनिक्षेपमलभमानः शून्यचित्तोबभूव / अन्यदा च तेना-मात्यो गच्छन् दृष्टो याचितश्च देहि मे पुरोहित ! सुवर्णसहस्रप्रमाणं निक्षेपमिति / तत एतदाकर्ण्य अमात्यः तद्विषयकृपापरीतचेताः बभूव / ततो गत्वा निवेदितं राज्ञः कारितश्च दर्शनं द्रमकोऽपि राज्ञा भणितः पुरोधा देहि तस्मै द्रमकाय स्वं निक्षेपमिति। पुरोहितोऽवादीत् देव! तस्याहं न किमपि गृह्णामि। ततो राजा मौनमधात्। पुरोधसि चस्वगृहंगते राजा विजनेतंद्रमकं पृष्टवान् रे कथय ! सत्यमिति ततस्तेन दिवसमुहूर्तस्थानपार्श्ववर्तिमानुषादिकं कथितम् ततोऽन्यदा राजा पुरोधसासमंन्तुं प्रावर्तत परस्परं नाममुद्रा संचारिता ततो राजा यथा पुरोधा न वेत्ति तथा कस्यापि मानुषहस्ते नामुमुद्रां समर्प्य तं प्रति वभाण रे पुरोधसो गृहे गत्वा तद्भायर्यामवंब्रूहि यथाऽहं पुरोधसा प्रेषितः इयं चनाममुद्राभिज्ञानं तस्मिन् दिने तस्यां वेलायां यः सुवर्णसहस्रं नवलको द्रमकसत्कः त्वत्समक्षममुकप्रदेशे मुक्तोऽस्ति तं झटिति समर्पय तेन पुरुषेण तथैव कृतं सापिचपुरोधसो भार्या नाममुद्रांदृष्टाऽभिज्ञान मिलनतश्च सत्यमेष पुरोधसा प्रेषित इति प्रतिपन्नवती। ततः समर्पयामास तं द्रमकनिक्षेपं तेन पुरुषेणानीय राज्ञः समर्पितो राज्ञा चान्येषां बहूनां | नवलकानांमध्ये सद्रमकनवलकः प्रक्षिप्तः आकारितो द्रमकः / पार्चे चोपवेशितः पुरोधा द्रमकोऽपि तथात्मीयं नवलकं दृष्ट्वा प्रमुदितहृदयो विकसितलोचनोऽपगतचित्तसून्यताभावः सहर्ष राजानं विज्ञापयितुं प्रवृत्तो देव ! देवपदानां पुरत एवमाकारो मदीयो नवलकस्ततो राजा तस्मै समर्पयामास / पुरोधसो जिह्वाच्छेदमचीकरत्। राज्ञः औत्पत्तिकी बुद्धिः // 20 // (अंकत्ति) अङ्कदृष्टान्तभावना कोऽपि पावें रूपकसहस्रनवलक निक्षिप्तवान् तेन च निक्षेपग्राहिणा तं नवलकमधः प्रदेशे च्छित्वा कूटरूपकाणां संभृतः तथैव च सीवितः / ततः कालान्तरे तस्य पावन्निक्षेपस्वामिनास्वनिक्षेपो गृहीतः परिभावितः सर्वतः तथैव दृश्यते मुद्रादिकं तत उद्घाटिता मुद्रायावत्रूपकान्परिभावयति तावत्सर्वानपि कूटान्पश्यति ततो जातो राजकुलेन तयोर्व्यवहारः / पृष्टः कारणिकैर्निक्षेपस्वामी भोः कतिसंख्यास्तव नवलके रूपका आसीरन् सप्राह सहसंततोगणयित्वा रूपकाणां सहस्रं तेन भृतः स नवलकः सच परिपूर्ण भृतः केवलं यावन्मात्रमधस्ताच्छिन्नस्तावन्नयून इति उपरि सीवितुं न शक्यन्ते ततो ज्ञातं कारणिकैः नूनमस्याऽपहृता रूपकाः ततो दापितो रूपकसहस्रमितरोनवलकस्वामिनः। कारणिकानामौत्प-त्तिकी बुद्धिः // 21 // (नाणत्ति) कोऽपि कस्यापि पार्श्वे सुवर्णपणभृतं नवलकं क्षिप्तवान्ततो गतो देशान्तरं प्रभूते च कालातिक्रान्ते निक्षेपग्राहीतस्मान्नवलकाज्जात्यसुवर्णमयान् पणान् गृहीत्वा हीनवर्णकसुवर्णपणान् तावत्संख्याकान्तत्र प्रक्षिप्तवान् तथैवच सनवलकः तेन सीवितः ततः कतिपयदिनानन्तरं स नवलकस्वामी देशान्तरादागतः स्वं च नवलकं तस्य पार्श्वे याचितवान् सोऽपि समर्पयामास परिभावितं तेन मुद्रादिकं तथैव दृष्टम् / ततो मुद्रां स्फोटयित्वा यावत्पणान्प-रिभावयति तावद्धीनवर्णसुवर्णकमयान् पश्यति ततो बभूव राजकुले व्यवहारः पृष्ट च कारणिकैः कः कालः आसीत् यत्र त्वया नवलको मुक्त इति / नवलकस्वामी प्राह / अमुक, इति ततः कारणिकै रुक्तं स चिरन्तनकालोऽधुनातनकालकृताश्व दृश्यन्तेऽमी पणास्ततो मिथ्याभाषी नूनमेष निक्षेपग्राहीति दण्डितो दापिताश्च तस्य तावत्पणास्तमिति / कारणिकानामौत्पत्तिकीबुद्धिः // 22 // (भिक्खुत्ति) भिक्षूदाहरणं तद्भावना कोपि कस्यापि भिक्षोः पार्वे सुवर्णसहस्रं निक्षिप्तवान् कालान्तरे याचते स च भिक्षुर्न प्रयच्छतिके बलमद्यकल्ये वा ददामीति विप्रतारयति ततस्तेनद्यूतकारा अवलगितास्ततस्तैः प्रतिपन्नं निश्चितं दापयिष्यामः / ततो द्यूतकारा रक्तपटवेषेण सुवर्णखोटिकां गृहीत्वा समागता वदन्तिच वयं चैत्यवन्दनाय देशान्तरं यियासवो यूयं परमसत्यतापात्रमत एताः सुवर्णखोटिका युष्मत्पार्श्वे स्थास्यन्ति एतावतिचावसरेपूर्वं संकेतितःसपुरुषः आगत्य याचते स्म भिक्षो ! समर्पय स्थापनिकामिति ततो भिक्षुणाभिनवमुच्यमानसुवर्णखोटिका लम्पटतया समर्पिता तस्य स्थापनिका तस्मै / मा एतासामहमाभागीजायेयेति बुद्ध्या तेऽपिच द्यूतकाराः किमपि मिषान्तरं कृत्वा स्वसुवर्णखोटिकां गृहीत्वा गताः / द्यूतकाराणामौत्पत्तिकी बुद्धिः २३(चेडगानिहाणत्ति) चेटका बालकानिधानं प्रतीत दृष्टान्तभावना द्वौ पुरुषौ परस्परं प्रतिपन्नसखिभावावन्यदा वदित्प्रदेशे ताभ्यां निधानमुपलेभे तत एको मायावी ब्रूते स्वस्तनदिने शुभे नक्षत्रे ग्रहीष्यामो द्वितीयेन च सरलमनस्कतया तथैव प्रतिपन्नम्। ततस्तेन मायाविना तस्मिन् प्रदेशे रात्रावागत्य निधानं गृहीत्या तत्रागारकाः प्रक्षिप्ताः ततो द्वितीयदिने तौ द्वावपि भूत्या गतौ दृष्टवन्तो तत्राङ्गारकान् / ततो मायावी मायया स्वोरस्ताडमाक्र-- Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पत्तिया 856 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्परिवाडीकरण न्दितुं प्रावर्तत वदति च हा हीनपुण्या वयं दैवेन चक्षुर्दत्वाऽस्माकं सुमतिस्वामिनि तीर्थकरे गर्भस्थिते जनन्या मङ्गलादेव्या जज्ञे तत समुत्पाटिते यन्निधानमुपदिश्याङ्गारका दर्शिताः पुनः पुनश्च द्विती- आकारिते द्वे अपि ते सपल्यौ ततो देव्या प्रत्यपादिकतिपयदिनानन्तरं यमुखमवलोकते ततो द्वितीयेन जज्ञे नूनमनेन हृत धनमिति तत- मे पुत्रो भविष्यति सच बृद्धिमधिरूढोऽस्याशोकपादपस्या-धस्तादुपविष्टो स्तेनाप्याकारसंवरणं कृत्वा तस्यानुशासनार्थमूचे मा वयस्य खेदं कार्षी : युष्माकं व्यवहारं छेत्स्यति। तत एतावन्तं कालं यावदविशेषण खादतां न खलु खेदं पुनर्विधानप्रत्यागमनहेतुः। ततो गतौ द्वावपि सर्व गृहं ततो पिबतामिति ततो न यस्याः पुत्रः साऽचिन्तयत्लब्धस्तावदेतावान् कालः द्वितीयेन तस्य मायाविनो लेप्यमयीं सजीवेव प्रतिमा कारिता द्वौ च पश्चाद्यद्भविष्यति तन्न जानीमः / ततो हृष्टवदनयाऽनया प्रतिपन्नं ततो गृहीतौ मर्कटौ प्रतिमायाश्चोत्सङ्गे हस्तेशिरसिस्कन्धेवान्यत्र च यथायोग्य देव्या जज्ञे नैषा पुत्रस्य मातेति निर्भत्सिता द्वितीया च गृह-स्वामिनी तयोर्मर्कटयोर्भक्ष्यं मुक्तवान्तौच मर्कटो क्षुधापीडितौ तत्रागत्य प्रतिमाया कृता। देव्या औत्पत्तिकी बुद्धिः // 26 // उत्सङ्गादौ भक्षं भक्षितवन्तौ एवं च प्रतिदिनं करणे तयोस्तादृश्येव शैली (इत्थीसमहेत्ति) काऽपि स्त्री तस्या भर्ता पञ्चत्वमुपागतः सा च समजनि / ततोन्यदा किमपि पर्वाधिकृत्य मायाविनो द्वावपि पुत्रौ वृद्धिप्रयुक्तं लोकेभ्यो न लभते ततः पतिमित्रं भणितवन्ती मम दापय भोजनाय निमन्त्रितौ समागतौ च भोजनवेलायां तद्गृहे भोजितौ च तेन लोकेभ्यो धनमिति / ततस्तेनोक्तं यदि मम भाग प्रयच्छसि / तयोक्तं महागौरवेण भोजनानन्तरं च तौ महता सुखेनान्यत्र संगोपितो। यदिच्छसि तन्मह्यं दद्या इति ततस्तेन लोकेभ्यः सर्व द्रव्यमुद्ग्राहितं ततस्तोकदिनावसाने मायावी स्वपुत्रशोधिकरणा य तद्गृहमागतः ततो तस्यै स्तोकं प्रयच्छति सानेच्छति ततो जातो राजकुले व्यवहारः ततः द्वितीयस्तं प्रति ब्रूते मित्र ! तौ तव पुत्रौ मर्कटावभूतां ततः सखेदं कारणिकैर्यदुद्ग्राहितं द्रव्यं तत्सर्वमानायितं कृतौ द्वौ भागौ एको महान् विस्मतचेता गृहमध्यं प्राविशत् ततो लेप्यमयिं प्रतिमामुत्सार्य तत्स्थाने द्वितीयोऽल्प इति ततः पृष्टः कारणिकैः पुरुषः कं भागत्वमिच्छसि सप्राह समुपावेशितो मुक्तौ स्वस्थानात् मर्कटौच किलकिलायमानौ तस्योत्सङ्गे महान्तमिति / ततः कारणिकैरक्षरार्थो विचारितो यदिच्छसि तन्मा शिरसि स्कन्धे वागत्य विलनौ / ततो मित्रमवादीत् भो वयस्य ! तावेतौ दद्या इति त्वं चेच्छसि महान्तं भागं ततो महान भाग एतस्या द्वितीयस्तु तव पुत्रौ तथा च पश्य तव स्नेहमात्मीयं दर्शयतः। ततः स मायावी प्राह तवेति / कारणिकानामौत्त्पत्ति की बुद्धिः / 27 / वयस्य ! किं मानुषावकस्मान्मर्कटको जातौ वयस्य आह भवतः (सयसहस्सत्ति) कोऽपि परिव्राजकः तस्य रौप्यमयं महाप्रमाणं भाजनं कर्मप्रातिकूल्यवशात् तथाहि किं सुवर्णमङ्गारी भवति परमावयोः खोरयसंज्ञं सच यदेकवारं शृणोति तत्सर्वं तथैवाऽवधा-रयति ततः स कर्मप्रातिकूल्यादेतदपि जातं तथा तव पुत्रावपि मर्कटावभूतामिति। ततो निजप्रज्ञागर्वमुद्हन् सर्वत्र प्रतिज्ञां कृतवान् यो नाम ममापूर्व श्रावयति मायावी चिन्तयामासनूनमहं ज्ञातोऽनेन ततो यधुन्चैः शब्दं करिष्येततोऽहं तस्मै ददामीदं निजभाजनमितिान चकोऽप्यपूर्वं श्रावयितुं शक्नोति स राजग्राह्यो भविष्यामि पुत्रौ चात्यथा मे न भवतः ततस्तेन सर्व हि यत्किमपिशृणोति तत्सर्वमस्खलितं तथैवानुवदति। वदति चाग्रेऽपीदं यथावस्थितं निवेदितं दत्तश्च भागः इतरेण च सम-प्र्पिती पुत्रौ मया श्रुतं कथमन्यथाहमस्खलितं भणामीति एतत्सर्वं ख्यातिमगमत् तस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः // 24 // ततः केनापि सिद्धपुत्रकेण ज्ञातप्रतिज्ञेन तं प्रत्युक्तमपूर्वं श्रावयिष्यामि। (सिक्खत्ति) शिक्षा धनुर्वेदे तदुदाहरणभावना कोऽपि पुमानतीव ततो मिलितो भूयान् लोको राजसमक्षं व्यवहारो बभूव / ततः धनुर्वेदकुशलः स परिभ्रमन्नैकत्रेश्वरपुत्रान् शिक्षयितुं प्रावर्तत तेभ्य- सिद्धपुत्रोऽपाठीत् / "तुज्झ पिया मह पिउणो, धारेइ अणूणग श्वेश्वरपुत्रेभ्यः प्रभूतं द्रव्यं प्रापितवान्ततः पित्रादयस्तेषां चिन्तया-मासुः सयसहस्सं / जइ सुयपुव्वं दिजउ, अह न सुयं खोरयं देसु" जितः प्रभूतमेतस्मै दत्तवन्तः / ततो य दासौ यास्यति तदैनं मारयित्वा सर्व परिव्राजकः सिद्धपुत्रेण / सिद्ध-पुत्रस्यौत्पत्तिकीबुद्धिः / / 28 / / नं० / / ग्रहीष्यामः एतच कथमपि तेन ज्ञातं ततः स्वबन्धूनां ग्रामान्तरवासिनां आ०म०द्वि०। आ०चू०। आ०क०। कथमपिज्ञापितं यथाहममुकस्या रात्रौ नद्यां गोमयपिण्डान प्रक्षेप्स्यामि उप्पयंत त्रि०(उत्पतत्) ऊर्द्ध पतति, "उप्पयंताणि पतंता भमंता भवद्भिस्ते ग्राह्या इति / ततस्तैस्तथेव प्रतिपन्नं ततो द्रव्येन संवलिता पुव्वकम्मोदयोपगया"प्रश्न०१द्वा०। गोमयपिण्डास्तेन कृताः आतपेन शोषितास्तत ईश्वरपुत्रान् प्रत्युवाच उप्पयण न०(उत्पतन) उत्-पत्ल्यु ट्ऊ र्ध्वगमने, स्था०१० ठा०। यथैषोऽस्माकं विधिर्विवक्षितपर्वणि स्नानमन्त्रपुरस्सरं ते सर्वे ऽपि उप्पयणिवय पुं०(उत्पातनिपात) उत्पात आकाशे उल्लङ्घनं गोमयपिण्डा नद्यां प्रक्षिप्या-स्ततः समागतो गृहं तेऽपि गोमयपिण्डा नीता निपातस्तस्मादवपतनम् (जं०४ वक्ष०)उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स वन्धुभिः स्वग्रामे / ततः कतिपयदिनातिक्रमे तानीश्वरपुत्रान् तेषां च उत्पातनिपातः / नाट्यविधिभेदे, "उप्पयणिवयपसत्तं संकुचियं पित्रादीन् प्रत्येक मुत्कलयाप्यात्मानं च वसुमात्रपरिग्रहोपेतं दर्शयन् पसारियरयारइयंभंतं सभणाम दिव्यं णट्टविहिं उवदंसेत्ति" रा०जी०। सर्वजनसमक्षं स्वग्राम जगाम पित्रादिभिश्च परिभावितो नास्य पार्श्वे किमप्यस्तीति न मारितः / तस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः 25 उप्पयणी स्त्री०(उत्पतनी) विद्याभेदे, यां जपन् स्वत एव पतत्यन्यं (अत्थसत्थेति) अर्थशास्त्रमर्थविषयं नीतिशास्त्रं तदृष्टान्तभावना / चोत्पातयति।। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। कोऽपि वणिक् तस्य द्वे पत्न्यौ एकस्याः पुत्रोऽपरावन्ध्या परं साऽपि पुत्रं उप्पयमाण त्रि०(उत्पतत्) ऊर्द्ध पतति, स्त्रियाम्। "उप्पयमाणी विव सम्यक् परिपालयति ततःपुत्रो विशेषं न बुध्यते यथेयं मेजननी नेयमिति धरणितलाउ'' उत्पतन्ती ऊर्द्ध यान्ती। ज्ञा०६ अ०॥ सोऽपि वणिक् सभार्यापुत्रो देशान्तरमगमत् / यत्र सुमतिस्वामिन- उप्परिवाडी स्त्री०(उत्परिपाटी) विपर्यासे, "उप्परिवाडी गहणे, स्तीर्थकृतो जन्मभूमिः तत्र गतमात्र एव च दिवं गतः सपल्योश्च परस्परं चाउम्मासा भवे लहुगा" ग०१ अधि०॥ कलहोऽभूत् एका ब्रूतेममैष पुत्रः ततोऽहंगृहस्वामिनी द्वितीयाब्रूतेऽहमिति उप्परिवाडीकरण न०(उत्परिपाटीकरण) विपर्ययकरणे, "उप्परिवाडी ततो राजकुले व्यवहारो जातः तथापि न निर्बलति एतच भगवति | करणे, दोसा सम्मं तहा करणे' पं०व०। Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पल 560- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पाय उप्पल न०(उत्पल) उद्- पल्- अच् प्राकृते "कगटडतदयशषस उप्पव्वइय त्रि०(उत्प्रव्रजित) उत्प्रव्रज्य निर्गते, उत्प्रव्रजितस्तु द्विधा कपा मूवं लुक"बारा७७।। इति संयोगादेलक। प्रा०पद्ये सारूपी गृहस्थश्च / ध०२ अधि०! विशे० / "फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियं" ज्ञा०१ अ० / वि० / उप्पहपुं०(उत्पथ) उन्मार्गे , "आवजे उप्पह जंतु" सूत्र०१ श्रु०१ अ० / कल्प० / औ० / गर्दभके, श्वेतकुमुदे, आ०मम० प्र०। "पक्खंतरेसु ओ०। ''पंथा उउप्पहं नेति" नि०चू०३ उ०। कदर्थे पथि, वाच० बहूई पउमाइं जाव सयसहस्सावत्ताई" जी०३प्रति०। रा०। ईषन्नाले उप्पहज्जाइ पुं०न०(उत्पथयायिन्) उन्मार्गगामिनि युग्ये, तत्तु-ल्ये जलरुहे, जं०१ वक्ष०ा नीलोत्पले,जी०३ प्रति०भ०। तं०। स०। लिङ्गावशेषे, परसमयगते वा पुरुषेचा स्था०३ ठा०। आचा०ा रक्तकमले, कल्पका उत्पलं त्रिविधं नीलं रक्तं श्वेतञ्चावाचा उप्पहेड (देशी०) महाराष्ट्रादि देशविशेषप्रसिद्धेऽर्थे, प्रा०। अत एव उत्पलशब्दस्य, नीलोत्पलं रक्तकमलं गर्दभकं उप्पा पुं०(उत्पाद) प्राकुते स्त्रीत्वं तथारूपत्वं च "एगा उप्पा" नीलोत्पलादीत्येवं विभिन्ना अर्था उपलभ्यते (उत्पलस्य उपपातः प्राकृतत्वादुत्पादः स चैकसमये एकपर्यायापेक्षया नहि तस्य युगपपरिमाणमवहार उचत्वं यावत्समुद्घात उद्वर्तनाः द्वात्रिंशता द्वारैर्वणप्फइ दुत्पादद्वयादिरस्ति अनपेक्षिततद्विशेषकपदार्थतया चैकोऽसाविति / शब्दे वक्ष्यते) कुष्ठेगन्धद्रव्यविशेषे,।"पउमुप्पलगंधिए सातच्च उत्पलं स्था०१ठा०। कुष्ठामिति प्रसिद्धम् // जं० 3 वक्ष० / जी० / तं०।। उप्पाइत्ता त्रि०(उत्पादयितृ) उत्पादनशीले, स्था०७ ठा० / उत्पादके, चतुरशीतावुत्पलाङ्गशतसहस्रेषु, जी०।३ प्रति०। अनु० स्था०। दशमे स्था०४ ठा०। कल्पे चतुर्थविमाने च। स०। स्वनामख्यामे पाश्र्थापत्यीये परिव्राजके, *उत्पादयितुम् अव्य० संपादयितुमित्यर्थे , "उप्पाइत्ता एगे य सप्पए पुं०। अस्थिक्ग्रामे वीर-भगवति शूलपाणियक्षेणोपसृष्टे, "तल्थ उप्पलो पुव्वुप्पन्नाणं" स्था० 4 ठा०। नाम पुराणो पासवचिजतो परिव्वायगो अटुंगमहाणिमित्तजाणगो उप्पाइय त्रि०(औत्पातिक) उत्पादने निवृत्तमौत्पातिकम् / पांशुजणपासातो सोऊण मा तित्थगरोहोजा अट्टिइंपकरेइ। आ०म०द्वि०। पातादौ, तन्निमित्तके अस्वाध्याये च आव० 4 अ० / रुधिरवृष्टआ०क० / "तत्थ उप्पलो नाम पच्छाकडो परिवाओ पासायच्चिज्जो यादीनामनिष्टसूचकानां हेतुष्वनार्थे षु, "उप्पाइयावाही" णेमित्तिओ भोमउप्पातसुमिणअंतलिक्खअंगसरलक्खणवंजण उत्पातोऽनिष्टसूचकरुधिरवृष्ट्यादयस्तद्धेतुका येऽनस्तेि औत्पाअटुंगमहाणिमित्तजाणओ / आचू०१अ० 1 उत्क्रान्तं पलं मांसम् / तिकाः स०। अत्या० स०। मांसशून्ये, त्रि० / वाच० स्वनामख्याते द्वीवसमुद्रे च। | सप्याइयपवण पं0 औत्पातिकपवन) उत्पातजनितवायौ प्रश्न0 3 प्रज्ञा०१५ पद०। द्वा०। उप्पलंग न०(उत्पलाङ्ग) चतुरशीतौ हुहुकशतसहस्रेषु, जी०३ प्रति०। उप्पाइयपध्वय पुं०(औत्पातिकपर्वत) अस्वाभाविके, "उप्पाइजं० स्था०। यपव्वयं व चंकमंतं सक्खं मत्तं गुलुगुलुंत'' स्वाभाविकपर्वतो हि न उप्पलकंद पुं०(उत्पलकन्द) मूलबीजे कन्दभेदे, स्था० 5 ठा० / चक्रमते अत उच्यते औत्पातिकपर्वतमिव चङ्क्रम्यमाणम्पाठान्तरेण उप्पलगुम्मा स्त्री०(उत्पलगुल्मा) जम्बूसुदर्शनाया दक्षिणपूर्वस्यां तु औत्पातिकपर्वतमिव / औ०। ज्ञा०। पूर्वदिशि नन्दापुष्करिण्याम्, जी०३ प्रति०। उप्पाइयाविच्छिण्णकोउहलत्त न०(उत्पादिताविच्छिन्नकौतूहलउप्पलणाल न०(उत्पलनाल) नीलोत्पलादेराधारे, आचा०२ श्रु०१ त्व) श्रोतृणां स्वविषये उत्पादितंजनितमविच्छिन्नं कौतूहलं कौतुकं येन अ०। तत्तथा / तद्भावस्तत्त्वम् / श्रोतृषु स्वविषयाद्भुतविस्मयका-रितारूपे उप्पलवेंटग पुं०(उत्पलवृन्तक) उत्पलवृन्तानि नियमविशेषाद गृह्यतया षड्विंशे सत्यवचनातिशये, रा०॥ भैक्षत्वेन येषां सन्ति ते उत्पलवृन्तिकाः। आजीविकरमणभेदेषु, औ०॥ उप्पाडण न०(उत्पाटन) उद्-पट्-णिच्-ल्युट्-भूमेरुत्क्षेपे, प्रश्न०१ उप्पलहत्थग पुं०(उत्पलहस्थक) उत्पलाख्यजलजकुसुमविशेषे / द्वा०। उत्खनने, “सकृदुत्पाटनतः,शालिरपि फलावहः पुंस" षो०१४ आ०म० द्वि० / जीवा० / रा०। विव० / नि० चू०।। उप्पला स्त्री०(उत्पला) शङ्खभा-याम्, स्था० 9 ठा० / "तस्सणं उप्पाडिय त्रि०(उत्पाटित) उन्मूलिते, "उप्पाडियनयणदंसणसंखस्स समणोवासगस्स उप्पला णामं भारिया होत्था सुकुमाल जाव वसणासणस्स" आ०क०॥ सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरइ" भ०१२ श० उप्पाय पुं०(उत्पात) उत्पतनमुत्पातः। उद्-पत्-घञ्-ऊर्द्ध-गमने, १उ०। (संखशब्देऽन्यत्)कालस्य पिशाचेन्द्रस्य तृतीयाग्रमहिष्याम, भ० स्था० 1 ठा० / प्रकृतिविकारे, तद्रूपे सहजरुधिरवृष्ट्यादी, 10 श० 5 उ०। (तस्याभवत्रयवक्तव्यता अगमहिसी शब्दे उक्ता) तत्प्रतिपादनपरे शास्त्रे च। यथा राष्ट्रोत्पातादि स्था०६ ठा० / प्रश्न / भीमाभिधानकूटग्राहिणो भार्यायाम्, यस्याः पुत्रो गोत्रासो मृत्वा नरकं स० / अनु०। सूत्र० / आव०!"साहिए वरिसाइ जम्मि जायइ भन्नइ गत्वा ततो विजयसार्थवाहस्य भद्रायामुज्झितको नाम दारकोऽभवत्। तमुप्पायं" सहजरुधिरवृष्ट्यादियस्मिन्जायते तदुत्पातभिधं निमित्तम्। आदिशब्दादस्थिवृष्ट्यादिपरिग्रहः / यथा 'मञ्जानि रुधिरास्थीनि, विपा०२ अ०। (वक्तव्यता उज्झिययशब्दे उक्ता) जम्ब्वाः सुदर्शनाया धान्यागारान् वशास्तथा मघवा वर्षते यत्र, भयं विद्याच्चतुर्विधमित्यादि। दक्षिणपूर्वस्या पश्चिमायां दिशि नन्दापुष्करिण्याम्, जी०३ प्रति०। प्रव० / अभ्रादिविकारवत् विस्तरतः परिणामत उत्पातः" उप्पलिणीकंद पुं०(उत्पलिनीकन्द) जलजवनस्पतिविशेषे, पंसुयमंसरहिरे, केस-सिलाबुद्वितहरउग्घाए। मंसंसिलारुहिरे, अहोरत्तं "पउमुप्पलिणीकदे, अंतरकंदे तहेव झिल्ली य। एते अणंतजीवा एगो अवसेसे जचिरं सुत्तं इत्येवं रूपे उतपाते ऽस्वाध्यायिकं क्रियत इति जीवोभिसमुणाले" प्रज्ञा०१ पद०। आ०चू० आव०॥ (विस्त-रतोवर्णनमसज्झाइयशब्दे) उत्पातविचारोउप्पलुज्जला स्त्री०(उत्पलोज्वला) जम्ब्वाः सुदर्शनाया दक्षिण- ऽङ्ग विद्यासु दर्शितोवृहत्संहितासु च / शुभाशुभसूचकोत्पातश्च पूर्वस्याभुत्तरस्यां नन्दापुष्करिण्याम्, जी०३ प्रति० / जं०। दिव्यान्तरीक्षभौमभेदात् त्रिविधः / स च वृहत्संहितायां यथा पण Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पाय 861 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पाय यानबेरुत्पातान, गर्गः प्रोवाच तानहं वक्ष्ये / तेषां सङ्खपोऽयं, प्रकृतेरन्यत्वमुत्पातः / / अपचारेण नराणामुपसर्गः पापसञ्चयाद्भवति / संसूचयन्ति दिव्यान्तरिक्षभौमास्तदुत्पाताः / / मनुजानामपचारादपरक्ता देवताः सृजन्त्येतान् / तत्प्रतिघाताय नृपः, शान्तिं राष्ट्र प्रयुञ्जीत। दिव्यं ग्रहः वैकृतमुल्कानिर्घातपवनपरिवेषाः / गन्धर्वपुरपुरन्दरचापादि यदान्तरिक्षं तत् / / भौमं चरस्थिरभवं, तच्छान्तिभिराहतं शममुपैति / आत्मसुतकोशवाहनपुरदारपुरोहितेषु लोकेषु / / पाकमुपयाति दैवं परिकल्पितमष्टधा नृपतेः / दैवतयात्राशकटाक्षचक्रयुगकेतुभङ्कपतनानि / संपर्यासनसादनसङ्गाश्च नृदेशपशुभेदाः / ऋषिधर्मपितृब्रह्मप्रोद्भूतं तद द्विजातीनाम् / / यदुद्रलोकपालोद्भवं पशूनामनिष्ट तत् / गुरुसितशनैश्चरोत्थं पुरोधसां विष्णुजं च लोकानाम् // स्कन्दविशाखसमुत्थं माण्डलि-कानां नरेन्द्राणाम् / वेदव्यासे मन्त्रिणि विनायके वैकृते चमूनाथे / / धातरि सविश्वकर्माणि लोकाभावाय निर्दिष्टम् / देवकुमारकुमारीवनिताप्रेष्येषु वैकृतं यत्स्यात् / / तत्नरपतेः कुमारककुमारिकास्त्रीपरिजनानाम् / रक्षःपिशाचगुह्यकनागानामेतदेव निर्देश्यम्। मासैश्चाप्यष्टाभिः सर्वेषामेव फलपाकः॥राष्ट्रयस्यानग्निः प्रदीप्यते दीयते च नेन्धवान्। मनुजेश्वरस्य पीडा तस्य सराष्ट्रस्य विज्ञेया। जलमांसाम्रज्वलने नृपतिबधः प्रहरणेरणो रौद्रः / सैन्यग्रामपुरुषे च नाशो वह्वेर्भयं कुरुते / / प्रासादभवनतोरकेत्वादिष्वनलेदग्धेषु / तडितो वा षण्मामासात् परचक्रस्यागमो नियमात् / / धूमोऽननिसमुत्थो रजस्तमश्चाहिजं महाभयदम् / व्यभे निश्युडुनाशो दर्शनमपि चाहिदोषकरणम्।नगरचतुष्पादाण्डजमनुजाना भयकर ज्वलनमाहुः / धूमाग्निविस्फुलिङ्गैः शय्याम्बरकेशगैर्मृत्युः / / आयुधज्वलनसर्पणस्वनाः कोशनिर्गमन-वेपनानि वा / वैकृतानि यदि वायुधेऽपराण्याशुरौद्ररणसंकुलं वदेत् / इत्यनि वैकृतम् / शाखाभङ्गेऽकस्माद् वृक्षाणां निर्दिशेद्रणोद्योगम्। हसने देशभ्रंशं रुदितेच व्याधिबाहुल्यम् / राष्ट्रविभेदस्त्वनृतौ बालबधोऽतीव कुसुमिते वाते / वृक्षात् क्षीरस्रावे सर्वद्रव्यक्षयो भवति। मद्ये वाहननाशः संत्रासः शोणिते मधुनि रोगः / स्नेहे दुर्भक्षभयं महद्भयं निःसृते ससिले // शुष्कविरोहे वीर्यान्नसंक्षयः शोषणे च विरुधानाम् / पतितानामुत्याने स्वयं भयं दैवजनितं च / / पूजितवृक्षे ह्यनृतौ कुसुमफलं नृपबधाय निर्दिष्टम् / धूमस्तस्मिन् ज्वालायवा भवेन्नृपबधायैव / / सर्पत्सु तरुषुवापिजनसङ्खयो विनिर्दिष्टः / वृक्षाणां वैकृत्ये दशभिर्मासैः फलविपाकः।। इति वृक्षवैकृतम् नालेऽब्जयवादीनामेकस्मिन् द्वित्रिसम्भवो मरणम् / कथयतितदधिपतीनां यमलं जातंच कुसुमफलम्॥ अतिवृद्धिः शस्यानां नानाफलकुसुमभवो वृक्षे / भवति हि यद्येकस्मिन् परचक्रस्यागमो नियमात् / / अर्धेन यदा तैलं भवति तिलानामतैलता वा स्यात् अन्नस्य च वैरस्यं तदा च विन्द्याद्भयं सुमहत्॥विकृतं कुसुमफलं वा ग्रामादयवा पुरादहिः कार्याम्। इति शस्यवैकृतम्। दुर्भिक्षमनावृष्ट्यामतिवृष्ट्यां क्षुद्भयं सपरचक्रम् / रोगो ह्यनृतुभवायां नृपबधाऽनभ्रजातायाम्। शीतोष्णविपर्यासे नोसम्यगृतुषु च संप्रवृत्तेषु / षण्मासाद्राष्ट्रभयं रोगभयं दैवजनितं च // अन्यौ सप्ताहं प्रबन्धवर्षे प्रधाननृपमरणम् / रक्ते शस्त्रोद्योगो मांसा स्थिवसादिभिर्मरकः / धान्यहिरण्यत्वक् फलकुसुमाद्यैर्वर्षितैर्भयं विद्यात् / अङ्गारपांशुवर्षे विनाशमायाति तन्नगरम् / / उपला विना जलधरैर्विकृता वा प्राणिनो | यदा वृष्टाः। छिद्रं वाप्यतिवृष्टौ शस्यानामीति सज्जननम्।। क्षीरभृतक्षौद्राणां दध्नो रुधिरोष्णवारिणां वर्षे / देशविनाशो ज्ञेयोऽसृग्वर्षे चापि नृपयुद्धम् // यद्यमलेऽर्के छाया न दृश्यते दृश्यते प्रतीपा वा / देशस्य तदा सुमहद्भयमायातं विनिर्देश्यम्॥व्यभ्रेनभसीन्द्रधनुर्दिवायदादृश्यतेऽथवा रात्रौ / प्राच्यामपरस्यां वा तदा भवेत् क्षुद्भयं सुमहत्।। सूयेन्दुपर्जन्यसमीरणानां योगः स्मृतोवृष्टिकारकाले॥ इति वृष्टिवैकृतम् / अपसर्पणा नदीनां नगरादिचिरेण शून्यतां कुरुते / शोषश्चाशोप्याणामन्येषां वा हृदादीनाम्॥स्नेहा सृग्मासवहाः सङ्कुलकलुषा प्रतीपगाश्चापि। परचक्रस्यागमनं नद्यः कथयन्ति षण्मासात् / / ज्वालाधूमक्काथारुदितोत्कृष्टानि चैव कूपानाम् / गीतप्रजल्पितानि च जनमरकाय प्रदिष्टानि / / तोयोत्पत्तिरखाते गन्धरसविपर्यये च तोयानाम्। सलिलाशय-विकृती वा महद्भयं तत्र शुभकृत्यम् // इति जलवैकृतम् / / प्रसवविकारे स्त्रीणां द्वित्रिचतुः प्रभृतिसम्प्रसूतौ वा / हीनातिरिक्तकाले च देशकुलसङ्कयो भवति / / वडवोष्ट्रमहिषगोहस्तिनीषु यमलोद्भवे मरणभेषाम् / / इति प्रसववैकृतम्॥ परयोनावभिगमनं भवति तिरश्चामसाधुधेनूनाम्। उक्षाणां वान्योऽन्यं पिबति श्वा वा सुरभिपुत्रम्।। मासत्रयेण विद्यात् तस्मिन्निः संशयं परागमनम्॥ इति चतुष्पादवकृतम्।। यानं वाहवियुक्तं यदि गच्छेन्न व्रजेचन वाहयुतम्। राष्ट्र-भयं भवति तदा चक्राणां सादभने च।। अनभिहि ततूर्यनादः शब्दो वा ताडितेषु यदि नायात्। व्युत्पत्तौ वा तेषां परागमो नृपतिमरणं वा / / गीतरवतूर्यनादा नभसि यदा वा चरस्थिरान्यत्वम् / मृत्यु-स्तदागदा वा विस्वरतूर्ये पराभिभवः / गोलाङ्गलयोर्भङ्गे दर्वीशूद्युपस्करविकारे।। क्रोष्टुकनादे च तथा शस्त्रभयं मुनिवचश्चेदम्। इति वायव्यवैकृतम्। पुरपक्षिणो वनचरा वन्या वा निर्भया विशन्ति। पुरं नक्तं वा दिवसचरा क्षपाचरा वा चरन्त्यहनि / सन्ध्या द्वयेऽपि मण्डलमाबध्नन्तो मृगा विहङ्गा वा / दीप्तायां दिश्यथवा क्रोशन्तः संहता भयदाः / / श्वानः प्ररुदन्त इव द्वारे वा सन्ति जम्बुका दीप्ताः। प्रविशेन्नरेन्द्रभवनेकपोतकः कौशिकोयदिवा।। कुक्कुटरुतंप्रदोषे हेमन्तादौ च कोकिलालापः / प्रतिलोममण्डलचराः श्येनाद्याश्चाम्बरे भयदाः / / गृहचैत्यतोरणेषु द्वारेषु च पक्षिसङ्गसंपाताः। मधु-वल्मीकाम्भोरुहसमुद्भवाश्चापि नाशाय / / स्वभिरस्थिशवावयव-प्रवेशनं मन्दिरेषु मरकाय / पशुशस्त्रव्याहारे नृपमृत्युर्मुनिवचश्चेदम्।। इति मृगपक्ष्यादिवैकृतम् // शक्रध्वजेन्द्रकीलस्तम्भद्वारप्रपात-भङ्गेषु / तद्वत्कपाटतोरणकेतूनां नरपतेर्मरणम्। सन्ध्याद्वयस्य दीप्तिधूमोत्पत्तिश्च काननेऽननौ। छिद्राभावे भूमेर्दरणं कम्पश्च भयकारी / / पाषण्डानां नास्तिकानां च भक्तः साध्वाचारप्रोज्झितः क्रोधशीलः। ईष्र्युः क्रूरो विग्रहासक्तचेता यस्मिन् राजा तस्य देशस्य नाशः / प्रहर हर छिन्धि भिन्धीत्यायुधकाष्ठाश्मपाणयो बालाः / निदगन्तः प्रहरन्ते तत्रापि भयं भवत्याशु / / अङ्गारगरिकायैर्विकृत-प्रेताभिलेखनं यस्मिन्। नायकचित्रितमथवा क्षये क्षयं यातिन चिरेण // लूतापटाङ्गशवलं नसन्ध्ययोः पूजितं कलहयुक्तम् / नित्योच्छिष्टस्वीकं च यद्गृहं तत्क्षयं याति / / दृष्टेषु यातुधानेषु निर्दिशेन्नरकमाशुसंप्राप्तम् / / इति शक्रध्वजेन्द्रकीलादि वैकृतम्॥ नरपतिदेशविनाशे केतोरुदयेऽथवा गृहेऽर्केन्दोः / उत्पातानां प्रभवः स्वर्तुभवश्चाप्यदोषाय / / ये च न दोषान् जनयन्त्युत्पातां स्तानृतुस्वभावकृतान् / ऋषिपुत्रकृतैः श्लोकैर्विद्यादेतैः समासोक्तेः। व्रजाशनिमहीकम्पसन्ध्यानितिनिःस्वनाः। परिवेषरजोधूमरतास्तिमनोदयाः / / द्रुमेभ्योऽन्नरसस्नेहबहुपुष्पफलोद्माः / गोपक्षिमदवृद्धिश्च शिवाय मधुमाधवे / / तारोल्कापातकलुषं कपिलार्केन्दमण्डलम् / अनग्निज्ज्वलनस्फोटधूमरेण्वनिलाहतम् / / Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पाय ५६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पाय रक्तपद्मारुणं सान्ध्यं नभः क्षुब्धार्णवोपमम् / सरितां चाम्बुसंशोषं दृष्ट्वा ग्रीष्मे शुभं वदेत् / / शक्रायुधपरीवेषविधुच्छुष्कविरोहणम् / कम्पोद्वर्तनवैकृत्यं रसनं दरणं क्षितेः / / सरोनद्युदपानानां वृद्ध्यू ख़तरणप्लवाः / सरणं चाद्रिगेहाणां वर्षासु न भयावहम् / / दिव्यस्त्रीभूतगन्धर्वविमानाद्भुतदर्शनम् / नक्षत्राणां ग्रहाणां च दर्शनं च दिवाम्बरे / गीतवादित्रनि?षा वनपर्वतसानुषु / सस्यवृद्धिरपां हानिरपापा शरदि स्मृताः / / शीतानीलतुषारत्वं नर्दनं मृगपक्षिणाम्। रक्षोयक्षादिसत्वानां दर्शनं वागमानुषी / / दिशो धूमान्धकाराश्च सनभोवनपर्वताः / उच्चैः सूर्योदयास्तौ च हेमन्ते शोभनाः स्मृताः। हिमपातानिलोत्पाता विरूपाद्भुतदर्शनम् / कृष्णाञ्जनाभमाकाशं तारोल्कापातपिञ्जरम् / / चित्रगर्भोद्भवाः स्त्रीषु गोऽजाश्व मृगपक्षिषु / पत्राङ्करलतानां च विकाराः शिशिरे शुभाः / / ऋतुस्वभावजा ह्येते दृष्टाः स्वतौ शुभप्रदाः। ऋतोरन्यत्र चोत्पाता दृष्टास्ते भृशदारुणाः।। उन्मत्तानां च या गाथाः शिशूनां भाषितं च यत्। स्त्रियो यच्च प्रभाषन्ते तस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥ पूर्वं चरति देवेषु पश्चाद्गच्छतिमानुषान्। नाचोदिता वाग्वदति सत्या होषा सरस्वती। उत्पातान् गणितविवर्जितोऽपि बुध्वा विख्यातो भवति नरेन्द्रवल्लभश्च / एतन्मुनि-वचनं रहस्यमुक्तं यज्ज्ञात्वा भवति नरस्त्रिकालदर्शी (46 अ०) दिव्यान्तरिक्षाश्रयमुक्तमादौ मया फलं शस्तमशोभनं च। प्रायेण चारेषु समागमेषु युद्धेषु मार्गादिषु विस्तरेण // भूयो वराहमिहिरस्य न युक्तमेतत् कर्तु समासकृदसाविति तस्य दोषः / तज्जैन वाच्यमिदमेव फलानुगीतिर्यद्वर्हिचित्रकमिति प्रथितं वराङ्गम्॥ स्वरूपमेव तस्य तत्प्रकीर्तितानुकीर्तनम्।ब्रवीम्यहं नचेदिदं तथापि मेऽत्र वाच्यता / उत्तरवीथिगता द्युतिमन्तः, क्षेमसुभिक्षशिवाय समस्ताः। दक्षिणमार्गगता धुतिहीनाः, क्षुद्भयतस्करमृत्युकरास्ते॥ कोष्ठागा-रगते भृगुपुत्रे पुष्यस्थे च गिराम्प्रभविष्णौ / निर्वैराःक्षितिपाः सुख-भाजः संहृष्टाश्च जना गतरोगाः / / पीडयन्ति यदिकृत्तिका मघां रोहिणी श्रवणमैन्द्रमेव वा / प्रोज्झयसूर्यमपरे ग्रहास्तदा, पश्चिमा-दिगयनेन पीड्यते // प्राच्यां चेद्ध्यजवदवस्थिता दिनान्ते, प्राच्यानां भवति हि विग्रहो नृपाणाम् / मध्ये चेद्भवति हि मध्यदेश-पीडा, रूक्षस्तैर्न तु रुचिरैर्मयुखवद्भिः॥दक्षिणां ककुभमाश्रितैस्तुतैर्दक्षिणापयपयोमुचां क्षयः। हीनरूक्षतनुभिश्वविग्रहः स्थूलदेवकिरणान्वितैः शुभम् // उत्तरमार्गेस्पष्टमयुखाः शान्तिकरास्ते तन्नृपतीनाम् / ह्रस्वशरीरा भस्मसवर्णा, दोषकराः स्युर्देशनृपाणाम्॥नक्षत्राणां तारकाः सग्रहाणां, धूमज्वालाविस्फुलिङ्गान्विताश्चेत् / आलोकं वा निर्निमित्तं न यान्ति, याति ध्वसं सर्वलोकः स भूयः / / दिवि भाति यदा तुहिनांशुयुगं, द्विजवृद्धिरतीव तदाशु शुभा। तदनन्तरवर्णरणोऽर्क युगे जगतः प्रलयस्त्रिचतुःप्रभृति॥ मुनीनभि-जितंध्रुवं मघवतश्च भंसं स्पृशन्। शिखी धनविनाशकृत् कुशलकर्महाशोकदः / भुजङ्गभमथ स्पृशेद्भवति वृष्टिनाशो ध्रुवंक्षयं व्रजति विद्रुतो जनपदश्च वालाकुलः। प्रागद्वारेषु चरन् रविपुत्रो, नक्षत्रेषु करोति च वक्रम् / दुर्भिक्षं कुरुते भयमुग्रं मित्राणां च विरोधमवृष्टिम् / / रोहिणी शकटमर्कनन्दनो, यदि भिनत्ति रुधिरोऽथवा शिखी। किं वदामियदनिष्टसागरे, जगदशेषमुपयाति संक्षयम्॥ उदयति सततं यदा शिखी, चरतिभचक्रमशेषमेव वा। अनुभवति पुराकृतं तदा, फलमशुभं सचराचरं जगत्।। धनुःस्थायी रूक्षोरुधिरसदृशः क्षुद्रयकरो, वलोद्योगं चेन्दुः कथयति जयं ज्यास्य च यतः।। अवाक् शृङ्गो गोघ्नो, निधनमपिशस्यस्य कुरुते, ज्वलन्धूमायनवा नृपतिमरणायैव भवति।। / स्निग्धः स्थूलः समशृङ्गो विशालस्तुङ्गश्चोदग्विचरन्नागवीथ्याम् / दृष्टः सौम्य रशुभैर्विप्रयुक्तो लोकानन्दनं कुरुतेऽतीव चन्द्रः / / पित्र्यमैत्रपुरुहूतविशा--खात्वाष्ट्रमेत्य च युनक्ति शशाङ्कः / दक्षिणेन न शुभोहितकृत्स्यात्यधुदक्चरति मध्यगतो वा / परिघ इति मेघरेखा या तिर्यग्भास्करोदयेऽस्ते वा / परिधिस्तु प्रतिसूर्यो दण्डस्त्वृजुरिन्द्रचापनिभः / / उदयेऽस्ते वा भानोर्ये दीर्घा रश्मयस्तेमोघास्ते / सुरचापखण्डमृजुयद्, रोहितमैरावतं दीर्घम् / / अस्तिमयात्सन्ध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत्। तेजः परिहानिमुखाद्भानोरोदयं यावत्। तस्मिन् सन्ध्याकाले चिहैरे तैः शुभाशुभं वाच्यम्। सर्वरतेः स्निग्धैः सद्यो वर्षभयं रूक्षैः // अच्छिन्नः परिघो वियच विमलं श्यामामयूखा रवेः, स्निग्धा दीधितयः सितं सुरधनुर्विद्युच पूर्वोत्तराः / स्निग्धो मेघतरुर्दिवाकरकरैरालिङ्गितो वायदा, वृष्टिः स्याद्यदि वार्कमस्तसमये मेघो महाश्छादयेत् // खण्डो वक्रः कृत्स्नो ह्रस्वः काकाद्यैर्वा चिलैर्विद्धः / यस्मिन् देशे रूक्षश्चार्कस्तत्र ह्यभावः प्रायो राज्ञः / / वाहिनी समुपयाति पृष्ठतो मांसभुक् खगगणो युयुत्सुतः। यस्य तस्य बलविद्रवो महान्, अग्रगैस्तु विजयो विहङ्गमैः / / भानोरुदये यदि वास्तमये, गन्धर्वपुरप्रतिमाध्वजिनी! बिम्वं निरुणद्धि तदा नृपतेः, प्राप्तं समरं सभयं प्रवदेत् // शस्ताशान्तद्विजमृगघुष्टा, सन्ध्या स्निग्धा मदुपवना च / पांशुध्वस्ता जनपदनाशंधत्ते रूक्षा-रुधिरनिभावा।। यद्विस्तरेण कथितं मुनिभिस्तदस्मिन् सर्वं मया निगदितं पुनरुक्तवर्जम् / श्रुत्वापि कोकिलरुतं वलिभुग्विरौति यत्तत्स्वभावकृतमस्य पिकं न जेतुम् / ४७अ०। एवमन्येऽप्युत्पाताः सन्ति विस्तरभयान्नोक्ता उत्पातविशेष मङ्गलकर्मवर्जनव्यवस्थादेशभेदेनाचारभेदेन चावगन्तव्या पीयूषधारायाम् अत्यावश्यककार्ये परिहारस्तत्रोक्तः ज्योतिर्निबन्धे / दिनानि पञ्चवसिष्ठ-स्विदिनं गर्गस्तु कौशिकस्त्वेकम् / यवनाचार्य्यस्य मते पञ्चमुहूतांश्च दूषयति / उत्पातेन ज्ञापिते च। ज्यो०। वाच०। *उत्पाद पुं० पद्-घञ्- उत्पादनमुत्पादः / कार्यस्योत्पत्तिहेतु भूते कार्यविशेषे, विशे०। प्रादुर्भाव, सूत्र०१ श्रु०१०। अथोत्पादस्य भेदान्कथयन्नाह। प्रयोगविश्रसाभ्यां स्या-दुत्पादो द्विविधस्तयोः। आद्योऽधिशुद्धो नियमात्समुदायविवादजः।।१६।। उत्पादो द्विविधो द्विप्रकारोऽस्ति / काभ्यां द्विविधः प्रयोगविश्रसाभ्याम् / एकः प्रयोगजनित उत्पादः।१। अपरो विश्रसाजनित उत्पादः ।२पुनस्तयोर्द्वयोर्मध्ये आद्योऽविशुद्धो व्यवहारोत्पन्नत्वात् / स च निर्धारणनियमात्समुदायवादजनितो यत्नेन कृत्वा अयवयसंयोगेन सिद्धः कथितः। तथा च सम्मतितर्के। उप्पाओ दुवियप्पो,पओगजणिओय विस्ससा चेव / तत्थ उपओगजणिओ, समुदयवाओ अपरिसद्धा||२६|| भेद उत्पादः पुरुषतरकारकव्यापारजन्यतया अध्यक्षानुमानाभ्यां तथा तस्य प्रतीतेः पुरुषव्यापारोऽन्वयव्यतिरेकानुव्यवधायित्वेऽपि शब्दविशेषस्य तदस्य तदजन्यत्वे घटादेरपि तदजन्यताप्रशक्तेर्विशेषाभावात्। प्रत्यभिज्ञानादेश्च विशेषस्य प्रागेव निरस्तत्वात्। तत्र प्रयोगेण यो जनित उत्पादो मूर्तिमद् द्रव्यारब्धावयवकृतत्वात् त्स समुदयवादः। तथा भूतारब्धस्य समुदायात्मकत्वात्तत एवासावपरिशुद्धः सावयवात्मकस्य तत्स्थस्य वाच्यत्वेनाभिप्रेतत्वात्। विरसा जनितोऽप्युत्पादो द्विविध इत्याह। साभाविओ वि समुदाय-कओवएगंति उव्वहोजाहि। आगासाईयाणं, तिण्हं परपचओ णियमा॥३०॥ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पाय 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पायच्छेयण स्वाभाविकश्च द्विविध उत्पादः / एकः समुदयकृतः प्राक् प्रतिपा- द्रव्यस्योत्पत्तिर्भवति परन्तु विभागेन द्रव्यस्योत्पतिर्न भवति इत्थमेके दितावयवारब्धो घटादिवत् / अपरश्चैकत्विकोऽनुत्पादितामूर्ति- नैयायिकादयः कथयन्ति / तेषां मत एकतन्त्वादिविभागेन भद्दव्यावयवारब्ध आकाशादिवत् / आकाशादीनां च त्रयाणामवगाहो खण्डपटोत्पत्तिः कथं जाघटीति प्रतिबन्धक कालभावस्याघटादिद्रव्यनिमित्तोवगाहनादिक्रियोत्पादो नियमादनेकान्ततो भवेत्। वस्थितावयवसंयोगस्य हेतुताकल्पने महागौरवात् / तस्मात् अवगाहकगन्तृस्थातृद्रव्यसन्निधानतोऽस्थिरधर्माधर्माधवगाहनगति- कुत्रचित्संयोगात् कुत्रचिद्विभागाद्दव्योत्पादकता मन्तव्या / तदा स्थितिक्रियोत्पत्ति निमित्तभावोत्पत्तिरित्यभिप्रायः / / सम्म० / / विभागजपरमाणूत्पादोऽप्यर्थतः सिद्धः स्यात् संमतिशास्त्रे इत्थं (आगासशब्दे तत्प्रादेशिकिता दर्शिता) सूचितमस्ति / तदुक्तम्। "दव्वंतरसंजोआहि, के वि दविअस्स बिं ति अथोत्पादस्य द्वितीयभेदं कथयन्नाह / / उप्पायं उप्पायं वा कुसला, विभागजाइं न इच्छंति॥१॥ अणुअत्तएहिं विसा हि विना यत्नं,जायते द्विविधः स च / आरद्ध-दव्वे तिअणुअंति निद्देसो / ततो अपुण विभत्ते, अणुत्ति जाउ तत्राद्यचेतनस्कन्ध-जन्यः समुदयोऽग्रिमः॥२०॥ आओ अणू होइ॥२॥ आभ्यां गाथाभ्यां भावार्थो ऽवधार्यः / यथा सचित्तमिश्रजश्चान्यः, स्यादेकत्वप्रकारकः। परमाणोरुत्पादः एकत्वजन्यस्तथा येन संयोगेन स्कन्धो न निष्पद्यते शरीराणां च वर्णादि, सुनिर्धारो भवत्यतः॥२१॥ एतादृशो धर्मास्तिकायादीनां जीव-पुद्गलयोस्संयोगस्तद् द्वारा यश्च संयुक्तद्रव्योत्पादोऽसंयुक्तावस्थ--विनाशपूर्वकः तथा ऋतुसूत्रनयाभिमतो विश्रसाख्यो द्वितीय उत्पादः / विश्रसाशब्दस्य कोऽर्थः सहजं विना यश्च क्षणिकपर्यायः प्रथम-द्वितीयसमयादिव्यवहारहेतुस्तद् द्वारा यत्नमुत्पद्यते यः स विश्रसोत्पादः / सोऽपि पुनर्द्विविधो द्विप्रकारः / यश्चोत्पादश्च तत्सर्वमेकत्वं ज्ञेयम् // 22 // अत्र न किंचिद्विवादस्तत्र एकस्तत्र समुदयजनितः द्वितीय एकत्विकः / उक्तं च "साहाविओ वि श्लोकमाह / स्कन्धहेतुं विना यः संयोगपरयोगेन धर्मास्तिकायादीनां समुदय कउव्वणुण्णत्ति ओत्थ होजाहि" तत्रापि तयोर्द्वयोर्मध्य आद्यः यश्चोत्पादः तथाच क्षणिक-पर्याये प्रथमद्वितीयादिद्रव्यव्यवहारहेतवस्तद् समुदयजनितो विश्रसोत्पादः अचेतनस्कन्धजन्यः समुदयः कथितः। द्वारा य उत्पादः तत्सर्वमेकत्वं कथ्यतेतत्रन कोऽपि विसंवाद इति।।२३।। अभ्रादीनां समुदयपुद्गलानां यथोत्पादः // 20 // तथा पुनर्द्वितीयः पुनर्भेदं कथयन्नाह (उत्पादेति) ननुधर्मादरुत्पादः परप्रत्ययो भवेत् अपि सचित्तमिश्रजः शरीरवर्णादिकानां निर्धारो ज्ञेयः / सचित्ताः पुद्गला पुनर्निजप्रत्ययाद्भवेदन्तर्नययोजनां ज्ञात्वा इति / भावार्थस्त्वयम् वर्णादीनां तथा तथाकारवर्णादिपुद्गलानां परिणत्या परिणतानामेकत्व धर्मास्तिकायादीनामुत्पादो नियमेन परप्रत्ययः स्वोषष्ट भ्य प्रकारक एकतारूपेण परिगतः / अनेकेषां वर्णादीनां संगतानां गत्यादिपरिणत जीवपुद्गलादिनिमित्त उक्तः / य उभयजनितस्स परस्परमुत्पादधारया पिण्डीभूताना-मवयवानामवयविधर्मत्वेन चैकजनितोऽपि भवेत् / ततस्तस्य निजप्रत्ययतापि कथयितुं युक्ता देहदृश्याकारभूतानामणूनां शरीरादिसुनिर्धारो भवति। देहादिपिण्डानां निश्चयव्यवहारावधारणात्। अयमर्थः। 'आगासाईयाणं, तिण्हं परपच्चओ (सु) अतिशयेन निर्धारोवपुरूपावस्थत्वं संपद्यति। तथा च प्रज्ञापनायां नियमा" इतिसम्मतिगाथायामकारप्रश्लेषतया वचना-न्तरेण कृतोऽस्ति स्थानाङ्गे च "तिविहा पुग्गला पन्नत्ता तंजहा पओगपरिणता 1, मीससा वृत्तिकारेण तमर्थमनुस्मृत्येहापि लिखितोऽस्ति तस्माद्धर्मास्तिकायापरिणता 2, वीससा परिणता 3." तत्र च प्रथम प्रयोगपरिणताः पुद्रला दीनामुत्पादो नियमात्परप्रत्यय एव / सोऽपि स्वोपष्टभ्य ये भवन्ति ते जीवप्रयोगेण संयुक्ताः शरीरादयः सचित्ताः 1 तथा गत्यादिपरिणतजीवपुद्गलादिनिमित्तः उभयजनितो-ऽप्येकजनितोऽपि मिश्रपरिणताश्च ते ये जीवेन पुद्गलामुक्ताः कलेवरादयः 2 पुनश्च विश्रसा स्यात् / तस्य च निजप्रत्ययताप्यन्तर्नयवादे-नोक्तास्ति भावना चेत्थं परिणता३ स्वभावेन परिणताः यथाभ्रेन्द्रधनुरादयः 3 एवं च सत्यत्र ज्ञेया / / द्र०६ अध्या०।। "उप्पादलक्खणं अप्पि तवववहारित विश्रसाख्यस्य भेदस्य स्वभावजनितस्य द्वैविध्यं प्रदर्शितम् / अणप्पियववहारियंति वा विसिसा दिट्ठति वा एगट्ठा तचिवरीतमितरं। अचेतनस्कन्धजन्यसमुदायाख्यः प्रथमस्तत्र सचित्त मिश्रजन्यैकत्व तत्थ अप्पि तंजहा पढमसमयसिद्धो सिद्धत्तणेण उप्पन्नो अणप्पितो प्रकारकशरीरादिवर्णा दिसुनिर्धारसंज्ञो द्वितीयः। अत्रायं विशेषः जोजणभोवणउप्पत्ता आ०चू० 1 अ०। विशे०। त्रीन्द्रियजीवभेदे च / स्वाभाविक परिणमनेऽचित्तपुद्गलैरेवायत्नसाध्य व्यवहार उपदिष्टः। इह प्रज्ञा०२ प०। तु द्वयमपि // 21 // *औत्पति न० उत्पाते भवमौत्पातम् / पांशुवृष्ट्यादौ, आ०क० / पुनर्भेदं दर्शयन्नाह।। कपिहसितादौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। यत्संयोगं विनैकत्वं, तदव्यांशेन सिद्धता।। उप्पायग त्रि०(उत्पातक) उत्पातयति उत्पातं जनयति-उद्-पत्यथास्कन्धविभागाणोः, सिद्धस्यावरणक्षये / / 22 / / णिच् -- ण्वुल उत्पातजनके, ऊर्द्धपतनशीले च। वाच०। स्कन्धहेतुं विना योगः, परयोगेण चोद्भवः / / *उत्पादक त्रि० उद्- पत्- ण्वुल उत्पादनकर्त्तरि,स्त्रियां टापि अत क्षणे क्षणे च पर्याया-धस्तदेकत्वमुच्यते // 23 // इत्वम् / उत्पादिका उत्पादकस्त्रियाम् हिलमोचिकायां शब्दा त्रि उत्पादो ननु धर्मादेः, परप्रत्ययतो भवेत् // पुत्तिकायाम, देहिकानामकीटे च स्त्री० / पितरि, पुं० ऊर्दू स्थिताः निजप्रत्ययतो वापि, ज्ञात्वान्तर्नय योजनाम् // 25|| पादा अस्य कप् / अष्टापदे शरभाख्ये गजारातौ पशुभेदे, तस्य नाशोऽपि द्विविधो ज्ञेयो रूपान्तरविगोचरः।। पृष्ठस्थचतुश्चरणत्वादूर्द्धपादत्वम्। वाचकात्रीन्द्रियजीवभेदे च। ये भूमि संयोग विना विश्रसोत्पादो यद्भवेत्तदेकत्वं ज्ञेयम्। तदेवैकत्वं द्रव्यांशेन भित्वा समुत्तिष्ठन्ति दीर्घाः "पाणासीयलकुंथूउप्पा-यगदीहगोम्मि द्रव्यविभागेन सिद्धता नाम उत्पन्नत्वं ज्ञेयम् / यथा द्विप्रदेशादिस्कन्ध- सिसुणागो' व्य०प्र०८ उ०। नि० चू०। प्रज्ञा०। विभागेनाणोः परमाणोर्द्रव्यस्योत्पादः। तथा आवरणक्षये कर्मविभागेजाते उप्यायच्छेयण न०(उत्पादच्छेदन) उत्पादो देवत्वादिपर्यायान्तरस्य सति सिद्धस्य सिद्धपर्यायस्योत्पाद इति / अवयवसंयोगेनैव / तेन छेदोजीवादिद्रव्यविभागः उत्पादच्छेदनम्। छेदनभेदे, स्था०५ ठा०। Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्पायण 864 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पायपडिवाय उप्पायण न०(उत्पादन) उद्-पद्-णिच्--ल्युट्-जनने, उत्पत्तिकरणे वाच०।"भवाणुवाएण परिगहेण, उप्यायणे रक्खणसन्निओगे" उत्पादने एते विषयादिपदार्थाः कथं मिलिष्य-न्तीति चिन्तने, उत्त०३४ अ०। उप्पायणं तिरिय न०(उत्पादनान्तर्थ्य) उत्पादनस्याविरहे, यथा निरयगतौ जीवानामुत्कर्षतोऽसंख्येयाः समयाः स्था०५ ठा०। उप्पायणा स्वी०(उत्पादना) उत्पादनमुत्पादना / मूलतः शुद्धस्वपिण्डस्यधात्रीत्वादिभिः प्रकारैरुपार्जने, प्रव०६७द्वा०। पिं० आव०। तस्या निक्षेपो यथानामंठवणा दविए,मावे उप्पायणा मुणेयव्वा। दवम्मि होइ,तिविहा, भावम्भिउसोलसपया / / उत्पादना चतुर्दा तद्यथा (नामंति) नामोत्पादना स्थपनोत्पादना द्रव्ये द्रव्यस्योत्पादना भावे भावस्योत्पादना च / तत्र नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्योत्पादना च यावन्नो आगमतो भव्यशरीरद्रव्योत्पादना प्रागुक्तगवेषणादिरिव भावनीया / ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्योत्पादना त्रिधा सचित्तद्रव्योत्पादना अचित्तद्रव्यो-त्पादना मिश्रद्रव्योत्पादनाच। भावोत्पादना द्विधा तद्यथा आगमतो नोआगमतश्च / तत्र आगत उत्पादना शब्दार्थतस्तदोपयुक्तः नोआगमतो भावोत्पादना तु द्विधा तद्यथा प्रशस्ता अप्रशस्ता च / तत्र प्रशस्ता ज्ञानाद्युत्पादना अप्रशस्ता षोडशपदा वक्ष्यमाणधात्रीदूत्यादिषोडशभेदा। तत्र प्रथमतः सचित्तद्रव्योत्पादनां विभावयिषुराह|| आसूयमाइएहिं वालवयितुरंगवीयमाईहिं। सुयअसादुमाईणं, उप्पायणया उसचित्ता।। सुताश्चन्द्रमादीनां द्विपदचतुष्पदापदरूपाणामत्रादिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते सुतादीनामश्वादिनां द्रमुदीनां च यथा संख्यमासू- चादिभिरासूर्यमुपायादित्रिकमादिशब्दादाटकजलादि परिग्रहः / तथा बालचित्ततुरङ्गबीजादिभिश्च तत्र बालैः केशरोमादिभेदभिन्न-श्चितो व्याप्तो बालचितपुरुषो लोमशः पुरुष इति वयनात्। तुरङ्ग-बीजे च सुप्रसिद्धे। आदिशब्दात्तदन्यहेतुपरिग्रहः / या उत्पादना तथाहि केनचिनिजभार्याः कथमपि पुत्रासंभवे देवताया उपयादिति के नाप्युतुकालोके न स्वसंप्रयोगेण चसुतः पुत्रिका वा उत्पाद्यते। तथा निजधोटिकायाः परस्य भाटकप्रदानेन परघोटकमारोप्य तुरङ्ग उत्पाद्यते / एवं यथायोगं वलीवादिरपि तथा जलसेकेन बीजारोपणेन च द्रुमवल्ल्यादिः / तत इत्थं या दुमादीनामुत्पादना सा सचित्तद्रव्योत्पादना / संप्रत्यचित्तद्रव्योत्पादनां मिश्रद्रव्योत्पादनांच प्रतिपादयति। कणगरययाइयाणं, जहिट्ठधाउविहिया उ।। सचित्तमीसाउभंडाणं, दुपयाइकया उ उत्पत्ती॥ कनकरजतादीनां सुवर्णरुप्यताम्रादीनां यथेष्टधातुविहिता यथेष्टो यो यस्येष्टोऽनुक्तोऽपिलोहादिधातुस्तस्मात् विहिता कृता या उत्पत्तिः सा अचित्ता अचित्तद्रव्योत्पादना / तथा च द्विपदादीनां दासादीनां सभाड्यानां सालंकारादीनां चेतनप्रदानेन या कृता आत्मीयत्वेनोत्पत्तिः सा मिश्रा मिश्रद्रव्योत्पादना / तदेवमुक्ता द्रव्योत्पादना / संप्रति भावोत्पादनामाह भावे पसत्थ इयरा, कोहा उप्पायणा उ अपसत्था। कोहाइ जहा धायई-णं च नाणाइ उ पसत्था॥ भावे भावविषया उत्पादना द्विधा तद्यथा प्रशस्ता इतरा अप्रशस्ता। तत्र या क्रोधादीनां क्रोधादियुतधात्रीत्वादीनां च उत्पादना साऽप्रशस्ता यातु ज्ञानादेनिदर्शनचारित्राणामुत्पादनासा प्रशस्ता। इह वा प्रशस्तया भावोत्पादनयाधिकारः पिण्डदोषाणां वक्तुमुपक्रान्तत्वात् / सा च षोडशभेदा।। पिं०॥ उप्पायण संपायण-णिय्वत्तण मो य हॉति एगट्ठा / आहारस्सिहपगया, तीए दोसाइमे होंति // 10 // उत्पादनमुत्पादना एवं संपादना निर्वर्तना च / इह च पदत्रयेऽपि हस्वतामोकारश्च निपातः प्राकृतत्वाच शब्दः समुचये भवति स्युरेकार्था अनन्याभिधेयाः सर्वेषामेव एषामुत्पादनाबोधकत्यादेते शब्दा इति गम्यम्। सा च सचेतना चेतनाचेतनद्रव्यादिविषयत्वेनानेकविधेत्यत उच्यते आहारस्याशनादिरूपलक्षणत्वादस्य वस्त्रपात्रादिपरिग्रहः / इह पिण्डाधिकारे प्रकृता : प्रस्तुताः तद्दोषा धिकारात् (ता एत्ति) एतस्याः पुनरुत्पादनाया गृहस्थात्सकाशात्साधुना स्वार्थ भक्ताद्युपार्जनरूपा ये दोषा दूषणानि इमे इति वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षभूता भवन्ति स्युरिति गाथार्थः / तानेवनामतोदर्शयन्नाह "धातीतिणिमित्ते, आजीववणीमगे तिगिच्छाय। कोहे माणे माया, लोभे हवंति दस एते। पुट्विंपच्छासंथवविजामते य चुण्णजोगे य। उप्पायणाय दोसा, सोलसमेमूलकम्मे य"। पंचा० 13 विव० धात्र्यादिव्याख्यान्यत्र। एतेऽनन्तरोक्ता उत्पादनाया दोषाः षोडश / मूलकर्म वशीकरणम् / इह धात्र्याः पिण्डो धात्रीपिण्डः किमुक्तं भवतिधात्रीत्वस्य करणेन कारणेन च य उत्पाद्यते पिण्डः / यस्तु दूतीत्वस्य करणेनोत्पाद्यते स दूतीपिण्डः। एवं निमित्तादिष्वपि भावनीयम् पिं०।०। उत्त०। स्था०। ग०। आचा०। जीत०। उत्पादनादोषेषु प्रायश्चित्तमभिधित्सुराह दुविहनिमित्ते लोभे, गुरुगा माया य मासियं गुरुयं / सुहुमे वयणे लहुओ, सेसे लहुगा य मूलं च // निमित्तं त्रिविधमतीतविषयं प्रत्युत्पन्नविषयमनागतविषयं च। तत्र द्विविधे निमित्ते प्रत्युत्पन्नविषये च तथा लोभेच प्रत्येकं चत्वारो-गुरुकाः / मायायां मासगुरु। सूक्ष्मे चैकित्स्ये वचनसंस्तवेच प्रत्येक लघुको मासः शेषेषु तु समस्तेषूत्पादनादोषेषु प्रत्येकं चत्वारो लघवो नवरं मूलकर्मणि मूलम्। वृ०१ उ०।उप्पायणाए अइए निमित्ते चउलहुं। पडुप्पन्ने अणागए लोभए चउगुरुं। कोहेमाणे चउलहुं। मायाए मासगुरुं। सुहमतेइस्थिपंचराइंदिया। बादरतेइत्थे चउलहुँ। संथवे मासलहुं / धाईहिं चउलहुँ / भोइयमेहुणियासंथवे चउगुरुं मूलं वा / वयणसंथवे मासलहुं / मूढकम्मे मूलं / सेसेसु चउलहुं उप्पाइणा पं०चू०। (जीतकल्पानुसारेणाचामाम्लं आयंबिलशब्दे चैतत्स्पष्टीकृतम्) उप्पायणाविसोहि स्त्री०(उत्पादनाविशुद्धि) उत्पादनादोधे पिण्डचरणादीनां निर्दोषतारूपे उत्पादनाया वा निर्दोषतालक्षणे विशुद्धिभेदे, स्था०३ ठा०। उप्पायणोवघाय पुं०(उत्पादनोपघात) उत्पादनयोपधातः पिण्डादेरकल्पनीयताकरणं चरणस्य वा शबलीकरणमत्पादनोपघातः / उद् गमस्य वा पिण्डादिप्रसृतेरुपधातो धात्रीत्यादिभिर्दुष्टतोत्पादनोपघातः / धात्र्यादिदोषलक्षणया उत्पादनया चारित्रस्य विराधनरूपे धात्र्यादिभिः षोडशभिरुत्पादनादोषैर्भक्तपानोपकरणलेपानामशुद्धतालक्षणे वा उपघातभेदे, स्था० 10 ठा०। उप्पायपडिवाय पुं०(उत्पादप्रतिपात) विभागतो देशतो वा कस्यचिद्दस्तुनो वृद्धिहान्यु भये, विपा० 6 अ० / यथा अवधिज्ञानस्य। "बाहिरलंभो भञ्जो," दव्वे खेत्ते य कालाभावे या उ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्पायपडिवाय 865 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उप्पायपुव्व सतत प्पायपडिवाओ विय, तदुभयं चेगसमएणं' अप्पायपडियादोणामंजेसिं दव्वखेत्तकालभावाणं काणि वि एणसमएण चेव पुवुद्दिद्वाणि तं पासति काणि पुण अदिट्ठपुव्वाणि पासतिएस उप्पायपडिवातो भण्णति। आ०० 2 अ०। (एतद्विषयावधि वक्तव्यता ओहि शब्दे स्पष्टी भविष्यति) उप्पायपटवय पुं०(उत्पातपर्वत) उत्पतनमूर्द्धगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षितः पर्वत उत्पातपर्वतः स्था०१० ठा०।स्वनामख्यातेषु पर्वतेषु, तिर्यग्लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति ति। भ०२ श०८ उ० / उत्पातपर्वता यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति। जी०।३ प्रति०॥ सर्वेषां लोकपालानामुत्पातपर्वतमानादि यथा // चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो तिगिच्छिकूडे उप्पायपव्वए मूले दसवावीसे जोयणसए विक्खंभेणं पण्णत्ता। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमारनो सोमस्स महारण्णो सोमप्यमे उप्पायपव्वए दसजोयणसयाइंउड्डे उच्चत्तेण्णं दसगाउयसयाइं उव्वेहेणं मूले दसजोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। चमरस्सणं असुरिंदस्स जमस्स महारण्णो जमप्पभे उप्पायपव्वए एवं चेव / एवं वरुणस्स वि। एवं वेसमणस्स वि। बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो रुयगिंदे उप्पायपव्वए मूले दसवावीसे जोयणसए विक्खंभेणं पन्नत्ते / बलिस्सणं वइरोयणरन्नो सोमस्स एवं चेव जहा चमरस्स लोगपालाणं तं चेव बलिस्स वि / धरणस्स णं नागकुमारिं दस्स नागकुमाररन्नो धरणप्पभे उप्पायपव्वए दसजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं दसगाउपसयाई उटवेहेणं मूले दसजोयणसयाई विक्खंभेणं / धरणस्स णं जाव नागकुमाररनो कालबालस्स महारनो कालप्पभे उप्पायपव्वए दसजोयणसयाइं उन उचत्तेणं एवं चेव एवं जाव संक्खवालस्स एवं भूयाणंदस्स वि एवं लोगपालाणं पि। से जहा धरणस्स एवं जाव थणियकुमाराणं सलोगपालाणं भाणियव्वं / सव्वेसिं उप्पायपव्या भाणियव्वा सरिसनामगा। सकस्सणं देविंदस्स देवरण्णो सक्कप्पभे उप्पायपव्वए दसजोयणसहस्साइं उद्धं उच्चत्तेणं दसगाउयसहस्साई उव्वेहेणं मूले दसजोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ते / सक्कस्सणं देविंदस्स देवरण्णो जहा सक्कस्स तहा सय्वेसिं लोगपालाणं सव्वेसिं च इंदाणं जाव अबुयत्ति। चमरस्सेत्यादि सुगमं नवरं (तिगिच्छिकूडेत्ति) तिगिच्छिः किञ्जल्कस्तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिच्छिकूटस्तत्प्रधानत्वं च कमलबहु-लत्वात् संज्ञा चेयम् / / (उप्पायपव्वरत्ति) उत्पतनमूर्द्धगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षितः पर्वत उत्पातपर्वतः स च रुचकवराभिधानात् त्रयोदशात्समुद्रात् दक्षिणतोऽसंख्ये यान् द्वीपसमुद्रानतिलक्ष्य यावदरुणवरद्वीपारुणवरसमुद्री तयोररुणवरं समुद्रं दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य भवति तत्प्रमाणं च ''सत्तरसएकवीसाइं, जोयणसयाइँ सो समुव्विद्धो। दसचेव जोयणसए, वावीसे वित्थडो हेट्ठा // 1 // चत्तारिजोयणसए, चउवीसे वित्थडो उ मज्झम्मि। सत्तेव य तेवीसे, सिहरतले वित्थडो होइत्ति"||२|| स च रत्नमयः पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तस्तस्य च मध्येऽशोकावतंसको देवप्रासाद इति / / (चमरस्सेत्यादि) महारण्णोत्ति) लोकपालस्य सोमप्रभ उत्पातपर्वतोऽरुणोदसमुद्र एव भवति / एवं यमवरुणवैश्रमणसूत्राणि नेयानीति (बलिस्सेत्यादि) रुचकेन्द्र उत्पातपर्वतोऽरुणोदसमुद्र एव यथोक्तं भवति "अरुणस्स उत्तरेणं, बायालीसं भवे सहस्साइं। ओगाहिऊण उदहि, मिलणि-चयो रायहाणिओत्ति" ||1|| (बलिस्सेत्यादि)। सूत्रसूची एवं च दृश्यम् // वइरोयणिंदस्स वइरोयणरणो सोमस्स महारण्णो एवंचेवत्ति। अतिदेश एतद्भावना। (जहेत्यादि) यथा यत्प्रकारं चमरस्य लोकपालानामुत्पातपर्वतप्रमाणे प्रत्येकं चतुर्भिः सूत्रैरुक्तं (तं चेवत्ति) तत्प्रकारमेव चतुर्भिः सूत्रैर्वलिनोऽपि वैरोचनेन्द्रस्यपि वक्तव्यं समानत्वादिति (वरुणस्सेत्यादि) वरुणस्योत्पातपर्वतोऽरुणोद एव समुद्रे भवति (वरुणस्सेत्यादि) प्रथमं लोकपालसूत्रे / "एवं चेवत्ति' करणात् "उच्चत्तेणं दसगाउयसयाई उव्वेहेणमित्यादि" सूत्रमतिदिष्ट एवं जाव "संखवालस्सत्ति'। करणाच्छे षाणां त्रयाणां लोकपालानां कोलवालसेलवालसंखवालाभिधानानामुत्पातपर्वताभिधायीनि त्रीण्यन्यानि सूत्राणि दर्शयति। (एवं भूया-णंदस्सवित्ति) भूतानन्दस्यापि औदीच्यनागराजस्यापि उत्पात-पर्वतस्तस्य नाम प्रमाणंच वाच्यं यथा धरणस्येत्यर्थः भूतानन्द-प्रभश्चोत्पातपर्वतोरुणोद एव भवति केवलमुत्तरतः एवं (लोगपाला-ण वि से ति) (से ) तस्य भूतानन्दस्य लोकपालानामपि एवमु-त्पातपर्वतप्रमाणं यथा धरणलोकपालानामिति भावः / नवरं तत्रेमानि चतुःस्थानकानुसारेण ज्ञातव्यानीति / (जहा धरणस्सत्ति) यथा धरणस्य एवमिति तथा सुपर्णविद्युत्कुमारादीनां ये इन्द्रास्ते-षामुत्पातपर्वतप्रमाणं भणितव्यं कियत्पर्यन्तानां तेषामित्यत आह (जाव थणियकुमाराणं ति) प्रकट किमिन्द्राणामेव नेत्याह (सलोगपालाणंति) तल्लोकपालानपीत्यर्थः / (सव्वेसिमित्यादि) सर्वेषामिद्राणां तल्लोकपालानां चोत्पातपर्वताः सदृग्रामानो भणितव्या यथा धरणस्य धरणप्रभः प्रथमतल्लोकपालस्य कालवालस्य कालवालप्रभइत्येवं सर्वत्र ते च पर्वताः स्थानमङ्गीकृत्यैव-भिवन्ति "असुराणं नागाणं, उदहिकुमाराण होंति आवासा। अरुणोदए समुद्दे, तत्थेव य तेसि उप्पाया / / 1 / / दीवदिसा अग्गीणं थणियकुमाराण हॉति आवासा / अरुणवरे दीवम्मि उ, तत्थेव य तेसि उप्पायत्ति" // 2 // सकस्सेत्यादि / / कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डलपर्वतस्याभ्यन्तरे दक्षिणतः षोडश राजधान्यः सन्ति तासां चतसृणां मध्ये सोमप्रभयमप्रभवरुणप्रभवैश्रमणप्रभाख्या उत्पातपर्वताः सोमादीनां शक्रलोकपालानां सन्ति उत्तरपार्श्वे तु एवमेवेशानलोकपालानामिति यथा शक्रस्य तथाच्युतान्तानामिन्द्राणां लोकपालानां चोत्पातपर्वता वाच्या यतः सर्वेषामेकं प्रमाणं नवरं स्थानविशेषो विशेषसूत्रादवगन्तव्यः।। स्था० 10 ठा०। उप्पायपुटव न०उत्पात(द)पूर्व उत्पादप्रतिपादकं पूर्वमुत्पादपूर्वम् / प्रथमपूर्वे , तत्र सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां चोत्पादमधिकृत्य प्ररूपणा क्रियते आह चि चूर्णिकृत् "पढम उप्पायपुटवं, तत्थ सव्वदव्वाणं पज्जवाण य उप्पाय मंगीकाउं पण्णवणा कप्पाइति / / नं०॥ तस्य पदपरिमाणमेका कोटी। सानन्दीसमवायाङ्गवृत्योरेका पदकोटीत्युपलभ्यतेऽन्यत्रैकादश / यत्रोत्पादमङ्गीकृत्य सर्वद्रव्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तदुत्पादपूर्व प्रथम तच Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप्यायपुव्व 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उब्बद्धय पदप्रमाणेन पदसंख्यामाश्रित्य एकादशकोटीप्रमाणम् / प्रथमपूर्वे | पात्रादौ, इट् पक्षे उत्पवितोऽप्यत्र / वाच०॥ एकादशपदानां कोट्य इत्यर्थः इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदमित्यादि *उत्प्लुतन० गेयदोषभेदे, ज्ञा०१६ अ०॥ पदलक्षणसद्भावेऽपि तथाविधासंप्रदायाभावात्तस्य प्रामाण्यं न उप्पूर पुं०(उत्पूर) प्रकृष्ट प्रवाहे, "पवणाहयचवलललियतरंगहसम्यगवगम्यत इति। प्रव०६२ द्वा० 'उप्पायपुवस्सणं चत्तारि चूलिया त्थनचंतवीइपसरियखीरोदकपवरसागरुप्पूरचंचलाहिं" औ०। प्राचुर्ये, वत्थूपण्णत्ता' उत्पादपूर्वं पूर्वाणांतस्य चूला आचारस्याग्राणीव तद्रूपाणि "उप्पूरसमरसंगामडमरकलिकलहवेहकरणं" उत्पूरेण प्राचुर्येण समरो वस्तूनि परिच्छेद विशेषा अध्ययनवत् चूलावस्तूनि / स्था० 4 ठा० / जनमरकयुक्तो यः संग्रामो रणः स उत्पूरसमर-संग्रामः। प्रश्न०३ द्वा०। "उप्पायपुव्वस्स णं दसवत्थू पण्णत्ता" उत्पातपूर्वं प्रथमं तस्य दश उप्पेय (देशी) अभ्यङ्गे।"पुव्वंचमंगलट्ठा, उप्पेयं जइ करेइ गिहियाणं" वस्तून्यध्यायविशेषाः स्था०१० ठा०। पूर्वं चयदि मङ्गलार्थं साधुउप्पेयं देशीपदमेतत् अभ्यङ्गं पश्चाद् गृहिकाणां उप्पायविगमलक्खण न०(उत्पादविगमलक्षण) उत्पादविगम-योः गृहस्थानां करोति। व्य०६ उ०। स्वरूपपरिचायके, विशे० (लक्खण शब्दे इदं वक्ष्यामि) उप्पेल धा०(उन्नमि) उद् नम्- णिच-ऊर्द्धनमनकारणे, उनमेरउप्पार्वेत त्रि०(उत्प्लावयत्) उत्-- प्लव-णिच्- शतृ / च्छकोल्लालगुलुगुञ्छोप्पेला ||8|36|| इति उन्नमेरुप्पेलादेशः उत्प्लुतिप्रयोजके, प्रा० / उप्पेलइ उन्नमयति। प्रा०। उप्पिं अ०(उपरि) ऊर्द्ध-रिल-उपादेशश्च / प्रथमापञ्चमीसप्तम्य- | उप्पेहड (देशी) उद्भटार्थे, दे०ना०। न्तार्थवृत्तेरार्द्धशब्दस्यार्थे, वाच० "तेसिं भोमाणं उप्पिउज्जोया'' जी०३ उप्फुण्ण (देशी) आपूर्णे , दे०मा०1 प्रति० / स्था० / "उप्पिं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं " (उपरि) उप्फुण पुं० स्त्री०(उत्फण) उद्गच्छत्फणे, उत्फणत्वे, कुण्डलिमस्तके, रा०। कादिपर्यायसमन्वितसर्पद्रव्यवत् आ०म० द्वि०। उप्पिंजल त्रि०(उत्पिञ्जल) उद्-पि-जि-कलन् वा लस्य रः / उप्फाल (देशी) दुर्जने, देखना०। अत्यर्थाकुले, वाच०।"उप्पिंजलभूए कहकहभूए दिव्वे देवरमणे पव्वत्ते उप्फालंत त्रि०(उत्फालयत्) प्रोल्लङ्घयति ,प्रा०। आवि होत्था'' उत्पिञ्जलभूते आकुलके भूते किमुक्तं भवति महर्द्धिकदेवानामप्यतिशायितया परक्षोभोत्पादकत्वेन सकलदे उप्फुल त्रि०(उत्फुल) उद्-फुल्-नि० विकसिते, द०५ अ०। वासुरमनुजसमूहचित्ताक्षेपकारी। रा०।। दलानामन्योन्यविश्लेषेण प्रकाशिते, उत्फुल्लनीलनलिनोदरतु ल्यभासः माघः। उत्ताने, त्रि० स्त्रीणां गुप्तेन्द्रिये, न०।वाच०॥ उप्पित्थ न०उ(त्पित्त)प्पित्थ आकुले, रोषभृते आकुलता च श्वासेन द्रष्टव्या / तथा पूर्वसूरिभियाख्यानात् उक्तंच 'उप्पित्थं' उप्फुसिऊण अ०(उत्स्पृश्य) उदकेन अभ्युक्षणं दत्वेत्यर्थे "उप्फुसिऊ श्वाससंयुक्तमिति / जी० 3 प्रति०। तृतीय एष गेयदोषः। जं०१ वक्षः। णं देते अत्तट्ठियसेविएगहणं"वृ०१ उ०। स्था०। रा०। अनु०॥ उप्फेणउप्फेणिय न०(उत्फेनोत्फेनित) फेनोद्वमनकृते, "उप्फेण उप्पियंत त्रि०(उत्पिवत्) आस्वादयति, प्रश्न० 3 द्वा०। मुहुर्मुहुः उप्फेणियसीहसेण रायं एवं वयासी उप्फेण उप्फेणियंति" सकोश्वसति, "उप्पियंतं गणिंदिस्सा अगीतो भासेइ इम" व्य०वि०४ उ०। पोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थः। दिपा०६ अ०। उप्पियण न०(उत्पातन) मुहुर्मुहुः श्वसने, व्य० द्वि० ३उ०) उप्फेस न०पुं०(देशी) मुकुटे, औ०। प्रज्ञा० / शिरोवेष्टने, शेखरके, उप्पियमाण त्रि०(उत्प्लाव्यमान) जलोपरि प्लाव्यमाने, "वुड्डमाणे "पंचरायककुहा पण्णत्ता तंजहा खरगं छत्तं उप्फे सं वाहणा उवालवियाणी" स्था० 5 ठा० / "उप्फेसं वा कुजा'' शिरोवेष्टनं वा णिवुडमाणे उप्पियमाणे, उपा०७ अ०॥ कुर्यात, आचा०२ श्रु०॥ त्रासे, अपवादार्थे , देवना०। उप्पिलावंत त्रि०(उत्प्लावयत्) ऊर्द्ध प्लावयति, "जे भिक्खू सण्णं उप्फोअ (देशी) उद्रमे, देना। णावं उप्पिलावेइ उप्पिलावंतं वा साइज्जइ' नि०चू०१८ उ०।आचा० / उप्फोस पुं०(उत्स्पृश) उत्स्पर्शने, छन्दने, वृ०१ उ०। उप्पीलित त्रि०(उत्पीडित) गाढीकृते, "उप्पीलियवच्छकच्छगेवेजबद्धगलगवरभूसणविराइयं" उत्पीडिता वक्षसिकृता हृदय उबंधण न०(उन्धन) उद्-बन्ध-ल्युट्-उल्लम्बने,। प्रश्न०५ द्वा० रज्जुर्यस्य सतथा, भ०७श०६ उ०। ज्ञा०ा औ०। वि०।"उप्पीलिय ऊर्द्ध वृक्षशाखादौ बन्धने, तेन मरणे च / "उबंधणाइ वेहाचिंधपट्टगहिया उहपहरणा" उत्पीडितो गाढबद्ध-चिह्नपट्टो समित्यादि" प्रव०१५ द्वा०। नेत्रादिचीवरात्मको यैस्ते तथा / प्रश्न० 3 द्वा० / / उब्बद्धय पुं०(उद्धक) विद्यादायकादिप्रतिजागरके, स्था०३ ठा० / स "उप्पीलियचित्तपट्टपरिपरसफेणगावतरइयसंगयपलववत्थंतचित्त च प्रव्राजयितुंन कल्पते। इति तत्प्ररूपणमित्थम् "अझ्याणि उव्वद्धो' / विल्ललगं" उत्पीडितोऽत्यन्तबद्धश्चित्रपट्टो विचित्रवर्णपट्टरूपः परिकरो कम्मे सिप्पे विजा, मंते जोगेय होति उववरआ। यैस्ते तथा / रा० "उप्पीलियसरासणपट्टिए' उत्पीडिता गुणसारणेन उबंद्धउओ एसो,न कप्पए तारिसे दिक्खा||४२०।। कृतावपीडा शरासनपट्टिका धनुर्दण्डो येन स तथा। उत्पीडिता वा बाहौ एसपंचविहो उपचरणगभावेण बद्धो उपचारकः प्रतिजागरक इत्यर्थः। बद्धा शरासनपट्टिका बाहुपट्टिका येन स तथा / भ०७ श०६ उ०। कम्मे सिप्पे विजा, मंतेय परूवणा व उण्हं पि। उत्पीडिता प्रत्यञ्चारोपणेन शराशनपट्टिका धनुर्यष्टिय स्ते तथा। अथवा गोवालउडमादी, कमउं होति उव्वट्ठउ // 421 / / उत्पीडिता बाहौ बद्धा शराशनपट्टिका धनुर्धरप्रतीता यैस्ते तथा भ०३ कम्मसिप्पाणं दोण्हं भये परूवणा कजति तेणं चउगहरणं श०७ उ०रा०। वि०। अणुवएसपुव्वगं गोपालादीकम्मं आयरितोवएसपुव्वंग रेहगादी उप्पुय त्रि०(उत्पुत) उद्-पु-क्त / पवित्रादिना कृतोत्पवनसंस्कारे सिप्पं ले हादिया सउणरूपपञ्जवसाणा वावत्तरिक लातो Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उब्बद्धय 867 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उभिण्ण .. .. विजादेवयसमयनिबद्धो मंतो अहवा इत्थिपुरिसाभिहाणविज्जामंता अहवा बहिभूतैर्लोकप्रसिद्धेऽज्ञातवक्तुके श्लोके, वाच० / असंवृतपरिधानादौ स साहणा विज्जा पढणसिद्धो मतो दुगमादि दवनियरा विद्दे- "छिक्कावणा उडभेडो णीया सा दारुणसभावा' वृ०६ उ० / विकराले, सणवसीकरणउचाडणारोगावणायकरावजोगा इत्थं गोपालादीकम्मे "उन्भडघडमुहा कच्छुकसराभिभूया" उद्भट विकरालं घटकमुखमिव छिन्नगा कालतो मुल्ले गहिते अगहिते वा काले असंपुन्ने ण कप्पति मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते तथा / स्पष्टे च / "उन्भडघाडामुहा दिक्खिउंपुन्ने कम्पति। अछिन्नकालतो कए कम्मे गिहिते वा अराहिते वा कच्छुकसराभिभूया" उद्भटे स्पष्ट धाटामुखे शिरोदेशविशेषौ येषां तेतथा। मुल्ले कप्पति। भ०७श०६ उ०। जं०। ज्ञा०॥ तंग सिप्पाई सिक्खंतो, सिक्खावेंतस्स दत्त जा सिक्खा। उन्मडवेस पुं०(उद्भटवेष) निषिद्धजनोचितनेपथ्ये, ध०र०। दर्श०। गहियम्मि वि सिक्खम्मि, जं चिरकालं तु उब्बद्धो॥४२२|| (तदकरणीयता अणुब्भड शब्दे उक्ता) एमेव य विज्जाए, मंते जोगे य जाव उम्बद्धो।। उन्भव पुं०(उद्भव) उद्-भू-अच् / उत्पत्ती, विशे० / सम्भवे, ज्ञा०२ तावति काले ण कप्पति, सेस कालं अणुण्णत्तो / / 423 / / अ०। कर्तरि-अच्-1 उत्पत्तिमति, उद्भूतत्वे, विशेषगुणगते जातिभेदे, अतिगाहणातो विजा मंतेजोगा सिक्खंतो सिक्खावेंतस्सकवलादिदव्वं वाच०॥ देति सोयजति तेण एवं उब्बद्धो जाव सिक्खसितावतुम ममायतोतंमि उन्माम पुं०(उद्घाम) उद्-भ्रम्-घञ्-भिक्षाभ्रमणे, स्था० 4 ठा०॥ असिक्खित्ते न कप्पति सिक्खिए कप्पति / अध एवं उब्बद्धो सिक्खिए उत्प्राबल्येन भ्रमत्युद्धमाः / भिक्षाचरेषु, "तारिय उब्भा-मणितो य वि उवरिए तियं कालं ममायतणे भवियव्वं तम्मि काले अपुन्ने ण कप्पति दरिसणं' व्य०१ उ०। नि० चू०।। अंतरा पव्वावेंतस्स इमे दोसा॥ उन्मामइल्ला स्त्री०(उद्भामिला) स्वैरिण्याम्, 'जस्स महिलायति बंधबहो रोहावा, हवेज परितावसंकिलेसो वा। उभामइल्ला य तस्स" व्य०४ उ० दुःशीलायां च / वृ०६उ०। उब्बद्धगम्मि दोसो, उवण्णसु ते य परिहाणा ||424|| उन्भामग पुं०(उद्भ्रामक) उद्-भ्रम्-ण्वुल। पारदारिके, बाह्य-ग्रामे भिक्षाटनं विधायापर्याप्ते तत्रैव भिक्षामटति, "अद्धाणणि--गयाई उवउद्धगभवगाणं, एस विसेसो मुणेयम्वो। उडभामगखमग अक्खरे रिक्खा" वृ०१उ०। वायुभेदे च / प्रज्ञा० / कंठा वितियपदं सुक्कोवगाहा / कंठागतो उब्बद्धगो उब्बद्धमय-गाण उन्मामगणितो(यो)य पुं०(उद्भ्रामकनियोग) उद्घामका भिक्षाइमो वि से सोऊण उवसंपदं उब्बद्धो भयउंपुण भत्तीएघेप्पंति। नि०चू० त्तरास्तेषां वियोगो व्यापारो यत्र स उद्भामकनियोगः / भिक्षाचर११ उ०। व्यापारवति ग्रामे, "तीरिय उब्भामणितोयदरिसणं साहुसणिवप्पाहे।" उब्बलण न०(उदलन) अभ्यङ्गने, विइयपवकारणम्मिचम्मुब्ब-लणंतु व्य०१उ हों ति एगट्ठा" वृ०३ उ०। (अणायारशब्दे तन्निषेध उक्तः) प्रोदलने च। उडमामिगा स्त्री०(उदामिका) कुलटायाम्, व्य०६ उ० / क०प्र० करणे, ल्युट् / देहापलेपनविशेषेषु,यानि देहाद्धस्तामर्शनेना "उब्भामिगावलिया बलिया वलवलिया" महा०३ अ०। पनीयमानानि मालादिकमादाय उद्बलन्तीति / ज्ञा० १३अ०।। उब्भालण(देशी) शूदिनोत्पवने, अपूर्वे च। दे०ना०। उब्बलणसंकम पुं०(उगलनासंक्रम) प्रदेशे, सङ्कमभेदे, पं० सं० उन्भाव धा०(रम्) क्रीडायाम, रमेः संखुडखेड्डोब्भावकिलिकिं (तल्लक्षणादिसंकमशब्दे प्रदेशसंक्रमप्रस्ताव दर्शयिष्यते) चकोट्टुममोट्टायणीसरवेल्ला // 4 // 67 / / इति रमेरुडभावादेशः। / उम्बिद्ध त्रि०(उद्विद्ध) ऊर्द्ध गते, औ० / "सुगंधवरकुसुमचुम्म उब्भावइ / रमते। प्रा०। वासरेणुमइलं' भ०६ श० 33 उ०। रा०। उच्छ्रिते, / "तालद्ध उन्मावणा स्त्री०(उद्भावना) उत्प्रेक्षणे, "असब्भावुब्भावणाहिं' उब्बिद्धगहलकेउ" स०। प्रश्न०। रा०। ज्ञा०१३ अ०1 औ०। प्रकाशने, नं० / प्रभावनायाम्, "पवयण *उपविद्ध त्रि० उण्डे, "उब्बिद्धविपुलगंभीरखायफलिहा' ज्ञा०१०। उब्भावणया" स्था० 10 ठा०। वृ०॥ रा०। उन्भाविअ (देशी) सुरते, दे०ना०॥ उब्बेहपुं०(उद्ध) उण्डत्वे, जी०३प्रति० "उब्बेधं ओंडतणंति भणियं उम्भिंदमाण त्रि०(उद्भिदत्) उद्भेदं कुर्वति, "मट्टिउवलितं असणं 4 होइ" स्था०१० ठा०। भूमिप्रविष्टत्वे,जं०७ वक्ष०ा भुवि प्रवेशे, स्था० __ वा उभिंदमाणे पुढवीकार्य समारंभेजा" आचा०२ श्रु०७ अ० 2 ठा०। भूमाववगाहे, मध्यविष्कम्भे च / स्था० 10 ठा०। उभिदिउं(य) अव्य०(उद्भिद्य) उद्घाटयेत्यर्थे "छगणाइणो-वलित्तं उब्बोलित्ता त्रि०(अववोलयितृ) अधोबोलयितरि, "सीओदगवि उडिभंदिय जंतमुभिण्णं" पंचा० 13 विव० / द०॥ यडंसिवा कायं उब्बोलित्ता भवति" सूत्र०२ श्रु०३ अ०। उभिज्जमाण त्रि०(उद्भिद्यमान) उद्घाट्यमाने, जं० 1 वक्ष० / रा० उन्म त्रि०(ऊर्ध्व) उद्-हाड्-ड-पृषो० ऊरादेशः।"वोद्ये।।८।२।५८|| जीवा० / प्रावल्येनोर्द्ध वा दार्यमाणे, केतइपुडाण वा अणु-वायसि इति संयुक्तस्य वा भः / उभं उद्धं / प्रा० / उच्चे, उपरिउपरितने च / ___ उब्भिज्जमाणाण वा" भ०१६ श०६ उ०॥ वाच०। उभिण्ण न०(उद्भिन्न) उद्भेदनमुदभिन्नम् / साधुभ्यो घृतादिदानउन्मजि (देशी) कोद्रवजालके, वृ० 1 उ०।। निमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितोद्धाटने द्वादशे उद्गमदोषे, उन्भट्ठ त्रि०(अवभाषित) याचिते, "उन्भट्ठ अणोभटुं वा गेण्हंत-स्स तद्योगाइये घृतादौ च / पिं० / "छगणाइणोवउत्तं उभिदिय जं दव्युज्यिं भवति। नि०चू०१५ उ०। तमुभिण्णं" | उद्भिद्य उद्घाट्य यद् भक्तादि ददातीति वर्तते उन्भड त्रि०(उद्भट) उद्भट करणे-अप्।तण्हुलादेः प्रस्फोटन-हेतौ तद्भक्ताद्युद्भिन्नमित्युच्यते। कोष्ठकाद्युद्भिन्नं भाजनसम्बन्धादिति। पंचा० शूर्पे तदाकारत्वात्कच्छपे, श्रेष्ठाशये, महाशये, प्रवरे, ग्रन्थ-- 13 विव०॥ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभिण्ण 968 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उब्भिण्ण तद्भेदा यथा-- पिहिउब्भिन्नकवाडे, फासुयअफासुए य बोधवे। अफासुय पुढविमाई, फासुय छगणाइ दद्दरए। उदिन्नं द्विधा तथा पिहितोद्भिन्नं कपाटोद्भिन्नं च। तत्र यत् कुतुपादेः स्थगितं मुखं साधूनांतैलघृतादिदीयते तद्दीयमानं तैलादि पिहितोद्भिनं पिहितमुद्धिन्नं यत्र तत् पिहितोद्भिन्नमिति व्युत्पत्तेः / तथा यत् पिहितं कपाटमुद्भिद्य उद्घाट्य साधुभ्यो दीयते तत् कपाटोद्भि-नम्। व्युत्पत्तिः प्रागिव। तत्र पिहितोद्भिन्नं द्विधा तद्यथाप्रासुकम-प्रासुकंच सचेतनमचेतनं चेत्यर्थः / तत्राप्राशुकं सचित्तपृथिव्या-दिमयं प्राशुकं छगणादिदर्दरके तत्र छगणा गोमया आदिशब्दाद्भस्मादिपरिग्रहः दर्दरको मुखबन्धनवस्त्रखण्डम्॥ अत्र पिहितोद्भिन्ने दोषानभिधित्सुराह॥ उब्भिन्ने छकाया, दाणे कयविक्कए य अहिगरणे। ते चेव कवाडम्मि वि, सविसेसा जंतमाईसु॥ उद्भिन्ने पिहितोद्भिन्ने च दोषस्तदुद्भेदकाले षट्पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते तथा प्रथमतः साधुनिमित्तं कुतुपादिमुखे उद्भिन्ने सति पुतादिभ्यस्तैलादिप्रदाने तथा क्रय विक्रयेचाधिकरणप्रवृत्तिरुप-जायते। तथा त एव षट्कायविराधनादयो दोषा कपाटेऽपि कपाटोद्भिन्नेऽपि सविशेषास्तुयन्त्ररूपकपाटादिषु द्रष्टव्याः। तत्र यान्यतीव संपुटमागतानि कुञ्चिकाया रोधाधान्ति यानि च दर्दरिकोपरि पिट्टणिकाया एकदेशवर्ती नि मालप्रवेशरूपद्वारे तानि यन्त्ररूपकपाटानि / आदिशब्दात्परिघादिग्रहः। संप्रत्येनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतः "उडिभन्ने छक्काया" इत्यवयवं व्याख्यानयन् गाथाद्वयमाह। सचित्तपुढविलितं,लेलुसितं वा विदाउमोलित्तं / सचित्तपुढविलेवो, चिरम्मि उदगं अचिरलित्ते॥ एवं तु पुष्वलित्ते, जे उल्लिंपाणे य ते चेव / ते मेउं उवलिंपइ, जमुई वा वि तावेउं / इह कुतुपादिमुखदर्दरकोपरि कदाचित्लेलुं लोष्टम्। शिला पाषाणखण्डं प्रक्षिप्य जलार्दी कृतसचित्तकायलिप्तं भवति / तत्र सचित्तः पृथिवीलेपः सचित्तः सन् चिरकालमप्यवतिष्ठते। उदकं त्वचिरलिप्ते अचिरकाललिप्ते संभवति किमुक्तं भवति यदि चिरकालसचित्तपृथिवीकायलिप्तमुद्भिद्यते तर्हिसचित्तपृथिवीकाय-विनाशोऽचिरलिप्तद्भिद्यमाने अप्कायस्यापि विनाशः / अचिरलिप्तमप्यत्रान्तर्मुहूर्तकालमध्यवर्ति द्रष्टव्यमन्तर्मुहूर्तानन्तरं तु पृथि-वीकायशस्त्रसंपर्कत उदकमचित्तीभवति / ततो न तद्विराधनादोषः। उपलक्षणमेतत् तेन त्रसादेरपि तदाश्रितस्य विनाशसंभवो द्रष्टव्यः एवमनेन प्रकारेण पूर्वलिप्ते साध्वर्थमुद्भिद्यमाने दोषा उक्ताः / एते एव पृथिवीकायादिविराधना दोषा उपलिप्यमानेऽपि कुतुपादिमु-खातैलघृतादिकं साधवे दत्वा शेषस्य रक्षणार्थं भूयोऽपि कुतुपादिमुखे स्थग्यमाने द्रष्टव्याः / तथाहि भूयोऽपि कुतुपादिमुखं सचित्तपृथिवीकायेन जलार्दीकृतेनोपलिप्यते ततः पृथिवीकायविराधना / अप्कायविराधना च पृथिवीकायमध्ये च मुद्गादयः कीटिकादयश्च संभवन्ति / ततस्तेषामपि विराधना / तथा कोऽप्यभिज्ञानार्थं कुतुपादिमुखस्योपरि जतुमुद्रां ददाति / तथा तेजस्कायविराधनापि / यत्राग्निस्तत्र वायुरिति वायुकायविराधना च / ततः पिहितोद्भिन्नेषट्कायविराधना। अमुमेवार्थ स्पष्टं भावयति। जह चेव पुय्वलित्ते कायादओ पुणो वि तह चेव। उवलिप्पंते काया, मुइंगाइं नवरि छठे। यथा चैव पूर्वलिप्ते कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते तथा साधुभ्यस्तैलादिकं दत्वा भूयोऽपि कुतुपादेर्मुखे उपलिप्यमाने काया विराध्यन्ते / नवरं षष्ठे काये त्रसकायरूपे विराध्यमाना जन्तवः पृथिव्याश्रिताः मुइंगादयः पिपीलिकाः कुन्थ्वादयो दृष्टव्याः। संप्रति "दाणे कयविक्कय" इत्यवयवं व्याचिख्यासुराह / / परस्स तं देइ स एव गेहे, तेल्लं व लोणं व घयं गुलं वा / उग्घाडियं तम्मि करे अवस्सं, सविक्कयं तेण किणाइ अन्नं / / तस्मिन् कुतुपादिमुखे साध्वर्थमुद्घाटिते सति प्रवर्तते इति साधोः प्रवृत्तिदोषः। तथा च एते एव अहिगरण' मित्यवयवं वाचिख्यासु-राह॥ दाणकयविक्कए चेव, होइ अहिगरणमजयभावस्स। निवयंति जेय तहिं ये, जीवा मुइंगमूसाई॥ दानक्रये विक्रये चानन्तरोक्तस्वरूपं वर्तमाने साधोरयतभावस्य अयतोऽशुद्धाहारापरिहारकत्वेन जीवरक्षणरहितो भावोऽध्ययसा यो यस्य स तथा तस्याधिकरणं पापप्रवृत्तिरुपजायते / तथा तस्मिन् कुतुपादिमुखे उद्घाटिते ये जीवा मुइंगमूषकादयो निपतन्ति निपत्य च विनाशमाविशन्ति तदप्यधिकरणं साधोरेव संप्रति'ते चेव कवाडम्मी' त्यवयवं व्याचिख्यासुराह॥ जहेव कुंभाइसु पुष्वलित्ते, उन्मिजमाणे य भवंति काया। उल्लिप्पमाणे वि तहा तहेव, काया कवाडम्मि विभाणियव्वा। तथैव कुम्भादौ घटादौ आदिशब्दात् कुतुपादिपरिग्रहः / पूर्वलिप्ते उद्भिद्यमाने तथा उपलिप्यमाने कपाटे तद्विराधना भवति / जलभृते करकादौ लुप्यमाने भिद्यमाने वा पानीये प्रसप्तः प्रत्यासत्रचुल्लादावपि प्रविशेत् / तथा च सत्यग्निविराधना यत्र चाग्निस्तत्र वायुरिति वायुविराधना च / मुइंकादिविवरप्रविष्ट कीटिकागृहगोधिकादिसर्वविनाशे त्रसकायविराधना चेति / दानक्रयविक्रयाधिकरणप्रवृत्तिभावना च पूर्ववत्कर्तध्या। संप्रति "सविसेसण'' इत्यवयवं व्याचिख्यासुराह॥ घरकोइलसंचारा, आवत्तणयदुगाइहेट वरिं। नितिट्ठिए य अंतो, डिंभाई पेल्लणे दोसा // कपाटस्य सञ्चारात् संचलनात् गृहगोधिका उपलक्षणमेतत्कीटिकादुरादयश्च विराध्यन्ते तथा प्रासादस्याधो भूमिरूपा पीठिके-व पीठिका भूमिका तत्र अध उपरितले च कपाटैकदेशस्याधो व-तते तदाश्रिताः कुन्थुपिपीलिकादयो विनाशमश्नुवते। तथा उद्घाटिते कपाटे पश्चान्मुखं नीयमाने अन्तः स्थितस्य डिम्भादेः प्रेरणदोषाः शिरः स्फोटनादयो भवन्ति॥ संप्रत्यपवादमाह। घेप्पइ अकिंचियागम्मि, कवाडे पइदिणं परिवहति। अजउमुद्दिय गंठी, परिमुजइदहरो जाव // अकुशिकारहिते कुञ्चिाकदिविरहिते इत्यर्थः / तत्र हि किल पृष्ठ भागे उल्लालको न भवति / तेन न घर्षणद्वारेण सत्वविराधना / यद्वा "अब्भुइयागत्ति' पाठः। तत्र अकूजिकाके कूजिकारहिते अक्के कारारवे किमुक्तं भवति / यत् उद्धाट्यमानं कपाटं के काररावं करोति तद्धि क्रियमाणमूर्द्धमधस्तिर्यक् च घर्षन् प्रभूतसत्वव्यापादनं करोति। तेन तद्वर्जनम्। तस्मिन्नपि किं विशिष्ट इत्याह / प्रतिदिनं प्रतिदिवसं निरन्तरं प्रतिवहति / उद्धाट्यमाने दीयमाने चेत्यर्थः तस्मिन् प्रायो न गृहगोधिकादिसत्वाश्रयसंभवश्चिरकालमवस्थानाभावात् / इत्थं भूते कपाटे साध्वर्यमप्यु Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभिन्न 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उभयारिह द्घाटिते यत् ददाति गृहस्यः तत् गृह्यते स्थविरिकल्पानामाची- कर्मणोरर्पितौदयिकादिभावविषयकसंयोगलक्षणस्योभयार्पितसपर्णमेतत् / तथा यश्च दईरकः कुतुपादीनां मुखबन्धरूपः प्रतिदिवसं म्बन्धनसंयोगस्य व्याख्या संजोग शब्दे वक्ष्यते) परिभुज्यते बध्यतेछाद्यतेच इत्यर्थः तत्र यदिजतुमुद्राव्यतिरेकेण केवलं उभयमंडली स्त्री०(उभयमण्डली) समुद्देशनमण्डल्याम्, स्वावस्त्रमात्रग्रन्थिीयते। नापि च सचित्तपृथिवीकायादिलेपस्तर्हि तस्मिन् | ध्यायमण्डल्यांच। वृ०१ उ०। साध्वर्यमुद्भिन्नेऽपि यद्दीयते तत्साधुभिर्गृह्यते इति। उक्तमुद्भिन्नद्वारम्। उभयलोगहिय त्रि०(उभयलोकहित) लोकद्वयेऽप्युपकारके, पिं०। प्रव० / ध०। पंचा० / व्य० / उत्त०१ दर्श० ग० / स्था० / "कल्लाण भायणत्तेण उभयलोगहियं पंचा०११ विव०। (तद्ग्रहणनिषेध आचाराङ्गे प्रतिपादितः स च मालोहड शब्दे उभयसंबंधणसंजोग पुं०(उभयसम्बन्धनसंयोग) उभयेनात्मबाव्याख्यास्यते) वृ०। (जीतकल्पानुसारेण पिहितोद्भिन्नकपाटोदूभिन्ने ह्यलक्षणेन तदुभयस्मिन्वा संयोगे, यथा क्रोधी देवदत्तः क्रोधी कौन्तिको आचामाम्लम्) जीत०। उत्पन्ने, कर्मणिक्त द्विधाकृते, दलितेचा वाच०॥ मानी सौराष्ट्रः क्रोधी वा सन्ति अत्र क्रोधादिभिरौदयि कादिभावान्तर्गतउन्मुअंत त्रि०(उद्भवत्) उद्-भू-शतृ-भुवेर्हो हुवहवाः॥४॥६॥ त्वेनात्मरूपैर्नामादिभिस्त्वात्मनोऽनन्यत्वेनबाह्यरूपैः संयोग इत्युभयइत्यत्र क्वचिदन्यदनीत्युक्तेरुज्भुअ आदेशः। उत्पद्य-माने, प्रा०॥ सम्बन्धनसंयोग उच्यते। उत्त०१ अ०। (एतदद्व्याख्या संजोग शब्दे) उन्भुइया स्त्री०(औद्भूतिकी) उद्भूते, आगन्तुके, कस्मिंश्चित्प्र-योजने उभयसमय पुं०(उभयसमय) उभय (स्वपर) मतानुगतशास्त्रस्व-भावे, सामन्तामात्यादि लोकस्य ज्ञापनार्थं वाद्यमानायामाशीर्ष-चन्दनमय्यां उत्त०१ अ०। देवतापरिगृहीतायां कृष्णवासुदेवभेयाम्, विशे०॥ उभयारिह न०(उभयाह) मिश्रापरपाये, दशविधप्रायश्चित्तमध्ये तृतीये, उन्भुत्त धा०(उत्क्षिप) ऊर्द्धक्षेपे, उत्क्षिपेणुलंगुञ्छोत्थंघाल्लत्थो यस्मिन्प्रतिसेविते प्रायश्चित्ते यदि गुरुसमक्षमालोचयति आलोच्य च न्मुत्तोस्सिकहक्खुप्पाः॥४॥४३॥ इत्युत्क्षिपेरुभुत्तादेशः। उन्भुत्तइ। गुरुसन्दिष्टः प्रतिक्रामति पश्चाच मिथ्यादुष्कृतमिति ब्रूते तदा शुध्यति उक्खिवइ / प्रा०॥ तत आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणोभयार्हत्वान्मिश्रम् / व्य० प्र०१ उ०। उन्भेइमन०(उद्देदिम) उद्भेद्ये सामुद्रादौ, अप्रासुके वालवणे, द०६ यच प्रतिसेव्य गुरोरालोचयति गुरूपदेशेन च विशुध्यर्थं मिथ्यादुष्कृतं अ०।"विलं वा लोणं उभेइमं वालोणं आहारेइ आहारंतं वा साइजइ क्रियते तदुभयार्हम्। जी० उन्भेतिमं पुण सय रुहं जहा सामुह" नि० चू०११ उ०|| येषु प्रतिसेवितेषु उभयार्हप्रायश्चित्तं तान्याह / / उमओ अव्य०(उभयतस्) उभाभ्यां प्रकाराभ्यामित्यर्थे , "उभाओ संभमभयाउरावइ, सहसाणाभोगणप्पवसओ वा। जोगविशुद्धा आयावणट्ठाणमाईया'' उभाभ्या प्रकारा-भ्यां क्रियया सव्ववयाईयारे, तदुभयमासंकिए चेव // भावतश्चेत्यर्थः। (जोगविसुद्धत्ति) विशुद्धयोगा निरव-द्यव्यापाराः। पशा० संभ्रमः संक्षोभः करिसरित्पूरसार्दूलदावानलादेः भयः चौरवन्दि१८ विव०। "उभओ विव्वोयणे दुहओ उण्णए" उभयतः शिरोन्तपा कम्लेच्छादेः (आउरत्ति) भावप्रधानत्वान्निद्देशस्य आतुरत्वं पीडितत्यं दान्तावाश्रित्य (विव्वोयणत्ति) उपधानके यत्र तत्तथा। भ०११श०११ क्षुत्पिपासाद्यैः / आपञ्चतुर्की द्रव्यक्षेत्रकालभावैः / तत्र द्रव्याउ०॥ पत्कल्पनीयासनादिद्रव्यदुर्लभता 1 क्षेत्रापत्प्रत्यासन्नग्रामनगराउभय त्रि०(उभय) उभ्-अयच्-व्यवयवे द्वित्वविशिष्ट, अस्य द्वित्वे दिरहितमल्पं च क्षेत्रम् 2 कालापदुष्कालादि 3 भावापद् ग्लानत्वादि 4 बोधकत्वेऽपि एकवचनबहुवचनान्ततयैव प्रयोगः न द्विवचनप्रयोगः। ततः संभ्रमभयातुरापद्भिः कारणैः सहसाकारानाभोगौ प्राग् घ्याख्यातौ "सिद्धादिएसु उभयं करेजसे धोवधिं व ममत्तं / उभयं णाम एगदोसा" ताभ्यां चानात्मवशकः परवशः वा शब्दाद् भृताद्यावि-ष्टश्च तस्य नि० चू०१ उ०। सर्वव्रतातिचारे सति / नन्वेवमतीचाराः हस्तिसंभ्रमाद्यैः पलायमानः उभयभाग न०(उभयभाग) चन्द्रस्य उभयत उभयभागाभ्यां पूर्वतः पृथिवीजलानलरहितद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियांश्चरणकरणघातादिना पश्चाचेत्यर्थो भज्यन्ते भुज्यन्ते यानि तानिउभयभागानि चन्द्रस्य पूर्वतः ताडयन् पादपाद्यारोहणेन प्राणातिपातविरति विराधयेत् / मृषाविरतिं पृष्टतश्च भोगमुपगच्छति नक्षत्रे, / "चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरन्नो छ कूटसाक्ष्यादिना अदत्तविरतिं प्रभोः स्तैन्येनासनादिददतो ग्रहणेन णक्खता उभयभागा उत्तरा तिण्णि विसाहा पुणव्वसू रोहिणी मैथुनविरतिं स्त्र्यादिना परिग्रहविरतिं मध्यममूछदिना उभयजोगत्ति'। स्था०६ ठा०। रात्रिभोजनविरतिं दिवागृहितानि भङ्ग कैः अध्वकल्पौ दूरतममार्गे व्रजतां उभयकाल पुं०(उभयकाल) उभयसन्ध्ये, ग०२ अधि०। घृतमिश्रकणिक्काद्यादानरूपः तं विदध्यात् / लेपकृतं क्षीरान्नादि उभयगणि पुं०(उभयगणिन्) उभयः साधुसाध्वीद्वयरूपो गणो- तदुत्सर्गतोन ग्राह्येत्यचिदुद्भुञ्जीतेत्यादि मूलविषयाएवमुत्तरेऽरुणेष्वपि स्यास्तीति उभयगणी! साधुसाध्वीगणद्वयाऽऽचार्ये, वृ०१ उ०। ज्ञोयाः / इत्थमतीचारजाते सति तथा आशङ्किते चैव यदतिचारस्थानं उभयजणणसभाव त्रि०(उभयजननस्वभाव) इष्टानिष्टार्थोत्पाद- कृतमकृतं चेति निश्चेतुन शक्नोति तस्मिंश्च दर्शनज्ञान-चारित्रतपःप्रभृति नबीजकल्पे, "जमुभयजणणसभावा एसाविहिणेयरेहिं उप्पण्णा'' सर्वपदविषये तदुभयार्ह प्रायश्चित्तम्। एकंगुरोरालोचना द्वितीयं गुरुसंदिष्टन पंचा०३ विव०। मिथ्या-दुष्कृतदानं प्रतिक्रमणाख्यिमित्येतदुभयं शुद्धिकरम्। किञ्च / उभयणिसिरण न०(उभयनिसर्जन) कायिकसझोभयव्युत्सर्जने, दुनिंतिय दुब्भासिय, दुचिट्ठिय एवमाइयं बहुसो। "उभयं णाम काइयसण्णणिसिरणं धोसिरण' नि० चू०१ उ०। उवउत्तो विन याणइ,जं देवसियाइ अइयारा || उभयदढ त्रि०(उभयदृढ) धृत्या संहननेन च वलवति, वृ०१ उ०। दुश्चिन्तितं कोणार्यक शब्दवदार्तचिन्तनात् / दुर्भाषित उभयप्पियसंबंधणसंजोग पुं०(उभयार्पितसम्बन्धनसंयेग) त्वसद्भूतोद्भावनं दुश्चेष्टितं च धावनादि / दुश्चिन्तितं दुर्भाषितं मिश्रार्पितसम्बन्धनसंयोगरूपे संयोगभेदे, उत्त०१ अ०। (आत्म- | दुश्चेष्टितम् / एवमादिकमन्यदप्येवं प्रकारं दुष्प्रतिलेखितं दुष्प्र Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयारिह ८७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उभयारिह - मार्जिता बहुशोऽनेकशो उपयुक्तोऽपि उपयोगवानपि यदैवसिका-- द्यतिचारादित्यादिशब्दाद्वा त्रिकपाक्षिकचातुर्मादिकसांवत्सरिकादि च पूर्वकालकृतमालोचनाकाले न स्मरति तस्याप्यतिचार जातस्याशोधकः / अस्यां गाथायामनुक्तमपि प्रस्तावात्तदुभयार्हमेव ज्ञेयम्। सवेसु वि वीइयपए, दसणनाणचरणावरोहेसु। आउत्तस्स तदुभयं, सहसाकाराइणा चेव।। प्रथमपदमुत्सर्गस्तदपेक्षया द्वितीयपदमपवादस्मस्मिन्नुपस्थिते सत्ययुक्तस्य कारणेन यतनया गीतार्थस्यापराधपदान्यासे वमानसहसाकारादिना चैवमादिशब्दादाभोगानाभोगाभ्यां च सर्वेष्वपि दर्शनज्ञानचरणापराधेषु तदुभयं प्रायश्चित्तम्। अत्राह शिष्यः। 'खलियरस य सव्वत्थ वी' त्यत्र दर्शनज्ञानचरणादिपदेषु सर्वेषु सस्खलितस्य प्रतिक्रमणाहमभिधाय तेष्वेवेह कथं तदुभयाहमभिधीयते // तत्र हि सममापद्यमानस्येत्युक्तम्। इह तु हिंसाव्यापन्नसाम्ययुक्तस्य तदुभयाhण शुद्धिरिति न विरोधः। इदानीं तदुभयारीमभिधातुकाम आह // संकिए सहसागारे, उभयाउरे आवतीसुय / / महव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण वज्झतो / / शङ्कितः प्राणातिपातादौ यथा मया प्राणातिपातः कृतः किं या न कृतः / तथा मृषा भणितं न वा अवग्रहोनुज्ञापितो नवा, स्नाना-दिदर्शननिमित्तं जिनभवनादिगतस्य स्त्रीस्पर्श रागगमनमभून्न वा इष्टानिष्टेषु रागद्वेषौ गतौ न वा, तक्रादिले पकृ दवयवाः कथमपि पात्रगताः पर्युषिताः भिक्षार्थमटितुकामेन धौताः किं वा न धौता इत्यादि। तत्र षण्णां बाह्य तदुभयलक्षणं प्रायश्चित्तमिति योगः / तथा उपयोगवतोऽपि सहसा कारे सहसा प्राणातिपातादिकरणे / तथा भये दुष्टम्लेच्छादिसमुत्थे यदि वा हस्त्यागमने मेघोदकनिपातस्पर्शने दीपादिस्पर्शने वा आकुलतया प्राणातिपातादिकरणे तथा आतुरः क्षुधा पिपासया वा पीडितः / भावप्रधानश्चायं निर्देशस्ततोऽयमर्थः आतुरतायाम् / तथा आपञ्चतुर्की तद्यथा / द्रव्यापत् क्षेत्रापत् कालापत् भावापत् / तत्र द्रव्यापत् दुर्लभं प्रायोग्यं द्रव्यम् / क्षेत्रापत् छिन्नमण्डपादि। कालापत् दुर्भिक्षादि। भावापत् गाढम्लानत्वादि / एतासु स हिंसादिदोषमापद्यमानस्यापि अनात्मवशगम्य तथाहि ईर्यासमितावुपयुक्तोऽप्युच्चालिते पादे सहसा समापतितं कुलिङ्गि नमपि व्यापादयेत् मृषापि कदाचित्सहसा भाषते। अवग्र–हमपि कदाचिद्राभसिकतया अननुज्ञातमपि परिभोगयति। अत्युल्वणमबलारूपमवलोक्य कदाचनापि सहसा रागमुपैति इत्यादि। तथा भयात्प्रपलायमानोभूदकज्वलनवनस्पतिद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियानपि व्यापादयेत् / मृषापि भयात भाषते परिग्रहमपि धर्मोपकरणबाह्यस्य करोति। आतुरतायामपि सम्यगीर्यापथाशोधने संभवति प्राणतिपातः। अत्यातुरतायां कदाचिन्मृषा भाषणमपि अदत्तादानमपि च एवमापत्स्वपि भावनीयम् तथा महाव्रतानां प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनां सहसाकारतः स्फुटबुद्ध्या कारणतो वा अतीचारे च शब्दादति क्रमव्यतिक्रमयोश्च / तथातिक्रमादीनां महाव्रतविषया-णामन्यतमस्याशङ्कायां वा किमित्याह (छण्हं ठाणाणवज्झतो इति) केषांचिदनवस्थितपाराञ्चिते प्रायश्चित्ते द्वे अपि एकं प्रायश्चित्तमिति प्रतिपत्तिः // तन्मते नवधा प्रायश्चित्तं तत्र बाह्य द्वे प्रायश्चित्ते मुक्त्वा शेषाणि सप्त प्रायश्चित्तानि तेषां च सप्तानां प्रायश्चित्तानां यदाद्यं प्रायश्चित्तं तदुपरितनानां षण्णां बाह्यं नाभ्यन्तरमिति षण्णां स्थानानां बाह्यत इति वचनादेव प्रतिपत्तव्यम् / तच्च तदुभयं तच्चैवं भावनीयम् / शद्धितादिषु यथोक्तस्वरूपेषु सत्सु प्रथमं गुरूणां पुरत आलोचनां तदनन्तरं गुरुसमादेशेन मिथ्यादुष्कृतदानमिति / शंकिए इत्येतद्विवृण्वन्नाह / / हित्थो व णहित्थो मे, सत्तो भणियं च न भणियं मिसा। उग्गहणुण्णमणुन्ना, तइए फासे चउत्थम्मि / / इंदियरागहोसाउ, पंचमे किं गतोमि न गतोत्ति / छ? लेवाडादी, धोयमधोयं न वावेत्ति / / सत्वः प्राणी (हित्थोत्ति) देशीपदमेतत्। हिंशितो मे मया न वा हिंसित इति / तथा मृषा भणितं न वा / तथा तृतीये अदत्तादानविरतिलक्षणे अवग्रहोऽनुज्ञा मया कारिता यदि वा अनुज्ञान कारिता / तथा चतुर्थे मैथुनविरतिलक्षणे जिनभवनादिषु स्नानादिदर्शनप्रयोजनतो गतः सन् (फासे इत्ति) स्त्रीस्पर्श रागं गतो न वा / तथा पामे परिग्रहविरमणलक्षणे इन्द्रियेषु विषयिणा विषयोपयोगलक्ष-णादिन्द्रियेषु इष्टानिष्टेषु रागद्वेषौ गतोऽस्मि किं वा न गत इति / तथा षष्ठे रात्रिभोजनविरमणे लेपकृदादि तक्राद्यवयवरूपं कथमपि पात्रादिगत पर्युषितं भिक्षाटनार्थमुत्पद्यते तद्धौतमथवा न धौतं मयेति। यद्येवं ततः किमित्याह / / इंदियअव्वागडिया जे, अत्था अणुवधारिया। तदुभयपायच्छित्तं, पडिवज्जइ भावतो।। उक्तेन प्रकारेण येऽर्थाः प्राणातिपातादय इन्द्रियैश्चक्षुरादिभिरव्याकृताः प्रकटीकृता अपि येऽनुपधारिता न सम्यग् धारणाविषयीकृतास्तेषु प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते / भावतः सम्यगपुनरापतनेन तदुभयमिति / तच्च तदुभयं च पूर्व गुरूणां पुरत आलोचना / तदनन्तरं तदादेशतो मिथ्यादुष्कृतदानमित्येवंरूपं तदुभयम्। एतदेव सविस्तरमभिधित्सुराह। सद्दा सुया बहुविहा, तत्थ य केसु विगतोमि रागंति / अमुगत्थ मे वितका, पडिवजइ तदुभयं तत्थ / / शब्दा मया बहुविधा बहुप्रकाराः श्रवणविषयीकृतास्तत्र तेषु बहुविधेषु शब्देषु श्रुतेषु मध्ये (वितक्कत्ति) एवं मे वितर्कः संदेहो यथा केषुचिदपि (अमुगत्थत्ति) अमुकेषुरागमुपलक्षणमेतत् द्वेषंवा गतोऽस्मि। तत्र तस्मिन् शङ्काविषये तदुभयमुक्तलक्षणं प्रायश्चित्तं भावतः प्रतिपद्यते / यदिहि निश्चित्तं भवति यथा अमुकेषु शब्देषु राग द्वेषं वा गतः इति तत्र तपोऽर्ह प्रायश्चित्तम् / तथैव निश्चयो न गतो राग द्वेष वा तत्र स शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषयः / ततो वितर्के यथोक्तलक्षणे तदुभयमेव प्रायश्चित्तमिति। एमेव सेसए वि, विसए आसेविऊण जे पच्छा। काऊण एगपक्खे, न तरइ तहि यं तदुभयं तु 18 एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण यान् रूपादीन्विषयान् आसेव्योपभुज्य उपलक्षणमेतत् प्राणातिपातादीनप्यासेव्य पश्चात् एकतरस्मिन्प-क्षे अपराधलक्षणे निर्दोषतालक्षणे वा न कर्तुं शक्नोति यथा रूपा-दिषु विषयेषु राग द्वेषं वा गतः / प्राणातिपातादयो वा कृता इति / यदि वा न गतौ रागद्वेषौ नापि कृताः प्राणातिपातादय इति तत्र तदुभयं तु तदुभयमेव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाम् यथोक्तलक्षणं प्रायश्चित्तं शङ्कास्पदत्वाम् तदेव शङ्किते इति व्याख्यातम्। Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयारिह ८७१-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्मग्गजला संप्रति सहसाकारेत्यादिव्याचिख्यासुराह उवओगवतो सहसा, भयेण वा पल्लिए कुलिंगादी। अचाउरावती सुय, अणेसिया दीहगणभोगा / / उपयोगवतो पि ईर्यासमितौ सम्यगुपयुक्तस्यापि उच्चालिते पादे कथमपि सहसा योगतः समापतितः सन् कुलिङ्गी व्यापाद्यते भये न वा चौरसिंहादीनां भृशं पलायमाने भयग्रहणमुपलक्षणं तेन एत दपि द्रष्टव्यं परेण वा (पेल्लिए इति) परेण प्रेरिते वा तद्व्यापारमासाद्य कुलिङ्गीउपलक्षणमेतत्। पृथिव्यादिजीवनिकायावा व्यापत्तिमाप्नुयात् / तथा अत्यातुरे क्षुधा पिपासया वा अत्यन्तं पीडिते तथा आपत्सु द्रव्यापदादिषु यदि अनेषितादिग्रहणभोगौ भवतः अनेषितमनेषणीयमादिशब्दादकल्पनीयस्य परिग्रहः न केवलमनेषितादिग्रहणभोगौ किंतु गमनागमनादौ पृथिव्यादिजन्तुविराधनापि भवति। तथापितत्र प्रायश्चित्तं यथोक्तलक्षणं तदुभयमिति वर्तते सहसाकारादिविषयत्वात्। संप्रति महव्वयाइयारे अइत्येतद्व्याख्यानयन्नाह / / सहसाकारे अइक्कम-वइक्कमे चेव तह य अइयारे। होइ व सद्दग्गहणा, पच्छित्तं तदुभयं तिसु वि। इतिमादुवयोगे वा, एगयरे तत्थ होइ आसंका। नवहा जस्स विसोहि, तस्सुवरिं छह वज्झतु / / सहसाकारतोऽतिक्रर्म व्यतिक्रमे अतीचारे प्राग्व्यावर्णितस्वरूपे महाव्रतविषये इति सामर्थ्यागम्यते महव्वयाइयारे य इति पदस्य व्याख्यायमानत्वात् एतेषु त्रिष्वपि दोषेषु तदुभयमुक्तस्वरूपं प्रायश्चित्तम् / अथ मूलगाथायां महाव्रतातीचारे चेत्येवोक्तं ततः कथ-मत्र विधृतम् अतिक्रमे चेति अत आह / चशब्दग्रहणात्किमुक्तं भवति चशब्दग्रहणात् मूलगाथायामतिक्रमव्यतिक्रमयोरपि समुच्चयः कृत इत्यदोषः / अथवा अतीचारस्य पर्यन्तग्रहणादतिक्रमव्यतिक्रमयोरपि उपयोग स्फुटबुद्ध्या करणे तदुभयप्रायश्चित्तमिति योगः / वा शब्दो भिन्नक्रमत्वाद् एगयरे इत्यत्र योजनीयः। ततोऽयमर्थः / एकतरस्मिन्वा तत्र अतिक्रमे अतीचारे वा यदि भवत्याशङ्का यथा मयातिक्रमः कृतो न वा व्यतिक्रमः कृतो न वा अतीचारः कृतो नवेति / तत्रापि तदुभयं प्रायश्चित्तम्। "इहसहसाकारासंके संकिय सहसाकारे" पदद्वयेनापि गते केवलं महाव्रतानामतिक्रमादिष्वप्याशङ्कायां सहसाकारे चैतदेव प्रायश्चित्तं नान्यत्परिकल्पनीय-मिति। भाष्यकृता सहसाकारासंके अपि योजिते / छहं ठाणाण वज्झतो इति व्याख्यानयन्नाह (नवहेत्यादि) यस्याचार्यस्य मतेन अनवस्थितपाराञ्चितयोरैक्यविवक्षणान्नवधा नवप्रकारा विशोधिः प्रायश्चित्तं तस्य आद्यप्रायश्चित्तद्वयस्योपरि यद्वर्तते प्रायश्चित्तं तत्ष-प्रणामुपरितनानाबाह्यमेव तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्। ततः छण्हं ठाणाणवज्झत्तो इति तदुभयं प्रायश्चित्तं प्रतिपत्तव्यमिति / उक्तं तदुभयार्ह प्रायश्चित्तम्। उमच्छ धा०(वञ्च) उपालम्भे, वञ्चे वेहववेलवजूरवोमच्छाः ||13|| इति वञ्चेरुमच्छादेशः / उमच्छइ वञ्चइ वञ्चति। प्रा०। उमा स्त्री०(उमा) शिवपल्याम्, को०। अवसपिण्यां द्वितीयबलदेववासुदेवमातरि, स०। आव०। उज्जयिन्यां प्रद्योतस्य राज्ञोऽन्तः पुरे गणिकायाम्, आव०४ अ०। आ०चू०। (तया महेश्वरनामा खेचरो वृत इति सिक्खा शब्दे विकाशमेष्यति) उमाल(लय) न०(निर्माल्य) नि-मल-ण्यत् / निष्प्रती उत्परी मल्यस्थो ||13|| इति निर इत्येष शब्दो माल्यशब्दे परे वा उद्पमापद्यते / देवादिदत्ते तद्विसर्जनोत्तरमुच्छिष्ट द्रव्ये, 'उमालं निम्मालं उमालयं वहइ' प्रा०। उमासाइ पुं०(उमास्वाति) तत्वार्थसूत्राकारके स्वनामख्याते वाचकप्रवरे, अस्य च माता उमा नाम्नी पिता च स्वातिनामेति तयोर्जातत्वादयमुमास्वातिनामा प्रसिद्धिमगमत् / कौषीतकि-गोत्रोऽयं बाह्मण आसीत् प्रवाचकान्वयानुसारेणाऽयं घोषनन्दिक्षमाश्रमणशिष्यशिवश्रीनाम्न आचार्यस्य शिष्य आसीत् / वाचनाचार्यान्वयानुसृत्या मुन्दपादशिष्यमूलवाचकस्य शिष्य आसीत् / अयमाचार्योऽस्मदीय इति श्वेताम्बरा दिगम्बराश्च विवदन्ते / तत्र दिगम्बरमतेन वीरमोक्षात् (101) वर्षेऽयं विद्यमान आसीत् न्यग्नोधिकानाम्नि ग्रामेऽयं जन्म लेभे सरस्वतीगच्छे ऽयं षष्ठः कुन्दकुन्दाचार्यलोहाचार्ययोर्मध्यगो जातः अनेन तत्वार्थसूत्रं पाटलिपुत्रनगरे विरचितम्। तदुपरिटीकाभाष्ये च स्वेनैव कृते अन्याप्येका टीका विक्रमसमकालिकेन सिद्धसेनार्केण तत्र कृता जै०इ०। तथाचाह भगवानुमास्वातिवाचकः सम्यग्दर्शनचारित्राणि मोक्षमार्ग इति / नं०। षट्स्थानयुक्तश्च श्रावको भवतीत्युमास्वाति-वाचकवचनात्।ज्ञा०१६ अ० / उक्तं चोमास्वातिवाचकेन "हिंसानृतस्तयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमिति'' आव० 4 अ० / वाचकः पूर्वधरोऽभिधीयते स च श्रीमानुमास्वातिनामा महातार्किकः प्रकरणपञ्चशतीकर्ताचार्यः सुप्रसिद्धोऽभवत् पञ्चा०६ विव०। उम्मग्ग त्रि०(उन्मन) उद्-मस्ज-ताऊज़ जलगमनं कुर्वाणे, प्रश्न० ३द्वा०। *उन्मजन न० उन्मज्यते ऽनेनेति उन्मज्जनम्। रन्ध्रे, "उम्मग्गं सि णो लभति'' / आचा० 1 श्रु०३ अ० जलादूर्ध्वगमने, 'उम्मग्गल इह माणुसेहिं, णो पाणिणं पाणिसमारभेजा" इह मिथ्यात्वादिशैवालाच्छादित संसारहदे जीवकच्छपः श्रुतिश्रद्धा-संयमवीर्य्यरूपमुन्मजनमासाद्य लब्ध्वाऽन्यत्र संपूर्णमोक्षमार्ग-संभवान्मानुषेष्यित्युक्तम् / आचा।१ श्रु०३ अ० उ०) *उन्मार्ग पुं० मार्गः क्षायोपशमिको भावस्तमतिक्रान्त उन्मार्गः / क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिकभावसंक्रमः, "जो मे देवसिओ अइयारो कओ काइओवाइओ माणसिओ उस्सुत्तोउम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो' ध०२ अधि० / आव० / आ००। निर्वृतिपुरी प्रति अपथि वस्तुतत्वापेक्षया विपरीतश्रद्धानज्ञानानुष्ठाने, "मग्गे उम्मग्गसण्णा" स्था० 10 ठा० / असन्मार्गे, ग०१ अधि०। परसमए अणट्टे अहेऊ असब्भावे अकिरिए उम्मग्गे" उन्मार्गत्वं परस्परविरोधानवस्थासद्व्याकुलत्वात्तथाहि "न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च / आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति सधार्मिकः" इत्याद्यभिधाय पुनरपि"षट् सहस्राणि युज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनान्नयूनानि पशुभिस्त्रिभि" रित्यादि प्रतिपादयन्तीति / अनु०। संसारावतरणे, सूत्र० १श्रु० १२अ० / आचा० / ऊर्द्ध मार्ग उन्मार्गः / रन्ध्रे, "उम्मग्गंसि णो लभति' आचा०१ श्रु०६ अ०१उ० / उगतो - मार्गादुन्मार्गः। अकार्यकरणे, आचा०१ श्रु०५ अ०१उ० उम्मग्गगय त्रि०(उन्मार्गगत) उन्मार्गेण संसारावतरणरूपेण गतः प्रवृत्तः उन्मार्गगतः। संसारे एव प्रवृत्ते मोक्षमार्गे उदस्ते, "सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इहमेगे उदुम्मती। उम्मग्गगता दुक्खं, धायमे संतितंतहा" सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। उमग्गजला स्त्री०(उन्मग्रजला) उन्मजति शिलादिकमस्मादिति उन्मग्नं कृद्वहुलमिति वचनात् अपादाने क्तप्रत्ययः। उन्मग्रं जलंयस्यां सा तथा / तमिसगुहायां बहुमध्यदेशभागे वहन्त्यां स्वनामख्यातायां नद्याम्॥ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मग्गजला ५७२-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उम्मग्गदेसण तत्स्वरूप यथा॥ तीसे णं तिमिसगुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थाणं उम्मग्गणिमग्गजलाउ णाम दुवे महाणईओ पण्णत्ताओ जाउणं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लाओ कडगाउ पवुड्डाओ समाणी पञ्चच्छिमेणं सिंधु महाणदीं सिमप्पेंति॥ तस्यास्तमिस्रागुहायाः बहुमध्यदेशभागे दक्षिणद्वारतस्तोड्डकसमेतैकविंशति योजनेभ्यः परतः उत्तरद्वारतस्तोडकसमेतैकविंशतियोजनेभ्योऽर्वाक् च उन्मग्नजलानिमग्नजलानाम्न्यौ नद्यौ प्रज्ञप्ते। ये तमिस्रागुहायाः पौरस्त्यकटकाद्भित्तिप्रदेशात् प्रव्यूढे निर्गते सत्यौ पाश्चात्तेन कटकेन विभिन्नेन सिन्धुमहानदीं समाप्नुतः प्रविशत इत्यर्थः / नित्यप्रवृत्तत्वाद्वर्तमाननिर्देशः। अथानयोरन्यर्थं पृच्छन्नाह॥ से के णटे णं भंते ! एवं वुबइ उम्मग्गणिमग्मजलाओ महाणइओ? गोयमा ! जण्णं उमग्गजलाए गहाणईए तणं वा पत्त वा कटुं वा सकरं वा आसे वा हत्थी वा रहे वा जोहो वा मणुस्से वा पक्खिपइ ताओ णं उम्मग्गजला महाणई तिक्खुत्तो आहुणिअ२एगते थले पक्खिवइ जण्णं णिमग्गजलाए महाणईए तणं वा जावमणुस्से वापक्खिपइ तण्णं निम्मग्ग-जला महाणई तिक्खुत्तो आहुणिय 2 अंतो जलंसि णिमजावेइ। से तेणतुणं गोयमा ! एवं दुचई उम्मग्गणिम्मग्गजलाओ महाणईओ // अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते उन्मग्रनिमग्नजले महानद्यौ गोतम ! यत् णमिति प्राग्वत् उन्मग्नजलायां महानद्यां तृणं व पत्रं वा काष्ठं वा शर्करा वा दृषत्खण्डः अत्र प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः। अश्वो वा हस्ती वा रथोवायोधो वासुभटः सेनायाः प्रकरणाचतुर्णा सेनाङ्गानां कथनं मनुष्यो वा प्रक्षिप्यते तत्तृणादिके उन्मग्नजलामहानदीकृतांस्त्रीन् वारान् आधूय 2 भ्रमयित्वा २जलेन सहाभ्या-हत्येत्यर्थः एकान्तेजलप्रदेशाद्दवीयसि स्थाने निर्जलप्रदेशे (पक्खिवइत्ति) छर्दयति तीरे प्रक्षिपतीत्यर्थः / तुम्बीफलमिव शिला उन्मग्नजले उन्मजति अत एवोन्मजति शिलादिकमस्मादिति उन्मग्नं कृद् मिति वचनात् अपादानेक्तप्रत्ययः / उन्मग्रं जलं यस्यांसा तथा। अथद्वितीयानामार्था। तत्पूर्वोक्तं वस्तुजातं निमग्नजला महानदी त्रिःकृत्व आधूयाधूय अन्तर्जलं निमज्जयति शिलेव तुम्बीफलं निमग्नाजले निमज्जतीत्यर्थः / अत एव निमज्जयत्यस्मिन् तृणादिकमखिलम् वस्तुजातमिति निमग्नं बहुलवचनादधिकरणे क्तप्रत्ययः निमग्रं जलं यस्यां सा तथा / अथैतन्निगमयति सेतेणद्वणमित्यादि सुगमम् / अन्योश्च यथाक्रममुन्मज्जलिमज्जकृत्ये वस्तुस्वभाव एव शरणं तस्य चातर्कणीयत्वात् / इमे च द्वे अपि त्रियोजनविस्तारगुहाविस्तारायामे अन्योन्यं द्वियोजनान्तरे बोध्ये अनयो-र्यथा गुहामध्यदेशवर्तित्वं तथा सुखावबोध्या स्थापना देश्यते। जं०३ वक्ष०। उभग्गट्ठिय त्रि०(उन्मार्गस्थित) उत्सूत्रादिप्ररूपणापरे, "भट्ठायारोसूरी, भट्ठायाराणुविग्गओ सुरी। उम्मग्गडिओ सूरी, तिण्णि वि मग्गं पणासेंति" ग०१ अधि०। (आयरियशब्दे विवृतिरुक्ता) उम्मग्गणयण न०(उन्मार्गनयन) उन्मार्गप्रापणे, "यद्भाषितं मुनीन्द्रः, पापं खलु देशनापरस्थाने। उन्मार्गनयनमेतत्" षो०१ विव०। उम्मग्गदेसणास्त्री०(उन्मार्गदशना) उन्मार्गस्यभवहेतोर्मोक्षहेतु-त्वेन देशना कथनमुन्मार्गदेशना // कर्म० // सम्यग्दर्शनादिरूप- | भावमार्गातिक्रान्तधर्मकथने, एष दर्शनमोहनीयकर्मणो हेतुः। स्था० 4 ठा०। ध०॥ नाणाइ अदूसिंतो, तविवरीयं तु उवदिसइ मग्गं / उम्मग्गदेसओ एस, आय अहितो परेसिंच।। ज्ञानादीनि पारमार्थिकमार्गरूपाणि प्ररूपयन् तद्विपरीतं ज्ञानादिविपरीतमेवोपदिशतीति मार्ग धूमसंबन्धिनमेष उन्मार्गदेशकः अय चात्मनः परेषां च बोधिवीजोपघातादिना अहितः प्रतिकूल इत्येषा उन्मार्गदेशना। वृ०१उ०।। पुच्छंताणं धम्म, तं पिउन परिक्खिउ समत्थाण। आहरमेतलुद्धा, जे उम्मग्गं वइस्संति॥ सुगई हणंति तेसिं, धम्मियजणनिंदणं करेमाणा। आहारपसंसया निति, जिणिदोग्गईबहुयं / / गुरुभिस्तावन्स्वत एव धर्मतत्वप्रकाशनशीलैर्भाव्यं यत्पृच्छतामित्यत्रापि शब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात्ततः पृच्छतामपि प्रच्छनशीलानामपि को धर्मः स्वर्गापवर्गसाधनमपि परीक्षितुमसमर्थानां मुग्धबुद्धीनामित्यर्थः।ये हि किल विशिष्टा भवन्ति ते विशेषतो मुग्धधीबन्धन कुर्वन्ति अतोऽतिक्लिष्टताख्यापनार्थ परीक्षमाणमित्युक्तम्। ये कथं भूता आहारमात्रलुब्धाः शिवसुखाभिलाषविमुखाः। इहलोकसुखमात्रप्रतिबद्धत्वेन मह्यमेते विवेकिनः सन्तः आधाकर्मादिदोषदूषितमाहारवस्त्रपात्रवसत्यादिनदास्यन्त्यतउन्मार्गमुपदिशन्ति शास्त्रोक्तसन्मार्गादुत्तार्य तथा विप्रतारयन्ति यथा जन्मान्तरमपि दासादिवद्यत्किचित्कारिणो भवन्ति / ते किं तेषामुपकारिणो भवन्ति नेत्याह / घ्नन्ति नाशयन्ति कां सुगतिं स्वर्गापवर्गादिकां केषां सम्यगजानानानां परमगुरुरिव धर्मबुद्ध्याराधयतां तेषामपि सुगतिनाशो भवति। तथाहि यथा कश्चित्केषांचिदिहलोकपरलोकविरुद्धकारिणां मन्त्रयोगचूण्णादिना वशीकृतः स तस्य परमबन्धुरबुद्ध्यापि सर्वस्वं समापयन् प्राग्भवति एवमत्रापीतिभावार्थः। पुनरपि कथंभूता गुरुकर्मतया धार्मिकजनं संविनं गीतार्थ यथाशक्तयानुष्ठानपरायणमपि निन्दयन्तो हीलयन्तः न केवलं तेषां स्वरुचिविरचिताचारान् विधाय देशनावशीकृतानां सुगतिं घ्नन्ति। अपिच दुर्गतिं नयन्ति प्रापयन्ति आहारपसंसा-सुत्ति तृतीयार्थे सप्तमी तत आहारप्रशंसादिभिराहारादिदानप्र-शंसनैः यदुत यदि भवदीयेष्वपि गृहेषु सकलसाधारभूतेषु समस्तसंपदुपेतेषु कलिकालकवलितशक्तियतयो न प्राप्स्यन्ति आहारादि तर्हि व यास्यन्ति अन्वेषणीयविभागान्वेषणं कार्यलक्षम्।ये तुच्छका घराका अल्पशक्तयो भवन्ति तेऽल्पेन व्याजेलात्मानं मुनयो मोचयन्ति इत्येवमादिव वोभिरुत्प्रास्योत्प्रास्यमुखमाङ्गलिका इव सकलशास्त्रविरुद्ध आधाकर्मादिदोषदूषिताद्याहारादिदाने प्रवर्तयन्ते बहुकं जनं लोकं श्रावकं यथा भद्रकं च / इयमत्र भावना / तेहि दुर्गतिगर्तप्रपतनाभिमुखीभूताः सन्तो यथा कथंचिदेवाहारार्थपरान् विप्रतार्य दुर्गती पातयन्तीति गाथाद्वयार्थः / ये तावदिहलोकस्यैवैककस्य वाञ्छावन्तः परप्रतारणप्रवणास्तेषा-मियं गतिः / ये तु सर्वशक्तिविकलतया सम्यगनुष्ठानं कर्तुमशक्ता-स्तथापि मनाक् शुद्धचित्ततया परलोकमपि वाञ्छन्ति तैः किं कर्तव्यमित्याह॥ होजज्झवसाणपत्तो, सरीरदोवल्लया य असमत्था। चरणकरणे असुद्धे, सुद्धं मग्गं परूवेजा / / Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मग्गदेसणा 873 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्मग्गदेसणा भवेद्यसनप्राप्तः इन्द्रियपरायत्तताक्रोडीकृतत्वेनोन्मादवान् तत्प्राप्तो व्यसनप्राप्तः / शरीरं वपुस्तस्य दौर्बल्यं दुर्बलता शरीरदौर्बल्यं तथाऽसमर्थोऽशक्तः यथावस्थितचरणकरणं कर्तुमित्यध्याहारः / अतोऽशुद्धेऽपिचरणकरणे परलोकार्थी शुद्ध एव मार्ग प्ररूपयेदिति। स हि सन्मार्गप्रकाशनात् पुनर्मार्ग प्राप्नोतीति गाथार्थः / यस्तु मनाक् संविनः सोऽपि नीत्था परान्वादिनो यथावस्थितं न कथयति तस्य दोषं / दर्शयन्नाह। परिवारपूयहेऊ-पासत्थाणं च णाणुवत्तीए। जो न कहेइ विसुद्धं, तं दुल्लहवोहियं जाण / / परिवार आत्मव्यतिरिक्तस्ततः परिवारेण पूजा परिवारपूजा अथवा परिवारस्य पूजा परिवारपूजा ह्रस्वत्वं प्राकृतप्रभवं तस्या हेतुर्निर्मितिः पार्श्वः सम्यक्त्वंतस्मिन् ज्ञानादिपाचे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थास्तेषामनुवृत्तिरनुवर्तनं तया यो न कथयति न प्रकाशयति विशुद्धं सर्वविशुद्धं सर्वविदुपदिष्टं यथावस्थितं मुक्तिमार्गमाचार्य साधु वा दुर्लभबोधिकं जानीहि / अयमत्र भावार्थः / यो हि मनागसंविनोऽपि परिवारापेक्षया सम्यक् साध्याचारं न कथयति नायमन्यथा प्रवृत्तः सम्यक्त्वकथनेन प्रकटो भविष्यति ततोऽसमञ्जसरोषो भविष्यति ततः शरीरादिस्थिति न करिष्यति पूजा वा न भविष्यतीति हेतोः पार्श्वस्थानुवृत्त्या वा यदुत नामैते सम्यक् कथयतः प्रकोपं यास्यन्त्यतः वरमात्मसाक्षिसुकृतं कृतमिति। एते चानवर्तिता भवन्त्विति स्वबुद्ध्या सुन्दरमपि विदधानाः संसार-सागरे एव भवन्तियत उक्तम् "जिणाणाए कुणताणं, नूणं निव्वाणकारणं। सुंदरं पि य बुद्धीए, सव्वं भवनिबंधनं // जे मयआरंभरया, ते जीवा होति अप्पदोसयरा। ते उ महापावयरा, जे आरंभं पसंसंति" य एवमधः परमाराध्य कालिकसूरिभिरिव प्राणप्रहाणेऽपि परानुवृत्त्या नैवानुवृत्त्यापि नैवान्यथा भाषणीयमिति गाथार्थः / भगवत्कालिकसूरिकथानकं चैवम्। "अत्थि इहेव खेत्ते तुरिमिणीए नयरीए जियसत्तू नाम राया तीए विनयरीए अन्नो रुदाइमाहणीए सुओ दत्तो माहणसु उपरि वसइ सोयन याइएसु सत्तसु महावसणेसु पसुत्तो। किं बहुणा सव्वहा विरुद्धायारसमाय-रणसीलो अहंतया भवियव्वयावसेण जाओ रायाणो संजाओ सव्वहाइ पच्चासन्नत्तणेण जाओ अन्नेसि पि सामंतमंडलीयए सुह-बहुमओततोदाणसंमाणाइणा उवलोभोऊण कओ सव्यो विराइणो परियणोवासे। ततो गहिऊण जियसत्तुमूलरायाण बंधित्ता कट्ठट्ठियचारगागिहे जाओ सयं चेव सयं पहोराया एवं रज्जुधरारूढ-स्स भवियत्वयावसेण तत्थ समागयकमेण विहरमाणा साइसया बहुसीससमन्निया जुगप्पहाणो अज्जकालगानामए सूरिणो नाया य दत्तमायाए भद्दाए। जहा वच्छ संपए एत्थ मे भाया तुब्भ वि य माउलओ अज्जवि कालगसूरी समागओ ता तं वंदाहि तेण वि तह त्ति पडिसुयं गतो बहुपरिवारो सूरिसयासे दिद्धा य सूरिणो काऊण उचिओवयारउवविट्ठो जहारिहासणे भयवयी नाऊण बद्धायरं सायारो सूरीहिं सामंतेण परूविणो उ सिट्ठजणसमायारो / जहा होयव्वं करणापहाणमणसा सव्वेण धम्मत्थिणा भासेयव्वमणिं दियं हियकरं सव्वं ववायं सया कार्य सव्वजियाण सोक्खजणगट्ठाणेसु दायव्वयं सव्वेणावि जिएण रायसययं वेयं हि पंचप्पणोदीणाईणम-णिंदियं पइदिणं गेहाणुसारेण उदेयं दाणतहेह वेयमणहंजीवाणंसव्वेसिण अचंतं हियमेव सव्ववयणं भासंति जंजंतुणो | तंजाणाहि नरीससव्वमणहंधम्मस्स संसाहगं एमाइसव्वसाहारणदेसणासवणपजंते भवियव्वया वसवत्तिणा दत्तेण पुच्छियं कहेहि किंजण्णाण फलं तओ भगवया अज्जकालगसूरिणो विचिंतियं नूण एस पउट्टो बद्धबुद्धी जंभे सुत्ताण कमेएण विरोहिएण विम्गप्पिऊण भणियं तुम महाराय ! धम्ममूलाई पुच्छसि "करुणा सव्वजीवेसु, सव्वं वायाए भासणं। परस्स दारगं चाउ, परिग्गहविवजणा / एमाइधम्ममूलाई, कोहाईण य वज्जणं ! सव्वपासंडियाणं पि, एयं सम्मं पयंसया" ततो पुणो वि पुच्छियं वेयविहियविहाणेण विहियजण्णाण किं फलं? सूरीहिं भणियं किं महाराय ! विहिविहिसुहाणुबंधि पुन्नफलं साहेमि जहा"विहिजीवदयाइजुया, जीवा स सुवजिऊण सुहयम्मि। पुन्नंपावत्तयरा, नरसुरविसोक्खविउलाइं" पुणो वि पुच्छियं जन्नाण किं फलं सूरिणा भणियं पावविवायं पुच्छसि नस्यपहो पावविवागो "णरवई देहे दुहं, नरयतिरियजोणीसुहीणासु! हीणसुरनरगईसुविता तहेव इह दुहाण।। नरयाण पुणो मग्गो, सहरम्भपरिग्गहो य जियधाओ / कुणिमाहारो अविरइ, तिव्वकसाया पमाओ य" ततो दत्तेण कुद्धेण भणियं / भो भो समणा किं तुमसम्मनसुणसिकन्नेसु। किंवा अकण्णसुयं करेसि किंवा नयाणसि जन्नाण फलं। जंफुडं न साहेसि ततो सूरीहिं भणियं जइ फुड ता नरयगमणमेव फलं तओ रोसारुणलोयणेण पञ्चयं किमहं नरगं गमिस्सामि अणेगजन्नकरणा वि भयवया भणियं कया इओ य सत्तमे दिणे कुम्भियाए पइजंतो सुणएहिं खजंतो मरिहिसि! पुणो वि पुच्छ्यिं एत्थ वि को पच्चओ भयवया परंपियंतो तम्मि दिणे विट्ठा मुहं पविसिहि पुणो वि दत्तेण भणियं तुमं के चिरं अइओ दिणाओ जीविहिसि? सूरीहिं साहियं अणेगाई वरिसाइं दिवं च गमिस्सिामि / ततो दत्तेण चिंतियं अइकोहमुवागराण किं पट्ठवेमि संपयंचेव जम्ममन्दिरंदेसेमि दुव्वयणस्स फलं पइविट्ठामि ताव कालावहि जाव पचाअलियवाइणं भणिऊण विहिहजाइणा पुव्वं विणिवाइस्सं ततो मा एस समणगो कहिं पि गच्छहि ति ततो मोत्तूण नियपुरि से रक्खा। अप्पणा समागओ सए गिहे तओ चिंतियं चेट्ठामिताव अंतेउरे सत्तादिणाणि तओकहं मे विट्ठा मुहं पविसइ तओ पविट्ठो अंतेउरे सोयाविया सव्वेवि रायमग्गा तओ सत्तमे दिणे भवियव्वया वसेण रायपहं पवनस्स जाओ वेगो न संक्केइ अतओ गंतु ततो तत्थ काऊण वेगभंग ढक्किउ पुप्फहिं अप्पणावि भयदुओ लहुं लहुं विणीहरिओ रायपहाओ / इओ य सो दत्तो दुम्मई विमूढमणो गया सत्तदिवसत्ति कलिऊण तम्मि चेव सो नीहारिओ महया तुरयचडयरेण जाव रायपहभागओ ताव सो चेव विट्ठा तुरयखुराहया पविट्ठा मुहे तओ नायं जहा निच्छएण मरिज्ज इतो निगिन्हामि तं चेव पडिसत्तूं जियसत्तूं अउनिकंट मे रज्जं होहिएयं चिंतिऊण जाव नियतो तो ततो गहिओ सेससामंतेहिं मा भिन्नरहसत्ति काऊण रायाणं विणिवाइऊण अम्हे वि विणिवाइस्सइ ततो नीहारिऊण मूलरायाणं कठ्ठागिहाओ अह सिंचिऊण रायपए समप्पिओ दत्तो बंधिऊण तेण वि खिवाविऊण सहसुणएहिं कुम्भियाए पज्जालिओ भसिणो जलणो खर्जतो य सुणएहिं महावेयणाभिभूओ रुद्दज्झवसायपरिगओ मरिऊण जाओ नारओ। सूरी वि सायसउति काऊण पूइओ नरवइगा जहा एएण भयवया पाणपरिव्यायसंभवे विन अन्नहा भासियं एव अन्नेणावि सिवसुहत्थिणा जहद्वियं जिणवयणं भणियव्वं कालगायरियं कहाणयं सम्मत्तं" | ननु यद्येवमन्यथा कथने दण्डो भवति तर्हि किमित्यन्यथा कथ्यते इत्याह। Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मग्गदेसणा 574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्भग्गदेसणा मुहमहुरं परिणइम-गुलं च गिण्डंति दिति उवएसं / महुकडुयं परिणइ सुं-दरं च विरलव्वि य भणंति / / 2 / / मुखे मधुरं मुखमधुरं यथा धार्मिकस्त्वमसि सङ्घपुरुष इति वा एवंविध वचनं न हि तद्गुणविकलस्यापि मनः प्रह्लादयति परिणतौ मङ्गुलमसुन्दरं परिणतिमङ्गलं चशब्दस्यापि शब्दार्थत्वात्ततोऽसुन्दरमपि भवान्तरे कर्णसुखदत्वात् गृह्णन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः / ददति च परचेतोवृत्तिरञ्जनप्रवणपुरुषाणां प्रायः प्रभूतत्वात् मुखकठुकं परिणतिसुन्दरम्। चशब्दस्य पुनः शब्दार्थत्वात्ततो विरला एव पुनर्भणन्ति प्रतिपादयन्ति / अयमत्र भावार्थः। कोहिनामात्मनः कटुकभाषित्वमप्यङ्गीकृत्य यथावस्थितोभयलोकहितोपदेशदाने प्रवर्तते। प्रायेण हि प्रभूततराः स्वार्थाभिमता एव दृश्यन्त एवेति गाथार्थः। यद्येवं कर्णकटुकमुभयलोकहितमपि विरला एव गृह्णन्ति ततः किं तदुपदेशेनेत्याहभवगिहमज्झम्मि पमाय-जलणजलियम्मि मोहनिहाए। उद्दवइ जो सुयंतं, सो तस्स जणो परमबंधू // 30 // भवः संसारःस एव गृहं भवगृहं तस्य मध्यं भवगृहमध्यं तस्मिन् प्रमादो मद्यादिरनेकधा स एव ज्वलनो वैश्वानरः तेन ज्वलितो दीप्तस्स प्रमादज्वलनज्वलितस्तस्मिन् / मोहनीयमेव निद्रा हिताहितविवेकवैकल्यकारकत्वात् तथा स्वपन्तं स्वापं कुर्वन्तं यः कश्चिदनुपकृतः परहितरतः उत्थापयति सदुपदेशदानेन प्रमादव्यवहितानुष्ठाने च प्रवर्तयति स तस्य प्रमादस्यापवर्ती जनो लोकः परर-- बन्धुरात्यन्तिकैकान्तिकबन्धुरितिगाथार्थः / / यत एव सदुपदेश-दानतः परमबान्धवा भवन्ति अत एव भावतस्ते पूजनीया इत्याह-- जइ विहु सकम्मदोसा, भणयं सीयंति चरणकरणेसु / सुद्धपरूवगा तेण, भावओ पूयणिज्जंति // 31 // यद्यपि स्वकर्म्मदोषाचारित्रावरणोदयान्मनाक् सीदन्ति मनागशुद्धानुष्ठाना भवन्ति चरणकरणयोर्वक्ष्यमाणस्वभावयोः शुद्धप्ररूपकाः सम्यग्मार्गावभाषकास्तेन ते भावतोऽपि मोक्षनिमित्तमपिपूजनीया इति। अयमत्र भावार्थः / ये मिथ्यात्वावष्टब्धचेतसो मुग्धधीबन्धनपरायणा लोकरूढ्या बहुश्रुता अपि सम्यक् क्रियावादिनोऽपि परशास्त्राभिप्रायपराङ्मुखास्ते विषान्नाहिसिंहादिवत्परित्याज्याः मार्गाच्छेदकत्वेन संसारकारणत्वात्।येतुस्वयं कर्मपरतन्त्रतयापि मोक्षसुखाभिलाषितया मनाक्सीदन्तोऽपिचरणकरणयोर्भवभ्रमणभीरुतया यथावस्थितशिवमार्गप्रकाशकाः स्वानुष्ठानापक्षपातिनस्ते तृतीयमार्गानुयायित्वाद्भावतः परमार्थतः पूज्या इति गाथार्थः / यत एवं क्रियाविकलोऽपि श्रमणमार्गप्ररूपको भावतोऽपि पूज्यते कुग्राहग्रस्ततयोन्मार्गप्ररूपकः क्रियावानपि सम्पादिवत्परित्यज्यते ततो विवेकवता किमुचितमित्याह / एवं जिया आगमदिद्विदिट्ठ-सुन्नायमग्गा सुहमग्गलग्गा। गयाणुगामीण जणाण मग्गे, लग्गति नो गड्डरिकापवाहे // एवमिति पूर्वकथिमप्रकारेण अत एव शुभमार्गलग्ना जीवाः प्राणिनः सदा सदागमावदातवुद्धयः किं न लग्नन्ति न लीयन्ते व गडरिका-प्रवाहे कथं भूता आगम आप्तवचनं स एव दृष्टिर्हिताहितपदार्थप्रकासकत्वादागमदृष्टिः / तया दृष्टमवलोकितमागमद्राष्टिदष्टं तेन शोभनप्रकारेण ज्ञातो मार्गो ज्ञानादिको यैस्ते आगमदृष्टिदृष्टसुज्ञातमार्गाः। क्व मार्ग केषां जनानां कथंभूतानां गतानुगामिनाम्। गतंगच्छन्तीन्येवं शीला गतानुगामिनस्तेषाम् / अयमभिप्रायः / ये हि सुविहितसंपत्सिम्यगाप्तमोक्षमार्गा भवन्ति तान् मुक्त्वा मिथ्यात्वमोहमो हितमतिगतानुगतप्रवर्तितमार्गे गडरिकाप्रवाहकृत्यं नाङ्गीकुर्वन्त्यपि तु सन्मार्ग एव व्रजन्तीतिवृत्तार्थः / / नन्वित्थं भूताः केचन एवावदातबुद्धयः स्वल्पा दृश्यन्तेप्रभूततराः पुनःप्रवाहानुयायिन इति किमत्र तत्त्वमित्याह "नेगंतेणं चिय" अथवा बहुतरतमाः शास्त्रगर्भार्थवेदिनोऽप्येवंविधप्रवृत्तिमन्त एव दृश्यन्ते लोकेऽप्येवंविधमेव श्रूयते यथा 'महजनो येन गतः स पन्थाः" इत्याशयवतः शिष्यस्य शिक्षार्थमाहनेगतेणं चिय लो-गनायसारेण एत्थ होयव्वं / बहुमुंडाइवयणाउ, आणाइत्तो इह पमाणं // 33 // नैकान्तेनैव लोकज्ञातसारेण भाव्यम् / अत्र धर्मविचारे तस्यहि विचित्राश्रयेणानेकरूपत्वात् तदप्रवृत्तौ हेतुमाह बहुमुण्डादिवचनात् यदिह बहुवचनप्रवृत्तिरेव गरीयसी तदा नेदमागमवचनमभविष्यत्त-द्यथा "कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुइकस य / होहिंति भरहवासे, बहुमुंडे अप्पसमणा य' इत एतस्माद्धेतोराहवेह प्रमाणं शास्त्रमेव प्रमाणमिति गाथार्थः / यदि पुनः प्रमाणं द्रव्यपूजया मिथ्याभिमाना ज्ञानितया वा लोकप्रवृत्तिरेवाङ्गीक्रियते.ततोऽन्यदर्थान्तरमापद्यत इत्याहबहुजणपवित्तिसित्तं, इत्थं तेहिं इह लोइओ चेव / धम्मो न उज्झियव्यो, जेण तहिं बहुजणपवित्ती॥३४॥ बहवश्च बहुजनास्तेषां प्रवृत्तिरेकान्तेनागमनिरपेक्षितया स्वरुचिविरचितानुष्ठानस्यैव बहुजनप्रवृत्तिमात्रं तदिच्छद्भिरिह धर्मविचारे लौकिक एव धर्मो नैव परित्याज्यः स्यात् येन कारणेन तत्र तस्मिन् लौकिके धर्मे बहुजनप्रवृत्तिप्रभृतीनां प्रवृत्तिदर्शनादिति गाथार्थः / यत एवाज्ञाप्रमाणमत एवाह॥ ता आणाणुगया जं, तं चेव बुहेण सेवियव्वं तु। किमिह बहुणा जणेणं हंदिणेस अस्थि णो बहुया ||35|| यस्मात्कारणात् बहुजनप्रवर्त्तमानं सेवनीयं ता तस्मात्कारणादाज्ञानुगतं यत्तदेव बुधेन जिनाज्ञापरिपालनफलवेदिना सेवनीयमासे व्यमित्यर्थः / तुशब्दश्चैवकारार्थो योजित एव किमिति न किश्चिदित्यर्थः / इहैव धर्मविचारे परलोकचिन्तायां वा बहुना जनेन बहुजनोन्मार्गप्रवर्तकनेत्यर्थः / हन्दीत्युपदर्शने ततः प्रसिद्धमेतत्ते-नैव बहवः श्रेयोर्थिनो मोक्षार्थिनः। संप्रति काले बहवो मुण्डाःअल्पाश्च श्रमणा इति वचनादिति गाथार्थः / इत्यनेकथा विधिमार्गसमर्थनमाकर्ण्य मिथ्यात्वादृतसहसोबोधलोचना यन्मन्यन्ते तदाह / अथवा स्वयं ये सन्मार्गगमनाप्रवणाः इत्थं च सन्मार्गप्ररूपणामाकर्ण्य मुग्धबुद्धिबन्धनार्थं यद्वदन्ति तदाहदूसमकाले दुलहो, विहिमग्यो धम्मि चेव कीरते। ता जायइ तित्थछेओ, केसिं चिय कुग्गहो एसो।।३६|| दुःषमारूपः कालो दुःषमाकालस्तस्मिन् तल्लाभे दुरापः स्वकमपरिणतेरुन्मार्गप्रवृत्तलोकाद्वा विधिमार्गः शास्त्रोक्तानुष्ठानप्रवृत्तिरूपः तस्मिश्च क्रियमाणे विधीयमाने जायते संपद्यते तीर्थोच्छे दः शास्त्रोक्तानुष्ठानवतामत्यल्पत्वादितरेषां चातिबहुत्वादित्यर्थः / तादृग्विधानं च क्वापि कथंचिदेव सद्भावादिति केषांचित्कुग्रह एष इति कुग्रहताचैवैषामतोऽवसीयते यतः सदनुष्ठानसाध्यमपि मोक्षमसदनुष्ठानेन प्रकल्पयन्ति / नहि नाम सुवर्णरत्नसाध्यमलङ्कारादिकं मृत्तिकया सिध्यतीति गाथार्थः / एतदपि कुतोऽवसीयत इत्याह। जम्हा न मोक्खमग्गं, मोत्तूणं आगमं इह पमाणं। विजइ छउमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइयव्वं // 37 // Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मग्गदेसणा 875 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्माण यस्मान्न नैव मोक्षमार्गे मोक्षे साध्ये मोक्षागमं शास्त्रं परि-त्यज्येत्यर्थः। इहेति धर्मविचारे प्रमाणमालम्बनमित्यर्थः / विद्यते छद्मस्थानामतिशयवतां हि यथाकथञ्चित्सेवातिशयवशात्प्रवर्तमानानामपि निर्जरालाभ एवावसीयते तत्र ईहितैः पुनः सर्वथा शास्त्रतेव प्रमाणीकर्तव्यम् / तस्मात्तत्रैव यतितव्यमुद्यमः कार्य इति गाथार्थः / शास्त्राभिप्रायेणैव संसारमोक्षमार्गप्ररूपणायाह / / गिहिलिंगि कुलिंगिय दव-लिंगिणो छिन्नि हंति भवमग्गा / सुजइसुसावगसंविग्ग-पक्खिणो तिग्नि मोक्खपहा // 3 // तत्र गृहमेव लिङ्गं येषां ते गृहलिङ्गिनः राजामात्यप्रकृतिप्रभृतयः कुत्सितं लिङ्ग कुलिङ्गं शिवसुखासाधकं तद्विद्यते येषां ते कुलिङ्गि-नः स्वरुचिविरचिताकाराचाराः त्रिदण्डिबौद्धतापसादयः द्रव्यप्र-धानं लिङ्गं तद्विद्यते येषां ते द्रव्यलिङ्गि नः गृहलिङ्गिनश्चेत्यादि द्वन्द्वो गृहिलिङ्गि कुलिङ्गि द्रव्यलिङ्गिनः / एते त्रयोऽपि भवन्ति भवमार्गाः ससारपथाः सुयतयः साधुसमाचारचरणप्रवणाः सुश्रावकः सम्यक्वाणुव्रतादिसकललापोपेताःसंविनाः सुसाधवस्तेषां पक्षण चरन्तिये ते संविग्नपाक्षिकाः सम्यक् संयमपरिपालनासमर्था अपि सुयतिपक्षपातेनात्मनिस्तारका इत्यर्थः। पूर्वपदे ते त्रयोऽपि मोक्षमार्गाइतिगाथार्थः / कथमेते त्र्य एव मोक्षमार्गा नान्ये शेषा; किमन्यैर्ममापराद्धमित्याह / / सम्मत्तनाणचरणा-मग्गो मोक्खस्स जिणवरुद्दिष्ट्रो। विवरीओ उम्मग्गो, णायव्वो बुद्धिमंतेहिं // 3 // सम्यक्तवज्ञानाचरणानि मोक्षमार्गो मोक्षश्च जिनवरोद्दिष्टस्तीर्थकृदुपदिष्ट इत्यर्थः / स च सर्वथा सम्यक्त्वादित्रिक एव यतोऽतः शेषः सर्वोऽपि तद्व्यतिरिक्त उन्मार्ग: शिवसुखासाधन इति ज्ञातव्योऽवबोद्धव्यः बुद्धिमद्भिर्विवेकविद्भिरिति गाथार्थः / दर्श० // उम्मग्गदेसय पुं०(उन्मार्गदेशक) ज्ञानादीनि पारमार्थिकमार्गरूपा-- ण्यप्ररूपयति। असन्मार्गप्ररूपके, वृ०१ उ०। "उम्मगदेसओ मग्ग, नासओमग्गविप्पपडिवत्ती। मोहेण य मोहित्ता, संमोर्हि भावणं कुणइ''। ग०२ अधि०॥ उम्मग्गपइट्ठिय त्रि०(उन्मार्गप्रतिष्ठित) असन्मार्गस्थिते, "भयवं कहिं लिंगेहिं उम्मग्गपइट्ठियं वियाणिज्जा ग०१ अधि०। (आयरि-यशब्दे उक्तम्) उन्मार्गगामिनि," "अत्थेगे गोयमा पाणी, जे उम्मगपइट्ठिए। गच्छम्मि संवसित्ताणं, भमइ भवपरंपरं" ग०१अधि०। उम्मग्गपडिवण्ण त्रि०(उन्मार्गप्रतिपन्न) आश्रितकुदृष्टिशासने, "उम्मग्गपडिप्येसप्यहनिणढे मिच्छत्तबलाभिभूए'' उपा० 7 अ०) उम्मज्जग पुं०(उन्मार्जक) वानप्रस्थतापसभेदे, उन्मार्जनमात्रेण ये स्नान्ति। भ०११श०६ उ०नि०। ओ०। कण्ठ दध्ने जले स्थित्वा तपः कुर्वन् प्रवर्तते / उन्मजकः स विज्ञेयस्तापसो लोक-पूजितः" इत्युक्तलक्षणे तापसभेदे, जलादेरुपर्यु पर्युत्प्लावके, त्रि० वाच०। उम्मञ्जणिमजिया० स्त्री०(उन्मग्रनिमाग्निका) उत्पतननिपतना-याम्, उत्पतननिपतनकरणे, "अहे उम्मञ्जणिमञ्जियं करेमाण देसं पुढवीए चलेजा" स्था०३ ठा०॥ उम्मत्त त्रि०(उन्मत्त) उद्-मद्-करणे-क्ता धुस्तरे, मुचुकुन्द-वृक्षेच, कर्त्तरि-कवाच०॥धूर्मिते, अष्ट। मन्मथोन्मादयुक्ते, विटे, वृ०१ उ०। यक्षादिभिः प्रबलमोहोदयेन वा परवशे, ध०३ अधि० / दृप्ते, ग्रहगृहीते, | पिं०। अस्य दीक्षाया अयोग्यत्वमुच्यते॥ उम्माहो खलु दुविहा, जक्खावेसो य मोहणिज्जो य। अगणीआलीवणता, आतवयविराहणुड्डाहो॥३७८|| जक्खेण आविट्ठो मोहणिज्जकम्मोदएण वा से उड्डाहो जातो एते दोविण पव्वावेयव्वा / इमे दोसा अगणीए पयावणादिकरेज पभावणं करेज अप्पाणं वयाणि वा विराहेज। खरियादिग्गहणेण वा उड्डाहं करेजा / / छक्काए ण सद्दहति, सज्झायज्झाणजोगकरणं वा। उवदिटुं पिण गेण्हइ, उम्मत्ते ण कप्पती दिक्खा // 38 // षट्काये णसद्दहति सज्झायज्झाणं नकरेति अप्पसत्थे मणादि-जोगे करेति पडिलेहणसंजमादिकारणजोगे ण करेति / अन्नं पि विविध चक्कवालसामायारीए उवदिटुंण करेति। एवमादिएहिं दोसेहिं उम्मत्ते न कप्पति दिक्खा / / नि०चू० 11 उ०। पं०भा० / उत्प्रा-बल्येन मत्त उन्मत्तो दरमत्तो वा उन्मत्तः। प्रबलमत्ते, ईषन्मत्तेच। नि०चू०१० उ०। उद्धते, वाच०। भरतक्षेत्रे वैतादयगिरिदक्षिणश्रे-णिमण्डने शिवमन्दिरे नगरे ज्वलनशिखस्यराज्ञोऽङ्गजे उत्त०१३अ० उम्मत्तगभूय पुं०(उन्मत्तकभूत) उन्मत्तको मदिरादिना विप्लुत-चित्तः स इव उन्मत्तकभूतो भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् / उन्मत्त-ककल्पे उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतो भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्यात् / उन्मत्तके, स्था०४ ठा०॥ उम्मत्तजला स्त्री०(उन्मत्तजला) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वेण शीतो-दाया महानद्या दक्षिणे बहन्त्यामन्त द्याम्, स्था०३ ठा० / 'रम्मए विजए उम्मत्तजला महाणई" रम्यो विजय: पद्मावती राजपूः उन्मत्तजला महानदी। जं० 4 वक्ष०। "दो उम्मत्तजलाओ' स्था०२ डा० / उम्मत्थ धा०(अभि-आ--गम्) अभिमुखगमने, अभ्या डोम्मत्थः" ॥४॥६४|अभ्याङ्भ्यां युक्तस्य गमेरुम्मत्थ इत्यादेशो वा भवति। उम्मत्थइ अब्भागच्छा अभ्यागच्छति। अभिमूखमाग-च्छतीत्यर्थः। प्रा०1 उम्माण न०(उन्मान) उन्मीयते तदित्युन्मानम् / कर्षादिके तुलामाने, ज्ञा०१ अ० / स्था० / कल्प० / भ० / तद्विषयं यत्तदपि उन्मानम् / खण्डगुडादिधरिमे, स्था० 10 ठा०। अथोन्मानमभिधित्सुराह। से किं तं उम्माणे 2 जण्णं उम्मिणिज्जइ तंजहा अद्धकरिसो करिसो पलं अद्धपलं अद्धतुला तुला अद्धभारो मारो / दो अद्धकरिसो करिसो दोकरिसो अद्धपलं दो अद्धपलाइ पलं पंचपलसइआ तुला दसतुलाओ अद्धभारो वीसं तुलाओ भारो। एएणं उम्माणपमाणेणं किं पओयणं एएणं उम्माणपमाणेणं पत्ता अगरतगरचो आकुंकु मखडं गुलमच्छडि आईणं दव्वाणं उम्माणपमाणनिटिवत्तिलक्खणं अवइ सेत्तं उम्माणपमाणेणं / / यदुन्मीयते तिनियतस्वरूपतया व्यवस्थाप्यते तदुन्मानं तद्यथा / अईकर्ष इन। पलस्याष्टमांशोऽर्द्धकर्षः तस्यैव चतुर्भागः कर्षः पलस्यार्द्धममलमित्यादि सर्व मागधदेशप्रसिद्ध सूत्रमेव नवरं पलाशपत्रकारीपात्रदिकं पत्रं चोय उपलविशेषः मच्छडिका शर्कराविश अनु०॥ नाराचादौ, अश्वादीनां वेगादिपरीक्षायाम्, आचा०२ श्रु०।उन्मीयतेऽनेनेत्युन्मानम्। अर्द्धभारपरिमाणतायाम्, "जलदोणमद्ध Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्माण 876 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्मादपत्त भार समुहाई समूसिओ उ जो नवओ। माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु दुःखविमोचनतरो भवति विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुग्रहवतामपि वार्तिकानां लक्खणं नेयं" उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता / सा च तस्यासाध्यत्वादितरस्तु सुखविमोचनतर एव भवति / मन्त्रमात्रेणापि सारपुद्गलोपचितत्वात् तुलायामारोपितः सन्नर्द्धभार यः पुरुष-स्तुलयत तस्य निग्रहीतुं शक्यत्यादिति / आह च ''सर्वज्ञमन्त्रवाद्यापि, यस्य न स उन्मानयुक्तो भवति। प्रव० 256 द्वा०। स्था०ा नि० चू०। कल्प०। सर्वस्य निग्रहे शक्तः। मिथ्यामोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतांतुल्यः" उम्माथिय त्रि०(उन्माथित) सञ्जातोन्माथे, सुतरामुन्माथितो बभूव इदञ्च द्वयमपि चतुर्विंशतिदण्डके योजयन्नाह॥ तमुन्माथितं विज्ञाय / आ०म० प्र०। नेरइया णं भंते ! कइविहे उन्मादे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्माद(य) पुं०(उन्माद) उद्- मद्-घञ् - उन्मत्ततायाम्, उम्मादे पण्णत्ते तंजहा जक्खावेसे य मोहणीजस्स कम्मस्स विविक्तचेतनाभ्रंशे ग्रहे बुद्धिविप्लवे, भ० 24 श० २उ०। चित्तविभ्रमे, उदएणं से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ णेरइयाणं दुविहे उम्मादे स्था०३ ठा० 1 क्षिप्तादिके, आव०४ अ० / आ०चू०। नष्टचित्ततायाम्, पण्णते? जक्खावेसे य मोहणीजस्स कम्मस्स उदएणं गोयमा! आलजालजल्पने, प्रय०१६६ द्वा०। कामेन पारवश्ये, उत्त०१६अ देवे वासे असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा / सेणं तेसिं असुभाणं अत्यन्तकामोद्रेकादालिङ्गने च / विशे०॥ पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खावेसे णं उम्मादे पाउणेज्जा तस्य भेदा यथा मोहणिज्जस्स वा कम्मरस उदएणं मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा कइविहे णं भंते उम्मादे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे उम्मादे से तेणद्वेणं जाव उदएणं असुरकुमाराणं भंते ! कइविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहाजक्खावेसे य मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदय णं पण्णत्ते? एवं जहेव णेरइयाणं णवरं देवे वासे महिड्डियतराए तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेदणतराए चेव, सुह चेव असुभे पोग्गले पक्खिवेजा सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं विमोयणतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेजा। मोहणिज्जस्स वा सेणं दुहवेदणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव। सेसं तं चेव से तेणट्टेणं जाव उदएणं एवं जाव थणियकुमाउन्माद उन्मत्तता विविक्तचेतना भ्रंश इत्यर्थः / "तथा उन्मादो ग्रहो राणं पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं एएसिं जहा णेरइयाणं बुद्धिविप्लव इत्यर्थः' (जक्खाएसे यत्ति) यक्षो देवस्तेनावेशः वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं।। प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः इत्येकः (मोहणिज्जस्सेत्यादि) मोहनी-यस्य (णेरइयाणमित्यादि) पुढविकाइयाणमित्यादौ यदुक्तं जहानेरइ-- दर्शनमोहनीयादेः कर्मण उदये नव्यः सोऽन्य इति / तत्र मोहनीय याणंति तेन देवे यासे असुभे पोग्गले पक्खिवेजा इत्येतद्यक्षावेशे मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्त-दुदयवतीं पृथिव्यादिसूत्रेष्वध्यापितं वाणमन्तरेत्यादौ तु यदुक्तं "जहाअसुराणंति' जन्तुरतत्त्वंतत्त्वं मन्यतेतत्त्वमपि चातत्त्वं चारित्रमोहनीयं वा, यतस्तदुदये तेन यक्षावेश एव व्यन्तरादिसूत्रेषु देवे वासे महिड्डियतराए इत्येतदध्यापित जानन्नपि विषयादीनां स्परूपमजानन्निव वर्तते / अथवा मोहोन्मादालापकस्तु सर्वसूत्रेषु समान इति / / भ०१४ श०२ उ०। चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं यतस्तदु-यविशेषे षड्भिः प्रकारैरात्मन उन्मादस्तद्यथा।। अत्युन्मत्त एव भवति यदाह "चिंतेइ 1 दठु मिच्छइ, 2 दीह नीससइ३ छहिं ठाणेहिं आया उम्मायं पाउणेज्जातंजहा अरहंताणमवणं तह जरे 4 दाहे 5 / भत्तअरोयग 6 मुच्छा 7 उम्माए 8 नयाणई हमरणंति" वदमाणे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे 10 / 1 / / एतयोश्वोन्मादत्वे समानेऽपि विशेषं दर्शयन्नाह आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे चाउवनस्ससंघस्सय अवन्नं (तत्थणमित्यादि) तत्र तयोर्मध्ये 'योऽसौ यक्षाविष्टो भवति' वदमाणे जक्खावेसेण चेव मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं। (सुभवेयणतराए चेवत्ति) अतिशयतः सुखेन मोहजन्योन्मादापेक्षया अनन्तरं श्रमणस्याहारग्रहणकारणान्यभिहितानीति श्रमणादे - अक्लेशेन वेदनमनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतर : स एव सुखवेदनतरक: जीवस्यानुचितकारिण उम्मादस्थानान्याह (छहीत्यादि) इदं च सूत्रं मोहजनितग्रहापेक्षया अकृच्छानुभवनीयतर एव नैकान्तिकान पशस्थानक एव व्याख्यातप्रायं नवर षड्भिः स्थानैरात्मा जीव त्यन्तिकभ्रमरूपत्वादस्येति। चैव शब्दः स्वरूपावधारणे (सुहविमोयण- उन्मादमुन्मत्ततां प्राप्नुयादुन्मादश्च महामिथ्यात्वलक्षणस्तीतराए चेवत्ति) अतिशयेन सुखेन विमोचनं वियोजनं यस्मादसौ र्थकरादीनामवर्णवादतो भवत्येवं तीर्थकराद्यवर्णवदनकुपितप्रवसुखविमोचनतरः / कप्रत्यय-स्तथैव / अथवा अत्यन्तं सुखापेयः चनदेवतातो वाऽसौ ग्रहणरूपो भवेदिति पाठान्तरेण। (उम्मायप-मायति) सुखापेयतरः तथा अत्यन्तं सुखेनैव विमुञ्चति यो देहिनं स उन्मादः सड् ग्रहत्वं स एव प्रमादः प्रमत्तत्वमाभोगशून्यतोन्मादप्रमादः / सुखविमोचनतरक इति मोहस्तु तद्विपरीतः एकान्तिकात्यन्तिक- अथवोन्मादश्च प्रमादश्वाहितप्रवृत्तिहिताप्रवृत्ती उन्मादप्रमादं भ्रमस्वभावतयात्यन्तानुचितप्रवृत्तिहेतुत्वेनानन्तभावकारणत्वात् प्राप्नुयादिति / (अवण्णंति) अवर्णमश्लाघामवज्ञां वा वदन व्रजन वा तथान्तरकारणजनितत्वेन मन्त्राद्यसाध्यत्वात् कर्मक्षयोपशमादिनवै कुर्वन्नित्यर्थः (धम्मस्सत्ति) श्रुतस्य चारित्रस्य वा आचार्योपाध्यायानाच साध्यत्वादित्यत एवोक्तम् (दुहवेयतराए चेव दुहविमोयतराए चेवत्ति) चतुर्वर्णस्य श्रमणादिभेदेन चतुःप्रकारस्य यक्षावेशेन चैवं अतिशयेन दुःख वेद्य एव दुःख विमोच्य एव चासाविति / / (तत्थण निमित्तान्तरकुपितदेवाधिष्ठितत्वे मोहनीयस्स मिथ्यात्ववेदशोकोदमित्यादि) मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखवेदनतरो भवति येनेति। स्था०६ ठा०॥ अनन्तसंसारकार-णत्वात्। संसारस्य चदुःखवेदनस्वभावत्वादितरस्तु उम्माद(य) त्रि०पत्त(उन्मादप्राप्त) उन्मादमुन्मत्ततां प्राप्तः / सुखवेदनतर एव एकभविकत्वादिति / तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया | उन्मादप्राप्तः / स्था०५ ठा०। मोहनीयकर्मोदयेन चित्तशून्यता Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मादपत्त 877- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उम्मिसिय मुपागते, वृ०३ उ० / वातादिदोषादुन्मत्ततामुपागते, स्था० 5 ठा०। दर्शना क्रियते। तच्च दृष्ट्वा तस्या आर्यिकाया विरागो भवेत्। ततः प्रगुणी उन्मादप्राप्ताया निन्थ्याः प्रतिचा यथा भवति। वृ०६ उ०। (सूत्रम्) उम्मायपत्तिं निग्गथिं निग्गंथे गिण्हमाणेश्नातिकमा उन्मादप्राप्तस्य भिक्षोः प्रतिच- यथा / / अस्य व्याख्या प्राग्वत् अथोन्मादप्ररूपणार्थ भाष्यकारः प्राह / / उम्मायपत्तं भिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पए तस्स गणावच्छेउम्मत्तो खलु दुविधो, जक्खावेसो य मोहणिज्जो य। यस्स निहित्तए गिलाए करणियं वेयावडियं जाव ततो जक्खाएसो बुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि // रोगातंकातो विप्पमुक्को ततो पच्छा लहुस्सगे नामं ववहारे उन्मादः खलु निश्चितं द्विविधो द्विप्रकारस्तद्यथा यक्षावेशहेतुको यक्षावेशः / पट्टवियव्वे सिया इति। कार्ये कारणोपचारात्। एवं मोहनीयकर्मोदयहेतुको मोह-नीयवशाद् द्वौ अस्य व्याख्या पूर्ववत् / उन्मादप्ररूपणा तु निग्नन्थ्या इव नवरं चकारौ परस्परसमुचयार्थी स्वगतानेकभेदसंसूच को वा। तत्रयो यक्षावेशो पुरुषाभिलापः कार्यः / / क्षुल्लकस्य वातेन पित्तेन चोन्मादयतनामाह। यक्षावेशहेतुकः सोऽनन्तरसूत्रोक्तो यस्तु मोहेन मोहनीयोदयेन मोहनीयं वाते अज्झंगसिणेह, पज्जणादी तहा निवाए य। नाम येनात्मा मुह्यति तच ज्ञानावरणीयं मोहनीयं वा द्रष्टव्यं सक्करखीरादिहि य, पित्तचिगिच्छा उकायव्वा।। द्वाभ्यामप्यात्मनो विषयसापादनात् / तेनोत्तरत्र अहमपि तमुत्थाय वाते वातनिमित्ते उन्मादे तैलादिना शरीरस्याभ्यङ्ग क्रियते स्नेहपायन ईर्याधुच्यमानं न विरुध्यते (इमंतुत्ति) अयमन्तरमेव वक्ष्यमाणतया घृतपायनमादिशब्दात्तथाविधान्यचिकित्सापरिग्रहः तत्कार्यते तथा प्रत्यक्षीभूत इव तमेवेदानीं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातं निवार्हयति॥ निवाते स्थाप्यते / पित्तवशादुन्मत्तीभूतस्य शर्कराक्षीरादिभिस्तस्य रूवंग दळूण, उम्मातो अहद पित्तमुच्छाए। चिकित्सा कर्तव्या॥ व्य०२ उ०। नट्ठायणाणि वाते, पित्तम्मिय सक्करादीणि / / उम्माद(य)पमाय पुं०(उन्मादप्रमाद) क०स०। उन्मादः सग्रहत्वं स रूपं विटादेराकृतिरङ्गं च गृह्याङ्ग रूपाङ्गं तद् दृष्ट्वा कस्या अप्युन्मादो एव प्रमादः प्रमत्तत्वमाभोगशून्यतोन्मादप्रमादः / गृहावेशादुपभवेत् / अथवा पित्तमूर्छया पित्तोद्रेकेणोपलक्षत्वाद्वातोद्रेकवशतो वा योगशून्यतायाम्, उन्मादश्च प्रमादश्च समाहारद्वन्द्वः / अहितप्रवृतिस्यादुन्मादः / तत्र रूपाङ्गं दृष्ट्वा यस्या उन्मादः / संजातस्तस्यास्तस्य हिताप्रवृत्त्योः, न०। स्था०६ ठा०। रूपाङ्गस्य विरूपावस्था प्राप्तस्य दर्शना कर्त्तव्या। या तु घातेनोन्मादं उम्मि पुं० स्त्री(ऊर्मि) ऋ-मि-अर्तेरुच / महाकल्लोले, ज्ञा० 1 अ०। प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया उपलक्षणमिदं तेन तेलादिना भ० / स्था० / सम्बाधे, कल्लोलाकारेजनसमुदाये, भ०२ श०१३० / शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः क्रियते। पित्तवशान्मत्तीभूतायाः ज्ञा० / प्रकाशे, वेगे वस्त्रसंकोचरेखायाम्, पीडायाम्, उत्कण्ठायाम्, शर्कराक्षीरादीनि दातव्यानि कथं पुनरसौ रूपाङ्ग दर्शनेनोन्माद वुभुक्षादिषु षट्षु देहमनः प्राणानां यथायथं धर्मेषु अश्वगतो, स्वी० / गच्छेदित्याह॥ वाच०॥ दळूणं नडं काई, उत्तरविउवितं मयणखित्ता। उम्मिमालिणी स्त्री०(ऊर्मिमालिनी) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य तेण विय रूवेण उड्कृम्मिकायम्मि निविण्णा / / पश्चिमतः शीतोदाया महानद्या उत्तरेण वहन्त्यामन्त द्याम्, स्था०३ काचिदल्पसत्वा नटं दृष्ट्वा किंविशिष्टमित्याह / उत्तरवैकुर्विकमु- | ठा०। "सुवप्पे विजए जयंती रायहाणी उम्मिमालिणी णई" "सुवप्रो त्तरकालभाविवस्त्राभरणादिविचित्रकृत्रिमविभूषाशोभितं ततः विजयो वैजयन्ती राजधानी उर्मिमालिनी नदी" जं०४ वक्ष०ा प्रश्न०। काचिन्मदनक्षिप्ता उन्मादप्राप्ता भवेत् तत्रेयं यतना / उत्तरवैकुर्वि "दो उम्मिमालिणीओ' स्था०२। काप्रसारणेन तेनैव स्वाभाविकेन रूपेण तस्मिन्नूर्द्धकृते सति उम्मिल्लण न०(उन्मीलन) प्रादेर्मीलेः॥१४३१।। इति उदः परस्य काचिदल्पकर्मा निर्विण्णा भवति तद्विषयं विरागं गच्छतीत्यर्थः।। मीलेरन्त्यस्य द्वित्वम् वा / प्रा० / विकाशे, चक्षुरादेः पुटविभेदे, भावे पण्णवितो उ दुरूपो, उन्म दिज्जति अतीए पुरतो उ। घञ् / उन्मीलोऽप्यत्र / वाच०॥ रूववतो पुण भत्तं, तं दिजति जेण छड्डेति॥ उम्मिल्लिय न०(उन्मीलित) उद्-मील-भावे क्तः उन्मीलने, अनु० अन्यच्च यदि नटः स्वरूपो दुरूपतो भवति / ततः स पूर्व प्रज्ञाप्यते विकसिते, अमुद्रिते च / णिच् -कर्मणि क्तः / प्रकाशिते, भेदितमुद्रणे प्रज्ञापितश्च सन् तस्या उन्मादप्राप्तायाः पुरत उन्मण्डय यत्तस्य मण्डनं नेत्रादौ "ततो उम्मिल्लियाणि तस्स नयणाणि' आ०म० द्वि० / तत्सर्वमपनीयते। ततो विरूपरूपदर्शनतो विरागो भवति। अथासौ नटः "पंजरुम्मिलियमणिकणगयूभियागे" पञ्जराद् उन्मीलितमिव स्वभावत एव रूपवान् अतिशायिनोद्भटरूपेण युक्तः ततस्तस्य भक्तं बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितमिव। यथाहि किल किमपि वस्तुपञ्जरात् मदनफलमिश्रादिकं तद्दीयते येन भुक्तेन तस्याः पुरतः छईयति उद्घमति वंशादिमयप्रच्छादनविशेषात् बहिष्कृतम-त्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् उद्वमनं च कुर्वन् किलासौ जुगुप्सनीयो भवति ततः सातं दृष्ट्वा विरज्यते शोभते। तथा तदपि विमानमिति भावः। जी०४ प्रति०। स०॥ इति। उम्मि(म्मी)वीइ स्त्री०(ऊर्मिवीचि) ऊर्मयश्च वीचयश्च महाकल्लो-लेषु, गुज्झंगम्मि उ वियर्ड, पञ्जावेऊण खरगमादीणं। ह्रस्वकल्लोलेषु च 6 त०। ऊर्मीणां विविक्तत्वे, भ०१६ श०६ उ०। तद्दरिसणे विरागो, तीसे तु हवेज दळूणं / / स्था०।"उम्मीवाईसहस्सकलियंति" || ऊर्मयः कल्लोलास्तल्लक्षणा यदिपुनः कस्या अपि गुह्याङ्गे उन्मादो भवति रूपलावण्यापेक्षस्ततः या वीचयस्ता ऊर्मिवीचयो वीचिशब्दो हि लोकेऽन्तरार्थोऽपि खरकादीनां व्यक्षरकप्रभृतीनां विकट मद्यं पाययित्वा प्रसुप्तीकृतानां रूढोऽथवोर्मिवीच्योर्विशेषो गुरुत्वलघुत्वलक्षणः क्वचिद्वीचिशब्दोनपठ्यते पथि मद्योगालखरण्टितसर्वशरीराणामत एव मक्षिकाभिणिभिणाय- / एवेति ऊर्मिवीचीनां सहस्रैः कलितो युक्तो यः स तथा।स्था०१०ठा०॥ मानानां (तद्दायणेत्ति) तस्य गुह्याङ्गस्य मद्योगालनादिनावीभत्सीभूतस्य | उम्मिसिय त्रि०(उन्मिषित) उद्-मिष्-क्त-प्रफुल्ले, किञ्चित्प्रका Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्मिसिय 878 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरपरिसप्प० शिते, वाच०। उन्मीलिते भ०१४ श० 130 / भावे क्तः। उत्मेषे, "अणुमोदणउम्हमादिणे दोसा" उष्मा नाम तेनाऽन्येन द्रव्येण तस्य "उम्मिसियणिमिसियंतरेण" उन्मिषितनिमिषितान्तरेण यावता रागिणो हस्तादौ परिताप आदिशब्दाद्यदि द्रव्यमसौ तत्र प्रक्षिपति। वृ० अन्तरेण व्यवधानेन उन्मेषनिमेषौ क्रियेते तावदन्तरप्रमाणेन / जी०३ २उ०। प्रति०। उम्हातिस त्रि०(युष्मादृश) युष्मद्-दृश्-कञ्-आत्वं पैशाच्याम्। उम्मिस्स न०(उन्मिश्र) सचित्तसम्मिश्रे, तदभेदोपचारात्सप्तमे | यादृशोदे१स्तिः || 16|| इति (द) इति दृश इत्यस्य स्थाने एषणादोषे,प्रव०६७ द्वा०।"वीयादि उम्मीसं" बीजाधुन्मिङ्गं तिरादेशः / भवादृशे, प्रा०॥ बीजकहरितादिभिर्यदुन्मिश्रमुच्यते।पंचा०१३ विव०॥ यदा अनाभोगेन | उम्हासेस पुं०(ऊष्मावशेष) मनागपि ऊष्मे, "उम्हासेसो विसिही होऊ अविचायैव शुद्धाशुद्धाहारंसम्मील्याददातितदा सप्तम उन्मिश्रितदोषः / लद्धिं" आव०५ अ०। उत्त०२४ अ०। देवद्रव्यं खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उय अव्य०(उत) अपि शब्दार्थे, विशे० "उतामृतस्येशानो उन्मिश्रम्। ध०३ अधि०। यदन्ने नातिरोहति'' आ०म०द्वि० सुतरामिति शब्दस्यार्थे, असण पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। "किमुयकुडवाडिस्स'' आव५ अ० / विकल्पे, समुच्चये, वितर्के, प्रश्ने, पुस्फेसु होज सम्मीसं, वीएसु हरीएसु वा // 57 / / अत्यर्थे च। वाच०॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / उयण्णेमाण त्रि०(प्रवर्तयत्) तिरश्चीन कुर्वति, "उत्तारेमाणे वा दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 58|| उयण्णेमाणे वा जीवहिं" आचा०२ श्रु०॥ उयत्तिय अव्य०(अपवृत्य) अपवर्त्तनं कृत्वेत्यर्थे , "उयत्तियाणं गिण्हाहि, पानकं वापि स्वाद्यं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिभिर्भवेदुन्मिश्र तहप्पगारं पाणगजातं" आचा०२ श्रु०॥ बीजैर्हरितैर्वेति तादृशं भक्तपानंतु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति। दश०५ अ०। (अस्य भेदादि उयाय त्रि०(उपयात) उपगते, "महासिलाकंटग संगामं उयाए पुरओ य सेसक्के" भ०७०६ उ०॥ उन्मिश्रग्रहणनिषेधश्च एषणा शब्दे वक्ष्यते) अत्र प्रायश्चित्तम् "उम्मीसे अणंतेचउगुरुपच्छिते चउलहु मीसुम्मीसे अणतेमासगुरुपरिते मासलहु उरहे युष्मद् (यूयम्) जस्- यूयवयौ- जसि / इति यूयादेशः / डे प्रथमयोरम् इति जसोऽमादेशः / पा० व्या०।भे तुब्भेउज्झे तुम्हे तुम्हे लित्ते चउसुठाणेसुजे तिणि तेसुसट्टाणपच्छितं"पं० चू०। "प्राबल्येन उरहे जसा ||31|| इति जसा सहितस्य युष्मच्छब्दस्य उरहे मिश्रे वस्तुमात्रे, त्रि० / आव०।""कम्मुम्भीसगा सरीरा, कार्मणेन आदेशः / प्रा०1"उय्हेचिट्ठह" प्रश्न० शरीरेणान्मिश्राणि / स्था० 4 ठा०। उम्मीलणा स्त्री०(उन्मीलना) प्रभवे, विशे०। *युष्मान् युष्मद्शस्।वो तुम्मे उज्झे तुम्हे उय्हे भेशसा" ||363|| इति शसा सहितस्ययुष्मच्छब्दस्य उय्हे आदेश 'उय्हे पेच्छामि' प्रा० / / उन्मीलिय त्रि०(उन्मीलित) उद्-मील-त-प्रादेर्मीलेः॥८॥४॥३१॥ | उर पुं० न०(उरस) -असुन धातोरुचरपरः / स्नमदामशिरोः नमः इति उदः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वाभावे रूपम्।प्रा०।उन्मेषे, विपा० // 61 / 3 / / इति उरः पुंल्लिङ्गत्त्वम्। प्रा० / वक्षसि, स्था० 10 ठा०। 1 श्रु०७ अ० | "पंजरुम्मिलियव्वमणिकण-गथूमियागा" हृदये, प्रश्न०२ द्वा०। अष्टानामङ्गानां द्वितीयेऽङ्गे। "सीसमुरोयरपिट्टि' पञ्जरादुन्मीलित इव बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिताः / रा०। आ०चू०२अ० / उत्त० / नि० चू० / प्रज्ञा ०1"उरे वित्थडाए" उन्मीलितमुन्मिषितं स्मितमुन्निद्रमित्यादिपर्यायाः। विशे०। अर्द्धमागध्या भाषया उरसि, विस्तृततया उरसो विस्तीर्णत्वात्। औ०। उम्मुक्क त्रि०(उन्मुक्त) उद्-मुच्-क्त-ऊर्द्धक्षिप्ते, औ० परित्यक्ते, "उरसि दलावेइ" उरसि दापयति / विपा०।"उरेणरिसभं सरं"। विशे० / / "उमुक्कमणुम्मुक्के, उम्मुच्चते य केसलंकारे" आ०म० द्वि०। स्था०७ ठा०। शोभने, स्था०४ ठान प्राबल्येन मुक्ते, "ते वीरा बंधणुम्मुक्का नावकंखंति जीवियं" सूत्र०१ उरंउर न०(उरउरस्) साक्षच्छब्दार्थे "चाउरंगिणं पि उरंउरे गिण्हित्तए" श्रु०६ अ०। वि०३ अ०। उम्मुक्ककम्मकवय पुं०(उन्मुक्तकर्मकवच) सकलकर्मवियुक्तत्वा-- उरकडगन०(उरःकटक) उरो हृदयं तदेव कटकमुरः कटकम्। उरोरूपे सिद्धे, औ०। कटके, अनु०॥ उम्मुक्कबालभाव पुं०स्त्री (उन्मुक्तबालभाव) त्यक्तबाल्ये जाताष्ट-वर्षे , उरगपुं०स्त्री(उरग) उरसा गच्छति उरस्-म्-डासलोपश्च सर्प, अष्ट० / सेवियणं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणायमेत्ते कर्म०। "उरगगिरिजलणसागर-नहतलतरुगणसमो अ जोहोइ / उम्मुयणा स्त्री०(उन्मोचना) परिशातनायाम, आव०५ अ०। भमरमियधरणिजलरुह-रविपवणसमो अ सो समणो'" अनु० / उम्मूलणा स्त्री०(उन्मूलना) उत्पाटने, "उम्मूलणा सरीराओ" उरगवर पुं०(उरगवर) नागवरे, ज्ञा०१६ अ०।। वृक्षस्योन्मूलनेवोन्मूलना निष्काशनं जीवस्य शरीरादेहादिति द्वितिया उरगवीहि स्त्री०(उरगवीथी) उरगसंज्ञका वीथी उरगवीथी / सुक्रा-- गौणी हिंसा / प्रश्न०१ द्वा०॥ देरुरगसंज्ञेऽक्षभागे, स्था०१० ठा०(वीहीशब्दे स्पष्टम्) उम्मेस पुं०(उन्मेष) उद्- मिष् -घञ् -अक्षिव्यापारविशेषे, | उरच्छंद पुं०(उरश्छन्द) कवचे, हैम०। "आगमणगमणभासुम्मेसमणजोगकायजोगा जेयावण्णे तहप्पगारा उरत्थ त्रि०(उरःस्थ) हृदयस्थिते," उरत्थदीणारमालवीरइए णं" चलसभावा सव्वे ते" भ०१३ श०४ उ०) कल्प०॥ उम्ह(ण) त्रि०[उ(ऊ)ष्मन] उष्- आधारे-मनिन्-वाऽहस्वः। | उरतव न०(उरस्तपस्) क०स० इह लोकाद्याशंशारहितत्वेन पक्षश्मष्मस्नह्नांम्हः / / 8 / 274|| इति ष्मभागस्य मकाराक्रान्तो हः सोभनेआजीवकतपोभेदे, स्था०४ ठा०। प्रा० / गीमतों , कर्तरिमनिन् / आतपे, शषसहवणेषु, वाच० // उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियःपुं०(उरः परि सर्पस्थल Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरपरिसप्प० 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरब्भ चरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक उरसा वक्षसा परिसर्पन्ति संचरन्तीति उरःपरिसास्ते च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः / उरः परिसर्पस्थ लचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकभेदे, तद्भेदा यथा। से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियार चउव्विहा पण्णत्तातं जहा अही अयगरा आसालिया महोरगा। अथ केते उरःपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः / सूरिराह उरःपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा। अहयोऽजगरा आसालिगा महोरगाः प्रज्ञा०१ पद / अनु० / स्था० / जी०। एतेषामेव भेदानामवगमाय प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि तानि च अह्यादिशब्देषु द्रष्टव्यानि "तिविहा उरपरिसप्पा पण्णत्ता तंजहा इत्थी पुरिसा णपुंसगा" उरःपरिसर्पमात्रेणापि-बोधः। सं०। उरपरिसप्पिणी स्त्री०(उरःपरिसर्पिणी) उरः परिसर्पस्त्रियाम्, ततद्देदा यथा “से किंतं उरगपरिसप्पिणी ओ 2 तिविधाओ तंजहा अहीओ अयगरीओ महोरगीओ सेत्तं उरपरिसप्पिणी" जी०२ प्रति०। उरब्भ पुं०स्त्री०(उरभ्र) उरु उत्कट भ्रमति भ्रम्० ड० पृषो० डलोपः। मेषे, प्रश्न०१ द्वा० सूत्र०। ऊरणे, रा०। उपा०। अस्य निक्षेपः। णिक्खेवे उ उरभे, चउदिवहो दुविहहोइ दवम्मि। आगमणोआगमतो, णो आगमतो य सो तिविहो। निक्षेपो न्यासस्तुः पूरणे उरभ्रे उरभ्रविषये चतुर्विधश्चतुःप्रकारो नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् / तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एवेति / द्रव्योर भ्रमाह-द्विविधो भवति द्रव्य इति द्रव्यविषये आगमतो नो आगमतश्च तत्रागमत उरभ्रशब्दार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो नो आगमतः पुनश्चस्य पुनरर्थत्वात् स इति द्रव्योरभ्रस्विविधस्त्रिभेदः। तत्रैविध्यमाहजाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य सो पुणो तिविहो। एगभवियबद्धाउ य, अभिमुहतो णामगोत्ते य॥ शरीरमुरभ्रशब्दार्थज्ञस्य सिद्धशिलातलगतं शरीरमुच्यते भव्यशरीरोरभ्रस्तु यस्तावदुरभ्रशब्दार्थं न जानाति कालान्तरे च ज्ञास्यति तस्य यच्छरीरं तद्व्यतिरिक्तश्च ताभ्यां ज्ञशरीरभव्यशरीरोरभ्राभ्यां व्यतिरिक्तो भिन्नस्तद्व्यतिरिक्तः / चः समुचये स तद्-- व्यतिरिक्तः पुनस्त्रिविधस्त्रिभेदस्वैविध्यमेवाह / एकस्मिन् भवे तस्मिन्नेवातिक्रान्ते भावी एकभविको योऽनन्तर एव भवे उरभ्रत-योत्पत्स्यते तथा स एवोरभ्रायुर्बन्धानन्तरं बद्धमायुरनेनेति बद्धायुक उच्यते। तृतीयमाह(अभिमुहओ नामगोत्तेयत्ति)आर्षत्वादभिमुखनामगोत्रश्च तत्राभिमुखे संमुखेऽन्तरर्मुहूर्तानन्तरभावितया नामगोत्रे उरभ्रसंबन्धिनी यस्य स तथोक्तान्तरमुहूर्तानन्तर मेवोरभ्रभवभावीतिगाथार्थः। भावोरभ्रमध्ययननामनिबन्धः उरभाउण मेगोयं, वेदेतो भावतो उरभो उ। तत्तो समुद्धियमेणं, उरमिज्जति अज्झयणं / / उरम्भे य कागणीअं, पएयववहारसागरे चेव। पंचेवेते दिटुंता उरमिजम्मि अज्णयणे / / उरभ्रः ऊरणकस्तस्यायुश्च नाम च गोत्रं च उरभ्रायुर्नामगोत्रं यदुदयादुरभ्रो भवति वेदयन्ननुभवन् भावतो भावमाश्रित्योरभ्रस्तुशब्दः / पर्यायास्तिकमतमेतदिति विशेषणार्थस्ततो भावोरभ्रदृष्टान्ततयेहाभिधेयात्समुत्थितमुत्पन्नमिदमिति प्रस्तुतं यस्मादिति गम्यते (उरभिज्जति) उरभ्रीयं गहादित्वाच्छैषिकछप्रत्यये इति तस्माद-ध्ययनं प्रागुक्तमुच्यते इतिशेष इतिगाथार्थः॥ उरभ्रस्यैवचेहप्रथममुच्यमानत्वात् बहुवक्तव्यत्वाचेत्थमुक्तामन्यथा हि काक-ण्यादयोऽपि दृष्टान्ता इहाऽभिधीयन्तएव तथा चाह नियुक्तिकृत् (उरख्भे गाहा) उरभ्र उक्तरुपः काकणिविंशतिः कपर्दिका (उर-उभेयत्ति) चशब्दस्य भिन्नक्रमत्वातकाकणिश्च (अंबएयत्ति) आम्रकमामफलं व्यवहारश्च क्रयविक्रयरूपो वणिग्धर्मश्चस्य गम्यमानत्वात् सागरश्च समुद्रः / चः सर्वत्र समुच्चये एवावधारणे भिन्नक्रमश्चैवं योज्यते पञ्चैवैते न तु न्यूनाधिका दृष्टान्ता उदाहरणानि उरभ्रीये उरभ्रनाम्न्यध्ययने इतिगाथार्थः / / संप्रति यदर्थसाधादुरभ्रस्य दृष्टान्तता तदुपदर्शनायाह।। आरंभो रसगेही, दुग्गमरणं च पव्ववातो य। उवमा कया उरन्मे, उरमिजस्स णिज्जुत्ती।। आउरविणाई एयाई, जाइं वरइणंदितो। सुजताणेहिं लाढाइ,एयदीहाउ लक्खणं॥ आरम्भणमारम्भः पृथिव्याद्युपमर्दो रसेषु मधुरादिषु गृद्धिरभिकाङ्क्षा रसेगृद्धि गतिगमनंचनरकतिर्यगादिषु पर्यटनं प्रत्यपायश्चैहैव शिर छेदादि वक्ष्यति हि "शिरच्छेत्तूणभुज्जत' इति शिरश्छेदाचार्तरौद्रोपगतस्य दुर्गतिपाते दुःखानुभवनादिरुपमा सा दृश्यतो / दर्शनरूपा प्रक्रमादेभिरेवारम्भादिभिरथैः कृता विहिता उरभ्रे उरभ्रविषया। इदमुक्त भवति / सांप्रतेक्षिणो हि विषयामिषगृध्नवः तांस्तानारम्भानारम्भन्ते आरभ्य चोपचितकर्मभिः कालसौकरिकादिवदिहैव दुःखमुपलभ्ये नरकादिकां कुगतिमाप्नुवन्तीत्युरभ्रोदाहरणत इहोपदर्श्यते। काकण्यादि साधर्म्यदृष्टान्तोपलक्षणं चैतदुरभ्रीयस्य नियुक्तिरिति निगमनमेतदिति गाथार्थः / / 20 / / उरभ्रदृष्टान्तश्चैवम्॥ इत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः / संप्रति सूत्रालापकनिक्षेपस्यावसरः स च सूत्रे सति भवती त्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम्॥ जहा एसं समुद्दिस्सं, कोइ पोसेज एलयं / ओयणं जवसंदिजा, पोसेन्जावि सयं गणे / / यथेत्युदाहरणोपन्यासे आदिश्यते आज्ञाप्यते विविधव्यापारेषु परिजनोऽस्मिन्नायात इत्यादेशोऽभ्यर्हितः प्राहुणकस्तं समुद्दिश्याश्रित्य यथासौ समेष्यति समागतश्चैनं भोक्ष्यत इति कश्चित्परलोकापायनिरपेक्षः पोषयेत्पुष्टं कुर्यादेलकमूरणकं कथमित्याह ओदनं भक्तं तजोग्यशेषानोपलक्षणमेतत्यवसमुद्माषादि दद्यात्तदग्रतो ढौकयेत्तत एव पोषयेत् पुनर्वचनमादरख्यापनाय अपिः संभावने संभाव्यत एवं एवं विधःकोऽपि गुरुकर्मेति स्वकाङ्गणे स्वकीयगृहप्राङ्गणे अन्यत्र नियुर्तिकः कदाचिन्नोदनादि दास्यतीति स्वकाङ्गण इत्युक्तः / यदि वा (पोसिञ्जाविसयंगणेत्ति) विशन्त्यस्मिन्निति विषयो गृहं तस्यांङ्गणं विषयाङ्गण तस्मिन्नथवा विषयं रसलक्षणं वचनव्यत्ययाद्विविषयान्वा गणयन् संप्रधारयन् धर्मनिरपेक्ष इति भावः / इहोदाहरणं संप्रदायादवसेयम् "जहेगो ऊरणगो पाहुणयनिमित्तं पोसिजति सो पीणियसरीरो सुण्हातो हालिहादिकयंगरागो कयकण्णचूलओ कु मारगायणं णाणाविहेहिं कीडाविसे से हिं कीडाति तं च वच्छगो एवं लालिज्जमाणं दटूण माऊए णेहेण गोचियं दोहएण य तयणुकंपाए मुक्कमवि खीरं न पिवति / रोसेण ताए पुच्छिओ भणइ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरख्भ ८८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरब्भ अम्मो एस णं दियगो सव्वेहिं एएहिं अम्ह सामिसालेहि इटेहिं जव-- जोगासणेहिं तदुवओगेहिं अलंकारविसेसेहिं अलंकारितो पुत्त इव परिपालिज्जइ अहं तुमंदभग्गो सुक्काणि तणाणि कोहे विलभामि ताणि वि नपज्जत्तिगाणि एवं पाणियं पिण य मे को वि भालेति। ताए भण्णत्ति पुत्त आतुरचिण्णाइं" गाहा / जहा आतुरो मरिउं कामो जमगातिपच्छं वा अपच्छंवा तं दिखतिते स एवं नंदिओ मारिजिहित्ति जहा तदा पेच्छेहिसि इति सूत्रार्थः // 26 // ततः कीदृशो जातः किञ्च कुरुते इत्याह!। तओ स पुढे परिवूढे,जायमेए महोदरे। पाणिए विउले देहे, आएसं परिकंखए॥ तत इत्योदनादिदानाद्धेतौ पञ्चमीस इत्युरभ्रः पुष्ट उपचितमांस-तया / पुष्टिभाक् परिदृढः प्रभूः समर्थ इति यावत् / जातमेद उपचितचतुर्थधातुरत एव महोदरो वृहज्जठरः प्राणितस्तप्पितो यथासमयमुपढौकिताहारत्वादेभिरेव हेतुभिर्विपुले विशाले देहे शरीरे सति यस्य च भावेन भावलक्षणमिति सप्तमी किमित्याह / आदेशं प्रति-काङ्केति पाठान्तरतः परिकाङ्क्षति वेच्छति नचास्य तत्वतः प्रतिपालनमिच्छा च संभवत्यतः प्रतिकाङ्क्षतीव प्रतिकातीत्युपमार्थो ऽवगन्तव्यः एवं परिकाङ्गतीत्यत्रापीति सूत्रार्थः / / 32 / / स कि मेव चिरस्थायी स्यादित्याह // जाव न एइ आएसे, ताव जीवइसे दुही। अहपत्तम्मि आएसे, सीसं छित्तूण भुंजइ।। यावदिति कालावधारणं नैति नायाति कोऽसावादेशस्तावन्नोत्त-रकालं जीवति प्राणान् धारयति (सेदुहित्ति) आकारप्रश्लेषात्स इत्युरभ्रो दुःखी सन्नथवा वध्यमण्डनमिवास्यौदनदानानीति तत्वतो दुःखितैवास्येति दुःखी (अहपत्तम्मि आएसे) अथानन्तरं प्राप्ते आगते आदेशे श्रिता अस्मिन्प्राणा इति शिरस्तच्छित्वा द्विधा विधायभुज्यते तेनैव स्वामिना पाहुणसहितेनेति शेषः। संप्रति संप्रदायशेषमनुश्रियते ततोऽसौ "वच्छगो ततो नंदियंग पाहुणगेसु आगएसु च हिज्जमाणं दटुं तिसितो वि भएण माऊए थणं णाभिल-सति। ताए भण्णति किं पुत्त भयभीतोसि हेण पएहुयं पि मे ण पिवसि तेण भण्णति अम्म कओ से थणभिलासो णणु सोवराओ णंदिओ अज्ज केहिं वि पाहुणएहि आगएहिं मम अग्गतो वि गयजीहो वि लोलनयणो विस्सरं रसंतो अत्तणो असरणो मारिओ तब्भयाओ मे कओ पाउमिच्छा तओ ताए भणति पुत्त ! णणु तदा चेव कहियं जहा आउरचिणाई एयाइं एस संविवागो अणुपत्तो एस दिटुंतो" इति सूत्रार्थः / इत्थं दृष्टान्तमभिधाय तमेवानुवदन् दार्शन्तिकमाह। जहा खलु से उरब्भे, आएसाए समीहिए। एवं वाले अहम्मिटे, इहई नरयाउयं // यथा येन प्रकारेण खलु निश्चये स इति प्रामुक्तरूप उरभ्र आदे-शाय आदेशार्थं समीहितः कल्पितः सन् यथा यस्मै भविष्यत्या देशं परिकासतीत्यनुवर्तते एवमनुनैव न्यायेन बालोऽज्ञोऽधर्मो धर्मविपक्षः पापमिति यावत् इष्टोऽभिलषितोऽस्येत्यधम्मिष्टः आहितादेराकृतिगणत्वादिष्टशब्दस्य परनिपातः / यद्वाऽधर्मगुणयागादधर्मोतिशयेनाधमाधर्मिष्ठ इह ईहते वाञ्छतीव तदनुकुला चारतया किं नरकायुष्कं नरकजीवितमिति सूत्रार्थः। उक्तमेवार्थ प्रपञ्चयितुमाह। हिंसे वाले मुसावाई, अद्धणम्मि विलोवए। अण्णदत्तहरे तेणे, माई कन्नु हरे सढे / इत्थीविसयगिद्धे य, महारंभपरिग्गहे। भुजमाणे सुरं मंसं, परिवूढे परंदमे / / अयकक्करभोई य, तुंदिल्ले चिय लोहिए। आउयं नरए कंखे, जहाएसंच एलए। हिनस्तीत्येवं शीलो हिंस्रः स्वभावतः प्राणव्यपरोपणकृद्वालोऽज्ञः पाठान्तरतश्च क्रुध्यति हेतुमन्तरेणापि कुप्पतीत्येवंधक्रिोधी मृषाऽलीक वदति प्रतिपादयतीत्येवं शीलो मृषावादी अध्वनि मार्गे विलुम्पति मुष्णातीति विलोपकः। यः पथि गच्छतोजनान् सर्वस्वहरणतो लुण्ठति (अन्नदत्तहरेति) अन्येभ्यो दत्तं राजादीनां विस्तीर्ण हरत्यापान्तराल एवाच्छिनत्यन्यदत्तहरः। अन्यैर्वा अदत्तमनिसृष्टं हरत्यादत्ते अन्यादत्तहरो ग्रामनगरादिषु चौर्यकृत् अत एव बालोऽज्ञो विस्मरणशीलः स्मारणार्थमेतदिति न पौनरुक्तयं सर्वावस्थासु वा बालत्वख्यापनार्थ पाठान्तरतश्चस्तैन्येनैवोपकल्पितात्मवृत्तिः। यद्वा अन्य दत्तहरोऽन्यादत्तं ग्रनिच्छेदादिनोपायेन अपहरति स्तेनः क्षेत्रादिखननेनेति विशेषो मायी वञ्चनैकचित्तः। कण्णुहरः कण्हुकस्यार्थ हरिष्यामीत्येवमध्यवसायी शठो वक्राचारः तथा स्त्रियश्च विषयाश्च स्त्रीविषयास्तेषु गृद्धोऽभिकाक्षावान् स्त्रीविषयगृद्धश्च प्राग्वन्महानपरिमितः आरम्भोऽनेकजन्मूपघातकृव्यापारः परिग्रहश्च धान्यादिसंचयो यस्य स तथोक्तो भुञ्जानोऽभ्यवहरन् सुरां मांसं पिशितं (परिबूढोत्ति) परिवृढः प्रभुरुपचितमांसशोणिततया तत्तक्रियासमर्थ इति यावत्। अत एव परानन्यान् दमयति न्यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रवर्तयतीति परंदमः / किञ्च अजश्छागस्तस्य कर्कर ययणकवद्भक्ष्यमाणं कर्करायते तच्चेह प्रस्तावान्मेदो दन्तुरमतिपक्वं वा मांसं तद्भोजी वाऽतएव तुन्दिलो जातवृहज्जठरश्चितमुपचयप्राप्त लोहितं शोणितमस्येति चितलोहितः। शेषधातूपलक्षणमेतत् आयुर्जीवितं नरके सीमन्तकादौ कातीव काङ्कति तद्योगकरिम्भितया कमिव क इवेत्याह (जहाएसच एडएत्ति) आदेशमिव यथैडक उक्तरूप इह च हिंसे इत्यादिनासा-र्द्धश्लोकेनारम्भ उक्तो भुंजमाणे सुरमित्यादिना चार्द्धद्वयेन रसगृद्धिः आयुषमित्यादिनाचार्द्धन दुर्गतिगमनं तत्प्रतिपादनाचार्थतः प्रत्यु-पायाभिधानमिति सूत्रार्थः / इदानीं यदुक्तमायुनरके कासातीति तदनन्तरमसौ किं कुरुते इत्याह। यद्वा साक्षादैहिकापाय दर्शनायाह|| आसणं सयणं जाण, वित्तं कामे य भुंजिया। दुस्साहडं धणं हिया, बहु संचिणिया रयं / / तओ कम्मगुरुजंतू, पचुप्पण्णपरायणे। अयव्वआगयाएसे, मरणं तम्मि सीयए। आसनं शयनं यानमिति प्राग्वन्नवरं भुक्त्वेति संबन्धनीयं वित्तं द्रव्यं कामान्मनोज्ञशब्दादीन् भुक्तवोपभुज्य (दुस्साहडंति) दुःखेनात्मनः परेषां च दुःखकरणेन सुष्ट्वादरातिशयेनाहृतमुपार्जितं दुःस्वाहृतम् / यदि वा प्राकृतचात् दुःखेन संहियते मील्यतेस्मेति दुस्संहृतं धनं द्रव्यं हित्वा आसनाधुपभोगेनछूताद्यसद्व्येनच त्यक्त्वातथाच मिथ्यात्वादिकर्मबन्धहेतुसंभवादहु प्रभूतं संचि-त्योपाय॑ रजोऽष्टप्रकारं कर्म / ततः किमित्याह। (ततोत्ति) ततो रजः संचयात् कोवा संचितरजाः कर्मणा गुरुरिव गुरुरधो नरक-गामितया कर्मगुरुर्जन्तुः प्राणी प्रत्युत्पन्नं वर्तमान तस्मिन्परायणस्तन्निष्ठः "एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचर'' इति नास्तिकमतानुसारितया परलोकनिरपेक्ष इति यावत्। (आएवत्ति) Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरख्म 581 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरब्भ अजः पशुः स चेह प्रक्रमादुरभ्रस्तद्वत् (आगयाएसत्ति) प्राकृतत्यादागते प्राप्ते आदेशे प्राहुणके एतेन प्रपञ्चितज्ञविनेयानुग्रहायोक्तमेवोरभ्रदृष्टान्तं स्मारयति। किमित्याह। मरणान्ते प्राणपरित्यागात्मन्यवसाने शोचति। किमुक्तं भवति यथादेश आगत उरभ्र उक्त नीत्या शोचति तथाऽयमपि धिग्मां विषयव्यामोहत उपार्जितगुरुकमणिं हा केदानीं मया गन्तव्यमित्यादिप्रलापतः खिद्यतेऽत्यन्तनास्तिकस्यापि प्रायस्तदा शोकसंभवादिति सूत्रद्वयार्थः / अनेनैहिकोपाय उक्तः। संप्रतिपारभविकमाह / / तओ आउपरिक्खीणे, चुया देहविहिंसगा। आसुरीयं दिसं वाला, गच्छंति अवसातमं / ततः शोचनानन्तरं को वा उपार्जितगुरुकर्मा आयुषि तद्भवसंभविनि जीविते परिक्षीणे सर्वथा क्षयं गते कथंचिदायुः क्षयस्यावीचीमरणेन प्रागपि संभवादेवमुच्यते। च्युतो भ्रष्टो देहाच्छरीरात्पाठान्तरस्तुच्युतदेहोपगते हन्त्यशरीरो विहिंसको विविधप्रकारैः प्राणिघातकः (आसुरीयंति) अविद्यमानसूर्यामुपलक्षणत्वात् ग्रहनक्षत्रादिविरहितां च दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक्तामर्थाद्भवदिवामथवा रौद्रकर्माकारी सोप्यसुर उच्यते। ततश्चा-सुराणामियमासुरीया सामासुरीयां दिशं नरकगतिमित्यर्थो बालोऽज्ञो गच्छति यात्यवशः कर्मपरवशो वचनव्यत्ययाच सर्वत्र बहुवचननिर्देशो व्याप्तिख्यापनार्थो वा यथा नैक एवैवंविधः किंतु बहव इति (तयंति) तमोयुक्तत्वात्तमो देवगतेरप्यसूर्यत्वसंभवात्तव्यवच्छेदाय दिशो विशेषणम् / ततोऽर्थान्नरकगतिम् / उक्तंहि "निबंधयारतमसा , ववगयगहचंदसूरनक्खत्ता'' इत्यादिस्वरूपख्यापकं वा द्वितीयं व्याख्यानमिति सूत्रार्थः / संप्रति काकण्यान्नदृष्टान्तद्वयमाह जहा कागणीए हेलं, राहस्सं हारए नरो। अपच्छं अंबगं भुच्चा, राया रज्जं तु हारए / / 11 / / एवं माणुस्सगा कामा, देवकामा य अंतिए। सहस्सगुणिया भुजो, आउं कामाय दिब्विया॥१२॥ अणेगवासाणउया, जा सा पण्णट्ठउहई।। जाणि जीयंति दुम्मेहां, ऊणे वाससयाउए।१३।। (जहासूत्रम्)यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / काकन्या उक्तरुयायाः (हेउंति) हेतोः कारणात्सहस्रं दशशतात्मक कार्षापणानामिति गम्यते | हारयेन्नाशयेन्नरः पुरुषोऽत्रोदाहरणं संप्रदायादवसेयः "एगोदसगो तेण वित्तिं करितेण सहस्सं काहावणाण अज्जियं सो तंगहाय सत्थेण सम सगिहिं पत्थितो / तेण भत्तनिमित्तं रूवगो कागिणीहिं भिन्नं ततो दिणे दिणे कागणिए भुजति तस्स व अवसेसा एका कागिणी सा विस्सारिया सत्थे पहाविए सो चिंतेइ मा मे रूवगो भिंदिजव्वो होहेतित्ति नउलगं अन्नत्थं गोवेउं कागिणीनिमित्तं नियतो सावि कागिणी अण्णेण हडा सो विनउलओ अन्नेण दिट्ठो ठविजंतो सोतं घेत्तूण नट्ठो पच्छा सो दारंगतो सोयइ एस दिलुतो" तथाऽपथ्यमहितमानकमानफलं भुक्त्वावहत्य राजेति नृपती राज्यं पृथिवीपतित्वं तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च तेन हारयेदेव संभव-त्येव। अस्यापथ्यभोजिनो हारणमित्यक्षरार्थः। भावार्थस्तुवृद्धसंप्रदायादवसेयः। स चायम्। "जहा कस्सइरण्णो अंबाजिण्णेण विसूइगा जाया सातस्स वेज्जेहि महाजन्नेण चिगिच्छिया भणितो जदिपुणो अंबाणि खाइसि तो विणस्ससि। तस्स य अतीव पियणि अंबाणि तेण सदेसे सव्वे अंबाउ उत्थाविया / अण्णया अस्स वाहणिए निग्गतो सह अम्मचेण अस्सेण अवहरिओ अस्सो दूरं गंतूण परिस्संतो छितो एगम्मि वणसंडे चूयच्छायाए अमचेण वारिज्जमाणो वि णिव्यिहो। तस्स य हेटे अबाणि पडियाणि सो ताणि परामस्सति / पच्छा अग्धाति पच्छा चक्खिउं निटुभति। अमच्चो वारेति पच्छा भक्खेउं मतो" इति सूत्रार्थः / इत्थं दृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह / (एवं गाहा) एवमिति काकिन्यामकसदशानां मनुष्याणाममी मानुष्यका गोत्रप्रत्ययान्तत्वात्। गोत्रचरणाविति वुन कामा विषया देवकामानां देवसंबन्धिनां विषयाणामन्तिके समीपे अन्तिकोपादानं च दूरे अनवधारणमपि स्यादिति / किमित्येवमत आह / सहस्रगुणिताः सहस्रेस्ताडिताः भूयोऽतिशयेन बहु बहून्वारा नित्यर्थः मनुष्यायुः कामापेक्षयेति प्रक्रमोऽनेनैषामतिभूयस्त्वं सूचयन्कार्षापणसहस्रराज्यतुल्यतामाह / आयुर्जीवितं कामाश्च शब्दादयो (दिव्वियत्ति) दिवि भवा दिव्याः धुपागुदक्प्रतीचो यदिति यत्त एव दिव्यकाः इहचादौ (देवकामाणअंतिएत्ति) काममात्रोपादानेऽपि अयुष्कामाय (दिटिवयति) आयुषोऽप्युपादानम्। तत्र प्रभावयितुमाह (अणेगसूत्र) अनेकानि बहूनि तानि चेहासंख्येयानि वर्षाणि वत्सराणि तेषां न युतानि संख्याविशेषा वर्षनुतान्यऽनेकानि च तानि वर्षनयुतानि स्वरोऽन्योन्यस्येति प्राकृतलक्षणात्सकाराकारदीर्घत्वमेवमन्यत्रापि स्वरान्यत्वं भावनीयम्। यदिवा अनेकानिवर्षनयुतानि येषु तान्यनेकवर्षनयुतान्युभयत्रार्थापल्योपमसागराणीति यावत् / नयुतानयनोपायस्त्व यं चतुरशीतिवर्षलक्षाः पूर्वाङ्ग तच पूङ्गिन गुणितं पूर्वंचतुरशीतिलक्षाहतंनयुताङ्ग नयुताङ्गमपि चतुरशीतिलक्षाभिताडितं नयुताद्देवमुच्यत इत्याह / या सेति प्रज्ञापकः शिष्यान् प्रत्येवमाह।यासा भवतामस्माकं च प्रतीता। प्रकर्षण ज्ञायते वस्तुतत्वमनयेति प्रज्ञा हेयोपादेयविवेचिका बुद्धिः सा विद्यते यस्यासौ प्रज्ञावानतिशायने मतुप्। अतिशयश्चास्या हेयोपादेययोर्हानोपादाननिबन्धनत्वमिहाभिमतं ततश्च क्रियाया अप्याक्षिप्तत्वात्। यदिवा निश्चयनयमतेन क्रियारहिता प्रज्ञाप्यप्र-हवेति प्रत्ययेनैव क्रिया क्षिप्यते ततः प्रज्ञावान ज्ञानक्रियावा-नित्युक्तं भवति तस्य प्रज्ञावतः / स्थीयते अनया अर्थादेवभवे इति स्थितिर्देवायुरधिकृतत्वात् / दिव्यकामाश्च / तानिच कीदृशानीत्याहा यान्यनेकवर्षनयुतानि दिव्यस्थितेर्दिव्यकामानां च विषयभूतानि जीयन्ते हार्यन्ते तद्धेतुभूतानुष्ठानानासेवनेनेति भावः। पाठान्तरतो हारयन्ति वा के ते दुष्टा विषयादिदोषदुष्टत्वेन मेधा वस्तुरूपावधारणशक्तिरेषां ते दुर्मेधसो विषयैर्जिता जन्तव इति गम्यते। कदापुनस्तानि दुर्मेधसो विषयीयन्त इत्याह ऊने वर्षशतायुष्यनेनायुषोऽल्पत्वान्मनुष्यकामानामप्यल्पतामाह। यदि वा प्रभूते ह्यायुषि प्रमादेनैकदा हारितान्यपि पुनर्जीयेरन्नस्मिस्तु संक्षिप्तायुष्येकदा हारितानि हारितान्येव भगवतश्च वीरस्य तीर्थे प्रायोऽन्यूनवर्षशतायुष एव जन्तव इत्ययमुपन्यासः। अयं चात्र भावार्थोऽल्पं मनुष्याणामायुविषयाश्चेति काकण्यामफलोपमा देवायुर्देयकामाश्चातिप्रभूततया कार्षापणसहस्रराज्यतुल्याः। ततो यथा द्रमको राजा च काकण्याम्रफलकृते कार्षापणसहस्रराज्यं चहारितवानेवमेतेऽपि दुर्मेधसोऽल्पतरमनुष्यायुः कर्मार्थं प्रभूतान्देवायुः कामान् हारयन्तीति सूत्रार्थः।। संप्रति व्यवहारोदाहरणमाह / / जहा य तिण्णि वणिया, मूलं चित्तूण निग्गया। एगो तत्थ लहइ लाभ, एगो मूलेण आगओ // 14 // Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरब्भ 852 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरब्भ एगो मूलं पिहारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ।। ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह॥१५॥ माणुस्सत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे / / मूलछेएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धुवं / / 16 / / यथेति प्रागवत्। चः प्रतिपादितदृष्टान्तापेक्षया समुच्चये। त्रयो वणिजः प्रतीता मूलराशिं नीविमिति यावत् गृहीत्वा निर्गताः स्वस्थानात् स्थानान्तरं प्रति प्रस्थिताः प्राप्ताश्चा समीहितस्थानम् / तत्र च गतानामेको वणिक्कलाकुशलोऽत्रैतेषु मध्ये लभते प्राप्नोति लाभ विशिष्टद्रव्योपचयलक्षणम् / एकस्तेष्वेवान्यतरो यस्तथा नातिनिपुणो नाप्यत्यन्तानिपुणः स (मूलेणत्ति) मूलधनेन यावद्-- गृहानीतं तावतैवोपलक्षित आगतः स्वस्थान प्राप्त इति सूत्रार्थः। तथा (एगो सूत्रम) एकोऽन्यतरः प्रमादपरोद्यूतमद्यादिष्वत्यन्तमा-सक्तचेता मूलमप्युक्तरूपं हारयित्वा नाशयित्वा गतः प्राप्तः स्वस्थानमित्युपस्कारः / एवं सर्वत्रोदाहरणसूचायां सोपस्कारता द्रष्टव्या। तत्र तेषु मध्ये वणिगेव वाणिजः अत्रच संप्रदायः "जहा एगस्सवाणियगस्स तिषिण पुत्ता तेण तेसिंसहस्सं दिणं काहावण्णाणं भणिया या एएण ववहरिऊण एत्तिएण कालेण एजह ते तं मूलं घेत्तूणं निग्गया सनयराउ विविधविधेसु पदृणेसु ठिया तत्थेगो भोयणछायणवजं जूयमज्जमंसवेसावसणविरहितो विहीए ववहर-माणो विपुललाभसंपुण्णो जातो / वितितो पुण मूलमवि वितो लाभगं भोयणछायणमल्लालंकारादिसु उवभुजति णय अचादरेण ववहरति / तइओ न किंचि ववहरइ केवलं जूयमंसवेसगंधमल्लतंबोलसरीरकिरियासु अप्पेणेव कालेण तं दव्वं निट्ठवियं ते य जहावहिका-तस्स सपुरआगया तत्थ जो छिण्णमूल्लो सो सव्वस्स असामी जातो पेसए व उवचरिजति। वितिओघरवावारे विउत्तो भत्तपत्तिसंतुट्ठोण दातव्वभोत्तव्ये सु च सायति। ततिओ घरवित्थरस्स सामी जातो के वि पुण कहिति तिण्णि वि वाणियगा पत्तेयं 2 ववहरंति / तत्थेगो छिण्णमूलो पसत्तणमुवगतो केण वा संयवहारं करेउ अच्छिण्णमूलो पुणरविवाणिज्जाए भवति / इयरो वंधुसहितो मोदते एस दिटुंतो'' संप्रति सूत्रमनुश्रियते व्यवहारे व्यवहारविषया उपमा दृष्टान्तः। एषाऽनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणन्यायेन धर्मे धर्मविषयामेना मेवोपमा विजानीत अवबुद्ध्य यूयमिति सूत्रार्थः। कथमित्याह।। (माणुसत्तं सूत्रम्) मानुषत्वं मनुजत्वं भवेत्स्यात् मूलमिव मूलं स्वर्गापवर्गात्मकतुदुत्तरोत्तरलाभहेतुतया तल्लाभ इव लाभो मनुजगत्यपेक्षया विषयसुखादिभिर्विशिष्टत्वाद्देवगतिर्देवत्वावाप्तिर्भवेत् एवं च स्थिते किमित्याह / मूलच्छेदेन मानुषत्वगतिहान्यात्मकेन जीवानां प्राणिनां नरकतिर्यक्त्वं तिर्यक्त्वं च तद्गत्यात्मकं धुव्र निश्चितम् इहापि संप्रदायः / "तिण्णि संसारिणो सत्तमाणुसे आयाता तत्थेगे | मद्दवजवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो काल काऊण काहावणस्स मूलत्थाणीयं तमेव माणुसत्तं पडिलभति / वितिओ पुण सम्मदंसणचरित्तगुणेसु ठितो सरागसंजमेण लद्धलाभवणिय इव देवेसु उववण्णो / ततितो पुण हिंसे वाले मुसावाती इचेतेहिं पुटवभणिएहिं सावजजोगेहिं वढिओ छिण्णमूल-वणिय इव नरगेसु तिरिएसु वा उववञ्जति इति सूत्रार्थः / / यथा मूलच्छेदेन नारकतिर्यक्त्वप्राप्तिस्तथा स्वयं सूत्रकृदाह। दुहाउ गई बालस्स, आवई वहमूलिआ। देवत्तं माणुसत्तं च, जं जिए लोलुया सढे / / 17 / / तओ जिएसई होइ, दुविहं दुग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अद्धाएसु चिरादवि।।१८|| एवं जीयं स पेहाए, तुलिया वालं च पंडियं / मूलियं ते पवेसंति, माणुस्सं जो णिमंति जे // 16 // द्विधा द्विप्रकारा गम्यत इति गतिः सा चेह प्रक्रमानरकगतिस्तिर्यग्गतिश्च / कस्येत्याह बालस्य द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यामाकलितस्य (आगइत्ति) आगच्छत्यापतति / बधः उपलक्षणत्वान्महारम्भमहापरिग्रहानृतभाषणमायादयश्च मूलं करणं यस्याः सा वधमूलिका। यदि वा द्विधा गतिलस्य भवतीति गम्यते। तत्र च तस्य (आवइत्ति) आपत्सा च कीदृशीत्याह ।बधो विनाशस्ताडनं वा मूलमादिर्यस्याः सा बधमूलिका / मूलग्रहणाच्छेदभेदातिभारारोपणादिपरिग्रहः / लभन्ते हि प्राणिनो नरकतिर्यक्षु विविधा बधाद्यापदः / किमित्येवमत आह देवत्वं देवभवं मानुषत्वं च मनुजभवं यास्माजितो हारितो (लोलयासत्थेत्ति) लोलता पिशितादिलाम्पट्यं तद्योगाज्जन्तुरपि तन्मयत्वख्यापनार्थ लोलतेत्युक्तः / शाठ्ययोगाच्छठः विस्वस्तानां वञ्चकस्ततो लोलता चासौ शठश्च लोलताशठः / पञ्चेन्द्रिय बधाधुपलक्षणतया च नरकहेत्वभिधानमेतत् यदुक्तं 'महारभयाए परिग्गहयाए कुणिमाहारण पंचिंदियवहेणं जीवा निरयाउयं नियच्छति' "शठइत्यनेन तु शाठयमुक्तं तच तिर्यग्गतिहेतुरुक्तं च""माया तैर्यग्योनस्येति" अतश्चायमाश-यो यतोऽयं वालो लोलताशठस्ततो नरकतिर्यग्गतिनिबन्धाभ्यां लोलताशठाभ्यां देवत्वमनुजत्वे हारितस्यास्योक्तरूपाद्विधैव वतिः संभवत्येवं मूलच्छेदेन जीवानां नरकतिर्यक्त्वमुच्यते। मूल हि मनुष्यत्व लात्रश्च देवत्वमुभयोरपि तयोहरिणादिति सूत्रार्थः / पूवर्मूलच्छेदमेव समर्थयितुमाह। (ततोजिएत्ति) ततो देवत्वमानुपत्यजयात् को वा बालः (जिएत्ति) व्यवच्छेदफलत्वाद्वाववस्य जितएव सततं सदा भवति द्विविधा नरकतिर्यगभेदात्तां द्विभेदां दुनिन्दायां दुष्टा निन्दिता गतिर्दुगतिस्तां गतः प्राप्तः सदा जितत्वमेवा भिव्यनक्तिं दुर्लभा दुष्प्रापा तस्येति देवमनुजत्वे हारितवतो बालस्य (उम्मुग्गत्ति) सूत्रत्वात् उन्मजनमुन्मजा नरकगतितिर्य-गति निर्गमनात्मिका स्यादेतचिरतरकालेनोन्मजास्य भविष्यत्यतआह अद्धायां काले अर्थादागामिन्यां किंस्वल्पायामेवेत्याह / सुचिरादपीत्यद्धा शब्देनैव कालाभिधानात् सुचिराच्छब्दः प्रभूतत्वमाह / ततोऽयमर्थोऽनागताद्धायां प्रभूतायामपि बाहुल्याचेत्थमुक्तमन्यथा हि केचिदेकभवेनैव तत उद्धृत्य मुक्तिमप्याप्नुवन्त्येवेति सूत्रार्थः / इत्थं पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्यानमिति पश्चादुक्ते ऽपि मूलहारिण्युपनयमुपदर्थ्य मूलप्रवेशिन्यभिधातुमाह / यद्वा विपक्षा पायात्तज्ज्ञानत एवोपादेयप्रवृत्तिरिति पश्चादुक्तमपि मूलहारिणमादावुपदर्येदमाह (एवं सूत्रम्) एवमुक्तनीत्या (जियेत्ति) सुब्वयत्य-याजितं लोलतया शान्येन च देवमनुजत्वे हारितं वालमिति प्रथमतः (सपेहाएत्ति) संप्रेक्ष्य सम्यगालोच्यतथा तोलयित्वा गुणदोषवत्तया परिभाव्य यदि चैवं जित सम्यगविरीता प्रेक्षा बुद्धिः संप्रेक्ष्यतया तोलयित्वा क बालं चस्य भिन्नक्रमत्वात्पण्डितं तद्विपरीतमर्थान्मनुष्यदेवगतिमामिनमिह च द्वितीयायां व्याख्यायामेवं जितमिति बालस्स विशेषणम् नतु पण्डितस्यासंभवात् / तथा च सति मूलं भवं मौलिक मूलधनं ते प्रवेशयन्ति मूलप्रवेशकवणिक्सदृशास्त इत्यभिप्रायो ये किमि Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरब्म 853 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उरब्भ त्याह (माणुस्सत्ति) मनुष्याणामियं मानुषी तां योनिमुत्पत्तिस्थानमायान्त्यागच्छन्ति बालत्वपरिहारेण पण्डितत्वमासेवमाना येते इति सूत्रार्थः / / यथा च मानुषीं योनिमायान्ति तथाहवेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया। उति माणुसं जोणिं, कम्मसचा हु पाणिणो // 20 // जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अ इत्थिया॥ सीलवंतास विसेसा, अदीणा जंति देवयं // 21 // एवं अदीणयं भिक्खु, अगारिं च वियाणिया / / कहण्ण जिच मेलिक्खं, जिचमाणान संविदे / / 22 / / त्रिविधा मात्रा परिमाणमासां विमात्रा विचित्रपरिमाणास्ताभिः परिमाणविशेषमाश्रित्य विसदृशीभिः शिक्षाभिः प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासरूपाभिरुक्तंहि "चउहि ठाणेहिं जीवा मणुयाउयं बंधंति तंजहा पगतिभद्दयाए पगतिविणिययाए साणुक्कोसयाए अमच्छरियाएत्ति' ये इत्यविवक्षितविशेषा नराः पुरूषा गृहिणश्व गृहस्था सुव्रताश्च धृतसत्पुरुषव्रतास्ते हि प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासानुभावत् एव न विपद्यपि विषीदन्ति सदाचारं वा अवधीरयन्तीत्यादिगुणान्विता इदमेव च सतां व्रतं लौकिका अप्याहुः / विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं हि महता, प्रिया न्याय्या वृत्तिमलिनमसुमङ्गेऽप्यसुकरम्। असन्तो नाभ्याः सुहृदपि न वाच्यस्तगुधनः, तता केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् // इति आगमविहितव्रतधारणं त्वनीषाभसंभविदेवगतिहेतुतयैव तदभिधानात्त ईदृशाः किमित्याह (उविंतित्ति) उपयन्ति (माणुसंति) मानुषीं मानुषसंबन्धिनी योनिमुक्तरूपां कर्मणा मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन सत्या अविसंवादिनः कर्मसत्यः / हुरवधारणे ततः कर्मसत्या एव सन्तस्तदसत्यतया तिर्यग्योनिहेतुत्वेनोक्तत्वात् / तथा च वाचकः "धूर्ता नैकृत्तिकाः स्तब्धा, लुब्धाः कार्पटिकाः शठाः / विविधां ते प्रपद्यन्ते, तिर्यग्योनि दुरुत्तरा" मित्यादि पाठान्तरतश्च कर्मस्वर्थान्मनुष्यगतियोग्यक्रियारूपेषु शक्का अभिष्वङ्गवन्तः कर्मशक्ताः प्राणिनो जीवा इह च नरग्रहणे सति प्राणिग्रहणं देवादिपरिग्रहार्थमिति न पुनरुक्तम् यदि वा विमालाभिः शिक्षाभिर्ये नरा गृहिणः सुव्रता यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्ते मानुषीं योनिमुपयान्ति किमित्येवमत आह (कम्मसच्चाहुपाणिणोत्ति) हु शब्दो यस्मादर्थे यस्मात्सत्यान्यबन्ध्यफलानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि येषां ते सत्यकाणः प्राणिनो निरुपक्रमकमपेिक्षं चैतदिति सूत्रार्थः। संप्रति लब्धालाभोपनयमाह (जेसिंसूत्र) येषां तु पुनर्विपुलानि शङ्कितत्वादिसम्यक्त्वाचाराणुव्रतमहाव्रतादिविषयत्वेन विस्तीर्णा शिक्षा ग्रहणासेवनात्मिकास्तीति गम्यते / मूले भवं मौलिकं मूलधनमिव मानुषत्यं ते य एवं विधाः (तिउड्डियत्ति अतिट्टियत्तिअतिच्छियत्ति) पाठत्रयेऽपि अति क्रान्ता उल्लचितवन्त इत्यर्थः / यद्वा अतिक्रम्यो-ल्लङ्ग्य कीदृशाः सन्तः शीलं सदाचारोऽविरतसम्यग् दृशां विरतिमतां तु देशसर्वाविरमणात्मकं चारित्रं तद्विद्यते येषां ते शीलवन्तः / तथा सह विशेषेण उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तिलक्षणेन वर्तन्त इति सविशेषाः अत एवादीनाः कथं वयममुत्र भविष्याम इति वैक्लव्यरहिताः परीषहोपसर्गादिसंभवे वा न दैन्यभाज इति अदीना यान्ति प्राप्नुवन्ति ते / देवभावो देवता सैव दैवतं नतु तत्वतो मुक्तिगतिरेव लाभस्तत्किमिह तत्परिहारतो देवगतिरुक्तेत्युच्यते / सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वान्मुक्तेश्चेदानीं विशिष्टसंहननाभावतोऽ भावाद्देवगतेश्च "छेवट्ठण उगम्मत्ति चत्तारि उजाव आदिमा कप्पा'' इति वचनाच्छेदपरिवर्तिसंहननिनामिदानींत नानामपि संभवादेव मुक्तमिति सूत्रार्थः / / प्रस्तुतमेवार्थ निगमयन्नुपदेशमाह / (एवं सूत्रम्) एवममुना न्यायेन लाभान्वितम् (अदीणवत्ति) दीडः क्तवतौ दीनवन्तंन तथा दीनवन्समदीनं दैन्यरहितमित्यर्थो भिक्षु यतिमगारिणं च गृहस्थं विज्ञाय विशेषेण तथाविधशिक्षावशाद्देवमनुजगति गामित्वलक्षणेन ज्ञात्वाऽवगम्य यतमान इति शेषः / कथं केन प्रकारेण न कथंचिदत्यर्थो नु वितर्के (जिचंति) सूत्रत्वाञ्जीयेत हार्येत विवेकी तत्प्रतिकूलै : कषायो दयादिभिरिति गम्यते / ईदृक्षमनन्तरोक्तं देवगत्यात्मक लाभ (जिचमाणोत्ति) या शब्दस्य गम्यमानत्वाजीयमानो वा हार्यमामाणस्तैरेव कषायादिभिन्न संवित्ते सूत्रत्वान्न संवेत्ति न जानीते यथाहमेभिर्जीय इति / कथं न्वितीहापि योज्यते ततोऽयमर्थः कथं नु संवित्ते एव जानीते एवज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया चतन्निरोधं प्रति प्रवर्तते एवेत्येवं च वदन् काक्वोपदिशति यत एवं ततो यूयमप्येवं जानाना यथा न देवगतिलक्षणं लाभं जीयध्वं काषायादिभिस्तथा यतध्वं कथंचिज्जीयमानाश्च सम्यग्विज्ञाय तत्प्रतीकारायैव प्रवर्तध्वमिति / यद्वा एवमदी-नवन्तं भिक्षुमगारिणं च लब्धलाभ विज्ञाय यतमानो कथं नु जीयन्ति आर्षत्वात् जीयते हार्यते अतिरौद्रैरिन्द्रियादिभिरात्भातदिति जेयं तच्चेह प्रक्रमान्मानुष्यदेवगतिलक्षणं (पलिक्खंति) सुब्व्यत्ययादीदृक्षोऽभिहितार्थाभिज्ञः कथं नुजीयमानो न संवित्तेऽपितुसं-वित्त एवं संविदानश्च यथा न जीयते तथा यतेतेत्यभिप्रायोऽथ चैवमदीनवन्तं भिक्षुमगारिणं च लब्धलाभं विज्ञाय यतमान कथं नु (जिचंति) आर्षत्याज्जीयते हार्यत विषयादिभिरिति गम्यते / ईदृक्षं देवगतिलक्षण लाभमिति शेषः / अयमाशयो यदि लभमानान विज्ञाताः स्युलाभो वान तथाविधस्तदा जयनमपि स्याद्यदा तु लभमानौ भिक्ष्वगारिणौ दृश्येते लाभश्च देवत्वलक्षण स्तदा कथमयं जानानोऽपि जन्तुर्जीयते यत आह जीयमानो न संवित्ते / किमुक्तं भवति / यदासौ जीयमानो जानीयात्तदा तदुपायपरतया न जीयेत यदा त्वसौ विषयव्यामोहतो न जानीते तदा जीयत एवेति किमत्र चित्रमिति सूत्रार्थः। समुद्रदृष्टान्तमाह। जहा कुसग्गे उदयं, समुद्देण समं मिणे। एवं मणुस्सया कामा, देवकामाण अंतिए॥२३॥ कुसग्गमत्ता इमे कामा, संनिरुद्धम्मि आउए। कस्स हेउं पूरा काउं, जोगक्षेमं न संविदे // 24|| इह कामा नियट्टस्स, अत्तट्टे अवरज्झइ।। सोचा नेयाउयं मम्ग, जं भुजो परिभस्सई॥२६|| यथेति दृष्टान्तोपन्यासेकुशोदर्भविशेषस्तस्याग्रंकोटिः।कुशाग्रतस्मिन्नुदकं जलं तत् किमित्याह समुद्रेणेति तात्स्थ्यात्तव्यप-देश इति न्यायात्समुद्रजलेन समतुल्यं मिनुयात्परिच्छिन्द्यात्। तथा किमित्याहएवमुक्तनीत्या मानुष्यका मनुष्यसंबन्धिनः कामा विषया मनुष्यविशेषणंतु तेषामेवोपदशाहत्वाद्विशिष्टभोगसंभवाच। देवकामानां दिव्यभोगानामन्तिके समीपे कृता इति शेषः / दूरस्थितानां हितं सम्यगवधारणमित्येवमाह / किमुक्तं भवति / यथाऽज्ञः कश्चिकुशाग्रस्थितं जलविन्दुमालोक्य समुद्रवन्मन्यते एवं मूढाश्चक्रवर्त्यादिमनुष्यकामान् दिव्यं भोगोपमानध्यवस्यन्ति तत्वतस्तु कुशाग्रजलविन्दोरिव समुद्रान्मनुष्यकामानां दिव्यभागेभ्यो महदेवान्तरमिति सूत्रार्थः। उक्तमेवार्थ निगमयन्नुपदेशमाह। (कुसमेत्तत्ति) कुशाग्रशब्दन कुशाग्रस्थितो जलबिन्दुरुपलक्ष्यतेतन्मात्रस्तत्परिमाण इमे इति प्रत्यक्षाः कामाः प्रकृतत्वात् मनुष्यविषयाः कदा ये इत्याह / सविरुद्धेऽप्यन्तसंक्षिप्ते यद्वा सममेकीभा Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरब्म 854 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उररी वेन निरुद्धेऽध्यवसानादिभिरुपक्रमणकारणैरवष्टब्धे आयुषि जीवितेन इड्डीजुइजसोवन्नो, आउं सुहमणुत्तरं॥ मनुष्यायुषोऽल्पतया सोपक्र मतया वा कामानामप्यल्पत्वमुक्त भुञ्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उवज्जइ॥२७|| समृद्धाद्यल्पतोपलक्षणं चैतदस्मिंस्त्वर्थे उक्ते दिव्यकामास्तु ऋद्धिः कनकादिसमुदयो , द्युतिः सरीरकान्ति, र्यशः पराक्रमकृता जलधिजलतुल्या इत्यर्थाद् गम्यते (कस्सहेउंति) सूत्रत्वात् कं-हेतुं प्रसिद्धिर्वर्णो गाम्भीर्यादिगुणैः श्लाघा गौरादिर्वा 1 आयुजीवितम, सुखं कारणं (पुराकाउंति)तत एव पुरस्कृत्याश्रित्य अलब्धस्य लाभो योगो यथेप्सितविषयावाप्तावालादो, न विद्यते उत्तरं प्रधानमस्मालब्धस्य च परिपालनं क्षेमोऽनयोः समाहारे योगक्षेम् / दित्यनुत्तरमिदं च सर्वत्र योज्यते / भूयः पुनर्देवभवापेक्षमेतत्तत्राकोऽर्थोऽप्राप्तविशिष्टधर्मप्राप्तिं प्राप्तस्य च परिपालने न संवित्ते न जानीते प्यनुत्तराण्येव तान्यस्य संभवति / यत्र येषु मनुष्येषु मनुजेषु तत्र तेषु जन इति शेषस्तदसंवित्तौ हि मनुष्यविषयाभिष्वङ्ग एव हेतुस्ते च धर्म (सेत्ति) सः अथशब्दार्थो वा ततोऽनन्तरमुत्पद्यते जायत इति गाथार्थः। प्राप्य दिव्यभोगापेक्षयैवप्रायास्तत एव तत्यागतो विषयाभिलाषिणोऽपि एवं कामानिवृत्त्या यस्यात्मार्थोऽपराध्यति स बाल इतरस्तु पण्डित धर्म एव यतितव्यमित्याभिप्रायः / यद्वा यतः कुशागमात्रा इत्यर्थादुक्तम् / संप्रति पुनरनयोरेव साक्षात् स्वरूपं फल दर्भप्रान्तवदत्यल्पा इमे कामास्तेऽपि न पल्योपमा-दिपरिमितौ चोपदोपदेशमाह॥ द्राघायस्यायुषि किंतु सन्निरुद्ध संक्षिप्ते आयुषि ततः (कस्सहेउंति) बालस्स पस्स बालत्तं, अहम्म पडिवञ्जियो / / कस्माद्धेतोः पुरस्कृत्येव पुरस्कृत्य मुख्यतयाङ्गी-कृत्य असंयममिति चचा धम्म अहम्मिटे, नरएसु उववज्जइ // 28|| शेषो योगक्षेममुक्तरूपं न संवित्ते / भावार्थस्त्व-भिहित एवेति सूत्रार्थः / धीरस्स पस्स धीरतं,सव्वधम्माणुवत्तणो / इत्थं दृष्टान्तपञ्चकमुक्तम् - तत्र प्रथममुरभ्रदृष्टान्तेन भोगानामायतावपायबहुलत्वमभिहितमायतौ चापायबहुलमपि यन्न तुच्छंन तत्परिहर्तु चचा अहम्मं धम्मिटे, देवेसु उववज्जइ ||26|| शक्यत इति / काकण्यामफलदृष्टान्ततस्तुच्छत्वं तुच्छमपि च तुलियाणबालभावं, अंबालं चेव पंडिए।। लाभच्छेदात्मकव्यवहारविज्ञतयाऽऽयव्ययतोलनाकुशल एव हातुं शक्त चइऊण बालभावं, अबालं सेवए मुणे // 30 // इति / वणिगव्यवहारोदाह-रणमायव्ययतोलनापि च कथं कर्तव्येति बालस्याज्ञस्य पश्यावधारय बालत्वमज्ञत्वं किं तदित्याह अध-म समुद्रदृष्टान्तस्तत्र हि दिव्यकामानां समुद्रजलोपमत्वमुक्तं तथा च धर्मविपक्षं विषयासक्तिरूपं प्रतिपद्याभ्युपगम्य पठ्यते च तदुपार्जनं महानायो-ऽनुपार्जनं तु महान्त्र्यय इति तत्वतो दर्शितमेव (पडिवज़िणोत्ति) प्रतिपादिनोऽवश्यं प्रतिपद्यमानस्य त्यक्त्वाऽपहाय भवति। इह च योगक्षेमासंवेदने कामो निवृत्त एव भवतीति तस्य दोषमाह धर्म विषयनिवृत्तिरूपं सदाचारम् / (अहम्मिट्ठत्ति) प्राग्वन्न-रके (इहेति सूत्रम्।) इहेति मनुष्यत्वे जिनशासने वा प्राप्ते इति शेषः / सीमन्तकादावुपलक्षणत्वादन्यत्र वा दुर्गतावुत्पद्यते। तथा धीर्बुद्धिस्तया कामेभ्योऽनिवृत्तोऽनुपरतः कामानिवृत्तः तस्य आत्मनोऽर्यः राजत इति धीरो बुद्धिमान् परीषहाद्यक्षोभ्यो वा धीरस्तस्य पश्य प्रेक्षस्व आत्मार्थोऽर्थ्यमानतया स्वगादिः अपराध्यत्यनेकार्थत्वाद्धातूनां धीरत्वं धीरभावं सर्वं धर्म क्षान्त्यादि-रूपमनुवर्तते तदनुकूलाचारतया नश्यति / यद्वा आत्मैवार्थ आत्मार्थः स एवापराध्यति नान्यः स्वीकुरुत इत्येयं शीलोयस्तस्य सर्वधर्मानुवर्त्तिनो धीरत्वमेवाह कश्चिदात्मव्यतिरिक्तोऽर्थः सापराधो भवति उभयत्र दुर्गतिगमनेनेति त्यक्त्वा हित्वा अधर्मं विषया-भिरतिरूपमसदाचार (धम्मिट्टित्ति) भावः। आह विषयवाञ्छाविरोधिनि जिनागमे सति कथं कामानि- इष्टधा यदि वाऽतिशयेन धर्मवानिति इष्टनिविन्यतोटुंमिति मनुष्लोगे वृत्तिसंभव उच्यते श्रुत्वाऽऽकर्ण्य नैयायिकं न्यायोपपन्न मार्ग सन्यग- धर्मिष्ठ इति देवेषूत्पद्यते। यतश्चैवमतो यद्विधेयं तदाह तोलयित्वेति प्राग्वत्। दर्शनादिकं मुक्तिपथं यद्यस्माद् भूयः पुनः परिभ्रस्यति कामान्निवर्तित बालभावं बालत्वम् / (अबालत्ति) भावप्रधानत्वान्निर्देशस्यबालधीरत्वं इति शेषः / कोऽभिप्रायोजिनागमश्रवणात् कामनिवृत्तिप्रतिपन्नोऽपि चः समुच्चये (एवेति) प्राकृतत्वादनुस्वारलोप एवमनन्तरोक्तप्रकारेण गुरुकर्मत्वात्प्रतिपतति ये तु श्रुत्वाऽपि न प्रतिपन्नाः श्रवणं येषां नास्ति पण्डितो बुद्धिमान् त्यक्त्वा बालभावं बालत्वम् (अबालंति) अबालत्वं तेकामनिवृत्ता एवेति भावः। यद्वा यदसौ कामानिवृत्तः सन् श्रुत्या नैयायिक सेवते अनुतिष्ठति मुनिर्यतिरिति सूत्रत्रयार्थः / उत्त०८ अ०। (थूलं उरभं मार्ग भूयः परिभ्रस्यति मिथ्यात्वं गच्छति तदस्यात्मार्थ एय इह मारियाण, उद्दिभत्तं च पगप्पएता / तं लोण तेल्लेण उवक्खडेत्ता गुरुकर्माऽपराध्यति अनेन मा भूत्वचित् मूढस्य सिद्धान्तमधीत्याप्यु- सपिप्पलीयं पगरंति मंसं " इति शाक्यमतम् / अद्दगकुमार शब्दे त्पथपस्थितान् विलोक्य सिद्धान्तएव द्वेष इति तदनपराधित्यमुक्तंपठ्यते व्याख्याम) उगल्याम्, आ०म०द्वि०।। च "पत्तो नेयाउयंति" स्पष्ट-मिति सूत्रार्थः / / उरब्भपुडसपिणभा स्त्री०(उरभ्रपुटसन्निभा) उरभ्रऊरणस्तस्य पुटं यस्तु कामेभ्यो निवृत्तस्तस्य गुणमाह // नासापुटं तत्सन्निभा तत्सदृशी (मेषस्येव नासायां) "उरब्भपुडइह कामनियत्तस्स, अत्तट्टे नावरज्झइ।। संण्णिभा से नासा''। उपा० 10 // पूइदेहनिरोहेणं, भवे देव त्ति मे सुयं // 26|| उरभरुहिर न०(उरभ्ररुधिर) उरभ्र ऊरणस्तस्य रुधिरम् / मेषरक्ते, इह कामेभ्योऽपि निवृत्तस्यात्मार्थः स्वर्गादिनापराध्यति न भ्रस्यति | तद्धि अतिशोणितं भवतीति रोहितवस्तु तेनोपमीयते। जी०३प्रति०।। आत्मलक्षणो वार्थो न सापराधो भवति किं पुनरेवं यतः पूतिः कुथितो | उरब्भिय न०(उरभ्रिय) उरभ्रादिपञ्चदृष्टान्तमये सप्तमे उत्तरा ध्ययने,। देहोऽर्थादौदारिकशरीरं तस्य निरोधोऽभावः पूतिदेहनिरोधस्तेन भवेत् उत्त०। (उरब्भ शब्दे व्याख्यातम्)। स्यात् प्रकृतत्वात् कामनिवृत्तो देवः सौधर्मादिनिवासी सुरः *औरम्रिक पुं० उरभ्रा ऊरणकास्तैश्चरति यः स औरभ्रिकः उरभ्रस्य उपलक्षणत्वात्सिद्धो वा इतीत्येतन्मया श्रुतमाकर्णितं परमगुरुभ्य इति ऊर्णया तन्मांसादिना वात्मानं वर्त्तयति, "उरभं वा अणतरं तसं पाणं गम्यते / अनेन स्वर्गाद्यवाप्तिरात्मार्थानवपराधे निमित्तमुक्तमिति हंता जाव' / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सूत्रार्थः / / उरय पुं०(उरज) गुच्छभेदे। प्रज्ञा०२ पद। ततश्च यदसावाप्नोति तदाह / / उररी (देशी) पशौ, देवना०। Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरलदुग 885 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उल्लंघण उरलदुगन०(औदारिकद्विक) औदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्ग-नाम्नोः | उरोविसुद्ध न०(उरोविशुद्ध) गेयशुद्धिभेदे,यदि उरसि स्वरः स्वद्विकम् / औदारिकौदारिकमिश्रकाययोगयुगले, "उरलदुगकमपढमति | भूमिकानुसारेण विशुद्धं भवति तत् उरोविशुद्धम् , रा०। मम णवइ केवलदुगम्मि'' कर्म०॥ उलिअ (देशी) निकूणिताक्षे, दे० ना०। उरलविणु अव्य०(औदारिकविना) (प्राकृते समात इति प्रतीपते) उलित्त(देशी) उच्चस्थिते कूपे, दे० ना०1 औदारिकशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गं च विनेत्यर्थे, 'सुरदुगपणिदिसु उलुउंडिअ (देशी) प्रलुठिते, दे० ना०। खगइतसनवउरलविणुतणुवंगा" कर्म०॥ उलुकसिअ (देशी) पुलकितार्थे ,दे० ना०। उरसिरमुद्दबद्धकं ठतोण त्रि०(उरःशिरोमुखबद्धकण्ठतोण) उरसा उलुखंड (देशी) उल्मुके, दे० ना०। वक्षसा सह शिरोमुखा ऊर्द्धमुखाबद्धायन्त्रिता कण्ठे गले तोणास्तोणीराः उलु(लू)गपुं०(उलूक) बलसमवाये उक्संप्रसारणम् ऊर्द्धकर्णः उलूकः / शरधयो यैस्ते उरःशिरोमुखबद्धतोणाः।बद्धतुणीरे, प्रश्न०अ०३ द्वा०। अनु० / सूत्र० / कौशिके,आ०म०। जातित्वात् स्त्रियां डीष् वाच० / उरसी स्त्री०(उरसी) गुच्छभेदे, / प्रज्ञा०१ पद। वैशेषिकशास्त्रप्रणेतरि कणादमुनौ च। उरसुत्तिया स्त्री०(उरःसूत्रिका) मुक्ताहारे, अमरः / जं०। दोहिं विणएहिं पिणीयं,सत्थमुलूएण वहविमिच्छत्तं / उरस्सपुं०(उरस्य) उरसैकादि०क्यत्। वक्षसैकदेशगते, पुत्रेचा उरसि जं सव्वसि अप्पहाण-तणेण अणोरयणिक्खेक्खा।। भवम्। आन्तरे, रा०। द्वाभ्यामपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां प्रणीतं शास्त्रमुलूकेन उरस्सवलन०(उरस्यवल) उरसि भवमुरस्यंतच तद्वलंच उरस्यबलम्। वैशेषिकशास्त्रप्रमाणेत्रा द्रव्यगुणादेः पदार्थषट्कस्य नित्यैकान्तरूपस्य आन्तरोत्साहे, / अनु०।शारीरबले च। सूत्र०१ श्रु०८ अ०) तत्र प्रतिपादनात् / तदेवोक्तं भगवता परमाषणोलूक्येन गुणो उरस्सबलसमण्णागय त्रि०(उरस्यबलसमन्वागत) उरस्यबलं भावगुणत्वमुक्तम्। सम्म०। आ०म०विशे० आचा०॥ (विसेसियशब्दे समन्वागतः समनुप्राप्तः / आन्तरोत्साहवीर्य्ययुक्ते, / रा० अनु० / समग्रं मतम्) आ०म० प्र०॥ उलु(लु) गच्छि पुं०(उलुकाक्ष) उलूको घूकस्तस्येवाक्षिणी यस्य स उ(ओ)राल त्रि०(उदार) उत् प्राबल्येन आरो येषां ते उदाराः ऊर्द्ध उलुकाक्षः / कौशिकसदृशलोचने, बृ०४ उ० / नि० चू० (उलूगमनस्वभावेष, प्रबलशक्तिषु च। जी०५ प्रतिकारा०/जं० आ०म० काक्षदृष्टान्तो दुट्टशब्दे) प्र० दशा०। प्रधाने, भ०२ श०१उ०। ज्ञा०। नि०। शोभने, सूत्र०१ उलु(लू)गपत्तलहुय त्रि० (उलूकपत्रलधुक ) उलूकपत्रवल्लववः श्रु०६ अ०। अत्युदद्भुते, चं०२० पाहु० "तेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेणं" कौशिकपिच्छवल्लीघीयसि / "उलुगपत्तलहुया पवयगुरुया ते उरालेन आशंसारहिततया प्रधानेन प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह आयरिया"। सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ विपुलेन"भ०२ श०१ उ०॥""उग्गतवे दित्ततवे महातवे उराले घोरे उलु (लू)गी स्त्री०(उलूकी) पोताकी प्रतिपक्षभूतायामूलावकाघोरगुणे तवस्सी घोरबंभचेरवासी" उदारः प्रधानोऽथवा उरालो भीषाः प्रधानायाम परिव्राजकमथिन्यां विद्यायाम् , विशे० / आ० म०। उग्रादिविशेषणविशिष्टतपः करणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्वानां भयानक उलुफुटीअ (देशी०) विनिपाते, प्रशान्ते,देना० / / इत्यर्थः / सू०प्र० 1 पाहु० / जं० औ चं० रा० वि०। "उरलाहि उलुहंत (देशी०) काके, दे०ना०॥ वग्गुहि" उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च / भ०२ श०१उ०। उदाराभिः सुन्दरध्वनिवर्णसंयुताभिः कल्प० / उदाराभिरुदारनादवर्णोचारादि उलुहलिय (देशी) तृप्तिरहिते, देना। मुक्ताभिः। ज्ञा०१ अ० ज०। विस्तराले विशाले, च / स्था०५ ठा०॥ उल्मुक (देशी०) निकरे, वस्त्रे, देना० शरीर-भेदे, न०। उदारं प्रधानं प्राधान्यं च तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया उल्ल त्रि०(आर्द्र) अर्द-रक्-दीर्घश्च प्राकृते 'उदोद्वाऽऽर्द्ध' आर्द्रशब्दे ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् / यद्वा उदारं आदेरात् उदोच वा भवतः / उल्लं / ओल्लं / पक्षे अल्लं अहं / प्रा० सतिरेकयोजनसहसमानत्वात्तेषां शरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं बृहता चास्य जलमिश्रिते, पिं० / अशुष्के, द० 5 अ०१ उ०। बाहसलीलपवहेण वैक्रिय प्रतिभवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या इति व्युत्पत्तेः / उल्लेइं॥चाराचा प्रा०। प्रचुरव्यञ्जने,।"उल्लं वा जइ वा सुक्कं''। कर्म० / अनु०। द०५ अ०२ उ० वर्षणे, जीत०नि० चू०. उत्त०। उरालचरिय त्रि०(उदारचरित) सकलप्राणिषु समभावतया उदाराशये, उल्लंक पुं०(उल्लङ्क) काष्ठमये "वारके, उल्लंकओकट्ठमओवारओ' "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्'। षो०१ विव०॥ नि०चू०१२ उ०। उरु त्रि०(उरु) उणू-नुलोपो ह्रस्वश्च। विशाले, बृहति, वाचा विस्तीर्णे, उल्लंगच्छ पुं०(आर्द्रगच्छ) स्थविरादार्यारोहणात्कश्यपगोत्रान्नि-तिस्य “भमरोए'' भ्रमरोमावर्ता उरवो विस्तीर्णा यत्रस तथा ज्ञा०१ अ०। बहुले, उद्देहगणस्य तृतीये गणे, कल्प०। निरु०। उरोर्भावः पृथ्व्या० इमनिच् उरिमन्तदभाव पक्ष त्व उरुत्य न० उल्लंघणन०(उल्लङ्घन)सकृल्लङ्घने, भ०२२श०४ उ०। सहजात्या तल् उरुता, स्त्री०। अण, औरवम् न तद्भावे, वाच०। दिविक्षेपान्मनागधिकतरे, पादविक्षेपे, प्रज्ञा०३६ पद / द्वारार्गलाबरंडकादेरुद्ध लड्नने, भ०२५ श०७ उ०। देहल्यादेरुत्प्लवने, उरुपुल्ल (देशी) अपूर्वे, धान्यमिश्रे च। दे० ना०। स्था०१० ठा०। कर्दमादीनामतिक्रमणे, उल्लङ्घयति अज्ञानिनामय वा उरुमिल्ल (देशी) प्रेरितार्थे, दे० ना०। बालानां हास्याद्यावनयकर्तृणां भावयनस्वकीयमाचारमतिक्रामयतीति उरुसोल्ल (देशी) प्रेरितार्थे, दे० ना०। उल्लङ्घनः उत्त०१७ अ०।गाकर्तरिल्युट्बालादीनामुचितप्रतिपत्त्यर्थ उरो वित्थडा स्त्री०(उरोविस्तृता) वक्षप्रदेश, "उरो वित्थडाए करणतोऽधः कर्तरि, वत्स--डिम्भकादीनामुल्लङ्घनकर्तरि, "उल्लङ्कणे सिरेकण्णाए'' गलविवरस्य वर्तुलत्वात्। उपा०२ अ०। यचंडेय, पावसमणेत्ति वुचई" उत्त०८ अ०। Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लंछित्तए 856- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उल्लोयतल उल्लंचित्तए अव्य०(उल्लङ्घपितुम्) बाहुजवादिना सकृल्लङ्घनेन वा उल्लाव पुं०(उल्लाप) उद्-लप्-घञ्। काकुवर्णने यदाह। अनु–लापो पारं गन्तुमित्यर्थे , प्रति० / भ० 8 श०३३ उ० (वीइवयणशब्दे देवस्य मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। काक्कावर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं तिर्यगुल्लङ्घनम्) मिथः। भ०६ श०३३ उ०। औ०! ज्ञा० स्था०।"कंदप्पो अणिहिया य उल्लंडधा०(विरेचि) चुरा०विरेचेरोलुराडोल्लण्डपहुत्था||१४२६|| उल्ला वा पण्णत्ता / सूत्र०१ श्रु०१ अ० शोकरोगादिना इति विरेचेरुल्लण्डादेशः। उल्लण्डइ-विरेइ विरेच-यति। प्रा०। विकृतस्वरयुक्तवाक्ये, दृष्टवाक्ये, सूचनेच, ततो-सस्त्यर्थे ठन् सूचके, उल्लंडगपुं०(उल्लण्डक) मृदनिकायाम्, उल्लण्डका मुइगो लकाः / त्रि०वाच०॥ वृ०४ उ०। उल्लि पुं०(उल्लि) पनके, आव०४ अ०। स्था०। आचा०। उल्लंडित त्रि०(उल्लङ्घयत्) सकृल्लङ्घनं कुर्वति, ज्ञा०३ अ०॥ | उल्लिहिय पुं०(उल्लिखित) उद् लिख्-क्त / धृष्टे, 'कुंड ल्लिउल्लंबण न०(उल्लम्बन) वृक्षशाखादावुद्वन्धने, तद्रूपे शारीरदण्डे, स०। ___ हियगडलेहा' ज्ञा०१ अ०। औ० / रा०ा नि०। उल्लछगण पुं०(आर्द्रच्छगण) अशुष्कगोमये, वृ० (आर्द्रछगणदृष्टान्तो उल्ली (देशी०) तथेत्यर्थे , देना०॥ जिणकप्पियशब्दे निष्पत्तिद्वारे, स्पष्टीभविष्यति) उल्लुंटिअ (देशी०) संचूर्णिते, दे०ना०।। उल्लण त्रि०(उल्वण) उल् वणति-अच्- उत्कटे, प्रकाशान्विते, उल्लुक धा०(तुड) तोडने, तुडेस्तोड तुट्ट खुट्टखुडो क्खुडो क्खडोनतोन्नते, व्यक्ते, स्पष्ट, / वाच० / तीक्ष्णे, / अष्ट० / अवेद्यसंवेद्यपदं ल्लुक्कणिलुक्क लुक्को च्छराः ||8|4|16|| इति तुडेरुल्लुकादेशः / यस्मादासुतथोल्वणम्। पाक्षिच्छाया जलचर-प्रवृत्ताम्रमतः परम्। द्वा०। उल्लुक्कइ तुडइ तुडति। प्रा० // त्रुटिते, देवना०॥ आव०। उल्लुगा स्त्री०(उल्लुका)स्वनामख्यातायां नद्याम, तदुपलक्षिते जनपदे उल्लणग न०(उल्वणक) स्नानजलार्द्रशरीरस्य भूषणवस्त्रे, उपा०। च / उल्लुका नाम नदी तदुपलक्षितो जनपदो प्युल्लक / विशे० / उल्लणभोग पुं०(उल्वणभोग) क०स०। खिङ्गजनाचरिते वस्त्र आ०म०वि०! आ०का आ०चू०। स्था०। पुष्पादिभिर्देहसत्कारे, पंचा०२ विव०॥ उल्लुयातीर न०(उल्लुकातीर) उल्लुकानदीतीर वर्तिनि नगरे, यतः उल्लणियाविहि पुं०(आर्द्रनयनिकाविधि) जलार्द्रशरीरस्य जल प्रस्थितस्योल्लुकानदीमुत्तरतो गङ्गाचार्य्यस्य युगपच्छीतोष्णवेदभूषणविधौ, "तयाणंतरं चणं माणे उल्लाणिया विहिपरिमाणं करेइ नाद्वयमनुभवतो द्वैक्रियबुद्धिर्जाता ततो द्वैक्रियनिहवा उत्पन्नाः / उत्त०३ पणत्थ रागेणं गंधकासाईए अवसेसंसव्वं उल्लणियाविहिं पञ्चवखामि''। अ०। स्था०। आ०म०द्वि०। विशेष उपा०१ अ०(आणंदशब्दे सूत्रम्) तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयावि रायगिहाओ उल्लपडसाडिया स्त्री०(आर्द्रपटसाटिका) आर्द्रप्रावरणनिवस-नयोः णयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्ख"उल्लपडसाडिया पुक्खरिणी पच्चुत्तरइ" उपा०२ अ० मइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लभूमि स्त्री०(आर्द्रभूमि) अशुष्यन्त्यां भूमौ, "उल्लभूमीए उल्लुयातीरेणाम णयरे होत्था। वण्णओ तस्सणं उल्लुयातीअसुक्खमाणीए' नि०चू०१ उ०। रस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं एगजंउल्लयट्ठीमहुय न०(आर्द्रयष्टिमधुक) आर्द्र मधुररसवनस्पतिविशेषे, / / बुए णामं चेइए होत्था। वण्णओ तस्स णं तएणं समणे भगवं उपा०१अ०। महावीरे अण्णया कयावि पुव्वाणुपुब्दिं चरमाणे जाव एगजंबुए उल्लरय (देशी) कपभरणे, देवना०। समोसड्ढे जाव परिसापविगया भंतेत्ति / भ०१६श०३ उ०॥ उल्ललिय त्रि०(उल्ललित)"नाविंसणणिजिहिति उल्ललियं णवाए' उल्लुरुह (देशी०) लघुशङ्ख, देना०। नि०चू०१ उ०॥ उल्लुह धा०(निर्) सृ०धा० बहिर्गमने, धातवोऽर्थान्तरेऽपि / / 8 / 4 / 58|| उल्लविय न०(उल्लपित) मन्मथादिजल्पंने, "अंगपञ्चंगसंहाणं, इति निः सरतेरुल्लुहादेशः। उल्लुहइ, निःसरति। प्रा०। चारुल्लवियपेहियं / वंभचेररओ थीणं, चक्खुगिज्झं विवज्जए" उत्त०। उल्लूढो (देशी०) अङ्कुरिते, देवना०॥ उल्लस धा०(उल्लस्) उल्लासे, हर्षजनकव्यापारे "उल्लसे रूसलो सुम्भणिल्लस पुलआअंगुजोलारो आः ||4|1 // " उल्लसेरेते उल्लेव (देशी) हासे, दे०ना०1 षडादेशा वा भवन्ति / ऊसलइ-ऊसुम्भइ णिल्लसइ पुलआअइ उल्लेवण (देशी) घृते, दे०ना०॥ गुजोल्लइ। ह्रस्वत्वेतु गुजुल्लइ उल्लसति,प्रा०) उल्लेहड (देशी०) लम्पटे, देना०॥ उल्लासिय त्रि०(उल्लासित) उद्-लम्-क्त-स्फुरिते, उद्धते, हष्टे च। उल्लोइय न०(उल्लोचित) कुड्यानामालस्य च सेटिकादिभिः वाच० सुधुल्लसिते भीतेपचक्खाणे पडिच्छगच्छथेरविदू उहसिएतेण ___ समष्टीकरणे, धवलने 'लाइ उल्लोइय महियं ज्ञा०१ अ०। औ०। जं० / वि ताव मिसेण इत्थिं पावामो हरिसितो नि०पू०१ उ० / पुलकितार्थे, स०। नि० जी०। क०। प्रज्ञा०॥ दे०मा०॥ उल्लोय पुं०(उल्लोक) उपरितनभागे, जी०३ प्रति० / रा०ा जा उल्लाय पुं०(उल्लात) प्रबलपादप्रहारे, // 0 // कल्प० / चं०। मनागालोके च / जं०१ वक्ष०। उल्लालिय त्रि०(उल्लालित) ताडिते, आ०म०प्र० रा०। *उल्लोचपुं० ऊर्द्ध लोच्यते उद्लोच् कर्मणि घञ्। निष्ठाया से ट्कत्वात् उल्लालेमाण त्रि०(उल्लालयत्) ताडयति, "तिक्खुत्तो नकुत्यम्। उपरितले चाभ०१४ श०६ उ०।कल्पाविताने,देवना०॥ उल्लालेमाणे"1 राग उल्लोयतल न०(उलोकतल) उपरितनभागे,। ज्ञा०१०। Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लोयमेताग 887- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग उल्लोयमेताग न०(उल्लोकमात्र) यावता भवतो मनाक् काल - | उवएसग त्रि०(उपदेशक) उप-दिश्- ण्वुल्-उपदेशकर्तरि, "हिचाणं विभागरूप आलोको भवति तावन्मात्रके, / जी०१ पाहु०।। पुव्वसंजोगं सिया किचोवएसगा'' सूत्र०१ श्रु०१अ०॥ उल्लोयवण्णग पुं०(उल्लोकवर्णक) प्रासादस्योपरिभागवर्णके, / / स उवए(दे)सण न०(उपदेशन) उपदिश्यत इत्युपदेशनम् / उपदे चैवम् "तस्स णं पासायवडिंसगस्स इमेयारूवे उल्लोए पण्णत्ते शनक्रियया व्याप्ये, उपलक्षणत्वादस्याः क्रियायाः व्याप्ये कर्मण, पउमलप्यभित्तिचित्ते जाव सव्वतवणिज्जमए अच्छे जाव पडिरूवे" || "विइया उवएसणे" उपदेशने कर्मणि द्वितीया यथा भण इमं श्लोकं कुरु भ०२श०८ उ०॥ वा तं ददाति तं य ति ग्रामम् / स्था०७ ठा०॥ उल्लोल (देशी) शत्रौ, देना०। उवए(दे)सणा स्त्री०(उपदेशना) कथनायाम, "पंचविधपयत्थोउल्लोलंत त्रि०(उल्लोडयत्) शरीरापवर्त्तनं कुर्वाणे, "उल्लोलंतं वा वदेसणया'' विशे०॥ साइजइ"नि०चू०१७ उ०। आचा०। उवएसमालास्त्री०(उपदेशमाला)स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, ग०१ अधि०। उव अव्य०(उप) वप् क०सामीप्ये, "उवदंसिया भगवया पण्णवणा तथा कश्चित्परपक्षी प्रार्थनां करोति तदर्थमुपदेशमाला-गाथावलोकने सव्वभावाणं" उपसामीप्येन यथा श्रोतृणां झटिति यथा वस्थित दूषणं लगति नवेति प्रश्नः यदि स निष्कपटतया प्रार्थनां करोति वस्तुतत्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः दर्शिता श्रवणगोचरं तदर्थमुपदेशमालागाथावलोकने सर्वथा दूषणं ज्ञातं नासित इति। शेन० नीता उपदिष्टा इत्यर्थः / प्रज्ञा०१ पद उत्त० / आचा० / प्रव० / सूत्र०। 4 उल्ला० 135 प्र०॥ आ०म०प्र० भ०) सामस्त्ये, रा०। सादृश्ये, उपशब्द उपमेति वत् उवएसरयणकोस पुं०(उपदेशरत्नकोश) उपदेशा हेयोपादेयोपेसादृश्येऽपि दृश्यते, उत्त०३ अ०। सकृदर्थे , अन्तरर्थे, आव०४ अ०। क्षणीयार्थेषु हानोपादानोपेक्षणीयभणनानित एव रत्नानि तेषां कोश एव अधिकार्थेहीने, आसन्ने, प्रतिपन्ने, सतो गुणान्तराधाने, व्याप्ती, भण्डारवदुपदेशरत्नकोशः। दर्शनशुद्धिनामके ग्रन्थे, दर्श०॥ पूजायाम, शक्ती, आरम्भे, दाने, दोषा-ख्याने, आचार्यकरणे, अत्यये निदर्शने, वाच०॥ उवएसरयणागर पुं०(उपदेशरत्नाकर) स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, यत उवइय त्रि०(उपचित) उप० चिक्त० / उन्नते, औ०।। लेपनादिना उपदेशरत्नाकरे सम्यक्त्वाणुव्रतादि श्राद्धधर्मरहिता नमस्का-रगुणा वर्द्धिष्णौ, निदिग्धे, अमरः / समाहिते, हेम०। सञ्चिते, च। वाच०॥ जिनार्चनचन्दनाभिग्रहमृते। ध०२ अधि०।। उवइया स्त्री०(उपविता) कुड्यादौ संचरणशीले त्रीन्द्रियजीवभेदे। वृ०६ ऊवएसरुइ पुं०(उपदेशरूचि) क०स० साधूपदेशात्तत्वश्रद्धाने, ग०१ उ०। जी०॥ अधि० / परोपदेशप्रयुक्ते जीवाजीवादिपदार्थविषयिक श्रद्धाने, सम्यक्त्वभेदे च। ध०२ अधि। उपदेशो गुर्वादिना वस्तु-तत्यकथनं तेन उवउज्ज अव्य०(उपयुज्य) उपयोगं कृत्वेत्यर्थे , दीहादिदारा उवउ-ज जं जुज्जति जाएयव्यं / नि० चू०१ उ०॥ रुचिर्जिनप्रणीततत्वाभिलाषरूपा यस्य स उपदेशरुचिः / स्था०२ ठा०। यो हि जिनोक्तानेव जीवादीनान् तीर्थकरतच्छिष्यादिनोपदिष्टान श्रद्धत्ते उवउत्त त्रि०(उपयुक्त) उप-युज-क्त० दत्तावधाने, जीत०। पंचा० / तस्मिन् / दर्शनार्य्यभेदे, स्था० १०ठा० उत्त०। सावधाने, पंचा०५ विव० उद्यते, आतु०। अप्रमत्ते, नि०चू०१ उ०। उपयोगवति, विपा०२ अ० / "दंसणनाणोवउत्ता" औ०। तस्य स्वरूपं यथा। ज्ञेयप्रत्याख्येयविषयज्ञानप्रत्याख्यानपरिणामे, आ०म०द्वि० / विशे०। एए चेव उ भावे, उवइट्टे जो परेण न सद्दहइ। न्याय्ये, रचिते, भुक्ते च / वाच०॥ छउमत्थेण जिणेण च, उवएसरुइत्ति नायव्वा // 66 // उवएस पु०(उपदेस) उप-दिश्-घञ्। उपदेशनमुपदेशः कथने, निं०। एतांश्चैवानन्तरोक्तांस्तु पूरणे भावान् जीवादीनुपदिष्टान् कथितान् भणने, प्ररूपणे, / विशे०1 आ०म०प्र० प्रज्ञापनायाम्,। वृ०१ उ०। परेणान्येन न श्रद्दधाति न तथेति प्रतिपद्यते। कीदृशा परेण छादयतीति सूत्रानु सारेण कथने, / आव०४ अ० / हेयोपादेयोपे-क्षणीयार्थेषु छद्म घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति छद्मस्थोऽनुत्पन्नकेमलस्तेन जयति हानोपादानोपेक्षणीयभणने, / दर्श० / वर्तने,पंचा०२ विव० / रागादीनि जिनस्तेन वोत्पन्नकेवलज्ञानेन तीर्थकृदादिना छद्मस्थस्य अन्यतरक्रियायां प्रवर्तनेच्छाकरणे, / अनु०॥ न च हितोपदेशादपरः प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाग्जिनस्य प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेष्ट्रणां स पारमार्थिकः परार्थः तथा चार्षम् / रूसओ वा परो मा वा, विसं वा ईदृक्किमित्याह उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः। प्रव० 170 द्वा०॥ परियत्तओ। भासियव्वाहिया भासा, सपक्खगुण-कारिया।।१।। स्या०। उवएसलद्ध त्रि०(उपदेशलब्ध) लब्धाप्तोपदेशे, "इय उवएसं लद्धा उवाच वाचकमुख्यः। न भवतिधर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणाम्। इयविण्णाणं पत्ता" उपा०३ अ०। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्त-तो भवति / / उपदेशो हि मूर्खाणां, उवएसिय त्रि०(उपदेशित) उपदिष्ट 'सामाइयणिज्जुत्ति, वोच्छंउ-वएसिय प्रकोपाय न शान्तये / पयः पानं भुजङ्गाना, केवलं विषवर्द्धनमिति / गुरुजणेणं। आयरियपरंपरएणं आगयं आणुपुवीए' विशे० पंचा०१२ विव० / (धम्मकहा शब्दे विस्तरतः उपदेशप्रकारो वक्ष्यते उचिय पवित्ति शब्दे वर्जय-देनेकोपघातकारकम् इत्याधुक्तम्) उवओग पुं०(उपयोग) उपयोजनमुपयोगः भावे घञ् / उपयुज्यते श्राद्धकादिकुलाख्याने, आव५ अ०1 उपदिश्यत इत्युपदेशः उपदेष्टुमिष्ट वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः / पुन्नाम्नि करणे धनु वस्तुविशेषे, / / भूयो भूय उपदेश इति भूयो भूयः पुनः पुनरुपदिश्यत प्रत्ययः / उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदं प्रति व्यापार्यत इत्युपयोगः कर्मणि इत्युपदेश उपदेष्टु-मिष्टवस्तुविषयः कथंचिदनवगमे सति कार्यः किं न घञ् / बाधरूपे जीवस्य तत्वभूते व्यापारे, प्रज्ञा०२८ पद। कल्प० / क्रियते दृढस-निपातरोगिणां पुनः पुनः क्रियातिक्तादिनाथपानोपचार प्रव० / आव० / दर्श० / स्था०। उपयोगो ज्ञानं संवेदनं प्रत्ययः इति इति। ध०१ अधि०। गुरूणांशिक्षावाक्ये, "तहियाणंतु भासणं सब्भावे पर्यायाः। विशे०। अनु०। उवएसणं" उत्त०२८ अ०। प्रत्युपेक्षणाप्रस्फोटनाक्रियायाम, नि००१ उपयोगभेदाः। उ०। दर्शने, शास्त्रे, आचा०१ श्रु०३ अ० 4 उ०॥ कतिविहेणं भंते उवओगे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे उवओ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 888 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग गे पण्णत्ते तं जहा सागारोवओगे य अणागारोवओगे य॥ कतिविधः कतिप्रकारः सूत्रे एकारो मागधभाषालक्षणवशात् णमिति वाक्यालंकृतौ भदन्त परमकल्याणयोगिन् उपयोग उपयोजनमुपयोगो भावे घञ् यद्वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः पुनाम्नि करणे घञ् प्रत्ययो बोध-रूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः प्रज्ञप्तः प्रतिपादितः भगवानाह गोयमेत्यादि / आकारप्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः "आगारोअविसेसो'' इति वचनात् सह आकारेण वर्तत इति साकारः सचासा-वुपयोगश्च साकारोपयोगः। किमुक्तं भवति। सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुञ्जान आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तुपरिच्छनत्ति तदास उपयोगः साकार उच्यते इति।स चकालतः छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्त कालं केवलिनामेक सामायिकः तथा न विद्यते यथोक्तरूप आकारो यत्र सोऽनाकारः स चासावुपयोगश्चानाकारोपयोगः। यत्तु वस्तुनः सामान्यरूपतया परिच्छेदः सोऽनाकारोपयोगः स्कन्धावारोपयोगवदित्यर्थः / असावपि छद्मस्थानामान्तौ हुर्त्तिकः परमनाकारोपयोगकालात्साकारोप-योगकालः संख्येयगुणः प्रतिपत्तव्यः पर्यायपरिच्छेदकतया चिरकाललगनात् छद्मस्थानां तथास्वाभाव्यात्। केवलिनांत्वनाकारोपयोग एकसामायिकः चशब्दौस्वगतानेकभेदसूचकौ। तत्र साकारोपयोगभेदानभिधित्सुरिदमाह // सागारोवआगेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते, तंजहा आभिनिवोहियनाणसागरोवओगे सुयनाणसागरोवओगे, ओहिनाणमणपञ्जवसागरोवओगे केवलनाण- | सागारोवओगे य / मतिअन्नाणसागारोवओगे सुयअन्नाणसागारोवओगे विभंगनाणसागारोवओगे य / / अर्थाभिमुखो नियतः प्रतिस्वरूपको बोधो बोधविशेषोऽभिनि-बोधः। अभिनिबोध एव आभिनियोधिकम् / अभिनिबोधशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमात् विनेयादिभ्य इत्यनेनस्वार्थे इकण् प्रत्ययः / अनिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति वचनात्तत्र नपुंसकता यथा विनय एव वैनयिकमित्त्यत्र / अथवा अभिनिबुध्यते अस्मादस्मिन वेति अभिनिबोधस्तदाचरणकर्म-क्षयोपशमस्तेन निर्वृत्तमाभिनिबोधिकं तच्च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानम्। इन्द्रियमनोनिमित्तोयोग्यप्रदेशावस्थित वस्तुविषयः स्फुटप्रतिलाभो बोधविशेष इत्यर्थः। सचासौसाकारोपयोगश्च आभिनिबोधिकज्ञानसाकारोपयोगः। एवं सर्वत्रापि समासः कर्तव्यः। तथा श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचक भावपुरस्सरीकरणशब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेष एवमाकारं वस्तु घटशब्दवाच्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतः समानपरिणामशब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तागमविशेष इत्यर्थः। श्रुतं चतज्ज्ञानंच श्रुतज्ञानं ततो भूयः साकारोपयोगशब्देन विशे-षणसमासः तथाऽवशब्दोऽधः शब्दार्थः / अत्र अधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः / यद्वा अवधिः मर्यादारूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरुपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः / अवधिश्वासौ ज्ञानं चावधिज्ञानम् / तथा परि सर्वतोभावे अवनं अवः तुदादिभ्योऽन् क्वचिदित्यधिकारे अकितौ चेत्यकारप्रत्ययः अवनं गमनमिति पर्यायः / परि अवः पर्यवः मनसि मनसोवा पर्यवो मनः पर्यवः सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः / पाठान्तरं पर्यय इति तत्र पर्ययणं पर्ययः मनसि मनसो वा पर्ययः मनःपर्ययः। सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः। स चासौ ज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं मनः पर्यवज्ञानं वा। अथवा मनः पर्यायेति पाठान्तरं तत्र मनांसि पर्येति सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनः पर्यायं कर्मण्यण् / मनःपर्याय च तत् ज्ञान मनः पर्यायज्ञानं यदि वा मनसः पर्याया मनःपर्यायाः / पर्याया धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तर तेषु तेषां वा संबंन्धिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानमिदं चार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनम्। तथा केवलमेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् 'नट्ठम्मि उ छाउमथिए नाणे" इति वचनात् शुद्धं वा के वलं तदावरणं मलकलङ्कविगमात्। सकलं वा केवलं प्रथमत एवाशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः / असाधारणं वा केवलमनन्यतः सदृशत्यात् / अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात्। केवलंचतत् ज्ञानं तथा मतिश्रुतावधय एव यदा मिथ्यात्वकलुषिता भवन्ति तदा यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानव्यपदेशाल्लभन्ते / उक्तंच / आद्यं त्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्याम्वसंयुक्तमिति। विभङ्ग इति विपरीतो भङ्गः परिच्छित्ति-प्रकारो यस्य तद्विभङ्ग तच तत् ज्ञानं च विभङ्ग ज्ञानं सर्वत्रापि च साकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः॥ // अनाकारोपयोगभेदानभिधित्सुराह / / अणागारोवओगेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तंजहा चक्खुदंसण अणागारोव ओगे, अचक्खुदंसण-- अणागारोवओगे, ओहिदंसणअणागारोवओगे केवलदसणअणागारोवओगे। तत्र चक्षुषा चक्षुरिन्द्रियेण दर्शनं रूपसामान्यग्रहणं च चक्षुर्दर्शनं तच तत् अनाकारोपयोगः। अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषये सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम्। ततोऽनाकारोपयोगशब्देन विशेषणसमासः / एवमुत्तरत्रापि अवधिरेवरूपदर्शनं सामान्यग्रहणमवधिदर्शनं केवलमिव सकलजगगाविसमस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपं दर्शन केवलदर्शनम्। अथ मनः पर्यायदर्शनमपि कस्मान भवति येन पञ्चमोऽनाकारोपयोगोन भवतीति चेदुच्यते मनःपर्यायविषयं हि ज्ञानं मनसा पर्यायानेव विविक्तान् गृह्णन् क्वचिदुपजायते पर्यायाश्च विशेषा विशेषालम्बन च ज्ञानं ज्ञानमेवन दर्शनमिति मनःपर्यायदर्शनाभावस्तदभावाच पञ्चमानाकारोपयोगासम्भव इति (एवं जीवाणमित्यादि) एवं निर्विशेषेणोपयोगवत् जीवानामनुपयोगो द्विविधः प्रज्ञप्तो भणितव्यस्तत्रापि साकारोपयोगोऽष्टविधोऽनाकारोपयोगश्चतुर्विधः / एतदुक्तं भवति / यथा प्राक् जीवपदरहितमुपयोगसूत्रं सामान्यत उक्तं तथा जीवपदसहितमपि भणितव्यं तद्यथा "जीवाणं भंते! कतिविहे उवओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उवओगे पत्तत्ते तंजहा सागारावओगेय अणागारोवओगेय जीवाण भंते ! कतिविहे उवओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! दविहे उवओगे अट्टविहे पण्णते तंजहा इत्यादि" तदेवं सामन्यतो जीवानामुपयोगश्चिन्तितः। प्रज्ञा 28 पद / भ० / प्रव० / / उपयोगः साकारानाकारद्वयात्मकः प्रमाणमितरथाअप्रमाणम् / / उपयोगः परस्परसव्यपेक्षसामान्यविशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शज्ञानस्वरूपद्वयात्मकः प्रमाण दर्शनाज्ञानैकान्तरूपस्वप्रमाणमिति दर्शयितुं प्रकरणमारभमाणो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिभिर्मत प्रत्येकदर्शनज्ञानस्वरूपप्रतिपादकगाथामाहाचार्यः / जं सामण्णग्गहणं, दंसणमेयं विसेसियं णाणं। दोण्हं विणयाण एसो, पाडेक्कं अत्थपञ्जाओ।। द्रव्यास्तिकस्य सामान्यमेव वस्तु तदेव गृह्यते अनेनेति ग्रहण Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग दर्शनमेतदुच्यते पर्यायास्तिकस्य तु विशेष एव वस्तु स एव गृह्यते येन तज्ज्ञानमधीयते ग्रहणं विशेषितमिति विशेषग्रहणमित्यभिप्राययोरप्यनयोर्नययोरेकं प्रत्येकमर्थपर्यायोऽर्थविषयं पर्येत्यवगच्छति यः सोऽर्थपर्याय ईदृग्भूतार्थग्राहकत्वमित्यर्थः / उपयोगस्य चानाकारसाकास्तेसामान्यविशेषग्राहकेएते चत्वारस्तत्राभिधीयतेनविद्यमान आकारोभेदो ग्राह्यस्यास्येत्यनाकारोदर्शनमुच्यते सहाकाराह्यभेदैर्वर्तते यद्ग्राहकं तत्साकारं ज्ञानमित्युच्यते / अनाकारसाकारोपयोगी तूपसर्जनीकृततदितराकारौ स्वविभासकत्वेन प्रवर्तमानौ प्रमाणं नतु निरस्तेतराकारौ तथाभूतवस्तुविषयाभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेरितरांशविकल्पैकांशरूपोपयोगसत्तानुपपत्तेश्च तेनैकान्तवाद्यभ्युपगमो बोधमात्रं प्रमाणं साकारो बोधोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वविशिष्टः स एव ज्ञातृव्यापारोऽर्थदृष्टताख्यफलानुमेयोऽसंवेदनाख्यफलानुमेयो वाऽनधिगतार्थो विगत इन्द्रियादिसंपाद्यो व्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा बोधरूपो वा साधकत्वात्प्रमाणमित्यादिरूपोऽयुक्तः। निराकारस्य केवलबोधरूपस्य ज्ञानस्यैव प्रामाण्यमिति विज्ञानवादिनोऽन्ये च स्वस्वस्थाने स्वस्वमतमुद्भाव्य परास्ता भविष्यन्ति / सम्म० / (तदेतत्संमतितर्कत एव विज्ञेयमिहापि यथावसरं किञ्चिद्वक्ष्ये) सामान्यविशेषात्मके च प्रमाणप्रमेयरूपे वस्तुतत्वे व्यवस्थिते द्रव्यास्तिकस्यालोचनमात्रं विशेषाकारत्यागिदर्शनं यत्तत्सत्वमितरस्य तु विशेषाकारसामान्याकाररहितं यज्ज्ञानं तदिव पारमार्थिकमभिप्रेतं प्रत्येकमेषोऽर्थपर्याय इति वचनात् प्रमाणं तु द्रव्यपर्यायौ दर्शनज्ञानस्वरूपावन्योऽन्यावनिर्भागवर्तिनाविति दर्शयन्नाहदव्वढिओ वि होऊण,दंसणे पञ्जवढिओ होइ। उवसमिआई भावं, पडुच णाणे उ विवरीयं / / अस्यास्तात्पर्यार्थः दर्शनेऽपि विशेषांशोन निवृत्तोनापि ज्ञानेसामान्यांश इति द्रव्यास्तिकोऽपीति आत्मा द्रव्यार्थरूपः सभूत्वा दर्शने सामान्यात्मके स ह्यात्मा चेतनालोकमात्रस्वभावो भूत्वा तदैव पर्यायास्तिको विशेषकरोऽपि भवति यदा हि विशेषरूपतयाऽऽत्मा संपद्यते तदा सामान्यस्वभावं परित्यजन्नेव विशेषाकारश्च विशेषावगमस्वभाव ज्ञानं दर्शनसामान्यपर्यालोचने प्रवृत्तोऽप्युपात्तज्ञानाकारो न हि विशिष्टन रूपेण विना सामान्यं संभवति एतदेवाह औपशमिकादिभावं प्रतीत्येति औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकादीन् भावान् अपेक्ष्य विशेषरूपत्वेन ज्ञानस्वभावात् वैपरीत्यं सामान्यरूपतां प्रतिपद्यते विशेषरूपः सन् स एव सामान्यरूपोऽपि भवति नास्ति सामान्य विशेषविकलं वस्तुत्वात् शिवकादिविकलमृत्त्ववत् विशेषा वा सामान्य विकला न सन्ति असामान्यत्वात् मृत्त्वरहितशिवकादिवदत्र च सामान्यविशेषात्मके प्रमेयवस्तुनितदग्राहि प्रमाणमपि दर्शनज्ञानरूपं तथाऽपि छद्मस्थोपयोगस्वाभाव्यात् कदाचिज्ज्ञानोपसर्जनो दर्शनोपयोगः कदाचित्तु दर्शनोपसर्जनो ज्ञानोपयोग इति क्रमेण दर्शनज्ञानोपयोगौ / क्षायिके तु ज्ञानदर्शने युगपद्धर्तिदीपमिति दर्शयन्नाह सूरिः। मणपज्जवणाणस्स यं, दरिसणस्सय विसेसोय। केवलणाणं पुण दंसणंति नाणंति य समाणं / / मनः पर्यायज्ञानं मनःपर्यवसानं यस्याविश्लेषस्य स तथोक्तः ज्ञानस्य च दर्शनस्य च विश्लेषः पृथग्भावः मत्यादिषु चतुषु ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमणे भवत इति यावत् / तथाहि चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथक्कालानिछद्मस्थोपयो-गात्मकज्ञानत्वात् श्रुतमनः पर्यायज्ञानवत्वाक्यार्थविशेषविषयं श्रुतज्ञानं मनोद्रव्यविशेषालम्बनं च मनः पर्यायज्ञानमेतद् द्वयमप्यदर्शनस्वभावं मत्यवधिज्ञानदर्शनोपयोगात् भिन्नकालं सिद्ध केवलज्ञानं पुनः केवलाख्यो बोधो दर्शनमिति चाज्ञानमिति वाऽन्यत्केवलं तत्समानकालं द्वयमपि युगपदेवेति भावः / / सम्म०। (अत्र बहु वक्तव्यं तच्च ग्रन्थविस्तरभयन्नोच्यते किंतु विशेषजिज्ञा-सुना सम्मतितर्कत एव समवलोकनीयम्) सिद्धः साकारोपयोग एव सिध्यतीति केवलस्य साकारत्वात् यौगपद्यम्। कथं पुनरसौ साकारोपयोग एव सिध्यतीत्याह। सव्वाओ लद्धीओ, जं सागारोवओगतो भाओ। तेणेह सिद्धलद्धी, उप्पञ्जइतवउत्तस्स। प्रतीतार्थव / एतच साकारोपयोगवर्तमानः सिध्यतीति विशेशेणं प्रज्ञापनायां विहितम्। अनेन चात्र केवलसाकारोपयोगे ये विप्रतिपद्यन्ते साकारानाकारोपयोगयोः सिद्धस्य युगपदभ्युपगमात्ते निरस्ताः अत एवाह। एवं च गम्मइ धुवं, तरतमजोगोवओगया तस्स। जुगवोवओगभावे, साकारविसेसणमुहुत्तं / / एवं च साकारोपयोगविशेषणाद्गम्यते किमत आह / ध्रुवं निश्चितं तरतमयोगोपयोगता सिद्धस्य अन्यस्मिन्काले तस्य साकारोपयोगोऽन्यत्र चानाकारोपयोग इति। अन्यथा बाधामाह। युगपदुपयोगभावे साकारविशेषणं प्रज्ञापनोक्तमयुक्तमेव स्यादिति / अत्र परमतमाशक्यपरिहरन्नाह। अहव मई सवं विय, सागारं से तओ अदोसो त्ति। नाणंति दसणंति य, न विसेसो तं च नो जम्हा।। सागारमणागार, लक्खणमेयंति भणियमिह चेव। तह नाणदसणाई, समए बीसुं पसिद्धाई। अथ मतिः परस्य सर्वमेव(से) तस्य सिद्धस्य ज्ञानं दर्शनं वा साकार ततः साकारोपयोगविशेषणे अदोष एव स्वरूपविशेषणत्वात्तस्यः। यदपि केवलज्ञानं केवलदर्शनं च तस्योच्यते तस्यापि तयोनिविशेष इत्यभिप्रायवता प्रोक्तं स्तुतिकारेण एवं कल्पितभेदमप्रतिहतं सर्वज्ञतालाञ्छनं सर्वेषां तमसां निहन्तृजगतामालोकनं शाश्वतं नित्यं पश्यति बुध्यते च युगपन्नानाविधानि प्रभास्थित्युत्पत्तिविनाशवन्ति विमलद्रव्याणि तत्केवलं तच न युक्तं यस्मात्साकारमनाकारं च लक्षणं सिद्धानामितीहैव पुरतो भणितं वर्तते यद्वक्ष्यति "असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणेय नाणे य / सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं" इति। तदनयोः साकारनाकारलक्षणयोर्भेदेनोक्तत्वात्कथमुच्यते सर्वमेव तस्य साकारमिति भावः / तथा समये सिद्धान्ते विष्वक्पार्थक्येन ज्ञानदर्शने सिद्धानां तेषु तेषु स्थानेषु प्रसिद्ध अतः कथं तयोरविशेषः उच्यत इति हृदयम्। तद्विशेषे हि बहवो दोषाः के इत्याह। पत्तेयावरणत्तं, इहरा वारसविहोवओगोय। नाणं पंचवियप्पं, चउव्विहं दंसणं कत्तो / / इतरथा केवलज्ञानदर्शनयोरेकत्वे प्रत्येकावरणत्वं केवलज्ञानावरणके वलदर्शनावरणं चेति प्रत्येकमावरणं तयोः कुतो घटते नोकस्य द्वे आवरणे युज्येते ततः प्रत्येकावरणनिर्देशात्केवलज्ञा-- नदर्शनयोर्भेद एवेति भावः। तथा साकारोऽष्टधा अनाकारस्तु च Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग ८९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग तुर्द्धत्येवं यो द्वादशविधोपयोगः श्रुतेऽभिहितो यच्च ज्ञानं पञ्चविधं दर्शनं चतुर्विधं प्रोक्तं तदेतत्सर्वमपि केवलज्ञानदर्शनयोरेकत्ये कुत उपपद्यतेन कुतश्चिदिति। अपिचभणियमिहेव य केवल-नाणुवउत्ता मुणंति सव्वंति। पासंति सवओत्तिय, केवल दिट्ठीहिणंताहिं।। इहैव पुरतो भणितं केवलज्ञानोपयुक्ताः सिद्धा सर्वे (मुणंति) जानन्ति तथा पश्यन्ति च सर्वतः केवलदर्शनदृष्टिभिरनन्ताभिर्यद्वक्ष्यति "केवलनाणुवउत्ता, जाणंती सव्वभावगुणभावे। पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठीहिणताहिमिति" तस्मान्नैतयोरेकत्वमितिभावः / पुनरपि परः प्राह। आह परोभावम्मि, उवउत्ता दसणे य नाणे य। भणियंतो जुगवंतो, नणु भणियमिणं पितं सुणसु / / आह परो नन्वपृथाभावेऽपि केवलज्ञानदर्शनयोर्न दोषा यतः "असरीरा जीवघणा उवउत्तादसणेय नाणेय' इत्यत्रदर्शनेच ज्ञानेच युगपदुपयुक्ता इति भणितं ततो युगपदेव केवलज्ञानदर्शनोपयोगः सिद्धः / सुरिराह। ननु यदि भणितेनार्थसिद्धिस्तव त_दमपि भणितं वर्तत्ते तच्छृणु किंपुनस्तदित्याह || नाणम्मि दंसणम्मिय, वत्तेगयरम्भि उवउत्ता। सव्वस्स केवलिस्स, जुगवदो नत्थि उवओगा।। एतदिहैव व्यक्तं पुरस्तावक्ष्यति ततोऽस्यां गाथायां भद्रबाहुस्वामिभिर्व्यक्तऽपि युगपदुपयोगे निषिद्धे किमिति तद्योगपद्याभिमानोऽद्यापि न त्यज्यत इति भावः / अत्र परस्य व्याख्यान्तरकल्पनामाशङ्कच परिहरन्नाह - अह सव्वस्सेव न केवलिस्स दो किं तु कस्सइ हवेज। सो य जिणो सिद्धो वा, तं च न सिद्धाहिगाराउ।। अथैवं व्याख्यायते परेण सर्वस्यैव केवलिनोनयुगपवावुपयोगौ किंतु कस्यापि द्वौ भवेतां कस्यचिदेकः स च के वलिजिनसिद्धो वा भवेद्भवस्थकेवली वा भवेदित्यर्थः / ततश्च भवस्थकेवलिनोऽद्यापि सकर्मकत्वादेकदा एक एवोपयोगः / सिद्धके वलिनस्तु सर्वथा कर्ममलकलङ्कविप्रमुक्तत्वात् युगपद्वावुपयोगीभवत इतिपर-स्याकूतं तच न युक्तमिह सिद्धाधिकारादिदमुक्तं भवति 'सव्वस्स केवलिस्स" इत्यादिना सिद्धाधिकारे सिद्धस्यैव भद्रबाहुस्वामिभिर्युगपवावुपयोगी निषिद्धावतो न किंचित्त्वत्कृता व्याख्यान्तरकल्पनेह भवतीति भावः। सूरिः समाधानान्तरमाहअह पुव्वद्धणेव, सिद्धमेक्कोत्ति किं च विइएणं / एत्तो वि य पच्छद्धे, निगमइ सव्वपडिसेहो। अथवा 'नाणम्मि दंसणम्मि य वत्तेगयरम्मि उवउत्ता'' इत्यनेन पूर्वार्द्धनैवेकदा एक उपयोगः सिद्धस्ततः किं द्वितीयेन पश्चार्द्धनो-क्तेन उक्तं चेदत (एतोवियत्ति) इत एव 'सव्यस्स केवलिस्स" इत्यादि | पश्चा?पन्यासात्सर्वप्रतिषेधो गम्यते। यथा सर्वस्य केयलिनोऽपि युगपद् / द्वावुपयोगौ न स्तः किंपृच्छा केवलिन इति॥ पुनः परवचनमाश क्य | परिहारमाहतो कहमिहेव भणियं, उवउत्ता दंसणे य नाणे य। समुदायविसयमेयं, उभयनिसेहो यपत्तेयं / / यदि न युगपदुपयोग इष्यते तत आचार्यः कथमिहैव भणिष्यति तथापीहैव भणिष्यतीत्यर्थः। किंतदित्याह (उवउत्ता दसणे यत्ति) दर्शन ज्ञाने च युगपदुपयुक्ता इह किल भणिता इति परस्याभिप्रायः। अयं च मिथ्याभिमानोपहृतसदोधात्वात्कदभिप्राय एवेति दर्शयति (समुदायवयणमेयत्ति) समुदायविषयमेवेदं नतु युगपदुपयोगप्रतिपादनपरमित्यर्थः / अनन्तास्तर्हि सिद्धास्तत्समुदायेऽत्र केऽपि ज्ञाने उपयुक्ताः केचिद्दर्शन इत्ययमर्थः / प्रत्येकविवक्षायां पुनः "पत्तेआवरणत्ता'' मित्याद्यभिहितयुक्तेयुगपदुभयोपयोगनिषेध एव मन्तव्य इति पुनरपि प्रेर्यपरिहारौ प्राहजम्हाअपज्जत्ताई, केवल तेणोभओवओगो ति। भण्णइ नायं नियमो, संतं तेणोवओगोत्ति॥ साद्यपर्यवसितत्वाद्यस्मादपर्यन्ते अविनाशिनी सदावस्थितकेवलदर्शने तेन तस्माद्युगपदुपयोग इष्यते अस्माभिः / इदं हि यद्गोधस्वभावसदावस्थितं च तस्योपयोगेनापि सदा भवितव्यमेव अन्यथोपलशकलकल्पत्वेन बोधस्वभावत्वानुपपत्तेः सदोपयोगे च द्वयोर्युगपदुपयोगः सिद्ध एवेति परस्याभिप्रायः। आचार्य आह / भण्यते अत्रोत्तरम्। नायं नियमः सर्वदा यल्लब्धिमारित्य स विद्यमानकेवलज्ञानं केवलदर्शनंचतेन तयोरुपयोगेनापि सर्वदा भवितव्यमिति कुतः पुनर्नायं नियम इत्याहठिइकालं जह से दसणनाणाणमणुवओगे वि। दिहमवत्थाणं तह, न होइ किं केवलाणं पि।। यथा केवलज्ञानदर्शनाभ्यां शेषाणि यानि दर्शनज्ञानानि तेषां निज 2 च्छित्तिकालं यावदनुपयोगाभावेऽपि सत्वस्यावस्थानं दृष्टं तया केवलज्ञानदर्शनयोरेपि निजस्थितिकालं यावदनुपयोगे पि सर्वस्यावस्थानं किमिति न भवति भवति चेत्तर्हि सतो ज्ञानस्य दर्शनस्योपयोगेन भवितव्यमिति अनेकान्तिकमेव / इयमत्र भावना / शेषज्ञानदर्शनानां प्रज्ञापनायां कायस्थितौ दीर्घस्थितिकाल उक्तस्तद्यथा। "मइनाणीणं भंते ! मइनाणित्ति कालओ केचिरं होइ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्केसेणं छावर्द्धिसागारौवमाइं साइरेगाइएवं सुयनाणीवि ओहिनाणीवि एवं चेव नवरं जहन्नेणं एक समय मणपज्जवनाणी जहन्नेणं एक समयं / उक्कोसेणं देसूणं पुवको डिं' यदा विभङ्ग ज्ञानसम्यत्तवलाभे समयमेकमवधिज्ञानं भूत्वा प्रतिपतति तदा अवधिज्ञानस्य जघन्यतः समय स्थितिकालो मन्तव्यः / मनः पर्यायज्ञानस्य तुत्पत्त्यनन्तरं तद्वतो मरणादिति "चक्खुदंसणी जहन्नणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं अचक्युदंसणी अणाइए वा अपञ्जवसिए अणाइए वा पज्जवसिए ओहिदंसणीजहा ओहिनाणि त्ति' तदेवमेतेषां निजनिजस्थितिकालं यावत्सत्वमुक्तम् / उपयोगस्त्वान्तौ हूर्तिकत्वान्तावन्तं कालं भवत्यतः सतोऽवश्यमुपयोगेन भवितव्यमिति कथं नानैकान्तिकम्। अथलब्धित एवैतान्येतावन्तं कालं भवन्ति नतु बोधात्मनेति चेत्तदिदं हन्त केवलज्ञानदर्शनयोरपि समानं तयोरपि लब्धित एवापर्यन्तत्वादुपयोगतस्तु सामानिकत्वादिति पुनरप्यतिस्वाग्रहग्रस्तत्वात्परः प्राहनणु सनिधणता समयं, मिच्छावरणक्खउत्ति व जिणस्स। इयरेयरावरणया, अहवा निकारणावरणं / / एगयराणुवउत्ते, तदसव्वण्णुदस्सित्तणमेव। भण्णइ छउमत्थस्स वि, समाणमेगंतरे सव्वं / / ननु यदि एकस्मिन्समये के वलज्ञानोपयोगोन्यस्मिस्तु समये केवलदर्शनोपयोग इष्यते तोव क्रमोपयोगित्वे केवलोपयो गित्वे केवलज्ञानदर्शनयोः सनिधनत्वं प्रतिसमयं सान्तत्वं प्राप्नोति। Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग तथाच सतितयोः समयोक्रमपर्यवसितत्वं हीयते। अथवा यः कष्टशतानि दीर्धस्थितिकालः समये प्रोक्तस्तस्य विसंवादो विघटनं प्राप्नोति यश्च कृत्या ज्ञानावरणादिक्षया विहितः स मिथ्या निरर्थको जिनस्य भगवतः चतुनिी केवलदर्शनवर्जदर्शनत्रययुक्तत्वात्त्रिदर्शनी च छद्मस्थो प्राप्नोति समयात्समयादूज़ केवलज्ञानदर्शनो-पयोगयोः गौतमादिः प्रसिद्धः सोऽपि त्वदभिप्रायेणैतद्रूपः सर्वदा न भवति एकदा पुनरप्यभावान्नापनीतावरणौ द्वौ प्रदीपौ क्रमेण प्रकाशं प्रकाशयतः / एकोपयोगस्यैव संभवादनुपयोगवतश्चासत्वादिति। अथ सिद्धान्तावष्टम्भेन अथवा केवलज्ञानदर्शनयोरितरेतरावरणता नेष्यतेतहन्यतरोपयोगकाले पुनरपि परः प्राह अन्यतरस्य निष्कारणमेवावरणं स्यात्तथा च सति सत्वमसत्वं चेत्यादि आह भणियं नणु सुए, केवलिणो केवलोवओगेण / प्रसज्यत इति। तथा एकतरस्मिन् ज्ञानेदर्शने वाऽनुपयुक्तस्तस्मिन्नेकत- पढमत्ति तेण गम्मत्ति, सओवओगोभयं तेसिं / / रानुपयुक्ते केवलिनीष्यमाणे ज्ञानानुपयोगकाले तस्य केवलिनोऽसर्वज्ञत्वं आह ननु भणितं भगवत्यामष्टादशशतप्रथमोद्देशक लक्षणे श्रुते प्राप्नोति दर्शनानुप-योगकाले त्वसर्वदर्शित्वं प्रसजति अनुस्वारश्चेहलुप्तो "केवलीणं भंते केवलोपओगेणं किं पढमा अपढमा ? गोयमा ! पढमा दृष्टव्यः। तचासर्वज्ञत्वमसर्वदर्शित्वं च नेष्टं जैनानां सर्वदैव केवलिनि सर्व नोअपढमत्ति" इह च यो येन भावेन पूर्वं नासीदिदानीं च जातः स तेन ज्ञत्वसर्वदर्शित्वाभ्युपगमादिति / सूरिराह / भण्यते अनोत्तरम् / ननु भावेन प्रथम उच्यते ततश्च केवलिनः केवलोपयोगेन प्रथमः अयमर्थः छदास्थस्यापि दर्शनज्ञानयोरेकतरे उपयोगे सर्वमिदं दोषजालं समानमेव केवलयोः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरुपयोगः केवलोपयोगस्तेन केवलिनः अत्रापि हि शक्यते एवं वक्तुं ज्ञानानुपयोगे तस्याज्ञानित्वं दर्शनानुपयोगे प्रथमा नत्वप्रथमास्तस्याप्राप्तपूर्वत्वात्प्राप्तस्य च पुनवंसाभावात्तेन पुनरदर्शनत्वम् तथा मिथ्यावरणक्षयः इतरेतरावर-णता वा तस्माद्गम्यते ज्ञायते सदैवोपयोगोभयं तेषां प्रवर्तते / यदि न पुनः निष्कारणावरणत्वं चेत्यादि पुनरप्यनिर्विण्णस्य परस्या-शङ्कामाह क्रमेणोपयोगः स्यात्तदा भूत्वा 2 विनाशात्पुनः पुनरपि सव्वक्खीणावरणो, अह मन्नसि केवलीन छउमत्थो। चोत्पादात्केवलोपयोगेनाप्रथमत्वमपि तेषां भवेदति। सूरिराहउभओवओगविग्ध-छउमत्थस्स व जिणस्स।। उवओगग्गहणाउ, इह केवलनाणदंसणं।। अथैवं मन्यसे सर्वक्षीणावरणः क्षपितनिः शेषावरणः केवली न तु जइ तदणत्थंतरया, हवेज सुत्तम्मि को दोसो / छद्मस्थस्ततो युगपज्ज्ञानदर्शनोभयोपयोगविघ्नं यस्थस्यैव भवति यदि केवलोवओगेणंतीत्यत्रोपयोगग्रहणात्केवलयोरुपयोगः केवसावरणत्वान्न तु जिनस्य केवलिनः सर्वथा निरावरणत्वादिति। लोपयोग इति समासाक्षिप्तयोः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोहणमिष्यतेतर्हि देसक्खए अजुत्तं, जुगवं कसिणोभओवओगित्तं / तदनन्तरा तयोः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरेकस्मा-दुपयोगादव्यतिएतावंतं मण्णे, पुण पडिसिज्झए किं से / / रिक्तत्वात्परस्परमनन्तरता ज्ञानं च दर्शनं चैकमेव वस्त्वेवरूपं भवेदिति इह यद्यपि छद्मस्थः क्षीणनिः शेषावरणो न भवति तथापि देशत- परः प्राह (सुत्तम्मि को दोसोत्ति) भवतु तयोरनर्थान्तरता को ह्येवं सति स्तस्याप्यावरणक्षयो लभ्यते ततस्तस्यावरणक्षये सति युगपत्कृ- केवलोवओगेणं सूत्रे दोषः स्यान्न कश्चिदस्माकं सिद्धिसाधनादिति / त्स्नोभयोगित्वं युगपत्सर्ववस्तुविषयज्ञानदर्शनोभयोपयोगभवनम- आचार्यः प्राह। यदि दोषपरिज्ञाने तव कुतूहलं तर्हि शृणु किमित्याहयुक्तमित्येतावन्मात्रं मन्यामहे वयं वस्तुदेशतो सर्ववस्तुविषयज्ञान- तग्गहणे किमिह फलं, नणु तदणत्थंतरोवएसत्थं / दर्शनोभयोपयोगः स हन्त (से) तस्य छद्मस्थस्य किं प्रतिषिध्यते नतु तह वत्थुविसेसणत्थं, एयमेयसमयम्मि सुत्ताणि / / युक्तस्तत्प्रतिषेध इत्यर्थः / नचास्य युगपदुभयोपयोगो भवति ततोऽसौ तद्ग्रहणे सति किं फलं सिध्यति अनर्थान्तरत्वेसति किमर्थमु-भयग्रहणं केवलिनोऽपिन युक्तः इतीह भावार्थः / / पुनरपि पराशङ्कां परिहारं चाह पुनरुक्तदोषप्रसङ्गादितिभावः। पर आह ननु तयोः केवलज्ञानदर्शनयोः अह जम्मि नोवउत्तो,तं नत्थि तओ नदंसणाइ तिगे। परस्परमनन्तरतोपदेशार्थमेवेदं तथा वस्तुनः केवलज्ञानकेवलदर्शनअस्थि कुगओवओगो-त्तिहोइ साहू कहं विगलो / / पर्यायध्वनिभ्यां विशेषणार्थमेवेदम् एकमेव हि केवलं वस्तु केवलज्ञानअथैवं मन्यसे क्रमोपयोगित्वमभ्युपगम्यमाने केवली यस्मिन् ज्ञाने दर्शने के वलदर्शनपर्यायध्वनिभ्यां विशेषणार्थं चेदम् / एवमेवहि वानुपयुक्तस्तदस्ति यस्मिस्तु नोपयुक्तस्तत्तदा नास्त्येवानु- केवलवस्तुनोऽनेकपर्यायध्वनिभिर्विशेषणार्थ समये सिद्धान्ते सूत्राणि पलभ्यमानत्वात्खरविषाणवत्ततस्तर्हि दर्शनादेशिकदर्शनज्ञानचा- शतशोऽनेकशः सन्तीति। एतदेव पर उपदर्शयति।। रित्रत्रये छद्मस्थस्य साधोर्युगपदुपयोगो नास्ति छद्मस्थस्य युगपदु- सिद्धा काइय नो संजयाइपज्जाय उसएवेगो। पयोगाभावस्य त्वयाभ्युपगतत्वात्ततो दर्शनादित्रिकेष्वत्राप्यनुपयु- सुत्तेसु विसेसिज्जइ, जहेह तह सव्ववत्थूणि॥ क्तस्तदपित्वदभिप्रायेण नास्त्यतस्तद्विकल एकेनापि दर्शनादिना रहितः (विसेसिज्जइजहत्ति) यथा तेषु 2 सिद्धान्तसूत्रेषू स एवैको मुक्तात्मा कथं साधुर्भवतु न प्राप्नोत्येव साधुत्वं तस्य त्वदभिप्राये-णेति भावः। सिद्धः कायिकानां संयतादिपर्यायैर्विशेष्यते प्रतिपाद्यते आदिशब्दानोभण्यते चासौ समये लोके सर्वदैव साधुस्ततो नेदमपि क्रमोपयोगे भव्यनोबादरनोपर्याप्तनोपरित्तानां संक्षिप्तपरिनिवृत्तादिपर्यायैरपि विशेष्यः दूषणमिति यत्रानुपयुक्तस्तदसदित्यत्र दूषणान्त-राण्यप्याह क्वचित्प्रतिपाद्यते (इहतहत्ति) तथेहापि क्षायिकाज्ञानवस्त्वेकमेव केवलठिइकालविसंवाओ, नाणाणं न वि य ते चउन्नाणी। ज्ञान के वलदर्शनपर्यायध्वनिभ्यां विशेष्यते एवमन्यान्यपि एवं सइछउमत्थो, अत्थिन तिदंसणी समए। सर्वाचि पुरंदरघटवृक्षादिवस्तूनि निजनिनपर्यायशब्दैः समये इह ज्ञानानां दर्शनानां चोपयोग आन्तौहूर्तिक एव समये प्रोक्त- लोके च विशेष्यन्त एवेति क इह प्रद्वेष इति / अथैवं सूरिः स्तस्माच परतस्तदभिप्रायेण किल ज्ञानं दर्शनं वा नास्ति। एवं च सति परं दुरभिनिवेशममुश्चन्तमवलोक्य युगपदुपयोगदमूलत ज्ञानानामुपलक्षणत्वाद्दर्शनानां च यः सातिरेकषट्षष्टिसा-गरोपमादिका | एवोन्मूलयितुं क्रमोपयोगक व्यक्तमेव सिद्धान्तोक्रमादर्शयन्नाह Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 892 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग भणियंपिय पन्नत्ती, पन्नवणाईस जह जिणो समयं / जंजाणइन विपासइ, तं अणुपणप्पभाईणि / / ननु प्रज्ञप्त्यां भगवत्यां प्राज्ञपनायां स्फुट भणितमेवोक्तमेव। यथा जिनः केवली परमाणुरत्नप्रभादीनि वस्तून (समयं जंजाणयत्ति) यस्मिन्समये जानाति (न विपासइत्ति) तस्मिन् समये नैव पश्यति किंत्वन्यस्मिन्समये जानाति अन्यस्मिस्तु पश्यति / इयमत्र भावना / इह भगवत्यां तावदष्टादशशतस्याष्टमोद्देशके स्फुटमेवोक्तम्॥ तद्यथा।। "छउमत्थेणं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं जाणइन पासइ उदाहुन जाणइन पासइ। गोयमा! अत्थेगइए जाणइन पासइ / अत्थेगइएन जाणइन पासइ। एवं जाव असंखेजपएसिए खंधे" इह छद्मस्थो निरतिशयो गृह्यते / तत्र श्रुतज्ञानी उपयुक्तः श्रुतज्ञानेन परमाणु जानाति न तु पश्यति दर्शनाभावादपरस्तुजानाति न पश्यति "एवं ओहीएवि परमा ओहीएणं भंते मणुस्से पर माणुपोग्गलं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ जं समयं पासइ तं समयं जाणइ णो इणढे समढे से केण?णं भंते ! एवं धुचई? गोयमा ! सागारे से नाणे भवइ अणागारे से दंसणे भवइ सेकेणटेणं पासइ? तेणटेणं एवं वुच्चइ इत्यादि" "केवलीणं भंते! मणुस्से परमाणु-पोग्गलं जंसमयं जाणइतं समयं पासइजं समयं पासइ तं समयं जाणइनो इणढे समढे / से केण₹णं भंते ! एवं वुबई गोयमा ! सागारे से नाणे भवइ। अणागारे से दंसणे भवइसे केणद्वेणं एवं वुचईत्यादि'' एवं प्रज्ञापनोक्तमपि द्रष्टव्यम् / तदेवं सिद्धान्ते स्फुटाक्षरैर्युगपदुपयोगे निषिद्धेऽपि किमिति सर्वानर्थमूलं तदभिमानमृत्सृज्य क्रमोपयोगोननिष्पद्यत इति / तदेवं बुभुक्षिता जरगवा जवबुसगृहे प्रविशन्तीति निबिडयुक्तिलगुडादिभिर्धातैर्निवार्यमाणा अपि परस्य दुराग्रहबुद्धिर्न निवर्तते ततश्चक्षुषी निमील्य धृष्टतया पुनरप्याहइव सहमनुप्पटवय, लोवा तं केइ बिंति छउमत्थो। अन्नपुणपरतित्थि, पवत्तव्वमिणंति जंपंति॥ यस्य केवलिनो भगवत्यां युगपदुपयोगो निषिद्धस्तं केचिच्छद्मस्थोऽसाविति ब्रुवते कथं पुनः केवली छद्मस्थो भण्यत इत्याह। कवेलीति वाक्ये इव शब्दलोपादथवा केवली शासिताऽस्येति केवलिमान इति वाक्ये मतुत्प्रत्ययस्य लोपाच्छद्मस्थोऽसौ केवली तस्य च युगपदुपयोगनिषेधो मयापीष्यत एवेति परस्याभिप्रायः। पर एवाह अन्ये तु केचित्तु परतीर्थिकवक्तव्यताविषयमिदं केवलिनोयुगपदुपयोगनिषेधसूत्रं भगवत्यां केनापि प्रसङ्गेन लिखितमिति जल्पन्त्यतो न केवलिनः क्रमोपयोगनिषेधसूत्रमिति। अथ परस्य विभ्रमापहरणार्थ समस्तभूतग्रामानुग्रहशीलः पुनरपि सूरिराहजं छउमत्थो होहि य, परताबहिणो विसेसि कमसो। निहिसइ केवलिं तेण, तस्स छउमस्थया नत्थि।। यस्माद्भगवत्यामष्टादशशताष्टमोद्देशके छद्मस्थमधोऽधिकं परमावधिकं चेत्येतांस्त्रीनपि क्रमशः प्रथमं विशेष्य विशेषतो निर्दिश्य ततः पर्यन्ते केवलिनं निर्दिशति। तेन तस्मात्तस्य केवलिनः स्वजल्पितबद्धमिथ्यावष्टम्भेन युक्तिविकलधार्श्वसामादिवमतुप्प्रत्ययलोपात्त्वयोपनीयमाना छद्मस्थता नास्ति किंतु निरुपचरितकेवल्येवासौ / यदि पुनरयं छास्थोऽभिप्रेतः स्यात्तदा किमनेन व्याजनिर्देशेन यत्किमपि छद्मस्थस्य भणनीयं तत्प्रथमं छद्मस्थोपन्यासकाल एव सर्वमुक्तं स्यादिति। किंच- नय पासइ अणुमन्नो, छउमत्थोकेवली कोसो। जो पासइ परमाणु, गहपामिणं जस्स होजाहि / / "केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलंजस जाणईत्यादि" भगवत्या मुक्तं तं च परमाणुमवधिज्ञानिनं मुक्त्वा अन्यश्छद्मस्थो न पश्यति तत्रापि सर्वेऽप्यवधिज्ञानिनस्तं पश्यन्ति किं तु यः परमावधिज्ञानी तस्माच परमावधेर्यः किञ्चिन्नयूनावधिरधोवलिकः स एव तं पश्यति तौ चाधोवधिकपरमावधिज्ञानिनौ द्वावपि केवलिनः प्रथममेव निर्दिष्टौ ततस्तयोर्द्वयोरपि विशेषतो निर्धार्य निर्दिष्टत्वात्कोऽन्यो हन्त छद्मस्थकेवली योऽसौ परमाणुपुद्गलं पश्यति यस्य छद्मस्थकेवलिन इदं त्वत्कल्पनया भगवत्यां ग्रहणं भवेदिति / अपिचागमे स्थानान्तरेऽपि छद्मस्थादिभ्य उपरिछद्मातीत एव केवली निर्दिष्टो नत्विवादिलोपकल्पनया छद्मस्थ इतिदर्शयन्नाहतेसिं चिय छउमत्था, इयाण मग्गिज्जए जहिं सुत्ते / केवलसंवरसंज-माईएहिं वि निव्वाणं। तिनिवि पडिसेहेउं, तीसुवि कालेसु केवली तत्थ। सिज्झइ सिम्झिसि सिज्झिस्सइवावि विनिद्दिहो। तेषामेव छद्मस्थादीनामादिशब्दादधोवधिकपरमावधिकेवलज्ञा-निना यत्र यत्र भगवतिप्रथमशतकचतुर्थोद्देशकसूत्रे के वलसंवरसंयमब्रह्मचर्यादिभिनिर्वाणं मोक्षो मृग्यते चिन्त्यते तत्रापि सूत्रेत्रीनपि छद्मस्थाधोवधिकपरमावधिज्ञानिनः प्रतिषेध्य तदुपरि के वली भूतभवद्भविष्यल्लक्षणेषु त्रिष्वपि कालेषु सिध्यति असेधीत् सेत्स्यतीति निर्दिष्टो यदि पुनरयमपि त्वत्कल्पनया छद्मस्थो भवति तदा अस्यापि प्रथमनिर्दिष्टछदास्थस्यैव केवलसंवरादिभिः सिद्धिर्न भवेदिति किं पुनस्तत्सूत्रमुच्यते। "छउमत्थे णं भंते मणूसे तीयमणंतं सासयं समय केवलेणं संवरेणं / केवलेणं संजमेणं केवलादिपवयणमायाहिं सिम्झिसु बुझिसु जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु ! गोयमा ! नो इण? समट्टे से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ ! तं चेव जाव अंतं करिंसु गोयमा ! जे केवि अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति वा करेस्संति वा सव्वे ते उप्पन्ना नाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति बुज्झंति मुचंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करिसुवा करेंति वा करेस्संति वा से तेणट्टेणं गोयमा! जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिसुपडुप्पन्नेवि एव चेव नवरं सिज्झंतिभाणियव्व। अणागएवि एवं चेव / नवरं सिज्झिस्संति भाणियव्वं जहा छउमत्थों तहा अहोहिउ परमाहोविउवि तिन्निर आलावगा भाणियव्वा / केवलीणं भंते ! मणूसे तीतमणतं सासयं समयं जाव अंतं करिंसुहंता सिज्झिंतु वा जाव अंतं करेंसु। एए तिन्नि आलावगा भाणियव्वा छउमत्थे जहा नवरं सिज्झिंसु सिज्झंति सिज्झिस्संति" तस्मादियमेवरीतिः। सिद्धान्ते छद्मस्थादिभ्य उपरियः केवली भण्यते स निरुपचरितएव न पुनरिवादिलोपकल्पनया छदास्थोऽसौ अन्यथा अनन्तर-सूत्रोक्तसिद्धिगमनानुपपत्तेरिति / अथ यदुक्तं "अन्ने पुण परतित्त्थिय वत्तव्व'' मित्यादि तेनासमञ्जस भाषितेनोद्वेजितः परानुकम्पया सखेदं सूरिराह। एवं विसेसियम्मि, परमयमेगंतरो चउग्गेत्ति / न पुणरुभआवेओगो, परवत्तव्वंति का बुद्धी उवओगो एगयरो, पणुवीसइमे सए सणायस्स। Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 193- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग भणिओ वियडत्थो विय,छठुद्देसे विसेसे उ॥ एवं फुडवियडम्मि वि, सुत्ते सव्वनुभासिए सिद्धे। कह तीरइ परतित्थिय-वत्तव्वमिणंति वोत्तुं ते॥ एवमुक्तप्रकारेण विशेषितेऽपिव्यक्तेऽपिक्रमोपयोगसाधके सिद्धान्ते सूत्रे सति योऽयमेकान्तरोपयोगः स परमतं युगपदुभयोपयोगसूत्रंतुयदसदपि भवता किमपि कल्पते तत्र परतीर्थिकवक्तव्यतेति स्वतरसि पक्षपातं परित्यज्य चिन्त्यतां केयं विपर्यासबुद्धिरिति / किंच भगवत्यां पञ्चविंशतितमे शते षष्ठोद्देशके "सिणाएणं भंते! किं सागारोवउत्ते होज्जा अणगारोवउत्ते होजा गोयमा ! सागारोव-उत्तेवि होज्जा अणगारोवउत्तेवि होज्जा"।। इत्यनेन सूत्रेण विशेष्य नामग्राहं स्नातकस्य केवलिनो विकटार्थः प्रकटार्थ एव भणितः प्रतिपादितः। एकस्मिन्समयः एकतरः साकारो नाकारोवा उपयोग इति। एवं स्फुटे सूत्रतो विकटे प्रकटेवाऽर्थतः सर्वज्ञभाषिते सूत्रे सिद्ध कथं सकर्णविज्ञानैः परतीर्थिकवक्तव्यतेयमिति तीर्थते शक्यते वक्तुम् / (जे) इति वाक्यालंकारार्थ इति // अपिचसव्वत्थसुत्तमत्थिय-फुडएगपरोवओगजुत्ताणं। उभओवउत्तसत्ता, सुतिवुत्तान कत्थइ वि।। कस्सइ वि नाम कत्थइ, काले जइ होज दोवि उवओगा। उभओवउत्तसत्ता,ण सुत्तमेगं पितो होना। एकतरोपयोगोपयुक्तानां सत्वानां प्रतिपादकं सूत्रं सर्वत्र सिद्धान्ते स्फुटमस्ति / तच किञ्चिद्दर्शितं दर्शयिष्यते च युगपदुभयोपयोगो युक्तसत्वास्तु सूत्रं क्वचिदप्युक्ताः प्रतिपादिता दृश्यन्त इति / यदि नाम कस्यापि भवस्थकेवलिनः सिद्धकेवलिनो वा क्वचिदपि कालं युगपद् द्वावुपयोगौ भवेतां ततस्तर्हि युगपदुभयोपयोगोपयुक्तसत्वा-ना प्रतिपादकमेकमपि सूत्रे क्वचिदपि भवेन्नतु क्वापि तत्पश्याम इत्यतो निरालम्बनाग्राहमात्रभ्रमित एव भ्राम्यति भवानिति / / अपिचदुविहाणं पिय जीवाण भणियमप्पाबहुंच समयम्मि। सागारणगाराण य,न भणियमुभओवउत्ताणं / / जइ केवलीण जुगवं, उवओगो होज तो एवं / सागारणगाराण य, मीसाण य तिण्हमप्पवहुं॥ साकारोपयोगवतामनाकारोपयोगवतां च द्विविधानामेव जीवानामल्पबहुत्यं समये सिद्धान्ते प्रज्ञापनाल्पबहुत्वपदे भणितम् / तद्यथा "एएसि णं भंते ! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणगारोवउत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला विसेसाहिया वा।। गोयमा सव्वत्थो वा जीवा अणगारोवउत्ता सागारोवउत्ता संखेजगुणा" युगपदुभयोपयोगोपयुक्तानां तु मिश्राणां तृतीयानामिहाल्पबहुत्वं न भणितं यदि पुनः के वलिना युगपदुपयोगद्वयं भवेत्तदैवं सति साकारानाकारमिश्रोपयोगवतां त्रयाणामेवपदानामल्पबहुत्वं भवेन्नद्वयोरिति। अत्र परशङ्का - परिहारं चाहअह व मई छउमत्थे, पडुच मुत्तमिणमो न केवलिणो। तं पि न जुज्जइ जं सव्व सत्तसंखाहिगारो यं // सुगमा नवरं व्याप्त्या सर्वजीवसंख्याधिकारे निर्दिष्टत्वान्नेदं सूत्रं छदास्थविषयं प्रवक्तुं युज्यत इति / / अथ सर्वजीवाधिकारोडयं न भवतीत्यत्राह काउंसिद्धग्गहाणं, बहुवत्तव्वयपदेसु सव्वेसु। इह केवलमग्गहणं, जइ तो तं कारणं वचं / / यदि सर्वजीवाधिकारोऽयं न भवति तर्हि "गइ इंदियवेए काए जोए कसायलेसास्वित्यादिष्वन्येषु अल्पबहुत्ववक्तव्यताविचारविषयभूतेषु पदेषु सिद्धिगतिकानीन्द्रियकाययोग्यकषायलेश्या नोसंयतनोपरीत्तादिपदैः पृथक् सिद्धग्रहणं कृत्वा केवलमिहैवोपयोगपदे पृथक्त्वग्रहणं करोति / ततस्तत्र कारणं वाच्यं यदि हि छद्मस्थाधिकारत्त्वादिह तदग्रहणमित्युच्यते तर्हि शेषपदेषु सिद्धकेवलिग्रहणमयुक्तं स्यात्तस्मात्सर्वजीवाधिकार एवायं केवलमाहारकानाहारकभाषकादिपदद्वयेनैवानेन साकारानाकारोपयोगपदद्वयेन सिद्धके वलिना गृहीतत्वादिह पृथक्त्वादग्रहणमिति / आगमान्तरतोऽप्यत्र छद्मस्थाधिकारशङ्का निवर्तयन्नाह॥ अहवा विसेसियं चिय,जीवाभिगमम्मि एयमप्पबहु। दुविहत्ति सव्वजीवा, सिद्धासिद्धाइया जत्थ॥ अथवा छद्मस्थाधिकारशङ्कानिवर्तकत्वाद्विशेषितमिवैतत्साकारानाकारोपयोगयोः पदद्वयस्याल्पबहुत्वं जीवाभिगमे प्रोक्तमिति शेषः॥ क्व सूत्रे इत्याह / सिद्धासिद्धादिभेदेन द्विविधा एव सर्वे जीवा यत्र सूत्रे प्रतिपाद्यन्त इति तदेव सूत्रं गाथयोपनिबध्य दर्शयन्नाह / / सिद्धसइंदियकाए, जोए वेए कसायलेसा य। नाणुवओगाहारय, नासयसरीरचरमे य।। सिद्धा असिद्धाश्च सेन्द्रिया अनिन्द्रियाश्च सकाया अकायाश्चेत्यादि भेदेन सर्वे जीवाः संगृह्यात्रसूत्रे जीवाभिगमे प्रतिपाद्यन्ते तत्र सूत्रविशेषितमे वेदमल्पबहुत्वप्रतिपादितमिति युगपदुपयोगद्वयपक्ष निराचिकीर्षुराह॥ अंतोमुहुत्तमेवे य, कालो मणिओ न होवओगस्स। साइअपज्जवसिओत्ति, नत्थि कत्थइ वि निद्दिट्ठो / / तथा ज्ञानाज्ञानदर्शनानामुपयोगस्यागमे सर्वत्र अन्तर्मुहूर्तमेव कालो भणितःसाद्यपर्यवसितस्तुउपयोगकालः क्वापि नास्ति विनिर्दिष्टः यदिह साकारानाकारोपयोगरूपो मिश्रः सिद्धानामुपयोगः स्यात्तदा तेषामिव तस्यापि साद्यपर्यवसितत्वं स्यान्नचैतत्सिद्धान्ते क्वापि भणितं दृश्यते तस्मान्नास्ति युगपदुपयोगद्वयमिति॥ एतदेवाहजह सिद्धाईयाणं, भणियं साईअपञ्जवसियत्तं। तह जइ उवओगाणं, भणियं हवेज तो जुगवं // यथा सिद्धादीनामादिशब्दादनिन्द्रियकादीनां साद्यपर्यवसितत्वं भणितं तथा यधुपयोगानामपि तद्भणितं भवेत्ततस्तौ साकारानाकारोपयोगी युगपद्भवेतां न चैवं तस्मान्न युगपदुपयोगद्वयमिति तदेव सूरिःपरस्याभिनिवेशं निराकृत्यात्मनि तदाशङ्का निराकर्तुमाहकस्स व नाणुमयमिणं, जिणस्स जइ होज दो वि उवओगा। नूणं न होत्ति जुगवं, जओ निसिद्धा सुए बहुसो।। नवि अभिनिवेसबुद्धी, अम्हं एगंतरोवओगम्मि। तदवि मणिमो न तारइ, जं जिणमयमन्नहा काउं॥ पाठसिद्धे एव / अथ परपृच्छामुत्तरं चाह / / "जइ तन्नोन्नावणत्तमे वमित्त्यादि' गाथायां यन्मया 'इयरे यरावरणया अहवा निक्कारणाचरणमित्यादि" दूषणमुक्तं तद्यदि प्रागुक्ते नैव प्रकारेण त्वया नेष्यते तर्हि कथ जिनस्य केवलिन एकान्तरोपयोगेऽभ्युपग Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 864 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग म्यमाने तस्य युगपदुपयोगवृत्तेरावरणं तदावरणमिति कथ्यतां सूरिराह। भण्यतेऽत्रोत्तरम् / "तंति तदावरण'' मिह स्वभावो द्रष्टव्यः ईदृश एव जीवस्वभावो येन क्रमेणैवोपयोगः प्रवर्तते न युगपत् न च स्वभावः पर्यनुपयोगमर्हति / अग्निर्दहति नाकाशमित्यादिष्वपि तत्प्रसङ्गादिति / एतदेव समर्थयतिपरिणामिय भावाओ, जीवत्तं पिय सभावए वायं। एगंतरोवओगो, जीवाणमणन्नहेउत्ति। यथा जीवस्स जीवत्वमनन्यहेतुकं पारिणामिकभावत्वादेवमेकान्तरोपयोगोऽपि परिणामिकत्वात्तस्य स्वभाव एव ततो नास्यान्यो हेतुरन्वेषणीय इति॥ विशे०। स्था०।नं। संप्रति चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण नैरयिकादीन् चिन्तयन्नाहणेरइयाणं भंते ! कइविहे उवओगे पण्णते? गोयमा ! दुविहे उवओगे पण्णत्ते। तंजहा सागारोवओगे य अणागारोवओगे य। णेरझ्याणं मंते ! सागारोवओगे कइविहे पण्णत्ते गोयमा! छविहे पण्णत्ते तंजहा मतिनाण० सुयनाण० ओहिनाण० मतिअनाण सुयअन्नाण विभंगनाणसागारोवओगे। णेरइयाणं भंते ! अणायारोवओगे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते तंजहा चक्खुदंसण० अचक्खुदंसण० ओहिदसणअणागारोवओगे। एवं जाव थणियकुमाराणं / / नैरयिका हि द्विविधा भवन्ति सम्यग दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च / अवधिरपि तेषां भवप्रत्ययोऽवश्यमुपजायते भवप्रत्ययो नारकदेवानामिति वचनात् / तत्र सम्यग्दृष्टीनां मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टीना मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानीति सामान्यतो नैरयिकाणां षड्विधः साकारोपयोगः। अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं च। एष त्रिविधोऽप्यनाकारोपयोगः सम्यग्दृशां मिथ्यादृशां वा विशेषेण प्रतिपत्तव्यः उभयेषामप्यवधिदर्शनस्य सूत्रे प्रतिपादितत्वात्। एवमसुरकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां भवनपतीनामप्यवसेयम्। पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते, तंजहा सागारोवओगे य अणागारोवओगे य / पुढविकाइयाणं भंते ! अणागारोवओगे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा मतिअन्नाणसुयअन्नाण / पुढविकाइयाणं भंते ! अणागारोवओगे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगे अचक्खुदंसण अणागारोवओगे पण्णत्ते एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / वेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा दुविहे पण्णत्ते तंजहा सागारो अणागारो। वेइंदियाणं सागारोवओगे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा आमिनिबोहियनाण० सुयनाण० मतिअन्नाण० सुयअन्नाण० / वेइंदियाणं भंते ! अणागारोवओगे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा ! एगे अचक्खुदंसणअणागारोवओगे एवं तेइं दियाणं चउरिदियाणं वि एवं चेव नवरं अणागारोवओगे दुविहे पण्णत्ते चक्खुदंसण० अचक्खुदंसणअणागारोवओगे य / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा णेरइयाणं मणुस्साणं जहा ओहिए उवओगे भणियं तहेव भाणियव्वं / वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा णेरइयाणं। पृथिवीकायिकानां साकारोपयोगो द्विविधस्तद्यथा मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान चाऽनाकारोपयोग एकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः शेषोपयोगानां तेषामसंभवात् समयग्दर्शनादिलब्धिविकलत्वात् / एवमप्तेजोवायुवनस्पतीनामपि येदितव्यम् / द्वीन्द्रियाणां साकारोपयोगश्चतुर्विधस्तद्यथा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानम् / तत्रापर्याप्तावस्थायां केषांचित्सास्वादनभावमासादयितां मतिज्ञानश्रुतज्ञाने शेषाणां तु मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने / अनाकारोपयोगस्त्वेकोऽचक्षुर्दर्शनरूपः शेषोपयोगानाम्। एवं त्रीन्द्रियाणामपि चतुरिन्द्रियाणा-मप्येवम्। नवरमनाकारोपयोगो द्विविधः चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं च / पञ्चेन्द्रियतिरिश्व साकारोपयोगः षड्विधस्तद्यथा मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान विभङ्गज्ञानम्। अनाकारोपयोगस्त्रिविधस्तद्यथा चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिद्विकस्यापि केषुचित्तेषु सम्भवात्। मनुष्याणां यथासम्भवमष्टावपि साकारोपयोगाश्चत्वारोऽप्यनाकारोपयोगा मनुष्येषु सर्वज्ञानदर्शनलब्धिसम्भवात् व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकास्तदेवं सामान्यतश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण जीवानामुपयोगश्चिन्तितः।। संप्रति मन्दमतिस्पष्टावबोधाय जीवा एव तत्तदुपयोगोपयुक्ताः सामान्यतश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्त्यन्तेजीवा णं भंते ! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि / सेकेणट्टेणं भंते ! एवं दुबइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागारो वउत्तवि? गोयमा ! जेणं जीवो आमिनिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणमणपज्जवकेवलनाण, मतिअण्णाणसुयअण्णाणविभंगनाणोवउत्ता तेणं जीवा सागारोवउत्ता जेणं जीवा चक्खुदंसणअचक्खुदंसणओहिदंसणकेवलदसणोवउत्ता तेणं जीवा अणागारोवउत्ता से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचइ जीवा सागारोवउत्ता वि अणागा-- रोवउत्ता वि। नेरइया णं भंते ! किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! नेरइया सागारोवउत्ताविअणागारोवउत्तावि। से केणटेणं मंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! जेणं नेरइयाणं आभि-- निबोहियनाण सुयनाण ओहिनाण मइअन्नाण सुयअन्नाण विभंगनाणो वउत्ता तेणं नेरझ्या सागारोवउत्ता जेणं नेरइया चक्खुदंसण अचक्खुदंसण ओहिदंसणोवउत्ता तेणं नेरइया अणागारोवउत्ता / से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव अणागारो वउत्ता एवं जाव थणियकुमारा / पुढविकाइयाणं पुच्छागोयमा! तहेव जाव जेणं पुढविकाइया मतिअन्नाण सुयअन्नाणोवउत्ता तेणं पुढविकाइयाणं सागारोवउत्ता जेणं पुढवि० अचक्खुदंसणोवउत्ता तेणं पुढवि० अणागारो विउत्ता। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचई जाव वणस्सइकाइया वेइंदियाणं अट्ठसहिया तहेव पुच्छा जाव जेणं वेइंदिया आभिनिबोहियनाण सुयनाण मतिअन्नाण सुयअन्नाणोवउत्ता तेणं Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 865 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओग वेइंदिया सागारोवउत्ताजेणं वेइंदिय अचक्खुदंसणोवउत्ता तेणं वेइंदिया अणागारोवउत्ता से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुचइ? एवं जाव चउरिदिया णवरं चक्खुदंसणं अब्भहियं चउरिदियाणंति पंचें दियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया मणूसा जहा जीवा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरइया इति।। जीवाणंभन्ते इत्यादि सुगमम् / प्रज्ञा०२६ पद० / भ० / जी० (जीवेषूपयोगाः जीवट्ठाणशब्दे) गतीन्द्रियादिषु मार्गणास्थानेषु उपयोगाः मणुयगईए वारस, मणकेवलवज्जियाउ नव मीसे। इगिथावरेसुतिविओ, चउविगले वारसे सगले।। मनुजगतौ द्वादशाप्युपयोगाः अन्यासु च नारकामरतिर्यग्गतिषु प्रत्येक मनःपर्यायकेवलद्विकवय॑चक्षुरचक्षरवधिदर्शनाख्यास्त्रय उपयोगा: भवन्ति / तुशब्दस्याधिकार्थसंसूचनान्मतिश्रुतावधिज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनरूपाः षट् उपयोगा दृश्यन्ते अज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः षट्। मिश्रे आद्यज्ञानत्रिकाज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपा नव प्ररूप्यन्ते / तथा चत्वारो विकलेष्वन्येषामसंभवाचतुरिन्द्रियेषूपयोगास्तत्र त्रयः पूर्वोक्ता एय / चतुर्थस्तु चक्षुर्दर्शनम् / उपलक्षणं चैतत्तेनैत एव चत्वारोऽसंज्ञिनि वेदितव्याः। तथा उसेषु (सगलित्ति) पञ्चेन्द्रियेषु द्वादश / / जोए वेए सण्णी, आहारगभव्वसुक्कलेसासु। वारस संजमसम्मे, नव दस लेसा कसाएसु / / योगे मनोवाक्कायरूपे वेदे स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणे, संज्ञिनि आहारक-भव्येषु | शुक्ललेश्यायां च द्वादशाप्युपयोगाः। वेदश्चेह द्रव्यरूपः आकारभावो गृह्यते तेन तत्र केवलज्ञानाद्यविरोधः। तथा संयमे यथाख्यातरूपे सम्यक्त्वे। क्षायिकलक्षणे नवोपयोगास्तत्राज्ञानत्रिकाभावात् / तथा लेश्यासु कृष्णनीलकापोततेजः पद्माख्यासु कषायेषु च चतुर्षु केवलज्ञानकेवलदर्शनहीनाः शेषा दशोपयोगा कृष्णादिलेश्याभावे केवलद्विकानुत्पादात्। इह ये उपयोगायैरुपयोगैः सह न भवन्ति यैश्च सह भवन्ति तान तथोपदर्शयन्नाह। सम्मत्तकारणेहिं, मिच्छत्तनिमित्तानहाति उवओगा। केवलदुगेण सेसा, संतेव अचक्खुचक्खुस्सु॥ सम्यक्त्वं कारणं येषान्तेसम्यक्त्वकारणास्तैर्मतिज्ञानादिभि-रुपयोगैः सह मिथ्यात्वनिमित्ता मिथ्यात्वनिबन्धना मत्यज्ञानादयः उपयोगान भवन्ति / तथा केवलद्विके न केवलज्ञान केवलदर्शनरूपेण सह शेषान्छादास्थिका मतिज्ञानादय उपयोगा न भवन्ति देशज्ञानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलज्ञानदर्शनप्राप्तुर्भावात्। “उप्पत्तंसि अणंते | नहमियच्छाउमत्थिए नाणे" इति वचनप्रामाण्यात् / आह ननु यदि मतिज्ञानादीनि स्वस्वावरणक्षयोपशमेऽपि प्रादुष्यन्ति तर्हि सकलस्वस्वावरणक्षये सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् तत्कथं केवलज्ञालदर्शनभावे मतिज्ञानाद्यभाव आदरः "आवरणदेसविगमे, जाईविजति मई सुयाईणि / आवरणसव्वविगमे, कह ताइ न होति जीवस्स" उच्यते इह यथा सहस्रभानोरुपचितघनपटलान्तरितस्यापान्तरालावस्त्रितकटकुड्याद्यावरणविवरप्रविष्टः प्रकाशो ऽस्पष्टरूपो घटपटादीन् प्रकाशयति तथा केवलज्ञानावरणावृतस्य केवलज्ञानस्यापान्तरालमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमरूपविवरविनिर्गतः प्रकाशो जीवादीन् पदार्थान् प्रकाशयति / स च तथा प्रकाशयंस्तत्तत्क्षयोपशमानुरूपं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमित्यादिरूपमभिधानमुदहति। ततो यथा सकलघनपटलकटकुड्याद्यावरणापगमे स तथाविधप्रकाशसहस्रधाकारास्पष्टरूपो न भवति किं तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽन्य एवच तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमतिज्ञानाद्यावरणविलयेन तथाविधोऽस्पष्ट रूपो मतिज्ञानादिसंजिनः केवलज्ञानस्य प्रकाशो भवति सर्वात्मना यथावस्थितं वस्तुपरिच्छिन्दन् परिस्फुटरूपोऽन्य एवेत्यदोषः। उक्तं च / कडविवरागव्यकिरणा, मेहंतरियस्स जह दिणेसस्स / उक्कडमेहावरणे, न हो ति जह तह इमाइंपि"। अन्ये पुनराहुः। सत्येव सयोगिकेवल्यादावपि मतिज्ञानादीनि केवलमफलत्वात्सन्त्यपि तदानींतनानि न विकसन्ति सूर्योदये नक्षत्रानीनि / उक्तं च / "अत्ते आभिणिबोहियनाणाईणि वि जिणस्स विजंति / अफलाणि य सूरुदए, जहेव नक्खत्तमाईणि" तथा (संतेवअचक्खुचक्खुस्सुत्ति) सन्त्येव भवन्त्येदा अचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शनाभ्यां बहुवचनात् अवधिदर्शनेन च सह सम्यक्त्वनिमित्ता मिथ्यात्वनिमित्ताश्चोपयोगास्तेन मतिश्रुतावधिज्ञानमनः पर्यायज्ञानसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपरायक्षायो-पशमिकौपशमिकसम्यक्त्वेषु केवलद्विकाज्ञानत्रिकहीनाः शेषाः सप्तोपयोगाः। अज्ञानत्रिकावरणसास्वादनमिथ्यात्वेषु केवलद्विकमतिज्ञानादिचतुष्टयरहिताः शेषाः षट् केवलद्विके केवलज्ञानकेवलदर्शन चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेषु केवलद्विकहीनाः शेषा दश / मनः पर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनरहिताश्च शेषा दशानाहारके सूत्रे च। अचक्खुचखुस्सुत्ति)सप्तमी तृतीयार्थे वेदितव्या भवति // यदाह पाणिनिः प्राकृतलक्षणे तृतीयार्थे सप्तमी यथा तिसु तेसु अलंकियापुहई इति" तदेवं कृता मार्गणास्थानेषु योगोपयोगमार्गणा।। पं० सं०१ द्वा० / गुणस्थानेषूपयोगाः। अधुनैतेष्वेवोपयोगानभिधातुकाम आह / / तिअनाणदुदंसाइम-दुगे अतियदेसिनाणदंसतिगं। ते मीसे मीससमणा, जयाइकेवलिदुयंतदुगे॥४८|| आदिमद्विके मिथ्यादृष्टिसास्वादनलक्षणे प्रथमद्वितीयगुणस्थानकद्वये इत्यर्थः (तियनाणदुदंसत्ति) त्रयाणामज्ञानानां समाहारस्यज्ञानं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपं दर्शनं दर्शः। द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्शम् / चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनरूपमित्येते पञ्चोपयोगा मिथ्यादृष्टिसास्वादनयोर्भवन्ति न शेषाः सम्यक्त्वविरत्यभावात् / तथा अयतेऽविरतसम्यग् दृष्टौ देशे देशविरते षडुपयोगा भवन्ति तथा हि (नाणदंसतिगति) त्रिकशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् ज्ञानत्रिक मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानरूपं दर्शत्रिकं चक्षुरचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनलक्षणमिति न शेषाः सर्वविरत्यभावात्। ते पूर्वोक्ता ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकरूपाः षडुपयोगा मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके मिश्रा अज्ञानसहिता दृष्टव्याः तस्योभयदृष्टिपातित्वात् केवलं कदाचित्सम्यक्तवबाहुल्यं कदाचिच मिथ्यात्वबाहुल्यम्। ततोऽज्ञानबाहुल्यसमकक्षतायां तूभयांशसमतेति / अस्मिश्च गुणस्थानके यदवधिदर्शनमुक्तं तत्सैद्धान्तिकमतापेक्षया दृष्टव्यमित्युक्तं प्राक् / (समणाजयाइत्ति) यमस्तृपरमेयमनं यतम् / यतं विद्यते यस्य स यतः अभ्रादिभ्य इत्यप्रत्ययः प्रमत्तगुणस्थानकवर्ती साधुर्यत आदिर्येषां गुणस्थानकानां तानि यतादीनि प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिवादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमो हक्षीणमो हलक्षणानि सप्तगुणस्थानकानि तेषु पूर्वोक्तज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकाख्याः यदुपयोगाः (समणत्ति) मनः Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओग 896 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवओगकरावणिया कर्म० पर्यायज्ञानसंहिताः सप्त भवन्तीति न शेषा मिथ्यात्वघातिकर्मक्ष- | उवओगकरावणिया स्त्री०(उपयोगकाराणिका) उपयोगकरण-विधौ, याभावात्। केवलद्विकं केवलज्ञालकेवलदर्शनलक्षणोपयोगद्वय-रूपम्। सा चैवम्।। अतएव द्विके सयोगिकेवलिलक्षणचरमगुणस्थानकद्वये भ-न शेषा पडिलेहिअ सुपमजिअ, तत्तो पत्ताणि पडलजुत्ताणि। ज्ञानदर्शनलक्षणास्तदुच्छेदेनैव केवलज्ञानकेवलदर्शनोत्पत्तेः "नट्ठम्म्यि उग्गहियगुरुपुरओ, उवओगं कुणइ उवउत्तो / / 2 / / छाउमथिए नाणे' इति वचनात् तदेवमभिहितांगुणस्थानकेषूपयोगाः / / संपइ सामायारी, दीसइ एसाय भागसमयम्मि। अचक्खुचक्खुदंसण-सन्नाणतिगं च मिच्छसासाणो। जं किज्जइ उवओगो, वालाइअणुग्गहट्ठाए // 3 // विरयाविरएसम्मे, नाणतिगं दंसणतिगं च / पञ्चवस्तुकेऽपि 'काइअमाइअजोगं, काउं घेत्तूण पत्तए ताहे / दंड अचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शनम् अज्ञनिविकं च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्ग संजयंतो, गुरुपुरओ ठवित्तु उवउत्तो / / 1 / / उपयोगकरणविधिस्त्वेवं लक्षणम् / चः समुच्चये मिथ्यादृष्टौ सास्वादने चोपयोगा भवन्ति / यत्तु तत्रैवम्। अवधिदर्शनं तत्कु तश्चिदभिप्रायाद्विशिष्टाः श्रुतविदो नेच्छन्ति तन्न संदिसह भणंति गुरूं, उवओगं करेसु ते मणुण्णाया। सम्यगवगच्छामः। अथ च सूत्रे मिथ्यदृष्ट्यादीनामवधिदर्शनं प्रतिपाद्यते उवओगकरावणियं, करेसु उस्सग्गमिच्चाइ // 1 // यतउक्तं प्रज्ञप्तौ "ओहिदंसणअणगारोवउत्ताणं भवइते किं नाणी अन्नाणी संदिशतेति गुरुं भणंति किमित्याह (उवओगं करेमित्ति) इच्छाकारण गोयमा नाणी वि अन्नाणी वि / जइ नाणत्तो अत्थेगइया तिनाणी संदिसह भगवन् ! उपयोगकरूँ" इति भणतीत्यर्थः / तत अत्थेगइया चउनाणी जे तिनाणी ते आभिणिबोहियनाणीसुयनाणी उपयोगकारावणियं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ इत्यादि भणति। ओहिनाणी जे चउनाणी ते अभिनिबोहि-यनाणी सुयनाणी ओहिनाणी अह कट्टिऊण सुत्तं,अक्खलिआइगुणसंजुअंगच्छा। मणपज्जवनाणी / जे अन्नाणी ते नियमा मइअन्नाणी सुयअन्नाणी चिट्ठिति काउसग्गे , चिंतिंति अत्थमंगलयं // 2 // विभंगनाणी इति''||अत्र हि ये अज्ञानिनस्ते मिथ्यादृष्टीनामप्यवधिदर्शनं साक्षादव सूत्रे प्रतिपा-दितम् यदा त्ववधिज्ञानी सास्वादनभावं मिश्रभावं सुगमा / परं (मंगलंति) पञ्चमङ्गलनमस्कारं कायोत्सर्ग चिन्तयन्ति वा गच्छ ति तदा तत्राप्यवधिदर्शनं प्राप्यते इति / तथा विरताविरते अत्र पक्षद्वयमाह। देशविरते (सम्मेति) अविरतसम्यग्दृष्टौ मतिश्रुतावधिलक्षणज्ञानत्रिक तप्पुय्वयं जयत्थं, अन्नेउ भणंति धम्मजोगगिणं / चक्षुर-चक्षुरवधिदर्शनत्रिकमिति षट् उपयोगा भवन्ति। गुरुबालवुड्डसिक्खग, रेसिम्मिण अप्पणो चेव॥३॥ मिस्सम्मिय वा मिस्सं, मणनाणजयं पमत्तपुथ्वाणं। तत्पूर्वकं नमस्कारपूर्वकं पदार्थ तय चिन्तयन्ति सम्यगनालोचितस्य केवलियनाणदंसण, उवओगअजोगिजोगासु।। ग्रहणप्रतिषेधात् तस्माद्यावन्नालोचितं हृदितावन्न किचिंग्राह्यम्। अन्ये मिश्रे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ तदेव ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं चानन्तरोक्त- आचार्या इत्थं भणन्ति धर्मयोगमेनं चिन्तयन्तीति / किं विशिष्ट मज्ञानव्यामिश्रं द्रष्टव्यम् / मतिज्ञानं मत्यज्ञानमिश्रमित्यादि केवलं गुरुबालवृद्धशैक्षरेष एतदर्थ नात्मार्थम्।३। ततः किमित्याहकदाचित्सम्यक्त्वबाहुल्यतो ज्ञानबाहुल्यं कदचिच मिथ्यात्वबा- चिंतेतु तओ पच्छा, मंगलपुव्वं भणंति विणयणया। हुल्यतोऽज्ञानबाहुल्यं समतायां तु सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोरुभयो-रपि संदिसहत्ति गुरू वि अ, लाभोत्ति भणेति उवउत्तो।। समतेति तथा तदेव पूर्वोक्तमुपयोगषकं मनः पर्ययज्ञानयुतम्। प्रमत्तः चिन्तयित्वा पश्चात् (मंगलपुट्विंति) "नमो अरिहंताणं ति'' भणनपूर्व पूर्वो येषां ते प्रमत्तपूर्वास्तेषां प्रमत्त पूर्वकरणा निवृत्तिबादर विनयनता भणन्ति किमित्याह (संदिसहे त्ति) सूरिरनुजानातीत्यर्थः। सूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहानामवसेयम् / तथा केवलज्ञा-- नकेवलदर्शनलक्षणौ द्वावुपयोगौ सयोग्ययोगिकेवलिषु द्रष्टव्यौ न शेषाः गुरुरपि भणति (लाभोत्ति) कालोचितानुकूलानपायित्वात् उपयुक्तो "केवलदुगेन सेसा” इति वचनात्।।पं० सं०१।द्वा०। निमित्ते ऽप्यसंभ्रान्तः॥४|| ततः किमित्याह(अवशिष्टवक्तव्योपयोगस्य मार्गणास्थानाल्पबहुत्वं संजतनिग्गंथादि कहपेच्छमोत्ति पच्छा, सविसेसणया भणंति ते सम्म। शब्देषु।) अवधाने, आव०६ अ०। यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृति आह गुरूवि तहत्ति, जह गहिहं पुव्वसाहूहिं // 5 // प्रति व्याप्रियते तन्निमित्तमात्मनो मनः साचि-व्यादर्थग्रहणं प्रति ततः कथं गृहीष्याम एवं पश्चात् सविशेषनतास्ते साधवः सम्यग भणन्ति व्यापाररूपे, आचा०१ श्रु० 2 अ० 130 / स्वस्वविषये ततो गुरुरप्याह यथा गृहीतं पूर्वसाधुभिरित्यनेन गुरोरसाधुप्रायोग्येन लब्ध्यनुसारेणात्मनः परिच्छेदव्यापारस्वरूपेवा भावेन्द्रियभेदे, जी०१ भणनप्रतिषेधमाहप्रति० / आ०म० द्वि० / "जो सविसयवावारो उवओगो''। यः आवस्सियाए जस्स य, जोगुत्ति भणितु ते उणिग्गंति। श्रोत्रादीन्द्रियस्य स्वविषये शब्दादौ परिच्छेद्य व्यापारः स उपयोगः णिक्कारणेण कप्पइ, साहूणं वसहिणिग्गमणं / / उपयोजनमुपयोगः / विवक्षितकर्मणि मनसोऽभिनिवेशे, विशे० / "उवओगदिठसाए कम्मप्पसंगपरिघोलणविसाला" नं०। आ०चू० / आवशिक्या साधुक्रियाभिधायिन्या हेतुभूतया (जस्सयजोगुत्ति) आ०म० द्वि०। कायोत्सर्गे, महा०७ अ०1 उपयोगाकरणे प्रायश्चित्तम्। भणित्वा निर्गच्छन्ति वसतेः तस्यार्थस्त्वेवं यस्य वस्तुनो वस्त्रपा"चेइर्हि अवंदिएहिं उवओगं करेजा पुरिवर्ल्ड गुरुणो अंतिए णोवओगं त्रशैक्षादेर्यो गः संयमोपकारकः संबन्धो भविष्यति तं ग्रहीष्यामीत्यर्थः करेजा / चउत्थं अकएणं उवओगेणं किंचि पडिगाहेज्जा चउत्थं अविहीए किमेतदित्याह निष्कारणे न कल्पते साधूनां वसतिनिर्गमनं तत्र उवओगं करेज्जा / व्याप्रियमाणतायाम्, आ०म०प्र० / लिङ्गे, चिहे, दोषसंभवादिति। यस्य योगइत्यस्याऽकरणे च दोषो यदुक्तमोघनियुक्तौ / / विशे० आचरणे, भोजने, इष्टसिद्धिसाधने, व्यापारे, आनुकूल्ये च। जस्स य जोगमकाऊण, निग्गओन लभेज सचित्तं / वाचा नयवत्थपायमाई, तेणं गहणे कुणसु तम्हा।। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उओगकरावणिया 567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवकप्प यस्य योगमित्येवमकृत्वाऽभणित्वा निर्गतः सन्न लभते नाभाव्य-तया प्राप्नोति सचित्तं प्रव्रज्यार्थमुपस्थितं गृहस्थं नाप्यचित्तं वस्त्रपात्रादि / अथ यदि गृह्णाति ततः स्तैन्यं भवत। तस्मात्कुरु अस्य योगमिति। एवं चोपयोगकरणे चत्वारि स्थानानि तदुक्तम् "आपुच्छणत्ति पढमा, विइय पडिपुच्छणा य कायव्वा। आवस्सिआय तइआ, जस्सय जोगो चउत्थो उ"ध०३अधि०। उवओगगुण पुं०(उपयोगगुण) उपयोगः साकारानाकारभेदं चैतन्यं गुणो धो यस्य स तथा / चैतन्यधर्मके जीवे, "जीवे सासए गुणओ उवओगगुणे" स्था०५ ठा०। भ०। उवओगजुय त्रि०(उपयोगयुत) अवहितमनसि, "तं पुण संविग्गेणं उवओगजुएण तिव्वसद्धाए" पंचा० 4 विव० उवओगट्ठया स्त्री०(उपयोगार्थता) विविधविषयानुपयोगाश्रयणे, "उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए विअहं' विविधविषयानुपयोगानाश्रित्याने कभूतभावभविकोऽप्यहमष्यतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबोधनात्मनः कथंचिदभिन्नानां भूतत्वाचेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति / भ०१८ श०१० उ०। उवओगदि ठसारा स्त्री०(उपयोगदृष्टसारा) उपयोजनमुपयोगो विवक्षितकर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सारस्तस्येव विवक्षितकर्मणः परमार्थः उपयोगेन दृष्टः सारो यया सा उपयोगदृष्ट सारा / अभि-- निवेशोपलब्धकर्मपरमार्थायां बुद्धौ, "उवओगदिट्ठसारा, कम्मपसगपरिघोलणविसाला' नं०॥ उवओगपरिणाम पुं०(उपयोगपरिणाम) उपयोग एव परिणाम उपयोगपरिणामः जीवपरिणामभेदे, प्रज्ञा०१२ पद / स च साकारानाकारभेदाद् द्विधा, स्था०१० ठा०। उवओगवक न०(उपयोगवाक्य) आनन्दस्य भगवन्तं प्रतिवाक्य भेदे,। / दर्श उवओगवीरिय पुं०(उपयोगवीर्य) आध्यात्मिकवीर्य्यभेदे,उपयो-गवीर्यं साकारानाकारभेदात् द्विविधम् / तत्र साकारोपयोगोऽष्टधा अनाकारश्चतुर्धा तेन चोपयुक्तः स्वविषयस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपस्य परिच्छेदं विधत्ते इति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। उवओगाता स्त्री०.पुं०(उपयोगात्मन्) उपयोगः साकारानाका रभेदस्तत्प्रधानः आत्मा उपयोगात्मा। सर्वजीवानां सिद्धसंसारिस्वरूपे विवक्षितवस्तूपयोगविशिष्ट वा आत्मभेदे, भ०॥ 12 श० 10 उ० / / उवंग न०(उपाङ्ग) उपमितमङ्गेन। अङ्गावयवभूतेऽङ्गुल्यादौ, प्रज्ञा०२३ पद / कर्म०। आ०म० द्वि० / विशेष कर्णादिषु, च / उपाङ्गानि कर्णी नासे अक्षिणी जडे हस्तौ पादौ च / उत्त०३ अ०ा आचा०ा 'होति उवंगा कण्णाणासच्छी जंघा हत्था पाया य कण्णाणासिगा अच्छि जंघपादाय एवमादी सवे उवंगा भवंति || नि०चू०१उ०|| कर्म०। अङ्गार्थविस्ताररूपे, // कल्प०॥ शिक्षाद्यङ्गोक्तप्रपञ्चनपरे प्रबन्धे, ज्ञा०५ अ०। नि०। संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेयाणं" औ०।। लोकोत्तरिकाचाराङ्गै कदेशप्रपञ्चरूपे श्रुते तानि च द्वादश तथाहि तत्राङ्गानि द्वादश उपाङ्गान्यपि अङ्गैकदेशरूपाणि प्रायः प्रत्यङ्गमेकैकभाया भवन्त्येव / तत्राङ्गानि आचाराङ्गादीनि प्रती-तानि। तेषामुपाङ्गानि क्रमेणामूनि आचाराङ्गस्यौपपातिकम्।।१।। सूत्रं तदङ्गस्य राजप्रश्नीयम् // 2 // स्थानाङ्गस्य जीवाभिगमः // 3 // समवायाङ्गस्य प्रज्ञापना / / 4 / / भगवत्याः सूर्यप्रज्ञप्तिः / / 5 / / ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः // 6 / / उपासक दशाङ्गस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिः / / 7 / / अन्तकृद्दशाङ्गादीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां पञ्चानामप्यङ्गानां निरयावलिका / श्रुतस्कन्धगतकल्पिकादि पञ्चवर्गाः पञ्चोपाङ्गानि तथाहि अन्तकृद्दशाङ्गस्य कल्पिका // 6|| अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गस्य कल्पावतंसिका 6 प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिता // 10 // विपाकश्रुतस्य पुष्पचूलिका // 11 // दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा / / 12 / / इति। जं०१ वक्ष०।। उपाङ्गानि केन कृतानीत्यत्र प्रश्नोत्तरे तत्रोपाङ्गानि किं गणधररचितानि अन्यथा वा तथाङ्गप्रणयनकालेऽन्यदा वा तन्निर्माणमिति। सूत्रोपाङ्गानि स्थविराः कुर्वन्तितीर्थकरे विद्यमानेऽविद्यमाने यान्यनप्रणयनकाले एवं तेषां निर्माणमिति नैकान्त इति नन्दीसूत्रवृत्तौ व्यक्तोक्तमस्ति तेन विशेषतस्ततोऽवसेयमिति ही०। (अङ्गप्पविठ्ठशब्दे तथा दर्शितम्) उपाङ्गेषु केन किं विवृतम् उपाङ्गानां च मध्ये प्रथममुपाङ्गं श्रीअभयदेवसूरिभिर्विवृतम् / राजप्रश्नीयादीनि षट् श्रीमलयगिरि पादैर्विवृतानि पञ्चोपाङ्गमयी निर्यावलिका च श्रीचन्द्रसूरिभिर्विधृता तत्र प्रस्तु-- तोपाङ्गस्य वृत्तिः श्रीमलयगिरिकृताऽपि संप्रति कालदोषेण व्य-वच्छिन्ना इदं च गम्भीरार्थतया अतिगहनं तेनानुयोगरहितं मुद्रितराजकीयकमनीयकोशगृहामिव न तदर्थार्थिनां हस्तानुयोगार्पितसिद्धिकं संजायत इति कल्पितार्थकल्पनकल्पद्रुमाणां युगप्रधानसमानम् / संप्रति विजयमानगच्छनायकपरमगुरुश्रीहरिविजयसूरीश्वरनिर्देशेन कोशाध्यक्षाज्ञया प्रख्येणेवोन्मुद्रणमिव मया तदनुयोगः प्रारभ्यते / / जं०१ वक्ष रा०ा तिलके, पुं० वाच०। उवंगतिग न०(उपाङ्ग त्रिक) औदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गरूपे त्रये, कर्म०॥ उर्वजण न०(उपाञ्जन) उप् अञ्जल्युट्, लेपने, गोमयादिनानु-लेपने, संमार्जनोपार्जनेन सेकेनोल्लेखने, च। वाच०॥अभ्यङ्गे,"अक्खोवंजण वण्णणुलेवणभूयं" सूत्र०२ श्रु० १अ०। आधारे ल्युट् / अज्जनाधारे, हस्तादौ च / वाच०॥ उवंसुजव पुं०(उपांशुजप) परैरश्रूयमाणेऽन्तः संजल्पनरूपे जप-भेदे, ध०४ अधि०।। उवकप्प पुं०(उपकल्प) उपगतः कल्पम् / अत्या०स० कल्पोपग-ते, भक्ते पाने, न०1 उप सामीप्ये उपेत्य कल्पे इति उपकल्पः। आहारादिषु उपेत्योपकारे वर्तते इत्युपकल्पः / आहारादिना साधोरुपग्रहकरणे। पुं० चू०॥ एत्तो पुच्छा महंतु, उपकप्पं उवग्गहे / उवकप्पती करेति, उवणाइव होति एकट्ठा // भत्तेण व पाणेण व, उवग्गहं तओ कुणति। उवकप्पति गुणधारी, उवकंपंतं वियाणाहि॥ खुहिओ पिवासिओ वा, सीतभिभूतो व ण तरति। पतिं तस्स करेति, उवग्गहपडतं कुडुस्स वाथूणे || जो उप्पाए समाहिं, चउव्विहं णाणदंसणचरित्ते / तत्तोय तवसमाहिं, तस्स खमाणिजइ होइ।। भत्तेण व पाणेण व, उवगरणेण व उवग्गहितदेहो। जंकुणति सो समाहिं, तस्सावरणं हवति दाता || भत्तस्स व पाणस्स व, उवकरणस्स व उवग्गहकरस्स। जो कुणति अंतवायं, तस्सावरणं पवट्ठो ति // एसुवकप्पो भणितो // पं० भा० / / Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवकप्प 898 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कम इयाणिं उवकप्पो तत्थ गाहा "भत्तेण व पाणेण व " उव सामीप्ये उपेत्य कल्पते इत्युपकल्पः आहारादिसु उपेत्योपकारे वर्तते इत्युपकल्पः / साहस्स उवग्गहं करेइ आहाराइणापढंतस्स उदुस्सेव मूला मूलगुणउत्तरगुणधारी उवकप्पंतं वियाणाहि गाहा "भत्तेण य सो पुण भत्ताइहिं साहुस्स उवग्गहं कुणमाणो समाहिं समुप्पायइ चउव्विहं पि नाणदरिसणतवचरित्तसमाहिं सो पुण समाहिमुप्पायंतो तासिं चेव नाणदरिसण चरित्ततवसमाहीण आवरणं हणइकम गाहा ''भत्तस्स य पाणस्स य" जो पुण अंतरायं करेइ आहाराइणं साहुस्स दिजंताणं से तासिं चेव णाणदरिसणतवसमाहीणं अंतराएपवडइ सो णाणाइअंतराइयं बंधइ उवकप्पो॥ पं० चू०॥ उवकप्पंत त्रि०(उपकल्पयत्) निष्पादयति, "जेसिं तेहिं उवकप्पंति अन्नं पाणं तह वि" उपकल्पयन्ति निष्पादयन्ति सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ उवकय त्रि०(उपकृत) उप-कृ-क्त० / कृतोपकारे, यस्योपकारः कृतस्तस्मिन् वाच०। परैर्वर्तिते, "अणुवकयपराणुग्गहपरायणा'' आव० 4 अ०॥ उवकसंत त्रि०(उपकषत्) व्रजति, "पण्णासमण्णितावेगे। नारीण वसमुवकसंति'' सूत्र०१ अ०४ अ०॥ उवकुल न०(उपकुल) कुलानां समीपमुपकुलम् / तत्र वर्त्तन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुपकुलानीति व्युत्पतेः कुल संज्ञचानां नक्षत्राणामधस्तनेषु नक्षत्रेषु, तानि द्वादश / श्रवणः पूर्वभाद्रपदा रेवती भरणी रोहिणी पुनर्वसू अश्लेषा पूर्वफाल्गुनी हस्तः स्वाती ज्येष्ठापूर्वाषायश्चेति।जं०७वक्ष०। चं०॥ सू०प्र० (णक्खत्त शब्दे सूत्रतः स्पष्टीभविष्यति उवके सपुर न०(उपकेशपुर) स्वनामख्याते तीर्थभेदे, यत्र वीर भगवत्प्रतिमा / ती०॥ उकोसा स्त्री०(उपकोशा) पाटलिपुत्रवासिन्याः कोशागणिकायाः कनिष्ठभगिन्याय, "पालिपुत्ते नयरे दो गणियातो कोसा उवकोसातो। आ०म०वि०। कोसाए डहरिकामगिणी उवकोसातीए समंवररुची वसति। आ०चू० 4 अ०। (थूलभहशब्दे कथानकम्) उवक्कम पुं०(उपक्रम) उपक्रमणमुपक्रमः उप-क्रम घ वृद्ध्य भावः / उपाये, आचा०१ श्रु०७ अ०८ उ०। "सोचा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेजुवक्कम' तदुपक्रमं तत्प्राद्युपायं कुर्यात् सूत्र०१ श्रु० 3 अ०। उपायपूर्वके आरम्भे, तद्भेदाश्च यथातिविहे उवक्कमे पण्णत्ते तं जहा धम्मिए उवक्कमे अहम्मिए उवक्कमे धम्मियाधम्मिए उवक्कमे / / उपक्रमणमुपक्रम उपायपूर्वक आरम्भो धर्मश्रुतचारित्रात्मके भवः स वा प्रयोजनमस्येति धार्मिक श्रुतचारित्रार्थ आरम्भ इत्यर्थस्तथा न धार्मिकोऽधार्मिकः संयमार्थस्तथा धार्मिकश्चासौ देशतः संयमरूपत्वादधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वाद्वा धार्मिकाधार्मिको देशविरत्यारम्भ इत्यर्थः / अथवा नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षड् विध उपक्र मस्तत्र नामस्थापने सुज्ञाते द्रव्योपक्र मस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्त्रिधा सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्यभेदात् / तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमो द्विपदचतुष्पदापदभेदभिन्नः पुनरेकैको द्विविधः परिकर्मणि वस्तुविनाशे च / तत्र परिकर्मद्रव्यस्य गुणविशेषकरणं तस्मिन्सति तद्यथा घृताधुपयोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणं एव शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणम् / तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनाम् अपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशात् / वार्द्धक्यादिगुणापादनमिति / तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खङ्गादिभिर्विनाश एवोपक्रम इति / एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पद्मरागादिमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनं विनाशश्चेति / मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति / तथा क्षेत्रस्य शालिक्षेत्रादेः परिकर्मविनाशो वा क्षेत्रोपक्र मस्तथा कालस्य चन्द्रोपरागादिलक्षणस्योपक्रम उपायेन परिज्ञानं कालोपक्रमः / तथा भावस्य प्रशस्ताऽप्रशस्तरुपस्योपायतः परिज्ञानमेव भावो-पक्रमः। स चाप्रशस्तो डोडिनीगणिकामात्यदृष्टान्तादवसे यः / प्रशस्तस्तु श्रुतादिनिमित्तमाचार्यादिभावोपक्रम एवं धार्मिकस्य संयतस्य यश्चारित्राद्यर्थ द्रव्यक्षेत्रकालभावानामुपक्रम उक्तस्वरूपः स धार्मिक एवोपक्रमः / तथा अधार्मिकस्याऽसंयतस्यासंयमार्थं यः सोऽधार्मिक एव। तथा धार्मिकाधार्मिकस्य देशविरतस्य यः स धार्मिकाधार्मिक इति / अथ स्वाम्यन्तरभेदेनोपक्रममेव त्रिधाह अहवा तिविहे उवक्कमे पण्णत्ते तं जहां आयोवक्कमे परोवक्कमे तदुभयोवक्कमे एवं वेयावचे अणुग्गहे अणुसिट्ठी उवालंभे एवमिक्किक्के तिन्निर आलावगा जहेव उवक्कमे / / तत्रात्मनोऽनुकूलोपसर्गादौ शीलरक्षणनिमित्तमुपक्रमो वैहानसादिना विनाशः परिकर्म वा आत्मार्थं वा उपक्रमोऽन्यस्य वस्तुन आत्मोपक्रम इति / तथा परस्य परार्थ चोपक्रमः परोपक्रम इति तदुभयस्य आत्मपरलक्षणस्य तदुभयार्थ चोपक्रमस्त दुभयोपक्रम इति। एवमिति। उपक्रमसूत्रवत् आत्मपरोभयभेदेन वैयावृत्त्यादयोवाच्याः। स्था०३ ठा०। प्रथमतः सर्वकृत्यविधौ, आतु०॥ उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः / कर्मवदनोपाये, म०१श०४उ०। उपक्रमणमुपक्रमः / कर्मणामनुदयप्राप्तावामुदयप्रापणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ० / उपक्रम्यते क्रियतेऽनेनेति उपक्रमः / कर्मणो बद्धत्वोदीरितत्वादिना परिणमनहेतौ जीवस्य शक्तिविशेष, वोऽन्यत्र करणमिति रूढः / तद्भेदा यथा-- चउविहो उवक्कमे पण्णत्ते तंजहा बंधणोवक्कमे उदरिणोढे वक्कमे उवसामणोवक्कमे विप्परिणामनोवक्कमे // उपक्रमणं चोपक्रमो बन्धनादीनामारम्भः स्यादारम्भः उपक्रम इति वचनादिति तत्र बन्धनं कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशाना परस्पर संबन्धनमिदशा सूत्रमात्रबद्धलोहशलाकासंबन्धोपममवगन्तव्य तस्योपक्रम उक्तार्थो बन्धनोपक्रमः। आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरण संबन्धनं तदेवोपक्रमो वस्तुपरिकर्मरूपो बन्धनोपक्रमो वस्तुपरिकर्मवस्तुविनाशरूपस्याप्युपक्रमस्याभिहितत्वा दिति / एवमन्यत्रापि / स्था० 4 ठा०२ उ० (बन्धनोपक्रमादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) मरणे, वृ०४ उ०।व्यापादे, दूरस्थस्य स तो वस्तुनस्तैस्तैः प्रकारैः समीपानयने, "उपक्रमण-मुपक्रान्तिर्दूरस्थनिकटक्रिया' उत्त०१ अ० / व्याचिख्यासित-शास्त्रस्य समीपानयनलक्षणे चतुर्णामनुयोगद्वाराणां प्रथमे द्वारे, आचा०१ श्रु०१ अ०1 अथोपक्रमस्य निरुक्तिमाहसत्थस्सोवक्कमण, उवक्कमो तेण तम्मि य तओ वा। सत्थसमीवीकरणं, आणयणं नासदेसम्मि।। उप सामीप्ये क्रमु पादविक्षेपे उपक्रमणं दूरस्थस्य शास्त्रादिवस्तुनस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपीकरणं न्यासदेशानयन निक्षेपयोग्यताकरणमित्युपक्रमः / उपक्रान्तं ह्युपक्रमान्तर्गतभेदौर्विचारितं निक्षिन्यते मान्यथेति भावः / उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्य क्रियतेऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रमः / अथवा उपक्रम्यतेऽस्मिन् शिष्य श्रम Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कम 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कम णभावे सतीति अथवा उपक्रम्यतेऽस्माद्विनीतविनयविनयादित्युपक्रमः विनेयेनाराधितो हि गुरुरुपक्रम्य निक्षेपयोग्यं शास्त्रं करोतीत्यभिप्रायः। तदेवं करणाधिकरणापादानकारकैर्गुरुवाग्योगा-दयोऽर्था विवक्षाभेदतो भेदेनोक्ताः / यदि तु विवक्षया सर्वेऽप्येकैककरणादिकारणवाच्यत्वेनोच्यन्ते / तथापि न दोषः / (सत्थस-तीवीकरणमिति) शास्त्रस्य समीपीकरणं शास्त्रस्यन्यासदेशानयनं निक्षेपयोग्यताकरणमुपक्रम इति सर्वत्र संबध्यत इति / विशे०६ द्वा०। अनु० / उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः / शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः उपक्रम्यते वाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः / उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रवणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः / उपक्रम्यते अस्मादिति वा विनयविनयादित्युपक्रम इत्यपादानसाधन इति।स्था०१ ठा०ा व्य० / आ०म० प्र० / सूत्र० ज०। उपक्रमो द्विधा / शास्त्रीय इतरश्च / शास्त्रानुगतः शास्त्रीयः (आचा०) इतरश्च लोकप्रसिद्धः / तत्रेतरजिज्ञासयाह से किं तं उवक्कमेइछविहे पण्णत्ते तं जहाणामोवक्कमे ठवणोवक्कमे दव्वोवक्कमे खेत्तोवक्कमे कालोवक्कमे भावोवक्कमे नामठवणाओ गयाओ॥ अत्र क्वचिदेवं दृश्यते उवक्कमे दुविहे पण्णत्ते इत्यादि" अयं च पाठः आधुनिको युक्तश्च आह वा उवक्कमे छविहे पण्णत्ते इत्यादि वक्ष्यमाणग्रन्थोपन्यासस्याघटमानताप्रसङ्गात् / यदि शास्त्रीयोपक्रमोऽत्र प्रतिज्ञातः स्यात्ततः वक्ष्यमाणसूत्रमेवं स्यात् "से किं तं सत्थोवक्कमे 2 छविहे पण्णत्ते इत्यादि' नचैवं तस्मान्नेह सूत्रद्वैविध्यप्रतिज्ञा किन्त्वितरोपक्रमभणनं चेतसि विकल्प्य यथा निर्दिष्टमेव सूत्रमित्त्यलं विस्तारेण / प्रकृतं प्रस्तुतं सूत्रम् / नामस्थापनोपक्रमव्याख्या नामस्थापनावश्यक व्याख्यानुसारेण कर्तव्या। अनु०। विशे०॥ द्रव्योपक्रमः। से किं तं दव्वोवक्कमे 2 दुविहे पण्णत्ते तं जहा आगमतो अ नोआगमतो आजाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तेदव्वोवक्कमे 2 तिविहे पण्णत्ते तं जहा सचित्ते अचित्ते मीसए। से किं तं सचित्ते दव्वोवक्कमे २तिविहे पण्णत्ते तं जहादुपएचउप्पए अपए एक्किक्के पुण दुविहे पण्णत्ते तं जहा परिकम्मे अवत्थुवि-णासे अ॥ द्रव्योपक्रमव्याख्यापि द्रव्यावश्यकवदेव यावत्दव्योपक्कमे इत्या-दि। तत्र द्रव्यस्य नटादेरुपक्र मणं कालान्तरभविनाऽपि पर्यायेण सहेदानीमेवोपायविशेषतः सयोजनं द्रव्योपक्रमः / अथवा द्रव्येण घृतादिना भूमादौ द्रव्यतः घृतादेरेवोपक्रमो द्रव्योपक्रम इत्यादि / कारकयोजना विवक्षया कर्त्तव्येति / स च त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तथा सचित्तद्रव्यविषयः सचित्तः / अचित्तद्रव्यविषयोऽचित्तः / मिश्रद्रव्यविषयस्तु मिश्रः / द्रव्योपक्रमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा द्विपदानां नटनर्तकादीनां चतुष्पदानामश्वहस्त्यादीनामपदानामाम्नादीनाम्। तत्रैककः पुनरपि द्विधा परिकर्मणि वस्तुनाशे च। तत्रावस्थितस्यैव वस्तुनो गुणविशेषाधानं परिकर्म। तत्रपरिकर्मणिपरिकर्मविषयो द्रव्योपक्रमः। यदा तु वस्तुनो विनाश एवोपायविशेषैरुपक्रम्यते तदा वस्तुनाशविषयो द्रव्योपक्रमः / सूत्रं द्विपदानां नटनर्तकादीनां घृताधुपयोगेन बलवर्णादिकरणं वर्णस्कन्धवर्द्धनादिक्रिया वा परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमः॥ द्विविधमप्येतदुपक्रमं विभणिषुराहसे किं तं दुपए उवक्कमे नडाणं नट्ठाणं जल्लाणं मल्लाणं मुट्ठियाणं वेलंवगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं आइक्खगाणं लंखाणं मंखाणं तूणइल्लाणं तुंववीणियाणं कायाणं मागहाणं सेत्तं दुपए उवकमे॥ अत्र निर्वचनं (दुपयाणं नडाणमित्यादि) तत्र नाटकानां नाटयि--तारो नटास्तेषां (नट्टाणंति) नृत्सविधायिनो नर्तकास्तेषां (जल्लाणंति) जल्ला वरत्राः खेलकास्तेषां राजस्तोत्रपाठकानामित्यन्ये (मल्लाणंति) मल्लाः प्रतीतास्तेषां (मुट्ठियाणंति) मोष्टिका ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति मल्लविशेषा एव तेषां (वेडं वगाणं ति) विटम्बका विदूषका नानावेषादिकारिण इत्यर्थः। तेषां (कहगाणंति) कथकानां प्रतीतानाम् (पवगाणंति) प्लवका ये उत्प्लवन्ति गर्तादिकं क्रपाभिर्लङ यन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति तेषां (लासगाणंति) लासका ये रासकान् गायन्ति तेषां जय शब्दप्रयोक्तृणां वा भण्डानामित्यर्थः / (आयखगाणंति) ये शुभाशुभमाख्यायन्ति ते आख्यायकास्तेषां (लंखाणंति) ये महावंशाग्रमारोहन्ति तेलंखास्तेषाम् (मंखाणंति) ये चित्रपटादिहस्ता भिक्षां चरन्ति ते मंखास्तेषाम् (तूणाभिधानवाद्यविशेषवताम् (तुंबबीणियाणंति) वीणावादकानां (कायाणंति) कावडिवाहकानाम् (मागहाणंति) मङ्गलापाठकानामेषं सर्वेषामपि यद्धाधुपयोगेन वलवर्णादिकरण वर्णस्कन्धवर्द्धनादिक्रियावा स परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमः / यस्तु खङ्गादिभिरेषांनाशएवोपक्रम्यतेसम्पाद्यतेसवस्तुनाशे सचित्तद्रव्योपक्रम इति वाक्यशेषः / अन्ये तु शास्त्रं गन्धर्वनृत्यादिकलासम्पादनमपि परिकर्मणि द्रव्योपक्रम इति व्याचक्षते एतचायुक्तं विज्ञानविशेषात्मकत्वाच्छास्त्रादिपरिज्ञानस्य च भावत्वादिति। अथवा यद्यात्मकद्रव्यसंस्कारमात्रापेक्षया शरीरवर्णादिकरणवदित्थमुच्यते तद्येतदप्यदुष्टमेवेति। सेत्तमित्यादि-निगमनम्। अथ चतुष्पादानां द्विविधमप्युपक्रमं विभणिषुराहसे किं तं चउप्पए उवक्कमे, चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं / इचादि सेत्तं चउप्पयउवक्कमे, से किं तं अप्पए उवक्कमे / / अप्पयाणं अंबाणं अंबाडगाणं इचाइ सेत्तं अप्पयउवक्कमे। सेत्तं सचित्ते दव्वोवक्कमे॥ से किं तमित्यादि / अत्र निर्वचनं "चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणमित्यादिअश्वादयः प्रतीता एव एतेषां शिक्षा गुणविशेषकरणं परिकर्मणि खङ्गादिस्त्वेषां नाशोपक्रमणं वस्तुनाशे सचित्तद्रव्योपक्रम इतीहापि वाक्यशेषः सेत्तमित्यादिनिगमनम् / अथापदानां द्विविधमप्युपक्रम विभणिषुराह / अत्र निर्वचनम्। "अपयाणं अंबाणं चारगाणमित्यादि" इहाम्रादयो देशप्रतीता एव नवरं (चाराणंति) येषु चारकुलिका उत्पद्यन्ते ते चारवृक्षाः आम्रादिशब्दाच वृक्षास्तत्फलानि वा गृह्यन्ते तत्र वृक्षाणां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद्वार्द्धक्यादिगुणानन्तनां तु गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालस्वगनादिलाआश्वेव पाकादिकरणं परिकर्मणि शस्त्रादिभिस्तु मूलत एव विनाशनं वस्तुनाशे सचित्तद्रव्योपक्रम इत्यत्रापि वाक्यशेषः सेत्तमित्यादि निगमनद्वयम्। अथाचित्तद्रव्योपक्रम विवक्षुराहसे किं तं अचित्ते दव्वोवक्कमे खंडाईणं गुडाईणं मच्छंडीणं सेत्तं अचित्ते दव्वोवक्कमे॥ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कम 900- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कम खण्डादयः प्रतीता एवं नवरं मच्छण्डी खण्डशर्करा एतेषां खण्डाद्यचित्तद्रव्याणामुपायविशेषतो माधुर्यादिगुणविशेषकरणं परिकर्मणि सर्वथाविनाशकरणं वस्तुनाशे अचित्तद्रव्योपक्रम इत्यत्रापि वाक्यशेषः। सेत्तमित्यादिनिगमनम् // अथ मिश्रद्रव्योपक्रममाहसे किं तं मीसए दव्वोवक्कमे, सा चेव थासगमंडिए आसाइ सेत्तं मीसए दव्योवक्कमे सेत्तं जाणयसरीरभविअसरीर तव्वतिरित्ते दव्वोवक्कमे सेत्तं नो आगमतो दव्वोवक्कमे / सेत्तं दव्वोवक्कमे // (सेकिंतमित्यादि) स्थासकोऽश्वाभारणविशेषः आदर्शस्तु वृषभादिग्रीवाभरणम् आदिशब्दात् कुङ्कुमादिपरिग्रहः ततश्च तेषामश्वादीनां कुङ्कमा दिभिर्मण्डितानां स्थासकादिभिस्तु विभूषितानां यच्छिष्यादिगुणविशेषकरणं खङ्गादिभिर्विनाशो वा समिश्रद्रव्योपक्रम इति शेषः / अश्वादीनां सचेतनत्वात् हाँसलादीनामचेतनत्वात् मिश्रद्रव्यत्वमिह भावनीयम् / अत्र च संक्षिप्ततरा अपि वाचनाविशेषा दृश्यन्ते तेऽप्युक्तानुसारेण भावनीयाः। सेत्तमित्यादिनिगमनचतुष्टयम्। उक्तो द्रव्योक्रमः। क्षेत्रोपक्रममभिधित्सुराहसे किं तं खेत्तोवक्कमे जण्णं हलकुलिआइहिं / खेत्ताई उवक्कमिच्छंति सेत्तं खेत्तोवक्कमे / / क्षेत्रस्योपक्रमः परिकर्म विनाशकरणं क्षेत्रोपक्रमः स क इत्याह (खेत्तोवक्कमेत्ति) तत्र हलं प्रतीतम् अधोनिबद्धतिर्यतीक्ष्णलोह-पट्टिकं कुलिक लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थ यत् क्षेत्रावस्थितं तन्मरुमण्डलादि प्रसिद्ध कुलिकमुच्यते ततश्च यदत्र हलकुलिकादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते बीजवपनादियोग्यतामानीयन्ते स परिकर्मणि क्षेत्रोपक्रमः / आदिशब्दागजेन्द्रबन्धनादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते विनाश्यन्ते स वस्तुनाशे क्षेत्रोपक्रमः / गजेन्द्रमूत्रपुरीषादिवदेतेषु क्षेत्रेषु बीजानामप्ररोहणाद्विनष्टानि क्षेत्राणि इति व्यपदिश्यन्ते / आह / यद्येवं क्षेत्रगतपृथिव्यादिद्रव्याणामेतौ परिकर्मवि-नाशौ इत्थंचद्रव्योपक्रम एवायं कथं क्षेत्रोपक्रम इति सत्यं किं तु क्षेत्रमाकाशं तस्य चामूर्त्तत्वात् मुख्यतया[पक्रमः संभवति किं तु तदाधेयद्रव्याणां पृथिव्यादीनां यः उपक्रमः स क्षेत्रेऽपि उपचर्यते। दृश्यतेच आवेयधर्मोपचारात् आधारः। उक्तं च / "खेत्तमरूवं निचं, तस्स परिकम्माणं नयविणासो / आहेयगयवसेणउ, करणविणासो वयारोत्थ" इत्यादिसेत्तमित्यादिनिगमनम् // सम्प्रति क्षेत्रोपक्रममाहनोवाए वक्कमणं, हलकुलियाहिं वा वि खित्तस्स। सम्मजभूमिकम्म, पज्जवतलागाइसुं तु परिकम्म।। यन्नावा आदिशब्दादुडुपादिभिश्च नदीं तरति / अथवा हलकुलिकादिभिर्यक्षेत्रस्येक्षुक्षेत्रादिरुपक्रमणम् यदि वा यत् क्रियते गृहादीनां संमार्जनं भूमिकर्म वा देवकुलादीनां यच वा यथोन्मार्गशोधनं तडागः व्याख्यात इत आदिग्रहणे वा तटादिषु यत्परिकर्म खननादिलक्षणमेवं समस्तोऽपि क्षेत्रोपक्रमः।। कालोपक्रमसूत्रम्-- से किं तं कालोवक्कमे 2 जण्णं नालिआइहिं कालस्रोवक्कमणं कीरइ सेत्तं कालोवक्कमे / / कालो द्रव्यपर्यायः स एव द्रव्यपर्यायः चित्रकार्मणवत्सललितरूपान्वित इति द्रव्योपक्रमाभिधाने कालोपक्रम उक्त एव भवति / अथवा समयावलियमुहूत्तेत्यादि रूपस्य कालस्य स्वतन्त्रमेवोपक्रममभिधित्सुराह / / सूत्रकारः (सेकिंतमित्यादि) कालस्योपक्रमः कालोपक्रमः स क इत्याह (जण्णं नालिआईहिं) इत्यादिणमिति वाक्यालंकारे यदिह नालिकादिभिरादिशब्दात् तृणच्छायानक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः काल उपक्रम इतिशेषः / तत्र नालिकाताम्रादिमयघटिका। तृणसंकुच्छायादिना वा एतावत्योरप्यादिकालोऽतिक्रान्त इति यत्परिज्ञानं भवति परिकर्मणि कालोपक्रमः यथा तत्परिज्ञानमेव हि तस्येह परिकर्म यत्तु नक्षत्रादिचारैः कालस्य विनाशनं स वस्तुनाशे कालोपक्र मस्तथा ह्यनेन ग्रहनक्षत्रादिचारेण विनाशितः कालो न भविष्यत्यधुनाधान्यादिसंपत्तय इति वक्तारो भवन्ति। अनु०॥ किञ्चछायाए नालियाए व, परिकम्मं से जहत्थविन्नाणं / रिक्खाइय चारेहि य, तस्स विणासो विवज्जासो॥ (से) तस्य समयावलिका घटिका मुहूर्तादिलक्षणस्य कालस्ये-दमेव परिकर्मयत्किमित्याह यद्यथार्थविज्ञानं यथावत्परिज्ञानं कयेत्याह शङ् क्वादिप्रतिच्छाया रूपच्छायायाघटिकारूपया च नाडिकया विनाशस्तर्हि तस्य क इत्याह विपर्यासो वैपरीत्यभवनमनिष्टफलदायिकतया परिणमनमित्यर्थः / कैरित्याह ऋक्षगृहादिचारैस्तथा च वक्तारो भवन्त्यमुकेन नक्षत्रेण ग्रहेण वा इत्थमित्थं गच्छता विनाशितः काल इति / उक्तः कालोपक्रमः / विशे०। यद्वा "सावविवोहेसु यदुमाणं' द्रुमाणां शमीचिञ्चिनिकाप्रभृतीनां स्वापे विबोधे च ज्ञायते यथागतोऽस्तमादिव्यउदितो वेति। एष कालोपक्रमः। वृ०१ उ०।। अथ भावोपक्रममाह-- से किं तं भावोवक्कमे 2 दुविहे पण्णत्ते तं जहा आगमतो अ नोआगमतो अ। जाणए उववत्ते नो आगमतो दुविहे पण्णते तं जहा पसत्थे अपसत्थे अ॥ भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तस्तथा आगमतो नो आगमतश्च / तत्रोपक्रमशब्दार्थज्ञस्तत्रोपयुक्तश्चागमतो भावोपक्रमः (से किंतं नो आगमओ इत्यादि) अत्रोत्तरम् (नो आगमओभावोवक्कमे दुविहे त्यादि) इहाभिधायाख्यो जीवद्रव्यपर्यायो भावशब्देनाभिप्रेतः / उक्त च "भावाभिख्या पञ्चस्वभावसत्तात्मयोन्यभिप्रायस्ततश्च भावस्य परकीयाभिप्रायस्योपक्रमणं यथा तत्परिज्ञानं भावोपक्रमः / स च द्विविधः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति / तत्राप्रशस्ताभिधित्सया आहतत्थ अपसत्थे डोडिणी गणिआ अमच्चाईणं। (तत्थअप्पसत्थेत्ति) इह तात्पर्य ब्राह्मण्या वैश्यया अमात्येन च यत्परकीयभावस्य यथा तत्परिज्ञानलक्षणमुपक्रमणं कृतं सोऽप्रशस्तभावोपक्रमः संसारफलत्वात् / अनु०। अशुभस्य तस्य भावोपक्रमस्य ब्राह्मणीवेश्याऽमात्यादया दृष्टान्ताः प्रतिपादितास्तद्यथा एकस्या ब्राह्मण्यास्तिस्रः पुत्रिकाः तासां च परिणयनानन्तरं तथा करोमि यथैताः सुखिता भवन्त्विति विचिन्त्य माता ज्येष्ठदुहितरं प्रत्यवोचद्यदुत त्वया वासभवनसमागमे स्वभर्ता किंचिदपराधमुद्भाव्य मूनि पादप्रहारेण हन्तव्यो हतश्च यदनुतिष्ठति तन्ममाख्येयं कृतं च तया तथैव सोऽप्यतिसोहतरलितमना अपि प्रियतमे पीडितस्ते सुकुमारचरणो भविष्यतीत्यभिधानपूर्वकं तस्याश्चरणोपमईनं चकार / अमु च व्यतिकरं सा मात्र निये दितवती साप्युपक्रान्तजामातृकभावा दृष्टा दुहितरं प्रत्यऽवादीत्। पुत्रिके यद्रोचते Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कम 601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कमकाल तन्नदीवगृहे कुरु त्वं न तवावचनकरो भर्ता भविष्यतीति / द्वितीयापि तथैव शिक्षिता / तथापि च तथैव स्वभर्ता शिरसि प्रहतः केवलमसौ नैतत्कुलप्रतृतानां युज्यत इत्यादि किंचित्क्षगमैक झषित्वा व्युपरतस्तस्मिश्च व्यतिकरे तथा मातुर्निवेदिते प्रोक्तं मात्रा वत्से ! त्वमपि यथेष्टं तद् गृहे विजृम्भस्व केवलं त्वदर्ता झषित्वा स्थारयति / एवं तृतीययाऽपि मातृशिक्षितया दुहिन्ना तथैव प्रहतः स्वभर्ता केवलमेतेनोच्छलदतुच्छकोपेन नूनमकुलीनात्वं येनैवं शिष्टजना-नुचित विचेष्टसे इत्याद्यभिधाय गाद कुट्टयित्वा निष्काशिता गृहात् / तया च गत्वा सर्व मात्रे निवेदितम् / ततस्तया विज्ञातजामातृभावतया तत्समीप गत्वा वत्स ! स्वकुलस्थितिरियमस्माकं यदुतं प्रथमसमागमे बध्वा वरस्येत्थं विधातव्यमित्यादि किंचिदभिधाय कथमप्यऽनुनीतोऽसौ दुहिता च प्रोक्ता वत्से ! दुराराधस्ते भर्ता भविष्यति परमदेवतावदप्रमत्ततया समाराधनीय इति ब्राह्मणीदृष्टान्तः। अथ गणिकादृष्टान्त उच्यते॥ एकस्मिन्नगरे चतुःषष्टिविज्ञान-सहिता देदवत्ताऽभिधाना रूपादिगुणवती वेश्या परिवसति तया च भुजङ्ग जनाभिप्रायपरिज्ञानार्थं स्वव्यापारं कुर्वत्या स्वा अपि राजपुत्रादिजातयो रतिभवनभित्तिषु चित्रकर्मणि लेखितास्तत्र च यः कश्चिद्राजपुत्रादिरागच्छति स यत्र २कृता तदेव चिललिखितं दृष्ट्वा अत्यर्थ प्रशंसति ततोऽसौ विश्रासिंती राजपुत्रादीनामन्यतरत्वेन निश्चित्य यथौचित्येओपचरति / आनुकूल्येनोपचरिताश्च राजपुत्रादयस्तस्यै प्रचुरअर्थजातं प्रथच्छन्तीति गणिकादृष्टान्तः। अथाऽमात्वदृष्टान्तोऽभिधीयते // एकस्मिन्नगरे कश्चिद्राजा अमात्वेन सहाश्ववाहनिकायां निर्गतस्तत्र च पथि गच्छता राजनुरङ्ग मेण क्वचिचिक्खिल्लप्रदेशे प्रस्रवणमकारितच तत्प्रदेशपृथिव्याः स्थिरत्वेन बद्धस्थिरत्वं चिरेणाप्यशुष्कं व्यावर्तमानो राजा तथैव व्यवस्थितमद्राक्षीचिरावस्थायिजलः शोभगोऽत्र प्रदेशे तडागो भविष्यतीति चिन्तित चिरमवलो कितवांस्तदिति / ततश्चेङ्गिताकारकुशलतया विहितं तदभिप्रायेणामात्येन राजादेशमन्तरेणापि खानितं तत्प्रदेशे महासरः तत्पाल्यां य रोपिताः सर्वर्तुकपुष्फफल-समृद्धयो नानाजातीयतरुनिवहाः / अन्यदा च तेनैव प्रदेशेने गच्छता भूपालेन दृष्ट पृष्टं चाहो मानससरोवरवद्रमणीयं केनेदं खानितं सरः / अमात्यो जगाद देव / भवद्भिरेवा राजा सविस्मयं प्राह कथं कश्च कदा मयेतत्कारणाय निरुपित इत्यतः सचिवो यथावृत्तं सर्वमपि कथितवानहो परचित्तोपलक्षकत्वमस्येति विचिन्त्य परितुष्टो राजा तस्य वृत्तिवर्द्धनादिना प्रसादं चकार तदेवमादिकः संसारफलोऽपरोप्यप्रशस्तभावोपक्रमः खयमभ्युह्य इति / / विशे० / / अथ प्रशस्तभावोपक्रममाह / “पसत्थे गुरु माईणं" तत्र श्रुतादिनिमित्तं गुर्वादीनां यद् भावोपक्रमणं स प्रशस्तभावोपक्रमः / / अनु०|| सीसो गुरुणो भावं, जमुवक्कमइ सुहं पसत्थमणो। सहियत्थं सपसत्थो, इह भावोवक्कमो हि गओ।। इह वच्छिष्यः स्वहितार्थं श्रुतार्थं श्रुताध्ययनादिहेतोः प्रशस्तमनाः शुभहेतुत्वाचश्रुतं गुरुभावमुपक्रामतीङ्गिताकारादिना जानाति स मोक्षफलत्वात्प्रशस्तभावोपक्रमस्तेनैव चेहाऽधिकारो मोक्षार्थत्वादेव सर्वस्यास्य प्रारम्भस्येति / विशे० / वृ० (गुरुचित्तोपक्रमो गुरु शब्दे) साम्प्रतं तमेव शास्त्रीयोपक्रमलक्षणेन प्रकारान्तरेणाभिधित्सुराह अहवा उवक्कमे छविहे पण्णत्ते तंजहा अणुपुव्वी 1 नाम 2 पमाण 3 वत्तव्वया 4 अत्थाहिगारे 5 समोआरे 6 // अथवा अनन्रं यः प्रशस्तभावोपक्रमः उक्तः लोके पूर्वादिविभागः स हि द्विविधो द्रष्टव्यो गुरुभावोपक्रमः शास्वभावोपक्रमश्च / शास्त्रलक्षणों भावस्तस्योपक्रमः शास्त्रभावोपक्रमस्तत्रैकेन गुरुभावोपक्रमलक्षणेन प्रकारेणोक्तोऽथ द्वितीयेन शास्त्रभावोपक्रमलक्षणेन प्रकारान्तरेण तमभिधित्सुराह (अहवा उवक्कमे इत्यादि) अथवेति पक्षान्तरसूचकः उपक्रमः प्रथमपातनापने शास्त्रीयोपक्रमो द्वितीयपातनापक्षे तु भावभावापक्रभ षड् विधः षट् प्रकारः प्रज्ञप्तस्तद्यथा आनुपूर्वी 1 नाम 2 प्रमाण 3 वक्तव्यता 4 अर्थाधिकारः 5 सभवतारः 6 अनु० (एतेषाश शब्दव्युत्पत्त्यादिस्वरूपं यथावसरं स्वस्वस्थाने) (उपोद्धातादस्य भेदः स्वस्थाने) उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः। ज्वरातिसारादी, स्था०४ ठा। शास्त्रे, 'भुम्माहारच्छे ए उवकमेणं च परिणाए'' तच विधा स्वकायपरकायतदुभयरूपम् / तत्र स्वकायशस्त्रं यथा लवणोदक मधुरोदकस्य कृष्णभूमं वा पाण्डुभूमस्या परकायशस्त्रं यथाऽग्निरुदकस्य उदकं चाग्नेरिति तदुभयशस्त्रं यथा उदकाः शुद्धोदकस्येत्यादि / ध०२अधि० / उपक्रमोपसंहारौ हेतुतात्पर्य निर्णये, वेदान्तिमते तात्पर्यनिर्णायके हेतुभेदे, तत्रौपक्रमोपसंहाराभ्यां द्वाभ्यामेव तात्पर्य निक्षीयते नत्वेकेकेनेति बोध्यम् / कारणे धम्। सागाद्युपाये, कर्मणि घञ् अर-भाणे, पुं० वाच०। उवक्कमकाल पुं०(उपक्रमकाल) क०स० / अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणे सामाचारीयथायुष्कभेदभिन्ने वा कालभेदे, आ०म० द्वि०।। अथोपक्रमकाल विभणिषुर्भाष्यकारस्तत्स्वरूपमाहजेणोधकामिज्जइ, समीवमाणिज्जए जओ जंतु। स किलोवक्कमकालो, किरियापरिणामभूइट्ठो॥ क्रमु पादविक्षेपे विवक्षितस्य दूरस्थितस्य वस्तुनस्तैस्तैरुपायभूतैः क्रियाविशषैरुपक्रमणं सामीप्यानयनमुपक्रमः / अथ येन क्रियाविशेषेणापक्रम्यते दूरस्थं समीपमानीयते स उपक्रमः। यतो वा क्रियाविशेषादुपक्रभ्यत / यता सामाचारीप्रभृतं वस्तु उपक्रभ्यते स उपक्रमस्तस्य कालोऽप्युपचारादुपक्रम एव कालः उपक्रमकालः। किलशब्द आप्तवचनोपदर्शनार्थः / अयं च बहुभिः क्रियापरिणामभूयिष्ठः प्रचुरो भवति प्रभूताः क्रियापरिणामा इह भवन्ति / बहवऽत्रायुष्काद्युपक्रम-हेतुभूताः क्रिया भवन्तीति यावत्। तथाच वक्ष्यति "अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे वेयणापराधाए। फासे आणापाणू, सत्तविहं भिज्जए आऊ' इत्यादीति गाथार्थः // 23 // अयं च द्विविधो भवति कथमित्याह नियुक्तिकारःदुविहोवक्कमकालो, सामायारी अहाउयं चेव। सामायारी तिविहा, ओहे दसहाय पविभागे।। यथोक्त उपक्रमकालो द्विविधस्तदेव द्वैविध्यं दर्शयति सामाचार्युपक्रमकालो यथायुष्कोपक्रमकालश्च / अथ सामाचार्या उपक्रमकालत्वं समर्थयन्नाह भाष्यकारः।। जेणोवरियसुयाउ,सामायारिसुयमाणियं हेट्ठा। ओहाइतिविह एसो, उवक्कमो समयवज्जाए।। पूर्वनिर्दिष्टान्नवमपूर्वादरुपरिश्रम श्रुतादुनृत्य ये न साधु - सामाचारीप्रतिपादकं श्रुतमधस्तादिदानीतनकालेऽपि समा Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमकाल १०२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कमकाल नीतमस्मदादीनां समीपीकृतं स एष समस्तसाधुवर्ग: प्रत्यक्षः (ओहाइत्ति) ओघनियुक्तिस्तथा "इच्छामिच्छातहकारो इत्यादि" दशधा सामाचारीप्रतिपादको ग्रन्थश्छेदसूत्राणि चेति त्रिविधः समयचर्यया समयपरिभाषया उपक्रमः सामाचार्युपक्रमकालो भण्यत इत्यर्थः / इदमुक्तं भवति लोके न समाचार्युपक्रमकालतया कश्चित्कालो रूढः समस्ति। आगमे पुनरसौ भण्यते कथमिति चेदुच्यते येन प्रभूतेन कालेन नवमपूर्वादिगतं सामाचारीश्रुतं शिष्योऽध्ये तुमलप्स्यत स कालः सामाचारीश्रुतोपक्रमणद्वारेण स्थविरैरुपक्रम्य किलागिप्यानीतस्तत्काललभ्यस्य सामाचारीश्रुतस्य स्थविरैरिदानीमपि विनेयेभ्यः प्रदानात्ततश्च सामाचार्युपक्रमद्वारेणोपचारतः कालस्यापि तस्योपक्रमान्तत्वात्सामाचार्युपक्रमकालोऽसौ भण्यत इति। आयुष्कोपक्रमस्यापि यथायुष्कोपक्रमकालतां दर्शयन्नाह--- जं जीवियसंवट्टण-मज्झवसाणाइ हेउसंजणियं / सोवक्कमाउयाणं, स जीवओवक्कमणकालो। स जीवितोपक्रमणालः यथाऽऽयुष्कोपक्रमकालोऽभिधीयत इत्यर्थः। तत्किमित्याह यज्जीवितस्य यद्वा बद्धस्य दीर्घकालवेद्यस्यायुष्कस्य संवर्तनं स्वल्पस्थितिकत्वापादनम् / केषां सोपक्रमायुषां जीवाना निरुपक्रमायुषां निकाचितावस्थस्यैकबद्धत्वादपवर्तनायोगात् किं निर्हेतुकमेव जीवितसंवर्तनं नेत्याह अध्यवसान-निमित्तादिहेतुसंजनितम् / अत्रायमभिप्रायो यश्चिरेण मरणकालोऽभविष्यदसौ आयुष्कर्मास्थित्यपवर्तनद्वारेणोपचारतः किलोपक्रम्यार्वागानीत इत्यसो यथायुष्कोपक्रमकाल उच्यत इति / नन्वेवमुपक्रमः किमायुष एव भवत्याहोश्विदन्यासामपि ज्ञानावरणादिप्रकृतीनामिति विनेयप्रश्नमाशक्याह / / सव्वपगईणमेवं, परिणामवसादुवक्कमे होजा। पायमनिकाइयाणं, यवसा उ निकाइयाणं पि॥ न केवलमायुषः किं तु सर्वासामपि ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां शुभाशुभपरिणामवशादपवर्तनाकरणेन यथायोग स्थित्यादिखण्डनद्वारेणापवर्त्यमानानामुपक्रमो भवति स च प्रायो निकाचनाकरणेनानिकाचितानां स्पृष्टबद्धतावस्थानामेव भवतिप्रायो ग्रहणस्य फलमाह। तीव्रण तपसा पुनर्निकाचिता न्यपि कर्माण्युपक्रम्यन्त एव यदि पुनर्यथा बद्धं तथैवानुपक्रान्तं सर्वमपि कर्म वेद्येत तदा मुक्तिगमनं कस्यापि न स्यात्तद्भवसिद्धिकानामपि नियमेन सत्तायामतः सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकस्य कर्मणः सद्भावादेतच स्वत एव वक्ष्यति तयुषि एव किमित्यत्रोपक्रमकाल उक्तो न शेषकर्मणामिति चेदुच्यते लोके आयुष्कोपक्रमस्यैव प्रसिद्धत्वात्तदुपक्रमकाल एवेह प्रोक्तः उपलक्षणव्याख्यानाच्छेषकर्मोपक्रमकालोऽपि द्रष्टव्य इति।। अथ प्रेरकः प्राहकम्मोवक्कामिजइ, अपत्तकालं पिजइ तओ पत्ता। अकयागमकयनासा, मोक्खाणासासया दोसा। ननु यद्यप्राप्तकालमपि बहुकालवेद्यं कर्मत्थमुपक्रम्यते इदानीमपि क्षिप्रमेव वेद्यतेततस्तकृतागमकृतनाशौ मोक्षोनाश्वासादयश्चेत्येते दोषाः प्राप्ताः / तथाहि यदीदानीमेवोपक्रमाकृताल्पस्थितादिरूपं कर्म वेद्यते तत्पूर्वमकृतमेवोपगतमित्यकृताभ्यागमः। यत्तु पूर्व दीर्घस्थितादिरूपतया कृतं बद्धं तस्यापवर्तनाकरणोपक्रमेण नाशितत्वात्कृतनाशः ततो मोक्षोऽप्येव मनाश्वासः सिद्धानामप्येवं कृतकाभ्यागमेन प्रतिपात- / प्रसङ्गादिति / अत्रोत्तरमाहनहि दीहकालियस्स वि, नासो तस्साणुइओ खिप्पं / बहुकालाहारस्सव, दुयमग्गिय रोगिणो भोगे॥ न कृतनाशादयो दोषा इति प्रकरणागम्यते कुत इत्याह न यस्मातस्यायुष्कादेः कर्मणो दीर्घकालिकस्यापि दीर्घस्थित्यादिरूप-तया बद्धस्याप्युपक्रमेण नाशः क्रियते। कुत इत्याह क्षिप्रं शीध्रमेव सर्वस्यापि तस्याध्यवसायवशादनुभूतेर्वेदनाद् यदि हि तगहुकाले वेद्यं कर्मा अवेदितमेव नश्येद्यचाल्पस्थित्यादिविशिष्ट वेद्यते तत्त-तोऽन्यदेव भवेत्तदा कृतनाशाकृताभ्यागमौ भवेताम् यदा तु तदेव दीर्घकालवेद्यमध्यवसायविशेषादुपक्रम्य स्वल्पेनैव कालेन वेद्यते तदा कथं कृतनाशादिदोषः यथाहि बहुकालभोगयोग्यस्याऽऽहारस्य धान्यमूषकदस्युकादेरनिरोगिणो भस्मकवातव्याधिमतो हृतं स्वल्पकालेनैव भोगो भवति न च तत्र कृतनाशो नाप्यकृताभ्यागम इत्येवमिहापि भावनीयमिति / अत्राह ननु यद्द्धं तद्यदि स्वल्पकालेन सर्वमपि वेद्यते तर्हि प्रसन्न चन्द्रादिभिः सप्तमनरकपृथिवीयोग्यमसातवेदनीयादि किं कर्मबद्ध श्रूयते तद्यदि सर्वमपि तैर्वेदितं तर्हि सप्तमनरकपृथ्वीसंभविदुःखोदयप्रसङ्गः / अथ न सर्वमपि वेदितं तर्हि कथं न कृतनाशादिदोषः / सत्यमुक्तं किंतु प्रदेशापेक्षयैव तस्य सर्वस्यापि शीघ्रमनुभवनमुच्यते अनुभागवेदनंतुन भवत्यपीत्येतदेवाहसव्वं च पएसतया, भुजइ कम्ममणुभागओ भइयं / तेणावस्साणुभवे, के कयनासाद जो तस्स / / सर्वमष्टप्रकारमपि कर्म सोत्तरभेदं प्रदेश या प्रदेशानुभवद्वारेण भुज्यते वेद्यत एवेत्येष तावन्नियमोऽनुमागस्तु सानुभवमाश्रित्येत्यर्थ / भजनीयं विकल्पनीयम् अनुभागः कोऽपि वेद्यते कोऽपि पुनरध्यवसायविशेषेण हेतुत्वान्न वेद्यत इत्यर्थः / तदुक्तमागमे "तत्त्य णं जंतं अणुभागकम्म तं अत्थेगइए यं वेयइ अत्थेगइयं नो वेयइ तत्थ णं जंतं पएसकम्भत नियम विएइत्ति" अतः प्रसन्नचन्द्रादिभिस्तस्य नरकयोग्यकर्मणः प्रदेशा एव नीरसा इह वेदिता नत्वनुभागस्य शुभाध्यवसायेन हतत्वादत एव न तेषां नरकसंभविदुः खोदयः कर्मणां विपाकानुभव एव सुखदुःखयोर्वेदनाद्येनैवं तेन बद्धस्य कर्मणः सर्वेषामपि प्रदेशानामवश्यं वेदनात् के किल तस्य कर्मोपक्रमं कर्तुं कृतनाशादयो दोषा न के चिदित्यर्थः / आह नन्वेवमप्यनुभागो यथा बद्धस्तथैव प्रसन्नचन्द्रादिभिर्न वेदित इति कथ न कृतनाशः अस्त्वेव कृतनाशः / ननु काचिद्विधा यदि ह्यध्यवसायविशेषेणोपहतत्वानश्यति रसस्वदा किमनिष्ट सर्वस्यापि ह्यष्टप्रकारकर्मणो मूलोच्छेदाय यतन्त एवसाधव इत्यभीष्ट एवेत्थं तेषां कृतनाशः / यदा बहुरसंबहुस्थितिकं च सत्कर्म अल्परसमल्पस्थितिक च कृत्वा वेदयति तदा तस्याल्पस्थितिकस्य च कर्मणः पूर्वमकृतस्यागमतस्ततश्च मोक्षेप्यनाश्वासः सिद्धानामप्यकृ तकनुिगमेन पुनरावृत्तिप्रसङ्गादिति चेत्तदयुक्त यदि ह्यल्परसत्वमल्पस्थितिकत्वं च कर्मणोऽत्र निर्हेतुकं स्यात्एवं चनास्ति अल्परसत्वम् अध्यवसायविशेषकृतत्वेनाभ्यागमत्वायोगादल्पस्थितिकत्वमप्यायुष्कादीनां निर्हेतुकमेव जायते अध्यवसाननिमित्तादिहेतूनां दर्शितत्वादतस्तत्रापि कथमकृतागमत्वम् / अत एव न सिद्धानां कर्मसमागमस्तदागमहेतूनां तेष्वभावादित्यलं प्रसङ्गेन / भाष्यकारेणाप्यस्यार्थस्य प्रपदायिष्यमाणत्वादिति युक्तियुक्तश्चोपक्रमः कर्मणां कुत इत्याह Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमकाल 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कमकाल उदयखयखओवसमो-वसमा जंच कम्मणो भणियं / दव्वाइपंचयं पइ-जुत्तमवक्कामणमओ वि।। यच यस्मादुदयश्च क्षयश्च क्षयोपशमश्च उपशमश्च उदयक्षयक्षयोपशमोपशमास्ते कर्मणो द्रव्य क्षेत्रकालभवभावपञ्चकं प्रतिभणिता द्रव्यादीनाश्रित्योक्ता अतोऽपि कारणाच्छत्रादिद्रव्याणि प्राप्यायुकादीनां युक्तमुपक्रमणं क्षय इति / तथाह्यसातवेदनीयस्य कर्मणो द्रव्यमहिविषकण्टकादिप्राप्योदयो भवति क्षेत्रं तु नरकवासादिकं कालं तीव्रनिदाघसमयादिकं भवं नारकभवादिकं भावं तु वृद्धभावादिकम् क्षयोऽप्यस्य द्रव्यं सद्गुरुचरण रविन्दादिकं प्राप्य भवति क्षेत्रं तु पुण्यतीर्थादिकं कालं सुषमदुःषमादिकं भवं सुमनुजकुलजन्मलक्षणं भावं तु सम्यग्ज्ञानावरणादिकम् क्षयोपशमोपशमौ तु वेदनीयस्य न भवतः। एवं मोहनीयेऽपि / मिथ्यात्वमोहनीयस्य द्रव्यं कुतीर्थादिकं प्राप्योदयो भवति क्षेत्रंतु कुरुक्षेत्रादिकं साध्वादिरहितदेशाधिकंवा कालंदुःषमादिकं भवं तेजोवाय्वेकेन्द्रियादिकम् अनार्यमनुजकुलजन्मरूपं वा भावं कुसमदेशनादिकमिति। क्षयक्षायोपशमास्त्वस्य द्रव्यं तीर्थकरादिकं प्राप्य भवति / क्षेत्रं तु महाविदेहादिकं, कालं सुषमदुःषमादिकं भवं सुमनुजकुलजन्म भावं तु सम्यग्ज्ञानावरणादिकमिति एवं शेषेऽपि ज्ञानदर्शनावरणादिके कर्मणि निद्रावेदनीयकर्मणो माहिषदधिघृतादिकं द्रव्यमासाद्यो-दयो भवति क्षेत्रं तु अनूपादिकं कालं ग्रीष्मादिकं भवमेकेन्द्रियादिकं भावं तु वृद्धत्वादिकमिति। क्षयोन्यस्योक्तानुसारेण वाच्यः। क्षयोपशमोपशमौत्वस्यापि न भवतः। एवमन्येयामपि कर्मणामुदयादयो यथायोगं द्रव्यादीन् प्राप्यस्वधिया भावनीया इति / अथ दृष्टान्तद्वारेण कर्मणां द्रव्यक्षेत्रादि सहकारिकारणापेक्षा साधयन्नाहपुण्णापुण कयं पि हु, सायमसायं जहोदयाईए। वज्झखलाहाणा उ, देइ तह पुण्णपावं पि।। यथा सातं सुखमसातं तु दुःखं पुण्यापुण्यस्वरूपकमजनितमपि सक्चन्दनाङ्गनादिविषकण्टकादिना बाह्येन सहकारिणा यद्वलस्य सामर्थ्यस्याधानं विधानं तस्माद्देवोदयादीन् ददाति नत्वेवमेव पुण्यपापोदयमात्रात् ततश्च यथैतत्सकललोकस्यानुभवसिद्धं सुखदुःखाख्यं कार्य बाह्यान् द्रव्यक्षेत्रादीनपेक्ष्यैवोदेति क्षीयते वा न पुनरेवमेव तथा तत्कारणं पुण्यपापात्मकं कर्मापि द्रव्यक्षेत्रादीनपेक्ष्यैवोदेति क्षीयते पति सिद्धमेव नहि कार्य द्रव्यादीनपेक्षते तत्कारणं तु तन्निरपेक्ष्यमिति शक्यते वक्तुम् / न खलु कार्यभूतो घटश्चक्रचीवरादीनपेक्ष्यैव जायते तत्कारणभूतस्तु कुलालश्चक्राद्यनपेक्ष एव घट जनयतीत्युच्यमानं शोभा विभर्ति तस्मादुदयादीन् प्रति द्रव्यादिसव्यपेक्षाणां कर्मणां युक्तस्तन्निधानादुपक्रम इति। यदि पुनर्यथा बद्धं तथैव वेद्यते सर्व कर्म न पुनरुपक्रम्यते तदा किं दूषणमित्याहजइताणुभूइओब्विय, खविज्जए कम्म मन्नहा न मयं / तेणासंखभवजिय, नाणागइकारणत्तणउ|| नाणाभवाणुभवणा, भावादेक्चम्मि पज्जएणं वा। अणुभवओ बंधा उ, मोक्खा भावो सचाणिट्ठो। यदि तावयथाबद्धं तथैव प्रतिसमयानुभूतितः प्रतिसमयं विपाकानुभवेनैव कर्म क्षप्यत इति तवानुमतं नान्यथा नोपक्रमद्वारेण तदेतत्कृपणमभिप्रेतं हन्त तेन तर्हि सर्वस्यापि जन्तोमोक्षाभावस्त्वदभिप्रायेण प्राप्नोति स चानिष्ट एव कस्मात्पुनर्मोक्षाभाव- | प्राप्तिरित्याह / तद्भवसिद्धिकस्यापि सत्तायामसंख्येयभवार्जितकर्मणः सद्भावात्तस्य च नानाध्यवसायबद्धत्वेन नरकादिनाना-गतिकारणत्वाततस्तस्य विपाकत एवानुभवने एकस्मिन्नपि तत्र चरमभये नानाभावानामनुभवनं प्राप्नोति तच्चायुक्तं कुत इत्याह। (नाणाभवाणुत्ति) तत्र चैकस्मिन्मनुष्यगतिवर्तिनि चरमभवे नारकतिर्यगादिनाना भवानां परस्पविरुद्धत्वेनानुभवनाभावात्तर्हि तन्नानागतिकारणं कर्म पर्यायेणापि क्रमेण नानाभवेष्वनुभूय सिध्यतु किमेतावता विनश्यति तदयुक्तं कुत इत्याह / (पज्जएणवा इति) इदमुक्तं भवति पर्यायेण वा क्रमेण तान्नानाभवान्विपाकतोऽनुभवतः पुनरपि नानागतिकारणस्य कर्मणो बन्धः पुनरपि च क्रमेण नानाभवभ्रमणं पुनर्नानागतिकारणं कर्म बन्ध इत्येवं मोक्षाभावः। एतच्चानिष्ट तस्मादेष्टव्यः कर्मणा मुपक्रम इति। अथ प्रकारान्तरेणोत्तरदित्सया पूर्वविहितमेव प्रेर्यं पुनः कारयन्नाह। नणु तन्न जहोवचियं, तदाणुभवओ कया गमाईय। तप्पओग्गतं चिय, तेण विय सब्मरोगोव्व / / ननु यदुपक्रमाल्लघुस्थितिकं कृत्वा जीवो वेदयति तदायुष्कर्म न भवति / कथभूतमित्याह येनप्रकारेण वर्षशतभोग्यत्वलक्षणेन पूर्वमुपचितं तेन जीवेन बद्धं यथोपचितमिति / यादृशं पूर्वजन्मनि बद्धम् तादृशमेव तन्न भवतीत्यर्थः / वर्षशतभोग्यत्वं हि दीर्घकालस्थितिकं पूर्वभवे बद्धं उपक्रमानन्तरंतु यदन्तमुहूर्तादिलघुस्थि-तिकमनुभवत्यायुस्तदन्यदेव अन्यथा अनुभवादिति भावः / ततः को दोष इत्याह (तहाणुभवओ इत्यादि) यथा तेन प्रकारेण पूर्वबद्धविलक्षणमायुरनुभवतो जीवस्य पूर्वोक्ता अकृतागमादयो दोषा प्रसञ्जन्ति अत्रोत्तरमाह / (तप्पाओग्गमित्यादि) तस्योपक्रमस्य प्रायोग्य उपक्रमार्हमेव तदायुष्कर्म तेन सोपक्रमायुषा जीवेन चित्तं पूर्वजन्मनि बद्धं साध्यरोगवदिति। ततश्च यथोपक्रमसाध्ये रोगो व्याधिः केनापि प्रागुपार्जित इत्युपक्रम्य तं स्फोटयति न च तस्य तथा कुर्वतोऽकृतागमादयः एवमायुरप्युपक्रमसाध्यतया बद्धत्वात् / यद्यपक्रमस्यैव वेदयति तदा केन स्यात्कृतागम इति। ननु साध्योऽसाध्यो वा रोग इति कथं ज्ञायत इत्याह। अणुवक्कमओ नासइ, कालेणोवक्कमेण खिप्पंति। कालेण चेव सज्झा-सज्झा सज्झंतहा कम्मं / / साध्यो रोग इति स चानुपक्रमतः उपक्रमाभावात्कालेन निजभुक्तिच्छेदेन नश्यति / उपक्रमेण तु विहितेन क्षिप्रमर्वागपि शीघ्रं नश्यति साध्यत्वादेव / यस्त्वसाध्यो रोगः स कालो मरणं तेनैव नश्यति नतूपक्रमशतैरपि / तथा कापि यत्साध्यं बन्धकालेप्युक्रमसव्यपेक्षमेव बद्धं तदुपक्रमसामग्यभावे कालेन संपूर्णवर्षशतादिलक्षणेन निजभुक्तिच्छेदेन नश्यति उपक्रमसामग्रीसन्नि-धाने तु शीघ्रमन्तर्मुहूर्तादिनैव कालेन नश्यति साध्यत्वादेव यत्पुनसाध्य बन्धकाले निकाचितावस्थमनुपक्रमे च बद्धं तदनेकोपक्रमसद्भावेऽपि निजपरिपूर्तिकालमन्तरेण न नश्यति / अस्यैवार्थस्य साधनार्थमाह। सज्झासज्झं कम्मे, किरियाए दोसओ जहा रोगो। सज्झमुवक्कामिजइ, एत्तो चिय सज्झरोगो व्व / / (किरियाए त्ति) क्रियाया उपक्र मलक्षणायाः साध्यमसाध्य च कम भवतीति प्रतिज्ञा (दो स ओत्ति) दोषत्वादिति हेतुर्यो यो दोषः स स उपक्रमक्रियायाः साध्योऽसाध्यश्च भवति Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमकाल 604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवक्कमकाल यथा ज्वरादिरोगः यच साध्यं तदुपक्रम्यते (एत्तोचियत्ति) साध्यत्वादेव | साध्यरोगवदिति / अथवा प्रकारान्तरेण प्रमाणयन्नाह / / सज्झामयहेऊओ, सज्झनियाणासओहवा सज्झं। सोवक्कमणमयं पि व, देहो देहाइभावाउ / / अथवा सह उपक्रमेण वर्तते सोपक्रमणं वेदनीयादिकम् / साध्यमुपक्रमक्रियाविषयभूतं कर्मेति प्रतिज्ञा। उपक्रमश्च साध्यश्वासौ आमयश्व साध्यामयस्तद्धेतुत्वादिति हेतुः / यथा अयमेव प्रत्यक्षो देहः मण्डच्छेदादिद्वारेण देहोऽपि साध्यः उपक्रमक्रियाविषयः सोपक्रमश्चेति साध्यविकलत्वाभावो दृष्टान्तस्तस्य साध्यामयस्य च गण्डादिकारणत्वादेहस्य साधनविकलत्वस्याप्यभावः / अथवा हेतुत्वन्तरभावादन्यथा प्रमाणं सोपक्रमण साध्यं कर्मेति सैव प्रतिज्ञासाध्यनिदानाश्रयत्वादिति। अत्र निदानं कारणं साध्व-कर्मजनकंच निदानमपि साध्यमुच्यते साध्यं च तन्निदानं च साध्यनिदानं तस्याश्रयः साध्यनिदानाश्रयस्तद्भावः साध्यनिदानाश्रयत्वं तस्मात्साध्यनिदानाश्रयत्वात्साध्यनिदानजन्यत्वादिति भावः / निदानस्य साध्यत्वं कथं ज्ञायत इति चेदुच्यते साध्यकर्मजनकत्वात्कर्मणोऽपि साध्यत्वं कथमवसीयत इति / / चेदुच्यते उपक्रमान्यथानुपपत्तेरिति आह ननूपक्रमएव ह्यत्र साध्यस्ततस्तदसिद्धौ कर्मणः साध्यत्वं न सिध्यति तदसिद्धौ तु कर्मजनकस्यापि साध्यत्वासिद्धिरिति साध्यनिदानजन्यत्वादिति साध्य-त्वविशेषणासिद्ध्याऽसिद्धो हेतुरिति। सत्यं कित्वेवं मन्यते "जइनाणुभूइउचियखविज्जयकम्मेत्यादि" ग्रन्थोक्तयुक्तिभ्यः सिद्धमेव कर्मणः सोपक्रमत्वं ततस्तत्सिद्धौ कर्मणः साध्यत्वं सिध्यति तत्सिद्धौ च साध्यकर्मजनकतया तज्जनकनिदानस्यापि साध्यसिद्धिरिति / यद्येवं पूर्वोक्तयुक्तिभ्य एव सिद्धं कर्मणः सोपक्रमत्वमिह पुनरपि तत्साधनमपार्थक्यमिति चेत्सत्यं किंतु प्रपञ्चप्रियविनेयानुग्रहार्थत्वाददोषः / यदि वा कर्मणो निदानमध्यवसायस्थानान्येव तानि च विचित्रत्वेनासंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणान्यतस्तेषु मध्ये यथा निरुपक्रमजनकानि तथास्योपकर्मजनकान्यध्यवसायस्थानानि विद्यन्ते एवेति तद्वैचित्र्यान्यथानुपपतेरित्यादि युक्तितः साध्कर्म जनकनिदानस्य साध्यत्वं साधनीयं तत्सिद्धौ च तत्कार्यस्य कर्मणोऽपि साध्यत्वं सोपक्रमेणत्वं सिध्यतीत्यलं प्रपञ्चेन। यथा अयं देह इति स एव दृष्टान्तः अस्य च गण्डच्छेदादिद्वारेण छिद्यमानत्वात्सोपक्रमत्वमत एव साध्यनिदानजन्यता अतः साध्यसाधनधर्माभ्यासस्याविकलतेति। अथवा हेत्वन्यथात्वेनान्यथाप्रमाणं (देहादिभावाउत्ति) सोपक्रमणं साध्यमुपक्रमक्रियाविषयभूतं कर्मेति प्रतिज्ञा सैव देहादौ भावादादिशब्दाजीवे च भावादिति हेतुः देहे जीवे च किल वर्त्तते कर्म केवलं जीवे वढ्ययः पिण्डन्यायेन तस्य वृत्तिः देहे त्वाधाराधेयभावेन जीवो वर्तते तद्वारेण च कापीति यथायमेव प्रत्यक्षो देह इति स एव दृष्टान्तः / नन्वाधाराधेयभावेन देहस्यापि जीवे वृत्तिर्युक्ता देहस्य च देहे वृत्तिरिति एतत्कथम्। सत्यं सर्वे भावाः स्वात्मनि वर्तन्ते वस्त्वन्तरे चाधारे इति न्यायादेहस्यापि देहे वृत्तियुज्यत एव / अथवास्यौदारिकादिदेहस्य जीववत्कार्मणलक्षणेऽपि देहे वृत्तिः प्रतीतैवेति न देहादौ भावादिति साधनधर्मविकलतादृष्टान्तस्येति / अथ कर्मणः सोपक्रमत्वसिद्धावुपपत्त्यतराण्यप्याह! किंचिदकाले वि फलो, पाइज्जइ पचएण कालेण। तह कम्म पाइज्जइ, पाएण वि पचए वण्णं / / भिण्णो जहेह कालो, तुल्ले वि पहम्मि गइविसेसा उ। सत्थेव गहणकालो,गइमेहो भेयओ भिन्नो / / तह तुल्लम्मि वि कम्मे य, परिणामाइकिरिया विसेसा उ। भिण्णोणुभवणकालो, जेट्ठो मज्झो जहन्नो य / जह वा दीहा रज्जू, डज्झइ कालेण पुंजिए खिप्पं / वियओ पडो व्व सुस्सइ, पिंडीभूओ य कालेण। भागा य निरोवट्ठो, हीरइ कमसो जहा णदी खिप्पं / किरिया विसेसओ वा, समे विरोगे चिगिच्छाए। यथा किंचिदाम्रराजादनादिफलं यावता कालेन वृक्षस्थं क्रमेण पच्यते तदपेक्षया अर्वाक् कालेऽपि गर्तप्रक्षेपपललस्थगनाद्युपाये-त्र पाच्यते-- अन्यत्र वृक्षस्थमेवोपायाभावतः क्रमशः स्वपाककाले न पच्यते तथा काप्यायुष्कादिकं किमप्यध्यवसानादिहेतुभिर्बन्धकालनिर्वर्तितवर्षशतादिरूपस्थितिकालापेक्षया कालेनाप्यन्तर्मुहुत्तोदिना पाच्यते वेद्यतेऽनुभूय पर्यन्तं नीयत इति तात्पर्यम् अन्यानुबन्धकालनिर्वर्तितवर्षशतादिलक्षणस्थितिकालेनैव संपूर्णेन विपाच्यते अनुभूयत इति / अथवा यथेह तुल्येऽपि त्रियोजनादिके पथि त्रयाणां पुरुषाणां गच्छता प्रहरो द्वित्र्यादिलक्षणो गतिविशेषाद्भिन्नो गतिकालो विशिष्यते दृश्यते एवं कर्मणः तुल्यस्थितिकस्यापि तीव्रमन्दमध्यमाध्यवसायविशेषाज्जघन्यमध्यमोत्कृष्टलक्षणस्त्रिविधोऽनुभवनकालो भवति / यदिवा यथा तुल्येऽपि शास्त्रेऽध्येतॄणां मतिर्ग्रहणबुद्धिर्मेधा पुनरिडावधारणस्वरूपा गृह्यतेत दाविविधो ग्रहणस्य पठनस्य कालो भिन्नोऽनेकरूपो विलोक्यते एवमायुषोऽपि परिणामविशेषात्तुल्य स्थितिक स्थाप्यनेकरूपोऽनुभवनकाल इति / पथि शास्त्रदृष्टान्तयोः प्रकृतयोजनामाह / (तहतुल्लम्मिवीत्यादि) गतार्थव नवरं (परिणामाइ किरियाविसेसाओत्ति)परिणामोऽध्यवसानमादिशब्दादबाह्यदण्डकशस्वादयो गृह्यन्ते क्रिया च परिणामादिलक्षणा परिणामादयश्च क्रिया च परिणामादिक्रियास्तद्विशेषास्त दा बहुभिस्तुल्यस्थितिके बद्धेऽपि कर्मणि भिन्न एवानुभवनकाल इति यथा दीर्घा प्रसारिता रञ्जुरेकस्मात्पक्षात्क्रमेण ज्वलन्ती प्रभूतेनैव कालेन दह्यते पुञ्जीकृता तु पिण्डिता तु ज्वलन्ती क्षिप्रं शीघ्रमेव भस्मी भवति / एवं कर्माप्यायुष्कादिकं दीर्घकालस्थितिकं प्रतिसमयं क्रमेण वेद्यमानं चिरकालेन वेद्यते अपवर्त्य पुनर्वद्यमानमल्पेनैव कालेन वेद्यत इति। यथा वा जलार्द्रः पिण्डीभूतः। पटश्चिरकालेन शुष्यति विततः प्रसारितः पुनरल्पेनैव कालेन शुष्यत्येवं कर्मापीत्युपनयस्व (यथैवेति) यथा वा लक्षादिकस्य महतो राशेर्निरपवर्तनोऽपवर्तनोपवर्त्तनारहितो भागःक्रमशश्चिरेण हियते अन्यथा पुनरपवर्तनायां विहितायां क्षिप्रं शीघ्रमेवापहियते / तथाहि किल लक्षप्रमाणस्य राशेर्दशभिर्भागो हरणीयः स च यद्यपवर्तनामन्तरेण हियते तदा महती वेला लगति यदि तु गुणस्य लक्षस्य गुणकारकस्य च दशलक्षस्य पञ्चभिरपवर्त्तना विधीयते पञ्चभिर्भागो हियत इत्यर्थः तदा शीघ्रमेव हियते भागो लक्षस्य हि पञ्चभिर्भाग हृते लब्धानि विंशतिसहस्राणि दशानां तु पञ्चभिर्भागे हृते लब्धी द्वौ एताभ्यां विंशतिसाहसिकस्य लघुराशेगि हृते झटित्येव दशसहस्राण्यागच्छन्ति अनपवर्तितैस्तुदशभिरनपवर्तितस्यैव लक्षस्यैव दी? भागापहारकालो भवति एवमायुषोऽप्यनपवर्तितस्य तु लघुरसाविति यथा वा समेऽपि कुष्ठादिके रोगे क्रियाविशेषाचिकित्साया रोगनिग्रहलक्षणायाः कालभेदा भवत्येवमायुषोऽपीति। तदेवं सप्रसङ्गो द्विविधोऽप्युक्त उपक्रमकालः / / विशेगा Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवक्कमण 905 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवगरणउप्पादणया उवक्कमण न०(उपक्रमण) उप-क्रम्-ल्युट् / विक्षेपणे, विशे०७ द्वा०। 'उवग त्रि०(उपग) उप-गम-ड-उपगन्तरि, वाच०॥ आरम्भे, करणे ल्युट् तत्साधने, सुश्रुतोक्ते दीर्घायुष्यादि- | *उवक पुं० तिरश्चि, "तदणुचए वावि उवगो"उपको नाम अन्यः कोऽपि ज्ञानपूर्वकचिकित्सायाम्, भूमिकायाम्, स्त्री०। वाच०॥ तिर्यगापतितो मिलितः / वृ०६उ० / गतायां च / नि०चू०३ उ०। उवक्कमिया स्त्री०(औपक्र मिकी) उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमो ज्व उवगंतुकाम त्रि०(उपगन्तुकाम) अभ्युत्थातुकामे, "जो संविग्गविहार रातिसारादिस्तत्र भवा या सा औपक्रमिकी। स्था० / उपक्रम्यते उवगंतुकामो अब्भुट्ठिउकाम इत्यर्थः" नि०चू०१६ उ०। ऽनेनेत्युपक्रमः कर्मवेदनोपायस्तत्रभवा औपक्रमिकी (भ०१ श०४ उ०) उवगय त्रि०(उपगत) उप--गम्-क्त, स्वीकृते, उपस्थिते, ज्ञाते, वाच०। कर्मोदीरणकारणेन निर्वृत्तायां तत्र भवायां ज्वरातिसारादि-जन्यायां वा दौकिते, सूत्र०१श्रु०३ अाअधिगते, "णिउणसिप्पोव-गएहिं" औ० / वेदनायाम्, स्था०२ ठा०1"अहं उवक्कमियं वेयणं णो सम्मं सहामि" || प्रश्नः / युक्ते, "सिरिए हिरिए उवगए उत्तप्पसरीरे" रा० / स्था०४ ठा०॥ "सण्णणणाणोवगए महेसी" उत्त०१२ अ०।औ०। उपसामीप्येन गतः। उवक्कमियुवसग्ग पुं०(औपक्रमिकोपसर्ग) दण्डकशस्त्रादिनाऽसा प्राप्ते,सूत्र० 2 श्रु० 1 अ० / द० / पंचा० ।अनु०। रा० / तवेदनीयोदयापादके, सूत्र०१श्रु०३ अ०। (उवसग्गशब्दे विवृतिः)। "णिहवहयसरसजोवणकक्कसतरुणवयभावमवग्गयाओ" औ०। उवक्केस पुं०(उपक्लेश) उपक्लिश्नाति अनेन उप ल्किश् करणे घ उत्त०। "झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई" मदादिषु, वाच०। भावे घञ्। शोकादिवाधायाम्, स्था०७ ठा०। ध्यानं धयं शुक्लं वा तदेव कोष्ठः कुसूलोध्यानकोष्ठस्त–मुपगतस्तत्र उवक्ख(क्खा)इत्ता त्रि०(उपख्यापयित) लोके ख्यापयति, "पावेहि प्रविष्ठो ध्यानकोष्ठोपगतः भ०१ श०१उ० "लोयग्ग-मुवगयाणं" कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइत्ति"। पापैः कर्मभिरात्मानमुप लोकाग्रमुपगतेभ्यः लोकाग्रमीषत्प्रारभाराख्यं तदुप सामीप्येन ख्यापयिता भवति। अयं महापापकारीत्येवं लोके ख्यापयतीति। सूत्र०२ निरविशेषकर्मविद्युत्पातपराभिन्न प्रदेशतया गताः उपगताः। ला उपेति श्रृ०२अा कालसामीप्येन गतानां प्राप्तानाम्।यद्वा उपेत्युपसर्गः प्रकर्षेऽप्युपलभ्यते उवक्खड त्रि०(उपस्कृत) उप-कृ-क-भूषणादौ सुट्। भूषिते, संहते, यथा पोढारागेण तेन स्थानमनुपमसुखं प्रकर्षण गतानामिति सम्म०॥ विकृते, अध्याहृते, वाच० घृतहिडधान्यकमिरचलवण-जीरकादिभिः कृतोपस्कारे शाकादिके, / "उवक्खड भोयणमाह-णाणं अत्तट्ठियं उवगयसलाहत्त न०(उपगतश्लाघत्व) उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघतारूपे सिद्धमिहेगपक्खं'' उपा०। उवक्खडाखीरदहिमादी" नि०चू०८ उ०। चतुर्विशे सत्यवचनातिशये, स०। रा०॥ उपस्करणमुपस्कृतम्। पाके, स्था०४ ठा। उवगरण न०(उपकरण) उपक्रियतेऽनेन उप-कृ ल्युट्--प्रधान-साधके उवक्खडसंपण्ण पुं०(उपस्कृतसंपन्न) उपस्कृतेन पाकेन संपन्नः। अङ्गे, हस्त्यश्वरथासनमञ्चकादौ, आचा०१ श्रु० अ० अङ्गे, ओदनमण्डकादौ आहारभेदे, / स्था०४ ठा०। "केवलिस्सणं वीरियस्स संयोगसव्वयाए चत्तारि उवगरणाई भवंति। उवक्खडाम न०(उपस्कृताम) कंकडुगादिउवक्खडं इत्युक्तेराम-भेदे, भ०५ श०४उ० / कामभोगाङ्गे, धनधान्यहिरण्यादिके, सूत्र०२ श्रु० "उवक्खडामं णाम जहा वणयादीणं उवक्खडियाणं जेणसिज्झंति ते 10 / उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम्। चुल्ल्यादिके दयादिके च / कंकडुयामं उवक्खडियाम भण्णति' नि०चू०१५ उ०। तन्निरुक्तिश्चैवम्। उवक्खडि जमाण त्रि०(उपस्क्रियमाणा) उपसंस्क्रियमाणे, उपकरणशब्दं व्याख्यानयति॥ "उवक्खडिजमाणे पेहाए पुरा अप्पजूहिए" आचा०२ श्रु०२ अ०॥ सिज्झत्तस्सुवयारं, दिजंतस्स व कारइ य जं दव्वं / नि०चू० तं उवकरणचुल्ली, उवरकादव्वीए डोयाइ॥ उवक्खडिय त्रि०(उपस्कृत) संस्कृते, "विरूवरूवे भोयणजाए यत् चुल्ल्यादिकं सिद्ध्यतेऽन्नस्य यद्वा यद्दव्यादिकं दीयमानस्य उवक्खडिए सिया" उवक्खडियपेहाए" उवक्खडियं पेहाए तहा वितं भक्तस्योपकारं करोति तचुल्ल्यादिकं दादिकं च उपकरणमिणो एवं वेदज्जा" आचा०२ श्रु०४ अ०। "सवत्त्थपरमणं उवक्खडियं। त्युच्यते। उपक्रियते अनेनेत्युपकरणमिति व्युत्पत्तेः / / पिं० आचा०। आ०म०द्वि०॥ स्था० / उपकरणं त्वेनकविधम् कटपिटकशूदिके, अनु० / भ० / उवक्खडेत्ता अव्य०(उपस्कृत्य) संस्कृत्येत्यर्थे , "असणं वा 4 "लौहीकटाहकडुच्छुकादौ, भ०५ श०७ उ० / उपक्रियते व्रती उवकरेत्ता उवक्खडेत्ता। आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। अनेनेत्युपकरणम् धर्मशरीरोपष्टम्भहेतौ उदधौ, उत्त०१२ अ०। उवक्खर पुं०(उपस्कर) उप-कृ-भावे अप / हिंसने सुट् हिंसने, दण्डकरजोहरणवस्त्रपात्रादौ, प्रश्न० 1 द्वा० / प्रव० / स्था० / उपस्करोति उप-कृ-अच। भूषणे, समवाये, प्रतियत्ने, विकारे, मूषके, यज्ज्ञानादीनामुपकारकं तदुपकरणमुच्यते / तथा चाह।" "चं जुजइ कटक मण्डलादौ, समुदिते, संहते, व्यञ्जनसंस्कारक पिष्ट- उवयारे उवगरणंतेसि होइ उवगरणं / अहिगरणं अजओ अ, जयंपरिहरंतो धान्यकादिद्रव्ये, गृहसंस्कारके संमार्जन्यादौ, वाच०। सूर्यादिके, परिहरतो" ध०३अधि० / यत्किल साधूनामुपकारे न व्याप्रियते नि०चू० 10 उ० / / उपस्क्रियतेऽनेनेत्युपस्करः हिङ्ग्वादौ / स्था० 4 तन्नोपकरण किन्तु अधिकरणम्। वृ० १उ०। उप-कारिवस्तनि, प्रश्न०१ ठा०॥ द्वा० / खड्ग स्थानीयाया बाक्रनिर्वृरोया खङ्गधारास्थानीया उवक्खरणसाला स्त्री०(उपस्करणशाला) महानसे, नि०चू०६ उ०। स्वच्छतरपुगलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निर्वृत्तिः सा। शक्तिविशेषे, जी०१ उवक्खरसंपण्ण पुं०(उपस्कारसंपन्न) उपस्क्रियतेऽनेनेत्युप--स्करो प्रति०। आचा०। हिंग्वादिस्तेन संपन्नः। हिंग्वादिभिः संस्कृते ओदनमण्डकादौ, आहारभेदे, | उवगरणउप्पादणया स्त्री०(उपकरणोत्पादनता) उपकुर्वन्तीति स्था०४ ठा०। शीतातपादिषु सीदन्तं स्थिरीकुर्वन्तीति उपकरणानि तेषामुत्पा-दनता उवक्खाइया स्त्री०(उपख्यायिका) कथाभेदे, ज्ञाताधर्मकथासु- उपकरणोत्पादनता वक्ष्यमाणप्रकारेण उत्पादनरूपे विनय-भेदे, पञ्चपञ्चाख्यायिकोपाख्याविकाशतानि। नं०॥ अथोपकरणोत्पादनतां पृच्छति। Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवगरणउप्पादणया 906 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवगृहण से किं तं उवगरणउप्पायणया 2 चउटिवहा पण्णत्ता तं उपकृतौ, वाच०॥ उपकारवक्तव्यताभेदाश्च / चैत्यमु-निवन्दनप्रभृतिजहा अणुप्पण्णाई उवगरणाइं उप्पाइत्ता भवति पोराणाई भाष्यविवृतेर्यथाश्रुतं किंचित्। संघस्याचारविधि, वक्ष्ये स्वपरोपकाराय उवगरणाई संरक्खिता भवति / संगो वित्ता भवति परित्तं 12 / इहहि दुरन्तानन्तचतुरन्तासारविसारिसंसारापारावारे निमजता जाणित्ता पबुद्धरित्ता भवति जधाविधिं संविभइत्ता भवति भव्यजन्तुना जिनप्रवचनप्रतीतचोल्लकादिदशनिदर्शनदुष्प्रायं कथमपि सेत्तं उवगरणउप्पायणया। प्रशस्तमनुजजन्मादिसामग्रीमबाघभवजलधिसमुत्तरणप्रवहणप्रश्नसूत्रं कण्ठ्यम् / गुरुराह / चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा (अणु- सधर्म सद्धर्म विधाने प्रयत्नो विधेयः / यदवादि "भवकोटी प्पन्नाइंति) अनुत्पन्नानि पूर्वमप्राप्तानि अपेक्षमाणानि उपकरणा-नि दुष्प्रापामवाप्य नृभवादिसकलसामग्रीम् / भवजलधियानपात्रे, धर्मे सम्ये गषणादिशुद्ध्या उत्पादयिता संपादनशीलो भवति यतः यत्नः सदा कार्यः / 1 / तत्रापि विशेषतः परोपकारकरणे प्रवर्तितव्यम्। स्थयमाचार्यस्योपकरणोत्पादने वाचनाधर्मकथाद्यन्तरायो भवति अतः तस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यामपि पुण्यबन्धनिबन्धनत्वात् उक्तं च" शिष्येणैवोपकरणाद्युत्पादनीयम् / (पोराणाइंति) पुरातना- "संक्षेपात्कथ्यते धर्मो , जनाः किं विस्तरेणवः / परोपकारः पुण्याय, न्युपकरणानि संरक्षयिता उपायेन चोरादिभ्यः अथवाजीर्णानि सीव्यति पापाय परपीडनम् / 1 / स चोपकारो द्वधा / द्रव्यतो भावतश्च / तत्र काले प्रावृणोति व्याख्यानकाले चोलपट्टादिकम् / संगोपयिता च द्रव्योपकारो भोजनशयनाच्छादनप्रदानादिलक्षणः स चाल्पीयाननात्यअल्पसागारिककरणेन मलिनतारक्षणेन वेति 2 "परित्तं" नाम न्तिकश्चैहिकार्थस्यापि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति / भावोपकारअल्पोपधिकं देशान्तरादागतं साधर्मिकं समीपस्थं वा अन्यगणसत्कं वा स्त्वध्यापनश्रावणादिस्वरूपो गरीयानित्यात्यन्तिक उभयलोकसुखासीदन्तं दृष्ट्वा उपकरणेरुद्धर्ता भवति 3 यथाविधिसंविभक्ता भवति वहश्चेत्यतो भावोपकार एव यतितव्यम्। स च परमार्थतः पारमेश्वरप्रयथाविधि नाम यथाशास्त्रिकतया दाता भवति ग्लानादिकारणे वा वचनोपदेश एव। तस्यैव भवशतोपचितदुःखलक्षक्षयक्षमत्थात्॥आहच // तथाविधवस्त्रसंग्राहको भवति 4 सेत्तमित्यादिनिगमनवचनं व्यक्तम्। नोपकारो जगत्यस्मिंस्तादृशो विद्यते कृचित्। यादृशी दुःखविच्छेदाद्देहिनां दशा०४अ०॥ धर्मदेशना / / 3 / / संघा०ानं०।सुखानुभवे, षो०६ विव०। उवगरणदाणं न०(उपकरणदान) उपकरणं दण्डकादि तस्य दानम् उवगा(या)रण न०(उपकारण) आत्मनोऽन्थस्य वा ग्लानाद्यववितरणम् / ममैकान्तनिर्जरा भवत्विति बुद्ध्या दण्डकादि- स्थायामन्येनोपकारकरणे, "उवयारणपारणासु विणओ पडजियव्यो" वितरणे,"बहुमाणो वंदणयनिवेयणा पालणा य जातणउवगरणमेव'' प्रश्न०३द्वा०1 दर्श०॥ उवगाराभाव पुं०(उपकाराभाव) कृतकृत्यत्वेनानन्दाधुपकारउवगरणपूतित न०(उपकरणपूतिक) राध्यमानस्य दीयमानस्य वा स्यासंभवे, "उवगाराभावम्मि वि, पूआणं पूजगस्स उवगारो'' पंचा०४ उपकारकारके पूतिभेदे, "जंतं रज्झंतस्स वा दिजंतस्स वा उवकारं विव०। करोतितं उवकरणपूतितंतंच इमंचुल्लुक्खलियंडोएदव्यीछूढे यमासयं उवगारि(ण) त्रि०(उपकारिन्) उपकारके, आ०म०प्र० / विशे० / पूर्ति डोएलोणेहिं गूसंकामणफोडसंधूमे' नि० चू०२ उ०। उपकारवति, षो०१० विव०। उवगरणलाघवन०(उपकरणलाघव) अल्पोपधित्वरूपे द्रव्यतो लाघवे, उवगारिया स्त्री०(उपकारिका) विमानाधिपतिसत्कप्रसादावतंआचा०१ श्रु०६ अ०३उ०। सकादीन् उपकरोत्यपष्टभ्नातीत्युपकारिका विमानाधिपतिसत्कउवगरणवडिया स्त्री०(उपकरणप्रतिज्ञा) उपकरणलाभप्रतिज्ञा-याम, प्रसादावतंसकादीनां पीठिकायाम्, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारिकेति "आमोसगा उवगरणवडियाए संपिडिया गच्छेज्जा'' आमोष-काश्चौरा प्रसिद्धा। उक्तं च 'गृहस्थानां स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिका" इति। उपकरणप्रतिज्ञया उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः। आचा०२ श्रु०॥ रा०। उवगरणसंजम पुं०(उपकरणसंयम) महामूल्यवस्त्रादिपरिहार--रूपे उवगारि(य)यालयणन०(उपकारिकालयन) उपकारिका लय-नमिव पुस्तकवस्त्रतृणचर्मपञ्चकपरिहारलक्षणे वा संयमभेदे, स्था०४ ठा०।। उपकारिकालयनम् / उपकार्योपकारिकारूपे लयने, "एत्थणं महेगे उवगरणसंजोयणा स्त्री०(उपकरणसंयोजना) उपकरणविषये उवयारियलयणे पण्णते एगंजोयणसयसहस्संआयामविक्खंभेणं" रा०। संयोजनादोषे, सा च बाह्याऽऽभ्यन्तराच। तत्र बहिरुपकरणसं-योजना जी०।। उपकरणं गवेषयत एव साधोश्चोलपट्टकप्राप्तौ विभूषाप्रत्ययमन्तरा कल्प्यं उवगिजमाण त्रि०(उपगीयमान) "तद्गुणगानात् क्रियमाणोपगाने, याचयित्या परिभूञानस्य भवति / अन्तरुपकरणसंयोजना मुइगमत्थएहिं / बत्तीसइबद्धेहिं उवनचिजमाणे उवगिजमाणे' भ०६ वसतावागत्य तथैव परिभुजानस्य। पञ्चा० 13 विव०। पं०व०॥ श०३३ उ० / तथाविधवालोचितगीत विशेषैर्गीयमाने गाय्यमाने च / उवगरणसंवर पुं०(उपकरणसंवर) अप्रतिनियताकल्यनीयवस्त्रा- | औ०॥ द्यग्रहणरूपे विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्यसंवरणलक्षणे वा संवरभेदे, उवगीइ स्त्री०(उपगीति) आर्या द्वितीयकाढ़े यद् गदितं लक्षणं "तत् स्था० 10 ठा०॥ स्यात् यद्युभयोरपि दलयोरुपगीति तामुनिबूंते" वृ०२० / उक्ते उवगसित्ता अव्य०(उपसंश्लिष्य) समीपमागत्येत्यर्थे, "मणबंध माणेहिं मात्रावृत्तभेदे, ग०। णेगेहिं कलुणविणीयमुवगसित्ताणं" सूत्र०१ श्रु०४ अ०। उवगूढ न०(उपगूढ) गुह, भावे, क्त, आलिङ्गने, कर्मणि क्त-आलिङ्गिते, उवगाइज्जमाण त्रि०(उपगीयमान) क्रियमाणोपगाने, "गंधव्वेहिंणाडएहिं | त्रि 01 सूत्र० 1 श्रु०४ अ०। वेष्टिते, ज्ञा० 18 अ० / युक्ते, उवतिविज्झमाणे उवगाइज्जमाणे उवलालिज्झमाणे" रा० "गुंजावक्ककुहरोवगूढ" "गुजंतं वंसकुहरोवगूढ' रा०। उवगारपुं०(उपकार) उप-कृ-भावे-घञ्। प्रधानस्थानुगुण्य-सम्पादने, | उवग्रहण न०(उपगूहन) उप-गुह-ल्युट्-ओरूत् / आलिङ्गने, Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवगृहण 907 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवग्घायणिजृत्ति वाच० / प्रच्छन्नरक्षणे, रचनायां च / "आरुहणणट्टणेहिं वालयउवगृहणेहिं च" तं०॥ उवगूहिज्जमाण त्रि०(उपगृह्यमान) आलिङ्ग्यमाने, "उवनचिजमाणे उवगाइजमाणे ज्वलालिजमाणे उवगूहिज्जमाणे' ज्ञा०१अ०॥ उवगू हिय न०(उपगूहित) (उपगूढ) गाढतरपरिष्वङ्गरूपे संप्राप्तकामभेदे, प्रव० 176 द्वा० / द०। आलिङ्गिते, त्रि० "एस सो वइरो तुट्टेहिं उवगूहिओ" आ०म०द्वि०। उवग्ग न०(उपाय) अग्रस्य मुखस्य वर्षाकालसंबन्धिः समीपमुपा-ग्रम्। आषाढमासे, "एसो चियकालो पुणरेव गणं उवग्गम्मि' व्य०१३०। उवग्गह पुं०(उपग्रह) उपगृह्णातीत्युपग्रहः / उपाधौ, ओ० नि० चू०। उपग्रहणमुपग्रहः शिष्याणां भक्तश्रुतादिदानेनोपष्टम्भने, ग०१ अधि०। वि०। ओ०। पं० चू०। पं० भा०। (तभेदाः परिहारशब्दे वक्ष्यन्ते) आत्मनः समीपे संयमोपष्टम्भार्थवस्तुनो ग्रहणे, प्रव०६० द्वा०। उपकारे, विशे० / काराबन्धने वन्दीकरणे, उपयोगे, आनुकूल्ये, वाच० / परस्मैपदात्मने पदयोर्व्यत्यये, यथा तिष्ठति प्रतिष्ठते रमते उपरमतीत्यादि / सूत्र०२ श्रु०७ अ०। कर्मणि घञ्। कारारुद्धे, वन्द्याम्, वाच०। उवग्गहकर त्रि०(उपग्रहकर) उपकारके, “जोगंपि वत्थमाइ उवम्गह करंति गच्छत्ति" पं०व०२ द्वा०॥ उवग्गहकुसल पुं०(उपग्रहकुशल) उपग्रहविषयके कुशले, उप सामीप्येन ग्रहः सोऽपि द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / तत्र येषामाचार्य उपाध्यायो वा न विद्यते तान्। आत्मसमीपे समानीय तेषामित्वरां दिशं बध्वातावद्वारयति यावन्निष्पाद्यन्ते एष द्रव्यत उपग्रहः / ग्रह उपादाने इति वचनात् / यः पुनरविशेषेण सर्वेषामुपकारे वर्त्तते स भावतः उपग्रहः / उपग्रहकुशलमाह // बाला सहवुड्डेसुं, संततवकिलंतवेयणातंके। सेञ्जनिसेजोवहियाण, समणभेसज्जवग्गहिए। दाणदवावणकारावणे य तहाकयमणुण्णाए। उवहितमणुविहितविही, जाणाति उवग्गहं एयं / / बालाः सहवृद्धेषु तथाप्रभृतिमार्गगमनतः / पवनो वा श्रान्तेषु तपः क्लान्तेषु तथा वेदनायां सामान्यतः शरीरपीडायां जातायामातले च सद्यो जाते सति रोगे समुत्पन्ने शय्या वसतिर्निषद्या पीठफलकादिरूपा उपधिः कल्पादिः पानं द्रवम् अशनमोदनादि भेषजमौषधमौपग्रहिकंदण्ड प्रोञ्छनाद्युपकरणम् / एतेषां समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् सप्तमी षष्ठ्यर्थे ततोऽयमर्थः। एतेषां स्वयंदानेऽन्यैपने तथा वैयावृत्त्यादेः कारापणे च तथा "कथमणुन्नाए" इति परैः कृतस्यानुज्ञायां यत्प्रवर्तनं तथा य उपहितविधिर्यश्चनुपहितविधिनमि यत् आचार्य वितीर्ण तदाचार्यमनुज्ञाप्यान्येषां साधूनांतदन्तरेण विस्तरयतां ददाति अपुपहितविधिर्यदनुत्पन्नमुत्पाद्य ददाति / अन्ये तु व्याचक्षते यद्यस्य गुरुभिर्दत्तं तत्तस्योपनयतीत्येव उपहितविधिः / यत्पनुस्तस्य गुरुभिर्दत्तं तत्सोऽन्यस्य गुरून् अनुज्ञाप्य ददाति एषोऽनुपहितविधिः। एवं सर्वमुपगग्रह जानाति / एतदेव लेशतो व्याख्यानयति॥ बालादीणं तेरिंस, सेन्जनिसेञ्जोवहिप्पयाणेहिं। भत्तन्नपाणभेसज्ज-मादीहिं उवग्गहिं कुणइ / / देइ सयं दावेइ य, करेय कारावए य अणुजाणे। उवहिय जं जस्स गुरूहि, दिण्णंतं तस्स उवणेति / / अणुवहियं जं तस्स उ, दिनंतं देइ सो उ अन्नस्स / खमाससमणेहि दिन्नं, तुज्झं ति उवम्गहो एसो।। एतेषामनन्तरगाथाभिहितानां बालादीनां बालासमर्थवृद्धमार्गगमनादिश्रान्ततपः क्लान्तवेदना-जातातङ्कानां शय्यानिषद्योपधिप्रदानैस्तथा भक्तं मोदकाशोकवादि अन्नमोदनादि पानभैष-ज्ये प्रागुक्तस्वरूपे आदिशब्दादौ पग्रहिकोपकरणादिपरिग्रहः / एतैरुपग्रहमुपष्टम्भं करोति कथमित्याह। स्वयं शय्यादिकंददाति। अन्यैर्वा दापयति तथा स्वयं वैयावृत्त्यादि करोति / अन्यैः कारयति। कुर्वन्तं वा अन्यमनुजानीते / (उवहियत्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादुपहितविधिरिति द्रष्टव्यम् / यद्यस्य गुरुभिर्दत्तं तत्तस्योपनयतीत्येष उपहितविधिर्यत्पुनस्तस्य दत्तं सोऽन्यस्मै गुरून् अनुज्ञाप्य ददाति / क्षमाश्रमणैस्तुभ्यमिदं दत्तमित्येषोऽनुपहितविधिः / एष सर्वोऽप्युग्रहः / उक्तं उपग्रहकुशलः / / व्य० 330 / / उवग्गहठ्ठया स्त्री०(उपग्रहार्थता) भक्तपानवस्त्राद्युत्पादनसमर्थ-- तयोपष्टम्भयिता भवत्विति प्रयोजने, स्था० 5 ठा०३उ०।। उवग्गहिय न०(उपग्रहीत) भावे-क्त० / पुरुषस्यालिङ्ग नैकान्त-- नयनलिङ्गग्रहणकरग्रहणादौ, "उवहसिएहिं उवग्गहिएहिं उवसद्देहिं" तं० / कर्मणि क्त-- ज्ञानादिभिर्वस्त्रादिभिश्चोपष्टम्भिते, // पा०। उवग्घाय पुं०(उपोद्धात) समीपवर्तिनः प्रकृतस्य उद्घात उद्धननम् ज्ञानं चिन्तनं यत्र / उप-हन्-गतौ-गत्यर्थत्वात् ज्ञानार्थता आधारे घञ्। प्रकृतसिद्धयर्थमालोचनात्मके सङ्गतिप्रभेदे "चिन्ता प्रकृतसिद्ध्यर्थमुपोद्धांत विदुर्बुधाः" तदर्थवर्णने आरम्भो शास्त्रोत्पत्तौ, विशे० / / उपक्रमादस्य भेदः / अपरस्त्वाह। ननूप-क्रमः प्रायः शास्त्रसमुत्थापनार्थ उक्त उपोद्धातोऽप्येषशास्त्रसमु-द्धातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः / उच्यते उपक्रमो झुद्देशमात्र-नियतव्यापार उपोद्धातस्तु प्रायेण तदुद्दिष्ट वस्तुप्रबोधनफलो-ऽनुगमत्वादित्यलं विस्तरेण आ०म०प्र० // उपोद्धननमुपोद्धातः / व्याख्येयस्य सूत्रस्य व्याख्यानविधिसमीपीकरणे / विशे० / / उपोद्घातफलम् / / अनेन चापोद्घातेनाभिहितेन सूत्रादयोऽर्था व्यक्ताः भवन्ति यथा दीपेनापवरके त मसि उक्तं च "वत्ती भवन्ति अत्था, दीवेणं अप्पगास उव्वरए। वत्ती भवति अत्था, उवघाएणं तहा सत्थे" उपोहाताभिधानमन्तरेण पुनः, शारवं स्वतोति. विशिष्टमपि न तथाविधमुपादेयतया विराजते यथा नभसि मेघच्छन्नश्चन्द्रमाः / उक्तं च "मेघच्छन्नो यथा चन्द्रो, न राजति नभस्तले। उपोद्धातं विना शास्त्रं / न राजति तथा विधं" तत्र सूत्रभणितं "नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गथीण वा आमेनालपलंबे इत्यादि सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम् / वृ० १उ०।। उवग्यायणिज्जुत्ति स्त्री०(उपोद्धातनियुक्ति) उपोद्घातेन व्याख्ये-यस्य सूत्रस्य व्याख्या विधिसमीपीकरणमुपोद्धातनियुक्तिस्तद्रू-पस्तस्या था अनुगम उपोद्धातनिर्युक्तयनुगमः / नियुक्तयनुगमभेदे, "से किं तं उवग्घायनिजुत्तिअणुगमे 2 इमाहिं दोहिं मूलगाहाहिं अणुगंतव्वे तंजहा'' *"उद्देसे 1 निद्देसे अ२ निग्गमे 3 खित्ते 4 काले 5 पुरिसे य 6 / कारण 7 पचय लक्खण, 6 नए 10 सगोआरेणाणुमए 11 // किं 12 कइविहं 13 कस्स, 14 कहिं 15 केसु 16 कहं 17 किचिरं हवइ कालं 18| कइ 16 संतर 20 मविरहियं , 21 भवा 22 गरिस 23 फा Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवग्घायणिज्जुत्ति 908 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवघायणाम सण 24 निरुत्ता 25 / / सेत्तं उवग्घायनिजुत्ति अणुगमो'। अनु० / आसेवा तयोपध्यादेरकल्पता तत्रोपधेर्यथा एकाकिना हिण्डकसाधुना आ०म०प्र० / विशे०। आ०म०वि० (समाइय शब्दे स्पष्टी भविष्यति) यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्थ "जग्गहणउवघायपुं०(उपघात) उपहननमुपघातः। पिण्डशप्यादेरकल्प--नायाम्। अप्पडिवजण, जइ वि चिरेणं न उवहम्मेति" वचनात् / अस्य चायमर्थ स्था० 3 ठा०। अशबलीकरणे, ओ०। परम्पराधाते, प्रश्न०२ द्वा०। एकाकी गच्छभ्रष्टो यदिजागर्ति दुग्धादिषु चन प्रतिबध्यते तदा यद्यप्यसौ उपघातभेदः "उवघाओ'' उपेत्य घातो उपघातः स च द्विविधः गच्छे चिरेणागच्छति तथाऽप्युपधिर्नोपहन्यते अन्यथा तूपहन्यत इति। द्रव्योपघातो भावोपघातश्च तत्र द्रव्योपघातो विशुद्धद्रव्येनोपहन्यते / वसतेरपि मासचतुर्मासयोरुपरि कालातिक्रान्ततेति / तथा मासद्वयं भावोपघातो द्विविधः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च / तत्र प्रशस्तोपघातः चतुर्मासद्वयं वा वर्जयित्वा पुनस्तत्रैव वसतामुपस्थानेऽपि च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायोपघातः सम्यग्दर्शनादिषु प्रशस्तः / तद्दोषाभिधानात् / उक्तञ्च "उउ वासी समतीता, कालातीता उ साभवे अप्रशस्तोपघातस्तु सम्यग्दर्शनाद्युपघातः मिथ्यात्वादिषु प्रशस्तः सेजा। से चेव उवट्ठाण-दुगुणादुगणं च वज्जित्तत्ति" ||1|| तथा विशोधी नानार्थातिशयेषु सुप्रशंसास्तिभावयोः शोधनं शुद्धिः भक्तस्यापरिष्ठापनिकाकारं प्रत्यकल्पता तदुक्तं "विहिगहियं विहिभुत्तं, विविधमनेकप्रकारा वा शुद्धिर्विशुद्धिरियं द्विविधा द्रव्यविशुद्धिर्वस्त्वादि अइरेग भत्तपाणभोत्तव्वं / विहिगहिए विहिभुत्ते, इत्थ य चउरो भवे भंगा भावविशुद्धिः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशुद्धिः। स च विशुद्ध्युपघातो वा ||1|| अहवा वि अ विहिगहियं, विहिभुत्तं तं गुरुहि स्पृण्णायं / अजीवद्रव्याणां न भवतीत्येष सिद्धान्तः कस्माद्यस्मादजीवद्रव्याणां सेसाणाणुणाया, गहणे दिन्ने वनिजुहणंति / स्था०३ ठा० / क्रोधादयः परिणामविशेषा न भवन्ति तेनोपघातो विशुद्धता वा अजीवा (व्याख्याएसणाशब्दे) नोन भवन्तीत्येष भावनानिश्चय इत्यर्थः। आह कस्योपघात इति संज्ञा। दशविध उपघातः॥ यद्यजीवानां न भवति शुद्धिरुपघातो वा उच्यते उपघातो विशुद्धिर्वा दशविहे उववाएपण्णत्ते तंजहा उग्गमोवधाए उप्पायणोव-घाए परिणाम-प्रत्यया जीवानां भवति न त्वजीवानामिति सिद्धान्तः। जहा पंचट्ठाणे जाव परिहरणोवघाए णाणोवघाए दंसणो-वघाए परिणतिः परिणामः अध्यवसायो भाव इत्येकार्थाः। पं०चू०॥ चरित्तोवघाए अवियत्तोवघाए सारक्खणोवघाए त्रिविध उपघातः यदुद्गमेनाधाकर्मादिना षोडशविधेनोपहननं विराधनं चारित्रतिविहे उवघाए पण्णत्ते तंजहा उग्गमोवघाए उप्पायणोवघाए स्याकल्प्यता वा भक्तादेः स उद्गमोपघातः एवमुत्पादनाया धात्र्याएसणोवघाए। एवं विसोही।। दिदोषलक्षणाया यः स उत्पादनोपघातः / "जहा पंचद्राणेति" उपहननमुपघातः पिण्डशय्यादेरकल्पतेत्यर्थः / तत्र उद्गमनमुद्गमः भणनात्तत्सूत्रमिह दृश्यं कियदत आह जाव परीत्यादि तचेदं (एसपिण्डादेः प्रभव इत्यर्थः तस्य चाधाकम्मदियः षोडश दोषाः / उक्तंच णोवघाए) एषणया शङ्कितादिभेदया यः स एषणोपघातः (परिकम्मोवधाए) "तत्थुगमोपसूई-पभओ एमादि होंति एगट्ठा। सो पिण्डस्सिह पगओ, परिकर्म वस्त्रपात्रादि समारचनं तेनोपघातः स्वाध्यायस्य श्रमादिना तस्सय दोसा इमे होति' ।आहाकम्मुद्देसिय 2 पूईकम्मे य 3 मीसजाए शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकर्मोप-धातः / (परिहरणोवघाए) य।४। ठवणा 5 पाहुडियाए, 6 पाओयर 7 कीअ८ पामिचे 6 // 2 // परिहरणा अलाक्षणिकस्याकल्प्यस्य वोपकरणस्य सेवा तया यः स परियट्टए 10 अभिहडे, 11 उब्भिन्ने १२मालोहडेई य 13 अच्छिज्जे 14 परिहरणोपघातस्तथा ज्ञानोपघात : श्रुतज्ञानापेक्षया प्रमादतो अणिसिट्टे, 15 अजोयरए य 16 सोलसमेत्ति / / 2 / / " इह चाभेदविवक्षया दर्शनोपघातः शङ्कादिभिश्चारित्रोपघातः समितिभङ्गादिभिः उद्गमदोष एवोद्रमोऽतस्तेनोद्रमेनोपधातः पिण्डादेरकल्पनीयता करणं (अवियत्तोवधाएत्ति) अवियत्तमप्रीतिकं तेनोपधाते विनयादेः चरणस्य वा शबलीकरणमुद्रमोपघातः उद्गमस्य वा पिण्डादिप्रसूतेरुपघात (सारक्खणोवधाएत्ति) संरक्षणेन शरीरादिविषये मूर्च्छयोपघातः आधाकर्मत्वादिभिर्दुष्टतोद्गमोपघातः। परिग्रहविरतैरिति संरक्षणोपघात इति। स्था० 10 ठा० / "उवघायं च पञ्चविध उपघातो यथा दशविहं, असंवरंतह यसंकिलेसंच। परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंचविहे उवधाए पण्णत्ते जंहा उग्गमोवघाए उप्पायणोवघाए पंच"पा०। ध० / मूलतो विनाशे, कर्म० 1 नि०चू० / उपद्रवे, तं० / एसणोवघाए परिकम्मोवधाएपरिहरणोवधाए। कर्मायोग्यतासम्पादने, उपकारे,वाच०॥ उपघातोऽशुद्धता उद्गमोपघात उद्गमदोषैराधाकादिभिः उवघायकम्म न०(उपघातकर्मन्) परोपधातक्रियायाम् 'आसूषोडशप्रकारैर्भक्तपानोपकरणलेपानामशुद्धता एवं सर्वत्र नवरम् णिमक्खिरागं च, गिद्धवघाय कम्मगं / उच्छोलणं च कथं च, तं विज उत्पादनया उत्पादनादोषैः षोडशभिर्धात्र्यादिभिरेषणया तद्दोषैर्दशभिः परिजाणिया' सूत्र०१ श्रु०८ अ०। शङ्कितादिभिरिति परिकर्मवस्त्रपात्रादे श्छे दनसीवनादि तेन उवधायजणय न०(उपधातजनक) उपघातः सत्वघातादिस्तजनकम्, तस्योपघातोऽकल्पता तत्र वस्त्रस्य परिकर्मोपघातो यथा अनु०॥ सत्वोपघातादिप्रर्वतके सूत्रदोषे, यथा वेदविहिता हिंसा "तिण्हपरिफालियाणं, वत्थं जो फालियं तु संसीवे। पंचण्ह एगतरं, सो | धयित्यादि / विशे०॥ यथा वा "न मांसभक्षणे दोष इत्यादि" वृ० पावइ आणमाईणि''||१|| तथा पात्रस्य "अवलक्खणे गबंधे, 10 // दुग्गतिगअइरेगबंधणं वावि। जो पायं परियट्टइ (परिभुक्ते) परं दिवट्ठा उ उवघायण न०(उपहनन) हन्यतेऽनेनेति हननन् उप सामीप्येन मासा उ'' ||2|| (स आज्ञादीनाप्राप्नोतीति तथा वसतेः) "दूमिय धूमिय हननमुपहननम्। करे, "भूओवघायणमणचं" आव०४ अ०। वासिय, उज्जोइय वलिकडा अवत्ता य / सित्ता संमट्ठा वि य, विसोहि उवघायणाम न०(उपघातनामन्) उपघातनिबन्धनं नाम / नामकोडिं गया वसहित्ति" // 3 // दूमित्ता धवलित्ता' वलिकृता कूरादिना कर्मभेदे, यदुदयवशात्स्वशरीरावयवैः स्वशरीररान्तः परिवर्द्धमानः अव्यक्ता / छगणादिना लिप्ता संमृष्टा समार्जितत्यर्थः तथा परिहरणा | प्रतिजिह्न गलवृन्दलम्बक चोरदन्तादिभिरपहन्यते / यद्वा Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवघायमाण 909 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवचय स्वयं कृतोद्वचनमैरवप्रपातादिभिस्तदुपघातनाम।पं०सं०। कर्म। स०। श्रा०। प्रव०।। उवधायणिस्सिय न०(उपघातनिश्रित) उपघाते प्राणि बधे निश्रित माश्रितम् / दशमे मृषाभेदे, स्था०१० ठा०। उवघायपंडग पुं०(उपघातपण्डक) उपहतवेदोपकरणे पण्डकभेदे, नि००६ उ०। अथोपघातपण्डकमाहपुट्विण्णाणं कम्माणं असुभफलविभागेण / नो उवहम्मइ वेओ, जीवाणं पावकम्माणं / / पूर्व दुश्चीणानां दुराचारसमाचरणेनार्जितानां कर्मणामशुभफलो विपाक उदयो यद्भवति ततो जीवानां पापकर्मणां वेद उपहन्यते / तत्र चायं दृष्टान्तःजह हेमो उ कुमारे, इंदमहे तुणियानिमित्ताणं / मुच्छिय गिद्धो य मओ, वेओ वि य उवहओ तस्स / / यथा हेमो नाम कुमार इन्द्रमहे समागता यास्तुण्णिका वालिकास्तासां निमित्तेनि मूर्च्छितो गृद्धोऽत्यन्तमासक्तः सन् मृतः पञ्चत्वमुपगतो वेदेऽपि च तस्योण्हतः संजात इत्यक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवलेयः तचैवं हेमपुरे नगरे हेमक्कड़ो राया हेमसं भावा भारिया तस्स पुत्ता वरतवियहेमसंनिभो हेमानाम कुमारो सो य पत्तजोव्वणो अन्नया इंदमहे इन्दट्टाणगओ वेच्छइ य / तत्थ नगरकुलवालियाण रूववईणं पंचसए वलिपुप्फधूव कडुच्छयहत्थो ताओ दट्टुं से बगपुरिसे भणइ किमेयाउनारायाउ किं वा अभिलसंति / नेहिल हिंदियं इंद मग्गंति वरं साभग्गं अभिलसंति भणिया य तेण सेवगपुरिसा अहमेएसिंइदेण वरो दना नेहपथाउ अंतउरम्मि। तेहि ताओ घेत्तुं सव्वाओ अंतेउरे स्थूढाओ ताहे नागरजणे रायाण उवढिओ मोपहवेत्ति तओ स्ना भणियं किं मज्झ पुतो न रोयतितुहं जामाओउतओ नागरा तुहिकढिया एवं रनो सम्मतंति अविण्णा गया नागरा कुमारेण नायव्वा परिणीया सो एसु अतीव पसतो पसत्तरसपतरस सब्ववीयनीगालो जाओ तओतस्सवेओवया व जाओ य अन्ने भपति ताहि चेव अप्पडिसे रोगोत्ति रूवियाहिं अदाएहि मारिओ एयावहोपधातपंडक उच्यते। वृ०४ उ०। उवचय पुं०(उपचय) उपचीयते उपचय नीयते इन्द्रियमनेनेति उपचयः। प्रायोग्यपुद्गलसंग्रहणसम्पतिइन्द्रियपर्याप्तौ प्रज्ञा०१५ पद। इन्द्रियशब्द तदुपचय उक्तः / शरीरे, आव०५ अ०। पिण्डे, निकाये, समूहे, पिं०। ओ०। वृद्धो, भ०। अत्र दण्डकः-- जीवाणं भंते ! किं सोवचया सावचया सोवचयसावचया निरुवचया निरवचया गोयमा ! जीवा नो सोवचया नो सावचया नो सोवचयसावचया निरुवचया निरवचया / एगिदिया तइयपदे सेसा जीवा चउहि पएहिं भाणियव्वा / सिद्धाणं भंते पुच्छा गोयमा ! सिद्धा सोवचचया नो सावचया नो सोवचयसावचया निरुवचय निरवचया / जीवाणं भंते ! केवइयं कालं निरुचयनिरवचया? गोयमा ! सबद्धं / नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहण्णं एवं समयं उक्कोसेणं आबलियाए असंखेजइभागं केवइयं कालं सावचया एवं चेव के वइयं कालं सोवचयसावचया एवं चेव के वइयं कालं निरुवचयनिरवचया? गोयमा ! जहण्णं एक समयं उक्कोसं बारसमुहुत्ता एगिदिया सव्वे सोवचया सावचया सव्वद्धं / सेसा सव्वे सोवचया वि सोवचयसावया वि। जहण्णं एक समयं उक्कोसं आवलियाएउ असंखेज्जइ भागं अवट्ठिएहिं वक्कं ति य कालो भाणियव्वो / सिद्धाणं भंते ! केवइयं कालं सोवचया गोयमा ! जहण्णं एक समयं उक्कोसं अट्ठ समया के वइयं निरुवचयनिरवचया जहण्णं एक उक्कोसं छम्मासा सेवं भंते भंतेत्ति। सोपचयाः सवृद्धयः प्राक्तनेष्वन्येषामुत्पादात्। सापचयाः प्राक्तनेभ्यः केषाशिदर्शनाहिानयोः सोपचयसापचया उत्पादोद्वर्त्तनान्यां वृद्धिहान्योयुगपद्धावात् निरुपचयनिरपचया उत्पादोद्वर्तनयोरभावेन पृद्धिहान्योरभावत् / ननूपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानिर्युगपद् द्वयमद् द्वय चावस्थिततत्यमेवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽन्योः सूत्रयोर्भेदः ? उच्यते पूर्वत्र परिमाणमभिप्रेतभिह तु तदनपेक्षमुणदोद्वर्तनामात्रं ततश्चेह तृतीयमङ्ग के पूर्वोक्तदृदयादिविकल्पाना त्रयमपि स्यात्तथा बहुतरोत्पादे वृद्धिर्बहुतरोद्वर्तने च हानिः / समोत्पादोद्वर्तनयो श्वापस्थितत्वमित्येवं भेद इति / (एगिदिया तइयपएति) सोपथयसापचया इत्यर्थः युगपदुत्पादोद्वर्तनाभ्या वृद्धिहानिभावात् शेषभङ्ग केषु ते न सम्भवन्ति प्रत्येक मुत्पादोद्वर्तनयो स्तद्विरहत्य वाभावादिति / (अवट्ठिएहिति) निरु-पचयनिरपचयेषु। (वति कालो भाणियब्योति) विरहकालो वाच्यः।। वस्त्रस्य पुद्गलोपचयो जीवानां कर्मोपचयः। वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोयचये किं पयोगसा वीससा? गोयमा! पयोगसा वि वीससा वि / जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचये पयोगसा वि वीससा वि तहाणं जीवाणं कम्मोवचए किं पयोगसा वीससा ? गोयमा ! पयोगसा नो वीससा। सेकेणतुणं? गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते तं जहामणप्पओगे वइप्पओगे कायप्पओगे इच्चे तेणं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचये पयोगसा नो वीससा एवं सव्वेसिं पंचिं-दियाणं तिविहे पयोगे भाणियब्वे / पुढ विकाइयाणं एगविहप-ओगेणं एवं जाव वणस्सइकाइया / विगलिं दियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते तं जहा-वइप्पयोगे य कायप्पओगे य / इचेतेणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोवचये पयोगसा नो वीससा से एणं अटेणं जाव नो वीससा एवं जस्स जहो पओगो जाव वेमाणिया णं / वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोवचए किं सादीए सपज्जवसिए सादीए अपज्जवसिए अणादीए सपज्जवसिए आणादीए अपज्जवसिए? गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलो वचए सादीए सपज्जवसिए नो सादीए अपज्जवसिए नो अणादीए सपज्जयसिए नो अणादीए अपञ्जवसिए / जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिए नो सादीए अपज्ज-वसिए नो अणादीए सपज्जवसिए नो अणादीए अपज्जवसिए तहाणं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा गोयमा! अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मो वचए सादीए सपज्जवसिए अत्थे गइए अणादीए Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवचय 610- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवज्झाय 40 // सपज्जवसिए अत्थेगइए अणादीए अपञ्जवसिए नो चेवणं जीवाणं गृहान्तश्चतुष्केषु यत्र तत्तथा। कल्प० / औ० रा० / भते. कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए / से केणटेणं ? गोयमा ! "बहुउप्पलकुमुयफुल्लकेसरोवचिया"। जं०१ वक्ष०। उन्नते औ०। इरियावहिया बंधयस्स कम्मोवचए सादीए सपज्जवसिए / ज्ञा० / / बहुशः प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिते, || भ०१ श०१उ० भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए सपज्जवसिए अभवसि- जीवप्रदेशैव्याप्ते, अनु०॥ प्रारबद्धे वा कर्मणि, उत्त०१ अ०॥ दिग्धे, मेदि०। द्धियस्स कम्मोवचए अणादीए अपज्जवसिए से तेणटेणं / / लेपनादिना वर्द्धिष्णौ, / निदिग्धे, अमरः वाच०॥ "उवचियखोमिय वस्वेत्यादिद्वारे / / (पयोगसावीससायत्ति) छान्दसत्वात् प्रयोगेण दुगुल्लपट्टपडिच्छन्ने' परिकर्मितं (खोमित्ति) क्षौमं यदुकूलं वस्त्रंतस्य पुरुषव्यापारेण विस्रसया स्वभावेनेति / (जीवाणं कम्मोवचए पओगसा यः पट्टो युगलापेक्षया एकपट्टः तेन आच्छादिते , / स०॥ परिकर्मिते, णो वीससत्ति) प्रयोगेणैव अन्यथा योगस्यापि बन्धप्रसङ्गः। सादिद्वारे। औ०। कल्प०। समाहिते, हेम०। सुसञ्चिते च / वाच०। (इरियावयिबंधस्सेत्यादि) ईर्या पथो गमनमार्गस्तत्र भवमैर्यापथिकं उवचितकाय त्रि०(उपचितकाय) मांसलशरीरे, "परिवूढकायं पेहाए केवलयोगप्रत्ययं कर्मेत्यर्थः। तद्वन्धकस्योपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य एवं वदेला परिवूढकाएत्ति वा उवचितकाएत्ति वा'' || आचा०२ श्रु०॥ सयोगिके वलिनश्चेत्यर्थः ऐपिथिककर्मणो हि अबन्धपूर्वस्य उवचियमंससोणिय पुं०(उपचितमांसशोणित) परिवृद्धमांसशोणिते, / बन्धनात्सादित्वमयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपाते वा अबन्धनात्सपर्य- __आचा०२ श्रु०॥ वसितत्वम् (गइए गई पडुचत्ति) नरकादिगतौ गमनमाश्रित्य सादयः उवजोइ अव्य०(उपज्योति) सामीप्ये अन्ययी०स० अग्नेः समीपे, आगमनमाश्रित्य च सपर्यवसिता इत्यर्थः / (सिद्धगई पडुच्च साइया सूत्र०१श्रु०५ अ०२०। उपज्योतेरग्नेः समीपे व्यवस्थित उपज्योतिः। अपज्जवसियत्ति) इहाक्षेपपरिहारावेव "साइ अपज्जवसिया, वर्तिनि, “जतुकुम्भे जहा उवज्जोई संवासे विदुवि-सीएज्जा'' सूत्र०१ श्रु० सिद्धानयनामइय कालम्मि / आसिकयाइविसुन्ना, सिद्धा सिद्ध वहि सिद्धते / / सव्वं साइसरीरं, नयनामादिमयदेहसब्भावो / उवजोइय पुं०(उपज्योतिष्क) ज्योतिषसमीपे, उपज्योतिषस्त कालाणाइत्तणओ, जहा वए इंदियाईणं // सव्वो साई सिद्धो नयादिमो एवोपज्योतिष्काः अग्निसमीपवर्तिषु माहानसिकेषु, ऋत्विक्षु, च। उत्त० / / विजई तहा ते च। सिद्धो सिद्धा य सया, निद्दिष्ट्वा रोहपुच्छा एत्ति / (तं केइत्थगता उवजोइया वा अज्झावया वासहखडिएहि'' उत्त०१२ अ०।। चति) तच सिद्धानादित्वमिष्यते यतः सिद्रा सिद्धायेत्यादि उवज्झाय पुं०(उपाध्याय) उप समीपमागत्य अधीयते इड् अध्ययने (भवसिद्धियालद्धिमित्यादि) भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः इतिवचनात् पठ्यते, इण् गताविति वचनाद्वा अधि आधिक्येन गम्यते, सिद्धत्वेऽपैतीति कृत्वाऽनादिसपर्यवसिता चेति। भ०६ श०३उ०) उन्नतौ, इक् स्मरेण इतिवचनाद्वा स्मर्य्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्त षष्ठत्रिदशलाभाच्च, लग्नादुपचयाः स्मृताः / इति ज्योतिषोक्ते उपाध्यायाः। यदाह"वारसंगो जिणक्खाओ, सिज्झाओ कहिओ छुहे / लग्नातषष्ठादिस्थानेशुच। वाच०। तं उवइस्संति जम्हा, उवज्झाया तेण वुचंति' अथवा उपाध्यानमुपाधिः उवचयण न०(उपचयन) चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणी- सन्निधिस्तेनोपाधिना उपाधौ वा आयो लाभः श्रुतस्य येषामुपाधीनां वा यादितया निषेके, सचैवं प्रथमस्थितौ बहुतरकर्मदलिकं निषिञ्चति ततो विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभमानानामायो लाभो येभ्योऽथवा उपाधिरेव द्वितीयायां विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति। उक्तं च संन्निधिरेव आय इष्ट फलदैवजनितत्वेन आयानामिष्ट फलानां "मोत्तूण सगमवाह, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं / सेसं विसेसहीणं, समूहस्तदेको हेतुत्वाद्येषामथवा आधीनां मनः पीडानामायो लाभः जावुक्कोसंति सव्येसिंति" चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ उवचिणिंसु आध्यायः अधियां वा नयः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीनामायो ध्यायः उवचिणंति उवचिणिस्संति' स्था०४ ठा० पारेपोषणे च। स्था० 8 ठा० / ध्यैचिन्तायामित्यस्य धातोः प्रयोगान्नञः कुत्सार्थत्वादेव दुर्व्यानं वा उवचर धा०(उपचर) उप-चर-धा- भ्या० पर० 1 सामीप्ये, नाशने, अध्याय उपहतोऽध्यायः आध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः।। भ०१श०१ उपसर्गणे, "अदुवा पक्खिणो उवचरंति'' अदुवा कुचरा उवचरंति''। उ०॥ दशा०। ध०। आ०म०द्वि०। आ० चू०! प्रव०। साध्वसध्यह्यां उपचरंति उप सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति। अथवाश्मशानदौ पक्षिणो झः ||८/२।२६|इति ध्येति संयुक्तत्य झः। प्रा० / यथाशक्तिद्वागृध्रादयः उपचरन्ति। अथवा कुत्सितंचरन्तीति कुचराश्चोरपारदारिका दशाङ्ग स्वयमध्ययनपराध्यापननिषण्णमानसेषु, / चं०१ पाहु० / दयस्ते च क्वचिच्छून्नयगृहादावुपचरन्ति उपसर्गयन्ति। आचा०१ श्रु०६ सूत्राध्यापकेषु, कल्प० आचा० स्था०ा आव० स्वाध्यायपा-ठकेषु, अ०२उ०॥ द्वा०। विशे०। वृ०। उवचरय पुं०(उपचरक) स्तेनभेदे, "अयंतेणे अयं उवचरते अयंतओ ___ अस्य निक्षेपो यथाआगओ एतिकडे' आचा०२ श्रु० / सूत्र०॥ नामं ठवणा दविए, भावे चउव्विहो उवज्झाओ। उवचरिय त्रि०(उपचरित) उप-चर-क्त-। उपासिते, बोधिते, च / दव्वलोइवसिप्पा,धम्मा तह अन्नतित्थीया।। वाच० / उप-चर-भावे-उपचारे, पंचा०६ विव०। नामस्थापनोपाध्यायौ सुबोधौ द्रव्योपाध्यायस्तु ज्ञभव्यशरीरव्यउवचिण न०(उपचयन) गृहीतानां कर्मपुद्गलानां ज्ञानावरणादिभावेन तिरिक्तानाह (दव्वेत्यादि) द्रव्ये विचार्ये तद्व्यतिरिक्त उपाध्यायः निषेचने, स्था०१० ठा०। (व्याख्या पायकम्मशब्दे) शिल्पाद्युपदेष्टा / तथा (धम्मेत्ति) निज 2 धर्मोपदेष्टारोऽन्यतीर्थिकाश्च उवचित(य) त्रि०(उपचित) पुष्टे, कल्प०। समृद्धे, ज्ञा०४ अ०। मांसले, संसारनिबन्धनत्वेनाप्रधानभूतत्वात्तद्व्यतिरिक्ता द्रव्योपाध्याया मन्तव्या "कणयसिलायलुज्जलपसत्थसमतलोवचियविच्छिन्नपि-हुलवच्छा'। इति / भावोपाध्यायानाहाजी०३ प्रति० / निवेशिते, प्रज्ञा०२ पद / उपनिहिते, "उवचियचंदण- वारसंगो जिणक्खाओ, सब्भाओ कहिउँ बुहे। कलसं" उपचिता उपनिहिताः चन्दनकलशामाङ्गल्यघटा तं उवइसंति जम्हाओ-वज्झाया तेण वुचंति।। Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवज्झाय 111- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा यो द्वादशाङ्ग : स्वाध्यायः प्रथमतो जिनैरारतस्ततो (बुहेत्ति) | (नमस्कारार्हत्वं नमो उवज्झायाणंती सूत्रार्थो 'नमुक्कार' शब्दे) प्राकृतत्वाद् बुधैर्गणधरादिभिः कथितः पारंपर्येणोपदिष्टः तं स्वाध्याय (उपाध्यायोद्देश 'उद्देस' शब्दे उक्तः) (उपाध्यायस्थापना दिसा' शब्दे) सूत्रतः शिष्याणामुपदिशन्ति यस्मात्तेनोपाध्याया उच्यन्ते अत एव | उवज्झिय त्रि०(उपाहूय) आकारिते, व्य०१उ०। इड्अध्ययने उपेत्य सूत्रमधीयते येभ्यः शिष्यास्ते उपाध्याया भणन्ते उव(व्व)ट्टण न०(उद्वर्तन) उद्वर्त्यतेऽनेन उद्-वृत्-णिच्-कर-णेल्युट् / इति // शरीरनिर्मलीकरणद्रव्यादौ, भावे-ल्युट् / द्रव्यभेदैः स्नेहाद्यपहारार्थे सांप्रतमागमशैल्या अक्षरार्थमधिकृत्योपाध्यायशब्दार्थमाह। व्यापारे, विलेपने, घर्षणे च / वाच०। पड्कापनयने, "गायस्सुवट्टणाणि उत्ति उवकरणवेति, वेयज्झाणस्स होइ निद्देसे। य"दश०३ अ०। सकृद्वर्त्तने, नि०चू०३ उ०प०। एएण होइ उज्झा, एसो अण्णो विपज्जाओ॥ उव(व्व)ट्टणविहि पुं०(उद्वर्तनविधि) उद्वर्तनप्रकारे, "तयाणंतरं च णं (उ) इत्येतदक्षरमुपयोगकरणे वर्त्तते (व) इतिवेदध्यानस्य निर्देशे ततश्च उवट्टणविहिपरिमाणं करेइ णण्णत्थ एगेणं सुरभिणा गंधळूएणं। अवसेसं प्राकृतशैल्या एतेन कारणेन भवन्ति उज्झा उपयोगपुरः सरंध्यानकर्तार उवट्टणविहिं पचक्खामि'' उवा०१ अ० / त्रि० समीप-स्थिते, वाच०। इत्यर्थः / एसोऽनन्तरोक्त उपाध्यायशब्दापेक्षयान्योऽपि पर्याय इति। उवट्ठ (उपस्थ) एकस्यां वसतौ सततमवस्थिते, व्य०४ उ०। अथोपाध्यायशब्दार्थं भाष्यकारः प्राह। उवटुंभ पुं०उपष्ट(स्तम्भ उप-स्तम्भ-घञ् / पतनप्रतिरोधने, उवगम्म जओ हीयइ, जं चोवगयमग्गया वेति। अवलम्बने, आलम्बने, स्थितौ, सहकारे, वाच० / अनुकम्पायाम्, जं वो वायज्झाया, हियस्स तो ते उवज्झाया।। स्था०२ ठा० / मोहनीयेन कर्मणाऽवस्थाने, भ०१ श०४ उ०। उवगम्योपेत्य यतो येभ्योऽधीयते पठन्ति शिष्यास्ते उपाध्यायाः यच्च उवट्ठकाल पुं०(उपस्थकाल) अभ्यागमवेलायाम्, व्य०४ उ०। यस्मादुपसमीपे गतं प्राप्त शिष्यमध्यापयन्ति तत उपाध्यायाः। यस्माच उवट्ठ(ट्ठा)वणा स्त्री०(उपस्थापना) उपस्थापनमुपस्थापना / स्वपरहितस्योपाध्यायका उपायका उपायचिन्तकास्ततस्ते उपाध्याया अनुकूलशक्त्यभावे, प्रति०। उपस्थाप्यन्ते व्रतान्यारोप्यन्ते। यस्यां इति। विशे०। आ०चू०। आ०म०द्विका सा उपस्थापना। चारित्रविशेष, ध०२ अधि०। व्रतेषु स्था-पनायाम, इदानींमुपाध्यायरवरूपमाह / पं०चू० / 'वयट्टवणमुवठ्ठवणा' पं०भा०ापंचा०। नवीन-दीक्षितस्य साधोः सुत्तत्थतदुभयवि-जुत्तो नाणदंसणचरित्ते। श्रीतातपाददीक्षाभवनानन्तर 'मचितरजओ-हडावणिअ' कायोत्सर्गे निष्पायगसेसाणं, एरिसया होंति उवज्झाया।। विस्मृते पुनर्दीक्षांदत्वाऽऽवश्यकादि-योगानुष्ठानमुपस्थापना च शुद्वयति ये सूत्रार्थतदुभयविदो ज्ञानदर्शनचारित्रेषूद्युक्ता उपयुक्तास्तथा शिष्याणां नवेति 74 प्रश्नः गच्छनायकदीक्षाभवनानन्तर 'मचित्तरजओहडासूत्रवाचनानिष्पादका एतादृशा भवन्त्युपाध्यायाः / उक्तं च / वणिअ' कायोत्सर्गे विस्मृते पुनर्गच्छनायकदीक्षामन्तरेणावश्य"समत्तनाणदंसण, जुत्तो सुत्तस्थतदुभयविधिणा / आयरियप्पाजुग्गो, कादियोगानुष्टानमुपस्थापना च न शुद्ध्यतीति / / शेन० 2 उल्ला० / / सुत्त वाएइ उवज्झातो' अथ कस्मात्सूत्रमुपाध्यायो वाचयति। उच्यते उपस्थापनाविधिश्चैवम् / / 'पढिआइपवास रचिइ३वयति, अतिअअनेकगुणसंभवानेवाह। वेला४खम समणरासत्तश दिसि बंधो दुविह तिहा६तवण्देसण मंडली सुत्तत्थेसु थिरतं, ऋणमुक्खो आयती अपडिबंधो। सत्ता पढिए अकहि-अअहिगहिअ'' इत्यादि गाथाद्वयं एवं पाडिच्छे मोहनयो, तम्हा वाए उवज्झातो॥ "सुपरिक्खियगुणसीसो तिहिनक्खत्तमुहुत्तरतिजोगाइपसत्थदिवसे उपाध्यायः शिष्येभ्यः सूत्रवाचनांप्रयच्छन् स्वयमर्थमपि परिभावयति। विपासवणाइपहाणखित्ते गुरुं वंदित्ता भणइ, इच्छकारि भगवन् ! तुझे सूत्रेऽर्थे च तस्य स्थिरत्वमुपजायते / तथाऽन्यस्य सूत्रवाचनाप्रदानेन अचं पञ्चमहाव्रतरात्रिभोजनविरमणं षष्ठ आरोपावणिअंनंदिकरावणिअं सूत्रलक्षणस्य ऋणस्य मोक्षः कृतो भवति / तथा आयत्यामागामिनि वासनिक्खेवं करेहत्ति / ताओ देवे वंदियवंदणं दाउ महत्वयाई काले आचार्यपदाध्यासेऽप्रतिबन्धोऽत्यन्ताभ्यस्ततया यथावस्थतया आरोवणत्थं सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं दोवि करेंति / तओ सूरिओ स्वरूपस्य सूत्रस्यानुवर्तनं भवति / तथा (पाडिच्छेत्ति) येऽन्यतो वदंति तुन्नएहिं पिट्ठो वरिकुप्परसंठिएहिं करेहिं रयहरणं ठावित्ता गच्छान्तरादागत्य साधवस्सूत्रोपसंपदं गृह्णतेतेप्रतीच्छका उच्यन्ते तेच मकरानामिआए मुहपुत्तिं लंवंति धरित्तुसम्म उवओगपरो सीसं सूत्रवाचनाप्रदानेनागृहीता भवन्तीति वाक्यशेषः / तथा मोहजयः कृतो अद्धावणयकायं इक्किकवयं नमुक्कारपुव्यं तिणि वारे उचरावेइ / तत्थ भवति। सूत्रवाचनादानव्यग्रस्य सतः प्रायश्चित्तविश्रोतसिकाया अभावात् पढमे भंते महव्यए पाणा इवायाओ वेरमणं सव्वं भंते अत एवंगुणस्तस्मादुपाध्यायः सूत्रं वाचयेत् / पाठान्तरं (तहा अ उण पाणाइवायं पचक्खामि से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं वाएत्ति) अत्रापि स एवार्थो नवरंगणी उपाध्यायः उक्तमुपाध्यायस्वरूपम्। पाणे अइवाइजा ने वन्ने हिं पाणे अइवायाविजा पाणे व्य०१०। प्रव० स्था० "एवमेतेणामठवणादीहि अणेगहा पन्न-विजंति अइवायंते वि अन्नं न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं तहा सुसंवुड़ासयदारे मणोवइकायजोगुत्तउवउत्ते विहिणा सरविंजणमता वायाएकाएणं न करेनिन कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामितस्स बिंदुपयक्खरविसुद्धदुवालसंगे सुयनाणसुयणजावण्णेणं परमप्पणोयमो- भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। पढमे भंते महव्वए क्खोवायं झायंतित्ति उवज्झाए थिरपरिचियमणंतगमपज्जवच्छेहि उवडिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ विरमण / अहावरे दुचे भंते महव्वए दुबालसंग सुयनाणं चिंतंति अणुसरंति एगग्गमणसा झायंतित्ति वा मूसावायाओवेरमणं इत्याद्यालापकषट्कं वाच्यम्। तओपत्ताएलग्गवेलाए उवज्झाए'' महा० / (उपाध्यायस्य अतिशयादयः स्वस्थाने ''इच्चे इयाइं पंचमहत्वयाई राईभोअणवेरमणछट्ठाई अत्तहिय? Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 612 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा याए उवसंपजित्ताणं विहरामि' एवं तिन्नि वारे भणावेइ तओ वंदित्ता सीसो भणइ इच्छक्कारि भगवन् ! तुह्य अमं पंचमहाव्रतरात्रिभोजनविरमणषष्ठआरोवओ इत्यादिक्षमाश्रमणानि प्रदक्षिणाश्च प्राग्वत्। तओ सीसस्स आयरियउयज्झायरूवो दुविहो दिसाबंधो कीरइ। यथा कोटिको गणः वइरी शाखा चान्द्र कुलम् / अमुका गुरवः उपाध्यायाश्च साध्वी अमुकी प्रवर्तिनी चेति तृतीयः आचाम्लनिर्विकृतिकादितपः कार्यते / देशनायां च वधूचतुष्ककथावाच्या॥ उट्ठविओ चेव सीसो, मंडलीपवेसत्थं। सत्तआयंविलाणि-कारे अचोतं जहा।। सुते१ अत्थे२भोअण,३काले ४आवस्सए अ५सज्झाए 6 / संथारपविठूअ तहा, सत्ते आ मंडली हुंति / / सूत्रे सूत्रविषये १एवम् अर्थे २भोजने ३कालग्रहे ४आवश्यके प्रतिक्रमणे 5 स्वाध्याये तत्रच प्रस्थापने 6 संस्तारके चैव७ सप्तैता मण्डल्यो भवन्ति। एतासु चैकैकेनाचाम्लेन प्रवेष्टु कल्पते नान्यथेति / तत्र च 'मुहपोत्तिं पहिअवंदणदुर्ग दाउ सुत्तमंडली संदिसावउँ खमाए सुत्तमडलीवासिओ खमा० इत्थं तस्स मिच्छामि दुक्काड तिविहेणं सेसासुत्ति'' इति प्रतिपादितः सप्रपञ्चमुपस्थापनाविधिः / ध०३ अधिक। अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयपरिच्छण्णये चउगुरुगा। दोहिं गुरु तव गुरुगा, कालगुरुं दोहि वि लहुगा // सूत्रेऽसमाप्ते उपस्थाप्यमाने उपस्थापयितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / कथम्भूता इत्याह / द्वाभ्यां गुरवस्तद्यथा तपसापिगुरुकाः कालेनापि गुरुकाः। अथ सूत्रप्राप्तस्तथापि तस्यार्थमकथायित्वा यदितमुपस्थापयित तदा तस्य चत्वारो लधुकाः / नवरं कालेनैकेन लघवः / अथ कथितोऽर्थः परं नाद्याप्यधिगतः अथवा अधिगतः परमद्यपि न सम्यक् तं श्रद्दधाति तमनधिगतार्थमश्रद्दधानं वा उपस्थापयतश्चत्वारो लघुकाः / नवरमेकेन तपसा लघवः / अथाधिगतार्थमप्यपरीक्ष्योपस्थापयति तदा चत्वारो लघुकास्तपसापि कालेनापि च लघवः न केवलं तत्प्रायश्चित्त किं स्वाज्ञादयश्च दोषाः तथा सर्वत्र षण्ण जीवनिकायाना यद्विधास्यति तत्सर्वमुपस्थापयन् प्राप्नोति तस्मात् यत एवं प्रायश्चित्तमाज्ञापयन दोषास्मस्मान्नापठिते षड् जीवनिकायसूत्रे नाप्यनधिगतेऽर्थ नापि तस्मिन्नपरीक्षिते उपस्थापना कर्तव्या। अथ कियन्तः षड्जीवनिकायामर्थाधिकारास्तत आह। जीवाजीवाभिगमो, चरित्तधम्मो तहेव जयणा य / उवएसो धम्मफलं, छज्जीवणियाए अहिगारा।। षड् जीवनिकायामिमे पञ्चाधिकारास्तद्यथा प्रथमा जीवाजीवाभिगमो द्वितीयो महाव्रतसूत्रादारभ्य चारित्रधर्मस्तृतोयो 'जयं चर जयं चिट्टे' इत्यादिना यत्नादनन्तरमुपदेशस्ततो धर्मफलमेत विस्तरता दशवैकालिकटीकातः परिभावनीयाः / तत्रास्ताभुपस्थापना कथं स प्रधाजयितव्य इति तदेवोच्यते / तत्र षड्डिधो द्रव्यकल्पो वक्तव्य इति तमभिधित्सुराह / / पव्वावण मुंडावण, सिक्खावणउवट्ठसंभुंजण य संवसण। एसो उदवियकप्पो, छव्विहतो होति नायव्वो।। प्रव्राजना नाम यो धर्मे कथितेऽकथिते वा प्रव्रजामीत्यभ्युस्थितः प्रथमतः पृच्छयते कस्त्वं कुतोवा समागतः कि निमित्तं वा प्रव्रजिष्यसि / तत्र यदा पृच्छा परिशुद्धो भवति तदा प्रव्राजयितुमभ्युपगम्यत अभ्युपगम्य च प्रशस्तेषु द्रव्यादिष्याचार्यः स्वयमेवाष्टा (स्तोककेश) ग्रहणं करोति एतावता प्रवाजनाद्वारम् / तदनन्तरं स्थिरहस्तेन लोचे कृत रजोहरणमर्पयित्वातस्य सामायिकसूत्रं दीयते / ततः सामायिक में दत्तमिच्छामोनुशिष्टिमिति / सूरयो बुवते निरस्तारपारगो भव क्षमाश्रमणगुणैर्वर्द्धस्व एषा मुण्डापना (सिक्खावणत्ति) तदनन्तरं द्विविधामपि शिक्षा ग्राह्यते तद्यथा ग्रहणशिक्षामासेवनशिक्षां च / ग्रहणशिक्षा नाम पाठः / आसेवनशिक्षा सामाचारीशिक्षणम् / यता द्विविधामपि शिक्षा ग्राहितो भवति तदा उपस्थाप्यते प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रादिषु / द्रव्यतः शालिकरणे इक्षुकरणे चैत्यवृक्षे वा / क्षेत्रतः पद्मसरसि सानुनादे चैत्यगृहे वा कालतश्चतुर्थ्यष्टम्यादिवर्जितासु तिथिषु भावतोऽनुकू ले नक्षत्रे यदि तस्य जन्मनक्षत्रं जायते तदा आचार्यस्यानुकूलनक्षत्रे सुन्दरे मुहूर्ते यथाजातेन लिन / तद्यथा रजोहरणेन निषिद्याद्वयोपेतमुखपोत्तिकया चोलपट्टेन च वामपाव स्थापयित्वा एकैकं महाव्रतं त्रीन वारान् उच्चायत यावत् रात्रिभोजनम् / अथ ते द्वौ त्रयो बहवो वा भवेयुस्ततो यथावयोवृद्धम् अथ ते क्षत्रिया राजपुत्रास्तत्र यः स्वत एवासन्नतर आचार्यस्य स रत्नाधिकः क्रियते इतरो लब्धे अथ द्वावप्युभयतः पार्श्वयोः समौ व्यवस्थितौ तदा तो द्वावपि समरत्नाधिको ब्रतेषूचारितेषु प्रदक्षिणां कारयित्वा पादयोः पात्येते भण्यले च महाव्रतानि ममारोपितानि इच्छामोऽनुशिष्टिं शेषाणमपि साधूनां निवेदयामि / गुरुर्भणति / निवेदय इदं च भणति निस्तारगपारगो--भव क्षमाश्रमणानां य गुणैर्वर्द्धस्व एवमुपस्थापिते द्विविधसंग्रहः साधेर्यशा अहं तव आचार्योऽमुकस्ते उपाध्यायः / साध्व्यास्त्रिविधसंग्रहस्तत्र तृतीय अमुका ते प्रवर्तिनी एवमुपस्थाप्य केषांचित्पञ्चकल्याणकं केषांचिदभक्तार्थ केषांचिदाचाम्लं केषांचिन्नि-विकृतिकमपरषां न किंचित् / किं बहुना यत् यस्य तपो कर्म आवलिकागतं तस्य तद्वत्वा तेन सहकत्र मण्डल्यां संभुड ते संवसनं च करोति। शैक्षकमध्ये परिपालन्र चेयं राथा यावन्नोपस्थाप्यते तावन्न भिक्षां हिण्डापयितव्यः कथ पुनरुपस्थापनीय इत्यत आह // पढिएयं कहिय अहिगय,परिहर उट्ठायणा य सो कप्पो। छकंतीहिं विसुद्धं,परिहरनवगेण भेएण || सूत्रं प्रथमतः पाठयित्वा तदनन्तरमर्थं कथयित्वा ततोऽधिगता-- ऽनेनार्थः सम्यक् श्रद्धानविषयीकृतश्चेति परीक्ष्य यदा षडू षड् - जीवनिकायान् त्रिभिर्मनोवाक्कायै विशुद्ध भावतो न परानुवृत्त्या परिहरतीत्यत आह नवकभेदेन न षट्कं मनसा स्वयं परिहरति अन्यः परिहारयति परिहरन्तमन्यं समनुजानाति / एवं वाचाकायेन प्रत्येवं त्रयस्त्रयां भेदा द्रष्टव्याः। एष उपस्थापनायाः कल्पः वृ०१३॥नि००। उपस्थापनाविधिः। (सूत्रम्) आयरिय उवज्झाय समिरमाणे परं चउराओ पंचराओ कप्पागं भिक्खूणो उवट्ठावइ कप्पाइं अत्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पागे णत्थियाइं से केइ छेए वा परिहारे वा नत्थि याइं से केइमाणणिज्जे कप्पइ सेसंतरा छए वा परिहारे वा / / आचार्य उपाध्यायो वा स्मरन् अयमुपस्थापनाह इति जनानः परं चतूरात्रात् पञ्चरात्राद्वा कल्पाकं सूत्रतोऽर्थतक्ष प्राप्त भिक्षुर्नोपस्थापयति / तत्र यदि तस्मिन्कल्प के सत्यस्ति तणा Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 913 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा (से) तस्य कल्पाकस्य कश्चित् माननीयः पिता माता भ्राता वा ज्येष्ठः स्वमी वा कल्पाको भावी पञ्चरात्रेण दशरात्रेण पञ्चदशरात्रेणि वा ततो नास्ति (से) तस्य कश्चिच्छेदः परिहारोवा अत्रादेशद्वयमेके प्राहुश्चतूरात्रात् परं यद्यन्यानि चत्वारि दिनानि नोपस्थापयति तत आचार्यस्योपाध्यायस्य च प्रत्येकं प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् / अथ ततोऽप्यन्यानि चत्वारि दिनानि लङ्घ यति ततः षड् लघुकम्। ततोऽप्यन्यानि चत्वारि दिनानि ततः षड्गुरुकम्। ततोऽप्यन्यानि यदि चत्वारि दिनानि ततश्चतुर्गुरुकछेदः। ततः परमन्यानि चत्वारि दिनानि यदितर्हि षड्लघुकः षड्लघुक छेदः / ततोऽपि चेदन्यादिचत्वारिततः षड् गुरुकः षड्गुरुकश्छेदः / ततः परमेकै कदिवसाति-क्र मे मूलानवस्थाप्यपाराञ्चितानि। द्वितीयादेशवादिनः प्राहुः / पञ्चरात्रात्परं यदिनोपस्थापयति ततश्चतुर्गुरुकंप्रायश्चित्तं ततोऽपि पर यदिपञ्च दिनानि लङ्घयति ततः षट्लघुकं षट्लघुकम् / ततः परमपि पञ्चरात्रातिक्रमे षड्गुरुकं षड्गुरुकम् / ततोऽपि परं यदि पञ्चदिनानि वाहयति ततश्चतुर्गुरुकश्चतुर्गुरुकश्छेदः / ततः परमन्यानि चेद्दिनानि पञ्च ततः षड्लघुकः षड्लघुकश्छेदः / ततोऽपि पञ्चरात्रातिवाहने षड्गुरुकः षड्गुरुकश्छेदस्ततःपरमे वैकदिवसातिवाहने भुजानवस्थाप्यपाराञ्चितानि।। एष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना भाष्यनियुक्तिविस्तरः। ससुगरणउवट्ठवण, तिण्णि उवणगा हवंति उक्कोसा। माणणिज्जे पितादीतु, ते समतीछेदपरिहारो॥ संस्मरणमुपस्थापनाविषये यथा एष उपस्थापयितव्यो वर्त्ततइति तत्र माननीये पित्रादौ सति कल्पाकस्यातिवाहने त्रयः पञ्च वा भवन्त्युत्कर्षतः / किमुक्तं भवति। विवक्षिते भिक्षौ कल्पाके जाते सति यदि तस्य माननीयपित्रादिरुपस्थाप्योऽस्ति परमद्यापि कल्पाको नोपजायते तर्हि य जघन्यतः पञ्चरात्रं प्रतीक्षाप्यते मध्यमतो दशरात्रमुत्कर्षतः पञ्चदशरात्रंतथापिचेन्माननीयः कल्पाको नोपजायते तर्हि सचाकल्पाको भिक्षुरुपस्थापनीयो नोचेदुपस्थापयति तर्हि छेदः परिहारो वा प्रायश्चित्तम् / अथ तस्य माननीयाः पित्रादयो न सन्ति ततस्तेषामसत्वभावे यदितंचतूरात्रमध्ये वा नोपस्थापयतितथापितस्य प्रायश्चित्त घरपरिहारो वा छेदपरिहारग्रहणं सूचामात्रं तेनोद्देशद्वयेन प्रागुक्ताः प्रायश्चित्तविधि-द्रष्टव्यः। चिट्ठउता उट्ठवणा, पुव्वं पटवावणादिवत्तव्वा। अडयालपुच्छसद्धे, भन्नति दुक्खं खु सामन्नं / / तिष्ठतु तावदुपस्थापना पूर्व प्रव्राजनादिर्वक्तव्या / तत्र यथा पञ्चकल्पे निशीथे वाष्टचत्वारिंशत्पृच्छाशुद्धोऽभिहितस्तथा अष्टचत्वारिंशत्पृच्छाशुद्धे कृते तत्संमुखमिदं भण्यते। "दुक्खं खु श्रामण्यं परिपालयितुं" तथाहि गोयर अचित्त-भोयण सज्झायमण्हाणभूमिसेज्जाती। अन्भुवगयम्मि दिक्खा, दव्वादीसुं पसत्थेसु॥ यावजीवं गोचरचर्यया भिक्षामटित्वा अचित्तस्यैषणादिशुद्धस्य जनं कर्तव्यं तदपि वालवृद्धशैक्षकादिसंविभागेन तथा चतुष्कालं स्वाइ यायो विधातव्यः / यावज्जीवं देशतः सर्वतश्चास्नानं ऋतुबद्धे काले भूमौ शय्या आदिशब्दावर्षा रात्रेः फलकादिषु शयनं दिवसे न स्वप्तव्यं रात्रौ तृतीये यामे निद्रामोक्ष एवमुक्ते यद्यभ्युपगच्छतितत एतस्मिन्नभ्युपगते तस्य दीक्षा प्रशस्तेषु द्रव्ये शाल्यादि संचयादौ प्रशस्तक्षेत्रे गम्भीरसानुनादादौ प्रशस्ते भावे प्रवर्द्धमानपरिणामादौ दातव्या। लग्गादिं च तुरंतं, अनुकूले दिक्खिए उ अह जायं। सयमेव तु थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्ठा / / इहोत्सर्गतो लोचे कृते यथा जाते चरजोहरणादिके समप्पिते पश्चात्रिः कृत्वः सामायिकमुच्चार्यते इत्येष विधिः / यदि पुनर्लग्नादिकं त्वरमाणं स्यात्ततोऽनुकूले लगादावादिशब्दान्मुहूर्तादिपरिग्रहस्त्वरमाणः शीघ्र समापतति यथा ज्ञातं सनिषा रजोहरणमुखवस्विकाग्रपूररूपं दीयते। उक्तंचा "अह जायं नाम सनिसेजंरयहरणमुहपोत्तिया वालपज्जे य इति "ततो यदिगुरुःस्थिरहस्तोन कम्पते अटुंगृह्णानस्य हस्तः तर्हि स्वयमेव जघन्येन तिस्रोऽष्ट अव्यवच्छित्वा गृह्णाति। समर्थः सर्व चालोचं करोति / / अण्णो वा थिरहत्थो, सामाइयतिगुणमट्टगहणं च। तिगुणं पादक्खिण्णं, नित्थारगगुरुगणविवड्डी॥ आचार्यस्य स्थिरहस्तत्वाभावे अन्यो वा स्थिरहस्तः प्रव्राजयति समस्तंलोचं करोतीति भावः। तदनन्तरंगुरुः शोभने लग्नादौ प्राप्ते त्रिगुणं त्रीन्वारान् सामायिक मुन्धारयति / / इयमत्र भावना / प्रथमतः। प्रव्राजनीयमात्मनो वामपार्वेस्थापयित्वा चैत्यानितेन सह वन्दते ततः परिहितचोलपट्टस्य रजोहरणं मुखवस्त्रिकांच ददाति तदनन्तरमर्थग्रहणं लोचं वा कृत्वा सामायिकारोपणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति / तत्र चतुर्विंशतिस्तवं चिन्तयित्वा नमस्कारेण पारयित्वा चतुर्विंशतिस्तवमाकृष्य त्रिःकृत्वः सामायिकमुच्चारयति / तदनन्तरमर्थग्रहणं स कारयितव्यः / सामायिकार्थस्तस्य व्याख्यायते इति भावः / ततः सूत्रतोऽर्थतश्च गृहीतं सामायिकमिति तदनुज्ञानिमित्तं विधिना त्रिगुणं प्रादक्षिण्यं कार्यते तत्र तृतीयस्यां प्रदक्षिणायामनुज्ञा क्रियते यथा निस्तारको भव गुरुगुणैर्विवृद्धिर्भवतु वर्द्धस्वेत्यर्थः / एवं प्रव्राजनायां कृतायां यत्कर्तव्यं तदाह / / फासुय आहारो से, अणहिंडंतो य गाहए सिक्खं / ताहे उ उवट्ठावणा, छज्जीवणियं तु पत्तस्स / / प्रव्रज्याप्रदानानन्तरं (से) तस्य प्रासुक आहारो दीयते स च भिक्षा हिण्डाप्यते किं त्वहिण्डमान एव भिक्षां ग्रहणभिक्षामासेवनाशिक्षां च ग्राह्यते ततः षड्जीवनिकां प्राप्तस्याधिगृह्यत षड्जीवनिकाध्ययनस्य उपस्थापना क्रियते॥ विक्षेपप्रायश्चित्तविधिमाह || अप्पत्ते अकहेत्ता, अणहिगए(अ)परिच्छए(अ)तिकम्मे से। एक्कक्के चउगुरुगा, चोयगसुत्तं तु कारणियं // अप्राप्ते षड्जीवनिका पर्यायं वा जघन्यतः षण्मासानुत्कर्षतो द्वादश संवत्सराणि तथा अकथयित्वा जीवादीन् तथा अनधिगतेजीवाजीवादी तथा अपरीक्षायां परीक्षाया अभावे तथा (से) तस्य उपस्थापयिनोऽतिक्रमे एकैकस्य व्रतस्य वारत्रयमनुच्चारणे एतेषु सर्वेषु प्रत्येकमेकैकस्मिन्प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / अथ सूत्रे पर्यायादिकं नोपात्तमिति तत्कथने कथं न सूत्रविरोधस्तत्राह हे चोदक ! सूत्रमिदं कारणिकं पुरुषविशेषपात्रापेक्षमतः पयार्याधनभिधानेऽप्रिन दोषः / एनामेव गाथा भाष्यकृद्विवृणोति। अप्पत्ते सुएणं परि-यागमुवट्ठावणे य चउगुरुगा। आणादिणो य दोसा, विराहणा छण्हकायाणं॥ श्रुतेन षड्जीविनिकापर्यन्तेनाप्राप्ते पर्यायं वाजधन्यादिभेदभिन्नमप्राप्ते उपस्थाप्यमाने उपस्थापयितुः प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्तं चत्वारो Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 914 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः / न केवलमेतत् किं त्वाज्ञादयोऽनवस्थामिथ्यात्वविराधनादोषास्तथा स उपस्थापितो भिक्षादौ किल कल्पिको भवति / ततस्तस्य भिक्षादिप्रेषणे षण्णां कायानां विराधना अपरिज्ञानात्। तथा। सुत्तत्थमकहइत्ता, जीवाजीवे य बंधमुक्खं च / उवठावण चउगुरुगा, विराहणा जा भणियपुट्वं / / सूत्रार्थं षड् जीवनिकापर्यन्तमकथयित्वा तथा जीवाजीवान् बन्धमोक्षं चाकथयित्वा एवमेवोपस्थापने क्रियमाणे उपस्थापयितुश्चत्वारो गुरुकास्तपोगुरुकं प्रायश्चितम् / तथा या विराधना पूर्वमप्राप्तद्वारे षण्णां जीवनिकायानामुक्ता साऽत्रापि द्रष्टव्या / ततस्तस्मिन्निषण्णे समितस्य प्रायश्चित्तमुपढौकते! अणहिगयपुण्णपावं, उवट्ठवंतस्स चउगुरू हों ति। आणादिणो य दोसा, मालाए होइ दिटुंतो॥ अनधिगतपुण्यपापं सूत्रार्थकथनेऽप्यविज्ञातपुण्यपापमुपस्थाप–यतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरवः / कालगुरुका मासा भवन्ति / आज्ञादयश्चानन्तराभिहिता दोषाः। अत्र मालया दृष्टान्तो यथा स्थाणौ शूलापक्षे पञ्चवर्णसुगन्धपुष्पमालामारोपयतो वदनीयतादयोदोषा एवमत्राप्यनधिगतपुण्यपापे व्रतान्यारोपयत आज्ञादय इति। उदउल्लादिपरिच्छा, अहिगयनाऊण तो व वंदें तो। एक्कं तिक्खुत्तो, जो न कुणइ तस्स चउगुरुगा / / गोचरादिगते न उदकार्दादिना परीक्षा कर्त्तव्या वृषभेण तत्परीक्षानिमित्तं तेन सगोचरगतेन उदकाइँण हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षा ग्राह्या तत्र यदिसवारयति निषियमेतत्कथंयूयमेवं भिक्षामभिगृह्णीथ ततो ज्ञायते एष परिणतसूत्रार्थोऽधिगतपुण्यपापः। एवं शेषपरीक्षास्वपि भावनीयम्। तत उदकादिपरीक्षाभिरधिगतपुण्यपाप ज्ञात्वा ततोऽनन्तरं व्रतानि गुरवो ददति। कथमित्याह / एकैकं व्रतं त्रिः कृत्वस्त्रीन् वारान् एवं यो न करोति तस्य चत्वारोगुरुका द्वाभ्यां लघवस्तपसा कालेन च प्रायश्चित्तम्। अथ परीक्षामेव वैतत्येनाह-- उचारादि अथंडिल, वोसिरठाणाइ वावि पुढवीए। नदिमादिदगसमीवे, सागणिनिक्खित्ततेउम्मि॥ वियणमिधारणवाए, हरिए जह पुढविए तसेसुं च / एमेव गायरगए, होइ परिच्छा उकाएहिं / / उचारादिरादिशब्दात्प्रश्रवणादिपरिग्रहः / अस्थण्डिले सचित्त-- पृथिवीकायात्मके व्युत्सर्जनम् / यदि वा स्थानादिस्थानमूर्द्धस्थानमादिशब्दान्निषदनादिपरिग्रहस्तत्पृथिव्यां पृथिवीकायस्योपरि कुरुते। तथा कायविषये नद्याधुदकसमीपेऽत्रादिशब्दात्तडागादिपरिग्रहः / तथा तेजसि तेजस्कायविषये स निक्षिप्ताग्नौ प्रदेशे गाथायां तु निक्षिप्तशब्दस्यान्यथा पाठः प्राकृतत्वात् उचारादेव्युत्सर्जनमिति सर्वत्र संबध्यते / तथा वाते वातविषये व्यञ्जनस्य तालवृन्तस्या-भिधारणं वातोदीरणायाभिमुख्येन धारणं करोति / हरिते यथा पृथिव्यां तथा वक्तव्यम्। हरितकायस्योपरि स्थानादि करोति। यदिवोचारादिव्युत्सजनमिति।सेष्वपिच पृथिव्यामिव वक्तव्यं कीटिकानगराधतिप्रत्यासन्नमुचारादिस्थानादि वा करोतीति भावः / तत्र यदि वारयति तदा ज्ञायते सम्यक् परिणतोऽस्य धर्म इति योग्य उपस्थापनायाः / एवमेव गोचरगतेऽपि तस्मिन्कायैः पृथिव्यादिभिर्भवति परीक्षा कर्तव्या। तद्यथा सरजस्के नोदकाद्रण वा हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षा ग्राह्यते इत्यादिपरीक्षितस्य व्रतारोपणं कर्तव्यम्। तथा चाहदव्दादिपसत्थवया, एकेकतिगंति उवरिमं हेट्ठा। दुविहातिविहा यदिसा, आयंविलनिविगइगावो / द्रव्यादौ प्रशस्तेव्रतान्यारोपणीयानि एकैकं व्रतं त्रिकं त्रिःकृत्वा उच्चारयेत् कथमित्याह "उवरिमं हेट्ठा" अधस्तान्मूलादारभ्य यावदुपरितनं पर्यन्तवर्तिसूत्रम् इदमेकमुचारणमेवं त्रीन्वारान् दिक् निबध्यते। द्विविधां वा त्रिविधां वा तत्र साधोर्द्विविधा स्तद्यथा। आचार्यस्योपाध्यायस्य च प्रवृर्तिन्याश्च / तथा उत्थापनानन्तरं तपः कार्यते। अभक्तार्थमाचाम्लं निर्विकृतिकमित्यादि। उक्तं च "जद्दिवसं उवट्ठावितो तदिवसं किंचि अभितुट्ठो भवइ / केसिं वि आयंविले केसिं वि निविगइयमित्यादि" / / ___संप्रति माननीयपित्रादिविषये विधिशेषमाहपियपुत्तखुडथेरे, खुड्डगथेरेअ पावमाणम्मि। सिक्खावणपन्नवणा, दिस॒तो दंडिमाईहिं।। द्वौ पितापुत्रौ प्रव्रजितौ (दिठ्ठावपि) युगयत्प्राप्तौ तर्हि युगपदुप-स्थाप्येते अथ (खुड्डुत्ति) क्षुल्लकः पुत्रः सूत्रादिभिरप्राप्तः (थेरत्ति) स्थविरः सूत्रादिभिः प्राप्तस्तर्हि स्थविरस्योपस्थापना विधेया (खुड्डत्ति) यदि पुनः क्षुल्लकः सूत्रादिभिः प्राप्तः स्थविरो नाद्यापि प्राप्तो भवति तर्हि तस्मिन् स्थविरे सूत्रादिकमप्राप्नुवति यावदुपस्थानादिवसः शुद्धः समागच्छति तावत्स्थविरस्य प्रयत्नेन शिक्षापना क्रियते। आदरेण शिष्यत इत्यर्थः / तत्र यदि उपस्था-पनादिवससमय एव प्राप्तो भवति ततो द्वावपि युगपदुस्थाप्येते। अथादरेण शिक्षमाणोऽपि न प्राप्तस्तदा स्थविरेणानुज्ञाते क्षुल्लक उपस्थाप्यते / अथ स्थविरो न मन्यते तदा प्रज्ञापना कर्त्तव्या तस्यां च प्रज्ञापनायां क्रियमाणायां दृष्टान्तो दण्डिकाद्यभियातव्यः। दण्डिको राजा आदिशब्दादमात्यादिपरिग्रहः स चैवम् ' 'एगो एय रजपरिट्ठो स पुत्तो अन्नरायाणमो लग्गउमाढत्तो / सो राया पुत्तस्स तुह्रोत से पुत्तं रखे ठावउमिच्छइ। किं सो पिया नाणुजाणइएवं तव जइ पुत्रो महव्वयरचं पावित्ति किं न मन्नसि। एतदेवसविशेषमाहथेरेण अणुनाए, उवट्ठनिच्छे व ठंति पंचाहं। ति पण मणिच्छे उवरि, वत्थुसहावेण जाहीयं / / स्थविरेणानुज्ञाते उपस्थापना क्षुल्लकस्य कर्त्तव्या / अथ स दण्डिकादिभिर्दृष्टान्तैः प्रज्ञाप्यमानो नेच्छति तदा पञ्चाहं पञ्चदिवसात् यावत्तिष्ठति ततः पुनरपि प्रज्ञाप्यते तथाप्यनिच्छायां पुनरपि पञ्चाई तिष्ठति पुनः प्रज्ञाप्यते तथाप्यनिष्टो भूयः पञ्च हमवतिष्ठते / एवं यदि त्रिपञ्चाहकालेन स्थविरः प्राप्तो भवति तदा युगपदुपस्था--पनाऽतः परं स्थविरेऽनिच्छत्वपि क्षुल्लक उपस्थाप्यते (वत्थुस-हावेण जा हीयमिति) वस्तुनः स्वभावो वस्तुस्वभावः / अहंकारी सन् / अहं पुत्रस्यावमतरः करिष्येऽहमिति विचिन्त्य कदाचिन्निष्क्रानमेतगुरोः क्षुल्लकस्य चोपरिप्रद्वेषं गच्छेत् / एवं स्वरूपे वस्तुस्वभावे ज्ञाते त्रयाणां पञ्चाहानामुपर्यपि स क्षुल्लकः प्रतीक्षाप्यते यावत्तेनाधीतमिति // अथद्वे पितापुत्रयुगले तदाऽयं विधिःदो थेरे खुड्डथेरे, खुडगवेबत्थमग्गणा होइ। रण्णो अमचमाई, संजइमज्झे महादेवी / / द्वौ स्थविरौ सपुत्रौ समकं प्रव्रजितौ तत्र यदि द्वौ स्थविरौ प्राप्तौ न क्षुल्लको ततः स्थविरावुपस्थाप्येते (खुड्डत्ति) अथ द्वावपि क्षुल्लको प्राप्तौ न स्थविरो तदा पूर्ववत् प्रज्ञापनोत्कर्वतः पञ्चदशदिवसान्यावत्कर्तव्या तथाप्यनिच्छायामुपेक्षा वस्तु Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 915 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा - स्वभावं ज्ञात्वा प्रतीक्षापणम्। (थेरे खुडुत्ति) द्वौ स्थविरावेकश्च क्षुल्लक: सूत्रादिभिः प्राप्तोऽत्रोपस्थापना (वोच्चत्थे इत्यादि) स्थविरस्यक्षुल्लकस्य च विपर्ययस्ततो भवति मार्गणा कर्तव्या सा चैवंद्वौ क्षुल्लको प्राप्तावेकश्च स्थविरः प्राप्त एको न प्राप्तस्तत्र यो न प्राप्तः स आचार्येण वृषभैर्वा प्रज्ञाप्यते प्रज्ञापितः सन् यद्यनुजानाति तदा तत् क्षुल्लक उपस्थाप्यते / तथाप्यनिच्छायां राजदृष्टान्तेन तथैव प्रज्ञापना / अयं चात्र विशेषः / सोऽप्राप्तस्थविरो भण्यते / एव तव पुत्रः परममेधावी सूत्रादिभिः प्राप्त इत्युपस्थाप्यताम्। यदि पुनस्त्वं न मुत्कलयसि तदैतौ द्वावपि पितापुत्रौ रत्नाऽधिकौ न भविष्यतस्तस्माद्विसर्जय एनमात्मीयं पुत्रमेषोऽपि तावद्भवतु रत्नाधिक इति अतोऽपि परमनिच्छायामुपेक्षा वस्तुस्वभावं वा ज्ञात्वा तत्क्षुल्लकस्य प्रतीक्षापणमिति / (रन्नो य अमचाईत्यादि) पश्चार्द्ध राजा अमात्यश्च समकं प्रव्रजितौ समकमेव सूत्रादिभिः प्राप्तौ ततो युगपत्तौ मात्रप्यपस्थाप्यते। अथ राजा सूत्रादिभिः प्राप्तो नामात्थस्ततो राज्ञ उपस्थापना। अथामात्यः सूत्रादिभिः प्राप्तोन राजा ततो यावदुपस्थापनादिनमागच्छति तावदादरेण राजा शिक्ष्यते ठतो यदि प्राप्तो भवति ततो युगपदुपस्थापना / अथ तत्रापि राजा न प्राप्तस्तदा तेनानुज्ञाते अमस्थि उपस्थाप्यते / अथ नेच्छति तदा पूर्ववद्दण्डिकदृष्टान्तेन राज्ञः प्रज्ञापना / तथापि चेन्नेच्छति ततः पञ्चदिवसान्यावदमात्थस्व प्रतीक्षापणं तथापि चेन्न प्राप्तो भूयः प्रज्ञापना तत्राप्यनिच्छायां पुनः पञ्चदशाहमपि। तथाप्यनिच्छायामुपेक्षा वस्तुभावं वा ज्ञात्वामात्यस्य प्रतीक्षापणम् / यदि वा वक्ष्यमाणोऽत्र विशेषो यथा चामात्यस्य राज्ञा सहोक्तमेवमादिग्रहणसूचितयोः श्रेष्ठिसार्थवाहयोरपि वक्तव्यमिति / (संजइमज्झे महादेवीत्ति) द्वयोर्मातादुहित्रोयोमर्मातादुहितृयुगलयोर्महादेव्यमात्थोश्च सर्वमेव निरवशेष वक्तव्यम्। संप्रति यदुक्तं वोचत्थमग्गणा होइत्ति तद्व्याख्यानार्थमाह। दो पत्तापियपुत्ता, एगस्स पुत्तं न उ थेरा। गहितोवसवं वियरइ, राइणितो होउ एस विय॥ द्वौ पितापुत्रौ प्राप्तावेकस्य तु पिता प्राप्तो न पुत्रः युगलस्य पुत्रः प्राप्तो न स्थविरः स आचार्येण वृषभेण वा प्रज्ञापनां ग्राहितः स्वयं वितरत्यनुजानाति तदा स क्षुल्लक उपस्थाप्यते। अथ नेच्छति तदा पूर्ववदाजदृष्टान्तेन प्रज्ञापना अन्यच तौ पितापुत्रौ रत्नाधिको भविष्यत एवोऽपि च तव पुत्रो यदि रात्निको रत्नाधिको भवति / भवतु नाम तव लाभ इति तथाप्यनिच्छायां पूर्ववदुपेक्षादि। राया रायाणो वा, दोण्णि वि समपत्त दोसपासेस। ईसरसेडिअमचे, नियमघडाकुलदुए खुडे / / एको राजा द्वितीयराजस्तौ समकं प्रव्रजितौ अत्रापि यथा पितापुत्रयो राजामात्ययोर्वा प्रागुक्तं तथा निरवशेषं वक्तव्यं केवलममात्यादिके सूत्रादिभिः प्राप्ते उपस्थाप्यमाने यदि राजादिरप्रीतिं करोति दारुणस्वभावतया ब्रूते वा किमपि पुरुषं तदा सोऽप्राप्तोऽपीतरैरमात्यादिभिः सममुपस्थाप्यते।अथवा (रायत्ति) यत्र एको राजा तत्र सोऽमात्यादीनां सर्वेषां रत्नाधिकः कर्त्तव्यः(रायाणोत्ति) यत्र पुनर्द्विप्रभृतयो राजानः समकं प्रव्रजिताः समकं च सूत्रादिभिः प्राप्तास्ते समरत्नाधिकाः कर्तव्या इत्युपस्थाप्यमाना द्वयोः पार्श्वयोः स्थाप्यन्ते अत्रैवार्थे विशेषमाह। समगं तु अणेगेसुं, पत्तेसुं अणभिजोगमावलिया। एगतो दुहतो ठविया, समएयणिया जहासन्नं / / पूर्व पितापुत्रादिसबन्धेनासंबन्धेष्वनेकेषु राजसु समकं सूत्रादिभिः प्राप्तेष्वत एवैककालमुपस्थाप्यमानेषु (अणभिजोगत्ति) गुरुणा अन्येन वाभियोगो न कर्त्तव्यो यथा इतस्तिष्ठथ इतस्तिष्ठथेति किंत्वेकतः पार्थे द्विधा वा द्वयोः पार्श्वयोर्वथैव स्थिताः स्वस्वभा–वेन तेषामावलिका तथैव तिष्ठति तत्र यो यथा गुरोः प्रत्यासन्नः स तथाज्येष्ठो ये तूभयोः समश्रेण्या स्थितास्ते समरत्नाधिकाः / इदानीं पूर्वगाथापश्चार्द्धव्याख्या (ईसरेत्यादि) यथा द्विप्रभृतयो राजान उक्ता एवं द्विप्रभृतयः श्रेष्ठिनो द्विप्रभृतयोऽमात्मा द्विप्रभृतयो निगमावणिजः (घडात्त) गोष्ठी द्विप्रभृतयो गोष्ठ्यो यदि वा द्विप्रभृतयो गोष्ठिका यदि वा द्विप्रभृतयो महाकुला द्विकग्रहणमुप-लक्षणं तेन द्विप्रभृतय इति द्रष्टव्यम्। तथैव च व्याख्यातंच (खुड्डत्ति) क्षुल्लकाः समकं प्रव्रजिता इत्यर्थः। सूत्रादिभिः प्राप्ताः समकं रत्नाधिकाः कर्तव्याः। एतेषामेव मध्ये यः पूर्व प्राप्तः सपूर्वमुपस्था–प्यते इति वृद्धसंप्रदायः। ईसिं अण्णो पत्ता, वामपासम्मि होइ आवलिया। अभिसरणम्मि य वडी, ओसरणे सो व अण्णो वा / / तेषामुपस्थाप्यमानानामावलिका गुरुमिपाइँ जगदन्तवत् ईषदवनतस्य अवनतीभूय स्थिता तव यदि ते गुरुसमीपमग्रतोऽभिसरन्ति तदा गच्छस्य वृद्धितिव्या यथाऽन्येऽपि बहवः प्रव्रजिष्यन्तीति अथ पश्चादहिरपसरन्ति तदा स उपस्थाप्यमानोऽन्यो वा उन्निष्क्रमिष्यति अपद्रविष्यति वेति ज्ञातव्यमेव निमित्तकथनम्। व्य० द्वि०४ उ०॥ (सूत्रम्) जे भिक्खू णागयं वा, अणागयं वा सर्ग वा जे। अण्णालं उट्ठावेइ, उट्ठावंतं वा साइजइ॥२६२|| सूत्रार्थः पूर्ववत् अण्णालं उवट्ठावेंतस्स आणादी दोसा चउगुरुगं च चिट्ठउ ताव उवट्ठावणाविहि पव्वावणाविहिं तावणातुमिच्छामि // नायगमनायगं वा, सावगमस्सावगं तु जे भिक्खू / अणलमुवट्ठावेई,सोपावति अण्णमादीणि ||5|| पच्छा सुद्धे अट्ठा, वामेसाइयं च तिक्खुत्तो। सयमेव उ कायव्वं, सिक्खा य तहिं पयातेणं // 555 / / जो च उवट्ठाति पव्वजा एसो पुच्छिज्जति कोसि तुमं किं पव्वयसि किंच ते वेरगं एवं पुच्छितो जति अणलोण भवतितासुद्धो पव्वज्जाए कप्पणिजो ताहे से इमा साहु चरिया कहिज्जति।। गोयरमचित्तभोयण, सज्झायमण्हाणभूमिसेजादी। अब्भुवगयथिरहोत्था, गुरुजहण्णेण तिण्णट्ठा।।४५६|| गोयरेति दिणे देणे भिक्खं हिंडियध्वं जत्थ जलाभइ तं अञ्चित्तं घेत्तव्वं जंपिएसणादिसुद्धं आणियंपिताव वुट्ठसेहादिएहिं सह संविभागेण भोत्तव्वं निच्चं सज्झायज्झाणपुरेण होयव्वं सदा अण्हाणगं तु उदुबद्धे सया भूमिसयण वासासुफलगादिएसुसोतव्वं अट्ठारससीलंगसहस्साधारेयव्वा लोयादिया य किलेसा अणेगे कायव्वा एयं सव्वं जति असुवगच्छति तो पव्वावेयव्वा एसा पव्वा-वणिज्जपरिक्खा पव्वावणा भन्नति / / नि०चू०११३०॥ (सूत्रम्) आयरियउवज्झायअसमरमाणे परं चउरातातो Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्टवणा 116 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा पंचरातातो कप्पागं भिक्खं णो उवट्ठावेति कप्पाए अत्थियाई से केइमाणणिजे कप्पागे नत्थियाइंसे केइ छेदे वा परिहारे वा नत्थियाइसे के माणणिजे कप्पइसे संतराछेदे वा परिहारे वा।। अस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं तं चेव भाणियव्व मिति वचनादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः। "कप्पाए अत्थियाइंसे केइमाणणिजे कप्पागे नत्थियाई से केइछेदेवा परिहरे वा नत्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पागे से संतरा छेदे वा परिहारे वा" अस्यापि व्याख्या प्राग्वत् तत्र यैः कारणैन स्मरति तान्युपदर्शयन्नाहदप्पेण पमाएण व, वक्खेवणगिलाणतो वावि। एएहिं असमरमाणे, चउविहं होइ पञ्छित्तं // दप्पो निष्कारणोऽनादरनस्तेन प्रथममादौ विकथादीनां पञ्चानां प्रथमादीनामन्यस्तेन व्याक्षेपणसीवनादिना ग्लायते एतैः कारणैरस्मरति प्रायश्चित्तमस्मरणनिमित्तं चतुर्विधमस्मरणकारणस्य दपाश्चतुष्प्रकारत्वात्। तदेवाभिधित्सुः प्रथमतो दर्पतः प्रमादेन चाह / / वायामगिलाणादिसु, दप्पेण अणुट्ठवें ति चउगुरुगा। विकहादिपमाएणव, चउलहुगा होति बोधव्वा॥ व्यायामग्लानादिषु व्यापृततया निष्कारणोऽनादर उपस्थापनायाः स दर्प उच्यते तेन दर्पणानुस्थापयति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः विकथादिना अन्यतमेन प्रमादेनानुपस्थापयति चत्वारो लघुका भवन्ति बोद्धव्याः॥ सिवणतुण्णणसज्झाय,झाणलेवादिदाणकज्जेसु / विक्खेवे होइ गुरुगो, गेलण्णेणं तु मासलहू॥ सीवनतूर्णनास्वाध्यायध्यानपात्रलेपादिदानकार्यर्गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे / यो व्याक्षेपेणाऽनुपस्थापयति प्रायश्चित्तं भवति गुरुको मासो ग्लान्येन त्वनुपस्थापयति मासलधु / संप्रति यैः कारणैः स्मरतोऽस्मरतश्चानुपस्थापयतः प्रायश्चित्तं न भवति / तान्यभिधित्सुराहधम्मकहाइडमत्तो, वादो अचुक्कडे व गेलण्णे। विइयं चरमपएसुं, दोसु पुरिमेसु तं नत्थि॥ ऋद्धिमतो राज्ञो युवराजस्यामात्यादेर्वा प्रतिदिवसमागच्छतो धर्मकथा कथ्यते परप्रवादी वा कश्चनाप्युपस्थितः स वादेन गृहीतव्यः / इति तन्निग्रहणाय विशेषतः शास्त्राभ्यासे तेन सह वादे वा दीयमाने यदि वा आचार्यस्यान्यस्य वा साधोर्यो वा उपस्थाप्यस्तस्य वा अत्युत्कटे ग्लानत्वे जाते व्याकुलीभवनतः स्मरन्नस्मरन्वा यद्यपि नोपस्थापयति तथापि न तस्य प्रायश्चित्तं कारणतो व्याकुलीभवनात् / एतच प्रायश्चित्ताभावलक्षणं द्वितीयपदमपवादपदं चरमपदयोर्द्वयोव्यक्षिपग्लानत्वलक्षणयोरवगन्तव्यम् / तथा हि धर्मकथावादाभ्यां व्याक्षेप उक्तो ग्लानत्वपदेन च ग्लानत्वमिति पुर्वयोस्त द्वयोः पदयोस्तत् अपवादपदं नास्ति / एतच्च चतुर्विधं प्रायश्चित्तमस्मरणनिमित्तमुक्तं स्मरणतस्तु चतूरात्रपञ्चरात्राद्यतिक्रमे यत्प्रायश्चित्तं तत्पूर्वसूत्रे इवात्रापि निरवशेष द्रष्टव्यम्। आयरियउवज्झाओ य समरमाणे वा असमरमाणे वा परं दसराय कप्पातो कप्पागभिक्खू णो उवट्ठावेति कप्पाए अत्थि आई से केइ माणणिज्जे कप्पागे नत्थि याइं से केइ छेदे वा परिहारे वा जाव कप्पाए संवच्छतरं तस्स तप्पतियं णो कप्पइ आय-रियत्तं वा जाव गणावच्छेइयं वा उद्दिसित्तए वा आचार्य उपाध्यायो वा स्मरन् अस्मरन्वा यदा स्मरति तदा न साधक नक्षत्रादिकं यदा तु साधकं नक्षत्रादिकं तदा बहुव्याक्षेपतो नस्मरन्वापरं दशरात्रकल्पान् दशरात्रकल्पाकं भिक्षु नोपस्थापयति तत्र यदि तस्मिन्कल्पाके अस्ति (से) तस्य कल्पाकस्य कश्चिन्माननीयः पित्रादिभिर्भावी कल्पाकस्ततो नोपस्थापयति ! तर्हि नास्ति (से) तस्यानुपस्थापयति कश्चिच्छेदः परिहारो वा / अथ नास्ति (से) तस्य कल्पाकस्य कश्चिन्माननीयः पित्रादिर्भाधी कल्पाकस्तर्हि तस्यानुपस्थापयतश्छेदः परिहारो वा प्रथमादेश इति वाक्यशेषो द्वितीयादेशेन पुनश्छेदेन परिहारतपसा वा दम्यमानस्य तत्प्रथममनुपस्थापनाप्रयतस्य संवत्सरं यावत्र कल्पत आचार्यत्वमुपदेष्टुमनुज्ञातुं संवत्सरं यावद्गणोभियते इति भावः / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / व्यासार्थन्तु भाष्यकृदभिधित्सुः प्रथमतो दशरात्रनिबन्धनमाहसमरमाणेवि पंचदिय, समरमाणे वि तेत्तिया चेव।। कालोत्ति व समओत्तिव, अद्धाकप्पओत्ति व एगटुं / / स्मरत्यपि चउरायपंचरायातो इत्यनेन पञ्चदिनान्युक्तानि अस्मरत्यपि तावन्ति चैवपञ्च दिनानि चैवोक्तानि इदं च स्मरणास्मरणमिश्रकसूत्रतो दशरात्रात्कल्पादित्युक्तमत्रैव कल्पशब्दस्तद् व्याख्यानमाह / "काल इति वा समय इति वा अद्धा इति वा कल्प इति" एकार्थ ततो दशरात्रकल्पादिति दशरात्रकालादिति द्रष्टव्यम्। संप्रति स्मरणास्मरणं भावयति // जाहे सुमरइताहे, असाहगं रिक्खलग्गदिणमादी। बहुविक्खेवम्मि य गणे, सरियं पिपुणो वि विस्सरति / / यदा स्मरति तदा असाधक मप्रयोजकमृक्षलग्नादि आदिशब्दात् मुहूर्तादिपरिग्रहः / बहुव्याक्षेपेच गणे गच्छे स्मृतमपि पुनरपि विस्म-रति तत एवं स्मरणास्मरणसंभवः / अत्रैव प्रायश्चित्तविधिं सविशे-षमाह। दसदिवसे चउगुरुगा, दसेव छल्लहुग छग्गुरू चेव। तत्तो छेदो मूलं,णणवठ्ठप्पो य पारंची। तस्मिन्नधिकृते कल्पाके जाते सति यदि स्मरणास्मरणतो दसदिवसानतिक्रमति ततस्तस्यानुपस्थापयतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः ततः परमप्यन्यानि दशैव चेत् दिनान्यतिवाहयति ततः षड्लघुकम्। ततः परतोऽपि दिनदशकातिक्रमे षारकं (ततोछेदोत्ति) ततः परमेवं छेदस्विधा वक्तव्यः। सचैवं ततोऽपि परतोयद्यन्यानिदशदिनानिलयति तर्हि चतुर्गुरुकश्छेदस्ततोऽपि परतो दिनदशकातिक्रमे षड्लघुकश्छेदः ततोऽन्यदशदिवसस्यातिवाहने पाराश्चिको जायते।। एसो देसो पढमो, वितिए तवसा अदम्ममाणम्मि। उभयवलदुव्वलेवा, संवच्छरमोदिसाहरणं / / एषोऽनन्तरोदित आदेशः प्रथमो द्वितीये आदेशे पुनस्तपसा उपलक्षणमेतच्छेदेन वा अदम्यमाने यदिवा उन्नयवले कायवलेन च उपलक्षणमेतदन्यतरैकवलेन वा तफ्सश्छेदस्य या दातुमशक्यतया संवत्सरं यावत् दिश आचार्यत्वस्य हरणम्।। एते दो आदेसा, मीसगसुत्ते हवंति नायव्वा / पढमविईएसुं पुण, सुत्तेसु इमं तु नाणत्तं // एतावनन्तरोदितौ द्वावप्यादेशौ मिश्रक सूत्रे भवतो ज्ञातव्यौ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 617- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा प्रथमद्वितीययोः पुनः सूत्रयो रिदमादेशविषयं प्रत्येकं नानात्वं / तदेवाह। चउरो य पंचदिवसा, चउगुरू एव होति छेदो वि। ततो मूलं नवम, चरम पि य एगसरगं तु॥ प्रथमे द्वितीयेच सूत्रे प्रत्येकमिमावादेशौ प्रथम आदेशस्तस्मिन् विवक्षिते कल्पाके जाते सति यदि चतुरो दिवसानतिवाहयति तदा चतुर्गुरु एवं पञ्चपञ्चातिक्रमे षड्लघुषड्गुरुके।एवं छेदोऽपि त्रिधा वक्तव्यः तदनन्तरं मूलं नवममनवस्याप्यं चरमं पाराञ्चितमेकसरकमेकैकदिनातिक्रमे वक्तव्यम्। द्वितीय आदेशः पञ्चदिवसातिक्रमेचतुर्गुरु एवं पञ्चपञ्चातिक्रमे षड्लघुषड्गुरुके एवं छेदोऽपि पञ्चपञ्चदिनातिक्रमेण त्रिधा वक्तव्यस्ततो मूलं नवमं चरमंच एकसरक मेकैकदिनातिक्रमेणेति भावार्थः / व्य०४ उ०। दशा०॥ फासुय आहारो से, अणहिंडणं च गाहए सिक्खं / ताहे उ उवट्ठवणं, छज्जीवणियं तु पत्तस्स।। अप्पत्ते अकहित्ता, अणमिगतपरिच्छअतिकमेया से। एकेके चउगुरुगा, विसेसिया आदिमा चतुरो॥ अप्पत्तं सुत्तेणं,परियाग उवट्ठवेत चउगुरुगा। आणादिया य दोसा, विराहणा छह कायाणं॥ सुत्तत्थं कहइत्ता, जीवाजीवे य बंधमोक्खं च। उवट्ठवण चउगुरुगा, विराहणाजा भणियपुव्विं / / अणभिगतपुन्नपावं, उवट्ठतस्स चउगुरू हॉति। आणादिणो य दोसा, मालाए होंति दिट्ठते / / समरक्खदउल्लगणी, पतिद्विते हरितबीजमादीसु / हों ति परिक्खागोयरे, किं परिहरतीण वा वित्ति॥ उचारादिअथंडिल, वोसिरठाणादिवावि पुढवीए। णदिमादिदगसमीवे,खारादिदाह अगणिम्मि वि॥ जण अहिधारण वा ते, हरिए अहव पुढविते तसेसुं च। एमादिपरिक्खित्ता, वनदाणमिमेण विहिणा सो।। दव्वादिपसत्थे वा, एकेकं तिगुणणोवरि हेट्ठा। दुविहा तिविहाय दिसा, अंविलनिटिवगतिओवा। पियपुत्ताणं जुयला, दोण्हि तु निक्खंत तत्थ एगस्स। पत्तो यदि ताण पुत्तो, एगस्स पुत्तो ण तु थेरो॥ ताहे तु पन्नविज्जति, दंडियणायं तु का तु भन्नइ तु मा। गेण्हं अस्सग्गहीए, तिणि उहोति एसविता॥ एवं सो पण्हवि तो, जदि इच्छे तो उ उहवे ति तु / / नेच्छंते यं चाह-वेति दो तिहि वायणगा। वच्छसभावासज्जव, जाधीतं ताव तं परिच्छंति। एवं रायअगटवेसुं-जति मज्झे महादेवी।। राया रायाणो वा, दोण्हि वि समपत्तदोसु पासेसु। ईसरसेडिअमचे, णियमघडाकुलदुवे खुड़े। समपत्तअणेगेसुं, पत्तेसुं अणमिओगमावलिया। एगतो दुहतो ठविता, समराइणिया जहा सन्नं / / ईसिं अन्नो पत्ता, वामे पसाम्मि हों ति आवलिया। आसरणम्मिय वड्डी, सरणे सो व अण्णो वा॥ उवट्ठवियस्स एवं, संभुंजणता तहेव संवासो। वितियपदे संबंधी, ओमादीसु माहु पडिभावं / / मुंजीसु मए सद्धिं, इयाणिं णेच्छति भोतु पहिभावं / अहिखायंति व उभे, पच्छन्ने जे ण मुंजंति। एमादिणा तु भावं, ताहे अप्पत्तअहवपत्तं वा। उवट्ठा ति मुंजंति, परिणते चित्तरक्खट्ठा / / पं० भा०॥ उवट्ठावणा कप्पो अप्पते अंकवेत्ता / गाहा जइ आवासगमाइ जाव छज्जीवणियातोसुत्ते अपडिए उवट्ठावेइचउगुरूदोहि विगुरू तवेण कालेण तवगुरू अंतो अट्ठमदसमदुयालसमकालगुरू गिण्हकाले अहासुत्ते पढिए अच्छे अकहिए उवहावेइ चउगुरू तवगुरू काललहुं काललहू सीतकाले वासासु वा अह पढिए सुत्ते य अपरिच्छिओता मनसद्दहइ पुढविमाईणि चउगुरू तवलहू तवचउगुरूतवचउलहुगंच भन्नइ अणुग्घाइयं पडुच गुरुयं अणुग्धाइयं नाम छट्टे चउत्थे आयंबिले व कए पारणए पुरिमड्डनिव्वीइएगासणाइ करेइतेण गुरुयं भवइ अह पढियसुय अभिगयं अपरिच्छिऊण उवहायेइ किं परिहरइन उदओल्लादिचउगुरु दोहिं विलहुतवसा कालेण अणु-घाइयं पुण एवं वारसविहं विकप्पिए। पं०चू०। "उवग्गस्स वा उवट्ठावेज वा सुत्तं वा अत्थं वा उभयं वा परवेजा एतेसु कुलगणसंधवज्झो" महा०७ अ० एतदेव भावयन्नाहणो उट्ठावणए बिअ, निअमा चरणति दव्वओ जेण। सा भव्वाण विभणिआ, छउमत्थगुरूण सफला य // नोपस्थापनायामेव कृतायां सत्यां नियमाचरणमिति कुत इत्याह / द्रव्यतो येन प्रकारेण सा अभव्यानामपि भणितोपस्थापना अङ्गारमर्दकादीनां छद्मस्थगुरूणांविधिकारकाणां सफला चाज्ञाराधनादिति गाथार्थः / उपस्थापना विधिफलक्त्तामाह। पायं च तेण विहिणा, होइ इमंति निअमो कओ सुत्तो। इयरा सामाइअम्मि-तओ वि सिद्धिं गयाणं ता॥१०॥ प्रायश्चित्तेन विधिना उपस्थापनागतेन भवत्येतच्छे दोपस्थाप्यं चारित्रमित नियमः कृतः सूत्रदशवैकालिकादिपाठाद्यनन्तरमुपस्थापनायाः इतरथान्यथा सामायिकमात्रतोऽप्यबहिः प्राप्त्या सिद्धि गताः अनन्ता प्राणिन इति गाथार्थः। अनियममेव दर्शयति॥ पुटिव असंगतं पि अ, विहिणा गुरुगच्छसेवाए। जावमणेगेसि इम,पच्छा गोविंदमाईणं // 11 // पूर्वमुपस्थापना काले असदपि चैतच्चरणं विधिना गुरुगच्छादि-सेवया हेतुभूतया जातमभिव्यक्तमनेकेषामिदं पश्चाद्गोपेन्द्रादीनां गोपेन्द्रवाचककरोटकगणिप्रभृतीनामिति गाथार्थः / / प्रक्रान्तसमर्थनार्यवाह // एअंच उत्तमं खलु, निव्वाणपसाहणं जिणा बिंति। जंनाणदंसणाण वि, फलमे अंबंव निद्दिठं // 12|| एतचारित्रं उत्तमं खलुत्तममेव निर्वाणप्रसाधनं मोक्षसाधनं जिना बुबते / अत् एतदुपाये यत्नः कार्य इत्यैदंपर्यमुत्तमत्त्वे युक्तिमाह / यद्यस्माज्ज्ञानदर्शनयो रेपि तत्वदृष्ट्या फलमेतदेव चारित्रं निर्दिष्ट तत्साधकत्वादितिगाथार्थः पिं०व०। बालस्योपस्थापना नकल्पते॥ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा (सूत्रम्) णो कम्पत्ति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा खड्डयं वा खुडियं वा ऊणट्ठवासजायं उवट्ठावित्तए संभुजित्तए वा कप्पति | णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वाखड्यं वा 3 सातिरेगट्ठवासजायाई उवठ्ठावित्तए वा संभुजित्तएवा। सूत्रस्याक्षरगमनिका न कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकं वा क्षुल्लिकां वा ऊनाष्टवर्षजातानामुपस्थापयितुंवा संभोकुंवा मण्डल्यां तथा कल्पते निर्गन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा क्षुल्लकंवा सातिरेकाष्टवर्षजातानामुपस्थापयितुं वा उपस्थाप्य मण्डल्यां संभोक्तुं वा / अथ कस्मादूनाष्टवर्षजातस्योपस्थापनादिन कल्पते तत आह॥ ऊणट्ठए चरितं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा। वालस्सय जे दोसा, मणिया आरोवणा दोसा॥ ऊनाष्टके ऊनाष्टवर्षजाते वाले चालिन्यामुदकमिव चारित्रंन तिष्ठति। तथा ये बालस्स दोषा भणिता स्ते च बालस्योपस्थापने आरोपणायामाप्रसजति। बालस्य दोषानाह॥ कायवयमणोजोगो, हवंति तम्हा णवट्ठिया जम्हा। संबंधिमणाभोगे, ओमे सहसाववादे य॥ तस्य बालस्य कायवाङ्मनोयोगादस्मादनवस्थिता भवन्ति / तस्मानोपस्थापयेत तत्रैवापवादमाह। संबन्धिनमनाभोगे अवमे दुर्भिक्षे सहसाकारेण वा संभोजने अपवादे नोपस्थापयेदूनाष्टवर्षजातमपि। तत्र संबन्धिव्याख्यानार्थमाह / / मुंजिस्से समए चेवं, वितीया निच्छद संपइ। सो आनाहणसंबंधो, कह चिट्टेज तं विणा / / एष वालको मया सह भोक्ष्यते इत्येवं भणित्वा नातो मण्डल्यां स च संप्रति तमाचार्य विना भोक्तुं नेच्छतिस चाचार्यस्य स्नेहेन संबन्धस्ततः कथं प्रव्रज्यायां गृहीतायां सह भोजनं विना तिष्ठेत् / नैवतिष्ठेदिति भावः // अणुवट्ठविओ एसो, जइयादेवेज अपरिणया। तो होउ व वारिजइ, तो णं संभुज्जए ताहो। तत्र हु निश्चितमपरिणता आवबुरेवं यद्येषोऽनुपस्थापितो मण्डल्या संभुक्तो ततः स तदा उपस्थाप्यते तदनन्तरं संभोजनं मण्डल्यामिति // अहव अणाभोगेणं, सहसाकारेण वा वि होज संजुत्तो। ओमम्मि विसहु तत्तो, विप्परिणामं तु गच्छेज्जा।। .. अथवा अनाभोगेण सहसाकारेण वा मण्डल्यां संयुक्तो भूयात् / ततो माभूदनवस्थाप्रसङ्ग इति तमूनवर्षजातमप्युपस्थाप्य मण्डल्यां संभोजयेत् / अवमे दुर्भिक्षे जातेमाविपरिणामं गच्छेदत उपस्थाप्य मण्डल्यां संभोज्यते एतदेव भावयति॥ अदिक्खियंति एवं मां,इमे पच्छन्नमोजिणो। परोहमिति भावेजा, तेणावि सह भुज्जते / इमे प्रच्छन्नभोजिनो मामेवमेव दुर्भिक्षे दीक्षयन्ति / अदीक्षां कर्तुमिच्छन्ति। तेन कारणेनाहं परः कृत इति स भावयेतन्त ततस्ते-नापि सहसंभुङ्क्ते / व्य० 10 उ० ("तओ नो कप्पइ उवट्ठा वित्तए तंजहा पंडए वाइए कीवे" व्याख्या पव्वायणा शब्दे) "दोसा उवट्ठाविउ सियती सेसदुगस्स। अणायरण जोग्गा अहवा समायारं ते पुरिनयद निवारिया दोसा"वृ०४ उ०॥ (सूत्रम्) जे भिक्खू णायगंवा अणायगंवा वासगंवा जे अणलं उहावेइ उट्ठावंतं वा साइज्जइ॥२८|| सूत्रार्थः पूर्ववत् / अणलं उवट्ठावें तस्स आणादी दोसा चउगुरुगं च। नि०चू०११ उ०। अनवस्थाप्यभिक्षादेः पुनरुपस्थापनाअणवठ्ठप्पं भिक्खुं अगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयस्स उवट्ठवित्तए अणवठ्ठप्पं भिक्खू गिहिभूयं तस्स गणावच्छेदियस्स उवठ्ठावित्तए इति॥ यथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध उच्यते। अट्ठस्स कारणेणं, साहम्मि य तेणमादि जइ कुज्जा।। इह अणवटे जोगो, नियमातो यावि दसमस्स / / साधम्मिकैः कारणेन प्रागुक्तेनोत्पादितो योऽर्थस्तस्य स्तन्यमादिशब्दादन्यपरिग्रहः / यदि कुर्यात्ततः सोऽनवस्थाप्यो भवति एतदर्थख्यापनार्थमर्थजातसूत्रानन्तरमनवस्थाप्यसूत्रम् इत्येषोऽनवस्थाप्यसूत्रस्य योगः संबन्धः / पाराञ्चितसूत्रस्यापि संबन्धमाह / नवमात्प्रायश्चित्तादनवस्थाप्यादनन्तरं किल दशमं पराञ्चितनामकं प्रायश्चित्तं भवति ततो नवमान्नवमप्रायश्चित्तसूत्रस्यारम्भमाह / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / अनवस्थाप्यं भिक्षुमगृहीभूतमगृहस्थीकृतं नो कल्पते यस्य समीपेऽवतिष्ठते तस्य गणावच्छेदिनो गणस्वामिन उपस्थापयितुम् / संप्रति पाराञ्चितसूत्रमाह। (सूत्रम्) पारंचियं पि भिक्खु अगिहिभूतं नो कप्पते तस्स गणावच्छेदियस्स उवट्ठावेत्तए पारंचियं भिक्खुं गिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेदियस्स उवट्ठावित्तए पारा चियं भिक्खुं गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेदियस्स उवट्ठावित्तए॥ अत्र सूत्रद्वयस्याक्षरगमनिका प्राग्वत्संप्रति भाष्यविस्तरः। अणवट्ठो पारंचिय, पुव्वं भणिया इमं तु नाणत्तं / गिहिभूयस्सय करणं, अकरणे गुरुगाय आणादी। अनवस्थाप्यपाराञ्चितौ एतौ द्वावपि पूर्व भणितौ इदं चात्र नानात्वं गृहीभूतस्य गृहस्थरूपसदृशस्य करणं यदि पुनर्गृहीभूतमकृत्वा तमुपस्थापयतितदा गृहीभूतस्याकारणेप्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः / तथा आज्ञादयः आज्ञानवस्थामिथ्यात्वविराधना दोषाः। अन्यच प्रमत्तं सन्तं देवता छलयेत्। गृहीभूतस्य तु छलना न भवति। तस्माद् गृहीभूते कृत्वा तमुपस्थापयेत्। गृहस्थरूपताकरणेमेव भावयति। वरनेवच्छं एगे,ण्हाणादिविवज्जमवरिजुगलमित्तं। परिसामज्झे धम्म, सुणेज तो कहण दिक्खा / / / एके आचार्या एवं ब्रुवते स्नानविवर्ज वरं नेपथ्यं तस्य क्रियते। अपरे दाक्षिणात्याः पुनरेवमाहुर्वस्त्रयुगलमात्रं परिधाप्यते तद्वर्षमध्ये आचार्यसमीपमुपगम्य ब्रुवते भगवन् ! धर्म श्रोतुमिच्छामि / ततः (कहणत्ति) आचार्यः धर्म कथयति। कथिते च सति सकल-जलसमक्ष ब्रूवते श्रद्दधामिसम्यग् धर्ममेनमिति मां प्रव्राजयत एवमुक्ते तस्य दीक्षा लिङ्गसमर्पणानन्तरंचतत्क्षणमेवोपस्थाप्यते तत्र शिष्यः प्राहा कस्मादेष गृहस्थावस्थां प्राप्यते। सूरिराह। ओहावितो न कुय्वइ, पुणो वि सो तारिसं अतीयारं। होइ भयं सेसाणं, गिहिरूवे धम्मिया चेव। Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 619 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा किं वा तस्स न दिजइ, गिहिलिंग तेण भावतो लिंगे। अजढे विदव्वलिंगे, सलिंगपडिसेवणावि जढं। अपभ्राजितो ग्लानिमापादितः सन् पुनरपि सतादृशमतीचार न करोति। | शेषाणामपि च साधूनां भयमुत्पादितं भवति / येन तेऽप्येवं न कुर्वते / तस्माद्गृहिरूपे गृहस्थता रूपस्य धर्माताधदिनपेतान्याच्येत तस्यापि याच्यमानागृहस्थरूपतेति भावः (किंवेत्यादि) किं वा केन वा कारणेन तस्य न दीयते गृहिलिङ्गं दातव्यमेव तस्य गृहिलिङ्गमित्यर्थः / येन कारणेनापरित्यक्तोऽपि द्रव्यलिङ्गे स्वलिङ्गे प्रतिसेवनात् भावतो लिङ्ग विजढं परित्यक्तमिति। संप्रति सूत्रकृदेवापवादमाह। (सूत्रम्) अणवठ्ठप्पं भिक्खं पारंचियं भिक्खू गिहिभूयं वा / अगिहिभूतं वा कप्पइ, तस्स गणावच्छेदितस्स उवट्टावेत्तए जहा तस्स गणस्स पतियं सिया इति।। अनवस्थाप्यं भिक्षु पाराञ्चितं वा भूतं भिक्षु गृहीभूतमगृहीभूतं वा कल्पते / तस्य गणावच्छेदिनः उपस्थापयितुं कथमित्याह यथा तस्य प्रतीकं प्रतिकारमुपस्थापनं स्यात्तथा कल्पते नान्यथा इह यो गृहस्थीभूतः स तावदुवस्थाप्यते एवमस्यापवादविषयं वा यस्त्वगृहीभूतः सोऽयवादविषयस्तस्योत्सर्गतः प्रति विद्धत्वात् / तत्र यैः कारणैरगृहीभूतोऽप्युपस्थाप्यते तत्र यथानुवृत्त्यास्योऽगृह-- स्थीभूतोऽप्युपस्थाप्यो भवति। तथा भाव्यते इहानवस्थाप्यं पराञ्चितं वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य चायं कल्पो यावदनवस्थाप्यं पाराञ्चितं वा वहति तावदहिः क्षेत्रादवतिष्ठते / स च वहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गृहस्थः क्रियते किन्त्वागतः करिष्यते। बहिश्चावतिष्ठमानः स जिनकल्पिक इव भिक्षाचर्यामले पकृ द्भक्तादिग्रहणात्मिकां करोति तस्य च तथा बहिस्तिष्ठते / यथाचार्यः करोति तथा प्रतिपादयति। आलोयणं गवसेण, आयरिओ कुणइ सव्वकालं पि। उप्पण्णे कारणम्मि, सव्वपयत्तेण कायव्वं / / यस्याचार्यस्य समीपेऽनवस्थाप्यं पाराञ्चितं वा प्रतिपन्नः स आचार्यः सर्वकालमपि यावन्तं कालं तत्प्रायश्चित्तं वहति तावन्तं सकलमपि कालं यावत्प्रतिदिवसमवलोकनं करोति तत्समीपं गत्वा तद्दर्शनं करोतीत्यर्थः / तदनन्तरं गवेषणं गतोऽल्पक्लामतया तत्र दिवसे रात्रौ वेति पृच्छां करोति। उत्पन्ने पुनः कारणे ग्लानत्वलक्षणे सर्वप्रयत्नेन स्वयमाचार्येण कर्तव्यं भक्तपानहरणादि। जो उ उवेहं कुजा, आयरिओ केणइ प्पमारण / आरोवणा उ तस्स, कायय्वा पुय्वनिविट्ठा॥ यः पुनराचार्यः केनापि प्रमादेन जनव्याक्षेपादिना उपेक्षां कुरुते न तत्समीपं गत्वा तत्सरीरस्योदन्तं वहति तस्य आरोपणा प्रायश्चित्तप्रदानं पूर्वनिर्दिष्टा कर्तव्या। चत्वारो गुरुकास्तस्य प्रायश्चित्तमारोपयितव्यमिति भावः। यदुक्तमुत्पन्ने कारणे सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यं तद्भावयति॥ आहरति भत्तपाणं, उद्वत्तेमादियंति सो कुणति। सयमेव गणाहिवती, अहं गिलाणो सयं कुणइ।। अथ सोऽनवस्थाप्यः पाराञ्चितो वा ग्लानोऽभवत् / ततस्तस्य गणाधिपतिराचार्यः स्वयमेव भक्तं पानं वा हरति आनयति उद्वर्त- | नादिकमप्यादिशब्दात्परावर्तनोद्धरणोपदेशनादिपरिग्रहः स तस्य स्वयं करोति। अथ जातो ग्लानो निरोगस्ततः स आचार्य न किमपि कारयति किं तु सर्व स्वयमेव कुरुते / अधुना यदुक्तमालोयणं गवेसणंति तद्व्याख्यानार्थमाहउमयंपि दाऊण सपडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स पवट्टमाणिं। आसासइत्ताण तवो किलंत, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा।। स्थविराः आचार्याः शिष्याणां प्रतीच्छकानां च उभयमपि सूत्रमर्थ चेत्यर्थः / किं विशिष्टमित्याह। स प्रतिपृच्छंपृच्छा प्रश्नः तस्याः प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा प्रत्युक्तौ प्रतिशब्दः सह प्रतिपृच्छा यस्य तत् सप्रतिपृच्छं सूत्रविषये च यद्येन पृष्ट तत्र प्रतिवचनं चेत्यर्थः दत्वा तत्सकाशमुपगम्य तस्य शरीरस्य वर्तमानमुदन्तं वहति अल्पक्लामतां पृच्छतीति भावः। सोऽपि चाचार्य समागतं मस्तकेन वन्दे इति फेटावन्दनकेन वन्दते शरीरस्य वोदन्तं मू| यदि तपसा क्लाम्यति तत आश्वासयति आश्वास्यच तदेव क्षेत्रं यत्र गच्छेोऽवतिष्ठते तत्समुपगच्छन्ति। कदाचिन्न गच्छेयुरपि तत्रेमानि कारणानि॥ गेलण्णेण वि पुट्ठो, अमिणवमुक्को ततो व रोगत्तो। कालम्मि दुव्वले वा, कजे अण्णेववाघातो। इहैकस्यापि कदाचिदेकवचनं सर्वस्यापि वस्तुन एकानेकरूपताख्यापनार्थमित्यदुष्टम्।अथवा काले दुर्वले न विद्यते बलं गमने यस्मिन् गाढतपः संभवादिना दुर्वलो ज्येष्ठाषाढादिको दुःशब्दो भाववाची तस्मिन्न गच्छेत् शरीरक्लेशसंभवात् "कजे अण्णेव वा घातो इति'' अत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात्ततोऽयमर्थः / अन्येन वा कार्येण राज्ञा प्रद्वेषतो निर्विषयत्वाज्ञापनादिना व्याघातो भवेत्ततो न गच्छेदिति / आगमने चोपाध्यायः प्रेषणीयो योऽन्यो वा तथा चाह / / पेसेइ उवज्झायं, अंग नीयं च जो तहिं जोग्गो। पुट्ठो व अपुट्ठो वा, तहा वि दीवेति तं कर्ज।। पूर्वोक्तकारणवशतः स्वयमाचार्यस्य गमनाभावे उपाध्यायं तदभावेऽन्यो वा गीतार्थस्तत्र योग्यस्तं प्रेषयति। स च तत्र गतः सन् तेन पाराञ्चितेन किमित्यद्य क्षमाश्रमणा नायाता इति पृष्टो वा अथवा न पृष्टस्तथाऽपि तत्कारणं कार्यकारणं दीपयेत् / तथा अमुकेन कारणेन क्षमाश्रमणानामनागमनं पृष्टनापृष्टेन वा दीपितं तदान किमप्यन्यत्तेन वा पाराञ्चितादितावद्वक्तव्यं किं गुर्वादेश एवोभाभ्यां यथोदितः संपादनीयः / अथ राज्ञा प्रद्वेषतो निर्विषयत्वाज्ञापनादिना व्याघातो दीपितस्तत्र यदि ते उपाध्याया अन्ये वा गीतार्थास्तस्य शक्तिं स्वयमवबुध्यन्ते ततो जानन्तः स्वयमेव तस्य महत्त्वं ब्रुवते। यथा अस्मिन्प्रयोजने त्वं योग्य इति क्रियतामुद्यमः / अथ न जानते तस्य शक्तिं ततः स एव तान् अजानानान् ब्रूते / यथा अस्ति ममात्र विषय इति / एतच स्वयमुपाध्यायादिभिर्वा भणितो वक्ति। अत्थ उ महाणुभागो, जहासुहं गुणसयागरो संघो। गुरुगं पि इमं कन्ज,मं पप्प भविस्सए लहुयं / / तिष्ठत यथासुखं महान् अनुभागोऽधि कृतप्रयोजनानुकूलाअचिन्त्या शक्तिर्यस्य स तथा गुणशतानामने केषां गुणानामाकरो निधानं गुणशताकरः सङ्घः यतः इदंगुरुकमपि कार्य मां प्राप्य लघुकं भविष्यति। समर्थोऽहमस्य प्रयोजनस्य लीलयाऽपि साधने इति भावः / एवमुक्ते सोऽनुज्ञातः सन् यत्करोति तदाह। अमिहाणहेउकुसलो, बहूसुनीराजितो वि उसभासु / गंतूण रायभवणा, भणाति तं रायदारिद्दे / / Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 920 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा अभिधानहेतुकुशल इति अभिधानेषु शब्देषु हेतुसाध्यगम केषु कुशलो दक्षोऽभिधानहेतुकुशलः शब्दमार्गे चातीव क्षुन्न इत्यर्थः / अत एव बहुषु विद्वत्सभासु नीराजितो निर्वर्तितः इत्थंभूतः सन् राजभवनं गत्वा तं राजद्वारस्) प्रतीहारं भणति किं भणतीत्यत आह / / पडिहाररूवी भण रायरूविं, तहड्डए संजयरूवि दटुं। निवेदइत्ता यस पत्थिवस्स, ओविट्ठए जत्थ तयं पवेसे / / हे प्रतीहाररूपिन् मध्ये गत्वा राजरूपिणं राजानुकारिणं भण ब्रूहि यथा त्वां संयतरूपी द्रष्टुमिच्छति / एवमुक्तः सन् प्रतीहारस्तथैवास्य निवेदयति / निवेद्य च राजानुमत्या यत्र नृपोऽवतिष्ठते तत्र तकं साधु प्रवेशयति॥ तं पूयइत्ताण सुहासणत्थं, पुट्विंसु एगागय कोउ हल्लो। पण्हे उराले असुए कयाइ, सवा विआरुक्खड़पत्थिवस्स / / तं साधु प्रतिष्ठमानं राजा पूजयित्वा शुभासनस्थं शुभे आसने निषण्णमागतकुतूहलः समुत्पन्नकुतूहलोऽद्राक्षीत् कानित्याह / प्रश्नान् उदारान् गम्भीरार्थान् कदाचिप्यश्रुतान् / प्रतीहाररूपिन् तथा त्वमपि यादृशश्चक्री चक्रवर्ती तादृशो न भवसि रत्नाद्यभावाद् (अत्रान्तरे चक्रवर्तिसमृद्धिराख्यातव्या) किं तु प्रतापशौर्यन्यायानुपालनादिना तत्प्रतिरूपोऽस्ति तत उक्तं राजरूपिणं ब्रूहि चक्रवर्तिप्रतिरूपमित्यर्थः / एवमुक्ते राजा प्राह त्वं कथं श्रमणानां प्रतिरूपी तत आह / / समणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि वा यतं कहमहंति। निरईयाए समणा, न तहा हं तेण पडिरूवं / / यत्त्वं राजन्पृच्छसि। अथ कथं त्वं श्रमणानां प्रतीरूपी तद्ह कथयामि यथा श्रमणा भगवन्तो निरतिचारा न तथाहं ततः श्रमणानां प्रतिरूपी नतु साक्षाच्छंमण इति। प्रतिरूपत्वमेव भावयति। निव्यूढोमि नरेसर, खेत्ते विजईण अत्थिओन लभे। अतियारस्स विसोही, पकरेमि पमायमूलस्स। हेनरेश्वर ! पृथिवीपते ! प्रमादमूलस्यातिचारस्य संप्रति विशोधिं करोमि। तां च कुर्वन् नि_ढोस्मि निष्काशितोऽस्मि ततः आस्तामन्यक्षेत्रेऽपि यतीनामहं स्थातुंन लभेततः श्रमणप्रतिरूप्यहमिति। राजा प्राह। कस्त्वया कृतोऽतीचारः। का च तस्य विशोधिरेवं पृष्टे यत्कर्तव्यं तदाह। कहणाउट्टण आगमण-पुच्छणं दीवणा य कजस्स। वीसज्जियंति य मया, हासुस्सितो भणइ राया।। कथनं राज्ञा पृष्टस्य सर्वस्याप्यर्थस्य प्रवचनप्रभावना भवति / तत आवर्त्तनमाकम्पनं राज्ञो भक्तीभवनमिति भावः / तदनन्तरमागमनप्रच्छनमागमनकारणस्य प्रश्नः केन प्रयोजनेन यूयमत्रा--गताः स्था अत्रान्तरे येन कार्येण समागतस्तस्यदीपना प्रकाशना ततो राजा हासोत्कलितोऽतिहासेन उत्सृतो हृष्टोद्भासः स्मितो हसितमुखः प्रहृष्टश्च सन्नित्यर्थः। भणतियथा मया विसर्जितंमुत्कलितमित। अथ किं तत्कार्य यस्य राज्ञो मुत्कलनं कृतमि-त्यत आह। वायपरायणकुवितो, चेइयतहव्वसंजतीगहणे। पुटवत्तावणचउण्ह वि, कजाण हवेज अन्नयरं / / वादे पराजयेन कुपितः स्यात् / अथवा चैत्यं जिनायतनं किमपि तेनावष्टब्धं स्यात्। ततस्तस्मान्मोचनात्क्रुद्धो भवति। यदिवा तद्रव्यस्य चैत्यद्रव्यस्य ग्रहणेऽथवा संयत्या ग्रहणे ततः पूर्वोक्तानां कल्पाध्यय- | नोक्तानां चतुर्णा निर्विषयत्वाज्ञापनादीनामकार्याणा-मन्यतरत्कार्य भवेत्॥ संघो न लहति कजं, लद्धं कझं महाणुभागेण। तुमं तु विसजेमी,सो वि य संघोत्ति पूएइ॥ निर्विषयत्वाज्ञापनमुत्कलनादिलक्षणं कार्य संघो न लभते किं तेनावस्थाप्येन पाराञ्चितेन वा महानुभागेन लब्धं न च स एव कार्यलाभेऽपि गर्वमुद्वहति यत आह तुम्भंतु इत्यादि। राजा प्राह / युष्मों तु निश्चितं प्रभावेनाहं पूर्वग्राहं विसृजामिनान्यथा। सोऽपि च ब्रूते। राजन् कोऽहं कि यन्मात्रो वा गरीयान् संघो भट्टारकस्तत्प्रभावादहं किंचिद्यस्मात्संघमाहूय क्षमयित्वा च यूयमेवं ब्रूथ मुत्कलितं मया युष्माकमिति संघं पूजयति। ततः किमित्याह / / अब्भत्थितो व रण्णा, सयं च संघो विसज्जयति। आदीमज्झवसाणे, स वा विदेसो धुओ होइ / / अभ्यर्थितो वा राज्ञा संघो यदि वा संतुष्टः संघो विसर्जयति। किमुक्तं भवति। यद्व्यूढं शेषं सर्वं प्रसादेन मुक्तः सोऽग्रहस्थीभूत एवोपस्थाप्यते इति। एतदेवाह सचापि दोषो धुतः प्रकम्पितःप्रसादेन स्फेटित इत्यर्थः / आदौ मध्ये अवसाने वा भवति। राजानुवृत्तिद्वारं गतम्। इदानी प्रद्विष्टस्वगणद्वारमाह।। सगणो य पदुट्ठो से, आवण्णो तं च कारणं नत्थि। एएहिं कारणेहि य, गिहिभूते उवट्ठवणा।। (से) तस्याचार्यस्य स्वगणप्रसिद्धः सन् ब्रूते / यथाऽमुकेन कारणेनैष पाराञ्चितप्रतिपत्त्या गृहीभूतत्वमापन्न इति तच कारणं तस्याचार्यस्य नास्ति / एताभ्यां स्वगणप्रद्वेषकारणाभावलक्षणाभ्यामगृहीभूते अगृहस्थीभूतस्य उपस्थापना क्रियते एष गाथाक्षरार्थः / / भावार्थस्त्वयम् ।एगा तरुणी बहुसुयणं घेत्तुंपव्वइया। अन्नया ताए संजतीए आयरितो उ भासिओ। आयरिएणं नेच्छिया / ताहे सा पदोसमापन्ना आयरियस्स तेसिं संजए पव्वयाणं कहे इमं एस आयरिओ उवसग्गेइ। ताहे ते संजतीए नियल्लग पव्वइया आयरियस्स पउट्ठा भणंति ।एस आयरिओ पारंचिए गिहिभूतो आभवइ / ततो आयरिओ अन्नं गणं गंतु सव्वं जहट्ठियं परिकहेइ तं वावन्नं अण्णत्थं कुणह गिहियंति तवेंति। ते नाऊण पउहे माहोहिति / ते मिगस्स तरउत्ति मिच्छिच्छा मा सफला होहित्ति तोसितो अगिहिभूतो" काचित् व्रतिनी बहुस्वजनान् भासते या वान् प्रतिसिद्धा सती (छोभगमिति) अभ्याख्यानं दद्यात्कालत्रयेऽपि सप्तमीति दत्तवती तथाभ्याख्यानसंपादितं प्रायश्चित्तमन्यत्र गणे स आचार्यो बहति चेत् संयतीस्वजनाः प्रद्विष्टा ब्रूवते। कुरुतैनमाचार्यं गृहिकं गृहस्थीभूतमिति / ते वरणान्तरस्थविरास्तान्प्रद्विष्टान ज्ञात्वा मा तेषां गम्यतरः पश्चाभूदिति तेऽपि कैतवेन क्षेत्राहिस्तत्समीपे स्थितां तथा मा तेषां मिथ्यारूपा इच्छा सफला भवेदिति सोऽगृहीभूत एवोपस्थाप्यते। गतं स्वगणप्रद्विष्टद्वारम्। अधुना परमोचापनद्वारमाह। सोऊण लिंगकरणं, अणुरागेणं भणंति अगियत्थो / मा गीयं कुणह गुरुं, अह कुणह इमं निसामेह / / विद्धंसामो अम्हे, एवं ओहावणे जइ गुरूर्ण / एएहिं कारणेहिं, अगिहिभूते उवट्ठवणा / / Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा १२१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवट्ठवणा "एगो बहुसिस्सो आयरिओ पडिसेवणाए गिहिभूतत्तमावण्णो सो अचं गणं गंतुं आलोएइ / तेहिं गिहिभूतो कजिउमाढत्तो / ततो तस्स सीसा भणंतिमा अम्हं गुरुं गिहिभूयं कुणह। जइ पुण अम्हं गुरूणमेवं उहावणा कीरइ ततो अम्हे सव्वे निक्खमिस्सामो। ततो तेसिं अप्पत्तियं माहोतीति। अगिहिभूतो चेव सो उवट्ठाविजई" अक्षरगमनिका आचार्यस्य गृहिलिङ्गकरणं श्रुत्वा तस्य शिष्या अगीतार्था अनुरागेण भणन्ति / मागृहिकमस्मदीयं गुरुं कुरुत ।अथ करिष्यथ तत इदं निशामयत आकण्णयत एवमपभाजना यदि गुरूणां ततो वय (विद्धसामोत्ति) उन्निष्क्रमिष्यामः एतेन खल्वनन्तरादितेन कारणेन अगृहीभूतस्य तस्योपस्थापना / गतं परमोचापनद्वारम् इदानीं मिथ्या गणद्वयविवादे इति द्वारमाह / / अण्णोण्णेसु गणेसुं, वहंति तेसिं गुरू अगीयाणं / ते विंति अण्णमण्णं, किह काहिह अम्ह थेरत्ति / / द्वौ गणौ तयोश्च द्वयोरपिगणयोः साधवो गीतार्थास्तेषां च गुरू स्थापनाह प्रायश्चित्तस्थानमापन्नौ / नवरमेकोऽगृहीभूतोपस्थापनार्हस्तो च परस्परं गणयोः प्रतिपद्येते / तद्यथा एकोऽपरस्मिन् एवमन्योऽन्यस्य गणयोस्तेषामगीतार्थानां गुरू प्रायश्चित्तं बहतस्ते गणाः परस्परं ब्रुवते कथमस्माकं स्थविरान् करिष्यथ किंगृहीभू-तानगृहीभूताद्वा तत्रयो गृहीभूतापस्थापनार्हप्राप्तस्तप्रणान् प्रतीते ब्रुवते। गृहीभूतं करिष्यामः / / गिहिभूतेत्तिय वित्ते, अम्हेवि करोत तुब्भ गिहिभूतं / अगिहिदोनिवि मए, भणंति घेरा इमं दो वि।। नवि तुडभेगो अम्हे, अगिहितया महविणिच्छेसु / इच्छा संपूरिज्जइ, गणपत्तियकारगेहिं तु / / गृहीभूतान् करिष्याम इत्युक्ते इतरे वदन्ति वयमपि तवाचार्यं गृहीभूतं करिष्यामः तत्रैवं परस्परं विवादे तान् द्वयानपि मृगान् अगीतार्थान् भणन्ति / द्वावप्यगृहीभूतौ वयमुपस्थापयिष्यामः / इतरौ च द्वावप्याचार्याविदं ब्रूतः न वयमगृहीभूता शुद्ध्यामः तस्माद्गृहीभूताः क्रियामहे इति एवं यद्यप्यगृहीभूतोपस्थापनां ते नेच्छन्ति तथापि तेषु तथा अनिच्छत्स्वपि गणप्रीतिकारकैर्महद्भिः स्थविरैः सद्भिस्तेषां द्वयानामपि गणसाधूनामिच्छा पूर्यते द्वावप्यप्रीतिपरिहारार्थ गृहस्थीभूताबुपस्थाप्येतेइत्यर्थः / व्य० प्र०२उ०ा येषुस्थानेष्वपराधपदेषु पूर्वचरमाणां साधूनामुपस्थापना भवति तानि निरूपयितुमाह / / सा जेसि उवट्ठवणा, जेहिट्ठाणेहिं पुरिमचरिमाणं। पंचायामे धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु॥ सा उपस्थापना येषां भवति ते वक्तव्या येषु वा स्थानेष्वपराधपदेषु पूर्वचरमाणां साधूनां पञ्च यामे धर्मे स्थितानामुपस्थापना भवति तान्यपि वक्तव्यानि तत्र येषामुपस्थापना ते तावदभिधीयन्ते तत्रादेशत्रयं दश वा षट् वा चत्वारो वा उपस्थापनायाम: भवन्ति। तथा आदेशत्रिकं मे इति मया यथाक्रमं वक्ष्यमाणं शृणु।। तओ पारंचिया वुत्ता, अणवट्ठाय तिण्णि उ। दसणम्मि य मंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले / / 1 / / अदुवा वि यत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे। सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया // 2 // ये चतुर्योद्देशके त्रयो दुष्टप्रमत्तान्योऽन्यकुर्वाणाख्याः पाराञ्चि-का उक्ताः ३येच त्रयः साधर्मिकान्यधार्मिकान्यकारिहस्ततालरूपा अनवस्थाप्याः | 6 येन च दर्शनं सम्यक्त्वं केवलं संपूर्णमपि वान्तं येन चारित्रं केवलं संपूर्ण मूलगुणविराधनया वान्तं 8 अथवा यस्त्यक्तकृपः परित्यक्तसकलसंयमव्यापार आकुट्टिकयाकर्षण चाजीविकावान् पृथिवीकायादीन् समारभेत : यश्च शैक्षोऽभिनवदीक्षितः स दशमः 10 उक्तः / एतद्दशकं मन्तव्यं यस्य उपस्थापना प्रथमचरमतीर्थकरेः भणिता। द्वितीयादेशमाह। जे य पारंचिया वुत्ता, अणुवट्ठप्पा य जे विदु। दसणम्मिय वंतम्मि, चरित्तम्मिय केवले ||1|| अदुवा वि यत्तकिचे, जीवकाए समारमे। सेहे छटे मे बुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया।।२।। येचदर्शनं पाराञ्चिकाः सामान्यत उक्ताः 3 ये च विद्वांसोऽनवस्थाप्याः 4 येन च दर्शनं केवलं वान्तं 5 येन चारित्रं केवलं वान्तम् अथवा यस्त्यक्तकृत्यो जीवकायान् समारभते यश्च शैक्षाषष्ठः 6 एते षट्कं प्रतिपत्तव्यम्। यस्य उपस्थापना द्वितीयादेशे भणिता। तृतीयादेशमाह / / दंसणम्मिय वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले। वियत्तकिचे सेहे य,उवट्ठप्पा य आहिया।। दर्शने केवलं शेषे वान्ते यो वर्तते / यो वा चरित्रे केवलं वान्ते पाराञ्चिज्ञानवस्थाप्ययोस्त्रैविान्तर्भावो विवक्षितो यश्च त्यक्तकृत्यः षट्कायविराधकः यश्च शैक्ष एते चत्वार उपस्थाप्या उपस्थापनायोग्या आख्याताः। अथतेषां मध्ये उपस्थापनीयो भवतीति चिन्तायामिदमाह॥ केवलगहणकसिणं,जति वसतीदंसणं चरित्तं वा। तो तस्स उवट्ठवणा, दोसे वंतम्मि भयणा तु॥ दर्शनचारित्रपदयोर्यत्केवलं ग्रहणं कृतं ततः इदं ज्ञाप्यते यदि कृत्स्नं निःशेषमपि दर्शनं चारित्रं वा वमति ततस्तस्योपस्थापना भवति देशे देशतः पुनदर्शनचारित्रे वा वान्ते भजना उपस्थापना भवेद्वा न वा / भजनामेव भावयति / / एमेव य किंचि पदं, सुयं व असुयं व अप्पदोसेणं / अविकोवितो कहिंतो, चोदिय आउडसुद्धे तु॥ एवमेवाविमृश्य किञ्चिजीवादिकं सूत्रार्थविषयं वा पदं श्रुतं वा अश्रुतं वा अल्पदोषेण कदाग्रहाभिनिवेशादिदोषाभावे अकोविदोऽगीतार्थः कस्यापि पुरतो अन्यद्वा कथयन् आचार्यादिनामैवं वितथप्ररूपणां कार्षीरिति चोदितः सन् यदि सम्यगावर्तते तदा स मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेणैव शुद्ध इति। तच दर्शनमनाभोगेनाभोगेन वा वान्तं स्यात्।। तत्रानाभोगेन वान्ते विधिमाहअणामोएण मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते। तमेव तस्स पच्छित्तं, जं सम्म पडिवजई / / एकः श्राद्धो निह्नवान् साधुवेषधारिणो दृष्ट्वा यथोक्तकारिणः साधवः एते इति बुद्ध्या तेषां सकाशे प्रव्रजितः स चापरैः साधुभिर्भणितः किमेवं निह्रवानां सकाशे प्रव्रजितः स प्राह नाहमागमविशेषज्ञानवान् ततः स मिथ्यादुष्कृतं कृत्वा शुद्धदर्शनिनां समीपे उपसंपन्न एवमनाभोगेन दर्शन वमित्वा मिथ्यात्वं गत्वा सम्यक्त्वं पुनरागत-स्य तदेव प्रायश्चित्तं यदसौ सम्यक् मार्ग प्रतिपद्यते स एव च तस्य व्रतपर्यायो न भूय उपस्थापना कर्तव्या / / आभोगेन वान्ते पुनरयं विधिःआभोगेण य मिच्छत्तं, सम्मत्तं पुणरागते। Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठवणा 922 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणा जिणथेराण आणाए, मूलच्छेज्जंतु कारए। उवट्ठ(द्वा)वणागहण न०(उपस्थापनाग्रहण) उपस्थापनायां, यः पुनराभोगेन निहवा एते इति जानन्नपि मिथ्यात्वं सक्रान्त इति शेषः | हस्तिदन्तोन्नताकारहस्तादिभी रजोहरणादिग्रहणे, वृ०३ उ०। निहवानामन्तिके प्रव्रजित इत्यर्थः स च सम्यक् अन्येन प्रज्ञापितः सन् | उवट्ठ(हा)वणायरिय पुं०(उपस्थापनाचार्य) उपस्थापनया पुनर्भूयोऽपि यद्यागतस्थानं तं जिनस्थविराणां तीर्थकरगणभृतामाज्ञया | आचार्यः / आचार्यभेदे, स्था०४ ठा०३उ०।। मूलश्छेद्यं प्रायश्चित्तं कारयेत्। मूलत एवोपस्थापनां तपः कुर्यादिति। एवं उवट्ठ(हा)वणारिह पुं०(उपस्थापनाह) व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्ते दर्शने देशतोवान्ते उपस्थापना भजना भाजिताः। संप्रति चारित्रे देश तो वातारोपणयोग्ये , / 'पढिएय कहिय अहिगय परिहरउवट्ठावणाइ वान्ते तामेव भावयति॥ जोगोत्ति / छक्कतीहिं विसुद्धं, परिहरणवएण भेदेण // पडपासाउरमादी, छण्ह जीवणिकायाणं, अणप्पज्झो विराहओ। दिटुंता हॉति वयसामा / रुहणे जह मलिणाइसु, दोसा सुद्धाइ सुणेव आलोइय पडिक्कंते, सुद्धो हवति संजओ // मिहईपीत्यादि, एतासिंलेसुद्देसेण सीसहियट्ठयाए अत्थो भन्नइ पढियाए षण्णांजीवनिकायानां (अणप्पज्झोत्ति) अनात्मवशः क्षिप्त चित्तादिर्यदि सत्थपरिन्नाए दसकालिए छज्जीवणिकाएवा कहियाए अत्थओ अभिगयाए विराधको भवति तत आलोचितप्रतिक्रान्तोगुरूणामालोच्य सम्म परिक्खिऊण परिहरइ छज्जीव-नियाए मणवयणकाएहिं प्रदत्तमिथ्यादुस्कृतः स यतः सुद्धो भवति॥ कयकाएवियाणुमतिभेदेण तओ ट्ठाविज्जइ ण अन्नहा इमे य इत्थपडादी छण्हं जीविनिकायाणं, अप्पज्झो अविराहतो। दिट्ठता मइलो पड़ोण रंगिजइ सोहि उरंगिजइ असोहिए मूलपासाओण आलोइय पडिकंतो, मूलछेनं तु कारए / / किज्जइसोहिए किवमणाईहिं असोहिए आउरेउसह न दिजइसोहिए दिखइ असंठविए रयणे पडिबंधो न कज्जइसंठए किजति एवं पढिय कहियाईहिं षण्णांजीवनिकायानां (अप्पज्झोत्ति) स्ववशो यदिदर्पणाकु-ट्टिकया वा विराधको भवति तत आलोचितत्प्रतिक्रान्तं तं मूलश्छेद्यं प्रायश्चित्तं असोहिए सीसोण वयारोवणं कज्जइ सोहिए कज्जइ असोहिए य करणे कारयेत् वा शब्दोपादानाद्यदि तपोऽर्हप्रायश्चितमापन्नस्ततस्तपोऽर्हमेव गुरुणो दोसो सोहिया पालणे सीसस्स दोसोत्ति"।द० ४अ०।। दद्यात् तत्रापि यन्मासलघुकादिमापन्नस्तदेव दद्यात् / अथ हीनादिकं उवट्ठ(ट्ठा)वणीय त्रि०(उपस्थापनीय) आरोपणीये, स्था०३ ठा०। ददाति ततो दोषाभवन्तीति दर्शयति॥ उवठ्ठ(हा)वि(वे)त्तए अव्य०(उपस्थापयितुम्) महाव्रतेषु व्यवजं जोउ समावत्तो, जं पाउग्गं व जस्स वत्थुस्स। स्थापयितुमित्यर्थे, वृ०४ उ० / स्था० / / तं तस्स उदायव्वं, असस्सिदाणे इमे दोसा।। उवट्ठाण न०(उपस्थान) उप-स्था-ल्युट-उपेत्य स्थिती, यत्तपोह छेदा वा प्रायश्चित्तं यः समापन्नो यस्य वा वस्तुन परलोकक्रियास्वभ्युपगमे, भ०१ श०३ उ०। प्रत्यासत्तिगमने, नि०। आचार्यादेरसहिष्णुप्रभृतेर्वा यत्प्रायश्चित्तं प्रायोग्यमुचितं तत्तस्य दातव्यं व्रतस्थापने, "वीयाए छेयं तइयाए उवट्ठाणं अविहीए चेइयाई वदेत्ता' महा०७ अ०॥ वचसदृशमनुचितं ददाति ततः इमे दोषाः॥ अप्पच्छित्ते पच्छित्तुं, पच्छित्ते अतिमत्तया। उवट्ठाणकिरिया स्त्री०(उपस्थानक्रिया)०वसातदोषभेदे, ये भगवन्तः आगन्तारादिषु च ऋतुबद्धं वर्षा वा अतिबाह्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा धम्मस्सासायणा तिव्वा, मग्गस्सय विराहणा॥ द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति / अयमेयंभूतः प्रतिश्रय अप्रायश्चित्ते अनापद्यमानेऽपि प्रायश्चित्ते यः प्रायश्चित्तं ददाति प्राप्ते च उपस्थानक्रियादोषदुष्टो भवत्यतस्तत्राऽवस्थातुं न कल्पते आचा०२ प्रायश्चित्ते योऽतिमात्रमतिरिक्तप्रमाणं प्रायश्चित्तं ददाति स धर्मस्य श्रु०३अ०(वसइशब्दे सूत्रतः चैतत्स्पष्टीभविष्यति) तीव्रामाशातनां करोति मार्गस्य मुक्तिपथस्य सम्यग्दर्शनादेर्विराधनां उवट्ठाणगिह पुं०न०(उपस्थानगृह) आस्थानमण्डपे, स्था० 5 ठा० / करोति। किंच // भ०1आस्थानसभायाम्, कल्प०। उस्सुत्तं ववहरंतो, कम्मं बंधति चिक्कणं / उवट्ठाणदोस पुं०(उपस्थानदोष) नित्यवासदोषे, व्य०४ उ०। संसारं च पवखंति, मोहणिज्जं च कुय्वती॥ उवट्ठाणसाला स्त्री०(उपस्थानशाला) उपवेशनमण्डपे, नि० / उत्सूत्रं सूत्रोत्तीर्णं रागद्वेषादिना व्यवहरन् प्रायश्चित्तं प्रयच्छन् चिक्कणं आस्थानमण्डपे,ज्ञा०१ अ० / उपस्थानमण्डपे, दशा०१०अ०। गाढतरं कर्म बध्नाति। संसारं च प्रवर्द्धयति। प्रकर्षण वृद्धिमन्तं करोति। "वाहिरियाए ठवट्ठाणसालाए पाडिएक्कपाडिएक्काइजत्ताभिमुहाईजुत्ताई मोहनीयं च मिथ्यात्वमोहादिरूपं करोति इदमेव सविशेषमाह // जाणाई उवट्ठवेह" औ०। उम्मग्गदेसणाए, मग्गविप्पडिवातए। उवट्ठाणा स्त्री०(उपस्थाना) उप सामीप्येन सर्वदावस्थानलक्षणेन परं मोहेण रंजंतो, महामोहं पकुव्वइ / / तिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थाना अजादिपाठागाप्प्रत्ययः / उपउन्मार्गदेशनया च सूत्रोत्तीर्णप्रायश्चित्तादिमार्गप्ररूपणया मार्ग स्थानक्रियादोषदुष्टायां शय्यायाम्, व्य०४ उ०। यस्यां वसतौ ऋतुबद्धे सम्यग्दर्शनादिरूपं विविधैः प्रकारैः प्रतिपातयतिव्यवच्छेदं प्रापयति तत मासं वर्षाकाले चतुर्मासं च स्थिता यदि तस्यामृतुबद्धव-र्षाकाले एवं परमपि मोहेन रञ्जयन्महामोहं प्रकराति तथाव त्रिंशतिमहामो- संबन्धिकालमर्यादां द्विगुणामवर्जयित्वा भूयः समागत्य तिष्ठन्ति तदा सैव हस्थानेषु पत्त्यते"नेयाजयस्स भग्गस्स, अवगारम्मिवट्टइ" यत एवमतो वसतिरुपस्थाना / किमुक्तं भवति / ऋतुबद्धे कालं द्वौ मासौ न हीनाधिकप्रायश्चित्तं दातव्यमिति। वृ०६ उ०॥ वर्षास्वष्टमासान् अपहृत्य यदि पुनरागच्छन्ति तस्यां वसती ततः सा उवट्ठ(हा)वणाकप्पिय पुं०(उपस्थापनाकल्पिक) उपस्थापना- उपस्थाना भवति। अन्ये पुनरिदमाचक्षते। यस्यां वसतौ वर्षारात्रं स्थिता विषये, कल्पिके वृ०१ उ० (यथा सतथा दर्शितमनन्तर मेव 'उवट्ठवणा' तस्यां द्वौ वर्षारात्रौ अन्यत्र कृत्वा यदिसमागच्छन्तिततः सा उपस्थाना शब्दे) न भवति अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थाना। ग०१अधि०॥ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्ठाणा 123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवणय उउमासं समईआ, कालाईआउसा भवे सिजा। साचे व उवट्ठाणा, दुगुणदुगुणं पवजित्ता। ऋतुबद्धे मासं समतीतानि यानि वासेन उपलक्षणाद्वर्षाकाले वा चतुष्कालातीतासु कालातीतैव सा भवेच्छय्या वसतिः। अन्ये त पाठान्तरतः इत्थं व्याचक्षते। ऋतुवर्षयोः समतीता निजं कालं ऋतुबद्धे मासं वर्षाकाले चतुर इति शेषं मूलवत् / सैवोपस्याना सैव मासादिकल्पोपयक्ता उपस्थानवती भवति / कथमित्याह / तद-- द्विगुणद्विगुणमित्युभयकालसंपरिग्रहार्थं वीप्सा वर्जयित्वा प्रहृत्य मासकल्पे मासवर्जनीया वर्षावस्थाने चतुर्मासिकद्वयमिति। भावार्थः। // 13 // पं०व०(अधिकं वसइशब्दे वक्ष्यते) उपस्थितः / समाश्रिते, / सूत्र०१ श्रु०२ अ० / आश्रिते, "निम्ममत्तमुवडिओ" आतु०। सूत्र०।लग्ने, "नवट्ठिया मे आयरिया विज्जामंत तिगिच्छया" उत्त०२० अ०। प्राप्ते, "जण्णवादमुवडिओ" उत्त०१२ अ० / “आभिओगमुवट्ठिया" द०४ अ०। सम्यग् नुष्ठानं कृतवति, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। प्रत्यासन्नीभूते, स०। सामीप्येन स्थिते, आव०१० अ०। प्रव्रज्यायां प्रविव्रजिषौ, स०। प्रहीभुते, अभ्युद्यते, पा०। "अहमवि तं उवट्ठिओ तं महव्वयउच्चारणं" 503 अधि० / प्राप्तकरणावलये, पंचा०२२ विव०। उवडहित्ता त्रि०(उपदाहयितृ) उपदाहके "अगणिकायेणं कायमुवडहित्ता भवति" अग्निकायेन तप्तायसा वा कायमुपदाहयिता भवति / सूत्र०२ श्रु०२ अ० उवणंद पुं०(उपनन्द) ब्राह्मणग्रामवासिनि नन्दभ्रातरि, नन्दपाठके, श्रीवीरे प्रविष्टे नन्देन प्रतिलाभिते च / उपनन्दगृहे गोशालः पर्युषितान्नदानेन रुष्टस्तद् गृहदाहाय शशाप (वीर शब्दे चैतत्) स्थविरस्थार्यसंभूतविजयस्य द्वादश शिष्याणां द्वितीये शिष्ये। कल्प०॥ उवणगर अव्य०(उपनगर) सामीप्ये, अव्ययी भावः समासः नगरस्य सभीपे, औ०॥ उवणगरग्गाम पुं०(उपनगरग्राम) नगरस्थ समीपमुपनगरं तत्र ग्राम उपनगरग्रामः / पुरोपकण्ठे ग्रामे, "चंपारणयरीए उवणगरग्गामं उवागए" औ०। आ० चू०॥ उवणचिज्जमाण त्रि०(उपनय॑मान) नर्तनं कार्यमाणे, औ०॥ उवणमंत त्रि०(उपनमत्) प्राप्नुवति,प्रश्न० अ० 4 द्वा० / ढौक माने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०॥ उवणय न०(उपनत) नृत्यारे, तं०।। *उपनय पुं० गुणोक्ती, स्तुतौ, प्रव० 141 द्वा० / उपसंहारे दृष्टान्तदृष्टस्यार्थस्य प्रकृते योजने, // प्रव०६६ द्वा० / तथा न तथेति वा पक्षधर्मोपसंहारे, तद्यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्घटवत्तथा चायम् अनित्यत्वाभावे कृतकत्वमपिन भवत्याकाशवत्तथाऽय-मिति। सूत्र० १श्रु०१३ अ०। उपनयं वर्णयन्ति हेतोः साध्यध-र्मिण्युपसहरणमुपनय इति यथा धूमश्चात्र प्रदेश इति / 20 / नयानां समीपे उपनयाः। सद भू तव्यवहाराऽसद् भू तव्यवहारो पचरित सद - भूतव्यवहाराऽख्यनयत्रिके // तद्धेदवक्तव्यता यथाये मार्ग सरलं त्यक्त्वो-पनयात्कल्पयन्ति वै / तत्यपञ्चविबोधाय, तेषां जल्पः प्रतापये // 7 / / नया न्यायानुसारेण, नवचोपनयास्वयः। निश्चयव्यवहारौ हि, तदध्यात्ममतानुगौ ||8|| येच केचन कल्पकाः सरलं सममेतदुक्तलक्षणं मार्ग नयनिगम-पन्थानं त्यक्त्वा विमुच्य उपचारादिग्रहीतुमिच्छयोपनयान् नयानां समीपे उपनयास्तान्कल्पयन्ति दिगम्बरशास्त्रे हि द्रव्यार्थिकः 1 पर्यायार्थिकः 2 नैगमः 3 संग्रहः 5 व्यवहारः 5 ऋजुसूत्रं 6 शब्दः 7 समभिरूढः 5 एवंभूतः / इति नव नयाः स्मृताः / उपनयाश्च कथ्यन्ते नयानां समीपमुपनयाः सद् भूतव्यवहारः असद् भूतव्य-वहार उपचरितसद् भूतव्यवहारश्चेति उपनयास्त्रेधा इति / तत्प्रपञ्चस्तद्विस्तारः शिष्यबुद्धिद्वन्द्वनमात्रमेवास्ति तथापि विबोधाय समानतन्त्रत्वेन परिज्ञानाय तेषां नयानां जल्प उल्लापः प्रतायते स्वप्नक्रियाया उच्यते इत्यर्थः 7 (नयेति)न्यानुसारेण तन्मतीयग्रन्थगताभिप्रायेण नया नव सन्ति पूर्वोक्ताः ज्ञेयास्तथा उपनया-स्त्रय एवं सन्ति तेऽप्युपनयाः सद् भूतव्यवहारादयस्त्रय इति। तथा चाध्यात्माख्योऽपि मतभेदः कश्चिदस्ति तत्र च तदध्यात्ममतानुगौ तच्छैलीपरिशीलितौ नयौ निश्चयेन द्वावेव कथितौ तत्रैको निश्चयनयः 1 अपरो व्यवहारनयश्चेति २दावेवनाधिकौ। अभेदोपचारतया वस्तुनिश्चीयत इति निश्चयः यथा "जीवः शिवः जीवो, नान्तरं शिवजीवयो" रिति / भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः / यथा "कर्मबन्धौ भवेञ्जीवः कर्ममुक्तस्तदा शिवः" इति / / द्र०५ अध्या०॥ अथोपनयानां प्रकारमाह। त्रयचोपनयास्तत्र, प्रथमो धर्मधर्मिणोः। भेदाच्छुद्धस्तथाऽशुद्धः, सद्भूतव्यवहारवान्।।१।। ज्ञानं यथात्मनो विश्वे, केवलं गुण इष्यते। मतिज्ञानादयोऽप्येते, तथैवात्मगुणा भुदि॥२॥ गुणो गुणी च पर्यायः पर्यायी च स्वभावकः / स्वभावी कारकस्तद्वा-नेकद्रव्यानुगाविधा / / 3 / / तत्रेत्यधिकारसूचकविषयसप्तमीयम्। नयानां समीपमुपनया स्त्रयस्त्रिसंख्याकाः / तेषु त्रिषु प्रथम आद्यो धर्मश्च धर्मी च तयो |दस्तस्मात्। धर्मधर्मिणोरसाधारणं कारणं धर्मः सचधर्मोऽस्यास्तीति धर्मी तयोरिति द्वन्द्वसमासेन भेदात् द्विधा द्विप्रकारः / एतावता यः प्रथमभेदो धर्मधर्मि भेदाजातः सोऽपि द्विविधो ज्ञेयः / एकः शुद्धोऽपरो द्वितीयोऽशुद्धः / कथंभूतः शुद्धस्तथाशुद्धश्च सद्भूतव्यवहारवान् सद् भूयते ऽनेनेति सद्भूतः व्यवह्रियत इति व्यवहारः सद्भूतश्च व्यवहारश्व सद् भूतव्यवहारौ शुद्धाशुद्धौ तौ विद्येतेअस्येति सद्भुतव्यवहारवान् शुद्धयोधर्मधर्मिणो दाच्छुद्धसद् भूतव्यवहारः ||1|| अशुद्धधर्मधर्मिणो- दादशुद्धसद् भूतव्यवहारः।।२।। सद् भूतस्त्वेकं द्रव्यमेवास्ति भिन्नद्रव्यसंयोगापेक्षा नास्ति / व्यवहारस्तु भेदापक्षयेत्येवं निरुक्तिः / / 1 / / (ज्ञानेति (यथा विश्वे जगति आत्मनः केवलं ज्ञानं गुण इति षष्ठीप्रयोगः / इदमात्मद्रव्यस्य ज्ञानमिति तथा मतिज्ञानादयोऽपि आत्मद्रव्यस्य गुणाः इति व्यवह्रियन्ते केवलज्ञानं यद्वर्तते स एव शुद्धः आत्मास्ति 1 मत्यादयो ज्ञानानि केवलावरणविशेषिताव्यवहारा अशुद्धा लक्ष्यन्ते इति।। (गुणेति) गुणो रूपादिः गुणी घटः १पर्यायः मुद्राकुण्डलादिः पर्यायी कनकं 2 स्वभावो ज्ञानं स्वभावी जीवः 3 कारकश्चक्रदण्डादिः कारकी कुलालः 4 अथवा Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवणय 925 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवणय गुणगुणिनौ 1 क्रियाक्रियावन्तौ 2 जातिव्यक्ती 3 नित्यद्रव्यविशेषौ चेति 4 एवं एकद्रव्यानुगतभेदा उच्यन्ते ते सर्वेऽपि उपनयस्यार्था ज्ञातव्याः। अवयवावयविनौ इति अवयवादयो हि यथाक्रममवयव्याद्याश्रिता एव तिष्ठन्तेऽविनश्यन्तो विनश्यदवस्थास्त्वनाश्रिता एव तिष्ठन्ते इत्यादि।। अथासद्भूतव्यवहारं निरूपयति। असद्भूत व्यवहारो, द्रव्यादेशपचारतः। परपरिणतिश्लेष-जन्यो भेदो नवात्मकः॥४|| असद्भूतव्यवहारःसकथ्यते यः परद्रव्यस्यपरिणत्या मिश्रितः अर्थात् द्रव्यादेर्द्धर्माधर्मादरुपचारतः उपचारणात् परपरिणतिश्लेषजन्यः परस्य वस्तुनः परिणतिः परिणमनं तस्य श्लेषः संसर्गस्तेन जन्यः परपरिणतिश्लेषजन्यः। असद्भूतव्यवहारः कथ्यते। अत्र हिशुद्धस्फटिकसंकाशजीवभावस्य परशब्देन कर्म कथ्यते तस्य परिणतिः पञ्चवर्णादिरौद्रात्मिका तस्याः श्लेषोजीवप्रदेशैः कर्मप्रदेशसंसर्गस्तेन जन्यः उत्पन्नः परपरिणतिश्लोषजन्यः असद्भूतव्यवहाराख्यो द्वितीयो भेदः कथ्यते। स नवधा नवप्रकारो भवति। तथाहि द्रव्ये द्रव्योपचारः 1 गुणे गुणोपचारः 2 पर्याये पर्यायोपचारः३ द्रव्ये गुणोपचारः 4 द्रव्ये पर्यायोपचारः 5 गुणे द्रव्योपचारः 6 गुणे पर्यायोपचारः७पर्याये द्रव्योपचारः 8 पर्याये गुणोपचारः 6 इति / सर्वोऽपि असद्भूतव्यवहारस्यार्थो द्रष्टव्यः अत एवोपचारः पृथक् नयो न भवति मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते सोऽपि संबन्धाविनाभावः श्लेषः संबन्धः परिणामपरिणामिसंबन्धश्रद्धाश्रद्वेयसबन्धः ज्ञानज्ञेयसंबन्धश्चेति / भेदोपचारतया वस्तुव्यवहियते इति व्यवहारः गुणगुणिनोर्द्रव्यपर्याययोः संज्ञासंज्ञिनोः स्वभावतद्वतोः कारकततोः क्रियातद्वतोभ॑दादभेदकः सद्भूतव्य-वहारः / शुद्धगुणगुणिनोः शुद्धद्रव्यपर्याययोर्भेदकथनं शुद्धसद्भूतव्यवहारः 2 तत्र उपचरितसद्भूतव्यवहारः सोपाधिकगुणगुणिनोर्भेदविषयः / उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथाजीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः। निरुपाधिकगुणगुणिनोर्भेदको ऽनुपचारिसद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य केवलज्ञानोदयो गुणाः / 4 शुद्धगुणगुणिनोरशुद्धद्रव्यपयियोर्भेदकथनमशुद्धसद्भूतव्यवहार 5 इत्यादिप्रयोगवशाद्ज्ञेयमिति॥ अथ नवभेदानसद्भूतव्यवहारजन्यान् विवृणोति। द्रव्ये द्रव्योपचारो हि, यथा पुदलजीवयोः। गुणे गुणोपचारच, भावद्रव्याख्यलेश्ययोः॥५|| पर्याये किल पर्यायो-पचारश्च यथा भवेत्। स्कन्धा यथात्मद्रव्यस्य, गजवाजिमुखाः समे।।६।। हि निश्चितं द्रव्ये गुणपर्यायवति वस्तुनिद्रव्योपचारः द्रव्यस्य प्रस्तुतस्यो पचारः उपचरणमात्रधर्मः यथेति द्रष्टान्तः श्रीजिनस्यागमे पुद्रलजीवयोरैक्यं जीवः पुद्रलरूपः पुद्गलात्मकः अत्रजीवोपि द्रव्यं पुद्गलोऽपिद्रव्यम् उपचारेण जीवः पुगलमय एवासद्भूतव्यव-हारेण मन्यते नतु परमार्थतः यथा च क्षीरनीरयोायात् क्षीरं हि नीरमिश्रितं क्षीरमेवोच्यते व्यवहारात् / एवमत्र जीवे जीवद्रव्ये पुद्रलद्रव्यस्योपचारः 1 पुनर्गुणे गुणोपचारो गुणे रूपादिके गुणस्योपचारः यथा भावलेश्याद्रव्यलेश्यायोरुपचारः भावलेश्या हि आत्मनोऽरूपी गुणस्तस्य हि यत्कृष्णनीलादिकथनं वर्ततेतद्धि कृष्णादिपुद्गलद्रव्यजगुणस्योपचारोऽस्ति अयं हि आत्मगुणस्य पुद्गलगुणस्योपचारो ज्ञातव्यः / / 5 / / पर्याये पर्यायविषये नरत्वादिके पर्यायस्य तदादिकस्यैवोपचारः यथा आत्मा द्रव्यपर्यायस्य तदादिकस्यैवोपचारः यथा गजवाजिमुखाः पर्यायस्कन्धा उपचारादात्मद्रव्यस्व समानजातीयद्रव्यपर्यायास्तेषां स्कन्धाः कथ्यन्ते ते च आत्मपर्यायस्योपरि पुद्गलपर्यायस्य उपचरणात्स्कन्धा व्यपदिश्यन्ते व्यवहारात्। अथ द्रव्ये गुणोपचारः। द्रव्ये गुणोपचारख, गौरोऽहमिति द्रव्यके। पर्यायस्योपचारच, ह्यहं देहीति निर्णयः // 7 // यथाहं गौर इति ब्रुवतामहमित्यात्मद्रव्यम् तत्र गौर इति पुद्गलस्योज्वलताख्यो गुण उपचरितः।४।अथवा द्रव्ये पर्यायोपचारः। अथवा "अहं देहीति निर्णयः" इत्यत्र अहमिति आत्मद्रवयं तत्रात्मद्रव्यविषये देहीति देहमस्यास्तीति देही देहमिति पुद्गलद्रव्यस्य समानजातीयद्रव्यपर्याय उपचरितः॥५॥ गुण द्रव्योपचारच पर्यायेऽपि तथैव च। गौर आत्मा देहमात्मा, दृष्टान्तौ हि क्रमात्तयोः || गुणे द्रव्योपचारश्च तथा पर्याय गुणोपचारश्च / एवं द्वौ उपनयासदूतव्यवहारस्य भेदौ / अथ तयोरेवानुक्रमेण दृष्टान्तौ यथा "अयंगौरी दृश्यते स चात्मा" अत्र गौरमुद्दिश्यात्मनो विधानं क्रियते यत्तदिह गौरतारूपपुद्गलगुणोपरि आत्मद्रव्यस्योपचारपठनमिति / 6 पर्याय द्रव्येपचारो यथा 'देहमिति आत्मा" अत्र हि देहमिति देहाकारपरिणतानां पुद्गलानां पर्यायेषु विषयभूतेषु च आत्मद्रव्यस्योपचारः कृतः देहमेवात्मा देहरूपपुद्गलपर्यायविषय आत्मद्रव्यस्थापौद्रलिकस्योपचारः कृत इति सप्तमो भेदः ७"अततिसातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा'' अत्र पर्यायाणां द्रव्यभावभेदितानां गमनप्रयोगो यद्यपीष्टस्तथापि असद्भूतव्यवहारविवक्षावलेन उपचारधर्मस्यैव प्रधान्यात् बहिः पर्यायावलम्बनेन कर्मजशुभाशुभपुद्गलपरिणतगौराख्यवर्णोपलक्षित आत्मा भासते तदा गौर आत्मेति प्रतीतिर्जायते अन्यथा आत्मनः शुद्धस्याकर्मणः कुतो गौरत्वध्वनिः। अत एव उपचारधर्मो देहमात्मेत्यत्र तु औदारिकादिपुद्गलप्रणीतं देहमौदयिकेनाश्रित आत्मा उपलभ्यते तदा देहमात्मेति उपचारध्वनिः // 6 // अथाष्टमभेदोत्कीर्तनमाह। गुणे पर्यायचारश्च, मतिज्ञानं यथा तनुः। पर्याये गुणचारोऽपि, शरीरं मतिरिष्यते || गुणे पर्यायोपचारः पर्यायचार इति उपचारो वाच्यो भीमो भीमसेन इति वत्। यथा मतिज्ञानम् तदेव शरीरशरीरं शरीरजन्यं वर्तत ततः कारणात् अत्र मतिज्ञानिरूपात्मकगुणविषये शरीररूपपुद्गलपर्यायस्योपचारः कृतः 18 / अथ नवमभेदोत्कीर्तनमाह ! पर्याये गुणोपचारः यथा हि पूर्वप्रयोगजमन्यथा क्रियते यतः शरीरेतदेव मतिज्ञानरूपो गुणोऽस्ति अत्र हि शरीररूपपर्यायविषये मतिज्ञानरूपाख्यस्य गुणस्योपचारः क्रियते शरीरमितिपर्यायः तस्मिन् विषये मतिज्ञानाख्योगुणस्तस्य चोपचारः कृतः अत्र च अष्टमनवमविकल्पयोः समविषमकरणेनोपचारो विहितस्तत्रापि सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाः सहभावित्वं च द्रव्येण क्रमभावित्वमपि द्रव्येणैव ज्ञेयमतो द्रव्यस्यैव गुणाः पर्याया अपि द्रव्यस्यैव गुणपर्याययोः पर्यायगुणयोश्च परस्परमुपचारोव्यवहारः कृतः / यत्रोपचारस्तत्र निदर्शनमात्रमेव विसदृशधर्मित्वेन धर्मारोपवत् / किं च मतिज्ञानमात्मनः कश्चिदुद्धटितोगुणः शरीरंचपुगलद्रव्यस्यसमवायिकारण यथा मृत्पिण्डो घटस्य समवायिकारणमितिवत्। एवं सति उपचारो आ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवणय 925 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवणयावणयचउक्क यते परेण परस्योपचारात् स्वस्य स्वेनोपचारासंभवः यथा मृत्पिण्डस्य अथविजात्या असद्भूतव्यवहारः। घटेन, तन्तूनां पटेनेत्येवमसद्भूतव्यवहारोनवधा उपदिष्टः / उपचारबलेन विजात्या किल तं वित्त, योऽहं वस्त्रादिरद्वतः। नवधोपचाराः कृताः।। वस्वादीनि ममैतानि, वप्रदेशादयो द्विधा / / अथ तस्यैवासद्भूतव्यवहारस्य भेदत्रयं कथ्यते। विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारं प्रकटयति किल इति सत्ये त असद्भूतव्यवहार, एवमेव त्रिधा भवेत्। असद्भूतव्यवहारं विजात्या उपचरितं विजानीत यश्च अहं वस्त्रादि तत्राद्यो निजया जात्या-ऽप्यनुभूरिप्रदेशयुक्॥१०॥ अहमिति संबन्धिवचनं वस्त्रादिरिति संबन्धवचनमहं वस्त्रादिरिति असद्भूतव्यवहार एवं पूर्वोक्तरीत्यैव त्रिधा त्रिप्रकारो भवेत्तत्र त्रिषु भेदेषु | उपचरितं सर्वोऽपि व्यतिकरः असद्भूतव्यवहारः संबन्धसंबन्धिकआधो भेदो यथा परमाणुर्बहुप्रदेशी कथ्यते कथमेतत् परमाणुस्तु न्पनत्वात् अथ च तानि वस्त्रादीनि मम सन्ति अत्र हि वस्त्रादिकानि निरवयवोऽतो निरवयवस्य प्रसदेशत्वं नास्ति तथापि बहुप्रदेशानां पुद्रलपर्यायाणि ममेति संबन्धयोजनया भोज्यभोजकभोगभोगिसांसर्गिकी जातिः परमाणुरस्ति यथाहि व्यणुकत्र्यणुकादिस्कन्धादयः // कोपचारकल्पनमात्रपाणि भवन्तीति निष्कर्षः। अन्यथा वल्कलादीनां अथद्वितीयो भेदश्च। वा नेयानां पुद्रलानां शरीराच्छादनसमर्थानामपि मम वस्त्राणीति उपचारसंबन्धकल्पनं कथं न कथ्यते वस्त्रादीनि हि विजातिषु विजात्यपि स एवान्यो, यथा मूर्तिमती मतिः। स्वसंबन्धोपचरितानि सन्तीति भावः / पुनः वप्रदेशादयोऽपि द्विधेति मूर्तिमद्भिरपि द्रव्य-निष्पन्नाचोपचारतः॥११॥ व्रप्रादिरहं वप्रदेशादयो ममेति कथयता स्वजातिविजात्युपचरितासयथा स एव असद्भूतः विजात्या वर्तते यथा वा मूर्तिमती मतिः मतिज्ञानं दूतव्यवहारो भवेत् कथं वप्रदेशादयो हि जीवाजीवात्मकोभयमूर्त कथितंततु मूर्तविषयलोकमनस्कारादिकेभ्य उत्पन्नं तस्मान्मूर्तम्। समुदायरूपाः सन्ति। वस्तुतस्तु मतिज्ञानमात्मगुणः तस्य चापौगलिकस्य मूर्तिपुद्गलगुणो अथसंक्षेपमाह। पचारः कृतः सतुविजात्या असद्भूतव्यवहारः। इत्थं समे चोपनयाः प्रदिष्टाः, स्याद्वादमुद्रोपनिषत्स्वरूपाः। __अथ तृतीयमाह। विज्ञाय तान् शुद्धधियः श्रयन्तां, जिनक्रमाम्भोजयुगं महीयः।। स्वजात्याच विजात्याऽपि, असन्तस्तृतीयकः। इत्थमनया दिशा समेनयाः च पुनः उपनयाः प्रदिष्टाः कथिताः / जीवाजीवमयं ज्ञानं, व्यवहाराद्यथोदितम्॥१२॥ कीदृशास्ते स्याद्वादस्य श्रीजिनागमस्य या मुद्रा शैली तस्या स एव पुनरसद्भुतव्यवहारः स्वजात्या विजात्या च संबन्धितः कथितः उपनिषत्स्वरूपा रहस्यरूपाः सन्ति / तान् सर्वानपि विज्ञाय ज्ञात्वा यथा जीवाजीवविषयं मतिज्ञानम् अत्र हि जीवो मतिज्ञानस्य शुद्धधियः निर्मलबुद्धयः श्रयन्तामङ्गीकुर्वतां किं जिनक्रमाम्भोजयुगं स्वजातिरस्त्यात्मनो ज्ञानमयत्वात् / अजीवो मतिज्ञानस्य वीतरागचरणकमलं श्रयन्तामित्यर्थः। द्र०७ अध्या०।। विजातिरस्तिा यद्यपि मतिज्ञानादिविषयीभूतघटोऽयमितिज्ञानं तथापि उवणयणन०(उपनयन) ढौकने, सूत्र०२ श्रु०२अ०। कलाग्राहणे, भ० विजातिजडचेतनसंबन्धात् अनयोर्जीवाजीवयोर्विषयविषयिभावनामा 112011 उ०। उपनयार्थे समीपप्रापणे च / / उपचरितसंबन्धोऽस्ति स हि स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहारोऽस्ति एवम्भूतमुपनयनं कदा प्रवृत्तमित्याह। तद्भावनमेव ज्ञेयं स्वजात्यंशे किं नायं सद्भूत इति चेद्विजात्यंशे उपणयणं तु कलाणं, गुरुमूले साधुणो तवो कम्मं / विषयतासंबन्धस्योपचरितस्यैवानुभवादितिगृहाणेति व्यवहाराद्यथोदितं घेत्तुं हवंति सद्धा, केई दिक्खं पवज्जंति / / तथा विचारयेति पद्यार्थः॥ उपनयनं नाम तेषामेव बालानां कलानां ग्रहणाय गुरोः कलाचा-य॑स्य अथोपचरितासद्भूतस्य लक्षणमाह। मूले समीपे नयनम् / यदि वा धर्मश्रवणनिमित्तं साधोः सकाशे यश्चैकेनोपचारेणो-पचारो हिं विधीयते। नयनमुपनयनं तस्माच साधोद्धर्म गृहीत्वा केचित् श्राद्धा भवन्त्यपरे सस्यादुपचरिताध-सद्भूतव्यवहारकः॥१३|| लघुकणिो दीक्षां प्रपद्यन्ते एतच्चोभयमपितदा प्रवृत्तम्।आ०म०प्र०। यश्च पुनरेकेन उपचारेण कृत्वा द्वितीय उपचारो विधीयते स हि आ०५०। रा० उपचरितोपचरितो जात उपचरितासद्भूतव्यवहार इति नाम लभत उवणयाभास पुं०(उपनयाभास) हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहरणइत्यर्थः॥ मुपनयस्य लक्षणोल्लङ्घनेनोपनयवदाभासमाने, परिणामी शब्दः अथोदाहरणमाह। कृतकत्वात्यः कृतकः सपरिणामी यथा कुम्भ इत्यत्र परिणामीच शब्द स्वजात्या तं विजानीते,योऽहं पुत्रादिरस्मि वै। इति कृतकश्च कुम्भ इति / इति साध्यधर्म साध्यधर्मिणि साधनधर्म वा दृष्टान्तधर्मिण्युपसंहरत उपनयाभासः। रत्ना०। पुत्रमित्रकलत्राद्या, मदीया निखिला इमे // 14 // उवणयावणयचउक्क न०(उपनयापनयचतुष्क) षोडशवचनानां तमुपचरितासद्भूतं स्वजात्या निजशक्त्या उपचरितसंबन्धेन असद्भूत वचनचतुष्के, तथोपनयापनयवचनं चतुर्धा भवति / तद्यथा उपव्यवहारे जानीत संबन्धकल्पनं यथा अहं पुत्रादिः। अहमित्यात्मपर्यायः नयापनयवचनं तथा उपनयोपनयवचनं तथा अपनयोपनयवचनतथा पुत्रादिरिति परपर्यायः अहं पुत्रादिरिति संबन्धकल्पनम् / पुनः अपनयापनयवचनमिति। तत्रोपनयो गुणोक्तिरपनयो दोषभाषणम्। पुत्रमित्रकलत्राद्या निखिला इमे मदीयाः संबन्धिनः / अत्र अहं मम तत्र स्वरूपेयं रामा परं दुःशीला इत्युपनयापनयवचनम् / तथा चेत्यादिकथनं पुत्रादिषु तद्धि उपचरितेन उपचरितं तत्कथ पुत्रादयो हि सुरूपेयं स्त्री सुशीलेत्युपनयोपनयवचनम् / तथा कुरूपेयं स्त्री परं आत्मनो भेदाः स्ववीर्यपरिणामत्वात् अभेदसंबन्धः परम्पराहेतुत- सुशीला इत्यपनयो पनयवचनम् / तथा कुरूपेयं कु शीला योपचारितः पुत्रादयस्तु शरीरात्मकपर्यायरूपेण स्वजातिः परं तु चेत्यपनयापन-यवचनमिति / / यद्वा उपनयः स्तुतिरपनयो निन्दा कल्पनमात्रं न चेदेवं तर्हि स्वशरीरसंबन्धयोजनया संबन्धः कथितः तयोर्वचनचतुष्कम् / यथा रूपवती स्त्रीत्युपनयवचनं करूपा पुत्रादीनां तथैव मत्कुणादीनामपि पुत्रव्यवहारः कथं न कथित इति॥ | स्त्रीत्युपनयवचनं रूपवती किं तु कुशीलेत्युपनयापनयवचनं कुरू-- Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवणयावणयचउक्क 926 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवण्णासोवणय पा स्त्री किं तु सुशीलेत्यपनयोपनयववनमिति / प्रव० 140 द्वा०। / उवणिक्खित्त त्रि०(उपनिक्षिप्त) व्यवस्थापिते, "अंतलिक्ख-जायंसि उवणिक्खित्ते सिया" आचा०२ श्रु०॥ उवणिक्खेव पुं०(उपनिक्षेप) उप-नि-क्षिप-कर्मणि घञ् / रूपसंख्याप्रदर्शनेन रक्षणार्थं परस्य हस्ते निहिते द्रव्ये, स चोपनि-क्षेपो द्विधा लौकिकोलोकोत्तरिकश्च / पुनरेकैको द्विधा आत्मोप-निक्षेपः परोपनिक्षेपश्च। तत्रलौकिक आत्मनिक्षेपोये प्रगल्भास्ते आत्मनैवात्मानं राज्ञ उपनिक्षिपन्ति तिष्ठन्ति च चरणापपातकारकाः प्रपन्नशरणा ये पुनरप्रगल्भास्ते ये राज्ञो वल्लभास्तरात्मानमुपनिक्षेपयन्ति / एष परोपनिक्षेपः! लोकोत्तरिक आत्मनिक्षेपो गच्छवर्त्तिनां साधूनां तथा हि ये गच्छे एव वर्तन्ते साधवस्ते आत्मानमात्मानवाभिनवाचार्यस्योपनिक्षिपन्ति परनिक्षेपः फडुगतानां ते हि समागताः स्पर्द्धकयतिना निक्षिप्यन्ते यथा एते अहं च युष्माकमित / "इह मिथियाई अस्से कइउवसंपज्जणारिहे' इत्याधुक्तं तत्र यद्यपि सगीतार्थस्तरुणः समर्थश्चेन्द्रिय नोइन्द्रियाणां निग्रहं कर्तुं तथापि तेनान्यो गणो निश्रयितव्यो निश्रयस्य च परप्रत्ययनिमित्तं तत्रापि निक्षेपः कर्त्तव्यः। व्य० द्वि०४ उ० / उवणिग्गय त्रि०(उपनिर्गत) उपसामीप्येन निर्गतो निष्क्रान्त उपनिर्गतः / सामीप्येन निष्क्रान्ते, "उदिण्णबलवाहणे / नामेणं संजए नाम, मिगवं उवणिग्गए' / उत्त०१४ अ०। "उवणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवकोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंगकुरग्गसिहरा" उपनिर्गतैर्नवतरुणपत्रपल्लवैरत्यभिनवपत्रगुच्छैस्तथा कोमलोज्वलैश्चल द्भिः किशलयैः पत्रविशेषैः तथा सुकुमारप्रवालैः शोभितानि वराङ्कराणि अग्रशिखराणि येषान्ते तथा (वनखण्डः) औ०। उवणिमंतण न०(उपनिमन्त्रण) भिक्षो! गृहाणेदं पिण्डद्वयमित्य-भिधाने, भ०८ श०६ उ०॥ उवणिय त्रि०(उपनीत) उप-नी-तापानीयादिष्वित्।।६।१।१०१।। इति ईत इत् / ढौकिते, प्रा०॥ उवणिविट्ठ त्रि०(उपनिविष्ट) सामीप्येन स्थिते, ''तेणं तोरणा णाणामणिमएसु खंभेसु उवणिविट्ठसण्णिविट्ठा विविहमुततरोवचिता" उपनिविष्टानि सामीप्येन स्थितानि तानि च कदाचिचलानि / अथवा अपदपतितानीतिशङ्कयुरनुतत आह सम्यग् निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि ततो विशेषणसमासः उपनिविष्टसन्निविष्टानि / रा०।०॥ उवणिसया स्त्री०(उपनिषद्) वेदान्तदर्शनप्रवृत्तौ, तथाप्युपनिष-द् दृष्टि-सृष्टिवादात्मिका परा |नol उपणिहा स्त्री०(उपनिधा) उप निधानमुपनिधा धातूनामनेकार्थत्वात्। मार्गणायाम्, / क०प्र० पं०सं०। उवणिहि पुं०(उपनिधि) उपनिधीयत इत्युपनिधिः / प्रत्यासन्नं यथाकथञ्चिदानीते, / स्था० 5 ठा० / उप सामीप्येन निधिरुपनिधिः / एकस्मिन्विवक्षितार्थे पूर्वं व्यवस्थापिते, तत्समीप एवापरापरस्य आनुपूर्वीशब्दोक्तेपूर्वानुपूर्व्यादिक्रमेण निक्षेपणे, निक्षेपे, विरचने, अनु० // उवहिणिय त्रि०(उपनिहित) यथाकथञ्चिदासन्नीभूते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उपणिहियय पुं०(उपनिहितक)उपनिहितं यथाकथञ्चिदासन्नीभूतं तेन चरन्ति येते उपनिहितकाः अभिग्रहविशेषोपयुक्ते भिक्षाचरके, सूत्र०२ श्रु०२ अ० उवणीय त्रि०(उपनीत) उप-नी-क्त-उपढौकिते, उत्त० 4 अ०॥ प्रश्न०1 विशे०। सूत्र० / प्रापिते,स्था० 10 ठा० / आचा० / "कालोवणीए कंखेजा' कालेनोपनीतः कालोपनीतो मृत्युकालेनात्मवशतां प्रापितः। आचा०१श्रु०६ अ०५ उ०। उपनयं प्रापिते, 'व्य०१3०।अर्पिते, गमितं प्रदर्शितमुपनीतमर्पितमित्येकार्याः / आ०चू० 1 अ०। केनचित्कस्यचिदुपढौकिते प्रहेणकादौ, औ०। समीपं प्रापिते, उत्त० 4 अ०निकट समागते, उत्त० अ०। आसन्ने, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। उपसंहारोपनययुक्ते सूत्रगुणभेदे, / अनु०। विशे०। उप सामीप्येन नीतः प्रापितो ज्ञानादावात्मा येनस तथा। ज्ञानादावुपढौकितात्मकन, सूत्र०१ श्रु०२०। उवणीयअवणीयवयण न०(उपनीतापनीतवचन) कश्चिद्गुणः प्रशस्यः कश्चिन्निन्द्यः यथा रूपवती स्त्री किन्त्वसदृत्तेति इति प्रशस्यनिन्द्यलक्षणे षोडशवचनानामन्यतमे, आचा०२ श्रु०। उवणीयचरय पुं०(उपनीतचरक) केनचित्कस्यचिदुपढौकितस्य प्रहेणकादेरभिग्रहतश्चरके, औ०। उवणीयतर त्रि०(उपनीततर) आसन्नतरे, "इणमेव उवणीयतरागं माया मे पिया मे भाया मे" सूत्र०२ श्रु०१ अ० उवणीयरागत्त न०(उपनीतरागत्व) मालवदेशिकादिग्रामरागयु-तारूपे सप्तमे सत्यवचनातिशये, औ०। स०। रा०॥ उवणीयवयण न०(उपनीतवचन) प्रशंसावचने, यथारूपवती स्त्री इदं षोडशवचनानामष्टमम् / प्रज्ञा० 11 पद०। उवणीयावणीयचरय पुं०(उपनीतापनीतचरक) उपनीतं ढौकितं सत्प्रहेणकाद्यपनीतं स्थानान्तरस्थापितमथवोपनीतं चापनीतं च यश्चरति स तथा। अथवा उपनीतं गायकेन वर्णितगुणमपनीतं निराकृतगुणमुपनीतापनीतं यदेकेन गुणेन वर्णितं गुणान्तरापेक्षया तुद्वैषितं यथा अहोशीतलं जलं दोवर्स द्वारमित्यभिग्रहविशेषयुक्ते भिक्षाचरके, औ०॥ उवण्णत्थ त्रि०(उपन्यस्त) उपकल्पिते, दश०५ अ०।। उवण्णासपुं०(उपन्यास) उप-नि-अस्-घञ्। उपादाने, “उपन्यासश्च शास्त्रेऽस्याः, कृतो यत्नेन चिन्त्यताम्" हा०। उपन्यसनमुपन्यासः / तद्वस्त्वादिलक्षणे ज्ञातभेदे,॥ चत्तारि उवन्नासे, तव्वत्थुग अन्नवत्थुगे चेव। पडिनिभए हेउम्मि, होति इणमो उदाहरणा / / 3 / / चत्वार उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वा भेदा भवन्तीति शेषस्ते चामी सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा तथाऽधिकारानुवृत्तेश्च तद्वस्तूपन्यासः। तथा तदन्यवस्तूपन्यासः तथा प्रतिनिभोपन्यासस्तथा हेतूपन्यासश्च। तत्रैतेषु भवन्त्यमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि उदाहरणानीति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः। दश०१० / (एतद्भेदस्वरूपनिरूपणं तत्तच्छब्दे द्रष्टव्यम्) उवण्णासोवणय पुं०(उपन्यासोपनय) वादिना अभिमतार्थसा--धनाय कृते वस्तूपन्यासे तद्विघटनाय यः प्रतिवादिना विरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्यनुयोगोपन्यासो वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः / ज्ञातभेदे, उत्तररूपमुपपत्तिमात्रमपि ज्ञातभेदो ज्ञानहेतुत्वादिति / यथा अकर्तात्मा अमूर्तत्वादाकाशवदित्युक्ते अन्य आह आकाशवदेवाभोक्तेत्यपि प्राप्तमनिष्ट चैतदिति / यथा वा मांसभक्षणमदुष्टम्प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत् अत्राहान्य ओदनादिवदेव स्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति / यथा वा त्यक्तसङ्गा Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवण्णासोवणय 927 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवभोगपरिमोगप० वस्त्रपात्रादिसंग्रहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत् अत्राह कुण्डिकाद्यपिते न | उवप्पव पुं०(उपप्लव) उप-प्लु-अप् / भ्रमविषये, पु० गृह्णन्ति तद्वदेवेति तथा कस्मात्कर्म कुरुषे यस्माद्धनार्थीति इह प्रथम "विकल्पतल्पभारुढः, शेषः पुनरुपल्पवः। द्वा०२४द्वा०। ज्ञातं समग्रसाधर्म्यं द्वितीयं देशसाधर्म्य तृतीयं सदोषं, चतुर्थ | उवप्पुयट्ठाणविवजण न०(उपप्लुतस्थानविवर्जन) उपप्लुतं स्वप्रतिवाद्युत्तररूपमित्ययमेषां स्वरूपविभाग इति। इह देशतः संवादगाथा चक्रपरचक्रविक्षोभात् दुर्भिक्षमारीतिजनविरोधादेश्वास्वस्थीभूतंयत्स्थानं "चरियं चकप्पियं वा, दुविहं तत्तो चउबिहेक्कं / आहरणे तद्देसे, तद्दोसे ग्रामनगरादितस्य विवर्जन परिहरणम्। सामान्यतो गृहिधर्मभेदे, "तत्र चेव वुन्नासेत्ति // 5|| स्था०५ ठा०।" "उवण्णासोवणए चउविहे पन्नत्ते सामान्यतो गृहि-धो न्यायार्जितं धनम् / इन्द्रियाणां जय उपतं जहा तव्वत्थुतदन्नवत्थुए पडिणिभेदेहेउ' / स्था० 4 ठा०। प्लुतस्थानविवर्जनम्" अल्पत्यज्यमाने हि तस्मिन् धर्मार्थकामानां (स्वस्वस्थाने व्याख्या) पूर्वार्जितानां विनाशेन नव्यानां चानुपार्जनेनोभयलोकभ्रंश एव स्यात्।। उवण्णेउ अव्य०(उपनम्य) स्थगयित्वेत्यर्थे, वृ०१उ०। ध०१ अधि०। उवतल न०(उपतल) हस्ततलात्समन्तात्पार्वेषु, "हत्थतला उसमंता उवमुत्त त्रि०(उपभुक्त) उप-भुज-क्ताकृतोपभोगे वस्तुनि, उपपादिते, पासेसु अण्णया उवतलं भण्णत्ति" नि०यू०१उ०। आचा०१ श्रु०२१०१३०। उपभुक्तभोगे, व्य०३ उ०। उवताव पुं०(उपताप) उप आधिक्ये तप-आधारे-घ- त्वरायां | उवभोग पुं०(उपभोग) उप-भुज- घञ् / उपभोजने, आचा० भावे-घ सन्तापे, ण्यन्ततपेरच्। रोगे, मेदि०। कारणे-घञ्। अशुभे, 1 0 2 अ०३ उ० 1 उपेत्य अधिकं पुनरुपयुज्यमानतया भुज्यते पीडने, रत्ना० / उपसर्गे, शरीरपीडनोत्पादने, / / सूत्र० इत्युपभोगः पुनः पुनरुपभोग्यभवनाङ्गनादौ, "सति भुज इति भोगो, सो १श्रु०३ अ०। पुण आहारपुप्फमाईतो। उवभोगो उपुणो पुण, उवभुज्जइ भवणवलयाइ" उवतीर अव्य०(उपतीर) सामीप्यादौ अव्ययी० / तीरसामीप्यादौ, उत्त 33 अ०। उपा० / कर्म० धर्म०। आ०चू०। श्रा०। "एसणं गोयमा महातवो वतीप्पभवे" भ०५ श०५ उ०। साम्प्रतमुपभोगादिभेदमाहउवत्थम त्रि०(उपस्तीर्ण) उपशब्दः सामीप्यार्थस्तृञ् च आच्छा-- उवभोगपरिभोगवए दुविहे पण्णत्ते तंजहा भोअणओ कम्मओ दनार्थः / उपस्तु उत्पतद्भिर्नपतद्भिश्वानवरतक्रीडाशक्तैरुपर्युपर्या-- अ भोअणओ समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा न च्छादिते, "आतिणा वितिणा उवत्थडासंघडा" भ०१श०१ उ० समायरियव्वा तंजहा सचित्ताहारे 1 सचित्तपडिबद्धाहारे 2 उवत्थिय त्रि०(उपस्थित) उपनते, "दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए अप्पोलिओसहिमक्खणया सचित्तसमिस्साहारे 3 (पाठान्तरे) उवत्थिया"||स00 दुप्पोलिओसहिभक्खणया 4 तुच्छोसहिभक्खणया 5 आव० उवदंसण न०(उपदर्शन) उपनयनिगमनाभ्यां निःशङ्क शिष्यबुद्धौ 5 अ०॥ स्थापने, सकलनयाभिप्रायावतारणतः पटुप्रज्ञशिष्यबुद्धिषु व्यवस्थापने, उपभुज्यत इत्युपभोगः उपशब्दः सकृदर्थे वर्तते सकृद्भोग उपभोगः। नं०। स्था०॥ अशनपानादौ, अथवा अन्तर्भोग उपभोगः | आहारादौ, उवदसणकूडन०(उपदर्शनकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरेण नील यतो उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः। ध०२ अधिo/ आचा०॥ गन्धरूपविषये, तं०) वर्षधरपर्वतस्य द्वितीये कूटे, स्था०२ ठा०। / (पृथ्वीकायानामप्कायाना चोपभोगः पुढव्यादिशब्देषु) उवदंसिज्जमाण त्रि०(उपदर्श्यमान) लोकैरन्योऽन्यं दर्श्यमाने, ज्ञा० / उवभोगंतराय न०(उपभोगान्तराय) अन्तरायकर्मभेदे, यस्यो१३ अा . दयात्सदपि वस्त्रालंकारादिनोपभुङ्क्ते। उत्त०३३ अ०। पं०स०। कर्म० / उपदंसिय त्रि०(उपदर्शित) उप सामीप्येन यथा श्रोतृणां झटिति स०|| यथावस्थितवस्तुतत्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः दर्शितः उवभोगपरिभोगपरिमाण न०(उपभोगपरिभोगपरिमाण) उपभोगः श्रवणगोचरं नीतः / उपदिष्टे, "उवदंसिया भगवया पन्नवणा सकृद्भोगः स चाशनपानानुलेपनादीनां परिभोगस्तु पुनः पुनर्भोगः सव्वभावाणं" / प्रज्ञा० 1 पद / सकलनययुक्तिभिर्दर्शिते, / ग० सचाशनशयनवसनवनितादीनां तयोः परिमाणम् देशोत्तरगुणप्र२ अधि०। अनु०॥ त्याख्यानभेदे, भ०७श०२उ० / उपभुज्यते इत्युपभोगः / उपशब्दः *उपदर्थ्य अव्य०उपदर्शनं कृ त्वेत्यर्थे 'अंगुलीए उवदंसिय सकृदर्थे वर्तते सकृद्भोग उपभोगः अशनपानादेः अथवान्तर्भोग उपभोगः आहारादिः उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः परिभुज्यत इति परिभोगः २णिज्झाएज्जा" आचा०२ श्रु०॥ परिशब्दोऽसकृवृत्तौ वर्तते पुनःपुनर्भोगः परिभोगो वस्त्रादेः बहि गो वा उवदंसेमाण त्रि०(उपदर्शयमान) उपदर्शनं कारयति, "पुरिसक्कार परिभोगो वसनालङ्कारादेत्र परिशब्दो बहिर्वाचक इति एतद्विषयं परक्कम उवदंसेमाणे" स्था०३ठा०॥ व्रतमुपभोगपरिभोगव्रतम्। ध०२अधि०। एतावदिदं भोक्तव्यमुपभोक्तव्यं उवदीव (देशी) अन्यद्वीपे, देना०॥ वाऽतोऽन्यत्रैवं रूपे द्वितीयेऽणुव्रते, श्रा० / इदंचद्विविधं भोजनतः कर्मतश्च / उवद्दव पुं०(उपद्रव) उपद्रु-भावे-घञ् / उत्पाते, रोगारम्भके, उपभोगपरिभोगयोरासेवाविषययोर्वस्तुविशेषयोस्तदुपार्जनोपायधातुवैषम्यजनिते विकारभेदे, उपसर्गे,स्था०५ ठा०। अशिवे, वृ०४ भूतकर्मणां चोपचारादुपभोगादिशब्दवाच्यानां व्रतमुपभोगपरि उ० / मारणे, भ०८ श०७ उ०। तत्र प्रायश्चित्तं / "उवद्दवेणं खमणं भोगव्रतमिति व्युत्पत्तिः (ध०) भोगतः कर्मतश्च / भोगोऽपि द्विधा चउत्थं" महा०७ अ०॥ उपभोगपरिभोगभेदात् तत्र उप इति सकृत् भोग आहारमाल्याउवद्दवण न० (उपद्रावण) महापीडाकारणे, ध०३अधिol देरासेवनमुपभोगः / परीत्य सकृतभोगो भवनाङ्गनादीनामासेवन उवद्वविय त्रि०(अपद्रावित) उत्त्रासिते, आव०४ अ०॥ परिभोगः / तत्र गाथामाह। उवप्पयाण न०(उपप्रदान) उप-प्र-दा-ल्युट्-अभिमतार्थदान-रूपे मजम्मि य मंसम्मि य, पुप्फे य फले य गंधमल्ले य। नीतिभेदे, विपा०३ अ०। आ०म०प्र०॥ उवभोगपरिभोगे, वीयम्मि गुणव्वए निंदे / / 20 / / Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगपरिभोगप० ६२८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवभोगपरिभोगप० श्रावकेण तावदुत्सर्गतः प्रासुकैषणीयाहारिणा भाव्यम् / असति सचित्तपरिहारिणा तदसति बहुसावद्यमद्यादीन् वर्जयित्वा प्रत्येक मिश्रादीनां कृतप्रमाणेन भवितव्यम्। तत्र मद्यं मदिरा मांसं पिशितं च शब्दाच्छेसाभक्ष्यद्रव्याणामनन्तकायादीनां च ग्रहः / तानि च प्रागुक्तानि पञ्चोदुम्बर्यादीनि पुष्पाणि करीरमधुकादिकुसुमानि चशब्दात् त्रससक्तपत्रादिपरिग्रहः / फलानि जम्बूविल्वादीनि एषु च मद्यादिषु राजव्यापारादिषु वर्तमानेन यत्किं चित्क्रायणादि कृतं तस्मिन् एतैरन्तर्भोगः सूचितः बहिस्त्वयं (गंधमल्लेति) गन्धा वासाः माल्यानि पुष्पसजः अत्रोपलक्षणत्वाच्छेषभोग्यवस्तुपरिग्रहः / तस्मिन्नुक्तरूपे उपभोगपरिभोगे भीमो भीमसेन इति न्यायादुपभोगपरिभोगपरिमाणाख्ये द्वितीये गुणव्रतेऽनाभोगादिना यदतिक्रान्तं तन्निन्दामि। (ध०)। तत्र भोजनतउत्सर्गेण निरवद्याहारभोजिना भवितव्यम् कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकर्मानुष्ठानयुक्तेनेति। अत्रेयं भावना। श्रावकेण हि तावदुत्सर्गत प्राशुकैषणीयाहारभोजिना भाव्यम् तस्मिन्नसति सचित्तपरिहारः कार्यस्तस्याप्यशक्तौ बहुसावद्यान्मद्यामिषानन्तकायादीन वर्जयता प्रत्येकमिश्रसचित्तादीनां प्रमाण कार्य भणितं च "निरवजाहारेणं, 1 निज्जीवेणं 2 परित्तमीसेणं 3 / अत्ताणुसंधणपरा, सुसावगा एरिसा हंति 1" एवमुत्सवादिविशेष विनाऽत्यन्तचेतो गृघ्न्युन्मादजनापवादादि जनकमत्युद्भटवेपवाहनालङ्कारादिकर्मापि श्रावको वर्जयेन् यतः "अइरोसो अइतोसो, अइहासोदुजणेहिं संवासो। अइउन्भडोय वेसो, पंच वि गुरुअंपि लहु अंपि 1' अतिमलिनाः अतिस्थूलहस्वसच्छिद्रवस्त्रादिसामान्यवेषपरिधानेऽपि कुचेलत्वकार्पण्यादिजना पवादोपहसनीयतादिस्यादतः स्ववित्तक्यो-वस्थानिवासस्थानकुलाधनुरूपवेषं कुर्यात् / उचितवेषादावपि प्रमाणनैयत्यं कार्यम् / एवं दन्तकाष्ठाभ्यङ्गतैलोद्वर्तनमज्जनवस्त्रविलेपनाभरणपुष्पफलधूपासनशयनभवनादिस्तथौदनसूपस्नेहशाकपेयः खण्डखाद्याद्यशनपानखादिमस्वादिमादेस्त्यक्तुमशक्यस्य व्यक्त्याप्रमाणं कार्य शेषं च त्याज्यमानन्दादिसुश्रावकवत् / कर्मतोऽपि श्रावकेण मुख्यतो निरवद्यकर्मप्रवृत्तिमता भवितव्यं तदशक्तावप्यत्यन्तसावधविवकिजननिन्धक्रयविक्रयादि कर्म वर्जनीयं शेषकर्मणामपि प्रमाणं करणीयम् यतः "रंधणखंडणपीसणदलणं पयणंच एयमाईणं। निचपरिमाणकरणं, अविरइबंधोजओगुरुओ" आवश्यकचूर्णावप्युक्तम्। इह चेयं सामाचारी "भोअणओ सावगो उसग्गेण फासुगं आहारं आहारेज्जा तस्सासति अफासुगमपि सच्चित्तवज्जं तस्स असति अणंतकायबहुवीयगाणि परिहरिअव्वाणि इमं च अण्णं भोअणओ परिहरइ असणे अणंतकायं अल्लगमूलगाइमंस च पाणे मंसरसमजाइ खादिमेउ दुंबरका उंबरडपिप्पलपिलंखुमादिसादिमेमधुमक्खियादि। अचित्तं च आहारेअव्वं जदा किर ण होज्ज अचित्तो तो उस्सग्गेण भत्तंपञ्चक्खाइ ण तरइ ताहे अपवाएण सचित्तं अणंतकायं बहुबीअगवज्जं कम्मओवि अकम्माण तरइ जीविउंताहे अचंतसा वजाणि परिहरिजति त्ति"इत्थंचेदं भोगोपभोगव्रतं भोक्तुं योग्येषु परिमाणकरणेन भवति इतरेषु तुवर्जनेनेति पर्यवसितमिति च श्लोकत्रयेण वर्जनीयानाह / / चतुर्विकृतयो निन्द्या,उदुम्बरकपञ्चकम्। हिमं विषं च करका, मृजाति रात्रिभोजनम्॥३२॥ बहुबीडाज्ञातफले, सन्धानानन्तकायिके। वृन्ताकं चलितरसं, तुच्छं पुष्पफलादि च // 33 // आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं च विवर्जयेत्। द्वाविंशतिरभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासिनः॥३४|| त्रिभिर्विशेषकम् / जैनधर्मेणार्हतधर्मेणाधिवासितो भावितात्मा पुमान् (द्वाविंशतिः) द्वाविशतिसंख्याकान्यभक्ष्याणि भोक्तुमनर्हाणि वर्जयेत् त्यजेदिति तृतीयश्लोकान्तेन संबन्धः। तानेवाह। (चतुर्वि-कृतय इति) चतुरवयवा विकृतयश्चतुर्विकृतयः शाकपार्थिवादित्वात्समासः कीदृश्यस्ता निन्द्याः सकलशिष्टजननिन्दाविषया मद्यमांसमधुनवनीतलक्षणा इत्यर्थः / तद्वर्णानेक जीवसम्मूर्च्छनात् / तथा चाहुः "मज्झे महुम्मि मंसम्मि, नवणीए चउत्थए। उप्पज्जंति चयंति अतव्वण्णा तत्थ जंतुणो"१ परेऽपि "मद्ये मांसे मधूनि च, नवनीते चतुर्थके। उत्पद्यन्ते विलीयन्ते, सुसूक्ष्मा जन्तुराशय'इति / तत्र मद्यं मदिरा तच द्विधा काष्ठा-निष्पन्नंपिष्टनिष्पन्नं चेति। एतच बहुदोषाश्रयान्महानर्थहेतुत्वाच त्याज्यं यदाह "गुरुमोहकलहनिद्दा, परिभवउवहासरोसंभवहेऊ। मज्जे दुग्गइमूलं, हिरिसिरिमइधम्मनासकरं।।१।। तथा "रसोद्भवाश्च भूयांसो, भवन्ति किल जन्तवः। तस्मान्मान पातव्यं, हिंसापातकभीरुणा।।२।। दत्तं न दत्तमात्तंच, नातं कृतमथा कृतम्।मृषोद्यराज्यादिवहास्वैरं वदति मद्यपः / / 3 / / गृहे बहिर्वा मार्गे वा, परद्रव्याणि मूढधीः / वधबन्धादिनिर्भीको, गृह्णात्याच्छिद्य मद्यपः॥४॥ वालिकां युवतीं वृद्धा, ब्राह्मर्णा श्वपचामपि। भूक्ते परस्त्रियं सद्यो, मद्योन्मादकदर्थितः / / 5 / / विवेकः संयमो ज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा। मद्यात्प्रलीयते सर्वं तृण्या वह्निकणादपि / / 6 / / श्रूयते किल शाम्वेन, मद्यादन्धकविष्णुना / हृतं वृष्णिकुलं सर्व , प्लोषिता च पुरी पितुः // 7 // ' मांसं च त्रेधा जलचरस्थलचरसचरजन्तूद्र-वभेदाचर्मारुधिरमांसभेदाद्वा / तद्भक्षणमपि महापापमूलत्वाद्वयं यदाहुः "पंचिदियबहभूअं, मंसं दुगंधमसुइनीमच्छं। रइसपरितुलिष्टाभक्खग-मामयजयणं कुगइ मलं // 1 // " आमासु अ पक्कामुअ, विपच्चमाणासु मंसपेसीसु / सययं चिअ उववाओ, भणिओ अ, निगोअजीवाणं" // 2 // योगशास्त्रेऽपि / सद्यः सम्मू-ञ्छितानन्तजन्तुसंतानदूषितम्। नरकाध्वनि पाधेयं, कोऽश्नीयात्पिशितं सुधीः // 3 // " सद्योहि जन्तुविशसनकाल एव सम्मूञ्छिता उत्पन्ना अनन्ता निवोदरूपाये जन्तवस्तेषां सन्तानः पुनःपुनर्भवनं तेन दूषितमिति तद्वृत्तिः मांसभक्षकस्य च घातकत्वमेव। यतः 'हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ताभक्षकस्तथा। क्रेतानुमन्तादाताच, धातका एव यन्मनुः 4 तथा भक्षकस्यैवान्यपरिहारेण बन्धकत्वं यथा "ये भक्षयन्त्यन्यपलं, स्वकीयपलपुष्टये। त एवघातका यन्न, वधको भक्षकं विना५" इति मधु च माक्षिकं 1 कौत्तिकं 2 भ्रामरं 3 चेति त्रिधा इदमपि बहुप्राणिविनाशसमुद्भवमिति हेयम् / यतः "अनेकजन्तुसंघातनिघातनसमुद्भवम्। जुगुप्सनीयं लालावत्कः स्यादयति भाक्षिकमिति'' नवनीतमपि गोमहिष्यजाविसंबन्धेन चतुर्दा तदपि सुक्ष्मजन्तुराशिखानित्वात्त्याज्यमेव। यतः “अन्तर्मुहूर्तात्परतः सुसूक्ष्माजन्तुराशयः। यत्र मूर्च्छन्ति तन्नाद्यं, नवनीतं विवेकिभिरिति। 4aa तथा उदम्बरकेणोपलक्षितंपञ्चकंवट 1 पिप्पलो२दुम्बर ३प्लक्ष 4 काकोदुम्बरी 5 फललक्षणं उदुम्बरकपञ्चकं मशकाकारसूक्ष्मबहुजीवनिचितत्वाद्वर्जनीयम् / ततो योगशास्त्रे "उदुम्बरवटप्लक्षकाकोदुम्बरशाखिनाम् / पिप्पलस्य च नाश्नीयात्फलं कृमिकुलाकुलम्। 1 लोकेपि' "कोऽपि क्वापि कुतोऽपि कस्यचिदहो चेतस्यकस्माज्जनः, केनापि प्रविशत्युदुम्बरफलप्रा Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगपरिभोग 929 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवभोगपरिभोग णि क्रमेण क्षणात्। येनास्मिन्नपि पाटिते विघटिते विस्फोटितेत्रोटिते, निष्पिष्ट परिगालिते विदलिते निर्यात्यसौ वा न वा 6 तथा हिमं तुहिनं तदप्यसंख्येयाप्कायरूपत्वात्त्याज्यम् 10 विषमहिकेनादिमन्त्रोपहतवीर्यमप्युदरान्तवर्तिगण्डोलकादिजीवधातहेतुत्वान्मरणसमये महामोहोत्पादकत्वाच हेयम् 11 करका द्रवीभूता आपः / असंख्याप्कायित्वाद्वाः // नन्वेवमसंख्याप्का-यित्वेनाऽभक्ष्यत्वे जलस्याप्यभक्ष्यत्वापत्तिरिति चेत्सत्यम् / असंख्यजीवमयत्वेऽपि जलमन्तरा निर्वाहाभावान्न तस्य तथोक्तिः 12 तथा मृजातिः सर्वा अपि मृत्तिका दर्दुरादिपञ्चेन्द्रियप्राण्युत्पत्तिनिमित्तत्वादिना मरणाघनर्थकारित्वात् त्याज्याः। जातिग्रहणं खटिकादिसूचकं तद्भक्षणस्यामाश्रयादिदोषजनकत्वात् / मृद्ग्रहणं चोपलक्षणं तेन सुधाद्यपि वर्जनीयं तद्भक्षकस्यान्त्रशाटाद्यनर्थसंभवात् मृगक्षणेचासंख्येयपृथिवीकायजीवानां विराधनाद्यपि लवणमप्यसंख्यपथिवीकायात्मकमिति सचित्तं त्याज्यं प्रासुकं ग्राह्यं प्रासुकत्वं चाग्न्यादिप्रवलशस्त्रयोगेनैव नान्यथा तत्र पृथिवीकायजीवानामसंख्येयत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात् तथा च पञ्चमाङ्गे 16 शतकतृतीयोद्देशके निर्दिष्टोऽयमर्थः वज्रमप्यां शिलायां स्वल्पपृ-थिवीकायस्य वज्रलोटकेनैकविंशतिवारान्पेषणे सत्थेके केचन जीवा ये स्पृष्टा अपि नेति 13 तथा रात्रौ नक्तं भोजनं भुक्तिः रात्रिभोजनं तदपि हेयं बहुविधजीवसंपातसंभवेनैहिकपारलौकिकानेकदोषदुष्टत्वात् यदभिहितं "मेहं पिपीलिआओ , हणंति वमणं च मच्छिआ कुणइ। जूआ जलोदरतं, कोलिअओ कोट्ठरोगं च ||1|| वाला सरस्स भंग, कंटोलगाइगलम्मि दारुंच। तालुम्मि विंधइअली, वंजणमञ्जम्मि भुजंतो 2" व्यञ्जनमिह वार्ताकशाकरूपमभिप्रेतं तदृन्तं च वृश्चिकाकारमेव स्यादिति वृश्चिकस्यासूक्ष्मस्यापि तन्मध्यपतितस्यालक्ष्यत्वादोज्यता संभवतीति विशेषः। निशीथचूर्णावपि "गिहकोइलअवयवसम्मिस्सेण भुरोण पोट्टे किल गिहकोइला संमुच्छंति'' एवं सदिलालामलमूत्रादिपाताद्यपि" तथा "मालिंति महिअलं जामिणीसु रयणी य रायमंतेणं। ते वि च्छलंति हु फुडं, रयणीए भुंजमाणं तु // 1 // अपि च निशाभोजने क्रियमाणे अवश्यं पाकः संभवी / तत्र षट् जीवनिकायवधोऽवश्यंभावी भाजनधावनादौ च जलगतजन्तुनाशः जलोज्झनेन भमिगतकुन्थुपिपीलिकादिजन्तुधातश्च भवति तत्प्राणिरक्षणकाडयाऽपि निशाभोजनं न कर्तव्यम्। यदादुः "जीवाणकुंथुमाईण,घायणं भाणधोअणाईसुं।एमाइ स्यणिभोयणदोसे को साहिलं तरइ // 1 // " यद्यपि च सिद्धमोदकादिखजूरद्राक्षादिभक्षणे नास्त्यन्नपाको नच भाजनधावनादिसंभवस्तथापि कुन्थुपनकादिसंघातसंभवात्तस्यापि त्याग एव युक्तो यदुक्तं निशीथभाष्ये "जदवि हु फासुगदव्वं, कुंथुपणगा तहावि दुप्पस्सा / पञ्चक्खणा णो वि हु, राईभत्तं परिहरंति / / 1 / / जइ वि हु पिपीलिगाई, दीसंति पइवमाईउज्जोए। तह वि खलु अणाइन्नं, मूलवयविराणाजण्णं ||2|" एतत्फलंच "उलूककाकमार्जारगृध्रशम्बरशूकराः। अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात्' परेऽपि पठन्ति "मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल / अस्तंगते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम्।।१।। रक्तीभवन्ति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च। रात्रौ भोजनशक्तस्य , ग्रासे तन्मांसभक्षणम् / / 29 / स्कन्दपुराणे रुद्रप्रणीतकपालमोचनस्तोत्रे सूर्यस्तुतिस्तोत्रेऽपि " "एकभक्ताशनान्नित्यमग्निहोत्रफलं लभेत् / अनस्तभोजने नित्यं, तीर्थयात्राफलं भवेत् // 1 // ' तथ'नैबाहुतिर्न च | स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम्। दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनन्तु विशेषतः सा" आयुर्वेदपि। "हन्नाभिपद्मसङ्कोच-श्वण्डरोचेरपायतः। अलो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि // 3 // " तस्माद्विवेकिना रात्री चतुर्विधोऽप्याहारः परिहार्यस्तदशक्तौ त्वशनं खादिमं च त्याज्यमेव स्वादिमं पूगीफलाद्यपि दिवा सम्यक् शोधनादियतनयैव गृह्णात्यन्यथा त्रसहिंसादयोऽपि दोषाः मुख्यवृत्या च प्रातः सायं च रात्रिप्रत्यासन्नत्वाद् द्वेद्वे घटिके भोजनं त्यजेद्यतो योगशास्त्रे "अहो मखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् / निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् / / 1 / / " अत एवागमे सर्वजघन्यं प्रत्याख्यानं मुहूर्तप्रमाणं नमस्कारसहितमुच्यते जातु तत्तत्कार्यव्यग्रत्वादिना तथा न शक्नोति तदापि सूर्योदयास्तनिर्णयमपेक्षत एवातपदर्शनादिनाऽन्यथा रात्रिभोजनदोषः। अन्धकारभवनेऽपि वीडया प्रदीपाकरणादिना त्रसादिहिंसानियमभङ्गमायामृषावादादयोऽधिकदोषा अपि यतः "न करेमित्ति भणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो पावं / पचक्खमुसावाई, मायानियडी पसंगो अ।१। पायं काऊण सम, अप्पाणंसुद्धमेव वाहरइ दुगुणं करेइ पावं, वीअंबालस्स मंदत्तं 2" तथा बहुवीजेति बहुवीजं च अज्ञातफलं चेतिद्वन्द्वस्तत्र बहूनि वीजानि वर्तन्ते यस्मिन् तद्हुवीजं पम्पोटकादिकमभ्यन्तरपुटादिरहितं के वलं बीजमयं तच्च प्रतिवीजं जीवोपमर्दसंभवाद्वर्जनीय यचाभ्यन्तरपुटादिसहितबीजमयं दाडिमटिण्डूरादि तन्नाभक्षतया व्यवहरन्ति 15 अज्ञातं च तत्फलं चेति कर्मधारयः अज्ञातफलं स्वयं परेण वा यद् न ज्ञातफलमुपलक्षणत्वात्पत्रं तदभक्ष्यं निषिद्ध-फले विषफले वा अज्ञानात्प्रवृत्तिसंभवात् / अज्ञानतो हि प्रतिषिद्धे फले प्रवर्तमानस्य व्रतभङ्गः विषमफले तु जीवितविनाशः 16 तथा संधानं चानन्तकायिक चेति द्वन्द्वस्तत्र संधानं निम्बक विल्वकादीनामने कसंसक्तिनिमित्तत्वाद्वयं संधानस्य च व्यवहारवृत्त्या दिनत्रयात्त्परतोऽभक्षत्यामाचक्षते / योगशास्त्रवृत्तावपि 'संधानमात्रफलादी-नां यदि संसक्तं भवेत् / तदा जिनधर्मपरायणःकृपालुत्वात्त्यजेदिति / 17 / अनन्ताः कायिका जीवा यत्र तत् अनन्तकायिकम् / अनन्तजन्तुसन्ताननिपातननिमित्तत्वात् वय॑म् (ध०) (अनन्तकायिकव्याख्या स्वस्थाने उक्ता) अन्यद-प्यभक्ष्य चाचित्तीभूतमपि परिहार्य निः शूकतालौल्यवृद्धयादिदो--षसंभवात् परंपरया सचित्ततद्ग्रहणप्रसङ्गाच यथोक्तम् "इक्केण कयमकलं, करेइ तप्पचया पुणो अन्नो / सायाबहुलपरंपर-वुच्छेओ संजमतवाणं / 1 / " अतएवोत्कालितसेल्लरकराद्धाकसूरण-वृन्ताकादि प्रासुकमपि सर्व वयं मूलकस्तुपञ्चाङ्गोऽपि त्याज्यः। शुण्ठ्यादितुनाम स्वेदभेदादिना कल्पते इति श्राद्धविधिवृत्तौ।१८। तथा वृन्ताकं निद्राबाहुल्यमदनोद्दीपनादिदोषपोषकत्वात्त्याज्यम् / पठन्ति च परेऽपि च "यस्तु वृन्ताककालिङ्गमूलकानां च भक्षकः / अन्तकाले समूढात्मा, न स्मरिष्यति मां प्रिये' इति / 16 / तथा चलितो विनष्टो रसः स्वाद उपलक्षणत्वाद्वर्णादिर्थस्य तचलितरसंकुथितान्नपर्युषितद्विदलपूपिकादि के वलजलराद्धपूधनेकजन्तुसंसक्तत्वात् पुष्पितौदनपक्वान्नादिदिनद्वयातीतदध्याद्यपि च तत्र पक्वान्नाद्याश्रित्य चैवमुक्तम् / "वासासु पन्नरदिवसं , सीउण्हकालेसु मासदिणवीसं / उग्गाहिमं जईणं, कप्पइ आरहभ पढम दिणे" केचित्त्वस्या गाथाया अलभ्यमानस्थानत्यं वदन्तो यावगन्धरसादिनान विनश्यतितावदवगाहिमंशुद्ध्यतीत्याहुः दिनद्वयातीते दध्न्यपि जीवसंसक्तिर्यथा "जइ मुग्गमासमाई, विदलं कचम्मि गोरसे पडई। ता तसजीवुप्पत्ति, भणंतिदहिएविदुदिणुवरि"१ हारिभद्रदशवैकालिकवृत्तावपि रसजास्तक्रारनालदधितेमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्तीति दध्यहर्द्वितयातीतमिति / / है ममपि / 20 / Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगपरिभोग 630- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवभोगपरिभोग तथा तुच्छं असारं पुष्पं च फलं च ते आदौ यस्य तत् पुष्पफलादि। चः समुच्चये आदिशब्दान्मूलपत्रादिपरिग्रहस्तत्र तुच्छं पुष्पमरणिकरीरशिगूमधूकादिसंबन्धि तुच्छं फलम् / मधूकजम्बूटीवरूपीलुपक्वकरमदेङ्गुदीफलपिचुमकुरवालओलिवृहद्दरकच्चकुटुिंभ-- डस्वसखसादि 2 प्रावृषि तन्दुलीयकादेश्च पत्रं बहुजीवसंमिश्रितत्वात् 3 त्याज्यम् / अन्यदप्येतादृशं मूलादि यद्वाऽर्द्धनिष्पन्नकोमलचवलकमुद्गसिम्बादिकम् / तद्भक्षणे हि न तथाविधतृप्तिर्विराधना च भूयसी 21 तथा आमेति आमं च तद्रोरसं च आमगोरसं तत्र संपृक्तमामगोरससंपृक्तम् / कच्चदुग्धदधितक्रसंमिलितम् / तद्विदलं केवलिगम्यसूक्ष्मजीवसंसक्तिसंभवात् हेयम् / उक्तं च संसक्तनिर्युक्तादौ "सव्वेसु विदेसेसुं, सव्वेसु विचेव तह य कालेसु। कुसिणेसु आमगोरसजुत्तेसु निगोअपंचिंदी" द्विदल लक्षणं त्वेक्माहुः "जम्मि उ पीलिज्जंते, नेहो नहु होइ बिंति तं विदलं / विदले विहु उत्पन्नं, नेह जुअं होइ नो विदलं" 1 इह हीयं स्थितिः केचिद्भावा हेतुगम्याः केचित्त्वागमगम्याः। तत्र ये यथा हेतुगम्यास्ते स्तवप्रवचनधरैः प्रतिपादनीयाः आगमगम्येषु हेतून हेतुगम्येषुत्वागममात्र प्रतिपादयन्नाहाविराधकः स्यात्। यतः 'जे हेउवायपक्खम्मि, हेउओ आगमे अ आगमिओ। सो समयपन्नवओ, सिद्धतविराहओ अन्नो" इति / आमगोरससंपृक्तद्विदले पुष्पितौदने अहतियातीते दध्नि कुथितान्नेचन हेतुगम्यो जीवसद्भावः कित्वागमगम्य एव तेन तेषु येजन्तवस्ते केवलिभिर्दृष्टा इतिद्वाविंशति अभक्ष्याणि वर्जयेदिति पूर्वं योजितमेवेति श्लोकत्रयार्थः। योगशास्त्रे तुषोडशवर्जनी यानि प्रतिपादितानि यथा "मद्यं मांसं नवनीतं, मधूदुम्बरपञ्चकम् / अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् / 1 / आमगोरससंपृक्तद्विदलं पुष्पितौदनम् / दध्यहतियातीतं , वथितान्नं च वर्जयेत् / / अन्यसकलाभक्ष्यवर्जन चाजन्तुमिश्रंफलंपुष्पं, पत्रं चान्यदपित्यजेत्। संधानमपि संसक्तं, जिनधर्मपरायणः / 3 / इति संग्रहश्लो-केनोक्तम् / अत्र च सप्तमव्रते सचित्ताचित्तमिश्रव्यक्तिः श्राद्धविध्युक्ता पूर्वं सम्यक् ज्ञेया युज्यते यथा चतुर्दशादिनियमाः / सुपाल्या भवन्तीति / / (ध०) (अचित्तव्यक्तिः स्वस्थाने) एवं सचित्ताचित्ता-दिव्यक्तिं ज्ञात्वा सप्तमव्रतं नामग्राहं सचित्तादिसर्वभोग्यवस्तुनैय-त्यकरणादिना स्वीकार्य यथानन्दकामदेवादिभिः स्वीकृतं तथा करणाशक्तौ तु सामान्यतोऽपि सचित्तादिनियमा कार्यास्ते चैवम् / / सचित्त 1 दव्व 2 विगइ 3 वाणह 4 तबोल 5 वत्थ ६कुसुमेसु 7 / वाहण 8 सयण : विलेवण 10 बंभ 11 दिसि 12 न्हाण 13 भत्तेसु 14 // १तत्र मुख्यवृत्त्या सुश्रावकेण सचित्तं सर्वथा त्याज्यं तदशक्तौ नामग्राह तथाऽप्यशक्तौ सामान्यत एकट्यादिनियम्यं यतः "निरवजाहारेणं" इति पूर्वलिखितागाथे परं प्रतिदिनैकसचित्ताभिग्राहिणो हि पृथक् दिनेषु परावर्तनेन सर्वसचित्तग्रहणमपि स्यात्तथा च न विशेषविरतिः नामग्राहं सचित्ताभिग्रहे तु तदन्यसर्वसचित्तनिषेधरूपयावज्जीवस्पष्टमेवाधिक फलम् उक्तंच "पुप्फफलाणंच रस, सुराइमंसाणमहिलिआणं च।जाणंता जे विरया, ते दुकरकारए वंदे" सचित्तेष्वपि नागवल्लीदलानि दुस्त्यजानि शेषसचित्तानां प्रायः प्रासुकीभवनं स्वल्पकालमध्येऽपि दृश्यते एषु तु निरन्तरं जलक्लेदादिना सचित्ततासुस्थैव कुन्थ्वादिविराधनापि भूयसी च तत एव पापभीरुणा त्याज्यानि अन्यथाऽपि रात्रौ न व्यापार्याणि रात्रिवयापारिणोऽपि दिवा | संशोधनादियतनाया एव मुख्यता ! ब्रह्मचारिणा तु कामाङ्गत्वात्त्याज्यान्येव सचित्तभक्षणे दोषस्तु अनेकजीवविराधनारूपः यतः प्रत्येकसचित्तेऽप्येकस्मिन् पत्रफलादावसंख्यजीवविराधनासंभवः यदागमः "जं भणि पजत्तग, निस्साए वुक्कमंत अपज्जत्ता / जत्थेगो पज्जत्तो, तत्थ असंखा अपज्जत्ता" बादरेष्वेकेन्द्रियेष्वेवमुक्तं सूक्ष्मेषु तु यत्रैकोऽपर्याप्तस्तत्र तन्निश्राया नियमादसंख्याः पर्याप्ताः स्युरित्याचारानवृत्त्यादौ प्रोक्तम् / एवमेकस्मिन्नपि पत्रादावसंख्यजीवविराधना तदाश्रितजलनील्यादि संभवे त्वनन्ता अपि जलवणादि वाऽसंख्यजीवात्मकमेव यदार्षम् / “एग्गम्मि उदगविदुम्भि, जे जीवा जिणवरेहिं पण्णत्ता। ते जइ सरिसवमित्ता, जंबूदीवे न मायति / 1 / अद्दामलप्पमाणे, पुढविक्काये हवंति जे जीवा। ते पारेवयमित्ता, जंबुद्दीवे नमायंति" सर्वसचित्तत्यागेऽम्बड़परिव्राजकसप्तशतशिष्यनिदर्शनम्। एवं सचित्तत्यागे यतनीयमिति प्रथमनियमः // सचित्तविकृतिवर्ज यन्मुखे क्षिप्यते तत्सर्वं द्रव्यं क्षिप्रचटीरोट्टिकानिर्विकृतिकमोदकलपनश्रीपर्पटिकाचूरिमकरम्बक क्षैरेय्यादिकं बहुधान्यादिनिष्पन्नमपि परिणामान्तराद्यापत्तेरेकैकमेव द्रव्यमेकधान्यनिष्पन्नान्यपि पूलिकास्थूलरोट्टकमण्डकपर्परकघूघरीटोकलथूलीबाटकणिकादीनि पृथक् 2 नामा स्वादवत्त्वेन पृथक् 2 द्रव्याणि फलफलिकादौ तु नामैक्ये भिन्नास्वादव्यक्तेः परिणामान्तराभावाच्च / बहुद्रव्यत्वमन्यथा या संप्रदायादिवशा...व्याणि गणनीयानि धातुमयशिलाकाकारागुल्यादिकं द्रव्यमध्ये न गणयन्ति 2 विकृतयो भक्ष्याः षट् दुग्ध 1 दधि 2 घृत 3 तैल 4 गुड 5 सर्वपक्वान्न 6 भेदात् 3 (वाणहत्ति) उपानद्युग्म मोचकयुग्मं वा काष्ठपादुकादि तु बहुजीव-विराधनाहेतुत्वात्त्याज्यमेव श्रावकैः 4 ताम्बूलपत्रपूगखदिरवटिका कत्थकादिस्यादिमरूपम्।। वस्त्रं पञ्चाङ्गादिर्वेषः धौतिकपौतिकरात्रिवस्त्रादिवेषेन गण्यते।६। कुसुमानि शिरःकण्ठक्षेपशय्योच्छीर्षकाद्याँणि तन्नियमेऽपि देवशेषाः कल्पन्ते।७। वाहनं रथाश्वादिः शयनं खटादि विलेपनं भोगार्थं चन्दनाञ्जनादिचूअ कस्तूर्यादि तन्नियमे देवपुजादौ तिलकस्वहस्तकङ्कणधूपनादि कल्पते |10| अब्रह्म दिवा रात्रौ पत्न्याद्याश्रित्य 11 दिक् परिमाण सर्वतोऽमुकदिशि वा इयदवधिगमनादिनियमनम् / 12 / स्नानं तैलाभ्यङ्गादिपूर्वकं देवपूजार्थं करणेन नियमभङ्गःलौकिकका-रणे च यतनारक्ष्या।१३। भक्तराद्धधान्यसुखभक्षिकादिसर्वं त्रिचतुः सेरादिमितं खरवूजादिग्रहणे बहवोऽपि सेराः स्युः / 14 / एतदुपलक्षणत्यादन्येऽपि शाकफलधान्यादिप्रमाणारम्भनयत्यादिनियमा यथाशक्ति ग्राह्या इत्युक्तं भोगोपभोगव्रतम्॥ध०३ अधि०। इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमित्यतोऽस्यैवातिचारानभिधित्सुराह // भोअणओ समणोवासएणं इमे पंच अइआरा जाणिअव्वा न सामायरिअव्वा तं जहा सचित्ताहारे 1 सचित्तपडिबद्धाहारे 2 अप्पोलिओसहिभक्खणयासचित्तसम्मिस्साहारे (पाठा-न्तरम्) 3 दुप्पोलिओसहिभक्खणया 4 तुच्छों सहि-भक्खणया। भोजनतो यद् व्रतमुक्तं तदाश्रित्य श्रमणो पास के नापि पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्यास्तद्यथा सचित्ताहारः चित्त चेतना संज्ञान उपयोगोऽवधानमिति पर्यायाः सचित्तश्चासावाहारश्च 2 सचित्तो वाहारो यस्य सचित्तमाहारयतीति वा मूलकन्द कार्द्रकादिसाधारणप्रत्येकरुशरीराणि सचित्तानि सचित्तं पृथिव्याधाहारयतीति भावना / तथा सचित्तप्रतिबद्धाहारो यथा वृक्षप्र Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगपरिभोग 131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवभोगपरिभोगाइरित्त तिबद्धो गोदादिपक्चफलानि वा तथा अपक्कौषधिभक्षणत्वमिदं च प्रतीतं नन्वपक्कौषधयो यदि सचेतनास्तदा सचित्तमित्यादिपदेनैवोक्तार्थसचित्तसन्मिश्राहार इति पाठान्तरं सचित्तेन सन्मिश्र आहारः त्वात्पुनर्वचनमसंगतमथा चेतनास्तदाकोऽतिचारो निरवद्यत्वासचित्तसन्मिश्राहारः वल्ल्यादिपुष्पादिना सन्मिश्र तथा दुष्पक्का- त्तद्भक्षणस्येति सत्यम् किं त्वाद्यावतीचारौ सचेतनकन्दफलादिषधेर्भक्षणतो दुष्पक्वा अश्विन्ना इत्यर्थः तद्भक्षणता / तथा तुच्छौष-- विषयावितरेतुशाल्याद्यौषधिविषया इति विषयकृतो भेदोऽतएव मूलसूत्रे धिभक्षणतातुच्छा ह्यसारा मुद्गफलीप्रभृतयः अत्र महती विराधना अल्पा "अप्पउलिओसहिभक्खणये" त्याद्युक्तं ततोऽनाभोगा-तिक्रमादिनाsच तुष्टिर्बहीभिरप्यैहिकोऽप्यपायः संभाव्यते। "एत्थ संगर-कायगो पक्वौषधिभक्षणमतिचारोऽथवा कणिक्कादेरपक्वतया संभवत्सचित्ताउदाहरणम्- एगोखेत्तरक्खगोसे गाओखाइराया निग्गओ खायंतंपेच्छइ वयवस्य पिष्टत्वादिनाऽचेतनमिदमिति बुद्ध्या भक्षणं व्रतसापेक्षत्वादततोपडिएइ तो खायइ रन्नो कोउग्गेण पोट्ट फालियं केतियाओ खाइयाओ तिचारः ।दुष्पक्कै षधिभक्षणभावना तुपूर्वोक्तव तुच्छौषधिभक्षणे त्वित्थं होजति नवरि फेणं अन्नं न किंचि अस्थि एव्व भोजनत" इति गतम् / न तुच्छौषधयोऽपक्काः दुष्पक्वाः सम्यक्पक्वाः वा स्युर्यदाद्यौ पक्षौ तदा आव०६अ। तृतीयचतुर्थातिचाराभ्यामेवास्योक्तत्वात्पुनरुक्तत्वदोषः / अथ सचित्तस्तत्प्रतिबद्धः, संमिश्रोऽभिषवस्तथा। सम्यक्पक्कास्तदा निरवद्यत्वादेव कातिचारतातदक्षणस्येति सत्यं किंतु यथाऽऽद्यद्वयस्योत्तरद्वयस्य च सचित्तत्वे समानेऽप्यनोषध्योषधिकृतो दुष्पछाहार इत्येते, नैतीयीके गुणव्रते // 50 // विशेष एवमस्य सचेतनौषधिताभ्यां समानत्वेऽपि अतुच्छतुच्छत्वकृतो सह चित्तेन चेतनया वर्तते यः स सचित्तः / तेन सचित्तेन प्रतिबद्धः विशेषो दृश्यस्तत्र च कोमलमुद्रादिफलीविशिष्टतृप्त्यकारकात्वेन तुच्छाः संबद्धस्तत्प्रतिबद्धः / सचित्तेन मिश्रः सवलः संमिश्रः / अभिषवो सचित्ता एवानाभोगादिना भुञानस्य तुच्छौषधिभक्षणमतिचारः / ऽनेकद्रव्यसधाननिष्पन्नः दुष्पक्वो मन्दपक्वः स चासावाहारश्चेत्य अथवात्यन्तावद्यभीरुतयाऽचित्ताहारताभ्युपगन्ता तत्र च यत्तृप्तिकारक तीचाराद्वैतीयीके द्वितीये स्वार्थे इकण गुणव्रते भोगोपभोगपरिमाणाख्ये तदचित्तीकृत्यापि भक्षयतु सचेतनस्यैव वर्जनीयत्वाभ्युपगमाद्यत्पुज्ञेया इति शेषस्तत्र सचित्तः कन्दमूलफलादिः पृथिवी-कायादि। इह नस्तृप्तिजननासमर्थाअप्यौषधीलॊल्येनाचित्तीकृत्य भुक्तै तत्तुच निवृत्तिविषयीकृतेऽपि सचित्तादौ प्रवृत्तावतिचाराभिधानं च्छौषधिभक्षणमतिचारः / तत्र भावतो विरतेर्विराधित्वाद्रव्यतस्तु व्रतसापेक्षस्यानाभोगातिक्रमादिनिबन्धनप्रवृत्त्या द्रष्टव्यमन्यथा भङ्ग एव पालितत्वादिति पञ्चाशकवृत्तौ / अथ भोगोपभोगातिचारानुपसंहरन् स्यात् / तत्रापि कृतसचित्तपरिहारस्य कृतसचित्तपरिमाणस्य वा भोगोपभोगव्रतस्य लक्षणान्तरं तद्गतांश्चातिचारानुपदर्शयितुमाह।। सचित्तमधिकसचित्तं वाऽनाभोगादिना खादतः सचित्ताहाररूपः अमी भोजनमाश्रित्य, त्यक्तव्याः कर्मतः पुनः। प्रथमोऽतिचारः। आहारशब्दस्तुदुष्पक्का-हार इत्यस्मादाकृष्य संबध्यः खरकर्म विघ्नपञ्च, कर्मादानानि तन्मलाः॥४१॥ एवमुत्तरेष्वप्याहारशब्दयोजना भाव्या 1 सचित्तप्रतिबद्धः सचेतनवृक्षा अभी उक्तस्वरूपाः पञ्चातिचाराभोजनमाश्रित्य त्यक्तव्या हेयाः। अथ दिसंबद्धोगुन्दादिः पक्कफलादि सचित्तान्तर्वीजः खजूराम्रादिः तदाहारो कर्मतस्तानाह-तत्र भोगोपभोगसाधनं यद्रव्यं तदुपार्जनाय यत्कर्म हि सचिचाहारवर्जकस्यानाभोगादिना सावद्याहारप्रवृत्तिरूपत्वादतिचारः / व्यापारस्तदपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते कारणे कार्योपचारात् इति अथवा बीजं त्यक्ष्यामि सचेतनत्वात्तस्य कटाहं त्वचेतनत्वाद्भक्षयि व्याख्यानान्तरं पूर्वमुक्तमेव। ततश्च कर्मतः कर्माश्रित्य भोगोपभोगोत्पादष्यामीति धिया पक्वं खजूरादिफलं मुखे प्रक्षिपतः सचित्तवर्जकस्य कव्यापारमाश्रित्येत्यर्थः / पुनः खरं कठोरं यत्कर्म कोदृपालनगुप्तिपासचित्त-प्रतिबद्धाहारो द्वितीयः।रासंमिश्रोऽर्द्धपरिणतजलादिराईकदा लनादिरूपं तत्त्याज्यं तन्मलास्तस्मिन् खरकर्मत्यागलक्षणे डिमबीजकपूरचिर्भटिकादिमिश्रः पूरणादि तिलमिश्रो यवधानादि भोगोपभोगव्रते मला अतिचाराः त्रिघ्नाः त्रिगुणिताः पञ्चदशेत्यर्थः / एतदाहारोऽप्यनाभोगातिक्रमादिनाऽतिचारः / अथवा संभ-वत्सचित्ता- कर्मादानानि कर्मादानशब्दवाच्या भवन्ति शेषः कर्मणा वयवस्याऽपक्वकणिक्कादेः पिष्टत्वादिनाऽचेतनमिति बुढ्याहारः पापप्रकृतीनामादानानिकारणानीति कृत्वा तेऽपि त्यक्तव्या इति संमिश्राहारोव्रतसापेक्षत्वादतिचारः इतितृतीयः। अभिषवः सुरासौवीर- पूर्व क्रियान्वयः / ध० २अधि० / अधुना कर्मतो यद् व्रतमुक्तं कादिर्मा सप्रकारखण्डादिर्वा सुरा मद्याद्यभिस्पन्दिवृष्यद्रव्योपयोगी तदप्यतिचाररहितमनुपालनीयमित्यतोऽस्यातिचारानभिधित्सुराह / वाऽयमपि सावद्याहारवर्जकस्यानाभोगादिनाऽतिचारः चतुर्थः / तथा कम्मओणं समणोवासएणं इमाइंपन्नरसकम्मादाणाइं जाणिदुष्पक्वोऽर्द्धस्विन्नपृथुकतन्दुलयवगोधूमस्थूलमण्डककण्डुकफला- अव्वाइं न समायरिअप्वाइं तंजहा इंगालकम्मे 1 वणकम्मे 2 दिरैहिकप्रत्यवायकारी यावता चाशेन सचित्तस्तावतापरलोकेऽप्युपहन्ति साडीकम्मे 3 भाडीकम्मे 4 फाडे किम्मे 5 दंतवाणिजे 6 पृथुकादेर्दुष्पकतया संभवत्सचेतनावयवत्वात्पक्वत्वेनाऽचेतन इति लक्खवाणिजे 7 रसवाणिज्जे केसवाणिजे विसवाणिजे भुजानस्यातिचार इति पञ्चमः 151 केचित्त्वपक्वाहारमप्यतिचारत्वेन 10 जंतपीलणकम्मे 11 निलंछणकम्मे १२दवग्गिदावणया वर्णयन्ति / अपक्वं च यदग्निनाऽसंस्कृतं एष च सचित्ताहारे १३सरदहतलावसोसणया १४असईपोसणया / / 15 / / आव० प्रथमातिचारेऽन्तर्भवति तुच्छौषधिभक्षणमपि केचिदतिचारमाहुस्तु- | ६अ। च्छौषधयश्च मुद्गादिकोमलशिम्बीरूपास्ताश्च यदि सचित्तास्तदा (सूत्रव्याख्या इंगालकम्मादिषु शब्देषु) सचित्तातिचार एवान्तर्भवन्ति। अथाग्रिपाकादिनाऽचित्तास्तर्हि को दोष | उवभोगपरिभोगाइ(ति)रित्त न०(उपभोगपरिभोगातिरिक्त) इति एवं रात्रिभोजनमद्यादिनिवृत्तिष्वपि अनाभोगातिक्रमादिभिर- | उपभोगविषयभूतानि यानि द्रव्याणि स्नानप्रक्रमे उष्णोदकोद्वर्तनतिचारा भावनीयाः / इत्थमतिचारव्याख्यानं तत्त्वार्थवृत्याद्यनुसारेण | कालकादीनि भोजनप्रक्र मे ऽशनपानादीनि तेषु यदतिरिक्तज्ञेयम्। आवश्यकपञ्चाशकवृत्त्यादिषुतु अपक्कदुष्पक्वतुच्छौषधिभक्षणस्य मधिकमात्मादीनामनर्थक्रियासिद्धावप्यविषिष्यते तदुपभोगपरिक्रमेण तृतीयाधतिचारत्वं दर्शितम् / तत्राक्षेपपरिहारावित्थम्। भोगातिरिक्तम् / आत्मोपभोगातिरिक्ते, तदुपचारात्प्रमादव्रता Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवभोगपरिभोगाइरित्त ९३२-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवमाण तिचारे, तेन आत्मोपभोगातिरिक्तेन परेषां स्नानभोजनादिरनर्थ-दण्डो भवति। अयं च प्रमादव्रतस्यैवातिचार इति / उपा०१ अ०। उवभोगपरिभोगाइरेग पुं०(उपभोगपरिभोगातिरेक) उपभोगपरि-- भोगयोरतिरेकः अधिकमुपभोगपरिभोगातिरेकः / प्रमादचरितस्यातिचारे, इह किल स्वोपयोगिभ्योऽधिकानि ताम्बूलमोदकमण्डकादीन्युपभोगाङ्गानि तडागादिषु न नेतव्यानि अन्यथा हि खिद्रादयस्तानि भजतेततश्चात्मनो निरर्थककर्मबन्धादिदोषः ।अयमपि विषयात्मकत्वात् प्रमादचरितस्यातिचारः। ध०२०। श्रा०) उवभोग्गत्तन०(उपभोग्यत्व) उपभोगयोग्यतायाम्। स०। उवमा स्त्री०(उपमा) उपमानमुपमा उप–मा-भावे-अ-अ-नेन गवयेन सदृशो गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपे प्रमाणभेदे, || उक्तं च // "गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा ! भूयोऽवपवसामान्य-भाज वर्तुलकण्ठकम्॥१॥ तस्यामेव त्ववस्थाया यदि ज्ञानं प्रवर्तत। पशुनैतेन तुल्योऽसौ, गोपिण्ड इति सोपमेति॥२॥" श्रुतादिदे-शवाक्यसमानार्थोपलम्भने, संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञाने च / स्था० 4 ठा० // उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमा / द० 1 अ०। सूत्र० / शक्रस्यदेवेन्द्रस्य देवराजस्य प्रथमानमहिष्याम् / स्था० 8 ठा०। खाद्यविशेषे, जी०३ प्रति०। इदानीमदृश्यमाने प्रश्नव्याकरणानां प्रथमेऽध्ययने च / स्था० १०ठा। उवमाण न०(उपमान) उपमीयतेऽनेन दाान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् / दृष्टान्ते / द० 110 / प्रसिद्धसाधात्साध्यसाधने, यथा गौर्गवयस्तथा। सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बने,। सम्म०। (औपम्यभेदा ओवम्म शब्दे वक्ष्यन्ते)।। उपमानस्य प्रमाणान्तरताविचारः / / उपमानमपि प्रमाणान्तरं तस्य लक्षणं यथा "दृश्यमानाद्यदन्यत्र, विज्ञानमुपजायते। साध्यदृश्योपाधितज्ज्ञैरुपमानमिति स्मृतं' यथोक्तमुपमानमपि सादृश्यादसन्निकृष्टऽर्थे बुद्धिमुत्पादयति यथा गवयदर्शनं गोस्मरणस्येति अस्यायमर्थः येन प्रतिपात्रा गौरुपलब्धो न गवयो नवाति-देशवाक्यंगौरिव गवय इति श्रुतं तस्याटव्यां पर्यटतः गवयदर्शने प्रथमे उपजायते परोक्षगवि सादृश्यज्ञानं यदुत्पद्यते अनेन सदृशो गौरिति तदुपमानमिति / तस्य विषयः सादृश्यविशिष्टः परोक्षो गौस्तद्विशिष्ट वा सादृश्यं च वस्तुभूतमेव यदाह। "सादृश्यस्य च वस्तुत्वं, न शक्यमववाधितुम् / भूयोऽवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तदिति" अस्य चानधिगतार्थाधिगन्तृतया प्रामाण्यमुपपन्नं यतो गवयेन प्रत्यक्षेण गवय एव विषयीकृतो न पुनरसंनिहितोऽपि सादृश्यविशिष्टो गौः तद्विशिष्टं वा सादृश्यम् / यदपि तस्य पूर्वं गौरिति प्रत्यक्षमभूत्तस्यापि गवयोऽत्यन्तमप्रत्यक्ष एवेति कथं गवि तदपेक्षतत्सादृश्यज्ञानम्। तदैवं गवयसदृशो गौरिति प्रागप्रतिपत्तेरनधिगतार्थाधिगन्तृपरोक्षे गवयदर्शनात् सादृश्यज्ञानम् / तदुक्तं "तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात्, सादृश्येन विशेषितः। प्रमेमयमनुमानस्य, सादृश्यं वा तदन्विते / / प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि, सादृश्ये गवि च स्मृतौ / विशिष्टस्यान्यतो सिद्धरुपमानप्रमाणता प्रत्यक्षेऽपि यथादेशे, स्मर्यमाणे च पर्वके / विशिष्टविषयत्वेन, नानुमानाप्रमाणतेति" न चेदं प्रत्यक्ष परोक्षविषयत्वात् सविकल्पकत्वाच। नाप्यनुमानं हेत्वभावात्। न च स एव दृश्यमानो गवयविशेषः तद्गतं वा सादृश्य हेतुरुभयस्यापि धर्मिणा सह प्रतिबन्धाभावान्नचाप्रतिबन्धो हेतुरतिप्रसङ्गात् नच गोमत्त्वं सादृश्यं गौर्वाहतुः प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वात् न च सादृश्यमानं प्राक् प्रमेयेण सम्बद्धं प्रतिपन्न नवान्चयप्रतिपत्तिमन्तरेण हेतोः साध्यप्रतिपादकत्यमुपलब्धं तदेवं गवार्थदर्शने गवयं पश्यतः सादृश्येन विशिष्ट गवि पक्षधर्मत्वग्रहणं सम्बन्धानुस्मरणं वान्तरेण प्रतिपत्तिरुपजायमाने नानुमानेन्तर्भवतीति प्रमाणान्तरमुपमानम्। तदुक्तं "नचैतस्यानुमानत्वं, पक्षधर्माद्यसंभवात्। प्राक् प्रमेयस्य सादृश्यं, न धर्मत्वेन गृह्यते // गवये गृह्यमाणं च, न गवार्थानुमापकम्। प्रतिज्ञार्थकदेशत्वानोगतस्य न लिङ्गतः॥ गवयश्चापि सम्बन्धा-नागोलिङ्गत्वमृच्छति।सादृश्यं न चपूर्वेण, पूर्वं दृष्ट तदन्वये॥ एकस्मिन्नपि दृश्येऽपि , द्वितीया पश्यतो वने। सादृश्येन सहेकस्मिस्तदैवोत्पद्यतेमितिरिति" नैयायिकाः श्रूयमाणलक्षणमभिदधीत प्रसिद्धसाधात्साध्यसाधनमुपमानमिति / अत्रोपमानमितिलक्ष्यनिर्देशः प्रसिद्धसाधादित्यागमपूर्टिवकाप्रसिद्धिः दर्शिता आगमस्तु यथा गौस्तथा गवय इत एवं प्रसिद्धेन साधर्म्यप्रसिद्धेः संस्कारवान् पुरुषः कदचिदरण्ये परिभ्रमन् समानमर्थ यदा पश्यति तदा तज्ज्ञानादागमाहितसंस्कारप्रबोधसङ्गतः स्मृतिर्गोसदृशोगवय इत्येवंरूपास्मृतिसहायन्द्रियार्थसन्निकर्षण गोसदृशोऽयमिति ज्ञानमुत्पाद्यते तचेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात्तजनकत्वेनास्य प्रत्यक्षप्रमाणताप्रसक्तेः ।नच शब्देन सार्द्ध यथोक्तमुत्पादयदेतच्छाब्दप्रसज्यते अव्यपदेश्यपदा-ध्याहारात् अव्यभिचार्यादिपदानांतु पूर्ववद्व्यवच्छेदो द्रष्टव्यः / नन्वेवमप्यनुमाने प्रसङ्गस्तस्य यथोक्तफलजनकत्वाद विनाभावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकस्य परामर्शज्ञानस्य विशिष्टफलजनकत्वेनानुमानत्वावाप्तेः प्रकृतज्ञानमविनाभावसम्बन्धस्मृतिपूर्वकं गोशदृशस्य गवयशब्दवाच्यत्वेनान्यस्याप्रसिद्धत्वात् गोसदृशगवयशब्दःसंज्ञेति आगमात्प्रतीतिरिति चेत्न तस्य सन्निधीयमानगोशदृशपिण्डविषयत्वेनाप्युपपत्तेनिश्चितश्चान्वयः साध्यप्रतिपत्तिः / न च तदोपलभ्यमानागोसादृश्यपिण्डादव्यतिरिक्तः गोसदृशसद्भावनिश्चायकं प्रमाणमस्ति न चात्र व्यतिरेकी हेतुः समस्ति सपक्षासत्वप्रतिपादकप्रमाणाभावात् अतो नाविनाभावसंबन्धानुस्मृतिः। व्याप्तिरहितेऽपि चागमे गोसदृशो गवय इति सकृदुचारिते उत्तरकालगोसदृशपदार्थदर्शनात् अयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तिर्भवतीति नानुमानमेतत् संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानत्यागमकं न भवत्येव शब्दस्य तज्जनकस्य तदाऽभावात् शब्दजनितं च शाब्दं प्रमाणमिति व्यवस्थितं प्राक् शब्दप्रतीतत्वाच्छाब्दमिति चेत्रत्वनुमानस्याप्येवमभावप्रशक्तिः अग्निसाम्यस्य प्राग् प्रत्यक्षेण प्रतीतत्वात् न ह्यप्रतीते महानसादावनिसामान्ये अनुमानप्रवृत्तिरिति अप्रतीता प्रतिपादकत्वादनुमानं न प्रमाणं भवेत् / न च विशिष्टदेशाद्यवच्छे दसाधकत्वेनास्या प्रमाण्यमितरत्रापि समानत्वात्तथाहि सन्निधीयमानपिण्ड विषयत्वेन स्वप्रतिपाद्यमिदं प्रतिपादयति आगमस्त्वसन्निहितपिण्डविषयत्वेन न चागमात् संज्ञासंज्ञि-संबन्धः प्रतीयतेततः सारूप्यमात्रप्रतीतेर्यत्रशब्दस्यैव साधकतमत्वं तदेव शाब्दं फलं न च विप्रतिपत्त्यधिकारेण संज्ञासंज्ञिसंबन्धज्ञाने एतत्समस्ति प्रत्यक्षफलं तुन भवत्येवैतत् संज्ञासज्ञिसंबन्धस्येन्द्रियेणासन्निकर्षात्। नच सन्निकर्षश्चेन्द्रियाविषयत्वात्तस्य तदेव संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिनियतरूपं फलं यतः समुपजायते तदुपमानं आह च सूत्रकारः साध्यसाधनमिति साध्यं विशिष्टं फलं तस्य साधनं जनकं यत् तदुपमानं एवं सारूप्यज्ञानवत्सारूप्यस्याप्यमानत्वं न पुनः संज्ञासंज्ञिसंबन्धज्ञानस्य फलाभावात् न च हेयादिज्ञानमस्य फलं प्रत्यक्षादिफलत्वात् / तथा हि हेयादिज्ञानं पिण्डविषयं तच्चेन्द्रियार्थ सन्निकर्षादुपजायते यथा प्रत्यक्षफलमनुमानं विशिष्टफलजनकत्वादेवं Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवमाण 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवमाण प्रमाणान्तरानिष्पाद्यविशिष्टफलजनकत्वात् प्रमाणान्तरमुपमानम् अत्र प्रतिविधानम्।। उपमानस्य त्वपूर्वार्थाधिगन्तृत्वाभावात् प्रामाण्यमेव न संभवतिनन्वस्यापूर्वार्थविषयता प्रागुपदर्शितैव सत्यमुपदर्शितानतुयुक्ता तथा हि तस्य विषयः सादृश्यादिविशिष्टो गौस्तद्विशिष्टं वा सादृश्यमुपदर्शितं तच भूयोऽवयवासामान्ययोगलक्षणप्रतिपादितं न च सामान्यं तद्योगो वा वस्तु संभवतीति प्रतिपादितं तत्सद्भावेऽपि प्रत्यक्षविषयतया परैस्तस्येष्टिः कथमुपमानगोचरत्वेनागृहीतार्थग्राहित्वं प्रामाण्यनिबन्धनं भवेत् सादृश्यज्ञानस्य चोत्पत्तावयं क्रमः पूर्वं तावद् गोगवययोर्विषाणित्वादिसादृश्यं गवि प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते पश्चात् गवयदर्शनानन्तरं यद्विषाणित्वादिसादृश्यं पिण्डेऽस्मिन्नुपलभ्यतेमया तत् गव्यप्युपलब्धमिति स्मरति तदनन्तरं गवि विषाणित्वादिसादृश्यप्रतिसंधानं जायते अनेन पिण्डेन सदृशो गौरित्येवं च स्मार्तमेतत् ज्ञानं कथं प्रमाणं भवेत्। यदि च गवि प्रत्यक्षेणोभयगतं विषाणित्वादिसादृश्य प्राग् न प्रतिपन्नं भवेत् प्रतिपन्नमपि यदि विस्मृतं भवेत् तदा गवयदर्शने सत्यपिपरोक्षे गवि नैव सादृश्यज्ञानमुपजायेत अतो विषाणित्वादिसादृश्य पूर्वमेव गवि प्रत्यक्षेणावगतमिदानी गवयदर्शनात् तत्रैव स्मर्यते तन्न गृहीतग्राहणात् सादृश्यज्ञानं प्रमाणम् / अथ पूर्वप्रत्यक्षेण गोगतमेव सादृश्यमवगतं गवयदर्शनन तु तद्गतमेवोभयगतसादृश्यप्रत्तिप-त्तिस्तु गवयदर्शनानन्तरं सादृश्यज्ञाननिबन्धनेति अगृहीतग्राहितया प्रमाणमुपमानम् / असदेतत् पूर्वमुभयगतसादृश्यप्रतिपत्तौ गवयदर्शनानन्तरमप्यप्रतिपत्तिस्दनुसंधानप्रतिपत्तेरप्यसंभवात् / न हि गवयपिण्डदर्शनानन्तरं प्रागप्रतिपन्ने तत्सादृश्येऽश्वपिण्डे अनेन सदृशोऽश्वप्रतिपत्तिः कदाचिदपि भवति तस्मात् प्रागध्यक्षावगत-- सादृश्ये प्रतियोगिग्रहणाद्व्यवहारमात्रप्रवृत्तिरेव तदा प्राक्तदप्रवृ-त्तिः प्रतियोग्यपेक्षत्वात् तस्य भ्रात्रादिव्यवहारवत् न च तत् प्रामाण्यं युक्तप्रमानामियत्ताभावप्रशक्तेः एवं धूमदर्शनास्मर्यमाणाग्निसंबन्धितयाऽप्यक्षानवगतप्रदेशे तदयोगव्यवच्छेदमवगमयन्ती प्रतिपतिरुपजायामानाऽनुमितिः प्रमाणतां यथा समासादयति न तथा सादृश्यप्रतिपत्तिः गवाख्यधर्मिप्रतिपत्तिकाल एव भूयोऽवयवसामान्ययोगलक्षणस्य सादृश्यप्रतिपत्तेस्तेन प्रत्यक्षेऽपि यथादेश इत्यादिवचनमयुक्ततया व्यवस्थितम् / किं च / यदि सादृश्यज्ञानं गृहीतग्राहित्वेऽपि व्यवहारमात्रप्रवर्तनात् प्रमाणं तर्हि वैसादृश्य-ज्ञानमपि सप्तमं प्रमाणं भवेत् दृश्यपरोक्षे सादृश्यधीरप्रमाणान्तरं यदि वैधय॑मर्हति तयेवमप्येवं प्रमाणं किं न सप्तमम् / तथा सोपा-नलाभात् क्रामतः प्रथमाक्रान्तं पश्चादाक्रान्ताद्दीधैं महत् ह्रस्वं चेत्याद्यनेकंप्रमाणं प्रसक्तमिति कुतः प्रमाणषट्कवादः संगतो भवेत्। दृश्यमानव्याक्षेपं चेद् दृष्टज्ञानं प्रमाणान्तरं तत् पूर्वमस्मादित्यादिप्रमाणान्तरमिष्यताम् / अप्रमाण्ये चास्य पक्षधर्मत्वाद्यभावप्रतिपादनं सिद्धसाधनमेवाप्रमा वा प्रमाणस्यानुमानत्वानभ्युपगमाद् / यदा च प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नेऽपि गवाश्वादौ भूयोऽवयवसामान्ययोगं तद्वियोगवाच्यं मूढः सदृशासदृश्व्यवहारंन प्रवर्तयति तदा विषयदर्शनेन विषयिणोव्यवहारस्य साधनात् वैरुप्यसद्भावादनुमानप्रमाणता समस्त्येव तथा हि गवाश्यादौ विषाणाधवयवसामान्ययोगसिद्धियोगो वा प्रागुपलब्ध इदानीं स्मर्यमाण इति नासिद्धता हेतोःप्रवृत्तिर्व्यवहारविषयश्च एवार्थोऽत्र दृष्टान्तोऽस्तीति नान्वयव्यतिरेकयोरप्यभावस्ततो न वै तस्यानुमानत्वमित्यादिपक्षधर्मत्वाद्यसंभवप्रतिपादनमसंगतव्यवहारसाधनपक्षधर्मत्वादेः / प्रसाधनान्नैयायिकोपवर्णितमप्युपमानमनधिगतार्थाधिगन्तृत्वा-भावात् प्रमाणं न भवति तथा हि यथा गौस्तथा गवय इति वाक्याद् गोसदृशार्थसामान्यस्य गवयशब्दवाच्यताप्रतिपत्तेरन्यथा विसदृशमहिष्याद्यर्थदर्शनादप्ययं स गवय इति संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिः किं न भवेत्तस्माद्यथा कश्चिदङ्गदी कुण्डली छत्री स राजेति कुतश्चिदुपश्रुत्याङ्गदादिमदर्थदर्शनादयं स राजेति प्रतिपद्यते न चासौ प्रतिपत्तिः प्रमाणमुपवाक्यादेवाङ्गदादिमतीर्थस्य राजशब्दवाच्य-त्वेन प्रतिपन्नत्वात् तथेहापि यथा गौस्तथा गवय इत्यति देशवा-- क्यात्संबन्धमवगत्य गवयदर्शनात्संकेतानुस्मरणे सत्ययं स गवयशब्दवाच्योऽर्थप्रतिपत्तेरप्रमाणमुपमानम् / यदि पुनरतिदेशवाक्यात्संबन्धप्रतिपत्ति भ्युपगम्यते पश्चादप्ययं स गवयशब्दवाच्यस्तथाऽपि प्रत्ययो न स्यात्तदपरनिमित्ताभावात् दृश्यते च तस्मागृहीतग्रहणान्नेदं प्रमाणम् / अथातिदेशवाक्यात् पूर्वाङ्गात्सदृशार्थस्य गवयशब्दवाच्यता सामान्येन प्रतीता गवयदर्शनानन्तरं तु गवयविशेष तच्छब्दवाच्यत्वेन पूर्वमप्रतीतं प्रतिपद्यत इति नगृहीतग्राहिता असदेतत् सस्नेहितगवयविशेषविषयस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षतयोपमानत्वानुपपत्तेर्गवयदर्शनोत्तरकालभावि त्वयं स गवयश-ब्दवाच्योऽर्थ इति तज्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षबलोत्पन्नत्वात् स्मृतिरेव न प्रमाणम् / किं च गवयविशेषस्यगवयशब्दवाच्यतायद्यतिदेशवाक्यान्न प्रतिपन्ना कथं तर्हि गवयविशेषदर्शन उपजाते कस्मादस्य तच्छब्दता यस्यैवार्थस्य संबन्धग्रहणकाले येन सह संबन्धोऽनुभूतस्तस्यैवार्थस्य तेन सह संबन्धे तच्छब्दवाच्यता कालान्तरेऽपि दृश्यते ततः सामान्येन संकेतकाल एय संबन्धः प्रतीतः पश्चाद्गवयदर्शन उपजाते संकेतमनुसृत्यायं स गवयशब्दवाच्योऽर्थ इति प्रतिपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यमेतेनोपयुक्तोपमानस्तुतुल्यार्थग्रहणे सति विशिष्टविषयत्वेन संबन्धं प्रतिपद्यत इत्यपि निरस्तं विशेषस्य संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकालानुगमादवाच्यत्वाच / यश्च शब्दप्रभवप्रतिपत्तावर्थः प्रतिभाति स एकशब्दवाच्यो न त्वऽविशेषस्तत्र प्रतिभालक्षणज्ञाने असतस्तत्र शब्दस्याप्रतिभासनान्न विशेषः शब्दवाच्यतायामसौ गवयशब्दवाच्य इति विशेषस्य वाच्य-प्रतिपत्तिः सादृश्यविकल्पयोरेकीकरणाद्धान्तिरन्यापूर्वानुभृता-कारपरामर्श इति दृश्येयमसौगवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तिः कथं भवेदतिदेशवाक्यश्रवणसमये विशेष संबन्धाप्रतिपत्तेः प्रतिप्रत्यभ्युपगमे वा विशेषेऽपि सामान्यत्वस्मृतिरेवेति कुतः प्रामाण्यमुपमानस्य। यद् गौरिव गवय इति गोगवययोरतिदेशवाक्यात्सादृश्यमात्रप्रतिपत्तिः संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिस्तूपमानात्तदप्यसमीक्षिताभिधानं यतो गवयदर्शनानन्तरमयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तिरुपजायते इयं च तावदध्यक्षप्रतिपत्तिः फलश्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रभ्रष्टसंस्कारस्य वा तत्सदभावेऽप्यस्यानुत्पतेर्विशेषश्चाध्यक्षविषयत्वानभ्युपगमाच अतिदेशवाक्यस्मरणसहायस्य गवयदर्शनस्यतत्प्रतिपत्तिजनकत्वे स्मर्यमाणशब्दवाच्यत्वमित्यतिदेशवाक्यमेव तज्जनकमभ्युपगतं भवेत् न दर्शनं न हि यत्राध्यक्षप्रवृत्तिमत्तत्र शब्दस्मरणसहितमपि प्रवर्तते यथा चक्षुनिं गन्धस्मरणं सहायपरिमलप्रतिपत्तावतिदेशवाक्याच्च संबन्धाप्रतिपत्तावपरस्य तत्प्रतिपत्तिर्निमित्तस्याभावात् अयं स गवयशब्दवाच्य इति पूर्वानुभूतपरापर्शन प्रतिपत्तिर्न स्यादपि त्वयं गोदृश इत्येव भवेत् न चैतत्प्रतिपत्तिरन्यथानुपपन्नैव प्रमाणान्तरमुपमाख्यमेतत्प्रतिपत्तिजनक प्रकल्पनीयं यः कुण्डली स राजेति श्रोतातिदेशवाक्यस्य तदर्शनान्तरमयं Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवमाण 934 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवरि स०। स राजशब्द वाच्य इति प्रतिपत्तेरप्युपमानफलत्वप्रसक्तेः अथात्र प्रत्यवस्थानरूपे छलभेदे, यथा मञ्चाः क्रोशन्ति इत्युक्ते पर प्रत्यवतिष्ठते तच्छब्दवाच्यता इत्यतिदेशवाक्यादेव प्रतिपन्नेति नातिप्रसक्तिस्तर्हि कथमचेतना मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थास्तुपुरुषाः क्रोशन्ति। स्या०। गौरिव गवय इत्यतिदेशवाक्याद् गोसदृशार्थस्य गवयशब्दवाच्यतापि उवयारमित्तग न०(उपचारमात्रक) लोकोपचारे एव केवले, "उवचरइ प्रतिपन्नेतिनोपमानप्रमाणफलता अयं स गवयशब्दवाच्य इति प्रतिपत्तेः / कोणतितो , अहवा उवयारमित्तग एइ" वृ०१३०॥ तस्मात् स्मृतिरूपत्वादस्याः प्रतिपत्ते तस्या जनकस्य प्रमाणतेति उवयारसयन०(उपचारशत) औपचारिकवचनचेष्टादिशते, "उवयारसअनुमानान्तविप्रतिपादनं न दोषायेत्यलमतिविस्तरेण / / सम्म०। यबंधणपउत्ताओ"। तं०।। सूत्र उवयारोवेयत्त न०(उपचारोपेतत्व) अग्राम्यतारूपे तृतीये सत्यउवमादोस पुं०(उपमादोष) हीनाधिकोपमाभिधानलक्षणे सूत्रदोषे, __ वचनातिशये, सका औ०। आ०म०द्वि०। यत्रहीनोपमा क्रियते यथा मेरुः सर्षपोपमः / अधिकोपमा उवयालि पुं०(उपजालि) द्वारवत्यां वसुदेवस्य धारण्यामुत्पन्ने वा क्रियते यथा सर्षपो मेरुसन्निभः। अनुपमा वाऽभिधीयते यथा मेरुः जालिभ्रातरि, सच द्वारवत्यां नगर्या वसुदेवस्य धारण्यां देव्यां जातः समुद्रोपम इत्यादि / अनु० / विशे० / यथा काञ्जिकमिव ब्राह्मणस्य पञ्चाशत्कन्याभिः परिणीतोऽरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रजितः द्वादशाङ्गा-- सुराऽपेया।। वृ०१उ०। न्यधीत्य षोडशवर्षपर्यायो मृतः शत्रुञ्जये सिद्धः। शेषं यथा गौतमस्य उवमिय त्रि०(उपमित) उप-मि-क्त / सादृश्यानुयोगिनि, यथा इत्यन्तकृद्दशासु चतुर्थवर्गे द्वितीये अध्ययने प्रतिपादितम् / अन्त० 4 चन्द्रवन्मुखं तस्य चन्द्रसादृश्यानुयोगित्वात्।। वाच० // उप-मि-भावे अ०॥ राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राज्ञोधारण्यां देव्यामुत्पन्ने पुत्रे च। सच निष्ठाप्रत्ययः उपमाने, विशे०॥ उपमीयतेऽनेनोपमितम् बाहुलकात्करणे राजगृहे श्रेणिकस्य धारण्यां जातः अष्टकन्याः परिणायितः श्रमणस्य निष्ठाप्रत्ययः / उपमाकरणे, क्षेत्रस्योपमितं क्षेत्रोपमितम्। आ०म०प्र० / / भगवतो महावीरस्यान्तिके प्रव्रजितः एकादशाङ्गान्यधीत्य षोडशवर्षाणि उवयाइय त्रि०(उपयाचित) कर्मणि क्त / उपगम्य प्रार्थिते, भावे क्त। श्रामण्यपरिपाकं प्राप्य कालं कृत्वा वैजयन्ते विमाने देवतयोपपन्नः उपगम्य याचने, न० देवाराधने, स्था० 10 ठा० / पूजाभ्युपगम द्वात्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिं परिपाल्य महाविदेहे सेत्स्यतीति पूर्वकप्रार्थने,ज्ञा० 8 अ01 अनुत्तरोपपातिकदशासु प्रथमे वर्गे द्वितीयेऽध्ययने सूत्रितम्। अनु० / / उवयाण न०(उपयान) सामीप्येन गमने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०। उवरइ स्त्री०(उपरति) उप-रम्-क्तिन्-विरतौ, स्था०१ ठा०। आचा० / / उवयार पुं०(उपचार) उपचरणमुपचारः / उप-चार-घञ् / ग्रहणे, अधिगमे, "उवयारसहसंपचयत्थं एगट्ठिया भणंति। उवयारोत्ति वा अहीतं उवरमपुं०(उपरम) उप-रम्-घञ्-अवृद्धिः। उपरमणमुपरमः। नियमे,। ति वा आगमियंति वा गृहीतंतिवाएगटुं'। नि०चू०१उ० चिकित्सायाम्। विशे० विरमे, दर्श०1 पूजायाम, पंचा०६ विव० कल्प०। ज्ञा०। औ०। रा०॥ देवतापूजायाम्, उवरय त्रि०(उपरत) उप-रम्-क्त। निवृत्ते / कल्प० / स्था० / उत्त०। प्रश्न० सं०३ द्वा० पंचवण्णसरसुरभिमुक्क-पुप्फपंजोवयारकलिते" चं० "न हणे पाणिणं पाणे, मपवेराउ उवरए" उपरतो निवर्तितः / उत्त०६ 20 पाहु०। आराधनाप्रकारे, द०६ अ०।सुखकारिक्रियाविशेषे,प्रव० अ० / प्रायः सावधयोगेभ्यो निवृत्ते, आव० 4 अ०। "उवरया मेहुणा 6 द्वा० / अन्यक्रियाकलापे, षो०१२ विव० / लक्षणायाम, द्र०७ उ"उपरता मैथुनाद्धर्मात् अष्टादशविकल्पब-झोपेताः। आचा०१ श्रु० / अध्या० ।लक्षणया शक्यार्थ-त्यागेनाऽन्यार्थबोधने, असदारोपे, अष्ट। उपसामीप्येन रतः / व्यवस्थिते, "एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्म उपचरणमात्रधर्मणि, द्र०७ अध्या० / यथा झोसेत्ति" आचा०१ श्रु०३ अ० २उ०। "एत्थो वरए तं झोसमाणे अय जो तेसु धम्मसद्दो, सो उवयारेण निच्छएण इहं। सधीति अदक्खु" अत्रास्मिन् सावधारम्भे कर्तव्ये उपरतः संकुचितगात्रः / अत्र चाहते धर्मे व्यवस्थिते उपरतः पापारम्भात्। जह सीह सहसीहे, पाहेणुवयारओ ण्णत्थ / / 95|| आचा०१ श्रु०५ अ01 यस्तेषुतन्त्रान्तरीयधर्मेषुधर्मशब्दः स उपचारेणापरमार्येन निश्चयेनात्र उवरयदंड पुं०(उपरतदण्ड) प्राणिनः आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः / जिनशासने कथं यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थितःप्राधान्येनोपचारतः स च मनोवाकायलक्षणः उपरतो दण्डो येषान्ते तथा। निवृत्तदण्डेषु, उपचारेणान्यत्र माणवकादौ यथा सिंहो माणवकः उपचारनिमित्तं च "उवरयदंख्सुअणुवस्यदंडेसुवासोवहिएसुवा णिरुवहिएसुवा' आचा०१ शौर्यक्रौर्यादयः धमे त्वहिंसाद्यभिधानादय इतिगाथार्थः।। दश०१ अ०। श्रु०४ अ०१उ०। व्यवहारे, स्था०४ ठा० / "णिउणजुत्तोवयारकुसला'' विपा० २अ०। उवरयमेहुण त्रि०(उपरतमैथुन) मैथुनादुपरते, "से हुप्परिणा समयम्मि उपचरितवस्तुव्य-वहारे, यो० वि०।लोकव्यवहारे, ज्ञा०१ अ०।०। वट्टइणिरास से उवरयमेहुणे चरे" आचा०२ श्रु०॥ आदेशे, आ० म० द्वि०। कल्लायाम्, विशे०। उवराग पुं०(उपराग) उप-रज-घञ् - उपरञ्जने, ग्रहणे, उवयारओ अव्य०(उपचारतस्) कल्पनामात्रेणेत्यर्थे / ''उवयारओ "ससिरविगहोवरागविससेसु" प्रश्न०२ द्वा०।"चंदसुरोवरागो गहणं खित्तस्स विणिगमणं सरूवओ नत्थि' विशे०॥ भण्णइ" आव०४ अ० स्था०। (गहणशब्दे वक्तव्यता वक्ष्यते) उवयारग पुं०(उपचारक) प्रतिजागरके, नि०चू० 11 उ०। सवरि अव्य०(उपरि) अग्रे इत्यर्थे, "मंदरचूलियाणं उवरि चत्तारि उवयारग न०(उपचाराग्र) उपचरणमुपचारः तेनोपचारेण करण जोयणाई" स्था०४ ठा० / उत्तरकाले, "गहणादुवरि पयत्तो' ध०२ भूतेनेदमग्रम्। भावाग्रे,नि० चू०१ उ०। (तद्व्याख्या अग्गशब्दे उक्ता) अधि० / उपरिष्टादर्थे, "उकिट्टवण्णगोवरिसवसरण बिंवउवयारच्छल न०(उपचारच्छल) औपचारिके प्रयोगे मुखप्रतिषे-धेन | रुवस्स" पंचा०२ विव०। भ०। प्रज्ञा०। Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरिभासा 935 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवरोह उवरिभासा स्त्री०(उपरिभाषा) गुरोर्भाषणानन्तरमेव विशेषभा- | षणरूपायां भाषायाम्, "अंतरभासाए उवरिभासाए जं किंचि" | ध०२अधि०। उव(प)रिम त्रि०(उपरितन) ऊर्द्धभवे, स्था०१० ठा०1 उवरिमउवरिमगेविज पुं०(उपरितनोपरितनग्रैवेय) नवानां ग्रैवेय काणामन्तिमे, स्था 06 ठा०। उवरिमउवरिमगेवेज्जविमाणपत्थड पुं०(उपरितनोपरितनप्रैवेयविमानप्रस्तट) नवमे ग्रैवेयकविमानप्रस्तटे,स्था०६ ठा०। उवरिमग पुं०(उवरिमक) उपरिमा एव उपरिमकाः / उपर्युपरिवर्तिदेवलोकनिवासिषु देवेषु, "बहुययरंउवरिमगाउडुंच सकप्पथूभाई" आ०म०प्र० / विशे०। उवरिममज्झिमगेवेज पुं०(उपरिममध्यमग्रैवेय) अष्टमे ग्रैवेयक-देवे, स्था०६ ठा। उदरिममज्झिमगेवेज्जविमाणपत्थड पुं०(उपरिममध्यमग्रैवेयवि मानप्रस्तट) अष्टमे ग्रैवेयविमानप्रस्तटे,स्था०६ ठा०। उवरिमहिडिमगेविज पुं०(उपरिमाधस्तनौवेय) सप्तमे ग्रैवेयके, स्था० ठा०॥ उवरिमहिहिमगे विज्ञविमाणपत्थड पुं०(उपरिमाधस्तनप्रैवेय विमानप्रस्तट) सप्तमे विमानप्रस्तटे, स्था०६ ठा०। उवरिमहे हिल्ल त्रि०(उपरिमाधस्तन) ऊर्धाधोवर्त्तिनोः, "उवरिमहेट्ठिल्ले सुखुडगपयरेसु" उपरिमोयमवधीकृत्योर्द्ध प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ताअधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघु-तरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्तिनोः / भ०१३ श०४ उ०। उवरिमागार पुं०(उपरिमाकार) उपरितनेषु उत्तमाङ्गादिरूपेष्वा-कारेषु, "तेसि णं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया" रा०। उवरियतल न०(उपरितल) गृहस्य पीठबन्धकल्पे स्थाने, "जंबू दीवप्पमाणा उवरियतलेणा' भ०२ श०८ उ०१ उवरिल्ल त्रि०(उपरितन) उपरिशब्दात् / डिल्लडुल्ला भवे 18 / 263| भवेऽर्थेनाम्नः परौ इल्ल उल्ल इत्येतौ डितौ प्रत्ययौ भवत इति भवार्थे इल्लप्रत्ययः। ऊर्द्धभवे, प्रा०। "उवरिल्ले तारारूवे चार चरति" स्था०६ ठा० अनु०।"उवरिमं सुयं वाएइ उदरिल्लं सुयं जहा दसवेयालियस्स आवस्सगं' नि०चू०१६ उ०) उवरुज्झंत त्रि०(उपरुध्यमान) उप-रुध्-कर्मणि--यक्-- शानच् / समनूपाद्धेः 1181147|| इति उपःपरस्य कर्मणि ज्झो वा पक्षे उपरुधिज्जत / निरुध्यमाने, आद्रियमाणे, प्रा०। उवरुद्द पुं०(उपरौद्र) यस्तु नारकाणामङ्गोपाङ्गानि भनक्तिसोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति / षष्ठे परमाधार्मिके, भ०३ श०६ उ०। तत्स्वरूपं यथामंजंति अंगमंगाणि, ऊरू बाहू सिराणि करचरणा। कप्पेंति कप्पणीहिं, उवरुद्धा पावकम्मरया।।७।। अथोपरुद्राख्याः परमाधार्मिकाणामङ्गप्रत्यङ्गानि शिरोबाहूरुकादीनि तथा करचरणांश्च भञ्जन्तिमोटयन्ति पापकर्मणः कल्पनीभिः कल्पयन्ति पाटयन्ति तत्रास्त्येव दुःखोत्पादनं यत्ते न कुर्वन्तीति / / सूत्र०१ श्रु०५ | अ०। आव० आ० चू०। प्रश्नः / उवरुवरि अव्य०(उपर्युपरि) निरन्तरमर्थे , "उवरुवरितरंगदरि यअतिवेगचक्खुपहमोच्छरंत" प्रश्न०३द्वा०। उवरोह पुं०(उपरोध) उप० रुध्-धञ्-आवरणे, अनुरोधे, व्या-घाते, वृ०१उ०। वाधायाम, विशे०संघटनादौ, "भूओवरोहरहिए"भूतानि पृथिव्यादीनि उपरोधस्तत्संघट्टनादि-लक्षणः। आव०४ अ०ापरचक्रेण वेष्टने,। ग्रामादेरुपरोधे सति भिक्षाटनादिविधिमाह। (सूत्रम्) गमगमस्स वा जाव रायहाणी य बाहिया / सेणं संनिविटुं पेहायं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तदिवसं भिक्खायरियाए गंतुं पडिपत्तए नो से कप्पइ तं रयणिं तत्थेव उवायणाइ वित्तपजो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा तं रयणिं तत्थेव उवायणाइउवातिणतं वा साइजति से दुहतो वि अक्कममा णो आवजइ वा उम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं // अस्य संबन्धमाह। उवरोहमया कीरइ, सप्परिखे पुरवरस्स पागारो। तेण र सुत्तेण सुत्तं, अणुअत्तइ उग्गहो जंव।। पूर्वसूत्रे प्राकारः प्राकारपरिखा चोक्ता स च प्राकारः सपरिखेऽपि पुरवरस्योपरोधः परचक्रेण वेष्टनं तद्भयात्क्रियते तेन कारणेन र इति पादपूरणे ततः सूत्रमिदमारभ्यते / यथावग्रहः पूर्वसूत्रेभ्योऽनुवर्तते अव्यवच्छिन्न एवागच्छन्नस्तीति भावः / अतो यथा रोधके राजावग्रहमनुज्ञाप्य बहिर्निर्गम्यते प्रविश्यते वा तथाभिधीयते / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / सशब्दोऽथशब्दार्थ अथ ग्रामस्य वा यावद्राजधान्या वा यावत्करणान्नगरस्य वा खेटस्य वा इत्यादिपरिग्रहः / एतेषामन्यतरस्य बहिः सेना राज्ञस्कन्धावारं रोधकं त्वासन्निविष्टं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा कल्पते निर्ग्रन्थानां निन्थीनां वा तद्दिवसं भिक्षाचर्यायां गत्वा प्रत्यागन्तुं नो नैव (से) तस्य विवक्षितस्य भिक्षोः कल्पते तां रजनी तत्रैवोपाददाति उपाददनं वा स्वादयति स द्विधा आद्यानिष्क्रामन् जितसीमानं राजसीमानं च विलुम्पन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमुद्धातिकमिति सूत्रार्थः ।अथ भाष्यविस्तरः। सेणादी गम्मिहिई, खित्तुप्पायं इमं वियाणित्ता। असिवे ओमोयरिय-भयवक्का णिग्गमे गुरुगा। क्वचित् मासकल्पक्षेत्रे स्थितैतिं सेनापरचक्रमत्र समायास्यति आदिशब्दादशिवमवमौदर्य म्लेच्छादिभयं वा भविष्यति। एवमादौ कारणे पश्चादपि गमिष्यतीति कृत्वा अनागतमेव ततः क्षेत्रान्निर्गन्तव्यं कथं पुनरनागतं तज्ज्ञायत इत्याह क्षेत्रस्योत्पातः परचक्राधुपद्रवसूचकानि लिङ्गानीत्यर्थः / भ्रान्तिवदिक्चक्रवालं धूमायते / अकाले तरूणं पुष्पफलानि जायन्ते महता शब्देन भूमिः कम्पते / समंततः क्रन्दितकूजिताः शब्दाः श्रूयन्ते इत्यादीनि मन्तव्यानि एवं क्षेत्रोत्पातम, विज्ञाय निर्गन्तव्यम् / अथ न निर्गच्छन्ति ततोऽशिवे अथमौदर्ये बोधिकभये परचक्रागमने ज्ञातेऽपि निर्गमनमकुर्वतां चतुर्गुरुकाः। आणाइणो यदोसा, विराहणा होइ संजमायाए। असिवाहिम्मि परविते, अधिकारो होइ सेणाए।। आज्ञादयश्च दोषाः विराधना च संयमात्मविषया भवति संयमविराधना शुद्धे भक्तपाने अलभ्यमाने अनेषणीयम् / गृह्णीयादित्यादिका आत्मविराधना परितापमहादुःखादिका यदा वाऽशि Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरोह 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवरोह वादिकं प्रतिपदं प्ररूपितं भवति तदा तत्र सेनया अधिकारः कर्तव्यः / अशिवादिकं च प्रथमोद्देशके अध्वसूत्रे सप्रपश्चं प्ररूपितमिति नेत्र भूयःप्ररूप्यते। तब परचक्रागमनं यथा ज्ञायते था दर्शयति॥ अतिसयदेवत्तणिमि-तमादि अवितहपवित्तिमोत्तूणं। निग्गमणो होइ पुटवं, अणागते रुहवोच्छिण्णे // अवधिज्ञात्वाद्यतिशयेन स्वयमेव ज्ञातं अपरेण वा अतिशयज्ञा-निना पूष्टेन कथितं देवतया वा कयाचिदाख्यातं अविसंवादिना वा निमित्तेनाऽवगतम् आदिग्रहणेन विद्यामन्त्रादिपरिग्रहः / अथवा वा प्रवृत्तिर्वार्ता तामवितथां श्रुत्वा ततः क्षेत्रात्पूर्वमेव निगमनं कर्तव्यं भवति। अथानागतं न ज्ञातं सहसैव तन्नगरं रुद्धं पन्थानो व्यवच्छिन्नास्ततो न निर्गच्छेयुरपि। अथवा अमीभिः कारणैातेऽपि न निर्गमिताः भवेयुः। गेलन्नरोगिअसिवे,रायदुढे तहेव ओसम्मि। उवही सरीरतेणग-णाते विण होइ णिग्गमणं / / ग्लानो ज्वरादिपीडितः कश्चिदस्ति तत्प्रतिबन्धेन गन्तुं न शक्यते (रोगित्ति) दुष्टरोगेण कुष्ठादिना कश्चिदत्यन्तमभिभूतः सपरित्यर्बुनपार्यते बहिर्वा अशिवं राजद्विष्टमवमौदर्य वा विद्यते उपविस्तेनाः शरीरस्तेना वा बहिर्गच्छत उपद्रवन्ति एतैः कारणैतिऽपि परचक्रागमने निर्गमनं न भवति। एएहिय अण्णेहि य, ण णिग्गया कारणेहि बहुएहिं। अच्छंति होइ जयणा, संवत्ते णगररोधे य॥ एतैरन्यैश्च बहुभिः कारणैर्न निर्गता भवेयुः ततस्तत्रैव तिष्ठतां संवर्ते नगररोधके च यतनाः कर्तव्यासंवर्तो नाम परचक्रागमनं श्रुत्वा स्वरक्षार्थ यत्र जलदुर्गादिषु बहूनां ग्रामाणांजनःसंवर्तीभूयैकत्र तिष्ठति। नगररोधक: प्रतीतस्तत्र संवर्ते यतनामाह। संवदृम्मि तु जयणा, भिक्खे भत्तट्ठणा य वसहीए। तम्मि भए संपत्ते, आवाउडे क्केण वदृति॥ संवर्ते तिष्ठतां भैक्ष्ये भक्तार्थतायां वसतौ च यतना कर्तव्या। तस्मिश्च परचक्रलक्षणे भये संप्राप्ते अपावृता एके न तिष्ठन्तीति नियुक्तिगाथा समासार्थः। सांप्रतमेनामेव विवृणोति। वइयासु व पल्लासु व, भिक्खं काउं वसंति संवट्टे। सव्वम्मि रज्जखोभे, तत्थ वय जाणिथंडिल्ले // संवर्ते अभिनवसन्निविष्टतया सचित्तः पृथिवीकायो भवतीति कृत्वा भिक्षां हिण्डन्ते। किं तु पूर्वस्थितासु द्रजिकासु वा पल्लीसु वा भिक्षां कृत्वा तत्रैव सादले भुक्त्वा रात्रौ संवर्ते समागत्व वसन्ति / अथ सर्वस्यापिराज्यस्य क्षमतो वजिकादिकमपिनास्तितदा तत्रैव संवर्ते यानि तेषु भिक्षां हिण्डन्ते।अथ न सन्ति स्थण्डिले स्थितानि तत इयं यतना। पोपलियसत्तुउदगे, गहहं पडलोवरि पगासमुहे। सुक्खादीण अलंभे, न य चिंता वा सिलाघंति॥ तक्रतीमनादौ आर्द्र प्रपतति पृथुकाप् कायविराधना भवेदिति मत्वा याः पूपलिका ये च सक्तवो यश्च शुष्कौदन एवमादिकं शुष्कद्रव्यं पटलोपरिस्थिते प्रकाशमुखे भाजने गृह्णन्ति अथ शुष्कादीनां लाभो न भवति। आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचको नच तैरात्मानं पातयन्ति तत आईण गृह्यमाणेन यत्रपटलकादौ खरण्टको लग्नस्तं सम्यक् लक्षयन्ति। गतं भिक्षाद्वारम्। __ अथ भक्तार्थताद्वारमाह। पच्छन्ना सति बहिया, अह समयं तेण चिलिमिली अंतो। असतीए व समयम्मि व, धरति अद्धेयरे मुंजे // संवर्तस्यान्तः प्रच्छन्ने प्रदेशे भक्तार्थन कर्त्तव्यं अथान्तः प्रच्छन्नं नास्ति ततः संवर्तस्य बहिर्गत्वा समुद्देष्टव्यम् अथ बहिः सभयं ततोऽन्तः संवर्तस्याभ्यन्तर एव चिलिमिलिकां दत्वा भोक्तव्यम् / अथ नास्ति चिलमिलिका सभयेवा सान प्रकटीक्रियते / ततोऽर्द्ध साधवो भाजनानि धारयन्ति / इतरे द्वितीया आर्दकमशकेषु भुञ्जते। काले अपहुत्तंते, भए व सत्थे व गंतु कामम्मि / कप्पुपरिभोयणाई, काउं इक्को उपरिवेसो॥ अथवारकेण भुञ्जानानां कालो न पूर्यते भये वात्वरितं भोक्तव्यं यो वा संवर्ते सार्थः स गन्तुकामस्ततः कल्पस्योपरि भोजनानि कृत्वा स्थापयित्वा सर्वेऽपि कमठकादिषु भुञ्जते एकश्च तेषां सर्वेषामपि परिवेषयत्। पत्तेगं वडुगा मंति, मजिलगादेकओ गुरू वीसुं। ओमोणकप्पकरणं, अण्णे गुरुणेकतो वा वि।। प्रत्येकं यदि सर्वेषां वटुकान निमन्त्रितास्ततो ये मन्जिलकाः परस्परंसहोदराभ्रातरः। आदिशब्दादन्येऽपि ये प्रीतिवशेनैकत्र मिलन्ति ते एकतः समुद्दिशन्तिगुरुवोऽपि विश्वग् पृथक्भुञ्जते यदा सर्वेऽपि भुक्ता यस्तत्रावमो लघुस्तेन कमठकानां कल्पकरणं विधेयम् / गुरूणां समक्षं कमठकं तौ सह न मील्येते अन्यस्तस्य कल्पं पृच्छति। अपूर्यमाणेषु साधूनां गुरोश्च कमठकान्येकतोऽपि कल्पयन्ति। भायणस्स कप्पकरणं, हेडिल्लगमुत्तकडुयरुक्खे य / ते असति कमठकप्पर, काउमजीवे पदेसे य॥ भाजनस्य कल्पकरणं दग्धभूमिकायां गोमूत्रभाविते वा भूभागे कटुकवृक्षस्याधस्ताद्वा कर्तव्यम् / तेषां दग्धादिस्थण्डिलानामभावे कमठकेषु घटादिकस्योपरिवा भाजनकल्पं कृत्वा तत्र कल्पानकमन्यत्र नीत्वा स्थण्डिले परिष्ठापयन्ति / गते वा संवर्ते पश्चात्परिभलिनजीवप्रदेशेषु परिष्ठाप्यं सभये वा त्वरमाणाः / स्थण्डिलस्य वा अभावे धर्माधर्मास्तिकायसंबन्धिषु जीवप्रदेशेषु परिष्ठापयामः इति बुद्धिं विधाय अस्थण्डिले परिष्ठापयन्ति / गतं भक्तार्थताद्वारम् / वसतिद्वारमाह। गोणादीवाघातो,अलब्ममाणेव बाहिवसमाणो। वातदिसिसावयभए,अवा उडातेण जग्गणता।। संवर्तस्यान्ते निराबाधे परिमिलिते प्रदेशे वसन्ति अथ तत्र गवादिभिरितस्ततस्तडफडायमानैव्याघातो यद्वा तत्र प्राशुकः प्रप्रदेशो न लभ्यते ततो बहिर्वसतौ यतो घाटिभयं तं भूभागं वर्जयित्वा वसन्ति / अथ तत्र स्वापदभयं ततो यस्यां दिशि वातस्तां वर्जयन्ति येन च परचक्रभयेनतत्र संवर्ते प्रविष्टास्तस्मिन् प्राप्ते सर्वमुपकरणं गुपिले प्रदेशे स्थापयित्वा स्वयमेकतोऽन्यत्र प्रदेशे अपावृताः कायोत्सर्गेण तिष्ठन्ति। स्तेनरक्षणार्थं च वारके ण रजनींसकलामप जाग्रति अथ कस्मादपावृतास्तिष्ठन्तीत्याह। जिणलिंगमप्पडिहयं, अवाउड वा वि दिस्स वखंति। थंभणिमोहणिकरणं, कडजोगे वा भवे करणं / / अचेलतालक्षणं जिनलिङ्ग मप्रतिहतमेवं स्थितानां न कोऽप्युपद्रवं करोतीति भावः / अथवा ते स्तेना अपावृतान् दृष्ट्वा स्वयमेव वर्जयन्ति स्तम्भनीमोहनीविद्याभ्यां च तेषां स्तम्भनमोहने कुर्वन्ति Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरोह 637 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवरोह यो वाकृतयोगः सहस्रयोधी तेन तादृशे आकम्पे गच्छसंरक्षणार्थं करणं शिक्षणं तेषां विधेयम् / गतं संवरद्वारम्। अथ नगराधकद्वारमाहसवठ्ठणग्गयाण, णियट्टण अट्टरोहजयणाए। वसही भत्तट्ठणया,थंडिलविमिंचणो भिक्खो॥ त्ये मासकल्पप्रायोग्या क्षेत्रान्निर्गत्य संवर्तेस्थितास्ते संवर्त्तनिर्गता उच्यन्ते तेषां तत उत्थितानामवस्कन्दादिभयेन भूयोऽपि सवन्निगरं प्रतिनिवर्तना भवति / यद्वा ग्लानादिभिः कारणैः प्रथममेव नगरान्त निर्गतास्ततो नगरवसतावष्टौमासान रोधके यतनया वस्तव्यं / भवति सा च यतना वसतिभक्तार्थनथण्डिलविवचनभैक्ष्यविषया कर्तव्या। तत्र वसतियतनां तावदाहहाणीजाते कट्टा, दो दारा कडगचिलिमिली वसभा। तं चेव एगदारे, मत्तगसुविणं व जयणाए। रोधके तिष्ठद्भिरष्टौ वसतयः प्रत्युपेक्षणीयास्तासु प्रत्येकमृतुबद्धे मासं मासमासितव्यं अष्टानामलाभे सप्तएवं चान्या तावद्वक्तव्यं यावत् संयतानां संयतीनां च (एकट्टति) एकैव वसतिर्भवति। तत्रैकस्यां वसतौ स्थितानां द्वे द्वारे भवतः। अथान्तराले कटकचिलिमिलिका वा वृषभाः कुर्वन्ति / अथ द्वारद्वयं न भवति तत एकद्वारे तमवधिं कुर्वन्ति। कायिकभूमेरप्यभावे मात्रकेण यतन्ते यतनया च स्पप्नं कुर्वन्ति / इति नियुक्तिगाथा समासार्थः। अथ भाष्यकार एनामेव विवृणोतिरोहे उ अद्धमासे, वासासु सुभूमितोणि वा अंति। परबलरद्धेवि पुरे, हाविंतिणि मास कप्पंतु / / अष्टावृतुवद्धिकान् मासान् रोधयित्वा रोधं कृत्वा ततो वर्षासुनृपाः स्वभूमिमात्मीयराज्यभुवं गच्छन्ति साधवश्व रोधके वसन्तः परबलरुद्धेऽपि पुरे मासकल्पं न हापयन्ति किंतु तत्र प्रथमत एवाष्टौ वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः प्रत्युपेक्षणीयाः। अथाष्टौ न प्राप्यन्ते ततः भिक्खस्स व वसहीए. असती सत्तेव चउरोजा। वेकालंभालंभे, एकेकगस्साणगाउ संजोगा। भैक्ष्यस्य वा वसतेर्वा असति सप्त प्रत्युपेक्षणीयास्तदप्राप्तौ षडादिपरिहाण्या चतस्रो यावदेका प्रत्युपेक्षणीया। किमुक्तं भवति वसतयो भिक्षाचर्याश्च यद्यष्टौ न प्राप्यन्ते तत एकै कपरिहाण्या यावदेका वसतिरेकाभिक्षाचर्या / अत्र चएकैकस्यालाभे अलाभे वा अनेके संयोगा भवन्ति / तथाहि अष्टौ वसतयो ऽष्टौ भिक्षाचर्याः, अष्टौ वसतयः | सप्तभिक्षाचर्याः, अष्टौ वसतयः षभिक्षाचर्याः, एवं यावदष्टौ वसतय, एकाभिक्षाचर्या, एवमष्टौ भङ्गा भवन्ति एते चवसतेरष्टकमश्नुवतालब्धाः सप्तकादिभिरप्येककपर्यन्तैरेवमेवाष्टावष्टौ भङ्गा लभ्यन्ते सर्वसंख्यया भङ्ग कानां चतुःषष्टिरुत्तिष्ठते। चतुष्षष्टितमश्च भङ्गक एका वसतिः एका / भिक्षाचर्येति लक्षणः / साचैका वसतिः संयतानां संयतीनां च पृथक् भवति / अथोभयेषामपि योग्या वसतिः प्रत्येकं नावाप्यते तत एकत्रापि वस्तव्यम्। तत्र यतनामाह-- एगत्थ वसंताणं, पिह दुवारासतीयसयकरणं। मज्झेण कडगचिलिमिलि, तेसुन उथेरखुड्डीतो // संयतानां संयतीनां च एकत्र वसतामियं यतनाये द्वित्रिचतुःशालादिकं पृथक् द्वारं तद्गृहं तदा तत्रान्तरे कटकं चिलमिलीं वा दत्वा तिष्ठन्ति। / पृथक्द्वारस्याभावे (सयकरणंति) स्वयमेव कुड्यं छित्वा द्वितीयं द्वारं | कर्त्तव्यं गृहमध्येचि कुड्याभावे कटकचिलिमिलिका वा दातव्या तयोश्च कटकस्य चिलिमिलिकाया वा आसन्नयोरुभयोः पार्श्वयोर्भागादेकस्मिन् स्थविराः साधवो द्वितीये च क्षुल्लिकाः संयत्यो भवन्ति / एतच्चाने व्यक्तीकरिष्यते // अथ तंचेव एगदारेत्ति' पदं व्याख्यातिदारदुयस्स तु असती, मझेदारस्स कडगजुत्ती वा। णिक्खमपवेसवेला, ससहपिंडेण सज्झातो।। यदि द्वारद्वयं न भवति स्वयं च पृथक्वारं कर्तुं न लभ्यते / ततस्तस्यैकद्वारस्य मध्ये कटकं पोत्तिकां वा चिलिमिलीं दत्वा द्विधा विभजनं विधेयम् / तत्रार्द्धन साधवो निर्गच्छन्ति अर्द्धन संयत्य इति / अथ संकीर्ण सा वसतिः नवा विभक्तं लभ्यते ततः परस्पर निर्गमप्रवेशवेलायां वर्जयन्ति यस्य वेलायां संयता निर्गच्छन्ति तस्यां न संयत्य इति निर्गच्छन्तश्च शब्दं कुर्वन्ति पिण्डे न च स्वाध्यायं कुर्वन्ति शृङ्गारकथां न कुर्वन्ति। न वा पठन्ति / अथ स्वप्नं च यतनयेति पदं व्याचष्टे / / अंतम्मि व मज्झम्मिव,तरुणी तरुणा य सव्वबाहिरतो। मज्झे मज्झिमथेरा, खुड्डीखुड्डा य थेरा य / / यास्तरुण्यस्ता अन्ते वा मध्ये वा भवन्ति तरुणास्तु सर्वे बाह्यतः कर्तव्याः ततो मध्ये मध्यमाः स्थविराः क्षुल्लिकाश्च साध्ययस्ततः क्षुल्लकाः स्थविराश्चशब्दान्मध्यमास्तरुणाश्च भवन्तीत्यक्षरार्थः भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवगन्तव्यः / तचेदम् / "तरुणीओ अंते वा सुविनंति मज्झे व तत्थ अंते ताव भन्नइ एगम्मितरुणी उवविजंति तासिं आरता मज्झिमातो तासिं आरतो वेरीउ तासिं आरतो खुड्डीतो खुड्डीणं आरतो थेरा थेराणं आरतो खुड्डा / तेसिम्मि आरतो मज्झिमा तेसिं आरतो तरुणा एवं नवेतरुणीओ तरुणाय अंते जाया इयाणिं जइ मज्झे तरुणीओ उवविजंतितोतासिंउभयतोमज्झिमिया उतासिंबाहिंथेरीओ तासिं बाहिं थेरा तासिं उभयतो खुड्डीओ तासिं परिक्खोवण थेरा तेसिं उभओ खुड्डा तेसिं बाहिं मज्झिमा तेसिं परिखोवणतरुणाए सारत्ति वसंताण जयणत्ति॥ अथ मात्रकपदं व्याख्यातिपत्तेयसमणदिक्खिय-पुरिसाइत्थी य सव्वएगत्थ। पच्छण्णकडगचिलिमिलि, मज्झे वसभा य मत्तेणं / / यत्रोपाश्रयाणामल्पतया राजकीय आदेशो भवेत्ये केचित्पाषण्डिनस्ते सर्वेप्येकत्रैव तिष्ठतामिति तत्र यदि प्रत्येकाः स्त्रीवर्जिताः निर्गन्था शाक्यादयो दीक्षितपुरुषाः सर्वेप्येकस्यां वसतौ स्थिताः याश्च पाषण्डिन्यः स्त्रियस्ता अपि सर्वा एकत्र स्थितास्ततइयं यतना। यः प्रच्छन्नः प्रदेशस्तत्र साधुभिः साध्वीभिश्च स्थातव्यं प्रच्छन्नस्याभावे मध्ये कण्टकं चिलिमिलिकां वा वृषभाः कुर्वन्ति कायिकभूमेरभावे दिवा रात्रौ च मात्राकरणे वृषभा यतन्ते! पच्छन्नअसतिनिण्हग, वोड्डियमिक्खूआसोयसोयाय। पउरदव्वछडगादि, गरहायसअंतरं एको। प्रच्छन्नस्य कण्टकचिलिमिलिकयोश्चाभावे निहवेषु तिष्ठन्ति तदभावे वोटिकेषु तदप्राप्तौ भिक्षुकेषु एतेष्वपि पूर्वमाशोचनादिषु च स्थिता आचमनादिषु क्रियासु प्रचुरद्रव्येण कार्यं कुर्वन्ति छडकं कमठकं तत्र भुञ्जते आदिशब्दादपरेणापि येन ते शौचवादिनो जुगुप्सां न कुर्वन्ति तस्य परिग्रहः / एवं प्रवचनस्यागर्हा परिहृता भवति सान्तरं चोपविष्टा भुञ्जते (एगोत्ति) एकः क्षुल्लकादिः कमठकानां कल्पं करोति। Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरोह ६३८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवरोह अथ पत्तेयसमणदिक्खियत्ति पदं व्याख्याति / पासंडी पुरिसाणं, पासंडित्थीण वा वि पत्तेगो। पासंडित्थियमाणव, एक्कतो होतिमा जयणा // पाखण्डिस्त्रीणां पाखण्डिपुरुषाणां वा प्रत्येकं स्थितानां पाख--- ण्डिस्त्रीपुरुषाणामेकतः स्थितानां वा इयं यतना भवति। जेजह असोयवादी, साधम्मीवा विजत्थबाहिं वा। सा णिहुयाय हुद्दकालेण, दुग्गहोणावसज्झाओ।। ये यथा अशौचवादिनो ये च जीवादिपदार्थास्तिक्यवादित्वेनैकवाक्यत्वेन च साधूनांसाधर्मिकास्तेषु तेषां मध्ये साधुभिर्वासः कर्तव्यः यदा चतत्र द्वयोरपिशैल्ययोः शुद्धकालो भवति तदा निभृता नियापारा भवन्ति / इदमेव व्याचष्टे न विग्रहाः स्वपक्षेण परपक्षेण या सह कलहो न कर्तव्यो नैव च तदानीं स्वाध्यायो विधेयः / गता वसतियतना / भक्तार्थयतनापि पउरदवछड्डगाई इत्यादिना तदेवोक्ता। अथ स्थण्डिलयतनामाह! तं चेव पुव्व भणितं, पत्तेयं दिस्समाण कुरुकुयाय। थंडिल्लसुक्खहरिए, पवायपासे पदेसेसु।। स्थण्डिलं तदेव पूर्वभणितम् "अणावायमसंलोए'' इत्यादिना यथा पीठिकायामुक्तं तथैवात्रापि मन्तव्यम् / प्रथमस्थण्डिलाला भे शेषेषु गच्छतां प्रत्येकं मात्रकग्रहणं भवति सागारिकेण च दृश्यमाने कुरुकुर्या कर्तव्या एवं बहिः स्थण्डिले लभ्यमाने यतना अथ बहिर्न लभ्यते निर्गन्तुं ततो यन्नगराभ्यन्तरे स्थण्डिलमनुज्ञातं तत्र यानि तृणानि शुष्कानि तेषु व्युत्सृजति तेषामभावेदरमलिनेषु मिश्रेषु तदप्राप्तौ हरितेषु सचित्तेष्वपि व्युत्सृजति / अत्र च प्रत्येकानन्तस्थिरास्थिरादियतना सर्वाऽपि कर्तव्या / यथैव नियुक्तौ भणिता। अथ प्रपातेगांयां नदीतटेप्राकारोपरि वाराज्ञाऽनुज्ञातं ततएतेषां पार्श्वे व्युत्सृजन्ति यदि सर्वथैव स्थण्डिलं न लभ्यते अधश्च भूमिं न पश्यन्ति ततो गर्तादिप्रदेशेष्वपि व्युत्सृजन शुद्धः "अथ पत्तेयदिस्समाणो कुरुपायत्ति' पदं व्याख्याति // पढमा सइ अमणुण्णे, तरणे गिहियाणवा दि आभोग। पत्तेयमत्तकुरुकुय, दिवं च पउरं गिहत्थेसु / / तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीणवचआवातं। इत्थी नपुंसकेसु वि, परं सुहो कुरुकुया सेव / / गाथाद्वयमपि पीठिकायां व्याख्यातम् एषा उच्चारयतना भणिता।। अथ शरीरे विवेचनयतनामाहपच्छण्णपुय्वभणियं, विदिण्णथंडिल्लसुक्कहरिएय। अगडवरंडगदीहिय, जलाण पासे पदेसेसु / / यद्यसौ कालं गतः साधुस्तत्र केनापि न ज्ञातस्ततोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणे उपयोगकाले अतीते अन्यलिङ्गं कृत्वा प्रच्छन्नमल्पसागारिकं स्थण्डिले परिष्ठाप्यते अथ ज्ञातस्तदा (पुव्वभणियत्त) यदि नगरान्निर्गमो न लभ्यते प्रत्यपायो वा निर्गतानां भवति ततो नगराभ्यन्तरे पूर्व मिहै व मासकल्पप्रकृते परिष्ठापनिका नियुक्तौ वायो भणितो विधिस्तेनोपाश्रये वाऽपरदक्षिणस्यां दिशि परिष्ठापयन्ति / अथ तस्यां न लभ्यते ततो राजवितीर्णमनुज्ञातं यत् स्थण्डिलं तत्र परिष्ठापयन्ति। अथ स्थण्डिले हरितानि भवन्ति ततः शुष्कतृणेषु तदभावे मिश्रेषु तदप्राप्तौ हरितेष्वपि परिष्ठापयन्ति। अथ राज्ञाभिहितं सर्वैरपि पाषण्डिभिरगडे गर्तायां शवं परित्यक्तव्यं प्रकारवरण्डके वा दीर्घिकायां वा नद्यां वहन्त्यां ज्वलति प्रक्षेप्तव्यं ततएतेषां पार्चे परिष्ठापयन्ति। अथन लभ्यतेपार्श्वतः परित्यक्तुं ततो धर्मास्तिकायादिप्रदेशेषु परिष्ठापयामीति वुद्धिं कृत्वा तत्रैव प्रक्षिपन्ति / अथ राज्ञा वितीर्णे स्थण्डिले परिष्ठापनाविधिमाह / / अन्नाए परलिंग, उवओगंवा तुलेतुमामेत्थं / णाते उड्डाहो वा, अयसो पत्थार दोसो वा / / यद्यसौ तत्राज्ञातस्तदा परलिङ्गं क्रियते तच्चोपयोगाद्वा सान्तर्मुहूतलक्षणं तोलयित्वा प्रतीक्ष्य कर्तव्यं नो मिथ्यात्वं गमिष्यामीति कृत्वा यो जनज्ञातस्तत्र परलिङ्ग न करोति मा उड्डाहो भवेत् उड्डाहो नाम एते मायावन्तः पापा वानपरोपघातकारिणश्चेति इत्थं तेषा-मुड्डाहे जायमाने प्रवचनस्याप्ययशः प्रवादो भवति प्रस्तारदोषश्चकुलगणसंधविनाशलक्षण उपजायते। एतद्दोषपरिहरणार्थं स्वलिंङ्गे नैव परिष्ठाप्यते। अथ भिक्षाद्वारमाहनवि को वि कवि पुच्छति, णितंब हिअंब अंतो वा। आसंकिते पडिसेहो,णिक्कारणकारणे उ जतणे य॥ बोधके अन्तर्नगराभ्यन्तरादहिर्निर्गच्छन्तं बहिः कटकाद्वानगरान्तःप्रवशिन्तं न कोऽपि कंचित्पृच्छति। तत्र स्वेच्छया बहिरन्तर्वा भिक्षामटन्ति। यत्र पुनराशङ्कितंक एषकुतोवा आगतो वेश बहिर्गतः सन् किमपि कथयिष्यति किमर्थं वा निर्गच्छति। ईदृशे आशङ्किते निष्कारणे प्रतिषेधेनगन्तव्यं कारणे तुयतनावक्ष्यमाणा भवति। इदमेव भावयति / पउरण्णपाणगमणा, चउरो मासा हवंति णुग्धाया। * मोत्त इयरे य चत्ता, कुलगणसंघाय पत्थारे॥ प्रचुरानपाने लभ्यमाने यदि बहिर्गच्छति तदा चत्वारो मासा अनुद्धाता भवन्ति आज्ञादयश्च दोषास्तेन साधुना स स्वकीय आत्मा इतरे वाऽभ्यन्तरवर्तिनः साधवः परित्यक्ता भवन्ति तत्र स बहिः सैन्ये गतः पृच्छ्यमानेऽपि यदा किमपि नाख्यातितदाचारकोऽयमिति मत्वा गृह्यते। अभ्यन्तरवर्तिनस्तु अमीषां सहायिनः प्रव्रजितोऽयं निर्गतस्तेन भेदः प्रदत्त इति कृत्वा गृह्यन्ते। एवं कुलगणसं घप्रस्तारोऽपि राज्ञा क्रियते ततो निष्कारणे न गन्तव्यम्। अंतो अलब्भमाणे, असणमाईसु होति जइतव्वं / जावंतिए विसोधी, असव्दमादी अलामे वा।। अन्तर्मध्ये प्रासुकैषणीये अलभ्यमाने पञ्चकपरिहाणिक्रमेणैषणादिषु दोषेषु नगराभ्यन्तर एव यतितव्यं यावत् यावन्तिकादिरूपेषु विशोधिकोटिदोषेषु यतमानश्चतुर्लघुप्राप्तो भवति तथाप्यलम्भे अमात्यमादिशब्दाद्वा न श्रद्धान् श्रद्धादीन् वा प्रज्ञापयन्ति ते यद्यविशोधिकोटिदोषैर्दुष्टं प्रयच्छन्ति तदा तदपि गृह्यते न पुनर्बहिगन्तव्यमा अथ तथापिन लभ्यते ततः।। आपुच्छित आरक्खित,सेट्ठी सेणावती रायाणं। णिग्गमणविट्ठडूवे, भासा य तहिं असावज्जा।। आरक्षिकः कोट्टपालस्तमागच्छन्ति / वयमत्र संस्तरामस्ततो बहिनिर्गच्छतां द्वारं प्रयच्छत यद्यसौ ब्रूयात् मा निर्गच्छत / अहं भवतां पर्याप्तं दास्यामि ततो गृह्यते / अथं ब्रूयात् नास्ति में किंचिद्भक्तं दातव्यं युष्मांश्च विसर्जयन् राज्ञो विभेमि। ततः श्रेष्ठिनं पृच्छत ततः श्रेष्ठिनमापृच्छन्ति / एवं सेनापतिममात्ये राजान वा पृच्छन्ति ततो यदि राज्ञाऽपि विसर्जितास्तदा निर्गम Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवरोह 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवल न कुर्वन्ति द्वार पालानां च साधवो दर्श्यन्ते यथा एतान् दृष्टरूपान् कुरुत सावगसण्णि ठाणे, न वि ते कतरं इए य भत्तटुं। भिक्षाग्रहणार्थमेते निर्गमिष्यन्ति प्रवेशयिष्यन्ति वा न किंविद्भव- तेसमतीआ लोए, वडगकुरुयादिसिं चेव / / विक्तव्यम्। तत्र च बहिर्गतैरसावद्या भाषा भाषितव्या। यत्र श्रावकः श्राविका वा एतद्द्वयमपि यदितं साधुसामाचारी-कुशलं अमुमेवार्थं स्पष्टयति। तत्र स्थाने भक्तार्थयन्ति तदलाभे यत्रैकतरं साधुं सामाचारिचतुरं तत्र मा वयह दाहामि, संकाए वाणविंति निग्गंतुं / समुद्देष्टव्यमेकतरस्यापि खेदज्ञस्याभावे इतरेषु अखेदज्ञेष्वपि श्रायकेषु दाणम्मि होइ गहणं, अणुसद्वादीणि पडिसेधे // यथा भद्रकेषु वा भक्तार्थयितव्यम्। तेषामभावे अटव्यामालोके अशङ्खनीये आरक्षिकादयः पृष्ठाः सन्तो भणन्ति मा व्रजत वयं भक्तं दास्यामहे तेच सप्रकाशे प्रदेशे समुद्दिशति / वट्टककुरुकुयादिकाऽनुरूपा सैव यतना भेदशङ्कया साधूनां निर्गन्तुं न ददति ततो यद्यविशुद्धमपि ते प्रयच्छन्ति कर्त्तव्या। शैक्षस्तुयदि कोऽप्युपतिष्ठते तदा न प्रव्राजनीयः। अथ कोऽपि तदा तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् / अथ पडिसेहेत्ति भक्तं न च निर्गन्तुं ददति स्वयमेव लिङ्गं कृत्वा प्रविशति ततो वक्तव्यं वयं गणितानामङ्किता एव ततोऽनुशिष्टिधर्मकथादीनि प्रयुज्यन्ते॥ द्वारेण निर्गतास्ततस्तं तत्र गतः सन् गृहीत्वा विनाशयिष्यत एव मुक्तेऽपि बहिया वि गमेऊणं, आरक्खितमाहि णो तहिं णिति। यद्यसावागच्छति तदा द्वारं प्राप्ता द्वारपालं भणन्ति न जानीमो वयं हितणद्ववारिगाही, एवं दोसा जढा हों ति॥ कमप्येनम् / अस्मानेतान् दृष्टरूपान् कुरुत। बहिरपि गता एवमेवारक्षिक श्रेष्ठिप्रभृतीन गमयित्वा प्रज्ञाप्त तत्र तत्तुट्ठियवाहट्ठो, पुणरविघेत्तुं अधिंति पज्जत्तं / / भिक्षामटन्ति एवं कुर्वद्भिर्हतनष्टचारिकादयो दोषाः परिहता भवन्ति। ये अणुसड्डीदारोटे अण्णो वसती जयं अंतं / / साधवो बहिः प्रस्थाप्यन्ते ते अमीभिर्गुणैर्युक्ता भवन्ति। एवं भक्तपानं पर्याप्तं गृहीत्वा भक्तार्थिता कृता न जना वाहाडितापियधम्मे दढधम्मे, संबंधविकारिणा करणदक्खे। स्तद्भुक्तन्यूनभाजनाः पुनरपि नगरं अधियन्ति / प्रविशन्ति / यद्धि पडिवत्तीसु य कुकले, तभूमे पेसए बहिता॥ द्वारस्थो द्वारपालो मार्गयति पौगलिकां मे यच्छत ततोऽनुशिष्टिः कर्त्तव्या। प्रियधर्मणो दृढधर्मणश्च प्रतीतान् (संबंधत्ति) येषामन्तर्बहिश्च अन्यो वायदि कोऽप्यनुकम्पया ददाति। तदानवारणीयः तस्या सत्यभावे स्वजनसंबन्धो भवति / अविकारिणो नाम नोद्भटवेषा न वा कन्दर्प यदन्नं प्राप्तं तद्दीयते। शीलास्तान् करणदक्षान् भिक्षाग्रहणादिक्रियासु परिच्छेदवतः / रुद्ध वोच्छिन्ने वा-होरोह दो वि कारणं दीवे / प्रतिपत्तिः। प्रतिवचनप्रदानं तत्र कुशलान् (तंभूमित्ति) यो बहिः इहरा वारियसंका, अकालउरवेदमादीसु॥ स्कन्धावार आगतस्तस्य भूमौ जातवर्द्धितान् एवंविधान् साधुन् बहिः अथ निर्गतानां द्वारं रुद्धं स्थगितं गमागमौ वा व्यवच्छिन्नौततस्त-तो प्रेषयेत्। भासायतहिं असेवेज्जति' पदं व्याचिख्यासुराह-- द्वयेऽपि आभ्यन्तरा बाह्याश्च साधवो द्वारस्थस्य मार्गकारणं दीपयन्ति। केवतिय आसहत्थी, जोधा घण्णं वि कित्तियं णगरे। आभ्यन्तरा ब्रुवते अस्माकं साधवो निर्गता बहिश्चरुद्धाः बाह्या बुवते वयं परितंतमपरितंती, नागासेणावणविजाणे॥ कारणे भिक्षायां बहिर्निर्गताः परं द्वाराणि निरुद्धानि इतरथा यदि न बाह्यस्कन्धावारसत्काः पृच्छेयुः नगराभ्यन्तरे कियन्तोऽश्वा हस्तिनो कथयन्ति ततोऽकाले रात्रौ वा विकाले वा यद्यवस्कन्दोधाटिः तदादीनि योधा वा सज्जिताः सन्ति धान्यं वा कियन्नगरेऽस्ति नागराः पौराः सेना तदा चारिकशङ्का भवेत् ये साधवो निर्गतास्ते ऽत्र न प्रविष्ठास्ते न वा परितान्ता रोधकेण 'ठियाउपरितांतो अतुट्टिया' एवं पृष्ट वक्तव्यं न | चारिकास्ते आगता आसीरन्निति। जानेऽहम्। ब्रवीरन् तत्रैव च सन्तः कथं न जानीता साधवो ब्रुवते॥ बाहिं वसिउकामं, अंतिणती पेल्लणा अणिच्छंते। सुणमाण विमो सज्झा-यज्झाणनिचमा उत्ता। गुरुगा पराजयजए,वितियं रुद्ध व वोच्छिण्णे॥ सावजं सोऊण वि, णहु लब्माइक्खिओ जतिणो॥ बहिर्निर्गतनां कोऽप्येकश्चिन्तयेत् युक्तोऽस्मिन्नेववारके वासो न भूयः वयं स्वाध्यायध्यानयोर्नित्यमायुक्ताः सन्त शृणुतोऽपि वार्तातरं नि / प्रविशामि अत्र सूत्रमवतरति एवं बहिर्वसन्तं प्रज्ञापयन्ति आर्य्य ! सूत्रे शृणुमः / अपि च सावद्यं श्रुत्वाऽपि यतीनामन्यस्याख्यातुं न लभ्यते। न प्रतिषिद्धं वर्तते बहिर्वस्तुद्वयोर्जिनराजाज्ञयोरतिकृतो भवति। एवं प्रज्ञाप्य युज्यते / अन्तः प्रविष्टस्य तु यदि कोऽपि पृच्छति तदा वक्तव्यं नगरं प्रवेशयन्ति। अथनेच्छन्ति प्रवेष्टुं ततः (पेल्लणत्ति) वलान्मोटिकया भिक्षाधुपयोगेन न ज्ञातमन्तर्बहिश्च साधारणमिदमुत्तरं "शृणोति बहु शेषैः स प्रवेषनीयः यदि न प्रवेशयन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः कर्णाभ्यामक्षिभ्यां बहु पश्यति। न च दृष्टं श्रुतं सर्वं भिक्षुराख्यातुमर्हति" कदाचिदाभ्यन्तराणां पराजयो ऽपरेषां च जयो भवेत्तत एभिर्भेदः प्रदत्त एवं भैक्ष्यमटित्वा पर्याप्त संजाते सति किं कर्तव्यमित्याह।। इति शङ्कया प्रस्तारदोषा भवेयुः द्वितीयपदमत्र भवति बहिर्निर्गतस्त भत्तट्ठाणसलोए, मोत्तूणं संकिताइ ठाणाइ। सर्वतोऽपि नगरं निरुद्धं गमागमः सर्वथैव व्यवच्छिन्न इति कृत्वा तत्रापि सचित्ते पडिसेधो, अतिगहणं दिट्ठरूवाणं॥ वसनं शुद्धः। वृ०३ उ०॥ भक्तार्थं न वा जनमालोके प्रकाशे भवति / यानि शङ्कितानिचरि- उवरोहि(ण) त्रि०(उपरोधिन्) पीडाकारिणि, आव०४ अ०। कादिशङ्काविषयभूतानि यानि गुपिलानि स्थानानि तानि मुक्त्वा तेषु न उवल पुं०(उपल) उप--ला-आदाने, टङ्काधुपकरणपरिकर्मणा यो-ग्ये विधेयमित्यर्थः / यश्च सचित्तः प्रव्रजितुमुपतिष्ठते तत्र प्रतिसिद्धः स न पाषाणे, प्रज्ञा०१ पद / जी० ! गण्डशैलपाषाणखण्डादिरूपे प्रव्राजयितव्यः किं तु ये पूर्वं द्वारपालेन दृष्टरूपाः कृतास्तेषा- पृथ्वीकायभेदे, उत्त०३६ अ०१ दग्धपाषाणे, भ०५ श०२ उ०। मेवान्तिकगमनं भूयः प्रवेशो भवति एषा बह्वर्थसंग्राहिका नियुक्तिगाथा। छिन्नपाषाणे, वृ०४उ०सामान्यतः पाषाणे, विशे० / आ० म०प्र०। अथैनां भाष्यकृद्विवृणोति। कर्करे, अष्ट। Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवलंभ 140- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवलद्धि उवलंभ पुं०(उपलम्भ) उप-लभ-घञ्-मुम्। लाभे,विशे०। ज्ञाने च। | जीवाद्युपलम्भो वाच्यः। आ०म०प्र०। उवलद्ध त्रि०(उपलब्ध) उप-लभ-क्त। परिज्ञाते, "अह णं स होइ उवलद्धो, तो पेसंति तहाभूएहिं अन्नाउच्छेद पेहेहिं" सूत्र०१ श्रु०४ अ० २उ०। यथावस्थितस्वरूपेण विज्ञाते, दशा०१०अ०। रा०। उवलद्धपुण्णपाव त्रि०(उपलब्धपुण्यपाप) उपलब्धे यथावस्थितस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे येन स उपलब्धपुण्यपापः / तत्वतो विज्ञातपुण्यपापे, दशा० 10 अ०रा०। उवलद्धि स्त्री०(उपलब्धि) उपलम्भनमुपलब्धिः ज्ञाने, विशे०| उपलब्धिः पञ्चविधा "सारिक्खविवक्खे विवक्खोभवे ओवमा गमतो य"उपलब्धिः सादृश्यतो विपक्षत उभयधर्मदर्शनत औपम्यत आगमतश्च / / अधुना सादृश्यतो विपक्षतश्चोपलब्धिमाहसारिक्खविवक्खेहिय, लभति परोक्खेवि अक्खरं कोई। सवलेरबाहुलेरा, जह अहि नउला य अणुमाणे // कश्चित्परोक्षेऽप्यर्थे सादृश्यादक्षरं लभते यथाशावलियबाहुलेयाक्षराणि तथाहि कश्चित् शावलेयं दृष्ट्वा तत्सादृश्यात्परोक्षेऽपि बाहुलेये तदक्षराणि लभते / ईदृशो बाहुलेय इति तथा कश्चिद्वैपक्ष्येण परोक्षेऽर्थे तदक्षरं लभते / यथा अहिदर्शनान्नकुलानुमाने नकुलदर्शनाद्वा सप्पानुमाने / संप्रत्युभयधर्मदर्शनत उभया क्षरलब्धिमाहएगत्थे उवलद्धे, कम्मि वि उभयत्थ पचओ होइ। अस्सतरे खरसाणं, गुलदहियाणं सिहरिणीए॥ कस्मिंश्चिदुभयधर्मा याऽनुमितिः उभयावयवयोगिनि वा एकस्मि-अर्थे , उपलब्धे उभयत्र परोक्षे प्रत्ययस्तदक्षरलाभो भवति यथा अश्वतरे वेगसरे दृष्ट खरस्य अश्वस्य च प्रत्ययस्तदक्षरलाभो यथा वा सिखरिण्यामुपलब्धायां गुडदध्नः प्रत्ययो गुडदध्यक्षरलाभः। औपम्यत उपलब्धिमाहपुटवं पि अणुवलद्धो, धिप्पइ अत्थो उ कोइ ओवम्मा। जह गो एवं गवयो, किंचिविसेसेण परिहीणो।। पूर्वमनुपलब्धोऽपि कोऽप्यर्थ औपम्याद् गृह्यते यथा गोरैवं गवयो नवरं किंचिद्विशेषेण परिहीनः कम्बलकविरहित इत्यर्थः / अत्रेयं भावना यथा गौस्तथा गवय इति श्रुत्वा कालान्तरेणाटव्यां पर्यटन् गवयं दृष्ट्वा गवयोऽयमितियदक्षरजातं लभते एषा औपम्योपलब्धिः। इदानीमागमत उपलब्धिमाहअत्तागमप्पमाणेण, अक्खरं किंचि अविसयत्थेवि। भविया भविया कुरवो, नारगदिवलोय मोक्खो या / / आप्ताः सर्वज्ञास्तत्प्रणीतआगम आप्तागमः स एव प्रमाणमातागमप्रमाणं तेन अविषयेऽप्यर्थे किंचिदक्षरं लभते यथा भव्योऽभव्यो देवकुरव उत्तरकुरवो नारका देवलोको मोक्षः चशब्दादन्येच भावा / इयमत्र भावाना। आप्तागमप्रामाण्यवशात्तस्मिन् तस्मिन् वस्तुनि योऽक्षरलाभो यथा भव्य इति अभव्य इति देवकुरव इत्यादिसा आगमोपलब्धिः / एषा सर्वाप्युपलब्धिः संज्ञिनां भवति असंज्ञिनांतु का वार्तेत्यतआह.. उस्सनेण असन्नीण, अत्थं लंभे वि अक्खरं नत्थि। अत्थो चिय सन्नीणं तु, अक्खरं निच्छए भयणा / / असंज्ञिनामर्थलाभेऽपि अर्थदर्शनेऽप्युत्सन्नेन एकान्तेन नास्त्य क्षरलाभः तथाहि शशशब्दं श्रुत्वाऽपि न तेषामेषा लब्धिरुपजायते यथायं शतशब्द इति एवं शेषेन्द्रियेष्वपि भावनीयम् / संज्ञिनां पुनरर्थ एवाक्षरमोंपलम्भकालएवाक्षरलाभोयथा शङ्खशब्द इति निश्चये पुनर्भजना शङ्खशब्द एवायंशाङ्गशब्द एवायमिति वा निश्चयगमनं स्याद्वानवा एवं शेषेन्द्रियेष्वपि भावनीयम्॥ वृ०१उ०। अथोपलब्धिं प्रकारान्तरतो दर्शयति / उपलब्धेरपि द्वैविध्यमविरुद्धोपलब्धिर्विरुद्धोपलब्धिश्चेति / न केवलमुपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यां भिद्यमानत्वेन हेतोर्द्वविध्यमित्यपेरर्थः अविरुद्धोऽविरुद्धश्चात्र साध्येन सार्द्ध द्रष्टव्यस्ततस्तस्योपलब्धिरिति / आद्याया भेदानाहुः / तत्राविरुद्धोपलब्धिर्विधिसिद्धौ षोढेति / / तानेव व्याख्याति / साध्येनाविरुद्धानां व्याप्यकार्यकारणपूर्खचरोत्तरचरसहचराणामुपलब्धिरिति / ततो व्याप्या विरुद्धोपलब्धिः कार्याविरुद्धोपलब्धिः कारणाविरुद्धोपलब्धिः पूर्वचराविरुद्धोपलब्धिः उत्तरचराविरुद्धोपलब्धिः सहचराविरुद्धोपलब्धिरितिषट्-प्रकारा भवति। तत्र हि साध्य शब्दस्य परिणामित्वादितस्याविरुद्धं व्याप्यादि प्रयत्नान्तरीयकत्वादि वक्ष्यमाणं तदुपलब्धिरिति। अथ भिक्षुर्भाषते। विधिसिद्धौ स्वभावकार्ये एव साधने साधीयसी न कारणं तस्यावश्यतया कार्योत्पादकत्वाभावात्प्रतिबद्धावस्थस्य मुर्मुरावस्थस्य वा धूमस्यापि धूमध्वजस्य दर्शनात् / अप्रतिबद्धसामर्थ्यमुग्रसामग्रीकं च तद्गमकमिति चेदेवमेतत्किं तु नैतादृशमर्वाग्दृशावसातुं शक्यमिति तन्निराकतु कीर्तयन्ति / तमस्विन्यामास्वाद्यमानादामादिफलरसादेकसामग्रयनुमित्या रूपाद्यनुमितिमभिमन्यमानैरभिमतमेव किमपि कारणं हेतुतया यत्र शक्तेरप्रतिस्खलनमपरकारणसाकल्यं चेति / तमस्विन्यामिति रूपाप्रत्यक्षत्वसूचनाय शक्तेरप्रतिस्खलनं सामर्थ्यस्याप्रतिबन्धः / अपरकारणसाकल्यंशेषनिः शेषसहकारिसंपर्कः रजन्यां रस्यमानात्किल रसात्तजनकसामग्यनुमानं ततोऽपि रूपानुमानं भवति / प्राक्तनो हिरूपक्षणः सजातीयरूपान्तरक्षणलक्षणं कार्यं कुर्वन्नेव विजातीयं रसलक्षणं कार्य करोतीति प्राक्तनरूपक्षणात्सजातीयोत्पाद्यरूपक्षणान्तरानुमानं मन्यमानैः सौगतैरनुमतमेव किंचित्कारणं हेतुर्यस्मिन् सामाप्रतिबन्धः कारणान्तरसाकल्यं च निश्चेतुं शक्यते / / अथ तन्नैतत्कारणात्कार्यानुमानं किं तु स्वभावानुमानमदः ईदृशरूपान्तरोत्पादसमर्थमिदं रूपमीदृशरसजनकत्वादित्येवं तत्स्वभावभूतस्यैव तज्जननसामर्थ्यस्यानुमानादिति चेन्नन्वेतदनि प्रतिबन्धाभावकारणान्तरसाकल्यनिर्णयमन्तरेण नोपपद्यत एव तन्निश्चये तु यदि कारणादेव कस्मात्कार्यमनुमास्यते तदा कि नाम दुश्चरितं चेतस्वी विचारयेत् / एवमस्त्यत्र छायाछत्रादित्यादीन्यव्यभिचारनिश्चयादनुमानान्येवेत्युक्तं भवति / अथ पूर्वचरोत्तरचरयोः स्वभावकार्यकारणहेत्वनन्तरभावाद्वेदान्तरत्वं समर्थयन्ति / पूर्वचरोत्तरचरयोर्न स्वभावकार्यकारणभावौ तयोः कालव्यवहितानुपलम्भादिति। साध्यसाधनयोस्तादात्म्येसति। स्वभावहेतौ तदुत्पत्तौ तु कार्ये कारणे वाऽन्तर्भावो विभाव्यते नचैतत्तादात्म्यं हेतु समसमयस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वपरिणामित्वादेरुपपन्नं तदुत्पत्तिश्चान्योन्यमव्यवहितस्यैव धूमधूमध्वजादेः समधिगता नतु व्यवहितकालस्यातिप्रसक्तेः / ननु कालव्यवधानेऽपि कार्यकारणभावो भवत्येव। जाग्रबोधप्रबोधयोमरणारिष्टयोश्च तथा दर्शनादिति प्रतिजानानं प्रज्ञाकरं प्रतिक्षिपन्ति / नचातिक्रान्तानागतयोर्जाग्रद्दशासंवेदनमरणयोः प्रबोधोत्पत्तौ प्रति कारणत्वं व्यवहितत्वेन नियापारत्वादिति / अयमर्थः जाग्रद्दशासंवेदनमतीतं सुप्तावस्थोत्तरकालभाविज्ञानं वर्तमान प्रतिमरणं वा Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवलद्धि 641 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवलद्धि नागतं धुवावीक्षणादिकमरिष्टं सांप्रतिकं प्रतिव्यवहितत्वेन व्यापारपराङ्मुखमिति कथं तत्तत्र कारणत्वमवलम्बेत निर्व्यापार स्यापि तत्कल्पने सर्व सर्वस्य कारणं स्यात् / इदमेव भावयन्ति / / स्वव्यापारोपेक्षिणो हि कार्य प्रति पदार्थस्य कारणत्वव्यवस्था कुलालस्येव कलशं प्रतीति अन्वयव्यतिरेकावसेयो हि सर्वत्र कार्यकारणभावस्तौ च कार्यस्य कारणव्यापारसव्यपेक्षावेव युज्येते कुम्भस्यैव कुम्भकारव्यापारसव्यपेक्षाविति / ननु चातिक्रान्तानागतयोर्व्यवहि तत्वेऽपि व्यापारः कथं न स्यादित्यारेकामधरयन्ति // उचव्यवहितयोस्तयोापारपरिकल्पनं न्याय्यमतिप्रसक्ते रिति / तयोरतिक्रान्तानागतयोगिद्दशासंवेदनमरणयोः / अतिप्रसक्ति मेव भावयन्ति / परंपराव्यवहितानां परेषामपि तत्कल्पनस्य निदारयितुमशक्यत्वादिति परेषामपिरावणशंखचक्रवादीनांतत्कल्पनस्य व्यापारकल्पनस्य / अथान्वयव्यतिरेकसमधिगम्यः कार्यकारणभावस्ततो व्यवधानाविशेषेऽपि यस्यैव कार्यमन्वयव्यतिरेकावनुकरोति तदेव तत्कारणमन्यथा व्यवधानाविशेषेऽपि किंन काष्ठकृशानुक्त्तत्र स्थित एव शर्कराकणनिकरोऽपि धूमकारणं स्यात्ततो नातिप्रसङ्ग इति चेन्नन्वन्वयस्तद् भावे भावः स चात्र तावन्नास्त्येव जाग्रद्दशासंवेदनमरणयोरभाव एव सर्वदा उत्कार्योत्पादात् / अथ स्वकार्ले सतोरेव तयोस्तत्कार्योसत्तेरन्वयः कथं न स्यादिति चेत्तर्हि ईदृशोऽयं रावणादिभिरव्यस्यास्त्येव सत्यमस्त्येव व्यतिरेकस्तु रिक्त इति चेन्ननु कोऽयंव्यतिरेको नाम तदभावेऽभाव इति चेत्तर्हि जाग्रहशासंवेदनादेकथं स्यात्तदभाव एव सर्वदा प्रबोधादेर्भावात् स्वकाले त्वभावस्तस्य नास्त्येवेति कथं व्यतिरेकः सिद्धिमधिवसेदिति न व्यवहितयोः कार्यकारणभावः संभवति / सहचरहेतोरपि स्वभावकार्यकारणेषु नान्तर्भाव इति दर्शयन्ति / सहचारिणोः परस्परस्वरूपपरित्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्च सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेश इति। यदि हि सहसंचरणशीलयोर्वस्तुनोस्तादात्म्यं स्यात्तदा परस्पर-परिहारेण स्वरूपान्तरोपलम्भोन भवेदथतदुत्पत्तिस्तदा पौर्वापर्येणोत्पादप्रसङ्गात्सहोत्पादो न स्यात् नचैवं ततो नास्य प्राप्तेषु स्वभावकार्यकाररणेष्वन्तर्भावः / इदानीं मन्दमतिव्युत्पत्तिनिमित्त साधर्म्यवैधाभ्यां पञ्चावयवां व्याप्याविरुद्धोपलब्धिमुदाहरन्ति।ध्वनिः परिणतिमान् प्रयत्नानन्तरीयकत्वाद्यः प्रयत्नानन्तरीयकः स परिणतिनान्यथा स्तम्भः यो वा न परिणतिमान् स न प्रयत्नानन्तरीयको यथा वान्ध्येयः प्रयत्नानन्तरीयकश्च ध्वनिस्तस्मात्परिणतिमानिति व्याप्यस्य साध्येनाविरुद्धस्योपलब्धिः साधर्म्यण वैधर्येण चेति / अत्र ध्वनिः परिणतिमानिति साध्यधर्मविशिष्टधर्माभिधानरूपा प्रतिज्ञा प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति हेतुः यः प्रयत्नानन्तरीयक इत्यादि तु व्याप्तिप्रदर्शनपूर्वी साधर्म्यवैधाभ्यां स्तम्भबान्ध्ये यरूपौ दृष्टान्तौ / प्रयत्नानन्तरीयकश्च ध्वनिरित्युपनयस्तस्मात्परिणतिमानिति निगमनम् / यद्यपि व्याप्यत्वं कार्यादिहेतूनामप्यस्ति साध्येन व्याप्यत्वात्तथापि तन्नेह विवक्षितं किं तु साध्येन तदात्मीभूतस्वकार्यादिरूपस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेः स्वरूपमित्यदोषः / / अथ कार्याविरुद्धोपलब्ध्यादीनुदाहरन्ति अस्त्यत्र गिरिनिकु जे धनञ्जयो धूमसमुपलम्भादिति कार्यस्येति / साध्येनाविरुद्धस्योपलब्धिवरिति पूर्वसूत्रादिहोत्तरत्र चानुवर्तनीयम् / भविष्यति वर्ष तथाविधवारिवाहविलोकनादिति कारण स्येति तथाविधेति सातिशयोन्नतत्वादिधर्मोपेतत्वं गृह्यते। उदेष्यति मुहूर्तान्ते तिष्यतारका पुनर्वसूदयदर्शनादिति पूर्वचरस्येति तिष्यतारकेति पुष्यनक्षत्रम्॥ उद्गुर्मुहूत्पूिर्व पूर्वफल्गुन्य उत्तर-फाल्गुनीनामुद्गमोपलब्धेरित्युत्तरचरस्येति / अस्तीह सहकारफ-लरूपविशेषः समास्वाद्यमानसविशेषादिति सहचरस्येति / इयं च साक्षात्षोढा विरुद्धोपलब्धिरुक्ता / परंपरया पुनः संभवन्तीयमत्रैवान्तर्भावनीया / तद्यथा कार्यकार्याविरुद्धोपलब्धिः कार्या विरुद्धोपलब्धौ अन्तर्भवतीति योगः अभूदत्रकोशः कलशोपलम्भादिति कोशस्य हि कार्यकुशूलस्तस्य चाविरुद्धं कार्य कुम्भ इति एवमन्याऽप्यत्रैवान्तर्भावनीया / अधुना विरुद्धोपलब्धिभेदानाहुः // विरुद्धोपलब्धिस्तु प्रतिषेधप्रतिपत्तौ सप्त प्रकारेति / प्रथमप्रकारं प्राक् प्रकाशयन्ति / तत्राद्या स्वभावविरुद्धोपलब्धिरिति / प्रतिषेध्यस्यार्थस्य यः स्वभावः स्वरूपं तेन सह यत्साक्षाद्विरुद्धं तस्योपलब्धिःस्वभावविरुद्धोपलब्धिःएतामुदाहरन्ति नास्त्येव सर्वथैकान्तोऽनेकान्तस्योपलम्भादिति / स्पष्टो हि सर्वथैकान्तानेकान्तयोः साक्षाद्विरोधो भावाभावयोरिवानन्वयमलुपलब्धिहेतुरेवयुक्तो यावान् कश्चित्प्रतिषेधः स सर्वोपलब्धिरितिवचनादिति चेत्तन्मलीमसमुपलम्भाभावस्यात्र हेतुत्वेनानुपन्यासात्। अथ विरुद्धयोः सर्वथैकान्तानेकान्तयोर्वतिशीतस्पर्शयोरिव प्रथमं विरोधः स्वभावानुपलब्ध्या प्रतिपन्न इत्यनुपलब्धिमूलत्वात्स्वभावविरोधोपलब्धेरनुपलब्धिरूपत्वं युक्तमेवेति चेत्तर्हि साध्यधम्मिणि भूधरादौ साधने च धूमादावध्यक्षीकृते सतीदमप्यनुमान प्रवर्तते इति प्रत्यक्षमूलत्वात् इदमपि प्रत्यक्षं किं नस्यात्। विरुद्धोपलब्धेराद्यप्रकारं प्रदर्श्य शेषानाख्याति / प्रतिषेध्यविरुद्धव्याप्तादीनामुपलब्धयः षडिति प्रतिषेध्येनार्थेन सह ये साक्षाद्विरुद्धास्तेषां ये व्याप्तादयो व्याप्यकार्यकारणपूर्ववरोत्तरचरसहचरास्तेषामुपलब्धयः षड् भवन्ति / विरुद्धव्याप्तोपलब्धिर्विरुद्धकार्योपलब्धिर्विरुद्धकारणोपलब्धिर्विरुद्धपूर्वचरोपलब्धिर्विरुद्धोत्तरचरोपलब्धिर्विरुद्धसहचरो पलब्धिश्चेति / क्रमेणासामुदाहरणान्याहुः / विरुद्धच्याप्तोपलब्धिर्यथा नास्त्यस्य पुंसस्तत्वेषु निश्चयस्तत्र संदेहादिति। अत्र हि जीवादितत्वगोचरो निश्चयः प्रतिषेध्यस्तद्विरुद्धश्वानिश्चयस्तेन व्याप्तस्य संदेहस्योपलब्धिः / विरुद्धकार्योपलब्धिर्यथा न विद्यतेऽस्य क्रोधाद्युपशान्तिर्वदनविकारादेरितिवदन-विकारस्ताम्रतादिरादिशब्दादधरस्फुरणादिपरिग्रहः / अत्र च प्रतिषेध्यः क्रोधाद्युपशमस्तद्विरुद्धस्तदनुपशमस्तत्कार्यस्य वदनविकारादेरुपलब्धिः। विरुद्धकारणोपलब्धिर्यथा नास्य महर्षेरसत्यं वचः समस्ति रागद्वेषकालुष्याकलङ्कितज्ञानसंपन्नत्वादिति प्रतिषेध्येन ह्यसत्येन सह विरुद्धं सत्यं तस्य कारणं रागद्वेषकालु-ष्याकलङ्कितज्ञानं तत्कुतश्चित्सूक्ताभिधानादेः सिद्ध्यत्सत्यं साधयति। तच सिध्यदसत्यं प्रतिषेधति विरुद्धपूर्वचरोपलब्धिर्यथा नोद्गमिष्यति मुहूर्तान्तेपुष्यतारा रोहिण्युदमादिति / प्रतिषेध्योऽत्र पुष्यतारोद्गमस्तद्विरुद्धो मृगशीर्षोदयस्तदनन्तरं पुनर्वसूदयस्यैव भावात्। तत्पूर्वचरो रोहिण्युदयस्तस्योपलब्धिर्विरुद्धोत्तरचरोपलब्धिर्यथा नोदगान्मुहूर्तात्पूर्व मृगशिरः पूर्वफाल्गुल्युदयादिति / प्रतिषेध्योऽत्र मृगशीर्षोदयस्तद्विरुद्धो मघोदयोऽनन्तरमाोदयादेरेवभावात्तदुत्तरचरः पूर्वफल्गुन्युदयस्तस्योपलब्धिर्विरुद्धसहचरोपलब्धिर्यथा नास्त्यस्य मिथ्याज्ञानं सम्यग्दर्शनादिति प्रतिषेध्यन हि मिथ्याज्ञानेन सह विरुद्धं सम्यग्ज्ञानं तत्सहचरं सम्यग्दर्शनं तच प्राण्यनुकम्पादेः कुतश्चिल्लिङ्गात्प्रसिध्यत्सहचरं सम्यग्ज्ञानं साधयति / इयं च सप्तप्रकारापि विरुद्धोपलब्धिः / / प्रतिषेध्येनार्थेन साक्षाद्विरोधमाश्रित्योक्ता परंपरया विरोधाश्रयणेन त्वनेकप्रकारा विरुद्धोपलब्धिः संभवत्यत्रैवाभियुक्तैरन्तभावनीया। तद्यथा कार्यविरुद्धोपलब्धियापकविरुद्धोपलब्धिः कारणविरुद्धोपलब्धिरिति त्रयं स्वभावविरुद्धोपलब्धौ / तत्र कार्य वि . Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवलद्धि 142 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय रुद्धोपलब्धिर्यथा नात्र देहिनि दुःखकारणमस्ति सुखोपलम्भादिति उववण्ण त्रि०(उपपन्न) उप-पद्-क्ता उत्पन्ने, "उववण्णो माणुसम्मि साक्षादत्र सुखदुःखयोर्विरोधः प्रतिषेध्यस्वभावेन तु दुःखकारणेन लोगम्मि" उत्त०६ अ० "दोच्चं पुढवीएनारगा उववन्ना" नि०यू०११ परंपरया / व्यापकविरुद्धोपलब्धिर्यथा न सन्निकर्षादिः प्रमाणम- उ०।युक्त्या घटमानके, सूत्र०१ श्रु०१अ०। सङ्गते, पंचा०६ विव०। ज्ञानत्वादिति। साक्षादत्र ज्ञानत्वा ज्ञानत्वयोर्विरोधः प्रतिषेध्यस्वभावेन उदीणे, प्रेरिते, "उववण्णोपावकम्मुणा" पापकर्मणा उदीर्णः प्रेरितः / तुज्ञानत्वव्याप्येन प्रामाण्येन व्यवहितः कारणविरुद्धोपलब्धिर्यथा नासौ उत्त०१६अ०। प्राप्ते, भावे क्तः। उपपाते, भ०१४ श०१उ०। रोमहर्षादिविशेषवान् समीपवर्तिपावकविशेषत्वादिति / अत्र पावकः उववत्ता त्रि०(उपपत्त) उपपातकर्तरि, "देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो साक्षीविरुद्धः शीतेन प्रतिषेध्यस्वभावेन तु रोमहर्षादिना शीत कार्येण भवति" औ०। स्था०॥ पारम्पर्येण / ये तु नास्त्यस्य हिमजनितरोमहर्षादिविशेषो धूमात् उववत्ति स्त्री०(उपपत्ति) उप-पद्-क्तिन् / उपपाते, जन्मनि, स्था०२ प्रतिषेधस्य हि रोमहर्षादिविशेषस्य कारणं हिमं तद्विरुद्धोऽग्निस्तत्कार्य ठा० / संभवघटने, / विवक्षितार्थसंभवव्यवस्थापने विशे० / युक्तौ, धूत इत्यादयः कारणविरुद्ध कार्योपलब्ध्यादयो विरुद्धोपलब्धेर्भेदास्ते "उपपत्तिर्भवेद्युक्ति-या तदभावप्रसाधिका / सान्वयव्य-तिरेकादियथासंभव विरुद्धकार्योपलब्ध्यादिष्वन्तविनीयाः / 203 परि०॥ लक्षणा सूरिभिः कृतेति 1 आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण विधिलक्षणम्'' उवलब्भ अव्य०(उपलभ्य) विज्ञायेत्यर्थे, "धम्मस्स सारमुवलब्भकरे अनु०॥ सङ्गतौ, हेतौ, उपाये, प्राप्तौ, सिद्धी, वाच०। विषये, "विसउत्ति य मायं" ध०२अधि०॥ ज्ञेये प्राप्ये च / वाच०। वा संभउत्ति वा उववत्तित्ति वा एगट्ठा" आ०चू० 110 / उवलमत्ता (देशी) तथेत्यर्थे, दे० ना०॥ उववत्थ न०(उपवस्त्र) अङ्गप्रोक्षणसाधके धौतवस्त्रव्यतिरिक्ते द्वितीये उवलयमग्गा (देशी) वलये, दे० ना०॥ वस्त्रे, तपोविशेषे श्रीआणन्दविमलसूरिकृताष्टकमतपोयधुपवस्त्रेण कर्तुं न शक्नोति तदाऽचाम्लेन करोति किं वा नेति 157 प्रश्ने यदि उवललय (देशी) सुरते, दे०ना०॥ सर्वथोपवस्त्रकरणशा..: स्यात्तदा चाम्लेनापि करोतीति सेनप्र०४ उवललिय न०(उपललित) उप-लल्-भावे-क्त-क्रीडितविशे-षे, उल्ला०1 ज्ञा०६ अ०॥ उववाय पुं०(उपपात) उप पत् घञ् हट्टादागतौ, फलोन्मुखत्वे, नाशे, उवलाउ अव्य०(उपलातुम्) ग्रहीतुमाश्रयितुमित्यर्थे, व्य०१उ०। उप समीपे पतनमुपपातः / दृग्विषयदेशावस्थाने, "आणा णिद्देसयरे उवलालिजमाण त्रि०(उपलाल्यमान) क्रीडादिलालनया (ज्ञा०१अ०) गुरूणमुववायकारए'' उत्त०१ अ० समीपे, "आणा उववायवयणईप्सितार्थसम्पादनाद्वा क्रियमाणे उपलाले, भ०६ श०३३ उ०। निदेशकरे" व्य०वि०४ उ०। सेवायाम्, / "आणोववायवयणणिद्देसे "उवगाइज्जमाणे उवलालिजमाणे" रा०॥ चिटुंति" भ०३ श०३ उ० / आज्ञायाम्, "उववातो णिईसो, उवलिंप(त) त्रि०(उपलिम्पत्) घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च आणाविणओ य हों ति एगट्ठा" इति वचनात् व्य० द्वि०४ उ० / गोमयादिना रन्ध्र भञ्जति, ज्ञा०७ अol उपपतनमुपपातः / देवनारकाणां जन्मनि, 'एगे उववाए'' उपपात उवलित्त त्रि०(उपलिप्त) उप-लिप-क्ता संवेष्टिते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०। एकश्चयवनवत् / स्था०१ ठा० / कल्प० / अकाम-निर्जरादिजनिते, गोमयादिना लिप्ते, ज्ञा०१ अ०। आ०म०प्र० / दशा०) किल्विषादिदेवभवे, नारकभवेचा स्था०३ठा०ादर्श०स०। आचा०॥ उवली(ल्ली)ण त्रि०(उपलीन) उप-ली-त-प्रच्छन्ने, "उवल्लीणा अणु० / प्रादुर्भावे, प्रज्ञा० 16 पद / 'दोण्हं उववाए पण्णत्ता तंजहा देवाणं चेव णेरइयाणं चेव" द्वयोर्जीवस्थानयोरुपपतनमुपपातो मेहुणधम्म विण्णवेंति" आचा०२ श्रु०॥ गर्भसम्मूर्छनलक्षणजन्मप्रकारद्वयविलक्षणोजन्मविशेषः / स्था०२ठा०। उवलु (देशी) सलज्जे, देवना०॥ स च क्षेत्रभवभेदाद् द्विविधः तद्यथा क्षेत्रोपपातो भवोपपातश्च / तत्र उवलेव पुं०(उपलेप) उप-लिप-घञ् / उपलिप्यतेऽनेनेत्युपलेपः क्षेत्रमाकाशो यत्र नारकादयो जन्तवः सिद्धाः पुद्गला वा अवतिष्ठन्ते। कर्मबन्धे, औ० भावे-घञ्।आश्लेषे, सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०॥ संश्लेषे, भवकर्मसम्पर्कजनितोनैरयिकत्वादिकः पयार्यः सम्भवति कर्मवशवर्तिनः आचा०१ श्रु०२ अ०२उ०। प्राणिनोऽस्मिन्निति भव इति व्युत्पत्तेः / नो भवः भवव्यतिरिक्तः उवलेवण न०(उपलेपन) उप-लिप-ल्युट-गोमयादिना लेपने, ग०२ कर्मसम्पर्कसम्पाद्यनैरयिकत्वादिपर्यायरहित इति भावः / स च पुद्गलः अधि० 1 "उपलेवणसम्मजणं करेइ" भ०११ श०६ उ०। "वभणो सिद्धो वा उभयस्यापि यथोक्तलक्षणभवातीतत्वात् / प्रज्ञा०१६ पद। उवलेवणादि काऊणचणं करेइ''नि०चू०१उ०। औ०|| (1) उपपाते संग्रहः। उववजमाण त्रि०(उपपद्यमान) यथास्वमुत्पादस्थानेष्वन्यनगर-- (2) गतीनामुपपातविरहः। स्योत्पद्यमाने, “चउहिं बायरकाएहिं उववज्जमाणेहिं लोगे फुडे" स्था० (3) सान्तरनिरन्तरोपपातः। 4 ठा०।। एकसमये कियन्त उपपातास्तत्र नैरयिकाद्येकोनचत्वारिंश*उपवाद्यमान त्रि०वादित्रे, कल्प०॥ ज्जीवानामुपपातविचारः। उववजिउंकाम त्रि०(उत्पतितुंकाम) समुत्पित्सौ, "जो जीवो / (5) नैरयिकादीनामात्मोपक्रमादिना उपपातचिन्तनम् / उववजिउकामो" सूत्र०२ श्रु०१अ०। (6) कतिसञ्चिताकतिसचितानामुपपातः एषामल्पबहुत्वविचारः। उववजित्ता अव्य०(उपपद्य) उपपद्-ल्यप्। उत्पादक्षेत्रं गत्वेत्यर्थे , भ० (7) षट्कसमर्जितोत्पादस्तदल्परहुत्वविचारश्च। १७श०६उ०। (8) द्वादशसमर्जिताः। उववण न०(उपवन) भवनासन्नवने, ज्ञा०१०। (8) चतुरशीतिसमर्जिताः। असुरकुमारादीनां भेदादिनिरूपणं च। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय (10) नैरयिकादयः कुत उत्पद्यन्ते तेषां स्थितिभवग्रहणादयः / जहण्णेणं एवं समयं उकोसेणं बारसमुहुत्ता।मणुयगईणं भंते ! नैरयिकेषूत्पद्यमानानां स्थित्यादिच। केवइयं कालं विरहिया उववाए णं पण्णत्ता गोयमा ! जहन्नेणं (11) कृतयुग्मादि विशेषणेनैकेन्द्रियादीनामुपपातचिन्तनम् / तत्र एगं समयं उक्कोसेणं बारसमुहुत्ता / देवगईणं भंते ! केवइयं प्रथमद्वितीयादिसमयकृतयुग्मविचारः। कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं एग समयं (12) राशियुग्मक्षुद्रकयुग्मादिविशेषणेन नैरयिकादीनामुपपात विचारः। उकोसेणं बारसमुहुत्ता। सिद्धिगईणं भंते ! केवइयं कालं विरहिता (13) भव्यदेवादीनामुपपातचिन्तनम्। सिज्झणया पण्णत्ता ? गोयमा !जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासा। निरयगईणं भंते केवइयं कालं विरहिया उव्वट्टणाए (14) नैरयिकादीनां स्वतोऽस्वतो वा उपपातचिन्तनम्। पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एग समयं उक्कोसेणं वारसमुहुत्ता। (15) नैरयिकादयः उद्वर्त्य व गच्छन्ति क्षुद्रकृतनैरयिका कुत उत्पद्यन्ते। मणुयगईणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवट्टणाए पण्णत्ता ? (16) भव्यद्रव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते। गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं बारसमुदुत्ता एवं तिरिया (17) महर्द्धिकदेवानां द्विशरीरेषूपपादविचारः। देवगइए वि। (18) नैरयिकादयः कथमुत्पद्यन्त इति चिन्तनम्। निरयगति म नरकगतिकर्मोदयजनिता जीवस्य औदयिको भावः स (16) समुद्घातविशेषणेनैकेन्द्रियाणामुपपात चिन्तनम्। चैकः सप्तपृथिवीव्यापि चेति / एकवचनेन सप्तानाञ्च पृथिवीनां परिग्रहः (20) पृथ्व्यादीनां समवहत्य देवलोकेषूपपातः। णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्तेति गुर्वा मन्त्रणे परमकल्याणयोगिन्! (21) नैरयिकादीनां नैरयिकादिष्पपातोद्वर्त्तनचिन्तनम् / कृष्ण- (के वइयंति) कियन्तं कालं विरहिता शून्या प्रज्ञप्ता उपपातेन लेश्याविषयोत्पत्ति चिन्तनम् / पृथ्वीकायिकेषु कृष्णलेश्या उपपतनमुपपातस्तदन्यगतिकानां सत्वानां नारकत्वेनोत्पाद इति भावः विषयविचारः। तेन प्रज्ञप्ता प्ररूपिता भगवता अन्यैश्च ऋषभादिभिस्तीर्थकरैः एवं प्रश्ने (22) लेश्यावत्वेनोपपातश्चतुर्विशतिदण्डकस्य शेषपदानामतिदे-शश्च / कृते भगवानाह / गौतम ! जघन्यत एकं समयं यावदुत्कर्षतो (23) नैरयिकाणां देशतस्सर्वतो वा उपपातः। द्वादशमुहूर्तान् / अत्र मुग्धप्रेरक आह / नन्वेकस्यामपि पृथिव्यामग्रे द्वादशमुहूर्तप्रमाण उपपातविरहो न वक्ष्यते चतुर्विंशतिमुहूर्तादिप्रमाणस्य (24) गर्भगतस्त मृत्वा देवलोकेषूपपातः। वक्ष्यमाणत्वात् ततः कथं सर्वपृथिवी समुदायेऽपिद्वादशमुहूर्तप्रमाणम्। (25) कुतो देवा देवलोकेषूपपद्यन्ते। प्रत्येकमभावे समुदायेऽभावादिति न्यायस्य श्रवणात् / तदयुक्तं (26) सहोपपन्नयोरसुरकुमारयोः शोभनाशोभनवत्त्वम्। वस्तुतत्वपरिज्ञानात् / यद्यपि हि नाम रत्नप्रभादिष्वेकैकनिर्धारणेन (27) नैरयिका नैरयिकेषूपपन्नानां कश्चिदल्पतरोऽपरो महावेदनतरः / चतुर्विशमिमुहूर्ता-दिप्रमाण उपपातविरहो वक्ष्यते तथापि यदा सप्तापि (28) पूर्वोक्तानां नैरयिकादीनामायुष्कसंवेदनम् / पृथिव्यः समुदिता उपेत्योपपातविरहश्चिन्त्यते तदास द्वादशमुहूर्तप्रमाण (26) रत्नप्रभायां सर्वे उपपन्नपूर्वाः। एव लभ्यते द्वादशमुहूर्तानन्तरमवश्यमन्यतरस्यां पृथिव्यामुत्पाद(३०) अविराधितश्रामण्यानां देवलोकेषूपपातः। सम्भवात्तथाकेवलवेदसोपलब्धेः। यस्तु प्रत्येकमभावे समुदायेऽप्यभाय (1) अथसत्वानामुपपातविरहादयश्चिन्त्यन्ते। तत्रादौ इयमधि इति न्यायः स कारणकार्यधर्मानुगमचिन्तायां नान्यत्रेत्यदोषः / यथा कारसंग्रहणि गाथा-- नरकगतिर्द्वादशमुहूर्ताऽनुत्कर्षत उपपातेन विरहिता उक्ता एवं बारसचउवीसाई,संतरयं एगसमयकत्तोय। तिर्यङ्मनुष्यदेवगतयोऽपि / सिद्धिगितिस्तूत्कर्षतः षण्मासानुपपातेन विरहिता एवमुद्रर्तनाऽपि नवरं सिद्धा नोद्वर्तन्ते तेषां साद्यपर्यवसितउवट्टणपरमविया-उयं अट्टेव च आगरिसा॥ कालतया शाश्वतत्वादिति सिद्धिरुद्वर्तनया विरहिता वक्तव्या / गतं प्रथमं गतिषु सामान्यत उपपातविरहोद्वर्तनाविरहस्य च द्वादश मुहूर्ताः प्रथमद्वारम्। प्रमाणं वक्तव्यं तदनन्तरं नैरयिकादिषु भेदेषूपपातविरहस्योद्वर्तना इदानीं चतुर्विशतिरिति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराहविरहस्य चतुर्विशतिमूहर्ता गतिषु प्रत्येकमादौ वक्तव्याः। ततः (संतरत्ति) (1) रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सान्तर नैरयिकादयः उत्पद्यन्ते निरन्तरं चेति वक्तव्यं / उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं तदनन्तरमेकसमयेन नैरयिकादयः प्रत्येकं कति उत्पद्यन्ते कतित चउव्वीसं मुहुत्ता / सक्करप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं चोद्वर्तन्ते इति चिन्तनीयंततः कुत उत्पद्यन्तेनार--कादयः इति चिन्त्यते कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं एग समय तत (उव्वट्टण त्ति) नैरयिका दय उद्वृत्ताः सन्तः कुत्रोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं उकोसेणं सत्तराइंदियाणि। वालुप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं भंते ! तदनन्तरं कति भागावशेषेऽनुभूयमानभावायुषि जीवाः पारमाविक केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं मायुर्वघ्नन्तीति वक्तव्यं तया कतिभिराकषरुत्कर्षत आयुर्बन्धक इति एगं समयं उक्कोसेणं अद्धमासं पंकप्पभापुढविणेर-इयाणं भंते ! चिन्तायामष्टौ आकर्षा वक्तव्याः / एषाः संग्रहणीगाथासंक्षेपार्थः।। केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं (2) एतदेव क्रमेण विवरीषुर्गतीनामुपपातविरहमाह एगं समयं उक्कोसेणं मासं / धूमप्पभापुढविणेरइ-याणं भंते ! निरयगईणं भंते !केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं गोयमा! जहनेणं एक समयं उक्कोसेणंबारसमुहुत्ता। तिरियगईणं एग समयं उक्कोसेणं दो मासा / तमापुढविणेरइयाणं भंते ! मंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा! | केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं-- Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 944 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय उक्कोसेणं संखेजमासा। आरणदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं संखेज्जवासा। अचुयदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखेज्जवासा। हेट्ठिमगेविजाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससयाई। मज्झिमगेविजाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं संखेज्जाइं वाससहस्साई / उवरिमगेविज्जाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखेज्जाई वास-- सयसहस्साइं। विजय-वेजयंतजयंत अपराजिय-देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहमेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं / एक समयं उक्कोसेणं चत्तारिमासा। अहेसत्तमा पुढविणेरझ्याणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासा (2) असुरकुमाराणं मंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता। एवं (3) नागकुमाराणं (5) सुवण्णकुमाराणं (5) विजुकुमाराणं (6) अग्गिकुमाराणं (7) दीवकुमाराणं (8) उदहिकुमाराणं (9) दिसाकुमाराणं (10) वाउकुमाराणं (11) थणियकुमाराण य पत्तेयं जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता / (12) पुढविकाइयाणं भंते ! के वइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा! अणुसमयविरहियं उववाएणं पण्णत्ता (13) एवं आउकाइयाण वि (14) तेउकाइयाणवि (15) वाउकाइयाण वि (१६)वणस्सइकाइयाण वि अणुसमयविरहिया उववाएणं पण्णत्ता / (17) बेइंदियाणं मंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / एवं (18) तेइंदियाय (19) चउरिंदिया य। (20) सम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणि-याणं मंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं वारसमुहूत्ता। (21) सम्मुच्छिममणुस्साणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता / गम्भवकं तियमणुस्साणं पुच्छा गोयमा ! जहणणेणं एक समयं उक्कोसेणं वारसमुहुत्ता / (२२)वंतराणं पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं एकसमयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता। (23) जोइसियाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं एवं एमयं उक्कोसेणं चउदीसं मुहुता।(२५) सोहम्मकप्पदेवाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता। ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ता। सणंकुमारदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं नवराइंदिया वीसमुहुत्ताई। मांहिंददेवाणं पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं एक्समयं उकोसेणं वारसराइंदियाइंदसमुहुत्ताई। बंभलोए देवाणं पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अद्धतेवीसं राइंदियाई। लंतगदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं पणयालीसंराइंदियाई। महासुकदेवाणं पुच्छागोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं असीतिराइंदियाई / सहस्सार-देवाणं पुच्छा गोयमा! जहण्णेणं एक समयं उकोसेणं राइंदिय-सत्तं / आणयदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं संखेजमासा / पाणयदेवाणं पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं एक समयं पलिओवमस्स संखेज्जइभागं / सिद्धाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिज्झयणयाएपण्णत्ते ? गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासा / रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं काले विरहिया उवट्टणाए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं चउवीसमुहुत्ता एवं सिद्धवज्जा उवदृणा वि भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववायत्ति नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणंति अमिलावो कायव्वो॥ "रयणप्पभाए" इत्यादि पाठसिद्धम् नवरमत्रात्कर्षविषया इमा संग्रहणिगाथा " चउवीसयमुहुत्ता, सत्तयरइंदियाइ पवन्नो मासो एक्को दुन्निओ, चउरो छम्मास नरएसु ||11 / कमसो उक्कोसेणं, चउवीसमुहत्तभवणवासीसु / अविरहिया पुढवाई, विगलाणं तो मुहत्तं तु // 2 / / सम्मुच्छिमतिरिपणिंदिय, एवं चियगब्भवारसमुहुत्ता / / सम्मुच्छिमगब्भमणुया, कमसो चउवीसवारसया // 3 // वणजोइससोहम्मीसाणकप्पचउवीसइमुहुत्ताओ। कप्पं सणंकुमारे दिवसाण वावीसई मुहुत्ताओ ||4|| माहिंदे राइंदियवारसदसमुहत्तबंभलोगाम्मि। राइंदियअद्धतेवीसुलंतए होंति पणयाला ||5|| महसुक्कम्मिअसई, सहस्सारिसयंतओउकप्पदुगे: मासा संखेज्जा तह,वासा संखेज उवरिदुगे // 6 // हिटिममज्झिम उवरिम,जह संखसया सहस्सलक्खाई। वासाणं विन्नेओ, उक्कोसेणं विरहाकालो // 7 // कालो संखाईओ, विजयाइसु चउसु होइ नायव्वो। संखेजो पल्लसओ, भागा सव्वट्ठसिद्धम्मि" // 8 // प्रज्ञा०६ पद। बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया। वेरेण य पडिबद्धा, मरिओ असुरेसु गच्छंति / / 6 / / रज्जुग्गहविसमक्खण, जलजलणपवेसतण्हछुहदुहओ। गिरिसिरिपडणाउमुया,सुह भावा हुंति वितरिया।।१०।। तावस जा जोइसिया, चरगपरिष्वाय बंभलोगो जा। जा सहसारो पंचिंदि-तिरिय जा अचुओ सवा 1|11|| जइ लिंगिमिच्छदिट्ठी, गेविजा जाव जंति उक्कोसं। पयमवि असद्दहतो,सुत्तत्थं मिच्छदिट्ठीओ।।१२।। सुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेय बुद्धरइयं च / Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 945 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय सुयकेवलिणा रइयं, अभिन्नदसपुट्विणा रइयं / / 13 / / छउमत्थ संजयाणं, उववाय उकोसओ सव्वतु। तेसिं सवाणं पिय, जहन्नओ होइ सोहम्मे ||14|| लंतम्मि चउदसपुट्विस्स, तावसाईण वंतरेसु तहा। एसो उववायविही, नियकिरियट्ठियाणसव्वो वि||१५|| अर्द्धवचनविकलास्तत्वतो ज्ञानशून्यत्वाद्वाला इव बालास्त्वेषां तपः पञ्चाग्न्यादितच्च तत्वतःसत्वोपघातहेतुत्वान्नतपः तथा च। महाभारते शान्तिपर्वणि व्यासोऽप्याह / "चतुर्णा ज्वलतां मध्ये, यो नरः सूर्यपञ्चमः / तपस्तपति कौन्तेय ! न तत्पञ्चतपः स्मृतम् / / पञ्चानामिन्द्रियानीनां, विषयेन्धनचारिणाम् / तेषां तिष्ठति यो मध्ये, तद्वैपञ्चतपः स्मृतम्" ॥तस्मिन् प्रतिबद्धा आसक्ताः अथवा बालस्थिता तथा तद्रव्यक्षेत्रकालभावेषु प्रतिबद्धाः उत्कटरोषाः चण्डकोपाः। तथा तपसाऽनशनादिभेदेन गौरविता वयं तपस्विन इति गर्वाध्माताः तथा वैरेण क्रोधानुशयरूपेण क्वचित्पा-णिनिद्वारवत्यांद्वीपायनवत्प्रतिबद्धाः कृतानुबन्धाः मृत्वा असुरेषु असुरादिषु भवनवासिषु जायन्ते ||6ll (रज्जुत्ति०) व्यक्ता नवरं शुभभावा नरकादिगतियोग्या अत्यन्तरौद्रातचित्तपरिहारेण तथाविधमन्दशुद्धपरिणामाः शूलपाणिप्रभृतय इव |10|| (तावसत्ति०) तापसा वनवासिनो मूलकन्दफलाहारास्ते (जंति उक्कोसन्ति) वक्ष्यमाणेन योगादुत्कर्षतो यान्त्युत्पद्यन्ते यावज्ज्योतिष्कास्तत ऊर्ध्व नेति भावः / एवं चरका धाटिभिक्षाचराः परिव्राजकाश्च कपिलमतानुगामिनो यावद्ब्रह्मलोकः पञ्चेन्द्रियतिर्यचो हस्त्यादयः सम्यक्त्वदेशविरतिप्रयुक्ता यावत्सहस्रारः श्राद्धाः श्राविकादेशविरतमनुष्या यावदच्युतः / / 11 / / (जइत्ति०) यति लिङ्गिनो रजोहरणादिसाधुवेषधारिणो मिथ्यादृष्टय उत्कर्षतो ग्रैवेयकान् यावत् यान्ति / एतदुक्तं भवति / प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिरूपसम्यक्त्वविकला अपि संपूर्णदशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानप्रभावाद्यैवेयकान्यावदुत्कर्षतस्ते गच्छन्ति मिथ्यादृष्टिस्तु सोऽप्यभिधीयते यः समग्रद्वादशाङ्गं श्रद्दधानोऽपि सूत्रोक्तमेकमपि पदमक्षरं वा न श्रद्धते स्वल्पस्याऽपि सर्वविदोक्तस्याश्रद्धानेन तत्र तस्याप्रत्ययात् / / 12 / / सूत्रोक्तमित्युक्तमतः सूत्रस्वरूपमाह (सुत्तंति)यद्गगणधरैः सुधर्मस्वाम्यादिभीरचितमाचारा-ङ्गादि यच प्रत्येकबुद्धनम्यादिमिनम्यध्ययनादियच्च श्रुतकेवलिना चतुर्दशपूर्वधरेण शय्यंभवादिना दशवैकालिकादि यच्च संपूर्णपूर्वधारिणा रचितं तत्सर्व सूत्रमिति तथा ॥१३॥(छउमत्थत्ति० / लंतम्मित्ति०) छादयत्यात्मनो यथावस्थितरूपमिति छद्मज्ञानावरणादिघातिकर्मचतुष्टयं तत्रस्थाश्च तेषां तूपपातः उत्कर्षतस्यैलोक्यतिलके सर्वार्थसिद्धे विमाने जघन्यतः पुनस्तेषां छद्मस्थसाधूनां श्रावकाणामपि च सौधर्मे उपपातो भवति केवलमत्रापि स्थितिकृतो विशेषो यथा सौधर्मे साधोर्जघन्या स्थितिः पल्योपमपृथक्त्वं श्रावकस्य पल्योपममिति तथा चतुर्दशपूर्वधरस्य . लान्तके जघन्य उपपातः तापसादीनांतुव्यन्तरेषु प्रज्ञापनायांतु"ताव ईसाणजहन्नेणं भवणवासीसु" इत्युक्तमेष चोक्तरूपः सर्वोऽप्युपपातविधिनिजनिजक्रियास्थितानां निजनिजागमोक्तानामनुष्ठानरतानां न चाचारहीनानामति / / 14 / 15 / देवीनामुत्पत्तिस्थानान्याहउववाओ देवीणं, कप्पदुर्ग जाव सहस्सारो। गमणागमणं नत्थी, अचुयपरओ सुराणं पि॥२७॥ तिपलिय-तिसार-तेरस, सारा कप्पदुगतई यलंतअहो। किदिवसिय न होतुवरिं, अचुयपरओभिओगाई॥२८| (उववाओत्ति) भवनपतीनारभ्य यावत्सौधर्मेशानकल्पद्विकं तावद्देवीनामुपपातो जन्मत ऊर्ध्वं देवानां तूपपातः सर्वत्र भवत्येय सनत्कुमारादिदेवानां च सुरताभिलाषः। सौधर्मादीशानाञ्चापरि-गृहीता देव्यः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति / सहस्राराच्च परतो गमनागमनं च देवीनां नास्ति / तथा च मूलसंग्रहणीटीकायां हरिभद्रसूरिः देव्यः खलु अपरिग्रहीताः सहस्रारं यावद् गच्छन्ति इति। तथा भगवानार्यश्वामोऽपि प्रज्ञापनायामाह "तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसिं इच्छा मणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियाणं करेत्तए तओ णं देवेहिं एवमणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थ गयाओ चेवसमाणी उअणुत्तराई उचावयाईमणाइंपहारेमाणीओ चिटुंतितओणं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियाणं करिति इत्यादि" तन्न प्रविचारणार्थमानतादौ देवीनां गत्यागती स्तः। देवीनांगमागमौन स्तः / तत्राधस्तनानामूर्ध्वशक्तिभावाद् / ता हि जिनजन्ममहिमास्वपि नात्रागच्छन्ति किं तु स्थानस्था एव भक्तिमातन्वते / संशयप्रश्ने वाऽवधिज्ञानतो भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि साद्राक्षादेवेत्यतस्तदाकारान् यथानुपपत्या जिज्ञासितमर्थं निश्चिन्वन्ति न चान्यत्प्रयोजनं तन्न तेषामिहागमः // 27 // अथ वैमानिकेषु किल्विषिकाणामाभियोग्यानां च देवानां स्थित्यादिकमाह (तिपलित्ति) किल्विषिकाअशुभकर्मकृतश्चाण्डालप्राया देवास्ते त्रिपल्योपमादिस्थितयः / क्रमात्कल्पद्विकादेरधो वसन्ति तथाहि त्रिपल्योपमास्थितयस्ते सौधर्मेशानयोरधोवसन्ति / एवं त्रिसागरोपमायुष्काः सनत्कुमारस्याधः त्रयोदशसागरोपमायुषा लान्तकस्याधः गतं च किल्विषिका न हेतुरिति लान्तकादूर्ध्व न चोत्पद्यन्ते अच्युतात्परतस्त्वाभियोग्या दासप्राया आदिशब्दात्प्रकीर्णादयो नोत्पद्यन्ते। इदमुक्तं भवति। ग्रैवेयकानु-तरेषु सर्वेषामपि देवानामहमिन्द्रत्वेन शेषाणामपि सामानिकादिदेवभेदानामभाव इति॥ संग्र०सू०। (3) सान्तरं निरन्तरं वा उपपद्यन्ते॥ णेरइयाण भंते किं संतरं उववजति निरंतरं उववजंति ? गोयमा! संतरं पिउववजंति निरंतरंपि उववजंति। तिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं संतरं निरंतरं उववजंति ? गोयमा ! संतरं पि उववजंति निरंतरंपि उववजंति / मणुस्साणं भंते ! किं संतरं उववजंति निरंतरं उववजंति ? गोयमा ! संतरंपि उववखंति निरंतरं पि उववजंति / देवाणं भंते ! किं संतरं उववनंति निरंतरं उववजंति? गोयमा ! संतरं पि उववअंति निरंतरं पि उववजंति / रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! कि संतरं उववजंति निरंतरं उववजंति? गोयमा ! संतरं पि उववजंति निरंतरंपिउववजंति एवं जाव अहे सत्तमाए संतरं पि उववचंति निरंतरं पिउवव-जंति। असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं किं संतरं उववजंति निरंतरं उववर्जति ? गोयमा ! संतरंपि उववजंति निरतरंपिउववखंति। एव जाव थणियकुमारा संतरं पि उववजंति निरंतरं पि उववजंति / पुढविकाइयाणं मंते ! पुच्छा किं संतरं निरंतरं उववजंति ? गोयमा!नो संतरं निरंतरं उववजंति / एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं उववजंति Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 646 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय निरंतरं उवजंति। बेइंदियाणं भंते ! किं संतरं उववजंति निरंतरं वादो वा तिन्निवा उक्कोसेणं संखेज्जावा असंखेज्जावा उवट्टति। उववजंति? गोयमा ! संतरं पिउववजंति निरंतरं पिउववअंति एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उवट्टणा वि सिद्धवज्जा एवं जावपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। मणुस्साणं भंते ! किं सतरं भाणियव्वा / जाव अणुत्तरोववाइया नवरं जोइसियवेमाणियाणं उववजंति निरंतरं उववजंति? गोयमा ! संतरंपि निरंतरं पि चयणेणं अभिलावो कायव्वो॥ उववनंति / / एवं वाणमतर-जोइसिय-सोहम्म-ईसाण- नेरइयाणं भंते ! एगसमएणं केवइया उववजंतीत्यादि निगदसिद्धम् / सणंकुमार-माहिंद-बंभलोय-लंतग महासुक्क-सहस्सार- नवरं 'वनस्पतिसूत्रे सट्ठाणुववायं पडुच अणुसमयमविरहि या अणंता' आणय-पाणय-आरण-अचुय हिट्ठिमगेविजग-मज्झिमगे- इति / स्वस्थानं वनस्पतीनां वनस्पतित्वं ततोऽयमर्थः यद्यनन्तरविजग-उवरिमगेविजग-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय- भववनस्पतय एव वनस्पतिषूत्पद्यमानाश्चिन्त्यन्ते तदा प्रतिसमयमसव्वट्ठसिद्ध-देवा य संतरं पि निरंतरंपि उववजंति, सिद्धाणं विरहितं सर्वकालमनन्ता विज्ञेयाः प्रतिनिगोदमसंख्ये यभागस्य भंते ! किं संतरं निरंतरं सिझंति? गोयमा! संतरं पि सिज्झंति निरन्तरमुत्पद्यमानतया उद्वर्तमानतया चलभ्यमानत्यात् "परट्ठाणुववायं निरंतरं पि सिज्झंति / / णेरइयाणं भंते ! किं संतरं उवटुंति पडुच्च अणुसमयमविरहियमसंखेज्जा'' इति परस्थानं पृथिव्यादयः / निरंतरं उवदृति? गोयमा ! संतरं पि उवट्ठति निरंतरं पि किमुक्तं भवति यदि पृथिव्यादयः स्वभावादुदृत्य वनस्पतिषूत्पद्यमाउवट्टति / एवं जहा उववाओ भणिओतहा उवट्टणावि सिद्धिवजा माश्चिन्त्यन्ते तदा अणुसमयविरहियमसंखेज्जा वक्तव्या इति / तथा भाणियव्वा / जाव वेमाणिया नवरं जोइसियवेमा-णिएसुचयणं गभेव्युत्क्रान्तिका मनुष्या उत्कृष्टपदेऽपि सङ्ख्ये या एव अभिलावो कायव्वो॥ नासङ्ख्येयास्ततस्तत्सूत्रे उत्कर्षतः संख्येया वक्तव्या आनतादिषु पाठसिद्धं प्रागुक्तसूत्रार्थानुसारेण भावार्थस्य सुप्रतीतत्वात्। गतं तृतीयं देवलोकेषु मनुष्या एवोत्पद्यन्ते न तिर्यञ्चोऽपि मनुश्याश्च संख्येया द्वारम्। एवेत्यानतादिसूत्रेष्वपि संख्येया एव वक्तव्या नासंख्ये याः (4) एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इत्याह सिद्धिगतानामुत्कर्षतोऽष्टशतम् / एवमुद्वर्तनासूत्रमपि वक्तव्यम / नवरं णेरइयाणं मंते ! एगसमएणं केवइया उववजंति / गोयमा ! (जोइसिवेमाणियाणं चयणेण अभिलावो कायवो इति) जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसे णं संखिज्जा वा ज्योतिष्कवैमानिकानां हि स्वभावादुद्वर्तनं च्यवनमित्युच्यते / तथा असंखिज्जा वा उववखंति एवं जाव अहेसत्तमाए। असुरकुमा अनादिकालप्रसिद्धस्ततस्तत्सूत्रे च्यवनेनाऽभिलापकः कर्तव्यः सचैवं राणं भंते ! एगसमएणं केवइया उववजंति? गोयमा! जहन्नेणं "जोइसियाणं भंते एगसमएणं केवइया चवंति गोयमा जहन्नेणं एगोवादो एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा असंखेज्जा वा एवं वा' इत्यादि गतं चतुर्थद्वारम् / प्रज्ञा०६ पद।। नागकुमारा जाव थणियकुमारा वि भाणियव / पुढविकाइयाणं लेश्यादिविशेषणेनोपपाताः। भंते ! एगसमएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! अणुसमयं इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरया वासअविरहियं असंखेज्जा उववज्जंति / एवजाव वाउकाइयाणं / सयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसुणरएसु एगसमए केवइया णेरइया वणस्सकाइयाणं भंते ! एगसमएणं केवइया उववज्जति? उववज्जति 1 केवइया काउलेस्सा उववजंति 2 के वइया गोयमा! सट्ठाणुववायं पडुच अणुसमयं अविरहिया अणंता कण्हपक्खिया उववजंति 3 केवइया सुक्कपक्खिया उववज्जंति उववजंति परवाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा 4 केवइया सण्णी उववखंति 5 केवइया असण्णी उववजंति 6 उववजंति / बेइंदियाणं मंते ! केवइया एगसमएणं उववजंति? केवइया भवसिद्धिया जीवा उववजंति 7 केवइया अभवसि-- गोयमा ! जहण्णेणं एगो वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा द्धिया जीवा उववजंति केवइया आभिणिबोहियणाणी उववा असंखेज्जावा / / एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-सम्मुच्छिमपंचिं- वनंति केवइया सुयणाणी उववजंति 10 केवइया ओहिणाणी दिय-तिरिक्खजोणिय-गब्भवकं तिय -पंचिंतियतिरिक्ख- उववजंति ११केवइया मइअन्नाणी उववजंति 12 केवइया जोणिय-सम्मुच्छिममणुस्स-वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मी- सुअअण्णाणी उववजंति 13 केवइया विभंगणाणी उववखंति साणसणंकुमार-माहिंद-बंभलोय-लंतग-सुक्क-सहस्सा- 14 के वइया चक्खुदंसणी उववजंति 15 के वइया कप्पदेवा-एते जहा णे रइया / गम्भवकं तियमणुस्स- अचक्खुदंसणी उववनंति 16 केवइया ओहिदंसणी उववजंति आणयपाणय-आरण-अबुय-गेवेजग-अणुत्तरोववाइयाय एते 17 के वइया आहारसण्णोवउत्ता उववजंति 18 के वइया जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्निवाउकोसेणं संखिज्जा उव-वजंति। भयसण्णोवउत्ता उववजंति 16 केवइया मेहुणसण्णोवउत्ता सिद्धा णं भंते ! एगसमएणं केवइया सिझंति ? गोयमा ! उववजंति २०केवइया परिग्गहसण्णोवउत्ता उववज्जति 21 जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं अट्ठसयं / णेरझ्याणं ) केवइया इत्थि वेदगा उववजंति 22 केवइया पुरिसवेदगा उवमंते ! एगसमएणं केवइया उवटुंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को ) वजंति 23 केवइया णपुंसगवेदगा उववजंति 24 केवइया Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 947 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय कोहकसायी उववजंति 25 जाव केवइया लोभकसायी उव- कसायी सोइंदियोवउत्ता ण उव्वदृति एवं जाव फासिंदियोवज्जंति 28 केवइया सोइंदियोवउत्ता उववजंति 26 जाव वउत्ता ण उव्वटुंति जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं केवइया फासिंदियोवउत्ता उववजंति ३३केवइया णोइंदियो- संखेज्जा णोइंदियोवउत्ता उव्वदृति मणजोगीण उटवट्ठति / एवं वउत उववजंति 34 केवइया मणजोगी उववजंति 35 केवइया वइजोगी विजहण्णेणं एको वादो वा तिण्णि वाउकोसेणं संखेज्जा वइजोगी उववजंति 36 केवइया कायजोगी उववजंत 37 कायजोगी उव्वदृति एवं सागारोवउत्ता वि एवं अणा-गारोवउत्ता केवइया सागारोवउत्ता उववजंति ३८केवइया अणा-गारोवउत्ता वि। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावासउववजंति 36 गोयमा ! इमी से रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए सयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसुणरएसु केवइया णेरइया पण्णत्ता णेरइया वाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु जहण्णेणं केवइया काउलेस्सा पण्णत्ता? जाव केवइया अणागारोवउत्ता एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजाणेरड्या उववजंति पण्णत्ता 36 केवइया अणंतरोववण्णगा पण्णता ? केवइया जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा परंपरोववण्णगा पण्णत्ता? केवइय अणंत-रोवगाढापण्णता? काउलेस्सा उववजंति / जहण्णेणं एको वा दो वा तिन्नि वा केवइया परंपरोवगाढा पण्णत्ता केवइया अणंतराहारा पण्णता? उक्कोसेणं संखेजा कण्हपक्खिया उववजंति / एवं सुक्कपक्खिया केवइया परंपराहारा पण्णत्ता केवइया अणंतरपज्जत्ता पण्णत्ता? वि। एवं सण्णी वि। एवं असण्णी वि। एवं भवसिद्धिया वि। एवं केवइया परंपरपज्जत्ता पण्णता ? केवइया चरिमा पण्णत्ता ? अभवसिद्धिया || आमिणिबोहियणाणी सुअणाणी ओहिणाणी केवइया अचरिमा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमी से रयणप्पभाए मतिअण्णाणी सुअअण्णाणी विभंगणाणी एवं चेव चक्खुदंसणी | पुढवीए तीसाए णिरयावासस-यसहस्सेसु संखेन्जवित्थडेसु ण उववजंति / जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं णरएसुसंखेज्जाणेरइया पण्णत्ता संखेज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता,एवं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववज्जंति / एवं ओहिदसणी वि एवं जावसंखेज्जा सण्णी पणत्ता, असण्णी सिय अस्थि सिय नत्थि। आहारोवउत्तावि जाव परिग्गहसण्णोवउत्तावि। इत्थीवेदगा न जह अत्थिजहण्णे णं एक्कोवा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा उववजंति पुरिसवेदगा न उववजंति जहण्णेणं एको वा दो वा पण्णत्ता, संखेज्जा भवसिद्धिया पण्णत्ता, एवं जाव संखेज्जा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेदगा उववजंति एवं परिग्गहसण्णोवउत्ता पण्णत्ता, इत्थि वेदगा णत्थि, पुरिसवेदगा कोहकसायी जाव लोभकसायी सोइंदियउवउत्तान उववजंति णत्थि, संखेज्जा णापुंसगवेदगा पण्णत्ता / एवं कोहकसायी वि, एवं जाव फासिंदियोवउत्ताण उववजंति जहण्णेणं एको वा दो माणकसायी जहा असण्णी एवं जाव लोभकसायी, संखेज्जा वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा नो इंदियोवउत्ता उववजंति सोइंदियोवउत्ता एवं जाव फासिं-दियोवउत्ता, नो इंदियोवउत्ता मणजोगीण उववजंति / एवं वइजोगी वि जहण्णेणं एक्को वा दो जहा असण्णी, संखेज्जा मणजोगी एवं जाव अणागारोवउत्ता।३।। वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेना कायजोगी उववजंति / एवं अणंतरोववण्णगा सिय अस्थि सिय णत्थि , जइ अस्थि जहा सागारोवउत्ता वि एवं अणागारोवउत्ता वि 36 इमी से णं भंते ! असण्णी, संखेजा परंपरोववण्णगा, एवं जहा अणंतरोववण्णगा रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेज तहा अणंतरोव-गाढा अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा चरिमा वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं केवइया णेरइया उव्वटुंति ? परंपरोवगाढा जाव अचरिमा जहा परपरोवण्णगा। इमी से णं केवइया काउलेस्सा उव्वति? जाव केवइया अणागारोवउत्ता भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु उव्वटुंति? गोयमा ! इमी से णं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए असंखेजवित्थडे सु णेरइएसु एगसमएणं केवइया णेरइया णिरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु एगसमएणं उववजंति, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजाणेरड्या | इमीसे करयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु उवटुंति जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा असंखिज्जवित्थडेसु णेरएसु एगसमए णं जहण्णेणं एको वा काउलेस्सा उवट्ठति / एवं जाव सण्णी असण्णी ण उवटुंति / दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं असंखेजाणेरइया उववचंति एवं जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेचा भवसि- जहे व संखे नवित्थडे सु तिणि गमा पण्णत्ता, तहा द्धिया उव्वटुंति एवं जाव सुअअण्णाणी विभंगणाणी ण उव्वदृति। असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि भाणियव्वा / णवरं असंखेज्जा चक्खुदंसणी ण उट्वटुंति जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा भाणियव्वा सेसंतं चेव जाव असंखेज्जा अचरिमाणाणत्तं लेस्सासु उकोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उव्वट्ठति / एवं जाव लोभ- लेस्साओ जहा पढमसए, णवरं संखेज्जवित्थडेसुवि असंखे Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 648 -अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय अवित्थडेसु वि ओहिणाणी ओहिदंसणी संखेजा उवट्टा वेयव्वा सेसंतंचेव। सकरप्पभाएणं भंते! पुढवीए केवइया णिरयावासा पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा, ते णं भंते! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा एवं जहा रयणप्पभाए, तहा सक्करप्पभीए वि, णवरं असण्णी तिसु वि गमएसुन भण्णति सेसं तं चेव / वालुयप्पभाएणं पुच्छा, गोयमा ! पण्णरसणिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सकरप्पमाए, णाणत्तं लेस्सासु लेस्साओ जहा पढमसए। पंकप्पभाएणं भंते ! णिरयावाससयहस्सा पुच्छा गोयमा ! दस णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा सक्करप्पभाए,णवरं ओहिणाणी ओहिदसणी ण उव्वटुंति सेसं तं चेव। धूमप्पभाएणं पुच्छा, गोयमा ! तिण्णि णिरयावाससयसहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए / तमाएणं भंते ! पुढवीए केवइया णिरयावासं पुच्छा, गोयमा ! एगे पंचूणे णिरयावाससयसहस्से पण्णत्ते, सेसं जहा पंकप्पभाए अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए कइ अणुत्तरा महति महालया महाणिरया पण्णत्ता? गोयमा! पंच अणु०जाव अप्पइट्ठाणे। सेणं भंते ! किं संखेज्ज वित्थडा असंखेजवित्थडा? गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडे य अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसुमहतिमहालया जाव महाणिरएसुसंखेजवित्थडे णरए एगसमएणं केवइया एवं जहा पंकप्पभाए णवरं तिसु णाणेसुण उववजंति, ण उवर्ल्ड ति पण्णत्ता एसु तहेव अस्थि / एवं असंखेजवित्थडेसु विणवरं असंखेज्जा भाणियव्वा / इमी से णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसह-स्सेसु संखेज्जवित्थडेसु णरएसु किं सम्मचिट्ठी णेरइया उववजंति, मिच्छट्ठिी णेरइया उववजंति सम्मा मिच्छट्टिी णेरइया उववजंति ? गोयमा! सम्मट्ठिीणेरइया उववजंति, मिच्छविट्ठी णेरइया उववखंति, णोसम्मामिच्छट्टिी णेरड्या उववजंति / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेचवित्थडेसु णेरइएसु किं सम्महिही गेरइया उवटुंति एवं चेव / इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरथावाससयसहस्सेसु संखेचवित्थडा णिरया किं सम्मट्ठिीहिं णेरइएहिं अविरहिया मिच्छ-हिट्ठीहिं रइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छविट्ठीहिं णेरइएहिं अविरहिया ? गोयमा ! सम्मद्दिीहिं णेरइएहिं अविरहिया मिच्छट्ठिीहिं णेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छट्ठिीहिं रइएहिं अविरहिय विरहिया वा / एवं असंखेजवित्थडे सु वि तिण्णि गमा भाणियव्वा / एवं सकरप्पभाए वि / एवं जाव तमाए वि / अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेजवित्थहे णरए किं सम्मदिट्ठीणेरइया पुच्छा, गोयमा! सम्मट्ठिीणेरड्या ण उववनंति मिच्छद्दिट्ठी णेरइया उववजंति सम्मामिच्छद्दिट्ठी णेरइया ण उववजंति, एवं उव्वदृति वि, अविरहिए जहेवं रयणप्पभाए। एवं असंखेज वित्थडेसु तिण्णि गमासे गूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भावत्ता कण्हलेस्सेसु णेरइएसु उववजं ति? हंता गोयमा ! कण्हलस्से जाव उववखंति। से केणतुणं भंते ! एवं वुबइ कण्हलेस्से जाव उववनंति ? गोयमा ! लेस्सहाणेसु संकिलिस्समाणेसु सकिलि० किण्हलेस्सं परिणमइ, कण्हरकण्ह लेस्सेसु णेरइएसु उववजंति / से तेण?णं जाव उववजंति / से गूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता णीललेस्सेसु णेरइएस उववजंति? हंता गोयमा! जाव उववजंति / से केणटेणं जाव उववजंति ? गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु विसुजमाणेसु णीललेस्सं परिणमइ णीललेस्सा णीललेस्से सु णेरइएसु उववजंति से तेणढेणं गोयमा ! जाव उववजति / / रत्नप्रभापृथिव्यां कापोतलेश्या एवोत्पद्यन्ते न कृष्णलेश्यादय-इति कापोतलेश्याने वाश्रित्य प्रश्नः कृत इति / "के वतिया कण्ह पक्खिएइत्यादि एषां च लक्षणमिदम्। "जेसिमबड्डोपोग्गल, परियट्टो सेसओ उसंसारो। तेसुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण कण्हपक्खियत्ति" / / 1 / / (चक्खुदंसणी न उववजंतित्ति) इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तेरिति / तर्हि अचक्षुर्दर्शनिनः कथमुत्पद्यन्ते? इन्द्रियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याऽचक्षुर्दर्शनशब्दाभिधेयस्योत्पादसमयेऽपि भावादचक्षुर्दर्शनिने उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति (इत्थिवेयगेत्यादि) स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते, भवप्रत्ययान्नपुंसक वेदत्वात्तेषां (सोतिदिओवउत्तेत्यादि) श्रोत्राद्युपयुक्ता नोत्पद्यन्ते इन्द्रियाणांतदानीमभावात् (नो इंदिओवउत्ताउववजंतित्ति) नोइन्द्रियं मनस्तत्र च यद्यपि मनःपर्याप्त्यभावे द्रव्यमनो नास्ति तथापि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्ते।इन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति (मणजोगीत्यादि) मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्पद्यन्ते उत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभावादिति (काययोगी उववजं तित्ति) सर्वसंसारिणां काययोगस्य सदैव भावादिति / अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह / इमीसेणमित्यादि (असण्णी न उवट्टतित्ति) उद्वर्त्तना हि परभवप्रथमसमये स्यान्न च नारका असंज्ञिपूत्पद्यन्ते-ऽतस्ते असंज्ञिनः सन्तो नोद्वर्तन्त इत्युच्यते "एवं विभंगनाणी न उव्वदृति" इत्यपि भावनीयम् / शेषाणि तु पदान्युपादवद्व्याख्ये-यानि उक्तं च चूाम् "असण्णिणो य विभंगि-णो य उव्वट्टणाए वज्जेज्जा / दोसु विय चक्खुदंसी, मणवइ तह इंदियाइंवत्ति'' ||1|| अनन्तरं रत्नप्रभानारकाणामुत्पादे उद्वर्तनायां च परिमाणमुक्तमथतेषामेवसत्तायां तदाह(इमीसेणमित्यादि केवइया अणंतरोववण्ण-गत्ति) कियन्तः प्रथमसमयोत्पन्ना इत्यर्थः / (परंपरोववण्णगत्ति) उत्पत्तिसमयापेक्षया द्वयादिसमयेषुवर्तमाना(अणंतरोवगाढत्ति) विवक्षितक्षेत्रे प्रथमसमयावगाढाः (परंपरोगाढत्ति) विवक्षितक्षेत्रे द्वितीयादिकसमयोऽवगाढो येषां ते परम्परोवगाढाः (केवइया चरिमत्ति) चरमो नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमा नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः अचरमास्त्वितरे (असण्णी सिय अस्थि सिय नस्थित्ति) असं शिभ्य उदत्य Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 946 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उववाय ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसंज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चाल्या इति कृत्वा सिय अत्थीत्याद्युक्तम् / मानमायालोभकषायोपयुक्तानां नोइन्द्रियोपयुक्तानामनन्तरोपपन्नानामनन्तरावगाढानामनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्कत्वात्सिय अत्थीत्यादि वाच्यं शेषाणां तु बहुत्वात्संख्याता इति वाच्यमिति / अनन्तरं संख्यातविस्तृतनरकावासनारकवक्तव्यतोक्ता / अथ तद्विपर्यथवक्तव्यतामभिधातुमाह "इमीसेणमित्यादि" (तिण्णिग-मत्ति) उववज्जंति उव्वट्ट ति पण्णत्तति / एते यो गमाः ओहिणाणीओहिदसणीयसंखेजा (उव्वट्टावेयव्वत्ति) कथं ते हि तीर्थकरादय एव भवन्ति ते च स्तोकाः स्तोकत्वाच सख्याता एवेति नवरम्। (असण्णी तिसुवि गमएसु ण भण्णइत्ति) कस्मादुच्यते / असंज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते / असण्णी खलु पढमंति वचनादिति "नाणत्तं लेस्सासु , लेस्साओ जहा पढमसएत्ति''इहाश्च पृथ्वीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु नानात्वं लेश्यासु भवति। ताश्च यथा प्रथमशते तथाऽ ध्येयास्तत्र च संग्रहगाथेयम् "काऊय दोसु तइयाए, मीसिया नीलिया चउत्थीए। पंचमिया ए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हत्ति" ||1|| नवरम् "ओहिनाणी ओहिदसणी य न उव्वदृति" कस्मादुच्यते-ते हि प्रायस्तीर्थकरा एव ते च चतुझं उद्धृत्ता नोत्पद्यन्त इति / / (जाव अप्पत्तिट्ठाणेत्ति) इह यावत्करणात्काले महाकल-रोरुए महारोरुएत्ति दृश्यम्। इह च मध्यम एव सख्ययविस्तृत इति। नवरम्। 'तिसु नाणेसु न उववज्जति न उव्वदृति ति" सम्यक्त्वभ्रष्टानामेव तत्रोत्पादात्तत उद्वर्त्तनाचाद्येषु त्रिषु ज्ञानेषु नोत्पद्यन्ते, नापि चोद्वर्तन्त इति / / (पण्णत्ताएसु तहेव अत्थित्ति) एतेषु पञ्चसु नारकावासेषु कियन्त आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च प्रज्ञप्ता इत्यत्र तृतीयगमे तथैव प्रथमादिपृथिवीष्विव सन्ति तत्रोत्पन्नानां सम्यग्दर्शनलाभे आभिनिबोधिकादिज्ञानत्रयभावादिति / अथ रत्नप्रभादिनारकवक्तव्यतामेव सम्यग्दृष्ट्या-दीनाश्रित्याह इमीसेणमित्यादि। (नोसम्मामिच्छदिट्ठी उववखंतित्ति)। "नसम्ममिच्छो कुणइ कालमिति वचनात्' मिश्रदृष्टयो न मियन्ते नापि तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिवद्येन मिश्रदृष्टयः सन्तस्ते उत्पद्येरन् / सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिय विरहिययावत्ति / कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति अथ नारक वक्तव्यतामेव भङ्गयन्तरेणाहसे नूणमित्यादि / (लेसहाणेसुत्ति) लेश्याभेदेषु (संकिलिस्समाणेसुत्ति) अविशुद्धं गच्छत्सु (कण्हलेस्सं परिणम इत्ति) कृष्णलेश्यां याति ततश्च (कण्हलेसेत्यादि) (संकिलिस्समाणे सु वा विसुज्झमाणेसुवत्ति) प्रशस्तलेश्यास्थानेष्वऽविशुद्धिं गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्यास्थानेष च विशुद्धिं गच्छत्सुनीललेश्यां परिणमतीत भावः / भ० 13 श०१उ०॥ (5) नैरयिकादयः आत्मोपक्रमेण परोपक्रमेण वा आत्मद्ध्या परदा वा आत्मप्रयोगेण परप्रयोगेण वा उत्पद्यन्ते। णेरइयाणं भंते ! किं आउवक्कमेणं उववजंति, परोवक्कमेणं उववजंति णिरुवक्कमेणं उववजंति ? गोयमा! आतोवकमेण वि उववचंति परोवक्कमेण वि उववजंति णिरुवकमेण वि | उववजंति एवं जाव माणिया। रइयाणं भंते ! किं आतोवक्कमेणं उव्वटुंति परोवक्कमेणं उध्वट्ठति णिरुवक्कमेणं उव्वटुंति? गोयमा! णो आतोवक्कमेणं उय्वटुंति णो परोवक्कमेणं उव्वटुंति णिरुवकमेणं उब्वट्ठति / एवं जावथणियकुमारा। पुढवीकाइया जाव मणुस्सा तिसु उव्वद॒ति / सेसा जहा जेरइया णवरं जोइसिया वेमाणिया चयंति / णेरड्या णं भंते ! किं आयड्डीए उववजंति परिड्डीए उववजंति? गोयमा ! आयड्डीए उववज्जंति णो परिड्डीए उववज्जंति। एवं जाव वेमाणिया। रइयाणं भंते ! किं आइड्डीए उव्वटुंति परिड्डीए उव्वटुंति ? गोयमा ! आइडीए उवटुंति णो परिड्डीए उव्वदृति एवं जाव वेमाणिया णवरं जोइसिया वेमाणिया चयंतीति अभिलावो / णेरड्याणं भंते ! किं आयकम्मणा उववज्जत्ति परकम्मणा उववज्जति ? गोयमा! आयकम्मणा उववजंति णो परकम्मणा उववजंति एवं जाव वेमाणिया। एवं उव्वट्टणां दंडओ। णेरइयाणं भंते ! किं आयप्पओगेणं उववजंति परप्पओगेणं उववजंति ? गोयमा ! आयप्पओगेणं उव्वञ्जति णो परप्पओगेणं उववजंति। एव जाव वेमाणिया। एवं दंडओ वि।। आत्मना स्वयमेव आयुष उपक्रमः आत्मोपक्रमस्तेन मृत्वा इति शेषः उत्पद्यन्ते नारकाः यथा श्रेणिकः / परोपक्रमेण परकृतमरणेन यथा कूणिकः / निरुपक्रमेण उपक्रमणाभावेन यथा कालशौकरिकः यतः / सोपक्रमायुष्का इतरे च तत्रोत्पद्यन्ते उत्पादोद्वर्त्तनाधिकारादिदमाह नेरइयेत्यादि (आइडीएत्ति) नेश्वरादिप्रभावेणेत्यर्थः (आयुकम्मुणत्ति) आत्मकृतकर्मणा ज्ञानावरणादिना (आयप्प ओगेणंति) आत्मव्यापारेण // (6) कतिसंञ्चिताकतिसञ्चितानामुपपादः। णेरइयाणं मंते ! किं कतिसंचिया अकतिसंचिया अवत्तव्वगसंचिया ? गोयमा! णेरइया कतिसंचिया वि अकतिसंचिया वि अवत्तव्वगसंचिया वि, सेकेणटेणं भंते ! जाव अवत्तट्वगसंचिया वि? गोयमा ! जेणं णेरइया संखेज्जए णं पवेसणएणं पविसंति, तेणं णेरइया कतिसंचिया। जेणं णेरइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया अकतिसंचिया। जेणं णेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया अवत्तव्वगसंचिया। से तेणतुणं गोयमा? जाव अवत्तय्वगसंचिया वि। एवं जाव थणियकुमारा। पुढवीकाझ्याणं पुच्छा, गोयमा? पुढवीकाइया णो कतिसंचिया अकतिसंचिया णो अवत्तव्वगसंचिया। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-जाव णो अवत्तव्वगसंचिया? गोयमा ! पुढवीकाइया असंखेन्जएणं पवेसणएणं पविसंति, से तेणटेणं जाव णो अवत्तव्वगसंचिया एवं वणस्सइकाइया। बेइंदिया जाव वेमाणिया जहाणेरइया। सिद्धाणं पुच्छा? गोयमा ! सिद्धा कतिसंचिया णो अकतिसंचिया अवत्तव्वगसंचिया वि। से केणतुणं जाव अवत्तध्वगसंचियां वि ? गोयमा ! जेणं सिद्धा संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा कतिसंचिया,जेणं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा अवत्तध्वगसं-चिया वि से तेणटेणं गोयमा ! जाव अवत्तव्वगसंचिया वि।। Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवदाय १५०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय उत्पादाधिकारादिदमाह नेरइयेत्यादि (कइसंचियत्ति) कति इति सङ्ख्यावाची ततश्च कतित्वेन सञ्चिता एकसमये संख्यातोत्पादेन पिण्डिताः कतिसञ्चिताः एवं (अकइसंचियत्ति)। नवरं / (अकतित्ति) संख्यानिषेधोऽसंख्यातत्वमनन्तत्वं चेति (अवत्तव्वगसंचियत्ति) व्यादिः संख्या व्यवहारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसंख्या यश्च संख्यात्वेनासंख्यात्वेन च वक्तुं न शक्यते असाववक्तव्यः स च एककस्तेनावक्तव्येन एककेन एकत्वोत्पादेन सञ्चिता अवक्तवयकसञ्चितास्तत्र नारकादयस्त्रिविधा अपि एकसमयेन तेषामे कादीनां संख्यातानामुत्पादात् पृथिवीकायिकादयस्तु अकतिसञ्चिता एव तेषां समयेनासंख्यातानामेव प्रवेशाद्वनस्पतयस्तु यद्यप्यनन्ता उत्पद्यन्ते तथापि प्रवेशनकं विजातीयेभ्य आगतानां यस्तत्रोत्पादस्तद्विव-- क्षितमसंख्याता एव च विजातीयेभ्य उद्त्तास्तत्रोत्पद्यन्त इति सूत्रे उक्तम्। (एवं जाव वणस्सइकाइयत्ति) सिद्धा नो अकतिसंचिता अनन्तानामसंख्याताना वा तेषां समयेनासंभवादिति। एषामेवाल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह // एएसिणं भंते ! णेरइयाणं कइसंचियाणं अकइसंचियाणं अव त्तव्वगसंचियाण य कयरे 2 वज्जां विसेसाहिया वा? गोयमा ! सय्वत्थो वाणेरइया अवत्तव्वगसंचिया कति संचिया संखेजगुणा अकतिसंचिया असंखेज्जगुणा एवं एगिदियवजाणं जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं एगिंदियाणं णत्थि अप्पाबहुगं एएसिणं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अव्वत्तध्वगसंचियाण य कयरे 2 जाव विसेसाहिया वागोयमा! सवत्थो वा सिद्धा कतिसंचिया अवत्तष्वगसंचिया संखेनगुणा / / (एएसीत्यादि) अवक्तव्यकसंचिताः स्तोकाः अवक्तव्यकस्थानस्यैकत्वात् कतिसंचिताः संख्यातगुणाः संख्यातत्वात्संख्यातस्थानकानामकतिसञ्चितास्त्वसंख्यातगुणाः असंख्यातस्थानकानामसंख्यातत्वादित्येके। अन्ये त्याहुः। वस्तुस्वभावोऽत्र कार-णन तुस्थानकाल्पत्वादि कथमन्यथा सिद्धाः कतिसंचिताः स्थानकबहुत्वेऽपि स्तोकाः। अवक्तव्यकास्तुस्थानस्यैकत्वेऽपि संख्यातगुणाः / व्यादित्वेन केवलिनामल्पानामायुः समाप्तेरियं च लोकस्वभावादेवेति॥ (7) षट्कसमर्जिताः नारकाधुत्पादविशेषणीभूत संख्याधिकारादिदमाह। णेरइयाणं भंते ! किं छक्कसमजिया णो छक्कसमजिया छक्केण यणो छक्केण य समजिया छक्केहि य समज्जिया छक्केहि य णो छक्केण य समज्जिया? गोयमा ! णेरझ्या छक्कसमजिया वि! णो छक्कसमज्जिया वि 2 छक्केण य णो छक्केणय समज्जिया 3 छक्केहि य समजिया वि 4 छकेहिय णो छक्केण य समजिया वि 5 से केण?णं भंते ! एवं वुचइणेरइया छक्कसमज्जिया वि जाव णो छक्केहियणो छक्केणय सम्मजिया दि? गोयमा! जेणं णेरड्या छकएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया छकसमज्जिया। जेणं णेरइया जहण्णेणं एकेण वादोहिं वा तिहि वा उक्कोसेणं पंचएणं | पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया णो छक्कसमजिया 2 जेणं णेरइया छक्काएणं अण्णेण य जहण्णे णं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उकोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया छक्केण य णो छक्केण य समजिया 3 जेणं णेरड्या अणेगेहिं छक्के हिं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरड्या छक्केहिय समजिया 4 जेणं णेरइया अणेगेहि छक्केहिं अणेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरड्या छक्केहिय णो छक्केण यसमजिया ||5 से तेणटेणं तं चेव समज्जिया वि एवं जाव थणियकुमारा पुढवीकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढवीकाइया णो छक्कसमजिया णो णो छक्कसमजिया णो छक्केण यणो छक्केण य समजिया 3 छक्केहि य समजिया वि छक्केहि य णो छक्केण यसमजिया वि से केण?णं जाव समज्जिया वि गोयमा जेणं पुढवीकाइयाणेगेहिं छक्केहिं पवेसणगं पविसंति तेणं पुढवीकाइया छक्केहिं समज्जिया, जेणं पुढवीकाझ्या णेगेहिं छक्कएहिं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं पुढवीकाइया छक्केहि य णो छक्केण य समजिया से तेणटेणं जाव समज्जिया वि एवं जाव वणस्सइकाइया बेइंदिया जाव वेमाणिया एए सिद्धा जहा गेरइया / नेरइयाणमित्यादि(छक्कसमज्जियत्ति) षट्परिमाणमस्येति षट्कं वृन्द तेन समर्जिताः पिण्डिता षट्कसमर्जिताः / अयमर्थः एकत्र समये ये समुत्पद्यन्ते तेषां यो राशिः स षट्प्रमाणो यदि स्यात्तदा तेषट्कसमर्जिता उच्यन्ते॥१॥ (नो छक्कसमज्जियत्ति) नोषट्कः षट्काभावस्तेच एकादयः पञ्चान्तास्तेन नो षट् केन एकाद्युत्पादन ये समर्जितास्तेन तथा / 2 / तथा (छक्केण य नो छक्केण य समज्जियत्ति) एकत्र समये येषां षट्क मुत्पन्नमेकाद्यधिकं तेषट् केन नोषट्केन च समर्जिता उक्ताः॥३॥ (छक्केहि य समज्जियत्ति) एकत्र समये येषां बहूनि षट्कानि उत्पन्नानि ते षट्कैः समर्जिताः उक्ताः।४। तथा (छक्केहि य नोछक्केण य समल्जियत्ति) एकत्र समये येषां बहूनि षट्कानि एकाद्यधिकानि ते षट्कैः नो षट्केन च समजिता एते पञ्चविकल्पाः। इह च नारकादीनां पञ्चापि विकल्पाः सम्भवन्त्येकादीनामसंख्यातानां तेषां समयेनोत्पत्तेरसंख्यातेष्वपि च ज्ञानिनः षट्कानि व्यवस्थापयन्तीति एकेन्द्रियाणां त्वसंख्यातानामेव प्रवेशनात्षट्कः समर्जिताः / तथा षट्कैनॊषट्केन च समर्जिता इति विकल्पद्वयस्यैव सम्भव इति अत एवाह पुढविकाइयाणमित्यादि। षट्कसमर्जितोत्पादे अल्पबहुत्वम्।। एएसिणं भंते ! णेरइयाणं छक्कसमन्जियाणं णो छक्क समजियाणं छक्केण य णोछक्केण य समजिजयाणं छक्केहि य समजियाणं छवकेहि य णो छक्केण य समज्जिया ण य कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्थो वाणेरइया छक्कसमजिया णो छक्कसमजिया संखेनगुणा छक्केणय णो छक्केण य समज्जिया संखेजगुणा छक्के हि य समज्जिया असंखेज्जगुणा छक्के हि Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 951 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय यणो छक्केण य समजिया संखेज्जगुणा / एवं जाव थणियकुमारा एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहि य समल्जियाणं छक्केहिय णो छक्केहि य समजियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थो वा पुढविकाइया छक्के हिय समज्यिा छक्केहि यणो छक्केण य समजिया संखेन्ज गुणा एवं जाव वणस्सइकाइयाणं बेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं / जहा णेरइयाणं / एएसिणं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमजियाणं णो छक्कसमञ्जियाणंजाव छक्केहि यणो छक्केण य समल्जियाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया? गोयमा! सव्वत्थो वा सिद्धा छक्केहिय णो छक्केण य समजिया / छक्केहि य समज्जिया संखेज्जगुणा छक्केण यणो छक्केण य समजिया संखेनगुणा छक्कसमज्जिया संखेजगुणा णो छक्कसमज्जिया संखेजगुणा॥ एषामल्पबहुत्वचिन्तायां नारकादयः स्तोका आद्याः षट्कस्थानस्यैकत्वात् द्वितीयास्तु संख्यातगुणाः नोषट्कस्थानानां बहुत्वात् एवं तृतीयचतुर्थपञ्चमेषुस्थानबाहुल्यात्सूत्रोक्तं बहुत्वमवसेयमित्येक। अन्ये तु वस्तुस्वभावादित्याहुरिति॥ (8) द्वादश समर्जिताः। णेरइयाणं भंते ! किं वारससमजिया णो वारससमजिया वारसएणं णो वारसएण य समज्जिया वारसएहि य समज्जिया / बारसएहिय णो वारसएणय समजिया ? गोयमा ! णेरइया वारससमजिया विजाव वारसएहि य णो वारसएण य समजिया वि से केणतुणं जाव समज्जिया वि। गोयमा ! जेणं णेरइया वारसएणं पवेसणएणं पविसति तेणं णेरड्या वारससपजिया वि जेणं णेरइया जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरझ्या णो वारससमजिया। जेणं णेरइया वारसरणं अण्णेण य जहण्णेणं एकण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया वारसरणं समज्जिया। जेणं णेरइया णेगेहिं वारसएहिं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरड्या वारसएहिं समजिया। जेणं णेरइयाणेगेहिं वारसएहिं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरड्या वारसएहिय णो वारसरण य समज्जिया से तेणटेणं जाव समज्जिया वि। एवं जाव थणियकुमारा / पुढवीकाइयाणं पुच्छा गोयमा! पुढवीकाझ्या णो वारससमज्जिया णो नो वारसएण य समजिया णो वारसएयणो वारसरण य समज्जिया वारसएहिं समजिया वारसएहि य णो वारसरण य समज्जिया। से केणद्वेणं | जाव समजिया वि ? गोयमा ?जेणं पुढवीकाइया णेगेहिं वारसएहि य पवेसणगं पविसंति तेणं पुढविकाइया वारसएहिं समजिया। जेणं पुढवीकाइया णेगेहिं वारसएहि अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसएण य पवेसणएणं पविसंति तेणं पुढवीकाइया वारस-एहि य णो वारसरण य समज्जिया से तेणटेणं जाव समजिया वि एवं जाव वणस्सइकाइया / बेइंदिया जाव सिद्धा जहा रइया। एएसिणं भंते ! णेरइयाणं वारससमज्जियाणं सव्वेसिं अप्पा-बहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं णवरं बारसामिलावो! सेसं तं चेव।। (6) चतुरशीतिसमर्जिताः॥ णेरझ्याणभंते ! किंचुलसीति समजिया णोचुलसीति समजिया चुलसीतिए य णोचुलसीतिए य समज्जिया चुलसीतिहि य समज्जिया चुलसीतिहिय णो चुलसीतिएय समजिया ? गोयमा! णेरझ्या चुलसीति समजिया वि / जाव चुलसीतिहि य णो चुलसीतिहिय समज्जिया वि। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुचइजाव समजिया वि? गोयमा! जेणं णेरइया चलसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं जेरइया चलसीति समजिया, जेणं णेरइया जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं तेसीति पवेसणएणं पविसंति तणं णेरइया णो चुलसीति समज्जिया, जेणं णेरइया चुलसीतिएणं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा जाव उक्कोसेणं तेसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति तेण णेरइया चुलसीतिएण य णो चुलसीतिए य समज्जिया / जेणं णेरइया णेगेहिं चुलसीतिएहि य पवेसणगं पविसंति तेणं णेरइया चुलसीतिएहि य समज्जिया जेणं णेरइया णेगेहिं चुलसीतिएहि य अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा जाव उक्कोसेणं तेसीतिएणं जाव पविसंति तेणं णेरइया चुलसीतिएहि य णो चुलसीतिएण य समजिया से तेणटेणं जाव समजिया वि / एवं जाव थणियकुमारा पुढवीकाइया तहेव पच्छिल्लएहिं दोहिं णवरं अभिलावो चुलसीतिओ। एवं जाव वणस्सइकाइया वेइंदिया जाव वेमाणिया जहा णेरइया। सिद्धाणं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा चुलसीति समज्जिया विणो चुलसीति समज्जिया वाचुलसीतिय णो चुलसीति य समज्जिया विणो चुलसीतिहि य समजिया णो चुलसीतिहि य णो चुलसीति समज्जिया / से केण?णं जाव समजिया ? गोयमा ! जेणं सिद्धा चुलसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा चुलसीति समजिया जेणं सिद्धा जहण्णेणं एके ण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं तेसीतिएण य पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा णो चुलसीति समञ्जिया जेणं सिद्धा चुलसीइएणं अण्णेण य जहण्णेणं एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा उक्कोसेणं तेसीतिएणं पवेसएणं पविसंति तेणं सिद्धा चुलसीति य णो चुलसीतिए य समजिया से तेणढेणं जाव समज्जिया। एएसिणं भंते ! णेरइयाणं चुलसीति समज्जियाणं णो Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 652 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय चुलसीतिसमजियाणं सवेसिं अप्पाबहुगं जहा छकसमजि-याणं जाव वेमाणिया णवरं अभिलावो चुलसीतिओ एएसिणं भंते ! सिद्धाणं चुलसीति समजियाणं णो चुलसीतिसमजियाणं चुलसीतिए य णो चुलसीतिए य समन्जियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थो वा सिद्धाचुलसीतिय णो चुलसीतिय समलिया चुलसीतिय समन्जिया अणंतगुणा णो चुलसीतिय समजिया अणंतगुणा सेवं भंते ! भंते ! ति जाव विहरह॥ एवं द्वादशकसूत्राणि चतुरशीतिसूत्राणि चेति / असुरकुमाराः कतिविधाः॥ केवइयाणं भंते ! असुरकुमारा वाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! चोयटिअसुरकुमारा वाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते भदंत! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा? गोयमा ! संखेजवित्थडा वि असंखेचवित्थडा वि। चोयट्ठियाणं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसुसंखेजवित्थडेसु असुरकुमारा वाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवइया असुरकुमारा उववजंति, के वइया तेउलेस्सा उववजंति, के वइया कण्हपक्खिया, उववजंति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं णवरं दोहिं वेदेहिं उववजंति, णपुंसगवेदगा ण उववजंति सेसं तं चेव, उव्वदृतगा वि तहेव णवरं असण्णि उव्वदृति, ओहिणाणी ओहिदसणी य ण उष्वदृति सेसं तं चेव, पण्णत्ता एसु तहेवणवरं संखेजगा इत्थीवेदगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेदगावि, णपुंसगवेदगाणत्थि कोहकसायी सिय अस्थि सियणत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा पण्णत्ता, एवं माण माया, संखेञ्जालोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं चेव, तिसु वि गमएसु संखेजवित्थडेसु चत्तारिलेस्साओ भाणियव्याओ, एवं असंखेजवित्थडेसु वि, णवरं तिसुविगमएसु असंखेजा भाणियव्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता ! केवइयाणं मंते! णागकुमारावासा एवं जाव थणियकुमारावासा णवरं जत्थ जत्तियाभवणा / / कइविहेत्यादि (संखेज्जवित्थडावि असंखेञ्जवित्थडावित्ति) इह गाथा "जंबुद्दीवसमा खलु, भवणा जे हुंति सव्वखुड्डागा। संखेजवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेजत्ति" ||1|| (दोहिं वि वेदेहिं उववजंतित्ति) / द्वयोरपि स्त्रीवेदपुवेदयोरुत्पद्यन्ते, तयोरेव तेषु भावात् (असण्णी उव्वदृतित्ति) असुरादीनामेवावधिमतामुत्तेः (ओहिनाणी ओहिदंसणी | य न उव्वटुंतित्ति) असुराधुदत्तानां तीर्थकरादित्वाभावात्, तीर्थकरादीशानान्तदेवानामसञ्जिष्वपि पृथिव्यादिषुत्पादात् (पण्णत्ताएसु तहेवत्ति) प्रज्ञप्तकेषु प्रज्ञप्तपदोपलक्षि-तगमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव यथा प्रथमोद्देशके "कोहक साई इत्यादि" क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्कत्वादत उक्रम् “सिय अस्थि इत्यादि" लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तम् / "संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्तत्ति" तिसुवि गमएसु चत्तारि लेस्साओ भणिअव्वाओत्ति" उववज्झंति उव्वदृति पन्नत्तेत्येवंलक्षणेषु त्रिष्वपिगमेषु चतस्रो लेश्यास्तेजोलेश्यान्ता भणितव्याः एता एव ह्यसुरादीनां भवन्तीति / (तत्थ जत्तिया भवणत्ति) यत्र निकाये यावन्तिभवनलक्षाणि तत्र तावन्त्युचार-णीयानि यथा- "चउसट्ठी असुराणं, नागकुमाराण होइ चुलसीई। वावत्तरि कणगाणं, वाउकुमाराण छण्णउई" ||1|| दीवादिसा उदहीणं, विजुकुमारिंदथणियमग्गेणं / जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सत्ति।। केवइयाणं मंते ! वाणमंतरा वाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा! असंखेज्जा वाणमंतरावाससययसहस्सा पण्णत्ता, तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेज्जवित्थडा? गोयमा ! संखेजवित्थडा णो असंखेचवित्थडा / संखेजेसुणं भंते ! वाणमंतरा वाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवइया वाणमंतरा उववखंति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेन्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा तहेव भाणियब्वा, वाणमंतराण वि तिषिण गमगा।। व्यन्तरसूत्रे (संखेजवित्थडत्ति) इह गाथा "जम्बुद्दीवसमा खलु, उक्कोसेणं हवंति ते नगरा / खुड्डा खेत्तसमा खलु, विदेहसमगाउ मज्झिमगति // 3 // केवइयाणं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा ! असंखेजा विमाणा वाससयसहस्सा पण्णत्ता , तेणं भंते! किं संखेचवित्थडा एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वि तिण्णि गमगा भाणियप्वा, णवरं एगा तेउलेस्सा उववजंतेसु पण्णत्तेसु य असण्णी णस्थि सेसं तं चेव // ज्योतिष्क सूत्रे संख्यातविस्तृता विमानावासा एगसहिभागं काऊण जोयणमित्यादिना ग्रन्थेन प्रमातव्याः , नवरं (एगा तेउ-लेस्सत्ति) व्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमेतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या, तथा उववजंतेसुपण्णत्तेसुय असण्णी नत्थित्ति। व्यन्तरे व्वसंज्ञिन उत्पद्यन्त इल्युक्तम् इह तु तन्निषेधः , प्रज्ञप्तेष्वपीह तन्निषेध उत्पादाभावादिति।। सोहम्मेणं भंते ! कप्पे के वइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा! वत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा? गोयमा ! संखेचवित्थडा वि असंखेचवित्थडा वि / सोहम्मेणं भंते ! वत्तीसविमाणावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं के वइया सोहम्मगा देवा उववज्जंति, के वइया तेउलेस्सा उववखंति, एवं जहाजोइसियाणं तिणि गमगा तहेव तिण्णि गमगा भाणियव्वा, णवरं तिसु वि संखेज्जा भाणियव्वा, ओहिणाणी ओहिदसणी य चया वेयवा सेसं तं चेव / असंखेन्जवित्थडा वि एवं चेव तिण्णि गमगा य, णवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा, ओहिणाणी य ओहिदसणी संखेचा वयंति सेसं तं चेव, एवं जहा सोहम्मवत्तव्वया मणिया तहा ईसाणे छग्गमगा भाणियव्वा, सणंकुमारे वि एवं चेव णवरं मा Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 953 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय इत्थीवेदगाण उव्वजंतितेसुपण्णत्तेसु यण भण्णंति, असण्णी तिसु वि गमिएसुण भण्णंति सेसंतं चेव / एवं जाव सहस्सारो णाणात्तं विमाणेसु लेस्सासु य सेसं तं चेव॥ सौधर्मसूत्रे ओहिणाणीत्यादि ततश्युता यतस्तीर्थकरादयो भवन्त्यतो अवधिज्ञानादयश्चावयितव्याः / ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा (चयंतित्ति) संख्यातानामेव तीर्थकरादित्वेनोत्पादादिति (छगमगत्ति) उत्पादादयस्वयः संख्यातविस्तृतानाश्रित्य एत एवच त्रयोऽसंख्यातविस्तृतानाश्रित्यैवं षङ्गमाः। नवरं इत्थिवेयगेत्यादि। स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते, न च सन्ति उदृत्तौ तु स्युः (असण्णी तिसु वि गमएसुन भण्णइ त्ति) सनत्कुमारादि देवानां संज्ञिभ्य एवोत्पादेन च्युतानां च संज्ञिष्वच गमनेन गमत्रयेऽप्यसंज्ञित्वस्थाभावादिति (एवं जाव सहस्सारोत्ति) सहस्रारान्तेषु तिरश्वामुत्पादेनासंख्यातानां त्रिष्वपिगमेषु भावादिति (नाणात्तविभागेसुलेस्सासुयत्ति) तत्र विमानेषु नानात्वं बत्तीस अट्ठावीसेत्त्यादिना ग्रन्थेन समवसेयम्लेश्यासु पुनरिदं तेऊ 1 तेऊ२ तह तेउपम्ह 3 पहाय 4 पासुक्का य५ / सुक्काय 6 परमसुक्काऽसुक्कइ विमाणवासीणंति" ||1|| इह च सर्वेष्वपि शुक्रादिदेवस्थानेषु परमशुक्लेति॥ आणयपाणएसुणं भंते ! कप्पेसु केवइवा विमाणावाससया पण्णत्ता ? चत्तारि विमाणावाससया पण्णत्ता / तेणं मंते ! किं संखेज्जापुच्छा, गोयमा! संखेजवित्थडावि असंखेजविस्थडा वि, एवं संखेचवित्थडे सु तिण्णि गमगा जहा सहस्सारे, असंखेज्जवित्थडेसु उववजंतितेसुयचयं तेसुय एवं चेव संखेजा भाणियय्वा, पण्णत्तेसु असंखेजा, णवरं णो इंदियओ-वउत्ता अणंतरोववण्णगा अणंतरोवगाढा अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा य एएसिं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उकोसेणं संखेजा पण्णत्तेसु असंखेज्जा भाणियव्वा / आरणचुएसु एवं चेव जहा आणयपाणएसुणाणात्तं विमाणेसु, एवं गेवेजगादि / / अनतादिसूत्रे। संखेजवित्थडेसु इत्यादि। उत्पादे अवस्थाने च्यव-नेन च संख्यातविस्तृतत्वाद्विमानानां संख्याता एव भवन्तीति भावः / असंख्यातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः संख्याता एव,यतो गर्भजमनुष्येभ्य एव आनतादिषूत्पद्यन्ते,न ते च संख्याता एव / तथा आनतादिभ्यश्च्युता गर्भजमनुष्येभ्य एवोत्पद्यन्ते अतः समयेन संख्यातानामेवोत्पादच्यवनसम्भवोऽवस्थितिस्त्व-संख्यातानामपि स्यादसंख्यातजीवितत्वेनैकदैव जीवितकाले असंख्यातानामुतपादादिति। पण्णत्तेसु असंखेज्जा नवरं नो इंदिओवउत्तेत्यादि। प्रज्ञप्तगमके असंख्येया वाच्याः केवलं नोइन्द्रियोपयुक्तादिषु पञ्चसुपदेसु संख्याता एव तेषामुत्पादावसर एव भावादुत्पत्तिश्च संख्यातानामेवेति दर्शितं प्रागिति॥ कइणं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचअणुत्तरविमाणा पण्णत्ता,तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा? गोयमा ! संखेजवित्थडा य असंजवित्थडा य। पंचसुणं भंते ! अणुत्तरविमाणेसुसंखेज्जवित्थडे विमाणे एगसमए | केवइया अणुत्तरोवदाइया उववज्जंति, केवइया सुक्कलेस्सा उववजंति पुच्छा तहेव, गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेचवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं अहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया उववजंति एवं जहा मेवजगविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसुणाणनंकण्हपवि-खया अभवसिद्धिया तेसु अण्णाणेसु एएणं उववजंतिण चयंवि,ण वि पण्णत्तएसु भाणियव्वा / अचरिमावि खोडिजंति, जाव संखेजा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तं चेव असंखेजवित्थडेसु वि एएण भण्णंति, अचरिमा अत्थिसेसंजहा गेवेज्जएसु असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता॥ (पंच अणुत्तरोववाइयत्ति) तत्र मध्यमं संख्यातविस्तृतं जोजनलक्षणमाणत्वादिति / नवरं कण्हपक्खियेत्यादि / इह सम्यग्दृष्टीनामेवोत्पादात् कृष्णपाक्षिकादिपादानां गमत्रयेऽपि निषेधः (धारिमावि कोडिजंतित्ति) येषां चरमो ऽनुत्तरदेवभवः स एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्तेच निषेधनीया यतश्चश्मा एव मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति / असंखेचवित्थडेसुवि (एएन भण्णतित्ति) इहेत इति कृश्नापाक्षिकादयः / नवरं (अचरिमा अत्थित्ति) यतो बाह्यविमानेषु पुनरुत्पद्यन्त इति॥ चोयट्ठीए णं मंते ! असुरकु मारावाससयसहस्से सु संखोज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मद्दिट्ठीअसुरकुमारा उववजंति,मिच्छदिट्ठी एवं जहा रयणप्पभाए तिण्णि आलावगा भणिया तहा असंखेचवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा, एवं जाव गेवेचविमाणे अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, णवरं तिसुवि आलावएसु मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठीयणं भण्णत्ति सेसंतं चेव / से णणं भंते ! कण्हलेस्से णीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसुदेवेसु उववज्जति ?हंतागोयमा ! एवं जहेव णेरइएसु पढमे उद्देसे तहेव माणियव्वं,णीललेस्साए वि जहेव णेरइयाणं, जहाणीललेस्साए एवं जाव पम्हलेस्सेसु सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, णवरं लेस्साठाणेसु विसुज्झमाणेसु विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सा परिणमइ, परिणमइत्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जंति से तेण?णं जाव उववजंति। सेवं भंते ! भंतेत्ति / / (तिण्णि आलावगत्ति) सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टिविषया इति। नवरं तिसु वि आलवगेसु इत्यादि, उप्पत्तिए चवणे पण्णत्ता लावए य / मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च न वाच्योऽनुत्तरसुरेषु तस्यासम्भवादिति / भ०१३ श०३०२। (10) नैरयिकादयः कुत उत्पद्यन्ते। नेरइयाणं भंते कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहितो उवव-जंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंतिमणुस्सेहिंतो उववजंति देवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! नेरइया नो नेरइएहिंतो उवव-जंति तिरिक्खजोणिएहिंतोउववजंतिमणुस्सेहिंतोउववजंतिनोदेवेहितो उववज्जति जदि तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजं ति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतोउववजंति बेइंदियतिरिक्खजोणिएहिंतोउववजंतितेइंदियतिरिक्खजोणिएहितोउववजंतिचउरिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति पंचिं दियतिरिक्खजोणि Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय एहिंतो उववजंति ? गोयमा ! नो एगिंदिया नो बेइंदिया नो तेइंदिया नो चउरिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति। जइपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति थलयरपंचिंदियतरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति खहचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति थलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति खहयरपंचिंदियएहिंतो वि उववजंति / जदि जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सम्मच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति गब्भवतिय जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति? गोयमा! सम्मुच्छिमजलयरपंचिंदिएहिंतो जाव उववज्जति गमवक्कंतिजलचरपंचिदिएहिंतो वि उववजंति / जदि सम्मुच्छिमजलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववखंति किं पज्जत्तसम्मुच्छिमजलचरपंचिंदिएहिंतो उवववजंति किं अपज्जत्तसम्मुच्छिमजलचरपंचिंदिएहितमो उवजंति ? गोयमा ! पज्जत्तसम्मुच्छिमजलचरपचिदिएहिंतो उववजंति नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरपंचिंदिएहिंतो उववज्जति जदि गब्भवक्कंतियजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पजत्तगगम्भवतियपंचिंदियएहिंतो उववजंति किं अपज्जत्तगब्भवक्कंतियजलयरपंचिंदिएहिंतो उववजंति? गोयमा! पज्जत्तगगब्भवक्कंतियजलचरपंचिंदिएहिंतो उववजंति नो अप्पज्जत्तगगब्भवक्कं तियजलयरपंचिंदिएहिंतो उववजंति। यदि थलचरपंचिंदियत्तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति किं चउप्पयथलयरपंचिदियत्तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववञ्जति जदि चउप्पयपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सम्मुच्छिमेहिंतो उववज्जति गम्भवक्कंतिएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो विउववज्जति गब्भववंतियचउप्पएहिंतो वि उववज्जंति / जदि सम्मुच्छिमचउप्पएहिंतो उव्वजंति किं पजत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदिएहिंतो उववजंति किं अप्पज्जत्तगथलयरसम्मुच्छिमचउप्पयपंचिंदिएहिंतो उववजंति? गोयमा ! पज्जत्तग जाव उववजंति नो अप्पञ्जत्तगथलयरचउप्पयसम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति / जदि गन्भवक्कं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं संखेजवासाउयगम्भवक्कं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति किं असंखेन्जवासाउयगम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति / गोयमा ! संखेज्जवासाउएहिंतो उववअंति नोअसंखेजवासाउएहिंतो उववजंति / जदि संखेज्जवासाउयगब्भवकं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयगड्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं अपज्ज--- त्तगसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कं तियचउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति? गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववजंति नो अप्पज्जत्तएहिंतो उववखंति / जदि परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति? गोयमा ! दोहिंतो वि उववजंति जदि उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं गब्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए-हिंतो उववधति ? गोयमा ! समुच्छिमेहिंतो वि गब्भवक्कं ति-एहितो वि उववजंति जदि सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो किं अपजत्तएहिंतो? गोयमा! पजत्तगसम्मुच्छिमेहिंता उववजंति नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति जदि गब्भववंतियउरपरिसप्पथलयरपंचिं दियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति किं पञ्जत्तएहिंतो किं अपज्जत्तएहिंतो? गोयमा ! पञ्जत्तगब्भवक्कंतिएहिंतो उववनंति नो अपज्जत्तगन्भवतिउरपरिसप्पथल-- चरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति / जदि भुजपरिसप्पथलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सम्मुच्छिमभुजपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति गब्भवक्कं तियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा दाहिंता वि उववजंति जदि सम्मुच्छिमभुजपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पञ्जत्तयसम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं अपजत्तगसम्मुमिच्छमभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववनंति ? गोयमा! पञ्जत्तएहिंतो उववजंति नो अपनत्तएहितो उववजंति।जदिगम्भववंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पञ्जत्तएहिंतो उववजंति किं अपज्जत्तएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उवव Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 955 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय जंति नो अपज्जत्तएहिंतो उववजंति / जदि खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति किं सम्मुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं गब्भवतियखह-। यरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति? गोयमा! दोहितो वि उववनंति / जदि सम्मुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पज्जत्तएहिंतो अपञ्जत्तएहितो उववनंति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववजंति नो अपज्जत्तए-- हिंतो उवजंति / जदि गन्भवतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउएहिंतो उववज्जति असंखेज्जवासाउएहिंतो उववजंति? गोयमा ! संखेजवासाउएहिंतो नो असंखेज्जवासाउएहिंतो उववजंति जदि संखेजवासाउयगन्भवकं तियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पज्जत्तएहिंतो उववजंति अपज्जत्तएहिंतो उववजंति ? गोयमा! पज्जत्तएहिंतो उववजंति नो अपञ्जत्तएहिंतो उववअंति। प्रज्ञा०६ पद। नैरयिकादीनां स्थित्यादयः। जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववखंति किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति असण्णिपंचिंदियति रिक्खजोणिएहितो वि उववञ्जति असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति / जइ असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववञ्जतिथलचरेहितो उववजंति खहचरेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! जलचरेहितो उववज्जति थलचरेहिंतो वि उववजंति खहधरे-हिंतो वि उववजंति जइ जलचरेथलचरेखहचरेहिंतो उवजंति किं पञ्जत्तएहिंतो उववजंति अपज्जत्तएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववजंति णो अपज्जत्तएहिंतो उववजंत्ति / पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! कइसु पुढवीसु उववजेजा? गोयमा ! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववजेज्जा पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं मंते ! जे भविए रयणप्पभाए | पुढवीएसुणेरइएसु उववजित्तए सेण मते ! केवइयकालट्टिईएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! जहण्णेणं दसवासासहस्सद्विती-एसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठितिसु उववजेजा? | तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेचा वा उववज्जति तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसघयणीपण्णत्ता ? गोयमा ! छेवट्ठीसंघयणीपण्णत्ता तेसिणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं | अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं // 4 // तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता? गोयमा ! हुंडसंताणसंठिया पण्णत्ता // 5 // तेसि णं भंते जीवाणं कई लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तिण्णि लेस्साओ पण्णत्ताओ तंजहा कण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा // 6 / / तेणं भंते ! जीवा सम्मदिट्टी मिच्छाद्दिट्ठी सम्मामिच्छाद्दिट्ठी? गोयमा! णो सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठीणो सम्मामिच्छादिट्ठी॥७॥ तेणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी? गोयमा ! णो णाणी अण्णाणी। नियमा दुअणाणी तंजहा मतिअण्णाणी सुअअ-ण्णाणी।८। तेणं भंते ! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी? गोयमा ! णो मणजोगी वयजोगी विकायजोगी वि|| तेणं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि॥१०॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ सण्णा पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारिसण्णा पण्णत्ता तंजहा आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गह-सण्णा ||11|| तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता तंजहा कोहकसाएमाणक-साए मायाकसाए लोभकसाए।।१२।। तेसिणं भंते ! जीवाणं कइइंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचिंदिया पण्णत्ता तंजहा सो-इंदिए चक्खिदिए जाव फासिंदिए / / 13 / / तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्घाए // 14 // तेणं भंते ! जीवा किं सातावेदगा असातावेदगा? गोयमा! सातावेदगा वि असतावेदगा वि।।१५।। तेणं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा? गोयमा! णो इत्थी वेदगाणो पुरिसवेदगाणपुंसगवेदगा // 16 // तेसिणं भंते ! जीवा णं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं पुथ्वकोडी॥१७॥ तेसिणं भंते ! जीवा-णं कइ अज्झवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता ? तेणं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था? गोयमा ! पसत्था वि अप्पसत्था वि।।१८|| तेणं भंते ! पज्जत्ता असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएत्ति कालओ केवचिरं होइ गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी।।१६। सेणं भंते ! पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभाए पुढवी णेरइए पुणरवि पज्जत्तअसपिणपंचिंदियतिरिक्खजोणिएत्ति केवइयं कालं सेवेजा केवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तममहियाइं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडिमन्महियं एवइयं काल सेवेज्जा एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा / / 1 / / पञ्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खुजोणिएणं भंते ! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएसुरयणप्पभा Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 656- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय पुढवी णेरइए उवववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिइएस उववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं वि दसवाससहस्सहिईएसु | उक्कोसेण वि दसवाससहस्सटिईएसु उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टिईएसु उववज्जेज्जा ||1|| तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति एवं सव्वावत्तवया णिरवसेसा माणियव्वा जाव अणुबंधोत्ति सेणं भंते ! पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णकालट्ठिईयरयणप्पभापुढविणेरइए जहण्णकालं पुणरवि अपज्जत्तअसण्णि जाव गतिरागतिं करेजा? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णे णं दसवाससहस्साई अंतो मुहुत्तममहियाइं उक्कोसेणं पुवकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया एवइयं कालं गति-रागतिं करेजा // 2 // पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणि-एणं भंते! जे भविए उक्कोसकालट्ठिईएसु रयणप्पभापुढवी णेरएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालटिईएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उक्कोसेण वि | पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उवजेज्जा तेणं भंते! जीवा अवसेसं तं चेव जाव अणुबंधो / सेणं भंते ! पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालटिई य रयणप्पभापुढवी णेरइए उक्कोसं पुणरवि पजत्त जाव करेजा? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालदेसेणं जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं अंतोमुहुत्तमब्भहियं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुटवकोडी अब्महियं एइवयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा जहण्णकालट्ठिई य पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवी जेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेजा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उववज्जेज्जा तेणं मंते ! जीवा एगसमएणं केवति अवसेसं तं चेव णवरं इमाइं तिण्णि णाणत्ताई आउअज्झवसाणाणुबंधो य जहण्णेणं ठिईअंतो मुहुत्तं उकोसेण वि अंतोमुहत्तं / तेसिणं मंते ! जीवाणं केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा पण्णत्ता तेणं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा ! णो पसत्था अप्पसत्था / अणुबंधो अंतोमुहुत्तं सेसंतं चेव / सेणं मंते ! जहण्णकालटिई य पत्ता असण्णिपंचिंदियरयणप्पमा जाव करेजा ? गोयमा! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेन्जइभागं अंतोमुत्तमभहियं एवइयं कालं जाव करेज्जा ||4|| जहण्णकालट्ठिई य पज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएसु रयप्पभापुढवी णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएसु उक्कोसेणं वि दसवाससहस्सट्ठिईएसु उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा सेसं तं चेव। ताई चेव तिण्णि णाणत्ताई जाव सेणं मंते ! जहण्णकालट्ठिई य पज्जत्त जाव जोणिए जहण्णकालहिई य रयणप्पभा पुणरवि जाव? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाइं कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाइं एवइयं कालं संवेज्जा जाव करेजा / / 5 / / जहण्णकालट्ठिइयं पज्जत्ता जाव तिरिक्खजोणियाणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्ठिएसु रयणप्पभापुढविणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवतियकालट्ठिईएसु उववजेजा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओविमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उक्कोसेण विपलिओवमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उववजेज्जा, तेणं भंते ! अवसेसं तं चेव ताणि चेव तिण्णि णाणत्ताई जाव / सेणं मंते ! जहण्णकालट्ठिईयस्स पज्जत्त जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्ठिईयरयणप्पमा जाव करेजा? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं अंतोमुत्तमब्भहियं उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजइभागं अंतोमुत्तमब्भहियं एवइयं कालंजाव करेजा।।६। उक्कोसकालटिईयपज्जत्तअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेर-- इएसु उववजित्तए, सेणं भंते ! केवइयहिई जाव उववज्जेज्जा ? गोयमा! जहण्णणं दसवाससहस्सटिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्ठिइएसु उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं अवसेसं जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतव्वं जाव इमाइंदोण्णि णाणत्ताइं ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुष्वकोडी एव अणुबंधोवि अवसेसं तं चेव / सेणं भंते ! उकोसकालट्ठिईयपज्जत्तअसण्णि जाव तिरिक्खजोणिए रयप्पभा जाव? गोयमा ! भवादेसेणंदोभवम्गहणाई,कालादेसेणं जहण्णेणं पुय्वकोडी दसहिं वाससहस्से हिं अब्भहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइमागंपुष्वकोडीए अमहियं एवइयं जाव करेजा 7 उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्ततिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविएजहण्णकालट्ठिईएसुरयणप्पभाजाव उववजित्तए सेणं भंते! केवति जाव उववजेजा? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेण विदसवाससहस्सटिईएसु उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! सेसं तं चेव जहा सत्तमगमए जाव सेणं भंते ! उक्कोसकालट्ठिई जाव तिरिक्खजोणिएजहण्णकालटिई य रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाइं कालादेसेणं जहण्णेणं Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय ६५७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय पुटवकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणवि पुष्वकोडीदसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया एवइयं जाव करेज्जा ||8|| उक्कोसकालट्ठियपज्जत्त जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्ठिईएसु रयणप्पमा जाव उववञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइयं कालं जाव उववजेजा? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिईएसु उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! जीवा एगसमए सेसं जहा सत्तमगमए जाव सेणं मंते ! उक्कोसकालट्टिई पञ्जत्त जाव तिरिक्खजोणियउकोसहिईयरयणप्पमा जाव करेजा? गोयमा ! भवादेसेणं दोभवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुवकोडीए अन्म-- हियं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुष्वकोडी मन्महियं एवइयं कालंसेवेजाजाव करेजा || एवं एते ओहिया तिण्णिगमगा / 3 / जहण्णकालट्ठिईएस तिण्णिगमगा / 6 / उकोसकालट्ठिईएसु तिण्णिगमगा 18 सय्वे ते णव गमगा भवंति॥ सेणं भंते पज्जत्ता असण्णीत्यादि (भवादेसेणंति) भवप्रकारेण (दोभवग्गहणाइंति) एकत्रासंज्ञी द्वितीये नारकः ततो निर्गतस्सन्ननन्तरतया संज्ञित्वमेव लभते न पुनरसंज्ञित्वमिति (कालाएसेणंति) कालप्रकारेण कालत इत्यर्थः दशवर्षसहस्राणि नारकजघन्यस्थितिअन्तमुहूर्ताभ्यधिकानि असंज्ञिभवसम्बन्धिजघन्यायुस्सहितानीत्यर्थः (उक्कोसेणमित्यादि) इह पल्योपमासंख्येयभागः पूर्वभवासंज्ञिनारकोत्कृष्टायुष्करूपः पूर्वकोटीचासंड्युत्कृष्टायुष्करूपेति / एवमेते सामान्येषु रत्नप्रभानारकेषुत्पित्सवोऽसंज्ञिनः प्ररूपिताः।१।अथ जघन्यस्थितिषु तेषुत्पित्सूस्तात्प्ररूपयन्नाह (पज्जत्तेत्यादि) सर्वं चेदं प्रतीतार्थमेवमुत्कृष्टस्थितिषु रत्नप्रभानारकेषुत्पित्सवोऽपि प्ररूपणीया एवमेते त्रयो गमा निर्विशेषणपर्याप्तकाऽसंज्ञिनमाश्रित्योक्ता एवमेव तं जघन्यस्थितिकमुत्कृष्टस्थितिकं 3 चाश्रित्य वाच्यास्तदेवमेते नव गमाः तत्र जघन्यस्थितिकमसंज्ञिनमाश्रित्य सामान्यनारकगम उच्यते (जहण्णेत्यादि) आऊअज्झवसाणाअणुबंधोयत्ति) आयुरन्तर्मुहूर्तमेव जघन्यस्थितेरसंज्ञिनोऽधिकृतत्वात् अध्यवसायस्थानान्यप्रशस्तान्येवान्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वाद्दीर्घस्थितेर्हि तस्यद्विविधान्यपि तानि सम्भवन्ति, कालस्य बहुत्वादनुबन्धश्च स्थितिसमान एवेति कायसंवेधे च नारकाणां जघन्याया उत्कृष्टायाश्च स्थितेरुपर्यन्तर्मुहूर्तं वाच्यमिति ||4|| एवं जघन्यस्थितिकं तं जघन्यस्थितिकेषु तेषूत्पादयन्नाहजहण्णकालढिईत्यादि / / 5 / / एवं जघन्यस्थितिकं तमुत्कृष्टस्थितिषु तेषूत्पादयन्नाहजहण्णेत्यादि // 6 // एवमुत्कृष्टस्थितिक तं सामान्येषु तेषूत्पादयन्नाह-उक्कोसकालेत्यादि / / 7 / / एवमुत्कृष्ट स्थितिं तं जघन्यस्थितिषु तेषूत्पादयन्नाहउक्कोसकालेत्यादि // 8|| एवमुत्कृष्टस्थितिक तमुत्कृष्टस्थितिषु तेषूत्पादयन्नाह उक्कोसकालेत्यादि।।६।। एवं तावदसंज्ञिनः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो नारकेषूत्पादो नवधोक्तोऽथसंज्ञिनस्तस्यैव तथैव तमाह (जइसण्णीत्यादि) तिणि नाणा तिण्णि अण्णाणा (भयणाएत्ति) जदि सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्खजाव उवव-जंति गोयमा! संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजो-णिएहितो उववजंति णो असंखेजवासाउय जाव उववज्जति जदि संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदिय जाव उववजंति किं जलचरेहिंतो उववखंति पुच्छा? गोयमा ! जलचरेहिंतो उववज्जति जहा असण्णी जाव पजत्तएहिंतो उववजंति णो अपज्जत्तएहिंतो उववजंति पज्जत्तसंखेजवासाउयसण्णि पंचिं-दियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! कइसुपुढवीसु उववजेज्जा? गोयमा! सत्तसु पुढवीसु उववजेजा तंजहारयणप्पभाए जाव अहेसत्तमाए पजत्तसं-खेज्जवासाउयसपिणपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविणेरइएसु उववञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववझेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएस उकोसेणं सागरोवमद्विईएसु उववजेजा तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति जहेव असण्णी / तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कि संघयणीपण्णत्ता? गोयमा! छव्विहसंघयणीपण्णत्तातं जहावइरोसभनारायसंघयणीउसभनारायजाव छेवट्ठसंघयणी। सरीरोगाहणाजहेव असण्णीणं / तेसिणं मंते ! जीवाणं सरीरगा किं संट्ठिया पण्णत्ता? गोयमा! छव्विहसंट्ठिया पण्णत्तातं जहा समचउरंसा णिग्गोहाजाव हुंडा।तेसिणं भंते ! जीवाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा / दिट्ठी तिविहावि / तिण्णिणाणा तिण्णि अण्णाणा भयणा / जोगो तिविहोवि सेसं जहा असण्णीणं जाव अणुबंधो णवरं पंचसमुग्घाया आदिल्लगा, वेदो तिविहो वि। अवसेसं तं चेव जाव सेणं भंते ! पजत्तासंखेञ्जवासाउ य जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाइं उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाई,कालादेसेणं जहणणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइंचउहिं पुष्वकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा / / पज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव जे भविए जहण्णकालं जाव से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिईएसु उक्कोसेणं विदसवाससहस्सटिइएसु जाव उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! जीवा एवं सो चेव पढमगमओ णिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतो मुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं चत्तारि Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय पुव्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अमहियाओ एवइयं कालं सेवेजा जाव करेज्जा / 2 / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु उक्कोसेण वि सागरोवमट्ठिईएसु अवसेसो परिणामादीवो भवादेसे पज्जवसाणे सोचेव पढमगमगो तय्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवर्म अंतोमुहुत्तमन्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइ चउहिं पुष्वकोडीहिं अब्महियाइं एवइयं कालं सेवेज्जा / 3 / जहण्णकालट्ठिई य पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवी जाव उववजित्तए, सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेजा? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं सागरोवमट्टिईएसं उववज्जेजा, तेणं मंते ! जीवा अवसेसो सो चेवगमओणवरं इमाइं अट्ठ णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग उक्कोसेणं धणुहपुहुत्तलेस्साओ तिण्णिआदिल्लाओ णो सम्मदिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी णो सम्मामिच्छट्ठिी / णो णाणी दो अण्णाणी णियमं / समुग्घाया आदिल्ला तिण्णि / आउअज्झवसाणा अणुबंधो य जहेव असण्णीणं अवसेसं जहा पढमगमए जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तम- | भहियाई उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा।४सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टिईएसु उववजेज्जा तेणं भंते ! एवं सो चेव | चउत्थो जिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं | दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा।।।। सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो। जहण्णेणं सागरोवमहिईएसु उक्कोसेण विसागरोवमट्टिईएसु उववजेजा, तेणं भंते ! एवं सो चेव चउत्थो गमओ णिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्त-मन्भहियं उक्कोसेणं चतारिसागरोवमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई एवइयंजाव करेजा।।६ा उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्तसंखेज्जवासाउ य जाव तिरिक्खजोणिएणं मंते ! जे भविए रयणप्पभा पुढवि णेरइएसु उववजित्तए / सेणं भंते ! केवइयकालदिईएस उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्सट्टिईएसु उकोसेणं सागरोवमट्ठिईएसु उवव जा, तेणं भंते ! जीवा अवसेसो परिणामादीवो भवादेसे पज्जवसाणे एएसिं चेव पढमो गमओ णेतव्वो णवरं ठिई। जहण्णेणं पुष्वकोडी उक्कोसेण वि पुष्वकोडी एवं अणुबंधो वि।सेसंतं चेवा कालादेसेणं जहण्णेणं पुष्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया उकोसेणं चत्तारि सागरोवमाईचउहि पुष्वकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा / / 7 / सो चेव जहण्ण-कालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्ठिईएसु उववजेजा तेणं मंते ! जीवा सो चेव सत्तमो गमओ णिरवसेसो माणियव्वो जाव भवादेसोत्ति कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं चत्तारि पुथ्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अमहियाओ एवइयं जाव करेजा ||| उक्कोसकालट्ठिईयपज्जत्त जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालट्ठिई जाव उववज्जित्तए सेणं भंते ! के वइय-कालट्ठिईएसु उववज्जेजा? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमट्ठिईएसु उक्कोसेण विसागरोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! सो चेव सत्तमो गमओ णिरवसेसो भाणियव्वो जाव मवादेसोत्ति, कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं पुय्वकोडीए अब्भहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई एवइयं जाव करेजा II एवं एते णव गमगा उक्खे वओ णिक्खे वओ णवसु वि जहे व असण्णीणं , पञ्जत्तसंखेज्जवासा-उयसणि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए सक्करप्पमाए पुढवीए णेरएसु उववज्जित्तए सेणं मंते ! केवइयकाल-द्विईएसु उववजेजा जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु उववजेजा, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा तेणं मंते ! जीवा एगसमएणं एवं जहेव सक्करप्पभाए उववजंतगस्स लद्धी सव्वे वि णिरवसेसा भाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमब्भहियं उक्कोसेणं वारससाग-रोवमाइं चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई एवइयं जाव करेजा / एवं रयणप्पभापुढविगमगसरिसा णव वि गमा भाणियव्वा णवरं सवगमएसु वि णेरइयट्टिई य संवेहेसु सागरोवमा भाणियव्वा एवं जाव छट्ठपुढवित्तिणवरंणेरइए ठिई जा जत्थ पुढवीए जहण्णुक्कोसिया सा तेण चेव कमेण चउग्गुणा कायध्वा बालुयप्पभाए अट्ठावसिं सागरोवमा चउगुणिया भवंति पंकप्पभाए चत्तालीसं, धूमप्पभाए अट्ठसर्टि, तमाए अट्ठासीति। संघयणाई वालुयप्पभाए पंचविहा संघयणी तं जहा वइरोसभनाराय जाव कीलियासंघयणी, पंकप्पभाए चउव्विहसंघयणी, धूप्पमाए तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणी तंजहा वइरोसभनारायसंघयणी उसमनारायसंघयणी सेसं तं चेव / पञ्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए अहे सत्तमपुढवीणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेञ्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं बावीस सागरोवमट्ठिईएसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमट्ठिईएसु उववजेज्जा तेणं भंते ! जीवा एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमगा लद्धी Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय सव्वेवि णवरं वइरोसभनारायसंघयणी इत्थी वेदगा ण उववजंति सेसंतं चेव जाव अणुबंधोत्ति संबेहो भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई, कालादेसेणं / जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइंदोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई उक्कोसेणं छासहि सागरोवमाइंचउहिं पुटवकोडीहिं अमहियाई एवइयं जाव करेजा।१। सो चेव जहण्णकालहिईएसु उववण्णो सम्वेव वत्तव्वया जाव भवादेसोत्ति, कालादेसेणं जहण्णेणं कालादेसो वितहेव जावचउहि पुव्वकोडीहिं अब्भहियाईएवइयं जाव करेजा।। सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो सवेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति / भवादेसेणं जहण्णे णं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं अंतो मुहत्तेहिं अमहियाई उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाइं एवइयं / जाव सेवेजा / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिइओ जाओ सव्वे वि रयणप्पभापुढविजहण्णकालदिठइयवत्तव्वया भाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति णवरं पढमसंघयणं णो इत्थीवेदगा भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं सत्तभवम्गहणाइं कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्महियाइं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई चउर्हि अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाइं एवइयं जाव करेज्जा / / सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एवं सो चेव चउत्थो गमो णिरवसेसो भाणियव्वो जाव कालादेसो त्ति / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो सम्वेव लद्धी जाव अणुबंधोत्ति, भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाइं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइंअंतोमुहुत्तेहिं अमहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा।६।सो चेव अप्पणा उक्कोसकालछिईओ जाओ जहण्णेणं बावीसं सागरोवमट्टिईएसुउकोसेणं तेतीसं सागरोवमट्टिईएसु उववजेजा, तेणं भंते ! अवसेसासव्वे विसत्तमपुढवीपढमगमगवत्तव्वया भाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति णवरं ठिईअणुबंधो त्ति,जहण्णेणं पुटवकोडी उक्कोसेणं वि पुवकोडी सेसं तं चेव, कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाइंदोहिं पुवकोडीहिं अमहियाइं, उक्कोसेणं | छावढि सागरोवमाइं चउहिं पुटवकोडीहिं अन्महियाइं एवइयं जाव करेजा 7 सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो सवेवलद्धी संवेहो वितहेव सत्तमगमगसरिसो। सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो सव्वे विलद्धी जाव अणुबंधोत्ति, भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं पुटव कोडीहिं अमहियाई उक्कोसेणं छावह्रि सागरोवमाई तिहिं पुष्वकोडीहिं अमहियाइं एवइयं कालं जाव करेज्जा ।जइ मणुस्से हिंतो उववजंति किं सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति असपिणमणुस्सेहिंतो उववजंति ? गोयमा! सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति णो असण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति जइ सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति असंखेज जाव उववजंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से हिंतो उववजंति णो असंखेन्जवासाउय उववजंति / जइ संखेज्जवासाउय जाव उववजंति किं पञ्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव उववजंति अपज्जत्त जाव उववजंति ? गोयमा ! पजत्तसंखेन्जवासाउय जाव उववज्जंति णो अपजत्तसंखेजवासाउय जाव उववज्जति // पञ्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं मंते ! जे भविए णेरइएसु उववञ्जित्तए सेणं भंते ! कइसु पुढवीसु उववजेजा ? गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववजेजा तं जहा रयणप्पभा जाव अहे सत्तमाए / पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवीए णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइया कालट्ठिईएस उववजेञ्जा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवासहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं सागरोवमट्टिईएसु उववजेजा, तेणं मंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दोवा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववजंति संघयणा छ सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहूत्तं / उक्कोसेणं पंचधणुहसयाइं / एवं सेसं जहा सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणंजाव भवादेसो त्तिणवरं चत्तारिणाणातिण्णि अण्णाणा भयणाए। छसमुग्धाया केवलिवजा ठिई अणुबंधो य जहण्णेणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणं पुष्वकोडी सेसं तं चेव। कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससह-स्साई मासपुहुत्तमन्महियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइंचउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा / 1 / सो चेव जहण्णकालद्विईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं चत्तारि पुटवकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्से हिं अब्भहियाओ एवइयं जाव करेजा / 2 / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादे सेणं जहण्णेणं सागरोवमं मासपुहुत्तममहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुय्वकोडीहिं अन्भहियाइं एवइयं जाव करेज्जा / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ एस चे व वत्तवया णवरं इमाइं णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं उक्कोसेण वि अंगुलपुहुत्तं तिणि णाणा तिण्णि अण्णाणाभयणाएपंच समुग्धाया आदिल्ला ठिई अणुबंधो यज Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 960 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय हण्णेणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणं वि मासपुहुत्तं सेसं तं चेव जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमम्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं मासपुहुत्तेहिं अमहियाई एवइयं जाव करेजा / / सो चेव जहण्णकालहिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया चउत्थगमगसरिसा णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमम्महियाई उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चउहिं मासपुहुत्तमन्भहियाई एवइयं जाव करेजा।। सो चेव उक्कोसकालट्ठिइएसु उववण्णो एस चेव गमगो णवरं कालादेसेणं जहप्रणेणं सागरोवमं मासपुहुत्तमन्महियं उक्कोसेणं चत्तारिसागरोवमाई चउहिं मासपुहुत्तेहिं एवइयं जाव करेजा / 6 / सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाव सो चेव पढमगमओ णेयव्वो णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंच धणुहसयाइं उक्कोसेण विपंच घणुहसयाई ठिईजहण्णेणं पुष्वकोडी उक्कोसेण वि पुष्व-कोडी एवं अणुबंधो वि / कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडीदसहिं वाससहस्सेहिं अब्महियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइंचउहिं पुष्वकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा / 7 / सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो सव्वे व सत्तमगमगवत्त-प्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडी दसवाससहस्से हिं अब्भहिया उक्कोसेणं चत्तारि पुश्वकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ एवइयं जाव करेजा / 8 / सो चेव उक्कोसकालटिईएसु उववण्णो साचेव सत्तमगमगवत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं एग सागरोवमं पुय्वकोडीए अब्भ-हियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइंचउहिं पुथ्वकोडीहिं अमहियाई एवइयं कालं जाव करेजा / / पज्जत्तसंखेज्जवासाउ य सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइए जाव उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइयं कालं जाव उववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमट्ठिईएसु उववज्जेजा तेणं भंते ! एवं सो चेव रयणप्पभापुढविगमओ णेयव्वो णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणि पुहुत्तं उक्कोसेणं पंचधणुहसयाई ठिती जहण्णेणं वासपुहुत्तं पुव्वकोडी एवं अणुबंधोवि सेसं तं चेव जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं वासपुहुत्तमब्भहियं उक्कोसेणं वारससागरोवमाइंचउहि पुष्वकोडीहिं अमहियाइं एवइयं जाव करेजा / एवं एसा ओहिएसु तिसु गमेसु मणुस्सलद्धी णाणत्तं णेरइयहिती कालादेसेणं संवेहं च जाणेज्जा / सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्वितीओ जाओ तस्स वि तिसुगमएसुएस चेव लद्धी णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणिपुहुत्तं उक्कोसेणं वि रयणिपुहुत्तं ठिती जहण्णेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेण वि वासपुहुतं एवं अणुबंधोवि सेसं जहा ओहियाणं संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो / 6 / सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ तस्स वि तिसु गमएसु इमं णाणत्तं सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाइं उक्कोसेण वि पंचधणुहसयाई ठिती जहण्णेणं पुटवकोडी उक्कोसेण वि पुटवकोडी, एवं अणुबंधो वि सेसं जहा पढमगमए णवरं णेरइयहिती कायसंवेहं च जाणेज्जा / / / एवं जाव छट्ठपुढवी णवरं तच्चाए आढवेत्ता एक्कक्कं संघयणं परिहायति, तहेव तिरिक्खजोणियाणं कालादेसो वि तहेव / णवरं मणुस्सट्ठिई जाणियव्वा / पज्जत्तसंखेज्जवासाउसण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए अहं सत्तमपुढविणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालद्विईएसु उववजेता? गोयमा ! जहण्णेणं बावीसं सागरोवमट्ठिईएसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं अवसेसो सो चेव सक्करप्पभपुढविं गमओ णेयव्वो णवरं पढमसंधयणं / इत्थी वेयणा ण उववजंति सेसं तं चेव जाव अणुबंधोत्ति। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमब्महियाइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुष्वकोडीए अन्भहियाइं एवइयं जाव करेजा ? सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं णेरइयट्ठिई संवेहं च जाणेज्जा / / सो चेव उक्कोसकालट्ठिइएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं संवेहं च जाणेजा / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओतस्स वि तिसुगमएसु एस चेव वत्तव्वया णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयणिपुरत्तं उक्कोसेण वि रयणिपुहुत्तं, ठिईजहण्णेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेण वि वासपुहुत्तं एवं अणुबंधो वि संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ तस्स वि तिसु गमएसु एस चेव वत्तव्वया णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाई उक्कोसेण विपंचधणुहसयाई ठिई जहण्णेणं पुष्वकोडीउक्कोसेण वि पुथ्वकोडी एवं अणुबंधो वि। णवसु वि एतेसु गमएसु णेरइयट्ठिई संवेहं च जाणेजा / सव्वत्थ भवग्गहणाई दोण्णि जाद णव गमएसु कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुव्वकोडीए अमहियाइं उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुष्वकोडीए अब्भहिया एवइयं कालं सेवेचा एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा।। सेवं भंते भंतेत्ति तिणि नाणा तिणि अण्णाणा (भयणाएत्ति) तिरश्चां संज्ञिनां नरक गामिना ज्ञानान्यऽज्ञानानि च त्रीणि भजनया भवन्तीति द्वे वा त्रीणि वा स्यु रित्यर्थ: / / नवरं पंचसमुग्घाया (आइल्लगति) असंज्ञिनः पञ्चेन्द्रियतिरश्वस्त्र Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय यस्समुद्धाताः सञ्जिनस्तु नरकं यियासोः पञ्चाद्या अन्तयोयोमनुष्याणामेव भावादिति / (जहण्णेणं दो भवग्गहणाइंति) सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्य पुनर्नरकेषूत्पद्यते ततो मनुष्येष्वेवमधिकृत्य कायसंवेधे भवद्वयं जघन्यतो भवति एवं भवग्रहणाष्टकमपि भावनीयम्। अनेन चेदमुक्तं सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यड् ? ततो नारकः 2 पुनः सज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ् 3 पुनारकः 4 पुनः सज्झिपञ्चेन्द्रियतिर्य५ पुनारकः६ ततः पुनः सज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ् 7 पुन-स्तास्यामेव पृथिव्यां नारकः 8 इत्येवमष्टावेव वारानुत्पद्यते नवमे भवे तु मनुष्यः स्यादिति एवमौधिक औषिकेषु नारकेषूत्पादितोऽयं चेह प्रथमो गमः। पज्जत्तेत्यादिस्तु द्वितीयः / सो चेव उक्कोसकाले इत्यादिस्तु तृतीयः / जहण्णकालद्वितीयेत्यादिस्तु चतुर्थः / तत्र च / नवरं इमाई अट्ठनाणत्ताइति / तानि चैवंतत्र शरीरावगाहनोत्कृष्टा योजनसहस्रमुक्ता इह तु धनुः पृथक्त्वं तथा तत्र लेश्याः षट् इह त्वाद्यास्तिस्रः तथा तत्र दृष्टिः त्रिधा इह तु मिथ्यादृष्टिरेव तथा तत्राऽज्ञानानि त्रीणि भजनयेह तु द्वे एवाज्ञाने। तथा तत्राद्याः पञ्च समुद्धाता इह तुत्रयः। “आऊअज्झसाणा, अणुबंधोय जहेव असण्णीणंति" जघन्यस्थितिकासंज्ञिगम इवेत्यर्थः / ततश्चायुरहान्तर्मुहूर्तम्। अध्यवसायस्थानान्यप्रशस्तान्येवानुबन्धोऽप्यन्तर्मुहूर्तमेवेति (अवेससमित्यादि) अवशेषं यथा सज्ज्ञिनः प्रथमगमे औधिक इत्यर्थः / निगमनवाक्यं चेदम् (अवसेसो सो चेव गमओत्ति) अनेनैवैतदर्थस्य गमत्वादिति सा चैवजहण्णकालेत्यादस्तु सज्ज्ञिविषये पञ्चमो गमः इह च। (सोचेवत्ति) स एव सज्ज्ञी जघन्यस्थितिकः / “सो चेव उक्कोसे" त्यादिस्तु षष्ठः / उक्कोसका-लेत्यादिस्तु सप्तमः / तत्र च (एएसिं चेव पढमगओत्ति) एतेषामेव सज्ज्ञिनां प्रथमगमो यत्रौधिक औधिकेषूत्पादितः। नवरमित्यादि। तत्र जघन्याप्यन्तर्मुहूर्तरूपा सज्ज्ञिनः स्थितिरुक्ता सेह न वाच्येत्यर्थः / एवमनुबन्धोऽपि तद्रूपत्वात्तस्येति।७। सो चेवेत्या-दिरष्टमः / इह च। (सोचे त्ति) स एवोत्कृष्टस्थितिकः संज्ञी / 8 / उक्कोसेत्यादिर्नवमः / "उक्खेवनिक्खेवओइत्यादि" तत्रोपक्षेपः प्रस्तावना (16000) स च प्रतिगममौचित्येन स्वयमेव वाच्यो निक्षेपस्तु निगमनं सोऽप्येवमेवेति पर्याप्तकसंख्यातवर्षायुष्कसज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमाश्रित्य रत्नप्रभा वक्तव्यतोक्ता अथ तमेवाश्रित्य शर्करप्रभा वक्तव्यतोच्यतेतत्रौधिक ओधिकेषु तावदुच्यतेपजत्तेत्यादि। (लद्धी सच्चेव निरवसे सा भाणियव्वत्ति) परिमाणसंहननादीनां प्राप्त्येव रत्नप्रभायामुत्पित्सोयक्ता सैव निरवशेषा शर्क रप्रभायामपि भणितव्येति / (सागरोवम अंतोमुहु-त्तमभहियंति) द्वितीयायां जघन्या स्थितिः सागरोपममन्तर्मुहूर्त च सज्ज्ञिभवसत्कमिति / उक्कोसेणं बारसेत्यादि / द्वितीयायामुत्कृष्टतः सागरोपमत्रयस्थितिस्तस्याश्वतुर्गुणत्वं द्वादश, एवं पूर्वकोटयोऽपि चतुर्यु संज्ञितिर्यग्भवेषु चतस्र एवेति / (नेइयद्वितीसंवेहेसुसागरोवमाभाणियव्वत्ति) रत्नप्रभायामायुदरिसंवेधद्वारे च दशवर्षसहस्राणि सागरोपमं चोक्तं द्वितीयादिषु पुनर्जधन्यत उत्कर्षतश्च सागरोपमाण्येव वाच्यानि यतः "सागरभेग 1 तिय 2 सत्त, 3 दस य 4 सत्तरस 6 तह य वावीसा।६। तेत्तीसा जाव ठिती 7 सत्तसु वि कमेण पुढवीसु / / 1 / / " तथा "जापढमाए जेट्ठा, सा वीयाए कणिट्ठिया भणिया / तरतमजोगो एसो, दसवाससहस्सरयणाएत्ति / / 2 / / " रत्नप्रभागमतुल्य नवापिगमाः कियडूरंयावदित्याह (जाव छठ्ठपुढवत्ति) चउग्गुणा कायव्वत्ति 4 उत्कृष्टकायसंवेधे इति / (वालुयप्पभाए अट्ठावीसंति) तत्र सप्तसागरोपमाण्युत्कर्षतः स्थितिरुक्ता सा च चतुर्गुणाऽष्टाविंशतिःस्यादेवमुतस्त्रापीति (वालुयप्पभाएपंचविहसंधयणित्ति) आद्ययोरेव हि पृथिव्योः सेवार्तेनोत्पद्यन्ते एवं तृतीया चतुर्थी 4 पञ्चमी 3 षष्ठी 2 सप्तमी 1 षु एकैकं संहननं हीयते इति / अथ सप्तमपृथिवीमाश्रित्याहपज्जत्तेत्यादि(इत्थिवेया न उववजंतित्ति) षष्ठ्यन्तास्वेव पृथिवीषु स्त्रीणामुत्पत्तेः। (जहण्णेणं तिणि भवग्गहणाइंति) मत्स्यस्य सप्तमपृथिवीनारत्वेनोत्पद्य पुनर्मत्स्येष्वेवोत्पत्तौ (उक्कोसेणं सत्तभवग्गहणाइंति) मत्स्यो 1 मृत्वा सप्तम्यां गतः 2 पुनर्मत्स्यो जातः 3 पुनरपि सप्तम्यां गतः 4 पुनरपि तथैव 6 पुनर्मत्स्यः 7 इत्येवमिति। कालादेसेणमित्यादि। इह द्वाविंशतिसागरोपमाणि जघन्यस्थितिकसप्तमपृथिवीनारकसम्बन्धीनि अन्तर्मुहूर्तद्वयं च प्रथमतृतीयमत्स्यभवसम्बन्धीनि(छावद्धिसागरोवमाइंति) वारत्रयं सप्तम्या द्वाविंशतिसागरोपमायुष्कतयोत्पत्तेश्चतस्रश्च पूर्वकोटयश्चतुषु नारकभवान्तरितेषु मत्स्यभवेष्विति, अतो वचनाचैतदवसीयते सप्तम्यांजघन्यस्थितिषूत्कर्षतस्त्रीनेव वारानुत्पद्यत इति कथमन्यथैवंविधं भवग्रहणकालपरिमाणं स्थादिह च काल उत्कृष्टो विवक्षितस्तेन जघन्यस्थितिषु त्रीन् वारानुत्पादित एवं हि चतुर्थी पूर्वकोटिर्लभ्यते उत्कृष्टस्थितिषु पुनरिद्वयोत्पादने षट्षष्टिः सागरोपमाणां भवति पूर्वकोट्यः पुनस्तित्र एवेति। सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु इत्यादिस्तु द्वितीयो गमः // 2 / / सो चेव उक्कोसहिईएसु इत्यादिस्तृतीयः। तत्र च उक्कोसेण पंचभवग्गहणाइंति) त्रीणि मत्स्यभवग्रहणानि द्वे च नारकभवग्रहणे अत एव वचनादुष्कृष्टस्थितिषु सप्तम्यां वारद्वयमेवोत्पद्यत इत्यवसीयते / 3 / सो चेव जहण्णकालट्ठिईओ इत्यादिस्तु चतुर्थः / तत्र च (सव्वेवरयणप्पभापुढ विजहण्णकालट्ठितिवत्तव्वया भाणियवत्ति) सैव रत्नप्रभाचतुर्थगमवक्तव्यता भणितव्या नवर केवलमय विशेषः तत्र रत्नप्रभायांषसहननानि त्रयश्च वेदा उक्ताः इह तु सप्तमपृथिवी चतुर्थगमे प्रथममेव संहननं स्त्रीवेदनिषेधवाच्य इति / / 4 / / शेषग-मास्तु स्वयमेवोह्याः मनुष्याधिकारे (उक्कोसेणं संखेज्जा उववनंतित्ति) गर्भजमनुष्याणां सदैव सङ्ख्यातानामेवास्तित्वादि-ति। नवरं (चत्तारि नाणाइंति) अवध्यादौ प्रतिपतिते सति केषां-चिन्नरकेषूत्पत्तेः आह च चूर्णिकार: "ओहिनाणमणपज्जवआहार-यसरीराणि लक्षूणं / परिसाडित्ता उववज्जइत्ति जहण्णेणं मासपुहत्तंति" इदमुक्तं भवति मासद्वयान्तर्वायुनरो नरकं न याति (दसवाससहस्साइंति) जघन्यं नरकायुः (मासपुहुत्तमभहियाइंति) इह मासपृथक्त्वं जघन्यं ननकयायिमनुष्यायुः (चत्तारि सागरोवमाइंति) उत्कृष्ट रत्नप्रभानारकभवचतुष्कायुः (चउर्हि पुत्वकोडीहिं अब्भहियाइंति) इह चतस्रः पूर्वकोटयो नरकयायिमनुष्यभवचतुष्कोत्कृष्टायुः सम्बन्धिन्यः / अनेन चेदमुक्तम्। मनुष्यो भूत्वा चतुर एव वारानेकस्यां पृथिव्यां नारको जायते पुनश्च तिर्यड्डेव भवतीति जघन्यकालस्थितिकः / औधिकेषु इत्यत्र चतुर्थे गमे "इमाइं पंच णाणत्ताई इत्यादि" शरीरावगाहनेह जघन्येतराभ्यामङ्गुलपृथक्त्वं प्रथमगमे तु सा जघन्यतोऽङ्गुलपृथक्त्वमुत्कृष्टतस्तु पञ्चधनुः शतानीति / / 1 / / तथेह त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि भजनया जधन्यस्थितिकस्यैषामेव भावात्पूर्वं तु चत्वारि ज्ञानान्युक्तानीति / / 2 / / तथेहाद्याः पश समुद्धाता जघन्यस्थितिकस्यैषामिव सम्भवात् प्राक् षडुक्ता अजघन्यस्थितिकस्याहारकसमुद्धातस्या Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 962 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय पि सम्भवात् / / 3 / / तथेह स्थितिरनुबन्धश्च जघन्यत उत्कृष्टतश्च मासपृथक्त्वं प्राकृ स्थित्यनुबन्धो जघन्यतो मासपृथक्त्वमुत्कृष्टतस्तु पूर्वकोट्यभिहितेति, शेषगमास्तुस्वयमभ्यूह्याः। शर्करप्रभावक्तव्यतायां (सरीरोगाहणारयणिपुहत्तंत्ति) अनेनेदमवसीयते द्विहस्तप्रमाणेभ्यो हीनतरप्रमाणा द्वितीयायां उतपद्यन्ते इत्यवसीयते। "एवं एसा ओहिएसु तिसु गमएसु मणुस्सस्स लद्धीति ओहिओ ओहिएसु" 1 ओहिओ जहण्णट्ठितिएसु 2 ओहिओ उक्कोसटिइएसु त्ति 3" एते औधिकास्त्रयो गमाः 3 एतेष्वेषा उत्तरोक्ता मनुष्यस्य लब्धिपरिमाणसंहननादिप्राप्तिानात्वं त्विदं यदुत नारकस्थितिकालादेशेन कायसंवेधं च जानीयाः तत्र प्रथमे गमे स्थित्यादिकं लिखितमेव द्वितीये तु औधिको जघन्यस्थितिष्वित्यत्र नारकस्थितिजघन्येतराभ्यां सागरोपमं कालतस्तु सम्बेधो जघन्यतो वर्षपृथक्त्वाधिकं सागरोपममुत्कृष्टतस्तु सागरोपमचतुष्टयं चतुःपूर्वकोट्यधिकं तृतीयेऽप्येवमेव नवरं सागरोपमस्थाने जघन्यतः सागरोपमत्रयं सागरोपमचतुष्टयस्थाने तूत्कर्षतः सागरोपमद्वादशकंवाच्यमिति (सचैवेत्यादि) चतुर्थादिगमत्रयं / तत्र च (संवेहो उवओजिऊण भाणियव्वोत्ति) स चैवंजघन्यस्थितिकमौघिके वित्यत्रगमे सम्बेधः कालादेशेन जघन्यतः सागरोपमं वर्षपृथक्त्वाधिक मुत्कृष्टतस्तु द्वादशसागरोपमाणि वर्षपृथक्त्वचतुष्काधिकानि जघन्यस्थितिको जघन्यस्थितिकोष्वित्यत्र जघन्येन कालतः कायसम्बेधः सागरोपमं वर्षपृथक्त्वाधिकामुत्कर्षतश्चत्वारि सागरोपमाणिवर्षपृथक्त्यचतुष्काधिकानि एवं षष्टगमोऽप्यूह्यः / / सो चे वेत्यादि / / सप्तमादिगमत्रयं तत्र च / / इमं नाणत्तमित्यादि / / शरीरावगाहना पूर्व हस्तपृथक्त्वं धनुःशतपञ्चस्कं चोक्ता इह तु धनुःशतपञ्चकमेव एवमन्यदपि नानात्वमभ्यूह्यम् (मणुस्सट्ठिईजाप्रणयव्वति) तिर्यक् स्थितिर्जघन्यान्तर्मुहूर्तमुक्ता मनुष्यगमेषु तु मनुष्यस्थितितिव्या सा च जघन्या द्वितीयादि-गामिनां वर्षपृथक्त्व- / गुत्वृष्टातु पूर्वकोटीति / / सप्तमपृथिवी प्रथमगमे "तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अब्भहियाइंति'' इहोत्कृष्टः कायसम्बन्धएतावन्तमेव कालं भवति सप्तमपृथिवीनारकस्य तत उद्वृत्तस्य मनुष्येष्वनुत्पादेन भवद्वयभावेनैतावत एव कालस्य भावा दिति। भ० 24 श०१ उ०॥ जदि मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सम्मुच्छिममणुस्सेहिंतो उववज्जति गम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति? गोयमा!नो सम्मुच्छिममणुस्सेहिंतो उववज्जंति गम्भवकं ति य मणुस्सेहिंतो उववज्जति जदि गब्भववक्कं तियमणुस्से हिंतो उववज्जति किं कम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति अकम्मभूमिगठमवकं तिय मणुस्से हिंतो उववज्जति अंतरदीवगम्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! कम्मभूमिगब्भवकं तिय मणुस्सेहिंतो उववजंति नो अकम्मगन्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति नो अंतरदीवगब्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववजंति / जदि कम्मभूमिगम्भवक्कं तियमणुस्सेहितो उववजंति किं संखेन्जवासाउयगब्भवक्कं तिएहिंतो उववजंति असंखेज्जवासाउएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! संखेज्जावासाउयकम्मभूमिगब्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति नो असंखेजवासाउयकम्मभूमिगब्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववजंति। जदि संखेजवासाउयकम्मभूमिगम्भवकंतियमणुस्सेहिंतो उववजंति किं पज्जत्तएहिंतो अपज्जत्तएहिंतो? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति नो अपज्जत्तएहिंतो उववजंति एवं जहा ओहिया उववाइया तहा रयणप्पभापुढवीनेरइया वि उववाएयव्वा / सक्करप्पभापुढवीनेरइयाणं पुच्छा गोयमा! एते वि जहा ओहिया तहेव उववाएयव्वा नवरं सम्मुच्छिमेहिंतो पडिसेहो कायव्वो वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति जहा सक्करप्पभापुढवि नेरइयाणं भुयपरिसप्पेहिंतो वि पडिसेहो कायवो पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहा बालुप्पभापुढविनेरइया नवरं खहयरेहिंतो पडिसेहो कायव्यो। धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा गोयमा ! जहा पंकप्पभापुढवीनेरइया नवरं चउप्पएहिंतो वि पडिसेहो कायच्वो। तमा पुढवीनेरइयाणं पुच्छा? गोयमा! जहा धूमप्पभापुढ-विनेरइय नवरंथलयरेहिंतो पडिसेहो कायव्वो इमेणं अभिलावेणं / जदि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति कि जलयरपंचिंदिएहिंतो थलयरेहिंतो उववजंति खहयरपं-चिंदिएहितो गोयमा ! जलयरपंचिंदिएहिंतो उववजंति नो थलयरेहिंतो ने खहयरेहिंतो उववजंति / जदि मणुस्से हिंती उववजंति किं कम्मभूमिएहिंतो अकम्मभूमिएहिंतो किं अंतरदीवएहिंतो? गोयमा ! कम्मभूमिएहिंतो उववजंति नो अकम्मभूमिएहिंतो नो अंतरदीवएहिंतो उववजंति / जइ कम्मभूमिएहिंतो किं संखेज्जवासाउएहिंतो असंखेजवासाउएहिंतो ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहिंतो नो असंखेज्जवासाउएहिंतो उववजंति जदि संखेज्जवासाउएहिंतो किं पञ्जत्तएहिंतो अपज्जत्तएहिं तो उववजंति ? गोयमा! पजत्तएहिंतो उववजंति नो अपज्जत्तएहिंतो जदि पञ्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिएहिंतो उववजंति किं इत्थीहिंतो उववजंति पुरिसेहिंतो उववजंति नपुंसएहितो उववजंति? गोयमा! इत्थीहिंतो विपुरिसेहिंतो विनपुंसगेहितो वि उववजंति / अहे सत्तमापुढवीनेरइयाण भंते ! कओहिंतो उववजंति ? गोयमा ! एवं चेव नवरं इत्थीहिंतो पडिसेहो कायव्वो "असन्नी खलु पढम, दोचं सिरीसवा तइयपक्खी। सीहा जंति चउत्थिं, उरगा पुण पंचमी पुढवीं / 1 / छढेि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सत्तमिं पुढविं। एसो परमुवयाओ, बोधव्वो नरगपुढवीणं / / असुरकुमाराणां यथाअसुरकुमाराणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति मणुस्से हिंतो उववजंति नो देवेहिंतो उववजंति एवं जे Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 963 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय हिंतो नेरइयाणं उववाओ तेहिंतो असुरकुमाराणं वि भाणियव्वं नवरं असंखेजवासाउयअकम्मभूमिगअंतर दीवगमणुस्सतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववचंति सेसं तं चेव एवं जाव थणियकुमारा। प्रज्ञा०६ पद। पज्जत्त असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए असुरकु मारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिइएसु उववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सटिइएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्सअसंखेज्जइभागट्टिइएसु उववज्जेज्जा तेणं मंते! जीवा एवं रयणप्पभागमगसरिसाणववि गमगा भाणियव्वा णवरं जाहे अप्पणाजहण्णकालट्ठिइओ भवइताहे अज्झवसाणा पसत्था णो अपसत्था तिसु वि गमएसु अवसेसं तं चेव / जदि सणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं संखेज्जवसाउयसण्णि जाव उववजंति असंखेज्जवासाउय जाव उववजंति ? गोयमा ! संखेजवासाउय जाव उववजंति असंखेजवासाउय जाव उववजंति असंखेजवासाउय सपिणपंथिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिइएसु उववजेजा? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिइएसु उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमट्टिइएसु उववजेज्जा / तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववनंति, वइरोसभनारायसंघयणी ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं छ गाउयाइं समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता ? चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ। णो सम्मबिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छट्ठिी / णो णाणी असण्णणी णियमं दुअण्णाणीमइअण्णणीय सुयअण्णाणीय। जोगा तिविहो वि। उवओगो दुविहो वि। चत्तारिसण्णाओचत्तारि कसायाओ। पंचइंदिया तिणि समुग्धाया आदिल्लगा संमोहया | वि मरंति असंमोहया वि मरंति। वेदणा दुविहावि, सातावेदगा वि असातावेदगा वि / वेदो दुविहो वि इत्थीवेद-गावि | पुरिसवेदगावि णो णपुंसगवेदगा। ठिई य जहण्णेणं साइरेगा पुष्वकोडी उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई / अज्झ-वसाणा। पसत्था वि अप्पसत्थावि अणुबंधो जहेव ठिई कायसंवेहो भवादेसेणं दो भवग्गहणाई / कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुत्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं छ पलिओवमाई एवइयं जाव करेज्जा / / 1 / / सो चेव जहण्णकालविइएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं असुरकुमारहिई संवेहं च जाणेज्जा / 2 / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईसु उववण्णो जहण्णेणं तिपिण पलिओवमट्ठिइएसुउववजेजाएस चेव वत्तव्वया णवरं ठिई से जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई एवं अणुबंधोवि / कालादेसेणं जहण्णेणं छ पलिओवमाइं उक्कोसेण वि छ पलिओवमाई एवइयं सेसं तं'चेव 13 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालहिईओ जाओ जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं साइरेगं पुटवकोडी आउएसु उवव जा? तेणं भते ! अवसेसंतं चेव जाव भवादेसोत्ति णवरं ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं धणुसहस्सं। ठिई जहण्णेणं साइरेगा पुव्वकोडी उक्कोसेण वि साइरेगा पुव्वकोडी एवं अणुबंधोवि / कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा पुवकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं साइरेगा दो पुष्वकोडी एवइयं जाव सेवेज्जा।।सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं असुरकुमारट्टिई संवेहं च जाणेज्जा / / सो चेव उक्कोसकालट्ठिइएसु उववण्णो जहण्णेणं साइरेगं पुव्वकोडी आउएसु उक्कोसेण वि साइरेगपुव्वकोडी आउएसु उववजेज्जा सेसं तं चेव णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा दो पुवकोडीओ उक्कोसण वि साइरेगाओ दो पुथ्वकोडीओ एवइयं कालं जाव करेजा।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ सो चेव य पढमगमगो भाणियव्यो णवरंद्विई जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमाई एवं अणुबंधो वि कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं छ पलिओवमाइं एवइयं जाव सेवेज्जा / 7 / सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं असुरट्टिई संवेहं च जाणेज्जा / / सो चेव उक्कोसकालट्ठिई एस उववण्णो तिपलिओवम उक्कोसेण वि तिपलिओवम एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं छ पलिओवमाइं उक्कोसेण विछ पलिओवमाई / / जइसंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदिय जाव उवजंति किं जलचर एवं जाव पज्जत्तसंखेन्जवासाउय / सणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए असुरकुमा--रेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेजा? गोयमा ! जहणणेणं दसवाससहस्सटिइएसु उक्कोसेणं साइरेग-सागरोवमट्ठिईएसु उववजेजा / तेणं मंते ! जीवा एगसमएणं एवं एएसिं रयणप्पभापुढविगमगसरिसा णवगमगा जेतवा णवरं अप्पणाजहण्णकालट्ठिईओ भवइ ताहे तिसु वि गमएसु इम णाणत्तं चत्तारि लेस्साओ अज्झवसाणा पसत्था सेसं तं चेव संवेहो साइरेगेण सागरोवमेण कायथ्यो / इह पल्योपमाऽसंख्ये यभागग्रहणे न पूर्व कोटी ग्राह्या यतः सम्मूछिमस्योत्कर्षतः पूर्वकोटीप्रमाणमायुर्भवति स चोत्क Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय र्षतः स्वायुष्कतुल्यमेव देवायुर्बध्नाति नातिरिक्तमत एवोक्तं चूर्णिकारेण "उक्कोसेणं सतुल्लपुव्वकोडिया उयत्तं निव्वत्तेइ न य सम्मुच्छिमो पुत्वकोडियाउयत्ताओ परो अस्थित्ति'' असंख्यातवर्षायुः सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गमेषु / (उक्कोसेणं तिपलिओवमट्ठिईएसु उववजेजत्ति) इदं देवकुर्वादिमिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्योक्तम् / ते हि त्रिपल्योपमायुष्कत्वेनासंख्यातवर्षायुषो भवन्ति, ते च स्वायुः सदृशं देवायुर्बध्नन्तीति (संखेजा उववजंतित्ति) असंख्या तवर्षायुस्तिरश्ामसंख्यातानां कदाचिदप्यभावात् (वइरोसहनारायसंघयणीत्ति) असंख्यातवर्षायुषा, यतस्तदेव भवतीति (जहण्णेणं धणुहपुहत्तंत्ति) इदं पक्षिणोऽधिकृत्योक्तं पक्षिणामुत्कर्षतो धनुः पृथक्त्वप्रमाणशरीरत्वादाह च / "धणुहपुहत्तं पक्खिसुत्ति' / असंख्यातवर्षायुषोऽपि ते स्युर्यदाह-(पलियाअसंखेञ्जपक्खीसुत्ति) पल्योपमासंख्येयभागः पक्षिणामायुरिति (उक्कोसेणं छग्गा-उयाइंति) इदं च देवकु ादिहस्त्यादीनधिकृत्योक्तम् (नो नपुंस-गवेयगत्ति) असंख्यातवर्षायुषो नपुंसकवेदो न सम्भवत्येवेति / (उकोसेणं छप्पलिओवमाइत्ति) त्रीणि असंख्यातवर्षायुस्तिर्यग्भवसम्बन्धीनि त्रीणि चासुरभवसम्बन्धीनीत्येवं षट् न च देवभवादुद्वृत्तः पुनरप्यसंख्यातवर्षायुष्के षूत्पद्यत इति / सो चेव अप्पणाजहण्णकालट्ठिईओ इत्यादिश्चतुर्थो गम इह च जघन्यकालस्थितिकः सातिरेकपूर्वकोट्यायुः स च पक्षिप्रभृतिकः (उक्कोसेणं साइरेगपुटवको डिआउएसुत्ति) असंख्यातवर्षायुषां पक्ष्यादीनां सातिरेका पूर्वकोटिरायुस्ते च स्वायुस्तुल्यं देवायुः कुर्वन्तीति कृत्वा सातिरेकेत्याधुक्तमिति। (उक्कोसेणं साइरेगं धणुसहस्संति) यदुक्तं तत्सप्तमकुलकरप्राक्कालभाविनो हस्त्यादीनपेक्ष्येति सम्भाव्यते / तथा हि इहासंख्यातवर्षायुर्जघन्यस्थितिकः प्रक्रान्तः स च सातिरेकपूर्वकोट्यायुर्भवति तथैवागमे व्यवहृतत्वात्। एवंविधश्व हस्त्यादिः सप्तमकुलकरप्राक्काले लभ्यते तथा सप्तमकुलकरस्य पशविंशत्यधिकानि पञ्चधनुःशतान्युचैस्त्वं तत्प्राक्कालभाविनां च तानि समधिकतराणि तत्कालीनहस्त्यदियश्चैतद्विगुणोच्छ्राया अतः सप्तमकुलकरप्राक्कालभाविनामसंख्यातवर्षायुषां हस्त्यादीनां यथोक्तभवगाहनाप्रमाणं लभ्यत इति (साइरेगाओदोपुव्वकोडी--ओति) एका सातिरेका तिर्यग्भवसत्काऽन्या तुसातिरेकैवासुरभवसत्केति / (असुरकुमारढिईसंबेहं च जाणिज्जति) तत्र जघन्यासुरकुमारस्थितिर्दशवर्षसहस्राणिसम्बेधस्तु सातिरेका पूर्वकोटी दशवर्षसहस्राणि चेति शेषगमस्तु स्वयमेवाभ्यूह्यः, एवमुत्पादितोऽसंख्यातवषायुः साज्ञिपञ्चन्द्रियातयगसुरष्वथसख्यातवायुरसावुत्पाद्यते। जइसंखेजेत्यादि (उक्कोसेणं साइरेगसागरोवमट्टि-इएसुत्ति) यदुक्तं तबले निकायमाश्रित्येति / (तिसुवि गमएसुत्ति) जघन्यकालस्थितिकसम्बन्धिष्वौधिकादिषु (चत्तारिलेस्साओत्ति) रत्नप्रभापृथिवीगामिनां जघन्यस्थितिकानां तिस्रस्ता उक्ता एषु पुनस्ताश्चतसोऽसुरेषु तेजोलेश्यावानप्युत्पद्यत इति / तथा रत्नप्रभापृथिवीगामिनां जघन्यस्थितिकानामध्यवसायस्थानान्यप्रशस्तान्येवोक्तानीह तु प्रशस्तान्येव दीर्घस्थितिकत्वे हि द्विविधान्यपि सम्भवन्तिनत्रितरेषु कालस्याल्पत्वात् (संवेहो साति-रेगेण सागरोवमेण | कायव्वोत्ति) रत्नप्रभागमेषु सागरोपमेण सम्बंध उक्तः असुरकुमारेषु तु सातिरेकसागरोपमेणासौ कार्यो वलिपक्षापेक्षया तस्यैव भावादिति। अथ मनुष्येभ्यो सुरानुत्पादयन्नाह। जइमणुस्सेहिंतो उववजंति किं सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति असण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! सण्णि मणू णो असण्णिमण जइ सण्णिमणुस्से हिंतो उववझं ति किं संखेज्जवासाउयसण्णिमणू असंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्स जाव उववजंति ? गोयमा ! संखेजवासाउय जाव उववज्जंति, असंज्जवासाउय जाव उववजंति / असंखेञ्जवासाउयसण्णिमणुस्सेणं मंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेजा गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं तिणि पलिओवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा एवं असंखेज्जवासाउयति रिक्खजोणिए सरिसा आदिल्ला तिण्णि गमा णेयवाणवरं सरीरोगाहणा पढमविरितएसु गमएसु जहण्णेणं साइरेगाइं पंचधणुहसयाई उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई सेसं तं चेव तइओ गमोगाहणा जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई उकोसेणवि तिण्णि गाउयाइंसेसं जहेव तिरिक्खजोणियाणं / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ तस्स वि जहण्णकालट्ठिईयतिरिक्खजोणियसरिसा तिण्णि गमगा भाणियव्वा णवरं सरीरोगाहणा तिसु वि गमएसु जहण्णेणं साइरेगाई पंचधणु हसयाई उक्कोसेण वि साइरे गाई पंचधणु हसयाइं सेसं तं चेव / 6 / सो चेव अप्पणा उकोसकालट्ठिईओ जाओ तस्स वि ते चेव पच्छिल्ला तिण्णि गमगा भाणियव्वा णवरं सरीरोगाहणा तिसु वि एगएसु जहण्णेणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोसेणावि तिण्णि गाउयाइं अवसेसं तं चेव॥ देवकुर्वादिनरा हि उत्कर्षतः स्वायुः समानस्यैव देवायुषो बन्धका अतः तिपलिओवमट्टिईएसु इत्युक्तम् ! नवरं सरीरोगाहणेत्यादि। तत्र प्रथम औधिकः औधिकेषु द्वितीयस्तु औधिको जघन्यस्थितिष्विति / तत्रौघिको संख्यातवर्षायुर्नरा जघन्यतः सातिरेकपञ्चधनुःशतप्रमाणो भवतिः यथा सप्तमकुलकर प्राक्कालभावी मिथुनकनरः उत्कृष्टतस्तु त्रिगव्यूतमानो यथा देवकुवादिमिथुनकनरः स च प्रथमगमे। द्वितीयेच द्विविधोऽपि सम्भवति। तृतीये तु त्रिगव्यूतावगाहन एव यस्मादसावेवोत्कृष्टस्थितिषु पल्योपमत्रयायुष्के पूत्पद्यते उत्कर्षतः स्वायुः समानायुर्बन्धकत्वात्तस्येति॥ अथ संख्यातवायुः साज्ञिमनुष्यमाश्रित्याहा जइ संखेन्जवासाउयसण्णिमणुस्से हिंतो उववजंति किंपज्जत्तसंखेज्जवासाउय अपज्जत्तसंखेज जाव उववजंति ? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवासा णो अपज्जत्तसंखेन / पज्जत्तसंखेज्जवासाउ य सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए सेणं भंते! केवतिकालहितीएसुउववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएस उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमद्वितीएसु उवव जा / तेणं भंते !जीवा एवं जहेव एएसिं रयणप्पभाए उववजमाणाणं णव गमगा तहेव इह वि णव गमगा Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 965 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय भाणियव्वा णवरं संबेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायव्वो सेसं / तं चेव // एतच समस्तमपि पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यम्। भ० २उ०। रायगिहे जाव एवं बयासी णागकुमाराणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेबेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खमणुस्से हिंतो उववजंति णो देवे हिंतो उववज्जंति / जइ तिरिक्खजोणिक एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया तहा एएसिं पि जाव असणित्ति / जइ सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं संखेजवासाउय असंखेज्जवासाउय गोयमा ! संखेज वासाउय असंखेज वासाउय जाव उववनंति / असंखेजवासाउय सण्णि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववजह सेणं मंते ! केवतिकालद्विती? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएस उक्कोसेणं देसूणदुपलिओवमहिती एसु उववज्जेजा। तेणें भंते ! जीवा अवसेसो सो चेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स गमको भाणियव्वो जाव भवादेसोत्ति। कालादेसेणं जहण्णेणं सातिरेगा पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया उक्कोसेणं देसूणाईपंचपलिओवमाई एवइयं जाव करेजा / 1 / सो चेव जहण्णकालद्वितीएसु उववपणो एस चेव वत्तव्वया णवरं णागकुमारहिति संवेहं जाणेजा सो चेव उक्कोसकालहितीएस उववण्णो तस्स वि एस चेव वत्तव्वया णवरं ठिती जहण्णेणं देसूणाई दो पलिओवमाई उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई सेसं तं चेव जाव भवादेसोत्ति। कालादेसेणं जहण्णेणं देसूणाईचत्तारि पलिओवमाइं उक्कोसेणं देसणाइं पंच पलिओवमाइं एवइयं कालं सेवेजा।३। सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्वितीओ जाओ तस्स तिसु गमएसु जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स जहण्णकालद्वितीयस्स तहेव णिरवसेसं।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ तस्स वि तहेव तिण्णि गमगा जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाण-स्स णवरं णागकुमारद्वितिं संवेहं च जाणेज्जा सेसं तं चेव जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स / / जदि संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदिय जाव किं पज्जत्त० अपञ्जत्त०? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय णो अपजत्तसंखेजवासा।पञ्जत्तसंखेनवा-साउय जाव जे भविए णागकु मारेसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालटिई ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई उकोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स वत्तव्वया तहेव इह वि णवसु गमएसु णवरं णागकुमारट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा सेसं तं चेवा जइ मणुस्सेहिंतो उववर्जति किं सण्णिमणुस्सेहिंतो असण्णिमणुस्से- | हिंतो ? गोयमा ! सण्णिमणुस्सेहिंतो णो असण्णिमणुस्सेहिंतो जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स जाव असंखेजवासाउय / सण्णिमणुस्सेणं णागकुमारेसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजइ? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्विईएसु उक्कोसेणं देसूणं दुपलिओवमं एवं जहेव असंखेजवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं णागकुमारेसु आदिल्ला तिण्णि गमगा तहेव इमस्स विणवरं पढमविईएसु गमएसु सरीरोगाहणा जहण्णेणं साइरेगाइं पंचधणुहसयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई, तईयगमओगाहणा जहण्णेणं देसूणाई दो गाउयाई उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई सेसं तं चेव / सो चेव अप्पणा जहण्णकालहिईओ जाओ तस्स तिसुवि गमएसु जहा तस्स चेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव णिरवसेसं।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ तस्स वि तिसु गमएसु जहा तस्स चेव उक्कोसट्टिईयस्स असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स णवरं णागकुमारहितिं संवेहं च जाणेज्जा सेसंत चेव / / / जइ संखेज्जवासाउयसण्णिमणू० किं पञ्जत्तसंखेन० अपज्जत्तसंखेज०? गोयमा ! पञ्जत्तसंखेज्ज० णो अपज्जत्तसंखेज वासाउयं / पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्साणं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ० गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं देसूणं दोपलिओवमस्स ठिईएसु उववजंति एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स सवेवलद्धी णिरवसेसा णवसु गमएसु णवरं णागकुमारहितिं संवेह च जाणेज्जा सेवं भंते ! भंते ! ति। (भ० 24 श०३ उ०) अवसेसो सुवण्णकुमारा जाव थणियकुमारा एते वि अट्ठउद्देसगा जहेव णागकुमारा तहेव गिरवसेसा भाणियव्या सेवं भंते ! भंतेत्ति। चउवीसइमसयस्स एक्कारससमो उद्देसो सम्मत्तो (24 / 11) पुढवीकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति। किं णेरइएहिंतो तिरिमणुदेवेहिंतो उववजंति? गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति तिरिमणुदेवेहिंतो उववजंति / जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति / किं एगिंदियतिरिक्खजोणिए एवं जहा वकंतीए उववाओ जाव जइ बादरपुढवीकाइयएगिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं पञ्जत्तबादर पुढवी० उववजंतिअपज्जत्तवादरपुढवी० जाव उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तबादरपुढवी अपज्जत्तबादरपुढवी जाव उववज्जति॥ ''उको सेणं देसूणदुपलिओवमट्टिईएसुत्ति'' यदुक्तं तदौदीच्यनाच्च कुमारनिकायापेक्षया, यतस्तत्र द्वे देशोने पल्योपमे उत्कर्षत आयु: स्यादाह च ''दाहिण दिवड्डपलिअं, दो देसूणुत्तरिल्लाण ति" उत्कृष्टसंवेधपदे (देसूणाई पंचपलिओवमाइंति) पल्योपमत्रयमसङ्ख्यातवर्षायुस्तिर्यक्सम्बन्धि द्वे च देशोने ते नागकुमारसम्बन्धिनी इत्येवं यथोक्तं मानं भवतीति। द्वितीयगमे। Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय (नागकुमारद्विइसंवेहं च जाणेजत्ति) तत्र जघन्या नागकुमारस्थि- | तिर्दशवर्षसहस्राणि संवेधस्तु कालतो जघन्यसातिरेकपूर्वकोटी दशवर्षसहस्राधिका उत्कृष्टः पुनः पल्योमत्रयं तैरेवाधिकमिति।तृतीयगमे "उक्कोसकालट्ठिईएसुत्ति" देशोनद्विपल्योपमायुष्के-वित्यर्थः तथा "ठिई जहाणेणं दो देसूणाई पलिओपमाइंति'' यदुक्तं तदवसप्पिण्यां सुषमाभिधानद्वितीयारकस्य कियत्यपि भागे अतीते असङ्ख्यातवर्षायुषस्तिरश्चोधिकृत्योक्तं तेषामेवैतत्प्रमाणायुष्कत्वात्, एषामेव च स्वायुः समानदेवायुबन्धकत्वेनोत्कृष्ट स्थितिषु नागकु मारेषूत्पादात् (तिण्णिपलिओवमाइंति) एतच देवकुर्वा-द्यसङ्ख्यातजीवितिरश्चोऽधिकृत्योक्तं, ते च त्रिपल्योपमायुषोऽपि देशोनद्विपल्योपममानमायुर्बध्नन्ति / यतस्ते स्वायुषः समंहीनतरं वा तद्ध्नन्ति, नतु महत्तरमिति। अथ सङ्ख्यातजीवितं सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चमाश्रित्याह'' जइ संखेजवासाउथेत्यादि'' एतच्च पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यमिति / चतुर्विशतितमेशते तृतीयः एवमन्येऽष्टाविंशत्येवमेकादशः। चतुर्विंशतितमे शते एकादशः।। पृथ्वीकायादीनाम् / / पुढवीकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं नेरइएहितो जाव देवेहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो तिरिक्खजोणिएहिंतो जाव देवेहिंतो वि उववजंति जदि तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! | एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति जदि एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो किं पुढवीकाइएहिंतो उववजंति जाव वणस्सइकाइएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! पुढवीकाइएहितो वि उववजंति जाव वणस्सइकाइएहिंतो वि उववज्जति किं सुहुमपुढवीकाइएहिंतो वि बादरपुढवीकाइएहिंतो उववज्जति जदि सुहुमपुढवीकाइएहिंतो उववजंति किं पञ्जत्तपुढवीकाइएहिंतो उववजंति / जदि सुहुमपुढवीकाइएहिंतो किं पज्जत्तयसुहुमपुढवीकाइएहिंतो उववजंति अपज्जत्तयसुहुमपुढवीकाइएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! दोहिंतो वि उववजंति / जदि बादरपुढवीकाइएहितो उववजंति किं पज्जत्तएहिंतो किं अपञ्जत्तएहिंतो ? गोयमा ! दोहितो वि उववनंति एवं जाव वणस्सइकाइया चउकएणं भेदेणं उववाएयवा / / प्रज्ञा०६ पद०॥ पुढवीकाइएणं भंते ! जे भविए पुढवीकाएस उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सट्टिईएसु उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं पुच्छा गोयमा! अणुसमयं अविरहिया असंखेजा उववजंति / छेवट्ठसंघयणी। सरीरोगाहणाजहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेण वि | अंगुलस्स असंखेजइभागं मसूरचंदसंठिय चत्तारि लेस्सा णो सम्मचिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी णो णाणी अण्णाणी। दो अण्णाणी णियमं / णो मणजोगी वइजोगी कायजोगी। उवओगो दुविहो वि / चत्तारि सण्णाओ / चत्तारि कसायाओ एगे फासिंदिए पण्णत्ता / तिपिण समुग्धाया। वेदणा दुविहा। णो इत्थीवेदगा णो पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा। ठिई जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई / अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्थावि। अणुबंधो जहा ठिई। से णं भंते ! पुढवीकाइए पुणरवि पुढविकाइएत्ति केवइयं कालं सेवेजा केवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेजाइंभवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ताइं उक्कोसेणं असंखेचं कालं एवइयं जाव करेज्जा / / सो चेव जहण्णकालट्ठिईएस उववण्णो जहण्णे णं अंतोमु हुत्तट्टिईएसु उक्कोसे ण वि अंतोमुहुत्तट्टिईएसु एवं चेव दत्तव्वया णिरवसेसं / 2 / सो चेव उकोसकालहिईएसु उववण्णो जहण्णेणं वावीसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेण बिवावीसं वाससहस्सट्ठिईएसुसेसंतं चेव जाव अणुबंधोत्तिणवरं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेण संखेजा वा असंखेज्जा वा। भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं / कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तममहियाई उक्कोसेणं छावत्तरिं वाससतसहस्सं एवइयं जाव करेजा / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्वितीओजाओसोचेव पदमिल्लगमओ भाणियव्वो णवरं लेस्साओ तिण्णिठिती जहण्णेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं अप्पसत्था अज्झवसाणा अणुबंधो जहाठिती सेसं तं चेव / / सो चेव जहण्णकालट्ठितीएसु उववण्णो सव्वेव चउत्थगमक वत्तव्वया भाणियव्वा ।।सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा जाव भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई / कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भ-- हियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं कालं / 6 / सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ एवं तईयगमगसरिसो णिरवसेसो माणियव्वो णवरं अप्पणा से जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई। उक्कोसेणं वि वावीसं वाससहस्साइं।७। सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणावि अंतोमुहुत्तं एवं जहा सत्तमगमगो जाव भवादेसो / कालादेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्त मन्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठा-सीई वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय हियाइं एवइयं कालं।। सोचेव उक्कोसकालद्वितीएस उववण्णो जहण्णेणं वावीसं वाससहस्सद्वितीएसु उक्कोसेणवि बावीसं बाससहस्सद्वितीएसु एस चेव सत्तमगमगवत्तव्वया जाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं चोयालीसं बाससहस्साई उक्कोसेण छावत्तरि वाससत्तसहस्स एवइयं ।।जइ आउकाइए एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं सुहुमआउ बादरआउ एवं चउक्कओ भेदो भाणियव्वो जहा पुढवीकाइया आउकाइया णं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइयकालद्वितीएसु उववजेज्जा ? गोयमा जहणणेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा एवं पुढविकाइयगमगसरिसा णव गमगा भाणियव्वा णवरं थिवुगविंदुसंठिते ठितीजहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साइं एवं अणुबंधो वि / एवं तिसु वि गमएसु ठिती संवेहो तइयछहसत्तमट्टणवमेसु गमएसु / भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई सेसेसु चउसुगमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई / उन्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई। ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाई / उक्कोसेणं सोलसुत्तरवाससयसहस्सं एवइयं कालं गतिरागति करेजा / / छट्टे गमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तममहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीतिवाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तमन्महियाइं / 6 / सत्तमगमए कालादेसेणं जहण्णेणं सत्तवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाइं उकोसेणं सोलसुत्तरवाससयसहस्सं एवइयं अट्ठमगमए कालादेसेणं जहण्णेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठावीसवाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं / / णवगमए भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं एगूणतीसं वाससहस्साई उक्कोसेणं सोलसुत्तरवाससहस्सं एवइयं कालं एवं णवसु वि गमएसु आयुकायद्वितीजाणियव्वा / / तृतीयगमे नवरं / (जहण्णेणं एक्कोवेत्यादि) प्राक्तनगमयोरुत्पित्सुबहुत्वेनासंख्येया एवोत्पद्यन्ते इत्युक्तमिह तूत्कृष्टस्थितय एकादयोऽसंख्येयान्ता उत्पद्यन्ते उत्कृष्टस्थितिषूत्पित्सूनामल्यत्वेनैकादीनामप्युत्पादसम्भवात् (उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाइंति) इहेदमवगन्तव्यं यत्र सम्बेधे पक्षद्वयस्य मध्ये एकत्रापि पक्षे उत्कृष्टा स्थितिर्भवति तत्रोत्कृष्टतोऽष्टौ भवग्रहणानि तदन्यत्रत्वसंख्यातानि ततश्चेहोत्पत्तिविषयभूतजीवेषूत्कृष्टा स्थितिरित्युत्कर्षतोऽष्टौ भवग्रहणान्युक्तान्येवमुत्तस्त्रापि भावनीयमिति / (छावत्तरं बाससयसहस्संति) द्वाविंशतेर्वर्षसहस्राणामष्टाभिर्भवग्रहणैर्गुणने षट्सप्ततिवर्षसहस्राधिकं वर्षलक्षं भवतीति (१७६०००)चतुर्थे गमे (लेसाओ तिण्णित्ति) जघन्यस्थितिकेषु देवो नोत्पद्यत इति / तेजोलेश्या तेषु नास्तीति / षष्ठेगमे (उक्कोसेणं अट्ठासीई वाससहस्साई इत्यादि) तत्र जघन्य स्थितिकस्योत्कृष्ट स्थितिक स्य च चतुःकृत्य उत्पन्नत्याद्वाविंशतिवर्षसहस्राणि चतुर्गुणितानि अष्टाशीतिर्भवन्ति चत्वारि चान्तर्मुहुर्तानीति। नवमे गमे (जहण्णेणं चोयालीसंति) द्वाविंशतेवर्षसहस्राणां भवग्रहणद्वयेन गुणने चतुरश्चत्वारिंशत्सह-स्राणि भवन्तीति। एवं पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकेभ्य उत्पादि-तोऽथाऽसावेवाप्कायिकेभ्य उत्पाद्यते (जइआउकाइएमेत्यादि चउक्कओ भेदोत्ति) सूक्ष्मबादरयोः पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात् / (संबेहो तइयछट्टेत्यादि) तत्र भवादेशेन जघन्यत संबेधः सर्व गमेषु भवग्रहणद्वयरूपप्रतीत उत्कृष्ट च तस्मिन्विशेषोऽस्तीति दर्श्यते तत्र च तृतीयादिषु सूत्रोक्तेषु पञ्चसु गमेपूत्कर्षत सम्बेधोऽष्टौ भवग्रहणानि पूर्वप्रदर्शिताया अष्टभवग्रहणनिबन्धनभूताया स्तृतीयषष्ठ सप्तमा-ष्ट मेष्वे कपेक्षे नवमे तु गमे उभयत्राप्युत्कृष्टस्थितेः सद्भावात् (सेसेसु चउसु गमएसुत्ति) शेषेषु चतुर्यु गमेषु प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमलक्षणेषत्कर्षतोऽसंख्येयानि भवग्रहणान्येकत्रापि पक्षे उत्कृष्टस्थितेरभावात् (तइयगमए कालादेसेणं जहणणेण वावीसं वाससहस्साइंति) पृथिवीकायिकानामुत्पत्तिस्थानभूतानामुत्कृएस्थितिकत्वात् (अंतोमुहुत्तमब्भहियाइंति) अप्कायिकस्य तत्रोत्पित्सोरौघिकत्वेऽपि जघन्यकालस्य विवक्षितत्वेनासन्मुहूतस्थितिकत्वात् (उक्को सेणं सीलमुत्तरं वाससयसहस्संति ) इहोत्कृष्टस्थितिकत्वात्पृथिवीकायिकानां तेषां च चतुर्णां भावानां भावात् तत्रोत्पित्सु श्वाप्कायिक स्यौघिकत्वेऽप्युत्कृष्ट कालस्य विवक्षितत्वादुत्कृष्टस्थितयश्चात्वारस्तद्भवा एवं च द्वाविंशतेवर्षसहस्राणां च प्रत्येकं चतुर्गुणितत्वे (85000/28000) मीलने च (116000) षोडशसहस्राधिकं लक्षम् / छटे गमए इत्यादि षष्ठे गमे हि जघन्यस्थितिषूत्पद्यते इत्यन्तर्मुहूर्तस्य वर्षसहस्रद्वाविंशतेश्च प्रत्येनं चतुर्भवग्रहणगुणितत्वे यथोक्तमुत्कृष्टकालमानं स्यात (88000) अन्तः एवं सप्तमादिगमसम्बेधा अप्यूह्याः नवरं नवमे गमे जघन्येन एकोनविंशद्वर्ष सहस्राण्यप्कायिक पृथिवीकायिकोत्कृष्टस्थितिमीलनादिति। भ०२४ श०१२ उ०। जीवा०। अथ तेजस्कायिकेभ्यः पृथिवीकायिकमुत्पादयन्नाह। जइ तेउक्काइएहिंतो उववजंति तेउवाइयाण वि एस चेव वत्तवया णवरं णवसु वि गमएसु तिण्णि लेस्साओ / तेउक्काइयाणं सुईकलावसंठिया ठिई जाणियव्वा / ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्महियाइं उक्कोसेणं अट्ठासीतिवाससहस्साइंवारसहिं राइंदिएहिं अब्भहियाइं एवइयं एवं संबेहो उवउंजिऊण भाणियय्वो // (तिण्णि लेस्साओत्ति) अप्कायिकेषु देवोत्पत्तेस्तेजोलेश्यासद्भावाचतस्रस्ता उक्ता इह तु तदभावातिन एवेति। (ठिईजाणियव्वत्ति) तत्र तेजस्सु जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमितरा तु त्रीण्ययोरात्राणीति / (तइयगमए इत्यादि) तृतीयगमे औधिकास्तेजस्कायिक उत्कृष्टस्थितिषु पृथिवीकायिकोत्कृष्टभवग्रहेणषु द्वाविंशतेवर्षसहस्राणां चतुर्गुणितत्वेऽष्टाशीतिस्तानि भवन्ति, तथा चतुर्वैव तेजस्कायिकभवेषूत्कर्षतः प्रत्येकमहोरात्रत्रयपरिमाणेषु द्वादशाहोरात्राणीति। (एवं संबेहो उवउंजिऊण भाणियव्वोत्ति) स चैव षष्ठादि नवान्तेषु गमेष्वष्टौ भवग्रहणानि तेषु च कालमानं यथायोगमभूयूह्यं शेषगभेषु तूत्कृष्टतोऽसंख्येयाभवात्कालोप्यसङ्ख्येवएवेति। अथ वायुकायि केभ्यः पृथिवीकायिकमुत्पादयन्नाह // Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 668- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय जइ वाउकाइएहिंतो उववजंति वाउक्काइयाण वि एवं चेव णव गमका जहेव तेऊकाइयाणं णवरं पडागासठिया संवेहो वाससहस्सेहिं कायव्वो / ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं एगं वाससयसहस्सं एवं संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो॥ तेजस्कायिकाधिकारे अहोरात्रैः सम्बेधः कृत इह तुवर्षसहस्रः स कार्यों वायूनामुत्कर्षतो वर्षसहस्रत्रयस्थितिकत्वादिति (तइय-गमएइत्यादि) / (उक्कोसेणं एगवाससयसहस्संति) अत्राष्टौ भवग्रहणानि तेषु च चतुर्यु अष्टाशीतिवर्षसहस्राणि पुनरन्येषु चतुषु वायुसत्केषु वर्षसहसत्रयस्य चतुर्गुणितत्वे द्वादश उभयमीलने च वर्षलक्षमिति (एवं संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वोत्ति) स च यत्रोत्कृष्टस्थितिसम्भवस्तत्रोत्कर्षतोऽष्टी भवग्रहणानीतरत्रत्वसंख्येयान्येतदनुसारेण च कालोऽपि वाच्य इति। अथवनस्पतिभ्यस्तमुत्पादयन्नाद्द। जइवण्णस्सइकाईएहिंतो उववजंति वणस्सइकाइयाणं आउक्काइयगमगसरिसा णव गमगा भाणियव्वा णवरंणाणा संठिया सरीरोगाहणा पढमपच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइमागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोअणसहस्सं मज्झिमएसु तहेव जहा पुढवीकाइयाणं संवेहो ठिती जाणियवा। तईयगमए कालाएसेणं जहण्णे णं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरवाससयसहस्सं एवइयं एवं संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो।। जइ वेइंदिएहिंतो उववजंति किं पञ्जत्तवेइंदिएहिंतो उववजंति अपञ्जत्तवेइंदिएहिंतो उववजंति? गोयमा! पजत्तवेइंदिरहितो उववजंति अपज्जत्तवेइंदिएहितो विउववजंति। यस्त्वत्र विशेषस्तमाह (नाणसंठियेत्यादि।) अप्कायिका नाम स्तिबुकाकारावगाहना एषां तु नानासंस्थिता तथा (पढमएसु इत्यादि) प्रथमकेषु औधिकेषु गमेषु पाश्चात्येषु चोत्कृष्टस्थितिकगमेष्ववगाहना वनस्पतिकायिकानां द्विधापि मध्यमेषु जघन्यस्थितिकगमेषु त्रिषु यथा पृथिवीकायिकानां पृथिवीकायिकेषूत्पद्यमानानामुक्तास्तथैव वाच्या अकुलासंख्यातभागमात्रैवेत्यर्थः / (संवेहोठिईयजाणियव्यत्तित।) तत्र स्थितिरुत्कर्षतो दशवर्षसह-त्राणि जघन्या तु प्रतीतैव एतदनुसारेण सम्बन्धोऽपि ज्ञेयः तमेवैकत्र गमे दर्शयति (तइयेत्यादि उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससयसहस्संति) इह गमे उत्कर्षतोऽष्टौ भवग्रहणानि तेषु च चत्वारि पृथिव्याश्चत्वरि च वनस्पतेस्तत्र च चतुर्षु पृथिवीभवेषूत्कृष्टेषु वर्षसहस्राणामष्टाशीतिस्तथा वनस्पतेर्दशवर्षसहस्रायुष्कत्वाच्चतुषु भवेषु वर्षसहस्राणां चत्वारिंशदुभयमीलने च यथोक्तं मानमिति / अथ द्विन्द्रियेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह। बेइदिएणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवतिकालद्विति? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्सद्विती। तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं गोयमा! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति। छेवट्ठसंघयणी। ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग उक्कोसेणं वारसजोअणाई हुंडसंठिया तिणि लेस्साओ सम्मदिट्टि वि मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी। दोणाणा दो अण्णाणा णियमं / णो मणजोगी वयजोगी वि कायजोगी वि / उवओगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णाओ |चत्तारि कसायाओ। दो इंदिया पण्णत्ता ? तंजहा जिभिदिए य फासिदिए य तिणि समुग्धाया सेसं जहा पुढवीकाइयाणं णवरं ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं वारससंवच्छराई। एवं अणुबंधो वि सेसं तं चेव / भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं संखेजाइं भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहणणेणं दो अंतोमुहुत्ताइं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं एवइयं कालं // 1 // सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया|शा सो चेव उक्कोसकालट्ठीईएसु उववण्णो एस चेव विइयस्सलद्धीणवरं भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उकोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं अट्ठा-सीतिवाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाइं एवइयं सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ तस्स वि एस चेव वत्तव्वया तिसु वि गमएसु णवरं इमाई णाणत्ताई सरीरोवगाहणा जहा पुढवीकाइयाणं / णो सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठीणो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो अण्णाणी णियमं / णो मणजोगी वइजोगी कायजोगी। ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तए उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / अज्झवसाणा अप्पसत्था / अणुबंधो जहा ठिई। संवेहो तहेव आदिल्लेसु दो गमएसु तइयगमए भवादेसो तहेव अट्ठभवा कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तममहियाई उकोसेणं अट्ठासीतिं वाससहस्साइंचउहिं अंतोमुहुत्ते हिं अब्भहियाई।६। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ एतस्स वि ओहिया गमगसरिसा तिण्णि गमगा भाणियव्वा णवरं तिसु वि गमएसु ठिई जहण्णेणं वारससंवच्छराई, उक्कोसेण वि वारस संवच्छराई। एवं अणुबंधो वि भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादे सेणं उवउंजिऊण भाणियव्वं जाव णवमे गमए जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई वारसहिं संवच्छरेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीतिवाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई एवइयं || (बारसजोयणाइंति) यदुक्तंतच्छङ्ख माश्रित्य यदाह ' 'संखो पुण वारसजोयणाइंति'' सम्मद्दिट्ठीविति / एतच्चोच्यतेसास्वादनसम्यक्त्वापेक्षयति इयं च वक्तव्यतौघिकद्वीन्द्रियस्यौघिकपृथिवीकायिकेषु एवमेतस्य जघन्यस्थितिष्वपि तस्यैवोत्कृष्टस्थितिषूत्पत्तौ संवेधे विशेषोऽत एवाहनवरमित्यादि (अट्ठभवग्गहणाइंति) एक पक्षस्योत्कृष्ट स्थितिकत्वात् (अड यालीसाए संब Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 966 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय च्छरेहि अब्भहियाइंति) चतुर्षु द्वीन्द्रियभवेषु द्वादशाब्दमानेषु अष्टचत्वारिंशत् संवत्सरा भवन्ति तैरभ्यधिकान्यष्टाशीतिवर्षसहस्राणीति, द्वितीयस्यापि गमत्रयस्यैषैव वक्तव्यता विशेषं त्वाहनवरमित्यादि इह सप्त नानात्वानि शरीरावगाहना यथा पृथिवीकायिकानामङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रमित्यर्थः, प्राक्तनगमत्रये तु द्वादशयोजनमानाप्युक्तेति।११तथा (नो सम्मट्ठिी) जघन्यस्थिति–कतवा सास्वादनसम्यग्दृष्टीनामनुत्पादात्, प्राक्तनगमेषु तु सभ्यग्दृष्टिरप्युक्तोऽजघन्यस्थितिकस्यापि तेषु भावात् / स तथा द्वे अज्ञाने प्राक् ज्ञाने अप्युक्ते / 3 / तथा योगद्वारे जघन्यस्थितिकत्वेनापर्याप्तकत्वान्न वाग्योगः प्राक्कासावप्युक्तः / 4 / तथा स्थितिरिहान्तर्मुहूर्तमेव प्राक्कसंवत्सरद्वादशकमपि / 5 / तथाऽध्यवसानानीहाप्रशस्तान्येव प्राक्कोभयरूपाणि / 6 / सप्तमं नानात्वमनुबन्ध इति संबेधस्तु द्वितीयत्रयस्थाद्ययोर्द्वयोर्गमयोरुत्कर्षतो भवादेशेन सङ्ख्येयभवलक्षणः कालादेशेन च सवयेयकाललक्षणः तृतीये तु विशेषमाह (तइए गमए इत्यादि) अन्त्यगमत्रये (कालादेसेणं उवउंजिऊण भाणियव्यंति) यत्तदेवं प्रथमे गमे कालत उत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राण्यष्टचत्वारिंशता वर्षेरधिकानि द्वितीये त्वष्टचत्वारिंशद्वर्षाण्यनन्तर्मुहूर्तचतुष्टयाधिकानि तृतीये तु संबेधो लिखित एवास्ते // अथ त्रीन्द्रियेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह / / जइ तेइंदिएहिंतो पुढवीकाइएसु उववजंति एवं चेव णव गमका भाणियव्वा णवरं आदिल्लेसु वि तिसु वि गमएसु सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं तिपिण गाउयाई तिण्णि इंदियाई ठिई जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णराइंदियाइं / ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीइवाससहस्साई छण्णउइराइंदियमब्भहियाई एवइयं / मज्झिमगा तिण्णि गमगा पच्छिमगा तिण्णिगमगा तहेव / णवरं ठिई जहण्णेणं एगणपणराइंदियाइं उक्कोसेण वि एगणपणराइंदियाई संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वो // (जइ ते इंदीत्यादि-छण्णउयराइंदियसयअडभहियाइं ति) इह तृतीयगमेऽष्टौ भवास्तत्र चतुर्पु त्रीन्द्रियभवेषूत्कर्षत एकोनपञ्चाशद्वात्रिंदिवप्रमाणेषु यथोक्तं कालमानं भवतीति। (मज्झिमा तिणि गमा तहेवत्ति) / यथा मध्यमा द्वीन्द्रियगमाः / (संवेहो उवउंजिऊण भाणियव्वोत्ति) स च पश्चिमगमत्रये भवादेशे नोत्कर्षतः प्रत्येकमष्टौ भवग्रहणानि कालादेशेन तु पश्विमगमत्रयस्य प्रथमगमे तृतीयगमे चोत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राणि षण्णवत्यधिकरात्रिंदिवशताधिकाति द्वितीये तु षण्णवत्युरं दिनशतमन्तरर्मुहूर्तचतुष्टयाभ्यधिकमिति। अथ चतुरिन्द्रियेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह। जइ चउरिदिएहिंतो उववजंति एस चेव चउरिंदियाणविणव गमगा भाणियव्वा णवरं एएसु चेव ठाणेसु णाणत्ता भाणियध्वा सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उकोसेणं चत्तारि गाउयाइं ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छम्मासा एवं अणुबंधो वि चत्तारि इंदिया सेसं तं चेव जाव णवगमए कालादेसेणं , जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं छहिं मासेहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीतिं वाससहस्साइं चउवीसाए मासेहिं अब्भंहियाए एवइयं जाव करेजा / / 6 / / (नवरं एएसु चेवट्ठाणेसुत्ति) वक्ष्यमाणेष्ववगाहनादिषु नानात्वानि द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियप्रकरणयापेक्षया चतुरिन्द्रियप्रकरणे विशेषभणितव्यानि भवन्ति तान्येव दर्शयतिसरीरेत्यादि / (सेसं तहेवत्ति) शेषमुपपातादि द्वारजातंतथैव यथा त्रीन्द्रियस्य यस्तुसंबेधे विशेषोनदर्शितः स स्वयमूहा इति। अथ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भ्यस्तमुत्पादयन्नाह। जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववखंति किं सण्णिपं-- चिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववनंति असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए ? गोयमा ! सण्णिपंचिंदियअसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उववजंति / जइ असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति जाव किं पजत्तएहिंतो उववजंति अपज्जत्तएहिंतो उववजंति? गोयमा ! पजत्तएहिंतो उववज्जति अपज्जत्तएहिंतो वि उववनंति / असण्णिपंचिंदियरिरिक्खजोणिएणं भंते !जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइ०? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्सं तेणं भंते ! जीवा एवं जहेव बेइंदियस्स ओहिगमए लद्धी तहेव णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोअणसहस्सं / पंचिंदियट्टिई अणुबंधो य जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी सेसं तं चेव / भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइंकालादेसेणं उवउंजिऊण भाणियव्वं णवरं मज्झिमएसु तिसु गमएसु जहेव बेइंदियस्स। मज्झिमएसु तिसुगमएसुपच्छिल्लएसुतिसुगमएसु जहा एतस्सेव पढमगमए णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुष्वकोडी उक्कोसेण वि पुव्वकोडी सेसं तहेव जाव णव गमए जहण्णेणं पुव्वकोडी बावीसाए वाससहस्से हिं अन्भहिया उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीओ अट्ठासीती एवं वाससहस्से हिं अब्भहियाओ एवइयं कालं सेवेज्जा || (जईत्यादि-उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाइंति) अनेने दमवगम्यते यथोत्कर्षतः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो निरन्तरमष्टैव भवा भवन्ति एवं समानभवान्तरिता अपि भवान्तरैः सहाष्टव भवन्तीति (कालादेसेणं उवउंजिऊण भाणियव्यंति) तत्र प्रथमे गमे कालतः सम्बेधः सूत्रे दर्शित एव द्वितीये तूत्कृष्टतश्चतस्रः पूर्वकोट्यश्चतुर्मिरन्तर्मुहूर्तेरधिकाः तृतीये तु ता एवाऽष्टाशीत्यावर्षसहसैरधिकाः उत्तरगमेषु त्वतिदेशद्वारेण सूत्रोक्त एवासाववसेय इति। अथ संज्ञिपञ्चेन्द्रियेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह। जदि सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए उववजंति किं संखेजवासाउ य असंखेज्जवासाउय ? गोयमा ! संखेज्जवासाउ य सण्णिपंचिंदिय णो असंखेजवासाउय जाव उववजंति ! जइ असंखेजवासाउय जाव उववनंति किं जलचरे हिंतो सेसं जहा असण्णीणं जाव तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं के वइया उववजंति एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 970 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय सण्णिपंचिंदियस्स तहेव इह वि जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दोअंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ अट्ठासीति वाससहस्सेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेज्जा / एवं संवेहो णवसु वि गमएसु जहा असण्णीणं तहेव णिरवसेसं लद्धी से आदिल्लएसुतिसुगमएसु एस चेव मज्झिल्लएसु वि तिसुगमएसु एस चेव णवरं इमाइं णव णाणत्तई / जहण्णेणं ओगाहणा अंगुलस्स असंखेजइभार्ग उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं तिण्णिलेस्साओ। मिच्छदिट्ठी। दो अण्णाणा। कायजोगी तिण्णि समुग्धाया / ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं / उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं अप्पसत्था अज्झवसाणा। अणुबधो जहा ठिई सेसं तंचेव / पच्छिल्लएसु तिसुगमएसु जहेव पढमगमए णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुष्वकोडी सेसं तं चेव / / 6 / (जइ सण्णीत्यादि / एवं संबेहो नवसु वि गमएसु इत्यादि) एवमुक्ताभिलापेन संबेधो नवस्वपिगमेषु यथा असंज्ञिनां तथैव निरवशेष इह वाच्योऽसंज्ञिनां सज्ञिनां च पृथिवीकायिकेत्पित्सूनां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तायुष्कत्वादुत्कर्षतश्च पूर्वकोट्यायुष्कत्वादिति। (लद्धी से इत्यादि) लब्धिपरिमाणसंहननादिप्राप्तिः(से) तस्य पृथिवीकायिकेषुत्पित्सोः संज्ञिन आद्ये गमत्रये (एस चेवत्ति) या रत्नप्रभायामुत्पित्सोस्तस्यैव मध्यमेऽपि गमत्रये एव लब्धिः विशेषस्त्वयं नवरमित्यादि नव च नानात्वनि जघन्यस्थितिकत्वा--द्रवन्ति तानि च अवगाहना 1 लेश्या 2 दृष्ट्य 3 ज्ञान 4 योग 5 समुद्धात 6 स्थित्य 7 ध्यवसाना ८ऽनुबन्धाख्यानि 6 अथ मनुष्येभ्यस्तमुत्पादयन्नाह (जईत्यादि) तत्र च (एवं जहेत्यादि) यथा ह्यसज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्चो जघन्यस्थितिकस्य त्रयो गमास्तथैतस्यापि त्रयऔधिका गमा भवन्ति अजघन्योत्कृष्ट स्थितिकत्वात् सम्मूञ्छिममनुष्याणां न शेषगभषट्कसम्भव इति भ० 24 श०१२ उ०। अथ सज्ज्ञिमनुष्यमधिकृत्याह। जदि मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सम्मुच्छिममणुस्सेहितो गब्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! दोहिंतो वि उववजंति / जदि गब्भवतियमणुस्सेहिंतो किं कम्मभूमिगभवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववजंति अकम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति सेसं जहा नेरइयाणं नवरं अप्पज्जत्तएहिंतो वि उववजंति। प्रज्ञा०६ पद। जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सण्णिमणुस्सहिंता उववअंति असण्णिमणस्सेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! सण्णिमणस्सेहिंतो वि उववजंति असण्णिमणुस्सेहिंतो वि उववजंति। असण्णिमणुस्सेणं भंते ! ज भविए पुढविकाइएसु सेणं भंते ! केवइयकालविईएसु एवं जहा असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहण्णकालट्ठिईयस्स तिण्णि गमगा तहा एतस्सवि आहिया तिण्णि गमका भाणियव्वा तहेव णिरवसेस सेसाछ नव भण्णइ / जइ सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजंति किं संखेज्जवा-। साउयं असंखेज्जवासाउय जाव उववजंति ? गोयमा! संखेजवासाउय णो असंखेज्जवासाउयं जाव उववजंति / जइ संखेज्जवासाउय जाव उववजंति किं पज्जत्तसंखेज्ज० अपजत्तसंखेज०? गोयमा ! पजत्तसंखेज० अपज्जत्तसंखेज्जवासा० जाव उववजति / सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए पुढविकाएसु उववजंति सेणं भंते ! केवइकालस्स? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्सट्ठिईएसु तेणं भंते! जीवा एवं जहेव रयणप्पभा उववजमाणस्स तहेव तिसु विगमएसु लद्धी णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ-भाग उक्कोसेणं पंचधणुहसयाई ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं एवं अणुबंधो वि।संवेहोणवसुगमएसु जहेव सण्णिपंचिंदियमज्झिल्लएसु तिसु गमएसु लद्धी तहेव सण्णिपंचिंदियस्स मज्झिल्लएसु तिसु गमएसु लद्धी सेसं तं चेव णिरवसेसं पच्छिल्ला तिण्णि गमका जहा एयस्सचेव ओहिया गमका णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाई उक्को ण वि पंचधणुहसयाई। ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुव्वकोडी सेसं तहेव॥ जइ सन्नीत्यादि / / जहेव रयणप्पहाए उववज्जमाणस्सत्ति // सज्झिमनुष्यस्यैवेति प्रक्रमः / / नवरमित्यादि / / रत्नप्रभायामुत्पित्सोर्हि मनुष्यस्यावगाहना जघन्ये नाङ्गुलपृथक्त्वमुक्तमिहत्वकुलासंख्येभागः स्थितिश्च जघन्येन मासपृथक्त्वं प्रागुक्तमि हत्वन्तर्मुहूर्तमिति संबेधस्तु नवस्वपि गमेषु यथैव पृथिवीकायिकेषूत्पद्यमानस्य सझिापञ्चेन्द्रियतिरश्च उक्तस्तथैवेह वाच्यः संज्ञिनो मनुष्यस्य तिरश्वश्च पृथिवीकायिके षु समुत्पित्सोर्जघन्यायाः स्थितेरन्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वादुत्कृष्टायास्तु पूर्वकोटीप्रमाणत्वादिति / मज्झिमिल्लेत्यादि।।जघन्यस्थितिकसम्बन्धिनिगमत्रये लब्धि-स्तथेह वाच्या यथा ते त्रैव गमत्रये सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्च उक्ता सा च तत्सूत्रादेवेहावसेया / पच्छिल्लेत्यादि / / औधिकगमेषु हि अड्डलासङ्घयेयभागरूपाऽप्यवगाहना अन्तर्मुहूर्तरूपाऽपि स्थितिरुक्ता साचेह न वाच्या अत एवाह-नवरम्। ओगाहणेत्यादि। देवेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह। जइ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति वाणमंतरजोइसियदेवेहिंतो वेमाणिय देवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि उववनंति जाव वेमाणियदेवेहिंतो वि उववजंति। जइ भवणवासिदेवेहिं तो उववज्जति किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति जाव थणियकुमार भवणवासि०? गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववजंति जाव थणियकुमारवासिदेवेहिंतो उववज्जंति / असुरकुमारेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिई ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साइं ठिई। तेणं भंते ! जीवा पुच्छा, गोयमा! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति। तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरगा किं Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 671 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय संघयणा पण्णत्ता? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी जाव परिणमइ। तेसिणं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थणं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स अंसखे जइभागं उक्कोसेणं सत्तरयणीओ तत्थणं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोअणसयसहस्सं। तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहाभवधारणिज्जा य उत्तरवे उव्विया य / तत्थणं जे ते भवधारणिज्जा ते समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता।तत्थणं जे से उत्तरवेउव्विया ते णाणासंठाण संठिया पण्णत्तालेस्साओ चत्तारि दिहि तिविहा वि तिण्णि णाणा णियमं। तिणि अण्णाणा भयणाए। जोगे तिविहे वि। उवओगे दुविहे वि / चत्तारि सण्णाओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। पंच समुग्घाया। वेदणा दुविहा वि। इत्थी वेदगा वि पुरिसवेदगा वि णो णपुंसगवेदगा / ठिई जहण्णेणं दसवास सहस्साइं उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं / अज्झवसाणा असंखेज्जा पसत्था वि अप्पसत्था वि अणुबंधो जहा ठिई भवादे से णं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णे णं दसवाससहस्साइ अंतोमुहुत्तमब्महियाई, उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं एव इयं / एवं णव विगमा णेयव्वा णवरं मज्झिल्लएसु पच्छिल्लएसु तिसुगमएसु असुरकुमाराणं ठिई विसेसो भाणियव्वो / सेसा ओहिया चेव लद्धी कायसंवेहं च जाणेजा सवत्थ दोभवग्गहणाइं जाव णव गमए कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससहस्सेहि अब्भहियं, उक्कोसेण वि साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससहस्से हिं अब्भहियं एवइयं जाव करेजा। णागकुमाराणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइए एस चेव वत्तव्वया जाव भवादेसोत्तिणवरं ठिई जहण्णेणं दसवासहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं एवं अणुबंधो वि कालादेसेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं दो पलिओवमाइंदेसूणाईवावीसाएवाससहस्सेहिं अब्महियाई एवं णव वि गमगा असुरकुमारगमगसरिसा णवरं ठिई कालादेसेणं च जाणेज्जा एवं जाव थणियकुमाराणं जदि वाणमंतर किं पिसायवाणमंतर जाव गंधववाणमंतर ? गोयमा ! पिसाय वाणमंतरजाव गंधव्ववाणमंतर। वाणमंतरदेवेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइए एएसि पि असुरकुमारगमगसरिसा णव गमगा भाणियव्व णवरं ठिई कालादेसेणं च जाणेजा। ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं पलिओवमं सेसं तहेव / जई जोइसियदेवेहिंतो उववजंति किं चंदविमाणजोइसियदेवेहितो उववजंति जाव ताराविमाणजोइसियदेवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! चंदविमाणजोइसियदेवेहिंतो वि उववजंति जाव तारा जाव उववजं ति / जोइसियदेवेणं भंते ! जे भविए पुढबीकाइयलद्धी जहा असुरकुमाराणं णवरं एगा तेउलेस्सा पण्णता तिण्णि णाणा तिपिणअण्णाणा णियमं / ठिई जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं उझोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्सममहियं एवं अणुबंधो वि कालादेसेणं जइण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुहुत्तममहियं उक्कोसेणं पलिओवर्म वाससयसहस्सेणं वावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं एवइयं / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियव्वा णवरं ठिई कालादेसेणं च जाणेजा। जइवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति किं कप्पोववण्णगवेमाणिय कप्पातीतगवेमाणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! कप्पोववण्णगवेमाणिय जाव उववजंतिणो कप्पातीतगवेमाणिय जाव उववजंति / जइ कप्पोववण्णग जाव उववनंति किं सोहम्मकप्पोववण्णगवेमाणिए जाव अच्चुतकप्पोववण्णगवेमाणिया जाव उववजंति ? गोयमा! सोहम्मकप्पोवण्णगवेमाणिया ईसाणकप्पोववण्णगवेमाणिया जाव उववजंति, णो सणंकुमार जाव णो अचुयकप्पोववण्णगवेमाणिया जाय उववशंति / सोहम्मगदेवेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववजह सेणं भंते ! केवइया एवं जहा जोइसियस्स गमगो एवं ठिई अणुबधो य जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं, कालोदेसेणं जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्तमन्भहियं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं वावीसवाससहस्से हिं अब्भहियाई एवइयं कालं एवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियव्वा णवरं ठिई काला देसं च जाणेजा। ईसाण देवेणं भंते ! जे भविए एवं ईसाणदेवेणं वि णव गमगा भाणियव्वा णवरं ठिई अणुबंधो जहण्णेणं साइरेगपलिओवमं उक्कोसेणं साइरेगाइंदो सागरोवमाइं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति जाव विहरइ / / "जईत्यादि छण्हं संघयणाणं असंघयणित्ति " इह यावत्करणादिद दृश्यं "ऐवट्ठीणेवच्छिरा नेवण्हारू नेवसंघयणमत्थि जे पोग्गला इट्टा कंता पिया मणुन्ना मणोमा ते तेसिं सरीरसंघायत्ताएत्ति / तत्थ णं जा सा भवधारणिता सा जहण्णे णं अंगुलस्स असंखेजइ भागंति'' उत्पादकालेऽनाभोगतः कर्मपारतव्यादङ्गुलसंख्येयभागमात्रावगाहना 'भवति उत्तरवैक्रिया तु जघन्याङ्गुलस्य संख्ये यभागमाना भवत्याभोगजनित्वातस्यास्तथाविधा न सूक्ष्मता भवति यादृशी भवधारणीयाया इति / तत्थणं जे ते उत्तरविउदिवया ते 'नाणासंठियत्ति' इच्छावशेन संस्थाननिष्पादना-दिति। (तिण्णि अण्णाण भयणाएत्ति) ये असुरकुमारा असंज्ञिभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तेषा Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 672 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय मपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गस्याभावाच्छेषाणां तु तद्भावादज्ञानेषु भजनोक्ता (जहाणेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमभहियाई ति)तत्र दशवर्षसहस्राण्यऽसुरेषु अन्तर्मुहूर्त पृथिवीकायिकेष्विति, इत्यमेव उकोसेणं साइरेगं सागरोवममित्याद्यपि भावनीयम् / एतावानेव चोत्कर्षतोप्यत्र संबेधकालः पृथिवीत उद्वृत्तस्यासुरकुमारेषूत्पादाभावादिति (मज्झिल्लएसुपच्छिल्लएसुइत्यादि)अयं चेह स्थितिविशेषो मध्यमगमेषु जघन्यासुरकुमाराणां दशवर्षसयस्राणि स्थितिरन्त्यगमेषु च साधिकं सागरोपममिति, ज्योतिष्कदण्डके तिण्णि नाणा तिण्णि अण्णाणा नियमंति। इहासझीनो नोत्पद्यन्ते सज्ञिनस्तूत्पत्तिसमयएव सम्यग्यदृष्टे स्त्रीणि ज्ञानानि मत्यादीनि इतरस्य त्वज्ञानानि मत्याज्ञानादीनि भवन्ति। (अट्ठभागपलिओवमंति) अष्टमोभागोऽष्टभागः स एवावयवे समुदायोपचारादष्टभागपल्योपमं इदं च तारकदेवदवीराश्रित्योक्तम्। उक्कोसेणं "पलिओवमंवाससयसहस्समब्भहियंति" इदं च चन्द्रविमानदेवानाश्रित्योक्तमिति। भ०२४ श०१२ उ०। / अप्कायिकानाम्आउकाइएणं भंते ! क ओहिंतो उववजंति एवं जहेव पुढवीकाइय उद्देसए जाव पुढवीकाइएणं भंते ! जे भविए आउकाइएसु उववञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइ०? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्सट्ठिईएसु उववजेज्जा एवं पुढवीकाइयउद्देसगसरिसो भाणियय्वो णवरं ठिई संबेहं च जाणेजा सेसं तं चेव / सेवं भंते ! भंते ! त्ति / भ०२४ श०१३ उ०। तेजस्कायिकानां वायुकायिकानां च यथातेउकाइयाणं भंते ! क ओ हिंतो उववजंति णवरं पुढवीकाइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणियव्वो णवरं ठिई संवेहं च जाणिज्जा देवेसुन उववजंति। सेसं तं चेव सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ वाउकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उव वजंति एवं जहबे तेउ काइय उद्देसो तहेव णवरं ठिई संदेहं च जाणेज्जा सेवं भंते भंते ! त्ति / चउवीसइमसयस्स पण्णरसमो उद्देसो सम्मत्तो। (देवेसु न उववजंतित्ति) देवेभ्य उद्धृतास्तेजस्कायिकेषु नोत्पद्यन्त इत्यर्थः। एवं पञ्चदशेऽपि। भ०२४ श०१४ उ०। वनस्पतीनाम्। वणस्सइकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति एवं पुढवी काइयउद्दे सो सरिसो णवरं जाहे वणस्सइकाइया वणस्सइकाइएसु उववजंति ताहे पढमविइयचउत्थपंचमेसु गमेसु परिमाण अणुसमयं अविरहियं अणंता उववज्जति भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्हणाई कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुत्ता उक्कोसेणं अणंतं कालं एवइयं जाव करेजा। सेसा पंच गमा अट्ठभवग्गह णिया तहेव णवरं ठिई संवेहच जाणेजा सेवं भंते ! भंते ! त्ति // "जाहे वणस्सइकाइओ इत्यादि अनेन वनस्पतेरेवानन्तानामुदृत्तिरस्ति नान्यत इत्यावेदितं शेषाणां हि समस्तानामप्यसंख्यातत्वात्। तथा अनन्तानामुत्पादो वनस्पतिष्वेव कायान्तरस्यानन्तानामभाजनत्वादित्यप्यावेदितमिह च प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमगमेष्वनु- त्कृष्टस्थितिभावादनन्ता उत्पद्यन्त इत्यभिधीयते शेषेषु तु पञ्चसु गमेषूत्कृष्टस्थितिभावादेको वा द्वौ वेत्याद्यभिधीयत इति / तथातिष्वेव प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमेष्वनुत्कृष्टस्थितित्वादेवोत्कर्षतो भवादेशेनानन्तानि भवग्रहणानि वाच्यानि कालादर्शने चानन्तः कालः शेषेषु तु पञ्चसु तृतीयषष्ठसप्तमादिषु गमेष्वष्टौ भवग्रहणान्युत्कृष्टस्थिति-भावात्। (ठिईसंवेहं च जाणेजत्ति) तत्र स्थितिर्जघन्या उत्कृष्टा च सर्वेष्वपि गमेषु प्रतीतैव संबेधस्तु तृतीयसप्तमयोर्जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तमुहूर्त्ताधिकान्युत्कर्षतस्त्वष्टासु भवग्रहणेषु दशसहस्राः प्रत्येक भावादशीतिवर्षसहस्राणि षष्ठाष्टमयोस्तु जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूधिकान्युत्कृष्टतस्तु चत्वारिंशद्वर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्तश्चतुष्ट याभ्यधिकानि / नवमे तु जघन्यतो विंशतिवर्षसहस्राण्युत्कर्षतस्त्वशीतिरिति / भ०२४ श०१६ उ०। द्वीन्द्रियाणाम्बेइंदियाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति जाव पुढवीकाइएणं मंते ! जे भविए बेइंदिएसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइ सव्वेव पुढवीकाइयस्स लद्धी जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुदत्ता उक्कोसेणं संखेचं कालं एवइयं जाव करेजा एवं तेसुचेवचउसुगमएसुसंबेहो सेसेसुपंचसुगमएसुतहेव अट्ठभवा एवं जाव चउरिदिएणं समं चउसु संखेजभवा पंचसु अट्ठभवा पंचिंदियति रिक्खिजोणिए मणुस्सेसू समं तहेव अट्ठभवा ठिई संवेहं च जाणेज्जा सेवं भंते ! भंते / त्ति। (सव्वेव पुढवीकाइयस्स लद्धत्ति) या पृथिवीकायिकस्य पृथिवीकायिकेत्पित्सोलब्धिः प्रागुक्ता द्विन्द्रियेष्वपि सैवेत्यर्थः। (तेसु चेवचउसुगमएसुत्ति) तेष्वेव चतुर्यु गमेषु प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमलक्षणेषु (सेसेसुपञ्चसुत्ति) शेषेसु पञ्चसुगमेषु तृतीयषष्ठसप्तमाष्टमनवमलक्षणेषु (एवंति)यथा पृथिवीकायिकेन सह द्वीन्द्रियस्य संबेध उक्त एवं अप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियैः सह संवेधो वाच्यस्तदेवाह चतुर्षपूर्वोक्तेषु गमेषूत्कर्षतो भवादेशेन संख्येया भवाः पश्चसुतृतीयादिष्वष्टो भवाः कालोदेशेन च या यस्य स्थितिस्तत्संयोजनेन संवेधो वाच्यः पचेन्द्रियतिर्यग्भिर्मनुष्यैश्च सह द्वीन्द्रियस्यतथैव सर्वगमेष्वष्टावष्टौ च भवा वाच्या इति॥ भ०२४ श०१७ उ०। त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणां च यथातेइंदियाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति एवं तेइंदियाणं जहेव बेइंदियाणं उद्देसो णवरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा तेउक्काइएसु उववजइ समंतइओ गमो उक्कोसेणं अळूत्तराई बेइंदियसयाई बेइंदिएहिं समं तइयगमे उक्कोसेणं अडयालीसं संवच्छराई छण्णउइ-राइंदियसत्तममहियाइं तेइंदिएहिं समं तइयगमे उक्कोसेणं वाणुत्तराई तिण्णिराइंदियसयाई एवं सव्वत्थ जाणेज्जा जावसणिमणुस्संति। सेव भंते ! भंतेत्ति। चउरिदियाणं मंते ! क ओहिंतो उववजंति जहा ते इंदियाणं उद्देसओ तहा चरिंदियाणविणवरं ठिति संबेहं च जाणेजा सेवं भंते ! भंतेत्ति / (ठूि ति संवेहं च जाणेजति) स्थितिस्त्रीन्द्रियेषुत्पित्सना पृथिव्यादीनामायुः संबेधं च त्रीन्द्रियो रिपत्सुपृथिव्यादीनां त्रीन्द्रियाणां च स्थितेः संयोगं जानीयात् तदेव क्वचिद्दशयति Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 673 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय (तेइकाइएसु इत्यादि) तेजस्कायिकैः सार्द्ध त्रीन्द्रियाणां स्थितिसंबधस्तृतीयगमे प्रतीते उत्कर्षेण अष्टोत्तरे द्वे रात्रिंदिवशते / कथम् ? औधिक स्य तेजस्कायिकस्य चतुर्षु भवेषूत्कर्षेण व्यहोरात्रमानत्वाद्भवस्य द्वादशाहोरात्राणि उत्कृष्टस्थितेश्च त्रीन्द्रियस्योत्कर्षतः चतुषु भवेषु एकोनपञ्चाशन्मानत्वेन भवस्य शतं षण्णवत्यधिकं भवति, राशिद्वयमीलने चाऽष्टोत्तरे द्वे रात्रिंदिवशते स्यातामिति (बेइंदिएहीत्यादि अडयालीसं संवच्छराइत्ति) द्वीन्द्रियस्योत्कर्षतो द्वादशवर्षप्रमाणेषु चतुर्यु भवेष्वष्टचत्वारिंशत्संवत्सराः चतुर्वैव त्रीन्द्रियभवग्रहणेषूत्कर्षेणैकोनपक्षाशदहोरात्रमानेषु षण्णवत्यधिकं दिनशतं भवतीति / / तेइंदिएहीत्यादि / / (वाणउयाई तिणि राइंदियसयाई ति) अष्टासु त्रीन्द्रिय-भवेषूत्कर्षे णैकोनपञ्चाशदहोरात्रमानेषु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि भवन्तीति / (एवं सत्वत्थ जाणेज्जत्ति) अनेन चतुरिन्द्रियसज्ञितिर्यग्मनुष्यैः सह त्रीन्द्रियाणां सम्बेधः कार्य इति सूचितम्। अनेन च तृतीयगमसम्बेधदर्शनेनषष्ठादिगमसंबेधा अपि सूचिता द्रष्टव्याः / तेषामप्यष्टभविकत्वात् / प्रथमादिगमचतुष्कसंबेधस्तु भवादेशेनोत्कर्षतः संख्यातभवग्रहणरूपः कालादेशेन तु संख्यातकालरूप इति (चतुरिन्द्रियसूत्रस्य व्याख्या नास्ति) भ०२४ श०१८ उ०।। पञ्चेन्द्रियतिरश्चाम्। पंचिंदियातिरिक्खजोणिएणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं णेरइय०तिरिक्खमणुस्सदेवे हिंतो उववनंति ? गोयमा ! रइएहिंतो वि उववज्जति तिरिक्खमणुस्सदेवे हिंतो वि उववजंति / जइणेरइएहिंतो उववजंति किं रयणप्पभापुढविणेरइएहिंतो उववज्जंति जाव अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! रयणप्पभा पुढविणेरइएहिंतो उववजंति जाव अहे सत्तमाए पुढविणे रइएहितो वि उववज्जति रयणप्पभापुढविणेरइएणं मंते ! जे भविए तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णे णं अंतो मुहु त्तहितीएसु उक्को सेणं पुव्वकोडिआउएसु उववजेज्जा / तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया णवरं संघयणं पोग्गला अणिट्ठा अकंता जाव परिणमंति / ओगाहणा दुविहा पण्णत्ता तंजहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य / तत्थणं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइमागं उक्को सेणं सत्तधणुई तिण्णि रयणीओ छचंगुलाई / तत्थणं जा सा उत्तरवेउविया सा जहण्णेणं अंगुसस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरसधणुइं अट्ठाइजाओ रयणीओ। तेसिणं मंते ! जीवा सरीरगा किं संठिया पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता तंजहा भवधारणिज्जाय उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते इंडसंठिया। तत्थणं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुडसंठिया पण्णत्ता / एगा काउलेस्सा पण्णत्ता / चत्तारि समुग्घाया। णो इत्थीवेदगा णो पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा / ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं सागरोवमं / एवं अणुबंधोवि सेसं तहेव / भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं / कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुत्वकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं सो चेव जहण्णकालहितीएसु उववण्णो जहण्णे णं अंतोमुत्तद्वितीएसु उववजेज्जा उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तद्विती अवसेसं तहेव णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तहेव उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं अंतोमुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा ! एवं सेसावि सत्त गमगा भाणियव्वा जहेव णेरइयउद्देसए सण्णिपंचिंदियएण समं ऐरइयाणं मज्झिमएसु तिण्णि गमएणं पच्छिल्लएसु तिण्णि गमएसु ठितिणाणत्तं भवति से सं तंचे व सव्वत्थ ठिती संबे हं च जाणेजा / सक्करप्पभापुढवीणेरइएणं भंते ! जे भविए एवं जहा रयणप्पभाए णव गमका तहेव सक्करप्पभाएवि णवरं सरीरोगाहणा जहा ओगाहणा संठाणे तिणि णाणा तिण्णि अण्णाणा णियमं ठिती अणुबंधो य पुव्वभणिया एवं णव गमगा उवउंजिऊण भाणियव्वा एवं जाव छ? पुढवी णवरं ओगाहणा लेस्सा ठिती अणुबंधो संवेहो जाणियव्वा / अहेसत्तमा पुढवीणेरइएणं भंते ! जे भविए एवं चेव णव गमगा णवरं ओगाहणा लेस्सा ठिती अणुबंधा भाणियव्वा / संबेहो भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उकोसेणं छ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमभहियाई उको सेणं छावडिं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं / आदिल्लएसु छसु गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाईलद्धी णवसु वि गमएसु जहा पढमगमएसु णवरं ठिईविसेसो कालादेसेणं 1 विइयगमए जहण्णेणं बावीसं सागरावमाइं अंतोमुत्तमभहियाइं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहुत्तहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं 2 तइयगमए जहण्णेणं बावीस सागरोवमाई पुटवकोडीए अब्भहियाइं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइ तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइ। 3 / चउत्थगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई। 4 / पंचमगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमभहियाई उक्कोसेणं छावडिं सागरोवमाई तिहिं अतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई। 5 / छट्ठगमए जहण्णेणं बावीसं सागरावमाइं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 674 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाइं तिहिं पुष्वकोडीहिं अब्भहियाई 161 सत्तमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमन्महियाइं उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाइंदोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई / 7 / अट्ठमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाइं। 8 / णवमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुटवकोडीए अब्भहियाई उक्कोसेणं छावडिं सागरोवमाइं एवइयं जाव करेजा।।। (उक्कोसेणं पुवकोडी आउएत्ति) नारकाणामसङ्ख्यातवर्षायुष्केष्वनुत्पादादिति (असुरकुमाराणवत्तव्ययत्ति) पृथिवीकायिकेत्पद्यमानानामसुर कुमाराणां या वक्तव्यता परिमाणादिका प्रागुक्ता सेह नारकाणां पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्यमानानां वाच्या विशेषस्त्वयं नवरमित्यादि (जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं ति) उत्पत्तिसमया- / पेक्षमिदम् / उक्कोसेणं सत्तधणुई इत्यादि इदं च त्रयोदशप्रस्तटापेक्ष प्रथमप्रस्तटादिषु पुनरेवम्। 'रयणा ए पढमपयरे, इत्थतियं देहउस्सयं भणियं / छप्पणंगुलसड्ढा, पयरे पयरे य वुड्डी उ॥ 1 // उक्कोसेणं पण्णरसेत्यादि।। इयं च भवधारणीयावगाहनाया द्विगुणेति (समुग्घाया चत्तारित्ति) वैक्रियान्ताः / [सेसं तहेवत्ति] शेष दृष्ट्यादिकं तथैव यथा असुरकुमाराणां सो चेवेत्यादि द्वितीयो गमः (अवसेसं तहेवत्ति) यथौधिक गर्म (एवं से सावि सत्त गमगा भाणियध्वत्ति) एवमित्यनन्तरोक्तगमद्वयक्रमेण शेषा अपि सप्त गमा भणितव्या नन्वत्रैवं करणींद्यादृशी स्थितिर्जघन्यात्कृष्टभेदादाद्ययोर्गमयो रकाणामुक्ता तादृश्येव मध्यमेऽन्तिमे च गमत्रये प्राप्नोतीति / अत्रोच्यते (जहेव नेरइयउद्देसए इत्यादि) यथैव नैरयिकाद्देशकेऽधिकृतशतस्य प्रथमे संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्भिः सह नारकाणां मध्यमेषु त्रिषुगमेषु पश्चिमेषु च त्रिषु गमेषु स्थितिनानात्वं भवति तथैवेहापीति वाक्यशेषः (सरीरोगाहणा जाह ओगाहणा संठाणे त्ति) शरीरवगाहना यथा प्रज्ञापनाया एकविंशतितमे पदे सा च सामान्यत एवं 'सत्तधणु तिण्णिरयणी, छच्चे वय अंगुलाई उचत्तं / पढमाए पुढवीए, विउणा विउणं च सेसासुत्ति "1 (तिणि नाणा तिणि अण्णाणा नियमंति) द्वितीयादिषु सज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते ते च त्रिज्ञानास्त्र्यज्ञाना वा नियमाद्भवन्तीति। उक्कोसेणं छावट्ठीसागरोवमाई इत्यादि।॥३॥ इह भवानां कालस्य च बहुत्वं विवक्षितं तच जघन्यस्थितिकत्वे नारकस्य लभ्यते इति द्वाविंशतिसागरोपमा- | युरिको भूत्वा पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु पूर्वकोट्यायुर्जातः एवं वारत्रये षट्षष्टिसागरोपमाणिपूर्वकोटित्रयं च स्याद्यदि चोत्कृष्टस्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुरिको भूत्वा पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षुत्पद्यते तदा वारद्वयमेवैवमुत्पत्तिः स्यात्ततश्च षट्षष्टिः सागरोपमाणि पूर्वकोटिद्वयं च स्यात् तृतीया तु तिर्यग्भवपूर्वकोटी न लभ्यत इति नोत्कृष्टता भवाना कालस्य च स्यादिति उत्पादितो नारकेभ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः। अथ तिर्यग्योनिकेभ्यस्तमुत्पादयन्नाह। जदितिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिदियतिरिक्खजोणीहिंतो उववजंति एवं उववातो जहा पुढवीकाइयउद्देसए / जाव पुढवीकाइएणं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइकाल? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तहिइएसु उक्कोसेणं पुय्वकोडीआउएसु उवजंति तेणं भंते ! जीवा एवं परिमाणादीया अणुबंधपज्जवसाणा जच्चेव अप्पणो सहाणे वत्तव्वया सच्चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु वि उववजमाणस्स विभाणियव्वाणवरं णवसु वि एमएसु परिमाणो जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति भवादेसेण विणवसु गमएसु जहण्णेणं दो भवम्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई सेसं तं चेव कालोदेसेणं उभयतो ठिई पकरेजा। जदि आउक्काइएण विएवं जाव चउरिदिया उववातेयव्वो णवरं सव्वत्थ अप्पणो लद्धी भाणियव्वा णवसु विगमएसु भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवम्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई कालादेसेणं उभओठिति करेजा सव्वेसिं सव्वगमएसु जहेव पुढवीकाइएसु उववज्जमाणाणं लद्धी तहेव सव्वत्थ ठिइंसंबेहं च जाणेजा। जइपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति? गोयमा! सण्णिपंचिंदियभेदे जहेव पुढवीकाइएसु उववजमाणस्स जाव असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए पंचिदिय-तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकाल०? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागडिइएसु उववजंति / तेणं भंते ! अवसेसं जहेव पुढवीकाइएसुउववज्जमाणस्स असण्णिस्स तहेव णिरवसे सं जाव भवादेसोत्ति / कालादेसणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं पुव्वकोडी पुहुत्तमब्भहियं एवइयं / विइयगमए एस चेव लद्धी णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं चत्तारि पुय्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ एवइयं / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववज्जइ जहण्णेणं दो पलिओवमस्स असंखे जइभागट्ठिईएसु उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठितिं उववजंति / तेणं भंते ! जीवा एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स असण्णिस्स तहेव णिरवसेसं जाव कालादेसोत्ति णवर परिमाणं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववजंति सेसंत्तं चेव अप्पणा जहण्ण कालट्ठिईओ जाओ जहण्णेणं अंतोमुत्राट्ठिईएस उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएसु उववज्जंति तेणं भंते !अवसेसं जहा एयस्स पुढवीकाइएसु उववज्जमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु जाव अणुबंधोत्ति। भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई कालादेसे णं जहण्णेणं दो अंतोमु हुत्ता उक्को सेणं चत्तारि पुत्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ / सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 675 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय अंतोमुदत्ता उक्कोसेणं अट्ठ अंतोमुहुत्ता एवइयं सो चेव उक्कोसकालटिईएसु उववण्णो जहण्णेणं पुव्वकोडिआउएसु उक्कोसेण वि पुष्वको डिआउएसु उववजई एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जाणेजा। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ सो चेव पढमगमगवत्तव्वया णवरं ठिई से जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुवकोडी सेसं तं चेव / कालादेसेणं जहण्णे णं पुवकोडी अंतोमुहुत्तमभहिया उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियं एवइयं / सो चेव जहण्णकालद्वितीएस उववण्णो एस चेव वत्तव्वया जहा सत्तमगमए णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्यकोडी अंतोमुहुत्तमब्भहिया उक्कोसेणं चत्तारिपुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ एवइयं / सो चेव उन्कोसकालद्वितीएसु उववण्णो जहण्णेणं पलिआवमस्स असंखेज्जइभागं उकोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागं एवं जहा रयणप्पभाए जहण्णेणं उववजमाणस्स असण्णिस्स णवमं गर्म तहेव णिरवसेसं जाव कालादेसोत्तिणवरं परिमाणं जहा एतस्सेव ततियगमे सेसं तं चेव / जदि सण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजाणिएहिंतो उववज्जति किं संखेज्जवासा असंखेज्जवासाउय ? गोयमा ! संखेजवासा णो असंखेजवासा जदि संखेजवासाउय जाव किं पज्जत्तसंखेज० अपज्जतसंखेज० दोस वि। संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवति? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिपलिओवमहितीएसु उववजेजा / तेणं भंते ! अवसेसं जहा एयस्स चेव सणिस्स रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स पढमगमए णवरंओगाहणाजहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग उक्कोसेणं जोअणसहस्सं सेसं तं चेव जाव भवादेसो, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइंपुष्वकोडी पुहुत्तमब्भहियाईएवइयं कालं। सा चेव जहण्णकालद्वितीएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेण जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडिओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ / सो चेव उक्कोसकालट्ठितीएसु उववण्णोजहण्णेणं तिपलिओवमद्वितीएसु उक्कोसेण वि तिपलिओवमद्वितीएसु उववजंति। एसचेव वत्तव्वया णवरं परिमाणं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववजंति / ओगाहणा जहण्णे णं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग उक्कोसेणं जोअणसहस्सं सेसं तं चेव जाव अणुबंधोत्ति। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीए अब्भहियाई / सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्वितीओ जाओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुटवकोडी आउएसु उववज्जंति लद्धी से जहा एतस्स चेव सण्णिपंचिंदियस्स पुढवीकाइएसु उववजमाणस्स मज्झिल्लएसु तिसु गमएसु सव्वेव इहवि मज्झिमेसु तिसु गमएसु कायव्वा संबेहो जहेव एत्थ चेव असण्णिमज्झिमेसु तिसुगमएसु सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जाओ जहा पढमगमएसु णवरं ठिती अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेण वि पुव्वकोडी कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई पुष्वकोडी पुदुत्तमब्भहियाइं, सो चेव जहण्णकालट्ठिइएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी अंतोमुत्तमभहियाई उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्ते हिं अब्भहियाओ / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्ठिईएसु अवसेसं तं चेव णवरं परिमाणं ओगाहणा जहा एतस्सेव तइयगमए भवादेसेणं दोभवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तिणि पलिओवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई उक्कोसेणवि तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडीए अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा / जइ मणुस्सेहिंतो उववजंति किं सण्णिमणुस्सेहितो असण्णिमणुस्से ? गोयमा ! सण्णिमणुस्सेहितो असण्णिमणुस्से। असण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएसु उववजंति लद्धी से तिसु वि गमएसु जहेव पुढवीकाइएसु उववज्जमाणस्स संबेहो जहा एत्थ- चेव असण्णिस्स पंचिंदियस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं / जदि सण्णिमणुस्स ०किं संखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्स असंखेज वासाउय०? गोयमा ! सण्णिमणुस्ससंखेन्जवासाउय णो असंखेज्जवासाउय / जइसंखेज्जवासा कि पजत्तसंखेजवासा अपपजत्तसंखेजवासा? गोयमा ! पजत्तसंखेजवासा अपज्जत्तसंखेज्जवासा / सण्णि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख० जाव उवबञ्जित्तए सेणं भंते ! केवइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमट्टिईएसु उववज्जति तेणं भंते ! लद्धी जहा एतस्से व सण्णिमणुस्सपुढवीकाइएसु उववजमाणस्स पढ मगमए जाव भवादेसोत्ति / कालादे से णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई पुव्वकोडीपुहुत्तममहियाई सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो सव्वेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुत्ता उकोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्ते हिं अब्भहियाओ। सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जह Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 676 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय पणेणं तिण्णि पलिओवमट्टिईएस उक्कोसेण वि तिण्णि पलिओवमट्टिईएसु सव्वेव वत्तव्वया णवरं आगाहणा जहण्णणं | अंगुलपुहुत्तं उक्कोसेणं पंचधणुहसयाई ठिई जहण्णेण मासपुहुत्तं | उक्कोसेणं पुव्वकोडी एव अणुबंधो वि भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइं मासपुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं पुत्वकोडीए अमहियाई एवइयं जाव करेजा / सो चेव अप्पणा जहण्णकालटिईओ जाओ जहा सण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववञ्जमाणस्स मज्झिमेसु तिसुगमएसु वत्तव्वया भाणिया सव्वेव एयस्स वि मज्झिमएसुतिसु गमएस णिरवसेसा भणिया णवरं परिमाणं उक्कोसेणं संखेजावा उववज्जंति सेसंतं चेव। सो चेव अप्पणा उक्कोसकालटिईओ जाओ सय्वेव पढमगमगा | वत्तव्वया णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंच धणुहसयाई उक्कोसेण विपंचधणुहसयाइंठिई अणुबंधो जहण्णण पुवकोडी उक्कोसेण वि पुवकोडी सेसं तं चेव जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्दकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं एवइयं जाव करेज्जा सो चेव जहण्णजालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं | कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तमब्महिया उक्कोसेणं | पुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ सो चेव | उकोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई उकोसेणवि तिण्णि पलिओवमाई एस चेव लद्धी जहे व सत्तमगमए / भवादेसेणं दो भवग्गहणाइंकालादेसेणं जहण्णेणं / तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडीए अमहियाइं उक्कोसेण वि तिपिण पलिओवमाइं पुटवकोडीए अमहियाई उक्कोसेण | जइ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववजंति वाणमंतरजोइसिय-वेमाणियदेवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि उववज्जति जाव वेमाणियदेवेहिंतो वि उववज ति / जइ भवणवासिदेवे हिंतो उववजंति किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहिंतो उववखंतिजाव थणियकुवमारभवणवासि०? गोयमा ! असुरकुमार भवण जाव थणियकुमारभवणवासि० असुरकुमारेणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते! केवइय.? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तहिईएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडिटिईएसु उववजेजा असुरकुमाराणं लद्धी णवसु वि गमएसु जहा पुढवीकाइएसु उववज्जमाणस्स एवं जाव ईसाणस्स देवस्स तहेव लद्धी भवादेसेणं सव्वत्थ अट्ठ भवग्गहणाइं उक्कोसेणं जहण्णेणं दोण्णिं ठितिं संबेहं च जाणेजा। णागकुमाराणं भंते ! जे भविए एस चेव वत्तव्वया णवरं ठिति संबेहं च जाणेजा। एवं जाव थणियकुमारे जइ वाणमंतरेहिंतो उववजंति किं पिसायवाणमंतरे तहेव जाव वाणमंतरेणं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख० एवं चेव णवरं / ठितिं संबेहं च जाणज्जा। जई जोइसिय० उववाओ तहेव जाव जाइसिएण भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख एस चेव वत्तव्वया जहा पुढवीकाय उद्देसए भवग्गहणाई णव वि गमएसु अट्ट जाव कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवम अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं चउहिं य वाससयसहस्सेहिं / अब्भहियाईएवइयं जावगतिरागतिं करेजा। णवसु गमएसु णवरं ठिति संबेहं च जाणेजा। जइवेमाणियदेव० किं कप्पोववण्णगवे० कप्पातीता ? गोयमा ! कप्पोववण्णगवेमाणिया णो कप्पातीता वेमाणिया। जइ कप्पोववण्णगजाव सहस्सारकप्पोववण्णग-वेमाणियादेवेहिंतो उववजंति णो आणय० जाव णो अचुयक प्पोववण्णगवे माणिया / सोहम्मगदेवाणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख जाव उववञ्जित्तए सेणं भंते ! के वइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएसु सेसं जहेव पुढवीकाइयउद्देसए णवसु वि गमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई ठितिं कालादेसं च जाणेज्जा एवं ईसाणदेवे वि। एवं एएणं कमेणं अवसेसा जाव सहस्सारो देवेसु उववातेयत्वो णवरं ओगाहणा जहा ओगाहणा संठाणे लेस्सासणकुमार-माहिंदबंभलोएस एगा पम्हलेस्सा सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा वेदे णो इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा णो णपुंसगवेदगा। आउअणुबंधा जहा ठिइपदे सेसं जहेव ईसाणगाणं कायसंवेहं च जाणेजा। सेवं भंते ! भंते ! त्ति।। (जचेव अप्पणो संठाणे वत्तव्वयत्ति / ) यैवात्मनः पृथिवीकायिकस्य स्वस्थाने पृथिवीकायिकलक्षणे उत्पद्यमानस्य वक्तव्यता भणिता सैवात्रापि वाच्या केवलं तत्र परिमाणद्वारे प्रतिसमयमसंख्येया उत्पद्यन्ते इत्युक्त मिह त्वेकादिरित्येतदेवाह नवरमित्यादि / तथा पृथिवीकायिकेभ्यः पृथिवीकायिकस्योत्पद्यमानस्य सम्बधद्वारे प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमगमेषूत्कर्षतोऽसंख्यातानि भवग्रहणान्युक्तानि शेषेषु त्वष्टौ भवग्रहणानि इह पुनरष्टावेव नवस्वपीति। तथा (कालादेसेणं उभयओ ठिईए करेजत्ति) कालादेशेन सम्बेधं पृथिवीकायिकस्य सज्ज्ञिपचे न्द्रियतिरश्चश्च स्थित्या कुर्यात् तथाहि-प्रथमे गमे (कालएसेण जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ताइंति) पृथिवीसत्कं पञ्चेन्द्रियसत्कं चेति उत्कर्षतोऽष्टाशीतिवर्षसहस्राणि पृथिवीसत्कानि चतस्रश्च पूर्वकोट्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सत्का एवं शेषगमेष्वप्यूह्यः सम्बेध इति (सव्वत्थअप्पणो लद्धी भाणियव्वत्ति)। सर्वत्राप्कायिकादिभ्यश्चतुरिन्द्रियान्तेभ्यः उगतानां पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पादितानाम् / (अप्पणोत्ति) अप्कायादिसत्का लब्धिः परिमाणादिका भणितव्या सा च प्राक्तनसूत्रेभ्याऽवगन्तव्या। अथानन्तरोक्तमेवार्थ स्फुटतरमाह "जहेव पुढविकाइएसु उववजमाणाणमित्यादि" यथा पृथिवीकायिकेभ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्यमानानां जीवानां लब्धिरुक्ता तथैवाप्कायिकादिभ्यश्चतुरिन्द्रियान्तभ्य उत्पद्यमानानांसा वाच्येति असज्ञिभ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यगुत्पादाधिकारे। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 977 अमिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय (उक्को सेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागट्ठिईएसुत्ति ) अनेनासज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामसंख्यातवर्षायुष्केषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षुत्पतिरुक्ता (अवसेसं जहेवेत्यादि) अवशेष परिमाणादिद्वारजातं यथा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यमानस्यासज्ञिनः पृथिवीकायिकोद्देशकेऽभिहितं तथैवासज्ज्ञिनः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षुत्पद्य-मानस्य वाच्यमिति (उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेजइभागं पुव्वकोडिपहत्तमब्भहियंति) कथमसझी पूर्वकोट्यायुष्कः पूर्वकोट्यायुष्केष्केव पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पन्न इत्येवं सप्तसु भवग्रहणेषु सप्त पूर्वकोट्योऽष्टमभवग्रहणे तु मिथुनकतिर्यक्षु पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणायुष्केषूत्यन्न इति, तृतीय गमे (उक्कासण सखेज्जा उववजंति त्ति) असंख्यातवर्षायुषांपञ्चेन्द्रियतिरश्चामसंख्यातानामभावादिति। चतुर्थगमे (उक्कोसेणं पुव्वकोडिआउएसुउववजेजति) जघन्यायुरसञी संख्यातायुष्केष्वेव पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्पद्यत इति कृत्वा पूर्वकोट्यायुष्केष्वित्युक्तम् / अवसेसं जहा एयस्सेत्यादि।। इहावशेष परिमाणादि एतस्यासज्ञितिर्यक् पञ्चेन्द्रियस्य (मज्झिमे सुत्ति) जघन्यस्थितिकगमेषु एवं जहा रयणप्पभाए इत्यादि तच संहननोचत्वादि अनुबन्धसंबेधान्तं नवरं परिमाणमित्यादि। तचेदं [उक्कोसेणं संखेजा उववज्जतित्ति] अथ सज्ञिपश्शेन्द्रियेभ्यः सज्ञिपोन्द्रियतिर्यश्चमुत्पादयन्नाह "जदि सण्णीत्यादि' (अवसेसं जहा एयस्य चेव सण्णिस्सत्ति) अवशेषं परिमाणादि तथैतस्यैव सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्च इत्यर्थः केवलं तत्रावगाहना सप्तधनुरित्यादिकोक्ता इह तूत्कर्षतो योजनसहस्रमाना सा च मत्स्यादीनाश्रित्यावसे येति / एतदेवाह नवरमित्यादि (उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुथ्वकोडीपुहुत्तमभहियाइंति) अस्य च भावना प्रागिवेति / / लद्धी से जहा एयस्स चेवेत्यादि / एतच्च तत्सूत्राऽनुसारेणैवावगन्तव्यम् / संबेहो जहेवेत्यादि (एत्थचेवत्ति) अत्रैव पञ्चेन्द्रियतिर्यगुद्देशके सचैवं भवादेशेन जघन्यतोद्वौ भवी उत्कृष्टतस्त्वष्ट भवाः कालादेशेन जघन्येन द्वे अन्तर्मुहूर्ते उत्कर्षतश्चतस्रः पूर्वकोट्योऽन्तर्मुहूर्तचतुष्काधिका एवं जघन्यस्थितिकः औधिकेष्वित्यत्र संबेधो जघन्यस्थितिको जघन्यस्थितिकेष्वित्यत्र चान्तर्मुहतः संबेधः जघन्यस्थितिक उत्कृष्टस्थितिकेष्वित्यत्र पुनरन्तर्मुहूर्तः पूर्वकोटीभिश्च संबेध इति / नवमगमे नवरं परिमाणमित्यादि / तत्र परिमाणमुत्कर्षतः संख्याता उत्पद्यन्ते, अवगाहना चोत्कर्षतो योजनसहरमिति / अथ मनुष्येभ्यस्तमुत्पादयन्नाह जइ मणुस्सेहिंतो इत्यादि (लद्धी से तिसु वि गमएसुत्ति) लब्धिः परिमाणादिका। (से) तस्यासज्ञिमनुष्यस्य त्रिष्वपिगमेष्वाद्येषु यतो नवानां गमानां मध्ये आधा एवेह त्रयो गमाः सम्भवन्ति, जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोऽपि चान्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वात्तस्येति / (एन्थचेवत्ति) अत्रैव पञ्चेन्द्रियतिर्यगुद्देशकमसज्ज्ञि पश्चेन्द्रियतिर्यग्भ्यः पोन्द्रियतिर्यगुत्पादाधिकारे (नो असंखेज्जवासाउएहिंतोत्ति) असंख्यातवर्षायुषो मनुष्या देवेष्वेवोत्पद्यन्ते न तिर्यक्ष्विति लद्धी से इत्यादि लब्धिः परिमाणादिप्राप्तिः / (से) ,स्य सज्ज्ञिमनुष्यस्य यथैतस्यैव सञ्ज्ञिमनुष्यपृथिवीकायिकेपूत्पद्यमानस्य प्रथमगमेऽभिहिता, सा चैवं परिमाणतो जघन्येनैको द्वौ योत्कर्षेण तु संख्याता एवोत्पद्यन्ते स्वभावतोऽपि संख्यातत्वात्सज्ज्ञिमनुष्याणां तथा षड्विधसंहनिनः उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतावगाहनाः षड्विधसंस्थानिनः षट् लेश्याः त्रिविधा दृष्टयः भजनया चतुर्ज्ञानास्त्र्यज्ञानाश्च त्रियागाः द्विविधोपयोगाश्चतुःसंज्ञाः चतुष्कषायाः, पञ्चेन्द्रियाः, षट्समुद्धाताः, सातासातवेदनास्त्रिविधा वेदाः जघन्येनान्तर्मुहूर्तस्थितयः उत्कर्षेण तु पूर्वकोट्यायुषः प्रशस्तेतराध्यवसानाः / स्थितिः समानानुबन्धा, कायसंबेधस्तु भवादेशेन जघन्यतो द्वौ भवौ उत्कर्षतोऽष्टौ भवाः कालादेशेन तु लिखित एवास्ते। 1 / [द्वितीयगमे सचव वत्तव्वयत्ति] प्रथमगमोक्ता केवलमिह संबेधकालादेशेन जघन्यतो दे अन्तर्मुहूर्ते उत्कर्षतश्चतस्त्रः पूर्वकोट्यश्चतुरन्तर्मुहूर्ताधिकाः तृतीयेऽप्येवं नवरम् [ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहत्तत्ति] अनेने दमवसितमङ्गुलपृथक्त्वाद्धीनतरशरीरो मनुष्यो नोत्कृष्टायुष्केषु तिर्यक्षुत्पद्यते, तथा (मासपुहुत्तंति) अनेनापि मासपृथक्त्वाद्धीनतरायुष्को मनुष्यो नोत्कृष्टस्थितिषु तिर्यक्षुत्पधत इत्युक्तं "जहा सन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्सेत्यादि" सर्वथेह समता परिहारार्थमाहा नवरं परिमाण मित्यादि।तत्र परिमाणद्वारे उक्कर्षतोऽसंख्येयास्ते उत्पद्यन्त इत्युक्तमिहतु सज्ञिमनुष्याणां संख्येयत्वेन संख्येया उत्पद्यन्त इति वाच्यम्। संहननादिद्वाराणि तु यथा तत्रोक्तानि तथेहावगन्तव्यानि तानि चैवं तेषां षट् संहननानि, जधन्योत्कर्षाभ्यामकुलासंख्येयभागमात्राऽवगाहना, षट् संस्थनानि, तिस्रालेश्याः मिथ्यादृष्टी द्वे अज्ञाने कायरूपोयोगो द्वावुपयोगौ, चतस्त्रः संज्ञाश्चत्वारः कषायाः पञ्चेन्दियाणि, त्रयः समुद्धाता द्वे वेदने त्रयो वेदा जघन्योत्कर्षाभ्यामन्तर्मुहुर्तप्रमाणमायुरप्रशस्तान्यध्यवसायस्थानान्यायुः समानोऽनुबन्धकायसंबेधस्तत्रभवादेसेणंजघन्येन द्वे भवग्रहणे उत्कर्षतस्त्वष्टौ भवग्रहणानि कालादेशेन तुसज्ञिमनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यस्थित्यनुसारतोऽवसेय इति / अथ देवेभ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चमुत्पादयन्नाहजइदेवेहीत्यादि [असुरकुमाराणलद्धीति] असुरकुमाराणां लब्धिः परिमाणादिका [एवं जाव ईसाणदेवस्सत्ति] यथा पृथिवीकायिकेषु देवस्यात्पत्तिरुक्ता असुरकुमारादावीशानकदेवं चान्ते कृत्वैवं तस्य पशेन्द्रियतिर्य क्षु सा वाच्या, ईशानकान्त एव च देवः पृथिवीकायिकेषूत्पद्यत इति कृत्वा यावदीशानकदेवस्येत्युक्तम् असुरकुमाराणां चैवं लब्धिरेकाद्यसंख्येयान्तानां तेषां पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु समयेनोत्पादः। तथा संहननाभावःजघन्यतोऽडलासंख्येयभागमानोत्कर्षतः सप्तहस्तमाना भवधारणीयावगाहना इतरा तु जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागमाना, उत्कर्षतस्तु योजनलक्षमाना संस्थानसमचतुरसम, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु नानाविधं चतस्रो लेश्यारित्रविधा दृष्टिः त्रीणि ज्ञानान्यवश्यमज्ञानानि च भजनया, योगादीनि पञ्च पदानि प्रतीतानि समुद्धाता आद्याः पञ्च वेदना द्विविधो वेदो नपुंसक वजः स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि जघन्येतरा तु सातिरेकं सागरोपमं शेषद्वारद्वयं तु प्रतीतं सामान्यत आहभवादेसेणं सव्वत्थेत्यादि / नागकुमारादिवक्तव्यता तु सूत्रानुसारेणोपयुज्य वाच्या [ओगाहणा जहा ओगाहणा संठाणे ति] अवगाहना यथा अवगाहनासंस्थाने प्रज्ञापनाया एकविंशतितमे पदे तत्र चैवं देवानामवगाहना "भवणवणजोइसी, सोहम्मीसाणे सत्त हुंति रयणीओ। एक्कक्कहाणिसेसे, दुदुगेय दुगे चउक्केये" त्यादि / / 1 / / [जहाठितिपएत्ति] प्रज्ञापनायाश्चतुर्थपदे स्थितिश्च प्रतीतैवेति। मनुष्याणाम्मणुस्साणं मंते ! क ओहिंतो उववजंति ? गोयमा ! णेरइएहिंतो वि उववजंति जाव देवे हिंतो वि उववज्जति एवं उववातो जहा पंचिदिंयतिरिक्खजोणिए उद्देसए जाव तमा पुढवी णेरइएहिंतो वि उववज्जंति णो अहे सत्तसमाए पुढविणे रइएहिं तो उववति / रयणप्पभापुढ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 678 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय वी णेरइयाणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजंति से णं भंते! | पंचिंदियतिरिक्खजोणयिउद्देसए वत्तव्यया सा चेव एत्थ वि के वइयकाल० ? गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहुत्तहिईएसु भाणियब्वा णवरं जहा तहिं जहण्णगं अंतोमुहुत्तट्ठिईएसु तहा उक्कोसेणं पुटवकोडी आउएसु अवसेसा वत्तटवया जहा इह वि मासपुहुत्तट्ठिईएसु परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिएसु उववजंति तहेव णवरं परिमाणं तिणि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववजंति सेसं तं चेव जाव जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा ईसाणदेवोत्ति / एयाणि चेव णाणत्ताणि सणंकुमारादीया जाव उववजंति जहा तहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इह मासपुहुत्तेहिं संबेहं सहस्सारोत्ति जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणियउद्देसए णवरं च करेजा सेसं तं चेव जहा रयणप्पभाए वत्तट्वया तहा परिमाणं जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा सक्करप्पभाएवि णवरं जहण्णेणं वासपुहुत्तट्ठिईएसु उक्कोसेणं वा उववजंति। उववातो जहण्णेणं वासपुहुत्तट्ठिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडी ओगाहणा लेस्सा णाणहिई अणुबंधसंदेहं णाणत्तं च | पुत्वकोडी आउएसु उववचंति सेसं तं चेव संबेहं जाणेजा जहेव तिरिक्खजोणियउद्देसए एवं जाव तमा मासपुहुत्तपुटवकोडीसु करेज्जा / सणंकुमारहिई चउगुणिया पुढवीणेरइए। जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? किं अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, माहिंदे ताणि चेव सातिरेगाणि। एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति जाव पंचिंदियति- बंभलोए चत्तालीसं लंतए छप्पणं महासुक्के अट्ठसर्टि सहस्सारे रिक्खजोणिएहिंतो उववजंति गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिए वावत्तरिं सागरोवमाइं एसा उक्कोसा ठिई भणिया जहण्णट्ठितिं भेदो जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिसउद्देसए णवरं तेऊ वाऊ पि चउगुणेजा / आणयदेवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु पडिसेहेयव्वा सेसंतं चेव जाव पुढविकाइएणं भंते ! जे भणिए उववज्जित्तए सेणं मंते ! के वइ कालट्ठिईएसु ? जहण्णेणं मणुस्सेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइ०? गोयमा ! जहण्णेणं वासपुहुत्तट्ठिईएसु उववज्जेज्जा उक्कोसेणं पुव्वकोडिटिईएसु। तेणं अंतोमुहुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडी आइएसु उववजिज्जा। भंते ! एवं जहेव सहस्सारो देवाणं वत्तव्वया णवरं ओगाहणा तेणं भंते ! जीवा एवं जहेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु ठिति अणुबंधं जाणेज्जा सेसं तं चेव / भवादेसेणं जहण्णेणं दो उववजमाणस्स पुढवीकाइयवत्तवया सवेव इह वि भवग्गहणाई उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं उववजमाणस्स णवसु विगमएसुणवरं तइयछट्टणवमेसु गमएस अट्ठारससागरोवमाई वासपुहुत्तमभहियाइं उक्कोसेण्णं परिमाणं जहण्णणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा सत्तावण्णं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं वा उववजंति जहेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ तहेव कालं सेवेजा। एवसं णववि गमगा णवर ठिई अणुबंधसंबेहं च पढमगमए अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि। विइयगमए जाणेज्जा एवं जाव अचुयदेवे णवरं ठिई अणुबंधसंबेहं च अप्पसत्था तइयगमए पसत्था भवंति सेसं तं चेव णिरवसेसं। जाणेजा। पाणयदेवस्स ठिई तिगुणा सहिँ सागारोवमाई जइ आउकाइए एवं वाउकाइएण वि एवं वणस्सइकाइएण वि आरणस्स तेवढेि सागारोवमाइं अचुयस्स छावर्टि सागरोवमाई एवं जाव चउरिंदियाणं असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया जइ कप्पातीतवेमाणिय देवे हिंतो उववजंति किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया असण्णिमणुस्सा गेवेजगकप्पातीतदेवे हिंतो उववजंति अणुत्तरोववाइयसण्णिमणुस्सा एए सव्वेवि / जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिय- कप्पातीतवेमाणियदे वे हिंतो उववजंति ? गोयमा ! उद्देसए तहेव भाणियवा णवरं एताणि चेव परिमाणं गेवेगकप्पातीत अणुत्तरोववाइयवेमाणिय० / जइ अज्झवसाणणाणत्ताणि जाणिज्जा / पुढवीकाइयस्स एत्थ चेव गे विजगकप्पातीतवेमाणियदेवे० किं हेट्ठिमगेवे जग उद्देसए मणियाणि सेसंतहेव णिरवसेसं। जइ देवेहिंतो उववजंति कप्पातीतवेमाणिय० जाव उवरिम 2 गेवेज्जग० गोयमा ! किं भवणवासिदेवेहिंतो उववजंति वाणमंतरभोइसियवेमाणि- हेट्टिमहे हिमगेविज्जगकप्पातीत जाव उवरिम 2 गेवेजगयदेवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो वि कप्पातीत०। गेवेज्जगदेवेणं भंते! जे भविएमगुस्से सू उववज्जित्तए उववजंति जाव वेमाणियदेवे हिंतो वि उववजंति / जइ सेणं भंते ! केवइयकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! जहण्णेणं भवणवासिदेवेहिंतो उववजंति किं असुरकुमारभवणवा- वासपुहुत्तट्ठिईएसु उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउएसु उववज्जेज्जा सिदेवेहिंतो उववजंति जाव थणियकुमारभवणवासि०? अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तव्वया णवरं ओगाहणा एगे गोयमा! असुरकु मारभवणवासि० जाव थणियकुमार भवधारणिजसरीरए से जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उववखंति / असुरकुमारेणं मंते ! जे भविएमणुस्सेसु उववज्जित्तए उक्कोसेणं दो रयणीओ संठाणं एगे भवधारणिज्जसरीरए से से णं भंते ! के वइयकालट्ठिईएसु ? गोयमा ! जहण्णेणं समचउरंससंठाणसंठिए, पंच समुग्धाया पण्णत्ता तं जहा मासपुहुत्तट्ठिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडि आउएसु एवं जा चेव / वेयणासमुग्धाए जाव तेयगसमुग्धाए ! णो चेव णं वेउव्वियतेय Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 676 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय गसमुग्घाएहिं समोहाणिंसु वा समोहणंति वा समोहणिस्संति वा ठिति अणुबंधा जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई सेसं तं चेव कालादेसेणं वावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं तेणउत्ति सागरोवमाइं तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं एवं सेसेसु वि अट्ठमगमएसु णवरं ठिती संवहे च जाणेजा जइ अणुत्तरोववाइयकप्पातीत-वेमाणियदेवेहिंतो उववजं ति किं विजयअणुत्तरोववाइयवेमाणिय० वेजयंतअणुत्तरोववाइय जाव सव्वट्ठसिद्धगअणुत्तरोववाइयकप्पा-तीत०? गोयमा ! विजयअणुत्तरोववाइयक प्पातीत जाव सटवट्ठसिद्धगअणुत्तरोववाइय। विजयवेजयंतजयंतअपराजिदेवेण भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते ! केवइकालट्ठिइएसु एवं जहेव गेवेजगदेवाणं णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग उक्कोसेणं एगारयणी सम्मट्ठिीणो मिच्छट्ठिी णो सम्मामिच्छट्टिी णाणी णो अण्णाणी णियमंतिण्णाणी तं जहा-आभिणिवोहियणाणीसुअणाणी ओहिणाणी ठिईजहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई सेसं तं चेव भवादेसेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाइं कालादेसेणं जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाइं एवइयं जाव करेजा / एवं सेसा वि / अट्ठ गमगा भाणियव्वा, णवरं ठिईअणुबंधसंवेहं च जाणेजा। सेसं तं चेव सव्वट्ठसिद्धगदेवेणं भंते ! जे भविए मणुए सम्वेव विजयादिदेववत्तव्वया भाणियव्वा णवरं ठिई अजहण्णमणुकोसं तेत्तीसं सागरोवमाइं एवं अणुबंधो वि सेसं तं चेव भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमन्भहियाई उक्कोसेणं तेत्तीसंसागरोवमाइंपुव्वकोडीए अमहियाई एवइयं जाव करेज्जा सो चेव जहण्णकालट्ठिईएस उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीस सागरोवमाइं वासपुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तममहियाइं सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुटवकोडिए अब्भहियाइं उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अमहियाइं एवइयं एए चेव तिण्णि गमा सेसा णं भण्णइ, सेवं भंते भंतेत्ति / / [जहण्णेणं मासपुहुत्तट्टिइएसुत्ति] अनेनेदमुक्तं रत्नप्रभानारका जघन्यं मनुष्यायुर्बघ्नन्तो मासपृथक्त्वाद्धीनतरं न बघ्नन्ति तथाविधपरिणामाभावादित्येवमन्यत्रापि कारणं वाच्यं, तथा परिमाणद्वारे (उक्कोसेणं संखेजा उववजंतित्ति) नारकाणां सम्मूछिमेषु मनुष्येषूत्पादाभावाद्गर्भजानां च सङ्ख्यातत्वानतिवर्तित्वात्संख्याता उत्पद्यन्त इति (जहा तहिं अंतो मुहुत्तेहिं तहा इदं मासपुहुत्तेहिं संबेहं करेज्जत्ति) यथा तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यगुद्देशके रत्नप्रभानारकेभ्यः उत्पद्यमानानां पञ्चेन्द्रिय- तिरश्चां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वादन्तर्मुहूर्ते : सम्बेधः कृतः तथेह मनुष्योद्देशके मनुष्याणा जघन्यस्थितिमाश्रित्य मासपृथक्त्वैः सम्बेधः कार्य इति भावः तथाहि "कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमभहियाई इत्यादि' शर्क राप्रभादि-वक्तव्यता तु पञ्चेन्द्रियतिर्यगुद्देशकानुसारेणावसेयेति / अथ तिर्यग्भ्यो मनुष्यमुत्पादयन्नाहजइतिरिक्खत्यादि इह पृथिवीकायादुत्पद्यमानस्य पञ्चेन्द्रियतिरश्चो या वक्तव्यतोक्ता सैव तत उत्पद्यमानस्य मनुष्यस्यापि एतदेवाहएवं जचेवेत्यादि विशेषं पुनराह-नवरं 'तइएत्यादि' तत्र तृतीये औधिकेभ्यः पृथिवीकायिकेभ्यः उत्कृष्टस्थितिषु मनुष्येषु ये उत्पद्यन्ते उत्कृष्टतः सङ्ख्याता एव भवन्ति, यद्यपि मनुष्याः सम्मूञ्छिमसंग्रहादसङ्ख्याता भवन्ति तथाप्युत्कृष्टस्थितयः पूर्वकोट्यायुषः संख्याता एव पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्वसंख्याता अपि भवन्तीति, एवं षष्ठे नवमे चेति 'जाहेअप्पणेत्यादि' अयमर्थो मध्यमगमानां प्रथमगमे औधिकेषूत्पद्यमानतायामित्यर्थः / अध्यवसानानि प्रशस्तानि उत्कृष्टस्थितिकत्वेनोत्पत्तावप्रशस्तानि च जघन्यस्थितिकत्वेनोत्पत्तौ (वीयगमएत्ति) जघन्यस्थितिकस्य जघन्यस्थितिषूत्पत्तावप्रशस्तानि प्रशस्ताध्यवसानेभ्यो जघन्यस्थितिकत्वेनानुत्पत्तेरित्ति, एवं तृतीयोऽपि वाच्यः / अप्कायिकादिभ्यश्च तदुत्पादमतिदेशेनाहएवम् आउक्काइयाणवीत्यादिदेवाधिकारेएवं जाव ईसाणो देवोत्तियथा असुरकुमारा मनुष्येषु पोन्द्रियतिर्यग्यो निकोद्देशकवक्तव्यता अतिदेशेनोत्पादिता एवं नागकुमारादय ईशानान्ता उत्पादनीयाः समानवक्तव्यत्वाद्यथा च तत्र जघन्यस्थितेः परिमाणस्यच नानात्वमुक्तं तथैतेष्वप्यत एवाह-''एयाणि चेव नाणताणित्ति" सनत्कुमारादीनां तु वक्तव्यतायां विशेषोऽस्तीति तां भेदेन दर्शयति सणंकुमारेत्यादि (एसा उक्कोसहिई भणियत्ति) यदा औधिकेभ्य उत्कृष्टस्थितिकेभ्यश्च देवेभ्य औधिकादिमनुष्येषूत्पद्यते तदोत्कृष्टा स्थितिर्भवति सा चोत्कृष्टसंबेध-विवक्षायां चतुर्भिर्मनुष्यभवैः क्रमेणान्तरिता क्रियते ततश्च सनत्कुमारादिदेवानामष्टाविंशत्यादिसागरोपममाना भवति सप्तादिसागरोपमप्रमाणत्वात्तस्या इति / यदा पुनर्जघन्यस्थितिकदेवेभ्य औधिकादिमनुष्येषूत्पद्यते तदा जघन्यस्थितिर्भवति सा तथैव चतुर्गुणिता सनत्कुमारादीनामष्टादिसागरोपममाना भवति व्यादिसागरोपममानत्वात्तस्या इति / आणयदेवेणमित्यादि उक्कोसेणं छब्भवग्गहणाइति / / त्रीणि दैविकानि त्रीण्येव क्रमेण मनुष्यसत्कानीत्येवं षट् कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइंति] आनतदेवलोके जघन्यस्थितेरेवंभूतत्वात् [उक्कोसेणं सत्तावणं सागरोवमाइंति] आनते उत्कृष्टस्थितेरेकोनविंशतिसागरोपमप्रमाणाया भवत्रयगुणनेन सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि भवन्तीति, ग्रैवेयकाधिकारे [एगेमवधारणिजए सरीरेत्ति] कल्पातीतदेवानामुत्तरवैक्रियं नास्तीत्यर्थः "नोचेवणं वेउव्विएत्यादि"प्रैवेयकदेवानामाद्याः पञ्च समुद्धाता लब्ध्यपेक्षया सम्भवन्ति, केवलं वैक्रियतैजसाभ्यां न ते समुद्धातं कृतवन्तः कुर्वन्ति करिष्यन्तिवा प्रयोजनाभवादित्यर्थः [जहणणेणं वावीसं सागरोवमाइंति] प्रथमग्रैवेयके जघन्येन द्वाविंशतिस्तेषां भवति एक्कोसेणं एक्कतीसंति ] नवग्रैवयके उत्कर्षत एकत्रिंशतामिति [ए Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 980 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय कोसेणं तेण उतिसागरोवमाई तिहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाइ ति उत्कृष्टतः षड् भवग्रहणानि ततश्च त्रिषु देवभवग्रहणेषूत्कृष्टस्थितिषु तिसृभिः सागरोपमाणामेकत्रिंशद्भिः त्रिनवतिस्तेषां स्यात् त्रिभिश्चोत्कृष्टमनुष्यजन्मभिस्तिस्रः पूर्वकोट्यो भवन्तीति सर्वार्थसिद्धिकदेवाधिकारेआद्या एव त्रयोगमा भवन्ति सर्वार्थसिद्धिकदेवानां जघन्यस्थितरेभावान्मध्यम गमत्रयं न भवत्युत्कृष्टस्थितेरभावाचान्तिममिति। भ० २४श० 21 उ० / देवानां व्यन्तराणाम्। वाणमंतराणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहितो उववखंति तिरिक्खजोणिय० एवं जहेव णागकुमारउद्देसए / असण्णि तहेव गिरवसे सं / जइ सण्णिपं दिय० जाव असंखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदिय० जे भविए वाणमंतर से ण भंते ! केवइयकालं ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्ठिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमट्टिईएस सेसं तं चे व जहा णागकुमारउद्देसए जाव कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगाई पुष्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं एवइयं कालं जाव करेजा सो चेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णो जहेव णागकुमाराणं विइयगम वत्तव्वया 2 / सो चेव उक्कोसट्ठिईएस उववण्णो जहण्णेणं पलिओवमहिईएसु उक्कोसेण वि पलिओवमट्ठिईएस एस चेव वत्तव्वया णवरं ठिई से जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं संबेहो जहण्णेणं दो पलिओवमा उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं एवइयं जावे करेजा 3 / मज्झिमगा तिण्णिवि जहेव णागकुमारेसु पच्छिमेसु तिसु गमएसुचेव जहाणागकुमारुद्देसए णवरं ठिति संबेहं च जाणेज्जा ! संखेज्जवासाउय तहेव णवरे ठिई अणुबंधो संबेहं च उभओ ठिईए जाणेज्जा जइ मणुसाय असंखेज्जवासाउय जहेव णागकुमाराणं उद्देसए तहेव वत्तव्वया णवरं तइयगमए ठिई जहण्णेणं पलिओवर्म उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई सेसं तं चेव संवेहो से जहा एत्थ चेव उद्देसए असंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदियाणं संखेज्जवासाउय सण्णिमणुस्सा जहेव णागकुमारुद्देसए णवरं वाणमंतरा ठिई संबेहं च जाणेज्जा सेवं भंते ! भंतेत्ति॥ तत्रासङ्ख्यातवर्षायुः सज्ञिपञ्चेन्द्रियाधिकारे [उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइंति] त्रिपल्योपमायुः सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यपल्योपमायुर्व्यन्तरो जात इत्येवं चत्वारि पल्योपमानि द्वितीयगमे [जहेव णागकुमाराणं वीयगमे वत्तव्ययत्ति] सा च प्रथमगमसमानैव नवरं जघन्यत उत्कर्षतश्च स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि संबेधस्तु [कालाएसेणं जहन्नेणं साइरेगा पुवकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहियाइंति तृतीयगमे [ठिई से जहण्णेणं पलिओवमंति] यद्यपि सातिरेका पूर्वकोटी जघन्यतोऽसङ्खघातवर्षायुषां तिरश्चामायुरस्ति तथापीह पल्योपममुक्तं पल्योपमायुष्कव्यन्तरेषू- | त्पादयिष्यमाणत्वात् यतोऽसंख्यातवर्षायुः स्वायुषो वृहत्तरायुष्केषु देवेषु नोत्पद्यत एतच्च प्रागुक्तमेवेति। [ओगाहणा जहण्णेणं गाउयंति] येषां पल्योपमायुस्तेषामवगाहना गव्यूतं तेच सुषमदुःषमायामिति। भ०२४ श०२२ उ०। ज्योतिष्काणाम्। जोइसियाणं कओहिंतो उववजंति किं णेरइयभेदो जाव सण्णिपंचिं दिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति णो असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख० जइ सण्णिपंचिंदिय० किं संखेज्जवासा उय सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख० असंखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदिय-तिरिक्ख०? गोयमा ! संखेञ्जवासाउय सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख० असंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति / असंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवइयकालट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु उववजेजा अवसे सं जहा असुरकु मारुद्देसए णवरं ठिई जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवम उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं एवं अणुबंधो वि सेसं तहेव णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अट्ठभागपलिओवमाई उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई वाससयसहस्समन्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा !| 1|| सो चेव जहण्णकालट्ठिईसु उववण्णो जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमट्ठिईएसु उक्कोसेणवि अट्ठभागपलि-ओवमट्टिईएसु उवव० एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसं च जाणेज्जा / / 2 / / सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं ठिई जहण्णेणं पलिओवमवाससयसहस्समब्महियं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं एवं अणुबंधोवि कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं दोहिं वाससयसहस्सेहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाईवाससयसहस्समब्भहियाई॥३॥ सो चेव अप्पणा जहण्णकाल-ट्ठिईओ जाओ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु उक्कोसेणवि अट्ठभागपलिओवमहिईएसु उववज्जेज्जा / तेणं भंते ! जीवा एगसमए एस चेव वत्तव्वया णवरं ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं सातिरेगाई अट्ठारसधणुहसयाई ठिई जहण्णे णं अट्ठभागपलिओवम उक्कोसेणवि अट्ठभागपलिओवम एवं अणुबंधो वि सेसं तहेव / कालादेसेणं जहण्णेणं दो अट्ठभागपलिओवमाइं उक्कोसेणवि दो अट्ठभागपलिओवमाइं एवइयं जहण्णकालट्ठिईयस्स एस चेव एको गमो // 6 // सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ सव्वेव ओहिया बत्तव्वया णवरं ठिई जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइंउको से णवि तिण्णि पलिओवमाइं एवं अणुबंधोवि सेसं तं चेव एवं पच्छिमा तिण्णि गमगा णेयव्वा णवरं संबेहं च जाणेजा। एते सत्त गमगा। जइ संखेज्जवासाउय Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 181 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय सण्णिपंचिंदियसंखेज्जवासाउयाणं जहे व असुरकु मारेसु उववजमाणाणं तहेव णवविगमा भाणियव्वा णवरं जोइसियट्टिई संवेहं च जाणेज्जा, सेसं तहेव णिरवसेसंह। जइमणुस्सेहिंतो उववजंति भेदो तहेव जाव असंखेन्जवासाउय सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! एवं जहा असंखेज्जवासाउय सण्णिपंचिंदियजोइसिएसुचेव उववजमाणस्स सत्त गमगा तहेव मणुस्साणवि णवरं ओगाहणाविसेसो पढमेसु तिसु गमएसु ओगाहणा जहणणेणं साइरेगाइं णवधणुहसयाई उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइं मज्झिमगमए जहण्णेणं साइरेगाई णवधणुहसयाई उक्कोसेणवि साइरेगाइं नव धणुहसयाई पच्छिमेसु तिसुविगमएसु जहण्णेणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोसेणवि तिण्णि गाउयाई सेसं तहेव गिरवसेसं जाव संवेहोत्ति / जइ संखेज्जवासाउय सण्णिमणुस्से संखेज्जवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेवणव गमगा भाणियय्व णवरं जोइसियट्ठिति संवेहं च जाणेजा। सेसं तहेव णिरवसेस सेवं मंते ! भंतेत्ति।। (जहण्णेणं दो अट्ठभागपलिओवमाइंति) द्वौ पल्योपमाष्टभागावित्यर्थः तत्रैकोऽसंख्यातायुष्कसम्बन्धी / द्वितीयस्तु तारकः ज्योतिष्कसम्बन्धीति / (उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई वाससयसहस्समब्भहियाइंति) त्रीण्यसंख्यातायुः सत्कानि एकं च सातिरे कं चन्द्रविमानज्योतिष्कसत्कमिति तृतीयगमे (ठिई जहण्णेणं पलिओवर्म वाससयसहस्समभहियंति) यद्यपि असंख्यातवर्षायुषां सातिरेका पूर्वकोटी च घन्यतः स्थितिर्भवति तथापीह पल्योपमं वर्षलक्षाभ्यधिकमुत्तःमेतत्प्रमाणायुष्केषु ज्योतिष्केषूत्पत्स्यमानत्वाद्यतोऽसंख्यातर्षायुः स्वायुषो वृहत्तरायुष्केषु देवेषु नोत्पद्यते एतच्च प्रागुपदर्शितमेव / चतुर्थ गमे जघन्यकालस्थितिको-ऽसंख्यातवर्षायुरौघिके षु ज्योतिष्केषूत्पन्नः तत्र चासंख्यातायुषो यद्यपि पल्योपमाष्टभागाद्धीनतरममि जघन्यत आयुष्कं भवति तयापिज्योतिषां ततो हीनतरं नास्ति स्वायुस्तुल्यायुर्बन्धकाश्चोत्र्कषोऽसंख्यातवर्षायुष इतीह जघन्यतः स्थितिकास्ते पल्योपमाष्टभागायुषो भवन्ति, ते च विमलवाहनादिकुलकरकालात्पूर्वतरकालभुवो हस्त्यादय औधिकज्योतिष्का अप्येवं विधा एव तदुत्पत्तिस्थानं भवन्तीति। "जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमहिईएसु इत्याधुक्तम् ' "ओगाहण जहण्णेणं धणुपुहत्तंति" यदुक्तम् तत्पल्योपमाष्टभागमानायुषो विमलवाहनादिपूर्वतरकालभाविनो हस्त्यादिव्यतिरिक्तक्षुद्रकायचतुष्पदानपेक्ष्यावगन्तव्यम् / उक्कोसेणं साइरेगाइं अट्ठारसधणुसयांइति) एतच्च विमलवाहनकुलकरपूर्वतरकालभाविह स्त्यादीनपेक्ष्योक्तम्, यतो विमलवाहने नवधनुः शतमानावगाहनः तत्काल हस्त्यादयश्च तद्विगुणाः / यत्पूर्वतरकालभाविनश्च ते सातिरेकतत्प्रमाणा भवन्तीति (जहन्नकालट्ठिइयस्स एस चेव एक्को गमोत्ति)। पञ्चमषष्ठगमयोरत्रैवान्तर्भावात् यतःपल्योपमाष्टभागमानायुषो मिथुनकतिरश्चः पञ्चमगमे षष्ठगमे च पल्योमाष्टभागमान-मेवायुर्बध्न न्तीति प्राग्भावितं चैतदिति / सप्तमादिगमेषूत्कृष्टव त्रिपल्योपमलक्षणतिरश्चः स्थितिः ज्योतिष्कस्य तु सप्तमे द्विधा प्रतीतव अष्टमे पल्योपमाष्टभागरूपा नवमे सातिरेकपल्योपमरूपा संबंधश्चैतदनुसारेण कार्यः (एते सत्तगमगत्ति) प्रथमास्त्रयो मध्यमत्रयस्थाने एकः पश्चिमास्तु त्रय एवेत्येवं सप्त असंख्यातवर्षायुष्क-मनुष्याधिकारे (ओगाहणां साइरेगाइं नवधणुसयाइंति) विमलवाहनकुलकरपूर्वकालीन - मनुष्यापेक्षया / (तिन्निगाउयाइंति) एतच्चैकान्तसुषमादिकालभाविमनुष्यापेक्षया (मज्झिमगमएत्ति) पूर्वोक्तनीते स्विभिरप्येक एवायमिति / / भ०२४ श० 23 उ०। (असंदता अकामनिर्जया मृत्वा देवलोकेषूपपद्यन्ते इति वाणमंतरशब्दे वक्ष्यते) एवं वेमाणियावि सोहम्मीसाणगा भाणियटवा एवं / सणंकुमारगावि नवरं असंखेज्जवासाउय अकम्मभूमिगव हिंतो उववजंति एवं जाव सहस्सारकप्पोवगवे माणियदेवा भाणियव्वा / / आणयदेवाणं मंते ! कओहिंतो उववजंति किं नेरइएहिंतो जाव देवेहिंतो उववजंति ? गोयमा! नो नेरइएहितो नो तिरिक्खजोणिएहिंतो मणुस्से हिंतो उववजंति नो देवेहिंतो। जइ मणुस्से हिंतो उववज्जंति किं सम्मुच्छिममणुस्से हिंतो गब्भवतिय मणुस्सेहिंतो उववजंति? गोयमा! गम्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववजंति नो सम्मुच्छिममणुस्सेहिंतो उववज्जति / जदि गब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजति किं कम्मभूमिगब्भवक्कं तियमणुस्से हिंतो उववजंति अकमम्मभूमिगब्भवक्कं तिएहिंतो अंतरदिवएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! कम्मभूमिगब्भवक्कं तियमणुस्सेहिंतो उववनंति नो अकमम्मभूमिगेहिंतो अंतरदिवगेहिंतो / जदि कम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउ-एहिंतो असंखेजवासाउएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहिंतो असंखेज्जवासाउएहिंतो / जदि संखेजवासाउयकम्मभूमिगब्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववजंति किं पज्जत्तरहिंतो अपज्जत्तएहितो उववजंति ? गोयमा ! पञ्जत्तगसंखेजवासाउकम्मभूमिगब्भवकं तियमणुस्सहिंतो उववजंति नो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जति / जइ पज्जत्तगसंखेन्जवासाउयकम्मभूमिगडभवक्कं तियमणुस्से हिंतो उववखंति किं सम्मट्टिी पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगब्भवकं तियमणुस्से हिंतो उववजंति ? मिच्छादिट्ठी पञ्जत्तगसंखेज्जावासाउएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! सम्मट्ठिी पञ्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगब्मवक्कंतियमणुस्सेहितो वि मिच्छविही वासाउयकम्मभूमिगब्भवकं तिएहिंतो वि नो सम्मामिच्छादिट्ठी पज्जत्तएहितों उववजं ति || जदि सम्महिट्ठी पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगब्भवतियमणुस्सेहिंतोउववजंति किं संजयसम्मट्ठिी पज्जत्तएहिंतो असंजयसम्मट्ठिी पजत्तएहितो संजयासंजयसम्मट्ठिी पजत्तसंखेजेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! तिहिंतो वि उववजं ति / एवं जाव अचुयगो कप्पो एवं Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 152 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय गेविजदेवावि नवरं संजयासंजया एते पडिसेहेयव्वा / एवं जहेव गेविजगदेवा तहेव अणुत्तरोववाइयावि नवरं इमं नाणत्तं संजया चेव / जदि संजयसम्मदिट्ठी पज्जत्तसंखेञ्जवासाउयकम्मभूमिगन्भबतियमणुस्सेहिंतो उववजंति किं पमत्तसंजयसम्मदिट्ठी पजत्तएहिंतो अप्पमत्तसंजएहिंतो उववखंति ? गोयमा ! | अप्पमत्तसंजएहितो उववजतिनो पमत्तसंजएहिंतो उववजंति। जदिअपमत्तसंजएहिंतो उववजंति किं इडिपत्तअपमत्तसंजएहितो अणिड्डिपत्तअपमत्तसंजएहिंतो उववजंति ? गोयमा ! दोहितो वि उववजंति। प्रज्ञा०६पद। सोहम्मगदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहितो उववजंति भेदोजहाजोइसियउद्देसए असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजाणिएणं भंते ! जे भविए सोहम्मगदेवेसु उववजित्तए से णं भंते ! केवइयकालं? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमट्ठिईएसु उववजेजा उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमट्ठिईएसु उववजेज्जा / तेणं भंते / अवसेसं जहा जोइसिएसु उववजमाणस्स णवरं सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि णो सम्मामिच्छादिट्ठी। णाणीवि अण्णाणीवि दो णाणा दो अण्णाणा णियमं / ठिई जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई एवं अणुबंधो वि सेसं तहेव / कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई एवइयं 11 / सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई एवइयं जाव करेजा।शसो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमाई उक्कोसेणवि तिपलिओवमाई एस चेव वत्तवया णवरं ठिई जहण्णेणं तिपलिओवमाइं उक्कोसेणं वि तिण्णि पलिओवमाई सेसं तं चेव कालादे सेणं जहण्णेणं छप्पलिओवमाइं उक्को सेण वि छप्पलिओवमाइं एवइयं कालं जाव / 3 / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ जहण्णेणं पलिओवमट्टिईएस उकोसेणवि पलिओवमट्टिईएस एस चेव वत्तवया णवरं ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं दो गाउयाई ठिई जहण्णेणं पलिओवम उक्कोसेणवि पलिओवमं सेसं तहेव कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई उक्कोसेणं वि दो पलिओवमाइंएवइयं ।६।सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ आदिल्लगमगसरिसा तिण्णि गमगाणेयव्वा णवरं ठिति कालादेसं च जाणेज्जा / 9 / जइ संखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियसंखेज्जवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव णववि गमगा णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा जाहे अप्पणा जहण्णकालहिईओ भवइ ताहे तिसु गमएसु सम्मविट्ठी वि मिच्छादिट्ठीविणो सम्मामिच्छादिट्ठी।दोणाणा दो अण्णाणा | णियसं सेसं तं चेव जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति भेदो जहेव जोइसिएसु उववजमाणस्स जाव असंखेन्जवासाउयसण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए सोहम्मकप्पे देवत्ताए उववज्जित्तए एवं जहेव असंखेजवासाउयस्स सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए सोहम्मे कप्पे उववजमाणस्स तहेव सत्त गमगा णवर आदिल्लेसु दोसु गमएसु ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। तइयगमे जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई उक्कोसे णवि तिण्णि गाउयाई चउत्थगमए जहण्णेणं गाउयं उक्कोसेणवि गाउयं / पच्छिमएसुतिसु गमएसुजहण्णेणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोसेण वितिण्णि गाउयाइंसेसं तहेव / णिरवसेसं। जइ संखेजवासाउयसण्णिमणुस्से एवं संखेजवासाउयसण्णिमणुस्साणं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं तहेव णव गमगा भाणियव्वाणवरं सोहम्मगदेवट्ठितिं संवेहंच जाणेज्जा सेसं तं चेव। ईसाणदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति ईसाणदेवाणं एस चेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तव्वयाणवरं असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्सजेसु ठाणेसु सोहम्मे उववद्ध पलिओवमट्ठिई तेसु ठाणेसुइह सातिरेगं पलिओवमं कायव्वं / चउत्थगमे ओगाहणा जहण्णेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगाई दो गाउयाइंसेसंतं चेव। असंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्सस्सवि तहेव ठिई जहा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स / असंखेजवासाउयस्स ओगाहणा वि जेसु ठाणेसु गाउयं तेसु ठाणेसु इहं सातिरेगं गाउयं सेसं तहेवा संखेज्जवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहेव सोहम्मे उववज्जमाणाणं तहेव गिरवसेसं णव गमगा णवरं ईसाणे ठिति संवेहं च जाणे जा सणंकुमारगदेवणं भंते ! कओहिंतो उववजति उववातो जहा सकरप्पभा पुढवी रइयाणं जाव पञ्जत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! जे भविए सणंकुमारदेवेसु उववजित्तए अवसेसा परिमाणादीयाभवादेसपजवसाणा सवे ववत्तव्वया भाणियवा जहा सोहम्मे उववजमाणस्स णवरं सणंकुमारट्ठिति संवेहं च जाणेजा। जाहेयं अप्पणा जहण्ण-कालट्ठिईओ भवइ ताहे तिसु गमएसु पंच लेस्साओ आदिल्लाओ कायवाओ सेसं तं चेव / जइ मणुस्से हिंतो उववज्जति मणू साणं जहेव सक्करप्पभाए उववजमाणाणं तहेव णव वि गमा णवरं सणंकुमारद्वितिं संवेहं च जाणेज्जा / माहिंदगदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति जहा सणंकुमारदेवाणं वत्तव्वया तहा माहिंदगदेवाणंवि भाणियव्वा णवरं माहिंदगदेवाणं ठितिं सातिरेगा भाणियव्या सव्वेव एवं बंभलोगदेवाण विवत्तव्ययाणवरंबंभलोगट्ठितिसंवेहंचजाणेजा एवं जावसहस्सारो णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा। लंतगादीणं जहण्णकालटिईयस्स तिरिक्खजोणियस्स तिसु वि गमएस छप्पि लेस्साओ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 183 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय कायवाओ संघयणाइं बंमलोगलंतएस पंच आदिल्लगाणि महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि तिरिक्खजोणियाणवि मणुस्साण वि सेसं तं चेव। आणयदेवाणं मंते ! कओहिंतो उववजंति, उववाओ जहा सहस्सारे देवाणं णवरं तिरिक्खजोणिया खोडेयव्वा जाव पज्जत्तसंखेज्जवासाउय सण्णिमणुस्साणं भंते ! जे भविए आणयदेवेसु उववञ्जित्तए। मणुस्साणं वत्तव्वया जहेव | सहस्सारेसु उववज्जमाणाणं णवरं तिणि संघयणाणि सेसं तहेव, अणुबंधो भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारससागरोवमाई दोहिं वासपुहुत्तेहिं अब्भहियाइं उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाई चउहिं पुटवकोडीहिं अमहियाई एवइयं / एवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियव्वा णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा सेसं तहेव / एवं जाव अचुयदेवा णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा। चउसु चेव संघयणा तिण्णि आणायादिसु / गेवेज्जगदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति एस चेव वत्तव्वया णवरं दो संघयणा ठिति संवेहं च जाणेजा। विजय वेजयंत जयंत अपराजितदेवाणं भंते ! क ओहिंतो उववचंति एसचेव वत्तवया णिरवसेसा जाव अणुबंधोत्ति णवरं पढमं संघयणं सेसं तहेव / भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई, कालोदेसेणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइंदोहिं वासपुहुत्तेहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाई तिण्णि पुव्वकोडीहिं अन्भहियाई एवइयं जाव एवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियय्वा / णवरं ठिति संवेहं च जाणेजा। मण से लद्धी णवसु ति गमएसु जहा गवेजेसु उववजमाणस्स णवरं पढमं संघयणं सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति उववाओ जहेव विजयादीणं जाव सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमट्ठिई उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमट्ठिईएसु अवसेसा जहा विजयाइसु उववजंता णवरं भवादेसेणं तिण्णि भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं वासपुहुत्तेहिं अब्भहियाई उक्कोसेण वितेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं पुटवकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ एस चेव वत्तवया णवरं ओगाहणाठिईओ रयणिपुहुत्तं च वासपुहुत्ताणि सेसं तहेव संवेहं च जाणेज्जा / सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ एस चेव वत्तव्वया णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाई उक्कोसेण वि पंचधणुहसयाई ठिई जहण्णेणं पुष्वकोडी उक्कोसेणवि पुटवकोडी सेसं तहेव जाव भवादेसोत्ति / कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं पुटवकोडीहिं अमहियाइं उक्कोसेण वितेत्तीसंसागरोवमाइंदोहिं पुथ्वकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं सेवेज्जा / एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा। एए तिण्णि गमगा सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! भंते त्ति। भगवं! गोयमा ! जाव विहरइ। (जहन्नेणं पलिओवमट्टिईएसुत्ति) सौधर्मे जघन्येनान्यस्यायुषोऽस- | त्वात् / (उक्कोसेणं तिपलिओवमट्टिईएसुत्ति) यद्यपि सौधर्मे बहुतरमायुष्कमस्ति तथाप्युत्कर्षतस्त्रिपल्योपमायुष एव तिर्यचो भवन्ति तदनतिरिक्तं च देवायुर्बध्नन्तीति / / (दो पलिओवमाइंति एकं तिर्यग्भवसत्कमपरंच देवसत्कम्छपलिओवमाइति) त्रीणि पल्योपमानि तिर्यग्भवसत्कानि त्रीण्येव देवभवसत्कानीति / सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओजाओ इत्यादि / गमत्रयेऽप्यको गमो भावना तु प्रदर्शितैव।। (जहन्नेणंधणुहपुहत्तंति) क्षुद्रकायचतुष्पदापेक्षम् (उकोसेणं दोगाउयाइंति) यत्र क्षेत्रे काले वा गव्यूतमाना मनुष्या भवन्ति तत्सम्बन्धिनो हस्त्यादीनपेक्ष्योक्तमिति / संख्यातायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यगधिकारे जाहे अप्यणाजहन्नकालट्ठिईओभवइत्यादौ (नो सम्मामिच्छादिट्ठी ति) मिश्रदृष्टिनिषेध्यो जघन्यस्थितिकस्य तदसम्भवादजघन्यास्थितिकेषु दृष्टित्रयस्यापि भावदिति / तथा ज्ञानादिद्वारेपि द्वे ज्ञाने वा अज्ञाने वा स्यातां जघन्यस्थितेरन्यज्ञानाज्ञानयोरभावादिति। अथ मनुष्याधिकारे 'नवरं आइल्लएसु दोसु गमएसु इत्यादि" आद्यगमयोर्हि पूर्वत्रधनुः पृथक्त्वं जघन्यावगाहनोत्कृष्टा तुगव्यूतषट्कमुक्तेहतु''जहन्नेण गाउयमित्यादि "तृतीयगमे तुजघन्यत उत्कर्षतश्च षड् गव्यूतान्युक्तानीहतु त्रीणि चतुर्थगमे तु प्राग्जघन्यतो धनुःपृथक्त्वमुत्कर्षतस्तु द्वे गव्यूते उक्ते इह तु जघन्यत उत्कर्षतश्च गट्यूतमेवमन्यदप्यूह्यम् / ईशानकदेवाधिकारे (साइरेगं पलिओवमं कायव्वति) ईशाने सातिरेकपल्योपमजघन्यस्थितित्वात् तथा (चउत्थगमए ओगाहणा जहन्नेणं धणुहपुहुत्तंति) ये सातिरेकपल्योपमायुषस्तिर्यञ्चः सुषमांशोद्भवाः क्षुद्रतरकायास्तान-पेक्ष्योक्तम् (उक्कोसेणं साइरेगाइंदो गाउयाइंति) एतच्च यत्र काले सातिरेकगव्यूतमाना मनुष्या भवन्ति तत्कालभवन् हस्त्यादीनपेक्ष्योक्तम् / तथा / / (जेसु ठाणेसु गाउयंति) सौधर्मदेवाधिकारे येषु स्थानेप्वसंख्यातवर्षायुमनुष्याणां गव्यूतमुक्तम् (तेसु ठाणेसु इहं सातिरेगं गाउयंति) जघन्यतः सातिरेकपल्योपमस्थितिकत्वादीशानकदेवस्य प्राप्तव्यदेवस्थित्यनुसारेण चाऽसंख्यातवर्षायुर्मनुष्याणां स्थितिसद्भा-वात्तदनुसारेणैव च तेषामवगाहनाभावादिति / सनत्कुमारदेवाधिकारे जाहे य अप्पणजहण्णेत्यादौ (पंच लेस्सा आदिल्लाओ कायव्वाओत्ति) जधन्यस्थितिकस्तिर्यड् सनत्कुमारे समुत्पित्सुर्जघन्यस्थितिसामर्थ्यात्कृष्णादीनां चतसृणां लेश्यानामन्यतरस्यां परिणतो भूत्वा मरणकाले पद्मलेश्यामासाद्य म्रियते ततस्तत्रोत्पद्यते यतोऽग्रेतन भवलेश्यापरिणामे सति जीवः परभवं गच्छतीत्यागमः। तदेवमस्य पञ्च लेश्या भवन्ति लंतगादीणं जहण्णेत्यादि एतद्भावना चानन्तरोक्तन्यायेन कार्या (संघयणाई बंभलोयलंतएसु पचं आइल्लगाणित्ति) छेदवर्तिसंहननस्य चतुर्णामवे देवलोकानां गमने निबन्धनत्वात् यदाह-"छेवढेण उग्गभइ, चत्तारि उ जाव आइमा कप्पा / वड्डेज कप्पजुअलं, संधयणे को लियाईएत्ति " // 1 // (जहन्नेण तिन्नि भवग्गहणाइंति) आनतादिदेवो मनुष्येभ्य एवोत्पद्यते, तेष्वेव च प्रत्यागच्छतीति जघन्यतो भवत्रयं भवतीति एवं भवसप्तकमप्युत्कर्षतो भावनीयमिति (उक्कोसेणं सत्तावणमित्यादि) आनतदेवानामुत्कर्षत एकोनविंशतिसागरोपमाण्यायुस्तस्य च भवत्रयभावेन सप्तपञ्चाश Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 184 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय त्सागरोपमाणि मनुष्यभवचतुष्टयसम्बन्धिपूर्वकोटीचतुष्काभ्यधिकानि भवन्तीति / / भ० 24 श० 24 उ० / जी० / कर्मः / एष संक्षेपार्थः सामान्यतो नरकोपपातचिन्तायां रत्नप्रभोपपातचिन्तायां च देवनारकपृथिव्यादिपञ्चक विकले न्द्रियत्रिकाणांतथाऽसंख्येयवर्षायुषश्चतुष्पदखेचराणां शेषाणामपि चापर्याप्तकानां तिर्यकपचेन्द्रियाणां तथा मनुष्याणां संमूर्छिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानामप्यकर्मभूमिजानामन्तरद्वीपजानां कर्मभूमिजानामप्य-संख्येयवर्षायुषां संख्येयवर्षायुषामपि अपर्याप्तानां प्रतिषेधः शेषाणां विधानम् / शर्करप्रभायां संमूर्छिमानामपि प्रतिषेधः वालुकप्रभायां भुजपरिसाणामपि पङ्कप्रभायां खेचराणामपि धूमप्रभायां चतुष्पदानामपि तमःप्रभायां उरःपरिसणामपि सप्तमपृथिव्यां स्त्रीणामपि भवनवासिषूपपातचिन्तायां देवनार-पृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्याप्ततिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूर्छिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां प्रतिषणः शेषाणां विधानम्। पृथिव्यब्वनस्पतिषु सकलनैरयिकसनत्कुमारादिदेवानां तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सर्वनारकसर्वदेवानां प्रतिषेधः तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेष्यानतादिदेवानां मनुष्येषु सप्तमपृथिवीनारकतेजोवायूनां व्यन्तरेषु देवनारपृथिव्यादिपञ्चकविकलेन्द्रियत्रिकापर्याप्ततिर्यक्पश्शेन्द्रियसंमूर्छिमापर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां ज्योतिकेषु सम्मूर्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रियासंख्येयवर्षायुष्कखचरान्तरद्वीपजमुनष्याणामपि प्रतिषेधः / एवं सौधर्मेशानयोरपि ! सनत्कुमारादिषु सहस्त्रारपर्यन्तेष्वकर्मभूमिजासंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिजानामपि प्रतिषेधः आनतादिषु तिर्यक्मवेन्द्रियाणामपि विजयादिषु मिथ्यादृष्टिमनुष्याणामपीति / गतं पञ्चमद्वारम्। प्रज्ञा०६पद। ११कृतयुग्मादिविशेषणेनैकेन्द्रियाणाम् - कडजुम्मकडजुम्मएगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति किं णेरइय जहा उप्पलुद्देसए तहा उववाओ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति? गोयमा ! सोलस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अनंता वा उववजंति तेणं भंते ! जीवा समए समए पुच्छा ? गोयमा ! तेणं अणंता समए समए अवहीरमाणा 2 अणंताहिं ओसप्पिणीउसप्पिणीहिं अवहीरेंति णो चेव णं अवहिरिया सिया उच्च-जहा उप्पलुद्देसए / तेणं भंते जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा पुच्छा, गोयमा ! बंधगा णो अबंधगा एवं सव्वेसिं वाउयवजाणं आउयस्स बंधगा वा अबंधगा वा तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिनकम्मस्स वेदगा पुच्छा, गोयमा! वेदगाणो अवेदगा एवं सव्वेसिं तेणं भंते ! किं जीवा किं सातावेदगा असातावेदगा पुच्छा, गोयमा! सातावेदगा वा असातावेदगा एवं खलु उप्पलुद्देसगपरिवाडी सटवे सिं कम्माणं, उदई णो अणुदई छण्हं कम्माणं उदीरगाणो अणुदीरगा वेदणिज्जा उयाणं उदीरगा वा अणुदीरगा वा तेणं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा पुच्छा, गोयमा ! कण्हलेस्सा वा णीललेस्सा वा काउले स्सा वा तेउलेस्सा वा णो सम्मद्दिट्ठी णो सम्मामिच्छादिही मिच्छादिट्ठी णो णाणी अण्णाणी णियमं दु अण्णाणीतं जहा मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य णो मणजोगी णो वइजोगी कायजोगी सागारोवउत्ता वा अणागारोवउत्ता वा। तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरा कइवण्णा जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थ पुच्छा, गोयमा ! उप्पलुद्दसेए उसासगा वा णीसासगा वा णो उस्सासगा णीसासगावा आहारगावा अणाहारगावा णो विरया अविरया णो विरयाविरया सकिरिया णो अकिरिया / सत्तविहबंधगा वा अट्ठविहबंधगा वा आहारसण्णोवउत्ता वा जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वा कोहकसाई जाव लोभकसाई वा णो इत्थीवेदगा णो पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा वा इत्थीवेदबंधगा वा णपुंसगवेदबंधगा वा णो सण्णी असण्णी सइंदिया णो अणिंदिया तेणं भंते ! कडजुम्म।।२।। एगिदियाओत्ति कालओ केव चिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ अणंतं कालं अणंताओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ वणस्सइकालो संवेहोण भण्णइ आहारो जहा उप्पलुद्देसए णवरं णिव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पडुच सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं सेसं तहेव ठिई जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई समुग्घाया आदिल्ला, चत्तारि मारणंतियासमुग्धाया तेणं समोहयावि असमोहया वि मरति उव्वट्टणा जहा उप्पलुद्देसए। अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कडजुम्मा 2 एगिदियसत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असइ अदु वा अणंतखुत्तो ? कडजुम्मतेओग एगिदियाणं भंते ! कओउववजंति उववाओ तहेव तेणं भंते ! जीवा एगपुच्छा, गोयमा ! एगूणवीसा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति सेसं जहा कडजुम्माणं जाव अणंतखुत्तो 2 कडजुम्मदा-वरजुम्मएगिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति उववातो तहेव। तेणं भंते ! जीवा एगपुच्छा, गोयमा ! अट्ठारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो॥३॥ कडजुम्मकलिओग एगिंदियाण भंते ! कओ उववातो तहेव परिमाणं सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो / / 4| तेओगकडजुम्मएगिंदियाणं भंते ! कओ उववातो तहेव परिमाणं वारस वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो।। 5 // तेओगतेओगएगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति उववाओ तहेव परिमाणं पण्णरस संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो।।६।। एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एक्को गमओ णवरं परिमाणे णाणत्तं तेओ य दावरजुम्मे सु परिमाणं चउद्दस वा संखेजा वा असंखेज्जावा अणंता वा उववज्जंति॥७॥तेओगकलिओगतेरस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा उववज्जंति // 8 // Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 985 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय जंति॥८॥दावरजुम्मकडजुम्मेसु अट्ठवा संखेज्जावा असंखेज्जा वा अर्णता वा उववजंति॥६॥दावरजुम्मतेओगेसु एक्कारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति / / 10 / / दावरजुम्मदावरजुम्मेसु दसवा संखेज्जा वा असंखेजावा अणंता वा उववज्जति॥११॥दावरजुम्मकलिओगेसु णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति // 12 // कलिओगकडजुम्मेसु चत्तारि वा संखेजा वा असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति / / 13 / कलिओगेतेसु सत्त वा संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा उववज्जति / / 15 / / कलिओगदावरजुम्मेसु छ वा संखेज्जा असंखेज्जा वा अणंता वा उववजंति।। 15 / / कलिओगकलिओगएगिंदियाणं मंते! कओ उववजंति उववाओतहेव परिमाणं पंचवा संखेजावा असंखेजा अणंता वा उववजंति सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो सेवं भंते! भंते ! ति॥ (जहा उप्पलुद्देसएत्ति) उत्पलोद्देशक एकादशशते प्रथम इह च यत्र क्वचित्पदे उत्पलोद्देशकातिदेशः क्रियते तत्तत एवावधार्यम् (संवेहो न भन्नइत्ति) उत्पलोद्देशके उत्पलजीवस्योत्पादो विवक्षितस्तत्र च पृथिवीकायिकादिकायां नरापेक्षया संबेधः सम्भवति इह त्वेकेन्द्रियाणां कृतयुग्म 2 विशेषणानामुत्पादोऽधिकृतस्ते च वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां चोवृत्तेरसम्भवात्संबन्धो न सम्भवति / यश्च षोडशादीनामेकेन्द्रियेषूत्पादोऽभिहितोऽसौ त्रसकायिकेभ्यो येतेषूत्पद्यन्ते तदपेक्ष एव न पुनः पारमार्थिकोऽनन्तानां प्रतिसमयं तेषूपपादादिति // भ०३५ श०१ उ०1 (उत्पलोद्देशकः वणस्सइशब्दे) प्रथमसमयकृतः।। पढमसमयकडजुम्म 2 एगिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति? गोयमा ! तहेव एवं जहेव पढमो उद्देसओ तहेव सोलसखुत्तो वितिओ विभाणियय्वो तहेव सव्वं णवरं इमाणि दसणाणत्ताणि ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेजइभागं आउयकम्मस्स णो बंधगा अबंधगा आउयस्स णो उदीरगा अणुदीरगाणो उस्सागा णो णिस्सासगा णो उस्सास णिस्सासगा। सत्तविहबंधगा वा णो अट्टविहबंधगा वा। तेणं भंते ! पढमसमयकडजुम्म 2 एगिदिया तिकालओ केव चिरं होइ ? गोयमा ! एकं समयं एवं ठितीए वि समुग्घाया आदिल्ला दोणि। समोहयाण पुच्छिज्जति उवट्टणा ण पुच्छिज्जइ सेसं तहेव सवं णिरवसे सं सोलससु वि गमएसु जाव अणंतखुत्तो / सेवं भंते ! मंते ! ति।। अथ द्वितीयस्तत्र (पढमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) एकेन्द्रियत्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो येषां ते तथा ते च कृतयुग्मकृतयुग्माश्चेति प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्माः ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति समासोऽतस्ते (सोलसखुत्तोत्ति) षोडशकृत्वः पूर्वोक्तान्षोडशराशिभेदानाश्रित्येत्यर्थः (नाणताइंति) पूर्वोक्तस्य विलक्षणत्वस्थानानि, ये पूर्वोक्ता भावास्ते केचित्प्रथमसमयोत्पन्नानां न सम्भवन्तीति कृत्वा तत्रावगाहनाघोद्देश कवादरवनस्पत्यपेक्षया महती उक्ताऽभूत् इह तु प्रथमसमयोत्पन्नत्वेन साकल्येति नानात्वमेवमन्यान्यपि स्वधियोह्यानीति भ० 35 श०२ उ० / अप्रथमसमयकृतः अपढमसमयकडजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति एसो जहा पदममुद्देसो सोलसहि विजुम्मेसु तहेवणेयव्यो जाव कलिओगकलिओगत्ताए जाव अणंतखुत्तोसेवं भंते ! भंते ! त्ति तृतीयाद्देशके तु (अपढमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) इहाप्रथमः समयो येषोमेकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नानां द्व्यादयः समया विग्रहश्च पूर्ववत्, एते च यथा सामान्येनैकेन्द्रियास्तथा भवन्तीत्यतएवोक्तम् "एसो जहा पढम उद्देसो इत्यादीति'' भ०३५ श०३ उ०। चरमसमयकृतः॥ चरिमसमयक्डजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववज्जति एवं जहेव पढमसमय उद्देसओ णंवरं देवा व उववजंति तेउलेस्स ण पुच्छंति सेसं तेहव सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / चतुर्थे तु (चरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) इह चरमसमयशब्देनेकैन्द्रियाणां मरणसमयो विवक्षितः स च परभवायुषः प्रथमसमय एव तत्र च वर्तमानाश्चरमसमयाः संख्येयाश्च कृतयुग्मकृतयुग्मा ये एकेन्द्रियास्ते तथा / / (एवं जहा पढमसमयउद्देसओत्ति) यथा प्रथमसमयैकेन्द्रियोदेशस्तथा चरमसमयैकेन्द्रियोद्देशकोऽपि वाच्यस्तत्र हि औधिकोद्देशकापेक्षया दश नानात्वान्युक्तानीहापि तानि तथैव समानस्वरूपत्वात्तप्रथमसमयचरमसमयानां यः पुनरिह विशेषस्तं दर्शयितुमाह 'नवरं देवा न उववजंतीत्यादि' देवोत्पादेनैवैकेन्द्रियेषु तेजोलेश्या भवति, न चेह देवोत्पादः सम्भवतीति, तेजोलेश्या एकेन्द्रिया न पृच्छ्यन्ते इति / / भ० 35 श०४ उ०। अचरमसमयकृतः अचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा अपढमसमयउद्देशो तहेव णिरवसेसो भाणियव्यो सेवं भंते! मंते ! ति॥ पञ्चमे तु (अचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) न विद्यते चरमसमय उक्तलक्षणो येषां ते अचरमसमयास्तेच ते कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाश्चेति समासः भ०३५ श०।। 5 उ०। प्रथमप्रथमसमयः। पढमपढमसमयकडजुम्मरएगिंदियाणं मंते ! कओ उववजंति जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव णिरवसेसं सेवं भंते ! भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ षष्ठे तु (पढमपढमसमयकडजुम्म २एगिंदियत्ति) एकेन्द्रियोत्पादस्य प्रथमसमययोगाद्ये प्रथमाः प्रथमश्च समयः कृतयुग्मकृतयुग्मत्वानुभूतेर्येषामेकेन्द्रियाणं ते प्रथम 2 समयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाः। भ० 35 श०६ उ०। प्रथमाप्रथमः। पढमपढमसमयकडजुम्म २एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढमसमयउद्देसओ तहेव भाणियव्यो सेवं भंते ! भंते ! त्ति॥ सप्तमे तु (पढमअपढमसमयकडजुम्मरएगिदियत्ति) प्रथमा Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 186 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय स्तथैव योऽप्रथमश्च समयः कृतयुग्म 2 त्वानुभूतेर्येषामेकेन्द्रियाणां ते प्रथमाप्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रिया इह च एके न्द्रियत्वोत्पादप्रथमसमयवर्तित्वे तेषां यद्विवक्षितसङ्ख्यानुभूतरेप्रथमसमयवर्तित्वं तत्प्राग्भवसम्बन्धिनी तामाश्रित्येत्यवसेयमेवमुत्तस्त्रापीति। भ० 35 श०७ उ० प्रथमचरमः। पढमचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिं दियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा चरिमुद्देसओ तहेव णिरवसेस सेवं भंते ! भंते त्ति॥ अष्टमे तु (पढमचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) प्रथमाश्च ते विवक्षितसङ्ख्यानुभूताः प्रथमसमयवर्तित्वाचरमसभयाश्च मरणसमयवर्तिनः परिशाटस्था इति / / प्रथमचरमसमयसास्ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः भ०३५ श०८ उ०। प्रथमाचरमः पढमअचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढमुद्देसओ तहेव णिरवसेसं सेवं भंते ! भंते! त्ति जाव विहरह नवमे तु (पढमअचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिंदियत्ति) प्रथमास्तथैव अचरमसमयास्त्वेकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवर्तिन इह विवक्षिताश्चरमत्वनिषेधस्य तेषु विद्यमानत्वादन्यथा हि द्वितीयोद्देशकोक्तानामवगाहनादीनां यदिह समत्वमुक्तं तन्न स्यात्ततः कर्मधारयः शेषं तु तथैव भ० 35 श०६ उ०। चरमचरमः। चरिम 2 समयकडजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा चउत्थो उद्देसओ तहवे सेवं भंते ! भंते ! ति॥ दशमे तु (चरिम 2 समयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) चरमाश्च ते विवक्षितसंख्यानुभूतेश्चरमसमयवर्तित्वाचरमसमयाश्च प्रागुक्तस्वरूपा इति चरमसमयाः शेषं तु प्राग्वत्॥ 35 // 10 // चरमाचरमः। चरिमअचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढमुद्देसओ तहेव णिरवसेसं सेवं भंते ! भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ एकादशेतु(चरिमअचरिमसमयकडजुम्म 2 एगिदियत्ति) चरमास्तथैव अचरमसमयाश्च प्रागुक्तयुक्तरेकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवर्तिनो ये तेचरमाचरमसमयास्ते च ते कृतयुग्मकृतयुग्मैकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः भ० 35 श०११ उ०। एवं एएणं कमेणं एकारस उद्देसगा पढमो ततिओ पंचमओ य सरिसगमया सेसा अट्ट सरिसा णवरं चउत्थे अट्ठमे दसमे देवा ण उववजंति। तेउलेस्सा णत्थि। पढमं एगिदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं / / भ०३५ श०१२ उ०। उक्तोद्देशकानां स्वरूपनिरिणायाह लेश्याविशेषणेन॥ कण्हलेस्सकडजुम्म 2 एगिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति? गोयमा! उववाओतहेव एवं जहा ओहियउद्देसएणवरं इमंणाणत्तं / तेणं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा तेणं भंते ! कण्हलेस्सा कडजुम्मा२ एगिंदिया तिकालओ केव चिरं होइ? गोयमा!जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेण अंतोमुहत्तं / एवं ठितीए वि जाव अणंतखुत्तो / एवं सोलसु वि जुम्मा भाणियव्वा सेवं मंते ! भंते ! त्ति पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्म २एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढमुद्देसए णवरं तेणं भंते ! कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति / एवं जहा ओहियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्सवि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा, पढमो ततिओ पंचमो य सरिसगमगा सेसा अट्ट वि सरिसगमगा णवरं चउत्थछट्ठदसमेसु उववाओ णत्थि देवस्सं सेवं भंते ! भंते ! त्ति || पणतीसइमे सए वितिय एगिदियमहाजुम्मसयं 2 एवं णीललेस्सेहिं वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं एक्कारस उद्देसगा तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / ततियं एगिंदियमहाजुम्भसयं सम्मत्तं // 3 एवं काउलेस्सेहिं वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं सेवं भंते ! भंते ! ति / / 36 || चउत्थ एगिंदियमहाजुम्मसयं / / 4 // भवसिद्धिकडजुम्म 2 एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा ओहियसयं णवरं एकारस वि उद्देसएसुअहं भंते! सव्वपाणा जाव सटवसत्ता भवसिद्धियकड जुम्म 2 एगिं दियत्ताए उववण्णपुटवा ? गोयमा! णो इणढे समढे सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति // पंचमं एगिंदियसयं महाजुम्म सम्मत्तं / / 5 / / कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मरएगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति, एवं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहिं वि सयं वितियं सयं कण्हलेस्ससरिसं भाणियव्वं सेवं भंते ! भंते त्ति / / छटुं एगिदियमहाजुम्मसयं / / ६॥णीललेस्से भवसिद्धियएगिदिएहिं वि सयं सेवं भंते ! भंते ! त्ति सत्तमं एगिदियमहाजुम्मसयं / / 7 // काउलेस्से भवसिद्धियएगिदिएहिं वि तहेव एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धियसयाणि चउसु वि सएसु सव्वपाणा जाव उववण्णपुव्वा णो इणढे समढे सेवं भंते ! भंते !त्ति अकृतं एगिदियसयंमहाजुम्मं॥८॥ भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाइंभणियाई एवं अभवसिद्धिएहिं विचत्तारि सयाणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि सव्वपाणा तहेव णो इणढे समढे एवं एयाणि वारस एगिंदियमहाजुम्मसयाई भवंति सेवं भंते ! मंते। ति // पंचतीसइमं सयं सम्मत्तं / / 36 / / [पढमो तइओ पंचमोयसरिसगमत्ति] कथं यतः प्रथमापेक्षया द्वितीये यानि नानात्वान्यवगाहनादीनि दश भवन्ति न तान्येतेष्विति (सेसा अवसरिसगमगत्ति) द्वितीयचतुर्थषष्ठादयः परस्परेण सदृशगमाः पूर्वोक्तभ्यो विलक्षणगमा द्वितीयसमानगमा इत्यर्थः विशेषं त्वाह- नवरं चउत्थेत्यादि। कृष्णलेश्याशते (जहण्णेणं एवं समयंति) जधन्यत एकसमयानन्तरं संख्यान्तरं भवतीत्यत एकं समयं कृष्णलेश्यकृतयुग्म 2 एकेन्द्रिया भवन्तीति (एवं ठिई वि त्ति) कृष्णलेश्यावतां स्थितिः कृष्णलेश्यकालवदवसेयेत्यर्थः / भ०३५ श०। Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 187 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय दीन्द्रियाणामकडजुम्मरबेइंदियाणं भंते ! कओ उववजंति उववाओ जहा वक्रतीए परिमाणं सोलसवा संखेज्जा वा असंखेजावा उववजंति अवहारो जहा उप्पलुद्देसए ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं वारसजोयणाई एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माण पढमुद्देसए तहेव णवरं तिणि लेस्साओ देवा ण उववर्जति सम्मद्दिहि वा मिच्छद्दिट्टि वा णो सम्मामिच्छादिट्ठी वा णाणी वा अण्णाणी वा / णो मणजोई वइजोगी वा कायजोगी वा तेणं भंते ! कडजुम्मश्वेइंदिया कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं संखेज्जकालं ठिई जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं | वारस संवच्छराई, आहारो णियमं छदिसिं तिण्णि समुग्घाया, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो एवं सोलससु वि जुम्मसु बेइंदियमहाजुम्मसयं पढमो उद्देसो सम्मत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति॥३६॥ 1 // पढमसमयकडजुम्मरबेइंदियाणं भंते ! कओ उववजंति एवं जहा एगिंदियमहाजुम्माणं पढमसयम उद्देसए दस णाणत्ताई ताई चेव दस इहवि एक्कारस वि इमं णाणत्तं णो मणजोगी णो वइजोगी कायजोगी। सेसं जहा बेइंदियाणं चेव पढमुद्देसए सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 36 // 2 // एवं एएण वि जहा। एगिंदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तहेव भाणियव्वा णवरं चउत्थछट्ठहमदसमेसु सम्मत्तणाणाणि ण भण्णति, जहेव एगिदियएसु पढमोतईय पंचमोय एक्कगमा सेसा अट्ठ एक्कगमा। पढमं बेइंदिए महाजुम्मसयं सम्मत्तं / / 36 / / 1 / / कण्हलेस्सकडजुम्मरबेइंदियाणं भंते ! कओ उववजंति एवं चेव कण्हसेस्से एकारस उद्देसगसंजुत्त सयं णवरं लेस्सा संचिट्ठणा ठिई जहा एगिदियकण्हलेस्साणं वितियं बेइंदियसयं // 36 // 2 // एवं णीललेस्सेहिं विसयं सतं ततियं // 36 // 6 / / एवं काउलेस्से हि वि सयं चउत्थं सतं // 4 // भवसिद्धियकडजुम्मरबेइंदियाणं भंते ! एवं भवसिद्धिया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं णेतव्वा णवरं सव्वपाणा णो इणढे समडेसेसं तहेव, ओहियसयाणि चत्तारि सेवं भंते ! भंते ! त्ति। छत्तीसइमसए अट्ठमं सयं सम्मत्तं // 36 / / 8 || जहा भवसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणियव्वाणि णवरं सम्मत्तणाणाणि सव्वहाणत्थि सेसं तं चेव, एवं एयाणि वारसबेइंदियमहाजुम्मसयाणि भवंति सेवं भंते ! भंते / त्ति / / बेइंदियमहाजुम्मसया सम्मत्ता / छत्तीसइमं महाजुम्मसयं सम्मत्तं / / 36 // कडजुम्म 2 तेइंदियाणं भंते ! कओ उवववजंति एवं तेइंदिएसु वि वारस सया कायव्वा बेइंदियसयसरिसा णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइं ठिई जहणणेणं एक समयं उक्कोसेणं एगूणवण्णइंदियाइं सेसं तहेवसेवं भंते ! भंते ! त्ति / तेइंदियमहाजुम्मसया सम्मत्ता / सत्ततीसइमं सयं सम्मत्तं // 37 // चउरिदिएहिं विएवं वारस सयाकायव्वा णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई ठिई जहण्णेणं एकं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा सेसं जहा बेइंदियाणं सेवं भंते ! भंते ! त्ति। चउरिंदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं (अहतीसइमं सयं सम्मत्तं) / / 3 / / कड जुम्म 2 असण्णिपंचिंदियाणं मंते ! कओ उववज्जति जहा बेइंदियाणं तहेव असण्णिसु वि वारस सया कायव्वा णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं जोअणसहस्सं संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं पुष्वकोडिपुहुत्तं / ठिई जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं पुवकोडी सेसं बेइंदियाणं / सेवं भंते ! भंते ! त्ति। असण्णी पंचिंदियमहाजुम्मसया सम्मत्ता। एगणयालीसइमं सयं सम्मत्तं / / 36 || कड जुम्म 2 सण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति उववाओ चउसु वि गईसुसंखेजवासाउय असंखेज्जवासाउय पज्जत्ता अपञ्जत्तएसुय ण कओ विपडिसेहो जाव अणुत्तरविभाणत्ति परिमाणं अवहारो ओगाहणा जहा असण्णिपंचिंदियाणं वेदणिज्जवजाणं सत्तण्हं कम्मप्पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वा वेदणिज्जस्स बंधगा णो अबंधगा, मोहणिज्जस्स वेदगा वा अवेदगा वा सेसाणं सत्तण्ह वि वेदगा णो अवेदगा, सायावेदगा वा, असायावेदगा, वा मोहणिज्जस्स उदई वा अणुदई वा सेसाणं सत्तण्ह वि उदयीणो अणुदई णामस्स गोयस्सय उदीरगाणो अणुदीरगा सेसाणं छह वि उदीरगावा अणुदीरगा वा कण्हलेस्सा वाजाव सुक्कलेस्सा या सम्मद्दिहिवा मिच्छाद्दिट्टि वा सम्मा मिच्छादिट्ठि वाणाणी वा अण्णाणी वा मणजोगी वा वइजोगी वा कायजोगी वा उवओगो वण्णमादी उस्सासगा आहारगा य जहा एगिदियाणं, विरया वा अविरया वा विरयाविरया य सकिरिया णो अकिरिया। तेणं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अट्ठविहबंधगा वा छव्विहबंधगा वा एगविहबंधगा वा ? गोयमा ! सत्तविह बंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा / तेणं भंते ! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिगहसण्णोवउत्ता णो सण्णोवउत्ता ? गोयमा ! आहारसण्णोवउत्ता जाव णो सण्णो उत्ता सव्वपुच्छा भाणियवा। कोहकसायी जाव लोभकसाई वा अकसायी वा इत्थीवेदगा वा पुरिसवेदगा वा णपुंसगवेदगा वा अवेदगा वा / इत्थिवेदबंधगा वा पुरिवेदबंधगा वा णपुंसगवेदबंधगा वा अबंधगा वा सण्णी णो असण्णी सइंदिया णो अणिं दिया, संचिट्टणा जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं सा Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 988 अभिधानराजेन्द्रः भाग 2 उववाय गरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं आहारो तहेव जाव णियमं छद्धिसिं ठिई जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। छ समुग्घाया आदिल्लगा मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति अंगमोहया वि मरंति / उव्वट्टणा जहेव उववाओ ण कत्थई पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाणत्ति / अह भंते ! सव्वपाणा जाव अणंतखुत्तो एवं सोलससु विजुम्मेसु भाणियव्वं जाव अणंतखुत्तो णवरं परिमाणं जहा बेइंदिया सेवं भंते ! भंते ! त्ति।। 40 // 1 // पढमसमयकडजुम्म 2 सण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववाओ परिमाणं आहारो जहा एएसिंचेव पढमो उद्देसए ओगाहणाबंधो वेदो वेदणा उदयी उदीरगा य जहा बेइंदियाणं पढमसयाणं तहेव कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा सेसं जहा बेइंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अणंतखुत्तो णवरं इत्थिवेदगा वा पुरिसवेदगावा णपुंसगवेदगावासणिणो असण्णिणो सेसं तहेव एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाणं तहेव सेवं भंते ! भंते ! ति॥ एवं एत्थ वि एकारस उद्देसगा तहेव पढमो तइओ पंचमो य सरिसगमगा सेसा अट्ट विसरिसगमगा चउत्थछट्टट्ठमदसमेसु णत्थि विसेसो कोइ वि सेवं भंते ! भंते ! त्ति / 40 / / (पढम पंचिंदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं / / 1 / / ) कण्हले स्स कडजुम्मरसण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति तहेव पढमुद्देसओ सण्णीणं णवरं बंधो वेओ उदयी उदीरणालेस्सबंधगसण्णकसायवेदबंधगा एयाणि जहा बेइंदियाणं कण्हलेस्साणं वेदो तिविहो अवेदगा णत्थि, संचिट्ठणा जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तममहियाइं। एवं ठिईए वि णवरं ठिईए अंतोमुहुत्तममहियाई ण भण्णंति सेसं जहा एएसिं चेवपढमुद्देसए जाव अणंतखुत्तो एवं सोलससु विजुम्मेसु सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 2 // पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्म२सण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववनंति पढमसमयउद्देसए तहेव णिरवसेसं णवरं तेणं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? हता कण्हलेस्सा सेसं तहेव एवं सोलससु वि जुम्मेसु सेवं भंते ! भंते ! त्ति, एवं एएवि एकारस उद्देसगा कण्हलेस्ससए पढमततियपंचमा सरिसगमगा सेसा अट्ठ विसरिसगमा सेवं भंते ! भंते ! त्ति (वितियं सयं सम्मत्तं)॥२॥ एवं णीललेस्सेसु वि सयं णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं दसागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई। एवं ठिईए वि, एवं तिसु उद्देसएसु सेसं तहेव सेवं भंते !! भंते ! त्ति / ततियं सयं सम्मत्तं // 3 // पञ्चत्रिंशशते संख्यापदैरेकेन्द्रिया प्ररूपिताःषत्रिंशेतु तैरेव द्वीन्द्रियाः प्ररूप्यन्त इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रंकडजुम्मबेइंदियाणमित्यादि (जहणणेणं एवं समयंति) समयानन्तरं संख्यान्तरभावादेवं स्थितिरपि, इतः सर्वसूत्रसिद्धमाशास्त्रपरिसमाप्तेर्नवरं चत्वारिंशेशते (वेयणिजवजाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा अबंधगा वत्ति) इह वेदनीयस्य बन्धविधि विशेषेण वक्ष्यतीति कृत्वा वेदनीयवानामित्युक्तं तत्रचोपशान्तमोहादयः सप्तानामबन्धका एव शेषास्तु यथासम्भवं बन्धका भवन्तीति (वे यणिजस्स बंधगा नो अबंधगत्ति) के वलित्वादारात्सर्वेऽपि सज्ञिपशेन्द्रियास्तेच वेदनीयस्य बन्धका एव नाबन्धकाः (मोहणिजस्स वेयगा वा अवेयगा वत्ति) मोहनीयस्य वेदकाः सूक्ष्मसम्परायान्ता अवेदकास्तु उपशान्तमोहादयः (सेसाणं सत्तण्ह विवेयगा नो अयेयगत्ति) ये किलोपशान्तमोहादयः सज्ञिपञ्चेन्द्रियास्ते सप्तानामपि वेदका नो अवेदकाः केवलिन एव चतसृणां वेदका भवन्ति ते चेन्द्रियव्यापारातीतत्वेन न पञ्चेन्द्रिया इति / / (सायावेयगा वा असायावेयगा वत्ति) सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेवं स्वरूपत्वात् (मोहणिजस्स उदयी वा अणुदयी वत्ति) तत्र सूक्ष्मसम्परायान्ता मोहनीयस्योदयिनः उपशान्तमोहादयस्त्वनुदयिनः / सेसाणं सत्तण्हवीत्यादि प्राग्वत् नवरं वेदकत्वानुक्रमेणाकरणेन चोदयागतानामनुभवनम् उदयस्त्वनुक्रमा गतानामिति (नामस्स गोयस्स य उदीरगा नो अणुदीरगत्ति) नामगोत्रयोरकषायान्ताः सज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सर्वेऽप्युदीरकाः (सेसाणं छहवि उदीरगा वत्ति) शेषाणां षण्णामपि यथासम्भवमुदीरकाश्चानुदीरकाश्च, यतोऽयमुदीरणाविधिः प्रमत्तान्ताः सामान्येनाष्टानामावलिकावशेषायुष्कास्तु त एवायुर्वर्जसप्तानामुदीरका अप्रमत्तादयस्तु चत्वारो वेदनीयायुर्वर्जानां षण्णां तथा सूक्ष्मसम्पराया आवलिकायां स्वाद्धायाः शेषायां मोहनीयवेदनीयायुर्वर्जानां पशानामपि उपशान्तमोहास्तूक्तरूपाणां पञ्चानामेव क्षीणकषायाः पुनः स्वाद्धाया आवलिकायां शेषायां नामगोत्रयोरेव सयोगिनोऽप्येतयोरेवायोगिनस्त्वनुदीरका एवेति। (संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयंति) कृतयुग्म 2 सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणांजघन्येनावस्थितिरेकं समयं समयानन्तरं संख्यान्तरसद्भावात् / (उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगत्ति) यत इतः परं सझिपञ्चेन्द्रिया न भवन्त्येवेति (छ समुग्घाया आइल्लगत्ति) / सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामाद्याः षडेव समुद्धाता भवन्ति सप्तमस्तु केवलिनामेव ते चानिन्द्रिया इति। कृष्णलेश्याशते-(उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाइंति) इदं कृष्णलेश्यावस्थान सप्तमप्रथिव्युत्कृष्टस्थितिं पूर्वभवपर्यन्तवर्तिनं कृष्णलेश्यापरिणाममाश्रित्येति नीललेश्याशते (उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिओवमस्स असं खेजइभागमभहियाइंति) पञ्चमपृथिव्या उपरितनप्रस्तटे दशसागरोपमाणि पल्योपमासंख्येयभागधिकान्यायुः सम्भवति नीललेश्या च तत्र स्यादत उक्तम् उक्कोसेणमित्यादि / यचेह प्राक्तनभवान्तिमान्तर्मुहर्त तत्पल्योपमासंख्येयभागे प्रविष्टमिति न भेदनोक्तमेवमन्यत्रापि। (तिसु उद्देसएसुत्ति) प्रथमतृतीयपञ्चमेष्विति / / भ० 40 श०१ उ० / जी०। एवं काउलेस्ससयं पिणवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं तिपिण सागरोदमाइं पलिओवमस्स असं खेज्जइभागमब्भहियाइं एवं ठिईए वि एवं तिसु वि उद्देसए सु से सं तहे व से वं मंते ! भंते ! त्ति (चउत्थं सयं सम्मत्तं)।।४। एवं तेउलेस्सविसयं णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइ पलिओवमस्स Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय असंखेज्जइभागमभहियाइं। एवं ठिईएवि णवरंणो सण्णोवउत्ता एवं तिसुवि गमएस सेवं भंते ! मंते ! त्ति // पंचमं सयं / / 5 / / जहा तेउलेस्सासतं तहा पम्हलेस्स सयं पिणवरं संचिट्ठणा जहण्ण्णं एक समयं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तममहियाई एवं ठिईएविणवरं अंतोमुहुत्तं ण भण्णति सेसं तहेव। एवं एएसु पंचसुसएसु 2 जहा कण्हलेस्ससए गमओ तहा तव्वो जाव अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति (छठे सयं सम्मत्तं)॥६|| सुक्कलेस्ससयं जहा ओहियसए णवरं संचिट्ठणा ठिई य जहा कण्हलेस्ससए सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति सत्तमं सयं सम्मत्तं / / 7 / / भवसिद्धियक डजुम्म 2 सपिणपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढम सण्णिसत्तं तहा णेतव्वं भवसिद्धियामिलावणं णवरं सव्वपाणा णो इण? समढे सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति।। (अट्ठमं सयं)||८| कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्म 2 सपिंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्ससयं सेचं भंते ! भंते ! ति / / (णवमं सयं) ||6|| एवं णीललेस्समवसिद्धिए वि सयं सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / (दसमं सयं) ||10 // एवं जहाओहियाणि सण्णिपंचिंदियाणि सत्त सयाणि भणियाणि एवं भवसिद्धिएहिं वि सत्तसयाणि कायव्वाणि णवरं सत्तसु वि सएसु सव्वपाणा जाव णो इणढे समढे सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / भवसिद्धियसया सम्मत्ता / / (चउद्दसम सयं सम्मत्तं)॥१४||अभवसिद्धियकडजुम्म 2 सण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति उववाओ तहेव अणुत्तर विमाणवज्जो परिमाणं आहारो उच्चत्तं बंधो वेदो वेदणं उदओ उदीरणा य जहा कण्हलेस्सए कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेसा वा णो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठीणो णाणी अण्णाणी एवं जहा कण्हलेस्ससए णवरं णो विरया अविरया णो विरयाविरया संचिट्ठणा ठिई य जहा ओहियउद्देसए समुग्घाया आदिल्लगा पंच उव्वदृणा तहेव अणुत्तरविमाणवजं सव्वपाणाणा इणढे समटे सेसं जहा कण्हलेस्ससए जाव अणंतखुत्तो, एवं सोलससु वि कडजुम्मेसु सेवं भंते ! भंते! त्ति१|| पढमसमयअभवसिद्धियकडजुम्म 2 सण्णिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उव्वज्जति जहा सण्णीणं पढमसमयउद्देसएतहेवणवरं सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं णाणं च सव्वत्थ णत्थि सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ! ति / / 2 / / एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा पढौ तइयपंचमा एक गमा सेसा अट्ठवि एक्कगमा / पढम अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं / (पण्णरसमं सयं सम्मत्तं) / / 15 / / कण्हलेस्सअभवसिद्धियक डजुम्म 2 असण्णि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति जहा एएसिं चेव ओहियसए तहा कण्हलेस्ससयं पिणवरं तेणं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा ठिई संचिट्ठणा य कण्हलेस्ससए सेसं तं चेव सेवं भंते। भंते !त्ति। वितियं अभवसिद्धियमहाजुम्मसयं / / 40|| (सोलसमं सयं सम्मत्तं) / / 16 / / एवं छहिं लेस्साहिं छ सया कायव्वा जहा कण्हलेस्ससयं णवरं संचिट्ठणा ठिती य जहेव ओहियसए तहेव भाणियव्वा णवरं सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, ठिती एवं चेव णवरं अंतो मुहुत्तो णत्थि जहण्णगं तहेव सव्वत्थं सम्मत्तं णाणाणि णत्थि, विरयी विरयाविरयी अगुत्तरविमाणोदवत्ति एयाणि णत्थि सव्वपाणा णो इणढे समठे, सेवं भंते ! भंते ! त्ति / एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धिसयाणि महाजुम्मसयाणि भवंति 2 एवं एयाणि एकवीसं सण्णिमहाजुम्मसयाणि सव्वाणि एक्कासीतिमहा जुम्मसया सम्मत्ता चत्तालीससयं सम्मत्तं // 40 // कापोतलेश्याशते, उक्कोसेणं तिषिण सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाइंति, यदुक्तं तदीशानदेवपरमायुराश्रित्येत्यवसेयम् पद्मलेश्याशते, उक्कोसेणं दससागरोवमाई, इत्यादितु यदुक्तं तद्ब्रह्मलोकदेवायुराश्रित्येति मन्तव्यम् / तत्र हि पालेश्ये तावचायुर्भवत्यन्तर्मुहूर्त च प्राक्तनभवावसानवर्तीति। शुक्लश्लेश्याशते (संचिट्ठणा ठिई य जहा कण्हलेस्ससएत्ति) त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सान्तर्मुहूर्तानि शुक्ललेश्यावस्थानमित्यर्थः / एतच्च पूर्वभवान्त्यान्तमुहूर्तमनुत्तरायुश्चाश्रित्येत्यवसेयम् / स्थितिस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति / नवरं सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोयमाई अतोमुहुत्तमब्भहियाइंति, यदुक्तं। तदुपरितनगवेयकमाश्रित्येति मन्तव्यम्। तत्र हि देवानामेतावदेवायुः शुक्ललेश्या च भवत्यभव्याश्चोत्कर्षतस्तत्रैव देवतयोत्पद्यन्तेन तु परतोऽप्यन्तर्मुहूर्त च पूर्वभवावसानसंबंधीति।। (12) राशियुग्मविशेषेण नैरयिकाणामुपपातः। कइणं भंते ! रासीजुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि एसीजुम्मा पण्णत्ता, तं जहा कडजुम्मे जाव कलिओगे, से केणढेणं भंते ! एवं वुचइ चत्तारि रासीजुम्मा पण्णत्ता जाव कलिओगे ? गोयमा ! जेण रासी / च उक्कएणं अवहारेणं अवहारमाणे चउपज्जवसिए से तं रासीजुम्मकडजुम्मे एवं जाव जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहारमाणे एगपज्जवसिए से ते रासीजुम्मक लिओगे से तेणढे णं जाव क लिओगे रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति उववओ जहा वकंतीए, तेणं भंते ! जीवा एगसमइएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! चत्तारि वा अट्ठ वा वारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति तेणं भंते ! जीवा किं संतरं उववजंति णिरंतरं उववजंति? गोयमा ! संतरं पि उववजंति णिरंतरं पि Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 6EO- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय उववजंति संतरं उववजमाणा जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेजसमया अणंतरं काउंउववज्जंति, णिरंतरं उववज्जमाणा जहण्णेणं दो समया उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं णिरंतरं उववजंति, तेणं भंते! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेओगा, जं समयं तेओगा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणढे समढे जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावर जुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणद्वे समढे जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा जं समय कलिओगा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणढे समढे तेणं भंते ! जीवा कहं उववजंति? गोयमा ! से जहा णामए पवए पवमाणे एवं जहा उववायसए जाव णो परप्पओगे णं उववजंति / तेणं भंते ! जीवा किं आयजसेणं उववशंति आय अजसेणं उववजंति? गोयमा! णो आयजसेणं उववजंति आय अजसेणं उववजंति जइ आयअजसेणं उववज्जति किं आयजसं उवजीवंति आयअजसं उवजीवंति? गोयमा ! णो आयजसं उवजीवंति आयअजसं उवजीवंति, जदि आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा णो अलेस्सा / जदि सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो अकिरिया, जदि सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झंति जाव अंत करें ति? णो इणढे समढे / रासीकडजुम्मअसुरकुमाराणं भंते ! कओ उववजंति जहेव णेरइया तहेव णिरवसेसं एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णवरं वणस्सइकाइया जाव असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जत्ति, संसंतं चेव मणुस्सा वि एवं चेव जाव णो आयजसेणं उववजंति आयअजसेणं उववजंति, जइ आयअजसेणं उववज्जति किं आयजसं उवजीवंति आयअजसं उवजीवंति ? गोयमा ! आयजसं पि उवजीवंति, आय अजसं पि उवजीवंति जइ आयजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा? गोयमा! सलेस्सा वि अलेस्सा वि जदि अलेस्सा वि जदि अलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! णो सकिरिया अकिरिया / जदि अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झंति जाव अंतं करेंति? हंता सिज्झंति जाव अंतं करेंति, जदिसलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो अकिरिया जदि सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंतिजाव अंतं करेंति? गोयमा! अत्थेगइया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइयाणा तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति जदि आयअजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा णो अलेस्सा, जइसलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा! सकिरिया णो अकिरिया जइ / सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झंति जाव अंतं करेंति ? णो इणद्वे समढे वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा णेरइया सेवं ! भंते ! भंते ! त्ति (इगुलीसइमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो // 41 // )|1|| रासीजुम्मतेओगणेरइयाणं भंते! कओ उववनंति एवं चेव उद्देसओ भाणियव्वो णवरं परिमाणं तिण्णि वा सत्त पा एक्कारस वा पण्णरस वा संखेजा वा असंखेज्जा वा उववजंति, संतरं तहेवं तेणं भंते ! जीवा जं समयं तेओया तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेओगा ? णो इणढे समढे / जं समयं तेओगा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेओया ! णो इणढे समढे / एवं कलिओगेण वि समं सेसंतं चेव जाव वेमाणिया णवरं उववाओ सवेसिं जहा वक्कतीए। सेवं भंते ! भंते ! त्ति।।४१|| ||2|| रासी जुम्मदावरजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति एवं चेव उद्देसओ णवरं परिमाणं दो वा छ वा दस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा उववजंति संवेहो, तेणं भंते ! जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कंडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा ? णे इणढे समढे / उवं तेओगेण वि समं एवं कलिओगेण वि समं, सेसं जहा पढमुद्देसइ जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! भंते ! ति॥४१॥३॥रासीजुम्मकलिओगे णेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति एवं चेव परिमाणं एको वा पंच वा णव वा तेरस वा संखेजावा असंखेजावा उववजंति संवेहो, तेणं भंते ! जीवा जं समयं कलिओगा तं समयं कंडजुम्मा जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा? णो इणढे समढे / एवं तेओगेण वि समंदावरजुम्माण वि समं, सेसं जहा पढमुद्देसए। एवं जाव वेमाणिया / सेवं मंते ! भंते ! त्ति // 41 // 4 // कण्हलेस्स रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववचंति उववाओ तहा धूमप्पभाए सेसं जहा पढमुद्देसए। असुरकुमाराणं तहेव एवं जाव वाणमंतराणं / मणुस्साण वि जहेव णेरइयाणं / आयअजसं उवजीवंति, अलेस्सा अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति एवं ण भाणिव्वं सेसं जहा पढमुद्देसए सेवं भंते ! भंते ! ति॥४१॥५॥ कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ सेव भंते ! त्ति // 41 // 6 // कण्हलेस्सदावरजुम्मे हि वि एवं चेव उद्देसओ सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 41 / 17 / / कण्हलेस्सकलिओगेहि वि एवं चेव उद्देसओ परिमाणं संवेहो य जहा आहिएसु उद्देसएसु सेवं भंते ! भंते ! त्ति ||41||8|| जहा क पहले स्से हिं एवं णीलले स्से हि वि चत्तारि उहे सगा भाणियटवा णिरवसेसा णवरं णेरइयाणं उववाओ जहा वालुयप्पभाए सेसं तं चेव। सेवं भंते ! भंते ! ति।।४१।।१२।। Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय काउलेस्सेहि वि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायवा णवरं णेरइयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 41||16|| तेउलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मअसुरकुमाराणं भंते ! कओ उववजंति एवं चेवणवरं जेसु तेउलेस्सा अत्थि तेसु भाणियव्वं एवं एएवि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारी उद्देसगा कायव्वा / / सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 51 // 20 // एवं पम्हलेस्साए विचत्तारि उद्देसगा कायव्वा। पंचिदियतिरिक्खजोणियामणुस्सा वेमाणियाणं एएसिं पम्हलेस्सा सेसाणं णत्थि सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 41 // // 24|| जहा पम्हलेस्सा एवं सुक्कलेस्साए चत्तारि उद्देसगा कायव्वा णवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहियउद्देसएसु सेसं चेव एएसु छसु लेस्ससु चउव्वीसं उद्देसगा ओहिया चत्तारि सव्वे ते अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति सेवं मंते! भंते ! त्ति॥४१||२८|| भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव णिरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / 41||32|| कण्हलेस्सभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमेवि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा / / 41||36 / / एवं णीललेस्सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा / / 41||4|| एवं काउलेस्साहि वि चत्तारि उद्देसगा // 41||44|| तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहिया सरिसा / / 41|4|| पम्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा ||41|5|| सुक्कलेस्सेहिवि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा एवं एएविभवसिद्धिएहि विअट्ठावीसं उद्देसगा भवंति सेवं भंते! भंते ! त्ति // 41||56|| अभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति जहा पढमो उद्देसओ णवरं मणुस्साणं णेरइया य सरिसा भाणियव्वा सेसं तहेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति एवं चउसुवि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा // 60 // कण्हलेस्सा अभव-सिद्धियरासीजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति एवं चेव चत्तारि उद्देसगा॥६॥ एवं णीललेस्सअभवसिद्धिएहिवि चत्तारिउद्देसगा॥६८|| एवं काउलेस्सेहिं विचत्तारि उद्देसगा / 72 / / एवं तेउलेस्सेहिंवि चत्तारि उद्देसगा // 76|| पम्हले स्से हिं वि चत्तारि उद्दे सगा ||80|| सुक्कलेस्से अभवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसगा एवं एएस अट्ठावीसाएवि अभवसिद्धियउद्देसएसुमणुस्साणेरइयगमेणंणेतव्वा,सेवं भंते ! भंते ! त्ति एवं एतेवि अट्ठावीस उद्देसगा||४१||८४ा सम्मट्ठिी रासीजुम्म कडजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं जहा पढमो उद्देसओ एवं चउसुवि जुम्मेसु चत्तारि उहे सगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा, सेवं भंते ! मंते ! त्ति ||8|| कण्हलेस्ससम्मद्दिट्ठी रासीजुम्मणेरइयाणं भंते ! उववजंति, एएवि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि वि उद्देसगा कायव्वा एवं सम्मट्ठिीसुवि भवसिद्धयसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा, सेवं भंते ! भंते ! ति जाव विहरइ // 41||11|| मिच्छट्ठिी रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं मंते ! कओ उववजंति एवं एत्थवि मिच्छादिट्ठी अभिलावेणं अभवसिद्धयसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायदा, सेवं मंते! भंते ! त्ति॥४१॥१४०|| कण्हपक्खियरासीजुम्मकड जुम्मणे रइयाणं भंते ! क ओ उववजंति एवं अभवसिद्धयसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायव्वा, सेवं भंते ! भंते ! त्ति // 41 // 168|| सुक्कपक्खियरासीजुम्मणेरइयाणं मंते ! कओ उववजंति एवं एत्थवि भवसिद्धयसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति एवं एएणं सव्वेवि छण्णउयं उद्देसगं सयं भवति ॥रासीजुम्मसयं सम्न्तं // 41 // 116 / (रासीजुम्मकडजुम्मनेरइयत्ति) राशियुग्मानां भेदभूतेन कृतयुग्मेन ये प्रमितास्ते राशियुग्मकृतयुग्मास्ते च ते नैरयिकाश्चेति समासोऽतस्ते, अणुसमयमित्यादि, पदत्रयमेकार्थम्॥ (आयजसेणंति) आत्मानः सम्बन्धि यशो यशोहेतुत्वाद्यशः संयम आत्मयशस्तेन (आयजसं उवजीवतित्ति) आत्मयश आत्मसंयममुपजीवन्त्याश्रयन्ति विदधतीत्यर्थः / इह च सर्वेषामेवात्मयशसैवोत्पत्तिरुत्पत्तौ सर्वेषामप्यविरतत्वादिति। इह च शतपरिमाणमिदमाद्यानि द्वात्रिंशच्छतान्यविद्यमानावान्तरशतानि त्रयस्त्रिंशादिषु तु सप्तसु प्रत्येकमवान्तरशतानि द्वादशचत्वारिंशेत्येकविंशतिरेकचत्वारिंशे तु नास्त्यवान्तरशतमेतेषां च सर्वेषां मीलनेऽष्टत्रिंशदधिकं शतानां शतं भवत्येवमुद्देशकपरिमाणमपि सर्वं शास्त्रमवलोक्यावसेयं तचैकोनविंशतिशतानि पञ्चविंशत्याधिकानीति। इह शतेषु कियत्स्वपि वृत्तिका, विहितवानहमस्मि सुशङ्कितः ! विवृतिचूर्णिगिरां विरहाद्विदृक् कथमशङ्कमियय॑थवा पथि। अति एकचत्वारिंश शतं वृत्तितः समाप्तम्। भ०४१ श०१६६ उ०। क्षुद्रयुग्मविशेषणेन नैरयिकादीनाम्। खुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति किं रइएहिंतो उववजंति तिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति एवं रइओ उववाओ जहावकंतीएतहा भाणियव्वो, तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा सोलस वा संखेज्जा वा असंखेजा वा उववजंति तेणं भंते ! जीवा कहं उववजंति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे अज्झवसाणे एवं जहा पंचवीसइमसएअट्टमुद्देसएणेरझ्याणंवत्तव्वयातहेव इहविभाणियव्वा जाव आयप्पओगेणं उववजंति को परप्पओगेणं उववजंति। रयणप्पमापुढ विखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं मंते ! कओ उवव Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय ६६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय जंति एवं जहा ओहियणेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणभाए वि भाणियव्वा जाव णो परप्पओगेणं उववजंते एवं सक्करप्पभाएवि एवं जाव अहेसत्तमाएवि। एयं उववाओ जहा वकंतीए असण्णी खलु पढमंदोचेव सरोसीवातईयपक्खीगाहा। एवं उववातेयव्वा सेसं तहेव / खुड्डागतेओगणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति किं णेरइएहिंतो उववातो जहा वकंतीए तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति? गोयमा ! तिण्णी वा सत्त वा एक्कारस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववखंति सेसं जहा कडजुम्मस्स। एवं जाव अहेसत्तमाए। खुड्डागदावरजुम्मणेरइयाणं भंते ! कओ उववखंति एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे णवरं परिमाणं दो वा छवा दस वा चउद्दस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा सेसं तं चेव / एवं जाव अहेसत्तमाए / खुड्डागकलिओगणेरइयाणं भते! कओ उववज्जति एवं जहेव खुड्डाकडजुम्मे णवरं परिमाणं एक्को वा पंच वा णव वा तेरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति सेसं तं चेव एवं जाव अहेसत्तमाए। सेवा मंते! भंते! त्ति। जाव विहरइ इकतीसइमस्स पढमो॥३१॥१॥ (जहा वक्कतीएत्ति) प्रज्ञापनाष्टपदे अर्थतश्चैवं तत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भ्यो गर्भजमनुष्येभ्यश्च नारका उत्पद्यन्त इति विशेषस्तु असण्णी खलु पढममित्यादि / / गाथाभ्यामवसे यः (अज्झवसाणत्ति) अनेन (अज्झवसाण निव्वत्तिएणं करणोववाएणति) सूचितम्।। एकत्रिंशशते प्रथमः // 31 / / 1 / / कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं जहा ओहियगमो जाव णो परप्पओगेणं णवरं उववातो जह वक्कं तीए धूमप्पभपुढविणेरइयाणं सेसं तहेव धूमप्पभपुढ विकण्हलेस्सखुड्डागकड जुम्मणेरइयाणं भंते! क ओ उववजंति एवं चेव णिरवसेसं / एवं तमाएवि एवं अहेसत्तमाएवि णवरं उववाओ सवत्थ जहा वक्वं तीए / कण्हलेस्सखड्डागतेओगणेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं चेव णवरं तिण्णीवा सत्त एक्कारस वा वा पण्णरस वा संखेज्जावा असंखेजा वा सेसं तहेव एवं जाव अहे सत्तमाएवि // कण्हलेस्सखुड्डागदावरजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववज्जंति एवं चेवणवरं दो वा छ वा दस वा चउद्दस वा सेसं तं चेव / एवं धूमप्पभाए वि जाव अहे सत्तमाएवि कण्हलेस्सखुड्डागकलिओगणेरइयाणं भंते ! एवं चेव णवरं एक्को वा पंच वा णव वातेरस वा संखेज्जावा असंखेज्जा वा सेसं तं चेव / एवं धूमप्प्माए वि तमाए वि। अहेसत्तमाएवि सेवं भंते! भंते! त्तिएगतीसइमस्स वितिओ उद्देसो / सम्मत्तो॥ द्वितीयस्तु कृष्णलेश्याश्रयः सा च पञ्चमीषष्टीसप्तमीष्वेव पृथिवीषु भवतीति कृत्वा सामान्यदण्डकस्तद्दण्डकत्रयं चात्र भवतीति (उववाओ जहावकंतीए धूमप्पभपुढविनेरइयाणंति) इह कृष्णलेश्या प्रक्रान्ता सा च धूमप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा उत्पद्यन्ते तेषामेवोत्पादो वाच्यस्ते वा संज्ञिसरीसृपपक्षिसिंह वर्जा इति / / भ०३१७०२ उ०। णीललेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववअंति एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मा, णवरं उववाओ जो वालुयप्पभाणी सेसं तं चेव वालुयप्पभ पुढविणीललेस्सखुड्डागकडजुम्म जेरइयाणं एवं पंकप्पभाएवि / एवं चउसुवि जुम्मे सु णवरं परिमाणं जाणियवं, परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए सेसंतहेव सेवं भंते! भंते! त्ति एकतीसइमस्स ततिओ उद्देसो सम्मत्तो॥३१॥३॥ तृतीयस्तु नीललेश्याश्रयः सा तृतीया चतुर्थीपञ्चमीष्वेव पृथिवीषु भवतीति कृत्वा सामान्यदण्डकस्तद्दण्डकत्रयं चात्र भवतीति (उववाओ जो बालुयप्पभाएत्ति) इह नीललेश्या प्रक्रान्ता सा च बालुकाप्रभायां भवतीति तत्र ये जीवा उत्पद्यन्ते तेषामेवोत्पादो वाच्यः ते चासझिसरीसृपवर्जा इति (परिताणं जाणियव्वंति) चतुरष्टद्वादशप्रभृतिक्षुल्लककृतयुग्मादिस्वरूपं ज्ञातव्यमित्यर्थः // 31 // 3 // काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मे, णवरं उववाओ जो रयणप्पभाए सेसं तहेव / रयणप्पभपुढविकाउलेस्सखुड्डागकडजुम्मणेरझ्याणं भंते ! कओ उववजंति। एवं सक्करप्पभाएवि। एवं वालुयप्पभाएवि एवं चउसुवि जुम्मेसु णवरं परिमाणं जाणियध्वं परिमाण जहा कण्हलेस्स उद्देसए सेसं तं चेव / सेवं मंते! भंते! ति। चतुर्थस्तु कापोतलेश्याश्रयः सा च प्रथमाद्वितीयातृतीयास्वेव पृथिवीष्विति कृत्वा सामान्यदण्डको रत्नप्रभादिदण्डत्रयं चात्र सम्भवतीति (उववओ जो रयणप्पभाएत्ति) सामान्यदण्ड के रत्नप्रभावदुपपातो वाच्यः शेषं सुत्रसिद्धम् / / एकत्रिंश शतं वृत्तितः समाप्तम् // 31 // 4 // भवसिद्धियखुड्डागकडजुम्मणेरइयाणं भंते! कओ उववजंति किं णेरइए एवं जहेव ओहिओतहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेणं उववखंति रयण्णप्पभापुढविभवसिद्धियखुड्डागकडजुम्मणेरइयागं मंते!एवं चेव णिरवसेसं / एवं जाव अहे सत्तमाए। एवं भवसिद्धियखुड्डागतेओगणेरइयावि। एवं जाव कलिओगत्ति णवरं परिमाणं जाणियव्वं परिमाणं पुव्वं भणियं जहा पढमुद्देसए सेवं भंते! मंते! त्ति // 31 // 5 / / कण्हलेस्स भवसिद्धिय खुड्डागकङ जुम्मणे रइयाणं भंते! उववज्जति / एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्सउद्देसए तहेव णिरवंसेसंचउसु विजुम्मेसु भाणियव्यो जाव अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्सभवसिद्धियखुड्डाग-कलिओगणेरइयाणं भंते! कओ उववञ्जति तहेव सेवं भंते! भंते! ति॥३१॥६।। णीललेस्सभवसिद्धियचउसुवि जुम्मेसु तहेव भाणियध्वं जहा ओहियणललेस्सउद्देसए सेवं भंते! भंते! त्ति / जाव विह Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय रइ // 31||7|| काउलेस्सभवसिद्धियचउसुवि जुम्मेसू तहेव उववातेयव्वो जहेव ओहिए काउलेस्सउद्देसए सेवं मंते! भंते! त्ति जाव विहरइ।३१||८|| जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसगा | भणिया एवं अभवसिद्धिएहिं चत्ताहि उद्देसगा भाणियव्वा जाव काउलेस्सउद्देसओत्ति / / सेवं मंते! भंते! त्ति // 31 // 12 // एवं सम्मदिट्ठीहिं विलेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वाणवरं सम्मविट्ठी पढमवितिएसु दोसुवि उद्देसएसु अहेसत्तमपुढवीसुण उववातेयव्वो सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते! त्ति // 31 // 16|| मिच्छादिट्ठीहिंवि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहा भवसिद्धियाणं सेवं मंते ! भंते! त्ति॥३१॥२०॥ एवं कण्हपक्खिएहिंवि लेस्सा संजुत्ता चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहेव भवसिद्धिएहिंवि सेवं भंते ! भंते! ति / / 31||24|| सुक्कपक्खिएहिं एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियटवा जाव बालुयप्पामापुढविकाउलेस्ससुक्कपक्खिए खुड्डागकलिओगणेरझ्याणं भंते ! कओ उववजंति तहेव जाव णो परप्पओगेणं उववजंति सेवं भंते ! भंते! त्ति / / 31 // 28|| सव्वेवि एए अट्ठावीसउद्देसगा उववायसयं सम्मत्तं // 31 // 28|| (13) भव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते। भवियदव्वदेवाणं भंते! कओहिंतो उववखंति किं णेरइएहितो उववजंति तिरिक्खमणुस्सदेवेहिंतो उववजंति ? गोयमा! णेरइएहिंतो उववजंति तिरि० मणु० देवेहिंतो उववजंति भेदो जहा वकंतीएसव्वेसुउववातेयव्वाजाव अणुत्तरोववाइयत्ति, णवरं असंखेजवासाउय अकम्मभूमिगअंतरदीवसव्वट्ठ-सिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहिंतोवि उववजंति / णरदेवाणं मंते! कओहिंतो उववजंति किं णेरइए पुच्छा? गोयमा! णेरइएहिंतोवि उववज्जंति णो तिरि० णो मणु० देवेहिंतोवि उववज्जंति / जइ णेरइएहिंतो उववजंति किं रयणप्पभापुढविणेरइएहिंतो उववजंति जाव अहेसत्तमाए पुढविए णेरइएहिंतो वि उववजंति ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइएहिंतोवि उववजंति णो सक्कर० जाव णो अहेसत्तमाइपुढविणेरइएहिंतोवि उववजंति जइ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववखंति वाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवेहिंतो उववजंति? गोयमा! भवणवासिदेवेहिंतो उववजंतिवाणमंतर० एवं सव्वदेवेसु उववाएयव्वा वकंती भेदेणं जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति। (भेदोत्ति) “जइ नेरइएहिता उववज्रति किं रयण-प्पभापुढविनेरइएहितो", इत्यादिभेदो वाच्यः। (जहा वकंतीएत्ति) यथा प्रज्ञापनाषष्ठपदे। नवरमित्यादि (असंखेज्जवासाओत्ति) असंख्यातवर्षायुप्ककर्मभूमिजाः पञ्चेन्द्रियतियड्भनुप्या असंख्यातवर्षायुषामकर्मभूमिजादीनां साक्षादेव गृहीतत्वादेते भ्यश्चोवृत्ता भव्यद्रव्यदेवा न भवन्ति भावदेवेष्वेव तेषामुत्पादात् सर्वार्थसिद्धकास्तु भव्यद्रव्यसिद्धा एव भवन्तीत्यत एतेभ्योऽन्ये सर्वे भव्यद्रव्यदेवतयोत्पादनीया इति। भ०१२ श०६ उ०॥ (उत्पलजीवादीनामुपपातो वणस्सइशब्दे) धम्मदेवाणं भंते! कओहिंतो उववजंति किं गेरइएहिंतो एवं वक्कती भेदेणं सव्वेसु उववाएयव्वा जाव सव्यह्रसिद्धत्ति,णवरं तमा अहेसत्तमाए तेऊ वाऊ असंखेज्जवासाउय अकम्मभूमिगअंतर-दीवगवजेसु / दवाधिदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं णेरइएहिंतो उववजंति पुच्छा गोयमा! णेरइएहिंतो उववज्जंति, णो तिरि० णो० मणु० देवेहिंतो उववज्जति जइ णेरइए० एवं तिसु पुढविसु उववजंति सेसाओ खोडेयव्वाओ जइदेवेहिंतो विमाणिएसुसव्वेसु उववजंति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति सेसा खोडेयव्वा / भावदेवाणां भंते! कओहिंतो उववजंति? एवं जहा वक्तीए भवणवासीणं उववाओ तहा माणियध्वं / धर्मदेवसूत्रे नवरमित्यादि (तमत्ति) षष्ठपृथिवी तत उदृत्तानां चारित्रं नास्ति तथा अधःसप्तम्यास्तेजसो वायोरसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिजेभ्योऽकर्मभूमिजेभ्योऽतरद्वीपजेभ्यश्चोद्वृत्तानां मानुषत्वाभावान्न चारित्रं ततश्चन धर्मदेवत्वमिति देवातिदेवसूत्रे (तिसु पुढवीसु उववज्रतित्ति) तिसृभ्य पृथिवीभ्य उद्वृत्ता देवातिदेवा उत्पद्यन्ते (सेसाओ खोडेयवाओत्ति) शेषा पृथिव्यो निषेधयितव्या इत्यर्थः तान्थ उद्धृत्तानां देवातिदेवत्वस्याभावादिति, भावदेवाणमित्यादि, इह च बहुतरस्थानेभ्य उद्वृत्ता भवनवासितयोत्पद्यन्ते असझिनामपि तेषूत्पादादत उक्तम्, जहावकंतीए भवणवासीणं उववाओ, इत्यादि।। भ०१२ श०१० उ०। (14) स्वतोऽस्वतो वा नैरयिकादय उत्पद्यन्ते। सओ भंते! णेरइया उववजंति असतो णेरइया उववजंति? गंगेया! सओ णेरइया उववखंति णो असतो णेरइया उववजंति एवं जाव देमाणिया। सओ भंते! णेरइया उव्वाट्टति असओ णेरइया उव्वदृति? गंगेया!सओ णेरइया उव्वटुंतिणो असओ णेरड्या उव्वटुंति एवं जाव वेमाणिया, णवरं जोइसियवेमाणिएसु चयंति भाणियध्वं / सओ मंते! णेरइया उववजंति असओ णेरइया उववजंति सओ असुरकुमारा उववजंति एवं जावसओ वेमाणिया उववजंति असओ वेमाणिया उववजंति, सओणेरइया उव्वदृति असओणेरड्या उव्वदृति सओ असुरकुमारा उव्वट्ठति जावसओ वेयाणिया चयंति असओ वेमाणियाचयंति ? गंगेया! सओ णेसइया उववजंति णो असओ णेरइया उववजंति सओ असुरकुमारा उववअंतिणो असओ असुरकुमारा उववजंति जाव सओ वेमाणिया उववनंतिणो असओ वेमाणिया उववज्जंति सओ णेरइया उव्वट्ठति णो असओ रइया उव्वदृति जाव सओ वेमाणिया चयंति / णो असओ वेमाणिया चयंति / से केण Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 66Y - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय टेणं मंते! एवं वुचइसओणेरड्या उववजंति णो असओणेरइया उववखंति / जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति से णूणं मे गंगेया ! पासेणं अरहा पुरिसादाणिएणं सासए लोए वुइए अणाइए अणवदग्गे जहा पंचमे सए जाव जे लोकइ से लोए से तेणद्वेणं गंगेया! एवं वुचइ जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति। सयं भंते! एयं एवं जाणह उदाहु असयं असोचा एतेवं जाणह उदाहु सोचासओ णेरड्या उववखंतिणो असओ णेरड्या उववचंति जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ? गंगेया! सयं एते एवं जाणामि णो असयं असोचा एते एवं जाणामि णो सोचा सओ णेरड्या उववजंति णो असओ णेरइया उववजंति जाव सओ वेमाणिया चयंतिणो असओ वेमाणिया चयंति से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ तं चेव जाव णो असओ वेमाणिया चयंति ? गंगेया! केवणीणं पुरच्छिमणं मियंपि जाणइ अमियंपि जाणइ दाहिणेणं एवं जहा समुद्देसए जाव णिव्वुडे णाणे केवलिस्स से तेणटेणं गंगेया! एवं वुचइ तं चेव जाव णो असओ वेमाणिया चयंति / / अथ नारकादीनां प्रकारान्तरेणोत्पादोद्वर्तने निरूपयन्नाह, सओभते, इत्यादि / तत्र च (सओ नेरइया उववजंतित्ति) सता विद्यमाना द्रव्यार्थतया न हि सर्वथैवासत्किचिदुत्पद्यते सत्वादेव खरविषाणवत् सत्वं च तंषां जीवद्रव्यापेक्षया नारकापर्यायापेक्षया वा तथा हि भाविनारकपया।यापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सतो नारका उत्पद्यन्ते नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका एव ना रकत्येनोत्पद्यन्त इति / अथवा (सउत्ति) विभक्तिविपरिणामात्सत्सु प्रागुत्पन्नेष्वेन्ये समुत्पद्यन्तेनासत्सु लोकस्य शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव सद्भावादिति / / सेणूणं भे गंगेया, इत्यादि / अनेन च तत्सिद्धान्तेनैव स्वमतं पोषितं यतः पार्श्वनाथार्हता शाश्वतो लोका उक्तोऽतो लोकस्यशाश्वतत्वात्सन्त एव सत्स्वेव वा नारकादय उत्पद्यन्ते च्यवन्ते चेति साध्वेवोच्यत इति। अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनं ज्ञानसंपदं संभावयन् विकल्पयन्नाह / सयं भते! इत्यादि। स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः (एवंति) वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु (असयंति) अस्वयं परसो लिङ्गत इत्यर्थः / तथा (असोचत्ति) अश्रुत्वा आगमानपेक्षम् (एतेयंति) एतदेवमित्यर्थः (सोचत्ति) पुरुषान्तरवचनं श्रुत्वा आगमत इत्यर्थः (सयं एतेयं जाणामित्ति) स्वयमेतदेवं जानामि पारमार्थिकप्रत्यक्षसाक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्तोमस्वभावत्वान्मम॥ भ०६ श०३२ उ०। सयं भंते! णेरइया णेरइएसु उववजंति असयं णेरइयाणेरइएसु | उववजंति? गंगेया ! सयं णेरझ्या णेरइएसु उववजंति असयं णेरइया णेरइएसु उववजंति। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववजंति ? गंगेया! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्ममारियाए कम्मगुरुसंभारियत्ताए असुभाणं कम्माणं उदएणं असुभाणं कम्माणं विवागणं असुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं णेरइया णेरइएसु उववजंति से तेणटेणं ! गंगेया! जाव उववज्जति। सयं भंते! असुरकुमासा पुच्छा गंगेया ! सर्य असुरकुमारा उववजंति णो असयं असुरकुमारा उववजंति / से केणटेणं तं चेव जीव उववजंति? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मोवसमेणं कम्मवियइए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धीए सुभाणं कम्माणं उदएणं सुभाणं कम्माणं विवागेणं सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए जाव उववज्जति णो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति से तेणतुणं जाव उववजंति, एवं जाव थणियकुमारा / सयं भंते! पुढविकाइया पुच्छा गंगेया! सयं पुढवीकाइया उववजंति णो असयं जाव उववज्जति से केणद्वेणं जाव उववजंति ? गंगेया! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियताए कम्मगुरुयसंभारियत्ताए सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं सुभासुभाणं कम्माणं विवागेणं सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं पुढवीकाइया जाव उववजंति णो असयं पुढवीकाइया जाव उववखंति, से तेणढेणं जाव उववज्जंति एवं जाव मणूसा वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमारा से तेणट्टेणं गंगेया! एवं वुचइ सयं वेमाणिया जाव उववजंति णो असयं वेमाणिया जाव उववखंति।। सयं नेरइया नेरइएसु उववजंति) स्वयमेव नारका उत्पद्यन्ते नास्वयं नेश्वरपारतन्त्र्यादित्यर्थः यथा कैश्चिदुच्यते। "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा श्वभ्रमेववेति 1 ईश्वरस्य हि कालादिकारणकलापव्यतिरिक्तस्य युक्तिभिर्विचार्यमाणस्याघटनादिति (कम्मोदएणति) कर्मणामुदितत्वेननचकर्मोदयमात्रेण नारकेषु त्पद्यते केवलिनामपि तस्य भावादत आह (कम्मगुरुयाएत्ति) कर्मणां गुरुकता महत्ता कर्मगुरुकता तया (कम्मभारियाएत्ती) भारोऽस्ति येषां तानि भारिकाणि तद्भावो भारिकता कर्मणां भारिकता कर्मभारिकता तया महदपि किञ्चिदल्पभारं दृष्टं तथा विधभारमपि च किंचिदमहदित्यत आह (कम्मगुरुसंभारियत्ता एति) गुरोः सम्भारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता गुरुता सम्भारिकता चेत्यर्थः / कर्मणां गुरुसम्भारिकता कार्मगुरुसम्भारिकता तयाऽतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः / एतच्च त्रयं शुभकमपिक्षया स्यादत आह।। असुभाण, मित्यादि।। उदयप्रदेशतोऽपि स्यादत आह (विवागणंति) विपाको यथा बद्धरसानुभूतिः स च मन्दोऽपि स्यादत आह (फलविवागेणंति) फलस्येवालावुदकादेः विपाको विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेनासुरकुमारसूत्रे (कम्मोदएणंति) असुरकुमारोचितः कर्मणामुदयेन / वाचानान्तरे तु (कम्मोवसमेणंति) दृश्यते तत्र चाशुभकर्मणामुपशमेन सामान्यतः (कम्मवियइएत्ति) कर्मणामशुभानां विगत्या विगमेन स्थितिमाश्रित्य (कम्मविसोहीएत्ति) समाश्रित्य (कम्मविशुद्धीएत्ति) प्रदेशापेक्षया एकार्था Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 695 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय श्चैते शब्दा इति पुथिवीकायिकसूत्रे (सुभासुभाणंति) शुभानां शुभवर्णगन्धादीनामशुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां वा / भ०६ श० 32 उ०। (15) इदानीं षष्ठं द्वारमिभित्सुराह / उद्वर्त्य क्व गच्छन्ति। नेरइयाण मंते ! अणतरं उव्वट्टिता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति किं नेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसुमणुस्सेसु देवेसु उववजंति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जति तिरिक्खजोणिएसु उववजंति मणुस्सेसु उववजंति नो देवेसु उववचंति / जदि तिरिक्खजोणिएसु उववअंति किं एगिदिय, जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस उववजंति ? गोयमा ! नं एगिदिएसुजाव नो चउरिदिएसु उववजंति एवं जेहिंतो उववाओ भणिओ तेसु उवट्टणा वि भाणियव्वा नवरं सम्मुच्छिमेसु न उववजंति, एवं सवपुढवीसु भाणियव्वं नवरं अहेसत्तमाओ मणुस्सेसुन उववजंति असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टिता कहिं गच्छंति कहिं उववनंति किं नेरइएसु उववजंति जाव देवेसु उववज्जति गोयमा! नो नेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु उववजंति नो देवेसु उववजंति / जदि तिरिक्खजोणिएसु उववखंति किं एगिदियएसु जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस उववज्जति गोयमा ! एगिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति नो वेइंदिएसु जाव नो चतुरिदिएसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति।जदि एगिदिएसु उववजंति किं पुढवीकाइयएगिदिएसु जाव वणस्सइकाइयएगिदिएसु उववखंति ? गोयमा! पुढवीकाइयएगिदिएसुव आउक्काइयएगिदिएसुवि उववज्जति नो तेऊकाइएसु नो वाऊकाइएसु वणस्सइकाइएसु उववज्जंति गोयमा! नो सुहुमपुढवीकाइएसु अपज्जत्त-यबादरपुढवीकाइएसु उववजंति / जइ बादरपुढवीकाइएसु किं पञ्जत्तगबादरपुढवीकाइएसु अपज्जत्तयबादरपुढवीकाइएसु उववजंति ? गोयमा! पज्जत्तएसु उववजंति नो अपज्जत्तएसु एवं आउवणस्सईसु भाणियध्वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सेसुयजहा नेरइयाणं उव्वट्टणा सम्मुच्छिमवज्जा तहा भाणियव्वा / एवं जाव थणियकुमारा। पुढ वीकाइयाणां भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति किं नेरइएसु जाव देवेसु उववअंति? गोयमा! नो नेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु उववजंति नो देवेसु उववज्जंति / एवं जहा एतेसिं चेव उववाओ तहा उव्वट्टणावि देववज्जा भाणियव्वा / एवं आउणस्सइवेइंदियतेइंदियचउरिंदियावि। एवं तेउवाउवि नवरं मणुस्सवजेसु उववजंतिापंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टिता कहिं गच्छंति कहिं उववज्जति ? गोयमा! नेरइएसु उववजंति जव देवेसु उववजंति जइ नेरइएसु उववजंति किं रयणप्पभा पुढवीनेरइएसु उववजंति जाव अहे सत्तमापुढवीनेरइएसु उववजंति ? गोयमा! रयणप्पभापुढवीनेरइएसु उववजंति जाव अहसत्तमपुढवीनेरइएसु उववजंति / जइ तिरिक्खजोणिएसु उववजंति किं एगिदिएसुजावपंचिंदिएसु ? गोयमा! एगिदिएसुवि उववखंति जाव पंचिंदिएसुवि उववज्जंति एवं जहा तेसिं चेव उववाओ उव्वट्टणावि भाणियव्वा तहेव नवरं असंखेज्जवासाउएसुवि एते उववजंति किं सम्मुच्छिममणुस्सेसु उववनंति मणुस्सेसु उववज्जति गब्भवकं तियमणुस्सेसु उववअंति ? गोयमा ! दोहितोविएवं जहा उववाओ भणिओ तहा उव्वट्टणावि भाणियव्वा नवरं अकम्मभूमिगअंतर दीवगअसंखेज्जवासाउएसु वि एते उववजंति त्ति भाणियव्वं, जदि देवेसु उववज्जति किं भवणवईसु उववजंति जाव किं वेमाणिएसु उववजंति? गोयमा! सव्वेसु देवेसु चेव उववजंति / जदि मवणवईसु उवमअंति असुरकुमारेसुजाव थणियकुमारेसु उववनंति ! गोयमा! सव्वेसु चेव उववजंति एवं वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु निरंतरं उववजंति जाव सहस्सारोकप्पोत्ति। मणुस्साणं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति नेरइएसु उववजंति जीव देवेसु उववजंति? गोयमा! नेरइएसु वि उववजंति जाव देवेसुवि उववजंति, एवं निरंतर सव्येसु ठाणेसु पुच्छा, गोयमा ! सव्वेसु ठाणेसु उववज्जति न कहिं विपडिसेहो कायव्वो। जाव सव्वट्ठ-द्धिसदेवेसु वि उववज्जति अत्थेगइया सिझंति वुज्झंति मुचंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति वाणमंतरजोइसियबेमाणियसोम्मीसाणायं जहा अहुरकुमारा नवरंजोइसियाण य वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो कायव्वो / सणंकुमारदेवाणं पुच्छा, गोयमा! जहा असुरकुमारा नवरं एगिदिएसु न उववजंति, एवं जाव सहस्सारगदेवा। आणय जीव अणुत्तरोववाइया एवं चेव नवरं नो तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु पजत्तगसंखेजवासाउय कम्मभूमिगब्भवक्कं तियमणुस्सेसु उववज्जंति दारं / / पाठसिद्धं नवरमत्राप्येषः संक्षेपार्थः / नैरयिकाणां स्वभावादुद्वृत्तानां गर्भजसंख्येयवर्षायुष्कतिर्यक् पोन्द्रियमनुष्येषूत्पादः अधः सप्तमपृथिवीनारकाणां गर्भजसंख्येसवर्षायुष्कतिर्यकपञ्चेन्द्रियेष्येव असुरकुमारादि भवनव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां बादरपर्याप्तपृथिव्यब्वनस्पतिगर्भजसंख्येयवर्षायुष्कतिर्यग्-पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु पृथिव्यब्वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तिर्यग्गताौ मनुष्यगतौ च तेजोवायूनां तिर्यगतांवेव तिर्यग्पञ्चन्द्रियाणां नारकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिषु नवरं वैमानिकेषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्याणां सर्वे ष्वपि स्थानेषु सनत्कुमारादिदेवाना सहस्रारदेवपर्यन्तानां गर्भजसंख्येयवर्षायुष्कतिर्यक्पशेन्द्रियमनुष्येषु आनतादिदेवतानां गर्भजसंख्येयवर्षायुष्कमनुष्येष्वेवेति। गतं षष्ठं द्वारम् / प्रज्ञा०६ पद / / Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 696- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय (१६)भव्यद्रव्यदेवादयः कुत उत्पद्यन्ते॥ भवियदव्वदेवाणं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति किं णेरइएसु उववजंति जाव देवेसु उववनंति ? गोयमा ! णो णेरइएसु उववखंति णो तिरि० णो मणु० देवेसु उववजंति जइ देवेसु उववजंति सव्वदेवेसु उववजंति जाव सटटाट्ठसिद्धत्ति / णरदेवाणं भंते ! अणंतरं उव्वठ्ठिता पुच्छा गोयमा! णेरइएसु उववजंति णो तिरि० णो मणु० णो देवेसु उववज्जति जइणेरइएसु उववजंति सत्तसुवि पुढवीसु उववजंति। धम्म देवाणं मंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता पुच्छा गोयमा ! णो णेरइ एसु उववजंति णो तिरि० णो० मणु० देवेसु उववजंति जइ देवेसु उववजंति किं भवणवासि दे०पुच्छा, गोयमा! णो भवणवासिदेवेसु उववज्जति, णो वाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवेसु उववजंति, सवेसु वेमाणिएसु उववज्जंति जाव सम्वट्ठसिद्ध उववजंति अत्थेगइया सिझंति अंतं करें ति / देवाहिदेवाणं मंते! अणंतरं उय्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? गोयमा! सिझंति जाव अतं करेंति / भावदेवाणं मंते! अणंतरं उव्वट्टिता पुच्छा, जहा वकंतीए असुरकुमाराणं उवट्टणा तहा भाणियत्वा / भवियदव्वदेवाणं मंते! भवियदव्वदेवेत्ति कालओ केवचिरं होइ॥ अथ तेषामेवोद्वर्तनां प्ररूपयन्नाह, भवियदवे, त्यादि / इह च भविकद्रव्यदेवानां भाविदेवभवस्वभावत्वारनारकादिभवत्रयनिषेधः (णेरइएसु उववज्जंतित्ति) अत्यक्तकामभोगा नरदेवा नैरसिकेषूत्पद्यन्ते, शेषत्रये तुतन्निषेधस्तत्र च यद्यपि केचिचक्रवर्त्तिनो देवेषूत्पद्यन्तेतथापि ते नरदेवत्वत्यागेन धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः (जहा वकंतीए असुरकुमाराणं उव्वट्टणा तहा भाणियव्यत्ति) असुरकुमारा बहुषु जीवस्थानेषु गच्छन्तीति कृत्वा तैरतिदेशः कृतः असुरादयोहीशानान्ताः पृथिव्यादिष्वपि गच्छन्तीति। भ०१२ श०६ उ०) (१७)देवो महर्धिको यावन्महेशाख्ये विशरीरेषूपपद्यते। तेण कालेणं तेणं समएणं जाव एव वयासी देवेणं मंते! महिडीए जाव महेसक्खे अपतरं चयं चइत्ता विसरीरेसु नागेसु उववजेज्जा ? हंता गोयमा! उववजेजा, सेणं तत्थ अचियवंदियपूझ्यसकारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे सचोवाए सण्णिहियपाडिहेरेयावि भवेज्जा? हंता भवेजा। सेणं भंते! तओहिंता अणंत्तरं उव्वट्टित्ता सिज्झेजा बुज्झेजा जाव अंतं करेजा ? हंता सिज्झेज्जा जाव अंतं करेजा / देवेणं भंते! महिड्डिए एवं चेव जाव विसरीरेसु मणीसु उववजेजा एवं चेव जहा नागाणं / / (वसरीरसुत्ति) द्वेशरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य स्येत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति / (नागेसुत्ति सर्पषु हस्तिषु वा (तत्थत्ति) नागजन्मनि यत्र वा क्षेत्रे जातः // अचियेत्यादि, / इहार्थितादिपदानां पञ्चानां कर्मधारयस्तत्र चार्चितश्चन्दनादिना वन्दितः स्तुत्या पूजितः पुष्पादीना सत्कारितो वस्त्रादिना संमानितः प्रतिपत्तिविशेषण (दिव्वेत्ति) प्रधानः / (सचेत्ति) स्वप्नादिप्रकारेण तदुपदिष्टस्यावितथत्वात् (सचोवाएत्ति) सत्यावपातः सफलमेव इत्यर्थः कुत एतदित्याह (सन्निहियपाडिहेरेति) सन्निहितमदूरवेर्तिप्रातिहार्य पूसिंगति-कादिदेवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा (मणीसुत्ति) पृथिवीकायविकारेषु / / देवेणं भंते! महिड्डिए जाव विसरीरेसु रुक्खेसु उववज्जेज्जा एवं चेव णवरं इमं णाणत्तं जाव सण्णिहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहइयाविभवेज्जा सेसं तं चेव जाव अंतं करेजा। (लाउल्लोइयमहिएत्ति) (लाइयंति) छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरणम् (उल्लोइयंति) सेदिकादिना कुड्यानां धवलनमेतेनैवद्वयेन महितो यः स तथा एतच विशेषणं वृक्षस्य पीठापेक्षया, विशिष्टवृक्षा हि बद्धपीठा भवन्तीति॥ अह भंते गोणंगूलवसभे कुक्कडवसभे मंडुक्कवसमे एएणं णिस्सीला णिव्वया णिग्गुणा णिम्मेरा णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासा काले मासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उकोसं सागरोवमट्ठिइयंसिणरगंसिणेरइयत्ताए उववजेजा समणे भगवं महावीरे वागरेइ उववजमाणे उववण्णेत्ति वत्तव्वंसिया अह भंते! सीहे वग्घे जहा उसप्पिणी उद्देसए जाव परस्सरे एएसिं णिस्सीला एवं चेवजाव वत्तव्वंसिया अहमंते! ढंके कंके पिलए मड्डुए सिखीए एएणं णिस्सीला सेसं तं चेव जाव वत्तध्वंसिया सेवं भेते! भंते! त्ति / जाव विहरइ दुवालसमसयस्स य अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥१२॥ (गोणंगुलवसभेत्ति) गोलालानां वानराणां मध्ये महान् स एव वा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वावृषभशब्दस्य एवं कुक्कटवृषभोऽपि एवं मण्डूकवृषभोऽपीति (निस्सीलत्ति) समाधानरहिताः (निव्वयेत्ति) अणुव्रतरहिताः (निगुणत्ति) गुणवतः क्षमादिभिर्वा रहिताः, नेरइयत्ताएउववज्जेज्जा, इति प्रश्नः / इह च, उववज्जेज्जा, इत्येतदुत्तरं तस्य चासम्मेवमाशङ्कमानस्तत्परिहारमाह, समणे, इत्यादि असम्भवश्चैवं यत्र समये गोलाङ्कलादयो न तत्र समये नारकास्ते अतः कथं तेनारकतयोत्पद्यन्त इति वक्तव्यं स्यात् ? अत्रोच्यते श्रमणो भगवान् महावीरो न तु जमाल्यादिरेवं व्याकरोति यदुत उत्पद्यमानमुत्पन्नमिति वक्तव्यं स्याक्रियाकालनिष्ठा कालयोरभेदात् अतस्ते गोलाडूलप्रभृतयो नारकतयोत्पत्तुकामा नारका एवेति कृत्वा सुष्लूव्यते (नेरइयत्ताए उववजेजत्ति) (उसप्पिणी उद्देसएत्ति सप्तमशतस्य षष्ठे इति द्वादशशतेऽष्टमः भ०१२ श०८ उ०॥ (18) नैरयिकादयः कथमुपपद्यन्ते। रायागह जाव एव बयासी णेरइयाणं भंते! कहं उववजंति गोयमा ! से जहाणामवए पवयमाणे अज्जवसाणणिय्वत्तिएणकरणो वारणं से य काले तं ठाणं विप्पजहित्ता Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 667 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय पुरिमं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति एवामेव ते विजीवा पवओवि पवयमाणा अज्झवसाणणिटवत्तिएणं करणोवाएणं से य काले भवं विप्पजहित्ता पुरिसभवं उवसंपञ्जित्ताणं विहरंति। सप्तमोद्देशकेसंयता भेदत उक्तास्तद्विपक्षभूताश्चासंयता भवन्ति ते च नारकादयस्तेषां च यथोत्पादो भवति तथाष्टमोऽभिधीयत इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्, "रायगिहे, इत्यादि (पवएत्ति) प्लवक उत्प्लवनकारी (पवमाणे त्ति) प्लवमान उत्प्लुतिं कुर्वन् (अज्झवसाणनिव्वत्तिएणंति) उत्प्लोतव्यं मयेत्येवंरूपाऽध्यवसायनिर्वर्तितेन (करणोपायेणंति) उत्प्लवनलक्षणं यत्करणं क्रियाविशेषः स एवोपायः स्थानान्तरप्राप्तौ हेतुः करणोपायस्तेन (सेयकालेत्ति) एष्यति काले विहरतीति योगः किं कृत्वेत्याह (तं ठाणंति) यत्र स्थाने स्थितस्तत्स्थानं विप्रहाय प्लवनतस्त्यक्त्वा (पुरिमंति) पुरोवर्तिस्थानमुपसम्पद्य प्राप्यं विहरतीति (एवामेवतेविजीवत्ति) दार्शन्तिकयोजनार्थः किमुक्तं भवतीत्याह (पवओवि वृषवमाणत्ति अज्झवसाणनिव्वत्तिएणंति) तथाविधाध्यवसायनिर्वर्तितेन (करणोपायेणंति) क्रियते विविधावस्था जीवस्यानेन क्रियते वा तदिति करणं कर्म प्लवकक्रियाविशेषो वा करणं करणमिव करणं स्थानान्तरप्राप्तिहेतुता साधयत्किर्मैव तदेवोपायः करणोपायस्तेन (तं भवंति) मनुष्यादिभवं (पुरिम भवंति) प्राप्तव्यनारकभवमित्यर्थः (अज्झवसाणजोगनिव्वत्तिएणंति) अध्यवसानंजीवपरिणमो योगश्च मनःप्रभृतिव्यापारस्ताभ्या निर्वतितो यः स तथा तेन (करणोवाएणंति) करणोपायेन मिथ्यात्वादिना कर्मबन्धहेतुनेति। तेसि णं भंते जीवाणं कहं सीहागती कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणं बलवं एवं जहा चउद्दसमसए पढमुद्देसए जाव तिसमएणं वा विग्गहेणं उववखंति। ते सिणं जीवाणं तहासीहागई तहासीहे गतिविसए पण्णत्ते तेणं भंते! जीवा कहं परभवियाउयं पकरेंति ? गोयमा! अज्झवसाणणिव्वत्तिएणं करणोवाएणं एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरेंति। तेसिणं भंते! जीवा कहंगती पयत्तइ? गोयमा! आउक्खएणं भवक्खएणं ठिईएणं एवं खलु ते सिणं जीवाणं गती पयत्तइ तेणं भंते! जीवा किं आइड्डीए उववजंति परिड्ढीए उववखंति गोयमा! आइढिए उववजंति णो परिङ्टए | उववजंति तेणं भंते! जीवा किं आयकम्मुणा उववजंति | परकम्मुणा उववजंति ? गोयमा! आयकम्मुणा उववजंति को परकम्मुणा उववजंति / तेणं भंते! जीवा किं आयप्पओगेणं उववजंति परप्पओगेणं उववजंति ? गोयमा! आयप्पओगेणं उववजंति णो परप्पओगेणं उववजंति / असुरकुमाराणं मंते! | कहं उववज्जति जहा णेरइया। तहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेणं उववजंति एवं एगिंदियवजा जीव वेमाणिया एगिंदिया एवं चेव णवरं चउसमइओ विग्गहो सेसं ते चेव सेवं भंते ! भंते! त्तिजाव विहरइ (पणवीसइमसयस्स अट्ठमो 25 / 8 / ) भवसिद्धियनेरइयाणं भंते! कहं उववअंति? गोयमा! से जहा नामए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव वेमाणिया सेवं भंते! भंते ति (पणविसइमसयस्स णवमो।२५।६।) अभवसिद्धियणेरइयाणं भंते! कहं उववजंति ? गोयमा! से जहाणामए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव वेमाणिया सेवं भंते! भंते त्ति (पणवीसइमसयस्स दसमो।२५।१०।) सम्मट्ठिीणेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे अवसेसंतं चेव एवं जाव एगिदियवज्जं वेमाणिए सेवं भंते! भंते त्ति (पणवीसइमसयस्स एक्कारसमो 12511) मिच्छविट्ठी णेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जंति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे अवसेसं तं चेव एवं जाव वेमाणिए सेवं भंते! भंते त्ति जाव विहरइ / पणवीसइमसयस्स दुवालसमो / भ० 25 श०१२ उ०॥ (उत्पलजीवादीनामुपपातो वणस्सइशब्दे) (16) समुद्धातविशेषणेनैकेन्द्रियाणाम्) अप्पज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहणावेत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पचच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेज्जा / से केणढेणं भंते ! एवं वुचइ एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववजेज्जा एवं खलु गोयमा! मए सत्तसेढीओ पण्णत्ताओ तं जहा उजुआयता सेढी एगओ वंका दुहओ वंका एगओ खुहा दुहओ खुहा / चक्कवाला अद्धचक्कवाला उज्जुआयगा सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा 1 / एगओ वंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, दुहओ वंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहे उववजेज्जा से तेणटेणं गोयमा! जाव उववजेज्जा 1 / अप्पज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमचरिमंते समोहए समोहणावेत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए, से णं भंते! कइ समइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा सेसं तं चेव जाव से तेणढेणं जाव विग्गहेणं उववजेजा ||2| एवं अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइओ पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पुरच्छिमिल्ले चरिमंते बादरपुढवीकाइएसु अपज्जत्तएस उववातेयव्वा / / 3 / / ताहे Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय तेसु चेव पज्जत्तएसु ||4|| एवं आउक्काइएसु वि अपज्जत्तएसु उववातेयव्वा / ताहे तेसु चेव पञ्जत्तएसु, एवं आउकाइएसु वि चत्तारि आलावगा सुहुमेहिं अपज्जत्तएहिं ! ताहे पजत्तएहिं 2 बायरेहिं अपज्जत्तएहिं 3 ताहे पजत्तएहिं 4 उववातेयव्वो एवं चेव सुहुमतेउकाइएहिं वि अपज्जत्तएहिं ताहे पज्जत्तएहिं उववातेयव्वो। अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमं ते समोहए समो० जे भविए मणुस्सत्ते अपज्जत्तबादरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा सेसं तं चेव एवं पञ्जत्ता बादरतेउकाइयत्ताए उववातेयव्वो वाउकाइएसु सुहुमबादरेसु जहा आउकाइएसु उववाइओ तहा उववातेयध्वो एवं वणस्सइकाइएसुवि / पजत्ता सुहमपुढवीकाइएण भंते! इमीसे रयणप्पभाए एक पजत्तसुहमपुढवीकाइएसु वि पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एए चेव कमेणं एएसु चेव वीसणु ठाणेसु उववाएयव्वो जीव बादरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु वि 40 एवं अपज्जत्तए बादरपुढवीकाइओवि। एवं पजत्तबादरमुढवीकाइओ वि। 80 / एवं आउक्काइएसुवि चउसुवि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहयाए चेव वत्तव्वया, एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो। 160 / सुहुमतेउकाइओवि अपज्जत्तओ पजत्तओ य एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाते यव्वो / 200 / अपजत्तबायरतेउकाएणं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए समो० जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पचच्छिमिल्ले चरिमंते अपजत्तसुहमपुढवीकाइयत्ताए उववचित्तए, से णं भंते! कई समइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा सेसं तहेव जाव से तेणढेणं एवं पुढवीकाइएसु चउटिवहेसु वि उववातेयव्यो। एवं आउक्काइएसु चउट्विहेसु तेउकाइएसु अपजत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चेव उववाएयव्यो / अपञ्जत्ताबादरतेउकाइएणं भंते! मणुस्सखेत्ते समोहए समो० जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्ताबायरतेउकाइयत्ताए उववञ्जित्तए सेणं भंते! कतिसमयसेसं तं चेव एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववाएटवो / वाउकाइयत्ताए वणस्सइकाइयत्ताए जहा पढवीकइएसुवि / तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववातेयवो, एवं पञ्जत्ता बादरतेउकाइओ वि समयखोत्ते सभोहणावेत्ता एएसु वीसइठाणेसु उववातेयव्वो जहेव अपज्जत्तओ उववातिओ एवं सव्वत्थ वि बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगाय समयखेत्ते उववातेयव्वो,समोहणावियव्वावि।२४०। वाउचाइया / 320 / वणस्सइकाइया य जहा पुढवीकाइया |4001 तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववातेयध्वो जाव पज्जत्ता बादरवणस्सइकाइयाणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पज्जत्ताबादररवणस्सइकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! कतिसमयसेसं तहेव जाव से तेणतुणं अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पचच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो०जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए तेणं भंते ! कइसमइएणं सेसं तहेव णिरवसेसं एवं जहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सव्वपदेसुवि समोहया पच्चमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववातिए जे समयखेत्ते समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाएयव्वा तेणेव गमएणं एवं एएणं दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववातो, एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहियाणं दहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववातेयव्वा, तेणेव गमएणं। अपजत्ता सुहमपुढवीकाइएणं भंते! सकरप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पचच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जेज्जा एवं जहेव रयणप्पभाए जाव से तेणढेणं एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्तएसु सुहूमतेउकाइएसु अपज्जत्तएसु / सुहमपुढवीकाइएणं भंते! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ता वायरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! कइसमए पुच्छा, गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। से केणतुणं भंते! पुच्छा एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ तं जहा उज्जुआयता जाव अद्धचक्कवाला / एगओ वंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा / दुहओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ! से तेण?णं एवं पज्जत्तएसुवि बादरतेउक्काइएसु सेसं जहा रयणप्पभाए। जे वि वायरतेउक्काइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगाय समयखेत्ते समोहया दोचाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइएसु चउदिवहेसु आउकाइएसु चउदिवहेसु तेउक्काइएसु दुविहेसु वाउकाइएसु चउविहेसु वणस्सइकाइएसु चउव्विहेसु उववज्जइ ते वि एवं चेव दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववातेयव्वा / बादरतेउक्काइया अपज्जत्तगा य पज्जत्तगाय जाहे तेसुचेव उववजंति ताहे जहेव रयणप्पभाएतहेव एगसमइए दुसमइए तिसमइए विग्गहा भाणियव्या, सेसं जहा Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय EEE - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय स्यणप्पभाएतहेव णिरवसेसं जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया भणिया / वि || अपजता सुहुमपुढवीकाइएण भंते! अहलोग जाव एवं जीव अहे सत्तमाए भाणियव्वा / / समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपञ्जत्ता बादरतेउकाइयत्ताए कइविहेत्यादि / इदं च लोकनाडी प्रस्तार्य भावनीयम् / (एगसम- | उववजित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? इएणवत्ति) एकः समयो यत्रास्त्यसावेकसामयिकस्तेन। (दिग्गहेणंति) गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से विग्रहो वक्रं गतौ च तस्य सम्भवाद्गतिरेव विग्रहः / विशिष्टो वा ग्रहो केणढेण भंते ! एवं खलु गोयमा ! सए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहस्तेन तत्र (उज्जुआयएत्ति) यदा तं जहा उजुआयता जाव अद्धचक्कवाला एगतो वंकाए सेढीए मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा, दुहओ वंकाए श्रेणिर्भवति तथा च गच्छतः एकसामयिकी गतिः स्यादित्यत उच्यते," सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा से तेणटेणं "एगसमइएणमित्यादि", यदा पुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे एवं पज्जत्तएसु वायरते उकाइएसु वि उववातेयवो / विश्रेण्यां वर्तते तदैकतो वक्रा श्रेणिः स्यात्समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः वाउकाइयवणस्स-इकाइयत्ताए चउक्कएणं भेदेणं जहा स्यादित्यत उच्यते, “एगओ वंकाए सेढिए उववज्जमाणे दुसमइएणं आउकाइयत्ताए तहेव उववातेयव्वो 20 / एवं जहा अपज्जत्ता विग्गहेणमित्यादि", यदा तु मरणस्थादुत्पत्तिस्थानमधस्तने वा प्रतरे सुहुमपुढ विकाइयस्स गमओ भणिओ एवं पत्ता विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्रा श्रेणिः स्यात्समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः सुहमपुढविकाइयस्स वि भाणियव्वो तहेव वीसाए ठाणेसु स्यादित्यत उच्यते, "दुहओ वंकाए", इत्यादि एवं “आउकाइएसु वि उववाएयवो 180) अहेलोयखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते चत्तारि आलावगा", इत्येतस्य विरिणं, "सुहुमेहीत्यादि", समोहओ एवं वायरपुढवीकाइयस्सवि अपञ्जत्तगस्स पज्जत्तगस्स बादरतेजस्कायिकसूत्रे रत्नप्रभाप्रक्र मेऽपि यदुक्तं (जे भविए य भाणियव्वं / एवं आउकाइयस्स चउव्विहस्सवि भाणियव्वं / सुहुमते उकाइयस्स दुविहस्सवि एवं चे व अपज्जत्ता मणुस्सखेत्तेत्ति) तदादरतेजसामान्यत्रोत्पातासम्भवादिति (वीससु बादरतेउक्काइएणं समयखेत्ते समोहए समोह० जे भविए ठाणेसुत्ति) पृथिव्यादयः पञ्चसूक्ष्मबादरभेदाद् द्विधेति दश ते च प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकभेदाविंशतिरिति इह चैकै कस्मिन् जीवस्थाने उड्डलोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता सुहमपुढविकाविंशतिर्गमा भवन्ति तदेवं पूर्वान्तगमानां चत्वारि शतान्येव पश्चिमान्ता इयत्तइए उववजित्तए से णं भंते! क इसमाएणं विग्गहेणं उववजेजा ? गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण दिगमानामपि ततश्चैवं रत्नप्रभाकरणे सर्वाणि षोडश शतानि गमानामिति वा विग्गहेणं उववजेज्जा। से केणढेणं अट्ठो जहेव रयणप्पभाए शर्कराप्रभाप्रकरणे बादरतेजस्कायिकसूत्रे, “दुसमइउणं वेत्यादि", इह तहेव सत्तसेढीए / एवं जाव अपज्जत्ता बादरतेउकाइएणं भंते ! शर्कराप्रभापूर्वचरमान्तान्मनुष्यक्षेत्रे उत्पद्यमानस्य समश्रेणिर्ना समयखेत्ते समोहए सतो० जे भविए उड्डलोगखेत्तणालीए स्तीत्येगसमएणमितीह नोक्तम्, “दुसमएणमित्यादि", तुएकस्य वक्रस्य बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता सुहुमतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से द्वयोर्वा सम्भवादुक्तमिति॥ णं मंते ! सेसं तं चेव / अपज्जत्ता बादरतेउकाइएणं भंतें ! ___ अथ सामान्येनाऽधःक्षेत्रमूर्द्धक्षेत्रं वाऽऽश्रित्याह। समयखेत्ते समोहए समो० जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्ता अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! अहे लोयखेत्तणालीए बादरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कइसमइएणं बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समो० जे भविए उड्डलोए खेत्तणालीए विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। से केणद्वेणं भंते ! अट्ठो भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? गोयमा! तिसमइएण जहे व रयणप्पभाए तहेव सत्तसेढीए / एवं पञ्जत्ता वा चउसमइएण वा विग्गहेण उववज्जेज्जा / से केणद्वेण एवं दुबइ बादरतेउकाइयत्ताएवि। वाउकाइएसु य वणस्सइकाइएसु जहा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववजेज्जा ? गोयमा! पुढवीबाइएसु उववातिओ तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववातेयव्यो। अपजत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं अहोलोयखेत्तणालीए बाहिरिल्ले एवं पञ्जत्ता बादरतेउकाइओवि। एएसुचेव ठाणेसु उववातेयव्यो। खेत्ते समोहए समोहणिजे जे भविए उडलोयखेत्तणालीए वाउकाइयवणस्सइकाइयाणं जहेव पुढवीकाइओ उववाइओ बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए एगपयरंसि तहेव भाणियट्वो / अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइएणं भंते ! अणुसेढी उववजित्तए? सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा एत्थवि लोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समा० जे जे भविए विसेढीओ उववजित्तए तेणं चउसमइएणं विग्गहेणं भविए अहेखे तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपनत्ता उववज्जजेज्जा / से तेणटेणं जाव उववजंति / एवं पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइत्ताए उववजिए से णं भंते ! कतिसमए ? एवं सुहुमपुढवीकाइयत्ताए वि एवं जाव पञ्जत्ता सुहुमतेउकाइयत्ताए | उडलोगखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं अहेलोयखेत्त Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1000 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय णालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववजयाणं सोचेव गमओ णिरवसेसो पुरच्छिमिल्ले चरिमंते उववातेयव्वो जाव सुहुमवणस्सइभाणियवो जाव वायरवणस्सइकाइओ अपजत्तओ काइओ पन्जत्तसुहुमवणस्सइएसु चेव सव्वेसिं दुसमइओ वायरवणस्सइकाइएसु अपज्जत्तएसु उववाइओ / अपज्जत्ता | तिसमइओ चउसमइओ विग्गहा माणियव्वो / अपज्जत्तो सुहुमपुढविकाइयाणं मंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समो० 2 जे भविए लोगस्स पचच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए / से णं भंते ! अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं मंते ! कइ कइसमइएणं विग्गहेणं उववजंति ? गोयमा ! एगसमइएण वा समइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववजेजा। से केणढेणं दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएणं वा विग्गहेणं भंते ! एवं वुच्चइ एगसमइएण वा जाव उववजेज्जा ? एवं खलु ? उवव जा / से केणटेणं एवं जहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते गोयमा! मए सत्तसेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा उज्जुआयता जाव समोहया पुरच्छि मिल्ले चेव चरिमंते उववातिया तहेव अद्धचक्कवाला / उज्जुआयताए सेढीए उववजमाणे एगसमएणं पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते विग्गहेणं उववजेजा। एगाओ वंकाए सेढीए उववजमाणे उववातेयव्वा / सवे अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएणं भंते ! दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा / दुहओ बंकाए से ढीए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समो० जे भविए उववजमाणे जे भविएं एगपयरंसि अणुसेढी उववजित्तए सेणं लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइयत्ताए तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। जे भविए विसेढी उववज्जित्तए उव०सेणं भंते ! एवं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहओ सेणं चउसमइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा से तेणटेणं जाव दाहिणिल्ले उववाइओ तहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले उववजेज्जा / एवं अपज्जत्तसुहमपुढवीकाइओ लोगस्स चरिमंते उववाएयव्यो / अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चेव लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहओ जे भविए लोगस्स चरिमंते अपञ्जत्तएसुय सुहुमपुढवीकाइएसु सुहुमआउकाइएसु दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुमपुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए एवं जहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ पुरच्छिमिल्ले चेव उववातिओ अपञ्जत्तएसु पञ्जत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु अपज्जत्तएसु पजत्तएसु तहेवदाहिणिल्ले समोहओ तहेव दाहिणिल्ले चेव उववाएयव्यो य सुहुमवाउकाइएसु य अपजत्तएसु पजत्तएसु य बादरवाउका तहेव णिरवसेसं जाव सुहमवणस्सइकाइओ पञ्जत्तओ इएसु अपञ्जत्तएसु य पजत्तएसु य सुहुमवणस्सइकाइएसु सुहुमवणस्सइकाइएसु चेव पञ्जत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्तएसु पञ्जत्तएसु य बारससु वि ठाणेसु एएणं चेव कमेणं उववाइओ एवं दाहिणिल्ले समोहओ पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते भाणियव्वो, सुहुमपुढवीकाइओ पज्जत्तओ एवं चेव णिरवसेसे उववाएयव्वो, णवरं दुसमइए तिसमइए चउसमइओ विग्गहो सेसं वारससु वि ठाणेसु उववातेयव्वो।२४। एवं एएणं गमएणं जाव तहेव दाहिणिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ / सुहुमवणस्सइकाइएसु जहेव सट्ठाणे तहेव एगसमइय दुसमइय तिसमइव चउसमइय पञ्चत्तएसु चेव भाणियव्वो! अपजत्ता सुहुमपुढवीकाइयाणं भंते ! विग्गहो पुरच्छिमिल्ले जहा पचच्छिमिल्ले तहेव दुसमइय लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोह० जे भविए तिसमइय पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते समोहयाणं पचच्छिमिल्ले लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपञ्जत्ता सुहुमपुढवीकाइएसु उववज्जमाणाणं जहा सट्ठाणे उत्तरिल्ले उववञ्जमाणाणं उववजित्तए से णं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उवव जा? एगसमइओ विग्गहो णत्थि सेसं तहेव / पुरच्छिमिल्ले जहा गोयमा! दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं सट्ठाणे / दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्गहो णत्थि सेसं तहेव उववखंति / से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ एवं खलु गोयमा ! मए उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा सट्ठाणे सत्तसे ढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा उजु आयता जाव उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरच्छिमिल्ले उववञ्जमाणाणं एवं चेव णवरं अद्धचक्कवाला। एगओ बंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं एगसमइओ विग्गहो णत्थि, उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले विग्गहेणं उववजेजा। दुहओ वंकाए सेढीए उववजमाणे जे भविए उववजमाणाणं जहा सट्ठाणे उत्तरिल्ले समोहयाणं पचच्छिमिल्ले एगपयरंसि अणुसेढी उववजित्तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो णत्थि सेसं तहेव जाव उववजेजा। जे भविए विसेढीओ उववज्जित्तए सेणं चउसमइएणं सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइ-काइएसु विग्गहेणं उववजेजा से तेणद्वेणं गोयमा ! एएणं गमएणं | पजत्तएसु चेव।भ०॥ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1001 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय "अपजत्ता सुहुमेत्यादि', (अहेलोयखेत्तणालोएत्ति)। अधोलोकलक्षणे क्षेत्रे या नाडी सनाडी सा ऽधोलोक्क्षेत्रनाडी तस्या एवमूर्द्धलोक क्षेत्रनायपि (तिसमइएणवत्ति) अधोलोकक्षेत्रनाड्या बहिः पूर्वादिदिशि मृत्वा एकेननाडीमध्ये प्रविष्टो द्वितीये समये ऊर्द्धगतस्तएकप्रतरे पूर्वास्यां पश्चिमायां वायदोत्पत्तिर्भवति तदातुश्रेण्यांगत्वा तृतीयसमये उत्पद्यत इति / (चउसमइएणवत्ति) यदा नाड्या बहिर्वायव्यादिविदिशि मृतस्तदैकेन समयेन पश्चिमायामुत्तरस्यां वा गतो द्वितीयेन नाड्यां प्रविष्टिस्तृतीये ऊर्द्ध गतश्चतुर्थे तु श्रेण्यां गत्वा पूर्वादिदिश्युत्पद्यत इति। इदं च प्रायो वृत्तिमङ्गीकृत्योक्तमन्यथा पञ्चसामायिक्यपि गतिः सम्भवत्ति यदाऽधोलोककोणादूर्द्धलोककोण एवोत्पत्तव्यं भवतीति / भवन्ति चात्र गाथाः। “सुत्ते चउसमयाओ, नत्थि गईओ परावि णिहिट्ठा। जुञ्जइय पंचसमया, जीवस्स गई इहलोए॥१॥ जो तमतमविदिसाए, समोहओ वंभलोगविदिसाए। उववज्जई गईए, सो नियमापंचसमयाए॥२॥ उजुया यतेगबंका, दुहओ बंका गई वि णिद्दिट्ठा। जुञ्जति यति चउबंका, विनाम चउ पंच समयाए।।३। उववाया भावाओ, नपंच समयाऽहवा न सत्तावि। भणिया जह चउसमया, महल्लबंधेन सत्तावित्ति // 4 // " “अपज्जत्ता वायरतेउक्काइएणमित्यादौ "(दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहणं उववज्जेजत्ति) एतस्येयं भावना समयक्षेत्रादसावेकेन समयेनोर्द्धं गतो द्वितीयेन तु नाड्या बहिर्दिग्व्यवस्थितमुत्पतिस्थानमिति / तथा समयक्षेत्रादेकेनोर्द्ध याति द्वितीयेन तु नाड्या बहिः पूर्वादिदिशि तृतीयेन विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानमिति। अथ लोकचरमान्त-माश्रित्याह, अपजत्ता सुहमपुढवीकाईएणं भंते! लोगस्सेत्यादि। इह चलोकचरमान्ते बादराः पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजोवन-स्पतयो न सन्ति सूक्ष्मास्तु पश्चापि सन्ति बादरवायुकायिकाश्चेति, पर्याप्ता पर्याप्तभेदेन द्वादश स्थानान्यनुसर्तव्यानीति / इह च लोकस्य पूर्वचरमान्तात् पूर्वचरमान्ते उत्पद्यमास्यैकसमयादिका चतुःसमयान्ता गतिः सम्भवत्यनुश्रेणिविश्रेणिम्भवात्। भ० 34 श०१ उ०) (20) पृथ्वीकायादीनां समवहत्य देवलोकेषूत्पादः। पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य अंतरा समोहए समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुट्विं उववज्जित्ता पच्छा आहारेजा पुटिव आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? गोयमा! पुट्विं वा उववज्जित्ता एवं जहा सत्तरसमसए छट्ठद्देसए जाव तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पुटिव वा उववज्जेज्जा णवरं तेहिं संपाउणिज्जा इमेहिं आहारो भण्णइ सेसं तं चेव / पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए। एवं चेवजावईसिप्पन्माराए उववाएयव्वो। पुढवीकाइएणं भंते! सकरप्पभाए बालुयप्पभाए पुढवीए अंतरासमोहए समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे जाव ईसिप्पभाराए। एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहणिया जे भविए सोहम्मे कप्पे जाव ईसिप्पब्माराए उववाएयव्वो। पुढवीकाइएणं भंते ! सोहम्मीसाणं सणंकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढवीकाइयत्ताए उववञ्जित्तए सेणं मंते! पुटिव उववज्जित्ता पच्छा आहारेजा सेसं तं चेव जाव से तेण?णं जाव णिक्खेवओ। पुढवीकाइएणं मंते! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरासमोहए समोहइत्ताजे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए / एवं चेव एवं जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्वो / एवं सर्णकुमारताहिंदाणं बंभलोगस्स कप्पस्स अंतरा समोहए समोहइत्ता पुणरवि जाव अहे सत्तमाए उववाएयवो / एवं बंभलोगस्स लंतगस्स य कप्पस्स अंतरासमोहए पुणरवि जाव अहेसत्तमाए एवं लंतगस्स महासुक्कस्स कप्पस्स अंतरा समोहए पुणरवि जाव अहेसत्तमाए एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्सय कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्सय आणयपाणयकप्पाणं अंतरा, पुणरवि जाव अहेसत्तमाए एवं आणयपाणयआरणअचुताण य कप्पाणं अंतरा, पुणरवि जाव अहेसत्तमाए एवं आरणअचुताणं / गेवेजगविमाणाणं य अंतरा पुणरवि जाव अहे सत्तमाए एवं गेवेजगविमाणाण अणुत्तरविमाणाण य अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभाराएय पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयव्यो। आउकाइएणं भंते इमीसे रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए से सं जहा पुढवीकाइयस्स जाव से तेणटेणं एवं पढमा दोच्चाणं अंतरा समोहओ जाव ईसिप्पभाराए उववाएयव्यो / एवं एएणं कमेणं जावतमाए अहे सत्तमाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जाव ईसिप्पभाराए उववाएयव्वो। आउकाइयत्ताए आउकाइयाएणं मंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समेहिए समोहइत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिघणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववञ्जित्तए सेसं तं चेव एवं एएहिं चेव अंतरे समोहइत्ताओ जाव अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदधिघणोधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववाएयव्वो, एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभाराए पुढवीए अंतरा समोहए जाव अहेसत्तमाएघणोदधिधणोदधिवलएसुउववाएयव्यो २वाउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए सक्करप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए समाहइत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तए एवं जहा सत्तरसमसएवाउकाइयउद्देसएसुतहा इहवि णवरं अंतरेसु समोहणा वेयरवो सेसं तं चेव जाव Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1002 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभाराए य पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए घणवाततणु वातघणवातबलएसु वाउकाइयत्ताए उववजित्तए सेसं तं चेव जाव से तेणटेणं जाव उववजेजा। सेवं भंते ! भंते ! त्ति / / वीसइमस्स छटो उद्देसो सम्मत्तो // 20 // 6 // पञ्चमे पुद्गलपरिणाम उक्तः षष्ठे तु पृथिव्यादिजीयपरिणामोऽभिधीयत इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् “पुढवीत्यादि", (एवं जहा सत्तरसमसए छष्टुद्देसेत्ति) / अनेन च यत्सूचितं तदिदं, "पुटिव वा उववजित्ता पच्छा आहारेला पुविवा आहारित्ता पच्छा उववजेजेत्यादि / अस्य चायमर्थःयोगेन्दुकसन्निभसमुद्धातगामी स पूर्व समुत्पद्यते तत्र गच्छतीत्यर्थः पश्चादाहारयति शरीरप्रयोग्यान्पुद्गलान् गृह्णन् गृह्णातीत्यर्थः अत उच्यते (पुट्वि वा उववजित्ता पच्छा आहारेज्जत्ति) यः पुनरीलिकासन्निभसमुद्धातगामी स पूर्वमाहारयति उत्पत्तिक्षेत्रे प्रदेशप्रक्षेपणेनाहारं गृह्णातीति तत्समनन्तरश्च प्राक्तनशरीरस्तु प्रदेशानुत्पत्तिक्षेत्रे संहरति अत उच्यते (पुव्वि आहारित्ता पच्छा उववज्जेजत्ति) विंशतितमशते षष्ठ उद्दडेशः। पुढवीकाइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए समोहइत्ताजे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए से भंते ! किं पुट्विं उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेजा पुटिव वा संपाउज्जित्ता पच्छा उववज्जेज्जा ? गोयमा ! पुटिव वा उववज्जत्ता पच्छा संपाउणेज्जा पुटिव वा संपाउणेत्ता पच्छा उववज्जेजा। से केणटेणं जाव पच्छा उववजेज्जा ? गोयमा ! पुढवीकाइयाणं तओ समुग्धाया पण्णत्तातं जहा वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणांतियसमुग्घाए। मारणांतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेणं वा समोहणइ सव्वेण वा समोहणइ, देसेण समोहणमाणे पुटिव संपाउणित्ता पच्छा उववजिज्जा सव्वेण समोहणमाणे पुटिव उववज्जिज्जा पच्छा संपाउणेज्जा से तेणटेणं जाव उववज्जेज्जा। पुढवीकाइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव समोहए समोहएत्ताजे भविए ईसाणे कप्पे पुढवी एवं चेव ईसाणेवि। एवं अचुयगेवेज्जविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसिप्पभाराए य एवं चेव पुढवीकाइयाणं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए समोहए समोहएत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवीए एवं जहा रयणप्पभाए पुढवीकाइओ उववाइओ एवं सक्करप्पभाए पुढवीकाइओ | उववाएयव्वो जाव ईसिप्पभाराए एवं जहा रयणप्पभाए वत्तव्वया भणिया, एवं जाव अहे सत्तमाए समोहए ईसिप्पभाराए उववाएयवो सेवं भंते ! भंते ! त्ति (सत्तरसमस्स छट्ठो ||१७||६||पुढवीकाइएणं मंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए | पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! किं सेसं ते चेव जहा रयणप्पभाए पुढवीकाइओ सव्वकप्पेसु जावईसिप्पभाराएताव उववाइओ, एवं, सोहम्मपुढवीकाइओवि सत्तसु पुढवीसु उववाएयवो तहा जाव अहे सत्तमाए एवं जहा सोहम्मपुढवीकाइओ सव्वपुढवीसु उववाइओ एवं जाव ईसिप्पभारापुढवीकाइओ सव्वपुढवीसु उववाएयव्यो जाव अहेसत्तमाए सेवं भंते ! भंते ! त्ति (सत्तरसमस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्ता / / 17 // 7 // ) आउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए समोहइत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववञ्जित्तए एवं जहा पुढवीकाइओ तहा आउकाइओ वि सव्वकप्पेसु जाव ईसिप्पभाराए तहेव उववाएयव्वो एवं जहा रयणप्पभा आउकाइओ उववाइओतहा अहेसत्तमापुढवी आउकाइओ उववाएयव्वो जावईसिप्पभाराए सेवं भंते ! भंते ! त्ति (सत्तरसमस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ||17||8|) आउकाइयणं मंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ताजे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएघणोदधिबलएसु आउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! सेसं तं चेव एवं जाव अहे सत्तमाए जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव ईसिप्पभाए आउकाइओ जाव अहेसत्तमाए उववातेयव्वो सेवं भंते ! भंते! त्ति / / (सत्तरसमस्स य णव मो उद्देसो सम्मत्तो / / 17 / 6) वाउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं जहा पुढवीकाइओ तहा वाउकाइओवि णवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धायापण्णत्तातंजहावेदणासमुग्घाए जाव वेउव्वियसमुग्धाए मारणांतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहए सेसं तं चेव जाव अहे सत्तमा समोहयाओ ईसिप्पभाराए उववाएयव्यो सेवं भंते ! भंते ! त्ति (सत्तरसमस्स य दसमो उद्देसो सम्मत्तो // 17 // 10 // ) वाउकाइएणं मंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएघणवाए तणुवाए घणवायवलएसुतणुवायवलएसुवाउकाएयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! से सं तं चेव एवं जहा सोहम्मकप्पवाउकाइओ सत्तसुविपुढवीसु उववाइओ एवं जाव ईसिप्पभाए वाउकाइओ अहेसत्तमाएजाव उववाएयव्वो सेवं भंते ! भंते ! ति (सत्तरसमस्स एक्कारसमो उद्देसो सम्मत्तो॥१७॥११॥) (समोहएत्ति) समवहतःकृतमारणान्तिकसमुद्धातः (उववजित्तित्ति) उत्पादक्षेत्रं गत्वा (संपाउणेज्जत्ति) पुद्गलग्रहणं कुर्यात् उतव्यत्यय इति प्रश्नः (गोयमा ! पुट्विंवाउववञ्जित्ता पच्छा संपाउ गेजत्ति) मारणान्तिकसमुद्धातान्निवृत्य यदा प्राक्तनशरीरस्य सर्वथा त्यागात् गेन्दुकात्योत्पत्तिदेशंगच्छतितदोच्यतेपूर्वमुत्पद्यपश्चात्सम्प्राप्नुयात्पुरलान् गृह्णीयात् आहारयेदित्यर्थः / (पुब्बि वा संपाउणित्ता पच्छा उववजंति) यदा मारणान्तिकसमुद्धातगत एव म्रियते ईलिकागत्योत्पादस्थानंयातितदोच्य Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1003 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय ते पूर्व सम्प्राप्य पुद्रलान् गृहीत्वा पश्चात् उत्पद्येत् प्राक्तनशरीरस्थ-- जीवप्रदेशसंहरणतः समस्तजीवप्रदेशै-रुत्पत्तिक्षेत्रगतो भवेदिति भावः (देसेण वा समोहणइ सव्वेण वासमोहणा इत्ति) यदा मारणान्तिकसमुद्धातगतो म्रियते तदेलिकागत्योत्पत्तिदेशं प्राप्नोति, तत्र च जीवदेशस्य पूर्वदेह एव स्थितत्वात्, देशस्य वोत्पत्तिदेशे प्राप्तत्वात्, देशेन समवहन्तीत्युच्यते यदा तुमारणान्तिकसमुद्धातात्प्रतिनिवृत्तः सन् म्रियते तदा सर्वप्रदेशसंहरणतो गेन्दुकगत्योत्पत्तिदेशप्राप्तौ सर्वेण समवहत इत्युच्यते तत्र च देशेन समवहन्यमान ईलिकागत्या गच्छन्नित्यर्थः पूर्व सम्प्राप्य पुद्गलान् गृहीत्वा पश्चादुत्पद्यते, सर्वात्मनोत्पादक्षेत्रे आगच्छति (सव्वेण समोहणमाणेत्ति) गेन्दुकगत्या गच्छन्नित्यर्थः पूर्वमुत्पद्य सर्वात्मनोत्पाददेशमासाद्य पश्चात् (संपाउणेज्जत्ति) पुद्गलग्रहणं कुर्यादिति ! सप्तदशशतेषष्ठः।१७।६। शेषास्तु (7186 / 10 / 11 / सुगमा एव) भ०१७ श०। (21) नैरयिकादयो नैरयिकादिषूपपद्यन्ते।। नेरझ्याणं भंते नेरइएसु उववजइ अनेरइए नेरइएसु उववजह? गोयमा! नेरइए नेरइएसु उववजइनो अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ एवं वेमाणियाणं // अस्य चायमभिसम्बन्धो द्वितीयोद्देशके नारकादीनां लेश्यापरि-- संख्यानमल्पबहुत्वमहर्द्धिकत्वं चोक्तमिह तु तेषामेव नारकादिजीवानां तास्ताः लेश्याः किमुपपातक्षेत्रोपपन्नानामेव भवन्ति उत विग्रहेऽपीत्यस्यार्थस्य प्रतिपादानार्थं प्राक् तावन्नयान्तरमाश्रित्य नारकरदिव्यप्रदेशं पृच्छति, “नेरहयाणं भंते ! नेरइएसु उववजइ अनेरइए नेरइएसु उववजई", इति / इदं च प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह गौतम ! नैरयिको नैरयिकेषूत्पद्यते नैरयिकोऽनैरयिकेषु कथमिति चेदुच्यते, इह यस्मान्नारकादिभवोपग्राहकमायुरेव नशेषं तथा हि नारकायुष्युदयमागते नारक भवो भवति मनुष्यायुषि मानुषभव इत्यादि ततो नारकाद्यायुर्वेदनप्रथमसमय एवं नारकादिव्यपदेशं लभते एतच ऋजुसूत्रनयदर्शनं तथा च नयविद्भिः ऋजुसूत्रनयनि -रूपणं कुर्वद्भिरिदमुक्तम्। “पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यतेनघटः क्वचित्। नास्तित्वे निष्क्रमोस्तीह, न च शून्य प्रविश्यते || नारकव्यतिरिक्तश्च, नरकेनोपपद्यते / नारकान्नारकच्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते" ||2|| इत्यादि (एवं जाव वेमाणिए इति) एवं नैरयिकोक्तप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिको वैमानिकविषय सूत्रं तच्च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयम्।। अधुना उद्वर्तनविषयं नैरायिकेषु सूत्रमाह। नेरइयाणं भंते ! नेरइए हिंतो उववट्टइ अनेरइए नेरइएहिंतो उववट्टइ ? गोयमा ! नेरइए नेरइएहिंतो उववट्टइ न अनेरइएनेरइएहिंतो उववट्टइ एवं जाव वेमाणिए नवरं जोइसियवेमाणिएसु च यति अभिलावो कायव्वो।। एतदपि ऋजुसूत्रनयनदर्शनेन वेदितव्यं तथा हि परभवायुष्युदय-मागते तत उद्वर्तते यद्भवायुश्च उदयमागतं तेन भबेन व्यपदेशो यथा नारकायुष्युद यमागते नरकभवेन नारक इति ततो नैरयिकेभ्यो नैरयिक एवोद्वर्तते तेन नैरयिक इति एवं चतुर्विशतिदण्डक क्रमेण तावत्सूत्रं वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषये च "चयई” इत्यादि अभिलापः कर्तव्यस्तभ्यः उद्वर्तनस्य च्यवनमिति प्रसिद्धेः तथा चाह “एवं जाव वेमाणिए नवर"मित्यादि। अथ कृष्णलेश्याविषयमुत्पत्तौ सूत्रमाह। से नूणं मंते ! कण्हलेसे नेरइए कण्हलेसेसुनेरइएसु उववज्जइ कण्हलेस्सेसु उववट्टइ जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ ? हंता गोयमा ! कण्हलेसेसु नेरइएसु उववज्जइ कण्हलेसेसु उववट्टइ जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ एवं नीललेसावि एवं काउलेसावि एवं असुरकुमाराणविजाव थणियकुमारा णवरं तेउलेस्सा अमहिया।। "से नूणं भंते" इत्यादिसे शब्दोऽशब्दार्थः सचेह प्रश्ने नूनं निश्चितमेतत् भदन्त ! कृष्णलेश्यो नैरयिकः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषु मध्ये उत्पद्यते। तेभ्यश्च कृष्णलेश्येभ्यो नैरयिकेभ्य उद्वर्तमानः कृष्णलेश्य एवोद्वर्तते एतदेव निश्चयदाढ्र्योत्पादनार्थ प्रकारान्तरेणाह / यल्लेश्य उत्पद्यते तल्लेश्य उद्वर्तते न लेश्यान्तरगत इति भगवानाह "हंता गोयमे" त्यादि हंते त्यनुमतौ अनुमतमेतत् मम / गौतम! कण्हलेसेसु नेरइएसु इत्यादि। अथ कथं कृष्णलेश्यः सन् कृष्णले श्येषु नै रयिके षूत्पद्यते न लेश्यान्तरोपेतः उच्यते इह तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियो मनुष्योऽबद्धायुष्कतया नरकेषुत्पत्तुकामो यथाक्रम तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि चं साकल्येनाक्षीणेऽन्तर्मुहुर्तशेषे यल्लेश्येषु नरकेषूत्पत्स्यते तद्गतलेश्या परिणमति ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन परिणामेन नरकायुः प्रतिसंवेदयते तत उच्यते कृष्णलेश्यः कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषूत्पद्यतेनलेश्यान्तरयुक्तः / अथ कथं कृष्णलेश्य एवोद्वर्तते? उच्यते देवनैरयिकाणां हि लेश्यापरिणाम आभवक्षयाद्भवति एतच्च प्रागेव प्रपञ्चत उपपादितमेवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्याविषयं च सूत्रं वक्तव्यमेवमसुरकुमारादीनामपि स्तनितकुमारावसानानां वक्तव्यं नवरं तेजोलेश्यासूत्र तत्राभ्यधिकमभिधेयं तेजोलेश्याया अपि तेषां भावात्। अधुना पृथिवीकायिकेषु कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमाह।। से नूणं भंते ! कण्हलेसे पुढवीकाइए कण्हलेसेसु पुढवीकाइएसु उववज्जइ कण्हलेसे उववट्टइ जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ? हंता गोयमा ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएसु उववजइ, सिय कण्हलेसे उववट्टइ सिय नीललेसे उववट्टइ सिय काउलेसे उववट्टइ सिय जल्लेसे उववज्जइ सिय तल्लेसेसु उववट्टइ। एवं नीललेसाकाउलेसासुवि। से नूणं भंते ! तेउलेसे पुढविकाइए तेउलेस्सेसु पुढविकाइएसु उववजइपुच्छा हंता गोयमा ! तेउल्लेस्से पुढविकाइएतेउलेसेसु पुढविकाइएसु उववजइ, सिय कण्लेस्से उववट्टइसिय नीललेसे उववट्टइ सिय काउलेसे उववट्टइतेउलेसे उववजइणो चेवेणं तेउलेसे उववट्टइ। एवं आउकाइयवणस्सइ-काइयावि। तेउवाऊ एवं चेव नवरं एएसिं तेउलेस्सा नत्थि / वितिचउरिंदिया एवं चेव तिसुवि लेसासु / पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा जहा पुढ विकाइया आदिल्लियासुतिसुलेसासु भणिया तहाछसुलेसासु भाणियव्वा नवरं छप्पिलेस्सा उच्चारेयव्वाओ। वाणमंतरा जहा असुरकुमारा से नूणभंते ! तेउलेस्सेजोइसिएतेउलेसेसुजोइसिएसु उववज्ज Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1004 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय इजहेव असुरकुमाराणं / एवं वेमाणियाण वि नवरं दोण्ह वि चयतीति अभिलावो / से नूणं भंते! कण्हलेसे नीललेसे नेरइए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलेसेसु नेरइएसु उववज्जइ कण्हलेसेसु नीललेसे काउलेसे उववट्टइ जल्लेसे उववजह तल्लेसे उववट्टइ? हंतागोयमा! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे उववज्जइ जल्लेसे उववजइ तल्लेसे उववट्टइ से नूणं भंते ! कण्हले से जाव तेउलेसे असुरकुमारे कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु असुरकुमारेसु उववज्जइ एवं जहेव नेरइए तहा असुरकु मारे वि जाव थणियकुमारेवि / से नणं भंते ! कण्हलेसे जाव तेउलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेसु जाव तेउलेस्सेसु पुढ विकाइएसु उववज्जइ, एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराणं? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव तेउलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु जाव तेउलेसेसु पुढविकाइएसु उववज्जइ, सिय कण्हलेसे उववट्टइ सिय नीललेसे सिय काउलेस्से उववट्टइ सिय जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ तेउलेसे उववज्जइ नो चेव णं तेउलेसे उववट्टइ / एवं आउकाइयवणस्सइकाइयावि भाणियय्वा। से नूणं भंते ! कण्हलेसे काउलेस्से नीललेसे तेउकाइए कण्हलेसेसु नीललेसेसु काउलेसेसु तेउकाइएसु उववज्जइ कण्हलेसे नीललेसे काउलेसेसु उववट्टइ जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ? हंता गोयमा ! कण्हनीलकाउलेसे तेउकाइए कण्हलेसेसु नीलकाउलेसेसु तेउकाइएसु उववज्जइ सिय कण्हलेसे उववट्टइ सिय नील लेसे सिय काउलेस्से उववट्ट सिय जल्लेसे उववजइतल्लेसे उववट्टइएवं वाउकाइए बेइंदिय तेइंदिय चउरिदियावि भाणियव्वा से नूणं भंते ! कण्हलेसे जाव सक्कले से पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्हले सेसु जाव सुक्कलेस्सेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जइ पुच्छा हंता गोयमा ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेसेसु जाव सुक्कलेसेसुपंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु सिय कण्हलेसे उववट्टइ जाव सिय सुक्कलेसे उववट्टइ सिय जल्लेसे उववञ्जइ तल्लेसे उववट्टइ एवं मणुसेवि। वाणमंतरे असुरकुमारे जोइसियवेमाणिएवि एवं चेव नवरं जस्स जल्लेसा दोण्हवि चयणंति भाणियव्वा॥ से नूणं भंते इत्यादि / इह तिरश्चां मनुष्याणां च लेश्यापरिणाम आन्तमहूिर्तिकस्ततः कदाचित् तल्लेश्य उद्वर्तते कदाचिल्लेश्यान्तारपरिणतोऽप्युदर्तते एषः पुनर्नियमो यल्लेश्येषूत्पद्यते स नियमतस्तल्लेश्य एवोत्पद्यते “अंतमुत्तम्मिगए अंतमुत्तम्मि सेसए आओ। लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा वचंति परलोय" मितिवचनात्। तत उक्तम् / “गोयमा ! कण्हलेसे पुढविकाइए कण्हलेसेसु पुढविकाइएसु उववजइ सिय कण्हलेसे उववट्टइ इत्यादि" एवं नीललेश्याविषयं कापोतलेश्या विषयं च सूत्रं वक्तव्यम् तथा भवनपतिव्यन्तरज्यौतिष्कसौधर्मेशानदेवाः तेजोलेश्यावन्तः स्वभावाच्च्युत्वा पृथिवीयिकेषुत्पद्यन्ते। तदा कियत्कालमपर्याप्तावस्थायां तेषु तेजोलेश्याऽपि लभ्यते तत ऊर्द्ध तु न भवति तथा भवस्वभावतया तेजो लेश्यायोग्यद्रव्यग्रहणशक्तसम्भवात्त-तस्तेजोलेश्यासूत्रमुक्तम् / “तेउलेसे उववज्जइ नो चेय णं तेउलेसे उववट्टइ इति" यथा च पृथिवीकायिकानां चत्वारि सूत्राण्युक्तानि तथा अप्कायिकवनस्पतिकायिकानामपि वक्तव्यानि तेषामप्यपर्याप्तावस्थायां तेजोलेश्यासम्भवात् तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयाणि प्रत्येकं त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि तेषां तेजोलेश्याया असम्भवात्। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका मनुष्याश्च यथा आद्यासु तिसृषु लेश्यासु पृथिवीकायिका उक्तस्तथा षट्स्वपि लेश्यासु वक्तव्याः पण्णामप्यन्यतमया लेश्यया तेषामुत्पत्तिसम्भवादुत्पत्तिगतैकैकलेश्याविषयं चोद्वर्त्तनायां पण्णां विकल्पानां सम्भवात्। सूत्रपाठश्चैवम् “से नूणं भंते कण्हलेस्से पंचिंदियति-रिक्खजोणिएत्यादि" एवं नीलकापोततेजः पद्मशुक्ललेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि, "वाणमंतरा जहा असुरकुमारा" इति"जल्लेसे उववज्जइ तल्लेसे उववट्टइ। इति" वक्तव्या इति सर्वदेवानां लेश्यापरिणामस्य आभवक्षयाद्भावात् एवं लेश्यापरिसंख्यानां परिभाव्य ज्योतिष्कवैमानिकविषयाण्यपि सूत्राणि वक्तव्यानि नवरं तत्र चयतीत्यभिलपनीयं त देवमेकैकलेश्याविषयाणि चतुर्विशतिदण्डक क्र मेण नैरयिकादीनां सूत्राण्युक्तानि / तत्र कश्चिदाशङ्केत / प्रविरलैकैकनारकादिविषमेतत् सूत्रकदम्बकं यदा तु बहवो भिन्नलेश्याकास्तस्यां गतावुत्पद्यन्ते तदान्यथापि वस्तुगतिर्भवदेकैकात धमपिक्षया समुदायधर्मस्य क्वचिदन्यथापि दर्शनात् ततस्तदा शङ्कापनोदाय येषां यावत्यो लेश्याः सम्भवन्ति तेषां युगपत्तावल्लेश्याविषयमेकैकं सूत्रमनन्तरोदितार्थमेव प्रतिपादयति, "से नूणं भंते! कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे नेरइए कण्हलेसेसुनीललेसेसु काउलेसेसुनेरइएसु उववजइ" इत्यादि।। समस्तं सुगमम्॥ प्रज्ञा०१७ पदा (22) लेश्यावत्त्वेनोपपातः। जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! किं लेस्सेसु उववजइ ? गोयमा ! जंलेसाइं दव्वाई पारियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ तं जहा कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काउलेसेसु वा एवं जस्स जा लेसा सा तस्स भाणियवा जाव जीवेणं भंते! जे भविए जोइसिएसु उववजित्तए पुच्छा ? गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ तं जहा तेउलेस्सेसु / जीवेणं भंते ! जे भविए वेमाणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! किं लेस्सेसु उववजह? गोयमा!जल्लेस्साइंदव्वाईपरियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववजइ, तं जहा तेउलेसेसु वा पम्हलेसेसु वा सुक्कलेसेसुवा। जीवे णमित्यादि (जे भविएत्ति) योग्यः (किं ले से सुति) का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा तेषु किं लेश्येषु मध्ये (जल्ले साइंति) या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्ले श्यानि यस्या ले श्यायाः सम्बन्धिनीम्यर्थः / (परियाइतत्ति) पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन कालं करोति मि यते तल्ले श्येषु नारके षूत्पद्यते भवन्ति चाऽत्र गाथाः / / “सव्वाहिं लेसाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु / नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अत्थि Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1005 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय जीवस्स॥१॥ सव्वाहिं लेसाहि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु / न वि कस्स वि उववाओ, परे भवे अत्थि जीयस्स // 2 / / अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहत्तम्भिसेसएचेवालेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छतिपरलोयं"।३।। चतुर्विंशतिदण्डकस्यशेषपदान्यतिदिशन्नाह एवमित्यादि (एवमिति) नारकसूत्राभिलापेनेत्यर्थः (जस्सत्ति) असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा लेश्या तस्याः सुरकुमारादेर्भणितव्येति नन्वेतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थं भेदेनोक्तम्, “जाव जीवेणं भंते" ! इत्यादि ? उच्यते, दण्डकपर्यवसानसूत्रदर्शनार्थमेवं तर्हि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति ? सत्यं किं तु ज्योतिष्कवैमानिकाः प्रशस्तलेश्या एव भवन्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनार्थं तेषां भेदेनाभिधानं विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरेति। भ०३ श०४ उ०॥ (२३)नैरयिकः देशतः सर्वतो वा उपपद्यते। नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे किं देसेणं देसं उववजह 1 देसेणं सव्वं उववजह 2 सवेणं देसं उववज्जइ 3 सवेणं सव्वं उववजह? गोयमा! नो देसेणं देसं उववजह 1 नो देसेणं सव्वं उववजइ 2 नो सट्वेणं देसं उववज्जइ३ सव्वेणं सव्वं उववज्जइ जहा नेरइए एवं जाव वेमाणिए 1 नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे किं देसेणं देसं आहारेइ देसेणं सव्वं आहारेइ सव्वेणं देसं आहारेइ सव्वेणं सवं आहारेइ? गोयमा!नो देसेणं देसं आहारेइनो देसेणं सव्वं आहारेइ सवेणं वा देसं आहारेइ सव्वेण वा सव्वं आहारेइ एवं जाव वेमाणिए 1 / नेरइएणं भंते ! नेरइएहिंतो उववट्टमाणे किं देसेणं उववट्टइ जहा उववजमाणे तहेव उववट्टमाणे वि दंडगो भाणियव्वो॥ (नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणेत्ति) ननूत्पद्यमान एव कथं नारक इति व्यपदिश्यतेऽनुम्तन्नत्वात्तिर्यगादिवत! इत्यत्रोच्यते उत्पद्यमान उत्पन्न एव तदायुष्कोदयादन्यथा तिर्यगाद्यायुष्काभावान्नारकायुष्कोदयेऽपि यदि नारको नासौ तदन्यः कोऽसाविति (किं देसेणं देसं उववज्जइत्ति) देशेन च देशं यदुत्पादनं प्रवृत्तं तद्देशेन देशं छान्दसत्वाचाव्ययीभावप्रतिरूपः समास एवमुत्तरत्रापि तत्र जीवः किं देशेन स्वकीयावयवेन न देशेन नारकावयविनोंऽशतयोत्पद्यते। अथवा देशेन देशमाश्रित्योत्पादयन्वेति शेषः एवमन्यत्रापि तथा (देसेण सव्वंति) देशेन च सर्वेण च यत्प्रवृत्तं तद्देशेन सर्व तत्र देशेनस्वावयवेन सर्वतः सर्वात्मना नारकावयवितयोत्पद्यत इत्यर्थः / आहोस्वित्सर्वेण सर्वात्मना देशतो नारकांशतयोत्पद्यते अथवा सर्वेण सर्वात्मना सर्वतोनारकतयेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् न देशेनदेशतयोत्पद्यते यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो निर्वय॑ते तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत् / यथाहि पटदेशभूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वय॑ते तथा पुर्वावयविप्रतिबद्धेन तद्देशेनोत्तरावयविदेशोन निर्वर्त्यत इति भावः / तथा / नदेशेन सर्वतयोत्पद्यते अपरिपूर्णकारणत्वात्तन्तुना पट इवेति।तथा न सर्वेण देशतयोत्पद्यते सम्पूर्णपरिणामिकारणत्वात्समस्तघटकारणैर्घटकदेशवत् सर्वेणतुसर्व उत्पद्यतेपूर्णकारणसमवायात्घटवदिति चूर्णिव्याख्या। टीकाकारस्त्वेवमाह। किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय यत्रोत्पत्तव्यं तत्र देशत उत्पद्यते अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते अथवा सर्वात्मनायत्रोत्पतत्तव्यं तस्य देश उत्पद्यते अथवा सर्वात्मना सर्वत्रेति। एतेषु पाश्चात्यभङ्गौ ग्राह्यौ यतः सर्वेण समप्रदेशव्यापारेणेलिकागती यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशउत्पद्यते तद्देशेन उत्पत्तिस्थानदेशस्येव व्याप्तत्वात् कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रीत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति / एतच टीकाकारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति / / नेरइयाणं भंते ! नेरइएहिंतो उववट्टमाणे किं देसेणं देसं आहारेइ तहेव जाव सव्वेणं वा देसं आहारेइ सव्वेणं वा सव्यं आहारेइ 1 एवं जीव वेमाणिया || नेरइएणं भंते ! नेरअएसु उववण्णे किं देसेणं देसं उववण्णे एसो वि तहेव जाव सव्वेणं सव्वं उववण्णे जहा उववजमाणे उववट्टमाणे य चत्तारि दंडगा तहा उववण्णे उव्वट्टणे विचत्तारिदंडगा भाणियव्वा सव्वेणं सव्वं उववण्णं सवेण वा देसं आहारेइ सव्वेणं सव्वं आहारेइ एएणं अभिलावेण उववण्णे उव्वट्टेवि नेयव्वं / नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे किं अद्धेणं अद्धं उववज्जइ अद्धेणं सव्वं उववजई सवेणं अद्ध उववज्जइसवेणं सव्वं उववनइ।जहार पढमिल्लेणं अट्ठ दंडगा तहा अद्धेण वि अट्ठ दंडगा भाणियव्वा, णवरं जहिं देसेणं देसं उववञ्जइ तहिं अद्धेणं अद्धं उववज्जइत्ति भाणियव्वं एवं णाणत्तं एवं सव्वेवि सोलस दंडगा भाणियव्वा / / उत्पादे चाहारक इत्याहारसूत्रं तत्र देशेन देशमिति.आत्मदेशेनाव्यवहार्यद्रव्यदेशमित्येवं गमनीयम् उत्तरम्। (सव्वेण वादेसमाहारेइति) उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशैराहारपुद्रलान् कांश्चिदादत्ते कांश्चिद्विमुञ्चति तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापुपवदत उच्यते देशमाहारयतीति (सव्वेण वासव्वंति) सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहारपुद्गलानादत्त एवं प्रथमस्तैलभृततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते / सर्वमाहारयतीति उत्पादस्तदाहारेण सह प्राग्दण्डकाभ्यामुक्तोऽथोत्पादप्रतिपक्षत्वाद्वर्तमानकालनिर्देशसाध चिोद्वर्तनादण्डकस्तदाहारदण्डकेन सह तदनन्तरञ्च नोद्वर्तनाऽनुत्पन्नस्य स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डकावुत्पन्नप्रतिपक्षत्वाचोवृत्ततदाहारदण्डकाविति। पुस्तकान्तरे तु उत्पादतदाहारदण्डकानन्तरमुत्पादे सत्युत्पन्नः स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डको ततस्तूत्पादप्रतिपक्षत्वादुद्वर्तनाया उद्वर्तनातदाहारदण्डको, उद्वर्तनायाशोद्वृत्तः स्यादित्युद्वृत्ततदाहारदण्डकौ कण्ठ्याश्चैत इति एवं तावदष्टाभिर्दण्डकैर्देशसर्वाभ्यामुत्पादादिचिन्तितमथाष्टाभिरेवाड़सर्वाभ्यामुत्पादाद्येव चिन्तयनाह(जहा पढमिल्लेणंति)। यथा देशेन ननु देशस्यार्द्धस्य च को विशेष उच्यते देशस्विधादिरनेकधाऽर्द्ध त्वेकधैवेति / भ०। (गर्भगतस्य मृत्वा नरकेषूत्पादो गम्भ शब्दे)। (24) गर्भगतस्य मृत्वा देवेषूत्पादः॥ जीवेणं मंते ! गब्भगए समाणे नेरइएस उवव जा? गोयमा! अत्ग इए उववजेजा अत्थेगइए नो उववजे Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1006 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय ज्जा से केणटेणं? गोयमा ! सेणं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पञ्जत्तिएहिं पजत्तए वीरियलद्धीए वेउव्विवयलद्धीए पराणीयं आगयं सोचा निसम्म पएसे निच्छुभइ, वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइसमोहणइए चाउरंगिणीए सेणाए विउव्वइ विउव्वइत्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएण सद्धिं संगाम संगामेइसेणं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए अत्थकंखिए रजकंखिए भोगकंखिए कामकंखिए अत्थपिवासिए रज्जपिवासिए भोगपिवासिए कामपिवासिए तचित्ते तम्मणे तल्ले स्से तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणा- भविए एवंसि णं अंतरंसि कालं करेज नेरएइसु उववज्जइसे तेणद्वेणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए नो उववजेजा।। गर्भ गतः सन् गृहीत्वेति शेषः (पंचिंदिएत्ति स गर्भो राजादिगर्भरूपः संज्ञितादिविशेषणानि च गर्भस्थस्यापि नरकप्रायोग्यकर्मबन्ध - संभवाभिधायकतयोक्तानि वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्या संग्रामयतीति योगः अथवावीर्यलब्धिको वैक्रियलब्धिकश्च सन्निति परानीकं शत्रुसैन्यम् (सोचत्ति) आकर्ण्य निशम्य मनसाऽवधार्य (एएसे निच्छुभइत्ति) गर्भदेशाद्रहिः क्षिपति (समोहणइत्ति) समवहन्ति समवहतो भवति तथाविधपुद्गलगहणार्थ संग्राम संग्रामयति युद्ध करोति (अत्थकामएइत्यादि) अर्थेद्रव्ये कामो वाञ्छामात्रं यस्यासावर्थकाम एवमन्यान्यपि विशेषणानि, नवरं राज्यं नृपत्वं भोगा गन्धरसस्पर्शाः कामौ शब्दरूपे काङ्क्षागृद्धिरासक्तिरित्यर्थः / अर्थकासासंजातोऽस्यते अर्थकाशितः। पिपासेव पिपासा प्राप्तेऽप्यर्थे ऽतृप्तिः (तचित्तेत्ति) तत्रार्थादौ चित्तं सामान्योपयोगरूपं यस्यासौ तचित्तः (तम्मणेत्ति) तत्रैवार्थादौ मनो विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः (तल्लेसेत्ति) लेश्याऽऽत्मपरिणामविशेषः। (तदज्झंवसिएत्ति) इहाध्यवसायोऽध्ययसितम् तत्र तश्चित्तादिभावयुक्तस्य तस्मिन्नर्थादावेवाध्यवसितं परिभोगक्रिया - संपादनविषयमस्येति तदध्यवसितः (तत्तिव्वमज्झवसाणेत्ति) तस्मिन्नेवार्थादौ तीव्रमारम्भकालादारभ्य प्रकर्षयाऽपि अध्यवसानं प्रयत्नविशेषलक्षणं यस्य स तथा (तदट्ठोवउत्तेत्ति) तदर्थमर्थादिनिमित्तमुपयुक्तोऽवहित्तस्तदर्थोपयुक्तः (तदप्पियक रणे त्ति) तस्मिन्नेवार्थादावर्पितान्याहितानि करणानीन्द्रियाणि कृतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स तथा (तभावणाभाविएत्ति) असकृदनादिसंसारे तद्भावनयाऽर्थादिसंस्कारेण भावितोयः सतथा (एयंसिणं अंतरंसित्ति) एतस्मिन् संग्रामरणावसरे कालं मरणमिति॥ जीवेणं भंते ! गब्भगए समाणे देवलोगेसु उववजेज्जा? गोयमा अत्थेगइए उववज्जेज्जा अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा से केणद्वेणं? गोयमा ! से णं सण्णी पचिंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पञ्चत्तए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म तओ भवइ संवेगजायसवे त्तिव्वधम्माणुरागरत्ते सेणं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए धम्मकंखिए पुण्णकंखिए सग्गकंखिए मोक्खकंखिये धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए मोक्खपिवासिए तचित्ते तम्मणे तल्ले से तदज्झवसिए तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तटभावणाभाविए एयंसिणं अंतरंसि कालं करेज्जा देवलोएसु उववजह से तेणटेणं गोयमा! (तहारूवस्सत्ति) तथाविधस्य उचितस्येत्यर्थः श्रमणस्य साधोः वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वम्प्रति श्रमणमाह / न वचनयोस्तुल्यत्वप्रकाशनार्थः (माहणस्सति) मा हनेत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपादाति निवृत्तत्वाधः स माहनः / अथवा ह्यणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावात् ब्राह्मणो देशविरतस्तस्य वा (अंतिएत्ति) समीपे एकमप्यास्तामनेकं आर्यमराद्यातं पापकर्मभ्य इत्यार्यम् / अत एव धार्मिकमिति (तउत्ति) तदनन्तरमेव (संवेगजायसड्डेति) संवेगेन भवभयेन जाता श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषु यस्य स तथा (तिव्यधम्माणुरागरत्तेत्ति) तीव्रो यो धानुरागो धर्मबहुमानस्तेन रक्त इव यः स तथा (धम्मकामएत्ति) धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः पुण्यं तत्फलभूतं शुभकर्मेति॥ भ०१श०७ उ०। स्था०॥ तं०॥ (25) कुतो देवा देवलोकेषुपपद्यन्ते॥ तएणं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियया तिक्खुत्तो आयाहीणमयाहीणं करेंति करेइत्ता एवं वयासी संजमेणं मंते ! किं फले तवेणं भंते ! किं फले? तएणं थेरा भगवंतो ते समणोवासया एवं वयासी संजमेणं अजो अणण्हयफले तएणं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी जइणं भंते संजमे अणण्ह फले तवे वोदाणफले किं पत्तियं भंते ! देवा देवलोएसु उववजंति? तत्थणं कालियपुत्ते णामं अणगारे थेरे ते समणोवासए एवं वयासी पुव्वतवेणं अञ्जो देवा देवलोएसु उववजंति तत्थ णं महिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी पुव्वसंजमेणं अज्जो देवा देवलोएसु उववजंति तत्थणं आणंदरक्खिए नाम थेरेते समणोवासए एवं वयासी कम्मियाए अञ्जो देवा देवलोएसु उववजंति तत्थ णं कासवे नाम थेरे ते समणोवदसए एवं वयासी संगियाए अज्जो देवा देवलोएसु उववजंति पुव्वतवेणं पुटवसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो देवा देवलोएसु उववजंति सच्चेणं एस अढे नो चेवणं आयभाववत्तव्वयाए / तएणं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाइंएयारूवाइं वागरणाइंवागरिया समाणा हद्वतुट्ठा थेरे भगवंते वंदंति णमंसं ति वंदइत्ता समसइत्ता पसिणाई पुच्छंति अट्ठाइं उवाहियं ति उट्ठाए उट्टे ति थेरे भगवंते तिक्खुत्तो जाव वंदंति णमंसंति वंदइत्ता समंसित्ता थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुप्फवईयाओ चेइयाओ पडिनिक्खसंति पडि निक्खमइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया तएणं ते थेरा भगवंतो अण्णया कयाइं तुंगियाओ नयरीओ पुप्फवइयाओ चेइयाआं पडिनिग्गच्छंति पडिनि Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1007 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय गच्छइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहि नामं नयरे जाव परिसापडिगया तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूइणामं अणगारे जाव सखित्तविउलतेउलेस्से छटुं छटेणं अनिक्खिात्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ तए णं से भगवं गोयमे छट्टक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ वीयाए पोरिसीएज्झाणं ज्झियाएइ तइयाएपोरिसीए अतुरियमचवलमसं भंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ पडिलेहेइत्ता भायणाई वत्थाईपडिलेहेइ पडिलेहेइत्ता भायणाई पमजइ पमज्जइत्ता भायणाई उग्गोहेइ उग्गाहेइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी इच्छामि णं मंते ! तुज्झेहिं अब्भणुण्णाए समाणे छट्ठक्खमणपारणयंसि रायगिहे नयरे उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं तएणं भगवं गोयमे ! समणेणं भगवया महावीरेणं अब्मणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता अतुरियमचवलमसंभते जुगमंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओरियं सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता रायगिह नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई परघरसमुदाणस्स मिक्खायरियं अडइ तएणं से भगवं गोयमे रायगिहे नयरे जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ एवं खलु देवाणुप्पिया तुंगियाए नयरीए बहियापुप्फवईयाए चेइयाए पासा वञ्चिज्जाथेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाइं एयारूवाई वागरणाइं पुच्छिया संजमेणं भंते ! किं फले, तवे किं फले ? तए णं हारा भगवंता समणोवासए एवं वयासी संजमेणं अजो अणण्हयफले तवे वोदाणफले तं चेव जाव पुय्यतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो देवा देवलोएसु उववजंति सच्चेणं एसमढे णो चेवणं आयभाववत्तव्वयाए से कहमेयं मन्ने एवं ? तएणं भगवं गोयमे ! इमीसे कहाए लद्धढे समाणे जायसढे जाव समुप्पन्नकोउहल्ले अहा पज्जत्तं समुदाणं गिण्हइ गिण्हइत्ता रायगिहाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ अतुरिय जाव सोहेमाणे जेणेव गुसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्षमइ एसणमणेसणं आलोएइ भत्तपाणं पडिदंसेइरत्ता समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्मणुण्णाए समाणे रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसई निसामेइ एवं खलु देवाणुप्पिया तुंगियाए | नगरीए बहिया पुप्फवईए चेइ पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं पुच्छिया संजमेणं भंते ! किं फले, तवे किं फले? तं चेव जाव सचेणं एसमढे णो चेवणं आयभाववत्तव्वयाएतं पभूणं भंतेत्तिथरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरेत्तए / उदाहु अप्पभूसमियाणं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए / उदाहु असमिया आउजियाणं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरित्तए / उदाहु अणाउजिया पालिउजियाणं भंते ! ते शेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए / उदाहु अणाउजिया पलिउजियाणं भंते ! थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए उदाहु अपलिउजिया पुवतवे अञ्जो ! देवा देवलोएसु उववजंति पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अञ्जो देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चेणं एसमढे णो चेव णं आयभाववत्तध्वयाए पभूणं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाईवागरणाइं वागरेत्तएणो अप्पभू तह चेव ने यवं अवसे सियं जाव पभूसमियं आउजिपलियउजिय जाव सच्चेणं एसमढे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए अहं पिणं गोयमा! एवमाइक्खामि भासेमि पनवे मि परवेमि पुवतवेणं देवा देवलोएसु उववजंति पुव्वसंजमेण देवा देवलोएसु उववखंति कम्मियाए देवा देवलोएसु उववजंति संगियाए देवा देवलोएसु उववजंति पुटवतवेण पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अञ्जो देवा देवलोएसु उववजंति / सच्चेणं एसमटे णो चेवणं आयभाववत्तव्ययाए।। तएणं समणोवासया इत्यादि (अणण्हयफलेत्ति) न आश्रवोऽना श्रव इति पाठोऽपि दृश्यते अनाश्रवो नवकर्मानुपादानं फलमस्येत्यनाश्रयफल: संयमः (वोदाणफलेत्ति) दाप्लवने अथवा दैप्शो धने इति वचनात् व्यवदानं पूर्वकृतकर्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृत कनेकचवरशोधनं वा फलं यस्य तद्व्यवदानफलं तप इति। (किं पत्तियंति) कः प्रत्ययः करणं यत्र तत्किम्प्रत्ययं निष्कारणमेव देवा देवालोकेषूत्पद्यन्ते तपःसंयमयोरुक्तरीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः (पुटवतवेणंति) पूर्वतपःसरागावस्थाभावि तपस्या वीतरागावस्थापेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात् एवं संयमोऽपि अयथाख्यानचारित्रमित्यर्थः ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः रागांशस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् (कम्मियाएत्ति) कर्म विद्यते यस्मासौ कमी तद्भावस्तत्ता तया कर्मितया / अन्ये त्वाहुः / कर्मणां विकारः कार्मिका तया अक्षीणेन कर्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः (संगियाएत्ति) सङ्गो यस्यस्ति स सङ्गी तद्भावस्तत्ता तया संगितया द्रव्यादिषु Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय १००८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय सत्सङ्गी हि संयमादियुक्तोऽपि कर्म बध्नाति ततः सङ्गि तया देवत्वावाप्तिरिति आहच, "पुव्वतवसंजमो होति, एगिणो पच्छिमा अरागस्स। एगो संगो वुत्तो, संगाकम्मं भवो तेणं"।।१।।सव्वेणमित्यादि / / सत्योऽयमर्थः कस्मादित्याह, “नो चेवणमित्यादि", नैवात्मभाववक्तव्यतयाऽयमर्थः आत्मभाव एव स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्वं वक्तव्यो वाच्योऽभिमानाद्येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव आत्मभाववक्तव्यता अहंमानिता तया न वयमहंमानितयैवं ब्रूमोऽपितु परमार्थ एवायमेवं विध इति भावना (अतुरियंति) कायिकत्वरारहितम् (अचवलं ति) मानसचापलरहितम् (असंभंतेत्ति) असंभ्रान्तज्ञानः (घरसमुदाणस्स) गृहेषु समुदानं भैक्षं गृहसमुदानं तस्मै गृहसमुदानाय (भिक्खासमायारएत्ति) भिक्षासमाचारेण (जुगंतरपलोयणाएत्ति) युगं यूपस्तत्प्रमाणमंतरं स्वदेहदेशस्य दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या (रियंति)ईर्यागमनं (सेकहमेयं मण्णे एवंति) अथ कथमेतत् स्थविरवचनं मन्ये इति वितर्कार्थो निपातः एवममुना प्रकारेणेति बहुजनवचनम् (प्रभूणंति) प्रभवः समर्थास्ते (समियाणंति) सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातस्तेन सम्यक्तव्याकर्तुंवर्तन्ते अविपर्यासास्त इत्यर्थः / समञ्चन्तीति वा सम्यञ्चः समिता वा सम्यक प्रवृत्तयः श्रमिता वाऽभ्यासवन्तः (आउज्जियत्ति) आयोगिकाः उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति भावः (पलिउज्जियत्ति) परि समन्तात् योगिकाः परिज्ञानिन इत्यर्थः परिजानन्तीति भावः / भ०२ श०५ उ० / “पुण्यपापाभावे सव्वहा अपरिक्खीणकम्मे पुन्नाभावे देवेसु केण हेउणा उववजंति, एवं चोदकेणोक्ते आचार्य आह / गाहा / "पुव्वतवसंजमा होति, रागिणो पच्छिमा अगारस्स / रागो वुत्तो संगो, संगाकम्मं भवो तेणं", I नि० चू० 11 उ० (जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! किं इह गए णेरइयाउयं पकरेइत्तिआउशब्दे उक्तम्) द्वावसुरकुमारौ क्वोपपद्यते।। (26) सहोपपन्नयोरसुरयोः शोभनाशोभनत्वम्॥ दो भंते ! असुरकु मारा एगंसि असुरकुमारा वासंसि असुरकुमारदेवताए उववण्णा तत्थणं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरसणिज्जे अभिरूवे पडि रूवे एगे असुरकुमारे देवे से णं णो पासादीए णो दरसणिजे णो अभिरूवे णो पडिरूवे से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहापण्णत्ता तं जहा वेउवियसरीरा य अवेउव्वियसरीरा य तत्थं णं जे से वेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिलवे तत्थ णजे से अवेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं णो पासादीए जाव णो पडिरूवे से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरे तं चेव जाव णो पडिरूवे? गोयमा! से जहाणामए इह मणुस्सलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति एगे पुरिसे अलंकियविभूसिए एगे पुरिसे अणलंकियविभूसिए एएसिणं गोयमा ! दोहं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए कयरे पुरिसे णोपासादीएजावणोपडिरूवे जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए? भगवं ! तत्थ जे से | पुरिसे अंलकिय विभूसिए से णं पुरिसे पासादीए जाव पडिलवे जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए से णं पुरिसे णो पासादीए जाव णो पडिरूवे से तेणटेणं जाव णो पडिरूवे दो भंते ! णागकुमारादेवा एगंसि णागकुमारा वासंसि एवं चेव एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया एवं चेव। दो भंते! इत्यादि (वेउव्वियसरीरत्ति) विभूषितशरीराः अनन्तरमसुरकुमारादीनां विशेष उक्ताऽथ विशेषाधिकारादिदमाह। (27) नैरयिकानैरयिकेषु उपपन्नास्तेषु कश्चिदल्पतरोऽपरो महावेदनतरः॥ दो भंते णेरइया एगं सिणेरइया वासंसि गेरइयत्ताए उववण्णा तत्थ णं एगे णेरइए महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव। एगे णेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णत्ता तं जहा मायी मिच्छट्ठिी उववण्णगा य अमायी सम्मद्दिट्ठी उववण्णगाय तत्थ णंजे से मायी मिच्छट्ठिी उववण्णए णेरइए से णं महा कम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव तत्थ णं जे से अमायी सम्मद्दिट्ठी उववण्णए णेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव अप्पवेयणतराए चेव दो भंते! असुरकुमारा एवं चेव। एवं एगिंदियविगलिंदियवज्जं जाव वे माणिया।। दो भंते ! नेरइयेत्यादि (महाकम्मतराए चेवत्ति) इह वत्करणात्, "महाकिरियतराए चेव महासत्वतराए चेवत्ति" दृश्यं व्याख्या चास्य प्राग्वत् (एगिदियविगलिंदियवजंति) इहैकेन्द्रियादिवर्जनमेतेषां माथिमिथ्यादृष्टित्वेनामायिसम्यग्दृष्टिविशेषणस्यायुज्यमानत्वादिति। __ (28) प्राग्नारकादिवक्तव्यतोक्ता ते चायुष्कप्रतिसंवेदनावन्त इति तेषां तां निरूपयन्नाहणेरइयाणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिंदियत्तिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कयर आउयं पडिसंवेदेइ ? गोयमा ! णेरइयाउयं पडिसंवेदेइ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ / एवं मणुस्से विणवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पुढवी काइएसु उववजित्तए पुच्छा गोयमा! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेइ पुढवीकाइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ एवं जो जहिं भविओ उववजित्तए तस्स तं पुरओ कडं चिट्ठति तत्थ विओ तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणियाणं णवरं पुढवीकाइओ पुढवीकाइएसु उववज्जति पुढवीकाइयाउयं पडिसंवेदेइ अण्णे य से पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठइ एवं जाव मणुस्सो सट्टाणे उववातेयव्वो परट्ठाणे तहेव // एतच व्यक्तमेव।। भ०१८ श०५ उ०। (पूर्वमायुःसंवेदनतोक्ता अथ तद्विशेषवक्तव्यता विउव्वणा शब्दे) (26) रत्नप्रभायां सर्वे उपपन्नपूर्वाः।। किं सव्वपाणा उववण्णपुरावा ? हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो॥ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1006 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उववाय किं सव्वपाणा इत्यादि अस्य चैवं प्रयोगः / अस्यां रत्नप्रभायां त्रिंशन्नरकलक्षेषु किं सर्वे प्राणादय उत्पन्नपूर्वा अत्रोत्तरम् (असइंति) असकृदनेकशः इदं च वेलाद्वयादावपि स्यादतोऽत्यन्त बाहुल्यप्रतिपादनायाह (अदुवत्ति) अथवा (अणं तखुत्तोत्ति) अनन्तकृत्वोऽनन्तवारान् (भ०२श०३ उ०) तएणं से महव्यले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिए सामाइयमाझ्याई चउद्दसपुव्वाई अहिजइ (इत्यादि ब्रह्मलोके महाबलस्योषपातः महव्वल शब्दे) इह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतोऽपि लान्तके उपपात उच्यते, जावंति लंतगाओ चोद्दसपुटवो जहण्णउववाओत्ति, वचनःदेतस्य च चतुर्दशपूर्वधरस्यपि यद् ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत्के नापि मनाग्विस्मरणादिना प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामुपरि पूर्णत्वादिति सम्भावयन्तीति भ०११ श०११ उ०। (गुणस्थानकेषूपपातो गुणट्ठाण शब्दे मार्गणास्थानकं जीवठाणकादिशब्देषु)। (30) अविराधितश्रामण्यो देवलोकेषूपपद्यते।। अहं भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमासंजमाणं असण्णीणं तावसाणं कं दप्पियाणं चरगपरव्वायगाणं किदिवसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं अभिओगियाणं सलिंगाणं दसणवावण्णगाणं एएसिणं देवलोएसु उववज्जमाणाणं कस्स कहिं उववाए पण्णत्ते गोयमा !असंजय भवियदव्वदेवाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिम गेवेज्जएसु अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्ध विमाणं विराहियसंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उकोसेणं सोहम्मे कप्पे अविराहियसंजमासंजमाणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं अचुए कप्पे विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसियासु असण्णीणं जहण्णेणं भवनवासीसु उक्कोसेणं वाणभृतरेसु अवसेसा सव्वे जहण्णेण भवणवासीसु उक्कोसेणं वोच्छामि तावसाणं जोइसिएसु कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे चरगपरिव्वायगाणं बंधलोए कप्पे किदिवसियाणं लंतगे कप्पे तिरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे आजीवियाणं अचुए कप्पे अभिओगियाणं अच्चुए कप्पे सलिंगाणं दंसणवावण्णगाणं उवरिमगेविजएस।। अहं भंतेत्यादि व्यक्तं नवरमथेति परप्रश्नार्थः (असंजयभवियदव्वदेवाणंति) इह प्रज्ञापनाटीका लिख्यते असंयताश्चारित्रपरिणामशून्या भव्या देवत्वयोग्या अत एव द्रव्यदेवाः / समासश्चैवम् / असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चेति असंयतभव्यद्रध्यदेवास्तत्रैते असंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके यतः किलोक्तम् / अणुवयमहव्वएहि य, वालतवोकामनिज्जराए य / देवाउयं वि बंधइ, समद्दिद्वी यजोजीवो, एतच्चायुक्तं यतोऽमीषामुत्कर्षत उपरिमप्रैवेयके)पपात उक्तः सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते देशविरतश्रावकाणामच्युतादूर्ध्वमगमनात्। नाप्येते निहवास्तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् तस्मान्मिथ्यादृष्टय एवाऽभव्यभव्या वा असंयतभव्यद्रव्यदेवाः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणो गृह्यन्तेते ह्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत एवोपरिमग्रैवेयकेषूत्पद्यन्ते इति असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठानेचारित्रपरिणामशून्यत्त्वात्। ननु कथं तेऽभव्याः भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्तीत्यत्रोच्यते तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि चक्रवर्तिप्रभृत्यनेक-- भूपतिप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानात् साधून समवलोक्य तदर्थ प्रव्रज्याक्रियशकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते ततश्च यथोक्तक्रियाकारिण इति। तथा (अविराहियसंजमाणंति) प्रव्रज्याकालादारभ्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायादिदोषसंभवेऽप्यानाचरितचरणोपघातानामित्यर्थः / तथा (विराहियसंजमाणंति) उक्त विपरीतानाम! (अविराहियसंजमासंजमाणंति) प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदशविरतिपरिणामानां श्रावकाणाम् (विराहियसंजमासंजमाणति) उक्तव्यतिरेकिणाम् (असन्नीणंति) मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावतां तथा (तावसाणंति) पतितपत्राद्युपभोगवतां बालतपस्विनां तथा (कंदप्पियाणंति) कन्दर्पः परिहासः स येषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कन्दर्पिकाः कान्दर्पिका वा व्यवहारमश्चरणवन्त एव कन्दर्पकोत्कुच्यादिकारकाः। तथा हि गाथाकहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अणिहुया य उल्लावा / कंदप्पक हाक हणं, कंदप्पुवएस संसाया / / 1 / / भुमनपणवयणदंसण-छेदेहिं करपायकन्नमाईहिं। तं तं करेइजह जह, हसइ परो अत्तणा अहसं ॥२।वाया कुक्कुइओ पुण, तं जंपइ जेण हस्सए अण्णो। नाणाविहजीवरुए, कुव्वइ मुहतूरए चेवेत्यादि / / 3 / जो संजओ वि एया, सुअप्पसत्था सुभवणं कुणइ / सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणोत्ति / / 4 // अतस्तेषां कन्दर्पिणाम् (चरणपरिव्वायगाणंति) चरकपरिव्राजका धाटिभैक्ष्योपजीविनस्त्रिदण्डिनः / अथवा चरकाः कच्छोटकादयः परिव्राजकास्तु कपिलमुनिसूनवोऽतस्तेषाम् (किदिवसियाणंति) किल्विषं पापं तदस्ति येषां ते किल्विषिकास्ते च व्यवहारतश्चरणवन्तोऽपि ज्ञानाद्यवर्णवादिनो यथोक्तम्, नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहुणं। माई अवणवाई किदिवसियं भावणं कुणइत्ति // 1 // अतस्तेषां तथा (तिरिच्छियाणति) तिरिश्चां गवाश्वादीनां देशविरतिभाजाम् (आजीयाणंति) पाखण्डिविशेषणां नाग्न्यधारिणां गोशालाकशिष्याणामित्यन्ये / आजीवन्ती वा ये अविवेकीलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकास्तत्वेनाजीविका अतस्तेषां तथा (अभिओगियाणंति) अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणादि अभियोगः स च द्विधा / यदाह- दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे य होय नायव्वो। दव्वम्मि होइ जोगा, विज्जमंताय भावम्मि, त्ति / / 1 / / सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति येते ऽभियोगिका आभियोगिका वा तेच व्यवहारिणश्चरणवंत एव मंत्रादिप्रयोक्तारो यदाहको उय भूईकम्मे, परिणा पसिणे निमित्तमाजीवी। इड्डिरसे सायगुरुओ, अहिओगं भावणं कुणइ, त्ति ||1 / / कौतुकं सौभाग्याद्यर्थं स्नपनकं भूतिकर्म ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नाप्रश्नं च स्वप्न विद्यादि (सलिंगाणंति) रजोहरणादिसाधुलिङ्गवता किं विद्यानामित्याह (दंसणवावन्नगाणंति) दर्शन सम्यक्तवं व्यापन्न भ्रष्टं येषां ते तथा तेषा निह्नवानामित्यर्थः (एएसिणं देवलोएसुउववजमाणाणंति अनेन देवत्वादन्यवापि केचिदुत्पद्यन्तइति Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववाय 1010- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवविट्ठ . प्रतिपादितम् “विराहियसंजमाणं जहण्णेणं भवणवईसुउक्कोसेणं सोहम्मे गुणैराहारपरिहारादिरूपैर्वा वास उपवासः। “उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, कप्पे"इह कश्चिदाहविराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इतियदुक्तं / सम्यग्वासो गुणैः सह। उपवासः स विज्ञेयो, न शरीरविशोषणमिति,ध० तत्कथं घटते द्रौपद्यास्तु कुमालिकाभवे विराधितसंयमाया 2 अधि०। आहारशरीर सत्कारादित्यागे, साऔ०। अभक्तार्थकरणे, ईशानोत्पादश्रवणादित्यत्रोच्यते, तस्याः संयम विराधनोत्तरगुणविषया स्था०३ ठा०(पोसहोववाथसशब्दे विधिर्वक्ष्यते) तपनोदयमारभ्य वकु शत्वमात्रकारिणी न मूलगुणविराधनेति, सौधर्मोत्पादश्च यामाष्टकमभोजनम् / उपवासः स विज्ञेयः प्रायश्चित्ते विधीयते / 1 / विशिष्टतरसंयमविराधनायां स्यात्, यदि पुनर्विराधनमात्रमपि उपावृत्तस्य पापेभ्यो, यश्च वासो गुणैः सह / उपवासः स विज्ञेयः, सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यात्तदा वकुशादीनामुत्तर गुणादिप्रतिसेवावतां सर्वभोगविवर्जितः / 1 / वाचला तथा श्राद्धानामुपवासे तन्दुलधावनं कथमच्युतादिषूत्पत्तिःस्यात् कथंचिद्विराधकत्वात्तेषामिति (असण्णीणं रक्षानीरं च कल्पते न वेति प्रश्ने तेषामुपवासे प्रासुकमुष्णोदकं चेति जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसुत्ति) इह यद्यपि पानीयद्वयं कल्पते तन्दुलधावनं रक्षाजलं प्रासुकं भवति परं श्राद्धानां न चमरवलिसारमहिय-मित्यादिवचनादसुरादयो महर्द्धिकाः पलिओवम- कल्पत इति (116 प्र०) तथैकोनत्रिंशदधिकद्विशतषष्ठोचारकृतोऽस्ति मुक्कोसं वंतरियाणं ति", वचनाच्च व्यन्तरा अल्पर्द्धिकास्तथाप्यत एव परं शक्त्यभावे एकान्तरोपवासैःकतु शुद्धयति न वेति प्रश्ने वचनादवसीयते सन्ति व्यन्तरेभ्यः सकाशादल्पर्द्धयो भवनपतयः एकोनत्रिंशदधिकद्विशतं षष्ठा उच्चरितास्तदा षष्ठाएव कर्तुशुद्ध्यन्ति (128 केचनेति असंज्ञिदेवेषूत्पद्यत इत्युक्तम्। भ०१श०२ उ०। प्र०) तथाश्विनचैत्रास्वाध्यायमध्ये उपवासः क्रियते स विंशतिस्थाउपसंपादने, “उववातो उवसंपज्जणं", नि० चू०५ उ०। नकमध्ये प्रक्षेप्तुं शुद्ध्यति न वेति प्रश्ने आश्विनचैत्रास्वाध्यायमध्ये उववायकप्प पुं० (उपपातकल्प) पार्श्वस्थादिभिः सहासित्वा सप्तम्यादौ दिनत्रयकृतोपवासो विंशतिस्थानकमध्ये प्रक्षेप्तुं न शुद्ध्यति संविनविहारोपपतने। पं०भा०। (126 प्र०) श्रीविजयसेनसूरिसत्कपं० कनकविजयमणिकृतउववादकप्पमहुणा, वोच्छामि जहकमेणं तु। प्रश्नास्तदुत्तराणि च यथा षष्ठादौ प्रत्याख्याने भक्तद्वयकथनाधिपंचहिं ठाणेहिं विवडि-ऊण संविग्गसङ्ख्या जुत्तो॥ क्यस्य किं प्रयोजनमिति प्रश्ने सामान्यतः सतां द्विवारं भोजनं अन्भुजतं विहारं, उवेइ उववायकप्पो सो। लोकप्रथितमित्युपवासद्वयेन भोजनचतुष्टयं भोजनद्वयं च पारणोत्तरपाउववयणं उववाओ, पासत्थादीय पंचठाणा तु॥ रणयोरेकाशनपूर्वकं कार्यत इति (377 प्र) तथा रोहिण्युपवासपञ्चतेसु विविहं तु वट्टित्थो, वियादिओ होति णायव्वो। म्याधुपवासश्च कारणे सति मिलन्त्यां तिथौ क्रियते न वेति प्रश्ने कारणे संवेगसमावण्णो, पच्छा उ उवेति उज्जयविहारं॥ सति मिलन्त्यां तिथौ क्रियते कार्यते चेति प्रवृत्तिर्दृश्यते कारणं विना एस उववायकप्पो।।पं०भा०1 तूदयप्राप्तायामेवेति बोध्यम् सं० प्र० उल्ला० 477 प्र०ा तथा जालोरसंधकृतप्राश्नोत्तराणि यथा त्रिविधोपवासप्रत्याख्यानमन्यपंचहिं ठाणे हिं सो पुण पासत्थाइहिं अत्थिऊण वियड्डिऊण प्रत्याख्यानं च कया रीत्या पार्यते इति प्रश्ने उपवासकीधूत्रिविहारविविधमनेकप्रकारं वा वर्तितुमित्यर्थः। सिद्धासंवेगजुत्तो संवेगसगासं एइ नमुक्कारसी पोरसी पुरिमच्छादिक कीबूं पाणहारपचक्खाण फासि उं० संवेगविहारं उपपतति उपसंपद्यते तत उपपातकल्पो भवति / एस १पालिउं२ सोहिउं३ तीरिउं 4 किट्टिउं५ आराहिउंचनासहिअं उववायकप्पो। पं० भा०॥ तस्समिच्छामि दुक्कडं इत्युपवासप्रत्याख्यान पारणरीतिर्वृद्धपरंपरया उववायकारि (ण)पुं० (उपपातकारिन) आचार्यनिर्देशकारिणि, ज्ञातव्या / अधुना केचन श्राद्धा उपवास की— त्रिविहार नमुक्कार “उववायकारी य हरीमणे य" सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। सिपुरिमट्ठादिक कीधो चउविहारपच्चक्खाणफासिउंपालिउं२ सोहिउं उववायगइ(स्त्री०)(उपपातगति) उपपातरूपा उपपाताय वा गतिः / ३तीरिउं 4 किट्टिउं५ आराहिउँ६जंच नाराहिअंतस्स मिच्छामि दुक्कड उत्पादाय गमने, उपपातरूपायां गता च / उपपादगतिस्तु त्रिविधा इच्छमपि पारयन्तो दृश्यन्ते तथा नमुक्कारसिपोरसि पुरमडादिक कीधु क्षेत्रभवनोभवभेदात् तत्र नारकतिर्यङ्नरदेवसिद्धानां यत्स्वक्षेत्रे चउविहार एकासणुविआसणुकिधूत्रिविहार चउव्यिहा पचक्खाण फासिउं उपपातायोत्पादाय गमनं सा क्षेत्रोपपातगतिः या च नारकादीनामेव १पालिउं२ सोहिउं३तीरिउं 4 किट्टिउं५ आराहिअं६जंच नाराहिअं स्वभवे उपपातरूपा गतिःसाभवोपपातगतिः यच्च सिद्धपुद्गलयोर्गमनमात्रं तस्स मिच्छामि दुक्कडं इत्यन्यप्रत्याख्यानपारणरीतिरपि परंपरयैव सा नोभवोपपातगतिः विहायोगतिस्तु स्पृशद्गत्यादिकानेकविधेति। भ० ज्ञेयेति 1 से० प्र०४ उल्ला०१४४ प्र०। ८श०७उन उववासतव न (उपवासतपस्) आहारपरित्यागरूपे तपोभेदे, तथा उववायय पुं०(उपपातज) उपपाताजात उपपातजः। देवनारकेषु, आचा० प्रथमदिने एक उपवासः कृतो द्वितीयदिने द्वितीय इन्थं कृतं षष्ठतप १श्रु०१ अ०॥ ओलाचनामध्ये समायाति नवा तथा प्रहरानन्तरं प्रत्याख्यात उपवास *उपपातक न० पातकसदृशेततोन्यूनफलके पापभेदे, वाच०! आलोचनामध्ये आयाति न वेति प्रश्ने यद्यपि संलग्नतया प्रत्याख्यातं उववायसमा स्त्री०(उपपातसभा) देवसभाभेदे,यस्यां समुत्पद्यते देवः। षष्ठादितपस्तथा कालवेलाप्रत्याख्यातमुपवासतपश्च बहुफलदायि स्था०५ ठा०। वर्णकोऽन्यत्र रा०। अत्र हीरविजयसूरिं प्रति भवति तथापि विशकलितभयोचारितं षष्ठादितपः कालातिक्रमेणोचापण्डितगुणविजयकृतप्रश्नो यथा सौधर्मादिषु देवानां प्रत्येकमुपपातशय्या रितमुपवासतपश्च सर्वथा लोचनामध्ये नायातीत्येकान्तो ज्ञातोनास्तीति विद्यते एकस्याभनेकेषामुपपातो वेति ? अत्र महर्धिकसुराणामुपपात- से०प्र०३ उल्ला० 130 प्र०) शय्या भिन्ना अन्येषां तु अभिन्नापीति संभाव्यते तथाविधव्यक्तक्षराणां | उवविट्ट त्रि०(उपविष्ट) उप-विश-तासामीप्येन स्थिते। जी०३ प्रति०। दर्शनस्यास्मरणादिति। ही। सन्निषण्णे, ज्ञा०३ अ०। “तेताउवविट्ठ समाणं सागरचंदो नारयं पुच्छई"। उववास पुं० (उपवास) उप वस्धञ्। उपेति सह उपावृत्तदोषस्य सतो | आ० म० प्र०) Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवविणिग्गय 1011 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंतकसाय० उवविणिग्गय त्रि०(उपविनिर्गत)निरन्तरविनिर्गते,जी०३ प्र०। उववूहणियापट्टय पुं०(उपवृंहणीयापट्टक) जमतो राज्ञः उपयोज्ये पट्टके उववूह (हा)न० (उपवृं(हा)हण) दर्शनादिगुणवतांप्रशंसायाम, उत्त०२८ __जमंतस्सय रण्णो उववूहणियापट्टओत्ति वुत्तं भवति। नि०चू०६ उ०। अ०। समानधार्मिकाणां क्षमणा वैयावृत्यादिसद्गुण-प्रशंसनेन | उववूहिय न (उपवृंहित) संमूर्च्छिते, अनुमते, आव० 3 अ०। तत्तद्णवृद्धिकरणे, प्रव०६ द्वा०॥ उववेय त्रि०(उपपेत) उप-अप-इत् / इत्येतस्य च स्थाने अत्रोदाहरणम्॥ निरुक्तिवशादुपपेतं भवतीति ! युक्ते,भ०२ श०१ उ०। शकन्ध्वा - उववूहणाए उदाहरणं जहा। रायगिहे णयरे सेणिओराया इओय सक्को दिदर्शनादकारलोपः / औपृषोदरादय इत्यकारलोपः / राधा देवएया संमत्तं पसंसति। इओय एगो देवो असहंतो नयरवाहि सेणियस्स *उपेत त्रि० उप इत प्राकृतत्वाद् वर्णागमः स्थ०६ ठा०। नि०। ज्ञा० निग्गयस्य चेल्लयरूयं काऊण अणमिसे गिण्हति / ताहे तं निवारेति __ युक्ते, स०। “पुप्फफलोववेएण वणसंडेणं", नि० चू०१ उ०, पुणरवि अण्णत्थ संजती गुठ्विणी पुरतोठिता ताहे अपवर ठविऊण जहा “परमहरिसोववेए", रा०। आ० म०प्र०। औ० नि०चू० उत्त०। ण को वि जाणइ तहा सूइगिह कारवेति जं किंचि सूतिकामंतसयमेव सरिसलावण्णरूवगुणोववेयाणं", रा० करेइ ततो सो देवो संजइवं परिचएऊण दिव्वं देवरूवंदरिसेति भणति *उपवेदपुं० उपमितः वेदेन, वेदसदृशे आयुर्वेदादौ, वाच०। य सेणियसुलदंते जम्मजीवियस्य फलं जेणतेपवयणतुवरिए रिसीभत्ती उववेसण न०(उपवेशन) उप-विश् भावे ल्युट् / आसने, निवेशने, भवतित्ति उववूहेऊण गओ एवं उववूहेतव्वा सोहम्मिया द०३ अ०ाव्य।। स्थापने च / वाचला अधिकरणे ल्युट् / चर्मभेदे, यत्रा रागादिभिः मिथ्योपवृंहणायां क्षपणं प्रशस्तोपहाधकरणे आचामाम्लम् / जीत०। कारणैरुपविश्यते। वृ०३ उ० उववूहण न (उपवृंहण) अजमोदने, “ठितिसाहणमुक्वूहणह रिसाइप उवव्वय (उपव्रत) न०नियमे, हा०। नियमास्तु / अक्रोधो गुरुसुश्रूषा, लोयणं चेव", इह प्राकृतत्वेन निरनुस्वारः पाठः / ततश्चोपवृंहणं शौचमाहारलाघवम् / अप्रमादश्चेति / द्वा०८ द्वा०। तस्यानुमोदनं कायं यथा धन्यस्त्वं धर्माधिकारी इत्यादि / पंचा०२ उवसंकमंतं त्रि०(उवसंक्रामत्) सामीप्येन गच्छति,द०५ अ०। विव०। प्रशंसायाम, उववूहणत्ति वा पसंसंति वा सद्धाजणणत्ति वा भिक्षायै वासाय वा गच्छति, आचा०१ श्रु०७ अ०३ उ०। सलाघणत्ति वाएगट्ठा, नि० चू०१ उ०। (एतद्द्वारवक्तव्यता उववूहणविणय उवसंकमित्ताअव्य०(उपसंक्रम्य) उप सम्ल्यप्। उपगत्येत्यर्थे, समणं भगवं महावीरं उवसंकमंति उवसंकमित्ता वंदति / " स्था०३ ठा०। शब्दे) उवसंकमित्ता चारं चरंति। सू०प्र०१पाहु०॥ उववूहण(णा(विणय)) पुं०(उपवृंहणविनय) उपवृंहणं नामसमानसा उवसंकमित्तु अव्य०(उपसंक्रम्य)उप सम् क्रम् ल्यप् / आसन्नीभूधार्मिकाणां क्षपणावैयावृत्यादिसद्गुणप्रशंसनेन तद्वृद्धिकरणं स एव येत्यर्थे , आचा०२ श्रु०। आसन्नतामेत्येत्यर्थे, "उवसंकमित्तुगाविनयः / दर्शनाचारविनये, व्य०१ उ०। इदाणी उववूहणत्ति दारं उववूहणत्ति वा पसंसंति वा सद्धाजणणत्ति वा सलाघणंति वा एगट्ठा / / हावतीवूया आउसंतो समणा", आचा०११०७ अ०३ उ०। उवसंखा स्त्री० (उपसङ्ख्या) उप सामीप्येन सङ्ख्या उपसंख्या खमणे वेयावचे, विणए सज्झायमादिसंजुत्तं। सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञाने, “अणेवसंखा इतिते उदाहुअढेसउभासइ जोतं पसंसए य, सहोति उववूहणाविणओ।॥२७॥ अम्ह एवं"। सूत्र०२ श्रु०१६ अ०॥ (खवणित्ति)चउत्थं छटुं अट्टमंदसमं दुवालसमं अद्धमासखमणं मास उवसंत पुं० (उपशान्त) उप शम् क्त०। उपशभप्रधाने, सूत्र०२ श्रु०२ दुमास तिमास चउमास पंचमास छम्मासा सव्वंपि इत्तरं आवकहियं वा अ०। क्रोधादिजयादुपशान्ते, शीतीभूते, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। (वेयावचेत्ति) आयरियवेयाचे उवज्झायवेयावच्चे तवस्सिवेयावचे क्रोधादिप्रमादरहिते,प्रव०२ द्वा०। क्रोधविपाकावगमेन (पं०व०) गिलाणवेयावचे कुलगणयावच्चे संघवालाइ असुहुसेहे वेयावचे दसम मनोवाकायविकाररहिते, ध०३ अधिकाऔ०। कषायानुदयाएएसिं पुरिसाणं इमेणं वेयावच्चं करेति / असणादिणा वत्थाइणा दिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमाद्वा (आचा०१श्रु०५ अ०४ उ०) उपशमयुक्ते, पीढफलगसेज्जा संथारगओ सह भेसज्जेण य (विणउत्ति) नाणविणओ भ०१ श०६ उ०। विष्कम्भितोदयमुपनीतमिथ्यास्वभावे च / दसणविणओ चरित्तविणओ मणविणओ वयणविणओ कायविणओ शेषमिथ्यात्वमिश्रपुञ्जावाश्रित्यविष्कम्भितोदयं शुद्धपुञ्जमाश्रित्य उवचारियविणओ य / एसविणओ स वित्थरो भाणियव्वो / जहा पुनरपनीतमिथ्यास्वभावे, विशेला श्रा०। सर्वथाऽभावमापन्ने, प्रज्ञा०१६ दसवेयालिए (सज्झाएत्ति) वायणा पुच्छणा परियट्टणा अणुपेहा धम्मकहा पदा उपशान्त -मोहगुणस्थानके, पं० सं०पञ्चदशे ऐरवतजे तीर्थकरे, य पंचविहो सज्झाओ। आदिसहाओ जे अण्णे तवभेयाओ मोयरिया ते प्रव०७ द्वा०। निचनारकदीना विशिष्टोदयाभावात् क्रोधभेदे, स्था० धिप्पंति तहा खमादओ य गुणा जुत्तंति एतेहिं जहाभिहिएहिं गुणेहि ४ठान उववेयाजुत्तो भण्णति जो इति अणिघिट्टसरूवो साहू घेप्पइ तं सद्देण उवसंतकसायवीयरागछ उमत्थ पुं० ( उपशान्तकपायवीतखमणादि गुणोववेयस्स गहणं पसंसते श्लाघयतीत्यर्थः (पसंसत्ति) रागच्छद्मस्थ) छाद्यते केवलज्ञानं केवलदर्शनं चात्मानेनेति छद्म पसंसाए णिद्देसो होइ भवति किं उववूहणांविणओ णिद्देसवयणविणओ ज्ञानावरणरदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मोदयः। सति तस्मिन् कम्मावणयणद्वारमित्यर्थः / उववूहणत्ति दारं गयं / / नि० चू०१ उ०) के वलस्यानुत्पादात् तदपगमानन्तरं चोत्पादात् छ मानि उववूहणिया स्त्री (उपवृंहणीया) उपवृंहयतीति उपवृंहणीया | तिष्ठतीति छद्मस्थः स च सरागोऽपि भवतीत्यतस्मव्यवच्छेदार्थ उपवृंहणकाम् नि० चू०८ उ०। (एतद्वक्तव्यता रायपिंड शब्दे) वीतराग्रहणं वीतो विगतो रागो मायालोभकषायोदयरूपो यस्य Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंतकसाय० 1012- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया सवीतरागः सचासौछमस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः सच क्षीणकषायोऽपि कालं, वचइ तो णुत्तरसुरेसु॥ अनिबद्धाऊ होउ पसंतमोहो मुहुत्तमेत्तद्धं / भवति तस्यापि यथोक्तरागापगमात् अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमुपशान्त- उदितकसायो नियमा, नियत्तए से ढिपडिलोमं / आ० म०प्र०॥ कषाग्रहणं कषशिषेत्यादिदण्डकधातुर्हि सार्थः कषन्ति कष्यन्ति च / उवसंतकसायवीयरागर्दसणारिय पुं० (उपशान्तकषायवीतपरस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः संसारः कषमयन्तेगच्छन्त्योभिजन्तव रागदर्शनार्य्य) वीतरागदर्शनार्थभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। इति कषायाः क्रोधादयः उपशाम्ता उपशमिता विद्यमाना एव उवसंतखीणमोद पुं०(उपशान्तक्षीणमोह) उपशान्तः सर्वथा-- संक्रमणोद्वर्तना-ऽपवर्तनादिकरणोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया नुदयावस्थः क्षीणश्च निजीर्णो मोहो मोहनीयं कर्म येषां ते तथा। येनस उपशान्तकषायः। स चासौ वीतरागच्छद्मस्थः। प्रव०२२४ द्वा०) उपशमक्षयावस्थमोहनीयकर्मके, पंचा०१६ विव०। एकादशगुणस्थानोपगते, पं० सं०१द्वा०ा दर्श०।। उपसंतजीवि(ण) पुं० (उपशान्तजीविन्) उपशान्तोऽन्तर्वृत्या उवसंतकसायवीयरागच्छउमत्थगुणट्ठाण न०(उपशान्तकषाय जीवतीत्येवं शील उपशान्तजीवी। अन्तर्वृत्त्यैव जीवामीत्यभिग्रहविशेषवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थान) एकादशे गुणस्थाने, तत्राविरतसम्यग्दृष्टः धारके, भ०६ श०३३ उ01 प्रभृत्यनन्तानुबन्धिनः कषाया उपशन्ताः संभवन्ति उपशमश्रेण्यारम्भे उवसंतमोह पुं०(उपशान्तमोह) उपशान्तः सर्वथाऽनुदयावस्थो मोहो ह्यनन्तानुबन्धिकषाया न विरतो देशविरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा स मोहनीय कर्मयस्य स उपशान्तमोहः। उपशमवीतरागे, अयं च एकादशगुण तूपशमय्य दर्शनमोहत्रितयमुपशयमतितदुपशमान्तरं प्रमत्ताप्रमत्तगुण स्थानमारूढः उपशमश्रेणिसमाप्तावन्तमुहूर्तं भवति ततः प्रच्यवतेस०॥ स्थानपरिवृत्तिशतानि कृत्वा ततोऽपूर्वकरणगुणस्थानोत्तरकालमनि उवसंतो मोहो नाम जस्स अट्ठवा स तिविहंपि मोहणिज्जकम्ममुवसंतं वृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानोत्तरकालमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थाने अणुमेत्तमविण्ण वेदेति। सो य देसपडिवातेन वा नियमा पडिवतित्ति / / चारित्रमोहनीयस्य प्रथम नपुंसकवेदमुपशमयति / ततः स्त्रीवेदक्रमो आधू०४ अ०। अनुत्कटवेदमोहनीये, “अणुत्तरोववाझ्या उवसंतमोहा हास्यरत्यरतिशोकभयजुगगुप्सारूपं युगपत्षट्कंपुरुषवेदं ततो युगपद (उवसंतमोहत्ति) अनुत्कट वेद-मोहनीयायः परिचारणायाः कथञ्चिदप्यभावात् न तु सर्वथोपशान्तमोहाः उपशमश्रेणेस्तेषामभावात्।। प्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणौ क्रोधौ ततः संज्वलनक्रोधं ततो भ०५ श०४ उ०। उपशान्त उपशमनीयो विद्यमान एव युगपद् द्वितीयतृतीयौ मानौ ततः संज्वलनमानं ततो युगपद्वितीय संक्रमणोद्वर्तनादिकरण-योग्यत्वेन व्यवस्थापितो मोहो मोहनीयं कर्म येन तृतीयमाये ततः संज्वलनमायांततो युगपद्-द्वितीयतृतीयौ लोभौ ततः स उपशान्तमोहः / प्रव०६३द्वा०॥ उपशामकनिन्थे, आव०४ अ० सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने संज्वलनलोभमुपशमयतीत्युपशमश्रेणिः। उवसंतरय न०(उपशान्तरजस) प्रशान्तरजसि, उवसंतरयं करेह रा० स्थापना चेयम् / विस्तरतस्तु उपशमश्रेणिःस्वोपज्ञशतकटीकायां जी०॥ उपशान्तमपगतं रजः कालुष्यापादकं यस्य स तथा। रजोरहिते, व्याख्याता ततः परिभावनीया / तदेवमन्येष्वपि गुणस्थानकेषु क्वापि समंसि भोम उवसंतरए सक्खमाणे से चिट्ठति / / आचा० 1 श्रु०५ कियतामपि कषायाणामुपशान्तत्वसंभवात् उपशान्तकषायव्यपदेशः अ०५ उ० संभवत्यतस्त व्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / उपशान्तकषायवीतराग उवसंताहिगरणउल्लाससंजणणी स्त्री० (उपशान्ताधिकरणो-- इत्येतावतापीष्टसिद्धौ छद्मस्थनग्रहणं स्वरूपकथनार्थ व्यवच्छेद्याभावात् ल्लाससञ्जननी) उपशान्तस्योपशमं नीतस्याधिकरणन ह्यच्छदास्थ उपशान्तकषायवीतरागः संभवति यस्य छद्मस्थग्रहणेन स्य कलहस्य य उल्लासः प्रवर्तनं तस्य सञ्जननी समुत्पाद-यित्रीत्यर्थः / व्यवच्छेदः स्यादिति / अस्मिश्च गुणस्थानेऽष्टाविंशतिरपि मोहनीय षष्ठ्यामप्रशस्तायां भाषायाम् प्रव०२३३ द्वारा प्रकृतय उपशान्ता ज्ञातव्याः उपशान्तकषायश्च जघन्येनैकं समयं भवति उवसंति स्त्री० (उपशान्ति)उपशमे,आचा०१अवानिवृत्ती,वाचा उत्कर्षण त्वन्तर्मुहूर्तं कालं यावत् तत ऊर्ध्वं नियमादसौ प्रतिपतति। उवसंधारिय त्रि०(उपसंधारित) संकल्पिते, पत्तबुद्धीए तेण भणिय जति प्रतिपातश्च द्वेधा भषक्षयेणअद्धाक्षयेण च / तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य यतबुद्धीए तओ तेण उवसंधारियं सब्भावं च से कहियं, नि० चू०१ उ०॥ अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाप्तायां अद्धाक्षयेण च प्रतिपतितं उपसंपजंत त्रि०(उपसंपद्यमान) उपसंपदं गृह्णाति, व्य०१ उ०) यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति यत्र रबन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नास्तत्रर उपसंपजसेणियापरिकम्म(ण)न०(उपसंपच्छेणिकापरिकर्मन्) प्रतिपतता सता ते आरभ्यन्त इति यावत्। प्रतिपति॑श्च तावत्प्रतिपतति दृष्टिवादान्तर्गतपरिकर्मभेदे, स०॥ यावत्प्रमत्तगुणस्थानं कश्चित्तु ततोऽप्यधस्तनगुणस्थानकद्विकं याति | उवसंपजिउकाम त्रि०(उवसंपत्तुकाम) उपसंपदं जिघृक्षौ, बृ०१उ०।। कोऽपि सासादनभावमपि। यः पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय उवसंपज्जित्ता अव्य०(उपसंपद्य)उप-सम्-पद-ल्यप् / सामस्त्येएव सर्वाण्यपि बन्धनादिनि करणानि प्रवर्तयतीति विशेषः / कर्म०। इह नाङ्गीकृत्येत्यर्थे, ध०३ अधि० आश्रित्येत्यर्थे, स्था०८ ठा० सूत्रका यदि बद्धायुरुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नः श्रेणिमध्यगतगुणस्थानवर्ती उपा। पा० "उवसंपजित्ताणं विहरामि", उपसंपन्नो भूत्वा विहारामि उपशान्तमोहो वा भूत्वा कालं करोतीति तदा नियमेनानुत्तरसुरेषूत्पद्यते वर्त्त भ०३श०२ उ० श्रेणिप्रतिपतितस्य तु कालकरणेऽनियमानानामतित्वेन नानास्थानग- उपसंपण्ण त्रि०(उपसंपन्न)उप-सम्-पद्-क्त-प्राप्ते, मृते च / हेम० मनारत् / अथाद्धायुस्ता प्रतिपन्नः तद्दन्तर्मुहूर्तमुपाशान्तमोहो भूत्वा सामीप्येन प्रतिपन्ने, आव 6 अ० उवसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं नियमतः पुनरथुदितकषायः कात्स्र्नेन न श्रेणिप्रतिलोममावर्तेत। उक्तं अपूरितो,ध०३ अधिक। च “बद्धाऊ पडिशन्नो, सेढिगतो वा पसंतमोहो वा / जइ कुणइ कोइ | उवसंपया स्त्री०(उपसम्पद्) उप सामीप्येन संपादनं गमनमा Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०१३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया सम्पद् / इयन्तं कालं भवदन्तिके आसितव्यमित्येवंरूपे (ग० 2 अधि०) ज्ञानाद्यर्थगुर्वन्तराश्रयणे, ध०३ अधि०ा पंचा०। भ० आ० म० द्विात्वदीयोऽहमित्येवं श्रुताद्यर्थमन्यसत्ताभ्युपगमे, अनु०। सामीप्ये, प्रशंसायाम, अस्तित्वे, निष्पत्ती, प्रतिपत्तौ च / पं० चू०। अत्थणे "उवसंपया", अर्थने ज्ञानाद्यर्थ परस्य आचार्यस्य पार्श्वे अवस्थाय ज्ञानादिगुणार्जनमुपसंपदुच्यते / तस्याचार्य्यस्य समीपे अवस्थानाय स्वामिन् इत्यतं कालं भवतां समीपे मया स्थातव्यं गच्छान्तरेआचायान्तरे ज्ञानाद्यामिति विज्ञप्तिपूर्वकं ज्ञानाद्यभ्यसनरूपा उपसंपत्सामाचारीति भावः।। उत्त०२६ अ०) (1) उपसंपदो भेदास्तत्र चारित्रगृहस्थोपसंपत्प्रतिपादनं च। (2) आचार्यादौ मृते अन्सत्रोपसंपत्। तत्र हानिवृद्ध्यादिपरी क्षणेन कर्तव्याकर्तव्य निरूपणं। (3) भिक्षोर्गणादपक्रम्य अन्यं गणमुपसंपद्य विहारः। (4) शैक्षेण सपरिच्छन्नेन रत्नाधिकस्योपसंपदातव्या। (5) सांभोगिकासांभोगिकयोः सहमिलितयोराचार्यायोः सामाचारी तत्रावग्रहश्च। (6) पावस्थादिविहारप्रतिमामुपसंपद्य विहारे कर्तव्यताविधिः। (7) भिक्षोर्गणादपक्रम्य अन्यं गणमुपसंपद्य विहरणे प्रकारान्तर प्रतिपादनं। (8) गणावच्छेदकस्यान्यं गणमुपसंपद्य विहारः। (E) कुगुरौ सत्यन्यत्रोपसंपत्। (१)उपसंपद्भेदायथाउपसम्पत् द्विधा साधुविषया गृहस्थविषया च ज्ञानादिहेतोर्यदपरं गणं गत्वोपसम्पद्यते सा साधुविषया / यत्पुनरवस्थाननिमित्तं गृहिणामनुज्ञापनंसा गृहस्थविषया बृ०१ उतत्रास्तां गृहस्थोपसंपत् सूपंपत्प्रोच्यते। तिहिवा उवसंपया पण्णत्ता तंजहा आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणित्ताए। उपसंपत् ज्ञानाद्यर्थं भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः / तथा हि कश्चित् स्वाचा-दिसंदिष्टः सम्यक् श्रुतग्रन्थानां दर्शनप्रभावकशास्त्राणां वा सूत्रार्थयोर्ग्रहणं स्थिरीकरणं विस्मृतसंधानार्थं तथाचारित्र-विशेषभूताय वैयावृत्त्याय क्षमणाय वा संदिष्टमाचार्यातरं यदुपसंपद्यते। स्था०३ ठा०। धा ज्ञानाद्युपसंपत्रिविधा ज्ञानादिभेदात्तथा चाह। उवसंपया य तिविहा, नाणे तह दंसणे चरित्ते य। दसणनाणे तिविहा, दुविहाय चरित्तअट्ठाए। उपसंपत् त्रिविधा तद्यथा ज्ञाने ज्ञानविषया एवं दर्शनविषया चारित्रविषया च तत्र दर्शनज्ञानयोः संबंधिनी त्रिविधा द्विविधा च चारित्रायेति। तत्र यदुक्तं दर्शनज्ञानयोस्त्रिविधेति तत्प्रतिपादनार्थमाह। वत्तणा संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ तदुभए। वेयावच्चे खमणे, काले आवकहाई य॥ वर्त्तना संधना चैव ग्रहणमित्येतत्त्रितयं (सुत्तत्थतदुभयत्ति) सूत्रार्थोभयविषयम वगन्तव्यमित्येतदर्थमुपसंपद्यते / तत्र वर्तना प्रागृहीतस्यैव सूत्रादेरस्थिरस्य गुणनमिति! सन्धना तस्यैव प्रदेशान्तरे विस्मृतस्यामलना योजना घटनेत्येकोऽर्थः / ग्रहणं पुनस्तस्यैव तत्प्रथमतया आदानम् एतत्त्रितयं सूत्रार्थोभयविषयं द्रष्टव्यमेवं ज्ञाने नव भेदा दर्शनप्रभावनोयशास्त्रविषया एत एक भेदा द्रष्टव्याः। अत्रच संदिष्टः संदिष्टस्यैवोपसंपद्यते इत्यादि चतुर्भङ्गिका / तत्र प्रथमो भङ्गः शुद्धः शेषास्त्वशुद्धाः। द्विविधा चारित्रार्थायेति यदुक्तं तदुपदर्शनायाह (वेयावचे इत्यादि) चारित्रोपसंपत् वैयावृत्त्यविषया क्षपणविषया च / इयं कालतो यावत् कथिका च भवति च शब्दादित्वरा च / एतदुक्तं भवति चारित्रार्थमाचार्याय कश्चिद्वैयावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते स च काल इत्वरो यावत् कथिक श्च क्षपकोऽपि उपसंपद्यते द्विविधा इत्यरो यावत्कथिकश्चेति गाथासंक्षेपार्थः / सांप्रतमयमेवार्थो विशेषतः प्रतिपाद्यते। तत्रापि संदिष्टन संदिष्टस्योपसंपदातव्येति मौलोऽयं गुणः एतत्प्रभवत्वादुपसंपद इत्यतोऽमुमेवार्थमभिधित्सुराह। संदिह्रो संदिहस्स, चेव संपज्जएसु एमाई। चउभंगो एत्थं पुण, पढमो भंगो हवइ सुद्धो।। संदिष्टो गुरुणाऽभिहितः संदिष्टस्यैवाचार्यस्य यथा अमुकस्य संपद्यस्य उपसंपदं प्रयच्छेत्यर्थः। एवमादिश्चतुर्भङ्गी तद्यथा संदिष्टस्य एष भङ्गउक्तः। एवं संदिष्टऽसंदिष्टस्यान्यस्याचार्यस्येति द्वितीयः। असंदिष्टः संदिष्टस्यन तावदिदानीं गन्तव्यं त्वयाऽमुकस्येति तृतीयः। असंदिष्टोऽसदिष्टस्य न तावदिदानीं न वाऽमुकस्येति चतुर्थः। अत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति शुद्धः पुनःशब्दस्य विशेषणार्थत्वात्। द्वितीयपदेनाव्यवच्छिनत्ति निमित्तमन्येऽपि द्रष्टव्याः / संप्रति वर्त्तनादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह। अथिरस्स पुव्वगहियस्स, वत्तणा जं इह थिरीकरणं। तस्सेव पएसंतरं, नट्टस्सणुसंधाणा घडणा।। गहणं तप्पढमतया, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव / अत्थागहणम्मि पायं, एस विही होइ नायव्यो / पूर्वगृहीतस्य सूत्रादेरस्थिरस्य यदिह स्थिरीकरणं सा वर्त्तना तस्यैव सूत्रादेः प्रदेशान्तरनष्टस्य या घटना मीलनं साऽनुसंधना तत्प्रथमतया च सूत्रे षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् / सूत्रस्य एवमर्थस्य सूत्रार्थोभयस्य यदादानमिति शेषः। तद्ग्रहण मित्यादि। अर्थग्रहणे प्रायो बाहुल्येन एष वक्ष्यमाणलक्षणो विधिर्भवति ज्ञातव्यः / प्रायोग्रहणं सूत्रग्रहणेऽपि कश्चिद्भवत्येव धर्मार्जनादिरितिज्ञापनार्थम्। (आ० म०) सचैवं योज्यते कर्तव्यमेव भवति कृतिकर्म वन्दनमिति एवं तावत् ज्ञानोपसंपद्विधिरुतो दर्शनोपसंपनिधिरप्यनेनैवोक्तो द्रष्टव्यस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् / तथा हि दर्शनप्रभावकशास्त्र परिज्ञानार्थमेव दर्शनोपसंपदिति / संप्रति चारित्रोपसं-पद्विधिमभिधित्सुराह // दुविधा उ चरित्तम्मि, वेयावच्चे तहेव खामणे य। नियगच्छा आणम्मि उ, सीयणदोसाइणा होइ। द्विविधा चारित्रविषया उपसंपत्तद्यथा वैयावृत्त्यविषया क्षेपण विषया च / किमत्रोपसंपदा कार्य स्वगच्छ एव तत् कस्मान्न क्रियते निजगच्छादन्यस्मिन् गमनं सीदनदोषादिना भवति आदिशब्दादन्यभावादिपरिग्रहः। इत्तरिया य विभासा, वेयावच्चे तहेव खमणे य। अविगट्ठगिट्टम्मिय, गणिणा गच्छस्स पुच्छाए। इह चारित्रार्थमाचार्यस्य कश्चिद् वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते य च काल इत्वरा यावत् क थिक श्च भवति / आचार्य स्यापि वैयावृत्त्यकरोऽस्ति वान वा / तत्रायं विधिर्यदिनास्ति ततोऽसाविष्यत Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1014- अमिधानराजेन्द्रः -- भाग 2 उवसंपया एव अथास्ति स द्विविध इत्वरो वा स्यात् यावत् कथिको वा आगन्तुकोऽप्येवं द्विभेद एव / तत्र यदि द्वावपि यावत्कथिको ततो यो लब्धिमान् स कार्यते इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते / अथ द्वावपि लब्धियुक्तौ ततो वास्तव्य एव कार्यते इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते। अथ नेच्छतिततो वास्तव्य एव प्रीति पुरस्सरंतेभ्यो दीयते आगन्तुकस्तु कार्यते इति / अथ प्राक्तनोऽप्युपाध्यायादिभ्यो नेच्छति तत आगन्तुको विसर्यते एव / अथ वास्तव्यो यावत्कथिक इत्वरसित्वतर इत्यत्राप्येवमेव भेदाः कर्त्तव्या यावदागन्तुको विसृज्यते ततो वास्तव्य उपाध्यायादिभ्यो ऽनिच्छन्नपि प्रीत्या विश्राण्यते यदि सर्वथा नेच्छति ततो विसृज्यते आगन्तुकः / अथ वास्तव्यः खल्वित्वरः आगन्तुकस्तु यावत्कथिकस्ततो वास्तव्योऽवधिकालं यावदुपाध्यायादिभ्यो दीयते शेष पूर्ववत्। अथ द्वावपीत्वरौ तत्राप्येक उपाध्यायादिभ्यो दीयते अन्यस्तु कार्यते शेषं पूर्ववत्।अन्यतमोऽवधिकालं यावध्रियते इत्येवं यथाविधि विभाषा कार्या / उपाध्यायादिभ्य इत्यत्रादिशब्दात् स्थविरग्लानशैक्षकादिपरिग्रहः / उक्ता वैयावृत्त्योपसंपत् संप्रति क्षपणोपसंपत् प्रतिपाद्यते (अविगितॄत्यादि) कश्चित् क्षपणार्थमुपसंपद्यते सच क्षपको द्विधा इत्वरो यावत्कथिकश्च यावत्कथिक उत्वरकाले अनशनकर्ता इतरस्तु द्विधा विकृष्ट क्षपकः खल्वाचार्येण पृच्छयते हा आयुष्मन् ! पारणके त्वं कीदृशो भवसि यद्यसावाह ग्लानोपमस्ततोऽसावभिधातव्योऽलं तव क्षपणेन स्वाध्यायवैयावृत्त्यकरणेनयत्नं कुरु इतरोऽपि पृष्टः सन् एवमेव प्रज्ञाप्यते। अन्ये तुव्याचक्षते विकृष्टक्षपकः पारणककालेग्लान कल्पनामनुभवन्नपि इप्यते एव / यस्तु मासादिक्षपको यावत्कथिको वा स इष्यते एव तत्राप्याचार्येण गच्छः प्रष्टव्यो यश्चायं क्षपक, “उवसंपज्जत्ति", इति अनापृच्छय संगच्छते सामाचारीविराधनां यतस्ते संदिष्टा अपि उपाधिप्रत्युपेक्षणादि तस्य न कुर्वन्ति। अथ पृष्टाब्रुवते यथाऽस्माकमेकः क्षपकोऽस्त्येव तस्य क्षपणपरिसमाप्तावस्य करिष्यामस्ततोऽसौ ध्रियते अथ नेच्छन्ति ततस्त्याज्यते अथ गच्छस्तमप्यनुवर्ततेततोऽसाविप्यत एव तस्य च विधिना प्रतीच्छितस्य उद्वर्तनादि कार्यम् / यदा पुनः प्रमादतोऽनाभोगतो वा न कुर्वन्ति शिष्याः तदा आचार्येण वन्दनीया इत्यलं प्रसङ्गेन। संप्रति चारित्रोपसंपद्विधिविशेषप्रतिपादनर्थमाह! उवसंपन्नो जं कारणं, तु तं कारणं अपूरंतो। अहवा समाणियम्मि, सारणया वा विसग्गो वा।। यत्कारणं यन्निमित्तमुपसंपन्नस्तुशब्दादन्यत्वसामाचार्यन्तर्गतं किमपि गृहीतं तत्कारणं वैयावृत्त्यादि अपूरयन् अकुर्वन् यदा वर्तते इत्यध्याहारस्तदा किमित्याह (सारणया वा विसग्गो वा इति तदाऽस्य सारणा चोदनं क्रियते अविनीतस्य पुनर्विसो वा परित्यागः क्रियते। तथा नापूरयन्नैव यदा वर्तते तदा सारणा वा विसर्गोवा किं तु (अहवा समाणियम्मित्ति) अथवा समानीते परिसमाप्ति नीते अभ्युपगतप्रयोजने सारणा च क्रियते यथा परिसमाप्तम्। ततो यदि ऊर्द्धमपि इच्छति ततो भवति अथनेच्छति सोऽवस्थातुंततोविसर्गो वेति उक्ता चारित्रोपसंपत्। संप्रति गृहस्थोपसंपदुच्यते तत्रेयं साधूनां सामाचारी सर्वत्रैव साध्वादिषु वृक्षाद्यधोऽप्यनुज्ञाप्य स्थातव्यं यत आह! इत्तरियं पिन कप्पइ, अविदिन्नं खलु परोग्गहाईसु। चिट्ठितु निसीयइत्तुं व, तइयव्वयरक्खणट्ठाए। इत्वरमपि खल्यमपि कालमिति गम्यते न कल्पते अविदत्तं खलु पराक्ग्रहादिषु आदिशब्दः परावग्रहोऽनेकभेदप्रख्यापकः किंन कल्पते इत्याह स्थातुं कायोत्सर्ग कर्तुं निसत्तमुपवेष्टुं किमित्यत आह (तइव्वयरक्खणट्ठाए) अदत्तादानविरत्याख्य तृतीयव्रतरक्षणार्थ तस्मात् भिक्षाटनादावपि व्याघातसंभवे क्वचित् स्थातुं शक्यमनुज्ञाप्य स्वामिनं विधिना स्थातव्यम्। अटव्यादिष्वपि विश्रमितुकामेन पूर्वस्थितमनुज्ञाप्य स्थातव्यं तदभावे देवतां यस्याः सोऽवग्रह इति / आ० म० द्वि०ा आ० चू०॥ पंचा० (अत्रालोचना आलोयणा शब्दे)। (2) आचार्यादौ मृतेऽन्यत्रोपसंपत्। गामाणुगाम दुइज्जमाणे भिक्खू जं पुरओ कट्ट विहेरेज्जा से आहब विसंमेज्जा अत्थिया इत्थ केइ उवसंपज्जणारिहे कप्पड़ से उवसंपनियवेसिया णत्थि इत्थ केइ अण्णे उवसंपजणारिहे अप्पए असमत्ते कप्पई से एगरायाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसिं अण्णसाहम्मियां विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उपलित्तए णो से कप्पइ तत्थ विहारपत्तियं वत्थए कप्पइसे कारणपत्तियं वच्छए तेसिंच णं करणंसि निवियंसिय रोवइज्जा वसाहि अजो एगरायं मा दुरायं वा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए णो कप्पइ एगराओ वा दुराओ वा परवत्थए जं तत्थ एगराओ वा दुराओ वा परं वसति सेसंतरा छेए वा परिहारे वा।। ग्रामानुग्रामंग्रामेण(दुइज्जमाणे) गच्छन् एतावता ऋतुबद्धः कालो दर्शितो यं पुरतः कृत्वा प्रभुं कृत्वा इत्यर्थः / स नियमादाचार्य उपाध्यायो वा द्रष्टव्यो विहरतिस आहच कदाचित् भुजेज्जा शरीराद्विष्वग्भवेत्कालगतो भवेत् (अत्थियाइत्थ इत्यादि) अस्ति वाऽत्र समुदायेऽन्यः कश्चित् आचार्यादुपाध्यायाद्वा व्यतिरिक्तो गणी प्रवृर्तकस्थविरो वृषभो वा उपसंपदनास्तित उपसंपत्तव्यः। अथान्यो नास्ति कश्चिदशेषसंपदनाहस्तर्हि स आत्मनः कल्पनासमाप्त इति (से) तस्यकल्पते। एकरात्रिक्या प्रतिमया यत्र वसति तत्रैकरात्राभिग्रहेण (जण्णजण्णमित्यादि) यस्या यस्यां दिशि अन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तां दिशमुपगन्तुं न पुनः (से) तस्य कल्पते तत्रापान्तराले विहारप्रत्ययं वस्तु कल्पते (से) तस्य कारणप्रत्ययं संघातादिकारणनिमित्तं वस्तुम। तस्मिंश्च कारणे निष्ठिते यदि परो वदेत वस आर्य ! एकरात्रं द्विरात्रं वा एवं (से) तस्य कल्पते एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वाशब्दात्रिरात्रं वा वस्तु न (से) तस्य कल्पते एकरात्राद् द्विरात्राद्वा परं वस्तुम् यस्तत्र एकरात्रात् द्विरात्राद्वा परं वसति तत्र (से) तस्य स्वकृतादन्तराच्छेदः परिहारो वेति / अधुना नियुक्तिविस्तरः। अत्रोपसंपदनाह इत्युक्तं सा चोपसंपद द्विधा लौकिकी लोकोत्तरिकी च ते आह। लोगे य उत्तरम्मिय, उवसंपयलोगिगी उरायाई। राया वि होइ दुविहो, सावेक्खो चेव निरवेक्खो। उपसंपद् द्विधा लोके लोकोत्तरे च / तत्र लौकि की राजादौ आदिशब्दात् युवराजादिपरिग्रहः / तथा च यदा राजा मृतो भवति तदा युवराजमुपसंपद्यन्ते तं राजानं स्थापयन्तीत्यर्थः / युवराजोऽन्यः स्थाप्यते स च राजा भवति / द्विविधः सापेक्षो निरपेक्षश्च / सहापेक्षया सापेक्षस्तद्विपरीतो निरक्षेपः / तथा च Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1015 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया प्रजा राजाऽऽद्यपेक्षः सन् जीवन्नेव युवराजं स्थापयति निरपेक्षस्तु नैव। अथ किं जीवन्नेव युवराजं स्थापयति तत आह। जुवराजम्मि उठबिए, पया उबंधंति आयति तत्थ। नेव य कालगयम्मि, खुभंति पडिवेसियनरिंदा।। युवराजे राज्ञा साक्षाद्विद्यमानेन स्थापिते प्रजास्तत्र आयतिमागामिकालविषयां महतीमास्था बध्नन्ति नैव च सहसा कालगते राज्ञिप्रातिवेशिकनरेन्द्राः सीमातटवर्तिनः प्रत्यन्तराजानः क्षुभ्यन्ति राज्यविलोडनाय संबलन्ति। उक्तः सापेक्षः। संप्रति निरपेक्षमाह। पच्छन्नरायतेणे, आयपरो दुविह होइ निक्खेवो। लोइयलोगुत्तरितो, लोगुत्तरवप्पियर वोच्छं॥ निरपेक्षो नाम यः प्रजानां राज्यस्य चायतिं नोपेक्षते तस्मिन्कालगते सराजा मृतः प्रच्छन्नो घ्रियते यथा अतीव राजा शरीरवाधितो वर्ततेसच तावत् ध्रियते यावदन्यो निवेश्यते। सच कदाचित्स्तेनोऽपि।तथा निक्षेपणं निक्षेपः स द्विविधो द्विप्रकारस्तद्यथा आत्मनः परतश्च। पुनरेकैको द्विधा लौकिको लोकोत्तरिकश्च / तत्र लोकोत्तरिकः स्थाप्यः पश्चाद्वक्ष्ये इत्यर्थः / इतरं लौकिकं प्रथमगाथापादोपक्षिप्तं वक्ष्ये / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति। निरवेक्खे कालगते, मिनरहस्सा चिगिच्छमयो य। अहिवास आसहिंडण, वज्झो तियमूलदेवो उ॥ एको राजा निरपेक्ष्ज्ञस्तस्य राज्ये मूलदेवश्चोरिकां करोति / स कदाचिदारक्षकैः प्राप्तो राज्ञः पार्श्वे नीतो राज्ञा च स्तेन इति कृत्वा वध्य आज्ञप्तः ततः राजा तत्क्षणमेव निजमावासस्थानमुपगतः। क्षणमात्रेण च सहसा कालगतः। तस्मिन्निपेक्षे कालगतेद्वौ भिन्नरहस्यौ राजा मृत इति रहस्यं द्वौ जानीतस्तद्यथा चिकित्सो वैद्योऽमात्यश्च राजा चानपत्यस्ततोऽश्वस्याधिवासना कृता सर्वत्र त्रिकचतुष्कचत्वरादिषु हिंडाप्यते कथं नामराजलक्षणयुक्तं पुरुषं लभेमहि यं राजानं स्थापयाम इति मूलदेवश्च यो वध्य आज्ञापितस तेनावकाशेन नीयमानो वर्तते। आसस्स पट्टिदाणं,आणयणं हत्थचालणं अन्नो। अभिसेगमोइयपरिभव, तणजक्खनिवायणं आणा।। ततोऽश्वेन तस्य मूलदेवस्य वध्यतया नीयमानस्य पृष्टं दत्तं / गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् प्राकृते हि लिङ्गं व्यभिचारिततो मूलदेवो यत्र राजा प्रच्छन्नो जवनिकान्तरितोऽवतिष्ठते तत्रानीतस्ततो वैद्यकुमारामात्याभ्यां जवनिकाभ्यन्तरस्थिताभ्यां राज्ञो हस्त उपरि मुखे नीत्वाचालित एतत् राज्ञो हस्तचालनं ततो वैद्यकुमाराभ्यामुक्तं कृताराज्ञाऽनुज्ञा यथा मूलदेवं राजानमभिषिञ्चत न शक्नोति वाचाधकुमिति ततो अभिषिक्तो मूलदेवो राज्ये नवरमसदृश इति कृत्वा केचिद्भोजिकाः परिभवमुत्पादयन्तिान पुनः कुर्वन्ति / राजाह विनयं ततश्चितयति मूलदेवो ममैते मूर्खतया परिभवं कुर्वन्ते परं किमिदानीमते मूर्खतयैव कदाचित्स्वयमेवसभामण्डलं जल्पिप्यन्ति तदानीं शासयिष्यामि ततो ऽन्यदिवसे आत्मनः शिरसि तृणशूकजातं कृत्वा आस्थानमण्डपिकायामुपविष्टः / ते च भोजिका मूर्खतया शनैः परस्परमुल्लपन्ति अद्यापि नन्वेष चोरत्वं न मुञ्चति अन्यथा कथमेतादृशस्य तृणशूकजातस्येदृशे भवने संभवो नूनं तृणगृहादिषु चौरिकानिमित्तमतिगतस्ततस्तृणशूकजातं शिरसि लग्नमिति एतच्चाकर्ण्य मूलदेवो रोषमुषागमत् ब्रूते च अस्ति कोऽपि नाम मच्चित्त नुकारी य एतान् शास्तीति। तत एवमुक्ततत्पुण्य प्रभावतो राज्यदेवताधिष्ठितैर्निशितासिलताकै श्चित्रकर्मप्रतीहारैः केषांचित् शिरांसि लूनानि शेषाः कृतप्राञ्जलयः आज्ञामभ्युपगतवन्तः। तथा चाह (भोइयपरिभवेत्यादि) भोजिकाः परिभवं कृतवन्तोऽन्यदा मूलदेवः (तणत्ति) तृणानि शीर्षे कृतवान्ततस्तत्कोपावेशंदृष्ट्वायझरतिपातनं विनाशनं कृतम्। शेषराज्ञा प्रतीच्छिता। एतदेव सविशेषमाह। जक्खनिवातियसेसा, सरणगया जेहिं तोसितो पुष्वं / ते कुट्वंती रण्णो, अत्ताण परे य निक्खिवणं / / यक्षनिपातितशेषाः शरणागता मूलदेवस्य शरणं प्रतिपन्नाः। यैश्च पूर्व मूलदेवस्तोषितस्तै राज्ञ आत्मनः परस्य च निक्षेपमद्य प्रभृति युष्मदीया वयमेते चेति समर्पणं कुर्वन्ति। उक्तो निरपेक्षोऽनिरपेक्षश्च लोकोत्तरिको वक्तव्यस्तत्र प्रथमं सापेक्षमाह। पुवं आयतिबंधं, करेइ सावेक्ख गणहरे ठविए। अट्ठविए पुटवुत्ता, दोसाउ अणाहमादीया।। यो नामाचार्यः सापेक्षः स पूर्वमेव गणधरे स्थापिते साधूनामायतिबन्धं करोति यथाऽयं युष्माकमाचार्य इत्येतदाज्ञया वर्तितव्यमिति / अथ न पूर्वं गणधरं स्थापयति ततस्तस्मिन्नस्थापिते दोषाः पूर्वोक्ता अनाथादयः "अणाहमादीया" इत्यादिनाभिहिताः क्षिप्तादयो दोषा भवेयुः / उक्तो लोकोत्तरिकः सापेक्षः। संप्रति निरपेक्षमाह। आसुक्कारोवरए, अढविते गणहरे इमा मेरे। चिलिमिलिहताणुण्णा, परिभवसुत्तत्थहावणया।। आशुकारेण शूलादिनोपरतः कालगत आशुकारोपरतस्तस्मिन् सत्याचार्ये अस्थापिते ऽन्यस्मिन् गणधरे इयं वक्ष्यमाणा मर्यादा तामेवाह (चिलिमिलीत्यादि) आशुकारोपरत आचार्यो जवनिकान्तरितः प्रच्छन्नः कार्यो वक्तव्यं चाचार्याणामतीवाशुभं शरीरं वाचाऽपि वक्तुं न शक्नुवन्तीति। ततो यो गणधरपदार्हस्तं जवनिकाबहिः स्थापयित्वा सूरयो भण्यन्ते को गणधरः स्थाप्यतामेवं चोक्ता जवनिकाभ्यन्तरस्था गीतार्था आचार्यहस्तमुपर्युन्मुखं कृत्वा स्थाप्यमानगणधराभिमुखं दर्शयन्ति वदन्तिच गणधरत्वमेतस्यानुज्ञातं परं वाचावक्तुंनशक्नुवन्ति एषा हस्तानुज्ञा न एतस्योपरि वासा निक्षिप्यन्ते / स्थापित एष गणधर इति पश्चात्कालगता आचार्या इति प्रकाश्यते (परिभवसुत्तत्थहावणया इति) ततो येऽभिनवस्थपितस्याचार्यस्य परिभवोत्पादनबुद्ध्या आचार्योचितं विनयं न कुर्वन्ति तेषां सूत्रमर्थ वा स हापयति न ददातीत्यर्थः। संप्रति "आयपरो दुविह होइ निक्खेवो लोइयलोइत्तरितो" इति व्याख्यानार्थमाह। दंडेण उ अणुसहा, लोए लोगुत्तरे य अप्पाणं / उवनिक्खिवंति सो पुण, लोकिकलोगुत्तरे दुविहो / लोके लोकोत्तरे च यथार्ह विनयमकुर्वन्तो / दण्डेनानुशिष्टा आत्मानमुपनिक्षिपन्तितत्रलौकिको दण्डः पूर्वमुक्तो यो मूलदेवेन भोजिकानां केषांचित्कृतो लोकोत्तरिकः सूत्रापिहारणम् / इह नवे राज्ञीव नवे गणधरे स्थापिते निक्षेपरसो लोकस्य जायते तत्तत्फलाद्युपवर्ण्यते निक्षेपस्य फलं लोके परिपालनं लोकोत्तरज्ञानादीनामभिवृद्धिः स चोपनिक्षेपो द्विधा लौकिको लोकोत्तररिकचा पुनरेकैको द्विधा आत्मोपनिक्षेपः परोपनिक्षेपश्च। तत्र लौकिक आत्मनिक्षेपो ये प्रगल्भास्ते आत्मनैवात्मानं राज्ञ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1016- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया उपनिक्षिपन्ति तिष्ठन्ति च चरणोपपातकारकाः प्रपन्नशरणा ये पुनरप्रगल्भास्ते ये राज्ञो वल्लभास्तरात्मानमुपनिक्षेपयन्ति / एष परोपनिक्षेपः / लोकोत्तरिका आत्मनिक्षेपो गच्छवर्त्तिनां साधूनां तथाहि ये गच्छे एव वर्तन्ते साधवस्ते आत्मानमात्मनैवा-भिनवाचार्यस्योपनिक्षिपन्ति / परनिक्षेपः फड्कगतानां ते हि समागताः स्पर्द्धकपतिना निक्षिप्यन्ते यथा एते अहं च युष्माकमिति। "इह मिथियाइय अण्णे कइ उवसंपज्जणारिहे" इत्याद्युक्तम् तत्र यद्यपिस गीतार्थस्तरुणः समर्थश्चेन्द्रियनोइन्द्रियाणां निग्रहं कर्तुं तथापि तेनान्यो गणो निश्रयितव्यो परप्रत्ययनिमित्तं तत्रापि निक्षेपः कर्तव्यः। अत्र लौकिको दृष्टान्तस्तमेवाह। जह कोइ वण्णितो उं, धूयं सेट्ठिस्स हत्थनिक्खिवओ। दिसि जत्ताए गत्तो, कालगतो सोय सेट्ठीउ।। एको वणिक् तस्य गृहे मारिरुत्थिता। सर्व गृहमुपच्छादितमेका दुहिता तिष्ठति परः स श्रेष्ठी निर्धन इति तांदुहितरंन परिणापयितुं समर्थस्ततो दिग्यात्रां कर्तुमिच्छति जानाति वै तस्याः कन्यकायाः स्वभावं यथा समर्थात्मानमेषा संरक्षितुं केवलमेका कन्यका महती गृहे तिष्ठन्ती दुष्टशीला लोकेन संभाव्येतेति मित्रवेष्ठिनो हस्ते तां निक्षिप्य मुक्त्वा वाणिज्येन दिग्यात्रां गतः। तस्यापि च मित्रवेष्ठिनो गृहे मारिरभूत्। ततः सोऽपि सकुटुम्बो विनाशमुपागमत् तथा चाह स च श्रेष्ठी कालगतः केवलमेका कन्यका स्थिता सा च मूलश्रेष्ठिदुहितुः सखी सा च सखी अप्यात्मानं संरक्षितुं क्षमा के वलं यशःप्रत्ययनिमित्तं राज्ञः समीपमुपस्थिता तथा चाह। सेविस्स तस्य धूया, वणियसुर्य घेत्तु रण्णो समुवगया। अह यं एस सही मे, पालेयव्वा उ तुज्झेहिं / / तस्य मूलभूतस्य श्रेष्ठिनो दुहिता वणिक्सुतां मृतपितृवणिग्दुहितरं गृहीत्वा राज्ञः समुपगता समीपमुपगता पादेषु निपत्य विज्ञपयति यथा देव युष्माभिर्निजदुहितरो रक्ष्यन्ते तथा अहमेषे यं मे सखी युष्माभिःपालयितव्या आवयोरपि युष्मत्कन्यकात्वात्। इय होउ त्ति य भणियं, कण्णा अंतेउरम्मि तुट्टेण। रण्णा परिकत्ता उ, भणिया वाहरिउ पालाउ॥ इति एवं भवत्विति भणित्वा तुष्टन राज्ञा ते द्वे अपि कन्यान्तः पुरे प्रक्षिप्ते भणिता च व्याहृत्य आकार्य (पालाओ) पालिका महत्तरिका किं | भणित्तेत्यत आह। जह रक्खह मज्झ सुता, तहेव एया तो दोदि पालेह। ते एवितेउ पाले, विण्णवियं विणीतकरणाए। यथा रक्षथ मम सुताः कन्यकास्तथैव एते अपि द्वे मत्कन्यकाख्ये पालयथ एवमुक्ते तयापि महत्तरिकया विनीतकरणया विज्ञप्तं देव एते अतिपालयामि। एवमुक्त्वा ते कन्यान्तः पुरं नीते।तत्रच मूलश्रेष्ठिदुहिता महत्तरिका विज्ञपयति। जह कन्ना एयातो, रक्खह एमेव रक्खह ममं पि। जह चेव ममं रक्खह, तह रक्खह मम सहिं पि / / यथा एताः कन्या यूयं रक्षथ एवमेव मामनि रक्षथ / यथा च मां रक्षथ तथेमां मम सखीमपि रक्षथ। इय होउ अब्भवगए, अह वासिं तत्थ संवसंतीणं / कालगया महतरिया,जा कुणती रक्खणं तासिं / / इत्येवं भवत्विति अभ्युपगते तासां तत्र संवसन्तीनामथ कियत्कालातिक्रमेण या रक्षणं तासां करोति सा महत्तरिका कालगता। सविकारातो दट्टुं, सेविसुया विण्णवेइरायाणं। महतरियदाणनिग्गह, वणियागमए य विण्णवणं // महत्तरिकाकालगमनानन्तरं ताः कन्यकाः सविकारा अभूवन्ततस्ताः सविकाराः दृष्ट्वा श्रेष्ठिसुता राजानं विज्ञपयति अन्यमहत्तरिकांप्रयच्छत दत्ता राज्ञा। तया च महत्तरिकया (निग्गहत्ति) कन्याः सविकारा उपलभ्य खरण्टिताः एवंतासां तिष्ठन्तीनां (वणियागमत्ति) स देशान्तरगतो वणिक् समागतः (विण्णवणमिति) राज्ञो विज्ञपनमकार्षीत् यथा देव ! नयामि निजपुत्रिकामिति। पूएऊण विसञ्जण, सरिसकुलदाण दोण्ह वि भोगा। एमेव उत्तरम्मि वि, अवत्त राइदिए उवमा।। ततः श्रेष्ठिकृतविज्ञप्तिकानन्तरं ते द्वे अपि पूजयित्वा राज्ञा विसृष्टे सदृशकुले दानं विवाहिते इत्यर्थः / ततस्तयोर्द्वयोरपि विपुला भोगा दत्ताः। एवमेव अनेनैव प्रकारेण उत्तरेऽपि लोकोत्तरेपि अव्यक्तस्य रात्रिंदिवैरुपमा / इयमत्र भावना / यदि तावल्लौकिका अपि यशः संरक्षणनिमित्तमात्मानमन्यत्रोपनिक्षिपन्ति ततः सुतरां लोकोत्तरिकैः साधुभिः संयमयशः संरक्षणनिमित्तमात्मा ऽन्यगणे निक्षेप्तव्यः / स चाव्यक्तो वयसा ततो यावद्भिरहोरात्रैर्वयसा व्यक्तो भवति तावन्तं कालं तत्रान्यगणनिश्रायां तिष्ठति कथं पुनरात्मानं गणं वोपनिक्षिपति / तत आह। एते अहं च तुब्भ, वत्तीभूतो सयं तु धारेइ। जसपव्वयाउराला, मोक्खसुहं चेव उत्तरिए।। एते मदीयाः साधवोऽहं च युष्माकमेवं चोपनिक्षिप्य तायत्तत्र तिष्ठति यावत् व्यतो जायते ततो व्यक्तीभूतः सन् तस्मान्निर्गत्य स्वयमेव गणं धारयति एवं च कुर्वतस्तस्य फलमिह लोके उदारा यशःप्रत्यया अवदातं यशोऽवदाताश्च लोके प्रत्ययाः संयमनैर्मल्यविषयाः / परलोके फलं मोक्षसुखमौत्तरिके लोकोत्तरिके उपनिक्षेपे / अथवा लौकिकस्य लोकोत्तरिकस्य च सापेक्षस्य पदस्थापनायोग्यविषयेयं परीक्षा / सावेक्खं पुण पुवं, परिक्खए जह धणे उ सुण्हा उ। अणिययसहावयपरिहा-विय १मुत्ता रतचि३ वुड्डा उ४|| सापेक्षं पुनः पूर्व परीक्षते साधून्यथाधनश्रेष्ठी स्नुषा अनियतस्वभावाः परीक्षितवान् कथमिति चेदुच्यते "रायगिहे नयरे धणो नाम सेट्टी तस्स चत्तारि सुण्हा ता अन्नया चो चिंतेइ का मम सुण्हा घरं बुडितेहित्ति ततो अन्नया तासि परिक्खणनिमित्तं सयणवग्गो णिमंतितो भोयणोत्तरं सयणसमक्खं सुण्हातो सद्दावेऊण पत्तेयं पत्तेयं पंच सालिकणा समप्पिया एएसुरक्खियं करेह यदा मग्गेहामि तथा दायव्वा ततो पढमाए वुड्डो एस न लज्जितो सयणसमक्खं पंच कणे समप्पंतो न किंपि जाणइ जया मग्गिहिति तया अन्ने दायव्वा इति छड्डिया। विययाए वुट्टसेसति भुक्ता तइयाए, आभरणकरडियाए सुरक्खीकया चउत्थीए ता उ य खेत्तेसु आरोविऊण विद्धिं नीया जाया। वरिसपणगेण सयसहस्सा। पुणो वि सेविणा वरिसपणगानंतरं सयणवग्गं णिमंतेऊण भुत्तुत्तरं सयणसमक्खं ततो सहावियातो ते मे पंच सालिकणे समप्पेहा ततो पढमाए अण्णतो ठाणातो आणेऊण समप्पिया सेट्ठिया सव्वहसा Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1017- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया विता भणिया ते चेव इमे पंच सालिकणा किं वा अन्ने। तीए कहियं ते मए तया चेव छड्डिया पुण अण्णे आणीया एवं विइयाए वि नवरं तीए भुत्ता कहिया। तइयाए ते चेव आणीया भणियं आभरणकरंडियाए मए सुरक्खीकया। चउत्थीए भणियंताय सगडाणि समप्पिज्जंतु जेण ते पंच सालिकणा आणिज्जते / ततो सेट्ठिणा विम्हिएण पुच्छियं तीए कहियं जहावत्तं जाव जाया मूलसहस्सा तउपरि तुट्टेण सेट्ठिणा भणियं एतीए मज्झपंच सालिकणा अतीव बुट्टिनेइत्तित्ति एसा मम घरस्स सामिणी। तइया भंडाररक्खिया जीए भुत्ता सा महाणसवावारे निजोइया पढमा घरबाहिकम्मे / तथा चाह / प्रथमया परिहापिता द्वितीयया भुक्तास्तृतीयया तावन्मात्राः धृताश्चतुर्थ्या (बुड्ढुत्ति) वर्दिताः / एष दृष्टान्तः संप्रति / दार्शन्तिकयोजनामाह। ओमेसिवमतरते य,उज्झिउं आगतो न खलु जोग्गो। कितिकम्मभारमिक्खा,दिएसु मुत्ता य भुत्तीए।। एवमाचार्येणापि परीक्षानिमित्त साधून्समर्प्य देशदर्शने शिष्या नियोक्तव्यास्तत्र योऽवमे दुर्भिक्षेऽशिवे वा साधून त्यक्त्या अथवा येऽतरन्तोऽसहायास्तान्वा त्यक्त्वा समागतः स खलु न योग्यः येनापि कृतकर्मसुपात्रलेपनादिव्यापारेषु भारे च पथ्युपकरण वाहनेन भिक्षादिषु चात्मभुक्त्या भुक्ता उपयोग नीताः साधवोनच सम्यक्पालिताः सोऽपि नयोग्यः। नय छड्डिया न भुत्ता,नेव य परिहाविया न परिखुट्टा। ततिएणं ते चेव उ,समीवपचाणिया गुरुणो।। तृतीयेन ये समर्पिताः साधवो गुरुणा ते न छड्डिता न दुर्भिक्षाशिवादिषु परित्यक्ता नापि भुक्ताः केवलमात्मोपयोग नीताः / नापि पुरुपासिप्रदानादिना परिहापिताः परिहानि नीताः नाष्यन्यान्यपरिवाजनेन परिवर्द्धिताः किं तुतावन्त एव गुरुसमीपं प्रत्यानीताः। चतुर्थमाह। उवसंपाविय पव्वा-वियाय अण्णे यतेसि संगहिया। एरिसए देइ गणं,कामं तइयं पि पूएमो॥ येन बहव उपसंपादिता उपसंपदंग्राहिता बहवः परिवाजिताश्च अन्येन च तेषामुपसंपादितानां परिवाजितानां च संबन्धिनः संगृहीतास्तेऽपि उपसंपदं ग्राहयिष्यन्ते परिवाजयिष्यन्ते चेत्यर्थः। ईदृशे चतुर्थे ददाति गणमाचार्य एकान्तयोग्यत्वात् न केवलमेतस्मिन् किंतु काममतिशयेन तृतीयमपि पूजयामश्चतुर्थालाभे तमपि योग्यं प्रशंसाम इत्यर्थः / तत्रात्मपरो निक्षेपयोजनामाह। तम्मि गणे अमिसित्ते,सेसगभिक्खूण अप्पनिक्खेवो। जे पुण फडगवतिया,आयपरे तेसि निक्खेवो / एवं कालगते ठविए,सेसाणं आयनिक्खेवो। फबुगवतियाणं तु,आयपरो तेसि निक्खेवो / / तस्मिन् चतुर्थे तदभावे तृतीये वागणे पदे अभिषिक्ते शेषकाणां भिक्षणां तगणान्तर्वर्तिनामात्मनिक्षेपो भवति / ये पुनः स्पर्द्धक पतयस्तेषामात्मनः परतश्च निक्षेपः स्पर्द्धकपतीनामात्मतस्तदाश्रितानां परतः स्पर्द्धकपतिद्वारेण तेषामुपनिक्षेपभावात् / एवमात्मपरोपनिक्षे–पिकालगते दृष्टव्यस्तथा चाह (एवं ति) एवं निरपेक्ष्य सहसाकालगते पूर्वप्रकारेणान्यस्मिन् स्थापिते शेषाणां गणान्तर्वर्तिनामात्मनिक्षेपो भवति स्पर्द्धकपतिकानां त्वात्मनिक्षेपः स्पर्द्धकपतीनामात्म-तस्तदाश्रितानां परतो निक्षेप इत्यर्थः। उपसंपज्जणअरिहे,अविजमाणम्मि होइनातव्वं / गमणम्मि सुद्धासुद्धे,चउभंगो होति नायव्वो।। उपसंपदनाहे अविद्यमाने भवत्यन्यत्र गन्तव्यं तत्र च गमने शुद्धपदे संयोगतश्चतुर्भङ्गी भवतीति ज्ञातव्यम् / तद्यथा निर्गमने शुद्धो गमने च शुद्ध इति प्रथमः निर्गमने शुद्धो गमने अशुद्ध इति द्वितीयः / निर्गमने अशुद्धो गमने शुद्ध इति तृतीयः / निर्गमने अशुद्धो गमने चाशुद्ध इति चतुर्थः / गाथायां चउभंगो इति पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् / तत्र प्रथमभङ्गव्याख्यानार्थमाह। असतीए वायगस्स,जं वा तत्थत्थि तम्मि गहियम्मि। संघाडो एगो वा,दायव्वो असति एगागी। यः कालिकमुत्कालिक दृष्टिवाद वा वाचयति स नास्ति ततस्तस्य वाचकस्यासत्यभावे अथवा यत्तत्रास्ति श्रुतं तत्सर्वं गृहीतं ततस्तस्मिन् गृहीतेऽन्यसूत्राद्यर्थमन्यत्र व्रजति तस्य च एकः संघाटो दातव्यः / असति संघाटकाभावे एकाकी व्रजेत्। अह सव्वेसिंतेसिं,नत्थि उ उवसंपयारिहो अण्णो। सवे घेत्तुंगमणं,जत्तियमेत्ता व इच्छंति / / अथ तेषां गच्छवर्तिनांसाधूनां सर्वेषामन्य उपसंपदों नास्ति ततः सर्वान् गृहीत्वा गमने कर्तव्यम्। अथ सर्वे गन्तुंनेच्छन्ति तर्हि यावन्मात्रा इच्छन्ति तावन्मात्रैः सह गन्तव्यमेष निर्गमशुद्ध उच्यते। एवं सुद्धे निग्गमे,वइयाइअपडिवजंतो। संविग्गमणोण्णे हिं,तेहिं वियदायव्वो संघाडो।। एवं शुद्ध निर्गमे वजिकादिषु गोकुलादिष्वप्रतिबन्धमकुर्वन् गच्छेत्। तत्र यद्यपान्तराले संविग्नमनोज्ञाः सन्ति ततस्तैः सह मिलित्वा गन्तव्यं तैरपि च निर्गमनशुद्धत्वात् ज्ञानाधुपसपन्निमित्ते च चलित-त्वादवश्यं संघाटो दातव्यः। अथ यदा एकं द्वौ वा दिवसौ संघाटो न भवति व्याकुलत्वात्तदा किंकर्तव्यमत आह। एगं च दो व दिवसे,संघाडत्थं स पडिच्छिज्जा। असती एगागी उ,जयणा उवही न उवहम्मे / / एकं द्वौ वा दिवसौ स संघाटार्थे प्रतीक्षेत असत्यभावे संघाटस्य एकाकी व्रजेत् तत्र च यतना कर्तव्या सा च प्राक्कल्पाध्ययनेऽभिहिता तत उपधिनोपहन्यते यतनया प्रवृत्तत्वात्। उपसंहारमाह। एसो पढमो भंगो,एवं सेसा कमेण जोएज्जा। आसतुज य गणं,गच्छे दारा य तत्थ इमे / / एषोऽनन्तरोदितः प्रथमो भङ्ग एवमुपदर्शितेन प्रकारेण शेषा अपि भड़काः क्रमेण योक्तव्यास्तद्यथा निर्गमशुद्धः प्राग्वत् गमनाशुद्धो प्रजिकादिषु प्रतिबन्धकारणान् निर्गमनाशुद्धो दोषाकीर्णतया निर्गमनात् निर्गमनशुद्धो वजिकादिष्वप्रतिबन्धान्निर्गमनाशुद्धो गमनाशुद्धश्च प्राग्यत् / अथ प्रथमभङ्गवर्ती प्रशस्यः कारणतो द्वितीयभगवर्त्यपि एवं च गच्छता तेन ये आसन्ना उद्यता उद्यतविहारिणस्तेषां स्थानं गच्छेत्तत्र च गतस्य परीक्षादिनिमित्तमिमानि द्वाराणि भवन्ति तान्येवाह / उपसंपदहस्य गच्छस्य हानिवृद्धिपरीक्षणं तत्र कल्प्याकल्प्यविधिः॥ पारिक्खहाणि असती,आगमणं निग्गमो असंविग्गे। निवियणजयणनिसटुं,दीहखद्धं पडिच्छंति।। Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1018 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया परीक्षा (हाणीति) हानिवृद्धिविषया कर्तव्या यत्र ज्ञानादीनां हानिस्तत्र न वास्तव्यमन्यत्रवास्तव्यमिति भावः (असतित्ति) यस्य समीप गच्छोपसंपन्नस्तस्मिन्सापेक्षे निरपेक्षे वा कालगतत्वेनासति योऽन्यः / स्थापितस्तस्य सकाशे स्थातव्यं तस्मिन्नपि सीदति याव- | त्कुलादिस्थविराणामागमनं तावत्प्रतीक्षणीयं तैरपि प्रतिचोदने कृते सीदति निर्गमो विधेयः / गच्छता च संविग्नाभावे बहिर्वास्तव्यमसंविग्ने निवेदना कर्त्तव्याः। बहिर्वसत्यभावे तेष्वप्यसंविग्नेषु नवरं यतना विधेया। तथा संविग्नेषु वा संवसनं निसृष्टमनुज्ञातमेकरात्रमुत्कर्षतस्त्रीणि दिनानि वर्षादिकारणतः पुनर्यतनया (दीहखद्धमपि) प्रचुरमपि दीर्घकालं प्रतीक्षते / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः पारिच्छहाणित्ति द्वारमाह - पासत्थादिविरहितो,काहियमाईहिवाविदोसेहिं। संविग्गमपरितंतो,साहम्मिय वच्छलोजाउ। अपान्तराले पार्श्वस्थादिविरहितः पार्श्वस्थादिसंसगिविप्रमुक्तः काथिकादिभिर्वा भावप्रधानोऽयं निर्देशः काथिकत्वादिभिर्वा दोषै- 1 विमुक्तस्तथाऽसंविनोऽपरिश्रान्तः सामाचार्याभिति गम्यते / तथा यः साधर्मिकवत्सलः प्रवचनलिङ्गसाधर्भिकवात्सल्यपरायणः सः। अब्भुजएसु ठाणं,परिच्छिउं हीयमाणए मोत्तुं। केसु पदेसुंहाणी,वड्डी वा तं निसामेहि।। अभ्युद्यतानामुद्यतविहारिणां स्थानं परीक्ष्य गाथायां सप्तमी षष्ठ-यर्थे हीयमानकान्मुक्त्वा तिठेत् / अथ केषु पदेषु हानिर्वृद्धि, सूरिराह / तदेतत्कथ्यमानं निशामय / तदेवाह। तवनियमसंजमाणं,जहियं हाणी न कप्पते तत्थ। तिगवुड्डी तिगसोही,पंचविसुद्धीसुसिक्खाय॥ यत्र तपोनियमसंयमानां हानिस्तत्र न कल्पते वस्तुं यत्र पुनस्त्रिकवृद्धिर्ज्ञानदर्शनचारित्रवृद्धिर्यत्र च त्रिकस्याहारोपधिशय्यारूपस्य शोधिर्यत्र च पञ्चानां पार्श्वस्थादिस्थानानां विशुद्धिस्तेष्वप्रवर्ततं यत्र च सुशिक्षा ग्रहणे आसेवनाच तत्रवास्तव्यम्। सांप्रतमेनामेव गाथां विवृणोति।। वारसविहे तवे उ,इंदिय नोइंदिए य नियमे उ। संजमसत्तरसविहो,हाणी जहि यतहिं न वसे। यत्र द्वादशविधे तपसि इन्द्रियविषये च नियमे संयमे सप्तदशविधे हानिस्तत्र न वसेत्। तवनियमसंजमाणं,एएसिंचेव तिण्ह तिगवुड्डी। नाणादीण व तिण्हं,तिगसुद्धी उग्गमादीणं / एतेषामेव त्रयाणां तपोनियमसंयमानां वृद्धिस्त्रिकवृद्धिः / अथवा ज्ञानादीनां त्रयाणां वृद्धिस्विकवृद्धिः / त्रयाणामुद्मादीनामुपलक्षण-- मेतदाहारादीनां वा त्रयाणां शुद्धिस्त्रिकशुद्धिः। पासत्थे ओसण्णे,कुसीलसंसत्त तह अहाछंदे। एएहि जो विरहितो,पंचविसुद्धो हवइ सो उ॥ पार्श्वस्थोऽवसन्नः कुशीलः संसक्तो यथाच्छन्दएते पञ्चापि प्राक्सप्रपञ्च प्ररूपिता एतैःस्थानों विरहितः स पञ्चविशुद्धो भवति। पञ्चविशुद्धावेव प्रकारान्तरमाह // पंच य महव्वयाइं,अहवा विनाणदंसणचरितं / तव विणओ वि य पंच उ,पंचविहुवसंपया वावि / / वाशब्दः प्रकारान्तरोपदप्रदर्शने पञ्च महाव्रतानि अथवा ज्ञानं दर्शनं चारित्रं तपो विनय इति पञ्च / यदि वा पञ्चविधा ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवैयावृत्यभेदतः पञ्चप्रकारा उपसंपत् पञ्च तैः पञ्चभिर्विशुद्धः पञ्चविशुद्धः / / सुशिक्षामाह। सोमणसिक्ख सुसिक्खा,सापुण आसेवणे य गहणे या दुविहाए वि न हाणी,जत्थ उ कहियं निवासेउं / / शोभना शिक्षा सुशिक्षा सा द्विविधा तद्यथा आसेवने ग्रहणे च। आसेवने प्रत्युपेक्षणादेः सामाचार्या ग्रहणमागमस्या एतस्यां द्विवि-धायामपि यत्र नहानिस्तत्र वासः कल्पते कर्तुम्। एएसुंठाणेसुं,सीयंते चोदंति आयरिया। हावेंति उदासीणा,नतं पसंसंति आयरिया।। एतेषुस्थानेषु तपःप्रभृतिषु स्वयमाचार्या हीयमाना न दृश्यन्ते शिष्यास्तु केचित्सीदन्ति तात्सीदतो यत्राचार्याश्चोदयन्तितं गच्छं निवासयोग्यतया आचार्याः प्रशंसन्ति / यत्र पुनराचार्या उदासीना मध्यस्थाः सामाचारी हापयन्त उपेक्षन्ते न तं प्रशंसन्त्याचार्याः नासौ गच्छ उपसंपादनीय इत्यर्थः। किं कारणमत आह॥ आयरियउवज्झाया,नाणुण्णाया जिणेहिं सिप्पट्ठा। णाणे चरणे जोगा-वहा उ ते अणुण्णाया।। आचार्या उपाध्यायाश्च जिनैस्तीर्थकृद्भिर्न शिल्पार्थाः शिल्पशिक्षणनिमित्तमनुज्ञाताः / कैः कारणैः पुनरनुज्ञातास्तत आह / ज्ञाने चरणे च ये योगास्तेषामवहाः प्रापका यतो भविष्यन्ति ततस्ते अनुज्ञाता ज्ञानचरणस्फातिनिमित्तमनुज्ञाता इत्यर्थः / अपि चेदृशा आचार्योपाध्याया अनुज्ञाताः। नाणचरणे निउत्ता,जा पुथ्वपरूविया चरणसेढी। सुहसीलठाणविजढे,निचं सिक्खकणाकुसला।। ज्ञाने एकग्रहणात् तज्जातीयस्य ग्रहणमिति न्यायाद्दर्शने चारित्रे च नियुक्ताः सततोद्यतास्तथा सुखशीलाः पार्श्वस्थादयः तेषां स्थानं यत्ते सेवन्तेतद्विजढे तद्रहिते या पूर्व कल्पाध्ययने कृतिकर्मसूत्रे चरणश्रेणिः प्ररूपिता तस्यां स्थितास्तथा नित्यं सदा शिक्षापनायां ग्रहणशिक्षायामासेवनाशिक्षायां च ग्राहयितव्यायां कुशलाः समर्थाः ईदृशा समीपमुपगम्योपसंत्तव्यम्। गत परिच्छिहाणित्ति द्वारम्। इदानीमसतित्ति द्वारमाह। जेण वि पडिच्छितो सो,कालगतो सो वि होइ आहथ / सो वि य सावेक्खो वा,निरवेक्खो वा गुरूआसि // येनापि स प्रतीच्छितो यस्य समीपे स शिष्यपरिवार उपसंपन्न इत्यर्थः सोऽपि (आहच) कदाचित्कालगतो भवेत् सोऽपि च गुरु : कालगतः सापेक्षो वा आसीन्निरपेक्षो वा / तत्र यः सापेक्षः सोऽमुं विधिं करोति। सावेक्खो सीसगणं,संगहकारेइ आणुपुथ्वीए। पाडिच्छागयवेत्ति,एस वियाणे अह महल्लो।। सापेक्षः शिष्यगण स्वदीक्षितशिष्यसमूहमभिनवस्थापितस्य संग्रहमानुपूानुपूर्वीकथनेन कारयति / यथा पूर्वं सुधर्मस्वामी गणधर आसीत् / ततस्तच्छिष्यो जम्बूस्वामी तस्यापि शिष्यः प्रभव एवं तावद्यावत्संप्रति वयमहमपि च संप्रति महान् वृद्धीभूतस्ततोऽसौ योऽमुको गणधरः स्थापितो वर्तते तस्याज्ञा कुर्या वैनयिकादिकं च। तथा ज्ञानदर्शनादिप्रतीच्छादिनिमित्त Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०१६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया मागताः प्रतीच्छागतास्तानपिब्रूते एष मम स्थाने विज्ञायेत ममेवैत-स्य संप्रति वैनयिकादिकं कर्तव्यमित्यर्थः / अत्रैवाऽर्थे दृष्टान्तमाह। जह राया व कुमार,रजे ठावेउमिच्छए जंतु। भडजोहे वेतितिगं,सेवह तुम्मे कुमारं ति॥ अह यं अतीमहल्लो,तेसिं वित्ती उतेण दावे। सो पुण परिच्छिऊणं,इमेण विहिणा उ ठावे।। यथा राजा यं कुमारं राज्ये स्थापयितुमिच्छति तं प्रति भटान् योधांश्च ब्रूते सांप्रतमयं महान् ततो यूयं सेवध्वममुकं कुमारमिति एवं तानुक्त्वा तेषां वृत्तीस्तेन कुमारेण दापयति येन ते तदनुरक्ता जायन्ते स पुनः कुमारोऽनेन वक्ष्यमाणेन विधिना परीक्ष्य राज्ये स्थाप्यते / तमेव विधिमाह। परमन्न मुंजसुणगा,छडुणदंडेण वारणं वितिए। भुंजइ देइ व तइओ,तस्स उ दाणं न इयरेसिं // राजा बहूनां कुमाराणां मध्ये कतरं कुमारं युवराजं स्थापयामीति विचिन्तयन् परीक्षानिमित्तं तान् सर्वान् कुमारान् शब्दापयित्वा तेषां पृथक पृथक्स्थाले परमान्नं पायसं परिवेषयति परिवेष्यशृङ्खलाबद्धान् शुनकान् व्याघ्रकल्पान् कुमारान् प्रति मोचयति ते च शुनका वेगेन कुमारसमीपमागतास्तत्रैको राजपुत्रः शुनकभयेन पायसं परित्यज्य पलापितः द्वितीयो राजपुत्रो दण्डेन तेषां शुनकानां वारणं करोति भुङ्क्ते चन च किमपि तेभ्यो ददाति तृतीयः पुनः स्वयं भुङ्क्ते शुनकेभ्योऽपिच स्वस्थालात् परस्थालाच ददातितस्यतृतीयस्य राजपुत्रस्य राज्यदानं नेतरयोर्द्वयोः / किं कारणमिति चेदत आह। परबलपेल्लिओ नासति,वितिओ दाणं न देइ उ भडाणं। न वि जुञ्जते ते उ,एए दोवी अणरिहाओ || प्रथमो यदा परबलमागच्छति तदा तेन परवलेन प्रेरितः सन् राज्यमपहाय नश्यति। द्वितीयो न भटानां सुभटानां किमपि ददाति न च ते भटा दानमृते परबले समागते युध्यन्ते ततः समर्थस्यापि परबलेन प्रेरणमत एतौ द्वावपि राज्यस्यानहीं / तइओ रक्खड़ कोसं,देइय भिचाण ते य जुज्झंति। पालेयध्वे अरिहा,रजंतो तस्स तं दिण्णं / / तृतीयः पुनः कुमारः कोशं भाण्डागारं रक्षति भृत्यानां सुभटानां ददाति ततस्ते भृत्याः परबले समागते युध्यन्ते ततः पराभग्नं परबलमपगच्छति तदपगतौ च स्वराज्यसौख्यमतः सपालयितव्ये राज्ये अर्ह इति तद्राज्यं राज्ञा तस्य दत्तं यथा भो लोका एष युवराजो युष्माभिरेव आसेवनीयः।। अभिसित्तो सट्टाणं,अणुजाणे भडादिअहियदाणं च। वीसुम्मि अ आयरिय,गच्छे वितयाणुरूवं तु / / एवं तस्मिन् युवराजे स्थापिते यदा राजा कालगतो भवति तदा ते भटप्रभृतयस्तं युवराज,राजानमभिषिञ्चन्ति अभिषिक्ते सति तस्मिन्सेवका उपस्थाप्य स्वं स्वमायोगस्थानं निवेदयन्ति ततः सोऽभिषिक्तो नवकोराजा यत् यस्य पूर्वमायोगस्थानं तत्तस्मै अनुजानाति अधिकं च तेषां भटादीनां दानं द्विपदादिदानं ददाति / एष दृष्टान्तोऽयमापनयः / विष्वग्भूते शरीरे पृथग्भूते मृत इत्यर्थः। आचार्ये गच्छेऽपि तदनुरूपंतृतीयराज्यार्हकुमारानुरूपमाचार्य स्थापयन्ति / इयमत्र भावना / आचार्येण द्रव्यापदादिषु शिष्याः परीक्षणीयाः / तत्र योऽशक्तिको भीरुः स राजप्रद्वेषादिषु समुत्पन्नेषु गणमपहाय नश्यतीति प्रथमकुमार इव गुरूपदस्यानहः / यः पुनरदाता सोऽदायकत्वेन संग्रहोपग्रही न करिष्यतीत्ययोग्यः / यस्त्वभीरुतया शुनकस्थानीयान्वनीपकान्वारयति दायकत्वेन च संग्रहोपग्रहौ करोति स योग्य इति गणधरपदे स्थापयितव्यः / तस्मिश्च स्थापिते कालेन विष्वग्भूते आचार्ये साधवः कृतप्राञ्जलयस्तमुपतिष्ठन्ते उपस्थाप्य च यो यस्य पूर्वं नियोग आसीत् स तं तस्मै नवकाचार्याय कथयति / एतदेवाह। दुविहेणं संगहेणं,दव्वं संगिण्हए महाभागो। तो विण्णवेति ते वितं चेव य ठाणयं अम्हं।। सोऽभिनवस्थापितो महाभागो गच्छं द्विविधेन संग्रहेण द्रव्यसंग्र-हेण भावसंग्रहेण च तत्र द्रव्यसंग्रहेण वस्त्रपात्रादिना भावसंग्रहेण ज्ञानादिना संगृह्णाति एवं संगृह्णति तस्मिन् ततस्तेऽपि साधवः कृतप्राञ्जलयस्तं विज्ञपयन्ति यथा तदेव स्वं स्वंस्थानमस्माकं प्रयच्छन्त्विति। अथ किं किं तेषां स्थानमिति ततस्थाननिरूप-णार्थमाह। उवगरणवालवुड्डा,खमगगिलाणे य धम्मकहिवादि। गुरूचिंतवायणा पे-सणेसु कितिकम्मकरणा य / / एको ब्रूते अहम् (उपकरणत्ति) उपकरणोत्पादक आसम् अन्योऽहं बालवृद्धानां वैयावृत्यकरोऽपरः क्षपकवैयावृत्यकरोऽन्यो ग्लाने इति ग्लानवैयावृत्यकरः / अपरोधमकथा धर्मकथा-व्यापारनियुक्तः अन्यो वादी परवादिमथने नियुक्तः (गुरुचिंतत्ति) अपरो ब्रूते अहं गुरोर्यत्कर्त्तव्यं तत्र नियुक्तः( वायणत्ति) अपरोऽहं वाचनाचार्यत्वे नियुक्तः / अन्योऽहं प्रेषणेनियुक्तः अपूरो ब्रूते अहं कृतिकर्मकरणे विश्रामणे। एएसुंठाणेसुं,जो आसि समुज्जओ अठविओ वि। ठविओ वियन विसीयइ,स ठाविउमलं खलु परेसिं / / एतेषु खलु उपकरणादिषु कृतकर्मपर्यवसानेषु स्थानेषु यः पूर्वमस्थापितोऽपि गणधरपदे समुद्यत आसीत् स गणधरपदे स्थापितोऽप्येतेषु स्थानेषुन विषीदति कृतकरणत्वात्स इत्थंभूत एतेषु स्थानेषुपरान् गाथायां षष्ठी द्वितीयार्थे प्राकृतत्वात् यथा'माषाणामनीयादित्यत्र' स्थापयितुमलम्। एवं ठितो ठवेइ,अप्पाण परस्स गो वि सो गावो। अठितो न ठवेइ परं,न य तं ठवियं चिरं होइ।। एवं पूर्वं गणधरपदे अस्थापित एतेषूपकरणादिस्थानेषु स्थितःसन् आत्मनः परस्य चैतेषु स्थापयति गोवृष इवगाः स्वस्थाने यः पुनः पूर्वमेतेषु स्थानेषु स्थितः स परमुपलक्षणमेतदात्मानं च न स्थापयति स्वयं तत्राव्याप्तत्वात् न च तत्स्थापितं चिरं भवति। कस्मादिति चेदुच्यते। स यदाऽन्यान् उपकरणादिष्वनुद्यच्छतः शिक्षयति यथा सति वले किं यूयं स्वशक्त्या नोद्यच्छथानुद्यच्छन्तो हि वैयावृत्यफलात् भ्रंशथ / तदा ते चिन्तयेयुः यदि वैयावृत्त्यफलमभविष्यत् ततस्त्वमप्येतेषु स्थानेषूदयंस्यथा इति अथवा वैयावृत्त्यफलं श्रद्दधानोऽपि षग्जूडत्वेनैवं मन्येरन् एवं जानन्तो यूयं किं पूर्व नावर्तिध्वमिति। संप्रति गोवृष इव गा इति दृष्टान्तं भावयति। नेह वि सो गोणीउ,जाणइ य उवट्ठकालं / / Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०२०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया वृषो वलीवर्दो गोधनानि प्रचुरतृणपानीयानि तथा क्षुद्रजन्तुभिः क्षुद्रप्राणिभी रहितानि नयति जानाति च। उपस्थानकालमभ्यागमवेला ज्ञात्वा च स्वस्थानमानयति एवमभिनवस्थापित आचार्या गच्छं स्वस्वव्यापारे नियोजयन्परिपालयति। अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाह। जह गयकुलसंभूतो,गिरिकंदरविसमवडयदुग्गेसु / परिवहति अपरितंतो,निययसरीरुग्गवेदंते॥ यथा गजकुलसंभूतोऽनेन जात्यतामाह गिरिकन्दरेषु गिरिगुहासु विषमकटकेषु विषमेषुगिरिपादेषु दुर्गेषु वा अपरित्रान्तोऽ श्रान्तः सन्निजशरीरोगतान् दन्तान्परिवहति।। इयपवयणभत्तिगतो,साहम्मिय वच्छलो असढभावो। परिवहइ साहुवग्गं,खेत्तविसमकालदुग्गेसु।।। इति अनेन गजदृष्टान्तप्रकारेण प्रवचनभक्तिगतो गच्छवाहकत्वं प्रवचनभक्तिं मन्यमानः साधर्मिकवत्सलो लिङ्गप्रवचनाभ्यां ये साधर्मिकास्तद्वात्सल्यपरायणोऽशठभावोऽमायावी विषमेषु क्षेत्रेषु विषमेषु च कालेषु दुर्भिक्षमार्याद्युपद्रक्वातसंकुलेषु दुर्गेषु च साधुवर्ग परिवहति तस्य समीपे स्थातव्यम्। गतमसतीति द्वारम् / इदानीमागमनद्वारमाहजत्थ पविट्ठो जइतेसु,उज्जया होउ पच्छहाति। सीसा आयरितोवा,परिहाणीतथिमा होइ॥ यत्र गच्छे सशिष्यपरिवारः प्रविष्टः सन् सूत्रार्थानामागमनं करोति तत्र यदितेसाधवः पूर्वसुष्टु उद्यता भूत्वा पश्चात्सामाचारी हापयन्ति आचार्थो वा पश्चात्परिहापयति / तत्र हानिरियं वक्ष्यमाणा भवति ज्ञातव्या / तामेवाह / / पडिलेहदियतुयट्टण-निक्खिवआयाणविनयसज्झाए। आलोयठवणमंडलि-भासागिहमत्तसेज्जतरे। (पडिले हित्ति) उपकरणं न प्रत्युपेक्षन्ते / तथा अग्लाना मार्गपरिश्रमरहिताश्च दिवा त्वग्वर्तनं कुर्वन्तिशेरते इत्यर्थः (निक्खिवत्ति) दण्डादिकं निक्षिपन्तःप्रत्युपेक्षन्तेन परिमार्जयन्ति दोषैर्वादुष्ट प्रत्युपेक्षणं परिमार्जनं वाकुरुते (आयाणत्ति) दण्डादिकमाददानान प्रत्युपेक्षन्तन प्रमार्जयन्तिदुष्प्रत्युपेक्षण दुष्प्रमार्जनं वा कुर्वन्ति। विनयं कृतकर्मलक्षणं वाचनादिषु न कुर्वन्ति (सज्झाएत्ति) स्वाध्यायो वा न क्रियते / मण्डली सामाचारी वा न कुर्वन्ति (आलोयत्ति) संखडी शरीरं वा प्रलोकन्ते यदि वा आलोचना न क्रियते / अनालोचितं भुञ्जते इत्यर्थः (ठवणत्ति) स्थापना कुलानि विशन्ति स्थापितं वा गृह्णन्ति (मंडलित्ति) भोजनमण्डली सामाचारी हापयन्ति (भासत्ति) भाषायामसमिता भाषन्ते एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायात् / शेषास्वपि समितिष्वसामिता (गिहिमत्तत्ति) गृहिमात्रकेषु पर्यलकादिष्वानीत गृह्णन्ति (सेजयरेत्ति) शय्यातरपिण्डं भुञ्जते।। एमायी सीयंते,वसमा चोयंति चिट्ठति ठियम्मि। असतीथेरा गमणं,अच्छति ताहे पडिच्छंतो॥ एवमादिष्वादिशब्दादुगमादिपरिग्रहः / सीदतः साधून गुरुं वा वृषभाश्चोदयन्ति शिक्षयन्ति। तत्र यदिचोदितः साधुवर्गो गुरुर्वा तिष्ठति ततस्तस्मिन् स्थिते सोऽपि सशिष्यपरिवार आगन्तुकस्तिष्ठति (असतीइत्यादि) असन् शिक्षायाः पुनःप्रत्या वर्तनस्य वा अभावो यदि ततो यावत्पाक्षिके चातुर्मासिके संवत्सरे वा कुलस्थविराणां वा गमनं भवति तावत्तत्प्रतीक्षमाण आस्ते तेषु च कुलादिस्थविरेषुसमागतेषु निवेदयतितथाप्यतिष्ठत्सुततो निर्गमनमेतदेव व्याचिख्यासुः प्रथमतो वृषभचोदनं सप्रायश्चित्तमाह। गुरुवसमगीयगीते,अचोर्देति गुरूगमादि जा लहुओ। सारेइ सारवेई,खरमउएहिं जहावत्थं / / वृषभः प्रपिपन्नगच्छभारः स्वयं सारयति शिक्षयति अथवा यो येनोपशाम्यति तं तेन सारापयति शिक्षापयति / कथमित्याह / आचार्योपाध्यायवृषभस्थविरभिक्षुकाणां मध्ये यथावस्तु वस्त्वनतिक्रमेण खरमृदुभिर्वचनैः सारयति सारापयति वा। किमुक्तं भवति यः खरेण साध्यस्तं खरेण खरण्टयति मृदुसाध्यं मृदुभिर्वचनैः सारयति अन्यथा प्रायश्चित्तं तदेव पूर्वार्द्धन निदर्शयति (गुरु इत्या-दि) वृषभो गुरुमाचार्यमुपाध्यायं या न प्रतिचोदयति तदा चतुर्गुरुकं वृषभो वृषभं न प्रतिचोदयति चतुर्लघु / वृषभो गीतार्थ न प्रतिचोदयति मासलघु / अक्षरयोजना त्वेवं गुरुवृषभगीतागीतान् चोदयन्ति / गुर्वादिचतुर्गुरुप्रभृतियावदन्तेलघुको मासः। अत्र पुनःसीदत्सुचत्वारो भङ्गास्तानेवाह। गच्छो गणी न सीयइ,विई नगणीउ तइएन वि गच्छो। जत्थ गणी अवि सीयइ,सोपावतरोन उण गच्छो / गच्छः सीदतिगणी चेति प्रथमः। गच्छः सीदति नगणीति द्वितीयः। न गच्छःसीदति किंतुगणीति तृतीयः। न गच्छो नापि गणीति चतुर्थः / तथा चाह द्वितीये भङ्गे गणीन सीदति तृतीये नगच्छः चतुर्थ सीदनमधिकृत्य शून्य इति नोपात्तः। तत्रायेषु त्रिषु भङ्गेषु मध्ये यत्र प्रथमेतृतीये वा गणी सपापतरो यत्र पुनर्गच्छः सीदति नगणी नासौ द्वितीयः पापतरः / किं कारणतिति चेदत आह। आयरिए जयमाणे,चोएउंजे सुहं हवइ गच्छो। तम्मि उ विसीयमाणे,चोयणमयरे कहं गेण्हे // आचार्ये यतमाने गच्छः सुखेन चोदयितुं शक्यमानो भवेत् आचार्यस्य प्रतिभयाभावादतः प्रथमतृतीयौ भनौ एतस्मिन्नाचार्य पुनर्विषीदति चोदनां शिक्षामितरे साधवः कथं गृह्णीयुर्न च गृह्णीयु-रिति भावः / आचार्यप्रतिभयाभावादतः प्रथमतृतीयौ भृङ्गौ पापतरौ न द्वितीय इति। आसण्णठिएसु उज्जुएस,जहति सहसान तं गच्छं। मा दूसेज्ज अदुढे,दूरतरे चापणो सेजा।। यद्यपि नाम आसन्ने प्रदेशे उद्यतविहारिणः स्थिता विद्यन्ते तथापि तेष्वासन्नस्थितेषूद्यतेषु सहसा न तं गच्छं जहाति परित्यजति किं कारणमिति चेदत आह तन्मा अदुष्टान् दूषयेत् गच्छम्। किमुक्तं भवति। येन विषीदन्ति तेऽपि सीदत्साधुसंसर्गतोमा विषीदेयुरिति येऽपि सीदन्ति तेऽतिदूरतरं निर्गततरं प्रणश्येयुर्विषीदेयुः / तदेवं वृषभचोदनं भाषितम्। इदानीं स्थविरागमनं भावयति। कुलथेरादी आगम-चोयणया जेसु विप्पमायंति। चोदयति तेसु ठाणं,अठिएसु उ निग्गमो भणितो।। वृषभशिक्षायाः प्रत्यावर्त्तनस्य वा अभावे पाक्षिके चातुर्मासिके सांवत्सरिके वा यावत् कुलस्थविराणां गणस्थविराणां संवस्थविराणं वा आगमस्तावत्प्रतीक्षते कुलस्थविरादीनां चागमे Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1021 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया तेषां निवेदना क्रियते ततस्ते स्थविरा येषु स्थानेषु ये विप्रमाद्यन्ति तेषु स्थानेषु वान प्रतिचोदिताः। यदि स्थितेषु सत्सु स शिष्यपरिवारस्तत्रैव स्थानं करोति स्थितेन च तेन द्विविधाऽपि शिक्षा शिक्षणीया। अथ ते चोदिताः सन्तोन स्थितास्ततस्तेष्वस्थितेषु ततो गच्छतिगच्छन्निर्गमो भणितस्तीर्थकरगणधरैः गतमागमनद्वारमापतितं निर्गमद्वारमतस्तदेव भावयति। कप्पसमत्ते विहरइ,असमत्ते जत्थ हुँति आसन्ना। साहम्मि तहिं गच्छे,असतीए ताहि दूरं पि।। यदि आचारप्रकल्पः सूत्रतोऽर्थतश्च समाप्तो भवति ततस्तस्मिन् कल्पे आचारप्रकल्पे समाप्ते स्वयं यथाविहारक्रमं विहरति। अथ नाद्यापि समाप्त आचारप्रकल्पस्तहिं तस्मिन्नसमाप्ते यस्यां दिशि आसन्ना अनन्तरक्षेत्रवर्तिनः साधर्मिकाः संविग्नसांभोगिकास्तत्र गच्छेत् / अथासन्ना न विद्यन्ते; तत आसन्नानामसत्यभावे दूरमपि गच्छेत् / कथं गच्छेदत आह। वइयादीए दोसे अ-संविग्गे याविसो परिहरंतो। केउ असंविग्गा खलु,नइया दीया मुणेयव्वा / / वजिकादीन् दोषान् वजिका गोकुलम् आदिशब्दात् स्वमातापितृपूर्वपरिचितपश्चात्परिचितकुलपरिग्रहस्तान् दोषान् इह व्रजिकादयः प्रतिबन्धदोषहेतुत्वाद्दोषा इत्युक्तास्तथा संविनांश्चापि स परिहरन् गच्छेत् / अथ के खल्वसंविनाः सूरिराह। नित्यादेया नित्यवास्यादयस्ते ज्ञातव्याः। तेषामपि हरणे प्रवेशादौ प्रायश्चित्तविधिमाह। निइयादीए अहच्छंद,वज्जिए पविसदाणगहणे य। लहुगा मुंजणगुरुगा, संघाडे मासो जम णं / / इह मार्गे गच्छता अपान्तराले संविग्नसुमनोज्ञानांवसतौवस्तव्यं तदभावे नैत्यिकादीनां संविग्ने व अमनोज्ञानां निवेद्यान्यस्यां वसतीस्थातव्यं यदि पुनर्नेत्यिको नित्यवासी आदिशब्दात्पार्श्वस्थादिपरिग्रहस्तस्मिन् नैत्यिकादिके यथाच्छन्दवर्जिते प्रविशति यदि वा तेभ्यः किमपि भक्तादिकं ददाति अथवा तेभ्यो गृह्णति तदा प्रवेशे ग्रहणे दाने च प्रत्येक चत्वारो लघुकाः। (भुजणगुरुका इति)अथतैः सह भुङ्क्ते तदा भोजने चत्वारो गुरुकाः। अथ नैत्यिकादिसंघाटयाचित्वा तेन सह हिण्डते ततः संघाटेन हिण्डने लघुको मासः (जमणमिति) यच तेन संघाटकेन हिण्डमानोऽकल्पिकग्रहणतस्तदास्वादतेन लाम्पट्यतः सेविष्यते तदपि च प्रायश्चित्तं प्राप्नोति। तदेवं यथाच्छन्दवर्जितो नैत्यिकादौ प्रवेशादिषु प्रायश्चित्तमुक्तमधुना यथाच्छन्दे तदाह एए चेव य गुरुगा,पच्छित्ता होति उ अहाच्छंदे। अणुमण्णेसुं मासो,मुंजणे होति चउगुरुगा / / एतान्येव प्रायश्चित्तानि यथाच्छन्दे गुरुकानि भवन्ति / तद्यथा प्रवेशे दाने ग्रहणे भोजने चत्वारो गुरुकाः। संघाटे गुरुको मासः अथामनोज्ञेषु संविनेषु प्रविशति तदा प्रवेशे दाने ग्रहणे भोजने चत्वारो गुरुकाः।संघाटे गुरुको मासः। अथामनोज्ञेषु संविनेषु प्रविशति तदा प्रवेशे दाने ग्रहणं च प्रत्येक लघुको मासः। अतैः सह भुङ्क्ते तदा चत्वारो गुरुकाः संघाटे लघुको मासः / यत एवमसंविग्नेषु प्रायश्चित्तानि तस्मादेतान्परिहरेत्। अथ मार्मे संविग्ना न सन्ति ततः कारणवशतोऽसंविग्नेष्वपि गन्तव्यं पतितमिदानीमसंविग्नद्वारं तेषु च गत्वा यत्कर्तव्यं तदाह। संविग्गगंतरिया,पडिच्छसंघाडए असति एगो। साहम्मिएसु जयणा,तिण्णि दिणपडिच्छसज्झाए।। (संविगंति) संविग्नगुणेनैकेनान्तरिता व्यवहिताः संविग्नैकान्तरिता असंविग्नास्तेषु कारणवशतो गन्तव्यं तत्र च भिक्षां निवसनं च कुर्वतो यथा प्रथमोद्देशके परिहारिकस्य यतनोक्ता तथावापि द्रष्टव्या / तैरपि असंविग्नैर्यदि स एकाकी ततः एकाकिनः सतस्तस्य संघाटको दातव्यः। अथयोऽसौ द्वितीयको योग्यो दातव्यः सोऽन्यत्र प्रेषणेन गतो वर्ततेततस्ते बूयुराचार्य एकरात्रं द्विरात्रं त्रिरात्रं वा प्रतीक्षणीयः / तत एतेन कारणेनोत्कर्षतः त्रिरात्रमपि प्रतीक्षते असति संघाटके एक एकाकी व्रजेत् तस्य च तथा व्रजतोऽपान्तराले यदि साधर्मिका भवन्ति ततस्तन्मध्ये गत्वा वस्तव्यम् / कारणं च निवेदितम् / कारणे तैः संघाटको दातव्यस्तदभावे ततो व्रजनीयमथ प्रतिपृच्छा निमित्तमेकं द्वे त्रीणि वा दिनानि यावत्प्रतीक्षापयेत् तत आह स्वाध्यायनिमित्तं प्रतिपृच्छानिमित्तमित्यर्थः उत्कर्षतस्त्रीणि दिनानि प्रतीक्षेत एषा साधर्मिकेषु यतना तदेवमसंविग्रद्वारमुक्तम्। इदानी निवेदनाद्वारमाह। बहिगामघरे सन्नी,सो वा सागारिओ बहिं अंतो। ठाणनिसेज्जतुयट्टण-गहियागहिएण जागरणा।। संविग्नसमनोज्ञानामभावे ग्रामस्य बहित्यिकादीनां निवेद्य तिष्टति ग्रामस्य बहिः प्रत्यपायसंभवे ग्रामस्यान्तः शून्यगृहे तत्रापि निवेदना कर्तव्या। शून्यगृहस्याभावे संज्ञी श्रावकस्तस्य गृहे वस्तव्यम् / स वा संज्ञी श्रावकः सागारिकोऽगारिसहितः स्यात्तर्हि तस्य गृहस्य बहिरन्तर्वा या कुटी तत्र वस्तव्यम्। तस्या अप्यभावे अमनोज्ञेषु संविग्नेषु वस्तव्यम्। तेषामप्यभावे नित्यकादिष्वसं विग्नेषु वसति / तत्रेयं यतना स्थानमूर्द्धस्थानं निषद्या उपवेशनम् त्वग्वर्तनं दीर्घका-यप्रसारणं तेषु गृहीतेनागृहीतेन उपकरेणन जागरणं कर्तव्यम्। एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः व्यासार्थ त्वभिधित्सुराह / प्रथमतो बहिमिति व्यख्यानयति। वसही समणुण्णासइ,गामवहिं ठाइ सो निवेदेइ। अनिवेदियम्मिलहु तु,आगाइविराहणा चेव / / समनोज्ञानां संविग्नानां वसतेरसत्यभावे ग्रामादहिस्तिष्ठति न पुनर्नत्यिकादिष्वसंविनेषु प्रवेष्टव्यं प्रागुक्तप्रायश्चित्तभावात् / सच बहिस्तिष्ठति तेषां नैत्यिकादीनां वा संविग्नानां वा अमनोज्ञानां निवेद्य कथयित्वा यदि पुनर्न निवेदयति ततोऽनिवेदितेप्रायश्चिते लघुको मासः / आज्ञादिविराधना आदिग्रहणादात्मविराधना संयमविराधना च परिगृह्यते / तथाहि इयं भगवदाज्ञा तेषां निवेद्य बहिर्वस्तव्यम् / अनिवेदनायामाज्ञालोपः। आत्मविराधनां संयमविराधनां चाह। गेलण्णेन कहिंति,कोहेण जं च पाविहिती तत्थ। तम्हाउनिवेएज्जा,जयणा एतेसिमाएउ॥ अनिवेदने सति कदाचित् ग्लानो जायेतग्लान्ये सति नास्माकं किमपि तेन निवेदितमिति क्रोधेनन किमपि ग्लाने कृत्यं करिष्यन्ति। गृहस्थाश्च तं तथा भूतं ग्लानं दृष्ट्वा तेषां नैत्यिकादीनां निवेदयेयुर्यथा युष्मदीयो ग्लानोऽसंग्राहको वर्तते ततस्ते ब्रूयुर्मध्ये वा एषोऽस्मदीयो न भवति यदि भवेत्तदा अस्माकमुपाश्रये तिष्ठेत् निवेदयेद्वा / एवं यत्र ग्लानत्वेन वा आरक्षकादिग्रहणं तत्र यदर्थ प्राप्स्यति संयमविराधनात्मकमात्मविराधनात्मकं वा तत्सर्वमनिवेदनानिमित्तं तस्मात्तेषामनया वक्ष्यमाणया यतनया निवेदयेत्। तामेव यतनामाह। Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1022 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया तुम अहेसि दारं,उस्सूरोत्ति जुताए एवं तु। न य नजइ सत्थो वि,चलिहिइ किं केत्तियं वेलं // यदाहमागतस्तदा युष्माकमुपाश्रयद्वारं संकुचितमासीत् तत एवं मया विकल्पितमुत्सूरं वर्तते इति युतायां पृथग्भूतायां वसतावुपितः। अपिच न च ज्ञायते सार्थोऽपि किंकियती वेलां सप्तम्यर्थे व्याप्तौ द्वितीया कस्यां वेलायां चलिष्यतिततः पृथगुपाश्रये स्थितः। अथ सवेलायामागतस्तत इदं वदेत्।। साहुसगासे वसिउं, अतिप्पियं मज्झ किं करेमित्ति। सत्थवासो हं भंते,गोसे मे वहेज उदंतं // साधुसकाशे साधुसमीपे चवस्तुममातिप्रियं परं भदन्त ! सार्थवशोऽहं ततः किं करोमि तस्मात् (गोसे मे वहेजह उदंत) साधो! प्रभाते मे उदन्तं वार्ता वहेत। एवं न उ दूरुस्से,अह बाहिं होञ्ज पचवायाओ। ताहे सुण्हघरादिसु,वसतिनिवेदितुं तह चेव॥ एवमनया यतनया निवेदितुं नैवग्राभादहिर्दूर वसेत् किंतु ग्रामस्य समीपे वसेदय बहिस्तेनादिकृताः प्रत्यवाया अनर्था भवेयुस्ततस्तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव निवेद्य शून्यगृहादिषु वसतिमादिशब्दात् श्रावकगृहादिपरिग्रहः / एतदेव भावयति। अहुणुव्वासियसकवाड-निविले वसति सुण्णे। तस्सासइ सुण्णघरे,इत्थीरहिते वसेजा वा / / अधुना सांप्रतमुद्वासितमधुनोद्वासितं सकपाटं कपाटसहितमन्यया स्तेनादिप्रवेशसंभवात् निर्दिलं विलरहितमन्यथा सदिसंभवात निश्चलं नजराजीर्णतया पतितुंप्रवृत्तम् अमीषां च चतुर्णा पदानां षोडश भङ्गाः। तत्र प्रथमो भङ्गःशुद्धः शेषा अशुद्धास्तत आह इत्थम्भूतेशून्ये गृहे वसति तस्य शून्यगृहस्यासत्यभावे संज्ञिगृहे श्रावकगृहे। सोऽपि श्रावको द्विधा संभवति सस्त्रीकः स्त्रीरहितो वा। तत्र स्त्रीरहिते वसेत्। सहिए वा अंतोबहि,अंतोवीसु घरकुडीए वा। तस्सासति नइयादिसु वसेज उ इमा य जयणाए / स्त्रीरहितस्य श्रावकगृहस्याभावेसहितेवा स्त्रीसहितेवा श्रावकगृहे तस्य गृहस्यान्तर्बहिर्वा विविक्ते प्रदेशे वसेत् अन्यथा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु तस्याप्यभावे तस्य श्रावकस्य बहिरन्तः पृष्ठतः पार्श्वतो वा यदिवाऽन्तर्गृहस्य कुटी समस्ति तस्यां वसेत् / तस्यापि कुटीरकस्यासत्यभावे नैत्यिकादिष्वपिशब्दात् पार्श्वस्थादिपरिग्रहोऽनया वक्ष्यमाणया यतनया वसेत् एतावता मूलद्वारगाथोपन्यस्तं निवेदनाद्वारमगमत् / / यतनाद्वारमापतितमिदानीं तामेव यतनामाह / / निइयादि उवधिभत्ते,सेज्जा सुद्धाय उत्तरे मूले। संजइरहिए काले,सज्झाए अभिक्खं च / / ये नैत्यिकादय उपधौ भक्ते शय्यायामुत्तरगुणैर्मूलगुणैर्वा शुद्धाः किमुक्तं भवति / ये उत्तरगुणैर्मूलगुणैर्वा शुद्धां शय्यां गवेषयन्ति / शुद्धं भक्तं शुद्धमुपधिं तेषु वसेत् तत्रापि संयतीरहिते तदभावे संयतीसहितेऽपि। ताश्च संयत्यो द्विधा कालचारिण्योऽकालचारिण्यश्च / तत्र याः / पाक्षिकादिष्वागच्छन्ति ताः कालचारिण्यस्तद्व्यतिरेकेणागच्छन्त्योऽ-- कालचारिण्यः स्वाध्यायनिमित्तमभीक्ष्णं चशब्दात् भक्तपानं दातुंग्रहीतुं वा कन्दपार्थ वा। तत्राकालचारिणोषु बहवो दोषाः कालचारिणीष्वल्पतरा इति संयतीरहिताभावे कालचारिणीभिः संयतीभिः सहिते वस्तव्यम्। एतदेव सप्रपञ्चमभिधातुकाम आह। सेजुवहिभत्तसुद्धे,संजइरहिए य भंगसोलसओ। संजइ अकालचारिणि,साहए बहुदोसला वसही।। शय्याशुद्धउपधिशुद्धो भक्तशुद्धः संयतीरहित इतिचतुर्षु पदेषु सप्रतिपक्षे पक्षाः षोडश / तद्यथा शय्याशुद्ध उपधिशुद्धो भक्तशुद्धः संयतीरहित इति प्रथमः / शय्याशुद्ध उपधिशुद्धो भक्तशुद्धः संयतीसहित इति द्वितीय इत्यादि प्रस्तारैश्चार्पणीयाः। एतेषु च षोडशसु, भङ्गेषु मध्ये यत्र यत्र संयत्यस्तत्र कालचारिणीसहिते वस्तव्यं नाकालचारिणीभिर्यत आह संयतीभिरकालचारिणीभिः सहिता बहुदोषा वसतिरिति / आह पूर्वमुपधिभक्तशय्याशुद्धा इत्युक्तमिदानीं भङ्गचिन्तायां प्रथमतः शय्योपात्तं तत्र किं कारणमत आह। सागारितेणाहिमवासदोसा,दुस्सोहिया तत्थ उहोइसेजा। वत्थन्नपाणाणि व वत्थ ठिचा,गेण्हति जोग्गाणुवभुजते वा।। शय्यां विना मण्डल्यामुपविष्टायां सागारिकाः समापतन्ति उपधिग्रहणाय स्तेना वा निपतन्ति हिमप्रपाते वासंयमात्मविराधना दोषाः / तत्र तेषु शय्योपधिभक्तेषु मध्ये शय्या दुःशोधिता भवति।आहारोपधयः शुद्धाः सुखेन लभ्यन्ते महता कष्टेन पुनः शुद्धा वसतिरिति भावः / तथा तत्र शय्यायां स्थित्वा योग्यानि कल्पनी-यानि वस्त्रान्नपानानि गृह्णन्त्युपभुञ्जते च / एतैः कारणैर्भङ्गचिन्तायां प्रथमतः शय्या कृता तथा // आहारोवहिसेज्जा,उत्तरमूले असुद्धे य। अप्पतरदोसपुट्विं,असतीए महन्नदोसे वि॥ आहारोपधिशय्याभिरुत्तरगुणविषये अशुद्धशुद्ध इति भङ्गैरल्प-तरा दोषा इत्यत आह प्रथमचिन्तायां ये षोडश भङ्गाः प्रागुक्तास्तेषु मध्ये पूर्वमल्पतरदोषे वस्तव्यं तस्यासत्यभावे महादोषेऽपि! अथ कस्मिन् भङ्गे अल्पतरदोषा इत्यत आह। पढमासति विइयम्मि वि,तहियं पुण ठाइ कालचारीसु / एमेव सेसएसु वि,उक्कमकरणं पिपूएमो॥ सर्वेषां भङ्गानां मध्ये प्रथमभङ्गे सर्वाल्पतरदोषा इति तत्र वस्तव्यं प्रथमस्यासत्यभावे द्वितीयेऽपि तत्र पुनस्तिष्ठति कालचारिणीषु संयतीषु एवमेव शेषेष्वपि भङ्गेषु वसति / किमुक्तं भवति / येष्वष्यन्येषु भङ्गेषु संयतीसहितपदं तेष्वपि कालचारिणीभिः सहितेषु वस्तव्यं नाकालचारिणीभिरिति / तथा क्रमकरणमपि अकालचारिणीभिः सहितत्वमपि पूजयामः उपादेयतया प्रशंसयामः सर्वेषां भङ्गानां मध्ये कथमिति चेदुच्यते यस्मिन् भने शय्याभक्तोपधयः समुदिता भङ्गत एकद्विका वा शुद्धास्तत्र यद्यकालचारिण्यो भक्तं पानं वा दत्वा गृहीत्वा तत्क्षणमेवव्रजन्तिन पुनरागच्छन्ति स्वाध्यायं वा कृत्वा सकाले गच्छन्ति तत्र स्थातव्यं प्रायो दोषाभावादिति। एतदेव स्पष्टतरमाह।। सेजं सोहे उवहिं,भत्तं सोहेइ संजतीरहितो। पढमो वितिओ संजइ-सहिओ तओ पुण कालचारीतो।। शय्यां शोधयति उपधिं शोधयति भक्तं शोधयति संयतीरहित-श्वेति प्रथमो भङ्गः। द्वितीयः संयतीसहितस्ताः पुनः संयत्यः कालचारिण्यो यदि स्युस्तदावस्तव्यमेवं शेषेष्वपि संयतीसहितेषु भङ्गेषु भावनीयम्। Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1023 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया अथाकालचारिण्यः कथं स्युरित्य आह।। आयाणे कंदप्पे, बियाल ऊरालियं वसंतीणं। निययादी छद्दसहा, संजोए मोत्तहा छंदे॥ भक्तपानादीनामादाने उपलक्षणमेतत् दाने च तथा कन्दर्पनिमित्त कन्दप्पग्रहणमुपलक्षणं स्वाध्यायनिमित्तं च विकाले औरालिकमतिशयेन स्फारे प्रभूतवेलायामिति यावत् संयतीनामकालचारिणीत्वं द्रष्टव्यम्। एवं नैत्यिकादीनां यः षड्दशधा षोडशप्रकारः संयोगस्तत्र वस्तव्यं किं सर्वत्र नेत्याह मुक्त्वा यथाच्छन्दान्किमुक्तं भवति। तेषु सत्सुयथाच्छदेषु नवस्तव्यं तदभावे तत्रापिवसेत्। संप्रत्येतेषु नैत्यिकादिषुसंवासमधिकृत्य यतनामाह। गहियनिसियतुय? वा, गहियागहिए य जग्गसुवणं वा / पासत्थादी णेवं, नियए, मोत्तुं अपरिभूते॥ पार्श्वस्थादीनामुपाश्रयेषु (गहियत्ति) गृहीतोपकरणः स्थित ऊर्द्धस्थितो वसेत्। यद्येवं स्थातुं न शक्नोति ततो गृहीतोपकरण एव निषद्योपगतो जाग्रत्तिष्ठेत् तथाप्यशक्नुवन् गृहीतोपकरणस्त्वगृतोजाग्रदवतिष्ठेत्। अथ त्रिष्वप्येतेषु यदि कथमपि प्रचलाया आशङ्का तदा मा पात्रदिभङ्गः स्यादित्युपकरणं पार्वे निक्षिप्यागृहीतोपकरणो यथासमाधिस्थितो निषण्णस्त्वगृतो वाजाग्रत्तिष्ठेत् अथ जागरणं कर्तुं न शक्नोति तत आह स्वपन वा गृहीतोपकरणोऽगृहीतोपकरणो वा यथा समाधिं कुर्यात् / एवं यतना पार्श्वस्थादीनामुपाश्रयेषु द्रष्टव्या / नैत्यिके नित्यवास्युपाश्रये नित्यवासिपरिभुक्तान् प्रदेशान् मुक्त्वा अपरिभुक्ते प्रदेशे उपकरणं निक्षिप्य यथासमाधिण जाग्रत्स्वपन्चा वसेत्। एमेव अहाच्छंदे, पडिहणणज्झाणअज्झयणकण्णा। ठाणठितो वि निसामे, सुण आहरणं च गहिएणं // एवमेव पार्श्वस्थादिगतेनैव प्रकारेण यथाच्छन्देऽपि यतना कर्तव्या। नवरं यदि शक्तिस्तर्हि तस्य प्रतिहननं कर्तव्यं यथा स स्वाग्रहं मुञ्चति। अथ न विद्यते तादृशी शक्तिस्तर्हि ध्यानं तथा ध्यायति यथा तद्वचो न शृणोति यदि वा (अज्झयणत्ति) यथाच्छन्दप्रज्ञापनाप्रतिश्रवणमध्ययनं परावर्तयतियथा सबूते मा मां नाशयेति (कण्णत्ति) तस्य यथास्वच्छन्दं देशनां कुर्वतः कर्णी निजौ स्थगयति येन देशनां न श्रृणोति दूरतरं वा तिष्ठति / अथ दूरतरस्थानस्थितोऽपि तद्देशनां निशमयति न च निद्रां समागच्छति ततः स यथाच्छन्दो वक्तव्यो यथा शृणु किमप्याहरणं ततो यत्तस्यापूर्वं तदाहरणं कथनीयम् (गहिएणति) गृहीतेनात्मीयोपकरणेन। एतदेव युक्त्या दृढयति॥ जह कारणे निगमणं, दिलृ एमेव सेसगा चउरो। ओमे असंथरंते, आयारे वइयमादीहिं॥ यथा कारणे कारणवशतो निगमनं निर्गतं दृष्टमेवमेव तथा कारणवशतः शेषाण्यपि चत्वारि द्वाराण्यसंविग्ने निवेदना यतना इत्येवमादीनि दृष्टानि यथा चाचारे आचारप्रकल्पे अवमे दुर्भिक्षे वजिकादिभिरपि आदिशब्दात्स्वज्ञात्यमनोज्ञासंविग्नपरिग्रहो व्रजेदित्युक्तमतः सोपपत्तिकेयं यतनेति सम्यक् श्रद्धेया। गतं यतनाद्वारम्॥ अधुना निसृष्टद्वारमाहस मणुण्णेसु वि वासो, एगनिसि किमुत अण्णमो मण्णे। असढो पुण जयणाए, अच्छेज्ज चिरं पिउ इमेहिं। समनोज्ञेष्वपि अपान्तरालेवास उत्सर्गत एकां निशामेकां रात्रि कल्पते किमुत किं पुनरन्येष्वसांभोगिकेष्ववसने उपलक्षणमेतत् पार्श्वस्थादिषु वा। तत्र सुतरामेकरात्र्यधिकं न कल्पते कारणवशतः पुनरुत्कर्षतस्वीणि दिनानि वसेत् गतं निसृष्टद्वारम् / इदानीं "दीहखद्धं परिच्छतीत्ये" तद्व्याख्यानार्थमाह (असढो इत्यादि) असतः पुनर्न केवलमुत्कर्षतस्त्रीणि दिनानि किं तु चिरमपि प्रभूतकालमप्येभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैर्यतनया तिष्ठेत् / तान्येव कारणान्याह वासं खंधारनदी, तेणासावयवसेण सत्थस्स। एएहिं कारणेहि, अजयणजयणाय नायव्वा / / वर्ष पतति स्कन्धावारः कटकं तद्वा चलति नदी गिरिनदी पूर्णा वर्तते स्तेना अपान्तराले द्विविधा शरीरापहारिण उपकरणापहारिणश्च श्वापदाः सिंहादयः सार्थस्य वा वशेन गच्छति सार्थश्च चिरमपि तिष्ठन् वर्तते एतैः कारणैश्विरमप्यपान्तराले तिष्ठति तत्रायतना यतना वा ज्ञातव्या ।तत्र यदि यतना कृता तदा न प्रायश्चित्तविषयः / अथायतनामाचरितवान् तदा प्रायश्चित्तं लगति / उक्तः शुद्धस्याशुद्धगमनमिति द्विरीयो भङ्गः। संप्रति तृतीयचतुर्थभङ्गावाह।। दोसा उततियभंगे, गाणगणिया य गच्छभेदो य। सुयहाणी कायवहो, दोण्णि वि दोसा भवे चरिमे / / दोषौ द्वौ तृतीयभने अशुद्धस्य शुद्धगमनमित्येवंलक्षणे तद्यथा गाणगणिकता गणेगणे प्रविशतीत्येवं प्रवादलक्षणा तद्यथा गच्छभेदतश्च / तथाहि तस्मिन्निर्गच्छत्यन्येऽप्येवमेव निर्गच्छन्ति ततो जायते गणविनाशः / चरमेऽप्यशुद्धस्याशुद्धगमनमित्येवंरूपे भरे द्वौ दोषी अपिशब्दो भिन्नक्रमः स च यथास्थानं योजितः। श्रुतहानिः कायवधश्च निष्कारणं दोषबहुलतया यातो निर्गमने ह्यत्रापि नावकाश इति श्रुतहानिर्मार्गे च गतो ग्लानत्वादिभावतो वा कायवधः / तदेवं भावितमृतुबद्धविषयम्॥ संप्रति वर्षावासविषयं सूत्रमाह। (सूत्रम्) वासावासे पञ्जोसविए भिक्खू य जं पुरओ कट्ट विहरेजा से य आहब विसं भेजा अस्थि वा इत्थ केइ उवसं पजणारिहे उवसंपज्जियवेसिया णत्थि वा इत्थ केइ अण्णे उवसण्णारिहे तस्सय अप्पणो य से कप्पइजाव छेदे वा परिहारे वा।। (वासावासेपज्जो इत्यादि ) वर्षावासे पर्युषिते भिक्षुर्य पुरतः कृत्वा विहरति आस्तेस कदाचित् विष्वग्भवेत् शरीरात्पृथग्भवेत् मियेत इत्यर्थः / अस्ति वान्यः कश्चिदुपसंपदनाहः स उपसंपत्तव्यः। नास्तिवा तत्रान्यः कश्चिदुपसंपनार्हस्तर्हि स आत्मनः कल्पे मा समाप्त इति (से) तस्य कल्पते एकरात्रिक्या प्रतिमया यत्र वसति तत्रैकरात्राभिग्रहणे (जण्णं जण्णमित्यादि) यस्यां यस्यां दिशि अन्ये साधर्मिका विहरन्ति तां तो दिशमुपलातुं न पुनः (से) तस्य कल्पते। तत्रापान्तराले विहारप्रत्ययं वस्तुं कल्पते (से) तस्य। तत्र कारणप्रत्ययं संघाटादिकारणनिमित्तं वस्तुं तस्मिश्च कारणानिष्ठिते यदि परो वदेत् वस आर्य ! एकरात्रं द्विरात्रं वा शब्दात्रिरात्रं वा एवं (से) तस्यकल्पते एकरात्रं द्विरात्रं वा शब्दात्त्रिरात्रं वा वस्तुंनो (से) तस्य कल्पते एकरात्रात् द्विरात्राद्वापरं वस्तुम् / यत्तत्र एकरात्राद् द्विरात्राद्वा परं वसति ततः (से) तस्य स्वकृतादन्त-- Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया राच्छेदः परिहारो वा इति सूत्रार्थः / अत्र भाप्यप्रपञ्चः। एमेव य वासासु, भिक्खे वसहीए संकनाणत्तं / एगाहचेउत्थादी, असती अण्णत्थ तत्थेव।। एवमेव ऋतुबद्धविषयस्तत्र तेनैव प्रकारेण वर्षासु सूत्रं भावनीयं नवरं भिक्षायां वसतौ शङ्कायाश्च नानात्वं तत्रान्यत्र गन्तव्यमेकाहेन चतुर्थेनादिशब्दात् षष्ठेनाष्टमेन वा अस्यन्यत्र गमने तत्रैव वर्षारात्रः कर्तव्यः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः एवं शब्दं व्याख्यानयति। अपरिमाणे पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे। एवं सहो उ एएसिं, एगत्ते उ इहं भवे // एवं शब्दोऽपरिमाणे पृथग्भावे एकत्वे अवधारणे। तत्रापरिमाणे यथा एवमन्येऽपीत्यादौ पृथदावे यथा घटात्पटः पृथक् एवमाकाशास्तिकायात् धर्मास्तिकायोऽपीति / एकत्वे यथाऽयमेतद्गुण एवमेषोऽपि अत्र ह्येवं शब्दस्तयोरेकरूपतामभिद्योतयति / अवधारणे यथा के नापि पृष्ठमिदमित्थं भवति इतरः प्राह एवं इमित्थमेवेति भावः / एवमेवंशब्द एतेष्वर्थेषु वर्तते इह पुनरेकत्वे भवति वर्तते। एकत्वमृत्तिमेव भावयति। एगत्तं उ उबद्धे, जहेव गमणं तु भंगचउरो य। तह चेव य वासासु, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं / / तथैकत्मवमेवं शब्दप्रकाश्यमित्थमृतुबद्धन्यत्र गच्छान्तरे गमन यथा च तत्र भङ्गाश्चत्वारः शुद्धस्य शुद्धगमनमित्येवमादयस्तथा चैत्र तेनैव प्रकारेण गमनं भङ्गचतुष्टयं च ज्ञातव्यम् / नवरं केवलमिदं मत्र वर्षासु भिक्षायां / वसतौ शङ्कायां च नानात्वम्। तत्र भिक्षामसधिकृत्याह। पउरण्णपाणगमणं, इहरा परे ताव एसणा घातो। खेत्तस्स य संकमणे, गुरुगा लहुगा य आभवणा।। यो गच्छः प्रचुरान्नपाने स्थितस्तत्र गन्तव्यम् / इतरथा यदि पुनरप्रचुरान्नपाने गच्छेप्रविशति ततस्ते असंस्तरन्त क्षुधा परिताप्यन्ते परितापनांचासहमानैरेषणाघातः क्रियते अनेषणीयमपि गृह्णीयुरित्यर्थः / अथासंस्तरन्तः क्षेत्रसंक्रमणं कुर्वन्ति तदा प्रावृषि क्षेत्रस्य संक्रमणे आरोपणाप्रायिश्चत्तं चत्वारो गुरुकाः। वर्षारात्रे भाद्रपदाश्वयुग्मासद्वयलक्षणे चत्वारो लघुकाः / गतं भिक्षाद्वारम् / अधुना वसतिद्वारमाह। वारगजग्गणदोसा,सागारादी हवंति अण्णासु। तेणादिसंकलोए, भाविणमित्थं पवासंति॥ यस्मिन् गच्छे वसतिः संकटा तत्र नोपसंपत्तव्यं यदि पुनरुपसंपद्यते तत इने दोषाः / संकटायां हि वसतौ वसन्तस्तेवारकेण क्रमेण जागरणं कुयुरके जाग्रत्यन्ये स्वपन्ति तदनन्तरं ते जाग्रत्यन्ये स्वपन्ति / एवं क्रमेण जागरेणऽजीर्णत्वादयो दोषाः / अथान्यासु वसतिषु केचित्स्वपनाय व्रजन्ति तर्हि ये प्रागभिहिताः शय्यायां सागारिकादयो दोषास्ते ऽत्रापि भवन्ति गतं वसतिद्वारम् / इदानीं शङ्काद्वारमाह ! भिक्षाया अभावतो वसतिसंकटत्वदोषतो वा तत्क्षेत्रसंक्रमणं कुर्युस्तांश्च गच्छतो दृष्ट्वा लोकस्य स्तेनादिशङ्कोपजायते यथा न कल्पते साधूनां वर्षासु गमनं तन्नूनमेते हेरिकाः स्तेना वा साधुवेषेणाहिण्डन्ते। अथवा (भाविणमित्थं पवासंति त्ति) एतमर्थमुत्पातरूपं यदि वा न निष्पत्स्यते शस्यमित्येवंलक्षणं ततोऽनागता नश्यन्ति तस्माद्वयमपि यत्नकुर्मः। तदेवं प्रचुरान्नपाने संकटवसतिस्थिते च गच्छे प्रवेशे इमे दोषाः। तस्माद्ये प्रचुरान्नपानग्रामे स्थिता ये च सावकाशायां वसतौ तत्र संपत्तव्यं तत्र चानया यतनया गन्तव्यम्। तामेवाह। आसण्णखेत्त भाविय,खेत्तादपरोप्परं मिलंतेसु / जा अट्ठम अभावे य,माणअडतं बहू पासे / / ये आसन्ने अनन्तरे क्षेत्रे स्थिता गच्छास्तत्रगन्तव्यमसत्यनन्तरे क्षेत्रे ये परे क्षेत्रे स्थिता यैर्भिक्षादिनिमित्तमागच्छद्भिर्गच्छद्भिश्च परस्परं मिलद्भिर्गाथायां सप्तमी तृतीयार्थेऽपान्तराले पथि भाविता ग्रामास्तत्र गन्तव्यं तेषामप्यभावे दूरेऽपिगम्यते। तत्र पुनर्भिक्षामहिण्डमानो गच्छति। किं कारणमत आह। (माणअडत बहूपासे) मा णमिति वाक्यालद्वारे भिक्षाभटन्तं बहु लोकोऽभावितः पश्यन्निति कृत्वा ततोऽभक्तार्थेन यावत्प्राप्यते षष्ठेन अष्टमेन वा तत्र गन्तव्यम्। आह यद्यपि चतुर्थादिना गच्छति तथापि लोकः पश्यति। तत्र आह / / पायं न रीयइ जणो, वासे पडिवत्तिकोविदो जो य। असतो व बद्धेदूरे य, अच्छए जाय भायंति // प्रायः कर्षजनः क्षेत्राणां जलकर्दमाकुलतया शेषजनो मार्गस्य जलाविलत्यादिना दुर्गमतया वर्षे वर्षाकाले नरीयते न गभति। यश्चात्र प्रतिपत्तिकोविदः परप्रतिपादनकुशलस्तने एवमादिषु विषयेऽनेकान्युत्तराणि जल्पितव्यानि एतावता "एगाहचउत्थादी इत्यादिव्याख्यातमिदानीमसती अण्णत्थतत्थेवेति व्याख्यानार्थमाह / "असतोवबद्धेइत्यादि पूर्वोक्तो विधिः सान्तरे वर्षेऽभिहितो यदि पुनरसकृत् अवबद्धं वा सततं वर्ष पतति यदि वा अतिदूरं गन्तव्यं नाष्टमेन प्राप्यते ततोऽसकृत् अवबद्धे वा वर्षे पतति दूरे गन्तव्यम्। तत्रैव वर्षारात्रं कृत्वा प्रभाते मेधकृतान्धकारापमगतः प्रभातकल्पे संवत्सरे याति॥ (3) भक्षुर्गणादपक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपपद्य विहर्तुम्।। (सूत्रम्) भिक्खू गणाओ अवक्कम्म अण्णगणं उवसंपञ्जित्ताणं विहरिजा तं च केइ साहम्मिया पासे ता वइजा क अञ्जो उवसंपज्जित्ताणं विहरति जे तत्थ सव्वराइणिएता वइज्जा अहं भे कप्पाइ जे य तत्थ बहुस्सुए तं वत्तिजा जहा से भगवं वक्खति तस्स आणाउववाय वयणणिदेशे चिहिस्सामि॥ भिक्षुर्गणादपक्रम्य विशिष्टसूत्रार्थनिमित्तमन्यगणमुपसंपद्य विहरेत् / तत्रोद्भ्रामके भिक्षाचरप्रचुर ग्रामे भिक्षार्थमटन्तं दृष्ट्वा कश्चित्साधम्मिको वदेत् कमार्यमुपसंपद्य त्वं विहरसि एवं पृष्टः सन् यस्तत्र सर्वरत्नाधिको गीतार्थ आचार्यस्तं वदेत्। तस्मिन्नुक्ते परिकल्पयति यमेष व्यपदिशति सोऽगीतार्थो नचायमगीतार्थनिश्रया विहरति ततो भूयः पृच्छति अथ भदन्त ! कस्य कल्पेन सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्कस्य निश्रया त्वं विहरसि एवमुक्के यस्तत्र सर्वबहुश्रुतस्तं वदेत् तथा तस्य सर्वरत्नाधिकस्याचार्यस्यागीतार्थस्य यः शिष्यो गीतार्थः सूत्रार्थनिष्णातः समस्तस्यापि गच्छस्य तृप्तिकारी तन्निश्रयाऽहं विहरामीति वदेत् / यं वा स भगवानाख्याति यथैतस्याज्ञा त्वया कर्त्तव्या तस्याज्ञायामुपपाते समीपे वचननिर्देशे च आदेशप्रतीच्छायां स्थायामीति सूत्रसंक्षेपार्थः / अधुना भाष्यकृत्सूत्रं व्याख्यातुकामः प्रथमतः सूत्रविषयमुपदर्शयति।। पव्वावितो अगीतेहिं, गंतूण उभयनिम्मातो। Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया आगम्मसेससाहण-ततो यसाग ओण्णत्थ॥ कश्चिदगीतैरगीतार्थराचार्यःप्रव्राजितः सोऽन्यत्र गणे गत्वा उभयतः सूत्रतोऽर्थतश्च निर्मितोऽभवत् ततःस स्वगणे आगम्य शेषाणां गीतार्थानां साधूनां साधनं करोति सर्वानपि गीतार्थान् सूत्रार्थ निमित्ततिस्तो विप्रसृतानाचार्यसमीपमानयति समानीय च तेषां सूत्रार्थान् पूरयति अन्यदा ततो गच्छात्कोऽपि साधुरन्यत्र गणान्तरे केनापि कार्येण गतः। तत्थ वि य अण्णसाहु, अट्टे त्ति अहेज मा ण साहूणं। चिंती मा पढ एवं, किं तिय अत्थो महो एवं // तत्रापि च गणान्तरे अन्यं साधुमाचाराङ्गे, "अट्टे लोए परिजिण्णे", इति सूत्रे अट्टे इति अधियानं पठन्तं श्रुत्वा ब्रूते मा पठ। एवं स प्राह किमिति इतरो ब्रूते अर्थो न भवति विसंवदत्येवं यथा त्वं पठसि अस्मात् अट्टे इंति द्विटकारको निर्देशोऽध्येतव्यः। अत्थो वि अस्थि एवं, आम नमोकारमादिसय्वस्स। केरिस पुण अत्था ति, वेती मुण सुत्तमट्ट त्ति॥ अधीयानः पृच्छति अर्थो ऽपि न तुसूत्रस्यास्ति। इतरः प्राह। आममेवं न केवलभस्य सूत्रस्यार्थोऽस्ति किं तु सर्वस्यापि नमस्कारादिकस्य सूत्रस्यास्ति एवमुक्तोऽध्येतापृछति कीदृशः पुनरस्य सूत्रस्यार्थ इति। इतरो ब्रूते श्रृणु प्रथमतो यथावस्थितं सूत्रं ततः पठति (अट्टे इति) “अट्टे लोए परिजिण्णे", इति एवं पठित्वा अस्य व्याख्यानमाह - अट्टे चउविहे खलु, दवेन वि मादि जत्थ तणकट्ठा। आवत्तंत्ते पडिया, जह व सुवण्णादि आवट्टे॥ अट्टः आर्तः खलु चतुर्विधतद्यथा नामार्तः स्थापनार्को द्रव्यातॊ भावार्तः / तत्र नामस्थापने सुप्रतीते द्रव्यातॊऽपि नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतीरिक्तो यत्र नद्यादेः प्रदेशे तृणकाष्ठानिपतितानि आवर्तन्ते यत्र वा सुवर्णाद्यावर्तते स द्रष्टव्यः। आसर्वतः परिभ्रमणेनरुतानि गतानि यत्र यो स आर्त इति व्युत्पत्तेः। अहवा अत्तीभूतो, सचित्तादीहि होइ दव्वम्मि। भावे कोहादीहिं, अभिभूतो होति अट्टो उ॥ अथवा सचित्तादिभिर्द्रव्यैरसंप्राप्तैः प्राप्तवियुक्तैर्वा य आर्तः स द्रव्यातः द्रव्यैराततॊ द्रव्यात इति व्युत्पत्तेः / क्रोधादिभिरभिभूतो नो आगमतो भावार्तः। तदेवमार्तशब्दार्थ उक्तः। संप्रति परिजीर्णशब्दार्थमाह - परिजिण्णा उदरिदो, दवे धणरयणसारपरिहीणो। भावे नाणादीहिं, परिजिण्णो सवलोगा उ|| परिजीर्णोऽपि चतुर्विधस्तद्यथा नामपरिजीर्णः स्थापनापरिजीर्णो द्रव्यपरिजीर्णो भावपरिजीर्णश्च। तत्र नामस्थापने प्रतीते। द्रव्ये द्रव्यतः परिजीर्णो नो आगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो धनरत्नसारपरिहीनो हरिद्रो भावे भावतः परिजीर्णो ज्ञानादिभिः परिहीन एष समस्तोऽपि लोकः। एवं पट्टे सो वेति, कत्थ भे अहीयं ति। अमुगस्स त्तिसगासे, अहगं पी तत्थ वचामि।। एवमाचाराङ्गसूत्रास्यार्थे स्पष्ट कथिते स ब्रूते कुत्र भवता त्वया ऽधीतमिति / सप्राह अमुकस्यसकाशेसमीपे। ततः सोऽध्येता चिन्तयति अहमहपि तत्र व्रजामि एवं चिन्तयित्वा। सो तत्थ गतो घिनति, मिलितो सब्मति एहि उन्भामो। पुट्ठो सुत्तत्थं ते, सरंति निस्साय कं विहरे।। स तत्र गतो गत्वा वाऽध्येति एतद्विषयमधिकृतं सूत्रमधुना सूत्रव्याख्यामाह / सोऽधीयानोऽन्यदा उद्भामे उदभ्रामकभिक्षानिमित्तं गतस्तत्र केचित्साधर्मिकाः केचिदन्यगच्छवर्तिनः साधवः सहाध्यायिनो मिलितास्तैः (सब्भतिएहिति) सहाध्यायिभिः पृष्टास्तेतत्र सूत्रार्थ सरन्ति निर्वहन्ति तथा कं निश्राय आश्रित्य भवान विहरति। असुगं ति सो अगीतो, विहरइ कप्पेण गीयसिस्सस्स। अहमविय तस्स कप्पा, जंवा भयवं उवदिसंति।। एवं पृष्टः सन् यस्तत्र सर्वरत्नाधिको गीतार्थ आचार्यस्तं कथयति यथा अमुकं निश्रायाहं विहरामि एतावता,“जे तत्थ सव्वराइणि य ते वएज्जा", इति व्याख्यातम् / एवमुक्ते ते चिन्तयन्ति यमेष प्राह सोऽगीतो ऽगीतार्थस्ततो भूयः पृच्छन्ति कस्य कल्पेन कस्य गीतार्थस्य निश्रया भवान् विहरति एतेन, अहं भंते कस्स कप्पाए", इति व्याख्यातम्। स प्राह सूत्रबहुश्रुततया गीतार्थस्तस्य शिष्यस्तस्य कल्पेन समस्तो गणो विहरति। अहमपि च तस्य कल्पात् विहरामियं वा भगवन्त उपदिशन्ति यथाऽस्याज्ञा कर्तव्या तस्याज्ञोपयातवचननिर्देशेषु स्थास्यामि। एतेन "जं वा सो भयवं अक्खाति", इत्यादिव्यातम्। इदमेव स्पष्ट भावयति। रायण्सियस्स उगणो, गीयत्थोमस्स विहरइ निस्साए। जो जेण होति महितो, तस्साणादीन हावेमि / / रात्निकस्य रत्नाधिकस्य गणोऽवमस्य गीतार्थस्य निश्रया विहरति अहमपि तन्निश्रया विहरामि / अपि च तस्मिन् गणे यो येन गुणेन तपःप्रभृतिना महितस्तस्याज्ञादि आज्ञा समोपभवनं वचननिर्देशं च न हापयामि सम्यक्करोमीति भावः। व्य० द्वि०४उ० (चरिकाप्रविष्टस्योपसंपद्विधिः चरियापविट्ठशब्दे वक्ष्यते) 4 शैक्षण सपरिच्छन्नेन रत्नाधिकस्योपसं पद्दातव्या। (सूत्रम्) दो साहम्मिया एगतो विहरंति तं जहा सेहे रायणिए य तत्थ सेहतराए पलिच्छिन्ने रायणिए अपलिच्छन्ने तत्थ सेहतरएणं रातिणिए उवसंपञ्जित्तव्वा भिक्खू ववहारवद्दलातिकप्पयं / 23 / द्वौ साधर्मिको समानगुरुकुलावेकतः सह तौ विहरतस्तद्यथा शैक्षो रात्निकश्च तत्र यः शैक्षकः स परिच्छन्नः परिवारोपेतः रात्निको रत्नाधिकोऽपरिच्छन्नः परिवाररहित इत्यर्थः तत्र शैक्षतरकेण रत्नाधिक उवसंपत्तव्यस्तथा शैक्षतरको रत्नाधिकस्य भिक्षामुपपातं विनयादिकं च कल्प्यं कल्पनीयं ददाति एष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना भाष्यविस्तरः। साहम्मि पलिच्छिन्ने, उवसंपय दोण्ह वी पलिच्छातो। वोचत्थे मासलहुओ, कारणअसई सभावो वा।। तौ द्वावपि जनौ सहाध्यायिनौ स ब्रह्मचारिणौ तत्र यः शैक्षतरकः स परिच्छनो द्रव्यपरिच्छे दोपेतः परिवारसहित इत्यर्थः / भावपरिच्छेदेन पुनर्द्वयोरपि परिच्छेदोऽस्ति तत्र शैक्षे द्रव्यतः परिच्छन्ने सति तेन रत्नाधिकस्योपसंपदातव्या ततो जघन्यतः संघाटो रत्नाधिकस्य देय उत्कर्षतो बहवोऽपि दातव्याः। तथा शैक्षकेण रत्नाधिकस्य पुरत आलोचनीयं रत्नाधिकेन शैक्षकस्य पुरतोऽन्यथा (वोच्चत्थे) विपर्यासे उभयोरपि प्रायश्चित्तं मा Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया सलघु।तथा कारणे म्लानादिलक्षणे व्यापृततया द्वावेव तौ जनावित्यसति सहायस्याभावे न दद्यादपि सहायं स्वभावो वा तस्यात्मीयकरणादिलक्षणस्ततो न ददाति सहायं किंत्वौचित्येन तस्य कृत्यं कारयति / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। __ सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः पूर्वार्द्ध विवृणोति। सज्झंति वासिणो दो वि, भावेण नियमतो छण्णो। रायणि एउवसंपया, सेहतरगेण कायव्वा / / तौ द्वावपि सहाध्यायिनावेकस्य गुरोरन्तेवासिनी द्वावपि भावेन ज्ञानादिना नियमतो नियमेन छन्नो ज्ञानादिरूपभावपरिवारोपेतावित्यर्थः / द्रव्यपरिच्छेदेन पुनः शैक्षतरक एवोपेतस्तत्र शैक्षतरकेण रात्निको रत्नाधिकस्योपसंपत्कर्तव्या। “वोचत्थे मासलहुतो", इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह। आलोइयम्मि सेहेण, तस्स वियडेइ पच्छ राइणितो। इति अकरणम्मि लहुगो, अवरोप्परगव्वतो लहुगा / / प्रथमतः शैक्षतरकेण रत्नाधिकस्य पुरतः आलोचनीयं तेनालोचिते पश्चाद्रत्नाधिकस्तस्य शैक्षकस्य पुरतो विकटयत्यालोचयति एतच्चैतौ नकुरुतस्त इतिएतस्याकरणेद्वयोरपि प्रत्येक लघुको मासः प्रायश्चित्तम् (अवरोप्परगव्वतो लहुगा इति) यदि शैक्षतरको द्रव्यपरिच्छेदेनाह परिच्छन्न इति गर्वतो रत्नाधिकस्य पुरतो नालोचयति तदा तस्यापि प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। एतदेवोपदेशद्वारेण स्पष्टयति। एगस्स उ परिवारो, वीइए रायणिय त्ति वादो य। इह गव्वो न कायव्वो, दायध्वो चेव संघाडो। एकस्य परिवारोऽस्ति द्वितीये रत्नाधिकत्वादः रत्नाधिकोऽयमिति प्रवाद इति एवं रूपो गर्वा द्वाभ्यामपि न कर्त्तव्यः किं तु परस्परमालोचयितव्यमन्यथा चतुर्लघुकप्रायश्चित्तापत्तेतव्यश्च शैक्षतरकेण जघन्यतोऽपि रत्नाधिकस्य संघाटः / संप्रति, "भिक्खोवा पंचदलानि कप्पागमि", त्येतदर्थमाह। पेहाभिक्खकितीओ, करेंति सो आवि ते पवाएति। न पहुव्वं ते दोण्ह वि, गिलाणमादीसुचन देजा।। शैक्षतरस्य शिक्षा रत्नाधिकस्य संबंधिनो वस्त्रादेः प्रेक्षां प्रति लेखनां कुर्वन्ति / तथा तद्योग्यां भिक्षामानयन्ति / कृतकर्म विनयो विश्रामणा तत्कुर्वन्ति किमुक्तं भवति यदाज्ञापयन्ति तत्कुर्वन्ति वाचनादिपरिश्रान्तस्य च विश्रामणामिति स चापि रत्नाधिकस्तान्प्रवाचयति सूत्रं पाठयत्यर्थं च श्रावयतीत्यर्थः / कारणे असती इत्यस्य व्याख्यानमाह (न पुहुव्वंते इत्यादि) ते शैक्षतरशिष्या ग्लानादिषु प्रयोजनेषु व्यापृतास्ततोनप्रभवन्तिनप्रपारयन्ति सहायं न दद्यात्। यदिवा द्वादेव तौ जनौ ततः किं दीयतामिति न दद्यात्। अधुना, “सभावो वा", इत्यस्य व्याख्यानमाह। अत्तीकरेजा खलु जो विदिपणे, एसोवि मज्झंति महंतमाणी। न तस्स तं देइ वहिं तु नेउं, तत्थेव किचं पकरेंति जं से / / यो वितीर्णान्साधूनात्मी कुर्यात् यश्चैषोऽपि शिक्षाधिपतिः शैक्षतरको ममेति महामानी तस्य तान्साधून् बहिस्तस्मात् स्थानादन्यत्र विहारक्रमेण नेतुं न ददाति किंतु यत् (से) तस्य कृत्यं करणीयं तत्रैव स्थितस्यतत् कुर्वन्ति अथवा वारग्एण य से देइ, न य दावेइ वायणं / तहा वे भेदमिच्छंते, अविकारी उ कारए। वारेण तस्य शुश्रूषंकमेकैकं साधुंनयुङ्क्ते न च तस्मात्साधूनां वाचनां दापयति मा स गणभेदं कार्षीरिति हेतोः / अथैवमपि दुःस्वभावतया गणभेदं करोति तत आह / तथापि क्रियमाणे गणभेदं कर्तुमिच्छति योऽविकारी दुर्भेदः साधुस्तेन तस्य कृत्यं कारयति (सूत्रं दो साहम्मिया इत्यादि) द्वौ साधर्मिकावेकतः संहतौ विहरतस्तद्यथा शैक्षो रत्नाधिकश्च / तत्र रात्निकः परिच्छन्नः परिवारोपेत इत्यर्थः / शैक्षतरकोऽपरिच्छन्नः परिवाररहितस्तत्र रात्निके रत्नाधिकस्येच्छा यदि प्रतिभासते शैक्षतरकमुपसंपद्यते अथ नेच्छा न प्रतिभासते तर्हि नोपसंपद्यते भिक्षामुपयातंचकल्प्यं यदीच्छा तर्हि ददाति अथादातुमिच्छा तर्हि न ददाति एष सूत्रसंक्षेपार्थः / अधुना भाष्यविस्तारः - रायणिय परिच्छन्ने, उवसंपपलिच्छओ य इच्छाए। सुत्तत्थकारणे पुण, परिच्छयं वेंति आयरिया।। रात्निके रत्नाधिके द्रव्यतःपरिच्छन्ने परिवारोपेते स तेन शैक्षतरकस्य उपसंपत्परिच्छेदश्च इच्छया दातव्यः / इयमत्र भावना / स यदि शैक्षतरकोऽवमरत्नाधिकस्तुल्यश्रुतो गुरुरत्नाधिकेन सह ततः स रत्नाधिकश्चिन्तयति मा नूनमेतस्य भिक्षाहिण्डनव्याक्षेपेण च सूत्रार्था नश्येयुस्ततः संघाटं ददाति अथवा मा एष मम कुलवासी सहाध्यायी द्रव्यपरिच्छदेनापरिच्छदो भूयात्सहाध्यायात्तेनाति-स्नेहतः संघाट ददात्यालोचनां प्रयच्छति / अल्पश्रुतस्य परिच्छदमुपसंपदा वा न ददातीति / अथ स शैक्षतरको रत्नाधिकाबहुश्रुतस्तदा नियमत उपसंपत्तव्यः / परिच्छदश्च तस्य दातव्यस्तथा चाह सूत्रार्थ कारणात् सूत्रार्थ गृहीतुकामाः पुनराचार्या उपसंपद्यन्ते परिच्छदं च ददति। एतदेव स्पष्टयति। सुत्तत्थं जइ गेण्हइ, तो से देइ परिच्छदं। गहिएवि देइ संघाडं,मा से नस्से य तं सुयं / / यदि सरत्नाधिकस्ततःसूत्रार्थं गृह्णाति ततः (से) तस्य ददाति परिच्छदं परिवारं गृहीतेऽपि सूत्रार्थे ददाति संघाट कस्मादित्याह। मा (से) तस्य भिक्षाटनव्याक्षेपतः प्रतिलेखनाव्याक्षेपतश्च तत् श्रुतं नश्येदिति हेतोः। अबहुश्रुतादौ तु न ददाति इत्येतद्भावयति। अबहुस्सुते न देंति, निरुबहते तरुणये य संघाडं / घेत्तूण जाव वजह, तत्थ य गोणीय दिटुंतो।। अबहुश्रुतो निरुपहतपञ्चेन्द्रियस्तरुणकश्च तस्मिन् सत्स्वपि साधुषु सघाट न ददाति सहायान्न ददातीति भावः / यो वा गीतार्थोऽपि सन् प्रदात्तान् सहायान्विपरिणम्य गृहीत्वा ब्रजति तस्यापि सत्स्वपि साधुषु सहायान्न ददाति तथा चतत्र दुष्टशीलतया गवां दृष्टान्तस्तमेव भावयति। साडगवद्धा गोणी, जह तं खेत्तं पलाति दुस्सीला। इय विप्परिणामेते, तम्मिन देना सहाए य॥ यथा कस्यापि गौः पलायिता ततः कथमपिलब्धा सती तेन शाटके बद्धा यथा शाटकबद्धा दुःशीला गौस्तं शाटकं गृहीत्वा पलायते इति एवममुना प्रकारेण यो विपरिणामयति सहायान् तस्मिन्वि परिणामयति सहायान्न दद्यात। (५)सांभोगिकासांभोगिकयोः सहमिलितयोराचार्याद्योः समाचारीमाह // (सूत्रम) दो साहम्मिया एगतो विहरंति तं जहा से Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1027- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया हे य रायणिए य तत्थ रायणिय पालिच्छिन्ने सेहतराए अपलिच्छिन्ने रायणिए इच्छा सेहतरा य उवसंपर्छज्जा / इच्छा नो उवसंपजेज्जा इच्छा मिक्खोववायं दलाति कप्पाग इच्छाए णो दलाति / 24 / दो भिक्खू णो एगतो विहरंति णोण्हं कप्पति अण्णमण्णस्स उवसंपन्जित्ताणं विहरित्तए कप्पति ग्रह आहारातिणियाए अण्णमहं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए।२श एवं दो गणावच्छेया / 26 / दो आयरियउवज्झाया / 27 / बहवे भिक्खुणो णो ततो विहरति णोण्हं कप्पइ अण्णमण्णस्स उवसंपत्तिाणं विहरित्तए कप्पति ण्हं आहारातिणियाए अण्णमण्णं उवसंपत्तिाणं विहरंतिए 28 एवं बहवे गणावच्छेइया 29 बहवे आयरियउवज्झाया 30 भिक्खू णो बहवे गणावच्छेइया तहेव आयरियउवज्झाया एगतो विहरंति णो ण्हं कप्पति अण्णमण्णे उवसंपत्तिाणं विहरित्तए वासावासवत्थए कप्पति पवितिणीए कप्पति पवितिणीए कप्पत्तिं ण्हं आहारायणिआए अन्नमन्नं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए हेमंतगिम्हेसु॥३॥ (अत्र चतुर्विशतितमसूत्रस्य व्याख्याग्रंथकृता न व्याख्यातेत्यस्माभिरपि न व्याख्यायते) एवं दो भिक्खू णो एगतो विहरति इत्यादि सूत्रसप्तकं सुगमम्। अस्य संबन्धमाह - संखहिगारा तुल्ला, धिगारियाए सलेसते जोगो। आयरियस्स व सिस्सा, भिक्खु अभिक्खू अहतिमिक्खू / / . अनन्तरसूत्रे , "दो साहम्मिया" इत्यादिलक्षणे द्विकलक्षणा संख्याऽधिकृता अत्रापि सैव, “दो भिक्खुणो” इत्यादिवचनात्ततः संख्याधिकारात्तुल्याधिकारिता पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्येत्येष लेशत आद्यसूत्रस्य योगः संबन्धः। अथवा पूर्वसूत्रे रत्नाधिकपदेनाचार्य उपात्तः / आचार्यस्य च शिष्यो द्विधा भिक्षुरभिक्षुश्च। तत्रभिक्षुः प्रतीतोऽभिक्षुर्गणावच्छेदक उपाध्याय आचार्यो वा। तत आचार्यसूत्रात्प्रागुक्तादयानन्तरं भिक्षूसूत्रमक्तम्। शेषसूत्रसंबन्धप्रतिपादनार्थमाह - एमेव सेसएसु वि, गुणपरिवड्डी य ठाणलंभावे। दुप्पभिई खलु संखा, बहुपिंडो उ तेणं परं / / एवमेव पूर्वोक्तप्रकारेणैव शेषयोरपि गणावच्छेदकाचार्यसूत्रयोः संबन्धस्तथा ह्याचार्यस्य शिष्यो भिक्षुरभिक्षुश्च तत्र भिक्षुसूत्रमुक्तं तदनन्तरमभिक्षोर्गणावच्छेदकस्याचार्यस्य च सूत्रे / अथ गुणरिबुद्ध्या स्थानलाभो भवति तथा हि भिक्षुर्गुणाधिकत्वेन गणावच्छेदकस्थानं लभते गणावच्छेदको गुणाधिकतया आचार्योपाध्यायस्थानमतो भिक्षुसूत्रानन्तरंक्रमेण गणावच्छेदकाचार्योपाध्यायसूत्रे तथा द्विप्रभृतिका खलु संख्या बहुका भवति ततो द्वि संख्यासूत्रत्रयानन्तरंबहुसंख्यासूत्रत्रयं बहूनां च परस्परमुपसंपन्नानां पिण्डो भवति तेन बहुसंख्यासूत्रत्रयात्परं पिण्डः पिण्डसूत्रमुक्तमिति एवमनेन संबन्धजातेनायातस्यास्य सूत्रसप्तकस्य व्याख्या / द्वौ भिक्षू एकत्र संहतौ विहरतो णोणमिति वाक्यलङ्कारे कल्पते अन्योन्यमुपसंपद्य विहर्तु कल्पते। ह मिति पूर्ववत् यथा रत्नाधिकतया अन्योन्यमुपसंपद्य विहर्तुमेवं गणावच्छेदकसूत्र माचार्योपाध्यायसूत्रं च भावनीयमेवं बहुसंख्यासूत्रत्रयं पिण्डसूत्रं चेति सूत्रसप्तक-संक्षेपार्थः। संप्रत्याधभिक्षुसूत्रव्याख्यानार्थमाह - संभोइयाण दोण्हं, खेत्तादी पेहकारणगयाणं / पंथे समागयाणं, भिक्खूण इमा भवे मेए / / द्वावाचार्यावन्यस्मिन्नन्यस्मिन् क्षेत्रे स्थितौ तौ च परस्परं सांभोगिकी तयोः सांभोगिकयोयोराचार्ययोर्भिक्षवस्ताभ्यां प्रेषिताः क्षेत्रादिप्रेक्षाकारणगताः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थमादिशब्दादुपधिमार्ग-णार्थ वा गतास्तेच तथा गच्छन्तः पथि समागताः परस्परं मिलिताः / तेषां चैकेन यथा गन्तव्यमतस्तेषां क्षेत्रादिप्रेक्षाकारणगतानां पथिसमागतानां भिक्षणांया मर्यादा समाचारी सा इयं वक्ष्यमाणा भवति। तामेवाह - भिक्खुस्स मासियं खलु, पलिछण्णणं च सेसगाणं तु / चउलहुग अपलिछन्ने, तम्हा उवसंपया तेसिं॥ यौ द्वौ भिक्षू स्पर्द्धकपती तयोः शैक्षतरकेण रत्नाधिकस्य पुरतः आलोचयितव्यम्। तेनालोचिते पश्चात् रत्नाधिकेन शैक्षतरकस्य पुरत एवमकरणे भिक्षोः शैक्षरत्नाधिकस्य च प्रायश्चित्तं खलु मासिकं मासलघु “पलिच्छन्नाणं चेत्यादि” एतद्हुसंख्याविशिष्टस्य भिक्षुसूत्रस्य व्याख्यानम् / परिच्छन्नानां जघन्यतोऽप्यात्मतृतीयानां शेषकाणा चात्मद्वितीयानां यथोक्तविध्यकरणे प्रायश्चित्तं मासलघु / तत्र यद्ये कोऽपरिच्छन्नस्तर्हि तेनान्य आत्मद्वितीय आत्मतृतीयो वा उपसंपत्तव्यो नो चेदुपसंपद्यते तर्हि तस्मिन्नपरिच्छन्नेऽनुसंपद्यमाने प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तं चोपसंपद्यमानं यो नोपसंपदा प्रतीच्छति तस्य मासलघुयत एवंतस्मात्परस्परमुपसंपत्तेषां भवति कर्तव्या। एनामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतो मिक्खुस्स मासिय खल्वित्येत व्याख्यानयति। दो भिक्खु अगीयत्था, गीया एको व होज उ अगीतो। राइणियपलिच्छन्ने, पुव्वं इयरेसु लहु लहुगा // द्वौ भिक्षु अगीतार्थौ यदि वा द्वावपि गीतों यदिवा द्वावपि गीतागीतार्थी तयोः परस्परस्यालोचनमन्यथा प्रायश्चित्तं मासलघु / अथवा एको गीतार्थः तत्र रत्नाधिके परिच्छन्ने भावपरिच्छेदोपेते गीतार्थे इत्यर्थः पूर्वमालोचयितव्यं पश्चादितरेष्वगीतार्थेषु रत्नाधिकेन एवं चेत्ते न कुर्वते तर्हि रत्नाधिके प्रायश्चित्तं मासलघु। इतरेषां चत्वारो लघुकाः। एनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतो "दो भिक्खू अगीयत्था गीया" इत्येतद्विवृणोति / दोसु अगीयत्थेसुं,अहवा गीतेसु सेहतरो पुट्विं / जइ मा लायइ लहुओ, न विगडेइ परो वि जइ पच्छा!। द्वयोर्भिक्ष्योरगीतार्थयोरथवा गीतार्थयोर्मध्ये यदि शैक्षतरः पूर्व रत्नाधिकस्यपुरतो नाचलोयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं लधुको मासः। इतरोऽपि रत्नाधिकोऽपि यदिपश्चात्तस्य शैक्षतरस्य पुरतो न विकटयति तदा तस्यापि प्रायश्चित्तं मासलघु / तत्र यदि द्वावप्यगीतार्थी तदा परस्परस्यविहारालोचनैव केवला नापराधालोचनापि / अथ द्वावपि गीतार्थी तदा परस्पर -विहारालोचना अपराधालोचना च / अथैको गीतार्थोऽपरश्यागीतार्थस्तत्रालोचनाविधिमाह - राइणिए गीयत्थे, राइणिए चेव वियडणा पुटिव / देइ विहारवियडणं, पच्छारा णितो सेहे // यदि रत्नाधिको गीतार्थ इतरो ऽगीतार्थस्तर्हि गीतार्थे रत्ना Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1028 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया धिके सति रत्नाधिके एव पूर्व शैक्षतरेण विहार विकटना अपराध विकटना च दातव्या तत्पश्चात् रत्नाधिकः शैक्षे शैक्षतरकस्य विहारविकटनां ददाति। अथ शैक्षतरको गीतार्थो रत्नाधिकस्त्वगीतार्थस्तत्राह - सेहतरगे वि पुवं, गीयत्थे दिज्जए पगासणया। पच्छा गीयत्थो विहुददाति आलोयणमगीते।। यदि गीतार्थः शैक्षतरकस्तर्हि तस्मिन् गीतार्थे शैक्षतरकेऽपि पूर्व रत्नाधिकेन प्रकाशना विहारविकटना अपराधविकटना चेत्यर्थः दीयते पश्यात् गीतार्थोऽपि सन् स शैक्षतरको हु निश्चितमगीते रत्नाधिके आलोचनां विहारालोचनां ददाति न त्वपराधालोचनां कस्मादित्याह - अवराह विहारप्पगासणाउ, दोण्णि वि भवंति गीयत्थे। अवराहपये मुत्तुं, पगासणं होतु ऽगीयत्थे॥ अपराधप्रकाशना विहारप्रकाशना च एते द्वे अपि प्रकाशने भवतो गीतार्थे / अगीतार्थे पुनरपराधपदं मुक्त्वा शेषस्य विहारस्य प्रकाशनं भवति विहारालोचना भवति नापराधालोचनेति भावः / अगीतार्थतया तस्यापराधालोचनानर्हत्वात्। संप्रत्युपसंहारमाह - क्षिक्खुस्सेगस्स गयं, पलिछन्नाणं इयाणि वोच्छामि। दव्वपलिच्छाएणं,जहण्णेणं अप्पतझ्याणं / / "भिक्खुस्स मासियं खल्वि" त्यनेन पदेन यदेकस्य भिक्षोर्वक्तुमु-- पक्रान्तं तद्गतं परिसमाप्तमिदानी द्रव्यपरिच्छेदेन परिच्छन्नानां जघन्येनात्मतृतीयानां यद्वक्तव्यं तद्वक्ष्यामि। तदेवाह - तेसिंगीयत्थाणं, अगीतमिस्साण एस चेव विही। एत्तो सेसाणं पिय, वोच्छामि विहिं जहाकमसो।। तेषां परिच्छेदेन परिच्छन्नानां जघन्यत आत्मतृतीयानां बहूनां सर्वेषां गीतार्थानामथवा अगीतार्थानां यदि वा मिश्राणां केषांचिद्गीतार्थानां केषांचिदगीतार्थानामित्यर्थः / एष एवानन्तरो दिक्षुगत आचार्याणामालोचनाविषयो विधिरवसातव्यो व्यतिरेके च प्रायश्चित्तमपि तथैव / अत ऊर्द्ध शेषाणामपि विधिं यथाक्रमशो यथाक्रमेण वक्ष्यामि / तत्र शेषशब्दवाच्यानुपदर्शयतिसेसा ते भण्णं ती, अप्पवितिया उजे तहिं केई। गीयत्थमगीमत्थे, मीसे य विहिउ सो चेव।। शेषा नाम ते भण्यन्ते यत्र तेषां बहूनां भिक्षणांमध्ये के चिदात्मद्वितीयास्तस्मिन् शेष गीतार्थे अगीतार्थे मिश्रेचसएव पूक्तिोविधिरालोचनाविषयस्तद्व्यतिरेके प्रायश्चित्तविधिश्चावसातव्यः॥ संप्रतिचशब्दव्याख्यानमाह - संजोगा उचहद्देण, अहिगया जह एगो दो चेव। एगो जइन विदोण्डिं, उवगच्छे चउलहु तो से / / परिच्छन्नानां चेत्यत्र च शब्देन संयोगा अधिकृताः सूचिता इत्यर्थस्तानेवोपदर्शयति। तथा चेति भङ्गोपदर्शने एकतएको भिक्षुरपरतो द्वौ भिक्षु तत्रैकेनात्मद्वितीय उपसंपत्तव्यो यदि पुनरेको द्वावुपगच्छति उपसंपद्यते तदा (से) तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। पच्छा इतरे एगं,जइन उवगच्छे मासियं लहुयं / जत्थ वि एगो तिण्णि न उवगमे तत्थ वीलहुगा / / एकस्मिन्नुपसंपन्ने परचादितरावप्युपसंपद्येते यदि पुनरेकं तावितरौ पश्चान्नोपगच्छेतांतदा तयोर्मासिकं प्रायश्चित्तं लघुकं। यत्रापि भङ्गे एकत एकोऽपरत्र त्रयस्तत्र यदि पस्परमुक्तप्रकारेण नोपगमस्तदा प्रायश्चित्तं लघुकाः। किमुक्तं भवति / यद्येकस्त्रीन्नोपगच्छति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तंचेदुपगच्छन्तं पश्रचादितरे त्रयो नोपगच्छन्ति तर्हि तेषां प्रायश्चित्तं लघुको मासः // एमेव अप्पवीतो, अप्पतइयं तु जइन उवगच्छे। इयरेसि मासलहुयं, एवमगीए य गीए य॥ एवमेव अनेनैवान्तरोदितेन प्रकारेणात्मद्वितीय आत्मतृतीयं यदि नोपगच्छति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्लधु / इतरश्चेत्यनुपगच्छन्तं नोपगच्छेत्तदा तस्य मासिकं लघु इतरेषामेक आत्मतृतीयोऽपर आत्मचतुर्थ इत्येवमादीनां परस्परमनुपगमे प्रायश्चित्तं मासलघु। एवमुक्तप्रकारेणागीते अगीतार्थानां गीते गीतार्थानां च द्रष्टव्यम्। मिश्रानधिकृत्याह - मीसाण एगो गीतो, होति अगीया उदोहि तिण्णि विवा। एवं उवसंपळे, ते उ अगीया इहरमासे // मिश्राणां मध्ये एक एकाकी गीतोगीतार्थोऽपरे तु द्वौत्रयो वा भवन्त्यगीता अगीतार्थाः तत्र तेऽगीता एकमुपसंपोरन्। इतरथा चेन्नोपसंपद्यन्तेतर्हि तेषां प्रायश्चित्तं लघुको मासः। सो विय जइन वि इयरे, तस्स वि मासो उ एव सव्वत्थ। उपसंपया उतेसिं, भणिया अण्णोण्णनिस्साए। सोऽपि चैको यहितान् इतरानुपसंपद्यमानान्नोपसंपद्यतेतदातस्यापि प्रायश्चित्तं मासो लघु। एवमेक आत्मद्वितीयो गीतार्थोऽपर आत्मतृतीय आत्मचतुर्थ इत्यादौ सर्वत्र भावनीयमेवमन्योन्यनिश्र-याप्राक् द्वारगाथायां तेषामुपसंपद्धणिता उपदिष्टाअण्णोण्णनिस्सियाणं, अगीयाणं पि उग्गहो तेसिं। गीयपरिग्गहियाणं, इच्छाए तेसिमो होइ॥ अन्योन्यनिश्चितानां तेषामगीतानामपि गीतपरिगृहीतानामवग्रहो भवति। अवग्रहो नाम आभवनव्यवहारः सच द्विधा इच्छया सूत्रोक्तश्च / तत्रेच्छया तेषामयं वक्ष्यमाणो भवति तमेवाहइच्छियपडिच्छियाए,ण खेत्त वसहीयदोण्ह वी लाभो। इच्छं तो न होई उम्गहो, निकारणकारणे दोण्हं॥ इच्छाया अवग्रहो नाम इच्छितप्रतीच्छितेन इच्छा संजाताऽस्येति इच्छितंप्रतीच्छ संजाताअस्येति प्रतीच्छितम् इच्छितंचतत्प्रतीच्छितं च इच्छितप्रतीच्छितम्। वाचा आभवनव्यवहारस्थापना ! यथा यत्पथि लभ्यते तदस्माकं यत् ग्रामे तत् युष्माकं यदि वा यत्सचित्तं तदस्माकं यदचित्त तत्युष्माकम्। अथवा या स्त्री व्रतग्रहणार्थमुपतिष्ठति सा अस्माकं पुरुषो युष्माकम् यदा वालो युष्माकं वृद्धोऽस्माकम् अथवा यः सार्थन सह व्रजतां लाभः सोऽस्माकमसार्थे सुष्माकम् / यदि वा यो यल्लभते तत्तस्यैव एवं भूतेन इच्छितप्रतीच्छितेन य आभवनव्यवहारः स इच्छाया अवग्रहः। एष च प्रायः पथि गच्छतां भवति स्थानप्राप्तानां सूत्रोक्त आभवनव्यवहारस्ततस्तुमुपदर्शयति। समकालं क्षेत्रे प्राप्तानामक्षेत्रेवा वसति प्राप्तानांद्वयानामपिलाभः साधारणः। अथ नक्षेत्रमक्षेत्र वा वसतिसमकालं प्राप्ताः किंतु विषमकालं तत आह (इच्छंतोन होति इत्यादि) यदि निष्का Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया रणं स्थिता इति पश्चात्प्राप्तास्तदा नास्ति तेषामवग्रहः किं तु पूर्वप्राप्तानामेव / अथ कारणेन केनापि ग्लानप्रतिजागरणादिना स्थितास्ततः पश्चात् प्राप्तास्तर्हि भवति द्वयानामपि साधारणोऽवग्रहः। एतदेव स्पष्टतरमुपदर्शयति समअंपत्ताणं साहारणं तु दोण्हं पि होति तं खेत्तं / विसमं पत्ताणं पुण, इमा उ तहिं मग्गणा होइ॥ समकमेककालं प्राप्तानां द्वयानामपि तत् क्षेत्रं भवति साधारणं विषम विषमकालं प्राप्तानां पुनरियं तत्र क्षेत्रे मार्गणा भवति / तामेव कुर्वन्नाह - पडियरए व गिलाणं, सयं गिलाणो उरे व मंदगती। अप्पत्तस्स वि एएहि, उम्गहो दप्पतो नत्थि।। प्रतिचरति वा प्रतिजागर्त्तिग्लानं यदिवा स्वयं ग्लान आतुरो वा यदि वा स्वभावान्मन्दगतिरेतैः कारणैरप्राप्तस्यापि समकालं पश्चात्प्राप्तस्यावग्रहो भवति दर्पतो निष्कारणं स्थितानां पुनरव ग्रहो नास्ति। . एमेव गणावच्छेए, पलिच्छण्णाणं च सेसगाणं तु। पलिच्छने ववहारो, दुविहो वायंतिओ नाम / / यथा भिक्षोरेकस्य बहूनां परिच्छन्नानां शेषकाणां चोक्तमेवमेव अनेनैव प्रकारेण एकस्मिन् गणावच्छेदे बहूनां परिच्छन्नाना जघन्यतो ऽप्यात्मतृतीयानां शेषकाणां वशत आत्मद्वितीयानां तुशब्दादेकत एकोऽपरत आत्मद्वितीय इत्यादि संयोगगतानां च निरवशेषं वक्तव्यम्। तत्रपरिच्छन्ने जातावेकवचनं परिच्छन्नानामुपलक्षणमेतत्परमुपसंपन्नानां चाभवनव्यवहारो द्विधा भवति ! सूत्रोक्तो वागन्तिकश्च / वाचा अन्तः परिच्छेदो वागन्तस्तेन निर्वृत्तो वागन्तिकस्तत्र वागन्तिको नाम वक्ष्यमाणस्तमेवाह। पहि गामे चित्तमचित्तं, पुरिसंवा वालवुसत्थादी। इच्छाए वा देती, जो जं लाभे भवे वितितो॥ यत्पथिमार्गे लभ्यं तदस्माकं यत्ग्रामे तत्युष्माकम्।यदि वा यत्सचित्तं तत्युष्माकमचित्तमस्माकम्। अथवा स्त्री युष्माकं पुरुषोऽस्माकं। अथवा वृद्धो युष्माकं वालोऽस्माकम्। यदि वा (सत्थादी इति) सार्थे लभ्यं तत् युष्माकमसार्थेऽस्माकम् / अथवा इच्छया ददाति कथमित्याह यो यल्लभते तत्तस्य भवतिएष सूत्रोक्त आभवनव्यवहारः। द्वितीयो वागन्तिक आभवनव्यवहारः / क्षेत्रप्राप्तानामक्षेत्रे वा वसतिं प्राप्तानां यः सूत्रोक्त आभवनव्यवहारःस भिक्षूणामिव प्रतिपत्तव्यः सचाविशेषणार्थो यदिवा द्वावप्यगीतार्थपरिगृहीतौ गीतार्थनिश्रां प्रतिपन्नौ समकमेककालं प्राप्तौ ततस्तयोः साधारणं क्षेत्रमाभवति / सति विद्यमाने कार्ये ग्लाने प्रतिजागरणादिलक्षणे ये स्थिता अगीतार्था असमाप्ताश्चततः समाप्तानां साधारणं क्षेत्रम्।ये पुनरगीतार्था अपि च पूर्व प्राप्ता गीतार्थाः समाप्ताश्च निष्कारणं प्राक् स्थित्वा प्राप्तास्तदा असमाप्तानामप्यगीतार्थानाम् / अपि च तत्क्षेत्र पूर्व प्राप्तत्वान्न गीतार्थः समाप्तावपि च तस्य क्षेत्रस्य प्रभुर्निष्कारणं स्थित्वा पश्चात्प्राप्त-वान्॥ समपच्छकारणेणं,खेत्ते वसहीए दोण्हवी लाभो। एयणिए होति उग्गहो, गीयत्थसमम्मि दोण्हं पि॥ समं समकमेककालं करणेन पश्चाद्वा क्षेत्रे अक्षेत्रे वा वसतौ प्राप्तयोर्द्वयोरपि लाभः साधारगः / अत्र पुनर्यदि विशेषविवक्षा क्रियते तदायो रत्नाधिकस्तस्मिन्नवग्रहो भवति। यद्यपि नाम द्वयोरपिसाधारणो लाभस्तथापि यथा संघाटकेन भिक्षां हिण्डमानयो रत्नाधिकस्य लाभे / भण्यते एवमिहापि रत्नाधिकस्यावग्रहः / अथैको गीतार्थ परोऽगीतार्थस्तत्र यदि रत्नाधिकोऽगीतार्थो ऽवमरत्माधिको गीतार्थस्ततोऽवमरत्नाधिकस्यावग्रहः। अथद्वावपि समानार्थी तत आह। समे गीतार्थे परस्मिन्समकं च प्राप्ते द्वयोरपि साधारणोऽवग्रहः / तदेवं द्विसंख्याकगणावच्छे दकसूत्रमिति भावितमेवं द्विसंख्याकाचार्योपाध्यामपि भावनीयम्॥ इदानीं बहुत्वसूत्राणि पिण्डसूत्रं चातिदेशत आहएमेव बहूणं पि, पिंडे नवरोग्गहस्स उ विभागो। किं कतिविहो कस्स व कम्भिव, केवइयं वा भवे कालं / / एवमेव बहूनामपि भिक्षुप्रभृतीनां सूत्राणि भावनीयानि द्विकसूत्रापेक्षया बहुत्वसूत्राणामर्थतो नानात्वाभावात् पिण्डे पिण्डकसूत्रस्यापि स एवार्थो नवरमत्रावग्रहस्य विभागो वक्तव्यस्तमेवाह किं कतिविधः कस्य वा कस्मिन्वा कियन्तं कालं भवत्यक्ग्रहः / तत्र किमित्याद्यद्वारव्याख्यानार्थमाह - किं उग्गहोति भणिओ, उग्गहो तिविहो ए होति चित्तादी। एकेको पंचविहो, देविंदादी मुणेयव्वो॥ किमवग्रह इमि भणिते पृष्ट सूरिराह / त्रिविधो भवत्यवग्रहश्चित्तादिः सचित्तोऽचित्तो मिश्रश्च / पुनरेकैकः कतिविध इति प्रश्नमुपजीव्याह स एकैकः पञ्चविधः पञ्चप्रकारो ज्ञातव्यः / कोऽसावित्याह देवेन्द्रादिः देवेन्द्रावग्रहो राजावग्रहो माण्डलिकावग्रहः शय्यातरावग्रहः साधर्मिमकावग्रहश्च / गतं कतिविधद्वारम् / इदानीं कस्य न भवतीति प्रतिपादयतिकस्स पुण उग्गहोत्ति, परपासंडीण उग्गहो नत्थि। निण्हे सेत्ते संजति, अगीते गीत एक वा / / कस्य पुनरवग्रहो भवतीति शिष्यप्रश्रमाशङ्ख्य प्रोच्यते परपाखण्डिनामवहो नास्तियेच निहवा ये च सन्ना याश्च संयत्यो गीतार्थरपरिगृहीता ये चागीतार्था गीतार्थनिश्रामनुपपन्ना यश्च निष्कारणमेकाकी गीतार्थ एतेषां सर्वेषामप्यवग्रहो नास्ति। एतदेव सुव्यक्तमाह - असण्णाण बहूणं पि गीतमगीताण उग्गहो नत्थि। सच्छं दियगीयाणं, असमत्त अणीसगीए वि॥ अवसन्नानां बहूनामपि गीतार्थानामगीतार्थानां चावग्रहो नास्ति (सच्छंदियगीयाणत्ति) ये गीतार्था अपि स्वच्छन्दिकाः स्वच्छन्दतयैव एकाकिनो विहरन्ति तेषामपि नास्यवग्रहः। तथा ये असमाप्ता असमाप्तकल्पाः यस्य च समुदायस्य न विद्यते गीतोऽगीतार्थ ईशस्तेषामपि नास्त्यवग्रहः। एवं ता सावेक्खे, निरवेक्खाणं पिउग्गहो नत्थि। मुत्तूण अहालंदे, तत्थ विजे गच्छपडिबद्धा। एवं तावत्सापेक्षे जातावेकवचनं सापेक्षिणामुक्तसापेक्षाणामस्थविरकल्पिका निरपेक्षा जिनकल्पिकादयस्तेषामप्यवग्रहो नास्ति। किमविशेषेण सर्वेषां नेत्याह / भक्त्वा यथालन्दान् तथात्रापि गच्छप्रतिबद्धान् तेषामवग्रहो भवति गच्छप्रतिबद्धत्वा-दन्येषां तु सर्वेषामपि नास्ति। आसन्नतराजाणंति, संजया सो व जत्थ नित्थरइ। तहियं देंतुवदेसं, आयपरं ते न इच्छंति / / Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1030 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया तेषां गच्छनिर्गतानां जिनकल्पिकादीनां यो व्रतग्रणार्थमुपतिष्ठतितं तेन प्रवाजयन्ति तथाकल्पत्वात्किं तु ये तत्रासन्नतराः संयताः स्थितास्तत्रोपदेशं ददति यथा अमुकानां समीपे गत्वा प्रव्रजेति। अथवा जानन्ति श्रुतवलतो ये दूरे स्थितास्तत्र स एष निस्तरिष्यति। तदेतत् ज्ञात्वा यत्र स निरस्तरति तत्रोपदेशं प्रयच्छन्ति / परमार्थतः पुनस्ते आत्मपरमागच्छपरगच्छविभाग नेच्छन्ति स्थविरकल्पादुत्तीर्णत्वात्। अगीयसमणसंजइ-गीयत्थपरिग्गहाण खेत्तं तु। अपरिग्गहाण गुरुगा, न लभति सीसे त्थ आयरिओ॥ . अगीतानामगीतार्थनां श्रमणानां संयतीनां च गीतार्थपरिग्रहाणां गीतार्थपरिगृहीतानां क्षेत्रमवग्रहो भवति / इयमत्र भावना / ये गीतार्था अपि साधवो गीतार्थपरिगृहीता विहरन्ति वा अपि संयत्यो गीतार्थपरिगृहीता वर्तन्तेतेषामवग्रहो भवति तेच यदि साधवो यदि संयत्यो गीतार्थनिश्रामनुपपन्ना अगीतार्था विहरन्ति तदा तेषामपरिग्रहाणां गीतार्थपरिग्रहरहितानां विहरतां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका इत्येषां च संयतीनां च गीतार्थापरिगृहीतानां यः परिव्राजक आचार्यः सोऽत्र शिष्यान् स्वदीक्षितान न लभते परिगृहीततयैव तेषां वीक्षणात्। गीयत्थगते गुरुगा, असती एगणिए विगीयत्थो। समोसरणे नत्थि उग्गहो, वसहीए उमग्गण अखेत्ते।। / / ये ते स्वयं गीतार्था गीतार्थपरिग्रहरहिता वर्तन्ते यद्यन्यस्मिन् गीतार्थे आगते तस्योपसंपदंन प्रतिपद्यन्ते तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अथान्यो गीतार्थ उपसंपदना) नायातः कारणवशतश्च कथमप्येकाकी जातस्तस्य गीतार्थस्याशठस्य परिधाररहितत्वेनैकाकिनोऽपि क्षेत्रमाभवति। गतं कस्येति द्वारम्। इदानी कस्मिन्वेतिद्वारमधिकृत्याह। यत्र यावन्ति दिनानि संघस्य समवसरणं तत्र तावन्ति दिनान्यवग्रहो न भवति एवं जिनस्नानादिषु मिलितानां यावन्महिमा तावदवग्रहाभावः। एतत्सर्वं समवसरणे नास्त्यवग्रहः इत्यनेन सूचितमेवमक्षेत्रेऽवग्रहाभावः। अक्षेत्रेऽपि वसतौ मार्गणाऽवग्रहस्य भवंति सा चैवमक्षेत्रे वसतिषु समकं स्थितानां साधारणं पश्चादागतानां क्षेत्रंतुन भवति / सेसं सकोसजोयणं, पुय्वजहियं तु जेण तस्सेव / समगोग्गहसाहार, पच्छा गतो होइ उ अखेत्ति।। शेष क्षेत्रमवग्रहो भवति / तच्च प्रमाणतः सक्रोशयोजनं क्रोशसहित गव्यूतद्विकमित्यर्थः तत्रापि येन पूर्वमवगृहीतं तस्यैव तत्क्षेत्रमाभवति न शेषस्य। अथ समकमेव तस्यावग्रहः कृतस्तत आह साधारणं तदा तेषां क्षेत्रम्। यस्तु पश्चादागतः सभवत्यक्षेत्री न तस्याभवति क्षेत्रमिति भावः। अण्णो गतो कहंतो, उवसंपण्णे तहिं च ते सव्वे / संकंतो उव कहेंते, साहारणे तस्स जो भागो।। अन्यः कोऽप्याचार्यः कथयन् बहुश्रुतः पश्चादागतः ते च पूर्वस्थिताः सर्वेऽपि तस्मिन्नन्यागते कथयत्युपसंपन्नास्तदा तस्मिन् कथयति सोऽवग्रहः संक्रान्तस्तस्याभाव्यं तत्क्षेत्रं जातमिति भावः / अथ समकप्राप्ततया साधारणे क्षेत्र स्थितानां मध्ये एकः कश्चनापि तं पश्चादागतमन्यमाचार्य बहुश्रुतमुपसंपन्नास्तदा यस्यस्य भागस्तं तत्र कथयति संक्रान्तः। निक्खित्तगणाणं वा, तेसिं विय हारेइ तं तु खेत्तं तु खेत्तभया वा कोई, माइहाणेण सुण एवं // यदि क्षेत्रवतां शिष्य आगन्तुकमाचार्यमुपसंपन्नो यदिवाचार्यागणं शिष्य गीतार्थे निक्षिप्य तमुसंपन्नास्तदा तेषामेव निक्षिप्तगणानां वाशब्दादुपसंपन्नतदेकशिष्याणां तत्क्षेत्रम्। किमुक्तंभवति यद्यत्तत्क्षेत्रात्सचित्तादिकमुत्पद्यते तत्तेषामेवाभवति यत्रागन्तुको नलभते कोऽपि पुनर्ममागन्तुकस्य पार्श्वे शृण्वतः क्षेत्र यायादिति क्षेत्रभयादेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण मातृस्थानेन शृणोति। तमेव प्रकारमाहकुडेण चिलिमिलीए व, अंतरितो सुणइ कोइ माणेण / अहवा चंकमणीयं करेंतो पुच्छागमो तत्थ / / कुड्यन यदिवा चिलिमिलिन्या जवनिकान्तरितः सन् कोऽपि मानेन ममेदं सचित्तदिकमुत्पद्यते क्षेत्रमाभवति तन्मा इह तावदुत्तरत्विति क्षेत्रगर्वेण शृणोति / अथवा मानेनैव यथोक्तरूपेण चंक्रमणिकां कुर्वन् कोऽपि शृणोति तत्र यद्यपि स शृणोति तथापि तत्र पृच्छागमो भवति पृच्छा कर्त्तव्या भवति ततः पृच्छातोऽपि तस्य भवति क्षेत्रम्। अथ कतिभिः पृच्छाभिः कियन्तं कालं तस्याभवति क्षेत्रमित्याह।। पुच्छाहिं तिहिं दिवसं, सत्तहिं पुच्छाहिं मासियं हरइ। अहवा दिवससमत्तो, इमो उ ते हि अहिजते॥ तिसृभिःपृच्छाभिरेकं दिवसं यावत्तत्क्षेत्रं हरति पृच्छादिवसे यत्तस्मिन् क्षेत्रे सचित्तादिकमुत्पद्यते तत्कथयन्स लभते नेतरे इति भावः / सप्तभिः पृच्छाभिः पुनर्मासिकं पृच्छादिवसादारभ्य मासं यावत्सचित्तादिकमपहरतः तदेवं, "खेत्तभया वा कोई", इत्यादि गाथा पश्चार्द्ध व्याख्यातमिदानीं,"निक्खित्तगणाणं चेत्यादि", पूर्वार्द्ध व्याख्यानयति / अथवा यो वक्ष्यमाणोऽन्यविशेषस्तस्मिन्नधीयानेऽध्यापयितरि / तमेवाह। जति निक्खिऊण गणं, उवसंपाएह वा वि सीसं तु / ता तेसिं चिय खेत्तं, वाएंतो लाभ खेत्त बहिं / / यदि गीतार्थे गणं निक्षिप्य तमागन्तुकमुपसंपद्यते अथवा शिष्यं प्रेषयति तदा तेषामेव पूर्वस्थितानां तत्क्षेत्रमाभवति न तु वाचयतां वाचयति लाभस्तस्मात् क्षेत्राहिः। अह वेती वायंतो, लाभेण नत्थि हंति वच्चामो। इहरेहि य सो रुद्धो, मा वच्चसु अम्ह साहार।। अथ ब्रूते वाचयत यथा नोऽस्माकमिह नास्ति लाभ इति व्रजाम एवमुक्ते इतरैः पूर्वस्थितैः सरुद्धो यथाभाव्रजत यूयं युष्माकमस्माकं च साधारणं क्षेत्रमिति। अथ साधारणेऽपि क्षेत्र स्थिता न संस्तरन्ति तत्र विधिमाह - निग्गमणे चउभंगो, निट्ठियसुहदुक्खयं जति करेंति / निट्ठियपहावितो वारुद्धो पच्छा य वाघातो॥ अथसाधारण क्षेत्रे स्थितास्तेन संस्तरन्ति तर्हि निर्गन्तव्य तत्र निर्गमने चतुर्भङ्गी वक्तव्या / गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् तथा यस्य श्रुतस्कन्धस्य निमित्तमुपसंपन्नास्तन्निष्ठितं तस्मिन्निष्ठिते समाप्ते भूयः क्षेत्रं साधारणं जातं तत्र यदि भूयः सुखदुःखतां कुर्वन्ति सुखदुःखनिमित्तमुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते तथा निष्ठिते श्रुतस्कन्धे यः प्रधावितः पुनरपि प्रतच्छिकैः पञ्चात् रुद्धां व्याधातो वाऽशिवादिभिः कारणैरुपजातस्तत्र यदाभाव्यं तद्वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः द्वारगाथासमासार्थः / सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषु प्रथमतो निर्गमनचतुर्भङ्गी माह - Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1031- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया वत्थव्व नितिन उजे, पाहुण्णा ते न इयरे वा। उभयं व नोभयं वा, चउभयणा होति एवं तु / / यस्य ग्रामप्रधानस्य नगरप्रधानस्य वा नियोगेन तिष्ठन्ति साधवः स चतुर्की / तद्यथा आगन्तुकभद्रको नामैको न वास्तव्यभद्रकः / / 13 // वास्तव्यभद्रको नामैको नागन्तुकभद्रकः / 2 / आगन्तुकभद्रको वास्तव्यभद्रकश्च / 3 / नागन्तुकभद्रको नापि वास्तव्यभद्रकः / / / एतचतुर्भङ्गीवशादधिकृताऽपि चतुर्भङ्गी जाता तद्यथा प्रथमभङ्गवशात् वास्तव्या निर्गच्छन्ति न प्राघूर्णिका नियोक्तुरागन्तुकभद्रकत्वात्। द्वितीयभङ्ग वशात् प्राघूर्णिकाः निर्गच्छन्ति न इतरे द्वितीये भङ्गे नियोक्तुस्तिव्यभद्रकत्वाचतुर्थर्भङ्गवशात् उभयंप्राघूर्णिका वास्तव्याश्च निर्गच्छन्ति उभयानपि प्रति नियोक्तुरभद्रकत्वात्तृतीयभङ्गवशान्नोभयं वास्तव्याःप्राघूर्णिकाश्च निर्गच्छन्तिउभयानपि प्रति तस्य भद्रकत्वात्। एवममुना प्रकारेण चतुर्भजनाचतुर्भङ्गीभवति। तत्र प्रथमं भङ्गमधिकृत्य विशेषमाह। आगंतुयभद्दगम्मि, पुवट्ठिया गंतु जइ पुणो एज्जा। तम्मि अपुण्णे मासे, संकामति पुव्वसिं खेत्तं / / आगन्तुकभद्रके नियोक्तरि ये पूर्वस्थितास्ते वक्ष्यमाणचतुर्भागार्द्धभागगमनया यतनया गच्छन्ति। तथाऽप्यसंस्तरणे सर्वात्मना गच्छन्ति तेन गत्वा यद्यपूर्णे एव मासे तस्मिन् क्षेत्रे पुनरागच्छेयुस्तदानीं तेषां प्रत्यागतानां क्षेत्रं संक्रामति तेषां तदाभाव्यं भवतीति भावः। कारणतो गत्वा पुनरपूर्णे एव मासे प्रत्यागमनात् / अथ साधारणमुभयेषां तत्क्षेत्रमासीत्, मा वचसु अम्ह साहारमिति, व्यवस्थाकरणात्तदा तेषां पुनः प्रत्यागतानां साधारण्येन क्षेत्रं संक्रामति। द्वितीयं भङ्गमधिकृत्याह / / वत्थव्वभहगम्मि, संघाडगजयण तहविओ अर्लभो। आगंतुं / ति तओ, अस्थितियो पवायगो नवरं / / वास्तव्यभद्रके नियोक्तरि तेषामागन्तुकानामसंस्तरतामियं यतना। वास्तव्या आगन्तुकैः सममेकैकेन संघाटेन भिक्षां हिण्डन्ते अथ तथाप्यलाभस्तर्हि निर्गच्छन्ति। तत्रेयं भङ्गचतुष्टयेनयतना। आगन्तुकानां चतुर्भागो निर्गच्छतिन वास्तव्यानाम्।१।वास्तयानां चतुर्भागो निर्गच्छति नागन्तुकानाम्।। वास्तव्यानामापि चतुर्भाग आगन्तुकानां च चतुर्भागः / 3 / उभयेषामपिनचतुर्भागोगमने चतुर्थः।४।स चात्रशून्यो गमनमन्तरेण संस्तरणात् / एवमप्यसंस्तर-णेऽर्धाऽगमने यतना प्रथमभङ्गेऽपि द्रष्टव्या / स चात्रापि पूर्वप्रकारेण शून्यः। अथैवमपि न संस्तारन्ति ततः आगन्तुकाः सर्वे निर्गच्छन्ति नवरमेकः प्रवाचक स्तिष्ठति येन वास्तव्यान्प्रवाचयति / अथ सोऽप्यसंस्तरेण स्वशिष्यैः सह गतस्ते च वास्तव्यास्तमुपसंपन्ना यदि, “मा वच्चह साहारमिति, व्यवस्थाकरणत उभयेषां साधारणं तत्क्षेत्रं ततो यदि गत्वा पुनरपूर्णे एव मासे तत्र क्षेत्रे प्रत्यागच्छन्ति तदा कृतायामुपसंपदि तेषामेव प्रत्यागतानां क्षेत्रमाभाव्यतया साधारणेन। सांप्रतमनयोरेव भङ्गयोराभवनव्यवहारशेष उच्यते / अत्र पतितं, नियट्ठिसुहदुक्खयं जति करेंती, ति द्वारमस्य व्याख्यानामार्थमाह। सुहदुक्खितो समत्ते, वाएंतोनिग्गएस सीसेसु। व इतो विहता, निग्गयसीसो समत्तम्मि। इदमुक्तमागन्तुकाः सर्वेऽपि निर्गच्छन्ति केवलमेव प्रवाचकोऽवतिष्ठते तत्र यदि निर्गतेषु शिष्येषु वाचयन् प्रवाचकः समाप्ते श्रुते सुखदुःखितः सुखदुःखनिमित्तमुपसंपदं ग्राहितस्तथा तस्य वान्यस्याभवति तत् क्षेत्रम् / इदं द्वितीयभङ्गमधिकृत्योक्तम् / प्रथमभङ्गमधिकृत्याह / तथा वाच्यमानो निर्गतशिष्यः समाप्ते श्रुते वक्तव्यः किमुक्तं भवति यदि वाच्यमानो निर्गतेषु शिष्येषु वाचनाग्रहणाय पश्चात् स्थितः समाप्ते श्रुतस्कन्धे याचयता सुख-दुःखनिमित्तमात्मोपसंपदं ग्राहितस्तदा वाचयत आमवति क्षेत्रम्॥ दोण्ह वि विणिग्गएK, वाएंतो तत्थ खेत्तितो होइ। तम्मि सुए असमत्ते, समत्ते तस्सेव संकम्मति॥ तद्वयोरपि शिष्येषु विनिर्गतेषुतावेव द्वौ केवलौ तिष्ठतस्तत्र यावदद्यापि तत्श्रुतंन समाप्यतेतावत्तस्मिन् श्रुते असमाप्तेतत्र तयोर्द्वयोर्मध्येवाचयन् क्षेत्रिको भवति समाप्ते पुनः श्रुतस्यैव पूर्वस्थितस्य तत्क्षेत्रं संक्रामति। अथद्वावपि परस्परं सुखदुःखोपसंपदं प्रतिपन्नौ तदा साधारणं क्षेत्रमिति यो यल्लभते तस्य तदाभवतीति। संथरे दो विननिति, बहवे उववाइया उजइसीसा। लाभो नत्थि महत्ति य, अहव समत्ते पधाविजा।। संस्तरे संस्तरणाद्वयेऽपि पूर्वास्थिता आगन्तुकाश्च न निर्गच्छन्ति। तैश्च पूर्वस्थितैर्यदि बहवः शिष्या उपपादिता उत्पादितास्तदा स आगन्तुको नास्ति मम लाभ इति विचिन्त्य प्रधावेत् गच्छेत् अथ ते निक्षिप्तगणास्तस्य समीपे वाचयन्ति तेषां शिष्यो वा तत आह / अथवा समाप्ते श्रुते प्रधावेत् संप्रति, निट्टियपहाविओवा रुद्धो पच्छा य वाधातो, इत्येतद् व्याख्यानयति॥ जइ वायगो समत्तो, निति उ पडिच्छिएहि रंधेजा / असिवादिकारणे वा, तत्तो लाभो इमो होइ॥ यदि समाप्ते श्रुते ततः क्षेत्रात्वाचको निर्गच्छन् प्रतीच्छिकैरुच्यते यथा मा निर्गच्छत यूयं वयमद्यापि वाचयिष्याम इति / यदि वा निर्गतो बहिरशिवादीनि कारणान्युपस्थितानि ततो व्याघात इति कृत्वा न निर्गच्छति तदा तस्मिन्प्रतिच्छिकैरवरोधनात् पश्चाद् व्याघाताद्वा अनिर्गच्छति तस्यायमायो लाभो भवति। तमेवाह -- आयसमुत्थं लाभ, सीसपडिच्छएहिं सोलहइ। एवं च्छिण्णुववाए, अच्छिण्णे सीसागते दोण्हं।। स प्रातीच्छिकैर्गच्छन्नपरुद्धः सन् यच तस्य शिष्या यच तस्य प्रतीच्छिका वा लभन्ते तत्सर्वमात्मसमुत्थं शिष्यप्रातीच्छिकैर्वा समुत्पादितं लभते एवमाभवनं छिन्ने समाप्ते उपपाते हेतौ श्रुतस्कन्धादौ श्रुतेद्रष्टव्यम्।अच्छिने असमाप्ते श्रुतस्कन्धादौयदितस्य पठतआचार्यस्य शिष्या ग्रामान्तरगताः प्रत्यागताः तस्य च शिष्यो नियमात् गीतार्थों यस्य गण आरोपितस्तदा द्वयोरपि लाभः साधारणो गीतार्थे शिष्ये निक्षिप्तगणतया पठतोऽप्याचार्यस्य पाठयिता गच्छन्तेन प्रतिरुद्ध इति पाठयितुरप्याभवनात्।। एवं ता उउबद्धे, वासासु इमो विही हवति तत्थ। खेत्तपडिलेहगा उ, पयट्ठिया तेण अन्नत्थ।। एवं तावत् ऋतुबद्धे काले आभवनव्यवहारविधिरुक्तो वर्षासु वर्षाकाले पुनरयं वक्ष्यमाणो विधिर्भवति तमेवाह (तत्थेत्यादि) Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1032 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया द्वयोराचार्ययोः ऋतुबद्धे काले साधारणक्षेत्रस्थितयोरेकोऽपर-स्यैकस्य पार्श्वे उपसंपदं गृहीतवान् वर्षारात्रश्च प्रत्यासन्नीभूतोऽन्यानिच क्षेत्राणि वर्षावासयोग्यानि तादृशानि प्रत्यासन्नानि न सन्ति ततः स उपसंपन्न आचार्यस्तत्रेति तस्मिन्नेव आषाढमासिके क्षेत्रे वर्षावासं स्थितस्तेन वाचनाचार्येणाऽन्यत्र वर्षावासयोग्यस्य क्षेत्रस्य प्रतिलेखकाः प्रवर्तन्ते तांश्च प्रवर्तयन्निदमवादीत्। जा तुज्झे पेहेहा, तावेतेसिं इमं तु सारेमि। तं च समं तेसिंदा वासं च पबद्ध मालग्गं / / यावत् यूयं क्षेत्रं प्रत्युपेक्ष्य समागच्छथ तावदेतेषामाचार्याणामिदं श्रुतस्कन्धादिकंसारयामि सूत्रतोऽर्थतश्चगमयामि तच्च श्रुतस्कन्धादिकं तेषां तथा अधीयानानां समाप्तमेत व्यवच्छि-नमित्युच्यते।अत्रान्तरेच वर्ष प्रबन्धेनपतितुमालतेऽपिच क्षेत्रे प्रत्युपेक्षकास्तत्रैववर्षेण निरुद्धाः / निगंतूण न तीरइ, चउमासे तत्थ अत्तगत्ते। लाभे वोच्छिण्णेवं, कुव्वति गिलाणगस्स वि य॥ यतः प्रबन्धेन वर्ष पतितुमारब्धंनच क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः समागच्छन्ततः समाप्तेऽपि श्रुते सवाचनाचार्यस्ततः क्षेत्रान्निर्गन्तुन शक्नोति। अनिर्गश्च तस्मिन् क्षेत्रे चतुरो वर्षारात्रमासान्यावदात्मगतमात्मसमुत्थं लाभं भवेत् द्वितीयोऽप्यात्मसमुत्थस्य लाभस्य स्वामी। एवं कुर्वतिव्यवच्छिन्ने समाते श्रुते अथवा, "गिलाणगस्स वि य इति", समाप्ते श्रुते वाचनाचार्यों ग्लानोऽभवत्ततो गन्तुमशक्तस्यापि च ग्लानस्यैवाभवनव्यवहारो द्रष्टव्यः ।उभयोरपि चतुरो वर्षावासानात्मसमुत्थो लाभ इत्यर्थः। अह पुण अत्थिमे सुए, ते आया वेति मा य तुभं तु / अहो खेत्तं दोमा, साहारणम्मि एसिं तु॥ अथ तत् श्रुतस्कन्धा दिकमद्यापि न समाप्तं ते च क्षेलप्रत्युपेक्षका आयातास्ततो वाचनाचार्या आपृच्छन्ति वयं निर्गच्छामः / तत इमे प्रतीच्छका आचार्य ब्रुवते मा यूयं निर्गच्छत समाप्तेऽपि श्रुते युष्माकं वयं क्षेत्रं दास्यामः / एवमुक्ते तत् क्षेत्रमेतेषां द्वयानामपि साधारणं भवति। एष संस्तरणे विधिः। असंस्तरणमधिकृत्याहअसंथरण निंत अनिते, चउभंगो होइ तत्थ वि तहेव।। एवं तो खेत्तेसुं, इणमन्ना मग्गणविहादी। असंस्तरणे साधुषु निर्गच्छत्सु अनिर्गच्छत्सु चतुर्भङ्गी भवति। सा चैवं वास्तव्यानां चतुर्भङ्गादिना प्रकारेण साधवो निर्गच्छन्ति न वाचनाचार्याणामिति प्रथमः / वाचनाचार्याणां नेतरेषामिति द्वितीयः / उभयेषामिति तृतीयः। नोभयेषामिति चतुर्थः। तत्रापि चतुर्भङ्ग-यामपि तथैवाभवेत् व्यवहारः द्वयानामप्यात्मसमुत्थो लाभ इति भावस्तृतीयभड्ने यो कतर एकतरस्य पार्श्वे साध्वभावत उपसंपद्यते तत उपसंपद्यमानलाभ इतरस्मिन्संक्रामति / अनुपसंपत्तौ च द्वयोरपि साधारणं क्षेत्रम् / एवं तावत् क्षेत्रे मार्गणा कृता / अथायमन्यो मार्गणविधिरादिशब्दात् दिग्वारणपरिग्रहः / गाथायां च स्त्रीत्वनिर्देश: प्राकृत्वात्तमेव मार्गणाविध्याहिकमाह - अद्धाणादिसु नट्ठा, अणुवष्टिया तहा उवट्ठविया। अगविट्ठाय गविट्ठा, निप्पण्णा धारणं दिसासु // अध्वा मार्ग आदिशब्दादशिवमौदर्यादिनिमित्तनिर्गमनपरिग्रहस्तेष्वध्वादिषु मष्टाः साधवस्ते च द्विधा उपस्थापिता अनुपस्थापिताश्च एकैके द्विधा आचार्यस्यते तेन गवेषिता अगवेषिताश्च तत्र ये निप्पन्ना उपस्थिपितास्ते निष्पन्ना एव न तेषां दिग्यारणं कर्त्तव्यमितरेषां यथा भवनं धारणं दिक्षु अध्वादिषु नष्ट इत्युक्तम्। तत्र यैः कारणैस्ते नष्टाः साधवस्तान्यभिधित्सुराहसंभम महंत सत्थे, भिक्खायरिया गया व ते नट्ठा। सिग्धगती परिरएण व, आउरतेणादिये मुंच। संभ्रमोवनदवाग्निसंभ्रमादिकस्तदशात् गच्छास्फिटिता यदि वा महति सार्थे व्रजता कोऽपि कुत्रापीति गच्छादपगतो यदि वा भिक्षाचर्या निमित्तं सार्थादपसृत्य व्रजिकापल्ल्यादिषु गतास्ततो नष्टाः अथवा सार्थः शीघ्रगतिस्ते च मन्दगतयस्ततः / सात् गच्छात् परिभ्रष्टाः (परिरएणवत्ति) यदि वा नद्यादिषु तरितव्यासु सार्थ ऋजुमार्गेणोत्तीर्ण इतरे साधवः परिरयेण गत्वा स्तोकपानीये समुत्तरन्ति चिन्तयन्ति च वयं सार्थे झटित्येव मिलिष्यामस्तेच तथा परिरयेण गच्छतःसार्थातस्फिटिता अथवा आतुराः प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्यां जितास्ते तथा आतुराः सन्तोऽशक्नुवन्तः सार्थात्परिभ्रष्टा स्तेनाश्चौरा आदिशब्दात्परचक्रादि परिग्रहस्तेषुस्तेनादिषु समापतत्सु भयेन पलायमाना गच्छादवस्फिटिता एवमध्वादिषु साधवो नष्टा भवन्ति। अत्र मार्गणाविधिं दिग्धारणविधिं चाह। गवे सऊमा व कयव्वया जे, सव्वे व तेसिं तु दिसा पुरिल्ला। गेवेसमाणो लभतेऽणुवढे, अणादिया संगहिया उ जेणं / / ये कृतव्रता उपस्थापिता इत्यर्थस्तान्प्रव्राजनाचार्यो गवेषयतुवा मा वा तथापि तेषां सैव दिक् पुरातनी यां प्रव्राजनाचार्योऽशठभावेन गवेषयति नचलभते तथापितान् सुचिरेणापि कालेन लब्धान् स एव प्रव्राजनाचार्यो लभते (अणादिया संगहिया उ जेणमिति) ये पुनरनादृता अनादरपरेण गवेषितास्ते येन संगृहीतास्तस्यैव ते शिष्या इति स तेषामात्मीयां दिशं धारयति / अयमेव वृद्धोऽर्थोऽन्येनाचार्येण श्लोकेन बद्धस्तमेव श्लोकमाह - गवेसिए पुटवदिसा, अगविट्ठए उ पच्छिमा। अणुवट्ठविए एवं, अभिधारते उ इणमन्ना।। अनुपस्थापिते नष्टशिष्ये शिष्यवर्गे वा प्रव्राजनाचार्येण गवेषिते पूर्वदिक् प्रव्राजना दिग्भवति / अगवेषिते पश्चिमा दिक् येन संगृहीतास्तस्य दिग्भवतीत्यर्थः / एवमनुपस्थापिते मार्गणा भवति / यः पुनरन्य क्षेत्रगतानाचार्यानभिधारयन्द्रजति तत्रेयमन्या मार्गणा / तामेवाह। अभिधारतो वचति, वत्त अवत्तो व वत्त एगागी। जंलभति खेत्तवजं, अमिधारिखंति तं सव्वे / / यस्य क्षेत्रगतानाचार्यान् अभिधारयन् व्रजति व्यक्तोऽव्यक्तोवा गीतार्थोऽगीतार्थो वा इत्यर्थः। तत्र व्यक्त एकाकी व्रजन्यल्लभते तत्सर्व क्षेत्रवर्ज क्षेत्रमेकाकिनो न भवतीति तत्प्रतिषेधः कृतः / अभिधार्यमाणे यस्य समीपे गन्तव्यं तस्मिन् भवति तदभिधारणस्थितेन तस्य लाभात्।। अव्वत्तेससहाए, परखेत्त वजओ लाभो दोण्हं पि। सव्वो सोमग्गिल्ले,जाव न निक्खिप्पए तत्थ / / अथाध्यक्तः ससहायस्तमभिधारयन् व्रजति तर्हि तस्मिन् अव्यक्ते ससहाये व्रजति यः परक्षेत्रव| यस्मिन् क्षेत्रे ते अभिसंधार्यमाणा आचार्या वर्तन्ते तत्क्षेत्रवर्जस्तत्किल क्षेत्रं तेषामभिधार्यमाणाना माभाव्यमिति तत्प्रतिषेधः। यो द्वयोरपि लाभो Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1033 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया व्यक्तस्य सहायानांच लाभ इत्यर्थः। यसर्वः पूर्वस्याचार्यस्याभवति सच तावद्यावत्तत्र न निक्षिप्यते। निक्खित्तनियत्ताणं खेत्ते लाभो य होति वाएंतो। तस्स विय जान नीति, लाभो सोवी पवाएंतो।। तमव्यक्तं तत्र निक्षिप्तं कृत्वा ये निवृत्ताः सहायास्तेषां क्षेत्रस्य पञ्चगव्यूतप्रमाणस्यान्तर्मध्ये यो लाभो भवतियवाचयत्याभवति तत्क्षेत्रे तस्य लाभस्य भावात् तस्यापि च निक्षिप्तस्य यावन्न निर्गच्छति तावद्यः कश्चनापि लाभः सोऽपि प्रवाचयति भवति। संप्रति यस्तत्र क्षेत्रस्थितः सन् गणं निक्षिप्योप संपन्नस्तस्य यत्सर्वं न भणितं तदिदानी सिंहावलोकन्यायेनाह अहवा आयरिओ वि, निक्खेत्तगणागतो उ आउत्थे। वाएंतो देइ लाभ,जं खेत्तातो न ईसो ति॥ अथवेति प्रकारान्तरे तच प्रकारान्तरमिदं पूर्व शिष्यस्यव्यक्ताव्यक्तस्य चोक्तमिदानीमाचार्यस्य तत्क्षेत्रगतस्योच्यते आचार्योऽपि क्वचित् गीतार्थे शिष्ये निक्षिप्तगणो भूत्वा तत्रागतस्तत्रोपसंपन्नः सन् यत्स्वयं लभते तमात्मोत्थं लाभं वाचयति / तथा अथ तेन गणः स्वशिष्ये निक्षिप्तस्ततः स क्षेत्रस्याप्रचुरे वेति कुतस्तस्यात्मसमुत्थो लाभस्तत आह / यत् यस्मात्स क्षेत्रिकः क्षेत्रस्य प्रभुरासीत्तस्मान्न शक्यते वक्तुं तस्मिन् क्षेत्रे आत्मसमुत्थस्यलाभस्यन ईशः प्रभुरिति तदेव मुक्तो विधिः संयतानाम्। अधुना संयतीनां विधिमतिदेशत आहअरव्म सूत्ता सरमाणगन्ते, जा पिंडसुत्तं इणमंतिमन्तं / एमेव वचो खलु संजतीणं, वोच्छिन्नमीसेसु अयं विसेसो॥ | सरमाणकान्, आयरियउवज्झाए सरमाणे, इत्येवं रूपान्सूत्रादारभ्य यावदिदमन्तिमं पिण्डसूत्रमेतेषु सूत्रेषु यथा संयतानां विधिरुक्त एवमेव खलु संयतीनामपि गीतार्थपरिगृहीतानां वाच्यः। केवलं व्यवच्छिन्ने मिश्रे वाऽयं वक्ष्यमाणो विशेषस्तमेवाहवोच्छिण्णे उ उवरए, गुरुम्मिगीयाण उग्गहो तासिं। दोण्ह बहूणं च पिंडए, कुलिप्वमन्नं जयभिधारे। व्यवच्छिन्नो नामतासां गुरुरुपरतः कालंगत इत्यर्थः तस्मिन्गुरावुपरते यदि (कुलिव्वमन्नंति) कुलसत्कमन्यमाचार्यमभिधारयन्ति ततस्तासां द्वयोर्बहूनां वा पिण्डकेन समुदायेन स्थितानां गीतार्थानां संयतीनां पिण्डकेन व्यवस्थितानामपि नावग्रहः। मीसो उभयगणाव-च्छेओ तत्थसमणीण जो लाभो। सो खलु गणिणो नियमा, पुटवट्ठिया जाव तत्थ पणे // मिश्रो नाम उभयगणावच्छेदकस्तत्र उभयगणावच्छेदके सति यः श्रमणीनां संयतीनां लाभः स खलु नियमात् ये पूर्वस्थितास्तत्र गणिनो यावदन्येन गच्छन्ति तावत्तस्य गणिनो वेदितव्यः सोऽन्येष्याचार्येष्वागतेषु तेषामिति तदेवं कस्येति द्वारम्। ___ संप्रति कियन्तं कालमवग्रह इति द्वारव्याख्यानार्थमाह। केयति काल उग्गहो, तिविहो उउवङ्गवासखुड्के य। मासचउमासवासे, गेलण्णे सोलसुक्कोसा / / कियन्तं कालमवग्रह इति शिष्येण प्रश्ने कृते सुरिराह / त्रिविधो भवति अवग्रहस्तद्यथा ऋतुबद्ध वर्षाकाले वृद्धवासे च। तत्रऋतुबद्धेकाले उत्सर्गत एकं मासमवग्रहो वर्षे वर्षाकाले चतुरोमासान्ग्लानत्वमधिकृत्योकर्षतः | षोडश मासान् अन्ये तु षोडश वर्षाणित्याहुः / व्य०४ उ०। (अत्र वृद्धावासमधिकृत्य यद्वक्त व्यं तद् वुड्डावासशब्दे वक्ष्यते) (पार्श्वस्थविहारप्रतिमा प्रतिपद्य पुनरुपसंपद्येतेतिपासत्थशब्दे वक्ष्यामि) अथात्रापि किञ्चिद् वक्ष्यामि तत्र। (6) पार्श्वस्थादिविहारप्रतिमासुपसंपद्य विहारे विधिमाह(सूत्रम) भिक्खू अ गणाओ अवक्कम्म परपासंडपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहारिजा से य इच्छेज्जा दोचं पि तमेव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए नत्थिणं तस्स तप्पइयं कइच्छेदे वा परिहारे वानन्नत्थ एगाए आलोयणाए।३१।। अथास्य सूत्रस्यकः संबन्ध इत्यत आहदोसेण अवक्रता, सवेणं चेव भावलिंगाओ। इति समुदिया उसुत्ता, इणमन्नं देवतोवि गतो॥ द्रव्यलिङ्गमधिकृत्य देशनोपक्रांता भावनिङ्गतो भावलिङ्गमधिकृत्य सर्वेण सर्वात्मनाऽपक्रान्ताः पार्श्वस्थादय इति। एवमर्थान्यन्तर-सूत्राणि समुदितानि सम्यक्प्रतिपादितानि इदानीमधिकृत्तमन्यत्सूत्रं द्रव्यलिङ्गेन विगते वियुक्ते द्रव्यलिङ्गवियुक्तविषयमिति भावः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / भिक्षुः प्रागुक्तशब्दोऽनुक्तसमुचयार्थः / स चैतत् समुच्चिनोति रागद्वेषादिना कारणेन गणादपक्रम्य निर्गत्य परपाखण्डप्रतिमां परपाषण्डलिङ्गमुपसंपद्य विहरेत् विहृत्य च कारणे समाप्ते द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपपद्य विहर्तुमिच्छेत् तस्य तथोपसंपद्यमानस्य नास्ति कश्चिच्छेदो वा परिहारोवा। उपलक्षणमेतत् अन्यदपि प्रायश्चित्तं न किमप्यस्ति / कारणतः परलिङ्ग प्रतिपत्तेः प्रतिपत्तावपि सम्यग्यतनाकरणात्किं सर्वथा न किमपि नेत्याह नान्यत्र एकाया आलोचननिकायाः अन्यत्र शब्दपरिवर्जनार्थो भीमार्जुनाभ्यामन्यत्र सर्वे योद्धार इत्यादिवत्ततोऽयमर्थ एकामालोचनां मुक्तवा पुनर्भवत्येवेति भावः / एष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः - कंदप्पे परलिंगे, मूलं गुरुगा य गरुलपक्खम्मि। सुत्तं तु मिचगादी, कालक्खेवोवगमणं वा // यदि कन्दर्प कन्दर्पभूत आहारगृढ्यादिकरणलक्षणतः परलिङ्ग करोति ततस्तस्मिन्परलिङ्गे कृते तस्य प्रायश्चित्तं मूलम् ।अथ गुरुडपाक्षिकं गरुडादिरुपं परलिङ्गं करोति तदा चत्वारो गुरुकाः। इत्यादिसूचनार्थः / अत्र पर आह / ननु सूत्रनिर्युक्त्योरनुपपतिः / तथा हि सूत्रेण परलिङ्गकरणमनुज्ञातं प्रायश्चित्तादानात् नियुक्तिकृता तु वारितं प्रायश्चित्तप्रदानात् / नैष दोषोऽभिप्रायापरिज्ञानात् / नियुक्तिकृता हि कन्दर्पतः करणे प्रायश्चित्तमुक्तं सूत्रं पुनः कथमपि राज्ञि प्रद्विष्ट च यावत्सार्थो न लभ्यते तावत्कालक्षेपः क्रियतामिति। वा हेतौ वाशब्दो न केवलं विकल्पार्थोऽनुक्तसमुच्चयार्थश्च स चैतत्समुचिनोति न शक्यते सहसा विषयपरित्यागं कर्तुमिति यावत्प्रज्ञापना क्रियते (गमनं वेति) गमनं वा अशिवादिकारणतोऽनार्यदेशमध्येन समुपस्थितं ततः एतैः कारणैर्यस्य राज्ञो ये पूज्या भिक्षुकादयः / भिक्षुकाः शौद्धोदनीया आदिशब्दात्परिव्राजकपण्डरागादिपरिग्रहः। तल्लिङ्गं गृह्णीयादित्येतद्विषयमतो न कश्चिद्घोषः / एनामेव गाथा भाष्यकृद् व्याख्यानयति-- खंधे दुवार संजइ, गरुडद्धंसे य पट्टलिंगदुवे / लहुओ अलहुओ लहुया तिसु चउगुरुदोसु मूलं तु॥ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1034 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया इह पूर्वार्दोत्तरार्द्धपादानां यथासंख्येनयोजनाचैवं यदि कन्दर्पतो वस्त्रं गृहस्थ इव स्कन्धे करोति तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासो (दुवारेत्ति) गोपुच्छिकं करोति तदाऽपि लघुको मासः। संयती- प्रावरणकरणे चत्वारो लघुमासाः। गरुडादिपरलिङ्गकरणे चत्वारो गुरुकाः (अद्धं सेत्ति) स्कन्धे दिगम्बर वद्यदि वस्त्रस्य करोति तदापि चत्वारो गुरुकाः (पट्टत्ति) यदि गृहस्थ इव कटिपट्टकं बध्नाति तदापि चत्वारो गुरुकाः (लिंगदुवे इति) लिङ्ग द्विकं गृहिलिङ्गं परपाखण्डिलिङ्गं च तस्मिन् गृहिलिङ्गे परपाखण्डिलिङ्गे च कन्दर्पतः परिगृह्यमाणे प्रत्येकं प्रायश्चित्तं मूलम्। संप्रति, कालक्खेवो व गमण वा, इत्येतद्व्याख्यानार्थमाहअसिवादिकरणेहिं, रायदुट्टे व होज परलिंगं। कालक्खेवनिमित्तं, पण्णवणट्ठा व गमणट्ठा।। अशिवं देवताकृत उपद्रवः आदिशब्दादवमौदर्यादिपरिग्रहः तेषु अशिवादिकारणेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्तथा द्वेषणं दिष्टं राज्ञो द्विष्टं राजद्विष्टं राजद्वेष इत्यर्थः / तस्मिन्वासति परलिङ्गं ग्राह्य भवति / किमर्थमिति चेदम् आह / कालेत्यादि। यावत्सार्थो न लभ्यते तावत्स खलु परलिङ्ग ग्रहणेन कालक्षेपः क्रियतामित्येवं कालक्षेपनिमित्तमथवा न शक्यः खलु सहसा विषयः परित्यक्तुमिति यावद्राज्ञः प्रज्ञापना क्रियते तावद् गृह्यतां परलिङ्ग मिति प्रज्ञापनार्थ यदि अशिवादिकारणेषु समुपस्थितेष्वनार्यदेशमध्ये गमनमुपजातं तच्चानार्यदेशमध्ये गमनं न परलिङ्गग्रहणमृते शक्यते कर्तुमिति गमनार्थ वा परलिङ्गग्रहणम्। अथ कस्य परलिङ्ग ग्राह्यमित्याशक्य भिक्षुगादि इत्येतद्व्याख्यानयति। जं जस्स अचियं तस्स, पूयणिजं तमस्सिया लिंग। खीरादिलद्धिजुत्ता, गमंतितं छन्नसामत्था॥ यत् भिक्षुकादिगतंलिङ्ग यस्य राज्ञोऽर्चितं भावेक्तप्रत्ययो मान्य इत्यर्थः / तत्रार्चितमपि नावश्यं कस्याप्यनतिक्रमणीयं भवति / ततोऽनतिक्रमणीयताप्रतिपादनार्थमाह तस्य राज्ञो यत्पूजनीयमन-तिक्रमणीयं तल्लिङ्गमाश्रितास्तल्लिङ्गं प्रतिपन्नाः छन्नसामाः परलिङ्गग्रहणेनाच्छादितस्वरूपाः तं राजानंगमयन्तिाकीदृशा उपशमयन्तीत्यत आह। क्षीरादिलब्धियुक्ताः क्षीराश्रवलब्धिसंपन्नाः आदिशब्दाद्विद्यामन्त्रयोगादि वशीकरणकुशलतायाः परिग्रहः। कलासु सव्वासु सवित्थरासु, आगाढपण्णेसुय संथवेस। जो जत्थसत्तो तमणुंपविस्से, अव्वाहओ तस्स सएव पंथो / / कला द्वासप्ततिसंख्या लोकप्रसिद्धास्तासु कलासु सर्वास्वपि सविस्तारासु आगाढप्रश्रेषु वाऽत्यन्तदुर्भेदप्रश्रेषु परिचयेषुसत्सुयो राजा यत्र कलादिविशेषे सक्त आसक्तो भवति / किमुक्तं भवति तस्य राज्ञो यस्मिन् कलादिविशेषे अत्यन्तमभिष्वङ्गो भवति तमनुप्रवेशयेयुस्तं सम्यग् ज्ञात्वा राज्ञः पुरतः प्रवेदयेयुः प्रवेदयन्तश्च राजानमुपशमयन्ति / यत एष तस्य राज्ञ उपशमने अव्याहतः स्वपराविरोधी पन्था मार्ग उपाय इत्यर्थः। तत्र यदीत्थमुपशान्तो भवति तदा समीचीनमथनोपशान्तस्तत एव कलादिविशेषं तावत्प्ररूपयन्ति यावत्सार्थो लभ्यते। सार्थे च लब्धे निर्गच्छन्ति। तथा चाहअणुवसमंते निग्गमो, लिंगविवेगेण होइ आगाढे। देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी कुलिंगेण / / अनुपशमयति राज्ञि उपशमं कुर्विति निवेद्य निर्गमो भवति / कथमित्याह / लिङ्गविवेकेन लिङ्गपरित्यागेन गृहस्थलिनेनेत्यर्थः। अथ तथापि न मुञ्चति गाढकोपावेशात् (आगढत्ति) अत्यन्त प्रकोपते गाढममोक्षणे भिक्षुकादिलिङ्गेन देशान्तर संक्रमणं कर्त्तव्यम् / अशिवादी वा कारणे समुपस्थिते देशान्तरगमनं किल कर्तव्यम्। तत्र येन यथा गन्तव्यं स कीदृश इत्याह। आयरिया संकमणे, परिहरंति दिट्ठम्मि जाय पडिवत्ती। असतीए पविसणं, खुभियम्मि गिहयम्मि जा जयणा।। आर्येण देशेन संक्रमणं तस्मिन्स्वलिङ्गेन गन्तव्यमिति वाक्य शेषः आर्यसंक्रमग्रहणतो भङ्गचतुष्टयं सूचितं तद्यथा आर्यदेशे आर्यदेशमध्येन गमनमित्येको भङ्गः आर्यदेशे अनार्यदेशमध्येनेति द्वितीयः। अनार्यदेशे आर्यदेशमध्येनेति तृतीयः। अनार्यदेशे अनार्यदेशेमध्येनेति चतुर्थः। तत्र प्रथमभङ्गे अर्द्धषविंशतिजनपद मध्ये, द्वितीयभने देशे मालवनामकम्लेच्छदेशमध्येन, तृतीय भङ्गे यथा कुडुक्कविषये आनार्यविषये आर्यविषयमध्येन, चतुर्थ भने पारसीकदेशे अनार्यदेशमध्येन / इह प्रथमभङ्गे ऽशिवादिकारणोप-स्थितौ स्वलिङ्गेन गन्तव्यं। द्वितीय तृतीय चतुर्थ भङ्ग तु परलिङ्गेन / तत्र राज्ञि प्रद्विष्ट अशिवादिकारणे वा भिक्षुकादिलिङ्गेन गच्छन् उद्मादीन् दोषान् तेषां च लिङ्गानामाश्रयस्थानानि परिहरति। तथा गच्छन् यदि केनापि क्वापि ग्रामनगरादौ दृष्टो भवेत्तर्हि दृष्टे सति तेन या काचनाधिकृतलिङ्गानुशासनप्रतिपत्तिसामाचारी स कर्त्तव्या / किमुक्तं भवति / तत्सामाचार्या वर्तितव्यमिति / अथ तदाश्रयस्थानपरिहारे न समुदानं लभ्यते ततो ऽसति अविद्यमाने समुदाने प्रवेशनं तदाश्रयस्थानप्रवेशनं कर्त्तव्यं / अथ यदि तेषां प्रत्ययोत्पादनार्थं बुद्धप्रतिमा स्तूपानि वा वन्दनीयानि भवन्ति तदा जिनप्रतिमा मनसि संप्रधार्य वन्दितव्यानि / भिक्षायां च स्वयं गन्तव्यम् / अथ भिक्षा न लभ्यते ततो भिक्षुकैः सह भोक्तव्यम्। तत्र यदि पुद्गलं कन्दादिकं वा पतति तदा शरीरस्येदं ममानुपकारकं वैद्येन निवारितमिति प्रतिषेधयेत् / अथ कथमपि अनाभोगत-स्तद्रोषभयतो वा गृहीतं भवेत् तदा तस्मिन् गृहीते या यतना या कर्तव्या। किमुक्तं / अल्पसागारिकं कथमप्यपसार्य विधिना परिष्ठापयेत् / एष गाथा संक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव गाथां विवृणोतिआयरियदेसायरिय लिंगसंकमे त्थ होइ चउभंगो। वितियचरमेसु अन्नं, असिवादिमतो करे अन्नं // आशिवादिषु कारणेषु समुपस्थितेषु आर्यदेशे आर्यदेशमध्येन लिङ्गेन संक्रमो भवति। यन्मध्ये च यत्र च गन्तव्यं तयोरुभयोरपि देशरोर्य-त्वात्। अत्र च प्रागुक्तप्रकारेण चतुर्भङ्गी। गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्। तत्र द्वितीयतृतीयचरमेषु भङ्गेष्वशिवादिगतः सन् अन्यतः गृहस्थलिङ्गं यदि वा यस्य देशस्य मध्येन यत्र वा देशे गन्तव्यं तत्र येऽतिप्रसिद्धा भिक्षुकादयस्तलिङ्गं करोति। संप्रति परिहरतीति यदुक्तं तद्व्याख्यानयति। परिहरइ उग्गमादीविहारठाणे य तेसि लिंगीणं / अपुटवे सागमित्तो, आयरियत्तरोमं तु // परिहरति उद्रमादीन् दोषान् / तथा तेषां लिङ्गानां यानि विहारस्थानानि तानि च परिहरति / तत्र अपूर्वेषु स्थानेषु गतः सन् Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1035 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया यदि यल्लिङ्गं गृहीतं तदागमेषु कुशलो भवति तन्मा के नापि लिङ्गविडम्बक इति ज्ञात्वा प्रतिगृह्येतेति। आचार्ये विधिः। इयरेसिमागमेसुं, मा वायंतेसि लिंगीणं / अपुटवे सागामित्तो, आयरियत्तेतरोमं तु || अथेतरस्तेषामागमेष्वकुशलस्ततः स इदं करोति। तदेवाहमोणेण जं च गहियं, तु कुक्कुडं उभयलिंगिअविरुद्धं / पचयहेउपणामे, जिणपडिमाओ मणे कुणति / / मौनेन वाचंयमलक्षणेन क्रियां करोति मौनव्रतित्वमवलम्बत इत्यर्थः / यच विशिष्टसंप्रदायाद् गृहीतं कुक्कुटविद्यादिनादस्तत्प्रयोगलक्षणम् उभयतोऽपि उभययेषामपि साधुचर्यास्तेषां च लिङ्गि नामविरुद्धं तत्करोति / तथा समुदानासंभवे तेषामाश्रयेषु गतस्य सतस्तेषां प्रत्ययाद्धेतोः प्रत्ययोत्पादनार्थ बुद्धप्रतिमानां स्तूपानांवा प्रणामकरणी यतयोपस्थिते जिन प्रतिमा मनसि करोति। किमुक्तं भवति। जिनप्रतिमा मनसिकृत्य तेषां प्रणामं करोति। भावे ति पिंडवावि-त्तणेण घेतुं च वचइ अपत्ते। कंदादिपुग्गलाण य, अकारगं एय पडिसेहो / तथा आत्मानं जनेभ्यः पिण्डपातित्वेन भावयति / ततो भिक्षापरिभ्रमणेनजीवति। अथावमौदर्ये दोषतः परिपूर्णो न भवति ततो दानशालायां भिक्षुकादिभिः सह पत्त्या समुपविशति। ततः परिपाट्या परिवेषणे जाते सति (अपत्ते इति) अत्र प्राकृतत्वात्यकारलोपः अयःपात्रे तत् गृहीत्वा अन्यत्र विविक्ते प्रदेशे समुद्दिशति / अथान्यत्र गत्वा समुद्देशकरणे तेषां काचित् शङ्का संभाव्यते ततो भिक्षुकादिभिरेव स पङ्क्तयोपविष्ठः सन् समुद्दिशति / तत्र यदि सचित्तं कन्दादिपुद्गलं वा मांसापरपर्यायं परिवेषकः परिवेषयति तदा ममेदमपकारकं वैद्येन प्रतिषिद्धमिति वदता तेषां कन्दादीनां पुगलस्य च प्रतिषेधः कर्तव्यः। अत्रैवपुद्गगलविषये अपवादमाहवितियपयं तु गिलाणे, निक्खेवं चंकमादि कुणमाणो। लोयं वा कुणमाणो, किइकम्मं वा सरीरादि। द्वितीयपदमपवादपदं यदि भाण्डमात्रोपकारणाना निक्षेपमुपलक्षणमेतत् / आदानं प्रत्युपेक्षणादिकं च कुर्वन् तथा चङ्कमणादि आदिशब्दादुत्थानादिपरिग्रहः कुर्वन्यदिवालोचं कुर्वन् अथवा कृतकर्म शरीरादेः कुर्वन्यदि ग्लानो भवति तदोपजीव्यं पुद्गलमिति। प्रस्तुतमनुसंधानमाहअहपुण रूसेजाही, तो घेत्तु विगिंचए जहाविहिणा। एवं तु तहिं जयणं, कुज्जाही कारणागाढा / / अथ पुनः प्रागुक्तप्रकारेण कन्दादिपुद्गलानां प्रतिषेधे क्रियमाणे रुष्येयुरिति संभाव्यते तर्हि गृह्णीयात् गृहीत्वा च यथाविधिना यथोक्तेन विधिना विगिञ्च्यात् / तेन दृष्टिबन्धनेनापसार्य सूत्रोक्तविधिना परिष्ठापयेत्। उपसंहारमाहइति कारणेसु गहिते, परलिंगे तीरिए तहिं कले। जयकारी सुज्झइ वियड-णाए इयरो जमावेजा। इत्येवमुक्तेन प्रकारेण कारणेष्वशिवादिषु समुपस्थितेषु तीरितेच समाप्ति नीते च कार्ये तत्र यो (जयकारीति) यतनाकारी यथोक्तरूपा यतनां कृतवान् स विकटनया आलोचनामात्रेण शुध्यति यतनया सर्वदोषाणामपहतत्वात्। इतरो नाम येन यतना न कृता स यत् यतनया प्रायश्चित्तमापद्यते तत्तस्मै दीयते॥ (सूत्रम्) भिक्खू य गणाओ अवकम्म ओवहावेज्जा से इच्छेज्जा दोचं पितमेव गणं उवसंपजि विहरित्तए णस्थिणं तप्पइयं केद च्छेदे वा परिहारे वा णन्नत्थ एगाए सेहोवट्ठावणाए।। भिक्खू य गणातो अवक्कम्म ओहावेजा से इच्छेजा, इत्यादि अस्य सूत्रस्य कः संबन्ध उच्यतेएगयरलिंगविजढे, इह सुत्तावणिया उजे हेट्ठा। उभयजढे अयमन्नो, आरंभो होइ सुत्तस्स / / यान्यधस्तात्सूत्राणि पार्श्वस्थादिगतानि तानि एकतरलिङ्ग विजढे एकतरलिङ्ग परित्यागे तथा हि पार्श्वस्थादिसूत्राणि भावलिङ्ग परित्यागविषयाणि परपाखण्डप्रतिमासूत्रं द्रव्यलिङ्ग परित्याग-- विषयामितिशब्दो हेतौ यतोऽधस्तनानि सूत्राण्यपरलिङ्ग विषयाणि ततोऽयमन्य आरम्भः सूत्रस्य भवत्युभयजढे इति उभयलिङ्गपरित्यागविषयः प्रस्तावायातत्वात् एवमनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। भिक्षुर्गणादपक्रम्य निर्गत्य अवधावेत व्रतपर्यायाद -वामुखीभूय पराङ्मुखो भूत्वा गृहस्थपर्यायं प्रतिगच्छेत् द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपसंपद्य विहाँ (नत्थिणमित्यादि) णमिति खल्वर्थे निपातानामनेकार्थत्वात्। नास्ति खलु तस्य कश्चिदपि छेदः परिहारो वा किं सर्वथा न किमपि नेत्याह। नान्यत्र एकस्याः शैक्षिकोपस्थापनायाः किमुक्तं भवत्येका शैक्षिकोपस्थापनिका भवति मूलं भवतीत्यर्थः / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / सांप्रतमेतदेव सूत्रं व्याचिख्यासुरपक्रमेदवधावेदिति भेदपर्यायैर्व्यख्यानयतिनिग्गमनमवलमणं, निस्सरणपलायणं च एगट्ठा। लोटण लुटणपलोटण, ओधाणं चेव एगट्ठा। निर्गमनपक्रमणं निस्सरणं पलायनमित्येकार्थाः / लोटनं लुट्टनं प्रलोटनमवधावनमिति चैकार्थाः / तत्र लोटनमिति लुट विलोटने इत्यस्यैव प्रपूर्वस्य पर्यायशब्दैरप्यधिकृतशब्दार्थप्रतीतिरुपजायते तत्वभेदपर्यायाख्या इति वचनमप्यस्ति। ततस्तदुपन्यास इति। अथ कैः कारणैरवधावनं कुर्यादित्यवधावनकारणान्याह। विसओदएण अहिकरण-भावत्तोव दुक्खसेजाए। इइ लिंगस्स विवेगं, करेज्ज पचक्खपारोक्खं // विषयोदयेन अत्र विषयग्रहणेन विषयविषयो मोहः परिगृह्यते विषयेण विषयिणो लक्षणा ततोऽयमर्थः विषयविषयमोहोदयेन यदि वा केनापि सह अधिकरणभावतः अथ वा दुःखशय्यया चतुर्विधया त्याजित इति हेतोर्लिङ्गस्य प्रव्रज्याचिह्नस्य रजोहरणस्य विवेकं परित्यागं कुर्यात् / कथमित्याह साधूनां प्रत्यक्ष वा कुत्र कुर्यादित्याह। अंतो उवस्सए छडुणाउ बहिगामपासे वा। विइयं गिलाणलोए, कितिकम्मसरीरमादीसु॥ उपाश्रयस्यान्तर्मध्ये लिङ्गस्य छड्डुणा परित्यागः क्रियते / यदि वा बहिरुपाश्रयात् अथवा ग्राममध्ये यदि वा ग्रामस्य पार्वे आसन्नप्रदेशे अथवा तत्रैवाचार्यस्य समीपे इदमवधावनं काले लिङ्गस्योज्झनम् / अपवादतोऽवधावनाभावेऽपि भवति तथा चाह द्वितीयपदम पवादपदं लिङ्ग स्योज्झने ग्लानलो के ग्लानजने शरीरादिषु आदिशब्दादुच्चारपरिष्ठापनादिपरिग्रहस्तेषु कृतकर्मणि व्यापार तथाहि ग्लानस्य शरीरे विश्रामणादिकमुच्चारादिपरि Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया MS ठापनादिकं वा कुर्वन् खरण्टनादिभयाल्लिङ्गस्य विविक्ते प्रदेशे मोचनं भवतीति। संप्रत्यवधावनेन लिङ्गस्योज्ने विधिविशेषमाह। उवसामिए परेण व, सयं च समुट्ठिए उवठ्ठवणा। तक्खणचिरकालेण व, दिलुतो अक्खभंगेण / / उपाश्रयान्तः प्रभृतिषु येषु स्थानेषु रजोहरणं मुक्तं तेषु स्थानेषु तेभ्यः परस्मिन्वाऽन्यस्मिन् स्थाने उपशामिते परेणोपशमं नीते स्वयं वा तथाविधानुकूलको दयतः उपशमं गते ततः पुनरकरणतया तत्क्षणं लिङ्गोज्झनानन्तरं तत्कालं चिरेण वा दीर्घकालेन गुरुसमीपे समुस्थिते नियमादुपस्थापना कर्तव्या नान्यथा प्रवेशनीयः / आह यदि तेन न किश्चिदपि प्रतिसेवितं ततः कस्मादुपस्थाप्यते / अत्र सूरिराह / दृष्टान्तोऽत्राक्षभङ्गेन यथा शकटस्याक्षे भने नियमा-दन्योऽक्षः क्रियते एवं साधोरपि भावाक्षे भने पुनरुपस्थापनारूपो भावाक्ष आधीयते / अक्षोऽध्वा पुनरपि परः प्राह। मूलगुणउत्तरगुणे, असेवमाणस्स तस्स अतियारं। तक्खण उवट्टियस्स उ, किं कारणा दिए मूलं / / / मूलगुणे मूलगुणविषये उत्तरगुणे उत्तरगुण विषये किंचिदप्यतीचारं तस्याप्रतिसेवमानस्य कथमप्रतिसेवनेत्यत आह ! तत्क्षणं लिङ्गोज्झनानन्तरं तत्काले अपुनःकरणतया समुत्थितस्य न भावाक्षो भग्न इति। किं कारणं तस्मै मूलं दीयते उपस्थापना क्रियते। सूरिराह। सेवउ मा उ वयाणं, अतियारं तहवि देति से मूलं। विगडासवा जलम्मि उ, कहनु नावान वोडेजा।। व्रतानां प्राणातिपातविनिवृत्त्यादीनामतीचार सेवतां या मा वा तथापि / (से) तस्य प्रवचनोपनिषद्वेदिनो मूलंददाति भावतोऽसंवृताश्रवद्वार-तया चारित्रभङ्गात् तत्रैव प्रतिवस्तूपमया भावनामाह (वियडासवेत्यादि) विकटानि अतिप्रकटानि स्थूराणीत्यर्थः आश्रवाणि जलप्रवेशस्थानानि यस्याः सा तथा रूपा सती नौः कथं नु जले प्रक्षिप्ता न विमज्जेदिति भावः / आश्रवद्वाराणामतिप्रकटानामभावादेवं साधुरपि भावतोऽनिवारिताश्रवस्सन शुभ कर्मजले निमजतीति भवति तस्योपस्थापनार्हता। अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाहचोरिस्सामि त्ति मतिं, जो खलु संधाइ फेडए सुद्ध। अहियम्मि विसो चोरा, एमेव इमं पिपासामो॥ अहं चोरयिष्यामिति संधाय यः खलु मुद्रां स्फेटयति स यद्यपि तदानीमारक्षकैगृहीत्वादिना कारणेन न किञ्चिदपहृतवान् तथापि तत्परिणामोपेतत्वादनपहतेऽपि स चौरो भवति। एवमेव अनेनैव प्रकारेण इममपि पश्यामः। अचरितपरिणामोपेतत्वेनचरितत्वादुपस्थापनायोग्य पश्याम इत्यर्थः / व्य० प्र०१ उ०। (7) गणादपक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति प्रकारान्तरेण प्रतिपादयति। (सूत्रम) भिक्खू य गणाओ अवकम्म इच्छेजा अन्नं गणं उवसंपग्जित्ताणं विहरित्तए न मे कप्प अप्पचित्ता आयरियं चा उवज्झायं वा पवत्तिं वाथेरि वा गणिं वागणहरिं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तइ कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावछिइयं वा अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ते य से विहरेज्जा एवं से कप्पइ अन्नं गणं उवसंपत्तिाणं विहरित्तए ते य से नो वितरेज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए।। एवमग्रेतनमपि सूत्राष्टकमुच्चारणीयम् / भिक्षुः सामान्यसाधुश्च शब्दान्निर्ग्रन्थी च गणादवक्रम्य निर्गत्य इच्छेदभिलषेदन्यं गणमुपसंपद्य विहर्तु नो (से) तस्य भिक्षोः कल्पते नो आपृच्छ्याचार्य वा उपाध्यायं वा प्रवर्तकं वा स्थविरं वा गणधरंवा गणावच्छेदकंवा अन्यंगणवा उपसंपद्य विहर्तु कल्पते (से) तस्य भिक्षोराचार्य वा यावत्करणं दुपाध्यायं वा प्रवर्तिनं वा स्थविरं वा गणधरं वा गणावच्छेदकं वा आपृच्छयान्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुं ते चाचार्यादय आपृष्टाः सन्तस्तस्यान्यगणगमनं वितरेयुरनुजानीयुस्तत एवं तस्यकल्पते अन्य गणमुपसंपद्य विहर्तुतेच तस्य न वितरेयुस्ततो नो कल्पते तस्यान्यं गणमुपसंपद्य विहर्तुमिति सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तारःतिहाणे अवकमणं,णाणट्टादसणे चरित्तट्ठा। आपुच्छिऊण गमणं, भीतो य नियत्तते कोवि।। स्थानं कारणमित्येकोऽर्थस्ततस्त्रिभिः स्थानैः करणैर्गच्छादपक्रमण भवति ज्ञानार्थ दर्शनार्थं च / अथ निष्कारणमन्यं गणमुपसंपद्यते ततश्चतुर्गुरुकम् आज्ञादयश्च दोषाः / कारणेऽपि यदि गुरुमनापृच्छ्य गच्छति ततश्चतुर्गुरुकं तस्मादापृच्छय गन्तव्यम् / तत्र ज्ञानार्थ तावदभिधीयते यावदाचार्यसकाशे श्रुतमस्ति तावदशेषमपि केनापि शिष्येणाधीतम् अस्ति च तस्यापरस्यापि श्रुतस्य ग्रहणे शक्तिस्ततोऽधिकश्रुतग्रहणार्थमाचार्यमापृच्छति आचार्येणापि स विसर्जयितव्यः तस्यैवमापृछ्य गच्छतइमे अभिचारा भवन्तिनपरिहर्त्तव्याः। तत्र कश्चित् तेषामाचार्याणां कर्कशचर्या श्रुत्वा भीतस्सन्निवर्त्तते यथा॥ चिंततो, वइगादी, संखडि, पिसुगादि, अपडिसेहे य। परिसेल्ले, सत्तमपयं,गुरुपे सविए य सुद्धो य॥ किं व्रजामि मा वेति चिन्तयन् व्रजति वजिकायां वा प्रतिबन्ध करोति आदिशब्दाद्दानश्रद्धादिषु दीर्घा गोचरचर्यां करोति। अप्राप्तं चावेशकालं प्रतीक्षते (संखडित्ति) संखड्यां प्रतिबध्यते (पिसुगाइति) पिशुकं मत्कुणादितया निवर्तते / अन्यत्र वा गच्छे गच्छति (अप्पडिसेहेत्ति) कश्ब्दिाचार्यः परममेधाविनमन्यत्र गच्छन्तं श्रुत्वा परिस्फुटवचसा तं न प्रतिषेधयति किं तु शिष्यान् व्यापारयति तस्मिन्नागते व्यञ्जनघोषशुद्धं पठनीयं येनाव एष तिष्ठति एवं प्रतिषेधापनेऽपि अप्रतिषेधको लभ्यते। तेनैवं विपरिणामितः सन्तदीये गच्छे प्रविशति (परिसिल्लेत्ति) पर्षद्वान् स उच्यते यः संविग्नायाः असंविनायाश्च पर्षदः संग्रह करोति तस्यपाचे तिष्ठतः (सत्तमपयं गुरुपेसविए अत्ति) तत्र संप्राप्तो ब्रवीति अहमाचार्यः श्रुताध्ययननिमित्तं युष्मदन्तिके प्रेषितः / एतेषु भीतादिष्वष्टस्वपि पदेषु वक्ष्यमाणभीत्या प्रायश्चित्तम् / यस्तु भीतादिदोषविप्रमुक्तः समागतो व्रवीति अहमाचार्यविसर्जितो युष्मदन्तिके समायात इति स शुद्धो न प्रायश्चित्तभाक् / भीतादि पदेषु प्रायश्चित्तमाह। पणगं च भिन्नमासो,मासो लहुगा य संखडी गुरुगा। Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1037- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया पिसुगादी मासलहू, उचरो लहुगा अपडिसेहो // 1 // ततोऽसौ मा मामतिक्रम्यान्यत्र गच्छेदिति कृत्वा तस्थाकर्षणार्थमथापरिसेल्ले चउलहुगा, गुरुपेसवियम्मि मासितं लहुगं। नन्तरं शिष्यान् प्रतीच्छकांश्च व्यापारयतीत्याह (पंथग्गामे व पहेत्ति) सेहेण समंगुलगा, परिसेल्ले पविसमाणस्स॥२॥ यत्र पथि ग्रामे स भिक्षां करिष्यति मध्येन वा समेष्यति येन वा पडिसेहगस्स लहुगा, परिसेल्ले छच चरिमओ सुद्धो। यथासमागमिष्यति यस्यां वा वसतौ स्थास्यति तेषु स्थानेषु गत्वा तेसिं पिहोति गुरुगा,जं च भव्य णतं लभत्ति // 3 // यूयमभिलापशुद्धं परिवर्तयन्त स्तिष्ठत यदा आगमनं भवति तदा यद्यसौ भीतस्य निवर्तमानस्य पञ्चकं चिन्तयतो भिन्नमासः व्रजिकादिषु पुच्छेत् केन कारणेन यूयमिहागतास्ततो भवद्भिर्वक्तव्यमस्माकं प्रतिपद्यमानस्य मासलघु संखड्यां चतुर्गुरुकाः पिशुकादिभयान्नि वाचनाचार्या अभिलापशुद्ध पाठयन्तिायद्यभिलापः कथंचिदन्यथा क्रियते वर्तमानस्य मासलघुअप्रतिषेधकस्य पार्श्वे तिष्ठश्चत्वारो लधुकाः पर्षद्वत ततो महदप्रीतिकं कुर्वन्ति भणन्तिच वासमध्ये बहूनां रोलेनाभिलापंमा आचार्यस्य सकाशे तिष्ठतश्चतुर्लघुकाः। गुरुभिः प्रेषितोऽहमिति भणिते विनाशयतेति ततस्तदादेशेन वयमत्र विजने परिवर्तयामः / एवमाकर्षणं लघुमासिकं शैक्षण समंपर्षद्वतोगच्छे प्रविशतश्चतुर्गुरुको गृहीतोपकरणं कुर्वतश्चतुर्लघुकाः / अथ तेन वा गच्छता शैक्षकोऽपि लब्धस्तदर्थमेष तत्र प्रविशत उपधिनिष्पन्न प्रतिषेधकस्य प्रतिषेधकत्वं कुर्वतश्चतुर्लघु शैक्षो मे भूयादिति कृत्वा आकर्षते ततश्चतुर्गुरुकाः। पर्षद्वतः पर्षदं मीलयतः षट् लघुकाश्चरमो भीतादिदोषरहितः स शुद्धः। अक्खरवंजणसुद्ध, मम पुच्छह तम्मि आगए संते। तेषामपि प्रतिषेधकादीनमाचार्याणांतं स्वगच्छे प्रवेशयतांचत्वारो गुरुकाः घोसेहि य परिसुद्धं, पुच्छह णिउणे य सुत्तत्थे / / यच्च सचित्तमचित्तं वा वाचनाचार्यस्तत् भाव्यं तत्ते किंचिदपि न लभन्ते स आचार्यः शिष्यान् प्रतीच्छिकान्वा भणति यदा युष्माकमभिलापयः। पूर्वमभिधारितस्तस्यैवाचार्यस्य तदाभाव्यमिति भावः / अथ शुद्धगुणतया रञ्जितः स उपाश्रयमागच्छति तदा तस्मिन्नागते भीतादिपदानां क्रमेण व्याख्यानमाह अक्षरव्यञ्जनशुद्धं सूत्रं मां पृच्छत अक्षराणि प्रतीतानि व्यञ्जनशब्दे नार्थाभिव्यञ्जकत्वादत्र पदमुच्यते / तैरक्षरैर्व्यञ्जनैश्च शुद्धं तथा संसाहगस्स साउं,पडिपंथिगमादिगस्स्वा भीओ। आयरणा तत्थ खरा, सयं व णाओ पडिणियत्तो। घोषश्चोदात्तादिभिः परिशुद्धं सूत्रं पठनीयम् / निपुणांश्च सुत्रार्थान् मां तदानीं पृच्छत एवमनयाभङ्गथा तमन्यत्र गच्छे गच्छन्तं प्रतिषेधयति। संसाधको नाम दोलापकः पृष्ठतः कुतश्चिदागतो वा साधुः तन्मुखेन गतं प्रतिषेधकद्वारम्। श्रुत्वा प्रतिपन्थिकः सन्मुखीनः साध्वादिस्तदादेर्वा मुखात् श्रुत्वा स्वयं अथ परसिल्लद्वारमाहवा ज्ञात्वा स्मृत्या किमित्याह / आचरणाचर्या तत्र स्वाचार्यस्य गच्छे पाउयमपाउयघट्ट,पट्टलोय खुरविविधवेसहरा। खरा कर्कशा एवं श्रुत्वा ज्ञात्वा वा भीतः सन्यः प्रतिनिवृत्तस्तस्य पञ्चक परिसेल्लस्स तु परिसा, थलिए वण किंचि वारेति॥ भवतीति शेषः / अथ चिन्तयतीति पदं व्याचष्टे / / यः परिसिल्लः आचार्यः ससंविग्नाया असंविग्नायाश्चपर्षदः संग्रहं करोति पुटवं चिंतेयव्वं, णिग्गतो चिंतेति किं करेमि त्ति। ततस्तस्य साधवः केचित्प्रावृताः केचिदप्रावृताः केचिद्धृष्टाः फेनादिना वचामि वियत्तामि व, तहिं व अण्णत्थ वा गच्छे / / घृष्टसंघाः केचित् पृष्टाः तैलेन पृष्टशरीरावा अपरेलोचलुञ्चितकेशा अन्ये पूर्वमेव यावन्न निर्गम्यते तावचिन्तयितव्यं यस्तु निर्गतश्चिन्तयति किं क्षुरमुण्डिताः एवमादिविविधवेषधरा एतस्याः पर्षदः स्थली देवद्रोणी करोमि व्रजामि निवर्ते वा यद्वा तत्र वा अन्यत्र वा गच्छामीति समासलघु तस्यामिवाऽसौ न किंचिदपि वारयति // प्रायश्चित्तं प्राप्नोतीति प्रक्रमः / व्रजिका संखडीद्वारद्वयमाह तत्थ पवेसे लहुगा, सचित्ते चउगुरुंच आणादी। उव्वत्तणमप्पत्ते, लहुओ खद्धस्स भुंजणे लहुगा। उवहीणिप्फण्णं पिय, अचित्तचित्ते य गिण्हते। णिसट्टवणा लहुओ, संखडिगुरुगा यजं वण्णं // तत्र पर्षद्वतो गच्छे प्रवेषं कुर्वतश्चतुर्लघु / अथ सचित्तेन शैक्षेण सार्द्ध वजिकां श्रुत्वा मार्गादुद्वर्त्तने करोति अप्राप्तां वा वेलांप्रतीक्षतेलघुमासः / प्रविशति ततश्चतुर्गुरवः आज्ञादयश्च दोषाः। अथाचित्तेन वस्त्रादिना सह अथ खद्धं प्रभूतं तत्र भुङ्क्ते ततश्चतुर्लधुकं प्रचुरं भुक्त्वा अजीर्णभयेन प्रविशति तत उपधिनिष्पन्नं मिश्रसंयोगप्रायश्चित्तम्। तथा सचित्ताचित्तं निसृष्टं प्रकामं स्वपिति लघुमासः। संखड्यामप्राप्तकालं प्रतीक्षमाणस्य ददतो गृह्णतश्चैवमेव प्रायश्चित्तम्। अथ पिशुकादिद्वारं चाह। प्रभूतं गृह्णतोवा चतुर्गुरुकाः (जंवण्णंति) यच हस्तेन हस्तसंघट्टनं पादेन लिंकुणपिसुगादितहिं सोउं गाउंव सण्णिवत्तंते। पादस्याक्रमणं शीर्षण शीर्षस्याकुट्टनमित्यादिकमन्यदपि संखड्यां भवति अमुगसुतत्थनिमित्तं, तुम्भम्मि गुरूहि पेसविओ॥ तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथ प्रतिषेधकद्वारमाह ढिंकुणपिशुकदंशमशकादीन् शरीरोपद्रवकारिणस्तत्र श्रुत्वा ज्ञात्वावा अमुगत्थअमुगो वचति, मेहावी तस्स कट्टणट्ठाए। संनिवर्तमानस्य मासलघुतथा अमुकश्रुतार्थनिमित्तं गुरुभिर्युष्मदन्तिके पंथग्गामे व पहे, वसधि अह कोइ वावारे॥ प्रेषितोऽहमिति भणतो मासलघु। आहैवंभणतः कोनाम दोषः। सूरिराह / अभिलावसुद्ध पुच्छा, गेलेणं मा हु ते विणासिज्जा। आणाए जिणिंदाणं,ण हुवलियतराउ आयरियआणा। इति कट्टते लहुगा, जति सेहहा ततो गुरुगा।। जिण आणाए परिभवो, एवं गव्वे अदिणितोय॥ कश्चिदाचार्यों विशुद्धसूत्रार्थस्फुटविकटव्यञ्जनाभिलापी तेन च जिनेन्द्ररेव भगवद्विरुक्तं यथा निर्दोषो विधिना सूत्रार्थनिमित्त श्रुतममुकाचार्यान्तिके अमुको मेधावी साधुरमुकश्रुताध्ययनार्थ व्रजति | यः समागतस्तस्मै सुत्रार्थों दातव्यौ न च जिनेन्द्राणामा प Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०३८-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया ज्ञायाः सकाशादाचार्याणामाज्ञा वलीयस्तराम् / अपि च एवमाचार्यानुवृत्त्या श्रुते दीयमाने जिनाज्ञायाः परिभवो भवति / तथा प्रेषयत उपसंपद्यमानस्य प्रतीच्छतश्च त्रयाणामपिगर्यो भवति तीर्थकृतां श्रुतस्य चाविनयः कृतो भवति ततोगुरुभिः प्रेषितोऽहमिति न वक्तव्यम्। यस्तु भीतादिदोषविमुक्तोऽभिधारिताचार्यस्यान्तिके आयातः स शुद्धः। यस्तु प्रतिषेधकादीनां पार्वे तिष्ठति तत्र विधिमाहअन्नं अभिघारेतुं, अप्पडिसे हपरिसिल्लमण्णं वा। पविसंत कुलादिगुरु,सचित्तादीव से होउ! ते दो उवालमित्ता, अभिधारेज्जंति दंतिम थेरा। घट्टणविआरणंतिय, पुच्छा विप्फालणेगट्ठी। यः पुनरन्यमाचार्यमभिधार्य अप्रतिषेधकं वा पर्षद्वन्तं वा अन्य वा प्रविशति तस्य पार्श्वे उपसंपद्यते इत्यर्थः / तं यदि कुलादिगुरवः कुलस्थविरा गणस्थविराः संघस्यविरा वा जानीयुस्ततो यत्नेनाचित्तं सचित्तं वा तस्याचार्यस्योपनीतं तत्तस्य सकाशात् हृत्वा तौ द्वावप्याचार्यप्रतीच्छ को स्थविरा उपालभन्ते कस्मात् त्वया अयमात्मपावें स्थापितः करमाद्वा त्वमन्यमभिधार्य स्थितः / / एवमुपालभ्य तं प्रतीच्छकं घट्टयित्वा तत् सचित्तादिकं सर्वमभिधारितं | तस्याचार्यस्य प्रयच्छन्ति तदन्तिके प्रेषयन्तीत्यर्थः। अथ घट्टयित्वति कोऽर्थ इत्याह घट्टनेति वा विचारणेति वा पृच्छति वा विस्फालनेति वा / एकार्थानि पदानि। तं घट्टेउ सचित्तं, एसा आरोवणा उ अविहीते। वितियपदमसंविग्गे, जयणाए कयंति तो सुद्धो।। तं प्रतीच्छकं घट्टयित्वा कमभिधार्य भवान् प्रस्थित आसीदिति पृष्ट्वा | सचित्तादिकं तस्य अभिधारितस्य पार्श्वे स्थविराः प्रेषयन्तीति गम्यते | (एसा आरोवणा उअविहीएत्ति) या पूर्वप्रतिषेधकत्वं पर्षन्मीलनंवा कुर्वत आरोपणा भणिता सा अवधिनिष्पन्ना मन्तव्या विधिनाऽनुकरणं कुर्वाणस्य न प्रायश्चित्तम् / तथा चाह (विश्यपयइत्यादि) यमसाववधारयति स आचार्यो ऽसंविग्नः ततो द्वितीयपदे यतनया प्रतिषेधकत्वं कुर्यात् का पुनर्यतनेति चेदुच्यते। प्रथमं साधुस्तंभाणयति मा तत्र व्रज पश्चादात्मनाऽपि भणति पूर्वोक्तेन वा शिष्यादिव्यापारेण प्रयोगेण वारयेत्। एवं यतनया प्रतिषेधकत्वे कृतेऽपि शुद्धो निर्दोषः। अमुमेवार्थमाह।। अभिधारते पासत्थमादिणे तं वजति सुतं अत्थि। जे अपडिसेहदोसा,ते कुट्वं तो विणिरोसो। यानभिधारयन्नसौ व्रजति ते आचायाः पार्श्वस्थादिदोषदुष्टा यच्च श्रुतमसावभिलषति तद्यदि यस्य प्रतिषेधकस्यास्ति ततो ये अप्रतिषेधकत्वं कुर्वतो दोषाः शिष्यव्यापारणादयस्तान कुर्वन्नपि निर्दोषस्तदा मन्तव्यः। जं पुण सचित्तादी,तं तेसिं देति ण वि सयं गेहे। वितिए चित्त ण पेसे, जावइयं वा असंथरणे / / यत्पुनः सचित्तादिकं प्रतीच्छकेनागच्छता लब्धं तत्तेषामभिधारिताचार्याणां ददाति न पुनः स्वयं गृह्णाति / द्वितीयपदे यद्वस्वादिकमचित्तं तदशिवादिभिः कारणैः स्वयमलभमानो न प्रेषयेदपि / अथवा यावदुपयुज्यते तावद् गृहीत्वा शेषं तेषां समीपे प्रेषयेत् / असंस्तरणे वा सर्वमपि गृह्णीयात्। सचित्तमप्यमुना कारणेन न प्रेषयेत्। नाऊण य वोच्छेयं, पुथ्वगए कालियाणुओगे य। सयमेव दिसाबंधं, करेन्ज तेसिं न पेसिज्जा। यस्तेन शैक्ष आनीतः स परममेधावी तस्य च गच्छे नास्ति कोऽप्याचार्यपदयोग्यो यच तस्य पूर्वगतं कालिकश्रुतं वा समस्ति तस्यापरो गृहीता न प्राप्यते ततस्तयोर्व्यवच्छेदं ज्ञात्वा स्वयमेव तस्यात्मीयं दिग्बन्धं कुर्यात् न तेषां प्रागनिर्धारितानां पार्श्वे प्रेषयेत्। अथ पर्षद्वतोऽपवादमाह। असहा तो परिसिल्लत्तणं पि कुज्जा उमंदधम्मे य। पप्प व कालद्धाणे, सचित्तादी तिगिण्हेजा। असहाय एकाकीस आचार्यस्ततः संविनमसंविगं वा सहायं गृह्णीयात् शिष्या वा मन्दधर्माणो गुरूणा च्यापारं न वदन्ति ततो यं वा तं वा सहायं गृह्णतः पर्षद्वत्वमपि कुर्यात् / श्राद्धा वा मन्दधर्माणो न वस्त्र -पात्रादि प्रयच्छन्ति ततोलब्धिसंपन्नं शिष्यं यं वा तं परिग्रहीयात्। दुर्भिक्षादिकं वा कालमध्वानं वा प्राप्य ये उपग्रहकारिणः शिष्यास्तान् संगृह्णीयात्। अथ योऽसौ प्रतीच्छको गच्छति तस्यापवादमाह। कालगयं सोऊणं, असिवादी तत्थ अंतरा वा वि। पडिसिल्लं पडिसेह,सुद्धो अण्णं व विसमाणो।। यभाचार्यमभिधार्य व्रजति तं कालगतं श्रुत्वा यद्वा यत्र गन्तुकामस्तत्रान्तरा वा अशिवादीनि श्रुत्वा पर्षद्वतः प्रतिषेधकस्य वा अन्यस्य या पार्श्वे प्रविशेत् शुद्धः एतदविशेषितमुक्तम्। अथात्रैव भाव्यानाभाव्यविशेष विभणिषुराह। वचंतो वि य दुविहो, दत्तमदत्तस्स मग्गणा होति। वत्तम्मि खेत्तवजं, अचंते ण अप्पिओ जाव।। यः प्रतीच्छको व्रजति सोऽपि च द्विविधो व्यक्तोऽव्यक्तश्च तयोः सहायः किं दातव्यो न वेति मार्गणा कर्तव्या। तत्र व्यक्तस्य यः सचित्तो विलासः क्षेत्रवर्ज परक्षेत्रं मुक्त्वा भवति स सर्वोऽप्यभिधारिताचार्यस्याभवति यः पुनरव्यक्तः स सहायर्यावदद्यापि तस्याचार्यस्यार्पितो न भवति तावत्परक्षेत्रं मुक्त्वा यत्ते सहाया लभन्ते तत्पूर्वाचार्यस्यैवाभवतीति संग्रहगाथा-समासार्थः। अथैनामेव विवृणोति। सुतअव्वत्तो गीता, वएण जो सोलसण्ह आरेणं। तव्विवरीओ वत्तो, वत्तमवत्ते य चउत्ते भंगो॥ अव्यक्तो द्विधा श्रुतेन वयसा च। श्रुतेनाढ्यको गीतार्थो वयसा अव्यक्तस्तु षोडशानां वर्षाणामग्विर्तमानस्तद्विपरीतो व्यक्त उच्यते / अत्र च व्यक्ताव्यक्ताभ्यां चतुर्भङ्गी भवति। श्रुतेनाप्यव्यक्तो वयसाऽप्यव्यक्तः।१। श्रुतेनाव्यक्तो वयसा व्यक्तः। श्रुतेन व्यक्तो वयसा अव्यक्तः।३। श्रुतेनापि व्यक्तो वयसाऽपि व्यक्तः।४। अस्य च सहायाः किं दीयन्ते उत न दीयन्ते इत्याहवत्तस्स वि दायव्वा, अपुजमाणे सहा य किमु इयरे। खेत्तविवजं अचं-तिएसु जंलब्भत्ति पुरिल्ले। आचार्येण पूर्यमाणेषु साधुषु व्यक्तस्यापि सहाया दातव्याः किं पुनरितरस्याव्यक्तस्य तस्य सुतरां दातव्या इति भावः / तत्र सहाया द्वधा आत्यन्तिका अनात्यन्तिकाश्च / आत्यन्तिका नाम ये तेन सार्द्ध तत्रैवासितुकामाः ये तु तं तत्र मुक्त्वा प्रतिनिवर्त्तिष्यन्ते ते अनात्यन्तिकाः / तत्रात्यन्तिकेषु सहायेषु यदव्यक्तं Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया क्षेत्रविवर्ज परक्षेत्रं मुक्तवा सचित्तादिकं लभते (तत् पुरिल्लेत्ति) | तस्याचार्यस्याभिमुखं व्रजति स पुरोवर्ती भण्यते अभिधारित इत्यर्थस्तस्य सर्वमपि सचित्तादिमाभवति। परक्षेत्रेषु लब्धं क्षेत्रिकस्याभाव्यम्। जइणेउं पत्तुमणा, नंते मग्गिले वत्तिपुरिमस्स। नियमव्वत्तसहायाणं तु णियत्तत्तिजं सोयं॥ अथ ते सहायास्तंतत्र नीत्वा आगन्तुकामा अनात्यन्तिका इत्यर्थस्ततो | यत्ते सहाया लभन्तेतत्सर्वमपि (मग्गिलेत्ति) यस्यसकाशात्प्रस्थितास्तस्यात्मीयस्याचार्यस्याभवति (वत्तिपुरिम-स्सत्ति) यत्पुनः स व्यक्तः स्वयमुत्पादयति यत्पुरिमस्य अभिधारितस्याभवतियः पुनरव्यक्तस्तस्य नियमेनैव सहाया दीयन्ते तेचसहाया यद्यात्यन्तिकास्तदायदसौतेच लभन्ते तदभिधारितस्याभाव्यम्। अथतं तत्र नीत्वा निवर्ततेततोयदसौ ते च परक्षेत्रं मुक्त्वा लभन्ते तत्सर्वं पूर्वाचार्यस्याभवति यावदद्याप्यसौ नापितो भवति। वितियं अपुजयंते, न देज वा तस्स सो सहाये तु। वइगादि अपडिवज्झं-तगस्स उवही विसुद्धो उ॥ द्वितीयपदमत्र भवति अपूर्यमाणेषु साधुषु सहायान् साधून तस्याचार्यो न दद्यात् स चात्मना श्रुतेन वयसा च व्यक्तस्तस्य व्रजिकादावप्रतिबध्यमानस्योपधिर्विशुद्धो भवति नोपहन्यते। अथ व्रजिकादिषु प्रतिबध्यते तत उपधेरुपघातो भवति। एगे तू वचंते, उग्गहवनं तुलसति सचित्तं / वचंति गिलाणा अंतरा तु तदि मग्गणा होइ / / यो व्यक्त एकाकी ब्रजति स यद्यन्यस्याचार्यस्य योऽवग्रहस्तर्जिते अनवग्रहक्षेत्रे यत्किंचिल्लभते तत् सचित्तमभिधार्यमाणस्यभवति (वचंतइत्यादि) योऽसौ ज्ञानार्थं व्रजति स द्वौत्रीन् वा आचार्यान् कदाचिदभिधारयेत् तेषांमध्ये यो मे अभिरोचिष्यते तस्यान्तिके उपसंपदं गृहीष्यामीति कृत्वाऽसावन्तरा ग्लानो जातस्तैश्चार्यः श्रुतं यथाऽस्मानभिधार्य साधुरागच्छन् पथि ग्लानो जात इति तत्रेयमाभाव्यानाभाव्यमार्गणा भवति। आयरिया दोण्णि गया, एके एकं च णागए गुरुगा। ण य लभती सचित्तं, कालगते विप्परिणए वा // यदि तौ द्वावप्याचार्यावागतौ ततो यत्तेन लब्धंतदुभयोरपिसाधारणम्। अथैकस्तयोरागत एकश्च द्वितीयो नागतस्ततोऽनागतस्य चतुर्गुरु यच्च सचित्त मचित्तं वा तदसौ न लभते / यस्तं गवेषयितुमागतस्मस्य सर्वभाभवति एवं व्यादिसंख्याकेष्वाचार्येष्वभिधारितेषु भावनीयम् / अथासौ ग्लानः कालंगताः तत्रापि यो गवेषयितुमागच्छति तस्यैवाभवति नेतरेषाम् / अथासौ विपरिणतस्ततोयस्य विपरिणतःसनलभते यत्पुनः सचित्तादिकमभिधार्यमाणे लब्धं पश्चाद्विपरिणतस्ततो यदवि-परिणते भावे लब्धं तल्लभते विपरिणते भावे लब्धं न लभते। पंथसहायसमत्था, धम्मं सोऊण पव्वयामि त्ति। खेत्ते य बाहि परिणए, वाताहडे मग्गणाइणमो।। योऽसौ ज्ञानार्थं प्रस्थितस्तस्य पथि गच्छन् कश्चित् मिथ्यादृष्टिर्वाताहृतः समर्थः सहायो मिलितः स च तस्य पार्श्वे धर्म श्रुत्वा प्रव्रजामीति परिणाममुपगतवान् स च परिणाममुपगतैः साधुभिरपिगृहीते क्षेत्रे जातो भवेत् क्षेत्राद्वा बहिरिन्द्रस्थानादौ वाअपरिगृहीतेवा क्षेत्रे ततस्तस्मिन् वाताहतेप्रव्रजितुं परिणते इयं मार्गणा भवति।। खेत्तम्मि खेत्तियस्स,खेत्तवहिं परिणए पुरेल्लस्स। अंतरपरिणयविप्परिणएण एगा उमग्गणता॥ साधुपरिगृहीतक्षेत्रे प्रव्रज्यापरिणतः क्षेत्रिकस्याभवति / क्षेत्रावहिः परिणतस्तु (पुरिल्लस्सत्ति) तस्यैव साधोराभवति अपान्तराले स प्रव्रज्यायां परिणतो विपरिणतश्च भवति ततः क्षेत्रे च धर्मकथिकस्य रागद्वेषप्रतीत्याऽने का मार्गणाः / तद्यथा यदि धर्मकथी ऋजु: भयात्कथयति तदा क्षेत्रे परिणतः क्षेत्रिकस्याभवति अक्षेत्रे परिणतो धर्मकथिकस्य / अथ विपरिणतेन वेगेन कथयति यदा क्षेत्रान्निर्गतो भविष्यति तदा कथयिष्यामि न मे अधुना भवति एवं क्षेत्रनिर्गतस्य कथिते यदि परिणतस्तदा क्षेत्रिकस्याभवतीत्येवं विभाषा कर्तव्या। वीसनियम्मि उवं, अविसञ्जिए चउलहुं व आणादी। तेसिं पि हुंति लहुगा, अविधिविही साइमा होइ।। एवमेव विधिर्गुरुणा विसर्जिते शिष्ये मन्तव्यः। अथाविसज्जितो गच्छति तदा शिष्यस्य प्रतीच्छकस्य च चतुर्लघु / अथ विसर्जितो द्वितीय वारमनापृच्छ्य गच्छति तदा मासलघु आज्ञादयश्च दोषाः / येषामपि समीपेऽसौ गच्छति तेषामप्यविधिनिर्गतं तं प्रतीच्छतां चत्वारो लघवः। सचित्तादिकं वा भाव्यं न लभन्ते एषोऽविधिरुक्तः / विधिः पुनरय वक्ष्यमाणो भवति / स पुनराचार्य एभिः कारणैर्न विसर्जयति। परिवार पूयहेतुं, अविसज्जते ममत्तदोसा वा। अणुलोमेण गमेजा, दुक्खं खु विमुंचियं गुरुणो।। आत्मनः परिवारनिमित्तं न विसर्जयति बहुभिर्वा परिवारितः पूजनीयो भविष्यामि मम शिष्योऽन्यस्य पावें गच्छतीति समत्वदोषाद्वा न विसर्जयति एवमविसर्जयन्तं गुरुमनुलोमा अनुकूलैर्वाचामिर्गमयेत् कुत इत्याह / (दुक्खंखुत्ति) खलुरवधारण गुरवो विमोक्तुं परमोपकारकारित्वात् न च ते यतस्ततो विमोक्तुं शक्या इति भावः। ततः प्रथमत एव विधिना गुरूनापृच्छ्य गन्तव्यम्। कःपुनर्विधिरिति चेदुच्यते। नाणम्मि तिण्णि पक्खा, आयरिय उवज्झाय सेसगाणं वा। एकेकपंचदिवसे,अहवा पक्खेण एकेकं // ज्ञानार्थ गच्छता त्रीन पक्षानापृच्छा कर्त्तव्या तत्र प्रथममाचार्य पञ्चदिवसानापृच्छति यदि न विसर्जयति तत उपाध्याये पश्च दिवसानापृच्छेत् यदि सोऽपि न विसर्जयति तदा शेषाः साधवः पञ्च दिवसान् पृष्टव्या एष एकः पक्षो गतस्ततो द्वितीयपक्षमेवाचार्योंपाध्यायशेषंसाधून प्रत्येकमेकैकंपञ्चभिर्दिवसैः पृच्छतितृतीयमपिपक्षमेयं पृच्छति एवं त्रयः पक्षा भवन्ति / अथवा निरन्तरमेवाचार्य एक पक्षमापृच्छनीयस्तत उपाध्यायोऽव्येकं पक्षं गच्छसाधवोऽप्येकं पक्षम्। एवं च त्रयः पक्षाः एवमपियदिन विसर्जयन्ति ततोऽविसर्जित एव गच्छति / एयविहमागतं तु, पडिच्छअपडिच्छणे भवे लहुगा। अहवा इमेहिं आगम, एगादिपडिच्छतो गुरुगा। एतेन विधिना आगतं प्रतीच्छकं प्रतीच्छेत् / अप्रतीच्छतश्चतुर्लघुका भवेयुः। अथामीभिरेकादिभिः कारणैरागतंप्रतीच्छति ततश्च-तुर्गुरुकाः तान्येवैकादीनि कारणान्याह Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1040- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया एगे अपरिणते य, अयाहारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगे य, पाहुडे मंदधम्मए। एकाकिनभाचार्य मुक्त्वा स समागतः। अथवा तस्याचार्यस्य पार्वे ये तिष्ठन्ति ते अपरिणता आहारवस्त्रपात्रशय्यास्थण्डिलानामकल्पिकास्तैः सहितमाचार्य मुक्त्वा आगतः / अथवा स आधार्याधारस्तमेवपृष्ट्वा सूत्रार्थवाचनां ददाति स्थविरो वा स आचार्यः / यद्वा तदीये गच्छे कोऽपि साधुः स्थविरस्तस्य स एव वैयावृत्त्यकर्ताग्लानो वा बहुरोगी वास आचार्यः ग्लानोऽधुनोत्पन्नरोगः। बहुरोगिणाम- चिरकालं बहुभिर्वा रागैरभिभूतः / अथवा शिष्यास्तस्य मन्दधर्माणस्तस्यैव गुणेन सामाचारीमनुपालयन्ति एवंविधमाचार्य परित्यज्यागतः (पाहुडेत्ति) गुरुणा समं प्राभृतं कलहं कृत्वा समागतः / अथवा प्राभृतकारिणःपाखण्डिकास्तस्य शिष्यास्तस्यैव गुणेनागतः। एयारिसं विउस्सज्ज, विप्पवासो ण कप्पती। सीसपडिच्छायरिए, पायच्छित्तं विहिजती॥ एतादृशमाचार्य व्युत्सृज्य विप्रवासो गमनं कर्तुन कल्पते यदि गच्छति ततः शिष्यस्य प्रतीच्छकस्याचार्यस्य च त्रयाणामपि प्रायश्चित्तं विधीयते तत्रैकंग्लानं वा मुक्त्वा शिष्यस्य प्रतीच्छकस्य वासमागतस्य चतुर्गुरुकाः यश्चाचार्यः प्रतीच्छति तस्यापि चतुर्गुरु / प्राभूते शिष्यप्रतीच्छकयोश्चतुर्गुरुकमेव। आचार्यस्य पञ्च रात्रिंदिवं छेदः शेषेषु परतादिषु पदेषु शिष्यस्य चतुर्गुरु। प्रतीच्छकस्य चतुर्लघु आचार्यस्यापि शिष्यं प्रतीच्छतएतेषुचतुर्गुरुप्रतीच्छकप्रतीच्छकस्य चतुर्लधु।प्रतीच्छक प्रतीच्छतश्चतुर्लघु। अथ ज्ञानार्थ त्रीन् पक्षानाप्रच्छनीयमित्यत्रापवादमाह। विझ्यपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागढे। नाऊण तस्स भावं, कप्पति गमणं अणापुच्छा। द्वितीयपदं तत्र भवति / आचार्यादिष्वसंविग्नीभूतेषु न पृच्छेदपि च संविनेष्वपि वा किंचिदागाढं चारित्रविनाशकारणं स्त्रीप्रभृतमात्मनः समुत्पन्नं ततोऽनापृच्छ्यापि च गच्छति तेषां वा गुरूणां स्वभावं ज्ञात्वा तेनोद्धष्टाः सन्तः कथमपि विसर्जयिष्यन्तीति मत्वा अनापृछ्यापि गमनं कल्पते। अथाविसर्जितेन गन्तव्यमित्यपवदति॥ अज्झयणं वोच्छिन्नं ति, तस्य य गहणम्मि अत्थि सामत्थं। ण वि वियरंति चिरेण वि, एतेण विसजितो गच्छे॥ किमाप्यध्ययनं व्यवच्छिद्यते तस्य च तद्ग्रहणे सामर्थ्यमस्ति न च गुरवश्चिरेणापि वितरन्ति गन्तुमनुजानन्ते एतेन कारणेना-विसर्जितोऽपि गच्छेत्। अविधिना आगत आचार्येण न प्रतीच्छनीय इत्यस्यापवादमाह। नाऊण य वोच्छेदं, पुष्वगते कालियाणुओगे य। अविहि अणापुच्छागत, सुत्तत्थविजाणओवोए। पूर्व गते कालिकश्रुते वा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा अविधिना प्रव्रजिकादिप्रतिबन्धेनागतमनापृच्छ्यागतं वा सूत्रार्थज्ञापको वा येन कश्चिद्दोषः यत्नेन प्रतीच्छकेन शैक्षस्तस्याभिधारितस्यानाभाव्य आनीतः सन गृहीतत्व इत्यपवदति। नाऊण य वोच्छेदं, पुष्वगये कालियाणुओगे य। सुत्तत्थजाणगस्सा, कारणजाते दिसाबंधो। पूर्वगते कालिकश्रुते वा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा सूत्रार्थज्ञापकेन कारणजाते अनाभाव्यस्याप्यात्मीयो दिग्बन्धः कर्त्तव्यः / आह किमर्थमनिबद्धो न दाप्यते उच्यते अनिबद्धः स्वयमेव कदाचिद्गच्छन् पूर्वाचार्येण वा नीयेत कालदोषेण वा ममत्वाभावमालम्ब्य वाचयिष्यतीति दिग्बन्धोऽनुज्ञातः। इदमेव सविशेषमाहससहाय अवत्तेणं,खोत्ते वि उवट्ठियं तु सचित्तं। दलियं णाउं बंधंति, उभयममत्तट्ठया तं वा / / अव्यक्तेन ससहायेनयःशैक्षोलब्धो यश्च परक्षेत्रेऽपि उपस्थितः सचित्तः स पूर्वाचार्यस्य क्षेत्रिकाणां वा यद्यप्याभाव्यस्तथाऽपि तं दंलिकं परममेधाविनमाचार्यपदयोग्यं ज्ञात्वा यद्यात्मीये गच्छे नाचार्यपदयोग्यः ततस्तस्यात्मीयां दिशं बधाति स्वशिष्यत्वेन स्थापयतीत्यर्थः / कुत इत्याह उभयस्य साधुसाध्वीवर्गस्य तत्र शैक्षो ममत्वमस्माक्मयमित्येवं ममकारो भूयादिति कृत्वा / यद्वा स्वगच्छीयसाधूनां तस्य च शैक्षस्य परस्परं संमेलका वयमित्येवं ममत्वं भविष्यतीति बुद्ध्या तमात्मीयशीष्यत्वेन बध्नाति (तंवत्ति) यो वा प्रतीच्छक आयातस्तमपि ग्रहणाधारणासमर्थं च विज्ञाय स्वशिष्यं स्थापयति एवं शैक्षः प्रतीच्छको वा कारणे शिष्यतया निबद्धः सन् यदा निर्मातो भवति। तदा। आयरिए कालगए, परियट्टइतं गणो उ सो चेव / चोएतिय अपदंते, इमा उ तह मग्गणा होइ।। आचार्ये कालगते सति गच्छस्य निबद्धाचार्यस्य च व्यवहारो भण्यतेस स्वयमेव तंगणं परिवर्तयति सच गच्छो यदि श्रुतंन पठति ततस्तं अपठन्तं नोदयति यदि नोदिता अपि ते गच्छसाधवो न पठन्ति तत इयमाभवद्व्यवहारमार्गणा भवति। साहारणं तु पढमे, वितिए खेत्तम्मि ततियसुहदुक्खे। अणिहअंते सीसे,सा एक्कारस विभागा। कालगतस्याचार्यस्य प्रथमे वर्षे सचित्तादिकं साधारणं यद्यसौ प्रतीच्छकाचार्य उत्पादयति तत्तस्यैवाभवति / यदीतरे गच्छसाधव उत्पादयन्ति तत्तेषामेवाभवतीति भावः। द्वितीये वर्षे यत् क्षेत्रोपसंपन्नो लभते तत्तेऽपठन्तो लभन्ते। तृतीये वर्षे यत् सुखदुःखोपसंपन्नो लभते तत्ते लभन्ते / चतुर्थे वर्षे कालगताचार्यशिष्या अनधीयाना न किंचिल्लभन्ते / शेषा नाम येऽधीयते तेषामधीयानानां वक्ष्यमाणा एकादश विभागाः भवन्ति। शिष्य पृच्छति क्षेत्रोपसंपन्नः सुखदुःखोपसंपन्नो वा किं लभते। सूरिराह॥ खेत्तोवसंपयाए, वावीसं संथुयाय मित्ताय / सुहदुक्खमित्तवज्जा, चउत्थए नालबद्धाई।। क्षेत्रोपसंपदा उपसंपन्नो द्वाविंशति अनन्तरपरम्परावल्लीबद्धान् मातापित्रादीन् जनान्लभते संस्तुतानिच पूर्वापश्चात्संस्तवसं बद्धानि प्रपौत्रश्वसुरादीनिमित्राणि च सहजातकादीनि लभते दृष्टाभाषितानितु न लभते / सुखदुःखोपसंपन्नेषु एतान्येव मित्रवानि लभते / चतुर्थस्तु एवं विधोपमः प्रक्रमप्रामाण्यात् श्रुतोपसंपन्नः स केवलान्येव द्वाविंशतिनालबद्धानि लभते अयं च प्रसङ्गे नोक्तः क्षेत्रोपसंपन्नसुखदुःखापन्नयोर्यदाभाव्यमुक्त्ते शिष्या अनधीयाना द्वितीयेतृतीयेचवर्षे यथाक्रम लभन्ते।चतुर्थे वर्षेसर्वमप्याचार्यस्याभवतिनतेषाम्।येतुशिष्या अधीयते तेषां विधिरुच्यते तस्य कालगताचार्यस्य चतुर्विधो गणो भवेत् / Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०४१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया शिष्याः शिष्यिकाः प्रतीच्छकाः प्रतीच्छिकाश्चेति / एतेषां पूर्वोद्दिष्टपश्चादुद्दिष्टयोः संवत्सरसंख्ययैकादशगमाभवन्ति। पूर्वोद्दिष्टानां यत्तेनाचार्येण जीवता तेषां श्रुतमुद्दिष्टं यत्पुनस्तेन प्रतीच्छकाचार्येणोद्दिष्ट तत्पश्चादुद्दिष्टम्। तत्र विधिमाह। पुवुद्दिडे तस्स, पच्छुहिढे पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छिए जंतु सचित्तं / यदाचार्येण जीवता प्रतीच्छकस्य पूर्वमेवोद्दिष्टतदेव पठन् प्रथमेवर्षे यत् / सचित्तमचित्तं वा स लभते तत्तस्य कालगताचार्यस्याभवति एष एको विभागः / अथ पश्चादुद्दिष्टं ततः प्रथमसंवत्सरे यत् सचित्तादिकं लभते तत्सर्वं प्रवाचयतः प्रतीच्छकस्याचार्यस्याभवति एष द्वितीयो विभागः। पुटवं पच्छुद्दिष्टे, पडिच्छए जंतु होइ सचित्ते। संवच्छरम्मि वितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स॥ प्रतीच्छकः पूर्वो द्दिष्ट पश्चादुद्दिष्ट वा पठन् यत्तस्य सचित्तादिकं तदा द्वितीये वर्षे सर्वमपि प्रवाचयतो भवति / तृतीयो विभागः / अथ पश्चाच्छिष्यस्याभिधीयते। पुव्वं पच्छुट्टेि, सेसम्मि उ जंतु होइ सच्चित्तं / संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवइ / / शिष्यस्य कालगताचार्येण वा उद्दिष्ट भवेत् प्रतीच्छकाचार्येण वा तदसौ पठन् यत् सचित्तादिकं लभते तत्सर्व प्रथमे संवत्सरे गुरोः कालगताचार्यस्याभवति एष चतुर्थो विभागः। पुटवुद्दिद्वं तस्स, पच्छुदिह्र पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि वितिए, सीसम्मि उजंतु सचित्तं / / शिष्यस्य पूर्वो द्दिष्टमधीयानस्य द्वितीयवर्षे सचित्तादिकं कालगताचार्यस्याभवतीति पञ्चमो विभागः पश्चादुद्दिष्टं पठतः शिष्यस्य सचित्तादिकं प्रवाचयत आभाव्यं भवतीति षष्ठो विभागः। पुष्वं पच्छुद्दिट्टे, सीसम्मि उजं तु होइ सचित्तं / संवच्छरम्मि ततिए तं सव्वं पवाययंतस्स। पूर्वो द्दिष्ट पश्चादुद्दिष्टं वा पठति शिष्ये सचित्तादिकं तृतीये वर्षे सर्वमपि प्रवाचयत आभवतीति सप्तमो विभागः। पुवुद्दिढे तस्स, पच्छुट्टेि पवाययंतस्स। संवच्छरम्मि पढमे, सिस्सिणिए जंतु सचित्तं // शिष्यिकायां पूर्वो द्दिष्टपठन्त्यां सचित्तादिक तस्य कालगताचार्यस्य प्रथमे वर्षे आभाव्यमित्यष्टमो विभागः / पश्चादुद्दिष्टमधीयानायां प्रवाचयत आभाव्यं नवमो विभागः। पुव्वं पच्छुद्दिडे, सिस्सिणिए जंतु होइ य सचित्तं / संवच्छरम्मिवाए, तं सव्वं पवाययंतस्स। पूर्वोद्दिष्ट पश्चादुद्दिष्टं वा पठन्त्यां शिष्यिकायां सचित्तादिलाभो द्वितीये वर्षे प्रवाचयत आभवतीति दशमो विभागः। पुवं पच्छुद्दिष्ठं, पडिच्छिगा जंतु होति य सचित्तं / संवच्छरम्मि पढमे,तं सव्वं पवाययंतस्स॥ पूर्वो द्दिष्टं पश्चादुद्दिष्ट वा पठन्त्यां प्रतीच्छिकायां प्रथम एव संत्सरे | सर्वमपि प्रवाचयत आभवति एष एकादशो विभागः। एक एष आदेश उक्तः / अथ द्वितीयमाह। संवच्छराइ तिन्नि उ,सीसम्मि पडिच्छए उतदिवसं। एवं कुले गणे य, संवच्छरे संघे य छम्मासो॥ प्रतीच्छकाचास्तेिषां कुलसत्को गणसत्कः संघसत्को वा भवेत् तत्र यदितत्सत्कः तदात्रीन् संवत्सरान् शिष्याणां वाच्यमानानां सचित्तादिकं न गृह्णाति / यत्पुनः प्रतीच्छकास्तेषां वाच्यमानानां यस्मिन्नेव दिने आचार्यः कालगतस्तदिवसमेव गृह्णाति एवमेव कुलसत्के विधिरुक्तः। अथाऽसौ गणसत्कस्तन्संवत्सरं शिष्याणां सचित्तादिकं नापहरति यस्तु कुलसत्को गणसत्को वान भवतिसनियमात् संघसत्कः स च षण्मासान् शिष्याणां सचित्तादिकं न गृह्णाति / तेन च प्रतीच्छकाचार्येण तत्र गच्छे वर्षत्रयमवश्यं स्थातव्यम्। परतःपुनरिच्छा। तत्थेव य निम्माए, अणिग्गए निग्गए इमा मेरा। सकुले तिन्नि तियाइं गणे दुगसंवच्छरं संघे // तत्रैव प्रतीच्छकाचार्यसमीपे तस्मिन्ननिर्गते यदि कोऽपि गच्छे निर्मातस्तदा सुन्दरम्। अथन निर्मातःसच वर्षत्रयात्परतो निर्गतस्ते वा गच्छीयाएष सांप्रतमस्माकं सचित्तादिकं हरतीति कृत्वा ततो निर्गतस्तदा इयं मर्यादा सामाचारी (सकुलेइत्ति) स्वकुले स्वकीयकुलस्य समवायं कृत्वा कुलस्य कुलस्थविरस्य वा उपतिष्ठन्ते ततः कुलं तेषां वाचनाचार्य ददाति वारकेण वा वाचयति / कियन्तं कालमित्याह (तिन्नितियत्ति) त्रयस्त्रिका भवन्ति / ततो नव वर्षाणि वाचयतीत्युक्तं भवति। यदा भवता निर्मातस्तदा सुन्दरम्। अथैकोऽपि न निर्मातस्ततः कुल सचित्तादिकं गृह्णातीति कृत्वा गणमुपतिष्ठन्ते गणोऽपिढे वर्षे पाठयति नसच्चित्तादिकं हरति यद्येवमपि निर्मातस्ततः संघमुपतिष्ठन्ते संघोऽपि कचनाचार्यं ददाति सच संवत्सरं पाठयति एवं द्वादश वर्षाणि भवन्ति यद्येवमेकोऽपि निर्मातस्ततः पुनरपि कुलादिस्थविरेषु वा तेन क्रमेणोपतिष्ठन्ते तावन्तमेव कालं कुलादीनि यथाक्रमं पाठयन्ति न सचित्तादिकं हरन्ति एवमन्यान्यपि द्वादश वर्षाणि भवन्तिपूर्वद्वादशभिश्च मीलितानि जाता वर्षाणां चतुर्विशतिः / यद्येतावता कालेन नैकोऽपि निर्मातस्तदा विहरन्तु अथ निर्मातस्ततो भूयोऽपि कुलगणसंघेऽपि तथैवोपतिष्ठन्ते तेऽपि च तथैव पाठयन्ति / एतान्यपि द्वादश वर्षाणि चतुर्विंशत्या मील्यन्ते जाता षट्त्रिंशत् यद्येवं षट्त्रिंशता वर्षरेकोऽपि निर्मातस्ततो विहरन्तु। अथैकोऽपि न निर्मातः। कथमिति चेदुच्यते। ओमादिकरणेहिं च, दुम्मेहत्तेण वा न निम्माओ। काऊण कुलसमायं, कुलथेरे वा उवट्ठति / / अवमादिकारणैरशिवादिभिः कारणैरनवरतमपरापरग्रामेषु पर्यटतां दुर्मे धतया वा नैकोऽपि निर्मातस्ततः कुलसमवायं कृत्वा कुलस्थविरान् वा सर्वेऽप्युपतिष्ठन्तेततस्तैरुपसंपदंग्राहयितव्याः कुत्रपुनरिति चेदुच्यते। पटवजएगपक्खिय, उदसंपययं गहा सए ठाणे। छत्तीसातिकते, उवसंपयए उवादाए॥ यः प्रव्रज्ययैकपाक्षिकस्तस्य पार्श्वे उपसंपदं ते कुलस्थविराग्राहयेयुः सा च उपसंपत् पञ्चधा वक्ष्यमाणरीत्या भवति तस्यां चोपसंपदि षट् त्रिंशद्वर्षातिक्रमे प्राप्तायां (सए ठाणित्ति) विभक्तिव्यत्ययात् स्वकमात्मीयं स्थानमुपादाय गृहीत्वा तैरुपसंपत्तव्यमिदमेव भावयति। गुरुमज्झिलओमज्झं, तिउचउ गुरु गुरुस्स वा भत्तू। अहवा कुलिव्वतो उ, पव्वज्जा एगपक्खीओ॥ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया १०४२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया "गुरुमज्झिलको" गुरूणां सहाध्यायी पितृव्यस्थानीयः मज्झन्तिक प्रव्रज्यया श्रुतेन च ये एकपाक्षिकास्तत्र प्रथमस्य समुपसंपत्तव्यम् / आत्मनः स ब्रह्मचारी भ्रातृस्थानीयो गुरुगुरुः पितामहस्थानीयो गुरोः पश्चात्कुलेन श्रुतेन चैकपाक्षिकस्य पावें / ततः श्रुतेन गणेन च संबन्धी तं प्राप्तशिष्य आत्मनो भ्रातृव्यस्थानीय एते प्रव्रज्ययैकपाक्षिका एकपाक्षिकस्य समीपे ततः श्रुतेनैकपाक्षिकस्य समीपे ततः उच्यन्ते। अथवा कुलः समानकुलोद्भवः सोऽपि प्रव्रज्ययैकः एतेषां समीपे प्रव्रज्यैकपाक्षिकस्य सकाशे ततः प्रव्रज्यया श्रुतेन वा नैकपाक्षिकस्यापि यथाक्रममुपसंपत्तव्यम्। पाचे उपसंपत्प्रतिपत्तव्यम् / आह / साधर्मिक-वात्सल्याराधनार्थ पध्वजाए सुएण य, चउभंगुव्वसंपया कमेणं तु। सर्वेणाऽपि सर्वस्य श्रुताध्ययनादि कर्तव्यं ततः किमर्थ प्रथम पुवाहियदीसरिए, पढमासइ ततियभंगे उ॥ प्रव्रज्याकुलादि निरासन्नतरेषूपसंपद्यत इत्याह। इहैकपाक्षिकप्रव्रज्या श्रुतेन च भवति। तत्र प्रव्रज्यैकपाक्षिकोऽनन्त-- सव्वस्स वि कायव्वं, निच्छयओ किं कुलंच अकुलं च। रमुक्तःश्रुतैकपाक्षिको येन सहैकवाचनिकसूत्रम् / अत्र चतुर्भङ्गी। कालसभावममत्ते गारवलज्जादिकं हिंति॥ प्रव्रज्ययैकपाक्षिकः श्रुतेन च १प्रव्रज्ययान श्रुतेन 2 श्रुतेन न प्रव्रज्यया निश्चयतः सर्वेण सर्वस्याप्यविशेषेण श्रुतवाचनादिकमात्मनो विपुलतरां 3 न प्रव्रज्यया न श्रुतेन 4 एतेषु चामुना क्रमेणोपसंपत्प्रति-पत्तव्या निर्जरामभिलषता कर्त्तव्यम् / किं कुलभकुलं चेत्यादिनिवारणायाः (पढमाइत्यादि) प्रथमतः प्रथमभङ्गे उपसंपत्तव्यं तदभावे तृतीय भङ्गे परदुःषमालक्षणो यः कालस्तस्य यः स्वभावोऽनुभावस्तेनात्मीयोsकुत इत्याह यतः पूर्वाधीतं श्रुतं स्मृतं सत्तेषु मुखेनैवाज्ञापयितुं शक्यते यमित्यादिकं यन्ममत्वंतच गुर्वादिविषयं गौरवं बहुमानबुद्धिर्या च तदीया श्रुतैकपाक्षिकत्वात्। लज्जा एतैः प्रेरिताः सुखेनैव करिष्यन्तीति कृत्वा प्रथम अथ पञ्चविधामुपसंपदमाह। प्रव्रज्यादिनिरासन्नतरेषूसंपद्यन्ते गतं ज्ञानार्थं गमनम्। सुयसुहदुक्खक्खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाएय। अथ दर्शनार्थं गमनमाह। वावीसं संथुयं संदिट्ठभट्टे य सव्वे य॥ कालियपुव्वगए वा, णिम्माओ जति य अस्थि सेसत्ति। श्रुतोपसंपत् सुखदुःखोपसंपत् क्षेत्रोपसंपत्मार्गोपसंपत् विनयोपसंपत् दसणदीवगगहिउं, गच्छद अहवाइगेहिं तु / / / एवं एषा पञ्चविधा उपसंपत् (वृ०४ उ०) एतासु श्रुतग्रहणायान्यमाचार्य- कालिकश्रुतेपूर्वगतेच यद्वा यस्मिन्काले श्रुतंप्रचरतितस्मिन्। अत्रार्थेन मुपसंपद्यमानस्य श्रुतोपसंपत् 3 मार्गे व्रजतो मम यौष्माकी निश्रेति चयदा निर्मातो भवति यदिचतस्य ग्रहणधारणशक्तिस्तथाविधा समस्ति मार्गोपसंपत्। विनयं कर्तुं गच्छान्तरमुपसंपद्यमानस्य विनयोपसंपत् 5 तथाविधानि ततो दर्शनदीपकानि सम्यग्दर्शनज्ञानसहकारीणि यानि भाष्यकृताऽप्युक्तम्। “उपसंपयपंचविहा, सुयसुहदुक्खेय खित्तमम्गेय। सम्मत्यादीनि शास्त्राणि तेषां हेतोरन्यं गणं गच्छति अथवा एभिः चिण उपसंपया विविय, पंचविहा होइ नायव्वा" एता सामन्यतरामुपसंपदं कारणैर्गच्छेत्। प्रथममाददानस्य विभागालोचना भवति विहारे कृते निरतिचारस्या- भिक्खूगा जहिं देसे, वोडिय थलिणिण्हएहि संसग्गी। प्यालोचना भवति / अयं भावः एकाहात्पक्षावर्षाद्वा यदा सांभोगिकाः ते संपण्णवणंति, असहमाणो विसञ्जिए गमणं / / स्पर्द्धकपतयो गीतार्थाचार्या मिलन्ति तदा निरतिचारोऽप्यन्योन्यस्य यत्र देशे भिक्षुका बौद्धा वोटिका वा निह्नवा वा तेषां तत्र स्थली तत्र ते विहारालोचनां स्वस्वविहारक्रमानुष्ठित प्रकाशरूपां ददातीति (जीत०। आचार्याः स्थितास्तैः सार्द्धमाचार्याणां संसर्गः प्रीतिरित्यर्थः ते च पं० चूला पं० भा०) एतासूपसंपद्व्यवहारमाह (वावीस इत्यादि) भिक्षुकादयः स्वसिद्धान्तं प्रज्ञापयन्ति स चाचार्यो दाक्षिण्येन श्रुतोपसंपदि द्वाविंशति नालबद्धानि लभ्यन्ते तद्यथा माता 1 पिता 2 तर्क ग्रन्थाप्रवीणतया वा तूष्णीकस्तिष्ठति तां च तदीयां भ्राता 3 भगिनी 4 पुत्रो 5 दुहिता ६मातुर्माता७ मातुःपिता 8 मातुर्धाता प्रज्ञापनामसहमानः कश्चिद् द्वितीयश्चिन्तयति अन्यं गणं गत्वा 6 मातुर्भगिनी 10 एवं पितुर्माता 11 पितुःपिता 12 पितुर्धता 13 दर्शनप्रभावकानि शास्त्राणि पठामि येनामून निरुत्तरान् करोमि एवं पितुर्भगिनी 14 भ्रातृपुत्रो 15 भ्रातृदुहिता 16 भगिन्याःपुत्र 17 भगिन्याः विचिन्त्य स तथैव गुरूनापृच्छ्य तैर्विसर्जितोगच्छति। इदमेव भावयति। पुत्रिका 18 पुत्रस्य पुत्रः 16 पुत्रस्य पुत्रिका 20 दुहितुः पुत्रः 21 लोए वि अपरिवादो, भिक्खुगमादीय गाढव मदिति। दुहितुःपुत्रिका 22 चेति / एतानि द्वाविंशतिरपि श्रुतोपसंपदं विप्परिणामति सेहा अभामिजंति सद्धाय॥ प्रतिपन्नस्याभवन्ति / सुखदुःखोपसंपन्नास्तु एतां द्वाविंशतिमन्यांश्च भिक्षुकादीनां स्वसिद्धान्तशिर उद्घाट्य प्ररूपयतामपि यदा सूरयो न पूर्वसंस्तुतपश्चात्संस्तुतान्प्रपौत्रश्वसुरादीन्लभते। क्षेत्रोपसंपन्नस्तुतान् किमपि ब्रुवते ततो लोके परिवादो जातः / एते ओदनमुण्डा न किमपि सर्वानपि वयस्यांश्च लभते। मार्गो पसंपन्न एतान् सर्वानपि लभते। अपरे जानते अभी तु सौगताः सर्वमेव बुद्ध्यन्ते। एवञ्चते भिक्षुकादयः परिवादं चये केचित् दृष्टा भाषितास्तानपि प्राप्नोति। विनयोपसंपदं प्रतिपन्नस्तु श्रुत्वा गाढतरं जैनशासनं च मढयन्ति शैक्षाश्च विपरिणमन्ति श्राद्धाइच सर्वानपि ज्ञाताज्ञातदृष्टादृष्टान् लभते नवरं विनयार्हस्य विनयं प्रयुङ्क्ते रक्तपटोपासकैरपभ्राज्यन्ते एतैश्च ते भिक्षवो वठरशिरोमणयश्चाकारिणो "सएट्ठाणेत्ति" यदुक्तं तस्याऽयमर्थः पञ्चविधाऽप्युपसंपत्तस्मिन स्थाने यद्यस्ति सामर्थ्यं ततोऽस्माकमुत्तरं प्रयच्छन्तु। अथवा तैर्भिक्षुकादिभिः प्रतिपत्तव्या / किमुक्तं भवति / श्रुतोपसंपदं प्रतिपित्सोर्यस्य स्थलिकायामा–चार्यस्यापि वण्टको निबद्धो वर्तते। पायें श्रुतमस्ति तत्तस्य स्वस्थानम् / सुखदुःखार्थिनः स्वस्थानं यत्र सो रसगिद्धो व थलिए, परतित्थियतज्जणं असहमाणो। वैयावृत्त्यकराः सन्तिाक्षोत्रोपसंपदर्थिनो यदीये क्षेत्रे भक्तपानादिकमस्ति। गमणं बहुस्स भेत्तं, आगमणं वादिपरिसाओ। मार्गोपसंपदर्थिनो यत्र मार्गज्ञः समस्ति / विनयोपसंपदर्थिनो यत्र स आचार्यो रसगृद्धः स्निग्धमधुराहारलम्पटः सामर्थ्य सत्यपि विनयकरणं युज्यते एतानि स्वस्थानानि / अथवा स्वस्थानं नाम | न किंचि दुत्तरं प्रयच्छति एवमादिकां परतीर्थिकतर्जनामसह Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1043 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया मानः शिष्यः आचार्य विधिना पृष्ट्वा निर्गतोऽन्नयगणगमनं कृतवान् तत्र च तर्कशास्त्राणि श्रुत्वा बहुश्रुतत्वं तस्य संजज्ञे। ततो भूयः स्वगच्छे आगमनम् / आगतेन च पूर्वामाचार्याः द्रष्टव्यास्ततोऽन्यस्यां वसतौ स्थित्वा या तत्र वादमार्गकुशला पर्षत् तां परिचितां कृत्वा राज्ञो महाजनस्य च पुरतः परतीथिकान् निष्पिष्टप्रश्नव्याकरणान् करोति। चोयपरायणकुविया, जति पडिसेहंति साहु लद्धं च / अह विअणुगओ अम्हं, मासपवत्तं परिहवेह॥ चोदे पराज्ञापने कुपितान्मन्तो यदिते भिक्षुकादयः आचार्यस्य तंवण्ट प्रतिषेधन्ति ततः साधुसुन्दरं लष्ट वा भीष्टं जातमिति। अथ तत्र कोऽपि ब्रूयात् एतस्यको दोषश्चिरमनुगत एषोऽस्माकं मा पूर्वप्रवृत्तं दातव्यमस्य परिहापयत तत्र को विधिरित्याह।। काऊण पद पणाम, छेदसुत्तस्स दलाह पडिपुच्छं। अण्णत्थ वसहिमगणं, तेसिं च णिवेदणं काउं। गुरोः पदकमलप्रणामं कृत्वा वक्तव्यं छेदे श्रुतस्य प्रतिपृच्छां मम प्रयच्छत। अत्र चागीतार्थाः श्रृण्वन्ति ततोऽन्यस्यां वसतौ गच्छावः एवमुक्तोऽपि यदितस्या वसतेन निर्गच्छति तत्राख्यायिकादिकथापनेन चिरंरात्रौ गुरवो जागरणं कारापणीयास्तेषां चाऽगीतार्थानां वयमाचार्यमेवं नेष्याभो भवद्भिर्बोलो न कर्त्तव्यः / इति निवेदनं कृत्वा गन्तव्यमिदमेव व्याचष्टे। सदं च हेतुसत्थं, अहिजिओ छेदसुत्तण8 मे। तत्थ य मा सुत्तत्था, सुणिज्ज तो अण्णहिं वसिमो॥ शब्दशास्त्रमिन्द्रादिकं हेतुशास्त्र सम्मत्यादिकं शास्त्रमध्ययनस्य च्छेद सूत्रं निशीथादिकं सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो वा मम नष्टं तस्य प्रतिपृच्छामे | प्रयच्छत / अत्र च वसतावश्रुतार्थाः शैक्षा अपरिणामका वा न शृणुयुरतोऽन्यस्यां वसतौ वसाम एवमन्यव्यपदेशेन निष्काश-यति। अथ | तस्या वसतेः क्षेत्राद्वा निर्गन्तुं नेच्छति ततोऽयं विधिः। खित्तारक्खिणिवेयण, इयरे पुव्वं तु गाहिया समणा। जग्गविओ सो अचिरं, जह णिज्जंतो ण चेतेति॥ आरक्षिको दण्डपाशिकस्तस्य निवेदनं क्रियते (खित्तंति) अस्माकं क्षिप्तचित्तः साधुः समस्ति तं वयमर्द्धरात्रौ वैद्यसकाशे नेष्यामः स यदि नीयमानो हियेऽहं हियेऽहमित्यारटेत् ततो युष्माभिर्न किमपि भणनीयमितरे अगीतार्थाः श्रमणाः पूर्वमेव ग्राहिता कर्तव्याः वयमाचार्यमेनं / नेष्यामो मा बोलं कृरुध्वम्। सचाचार्यश्चिरमाख्यायिकाः कथापयित्वा जागरितः सन् यदा निर्भर सुप्तो भवति तदा नीयते यदा नीयमानो न किंचिचेतयति। निण्हयसंसग्गीए, बहुसो भण्णं तु वेहसो कुणइ। तुह किंति वत्ति परिणम, गतागतेणीणिओ विहिणा।। अथ निह्नवानां संसाचार्यो न निर्गच्छति बहुशो भण्यमानोऽप्युपेक्षा कुरुते अथवा ब्रूयात् यद्यहं निह्नवसंसर्ग करोमि ततो भवतो दुःखयति / व्रज त्वं यत्र गन्तव्यम् एवं परिणामं गुरूणां ज्ञात्वा शिष्येण गतागतेनान्यं गणं गत्वा शास्त्राण्यधीत्य भूयः आगतेन निह्रवान् पराजित्याचार्यो विधिना अनन्तरोक्तेन निष्काशितः कर्तव्यः। एस विहिविसज्जिए, अविसज्जियलहुगदोसआणाई। तेसिं पिहुंति लहुगा, अविहिविही सो इमो होइ।। एष विधिर्गुरुणा विसर्जिते मन्तव्यः अविसर्जितस्य तुगच्छतश्चतुर्लघु | दोषाश्चाज्ञादयः / तेषामपि प्रतीच्छतां चतुर्लघु काः एषो विधिरुक्तोऽतोऽविधिना गन्तव्यं सचाऽयं विधिर्भवति। दसणमत्थे पक्खो, आयरिय उवज्झाय सेसगाणं च। एकेकपंचदिवसे,अहवा, पक्खेण सव्वे वि॥ दर्शनप्रभावकाणां शास्त्राणामर्थाय निर्गच्छत एकं पक्षमापृच्छन् कालो भवति तद्यथा। आचार्यः पञ्च दिवसानापृच्छयते यदिन विसर्जयति तत उपाध्यायोऽपिपञ्च दिवसान् शेषसाधवोऽपि पञ्च दिवसान अथवा पक्षण सर्वेऽपि पृच्छ्यन्ते। किमुक्तं भवति दिने दिने किन्तु सर्वेऽपि पृच्छ्यन्ते यावत् पक्षः पूर्ण इति। एस विहि आगतं तु, पडिच्छअपडिच्छणा भवे लहगा। अहवा इमेहिं आगम, एगादिपडिच्छए गुरुगा // एगे अपरिणए य, अप्पाहारे य थेरए। गिलाणे बहुरोगी य, मंदधम्मे य पाहुडे | एतारिसं विउस्सज, विप्पवासोन कप्पई। सीसपडिच्छायरिए, पायच्छित्तं विहिजइ। विइयपदमसंविग्गे, संविग्गे चेव कारणागाढे। नाऊण तस्स भावं, होइ उगमणं अणापुच्छा। गाथाचतुष्टयमपि गतार्थं गतं दर्शनार्थं गमनम्। अथ चारित्रार्थमाह। चारित्तटुंदेसे (दुविहा) एसणदोसा य इत्थिदोसाय। गच्छंति य सीयंते, आयसमुत्थेहिं दोसेहिं।। चारित्रार्थ गमनं द्विधा देशदोषैरात्मसमुत्थदोषैश्च देशदोषा द्विविधा एषणा दोषाः स्त्रीदोषाश्च / आत्मसमुत्था अपि द्विधा गुरुदोषा गच्छदोषाश्च / तत्र गच्छो यद्यात्मसमुत्थैश्चक्रवालसामाचारीवितथकरणलक्षणैर्दो रैः सीदते तत्र पक्षमापृच्छन्नास्ते तत ऊर्द्ध गच्छति / इदमेव व्याचष्टे। जिहि यं एसणदोसा, पुरकम्माई ण तत्थ गंतव्वं / उदगपउरो व दोसो, जहिं व चरिगाइसंकिण्णो॥ यत्रदेशेपुरःकर्मादय एषणादोषाः भवेयुस्तत्रनगन्तव्यंयोवा उदकप्रचुरो देशः सिन्धुविषयवत् यो वा चरिकादिभिः परिवाजिकाकापालिकी नवनिकादिभिर्बहुमोहादिभिराकीर्णो विषयस्तत्रापि न गन्तव्यम् / अथाशिवादिभिः कारणैस्तत्र गता भवेयुस्ततः। असिवाईहिंगता पुण, तक्कजसमप्पिया तओ प्रिंति। आयरियमणिंते पुण, आपुच्छिउं अप्पणा किंति॥ आशिवादिभिर्दुर्भिक्षपरचक्रादिभिः कारणैस्तत्र गता अपि (तक्कजसमप्पियत्ति) प्राकृते पूर्वपदनिपातस्याभिमतत्वात् समापिततत्कार्याः संयमक्षेत्रे यदा अशिवादीनि स्फिटितानि भवन्तीति भावः / तदैते असंयमक्षेत्रान्निर्गच्छन्ति यद्याचार्याः केनापि प्रतिबन्धेन सीदन्तो न निर्गच्छेयुस्ततो ये एको द्वौ बहवो वा असीदन्तस्ते गुरुमापृच्छ्यात्मना निर्गच्छन्ति तत्र चाऽयं विधिः। दो मासे एसणाए, इत्थिं वजेज्ज अट्ठ दिवसाई। गच्छम्मि होइ पक्खो, आयसपुच्छेगदिवसं तु॥ एषणायामशुद्ध्यमानायां यतनया अनेषणीयमपि गृह्णन् द्वौ मासी गुरुमापृच्छन् प्रतीक्षते / अथ स्त्री शय्याप्रभृतिका उपसर्गयति / अथात्मना शय्यातयदिौ स्त्रियां मध्यमिकायां वा प्रातिवे Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1045- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया श्मिक्यामतीवान्युपपन्न उभयं वा परस्परमन्युपपन्नं ततो यदाऽऽचार्यसंनिहितस्तदा तमापृच्छ्यगच्छति अथासंनिहितः संज्ञाभूम्यादौ गत आचार्यस्तदा एवमेवानापृच्छ्यागच्छति अपरं वा संनिहितसाधु भणति मम वचनेन गुरूणामापृच्छनं निवेदनीयम् "एयविहिमागयंतु" गाहा “एय अपरिणए य" गाहा “एयारिसं विउस्सज्ज"गाहा। इति गाथात्रयमपि गतार्थंभवेत्किंकारणं येन नपृच्छेत्। वितियपदमसंविग्गे, संविम्गे चेव कारणागाठे। नाऊण तस्स भावं, अप्पण भावे अणापुच्छा।। द्वितीयपदमत्रोच्यते / आचार्यादिरसंविग्नो भवेत् अथवा संविग्नः | परमहिदष्टादिकमागाढकारणमवलम्ब्य न पृच्छेत् / तस्य च गुरोर्भावसुचिरेणापि न विसर्जयतीति लक्षणं ज्ञात्वा आत्मीयं च भावमहमिह तिष्ठन्नवश्यं विनश्यामीति ज्ञात्वा अनापृच्छ्यापि व्रजेत्। अथ गुरोश्चारित्रे सीदतो विधिमाह। सजायरकप्पट्टी, चरित्तठवणा अभिगया खरिया। सारूविओ गिहत्थो, सो विउवाएणा हरियव्वो।। शय्यातरस्य कल्पस्थिकायां आचार्येण चारित्रस्य स्थापना कृता तां प्रतिसेवत इति भावः तस्यां चरित्रस्थापनायां जाताया व्यक्षरिका वा काचिदभिगता जीवाद्यधिगमोपेताश्राविकेत्यर्थस्तस्यामाचार्योsध्युपपन्नः सचा चारित्रवर्जितो वेषधारि भवेत् सारुपिको वा गृहस्थो वा उपलक्षणत्वात्सिद्धपुत्रको वा तत्र मुण्डितशिराः शुक्लवासः परिधायी कच्छामबंधन अभार्यको भिक्षां हिण्डमानः सारूपिक उच्यते / यस्तु मुण्डः सशिखाको वा सभार्यकः ससिद्धपुत्रकः एवमेषामन्यतर उपायेन हर्त्तव्यः / कथमिति चेदुच्यते पूर्व तावद्दुरवो भण्यन्ते वयं युष्मद्विरहिता अनाथाः अतः / प्रसीद गच्छामोऽपरं क्षेत्रं परमुक्ते यदि नेच्छन्ति ततो यस्यां स प्रतिबद्धः सा प्रज्ञाप्यते एष बहूनां साधूनामाधारः एतेन विना गच्छस्य ज्ञानादीनां परिहाणिरतो मा नरकादिकं संसारमात्मनो वर्द्धय यदिसा इच्छति ततःसुन्दरमथन तिष्ठति ततो विद्यामन्त्रादिभिरावय॑ते। तदभावे केवयिका अपि तस्या दीयन्ते। गुरुश्चक्रमेण रात्रौ हर्त्तव्यः / एवं तावद्भिक्षुमङ्गीकृत्य विधिरुक्तः।। (सूत्रम्) गणावच्छेदइए जे गणादवकम्म इच्छिजा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए कप्पति णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव अण्णं गणं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णो आउत्थिता आयरियं वा जाव विहरित्तए य से वितरंति एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए एते य से णो वितरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए 21 आयरिय उवज्झाए य गणाओ अवकम्म इच्छेला अण्णं गणं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए कप्पइ आयरिय आयरियस्स आयरियगणावच्छेइयस्स गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए उवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता अण्णं गणं उपसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए। णो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तएकप्पतिसे आपुच्छित्ताजाव विहरित्तएतेयसे वितरंति एवं से कप्पति अण्णं गणं उपसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए ते से णो वियरंति / एवं से णो कप्पति / अण्णं गणं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए।२२। अस्य सूत्रद्वयस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं गणावच्छेदिकत्वमाचार्योपाध्यायत्वं च निक्षिप्य गन्तव्यमिति विशेषः / अथ भाष्यम्। एमेव गणावच्छे, गणिआयरिए वि होइ एमेव / नवरं पुण नाणत्तं, ते नियमा हुंति वत्ताओ॥ एवमेव भिक्षुवत् गणावच्छेदकस्य ज्ञानदर्शनचारित्रार्थमन्यंगणं गच्छतो विधिद्रष्टव्यः / गणिन उपाध्यायस्याचार्यस्य चैवमेवविधिः नवरं पुनरिदं नानात्वं नियमाते गणावच्छेदिकादयो व्यक्ता भवन्ति नो अव्यक्ताः॥ एमेव गतो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। णाणट्ठ जो उ भेइं, सचित्तं ण अप्पिणो जाव॥ एष एव भिक्षुसूत्रोक्तो गमो निर्ग्रन्थीनामप्यपरं गणमुपसंपद्यमानानां ज्ञातव्यः नवरं नियमेनैव ताः ससहायाः यः पुनर्ज्ञानार्थं न आचार्यिका नयति स यावदद्यापि न वाचनाचार्यस्यार्पयति तावत्सचित्तादिकं तस्यैवाभवति अर्पितास्तु पुनर्वाचनाचार्यस्याभाव्यं कः पुनस्ता नयतीत्याह। पंचण्ड एगयरे, उग्गहवजं तु लभति सच्चित्तं / आपुच्छ अट्ठपक्खे, इत्थीसत्येण संविग्गो।। पश्चानामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकानामे कतरः संयतीर्नयति तत्रच सचित्तादिकं परक्षेत्रावग्रहवर्ज स एव लभते निर्ग्रन्थी च ज्ञानार्थं व्रजन्ती अष्टौ पक्षानापृच्छति / तत्राचार्यमेकं पक्षमापृच्छति यदि न विसर्जयति तत उपाध्यायं वृषभं गच्छं चैवमेव पृच्छति संयतीवर्गेऽपि प्रवर्तिनी गणावच्छेदिकाभिषेकाशेषसाध्वीर्यथाक्रममेकैकं पक्षमापृच्छति। ताश्च स्त्रीसार्थेन समं संविग्गेन परिणतवयसा साधुना नेतव्याः / (सूत्रम्) भिक्खू गणाओ अवकम्म इच्छिज्जा अन्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव अम्नं गणं संभोगपडियाए उवसंपचित्ताणं कप्पइसे आपुच्छित्ता आयरियं वाजाव विहरित्ता ते य से वियरंति / एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए / ते य से न वियरिखा एवं से नो कप्पइ जाव विहरित्तए जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेजा। एवं से कप्पइ अन्नं गणं संभोगे पडियाए उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तए जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेजा एवं से नो कप्पइ अन्नं गणं जाव विहरित्तए। अस्य व्याख्या प्रग्वत् नवरं सांभोगिकमण्डल्यां समुद्देशिनादिरूपस्त प्रत्ययनिमित्तं “जत्थुत्तरियमित्यादि" यत्र उत्तरं प्रधानतरं धर्मविनयं स्मारणधारणादिरूपां धार्मिकी भिक्षां लभेत एवं (से) तस्य कल्पते अन्य गणमुपसंपद्य विहर्तुयत्रोत्तरं धर्मविनयं नोलभेत एवं (से) तस्य नो कल्पते उपसंपद्य विहर्तुमिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यम्। संभोगो विहु तिहि कारणेहिं नाणट्ठदंसणचरित्ते। संकमणे चउभंगो, पढमो गच्छम्मि सीयंते॥ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1045 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया संभोगोऽपि त्रिभिः कारणैरिष्यते तद्यथा ज्ञानार्थ दर्शनार्थं चारित्रार्थ च / तत्रज्ञानार्थं दर्शनार्थंच यस्योपसंपदंप्रतिपन्नस्तस्मिन् सूत्रार्थदानादौ सीदति गणान्तरे संक्रमणे स एव विधेयः पूर्वसूत्रे भणितश्चारित्रार्थ तु यस्योपसंपन्नस्तत्र चरणकरणक्रियायां सीदति चतुर्भङ्गीभवति। गच्छः सीदतिनाचार्यः। आचार्यः सीदति नगच्छः। गच्छोऽप्याचार्योऽपि सीदति 13 / न गच्छोनाचार्य इति।। अत्र प्रथमो भङ्गो गच्छेसीदति मन्तव्यस्तत्र च गुरुणा स्वयं वा गच्छस्य नोदना कर्त्तव्या कथं पुनः स गच्छः सीदेदित्याह। पडिलेहादिपडिउवेक्खण, निक्खिआदाणविणयसज्झाए।' आलोगठवणभत्तट्ठभासपडमलसेज्जातराईसु॥ ते गच्छसाधवः प्रत्युपेक्षणां कालेन कुर्वन्ति न्यूनातिरिक्तादिदोषैर्विपर्यासेन वा प्रत्युपेक्षन्ते गुरुग्लानादीनां वा न प्रत्युपेक्षन्ते निष्करणादिना वा वर्तयन्ति दण्डकादिकं निक्षिपन्त आददतो वा न प्रत्युपेक्षन्ते न वा प्रमार्जयन्ति दुष्प्रत्त्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं वा कुर्वन्ति यथार्ह विनयं न प्रयुञ्जते / स्वाध्यायं सूत्रपौरुषी वार्थपौरुषी वा न कुर्वन्ति / अकाले अस्वाध्याये वा कुर्वन्ति पाक्षिकादिषु आलोचनांन प्रयच्छन्ति। अथवा आलोचयन्ति “ठाणे दिसि पगासेण वा” इत्यादिकं सप्तविधमालोकं न / प्रयुञ्जते संखडी वा आलोकान्तः स्थापनाः कुलानि स्थापयन्ति भक्तार्थ मण्डल्यां समुद्देशनं न कुर्वन्ति गृहस्थभाषाभिर्भाषते सावधं वा भाषन्ते पटलके ऽप्यानीतं भुजते / शय्यातरपिण्ड भुञ्जते आदिग्रहणेनोद्रमाद्यशुद्धं गृह्णन्ति। इतरेषु गच्छस्य सीदतो विधिमाह। चोयावेई गुरुणा, विसीयमाणं गणं सयं वावि। आयवियं सीअंतं, सयं गणेणं व चोयावे।। प्रथमभङ्गे सामाचार्यां विषीदन्तं गच्छंगुरुणांनोदयति अथवा स्वयमेव नोदयति। द्वितीयभङ्गे आचार्य सीदन्तं स्वयं वा गणेन वा नोदयति। दुन्नि वि विसीयमाणे, सयं व वा जे तहिं न सीयंति। ठाणं ठाणासजउ, अणुलोमाइहिं चोएंति॥ तृतीयभड्ने गच्छाचार्यों द्वावपि सीदन्तौ स्वयमेव नोदयति ये वा तत्र न सीदन्ति तैनॊदयति / किं बहुना स्थानं स्थानमासाद्य प्राप्यानुलोमादिभिर्वचेभिर्नोदयति ! किमुक्तं भवति / आचार्योपाध्यायादिकं भिक्षुक्षुल्लकादिकं वा पुरुषवस्तु ज्ञात्वा यस्य यादृशी नोदना योग्या यो वा खरसाध्यो मृदुसाध्यः क्रूरोऽक्रूरो वा यथा नोदनां गृह्णातितं तथा नोदयेत्। भणमाणे भणाविंते, अयाणमाणम्मि पक्खो उकोसो। लज्जए पंच तिन्नि व, तुह किंति विपरिणए विवेगो॥ गच्छमाचार्यमुभयं वा सीदन्तं स्वयं भणेत् अन्यैश्च भाणयन्नास्ते यत्र न जानाति एते भण्यमाना अपि नोद्यमं करिष्यन्ति तत्रोत्कर्षतः पक्षमेकं तिष्ठति गुरुं पुनः सीदन्तः लज्जया गौरवेण वा जानन्नपि पञ्च त्रीन् वा दिवसान् अभणन्नपि शुद्धम् / अथाभाष्यमाणो गच्छे गुरुरुभयं भणेत् भवतः किं दुःखयति यदि वयं सीदामस्तर्हि वयमेव दुर्गतिं गमिष्यामः / एवं विधिना भावेनैव तेषां परिणते विवेकस्ततः परित्यागो विधेयस्ततश्चान्यं गणं संक्रामति तत्र चतुर्भङ्गी संविग्नः संविग्नगणं संक्रामति 1 संविग्नोऽसंविनम् 2 असंविग्नः संविग्नम् 3 असंविग्नोऽसंविनम् 4 तत्र प्रथमो भङ्गस्तावदुच्यते। संविग्गविहाराओ, संविग्गा दुन्नी एज अन्नयरो। आलोइयम्मि सुद्धो, तिविहो उ विहि मग्गणा नवरिं॥ संविनविहारात् संविग्नौ द्वौ अन्यतरौ गीतार्थाऽगीतार्थी संविगे गच्छे समागच्छेतां स च गीतार्थोऽगीतों वा यातो दिवसान संविग्नेभ्यः स्फिटितस्तदिनादारभ्य सर्वमप्यालोचयति आलोचिते च शुद्धः / नवरं त्रिविधोपधेर्यथाकृतादिरूपस्य मार्गणा कर्त्तव्या / इदमेव व्याचष्टे। गीयमगीतो गीते, अप्पडिवठू ण होइ उवघातो। अगीयत्थस्स वि एवं, जेण सुता ओहनिजुत्ती।। ससंविग्नो गीतार्थोऽगीतार्थो वा। यदि गीतार्थो वजिकादिषु अप्रतिबद्धः आयातः तत उपधेरुपधातो न भवति तदा प्रायश्चित्तम् / अगीतार्थस्य येन जघन्यतः ओघनियुक्तिः श्रुता त स्याप्येवमेवाप्रतिबद्धयमानस्य नोपधिरुपहन्यते। गीयाण व मिस्साण व, दुण्ह वयंताण वइयमाईसु। पडिवजंताणं पि हु, उवहि तह गेण्ह चारुवणो॥ द्वयोर्गीतार्थयोगीतार्थागीतार्थविमिश्रयो व्रजतोजिकादिषु प्रतिबद्ध्यमानयोरप्युपधिनोपहन्यतेन वा आरोपणा प्रायश्चित्तं भवति। एवमेकोऽनेके वा विधिना समागता यत्प्रभृति गणानिर्गतास्तत आरभ्यालोचनां वदन्ति / अथ त्रिविधोपधि-मागणामाह। आगंतु जहागडयं, वत्थव्व अहाकडस्स असईए। मेलिंति मज्झिमेहिं,मा गारव कारणमगीए। तस्य गीतार्थस्यागीतार्थस्य वा त्रिविध उपधिर्भवेत् / तद्यथा यथाकृतोऽल्पपरिकर्मा सपरिकर्मा वा वास्तव्यानामप्येवमेव त्रिविध उपधिर्भवति / तत्र यथाकृतो यथाकृतेन मील्यत अल्पपरिकर्मा अल्पपरिकर्मणा सपरिकर्मा सपरिकर्मणा। अथ वास्तव्यानां यथाकृतो नास्ति तत आगन्तुकस्य यथाक्रमं वास्तव्य -मध्यमैरल्पपरिकर्मभिः सह मीलयन्ति किं कारणमिति चेदत आह 1 माऽसौ मीलितः सन् अगीतार्थस्य मदीय उपधिरुत्तमसांभोगिकः अतोऽहमेव सुन्दर इत्येवं गौरवकारणं भवेदिति। गीयत्थे ण मिलिजइ, जो पुण गीओ वि गारवं कुणइ। तस्सुवही मेलिज्जइ, अहिगरणअपचओ इहरा। गीतार्थो यद्यगौरवी ततस्तदीयो यथाकृतः प्रतिग्रहो वास्तव्ययथाकृबाभावेऽल्पपरिकर्मभिः सह न मीलयन्ति किं तु उत्तमसांभोगिकाः क्रियन्ते। यस्तु गीतार्थोऽपि गौरवं करोति तस्य कृते वास्तव्याल्पपरिकर्मभिः सह मील्यते किं कारणमिति चेदत आह (इहरत्ति) यदि यथाकृतपरिभोगेन परिशुध्यते तदा केनाप्यजानता अल्पपरिकर्मणा समं मेलितं दृष्ट्वा सगीतार्थोऽधिकरणमसंखण्डं कुर्यात् किमर्थ मदीय उत्कृष्टोपधिरशुद्धेन सह मीलित इति / अप्रत्ययो वा शैक्षाणां भवेत् / अयमेतेषां सकाशादुधुक्ततरविहारी येनोपधिमुत्कष्टं परिभुते एते तुहीनतरा इति। एवं खलु संविग्गा-संविग्गे संकम करेमाणे। संविग्गासंविग्गे, संदिग्गे वा वि संविग्गे // 3 // एवं खलु संविग्नस्य संविग्नेषु संक्रमं कुर्वाणस्य विधिरुक्तः / अथ संविग्रस्यासं विनेषु संक्रामतोऽसंविग्नस्य वा संविग्नेषु संक्रामतो विधिरुच्यते। तत्र संविग्नस्यासंविग्नसंक्रमणे तावदिमे दोषाः। सीहगुहं वग्घगुहं, उदहिं व पलित्तं व जो पविसो। Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपया असिवं ओमारियं,धुवं से अप्पा परिचत्तो।। कप्पति / स गणावच्छेइयत्तं णिक्खिवित्ता जाव विहरित्तए णो से सिंहगुहां व्याघ्रगुहामुदधिं समुद्रं प्रदीप्तं वा नगरादिकं यः प्रविशति कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए कप्पति से अशिवमवमौदर्य वा यत्र देशे तत्र यः प्रविशति तेन ध्रुवमात्मा परित्यक्तः / आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तएतेय से वितरंति एवं से चरणकरणप्पहीणे, पासत्थे जो ए पविसए समणो। कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए जाव विहरित्तए तया से नो जतमाए य पहिलं, सो ठाणे परिचइ तिण्णि।। विहरंति एवं से णो कप्पइ जाव विहरित्तए जत्थुत्तरियं धम्मविणयं एवं सिंहगुहादिस्थानीये चरणकरणग्रहीणे पावस्थे यः श्रमणो लभेजा एवं से कप्पत्ति अण्णंगणंस जाव विहरित्तए। जत्थुत्तरियं यतमानान्संविग्नान् प्रहाय परित्यज्य प्रविशति स मन्दधा त्रीणि धम्मविणयं णो लभेज्जा एवं से एो कप्पति अण्णं गणं स जाव स्थानानि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि परित्यजति। अपि च सिंहगुहादिप्रवेश विहरित्तए जत्थुत्तरिय धम्मविणयं णो लभेज एवं से णो कप्पति एकभाविकं मरणं प्राप्नोति पार्श्वस्थेषु पुनः प्रविशन्ननेकानि मरणानि जाव विहरित्तए। आयरिय उवज्झाए य गणादवकम्म इच्छेजा प्राप्नोति। अण्णं गणं संभोगपडियाए जावविहरित्तए णो से कप्पइ आयरिय एमेव अहाछंदे, कुसीलओसननीयसंसत्ते। उवज्झाए य गणं लभेजा एवं से णो अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं जं तिण्णि परिचयइ, नाणं तह दंसणचरित्तं / / गणं संभोगपडियाए जाव विहरित्तए णो से कप्पइ / एवमेव पार्श्वस्थवत् यथाच्छन्देषु कुशीलाक्सन्ननित्यवासिसंसक्तेषु च आयरियउवज्झायत्तं अणिक्खिवित्ता अण्णं गणं स जाव विशतो मन्तव्यम् / यच्च त्रीणि स्थानानि परित्यजतीत्युक्तं तज्ज्ञानं विहरित्तए कप्पति से आयरिय उवज्झायत्तं णिक्खिवित्ता जाव दर्शनञ्चारित्रं चेति द्रष्टव्यं गतो द्वितीयोभङ्गः। विहरित्ता णो से कप्पति अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव अथ तृतीयभङ्गमाह विहरित्तए कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव विहरित्तए। पचण्हं एगयारे, संविग्गो संकमं करेमाणो। ते य से विहरंति / एवं से कप्पति जाव विहरित्तए ते य से णो आलोइए विवेगो, दोसु असंविग्गसच्छंदो। विहरंति एवं से णो कप्पति जाव विहरित्तए जत्थुत्तरियं पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्त यथाच्छन्दानामेकतरः संविग्नेषु संक्रम धम्मविणयं लभेजा एवं से कप्पइ जाव विहरित्तए जत्थुत्तरियं कुर्वन् प्रथममालोचनां ददाति। तत आलोचितेऽविशुद्धोपधेर्विवेकं करोति धम्मविणयं णो लभेज्जा एवं से नो कप्पति जाव विहरित्तए। स च यदि चारित्रार्थ मुपसंपद्यति ततः प्रतीच्छनीयो यस्तु अस्य सूत्रद्वयस्य व्याख्या पूर्ववत्। अथ भाष्यम्। द्वयोनिदर्शनयोरर्थयोः संविग्न उपसंपद्यते तस्यास्वच्छन्दः स्वाभिप्रायो एमेव गणावच्छेदिअ, गणिआयरिए वि होइ एमेव / नासौ प्रतिच्छनीय इति भावः। णवरं पुण णाणत्तं, एते नियमेण गीयाओ।। पंचेगतरे गीये, आरुवियवते जयंति एतम्मि। एवमेव गणावच्छेदिकस्य तथा गणिन उपाध्यायस्य आचार्यस्य च सूत्रं जं उवहिं उप्पाए संभोइयसेसमुज्झंति।। मन्तव्यं नवरं पुनरत्र नानात्वं एते नियमात् गीतार्था भवन्ति नागीतार्थाः / तेषां पञ्चानां पार्श्वस्थादीनामेकतर आगच्छन् यदि गीतार्थः स्वतः बृ०४ उ०ा नि० चू०। स्वयमेव महाव्रतान्युचार्यारोपितव्रतो यतमानो वजिकादाव- (सूत्रम्) जे मिक्खू वुसियराइयाओ गणिओ अवुसाएइयं गणं प्रतिवध्यमानो मार्गे यमुपधिमुत्पादयति स साम्भोगिकः संकमंतं वा साइजइ / / 1 / / (सेसमुज्झंतित्ति) यःप्राक्तन् पार्श्वस्थोपधिरविशुद्धस्तं परिष्ठापयति यः सिरातिया गणातो,जे भिक्ख संकमे य अवसिं वा। पुनरगीतार्थस्य उपधिस्तस्य चिरंतनोऽभिनवोत्पादितो वा सर्वोऽपि अवुसाराइगणं वा, सो पावति आणमादीणि // 385 / / परित्यज्यते। सितितो वुसिरातियं चउभंगो कायव्यो चउत्थभंगो अवत्थुते तियभंगे तेषु चाऽयमालोचनाविधिः। किंपडिसेहो आचार्य आहतत्थणोपडिसेहो कारणे पुण पढ़मे भंगे उवसंपदं पासत्थाई मुंडिए, आलोयणा होइ दिक्खपभिई तु / करेति सा य उवसंपया कालं पडुच तिविहा इमा। संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिइ चेव ओसण्णे।। छम्मासे उवसंपदे, जहण्ण वारससमाउ मज्झिमिया। यत्पावस्थादिभिरेव मुण्डितः प्रवाजिस्तस्य दीक्षादिनादार- आवकहा उक्कोसो पडिच्छसीसे तु जे जीवं // 356|| भ्यालोचना भवति यस्तु पूर्वं संविग्नः पश्चात्पार्श्वस्थो जातस्तस्य उवसंपदा गाहा जहण्णा मज्झिमा उक्कोसा जहन्ना छम्मासो मज्झिमा संविग्रपुराणस्य यत्प्रभृत्यवसन्नो जातस्तद्दिनादारभ्यालोचना भवति। वारसवरिसे उक्कोसो जावजीवं एवं पडिच्छगस्स सिसस्स एगविहा चेव (8) गणावच्छेदको गणादवक्रम्येच्छेदन्यं गणमुपसंपद्य जावजीवं आयरियो ण मोत्तव्यो। ___ संभोगप्रतिज्ञया विहर्तुम्। छम्मासे य अपूरेंता, गुरुगा वारससमासु चउलहुगा! (सूत्रम्) गणावच्छेइए य गणादवकम्म इच्छेजा अण्णं गणं तेण परमासियत्तं, मणितं पुण आरतो कज्जे // 360 / / संभोगपरियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए णो से कप्पइ जेणं पडिच्छ गेणं छम्मासिता उवसंपया कता सो जति गणावच्छेइत्तं अणिक्खिवित्ता संभोगपडियाएं जाव विहरित्तए / छम्मासे अपूरेत्ता जाति तस्स चतुगुरुगा। जेण वारस वरिसा Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपया 1047- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसंपयाकप्प कता तं अपूरेत्ता जाइ चउलहुं / जेण जावज्जीवं उवसंपदा कता तस्स मासलहुंछम्मासाणं परेणं णिक्कारणेगच्छंतस्स मासलहुँ। जेण वारससमा उवसंपदा कता तस्स विछम्मासे अपूरतस्स चउगुरुआचेव वारससामातो परेण मासलहुं चेव जेण जावजीवे उवसंपया कता तस्स छम्मासे अपूरेतस्स चउगुरुगा चेव तस्सेव वारससमाओ अपूरतस्स चउलहुगा एस सोही गच्छतो णितस्स भणिता॥ नि०चू०उ०१६॥ (8) कुगुरौ सत्यन्यत्रोपसम्पत्। से भयवं जयाणं गणिणा गच्छे तिविहेण वोसिरिए विजा तया णं ते गच्छे आदरेजा जइ संविग्गभवित्ताणं जहु तं पच्छित्तमणुचरित्ताणं अन्नस्स गच्छाहिवइणो उवसंपञ्जित्ताणं समग्गमणुसरेज्जा तओ णं आयरिज्जा अहाणं सच्छंदत्ताए तहेव चिट्टे तओ णं चउविहस्सवि समणसंघस्स वज्जतं गच्छं तो आयरेज्जा / महा०-७ अ०। (सामायिकसंयतादयः सामायिकसंयतत्वादिकं जहतः किमुपसंपद्यत इति संजयशब्दे) (समापिकार्थमन्यत्रोपसंपत्सामाइयशब्दे वक्ष्यते) (श्रुतमार्गसुखदुःखाद्युपसंपदमधिकृत्याऽऽ भव व्यवहारः ववहारशब्दे वक्ष्यते) उवसंपयाकप्पपुं० (उपसंपत्कल्प) उपसंपद्विधौ, उवसंपदाय कप्पं, एत्तो उसमासतो वोच्छं। दुविहम्मि आगमम्मि उ, पण्णवणा चेव आयरणता य॥ पण्णवणगहणअणुपालणा य उवसंपदा होति। आगमहेउ उवसंपदाउ, स य आगमो भवे दुविहो / / सुत्तं अत्थो य तहा, पारगते तत्थ उवसंपा। दो आयरियप्पेरग कत्थ तहिं कुजा॥ जो निउणतरं मासति, अह निउणं दो विभायंति प०भा०. इयाणिं उवसंपया कप्पो तत्थ गाहा दुविहम्मि सा दुविहा उवसंपया आगमनिमित्तं उवसंपजिजइ सुत्तनिमित्तं अत्थनिमित्तं वा अहवा ते आयरिया परूवेऊण सुत्तपयाणि उस्सग्गावाएसु गाढं जाणंति अहवा गाढतरं तत्थ आचरणा पडिलेहणाइसु अहवा ते पण्णवणं धम्मकहाए अक्खेवणाइसु धम्मपण्णवणं निरागं जाणंति तं पि किरि सिक्खियव्वं धम्मकहिस्स वा गाहणा ते आयरिया गाहणाकुसला अणुयत्तत्ति वा ते आयरिया गिलाणाइसु कारणेसु अणुवालेंति वा मूलगुणाइ एवं परूवणाइसंपन्नो उवसंपज्जियव्यो एयवइरित्तो न उवसंपजियव्वो जइ वि गीयत्थो होइजेपुण असंविग्गादयोउवसंपज्जइपरूवणाइसंपन्नंतिकाऊण गाहा क्त्तणा संधणा वत्तणा नाम सुत्तस्स परियट्टणा अत्थस्स गुणणा संधणा सुत्तत्थाणं पच्चुच्चकारणा गहणं अभिणवाणंसुत्तत्थाणं चेवगाहा ततियाजोसोउवसंपञ्जंतओसोगच्छंपरिच्छइसोवा गच्छेण परिच्छिाइ तयाओ निकारणे आमुचति वच्छाइचलणाणिवा निक्कारणे धुवंतिमरवेंति वा य मज्जणाइ डंडाइ गहणनिक्खेवणा भवइ माणेत्ति निक्खमणपवेसे आवसियनिसीहियाओ नत्थि सुत्तत्थतदुभयाणि वा न करेंति मोणेण इच्छंति एयाणि उवसंपञ्जमाणो न कुज्जा गच्छे वा एवमाइ नत्थि पच्छा सारणया वा विसम्गो वा जइ वत्तट्ठाइनिमित्तमुवसंपन्नो न वत्तइ न सेवइ अभिणवं वान गेण्हइसारिउंपच्छा विसम्मोजोपुणपासत्थाह उवसंपज्जइ तत्थ गाहा सिद्धं सीमुहं चरणकरणं गाहा सिद्धएमेव अहाच्छंदे सिद्धं को पुण अरिहो कत्थ उवसंपज्जियव्वं भत्तोवहि तत्थेमे चतारि गच्छा एगो भत्तपाणं गिण्हइ वि। एगो देइ नगेण्हइ। एगो गेण्हइ न देइ। एगो न देइन गेण्हइ / तत्थ पढंमे उवसंपजियव्वं सेसा नाणुनाया विइए लाभ लभइ गिलाणाइसु कज्जेसु तइए भंगे गिलाणस्स सन कोइ किंचि करेइ अट्ठ वसट्ठस्स भरणदोसा चउत्थो असेज्जएवं पढमे गुणा भत्तोवहिसयणासणाईसुगहणदाणे य हट्ठगिलाणाइकज्जेसु अवरो परस्स एयाणि जत्थकीरति तत्थ अणुण्णायंगाहा सिद्धंचजो पुण सुद्धं आयरियं दुसइ कणयपुच्छियो असुयस्स आयरियस्स पासे कीस नट्टिओ सिन पढओवा भण्णइ तस्स असुओ नामदोसो अप्पियसज्झायाइ जइयते तस्स दोसा नत्थि ताहे तमावज्जइ जं दोसं भणइ जं च असुद्धस्स भूले अवसंपज्जइतंचतयं आवजइ। एवं ता उवसंपज्जइ। इयाणि उवसंपयारिहो जइ असुद्धं असुगो नाम एयस्स दोसो अविणियइ तं जइ पडिच्छइ ताहे छट्ठाणवाइ तट्ठाणमावज्जइजंच असुद्धं रागेण पडिच्छइजे तस्स दोसा ते आवजइ वोसहि तिहाणो नाम नाणदरिसणचरित्ताणि केरिसो आयरियो अणरिहो उवसंपदं प्रति गाहा आहारे उच्यते जो आहारोवही ए अहं लभिस्सामीति संगहं करेइ पडिच्छमाणं च ततो लज्जामि अणरिहे वा तितिणियादओवा चेतियसट्ठीए वा आकड्डिसमाकड्डी काऊण वा चयति सो वि नोवसंपञ्जियव्यो / जो पुण एगंतनिजरट्ठी पंचहिं ठाणेहिं वारहिं संगहोवगह अव्वोच्छित्ती नयट्ठयाए सो उवसंपज्जियव्वो वायणारिहो वि नाणदंसण अहत्थि भावा जाणणट्टयाए वा पढए सो वाएयव्वो तस्स पुण वाएंतस्स एयाणि चेव अहारोवहिमाईणि लब्भंति एए चेव ठाणावायणाइ विलभयंति रागेण थामवहारविजड्डो तित्थस्स अणुवमया इति कढतस्स प्रकासंच भवति गणहारिस्स आहारो एस उवसंपयाकप्पो पं० चू० उवसंपयसंकप्पो, सुगुरुसगासे गिही असुत्तत्थो। तदहिअगहणसमत्थो, अणुनाउ तेण संपजो॥८६|| उपसंपदानां संकल्पोव्यवस्था स्वगुरुसकाशे यथा संभवं गृहीतसूत्रार्थः सन्नतत्प्रथमतया तदधिकग्रहणसमर्थः प्राज्ञः सन्न तु ज्ञातस्तेन गुरुणोपसंपद्यते विवक्षित समीप इति गाथार्थः। तत्रापि सप्परिणयपरिवारं, अप्परिवारं च णाणुजाणावे। गुरुमेसोवि सयं विअ, एतदभावेण धारिजा / / 7 / / सपरिणतपरिवारं शिक्षक प्राय परिवारमपरिवारं चैकाकीप्राय नानुज्ञापयेद्गुरुं शिष्योऽनेकदोषप्रसङ्गादाषोऽपि गुरः स्वयमेवैतदभावेपरिणतपरिवाराधभावेन धारयेद्विसर्जयेदिति गाथार्थः / तत्र संदिट्ठो संदिट्ठस्स,अंतिए तत्थ मिह परिचाओ। साहुअमग्गे वाअण, तिदुवरि गुरुसम्मए चागो॥५८|| संदिष्टः सन् गुरुणा संदिष्टस्य गुरोः समीपे उपसंपद्यतेति वाक्यशेषस्तत्र मिथः परस्परं परीक्षा भवति। तयोः साधूनाममार्गे वादनं करोत्यागन्तुकः मिथ्यादुष्कृतादाने त्रयाणामुपरिगुरुकथनं तत्सम्मतेशीतलतया त्याग: असम्मते निवासस्तेषामपि तं प्रत्ययमेव न्याय इति गाथार्थः / गुरुफरसाहिगकहणे, सुजोगओ अह निवेअणं विहिणा। सुअखंधादिउ निअमो, आहटवणुपालणाचेवा गुरोरपि तं प्रति परुषाधिक कथनं जीतं वर्तते सुयोगतः प्रतिपत्तिशुद्धौ सत्यामथानन्तरं निवेदनं गुरुवे विधिना प्रवचनोक्तेनोपदिशेदित्यर्थः। तत्र श्रुतस्कन्धादौ नियम एतावन्तं कालं Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंपयाकप्प 1048 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्ग यावदित्वेवमहदादिसाक्षिकी स्थापना कायोत्सर्गपूर्वि के त्यन्ये उभयनियमश्वाऽयमाभाव्यानुपालना शिष्येण नालबद्धेनेव शिष्येण | नालबद्धबल्लिव्यतिरिक्तादयं गुरुणाऽपि सम्यक्पालनीय इति गाथार्थः / इह प्रयोजनमाह। अस्सामित्तं पूआ, इअरोवेक्खाए जो असुहमावो। परिणमइ सुअआहव्वादाणगहणं अओ चेव ||6|| अस्वामित्वं भवति निःसङ्गतेत्यर्थः तथा पूजा गुरोः कृता भवति इतरापेक्षयाऽनालबद्धवल्लिनिवेदनेनेतरगुर्वपेक्षयेति भावः / तथा जीतमितिकल्पोऽयमेव एवं भगवता दृष्ट इति श्रुतभावादित्यनेन प्रकारेण शुभाशयोपपत्तेः परिणमतिश्रुतं यथार्हतया चारित्रशुद्धिहेतुत्वेन शिष्यस्य नान्यथत्याभाव्यादानं शिष्येण कर्त्तव्यं ग्रहणमत एव तस्य गुरुणाऽपि कर्तव्यं तदनुग्रहधियामलोभादितिगाथार्थः / पं० 207 द्वा। उवसंहार पुं० (उपसंहार) उप-सम्-ह-घञ् -समाप्तौ, स च ग्रन्थतात्पर्यावधारकलिङ्गभेदः “उपक्रमोपसंहारौ हेतुस्तात्पर्यनिर्णय" इत्युक्ते तत्रोभयोरेव तद्धेतुत्वं न तु प्रत्येकस्य संग्रहे सम्यग् हरणे, श्रुतार्थस्यान्यत्रान्वयार्थमुपक्षेपे,यथा गुणोपसंहारः / वाचा उवसग्गपुं०(उपसर्ग) उप-सृजघ-उपसृज्यन्तेधातुसमीपे युज्यन्ते इत्युपसर्गाः। प्रश्न०४ द्वा०ा प्रश्रव्याकरणोक्तेषु, निपाताश्चादयो ज्ञेयाः प्रादयस्तूपगसर्गकाः / “द्योतकत्वात् क्रियायोगे लोकादवगता इमे" इत्युक्तलक्षणेषु क्रियायोगे प्रादिषु, तेषां त्रिधा प्रवृत्तिः “धात्वर्थं वाधते कश्चित्कश्चित्तमनुवर्तते / तमेव विशिनष्ट्यन्य उपसर्गगतिस्त्रिधा / क्रमेणोदाहणानि यथा आदत्ते प्रसूते प्रणमतीति / अपि च "उपसर्गेण धात्वर्थो, वलादन्यत्र नीयते / प्रहाराहारसंहार विहारपरिहारवत्" प्रादयस्तूपसर्गा न सार्थकाः सार्थकाश्च चादयो निपाता वाचकत्वात्। “उपसर्गास्तु उभयेऽपि द्योतका इति मेनिरे" वाच०।पोवः।।१।३१। इति पस्य वः। प्रा० उपसृज्यन्ते क्षिप्यन्त च्याव्यन्ते प्राणिनो धर्मादेर्येषु इत्युपसर्गाः। देवादिकृतोपद्रवेषु, स्था० 10 ठा० / पंचा०। आ०म०। आ०चू० (1) उपसर्गव्याख्या। (2) उपसर्गनिक्षेपः। (3) तत्कारिभेदादुपसर्गभेदाः। (4) उपसर्गसहनम्। (5) संयमस्य रूक्षत्वम्। (6) अनुकूलोपसर्गसहनम्। (1) अथोपसर्गान् व्याख्यातुमाह। उवसक्षणमुवसग्गो, तेण तओवसज्जए जम्हा। उपसर्जनमुपसर्गः / अथवा करणसाधनः उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह जीवस्तेनेत्युपनसर्गः / अथवा कर्मसाधनः उपसृज्यते संबध्यते तत्कोऽसावेव तदुपसर्गः / अथवा उपादानसाधनः ततस्तस्मादुपसर्गाजीवः उपसृज्यतेसंबध्यतेपीडादिभिः सह यस्मात्ततः उपसर्गः। विशे०। उत्त। (2) उपसर्गनिक्षेपो यथा। उवसग्गम्मिय छकं, दवे चेयणमचेयणं दुविहं। आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उ उवसग्गो ||1|| नामस्थापनात् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् उपसर्गाः षोढा / तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्योपसर्ग दर्शयति / द्रव्ये द्रव्यविषये उपसर्गो द्विधा यतस्त हव्यमुपसर्गकर्तृचेतनाचेतनभेदात् द्विविधम्। तत्र तिर्यङ् मनुष्यादयः स्वावयवाभिघातेन यदुपसर्गयन्ति स सचित्तद्रव्योपसर्गः स एव काष्ठादिनेतरस्तत्वभेदपर्यायव्याख्यातः। तत्रोपसर्ग उपतापः शरीरपीडनोत्पादनमित्यादिपर्यायाः / भेदाश्च तिर्यङ् मनुष्योपसर्गादयः / नामादयश्च तत्र व्याख्यातु नियुक्तिकृदेव गाथापश्चार्द्धन दर्शयति / अपरस्माद्दिव्यादेरागच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गो भवति स च देहस्य संयमस्य वा पीडाकारीति / / 1 / / क्षोत्रोपसर्गानाह। खेत्तं बहुओघपयं कालो एगंतदुस्समादीओ। भावे कम्मन्मुदओ, सो दुविहो ओघुवक्कमिओ // 2 // यस्मिन् क्षेत्रे बहून्योधतः सामान्येन पदानि क्रूरचौराद्युपसर्गस्थानानि भवन्ति तत्क्षेत्र बहोघपदम् / पाठान्तरं वा बहोघभयं बहून्योघतो भयस्थानानि यत्र तत्तथा तिच लाभादिविषयादिकं क्षेत्रमिति / कालस्त्वेकान्तदुःखादिः आदिग्रहणात् यो यस्मिन् क्षेत्रे दुःखोत्पादको ग्रीष्यादिः स गृह्यत इति ।कर्मणां ज्ञानावरणादीनामभ्युदयो भावोपसर्ग इति। सच उपसर्गः सर्वोऽपि सामान्येन औधिकोपक्रमिकभेदात् द्वेधा। तत्रौधिकोऽशुभकर्म प्रकृतिजनित-भावोपसर्गा भवति। औपक्रमिकस्तु दण्डकशाशस्त्रादिना-ऽसातवेदनीयोदयापादक इति / / 2 / / (3) तत्रोधिकौपक्रमिकयोरुपसर्गयोरौपक्रमिकमधिकृत्याह। ओवकमिओ संयमविग्घकरे तत्थुवक्कमे पगयं। दवे चउविहो दे, व मणुयतिरिया य संवेतो // 3 // उपक्रमणमुपक्रमः। कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणमित्यर्थः / एतच यद्दव्योपयोगात् येन वा द्रव्येणाऽसातवेदनीयाधशुभं कर्मोदीर्यते यदुदयाचाल्पसत्वस्य संयमविधातो भवति अत औपक्रमिक उपसर्गः संयमविघातकारीति। इह च यतीनां मोक्ष प्रति प्रवृत्तानां संयमो मोक्षाङ्ग वर्तते तस्य यो विघ्नहेतुः स एवाधिक्रियत इति दर्शयति / तत्रौधिकोपक्रमिकयोरोपक्रमिके प्रकृतं प्रस्तावस्तेनात्राधिकार इति यावत। सचद्रव्ये द्रव्यविषयश्चिन्त्यमानश्चतुर्विधो भवति। तद्यथा दैविको मानुषस्तैरश्च आत्मसंवेदनश्चेति। सूत्र०१श्रु०३ अ०॥ चउटिवहा उवसग्गा पण्णत्ता तं जहा दिवा माणुसा तिरिक्खजोणिया आयसंचेयणिज्जा। दिव्वा उवसग्गा चउविहा पण्ण्त्ता तं जहा हासाप्पओसा वीमंसा पुढोवेमाया / माणुस्सा उवसग्गा चउटिवहा पण्णत्ता तं जहा हासाप्पओसा वीमंसा कसीलपडिसेवणया। तिरिक्खजोणिया उववसम्गा चउव्विहा पण्णत्ता तं जहा भया पदोसा आहारहे उं अवचे लेण साक्खणया। आयसंचेयणिजा उवसग्गा चउव्विहा पण्णत्ता तं जहा घट्टणया पवडणया थंभणया लेसणया। सूत्रपश्चक माह कण्ठ्योदं नवरमुपसर्जनान्युपसृज्यते धम्मत्तिच्याव्यते जन्तु रेभिरित्युपसर्गाः वाधाविशेषास्ते च कर्तृभेदाचतुर्विधा / आह च "उवसज्जण मुवसम्गो तेण तओ उवसयजिए जम्हा / सो दिध्वमायते रिच्छ आयसंचेवणा भेउत्ति / / 1 / / आत्मना सञ्चेत्यन्ते क्रियन्त इत्यात्मसञ्चेतनीयाः तत्र दिव्याः। (हासत्ति) हासाद्भवन्ति हाससंभूतत्नात् वा हासाः उपसर्गा एवेत्येवमन्यत्रापि। यथा भिक्षार्थं ग्रामान्तरप्रस्थितक्षुल्लकैय॑न्तर्या उपयाचितं प्रतिपन्नं यदीप्सितं लप्स्यामहे तदा तवोंडे रिकादि Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्ग 1046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्ग दास्याम इति लब्धे च तत्र तवेदमिति भणित्वा तदुण्डेरकादितैः स्वयमेव भक्षितं देवतया च हासेन तद्रूपमावृत्त्य क्रीडितमनागच्छत्सु क्षुल्लकेषु व्याकुले गच्छे निवेदितमाचार्याणां देवतया क्षुल्लकवृत्तम् / ततो वृषभैरुण्डेरिकादियाचित्वा तस्यै दत्तं तया तु ते दर्शिता इति। प्रद्वेषाद्यथा सङ्गमको महावीरस्योपसर्गानकरोत्। विमर्षाद्यथा क्वचिद्देवकुलिकायां वर्षासूषित्वा साधुषु तदीय एवान्यः पश्चादागतस्तत्रोषितस्तञ्च देवता कि स्वरूपीयमिति विमर्षादुपसर्गितवतीति / पृथग विभिन्ना विविधा मात्रा हासादिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्रा। अथवा पृथग विविधा मात्रा विमात्रा तयेत्येतल्लुप्ततृतीयैकवचनं पदं दृश्यम्। तथा हि हासेन कृत्वा प्रद्वेषण करोतीत्येवं संयोगः यथा संगमकएवं विमर्षेण कृत्वा प्रद्वेषेण कृतवानिति। तथा मानुषा हास्यात्यथा गणिकादुहिता क्षुल्लकमुपसर्गितवतीं सा च तेन दण्डेन ताडिता विवादे च राज्ञः श्रीगृहदृष्टान्तो निवेदितस्तेनेति प्रद्वेषात् यथा गजसुकुमारः सोमिलब्राह्मणेन व्यपरोपितो विमर्षात् यथा चाणक्योक्तचन्द्रगुप्तेन धर्मपरीक्षार्थं लिङ्गिनोऽन्तःपुरे धर्ममाख्यापिता क्षोभिताश्च साधवस्तु क्षोभितुं न शक्ता इति / कुशीलमब्रह्म तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणं तद्भावः कुशीलप्रतिषेवणता उपसर्गकुशीलस्य वा प्रतिषेवणं येषु ते कुशीलप्रतिषेवणकाः / अथवा कुशीलप्रतिषेवणयेति व्याख्येयं यथा संध्यायां वसत्यर्थ प्रोषितस्येालोहि प्रविष्ठः साधुश्चतसृभिरीष्ालुजाया-भिर्दत्तावासः प्रत्येकं चतुरोऽपि यामानुपसर्गितो न च क्षुभितः। तथा तैरश्चो भयात् श्वादयो दशेयः प्रद्वेषाश्चण्डकौशिको भगवन्तं दष्टवान् आहारहेतोः सिंहादयोऽपत्यलयनसंरक्षणाय काक्यादयः उपसर्गयेयुरिति / तथा आत्मसंवेदनीया घट्टनता घट्टनया वा यथाऽक्षणि रजः पतितंततस्तदक्षि हस्तेन मलितंदुःखितुमारब्धमथवा स्वयमेव अक्षणि गले वा मांसाडरादि जातं घट्टयतीति प्रपतनात् प्रपतनया वा यथा अप्रयत्नेन संचरतः प्रपतनात् दुःखमुत्पद्यते स्तम्भनतस्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः पादादिस्तब्धो जातः श्लेषणता श्लेषणया वा यथा पादमाकुच्य स्थितो वा तेन तथैव पादौ लगितौ इति / आत्मसञ्चने उदाहरणानि उपसर्गसहनात्कर्मक्षयो भवतीति। स्था०४ ठा०४ उ० सो दिव्वमणुयतेरिच्छियाय संवेयणा भेओ। स च देवेभ्यो भवो दिव्यो मनुष्येभ्यो भवो मानुषः तिर्यग्योनिभ्यो भवस्तैर्यग्योनः आत्मना संवेद्यत इत्यात्मवेदनीयः इत्येवं चतुर्भेद इति। केन पुनः कारणेन देवादिभ्य साधूनामुपसर्गा भवन्तीत्याह। हासप्पओसवीमंसउ, विमायाए वा भवे दिव्वो। एवं चिय माणुस्सो, कुसीलपडिसेवणचउत्थे॥ तिरिओभयप्पओसाहारावयाइ रक्खणत्थं वा। घट्टणथंभणपवडण,लेसणओ वायसंवेओ॥ हासात्क्रीडातः अवज्ञातः पूर्वभवसंबन्धादिकृतप्रद्वेषाद्वा (वीमंसउत्ति) किमयं स्वप्रतिज्ञातश्चलति न वेति मीमांसातो विमर्षादिव्य उपसर्गो भवेत्तथा (विमयाएत्ति) विविधा मात्रा विमात्रा तस्याः सकाशाकिमपि हास्यात्मिकमपि प्रद्वेषात्किंचिन्मीमांसातश्चेत्यर्थः / दिव्य उपसर्गो भवेदिति / एवं मानुष्योऽप्युपसर्गश्चतुर्विधो भवेत्केवलं (कुसीलपडिसेवणचउत्थेति) स्त्रीपण्डकलक्षणो यः कुशीलस्तत्प्रतिसेवनामाश्रित्य चतुर्थो भेदो द्रष्टव्यः। विमात्रापक्षस्यात्र हास्यादिष्वेवान्त विविवक्षणादिति तिर्यङ् भयात्प्रद्वेषादाहारार्थमपत्यनीडगुहादिस्थानरक्षणार्थमुपसर्गं कुर्यादिति / आत्मसंवेदनीयस्तूपसर्गोनेत्रपतितकणिक्कादिघट्टनादङ्गाना स्तम्भनात्स्तब्धताभावाद्र्तादौ वा प्रपतनाद्विगुणितबाहाद्यङ्गानां वासनात्परस्परं श्लेषणाद्वतीति सप्तचत्वारिंशगाथार्थः / विशे०॥ सांप्रतमेतेषामेव भेदमाहएकेको यचउविहो, अट्ठविहो वा वि सोलसविहो वा। घट्टणजयणाय तेसिं, एत्तो वोच्छंय अहियारो ||4|| एकैको दिव्यादिश्चतुर्विधश्चतुर्भेदः। तत्र दिव्यस्तावत हास्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रातश्चेति / मानुषा अपि हास्यात् प्रद्वेषाद्विमर्थात् कुशीलप्रतिसेवनातश्च / तैरश्चा अपि चतुर्विधाः तद्यथा भयात्प्रद्वेषादाहारादपत्यसंरक्षणाच्च / आत्मसंवेदना अपि चतुर्विधाः घट्टनातो लेशनातोऽङ्गुल्याद्यवयव संश्लेषरूपाया स्तभनातः प्रपाताचेति / यदि वा वातपित्तश्लेष्मसंनिपातजनितश्चतुर्धे ति / स एव देव्यादिश्चतुर्विधोऽनुकूलप्रतिकूलभेदात् अष्टधा भवति। स एव दिव्यादिः प्रत्येकं यश्चतुर्धाप्राग्दर्शितः स चतुर्णां चतुष्काणां मेलापकात्षोडशभेदो भवति। तेषां चोपसर्गाणां यथा घटना संबन्धप्राप्तिः प्राप्तानां चाधिसहनं प्रतियातना भवति तथाऽतऊर्द्धमध्ययनेन वक्ष्यते इत्ययमत्रार्थाधिकारः इति भावः। सूत्र०१ श्रु०३ अ०। एतेषाञ्च सहनाऽवधिभूतः श्रीमन्महावीरो बोद्धव्यः भावनोत्पादनार्थपुनरेकैकशः परमपुरुषाः सम्यक् सहनादाप्तकल्याणाः कथ्यन्ते। तथा चाह॥ देवेहिं कामदेवो, गिही विनयचाइउरगुणेहिं। मत्तगयंदभुअंगमरक्खसघोरट्टहासेहिं।। देवस्यैते देवा देवकृताद्वा देवोभगवच्छीमहावीरसत्कदशश्रावका-न्तर्गतः गृह्यपि गृहस्थोऽपि न च नैव व्यधितश्चलितस्तपोगुणेभ्यः कथं भूतैर्मत्तगजेन्द्रभुजङ्गमराक्षसघोराट्टहासैः। तथाहि शक्रवर्णनाश्रद्धश्रद्धानायातदेवनिर्मितैः कदर्थ्यमानेनापिन परित्यक्ता स्वप्रतिज्ञेति गाथार्थः / भावार्थः कथानकेभ्यः स्फुटीभविष्यति भगवओ महावीरस्स दस सावया अहेसितं / “आनन्द कामदेवे, चुलणिपिया तह य सुरदेवे। चुल्लसए कुंडोलिय, सयालपुत्ते य महसयए।नंदिणिपियलेयइपिय, दस सावगाउ वीरेणं / मिच्छत्ततमविमोइय, एए दढसावए सुवए"। दर्श०। (कथानकानि तत्तच्छब्दे वक्ष्यन्ते। आत्मसंवेदनीयोपसर्गोदाहरणन्तुस्वधियाऽप्यूह्यम्) कल्पका औ०। आव०नि०चुला जीत०स्था। दिवे य जे उवसग्गे, तहा तिरिच्छमाणुस्से। जे भिक्खू सहइ निचं,सेन अत्थइ मण्डले / / 5 / / यो भिक्षुर्दिव्यान् देवैः कृतान् तथा तैरश्वान् तिर्यग्भिः कृतान् तथा मानुष्यकान् मनुष्यैः कृतान् उपसर्गान् सम्यग् कषायाभावेन सहते स मण्डले संसारे न तिष्ठति। उत्त०३१ अ०। त्रिविधा उपसर्गाः। तिविहे य उवसग्गे, दिव्वे माणुस्स तिरिक्खे य। दिवे य पुष्वमणिए, माणुस्से आमिओगे य॥ त्रिविधः खलु परसमुत्थ उपसर्गस्तद्यथा देवो मानुष्यकस्तैरश्चश्च / तत्र देवो दैवकृतः पूर्वमनन्तरसूत्रस्याधस्तात्भणितः। मानुष्यस्तु मनुष्यकृ तः आभियोग्यो विद्याद्यभियोगजनितः।। बृ०६ उ० / आव० / / Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्ग 1050 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उदसरग (4) सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धेतृतीयाऽध्ययने उपसर्गसहनं तत्र तावदुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह। पढमम्मि य पडिलोमा, हुंती अणुलोमगा य वितियम्मि। तइए अज्झत्तविसीदणं य परवादिवयणं च // 5 // प्रथमे उद्देशके प्रतिलोमाः प्रतिकूला उपसर्गाः प्रतिपाद्यन्त इति। तथा | द्वितीये ज्ञातिकृताः स्वजनापादिता अनुलोमा अनुकूला इति / तथा तृतीये अध्यात्मविषीदनं परवादिवचनं चेत्ययमर्थाऽधिकार इति॥ हेउसरिसेहिं अहेउएहिं,समयपडिएहिं णिउणेहिं। सीलखणितपण्णवना, कथा चउत्थम्मि उद्देशे // 6|| चतुर्थोद्देशके अयमर्थाऽधिकारः तद्यथा हेकतुसदृशैर्हेत्वाभासैरन्यतैर्थिकैर्युद्गृहिताः प्रतारितास्तेषां शीलस्खलितानां व्यामोहितानां प्रज्ञापना यथाऽवस्थितार्थप्ररूपणा स्वसमयप्रतीतैर्निपुणभणितैर्हेतुभिः कृतेति।साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयंतच्चेदम् // सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं न पस्सती। जुज्झंतं दधम्माणं, सिसुपालो व महारहं / / 1 / / कश्चिल्लघुप्रकृतिः संग्रामे समुपस्थिते शूरमात्मानं मन्यते / निस्तोयाम्बुद इवात्मश्लाघाप्रवणो वाग्भिर्विस्फूर्जन् गर्जति। न भत्कल्पः परानीके कश्चित्सुभटोऽस्तीत्येवं तावद्गर्जति यावत् पुरोऽवस्थितं प्रोद्यतासिं जेतारं न पश्यति। तथा चोक्तं। "तावद्गजः प्रस्तुतदानगण्डः करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि / यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु लाङ्ग लविस्फोटरवं शृणोति / / 1 / / न दृष्टान्तमन्तरेण प्रायो लोकस्यार्थावगमो भवतीत्यतस्तदवगतये दृष्टान्तमाह। यथा माद्रीसुतः शिशुपालो वासुदेवदर्शनात्प्राक् आत्मश्लाघाप्रधानं गर्जितवान् पश्चाच युध्यमानं शस्त्राणि व्यापारयन्तं दृढः समर्थों धमः स्वभावः संग्रामाभङ्गरूपो यस्य स तथा तम् / महान् रथोऽस्येति महारथः स च प्रक्रमादत्र नारायणस्तंयुध्यमानं दृष्ट्वा प्रागगर्जनाप्रधानोऽपि क्षोभं गतः / एवमुत्तरत्र दाान्तिकेऽपि योजनीयमिति। भावार्थस्तु कथानकादयवसेयः (सूत्र०) (तच सिसुवालशब्दे वक्ष्यते) ' साम्प्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमानिकं दृष्टान्तमाह पयाता सूरा रणसीसे, संगामम्मि उवहिते। मायापुत्तं न याणाइ, जेएण परिवित्थए / / 2 / / यथा वाग्भिर्विस्फूर्जन्तः प्रकर्षेण विकटपादपातं रणशिरसि संग्राममूर्धन्यग्रानीके याता गताः / के ते शूराः शूरमन्याः सुभटाः ततः संग्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुभटमुक्तहेतिसंघाते सति तत्र च सर्वस्याऽऽकूलीभूतत्वात् माता पुत्रं न जानाति कटीते। भ्रश्यन्तं स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रतिजागर्तीत्येवं मातापुत्रीये संग्रामे परानीकसुभटेनजेत्राच शक्यादिभिः परि समन्तात् विविधमनेकप्रकारं क्षतो हतश्छिन्नो वा कश्चिदल्पसत्वो भङ्गमुपयाति दीनो भवतीति यावदिति / दान्तिकमाह एवं सेहे वि अप्पुढे, मिक्खायरिया अकोविए। सूरं मण्णंति अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए।।३।। एवमिति प्रक्रान्तपरामर्शार्थः / यथाऽसौ शूरमन्य उत्कृष्टसिंहनादपूर्वकं संग्रामशिरस्युपस्थितः पश्चाजेतारं वासुदेवमन्यं वा युध्यमानं दृष्ट्वा दैन्यमुपयाति। एवं शिष्यकोऽभिनवप्रव्रजितः परीषहैरस्पृष्टोऽच्छुप्तः किं प्रव्रज्याया दुष्करमित्येवं गर्जन् भिक्षाचर्यायां भिक्षाटनेऽकोविदोऽनिपुणः | उपलक्षणार्थत्वादन्यत्रा-ऽपि साध्वाचारेऽभिनवप्रव्रजितत्वादप्रवीणः स एवंभूत आत्मानं तावच्छिशुपालवत् शुरं मन्यते यावजेतारमिवं रूक्षं संयमकर्म संश्लेषकारणाभावात् न सेवते न भजत इति / तत्प्राप्तौ तु बहवो गुरुकर्माणोऽल्पसत्वा भङ्गमुपयान्ति। संयमस्य रूक्षत्वप्रतिपादनायाह जया हेमंतमासम्मि, सीतं फुसइ (सवायगं) सव्वगं / तत्थ मंदा विसीयंति, रजहीणा विखत्तिया॥४॥ यदा कदाचित् हेमन्तमासे पौषादौ शीतं सहिमकणवातं स्पृशति लगति तत्र तस्मिन्नसह्ये शीतस्पर्श लगति सति एके मन्दा जडा गुरुकर्माणो विषीदन्ति दैन्यभावमुपयान्ति राज्यहीना राज्यच्युताः यथा क्षत्रिया राजान इवेति॥४|| सूत्र०३ अ०१ उ०। उक्तः प्रथमोद्देशकः / साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते / अस्यचायभिसंबन्धः इहोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादितास्ते। चानुकूलाः प्रतिकूलाश्च / तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिता इह त्वनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्या-दिमं सूत्रम्। अहिमे सुहमासंगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा। जत्थ एगे विसीयंति,ण चयंति जवित्तए॥१॥ अथेत्यानन्तर्ये प्रतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यानन्तर्यार्थः / इमे त्वनन्तरमेवाभिधीयमानाः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमभिधीयन्ते। ते च सूक्ष्माः प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तरा न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारकारित्वेन प्रकटतया वादरा इति। सङ्गाः मातापित्रादिसंबन्धाः। य एते भिक्षूणां साधुनामपि दुरुत्तरा दुर्लक्या दुरतिक्रमणीया इति / प्रायो जीवितविघ्नकरेरपि प्रतिकूलोपसर्गरुदीर्णर्माध्यस्थ्यमवलम्बयितुं महापुरुषैः शक्यमेते त्वनुकूलोपसर्गास्तानप्युपायेन धर्माच्चयावयन्त्यतोऽमी दुरुत्तरा इति। यत्र येषूपसर्गेषु सत्स्वेके अल्पसत्वाः सदनुष्ठानं प्रति विषीदन्ति शीतलविहारित्वं भजन्ते सर्वथा वा संयमं त्यजन्ति नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन यापयितुं वर्तयितुं तस्मिन् व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति समर्था भवन्तीति // 1 // तानेव सूक्ष्मसङ्गान् दर्शयितुमाह। अप्पेगे नायओदिस्स, रोयंति परिवारया। पोसणे ताय पुट्ठोसि, कस्स ताय जहासिणे // 2|| अपिः संभावने / एके तथाविधा ज्ञातव्यः स्वजना मातापित्रादयः प्रव्रजन्तं प्रव्रजितंवा दृष्ट्वोपलभ्य परिवार्य वेष्टयित्वा रुदन्ति रुदन्तो वा वदन्तिच दीनं यथा वाल्यात्प्रभृति त्वमस्माभिः पोषितो वृद्धानां पालको भविष्यतीति कृत्वा ततो धुनानोऽस्मानपित्वं तात! पुत्र ! पोषय पालय। कस्य कृते केन कारणेन कस्य वा वलेनताताऽस्मान् त्यजसि नाऽस्माकं भवन्तमन्तरेण कश्चित्राता विद्यत इति। किञ्च / पिया ते थेरओ तात, सासा ते खुड्डिया इमा। भायरो ते सगातात, सोयरा किं जहासिणे / / 3 / / मायरं पियरं पोस, एवं लोगो भविस्सति। एवं खु लोइयं ताय, जे पालंति य मायरं / / 4 / / हे तात ! पुत्र ! पिता ते तव स्थविरो वृद्धः शतातीतः स्वसा च भगिनी तव क्षुल्लिका लघ्वी अप्राप्तयौवना इमा पुरोवर्तिनी प्रत्यक्षेति। तथा भ्रातरस्ते तव स्वका निजास्तात! सोदरा एकोद Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्ग 1051 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्ग राः किमित्यस्मान् परित्यजसीति // 3 // तथा(मायरमित्यादि मातरं जननी तथा पितरं जनयितारं पुषाण षिभृहि। एवं च कृते तवेह लोकः परलोकच भविष्यति। तातेदमेव लौकिकं लोकाचीर्णमयमेव लौकिकः पन्था यदुत वृद्धयोर्मातापित्रोःप्रति पालनमिति तथा चोक्तम् / “गुरयो यत्रा पूज्यते,यत्रा धान्यं सुसंस्कृतम् / अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक! वसाम्यहमिति" 4 अपिच उत्तरा महुरुल्लावा, पुत्ता ते तात खुड्डया। भारिया ते णवा तात, मा सा अन्नं जणं गमे / / उत्तरा प्रधाना उत्तरा जाता वा मधुरो मनोज्ञ उल्लाप आलापो येषां ते तथाविधाः पुत्रास्ते तव तात! पुत्र! क्षुल्लकालघवः। तथा भार्या पत्नी ते नवा प्रत्यग्रयौवना अतिनवोढा वा माऽसौ त्वया परित्यक्ता सत्यन्यं जनं गच्छेदुन्मार्गयायिनी स्यादयं च महाजनापवाद इति। अपि च। एहि ताय घरं जामो, मा य कम्मं सहावयं / वितियं पिताय पासामो, जामु ताव सयं गिहं / / 6 / / जानीमो वयं यथा त्वं कर्मभीरुस्तथाप्येहि आगच्छ गृहं यामो गच्छामः / मा त्वं किमपि सांप्रतं कर्म कृथाः। अपि तु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायका भविष्यामः साहाय्यं करिष्यामः / एकवारं तावद् गृहकर्मभिर्भग्नस्त्वंतात! पुनरपि द्वितीयवारंपश्यामोद्रक्ष्यामोयदस्माभिः सहायैर्भवतो भविष्यतीत्यतो यामो गच्छामस्तावत् स्वकं गृहं कुर्वेतदस्यद्वचनमिति॥६॥ गंतु ताय पुणो गच्छे, ण य तेणासमणो सिया।। अकामगं पराकम्मं, को उ ते वारेउमरिहति / / 7 / / तात! पुत्र! गत्वा गृहं स्वजनवर्गं दृष्ट्वा पुनरागन्तासि न च तेनैतवता गृहगमनमाोण चाश्रमणो भविष्यसि / (अकामगंति) अनिच्छन्तं गृहव्यापारेच्छारहितंपराक्रमन्तं स्वाभिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कस्त्वां भवन्तं वारयितुं निषेधयितुमर्हति योग्यो भविति / यदि वा (अकामगंति) वार्द्धकावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति कस्त्वामवसरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं धारयितुमर्हतीति / अन्यच्च। जं किंचि अणगं तात, तं पिसव्वं समीकतं। हिरण्णं ववहाराइ, तं पिदाहासु ते वयं // 8 // तात ! पुत्र ! यत्किमपि भवदीयमृणजातमासीत्तत्सर्वमस्माभिः सम्यग्विभज्य समीकृतंसमभागेन व्यवस्थापितं यदिवोत्कटंसत्सभीकृतं सुदेयत्वेन व्यवस्थापितं यच हिरणयं द्रव्यजातं व्यवहारादावुपयुज्यते। आदिशब्दात् येन वा प्रकारेण तवोपयोग यास्यति तदपि वयं दास्यामो निर्धनोऽहमिति मा कृथा भयमिति / / उपसंहारार्थमाह। इचेवणं सुसेहंति, कालुणीय समुट्ठिया। विवद्धो नायसंगेहिं, ततो गारं पहावइ / / जहा रुक्ख वणे जायं, मालुया पडिबंधइ। एवणं पडिबंधंति, णातओ असमाहिण। 10 // णमिति वाक्यालडकारे / इत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या मातापित्रादयः कारुणिकैर्यचोभिः करुणामुत्पादयन्तः स्वयं वा दैन्यमुपस्थितास्तं प्रव्रजितं प्रव्रजन्तं वा (सुसेहंतित्ति) सुष्ठ शिक्षयन्ति व्युद्ग्रायन्ति। स चापरिणतधर्माऽल्पसत्वो गुरुकर्मा ज्ञातिसङ्गैर्विबद्धो मातापितृपुत्रकलत्रादिमोहितस्ततो गारं गृहं प्रतिधावति प्रव्रज्यां परित्यज्य गृहपाशगनुबध्नातीति / / किञ्चान्यत् (जहारुक्खमित्यादि ) यथा वृक्ष वने अटव्यांजातमुत्पन्नं मालूयावल्लीप्रतिबध्नाति वेष्टयत्येवंणमिति वाक्यालंकारे ज्ञातयः स्वजनास्तं यतिमसमाधिना प्रतिबध्नन्ति ते तन्कुर्वन्ति येनास्यासमाधिरुपद्यत इति / तथा चोक्तं / " अमित्तो मित्तवेसेण, कंठे घेत्तूण रोयइ / मा मित्त ! सोगई जाई, दो वि गच्छासु दुग्गई"। 10 / अपि च। विबद्धो नातिसंगेहि, हत्थी वा वि नवग्गहे। पिट्टतो परिसप्पंति, सुयगो व अदूरए।११ विविधं बद्धः परवशीकृतः विबद्धो ज्ञातिसगैातापित्रादिसंबन्धस्ते च तस्य तस्मिन्नवसरे सर्वमनुकूलमनुत्तिष्टन्तो धृतिमुत्पादयन्ति हस्तीवापि नवगृहे अभिनवग्रहणे धृत्युत्पादनार्थभिक्षुशकलादिभिरुपचर्यत। एवमसावपि सर्वानुकूलैरुपायैरुपचर्यते। दृष्टान्तान्तरमाह ! यथाऽभिनवप्रसूता गौर्निजस्तनधयस्यादूरगा समीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसर्पत्येवं तेऽपि निजा उत्प्रव्रजितं पुनर्जातमिय मन्यमानाः पृष्ठतोऽनुसर्पन्ति तन्मार्गानुयायिनो भवन्तीत्यर्थः / 11 / सङ्गदोषदर्शनायाह। एते संगा मणूसाणं, पाताला व अतारिमा। कीवा जत्थ य किस्संति, नायसंगेहिं मुच्छिया / / 12 // एते पूर्वोक्ताः सज्यन्त इति सङ्गाः मातृपित्रादिसंबन्धाः कर्मापादानहेतवः मनुष्याणां पातालाइव समुद्रा इवाप्रतिष्ठितभूमितलत्वात् ते (अतारिमत्ति ) दुस्तरा एवमेतेऽपिसङ्गाअल्पसत्वैर्दुःखेनातिलडध्यन्ते। तत्र च येषु सङ्गेषु क्लीवा असमर्थाः क्लिश्यन्ति क्लेशमनुभवन्ति संसारान्तर्वर्तिनो भवन्तीत्यर्थः। किंभूताः ज्ञातिसङ्गैः पुत्रादिसंबन्धमुंछिता गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तो न पर्यालो चयन्त्यात्मानं संसारान्तर्वर्तिनमेवं क्लिश्यन्ति अपिच। तंच भिक्खू परिन्नाय, सव्वे संगा महासवा।। जीवियं नावकंखिञ्जा, सोचा धम्ममणुत्तरं / / 13 / / तं च ज्ञातिसङ्ग संसारहेतुं भिक्षुपिरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् / किमितियतः सर्वेऽपिकेचन सङ्गास्ते महाश्रवा महान्ति कर्मण आश्रवद्वाराणि वर्तन्ते / ततोऽनुकूलैरुपसर्गरुपस्थितैरसंयमजीवित गृहावासपाशं नाभिकाङ्केत नाभिलषेत्। प्रतिकूलैश्चोपसर्ग : सद्भिर्जीविताभिलाषी न भवेदसमञ्जसकारित्वेन भवजीवितं नाभिकाङ्क्षत् / किं कृत्वा श्रुत्वा निशम्यावगम्य कं धर्म श्रुतचारित्राख्यम / नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरं प्रधानं मौनीन्द्रमित्यर्थः / अन्यच। अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया। बुद्धा जत्थ व सप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं // 14 // अथेत्यधिकारान्तरदर्शनार्थः। पाठान्तरं वा (अहो इति) तच्च विस्मये। इमे इति प्रत्यक्षासन्नाः सर्वजनविदितत्वात् सन्ति विद्यन्ते वक्ष्यमाणा आवर्तयन्ति प्राणिनं भ्रामयन्तीत्यावर्तास्ता द्रव्या वर्ता नद्यादेर्भावावर्तास्तूत्कटमोहोदया पादितविषयाभिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषा एते चावाः काश्यपेन श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्यामिना उत्पन्नदिव्यज्ञानेनावेदिताःकथिताः प्रतिपादिताः। यत्र येषु सत्सु बुद्धा अवगततत्त्वा आवर्तविपाक वेदिनस्तेभ्यो ऽवसर्पन्ते प्रमत्ततया तद्दूरगामिनो भवन्त्यबुधास्तु निर्विवेकतया ये हावसीदन्त्यासक्तिं कुर्वन्तीति तानेवावर्तान् दर्शयितुमाह। Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्ग 1052 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्ग रायाणो रायमचा य,माहणा अदुव खत्तिया। निमंतियांति मोगेहिं, भिक्खूणं साहुजीविणं // 15 // राजानश्चक्रवदियो राजामात्याश्च मन्त्री पुरोहितप्रभृतयस्तथा ब्राह्मणा अथवा क्षत्रिया इक्ष्वाकुवंशप्रभृतयः / एते सर्वेऽपि भोगैः शब्दादिविषयैर्निमन्ायन्ति भोगोपभोगं प्रत्यभ्युपगमं कारयन्ति कं भिक्षुकं (साहुजीविणमिति) साध्वाचारेण जीवितुं शीलमस्येति साधुजीविनमिति / यथा ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधैर्भोगैश्चिासाधुरुपनिमन्त्रित इत्येवमन्येऽपि केनचित्संबन्धेन व्यवस्थिता यौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोद्देशेनोपनिमन्त्रयेयुरिति। 15 / एतदेव दर्शयितुमाह। हत्थस्सरहजाणेहिं, विहारगमणेणिया। मुंज भोगे इमे सग्घे, महरिसी पूजयामुतं / 16 / हस्त्यश्वरथयानैस्तथा विहारगमनैः विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन | गमनान्युद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः / चशब्दादन्यैश्चेन्द्रियानुकूलैर्विषयैरुपनिमन्त्रायेरंस्तद्यथा भुवि भोगान् शब्दादिविषयानिमानस्माभिटाकितान्प्रत्यक्षासन्नान्श्लाघ्यान्प्रशस्तान्न निन्द्यान् महर्षे ! साधो ! वयं विषयोपकरणढोकनेन त्वां भवन्तं पूजयामः सत्कारयाम इति।१६। किञ्चाऽन्यत्। वत्थगंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य। मुंजा इमाई भोगाई, आउसो पूजयामु तं / 17 / वस्त्रं चीनांशुकादि गन्धाः काष्ठपुटपाटकादयः वस्त्राणि च गन्धाश्च वस्त्रगन्धमिति समाहारद्वन्द्वः / तथा अलङ्कारं कटककेयूरादिकं तथा स्वियः प्रत्यग्रयौवनाः शयनानिचपर्यवृत्तूलीप्रवरपटोपधानयुक्तानि इमान् भोगानिन्द्रियमनोनुकूलानस्माभिढौंकितान् भुक्ष्व तदुपभोगेन सफलीकुरु हेआयुष्मन् ! भवन्तं पूजयामः सत्कारयाम इति / 17 / अपिच। जो तुमे नियमो चिनो, भिक्खुभावम्मि सुथ्वय / अगारमावसंतस्स, सव्वो संविजए तहा।१५। यस्त्वया पूर्व भिक्षुभावे प्रव्रज्यावसरे नियमो महाव्रतादिरूप-- श्चीर्णोऽनुष्ठितः इन्द्रियनोइन्द्रियोपशभगतेन हेसुव्रत! स सांप्रतमप्यगारं गृहमावसतो गृहस्थभावं सम्यगनुपालयतो भवतस्तथैव विद्यत इति।न हि सुकृतस्यानुचीर्णस्य नाशोऽस्तीति भावः / 18 / किञ्च / चिरं दूइज्जमाणस्स, दोसो दाणिं कुतो तव। इचेवणं निमंतेति, नीवारणेव सूयरं / 16 / चिरंप्रभूतकालं संयमानुष्ठानेन (दूइज्जमाणस्सत्ति ) विहरतः सतइदानीं साम्प्रतं दोषः कुतस्तव नैवास्तीति भावः / इत्येवं हस्त्यश्वरथादिभिर्वस्त्रगन्धालङ्कारादिभिश्च नानाविधैरुपभोगोप-करणैः करणभूतैः / णमिति वाक्याङ्कारे / तं भिक्षु साधुजीविनं निमन्त्रयन्ति भोगबुद्धिं कारयन्ति / दृष्टान्तं प्रदर्शयति / यथा नीवारेण व्रीहिविशेषकणदानेन सूकरं वराहं कूटके प्रवेशयन्त्येवं तमपि साधुमपि। 16 / अनन्तरोपन्यस्तवार्तो पसंहारार्थमाह। चोइया भिक्खचरिया, अचयंताजवित्तए। तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि वदुबला / 20 // भिक्षूणां साधूनामुधुक्तविहारिणां चर्या दशविधचक्रवालसामाचारी इच्छामिच्छेत्यादिका तया नोदिताः प्रेरिता यदि वा भिक्षुचर्यया करणभूतया सीदन्तश्चोदितास्तत्करणं प्रत्याचार्यादिकैः पौनःपुन्येन प्रेरितास्तचोदनामशक्नुवन्तः संयमानुष्ठाने नात्मानं यापयितुं वर्तयितुमसमर्थाः सन्तस्तत्रा तस्मिन् संयमे मोक्षैकगमनहे तौ भवकोटिशतावाप्तेर्मन्दा जडा विषीदन्ति शीतलविहारिणो भवन्ति / तमेवाचिन्त्यचिन्तामणिकल्पं महापुरुषानुचीर्णं संयम परित्यजन्ति / दृष्टान्तमाह। ऊर्द्धयानमुद्यानं मार्गस्योन्नतो भाग उड्डयमित्यर्थः। तस्मिन् उद्यानशिरसि उत्क्षिप्तमहाभरा उक्षाणोऽतिदुर्बला यथाऽवसीदन्ति ग्रीवां पातयित्वा तिष्ठन्ति नोत्क्षिप्तभरनिर्वाहका भवन्तीत्येवं तेऽपि भावमन्दा उत्क्षिप्तपञ्चमहाव्रतभारं वोढुमसमर्थाः पूर्वोक्तभवावर्ते : पराभग्ना विषीदन्ति। 20 किञ्च। अचयंता व लूहेण, उवहाणेण तजिया। तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसि जग्गवा।२१।। रूक्षेण संयमेनात्मानं यापयितुमशक्नुवन्तस्तथोपधानेनानशनादिना सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा तर्जिता बाधिताः सन्तस्तत्र संयमे मन्दा विषीदन्त्युद्यानशिरस्युडकमस्तके जीर्णो दुर्बलो गौरिव यूनोऽपि हि तत्रावसीदनं संभाव्यते किं पुनर्जरद्गवस्येति जीर्ण ग्रहणम् / एवमावर्तमन्तरेणापि धृतिसंहननोपेतस्य विवेकिनोऽप्यवसीदनं संभाव्यते किं पुनरावर्तरुपसर्गितानां मन्दानामिति 21 सर्वोपसंहारमाह। एवं निमंतिए लद्ध, मुच्छिया गिद्धइत्थीसु। अज्झोववन्ना कामेहि, चोइजंता गया गिहं (तिवेमि) / एवं पूक्तिया नीत्या विषयोपभोगोपकरणं दानपूर्वकं निमन्त्राणं विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनं लब्ध्वा प्राप्य तेषु विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु मूञ्छिता अत्यन्ताशक्तास्तथा स्त्रीषु गृद्धा दत्तावधाना रमणीरागमोहितास्तथा कामेषु इच्छामदनरूपेष्वध्युपपन्नाः कामगतचिताः संयमेऽवसीदन्तोऽपरेणोद्युक्तविहारिणो नोद्यमानाः संयम प्रति प्रोत्सह्यमाना नोदनं सोढुमशक्नुवन्तः सन्तो गुरुकर्माणः प्रव्रज्यां परित्यज्याल्पसत्वा गृहं गता गृहस्थीभूताः इति परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्। सूत्र०१ श्रु०३१०३ उ०। आ० चू० आत्मविसीदनादयोऽन्यत्र (भिक्षाटनाय गतस्योपसर्गसहनं गोयरचरिया शब्द) (6) अनुकूलोपसर्गसहनमत्र। उडियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअंतवस्सिणं / डहरा वुड्डा य पत्थए, अविसुस्से णय तं लभेजणो॥१६॥ अगारं गृहं तदस्य नास्तीत्यनगारस्तमेवंभूतं संयमोत्थानेनैषणां प्रत्युत्थितं प्रवृत्तं श्राम्यतीति श्रमणस्तं तथा स्थानस्थितमुत्तरोत्तरविशिष्टसंयमस्थानाध्यासिनं तपस्विनं विशिष्टतपोनिष्टप्तदेहं तमेवम्भूतमपि कदाचित् डहरा पुत्रानप्ञादयो वृद्धाः पितृमातुलादयः उन्निष्क्रामयितुं प्रार्थयेयुर्याचेरंस्त एवमूचुर्भवता वयं प्रतिपाल्या न त्वामन्तरेणास्माकमेकः प्रतिपाल्य एवं भणन्तस्ते जना अपि शुष्येयुः श्रमंगच्छेयुर्न चतंसाधु विदितपरमार्थ लभेरन् नैवाऽऽत्मसात्कुर्युर्नवाऽऽत्मवशगं विदध्युरिति / 16 / / किञ्च जइ कालुणियाणिकासिया, जइ रोयंति य पुत्तकारणे। दवियं भिक्खुं समुट्टियं,णो लभंतिण संठवित्तए।|१७|| यद्यपि ते मातापितृपुत्राकलत्रादयस्तदन्तिके समेत्य करुणाप्र Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्ग 1053 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्गतितिक्खा धानानि विलापप्रायाणि वचांस्यनुष्ठानानि वा कुर्युः / तथाहि / “णाह भव्यो मुक्तिगमनयोग्यो रागद्वेषरहितोवा सन्नीक्षस्व तद्विपाकं पर्यालोचय / पिय कतं सामिय, अइवल्लह दुल्लहोसि भवणम्मि।। तुह विहरम्मिय पण्डितः सद्विवेकयुक्तः पापात् कर्मणोऽ सदनुष्ठानरूपात् विरतो निवृत्तः निक्किव, सुण्णां सव्वं पि पडिहाइ" // 1 // "सेणिग्गम्मो गोट्ठी, गणोव्वतं क्रोधादिपरित्यागाच्छन्तीभूत इत्यर्थः / तथा प्रणताः प्रहीभूता वीराः जत्थ होसि सणिहितो!| दिप्पइसिरिएसु पुरिस, किं पुण नियमं घरहारं" कर्मविदारणसमर्था महावीथिं महामार्ग तमेव विशिनष्टि सिद्विपथं / / 2 / / तथा यदि (रोयंतियत्ति) रुदन्ति पुत्रकारणं सुतनिमित्तं ज्ञानादिमोक्षमार्ग तथा मोक्षे प्रतिनेतारं प्रापकं ध्रुवमव्यभिचारिणमित्येकुलवर्धनमेकं सुतमुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति। एवं रुदन्तो यदि भणन्ति तदवगम्य स एव मार्गोऽनुष्ठेयो वा सदनुष्ठानप्रगल्भैर्भाव्यमिति // 21 // तं भिक्षु रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तियोग्यत्वाद्रा द्रव्यभूतं सम्यक् पुनरप्युपदेशदानपूर्वकमुपसंहरन्नाह / संयमोत्थानेनोत्थितं तथाऽपि साधु नलप्स्यन्तेन शक्नुवन्ति प्रव्रज्यातो वेयालियमग्गमागउ, मणवयसाकाय (ण) संवुडो। भंशयितुं भावाच्च्यावयितुं नापि संस्थापयितुं गृहस्थभावेन विचा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरेजसि (त्तिवेमि) द्रव्यलिङ्गाच्च्यावयितुमिति // 17 // अपि च।। जइ विय कामेहिं लोविया, जहणं जाहिणबंधिओ घरं। कर्मणां विदारणमार्गगतो भूत्वा तं तथाभूतं मनोवाक्कायसंवृतः पुनस्त्यक्त्वा परित्यज्य वित्तं द्रव्यं तथा ज्ञातींश्च स्वजनांश्च तथा जइ जीवितनावकंखए, णालभंति ण संठवित्तए॥१८|| सावद्यारम्भंच सुष्टुसंवृत इन्द्रियैः संयमानुष्ठानं चरेदितिव्रवीमीतिपूर्ववत् यद्यपि ते निजास्तं साधुं संयमोत्थानेनोत्थितं कामैरिच्छमद सूत्रा०१ श्रु०२ अ०२ उ० नरूपैलोवयन्ति उपनिमायेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः / अनेनाऽनुकू लोऽपसर्गग्रहणम् / तथा यदि नयेयुर्बध्वा गृहं णमिति वाक्यालङ्कारे। त्रिविधोपसर्गाधिसहनमधिकृत्याह / एवमनुकूलप्रतिकूलोपसगैरभिद्रुतोऽपि साधुर्यदि जीवितं नाभिकाशत् तिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाहिया सिया। यदि जीविताभिलाषी न भवेत् असंयमजीवितं वा नाऽभिनन्देत् ततस्ते लोमादियं पिण हरिसे, सुन्नागारगओ महामुणी / / 15 / / निंजास्तंसाधु (णो लब्भंतित्ति।)नलभन्तेन प्राप्नुवन्ति आत्मसात्कर्तुं तैरश्चाः सिंहव्याघ्रादिकृतास्तथा मानुषा अनुकूलप्रतिकूलाः (ण संठवितएत्ति) नाऽपि गृहस्थभावेन संस्थापयितुमलमिति // 18|| सत्कारपुरस्कारदण्डकशाताडनादिजनिताः / तथा(दिव्यगाइति) किञ्च। व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनिताः। एवं त्रिविधान प्युपसर्गानधिसहेत सेहंति य णं ममाइणो, माया (पिया)ताय सुया य भारिया। नोपसगैर्विकारं गच्छेत् / तदेव दर्शयति।लोमादिकमपि न हर्षेत् भयेन पोसाहिण पासओ तुमं, लोगपरंपि जहासि पोसणो।१६। रोमोद्गममपि न कुर्यात् / यदि वा एवमुपसर्गास्त्रिविधा अपि ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमभिनवप्रव्रजितं (सेहंतित्ति) शिक्षयन्ति (अहियासियत्ति) अधिसोढा भवन्तिा यदिरोमोद्गमादिकमपि न कुर्यात् / णमिति वाक्यालङ्कारे (ममाइणोति) ममाऽयमित्येवं स्नेहालवः / कथं आदिग्रहणत् दृष्टिमुखविकारादिपरिग्रहः / शून्यागारगतः शून्यगृहव्यशिक्षयन्तीत्यत आह पश्य नोऽस्मानत्यन्तदुः खितांस्त्वदर्थ वस्थितस्य चोपलक्षणर्थत्वात् पितृवनादिस्थितो वा महामुनिर्जिनपोषकाभावाद्वा त्वं च यथावस्थितार्थपश्यकः सूक्ष्मदर्शी सश्रुतिक कल्पिकादिरिति / / 15 / / किञ्च / इत्यर्थः / अतो नोऽस्मान् पोषय प्रतिजागरणं कुरु अन्यथा णो आभिकंखेजजीवियं, नो वि य पूयणपत्थए सिया। प्रव्रज्याऽभ्युपगमेनेहलोकस्त्यक्तो भवताऽस्मत्प्रतिपलनपरित्यागेन च अब्भत्थमुविंति भेरवा, सुन्नागारगअस्स भिक्खुणो।१६। परलोकमपि त्वं त्यजसीति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च स तैभैरवैरुपसर्गरुदीर्णैस्तोतुद्यमानोऽपि जीवितं नाऽभिकाङ्केत पुण्यावाप्तिरेवेति / तथाहि। “या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम्। जीवितनिरपेक्षेणोपसर्गः सोढव्य इति भावः / न चोपसर्गसहनद्वारेण विभृतां पुत्रदारांस्तु, तां गतिं व्रज पुत्रकेति / / 16 // एवं तैरुपसर्गिताः पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् भवेत् / एवं च जीवितपूजानिरकेचन कातराः कदाचित् यद्यत्कुर्युरित्याह।। पेक्षेणासकृत् सम्यक् सामाना भैरवा भयानकाः शिवाः अग्ने अन्नेहि मुत्थिया, मोहंजंति णरा असंवुडा॥ पिशाचादयोऽभ्यस्तभावं स्वात्मन उप सामीप्येन यन्ति गच्छन्ति विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगम्भिया // 20 // तत्सहनाच भिक्षोः शून्यागारगतस्य नीराजितवारणस्येव शीतोष्णादिअन्ये केचनाऽल्पसत्वाः अन्यैर्मातापित्रादिभिर्मूञ्छिता अध्युपपन्नाः जनिता उपसर्गाः सुसहा एव भवन्तीति भावः। सूत्रा०१ श्रु०२ अ०२ उ०) सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्यन्यग्रहणं ते "उवसग्गेहि पासित्ता आमोक्खाए परिवएज्जाए " उपसर्गाननुकूलप्रतिएवम्भूताः असंवृता नराः संमोहं यान्ति सदनुष्ठाने मुह्यन्ति तथा कूलान् सम्यगधिसह्यामोक्षाय मोक्षपर्यन्तं यावत् परि समन्ताद्ब्रजेत् संसारगमनैकहेतुभूतत्वात् / विषमोऽसंयमस्तं विषमैरसंयतैरुन्मार्ग- संयमानुष्ठानेन गच्छेत्। सूत्रा०१ श्रु०३ अ०४ उ०। (उपसग्गगब्भहरणप्रवृत्तित्वेनापायाभीरुभिः रागद्वेषैर्वा अनादिभवाभ्यस्ततया दुश्छेद्यत्वेन मिति आश्चर्यभेदत्वोपसर्गनिरूपणम् अच्छेर शब्दे उक्तम्) रोगविकारे, विषमैाहिता असंयमं प्रतिवर्तिताः ते चैवंभूताः पापैः कर्मभिः पुनरपि | शुभाशुभसूचके दिव्यादिविकाररूपे उत्पाते, वाचन प्रवृत्ताः प्रगल्भिताः धृष्टता गताः पापकं कर्म कुर्वन्तोऽपि न लज्जन्त उवसग्गकप्पट्टि स्त्री० (उपसर्गकल्पस्था) उपसर्ग एव कल्पस्था इति / / 20 / / श्थ्यातरदुहितृ कपिलचेल्लकानां लोभाच्छय्यातरकल्पस्थायत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याह। मुपसर्गकरणे, " उवसग्गेति" उवसम्ग एव कप्पट्टी सेज्जायरधूआ तम्हा दविइक्खपंडिए, पावाओ विरते भिणिव्वुडे / कविलचेल्लगो लोभा सेजायरकप्पट्ठीए उपसग्गं करोतीत्यर्थः पणए वीरे महाविहि, सिद्धिपहं(णायगं) णेआउयं धुवं // / १नि०चू०१०। मातापित्रादिमूर्छिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्भा भवन्ति तस्माद्रव्यभूतो | उवसग्गत्तितिक्खा स्त्री० (उपसर्गतितिक्षा) उप सामीप्येन सर्ज Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गतितिक्खा 1054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसग्गपत्त नात् उपसृज्यते एभिरिति वा उपसर्गाः ते च दिव्यमानुषते विज्जामंते चुणे, अभिजोइयवोहियादिगहिए वा। गश्चात्मसंवदनभेदतश्चतुःप्रकाराः प्रत्येकमपितेस्युश्चतुर्विधाः "हास्याद् अणुसासणालिहावणमहुराखमकादि व वलेण॥ द्वेषाद्विमर्शाच्च, तन्मिश्रत्वाच दैवतः / हास्याद्वेषाद् विमर्शाद्दुः-- विद्यामन्त्रोण चूर्णेन वा अभियोजितो बोधिकाः स्तेना आदिशब्दात् शीलसङ्गाच्च मानुषाः।२ तैरश्चास्तु भयक्रोधाहारा पत्यादिरक्षणात्। म्लेच्छादिपरिग्रहस्तैर्वा गृहीते यया विद्यादि योजितं तस्याः घट्टनस्तम्भनश्लेषप्रपातादात्मवेदनाः / 3 यद्वा वातपित्तकफसन्नि- प्रागुक्तप्रकारेणानुशासना क्रियते / तथा प्रतिविद्याप्रयोगतस्तं प्रति च पातोद्भवा इति तेषां तितिक्षा सहनम् / उपसर्गसहने ध०३ अधि। द्वेषणमुत्पाद्यते / तस्याभावे पूर्वप्रकारेण लिखापन कार्यते "अतीचारालोचनेन प्रायश्चित्तविधेयता / उपसर्गतितिक्षा च बोधिकादिगृहीते पुनः मथुराक्षपकादिनेव बलेन यथा शक्तिबोधिपरीषहजयस्तथा" ध०३अधि। कादेर्निवारणं कर्त्तव्यं विद्याद्यभियोगमेव भेदतः प्रतिपादयति। उवसग्गपत्त त्रि० (उपसर्गप्राप्त) उपद्रवं प्राप्ते, स्था०५ ठा०२ उ०। ' विज्जादभि ओगो पुण,कविहो माणुस्सितो य दिव्वोय। उपसर्गप्राप्तस्य ग्रहणं कल्पते। तं पुण जाणंति कहं, जइ नामं गेण्हिए तेसिं / / (सूत्रम्) उपसग्गपत्तभिक्खुं गिलायमाणं नो कप्पेइ तस्स विद्यादिभिरभियोगोऽभियुज्यमानता पुनर्द्विविधो द्विप्रकारस्तथा गणावच्छेदितस्स निहित्तए। अगिलाए करणिज्जं वेयावडियं मानुषिको देवश्चातामनुष्येण कृतो मानुषिको देवस्यायं तेन कृतत्वादैवः जाव रोगातंकातो विप्पमुक्के ततो प्पमुक्के ततो पच्छा तस्स ता देवकृतो विद्यादिभिरभियोग एष एव यत्तस्मिन् दूरस्थितेऽपि अहालहुस्सगे नामं ववहारे पट्टवियव्वे सिया इति। तत्प्रभावात्स तथारूप उन्मत्तो जायते / अथ तं विद्याद्यभियोग दैवं मानुषिकं वा कंथं जानन्ति सूरिराह / तयोर्देवमनुष्ययोर्मध्ये यस्य नाम श्रथास्य सूत्रास्य कः संबन्धः। गृह्णति तत्कृतः सविद्याद्यभियोगोज्ञेयः। मोहेण पित्ततो वा, आयासंचेततो समक्खातो। साम्प्रतमणुसासणालिहावणेत्येतद्व्याख्यानयति।। एसो उ उवस्सग्गो, इमो उ अण्णो परसमुत्थो / अणुसासियम्मि य ठिए, वि।संदें ति तह विय अतिटुंते। मोहेन मोहनीयोदयेन वेदोदयेनेत्यर्थः पित्ततोवा पित्तोदयेनेत्यर्थ उन्मत्तः जक्खीए कोवीणं, तस्स उपुरओ लिहावें ति॥ स आत्मसञ्चेतकः आत्मनैवात्मनो दुःखोत्पादकः समाख्यातः येन सामान्यतः स्त्रिया पुरुषेण वा विद्याद्यमियोजितं तस्यानुशसना यच्चात्मैवात्मनो दुःखोत्पादनमेष आत्मसंचेतनीय उपसर्गः ततः क्रियते / अनुशासितेऽप्यतिष्ठति विद्याप्रयोगतस्तं विवक्षितं साधु प्रति पूर्वमात्मसंचेतनीयः उपसर्ग उत्कृष्टत उपसर्गाधिकारादयमन्यः परसमुत्थ तस्य विद्याद्यभियोक्तुर्विद्वषं ददत्युत्पादयन्ति वरवृषभाः तथाऽपि च उपसर्गोऽनेन प्रतिपाद्यते इत्यनेने संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। साच तस्मिन्नतिष्ठन्ति जक्ष्याः शुन्याः कौपीनं तस्य पुरतो विद्याप्रयोगतो प्राग्वत्। तत्रो-पसर्गप्रतिपादनार्थमाह। लेखापयन्ति / येन स तदृष्ट्वा तस्या इदं सागारिकमिति जानतो तिविहो य उवस्सग्गो, दिव्वो माणस्सितो तिरिच्छोय। विरज्यते / सम्प्रति विद्याप्रयोगे दृढादरताख्यापनार्थमाह। दिव्वो उ पुव्वभणितो, माणुसतिरिए अतो वुच्छं / / विसस्स विसमेवे य, ओसहं अग्गिमग्गिणो। त्रिविधः वलु परसमुत्थ उपसर्गः / तद्यथा दैवो मानुषिकस्तैरश्चश्च मंतस्स पडिमंतो उ, दुखणस्स विवजणा॥ तत्रा दैवो देवकृतः पूर्वमनन्तरसूत्रास्याधस्ताद्भणितः।। विषस्यौषधं विषमेव अन्यथा विषानिवृत्तेः / एवमग्निभूतादियुअतो मानुषं तैरश्चं च वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति। कस्यौषधमग्निः, मन्त्रास्य प्रतिमन्त्रो, दुर्जनस्यौषधं विवर्जना तविजाए मंतेणव, चुण्णेण व जोइतो अणप्पवसो। द्यामनगरपरित्यागेन परित्यागः / ततो विद्याद्यभियोगसाधुसाअणुसासणालिहावण, खमए महुरातिरिक्खादी। ध्वीरक्षणार्थं प्रतिविद्यादिप्रयोक्तव्यमिति।। विद्यया वा मन्त्रेण वा चूर्णेन वा योजितः संबन्धितः सन् कश्चिद जति पुण होज गिलाणो, निरुञ्झमाणो ततो तिगिच्छं से। नात्मवशो भूयात् तत्रानुशासनेति / यथा रूपलब्ध्या विद्यादिप्रयोजितं संवरियमसंवरिया, उवालभंते निसिं वसभा।। तस्यानुशासनाऽपि क्रियते। तथा तपस्वी एष न वर्तते तावत्त प्रतीदृशं यदि पुनर्विद्याद्यभियोजितस्तदाभिमुखं गच्छन् निरुध्यमानो ग्लानो कर्तुम् एवं करणे हि प्रभूतपापोपचयसंभव इत्यादि / अथैवमनुशासि- भवति ततः (से) तस्य साधोश्चिकित्सां संवृता केनाऽप्यलक्षयमाणां ताऽपि न विवर्तते तर्हि तस्यास्तं प्रति प्रतिविद्यया विद्वेषणमत्पाद्यते। कुर्वन्ति। तथा असंवृताजाया विद्याद्यभियोजितंतस्याः प्रत्यक्षीभूय निशि अथ सा नास्तितादृशी प्रतिविद्या तर्हि (लिहावणत्ति) शून्येऽसागारिकं रात्रौ तामुपालभन्ते / भेषयन्ति च तावत् यावत् सा मुञ्चतीति / विद्याप्रयोगतस्तस्य पुरत आलेखाप्यते / येन स तत् दृष्ट्वा तस्याः "खमएमठुरत्ति" अस्य व्याख्यानमाह। सागारिकमिदमतिवीभत्समिति जानानो विरागमुपपद्यते। एष मानुषिक धूभमहेसडिसमणी, बोहियहरणं च निवसुया जाव / उपसर्गः (खमगे महुरा इति) मथुरायां श्रमणीप्रभृतीनां मानुष मज्झेण य अकंदे, कयम्मि जुद्धेण मोएति / / उपसर्गोऽभूत्तंक्षपको निवारितवान्। एषोऽपि मानुष उपसर्गः / तैरश्चमाह महराए नयरीए धुभो देवनिस्मितो तस्स महिमानिमित्त (तिरिक्खा इति) तिर्यञ्चो ग्रानेयकाआरण्यका वा श्रमणादीनाभुपसर्गान् ड्डीतो समणीहिं समं निग्गया। तो रायपुत्तो य तत्थ अदूरे कुर्वन्ति यथाशक्तिनिराकर्तव्याः। सांप्रतमेनामेव गाथां विपरीषुराह। / आयावंतो वेड्डइ ततो सड्ढी समणीतो बोहिएहिं गहियातो Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसग्गपत्त 1055 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसम तेणं आणीया ते वोहितं साहुं दर्दू अक्कंदो कतो तत्तो रायपुत्तेण साहुणा जुद्धं दाऊण मोइयातो / अक्षरगमनिका त्वियं पश्य महे महोत्सवे श्राद्धिकाः श्रमणीभिः सह निर्गतास्तासां बोधिकैश्चौरैर्हरणं नृपसुतश्च तत्रादूरे अतापयति। बोधिकैश्च तास्तस्य सध्येन नीयन्ते। ताभिश्च तं दृष्ट्वा आक्रन्दे कृते स युद्धेन स्तेनेभ्यस्ता मोचयति। उक्तो मानुषिकः उपसर्गः। संप्रति तैरश्चमाह। गामेणारण्णेण व, अभिभूयं संजयं तु तिरिएणं। लद्धं पकंपिया वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा।। ग्रामेनारण्येन वा अभिभूतमापादिताभिभवं संयतं च यदि वा लब्धं तद्भयात् स्तम्भीभूतं प्रकम्पितं वा तद्भयतः कथं कम्पमानशरीरं रक्षेत्। यदि पुनर्न रक्षति सत्यपि वले ततोऽरक्षणे प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुका मासाः। व्य० प्र०२ उ०। उवसग्गपरिण्णा स्त्री० (उपसर्गपरिज्ञा) “घडणजयणा य तेसिं एत्तो वोच्छेय अहिगारो" तेषां उपसर्गशब्ददर्शितषोडशविधानामुपसर्गाणां यथा घटना सम्बन्धप्राप्तिः प्राप्तानां चाऽधिसहन प्रतियातना भवति तथाऽत ऊर्द्धमध्ययनेन वक्ष्यत इत्ययमत्राधिकार इतीत्येवं लक्षणे सूत्रकृताङ्गस्य तृतीयेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। (यथा तत्रा दर्शितं तथा दर्शितमुवसम्गशब्दे) उवसग्गसह त्रि०(उपसर्गसह) दिव्याधुपद्रवसोढरि, “वोसट्ठ चत्तरेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पा” पंचा०१८ विव०। (जिणकप्पशब्दे जिनकल्पिकस्य उपसर्गसहत्वं व्याख्यास्यामि) संप्रति ये व्युत्सृष्टग्रहणेनात्मसञ्चेतनीया गृहीतास्तानुपदर्शयति। घट्टणपवड णथंभण, लेसण चउहा उ आयवेसंया। ते पुण सन्निवर्थती, चोसट्ठदारे न इहं तु // चतुर्भिरात्मना सचिन्त्यन्ते ये ते इत्यात्मसंचेत्यास्तद्यथा घट्टनतः प्रपतनतस्तम्भनतः श्लेष्मतश्च / तत्र घट्टनतो यथा चक्षुषि रजःप्रविष्ट तेन च चक्षुर्दुःखटितुमारब्धमथवा स्वयमेव चक्षुषि गलके वा किञ्चित्तु खीलप्रभृति समुत्थितं घट्टयति / प्रपतनतो यथा मन्दप्रयत्नेन चकम्यमाणप्रतिपततो दुःखाप्यते स्तम्भनेन यथा तावदुपविष्ट आस्ते यावत्पादसुप्तस्तब्धो जातःश्लेषणतो यथा पादं तावदाकुञ्च्यावस्थितो यावत्तत्रा यातेन लग्नः अथवा नृत्तं शिक्षयामीति किंचिदङ्गमप्यतिशयेन नामितं तच तत्रैवलग्नमिति ते पुनरात्मसंचेतनीया व्युत्कृष्ठद्वारे निपतन्ति नइह / “ते उप्पन्ने सम्मं, सहत्ति, खमइत्ति, तिक्खइ, अहियासे” इति चत्वार्यप्येकार्थिकानि पदानि। तत्रा सम्यक् सहनमाह। मणवयणकायजोगेहिं, तहि उदिव्वमादिए तिन्नि। सम्म अहियासेइ, तत्थ उसुण्हा पदिटुंतो॥ त्रिभिर्मनोवाक्काययोगैः प्रत्येकं दिव्यादीन् त्रीनुपसर्गान् प्रत्येक चतुर्भेदान् सम्यगध्यास्ते सहते तत्र सहनं द्विधा द्रव्यतो भावतश्च तत्र द्रव्यस्य हाने स्नुषाद्या दृष्टान्तस्तमेवाह। सासूससुकोसोदेवरभत्तारमादिमज्झिमगा। दोसादी य जहण्णा, जहसुण्हा सहियउवसग्गा।। श्वशुरः श्वश्रूश्चैतावुत्कृष्टौ पूज्यत्वाद्देवरभर्तृका मध्यमा दोसो जघन्या यथा तत्कृता उपसर्गाः स्नुषायाः सोढास्तथा साधुनाऽपि सोढव्याः / इयमत्र भावना स्नुषया अपराधे कृते तां श्वशुरः श्वश्रूश्य हीलयतिसाच हील्यमाना अतीव लज्जते यद्यपि तानि दुःखोत्पादनानि वचनानि दुरध्यास्यानि तथाऽपि सा तानि सम्यगध्यास्ते चिन्तयति च न सम्यक् अभ्यासिष्ये ततः कुत्र याम अवध्वंसो भविष्यति स्नुषाचारश्चापयास्यति देवरा अपि चोल्लुण्ठवचनानि भाषन्ते यद्यपि तेषां सानो लज्जते तथाऽपि न तानुल्लुण्ठति किं तु सम्यक् तद्ववचनान्यध्यास्ते दासा अपि तांस्नु षामुल्लुण्ठयन्ति तथाऽपि किं किं तेषां वचनान्यहं गणयामीत्यवगणनया सम्यगध्यास्तेन प्रतिवचनंददाति। एतत्तद्रव्यसहनं यत्साधादशविधानप्युपसर्गान् कर्मविनिर्जरणार्थं सम्यगध्यास्त एतदेवाह। सासुससुरोवमा खलु, दिव्वादिपरोवमा य मणुस्सा। दासत्थाणी तिरिया, तह सम्मसोहिया सोए। तथा वधूद्दष्टान्तोक्तप्रकारेण श्वश्रूःश्वशूरोपमान् दिव्यान् उपसर्गान् देवरोपमान् मानुषान् उपसर्गान दासस्थनीयान् तैरश्चान् उपसर्गान्सम्यगध्यास्ते। संप्रति दुविहे वेत्यस्य व्याख्यानार्थमाह। दुहा वेते समासेणं, सव्वे सामण्णकंटगा। दिसयाणुलोमिया चेद, तहेव पडिलोमिया / / अस्य वा एते उपसर्गाश्रामण्यस्य कण्टका इव श्रामण्यकण्टकाः सर्वे समासेन द्विधा प्रतिपादितास्तद्यथा विषयानुलोमिका इन्द्रियविषयानुलोमिका इन्द्रियविषयमप्रतिलोमिकास्तानेव दर्शयति। वंदणसक्कारादी, अणुलोमा बंधवहणपडिलोमा। ते विय खमता सव्वे, पत्थं रुक्खेण दिढतो / / वन्दनसत्कारादयोऽनुलोमाः बन्धवधप्रभृतयः प्रतिलोमास्तानपि सर्वोन् क्षमते अअवृक्षण दृष्टान्तस्तमेवाह। वासीचंदणकप्पे, जह रुक्खाइय सुहदुहसमोउ। रागद्देसविमुत्तो, सहई अणुलोमपडिलोमा।। वासीचन्दनकल्पो यस्य स वासीचन्दनकल्पोऽथवा कल्पस्तुल्यवाची ततोऽयमों वास्यां वास्यालक्षणे चन्दनेनानुलेपनेन कल्पस्तुल्यो वासीचन्दनकल्पो यथा वृक्षो भवति इत्येवममुना प्रकारेण रागद्वेषविमुक्तोऽत एव सुखदुःखसमोऽनुलोमप्रतिलोमान् उपसर्गान् सम्यक् सहते।। व्य० द्वि०७ उ०। उवसग्गाभिउंजण न० (उपसर्गाभियोजन) उपसर्गा दिव्यादयस्तैरभियोजनम् उपसर्गाभियोजनम् / अभिभवकायोत्सर्गे, दिव्याद्यभिभूत एव महामुनिस्तदेवायं करोतीति हृदयम् / उपसर्गाणामभियोजनम् / सोढव्या भयोपसर्गास्तद्भयं न कार्यमित्येवंभूते कायोत्सर्गे, 'उवसग्गाभिउंजणे वीओ' आव०५अ०। उवसज्जण न० (उपसर्जन) उप० सृज० ल्युट् / दैवाद्युपद्रवे, वाच०। अप्रधानभूते गौणे विशेषणे, विशे०। उपसत्त त्रि० (उपसक्त) विशेषेण सक्तिमति, उत्त०३२ अ०। उवसद्द न० (उपशब्द)सुरतावस्थायां वलवलायमानादिषु, तं०। उपसम पुं० (उपशम) उपशान्तिरुपशमः श्रिा० अपराधविधायिन्यपि कोपपरिवर्जने, सच कस्यचित्कषायपरिणतेः कटुकफलावलोकनादति। कस्यचित्पुनः प्रकृत्यैवेति / प्रव० 148 द्वा० / आचा०। संस्था / क्रोधादिनिग्रहे, आ०म० द्वि० / “उवसमेणहणे कोह" उपशमेन क्षान्तिरूपेण द०८ अ०। आचा०माध्यस्थ्यपरिणमे, / आव ०६अ। शान्तावस्थाने, आव०१ अ०। इन्द्रियोपशमरूपे रागद्वेषभावजनिते (सूत्र०२श्रु०१ अ०) शमे, आचा० / स च द्वेधा द्रव्यभावसेदात्तत्र Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसम 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा द्रव्योपशमः कतकपालापाद्यादितः कलुषजलादेः भावोपशमस्तु पं०संगउपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थापने, प्रव०२२४ द्वा०। ज्ञानादित्रयात् / तत्र यो येन ज्ञानेनोपशभ्यति स ज्ञानोपशमस्तद्यथा उपशमश्रेणौ, कल्प०॥पञ्चदशे दिवसे, चं०१ पाहु०। जो०। जं०।स०। क्षेपण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिदुपशाम्यतीत्यादि, दर्शनोपशमस्तु विंशतितमे मुहूर्ते, जं०७ वक्ष० / जो० / कल्प० / तृष्णानाशे, यो हिशुद्धनसम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति यथा श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः रोगोपद्रवशान्तौ निवृत्तौ च / वाच०। प्रतिबोधित इति दर्शनप्रभावकैर्वा सम्मत्यादिभिः कश्चिदुपशाम्यति / उवसमग पुं० (उपशमक) उपशमश्रेण्यन्तर्गतेष्वपूर्वकरणादिषु, चारित्रोपशमस्तु क्रोधाद्युपशमो विनयनम्रतेति। उपशान्तमोहान्तेषु, उपशमश्रेण्या रूढेषु अपूर्वकरणानिवृत्तिपण्णाणमुवलब्म हेचा उवसमं फारुसियं समादियंति बादरसूक्ष्मसंपरायेषु, पं० सं०२द्वा० स०। त्यक्तवो पशमं तत्र केचन क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्याप्युपर्येव प्लवमा | उवसमण न०(उपशमन ) उपशम भावे-ल्युट्-उपशमार्थे, "उवसमणाए नास्तमेवम्भूतमुपशमं त्यक्तवा ज्ञानलवोत्तम्भितगर्वा ध्माताः पौरुष्यं ____ अहिगरणस्स अब्भुट्ठा एव्वं भवति" स्था०४ठा०। परुषतां समाददति गृहन्ति तद्यथा परस्परगुणनिकायां मीमांसायां वा उवसमणा स्त्री० (उपशमना) उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरएकोऽपरमाह त्वन्न जानीषे न चैषां शब्दानामयमर्थो यो भवताऽभाणि / णायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते कर्म यया सा उपशमना / क०प्र० / अपि च कश्चिदेव मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं न सर्व इत्युक्तं च पृष्टा पं०सं० / उदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्यत्वेन गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदं न वादिनि च मल्लमुख्ये च कर्मणोऽस्थापने, उक्तं च "उव्वट्टणओवट्टणसंकमणाई च तत्थ मादृगेवाऽन्यतरंगच्छेत् द्वितीयस्त्वाह नन्वस्मदाचार्या एवमाज्ञापयन्ती करणाइंति" / अष्टानां करणानां षष्ठं करणमेतत्। स्था०४ठा०२ उ०। त्युक्ते पुनराह सोऽपि वा कुण्ठो बुद्धिविकलः किं जानीते त्वमपि च संप्रति उपशमनाप्रतिपादनार्थमाह। अक्सरस्तत्र चैतेऽ धिकाराः तद्यथा शुकवत्पाठितः निरहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि दुर्गृहीतकतिचिदक्षरो प्रथमं सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा, सर्वविरतिलाभप्ररूपणा, अनन्तानुमहोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामापादयन् स्वौद्धत्यमाविर्भावयन भाषते बन्धिविसंयोजना, दर्शनमोहनीयक्षपणा, दर्शनमोहनीयोपशमना, उक्तञ्च अन्यैस्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण वि ज्ञाय कृत्स्नं वाङ् चारित्रमोहनीयोपशमना पुनः सप्रभेदेति / तत्र वेदमुपशान्तम यमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण क्रीडतकमीश्वराणां मुपशमनाकरणम् प्रभेदं सर्वात्मना व्याख्यातुमशक्यं ततो यत्रांशे कुकुटलावकसमानवल्लभ्यः शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा व्याख्यातुमात्मनोऽशक्तित्रांशे तद्धेतुश्रोतृणामाचार्यो नमस्कार क्षुल्लको नयतीत्यादि पाठान्तरं वा "हेचा उवसमं च एगे फारुसियं चिकीर्षुराह। समारुहंति " त्यक्त्वोपशमथानन्तरं बहुश्रुतीभूता एके न सर्वे परुषतामालम्बते ततश्चालप्ताः शब्दिता वा तूष्णींभावं भजन्ते करणकया अकरणकया, चउव्विहा उवसमणा विईयाए। हुंकारशिरःकम्पनादिना वा प्रतिवचनं ददति 1 श्रु 6 अ०४ उ० अकरणअणुइनाए, अणुओगधरे पणिवयामि॥३१॥ (कलहोपशमे गुणा अहिगरणशब्दे उक्ताः) विष्कम्भितोदयत्वे, उक्त 01 इह द्विविधा उपशमना करणकृता अकरणकृता च तत्र करणंक्रिया यथा अ० / विपाकोदयविष्कम्भे, नि० उदयविधाय उवसमो प्रवृत्तिपूर्वकनिवृत्तिकरणसाध्यक्रि या विशेषः तेन कृता करणकृ-ता अनुदितस्योदयविधाने, विशे० मोहनीयकर्मणोऽनन्तानुबन्ध्या- तद्विपरीता अकरणकृता च या संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणदिभेदभिन्नस्योपमश्रेणि प्रतिपन्नस्य मोहनीयभेदाननन्तानुबन्ध्यादी- वृत्ततादिभिः संभववत् प्रवृत्तादिकरणक्रि याविशेषमन्तरेणापि नुपशमयति (इति) उदयभावेस्था०६ठा०।। मिथ्यात्वमोहनीये कर्मणि, वेदनानुभवनादिभिः कारणैरुपशमनोपजायते सा अकरणकृतेत्यर्थः / उदीय्ये, क्षीणे , शेषस्यानुदयापादने, विशे०। क्षयोपशमादेर्भेदः। अथ इदं च करणकृताकरणकृतत्वरूपं द्वैविध्यं देशोपशमनाया एव द्रष्टव्यं न प्रेरको भणति ननु क्षयोपशमोपशमयोः कः किल विशेषः / सूरिराह ननु सर्वोपशमानुकरणकृताया वेति / अस्याश्चाकरणकृतोपशमनाया उदीर्ण उदयप्राप्ते कर्मणि क्षीणे शेषे चानुदीर्णे उपशान्ति सति नामधेयद्यं तद्यथा अकरणोपशमना अकृतोपशमना च तस्याश्य क्षयोपशमोऽनिधियत इति। प्रेरकः प्राह। संप्रत्यनुयोगो व्यवच्छिन्नस्तत आचार्यः स्वयं तस्यानुयोगमजानानसो चेव नणूवसमो, उदए खीणम्मि सेसए समिए। स्तद्वेदिनृणां विशिष्टमतिप्रभाकलिकचतुर्दशवेदिनां नमस्कारमाह / सुहुमोदयता मीसे, ननूपसमिए विसेसो यं / / (विईयाए इत्यादि) द्वितीया अकरणकृता तृतीयाया उपशमनाया एव द्रष्टव्यं न सर्वोपशमनानुकरणकृतेवेति। अस्याश्चाकरणकृतोपशमनाया ननूपशमोऽप्ययमेव यः किमित्याह / यः उदिते कर्माणि क्षीणोऽनु अनुयोगधरान् प्रणिपतामि तेषु प्रतिपातं करोमि तस्मादिह करणकृतोदितेऽनुपशान्तो भवति अत्रोत्तरमाह। ननु मिश्रे क्षयोपशमे सूक्ष्मोदयता अस्ति प्रदेशोदयेन सत्कर्मवेदनमस्तीत्यर्थः। उपशमिते तु कर्मणि तदपि पशमनाया अधिकरः साऽपि च द्विधा वैक्रियद्वैविध्वमेवाह। नास्तीत्ययमनयोर्विशेष इति एतदेवाह। सव्वस्सय देसस्सय, करणमुवसमनदुन्नि एकेका। वेएइ संतकम्म, खओवसमिएसु नाणुभावं सो। सध्वस्स गुणपसत्था, देसस्स वितासि विवरीआ॥३१५।। उवसंतकसाणो पुण, वेएइ न संतकम्मा पि॥ साकरणकृतोपशमना द्विविधा सर्वस्य विषये देशस्य विषयेच सर्वविषया स क्षयोपशमावस्थाकषायवान् जीवः क्षयोपशमिके ष्व- | देशविषया चेत्यर्थः / एकैकस्याश्च द्वेद्वेनामधेये तद्यथा सर्वस्योपशमनाया नन्तानुबन्ध्यादिषु तत्संबन्धे सत्कर्मानुभवति प्रदेशकर्म वेदयति न गुणोपशमना प्रशस्तविहायोगतिशमना ।क०प्र०) पुनरनुभावं विपाकतस्तु तान्न वेदयतीत्यर्थः / उपशान्तकषावस्तु देसुवसमणा सव्वाण, दोइ सथ्वोवसामणा मोहो। सत्कर्मापि न वेदयतीति क्षयोपशमोपशमयोर्विशेष इति / विशे० | अपसत्थपसत्था जा, करणावसमणाए अहिगारो॥ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1057 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा इह द्विधा उपशमना तद्यथा देशोपशमना सर्वोपशमना च / तत्र देशोपशमना सर्वेषामपि कर्मणां भवति। सर्वोपशमनातु मोहे मोनीयस्यैय देशोपशमनायाश्चामून्ये कार्थिकानि तद्यथा देशोपशमना अनुदयोपशमना अगुणोपशमना अप्रशस्तोपशमना च। सर्वोपशमनायास्त्वमूनि तद्यथा सर्वोपशमना उदयोपशमना गुणोपशमना प्रशस्तोपशमना च / तत्र देशोपशमना द्विध कारणकृता कारणरहिता च / सर्वोपशमना तु कारणवृत्तव कारणानि यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञानि तैः कृता तद्विपरीता कारणरहिता या संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिसम्भवयन् यथा-प्रवृत्तादिकारणासाध्याक्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिभिः कारणैरुपजायते। तस्याश्च संप्रत्यनुयोगव्यवच्छित्तिस्ते द्वे नृणामभावात् ततोऽप्रशस्ता च या करणोपशमना तयोरधिकारः प्रथमतः सर्वोपशमना वाच्या तत्र चैतेऽर्थाधिकारास्तद्यथा सम्यक्तवोत्पादप्ररूपणा देशविरतिलाभप्ररूपणा सर्व विरतिलाभप्ररूपणा अनन्तानुबन्धे विसंयोजना दर्शनमोहनीयक्षपणा दर्शन मोहनीयोपशमना चरित्रमोहनीयोपशमा च। पं०सं० तत्रादौ सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणर्थमाह / सव्वुवसमणा मोहस्सेव, तस्स सव्वुवसमक्कियाजोग्गो। पंचिंदिओवसन्ना, पञ्जत्तो लद्धितिगजुत्तो॥३१६|| पुव्वं पि विसुझंतो, गंठिअसत्ताण इक्कमिय सोहि। अन्नयरे सागारो, जोगे य विसुद्धिलेसासु // 317 / / ठिइसत्तकम्पअत्तो, कोडी कोडी करेत्तु सत्तण्हं / दुट्ठाणचउहाणे, असुभसुभाणंच अणुभागं // 318|| बंधंतो धुवपगडी, भवपाउग्गा सुभ अणाओ य। जोगवसायएसंको, उक्कोसं मज्झिमजहण्हं // 316 / / ठिई य बंधवद्धा पूरे, नवबंधपल्लसंखभागूणं। असुभाणसुभाणुभागं अणंतगुणहाणिवड्डीहिं / / 120|| करणं अहापवत्तं, अपुय्वकरणमनियट्टिकरणं च / अंतोमुहूत्तयाई, उवसंतद्धं चउहिं कमेण / 321 / इह सर्वोपशमना मोहस्यैव मोहनीयस्यैव शेषाणां तु कर्मणां देशोपशमना तत्रतस्य मोहनीयस्य सर्वोपशमनाक्रियायोग्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्त इत्येवं लब्धित्रिकयुक्तः पञ्चेन्द्रिय-त्वसंज्ञित्वपर्याप्तित्वरूपाभिस्तिसृभिः लब्धिभिर्युक्तः अथवा उपशमलब्ध्युपशमश्रेणिश्रवणलब्धिकरणत्रयहेतुप्रकृष्ट योगलब्धिरूपत्रिक युक्तः करणकालात् पूर्वमपि अन्तर्मुहूर्त्तकालं यावत् प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्यादिभिर्विशुध्यमानोऽवदायमानचित्तसन्ततिः ग्रन्थकसत्वानाभव्यसिद्धकानां या विशोधिस्तामतिक्रम्य वर्तमानः ततोऽनन्तगुणविशुद्ध इत्यर्थः / तथा अन्यतरस्मिन् मतिश्रुतज्ञानावरणविभङ्गज्ञानानामन्यतरस्मिन् साकारे साकारोपयोगे वाऽन्यतरस्मिन् मनोयोगे वाग्योगे काययोगे वा वर्तमानस्तिसृणां विशुद्धानां लेश्यानामन्यतमस्या लेश्यायां जघन्येन तेजोलेश्यायां मध्यमपरिणामेन पद्मलेश्यायामुत्कृष्टपरिणामेन शुक्ललेश्यायां वर्तमानो जघन्येन तेजोलेश्या तथा आयुर्वजनिां सप्तानां कर्मणां स्थितिवंतः सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणां कृत्वा अशुभानां कर्मणामनुभागं चतुःस्थानकं द्विस्थानकं करोति शुभानां च कर्मणां द्विस्थानकं सततं चतुःस्थानकं करोति ध्रुवतया प्रकृती: पञ्चविधज्ञानावरणनवविधदर्शनावरणमिथ्यात्यषोडशकषायभयजुगुप्सातैजसकार्मणवर्णगन्धरसस्पर्शा:गुरुलधूपघातिनिर्माण पञ्चविधान्तरायरूपाः सप्तचत्वारिंशत्संख्या बध्नन् परावर्तमानाः स्वस्वभावप्रायोग्याः प्रकृतिः शुभा एव बध्नाति ता अप्यायुर्वर्जाः अतीव विशुद्धिपरिणामो हि नायुर्बन्धमारभत इति कृत्वा तद्वर्जनं भवप्रायोग्या इति वचनाचैतदगन्तव्यम् ! यदुत तिर्यङ्मनुष्यो वा प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन् देवगतिप्रायोग्याःशुभाः प्रकृतीर्देवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गसमचतुरस्रसंस्थानपराघातोच्छ्वास-प्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशकसातवेदनीयोचैर्गोत्ररूपा एकविंशतिसंख्या बध्नातिदेवो नेरयिको वा प्रथम समये सम्यक्तवमुत्पादयन् मनुजगतौ प्रायोग्या मनुजगतिमनुजानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिसमचतुरस्रसंस्थानप्रथमसंहननौदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्ग पराघातोच्छवासप्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशक सातवेदनियोचैो त्ररूपा द्वाविंशतिसंख्या न बध्नाति के वलं यदि सप्तमनरकपृथ्वीनारकः प्रथमस्य सम्यक्त्वमुत्पादयति ततः तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीनीचैर्गोत्राणि वक्तव्यानि शेषं तदेव तथा बध्यमानप्रकृतीनां स्थिति बध्नाति अन्तः सागरो-पमकोटाकोटीप्रमाणामेव नाधिका योगवशाच प्रदेशाग्रमुत्क्रष्टमध्यमजघन्यं च बध्नाति तथा हि जघन्ययोगे वर्तमानो जघन्यं प्रदेशाअं बन्धाति मध्यमे मध्यममुत्कृष्ट तूत्कृष्टमिति। स्थितिबन्धेऽपि चूर्णे सत्यन्यं स्थितिबन्ध प्राक्तनस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमं संख्येयभागन्यूनं करोति तस्मिन्नपि च परिपूर्णे सति अन्य स्थितिबन्धं पल्पोपमासंख्येयभागन्यूनं करोति एवमन्यमन्यं स्थितिबन्धपूर्वपूपिक्षया पल्योपमासंख्येभागन्यूनं करोति अशुभानांच प्रकृती नांबध्यमानानामनुभागं द्विकस्थानकं बध्नातितमपि प्रति समयमनन्तगुणहीनं शुभानां चतुःस्थानकं बध्नाति तमपि प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धिमेवमसौ कुर्वन् किं करोति इत्यत आह / करणमित्यादि) करणं यथाप्रवृत्तं करोति ततोऽनिवृत्तिकरणमिति परिणामविशेषकरणं “परिणामोत्तेत्ति" वचनप्रामाण्यात् एतानिच त्रीण्यपि करणानि च प्रत्येकमन्तौ हुर्तिकानि सर्वेषामपि करणानां कालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्ततोऽनेन क्रमेण चतुर्थीमुपशान्ताद्धां लभते साऽपि चान्तर्मुहूर्तिकी / क०प्र०। सम्प्रति करणानामेव स्वरूपमाविश्चिकीर्षुराह / / आइल्लेसुंदोसुं, जहन्न उक्कोसिया भवे सोही। जो पइसमयं अज्झवसाया लोगा असंखेज्जा।। आद्ययोर्द्वयोः करणयोर्यथाप्रवृत्तिनिवृत्त्याख्योर्जघन्या उत्कृष्टा च शुद्धिर्भवति यतो यस्मादाद्यद्वयोः करणयोः प्रतिसमयमध्यवसाया विशोधिरूपा नानाजीवापेक्षया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्ततः आद्ययोर्द्वयोः करणयोः प्रतिसमयं जघन्या उत्कृष्टा च विशोधिर्भवति / ताश्च विशोधय एवम् / तथा प्रथमसमये विशोधयो नानाजीवापेक्षया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्ततो द्वितीयसमये विशेषाधिकास्ततोऽपि तृतीये समये विशेषाधिका एवं तावद्वाच्य यावच्चरमसमय एवमपूर्वकरणेऽपि द्रष्टव्यमेते च विशोध्यध्यवसाया यथाप्रवृत्तापूर्वकरणयाः संबन्धिनः स्थाप्यमाना विषमचतुरस्त्र क्षेत्रमावृण्वते तयोरुपरिचानिवृत्तिकरणाध्यवसाया मुक्तावलीसंस्थिता स्थापना। Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1058 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा 10000000000000012 800000000000020 40000000000018 1000000000-- पूर्वकरण 30000000014 2000000012 1000006 00019 005 एतदेवाह॥ पइसमयअणतगुणा, सोही उड्डामुही तिरिट्टाउ। छेदाणि य जीवाणं, तइए उङ्गामुहा उक्का। त्रयाणामपि करणानां प्रतिसमयमूर्द्धमुखा सिद्धिरनन्तगुणा वेदितव्या तद्यथा प्रथमसमशुद्ध्यपेक्षया द्वितीयसमये शुद्धिरनन्तगुणा ततोऽपि तृतीयसमये अनन्तगुणा एवं यावदनिवृत्तिकरणचरम समय आद्यद्वयोः शुद्धयोः करणयास्तियङ्मुखाशुद्धिः षट्स्थाना षट्स्थानपतिता यद्यथा प्रथमसमयगता शुद्धिः षट्स्थानविशिष्टा द्वितीयस्थानगता विशिष्टा एवं यावदपूर्वकरणचरमसमयः तृतीयविनिवृत्तिकरणे प्रतिसमयं सकलजीवापेक्षयाऽप्येकमेवाभ्यवसायस्थानम् / तथाहि अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये वर्तन्ते ये च प्रवृत्ताः ये च वर्तिष्यन्ते तेषां सर्वेषामप्येकमेवाध्यवसायस्थानं द्वितीयसमयेऽपि वर्तन्ते ये प्रवृत्तायेच वर्तिष्यन्ते तेषामपि सर्वेषामे कमेवाध्यवसायस्थान के वलं प्रथमसमयभाविविशोधिस्थानापेक्षयाअनन्तगुणविशुद्धम् एवं तावद्वाच्य यावत्तस्यानिव्रत्तिकरणस्य च चरमसमयस्ततस्तृतीये करणे एकैकशोधिरूढ़मुखरूपान द्वितीय तिर्यमुखा तत्र यथा प्रवृत्तिकरण एव / विशोधिविधितारतम्यमुपदर्शयन्नाह / / गंतुं संखेशंस, अहापवत्तस्स हीण जा सोही। तीए य पढमसमये, अनंतगुणिया उ उक्कोसा / / यथा प्रवृत्तिकरणस्य संख्येयं भागं गत्वाऽन्तरसमये या जघन्या शुद्धिस्तस्याः सकाशात्प्रथमे समये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा। इयमत्र भावना यथाप्रवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये या सर्वजघन्या विशोधिः सा सर्वस्तोका ततो द्वितीये समये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवं तावद्वाच्य यावत् यथाप्रवृत्तिकरणस्य संख्येयो भागो गतो भवति ततः प्रथमसमये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा ततो यतो जघन्यस्थानानिवृत्त स्तस्योपरित ना जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि द्वितीयसमये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा तत उपरिजघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवमुपर्यधश्च एकै का विशोधिरनन्तगुणा तावद्वाच्या यावच्चरमसमये जधन्या विशोधिः / तथा चाह। एवं एकतरिया, हेटुवरि जाव हीणपजंते। तत्तो उन्कोसाओ, उवरिवरिं होयणंतगुणा / / एवं पूर्वोक्तप्रकारेण संख्येयभागात्परत आरभ्य अध उपरि च एकान्तरिता विशोधिरनन्तगुणा तावद्वाच्या यावद्धीनपर्यन्ता जघन्यविशोधिपर्यवसानं पल्योपमसंख्येयभागमात्राश्चोत्कृष्टा विशुद्धयोऽद्याप्यनुत्तराः सन्ति ततस्ताः उपरि उपरि अनन्तगुणा वक्तव्याः तदेवमुक्तं यथाप्रवृत्तिकरणम्। संप्रत्यपूर्वकरणस्य स्वरूपमाविश्चिकीर्षुराह। जा उक्कोसा पढमे,तीसेणंता जहन्निया वाए। करणा तीए जेट्ठा, एवं जा सव्वकरणं पि॥ प्रथमे यथाप्रवृत्तकरणे चरमसमये या उत्कृष्टा विशोधिस्तस्याः सकाशात् द्वितीय पूर्वाख्ये करणे प्रथमे समये जधन्या विशोधिरनन्तगुणा तस्या अपि सकाशात् प्रथमसमये एव ज्येष्टा उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा ततो द्वितीये समये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा / ततोऽपि तस्मिन्नेव तृतीये समये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा। ततोऽपि द्वितीये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा। ततो अपि तस्मिन्नेव तृतीये समये उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा / एवं प्रतिसमयं तावद्वाच्यं यावत्सकलमपि करणं परिसमाप्यते। अपुष्वयकरणसमयं, कुणइ अपुग्वे इमे च चत्तारि। ठिइघायं रसघायं, गुणसेढी बंधगद्धा य॥ अपूर्वकरणेन समकं तस्मिन्नेव समये अपूर्वकरणे प्रविशति तस्मादेव समयादारभ्येत्यर्थः / इमान्वक्ष्यमाणंश्चतुरः पदार्थान् अपूर्वान् करोति अतीते कालेन कदाचनापि पूर्वं कृताः। ततो नवा स्थितिघातं रसघात गुणश्रेणिबद्धकार्द्ध च। तत्र प्रथमतः स्थितिवतः स्वरूपव्यावर्णनायाह। उकोसेणं बहुसा-गराणि इयरेण पल्लसंखेयं / ठियअग्गायो घायइ, इंतमुहुत्तेण ठिइखर्ड | स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागादुत्कर्षेण प्रभूतानि सागरोपमाणि प्रभूतसागरोपमप्रमाणमितरेण जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागमा त्रत्रिखण्डमन्तर्मुहूर्तेन कालेन घातयति घातयित्वा च दलिकं याः स्थितीरधो न खण्डयिष्यति तत्र प्रक्षिपति ततः पुनरपि अधस्तात् पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्तेन कालेनघातयन् प्रागुक्तप्रकारेणैव च निक्षिपति एवमपूर्वकरणाद्धायाः प्रभूतानि स्थितिखण्डसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति तथा च सति अपूर्वकरणस्य प्रथमे समये यस्थितिसत्कर्मासीत्तत्तस्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनंजातं तदेवमुक्तः स्थितिघातः। संप्रति रसघातप्रतिपादनार्थमाह। असुभाणं तं मुहुत्तेण, हणइ रसं कंडगं अणंतंसं / करणो ठिइखंडाणं, तम्मि उ रसकंडगसहस्सा / / स्थितिखण्डानां करणे उत्किरणे प्रवृत्तः सन् अशुभा वा प्रकृतीनां रसकण्डकमनुभागकण्डकमनन्तानन्तविभागात्मकमन्तमुहूर्ते न विनाशयति किमुक्तं भवति अशुभप्रकृतीनां यत् अनुभागसत्कर्म तस्यानन्तानुभागान् मुक्तवा शेषान् अनुभागभागान् सर्वानप्यन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयित ततः पुनरपि तस्य प्रागुक्तस्यानन्ततमस्य भागस्यानन्ततमं भागं मुक्तवा शेषान अनुभागभागान सर्वानन्तर्महर्तेन कालेन विनाशयनि एवमनेकानि अनुभागखण्डसहस्राणि एकैककस्मिन् स्थितिखण्ड़े व्यतिक्रामन्ति तथा चाह (तम्मि उ रसकंडगसहस्सा) तस्मिन् स्थितिखण्डे एकैकस्मिन् रसकण्डगसहस्राणि गच्छन्ति स्थितिखण्डानां च सहस्रैरपूर्वकरणे परिसमाप्यते तदेवमुक्तो रसधातः। सप्प्रति गुणणेणिमाह। घाइयट्टिईदलियघेत्तुं, घेत्तुं असंखगुणणाए। साहियदुकरणकालं, उदयाओ एइ गुणसेटिं। घातितायाः स्थितिः शुभध्यानदलिकं गृहीत्वा उदयसमयादारभ्य प्रतिसमयसंख्येयगुणवृद्ध्या क्षपयति यद्यथा उदयसमये स्तो कं द्वितीयसमये असंख्ये यगुणं ततोऽपि तृतीये समये असंख्येयगुणम् / एवं तावद्वक्तव्यं यावत्साधिककरणद्वयकालो मनाक् Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा समधिका अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणकालसमया एष प्रथमसमयगृहीतदलिकनिक्षेपविधिः एवं द्वितीयादिसमये गृहीतानामपि दिलकानां | निक्षेपविधिर्द्रष्टव्यः / अन्यच्च गुणश्रेणिरचनार्थं प्रथमसमये यत् दलिकं गृह्यते ततः स्तोकं ततोऽपि द्वितीयसमये असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीये समये असंख्येयगुणमेवं तावद्द्वक्तव्यं यावद्गुणश्रेणिकरणचरमसमयः / अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसमयेषु वा उभयतः क्रमशः क्षीयमाणेषु गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपः शेषे भवति उपरिच न वर्द्धते। करणाई अप्पुट्ठो, जो बंधो सो न होई जो। अण्णो बधगउद्धा, सा उल्लिमा उडिगइठाए॥ अपूर्वकरणस्यादौ प्रथमसमये यो बन्धः प्रारब्धसंबन्धकाद्धा उच्यते कियन्तं कालं यावत् स प्रारब्धांशो बन्धो बन्धकाद्धा उच्यते अत आह यावदभव्यो बन्धो न भवतिन प्रारभ्यते स प्रारब्धो बन्धोयावन्न समाप्ति यातीत्यर्थः / सा च बन्धकाद्धा स्थितिकण्डकद्वया स्थितिः घातकाले तुल्या इदमुक्तं भवति स्थितिघात स्थितिबन्धौ युगपदारभ्येते युगपदेव च निष्ठां यात इति। जा करणाइए ठिइकरणं तेतीए होइ संखंसों। अनियट्ठीकरणमओ, मुत्तावलिसंठियं कुणइ॥ अपूर्वकरणस्यादौ प्रथमसमये या स्थितिः सा स्थितिघातसहसैः खण्डिता सती करणान्ते अपूर्वकरणस्य चरमसमये संख्येयांशो भवति संख्येयभागमात्रा भवति संख्येयगुणाहीना भवतीत्यर्थः / एतच्च प्रागपि प्रस्तावादुक्तं तदेवमुक्तमपूर्वकरणम् / संप्रत्यनिवृत्यकरणप्रतिपादनार्थमाह "अनियट्टीत्यादि" अन्तोऽपूर्वकरणं तदूर्द्धमनिवृत्तिं करोत्यारभते तच कथंभूतमित्याह मुक्तावलीसंस्थितमनिवृत्तिकरणे हि अध्यवसायस्थानानि मुक्तावलीसंस्थितानि भवन्ति एतच्च प्रागेवोक्तं तत एतदपि अनिवृत्तिकरणमभेदात् मुक्तावलीसंस्थितमित्युक्तम् / / एवमनियट्टिकरणे, ठिइघाईणि होति चउरो वि। संखेचंसे सेसे, पढमठिई अंतरभवे / / एवमपूर्वकरणक्रामणनिवृत्तिकरणेऽपि स्थितिघातादयश्चत्वारोऽपि पदाथा भवन्ति प्रवर्तन्ते इत्थं या निवृत्तिकरणा द्वयोः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिश्च संख्येयगते भागे शेषे तिष्ठति अन्तर्मुहूर्तमात्रमधो मुक्त्वा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं प्रथमस्थितेः किञ्चित्समधिकं भवति प्रथमस्थितिश्चा अंतमुहुत्तियमित्ताई, दो विनिम्मवइ बंधगट्ठाए। गुणसेढि संखभाग, अंतरकिरणेण उक्किरइ॥ प्रथमस्थितिमन्तरकरणं च एते द्वे अपि अन्तर्मुहूर्तप्रमाणो युगपत् निपियति / तथा तत् अन्तरकरणं अभिनवस्थितिबन्धोदयानभिनवस्थितिबन्धकालप्रमाणेन कालेन करोति तथा व्यन्तरकरणप्रथमसमय एवान्यस्थितिबन्धमिथ्यात्वमारभते स्थिति बन्धान्तरकरणे च युगपदेव परिसमापयति / तथा गुणश्रेणिसंबन्धिनः संख्येयभागाः प्रथमद्वितीयस्थित्याश्रितास्तिष्ठन्ति एका तु श्रेणिः संख्येयतमं भागमन्तरकरणादन्तरकरणेन सहोत्किरति विनाशयति। संप्रति अन्तरकरणस्य विधिमाह। अंतरकरणस्य विही, घेत्तुं घेत्तुं ठिई य मज्झाउ। दलियं पढमठिईए, विक्खिवइ तहा उवरिमाईए॥ अन्तरकरणस्यायं विधिः यदुत अनन्तकरणस्थितेमध्यावलिकं कर्म परमाद्यात्मकं गृहीत्वा गृहीत्वा प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति तथा उपरितन्यां द्वितीयस्थितौ च एवं च प्रतिसमयंतावत्प्रक्षिपति यादवदन्तरकरणदलिक सकलमपि क्षीयते अन्तर्मुहूर्तेन च कालेन सकलदलिकक्षयः। ' इगदुगआवलिसेसा, नत्थि पढमाए उदीरणागालो। पढमठिइए उदीरण, वियाउए आगालो॥ इह प्रथमस्थितौ वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण यत् प्रथमस्थितेरेव दलिकं समाकृश्योदयसमये प्रक्षिपति सा उदीरणा / यत् पुनः द्वितीयस्थितेः सकाशात् उदीरणाप्रयोगेण समाकृष्योदये प्रक्षिपति स आगाल इति। उदीरणायाः एव विशेषप्रतिपत्त्यर्थमिदं द्वितीयं नाम पूर्वसूरिभिरावेदितम्। उदीरणायां च प्रथमस्थितिमनुभवन् तावद्गतो यावदावलिकाद्विकं शेष तिष्ठति तस्मिश्च स्थितेः आगालो न भवति किं तु केवला उदीरणैव। असावप्युदीरणा तावत् प्रवर्तते यावदावलिका शेषा न भवति आवलिकायां शेषीभूतायामुदीरणा विनिवर्तते ततः केवलेन नवोदयेन आवलिकामनुभवति। अक्षरयोजना त्वेवम् / एकस्यामावलिकाशेषायां प्रथमस्थितौ यथासंख्यमुदीरणागालो न भवति / प्रथमस्थितेश्च सकाशात् यदि च आगच्छ ति सा उदीरणा द्वितीयायाश्च स्थितेः सकाशाद्यद्यागच्छति स आगाल इति॥ आवलिमेत्तं उदयेण चेइउं ठाइ उवसमट्ठाए। उवसमियं तत्थ भवे, सम्मत्तं मंखुवीयं जं॥ तत आवलिकामा प्रथमस्थितिसत्कं केवलेनैवोदयेन वेदयित्वा अनुभूय उपशमाद्धायां तिष्ठति उपशमाद्धायां प्रविशति तस्यां चोपशमाद्धायां स्थितस्य सतः प्रथमसमये एवौपशमिकसम्यक्तवं भवति तच मोक्षस्याभावात्। उपरिमठिइ अणुभागं, तं ति ता कुणइ चरमिमच्छुदए। देसघाएण सम्मं, इयरेणं मित्थमीसाइ।। प्रथमस्थितिचरमसमये मिथ्यात्वोदये वर्तमानो मिथ्यादृष्टिरु परितनं स्थितिद्वितीयस्थितेः संबन्धिनां कर्मपरमाणूनामनुभागं त्रिधा करोति / अनुभागभेदेन त्रिधा द्वितीयस्थितिगतं मिथ्यात्वं दलिकं करोति इत्यर्थः / तथा शुद्धमविशुद्धं च तत्र शुद्ध सम्यक्तवं तच देश घातिरसेन समन्वितं करोति।अर्द्धविशुद्धं सम्यग्मिथ्यात्वमविशुद्धं मिथ्यात्वम्। एते च इतरेण सर्वघातिनां रसेन समन्वितेच करोति। इहौपशमिकसम्यक्तवलाभप्रथसमयादेवारभ्य मिथ्यात्वस्य सम्यक्तवं च गुणसंक्रमात्प्रवर्तते स चैवम्। सम्मे थोवो मीसे, असंखओ तस्स संखओ सम्मे। पइसमयं इइखेवो, अंतमुहुत्ता उ विप्पाउ॥ औपशमिकसम्यक्तवलाभप्रथमसमये स्तोकोदलिकनिक्षेपसम्यक्तवे ततो मिश्रे तस्मिन्नेव प्रथमसमये असंख्येयगुणस्ततोऽपि द्वितीये समये सम्यक्त्वे असंख्येयगुणः ततोऽपि तस्मिन्नैव द्वितीये सम्यग्मिथ्यात्वे असंखेयगुणः इत्येवमुक्तेन प्रकारेण प्रतिसमयं क्षेपे सगुणसंक्रमरूपस्तावदृष्टव्यो यावदन्तर्मुहूर्त तदूर्द्ध पुनः प्रागभिहितत्वरूपो विध्यातसंक्रमः प्रवर्तते।। गुणसंकमेण एसो, संकामो होइ सम्ममीसेसु। अंतरकरणम्मि ठिओ, कुणई जओ सप्पसत्थगुणो / / एष प्रागभिहितस्वरूपसंक्रमो मिथ्यात्वस्य सम्यग् मिश्रयो भवति गुणसंक्रमेणानन्तरोक्तस्वरूपः संक्रमो वेदितव्यत्यर्थः / Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा १०६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा यतोऽसावन्तरकरणे स्थितः सप्रशस्तगुणः सह प्रशस्तेन प्रशस्येन सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा। संप्रतिचारित्रमोहनीयस्योपशमनाभिधातव्या गुणेनोपशमिकसम्यक्तवलक्षणेन वर्तते इति सप्रशस्त गुणः सन् संक्रम चारित्रमोहनीयस्य चोपशमको वेदकसम्यग्दृष्टियतो देशविरतः सर्वविरतो करोति तस्मादन्तरकरणे स्थितस्य गुणसंक्रमः प्रवर्तते तल्लक्षणस्य वा प्रवर्त्तमानशुभपरिणामस्तथा चाह। संभवात् तथाहि गुणसंक्रमस्येदं लक्षणम् / अपूर्वकरणादारभ्य गुणानां वेयगसम्मट्ठिी, सोहीअद्धाए अजयमाईया। वध्यमानानां प्रकृतीनां गुणसंक्रमः प्रवर्तते इति / तदुक्तम् “गुणसंकमो अवज्झंति गणे असुभाणपुव्वकरणादी" इति। अपूर्वकरणेच मिथ्यात्वस्य करणदुगेण उवसम, चरित्तमोहस्स चिटुंति॥ बन्धःप्रवर्तते तस्य वेद्यमानत्वात् अन्तरकरणे च तस्योदयाभावात् बन्धो वेदकसम्यग्दृष्टयः क्षायोपशमिकसम्यक्तवापरित्यक्तसंक्लेशा न प्रवर्तते तत्र गुणसंक्रमः प्रवर्तते। विशोध्याद्धायां वर्तमाना अयतादयोऽविरतादयोऽविरतदेशविरगुणसंक्रमेण समए, ठितिदिजकंतिआउवज्जाणं। तसर्वविरताश्चारित्रमोहनीय स्योपशमार्थ करणद्विकेन यथा प्रवृत्ता पूर्वाख्येन यथायोगं चेष्टेन्ते अनुचरा भवन्ति तृतीयेन तु करणेन मिच्छत्तस्स उइगिदुग, आवलिसेसाए पढमाए। साक्षादुपशमका एव भवन्तीति करणद्विकेन चेष्टन्ते इत्युक्तम्। यत्नेन गुणसंक्रमःप्रवर्ततेतावदायुर्वर्जानांसप्तानां कर्मणां स्थितिघातो संप्रत्येतेषामेवाविरतादीनां लक्षणमाह। रसघातो गुणश्रेणिर्वा प्रवर्जते यदा गुणसंक्रमस्तिष्ठति निवर्तते तदा गुणसंक्रमेण समं तिस्रोऽपि स्थितिघातगुणश्रेणयस्तिष्ठन्ति तथा जाणणगहणाणुपालण, विरओ विरई अविवर उन्नोसिं। मिथ्यात्वस्य यावदेकावलिका प्रथमस्थितौ शेषीभूता न भवति तावत् आइमकरणदुगेणं,पडिवज्जइ दोण्ह मत्तपरं / स्थितिघातरसधातौ प्रवर्तेते आवलिकामावशेषीभूतायां तु प्रथमस्थितौ विरते यत् ज्ञानं ग्रहणं पालनं च तैः कृत्वा विरतो भवति तत्र यस्त्रिविधं नभवतः सदा यावन्मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितिावलिका शेषा न भवति त्रिविधेन भवेद्विरतः स सर्वविरतः यस्तु एकादिना विरत स देशविरतः तावत्गुणश्रेणिरपि प्रवर्तते व्यावलिकाशेषायां तस्यां गुणश्रेणिर्न भवति ज्ञानग्रहणानुपालनरूपशुभगव्यतिरेकेण चान्येषु भागेषु वर्तमानो उत्तरार्द्धस्य चाक्षरयोजना इति मिथ्यात्वस्य एक व्यावलिकाशेषायां नियमादविरतः चरमेऽनुभने वर्तमानो देशविरते शविरतः स प्रथमस्थितौ यथासंख्यं स्थितिघातरसधातौ गुणश्रेणिश्च तिष्ठन्तीति। चानेकप्रकारस्तद्यथा कोऽप्येकाणुव्रती कोऽपि द्वय णुव्रती एवं उवसंतद्धा अंते, विहीय उक्कट्ठियस्स दलियस्स। यावदुत्कर्षतः परिपूर्णेद्वादशव्रतधारी प्रत्याख्यातसकलसावद्यका अज्झवसायविसेसो, सो एक्कस्सुदओ भवे तिण्णं / केवलमनुमतिमात्रसेवकः। अनुमतिरपि त्रिधा तद्यथा प्रतिसेवनानुमतिः उपशमाद्धाया औपशमिकसम्यक्त्वाद्धाया अन्ते पर्यन्ते किंचि प्रतिश्रवणानुमतिः संवासानुमतिश्च। तत्रयः स्वयं परैर्वा कृतं पापं श्लाघते त्समधिकावलिकाशेषे वर्तमानस्त्रयाणामपि द्वितीयस्थितिगतानां सावद्यारम्भोपपन्नं वा अशनाद्युपभुक्तेतस्य प्रतिसेवनानुमतिः। यदातु सम्यक्तवादिषु जातानां दलिकमध्यवसायविशेषेण समाकृष्या पुत्रादिभिः कृतं पापं श्रृणोति श्रुत्वा चानुमनुते न प्रतिषेधति तदा न्तरकरणे पर्यन्तावलिकायां प्रक्षिपतितत्र प्रथमसमये प्रभूतं द्वितीयसमये प्रतिश्रवणानुमतिः यदा पुनः सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं स्तोकं तृतीयसमये स्तोकतरमेवं तावद्वाच्यं यावदावलिकाचरमसमयः ममत्वमात्रयुक्तो भवति नान्यत् किञ्चित् प्रतिशृणोति श्लाघते वा तदा तानि चैवं दलिकानिक्षिप्यमाणानि गोपुच्छसंस्थानसंस्थितानि भवन्ति संवासानुमतिः तत्र संवासानुमतिमात्रमेव यः सेवते स चरमो देशविरतः। ततः आवलिकामात्रे अन्तरकरणस्य शेषे सति अध्यवसायविशेषादमीषां सचान्यसर्वश्रावकाणामुत्तमः यः पुनः सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं त्रयाणामेकतरस्य दलिकस्योदयो भवति / इदमुक्तं भवति यदि तदानीं ममत्वमात्रयुक्तो भवति नान्यत् सानुमतेरपि विरतः स सर्वविरत उच्यते। शुभः परिणामस्तर्हिसम्यक्त्वदलिकस्योदयः। मध्यमश्चेत्परिणामस्तर्हि अनयोश्चद्वयोर्देश विरतिसर्वविरत्योरन्यतरां विरतिमादिभेन यथाप्रवृत्तसम्यग्मिथ्यात्वदलिकस्योति जघन्यश्चेत्ततो मिथ्यात्वदलिकस्येति! पूर्वाख्येन करणद्विकेन प्रतिपद्यतेइह ह्यविरतःसन्यथोक्तंद्वे करणे करोति देशविरति सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते अथदेशविरतस्तर्हि विरतिमेव। अथ छावलिया सेसाए, उवसमअद्धाए जाव इगिसमयं / कस्माद्देशविरतिसर्वविरत्योभि तृतीयमनिवृत्तिकरणं न भवति इह असुभपरीणामत्तो, कोइसासायणत्तं पि॥ करणकालात् प्रागप्यन्तर्मुहूर्त काले यावत् प्रतिसमयमननन्तगुणउपशान्ताद्धाया जघन्यतः समयशेषायामुत्कर्षतः षडावलिका- वृद्ध्यादिशुद्ध्या प्रवर्तमानोऽशुभानां कर्मणामनुभागद्विस्थानक शेषायामशुभपरिणामतोऽनन्तानुबन्ध्यादिलक्षणान् कश्चित् करोतीत्यादितदेव वक्तव्यं यावत्यथाप्रवृत्त करणं तदपि चतथैव वक्तव्य सास्वादनत्वमपि याति प्रतियाति स च नियमात्तदनन्तरं मिथ्यात्वमेव ततोऽपूर्वकरणं तदपि च तथैव नवरमिह गुणश्रेणिर्न वक्तवया प्रतिपद्यते। अपूर्वकरणाद्धायां च परिसमाप्तायामनन्तरसमये नियमाद्देशविरतिं सम्मत्तेणं समगं, सव्वं देसंच कोइ पडिवजे। सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते ततो निवृत्तिकरणं तृतीयमिह नावाप्यते। उवसंतदसणो सो, अंतरकरणडिओ जाव॥ उदयावलिया उप्पिं, गुणसेटिं कुणए सहचरित्तेण। सम्यक्त्वेनोपशमिकसम्यक्त्वेन समकोऽपि कश्चित् सर्वविरतिं- अंतो असंखगुणणाएताव य वट्टए कालं / / / देशविरतिं प्रतिपद्यते तदुक्तं शतकवृहच्चूर्णी "उपसम्मविंदी अतकरणे करणद्वयेन व्यतिक्रान्ते उदयावलिका उपरि सह चारित्रेण वा ठिओ कोइ देसविरइंपिलभेइकोइपमत्तापमत्तभावम्मि सेसो य णो पुण समकालं प्रतिसमयमसंख्येयगुणनया गुणश्रेणिमन्तर्मुहूर्त कालं न किं पि लभेइति" उपशान्तदर्शनश्चौपशभिकसम्यग्दृष्टि श्व यावत् करोति कस्मादन्तर्मुहूर्त कालं यावत् गुणश्रेणिं करोति तावदवगन्तव्यौ यावदन्तरकरणे स्थितौ च तिष्ठेते इति तदेवं कृता / परतोऽपि नेत्यत आह (ताव य वट्टए कालं यतस्तावन्मात्रम् - Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1061 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा . . . न्तरर्मुहूर्ते कालं यावदवश्यं वर्तते प्रवर्द्धमानपरिणामो भवति कोऽपि हीयमानपरिणामः ततो यदि प्रवर्द्धमानपरिणामो भवति तत ऊर्द्धमपि गुणश्रेणिं प्रवर्द्धमानां करोति / अथ हीयमानपरिणामस्ताहि हीयमानामवस्थितपरिणामश्चावस्थितस्वभावस्थां हीनपरिणामो वा देशविरते स्थितिघातरसघातौ न भवतः। परिणामपञ्चएणं, गमागमं कुणइ करणरहिओ वि। आभोगनट्टवरुणो, करणे काऊण पावेइ॥ परिणामप्रत्ययतः कथंचित्परिणामहासात्कारणात् देशविरतोविरतिं प्रतिपन्नः सर्वविरतो वा देशविरतिं गच्छति ततः स भूयोऽपि तां पूर्वप्रतिपन्नां सर्वविरतिं वा करणरहितोऽपि प्रतिपद्यते एवम कृतिकरणेऽनेकशोगमागमं करोति यः पुनराभोगतः प्रतिपत्तया नष्टकरणो देशविरतेः सर्वविरतेयं परिभ्रष्टो मिथ्यात्वं च मतः स भूयोऽपि जघन्येनान्तर्मुहूर्तेन कालेन उत्कर्षतः प्रभूतेन कालेन पूर्वप्रतिपन्नामपि देशविरतिं सर्वविरतिं वा उक्तप्रकारेण करणेन कृत्वा करणद्वयस्य पुरस्सरमेव प्रतिपद्यते॥ परिणामपचएणं, चउविहं होइ वड्डई वावि। परिणामवड्डयाए, गुणसेदि तत्तियं कीरइ। परिणामप्रत्ययेन परिणामात्कारणात् चतुर्विधः चत्वारः प्रकारो यथा भवति एवं हीयते वर्द्धते वा गुणश्रेणिरिति विभक्तिविपरिणामेन संबद्ध्यते इदमुक्तं भवति यदि हीयमानपरिणामो भवति तर्हि तथा तथा परिणामहानिमध्ये कृतगुणश्रेणिः चतुर्धा हीयते तद्यथा कदाचिदसंख्येयभागेन कदाचित्संख्येयभागेन कदाचिदसंख्येयगुणेन कदाचित्संख्येयगुणेन / अथ परिणामः प्रतिसमयं प्रवर्द्धते तर्हि तत्परिणामानुसारेण गुणश्रेणिरप्युक्तप्रकारेण वर्द्धते यदि पुनरवस्थितपरिणामो भवति तर्हि तावन्मात्रामेव गुणश्रेणिमाख्याति एषा चैव दलिकापेक्षया द्रष्टव्या। कालश्च पुनः सर्वदाऽपितावन्मात्रेणैवयावश्च देशविरतिं सर्वविरतिं वा परिपालयति तावद्गुणश्रेणिमपि समये समये करोति। स्थापना चेयं तदेवमुक्तो देशविरतिसर्वविरतिलाभ:। संप्रत्यनन्तानुबन्धेनाविसंयोजनमाभण्यते।। सम्मुप्पायणविहिणा, चउगइया सम्मदिट्ठिपज्जत्ता। संजोयणा विजोएति, न उण पढमठिइं करें ति॥ सम्यक्त्वोत्पादविधिना सम्यक्त्वोत्पादभणितकरणत्रयरूपेण प्रकारेण चतुर्गतिकाः सम्यग्दृष्टयो वेदकसम्यग्दृष्टयः पर्याप्तास्त-त्राविरतसम्यग्दृष्टयश्चतुर्गतिका अपि देशविरतास्तिर्यग्गतिका वा मनुष्या वा सर्वाविरतास्तु मनुष्याः संयोजनातोऽनन्तानुबन्धिनो वियोजयन्ति नाशयन्ति पुनरत्रान्तरकरणं कुर्वन्ति तदभावाच प्रथमस्थितिमपि न कुर्वन्ति अन्तरकरणस्य ह्यस्तना स्थितिरित्युच्यते। द्वितीया तु द्वितीया ततोऽन्तरकरणकारणाभावे प्रथम-स्थितिमपि न कुर्वन्तीति। अत्रैव विशेषमाह। उवरिमगे करणदुर्ग, दलियं गुणसंकमेण तेसिं तु / मासेइंतइ पच्छा, अंतमुहुत्ते सभावत्थो॥ उपरितनके द्विके अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणाख्ये तेषामनन्तानुबन्धिनां / दलिकं परमाण्वात्मकं गुणसंक्रमेणोज्ज्वलनासंक्रमस्तु विद्धन नाशयति अनिवृत्तिकरणे च वर्तमानः सन् गुणसंक्रमानुविद्धेनोज्ज्वलनासंक्रमण निरवशेषान् विनाशयति। किं त्वधस्तादावलिकामात्रं मुञ्चति तदपि च स्तिवुकसंक्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति ततोऽन्तर्मुहूर्तात्पर तोऽनिवृत्तिकरणपर्यवसाने शेषकर्मणामपिस्थितिघातरसगुणश्रेणयोन भवन्ति किं तु स्वभावस्थ एव भवति चतुर्विशतिसत्कर्मा तदेवमुक्तानन्तानुबन्धेनाविसंयोजना / ये त्वाचार्या अनन्तानुबन्धिनामुपशमनामपि मन्यन्ते तन्मतेनोपशमनाविधिः षडशीतिवृत्तेः सप्ततिकावृत्तेर्वा अवसेयः। संप्रति दर्शनमोहनीयक्षपणाविधिमाह। दंसणखवणस्स रिहो, जिणकालीओ दुग्गट्ठवासुवरि। अणणासकमाकरणाइं, करइ गुणसंकमं तइयं / / दर्शनं मिथ्यात्वसम्यक्त्वरूपं तस्य क्षपणा तस्या अझै योग्यो जिनकालीयो जिनविरहेण कालसंभवी प्रथमसंभवी प्रथमसंहननी च दुर्गतिं मनुष्यगतौ वर्तमानो जीवो वर्षाष्टकस्योपरि वर्तमानो-- ऽनन्तानुबन्धेन विसंयोजनक्रमेण यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि यथा गुणसंक्रमं च कृत्वा साकल्येन क्षपयति / इयमत्र भावना दर्शनमोहनीयक्षपणार्थमभ्युद्यतस्त्रीणि करोति तद्यथा यथाप्रवृतकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं वा एतानि च त्रीण्यपि करणानि प्रागेण वक्तव्यानि नवरं पूर्वकरणस्य प्रथमसमये एवं गुणसंक्रमेण मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्दलिकेसम्यक्त्वे प्रक्षेपयति उद्बलनासंक्रममपि तयोरेवमारभते / तद्यथा प्रथमस्थितिखण्डं वृहत्तरं धातयति ततो द्वितीय विशेषहीनमेवं तावद्वक्तव्यं यावन्मिथ्यात्वसम्य-ग्मिथ्यात्वयोः करोति। तकरणाई जंतं, तस्संते संखभागो होइ / / तत्करणादावपूर्वकारणादौ यत् स्थितिसत्कर्मासीत्तत्तस्यैव करणस्यान्ते चरमसमये संख्येयभागमानं भवति। प्रथमसमयापेक्षया संख्येयगुणहीनं भवतीत्यर्थः। एवं ठिबंधो विय, पविसइ अनियट्टिकरणसमयम्मि। अपुष्वगुणसेढिठिइरसघायठिइबंधं च / / एवमनेन प्रकारेण स्थितिसत्कर्मन्यायेन स्थितिबन्धोऽपि वेदितव्यः अपूर्वकरणप्रथमसमये यावान् स्थितिबन्ध आसीत् तदपेक्षयाऽस्यैवापूर्वकरणस्य चरमसमये संख्येयगुणहीनो भवतीत्यर्थः ततोऽनिवृत्तिकरणसमये प्रविशति तत्र च प्रविष्टः सन् प्रथमसमयादेवारभ्यापूर्वी गुणश्रेणिं अपूर्व स्थितिघातं रसघातमपूर्वं च स्थितिबन्धमनुक्रममारभते। देसुवसमणनिकायण, निहत्तिरहियं च होइ तिगं॥ अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये एवं च देशोपशमना निकाचनानिधत्तिरहितं दर्शनत्रिकं भवति देशोपशमादीनां त्रयाणां करणानां मध्ये नैकमपि तदानीं दर्शनत्रिकस्य करणं प्रवर्तते इत्यर्थः / दर्शनमोहनीयत्रिकस्य च स्थितिसत्कर्मास्थितिघातादिभिर्घात्यमानसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय स्थितिसत्कर्मसमानं भवति / ततः स्थितिखण्डसहस्रपृथक्त्वे गते सति तु चतुरिन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं ततोऽपि तावन्मात्रेषु गतेषु त्रीन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं ततोऽपितावन्मात्रेषु खण्डेषु गतेषुद्रीन्द्रियस्थितिसत्कर्मसमानं ततोऽपि तावन्मात्रेषुखण्डेषु गतेषुपल्योपमसंख्येयभागमात्रप्रमाणं भवति तदेवाह। कमसो असण्णिचउरि-दियाण तुल्लं किट्टई संतं / ठिइखंडसहस्साइ, एकेके अंतरम्मि गच्छति / / पलिओवमसंखाणं, दसणसातंतउजाणं। अनिवृत्तिकरणादारभ्य क्रमशोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियचतुरिन्द्रियादि Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1062 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा तुल्यं स्थितिसत्कर्म वक्तव्यम्। एकैकस्मिश्चोत्तरे स्थितिखण्डसहस्राणि स्थितिघातसहस्राणि व्रजन्ति भावना प्रागेव कृता एवं पल्योपमसंख्येयभागमात्रदर्शनज्ञानमोहनीयतेति यावत् सत्कर्मणि जाते सति यद्भवति संख्येयान् भागान् खण्डयति / इयमत्र भावना पल्योपमसंख्येयभागमात्रस्य स्थितिकर्मण एकसंख्येयभाग- मुक्त्वा शेषानशेषानपि संख्येयान् भागान् त्रयाणामपि मिथ्यात्वादीनां विभासयति ततः प्रागुक्तस्य संख्येयभागस्य एकसंख्येयभाग मुक्त्वा शेषानशेषानपि संख्येयान् भागान् विनाशयति एवं ते संख्येयभागाः खण्ड्यमानासहस्रशोऽपिव्रजन्ति ततो मिथ्यात्वस्यासंख्येयान् भागान् खण्डयति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तुसंख्येयान् भागान्। तत्तो बहुखंडते, खंडइ उदयावलीरहियमिच्छत्तं / तत्तो असंखभागो, सत्तामीसाण खंडेइ।। ततोऽनेन विधिना स्थितिखण्डानां प्रभूतानामन्ते उदयावलिकारहितसकलमपि मिथ्यात्वं खण्डयति विनाशयति / तदानीं सभ्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्दलिकं पल्योपमासंख्येयभागमात्रमवतिष्ठते अमूनि च स्थितिखण्डानि खण्ड्यमानानि मिथ्यात्वसम्यक्त्वानि सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः प्रक्षिपति सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वा तिसम्यक्त्वानि सम्यक्त्वाधस्तात् स्वस्थाने इति तदपि च मिथ्यात्वदलिकमात्रं स्तिवुकसंक्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति मिथ्यात्वस्यावलिकामात्रायां स्थितौ सत्यां तत ऊर्द्ध सम्यक्त्वं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरसंख्येयान् भागान् खण्डयति एवं ते विशिष्येतेततस्तस्याप्यसंख्येयान्भागान्खण्डयतिएकमुञ्चति एवं कतिपयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सम्यग्मिथ्यात्वमावलिकामात्रं जातं तदानीं च सम्यक्त्वस्य स्थितिसत्कर्म च षष्टिकप्रमाणं विद्यते स चाष्ट-वर्षप्रमाणसम्यक्त्वसत्कर्म तत्काले सकलप्रत्यूहापगमतो निश्चयनियमतो दर्शनमोहनीयस्य क्षपक उच्यते। अंतमुहुत्तियखंडं, तत्तो उकिरइ उदयसमयाउ। पक्खिवइ असंखगुणं, नाऊण गुणसेठिपरे हीणं / / ततो निश्चयनयमतेन क्षपकस्वभवनादूर्द्ध सम्यक्त्वस्य स्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्तप्रमाणमुत्किरतिधातयति तद्दलिकमुदयसमया-दारभ्य प्रक्षिपति तचेदभुदयसमये स्तोकं ज्ञात्वा द्वितीयसमये असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीये समये असंख्येयगुणम् / एवं तावद्वक्तव्यं यावत् गुणश्रेण्यशिरः तत उर्द्ध विशेषहीनं शेषहीनस्तावत्यावच्चरमा स्थितिः। उकिरइ असंखगुणे, जाव दुचरिमं वि अंतिमे खंडे। सेजंसो खंडेइ, गुणसेटीए तहा देइ / / ततो द्विस्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं पूर्वस्मादसंख्येयगुणमुत्किरति खण्डयति प्रागुक्तप्रकारेण च उदयसमयादारभ्य निक्षिपति एवं पूर्वस्मात् पूर्ववदसंख्येयगुणसंस्थितिखण्डमुत्किरति तावद्वक्तव्यो यावद्विचरिमं स्थितिखण्डं द्विचरिभाच स्थितिखण्डादन्तिमं स्थितिखण्ड संख्येयगुणं तस्मिंश्चन्ति स्थितिखण्डेखण्ड्यमाने संख्येयभागं गुणश्रेण्या खण्डयति अन्याश्च तदुपरितनीः संख्येयगुणाः स्थितीरुत्कीर्य तद्दलिकमुदय समयादारभ्य संख्येयगुणतया प्रक्षिपति। तद्यथा उदयसमये स्तोकं ततो द्वितीयसमये आसंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसमये असंख्येयगुणम् / एवं तावदच्यं यावद् गुणश्रेणिशिरः / अत ऊर्द्धमुत्कीयैमाणयेव दलिक ततस्तत्र न प्रक्षिपति एवमेव स्थितिखण्डे उत्कीर्णे सति असौ क्षपकः कृतकरण उच्यते। कयकरणो तक्काले, कालं पि करेइ च उसु वि गईसु। वेइयसेसो सेढी; अन्नइए वा समारुदइ / / कृतकरणः सन्कश्चित्तत्कालमपि करोति कृत्वा च तत्कालं चतसृणां गतीनां गतावुत्पद्याते तदेवं प्रस्थापको मनुष्यो निस्सूचकेषु चतसृष्वापि गतिषु भवति। उक्तं च। “पट्टवणा उमणुस्सो निट्टवणो होइचउसु विगईसु " यदि पुनस्तदानीं कालंन करोति तर्हि वेदितशेषोऽनुदितसम्यक्त्वशेषः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः सन् अन्यतरां श्रेणिं क्षपक श्रेणिमुपशमश्रेणिं या समारोहति वैमानिकेष्वेव बद्धायुष्क उपशमश्रेणिम् / अबद्धयुष्कस्तु क्षपक श्रेणिं चतुर्गतिबद्धयुष्कस्तु न कामपि श्रेणिमित्यर्थः / अथाप्येतत्क्षीण सप्तकः कतिथे भवे मोक्षमुपयातीत्युच्यते। तइये चउत्थे तम्मिव, भवम्मि सिज्झंति देसणो खीणे। जं देवनिरय संखाउ, चरमदेहेसु ते हॉति॥ तृतीयेचतुर्थ तस्मिन्वा भवे क्षीणे दर्शने दर्शनमोहनीये सिद्ध्यन्ति जीवाः कुत इत्याह / यत् यस्मात्कारणात् क्षीणसप्तकदेवनारका संख्येयवर्षायुष्केषु भवन्ति उत्पद्यन्तेते चरमदेहेषु वा भवन्ति चरमदेहा वा भवन्ति ततस्तृतीये चतुर्थे तस्मिश्च भवे सिध्यन्तीत्युच्यते इयमत्र भावना देवगतौ बद्धयुष्कास्ते तत्प्रकृत्ये यत्कृत्वा देवेषु मध्ये उत्पद्यन्ते येतुनरकेषुबद्धायुष्कास्तेनरकेषु ततो देवेषु देवभवात्समागत्येक मनुष्यो भूत्वा मोक्षं यातीति चतुर्थे भवे सिद्व्यन्तीत्यभिधीयते ये त्वबद्धायुष्काः सप्तकं क्षपयन्ति ते चरमदेहा उच्यन्तेन च सप्तकायानन्तर क्षपक श्रेणिमेव प्रतिपद्यन्ते इति तस्मिन्नेव भवे सिद्ध्यन्ति उक्ता दर्शनीयमोहनीयस्योपशमना। संप्रति दर्शनमाहनीयोपशमना भण्यते / सा च क्षीणसप्तकस्य वैमानिकेष्वेवबद्धायुष्कस्य भवति। अबद्धायुष्कस्तुक्षपक श्रेणिमारोहति यस्तु वेदकसम्यग्दृष्टिः स तूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते सोऽनियतो बद्धायुष्को वासे च केषाञ्चिन्मतेनानन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य चतुर्विंशति सप्तकम्मसिन् प्रतिपद्यते के षांचित्पुनर्मतेनोपशम्यापि ततो विसंयोजितानन्तानुबन्धिकषाय उपशमितानन्तानुबन्धिकषायो वा सन् दर्शनत्रितयमुपशमयति। तथा चाह। अहवा दंसणमोहं, पढम उवसामइत्तु सामन्ने। दिव्या अणुह पियाण, पढमठिई आवलीनियमा।। पढममुवसमुवसेसे, अंतमुहुत्ता उतस्स विज्झा उ। संकेसविसोविपमत्त, इयरपमत्तत्तणं बहुसो॥ अथवेति प्रकारान्तरे आदौ दर्शनमोहनीय प्रथममुपशमय्याऽपि प्रतिपद्यते कथमुपशमय्योत्पद्यत इत्याह / श्रामण्ये संयमे स्थिता उपशमनाविधेश्च प्रागुक्तः करणत्रयानुगो वेदितव्यः। न तु उपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते / अथवा दर्शनमोहनीयं प्रथममुपशमय्यापि प्रतिपद्यते कथमुपशमय्योत्पद्यत इत्याह। श्रामण्ये संयमे स्थिता उपशमनाविधेश्च प्रागुक्तः करणत्रयानुगो वेदितव्यः नवरमन्तरकरणं कुर्वन् अनुदितयोर्मध्ये सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः प्रथमस्थि तिरावलिकामात्रा नियमाद्वेदितव्या सम्यक्त्वस्य चान्तर्मुहूर्तप्रमाणा उत्कीर्यमाणं च दलिकमन्तरेण त्रयाणामपि सम्यक्त्वोत्पत्तिं प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति शेषं प्रथमोपशमवत् प्रथमोपशमिकसम्यक्त्ववद्वेदितव्यं (अंतमुहूत्ता उतस्सेत्यादि) बहुशो ऽन्तरकरणप्रदेशसमयादारभ्यान्तर्मुहूर्तेऽतिकान्ते गुणसंक्रमावसाने विध्यातसंक्रमस्तस्य सम्यक्त्वस्य भवति किमुक्तं भवति / वि. Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा १०६३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा ध्यातसंक्रमेण मिथ्यात्वसम्याग्मिथ्यत्वयोर्दलिकं सम्यक्त्वं प्रविशतीति एवं दर्शनमोहनीयत्रितये उपशान्ते संक्लेशविशोधिवशात् प्रमत्तत्वमितरप्रमत्तत्वं बहुशोऽनेकशोऽनुभूय चारित्रमोहनीयोपशमनाय सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते इत्यर्थः। पुण तिन्नी उ करणाई, करेइ तइयम्मि एत्थ पुण तेउ। अंतो कोडाकोडी, बंधं संतं च सत्तण्हं / / चारित्रमोहनीयोपशमयनार्थं पुनरपि त्रीणि याप्रवृत्तापूर्वानिवृत्ताख्यानि करणानि करोति करणवक्तव्यता प्राग्वद्दष्टव्या केवलमत्र तृतीयकरणे भेदस्तमेव दर्शयति अतः कोटाकोटीनामबन्धसत्कविसमानामायुर्वर्जानां करणं प्रथमसमये करोति तत्र यद्यपि प्रागुक्तेष्वपि करणेष्वेतेषां बन्धः सत्कर्मणां प्राप्यते तथाऽप्यत्र बन्धसत्कर्मणी तदपेक्षया संख्येयगुणहीने द्रष्टव्ये इति विशेषः / कर्मप्रकृतौ त्वत्र सत्कर्म त्रिःसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणमुक्तं बन्धस्त्वन्तः सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणः तदुक्तम्। “अंतो कोडाकाडी, संतं अनियट्टि णो उ उदहीणं / ठिइखंड उक्कोस्सं पि तस्स पल्लस संखतमभागं"। ठिइखंडबहुसहस्से, एककं जं भणिस्सामो। स्थितिखण्डमुत्कृष्टमपि पल्योपमसंख्येयभागमानं खण्डयति / तथा एतस्य प्राक्तनबन्धस्य पल्योपममसंख्येयभागमात्रं हापयित्वा अन्य स्थितिबन्धं करोतीति शेषः / तत्र यद्यपि शतानामपि कर्मणां पल्योपमसंख्येयभागाणतया उक्तस्तथाऽपिएवं सत्कर्म द्रष्टव्यं तद्यथा नामगोत्रे सर्वस्तोके हीनस्थितिकत्वात् ततो ज्ञानावरणदर्शनीयावरणवेदनीयान्तरायाणि विशेषादधिकानि स्वस्थाने तु परस्परतुल्यानि ततोऽपि मोहनीयं विशेषाधिकस्थितिखण्डसहस्रेषु च बहुष्वतिक्रान्तेषु एकैकं यत्करोति तद्वयं भणिष्यामः। तदेवाह। करणस्स संखभागे, सेसे असण्णिमाइयाणं / समो बंधो कामण, पल्लवसेगतीसाणउदिवढें / करणस्यानिवृत्तिकरणस्य संख्येयेषु भागेषु सत्सु एकस्मिन् शेषे असंज्ञिकादीनां समो बन्धः क्रमेण भवति सचैवमनिवृत्तिकरणस्य संख्येयेषु भागेषु गतेष्वेकस्मिन् अशेष असंज्ञिपञ्चेन्द्रियबन्धतुल्यस्थितिबन्धो भवति तदनन्तरं स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति चतुरिन्द्रियबन्धतुल्यस्थितिबन्धः ततो भूयोऽपि स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति त्रीन्द्रियबन्धतुल्यस्थितिबन्धस्तत एवमेव द्वीन्द्रियबन्धतुल्यः ततोऽप्येवमेकै केन्द्रियबन्धतुल्यस्ततोऽपि स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु विंशतिकयोः विशतिसागरोपमकोटीप्रमाणयोर्नामगोत्रयोरित्यर्थः / पल्योपममात्र स्थितिबन्धो भवति त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायवेदनीयानामर्द्धपल्योपममात्रः। मोहस्स दोण्णि पल्ला, संतो विहु एवमेव अप्पबहू / पलियम्मि तम्मि बंधे, अन्नो संखेजगुणहीणो।। मोहनीयस्य द्वौ पल्योपमो स्थितिबन्धः स्थितिसत्कर्मणि वाल्यपबहुत्वं बन्धक्रमेण वक्तव्यं तच्च सर्वस्तोकं नामगोत्रयोः ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां विशेषाधिकं मोहनीयस्य विशेषाधिकं तथा यस्य यस्य कर्मणो यदा यदा पल्योपमप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति तस्य तस्य तदा तत्कालादारभ्यान्योऽन्यः / स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति ततश्चेदानीं नामगोत्रयोः | पल्योपमप्रमाणात् स्थितिबन्धादन्यः स्थितिबन्धस्संख्येयगुणहीनं करोति शेषाणां तु कर्मणां पल्योपमसंख्येयभागहीनं ततः। एवं तीसाण पुंणो, पल्लमोहस्स होइ हु दिवढं। एवं मोहे वल्लं, सेसाणं पल्लसंखंसो॥ एवमुक्तेन प्रकारेण स्थितिबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां स्थितिबन्धः पल्योपम प्रमाणं करोति माहनीयस्य तु सार्द्धपल्योपममात्रं ततो ज्ञानावरणीयादीनामन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति मोहनीयस्य तु संख्येयभागहीनः तत एवं पूर्वक्र मेण स्थितिबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेष्वित्यर्थः मोहनीयस्य स्थितिबन्धः पल्योपमप्रमाणं भवति ततो मोहनीयस्याप्यन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनः प्रवर्तते तदानीं चशेषकर्मणां स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागमात्रप्रमाणो वेदितव्यः / वीसगतीसगमोहाण, सकम्मंजह कमेण संखगुणं। पल्लअसंखेजंसो, नामगोयाण तो बंधो। विंशत्कत्रिंशत्कमोहानां सत्कर्म यथाक्रम संख्येयगुणं वक्तव्यं तद्यथा सर्वस्तोकं नामगोत्रयोः सत्कर्म ततो ज्ञानावरणदर्शनावराणान्तरायवेदनीयानां सगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम्। ततोऽपि मोहनीयस्य संख्येयगुण मोहनीयस्य पल्योपममात्रे स्थितिबन्धे जाते सति नामगोत्रयोरन्यस्थितिबन्धो ऽसंख्येयगुणहीनो भवति पल्योपमासंख्येयभागमात्रो भवतीत्यर्थः / अत्र सत्कर्मापेक्षया अल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोक नामगोत्रयोः सत्कर्म ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणाम संख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं ततोऽपि मोहनीयस्यसंख्येयगुणं ततः। एवं सहस्साणंपिहु, एकपयारेण मोहनीयस्य। तीसगणसंखभागो, ठिइबंधो संत पंच भवे / / एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण स्थितिबन्धसहस्रष्वतिक्रान्तेष्वित्यर्थः / ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां स्थितिबन्धेऽसंख्येयगुणाहीनो भवति पल्योपमासंख्येयभागमात्रयोर्भवनादिति तात्पर्यार्थः इदानीं च सत्कर्मापेक्षया अल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोकनामगोत्रयोः सत्कर्म ज्ञानावरणयादीनां चतुर्णामसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणं ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु. एकप्रकारेण एकहेलयैव मोहनीयस्य पल्योपमासंख्येयभागमात्रो ज्ञानावरणीयादीना चतुण्णमिसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम्। वासगअसंखभागो, मोहपवाउघाइतइयस्स। वासाणंत होनइ, असंखभागम्भिवझंति।। ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु एकहेलयैव विंशतिकयो मगोत्रयोरधस्तात् असंख्येयगुणहीनो मोहनीयस्य स्थितिबन्धो भवति / अत्र स्थितिबन्धमाश्रित्याल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्ततो नामगोत्रयोः संख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः / ततो ज्ञानावरणादीनां चतुण्णामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः। स्थितिबन्धसहस्रेष्वतिसंक्रान्तेषु पश्चात् तृतीयस्य वेदनीयस्य घातानि ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणि अधोजातानि। अत्र स्थितिबन्धमा-श्रित्याल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धः ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः / स्वस्थाने तु तयोः परस्परं तुल्यः ततोऽपि ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामसंख्येयगुणः Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः / ततोऽपि वेदनीयस्यासंख्येयगुणः ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु विंशतिकयो मगोत्रयोरसंख्येयभागो जातानि ज्ञानावरणीयादीनि त्रीणि दध्यन्ते नामगोत्रापेक्षया ज्ञानावरणादीनां स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणहीनो भवतीत्यर्थः / अत्राल्पबहुत्वं सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धः ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः। ततोऽपि वेदनीयस्या संख्येयगुणः। असंखसमयबद्धा, णामुदीरणा होइ तम्मि कालम्मि। देसघाइरसत्तो,मणपजवअंतरायाणं॥ यस्मिन्काले सर्वकर्मणां पल्योपमासंख्येयभागमात्र स्थितिबन्धो जातस्तस्मिन् काले असंख्येयसमयबद्धानामुदीरणा भवति कथमेतदवसीयते इति चेदुच्यते इह यदा पल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिबन्धं करोति तदा बध्यमानप्रकृतिस्थिल्यपेक्षया याः समयादिहीनाः स्थितयस्ता एवोदीरणामुपगच्छन्ति नान्याः ताश्च चिरकालमबद्धा एव क्षीणशेषाः संभवन्तीत्यसंख्येयसमयबद्धानां तदानीमुदीरणा ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु एतेषु देशघातिनः समनुभाग मनः पर्यवज्ञानावरणादीनामन्तराययोर्बध्नाति॥ लोहादीणं पच्छा, भोग अचक्खुमुयाण तो वक्खा। परिभोगमईणंते, विरयस्स असेठिगाथाई॥ पश्चास्थितिबन्धसहस्रेष्सतिक्रान्तेषु भवान्तरायावधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणानां देशधातिनं रसं बध्नाति ततोऽपि संख्येयेषु स्थितिबन्धनसहस्रेष्वतीतेषु भोग्यान्तरायाचक्षुः कुदर्शनावरणश्रुतज्ञानावरणानां देशघातिनं रसं बध्नाति ततोऽपि स्थितिबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु देशघातिनं रसं बध्नाति ततोऽपि स्थितबन्धसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु परिभोगान्तरायमतिज्ञानावरणयोर्देशघातिनंरसंबध्नातितोऽपि स्थितिबन्धसहस्रेषु वीर्यान्तरायस्य देशयति न संबध्नाति एतेषामेवानन्तरोक्तानां कर्मणां श्रेणिगताः क्षपकोपशमश्रेणिरहिताः सर्वघातिनमेव रसं बध्नन्ति। संजमघाईण तओ, अंतरमुदउ जाण दोण्हं तु / वेयकसायन्नयरे, सोदयतुल्ला पट्टविई॥ वीर्यान्तरादेशघात्यनुभागबन्धान्तरंसंख्येयेषु स्थितिबन्धसहस्रेषुगतेषु सत्सु संयमघातिनामनन्तानुबन्धे वर्जानां द्वादशकषायाणां नवानां च नोकषायाणां सर्वसंख्यया एकविंशतिप्रकृतीनामन्नतरकरणं करोति तत्र चतुर्णा सङ्कलनानामन्यतमस्य यस्य संज्वलनस्योदयो यस्यचत्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्य तयोर्वेदकषायान्यतरयो कर्मणोः प्रथमा स्थितिः खोदयकालप्रमाणा भवत्यन्येषां चैकादशकषायाणामष्टानां च नो कषायाणां प्रथमा स्थितिरावलिकामात्रा। संप्रति चतुर्णा संज्वलनानां त्रयाणां च वेदानां स्वोदयकालप्रमाणमाह -- थीअधुवोदयकाली, संखातगुणो उ पुरिसवेयस्स। तस्स हि विसेसअहिओ, कोहे तत्तो विजयकमसो।। स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकालः पुरुषवेदाधुदयकालापेक्षया सर्वस्तोकः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः ततः पुरुषवेदेभ्य उदयकालः संख्येयगुणस्तस्यापि पुरुषवेदस्योदयकालात् क्रोधस्योदयकालो विशेषाधिकस्ततोऽपि क्रोधोदयकालान्मानमायालोभानां यथाक्रमशो यथाक्रमेण विशेषाधिकस्तद्यथा संज्वलक्रोधोदयकालात्संज्वलनमानस्य उदयकालो विशेषाधिक स्ततोऽपि संज्वलनमायाया विशेषाधिकस्ततोऽपि संज्वलनलोभस्य विशेषाधिकस्तत्र संज्वलनक्रोधेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य यावदप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधोपशमो भवति तावत् संज्वल-नक्रोधस्योदयः संज्वनमानेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य यावद प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानोपशमो न भवति तावत्संज्वलनमानस्योदयः संज्वलनमायया चोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य यावदप्रत्याख्यानावरणमायोपशमो नोपजायते तावत्संज्वलनमायायाः उदयः संज्वलनलोभेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य यावदप्रत्याख्यानावरणलोभोपशमो न भवति तावद्वादरसंज्वलनलोभस्योदयस्ततः परं सूक्ष्मसंपरायादा तदेवमन्तरकरणमुपरितनभागापेक्षया समस्थितिकम्। अधोभागापेक्षया चोक्तनीत्या विषमस्थितिकमिति। अंतरकरणेण समं, ठिइखंडगबंधगद्धनिप्पत्ती। अंतरकरणाणंतर, समये जायंति सत्तइमो॥ अन्तरकरणेन समं सममित्यव्ययं ततोऽयमर्थः। अन्तरकरणेन समाना स्थितिखण्डस्य बन्धकाद्धायाश्च अभिनवबन्धाद्धायाश्च निष्पत्तिः। किमुक्तं भवति यावता कालेन स्थितिखण्डकं घातयति यता अन्यस्थितिबन्धं करोति तावता कालेनान्तरकरणमपि करोति त्रीण्यप्येतानि युगपदारभते युगपन्निष्क्रामयति अत्रान्तकरणकाले चानुभागखण्डसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति अन्तरकरणसत्कदलिकस्य प्रक्षेपविधिस्य येषां कर्मणा तदानीं बन्ध उदययश्च विद्यते तेषामन्तरकरणसत्कंदलिकं प्रथमस्थितिद्वितीयस्थितिंच प्रक्षिपति यथा पुरुषवेदोदयारूढः पुरुषवेदस्य येषां तु कर्मणामुदय एव केवलो न बन्धस्तेषामन्तरकरणसत्कं दलिकं प्रथमस्थितावेव प्रक्षिपति न द्वितीयस्थितावपि। यथा स्त्रीवेदोदयारूढः स्त्रीवेदस्य येषांपुनरुदयोन विद्यते किं तु केवलो बन्ध एव तेषामन्तरकरणसरकं दलिकं द्वितीय स्थितावेव प्रक्षिपति न प्रथमस्थितौ यथा संज्वलनक्रोधोदयारूढः शेषसंज्वलनानां तेषांपुनर्न बन्धो नाप्युदयः तेषामन्तरकरणसत्कं दलिक परप्रकृतिषु यथा द्वितीयवृतीयकषायाणां तथा अन्तरकरणानन्तरसमये अन्तरकरणे कृते सति द्वितीये समये इत्यर्थः / इमे सप्त पदार्थाः युगपज्जायन्ते तानेवाह। एगट्ठाणाणुभागचं, स उदीरणा य संखेया। अपुवं संकमणं, लोभस्य असंकम्मे मोहे / / बद्धं बद्धं छाउ, आवलीसु उवरेयुईरणं // पइपडं गवेउवसमणा, असंखगुणणाय जावंतं / / मोहे मोहनीयस्यानुभागबन्धो रसबन्धः एकस्थानकः उदीरणा संख्येयसमा संख्येयवर्षप्रमाणा चशब्दात्स्थितिबन्धः संख्येयवार्षिक: स च सर्वोऽपि पूर्वस्मात् संख्येयगुणहीनो भावी तथा मोहनीयस्य पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टयरूपरसस्य आनुपूर्व्या क्रमेणैवसंक्रमो लोभस्य च संज्वलनलोभस्य वा संक्रमस्तथा 'बद्धं बद्ध मित्यादि इह प्राक् बद्धं बद्धं कर्म बन्धावलिकायामतीतायामुदीरणामायातिस्म अन्तरकरणे तु कृते तदनन्तरसमयेषु यद्बध्यते कर्म तत् षडावलिकाकालमवस्थाप्योदीरणामायाति तथा पण्डकवेदस्य नपुंसकवेदस्योपशमना असंख्ये यगुणनया तावद्भवति यावदन्तश्चरमसमया तथा हि नपुंसकवेदस्य प्रथमसमये स्तोकं प्रदेशाग्रमुपशमयति ततो द्विती Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा यसमयश्च संख्येयगुण एवं प्रतिसमयं संख्येयगुणं तावद्वक्तव्यं यावश्चरमसमयः परप्रकृतिषु च प्रतिसमयमुपशमितदलिकापेक्षया अंसख्येयगुणं तावत्संक्रमयति यावद् द्विचरमसमये पुनरुपशमय्यमानं दलिकं परप्रकृतिषु संक्रमेण दलिकापेक्षया असंख्येयगुणं / द्रष्टव्यं नपुंसकवेदोपशमनारम्भप्रथमसमयादारभ्य सर्वकर्मणामावलिकापेक्षया सर्वस्तोका उदयसंख्येयगुणाः। अंतरकरणपविट्ठो, संखासंखं समोहइयराणं। बंधादुत्तरबंधा, एवं इच्छे इ संखंसो॥ अन्तरकरणे प्रविष्ठ, सन् जीवः प्रथमसमय एव बन्धादुत्तरबन्धस्य संख्येयगुणा अन्तरकरणे विवद्धाःसंख्याः सन्तीत्यर्थः। वो हि यदपेक्षया संख्येयभागमात्रकल्पः स तदपेक्षया संख्यये गुणहीन एवेति मोहनीयवर्जानां तु शेषाणां कर्मणां बन्धादुत्तरबन्धमसंख्येयभोग करोति असंख्येयगुणहीनं करोतीत्यर्थः एवं नपुंसकवेदमुपशमयति तदुपशमनानन्तरंच स्थितिबन्धसहस्रेष्वतीतेष्वेवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण स्त्रीवेदमुपशमयति स्त्रीवेदस्य च संख्येयतमे भागे उपशान्ते यद्भवति तदुपदर्शयन्नाह। उवसंते घाईणं, संखेजसमा परेण संखंसो। बंधो सत्तण्हेव, संखेजवसंति उवसंते॥ स्त्रीवेदस्य संख्येयतमे भागे उपशान्ते सति घातिनां घातिकर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां संख्येयसमाः संख्येयवर्षप्रमाणो बन्धः स्थितिबन्धो भवति (परेणत्ति) ततः संख्येयवर्षप्रमाणात् स्थितिबन्धव्यापारादन्यः संस्थितिबन्धघातिस्वरूपाणां पूर्वस्मात् संख्येयांशः संख्येयभागकल्पः संख्येयगुणहीन इत्यर्थः। तस्मादेव च संख्येयवर्षप्रमाणात् स्थितिबन्धादारभ्य देशघातिनां के वलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणवर्जानां ज्ञानावरणदर्शनावरणकर्मणां नैकस्थानकं बध्नाति तत एवं स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु त्रिधा वेद उपशान्तो भवति ततः स्त्रीवेद उपशान्ते शेषाणां नोकषायाणामेवं नपुंसकवेदोक्तेन प्रकारेण संख्येयतमे भागे उपशान्ते किमित्याह। . नामगोयाण संखा, बंधावो सा असंखिया तइए। तो सव्वाण वि संखा, तत्तो संखेज्जगुणहीणा / / नामगोत्रयोः संख्येयाः समाः संख्येयवर्षप्रमाणो बन्धः स्थितिबन्धो भवति तृतीयस्य वेदनीयस्य कर्मणः स्थितिबन्धोऽसंख्येयानि वर्षाणि असंख्येयवर्षप्रमाण इत्यर्थः तस्मिंश्च स्थितिपूर्णे सत्यन्यः स्थितिबन्धो वेदनीयस्यापि संख्येयवर्षप्रमाणो भवति (ततोत्ति) ततस्तस्माद्भेदनीयसत्कसंख्येयवार्षिक स्थितिबन्धात्प्रभृति सर्वेषामपि कर्मणां स्थितिबन्धः संख्येयवार्षिक: प्रवर्तते सच पूर्वस्मात्पूर्वस्मादन्योऽन्यः प्रवर्तमानः संख्येयगुणहीनः प्रवर्तते इत्यर्थः ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्स्वपि नोकषाय उपशान्तो भवति। जं समयं उवसंतं, छक्कं उदयट्ठिई यता सेसा। पुरिसे समओणावलि, दुगेण बद्धअणुवसंतं / / यस्मिन् समये षट् नोकषाया उपशान्ता जलसिक्तदूषणं कुट्टितभूमि रजांसीवोपशमं नीतास्तदा पुरुषवेदस्य एका उदयस्थितिः समयमात्रा शेषा तदानीं च स्थितिबन्धः षोडश वर्षाणि तस्मिश्च समये सा एका उदयस्थितिर्यच समयोनावलिकाद्विकेन कालेन बद्धमेतावदेवानुपशान्तं वर्तते शेषं सर्वमप्युपशान्तम् / इयमत्र भावना पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ / व्यावलिकाशेषायां प्रागुक्तस्वरूपायामेव व्यवच्छिद्यते उदीरणा तु भवति तस्मादेव च समयादारभ्य प्रधाननोकषायाणां सत्कं दलिकं पुरुषवेदेन संक्रमयति किंतु संज्वलनक्रोधादिषु यदाच पुरुषवेदस्य सत्का प्रागुक्ता एकाप्युदयस्थितिरतिक्रान्ता भवति तदाऽसौ वेदको भवति अवेदकाद्धायाश्च प्रथमसमये समयद्वयोनावलिकाद्विकेन कालेन यद्द्धं तदेव केवलमुपशान्ते तिष्ठति शेषं सकलमपि नपुंसकवेदोक्तेन प्रकारेणोपशमितं तदपि च तावता कालेनोपशमयति एतदेवाह! आगालेणं समगं, पडिगहिया फिडइ पुरिसवेयस्स। सोलसवासियबंधा, चरमो चरमेण उदएण।। तावइ कालेणं विय, पुरिसं उवसामए अविएसो। बद्धो वत्तीससमा, संजलणियराण उसहस्स।। यदा पुरुषवेदस्य प्रागुक्तस्वरूप आगालो व्यवच्छिद्यते तदा तेन समकं तत्कालमेव तस्य पुरुषवेदस्य यत ईहता शेषदलिकसंक्रमाधारता स्फिटति अपगच्छति योऽपि च चरमः पर्यन्तेऽपि षोडशवार्षिक स्थितिबन्धः पुरुषवेदस्य सोऽपि चरमेण प्रथमस्थितिचरमसमयभाविना उदयेन सहापगच्छति यदा च पुरुषवेदस्य स्थितिबन्धः षोडशवार्षिकस्तदा संज्वलनानां संख्येयानि वर्षसहस्त्राणि स्थितिबन्धः यदपि च वेदकाद्धाप्रथमसमये समयोनावलिकाद्विकबद्ध पुरुषवेददलिकमस्ति तदपि वेदोदयरहितः सन् स उपशमको जीवस्तावतैव समयद्वयोनावलिकालिकाद्विकप्रमाणेन कालेन पुरुषवेदद लिकमुपशमयति द्वितीयसमये असंख्येयगुणं तृतीयसमये असंख्येयगुणमिदं तावद्वक्तव्यं यावत्कालद्वयोनावलिकाद्विक चरमसमयः परप्रकृतिषु प्रतिसमयद्वयोनावलिकाद्विककालं यावद्यथाप्रवृत्तं संक्रमेण संक्रमयति तद्यथा प्रथमसमये प्रभूतं द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमयेऽपि विशेषहीनमेवं तावत् यावचरमसमयः ततः पुरुष उपशान्तस्तदानीं च संज्वलनानां द्वित्रिंशत्समा द्वात्रिशद्वर्षप्रमाणः स्थितिबन्ध इतरेषां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायनामगोत्राणां संख्येयानि वर्षसहस्राणि स्थितिबन्धः अवेदप्रथमसमयादारभ्य क्रोधत्रिकाप्रत्याख्यानप्रत्याख्याना-वरणसंज्वलनरूपमुपशमयति / कोहतिगं आढवेई उवसमिउं तिसुपडिगहणाएगाचउय उदीरणा बंधो पिटुंति आवलीए सेसाए इति / यस्मिन् समये पुरुषवेदस्यावेदकालस्ततस्तस्मादेवैकप्रथमसमयादारभ्य क्रोधत्रिकाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनरूपं युगपदुपशमयितुमारभते उपशमनां च कुर्वतः प्रथमे स्थितिबन्धे पूर्ण सत्यन्यः स्थितिबन्धः संज्वलनानां ससंख्येयभागहीनशेषाणां च संख्ययगुणहानः शषं स्थितिघातादि तथैव संज्वलनक्रोधस्य च प्रथमस्थिता समयानावलिकात्रिक शेषायां पतद्ग्रहतापगच्छति अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधदलिकं न तत्र प्रक्षिपति संज्वलनमानादाविति आवः। ततोऽद्धादलिकाशेषायां प्रथमस्थितौ संज्वलनक्रोधस्यागालो भवति। किंतदुदीरणा तावत्प्रवर्तते यावदेका आवदका आवलिका शेषा भवति उदीरणावलिकायाश्चरमसमये स्थितिबन्धश्चत्वारो मासाः शेषकर्मणां तु संख्येयानि वर्षसहस्राणि संज्वलनक्रोधस्यच बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदात्तथा चाह एकस्यामावलिकायां शेषायामुदय उदीरणा बन्धश्च एते त्रयोऽपि पदाथा युगपत् स्फुटन्त्यपगच्छन्ति तदानीं वाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधानुपश्यन्तौ तदा चैकामावलिकासमयोनावलिकां द्विकबद्धञ्चदलिकं मुक्त्वा शेषमन्यत्सर्वां संज्वलनां क्रोस्योपशान्तसमयो Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा नावलिकाद्विकबद्धं च दलिकपुरुषवेदोक्तेन प्रकारेणोपशमयति तथा चाह "सेसयं तु पुरिससम, एवं सेसकसायादेय इति दुगेणं आवलिया" संज्वलनक्रोधस्य बन्धादौ व्यवच्छित्रेशेषं पुरुषवेदं समं वक्तव्यम्। एवं क्रोधत्रिकोक्तेन प्रकारेण शेषानप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनमानमायालोभरूपान् कषायानुपशमयति याश्च शेषीभूता आवलिकास्ता उन्तरस्मिन् कषाये स्तिवुकेन स्तिवुकसंक्रमेणानुभवति / इयमत्र भावना संज्वलनक्रोधस्य बन्धादिव्यवच्छिन्ने या प्रथमस्थितिरेका आवलिका तिष्ठति तां स्तिवुकसंक्रमेण माने प्रक्षिप्य वेदनीयान् यदपि च समयोनाबलिकाद्विकबद्धं सदस्ति तदपि तावंता कालेनोपशमयति द्यथा प्रथमसमये स्तोकमुपशमयति द्वितीये असंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसमये असंख्येयगुणमेवं यावत्समयोनावलिकाद्विकचरमसमयः परप्रकृतिषु चसमयोनावलिका द्विककालं यावत् यथा-प्रवृत्तं संक्र मेण पूर्ववत् संक्रमयति एवं संज्वलनक्रोधे सर्वात्मनोपशमयति यदेव संज्वलनक्रोधस्य बन्धादयः उदीरणाव्यवच्छिनास्तदेव संज्वलनमानस्य द्वितीयस्थितेः सकाशात् दलिकमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति निवेदयते च तत्रोदयसमये स्तोकं प्रक्षिपति द्वितीयस्थितावसंख्येयगुणं तृतीयस्थितावसंख्येयगुणमेवं तावत् यावत् प्रथमस्थितेश्वरमः समयः प्रथमस्थितिप्रथमसमये संज्वलनमानस्य स्थितिबन्धश्चत्वारो मासाः शेषाणां तु ज्ञानावरणीयादीनां संख्येयानि वर्षसहस्राणि तदानीमेव च त्रीनपि मानान् युगपदुपशमयितुमारभते संज्वलमानस्य च प्रथमस्थितौ समयोनावलिकात्रिकशेषमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानदलिकं संज्वलनमानं प्रक्षिपति किं तु संज्वलनमायादौ आवलिकाद्विकशेषायां त्वागालो व्यवच्छिद्यते तत उदीरणैव के वला प्रवर्तते साऽपि तावत् यावदावलिकाचरमसमयः तत एका प्रथमस्थितेरावलिका शेषीभूता तिष्ठतितस्मिश्च समये संज्वलनानां द्वौ मासो स्थितिबन्धः कर्माशेषाणां तु संख्येयानि वर्षाणि तदानीं संज्वलनमानस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नाः। अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ चोपशान्तौ तदानीं च संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितिरेकामावलिकां समयोनावलिकाद्विकबद्धाश्च लता मुक्त्वा विशेषमन्यत्सर्वमुपशान्तं तदानीमेव च संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितेरेकामावलिकां लोभमावलिकाद्विकबद्धाश्च लता मुक्त्वा विशेषमन्यत्सर्वमुपशान्तं तदानीमेव च संज्वलनमायायां द्वितीयस्थितेदलिकमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च पूर्वाक्तां संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितिसत्कामेकामावलिकां स्तिवुकसंक्रमेण संज्वलनमायायां प्रक्षिपति समयोनावलिकाद्धिबद्धाश्च लताः पुरुषवेदोक्तक्रमेणोपशमयति संक्रमयन्ति च संज्वलनमायोदयप्रथमसमयेच मायालोभयो मासौ स्थितिबन्धः शेषकर्माणां तु संख्येयानि वर्षाणि तत्समयादेव चारभ्य तिस्रोऽपि माया युगपदुपशमयितुमारभते ततः संज्वलनमाया प्रथमस्थितौ समयोनावलिकाविशेषायामप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमाया दलिकसंज्वलनमायायांन प्रक्षिणति किं तु संज्वलनलोभे आवलिकाविशेषायां त्वागालो व्यवच्छिद्यतेतत उदीरणव केवला प्रवर्तते साऽपि तावत् यावदावलिकाचरमसमयः तस्मिश्च समये संज्ववलमायालोभयोः स्थितिबन्धयोरेको मासः शेषकर्मणां तु संख्येयानि वर्षाणि तदानीमेव च संज्वलनमायायां बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण-मायोपशान्ते संज्वलनमायायाश्च प्रथमस्थितिसत्कामेकावलिकां समयोनावलिकां द्विकबद्धाश्च लता मुक्त्वा शेषमन्यत्सर्वमुपशान्तंततो निरन्तरसमये संज्वलनलोभस्य द्वितीयस्थितेः सकाशात् दलिकमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयतेच पूर्वोक्तां च मायायाः प्रथमस्थितिसत्कां समयावलिकास्तिवुकसंक्रमण संज्वलनलोभे संक्रमयति समयोनावलिकाद्विकबद्धाश्च लताः पुरुषवेदक्रमेणोपशमयति संक्रमयति च संज्वलनक्रोधादीनां सूक्ष्मोदयचरमसमये यावत्प्रमाणस्थितिबन्धोऽनन्तरमुक्तस्तावत्प्रमाणमत्र साक्षात्सूत्रकृत् संवादयति। चरिमुदयम्मि जम्हा, तब्बंधो दुगुणो उ होइ उवसमगे। तयणंतरपगईए, चउगुणोऽण्णेसु संखगुणो॥ इह यः क्षपक श्रेण्या क्षपकस्य संज्वलनक्रोधादी स्वस्वचरमोदयकाले जघन्यः स्थितिबन्ध उक्तः स उपशमके द्विगुणो भवति तदनन्तरं प्रकृतेः पुनश्चतुर्गुणः अन्येषु तु संख्येयगुण इति ततोऽपि परस्याः प्रकृतेरष्टगुण इत्यर्थः / यथा क्षपकमाधिकृत्य संज्वलन क्रोधस्य मासद्वयं जघन्यस्थितिबन्ध एको मासस्ततस्तस्य क्रोधचरमोदयकाले चतुर्मासप्रमाणो बन्धः प्रवर्त्तमानःस्वजघन्यबन्धापेक्षया चतुर्गुणो भवति ततोऽपि परा प्रकृतिर्माया स्यात् तदानीमष्टगुणो बन्धस्तस्या हि क्षपकमधिकृत्य स्वचरमोदयकाले जघन्यः स्थितिबन्धोऽर्द्धमासस्ततः क्रोधचरमोदयकाले चतुर्मासिको बन्धः प्रवर्त्तमानः स्वजघन्यबन्धापेक्षया अष्टगुणो भवति तथा मानस्य क्षपकमधिकृत्य जघन्यो बन्ध एको मासः स चोपशमके मन्दपरिणामत्वात् द्विमासप्रमाणो भवतिमानस्य चानन्तरा प्रकृतिर्माया तस्यास्तदानीं चतुर्गुणः पक्षापेक्षया मासद्वयरय चतुर्गुणत्वात् तथा मायायाः क्षपकमधिकृत्य जघन्यो बन्धः एकः पक्षः सर्वोपशमे मन्दपरिणामत्वात् चरमोदये मासप्रमाणप्रवर्तमानद्विगुणो भवति शेषकाणां तु ज्ञानावरणीयादीनां सर्वत्रापि संख्येयवर्षप्रमाणः स्थितिबन्ध केवलं पूर्वस्मातहीनो हीनतर इति। संप्रतिसंज्वलनलोभवक्तव्यतामाह। लोभस्स उ पढमठिई, विइओ य कुणइ तिविभागं / दो पुग्गलनिक्खेवो, ततिइओ पुण किट्टिवेयद्धा / / लोभस्य द्वितीयस्थितेदलिकमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति सा त्रि भागा त्रिभागोपेता तद्यथा प्रथमो विभागोऽश्वकर्णकरणाद्धासंज्ञः द्वितीयः किट्टिकरणाद्धासंज्ञः तयोश्च द्वयोरपि विभागयोदलि कनिक्षेपो भवति किमुक्तं भवति द्वितीयस्थितेर्दलिकमाकृष्य द्विभागप्रमाणां प्रथमां स्थिति करोतीति / तृतीयःपुनःविभागः किट्टिवेदनाद्धा संज्वलनलोभोदये वाश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः प्रथमसमय एव त्रीनपि लोभान् अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनरूपान् युगपदुपशमितुमारभते अन्यच्च यत्करोति प्रथमे अश्व कर्णकरणाद्धासंज्ञे विभागे तदाह। संतावज्झमाणग, सरूवउप्फुड्डगाणि जं कुणइ। सा अस्सकण्णकरणद्धति माकिट्टिकरणद्धा॥ सन्ति विद्यमानानि यानि संक्रमितानि मायाकर्मदलिकानि पूर्वे बद्धसज्वलनलोभे दलिकानि वा तानि वध्यमानस्वरू-पतस्तत्कालवध्यमानंसंज्वलनलोभरूपतया किमुक्तं भवति तत्कालवध्यमानसंज्वलनलोभस्य द्विकानि चात्यन्तिरसानि यत्र करोति सा अश्वकर्णकरणाद्धा इयमत्र भावना अश्वकर्णकरणाद्धासंज्ञे प्रथमे त्रिभागे वर्तमानसंक्रमितमायादलिकेभ्यः संज्वलनलोभसत्केभ्यो वा पूर्वस्पर्द्धकेभ्यः प्रतिसमयं दलिकं गृहीत्वा तस्य चात्यन्तदीनरसतामापाद्य पूर्ण च प्रतिसमयं दलिकं गृह्णन् अपूर्वाणि स्पर्द्धकानि करोति आसंसारे हि Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1067 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा परिभ्रमता न कदाचनापि बन्धमाश्रित्य ईदृशानि स्पर्द्धकानि कृतानि किं तु संप्रत्येव विशुद्धवशात्करोतीत्यर्थः / पूर्वाणि (सज्झंति) तथा रूपाणि वा पूर्वाणि स्पर्द्धकानि कुर्वतः संख्येयेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु अश्वकर्णकरणाद्धा व्यतिक्रामति ततो मध्यमा द्वितीयाद्धा प्रवर्तते तदानीं च संज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धो दिनपृथक्त्वप्रमाणः शेषकर्मणां तु वर्णपृथक्त्वमानः किट्टिकरसाद्धायांच पूर्वस्पर्द्धकेभ्यश्च दलिकं गृहीत्वा प्रतिसमयमनन्ताः किट्टीः करोति। संप्रति किट्टिस्वरूपं प्रथमसमयोदये यावतीः किट्टीःकरोति तदेव प्रतिपादयति। अप्पुय्वविसोहीए, अणुभागो णुणविभजणं किट्टी। पढमसमयम्मि रसफुडवग्गणा तं भागसमा / / अपूर्वया विशुद्ध्या अनुभागस्य जस्य एकोत्तरवृद्धस्यापनयनेन हीनतरस्य यत् विभजनं सा किट्टिः किमुक्तं भवति पूर्वस्पर्द्धकेभ्यो ऽपूर्वस्पर्द्धकभ्यश्च वर्गणा गृहीत्वा तासामनन्तगुणां हीनरसतामापाद्य वृहत्तरलतया यदपस्थानं यथाऽऽसां वर्गणानामसंकल्पनया अनुभागरसभागानां शतंत्र्युत्तरं व्युत्तरमेकोत्तरमासीत् तासामनुभागानां यथाक्रमं पञ्चविंशति पञ्चदशकं पञ्चकमितिताः किट्टयस्ता एकस्मिन् रसस्पर्द्धके अनुभागस्पर्द्धक या अनन्ता वर्गणास्तासामनन्ततमे भागे यावत्यो वर्गणास्तावत्प्रमाणाः प्रथमसमये करोति ताश्चानन्तानुबन्धाः किं तु सर्वजघन्यानु-भागस्पर्द्धकानुभागेन सदृशाः करोति न तु ततोऽपिहीनाः उच्यन्ते ततोऽपि हीनास्तथा चाह। सव्वजहन्नए फड्डग, अणंतगुणहाणिया उ सारसओ। पयसमयमसंखंसो, आइमसमया उजायत्तो।। यत् सर्वजघन्यं रसस्पर्द्धकं ततोऽपि रसमधिकृत्य ताः किट्टीरनन्तगुणहानिका अनन्तगुणहीनाः करोति ता आदिमसमयात्परतः प्रतिसमयमसंख्येयांशान् प्रतिसमयं पूर्वस्मात् असंख्येयभागमात्राः किट्टीस्तावत्करोति यावदक्किट्टिकरणाद्धाचरमसमयः इयमत्र भावना प्रथमसमये प्रभूताः किट्टीः करोति द्वितीयसमये असंख्येयगुणहीना एवं तावद्वाच्यं यावत् किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः। अणुसमयसंखगुणं, दलियमणंतं स उ अणूभागो। सव्वेसु मंदरसमाइयाण दलयंति सेसूणं / / अनुसमयं प्रतिसमयं दलिकसंख्येयगुणं तद्यथा प्रथमसमये सकलकिट्टिगतं दलिकं सर्वस्तोकं ततोऽपि द्वितीयसमये कृतासु किट्टिष्वनन्तगुणहीनं ततोऽपि तृतीयसमये कृतासु किट्टिष्वनन्तगुणहीनम् एवं तावदाच्ययावत्किट्टिकरणाद्धाचरमसमयः। तथा सर्वेषु मन्दरसादिकानांजधन्यरसप्रभृतीनां किट्टीनांदलिकं विशेषो न वक्तव्यं यावत्सर्वोत्कृष्टरसकिट्टिः / इयमत्र भावना सर्वेषु या निवर्तिताः किट्टयस्तासां मध्ये या मन्दरसास्तानसां दलिकं सर्वप्रभूतं ततोऽनन्तरेणानुभागेनानन्तगुणेनाधिकायां द्वितीयायां किट्टौ दलिक विशेषहीनं ततोऽप्यनन्तरेणानुभागेनानन्तगुणेनाधिकायां तृतीयस्यां किट्टौ विशेषहीनमेवमनन्तरानुभागाधिकासु किट्टिषु विशेषहीनं तावदवसेयं यावत् प्रथमसमयकृतानां किट्टिनां मध्ये सर्वोत्कृष्टरसा किट्टिरिति एवं सर्वेष्वपि समयेषु प्रत्येकं भावयितव्यम्। आइमसमयकयाणं, मंदाईणं रसो अणंतगुणो। सव्वुकस्स गा वि हु, उवरिमसमयस्स णंतंसे / / आदिमसमयकृतानां प्रथमसमयकृतानां मन्दादीनां जघन्यरसादीनां रसो यथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यस्तद्यथा प्रथमसमयकृतानां किट्टीनांमध्ये सर्वा मन्दानुभागा किट्टिः सा सर्वस्तोकानुभागा ततो द्वितीया अनन्तगुणानुभागा ततोऽपि तृतीया अनन्तगुणनुभागा एवं तावद्वाच्यं यावत्प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टानुभागा किट्टिरिति / एवं द्वितीयादिष्वपि समयेषु किट्टीनां प्ररूपणा कर्त्तव्या / तथा सर्वोत्कृष्टरसाऽपि सर्वोत्कृष्टानुभागाऽपि हु निश्चितमुपरितनसमयस्य सत्का पश्चात्समयभाविसर्वमन्दानुभागकिट्यपेक्षयाऽनन्ततमे भागेवर्तते तद्यथा प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वमन्दानुभागा किट्टीसा सर्वप्रभूतानुभागा ततो द्वितीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टानुभागा किट्टिः साऽनन्तगुणहीना। तथा द्वितीयसमयकृतानां मध्ये या सर्वमन्दानुभागा किट्टिस्तदपेक्षया तृतीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टानुभागाऽनन्तगुणहीना एवं तावद्वक्तव्यं यावचरमसमयः। संप्रत्यासामेव किट्टीनां परस्परं प्रदेशाल्पबहुत्वमुच्यते प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वा बहुप्रदेशा किट्टिः सा स्तोकप्रदेशा ततो द्वितीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सा सर्वाल्पप्रदेशा किट्टिः सा असंख्येयगुणप्रदेशा ततस्तृतीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वाल्पप्रदेशा सा असंख्येयगुणप्रदेशा एवं तावद्वक्तव्यं यावचरमसमयः / / किट्टीकरणद्धाए, तिसु आवलियासु समयहीणासु। ते पडिगहिया दोण्ह वि, सड्डीणे उवसमज्झंति / / किट्टिकरणाद्धायास्तिसृष्वावलिकासुसमयहीनासु पतद्ग्रहता न भवति अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणे लोभदलिकं संज्वलनलोभे संक्रमयतीति भावः किं तु तयोर्द्वयोरप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभयोर्दलिकं स्वस्थान एव स्थितमुपशमं नयते व्यावलिकाशेषायां पुनः किट्टिकरणाद्धायां वादरसंज्वलनलोभस्यागालो न भवति किं तूदीरणैव साऽपि तावत् यावदावलिका / तथा किट्टिकरणाद्वायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सुसंज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणो ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां दिनपृथक्त्वप्रमाणानां नामगोत्रयोर्वेदनीयानां प्रभूतवर्षसहसमानस्ततः किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमये संज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धोर्मुहूर्तप्रमाणः केवलमिदमन्तर्मुहूर्त स्तोकचरममवसेयं ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामन्तरहोरात्रस्य नामगोत्रवेदनीयानां किं चिदूनवर्षद्वयप्रमाणः आगालव्यवच्छेदानन्तरखण्डा या उदीरणावलिका तस्याश्चरमसमये किट्टिकरणाद्धाचरमसमयस्तस्मिश्च किट्टिकरणाद्धाचरमसमये यदभूत् तद् दिदृक्षुराह। लोभस्य अणुवसंतं, किट्टी उदयावली य पुष्वत्तं / वायरगुणाण समगं, दोण्ह वि लोभसमुवसंता॥ किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमये संज्वलनलोभस्य तूपशान्तमहूर्ते यद् द्वितीयस्थितिगतं किट्टीकृतं दलिकं या च उदयावलिका किट्टीकृतं दलिकं या च उदयावलिका किट्टीकरणाद्धायाः शेषीभूता यच पूर्वोक्तसमयोनावलिकाद्विकबद्धमत्यर्थः / शेषं सर्वमप्युपशान्ते तथा तस्मिन्नेव समये बादरगुणेन अनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानकेन समकं द्वावप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभावुपशान्तौ किमुक्तं भवति। यस्मिन्नेव समये द्वावप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानलो भावुपशान्तौ तस्मिन्नेव समयेऽनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकं व्यवच्छेद्यम् Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा १०६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा प्रथमस्थितितीयसमये अभव्य यावत् गु उपलक्षणमेतत् बादरसंज्वलनलोभोदयोदीरण व्यवच्छेद्याश्च। सेसद्धसेतइए, द्वे तावझ्या किट्टिओ उ पढमठिई। वजयअसंखभागे, दिब्रुवरिमुदीरए सेसा॥ शेषार्द्धशेष कालं तृतीये त्रिभागे इत्यर्थः सूक्ष्मसंपरायो भवति ताश्च प्राकृताः किट्टीर्द्धितीयस्थितेः सकाशात् कियतीः समाकृष्य प्रथमां स्थिति तावतीं सूक्ष्मसंपरायाद्धातुल्यां करोति किट्टिकरणाद्धायामन्तिममावलिकामानं स्तिवुकसंक्रमेण संक्रमयन्ति तथा प्रतिसमयान्तिमसमयकृताः किट्टीवर्जयित्वा शेषसमयकृताः किट्टयः सूक्ष्मसंपरायाद्धायाः प्रथमसमये प्राय उदयमपगच्छन्ति (दिल्जेत्यदि) वर्षसमयकृतानां किट्टीनामधस्तादसंख्येयभागं प्रथमसमयकृतानां चोपरितनसंख्येयतमभागं वर्जयित्वा शेषाः किट्टीरुदीरयति। गेण्हंतो य मुयत्ता, असंखभागं तु चरमसमयम्मि। उवसामियईयठिई, उवसंतं लभइ गुणट्ठाणं / द्वितीयसमये उदयप्राप्तानां किट्टीनामसंख्येयभागं भुञ्चति उपशा-- न्तत्वादुदयेन ददातीत्यर्थः / अपूर्व वा संख्येयं भागमनुभावनार्थमुदीरणाकरणे गृह्णाति। एवं ग्रहणमोक्षौ कुर्वन् तावत् ज्ञातव्यो यावत् सूक्ष्मसंपरायाद्धायाश्चरमसमयद्वितीयस्थितिगतमपि दलिकं सूक्ष्मसंपरायाद्धाप्रथमसमयादारभ्य सकलमपि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं कालं यावत् पूर्ववदुपशमयति समयोनावलिकाद्विकबद्धमपि दलिकं सूक्ष्मसंपरायाद्धायाश्चरमसमये ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामान्तौहूर्तिकः स्थितिबन्धो नामगोत्रयोः षोडशमुहूर्तप्रमाणो वेदनीयस्य चतुर्विंशतिमुहूर्त्तमानः तस्मिन्नेव चरमसमये द्वितीयस्थितिगतं सकलमपि मोहनीयमुपशान्तं तत एवमुपशमितद्वितीय स्थितिरनन्तरसमये उपशान्तमुपशान्तमोरूपं गुणस्थानं लभते। अंतो मुहुत्तमेत्तस्स वि, संखेज्जा भागतुल्ला उ। गुणसेढी सव्वद्धं, तुल्ला य एसकालेहिं / / अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं तत उपशान्तमोहगुणस्थानकं तस्याऽपि उपशान्तमोहगुणस्थानककालस्य संख्येयः संख्येयतमो भागस्तत्तुल्या गुणश्रेणीः करोति ताश्च गुणश्रेणीः सर्वा अपि सर्वमप्युपशान्तगुणस्थानकाद्धाया अनुप्रदेशापेक्षया कालापेक्षया च तुल्याः करोति अवस्थितपरिणामत्वात्। करणाय नोवसंतं, संकमणो वट्टणं मुदिहितगं। मोत्तूण विसेसेणं, परिवडइ जा पमत्तो त्ति।। मोहनीयस्य प्रकृतिजलमुपशान्तं सत् करणाय करणयोग्यं न भवति उदीरणानिधत्तिनिकाचितानां करणानामयोग्यं भवतीत्यर्थः संक्रमणापवर्तनं च दृष्टित्रिकसम्यक्तवं सम्यग्मिथ्यात्वरूपशेषाणां मोहनीयप्रकृतीनां न भवति दृष्टित्रिके तु संक्रमणमपवर्त्तनं च भवति तत्र संक्रमोमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः सम्यक्त्वम् अपवर्तनं तु त्रयाणामपि एवं क्रोधेन श्रेणिं प्रतिपन्नस्य द्रव्यं यदा तु मानेन श्रेणिं प्रतिपद्यते तदा मानं वेदमान एव प्रथमतो नपुंसकवेदोक्तक्रमेण क्रोधत्रिकमुपशमयति। ततः क्रोधोक्तप्रकारेण त्रिकशेषं तथैव यदा तु मायया श्रेणिं प्रतिपद्यते तदा मायां वेदयमान एव प्रथमतो नपुंसकवेदोक्तप्रकारेण क्रोधत्रिकं ततो मानत्रिकं ततः क्रोधो--तप्रकारेण मायात्रिकं शेषं तथैव। यदा तु लोभेन श्रेणिं प्रतिपद्यते तदा लोभंवेदयमान एव प्रथमतो नपुंसकवेदोक्तप्रकारेण क्रोधत्रिकं ततो मानत्रिकं ततो मायात्रिकं तत उक्त प्रकारेण लोभात्रिकमिति / संप्रति प्रतिपात उच्यते सोऽपि द्विधा भवक्षयेण अद्धाक्षयेण च तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य अद्धाक्षय उपशान्ताद्धयो~वच्छेदः तत्र यो भवक्षयेण प्रतिपतति तस्य प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि कारणानि प्रवर्तन्ते च प्रथमसमये च यानि कम्मण्युिदीर्यन्ते तान्युदयावलिकायां प्रवेशयन्तियानिय मोहोदीरणामायानितेषं दलिकान्युदयावलिकाया बहिर्गोपुच्छाकारसंस्थितानि विरचयति यः पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानकाद्धापरिक्षयेण प्रतिपतति किमुक्तं भवति येनैव क्रमेण स्थितिघातादीन् कुर्वन्नारूढास्तेनैव क्रमेण पश्चानुपूर्व्या स्थितिघातादीन् कुर्वन् प्रतिपतति स च तावत् प्रतिपतति यावत् प्रमत्तसंयतगुणस्थानकम्। छकिट्टित्तादलियं, पढमठिई कुण विइयतिइहिंतो। उदयाइविसेसूणं, आवलिउणं असंखगुणं॥ उपशान्तमोहगुणस्थानकान् प्रतिपतनक्रमेण संज्वलनलोभादीनि कण्यिनुभवति तद्यथा प्रमत्तः संज्वलनलोभं ततो यत्र मायोदयव्यवच्छेदस्तत आरभ्य मायां ततो यत्र मानोदयव्यवच्छेदस्ततः प्रकृतिमानं ततो यत्र क्रोधोदयव्यवच्छदस्तत आरभ्य क्रोधः / इत्थं च क्रमेणाशुभवनार्थं तेषां द्वितीयस्थितेः सकाशात् दलिकमपकृष्य प्रथमस्थितिं करोति उदयादिषु च उदयसमयप्रभृतिषु असंख्येयगुणं ततोऽपि द्वितीयसमये असंख्ये यगुणं ततोऽपि तृतीयसमये असंख्येयगुणमुदयवतीनामावक्तव्यं यावत् गुणश्रेणीशिरः तथा पुनरपि प्रागुक्तक्रमेण विशेषहीनो दलिकनिक्षेपः एतदेवाह। जावइया गुणसेढी, उदयवई तासु हीणगं परतौ। उदयावतीमकाय, गुणसेढी कुणइ इयराणं / / या उदयवत्यस्तत्कालमुदयभाजस्तासां प्रकृतीनां यावाती गुणश्रेणियवित् गुणश्रेणीशिर इत्यर्थः तावदुदयावलिका उपरिप्रागुक्तक्रमेण संख्येयगुणं दलिकनिक्षेपं करोति ततः परतो हीनकं विशेषहीनमितरासामनुदयवतीनां प्रकृतीनामुदयावलिकाया दलिकनिक्षेपमकृत्वा इत्यर्थः तत उपरि संख्येयगुणतया दलिकनिक्षेपः स च तावत्गुणश्रेणी शिरस्ततः परतः पुनर्विशेषहीनः। संकम उदीरणाणं,नत्थि विसेसो एत्थ पुव्वत्तो। जंजचिए वच्छिन्नं, जायए वा होइतं तत्थ / / इह य उपशमश्रेण्यारोहे संक्रमे विशेष उक्तो यथाऽनुपूर्वी यं च संक्रमो नानाऽनुपूर्वी तथा य उदीरणायां विशेष उक्तो यथाबद्धं कर्म षडावलिकातीतमुदीरयति न षडावलिकामध्ये विशेषोऽशेषसश्रेणिप्रतिपातेन भवति किमुक्तं भवत्यपूाऽपि बद्धं च कर्म बद्धावलिकातिक्रान्तमुदीरयतीति तथा यद्यत्र स्थानं व्यवच्छिन्नमुपगतं वा संक्रमण वा अपवर्तनं वा उदीरण वा देशोपशमनावा निधत्तिनिकाचन वा तत्तत्र स्थाने भवति तथा यत्र च स्थाने जातं स्थितिरसघातादि तत्र स्थाने तद्विधमेव भवतीति। वेइयमाण संजलण, कालतो अहिगमो ह गुणसेढी। पडिवत्तिकम्मा उदए, तुल्ला सेसद्विकम्मेहि।। मोहनीयस्य मोहनीयप्रकृतीनां गुणश्रेणिकालमधिकृत्य वेद्यमानानां संज्वलनकालादप्यधिका प्रतिपतिता सती प्रारभ्यते समारोहकाले गुणश्रेण्यपेक्षया तुल्या तथा यस्य कषास्योदय उपमश्रेणिप्रतिपत्तिरासीत् तस्योदयप्राप्तस्य सतो गुण श्रेणिः प्रतिपतिता शेषकमा निःशेषकशिक्तगुणाश्रेणिभिः सह Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा तुल्या क्रियते यथा कश्चित् संज्वलनक्रोधेन उपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्ततः श्रेणिं प्रतिपतत् तदा संज्वलनक्रोधमुदयेन प्राप्तवान्भवति ततः प्रभृतितः स्वगुणश्रेणिशेषकर्मभिः समाना भवति एवं मानमाययोरपि वाच्यं संज्वलनलोभेन पुनरुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य प्रतिपत्तिकाले प्रथमसमयादारभ्य संज्वलनलोभस्य गुणश्रेणिभिः सह तुल्या प्रवर्तते शेषकर्मणां तु यदारोहत उक्तं तदेव प्रतिपततोऽप्यन्यूनातिरिक्तं वेदितव्यम्। खवगुवसमगम्मि एव्व, ठाणे दुगुणो तहिं बंधे। अणुभागो णंतगुणो, अनुभागे सुभाण विवरीओ // क्षपकस्य क्षपक श्रेणिमारोहतो यस्मिन् स्थाने यावान् स्थितिबन्धस्तस्मिन्नेव स्थाने उपशमश्रेणिमारोहतस्तावान् स्थितिबन्धो द्विगुणो भवति ततोऽपि तस्मिन्नेवस्थाने उपशमश्रेणितः प्रतिपततो द्विगुणो भवति क्षपकसत्कस्थितिबन्धापेक्षया चतुर्गुणो भवतीत्यर्थः / तथा क्षपकस्य यस्मिन् स्थाने अशुभप्रकृतीनां यावान् अनुभागो भवति तदपेक्षया तस्मिन् स्थाने तासामेव शुभप्रकृतीनामुपशमश्रेणीतः प्रतिपतितोऽनन्तगुणः (सुभाण विवरिओत्ति) शुभानां पुनरनुभागो विपरीतो वाच्यः स चैव उपशमश्रेणीतः प्रतिपतितो यस्मिन्स्थाने शुभप्रकृतीमां यावाननुभागो भवति तदपेक्षया तस्मिन्स्थाने तासामेव शुभप्रकृतीनामुपशमकस्यानुभागोऽनन्तगुणस्ततोऽपि तस्मिन्नेव स्थाने तासामेव शुभप्रकृतीनां क्षपकस्यानन्तगुणः। परिवाडीए पडिओ, पमत्तइयरत्तणे बहुति किच्चा। देसजई सम्मो वा, सासणभावं वए कोई।। यथा परिपाट्या श्रेणिमारूढस्तथा परिपाट्या पतितः सन् तावदधो गच्छति यावत् प्रमत्तसंयतगुणस्थानकं ततः प्रमत्तत्वात्प्रमत्तत्वे बहून्वारान् कृत्वा कश्चित् देशयतिर्भवति कोऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिा येषां मतेनानन्तानुबन्धेनानुपशमना न भवति तेषां मतेन कश्चित् सासादनमपि व्रजति / / उवसमसम्मत्तद्धा, अंतो आउक्खया धुवं देवो। जेण तिसु आउगेसु, बद्धेसु सा सेढिमारहइ॥ औपशमिकसम्यक्त्वाद्धायां वर्तमानो यदि कश्चिदायुः क्षयात्कालं करोति तर्हि ध्रुवमवश्यं देवो भवति येन यस्मात्कारणात् त्रिषु नारकतिर्यग्मनुष्यसंबन्धेष्वायुष्केषु श्रेणिमुपशमश्रेणिं नारोहति किं तु देवायुष्क एव बद्ध ततः कालं कृत्वा देव एव भवतीति॥ सेढीपडिओ समो छड्डावलीसासणे वि देवेसु / एगभवे दुक्खुत्तो, चरित्तमोहं उवसमेजा। यस्मात्कारणात् देवायुर्वर्जेषु शेषेषु त्रिष्वायुःश्रेणिं नारोहति तस्मात्कारणात् श्रेणीतः पतितः सम उत्कर्षतःषडावलिकाकालं जघन्यतः समयमात्रं सासादनो भवति सोऽप्यवश्यं च्युत्वा देवेषु मध्ये समुत्पद्यते तथा एकस्मिन् भवे उत्कर्षतश्चारित्रमोहनीयं द्वौ वारानुपशमयति न तृतीयमपि वारं यस्तु द्वौ वारानुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते स तस्मिन् भवे क्षपकश्रेणिंनप्रतिपद्यते यस्त्वेकवारमुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्तस्य भवेदपि तस्मिन् भवेक्षपक श्रेणिः / एवं कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः। आगमाभिप्रायेण त्वेक स्मिन भवे एकामेव श्रेणिं न तु द्वितीयामपि तदुक्तं “अन्नयरसेदि वजं, एग भवेणेव सव्वाई" / अन्यत्राप्युक्तं मोहोपशम एकस्मिन् भवे स्यादसन्ततः यस्मिन् भवे उवशमक्षयो मोहस्य तत्र नेति एवं पुरुषवेदेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य विधिणक्तंः / संप्रति स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन चोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य विधिमाह दुचरिमसमये नियणा, वेयस्स इत्थी नपुंसगो ण्णंण्णं / समइत्तु सत्त पच्छा, किं तु नपुंसो कमारद्धे / / स्त्री नपुंसकस्य वेदेन सहान्योन्यं परस्परं वेदमुपशमयति किमुक्त भवति स्त्री स्त्रीवेदमुपशमयति नपुंसकवेद च नपुंसको नपुंसकवेदमुपशमयति स्त्रीवेदं चेति किं तु नपुंसकगते सति पूर्वक्रमेणारब्धे सत्युक्तप्रकारेणोपशमयति इह चोपशमनकरणे स्त्रिया नपुंसकस्य च निजकोदयस्य स्ववेदोदयस्य द्विचरमसमये एकेन्द्रियस्थितिं मुक्तवा शेष सर्वमुपशातमित्थंच शमयित्वा स्त्री नपुंसको वा पश्चात्स पुरुषवेदादिकाः प्रकृतीरुपशमयति। इयमत्र भावना इह स्त्री उपशमश्रेणिं प्रतिपन्ना सती प्रथमतो नपुंसकवेदमुपशमयति पश्चात् स्त्रीवेदं तच्च तावदुपशमयति यावत्स्वोदयस्य द्विचरमसमयस्तस्मिश्च निजकोदयस्य द्विचरमसमये एका चरमसमयमात्रामुदयस्थितिं च वर्जयित्वा शेषं सकलमपि स्त्रीवेदसत्कं दलिकमुपशमितं ततश्चरमसमये गते सति अवेदके सति पुरुषवेदहास्यादिषट्करूपाः सप्तप्रकृतीयुगपदुशमयि-तुमारभते शेषं पुरुषवेदेन च श्रेणिं प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यं तदा स्त्री वेदेन पुरुषवेदेन वा उपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानो यस्मिन् स्थाने नपुंसकवेदमुप-शमयति तद्दूर यावन्नपुंसकवेदेन श्रेणिं प्रतिपन्नः सन् नपुंसकवेदमेव समुपशमयतितत उर्द्ध नपुंसक वेदं युगपदुपशमयितुं लग्नः स च तावद्गतो यावन्नपुंसकवेदोदयो / द्विचरमसमयः तस्मिश्च स्त्रीवेद उपशान्तः नपुंसकवेदस्य च एका उदयमात्रा उदयमात्रस्थितिवर्तते शेषं सर्वमप्युपशान्तं तस्यामप्युदयस्थितावतिक्रान्तायामवेदको भवति ततः पुरुषवेदादिकाः सप्त प्रकृतीयुगपदुपशमयतीति। तदेवमुक्ता सर्वोपशमना। संप्रति देशोपशमनामभिधातुकाम आह। मुलुत्तरकम्माणं, पगइठिइयाइ होइ चउभेया। देसकरणेहिं देसं, समइ जं देसुमण्णातो / / देशोपशमना मूलकर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरकर्मणामुत्तरप्रकृतीनां प्रत्येकं प्रकृति स्थित्यादिका प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविषया चतुर्भेदा चतुर्विधा भवति इयमत्र भावना / देशोपशमना द्विधा तद्यथा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च, एकैकाऽपि चतुर्भेदा तद्यथा प्रकृतिदेशोपशमना स्थितिदेशोपशमना अनुभागदेशोपशमना प्रदेशोपशमना च। अथ कस्माद्देशोपशमनेत्यभिधीयते अत आह। यत् यस्मात्कारणात् एकदेशभूताभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंज्ञिताभ्यां करणाभ्यां प्रकृतिस्थित्यादीनां देशैकदेशं शमयत्यतो देशोपशमनाऽ-- भिधीयते देशभूताभ्यां करणाभ्यामुपशाम्यतीति देशोपशमना। यदि वा देशस्य प्रकृत्यादीनामेकदेशस्योपशमना देशोपशमनेति व्युत्पत्तेः / / संप्रत्यस्यावयवतात्पर्यविश्रान्तिमाह।। उवसमियस्सुव्वट्टणसंकमकरणाइं हों ति नन्नाई। देसोवसामिय जम्हा, पुव्वो सव्वकम्माणं // देशोपशमनया उपशमितस्य कर्मण उद्वर्तनसंक्र मलक्षणानि भवन्ति नान्यानि करणान्युदीरणाप्रवृत्तीनि एष देशोपशमनायाः सर्वोपशमनातो विशेषः / अनया वा देशोपशमनया मूलप्रकृतिमुत्तरप्रकृति वा उपशमयितुं प्रभुस्तावदवसेयो यावत् पूर्वः पूर्वकरणस्थानकचरमसमयः / इयमत्र भावना अस्या देशोपशमनायाः Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा 1070- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमणा स्वामिनः सर्वतिर्यञ्च एकद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियभेदभिन्नाः सर्वे नारकाः सर्वे देवाः सर्वे मनुष्यास्तेच मनुष्यास्तावद्यावदपूर्वकरणान्तसमय इति एषा चैव देशोपशमना सर्वेषामपि कर्मणामवगन्तव्या न मोहनीयस्यैव केवलस्य। स्वामिविषयमेकं च विशेषमाह। खवगो उवसमगो वा, पढमकसायाण दंसणतिगस्स। देसोवसमगो सुसुअपुटवकरणंतगो जाव।। स देशोपशमनास्वामी देशोपशमकः प्रथमकषायाणां दर्शनत्रिकस्य च क्षपक उपशमको वा तावदवसेयो यावत्स्वस्वापूर्वकरणान्तगः एतदुक्तं भवति। प्रथमकषायाणां विसंयोजनाचतुर्गतिका अपिउपशमका मनुष्याः प्रतिपन्नसर्वविरतेये दर्शनत्रिकस्य क्षपका मनुष्या अविरतसर्वविरता उपशमकाः सर्वविरतास्तावद्देशोपशमनाकारिणो यावत्स्वस्वापूर्वकरणचरमसमयो न परत इति। संप्रति साधादि-प्ररूपणार्थमाह। साइयमाइचउद्धा, देसुवसमणा अणाइमंतीणं। मूलुत्तरपगईणं, साइ अधुवोत्तरपगइयो वा / / अनादिमत्योऽनादिसत्ताकास्तासां देशोपशमना चतुर्द्धा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिधुवा ऽधुवा च / तत्र मूलोत्तरप्रकृतीनामष्टानामपि अपूर्वकरणगुणस्थानकात्परतः सा देशोपशमना न प्रवर्ततेततः प्रतिपाते च भूयोऽपि प्रवर्तते इति सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुवा अभव्यानां त्वध्रुवा भाविता मूलोत्तरप्रकृतीनां साद्यादिरूपतया चतुर्विधा देशोपशमना / संप्रत्युत्तरप्रकृतीनामनादिसत्कानां सा भाव्यते तत्र वैक्रियसप्तकाहारकसप्तकमनुष्यद्विकदेवद्विकनारकद्विकसम्यक्तवसम्यग्मिथ्यात्वोचैर्गोत्ररूपोद्वलनयोर्गात्रयोविंशतितीर्थकराश्चतुष्टयवर्जाः शेषास्त्रिंशदुत्तरर्शतसंख्याः प्रकृतयोऽनादिसत्ताकास्तासां मध्ये मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनां स्वस्वापूर्वकरणात्परतो देशोपशमना नोपजायते शेषकर्मणां त्वपूर्वकरणगुणस्थानकात् परतः स्थानात् च्यवमानस्य भूयोऽपि जायते इति सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिधुवाऽध्रुवा अभव्यभव्यापेक्षया यास्त्वध्रुवा अध्रुवसत्ताकाः प्रकृतयोऽनन्तरोक्ता अष्टविंशतिसंख्याकास्ता देशोपशमनामधिकृत्य साद्यधुवास्तासां देशोपशमना सादिरध्रुवा चेत्यर्थः / साद्यधुवता अधुवसत्तावदेव समवसेया। संप्रति प्रकृतिस्थानानां साद्यादिप्ररूपणार्थमाह। गोयाउयाणं दोण्हं, चउत्थछट्ठाण होइ सत्तण्हं। साइयमाइ चउद्धा, सेसाणं एगठाणस्स।। इह गोत्रस्य देशोपशमनामधिकृत्य द्वे प्रकृतिस्थाने तद्यथा द्वे एका च तत्रानुद्ववलितोच्चैर्गोत्रस्य द्वे उदलितोचैर्गोत्रस्यैका तथा आयुषोऽपि द्वे प्रकृतिस्थाने तद्यथा द्वे प्रकृती एका च। तत्र अबद्धपरभवायुष्कस्य एका बद्धपरभवायुषो द्वेएतेषां च चतुर्णामपिस्थानानां देशोपशमना सादिरध्रुवा च स्थानानामपि स्वयं साद्यधुवत्वात् तथा “चउत्थछट्ठाण होइ सतण्हमिति" तत्र यथासंख्येन पदयोजना तत्र चतुर्थं मोहनीयं तस्य देशोपशमनायोग्यानि षट् प्रकृतिस्थानानि तद्यथा एकविंशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षड्विंशतिः सप्तविंशतिरष्टाविंशतिश्च शेषाणि पुनरनिवृत्तिवादरसंपराये प्राप्यन्ते इति देशोपशमनायोग्यानि भवन्ति। तत्राष्टाविंशतिस्थानं मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिवेदकसम्यग्दृष्टीनां | प्राप्यते सप्तविंशतिस्थानमुद्वलितसम्यक्तवस्य सम्यग्मिथ्यादृष्टा षड्विंशतिस्थानमुदलितसम्यक्सम्यग्मिथ्यात्वस्यानादिमिथ्यादृष्टी पञ्चविंशतिस्थानंषड्वंशतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टे : सम्यक्तवमुत्पादतोऽपूर्वकरणात्परतो वेदितव्यं तस्या मिथ्यात्वदेशोपशमनाया अभावात् तथा अनन्तानुबन्धिनामुबलनेऽपूर्वकरणात्परतो वर्तमानस्य चतुर्विशतिस्थानं चतुर्विंशतिसत्कर्मणो वा चतुर्विंशतिस्थानं क्षेपिसप्तकस्य एकविंशतिस्थानम् अत्र षड्विंशतिलक्षणस्थानं मुक्तवा शेषाणां पञ्चानामपि स्थानानां देशोपशमना साद्यध्रुवस्थानानामपि स्वयंकादाचित्कत्वात् षड्वंशतिस्थानस्य चतुर्दा तद्यथा सादिरनादिधुंवा अधुवा च / तत्रोदलितसम्यक्तवसम्यग्मिथ्यात्वस्य सादिरनादिमिथ्यादृष्टेरनादिधुंवा अभव्यानां भव्यानान्त्वध्रुवा तथा षष्ठानामनन्तस्य देशोपशमनायोग्यानि सप्त स्थानानितद्यथा त्र्युत्तरशतं व्युत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः त्रिनवतिः चतुरशीतिळशीतिश्च तत्रादिमानि चत्वारि स्थानानि यावदपूर्वकरणगुणस्थानकचरमसमयस्तावद्वेदितव्यानि न परतः शेषाणि च त्रीणि त्रिनवतिचतुरशीतिद्व्यशीतिरूपाणि एकेन्द्रियादीनां भवन्तिन श्रेणिप्रतिपद्यमानानां शेषाणितु स्थानानि अपूर्वकरणगुणस्थानकात्परतो लभ्यानि नार्वागिति न देशोपशमनायोग्यानि एतेष्वपि च स्थानेषु देशोपशमना साद्यधुवस्थानानामपिस्वयमनित्यत्वात् शेषाणां तु ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनान्तरायाणां देशोपशमनामधिकृत्यै कै कं प्रकृतिस्थानम् / तत्र ज्ञानावरणस्यान्तरायस्य च प्रत्येकं पञ्चप्रकृत्यात्मकं स्थानं दर्शनावरणस्य नवप्रकृत्यात्मकं तृतीयस्य द्विप्रकृत्यात्मकम् / एषां च देशोपशमना साद्यादिभेदाचतुर्दा चतुःप्रकारा तद्यथा सादिरनादिधुंवा अध्रुवा च / “साइयमाइचउद्धा सेसाणं एगठाणस्य" तत्रापूर्वकरणगुणस्थानकात्परतो न भवत्युपश्रेणिस्ततः शमप्रतिपाते च भूयोऽपि भवति ततः सादिस्तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / धुवाऽधुवा च भव्याभव्यापेक्षया / उक्ता प्रकृतिदेशोपशमना। संप्रति स्थितिदेशोपशमनामाह। उवसामणा ठिईओ, उक्कोसा संकमेण तुल्लाओ। इयरा वि किं तु अभवे, उव्वलगे अपुष्वकरणेसु / / स्थितिदेशोपशमना द्विविधा तद्यथा मूलप्रकृतिविषया उत्तरप्रकृतिविषया च एकैकाऽपि द्विधा तद्यथा उत्कृष्टा जधन्या च तत्र मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितिर्देशोपशमना संक्रमेण तुल्या किमुक्तं भवति यः प्रागुत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामी प्रतिपादितो यथा चोत्कृष्टस्थितिं संक्रम्य साद्यादिप्ररूपणा तदेतत्सर्वमुत्कृष्टस्थितिदेशोपशमनायामपि वाच्यमितरा स्थितिर्जघन्या स्थितिर्देशोपशमनासंक्रमण तुल्या जघन्यस्थितिः संक्रमतुल्या किंचिदभव्यमायोग्यजघन्यस्थितौ वर्तमानस्य द्रष्टव्या। तस्यैव प्रायः सर्वकर्मणामपि जघन्यायाः स्थितेः प्राप्यमाणत्वात्याश्च प्रकृतयोऽभव्यप्रायोग्यजघन्यस्थितिकाले भवन्ति तासामुद्रलकके अपूर्वकरणे वा जघन्यस्थितिदेशोपशमना वेदितव्या तत्रोद्वलनप्रायोग्याणां प्रकृतीनामन्तिमखण्डे पल्योपमसंख्येयभागमात्रे वर्तमाने तत्राप्याहारकसप्तकसम्यक्तवसम्यग्मिथ्यात्वानामेकेन्द्रियस्य च शेषप्रकृतीनां तूद्वलनयोग्यानां वैक्रि यसप्तकदेवद्विकनारकमनुष्यद्विकोच्चैर्गो त्ररूपाणामेकेन्द्रियस्यैव अन्यासाञ्चापूर्वकरणचरमसमये वर्तमानस्येति। Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमणा १०७१-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उवसमसेदि अणुभागपएसाणं, सुभाण जा पुय्वमिचइयराणं। उक्कोसियर अरूविय, एगेंदी देससमणाए।। अनुभागप्रदेशोपशमनाय यथाक्रममनुभागसंक्रमप्रदेशसंक्रमतुल्या इयमत्र भावना द्विविधा अनुभागदेशोपशमना तद्यथा जघन्या उत्कृष्टा च तत्र प्रपञ्चितं प्राक्उत्कृष्ानुभागप्रदेशोपशमनाया अपि तत्रशुभप्रकृतीनां सम्यग्दृष्टिनवरं सातवेदनीययशः कीर्युच्चै मगोत्राणान्तूत्कृष्टानुभागे संक्रमस्वामी अपूर्वकरणगुणस्थानकात्परतोऽपि भवति उत्कृष्टानुभागदेशोपशमनायाः पुनरुत्कर्षतोऽप्यपूर्वकरणगुणस्थानपर्यवसानः स्वामी इतरासामशुभानां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागदेशोपशमना स्वामी च मिथ्यादृष्टिरवसेयः इतरस्या जघन्यानुभागोपशमनायास्तीर्थकरवर्जानां सर्वासामपि प्रकृतीनामभवसिद्धिप्रायोग्यजघन्यस्थितौ वर्तमान एकेन्द्रियस्वामी प्रतिपत्तव्यस्तीर्थकरनाम्नस्तु य एव जघन्यानुभागसंक्रमस्वामी स एव जघन्यानुभागदेशोपशमनाया अपि / प्रदेशोपशमनाऽपि द्विधा उत्कृष्टा जघन्या च। तत्रोत्कृष्टप्रदेशोपशमना उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमतुल्या नवरं यथा कर्मणामपूर्वकरणात्परतोऽपि उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमः प्राप्यते तेषामपूर्वकरणगुणस्थानचरमसमयं यावत् उत्कृष्ट प्रदेशोपशमना वाच्या जघन्या प्रदेशोपशमना अभव्यप्रायोग्यजघन्यस्थिती वर्त्तमानस्यैकेन्द्रियस्येति समाप्तमुपशमनाकरणं तदेवमुक्तमुपशमनाकरणम्। प०स० आचा० (कर्मप्रकृतितोग्रन्थोऽर्थतो नातिरिच्यते शब्दतस्तु भिन्नोऽपि न पृथगवस्थापितोऽभिधेयस्यैवोपादेयत्वात्) उवसमप्पभव त्रि०(उपशमप्रभव) उपशम इन्द्रियनोइन्द्रियजयस्तस्मात्प्रभवो जन्मोत्पत्तिर्यस्याऽसौउपशमयप्रभवः इन्द्रियमनोनिग्रहलभ्ये, पा० “अहिरनसोवणियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स" उपशमप्रभवस्येन्द्रियमनोजयोत्पन्नस्य ध०३ अधि०! उवसमलद्धाइकलिय पुं०(उपशमलब्ध्यादिकलित)३ त० उपशमलब्ध्युपकरणलब्धिस्थिरहस्तलब्धियुक्ते, “अविसाई परलोए उवसमलद्धाइकलिओ य" पं० व०। उवसमलद्धाइजुत्त पुं०(उपशमलब्ध्यादियुक्त) उपशमलब्धिः परमुपशमयितुं सामर्थ्यलक्षणाऽऽदिशब्दादुपकरणलब्धिः स्थिरहस्तलब्धिश्च गृह्यते ततस्ताभिश्च संयुक्तः संपन्नः। उपशमलब्ध्यादिकलिते, ध०३ अधि०। उवसमलद्धि स्त्री० (उपशमलब्धि) परमुपशमयितुं सामर्थ्य,ध०३ अधि०। उपशमनाकरणसामर्थ्य , "पज्जत्तो" लद्धितिगजुत्तो लब्धित्रिकयुक्त उपशमलब्ध्युपशमश्रेणिश्रवणकरणलब्धिकरणत्रयहेतुप्रकृष्टयोगलब्धिरूपत्रिकयुक्तः क०प्र०। उवसमसार त्रि० (उपशमसार) उपशमप्रधाने, “से किमाहु भंते ! उवसमसारंखुसामण्णं" कर्म०। उवसमसे दि स्त्री०(उपशमश्रेणि)उपशमनाप्रकारे, उपशमश्रेणिं प्रकटयन्नाह। अणदंसनपुंसत्थी, वेयच्छक्कं च पुरिसवेयं च / दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उवसमेइ॥|| तत्र प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽभिधीयते अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तानामन्यतमोऽन्यतमस्मिन् योगे वर्तमानस्तेजः पद्मशुक्ललेश्यानामन्यतमलेश्यायुक्तः साकारोपयोगोपयुक्तोऽतः सागरोपमकोटाकोटी स्थितिसत्कर्मा कार्मणकालात्पूर्वमभ्यन्तर्मुहूर्त्तकालं यावदवदायमानवित्तसन्तत्यपूर्वकरणं | तिष्ठति तथा च तिष्ठमानश्च परावर्तमानाः प्रकृतीः शुभा एव बध्नाति नाशुभाः। अशुभानांच प्रकृतीनामनुभागं चतुःस्थानकं सन्तं द्विस्थानकं करोति शुभानां च द्विस्थानकं सन्तं चतुःस्थानकं स्थितिबन्धेऽपि च पूर्णे सति अन्य स्थितिबन्धं पूर्वपूर्वस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमासंख्येयभागहीनं करोति / इत्थं करणकालात्पूर्वमन्तर्मुहूर्त कालं यावदवस्थाय ततो यथाक्रमं त्रीणि करणानि प्रत्येकमान्तौहूर्तिकानि करोति तद्यथा यथाप्रवृत्तिकरणम्, अपूर्वकरणम् अनिवृत्तिकरणम् / चतुर्थीतूपशान्ताद्धा / तत्र यथाप्रवृत्तिकरणे प्रविशन् प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्ध्या प्रविशतिपूर्वोक्तं च शुभप्रकृतिबन्धादिकं तथैव तत्र कुरुते न च स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणिं गुणसंक्रमं वा करोति तद्योग्यविशुद्ध्यभावात् प्रतिसमयं नानाजीवापेक्षया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति षट्स्थानपतितानि च / अन्यच प्रथमसमयापेक्षया द्वितीयसमयेऽध्यवसायस्थानानि विशेषाधिकानि ततोऽपि तृतीयसमये विशेषाधिकानि एवं तावद्वाच्य याव-द्यथाप्रवृत्तकरणसमयः एवमपूर्वकरणेऽपि द्रष्टव्यम्। अत एवैतानि स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति स्थापना चेयम्। 120000000000016 10000000000015 500000000014 60000000013 4000000011 30000006 2000007 100005 इह कल्पनया द्वौ पुरुषौ युगपत्करणं प्रतिपन्नौ विवक्ष्येते तत्रैकसर्वजघन्यया विशोधिश्रेण्या प्रतिपन्नः अपरस्तु सर्वोत्कृष्टया विशोधिश्रेण्या तत्र प्रथमजीवस्य प्रथमसमये जघन्या विशोधिः सर्वस्तोका ततो द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि तृतीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा एवं तावद्वाच्यं यावद्य-- थाप्रवृत्तकरणाद्धया संख्येयो भागो गतो भवति ततः संख्येये भागे गते सति चरमसमयजधन्यविशुद्धसकाशात्प्रथमसमये द्वितीयस्य जीवस्य उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणाततोऽपि यतो जघन्यविशुद्धिस्थानान्निवृत्तस्तत उपरितनं जघन्यविशोधिस्थानमनन्तगुणं ततो द्वितीयसमये उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा तत उपरितनं जघन्यं विशोधिस्थानमनन्तगुणं ततस्तृतीयसमये उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा / एवमुपर्यधश्च एवैकविशोधिस्थानमनन्तगुणतया द्वयोर्जीवयोस्तवन्नेयं यावद्यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमये जघन्यं विशुद्धिस्थानंततः शेषाणि उत्कृष्टानि यानि विशोधिस्थानानि अनुक्तानि तिष्ठन्ति तानि निरन्तरमनन्तगुणया वृद्ध्या तावन्नेतव्यानि यावचरमसमये उत्कृष्ट विशोधिस्थानम्। भणितं यथाप्रवृत्तिकरणम् / संप्रत्यपूर्वकरणमुच्यते / तत्रापूर्वकरणे प्रतिसमयमसंख्येय-लोकाकाशप्रमाणानि अध्यवसायस्थानानि भवन्ति प्रतिसमयं च षट् स्थानपतितानि तत्र प्रथमसमये जघन्या विशोधिः सर्वस्तोका सा च यथाप्रवृत्तकरणचरमसमयसत्कोत्कृष्टविशोधिस्थानादनन्तगुणा ततः प्रथमसमय एवोत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयसमये उत्कृष्टा विशोधिरन्तगुणा ततोऽपि तृतीयसमये जघन्या विशो Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसेढि १०७२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमसेढि धिरनन्तगुणा एवं जघन्यमुत्कृष्टं च विशोधिस्थानमनन्तगुणया वृद्ध्या तावन्नेयं यावदपूर्वकरणस्य चरमसमये जघन्योत्कृष्टविशुद्धिरनन्तगुणा। स्थापना चेयम्। 250000000026 23000000024 2100000022 160000020 17000018 अस्मिंश्यापूर्वकरणे प्रविशन् स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणिं गुण संक्राममवस्थितिबन्धं च युगपदारभते तत्र स्थितिघातो नामस्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागादुत्कृष्टतः प्रभूतसागरोपम (शत) पृथक्तवमात्रंजघन्यतःपल्योपमसंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्ड खण्डयति तद्दलिकं वाऽधस्ताद्याः स्थितीन खण्डयिष्यति तत्र प्रक्षिपति अन्तर्मुहूर्तेन कालेन तत्र स्थितिखण्डमुत्कीर्यते खण्ड्यत इत्यर्थः ततः पुनरधस्तात्पल्योपमसंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोत्किरति पूर्वोक्तप्रकारेणैव च निक्षिपति एवमपूर्वकरणाद्धायां प्रभूतानि स्थितिखण्डसहस्राणि व्यतिक्रामति तथा च सत्यपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत् स्थितिसत्कम्मसिीत्तत्तस्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनम्। जातरसघातो नाम अशुभप्रकृतीनां यदनुभाग सत्कर्म तस्याऽनन्ततमभाग मुक्तवा शेषाननुभागानन्तर्मुहूर्तेन कालेनाशेषानपि विनाशयति ततः पुनरपि तस्य प्रागुक्तस्यानन्ततमभागस्याऽनन्ततमं भागं मुक्तवा शेषाननुभागानन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति एवमनेकान्यनुभागखण्डसहस्राण्येकस्मिन् स्थितिखण्डे व्यतिक्रामन्ति तेषां च स्थितिखण्डानां सहस्रैरपूर्वकरणं परिसमाप्यते / गुणश्रेणीनामन्तर्मुहूर्तप्रमाणानां स्थितीनामुपरि याः स्थितयो वर्तन्ते तन्मध्यावलिकं गृहीत्वा उदयावलिकाया उपरितनीषु प्रतिसमयमसंख्येयगुणतया निक्षिपति तद्यथा प्रथमसमये स्तोकं द्वितीयसमयेऽ-- संख्येयगुणं तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् / एवं तावन्नेयं यावदन्तमुहूर्त्तचरमसमयस्तच्चान्तर्मुहूर्तमपूर्वकरणानिवृत्तिकरणकालाभ्यां मनागतिरिक्तं वेदितव्यम् / एष प्रथमसमयगृहीतदलिकस्य निक्षेपविधिः / एवं द्वितीयादिसमयगृहीतानामपि दलिकानां निक्षेपो वक्तव्यः अन्यश्च गुणश्रेणिरचनाय प्रथमसमये यद्दलिकं गृह्यतेतत्स्तोकं ततोऽपि द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसमये-ऽसंख्येयगुणम् / एवं तावन्नेयं यावद् गुणश्रेणिकरणचरमसमयः अपूर्वकरणसमयेष्वनिवृत्तिकरणसमयेषु चानुभवतः क्रमशः क्षीयमाणेषु गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपः शेषे भवति उपरि च न वर्द्धत इति तथा गुणसंक्रमो नाम अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये अनन्तानुबन्ध्यादीनामशुभप्रकृतीनां यद्दलिकं परप्रकृतिषु संक्रमयतितत्स्तोकं ततो द्वितीयसमयपरप्रकृतिषु संक्रम्यमाणसमयमसंख्येयगुणं ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् एवं तावद् वक्तव्यं यावच्चरमसमयः। तथा अन्यस्थितिबन्धो नाम अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽन्य एवापूर्वः स्तोकः स्थितिबन्धः आरभ्यते स्थितिबन्धस्थितिघातौ युगपदेव च निष्ठा यातः एवमेते पञ्च पदार्था अपूर्वकरणे प्रवर्तन्ते व्याख्यातमपूर्वकरणम् / इदानीमनिवृत्तिकरणमुच्यते / अनिवृत्तिकरणं नाम यत्र प्रविष्टानां सर्वेषामपि तुल्यकालानामेवाध्यवसायस्थानम् / तथा हि अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये ये वर्तन्ते ये च वृत्ता ये च वर्तिष्यन्ते तेषां सर्वेषामप्येकरूपमेवाध्यवसायस्थान द्वितीयसमयेऽपि ये वर्तन्ते ये च वृता ये च वर्तिष्यन्ते तेषामपि सर्वेषामेकरूपमध्यवसायस्थानं नवरं प्रथमसमयभाविविशोधिस्थानापेक्षयाऽनन्तगुणम्। एवं तावदाच्यं यावदनिवृत्तिकरणचरमसमयः अत एवास्मिन् करणे प्रविष्टानां तुल्यकालानामसुमतांसंबन्धिनामध्यवसायस्थानानां परस्परं निवृत्तिावृत्तिर्न विद्यते इत्यनिवृत्तिकरणं नाम अस्मिश्चानिवृत्तिकरणे यावन्तः समयास्तावन्त्यध्यवसायस्थानानि पूर्वस्मादनन्तगुणवृद्धानि एतानि च मुक्तावलीसंस्थानेन स्थापयितव्यानि / अत्रापि प्रथमसमयादेवारभ्य पूर्वोक्ताः पञ्च पदार्थों युगपत्प्रवर्तन्ते अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिन् भागेप्यवतिष्ठमाने अनन्तानुबन्धिनामधस्तादावलिकामात्रं मुक्तवा अन्तर्मुहूर्तप्रमामन्तरकरणमभिनवस्थितिबन्धाद्धासमेनान्तर्मुहूर्त प्रमाणेन कालेन करोति अन्तरकरणसत्कं च दलिकमुत्कीर्यमाणं प्रकृतिषु वध्यमानासु प्रक्षिपति प्रथमस्थितिगतं दलिकमावलिकामात्र वेद्यमानानामुपरि प्रकृतिषु स्तिवुकसंक्रमेण संक्रमयति अन्तरकरणे कृते सति द्वितीयसमयेऽनन्तानुबन्धिनामुपरितनस्थितिदलिकमुपशमयितुमारभते तद्यथा प्रथमसमये स्तोकमुपशमयति द्वितीयसमये संख्येयगुणं तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम्। एवं यावदन्तर्मुहूर्त्तकालम्तावता च कालेन साकल्यतोऽनन्तानुबन्धिन उपशमिता भवन्ति उपशमितानां यथारेणुनिकरः सलिलविन्दुनिवहैरभिषिच्याभिषिच्य द्रुघणादिभिनिष्कुटितो निःस्त्पन्दो भवति तथा कर्मरेणुनिकरोऽपि विशोधिसलिलप्रवाहेण परिषिच्य परिषिच्यानिवृत्तिकरणरूपद्रुघणनिप्कुटितः संक्रमणोदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनकरणानामयोग्यो भवति तदेवमेके षामाचार्याणां मतेनानन्तानुबन्धिनामुप शमनाऽभिहिता। अन्ये त्वाचक्षते अनन्तानुबन्धिनामुपशमना न भवति किंतु विसंयोजनैव विसंयोजना क्षपणा सा चैवम् इह श्रेणिमप्रतिपद्यमाना अपि अविरता विरताश्च चतुर्गतिका अपि / तद्यथा नारका देवा अविरतसम्यग्दृष्टयः तिर्यञ्चोऽविरतसम्यग्दृष्टयो देशविरता वा मनुजा अविरतसम्यग्दृष्ट्यो देशविरताः सर्वविरता वा / अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनार्थ यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि कुर्वन्ति करणवक्तव्यता सर्वाऽपि प्राग्वत् नवरमिहानिवृत्तिकरणे प्रविष्टः सन् अन्तरकरणं न करोति। उक्तं च कर्मप्रकृतौ। चउगइया पज्जत्ता, तिनि विसंजोयणे विसंजोयें ति। करणेहि तिहिं सहिया, नंतरकरणं उवसमो वा / / अस्याक्षरगमनिका चतुर्गतिका नारकतिर्यड्मनुष्यदेवाः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तालयोऽप्यविरतदेशविरतसर्वविरतास्तत्राविरतसम्यग्दृष्ट-यश्चतुर्गतिकाः देशविरतास्तिर्यञ्चोमनुष्या वा सर्वविरता मनुष्या एव संयोजनामनन्तानुबन्धिनो विसंयोजनयन्ति विनाशयन्ति / किंविशिष्टाः सन्त इत्याह करणैस्त्रिभिर्यथाप्रवृत्ता पूर्वकणानिवृत्तिवादरैः सहिता नवरमिहान्तरकरणं न वक्तव्यम्। उपशमो वा उपशमश्चानन्तानुबन्धिनां न भवतीत्यर्थः / किं तु कर्मप्रकृत्यभिहितस्वरूपेणोद्वलनासंक्रमेणाधस्तादावलिकामात्रं मुक्तवा उपरि निरवशेषानन्नतानुबन्धिनो विनाशयति आवलिकामात्रं तु स्तिवुकसंक्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति तदेवमुक्ता अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजना / संप्रति दर्शनत्रिकस्योपशमना भण्यते। तत्र मिथ्यात्वस्योपशमना मिथ्यादृष्टर्वेदकसम्यग्दृष्टश्च सम्यक्तवसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु वेदकसम्यग्दृष्टरेव तत्र मिथ्याद्दष्टे मिथ्यात्वोपशमना प्रथमसम्यक्तवमुत्पादयतः सा चैवं Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसेढि 1073 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमसेढि पञ्चेन्द्रियसंज्ञी सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः करणकलात्पूर्वमप्यन्तर्मुहूर्त्तकालं प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्ध्या प्रवर्द्धमानोऽभव्यसिद्धिकविशुद्ध्यपेक्षयाऽनन्तगुणविशुद्धिको मतिश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानामन्यतमस्मिन् साकारोपयोगे उपयुक्तोऽन्यतस्मिन् योमे वर्तमानो जघन्यपरिणामेन तेजोलेश्यायां मध्यमपरिणामेन पद्मलेश्यायामुत्कृष्टपरिणामेन शुक्ललेश्यायां वर्तमानो मिथ्यादृष्टिश्चतुर्गतिकोऽन्तः सागरोपमकोटीकोटीस्थितिसत्कर्मा इत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वाच्यं यावद्यथाप्रवृत्तिकरणमपूर्वकरणं च परिपूर्ण भवति नवरमिहापूर्वकरणे गुणसंक्रमो नो वक्तव्यः किं तु स्थितिघातरसघातस्थितिबन्धगुणश्रेणय एव वक्तव्याः / गुणश्रेणिदलिकरचनाप्युदयसमयादारभ्यवेदितव्या ततोऽनिवृत्तिकरणेऽप्येवमेव वक्तव्यम् अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिन् संख्येयतमे भागेऽवतिष्ठमानेऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रमधो मुक्तवा मिथ्यात्वस्यान्तरकरणमन्तर्मुहूर्तप्रमाणं प्रथमस्थितेः किं चित्समधिकं न्यूनं वाऽभिनवस्थितिबन्धाद्धा समेनान्तर्मुहूतें न कालेन करोति अन्तरकरणसत्कं च दलिकमुत्कीर्य प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति। प्रथमस्थितौ च वर्तमानोदीरणाप्रयोगेण यत्प्रथमस्थितिगतं दलिकं समाकृप्योदये प्रक्षिपति सा उदीरणा यत्पुनर्द्धितीयस्थितेः सकाशादुदीरणाप्रयोगणैव दलिकं समाकृष्य उदये प्रक्षिपति सा उदीरणाऽपि पूर्वसूरिभिर्विशेषप्रतिपत्त्यर्थमागाल इत्युच्यते उदयोदीरणाभ्यां च प्रथमस्थितिमनुभवन् तावद्गतो यावदावलिकाद्विकं शेषं तिष्ठति तस्मिश्च स्थिते आगालो व्यवच्छिद्यते तत उदीरणैव केवला प्रवर्तते साऽपि तावद्यावदावलिका शेषो न भवति आवलिकायां तु शेषीभूतायामुदीरणाऽपि निवर्तते ततः केवलेनैवोदयेनावलिकामात्रमनुभवति आवलिकामात्रचरमसमये च द्वितीयस्थितिगतं दलिकमनुभागभेदेन त्रिधा करोति तद्यथा सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं मिथ्यात्वं चेति। उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी “चरमसमयमिच्छदिट्ठी से काले उवसमंसम्मट्ठिी होहिई ताहे विइयट्टिइं तिहाणुभागं करेइतंजहा सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं चेति" स्थापना चेयम् 000 ततोऽनन्तरसमये मिथ्यात्वस्योदयाभावादौपशमिकं सम्यक्तव-वाप्नोति / उक्तं च कर्मप्रकृतौ / “मिच्छत्तुदए खीणे, लहए सम्मत्तमोवसमियंसो। लंभेण जस्स लब्भइ, आयहियमलद्धपुव्वं जं" अन्यत्राप्युक्तम् “जात्सन्धस्य यथापुंसश्चक्षुलभि, शुभोदये। सद्दर्शनं तथैवास्य,सम्यक्तवेसतिजायते" 1 आनन्दो जायतेऽत्यन्तं सात्विकोऽस्य महात्मनः / सद्व्याध्यपगमो यद्वद्व्याधितस्य सदौषधात्" 2 एष च प्रथमसम्यक्तवलाभो मिथ्यात्वस्य सर्वोपशमनाद्भवति उक्तं च "सम्मत्तपढमलम्भो, सव्वोवसमा" इति / सम्यक्तवं चेदं पतिपद्यमानः कश्चिद्देशविरतिसहितं प्रतिपद्यते कश्चित्सर्वविरतिसहितम् उक्तंच पञ्चसंग्रह "सम्मत्तेणं समगं, सव्वं देसं चकोइ वडिवज्जे। वृहच्छतकचूर्णावप्युक्तम् “उवसमसम्मदिट्ठी अंतरकरणे ठिओ कोई देसविरइं पलिहेइ, कोइ पमत्तभावं पि सामायणो पूण न किं पि लहेइत्ति" (कर्म०) जिनभद्रगणिक्षमाश्रवणोऽपि “उवसामगसेढीए, पढवओ अप्पमत्तविरओ उ / पज्जवसाणे सो वा, होइ पमत्तो अविरओ वां / “अण्णेभणंति अविरयसपमत्तापमत्तविरयाणं। अन्नयरोपडिवज्जइ, द्रंसणसमणम्मि उ नियट्टी द्वे अपि गतार्थे नवरमविरताद्यप्रमत्तानां मध्यात्केनापि दर्शनसप्तके उपशमिते ततो (नियट्टित्ति) निवृतिबादरो भवति (विशे०) ततो देशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतेष्वपि मिथ्या त्वमुपशान्तं लभ्यते / संप्रति वेदकसम्यग्दृष्टस्त्रयाणामपि र्दशनमोहनीयानामुपशमनाविधिरुध्यते। इह वेदकसम्यग्दष्टिसंयमे वर्तमानः सन्नन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण कालेन दर्शनत्रितयमुपशमयति उपशमयतश्च करणत्रिकादिविधिर्यथा कर्मप्रकृतिटीकार्या तथा वेदितव्यः / एवमुपशान्तदर्शनमोहनीयत्रिकश्चारित्रमोहनीयमुपशमयितुकामः पुनरपि यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि करोति करणानां च स्वरूपं प्राग्वत् केवलमिह यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तगुणस्थानकेद्रष्टव्यं पूर्वकरणमपूर्वकरणगुणस्थानके अनिवृत्तिकरणमनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानके अत्रापि स्थितिघातादयः पूर्ववदेव प्रवर्तन्ते नवरमिह सर्वासामशुभप्रकृतीनाभवध्यमानानां गुणसंक्रमः प्रवर्तत इति वक्तव्यम् / अपूर्वकरणाद्धायाश्च संख्येयतमे भागे गते सति निद्राप्रचलयोर्बन्धव्यवच्छेदः ततःप्रभूतेषु स्थितिखण्डसहस्रेषुगतेषुसत्सुअपूर्वकरणाद्धायाश्च संख्येयतमो भागो गतो भवति एकोऽवशिष्यते अत्र चान्तरे देवगतिदेवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रि यशरीरवैक्रियागोपाङ्गाऽऽहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गतैजसकामणसमचतुरस्रवर्णचतुष्कागुरुलघूपघातपराघातोच्छ्वासत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकप्रशस्तविहायोगत्यसुभसुभगसुखरादेयनिर्माणतीर्थकरसंज्ञितानां त्रिंशतः प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदः / ततः स्थितिखण्डपृथक्तवे गते सति अपूर्वकरणाद्धायाश्चरमसमये हास्यरत्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धव्यवच्छेदः / हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सानामुदयः सर्वकर्मणां देशोपशमनानिधत्तिनिकाचनाकरणव्यवच्छेदश्च ततोऽनन्तरसमये निवृत्तिकरणे प्रविशत्यपि स्थितिघातादीनि पूर्ववत्करोति ततोऽनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्ये येषु भागेषु सत्सु दर्शनसप्तके शेषाणामेकविंशतिमोहनीयप्रकृतीनामन्तरकरणं करोति तत्र चतुर्णा संज्वलनानामन्यतमस्य वेद्यमानस्य संज्वलनस्य त्रयाणां वेदानामन्यतमस्य वेदस्य प्रथमा स्थितिः स्वोदयकालप्रमाणा शेषाणां त्वेकादशकषायाणामष्टानां च नोकषायाणामावलिकामात्रं स्वोदयकालप्रमाणं च चतुर्णा संज्वलनानां त्रयाणां च वेदानामिदं स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकालः सर्वस्तोकः स्वस्थाने च परस्परं तुल्यः ततः पुरुषवेदस्य संख्येयगुणः ततःसंज्वलनक्रोधस्य विशेषाधिकः ततः संज्वलनमानस्य विशेषाधिकः ततः संज्वलनमायाया विशेषाधिकः ततः संज्वलनलोभस्य विशेषाधिकः / इहानिवृत्तिकरणे बहु वक्रव्यं तत्तु ग्रन्थगौरवभयानोच्यते केवलं विशेषार्थिना कर्मप्रकृतिटीका निरीक्षितव्या। अन्तरकरणं च कृत्वा ततो नपुंसकवेदमन्तर्मुहूर्तेमात्रेण उपशमयति ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण स्त्रीवेदं ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण हास्यादिषट्कं तम्मिश्चोपशान्ते तस्मिन्नेव समये पुरुषवेदस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः ततः समयोनावलिकाद्विकेन पुरुषवेदमुपशमयति ततो युगपदन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणक्रोधौ तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनक्रोधोदयोदीरणाव्यवच्छेदः ततः समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनक्रो-- धमुपशमयति ततोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणाप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदुपशमयति तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनमानस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः ततः समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनमानमुपशमयति ततो युगपदन्तर्मुहूर्तमात्रेण अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमाये उपशमयति तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनमायाया बन्धोदयो दीरणाव्यवच्छे दः ततः समयोनावलिकाद्रिके न संज्वलनमायामुपशमयति ततो Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसेढि 1074 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवसमसेढि युगपप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणलोभावुपशमयति तत्समयवमेव संज्वलनलोभस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः / ततः संज्वलनलोभमुपशमयंस्त्रिधा करोति द्वौ भागौ युगपदुपशमयति तृतीयभागं संख्येयखण्डनि करोति दान्यपि पृथक् पृथक् कालभेदेनोपशमयति पुनः संख्येयानां खण्डानां किट्टीकृत्य परपर्यायाणां चरमखण्डमसंख्येयानि खण्डानि सूक्ष्मकिट्टीकृत्य परपर्यायाणि करोति ततःसमये समये एकैकं खण्डमुपशयमयतीति / इह च दर्शनसप्तके उपशान्ते निवृत्तिबादरोडभिधीयते तत उर्द्धमनिवृत्तिबादरो यावल्लोभस्यासंख्येयान्तिमचरमखण्ड इति प्ररूपिता मोहनीयस्याष्टाविंशतिभेदभिन्नस्याप्युपशमना / संप्रति गाथार्थो विव्रियते। इहोपशमश्रेणिप्रारम्भको भवत्यप्रमत्तसंयत एव / अन्ये तु प्रतिपादयन्ति / अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति श्रेणिपरिसमाप्तौवाऽविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतमो भवति / स च प्रथमं युगपत् (अणत्ति) अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभानुपशमयति ततो “दर्शनंदर्शस्तं" दर्श मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यग्दर्शनं युगपदुपशमयति / ततोऽनुदीर्णमपि नपुंसकवेदं यदि पुरुषः प्रारम्भकस्ततःप्रथमं नपुंसकवेद ततः पश्चात्स्वीवेदंततः षट्कं हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सालक्षणं ततः पुरुषवेदम् अथ स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथमं नपुंसकवेदं ततः पुरुषवेदं ततः षट्कं ततः स्त्रीवेदमिति। अथ नपुंसकवेद एव प्रारम्भकस्ततोऽसावनुदीर्णमपि प्रथमं स्त्रीवेदमुपशमयति ततः पुरुषवेदं ततः षट् के ततो नपुंसक वेदमिति / पुनश्च द्वौ द्वौ क्रोधाद्यावेकान्तरितौ संज्वलनविशेषक्रोधाधन्तरितौ सदृशौ तुल्यावुपशमयति / अयमर्थः / अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणक्रोधौ सदृशौ क्रोधत्वेन युगपदुपशमयति ततः संज्वलनक्रोधमेकाकिनं ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदुपशमयति ततः संज्वलनमानं ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमाये युगपदुपशमयति ततः संज्वलनमायां ततोऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणलो भौ युगपदुपशमयति ततः संज्वलनलोभमिति / स्थापना चेयम् ननु संज्वलनादीनां युक्त उपशमोऽनन्तानुबन्धिनां तु दर्शनप्राप्तादेवोपशमितत्वान्न युज्यते न दर्शनप्रतिपत्तौ तेषां क्षयोपशमादिह चोपशमादित्यविरोध इति / आह क्षयोपशमोपशमयोः कः प्रतिविशेषे उच्यते / क्षयोपशमो ह्युदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षयोपशमः प्रदेशानुभवतस्तूदयोऽस्त्येव उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति। यदाह भाष्यपीयूषपाथोधिः “वेएइ संतकम्म, खओवसमिएत्थ नाणुभावं सो। उक्संतकम्मओपुण, वेएइन संतकम्मंपि" अन्यत्राप्युक्तम्। "उवसंतकम्मंजन, तउ कढेइ न देइ उदएवि। न य गमयइ परपगई, न चेव उ कड्डएतं तु"। अस्या अक्षरगमनिका सर्वोपशमेन यदुपशान्तं मोहनीयकर्म अन्यस्य सर्वोपशमायोगात् “सर्बोवसमो मोहस्सचेवेति" वचनात् न तदपकर्षति न तदपवर्तनाकरणेन स्थितिरसाभ्यां हीनं करोतीत्यर्थः / अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वान्नाप्युदये तद्ददाति नापि तद्वेदयतीत्यर्थः / उपलक्षणात्तदविनाभाविन्यामुदरिणायामपि न ददातीत्यपि मन्तव्यम् / न च बध्यमानसजातीयरूपांपरप्रकृति संक्रमणकरणेन गमयति संक्रमयति। नच तत्तकर्मोपशान्तं सदुत्कर्ष यत्युद्वर्तनाकरणेन स्थितिरसाभ्यां वृद्धि नयति निधत्तिनिकाचनायास्तु प्रागपूर्वकरणकाल एव निवृत्तत्यान्नेहोपशान्तत्वेन तन्निषेधः क्रियते इति। आह संयतस्यानन्तानुबन्धिनामुदयो निषिद्धस्तत्कथमुपशम इत्युच्यते स ह्यनुभागकङ्गिीकृत्य न तु प्रदेशकर्मेति तथा चाभ्यधायि परमगुरुणा "जीवेणं भंते ! सयंकडं कम्म वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ। से केणद्वेणं पुच्छा दुविहे कम्मे पन्नते तं जहा पएसकम्मे य अणुभागकम्मे य। तत्थ णं जं पएसकामं तं नियमा वेएइ तत्थणंजं अणुभागकम्मतं अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएई" इत्यादि ततश्च प्रदेशकमप्यभावोदयस्येहोपशमो द्रष्टव्यः / आह यद्येवं संयतस्यानन्तानुबन्ध्युदयतः कथं दर्शनविधातो न भवतीत्युच्यते प्रदेशकर्मणो मन्दानुभावत्वात्। तथा कस्यचिदनुभागकर्मानुभागोऽपि नात्यन्तमपकाराय भवन्नुपलभ्यते यथा संपूर्णमत्यादिचतुानिनस्तदावरणोदय इति ततः सूक्ष्मलोभचरमकिट्युपशमे संज्वलनलोभ उपशान्तो भवति तत्समयमेव च ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुकान्तरायपञ्चकयशःकीर्युच्चैर्गोत्राणां बन्धव्यवच्छेदस्ततोऽनन्तरसमयेऽसावुपशान्तकषायो भवति स च जघन्येनैकं समयमात्रमुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्तकालं यावत् तत उर्द्ध नियमादसौ प्रतिपतति / प्रतिपातश्च द्विधा भवक्षयेण अद्धाक्षयेण च तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाप्तायाम् / अदाक्षयेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति। यत्र यत्र बन्धोदयोदीरणाव्यव-च्छिन्नास्तत्र तत्रपतता सता ते आरभ्यन्त इति यावत् प्रतिपतितश्च तावत्प्रतिपतति यावत्प्रमत्तसंयतगुणस्थानकम् / कश्चित्पुनस्ततोऽप्य-धस्तनं गुणस्थानकद्वयं याति कोऽपि सास्वादनभावमपि / यः पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनिकरणानि प्रवर्तयतीति शेषः / उत्कर्षतश्चैकस्मिन भवे द्वौ वारावुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते यश्च द्वौ वारावुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य नियमात्तस्मिन् भवे क्षपकश्रेण्यभावः / यः पुनरेकं वारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिभवेदपि उक्तं च सप्ततिकाचूर्णी “जोदुवारे उवसमसेढं पडिवज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवेखवगसेढी नत्थि इक्कसिंउवसमसेढिपडिवाइतस्स खवगसेढी हुजति" एष कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः / सिद्धान्ताभिप्रायेण त्वेक संज्वलनलोभः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानलोभः। पुरुषवेदः संज्वलनमाया हास्यादिषट्कः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानमाया। स्त्रीवेदः संज्वलनमानः। नपुंसकवेदः अप्रत्याख्यानप्रत्या-- || मिथ्यात्वमिश्रसम्यख्यानमानः। क्त्वम् अप्रत्याख्यानसंज्व अनन्तानुबन्धिक्रोधलनक्रोधः मानमायालोभः Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसेढि 1075 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहड स्मिन् भवे एकामेव श्रेणिप्रतिपद्यत्ते उक्तं च कल्पाध्ययने एव अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु। अन्नयरसेढिवजं, एग भवेणं च सव्वाई" सर्वाणि सम्यक्तवदेशविरत्यादीनि। अन्यत्राप्युक्तम्। “मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः / यस्मिन् भवे तूपशमः क्षयो मोहस्य तत्र नेति" / तदेवमभिहिता सप्रपञ्चमुपशमश्रेणिः / कर्म०। विशे०। वृ०। आचा०। आ० म०प्र०।क० प्र०1 पं० सं०1(उवशमणा-ऽधिकारेऽप्युपशमश्रेणिवक्तव्यतोक्ता इतः संयोज्या) उवसामइत्तु अव्य०(उपशमय्य) उप-शम् ल्यप् / उपशमं नीत्वेत्यर्थे , "उवसामइत्तु चउहा अंतमुहूत्तं धिऊणं बहुकालं" पं० सं० उवसामगपुं (उपशामक) उपशान्तमोहे, आव० 4 अ०। उवसामिय त्रि०(उपशामित) उपशमं नीते, "उवसामिए परेण व” उपशामिते परेणोपशमं नीते / व्य०१ उ० / उपशमं ग्राहिते, व्य० ६उ०॥ उवसामेमाण त्रि० (उपशमयत् ) उपशमंकारयति, क्षुद्रव्यन्तरा-घिष्ठितं समयप्रसिद्धविधिनोपशमयति, स्था०६ ठा०। उवसुद्ध त्रि०(उपशुद्ध) उप सामीप्येन शुद्धम् / निर्दोषे, सूत्र०१ श्रु० 7 अ०। उवसोभिय त्रि० (उपशोभित) सामस्त्येन शोभिते, / आ० म०प्र०। रा०। “कविसीसएहिं उवसोभिए" रा०। हारद्धहारउवसोभिए"। रा०। समारचितकेशत्वादिना जनितशोभिते, ज्ञा०६अ० उवसोहिय त्रि०(उपशोधित) निर्मलीकृते, ज्ञा०६ अ०। उवस्तिद-त्रि०(उपस्थित)उप-स्था--क्त- स्थर्थयोस्तः 54 / 261 / इति स्थस्थाने सकाराक्रान्तस्तकारः। समीपस्थिते,प्रा० उवस्सय-पुं०(उपाश्रय)उपाश्रीयते सेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः / स्था०५०। उपाश्रीयते भज्यते शीतादित्राणार्थ यः स उपाश्रयः। वसतौ,स्था 03 ठा०। आचा०। ज्ञा०। उपाश्रयक्षेपः।। नाम ठवणा दविए, भावे य उवस्सओ मुणेयव्वो। एएसिं नाणत्तं,वोच्छामि अहाणुपुथ्वीए।। नामोपाश्रयः स्थापनोपाश्रयः द्रव्योपाश्रयः भावोपाश्रयश्चेत्युपाश्रयश्चतुर्द्धा मन्तव्यः / एतेषामुपाश्रयाणां नानात्वविशेषमहमानुपूर्व्या वक्ष्यामि / तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यभावोपाश्रयौ प्रतिपादयति। दवम्मि उ उवस्सओ, कीरइ कडवुत्थमेव सुत्तम्मि। भावम्मि निसिद्धे जं, एसु दवम्मि इयरेसु॥ द्रव्यं तु द्रव्यविषयं पुनरुपाश्रयो यः संयतार्थं क्रियते क्रियमाणे वर्तते कृतोवा परमथापिन संयतेभ्यो वितीर्यते।यो गृहस्थैरात्मार्थे निष्पादितः परं यत्र संयता मासकल्पं वा (वयत्ति) उषित्वा अन्यत्र गताः सांप्रतमुपाश्रयः शून्यस्तिष्ठति एष द्रव्योपाश्रयः। भावोपाश्रयो नाम यः संयतेभ्यो निसृष्टः प्रदस्तैः परिभुज्यमान इत्यर्थः / यः पुनरितरेषां पार्श्वस्थादीनां सृष्टः सोऽपिद्रव्योपाश्रयो विज्ञेयः। आह च वृहद्भाष्यकृत् “जो समणट्ठाय कतो, वुच्छा वा आसि जत्थ समणाओ। अहवा दव्वउवस्सओ, पासत्थादीपरिग्गहिओ" वृ०। उ०। (उपाश्रयस्य सर्वो विषयो वसतिशब्दे वक्ष्यते) कर्मणि अच्आश्रयणी ये, भावे अच्। आश्रये, वाच०। उवस्सयअसंकिलेसपुं० (उपाश्रयासक्लेश) उपाश्रयविषये असंक्लेशे असंक्लेशभेदे, स्था०१० ठा०। उवस्सयसंकिलेस पुं०(उपाश्रयसंक्लेश) उपाश्रयो वसतिस्तद्विषयः संक्लेशः। संक्लेशभेदे, स्था० 10 ठा०। उवस्सा स्री०(उपश्रा) द्वेषे, व्य०१ उ०। उवस्सिय त्रि०(उपाश्रित) उपाश्रा नाम द्वेषः सजातोऽस्योति उपाश्रितः। द्वेषवति, व्य०१ उ०। अङ्गीकृते, वैयावृत्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरे, उप-आ-श्रि० भावे-त-द्वेष, शिष्यप्रतीच्छक कुलाद्यपेक्षायाम् स्था० 5 ठा०। उवहड त्रि०(उपहृत) उपह-त-उपढौकिते, उपहाररूपेण दत्तेच। उपहिते भोजनस्थाने, ढौकिते, भक्ते,। तिविहे उवहडे पण्णत्ते तं जहाफलिह उवहडे सुद्धोवहडे संसट्ठोवहडे॥ त्रिविधमुपहृतं प्रज्ञप्तं तद्यथा सिद्धोपहृतं फलितोपहृतं संसृष्टोपहृत्तं च। स्था० 3 ठा०। अमीषा पदानां व्याख्यानं भाष्यकृत्करिष्यति अधुना भाष्यप्रपञ्चः। सुद्धे संसट्टे य, फलितोवहडे य तिविहमेकेकं / तिन्नेगद्गमा तिम्नि य, तिगसंजोगे भवे एको। उपहृतशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते त्रिविधमुपहृतं सूत्रेऽभिहितं तद्यथा शुद्धोपहृतं संसृष्टोपहृतं फलितोपहृतं च / एकैकं पुनस्त्रिविधं यदवगृह्णाति यच संहरतियचाऽऽस्ये प्रक्षिपतिएतदनन्तरसूत्रे वक्ष्यते। अत्रैकैकसंयोगे त्रयो भङ्गास्तद्यथा / शुद्धोपहृतं वा गृह्णाति 1 फलितोपहृतं गृह्णाति 2 संसृष्टोपहृतं गृह्णाति३ द्विकसंयोगेऽपि त्रयस्तद्यथा शुद्धोपहृतं फलितोपहृतं च१ / शुद्धोपहृतं संसृष्टोपहृतम् ।श फलितोपहृतं संसृष्टोपहृतं च / / त्रिकसंयोगे एकः / शुद्धोपहृतं फलितोपहृतं संसृष्टोपहृतं च गृह्णाति / सर्वसंख्यया सप्त भङ्गाः। एतेषामेकतरमभिगृह्णात्यभिग्रही। संप्रति शुद्धादिपदानामर्थमाचष्टे / सुद्धं तु अलेवकडं, अहवणसुद्धोदणो भवे सुद्धं / संसर्ट आदत्तं, लेवाणमलेवर्ड चेव। फलियं पहेणयादी, वंजणभक्खेहि वा विरइयं तु / भोत्तुंमणसोपहियं, पंचमपिंडेसणा एसा॥ यत् अलेपकृतं काजिकेनपानीयेन वा सन्मिश्रीकृतं तच्छुद्धम्।अथवा शुद्धोदनो व्यञ्जनरहितो भवति। शुद्धं तदपि नियमादलेपकृतम्। संसृष्टं नाम भोक्तुकामेन तद् गृहीतम्। किमुक्तं भवति / यत् स्थाले परिवेषितं तत्र ग्रहणाय हस्तः क्षिप्तो न तावदद्यापि मुखे प्रक्षिपति / अत्रान्तरे साधुरागतो भिक्षार्थं ततः लेपकृतमलेपकृतं वा संसृष्टमित्युच्यते। फलितं नाम यद् व्यञ्जनैर्भक्ष्यैर्वा नानाप्रकारैर्विरचितं पहेणकादि प्रहेणकं लाभनकमादिशब्दात्सरजस्कानां दानाय कल्पितं परिगृह्यते / उपहृतशब्दस्यार्थमाह। यत्र भोक्तुमनस उपहृतं तदुपहृतमित्युच्यते एषा च पञ्चमी पिण्डेषणा। सुद्धग्गहणेणं पुण, होइ चउत्थी वि एसणा गहिया। संसहेउ विमासा, फलियनियमा उ लेवकडं / / शुद्धग्रहणेन चतुर्थ्यप्येषणा अल्पलेपकृता नामिका गृहीता द्रष्टध्या / संसृष्ट विभाषा / कदाचिल्लेपकृतं कदाचिन्नेति। फलितं तु Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहड 1076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाण नियमाल्लेपकृतमेवेति व्य०वि०६ उ० (अत्रान्यदपि किञ्चिद्र-क्तव्यं / दशा० / विनयबहुमानाभ्यां चतुर्भङ्गयोपदधानीति उपधानम् / तपसि, तदुग्गहियशब्दतो बोध्यम्) ग०१ अधिoनधन उवहणंत त्रि०(उपघ्नत) विध्वंसयति, प्र०१ श्रु०२ अ०। उपधाननिक्षेपचिकीर्षयाऽऽह / उवहणण न०(उपहनन) चारित्रस्य विराधने, स्था० 10 ठा०। नाम ठवणुवहाणं, दवे भावे य होइ नायव्वं / *उवहत्थ सम् आ-रच्-धा० चुरा-पर-समारचने, समारचेरुव- एमेवय सुत्तस्स वि, निक्खेवो चउविहो होइ।२९८|| हत्थसारवसमारकेलायाः IN इति समारचेरुवहत्था देशः। नामोपधानं स्थापनोपधानं द्रव्योपधानं भावोपधानं च / श्रुतउवहत्थइसारवइ समारअइसमारचयति। प्रा० स्याप्येवमेव चतुर्दा निक्षेपस्तत्र द्रव्यश्रुतमनुपयुक्तस्य यच्छुतं द्रव्यार्थवा उवहय त्रि०(उपहत) उप-हन-त-तिरस्कृते, विनाशिते, वाचाज्ञा०। यच्छुतं कुप्रावनिकश्रुतानिचेति। द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं त्वङ्गानगप्रविष्टउपधातपण्ढके, पं० भा०। पं० चू० उत्पातग्रस्ते, अशुद्धद्रव्यसंयोगेन श्रुतविषयोपयोगस्तत्र सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्याधुपधानअशुद्धे, अभिभूते च वाच०॥ प्रतिपादनायाह // उवहयजोणि स्त्री०(उपहतयोनि) गर्भग्रहणसमर्थायाम्, “अणु- दवुवहाणं सयणे, भावुवहाणं तवो चरित्तस्स। हयजोणि इत्थिया गर्भ गृह्णातीत्यर्थः" / नि० चू० 130 / / तम्हा उनाणदंसण, तवचरणेणाहिगारंतु ||26| उवहयभाव त्रि०(उपहतभाव) दुष्टतादिभिर्दोषैरुपहतो भावः परिणामो उप सामीप्येन धीयते व्यवस्थाप्यत इत्युपधानम् / द्रव्यभूतमुपधानं यस्य। दुष्टतया परिणते, वृ०४ उ०। द्रव्योषधानं तत्पुनः शय्यादौ सुखशयनाथ शिरोऽवष्टम्भवस्तु / उवहयमइविण्णाण त्रि०(उपहतमतिविज्ञान) मतिः स्वाभाविकी भावोपधानमिति भावस्योपधानं भावोपधानं तत्पुनर्ज्ञानविज्ञानं च गुरुपदेशजं मतिविज्ञाने ते उपहते दूषिते यस्य स उप- दर्शनचारित्राणि तपोवासबाह्याभ्यन्तरं तेन हि चारित्रपरिणतभाहतमतिविज्ञानः / तत्वातत्वव्यतिकरविवेकविकले, वृ० 1 उ० वस्योपष्टम्भनं क्रियते यत एवं तस्मात् ज्ञानदर्शनतपश्चरणैरिहाउवहयमणसंकप्प त्रि०(उपहतमनःसंकल्प) उपहतोऽस्वच्छतया धिकृतमिति गाथार्थः / किं पुनः कारणं चारित्रोपष्टम्भकतया तपोमनःसंकल्पोयस्य स तथा मलीमसचित्तवृत्तौ, सूत्र०-२ श्रु०२अ०। भावोपधानमुच्यत इत्याह। उपहतो ध्वस्तोमनसः संकल्पो दर्पहर्षादिप्रभवो विकल्पोयस्यसतथा। जह खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहि। विध्वस्तमनःसंकल्पे, “किण्हं देवाणुप्पिया उवहयमणसंकप्पा जाव झिया एवं भावुवहाणे-णसुज्झए कम्ममढविहं // 300 / / यह" भ०३ श०२ उ०। यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः यथैतत्तथाऽन्यदपि द्रष्टव्यमित्यर्थः / खलु उवहरंत त्रि०(उपहरत्) पूजयति, धातवोऽर्थान्तरेऽपि / / 256 शब्दो वाक्यालंकारे यथा मलिनं वस्त्रमुदकादिभिर्द्रध्यैः शुद्धिभुपयात्येयं इति उपहरतिः पूजार्थे, प्रा०। विनिवेशयति, ज्ञा०१४ अ०1 जीवस्यापि भावोपधानभूतेन स बाह्याभ्यन्तरेण तपसा अष्टप्रकारं कर्मा उवहरिंसु त्रि०(उपहृतवात् ) उपनीतवति, "अमणुनाइं मे सद्दाइ जाव शुद्धिमुपयातीत्यस्य च कर्मक्षयहेतोस्तपस उपधानश्रुतत्वेनात्रोपात्तस्य उवहरिसु" स्था०६ ठा०। तत्वभेदपर्यायाख्येति कृत्वा पर्यायदर्शनायाह / यदि या उवहसिय न०(उपहसित) उप-हस्-भावे-क्त० उपहासे, तपोनुष्ठानेनापादिता अवधूननादयः कपिगमविशेषः सम्भवन्तीत्यनिन्दासूचकेहासभेदे, वाच०। हास्यचेष्टाकरणे, तं०। तस्तान् दर्शयितुमाह। उवहाजोग पुं० (उपधायोग) मायाप्रयोजने, “गुर्वनुज्ञोपधायोगो- ओहणणधुवणनासण-विणासणज्झवणखवणसोहिकरणं। वृत्त्युपायसमर्थनम्" उपधायोग इति। उपधा माया तस्यायोगः प्रयोजन छेयण भेयण फेयण, डहणं धुणणं च कम्माणं / / सा च तत्तत्प्रकारैः सर्वथा परैरनुपलक्षयमाणैः प्रयोज्या ते च प्रकारा तत्रावधूननमपूर्वकरणेन कर्मग्रन्थैर्भेदापादनं तच्च तपोऽन्यतरभेद इत्थं धर्मविन्दौ प्रोक्तास्तद्यथा। दुःस्वप्नादिकथनमिति दुःस्वप्नस्य सामर्थ्याद्भवतीत्येषा क्रिया शेषेष्वप्येकादशसु पदेशेष्वायोज्या तथा खरोष्ट्रमहिषाद्यारोहणादिदर्शनरूपस्या आदिशब्दात् मातृमण्डलादि- धूननं भिन्नग्रन्थैरनिवृत्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानम् / तथा नाशनं विपरीतालोकनादिपरिग्रहः / तस्य कथनं गुवदिनिवेदनमिति / ध०३ कर्मप्रकृतेः स्तिवुकसंक्रमेण प्रकृत्यन्तरगमनम् / तथा विनाशनं अधि०। शैलेश्यवस्थायां सामस्त्येन कर्माभावापादनमा तथा ध्यापनमपशमउवहाण-न०(उपधान) उपधीयते शिरोऽत्र उप-धा-आधारे ल्युट्।। श्रेण्या कर्मानुदयलक्षणविध्यापनम् / तथा क्षपणमप्रत्याख्यानादिहंसरोमादिपूर्णे उच्छीर्षके, वृ०४ उ०। “पूयादिपुत्रं सिरोवहाण मुहाणणगं" प्रक्रमेण क्षपक श्रेण्या मोहाद्यभावापादनम् / तथा शुद्धिकरमित्यनि० चू० 12 उ०। कर्मणि धञ्। प्रणये, हेम० विशेषेण प्रणये, विश्वः / नन्तानुबन्धि क्षयप्रक्रमेण क्षायिकसम्यक्त्वापादनम् / तथा भावे, ल्युट्० समीपस्थाने, न०करणे ल्युट्-उपधानसाधने, मन्त्रे, छेदनमुत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणात् स्थितिहासजननम्। तथा भेदनं पुं० वाच० मोक्षप्रत्युपसामीप्येन दधातीति उपधानम् / अनशनादिके बादरसम्परायणां संज्वलनलोभस्य खण्डशो विधानम्। तथा (फेडणंति) तपसि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०ा स्था० आवापं०व०। उप समीपे अपनयनं चतुःस्थानिकादीनामशुभप्रकृतीनां रसतस्त्र्यादिस्थानाधीयते क्रियते सूत्रादिकं येनतपसा तदुपधानम्। प्रव०६ द्वा०ा उपदधाति पादनम् / तथा दहन के वलिसमुद्धातध्यानाग्निना वेदनीयस्य पुष्टि नयति अनेनेत्युपधानम्।व्य० प्र०१3०1 अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां भस्मसात्करणं शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वापादानम् / तथा धावनं पठनाराधनार्थमाचारलोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षणे तपोविशेष, शुभाध्यवसायान्मिथ्यात्वपुद्गलानां सम्यक्त्वभावसं जननमिति / उत्त०११अ०। उपधीयते उवष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानम् / / आचा०१ श्रु०६ अ०१3०। चारित्रोपष्टम्भनहेतौ श्रुतविषये उपचारे, पंचा०६ विव०। स्था०।द०। तं दवे भावे य, दध्व उवहागगादिभाव इमं। Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाण 1077- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाण दोग्गइपडयणधरणी, उवधाणं जत्थ जं सुत्त। आगाढमणागाढे, गुरुलहुयाणादि सगडपिता / / 15 / दुट्ठा गति दुग्गा वा गति दुग्गति दुःखं वा जंसि विज्जति गतीएएसा गई दुग्गती विषमेत्यर्थः / कुत्सिता वा गतिर्दुर्गतिः अणभिलसियत्थे दुस्सद्दो जहा दुब्भगो सा य नरगगती नियगती वा / पतणं पातः तीए दुग्गतीए पतन्तमप्पाणं जेण धरेति तं उवहाणं भण्णति तं च जत्थ जत्थ त्ति एस सुत्तवीप्सा जत्थ उद्देसगे जत्थ अज्झयणे जत्थ सुयक्खंधे जत्थ अंगे कालुक्कालियअंगाणंगेसु नेया जमिति ज उवहाणं णिव्वितितादितं तत्थ तत्थ सुत्ते श्रुते कायव्वमिति पक्कमे संभवति / आगाढे त्ति जं च उद्देसगादीसुत्तं भणियंत सव्यं समासओदुविहं भण्णति। आगाढं अणागाढं वातंच आगाढसुयं भगवतिमाइअणागाढं आयारमाति।आगाढं उवधाणं कायव्वं अणागाढे अणागाढं जो पुण विवजासं करेंतितस्स पच्छितं भवति आगाढे वा अणागाढे वा आणा अणवत्थमिच्छत्तविराहणाय भवति एत्थदिवतो असगडपिया को सो असगडतातो अप्पती भण्णत्ति / गंगातीरे एगो आयरिओ वायणापरिस्संतो सज्झाए वि असज्झायं पोसेति एवं णाणंतरायं काऊण देवलोगं गओ तओ चुओ आभीरकुले पचायाओ भोगे भुजति धूया य से जाया अतीव रूववती ते पव्वंतिया गोयरियाए हिण्डन्ति तस्सय सगड पुरतो वचति सायसेधूतासगडस्यतुंडे ठिता तीसे यदरिसणत्थं तरुणेहिं सगडाणि उप्पहेण पेरियाणि भग्गाणि य तो से दरिसेण लोगेण णामं कतं असगडाए पिआ असगडपिया तस्स तंव वेरगंजातंदारियंदाउं पव्वइतो पढिओ जाव चाउरंगिजं असंखए उद्दिठे तण्णाणावरणं उदिण्णं पढतस्सनट्ठाति छोण अणुण्णव इति भणिए भणति एयस्स को जोगो आयरिया भणन्ति जाव णट्टाति ताव आयंबिलं तहा पढति बारसविजा बारसहिं वरिसेहिं आयंबिलं करेंतेणं पढिया तं च से णाणावरणं खीणं एवं सम्म आगाढ जोगो अणागाढजोगो वा अणुपालेयव्वोति उवहाणेत्ति दारं गयं। नि०चू०१ उ०1दाव्य०। एव तु समणुचिण्णं, वीरवरेणं महाणुभावेणं / जं अणुचरित्तु धीरा, सिवमउलं जंति निव्वाणं // 30 // एवमुक्तविधिना भावोपधानं ज्ञानादितपो वा वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतोऽन्येनापि मुमुक्षुणैतदनुष्ठेयमिति नियुक्तिगाथार्थः समाप्तः / आचा० 1 श्रु०६ अ०१ उ० (तचअनिश्चितं कर्त्तव्यमिति अणिस्सिओवहाणशब्दे उक्तम्) पञ्चमङ्गलस्योपधानकर्त्तव्यतामाह। एएसिं अट्ठण्ड पिपयाणं गोयमा जे केइ अणोवहाणेणं सुपसत्थं नाणमहीयंति / अज्झावयति वा अहीयंति वा अज्झावयंतेइ वा समणुजाणंति तेणं महापावकम्मे महती सुपसत्थनाणस्सासायण पकुव्वंति / से भयवं जइ एव ता किं पंचमंगलस्य ण उवहाणं कायटवं गोयमा ! पढमं नाणं तओ दया एय। सव्वजगजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसमदरिसित्तं सव्वजगजीवपाणभूयसत्ताणं अत्तसमंदसणाओ यतेसिं चेव संघट्टणपरियावणाकिलावणोद्दावणाई दुक्खपायणभवविवज्जाणं ततो अणासवाउ यसंवुडा सव्वदारत्तं संवुडा सव्वदारतेणं च दमोपसमो तओ य समसत्तुमित्तपक्खयाए य अरागदोसत्तं तओ य अकोहया अमाणया अमायया अलोभया अकोहमाणमायालोभयाए य अकसायत्तं तओयसम्मत्तंसम्मत्ताओय जीवाइपयत्थपरित्ताणं तओ सव्वत्थ अप्पडिबद्धातंणेयं अन्नाणमोहमिच्छत्तक्खयं तओ विवेगो विवेगाओ हेयउवाएयवत्थूवियालणे गंतवद्धलक्खत्तं तओय अहियपरिचाओ हियायरेण य अचंतमज्झजमो। तओ य परमपवित्तुत्तम खंतादिदसविह अहिंसालक्षणं धम्माणुढाणिककरणकारवणासत्तवित्तया। तओ यखंतादिदसविहअहिंसालक्खणधम्माणुढाणिककरणकारवणासत्तवित्तयाए यसव्वुत्तमा खंती सव्वुत्तमम्मि उ तं सवुत्तमं अज्जविभावितं सव्वुत्तम सव्वमंतरं सव्वसंगपरिचागं सवुत्तमं सव्वन्भतरदुवालसविहं अचंतघोरवीरगक तवचरणाणुट्ठाणाभिरमणं सदुत्तमं सत्तरसविहकसिणसंजमाणुहाणपरिपालनेसबद्धलक्खत्तं सवुत्तमं सवगिरणं छक्काहियं अणुगूहियवलवीरियपुरिसकारपरक्कमपरितोलणं च सवुत्तमुत्तमसज्झाणसलिलेणं पावकम्मसमलेवपक्खालणंति / सवुत्तमुत्तमं आकिंचणं सव्वुत्तममुत्तमं परमपवित्तुत्तमसव्वभावभावंतरेहिणं सुद्धय्वदोसविप्पमुक्कणवगुत्तीसणाहअट्ठारसपरिहारद्धारपरिवेडियसुदुद्धरघोरबंभवयधारणंति तओ एएसिं चेव सवुत्तमा खंती मद्दवअज्जवमुत्ती तवसंजमसव्वसोयआकिंचणसुदुद्धरबंभवयधारणं समुट्ठाणेणं च सवसमारंभविवज्जणं तओ वि य पुढविदगागणिवाउवणस्सइविति च उपचै दियाणि तहेव अजीवकायसरंभसमारंभारंभाणं च मणोवइकायतिएणं तिविहं तिविहेणंसोइंदियादिसंवरणआहारादिसन्नाविप्पजढताएवोसिरणं तओ य अट्ठारससीलंगसहस्सधारणेणं च अखलियअखंडिय अमिलियअवरहियसुद्धसग्गुग्गयरविचित्ताभिग्गहनिय्वाहणंतं उयसुरमणुयतिरिच्छोईरियधोरपरीसहोवसग्गाहियासणं समकरणेणं तओ य आहारायाइपडिमासु महापयतंतओ निप्पडिकम्मसरीरया निप्पडिकम्मसरीरमत्ताए य सुक्कज्झाणे निप्पकंपत्तणं तओ य अणाइभवपरंपरसंचियअसेसकम्मट्ठए सिक्खयं अणंतनाणदंसणधारित चउगइभववारिगउनिफडं सव्वदुक्खविमोक्खं मोक्खगमणंच तत्थ अनिट्ठजम्मजरामरणाणिसंपया उगिट्टविओय संतावुवेगआयसज्झायज्झाणमहवाहिवयणारोग सोगदारिद्वदुक्खभयवेमणस्स तं तओ य एगंतियं अचंतियं शिवमयममक्खियं धुवं परमसासयं निरंतरं सव्वुत्तम सोक्खंति ता सव्वमेवेयं नाणाउ पवत्तेजा ता गोयमा ! एग Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाण 1078- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाण तियं अचंतियपरमसासयधुवनिरंतरसवुत्तमसोक्खकंखुणा पारयेष्वं / एवं अणंतरमणिए व कम्मेणं अणंतरतुच्छपसांहगंति पढमपरमेव तावापरेणं सामाइयमाइलोगविंदुसारपज्जवसाणं पदं परिच्छिन्ने गालावगसत्तक्खरपरिमाणं / णमो आयरियाणंति दुवालसंगं सुयनाणं कालं विलादिजहुत्तविहिणोवहाणाणं तइयमज्झयणं आयंबिलेणं अहिज्जेयव्वं / तहाय अणंतरुतुच्छहिंसादीयं च तिविहं तिविहेणं परिकंतेण य सरवंजणमता पसाहगतिपयपरिच्छिन्ने गालावगसत्तक्खरपरिमाणं नमो विदुपयक्खराणुण्णगं पयच्छेदघोसबद्धयाणुपुट्विपुव्वाणुपुट्वि- उवज्झायाणंति चउत्थमज्झयणं अहिज्जेयव्वं / तद्दियहे य अणाणुपुथ्वीए सुविसुद्धं आचारिकायएण पगत्तेणेण सुविनेयं तं आयंबिलेणं पारेयव्वं / नमो लोए सव्वसाहूणंति पंचमज्झयणं च गोयमा ! अणिहणोरेसुविच्छिनचरमो हिमिय सुंदरवग्गहं पंचमदिणे आयंविलेण तहेव तमत्थाणुगमियं एक्कारसपयपरिसयलसोक्खपरमहेउभूयं च तस्स य सयलसोक्खहेउभूयाओ च्छिन्नतियलावगतित्तीसक्खरपरिमाणं "एसो पंचनमोकारो न इट्ठदेवया नमुक्कारविरहिए केइ पारं गच्छेज्जा इट्ठदेवयाणं च सय्वपावप्पणासणो मंगलाणंच सव्येसिं पढमं हवइ मंगलमिति" नमुक्कारं पंचमंगलमेव गोयमा ! णोणमन्नंति ता णियमओ चूलंति छसत्तट्ठमदिणे तेणेव कम्मविभागण आयंबिले हिं पंचमंगलस्सेव पढमे ताव विणओवहाणं कायव्वति। से भयवं। अहिजेयव्वं / एवमेवं पि च मंगलमहासुयक्खंधं सरवन्नयरेहियं कइए विहीए पंचमंगलस्स णं विण उवहाणं कायध्वं गोयमा! पयरकरविंदुमताविसुद्धं गुरुणोववेयगुरुवइट्ठ कसिणमहिइमाए विहीए पंचमंगलस्सणं वि ण उवहाणं कायव्वं तंजहा ज्जित्ताणं तहा कायय्वं जहा पुर्वाणुपुटवीए पच्छाणुपुवीए सुपसत्थे चेव सोहणतिहिकरणमुहूत्तनक्खत्तजोगलग्गससीव- अणाणुपुटवीए जीहग्गो तरेज्जा तओ तेणेवाणंतरभणियतिलविप्पमुक्कजायाईमणा संकेण संजायसव्वसंवेगसुतिव्वतर- हिकरण मुहुत्तनक्खत्तजोगलग्गससीवलजंतुविरहिउगासवेमहंतुल्लसंतसुहज्झवसायाणुगयभत्ती बहुमाणपुटवं णिण्णिया- लाईया लग्गई कम्मेणं अट्ठमभत्तेणं समणुजाणविउणं गोयमा ! णदुवालसभत्तहिएणं चेइयालए जंतुविरहिओ गोयमा ! से महया पबंधेणसुपरिफुडं णिउणं असंदिढे सुत्तत्थं अणेगहा भत्तिभरनिन्भरटुसियससीसरोमावलीपप्फुल्लनयणसयवत्त- सोऊणावधारेयव्वं एयाए विहीए पंचमंगलस्स णं गोयमा ! पसंतसामथिरदिट्ठीणवणवसंवेगसमुच्छलंतसंजायवहलघण- दिणउवहा णे कायवो (महा०) से भयवं सुदुकरं / निरंतरअचिंतपरमसुहपरिणामविसेसुल्लसियसजीववीरि पंचमंगलमहासुयखंधस्स वि ण उवहाणं पन्नत्तं महत्ती य एसा याणुसमयविवद्धं तपमोयसुविसुद्धसुनिम्मलविमलथिरद- णियंतणा कहं वा लेहं कज्जई गोयमा ! जेणं केई ण इच्छेज्जा ढयरंतकरणेणं खितिणिहयजाणुणि सियउत्तमंगकर एय नियंतणं अविणिणं चेव पंचमंगलाई सुयनाणं महिज्जणे कमलमउलसोहंजलिफुडेणं सिरिउसवाइपवरवरधम्मति- अज्जावेई वा अज्जावयमाणस्स वा अणुम्नं वा पयाइ से णं ण त्थयरपडिमा विवविणिवेसियनयणमाणसमग्गतग्गयवसाणं भवेजापियधम्मेण हवेचा दढधम्मेण भवेज्जा भत्तीजुए हीलिज्जा समयदढचरित्तादिगुणसंपउववेया गुरुसहत्थ णुट्ठाणकरणे- सुत्तं हीलिज्जा अत्थं हीलिजा सुत्तत्यउभए हीलिज्जा गुरुजणं कवद्ध लक्खतवाहियगुरुवयणविणिग्गयं विणयादिबहुमाणपरि- हीलिज्जा सुत्तत्थो भए जेणेव गुरु सेणं आसाएजा उसाणुकंपोबलद्धं अ णेगसोग संतावुटवेगमहवाहिवेयणा- अतीताणागयवट्टमाणे तित्थयरे आसाइजा आयरियउवज्झायघोरदुक्खदारिहकिलेसरोगजम्मजरामरणगब्मनिवास्मइदुट्ठ- साहुणे जेणं आसाइजा सुयणाणमरिहंतसिद्धसाहु से तस्स णं सावग्ग गाहभीमभवोदहितरंडगभूयं इणमो सयलागममज्झवत्त- सुद्धीसुयालमणंतसंसारसागरमाहिंडे माणस्स तासु तासु गस्समिच्छत्तदोसोवहविसहबुद्धी परिकप्पिय उ मणियं संकुडवियडासुचुलसीइलक्खपरिसंखणासुसीओसिणमिस्सअघडमाण-असेसहेउदिटुंतजुत्तीविद्धंसणिकपञ्चलपोढस्स जोणीसु तमिस्संधयारदुग्गं धामिज्जविलीणरवारमुत्तोज्जभंडपडपंचमं गलमहासुयक्खधस्स पंचज्झयणेगचूलापरिक्खित्तस्स हत्थवसुजलुयपूयदुहिणविविचिरुहिरविल्लखल्लदुईसणपवरप वणदेवयाहिट्टियस्सातिपदुपरिच्छिन्नेगालावगस्स जंवालपंकवीभत्थघोरगब्भवासेसु कडकढकतचलचलतक्खरपरिमाणं अणंतगमपनवत्थपसाहगं सब्वमहामंतपयर- चलस्स टलटलटलस्स रज्जंतसंपिंडियंगमंगस्स सुइयरं वजाणं परमवीयभूयं नमो अरिहंताणंति / पढमजयणं नियंतणाजेऊणं एयविहं फासेजा।नोणं मणयंपि अइयरेज्जा। अहिज्जेयव्वं / तहियहे य आयंविलेणं पारेयव्वं तहेवय वीयदिणे महा०३ अ०। अणेगाइसयगुणसंपउववेयं अणंतरभणियत्थपसाहगं अणंतरं श्रीहीरविजयसूरि प्रति उपधानमालारोपणयोः किं फलमुद्दिश्य तेणेव कमेणं दुपरिच्छिन्ने गालावगपंचक्खरपरिमाणं नमो कर्तव्यता यत्र च साऽभिहिता तदपि शास्त्रं व्यक्त्या प्रसाद्य सिद्धाणंति वीयमज्यणं अहिजेयव्वं / तद्दियह य आयंबिलेणं | मिति प्रश्नःउत्तरमुपधानमालारोपणयोः किं फलमुद्दिश्य कर्तव्य Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाण 1079 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाण ता यत्र च साऽभिहिताऽस्तीत्यत्र उपधानवहनं श्रुताराधननिमित्तं मालारोपणं तु तपस उद्यापनार्थं महानिशीथादिशास्त्रे उक्तमस्ति / श्रीहीरविजयं प्रति जिनदासगणिकृतप्रश्नो यथा / तथाऽऽश्विनचैत्रमासास्वाध्यायिके सप्तम्यष्टमीनवमीदिनत्रयमुपधानमध्ये आयातिन वा तथाऽश्विन चैत्रमासास्वाध्यायिकदिनत्रयमुपधानतपोविशेषेषु लेख्यका नायातीति वोध्यम् / गुणविजयगणिकृतप्रश्नो यथा / उपधानवाहिनः श्राद्धादेरकालसंज्ञायां जलशौचादिविधिः किं निशायामपि स्यान्न वेति / अत्रोत्तरम् स्वकीयादिना नीतेनोष्णोदकेन शौचादिविधानं युक्तिमदिति / जेसलमेरुसंघकृतप्रश्नो यथा / तथा के नचिदुपासके न चत्वार्युपधानान्युदूढानि भवन्ति तन्मध्ये प्रथमोपधानस्य द्वादशवर्षातिक्रमे प्रथममेवोपधानं पुनरुद्वाह्य स माला परिदधाति उत चत्वार्यपीति। उत्तरम्। प्रथमोपधानस्य द्वादशवर्षातिक्रमे पुनस्तस्मिन्नुढे माला परिहिताशुद्ध्यति। अथ यदिमनः स्थाने तिष्ठति तदा चत्वार्यपि पुनरुद्वाह्य माला परिदधाति!॥१॥ तथा उपधाने बाहामाने तपोदिने यदि कल्याणकतिथिरायाति तदा तेनैवोपवासेन सरति उतान्याऽधिकः ततो विलोक्यते इति प्रश्ने उत्तरम् उपधानतपोदिनान्तः कल्याणकतिथ्यागमने नियन्त्रिततपस्तया तेनैवोपवासेन सरति।१२। द्वीपवन्दिरकृतप्रश्नो यथा / तथोपधानपूर्णी भवनानन्तरं तपोवासरे उत्तरितुं कल्पते नवेति? अत्रोत्तरम्। उपधानपूर्णीभवनानन्तरंतपोवासरे नोत्तीर्यते तथाविधकारणेगीतार्थाज्ञापूर्वकमुत्तरणे एकान्तेन निषेधो ज्ञातो नास्तीति। तथोपधानवाचनानमस्कारं विना दीयते उत तत्पूर्विकेति? उपधानवाचनां श्रीविजयदानसूरयो नमस्कार विनैव दत्तवन्यो वयमपि तथैव दभ इति / 27 / तथोपधानवाचना पारणादिने दीयते न वा ? तथोपधानवाचना प्रातः संध्यायांच दीयतेन वाइति? उपधानवाचना तपोवासरे पारणादिने वा दत्ता शुद्ध्यति तथोपधानवाचना आचामाम्लैकाशनकरणानन्तरं संध्यायामपि दत्ता शुद्ध्यति पर प्रतिदिनक्रियमाण संध्यासमयत्क्रियां पश्चात् क्रियते / 28 तथा चतुर्मासकमध्ये मालारोपणनदी कुतः प्रभृति विधीयते इति ? चातुर्मासकमध्ये तुरीयव्रतमालारोपणनन्दी विजयदशम्यनन्तरं भवतो द्वादशव्रतनन्दी त्वगिपि भवन्ती दृश्यते इति / 26 / तथोपधानमध्ये आर्द्रशाकभक्षणं कल्पते न वा ? तथा विलेपनमस्तकतैलप्रक्षेपादिकं कल्पते न वेति? उपधानमध्ये सांप्रतमाशाकभक्षणे रीति स्ति तथा विलेपनमस्तकतैलक्षेपादिकं यतिचत्स्वर्यन वाञ्छति अन्यः कश्चिद्यदि भक्तिं करोति तदा निषेधो नास्ति / 30 / तथा श्रावक श्राविकाणां नन्दीसूत्रश्रवण "नाणं पंचविहं पन्नत्तं” इत्यदिरूपं नमस्कारत्रयरुपं वा क्रियते न वा? श्रावकश्राविकाणां नन्दीसूत्रं नमस्कारत्रयरुपं श्राव्यते इति / 31 / तथोपधानवाचनां श्राद्धाः श्राद्धयश्च अर्वस्थानेन शुण्वन्त्युपविश्यवेति ? उपधानवाचनां श्राद्ध्य ऊर्ध्वस्थिता शृण्वन्ति श्राद्धास्तु चैत्यवन्दनमुद्रयेति।३श ही०३ प्र०ा भावे ल्युट्प्राप्तौ,सम्म। तथा पौषधकरणात् पूर्व स्वाध्यायः कृतो देवाश्च वन्दितास्तदा पश्चात्पौषधकरणे उपधानप्रवेशे वा पुनरपि स्वाध्यायदेववन्दनादि करणीयं नवेति प्रश्नः पौषधकरणात्पूर्व स्वाध्यायदेववन्दनादिकृतं स्यात्तदा पश्चादपि तेनैव सरतीति (सेन०२ उल्ला०२०प्र०) | सामायिकाध्ययनादीनां कान्युपधानानि धामस्थानां परस्यानुयोजने किं प्रतिवचः प्रदीयत इति प्रश्नः / अत्रोत्तरं महानिशीथादौ चैत्यवन्दनसूत्राणामेवोपधानान्युक्तानि सन्ति न तु सामायिकाध्य यनादीनां यचोपधानमन्तराऽपि सामायिकादीनां पठनंतत्रजीवद्ध्यहारः संप्रदायश्च प्रमाणं यदुक्तं श्रावकाः पञ्च नमस्कारादिकियत्सूत्राणि विमुच्य शेषं सामायिकादिषड्जीवनिकान्तं सूत्रमुपधानमन्तरेणं यत्पठन्ति यचाकृतोपधानतपसो ऽपि प्रथमं नमस्कारादिस्तत्र जीवद्व्यवहारस्संप्रदायश्च प्रमाणमिति संभाव्यत इति विचारामृतसंग्रहे श्राद्धप्रतिक्रमणविचाररूपे षष्ठद्वारे इति (प्रश्न० 28) तथा मौलविधिनोपधानवहने श्राद्ध्या अस्वाध्याय दिनत्रयसत्कं तपःप्रवेदन चलेख्यके समायाति न वेति प्रसाद्यं पूर्व तु तपोन यातीति श्रुतमस्तीति प्रश्नः। अत्रोत्तरम् अस्वाध्यायदिनत्रयसत्कं तपः प्रवेदनं च न यातीति वृद्धवादोऽत एव षोडशदिने वाचना प्रदीयमानाऽस्ति वाचनानन्तरं च प्रवेदनरहितं पौषधत्रयं कार्यत इति (प्रश्न० 34) तथोपधान चतुष्टयस्य मालारोपणस्य चान्तरकालः कियानिति प्रश्नः / अत्रोत्तरम्। मुख्यवृत्त्या प्रथमोपधानप्रवेशानन्तरं द्वादशवर्षातिक्रमे तच्चतुष्टयं गच्छति तेन ततोऽागेव मालारोपणं विधेयमिति। श्येन०१ उल्ला० 83 प्रश्न / तथा षष्ठोपधानप्रवेशे अद्यदिन एव मालापरिधापने प्रथमां वाचनांदत्वा मालापरिधाप्यत उत पूर्णे तत्तपसि मालापरिधानानन्तरमाद्यवाचना दीयत इतिप्रश्नः। अत्रोत्तरंषष्ठोपधानप्रवेशाद्यदिने प्रवेदनकं प्रवेद्य प्रथमां वाचनांदत्वा समुद्देशादिक्रियांकारयित्वा माला परिधाप्यत इति। श्येन० 2 उल्ला० 83 प्रश्नः / तथा श्रावकाणामुपधानवहनं विना नमस्कारादिपठनं शुद्ध्यति न वेतिप्रश्नः / अत्रोत्तरम् तथा यतीनां योगवहनं विना सिद्धान्तवाचन पाठनादि न शुद्धयति तथोपधानतपोऽन्तरा श्राद्धानामपि नमस्कारादिसूत्रभणनगणनादि न शुद्यति यदुक्तं महानिशीथे "सेभयवं सुदुक्करं पंचमंगलमहासुअखंधस्स विणओवहाणं पन्नत्तं एसा निअंतणा कहं वा लेहिकिजई गोयमा! जेणं केणइन इच्छेज्जा एयं नियंतणं अविणओवहाणेण पंच मंगलाइसु अन्नाणमहिज्जई अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अणुन्नपयाइ सेणं न भवेज्जापि अधम्मे न हवेज्जा दढधम्मे न हवेज्जा भत्तिज्जुए हीलिज्जा अत्थं हीलिज्जा सुत्तत्थोभएहीलेजा गुरुजेणं हीलिज्जा सुत्तं जाव हीलिज्जा सुत्तं हीलिज्जा सुत्तत्थोभए हीलिजा गुरु जेणं हीलिज्जा सेणं आसाएज्जा अतीताणागयवट्टमाणे तित्थयरे आसाएज्जा आयरिअंउवज्झायसाहुणो जेणं आसाएजा सुअनाणमरिहंतसिद्धसाहु सेत्तस्स णं अणंतसंसारसागरमार्हिडमाणस्स तासुतासुसंवुडविअडासु (प्र०) चुलसीलक्खपरिसंकढासु सीओसणमिस्स जोणीसुसुइरनिअंतणा इति परं येन प्राग् नमस्कारादिसूत्राण्यधीतानि तेनापि यथायोगं निर्विलम्बमेवपधानानि विधिनाऽवश्यं वहन्ति यानि संप्रति तु द्रव्यक्षेत्रकालाद्यपेक्षया लाभालाभं विभाव्याचरणयोपधानतपो विनाऽपि नमस्कारादिसूत्रपाठादिभणनं कार्यमाणं दृश्यते आचरणायाश्च लक्षणमिदं कल्पभाष्ये उपदेशपदेच यथा “असढे ण समाइन्नं, जं कत्थ य केणई असावजं / न निवारिअमन्नेहि, बहुमणुमयमेअमायरिअं"1१। आचरणा च जिनाज्ञा समानैव यद्भणितं भाष्यादौ "असढाइन्नाणवज्ज, गीअत्थ अचारिअंतिमन्भत्था / आयरणा बिहु आणत्ति, वयणओ सुबहुमन्नति 1 इति ध्येयम् ( प्रश्न०) तथा गुरुसमीपे उपाधनादिक्रियां कुर्वतः श्राद्धादेरन्तरालस्थस्थापनायागुरोश्र्चान्तराले पञ्चेन्द्रियगमने अग्रेभवति नवेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् अग्रेभवतीति (17 प्रश्न०) तथा तृतीयाद्युपधानेषु सप्तक्षमाश्रमणानि दाप्यन्ते तत् कुत्र विधिः पत्रेऽस्तीति प्रश्नः / अत्रोत्तरं तृतीयाद्युपधानेषु तद्विधिदर्शकपत्रादौ सप्तक्षमाश्रमणदानवि Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाण 1080- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय धानं न दृश्यते तथापि श्रीपरमगुरूणामनुशिष्टिरस्ति यतोऽग्रे मालाधापनसमये तेषां समुद्देशानुज्ञयोर्विधीयमानत्वादुद्देशोऽपि कर्तव्य इति तत्सप्तक्षमाश्रमणानि देयानीति (28 प्रश्न०) तथा छक्किकोपधानवहनानन्तरं षण्मासमध्ये मालापरिधापनं शुद्ध्यति किं वा षण्मासानन्तरमिति प्रश्नः अत्रोत्तरं तद्वहनानन्तरं षण्मासमध्य एव मालापरिधापनं शुद्ध्यतीत्येकान्तो ज्ञातो नास्ति परं त्वरितं परिधाप्यते तदा वरमिति (110 प्रश्न०)तथाछक्कियाख्योपधाने उचरितपञ्चमीतपसांषष्ठदिने पञ्चमीसमेतितदा पञ्चभ्युपवासं कृत्वा सप्तमदिन आचाम्लं करोति किं वा षष्ठं करोतीति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् सप्तमदिने उपवासस्यावश्यककरणीयत्वेन षष्ठं करोतिशक्त्यभावे तदनुसारेणैवोपधानप्रवेशं करोति (134 प्रश्न०) तथोपधानोत्तरणदिनस्य प्राक् दिने योगोत्तरणदिनवत्तप एव कृतं विलोक्यते किं वा एकाशनकपारणकेऽप्युत्तरितुं कल्पते न वेति प्रश्नः। अत्रोत्तरमाह एकाशनादिपारणकेऽप्युत्तारयितुं कल्पते न तु योगादिवत्तपोनियम इति (164 प्रश्न०) तथा पण्डितकनकविजयगणिकृतप्रश्नस्तदुत्तरंच यथा वृद्धविध्युपधानवाहकस्य कृतचतुर्विधाहारोपवासस्य संध्याप्रत्याख्यानवेलायां संध्याप्रत्याख्यानं गुरुसमक्षं कर्त्तव्यं न वेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् प्रातः कृतचतुर्विधाहारोपवासस्य संध्यायामुपधानक्रियाकरणवेलायां पश्चात्प्रत्याख्यानं कृतं विलोक्यते उपधानमन्तरातुसंध्यायां तत्स्मरणं विलोक्यते परं पुनः प्रत्याख्यानकरणविशेषो ज्ञातो नास्तीति (376 प्र०) तथाऽष्टपूर्वार्धरेक उपवास इत्यादिगणनया गणितं तपस्तृतीयपञ्चमोपधानमध्य आयाति न वेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धः 1 प्रतिक्रणश्रुतस्कन्धः 2 शक्रस्तवाध्ययन 3 चैत्यस्तवाध्ययनं 4 नामस्तवाध्ययनं 5 श्रुतस्तवसिद्धस्तवाध्ययनं चेति 6 षडुपधानानि तत्र चतुर्थषष्ठे विना चत्वार्युपधानानि मूलविधिनापरविधिना वोह्यमानानि सन्ति तत्रापरविधावष्टभिः पुरिमाधुरेक उपवास इत्यादिगणना भवति तत्तु मूलविधौ प्रयोजनाभावाचतुर्थषष्ठयोर्मूलविधिनैवो ह्यमानत्वात्तद्गणना / ऽप्रयोजनास्तीति (176 प्रश्न०) तथैकादशोत्तराध्ययनचतुर्दशसहस्त्र्यां 131 पत्रे “जोगवं उवहाणवं" इति द्वयमपि शिष्यस्योक्तमस्ति तत्कथं शिष्यस्य श्राद्धस्य च कार्यत इति प्रश्नः। अत्रोत्तरम्योगमनोवचनकायसम्बन्धिन उपधानंतपोविशेष एतद्वयमपि मुनीना मिवोक्तमस्ति श्राद्धनामुपधानोद्वाहनं तु महानिशीथा-क्षरप्रामा ण्यादेवेति (186 प्रश्न०) अथपण्डित काहर्षिगणिकृतप्रश्नास्तदुतराणि चयथा उपधानवाहिश्राद्धश्राद्धीनां कल्पदिनपञ्चकमध्ये उत्तरितुंकल्पते न वेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् महत्कारणं विना उत्तरितुंन कल्पते यदि च तथाविधकारणे उत्तरति तदारम्भवजनं करोतीति (206 प्रश्न०) तथोपधानाऽवाहिनां पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धपाठेऽविनायामनन्तसंसारावाप्तिः फलं तदाश्रित्य किमादिश्यते इति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् उपधानावहनेऽनन्तसंसारिता महानिशीये उक्ता परं तत्सूत्रमुत्सर्गतया श्रितं तेनयोनास्तिकस्सन्नुपपधानंवोढुनिरपेक्षस्तस्य सेति ज्ञेयम् (337 प्रश्न०) तथा अष्टाविंशतिदिनोपधाने पञ्चत्रिंशदिनोपधाने चमूलविधिना वहमाने कति दिनानि भवन्ति तथा तदुपधानद्वयात्कतिदिनेषु न्यूनेषूत्तार्यते इति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् मूलविधिना तवये वहमाने दिनन्यूनाधिक्यं ज्ञात नास्ति तथा तदुपधाने न्यूनदिनेषु महत्कारणे सपूण्ण तपसि जाते उत्तारवन्ता दृश्यन्त परं दिनसंख्या ज्ञाता नास्तीति (४४१प्रश्न०) तथा कोऽप्युपधानचतुष्कमुद्बाह्य मालां परिदधाति तस्य समुद्देशानुज्ञावस्थायामवशिष्टोपधानयो म गृह्यते नवेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् षण्णामप्युपधानानां समुद्देशानुज्ञयोमिगृह्यते द्वयोरुद्देशस्य च पुरतोऽपि भवने न दोष इति वृद्धसंप्रदायः (418 प्रश्न०) तथोपधानतपसि पूर्णे जाते शेषप्रवेदनेषु दिनवृद्धिर्भवति नवेति प्रश्नः। अत्रोत्तरम् उपधानशेषप्रवेदनेषु दिनवृद्धिर्भवति (426 प्रश्न०) तथोपधाने पालीपरावर्तनं शुद्ध्यति न वेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् तथाविधप्रकारेण तत्प्रख्यानं शुद्ध्यति (श्येन०३उल्ला०४२८प्रश्न०) तथोपधानवाचनाऽन्तर्गृहीतुं विस्मृता सा सायं क्रियाकरणानन्तरं गृह्यतेऽथवा द्वितीयदिने यदि द्वितीयदिनेतदास वासरः कस्यां वाचनायां गण्यते इति प्रश्नः / अत्रोत्तरं प्रातरुपधानवाचना लातुं विस्मृता सा संध्यायां क्रियाकरणादर्वाग् गृह्यते तथाऽपि यदि स्मृता तदा द्वितीयेऽहि प्रवेदनादगि गृह्यते स वासरस्त्वग्रेतनवाचनामध्ये गण्यत इति। श्येन० 4 उल्ला० 126 प्रश्न उवहाणपडिमा स्त्री० (उपधानप्रतिमा) उपधानं तपस्तद्विषया प्रतिमा। प्रतिमाभेदे, स्था०२ ठा० तपोविषयेऽभिग्रहे, औ०।उवहाणवं पुं० (उपधानवत्) उपधानं तपस्तद्विद्यते यस्याऽसौ उपधानवान् / तपोनिष्टप्तदेहे, उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानम् / श्रुतविषयोपचारवति, सूत्र०१ श्रु०७ अ० / स्था० / उपधानमङ्गोपागादीनां सिद्धान्तानां पाठनाराधनार्थमाचाम्लोप-वासनिर्विकृत्यादिलक्षणं तपोविशेषः स विद्यते यस्स स उपधानवान् / सिद्धान्ताराधनतपोयुक्ते, “वसे गुरुकुले णिचं, जोगवं उवहाणवं। पियंकारे पियंवाई, स सिक्खं लद्भुमरहई" उत्त०११अ01 सूत्र०॥ उवहाणवीरिय पुं० (उपधानवीर्य्य) उपधानंतपस्तत्यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्युपधानवीर्यः / सूत्र०१ श्रु०११ अ० / तपस्यनिगूहितबलवीर्ये , “धम्मट्ठीउवहाणवीरिए" सूत्र०१ श्रु०२ अ० २उ०। उवहाणसुयन० (उपधानश्रुत) महावीरासेवितस्योपधानस्य तपसः प्रतिपादकं श्रुतं ग्रन्थः उपधानश्रुतम् / अष्टभे नवमे वा आचाराङ्गस्य ब्रह्मचर्याध्ययने, स्था०६ ठा०प्रश्नाआव० स० अथोपधानश्रुतस्य प्रतिपाद्यं महावीरस्वामिकृतं तप उपदर्श्यते। अहासुयं वदिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय संखाए तेसिं हेमंते अहुणा पव्वइए रीइच्छा णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते से पारए आवकहाए एवं खु आणुधम्मियं तस्स ||1|| (अहासुयं वदिस्सामीत्यादि) आर्यः सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने पृष्टत्वात् कथयति यथाश्रुतं यथासूत्रंवा वदिप्यामि तद्यथा असौ श्रमणो भगवान् वीरवर्द्धमानस्वाम्युत्थायोद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालंकारं परित्यज्य पञ्चमुष्टिकं लोचं विधायैकेन देवदूष्येणेन्द्रक्षिप्तेन युक्तः कृतसामायिकप्रतिज्ञः आविर्भूतमनःपर्यायज्ञानाष्टप्रकारकर्मक्षयार्थ तोर्थप्रवर्तनाथ वोत्थाय संख्याय ज्ञात्वा तस्मिन् हेमन्ते मार्गशीर्षदशम्यां प्राचीनगामिन्यां छायायां प्रव्रज्या ग्रहणसमनन्तरमेवरीयतेस्म विजहार। तथा च किल कुण्डग्रामान्मुहूर्ते शेषे दिवसे कूरिग्राममाप। तत्रच Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1051- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय भगवानित आरभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् परीषहोपसर्गान- सयणेहिं विमिस्सेहिं, इथिओ से तत्थ परिण्णाय / भिसहमानो महासत्वतया म्लेच्छानप्युपशमं नयन् द्वादश वर्षाणि सागारियं ण सेवेइ, ति से सयं पवेसिया ज्झाइ // 5 // साधिकानि छद्मस्थो मौनव्रती तपश्चचार / अत्र च सामायिकारोपणसमनन्तरमेव सुरपतिना भगवदुपरि देवदूष्यवस्त्रं चिक्षिपे / तद्भगवताऽपि शय्यन्ते येष्विति शयनानि वसतयः तेषु कृतश्चिन्निमित्तादिति मिश्रेषु निः सङ्गाभिप्रायेणैव धर्मोपकरणमृते न धर्मोऽनुष्ठातुं मुमुक्षुभिरपरैः गृहस्थतीर्थिकैस्तत्र व्यवस्थितः सन् यदि स्त्रीभिः प्रार्थ्यते ततस्ताः शक्यत इति कारणापेक्षया मध्यस्थवृत्तिना तथैवावधारितं न पुनस्तस्य शुभमार्गार्गला इति ज्ञात्वा ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरन् तदुपभोगेच्छाऽस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह "णो चेव इमेण" इत्यादिश्लोकः न सागारिक मैथुनंन सेवते शून्येषु च भावमैथुनंन सेवते इत्येवं स भगवान् चैवाहमनेन वस्त्रेण इन्द्रप्रक्षिप्तेनात्मानं पिधास्यामि स्थगयिष्यामि स्वयमात्मना वैराग्यमार्गायात्मानं प्रवेश्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा तस्मिन् हेमन्ते तद्वा वस्त्रं त्वक्त्राणं करिष्यामि लज्जाप्रच्छादनं वा ध्यायति। तथा। विधास्यामि किम्भूतोऽसाविति दर्शयति / स भगवान् प्रतिज्ञायाः जे केइ इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय सेजाति। परीषहाणां संसारस्य वा पारं गच्छतीति पारगः कियन्तं कालमिति पुट्ठो वि णाभिमासिंसु, गच्छति णाइवत्तती अंजु / / 6 / / दर्शयति / यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः किमर्थं पुनरसौ विभीति ये केचन इमे अगारं गृहं तत्र तिष्ठन्तीत्यगारस्थाः गृहस्थास्तैर्मिचेद्दर्शयतिखुरवधारणेसच भिन्नक्रमः। एतद्वस्त्रावधारणं तस्य भगवतोऽनु श्रीभावमुपगतोऽपि द्रव्यतो भावतश्च तं मिश्रीभावं प्रहाय त्यक्त्वा स पश्चात् धार्मिकमनुधार्मिकमेवेत्यपरैरपि तीर्थकृद्भिः समाचीर्णमित्य भगवान् धर्मध्यानं ध्यायति / तथा कुतश्चिन्निमित्तात् गृहस्थैः पृष्टो वा र्थस्तथा चागमः “सेवेमि ये अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा न वक्ति स्वकार्याय गच्छत्येव न तैरुक्तो मोक्षपथमतिवर्तते ध्यानं वा अरहंता भगवन्तो जे य पव्वइंसुजे पव्वयंति जे य पव्वइस्संति सव्वे ते (अंजुत्ति)। ऋजुः ऋजोः संयमस्यानुष्ठानात्। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति सोवहीधम्मो देसियव्वेत्ति” तथा भगवतः प्रव्रजतो ये दिव्या "पुट्ठो व से अपुट्ठो वा णो अणुण्णाझ्यापावगं" कण्ठ्यम् / किञ्च॥ सुगन्धिपटवासा आसंस्तद्गन्धाकृष्टाश्च भ्रमरादयः समागत्य शरीरमुपतापयन्तीत्येतद्दर्शयितुमाह। णो सुकरमेतमेगेसिं, णाभिमासे अभिवायमाणो। चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म। हतपुटवो तत्थ दंडेहिं, लूसियपुट्यो अप्पपुण्णेहिं // 7 // अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरूसिया णं तत्थ हिंसंसु / / नैतद्रक्ष्यमाणमुक्तं वा एकेषामन्येषां सुकरमेव नान्यैः प्राकृतपुरुषः "चत्तारि इत्यादि" श्लोकः चतुरः साधिकान्मासान्बहवः प्राणिजातयो कर्तुमलम् / किं तत्तेन कृतमिति दर्शयति / अभिवादयता नाभिभाषते भ्रमरादिकाः समागत्यारुह्य च कायं शरीरं विजह्वः काये प्रविचारं चक्रुः। नाप्यनभिवादयङ्ग्यः कुप्यति नापि प्रतिकूलोपसगैरन्यथाभावं याति तथा मांसशोणितार्थतया आरुह्य तत्र काये णमिति वाक्यालंकारे दण्डैहतपूर्वस्तत्रानार्यदेशादौ पर्यटस्तथा लूषितपूर्वो हिंसितपूर्वः जिहिंसुः / इतश्चेतश्च विलुम्पन्ति स्मेत्यर्थः / कियन्मानं कालं तत् केशलुञ्चनादिभिरपुण्यैरनार्थ : पापाचारैरिति / किञ्च / / देवदूष्यं भगवति स्थितमित्येतदर्शयितुमाह। फरसाइं दूतितिक्खाई, अइयव्व मुणी परक्कममाणे / संवच्छरं साहियं मासं, जत्थ रिकासि वत्थगं भगवं। आघायणट्ठगीयाई, दंडजुज्झाइं मुट्ठिजुज्झाई।।८।। अचेले तत्तो चाई, तं वोसञ्ज वत्थमणणारे / 3 / परुषाणि कर्कशानि वा दुष्टानि तानि वा परैर्दुःखेन तितिक्षन्त इति संवत्सर इत्यादिकं रूपकं तदिन्द्रोपहितं वस्त्रं संवत्सरमेकं साधिकञ्च दुस्तितिक्षाणि तान्यतिगत्याविगणय्य मुनिर्भगवान्विदितजगत्स्वभावः मासं (जत्थरिकासित्ति) यत्र त्यक्तवान् भगवास्तत् स्थितकल्प इति पराक्रममाणः सम्यक् तितिक्षते तथा आख्यातानि च तानि नृत्तगीतानि कृत्वा तावदूर्द्ध तद्वस्त्रत्यागात् त्यागी व्युत्सृज्य च तदनगारो च आख्यातनृत्तगीतानि तान्युद्दिश्य न कामुकं विदधाति नापि भगवानचेलोऽभूदिति। तच्च सुवर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं दण्डयुद्धमुष्टियुद्धान्याकर्ण्य विस्मयोत्फुल्ललोचन उद्धर्षितरोमकूपो धिग्जातिना गृहीतमिति। किञ्च। भवति। अदु पोरिसिं तिरियभित्तिं, चक्खुमासज्ज अंतमो ज्झाति। गढिए मिहो कहासु, समयम्मि णायपुत्तो विसोगो। अह चक्खु भीता सहिया, ते हंता हंता बहवे कंदिसु // 4 // अदक्खु एताइसो उरालाई, गच्छति णायपुत्ते असरणाए६ अथानन्तर्ये पुरुषप्रमाणा पौरुषी आत्मपरिमाणा वीथी तां गच्छन् ग्रथितो वा बद्धो मिथोऽन्योन्यं कथासु स्वरैः कथासु समये वा ध्यायतीर्यासमितो गच्छति / तदेव चात्र ध्यानं यदीर्यासमित- कश्चिदवबद्धस्तं स्त्रीद्वयं वा परस्परकथायां गृद्धिमपेक्ष्य तस्मिन्नवसरे स्यागमनमिति भावः / किम्भूतां तां तिर्यग्मित्तिं शकटो द्विपदादौ ज्ञातपुत्रो भगवान् विशोको विगतहर्षश्च तान् मिथः कथावबद्धान्मसंकुटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः / कथं ध्यायति चक्षुरासज्य चक्षुर्दत्त्वा ध्यस्थोऽद्राक्षीत् / एतान्यन्यानि वाऽनुकूलप्रतिकूलानि परीषहोपअन्तर्मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति / तं तथा दीयमानं दृष्टष्टवा सर्गरूपाण्युरालानि दुष्प्रधृष्याणि दुःखान्यस्मरन् गच्छति कदाचिदव्यक्तवयसः कुमारादय उपसर्गयेयुरिति दर्शयति / अथानन्तर्ये संयमानुष्ठाने पराक्रमते ज्ञाताः क्षत्रियास्तेषां पुत्रोऽपत्यं ज्ञातपुत्रः चक्षुः शब्दोऽत्र दर्शनपर्यायो दर्शनादेव भीता दर्शनभीताः सहिता वीरवर्द्धमानस्वामी स भगवान्नेतद्दुः स्मरणाय गच्छति पराक्रमत इति मिलितास्ते बहवो डिम्भादयः पांसुमुष्ट्यादिभिर्हत्वा हत्वा चक्रन्दुः पश्यत सम्बन्धः यदि वा शरणं गृहं नात्र शरणमस्तीत्यशरणः संयमस्तस्मै यूयं नाम्ना मुण्डितस्तथाकाऽयं कुतोऽयं किमितोवाऽयमित्येवं हलवोलं अशरणाय पराक्रमत इति तथा हि किमत्र चित्रं यद्भगवानपरिमितवलचक्रुरिति। किञ्च। पराक्रमः प्रतिज्ञामन्दरमारूढः पराक्रमते स भगवानप्रव्रजितोऽपि Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1052- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय प्रासुकाहारानुवासीत्। श्रूयते च किल पञ्चत्वमुपगते माता-पितरि समाप्तप्रतिज्ञोऽभूत् / ततः प्रविव्रजिषुः ज्ञातिभिरभिहितो यथा हि भगवन्मा कृथाः क्षतिक्षारावसेचनमित्येवमाभिहितेन भगवताऽवधिना व्यज्ञायि यथा मय्यस्मिन्नवसरे प्रवजति सति बहवो नष्ट चित्ता विगतासवश्च स्युरित्यवधार्य तामुवाच कियन्तं कालं पुनरत्र मया स्थातव्यमिति। त ऊचुः संवत्सरदयेनास्माकं शोकापगमो भावीति भट्टारकोऽप्योमित्युवाच / किं कृत्वाऽऽहारादिकं मया स्वेच्छया कार्य नेच्छाविघाताय भवद्भिरुपस्थातव्यं तैरपि यथाकथंचिदार्य ! तिष्ठत्विति तैः सर्व तथैव प्रतिपेदे / ततो भगवांस्तद्वचनमनुवात्मीयञ्च निष्क्रमणावसरमवगम्य संसारासारतां विज्ञाय तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयितुमाह। अवि साहिए दुवे वासे, सीतोदगं अमुचा णिक्खंते। एगत्तगए पिहियचे, से अभिण्णायदंसणे संते // 10 // पुढविंच आउकायंच, तेउकायं च वाउकार्य च। प्रणगाइं वीयहरियाई, तसकायं सव्वसो णचा // 11 // एयाई संति पडिलेहे, चित्तमत्ताईसे अभिण्णाय। परिवज्जियाण विहरित्था, इति संखाय से महावीरे / / 12 / / अपि साधिकेद्वेवर्षे शीतोदकमभुक्त्वा अनभ्यवहृत्यापीत्वेत्यर्थः अपरा अपि पादधावनादिकाः प्रासुकेनैव प्रकृत्या ततो निष्क्रान्तो यथा च प्राणातिपातंपरिहृतवानेवं शेषव्रतान्यपि पालितवानिति तथा एकत्वमिति तत एकत्वभावनाभावितान्तःकरणः पिहिता स्थगिताएं क्रोधज्वाला येन स तथा / यदि वा पिहिता! गुप्ततनुः स भगवांश्छद्मस्थकालेडभिज्ञातदर्शनः सम्यक्त्वभावतया भावितः शान्त इन्द्रियनोइन्द्रियैः स एवंभूतो भगवान् गृहवासेऽपिसावद्यारम्भत्यागी किं पुनः प्रव्रज्यायामिति दर्शयितुमाह "पुढविंच इत्यादिएयाइं इत्यादि श्लोकद्वयस्याप्ययमर्थः / एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमन्त्यभिज्ञाय तदारम्भंपरिवर्त्य विहरति स्म क्रियाकारकसंबन्धस्तत्र पृथ्वीसूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा सूक्ष्मा सर्वगा बादराऽपि श्लक्ष्णकठिनभेदेन द्विधैव। तत्र श्लक्ष्णा शुक्लादिपञ्चवर्णा कठिनातुपृथिवी शर्करावालुकाषट्त्रिंशद्भेदा शस्त्रपरिज्ञानुसारेण द्रष्टव्या / अप्कायोऽपि सूक्ष्मबादरभेदात् द्विधा तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरस्तु शुद्धोदकादिभेदेन पञ्चधा। तेजः कायोऽपि पूर्ववन्नवरं बादरोगारादि पञ्चधा / वायुरपि तथैव नवरं बादर उत्कलिकादिभेदेन पञ्चधा। वनस्पतिरपि सूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा / तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरोऽप्यग्रमूलस्कन्धपर्ववीजसंमूर्च्छनभेदात्सामान्यतः षोढा पुनर्द्विधा प्रत्येकः साधारणश्च / तत्र प्रत्येको वृक्षगुच्छादिभेदात् द्वादशधा साधारणस्त्वनेकविध इति स एवं भेदभिन्नोऽपि वनस्पतिः सूक्ष्मस्य सर्वगतत्वादतीन्द्रियत्वाच तद्व्युदासेन बादरो भेदत्वेन संगृहीतस्तद्यथा पनकग्रहणेन वीजाडरभावरहितस्य पनकादेरुल्यादिविशेषापन्नस्य ग्रहणं वीजग्रहणेन त्वग्रवीजादेरुपादानं हरितशब्देन शेषस्येत्येतानि पृथिव्यादीनि भूतानि सन्ति विद्यन्त इत्येवं प्रत्युपेक्ष्य तथा (चित्तमंति) सचित्तान्यभिज्ञाय इत्येतत्संख्ययाऽवगम्य स भगवान्महावीरस्तदारम्भं परिवयं विहृतवानिति पृथिवीकायादीनां जन्तूनां त्रसस्थावरत्वेन भेदमुपदी सांप्रतमपरस्परतोऽनुगमनमप्यस्तीत्येतदर्शयितुमाह।' अदु थावरा य तसत्ताए, तसजीवा यथावरत्ताए। अदुवा सव्वजोणिया सत्ता, कम्मणा कप्पिया पुढोवाला||१३|| भगव च एवमण्णेसिं, सोवहिए हु लुप्पती वाले। कम्मं च सव्वसो णचा, तं पडियाइक्खपावगं भगवं // 14|| दुविहं समेच मेहावी, किरियमक्खायमणेलिसंणाणी। आयाण सोय मतिवाय, सो यं जोगं च सव्वसो णचा // 15 // अथानन्तर्ये स्थावरा:पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते त्रसतया द्वीन्द्रियादितया विपरिणमन्ते कर्मवशाद्गच्छन्ति चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थस्तथा त्रसजीवाश्च कृम्यादयः स्थावरतया पृथिव्यादित्वेन कर्मनिघ्राः समुत्पद्यन्ते / तथा चान्यत्राप्युक्तम् “अयणं भंते ! जीवे पुढविकाइयत्ताए उव्यवण्णपुव्वे हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो जाव वाणपुव्वेति" अथवा सर्वा योनय उत्पत्तिस्थानानि येषां सत्वानां ते सर्वयोनिकाः सत्वाःसर्वगतिभाजस्तेघवाला रागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनिमुक्तेन च कल्पिता व्यवस्थापिता इति। तथा चोक्तं “णत्थि किर सो पएसो लोए वालग्गको डिमेत्तो वि / जम्मणमरणावाहाणेगसो जत्थ णवि पत्ता" अपिच / रङ्गभूमिर्न सा काचिच्छुद्धा जगति विद्यते। विचित्रैः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सत्वैर्न नाटित" मित्यादि / किच (भगवं च इत्यादि) भगवांश्च वीरवर्द्धमानस्वाम्येवमवगम्य ज्ञातवान् सह उपधिना वर्तत इति सोपधिकः द्रव्यभावोपधियुक्तः हुरवधारणे लुप्यत एव कर्मणः क्लेशमनुभवत्येवाज्ञा बाल इति। यदि वा हुर्हेतौ यस्मात् सोपधिकः कर्मणा लुप्यते वालस्तस्मात्कर्म सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्मप्रत्याख्यातवां स्तदुपादानं च पापकर्मानुष्ठानं भगवान् वर्द्धमानस्वामीति। किञ्च (दुविहं इत्यादि) द्वे द्विधे प्रकारावस्येति द्विविधं किं तत्कर्म तच्चेर्याप्रत्येयं सांपरायिकञ्च तद्विविधमपि समेत्य ज्ञात्वा मेधावी सर्वभावज्ञः क्रियां संयमानुष्ठानरूपा कोच्छेत्री मनीदृशीमनन्यसहशीमाख्यातवान् किम्भूतो ज्ञानी केवलज्ञानवानित्यर्थः / किं वा परमाख्यातवानिति दर्शयति आदीयते कम्मनिनेत्यादानं दुष्प्रणिहितमिन्द्रियमादानञ्च श्रोतश्च आदानश्रोतस्तज्ज्ञात्वा तथाऽतिपातश्रोतश्चोपल क्षणार्थत्वादस्य मृषावाददिकमपि ज्ञात्वा तथा योगञ्च मनोवाक्कायलक्षणं दुष्प्रणिहितं सर्वशः सर्वप्रकारैःकर्मबन्धायेति ज्ञात्वा श्रोतः क्रियासंयमलक्षणामाख्यातवानिति संबन्धः ।किञ्च। अतिवातियं अणाउटिं, सत्तमणेसिं अकरणयाए। जस्सित्थि उपरिण्णाया, सव्वकम्मावहा उसे अदक्खु / 16 / आकुट्टिर्हिसा न आकुट्टिरनाकुट्टिरहिंसेत्यर्थः / किंभूतामतिक्रान्तां पातकादतिपातका निदोषा तामाश्रित्य स्वतोऽन्येषां वा करणतया व्यापारतया प्रवृत्त इति। तथा यस्याः स्त्रियाः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता भवन्ति / सर्वं कविहन्तीति सर्वकर्मावहाः सर्वपापोपादानभूताः स एवाद्राक्षीत्स एव यथाऽवस्थितं संसारस्वभाव ज्ञातवान्। एतदुक्तं भवति / स्त्रीस्वभावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् परमार्थदर्श्यभूदिति / मूलगुणानाख्यायोत्तरगुणप्रचिकट-विषयाह / / अहागणं ण से सेवे, सव्वसो कम्मुणा अदक्खू / यं किंचि पावर्ग भगवं, तं अकुव्वं वियणं भुजित्था / 17 / यथा येन प्रकारेण पृष्ट वाऽपृष्ट वा वा कृतं यथाकृतमाधाकर्मादिनाऽसौ सेवते कि मिति / यतः सर्वैः प्रकारैस्तदासे वनेन कर्मणाऽष्टप्रकारेण बन्धमद्राक्षीत् दृष्टवानन्यदप्येवं जातीयकं न Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1053 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय सेवते इति दर्शयति / यत्किञ्चित्पापकं पापोपादानकारणं तद्भगवानकुर्वन्धिकटं प्रासुकमभुङक्त उपभुक्तवान्। किञ्च णो सेवतीय परवत्थं, परपाए वि से ण भंजित्था। परिवजियाण उमाणं, गच्छति संखडिं असरणाए|१८|| नासेवते च नोपभुडक्तेच परवस्त्रं प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्र परवस्त्रं नासेवते। तथा परपात्रेऽप्यसौनो भुडक्ते तथा परिव्रज्यापमानमवगणय्य गच्छत्यसावाहाराय संखण्ड्यन्ते प्राणिनोऽस्यामिति संखण्डिस्तामाहारपाकस्थानभूतामशरणाय शरणमनालम्बमानोऽदीनमनस्ककल्प इति कृत्वा परीषहविजयार्थे गच्छतीति। किञ्च मायण्णे असणपाणस्स, णाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे। अस्थि पिणोपमजिजा, णो वि कंड्रयए मुणी गायं // 16 // आहारस्य मात्रां जानातीति मात्रझः कस्याश्यत इत्यशनं शाल्योदनादि पीयत इति पानंद्राक्षापानकादितस्य च। तथा नानुगृद्धो रसेषु विकृतिषु भगवतो हि गृहस्थभावेऽपि रसेषु गृद्धिर्नासीत्। किं पुनः प्रव्रजितस्येति / तथा रसेष्वेव ग्रहणं प्रत्यप्रतिज्ञो यथा मयाऽद्य सिंहकेसरामोदका एव ग्राह्या इत्येवंरूपप्रतिजारहितोऽन्यत्र कुल्माषादौ सप्रतिज्ञ एव। तथा अक्षयपि रजःकणकाद्यपनयनाय नो प्रमार्जयेन्नापि च गात्रं मुनिरसौ कण्डूयते काष्ठादिना गात्रस्य कण्डूत्यपनोदं न विधत्त इतिकिञ्च। अप्पं तिरियं पेहाए, अप्पं पिट्ठउ पेहाए। अप्पं वुइए पडिभाणी, पंथपेही चरेजते माणे // 20 // अल्पशब्दोऽभावे वर्तते अल्पं तिर्यक तिरश्चीनं गच्दन प्रेक्षते तथाऽल्पं पृष्ठतः स्थित्वोत्प्रेक्षते तथा मार्गदिः केनचित्पृष्टः सन्नसाधुप्रतिभाषी सन्नल्पं ब्रूते मौनेन गच्छत्येव के वलमिति दर्शयति पथिप्रेक्षी चरेद्गच्छेद्यतमानः प्राणिविषये यत्नवानिति। किञ्च सिसरंसि अद्धपडिवण्णे, तं वोसिरिज वत्थमणगारे। पसारेतु वाहुं परक्कमे, णो अवलंवियाण खंधंसि // 21 // अर्द्धप्रतिपन्ने शिशिरे सति तद्देवदूष्यवस्त्र व्युत्सृज्यानगारो भगवान् प्रसार्य वाहुं पराक्रमते / न तु पुनः शीतादितः सन् संकोचयति नापि स्कन्धो वलं व्यतितिष्ठतीति। सांप्रतमुपसं जिहीर्षुराह / / एस विही अणुक्कते, माहणेण मइमया। बहुसो अपडिण्णणे, भगवता एवं रीयंति त्ति वेमि॥ एष चर्याविधिरनन्तरोक्तोऽन्वाक्रान्तोऽनुचीर्णः(माहणेत्ति) श्रीवर्द्धमानस्वामिना मतिमता विदितवेद्येन बहुशोऽनेकप्रकारमप्रतिज्ञेनानिदानेन भगवता ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन एवमनेन यथा भगवदनुचीर्णेनान्ये मुमुक्षवोऽशेषकर्मक्षयाय साधवो रीयन्ते गच्छन्तीति इत्यधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववदुपधानश्रुताध्ययनस्य प्रथमोद्देशक इति उक्तः प्रथमोद्देशकः। सांप्रतं द्वितीय आरभ्यते। अस्य चायमभिसंबन्ध इहानन्तरोद्देशके भगवतश्चयोऽभिहिता। तत्र चावश्यं कदाचिद्यथाऽवसत्या भाव्यमतस्तत्प्रतिपादनायायमुद्देशकः प्रतन्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्।। चरियासणाइंसेजाओ, एगतियाओज ओम्मइत्ताओ। आइक्खताइंसयणासणाई, जाई सेवित्थ से महावीरे॥ चर्यायामवश्यंभावितया यानि शय्यामनान्यभिहितानि सामर्थ्या-- यातानि शयनासनानि शय्याफलकादीन्याचचक्षे सुधर्मस्वामी जम्बूनाम्नाऽभिहितो यानि सेवितवान्महावीरोवर्द्धमानस्वामी-त्ययञ्च श्लोकश्चिरन्तनटीकाकारेण नव्याख्यातः। तत्र कि सुगमत्यादुताभावात् सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते तदभिप्रायं च वयं न विद्य इति प्रश्नवति प्रतिवचनमाह (आवेसण इत्यादि) भगवतो ह्याहाराभिग्रहवत्प्रतिमाव्यतिरेकेण प्रायशो न शय्याऽभिग्रह आसीत् नवरं यत्रैव चरमपौरुषी भवति तत्रैवानुज्ञाप्य स्थितवान् / तद्दर्शयति।। आवेसणसभापवासु, पणियसालासु एगया वासो। अदुवा पलियट्ठाणेसु, पलालपुंजेसु एगदा वासो // 2 // आ समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशनं शून्यगृहं सभा नाम ग्रामनगरादीनां तदसिलोकाच्छायिकार्थमागन्तुकशयनार्थ च कुड्याद्याकृतिः क्रियते। प्रपा उदकस्थानम् आवेशनंचसभा च प्रपा चेत्यावेशनसमाप्रपास्तासु। तथा पण्यशालासु हट्टेषु एकदा कदाचिद्वासो भगवतोऽथवा (पालियंति) कर्म तस्य स्थानं कर्मस्थानम्। अयस्कारवर्द्धकिकुजादिकम् / तथा पलालपुजेषु मञ्चोपरिव्यवस्थितेष्वधो न पुनस्तेष्वधः सुषिरत्वादेति। किञ्च।। आगंतारे आरा-मागारे णगरे वि एगदा वासो। सुमसाणे सुण्णगारे वा, रुक्खमूले वि एगदा वासो ||3|| प्रसङ्गायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठति तदागन्तारं तत्पुनामानगराहिःस्थानं तत्र यथा आरामे आगारं गृहमारामागारं तत्र वा तथा नगरे वा एकदा वासस्तथा श्मशाने शून्यागारे वा आवेशनशून्यागारयोर्भदः स कुड्याकुड्यकृतो वृक्षमूले वा एकदा वासः किञ्च।। एतेहिं मुणी सयणेहिं, समणे आसि पतेरसवासे। राइंदियं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए ज्झाति // 4 // एतेषु पूर्वोक्तेषु शयनेषु वसतिषु स मुनिर्जगत्त्रयवेत्ता ऋतुबद्ध वर्षासु वा श्रमणस्तपस्युद्युक्ता समना वासीनिश्चलमना इत्यर्थः / कियन्तं कालं यावदिति दर्शयति (पतेरसवासेत्ति) प्रकर्षण त्रयोदश वर्ष यावत्समस्तं रात्रिन्दिवमपि यतमानः संयमानुष्ठान उद्युक्तवांस्तथा अप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितविश्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायतीति। किञ्च। णि पिणो पगामाए, सेवइय भगवं उठाए। जग्गावतिय अप्पाणं, इसिं सातिय अपडिण्णे ||5|| निद्रामप्यसावपरप्रमादरहितो न प्रकामतः सेवते तथा च किल भगवतो द्वादशसुसंवत्सरेषु मध्येऽस्थिकग्रामे व्यन्तरोपसर्गान्ते कायोत्सर्गव्यवस्थितस्यैवान्तर्मुहूर्त यावत् स्वप्नदर्शनाध्यासितः सकृन्निद्राप्रमाद आसीत्ततोऽपि चोत्थायात्मानां जागरयति कुशलानुष्ठाने प्रवर्तयति / यत्रापीषच्छय्यासीत्तत्राप्यप्रतिज्ञः प्रतिज्ञारहितो न तत्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वकं शयीत इत्यर्थः / किञ्च। संवुज्झमाणे पुणरवि, आसंसु भगवं उठाए। णिक्खम्म एगया पराओ, बहिं चंकमित्ता मुहुत्तमं / / 6 / / स मुनिर्निद्राप्रमादाद्युत्थितचित्तः संबुध्यमानः संसारपातायायं प्रमाद इत्येवमवगच्छन् पुनरप्रमत्तो भगवान् संयमोत्थानेनोत्थाय यदि तत्रान्तर्व्यवस्थितस्य कु तश्चिन्निद्राप्रमादः स्यात् तत Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय १०८४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय स्तस्मान्निष्क्रम्यैकदा शीतकालराज्यादौ बहिश्चक्रम्य मुहूर्तभावं निद्राप्रमादापनयनाथ ध्याने स्थितवानिति / किञ्च / सयणेहिं तस्सुवस्सग्गा, भीमा आसी अणेगरूवा। संसप्पगाय जे पाणा, अदुवा पक्खिणो उवचरंति|७|| शय्यते स्थीयते उत्कुटुकाशनादिभिर्येष्विति शयनान्याश्रयस्थानानि तेषु तैर्वा तस्य भगवत उपसर्गा भीमा भयानका आसन्ननेकरूपाश्च शीतोष्णादिरूपतया अनुकूलप्रतिकूलरुपतया वा। तथा संसप्पन्तीति संसर्पकाः शून्यगृहादावहिनकुलादयो ये प्राणिन उपचरन्त्युप सामीप्येन मांसादिकमश्नन्त्यथवा श्मशानादौ पक्षिणोगद्धादय उपचरन्तीति वर्तते। किञ्च। अदुवा कुचरा उवचरंति, गामरक्खाय सात्त हत्था य। अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसो वा // 8 // अथानन्तरं कुत्सितं चरन्तीति कुचराश्चौरपारदारिकादयस्ते च कचिच्छून्यगृहादावुपचरन्त्युपसर्गयन्ति / तथा ग्रामरक्षकादयश्च त्रिकचत्वारादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्तीति / अथ ग्रामैका ग्रामधर्माश्रिता उपसर्गा एकाकिनः स्युस्तथाहि काचित्स्त्री रूपदर्शनाध्युपपन्ना उपसर्गयेत्पुरुषो वेति। किञ्च।। इहलोइयाइं परलोइयाई, भीमाई अणेगरूवाई। अविसुभिदुब्मिगंधाई, सहाई अणेगरूवाइं / / 6 / / अहियासए सयासमिते, फासाई विरूवरूवाई। अरतिं रति अभिभूय, रीयति माहणे अबहुवाई ||10|| इह लोके भवा ऐहिलौकिका मनुष्यकृताः के ते स्पर्शा दुःखविशेषा दिव्यास्तैरश्चाश्च पारलौकिकास्तानुपसर्गापादितान् दुःखविशेषानध्यासयत्यधिसहते। यदिवाइहैव जन्मनिये दुःखयन्ति दण्डप्रहारादयः प्रतिकूलोपसर्गास्त ऐहलौकिकास्त द्विपर्ययाश्च पारलौकिका भीमा भयानका अनेकरूपा नानाप्रकारास्तानेव दर्शयति सुरभिगन्धयः स्रक्चन्दनादयो दुर्गन्धाः कुथितकलेवरादयस्तथा शब्दाश्चानेकरूपा वीणावेणुमृदङ्गादिजनितास्तथा क्रमेलकारटिताद्युत्थापितास्तांश्चाविकृतमना अध्यासयत्यधिसहते। सदा सर्वकालं सम्यगितः समितः पञ्चभिर्युक्तस्तथा स्पर्शान् दुःखविशेषानरतिं संयमे रतिं चोपभोगाभिष्वड्ने अभिभूय तिरस्कृत्य रीयते संयमानुष्ठाने व्रजति (माहणत्ति) पूर्ववत् / तथोभयभाषी एकद्विव्याकरणं क्वचिन्निमित्ते कृतवानिति भावः। किञ्च // सजणेहिं तत्थ पुच्छिंसु, एगचरा वि एगदाराओ। अवाहिते कसाइच्छा, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे // 11 // सभगवानद्धत्रयोदशपक्षाधिकाः समा एकाकी विचरंस्तत्रशून्यगृहादौ व्यवस्थितः सन् जनैलॊकैः पृष्टस्तद्यथा को भगवान् किमत्र स्थितः इत्येवं पृष्टोऽपि तूष्णींभावमभजत। तथा उपपत्त्याद्या अपि एकचरा एकाकिन एकदा कदाचिद्रात्रावह्नि वा पप्रच्छु रव्याकृते च भगवता कषायितास्ततोऽज्ञानावृतद्दष्टयो दण्डमुष्ट्यादिना ताडनतोऽनार्यत्वमाचरन्ति भगवांस्तुसमाधि प्रेक्षमाणो धर्मध्यानोपगतचित्तः सन्सम्यक् तितिक्षते / किं भूतोऽप्रतिज्ञो नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः / कथं ते पप्रच्छुरिति दर्शयितुमाह / / अयमंतरंसि को एत्थं, अहमंसो ति भिक्खु आहटु / अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए सकसाइए ज्झाति ||12| अयमन्तमध्ये कोऽत्र व्यवस्थित एवं सङ्केतागता दुश्चारिणः पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा तत्र नित्यवासिनो दुष्प्रणिहितमानसाः पृच्छन्ति तत्र चैवं पृच्छतामेषां भगवास्तूष्णींभावमेव भजते। क्वचिद्बहुतरदोषापनयनाय जल्पत्यपि कथमिति दर्शयति / अहं भिक्षुरस्मीत्येवमुक्ते यदि तेऽवधीरयन्ति ततस्तिष्ठत्येवाभिप्रेतार्थव्याघातात्कषायिता महान्धाः। सांप्रतेक्षितया एवं ब्रूयुर्यथा तूपर्णस्मात् स्थानान्निर्गच्छ ततो भगवानपीयत्ताऽवग्रह इति कृत्वा निर्गच्छत्येव भगवान् किन्तु सोऽयमुत्तमप्रधानोधर्म आचार इति कुत्वा सकषायितेति तस्मिन् गृहस्थे तूष्णींभावव्यवस्थिते यद्भविष्यतया ध्यायत्येव न ध्यानात् प्रच्यवते / किञ्च जं सिप्पेगे पवेवंति, सिसिरे मारुए पवायंते। तं सिप्पेगे अणागारा, हिमवाए णिवायमेसंति।।१३।। यस्मिन् शिशिरादावप्येके त्वत्राणाभावतया प्रवेपन्ते दन्तवीणादिसमन्विताः कम्पन्ते यदि वा प्रवेदयन्ति शीतजनितं दुःखस्पर्शमनुभवन्ति आर्तध्यानवशगा भवन्तीत्यर्थः / तस्मिश्च शिशिरे हिमकणिनि मारुते च प्रवाति सत्येके न सर्वेऽनगारास्तीर्थिकप्रद्रजिता हिमवाते सति शीतपीडितास्तदपनोदाय पावकं प्रज्वालयन्त्यङ्गारशकटिकामन्वेषयन्ति प्रावरिकं याचन्ते / यदिवाऽनगारा इति पार्श्वनाथप्रव्रजिता गच्छवासिन एव शीतार्दिता निवातमेषयान्ति घंघशालादिवसतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थ यन्ति। किञ्च। संघाडिओ पविसिस्सामो, पहा य समादहमाणा। पिहितावासक्खामो, अतिदुक्खहिमगसंफासा।।१४।। इह संघाटीशब्देन शीतापनोदक्षम कल्पद्वयं त्रयं वा गृह्यते ताः सङ्घाटीः शीतार्दिता वयं प्रवेक्ष्याम एवं शीतार्दिता अनगारा अपि विदधति तीर्थिकप्रव्रजिताः। तथा समिधः काष्ठानीति यावदेताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सोढुं शक्ष्यामस्तथा सङ्घाट्या वाऽभिहिताः स्थगिताः कम्बलाद्यावृतशरीरा इति / किमर्थमेतत्कुर्वन्तीति दर्शयति / यतो अतिदुःखमेतदतिदुःसहमेतदभूत् हिमसंस्पर्शाः शीतस्पर्शवेदनादुःखेन सह्यन्त इति यावत् / तदेवम्भूते शिशिरे यथोक्तानुष्ठानवत्सु वा स्वयूथोत्तरेष्वनगारेषु यद्भगवान् व्यधात्तद्दर्शयितुमाह / / तंसि भगवं अप्पडिण्णे, अधो वियडे अहियासए। दविए णिक्खम्म एग-दारा उ वा एति भगवं समियाए।१५।। तस्मिन्नेवंभूते शिशिरे हिमवाते शीतस्पर्श च सर्वकषे भगवानैश्वर्यादिगुणोपेतस्तं शीतस्पर्शमध्यायत्यधिसहते। किंभूतोऽसावप्रतिज्ञोन विद्यते निवातवसतिप्रार्थनादिका प्रतिज्ञा यस्य स तथा क्वाध्यासयत्यधो विकटे अधः कुड्यादिरहिते छन्नेऽप्युपरितदभावे चेति पुनरपि विशिनष्टि रागद्वेषविरहाद् द्रव्यभूतः कर्मग्रन्थिद्रावणाद्वा द्रवः संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकः स च तथाऽध्यासयत् यथाऽत्यन्त शीतेन वाध्यते तत स्तस्मात्स्थानानि कम्य बहिरेकदा रात्रौ मुहूर्त्तमात्रं स्थित्वा पुनः प्रविश्य सभगवान् समितया समतयावाव्ययस्थितस्तंशीतस्पर्श रासभदृष्टान्तेन सोढुं शक्त इत्यधिसहत इति। एतदेवोद्देशकार्थमुपसजिहीर्षुराह। एस विही अणुक्कतो, माहणेणं मइमया। बहुसो अप्पडिण्णेणं, भगवया एवं रीयंते त्तिवेमि।।१६।। Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1055 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय एस विही इत्याधनन्तरोद्देशकवन्नेयमिति इति अधीमीतिशब्दः एवं तत्थ विहरंता, पुहुपुटवा अहेसि सुणएहिं / पूर्ववदुपधानश्रुतस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः / उक्तो द्वितीयोद्देशकः सांप्रतं संलुंचमाणा सुणएहिं, दुचराणि तत्थ लाहिं / / 6 / / तृतीय आरभ्यते / अस्य चायमभिसंबन्ध इहानन्तरोद्देशके भगवतः यष्ट्यादिकया सामाया श्रमणा विहरन्तः स्पृष्टपूर्वा आरब्धपूर्वाः शय्याः प्रतिपादितास्तासु व्यवस्थितेन ये यथोपसर्गाः परीषहाश्च श्वभिरासलुच्यमाना इतश्चेतश्च भक्ष्यमाणाः श्यभिरासन् सोढास्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यते / इत्यनेन संबन्धेनायातस्या दुर्निवारत्वात्तेषांतत्र तेषुलाढेष्वार्यलोकानां दुःखेन चर्यन्त इति दुश्चारान् स्योद्देशकस्यादिंसूत्रम्। ग्रामादीनिति / तदेवं भूतेष्वपि लाढेषु कथं भगवान् विहृतवानिति तणफासे सीयफासे य, तेउफासे य दंसमसगे य। दर्शयितुमाह। अहियासए समिए, फासाइं विरूवरूवाई।।१।। णिहाय दंडं पणिहिं तं, कायं वोसञ्ज मणगारे। तृणानां कुशादीनांस्पर्शास्तृणस्पर्शास्तथा शीतस्पर्शा उष्णस्पर्शाश्चा- अह गामकंटए भगवं, ते हियासए अभिसमेच्च / / 7 / / तपनादिकाले आसन् / यदि वा गच्छतः किल भगवतस्तेजःकाय प्राणिषु यो दण्डनाइण्डो मनोवाकायादिस्त भगवान्निधाय त्यक्त्वा तथा एवासीत्तथा दंशमशकादयश्च एतांस्तृणस्पर्शान्विरूपान्नानाभूतान् तच्छरीरमप्यनगारो व्युत्सृज्याथ ग्रामकण्टकान्नीचजनरूक्षालापानपि भगवानध्यासयतिसम्यगितः सम्यग्भावंगतः समितिभिः समितो वेति। भगवांस्तां सम्यक्करणतया निर्जरामभिसमेत्य ज्ञात्वाऽऽध्यासयत्यधिकिञ्च। सहते कथमधिसहत इति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह। अह दुचरलाढचारी, वजभूमिं च सुब्भभूमिं च / णाओ संगामसीसे वा, पारए तत्थ से महाविरे। पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाइं चेव पंताई / / 2 / एवं पि तत्थ लाहिं, अलद्धपुव्वो वि एगदा गामे !8/ अथानन्तर्ये दुःखेन चर्यतेऽस्मिन्निति दुश्चरः स चासौ लाढश्च नागो हस्ती यथाऽसौ संग्राममूर्द्धनि परानीकं जित्वा तत्पारगो भवत्येव जनपदविशेषोदुश्चरलाढस्तंचीपर्णवान्विहृतवान्। सच द्विरूपो वजभूमिः भगवानपि महावीरस्तत्र लाढेषुसरीषहानीकं विजित्यपारगोऽभूत्। किञ्च शुभ्रभुमिः श्वभ्रादिरूपमपि विहृतवास्तत्र च प्रान्तां शय्यां वसतिं तत्र लाढेषु विरतत्वात् ग्रामाणां क्वचिदेकदा वासायालब्धपूर्वो ग्रामोऽपि शून्यगृहादिकामनेकोपद्रवोपद्रुतां सेवितवांस्तथा प्रान्तानि वासनानि भगवता। किञ्च। पांशूत्करशर्करालोष्ठाद्युपचितानिकाष्ठानिच दुर्घटितान्यासेवितवानिति। उवसंकमंत अपडिण्णं, गार्मतियं पि अप्पत्तं / किञ्च / पडिणिक्खमित्तु लुसिंसु, एतातो परं पलेहि ति / / 6 / / लादेहिं तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया लूसिसु / उपसंक्रामन्तं भिक्षायै वासाय वा गच्छन्तं किम्भूतमप्रतिज्ञ अह लुक्खदेसिए भत्ते, कुक्करा तत्थ हिंसंसु णिवत्तिंसु / / नियतनिवासादिप्रतिज्ञारहितं ग्राभान्तिकं प्राप्तमप्राप्तमपि तस्मात् लाढा नाम जनपदविशेषास्तेषु च द्विरूपेष्वपि लाढेषु तस्य भगवतो ग्रामात्प्रतिनिर्गत्य तेजना भगवन्तमलूषिषुरेतचोचुरितोऽपि स्थानात्परं बहव उपसर्गाःप्रायशः प्रतिकूला आक्रोशाश्च भक्षणादयश्च आसंस्तानेव दूरतरं स्थानं पर्येहि गच्छेति। किञ्च / दर्शयति जनपदे भवा जानपदा अनार्यचारिणो लोकास्ते भगवन्तं हयपुर्वा तत्थ दंडणं, अहवा मुट्ठिणा अह कुंतादिफलेणं। लूषितवन्तो दन्तभक्षणोल्मुकदण्डप्रहारादिभिर्जिहिंसुः। अथ शब्दोऽपि अह लेलुणा कवालेणं, हंता हंता बहव कंदिसु॥१०॥ शब्दार्थेस चैवं द्रष्टव्यो भक्तमपि तत्र रूक्षदेश्यं रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमिति तत्र ग्रामादेबहिर्व्यवस्थितिः पूर्वे हतो हतपूर्वः / केन दण्डेनाथवा यावत्ते चानार्यतया प्रकृतिक्रोधनाः कापसाद्यभावत्वाच्च तृणप्रावरणाः मुष्टिनाऽथवा कुन्तादिफलेनाथवा लेष्टुना कपालेन घटखप्परादिना हत्या सन्तो भगवति विरूपमाचरन्ति तथा तत्रकुक्कुराः श्वानस्ते जिहिंसुरुपरि हत्वा बहवोऽनाश्चिक्रन्दुःपश्यत यूयं किम्भूतोऽयामित्येवं निपेतुरिति / किञ्च // कलकलञ्चक्रुः / किञ्च। अप्पे जणो णिवारेइ, लूसणए सुणए दंसमाणे। मंसूणि च्छिण्णपुव्वाइं, उट्टेभिया एकदा कायं / छुछु करंति आहंतुं, समणं कुक्करा दसंतु त्ति॥४॥ परीसहाई लुंचिंसु, अहवा पंसुणा उवकरिंसु // 11 // अल्पः स्तोकः स जनो यदि परं सहस्राणामेको यदि वा नास्त्ये- मांसानि च तत्र भगवतश्छिन्नपूर्वाणि एकदा कायमवष्टभ्याक्रम्य वासाविति यस्तान् शुनो लूवकान् दशतो निवारयति निषेधयत्यपि तु नानाप्रकाराः प्रतिकूलपरिषहाश्च भगवन्तमलुञ्चिषुरथवा पांशुना दण्डप्रहारादिभिर्भगवन्तं हत्वा तत्प्रेरणायासीत् छु छु कुर्वन्ति कयं नु अवकीर्णवन्त इति। किञ्च नामैनं श्रमणं कुक्कराःश्वानो दशन्तु भक्षयन्तु तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् उच्चालइ यणिहणिंसु, अहवा असणाउ खलइंसु। षण्मासावधि कालं स्थितवानिति किञ्च। वोसट्ठकाए पणतासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे / / 12 / / एलिक्खए जणे भुजो, बहवे वजभूमि फरुसा। भगवन्तमूर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमौ निहतवन्तः क्षिप्तवन्तोऽथवाऽऽसनात् सीलट्ठिगहाय णालीयं, समणा तत्थ एवं विहरिंसु॥५॥ गोदोहिकोत्कुटुकासनवीरासनादिकात् स्खलितवन्तो निपातितवन्तो ईदृक्षः पूर्वोक्तस्वभावो यत्र जनस्तं तथाभूतं जनपदं भगवान् भूय / भगवास्तु पुनर्युत्सृष्टकायः परीषहोपसर्गकृतं दुःखं सहत इति दुःखसहो पौनःपुन्येन विहृतवांस्तस्याञ्च वज्रभूमौ बहवो जनाः पुरुषाशिनो भगवान् नास्य दुःखविचिकित्सा प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः / कथं रूक्षाशितया च प्रकृतिक्रोधनास्ततो यतिरुपमुपलभ्य कदर्थयन्ति दुःखसहो भगवान् इत्येतदृष्टान्तद्वारणे दर्शयितुमाह। ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि देहप्रमाणां चतुर कुलाधिकप्रमाणां सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावीरे। वा नालिकां गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजकुरिति / किञ्च / / पडिसेवमाणे फरुसाइं, अचले भगवं रीइच्छा॥१३॥ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहाणसुय यथा हि संग्रामशिरसि शूरोऽक्षोभ्यः परैः कुन्तादिभिर्भिद्यमानोऽपि सुव्यत्ययेन सप्तम्यर्थे षष्ठी। ग्रीष्मेप्वातापयति कथमिति वर्मणा संवृताङ्गो न भङ्गमुपयातीत्येवं स भगवान्महावीरस्तत्र तिष्ठत्युत्कुटुकासनोऽभितापं तापाभिमुखमिति। अथानन्तर्ये धमाधार लाढादिजनपदे परीषहानीकतुद्यमानोऽपि प्रति सेवमानश्च परुषान् देहं यापयति स्म रूक्षेणस्नेहरहितेन केन ओदनमन्युकुल्माषेण ओदनञ्च दुःखविशेषान् मेरुरिवाचलो निष्पकम्पो वृत्त्या संभृताङ्गो भगवान्रीयते कोद्रवौदनादि मन्थुवदरचूर्णादिकं कुल्माषाश्च मासविशेषा एवोत्तरापथे स्म ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको मोक्षाध्वनि पराक्रमते स्मेति.। धान्यविशेषभूताः पर्युषितमाषाः या सिद्धमाषा वा ओदनमन्युकुल्माउद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह॥ षमिति समाहारद्वन्द्वः। तेनात्मानं यापयतीति सबन्ध इत्येतदेव एस विही अणुक्कतो, माहणेणं मईमया। कालावधिविशेषणतो दर्शयितुमाह // एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठमासे अज्जावए भगवं / बहुसो अप्पडिण्णेणं, भगवता एव रीयंति त्तिवेमि।।१४|| अपि इत्थं एगया भगवं, अद्धमासं अहवा मासं पि॥५|| "एसविही" इत्यादि पूर्ववत् उपधानश्रुताध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः परिसमाप्त इति उक्तस्तृतीयोद्देशकः / सांप्रतं चतुर्थ आरभ्यते / अस्य एतान्योदनादीन्यनन्तरोक्तानि प्रतिसेवते तानि च समाहारद्वन्द्वेन चायमभिसंबन्धः / इहानन्तरोद्देशके भगवतः परीषहोपसर्गातिसहनं तिरोहितावयवसमुदायप्रधानेन निर्देशात्कस्यचिन्मन्दबुद्धेः स्यादारेका प्रतिपादितं तदिहापि रोगातङ्कपीडां चिकित्साव्युदासेन सम्यगधिसहते यथा त्रीण्यपि समुदितानि प्रतिसेवत इत्यतस्तद्व्युदासाय त्रीणीत्यनया संख्यया निर्देश इति त्रीणि समस्तानिव्यस्तानि वायथालाभं प्रतिसेवित तदुत्पत्तौ च नितरां तपश्चरणायोद्यच्छतीत्येतत्प्रतिपाद्यते तदनेन इति। कियन्तं कालमिति दर्शयत्यष्टौ मासानृतुबद्धसंज्ञकानात्मानमसंबन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्। यापयर्तितवान् भगवानिति तथा पानमप्यर्द्धमासं भगवन्नपीतवानपिच॥ ओमोदरियं वा णं त-अपुढे वि भगवं रोगेहिं। वि साहिए दुवे मासे, छ प्पि मासे अदुवा विहरित्था। पुट्ठो विसे अपुट्ठो वा से, णो सेसाइजति ते इत्थं // 1 // राउवरायं अपडिण्णे, अण्णे गिलायंते गया भुंजे॥६।। अपि शीतोष्णदंशमशकाक्रोशताडनाद्याःशक्याः परीषहाः सोढुं न मासद्वयमपि साधिकमथवा षडपि मासान् साधिकान् भगवान् पुनरवमोदरता भगवांस्तु पुना रोगैरस्पृष्टोऽपि वातादिक्षोभभावे-- पानकमपीत्वाऽपि रात्रोपरात्रमित्यहर्निशं विहृतवान्। किं भूतोऽप्रतिज्ञः ऽप्यवमौदर्य न्यूनोदरतां शक्नोति कर्तु लोको हि रोगैरभिद्रुतः संस्त-- पानाभ्युपगमरहित इत्यर्थस्तथा (अण्णेगिलायंति) पर्युषितं तदेकदा दुपशमनायावमोदरतां विधत्ते / भगवांस्तु तदभावेऽपि विधत्त भुक्तावानिति। किञ्च। इत्यपिशब्दार्थः / अथवा स्पृष्टोऽपि कासश्वासादिभिर्द्रव्यरोगैरपिशब्दात् अहवा अट्ठमेणं दसमेणं, छटेणमेगया मुंजे। स्पृष्टोऽप्यसवेदनीयादिभिर्द्रव्यरागैन्यूनोदरतां करोति / अथ किं दुवालसमेण एगया मुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे / / 7 / / द्रव्यरोगातङ्का भगवतोन प्रादुष्यन्तियेन भावरोगैः स्पृष्ट इत्युक्तं तदुच्यते भगवतो हिन प्राकृतस्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्त्यागन्तुकास्तु षष्ठेनैकदा भुक्त तथा नामैकस्मिन्नहन्येकभक्तं विधाय पुनर्दिन द्वयमभुक्त्वा चतुर्थेऽहन्येकभक्तमपि विधत्ते ततश्चाद्यन्तयोरेकशस्त्रप्रहारजा भवेयुरित्येतदेव दर्शयति / स च भगवान् स्पृष्टो वा भक्तदिनयोक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्च भक्तचतुष्टयमित्येवं षण्णां भक्तानां स्वभक्षणादिभिरस्पृष्टो वा कासादिभिर्नासौ चिकित्सामभिलषति न परित्यागात् षष्ठ भवत्येवं दिनादिवृद्ध्याऽष्टमाद्यायोज्यमिति अथवा द्रव्यौषधाधुपयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीत्येतदेव दर्शयितुमाह। अष्टमेन दशमेनाथवा द्वादशमेनैकदा कदाचिद् भुक्तवान् समाधि संमोहणं च वमणं च, गायन्भंगणं च सिणाणं च / शरीरसमाधानं प्रेक्षमाणः पर्यालोचयन् पुनर्भगवतः कथञ्चिदौर्मनस्यमुसंवाहणं च ण से कप्पइ, दंतपक्खालणं परिण्णाय।।२।। त्पद्यते। तथा अप्रतिज्ञोऽनिदान इति। किञ्च गात्रस्य सम्यक् शोधनं विरेचनं निःश्रोतादिभिस्तथा वमनं मदनफला- णचा से महावीरे, णावि य पावगं सयमकासी। दिभिश्चशब्द उत्तरपदसमुच्चयार्थी गात्राभ्यङ्गनञ्च सहस्रपाकतैलादिभिः अण्णेहिं विण कारित्था, कीरंतं पि णाणुजाणित्था / / 8 / / स्नानञ्चोद्वर्तनादिभिः संवाधनञ्च हस्तपादादिभिस्तस्य भगवतो न ज्ञात्वा हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णु पि च पापकर्मा कल्पते / तथा सर्वमेव शरीरमशुद्ध्यात्मकमित्येवं परिज्ञाय ज्ञात्वा / स्वयमकार्षीन्न चान्यैरकुर्वन्न च क्रियमाणमपरैरनुज्ञातवानिति। किञ्च। दन्तकाष्ठादिभिर्दन्तप्रक्षालनञ्च न कल्पत इति। किञ्च / गामं पविस्स णगरं वा, घासमेसे कडं परट्ठाए। विरए य गामधम्मेहि, रीयमाणे अबहुवाई। सुविसुद्धमेसिया भगवं, आयतजोगताए सेवित्था सिसिरंसि एगदा भगवं, छायाए ज्झाति आसीय // 3 / / ग्राम नगरं वा प्रविश्य भगवान् ग्रासमन्वेषयेत्परार्थ यत् कृतमित्युविरतो निवृत्तः केभ्यो ग्रामधर्मेभ्यो यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दादिभ्यो दमदोषरहितं तथा सुविशुद्धमुत्पादनादोषरहितं तथैषणा दोषपरिविषयेभ्यो रीयते संयमानुष्ठाने पराक्रमते (माहणेत्ति) भगवान् हारेणैषित्वाऽन्वेष्य भगवानायतः संयतो योगो मनोवाकायलक्षण किम्भूतोऽसावबहुवादी सकृद् व्याकरणभावात् बहुशब्दोपादानमन्यथा आयतश्चासौ योगश्चायतयोगो ज्ञानचतुष्टयेन सम्यग्योगप्रणिधा-- ह्यवादीत्येवं बूयात्तथैकदा शिशिरसमये स भगवांश्छायायां नमायतयोगस्य भाव आयतयोगता तया सम्यगाहारं शुद्धं ग्रासैषणा धर्मशुक्लध्यानध्याय्यासीच्चति। किञ्च दोषपरिहारेण सेवितवानिति। आयावइय गिम्हाणं, अत्थत्ति उकडए अमितावे। अदुवा य सा दिगंछित्ता, जे अण्णे रसेसिणो सत्ता। अह जाव इत्थ लूहेणं, ओयणमंथुकुम्मासेणं // 4 // घासेसणाए चिटुंति, सयणं णिवत्तिते य पेहाए।॥१०॥ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहाणसुय 1087 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि अथ भिक्षांपर्यटतो भगवतः पथि वायसाः काका (दिगिंच्छित्ति) वुभुक्षा तया आ ये चान्ये रसैषिणः पानार्थिनः कपोतपारावतादयः सत्वाः / तथा ग्रासैषणार्थमन्वेषणार्थञ्च येतिष्ठन्ति तान् सततमनवरतं निपतितान् भूमी प्रेक्ष्य दृष्ट्वा तेषां वृत्तिव्यवच्छेदं वर्जयन्मन्दमाहारार्थी पराक्रमते। किञ्च // अदु माहणं च समणं वा, गामपिंडोलगं च अतिहिं वा। सोवागमूसियारिं वा, कुक्करं वा चिट्ठियं वा पुरओ।।११।। वित्तिच्छेदं वजंतो, तेसप्पत्तियं परिहारंतो। मंदंपरिक्कमे भगवं, अहिंसमाणो घासमेसित्था / / 12 / / अथ ब्राह्मणं लाभार्थमुपस्थितं दृष्ट्वा तथा श्रमणं शाक्याजीवकपरिवाट्तापसनिर्गन्थानामन्यतमंग्रामपिण्डोलक इति भिक्षयोदरभरणार्थं ग्राममासृतस्तुन्दपरिमृजो द्रमक इति तथाऽतिथिं वा आगन्तुकं तथा श्वपाकं चाण्डालं मार वा कुक्करं वाऽपि श्वानं विविधं स्थित पुरतोऽग्रतः समुपलभ्य तेषां वृत्तिच्छेदं वर्जयन्मनसो दुष्प्रणिधानञ्च वर्जयन्मन्दमनास्तेषां त्रासमकुर्वन् भगवान् पराक्रमते / तथाऽपरांश्च कुन्थुकादीन् जन्तून् अहिंसन् ग्रासमन्वेषितवानिति। किञ्च / आविसुइयं च सुक्कं वा, सीयपिंड पुराणकुम्मासं! अदु बकसं पुलागं वा, लद्धेपिंडे अलद्धए दविए।॥१३॥ "सूइयंति” दध्यादिना भक्तामार्दी कृतमपि तथाभूतं शुष्कं वा वल्लचनकादि शीतपिण्डं वा पर्युषितभक्तं तथा पुराणं कुल्माष वा बहुदिवससिद्धस्थितकुल्माष (वक्कसंति) चिरन्तनधान्यौदनं यदि वा पुरातनं सत् कुपिण्ड बहुदिवससम्भृतगोरसगोधूममण्डकञ्चेति तथा पुलाकं जवनिष्पादितं तदेवंभूतं पिण्डमवाप्य रागद्वेषविरहाद्दविको भगवांस्तथाऽन्यस्मिन्नपि पिण्डे लब्धे अलब्धे या द्रविकएव भगवानिति / तथा हि लब्धे पर्याप्त शोभने वा नोत्कर्ष याति नाप्यलब्धे अपर्याप्त अशोभने वात्मानमाहारं दातारं वा जुगुप्सति। किञ्च // अवि ज्झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुकुए ज्झाणं। उड्ढ अहे तिरियं च, लोए ज्झायती समाहिमपडिण्णे // 14 // तस्मिंस्तथाभूत आहारे लब्ध उपभुक्ते अलब्धे वाऽपि ध्यायति स महावीरो दुष्प्रणिधानादिना नापध्यानं विधत्ते किमवस्थो ध्यायतीति दर्शयत्यासनस्थ उत्कुटुकागोदोहिकावीरासनाद्यवस्थोऽकौत्कुच ईषन्मुखविकारादिरहितो ध्यानं धर्मशुक्लयोरन्यतरदारोहति किं पुनस्तत्र ध्येयं ध्यायतीति दर्शयितुमाह। ऊर्द्धमधस्तिर्यक् लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका भावा व्यवस्थितास्तान् द्रव्यपर्यायनित्यानित्यादिरूपतयाध्यायति। तथा समाधिमन्तःकरणशुद्धिञ्च प्रेक्षमाणोऽप्रतिज्ञो ध्यायतीति। किञ्च॥ अकसाई विगतगेहिय, सद्दरूवेसु अमुच्छिए ज्झाए। छउमत्थो वि परक्कम-माणो ण पमायं सयं पि कुव्वित्था।।१५।। न कषायी तदुदयापादितभूकुट्यादिकार्याभावात् / तथा विगता गृद्धिद्धर्य यस्यासौ विगतगृद्धिः तथा शब्दरूपादिष्विन्द्रियार्थे - ध्वमूर्छितो ध्यायति मनोऽनुकूलेषु न रागभुपयाति नापीतरेषु द्वेषवशगोऽभूदिति। तथा छद्मनि ज्ञानदर्शनावरणमोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छद्मस्थ इत्येवं भूतोऽपि विविधमनेकप्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमादं कषायादिकं सकृदपि कृतवानिति / किञ्च। सयमेव अभिसमागम्म, आययजोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइल्ले, आवकहं भगवं समितासी।।१६।। . स्वयमेवात्मना तत्वमभिसमागत्य विदितसंसारस्वभावः स्वयं बुद्धः सन् तीर्थप्रवर्तनायोद्यतवांस्तथा चोक्तम् / आदित्यादिर्विबुधगण इम विस्मरन्त्यां त्रिलाक्या मास्कन्दन्तं पदमनुपयं यच्छिवंत्वामुवाच / तीर्थनाथालघुभवच्छेदि तूर्ण विधत्स्वे त्येतद्वाक्यं त्वदवगतये नाकिमुस्यान्नियोग इत्यादि कथं तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयत्यात्मसुद्ध्या कर्मक्षयोपशमक्षयलक्षणया आयतयोगं सुप्रणिहितमनोवाक्कायात्मकं विधाय विषयकषायाद्युपशमादिभिनिर्वृतः शीतीभूतः तथा इमायावी मायारहित उपलक्षणार्थत्वादस्याऽक्रोधाद्यपि द्रष्टव्यं यावत्कथमिति यावज्जीवं भगवान् पञ्चभिः समितिभिः समितस्तथा तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तश्चासीदिति / श्रुतस्कन्धाध्ययनोद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराह। एसविहीं अणुक्कते, माहणेणं मईमया। बहुसो अपडिण्णेणं, भगवया एवं रीयंते ति बेमि॥ ओहाणं सुयं सम्मत्तं // एषोऽनन्तरोक्तः शस्त्रपरिज्ञादेरारभ्य योऽभिहितः सोऽनुक्रान्तोऽनुष्ठित आसेवनापरिज्ञया सेवितः केन श्रीवर्द्धमानस्वामिना मतिमता ज्ञानचतुष्टयान्वितेन बहुशोऽनेकशोऽप्रतिज्ञेनानिदानेन भगवतैश्वर्यादिगुणोपेतेनातोऽपरोऽपि मुमुक्षुरनेनैव भगवदाचीर्णन मोक्षप्रगुणेन यथा आत्महितमाचरन् रीयते पराक्रमते इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने कथयति साऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्दादर्थजातं निर्यातमवधारितमिति उक्तोऽनुगमः / आचा०१श्रु०६अ। उवहाणाइयार पुं० (उपधानातिचार) आचाराम्लादितपसा योगविधानरूपस्योपधानस्याऽकरणे, जीत०॥ उवहारपुं० (उपहार) उप-ह-घञ्-उपढौकने, उपायने, कर्म-णिघञ् / उपढौकनीये, उपायनद्रव्ये, उपगतः हारम् अत्या०स० हारसमीपस्थेतदुपशोभके द्रव्ये, वाच०। उप-ह-भावे-घञ्। विस्तारणे, "पहासमुदओ वहारेहिं सव्वओ नेया दीवयंत" कल्प०। (मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञयोपहारसंपादनं महुणशब्दे) उवहारणयास्त्री० (उपधारणता) अविच्युतिस्मृ-तिवासनाविषयीकरणे,“सुयाणं धम्माणं उवहारणयाए अब्भुट्ठयव्यं भवइ" स्था०६ ठा०॥ उवहारिय त्रि० (उपधारित) अवधारिते, सूत्र०२ श्रु०। उवहासपुं० (उपहास) उप-हस्-भावे घञ्। निन्दासूचके हासे, "अरे मए समं मा कारेसु उवहासं" पा०। उवहि पुं० (उपधि) उपधीयते संगृह्यते इत्युपधिः। द्रव्यतो हिरण्यादी, भावतो मायायाम् आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। सूत्र। उपधीयते ढोक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनासावुपधिः मायायाम, अष्टप्रकारे वा कर्मणि, सूत्र 01 श्रु०२ अ०। प्रश्न० स० छले, अमर० / उप-धा-भावे-किअन्यस्थास्थितस्य वस्तुनोऽन्यथाप्रकाशरूपे, व्यापारे आधारे-किश्थचक्रे, हेम० / उपधीयते येनाऽसावुपधिः / कञ्चनीयसमीपगनहेती भावे, भ०१२श०५ उ०। उपधिच्छामायेत्यनन्तरम् / द०१ अ०। उपधीयते जीवतो दुर्गतौ स्थाप्यते ऽनेनायत्नव्यापारितेनत्युपधिः / आतुका उप सामीप्येन संयमं दधाति पोषयति चेत्युपधिः / ध०३१० Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1088 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि उपदधातीत्युपधिः / वस्त्रपात्राद्यनेकविधे परिग्रहे, द० १अ० प्रश्न स्था०। कल्पादौ,ध०३अ०स०ा प्रज्ञा०। स्था०। (1) उपधेर्भेदाः। (2) भेदेन सविस्तरतः प्रतिपादनम्। (3) द्वारसंग्रहः। (4) जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां चोपधिः / (5) जिनकल्पिकानां (स्थविरकल्पिकानां) गच्छवासिनां चोपधेरु त्कृष्टविभागप्रमाणम्। (6) आर्यिकाणामुपधिप्रमाणम् / (7) औपग्रहिकोपधेरुत्कृष्टादिभेदाः। (8) औपग्रहिकोपधयः। (6) उपधिन्यूनाधिक्ये प्रायश्चित्तम्। (10) प्रथमसमवसरणे उपधिग्रहणम्। (11) प्रथमं प्रव्रजत उपधिः। (12) प्रव्रज्यां गृह्णन्त्या निन्थ्या उपधिः / (13) रात्रौ विकाले वोपधिग्रहणम्। (14) भिक्षणाय गतस्य भिक्षोरुपनिमन्त्रणा। (15) भिक्षार्थं गतस्योपकरणपतने विधिः। (16) स्थविराणां ग्रहणयोग्या उपधयः। (17) निर्ग्रन्थीभ्य उपकरणदाने निन्थीनामागमनपथे उपकरणानि स्थापयितव्यानि। (18) पात्रवन्धादिप्रमाणं, उपधिविषयोऽवग्रहः, तीर्थकृतां सोपधित्वं, पादप्रोच्छनं यान्त्रित्वा प्रत्यर्पणम्, उपधीनां धावनं, परिष्ठापनं, प्रत्युपेक्षणंच, प्रलम्बग्रहणेक उपधिग्राह्य इत्यादिस्वस्वस्थाने। (16) उपकरणप्रयोजनं विहारशब्दे ऋतुबद्धे वस्त्रग्रहणं व स्त्रयाचन विधिश्च वत्थशब्दे भिक्षाचर्यायां क उपधि नेंतव्य इत्येषणा विहारादिशब्देषु उपधेरवश्यकरणीयत्वं वोटियशब्दे मध्यमतीर्थकृतां महामूल्यानि वास आदीनीत्यचेलशब्दे धर्मोपकरणे परिग्रहदोषो नेति परिग्गहशब्दे विलोकनीयम्) (1) त्रिविध उपधिः। तिविहा उवही पण्णत्ता? तंजहा कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंडनत्तोवही। एवं असुरकुमाराणं भाणियव्वं / एवं एगिदिय नेर-- इयवज्ज जाव वेमाणियाणं॥ कर्म एवोपधिः कर्मोपधिः एवं शरीरोपधिः। बाह्यं शरीरबहिर्वर्ती भाण्डानि च भाजनानि मृण्मयानि मात्राणि मात्रायुक्तानि कांस्यादिभाजनानि भोजनोपकरणमित्यर्थः / भाण्डमात्राणि तान्येवोपधिर्भाण्डमात्रोपधिरथवा भाण्ड वस्त्राभरणादि तदेव मात्रा परिच्छेदः सैवोपधिरिति ततो बाह्यशब्दस्य कर्मधारय इति चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायामसुरादीनां त्रयोऽपि वाच्याः / नारकै केन्द्रियवर्जास्तेषामुपकरणस्याभावात् द्वीन्द्रियादीनान्तूपकरणं दृश्यते / एवं केषाञ्चिदिति / अत एवाह / एवमित्यादि। अहवा तिविहा उवही पण्णत्ता ? तंजहा सचित्ते अचित्ते मीसए। एवं नेरइयाणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं / / (अहवेत्यादि) सचित्तोपधिर्यथा शैलभाजनमचित्तोपधिर्वस्त्रादिः मिश्रः परिणतप्रायं शैलभाजनमिवेति / दण्डकचिन्ता सुगमा / नवरं सचित्तोपधि रकाणां शरीरमचेतन उत्पत्तिस्था नम्मिश्रः शरीरमेवोच्छ्वासादिपुद्गलयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति / एवमेव शेषाणामप्यूह्यमिति / स्था०३ठा०नि० चू०॥ तत्वभेदपर्यायव्याख्येति पर्यायान् प्रतिपादयन्नाह / “उवही उवग्गहे संगहे य तह य वगहे चेव। भंडग उवगरणे विय, करणे विय हुंति एगहा" सर्वेषां व्याख्यात्रैवोपरि (ओधनियुक्ती) द्रष्टव्या।। (2) इदानीं भेदतः प्रतिपादयन्नाह / / ओहे उवग्गहम्मि य, दुविहो उवही उ होइ नायव्वो। एक्कको विय दुविहो, गणणापमाणओ चेव / / उपधिर्द्विविधः ओघोपधि उपग्रहोपधिश्चेति। एवं द्विविधा विज्ञेयः इदानीं स एवैकैको द्विविधः कथं गणनाप्रमाणेन प्रमाणतश्च तत एतदुक्तंभवति ओधोपधेः गणनाप्रमाणेन तथा प्रमाणप्रमाणेन च द्वैविध्यम् / अवग्रहोपधेरपि ग्रहणाप्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन भवेद् द्वैविध्यम् / तत्र ओघोपधिर्नित्यमेव यो गृह्यते अवग्रहोपधिस्तुकारणे आपन्ने संयमार्थयोगृह्यतेसोऽवग्रहोपधिरिति। ओघोपधिगणनाप्रमाणमेकद्व्यादिभेदं वक्तव्यं प्रमाणप्रमाणं च वक्तव्यं दीर्घपृथुतया / तथा अवग्रहोपधेरपि एकट्यादिप्रमाणं प्रमाणप्रमाणं च दीर्घप्रयुत्वद्वारेण वक्तव्यमिति (ओ०) (ओहोवधेत्ति) ओहः संक्षेपः स्तोकः लिङ्गकारकोऽवश्यं ग्राह्यः / "उवग्गहोवहीं" उत्पत्तिकं कारणमपेक्ष्य संयमोपकरण इति गृह्यते एस संखेवतो दुविधो वही। उवग्गहिओ तिविधो जहण्णो मज्झिमो उक्कोसो उवहीगणप्पमाणेण पमाणपमाणेण य जुत्तो भवति इमं गणणप्पमाणं। वारस चोद्दस पणवीस, उय ओघोवधी मुणेयव्यो। जिणकप्पो थेराण य, अद्धाणं चेव कप्पम्मि / वारसविहो चोद्दसविधो पणवीसविहो ओहोवही एएअंगणप्पमाणं यथासंख्यं जिणाण थेराण अजाण या कल्पशब्दोऽपि प्रत्येक योज्यः। ओघोवधी जिणाणं,थेराणोहे उवग्गहो चेव। ओहोवधिमज्जाणं, उवग्गहिओ अण्णा तय्वो।। जिणाणं एगविहो ओहोवधी भवति थेराण अजाण य ओहिओ उवग्गहिओय दुविधो भवति। नि०चू०२उ० प्र० जीता (3) द्वारसंग्रहःअथ प्रमाणादिस्वरूपनिरूपणाय द्वारगाथामाह दवप्पमाणअइरे-गहणे परिकम्मविभूसणामुच्छाए। उवहिस्स पमाणाजिणं, थेरं अहक्कम वोच्छं। इह द्रव्यं वस्त्रं तस्य प्रमाणं गणनया प्रमाणेन च द्विविधं वक्तव्यम् अतिरिक्तहीने वा वस्त्रे दोषा अभिधातव्याः परिकर्मणं सीवनभित्येकोऽर्थः तन्निरूपयितव्यम्। (विभूसणयत्ति) विभूषणार्थ यदि वस्त्र क्षालयति वा रजति वा घर्षति वा संप्रमार्टि वा तदा प्रायश्चितं भवतीति कर्तव्यम् / मूर्च्छया यदि वस्त्रं न परिभुङ्क्ते तदाऽपि प्रायश्चित्तं वक्तव्यम् / तत्र प्रथमद्वारे तावदुपधेः प्रमाणं जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकानाङ्गीकृत्य यथाक्रममहं वक्ष्ये / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुं जिनकल्पिकानामुपधिगणनां प्रमाणतो निरूपयति। बृ०३ उ०। (4) जिनकल्पिकानामुपधिमाह / जिणकप्पिया उदुविधा, पाणीपाता पडिग्गहधराय। पाउरणमपा उरणा, एक्केक्का ते भवे दुविधा / / जिणकप्पिया दुविधा भवन्ति पाणिपात्रभोजिनः प्रतिग्रहणा Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1059 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि रिणश्च / एकेका दुविधा दट्ठव्वा सपाउरणा इयरे य जिणकप्पे उवही विभागो इमो॥ दुगतिगचतूछक्कं,पणगं णवदसएगदसगं। एते अट्ट विकप्पा, जिणकप्पे हों ति उवहिस्स। पाणिपडिग्गहियस्स पाउरणवज्जियस्स जहण्णोवही दुविधो रयहरणं मुहपोत्तियायातस्सयसपाउरणस्सएपकप्पाहणे दसविधोदुकप्पाहणे एकारसविधो तिकप्पग्गहणे पंचविहो पडिग्गहधारिस्स अपाउरणस्स मुहपोत्तियरओहरणपादणिजागसहितो णवविहो जहण्णओ तस्स कप्परगहणे दसविधो दुकप्पग्गहणे एक्कारसविधो तिकप्पग्नहणे वारसविधो य छटुं कंठं॥ अहवा दुगं च णंवगं, उवकरणे हों ति दोण्णि तु विकप्पा / पाउरणवजिताणं, विसुद्धजिणकप्पियाणं तु॥ जे पाउरणवज्जिया ते विसुद्धजिणकप्पिया भवंतितेंसि दुविध एव भवति दुविधो णवविधो वा / नि०चू०२उ०। पं०भा०। अथा विशुद्धजिनकल्पिकानामाह / पत्तं पत्ताबंधो, पायठवणं च पायकेसरिया। पडलाइरइत्ताणं,गोच्छओ पायनिजोगे। तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ति। एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु॥ पात्रं प्रतिग्रहपात्रं बन्धो येन वस्त्रखण्डेन चतुरश्रेण पात्रकं धार्थते पात्रस्थापनं कम्बलमयं तत्र पात्रकं स्थाप्यते पात्रकेसरिका यत्रान्नं प्रतिपेक्षन्ति / पटलकानि यानि भिक्षां पर्यटद्भिः पात्रोपरि स्थाप्यन्ते रजस्त्राणं पात्रवेष्टनकं गोच्छकः कम्बलमयो यः पात्रकोपरि दीयते। एष सप्तविधः पात्रनिर्यो गः पात्रपरिकरत्व उपकरणकलाप इत्यर्थ। तथा त्रय एवनचतुःपञ्चप्रभृतयःकएतेइत्याह। प्रच्छादकाः प्रावरणरूपाः कल्पाः / द्वौ सौत्रिकावेकश्चोर्णामय इत्यर्थः / रजोहरणं प्रतीतम्।चः समुचये। एव शब्दः पादपूरणे / मुखसंपोत्तिका प्रसिद्धा / एष द्वादशविध उपधिर्जिनकल्पिकानां मन्तव्यः / तुशब्दो विशेषणे स चैतद्विशिनाष्टे जिनकल्पिका द्विविधाः। पाणिपात्राः प्रतिग्रहधारिणश्च पुनरेकैके द्विधा अप्रावरणाः सप्रावरणश्च / तत्राप्रावरणानां पाणिपात्राणि रजोहरणमुखवस्त्रिकारूपो द्विविध उपधिः / सप्रावरणानां तु त्रिविधो वा चतुर्विधो वा पञ्चविधो वा / तत्र त्रिविधा रजोहरणं मुखवस्त्रिका एकः कल्पः सौत्रिकः चतुर्विधः स एवौर्णिकः कल्पसहितः पञ्चविधः चतुर्विधः / द्वितीयः सौत्रिककल्पसहितः प्रतिग्रहधारिणां प्रावरणवर्जितानां नवविध उपधिः / तद्यथा पात्रं 1 पात्रकबन्धः 2 पात्रस्थापनं 3 पात्रकेसरिका 4 पटलकानि 5 रजस्वाणं 6 गोच्छकः ७रजोहरणं 8 मुखवस्त्रिका 6 चेति। ये तु प्रावरणसहितास्तेषामत्रैव नवविधे एककल्पप्रक्षेपे दशविधः / कल्पद्वयप्रक्षेपे एकादशभेदाः कल्पत्रयप्रक्षेपेतुद्वादशविधस्तदेवमुत्कर्षतो जिनकल्पिकानां द्वादशविध उपधिः संभवति / एष तुशब्दसूचितो विशेषणार्थः / एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणमितिन्यायात् अन्येऽपि ये गच्छनिर्गतास्तेषां यथायोगमिदमेवोपकरणप्रमाणमवसातव्यम्। अथ स्थविरकल्पिकानङ्गीकृत्याह। एए चेव दुवालस-मत्तग अइरेगचोलपट्टोय। एसो उचउसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि।। एत एव अनन्तरोक्ता द्वादशोपधिंभेदाः / अपरं चातिरिक्तं मात्रकं | चोलपट्टकश्च एष चतुर्दशविध उपधिः स्थविरकल्पे भवति। अनन्तरोक्तमेवार्थमुपसंहरन्नाह। जिणा वारसरुवाई,थेरा चउदसरूविणो। ओहेण उवहिमिच्छंति, अओ उर्छ उवम्गहो। जिना जिनकल्पिकाश्चोपकरणानां द्वादश रूपाणि धारयन्तीति शेषः / स्थविरास्तु चतुर्दशरूपिणः उपकरणचतुर्दशधारिण इत्यर्थः एवमोघेन सामान्येनोपधिमिच्छन्ति तीर्थकराः ओघोपधिमित्यर्थः अत ऊ र्द्धमतिरिक्तो दण्डकचिलिकादिस्थविरकल्पिकानां सर्वोऽप्युपग्रहोपधिमन्तव्यः। (5) अथ जिनकल्पिकानामुपधेरुत्कृष्टादिविभाग प्रमाणयन्नाह / चत्तारि उक्कोसामज्झिम-जहन्नगा वि चत्तारि। कप्पाणं तु पमाणं, संडासो दो कुरंटओ॥ जिनकल्पिकानां चत्वार्युपकरणानि उक्तानि भवन्ति अयः कल्पाः प्रतिग्रहश्चेति मध्यमजघन्यान्यपि प्रत्येकं चत्वारि / तत्र पटलकानि रजस्त्राणं रजोहरणं पात्रकबन्धश्चेति मध्यमानि / मुखवस्त्रिका पात्रकेसरिका पात्रस्थापनं गोच्छकश्चेति जघन्यानि / एतेषां च ये कल्पास्तेषां सन्दंशकः कुरण्टकौ द्वौ त्रिहस्तौ दीर्घत्वेन प्रमाणं भवति विस्तरतस्तु सर्व हस्तमेकम्। अथवा।। अन्नो विय आएसो, संडासो सत्थिएण वन्ने य। जं खंडियं दळतं, छम्मासे दुव्वलं इयरं / / अन्यो वा देशः प्रकारादेश इत्यादि संदंशः स्वस्तिकश्च / तत्र जिनकल्पिकस्योत्कुटुकनिविष्टस्य जातु संदंशकादारभ्य पुरः पृष्ट च छादयित्वा स्कन्धोपरि यावता न प्राप्यते एतावत्तदीयकल्पस्य दै_प्रमाणम् / अयं च संदंशक उच्यते / तथा तस्यैव कल्पस्य द्वावपि पूर्वोक्तकर्णी हस्ताभ्यां गृहीत्वा / द्वे अपि बाहुशीर्ष यावत्प्राप्येते तद्यथा दक्षिणेन हस्तेन वामंबाहुशीर्षे वामेन दक्षिणमेषद्वयोरपिकलाचिकयोर्हदये यो विन्यासशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक उच्यते / एतत्पृथुत्वप्रमाणयुक्तंचयदिचतत्परिभुज्यमानंषण्मासान्यावद् ध्रियते यदादेशंदृढमिति ज्ञात्वा गृह्णाति इतरन्नाम षण्मासानपि यावन्न निर्वाहक्षम तंदुर्वलमिति कृत्वान गृह्णाति। अथ किमर्थमसौ स्वस्तिकं करोतीस्याह। संडासछिद्देण हिमादिएत्ति, गुत्ता अगुत्ता विय तस्स सेजा हत्थे हि सामो छिवडेहि घेत्तुं, वत्थस्स कोणेमुवईव झाति / / तस्य जिनकल्पिकस्य शय्यागुप्ता अगुप्ता वा भवेत् / ततः संदंशकच्छिद्रेण हिमादिकं शीतवातसादिकमेत्यागच्छति / ततस्तस्य रक्षणार्थ स्वस्तिककृताभ्यां स्वस्तिकाकारनिवेशिताभ्यांद्वावपि वस्त्रस्य कोणौ गृहीत्वा उत्कुटुक एव स स्वपिति वा ध्यायति वा / तत्र प्रायेण धर्मजागरिकया जागर्ति परं केचिदाचार्या ब्रुवते उत्कुटक एव तृतीययामे क्षणमात्रं स्वपितीति / बृ०३ उ०प्रव०। धानि००। इदानीं स जिनकल्पिकोपधिः स्थविरकल्पिकोपधिश्च सर्व एव नवविधो भवति तस्य च मध्ये कानिचिदुत्कृष्टानि अङ्गानि कानिचित् जघन्यानि कानिचित् मध्यमानि / तत्र जिनकल्पिकानां तावत्प्रतिपादनायाह। तिन्नेव य पच्छागा पडिग्गहो चेव होइ उक्कोसो। गुच्छगपत्तट्ठवणं, मुहणंतगकेसरिजहन्नो ||4|| त्रयः प्रच्छादककल्पा इत्यर्थः प्रतिग्रहश्चेति एष जिनकल्पिकावधिमध्ये उत्कृष्ट उपधिः प्रधानश्चतुर्विधोऽपि अत्रामूनि प्रधानानि Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि उवहि 1060- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 अङ्गानीत्यर्थः / गोच्छकः पात्रकस्थापनं (मुहणन्तक) मुखवस्त्रिका पुनरीदृशी भगवतामाज्ञा उच्यते। पात्रमुखवस्त्रिका चेत्येष जिनकल्पिकावधिमध्ये जघन्यः / अप्पं असंथरंतो, निवारिओ होइ तीहि सत्थेहि। अप्रधानश्चतुर्विधः उपधिरिति / पात्रकबन्धपटलानि रजस्त्राणो गिण्हति गुरू विदिने, पगासपडिलेहणे सत्ता / / रजोहरणमित्येष चतुर्विधोऽप्यवधिर्जिनकल्पिकावधिमध्ये मध्यमोपधिना प्रधानेनाप्यप्रधान इति। उक्तो जिनकल्पिकानामुत्कृष्टजघन्यम आत्मशरीरंस शीतादिना संस्तरति त्रिभिर्वस्वैर्निवारितो भवति। तथा ध्यमोऽवधिरिति / ओघ० / गच्छवासिनां कल्पप्रमाणमाह। चात्र विशेषचूर्णिलिखितो भावार्थः।"उस्सग्गेण तहेव पाउरियव्वं जाहेन संथरइ ताहे एकं कप्पं पाउणइ जाहे तेण विन संथरेजा ताहे विइयंपि कप्पा आयपमाणा, अड्डाइज्जा उ वित्थडा हत्था। पाउणिज्जा। जइ नाम तहवि न संथरेजा ताहे तइयंपि पाउणिज्जा / जइ एवं मज्झिमणाणं, उक्कोसं हों ति चत्तारि] नाम तहवि न संथरेज्जा ताहे तिन्नि विच्छड्डेऊण बाहिं पडिमाए ठाए ताव कल्पा आत्मप्रमाणाः सार्द्धहस्तत्रयप्रमाणायामा अर्द्धवृतायावद् हस्ता अत्थइजाद सीएणन सद्दइ वि तो पच्छा तम्मि निवेसइ। जइ तत्थन विस्तृताः पृथुला विधेयः / एतन्मध्यमं मानं प्रमाणं भवति। उत्कर्षतो संथरेज्जा ताहे अंतोपडिमं ठाइ। तत्थ झाणोवगओ चिट्ठइ जइन संथरइ दैर्येण चत्वारोहस्ताः। एतदादेशद्वयं मन्तव्यम्। ताहे तम्मिचेव निवेसइएवं पिजइन संथरेताहे एकं कप्पं गिण्हेजा जाहे __ अत्रैव कारणमाह। तेण विनसंथरेइ ताहे विइयं ततो तइयं तत्थ से अईवसायं भवइ। एवं संकुचिय तरुण आयप्पमाणसुयणे नसीयसंफासे। अप्पा तिहिं वत्थेहिं निवारिओ हवइ ति" अथ तानि परिजीर्णानि तेन त्रिभिः शीतं निवारयितुं पार्यते तत आह / गुरुभिराचार्यैर्वितीर्णानि दुहओ पेल्लणथरे, थेणुव्विय पाणाइरक्खी य॥ प्रकाशप्रत्युपेक्षणानि जीर्णत्वादचौरहरणीयानि सप्त वस्त्राणि उत्कृष्टतो यस्तरुणो बलवान् संकुचितपादः स्वप्तुं शक्नोति तस्य तथा स्वयमेव गहाति। इदमेव स्पष्टयति। शीतस्पर्थो न भवति अतस्तस्यात्मप्रमाणाकल्पोऽनुज्ञातः / यस्त तिन्नि कसिणो जहन्ने, पंच य दवदुव्वलाइं गेण्हे। स्थविरो वयस्यो वृद्ध स क्षीणबलत्वान्न शक्नोति संकुचितपादः शयितुं अतस्तस्यानुग्रहार्थ दैर्येण आत्मप्रमाणादूर्व षडङ्गुलानि आसन्नयपरिजुत्ताई, एयं उक्कोसगं गहणं / / विस्तरतोऽप्यर्द्धतृतीयहस्तप्रमाणादभ्यधिकानिषडङ्कलानि विधीयन्ते कृष्णानि नाम धनमसृणानि यैरन्तरितः सविता न दृश्यते ईदृशानि एवं विधीयमाने गुणमुपदर्शयति (दुहओ पेल्लणत्ति) शिरः त्रीणि वस्त्राणि जघन्यतो गृह्णीयात् / यानि तु दृढदुर्वलानि तानि पञ्च पादान्तलक्षद्वयोरपि पार्श्वयोर्यत्कल्पस्य प्रेरणमाक्रमणं तेन स्थविरस्य गृह्णीयात्। यानि परिजीर्णानि तानि सप्त एत दुत्कृष्ट ग्रहणं मन्तव्यम्। वृ० शीतं न भवति। अनुचितोऽभावितशैक्ष इत्यर्थः / तस्यापि ३उ०। स्वप्न विधावनभिक्षस्य कल्पप्रमाणमेव ज्ञातव्यम्। अपि च एवं प्राणिनां उवगरणं पि धारेजा,जेण न रागस्स होइ उप्पत्ती। रक्षा कृता भवति न मण्डूकप्लुत्या कीटिकादयः प्राणिनः प्रविशन्तीति लोगम्मि य परिवाओ, विहिणा य पमाणजुत्तं तु // 66 // भावः। आदिशब्दाद्दीर्घजातीयादयोऽपिन प्रविशन्ति तेनात्मनोऽपि रक्षा कृता भवति / बृ०३उ० (पात्रकबन्धादीनां प्रमाणनिरुपणमन्यत्र उपकरणमपि वस्त्रपात्रादि धारयत्किंविशिष्टमित्याह / येन न रागस्य स्वस्वस्थाने) इदानीं स्थविरकल्पिकानां प्रतिपादयति। तत्रापि प्रथमं / भवत्युत्पत्तिस्तदुत्कर्षावात्मनाएव लोके चपरिवादः खिंसायेनन भवति विधिनाऽवयवतया प्रत्युपेक्षणादिना धारयेत्प्रमाणयुक्तं च न __ मध्यमावधिप्रतिपादयन्नाह / न्यूनाधिकमिति गाथार्थः (पं०व०) अत्रेदमवधेयं स्थविरकल्पिानां पडलाइ रयत्ताणं,प्तमबंधो तहेव रयहरणं। प्रच्छादकत्रिकादिधारणं यत्पूर्वमुक्तं ततः सामान्यापेक्षया विशेषा पेक्षया मत्तो य पट्टगो विय, पेवाणं छविहो नवरि।।६।। त्वधिकधारणेऽप्यदोषः / ध०३ अधि० / कीदृशं पुनरुपधिं पटलानिरजस्त्राणं पत्रकबन्धश्च चोलपट्टकश्चरजोहरणं मात्रकंचेत्येषः भिक्षुरियतीत्याह। स्थविरावधिमध्ये षड्विधो मध्यमावधिर्नोत्कृष्टो नापि जघन्य इति / मिन्नं गणणाजुत्तं, पमाणइंगालधूमपरिसुद्धं / पात्रकं प्रच्छादनकल्पत्रयम् / एष चतुर्विधोऽपि उत्कृष्टः प्रधानः उवहिं धारइ भिक्खू, जो गणचित्तं न चिंतेइ // स्थविरकल्पिकावधिमध्ये पात्रस्थापनकं पात्रकेसरिका गोच्छको भिन्न नाम सदृशं सकलं वा यन्न भवति गणनायुक्तं गणनाप्रमाणोपेतं मुखवस्त्रिका एष जघन्योऽवधिः / स्थविरकल्पिकावधिर्मध्ये प्रमाणेनच यथोक्तदैर्घ्य विस्तरविषयमानेन युक्ताभित्यनुवर्तते / चतुर्विधोऽपि / ओठाइह स्थविरकल्पिकानां त्रयःप्रच्छादका भवन्तीति तथाऽङ्गारधूम्या परि समन्तात् शुद्ध विरहितमेवं विधमुपधिं स पूर्वमुक्तं तदिदानीं द्रढयन्नाह। भिक्षुर्धारयेत् यो गणचिन्तां न चिन्तयति सामान्यसाधुरिति भावः। यस्तु' जो वि तिवत्थदुवत्थो, एगेण आलवगो व संथरई। गणचिन्तकस्तस्य न प्रतिनियतमुपधिप्रमाणम् / तथा चाह। नहु ते खिंसंति परं, सत्थेण वि तिन्नि घेत्तव्वा / / . गणचिंतगस्स पत्तो, उक्कोसो मज्झिमो जहन्नो य। योऽपि साधुस्विवस्त्रो द्विवस्त्रो वा संस्तरति त्रिभिर्धाभ्यां वा सव्वोविहे य उवही, उवग्गहकरो महाजणस्स / / कल्पैरित्यर्थः / सौत्रान् द्वौ वा कल्पान् परिभुक्तान् योऽप्येकेन कल्पेन गणचिन्तको गणावच्छेदकादिस्तत्प्राप्तो यावदूर्द्धमुत्कृष्टो मध्यमो संस्तरति स एकमपिकल्पं नगृह्णातुपरं न हितेस्वल्पतरवस्त्रा अचेलका जघन्यश्च / सर्वोऽप्यौधिक औपग्राहिकश्चोपधिर्महाजनस्योपग्रह वा परमन्यमधिकतरवस्त्रं खिंसन्ति कुत इति चेदुच्यते सर्वेणापि करोति / इदमेव भावयति। स्थविरकल्पकेन तत्र त्रयः कल्पानियमाद् गृहीतव्याः यद्यपि शीतपरीषहसहिष्णुतया कश्चिदेकेनापि केनापि कल्पेनाप्रावृतः संस्तरपि आलंबणे विसुद्धे, दुगुणो चउगुणो वा वि। तथाऽपि भगवतामाज्ञामनुवर्तमानः सोऽपि त्रीन् कल्पान् गृह्णाति किमर्थं सव्वो वि होइ उवग्गह-करो महाजणस्स / / Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1061 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि आलम्बनं द्विधा द्रव्यतो गर्तादौ निमज्जतो रजवादिभावतः संसारगर्तायां निपततां ज्ञानादि इहपुनर्यत्र क्षेत्रे काले षा दुर्लभं वसंनदादिकमालम्बनं गृह्यतेतत्र विशुद्धे प्रशस्ते सति द्विगुणो वाचतुर्गुणो वा औपग्रहिकश्चोपधिः सर्वोऽपि महाजनस्य गच्छस्योपग्रहकरो भविष्यतीति कृत्वा गणचिन्तकस्य परिग्रहे भवतीति / गतं प्रमाणद्वारमा (6) आर्यिकाणामुपधिप्रमाणम्। पत्तं पत्तावंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया। पडिलाई रयत्ताणं, गुच्छओ पायनिजोगो॥ तिण्णेव य पच्छाया, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती। तत्तो पमत्तए खलु चोहस मेकमट्ठए होति।। उग्गहणंतगपट्टो, अद्धोरुअवलणिआय बोधव्वा। अभिंतरबाहिणिय-सणीय तह कंवुए चेव / / ओक्कच्छिय चेगकच्छिय, संघाडीचेव खंधकरणीय। ओहोवधिम्मि एते, अजाणं पण्णवीसंतु॥ पात्रकादित्रयोदशेऽपि करणानि साधूनामिव द्रष्टव्यानि / चतुर्दश तु चोलपट्टकस्थाने तासां कमठकं भवति / तच्चाष्टकमयमेकैकं संयतीनां निजदेहप्रमाणेन विज्ञेयम्।तथा अवग्रहानन्तकं १५पट्टम् १६अझै रुकं 17 बलनिका च 18 बोधव्या। अभ्यन्तरनिवसनी 19 बहिर्निवसनी 20 तथा कम्बुकश्चैव 21 औपकक्षिकी 22 चैककक्षिकी 23 संघाटी 24 स्कन्धकरणी 25 एवमेतान्योघोपधौ आर्यिकाणां पञ्चविंशतिरुपकरणानि भवन्ति / अथैतान्येव विवृणोति। उग्गहाणंतओ नोव्व, गुज्झदेसरक्खणट्ठाए। सोयप्पमाणो तणुको, घणमसिणो देहमासज्ज। इहावग्रह इति योनिद्वारस्य सामायिकी संज्ञा तस्यानन्तकं वस्त्रमवग्रहानन्तकं पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् तच नौनिभं मध्यभागे विशालं पर्यन्तभागयोस्तु स्तनुकं गुह्यदेशरक्षार्थं क्रियते / तच गणनयैकं अन्तर्बीजपातसंरक्षणार्थं च धनं घनवस्त्रेण पुरुषसमानकर्कशस्पर्शपरिहरणार्थचमसूण मसणवस्त्रेण क्रियते प्रमाणे न च देहं स्त्रीशरीरमासाद्य तद्विधीयते देहो हि कस्याश्चित्तनुः कस्याश्चित्त स्थूलः। ततस्तदनुसारेण विधेयमित्यर्थः। पट्टो वि होइ एको, देहपमाणेण सो उ भइयव्यो। छंदंतोग्गहणतं, कडिबद्धो मल्लकच्छो वा।। पट्टोऽपि गणनयैको भवतिसच पर्यन्तभागवर्तिवाटकबन्धबद्धः पृथत्वेन चतुरङ्गुलप्रमाणः समतिरिक्तो वा दीर्घेण तु स्त्रीकटीप्रमाणः स च देहप्रमाणेन भक्तव्यः पृथुलकटीभागाया दीर्घः संकीर्णकटीभागायास्तु ह्रस्व इत्यर्थः / स चावग्रहानन्तकमुभयान्तयोराच्छादयन् कटीबद्धः सन् मल्लकक्षावज्ज्ञायते। अडोरुगो उदो वि, गिहिउंछादए कडीभागं। जाणुप्पमाणवलणी, असिल्लिया लंखियाएव।। अोरुकोऽपि तौ द्वावपि अवग्रहानन्तपट्टावुपरिष्टाद् गृहीत्वा सर्वकटीभागमाच्छादयति। सचमल्लचलनाकृतिः केवलमुपरिऊरुद्वये चकशाबद्धःचलनिकाऽप्येवमेवा नवरमधोजानुप्रमाणा अस्यूतलंखिका परिधिर्भवति वंशाग्रनर्तकी मलनकशा मन्तव्या। अंतोनिवसणी पुण, लीणतरा जाव अड्डजंघातो। बाहिरखुलगपमाणा, कडी य दोरेण पडिबद्धा / / अन्तर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारभ्याधोऽर्द्धजज्ञा यावद्भवति सा च परिधानकाले लीनतरा परिधीयते मा भूदनावृता जनोपहास्येति बहिर्निवसनी पुनरुपरि कटीभागादारभ्याधः खुलकप्रमाणा चरणगुल्फ यावदित्यर्थः कट्यां च दवरकेन प्रतिबद्धइदमधः शरीरस्य षड्विधमुपकरणमुक्तम्। अथार्द्धकायोपयोगिकञ्चुकादिकं व्याख्याति / दतिअणुकुथिते उरोरुहे, कंचुओ असिव्वितओ। एमेव य उक्कच्छी, सा णवरं दाहिणे पासे // दैयमाश्रित्य स्वहस्तेनार्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः पृथुत्वेनतुहस्तमानोऽसेवित उभयतः कसाबद्धः कञ्चुकः सा चोरोरुहौ छादयति किम्भूतौ च भक्ते चितौ श्लथौ गाढपरिधाने हि विविक्तविभागौ भवेताम् कक्षायाः समीपमुपकक्षं तत्र भवा औपकक्षिकी अध्यात्मादित्वादिक-क्प्रत्ययः एवमेव च कञ्चुकवत्तस्या अपि स्वरूपं वक्तव्यं नवरं दक्षिणपार्वे समचतुरस्रा हस्तेन सार्द्धहस्तप्रमाणा उरो भागं पृष्ठं च प्रच्छादयन्ती वामस्कन्धे वामपार्वे च वीठक बद्धा परिधीयते। उवगच्छिया उ पन्जे, कंचुकमुक्किट्टियं च छादेति। संघाडीओ चउरो, तत्थ दुहत्था उवसधीए॥ दुन्नितिहत्थायामा, भिक्खट्ठाएगउच्चारे। ओसरणे चउत्थाम, निसन्नपच्छाइणी मसिणो॥ औपकक्षिकी विपरीता चैककक्षिकीनामकः पदः कञ्चुकभीपकक्षिकी च छादयन् वामपार्वे परिधीयते तथा उपरिपरिभोग्या संघाटिकाश्चतस्रो भवन्ति / एका द्विहस्ता द्वे त्रिहस्ते एका च चतुर्हस्ता दैर्येण चतस्रोऽपि साऽपि सार्द्धहस्तत्रयप्रमाणा चतुर्हस्ता वा मन्तव्या तत्र हि द्विहस्ता द्विहस्तविस्तृता संघाटिका वसत्यां परिधीयते न तां विहाय प्रकटदेहया कदाऽपि भवितव्यमिति भावः / ये च द्वित्रिहस्तायामे त्रिहस्तविस्तृते तयोर्मध्ये एका भिक्षार्थं गच्छन्त्या प्रावियते एका उच्चारभूमिं व्रजन्त्या तथा समवसरणे व्याख्यानश्रवणादौ गच्छन्ती चतुर्हस्तां प्रावृणोति च प्राक्तनसंघाटीभ्यो वृहन्नरप्रमाणा अनिषण्णप्रच्छादनार्थ क्रियते यतो न तत्र संयतीभिरुपवेष्टव्यं किंत्वर्ट्स स्थित्वा ताभिरनुयोगश्रवणादि विधेयं ततस्त्था स्कन्धादारभ्य पादौ यावद्वपुः प्रच्छाद्य तिष्ठन्ति एताश्च पूर्वप्रावृतवेषप्रच्छादगार्थ प्रवचनवर्णप्रभावनार्थं च महणा क्रियन्ते चतस्रोऽपिच गणनाप्रमाणेनैकमेव रूपंगण्यते युगपत्परिभोगाभावात्। खंधकरणी चउहत्था, वित्थरा वायबिहुतरक्खहा। खुज्जकरणी उकीरति, रूववतीणं कुडुहहेउं / / स्कन्धकरणी चतुर्हस्तविस्तरा समचतुरस्रा प्रावरणस्य वातविधुतरक्षणार्थ चतुष्पला स्कन्धे कृत्वा प्राव्रियते रूपवतीनां च संयतीनां कुरूपहेतोः कुब्जकरयपि क्रियते पृष्टदेशे संबर्हितायौपकक्षिकी त्वैककक्षिकीनिबद्धा तया विरूपतापादनीयं कुरूपं विधीयत इति भावः / उपसंहरन्नाह। संघातिमेतरो वा, सव्वो वेसो समासओ उवधी। पासगबद्धमसुसिरो, जं वाइण्णंतगंणेयं // सर्वो ऽप्येषोऽनन्तर उपधिः समासतो द्विधा सङघातिमः इतरश्च Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1062- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उवहि द्विव्यादिखण्डानां मीलनेन निष्पन्नः संघातिमः / इतरस्तद्विपरीतोऽसंघातिमः / अयं च पाशकबद्धः कशाबद्धः तथा यश्चाशुषिरो गृहिसीवनिकारहितः प्रतिग्लानवर्जितो वा यच्चात्र द्रव्यक्षेत्रकालतो वेषेषु संविग्नगीताथैः पूर्वसूरिभिराचीर्ण तत्सर्वमपि ज्ञेयं सम्यगुपादेयतया मन्तव्यम्। ___ अथ जिनकल्पिकादीनामुपधेरुत्कृष्टादिविभागमाह / उकोसओ जिणाणं, चउविहो मज्झिमो विय तहेव / जहन्नो चउव्विहो खलु, पत्तो थेराण वोच्छामि। त्रयः कल्पाःप्रतिग्रहश्चेतिः जिनकल्पिकानामुत्कृष्टतश्चतुर्विधः। एवं मध्यमोऽपि रजोहरणपटलकपात्रकबन्धरजस्त्राणभेदाचतुर्विधो जघन्योऽपि मुखपोत्तिका पादुकेसरिका गोच्छकपात्रकस्थापनक भेदाचतुर्विधः। (7) औपग्रहिकोपधेरुत्कृष्टादिभेदाः / उकोसो थेराणं, चउविहो छविहो य मज्झिमओ। जहण्णो चउविहो खलु, पत्तो अजाण वोच्छामि। उत्कृष्टो जघन्यश्च जिनकल्पिकानामिव द्रष्टव्यो नवरं मध्यमः षट्विध इत्यं रजोहरणं पटलकानि पात्रक बन्धो रजस्त्राणं मात्रक कम्बलपट्टकश्चेति। उकोसो अट्टविहो, मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ। जहण्णो चउव्विहो खलु, पत्तो उ उवग्गहं वोच्छं / / आचार्याणामुन्कृष्ट उपधिरष्टविधः त्रयः कल्पा३ प्रतिग्रहः / अम्यन्तरनिवसना 5 बहिर्निवसना 6 संघाटिका 7 स्कन्धरणी 8 चेति। मध्यमस्त्रयोदशविधो भवति तद्यथा रजोहरणं 1 पटलकानि 2 पात्रकबन्धः 3 रजस्त्राणं 4 मात्रकं 5 कमठकम्६अवग्रहानन्तकं 7 पट्टः 8 अर्दोरुकम्। कञ्चुकी १०क्लनिका११ औपकक्षिकी 12 विकक्षिकी 13 चेति। जघन्यश्चतुर्विधो मुखषोत्तिका गोच्छकः पात्रस्थानं चेति। अत ऊर्द्धमतिरिक्तो यः उपधिः स उपग्रहोपधिरुच्यते। तमपि जघन्यादिविभागनिरूपणेनाहं वक्ष्ये। बृ०३ उ०! (8) तावदौपग्रहिकोपधिमाह / पीठगनिसिज्जदंडग-पमजणी घट्टए डगलमाइं। पिप्पलगसूइनहरणि-सोहणगदुर्ग जहण्णो उ॥३४॥ पीठकं काष्ठच्छगणात्मक लोकसिद्धमानं स्नेहवत्यां वसतौ वर्षाकाले वा ध्रियत इत्यौपग्राहिकं संयतीनां त्याग इत्यागतसाधुनिमित्तमिति निषद्या पादपुञ्छनं प्रसिद्धप्रमाणं जिनकल्पिकादीनां न भवति निषीदनाभावात् दण्डकोऽप्येवमेव नवरं निवारणाभावात् एवं प्रमार्जनी वसतेर्दण्डकपुञ्छनाभिधाना एवं घटकः पात्रमुखादिकरणाय पिप्पलक क्षुरप्रःलोहमयः / सूची सीवनादिनिमित्तं वेण्वादिमयी नखहरणी प्रतीता लोहमप्येव शोधनकद्वयं कपर्णशोधनकदन्तशोधनकाभिधानं लोहमयादि जघन्यतस्त्वयं जघन्यः औपग्रहिकः खलूपधिरिति गाथार्थः। एनमेव मध्यममभिधातुमाह। वासत्ताणे पणगं, चि लमिणिपणगं दुगं च संथारे। दंडाई पणगं पुण, मत्तगतिगपायलेहणिआ॥३५|| वर्षात्राणविषयं पञ्चकं तद्यथा कम्बलमयसूत्रमयतालपत्रमयपलाशपत्रकुटशीर्षकं छत्रकं चेति लोक सिद्धमानानीति / तथा चिलिमिलीपञ्चकं तद्यथा कम्बलमयी सूत्रमयी वालमयी दण्डमयी कडगमयीति प्रमाणमस्याः गच्छापेक्षया सागारिकप्रच्छादनाय तदावरणात्मिकर्ते यमिति संस्तारद्वयं च शुषिराशुषिरभेदभिन्नं तृणादिकृतस्तुशुषिरस्तदन्यकृतस्त्वशुषिर इति। तथा दण्डादिपञ्चकं पुनस्तद्यथा दण्डको विदण्डकः यष्टिर्वियष्टिर्नालिका चेति। मात्रकत्रितयं तद्यथा। कायकमात्रकं संज्ञामात्रकं खेलमात्रकमिति। तथा पादलेखनी काष्ठमयी कर्दमापनयिनीति गाथार्थः / पं०व०। संथारुत्तरपट्टो, अड्डाइजा उ आयया हत्था। दोण्हं पिय वित्थारो, हत्थो चउरंगुलं चेव / / 46|| संस्तारकः तथा उत्तरपट्टकश्च एतौ द्वावपि एकैकमर्द्धतृतीयहस्तौ दैर्येण प्रमाणतो भवति तथा द्वयोरप्यनयोर्विस्तारो हस्तचतुरडलं भवतीति आह किं पुनरेभिः प्रयोजनं संस्तारकादिभिः पट्टकै रुच्यते। पाणाइरेणुसंर-क्खणट्ठया हॉति पट्टगा चउरो। छप्पइयरक्खणहा, तत्थुवरि खोम्मियं कुजा // 47 // प्राणिरेणुसंरक्षणार्थ पट्टका गृह्यन्ते / प्राणिनः पृथिव्यादयो रेणुश्च स्वशरीरे लगति अतस्तद्रक्षणार्थं पट्टकग्रहणं ते चत्वारो भवन्तीति द्वी संस्तारकपट्टकयुक्तावेव तृतीयो रजोहरणबह्यनिषद्यापट्टकः पूर्वोक्त एव चतुर्थः / खोमिय एवाभ्यान्तरःनिषद्यापट्टको वक्ष्यमाण एव एते चत्वारोऽपि प्राणिनः संरक्षणार्थं गृह्यन्ते / तत्र षट्पदासंरक्षणार्थं तस्य कम्बली संस्तारकसंघर्षेण षट्पदा न विराध्यन्ते इति / इदानीं अभ्यन्तरक्षोमनिषद्याप्रमाणप्रतिपादनायाह / रयहरणपट्टमेत्ता, अदसणा किं चि वा समतिरेगा। इक्कगुणा उनिसिञ्जा, हत्थपमाणा सपच्छागा॥४८|| रजोहरणपट्टकोऽभिधीयते यत्र दशिकालग्नाः तत्प्रमाणा दशा दशिका तद्रहिता क्षौमा रजोहरणाभ्यन्तरे निषद्या भवति / (किं चि वासमतिरेगेत्ति) किंचिन्मात्रेण वा समधिका तस्य रजोहरणपट्टकस्य भवतीति (एकगुणत्ति) एकैव सा निषद्या भवति हस्तप्रमाणा च प्रथुत्वेन भवति (सपच्छागत्ति) सह बाह्यया निषद्यया हस्तप्रमाणा भवतीति। एतदुक्तं भवति बाह्याऽपि निषद्या हस्तमात्रैव। वासोवग्गहिओ पुण, दुगणो उवही उवासकप्पाई। आयासंयमहेऊ, एकगुणो सेसओ होइ।।४६।। वर्षासु वर्षाकाले औपग्रहिकः अवधिगुणो भवति कश्चास्यासौ वर्षाकल्पादिः आदिग्रहणात् पटलानि “जो व हिंडं तस्स तिम्मइ सो सो दुगुणो होति एगोति तो पुणो अन्नो घेप्पई स च वर्षाकल्पादिद्विगुणो भवति आत्मसंरक्षणार्थं च तत्रात्मसंरक्षणाद्यदि एकगुणा एव कल्पादयो भवन्ति ततश्च "तेहिंति तेहिं पोट्टसूलेणं मरति संजमरक्खणहें जइएग चेव कप्पं अइमइलो उ ढेउनीसरइ ततो तस्स कप्पस्सज पाणियं पडइत्ति तस्स तेणं आतुक्कोओ विणासिज्जई" शेषस्त्ववधिः एकगुण एव भवतिन द्विगुण इति। किञ्च। जं पुण सपमाणाओ, ईसिंहीणाहियं व लेभेजा। उभयं पि अहाकडयं, न संधणा तस्स छेओ वा // 50|| यत्पुनः कल्पादि उपकरणं स्वप्रमाणादीषद्धीनमधिकं वा लभ्यते उभयमिति "ओघियस्स उवहिस्स उवग्गहियरस वा" यदि Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1063 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि उभयं तदेव हीनमधिकं वा लब्धं सत् "आधाकडयगं" पश्चात्कृतमल्प परिकर्मयल्लभ्यतेतस्य नसंधना क्रियते हीनस्य तथा च्छेदनः क्रियते अधिकस्य। किं च। डंडए लट्ठिया चेव, चम्मए चम्मकोसए। चम्मच्छेयणपट्टे, चिलिमिली धारए गुरू॥५१॥ अयमपर औपग्रहिकोपधिः साधोः साध्वाश्च भवति दण्डको भवति दण्डकश्च यष्टिश्चचशब्दाद्वियष्टिश्चेति। अयं सर्वेषामेवमेव पृथक्पृथक् औपग्रहिकः / अयमपर एव औपग्रहिकः कश्चासौ (चम्मएत्ति) चर्म कृत्तिश्छवडिया चर्मकोसकः "जत्थन हणाई बुज्झंति" तथा चमच्छेदः बर्धपट्टिका / यदि च चर्म च्छेदनकं पिप्पलकादि / तथा (पट्टत्ति) योगपट्टकः चिलिमिलि चेति / एतैश्चर्मादिभिर्गुरोरोग्राहिकोपधिर्भवति। जंचण्ण एवमाई, तवसंजमसाहयं जइजणस्स। ओहो इरेगगहियं, उवग्गहियं तं वियाणाहि॥ यचान्यद्वस्तु एवमादि उपानहादि तपः संयमयोः साधकं यतिजनस्य ओधोपधेरतिरिक्तं गृहितमौपग्रहिकं तद्विजानीहि / ओ०। (यष्ट्यादिलक्षणमन्यत्र) चम्मतियं पट्टदुर्ग, नायव्बो मज्झिमो उवहि एसो। अजाण चारगो पुण, मज्झिमो होइ अइरित्तो॥ धर्मत्रिकं वर्धनलिकाकृतिरूपम् तथा पट्टद्वयं संस्तरपट्टचोलपट्टलक्षणं ज्ञातव्यो मध्यम उपधिरेषः / औपग्रहिक आर्याणां चारकः पुनः सागारिकोदकनिमित्तमध्यमोपधावुक्तलक्षणो भवत्यतिरिक्तः नित्यं जनमध्य एव तासां वासादिति गाथार्थः / एतदेवोत्कृष्टमभिधातुमाह। अक्खा संथारोवा, एगमणेगंगिओ अ उक्कोसो। पोत्थगपणगं फलगं, उक्कोसोवग्गहो सव्वो॥३७॥ अक्षाश्चन्दनकादयः संस्तारकश्च किं विशिष्ट इत्याह / एकाङ्गिकोऽनैकाङ्गिकश्च फलकं कम्बिमयादिः उत्कृष्टस्वरूपेण / तथा पुस्तपञ्चकं तद्यथा गण्डिकापुस्तकः छिवादीपुस्तकः छविपुस्तकः मुष्टिपुस्तकः संपुटकश्चेति। तथा फलकं पट्टिका समवसरणफलकं वा उत्कृष्ट इति प्रकान्तापेक्षया औपग्रहिक उपधेः सर्व इत्यक्षादिः सर्वएवेति गाथार्थः / अनयोरौधिकोपग्रहिकयोरेवोपधिद्वयोरपि विशेषलक्षणमभिधातुमाह! . ओहेण जस्स गहणं, भोगो पुण कारणा स ओहोहि। जस्स उ दुगं पि निअमा, कारणओ सो उवग्गहिओ // 38 // ओघेन सामान्येन भोगे अभोगे वा यस्य पात्रादेहणमादानं भोगः पुनः कारणान्निभित्तेनैव भिक्षाटनादिना स ओघोपधिरभिधीयते / यस्य तु पीठकादेयमपि ग्रहणं भोगाश्चेत्येतन्नियमात्कारणतो निमित्तेन स्नेहादिना स पीठकादिः औपग्रहिकः कादाचित्कप्रयोजननिवृत्त इति गाथार्थः / अस्यैव गुणकारितामाह। मुच्छारहिआणेव्वो, सम्मचरणस्स साहगो भणिओ। जुत्तीए ईहा पुण, दोसा इत्थं पि आणाइ // 39 // मूरिहितानामभिष्वङ्ग वर्जितानां यतीनामेव द्विविधोऽपि पात्रपीठकादिरूप उपधिः सम्यगधिकरणरक्षाहेतुत्वेन चरणस्य साधको भणितःतीर्थकरगणधरैर्युक्तयेति।मानभोगयतनया इतरता पुनरयुक्त्या यथोक्तमानभोगाभावेदोषाः अत्राप्युपधौगृह्यमाणे तुद्यमानेवा आज्ञादय इति गाथार्थः ।।पं०व०। (एतेषामन्येषां चोपकरणानां प्रयोजनं विहार शब्दे चारित्रार्थमनेकाहगमने प्रस्तोष्यमाणे स्पष्टीभविष्यति)। (E) अतिरिक्तोपग्रहणेन प्रायश्चित्तम् / दुविहप्पमाणातिरेग मुत्तदेसेण तेण लहुगाओ। मज्झिमगं पुण उवहिं, पडुच्च मासो भवे लहुओ। द्विविधं द्विप्रकारं गणनाप्रमाणभेदाद्यत्प्रमाणं ततोऽतिरिक्त उपधौ तत्रादेशेन चतुर्लधुका भवन्ति यत उक्तं निशीथसूत्रे "जे भिक्खू गणणाइरित्तं वा पमाणाइरित्तं वा उवहिं धरेइ से अवठ्ठा चातुम्मासिय परिहरेणट्ठाणं उग्धाइयं" बृ०१३०॥ ऊणातिरित्तधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, संघट्टणमादि पलिमंथो // गणनया प्रामाणेन च ऊनस्यातिरिक्तस्य वा उपकरणस्य धरणे प्रायश्चितं चत्वारो मासाः उद्धातालघवः आज्ञादयश्च दोषास्तथा यत्र परिकर्मणां कुर्वन् तजातान्प्राणान्संघट्टयति आदिशब्दात्परितापयति अपद्रावयति च ततस्तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चितं तथा प्रतिदेवसमुभयकालं पात्राणि अन्यद्वाऽतिरिक्तमुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणस्य परिमन्थः सूत्रार्थव्याघातः। तस्मात् गणनया प्रमाणेन सूत्रोक्तमुपकरणं धारयितव्यम् व्य० द्वि०८30ओ। 10 प्रथमसमवसरणे उपधिग्रहणम्। (तत्र नो कल्पते इति वत्थशब्दे भाविष्यते) वर्षासु अतिरिक्तोपकरणग्रहणकारणमुपदर्शयितुं दृष्टान्तमाह। दव्वोवक्खरणेहा, दियाण तह वा कडुयभंडाणं / वासारन कुडुंवी, अतिरेगं संचयं कुणइ / / द्रव्यं हिरण्यादि उपस्करः सूर्पादिः स्नेहो घृतं तैलं वा आदिशब्दादेरण्डादितैलपरिग्रहः / क्षारो वस्तुलादिः लवणं वा कटुकं शुण्ठीपिप्पल्यादि भाण्डानि घटपिठरादीनि / अथवा कटुकभाण्ड वेसणमयवाहिङ्गुप्रभृतिजातं एतेषां द्रव्योपस्करादीनां कुटुम्ब्यपि वर्षाराने अतिरिक्तसञ्चयं करोति किं कारणमिति चेदुच्यते। वणिया ण संचरंती, हट्टाण हवंति कम्मपरिहाणी। गेलण्णाए देसुव, किं काहिति अग्गहिते पुट्विं / / वर्षाकाले वणिजो ग्रामेषु क्रयविक्रयार्थं न सञ्चरन्ति / पत्तनेष्वपि वर्षवर्दलवशेन हट्टा न भवन्ति / अपि च यदि कुटुम्बी द्रव्योपस्कारादीनामतिरिक्त सञ्चयं न कुर्यात् तत उत्पन्ने प्रयोजने क्रयविक्रयार्थ तेनापणवीथ्यां गन्तव्यं ततश्च हलकर्षणप्रभृतीनां कर्मसंयोगानां परिहाणिर्भवति ग्लानत्वे वा संजाते आदशेषु वा प्राघूर्णिकेषु आगतेषु अतिरिक्तसञ्चये पूर्वमगृहीते किं पथ्यभोजनप्राघूर्णकभक्त्यादिकं करिष्यति // तह अन्नतिथिगा विय, जारिसो से संचयं कुणति। इह पुण छण्हं विराहणा, पढमम्मिय जे भणियदोसा॥ तथेति दृष्टान्तान्तरोपन्यासे अन्यतीर्थिका अपि सरजस्कादयो यादृशो यस्य येनोपकरणेन प्रयोजनमित्यर्थः (से) तस्यातिरिक्त सञ्चयं वर्षासु करोति / यथा सरजस्का रक्षाया दकसैत्करिकामत्तिकाया वोटिकछगणलक्षणयोरित्यादि / इहेति अस्मिन् पुनर्येन शासते यद्यतिरिक्तमुपकरणं न गृह्णन्ति ततः षण्णां जीवनिकायानां विराधना भवति / अथातिरिक्तोप्रकरणाभावाद्वर्षासूपधिं गृह्णन्ति ततो ये प्रथमे समवसरणे उपकरणं गृह्णतो दोषा भणितास्तान् प्राप्नुवन्ति / कथं पुनः षण्णां कायानां विराधना भवतीत्युच्यते। Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि रयहरणेणोल्लाणं, पमञ्जफरुससालपुढवीए। गामंतरितगलणे, पुढवी उदगं च दुविहं तु॥ (फरुससालत्ति) कुम्भकारशाला तस्यां वर्षासु स्थितानां द्वितीयरजोहरणाभावे यद्वर्षेणाीभूतं रजोहरणं तेनैव प्रमार्जने पृथिवीकायस्य विराधनाग्रामान्तरं भिक्षाचर्यादिकार्येण (इंतत्ति) गच्छत आगच्छतो अन्तरा आषाढतरं वर्षितुमारब्धे मलिनरजोहरणे परिगलति पृथिवीं द्विविधं च भूमान्तरिक्षभेदाद् द्विप्रकारमुदकं विराधयति / अहवा अंदीभूए, उदगं पुण उपतावणे अगणिं। उल्लंडगबंधतसा, ठाणाइसु केण व पमन्जे / / अथवा द्वितीयरजोहरणाभावे यदा रजोहरणं शोषयति ततोऽवग्रहात् स्फिटयति। अथन शोष्यतेततोऽम्लीभवति एवसम्लीभूतेतस्मिन् उदकं विराध्यते / पनकश्च संमूर्च्छति अथैतद्दोषपरिहारार्थमग्निं तापयति ततोऽग्निविराधना अथार्द्रण प्रमार्जयति ततो दशिकान्तेऽप्युल्लण्डका मुइंगोलकाः प्रतिबध्यन्ते तेषु प्रतिबद्धेषु यद्विप्रमार्जनं करोति तत आत्मविराधना / अथ न प्रमार्जयति ततः संयमविराधना / स्थाननिषदनादिषु वा केन प्रमार्जयतु।। एमेव सेसगम्मि, संजमदोसा उभिक्खणिजाए। चोलनिसजाउल-अजीरगेलनमायाए| एमेव वर्षाकल्पादावपि शेषोपकरणे भिक्षानिर्योगे च पटलकपात्रबन्धरूपे द्विगुणं अगृहीते संयमदोषाः षट्कायविराधना लक्षणे रजोहरणवद्द्वक्तव्याः / चोलपट्टे रजोहरणनिषद्यायां यावद्विगुणाया-- मगृह्यमाणायां बहिर्गतानां वर्षेणाीभावे संजाते नित्यपरिभोगेन भक्तं न जीर्यते / अजीर्यमाणे भक्ते ग्लानत्वं भवति / ततश्चात्मविराधना परितापमहादुःखादि। किंच। अद्धाण णिग्गतादी, परिता वा अहव णट्ठगहणम्मि। जंच समवसरणम्मि, अगहणे जंच परिभोगे / छिन्नादच्छिन्नाद्रा अध्वनो निर्गता आदिशब्दादशिवादिकारणानिर्गता वा ये परीताः परिमितोपकरणा अथवा (नत्ति) नष्टोपकरणा हारितोपधय इत्यर्थः (गहणम्मित्ति) प्रत्यनीकेन वा उपधेर्ग्रहणे कृते विविक्ता आगच्छेयुः एतेषामागतानामतिरिक्तोपकरणभावाद्युपग्रहणं न करोति तत उपधिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् अथ तदर्थ नूतनमुपधिं गृह्णन्ति ततोऽप्युपधिनिप्पन्नम् अथ प्रथमे समवसरणे उपकरणग्रहणे दोषजालं तत्प्राप्नुवन्ति / अथ न गृह्णन्ति तत उपकरणं विना यत्तृणादिपरिभोगे दूषणकदम्बकं तदासादयन्तिा अमुमेवार्थव्याख्यानन्थेन स्पष्टयति। . अद्धाण णिग्गयादीण-मदाते होति उपधिणिप्पण्णं। जं ते अणेसणग्गिं, सेवेदं वत्थणो जं च / / अध्वनिर्गतादीनामतिरिक्ताभावे उपकरणं यदि न, प्रयच्छन्ति तत उपधिनिष्पन्न भवति प्रायश्चित्तमिति शेषः। तच्च जघन्ये पञ्चकं मध्यमे मासलधुकमुत्कृष्ट चतुर्लघवः। तेचअध्वादिनिर्गता अनेषणीयोपकरणमग्नि वा यदासेवन्ते तन्निप्पन्नमप्रयच्छतां प्रायश्चित्तम्। अथात्मीयमुपकरणं तेषां प्रयच्छन्ति तत आत्मपरिहाणिः / यचात्मना तृणादिसेवनं कुर्वन्ति तन्निष्पन्नम्। के पुनः प्रथमसमवसरणे वस्त्रग्रहणे दोषा इत्याह॥ अत्तट्टपरट्ठा वा, ओसरणं गेण्हमाण पण्णरस। दानं परिभोग छप्पति-चडउरं उल्लोयगेलन्ने / अथात्मनोवा परेषां वा अध्वनिर्गतादीनामर्थाय प्रथमसमवसरणे उपधिं गृह्णन्ति तत आधाकर्मादयः पञ्चदशोद्मदोषा भवन्ति आत्मोपधिमध्वनिर्गतादीनां दत्वा तमेवैकं प्रत्यवतारं नित्यं परिभुजानस्यषट्पदिका संमूर्च्छतितासुचान्नपात्रमध्ये पतितासुभक्षितासु (चडउरंति) जलोदरो भवति एकप्रत्यवतारेण वा द्रोणराशिप्रावृतेन शुद्धस्य जीर्यति अजीर्यति चग्लानत्वमुपजायत तम्हा उगेण्हियव्वं, वितियपदम्मि जहण गेण्हेज्ज / अद्धाणे गेलण्णे, अहवा वि भवेज असतीए। यत एवं तस्मात् कारणादात्मनो द्विगुणप्रत्यवतारादतिरिक्तं ग्रहीतव्यं द्वितीयपदं यथा नगृह्णीयुस्तथाऽभिधीयते अध्वनि वहमानानां ग्लानत्वे वा द्विविधायामसत्तायां वा वर्तमानाना मग्रहणं भवेदिदमेव व्याख्याति॥ कालेण चिंदिएणं,या वारिसा मंतरेण वाघाते। गेलण्णे वा न परे, दुविधा पुण होति असतीओ।। ग्रीष्मस्य चरमे मासि के चिदध्वनि प्रतिपन्नाश्चिन्तितवन्तश्च यावदाषाढपूर्णिमा नोपैति तावदेव तावत्कालेन वर्षाक्षत्रं प्राप्स्यामः / अन्तरा च नद्यादिव्याधातो भवेत् अत आषाढपूर्णिमाकाले अतिक्रान्त प्राप्ते ततो द्विगुणेऽतिरिक्तो वा उपधिर्न गृहीतः। अथवा आत्मनो ग्लानत्वेन परस्य वा ग्लानस्य व्यापृततया नातिरिक्तो गृहीतः। असत्ता पुनर्द्विविधा भवति सदसत्ता असदसत्ता च सदसत्तायामनेषणीयं लभ्यते / अथवा बहवः साधवो वस्वग्रहणस्याकल्पिका एव कल्पिकः। अतः सर्वेषां योग्यो अतिरिक्तः पथि गृहीतुं न पार्यते। असदसत्ता तु मार्गित-मपि न लभ्यते एतैः कारणैः पूर्वमतिरिक्तोपधौ अगृहीतेऽपि शुद्धाः। गहिए अगहिए वा, अप्पत्ताणं तु होति अतिगमणं। उवही संथारगपाद-पुंछणादीण गहणट्ठा / / एवं गृहीतेऽगृहीते वा वर्षावासप्रायोग्ये उपधौ कालमप्राप्तानामाषाढपूर्णिमाया अर्वाक् पञ्चभिर्दिवसैर्व क्षेत्रे अतिगमनं प्रवेशो भवति। किमर्थमित्याह उपधिर्वर्षाकल्पादिकः / संस्तारकः काष्ठमयः कम्बिकामयो वा पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् आदिशब्दात् तृणडगलादिपरिग्रहः एतेषां ग्रहणार्थमप्राप्ते काले प्रवेष्टव्यम्। इदमेव व्यक्तीकरोति। कालेण अपत्ताण्णं, पत्ताणं खेतओ गहणं। वासाजोग्गोवधिणो,खेत्तम्मि उडगलमादीणि।। कालतो नियमादप्राप्तानां क्षेत्रतः प्राप्तानां वा वर्षावासयोग्यपटलकपात्रबन्धादेरुपधेर्ग्रहणं भवति एतेन चरमभङ्गो सूचितौ कालतः प्राप्तैरप्राप्तैर्वा क्षेत्रतो नियमात्प्राप्तैर्डगलादीनि ग्रहीतव्यानि अनेन तु . द्वितीयतृतीभङ्गो गृहीताविति / तान्येव डगलादीनि दर्शयति। डगलसरक्खकुडमुह, मत्तगतिगलेवपादलेहणिया। संथारपीठफलगा, णिजोगो चेव दुगुणो उ॥ इष्टका चीरादिमयानि डगलानि पुनः प्रोञ्छनार्थं गृह्यन्ते सरजस्कः क्षारससंज्ञा खेलादिविसर्जनार्थं कुटमुखं घट कण्ठस्तत्र ग्लानयोग्यमौषधं कायिकी मात्रकं वा स्थाप्यते / मात्रक त्रिक खेलमात्रकं कायिकीमात्रकं संज्ञामात्रकं चेति / लेपः प्रतीतः प्रविष्टभाजनसंस्थापनार्थम् / पादलेखनिका वर्षासु कर्दमनिर्लेपना Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि धम् / संस्तारकः परिशाटी वेति द्विविध उभयोपशमनार्थं जीवादिरक्षणार्थं च गृह्यते पीठं छगणादिमयमुपवेशनार्थे फलकश्चं एकपट्टादिमयः शमनोपयोगी पात्रसत्कश्च निर्योगः / प्रत्यवतारो द्विगुण एतानि सण्यिपि तदानीं गृह्यन्ते। अथ शिष्यः प्रश्नयति। चत्तारि समोसरणे, मासा किं कप्पती ण कप्पति वा। कारणिग पंचरत्ता, सव्वेसिंमल्लगादीणं / / आषापूर्णिमाऽनन्तरं ये चत्वारः प्रथमसमवसरणे मासास्तेषु ग्रहीतुं कल्पते न वा। सूरिराह उत्सर्गतो न कल्पते द्वितीयपदे क्षेत्रस्याप्राप्ता अध्वनिर्गता वा आषाढपूर्णिमायां प्राप्तास्ततः संस्ताराद्युपर्धि डगलादीनि च पञ्चरात्रिदिवानि गृह्णन्ति पर्युषणाकल्पं च रजन्यामाकर्षन्ति / ततः पञ्चम्यां पर्युषणं कुर्वन्ति / अथ पूर्वोक्त कारणांत्पञ्चम्यामेव ते प्राप्तास्ततः पञ्चरात्रं तथैव संस्तारकमङ्गलादीनि गृह्णन्ति दशम्यां पर्युषणयन्ति / विशेष चूर्णिकृत्पुनराह "तं खेत्ताणं पजते आसाढपुण्णिमाए चेव ठिया तेहि उवही न गहियो संथारगाइ ताहे जाव पंच रत्तं ताव गेण्हंति एक्का पंचदिवसे पज्जोसणाकप्पं कहंति दसमीए एस कारणेणं कप्पई पंचरत्तं अह पंचमीए पत्ता तहेव य वरत्तगावडुंतीति" एवं सर्वेषां मल्लकादीनामुपकरणानामर्थाय कानि पञ्चरात्रिंदिवानि प्रवर्द्धमानानि तावन्मन्तव्यानि यावद्भाद्रपदशुद्धञ्चम्यां गृहीतेऽगृहीते वा ङगलमल्लकादौ नियमात्पर्युषणं विधेयम् “तेसिं तत्थ ठिआणं पडिलहुवट्टचारणादीसु लेवाईण अगहणे लहुगा पुस्विआ गहिते वा” तेषां साधूनां तत्र वर्षाक्षेत्र स्थितानासियं सामाचारी सभाप्रपाऽऽरामदेवकुलशून्यगृहादिषु यद्स्त्रमुज्झितं पथिकादिभिः परित्यक्तं तत्प्रत्युपेक्षन्ते यदा किल कार्यमुत्पत्स्यते तदा ग्रहीष्यन्ते तदभावे चरणादिषु प्रत्युपेक्षन्ते वर्षासुयदि लेपमादिशब्दात्पात्रं वा वस्त्रं वा गृह्णन्ति ततश्चतुर्ल घुकाः पूर्वं चालेपादीनि यदिन गृहीतानि / तदाऽपि चतुर्लघु। इदमेव व्याख्याति। वासाण एस कप्पो, सवतो चेव जाउ सक्कोसं। परिभुत्तं विप्पइण्णं, वाघातट्ठा परिक्खंति॥ (वासाणत्ति) विभक्तिव्यत्ययाद्वर्षासु तिष्ठतामेष कल्पः समाचारी सर्वतः सक्रोशं यावद्यत्कार्पटिकैः परिभुक्तं विप्रकीर्णं पूर्व परिभुज्य ततोऽकिञ्चित्करमिति मत्वा परिष्ठापितं ततस्तिष्ठन्त एव व्याघातार्थ निरीक्षन्ते। कः पुनव्याघात इति चेदुच्यते। अद्धाण णिग्गतादी, झामियवूढे व सेह परिझुण्णे। आगंतु बाहिपुट्विं, दिडं असण्णिसण्णीसु॥ अध्वनिर्गतादयः साधवः आगच्छेयुः आत्मीयो वा उपधिध्यामितो दग्धो भवेत् उदकेनवा व्यूढः शैक्षो वा अवश्यप्रव्राजनीयः पुराणादिरुपस्थितः परिजीर्णो वा उपधिरेतैः कारणैरागन्तुकेषु तालावरादिषु पूर्व मार्गयन्ति ततः क्षेत्राहिरसंशिषुपूर्व दृष्ट गृह्णन्ति। अथेदमेव विभावयिषुरागन्तुकाननागन्तुकान् व्याख्याति। तालायरे य धारे, वाणियखंधारसेणसंवट्टे। लाउडिग वहग सेवग, जामाउगं पंथिगादीसुं॥ तालावरा नटनर्तकवदियो (धारेत्ति) देवछत्रधारकाः वणिजो वाणिज्यकाः राजविम्बसहितं स्वचक्रं परचक्रं वा स्कन्धावार उच्यते राजबिम्बविरहिता सेना चौरधाटीभदेन बहवो ग्रामनायका अधिष्ठातारः एकत्र स्थिताः सर्वत्तः लाकुटिका उङ्गरावजिका गोकुलिका सेवकाश्चारभट्टकाः जामातृकाः प्रसिद्धाः पथिका ये बहवः स्वं देशं प्रति प्रस्थिताः एवमादिषु पूर्व मार्गयन्ति कथयित्माह। आगंतुकेसु पुट्विं, गवेसए चारणादिसु बाहिं। पच्छा जे सग्गाम, तालावरादिणो यंति॥ (बाहिंति) सक्रोशयोजनान्तर्वतिष्वन्तरपल्लिकासहितेषु बाह्यग्रामेषु ये आगन्तुकाश्चारणादयस्तेषु पूर्व गवेषयन्ति / पश्चात् बाह्यग्रामेषु चारणादीनामभावे येतालावरादयः स्वग्राममायान्ति तेषु गवेषयितव्यम्। कथमेतेषु वस्त्रसंभव इत्याह। लद्धण णवे इतरे, समणाणं देज सेवजामादी। चारणधारवणीयं, पडंति इयरे उ सडितरा / / सेवका जामातृका नवानि वस्त्राणि लब्ध्वा इतराणि पुराणानि श्रमणानां दधुः / चारणानां (धारत्ति) देवछत्रधारिणां राजादयः प्रसादतो वस्त्राणि प्रयच्छन्ति तानि पुराणानि वा ते साधूनां दधुः (वणीयंति) वाणिज्यक वणिजः पतन्ति / इतरे तु पथिकादयः श्राद्धाः श्रावका भवेयुः बहिर्गामे स्वग्रामेऽप्युपचारणादीनामभावे विधिमाह। बहिरंतसण्णिसण्णिसु, जं दिह्र तेसु वा जमदिठं। केई दुहउवसण्णि, सुगहिते सण्णीसु दिद्वितरे।। क्षेत्राभ्यन्तरे प्रतिवृषभग्रामेषु ये असंझिनस्तेषु पूर्व दृष्ट वस्त्र मार्गयन्ति तदभावे बहिामेऽप्येवं संझिषु पूर्व दृष्टं तदभावे अन्तर्मूलनामे असंज्ञिषु पूर्व दृष्ट तदसत्वे मूलग्राम एव संझिषु यत्पूर्वमदृष्टं तदभावे मूलग्राम एवासंज्ञिषु पूर्वमदृष्ट वस्त्र मार्गयन्ति केचिदाचार्या इत्थं ब्रुवते। द्वयोरपि बहिरन्तर्लक्षणयोः स्थानयोः प्रथमसंज्ञिषु गृहीते सति ततो बहिरन्तर्वतिष्वेव संज्ञिषु यथा कर्मदृष्टमितरत्वात् दृष्टं गृह्णातीति किं पुनः कारणं पूर्व दृष्ट प्रथमं गृह्यते उच्यते तत्र हि पूर्वप्रत्युपेक्षितत्वेनाधाकर्मादय उत्क्षेपनिक्षेपादयश्च भवन्ति। कोई तत्थ वणिज्जा, वाहिं खित्तस्स कप्पती गहणं / गंतुं ता पडिसिद्धं, कारणगमणे बहुगुणं तु॥ कश्चिन्नोदकस्तत्रेति अनन्तरोक्तव्याख्याने इदं भणेत् यदि पूर्व प्रतिवृषभग्रामेऽप्युद्गृहीतव्यं ततो मूलग्रामे एवं तर्हि दूरत्वात् / क्षेत्रागहिर्ग्रहणं सुभगं कल्पते / गुरुराह क्षेत्रावहिर्वर्षासु गन्तुमपि तावत्प्रतिषिद्ध किं पुनर्वस्त्रग्रहणम् / अथ कारणे वर्षासु क्षेत्रावहिर्गमनं करोति तत्र गतश्च वर्षाकल्पादिनानिमन्त्र्यते तदासंयमस्य बहुगुणमिति कृत्वा तदपि ग्रहीतव्यम् / इदमेव व्याचिख्यासुः प्रथमतः परवचनं व्याख्याति। एवं नामं कप्पति, जं दूरे तेण बाहि गिण्हंतु। . एवं भणंति गुरुगाण, गमणे गुरुगा व लहुगा वा॥ यत दूरे गामादहिर्वस्त्रं तद्यदि प्रथमं कल्पते तत एवं नाम क्षेत्रावहिः सुतरां प्रथमतरं गृह्णन्तु सूरिराह एवं भणतो भवतश्चतुर्गुरुकाः / अथ क्षेत्रादहिर्गच्छाति ततो गुरुका वा लघुका वा प्रायश्चितं तत्र नव प्रावृषि चत्वारो गुरवः शेषे वर्षाकाले चत्वारो लघवः / कारणगमने बहुगुणमिति व्याचष्टे॥ संबंधभाविएस, कप्पति जोयणे कजे। जुण्णेव वासकप्पं, गेण्हति जं बहुगुणं वण्णं / / Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1096- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि यानि साधम्मिकसंबन्धेन संबद्धानि परस्परं गमनागमनभावितानि च मायाए तिहि य कसिणेहिं वत्थोहिं आयाए संपव्वइत्तए कप्पइ क्षेत्राणि तेषु वर्षासु कल्पते साधम्मिकाणामुदन्तवहनार्थं चत्वारी पञ्च से अहापरिग्गहियाई वत्थाइंगहाय आयाए संपव्वइत्तए। योजनानि यावत् गन्तुं वस्तुं वा एवं कार्ये गतस्यापान्तराले वर्षात्राणेन अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह। कश्चिन्निमन्त्रणं कर्यात् तस्य च प्राक्तनो वर्षात्राणः परिजीर्णस्ततश्च णिग्गंथिचेलगहणं, भणियं समणाण वोच्छामि। वर्षात्राणं घनमसृणमभिनवं च ततो वर्षासु बहुगुणमिति कृत्वा गृह्णाति। कारणोऽन्यदपि पटलकादिकं घनमस–णादिगुणोपेतमाचार्यप्रायोग्यं वा निक्खंते बाहुत्तं, निक्खमणाणे इमं सुत्तं / / यद्वस्त्र लभ्यते तदपि भूयान गुणोऽत्र गृहीते भविष्यतीति कृत्वा गृह्यते एवं निर्ग्रन्थीविषयं चेलग्रहणं भणितम् / इदानीं श्रमणानां यथा वस्त्रं गृहीतुं कारणगमनं ग्रहणं चोभयमपि दृष्टम् / कारणाभावे तु न कल्प ते गन्तुं कल्पते तथाऽभिधीयते / यद्धा निष्कान्तो दीक्षितस्तद्विषयं ग्रहीतुंवा। अथ गृह्णाति ततोऽमून् षोडश दोषान् / प्राप्नोति वस्त्रग्रहणमुक्तमिदं तु निष्क्राम्यति दीक्षामददाने वस्त्रग्रहणाभिधायक आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजायाए। सत्रमारभ्यते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या निर्गन्थस्य तत्प्रथमतया समिति सम्यक् प्रकर्षेण पुनरभङ्गी कारलक्षणेन व्रजतो ठवणा पाहुडियाए, पादोकरकीतपामिचे। गृहवासान्निगच्छतः संप्रव्रजतः कल्पते। रजोहरणमोक्षकेप्रतिग्रहमादाय रियट्टिए अतिहडे उ, उम्भिण्णमालाहडे य! त्रिभिः कृत्स्नैर्वस्त्रैरात्मना संप्रव्रजितुम् / इह रजोहरणग्रहणेन अच्छिले अणिसिहे, धोते रत्ते य घट्टे य॥ मध्यमोपधिगोच्छकग्रहणेनजघन्योपधिः प्रतिग्रहणेनोत्कृष्टोपधिः सर्वो आधाकर्म 1 औद्देशिकं 2 पूतिकर्म 3 मिश्रजातं 4 स्थापना 5 गृहीतस्ततोऽयमर्थः जघन्यमध्यमोत्कृष्टोपधिनिष्पन्ना ये त्रयः कृत्स्नाः प्राभृतिका 6 प्रादुष्करणं 7 क्रीतं 8 प्रामित्यं परिवर्तितम् 10 दूत्याहृतम् प्रतिपूर्णा वस्त्रपात्रे प्रत्यवतारास्तैरात्मना सहितैः प्रव्रज्या ग्रहीतुं कल्पते 11 उद्भिन्नं १२मालाहृतम् 13 आच्छेद्यम् 14 अनिसृष्टं चेति 15 पञ्चदश (सेयति) चशब्दार्थे / अथासौ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः पूर्वमुपस्थितो दीक्षितः दोषाः (धोयरत्तेयघट्टेयत्ति) साधूनामर्धाय मलिनवस्त्रं धौतं गौरवं स्यात् ततो नो कल्पते (से) तस्य पूर्वोपस्थितस्य रजोहरणगोच्छककृतमित्यर्थः / एवं रकं प्रदत्तरागं घृष्ट मसृणं पाषाणादिना उत्तेजितमेते प्रतिग्रहमादाय त्रिभिः कृत्स्नैरात्मना संप्रव्रजितुं किंतु कल्पते (से) तस्य त्रयोऽप्येक एव दोष इति। यथा परिगृहीतानि क्रीतकृतादिदोषरहितानि वस्त्राणि गृहीत्वा आत्मना संप्रव्रजितुमिति सूत्रसमासार्थः / अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते / आह न एते सव्वे दोसा, पढमोसमोसरेणवजिता होति। तावदद्याप्ययं प्रव्रजति ततः कथं निर्ग्रन्थः। उच्यते द्रव्यतएको भावतो जिणदिहिहिं अगहितो,जो गेणहति तेहि सो पुट्ठो॥ द्वितीयः द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि अपरोनद्रव्यतो न भावतः। तत्र द्रव्यतो एते सर्वेऽप्याधाकदियो दोषाः प्रथमे समवसरणे वस्त्रादिकं गृह्णतान निर्ग्रन्थः स उच्यते यो लिङ्गसहितो द्रध्यलिङ्गयुक्तो निःशङ्कःसन्नवधा वर्जिता भवन्ति। अथपूर्वदर्पतोन गृहीतमुपकरणंततः प्रथमे समवसरणे वति उत्प्रव्रजतीत्यर्थः / यस्तुप्रव्रज्यायामभिमुखो न तावदद्यापिप्रव्रजति यो गृह्णाति सोऽपि जिनैस्तीर्थकरैर्ये दृष्टाः कर्मबन्धदोषास्तैः स्पृष्टो कारणेन वा यः साधुः परलिङ्गे वर्तते स द्वितीयो द्वितीयभगवर्ती यस्तु मन्तव्यः। भावतस्तेन दोषाणामङ्गीकृतत्वात्। उदयसहितो द्रव्यभावलिङ्गयुक्त स तृतीयः उभयथाऽपि निर्ग्रन्थ इति पढमम्मि समवसरणे,जो वतियं पत्तचीवरं गहियं / भावः। उभयविमुक्ते तुद्रव्यभावलिङ्गरहिते गृहस्थादौ चरमश्चतुर्थो भङ्गो सव्वं वोसरियव्वं,पायच्छित्तं च वोढव्यं / / भवति / अत्राचार्यो देवस्य मानुष्यस्य सहवासलक्षणं दृष्टान्तं कर्तुकाम प्रथमतः सिद्धान्तं प्रज्ञापयति। प्रथमे समवसरणे दर्पतो यावत्पात्रचीवरं गृहीतं तावत्सर्वमपि व्युत्सृष्टव्यं प्रायश्चितं गुरुप्रदत्तं यथोक्तं वोढव्यम्। अथवा कार्ये समुत्पन्ने यत्पात्रं वा चउधा खलु संवासो, देवासुररक्खसे मणुस्से य। चीतरं चारणादिषु गृहीतं तत्सर्व कृते कार्ये परिष्ठापनीयम् / अण्णोण्णकामणेण य, संजोगा सोलस हवंति।। अपरिणामकप्रत्ययनिमित्तं च यथालघीयः प्रायश्चित्तं वोढव्यम्। देवसंवासः असुरसंवासो राक्षससंवासो मनुजसंवासश्चेति सज्झायहादप्पेण, वावि जाणतए विपच्छित्तं। संवासश्चतुर्धा। अत्र चान्योन्यकाम्यया षोडश संयोगा भवन्ति। तद्यथा देवो देव्या सार्द्ध संवसति 1 देवोऽसुर्या सार्द्धम् 2 देवो राक्षस्था सार्द्धम् 3 कारणगहियं तु विघूय, धरेत गीए ण उज्झति॥ देवो मानुष्या सार्द्धम् 4 असुरो देव्या समं संवसति५ असुरोऽसुर्या 6 स्वाध्यायार्थं दर्पण वायदिबहिअंतसन्निसुजं दिटठंतेसुचव जमदिटठं" असुरो मानुष्या 7 असुरो राक्षस्या 8 राक्षसो देव्याह राक्षसोऽसुर्या 10 इत्यादिकं क्रममुल्लङ्घ्य गृहीतं तत्र जानतोऽपि गीतार्थस्यापि राक्षसोमानुष्या 11 राक्षसोराक्षस्या 12 मनुष्यो देव्या 13 मनुष्योऽसुर्या प्रायश्चित्तम् / यत्तु कारणे क्रमेण विधिना गृहीतं तद्यदि सर्वेऽपि विदो 14 मनुष्यो राक्षस्या 15 मनुष्यो मानुष्या 16 चेति / अत्र देवशब्देन गीतार्थास्तं धारयन्ति अथागीतार्थनिश्रा ज्ञतोऽन्यस्मिन्नुपकरणे लब्धे वैमानिको ज्योतिष्को वा। असुरशब्देन तु सामान्यतोव्यन्तरः परिगृह्यते। नदुष्यन्ति। बृ०३उ०नि०चू०। कल्प० (ऋतुबद्ध वस्त्रग्रहणं वत्थ शब्दे) अधस्तने चषोडश भङ्गान् चतुर्यु भङ्गेष्ववतारयन्नाहा (11) प्रथमं प्रव्रजत उपधिग्रहणम्। अहवा देवछवीणं, संवासे एत्थ होति चउमंगो। (सूत्रम्) निग्गंथस्स य तप्पढमयाए संपव्ययमाणस्स कप्पइ पध्वजाभिमुहंतर, गुज्झगउझामिया वासे // स्यहरणगोच्छयपडिहिं कसिणेहिं वत्थेहिं अयाए संपव्वइत्तए से अथवेति प्रकान्तरद्योतकः / देवच्छ विमतोः संवासे चतुर्भङ्गी पुष्योवहिए सिया एवं से नो कप्पइ रयहरणपडिग्गहगोच्छए / भवति / देवो देव्या सार्द्ध संवसति। 1 / देवश्छविमत्या सा Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1067- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि र्द्धम् 2 छविमान् देव्या सार्द्धम् 3 छविमानछविमत्या 4 अत्र देवशब्देन सामन्यतो भवनपत्यादिनिकायचतुष्टयाभ्यन्तरवर्ती गृह्यते छविमांश्च मनुष्य उच्यते अत एतेषुचर्तुषु भङ्गेषु पूर्वोक्ताः षोडशापि भङ्गाअन्तर्भूता एवं सिद्धान्तं प्रज्ञाप्य प्रस्तुतार्थसाधकं दृष्टान्तमाह पवजा इत्यादि। एकः कश्चित्तरुणः प्रव्रज्यामिमुखो गुरूणां पार्वे प्रस्थितः अन्तरा कस्मिंश्चिद्ग्रामे एकस्यास्तरुण्या गृहे वासार्थमुपगम्यद्वारमूले सुप्तः सा च तरुणी उद्ग्रामिका कुशीला गुह्यकः कश्चिद्यक्षस्तया उद्ग्रामिकया सह रात्रौ वासं कृत्वा प्रभाते स्वस्थानं गच्छति एवं दिवसे दिवसे करोति। तस्मिंश्च दिवसे यज्ञो नोपागमत् द्वितीये दिवसे कोऽपि सलिङ्गीवधावी चौर्य कर्तुकामस्तस्मिन्नेव ग्रामे तस्या एव तरुण्या गृहे तथैव मूले प्रसुप्तः यज्ञश्च तद्दिवसमागतः। वितियणिसाए पुच्छा, एत्थ जती आसि तेण मितअन्नो। जतिवेसो यं चोरो, जो अज्ज तुहं वसति दारे॥ यस्मिन् दिवसे यक्षोऽनायातस्ततो यो द्वितीयो दिवसस्तत्र निशायामागतस्य यक्षस्य पार्श्वे पृच्छाा कृता कल्ये किं नागतोऽसि यक्षः प्राह / अत्र कल्ये यतिरासीत् / तेन कारणेनाहमत्र नायातः। अपि च साधुसंबन्धिता तेजसैव तलुल्लङ्घय गन्तुं न शक्यते सा प्राह किमेवं मृषा भाषसे अयमपि तावदन्यः साधुरिमूले सुप्तस्तिष्ठति / अत एवमुल्लय कथमद्यागतोऽसीति / जक्षः प्राह एष चारित्रं प्रति विपरिणतश्चौर्य कर्तुकामः। अतोयतिवेषेण चौरोऽयं मन्तव्यः यस्तवाद्य द्वारे वसतीति / तदेवमनेन दृष्टान्तेन प्रव्रज्यायामभिमुखः प्रव्रजित एवोच्यते। उक्तंच नैश्चयिकनयवक्तव्यतामङ्गीकृत्य भगवत्याम् “नेरइए णं भंते नेइरेसु उववञ्जइ अनेरइए ? गोयमा ! नेरइएसु उववज्जइ नो अनेरइएसु उववजई"1 अथ रजोहरणादिपदानि व्याचष्टे / / रयहरणे विमज्झिमो, गुच्छग्गहणे जहण्णगग्गहणं / पडिग्गहगहणे गहणं, उक्कोसओ होइ अवहिस्स / / रजोहरणग्रहणेन विमध्यमोपधिर्गहीतो गुच्छकग्रहणेन जघन्योप- | धिग्रहणं भवति प्रतिग्रहणेन चोत्कृष्टस्योपधेर्ग्रहणं मन्तव्यम्। पडिपुण्णा पडुयारा, कसिणग्गहणेण अप्पणो तिण्णि / पुट्विं उवद्वितो पुण, जो पुव्वं दिक्खितो आसी॥ कृत्स्नवस्वग्रहणेनेदमुक्तं भवति / तेन प्रव्रजता आत्मनो योग्यास्त्रयः प्रत्यवताराः प्रतिपूर्णा ग्रहीतव्याः पूर्वमुपस्थितः पुनः स उच्यते यः पूर्वदीक्षित आसीत् एष सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरः। सोऊण कोइ धम्म, उवसंतो परिणओ य पध्वजं / पुच्छाति पूर्य आयरिय उव-ज्झायपवत्तिसंघाडिए चेव।। इह कश्चित्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके धर्म श्रुत्वा उपशान्तः प्रतिबद्धः प्रव्रज्यायां च परिणतः आचार्यान् पृच्छति आदिशत क्षमाश्रमणाः किं मया कर्त्तव्यम् / सूरयस्तस्य सारसंभवं ज्ञात्वा ब्रुवते (पूयंति) चैत्यानां विपुलां पूजां कुरु श्रमणसंघस्य च वस्त्रादिभिः प्रतिलाभनं कुरु। एवमुक्तेस तथैव चैत्यानां श्रमणसंघस्य च पूजां करोति। अथ श्रमणसङ्घन पूजयितुमीशस्तत आचार्यस्योपाध्यायस्य प्रवर्तिनः संघाटकसाधोश्च वस्त्रादिभिः पूजा विधातव्या। इदमेव भावयति। णंतगघतगुलगोरस, फासुपडिलाभणं समणसंघे। असतिगणिवायगाणं, तदसति सव्वस्सगच्छस्स / / स प्रविव्रजिषुः श्रमणसङ्घस्य सकलस्यापि प्रासुकैः शुद्धैर्वस्त्रघृतगुडगोरसादिभिर्द्रव्यै : प्रतिलाभनां करोति। अथ नास्त्येतावत्सारं ततो ये गणिंन आचार्या ये च वाचका उपाध्यायास्तेषां सर्वेषामपि करोति। अथ मास्त्येतावती शक्तिस्ततो यस्मिन् गच्छेऽसौ प्रव्रजिष्यति तस्य सर्वस्यापि प्रतिलाभनां विघत्ते॥ तदसति पुय्क्त्ताणं, चउण्ह सीसतिय तेसिवावारो। हाणी जा तिण्णि सयं, तदभावे गुरुउ सव्वं पि॥ तस्या अपि सकलगच्छपूजाक्षमायाः सामण्या अभावे ये पूर्वमाचार्या ये च वाचका उपाध्यायास्तेषां सर्वेषामपि करोति आचार्योंपाध्यायप्रवर्तिसंघाटकसाधुलक्षणाश्चत्वार उक्तास्तेषां पूजां करोति। तेषां चाचार्यादीनां व्यापारोऽर्थकथनादिस्तस्य पुरतः शिष्यते कथ्यते यथा आचार्योऽर्थ व्याख्यानयति उपध्यायः सूत्रं वाचयति प्रवर्तते यः स संयमादौ प्रवृत्तिं कारयति संघाटकः साधुभिर्भिक्षाविचारभूम्यादौ गच्छतां साहाय्यं विधत्ते एषां पूजा विधेयेति / अथ नास्त्येतावती शक्तिस्ततो यतो यथामाहात्म्यं प्रथममाचार्योपाध्याययोस्तथाप्यशक्ती केवलस्यैवाचार्यस्य पूजां करोति / एवमप्यशक्तौ स्वयमात्मनो योग्यान् त्रीन् प्रत्यवतारान् तदभावे एकमपि प्रत्यवतारमादाय प्रव्रजति / अथ नास्ति तस्यैकोऽपि प्रत्यवतारस्ततः सर्वमपि पात्रनिर्योगादिकं तस्य गुरवः प्रयच्छन्ति। अथास्य विद्यमानविभवस्योगमकोटिदोषैर्विशोधिकोटिदोषैर्यान्यविशुद्धानि वस्त्राणि प्रयच्छतो ग्रहीतुंकल्पन्ते नवेति चिन्ता चिकीर्षुराह॥ अप्पणो कीतकडं व, आहाकम्मं व घेत्तु आगमणं / संजोए चेव तधा, अणिदिढे मग्गणा हुंति॥ स गृहस्थशैक्ष आत्मनो योग्यं वस्त्रपात्रादि क्रीतकृतं वस्त्वाधाकर्म वा गृहीत्वा गुरुणामन्तिके दीक्षाग्रहणायागमनं कुर्यात्। अत्र क्रीतकृतग्रहणेन विशोधिकोटिदोषा गृहीताः / अमीषां च दोषाणा-मनिर्दिष्टे उपलक्षणत्वान्निर्दिष्ट वा ये संयोगा भङ्गकास्तेषां मार्गण कर्त्तव्या भवतीति द्वारगाथासमासार्थः। सांप्रतमेनामेव विवृणोति / कीयम्मि अणिद्दिहे, तेणोग्गहियम्मि सेसगो कप्पे। निद्दिट्ठम्मि ण कप्पति, अहव विसेसो इमो तत्थ।। क्रीतकृतं द्विधा निर्दिष्टमनिर्दिष्ट च। निर्दिष्ट नाम वस्त्रपात्रादिकं क्रीणीत इत्थमुद्देशं करोति अमूनि मम भविष्यन्ति अमूनि साधूनां दास्यामि तद्विपरीतमनिर्दिष्टम् / एवमन्येष्वपि दोषेषु भावना कर्तव्या तत्र यानि वस्त्राणि तेनानिर्दिष्टानि क्रीतानि तेषां मध्ये यत्तस्याभिरुचितं वस्त्रजातं तेनावगृहीते सति शेषाणि साधूनां कल्पते निर्दिष्ट तु साधूनामर्थाय यत् क्रीतं तत् किमपि न कल्पते अथवा तत्र निर्दिष्टऽयं विशेषो ऽभिधीयते। मज्झंतिगाण गिण्हह, अहं तुज्झव्वए परिधित्थं। सेहेहिं ति व वत्थं, तदभावे विगिचंति॥ मदीयानि मया आत्मार्थ क्रीतानि वस्त्राणि यूयं गृहीथ अहं तु युष्मदीयानि युष्मदर्थं मयैव क्रीतानी वस्त्राणि परिगृहीष्ये एवं तेनोक्ते तान्यात्मार्थकीतानि कल्पन्ते / अथवा स ब्रूयात् यावत् युष्मदर्थतेतानि कीतानि इत ऊर्द्ध यत् जानीथ तत् कुरुथ ततस्तनिर्दिष्ट वस्त्र प्रत्यवताराः शैक्षस्यान पस्थापितस्य प्रयच्छन्ति / अथ नास्ति शैक्षो वा पर कि महं साधुन भवामि यदेवमेतानि मम दीयन्ते इति कृत्वा नेच्छति ततस्तानि (विगि Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1018 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि चंति) परिष्ठापयन्ति। एवं परिष्ठाप्यमानेषु सशैक्षो ब्रूयात्। एतं पिमा उज्जह देह मज्झं, मज्झव्वगा गेण्हह एक दो वा। अत्तट्ठिए होति कदायि सव्वे, सव्वे विकप्पंत विसोधएसा // एतमपि वस्त्रप्रत्यवतारमकल्पनीयतया प्राप्तमाउज्झह किं तु मां प्रयच्छत मदीयप्रत्यवतारान् चैकं द्वौ वा यूयं गृहीत / अथ तेन बहवः प्रत्यवताराः क्रीतास्ततः को विधिरित्याह यान् प्रत्यवतारान् एकं वा द्वौ त्रीन् वा स दाता आत्मार्थयतिस त्रीन् वा कदाचिदात्मार्थ करोति तदा सर्वेऽपि कल्पन्ते एष विशोधिको टिविषयो विधिरुक्तः / अथाविशोधिकोटिविषयं तमेवाह / / उग्गमकोडीए विहु, संछोभ तथव हाति अनिहिडे / इयरम्मि विसंछोभो, जइसेहो सयं भणइ॥ उद्गमकोटिमि आधाकर्मादयोऽविशोधिकोटयो दोषास्तेष्वपि यदि निर्दिष्टमिदं साधूनां दास्यामि इदं मम भविष्यतीति निर्विशेषमन्तरेण वस्त्रादिक्रीतं तन्न कल्पते (संछो होइअनि-द्दित्ति) अनिर्दिष्टऽपि यद्येषां दाता ब्रूयात् यैर्वस्त्रै!यं निमन्त्रिता यदि तानि नेच्छथ तत इमानि मत्परिगृहीतानि गृहीत यानि युष्याभिः प्रतिषिद्धानि तानि मम भविष्यन्ति एवमसौ संक्षोभं प्रक्षेप कंकृत्वा यदि ददाति तर्हि सण्यिपि कल्पन्ते (इतरम्मिविसंछोभोत्ति) इतरन्नाम निर्दिष्ट तथाऽपि संक्षोभो यदि स्यात्ततः कल्पते / संक्षोभः पुनरयं यथाऽसौ गृहस्थशैक्षः स्वयमन्येनानुपदिष्ट आत्मनैवेत्थं भणति।। उकोसगाव दुक्खं व, वजिया के सित्तो हमि विथेव। इति संछोभ तेहिं, वदंति निद्दिष्टोसुं पि।। यानि वस्त्राणि मया युष्मदर्थं कारितानि उत्कृष्टानि बहुमूल्यानि ततः कथं परित्यजन्ति दुःखं वा महता प्रयासेन वाऽपि तानि अतः क्लेशितःक्लेशं प्रापितोऽहं वृथैवामीभिः युष्माकमनुपकरणात् अतो मदीयानि यूयं गृह्णीथ युष्मदीयानि च मम भवन्तु। इत्येवंतत्र निर्दिष्टवपि संयतनिमित्तं निर्दिश्य कृतेष्वपि संक्षोभं कल्पनीयताकरणं वदन्ति तीर्थकरादयः / संयतनिर्दिष्टान्यपि कल्पन्त इति भावः / अत्र मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाह। जा संजयणिहिट्ठा, संछोमम्मि विन कप्पते केई। तं तु ण जुन्जइ जम्हा, दिज्जति सेहस्स अविसुद्धं / / या अविशोधिकोटिः संयताय निर्दिष्टा साधून्निर्दिश्य कृता सा संक्षोभे कृतेऽपि न कल्पते एवं केचिदाचार्या ब्रूवते तत्तु न युज्यते यस्मात् शैक्षितस्यानुपस्थापितस्याविशुद्धनेषणीयं वस्त्रपात्रादि दीयते इत्यत्रैव चतुर्थो द्देशकं वक्ष्यतितत्र शैक्षयोग्यमविशुद्धं साधुभिः परिगृहीतं भवति अतो ज्ञायते अविशोधिकोटिदोषैर्दुष्टमपि वस्त्रादिकं संक्षोभेकृते कल्पते। किंचान्यत्॥ जह अप्पट्ठा कम्मं, परिभुत्तं कप्पते य इतरेसिं। एमेव य अम्हाणं, परिगहियं वि कप्पते इयरेसिं॥ यथा गृहस्थेनात्मनोऽर्थायाधाकर्म कृतं तदितरेषां संयतानां परिभोक्तुं कल्पते। इत्यमुनैव ज्ञापकेनास्माकमपिस शैक्षो गृहस्थ एवेति कृत्वा तेन परिगृहीतं ममेदमिति बुद्ध्या स्वीकृतमितरदपि संयतनिर्दिष्टमपि कल्पते। इतरेषां साधूनां ये पुनराचार्या अविशोधिकोटिनिर्दिष्ट संक्षोभेऽपि कृते नेच्छन्ति। ते इदं कारणमुपवर्णयन्ति॥ सहस्साणुवादिणा तेण, णिहिट्टे केहण इच्छंति। अणिदिढे पुण छोभ, वदंति परिफग्गु मंतव्वं // यथा सहस्रानुपाति विषं भक्ष्यमाणं सहस्रान्तरितमपि पुरुषं मारयति। एवमाधाकर्माधुपभुज्यमानं सहस्रान्तरितमपि साधु संयमजीविताद् व्यपनयतिनसहस्रानुपातिविषजातेन केचिदाचार्याः साधुनिमित्तं निर्दिष्ट संक्षोभेऽपि कृतेनेच्छन्ति अनिर्दिष्ट पुनः क्षोभं कृत्वा ददानस्य कल्पनीयं वदन्ति। एतदेव परिफल्गु निस्सारं मन्तव्यम् / कथमित्याह॥ एवं पिसप्पइरमीसेण, परिसरग तेण फग्गुमिच्छामो। दुविधं पि ततो गहियं, कप्पविरतणावउण्णातं // यत्ते आचार्यदेशीया इति निर्दिष्ट संक्षोभे कृते कल्पनीयं ब्रवते एतदपि स्वगृहपतिमिश्रेण सदृशं तेन कारणेन परिफल्गु वयमिच्छामः तदीयानि प्रायेण होतदपि स्वगृहपतिमिति कृत्वा अकल्पनीयं प्राप्नोति तच्चानिष्ट ततो द्विविधमपि निर्दिष्टानिर्दिष्टभेदाद् द्विप्रकारमपि तेन शैक्षण संक्षोभकारणेनागृहीतमात्मीकृतं सत्कल्पते / तथा वाऽत्र रत्नोचयो मेरुमहीधरो ज्ञातदृष्टान्तः / तथा हि तत्र प्रक्षिप्तं तृणादिकमपि सुवर्णी भवति एवं शैक्षगृहस्थेन परिगृहीतं सर्वमपि कल्पनीयं भवति। अपिच॥ जहट्ठकडं चरिमाणं, पडिसिद्धं तं हि मज्झिमो गहियं / पडिवण्णपंचजामे, कप्पति तेसिं तहण्णेसिं॥ यथा चरमतीर्थवर्तिनां पञ्चयामिकानां साधूनामर्थाय किमपि वस्त्रं वा पात्रं वा कृतं तच तैः प्रतिषिद्धं न गृहीतं मध्यमैश्च पार्श्वनाथतीर्थवर्तिभिश्चतुर्याभिकैस्तत्प्रतिगृहीतं ते चतुर्याभिकाः पञ्चयामधर्मप्रतिपन्नास्ततस्तद्वस्त्रादिकं तेषामन्येषामपि पञ्चयामिकानां परिभोक्तुं कल्पते। एवमत्रापि साधूनामर्थाय कृतं तैः प्रतिषिद्धं शैक्षगृहस्थेनात्मार्थकृतं सद्दीयमानं कल्पते। अथ संयोगद्वारं व्याख्याति // उग्गमविसोधिकोटी, दुगादिसंजोगओ बहू वत्थं / पत्तगमीसिगासु य, णिट्ठिातह अणिहिट्ठा।। इहोगमकोटिभेदा आधाकर्ममिश्रजातादयस्तेषां द्विकादिसंयोगतो द्विकत्रिकचतुष्कादिसंयोगनिष्पन्ना बहवोऽत्र भङ्गका भवन्ति / ते च सुगमतया स्वयमभ्यूह्य मत्तव्याः। एवं विशोधिको टिभेदानामपि क्रीतकृतादीनां द्विकादिसंयोगनिष्पन्नाः तथैव बहवो भङ्गकाः / एते च प्रत्येक भङ्ग का उच्यन्ते / एतेषामेवोद्गमकोटिभेदानां च परस्परं द्विकादिसंयोगनिष्पन्ना एवमेव बहवो भङ्गका भवन्ति।तेच मिश्रभङ्गका भण्यन्ते। सर्वेऽप्येते द्विधा निर्दिष्टा अनिर्दिष्टाश्च एतासु प्रत्येकमिश्रासु भङ्गपतिषु कल्प्याकल्प्यविभागाः प्रागुक्तप्रकारेणावसातव्याः / अथ वक्ष्य माणार्थसंबन्धनाय प्रस्तावनां करोति। वत्था व पत्ता परे वि हुजा, दव्वंति कुजा णिवणे सयंपि। णिज्जुत्तभंडं व रयोहरादि, कोई किणे कुत्तियआवणातो।। वस्त्राणि वा पात्राणि वा प्रायो गृहेऽपि भवेयुः / यत्तु निर्युक्तमाण्ड पात्रनिर्योगोपकरणं वाशब्दस्य व्यवहितसंबन्धतया रजोहरणादिकं वा यदन्यत्र दुर्लभमुपकरणं तत् कश्चित्पुनः बुद्धिमान् साधूनां समीपे दृष्ट्वा तदनुसारेण स्वयमपि कुर्यात् / कश्चित्तदेव कुत्रिकापणात् क्रीणीयात् / बृ०३उ०। (कुत्रिकापणवक्रव्यता स्वस्थान एव) अथ सप्त नियोर्गान् व्याचष्टे। तिण्ण य अप्पढेती, चत्तारिय पूयणारिहे देति। दितस्सय चित्तव्वो, सेहस्स विगिचण्णं वावि।। Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1069 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि सप्त निर्योगान् गृहीत्वा प्रव्रजतोऽयं गुणस्तेषां सप्तानां मध्यात् त्रीन्स शैक्ष आत्मनोऽर्थात गृह्णातीत्यर्थः / चतुरश्च निर्योगान् पूजनार्हाणमाचार्योपाध्यायप्रवर्तिसंघाटकसाधूनां प्रयच्छतितस्यचैवं प्रयच्छतो यद्यसौ निर्योगः शुद्धस्ततो ग्रहीतव्यः / अथाशुद्धस्ततः शैक्षस्य दातव्यः / शैक्षस्याभावे विर्गिचनं' परिठापनं तस्य क्रियते / एवं तस्य त्रीन्निर्योगान् / गृहीत्वा प्रव्रजितस्य यद्भवति तदर्शयति। सज्झाए पलिमंथो, पडिलेह,णिया यसो हवइ खिन्नो। एगावदेति तहि तं, दोनि य से अप्पणो हुंति॥ तस्य त्रीन्नियोगानुभयकालं प्रत्युपेक्षमाणस्य महान् स्वाध्यायवि--- परिमन्थो भवति / तया च महत्या प्रत्युपेक्षतया स खिन्नः परिश्रान्तो भवति तत एवं निर्विण्णः सन् एकं निर्योगसूरीणां ददाति प्रदते चतस्मिन् तस्यद्वौ निर्योगावात्मनः सत्तायां भवतः। एवमप्यसौ द्वाभ्यां निर्योगाभ्यां नैष साधुभ्योऽन्यादृश इव दृश्यते ततः। निग्गमणे बहुभंडो, कत्तो कतरो व वाणिओ एइ। बितियं पिदेति तहिं, सा भंते दुल्लह होजा। मासकल्पे पूर्ण ततः क्षेत्रान्निर्गच्छतांमध्येसएचैको बहुभण्डो--बहूपकरणो दृश्यते। ततो लोकस्तमुद्दिश्य ब्रूते / अहो कुतः कतरो वा अयं वणिज एवमुपस्करसंभारितः समुपैति। एवमुपहासमाकर्ण्य स द्वितीयमपि निर्योग गुरूणां ददाति / तत्र गुरुभिर्वक्तव्यं हेभदन्त ! आर्य मा ते तव भूयो दुर्लभमुपकरणं भवेत् अत आत्मपार्वे एव तावद्धारय / स प्राह। भारेण खंधे च कडीय वाहा, पीलिज्जएणिस्ससए उ उड्ढं। तेणे य ओधीणममिदवेजा,ण एत्तिया इति ममोवभोगं / / मम मार्ग गच्छातो द्वयोमहान् भारो भवति तेन स्कन्धः कटी वाहावगाढतरं पीड्यन्ते। ततश्चेत्थमूर्द्धनिश्वासेनाकुलो भवामीत्यर्थः / स्तेनाश्च मामुपकरणमलिनं दृष्ट्वा उपधिकारणादभिवेयुः। एतावन्ति च वस्रपात्राणि ममोपभोगं नायान्ति / यच्च भगवद्विरुक्तं मा भूयो दुर्लभ भवेत्। तत्रोच्यते॥ जं होहि ति बहुगाणं, इम्म धम्मचरणं पवत्ताण। तं होहिति अम्हं पि, तुम्हेहिं समं पवण्णाण / / यदि युष्माकं बहूनामस्मिन् भागवते शासने धर्मचरणं प्रवन्नानामुपकरणं भविष्यति तदस्माकमपि युष्माभिः समं हिण्डमानानां चारित्रं प्रपन्नानां भविष्यति एष तत्प्रथमतया प्रव्रजतो विधिरुक्तः। अथ पूर्वोपस्थितविषयं तमेवाह॥ सड्डो वीरेणसङ्कए, अन्भुट्ठाणं पुणो अजाणते। कतकारितं व कीर्त, जाणंते अधापरिग्गहिते।। यश्चारित्रं परित्यज्य गृहवासमुपगतस्तस्य कथं पुनरपि प्रव्रज्यायामभ्युत्थानसिद्धिः संजाता अत्र वीरणसड्डकदृष्टान्तो वक्तव्यः। एवं तस्य पुनरभ्युत्थानं भवति स च द्विधा जानानोऽजानानश्चयः कल्प्याकल्प्यविभागं जानाति स जानानस्तद्विपरीतोऽजानानः / अगीतार्थ इत्यर्थः (अजानत्ति) भूयः प्रव्रज्यायामभ्युत्तिष्ठमाने कृतं वा कारितं वा क्रीतं वा दानं वा तं पूर्वोक्ताविधिना कल्प ते वस्तु जानानस्य यथा परिगृहीतानि शुद्धान्येव ग्रहीतुंकल्पन्तेन कृतकारितादीनि / अथ वीरणसड्ढकदृष्टान्तमाह॥ जह सो वीरणसढओ,णइतीररुहो जलस्स वेगेण। थोवं थोवं खणता, पक्खित्तो भूमिणिहितमूलो वि॥ यथा स कश्चिद्विवक्षितो वीरणसढको वीरणानां तृणविशेषाणां स्तम्बो नद्यास्तीरे रोहति स्म जायते स्मेति नदीतीररुहो नद्याः प्रत्यागन्नतया जलस्य वेगेन स्तोकं स्तोकं खनता भूमिकानिहितमूलजालोऽप्य. चिरादेव श्रोतसि प्रक्षिप्तः / ततश्च श्रोतसा प्रवाहयित्वा समुद्र प्रापित इति भावः / एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयः। ठियमसियं दिटेहिं, साधूहिं जहरिहं समणुणातो। उण्हे उण्हतरेहि य, चालिज्जति वद्धमूलो वि।। कश्चित्पश्चात् कृतः सिद्धपुत्रकादिवेषेण साधूनामागमनभूते कश्चिद् ग्रामे गृहवासमध्यास्य तिष्ठन् यत्तत्र मासकल्पं वर्षाकल्पं वा स्थिताः साधवो ये (वगमित्ति) तत्र गच्छन्त आगता वा द्वित्राणि दिनानि तिष्ठन्ति तैर्दृष्टिरदृष्टैश्च साधुभिर्यथार्ह ग्रथायोग्यं समनुज्ञातः सन्तुष्णरुष्णतरैश्च वचनैरुदकवेगस्थानीयैरनेकशः प्रेर्यमाणः कलत्रादिसपरिग्रहः विस्तरेण बद्धमूलोऽपि चाल्यते। गृहवासं त्याजयित्वा संयमरूपे श्रोतसि प्रक्षिप्य गच्छरन्ताकरं प्राप्यत इति भावः। अथ जानानाजानानविषयविधिविभागमाह / कप्पाकप्पविसेसो, अणधीए जो उसंजमा चलिओ। पुष्वगमो तस्स भवे, जाणते जाइ सुट्टाइ / / वस्त्रपात्रादिविषये कल्प्याकल्प्यविशेषे अनधीते सति यैः संयमाचलितस्तस्य पूर्वः प्राक्तनो नाम प्रकारो भवति यथा शैक्षगृह - स्थस्योक्तः। यस्तुकल्प्याकल्प्यविधिं जानाति तस्य सर्वाणि शुद्धान्येव ग्रहीतुं कल्पन्ते न क्रीतादिदोषदुष्टानि। बृ०३उ०। (11) निर्ग्रन्थ्याः प्रव्रज्यां गृह्णन्त्या उपधिः / (सूत्रम्) निग्गंथीएणं तप्पढमयाए संपव्वयमाणी कप्पइ रयहरणो गोच्छपडिग्गहमायाए चउहिं कसिणेहिं वत्थेहिं आयाए संपटवइत्तए कप्पइ से अहापरिग्गहिएसिं वत्थेहिं आयाए संपव्वइत्ता। अस्यव्याख्या प्राग्वत् नवरं निर्ग्रन्थ्याश्चतुर्भिः प्रत्यवतारैः सहितायाः प्रव्रजितुं कल्पते इति विशेषः / अथ भाष्यम्। एसेव गमो णियमा, णिग्गंथीणं पिहोइ नायव्वो। जाणतीणं कप्पति, घेत्तुं जे आधापरिग्गहितो॥ एष एव गमो निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः / सा च पूर्वोपस्थिता स्यादित्यत्र सूत्रे तासां कल्प्याकल्प्यविभागं जानतीनां यानि यथापरिग्रहीतानि कल्पन्ते ग्रहीतुम् (जे) इति वाक्यालङ्कारे। समणीणं नाणत्तं, णिजोगा तासिं अप्पणो जोग्गा। चउरो पंच व सेसा, आयरियादीण अट्ठाए।। निर्ग्रन्थेभ्यः सकाशात् श्रमणीनामिदं नानात्वं विशेष उच्यते तासां प्रव्रजन्तीनामात्मनो योग्याश्चात्वारो निर्यो गा भवन्ति शेषास्तु आचार्यादीनामर्थाय चत्वारो वा पञ्च वा / तत्र यदा चत्वारस्तदा एकमाचार्यस्य द्वितीयं प्रवर्तिन्यास्तृतीयं गणावच्छेदिन्याः चतुर्थ संघाटकसाध्व्याः प्रयच्छति। यदा पञ्च तदा तथैवाचार्यादीनां पञ्चमः पुनरुपाध्यायस्य योग्य इति चूर्णिकाभि प्रायः / वृहद्भाष्यकारः पुनराह। चत्तारि अप्पणो से, चउरे पंच बहव सेसगा हुंति / आयरिओवज्झाए, पवत्तिणीमिसे य संघाडे / / पंचेए अभिओगा अभिओगा वजहुंति चत्तारित्ति, Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1100- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि (13) रात्रौ विकाले चोपधिग्रहणम् / (सूत्रम्) नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वियाले वा / वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गहित्तए अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह। जह सेज्जाणाहारो, वत्थादेसे व सापयपसंगादि। यं दिहवत्थग्गहणं, कुज्जा उ निसि अतो सुत्तं / / यथा शय्यां वसति, कृत्वा रात्रौ ग्रहीतुं कल्पते एवमेव वस्त्रादिकमपि कल्पयिष्यते इत्यतिप्रसङ्गाद्विवादृष्टस्य वस्त्रस्य निशिरात्रौ ग्रहणं मा कुर्यादित्यत इदं सूत्रमारभ्यते इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ वा विकाले वा वस्त्र वा प्रतिग्रह वा कम्बलं वा पादप्रोञ्छनं वा प्रतिग्रहीतुमिति सूत्राक्षरगमनिका। अथ भाष्यविस्तरः रत्तो वत्थग्गहणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, आवजणसंकणा जाव।। रात्रौ वस्त्रग्रहणे मासा उद्घाताः प्रायश्चित्तम् आज्ञादयश्च दोषाः। तथा रात्रौ भक्तग्रहणेऽपि तथैव वक्तव्याः / विइयं विहीविवित्ता, पडिसत्थाई समित्त रयणए। ते य पराचिय सत्था, वलिहिं तु भए व एक्को वा।। द्वितीयपदमत्रोच्यत (विहि त्ति) अध्वनि विविक्ता मुषिताः सन्तः प्रसिसार्थादिकं समेत्य प्राप्य रजन्यामपि वस्त्रप्रतिग्रहादिकं गृह्णन्ति तत्रापि कथमित्याह तावुभावपि सार्थों प्रागेव प्रातरेवानुगतसूर्ये चलिष्यतः एको वा अन्यतरः सार्थप्रतिसार्थयोर्मध्ये चलिष्यतीतिमत्वा रात्रावपि ग्रहणं कुर्वन्ति। अत एवोत्सर्गपदे अध्वा गन्तुमेव न कल्प्यते यत्रैते दोषा उत्पद्यन्तेतथा चाह। उदरेसु भिक्खु अद्धाण, पव्वज्जणं तु दप्पेण / लहुगा पुण मुच्छपदे, जंवा आवश्लई जत्थ // व्याख्यातार्था द्वितीयपदमाह / नाणदंसणट्ठा, चरित्तहा एवमाइ गंतव्वं / उवगरणपुटवपडिले-हिएण सत्येण गंतव्वं / / (इयमपि गतार्था / ) सत्थे वि वत्थमाणे, असंजए संजए य तदुभए। मगते जयणाणं, छिन्नं पि हु कप्पई घेत्तुं // ज्ञानाद्यर्थमध्वानं प्रतिपन्नानामपान्तराले चतुर्विधाः स्तेना भवेयः एके असंयतप्रान्ताः 1 अन्ये संयतप्रान्ताः 2 अपरे तदुभयप्रान्ताः 3 अन्ये तदुभयभद्रकाः 4 तत्रासंयतप्रान्तैः स्तेनैः सार्थे विद्यमाने मनुष्यगणे त एव साधूनां पार्वाद्वस्त्राणि मार्गयन्ति यतनया दानं कर्त्तव्यं प्रत्यय॑माणं च छिन्नमपि तदेव वस्त्रंग्रहीतुं कल्पते नान्यदिति संग्रहगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराह। संजयभद्दा गिहिभद्दगाय, पंतोभये उभयभद्दा य / तेणा होंति चउद्धा, विगिचणा सुन्नजईणं / / एके स्तेनाः संयतभद्रकाः परं गृहस्थप्रान्ताः एके गृहस्थमद्रकाः परं संयतप्रान्ताः अन्ये उभयेषामपि प्रान्ताः अपरे उभयेषामपि भद्रकाः एवं स्तेनाश्चतुर्विधा भवन्ति / अच च द्वितीयतृतीययोर्द्वयोर्भङ्गयोर्यतीनां विवेचनं वस्त्रेभ्यः पृथक्करणं भवति / अथ यत्र संयता न विविक्तास्तत्र विधिमाह। जह देंति जाइयाजा-इया य न वि देंति लहूगगुरुगा य / सागरदाणं गमणं, गहणं तस्सेव वत्थस्स। साधवो यद्ययाचिताः सन्तो वस्त्राणि गृहिणां प्रयच्छन्ति तदा चतुर्लधु। अथ याचिताः सन्तोन प्रयच्छन्ति तदा चत्वा रोगुरवः / अतः सागारिक प्रातिहारिकं भणित्वा प्रयच्छन्ति यथा भवद्भिः प्रत्यर्पणीयमिदमरमाकं यद्यगि वर्तमाना गृहं वागता अन्यद्वस्त्रं लभध्वे गमनं नाम येषां गृहस्थानां तद्वस्त्रं प्रदत्तं ते यद्यनेन पथा गच्छन्ति ततः साधुभिरपि तेनैव गन्तव्यं यद्यन्येन व्रजन्ति ततश्चतुर्लधु यदा ते अध्वनो निर्गता भवन्ति तदा छिन्नस्यापि तस्यैव वस्त्रस्य ग्रहणं कर्तव्यं नान्यस्याततः पुनर्वस्त्र कीदृशं दातव्यमित्याह। दंडपरिहारवज, चोलपट्टपडलपत्तबंधवजं च / परिजुण्णाणं दाणं, उड्डाहपओसपरिहरणा। महती जीर्णकम्बलिका दण्डपरिहार उच्यते तद्वर्ज चोलपट्टपडलकपात्रबन्धवानि यानि शेषाणि परिजीर्णवस्त्राणि तेषा मुड्डाहप्रद्वेषपरिहरणार्थ दानं कर्त्तव्यम् / उड्डाहो नाम अहो अमीषामनुकम्पा ये विविक्तामप्यस्माकं चीवराणि न प्रयच्छन्ति प्रद्वेषो नामाप्रीतिकं तद्वशात्तेषां तापनादयो दोषास्तत्परिहरणार्थ दातव्यम् (छिन्नपित्ति) योऽयमपि शब्दस्तत्सूचितमेवमपरमाह। धोवस्स व रत्तस्सव, गहणं गिण्हम्मि चउलहुगा। तं चेव घेत्तुं धोउ, परिमुंजे जुण्णमुडभेजा / यदि तैर्गृहस्थैस्तद्वस्त्रं धौतं वा रक्तं वा तथाऽपि तस्यैव ग्रहणं कर्त्तव्यम्। अथ साधुप्रायोग्यं न कृतमिति मत्वा न गृह्णन्ति अन्यस्य वा ग्रहणं कुर्वन्ति तदा चतुर्लघुकः / अतस्तदेव वस्त्रं गृहीत्वा क्षारादिना धावित्वा साधुप्रयोग्यं कृत्वा परिभुञ्जते / अथातीवजीर्ण तत उज्झे युः परिष्ठापयेयुरित्यर्थः / गतः प्रथमो भङ्ग / अथ गृहस्थभद्रकाः संयतप्रान्ता इति द्वितीयो भङ्गोभाव्यते तत्र भूयश्चतुर्भङ्गी संयत्वो विविक्ता न संयताः १संयताविविक्तान संयत्यः 2 संयत्यो विविक्ताः संयता अपि विविक्ता 3 न संयत्यो नापि संयता विविक्ताः 4 अत्र विधिमभिधित्सुराह। सहाणे अणुकंपा, संजयपडिहारिए निसिद्धो य। असई अतदुभये वा, जयणा पडिसद्धमाईसु॥ यत्र संयता गृहिणश्च विविक्तानसंयत्यस्तत्र संयतीनां सुस्थानं साधवः तत्रानुकम्पा कर्तव्याः / साधूनां वस्त्रं दातव्यमित्यर्थः / साधुभिरपि तत्प्रातिहारिकं ग्राह्यम्। यत्र संयत्यो गृहस्थाश्च मुषितान संयतास्तत्र साधूनां संयत्यः स्वस्थानंतासांवस्त्रदानेनानुकम्पां कर्तव्याः तच्च निसृष्ट निजं दातव्यं न प्रातिहारिकं ग्राह्यम् (असईत्ति) अथात्मनोऽप्यधिकमुपकरणं नास्ति ततः प्रातिहारिकमपि दातव्यं न प्रातिहारिकं ग्राह्यम् (असईत्ति) अथात्मनोऽप्यधिकमुपकरणं नास्ति ततःप्रातिहारिकमपि दातव्यं तदुभयं साधुसाध्वीवर्गः तस्य विविक्तस्य वस्त्राभावे प्रतिसादिषु यतनावस्त्रान्वेषणविषया कर्तव्येति संग्रहगाथासमासार्थ : / अथैनामेव विवृणोति। न विवित्ता जत्थ मुणी, समणी य गिहा जत्थ अदुहा। सहाणणुकंपतहिं, समणुत्तियरा स वि तहेव / / Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि यत्र मुनयो न विविक्ताः श्रमण्यश्च गृहिणश्च यत्र (उच्छूढत्ति) मुषिताः तत्र स्वस्थाने संयतीवर्गे अनुकम्पा कर्तव्या। ताश्च संयत्यो द्विविधाः संविना असंविग्नाश्च यदि वस्त्राणि सन्ति ततः सर्वासामपि दातव्यानि अथ न सन्ति तावन्ति वस्त्राणि ततः संविग्नसंयतीनांदेयानिता अपि द्विविधाः समनोज्ञाः सांभोगिन्य इतराश्वासांभोगिन्यः। यदि पूर्यन्ते ततो द्वयोरपि वर्गयोस्तथैव दातव्यानि / अथ न पूर्यन्ते ततः स्वस्थाने दातव्यानि समनोज्ञानमित्यर्थः अपिशब्दात्या धृतिदुर्बलास्ताः संविग्नाः असंविग्ना वा स्थविरास्तरुण्यो वा भवन्तु नियमात्तासां दातव्यम् / यत्र साधवो विविक्तास्तत्रेयं यतना॥ लिंगट्ठभिक्खसीए, गिण्हंति पडिहारियमेएसु। अमणुनियरगिहिंसुं, जं लद्धं तंनिभं दें ति॥ लिङ्गार्थ तावदवश्यं रजोहरणमुखवस्त्रिके गृहीतव्ये भिक्षार्थ तु पात्रकबन्धपटलकादि शीतत्राणार्थं तु प्रावरणादि एतत्सर्वमपि प्रातिहारिकमेतेषु गृह्णन्ति / तद्यथा अमनोज्ञा असांभोगिका इतरे पार्श्वस्थादयो गृहिणः प्रतीताः / अथैषु न प्राप्यते ततः संयतीनामपि / हस्तात्प्रातिहारिकं ग्राह्य तत्तचोलपट्टकादिकं यदा लब्धं भवति तदा तन्निभं तत्सदृशं प्रातिहारिकं ददति प्रत्यर्पयन्ति / इह द्वितीयभङ्गे व्याख्यायमाने प्रथमतृतीयचतुर्थभङ्गाअपिलेशतः स्पृष्टा अवगन्तव्याः / गतो द्वितीयभङ्गः। अथ तृतीयं भङ्गं व्याख्यानयति॥ उच्छूढं वि तदुभये, सपक्खपरपक्खतदुभयं होइ। अहवा वि समणसमणी, समणुनियरेसु एमेव।। तदुभये वा उच्छूढे मुषिते सत्येवमेव यतना ज्ञातव्या। अथ तदुभयमिति किमुच्यते इत्याह / स्वपक्षाः संयताः परपक्षा गृहस्थाः। अथवा तदुभयं नाम श्रमणाः श्रमण्यश्च / यद्वा तदुभयं समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च / यदि वा संविग्ना असंविग्नाश्चेति तदुभयम् तत्र मुषिते सति विधिमाह।। अमणुन्नेतरगिहिसं-जईसु असइ पडिसत्थपल्लीसु। तिण्हट्ठाए गहणं, पडिहारिय एतरे चेव॥ अमनोज्ञा असांभोगिका इतरे पार्श्वस्यादयो गृहिणःसंयत्यश्च प्रतीताः एतेषु विविक्ततया वस्त्राभावे प्रतिसार्थे वा पल्ल्यां वा पञ्चकपरिहाण्या मार्गेवितव्यम् / संयतीनां तु नास्ति पञ्चकपरि-हाणिर्यदेव लभ्यते तदेव गृहीत्वा गात्राच्छादनं ताभिः कर्त्तव्यं तच वस्त्रं त्रयाणां लिङ्गभिक्षाशीतत्राणानामर्थाय प्रातिहारिकं वा इतरद्वा निसृष्ट ग्राह्यम्। एवं तु दिया गहण, अहवा रत्तिं मिलेज पडिसत्थो। गीएसु रत्तिगहणं, मीसेसु इमा तहिं जयणा / / एवं दिवा ग्रहणमभिहितम्। अथवा रात्रौ प्रतिसार्थो मिलेत् तत्र च यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततो रात्रावेव गृह्णन्ति अगीतार्थमिश्रास्तत-स्तेषु मिश्रेष्वियं यतना। तामेवाह। वत्थेण व पाएण व, णिमंतएव अत्थमिए। आइचे उदिते य, गहणं गीयत्थसंविग्ने / प्रतिसार्थे कश्चिद्दानश्राद्धादिरनुद्गते वा अस्तमिते वा सूर्ये वस्त्रेण वा पात्रेण वा निमन्त्रयेत् तत्र यदि सार्थो रात्रावेव चलितुकामस्तदा गीतार्था गुरुनालोचयन्ति उदिते सूर्ये वस्त्रग्रहणं कृत्वा समायाताः एवं गीतार्थाः संविग्ना गृह्णन्ति / अथ प्रतिसार्थे पल्ल्यां वा लभ्यते न च सार्थादिकं दृश्यते ततः किमित्याह। खंडे पत्ते तह द-उभचीवरे तह य हत्थपिहणं तु / अद्धाण विवित्ताणं, आगाढं सेसणागाढं। चर्मखण्डानि संयतीनां परिधानाय दातव्यानि तदभावे शाकादिपत्राणि तदप्राप्तौ दर्भचीवरं धनं ग्रन्थयित्वा समर्पयन्ति सर्वथा परिधानाभावे हस्तेनापि गृह्यदेशस्य पिधानं कर्तव्यम् / एवमध्वनि विविक्तानामागाद कारणं मन्तव्यं शेष तु सर्वमप्युपक-रणाभाये अनागाढम्। असंजई य निग्गया खुड-गाइ पेसंति चउसु वग्गेसु / अप्पाहिं निवगारं, साहुं च वियारमाइगयं / / प्रतिसार्थपल्ल्यादौ वस्त्राणामभावेऽप्राप्तौ अध्वनो निर्गता उद्यानं प्राप्ताः सन्तः क्षुल्लिकादिविवक्षितं ग्राम नगरं वा चत्वारः संयतसंयतीश्रावकश्राविकालक्षणा ये वर्गास्तेषु तेषां समीपे प्रेषयन्ति / यद्वा सांभोगिकाः संयता इत्येको वर्गः अन्यसांभोगिका इति द्वितीयः / सांभोगिकाः संयत्य इति तृतीयः अन्यसांभोगिका इति चतुर्थः / एतेषां वा समीपे प्रेषयन्ति / अथ नास्ति क्षुल्लकः क्षुल्लिका वा ततो यस्ततो ग्रामान्नगराता अगारो गृहस्थः समायातः यो वा साधुर्विचारभूम्यादावागतस्तम्(अप्पाहिति) संदिशन्ति यथा साधुसाध्वीप्रभृतीनां सांभोगिकसंयतादीनां वा भवता कथयितव्यं साधवः साध्व्यश्च बहिरग्रोद्याने स्थिताः सन्ति तेचाध्वनिस्तेनैर्विविक्ताः अतस्तेषां योग्यानि चीवराणि प्रेषणीयानि / अत्र चायं विधिः संयतैः संयतानां वस्त्राणि दातव्यानि / संयतीनां तु संयतीभिः / अथ तत्र संयताः संयत्यो वा न संन्ति तदा श्रावकाः श्राविका या प्रयच्छन्ति। यत्र तु संयत्यः संयत्रा वा संयतीनां प्रयच्छन्ति तत्र विधिमाह। खुड्डी थेराणप्पे, आलोगितरी ठवितु पविसंति। ते विय घेत्तुमइगया, समणुन्न जढे जयंते व // क्षुल्लिका उद्यानं गत्वा स्थविरसाधूनांवस्त्राण्यर्पयन्ति। अथन सन्ति क्षुल्लिकाः तत इतरा मध्यमास्तरुण्यो वा गत्वा स्थविरा–णामालोके स्थापयित्वा भूयोऽपि ग्राम प्रविशन्ति। यत्र संयतेन संयतीनां दातव्यं तत्र क्षुल्लकाः स्थविरसाध्वीनामपर्यन्ति क्षुल्लकाभावे शेषा अपि साधवः स्थविराया आलोके स्थापयन्ति तेऽपिच संयताः संयतीदत्तानि वस्त्राणि गृहीत्वा प्रावृत्त्य नगरमनिर्गताः प्रविष्टाः सन्त आत्मयोग्यमुपकरणमुत्पाद्य संयतीसत्कवस्त्राणि प्रत्यर्पयन्ति एवं मनोज्ञेषु विधिरुक्तः (समणुनजढे जयंतेवत्ति) यत्र ते मनोज्ञाः सांभोगिका न भवन्ति तत्रैवं वक्ष्यमाणनीत्या यतन्ते। अद्धाण निग्गयाई, संविग्गा सण्णिदुविह अण्णाणी। संजई एसणमाई, असंविग्गा दोण्णि वा वग्गा॥ अध्वनो निर्गता यत्र ग्रामादौ प्राप्तास्तत्रेमे भवेयुः संविनविहारिणः अनेनेहान्यसांभोगिका गृह्यन्ते / संज्ञिनःश्रमणास्ते द्विविधाः संविग्रभाविता असंविग्नभाविताश्च / संविनोऽपि द्विधा आभिग्रहिकमिथ्यादृष्टिभेदात् (संजई इत्ति) अमनोज्ञसंयताः संविनानामपिवौ वर्गो तद्यथा साधुवर्गः साध्वीवर्गश्च / अत्र विधिरुच्यते (एसण-माईत्ति) संज्ञिप्रभृतिषु शुद्ध वस्त्रमप्राप्नुवन्तः पञ्चकएरिहाणिक्रमे-णैषणादोषेषु यतन्त इति। अथैतदेव सविस्तरं व्याख्यानयति॥ संविग्गतरं भाविय, सन्नीमिच्छा उगाढणागाढे। असंविग्गमिगाहरणं, पाउंजेसं विसं हीला॥ Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि संज्ञिनो द्विविधाः संविग्रभाविता इतरभाविताश्च मिथ्यादृष्टयोऽपि द्विविधाः आगाढा अनागाढाश्च / तत्र प्रथम संविग्नभावितेषु संज्ञिषु तदप्राप्तावनागाढमिथ्यादृष्टिषु शुद्धं वस्त्रमन्वेषणीयम्। असंविग्नभावितेषु अगाढमिथ्यादृष्टिषु चनगृह्णन्ति कुत इत्याह। असंविग्रभाविता मृगाहरण लुब्धदृष्टान्तं चेतसि प्रणिधानसाधूनामकल्प्यं प्रयच्छन्ति ये त्वाभिग्रहिका मिथ्यादृष्टयस्ते साधुदर्शनप्रद्वेषतो विषं प्रयुञ्जीरन् हीलां वा कुर्युः अहो अदत्तादाना अमी वराका इत्थं विनश्यन्ति इत्यादि / अथ नागाढमिथ्यादृष्टिषु शुद्धं न प्राप्यते ततः किं विधेयमित्याह। असंविग्गभाविएसुं, अगाढेसुं जयंति पणगादी। उवएसो संघाडग, पुव्वगहियं च अवसेसं॥ असंविग्रभावितेषु उद्गमादिदोषशुद्धं यद्वस्त्रं तद्गृहीतव्यं तदभावे अगाढमिथ्यादृष्टिष्वपि यद्यात्मप्रवचनोपघातो न स्यात् अथ तेष्वपिशुद्धं न प्राप्यते ततः संविग्नभावितादिष्वेव पञ्चकादिपरिहाण्या तावत् यतन्ते यावद्भिन्नमासंप्राप्ता भवन्ति ततोऽन्यसाभोगिकैर्येषु कुरुते तेषुदत्तोपदेशेषु याचितव्यं तथाऽप्यप्राप्तौ तेषां संघाटकेन एवमप्यलाभे तेषामेव यत् पूर्व गृहीतं वस्त्रादि तद्ग्रहीतव्यम्। अमुमेवार्थं विधिशेषज्ञापनाय पुनरप्याह / / उवएसो संघाडग, तेसिं अट्ठाए पुथ्वगहियं तु। अभिनव पुराणसुद्ध, उत्तरमूले सयं वावि॥ अन्यसांभोगिकोपदेशेन प्रथमतः पर्यटन्ति ततस्तदीयसंघाटकेन तथाऽप्यप्राप्ता तेषामर्थाऽप्यसांभोगिकाः / पर्यटन्ति तथाऽपि यदि न लभ्यते ततस्तेषामेव यत्पूर्वगृहीतवस्त्रं तद्ग्रहीतव्यं तचाभिनवं वा स्यात् पुराणं वा। पूर्वमभिनवं पश्चात्पुराणमपिगृह्यते तदपि यद्युत्तरगुणमूलगुणशुद्धं तत उपादेयं नान्यथा अथापिन प्राप्यते ततो यः कृतकरणो भवति तंतच एवमेव वक्तव्यम् एतच्च यथाऽवसरमुत्तस्त्र भावयिष्यते तदेवमन्यसांभोगिकानामपि पूर्व गृहीतं यदा न प्राप्यते तदा मासलघुकादारभ्य तावद्यतन्ते यावचतुर्लघुकं प्राप्ताः ततः किं कर्तव्यमित्याहउवएसो संघाडग,पुव्व गहियं न निययमाईणं। अभिनव पुराणसुद्धं-पुटवमभुत्तं पिपरिभुत्तं / चतुर्लघुप्राप्तमित्यववासिपार्श्वस्थादीनामुपदेशेन वस्त्रमुत्पाद-यन्ति तदभावे तेषामेव संघाट के न तथाऽप्यलाभे यत्तेषां पूर्वगृहीतं मूलोत्तरगुणशुद्धम् अभिनवमपरिभुक्तं तत्प्रथमतो ग्रहीतव्यं ततः परिभुक्तमपि तदप्राप्तौ पुराणमपि मूलोत्तरगुणशुद्धमपरिभुक्तं ततः परिभुक्तमपि ग्राह्यम् / इह निशीथचूर्ण्यभिप्रायेणास्यैव कल्पस्य विशेषचूर्ण्यभिप्रायेण वाऽन्यसां भोगिकात् यावन्नास्ति पञ्चकपरिहाणिःकिं तु तः ऊर्ध्व पञ्चकहान्या यतित्वा यदा मासलघुप्राप्तास्तदा पार्श्वस्थादीनामुपदेशानिमान् गृह्वन्तीति द्वयोश्चूयोरभिप्रायः परमेतचूर्णिकृता भिन्नमासप्राप्तान्यसांभोगिकानां चतुर्लघु प्राप्तास्तत्पावस्थादीनामुपदेशादिना वस्त्रग्रहणे यतन्ते इति प्रतिपादितमतस्तदनुरोधेनास्माभिरपि तथैव व्याख्यातमित्यवगन्तव्यम्। यथोक्तमप्यर्थं विशेषज्ञापनार्थ भूयोऽप्याह। उत्तरमूले सुद्धे, नवे पुराणे चउक्कभयणेवं / परिकम्मण परिभोगे, न हॉति दोसा अभिनवम्मि / / मूलगुणशुद्धमप्युत्तरगुणशुद्धम् 1 न मूलगुणशुद्धमुत्तरगुणशुद्धमपि 2 | मूलगुणशुद्धं नोत्तरगुणशुद्धम् 3 न मूलगुणशुद्धं नोत्तरगुणशुद्धं 4 एतेषु | चतुर्यु भङ्गेषु प्रत्येकं नवपुराणपदविषयं यद्भङ्गचतुष्कं तस्य भजनासाच यथाक्रममेवं कर्तव्या यत्तावन्मूलोत्तरगुणविशुद्धतत्प्रथमतो नवमपरिभुक्तं ग्रहीतव्यं तदभावे नवं परिभुक्तं तदभावे पुराणं परिभुक्तमेवं द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वपि भङ्गेषु चत्वारश्चत्वारो विकल्पाः यथाक्रमं चैते आसेवितव्याः कुत इत्याह / परिकर्मणा दोषा अविधिसीवनादयः परिदोषाश्च मलिनीभूतम्रक्षितसुगन्धिगन्धभावितत्यादयोऽभिनवे अपरिभुक्ते च वस्त्रे न भवन्ति / अथ पार्श्वस्थादिष्वपि न प्राप्यते ततोऽमनोज्ञसंयतीनामप्युपदेशेन गृह्णन्ति एषां वा अर्थाय ताः पर्यटन्ति पूर्वगृहीतं वा तासांग्रहीतव्यं तदभावे असंविग्नसंयतीनामप्युपदेशादिना गृह्णन्ति। अथैवमपि न प्राप्यते ततः किं कर्तव्यमित्याह / असई य लिंगकरणं, पन्नवणट्ठा सयं च गहणट्ठा। आगाढे कारणम्मि, जहेव हंसाइणो गहणं / / एवमप्यसत्यलभ्यमाने शाक्यादिवेषेण तदीयोपासकाना यतिभ्यो वस्त्रदापनाय प्रज्ञापनार्थ स्वयं वा ग्रहणं वस्त्रस्योत्पादनं कर्त्तव्यं किंबहुना ईदृशे आगाढे कारणे यथैव हंसतिलादेरननुज्ञापितस्यापि ग्रहणं दृष्ट तथैव वस्त्रस्यापि तथाऽप्यलाभे सूत्र मार्गयित्वा अन्वैर्वाययति तदभावे स्वयमेवाल्पसागारिके वयति अथ सूत्रनलभ्यते। ततः को विधिरित्याह / सेडयरुए पिंजियए पेलुग्गहणे य लहुगदप्पेणं / भवकाले हि विसिट्ठा, करेण अकमेण ते चेव / / सेडुगो नाम कप्पासः स एव लोडितः सन् वीजरहितो रुतं तदेव रुतं पिजनिकया ताडितं पिञ्जितं तदेव पूणिकया वल्तिं पेलुरिति भण्यते। एतेषां यदि दर्पण ग्रहणं करोति तदा चत्वारो लघुकाः तपः कालाभ्यां विशिष्टास्तत्र सेडुके उभयगुरुकारुते तपोगुरुकाः पिञ्जिते कालगुरुकाः पेलुके द्वाभ्यां लघुकाः कारणे पुनः प्रथमपेलुकं पश्चात् पिञ्जितं ततो रुतं ततः सेडुकमपि गृह्णाति अथाक्रमेण गृह्णाति ततस्तएव चत्वारो लघुकाः सेडुकं च त्रिवर्षातीतं विश्वयोनिकमवग्रहीतुं कल्पते न सचित्तम्। कडयोगि एकओवा, असईए नालबद्धसहिओ वा। मिच्छाए उवगरणं, उभओ पक्खस्स पाउग्गं / / कृतयोगी नामयो गृहवासे कर्त्तनं कृतवान् स गच्छस्य वस्त्राभावे एकको वा नालबद्धसंयतीसहितो वा विजने भूभागे कर्त्तनं वयनं च कृत्वा उभयपक्षस्य संयतसंयतीलक्षणस्य प्रायोग्यमुपकरणं परिभुञ्जते ततः किमित्याह। अगीयत्थेसु गिचे, जहलाभं सुलभबहिखेत्ते। सुपच्छित्तं उ वहंति, अलाभे तं चेव धारेति। यद्यगीतास्ततस्तेषु सुलभोपधिक्षेतेषु गताःसन्तो यथालाभं यद्वस्त्रं लभन्ते तत्सदृशमपरं व्यूतवस्त्रं विवेचयन्ति परिष्ठापयन्ती-त्यर्थः / अगीतार्थप्रत्ययनिमित्तं च यथालघुप्रायश्चित्तं वहन्ति। अथापरं न लभ्यते ततस्तदेव स्वयंव्यूतं वस्त्रं धारयन्ति। अथ सर्वेऽपि गीतार्थास्ततोऽपरस्य लाभे प्राकृतं परित्यजन्ति वा न वा न कोऽपि नियमः / अथ "ठाणनिम्गयाई" इत्यत्र योऽयमादिशब्दस्तस्य फलमुपदर्शयन्नाहएमेव य वसिमम्मि वि, झामियओ महियवूढपरिजुन्ने। पुवुट्ठिए व सत्थे, सम इत्थं भए वावि।। Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि न केवलमध्वनि विविक्तानामेष विधिः किन्तुग्रामादौ वसिमे पथिवसतां यत्रोपधिरग्निकायेनध्मापितो दग्धः अवमौदर्ये या विक्रीतः चौरैर्वा हृतः वर्षासु वा पानीयपूरेण वा व्यूढपरिजीर्णो वा पुराणतया दुर्बलीभूतो विवक्षितं कार्यं कर्तुप्रसमर्थः तत्राप्येवमेवानन्तरोक्तो विधिमन्तव्यः। अत्र चापरो विशेष उपदर्श्यते यत्र ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति तत्र सार्थः कश्चित्प्राप्तः स च आदित्योदयात्पूर्वमेवोत्थितः उचलितुमारब्धो वर्तत यत्र च गतस्य तस्य रविरुदेष्यति तत्र गच्छता अपान्तराले चस्तेनादिभयं स्तेनैर्वो साधवो दग्धा-धुपधयस्तं सार्थ नक्तं रात्रौ प्राप्ताः प्राग्ये प्रभाते अनुद्गते एव सूर्ये अग्रतश्चलितुकामाः अतो रात्रावेव यथोक्तनीत्या वस्त्रादि गृह्णीयुः। (सूत्रम्) अन्नत्थ एगाय हरिया हडिया एसा वि य परि-भुत्ता वा घट्ठा वा मट्ठावा संपधूमिया वा।। अस्य संबन्धमाह। सुत्तेण चेव जोगो, हरियाहडि कप्पए निसि चित्तुं। हरिऊण य आहडिया, बूढा हरिएसु वा हट्ट। सूत्रेणैव सूत्रस्य योगः संबन्धोऽत्रास्ति अनन्तरसूत्रे रात्री वस्त्रादिकंग्रहीतुं कल्पते इत्युक्तम् / अत्र तु या व्याहृता हृतिका सा निशि रात्रौ ग्रहीतुं कल्पते इति प्रतिपाद्यते अनेन संबन्धे नायातस्यास्यव्याख्या। न कल्पते / रात्रौ वस्त्रं ग्रहीतुमिति प्रतिषेधोऽन्यत्रैक स्या हताहृतिकाया हरिताहृतिकाया वा तत्र पूर्व हृतं पश्चादाहृतमानीतं वस्त्रं हताहृतं तदेव हताहतिका स्वार्थे क प्रत्ययः। अनिवर्तन्ते स्वार्थिकप्रत्ययप्रकृतिलिङ्गवचनानीतिवचनादत्र रूढितः स्त्रीलिङ्ग-निर्देशः। एवं हरितेषु वनस्पतिसु आहृत हरिताहृतं वस्त्रंतदेव हरिताहतिका सोऽपिच परिभुक्ता परिधानादौ व्यापारिता धौता अप्कायेन प्रक्षालिता रक्ता विचित्रवणकैरुपरञ्जिता घृष्टा घट्टकादिना घटिता मृष्टा सुकुमारीकृता संप्रधूमिता धूपद्रव्येण समं ततः प्रकर्षेण धूपिता वाशब्दः सर्वोऽपि विकल्पार्थः / एवंविधाऽपिसा स्वीकर्तव्या पुनरसाधुप्रायोग्या कृतेति कृत्वा परिहर्तव्येति सूत्रार्थः। अथ भाष्यम्। "हरिउणय' इत्यादि पश्चार्द्ध स्तेनैः पूर्वं हृता पश्चाद्वस्त्रमाहृतमानीतं तदेव हृताहृतिके त्युच्यते / यद्वा हृतेषु प्रक्षिप्ता या सा हरिताहृतिका / सा पुनः कथं भवतीत्याह। अद्धाणमणद्धाणे, व विवित्ताणं तु होज आहडिया। अविहिम्मि संति खेमे, विहम्मगच्छे सइ गुणेसु // अध्वनि अनध्वनि वा विविक्तानां हृताहृतिकाः संभवन्तितत्र (अविहे) अनध्वनि मासकल्पेन विहरन्तो क्षेमं निरुपद्रवमादौ च सति सत्सु विद्यमानेषु ज्ञानादिगुणेषु विहमध्वानं न गच्छेत् न प्रविशेत्। तथा चाह। उद्धद्धरेसु मिक्खे, अद्धाणपवचणं तु दप्पेण / लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ।। नाणट्ठदंसणट्ठा, चरित्तद्वा एवमाइगंतव्वं / उवगरणपुष्वपडिले-हिएण सत्येण गंतव्वं / / गाथाद्वयमपि प्राग् व्याख्यातम् / तत्राध्वनि प्रविशतां विधिमाह-- अद्धाण पविसमाणा, गुरुं पवादिति ते गता पुरतो। अह तत्थ पवादंति, चाउम्मासा भवे गुरुगा। अध्वानं प्रविशन्तः प्रथममेव गुरुमाचार्य प्रवादयन्ति गुरुप्रवाद मुत्थापयन्तीत्यर्थः। तथा ते अस्माकमाचार्याः पुरतः पूर्वमेवान्येन चार्थेन सहगताः अतएव वयं त्वरामहे कथं नाम तेषांसमीपंक्षिप्रमेव प्राप्नुयामः / अथ तत्राध्वनि प्रविशन्त एवं न प्रवादयन्ति ततश्चतुर्मासा गुरुकाः प्रायश्चित्तम्। गुरुसारक्खणहेउं, तम्हा थेरो उ गणधरो होइ। . विहरइ य गणाहिवई, अद्धाणे होइ भिक्खुस्स। गणधराकारधारकः क्रियत इत्यर्थः / यस्तु गणाधिपतिः सोऽध्वनि मार्गे स्वयं भिक्षुभावेन सामान्यसाधुवेषेण विरहति कुत इति चेदुच्यते कदाचिदध्वनि साधवः स्तेनकै विविक्ताः क्रि येरन् ततस्ते स्तेनकाश्चिन्तयेयुः। हयनायगा न काहिंति, उत्तरं राउले गणे वावि। अम्हं आहिवइस्स व, नायगमित्ताइएहिं वा / / हतो नायक आचार्यो येषां ते हतनायकास्तथाभूताः सन्तः ते राजकुले वा गणे वा गत्वा न किमिप्युत्तरमुपकरणापहार एवात्मकं करिष्यन्ति अस्वामिकतया निराशीभूतत्वात् / तथाऽस्माकं योऽधिपतिस्तस्य वा तदीया वा ये ज्ञातकाः स्वजना यानि मित्राणि तत्प्रति नाम तेषामन्तिके गतास्तैः पृष्टाः सन्तो न किमप्युत्तरं प्रदास्यन्ति आचार्यस्यैव तदानीमभावेनाप्रगल्भत्वादिति भावः। तस्मादाचार्यभवोपद्रावयाम इति विचिन्त्य तथैव कुर्युः ततो यथोक्तनीत्या गुरवः प्रवादयितव्याः ततः स्तेनाः चतुर्विधाः। संजयपंता य तहा, गिहिभद्दा चेव साहुभद्दा य। तदुभयभद्दा पंता, संजममद्देसु आहडिया / / एके संयतप्रान्ताः गृहस्थभद्रकाः / अन्ये साधूनां भद्रकाः गृहस्थप्रान्ताः / अपरे तदुभयभद्रकाः अपरे तदुभयप्रान्ताः / अत्र ये संयतभद्रकास्तेषु हताहतिका भवेत् हृत्वाऽपि तयोर्वस्त्रमर्पयेयुरित्यर्थः। सत्थे विविचमाणा, अहिपई भद्दओ व पंतो वा। दठूण निवारइ, वत्थं गहियं च पेसेइ।। सार्थे स्तेनैर्विविच्यमाने मुष्यमाणे साधवोऽपि विविच्येरन् तत्र योऽधिपतिः चौरसेनाधिपतिः स साधूनां भद्रको वा स्यात् प्रान्तो वा यदि भद्रकस्तदा साधून विविच्यमानान् दृष्टा निवारणं करोति मैतेषां वस्त्राण्यपहरतेति। अथासौ तत्रासंनिहितस्तेनैर्गृहीतंतदुपकरणं भूयोऽपि प्रेषयति। अमून्येव गाथावयवान्याचष्टे। छिन्नदसं सिव्वणीहिंव,नाउय सेउवालमित्ताणं। ते चेव तक्करे भ-दओ अंतिए पेसेइ।। चौरसेनाधिपतिः साधूनामुपधिं नीतमुपढौकितं दृष्ट्वा छिन्नदशाकत्वेन साधुसंबन्धिनीभिः सीवनीभिःसीवितत्वेन वा साधूनां सत्कमेतद्वस्त्रमिति ज्ञात्वा तान् तस्करानुलभते आः पापा विनष्टाः स्थ यूयं देयं महात्मनां वस्त्राण्यपहृतानीत्यादि एवमुपालभ्य भूयोऽपि तस्योपधेः साधूनामर्पणार्थ तानेव तस्करान् साधूनामन्तिके प्रेषयति / / वीसत्थमप्पिणंते, भएण छड्डित्तु केइ वञ्चति / विहिया पासवण भूमि, उवस्सए दिट्ठम्मि जा जयणा / / स्तेना द्विधा आक्रान्तिका अनाक्रान्तिकारस्ते कुतोऽपि न विभ्यति अत एव ते चौरसेनापतिना वस्त्रप्रत्यर्पणार्थ प्रेषिताः सन्तो Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि विस्वस्ताः निर्भयादिव त एव आनीयवस्त्रं संयतानामर्पयन्ति अनाक्रान्तिकास्तु भयेन मा केनाप्यारक्षिकादिना ग्रहीष्यामह इति परिभाव्य रात्रावानीयोपाश्रयादहिःप्रश्रवणभूमावुपाश्रयमध्ये वस्त्र प्रक्षिप्य व्रजन्ति पलायन्ते तस्मिन् वस्त्रे दृष्टे सति या वक्ष्यमाणा यतना सा करणीया। तामेवाह / / गीयमगीया अविगीय-पव्वयट्ठा करिति वीसंतु। जइ संजइ वि तहियं, विगिंचिया तासिवि तहेव॥ यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततस्तदुपकरणं मौलोपकरणेन सह मील-यित्वा यथास्वरुचि परिभुञ्जते / अथ ते केचिद् गीतार्थाः केचिचा-गीतार्था अविगीतप्रत्ययार्थं हताहतिकोपकरणं विष्वक् पृथक् स्थापयन्ति ते ह्यगीतार्था एवं चिन्तयेयुः एष स्तेनप्रत्यर्पित उपधिस्तावदुपहतेन च सह मिश्रिततरोऽप्युपहत एव अतस्तेषां प्रत्ययार्य हताहतिकोपकरणं विष्वक् पृथक् स्थापयन्ति / अथ संयत्योऽपि विविक्तास्ततस्तासामप्युपकरणं तथैव पृथक् कुर्वन्ति। जो विय तेसिं उवही, अहागओप्पो य सपरिकम्मो य। तं पि य करिति वीसुं, मा अविगीयाइभंडे वा।। योऽपि च तेषां साधूनां यथाकृतोऽल्पपरिकर्मा सपरिका चोपधिस्तमप्यविष्वक् परस्परं कुर्वन्तोऽविगीतार्थाः परस्परं भण्डयेयुः कलहं कुर्युः यथा किमिति त्वदीयैर्मदीयोपकृतोपधिः सपरिकर्मणा सह मीलित इत्यादि एवं तावद्भक्ते सेनापतौ विधिरभिहितः / अथ प्राप्तविषयं विधिमाह || पंतोवहिम्मि लुद्धो, आयरिए इच्छए विवाए। कयकरणे करण वा, आगाढे किसो सयं भणइ / / प्रान्तश्चौरसेनापतिरुपधावुपकरणे लुब्धः सन् आचार्यान् व्यापादयितुमिच्छति ततो यस्तत्र कृतकरणो धर्मकथालब्धिमान् धनुर्वेदकृताभ्यासो वा स तत्र कारणं करोति धर्मकथादिना स्वभुजबलप्रकटनेन वा तं शमयतीत्यर्थः / अथवा ईद्रशे आगाढे कार्ये यः कृशो दुर्बलदेहः स स्वयमात्मनैवात्मानमाचार्य भणति। एतामेव गाथां भावयति। को दुब्भं आयरिओ, एवं परिपुच्छियम्मि अद्धाणे। को कहयइ आयरियं, लग्गइ गुरुए व चउमासे // प्रान्तः सेनापतिं पृच्छति को युष्माकं मध्ये आचार्यः एवमध्वनि गच्छता परिपृष्टे सति यःकश्चिदाचार्य निर्धार्य कथयति सलगति प्राप्नोति चतुरो मासान् गुरुकानिति। किं तर्हि वक्तव्यमित्याह सत्थेणग्नेण गया, एहिंति य मग्गतो सुगुरु अर्ज / सथिल्लं एव पुच्छह, हयं पलायं वसाहिति।। येऽस्माकं गुरवस्ते अन्येन सार्थेन सह प्रागेव गता मार्गतो वा पृष्ठतस्ते एष्यन्ति / यदि वा न प्रतीतिर्भवतां ततः सार्थिकान् पृच्छत / यद्वा हतोऽसावस्माकमाचार्यः पलायितो वा वयं सांप्रतमनाथा वामहे एवं कथयन्ति। जो वा दुटवलदेहो, जुंगियदेहो असचवको वा। गुरु गिल एएसि अहं, न य मि पगब्भो गुरुगणेहिं / / अथवा यो दुर्वलदेहो विकलाङ्गः यो वा असत्यवाक्योऽसमञ्जसप्रलापी स सेनापतिं प्रति वक्ति अहं किलैतेषां सर्वेषामपि गुरुः परं न च नैवाऽस्म्यहं प्रगल्भः संपूर्णो गुरुगुणैः शरीरसंपदादिभिर्वा हीणो वा अभिभूतो, खंजकुणीकाणआ व हं जातो। मा मे वह सीसे, जं इच्छह तं कुणह मज्झं / / व्याधिना रोगेणाहमतीवाऽभिभूतोऽस्मि खञ्जः पादविकलः कुणिः पाणिविकलः काणश्चक्षुर्विकल ईदृशो वा अहं जातोऽस्मि अतोमा मदीयान् शिष्यान्वधध्वं यन्मारणादिकं कर्तुमिच्छध्वं तन्ममैव कुरुध्वं यतः।। इहरा विमरिउमिच्छं, संति सिस्साण देह मा हणह। मम मारगत्तूणमिणं, जं किरइ मुंह सुते मे / / इतरथाऽपि तावदह मर्तुमिच्छामिततो मदीयशिष्याणां शान्तिं प्रयच्छत मा पुनर्यथास्वरुचि हन्त विनाशयतयतो यदिदं मम मारणं भवद्भिः क्रियते तन्मृतस्यैव मारकत्वं भवति अतो मुञ्चत मदीयान् शिष्यान् सुतान् / अपि च // एयं पि अंव जाणह, रिसिवज्झा जह न सुंदरा होइ। इह य परत्थ य लोए, मुंचंतणुलोमिया एवं // भो भद्रा एतदपि तावद्यूयं जानीथा यथा ऋषिहत्या विधीयमाना इह च परत्र च लोके सुन्दरा न भवति एवमनुलोमिताः प्रज्ञापिताः सन्तस्ते तस्कराः साधून मुञ्चन्ति। अथैवमपि न मुञ्चेरन्ततः किंकर्तव्यमित्याह / / धम्मकही चूण्णेहि व, मंतनिमित्तेण वा वि विजाए। नित्थारेई वलेण व, अप्पाणं चैव गच्छं च / / यो धर्मकथालब्धिमान् धर्मकथया तं सेनापतिमुपशमयति चूणा मन्त्रेण वा विद्यया वा निमित्तेन वा पातयेत्यो वा धनुर्वेदादौ कृतपरिश्रमः स निजबलेन सेनापतिं निर्जित्यात्मानं गच्छं च निस्तारयति / अथ एषामेकमपिन विद्यते ततः॥ वीसजिया व तेणं, पंथफिडिए व हिंडमाणे वा। गंतूण तेण पल्लिं, धम्मकहाईहिं पन्नवणे // तेन सेनापतिनोपधिमपहृत्य साधवो विसर्जिता मुक्ता इत्यर्थः / मुक्ताश्च ये तदुपधिं न गवेषयन्ति ततश्चतुर्लघुकाः ततः स्तेनपल्ली गत्वा गेवर्यितव्यउपधिः गच्छता वाऽपान्तराले यदि कोऽपि प्रश्रयेत् कुतो भवन्त इहागता ततो वक्तव्यमेते मात्पिरिभ्रष्टा हिण्डमाना वा विहारक्रमेण विहरन्त एव वयमिह संप्राप्ताः ततः स्तेन पल्लीं गत्वा धर्मकथादिभिः सेनापतेः प्रज्ञापना कर्तव्या। अथेदमेव भावयति॥ भद्दमभई अहिवं, नाउं भद्दे वसति तं पल्लिं / फिडिया मुत्तिय पंथं, भणंति पुट्ठा कहा पल्लिं / / स्तनपल्लीं गच्छद्भिः प्रथमतएवैतद् ज्ञातव्यं किमत्र सेनापतिभ्रंद्रकोऽभद्रको वा यदि भद्रकस्ततस्ता पल्ली प्रविशन्ति / अथाभद्रकस्ततो मा प्रान्तापतापद्रावणादीनि काषींदिति कृत्वा नतत्रगन्तव्यम्। अथगच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः। अथ कोऽप्युपशमनायोत्सहतेततस्तंगृहीत्वा गन्तव्यं गच्छन्तश्च कुतः किमर्थं भवन्त इहायाताः अत्र कुत्र वा व्रजिष्यथ इति पृष्टा भणन्ति पन्थस्फिटिताः परिभ्रष्टा वयमिह पल्ल्यामाराहान्वेषणं कुर्महे। मुसियत्ति पुच्छमाणं, को पुच्छइ किं च अम्ह मुसियव्वं / अहिवं भणंति पुटिवं, अणिच्छे सन्नायगादीहिं।। किं मुषिता यूयमिति पृच्छन्तं ब्रुवते / को नामास्मान् पृच्छति किं वा निर्ग्रन्थानामस्माकं मुषितव्यं ततश्च स्तेनपल्लीं गत्वा यस्तत्र सेनाया अधिपतिस्तं पूर्व प्रथमतो भणन्ति / धर्मकथादिना प्रज्ञापयन्ति प्रज्ञापितश्च यदा व्यापृतस्ततो वक्तव्यमस्माकमुपछि प्रयच्छेत्यादिना सेनापतिस्पर्शमयितव्यः। Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1105 - अमिधानराजेन्द्रः- भाग 2 . उवहि उपसंतो सेणावइ, उवगरणं देइ वा दवावेइ। गीयत्थे हि य गहणं,तं वीसु व सीकरणं // उपशान्तः सन् सेनापतिः स्वयमेवोपकरणं ददातिस्वमानुषैर्वा दापयति ते सर्वे गीतार्थास्तत उपकरणं मिश्रयन्ति वा न वा / अथा-गीतार्थमिश्रास्ततो गीतार्थस्तस्योपकरणस्य ग्रहणं कर्तव्यम्। यच्च संयतासंयतानामुपकरणं तद्विष्वक् विधेयम्। अथ सेनापतिर्ब्रयात्। सत्थे बहू विवित्तो, गिण्हह जं जत्थ पेच्छह अड़ता। इहई पडिपल्लीसु य,रुसेह विइओ जओ हं सो।। सार्थोऽस्मन्मानुषैर्बहु प्रभूतो विविक्तः अतो न ज्ञायते कस्य कुत्र वस्त्रादिकमस्तीति ततो गृहीत यूयं स्वकीयमुपकरणं यद्यत्र पर्यटन्तः पश्यथ ततः साधुभिर्वक्तव्यं यद्येवंततः स्वमानुषमस्माभिः सह वर्जयत ततस्तदीयमानुषेण सह गच्छन्ति / स च ब्रूते इहास्यामेव पल्ल्यां प्रतिपल्लीषु वा यद्यद्भवतामुपकरणं तत्तद् (रुसेहत्ति) देशीयवचनत्वात् गवेषत अहं भवतां द्वितीयोऽस्मीति ततो यद्यत्र पश्यन्ति तत्तन्मानुषादिभिः प्रज्ञाप्य गृह्णन्ति। अह ताव न जातो जह, एएसि पि पावइन हत्थं / तह कुणिमो मोसमेणं, छुभंति पावा अह इमेसु / / अस्माकंतावदयं मोषो मुषितवस्त्रादिलक्षणोन जातः अतो यथैतेषामपि हस्तं न प्राप्नोति तथा वयमेनं मोष कुर्महे इति विचिन्त्य केचित्पापाः स्तेनकास्तथेति चिन्ताऽनन्तरमेतेषु प्रक्षिपन्ति। तद्यथा। पुढवीआउक्काए, अवडवणस्सइतसेसुसाहरइ। सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु नायव्वं // पृथिवीकार्य वा अप्काये वा अगडे वा गायामित्यर्थः / वनस्पतिषु वा त्रसेषु वा संहरन्ति निक्षिपन्तीति यावत् / गाथायामेक वचननिर्देशः प्राकृतत्वात् एतेषु निक्षिप्तममीषां ग्रहीतुं न कल्पते इति बुद्ध्या / अत्र च सूत्रार्थः येन गीतार्थेन पृथिव्यादिनिक्षिप्ते तत्रोपकरणे स्वल्पतरमेवाधिकरणमगृह्यमाणेषु बहुतरमसंयतपरिभोगाप्कायप्रक्षालनादिक्रमेणाल्पबहुत्वं ज्ञातव्यं ज्ञात्वा च ग्रहीतव्यं तद्वस्त्रम्। अथ न गृह्णाति ततश्चतुर्लघुका अनवस्था चैवं भवति / भूयोऽपि हृत्वा ते वा अन्ये वा एवमेव पृथिव्यादिषु निक्षिपन्तीति भावः। अथ 'साविय परिभुता वा" इत्यादिसूत्रावयवं विवृणोति! हरियाहरिया सुविहिय, पंचवन्ना वि कप्पई घेत्तुं। परिभुत्तमपरिभुत्ता, अप्पाबहुगं वियाणित्ता॥ हे सुविहित! हताहृतिका यद्यपि स्तेनकैः पञ्चवर्णा कृता तथापि ग्रहीतुं कल्पते तथा परिभुक्ता अपरिभुक्ता वा उपलक्षणत्वाद्धौता घृष्टा मृष्टा संप्रमिता वा भवतु परं तथाऽप्यल्पबहुत्वं विज्ञाय स्वीकर्तव्यैव न परिहर्तव्या। आधत्ते विक्कीए, परिमुत्ते तस्स चेव गहणं तु। अन्नस्स गिण्हणंत-स्स चेव जयणाए हिंडंति॥ स्तेनकैस्तद्वस्त्रमाधत्तं ग्रहणके मुक्तं भवेत् विक्रीतं वापरिभुक्तं वा ततस्ते ब्रूयुः वयमन्यद्वस्वं प्रयच्छाम इति ततो वक्तव्यं तदेवास्माकं प्रयच्छत नान्येन प्रयोजनमिति भणित्वा तदेव ग्रहीतव्यं यदि न लभते ततोऽनवस्याप्रसङ्गनिवारणार्थमन्यस्यापि ग्रहणं कुर्वन्ति तत्र यदि संस्तरति ततः परिष्ठापयितव्यम् असंस्तरेतुपरिभोक्तव्यम्। तथा तस्यैव सेनापतेर्मानुषैः सह वस्त्रान्वेषणाय यतनया हिण्डन्ते पर्यटन्ति। इदमेव भावयति॥ अन्नं च देइ उवहि, सा वि य नातो तहेव अन्नातो। सुद्धस्स होइ गहणं, असुद्धि घेत्तुं परिहवणा। अथासौ सेनापतिरन्यमन्यसाधुसंबन्धिनमुपधिं ददाति ततः स उपधिांतो वा स्यात् संविग्नासंविग्नसंबन्धितया उपलक्षितः अज्ञातो वा तद्विपरीतः तत्र यः शुद्धो विधिपरिकर्मितो यथोक्तप्रमाणोपेतश्च स संविग्नसंबन्धी तंगृहीत्वा तेषामेव संविग्नानामर्पयन्तिा अथ ते देशान्तरं गतास्ततो यदि संस्तरन्ति ततः परिठापयन्ति। अथ न संस्तरन्ति ततः परिभुञ्जते ।यः पुनरशुद्ध एतद्विपरीतः सोऽसंविग्नानां संबन्धी तमप्यनवस्थाऽधिकरणपरिहरणार्थं गृहीत्वा पश्चात्परिष्ठापयन्ति। इदमेव व्याचष्टे। तं सिव्वणीहि नाउं, पमाणहीणाहियं विरंगं वा। इतरोवहिं पि गिण्हइ, मा अहिगरणं पसंगो वा / / तदुपकरणमविधिसीवनिकाभिः सीवितं प्रमाणतश्च हीनाधिकं विरङ्ग विचित्रवर्ण करक्तमेवंविधं दृष्ट्वा ज्ञातव्यं यथैष इतरेषामसंविग्नानामुपधिस्तमपि ज्ञात्वा गृह्णात्येव कुत इत्याह मा तस्मिन्नगृह्यमाणे अधिकरणे असंयतपरिभोगादिना प्रसङ्गो वा भूयोऽष्युपकरणहरणलक्षणो भवत्विति कृत्वा। अंतस्स व पल्लीए,जयणा गमणं तु गहण तह चेव / गामाणुगामियम्मि य, गहिए गरणे य तं भणियं / अथान्यस्य सेनापतेः पल्ल्या तस्योपकरणस्यार्द्ध नीतं भवेत् ततस्तत्रापि यतनया गमनं ग्रहणं तथैवानुशिष्टिधर्मकथादिना विधेयम्। एवमध्वनि विविक्तानां विधिरुक्तः। ग्रामानुग्रामिकेऽपि विहारे मासकल्पं विधिं कुर्वन्तो यदा विविक्ता भवन्ति तदागृहीते स्वहस्तचटिते (गहणेत्ति) गृह्यमाणे चोपकरणे उपधिपृथक्करणादिधर्मकथादिकं च यत्पूर्व भणितं तदेवात्रापि द्रष्टव्यम्। इदमेवध्याचिख्यासुराह। तत्थेव आणावेइ, तं तु पेसेइ वा जहिं भट्ठो। सत्थेण कप्पियारं, त देइजो णं तहिं नेइ। यधुपकरणमन्यस्यां पल्ल्यां नीतं तदा यदि मूलपल्लीपतिर्भद्रकस्तत उपकरणं तत्रैवात्मनो मूले तत्पल्लीवास्तव्यमानुषैरानाययति / अथवा तमात्मीयं मनुष्यं तत्र प्रेषयति यत्रासावन्यस्य सेनापतेः पल्ल्यामुपधिर्वर्तते / अथासौ न समर्थः स्वसमीपे आनाययितुं ततः सार्थेन सह तस्यां पल्ल्यां गन्तव्यम् / अथ सार्थो न प्राप्यते ततो मूलपतेर्मानुषो मार्गयितव्यः स च कल्पितारं मार्गदर्शयितारं स्वमनुष्य ददाति यस्तत्र पल्ल्यां साधूनां नयति॥ अणुसिट्ठाई तत्थ वि,काउ सपल्लि इतरीसुं वा। घेत्तुं सत्येण व यं, उवयंति अह भद्दए जयणा / / तत्रापि पल्ल्यामनुशिष्टिकर्मकथादिप्रायोग्यं कृत्वा गृहीत्वा च स्वकीयमुपकरणं जातं यदि ततः सार्थो न लभ्यते ततस्तेनैव मनुष्येण सह स्वपल्ल्यामागच्छन्ति मूलपल्ल्यामित्यर्थः / तत्र चागत्य सार्थेन सह जनमदमुपयान्ति / अथ तस्याः पल्ल्याः सकाशादितरासां जनपदप्रत्यन्तपल्लीनां सार्थो यदि लभ्यते ततो मुचोपकरणं नीतं भवेत् ततस्तदर्थं तत्र गत्वा तच गृहीत्वा ततः Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि सार्थेन सार्द्ध जनपदमुपयान्ति। अथैष भद्रकस्ततोऽन्यपल्लीपतौ यतना | भणिता॥ फजुगपइए पंते, भणंति सेणावई तेहिं। एते उत्तरमाड-बियाइ जा पच्छिमा राया।। इह मूलपल्ली मुक्त्वा या अन्याः पल्ल्यस्तासामधिपतयो मूलपल्लीपतिवशवर्तिनः स्पर्द्धकपतय उच्यन्ते तेषामेकतरेण साधवो विविक्ताः स च प्रकृत्यैव प्रान्तस्ततस्तस्मिन् प्रान्ते बहुशोऽपि मार्गिते उपकरणमप्रयच्छति मूलसेनापति भणन्ति धर्मकथादिना प्रज्ञापयन्ति स च प्रज्ञापितः सन्न दापयति / अथ सोऽपि प्रान्तस्ततो यः कोऽपि माडम्बिकश्छिन्नमडम्बाधिपतिः स प्रज्ञाप्यते तत उत्तरोत्तरं तावन्नेतव्यं यावदपश्चिमः सर्वान्तिमो राजा तमपि प्रज्ञाप्योपकरणं गृहीतव्यमिति भावः / अथ प्रमादाद्युपगतो न मार्गयति न वा धौतरक्ताधिकमसंयतप्रायोग्यमिति कृत्वा च गृह्णाति ततश्चतुर्लघवः। वसिमे वि विवित्ताणं, एमेव य वीसुकरणमादीय। वोसिरणे चउलघुगा, जं अहिगरणं वहाणा य॥ न केवलमध्वनि विविक्तानां किं तु वसिमेऽपि जनपदे विविक्तानामुपकरणविष्वक्करणादीनि कार्याण्येवमेव मन्तव्यानि यस्तु स्वोपकरणं व्युत्सृजति को नामात्मानमायासयिष्यतीति कृत्वा न गवेषयतीति भावस्तस्य चत्वारो लघवः यचाधिकरणमप्कायप्रक्षालनादि याचते तेनोपकरणेन विना सूत्रार्थयोः संयमयोगानांचापरिहाणिस्तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं यत एवमतः सर्वप्रयत्नेन गवेषणीयम्। बृ०१ उ०। (14) भिक्षणाय गतं भिक्षुमुपनिमन्त्रयेत्। (सूत्रम्) निग्गंथं चणं गाहावइकुलं पडियपडियाए अणुपविटुं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतिजा कप्पइ से सागरकडगहाय आयरियपायमूले वंदित्ता दोचं पि उम्गहं अणुन्नविए। अस्य सूत्रस्य संबन्धमाह। अविरुद्ध भिक्खगतं, कोइ निमंतेज वत्थईहि। कारणविरुद्धचारी, विगिंचिते वावि गेण्हेजा। अविरुद्ध विरुद्धराज्यरहिते ग्रामादौ विरुद्धराज्यचारी स्तेनादिभिर्विविक्तो मुषितः सन् वस्त्राणि गृह्णीयात् अतो वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपाद्यते। अहवा लोइय तेणं, निव सममइक्कम्म पच्छिम भणितं / दोचमणणुम्नवेडं, उत्तरियं वत्थभोगादी॥ अथवा नृपसमानमतिक्रम्य विरुद्धराज्यसंक्रमणे लौकिकस्तैन्य-- मिदमनन्तरसूत्रे भणितम् / अथ द्वितीयं वारमवग्रहमाचार्यसमीपे अननुज्ञाप्य तदा वस्त्रपरिभोगमादिशब्दात् धारणं वा करोति तदा लोकोत्तरिकस्तैन्यं भवतीति प्रतिपाद्यते / एभिः संबन्धैरायातस्यास्य व्याख्या निग्रन्थपूर्वोक्तशब्दार्थं चशब्दोऽर्थान्तरोपन्यासे णमिति वाक्यालङ्कारे गृहस्य पतिः स्वामी गृहपतिस्तस्य कुलं गृहपिण्डणतप्रतिज्ञया पिण्ड ओदनादिस्तस्य पातपात्रं प्रविष्टस्तत्प्रतिज्ञया तत्प्रत्ययमनुप्रविष्टः कश्चिदुपासकादिर्वस्त्रेण वा प्रतिग्रहेण वा कम्बलेन वा पादप्रोञ्छनेन वा उपनिमन्त्रयेत् वस्त्र सौत्रिकमिह गृह्यते प्रतिग्रहः पात्रकं कम्बलमौर्णिककल्प पात्रशब्देन तु पात्रके गरिकाप्रभृतिकः पात्रनिर्योगः प्रोञ्छनशब्देन तु रजोहरणमुच्यते / आह च चूर्णिकृत् / "पायग्गहणेण पायभंडयंगहियं पुंछण रयहरणंति' एतैरुप समीपे आगत्य निमन्त्रयेत् उपनिमन्त्रितस्य च (से) तस्य निग्रन्थस्य साकारकृतमाचार्यसत्कमेतद्वस्वं न मम अतो यस्यैव महतो आत्मनो वा परिभोगिष्यते तस्यैतद्भविष्यतीत्येवं सविकल्पवचनव्ययितं स गृहीत्वा ततः आचार्यपादमूले तद्वस्त्र स्थापयित्वा यदितस्यैव साधोः प्रयच्छन्तितदा द्वितीयमप्यवग्रहम् / एकस्तावद् गृहस्थादवग्रहोऽनुज्ञापितः द्वितीयं पुनराचार्यपादमूलादवग्रहमनुज्ञाप्य धारणापरिभोगरूपं द्विविधपरिहार तस्य वस्त्रस्य परिहतु धातूनामनेकार्थत्वादाचरितुं कल्पते इति सूत्रसंक्षेपार्थः ।बृ०१उ० (एतद्विस्तरार्थ एव वस्त्रयाचनविधौ वत्थशब्दे वक्ष्यते) (उपधिविषयोऽवग्रहः उग्गहशब्दे उक्तः) (15) भिक्षार्थं गतस्योपकरणपतने विधिमाह। (सूत्रम्) निग्गंथस्स णं गाहवतिकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठसं आहलिहुस्सए उवकरणजाए पविभट्टे सिया तं च केइ साहम्मिया पासेज्जा कप्पति णं सागरकडं गाहा यजथेवत अण्णमण्णं पासेज्जा तथेकं तमाणावाहे बहु फासुए थंडिले परिट्टवेयव्वेसिया॥ निर्ग्रन्थस्य णमिति वाक्यालङ्कारे गृहपतिकुलं ("पिंडवायपडियाए इति") पिण्डं भक्तं पानं वा पातयिष्यामीति बुद्ध्या यथा सहोष्ट्र "सुत्तं पगडंतु निग्गओ" आनेष्यामीति बुद्ध्या निर्गत इत्यर्थः। अनुप्रविष्टस्य यथालघुकमेकान्तलघुकं जघन्यं मध्यमं वा इत्यर्थः / उपकरणजातं परिभ्रष्टं पतितं स्तात्तच्च कश्चित्साधर्मिकः पश्येत्कल्पते (से) तस्यासागारकृतनाम यस्यैवेदमुपकरणं तस्यैवेदं देयमिति बुद्ध्या गृहीत्वा यत्रैवान्यमन्यं साधर्मिकं पश्येत्तत्रैव एवं वदेत् इदं भो आर्य ! किं परिज्ञातं ततस्तस्यैव प्रतिनिर्यातव्यं समर्पणीयं स्यात्किमुक्तं भवति यदि तस्य सत्कं तर्हि तस्मै दीयते। अथब्रूयादमुकस्य सत्कं यदा तस्येति स च वदेत् नपरिज्ञातं न कोऽपि न जानातीति भावः तर्हि तन्नात्मना परिभुञ्जीतन अन्यस्यदर्शयेत्कित्येकान्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले परिष्ठापयितव्यं स्यात्। "एवं निग्गंथस्सणं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंतस्से" त्याद्यपि सूत्रं भावनीयम् / तथा निर्ग्रन्थस्य णमिति प्राम्वत् ग्रामानुग्राम "अदूरइज्जइगामानुग्गामं दूरइज्जमाणस्सेत्ति'' विहरतोऽन्यतरत् उपकरणजातं परिभ्रष्टं स्यात्तच कश्चित्साधर्मिकः पश्येत्कल्पते (से) तस्य सागारकृतं गृहीत्वा दूरमप्यध्वानं परिवोढुं "जत्थेवेत्यादि' प्राग्वत् एष सूत्रत्रयसंक्षेपार्थः / संप्रति भाष्यकृत् यथालघुस्वकग्रहणं तृतीयसूरगतमन्यतरग्रहणं व्याख्यानयति। दुविहो य अहालहुतो, जहण्णतो मज्झिमो य उवहीओ। अन्नयरगहणेण उ, घेप्पइ तिविहो उ उवहीओ।। यथालघुस्वक उपधिर्द्विविधो भवति जघन्यो मध्यमश्च अन्यतरग्रहणेन तुत्रिविधोऽप्युपधिः परिगृह्यते। तदेवं कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता। संप्रति नियुक्तिविस्तरः। अंतो परिट्ठवंते, बहिया व वियारमादिसु लहुगो। अन्नयरं उवगरणं, दिटुं संका न घेप्पंति॥ किं हुज्ज परिद्ववियं, पम्हुछा वा वितो न गेण्हंति / किं एयस्सन्नस्स व, संकिज्जइ गेण्हमाणो वि।। Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि अन्तामादीनां मध्ये बहिर्विचारभूमौ वा परिष्ठापयति विस्मरति "पम्हुट्ठति वा परिट्ठवियंति वा एगट्ठमिति" वचनात् प्रायश्चित्तं लधुको मासः / कस्मादीदृशं प्रमादं करोतीति हेतोः कः पुनर्दोषो यतो विस्मृतमत आह अन्यतरत् जघन्य मध्यममुत्कृष्ट वा उपकरण दृष्ट ततो जाता शङ्का ततश्च न केचनापि ग्रहीष्यन्ति / शङ्कामेव स्पष्टतरां भावयति / (किं होजेत्यादि) साधवस्तदन्यतरत् उपकरणमन्तर्बहिर्वा दृष्ट्वा शन्ते किमेतत् परिष्ठापितमुत कस्यापि विस्मृतं भवेत् एवं शङ्कमानास्तदुपकरणं विस्मृतं न गृह्णन्ति यतो गृह्णन्नपि जनैः शक्यते तथाहि तत् पतितंगृह्णन्तं संयतं कोऽपि दृष्ट्वा शङ्केत किमेतस्य अन्यस्य वा / किमुक्तं भवति / किमात्मीयं पतितंगृह्णाति किं वा परकीयं कस्यापि दानार्थमेवं शङ्कासंभवे तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / अथ निःशङ्कितं परेषां स्यात्तदा चतुर्गुरुकम्। एवं शङ्कासंभवतो न गृह्णन्ति तस्मिश्चागृह्यमाणे इमे दोषाः। थिग्गल छित्ता पोत्ते, वालगचीराइएहिं अहिगरणं। बहुदोसतमा कप्पा, परिहाणी जा विणा तं च // तत्पतितं यथालधु स्वकरणं गृहस्थैर्दृष्ट ततस्ते तत् गृहीत्वा अन्यस्य च्छिद्रवतो वस्त्रस्य थिग्गलकं कुर्वन्ति तथा प्रक्षाल्य पोतकानि वहिकापट्टिकादिरूपाणि कुर्युर्यदिवा उत्तानशायिनां वालकानां योग्यानि चीवराणि विदधीरन् इत्येवमादिभिः प्रकारैर्यथालघु स्वकस्योपकरणस्याग्रहणे अधिकरणं यदा तु पतिताः कल्पानगृह्यन्तेतदा तेबहुदोषतमाः प्रभूततमं तेष्वधिकरणमिति भावः। तच उपकरणं याचमानस्य परिहाणिः सूत्रार्थयोः ये च तृण-ग्रहणाग्निसेवनादयो दोषास्तेऽपि प्रसजन्ति। एते अण्णे य बहू, जम्हा दोसा तहिं पसजंति। आसपणे अंतो वा, तम्हा उवहिं न वोसिरए। एते अनन्तरोदिता अन्ये च यस्माद्बहवो दोषास्तत्र पतिते प्रसजन्ति तस्मात् ग्रामादीनां बहिरासन्ने प्रदेशे अन्तर्वा तमुपधिं व्युत्सृजेन्न विस्मरणतः पातयेत्। अधुना यः शङ्कातः शङ्कमानो वा न गृह्णाति तं प्रत्युपदेशमाह। निस्संकियं तु नाउं, विचुयमेयंति ताहे घेत्तव्वं / संकादिदोसविजढा, नाउं अप्पंति जस्स तयं / / यदा एतदुपकरणं कस्यापि विच्युत्तं विस्मरणतः पतितमिति तदा नियमतो ग्रहीतव्यं गृहीत्वा च शङ्कादिदोषरहितानामविषये कस्यापि शङ्का स्यादित्यादिदोषवर्जिता यस्य तदुपकरणं तस्य ज्ञात्वा समर्पयन्ति। एतच्च यद्विषये कर्त्तव्यं तानाह। समणुण्णे इयराणं, वा संजतीसंजयाणं वा। इयरे उ अणुवदेसो, गहियं पुण घेप्पए तेहिं / / समनोज्ञानां सांभोगिकानामितरासामसांभोगिकानां संयतीनां संयतानां वा सत्कमुपकरणं पतितं गृहीत्वा यस्य सत्कं तस्य दातव्यमितरे तु पार्श्वस्यादयस्तेषामनुपदेशस्तेषां सत्कंपतितंगृहीत्या यस्यसत्कं तस्मै देयमिति नास्माकमुपदेशोऽधिकरणप्रवृत्तेस्तैः पुनः पार्श्वस्थादिभिः संविग्नानां विहारिणामेतदुपकरणमिति ज्ञात्वा यत्पतितं गृहीतंतदानीतं पुनर्गृह्यते। अत्रैव द्वितीयपदमाह। विइयपदेन गेण्हेजा, विवचियजुगुछिए असंविग्गे। तुच्छनपओयणं वा, अगण्हता होय पच्छित्ती॥ द्वितीयपदे अपवादपदे न गृह्णीयात् पतितं विवञ्चितं परिष्ठापितमिति कृत्वा जुगुप्सितमशुचिस्थानपतितमिति वा कृत्वा असंविनानां वा एतदुपकरणमिति ज्ञात्वा तथा तुच्छंमुखपोत्तिकादितदपि कुथितत्वादिना कारणेनाप्रयोजनमगृह्णतो भवति प्रायश्चित्तम् / सांप्रतमेनामेव गाथा विवृणोति॥ अंतो विसगलजुण्णं, विवंचियं तं च ददव नो गिण्हे। असुइट्ठाणे वि चुतं, बहुधा वालादिछन्नं वा / / अन्तर्दामादीनां मध्ये विशकलं खण्डाखण्डीकृतं जीणं विवेचितं परिष्ठापितमिति ज्ञातव्यं यच्च दृष्ट्वा न गृह्णीयात्। तथा अशुचिस्थाने-ऽपि च्युतं बहुधा वा व्यालादिभिश्च प्रवृत्तिभिच्छन्नं न गृह्णीयात्॥ हीणाहियप्पमाणं, चित्तलं विरंगभंगीय। एएहिं कारणेहि य, नाऊणं तं विवज्जति॥ हीनं चाधिकं च हीनाधिकं तत्प्रमाणं यत्र तत् क्वचिद्धीनं क्वचिदधिकमित्यर्थः / तच्च सीवनिकया चित्रलं चित्रं सीवनिकाचित्रलं रङ्गेन रागद्रव्येण भर्विच्छित्तिर्यत्र तद्विरङ्गभङ्गि तद् दृष्ट्वा एतैः कारणैरयमसंविग्नानामुपधिरिति ज्ञात्वा विवर्जयन्ति / / एमेव य वीयपदे, जं तो उवरिद्वविज्जइ इमेहिं। तुच्छो अतिजुण्णो वा, सुण्णे वा विविंचेजा। एवमेव अनेनैव प्रकारेण एभिर्वक्ष्यमाणैामादीनाभन्तर्द्वितीय-पदेन परिष्ठापयेत् / पतितं न गृह्णीयात् / कै रित्याह तुच्छो मुख-- पोत्तिकापादप्रोञ्छनादिकः कुथितत्वादिना अकिञ्चित्करो यदि वा अतिजीर्णो हस्तेन गृह्यमाणोऽनेकधा विशरारुर्जायते शून्ये वा विविक्ते प्रदेशे पतितो यत्र विस्मरणासंभवः। ततः एतैः कारणैः परिष्ठापित एष उपधिरिति कृत्वा विविच्य न गृह्णीयादिति भावः। एमेव य बहिया वि, वियारभूमीए होज त घेत्तु। तस्स विउ एस गमो, हाइयणेओ निरवसेसो।। एवमेव अनेनैव प्रकारेण ग्रामादीनां बहिरपि विचारभूमौ पतितं भवेत्। तस्याप्येष एवानन्तरोदितो गमः प्रकारो निरवशेषो ज्ञेयो ज्ञातव्यो भवति। तदेवं सूत्रद्वयं भावितम्॥ अधुना तृतीयसूत्रभावनार्थमाह / गामो खलु पुव्वुत्तो, दूइजंते उ दोन्नि दुविहाणे। अन्नतरग्गहणेणं, दुविहो होइ उवहीणो॥ ग्रामः खलु पूर्वमुक्तस्तस्मादनुकूलोऽन्यो ग्रामोऽनुग्रामःग्रामश्चानुग्रामश्च ग्रामानुग्रामं समाहारत्वादेकवचनं तत् दूयमानस्य गच्छतस्तस्मिन् गच्छति द्विविधा ऋतुबद्ध काले गन्तव्यम्। तथा पादाभ्यामिति आभ्यां द्वाभ्यां प्रख्या। संप्रति नियुक्तिविस्तरः / / पंथे उवस्सए वा, पासवणुचारइयंते वा। पक्खुसती एएहिं, तम्हामोत्तूणिमे ठाणा / / तत् उपकरणं पथि व्रजतः कथमपि एतत् ग्रामानुग्राम वा गच्छन् यत्रोपाश्रये उषितस्तत्र विस्मरणतः पतितं भवेत् विश्राम्यतो वा कृचित्पतितं स्यात् उच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वतः स्यात्पतितं आचमतो वा विस्मृतमेतैः कारणैर्विस्मरणः पतनसंभवस्ततो येषु विश्राम्यत उच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वतो दोषा भवन्ति तानीमानि स्थानानि वर्जयेत। तान्येवाह॥ पंथे वासमणनिविसणादि, तो मासो होइ लहुओ उ। आगतरसंठाणे, लहुगा आणादिणो दोसा / / Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि ११०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि पथियदि विश्राम्यति निवसति वा आदिशब्दात्ऊर्द्धस्थितो वा तिष्ठति सुप्तो वा उचारं प्रश्रवणं वा व्युत्सृजति तदा सर्वत्र असमाचारीति निष्पन्नं प्रायश्चित्तं मासलघु / यदि पुनरागन्तृणां स्थाने सभाऽऽदौ विश्रमणादि करोति तदा सर्वत्र प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः आज्ञादयश्च दोषाः। संप्रति पथि विश्रमणादौ दोषानाह। मिच्छत्त अन्नपंथे, धूली उक्खिणण उवहिणासो। तेचेवय सविसेसा, संकादिविविंचमाणे वि॥ स साधुः पथि विश्राम्यति धिग्जातीयाश्चान्ये जातिमदावलिप्तास्तेन पथा समागता भवेयुस्ततः स साधुः चिन्तयेत् / मा मन्निमित्तमेते उद्वर्त्तमाना हरितकायादिविराधनां कार्युरिति स साधुः पथि उत्थाय अन्यत्र तिष्ठेत् तत्र च इमे दोषा जानन्त्येतत् श्रमणवादिन आत्मनः सारमतोऽयमस्मान् दृष्ट्वोद्वृत्त इति तथा साधूनां धिग्जा-तीयानां पथि दत्ते त एव तेषामपि गुरवो धिग्जातीयाः प्रधानाश्च एतच्चाभिनवधर्माणः श्रुत्वा दृष्ट्वा च मिथ्यात्वं प्रतिपद्येरन् तथा (अण्णपंथेत्ति) तं साधु पथि स्थितं दृष्ट्वा पथिका उदृत्य व्रजन्ति ते चोद्वर्तमाना हरितकायादीनां विराधनां कुर्वन्ति / तथा केचित्तं पथि स्थितं दृष्टा ब्रुवते अहो निर्लज्जाः श्रमणाः पत्थानंरुध्वा स्थिताःतच श्रुत्वा कोऽप्यसहमानः कलहं कुर्यात् ततो युद्धे समापतिते भाजने भेदोऽनागाढादिः परितापना च स्यात् / तथा पादनिक्षेपेण धूल्या उत्खननं भवति तेन च उपधेर्विनाशो मलिनत्वभावात् / ते एवानन्तरोदिता दोषाः सविशेषाः शङ्कादयो विचिकित्साऽपि उच्चारादिना तथा हि उच्चारादि पथि कुर्वतो लोकस्य शङ्कोपजायते किमनेनगुदं निर्लेपितमुत नेति आदिशब्दात्किमेष स्तेनकः किं वा श्रमणोऽभिचारको हेरिको वा इत्यादिपरिग्रहः एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतो मिथ्यात्वद्वारं विवृणोति। पंथेन ठाइयव्वं,बहवो दोसा तहिं पसजंति। अन्मुट्ठियम्मि गुरुगा, जंवा आवञ्जती जुत्तो॥ पथि साधुना विश्रमणनिमित्तं न स्थातव्यं यतस्तत्र बहवो दोषाः प्रसजन्ति तानेवाह। साधुना धिग्जातीयानां पथि प्रदत्ते अभ्युत्थिता एते अभ्युत्थानमेतेषां कृतमितिलोकप्रतिपत्तौ तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः यच्च स्वयं दृष्ट्वा यतो वा श्रुत्वा मिथ्यात्वमापद्यते अभिनवधर्मा मिथ्यादृष्टिा गाढतरं मिथ्यात्वमधिगच्छति तनिष्पन्नं च तस्य प्रायश्चित्तं धिग्जातीयानां चात्मबहुमानसंभवस्तथा चाह / जाणंति अप्पणो सारं, एते समणवादिणो। सारमेएसि लोगो य-मप्पणो न वियाणई।। ये आत्मानं श्रमणमिति वदन्ति ते आत्मनः सारं परमार्थतत्वं जानन्ति यथाऽस्मभ्यमेते गरीयांस इति यस्त्वेतेषामयं लोकः संसारमर्थतत्वमात्मनो न विजानाति अविदितपरमार्थत्वात्। गतं मिथ्यात्वद्वारम्। अधुना अन्यपथद्वारमाह। अण्णपहेण वयंते, काया सो चेव वा भवे पंथे। अचियत्त असंखमादी, भायणविराहणाचेव॥ तं साधु पथि स्थितं दृष्ट्वा पान्था अन्येन पथा व्रजन्ति तथा च सति काया हरितकायादयो विराध्यन्ते। तथा स एव भवति पन्थास्ततो महान् | प्रवर्तनादोषः तथा पथि स्थितं दृष्टा कस्यापि (अचियत्ति) | अप्रीतिरुपजायते ततः स ब्रूते अहो मुण्डः पन्थानं रुप्ध्या स्थितस्तस्य श्रुत्वा कोऽप्यसहमानोऽसंखड कलहं कुर्यात् आदिशब्दात् युद्धमपितथा च सति भाजनविराधना आदिशब्दादनागादादिपरितापना भावतः शरीरविराधना च / संप्रति "धूली उक्खणण उवहि विणासो इति' व्याख्यानयति। सरक्खधुली चेयण्णे, पत्थिवाणं विणासणा। अचित्तरेणुमइलम्मि, दोसा होति अधोवणे॥ सह रजसा श्लक्ष्णधूलिरूपेण वर्तते इति सरजस्कः स चासौ धूलिश्च तस्याश्चैतन्यस्तस्यां चेतनायामित्यर्थः पादनिक्षेपेण उत्खनेन शरीरादिसंस्पर्शतः पार्थिवानां पृथिवीकायानां विनाशनं भवेत् / अथ सोऽचित्तो रेणुस्तर्हि तेनाचित्तेन रेणुना मलिने उपधौ यदि प्रक्षालयति तथाऽपि दोषः / प्राणविराधनापत्तेर्वा कुशत्वसंभवाच अप्रक्षालनेऽपि दोषाः प्रवचनहीलनाद्यापत्तेः। अन्यच।। वेगाविद्धो तुरंगादी, सहसा दुक्खनिग्गहा। / परम्मुहं मुहं किया, पहि ठाणं पणोल्लए। वेगाविद्धो वेगेनागच्छन्तस्तुरङ्गादय आदिशब्दावलीव नामपि परिग्रहः / सहसा दुःखेन निगृह्यन्ते निवार्यन्ते इति दुःखनिग्रहा निवारयितुमशक्या इति भावस्ततःशरीरविराधना भाजनविराधना च। तथा के चित्प्रान्ताः परान्मुखं मुखं कृत्वा पथि स्थितं साधु प्रणुदेयुर्गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात्प्राकृते हि वचनव्यत्ययो भवति। किं च। पम्हुट्ठमवि अन्नत्थ, जइहा कोति पेच्छति। पंथे उपरिपम्हटुं, खिप्पं गेण्हति अद्धगा॥ पथोऽन्यत्र विस्मरणतः पतितमपि प्रेक्ष्यते पथि पुनः अध्वगा परिभ्रष्ट क्षिप्र गृह्णन्ति तस्मात्पथिन विश्रमितव्यम्। एवं ठितोवविठ्ठ, सविसेसतरा भवंति उण्णिवणे। दोसा निदपमायं, गते य उवहिं हरति त्तो॥ एवममुना प्रकारेण स्थिते ऊर्द्धरथानेनावतिष्ठमाने तथा उपविष्टमाने वक्तव्यानि चात्र शयाने सविशेषतरा दोषा भवन्ति / तथाहि पूर्वोक्तास्तावत्तथैव द्रष्टव्याः। अन्यच्च शयाने कथमपि निद्राप्रमादं गते उपधिमन्ये पथिकादयो हरन्ति तस्मात्पथि न शयितव्यमिति। संप्रति "चे वय सविसेसा संकादिविविंचमाणे वी" त्येतद्व्याख्यानार्थमाह / / उचारं पासवणं, अणुपंथे चेव आयरंतस्स। लहुतो य हो य मासो, चाउम्मासो सवित्थारो / / उच्चारं प्रश्रवणं वाऽध्वगानामनुकूले पथि अवतरतः समाचारी-निष्पन्न प्रायश्चित्तं लघुको भवति मासः। अथ तथोच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वन्तमवलोक्य केचिदन्यं पन्थानं कुर्वन्ति तत्र चत्वारो मासा लधुकाः (सवित्थारोत्ति) यच स्त्र्यादिभिः सह संघट्टनादिप्राप्नोति तन्निष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तमिति भावः। तथा। छड्डावणमन्नपडो, दवासतिय दुब्भिगंधकलसप्पे। तेणो त्ति व संकेजा, आदियणे चेव उड्डाहो। कोऽपि स एव राजकुलमान्यः प्रान्तः श्रमणमुच्चारं पथि कुर्वन्तं दृष्टा कोपात्तमेव श्रमणमास्कन्द्य तमुच्चारं छड्डापयेत् अपरेरन्यः Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि - पन्थाः क्रियेत तत्र चोक्तं प्रायश्चित्तम्। तथा पथि द्रवीभावे दुरभिगन्धः उच्छलेत्तत्रापि प्रवचनोड्डाहस्तथा कोऽपि कलुषात्मा शङ्केत स्तेनक इति उपलक्षणमेतत् हेरिकोऽभिचारिको वा इत्यपि शङ्केत तत आदाने ग्रहणे प्रवचनस्य उड्डाहः तस्मात्पथि विश्रामणादि न कर्तव्यम्॥ अत्रैवापवादमाह॥ अच्छेय व दूरपहे, असहू भारेण खेदियप्पा वा। च्छन्ने व मोत्तुं पहं, गामसमीवे य छन्ने वा॥ अतिशयेनातप उष्णं तपति वृक्षाश्च पथिदूरे वर्तन्ते यथासन्नपल्लीमार्ग प्रतिपन्नानामेक एवाध्वनि विश्रमणहेतुरेकरववृक्षोऽन्यत्र सर्वत्राकाशं तेन कारणेन पथ्यपिवृक्षस्याधस्तात् विश्राम्येता असहोनाम नातिदूरे वृक्षाः सन्ति परं तत्र गन्तुं न शक्नोति ततः सोऽपि पथि वृक्षस्याधो विश्रमणं कुर्यात् / अथवा उपधिभारेण खेदितात्मा अतिशयेन परिश्रान्तस्ततः पथ उद्दर्तितुं न शक्नोतीति पथ्येव विश्रामयति / तदेवं पथ उभयोः पार्श्वयोर्दूरण वृक्षसंभवे द्वितीयपदमुक्तमिदानीं समन्ततो वृक्षच्छन्ने प्रतिपादयति / (छन्ने व मोत्तुं पहंत्ति) पन्था उभयोः पार्श्वयोवृक्षश्छन्नस्तत्र वा विभाषायां यदि निर्भयं ततः पन्थानं मुक्त्वाऽन्यत्र विश्रमणादि करोति / अथ भयं तदा पथ्येवेति एतद् दूरेऽभिहितम्।ग्रामासमीपे पुनर्निर्भयमिति वृक्षश्छन्नस्तत्र वा विभाषायां यदि निर्भयं ततः पन्थानमुक्त्वाऽयन्त्र विश्रमणार्थपथ उद्धृत्य विश्रमणादि करोति / ग्रामसमीपे यस्य तस्य वृक्षादेर्देवकुलादेश्छायासंभवात्तेन पुनः साधुना पथः कियदूरे उद्भर्तितव्यमत आह।। .पंथे ठितो नपेच्छइ, परिहरिया पुय्ववणिया दोसा। विइयपए असतीए, जयणाए वट्टणादीणि॥ तावति दूरे उद्धृत्य स्थातव्यं यन्न पथिकः पथा व्रजन्पथिऊर्द्ध-स्थितो वासाधुमुद्वृत्तं न पश्यति। एवं च पूर्ववर्णिता दोषाः समस्ता अपिपरिहताः। द्वितीये पदे अत एवापवादपदे पुनरुद्वर्त्तने असति उद्वर्तनाभावे पथ्यपि यतनया वक्ष्यमाणया स्थानादीनि करोतिसच तथा कुर्वन् तीर्थकराज्ञया प्रवृत्ते शुद्ध इति। सांप्रतमुद्वर्तनाभावं यतनां चाह। संकठहरियच्छाया, असतिय गहितोवही ठितो पेच्छे। उद्वेइव अप्पत्ते, सहसा पत्ते ततो पिटुं॥ संकष्टोनाम पन्थाः स उच्यतेयोवाद्योरपान्तराले तत्रोद्वर्तनस्यासंभवः / अस्य वा चतसृष्वपि दिक्षु समन्ततो हरितकायः। अथवा पन्थानमतिरिच्यान्यत्र सर्वथा छाया न विद्यते / ततः एतैः कारणैरुद्वर्तनासंभवे पथ्येव गृहीतोपकरणो मुहूर्तमात्रमूर्द्धस्थितो मार्ग एव छायायां विश्राम्येत / यदा तु पथिकानागच्छतः पश्यति तदा तेषु ते प्रदेशमप्राप्तेष्येव उत्तिष्ठति तथा ते जानन्ति पूर्वमेव उत्थित इति / अथ सहसैव ते पथिका अदृष्टा एव संप्राप्तास्तदा तेषां पृष्ठं दत्वा उत्तिष्ठति यथा ते जानन्तियथैष आत्मव्यापारेपोत्थित इतिएवं मिथ्यात्वदोषाः परिहता भवन्ति। मुंजण पाणुचारे, जयणं तत्थ कुवति।। उडाहडा उजे दोसा, पुव्वं तेसु जतो भवे // भोजने पाने उच्चारे च यतनां तत्र पथि करोति कथमित्याह। उदाहृताये पूर्व दोषास्तेषु यतो भवेत् यथा ते न भवन्ति तथा यतेतेति भावः। / गंतव्वपलोएवं, अकरणिलहुतो उदोस आणादी। पम्हुट्ठो वा सट्टे, लहुतो आणादिणो चेव॥ विश्रम्यउच्चारं प्रश्रवणं वा कृत्वा यदा गन्तव्यं भवति तदा सिंहावलोकनेन पश्चादवलोक्य गन्तव्यम् ।यदि पुनरवलोकनं न करोति तदा प्रायश्चित तस्य लघुको मासः / अधिकरणदोषाश्च प्रागुक्ताः कथमपि विस्मरणतः पतन्ति सम्भवति। आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः। तथा यदि कथमपि विस्भरतः पतितं स्यात् ततस्तद्ग्रहणाय प्रतिनिवर्तितव्यम्। यदि मन्यते किं तेनेति व्युत्सृजति तदा मासलघुकमाज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः एतदेवाहपम्हुतु गंतव्वं, अगमणे लहुगो य दोसआणादी। निकारणम्मि तिन्नि उ, पोरिसीकारणे सुद्धो॥ कथमपि विस्मरणतः पतिते सिंहावलोकनेन च दृष्ट नियमतस्तदानयनाय पश्चात् गन्तव्यम् / अगमने प्रायश्चित्तं लघुको मासः। अधिकरणदोषाश्च प्रागुक्ता आज्ञादयश्च / तथा निष्कारणमिति कारणस्याभावे निष्कारणमस्मिन् यदि नास्ति निवर्तमानस्य प्रत्यवाय इत्यर्थस्तदा अवश्यं निवर्तितव्यम् / (तिण्णिउत्ति) यदि प्रथमायां पौरुष्यां विस्मरणतः पतितं चरमायां च पौरुष्यां स्मृतं तत्र यदि निष्प्रत्यवायमन्तरा च वासोऽस्ति यदा निवृत्त्य गृहीत्वा आनेतव्यमथ सूर्यास्तमयवेलायां स्मृतं यथा अमुकमेव विस्मरणतः पतितमिति तदा आद्यान् त्रीन् यामान् उषित्वा चतुर्थे यामे प्रतिनिवृत्त्यानेतव्यं प्रत्यवायाभावे कारणे तु प्रत्यवायलक्षणेऽनिवर्तमानोऽपि संशुद्धः / एतदेव भावयति / / चरमाए वि नियत्तइ, जइ वासो अस्थि अंतरा वसिमे। तिण्णि वि जामे वसिउं, नियत्तइ निरचये चरमे / / प्रथमायां पौरुष्यां विस्मरणतः पतितेतदानयनाय चरमायामपि पौरुष्यां निवर्तते यदि च तेषामन्तरा वासोऽस्ति / अथ चरमायां दिनपौरुष्यां पतति तदा रात्रेस्त्रीन्यामानुषित्वा चरमे यामे निरत्यये प्रत्यवायाभावतो निर्भयो निवर्त्तते॥ कारणे सुद्धो इति व्याख्यानार्थमाह। दूरं सो विय तुच्छो, सावयतेणानदी व वासं वा। इबाइकारणेहिं, करेंति उस्सग्गमो तस्स / / दूरमतिशयेन गतानां स्मरणपथमवतीर्णः पतित उपधिः सोऽपि वा उपधिरतिशयेन तुच्छः / मुखपोत्तिकादिरूपोऽतिशयजीर्णश्चेति भावः। अथवा अपान्तराले व्याघ्रादीनि स्वापदानि स्तेना वा शरीरापहारिण उपकरणापहारिणो वा नदी वाऽपान्तराले वर्षा वा पतति आदिशब्दात म्लेच्छभयं वा अशिवं वेत्यादि परिग्रहः इत्यादिभिः कारणैस्तस्य विस्मरणतः पतितस्योपकरणस्य उत्सर्ग"वोसिरामिति' त्रिभणनपूर्वक परित्यागं करोति एवं करणे अधिकरणादयो न भवन्ति॥ .एवं ता पम्हुट्ठो,जेसिंतेसिं विही भवे एसो। जे पुण अन्ने पेच्छे, तेसि तु इमो विही होइ।। एवमुक्तेन प्रकारेण तावत् येषामुपधिर्विस्मरणतः पतितस्तेषामेषोऽनन्तरोदितो विधिर्भवति ये पुनरन्ये साधर्मिका प्रेक्षन्ते तेषामयं वक्ष्यमाणो विधिर्भवति। तमेवाह / / दलु अगिण्हणे लहुगो, दुविहो उवही उ नायमण्णातो। दुविहानायमणाया, संविग्ग तहा असंविग्गा / / द्विविध उपधिरौधिक औपग्राहिकश्च / तस्य द्वितयस्यापि पति Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1110 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि तस्य दृष्ट्वा अग्रहणे प्रायश्चित्तं लघुको मासो ये च पूर्वमुक्ता अधिकर-- णादयो दोषास्तेऽपि तस्य प्रसजन्ति सचोपधिर्भूयो द्विधा ज्ञातोऽज्ञातश्च / तत्र ज्ञातो नाम येषां स उपधिस्तेषां ज्ञायते अज्ञातो नाम यो न ज्ञायते यथा अमुकस्य सबन्धीति। ते ज्ञाता द्विविधाः संविना असंविग्नाश्च / / मुत्तूण असंविग्गे, संविग्गाणं तु नयणजयणाए। दो वग्गा संविग्गे, छन्भंगा नायमण्णाए। मुक्त्वा असंविग्रान् किमुक्तं भवतियो ज्ञायते असंविनानामेष उपधिःस ननीयतेयस्तुसंविनानांतत्र द्वौ वर्गीतद्यथा संयताः संयत्यश्च तत्र संविग्ने एकस्मिन्वर्गे षड्भङ्गा ज्ञाते भवन्ति अज्ञाते च वक्ष्यमाणो विधिः। तत्र षड्भङ्गानुपदर्शयति। सयमेव अण्णं पेसेइ, अप्पाहे वा वि एव सग्गामे। परगामे वि य एवं, संजतिवग्गे वि छन्भंगा। यदिते संयताः संविग्ना इति ज्ञातास्तदा स्वयं वागन्तुं नयति अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति संदेशयति वा यथा मया स उपधिर्विस्मरणतः पतितो लब्ध इति / एवं स्वग्रामे त्रयो भङ्गाः परग्रामेऽपि स्थितानामेते एव त्रयः प्रकाराः एवं षड्भङ्गाः संयतानामेवं संयतीवर्गेऽपि षड्भङ्गास्तदेवं ज्ञातविषये विधिरुक्तः। संप्रत्यज्ञातविषयं विधिमाह। ण्हाणादिणाय घोसेण, सोउंगमणं च पेसणप्पाहे। पम्हुढे वोसहे, अप्पबहुअसंघरंतम्मि॥ यो न ज्ञायते कस्याप्येष उपधिरिति स परिज्ञाननिमित्तं स्नानादिसमवसरणे धोष्यते घोषणंच श्रुत्वा केनापि कथिते येषांस उपधिस्तत्र स्वयं वा गन्तुं नयति अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति / संदेशयति वा / तथा (पम्हुढे) विस्मरणतः पतिते व्युत्सृष्ट परित्यक्ते येनानीतस्तस्मिन्नसंस्तरति अल्पबहु परिभाव्य परिभोगोऽनुज्ञातः। एतदेव व्याख्यानयति। कामं विम्हट्ठाणे, चत्तं पुण भावतो इमम्हेहिं। इति वेंते समणुण्णे, इच्छाकजेसु सेसेसुं॥ येषां स उपधिर्विस्मरणतः पतितस्तेषामन्तिकमानीयते नीत्वा चेदं भण्यते यथाऽयं युष्मद्विस्मरणतः पतितोऽस्माभिश्चानीतस्ततो गृह्यतामिति एवमुक्ते ते प्राहुःकामं नोऽस्माकं विस्मरणतः पतितमिदमुपकरणं परं भवत इदमस्माभिस्त्यक्तं त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृजितमिति भावः / एवं ब्रुवति उपधिस्ते यदि संभोगिकास्तेन च विना संस्तरन्ति तर्हिस येषां सत्कस्तैः परिष्ठापयन्ति। "एतेन इच्छाकज्जेसु इति" व्याख्यातम्। संप्रति "सेसेसुत्ति" व्याख्यायते। शेषा असांभोगिकास्तेष्वपि कार्येष्विच्छा इयमत्र भावना अन्यसांभोगिकैरानीते तैश्च प्रतिषेधे यदि यैरानीतस्ते तेन विना संस्तरन्ति अन्यश्वोपधिदुर्लभो न लभ्यते वा तदा तैः समनुज्ञातं परिभुञ्जते एतावता "अप्पबहुसंथरंतम्मि" व्याख्यातम्। तदेवं संविग्नानां विधिः। इदानीं प्रसंविग्नानामुपधिविधिरुच्यते। पक्खिगापविखगा चेव, हवंति इयरे दुहा। संविग्पक्खिगेणेति, इयरेसिंन गेण्हात। इतरे असंविग्ना द्विविधास्तद्यथा पाक्षिका अपाक्षिकाश्च संविग्नपाक्षिका असंविग्नपाक्षिकाश्च इत्यर्थः / तत्र यः संविग्नपाक्षिकः संविग्नपाक्षिकस्य संबन्धी उपधिस्तं स्वयं वा नयति अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति संदेशयति वा यस्त्वितरेषामसंविग्नानामुपधिस्तं पतितं दृष्टान गृह्णाति। __ अत्रैवापवादमाह। इयरे वि होञ्ज गहणं, आसंकाए अणजमाणम्मि। किह पुण होजा संका, इमेहि उ कारणेहिं तु / / इतरस्मिन्नप्यसंविग्नपाक्षिकसंबन्धिन्युपधावसंग्नपाक्षिकसंबन्धित्वेनाज्ञायमाने आशङ्कया ग्रहणं भवेत्। सूरिराह एभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः तान्येवाह। ण्हाणादिसमासरण,अहव समावत्तितो गयाणेगा। संविग्गमसंविग्गा, इति संका गेण्हते पडियं / / जिनप्रतिमास्नानदर्शननिमित्तमादिशब्दात् संघप्रयोजनेन वा केनापि समवसरणे मेलापके यदि वा एवमेव समापत्तितो गताः पुरतोऽनेके संविग्ना असंविग्नाश्च तेषां गच्छतां कस्याप्युपधिर्विस्मरणतः पतितः सन ज्ञायते सम्यक् किं संविग्नानां केवलं स्यादसंविग्नानामपीति तं पतितं गृह्णाति। सविग्गपुराणोवहि, अहवा विहिसीवणा समावत्ती। होज व असीवितो चिय, इति आसंकाए गहण तु / / अथवा पुराणसंविग्नोषधेः किमुक्तं भवति येषां सत्क उपधिः पतितस्ते पूर्वं संविग्ना आसीरन्पश्चादसंविग्नीभूताः स चोपधिः पूर्व संविग्नसीवनेन सीवितः। अथवा संविग्नैरपि समापत्त्या विधिसीवनिकया सीवितो यदि वा असीवित एव संभवेत्ततस्तं दृष्ट्वा आशङ्गा भवति किं संविग्नानामुतासंविनानां तत आशङ्कया ग्रहणं भवति। संप्रति ग्रहणानन्तरविधिशेषमाह। ते पुण परदेसगते, नाउ भुजति अहव वखंति। अन्ने उ परिठ्ठवणा, कारणभोगा व गीएसु॥ तमुपधिं गृहीत्वा येषां संविग्नानां सत्क उपधिस्ते परदेशं गताः ततस्तान्परदेशं गतान् ज्ञात्वा कारणे समापतिते परिभुञ्जते अथवा कारणाभावे परिष्ठापयन्ति। एवं कारणैरसंविग्नानामपि पतितमुपधिं गृह्णानो न प्रायश्चित्तभाग्भवति। अथ येषां सत्क उपधिः पतितो गृहीतस्ते संविग्ना अप्यन्ये असांभोगिकास्तेषां देशान्तरगतानामुपधिं गृहीत्वा निष्कारणे परिष्ठापयन्ति (कारणत्ति) यदि ते सर्वे गीतार्था न च तेषामुपधिरेस्ति यदि वा तादृश उपधिरन्यो दुर्लभस्तदा एवं कारणे परिभुजते। अथ ते अगीतार्थमिश्रास्तदा परिष्ठाप्यन्ते प्रज्ञाप्य वा गीतार्थान्परिभुञ्जते एतचान्यसांभोगिकसत्कतया परिज्ञायते / द्रव्यपरिज्ञाने प्रागुक्त एव विधिः। विइये पदेन गेण्हेजा, संविग्गाणं पि एहि कञ्जेहिं। आसंकाएय नजइ, संविग्गाण च इयरेसिं॥ द्वितीयपदे अपवादपदे संविग्नानामपि पतितमुपधिमेभिर्वक्ष्यमाणैः कायः कारणैर्न गृह्णीयात् / तान्येवाह न ज्ञायते किमेष संविग्रानामुत इतरेषामसंविग्नानामित्याशङ्कया पतितं न गृह्णाति तथा / असिवगहियं व सोउं, ते वा भव व होज्ज जइ गहियं / ओमेण अन्नदेसं,, व गंतुकामा न गेण्हेजा।। येषां स उपधिस्ते अशिवगृहीता येन दृष्टः स नेत प्रथमो 1 भङ्गः यैर्दृष्टस्ते अशिवगृहीता येषां सत्कस्तेन गृहीता इति द्वितीयः 2 उभयं गृहीतमिति तृतीयः 3 उभमपि न गृहीतमिति चतुर्थो 4 भ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1111- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि ङ्गः तत्र चतुर्थे भङ्गे अपवादमधिकृत्य शून्यो न भवति तत्रापवाद इति भावः। तत्र प्रथमभङ्गे न गृह्णाति अशिवोपहतत्वात् द्वितीयेऽपि न गृह्णाति तदानीं तस्य तैरवग्रहणादशिवोहतत्वात् तृतीय भङ्गे सदृशे अशिवे कारणे गृह्णाति विसदृशे सोमसुखादिलक्षणैर्न गृह्णाति यदि वा अवमौदर्येण देशान्तरं गन्तुकामा न गृह्णीयुः // अह पुण गहियं पुटवं, न य दिटुं जस्स विबुय त तु। उवहावियन्नदेसं,इमिणा विहिणा विगिंचिजा।। अथ पुनर्गृहीतं पूर्वमुपकरणं न च स दृष्टो यस्य सत्कं तदुपकरणं विच्युतं विस्मरणतः पतितं यस्मात् (उवहावियन्नदेसंति) अथपुनर्गृहीतमुपकरणं नच स दृष्टो यस्य सत्कंतदुपवेगेनधाविताः प्रधाविता अन्यं देशंगतास्ततः अनेन वक्ष्यमाणेन विधिना विवेचयेत् परिष्ठापयेत् / तमेव विधिमाह। दुविहा जायमजाया, जाया अभियोग तह असुद्धाय। अभियोगादी छेत्तुं, इयरं पुण अक्खयं चेव॥ सा परिष्ठापनिका द्विविधा जाता अजाता च तत्र जाता नाम अभियोगकृता विषकृता च तत्राभियोगो वशीकरणम् / अथवा जाता अशुद्धा सा द्विविधा मूलगुणाशुद्धा उत्तरगुणाशुद्धा च / तत्र जाता अभियोगकृता विकृता वामूलगुणाशुद्धा उत्तरगुणाशुद्धा वा सा छेत्तुं भेत्तुं वा कर्तव्या / इतरत् पुनरुपकरणमभियोगादिदोषरहितमक्षतं चैव परिष्ठापयितव्यम्। अत्र परः प्रभं करोति पहनिग्गया इयाणिं, विजाणणट्ठाइ तत्थ चोदेइ। तेसिं सुद्धिनिमित्तं, कीरइ विधिं इमं तु तहिं / / पथि निर्गताः आदिशब्दादशिवादिभिः कारणैर्निर्गताः परिगृह्यन्ते तेषां शुद्धिनिमित्तं यदेव प्रागुक्ते विधौ प्रतिपादिते परः असहमानश्चोदयति प्रश्रयति पथिनिर्गतादीनां पथिनिर्गता मार्गप्रतिपन्नास्तेषां परिष्ठापितमिदमिति विज्ञानार्थं तत्रेदं वक्ष्यमाणं चिह्न क्रियतामिति। तदेवाह। एगा दो तिनि वली, वत्थे कीरंति पत्तचीराणि। सुज्झंतु चोदगेणं, इति उदिते वेति आयरितो॥ मूलगुणैरशुद्धे वस्त्रे एकावलिरेकं वस्त्रं कृत्वा तत् परिष्ठाप्यते मूल-- गुणैरशुद्ध पात्रे एकं चीवरमेकं प्रस्तरं क्षिप्त्वा तत्परिष्ठाप्यतामुत्तरगुणैरशुद्ध शुद्धे वा क्रियेतां पात्रे द्वे चीवरखण्डे द्वौ वा प्रस्तरो क्षिप्ये-- याताम् / मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च शुद्धे वस्त्रे त्रीणि चक्राणि क्रियेरन् / पात्रे त्रीणि चीवराणि त्रयो वा प्रस्तराः क्षिप्येरन् इति / अमुना प्रकारेण चोदकेनोक्ते आचार्यो ब्रवीति / किं तदित्याह। सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्धवायुवसं। तेण तिदुगेणगंठी, वत्थे पत्तम्मि रेहो उ॥ एवं युष्मदुक्तप्रकारेण चक्रकरणे वातवशात् शुद्धमपि चक्रैकद्विक-1 भङ्गतोऽशुद्धं भवति। अशुद्धमपि वातवशेन चक्रत्रिकभावतःशुद्धं भवति।। पात्रमपि वातवशेन एकद्विकचीवरापगमे शुद्धं भवति / अशुद्धमपि वातवशेनान्यागत्तुकचीवरखण्डसमागमे शुद्धं तस्मादयं विधिस्तत्र कर्तव्यः / मूलोत्तरगुणशुद्ध वस्त्रे त्रयो ग्रन्थयः कर्तव्याः पात्रे तिस्रो रेखाः उत्तरगुणैरशुद्ध वस्त्रे द्वौ ग्रन्थी पात्रे द्वे रेखे मूलगुणैरशुद्धे वस्त्रे एको ग्रन्थिः पात्रे एका रेखा। अद्धाणनिग्गमादी, उवएसा णएण पेसणं वावि। अविकोविते अप्पणमं, दद्धे भिन्ने विवित्ते य। अध्वनि मार्गे निर्गता अध्वनिर्गता आदिशब्दात् अशिवादिभिर्वा कारणैनिर्गताः परिगृह्यन्ते तेषामुपकरणे दग्धे वह्निना भस्मीकृते भिन्ने वा विविक्ते वा विस्मरणतः पतिते वास्तव्यास्तान् अध्वनिर्गतादीन् ब्रुवते अस्माकमुरितानि वस्त्राणि न सन्ति केवलमस्माभिरमुकप्रदेशे परिष्ठापितानि वर्तन्ते तान्यानीय गृह्णीथ एवमुक्ते तेऽपि प्राधूर्णका ये गीतार्थास्तान् प्रेषयन्ति वास्तव्या अपि च तेषां चिह्नानि उपदिशन्ति यथा गर्तसमीपे गिरिसमीपे तरुसमीपे कूपसमीपे इत्यादि (आणयण मिति) अथैवं चिह्ने कथितेऽपिस्नानं न जानन्ति यदि वा न ते वास्तव्या ग्लानादिप्रयोजनावृतास्ततः स्वयमानीय प्रयच्छन्ति (पेसणं वा वित्ति) अथवा वास्तव्याः प्राघूर्णकानां देशकं ददति यथा अमुकप्रदेशे वस्त्रादि परिष्ठापितमस्ति तदमीषां दर्शय अपि शब्दात् यदि ग्लानादिप्रयोजनैर्न व्यावृतास्तदा परिष्ठापिताभावे अन्यत्याचित्वा प्रयच्छन्ति (अवि कोविए अप्पणमिति) आनीते परिष्ठापिते कोऽप्यकोविदो गीतार्थ उपहतमिति कृत्वा नेच्छति तत्र प्राघूर्णकैस्तिव्यैर्वा तस्यात्मीयं वस्त्रं पात्रं वा दत्या इतरत्स्वयं ग्रहीतव्यम् / अथ तदपि कश्चिदगीतार्थतया न गृह्णीयात्तर्हि तत् आनीतं पुनः परिष्ठाप्यते एष गाथासंक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव विवरीषुराह। अद्धाण निग्गयादी, नाउ परित्तोवही विवित्ते वा। संपडगभंडधारी, पेसंती ते वियाणंतो।। अध्वनिर्गतादीन् आदिशब्दादशिवादिकारणनिर्गतपरिग्रहस्तान् परीतोपधीन परिमितोपधीन् विविक्तान्या विविक्तोपधीन्या विस्मरणतः पतितोपधीनित्यर्थः / उपलक्षणमेतत् दग्धोपधीवास्तव्या ज्ञात्या कथंभृता वास्तव्या इत्याह। संपादुकभाण्डधारिणो नाम यावन्मात्रमुपकरणमुपपद्यते तावन्मानं धरन्ति शेषं परिष्ठापयन्ति / ततस्तान् तथाभूतान् दृष्ट्वा बुवते अस्माकमुद्ररितानि वस्त्राणि न सन्ति किं त्वरमाभिरमुकप्रदेशे परिष्ठापितानि वर्तन्ते तानि गत्वा प्रतिगृह्णीतेति एवमुक्ते तथाऽपि प्राघूर्णका जानते गीतार्थान्प्रेषयन्ति कथमित्याह / गड्डागिरितरुमादीणि , काउं चिंधाणि तत्थ पेसंति। अवियवेट्ठा सयं वा, आणं तल्लं व मगंति / / अत्र प्राघूर्णकाः प्रेषिता न वास्तव्या गर्तगिरितर्वादीनि चिह्नानि कृत्वा प्रेषयन्ति यदि वाग्लानादिभिरव्यापृताःस्वयमानयन्ति परिष्वपिताभावे अन्यद्वा मार्गयन्तिासांप्रत "मविकोविए अप्पणगमिति" व्याख्यानयति। नीयम्मि य उवगरणे, उवहयमेयं न इच्छई कोई। अविकोविय अप्पणगं, अणिच्छमाणे विविंचंति॥ नीतेऽप्युपकरणे कश्चिदकोविद उपहतमेतदिति कृत्वा नेच्छेत तस्मिन्नकोविदे आत्मीयं वस्त्रादि समर्प्यते / अथ तदपि नेच्छति तदा परिष्ठापितमानीतं पुनर्विविश्चन्ति परिष्ठापयन्ति। असतीए अप्पणा वि, झामियहियवूढपडियमादी सु। सुज्झति कयप्पयन्नो, मेव गेण्हं असढभावो / / येन पूर्व तत् परिष्ठापितं तस्य पश्चादुपधिः कथमपि प्रदीपनकेन दग्धः हृतो वा तस्करैः पानीयेन वा नद्यादिप्लवेन प्लावितः व्रजतो वा कथमपि विस्मरणतः पतितः / आदिशब्दात्प्रत्यनीके न वा के नापि वस्त्राणि फालितानि पात्राणि अनेक धा Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1112 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि भिन्नानि ततो ध्यामितहृतव्यूढपतितादिषूपकरणानि याचनीयानि तेषामप्यसत्यभावे कृतप्रयत्नस्तदेव पूर्वपरिष्ठापितं स्वयं गृह्णाने-- ऽशठभाव इति कृत्वा शुद्धः / व्य० द्वि० उ०। (भिक्षाचर्यायां क उपधिर्नतव्य इत्येसणाविहारादिशब्देषु) (16) स्थविराणां ग्रहीतव्या उपधयः॥ (सूत्रम्) थेराणं थेरभूमि पत्ताणं कप्पति दंडए वा 1 भंडए वा २छत्तगंवा 3 मत्तगं वा लट्ठियाए वा 5 मिसिवा 6 चेलं वा७ चेलचिलिमिलिया वा 8 चम्मए वा 1 चम्मकोसं वा 10 चम्मपलिच्छे यणाए वा 11 अविरहिए उ वा सेठवेत्ता गाहावतिकुलं भत्तएवापाणाएवापविसित्तएवा निक्खमित्तए वा कप्पति से संनियट्टचारिस्सदाचं पिउग्गहं अणुण्णवित्ता परिहारं परिहरित्तए वा // 5 // स्थविराणां जरसा जीर्णानां स्थविरभूमिं प्राप्तानां सूत्रार्थतदुभयोपेतानामित्यर्थः / कल्पते दण्ड विदण्डादिभेदभिन्नं भण्डकमनेकविधानि उपकरणानि छत्रकं प्रतीतं मात्रकमुचरादिसत्कं लष्टिका दण्डविशेषः / चेलं कल्पादिचर्मतलिकादिरूपंचर्मपरिच्छेदनकं बन्ध्वा एतान् अविरहिते अवकाशे स्थापयित्वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिपाताय प्रवेष्टुं वा निष्क्रमितुं वा कल्पते सन्निवृत्तचराणां भिक्षाचर्यातः प्रत्यागतानां स्थविराणां द्वितीयमपि वारमवगृहमनुज्ञाप्य परिहर्तुं धारणया परिभोगेन चेत्येष सूत्राक्षरमात्रार्थः / विशेषव्याख्या तु भाष्यकृता क्रियते। तत्र यानि पदानि व्याख्येयानि तानि दर्शयति // दंड विदंडे लट्ठी, विलहिचम्मे य चम्मकोसाय। चम्मस्स य जे छेया, थेरा वि जे य जराजुण्णा / / दण्डो विदण्डः यष्टिवियष्टिः चर्म चर्माकोशः चर्मणश्च ये छेदास्ते चर्मपरिच्छेदनकास्ते च व्याख्येयास्तत्र प्रथमतः स्थविरपदमाचक्षते। स्थविरा अपि च ये जराजीस्तेि द्रष्टव्याः॥ आयवताणनिमित्तं, छत्तं दंडस्स कारणं वुत्तं / कम्हा ठवेइ पुच्छा, संदिग्धधरो अदुग्गट्ठा। आतप उष्णेन परितापना तस्य त्राणार्थं छत्रकं गृह्णाति दण्डस्य उपलक्षणमेतत् विदण्डादीनां ग्रहणे कारण पूर्वनिशीथे कल्पेच भणितम् / अथकस्माद्दण्डं स्थापयति एषा पृच्छा अत्रोत्तरंदण्डको दीर्घः स्थविरश्च | ततः तंदुर्गे व्याघ्रादिपरिवारणनिमित्तं परिवहति॥ संप्रति भाण्डादिव्याख्यानार्थमाह / / भंडं परिग्गहो खलु, उचारादी य मन्नगा तिन्नि। अहवा भंडम्गहणे, अणेगविहं भडगं गहियं // भाण्डकः खलु पतद्ग्रह उच्यते उचारादौ च आदिशब्दात् प्रश्रवणे श्लेष्मणि चेति परिग्रहस्त्रीणि मात्रकाणि भवन्ति तद्यथा उचारमात्रकं प्रश्रवणमात्रकं श्लेष्ममात्रकं चेति / अथवा भाण्डकग्रहणेनानेकविधं भाण्डकं गृहीतं द्रष्टव्यम्॥ चेलग्गहणे कप्या, तसथारवरजीवदेहनिप्पन्ना। दोरण इयराव चिलिमिलि, चम्मतलिगा व कत्तिव्वा॥ चेलग्रहणेन त्रसस्थावरजीवशरीरनिष्पन्ना और्णिकसौतिकरूपा इत्यर्थः कल्पाः परिगृह्यन्ते चिलिमिलिमि जवनिका सा दवरकमयी इतरा वा द्रष्टव्या चर्ममयतलिका उपानत् कृत्तिर्वा औपग्रहिकोपग्रहणविशेषरूपाः॥ अंगुट्ठअवरफाणू, नह कोसच्छेयणं तु जे बद्धा। ते छिन्नसंघणट्ठा, दुखंडसंधाणहेउं वा।। चर्ममयःकोशःचर्मकाशः सोऽङ्गुष्ठस्य यदिवा (अवरफाणू) पार्णिका तस्याः परिरक्षणाय ध्रियते। अथवा नखरदनादेरौपग्रहिकोपकरणविशेषस्य चर्ममयः कोशश्चर्मकोशः येतुवद्ध्यस्तेिधर्मपरिच्छेदनकमित्युच्यन्ते। तेच छिन्त्रसंधानार्थमथवाद्विखण्ड-संधानहेतोर्धियन्ते। तदेवं विषमपदानि व्याख्यातानि॥ . संप्रति दण्डाद्युपकरणस्थापनाचिन्तां चिकीर्षुराह॥ जइ य ठवेइ असुण्णे, न य वेइ देज अत्थ ओहाणं / लहुगो सुन्ने लहुगा, हियम्मि जं जत्थ यावति उ।। यदिचाशून्ये अविरहितेप्रदेशे दण्डाद्युपकरणं स्थापयतिनच कस्यापि संमुखमेवं बूते अत्र दद्यादेवधानमुपयोगमिति।तदातस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः / अथ शून्ये स्थापयति तदा चत्वारो लघुकास्तथा शून्ये मुक्ते स्तेनैश्चापहृते यत्र यत्र जघन्ये मध्यमे उत्कृष्ट वा उपकरणे प्रायश्चित्तमुक्तं तत्प्राप्नोति। अत्र परस्याशङ्कामाह। एवं सुत्तं अफलं, भणियं कप्पतित्ति थेरस्स। भण्णति सुत्तनिवातो, अतीमहल्लस्स थेरस्स।। चोदकः प्राह यद्येवमशून्ये च प्रदेशे उपकरणे दोषस्तर्हि तत्सूत्रमफलमविषयं यदुक्तं कल्पते अविरहिते अवकाशे स्थापयित्वेत्यादि। सूरिराह भण्यते अत्रोत्तरं दीयते अस्य सूत्रस्य निपातोऽतिमहतोऽतिशयेन गरीयसः। गच्छाणुकंपणिजा, जेण ठवेऊण कारणेणं तु / हिंडइ जुण्णमहल्लो, तं सुण वोच्छं समासेणं / / सोऽतिवृद्धो महान् गच्छस्यानुकम्पनीयं परं येन कारणेन स जीर्णो महान् एकाकीभूतोऽविरहिते प्रदेशे उपकरणं स्थापयित्वा भिक्षां हिण्डते तत्कारणं समासेन वक्ष्ये तच वक्ष्यमाणं शृणु प्रतिज्ञातमेव निहियति। सो पुण गच्छेण सम, गंतूण अजंगमो न वा एइ। गच्छाणुकंपणिज्जो, हिंडइथेरो पयत्तेण // स पुनरजंगमो गच्छेन समं गन्तुं न शक्नोति ततः स गच्छस्यानुकम्पनीय इति कृत्वा स्थविरो वक्ष्यमाणेन प्रयत्नेन यतनया हिण्डते तमेव प्रयत्नमाह। अतक्कियउवहिणा उ,थेरा भणिया अलोभणिज्जेण। संकमणे पट्ठवणं, पुरतो समगं व जयणाए / यमुपधिं न कोऽपि तळयति विशेषतः परिभावयति तेनातर्कणीयेनोपधिना अत एवालोचनीयेन लोभगोचरतामतिक्रान्तेन परिधाप्य मासकल्पप्रायोग्यस्य वर्षावासप्रायोग्यस्य वा क्षेत्रस्य संक्रमेण कर्त्तव्ये आचार्येण ते स्थविरा अतिमहान्तो भणिताः पुरतः समकं वा यतनया चल्यता तत्र यदि प्रतिभासते तर्हि पुरतोऽग्रे साधुभिः सह तस्य प्रस्थापन क्रियते। अथ न शक्नोति पुरतो गन्तुं तदा समकं नीयते कथमित्याह। यतनया तामेव यतनामाह। संघाडग एगेण व, समगं गेण्हंति सभए ते उवहिं। कितिकम्मदवं पढमा, करेंति तेसिं असति एगो॥ यदि गच्छेन समं व्रजति ततः सुन्दरमेव सकलस्यापि गच्छस्य तत्साहाय्यकरणात् / अथ समकं गन्तुं न शक्नोति तदा Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि साधुसंघाटकेन समं साधुसंघाटकस्याभावे एकेन वा साधुना समं व्रजति तत्र यौ सहायौ दत्तौ तौ तस्योपकरणं गृहीतः परिवहतः। यदा तु चौरभयेन सभयं स्थानं तदा समस्तमपि उपधिकल्पादिलक्षणं गृह्णीतो गृहीत्वा स्थविरो यथाजातः कृत्वा अग्रे क्रियते ततः सभयस्थानलङ्घने कृतिकर्मविश्रामणां तस्य कुरुतः कृत्वा द्रवं पानीयञ्च समर्पयतः / तदनन्तरं प्रथमालिकां कारयतः। तयोर्द्वयोः साध्वोरभावे एकः समस्तं प्रागुक्तं करोति। जइ गच्छेज्नाहि गणो, पुरतो पंथे य सो फिडिजाहि। तत्थ उठवेज एगं, रिक्खं पडिपंथगप्पाह। अथैकोऽपि सहायो न विद्यते तदा स्थविर एकाक्यपि पुरतः प्रवर्त्यते। तत्र यदि सार्थादिवशतस्त्वरितं गच्छन् स गणपुरतो गच्छेत् यदि वा पथि परिरयादिना स स्फिटितो भवेत्तत्र एकं साधुं रिक्तमुपकरणरहित स्थापयते / अथ तत्र शरीरापहारिस्तेनभयं दष्टव्याघ्रादिस्वापदभयं वा ततः स मोक्तुं न शक्यते तर्हि अग्रेतनस्थानात्प्रतिनिवर्तमानं पथिकमप्याह इति संदेशापयेत / यथाऽग्रे साधुसमुदायो व्रजन्नास्ते तस्मात्त्वरितमागन्तव्यमिति। संप्रतियथा स स्फिटितो भवति तथा प्रदर्शयतिसारिक्खकरिसणीए, अहवा वातेण हुञ्ज पुट्ठो उ। एवं फिडितो हुज्जा, अहवा वीपरिरएणं तु। कालगए व सहाए, फिडितो अहवा वि संभमो हुजा। पढमपिडितो वएण व, गामपविट्ठो व जो हुञ्जा।। पथि गच्छतो मार्गद्वयं तत्र येन पथा गच्छो गतस्तस्मादन्यस्मिन्पथि केचित्साधुसदृशाः पुरतो गच्छन्तो दृष्टास्ततः साधव एते गच्छन्तीति सादृश्यकर्पिण्या मित्या विप्रलब्धः सन् तेन पथा गच्छेत् अथवा अपान्तराले स वातेन स्पृष्टः स्यात्। ततो गन्तुं न शक्नोति एवममुना प्रकारेण स्फिटितो भवेत्। अथवा तथाविधमहागर्तया पर्वतस्य नद्या वा परिरयेण स स्थविरो व्रजन् गच्छन् स्फिटितः स्यात्। यदि वा यस्तस्य सहायो दत्तः स कालगत इति स्फिटित एकाकी संजातः / अथवा संभ्रमे वा त्वरितं सार्थेन सह पलायमाने गच्छे स्थविरःशनैव्रजन् गच्छन् स्फिटितो भूयात्।यदि वा प्रथमेन क्षुत्परीषहेण पीडितः सन्यः स्थविरो ग्रामं वजिकां वा प्रविष्टो भवेत् गच्छश्व स्तेनादिभयेन सार्थेन समं त्वरित व्रजति स गच्छात्स्फिटितो भूयात्। एएहिं कारणेहिं, फिडितो जो अट्ठमं तु काऊण / अणुहिंडतो मग्गइ, इतरे वि य तं विमग्गंति / / एतैरनन्तरोदितैः कारणैर्यो गच्छात्स्फिटितः सोऽष्टमं षष्ठचतुर्थवा कृत्वा भिक्षामटन् गच्छं मार्गयति अन्वेषयति इतरेऽपि च गच्छ-साधवस्तं स्थविरं विमार्गयन्ति / अथ ते गच्छसाधवः सार्थेन समं व्रजन्तो यदि सार्थं मुञ्चन्ति तदा स्तैनैरपि हीयन्ते वनदावेन वा दह्यन्ते दुष्टेन वा स्वापदेन केनापि गृह्यन्ते ततो गवेषयितुं न शक्नुवन्ति तर्हि स्थविरेणावश्यमुक्तप्रकारेण मार्गणा कर्तव्या। अह पुण न संथरेजा, तो गहितेणेव हिंडते भिक्खं / जइन तरेजाहि ततो, ठवेज ताहिं असुन्नम्मि।। यदि चतुर्थेन षष्ठेनाष्टमेन वा गवेषणं कर्तुं न संस्तरेत् तत स्तदा तदुपकरणमशून्ये प्रदेशे स्थापयेत्। तत्रापि यानि वर्जनीयानि स्थानानि तानि प्रदर्शयति। अह पुण ठविज एहिं, सुन्नग्गिकम्मगुंछिएसु वा। नाणुण्णवेज दीहं, बहुभुंजइ तत्थ पच्छित्तं / / तिसु लहुग देसु लहुगो, खद्धाइयणे य चउलहू होति। चउगुरु समखंडीए, अप्पत्तपडिच्छमाणस्स। अत्राद्यगाथापदानां द्वितीयगाथोक्तप्रायश्चित्तैः सह यथासंख्येन योजन साचैवमथ पुनः स्थापयेदेषु वक्ष्यमाणेषु स्थानेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे ततः प्रायश्चित्तसभवस्तत्र यदिशून्ये स्थापयति ततश्चतुर्लघु अग्निकर्मिकायामपि शालायां स्थापने चतुर्लघुका अग्निना यदि कथमप्युकरणस्य दाहस्तदा तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं जुगुप्सितगृहेषु स्थापयति चतुर्लघु तस्मादेतानि वर्जयित्वा वक्ष्यमाणेषु स्थानेषु स्थापयेत् यत्र स्थापयति ते अनुज्ञापयितव्या अननुज्ञापने मासलघु दीर्घा भिक्षाचर्या कुर्वति मासलघु बहु भुजति प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवो भवन्ति (खद्धाइयणेइत्ति) खद्धस्य प्रचुरस्य अदने भक्षणे सतीत्यर्थः / तथा अप्राप्तां संखडी प्रतीक्षमाणस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / संप्रति येषु स्थानेषु स्थापयेत्तानि दर्शयति। असति य सुमणुन्नाणं, सव्वोवहिणा व भइएसुं वा। देसकसिणे व घेत्तुं, हिंडइ मइ लंभ आलोए। यदि सुमनोज्ञाः सन्ति तहि तेषूपकरणं स्थापयितव्यं तेषामसत्य-भावे अमनोज्ञानामपि असांभोगिकानामप्युपाश्रये स्थापयेत् यदि वा सर्वेणाऽप्युपधिना गृहीतो न हिण्डते यदि शक्तिरस्ति अशक्तौ पार्श्वे स्थापयति यदि वा यथा भद्रकेषु गृहे स्थापयति (देसकसिणेवघेत्तुमिति) समस्तस्योपधेर्देशभूतानि यानि कृत्स्नानि परिपूर्णानि कल्पादीनि तानि गृहीत्वा भिक्षामटति अशक्तौ तान्यपि मुक्त्वा परिभ्रमति तत्र सति लाभे तेषु गृहेषु भिक्षामटति अटन् उपकरणं पश्यति।। असतिय अविरहियम्मि, णित्तिक्कादीणि अंतिए ठवए। देजह ओहाणंति, जाव अभिक्खं परिभमामि।! असति अविद्यमाने भावे अविरहिते प्रदेशे नैत्यकादीनां नैत्यिको धुवकर्मिको लोहकारादिरादिशब्दात् मणिकारशंखकारादिपरिग्रहस्तेषामन्तिके स्थापयेत् ब्रूते च दद्यादस्योपकरणस्यावधानं यावदह भिक्षा परिभ्रमामि॥ ठवेति गणयंतो वा, समक्खं तेसि बंधिउं / आगतो रक्खिया भोत्ति, तेण तुब्भेचिया इमे / / तेषां ध्रुवकार्मिकप्रभृतीनां समक्षं गणयन् बध्वा स्थापयति वा शब्दः स्थापनाविषयप्रकारान्तरसूचने आगतश्च सन् द्वितीयमपिवारमवग्रहमनुज्ञापयति / कथमित्याह भो इत्यामन्त्रणे युष्माभी रक्षितान्यमूनि तेन युष्मदीयानीमानि मां गृह्णन्तमनुजानीत / / दठूण व अन्नहा गंठिं, केण सुद्धो त्ति पुच्छति। रहियं किं घरं आसी, को परो व इहागतो।। इह यदा तेषां समक्षमुपकरणं बध्वा स्थापयति तदा साभिज्ञानं ग्रन्थिं बध्नाति / ततःआगतः सन तं प्रलोकयति / मा के नाप्युन्मुच्य किं चित् हृतं स्यात्तत्र यदि तथैव ग्रन्थिं पश्यति ततः पूर्वोक्त प्रकारेण द्वितीयमवगृहमनुज्ञापयति / अथ ग्रन्थिमन्यथा पश्यति ततो बूते केनायं ग्रन्थिरुन्मुक्तश्छोटित इति Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1114 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहि पृच्छति / तथा किमिति क्षेपे रहितं शून्यं गृहमासीत् को वा अपर इह समागत इति। नत्थि वत्थु सुगंभीरं, तं मे दावेह मा चिरा। न दिट्ठो वा कहं एत्तो, तेणओ उवओ इह // ममोपकरणमध्ये यद्वस्तु सुगम्भीरमतिशोभनं तन्नास्ति तदर्शय तद्वस्तु मा चिरकालं कुरु / अथ न गृहीतं मया नापि कोऽप्यागच्छन् दृष्टस्तत आह तददृष्टो वा कथमत्रागच्छत् स्तेनक (उवयति) उत्परकः अवश्य दृष्टः स्वयं वा गृहीतमिति भावः॥ धम्मो कहिज्ज तेसिं,धम्मट्ठाए व दिन्नमन्नेहि। तुब्भारिसेहि एयं, तुज्झेसु य पचतो अम्हं।। धर्मस्तेषां ध्रुवकर्मिकप्रभृतीनां कथ्यते / कथयित्वा च पर्यन्ते संघाटकमानीयमिदमुच्यतेधार्थमेव युष्मादृशैरन्यैरेतत् उपकरणं मह्यं दत्तंयुष्मासु च विषये अस्माकमतीव प्रत्ययो विश्वासस्ततः किमित्याह। तो ठवियं णेपत्थं, दिज्जउ तं सावया इमं अम्हं। जइ देंती रमणिचं, अति ताहे इमं भणति / / यत एवं तस्मात् श्रावका यन्नोऽस्माकमत्र स्थापितं तदिदभस्माकं दीयतामेवमुक्ते यदि ददति ततो रमणीयं सुन्दरम् / अथ न ददति ततोऽददतस्तान इदं वक्ष्यमाणं भणति। तदेवाह। थरे त्ति काउं कुरु मा अवन्नं, संती सहाया बहवो ममन्ने / जे उग्गमेस्संति ममेयमोसं, खित्ताइ नाउं इति ते अर्द्रते॥ स्थविर इति कृत्वा मा ममावज्ञां कार्पुर्यतः सन्तिममान्ये बहवःसहाया ये क्षेत्रादि ज्ञात्वा क्षेत्रकालादिकमयबुद्ध्य ममैतत्मासमुद्रमयिष्यन्ति इति एतत्तान् अददतः प्रति ब्रूते। उवहिप्पडिबंधेण, सो एवं अत्थई तहिं थेरो। आयरियपायमूला, संघाडेगो व अह पत्तो।। उपधिप्रतिबन्धेन स स्थविरस्तत्र एवमुक्तप्रकारेण अर्थयति तावत् / यावदाचार्यपादमूलात् संघाटकएको वासाधुः समागच्छति। अथ सोऽपि प्राप्तः तर्हि यत्तैः कर्तवयं तदुपदर्शयति। ते विय मग्गंति ततो, अदत्ते साहेति भोइयाईणं। एवं तु उत्तरुत्तर, जा राया अहवजा दिन्नं // तेऽपि आचार्यपदे मूलादागताः साधवस्तान् ध्रुवकर्मिकादीन्मार्गयन्ति याचन्ते ततो यदि न ददति तर्हि तान् अददतो भोजिकादीनां नगरप्रधानपुरुषादीनां साधयन्ति कथयन्ति / अथ तत्रापि न किमप्यनुशासनं तर्हि ततोऽपि वृहतां वृहतां वृहत्तराणां कथनीयम् / एवमुत्तरोत्तरस्य कथनं तावत् यावत् राजा अथवा यावद्दत्तं भवति तावत्कथनीयम्। अह पुण अक्खयचिट्ठे, ताहे दोव्वोग्गहं अणुनवए। तुडभव्वयं इमं ति य, जेणं भे रक्खियं तुमए। अथ पुनस्तत् उपकरणमक्षतं तिष्ठति तदा द्वितीयमवग्रहमनुज्ञापयति यथा इदं समस्तमप्युपकरणं युष्मदीयं येनेदं युष्माभी रक्षितं तस्मान्मां गृह्णन्तमनुजानीतेति एतावता 'कप्प तिण्हं सन्नियट्टचाराणं दोचंपि उग्गहं अणुण्णवित्तेति' व्याख्यातम्। घेत्तूवहिं सुन्नधरम्मि मुंजे, खिन्नो व तत्थेव य छन्नदेसे। छन्नो सती मुंजइ कचगेऊ,सय्वो वि उभाण करेतु कप्पं / / गृहीत्वा उपधिं शून्यगृहे गत्वा भुक्त। अथ मार्गपरिश्रमेणभिक्षाटनेन च खिन्नः परिश्रान्तस्तर्हि तत्रैव छन्ने आवृते प्रदेशे मुड्क्ते। अथ छन्नप्रदेशो नास्ति तर्हि (कच्चगे व दुगे) सर्व भाजनाद्यावृत्य भाजनस्य च कल्पं कृत्वा भुङ्क्ते। मज्झे दवं पिवत्तो, मुत्ते वा तेहि वा दवावेति। नेच्छे वा मोयत्तण, एमेव य कच्चए डहरे।। मध्ये भोजनमध्यभागे किञ्चित् भुक्ते इत्यर्थः / द्रवं पिबन पातुकामो वा भुड्क्ते वा परिपूर्णस्तैरेव गृहस्थैर्दापयति मात्रकात्पानीयमपवर्त्तापयति अपवापि द्वाभ्यां हस्ताभ्यामञ्जलिंकृत्वा पिबति तथा यदि क्षुल्लके नववटुके न सर्व भक्तं माति तदा यः पानीयविषये विधिरुक्तः स एवात्रापि द्रष्टव्यस्तथा एवमेव अनेनैवप्रकारेण डहरे क्षुल्लके तच द्रष्टव्यम्। अप्पडिवज्झंतगमो, इयरे विगवेसए पयत्तेण। एमेव अवुड्डस्स वि, नवरं गहिएण अडणं तु / / एवं यतनां कुर्वतोवजिकादिष्वप्रतिबध्यमानस्य प्रतिबन्धमकुर्वतो गमो गमनंगच्छेभवति। इतरेऽपिच गच्छसाधवस्तं स्थविरं प्रयत्नेन गवेषयन्ति गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् / योऽप्यवद्धः कारणतः कथमप्येकाकी भवेत्तस्याप्येवमेवानेनैव प्रकारेण यतना द्रष्टव्या नवरं भिक्षार्थमटनं गृहीतेनोपकरणेन तस्य द्रष्टव्यम्। व्य० द्वि०८ उ०। (तीर्थकृतां सोपधित्वं तित्थयरशब्दे) (उपधेरवश्यधारणीयत्वं वोटिकशब्दे) (मध्यमतीर्थकरसाधवो महामूल्यान्यपि वासआदीनि भुञ्जत इत्यचेलगशब्दे दर्शितम्) (पादप्रोञ्छनकादीन्याचित्वा प्रत्यर्पणं पादपुंछणकादिशब्देषु) (उपधीनां धावनं धोवणशब्दे) (17) निर्ग्रन्थीनामागमनपथे उपकरणानि स्थापयति॥ (सूत्रम्) जे भिक्खू णिग्गत्थीणं आगमणं पहसि दंडगं वा लट्ठियं वा रयहरणं वा मुहपत्तिं वा अण्हयरं वा उवगरणजायं ठवेइ ठवित्तं वा साइजइ // 26 // जेण पहूणपक्खियादिसु आगच्छंति तिमिपहे दंडो वा हुप्पमाणो लट्ठी आयप्पमाणा अण्णतरगहणा ओहियं उवग्गहियं वा णिक्खिवति तम्मि पहे मुंचति तस्स मासलहुं आणादिया य दोसा कह उवकरणस्स णिक्खेवसंभवो उच्यते। णिसिपंते य ठवेजा, पडिलेहंतो व भत्तपाणं तु / संथारलोयकितिकम्म, कत्तितवावाअणो भोगा॥२२१।। णिसिपंतो रयहरणं मुंचति भत्तपाणाति वा पडिलेहतो संथारगं बद्धतो वा लोयं वा करें तो कितिकम्मं विस्सामणंतं वा करेंतो मत्ताए वा कत्ति ताव ण मुचति अणाभोगेण वा एतेहिं कारणेहिं रओहरणादि मुंचेज्जा। निगंथीणागमणं, पवेजो य भिक्खु णिक्खिये। कइतवेणं अण्णतरेण गुरुगा लहुगोतरे आणा // 222 / / पडिपुच्छदाणगहणे, संलावणुरागहासखेड्डे य। भिण्णकधादिराधण, दठूण व भावसंबंधा / / 223 / / कतितवेणं मेहुणट्ठस्स चउगुरुगं इतरं अकेतवं अणाभोगो अणाभेगेण मुंचति / मासलहुं आणादिया य दोसा भवंति इमा चरित्तविराहणा पडिपुच्छगा पढमा पुच्छा वितिया पडिपुच्छा तस्सिमं वक्खाणं। . कस्सेयं ति य पुच्छा, मम्मिति का तूण किं वुतं वितिया। वित्तं ण मे सधीणं, पक्खित्ते दव एजंति // 224 // Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहि 1115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहिकप्प रयोहरणादि कति संजती घेत्तूण पुच्छति कस्सेयं ति रयोहरणं साहू थेरिया गुरुणा साहंति अह दूरे पडियंतो अरिया गिण्हंति तरुणी भणति ममेयंति काऊण मया कृते साधुना इत्यर्थः / अहवा साहूणं ति वि घेत्तुं थेरिया ण समप्पेंति वा थेरिया संजयवसहि-मागंतुं पढमपुच्छा किं वुयवितिपच्छा एस पडिपुच्छा दट्ठव्वा ततो साहू भणति पमजित्ता भूमिगुरुणं पुरतो णिक्खवेति एसो अप्पिणे जयणा वित्तं ण मे सहीणं ति ण मे वा संवट्टती वित्तं कस्माद्धेतोः पक्खीए तुम भणिया॥ आगच्छमाणी दिट्ठा सा भणति। एतत्सूत्रस्य व्याख्या सुगमत्वाद् ग्रन्थकृता न व्याख्याता / (उपधेः किं च मए अट्ठो भे, आमं णणु दाणिहं तुह सहीणं। परिष्ठापना स्वस्थाने) उपधिप्रत्युपेक्षणं व्याख्यातमेव (प्रलम्बग्रहणे क संपत्ती होतु कत्ता, चत्ता तु एकतरो भणितो य॥२२५।। उपधिग्राह्य इति पलम्बशब्दे) (धर्मोपकरणे परिग्रहदोषो नेति साहू भणति आम अनुमतार्थे सा भणति ननु आमन्त्रणार्थे इदाणिं तुह / परिग्गहशब्दे) सहीणा आयत्तेत्यर्थः / ततियपुच्छा गता संपत्ती सागारिया सेवणा | उवहिअसं किलेस पुं०(उपध्यसंक्लेश) उपधिविषयोऽसंक्लेशः चउत्थपुच्छसंजतो करेंति संजविता पडिपुच्छतिगयंइदाणिं दणेग्गहणेत्ति | __ उपध्यसंक्लेशः असंक्लेशभेदे, स्था० 10 ठा०।। भणिओ य। उवहिकप्प पुं०(उपधिकल्प) उपधिधारणसामाचार्याम् / हंद गेण्हह सुझं, दातूण साहरति भुजो तु / एसो चरित्तकप्पो, एत्तो वोच्छामि उवहिकप्पं तु। तुझं घेत्तुं व पुणो, मुंचति जा पुणो देति // 226|| सो पुण पुव्वाभिहितो, उवहिओवग्गहे चेव / / हंदेत्यामन्त्रणे संजतो हत्थं पसारेऊण सुज्झो पडिसाहरेति भणतिय जो तु विसेसो एत्थं, तं णवरि इह अहं पवक्खामि / तुज्झेव भवतु अहवा सो संजतो तीए हत्थाओ घेत्तूण पुणो मुंचति मुद्धग्गमादिएहिं, वारेयव्वो जहाकमसो। कस्माद्धेतोः जा पुणो देति जेण द्वितीयं वारं मम देति देंतीए य पुणो हत्थफासो भविस्सति तस्माद्धेतोः इदाणिसंलावो साहू भणतिधारेयव्यं / फासुयमफासुए य, विजाणयअजाणए ओहो।। धारेतव्वं जातं, जात पउमदलकोमलतलेहिं। ओहो बहुवग्गहिते, वारणा कस्स के चिरं / हत्थेहि परिग्गहितं, इतिहासणिरागसंबंधा॥२२७।। जदि फासुवही करणे, गहिओ उ जाणए ण तो धारेज। इतिहासमेतत् इतिहासतो अणुरागो भवति ततो य परोपरं भावसंबंधो / जुण्हो अजुण्हो विहु, अट्ठकुटे छुब्भति हु।। इयाणिं "अणुरागोत्ति 'गाहा। फासुगो अजाणएण, कारणगहिओ धरिज्जते ताव। संलावादणुरागो, अणुरत्तावेति भो मए दिण्णंन जावन्नो उप्पण्हो, ताहे तु विगिंचए तं तु।। इतरो वि य पडिभणती, कस्स व जीवेण जीवामो॥२२८|| अह पुण अफासुओ तु, जाणगगहिओ तु कारणे होज / संलावा अणुरागो भवति इदाणिं हासखेड्डयत्ति संजाती अणुरत्तावेइ भे जदि गीतत्था सम्वे, तो धारेती तुजा जिण्हो॥ मए दिण्णं मे इति भवतः इतरो साहू भणति जंपि मम जीवियं तं पि अगीतविमिस्सेहिं, अणुपन्नमितं विगिंचंति। तुज्झायत्तं तेण तुज्झ वएण जीविएण जीवामो। अहपुण अफासुओ तु, कारणगहिओ अगीतेणं॥ एवं परोप्परस्स, भावणुबंधेण होति मे दोसा। उप्पण्हे अण्हम्मि, विगिंचती तु सो ताहे। . पडिसेवणगमणादी, गेण्हणदितुसुसंकादी॥२२६॥ एवं चतुभंगेणं, वारणता वा परिट्ठवणा / / पडिसेवणा चउत्थस्स एगतरस्स दोण्हं वा गमणं तु णिक्खमणं सो पुण दुविहो उवही, वत्थं पातं च होति बोद्धव्वं // . आदिसरातो सलिंगद्वितो वा अणायारंसेवति संजतोवावि तिणिं वत्तिणा वत्थं तु बहुविहाणं, पाता पुण दो अणुण्हाता।। वा संजय उदिण्णमोहावला वा गेण्हेज अहवा खयरकम्मिएहि गेण्हणं तो वीतं पंचण्हं, किण्ह वि एगो पडिग्गहो होति। हासाखेडंवा करेंताणि सागारियेण दिवाणि संकिते चउगुरुं णिस्संकिते तो दो एकेकस्स तु, भण्हति न पहुचए एवं / / मूलं अहवा दिह्रघाडिय भोतियातिपसंगो। तो चतुतिण्ह दुवेण्हं, अहवा एक्कक तस्स एक्ककं / बंभवए विराधण, पुच्छादीए हि होति जम्हाउ। मण्णति पाहुणगादिसु, ताहे किं काहितेकेणं / / णिग्गंथीणागमण, पम्हटुं उण णिक्खिवे उवधिं // 230 / / अप्पापरोप्पवयणं,जीवाणिकाया य चत्तहोतेव्वं / वितियपदमणाभोगे, पडितेए हुज्ज संभमेगतरे। चारित्तगदिटुंतो, तम्हा दो दो तु घेत्तव्यो / / आसण्णे दूरे वा, णिवेदजतणाए अप्पणं ति॥२३१।। इयाणि उवहिकप्पो उवहि उग्गमाइसुद्धो धारेयव्वो। गाहासिद्धमेव। पम्हट्ठणाम विसरियं एगतरसंभमोसावयगणिआ उ माति सो संजयाणं उग्गमाइपत्तं पत्ताबंधो / गाहासिद्धमेव तिण्हयपच्छागा गाहासिद्धमेव / उवही वसहीए आसण्णेवा पडितो दूरे वाजति असण्णोति णिवेदेति अह एस जिणकप्पो थेरकप्पो एएचेव दुवालसडंडए गाहा। पंचसमाए गाहा दूरतो धत्तुं जयणाए अप्पणिंति।। कोसएगाहा सिद्धाजंचदुवग्गहकरं गाहासिद्धागाहा। फासुय अफासुए आसपणे साहंती, दूरे पडितं तु थेरिगाणेति। य वावि उवही पुणो जो गहिओ भवइ सो केचिरं धारेयव्वो जो फासुओ संणिक्खिवंति पुरतो, गुरुणा इमि पमन्जत्ता॥२३॥ उवही सो जाणगा वा होतु अजाणगा वा ताव परिभुजंति जाव जुत्तो (सूत्रम्) वसहीए जइ आसपणे पडियंतो ण गेहंति णियत्तिउं / जाव रुंधिऊणं अट्ठण वि किज्जइ आयरिउवज्झाया नियमा जा Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहिकप्प 1116- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवहिपचक्खाण ण गाहा। अह फासुओ जाणगा वकारणे गहिओ तहावि ताव परिभुज्जइ जाववरइ अह अफासुओ अयाणगाय कारणे गहिओ ताहे उप्पन्ने फासुए इयरो परिट्ठविजइ एवं चउभंगो धरणे वा परिठ्ठवणा वा / चोयग आह। गाहा। एगेण किमेगो पादोजाव पंचण्ह विसयाणं एगो पडिग्गहओ अहवा दोण्हं तिण्हं चउण्हं वा पडिग्गहओ एगोन पडुचइ तो दो दो एगस्स पडिग्गह उमत्तओ य दिज्जइ उच्यते अद्धाण पाहुणगाइसु कारणाइसु कहं धरंतितु जइ पहुगाण एगमेगो पडिग्गहओ एवय भणंतस्स चउगुरु।अप्पापवयणं जीवनिकाया परिचंता वा रत्तयदिटुंतेण सव्वेण वि दोहि गिण्हियव्वा मत्तओ पडिग्गहओ य किं कारणं जेण गच्छो, सकारणो या लघुट्ठसेहपाहुणयाइसु। आह जइ नियमा दो दोधरिखंति जिणकप्पियाणं किं निमित्तं एगओ पडिग्गहओ / गाहा / संगहिय उच्यते / सो भगवानसंगहियकुच्छी जोयणं पि गच्छइ सन्नाहो जसकारी य पवयणस्स जेण अपसो भवइ तं न करेइ अप्पाहारो सो भगवं तत्ते अओकभल्ले वि विद्धंसइ तस्साहारो सरीरए अपडिबद्धो न य आसणे वोसिरइ उच्चाराइ नयआचारावि विच्छिण्णेथंडिले पडिग्गहं एगपासेठवेऊण एएहिं कारणेहि तस्स एगो पडिगहो / गाहा / तिहिं जइ वत्थाणि दाणिं कइहिं वत्थेहि पडिपुव्वउसग्गेण तिहिं जया पुण तिहिं न संथरेज्जा तो अइरेगाणि धरेजंति। आह नणुपमाणाइरेगे दोसा उच्यते। सबालवुड्डाओलोगत्थो सहकारणेण सकारणे तेसिं बहु-एहिं कर्ज अण्णओ य मग्गतो सेहाइ कारणेसु न लभइ ताहे परिचत्ता सेहादयो पच्छा वोच्छेयकरो भवइ सपक्खस्स तित्थस्स वुत्तं भवइ गाहा / जइ एए वियप्पहुणे जइ आहारोवहिसेनासु विप्पहूणाणं नाणदसणचरित्ताणं तवनियमसंजमसज्झायमाईणं निप्पत्ती होला तेण आहाराइ आइग्गहणेण उसहाइणं व को उवग्गहं कुजा / गाहा 1 जम्मि परिग्गहियं जत्थ पुण परिगिजमाणे तस्स थावराणं उवघातो पवत्तेज्जा पुरेज्जा पुरेक्कम्म उदउल्लाइसु तं न घेप्पइमहिए वा पच्छे कमाइधरेते वापडिलेहणाइभएण पडिलेहेइ भएण माहीरिहित्ति सो परिग्गहो भवइ उवहिम्मि घेप्पंते गहिए धरिजंते वा एए दोसा न भवंति सो परिगहो निद्दोसो त्ति अपरिगहो चेव / गाहा। आहारोवहिं किं निमित्तं भगवया तित्थं पवत्तियं उच्यते। न विभगवता उपहारादिनिमित्तं तित्थं पवत्तियं नाणदरिसणचरित्तनिमित्तं तवसंजमाईणं निव्वाणसाहणं पडिविद्धिकारणं तित्थं पवत्तियं / गाहा। नाणचरणहोराइणि नाणाइणं गुणकारगाणित्ति तेणाणुण्हायं तेसु पुण णाणाइसु ठियस्स पूयावि इच्छिज्जइ जहा गणहारिस्सुक्को साहारोवहिसाइणं एस उवहिकप्पो। पं०चू०॥ अहुणा हु उवहिकप्पं, गुरूवदेसेण वोच्छामि। उवगेण्हति उवकारं, करेइ उवहीयते व उवही तु॥ किं कारणं तु उवही, देसीए भण्णती सुणसु। जीवाणणुगाहहा, एवं खलु वण्हितो (इह) तित्थे / / काऊण गुग्गहपदं,पडिणीयपदे अभावो तु। रसकादणुकेयहा, अगणीमादीण चेव रक्खहा।। असहू णणुकंपा य, तउवहिगहणं जिणा यंति। आह जदणुग्गहट्ठा, वत्थादीगहणदेसियं समये। तो असहूणं कण्हा थीपरिभोगो णणुण्हातो। भण्णति पवित्ति कम्हि व, कम्हि व पुण होति अप्पवित्तीओ।। संजम पडीनियत्ता-मेहुणमादीण णाणुण्हा। णाणाचरणठिताएं, उवम्गहं कुणति णाणचरणाणं / / आहार उवहि सेज्जा, तेण उ उवहित्तणं वेति। जस्स पुणो वहिगहिता,उवघातकरी तु तस्स उवधाता। कह उवधाय करेती, अइरित्तगहो य मुच्छाए। संथरमाणो गेण्हति, अतिरित्तं उवहि जो भवे समणो। वण्हादिजुत्ते मुच्छति, दव्वहारे वुवस्से वा।। एतेसु अणिढेसु य, जो दुस्सति सो करेति उवघातं / णाणादीणं तिण्हं, तम्हा ते वज्जए हेतू॥ जो जत्थ जदा जहियं, उवहीधरिमोगओ अणुण्णाओ। सो तत्थ अणतिचारो, अणुण्हाते चरणभेदे / / जह सिंधूओ कप्पा, ओराला उण्हिया अणुण्हाता। पिसियादीण य गहणं, खीरादीणं चणुण्हाता॥ अतिहिमदेसे य तहा, कारणियगताण सिसिरकालम्मि। परिभुजंताण य को, तवादिचरणे अणुवघातो॥ लाडविसयादिएसं, एतेसिं चेव भोत्तु पडिसेहो। पडिसिद्ध परिभोगं, कुणमाणे भंजती चरणं / / णाणं पि तु सो मिंदइ, उवदेसं जेण ण कुणति / तस्स जंणाणुपुव्वं, सणभेदो वि तो तेणं / / णिवदिक्खितमतरंता-दिएस होति परिमोगा। समणुण्णाओ कसिणा-दियाण इहरा अणुवभोगो पं०भा०। इयाणिं उवहिकप्पो गाहा जीवाणुग्गहओवही किं निमित्तं धारिजइयाइ उच्यते जीवाणुग्गहहेऊरसाएणं सा रक्खणणिमित्तं एयम्मि तित्थेवं निओ उवही असहुतणेण यवत्थाईण गहणं आह जइ असहुत्तरेण वत्थाइगहणं तेण अविरइयाओ कम्हा नोवभुंजइ उच्यते क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिरित्यादि / संयमप्रत्यनीकानि मैथुनादीनि अतस्तेषामभावो भवति आचरितव्ये गाहा / नाणावरणे किमुक्तं भवत्युपधिरिति उच्यते ज्ञानदर्शनचारित्राणामुपकारं कुरुतेउपग्रहं करोतीत्यर्थः / उवही आहारेज्जा उपद्रव्यतोऽवधिरित्यपदिश्यते गाहा जस्सओ जो पुण संथरमाणो वि अइरित्तं उवहिं धरेइ तस्स स एव उवहिनिमित्तो उवघाओ भन्नइ कारणेण वा आहारे वि रसहेउं वा भुंजइ रागद्दोसेहिं वा एयस्सोवघाओ भवइ। गाहा जो जत्थ उवही पुण जो जत्थ जया जम्मि खेत्ते अणुन्हाओ जहा सिद्धए उक्कोसयाणिणं तयाणं जम्मि वा काले अणुन्हातो हेमन्तकाले वासे वा तेणोवहिणा नाणाइ आयारो न भवइ जो पुणखेत्तकालेसु अणगुन्हाओ। गाहा जो जत्थउवही धरिजइ सो उवधाओ। एस उवहिकप्पो। पं० चू०|| उवहिकय त्रि०(उपधिकृत) उपधिनिष्पन्ने, 'परिहारियं अदितो गिहणी उवधीकतंतु पच्छित्तं" नि०५० 130 // उवहिपचक्खाण न०(उपधिप्रत्याख्यान) उपधिरुपकरणं तस्य रजोहरणमुखवस्त्रिकाव्यतिरिक्तस्य प्रत्याख्यानं न मयाऽसौ ग्रहीतव्य इत्येवंरूपा निवृत्तिरुपधिप्रत्याख्यानम् / रजोहरण Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवहिपचक्खाण 1117 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवागय मुखवस्त्रिकां विहायाऽन्योपधिपरिहारे तत्फलं यथा। दुवलियत्तं साहू, पायाणं तस्स भोयणं मूलं / उवहिपचक्खाणेणं भंते ! किं जणयइ उवहिपञ्चक्खाणेणं दगयातो वि प्पियणे, दुगुञ्छवमणे य उड्डाहो // 226|| अपलिमंथं जणयइ निरुवहिएणं जीवे निक्कंखे उवहिमंतरेण य भगवता गोयमेण महावीरवद्धमाणसामी पुच्छितो एतेसिंणं भंतेवालाणं न संकिलिस्सइ॥ किं, वलियत्तं से य भगक्या वागरिय दुप्पलियत्तं सेयं वलियत्तं हे भदन्त ! उपधिप्रत्याख्यानेन रजोहरणमुखवस्त्रिकापात्रादि अस्सेयंतस्स य वलियत्तणस्स मूलं अह सो य साहूसमीवे आहार व्यतिरिक्तस्य उपधेः प्रत्याख्यानेन उपधित्यागेन जीवः किं उपार्जयति आहारेत्ता बहूणि अधिकरणाणि करेज गदं वा पिपज अयमेज्ज वा भुत्तो वा गुरुराह हेशिष्य ! उपधिप्रत्याख्यानेन अपरिमन्थं जनयति परिमन्थः दुग्गछाए वमेला रुयुप्पातो वास हवेजसंजएहिं परिसं किं पि मे दिन्नंजेण स्वाध्यायव्याघातः न परिमन्थोऽपरिमन्थः स्वाध्यायादौ निरालस्यं एगो जाओ एवं रिउड्डाहो मरेज वा सव्वत्थ पच्छाकम्मो फासुएण देसे जनयति। पुनर्निरुपधिको निष्परिग्रहो जीवो निष्काको भवति वस्त्रादौ मासलहुं अफासुएण देसे सव्वे चउलहुं तम्हा गिहत्थो अन्नउत्थिओवाण वाहेज्ज वाण वा असणादीदायव्वं भवे कारणं जेणचहावेज वाअसणादि अभिलाषरहितः स्यादित्यर्थः तादृशो हि उपधिमन्तरेण उपधिं विना न वा देजा।। संक्लिश्यते क्लेशं न प्राप्नोति सपरिग्रहो क्लेशं प्राप्नोतीति भावः / असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। (उत्त०) निष्क्रान्त उपधिनिरुपधिस्स एव निरुपधिको जीवो निष्कासो देसुट्ठाणे अपरि-कमेवहावेज्ज देजावा।।२२७।। वस्त्राद्यभिलाषरहितः सन्नेतचपदंवचिदेव दृश्यते उपधिमन्तरेण चास्य भिन्नक्रमत्वान्न संक्लिश्यते न च मानसं शारीरं वा क्लेशमाप्नोति उक्तं असिवकारणे ओमे वा रायदुढे वा वोहिगादिभए वा रज्जतो अप्पणो हि"तस्सणं भिक्खुस्सणो एवं भवति परिजुन्ने मे वत्थे सूइंजाइस्सामि असमत्था वाहवेज वा तन्निमित्तं असणादि देख गिलाणो वहावेज वा गिलाणट्ठा वा गमते देसुट्टाणे वा अपरिक्कमो गिहिणा वहावेज देज वा संधिस्सामि उक्कंसिसामितुं निस्सामि वा कसिसामि इत्यादि" उत्त० आहारं। नि० चू०१२ उ० 28 अग उवहिविउस्सग्ग पुं०(उपधिव्युत्सर्ग) उपधित्यागरूपेद्रव्यव्युत्सर्गे,औ०।। उवहिप्पहाण त्रि०(उपधिप्रधान) उपधिर्माया तत्प्रधानः।कृतकपटशते, उवहिसंकिलेस पुं०(उपधिसंक्लेश) उपधीयते उपष्टभ्यते संयमः "कति न वि याहिं उवहिप्पहाणाहिं' सूत्र०१ श्रु०४ अ०। संयमिशरीरं वा येन स उपधिः वस्त्रादिस्तद्विषयः संक्लेशः उपधिउवहिय त्रि०(उपहित) उप-धा-क्त-निहिते, अर्पिते, समीप-स्थापिते, संक्लेशः। संक्लेशभेदे, स्था०१ ठा। आरोपिते, उपाधिसङ्गते, उपलक्षिते, वाच०। भावे-क्तः उवहिसंभोग पुं०(उपधिसम्भोग) उपधेःपरिकर्म परिभोगं वा कुर्वन् संस्तारकादेरुपढौकने, न०नि० चू०२० उ०।1 संभोग्यो विसंभोग्यश्चेति। संभोगभेदे, उक्तं च "एणं च दो वि तिन्नि च, उदहियविहि पुं०(उपहितविधि) उपग्रहभेदे, उपहितविधिर्नाम आउई तस्स होइ मिच्छत्तं" आलोचयत इत्यर्थः / “आउड्ढते वितओ, यदाऽऽचाय्यैर्वितीर्ण तदाऽऽचार्याननुज्ञाप्य अन्येषां साधूनां तदन्तरेण परेण तिहि वि संभोगोत्ति" स० विसूरयतां ददाति / अन्ये तु व्याचक्षते यद्यस्य गुरुभिर्दत्तं उवहिहुंजंत त्रि०(उपभुजान) उपभोगं कुर्वाण, प्रा०॥ तत्तस्योपनयतीत्येव उपहितविधिः व्य०३ उ०) उवाइणावित्तए अव्य०(उपानाययितुम्) संप्रापयितुमित्यर्थे , “पच्छिम उवहिवहावण न०(उपधिवाहन) वस्त्रपात्रादेरुपधेरन्येन नयने, पोरिसिं उवाइणायित्तए" बृ०४ उ०। अतिक्रमयितुमि-त्यर्थे , कल्प०। (सूत्रम्) जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारस्थिएण वा | उपादाययितुम् ग्राहयितुमित्यर्थे, ज्ञा० 12 अ०। उवहिय्वहावेइ वहावंतं वा साइजइ॥४७॥ जे भिक्खूणात्तंसए | उवाइणावित्ता अव्य०(उपादापप्य) उप-आ-दा-ल्युट् / प्रापअसणं वा दियइ देयंतं वा साइज्जइ॥४|| य्येत्यर्थे, "पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावित्ता आहारमाहारेइ भ०७श० जे भिक्खू उवकरणं, वहाविगिहि अहव अण्ण तित्थाणं। 1 उ०। आहारं वा देजा, पडुच्च तं आणमादीणि // 22 // उवाइणित्तए अव्य०(उपयाचितुम्) उपयाञ्चांकर्तुमित्यर्थे, विपा०७अ०|| ममेस उवकरणं वहइत्ति पडुच आहारं देजा तस्सचतुलहुं आणादियाय *उपादातुम् अव्य० / गृहीतुं प्रवेष्टुमित्यर्थे, स्था०३ ठा०। इमे दोसा। उवाइय त्रि०(उपयाचित) उपयाच्यते मृग्यतेऽस्मै यत्तत् उपया-चितम्। ईप्सिते, "उवाइयं उववाइत्तए" उपयाचितुमीप्सितं वस्तु याचितुं पाडेज्ज व भिंदेज व, मलगंधावं न छप्पति य नासो। प्रार्थयितुम् / ज्ञा०३ अ० वि०। नासिक्यपुरस्थदेवाधिअत्थंडले ठवेज्जा, हरेज वासोच अन्नो वा / / 22 / / ष्ठितमहादुर्गब्रह्मगिरिस्थितप्रासादपातके स्वनामख्याते महति से गिहत्थो अन्नतिथिओवा उवकरणं पडेज भायणं वा भिजेजा मलिणे | क्षत्रियजात्यवरे, ती दुगंधे वा उवकरणे अन्नं वा देज छप्पतियाओ वा छड्डेज वा मारेज वा ] उवाएज त्रि०(उपादेय) उप० आ० दा-कर्मणि-यत्। गृहीतव्ये, अनु० / अहवा सो अयगोलो अथंडिले पुढवियरियादिसुठवेज अहवा तस्स भारेण जी०। विशेष आयविराहणा हवेज तत्थ परितावणादी जंच पच्छाउसहभेसज्जाणि वा उवागम पुं०(उपागम) स्वीकारे, समीपगमने, वाचा उपागमने, स्थाने, करेंतो विराधेति तण्णिप्पण्णं च से पच्छित्तं तं उवकरणं सो वा हरेज्ज आचा०२श्रु अणुवउत्तस्स वा अन्नो हरेज किं च जो तं पडुच असणादी देजा तस्स उवागय त्रि०(उपागत) उप-आ-गम्-त-स्वयमुपस्थिते, अ-भ्युपगमे चउलहुँ। च वाच० "तत्थावासमुवागए" उत्त० 23 अ०। सूत्र०ा जा Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाणह १११८-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवाणह - उवाणह स्त्री०(उपानह) चर्मपादुकायाम, औ०। सूत्र० / "ते दोषाः अतः क्रमणिका न परिधातव्याः। कारणे तु प्राप्ते परिदध्यदपि / गिच्छयाणहायाए, समारंभं च जोइणो' उपानही पादयोरनाचरिते किं पुनस्तत्कारणमित्याह / / पादयोरिति साभिप्रायकं नत्वापत्कल्पपरिहारार्थम्" द०३अ०। विह अतरासहुसंभम-कोट्ठारिसचक्खुदुव्वले वाले। अथ उपानहोर्दोषप्रदर्शनार्थमिदमाह। अज्जा कारणजाते, कसिणग्गहणं अणुन्नायं / / गव्वो णिम्मद्दवता, णिरवेक्खो निहतो णिरंतरता। विहं अध्या अतरोग्लानः असहिष्णु म राजादिदीक्षितः। सुकुमारपादः भूताणं तूवघाओ, कसिणे चम्मम्मि छद्दोसा।। संभ्रमश्चौरश्वापदादिसंक्षोभः कुष्ठरोगी अर्शरोगीचक्षुषा दुर्बलः कश्चिद्भवति उपानहोः पिनद्धयोर्गो निर्दिवता च भवेत् / जीवेषु निरपेक्षो। वालो वा यदि यत्र तत्र पादौ निक्षिपति ! आर्या वा अध्वानं नीयन्ते निर्दयश्वासौ भवति निरन्तरता निरन्तरं भूमिस्पर्शवाद् भूतानां तु कारणजातं वा कुलगणसङ्घविषयमुपस्थितम्। एतेषु कृत्स्नस्य चर्मणो प्राणिनामुपघातश्च उपजायते एवं कृत्स्ने चर्मणि षट् दोषा भवन्तीति ग्रहणमनुज्ञातमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवृणोति। द्वारगाथा। कंटाहिसीयरक्खट्ट, ता विहे खलु समाहि जा गहणं / सांप्रतमेनामेव प्रतिपदं विवृणोति।। ओसहपाणगिलाणे, अहुणुट्टियते सधट्ठा वा।। आसगतो हत्थिगतो, गविज्जइ भूमितोइ कमणिल्लो। (विहे) अध्वनि प्रतिपद्यमाने कण्टकस्याहेर्वा अस्य च रक्षार्थमपाढो उ समाउको, कमणाउखरो अवि य भारो॥ गुलिकोशिकं खल्लङ्कादि वा गृह्णन्ति। किं बहुना खलु समाधिं कृत्वा अश्वगतादश्वारूढात् हस्तिगतः पुरुषो यथा गर्वायते एवं भूमिगतात् यावदर्द्धजङ्घयोरपि ग्रहणम् / तथा ग्लान औषधपानं कृत्वा वैद्योपदेशेन गर्व करोति / अहो अहं सोपानत्को व्रजामीति। तथा पादः स्वभावेनैव पृथिव्यां पदं न स्थापयति / अधुनोत्थितो वा ग्लानः क्रमयोः क्रमणिके समार्दवस्ततः स न तथा जीवोपधातं करोति यथा क्रमणिकाः खराः आविध्यति शीतानुभावेन भक्तं न जरिष्यतीति कृत्वा ग्लानस्य वा कर्कशस्पर्शा जीवोपघातं कुर्वन्ति / अपि च भारस्तासां महान् भवति। भेषजार्थ त्वरितं ग्रामान्तरं गन्तव्यं ततः क्रम-णिका पिनद्धव्या। ततस्तदाक्रान्ता बहवो जीवा विनाशमाप्नुवते। निरपेक्षद्वारमाह / / अरिसिल्लस्स व अरिसा, मा खुब्भे तेण बंधते कमणी। कंटाई पेहंतो, जीवे विहु सो तहेव पेहिजा। असहुमवंती हरणं, पादो पट्टो नु गिरिदेसा। अस्थि महंति य कमणी, णावेक्खइ कंटएण जिए।। अशेवतः पादतलदौर्बल्यादर्शासिमा क्षुभ्येरन्निति कृत्वा क्रमणिके असौ अनुपानत्को गच्छन् कण्टकादीन् मार्गे प्रेक्षमाणो जीवानपि तथैवासौ बध्नाति / असहिष्णुर्नाम मार्गे गच्छन्नुपाननिर्विना गन्तुं न शक्नोति प्रेक्षते सोपानत्कस्तु गच्छन् विद्येते मम क्रामणिके इति कृत्वा यदि गच्छति ततः पादाभ्यां रुधिरं परिगलति / अत्रावनिरपायत्वादात्मनोन कण्टकादिकमपेक्षतेततश्चासौजीवेष्वपि निरपेक्षो न्तीसुकुमारोदाहरणं भवति तच्चावश्यकाद्विज्ञेयम्। सक्रमणिके बध्नीयात् भवति / अथ निर्दयद्वारमाह॥ उदकाग्निस्तेनश्वापदादौ वा संभ्रमे क्रमणिकाः परिभोक्तव्याः। गिरिदेशे पुष्वं अदया भूए-सु होति बंधति कमेसु तो कमणी। वा पर्यटतः कस्यापि पादतलं घृष्ट तत उपानहौ पिनह्य पर्यटति। जायति हु तदन्भासा, सुदयालुस्सा वि णिद्दयया // कुट्ठिस्स सकरादी-हिं वावि भिन्नो कमो मधूला वा। पूर्वं तावददया निर्दयत्वं भूतेषु मनसि संजातं भवति ततः क्रमयोः वालो असंफुरो पुण, अञ्जा विहं दोव्व पासादी। क्रमणिके बध्नाति तदभ्यासाच सुदयालोरपि प्रायो निर्दयतैय भवति / कुष्ठिनः संबन्धी शोणितपूयेन भिन्नः स्फटितक्रमः शर्करा कण्टनिरन्तरद्वारमाह // कादिस्तदादिभिराक्रान्तो महती पीडामुपजनयति मधूला वा पादगण्ड अवि यं व खुज पादेण, पेल्लितो अंतरंगुलगतो वा। कस्यापि समजनि ततः क्रमणिके बध्नाति / वालो वा मुच्चेज कुलिंगादी-ण य कमणीपेल्लितो जियति / / कश्चिदसंस्फुरोऽसंवृतो यत्रतत्र पादं मुञ्चन् कण्टकादिभिरुपदूयते अतोऽसौ कुशब्दस्यासदर्थवाचकतया असंपूर्णानि लिङ्गानि इन्द्रियाणि यस्यासौ क्रमणीके परिधाप्यते। आर्या वा विधमध्वानं नेतव्यास्तत्र च (दोव्वत्ति) कुलिङ्गी विकलेन्द्रियः स आदिशब्दान्मण्डूक्यादिश्च अनुपानत्कस्य चौरादिभयं ततो वृषभाः क्रमणिकां पिनह्य पन्थानं मुक्त्या पार्श्वस्थिताः पादेन प्रेरितोऽपीति संभावनायां संभाव्यते अय मर्थो यदामकुब्जं गच्छन्ति आदिशब्दात्सर्वाणि वा तत्रोत्पथेन व्रजन्तिायो वाचक्षुषा दुर्वलः पादतलमध्यं गतस्तदा अथवा अन्तराङ्गुलमङ्गुलीनामङ्गुष्ठस्य स वैद्योपदेशेनोपानही पिनाति / यतः पादयोरभ्यङ्गतोपानद्न्धनादि वाऽपान्तरालं तत्र वा गतः सन् मुच्येत न म्रियेत / सोपानत्कस्य तु परिकम यत्क्रियते तचक्षुष उपकाराय परिणमते / यत उक्तं निरन्तरभूमिस्पर्शिनीभिःक्रमणीभिः प्रेरित आक्रान्तोन जीवति अवश्यं "दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठं कण्णानां दन्तधावनम् / शिरोभ्यङ्गश्च पादानां मरणं प्राप्नोतीत्यर्थः। पादाभ्यङ्गश्चचक्षुषोः" कारणजातद्वारमाहभूतोपघातद्वारमाह // कुलमाइकज्जदंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा। कह भूयाणुवघातो, ण होहिती पगतिपेलवतणूणं / कारणजाते व पणे, सागारमसागरे जतणा।। सभराहिपेल्लियाणं, कक्खडफासाहि कमणीहिं / / कुलादिषु कुलगणसङ्घ विषयेषु कार्येषु दण्डिकावलगतार्थ कथं केन प्रकारेण भूतानां प्राणिनां प्रकृत्या स्वभावेनैव पेलवत- पावस्थितै रादिशब्दात्पुरः पृष्ठ तो वा गच्छद्रिस्त्वरितं नूनामदृढशरीराणां सभाराभिः पुरुषभाराक्रान्ताभिः कर्कशस्पर्शाभिः धावनार्थ कारणजाते वाऽन्यस्मिन् आगाढे समुत्पन्ने उपानहः क्रमणीभिः प्रेरितानामुपघातो न भविष्यति भविष्यत्येवेत्यर्थः / यत एते | परिभोक्तव्याः। तत्र च सागारिकासागारिक विषया यतना। यत्र सा Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाणह 1116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवाय गारिकदोषो नास्ति तत्र नास्ति यतनाक्रमः। यत पुनः सागारिका उड्डाहं खवण तारिसेणं संविहाणगे उवाहाणओ ण परिमुंजेज्जा खवणं। कुर्वन्ति तत्र ग्रामादिषु क्रमणिका अपनीय प्रविशन्तीति भावः। महा०७अ०॥ एवमध्वादिषु कारणेषु कृत्स्नचर्मणोऽप्राप्ते विधिमाह। उवातिकम्म अव्य०(उपातिक्रम्य) उप सामीप्येनातिक्रम्य अतिपंचविहम्मि विकसिणे, किण्हगहणं तु पढमतो कुज्जा। लद्देयत्यर्थे, "उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेज्जा" आचा०२ श्रु०७ अ०| किण्हम्मि असंतम्मि, विवण्णकसिणं तहिं कुज्जा। सम्यक् परिहृत्येऽर्थे , आचा०२ श्रु०१ अ०११ उ०। पञ्चविधे वर्णे कृष्णे प्रथमतः कृष्णवर्णग्रहणं कुर्यात् / ततः कृष्णे | उवातिणिवेत्ता अव्य०(उपनीय)अतिवाह्येत्यर्थे, "उवातिणिवेत्ता तत्थेव वर्णकृष्णे असति अलभ्यमानेलोहितादिवर्णकृष्णमपि गृह्णीयात्तच कृष्णं भुजो भुञ्जो संवसति" आचा०२ श्रु०२ अ०२ उ०। तैलादिभिर्विवर्णं विरूपवर्णं कुर्यातायथा लोको नोड्डाहं कुरुते। आत्मनो उवादाण न०(उपादान) उप० आ० दा०ल्युट्। ग्रहणे, स्यादात्मनोऽवा तत्र न रागो भवति। प्युपादानात् सा०द० स्वस्वविषयेभ्य इन्द्रियाणां निवारणरूपे प्रत्याहारे, कर्मणिल्युट् कार्य्यजननार्थमुपादीयमाने कार्यान्विते कारणे, यथा घटे किण्हं पि गिण्हमाणे, सुसिरम्गहणं तु वजए साहू / मृत्पिण्डमुपादानमात्मा कर्ता ज्ञानादि कार्य तत्र स्वसत्ता उपादानम् बहुबंधणकसिणं पुण, वज्जेयव्वं पयत्तेण / / अष्टा विशे०। आ० म० द्वि० / नं०। तच सर्वदा कार्येष्वनुगतम् कृष्णं वर्णकृष्णमपि गृह्णन् शुषिरग्रहणं साधुः प्रयत्नतो वर्जयेत् अत्र "असदकरणादु पादानग्रहणात् सर्वसम्भवा-भावात् / शक्तस्य पाठान्तरम् / "कसिणं पि गिण्हमाणेत्ति' कृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं वा शक्यकरणात् कारणभावाचसत्कार्यम्' इति साङ्ख्याः। नैयायिकैस्तु द्वितीयपदे गृह्णातु / शुषिरग्रहणं साधुर्वर्जयेत् यत्तु बहुबन्धनकृष्णं उपादानकारणं समवायिकारणतया व्यवह्रियते सायमतसिद्धे तत्प्रयत्नतो वर्जयितव्यम् / अथ किं तद्वन्धनमित्याशङ्कयाह। आध्यात्मिकतुष्टिभेदे, वाच० (एतन्निराकरणमन्यत्र) दोरेहि व वद्धेहि व, दुविहं तिविहं च बंधणं तस्स। उवादाय अव्य०(उपादाय) उप-आ-दा-ल्यप् / गृहीत्वेत्यर्थे, अणुमोदणकारावण, पुष्वकतम्मि अधिकारो।। "उवसंपइत्तुवादाय" वृ०४ उ०। "णेया उयं सुयक्खायं, उवादाय दवरकैर्वा वर्धेर्द्विविधं वा बन्धनं तस्य चर्मणो भवति / द्वौ वा त्रयो वा / समीहए" सूत्र०१ श्रु०७ अ० बन्धा दातव्या इत्यर्थः / एवं विधं बन्धनं कृत्स्नमनुज्ञातं तत उवादिय त्रि०(उपादित) अद् भक्षणे इत्येतस्मात् उपपूर्वान्निष्ठाश्चतुरादिबहुबन्धनबद्धं तथा कृत्स्नमकृत्स्नं वा चर्म साधुना स्वयं न प्रत्ययस्तत्र बहुलं छन्दसीतीडागमः। उपभुक्ते, आचा०१ श्रु०२अ०। कर्तव्यम्। अन्येन नकारयितव्यम् अन्यस्य कुर्वतो नानुमोदना कर्तव्या उवादीयमाण त्रि०(उपादीयमान) उपादीयन्ते कर्मणा बध्यन्ते इत्यर्थः / किं तु यत्पूर्वमेव गृहस्थैर्यथाभावेन कृतं तस्मिन्नधिकारः प्रयोजनं तस्य जीवनिकायवधप्रवृत्ते, "एत्थं पिजाणे उवादीयमाणाजे आयरेण रमंति" ग्रहणं कर्त्तव्यमिति भावः। अथ द्वौ त्रयो वा बन्धाः कुत्र भवन्तीत्युच्यते। आचा०२ श्रु०। खलुए एगो बंधो, एगो पंचंगुलीण दो बंधा। उवाय पुं०(उपाय) उप--अय्-भावे-घा उपगमे, उपाय्यतेऽर्थो ऽनेन करणे घञ् / अप्रतिहतलाभकरणे, ज्ञा०१ अ०। हेतौ, "एगं च दोसं च चउरंगुले विततितो, वितिओ अंगुट्ठए होइ॥ / तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं / जे जे उवाया पडिवजियव्वा, ते खलुके धुण्टके एको वर्धबन्धो भवति / एकस्तु द्वितीयो बन्धः कित्तइस्सामि अहाणुपुटिव'' उत्त० 32 अ०। विशे० "प्रयोग उपाय पञ्चाङ्गुलस्यचतसृणामङ्गुलीनामङ्गुष्ठस्य चेत्यर्थः / एतौद्वौबन्धौ मन्तव्यौ इत्यनान्तरम्' आ०चू० १अ01 "सुत्तादुवायरक्खणं " उपायः यदा तु वयो बन्धा भवन्ति तदा खलुके एकः अङ्गुष्ठे द्वितीयः सम्यक्त्वाणुव्रताणुव्रतादिप्रतिपत्तावभ्युत्थानादिलक्षणे हेतुराह च चतसृणामङ्गुलीनां तृतीयः। "अब्भुट्ठाणे विणए परकमेसाहुसेवणाए आसम्मइंसणलंभो, विरयाविरई अथ स्वयंकरणादिषु प्रायश्चित्तमाह। य एए य" अथवा जातिस्मरणादितीर्थकरलक्षणः यदाह "सह समुइ सयकरणे चउलहुगा, परकरणे मासियं अणुग्घायं / आए अ परवागरणेणं अन्नेसिं वा सोचा" अथवा प्रथमद्वितीयअणुमोदणे य लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा / / कषायक्षयोपशमः इति। ध०२ अधि०ा "उवायकुसलेण" उपायो नाम स्वयं यदि चर्म करोति तदा चतुर्लघवः / अथ परेण कारयति तदा तथा कथमपि करोति यथा तेषां वन्दनकमददानएव शरीरवार्ता गवेषमासिकमनुज्ञातं मासगुरुकमित्यर्थः / अनुमोदनायां मासलघु। तत्रापि यति न च तथा क्रियमाणे तेषामप्रीतिकमुपजायते प्रत्युत चेतसि ते स्वयंकरणादौ आज्ञादयोदोषा उड्डाहश्च भवति। तथाहि तं संयतं स्वयमेव चिन्तयन्ति अहो एते स्वयं तपस्विनोऽपि एवमस्मासु स्निह्यन्ति / वृ० 30 "उपायेन च यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः" हितो० राज्ञां चर्म कुर्वाणं दृष्ट्वा लोको ब्रवीति। अहो चर्मकरोऽयमिति। अथ पूर्वकृतं न रिपुनिराकरणहेतुषु सामादिषु च / वाच०। उप सामीप्येन लभ्यतेततोऽनुमोदनया गृह्णीयात् कथमिति चेदुच्यते। यदि कोऽपि ब्रूयात् विवक्षितवस्तुनोऽविकललाभहेतुत्वाद् वस्तुतो लाभ एवोपायः / अहं ते उपानहौ करोमि ततः प्रतिशृणुयात् तूष्णीको वा तिष्ठेत् / अभिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापारविशेषे, दश०१ अ० उपेयं प्रति अथानुमोदनया न प्राप्यते ततोऽन्येन कारयेत् ! एवमप्यलाभेऽप्यात्मना पुरुषव्यापारादिकायां साधनसामग्र्याम्, स यत्र द्रव्यादावुपेयेऽस्तीयतनया कुर्यात् बृ०३ उ०! त्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेषु अस्त्युपायो अत्र प्रायश्चित्तम्।। विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत् / उपादेयता चास्य यत्राभिधीयते सोवाहणो परिसकिजा उवट्ठावणं उवाहणओ ण पडिगाहिज्जा तदाहरणमुपाय इति तस्मिन्नाहरणभेदे, स्था०४ ठा०॥ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाय ११२०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवाय असावपि चतुर्विध एव तथा चाह। एमेव चउविगप्पो, हाइ उवाओ वितत्थ दवम्मि। धाऊवाओ पढमो, लंगलकुलिएहि खेत्तं तु // 61 / / एवमेव यथा उपायः किं च चतुर्विकल्पश्चतुर्भेदः भवत्युपायोऽपि तद्यथा द्रव्योपायः क्षेत्रोपायः कालोपायः भावोपायश्वा तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः द्रव्योपाये विचार्ये धातुवादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणः द्रव्योपायः प्रथम इति / लौकिके लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् / क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति, अत एव लाङ्गलकुलिकाभ्यां क्षेत्रमुपक्रम्यत इति गम्यते / ततश्च लागलकुलिके तदुपायो लौकिकः / लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रभावनम् / अन्ये तु योनिप्राभृतयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव सङ्घप्रयोजनादौ द्रव्योपायं व्याचक्षते विद्यादिभिश्च दुस्तराब्धितरणलक्षणम्। क्षेत्रोपायमित्यत्र चप्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाभाति। पाठान्तरम् वा धाउव्वाओ भणितोत्ति' अत्र कथञ्चिदविरोधत एवेति गाथार्थः। कालो य नालियाईहिं, होइ भावम्मि पंडिओ अभओ। चोरस्स कए नट्टि, वड्वकुमारिं परिकहेइ॥६२।। कालश्च नालिकादिभिर्जायत इति शेषः / नालिका घटिका आदिशब्दाच्छङ्क्वादिपरिग्रहः / ततश्च नालिकादयः कालोपा--यो लौकिकः / लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति / भावे चेति द्वारपरामर्शत्वाद्भावोपाये विचार्ये निदर्शनं क इत्याह / पण्डितो विद्वानभयोऽभयकुमारस्तथा चाह चोरनिमित्तं सर्तकी वृद्धकुमारी किम् / त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह / परिकथयति / ततश्च यथा तेनोपायतश्चौरभावो विज्ञातः एवं शिक्षका-दीनां तेन विधिनापायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः। दश०१ अ० सोऽपि द्रव्यादिभिश्चतुर्धवतत्र द्रव्यस्य सुवर्णादः प्राशुकोदकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपाय एतत्साधनमेतदुपादेयतासाधनं वा हरणमपि तथोच्यते तत्प्रयोगश्चैवम् अस्ति सुवर्णादिषूपाय उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रवर्तितव्यं तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति। एवं क्षेत्रोपायः क्षेत्रपरिकर्मणोपायो यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधु-विधव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्तितव्यमत्र तथाविधान्यक्षेत्रवदिति। एवं कालोपायः कालज्ञानोपायो यथास्ति कालस्य ज्ञानोपायः धान्यादेरिव जानीहि वा कालं घटिकाछायादिनोपायेन तथाभूतगणितज्ञवदिति। एवं भावोपायो यथाऽभावज्ञाने उपायोऽस्ति भावञ्चोपायतो जानीहि वृहत्कुमारिकाकथाकथनेन विज्ञातचौरादिभावाभयकुमारवदिति।। स्था०४ ठा०। नवरं "भावोवाए" उदाहरणम् / “रायगिहिं णाम णयरं तत्थ सेणिओ राया सो भजाएभणिओजहा मम एगखंभंपासायं करेहि। तेण वट्टइणो आणत्ता गत्ता कटुंछिंदित्ता तेहिं अडवीए सलक्खणो सरलो महइ महालओ दुमो दिवो धूवो दिण्णो जेण स परिग्गहिओ रुक्खो सो दरिसावेउ अप्पाणं तो णं णछिंदामो त्ति अह ण देइ दरिसावं तो छिंदामो त्ति ताहे तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिण्णो / अहं रण्णो एगखंभं पासायं करेमि। सव्वोउयं च आराम करेमि सव्ववणजाइउवेयं मा छिंदहत्ति / एवं तेण कओ पासाओ। अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो। सा भत्तारं भणइ मम अंबयाणि आणेहि। तदा अकालो अंबयाणं तेण उण्णामणीए विजाए डालं ओणामिय अंबयाणि गहिआणि / पुणो अउण्णामणीएओणामियं पभाए रम्ना दिट्ठ। पयंण दीसइ।को एस मणूसो अतिगओजस्स एसा एरिसी सत्तित्ति सो मम अंतेउरंपिधरिसेहित्ति काउं अभयं सद्दावेऊण भणइ। सत्तरत्तस्स अभंतरे जइ चोर णाणेसितोणस्थिते जीविताहे अभओगवेसिउं आढत्तो णवरं एगम्मि पएसे गोजो रमिउं कामो मिलिओ लोगो तछ गओ अभओ भणति जाव गोजो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अक्खाणयं सुणेह / जहा कह पि णयरे एगो दारिदसिट्ठी परिवसति / तस्स धूया वकुमारी अईव रूविणी य वरणिमित्तं कामदेवं अन्इ। सायएगम्मि आरामे चोरिय पुप्फाणि उयंती आरामिएण दिट्ठा कयच्छिउमाढत्ता / तीए सो भणिओ। मा मई कुमारि विणासेहि। तवावि भयणी भावणिज्जीओ अच्छि। तेण भणिआ एका एव वच्छाए मुयामिजइणवरं जम्मि दिवसे परिणज्जसि तदिवसं चेव भत्तारेण अणुग्धाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि। तीए भणिओ। एवं हवउत्ति। तेण विसजिआ। अन्नया परिणीआ जाहे अपवरकं पवेसिंआ ताहे भत्तारस्स सब्भावं कहेई। विसज्जिया वच्चई। पहिआ आरामं अंतरा यचोरेहि गहिता तेसिं पिसभावो कहिओ मुक्का गच्छंतीए अंतरा रक्खंसो दिट्ठा जो छण्हं मासाणं आहारेइ तेण गहिया कहिए मुक्का गया अरामियसगासं तेण दिवा सो संभंतो भणइ। कहमागयासि। तीए भणिों मया कओ सो पुट्विं समओ। सो भणइ। कहं भत्तारेण मुक्का ताहे तस्सतं सव्वं कहि अहो सचपइन्ना एसा महिलत्ति / एत्तिएहिं मुक्का किहाहं दुहामित्ति। तेण विमुक्का पडियंती अगया सव्वेसिंतेसिं मज्झेणं। आगता तेहिं सव्वेहि मुक्का। भत्तारसगासं अणहसमग्गा गया। ताहे अभओतं जणं पुच्छई। अक्खह एत्थ केण दुक्करं कयं। ताहे इस्सालुया भणंति भत्तारण छुहालुया भणंति रक्खसेणं। पार-दारिया भणंतिमालागारेणं। हरिएसेण भणि चोरेहिं / पच्छा सो गहिओ जहा एस चोरोत्ति / एतावत्प्रकृत्तोपयोगि / जहा अभएण तस्स (चोरस्स) उवाएणभावोणाओ एवमिह वि सेहाणमुवट्ठायं तयाणं उवाएण गीयत्थेण विपरिणामादिणाभावो जाणिअव्वोत्तिः किं एए पञ्चावणिज्जा न वेत्ति। पचाविएसु वि तेसु मुंडावणाइसुएसेव विभासायातदुक्तम्। “पञ्चाविओ सिएत्तिअ, मुंडावेउं न कप्पई'' इत्यादि। कहाणयसंहारो पुण चोरो सेणिअस्स उवणीओ। पुच्छिएण सम्भाओ कहिओ ताहे रन्ना भणियं। जइ नवरंएयाओ विजाओ देहि तो न मारेमि / देमि त्ति अब्भुवगए आसणे ठिओ पढइ / नट्ठाई राया भणई किं नट्ठाई। ताहे मायंगो भणई जहा अविणएणं पढसि / अहं भूमीए तुम आसणे णीयतरे उवविट्ठो। ठिया तो सिद्धाओय विजाओ त्ति " कृतं प्रसङ्गेन / एवं तावल्लौकिकमाक्षिप्तं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता द्रव्योपायादयः / दश० 10 / तथाहि किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवताप्रसादोपलब्धः सर्तुकफलादिसमृद्धारामस्याम्रफलानामकालामफलादोहदवद्भार्यादोहदपूरणार्थं चाण्डालचौरेणापहरणे कृते चोरपरिज्ञानार्थ नाट्यदर्शननिमित्तमिलितबहुजनमध्ये वृहत्कुमारिकाकथामचकथत्तथाहि काचित् वृहत्कुमारिकावाञ्छितवरलाभाय कामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आरामपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या अपरिभुक्तया मत्पाा समागन्तव्यमिति अभ्यपगमं कारगिल्ता Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाय ११२१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवालंभ मुक्ता। ततः कदाचिद्विवाहिता सती पतिमापृच्छ्य रात्रावारामपतिपार्वे गच्छन्ती चौरराक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तयाभवत्पावें आगन्तव्यमिति कृताभ्युपगमा मुक्ता / आरामे गता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञेत्यखण्डितशीला विसर्जिता इतराभ्यामपि तथैव विसर्जिता पतिसमीपमागतेति। ततो भो लोकाः पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ प्रपच्छ। तत इालुप्रभृतयः पत्यादीन् दुष्करकारकत्वेनाभिदधुः / चौरचाण्डालास्तु चौरानिति ततोऽसावनेनोपायेन भावमुपलक्ष्य चोर इति कृत्वा स तं बन्धयामासेति स्था०४ ठा०३उ०। दृष्टान्ते, "उवाओ सोसाधम्मेण य विधम्मेण य" आ०चू०१ अधि० उवायकारि(ण) त्रि०(उपायकारिन्) आचार्य निर्देशकारिणि, "उवायकारी य हरीमणे य एगंतदिट्ठी य अमाइवे'' सूत्र०१ श्रु० 13 अ० उवायकिरिया स्त्री०(उपायक्रिया) भावक्रियाभेदे, उपायक्रिया हि घटादिकं द्रव्यं येनोपायेन क्रियते तद्यथा मृत्खननमर्दनचकारोपणदण्डचक्रसलिलकुम्भकारव्यापार्यावद्भिरुपायैः सा सर्वाऽप्युपायक्रिया सूत्र०२ श्रु०२ अ० उवायगपुं०(उपायक) उपायचिन्तके, विशे०। उवायतो अव्य०(उपायतस्) उपायेनेत्यर्थे , "उपायतो मोहनिन्दा" ध०१ अधिo उवायरक्खणन०(उपायरक्षण) उपायेन रक्षणे, "सुत्तादुवाय-रक्षण गहणपयत्तविसया मुणेयव्वा''ध०२ अधि। उवायविचय पुं०(उपायविचय) सुष्टु मनोवाक्कायव्यापारविशेषाणां स्वीकरणमुपायः स कथं नु मे स्यादिति संकल्पप्रबन्धे, सम्म०) उवालंभ पुं०(उपालम्भ) उपालम्भनमुपालम्भः भङ्गयैव विचित्रभणने, दश०१अा भङ्गयन्तरेणानुशासने, स्था०४ ठा०"तिविहेउवालभेपन्नत्ते तं जहा आओवालंभे परोवालंभे तदुभयोवालभे" उपालम्भ इयमेवानौचित्यप्रवृत्तिप्रतिपादनगर्भास चात्मनो यथा"चोल्लगदिढतेणं, दुलहं लहिऊण माणुसं जम्मं / जं न कुणसि जिणधम्म, अप्पा किं वैरिओ तुज्झ त्ति // 1 // " परोपालम्भो यथा "उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमगुरुदिक्खिओ तुमं वच्छ। उत्तमणाणगुणड्डो, कहं सहस्साववसितो एवंति ||1|| तदुभयोपालम्भो यथा "एगस्स कए नियजीवियस्स बहुयाउ जीवकोडीओ। दुक्खे ठवंति जे के विताणकि सासयं जीयं ति // 1 // " एवमित्यादिना पूर्वोक्तातिदेशो व्याख्यातः एवञ्चात्राक्षर-घटना यथैवोपक्रमे आत्मपरतदुभयैस्त्रय आलापका उक्ता एवमे-कैकस्मिन् वैयावृत्त्यादिसूत्रे ते त्रयस्त्रयो वाच्या इति। स्था०३ठा०नि०चूol संप्रत्यात्मोपालम्भोल्लेखं दर्शयति! तुमए चेव कयमिणं, न सुद्धगारिस्स दिज्जए दंडो। इह मुक्को विन मुबइ, परत्थ अह हो उवालंभो / / त्वयैव स्वयं कृतमिदं प्रायश्चित्तस्थानं तस्मान्न कस्याप्युपरिअन्यथाभावः कल्पनीयः। न खलु शुद्धकारिणो लोकेऽपि दण्डो दीयते। किं च यदि इह भवे कथमप्याचार्येणैवमेवमुच्यते। तथा इह भवे मुक्तोऽपि परत्र परलोके न मुच्यते / तस्मादापन्नं प्रायश्चित्तमवश्यं गुणवृद्ध्या कर्तव्यमिति। अहएष भवत्युपालम्भः एष आत्मोपालम्भः। एतदनुसारेण परोपालब्भः / उभयोपालम्भोऽपि भावनीयः व्य०प्र०१ उ०1 उपालम्भो यत्राऽभिधीयते तादृशे आहरणतद्देशभेदे, स्था०४ ठा०। अधुनोपालम्भद्वारविवक्षयाऽऽह // उवलंभम्मि मिगावइ, नाहियवाईवि एव वत्तट्वे / नत्थि त्ति कुविनाणं, आयाभावे सइ अजुत्तं // 75|| उपालम्भे प्रतिपाद्ये मृगापतिदेव्योदाहरणम् / एतच "जहा आवस्सए दव्वपरंपराए भणियं तदेवं दहव्वं जाव पव्वइत्ता अज्जचंदणाए सिस्सिणी दिण्णा अन्नया भगवं विहरमाणो कोसंवीए समोसरिओ चंदादिया सविमाणेहिं चंदणा आगया चउपोरसीयं समोसरणं काउं अस्थमणकाले पडिगता ततो मिगावती संभंता अयि वियालिकतंति भणिऊणं साहुणीसहिया जाव अज्जचंदणासगासं गता ताव अंधयारयं जातं अञ्जचंदणापमुहाहिं साहुणीहिं ताव पडिकंतं ताहे सा मिगावती अज्जचंदणाए उवालब्भति जहा एवंणाम तुम उत्तमकुलप्पसूया होइऊण एवं करेसि अहोन लट्ठयोताहे पणमिऊण पाएसुपडित्ता परमेण विणएण खामेति खमह मते एगमवराहणाहं पुणो एवं कहेहामित्ति। अजचंदणाय किल तं समरसंथारोवगता पसुत्ता इयरीए वि परमसंवेगताए केवलनाणं समुत्पन्नं परमंच अंधयारंवट्टइ सप्पो यतेणंतरेण आगच्छतिपव्वतिणीए यहत्थोलंवमाणोतीए उप्पाडिओपडिबुद्धाय अज्जचंदणा पुच्छिता किमेवं सा भणति दीहजातीओ कहं तुमंजाणसि किं कोइ अति-सओ आमंति पडिवाति अपडिवाइत्ति पुच्छिया। साभणइ अपडिवाइत्तितओ खामिया लोगलोगुत्तरसाहरणमेयं एवं पमायंतो सीसो उवालंभेतव्योत्ति उदाहरणदेशता पूर्ववत् योजनीयेत्येवं तावचरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्भद्वारमधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते नास्तिकवाद्यपि चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक इत्यर्थः एवं वक्तव्योऽभिधातव्यः नास्ति न विद्यते कः प्रकरणाजीव इति एवंभूतं कुविज्ञानं जीवसत्ताप्रतिषेधावभासीत्यर्थः / आत्माभावे सति न युक्तमात्मधर्मत्वात् ज्ञानस्येति भावना / भूतधर्माता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेवनयुक्ता तत्समुदायकार्यताऽपि प्रत्येकं भावाभावविकल्पद्वारेण तिरस्कर्त्तव्येति गाथार्थः। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह। अस्थि त्ति जा वियका, अहवा नत्थि त्ति जंकुविन्नाणं / अंचंताभावे पो-गलस्स एयं चिय न जुत्तं // 76| अस्ति जीव इति एवम्भूता या वितर्का अथवा नास्ति न विद्यते इति एवम्भूतं यत्कुविज्ञानं लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताभावे पुद्गलस्य जीवस्य इदमेव नयुक्तमिदमेवान्याय्यं भावनापूर्ववदिति गाथार्थः। उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो जीवसाधनाद्भावनीयेति / गतमुपालम्भद्वारम् / दश०१ अ० "एवं खलु जंबूसमणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोवालंभनिमित्तं पढमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठ पन्नत्तेत्ति वेमिइति ज्ञाताप्रथमाध्ययने उक्त आत्मोपालम्भः ज्ञा०१ अ० निन्दापूर्वकतिरस्कारे, वाच०। Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवलंभंत 1122- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगदसा उपालंभंत त्रि०(उपालभमान) उपालम्भं कुर्वाणे, प्रा०। उवालद्ध त्रि०(उपालब्ध) उप--आ--लभ--क्त-तिरस्कारेण निन्दिते, | वाचा"उवालद्धो य सो सिवो वंभणो''नि०चू०१उ०। उवासं पुं०(अवकाश) स्थाने, नि०चू० 17 उ० उवासादिसुसेहो ममत्तपडिसेवणं उवासो आदी जेसिं ताणि उवासादीणि ताणि संथारउवस्स कुलगामणगरदेसरज्जं नि०चू० 130 उवासंतर न०(अवकाशान्तर) वातस्कन्धानामधस्तादाकाशेषु, स्था०२ठा०।"सत्त उवासंतरायं एएसुणं सत्तसुउवासंतरेसुसत्त तणुवाया पइडिया स्था०७ ठा०। आकाशविशेषे, अवकाशरूपा-न्तराले च भ०१ श०६ उ०। अवकाशान्तरं नाम अमुकयोर्द्वयोर्मध्यमिति / व्य०७उ०) "सत्तमे उवासंतरे" प्रथम-द्वितीयपृथिव्योर्यदन्तरालमाकाशखण्डं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तमं भ०१२श०५ उ० उवासग त्रि०(उपासक) उपासते सेवन्ते साधूनित्युपासकाः। श्रावकेषु, उत्त०२०। आव०ानं० स्था०। स०। "उवासगो दुविहो वती अवती वा अवती सो परदसणं संपण्णो एक्केको पुणो दुविहो णायगो अणायगो वा' नि०चू०११ उ० सेवके, उपासनाकर्तरि शूद्रे, पुं०स्त्री० वाच०॥ उवासगदसा स्त्री०(उपाशकदशा) ब०व० उपासकाः श्रावकास्तद्गताणुव्रतादिक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा अध्ययनानि उपासकदशाः। नं०ापा०। सा सप्तमाङ्गे, बहुवचनान्तमेतत् ग्रन्थनाम आसां च सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि नामान्वर्थसामर्थ्य नैव प्रतिपादितान्यवगन्तव्यानि / तथा हि उपासकानुष्ठानमिहाभिधेयं तदवगमश्च श्रोतॄणामनन्तरप्रयोजनं शास्त्रकृतान्तु तत्प्रतिबोधन--मेव तत्परम्परप्रयोजनं तूभयेषामप्यपवर्गप्राप्तिरिति / सम्बन्धस्तु द्विधा शास्त्रे ष्वभिधीयते उपायो पेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्र मलक्षणञ्च तदत्रोपायोपेयभावलक्षणः शास्त्रनामान्वर्थसामर्थ्य नैवासामभिहितस्तथाहीदं शास्त्रमुपाय एतत्साध्योपासकानुष्ठानावगमश्चोपेय--- मित्युपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धः / / गुरुपर्वकमलक्षणं तु सम्बन्धं साक्षाद्दर्शयन्नाह। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं णयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मे समोसरिए जाव जंबू पञ्जुवासमाणे एवं वयासी / जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स णायाधम्मकहाणं अयमद्वे पण्णते? सत्तमस्सणं भंते ! अंगस्स उवासगदसाणं / समणेणं जाव संपत्तेणं / के अढे पण्णत्ते एवं खलु जंबू समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा आणंदे 1 कामदेवे य 2 गाहावइचुलणीपिया 3 सुरादेवे / चुल्लसयए 5 गाहावइकुंडकोलिए 6 सद्दालपुत्ते 7 महासयए 5 नंदणीपिया सालेइणीपिया 10 जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं / दस अज्झ-यणा पण्णत्ता? "तेणं कालेणं तेणं समएणमित्यादि'' सर्वं चेदं ज्ञाताधर्मकथाङ्गप्रथमाध्ययनविवरणानुसारेणानुगमनीयं नवरम् "आणंदेत्यादि रूपकं | तत्रानन्दाभिधानोपासकवक्तव्यता प्रतिबद्धमध्ययनमानन्द एवाभिधीयते एवं सर्वत्र उपा०१० एवं खलु जंबूसमणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णते उवासगदसाओ सम्मत्ता उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुयखंधो दस अज्झयणा दससु चेव दिवसेसु उद्दिसंति। खलु जंबूइत्यादि उपाशकदशानिगमनवाक्यमध्ये यमिति तथा पुस्तकान्तरे संग्रहगाथा उपलभ्यन्ते ताश्चेमा "वाणियगामे चंपा, दुवे वणारसीए नयरीए 4 / आलंभिया य 5 पुक्खरि, कंपिल्लपुरं च बोधव्यं ॥१॥पोलासं रायगिह, सावत्थीए पुरीएदोन्नि भवे। एए उवासगाणं, नयरा खलु हुंति बोद्धव्वा।। सिवनंद 1 भद्द२ सामा, ३धण 4 बहुला 5 पुस्स 6 अग्गिमित्ता य 7 / रेवइ 8 अस्सिणि 6 तहफग्गुणा य 10 भजाण णामाइ 3 / / ओहिणाण 1 पिसाए 2 माया 3 वाहि 4 धण 5 उत्तरिज्जे य 6 / भज्जायसुव्वया 7 दुव्वयाइनिरुवसग्गया दोन्नि 10 / / 4 / अरुणे 1 अरुणाभे 2 खलु, अरुणप्पह 3 अरुणकंत 4 सिट्टे य 51 अरुणज्झएय छट्टे, 6, भूय 7 वडिंसे 8 गवे ह कीले" 105 / शिष्टादिनामान्यरुणपदपूर्वाणि दृश्यानि। अरुणशिष्टमित्यादि एताश्च पूर्वोक्तानुसारेणावसेयाः यदिहन व्याख्यातं तत्सर्वं ज्ञाताधर्मकथाव्याख्यानमुपयुक्तेन निरूप्यावसेयमिति। "सर्वस्यापि स्वकीयं वचनमभिमतं प्रायसः स्याञ्जनस्य, यत्तु स्वस्यापि सम्यग्न हि विहितरुचिः स्यात् कथं तत्परेषाम्। चित्तोल्लासात्कुतश्चित्तदपि निगदितं किंचिदेवं मयैतत्, युक्तं यचात्र तस्य ग्रहममलधियः कुर्वतां प्रीतये मे" समाप्तमुपासकदशाविवरणं समाप्त सप्तमाङ्गम्। उपा०१० अ०। उपाशकदशानां विषयाः। से किं तं उवासगदसाओ उवासगदसासुणं उवासयाणं णगराई उजाणाइंचेइआइं वनखंडारायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकाहाओ इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा उवासयाणं सीलव्वयवेरमणगुणपचक्खाणपोसहोववासपडिवजियाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपचक्खाणाइं पावोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपञ्चाया पुणो वोहिलाभो अंतकिरियाओ आघविजंति।। (उपासकदसासु णंति) उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनखण्डा राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या धर्मकथा ऐहलौकिक पारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकानाच शीलव्रतविरमणगुणप्रत्याख्यानपौषधोपवासप्रतिपादनतास्तत्र शीलव्रतान्यणुव्रतानि विरमणानि रागादिविरतयः गुणागुणव्रतानि प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि पौषधमष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहारशरीरसत्कारादित्यागः पौषधोपवासः ततो द्वन्द्वे सत्येतेषाम्प्रतिपादनताप्रतिपत्तय इति विग्रहः श्रुतपरिग्रहस्तप उपधानानि च प्रतीतानि (पाडिमाओत्ति) एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गा वा उपसर्गा देवादिकृतोपद्रवः संलेखना भक्तपानप्रत्याख्यानानि पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि सुकुले प्रत्यायाति पुनर्वाधिलाभोऽन्तक्रियावाख्यायन्ते पूर्वोक्तमेव / / Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगदसा 1123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा अतो विशेषत आह। उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसावित्थरधम्मसवणाणि बोहिलाभो अभिगमणे सम्मत्तविसुद्धया थिरतं मूलगुणउत्तरगुणाइयारा ठिइविसेसा बहुविसेसा पडिमाभिगहम्गहण उवसग्गाहिसंहणणणिरुवसग्गा तवायचित्ता सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासा अपच्छिममारणतिया य संलेहणाझोसणाहिं अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाएछेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तमेसु जहा अणुभवंति सुरवरविमाणवरोडरीएसु सोक्खाइं अणोवमाई कमेण भुत्तूण उत्तमाइं तओ आउक्खए चुआ समाणा जह जिणमयम्मि वोहिं लभ्रूण य संजमुत्तमतमरयोधविप्पमुक्काति जह अक्खयसव्वदुक्खमोक्खं एते अन्ने य एवमाइ उवासयदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ से णं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समु-देसणकाला संखेजाइ पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्तो संखेज्जाइं अक्खराइं जाव एवं चरणकरणपरूवणा आघविजंति सेत्तं उवासगदसाओ।७।। उवासगेत्यादि तत्र ऋद्धिविशेषा अनेककोटीसंख्याद्रव्यादिसम्पद्विशेषाः तथा परिषदः परिवारविशेषाः यथा मातापितृपुत्रादिकाः अभ्यन्तरपरिषत् दासीदासमित्रादिका बाह्यपरिषदिति विस्तरधर्मश्रवणानि महावीरसन्निधौ ततो बोधिलाभोऽभिगमः सम्यक्त्वस्य विशुद्धता स्थिरत्वं सम्यक्त्वशुद्धिरवे मूलगुणोत्तर-गुणा अणुव्रतादयः अतिचारस्तेषामेव वधबन्धादितः खण्डनानि स्थितिविशेषाश्चोपासकपर्यायस्य कालमान भेदाः बहुविशेषाः प्रतिमाः प्रभूतभेदाः सम्यग्दर्शनादिप्रतिमाः अभिग्रहग्रहणानि तेषामेव च पालनानि उपसर्गाधिसंहनानि निरुपसर्गञ्चोपसर्गाभावश्चेत्यर्थः। तपांसि च चित्राणि शीलव्रतादयोऽनन्तरोक्तरूपा अपश्चिमाः पश्चात्कालभाविन्यः अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थः / मरणरूपे अन्ते भवा मारणान्तिक्यः आत्मशरीरस्य जीवस्य च संलेखनाः तपसा रोगादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मनः संलेखनाः ततः पदत्रयस्य कर्मधारय स्तासा (ज्झोसणंति) जोषणाः सेवनाः करणानीत्यर्थः ताभिरपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखनाजोषणाभिरात्मानं यथा च भावयित्वा बहूनि भक्तानि अनशनतया च निर्भोजनतया छेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते। केषु कल्पवरेषु यानि विमानोत्तमानि तेषु यथाऽनुभवन्ति सुरवरविमानानि वरपुण्डरी-काणि यानितेषु कानि सौख्यान्यनुपमानि क्रमेण भुक्त्वोत्तमानि ततः आयुष्कक्षयेण च्युताः सन्तो यथा जिनमते बोधिं लब्धा इति विशेषः / यथा च संयमोत्तमम्प्रधानं संयम तमोरजओघविप्रमुक्ता अज्ञानकर्मप्रवाह विमुक्ता उपयन्ति / यथा अक्षयमपुनरावृत्तिकं सर्वदुःखमोक्षं कर्मक्षयमित्यर्थस्तथोपासकदशास्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः। एते चान्ये चेत्यादि प्राग्वन्नवरं"संखेजाई पयसहस्साई पयग्गेणंति" किलैकादशलक्षाणि द्विपञ्चाशच सहस्राणि पदान मिति॥७॥ सम० यावच्छब्देन 'संखेज्जा वेढासंखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ संखिज्जाओ संगहणीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ" नंग उवासगपडिमा स्त्री०(उपासकप्रतिमा) उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञा अभिग्रहविशेषाः उपासकप्रतिमाः। उत्त०२ अ० स० श्रावकोत्थिताभिग्रह विशेषरूपेषु सुदर्शनादिषु, उपा० 10 // धाग० तथैकादशप्रतिमायां श्राद्धः सामायिको "जाव नियम वा जाव पडिम वा' कथमुच्चरते / तथा पञ्चम्यादिप्रतिमास्वष्टम्यादितिथिषु रात्री कायोत्सर्गकरणवदेकादश्यां प्रतिमायां कायोत्सर्ग करोतिन वेति प्रश्रः / उत्तरम् एकादशप्रतिमायां श्रावके ण सामायिके "जाव पडिमं पज्जुवासेमित्ति'' पाठो भणनीयस्तथा कायोत्सर्गोऽपि करणीयः। शेन०२ उ०३७ प्र० श्रावकधर्माधिकारात्तदुचितभावस्तद्विशेषमुपासकप्रतिमा-लक्षणमभिधित्सुमङ्गलाद्यभिधानायाह / नमिऊण महावीरं, भवहियट्ठाय लेसओ किं पि। वोच्छं समणोवासग-पडिमाणं सुत्तमग्गेण / / 1 / / नत्वा प्रणम्यमहावीरं वर्द्धमानजिनं भव्यानां शुभजीवानां हितं पथ्यं स एवार्थः पदार्थः प्रयोजनं वा भव्य हितार्थस्तस्मै भव्यहितार्थाय भव्योपकारायेत्यनेन च परोपकारस्य मुमुक्षूणामादेयतां दर्शयतिालेशतः संक्षेपेणाल्पग्रन्थतयेत्यर्थः। अल्पग्रन्थेनापिक्वचित्समस्तमभिधेयमुच्यत इत्यत आह / किमपि स्तोकमभिधेयजातं न समस्तमपीत्यर्थः वक्ष्ये भणिष्यामि। श्रमणोपासकप्रतिमानां श्रावकाभिग्रह विशेषाणां संबन्धिनां पुनर्भिक्षुप्रतिमानां श्रावकधर्माधिकारात्कथमित्याह सूत्रमार्गेण दशाश्रुतस्कन्धाभिधानागमपथेनानेन श्रुतविशेषावलम्बनत्वात्प्रकरणस्यास्य प्रामाण्यमावेदितमिति गाथार्थः पंचा० १०वि०१। अथ कियत्यः किमादिकाश्च ता इत्याशङ्कायामाह। एक्कारस उवासगपडिमा उ पण्णत्ता तं जहा दंसणसावाए कयध्वयकम्मे सामाइअकडे पोसहोववासनिरए दिया बंभयारी रत्तिपरिमाण कडे दिआ विराओ वि बंभयारी असिणाईवि अडभोई मोलिकडे सचित्तपरिम्नाए आरंभपरिन्नाए पेसपरिन्नाए उद्दिट्ठभत्तपरिन्नाए समणभूए आविभवइ समणाउसो।। तत्र दर्शनं सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनश्रावकः इह प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारात्प्रतिमा वतो निर्देश: कृतः एवमुत्तरपदेष्वपि / अयमत्र श्रावको दर्शनश्रावकः इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाभावार्थः सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्याणुव्रतादिगुणविकल्पस्यायमभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति / तथा कृतमनुष्ठितं व्रतादीनां कर्म तचाणुव्रतं ज्ञानवाञ्छाप्रतिपत्तिलक्षणं येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरिति भावः इतीयं द्वितीया / तथा सामायिकं सावधयोगपरिवर्जननिरवद्ययोगोपसेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः आहिताग्न्यादिदर्शनातक्तान्तस्योत्तरपदत्वं तदेवं प्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनव्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसंख्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति / तथा पोषं पुष्टिं कुशलधर्माणं धत्ते यदाहरत्यागादिक मनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपैवसनमवस्थानमहोरात्रं. यावदिति पौषधोपवास इति / अथवा पौषधं पर्वदिनमष्टभ्यादि तत्रावास उक्तार्थः पौषधोपवास इति / इयं व्युत्पत्तिरेव प्रवृत्तिस्तस्य शब्दस्य Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा आहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेष्विति। तत्रपौषधो-पवासे निरत आसक्तः पौषधोपवासनिरतः स एवंविधस्य श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः / अयमत्र भावः पूर्वप्रतिमात्रयो पेतोऽष्टमी चतुर्दश्यमावस्यापौर्णमासीष्याहारपौषधादिचतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरो मासान् यावचतुर्थी प्रतिमा भवतीति / तथा पञ्चमीप्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारी भवत्येतदर्थं च सूत्रमधिकृतसूत्रपुस्तकेषु न दृश्यते दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः। तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी (रत्तीति) रात्रौ किमत आह / परिमाणं स्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति। अयमत्र भावो दर्शनव्रतसामायिकाष्टम्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारिण शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रौ ब्रह्मपरिमाणकृतोऽस्नातस्यारात्रिभोजिनः अबद्धकच्छस्य पञ्चमासान् यावत्पञ्चमी प्रतिमा भवतीति। उक्तंच"अट्ठम्मिचउद्दसीसुपडिमट्ठाएगराईय" पश्चार्द्धम्॥ असिणाणवियडभोई, मउलियडो दिवसबंभयारीय। रत्तिं परिमाणकडो, पडिमा वजेदिसुज्जहेसुत्ति // 5 // तथा दिवाऽपि रात्रावपि ब्रह्मचारी (असिणा इत्ति) अस्नायी स्नानपरिवर्जकः क्वचित्पठ्यते (अनिसाइत्ति) न निशायामत्तीत्यनिशादी (वियडभोईत्ति) विकटे प्रटकप्रकाशे दिवा न रात्रावित्यर्थः दिवाऽपि अप्रकाशे देशे न भुङ्क्ते अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी (मउलिकडेत्ति) अबद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः / षष्ठी प्रतिमेति प्रकृतम्। अयमत्र भावः प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः षण्मासान् यावत्षष्ठी प्रतिमा भवतीति / तथा सचित्त इति सचेत नाहारपरिज्ञातः तत्स्वरूपादिप्रतिज्ञानात्प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतम्। इयमत्र भावनांपूर्वोक्तप्रतिमाषट्कानुष्ठानयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् यावत्सप्तमी प्रतिमा भवतीति तथा आरम्भः पृथिव्याधुपमर्दनलक्षणः परिज्ञातस्तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भपरिज्ञातः श्राद्धोऽष्टमी प्रतिमेति / इह भावना समस्तपूर्वोक्तानुष्ठानायुक्तस्यारम्भवर्जनमष्टौ मासान् यावदष्टमी प्रतिमेति। तथा प्रेष्या आरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञातास्तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्यपरिज्ञातः श्रावको नवमीति / भावार्थश्वेह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः आरम्भं परैरप्यकारयतो नव मासान् यावन्नवमी प्रतिमेति।तथा उद्दिष्ट तमेव श्रावकमुद्दिश्य कृतंभक्तमोदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतम् / इहायं भावार्थः। पूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजनपरिहारवतः क्षुरमुण्डितशिरसः शिखावतो वा केनापि किंचिद् गृहव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीत्यज्ञाने च सति न जानामीति ब्रुवाणस्य दश मासान् यावदेवंविधविहारस्य दशमी प्रतिमेति / तथा श्रमणेति निर्ग्रन्थसद्वेद्यस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमणभूतः साधुकल्प इत्यर्थः चकारः समुचये अपिः संभावने भवति श्रावक इति प्रकृतं हे श्रवण ! हेआयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बूस्वामिनमामन्त्रयतोक्तमित्येकादशीति / इह चेयं | भावना पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलो चस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य ईर्यासमित्यादिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थ गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिपन्नाय भिक्षा देयेतिभाषमाणस्य कस्त्वमिति कस्मिश्चित्पृच्छति प्रतिपन्नश्रमणोपास-कोऽहमिति ब्रुवाणस्यैकादशमाशन यावदेकादशी प्रतिमा भवतीति / पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना "दंसणसावए प्रथमा। कयवयकम्मे द्वितीया। कयसामाइए तृतीया / पोसहोववासनिरए चतुर्थी। राइभत्तपरिन्नाए पंचमी। सचित्तपरिन्नाए षष्ठी। दिया बंभणयारी राओ परिमाणकडे सप्तमी। दिया वि राओ वि बम्हयारी। असिणाणपयावि भवति वोसट्ठकेसरोमनहे अष्टमी। आरंभपरिन्नाए नवमी। उद्दिट्ठभत्तवज्जए दशमी। समणभूएया वि भवइत्ति ससमणाउसो एकादशीति / क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमी। प्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी / उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति। समापंचा०॥ तएणं से आणंदे समणस्स भगवओ अंतिअं पढमं उवासगपडिम उवसपञ्जित्ताणं विहरइ / पढम उवासगपडिम अहासुत्त 4 सम्म काएणं फासेइ। जाव आराहएइ / तएणं से आणद समण / दोचं उवासगपडियं चउत्थं पंचमं छटुं सत्तम अट्ठमं नवमं दशमं एक्कारसमं जाव आराहेइ।। (पढमंति) एकादशानामाद्यमुपासकप्रतिमाश्रावकोचिताभिग्रहविशेषरूपामुपसंपद्य विहरति तस्याश्चेदं स्वरूपम् "संकादिसल्लविरहित, सम्मसणजुओ जो जंतू। सेसगुणविप्पमुक्को, एसा खलु होइ पढमाओ।" सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिश्चास्य पूर्वमप्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषराजाभियोगाद्यपवादवर्जित्वेन तथाविधसम्यग्दर्शनचारविशेषपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं संभाव्यते कथमन्यथाऽसावेकमासप्रथमायाः पालनेन द्वौ मासौ द्वितीयायाः पालनेन एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेनपञ्चसार्धाणि वर्षाणि पूरितवानित्यर्थः। ततो वक्ष्यतीति न चायमर्थो दशाश्रुतस्कन्धादावुपलभ्यते श्रद्धामात्रप्ररूपायास्तस्याः प्रतिपादनात् (अहासुत्तंति) सूत्रानतिक्रमेण यथाकल्पप्रतिमाचारानतिक्र मेण यथा मार्ग क्षायोपसमिकभावानतिक्र मेण (अहातचंति) यथातत्वं दर्शनप्रतिमेति शब्दस्यान्वर्थानतिक्रमेण (फासेइत्ति) स्पृशति प्रतिपत्तिकाले विधिना प्रतिपत्तेः (पालेत्ति) सततोपयोगप्रतिजागरेण रक्षति (सोहइत्ति) शोभयति गुरुपूजापुरस्सरं पारणकरणेन शोधयति वा निरतिचारतया (तिरइत्ति) पर्णेऽपि कालावधावनुबन्धात्यागात् (कीर्तयेत्ति) तत्समाप्तावेवमिदं चेहादिमध्यावसानेषु कर्त्तव्यं मया तत् कृतमिति कीर्तनात् आराधयति एभिरेव प्रकारैः संपूर्णः निष्ठां नयतीति उपा०१ उ०। सुयं मे आउसत्तेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं इक्कारस उवासगपडिमा पण्णत्ताओ कतराओ खलु ताओ इमाओ खलु तं जहा अकिरियावादी यावि भवति मो हियवादी णो हियपणे नो हियदिट्ठी नोसमावादी णो णित्तियावादीण संति परलोगवादी णत्थि इहलोएणत्थि परलोए णत्थि माता णत्थि पिता णत्थि अरहंता णस्थि चक वट्टी णत्थि बलदेवा णत्थि वासुदेवा णत्थि णरया णत्थि णेरइया णत्थि सुकडंदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे णो सुचिण्णाकम्मा सुचिन्नफला भवंति णो दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति। अफले कल्लाणपावए नो पञ्चायति जीवा णत्थि णिरया नत्थि सिद्धी से एवं वादी एवं पण्णे एवं दिट्ठी एवं छंदरा Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा गभिणिविढे आविभवति से अभवइ महिच्छे महारंभे महापरिगहे अहम्मिए अहम्माणुए अधम्मसेवी अधम्मक्खाई अधम्मरागी | अधम्मपलोई अधम्मजीवी अधम्मपलज्जाणं अधम्मसीलसमुदाचारे अधम्माणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ / हण छिंद भिंद विकत्तए लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उकंचणवंचणामायाणियडिकूडकवडं सातिसंपयोगबहुला दुस्सीला दुचरिया दुरणुणेया दुव्वदा दुप्पडिया णंदा निस्सीले णिग्याए निग्गुणे निम्मारे निम्मेरे निप्पचक्खाणपोसहोववासे असाहू सव्वातो पाणाइवायाउ अपडिविरए जावजीवाए एवं जाव सव्वाओ कोहाओ सव्वाओमाणाओ सव्वातो मायातो सव्वातो लोभातो सव्वातो पेज्जातो दोसातो कलहातो अब्भक्खातो पेसुण्णपरपरिवादातो अरतिरइमायामोसातो मिच्छादसणसल्लातो अपडिविरएजावजीवाए सव्वतो कसायदंतकहुण्हाणमद्दणविलेवणसइफरिसरसरूवगंध-मल्लालंकारातो अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वातो सगडरहजाणजुगगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियजंपणासणजाणवाहणभोयणपवित्थरविधीतो अपडिविरता जावजीवाए असमक्खियकारी सव्वाओ आसहत्थिगोमहिसदासीदासकम्मकरपोरुसातो अपडिविरता जावजीवाए सवतो कयविक्कयमासद्धमासरूवगसंववहारातो अपडिविरता जावजीवाए सव्वहिरण्णसुवण्णधणधण्णमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालातो अपडि विरता जावज्जीवाए सव्वतो कूडतुलकूडमाणातो अप्पडिविरता सव्वातो आरंभसमारंभातो अप्पडिविरता सव्वातो करणकारावणातो अप्पडिविरता सव्वातो पयणपयावणातो अप्पडिविरता सव्वातो कुट्टणपिट्टणातो तज्जणतालणबंधवधपरिकिलेसातो अप्पडिविरता जावजीवाए जेयावण्णे तहप्पगारा सावज्जा अवोहिया कम्मती कज्जति परपाणा पारिआवणकडा कन्जंति ततो वि य अप्पडिविरता जावजीवाए से जहा णामए के इ पुरिसे कलममसूरतिलमुग्गमासनिप्फावकुलत्थआलिसंदजवएवमादिएहिं अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते तित्तिरवट्टा लावककपोतकपिंजलमियमहिसवाराहगाहगोगोहकुम्मसिरीसवादिएहिं अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ / / जाविय से बाहिरिया परिया परिसा भवंति दासेति वा पेसेति वा भत्तएइ वा भाइल्लेति वा कम्मारएति वा भोगपुरिसेति वा तेसिं पि य णं अण्णयरगंसि अहालघसयंसि अवराधंसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति तं जहा इमं दंडेह इमं मुंडेह इम तालेह इमं इंदुबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं चा | रगबंधणं करेह इमं हत्थच्छिण्णं करेह इमं पायच्छिण्णं करेह इमं कण्णच्छिण्णं करेह इमं नक्क० इमं उट्ठ० इमं सीसच्छिन्नयं करेह इमं मुख० इमं वेच्छे उ इमं हिययत उप्पाडियं करेह / एवं नयणदसणवयणजिब्मुप्फडितं करेह। इमं उलवित्तं करेह / इमं घंसियतयं इमं घोलितयं इमं सूलाकायतयं इमं सूलाभिण्णं इमं खारवत्तियं करेह। इमं दन्भवत्तियं०इमं सीधपुच्छितयं०इमं वसभपुच्छितयं० इमं कडग्गिदद्धयं करेह / इमं काकिणिमंसवित (स्वादि) तं करेह / इमं भत्तपाण-निरुद्धयं०इमं जावजीवबंधणं करेह / इमं अन्नतरेण असुभेण मारेह जा विय से अन्भितरिया परिसा भवंति तं जहा माताति वा भगिणित्ति वा भजाति वा धूयाति वा सुण्हाति वा तेसि पि य णं अण्णयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडवत्तेत्ति सीतोदगवियडंसि कायंतो वालित्ता भवति उसिणोदगवियडेण कार्य उसिंचित्ता भवति अगणिकाए णं कायं उड्डहित्ता भवति। जोत्तेण वा वेत्तेण वा नेत्तेण वा कामेण वा छिवाडीए वा पासाइ उद्दालित्ता भवति / दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा कायं आउडेत्ता भवति तधप्पगारे पुरिसज्जाते सवणसम्मणे दुम्मणा भवंति तहप्पगारे पुरिसजाते दंडमासी दंडगुरुए दंडपुरक्खडे अहिते असिलोयंसि अहिए परलोयंसि ते दुक्खे निमोयंति एवं कूरे तिप्पं ति पीडें ति परितप्पति ते दुक्खणसोयणज्जूरणतिप्पणप्पिट्टणपरितप्पणवधबंधपरिकिलेसातो य पडिविरता भवंति। एतामेव ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छित्ता गिद्धा गढिता अब्भोववन्ना जाव वासाइं चउपंचमाई छद्दसमाणि वा अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं भुंजित्ता भोगभोगाइं एस चित्तावेरायतणाई संचिणित्ता बहूई पावाई कम्माइं उसण्णसंभारकड्डे णकम्मुणा से जधा नाम ते अयगोलेत्ति वा सेलगोलेत्ति वा उदयंसि पक्खित्ति समाणे उदगतलमतिवतित्ता अहे धरणितलपतिट्ठाणे भवति / एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते बहुले धुण्णबहुले पंकबहुले वेरयबहुले दंसतिपडिअसायबहुले अयसबहुले अप्पत्तियबहुले उसनतणपाणघाती कालमासे कालं किया धरणितलमतिवत्तित्ता अहे नगरतलपतिट्ठाणे भवति तेणं णरगा अंतोवट्टा बाहिं चउरंसा अहेखुरप्पसंठाणसंठिता निबंधकारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोतिसपहा मेयवसामंसरुहिरपूयपडलचिक्खल्ललित्ताणुले वणतला असुई भीमा परमदुडिभगंधा काऊण अगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरुहिया सा असुभा नरगा असुभा नरयस्स बेदणातो नो चेव णं नरएसु नेरइया निदापयलंति वा सत्तिं वा रतिं वा धितिं वा इमं वा उवलभंति तेणं तत्थ उज्जलं वियलं पगाढं कक्कसं कडुयं चडं रुक्खं दुग्गं तिवं दुरुहियासं नरए सुरनेरइया नरयवेयणं पचणुभ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा वमाणा विहरंति से जघा रक्खेसिया पव्वतायग्गजाते मूलच्छिन्ने अग्गे गरुए जातो निचं जतो दुर्ग जतो विसमंततो पवडंति एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते गम्भातो गम्भं जम्मातो जम्ममारातो मारं दुक्खातो दुक्खं दाहिणगामिएनेरइए कण्हपक्खिते आगमे साणदुल्लभवोधिते याविभवति से तं अकिरियावादीयावि भवति तं जहा आहियवादी आहियपत्ते आहियदिट्ठी साम्मावादी निहवादी संति परलोगवादी अस्थि इह लोगे अत्थि परलोगे अस्थि माता अस्थि पिया अस्थि अरहंता अस्थि चक्कवट्टी अस्थिबलदेवा अस्थिवासुदेवा अस्थि सुक्कड-दुक्कडाणं फलवित्तिविसेसेसु चिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति। सफले कल्लाणे यावए पचायंति जीवा अस्थि नेरइया देवा सिद्धी से एवं वादी एवं पन्ने एवं दिट्ठीच्छदरागमतिनिविढे आविभवति से भवति महेच्छे जाव उत्तरगामिए नेरइएसु पक्खिवत्तआगमेसाणं सुलभा वोधिया वि भवति से तं किरियावादसव्वधम्मरुची यावि भवति। तस्स बहुई सीलव्वयगुणवे रमणपचक्खाणपोसहोवासाई सम्म पद्धवितपुथ्वाइं भवति पढमा उपासगपडिमा। (अकिरियवाइत्ति) ननु प्रतिमाधिकारे तु पूर्वं दर्शनप्रतिमास्ति दर्शनं च सम्यक्त्वं तदेव पूर्व वक्तुमुचितं किमर्थं तर्हि पूर्व मिथ्यात्वप्ररूपणमनुपयोगित्वात् / उच्यते मिथ्यादर्शनं खलु सम्यग्दर्शनप्रतिपक्षभूतं तदपि ज्ञातुमुचितंजावन्न तद्विपक्षतया ज्ञातं तावत्सम्यक्त्वे दाढ्यं भवति पूर्व सर्वजीवानां मिथ्यात्वमेव पश्चात्केषांचित्सम्यक्त्वमतः पूर्वं मिथ्यादर्शनमेवोचितं वक्तुमिति। तद् द्विविधं तद्यथा आभिग्राहिकमनाभिग्राहिक माभिग्राहिको नामकुदर्शनग्रहोयथा नास्ति जीवोऽनित्यो वा जीवः नास्ति वा परलोकइत्यादिरूपः अनाभिग्राहिकमसंज्ञिनामपि केषांचित् तथाविधज्ञानविकलानां यतो भव्या अपि केचनाक्रियावादिनोऽभव्याश्चापि भव्योऽक्रियावादी नियमात् कृष्णपाक्षिक एतल्लक्षणमेवमाहुः 'जेसिमवड्डो पुग्गल परियट्टो चेव होइ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु इयरे पुण कन्हपक्खिया / / 1 / / इति / क्रियावादी च निममाद्भव्य एव शुक्लपाक्षिकश्च / यतः "अंतो पुग्गलपरियट्टस्स णियमा / सिज्झिहित्ति" सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिा भवेत् अतो युक्तमादौतदुद्देशकरणमिति। तत्र क्रिया अस्तीत्येवंरूपा तां वक्तुं शालमस्येति क्रियावादी तद्विपरीतस्त्वक्रियावादी यतः ये त्वक्रियावादिनस्ते अस्तीति क्रियाविशिष्टमात्मानं नेच्छन्त्येव एवंविधो भवति वापिशब्दावनुक्तार्थसंग्राहकौ द्रष्टव्यौ। सपुनः कथंभूतो भवतीति दर्शयति (णाहियावादित्ति) नास्तिकवादादयो नास्त्यात्मा एवं वदनशीलो नास्तिकवादी एवं (नाहियपण्णेत्ति) नास्तिकप्रज्ञः प्रज्ञा हेयोपादेयरूपा तां नास्तीत्येवं वदनशीलो नास्तिकप्रज्ञः / प्रतिज्ञा वा निश्चयरूपोऽभ्युपगम एवं (नाहियदिट्ठित्ति) दृष्टिदर्शनं स्वमतमिति भावः (नो सम्मावादित्ति) न सम्यग्वादी मिथ्यादृष्टिरित्यर्थः ये यथावस्थितं भणन्ति ते सम्यग्वादिनः तद्विपरीतास्तु मिथ्यावादिनः (णो णित्ति यावदिति) नित्यो मोक्षो यत्र गतानां पुनरागमनादिनास्ति नित्यतयावस्थितिर्यत्रास्ति तनिषेधवादी।। अथवा नियतमनुष्ठान (णंसत्ति) परलोकाः स्वर्गनरकादयः तद्वादी स पुनरित्थं नास्ति वदति यथा नास्तीह लोकः इहेति अयं प्रत्यक्षः सोऽपि नास्ति यद् दृश्यते तत् भ्रान्तमन्यथा प्रतिभासते तथाभूतसमुदायेन जीवादिकमस्ति तच वस्तुतया प्रतिभास इति भ्रान्तिः। नास्तिपरलोकः कोऽर्थः परो नाम सुखदुःखोत्कृष्टभावसंयुक्तः सोऽपि नास्ति (णस्थि माता णत्थि पिता) इति कण्ठ्यं तन्निषेधमेवं ते कुर्वन्ति योऽयं मातृपितृव्यपदेशः स जनकत्वे कृतो जनकत्वाच्च यूकाकृमिगण्डोलकास्तथाश्रित्य स स्यान्न चैवं तस्मान्न वास्तवो मातृपितृव्यवहार इति (णस्थि अरहंतत्ति) अर्हन्तस्तीर्थकराः शेषपदत्रयं व्यक्तं (नरयत्ति) नरान् उपलक्षणत्वात्तिरश्चोऽपि तथाविधपापकारिणः कायन्ति आह्वयन्तीति नरकाः सीमन्तकादयः (णेरयियत्ति) निर्गत अय-मिष्टफलं कर्म येभ्यस्तेषु भवा नैरयिकाः "णत्थि सुक्कडे त्यादि'' नास्ति सुकृतदुष्कृतयोः फलवृत्तिविशेषः सुकृतं तपःप्रभृति दुष्कृतंजीवहिंसादि "नो सुचिण्णेत्यादि' न सुचीपर्णानि सुष्ठाचरितानि कर्माणि सुचीर्णफलानि इष्टफलसाधकानि भवन्ति एवमितरदपि नवरं व्यत्ययः अफले इत्यादि अयमात्मा अफलः फलवर्जितः क्वे त्याह कल्याणपापकवस्तुनि (णो पञ्चायतित्ति) न प्रत्यायान्ति जीवा गत्यन्तरसंभारेणेत्यर्थः (णत्थि णिरयादि) अत्रादिशब्दोपा-दानात् नारकास्तैरश्वा नरा देवाश्चत्वारो ग्राह्याः (णस्थि सिद्धित्ति) नास्ति न विद्यते सिद्धिर्नाम ईषत्प्राग्भारा मुक्तिलेति यावत् सेति स एवंवादी अनन्तरोक्तप्रकारवादी कथकः 'पण्णे दिट्ठीति' पूर्ववत् एवं (छंदरागे त्ति) छन्दः स्वाभिप्रायः रागो नाम स्नेहरागादिकसूत्राभिनिविष्टप्रत्यर्पितदृष्टिर्भवति (सेयत्ति) सो भवति अनन्तरवक्ष्यमाणस्वरूपो यथा "महिच्छे" इत्यादि महती राज्यविभवपरिवा-रादिसर्वातिशायिनीच्छान्तःकरणप्रवृत्तिर्यस्य स महेच्छः। तथा महानारम्भो वहनोष्ट्रमण्डलिकानां गन्त्रीप्रवाहकृषिषण्डपोषणादिको यस्य स महारम्भः यश्चैवंभूतः स महापरिग्रहः धनधान्यद्विपदचतुष्पदवास्तुक्षेत्रादिपरिग्रहवान् क्वचिदप्यनिवृत्तः अत एव धर्मेण चरतीति धार्मिकः न धार्मिकोऽधार्मिकः / तत्र सामान्यतोऽप्यधार्मिकः स्यादत आह (धम्माणुएत्ति) धर्म श्रुतचारित्ररूपमनुगच्छतीति धर्मानुगः / यद्वा धर्मे उक्तलक्षणेऽनुमोदनं यस्य सोधर्मानुज्ञस्तद्विपरीतस्तु अधर्मानुज्ञः। तथा (अधम्मसेवीत्ति) अधर्ममेव सेवितुं शीलमस्येत्यधर्मसेवी / तथा (अहम्मिटेत्ति) धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो वल्लभः पूजितो यस्य स धर्मिष्टः / अथवा धर्मिणामिष्टः / अथवा धम्मिष्ठः अतिशयेन धर्मी धमिष्ठः तन्निषेधादधर्मिष्टः अधमिठो वा यद्वा अमिष्ठो निस्विंशकर्मकारित्वादधर्मबहुलः अत एव (अहम्मक्खाईति) न धर्ममाख्यातीत्येवं शीलोऽधख्यिायी / अथवा न धर्माख्यायी अथवा अधर्मात् आख्यातिर्यस्य स अधख्यिातिः / तथा अधर्मरागी अधर्मे एव रागो यस्य सोऽधर्मरागी। तथा (अहम्मपलोइत्ति) न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयति यः सोऽधर्मप्रलोकी (अहम्मजीवित्ति) अधर्मेण जीवति प्राणान् धारयतीति अधर्मजीवी / तथा (अहम्मपलज्जणेत्ति) न धर्म प्ररज्यति आसजति यः सोऽधर्मप्ररञ्जनः। यद्वा अधर्मप्रापणीयेषु धर्मसु प्रकर्षण राज्यत इत्यधर्मरक्तः रलयोरैक्यमिति रस्य स्थाने लकारोऽत्र कृत इति / "कृचिदधम्मपज्जणे" इति पाठः तत्राधर्म प्रकर्षेण जनयति उत्पादयति लोकानुपयातीति अधर्मप्रजनः / तथा अधर्मशीलेति अधर्मशीलो ऽधर्मस्वभावः / तथाऽधर्मात्मकः समु Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1127- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 2 उवासगपडिमा दाचारो यत्किचनानुष्ठानं यस्य भवति स अधर्मशीलसमुदाचारोन धर्मात्किमपि भवति तस्यैवाभावादित्येवम् / तथा (अधम्मेण चेवत्ति) अधर्मेण चारित्रश्रुतविरुद्धरूपेण वृत्तिं जीविका कल्पयन् कुर्वाणो विहरत्यास्ते / यद्वा अधर्मेण सावद्यानुष्ठानेन दहनाङ्कननिर्लाञ्छनादिकेन कर्मणा वृत्तिर्वर्तनं कल्पयन् कुर्वाणो विहरतीति कालमतिवाहयति / यद्वा अधर्मेणैव वृत्तिं सर्वजन्तूनां यापनां कल्पयन् इति / पापानुष्ठानमेव लेशतो दर्शयितुमाह "हणेत्यादि" स्वत एव हननादिकाः क्रियाः कुर्वाणोऽपरेषामप्येवमात्मकमुपदेशं ददाति / तत्र हननं दण्डादिभिस्तत्कारयति तथा छिन्धिकर्णादिकं भिन्धि शूलादिना विकर्त्तकः प्राणिनामजिनाय नेता अत एव लोहितपाणिरियित्वा हस्तयोरप्यप्रक्षालनात् अत एव पापः पापकर्मकारित्वात् / चण्डस्तीवकोपावेशात् / रौद्रो निस्विंशकर्मकारित्वात् / क्षुद्रः क्षुद्रकर्मकारित्वात् / साहसिकः सहसा अविभृष्यैव पापकर्मणि प्रवृत्तत्वात् / स्वत एव परलोकभयाभावात् असमीक्षितकारी अनालोचितपापकारीति भावः / तथा उक्तं च वञ्चनं प्रतारणं तद्यथा अभयकुमारः प्रद्योतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः मायावञ्चनबुद्धिः प्रायो वणिजामिव / निकृ तिस्तु वकवृत्त्या कुकुटादिकरणेन दम्भप्रधानवणिकाश्रोत्रियसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थं मङ्गलकर्तकानामिवावस्थानं देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणम्। कूटमनेकेषां मृगादीनां ग्रहणाय नानाविधयोगकरणम् / अथवा कूटं कार्षापणं तुलाप्रस्थादेः परवञ्चनार्थं न्यूनाधिककरणं कपटं यथाऽऽषाढभूतिना नटेन वा परवेषपरावृत्त्याचार्योपाध्यायसंधाटकात्मार्थ चत्वारो मोदका अवाप्ताः। एतैरुद्वञ्चनादिभिः सहातिशयेन संप्रयोगो योगः तेन बहुलं यदि वा सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादीनामपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगः तेन बहुलोऽतिप्रभूतः। उक्तंच सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृता"सो होइसाइजोगो, दव्यं जत्थादि अन्नदव्वेसु। दोसगुणवयणेसु य, अत्थविसंवायणं कुणइ // 1 // इति संप्रयोगबहुलः / अपरे तु व्याख्यानयन्ति उक्तं च न नाम उक्तो वा निकृतिर्वचनप्रच्छादनकर्मसातिर-विजृम्भ, एतत्संप्रयोगबहुलः शेषं तथैव / एते चोत्कञ्चनादयो मायापर्यायाः यथेन्द्रशब्दस्य शक्रपुरन्दरादयः। पुनः किंभूताः (दुस्सीलेत्ति) दुष्ट शीलं स्वभावो यस्य स दुःशीलः दुष्परिचयश्चिरमुपचरितोऽपि क्षिप्रं विसंवदति / दुःखानुनेयो दारुणस्वभाव इत्यर्थः। तथा (दुव्वए) दुष्टानि वृत्तानि यस्य स तथा यथा मांसभक्षणव्रतकालसमाप्तौ प्रभूततरसत्वोपघातेन मांसप्रधानमन्यदपि नक्तभोजनादिकं तस्य दुष्टव्रतमिति। तथाऽन्यस्मिन् जन्मान्तरेऽहं मधुमद्यमांसादिकमभ्यवहरिष्यामीत्येवमज्ञानान्धो जन्मान्तरवि-धिद्वारेण स निदानमेव च तं गृह्णाति / तथा दुःखेन प्रत्यानन्द्यत इति दुष्प्रत्यानन्द्यः इदमुक्तं भवति तैरानन्दितेनापरेण केनिचत् प्रत्युपकारहेतुना गध्मिातो दुःखेन प्रत्यानन्द्यते / यदि वा सत्यु-पकारे प्रत्युपकारभीरु वानन्दति प्रत्युत शठतया उपकारे दोषमेवोत्पादयति। तथा चोक्तं "प्रतिकर्तुमशक्तिष्ठा नराः पूर्वोपकारि-णाम्। दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति मनामिव वारसा इति"। तथा निश्शीलो ब्रह्मचर्यपरिणामाभावात् / निर्घातो हिंसादिविरत्य-भावात् / निर्धातो हिंसादिविरत्यभावात्। निर्गुणो हितकारित्वा-दिगुणाभावात्। निर्मर्यादिः परिस्त्रीपरदारादिमर्यादाविलोपित्वात्। तथा अविद्यमान पौरुष्यादिप्रत्याख्यानसत्पदिनोपवासश्चेत्यर्थः। यत एवमतः साधुपापकर्मकारित्वात्। तथा यावत्प्राणधारणेन सर्वस्मात्प्राणातिपातादप्रतिविरतो | लोकनिन्दनीयादपि ब्राह्मणघातादेरविरत इति सर्वग्रहणम् / एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यावत् करणात् "सव्वातो मुसावायातो अपडिविरया इत्यादि" पदकदम्बकपरिग्रहः। तत्र सर्वस्मादपि कूटसाक्ष्यादेरप्रतिविरत इति। तथा सर्वस्मात् स्त्रीवालादेः परद्रव्यादपहरणादविरतः। तथा सर्वस्मात्परस्त्रीगमनादेमैथुनादविरतः एवं सर्वस्मात्परिग्रहाद्योनिपोषकादप्यविरतः। एवं सर्वेभ्यः क्रोधमानमायालोभेभ्योऽप्यविरतस्तथा प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादारतिरतिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्यादिभ्योऽसदनुष्ठानेभ्यो यावद्भ्यः प्रतिविरतो भवतीतितत्र प्रेमानभिव्यक्तमायालोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रं प्रेम। द्वेषोऽनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपाप्रीतिमात्रं द्वेषः, कलहोराटिः अभ्याख्यानमसद्दोषारोपणम्, / पैशून्यं प्रच्छन्नमसदोषाविष्करणम्,। परपरिवादो विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम्। अरतिरती अरतिर्मोहनीयोदयाचित्तोद्वेगः तत्पुना रतिर्विषयेषु मोहनीयोदयाचित्ताभिरतिः अरतिरती माया तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः। अथवा वेषान्तरकरणेन वायत्परवञ्चनं तन्माया। मषेति मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिबन्धनत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति / तथा सर्वस्मात् स्नानोद्वर्तनाभ्यञ्जनवर्णककषायद्रव्यसंयुक्ततया विलेपनशब्दस्पर्शरसरूपगन्धमाल्यालङ्कारात् कामाङ्गात् मोहजनितादप्रतिविरतो यावजीवमिति / अत्र स्नानादयः शब्दाः प्रसिद्धाः नवरं वर्णकग्रहणेन वर्णविशेषापादकलोध्रादिकं परिगृह्यते। ननुपूर्वं तावत् अभ्यङ्गः पश्चात् उन्मईनं युज्यते पश्चाच स्नानं ततः कथमादौ स्नानोपन्यासः उच्यते यद्यपि अनुक्रम एवमेव परं कोऽपिकदाचिदभ्यङ्गमन्तराऽपि स्नानं कुर्वन् पृष्टिसंवाहनादि कारयति तेन न व्यत्ययो दोषावह इति / गन्धाः कोष्टपुटादयः माल्यानि ग्रथितदामानि अलङ्काराः केयूरादयः तथा सर्वतः शकटरथादेर्यानविशेषादिप्रविस्तरविधिपरिकररूपात् परिग्रहादप्रतिविरत इति / इह च शकटरथादिकमेव यानं शकटरथयानं युग्यपुरुषोत्क्षिप्तमाकाशयानं (गिल्लित्ति) पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता गिल्लिका (थिल्लित्ति) वेगसरादिद्वयविनिर्मितो यानविशेषस्तथा (सीयत्ति) शिविका विलाटानां यत् अदुपभ्राणं रूढं तदन्यविषयेषु पिल्लिरित्युच्यते यद्वा तथा शिविका नाम कूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः / तथा (संदभा-णियत्ति) शिविका विशेष एव पुरुषायामप्रमाणो जम्पानानि पर्यादीनि आसनानि गद्दिकादीनि यानानि वाहनानि च पूर्वोक्तान्तः पातीन्येव वेदितव्यानि / अथवा यानानि नौकादीनि वाहनानि वेसरादीनि भोजनमोहनादिरूपं प्रविस्तरो नाम गृहोपस्कार इति तथा अश्वहस्त्यादिपदानि व्यक्तानि नवरंदास आमरणं क्रयक्रीतः। कर्मकरो लोकहितादिकर्मकरः / पौरुषं पदातिसमूहः। तेभ्योऽप्यप्रतिविरतो यावज्जीवायेति। एतदेवमन्यस्मादपि वस्त्रादेः परिग्रहादुपकरणभूतादविरतस्तथा सर्वतः क्रयविक्र याभ्यां करणभूताभ्यां यो मासकार्धमासकरूपकार्षापणादिभिः पण्यविनिमयात्मकः संव्यवहारस्तस्मादप्यविरतो यावजीवायेति / तथा सर्वस्मात्सर्वतः हिरण्यसुवर्णधनधान्यमणिमौक्तिकशनशिलाप्रवालेभ्योऽन्यप्रतिविरतो यावजीवायेति। तत्र हिरण्यं रूप्यमघटितस्वर्ण मित्येक सुवर्ण घटित धनं गणिमादिचतुर्धा तद्यथा "गणिमं जाई फलपूगफलाइ धरिमं तु कुंकुमगुडाई। मजं वोप्पडलोणाइ रयणवच्छाइ परिच्छिनं / / 1 / / धान्यं चतुर्विशतिधा यवशाल्यादि मणयो वैडूर्य चिन्तामणिप्रभूत Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा ११२८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा यो, मौक्तिकानि, प्रतीतानि, शङ्खा दक्षिणावर्तादयः शिलाप्रवालानि | निर्गच्छति शूलाभिन्नं मध्ये विध्यते क्षारान्तिकं नाम शस्त्रेण छित्वा विद्रुमाणि, / अन्ये चाहुः / शिला राजपट्टादिरूपाः प्रवालं विद्रुम- लवणक्षारादिभिः सिच्यते दर्भवर्तितं दर्भण शरीरविकर्त्तनं सिंहपुच्छे मेतेभ्योऽप्यप्रतिविरतो जावजीवायेति / तथा कूटमानादविरतस्तथा बन्धनं कटाग्निदग्धं कटान्तर्वेष्टयित्वाऽग्निना दह्यते काकनिमांसानि सर्वतः सर्वस्मात् आरम्भसमारम्भात् तत्रेमौ द्वावपि त्रिप्रकारौ तद्यथा कर्तयित्वा खाद्यते अभ्यन्तरेण भक्तपान विधं मिममन्यतरेणाशुभेन मानसिकवाचिककायिकभेदात् तत्र मानसिको मन्त्रादिध्यानं परमारणे कुत्सितमारेण व्यापादयत यूयम्। याऽपि चक्रूरकर्मवतोऽभ्यन्तरा पर्षद् हेतोः प्रथमः तथा समारम्भः परपीडाकरोचाटनादिनिबन्धनध्यानं भवति तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पोमातापितृसुहृत्स्वजनादिभिः वाचिको यथा आरम्भः परव्यापादनक्षमक्षुद्रविद्यादिपरावर्तनासंकल्प- सार्द्ध परिवसंस्तेषांचमातापित्रादीनामन्यतमेनानाभोगतया यथाकथसूत्रको ध्वनिरेव।समारम्भः परपरितापकरमन्त्रादिपरावर्त्तनम्। कायिको चिल्लघुतमेऽप्यपराधे वाचिके दुर्वचनादिके तथा कायिके हस्तयथा आरम्भोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं समारम्भः परितापकरो पादादिसंघट्टनरूपे कृते सति स्वयमेवात्मना क्रोधाध्मातो गुरुतरं दण्डं मुष्ट्या अभिघातः। तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्यादेर्यत्स्वतः करणं अन्येन दुःखोत्पादकं वर्त्तयति करोति / तद्यथा शीतोदकविकटे प्रभूते शीते वा व यत्किंचित्कारयति तस्मादविरतः उपलक्षणमनुमतेरप्येतत् तथा शिशिरादौ तस्यापराधकर्तुः कायमधो बोलयिता भवति / पचनपाचनतोऽप्यप्रतिविरतः / तथा सर्वतस्सर्वस्मात् कुट्टनपिट्टनत- तथोष्णोदकविकटेन कायं शरीरमपसिञ्चयिता भवति / तत्र विक-- जनताडनयायः परिक्लेशःप्राणिनां तस्मादप्यप्रतिविरतः। सांप्रतमुप- टग्रहणादुष्णतैलेन काञ्जिकादिना वा कायमुपतापयिता भवति / संहरतियेचान्ये तथा प्रकाराःपरपीडाकारिणः सावद्याः कर्मसमा-रम्भा तथाऽग्निकायोल्मुकेन तप्तायसा वा कायमुपदाहयिता भवति / तथा अबोधिका बोध्यभावकारिणस्तथा परप्राणपरितापनकरा गोग्रहवन्दी- योत्रेण वा वेत्रेण वा खङ्गेन वा नेत्रोवृक्षविशेषस्तेन त्वचा वल्कल तया ग्रहग्रामघातात्मका येऽनार्यः क्रूरकर्मभिः क्रियन्ते ततोऽप्रतिविरता वाऽन्यतमेनवा दवरकेण ताडनतस्तस्याल्पापराधकर्तुः शरीरपााणि यावज्जीवमिति / पुनरन्यथाबहुप्रकारमाधाकर्मिकप-दप्रतिपिपादयिषु- उद्दालयितुं भवति चर्माणि लुम्पयितुं भवति। तथा दण्डनयष्ट्यादिना वा राह 'सेजहाणामए इत्यादि तद्यथेत्युपदर्शनार्थम्। नामशब्दःसंभावनायां अस्थ्ना वा लेलुना वा लोष्ठेन वा मुष्ट्या वा कपालेन वा अपरेण वा कार्य संभाव्यतेऽस्मिन्विचित्रे संसारेकेचनैवंभूताः पुरुषाः ये कलमसूरतिलमुद्ग- शरीरभाकुट्टयिता उपताडयिता भव-ति अत्यर्थं कुदृयिता वा माषनिष्पावकुलत्थाऽऽलिसिन्दकसन्तानानुपरिमन्थकादिषुपचनपाच- तदेवमल्पापराधिन्यपि महाक्रोधदण्डं वर्तयति तथाप्रकारे पुरुषजाते नादिक्रियया स्वपरार्थमयतः अयन्न वचननिक्षेपः। तत्र कला वृत्तचनकाः एकत्र वसति तत्सहवासिनो मातापित्रादयो दुर्मनसस्तदनिष्टाशङ्कया मसूराश्चनकाः। तिलमुद्माषाः प्रतीताः। निष्पवा वल्ली कुलत्थाः भवन्ति मारिदर्शने भूषिकावत्तस्मिश्च प्रवसिते देशान्तरं गच्छति गते चपलकसदृशाश्चिप्पिटका भवन्ति / आलि सिन्दकाः सतानानुपरि- वा तत्सहवासिनो हि सुमनसो भवन्तितएवं यथा माजरि प्रवसिते मूषका मन्थकाः क्ररो मिथ्यादण्डस्तं प्रयुञ्जति मिथ्यैवानपराधिष्वेव विश्वस्ताः सुखेन विचरन्ति एवं तस्मिन् प्रवसिते पौराः प्रातिवेश्मिकाः दोषमारोप्य दण्डो मिथ्यादण्डस्तं विदधाति। तथाएवमेव प्रयोजनं विनैव स्वजनादिकाः सर्वे वाऽन्यो लोको विश्वस्तः स्वकर्मानुष्ठायी भवति / तथा प्रकारः पुरुषो निष्करुणो.जीवोपघातनिरतः तित्तिरवर्तकलाव- तथा प्रकारश्चपुरुषजातोऽल्पेऽप्यपराधेमहान्तंदण्डं कल्पयतीति। एतदेव ककपोतककपिञ्जलमृगमहिषवराहगोगोणकूर्मसरीसृपेषु जीवनप्रियेषु दर्शयितुमाह। तथा प्रकारः सदण्डो मृषादण्डेनामर्षी लोकोऽपि भणति प्राणिध्वयतः क्रूरकर्मा मिथ्यादण्डं प्रयुञ्जति तस्य च क्रूरबुद्धेर्यथा राजा तथा अमुको वराको राज्ञा कारागारे क्षिप्तो दण्डित इत्यर्थः दण्ड-पासीति तथा प्रजा इति प्रवादात् परिवारोऽपि तथाभूत एव तेषु प्राणिष्ययतः वा पाठस्तत्र दण्डस्य पार्श्व दण्डपार्श्व तद्विद्यते यस्यासौ दण्डपार्श्वः क्रूरकर्मा मिथ्यामतिरिति / तथा दर्शयितुमाह। (जा विया से इत्यादि) स्वल्पतया स्तोकापराधेऽपि कुप्यति दण्डं च पातयति तमप्यतिगुरुपापिनी च तस्य बाह्या पर्षद्भवति। तद्यथा दासः स्वदासीसुतःप्रेष्यो हि कमिति दर्शयितुमाह। दण्डगुरुको यस्यच दण्डो महान् भवत्यसौदण्डेन प्रेषणयोग्यो भृत्यादिश्यो भृतको वेतनेनोदकाद्यानयनविधायी / तथा गुरुर्भवति। तथा दण्डपुरस्कृतः सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः स चैवंभूतः भागिको यः षष्ठांशादिलाभेन कृष्यादौ व्याप्रियते / कर्मकरः प्रतीतः। स्वस्य परेषाञ्चास्मिल्लोकेऽस्मिन्नेव जन्मन्यहितः प्राणिनामहितदण्डोतथा नायकश्चितः कश्चिद्भोगपरस्तदेवं ते दासादयोऽन्यस्यलघावप्यप- पादानात् / तथा परस्मिन्नापि जन्मन्यसावहितस्तच्छीलतया चासौ राधे गुरुतरंदण्डं प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्तिचासच नायकस्तेषांदासादीनां येषाञ्चिदेव येन केनचिन्निमित्ते मनसाऽन्येषां दुःखमुत्पादयति तथा बाह्यपर्षद्भूतानोमन्यस्मिन् यथा लघवप्यपराधे शब्दाश्रवणादिके गुरुतरं नानाविधैरुपायैस्तेषां शोकमुत्पादयति शोकयतीत्येवं जूरयति गर्हति दण्डं वक्ष्यमाणं प्रयुक्तेतद्यथा इमंदासंप्रेष्यादिकंसर्वस्वापहारेण दण्डय तृप्यति सुखाच्च्यावयत्यात्मानं परांश्च / तथा स यराकोऽपुष्टधा तमित्यादिपाठसिद्धं नवरम् / (अपुट्ठवाहुबंधणंति) अपुष्टा बाहुबन्धनं सहानुष्ठानैः स्वतः पीड्यते परांश्च पीडयति। तथा स पापेन कर्मणा निगडानि प्रतीतानि हडिरिति काष्ठघोटकः चारको वन्दीप्रभृतीनामक- परितप्यते दह्यते परांश्च स तापयति / तदेवमसावसद्दण्डी सन् स्थानार्थं गृहविशेषः इमं निगडयुगलेन संकोचितं संकोचकरणेन दुःखेन शोकेन जूरणतर्पणपीडनो हि प्राणिनां बहुप्रकारपीडोत्पाह्रस्वीकुरुत मोटितमङ्गभङ्गेन मुखे मध्यवेधः शरीरस्यासिप्रभृतिकेन दक तया वधबन्धपरिक्ले शादप्रतिविरतो भवति स च (विच्छेउत्ति) ब्रह्मसूत्राद्याकारेण छेदनं जीवित एव हृदयोत्पाटनं विषयासक्ततयैतत्करोति तदर्शयितुमाह "एवमेवेत्यादि" एवमेव हृदयमध्यमांसकर्तनम्। (ओलंवितंति) अवलम्बितं कूपपर्वतनमदी- पूर्वोक्तस्वभाव एव स निष्कृपो निरनुक्रोशो बाह्याभ्यन्तरपर्षदोरपि प्रभृतिषु उल्लम्बितं वृक्षादिषु धर्षितं करीषादिना घोलितं रसनिष्कास.. कर्णनासावकर्तनदण्डपातनस्वभावः। स्त्रीप्रधानाः कामाः स्वीकामाः नार्थमाम्रवत् शूलाप्रोतं शूलिकारोपितं गुदे प्रोता सती शूली वदने | यदि वा स्त्रीषु मदनकामविषयभूतासु कामेषु चशब्दादिच्छाकामेषु Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1129 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा मूर्छितः गृद्धो ग्रथितः अध्युपपन्नः एते च शक्रपुरंदरादिवत्पर्यायाः कथञ्चिदभेदं वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः। एतच्च स्त्रीपुंशब्दादिषु च प्रवर्तनं प्रायः प्राणिर्बद्धस्पृष्टप्रकारादिभिर्बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थानि विधाय तेन च संभारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणस्तत्र कर्मगुरुर्नरकतलप्रविष्टानो भवतीति। अस्मिन्नेवार्थे सर्वलोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह (से जहा णामए इत्यादि) तद्यथा नामायोगोलकोऽयः पिण्डः शिलागोलको वृत्ताश्मशकलं वोदके प्रक्षिप्तः समानसलिलतलमतिवातिलच्याधोधरणितलप्रतिष्ठानो भवति / अधुना दार्शन्तिकमाह / "एवमेवेत्यादि' यथाऽसावयोगोलको वृत्तत्वात् शीघ्रमेवाधो यात्येवमेव तथा प्रकारः पुरुजातस्तमेव लेशतो दर्शयति वज्रवद् वजं गुरुत्वात् कर्म तद्रहुलस्तत्प्रचुरो वध्यमान-कर्मगुरुरित्यर्थः / तथा धूयत इति धूनं प्रारबद्धं कर्म तत्प्रचुरः पुनः सामान्येनाह (पंकयतीत्ति) पकं पापं तबहुलस्तथा तदेव कारणतो दर्शयितुमाह। वैरबहुलो वैरानुबन्धप्रचुरस्तथाऽप्यतियन्ति मनसो दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानस्तथा दम्भो मायया परवञ्चनं तदुत्कटः / तथा निकृतिर्मायावेषभाषापरावृत्तिच्छद्मना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः। तथा (सातिबहुल इति) सातिशयेन द्रव्येण परस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तद्हुलस्तत्करणप्रचुरस्तथा क्वचित् आसायणबहुलेति पाठः तत्राशातना पूर्वोक्तार्थो पाठसिद्धा तया बहुलोऽतिप्रचुरत्वादश्लाघ्योऽसवृत्ततया निन्दाशया रत्नप्रभादिकायास्तलमतितिष्ठति / परापकारभूतानि काण्यनुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषुच कार्मसुकरचरणच्छेदनादिष्वयशोभाग् भवति स एवंभूतः पुरुषः (कालमासेत्ति) स्वायुषः क्षये कालं कृत्वा पृथिव्याः रत्नप्रभादिकायास्तलमतिवर्त्य योजनसहस्रपरिमाणमतिलय नरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति। नरकस्वरूपप्ररूपणयाह।"तेणमित्यादि" णमिति वाक्यालङ्कारे ते नरकाः सीमन्तादयः बाहुल्यमङ्गीकृत्यान्तर्मध्यभागे वृत्ताकाराः बहिगि चतुरस्राकाराः इदंच पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्योच्यते सकलपीठाद्यपे-क्षया त्वावलिकाप्रविष्टा वृत्तास्त्र्यस्रचतुरस्रसंस्थानाः पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थानां प्रतिपत्तव्याः (अहेखुरस्य संठाणा संठियाइत्ति) अधो भूमितले क्षुरप्रस्येव प्रहरणविशेषस्य यत्संस्थानमाकारविशेषस्तीक्ष्णमालक्षणस्तेन संस्थितास्तथाहि तेषु नरकावासेषु भूमि तले मसृणत्वाभावतः शर्कराप्रचुरेभूभागे पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करामात्रसंस्पर्शऽपि क्षुरप्रेणेव पादाः कृत्यन्ते (निचंधयारतमसा इत्ति) तमसा नित्यान्धकाराः उद्योताभावतो यत्तमस्तदिह तम उच्यते तेन तमसा नित्यं सर्वकालमन्धकाराः तत्राप्यवर्गादिष्वपि नामान्धकारोऽस्ति केवलं बहिः सूर्यप्रकाशेमन्दतमो भवति नरकेषुतीर्थकरजन्मदीक्षादिकालव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमपि उद्योतलेशस्याभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छ-नकालार्द्धरात्र इव चातीव बहलतरोवर्ततेतत उक्तं तमसा नित्यान्धकाराः तमश्च तत्र सदाऽवस्थितमुद्योतकराणामसंभवात् / तथा चाह / "ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा" व्यपगतः परिभ्रष्टो ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्ररूपाणामुपलक्षणमेतत् तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था मार्गो येभ्यस्ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपथाः तथा पुनरप्यनिष्टोपादानार्थ तेषामेव विशेषणमाह / "मेयवसेत्यादि'' दुष्कृतकर्मकारिणां तेषां दुःखोत्पादनायैवंभूता भवन्ति / तद्यथा स्वभावसंपन्नैर्मेदोवसामांसरुधिरपूयादीनां पटलानि सङ्घास्तैर्लिप्तानि पिच्छिलीकृतान्यनुलेपन प्रधानानि येषां ते तथा अथवा मेदोवसामांसरुधिरपूतिपटलैर्थचिक्खल्लं कर्दमस्तेन लिप्तमुपदिग्धमनुलेपनेन सततलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं भूमिका येषां ते मेदोक्सालिप्तरुधिरमांसचिक्खल्ललिप्तानुलेपनतलाः अत एवाऽशुचयो विष्ठासृक्क्लेदप्रधानत्वात् अत एवंविधाः कुथितमांसादिकल्पकर्दमविलिप्तत्वात्क्वचित् 'वीभच्छा' इति पाठः तत्र वीभत्सा दर्शनेऽप्यतिजुगुप्सोत्पत्तेः / एवं परमदुरभिगन्धाः कुथितगोमायुकलेवरादप्यसह्यगन्धकाः। (अगणिवण्णाभा इति) लोहे धम्यमाने यादृक्कपोतो बहुकृष्णरूपायोवर्णः। किमुक्तं भवति यादृशी बहुकृष्णवर्णरूपा अग्निज्वाला निर्गच्छतीति तादृशी आभा आकारो येषां ते कपोताग्निवर्णाभाः धम्यमानलो-हाग्निज्वालाकल्पा इति भावः / तारकोत्पत्तिस्थानातिरेके णान्यत्र सर्वत्राप्युष्णरूपत्वात् एतच षष्ठसप्तमपृथिवीवर्जमवसे यम् / यत उक्तम् / 'छट्टसत्तमीसुणं काऊअगणिवण्णाभा न भवंति" एतादृशास्ते रूपतः / स्पर्शतस्तु कर्कशाः कठिना वज्रकण्टकासिपत्रस्येव स्पर्शा येषां ते। तथा अत एव (दुरहियासा इति) दुःखेनाध्यासन्ते सह्यन्ते इति दुरध्यासाः किमिति यतस्ते नरकाः पञ्चानामपीन्द्रियार्थानामशोभनत्वादशुभाः तत्र सत्वानामशुभकर्मकारिणामुग्रदण्डपातिनां वज्रप्रचुराणां तीव्रा अतितिव्रा अतिदुःसहा वेदनाः शरीराः प्रादुर्भवन्ति तया च वेदनया अभिभूतस्तेषु नरकेषु तेनारका नैवाक्षिनिमेषमपि कालं निद्रायन्ते नाप्युपविष्टाद्यवस्थामक्षिसंकोचरूपामीषन्निद्रामवाप्नुवन्ति / श्रुतं विशेषज्ञानरूपं रतिंचित्ताभिरतिरूपां धृतिं विशिष्टसत्वरूपांमतिं वेशेषबुद्धिरूपां नोपलभन्ते नोवंभूतवेदनापीडितस्य निद्रादिलाभो भवतीति दर्शयतितामुज्ज्वला तीव्रामनुभवेनोत्कटाम् / (तितुलंति) त्रीनपि मनःप्रभृतिकान् तुलयति जयति तित्रितुला तां क्वचिद्विपुलामित्युच्यते तत्र सकलकायव्यापकत्वाद्विपुलाम्। (पगादति) प्रकर्षवर्तिना (कक्कसंति) कमशद्रव्यमिव कर्कशां दृढामित्यर्थः (कदुयंति) कदुकां नागरादिवत् सकटुकामनिष्टामेव (चंडति) चण्डां रौद्राम् (तिव्वंति) तीब्रां निक्तनिम्बादिद्रव्यमिव तीव्राम् (दुक्खंति) दुःखहेतुकाम् (दुग्गंति) कष्टसाध्याम् (दुरहियासंति) दुरधिसह्या वेदयन्तो विचरन्ति / अयं तावदयोगोलकपाषाणदृष्टान्तः शीघ्रमधोनिमज्जनाप्रतिपादकः प्रदर्शितोऽधुना शीध्रपातार्थप्रतिपादकमेवापरं दृष्टान्तमधिकृत्याह"से जहाणामए इत्यादि" तद्यथा नाम कश्चिदृक्षः पर्वताये जातो मूले छिन्नः शीघ्रं यथा निम्नं पतत्येवसावप्यसाधुकर्मकारी तत्कर्म वातेरितः शीघ्रमेव नरके पतति ततो नरकादप्युद्धृतो गर्भादर्भमवश्यं याति / एवं जन्मतो जन्म मरणान्मरणं नरकान्नरकं दुःखाद् दुखं दुखात् शरीरमानसोद्भवात् दुःखं समाप्नोति (दाहिणत्ति) दक्षिणस्यां दिशिगमनशीलो दक्षिणगामुकः / इदमुक्तं भवति यो हि क्रूरकर्मकारी साधुनिन्दापरायणः सद्दाननिषेधकस्स दक्षिणगामुको भवति दाक्षिण्यात्तेषु नारकतिर्यङ्मनुष्यामरेषु उत्पद्यते तादृग्भूतश्चायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्तम्। इदमेवाह (णेरएइत्यादि) नरकेषु भवो नारकः कृष्णपक्षोऽस्यास्तीति कृष्णपाक्षिकस्तथाऽऽगामिनि काले नरकादुद्द्तो दुर्लभबोधिकश्चये च बाहुल्येन भवति / इदमुक्तं भवति दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिगप्रशस्ता गतिषु नरकगतिः पक्षतः कृष्णपक्षस्तदस्य विषयान्धस्योन्द्रियामुक्ततलवर्तिनः परलोकनिःस्पृहमतेः साधुप्रद्वेषिणो दानान्तरायविधायिनो दिशमप्रशस्तां प्राप्नोति एवमन्यदपि यादृगप्रशस्तं तिर्यग्गत्यादिकमबोधिलाभादिकं च Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा तद्योजनीयमस्येति न तस्य किंचित्राणं भवति / एवं मिथ्यात्वयुक्तजीववर्णनमुक्त्वा यदा कदाचित् सम्यक्त्वमाप्नोति तदा यादृशः स्यात् तथाह (सेत्तमित्यादि) स क्रियावादी वाऽपि भवति यथा पूर्वव्याख्यातंतथोत्तरत्रापि व्यत्ययेन व्याख्येयम्। एवं यदा स आस्तिको भवति तदा स सम्यग्दृष्टिर्भवतियावदुत्तरगामुकः शुक्लपाक्षिको देवादिषु उत्पद्यते आगामिनि काले च सुलभधर्मप्रतिपत्तिर्भवति स क्रियावादी सत्यधर्मरुचिश्चापि भवति सद्भ्यो हितः च चासौ धर्मः क्षान्त्यादिकस्तद्रुचिरित्यर्थः / क्वचित् "सच्चधम्मरुईत्ति" पाठः / तत्र धर्मः स्वभाव इत्यनान्तरं जीवाजीवयोर्यस्य तद्रूपस्य गतिः स्थित्यवगाहनादिका। अथवा सर्वे धर्माः आज्ञाग्राह्याः हेतुग्राह्यश्च तान् श्रद्धत्ते सम्यक्तया मन्यते परं तस्य णमिति वाक्यालंकारे (बहूई सीलव्वयेत्यादि)शीलव्रतान्यणुव्रतानि गुणव्रतानि विरमणानि औचित्येन रागादिनिवृत्तयः प्रत्याख्यानानि पौरुष्यादीनि पौषध अवश्यतया पर्वदिनानुष्ठानंतत्रापवासोऽवस्थानं पौषधोपवासः एषांद्वन्द्वएतेनो निषेधे सम्यग् यथा भवन्ति तथा प्रस्थापिता भवन्ति न स्वचेतसि नियततया कर्त्तव्यत्वेन व्यवस्थापिता भवन्ति / एवमनुना प्रकारेण दर्शनश्रावको भवति / दर्शनं नाम सम्यक्त्वं तदाश्रित्य श्रावको भवति / ननु तथाविधविरतिं विना कथं श्रावको भवति उच्यते वस्तुव्रतान्यपि न सम्यक्त्वं विना भवन्ति यतः "नत्थि चरित्तं सम्मत्तवज्जियं" इत्यादि वचनात्। सम्यक्त्वं व्रतमेव अथवा सम्यक्त्वं तु पञ्चसंव-रद्वाराणामाद्यं संवरद्वारं ततः सम्यक्वे श्रावको भवत्येवेति मात्र संशयः।इदं च सम्यक् श्रद्धानरूपा प्रथमा आद्या उपाशकप्रतिमा दशा०६ अ० आ०चूला अथ दर्शनप्रतिमास्वरूपनिरूपणायाह। दारं दंसणधो अविच्छेदः शुभानुबन्धः सोऽस्यास्तीति शुभानुबन्धी। तथा निरतिचारः शङ्काकासादिदर्शनातिक्रमरहित इति तदेवमितो ग्रन्थात् दर्शनप्रतिपत्तिमात्रं निरतिचारसम्यक्त्वसद्भावावधिकं प्रतिमेत्यवसीयते। उपासकदशासु पुनरानन्दादीनां प्रतिमाकारिश्रावकाणां पूर्व प्रतिपन्नदर्शनव्रतानां प्रतिमैकादशकस्य प्रतिपत्तिर्वर्णिता तत्प्रमाणं च सार्द्ध वर्षपञ्चकमित्यतोऽनुमीयते दर्शनप्रतिपत्तिमात्रादतिरिक्तस्वभावा सा तदतिरेकश्वेह राजाभियोगाद्याकारषट्कवर्जनं यथावत्समग्रदर्शनाचारपालनादिभिः संभाव्यते कालमानं चास्यामेको मासो यत एकादिकयैकोत्तरया वृद्ध्यैकादशसु प्रतिमासु यथोक्तं कालमानं भवतीति गाथार्थः / अथ दशाश्रुतस्कन्धादिषु प्रतिमाशब्दोऽभिग्रहार्थो व्याख्यातः। इह पुनः कस्मात्तद्व्याख्यानत्यागेन शरीरार्थो व्याख्यात इत्याशङ्क्याह / वोंदी य एत्थ पडिमा, विसिट्टाणजीवलोगओ भणिया। ता एरिसगुणजोगा, होउसोक्खावणस्थित्ति॥७॥ वोन्दिश्च तनुः पुनरत्र प्रकरणे ग्रन्थान्तरे त्वभिग्रहः प्रतिमा प्रतिमेति शब्देन भणितोक्ता किमर्थमिति चेदुच्यते विशिष्टगुणः संसाराभिनन्दिसत्वापेक्षया मार्गादिसुखादिः स चासौ जीवलोकश्च सत्वलोको विशिष्टगुणजीवलोकस्तस्मात्सकाशात् शुभसुप्रशस्त एव संदर्शनप्रतिमावानिति ख्यापनार्थमेतत्प्रतिपादनायेति। कुतः पुनः स शुभ इत्याह। तयेदृशगुणयोगात्तया वोन्द्या हेतुभूतया य ईदृशगुणयोगः प्रागुक्तदर्शनप्रतिमागुणसंबन्धस्तस्मात्तवेदृशगुणयोगादित्येतस्य संस्कृतस्यच स्थाने "ता एरिसगुणयोगा'' इति प्राकृतं न विरुद्धमेवं विधप्रयोगाणामनेकशो दर्शनादिति / इदमुक्तं भवति / आस्तिक्यगुरुदेववैयावृत्त्यनियमादि भिर्गुणैर्गुणिलोकात् शुभतरः प्रतिमागुणवांस्तत्सूचकाय क्रियारूपास्तदभिव्यङ्गाश्च वर्तन्ते ततस्तेषां तदभिव्यक्तेश्च वोन्दिहेतुकत्वात् वोन्दिमतः प्रतिमावतः प्राधान्यमिति ख्यापनाय वोन्दीप्रतिमेत्युक्तमिति गाथार्थः। एवं तावदर्शनप्रतिमाशब्दस्याभिधेयमभिधाय शेषप्रतिमासु तदतिदेश व्रतप्रतिमास्वरूपं चाह। एवं वयमाईसु वि, दट्ठव्वमिणं तिणवरमेत्थ वया। घेप्यं नणुष्वया खलु,थूलगपाणवहविरयादी॥८|| एवमनेनैव प्रकारेण दर्शनप्रतिमोक्तेन व्रतादिष्वपि व्रतसामायिकप्रभृतिषु सर्वप्रतिमासुन केवलं दर्शनप्रतिमायामेव द्रष्टव्यमवसेयम्। इदं च प्रतिमाशब्दस्याभिधेयमितिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ एवमतिदेशद्वारेण सामान्यतो व्रतादिप्रतिमा व्याख्याय विशेषव्याख्यानार्थमाह / नवरं केवलमत्र व्रतप्रतिमायां व्रतान्यनिग्रहाः (घेप्पंति ति) गृह्यन्ते आद्रियन्ते अणुव्रतानि खलु देशमूलगुणा एव खलुरवधारणे किं स्वरूपाणि तानीत्याह स्थूलकप्राणवधविरत्यादीनि असूक्ष्मसत्वहिंसाविरमणप्रभृतीनीत्यादिशब्दात् स्थूलक मृषावादविरत्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः / अथ तानि यदा भवन्ति तत्स्वरूपाणि चेत्येतद्दर्शनार्थमाह। सम्मत्तोवरि ते सेस-कम्मुणो अवगए पुहत्तम्मि। पिलियाणं होति णियमा, सुहाय परिणामरूवाउक्षा सम्यक्त्वोपरि सम्यक्त्वलाभकालस्यार्द्ध ते इति तान्यणुव्रतानि शेषकर्मणः सम्यक्त्वलाभकाले यत् क्षपितं तदपेक्षया शेषस्य देशोनसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणस्य मोहनीयादिकर्मस्थितिबन्ध-- लक्षणस्यापगते क्षीणे पृथक्त्वे द्विप्रभृतिकेन चान्ते संख्याविशेषे केषामित्याह / पल्यानां पल्योपमानां भवन्ति जायन्ते नियमादवश्यतया। तथा शुभात्मपरिणामरूपाणि तु प्रशस्तजीवाध्यवसायस्वभावान्येव क्षायोपशमिकत्वादिति गाथार्थः / __ तेषां शुभात्मपरिणामस्वरूपत्वादेव यत्स्यात्तदाह / बंधादि असक्किरिया, संतेसु इमेसु पहवइण पायं / अणुकंपधम्मसवणा-दिया उपहवति विसेसेण / / 10|| बन्धादिर्बन्धविच्छेदप्रभृतिरसत्क्रिया अशोभना चेष्टा प्रतिव्रतमतिचारपञ्चकरूपा सत्सु विद्यमानेष्वणुव्रतेषु प्रभवति जायते।नचैवं प्रायो बाहुल्येन प्रमादादिना कदाचित्स्यादप्रीतिः प्रायोग्रहणमनुकम्पाधर्मश्रवणादिकानुजीवदयाधर्मशास्त्राकर्णनप्रभृतिका पुनः क्रियेति प्रकृतं प्रभवति जायते / विशेषेण सुतरां दर्शनप्रतिमापेक्षया व्रतमात्रापेक्षया चेति। तदेवं व्रतप्रतिमा निरतिचारपञ्चाणुव्रतपालनरूपा उपासकदशाभिप्रायेण चार्थापत्तेर्लभ्यते मासद्वयमानेनातोऽन्यत्र व्रतमात्रमेवेति गाथार्थः। पंचा० 10 विवा सांप्रतं द्वितीयप्रतिमास्वरूपमुच्यते। अहावरा दोचा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुईया वि भवति तस्स णं बहूई सीलव्वयगुणव्वयवेरमणपोसहोववासाई पट्ठ-विताई भवंति से णं सामाइयदेसावकासियं णो सम्मं पालित्ता भवति दोचा उवासगपडिमा॥२॥ अथेत्यानन्तर्ये अपरा अन्या उवासगेत्यादि व्यक्तं शीलवतादीनि च प्रस्थापितानि भवन्ति एतावता विरतिमान् भवति परं स न सामायिकं देशावकाशिकं च सम्यग्यथा भवत्यतिचाररहि Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा ११३१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा तं तथा अनुपालयिता भवति इति द्वितीया श्रावकप्रतिमा दशा०६ अ० स्मृतिभावसामायिक प्रति कृताकृतादि विषयस्मरणसद्भावस्तथाऽआ०। चू०। द्वितीया व्रतप्रतिमा इदं चास्याः स्वरूपम् / वस्थितसामायिककरणनिषेधरूपो भवतीति प्रकृतम्। च शब्दः समुच्चये "दसणपडिमाजुत्तो, पालंतो णुव्वए निरइयारे / अणुकपाई गुणजुत्तो, कस्मादेवमित्याह / श्रामण्यबीजं श्रमणाभावहेतुरिति कृत्वा यत् जीवो इह होइ वयपडिमा'' उपा०१ अ०। पंचा०। श्रमणभावस्य परमसामायिकरूपस्यबीजं तत्कथं मनोदुष्प्रणिधानाअथ तृतीयामुपासकप्रतिमामाह। दियुक्तं भवति कारणानुरूपत्वात्कार्यस्येति। यद्यप्येषा सामायिकप्रतिमा अहावरा तचा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुचिया विभवति तस्स एतस्य प्रकरणस्य दसाश्रुतस्कन्धस्य वाऽभिप्रायेणानियतकालमाना णं बहूणं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोसहोववासाइं सम्म तथाऽप्यावश्यकचूर्ण्यभिप्रायेणोपासकदशाभिप्रायेण च प्रतिदिनमुभयपट्टवियाइं भवंति से णं सामायिकं देसावकासियं सम्म साध्यं सामायिककरणतामासत्रयमानोत्कर्षेण द्रष्टव्या जघन्यतस्तु सर्वा अणुपालित्ता भवति से णं चाउडसअट्ठमिउद्दिपुण्णमासिणीसु अप्येकाहादिमाना इति / एतचाग्रे वक्ष्यत इति गाथार्थः / उक्ता पडिपुण्णं पोसहो नो सम्मं अणुपालित्ता भवति तथा उवासग सामायिकप्रतिमा पंचा० 10 विव०॥ पडिमा।। अथापरा चतुर्थी उपासकप्रतिमा।।। अथापरा तृतीया सुगता नवरं तस्य बहूनि व्रतादीनि प्रस्थापितानि अघावरा चउत्था उवासगपडिमा सव्वधम्मरुईया वि भवति आत्मनि निवेशितानि भवन्ति (सेणंति) स णमिति वाक्यालंकारे तस्स णं बहुई सीलव्वया जाव सम्मं पट्ठवियाइं भवंति से णं "चाउद्दसीत्यादि" चतुर्दशी प्रसिद्धा पर्वतिथित्वेन तथैवाष्टमी पर्वत्वेन सामाईयं देसावगासियं सम्मं अणुपालेत्ता भवति सेणं चउद्दसटुं प्रख्याता (उद्दिद्वत्ति) उद्दिष्टा अमावस्या पौर्णमासी पूर्णो मासो यस्यां जाव सम्मं पोसह अणुपालेत्ता भवति से णं एगराईयं सा पूर्णमासी तासु एवंभूतासु धर्मतिथिषु प्रतिपूर्णे यः पोषधो उवासगपडिमं नो सम्मं अणु पालित्ता भवति चउत्था व्रताभिग्रहविशेषस्तं प्रतिपूर्णमाहारशरीरसंस्कार / ब्रह्मचर्याव्यापाररूपं उवासगपडिमा॥ पोषधं नानुपालयिता भवति / इति तृतीया उपासकप्रतिमा दशा०६ यस्मिन् दिने उपवासो भवति तस्मिन् दिने वा रात्रौ प्रतिमा प्रतिपद्यते अ० आ० चू० (तचंति) तृतीयां सामा-यिकप्रतिमांतत्स्वरूपमिदम्। न च स तां शक्नोति कर्तुमिति चतुर्थी / दशा०६ अ०। आ० चू० "वरदसणवयजुत्तो, सामइयं कुणइ जो उ संझासु / उक्कोसेण तिमासं, (चउत्थंति) चतुर्थी पोषधप्रतिमैवंरूपा "पुष्योदियपडिमजुओ, पालइ एसा सामइयप्पडिमा''। जो पोसहं तु समत्तं / अट्टमिचउद्दसीसु, चउरो मासा चउत्थी सा // " सामायिकशब्दार्थमाह। उपा०१ अ०। अधुना पोषधप्रतिमावसरस्तत्र च पोषधमेव स्वरूपतो सावज्जजोगपरिव-जणादिरूवं तु होइ विण्णेयं / दर्शयन्नाह॥ सामाइयमित्तिरियं, गिहिणो परमं गुणट्ठाणं // 11 // पोसेइ कुसल धम्मे, जंता हारादिचागणुट्ठाणं / सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपं सपापव्यापारपरिहारनिरवद्ययोगा-- इह पोसहो त्ति भण्णति, विहिणा जिणभासिएणेव||१४|| सेवास्वभावं तुशब्दः पुनरर्थो भवति स्याद्विज्ञेयमवसेयं सामायिक पोषयति पुष्णाति कुशलधर्मान् शुभसमाचारान् प्राणातिपातविप्रागुक्तनिरुक्तमित्वरः स्तोकः कालो यत्रास्ति तदित्वरिकं मुहूर्ता- रमणादीन् यद्यस्मात्तत्तस्मादाहारादित्यागानुष्ठानं भोजनदेहसदिप्रमाणं गृहिणः श्रावकस्य परमं प्रधानं शेषगुणस्थानापेक्षया गुणस्थानं त्कराब्रह्मव्यापारपरिहारकरणमिह प्रक्रमे पोषध इत्येवं भण्यते देशचारित्रविशेषो गुणाश्रयो वेति गाथार्थः / अभिधीयते पोषं धत्ते पुष्णाति वा धम्मनिति निरुक्तात्कथं परमगुणस्थानमेवास्य समर्थयन्नाह। यदाहारादित्यागानुष्ठानमित्याह विधिना विधानेन यथाकथशिसामाइयम्मि उकए, समणो इव सावओ जतो भणितो। त्किभूतेन जिनभाषितेनैव सर्वज्ञोक्तेनैव स्वमतिवर्तितेन विधानं च बहुसो विहाणस्सय, तम्हा एयं बहुत्तगुणं ||12|| प्रथमप्रकरण एवोक्तमिति न पुनर्भण्यते इति गाथार्थः। सामायिके एव समभावरूपे नतु व्रतान्तरे तुशब्दोऽवधारणार्थः / कृते अथ पाषधं तत्वतो निरूप्य भेदतस्तन्निरूपयन्नाह।। प्रतिपन्ने सति श्रमण इव साधुतुल्यः सिद्धिसुखपरमसाधन आहारपोसहो खलु, सक्कारपोसहो चेव। भूतसमभावसाधोद्यतो यस्मात्कारणाद्भणितोऽभिहितस्तथा बंभवावारेसुय,एयगया धम्मबुड्डि ति॥१५॥ बहुशोऽनेकशी विधानं वा सेवनं वाऽस्य सामायिकस्य भणितं आहारपोषधः प्रागुक्तस्वरूपः खलुवक्यिालंकारे शरीरसत्कार-पोषधः नियुक्तिकृता / तथा हि "सामाइयम्मि उकए, समणो इवसावओ हवइ पूर्वोक्तस्वरूपएव। चैवशब्दः समुच्चयार्थः ब्रह्मव्यापारयोश्चेतिएतद्विषयश्च जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुजा" तस्सत्कारणादेतत्सा- पोषधो भवतिब्रह्मचर्यपोषधोव्यापारपोषधश्चेत्यर्थः। आहारादिपोषध इति मायिकं यथोक्तगुणं प्रागभिहितगुणं परमं गुणस्थानामत्यर्थ इतिगाथार्थः / कोऽर्थ उच्यते एतद्गता आहारादित्यागसमाश्रिता धर्मबुद्धिर्धर्मपुष्टिः पोषं अत्र सामायिके सति यन्न भवति यच भवति तद्दर्शयन्नाह। धत्त इति व्युत्पादनादितिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति गाथार्थः। मणदुप्पणिहाणादी,ण होंति एयम्मि भावआ संते। इह यद्वर्जयत्यसौ तदाह। सब्भावावट्ठियकारि,याय सामण्णबीयंति॥१३|| उप्पडि पुप्पडिलेहियसेञ्जासंथारमाइवज्जे त्ति। मनोदुष्प्रणिधानादीनि मनोदुष्प्रणिधानवचनदुष्प्रणिधानकाय- | सम्म च अणणुपालणमाहारादीसु एयम्मि॥१६|| दुष्प्रणिधानानि प्रथमप्रकरणोक्तरूपाणि न भवन्तिन जायन्ते एतस्मिन् 'अप्पडिति' पदावयवे पदसमुदायोपचाराद् 'अप्पडिले हियत्ति' साहायिके भावतो भावेन न तु द्रव्यतः सति विद्यमाने तथा / दृश्यं ततश्व अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारकादि वर्ज Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा यति परिहरतीत्य प्रत्युपेक्षितमनिरीक्षितंदुष्प्रत्युपेक्षितंदुर्निरीक्षितं शय्या शयनं तदर्थः संस्तारकः कम्बल्यादिखण्डम् अथवा शय्या वसतिः / सर्वाङ्गीणशयनं वा संस्तारकश्च ततो लघुतर इति समाहारद्वन्द्वात् शय्यासंस्तारकः / आदिशब्दादप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंस्तारकमप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितोचारप्रश्रवणभूमिमप्रमार्जितदुष्प्र-- मार्जितोचारप्रश्रवणभूमिं चेति सम्यग्यथागमं चाननुपालनमवधावनभोजनाद्यौत्सुक्यादिभिराहारादिष्विति / सप्तम्याः षष्ठ्यर्थत्वात् आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्या व्यापारपोषधानामेतस्मिन्निति पोषधे वर्जयतीति प्रकृतमिति। तदेवमियं पोषधप्रतिमा ग्रन्थान्तराभिप्रायेणाष्टम्यादिपर्वसुसंपूर्णपोषधानुपालनारूपोत्कर्षतश्चतुर्मासप्रमाणा भवतीति गाथार्थः। अथ पञ्चमी। आहावरा पंचमा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुइया विभवति तस्स णं बहुई सील जाव सम्म पडिलेहिताई भवति से णं चाउद्दसिं तहेव से णं एगराईयं उवासगपडिमं सम्मं अणुपालित्ता भवति सेणं असिणाणविपडभोई मउलियडे दिया बंभचारी रत्तिं परिमाणकडे सेणं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहन्नेणं एगाह वा दुवाहं वा तियहिं वा उक्कोसेणं पंचमासे विहरेजा पंचमा उवासगपडिमा।। सव्वधम्मेत्यादि व्यक्तम् (असिणाणेत्ति) न स्नाति स्नानं न करोति (वियडभोइत्ति) प्रकाशभोजीन रात्रौ भुङ्क्ते अप्रकाशे वा यतो ये दोषाः पिपालिकाद्युपघातरूपाः रात्रौ भवन्तितएवान्ध-कारभोजने इति प्रवादः तेन प्रकाशभोजी भवति (मउलिकडेत्ति) परिधानवाससो वलद्वयकटीप्रदेशेनावलम्बयति अग्रे पृष्ठेच उन्मुक्तकच्छो भवतीत्यर्थः यावन्मासपञ्चमं तत्परिसमाप्यते तावदिया ब्रह्मचारी (से णमित्यादि) स इत्यनिर्दिष्टनामा एतद्रूपेण विहारेण प्रतिमाचरणरूपेण विचरन् एकाहमेकदिवसं वाशब्दः परापरभेदसूचकः एवं व्यहं त्र्यहं उत्कर्षतो यावत्पञ्चमासास्तावद्विहरति तत्रैकाहं यदि अङ्गीकृत्य प्रतिकारं कुर्यात् असामर्थ्याद्वा अन्तराले एव त्यजेत् कोऽपि तत उक्तमेकाहं चेत्यादि इतरथा तु सम्पूर्णोऽपि भवति पूर्वोक्तः प्रतिमाचतुष्टयस्याचारोऽत्रापि द्रष्टव्यः दिवा रात्रौ च ब्रह्मचारी भवति एवमुत्तरत्रापि पूर्ववत् प्रतिमाचारोऽवि वाच्य इति पञ्चम्युपासकप्रतिमा / क्वचित् "अहासुत्ता' इत्यादि पाठस्तत्र (अहासुत्ता इति) सामान्यसूत्रानतिक्रमेण (अहाकप्पा इति) प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण कल्पे वस्त्वनतिक्रमेणं वा (अहामग्गो इति) ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षयोपशमिकभावानतिक्रमेण वा (अहातच्या इति) यथा तत्वं तत्वानतिक्रमेण पञ्चमासिकी श्रावकप्रतिमा इति शब्दार्थानतिलनेनेत्यर्थः(जहा सम्मइति) समभावानतिक्रमेण (काएकति)न मनोरथमात्रेण (फासेइत्ति) उचितकाले विधिना ग्रहणात् (पालेइत्ति) असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् शोधयति वा अतिचारपञ्चक्षालनात् (तीरे त्ति) पूर्णेऽपि तदवधौ तत्कृत्यपरिमाणपूरणात् (किट्टइत्ति) कीर्तयति पारणकदिने इदं चदं चैतस्याः कृत्यं तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात्। (अणुपालेइत्ति) तत्समाप्तौ तदनुमोदनात् किमुक्तं भवतीत्याह आज्ञया आराधयतीति पञ्चमयुपासकप्रतिमा / दशा०६ अ० आ० चू०। (पंचमंति) पञ्चमी प्रतिमा प्रतिमा कायोत्सर्गप्रतिमा- | मित्यर्थः। स्वरूपंचास्याः "सम्माणुव्वयगुणवयसिक्खावयं वा थिरो य नाणी य / अट्ठमिचतुद्दसीपडिमाए एगराईयं / (असिणाणवियडभोई) अस्नानोऽरात्रिभोजी चेत्यर्थः (मउलिकडो) मुक्तकच्छ इत्यर्थः। दिवसबंभयारियं राइपरिमाणकडो पडिमावज्जेसु दियहेसुज्झाय-- पडिमाइठिओ तिलोयपुजे जियकसाये नियोसपचणीयं अण्णं वा पंच जामासा" उपा०१ अ० अथ प्रतिमाप्रतिमास्वरूपमाह। सम्ममणुव्वयगुणवय-सिक्खावयवं थिरो य णाणी य। अट्ठम्मिचउद्दसीसुं, पडिमंठा एगरातीयं // 17 // सम्यक्त्वमणुव्रतगुणव्रतशिक्षाव्रतपदानि प्रतीतानि यस्य सन्तिसतद्वान् पूर्वोक्तप्रतिमाचतुष्कयुक्त इत्यर्थः। सोऽपि स्थिरोऽविचलसत्व इतरो हि तद्विराधको भवति यतः सा (पडिमा) रात्रौ चतुष्पदादौ च विधीयते तत्र चोपसर्गाः संभवन्तीति ज्ञानी च ज्ञाता प्रतिमाकल्पादेरज्ञानो हि सर्वत्राप्ययोग्यः किं पुनर स्यामिति चशब्दः समुचयार्थो ऽष्टमीचतुर्दश्योः प्रतीतयोः उपलक्षणत्वादस्य पोषधदिवसेष्विति दृश्यं प्रमाणकायोत्सर्ग वा करोतीत्यर्थः / किं प्रमाणमित्याह / एका रात्रिः परिमाणमस्या इत्येकरात्रिकी सर्वरात्रिकी प्राप्ता प्रतिमाप्रतिमा भवतीति शेष इति गाथार्थः। शेषदिनेषु यादृशोऽसौ भवति तद्दर्शयितुमाह। असिणाणवियडभोई,मउलियडो दियसबभयारी य। रत्तिं परिमाणकडो, पडिमावळेसु दियहेसु॥१८|| अस्नानो अविद्यमानस्नानः विकटे प्रकटे दिवसे न रात्रावितिं यावद् भोक्तुं शीलमस्येति विकटभोजी चतुर्विधाहाररात्रिभोजन-वर्जकः। ततः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः / तथा मौलिकृतः अबद्धकच्छस्तथा दिवसे ब्रह्म चरतीत्येवंशीलो दिवसब्रह्मचारी चशब्दः समुचये तथा (रत्तिमिति) विभक्तिपरिणामाद्रात्रौ रजन्यां परिमाणकृतः मैथुनसेवनं प्रति कृतयोषिद्भोगपरिमाणः कदेत्याह प्रतिमावर्जेष्वपर्वस्वित्यर्थो दिवसेषु दिनेषूक्तव्याख्यानसंवादिनी चेयं गाथा यदुक्तम् "असिणाण वियडभोई, पगासभोइत्ति जं भणियं होई / दिवसेउ न ति भुंजे, मउलियकडो कच्छमविराधं" कच्छानारोपयतीत्यर्थः / इति गाथार्थः। अथ यत् कायोत्सर्गस्थितश्चिन्तयति तदाह। झायइ पडिमाए ठिओ, तिलोगपुळे जिणे जियकसाए। णियदोसपचणीयं, अण्णं वा पंचजा मासा // 19 // ध्यायति चिन्तयति प्रतिमायां कायोत्सर्गस्थितोऽवस्थितस्त्रिलोकपूज्यान् भुवनत्रयार्चनीयान् जिनानहतो जिनकषायान्निराकृतक्रोधादिभावान् तथा निजदोषप्रत्यनीकं स्वकीयरागादिदूषणप्रतिपक्षं कामनिन्दादिकमन्यजनापेक्षयाऽपरम् / वाशब्दो विकल्पार्थः किंप्रमाणेयं पञ्चमी प्रतिमा स्यादित्याह पञ्च यावन्मासानेषोत्कर्षण भवतीति गाथार्थः / उक्ता पञ्चमी। पंचा०१० विवा अथ षष्ठी प्रतिमामाह। सव्वधम्मजाव सणं एगराईयं उवासगपडिमाणुपालेत्ता भवति से णं असिणाणए वियडभोई मउलियडे दिया वा राओ वा बंभचारी सचित्ताहारे से परिण्णावेन भवति से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाह वा उकोसेणं छम्मासे विहरेजा छट्ठा उवासगपडिमा।।६।। Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा शेष व्यक्तं रात्रिभोजनादुपरतो भवति (रत्तो रातंति) रात्री दिवा ब्रह्मचर्ययुक्तो भवति 'सचित्ताहारे इत्यादि सचित्ताः सचेतना जीवसहिता इति यावत् परिज्ञया आहारितः सन् कर्मबन्धकारणत्वेन परं प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यातः 'एतारूपेण' पूर्ववत् एवमुत्तरोत्तरप्रतिभासु मासा वाच्या यथासंख्यं मासा इति षष्ठी। दशा०६ अाआ०चूला षष्ठी अब्रह्मवर्जनप्रतिमा तत्स्व रूपं चैवम्। पुष्वोइय गुणजुत्तो, विसेसओ विजियमोहणिज्जोय। वजइ अबंभमेगं-तओ उरायं पिथिरचित्ते // 20 // पूर्वोदितगुणयुक्तः / प्रागुक्ता ये स्नानविकटभोजनादयः सम्यक्त्वव्रतसामायिकपोषधप्रतिमाख्या वा ये गुणास्तैर्युक्तः पूर्वोदितगुणयुक्तत्वं च नास्यामेवापि तु सर्वासु व्रतादिप्रतिमासु द्रष्टव्यं दशादिषु तथोक्तत्वात् विशेषतो विशेषेण पञ्चमप्रतिमापेक्षयाविजितमोहनीयो निराकृतकामोदयश्चशब्दः समुच्चये श्रावक इतिगम्यते किमित्याह वर्जयति परिहरति अब्रह्ममैथुनमेकान्ततस्तु सर्वथैव (राइं पित्ति) सर्वरजनीमप्यास्तां सर्वदिनंषष्ठप्रतिमास्थित इति शेषः। अयमेवचपञ्चम्याः षट्याश्च प्रतिमाया विशेष इति स्थिरचित्तोऽप्रकम्पमानसः सन्निति गाथार्थः / अथ स्थिरचित्तोपायानाह। सिंगारकहाविरओ, इत्थीए समं रहम्मि णो ठाइ। चयइ य अतिप्पसंगं, तहा विभूसंच उक्कोसं॥१२॥ शृङ्गारकथाविरतः कामकथानिवृत्तः / तथा स्त्रियायोषिता समं सह रहस्येकान्ते नो तिष्ठति नास्ते रहः स्थानस्य चित्तविप्लुतिनिमित्तत्वाद्यतो लौकिका अप्याहुः "मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नो विविक्तासनो भवेत्। बलवात्रिन्द्रियग्रामः, पण्डितोप्यत्र मुह्यति' तथा त्यजति वर्जयति चातिप्रसङ्गमतिपरिचयं स्त्रिया सममिति वर्तते यतः "वशीकुर्वन्ति ये लोका मृगान् दर्शनतन्तुना / संसर्गवागुराभिस्ते, स्त्रीव्याधाः किन्न कुर्वते" तथेति वाक्यान्तरोपक्षेपार्थ / विभूषां स्वशरीरसत्कारमलङ्काराङ्गदादिभिश्वः समुच्चये उत्कर्षामुत्कृष्टां त्यजतीति वर्तते उत्कर्षग्रहणाच्छरीरस्थितिमात्रानुगां करोत्यपीति गाथार्थः।। इहैव कालमानमाह॥ एवं जा छम्मासा, एसो हि गतो इहरहा दिटुं। जावजीवं पि इम, वजइ एयम्मि लोगम्मि।।२२।। एवमुक्तनीत्या शृङ्गारकथाविरमणादिलक्षणया (जा इति) यावत् षण्मासान् / कालपरिमाणविशेषानुत्कर्षतो वर्जयत्यब्रोति वर्तते एष श्रावकोऽधिकृतस्तु षष्ठप्रतिमाप्रतिपन्न एव / अवधारणफलमाह / इतरथाऽन्यथा षष्ठप्रतिमाप्रतिपन्नकादन्यत्रेत्यर्थः। दृष्टमवलोकितं किं तदित्याह / यावजीवमप्याजन्माप्यास्तां षण्मासान् यावदिदमब्रह्म वर्जयति परिहरतीत्येतत्क्क दृष्टमित्याह / एतस्मिन् प्रत्यक्षलोके श्रावकलोक इति गाथार्थः / यत्कुर्वाणस्य षष्ठी भवति तदुक्तम् / पंचा० १०विव० उपा०। अथ सप्तमीमुपासकप्रतिमामाह। सव्वधम्म जाव रातो व राई बम्हयारी सचित्ताहारे परिण्णाते भवति आरंभे अपरिणाए भवति से णं एतारूपेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं सत्तमासे विहरेजा सत्तमा उवासगपडिमा। अथापरा सप्तमी नवरं परिज्ञातः प्रत्याख्यात आरम्भश्चापरिज्ञातो भवति करणकारापणानुमोदनत्रिवित्रेनापि करणेन। दशा०६ अ० आ० चू०। अथ यत्कुर्वतः सप्तमी भवति तद्दर्शयन्नाह। सचित्तं आहारं, वज्जइ असणादियं णिरवसेसं। असणे चाउलोविग-चणगादी सव्वहा सम्मं // 23 // सचित्तं विद्यमानचैतन्यमाहारं भोजनं वर्जयति परिहरते / अशनादिकमशनप्रभृतिकं चतुर्भेद निरवशेषं सर्वं सप्तमप्रतिमास्थित इति शेषः / तत्राशने आहारविशेष विषयभूते तन्दुलोविक चणकादि प्रतीतमादिशब्दादमिलादिपरिग्रहः / कार्य वर्जयतीत्याह / सर्वथा अपक्कदुष्पक्वौषध्यादिवर्जनत इत्यर्थः सम्यग्भावाशुद्धेति गाथार्थः। तथा। पाणे आउक्कायं, सच्चित्तरससंजुअंतहण्णं पि। पंचोदुंवरिककंडि-गाइय तह खाइमे सव्वं / / 24 / / पाने पानकाहारे अप्कायमप्रासुकोदकं सचित्तरससंयुतं तत्कालपतितत्वेन सचेतनलवणादिरसोन्मिभं तथेति समुच्चये अन्यदप्यप्कायादपरमपि काञ्जिकादिपानकाहारं वर्जयति न केवलमप्यकायमेवेति / तथा पञ्चानामुदुम्बराणामुदुम्बरसमानधर्माणां समाहारः पञ्चोदुम्बरी सा च स्वरूपेण त्रसकायिकैश्च सचेतना भवतीति पञ्चोदुम्बरी च कर्कटिकाश्च चिर्भिटिका आदिर्यस्य खादिमस्य तत्तथा। चः समुच्चये तथेति वाक्यान्तरोपक्षेपार्थः स च गाथोत्तरार्द्धस्यादौ दृश्यः खादिमे आहारविशेषे विषयभूते सर्वं समस्तं सचित्तं वर्जयतीति प्रकृतमिति गाथार्थः। दंतवणं तंबोलं, हरेडगादीय साइमे सेसं। सेसपयसमाउत्तो,जामासासत्तविहिपुव्वं / / 2 / / दन्तधावनं दशनकाष्ठं ताम्बूलं प्रतीतं हरीतक्यादि च पथ्याप्रभृति च स्वादिमे स्वादिमाहारविषये अशेषं सर्व सचित्तं वर्जयतीति प्रकृतम्। किंभूतः सन्नित्याह शेषपदसमायुक्तो दर्शनादिगुणयुक्तः कियन्तं कालं वर्जयतीत्याह यावन्मासान् कालविशेषान् सप्तोत्कृष्टतो विधिपूर्वकमागमिकन्यायपुरस्सरं नतु यदृच्छयेतिगाथार्थः / उक्ता सप्तमीति। पंचा० 10 विव०। उपा० अथाष्टमीमुपासकप्रतिमामाह। अट्ठमा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुईआ विभवति जाव दियाओ वा रायं बंभचारी सचित्ताहारे से परिण्णाए भवति आरंभे से परिणाए भवति पेस्सारंमा अपरिण्णाए भवति से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा जाव एगाहं वादुगाहं वा तिगाहं वा उक्कोसेणं अट्ठमास विहरेज्जा अट्ठमा उवासगपडिमा।। अष्टम्यां स्वयंकरणमाश्रित्यारम्भः परिज्ञातो भवति प्रेष्यारम्भोऽन्येषामादेशदानतः कारापणान्न निवृत्त इत्यष्टमी। दशा०६ अ० आ० चू०। अष्टमी स्वयमारम्भवर्जनप्रतिमा। अथ यथा वर्तमानस्याष्टमी भवति तथा दर्शयन्नाह॥ वनइ सयमारंभ, सावज कारवेइ पेसेहिं। पुस्वप्प ओगओ चिय, वित्तिणिमित्तं सिढिलभावो॥२६|| वर्जयति परिहरति स्वयमात्मना स्वयंकरणत इत्यर्थः / आरम्भ व्यापारं सावधं सपापं कृष्यादिकमित्यर्थः / स्वयमिति वच Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा नात् यदापन्नं तदाह कारयति विधापयति प्रेष्यैरादेशकारिभिः / कथमित्याह। पूर्वप्रयोगत एव प्रवृत्तव्यापार एव नापूर्वव्यापारनियोजनत इत्यर्थः किमित्याह / वृत्तिनिमित्तं जीविकार्थम् / किंभूतः सन्नित्याह शिथिलभावः प्रेष्यप्रयोगतोऽप्यारम्भेष्वतीव्रपरिणाम इति गाथार्थः / नन्वारम्भेषु प्रेष्यप्रयोजनेसतिस्वयमप्रवर्तमानस्य को गुणोजीवधातस्य तदवस्थत्वादित्याशङ्कयाह। निग्घिणतेगंतेणं, एवं विहु होइ चेव परिचत्ताए। एबहमेत्तो वि इमो, वञ्जिजंतो हियकरो उ॥२७॥ निघृणता निर्दयता एकान्तेन सर्वथैव स्वयमारम्भण कुर्वतः परैश्च कारयतो या स्यात्सा एवमप्युक्तनीत्याऽपि स्वयं वर्जनमात्रलक्षणा आस्तामुभयवर्जनतः / हुशब्दोऽलंकारे भवति चैव स्यादेव परित्यक्ता परिहृता। नन्वात्मारम्भोऽल्प एकत्वादात्मनः परतस्तु बहुतमः परेषां च बहुत्वात्ततश्च बहुतमारम्भाश्रयणेनाल्पतरारम्भवर्जनं कंगुणंपुष्णातीत्याशङ्कयाह (एबहमेत्तोवित्ति) इयन्मात्रोऽपि स्वयंकरणमात्रत्वेनाल्पोऽप्यास्तां बहुतमः (इमोत्ति) अयमारम्भो वय॑मानस्त्यज्यमानो हितकरः कल्याणकर एव महाव्याधेः स्तोकक्षयवदितिगाथार्थः / कस्य कथमयं भवतीत्याह॥ भध्वस्साणा वीरियसंफासणभावतो णिओगेण। पुटवोइयगुणजुत्तो, नावञ्जति अट्ठजा मासा // 28 // भव्यस्य योगस्य सत्वविशेषस्य आज्ञा चापूर्ववचनमष्टमप्रतिमायां स्वयमारम्भो वर्जनीय इत्येवंरूपम् वीर्य जीवसामर्थ्य स्वयमारम्भपरित्यागविषयं तयोः संस्पर्शनमाराधनं तद्पो यो भावोऽध्यवसायस्तस्य वा यो भावः सत्ता स तथा तस्मादाज्ञावीर्यसंस्पर्शनभावान्नियोगेन नियमेन हितकरो भवतीति पूर्वेण योगः। अथ किंविधः सन् क्रि यन्तं वा कालमष्टम्यां स्वयमारम्भं वर्जयतीत्याह / पूर्वोदितगुणयुक्तः प्रागुक्तदर्शनादिगुणान्वितस्तावद्वर्जयति परिह-रत्यष्टौ यावन्मासानुत्कृष्टत इतिगाथार्थः / उक्ताऽष्टमी प्रतिमा पंचा० 10 विव०॥ उपा० अथ नवमीमुपासकप्रतिमामाह। अहावराणवमा उवासगपडिमा सवधम्मरईया विभवति जाव दिया वा राओ वा बंभचारी सचित्ताहारे से परिण्णाए भवति पेस्सारंभे परिणाए भवति सेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणेणं जाव एगाहं वा दुगाहं वा तिगाहं वा उक्कोसेणं नव मासे विहरेज्जा नवमा उदासगपडिमा।। नवम्यां तुकारणारम्भः प्रेष्यादिभ्यः स परिज्ञातो भावति उद्दिष्टभक्तंतु नपरिज्ञातं भवति उद्दिष्टं नाम तदुद्देशेन यत्कृतं तदुद्दिष्टमित्युच्यते इति नवमा / दशा० 6 अ० आ० चू० / (नवमंति) नवमीं भृतकं प्रेष्यारम्भवर्जनप्रतिमा सा चेयं "पेसेहिविआरंभ, सावज्जं कवेरइ णो गरुयं पुव्वो इयगुणजुत्तो, नवमा सा जाव विहिणाओ" उपा० 1 अ०॥ यत्करणान्नवमी भवति तदाह // पेसेहि वि आरंभ, सावलं कारवेइ णो गुरुयं / अत्थी संतुट्ठो वा, सो पुण होति विण्णेओ // 26 // प्रेष्यैरपिकर्मकरैरप्यास्तां स्वयमारम्भं व्यापारं सावधं सपापं कारयति विधापयति नो नैव गुरुकं महत्कृष्यादिकमित्यर्थः / अनेनासनदापना- / दिव्यापाराणामतिलघूनामनिषेधमाह। इह नवमप्रतिमायामित्येष दृश्यः एतद्वर्जनेन च कीदृशः समर्थो भवतीत्याह अर्थी अर्थवानीश्वर इत्यर्थः / सन्तुधे वाऽनीरवरोऽप्यतिसंतोषवान् / वाशब्दो विकल्पार्थः एष प्रेष्यारम्भवर्जकः। पुनः शब्दो विशेषणार्थस्तेन यः कश्चिदपि भवति स्याद्विज्ञेयो ज्ञातव्य इति गाथार्थः / / णिक्खित्तभरो पायं, पुत्तादिसु अहव से सपरिवारे। थोवममत्तो यतहा, सव्वत्थविपरिणओ नवरं॥३०॥ निक्षिप्तभरो न्यस्तकुटुम्बादिकार्यभारः प्रायो बाहुल्येन पुत्रादिषु योगयसुतभ्रातृप्रभृतिषु अथवेति विकल्पार्थः शेषपरिवारे पुत्रादिव्यतिरिक्तपरिजने कर्मकरादौ तथेति वाक्यान्तरत्वद्योतकोऽत्र द्रष्टव्यः स्तोकममत्त्वोऽल्पाभिष्वङ्गश्वशब्दः समुच्चये तथेतियोजितमेव सर्वत्रापि सर्वस्मिन्नपि धनधान्यादिपरिग्रहे न तु क्वचिदेव अयं चैवं भूत उत्तानबुद्धिरपि स्यादत आह परिणतबुद्धिर्नवरं केवलमिति गाथार्थः / लोगववहारविरओ, बहुसो संवेगभावियमई य। पुव्वोदियगुणजुत्तो, णवमासा जाव विहिणा उ॥३१॥ लोकव्यवहारविरतो लोकयात्रानिवृत्तस्तथा बहुशो अनेकशः संवेगभावितमतिश्च मोक्षाभिलाषवासितबुद्धिस्तथा पूर्वोदितगुणयुक्तो दर्शनादिगुणान्वितो नव मासान् यावदुत्कर्षतो विधिना त्वागमविधानेनैवेति गाथार्थः पंचा० 10 विव०ा उपा० अथ दशमीमुपासकप्रतिमामाह। अहावरा दसमा पडिमा सव्वधम्मरुईया वि भवति से णं खुरमुंडए वा सिहाधारए वा तस्सणं आभट्ठस्स वाभट्ठस्स कप्पति दुवि भासतो भासित्ताए जधा जाणं वा जाणं अजाणं वा अजाणं से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहन्नेणं एगाहं वा दुयाह वातियाहं उक्कोसेणं दसमास विहरेजा दसमा उवासगपडिमा।। दशम्यां तु उद्दिष्टभक्तं तेन परिज्ञातं भवति स च क्षुरमुण्डो वा शिखाधारको वा भवति यथा परिव्राजकाः शिखामात्रं धरन्ति तथाऽयमपीति तदा तं प्रति पुत्रादयः तन्मुक्तं किंचिद्वस्तु जानानाः पृच्छन्ति किं कृतं तद्वस्तु तदा तेन कथमुत्तरयितव्यास्तदेतदाह / (आभट्ठस्स) आ ईषत् "भट्ठस्सति" देशीवचनात् भाषितस्य प्रत्युत्तरं देयात्तेन पृष्टस्य पुनः पुनर्वा भाषितस्य कल्पेते युज्येते द्वे भाषे भाषितुं वक्तु मिति / तद्यथा यदि जानाति तदा वदति अहं जानामि यतस्तेषामकथेन् अप्रीतिवशादात्मकृतादयोऽपि दोषाः शङ्कादयो वा दोषा यथा ते ज्ञास्यन्ति अनेनैव तद्दव्यादि भक्षितं येन मुखं वस्त्रितं तेन जानामीति वदति। अपरा तु यदि न जानाति तदा वदति नाहं जानामि एते द्वे भाषितुं कल्पेते इति दशमी प्रतिमा। दशा० 6 अ०॥ दशमी उद्दिष्टभक्तवर्जनप्रतिमा सा चैवम्। उहिट्ठकडं भत्तं पि, वज्जती किमु य से समारंभ। सो होइ उ छुरमुंडो, सिंहलि वा धारती कोइ॥३| उद्दिष्टमुद्देशस्तेन कृतं विहितमुद्दिष्टकृतं तदर्थ संस्कृतमित्यर्थः तद्भक्तमपि भोजनमपि वर्जयति परिहरति किमुक्तं भवति किं पुनः सुतरामित्यर्थः। शेषं दुष्परिहार्यभक्तारम्भव्यतिरिक्तमारम्भसावद्ययोगं दशमप्रतिमायां वर्तमानः श्रावकः इति शेषः (सो हो उ त्ति) स पुनर्दशमप्रतिमावर्ती भवति स्यात् क्षुरमुण्डः क्षुरमुण्डित Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवासगपडिमा शिराः (सिंहलित्ति) शिखा तां वाशब्दो विकल्पार्थः धारयति विभर्ति कश्चित्कोऽपीति गाथार्थः। जंणिहियमत्थजायं, पुट्ठो णियएहि णवर सा तत्था जइ जाणइ तो साहे, अह ण वि तो वेइण वि जाणे // 33 // यत्पिहितं यन्निक्षिप्तं भूम्यादावर्थजातं द्रव्यप्रकारः तदर्शीति शेषः / पृष्टः प्रश्नितो निजकैः स्वकीयैः पुत्रादिभिनवरं केवलंस श्रावक इति शेषस्तत्र दशमप्रतिमायां प्रश्ने वा यदि जानाति स्मरति (तो त्ति) तदा साधयति कथयत्यकथने वृत्तिच्छेदप्राप्तेः / अथ यदि न नैव जानातीति वर्तते (तो त्ति) तदा ब्रूते वक्ति किं तदित्याह नापि नैव जाने स्मरामीति नान्यत् किमपि तस्य गृहकृत्यं कर्तु कल्पत इति भाव इति गाथार्थः। जतिपञ्जुवासणपरो, सुहमपयत्येस णिचतेल्लिच्छो। पुटवोदियगुणजुत्तो, दस मासा कालमासेण // 34 // यतिपर्युपासनापरः साधुसेवापरायणः सूक्ष्मपदार्थेषु निपुणमति-- समधिगम्य भावेषु जीवादिषु तेष्वेव लिप्सा लब्धुमिच्छावस्य स तल्लिप्सः स नित्यं नितान्तं तल्लिप्सो नित्यतल्लिप्सः / तथा पूर्वोदितगुणयुक्तो दर्शनादिप्रतिमानवकान्वितः कियन्तं कालं तावदित्याह / दश मासान् यावत् कालमानेन कालप्रमाणापेक्षयेत्यर्थः। कालमासेनेति क्वचित् दृश्यते तत्र प्राकृतभाषापेक्षया मासशब्दस्य कालधान्यसुवर्णादिषु वृत्तिदर्शनाच्छषव्यवच्छेदार्थमुच्यते कालमासेनेति गाथार्थः / उक्ता दशमी / पंचा० 10 विव० उपा०। आ० चू०॥ अथैकादशी प्रतिमामाह। अहावरा एकारसमा उवासपडिमा सव्वधम्म जाव उहिट्ठभत्ते से परिणति भवति से णं खुरमुंडए वा लुत्तसिरए वा गहितायारभंडगनेवत्था जे इमे समणाणं निग्गंवाण धम्मे तं सम्म कारणं फासेमाणे पालेमाणे पुरतो जुगमायाए पहमाणे दळूण तसे पाणे उद्दलु पायं रीऐजो वि तिरिच्छं वा पातं कडु रीएला सति परक्कमे संजतामेव परक्कमे जाणो उजुयं गच्छेज्जा केवलं से णायाए पेम्मबंधणे अवोच्छिन्ने भवति एवं से कप्पति नायवीथिं ति तए तत्थ से पुवागमणेणं पच्छाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे कप्पति से चाउलोदणे एडिगाहिए णो से कप्पति मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए तत्थ णं से पुवागमणेणं पुवाउत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे कप्पति से मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए नो से कप्पति चाउलोदणे कडि तत्थ से पुष्वगमणे दो वि पुवाउत्ताई कप्पति से दो वि पडिगाहित्तए तत्थ से पच्छागमणेणं दो वि पच्छाउत्ताई णो से कप्पति दो वि पडिगाहित्तए जे से तत्थ पुवागमणेणं पुथ्वउत्ते से से कप्पति पडिगाहित्तएजे से तत्थपुवागमणेणं पच्छाउत्तेसे से णो कप्पति पडि गाहित्तए तस्स णं गंधातिकुलं पिंडवातपडियाए अणुपविट्ठस्स कप्पति एवं व दित्तए समणोवासगस्स पडिमापडिवनस्स भिक्खं दलयह तं वैतारूवेणं विहारेणं विहरमाणं केइ पासेत्ता वदेजा केइ आउसो तुम वत्तव्वेसिया समणोवासए पडिवजित्तए अहमंसीति वत्तट्वं सिया से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहन्नेणं एमाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं एकारसमासे विहरेजा एक्कारस उवासगपडिमा।। अहावरेत्यादि व्यक्त लुञ्चितशिरस्को लुञ्चितशिरोजो वा शिरसि जाताः शिरोजाः (गहियाइत्ति) गृहीतानि आचारपालनार्थं भाण्डकानि उपकरणानि पात्ररजोहरणमुखवस्त्रिकादीनि नेपथ्यं साधुवेषस्तथाप्रकारवस्त्रादिप्रावरणं ततो द्वन्द्वः तथा (जारिसेत्ति) यादृशः श्रमणानां निर्ग्रन्थानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितानां धर्मः क्षान्त्यादिकः प्रज्ञप्तः तादृशमिति अध्याहार्य तं धर्म सम्यग यथा भवति कायेन न तु मनोरथमात्रेण स्पर्शयन् पालयन् यथाचारं (पुरउत्ति) पुरतोऽग्रतो युग्मात्रया शरीरप्रमाणया शकटौ द्विसंस्थितया दृष्टयेति वाक्यशेषः प्रेक्षमाणः प्रकर्षण पश्यन् भूभागं तत्र (दहणत्ति) दृष्ट्वा त्रस्यन्तीति त्रसा द्वीन्द्रियादयस्तान् / प्राणान् धरन्तीति प्राणा जीवाः पतङ्गादयः तान् (उदति) पादमुद्धत्यान्नतलेन पादपातप्रदेशं वातिक्रम्य गच्छेतं एवं संहत्य शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उत्क्षिप्तवान् भागपार्णिकया गच्छेत् तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत्। अयं चान्यमार्गाभावे विधिः / सति त्वन्यस्मिन गमनमार्गतेनैव पराक्रमेत गच्छेत् ऋजुनेत्येवं सर्व साध्वनुगमेन सर्व तेन त्यक्तं केवलं (णायाए त्ति) ज्ञातीयं स्वजातिविषयं मातृपितृभ्रातृप्रभृतिविषयं प्रेमबन्धनमव्यच्छिन्नमत्रोटितं भवति एवमित्यादि एवमनन्तरवक्ष्यमाणप्रकारेण (से) तस्य प्रतिमधरस्य कल्पते युज्यते आहारग्रहकाले (नायवीथित्ति) ज्ञातयः स्वगोत्रजास्तेषां वीथी गृहपङ्क्तिस्तत्र प्राप्तः "एत्थण मित्यत्रान्तरे तस्य (पुष्वागमणेणंति) प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः आगमनात्पूर्वकालमथवा पूर्व प्रतिमाधर आगतः पश्चादायका राखं प्रवृत्ताः इति पूर्वागमनेन हेतुना पूर्वायुक्तस्तन्दुलोदनः कल्पते उपलक्षणं चैतत् सर्वोदनानाम् / (पच्छाउत्ते भिलंगसूवे त्ति) पश्चादायुक्तो भिलिङ्गसुपोन कल्पतेतत्र पूर्वायुक्तः प्रतिमाधरागमने पूर्वमेव स्वार्थं गृहस्थैः पक्तुमारब्धः प्रतिमाधरे वा गते यः पक्तुमारब्धः स पश्चादायुक्तः स च न कल्पते उद्गमादिदोषसंभवात् पूर्वायुक्तस्तु कल्पते तदभावात्। भिलिङ्गसूपो मसूरादिदालिः शेषं कण्ठ्यम्। तस्स णमिति'' वाक्यालंकारे गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टस्य न कल्पते युज्यते एवं वक्तुं किंतदित्याह 'समणोवासगस्सेत्यादि' श्रमणोपासकस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य भिक्षा ददध्वं न पुनर्यथा साधवो गत्वा धर्मलाभमिति वदन्ति तथा स वदति एनां च प्रतिमा प्रतिपन्नस्य भिक्षां ददध्वमित्यपि न वदति अतो वस्तुतःप्रतिमा विना न भिक्षामार्गणमुचितं सूत्ररीत्येति 'तं चेत्यादि' तं च श्रमणोपासकं प्रतिपन्नमेतद्रूपेण विहारेण विचरन्तं दृष्ट्वा कश्चिन्निर्दिश्य वदेत् केयं त्वद्वृत्तिः किमाचारप्रतिपन्न आयुष्मन्नित्यामन्त्रणवञ्चनं त्वमिति भवान् वक्तव्यः स्यात् तदास वदति 'समणोवासए इत्यादि' व्यक्तम्। निर्वचनवाक्यमत्रापि पञ्चमप्रतिमाधिकारोक्तानि पदानि "समं कारण फासत्ति" इत्यादीनि द्रष्टव्यानि शेष Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासगपडिमा 1136- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवाहि पाठसिद्धम्। इत्येकादशोपासकप्रतिमा षष्ठमध्ययनं च समाप्तम्। दशा० पञ्चमी, सचित्ताहारपरिण्णा इति षष्ठी, दिया बंभचारी राओ ६अ०आ०चून परिमाणकडेति सप्तमी, दिया विराओ विबंभयारी असिणाणपवोसट्टएकादशी श्रमणभूतप्रतिमा तत्स्वरूपं चैतत् / केसमंसुरोमनहेत्ति अष्टमी, सारंभपरिन्नाए त्ति नवमी, पेस्सारंभपरिणाए खुरमुंडो लोएण व, रयहरणं उग्गहं व घेत्तूण / त्ति दशमी, उद्दिट्ठभत्तविवज्जए समणभूइत्ति एकादशीति / तदेवं समणब्भूओ विहरइ, धम्म काएण फासातो॥३५॥ प्रतिमानुष्ठानमुपासकस्य / पंचा० 10 विव०। 'एक्कारसहिं उवासगपडिमाहि' उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञादर्शनादिगुणक्षुरेण छुरेण मुण्डो मुण्डितः क्षुरमुण्डो लोचेन वा हस्तलुञ्चनेन वा मुण्डः | सन् रजोहरणं पादप्रोञ्छनमवग्रहं च पतद्ग्रहं चोपलक्षणं चैत युक्ताः कार्या इत्यर्थः / आव०४अ० ग०। एकादशोपासकानां श्रावकाणां साधूपकरणस्य सर्वस्य गृहीत्वाऽऽदाय श्रमणभूतः साधुकल्पः प्रतिमाः प्रतिपत्तिविशेषाः दर्शन-व्रतसामायिकादिविषयाः प्रतिपाद्यन्ते यत्र तत्तयैवोच्यते इति / आचारदशानां षष्ठेऽध्ययने, स्था० 10 ठा०॥ सकलसाधुसमाचारासेवनेन विहरति गृहान्निर्गत्य ग्रामादिषु विचरति साधुवत् धर्म चारित्रधर्मं समितिगुत्यादिकं कायेन देहेह न मनोमात्रेण प्रथमायां श्राद्धप्रतिमायां दर्शनिद्विजादिभिक्षुकाणामन्नादि दातुं कल्पते स्पृशन पालयन्नेकादश्यां प्रतिमायामिति शेष इति गाथार्थः / न वा / / 1 / / तथा कुलगुरुसंबन्धेन समागतानां दर्शन्यादीनामपि / / 2 / / अन्यच नवमप्रतिमादिषु देशावकाशिकं कर्तुं युज्यते न वा / / 3 / / तथा ममकारेऽवोच्छिण्णे, वचति सण्णायपल्लि दटुंजे। क्वचिल्लिखितविधौ दशमप्रतिमायां कर्पूरवासादिभिर्जिनानां पूजा तत्थ वि जहेव साहू, गेण्हति फासुंतु आहारं // 36 // कर्तव्येति लिखितमस्ति तद्विषये कियतीःप्रतिमा यावचन्दनपुष्पाममेत्यस्य करणं ममकारस्तत्राच्यवच्छिन्ने अनपगते सत्यनेन दिभिः पूजा कियतीषु च कर्पूरवासादिभिः कस्यां च नेति / / 4 / / (उत्तरम्) स्वजनदर्शनार्थित्वकरणमुक्तं सज्ञाता स्वज्ञातयस्तेषां पल्ली प्रथमश्राद्धप्रतिमायां दर्शनिद्विजादिभ्योऽनुकम्पादिना अन्नादि दातुं संनिवेशस्ता सज्ञातपल्ली द्रष्टुं दर्शनीय सज्ञातानीति गम्यते जे इति कल्पते न तु गुरुबुद्धयेति तत्त्वम् / / 1 / / एवं कुलगुरुतादिसंबन्धेनागताना पादपूरणे निपातः / तत्रापि सज्ञातपल्लीव्रजनेऽप्यास्तामन्यत्र यथैव लिङ्गिनां दातुं कल्पते॥२॥ नवमप्रतिमादिषु देशावकासिकस्याकरणमेव यद्ददेव साधुः संयतस्तथैवेति शेषः गृहात्यादत्ते प्रासुकं तु प्रतिभाति // 3 // तथा प्रतिमाधरश्रावकाणां सप्तमप्रतिमा यावश्चन्दनप्रगतासुकमेवाचेतनमेवोपलक्षणत्वाचास्यैषणीयं चाहारमशनादि पुष्पादिभिरर्हदर्चनमौचित्यमञ्चति / ललितविस्तरापञ्जिकाभिप्रायेण कमिति सज्ञातपल्लिग्रहणेन चेदं दर्शयति प्रेमाव्यवच्छेदात्तत्र गमनेऽपि नत्वष्टम्यादिषु। कर्पूरादिपूजा तुअष्टम्यादिष्वपि नानुचितेति ज्ञायते तेषां तस्य न दोषस्तथा ज्ञातयः स्नेहादिनैषणीयं भक्तादि कुर्वन्त्याग्रहकरणेन निरवद्यत्वादिति। अक्षराणि तु ग्रन्थस्थाने नोपलभ्यन्ते इति। एकाश्यां च तद्ग्राहयितुमिच्छन्त्यनुवर्तनीयाश्च ते प्रायो भवन्तीति तद्ग्रहणं च साधुवदे--वेति बोध्यम्॥४ा ही। संभाव्यते तथापि तदसो न गृह्णातीति गाथार्थः। सज्ञातपल्लीगमन एव उवासण न०(उपासन) उपास्यन्ते भूयः क्षिप्यन्ते शरायत्र उप- अस्तस्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह / / विक्षेपे, आधारे-ल्युट्। शरक्षेपशिक्षार्थे शराभ्यासे, अमरः। उप-आस्पुच्छाउत्तं कप्पति, पच्छाउत्तु तु ण खलु एयस्स। भावे ल्युट् चिन्तने, मनने, वाच०।सेवने, ध०२अधिवातंच परिवायगो ओदणभिलंगसूपादिसवमाहारजायं तु // 37|| बहूर्हि उवासणेहिलद्धं नि०चू०॥ १उ० "सुस्सूसमाणो उवासेजा, सुप्पन्न पूर्व तदागमनकालात् प्राक् आयुक्त रन्धनस्थाल्यादौ प्रक्षिप्तं पूर्वायुक्तं सुत्तवस्सियं'' सूत्र०१ श्रु०६ अ० स्वार्थमेव राखुमारब्धमित्यर्थः / कल्पते ग्रहणयोग्यं भवति पश्चादायुक्तंतु उवासणा स्त्री०(उपासना) श्मश्रुकतनादिरूपे नापितकर्मणि, तच तदागमनकालादनन्तरमायुक्तं पुनर्न खलु नैव एतस्यैकादशप्रतिमा- ऋषभदेवकाले एव जातं पूर्वमनवस्थितनखलोमानस्तथा कालमस्थश्रावकस्य कल्पत इति वर्तते / गृहस्थानामधिकृतश्रावकार्थम हात्म्यतः प्राणिनोऽभवन्निति किञ्च भगवत्काल एव नखरोमाण्यतिरेकेण धिकतरौदनादिकरणसंकल्पसंभवात्किं तदित्याह / ओदनश्च कूरं प्रवर्द्धितुं लग्नानि न पूर्वमिति / गुरुराजादीनां पर्युपासनायाम्, आo भिलिङ्ग सूपश्च मसूराख्यद्विदलधान्यपाकविशेष आदिर्यस्य तत्तथा म० प्र०। तदुक्तं नियुक्तिकृता "उवासणा-णाम सुकम्ममाईया तत्सर्वमपि निरवशेषमप्याहारजातमभ्यवहार्यसामान्यं तुशब्दोऽपि गुरुरायाईणं वा उवासणा पज्जुवासणया"। आ० म० प्र०ा आ० चू० शब्दार्थस्तस्य च प्रयोगो दर्शित एवेति गाथार्थः।। (उसहशब्दे स्पष्टीभविष्यत्येतत्) अर्थतस्याः कालमानमाह / / उवासमाण त्रि०(उपासीन) उपासनं विदधाने, स्था०६ ठा० एवं उकोसेणं, एकारस मास जाव विहरेइ। उवासीय त्रि०(उपोषितवत्) कृतोपवासे, "नवकिरचाउम्मासे, छक्किर एगाहा पियरेणं,एवं सव्वत्थ पाएणं // 38 // दो मासिए उवासीय" आ० म० द्वि० एवमुक्तेन प्रकारेण क्षुरमुण्डादिना एकादश मासान् यावद्विहरति उवाह धा०(अवगाह) भ्वा-आत्म०प०। अवगाहने, अवाद् गाहेर्वाहः मासकल्पादिना विहारेण एकाहादि एकाहोरात्रप्रभृति आदिशब्दात् 205 // अवात्परस्य गाहेवहि इत्यादेशो वा / उवाहइ उग्गहइ द्व्यहव्यहादि यावद्विहरतीति प्रकृतम् / इतरेण जघन्येनेत्यर्थः इह च अवगाहते। प्रा०। पूर्व प्रतिमासुजघन्यं कालमानं नोक्तमतस्तदतिदेशत आहा एवमनेनैव उवाहण स्त्री०(उपानह) उप-नह-क्विप्-उपसर्गदीर्घः। चर्मपादुप्रकारेण जघन्यमानमेकाहादीत्यर्थः / एतच मरणे वा प्रव्रजितत्वे वा सति कायाम्, / "छत्तोवाहणसंजुत्ते, धाउरत्तवत्थपरिहिए" भ०२ श० संभवति नान्यथा सर्वत्र सर्वप्रतिमासु प्रायेण बाहुल्येन 1 उ० "अणुवाहणाय समणा मज्झे चउवाहणा हुं तु" आव० प्रायोग्रहणादन्तर्मुहादिसद्भावो दर्शित इति गाथार्थः / इह चोत्तरासु | १अ० अनुपानत्काश्च श्रमणाः मम चोपानहौ भवत इति। आ०म०प्र०। षट्स्वावश्यकचूा प्रकारान्तरमपि दृश्यते / तथाहि राईभत्तपरिण्णा | उवाहि पुं०(उपाधि) उपाधीयते इति उपाधिद्रव्यतो हिरण्या Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवाहि 1137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उवेहासंमज दौ भावतोऽष्टप्रकारे कर्मणि, उपाधीयते व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः। वाचा युक्ते, स०। संथा०। पंचू०। आव०। "पत्तपुप्फफलोवेए'' उत्त०५ आचा०१ श्रु०३अ० कर्मजनिते विशेषणे,। अ० नि० समन्विते च / नंगा किमस्थि उवाही पासगस्स णत्थि विज्जइणत्थि त्ति वेमि *उपेय त्रि० उप-इण-यत्। उपायसाध्ये प्राप्तव्ये उपगम्ये, अन्विष्यगम्ये किं प्रश्रे अस्ति विद्यते कोऽसावुपाधिः कर्मजनितं विशेषणं तद्यथा च। वाच०। उपेयाभावे उपायासिद्धिः विशे०। स्था०। नारकस्तिर्यग्योनिः सुखीदुःखी सुभगो दुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्यादि उवेल्ल धा०(प्र-सृ) प्रसरणे, "प्रसरेः पयल्लोवेल्लो" 8771 आहोश्विन्न विद्यते इति परमतमाशङ्कय त ऊचुः पश्य कस्य / इति प्रसरतेरुवेल्लादेशः उव्वेल्लइ प्रा०|| सम्यग्वादादिकमर्थं पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकस्तस्य उवेहमाण त्रि०(उपेक्षमाण) अवगच्छति, "अण्णहालोगमुवेह-माणे इति कर्मजनितोपाधिन इत्येतदनुसारेणाहमपि ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति कम्मंपरिणाय सव्वसोसेण हिंसति" आचा०।१श्रु०४अ०। अकुर्वति, आचा०१ श्रु० ४अ०४उ०/ उपाध्यानमुपाधिः। सन्निधौ, भ०१ श०१ आचा०१ श्रु०३ अ० अप-लोचयति, "उवेहाए उवेहमाणे अणुवूहमाणं उ०। अन्यथा स्थितस्य वस्तुनोऽन्यथाप्रकाशनरूपे कपटे, उपाधीयते यूयाउवेहाहि समियाए भवति" आगमपरिकर्मितमतित्वाद्यथावस्थितस्वधर्मोऽनेन करणेवाकिः। स्वसामीप्यादिनाऽन्यस्मिन् स्वधर्मारोप- पदार्थस्वभावदर्शितया सम्यगसमयगिति ह्युत्प्रेक्षमाणः पर्यालोचयन्नपरसाधने विशेषणभेदे, उपलक्षणरूपे विशेषणे च। कुटुम्बव्यापृते, उपाधीयते मुत्प्रेक्षमाणं गड्डरिकायूथप्रवाह प्रवृत्तं वा गतानुवतिकन्यायानुसारिणं नाम समीपे कर्मणि ते। उपनामनि, यथा भट्टाचार्यमिश्रादयः। उपाधीयते शङ्कया वा प्रधावन्तं ब्रूयाद्यथोत्प्रेक्षस्वपालोचय सम्यग्भावेन मनोऽत्र आधारे किः। धर्मचिन्तायाम, व्यभिचारोन्नायके न्यायमतसिद्धे माध्यस्थ्यमवलम्ब्य किमेतदर्हदुक्तं जीवादितत्वं घटामियाहोश्विन्नेपदार्थभेदे च / उपाधिः साध्यत्वाभिमतव्यापकत्वे सति साधनत्वा त्यक्षिणी निमील्य चिन्तयेति भावः / यदि चोत्प्रेक्षमाणः भिमताव्यापकः / वाच॥ संयममुत्प्रावल्येनेक्षमाणः संयमे उद्यच्छन्नतु प्रेक्षमाणं ब्रूयाद्यथा उवाहिसुद्ध (उपाधिशुद्ध) आर्य्यदेशसमुत्पन्नादिविशेषणशुद्धे, "ता सम्यग्भावापन्नः संयममुत्प्रेक्षस्व संयमे उद्योगं कुरु / आचा० 1 श्रु०५ धन्नाणं गीओ, उवाहिसुद्धाण देइ पव्वजां" पं०व०|| अ०५ उ०1"उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे" उपेक्षमाणः परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टा-निष्टविषये चोपेक्षमाणो माध्यस्थ्यमवलम्बमानः उविइत्ता अव्य०(अवनश्य) विच्छिद्येत्यर्थे, "जावतियं 2 अंतोपडिग्गह कुशलैर्गीताथैः सह संवसेत् आचा०२ श्रु० / उदासीने, उवेहमाणा गस्स उविइत्ता दलएजा'' व्य०१ उ०| णाइक्कमई"।। उपेक्षमाणा इति उपेक्षा द्विविधा व्यापारोपेक्षा उविंद पुं०(उपेन्द्र) उपगत इन्द्रम् कृष्णे, अत्या० समा० सुखिनो अव्यापारोपेक्षा च / तत्र व्यापारोपेक्षया तमुपेक्षमाणास्तद्विषयायां विषयातृप्ता नेन्द्रोपेन्द्रादयो रहः। उपेन्द्रः कृष्णः / अष्ट। छेदन बन्धनादिकायां समयप्रसिद्धक्रियायां व्याप्रियमाणा इत्यर्थः / "राजाधिराजस्तत्रासीदुपेन्द्रोऽपीन्द्रवद् भुवि / सदा नवं सुमनसां, अव्यापारोपेक्षया च भृतकस्वजनादिभिस्तं सक्रियमाणमुपेक्षमाणाचित्रमोदमदस्तयत्" आव०१ अातोति द्वारवत्याम्। स्तत्रोदासीना इत्यर्थः स्था०६ ठा० उविंदवजा स्त्री०(उपेन्द्रवज्रा) "उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ" इति उवेहा स्त्री०(उपेक्षा) उप--ईक्ष-अ-अवधीरणे, माध्यस्थ्ये, षो 4 विव०। बृ०र० उक्तएकादशाक्षरपादके छन्दोभेदे,। अस्याश्च इन्द्रवज्रया संमेलने द्वा०ा आरोपणे, अष्ट०। विशेषणे, षो०१३विव०। परदोषोपेक्षणमुपेक्षा उपजातिर्भवति। वाचा परेषां दोषा अविनयादयः प्रतिकर्तुमशक्यास्तेषामुपेक्षाऽवधीरणमुपेक्षा / उविक्खेव पुं०(उद्विक्षेप) वालोत्पाटने, मुण्डनमिति लोकोक्ति- सम्भवत्प्रतीकारेषु दोषेषु, नोपेक्षा विधेयाषो०४ विव०। "उवेहेणं बहिया प्रसिद्धेऽर्थे , तं०॥ य लोयं"(उवेहेति) योऽयमनन्तरं प्रतिपादितः पाषण्डिलोकः एनं उवियग्ग त्रि०(उद्विग्न) उद्वेगवति, स्था०४ ठा०। धर्मादहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्य तदनुष्ठानं मानुमस्थाः। चशब्दोऽनुक्तउ(ओ)वील न०(अपवीड) शेखरे, वि०६ अ०। अवपीडनं परेषा समुचयार्थस्तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदानसंस्तवनादिकं च मा कृथा मित्यवपीडः। अष्टादशे गौणादत्तादाने, प्रश्न०१ श्रु०३ अ०|| इति आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। (यः पापण्डिलोकोपेक्षकः स उदीलण न०(अवपीडन) निष्पीडने, विपा० अ० कं गुणमवाप्नुयादिति सम्मत्त शब्दे वक्ष्यते सति कलहे उपेक्षा कर्तव्येत्यहिगरण शब्दे उक्तम्) उवीला स्त्री०(उपपीडा) वेदनायाम्, "अप्पेते उवीलंदलेंति" अवपीडं उवेहाअसंजम पुं०(उपेक्षाऽसंयम) असंयमयोगेषु व्यापारणरूपे शेखरंमस्तकेतस्यारोपणात् उपपीडांवा वेदनांदलयन्ति विपा०६अ। संयमयोगेष्वव्यापारणलक्षणे वाऽसंयमभेदे, सा उवीलेमाण त्रि०[(उप)अवपीडयत्] वेदनामुत्पादयति, "उदीलेमाणे उवेहाए अव्य०(उपेक्ष्य) उप-ईक्ष ल्यप्-पालोच्येत्यर्थः, आचा०१ विधम्ममाणे तज्जमाणे'' विपा०३ अ०। श्रु०३ अ०। ज्ञात्वेत्यर्थे , "लोगवित्तं ण उवेहाए" उपेक्ष्य ज्ञात्वा उवूहेत्ता त्रि०(अनुवृंहयितृ) परेण स्वस्य क्रियमाणस्य पूजादेर ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् आचा०१ श्रु०५ अ०। नुमोदयितरि, तद्भावे हर्षकारिणि, "पूयासक्कारमए उवूहेत्ता भवइ" उवेहासंजम पुं०(उपेक्षासंयम) संयमभेदे, इदानीमुपेक्षासंयम उच्यते सा स्था०७ठा। चोपेक्षा द्विविधा कथं यतिव्यापारोपेक्षा गृहस्थव्यापारोपेक्षा च / तत्र उवेच अव्य०(उपेत्य) उप-इ-ल्यप। प्राप्येत्त्यर्थे , "उवेचसुद्धेण उवेति यथासंख्यं चोदनाचोदनविषया / संयतस्य चोदनविषया व्यापारोपेक्षा। मोक्खं" सूत्र०१ श्रु०१४ अ०il एतदुक्तं भवति साधु विषीदन्तं दृष्ट्वा संयमव्यापारेषु चोदयतः उवेय त्रि०(उपेत) उप-इण-त। उपगते, समीपगते, सेवादिधर्मेण प्राप्ते, संयमव्यापारोपेक्षाईक्षदर्शनेउपसमीपेनईक्षाउपेक्षा। गृहस्थस्यचव्यापारो Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवेहासंजम 1138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उव्वट्टणा पेक्षा गृहस्थ मधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं दृष्ट्वा अधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं, चोदयतः गृहस्थव्यापारोपेक्षा उच्यते / उपेक्षाशब्दश्चात्र अवधारणायां वर्तते! ओ०। वृक्षण उव्वक्क पुं०(उत्पक्च) क्षीरादिमध्ये प्रक्षिप्य कियत्कालं धृत्वा ततो निष्काशिते "उसिणोदगखीरउव्वक्को'" व्य०१उ०) उव्वदृत त्रि०(उद्वर्तयत) उद्वर्तनं कुर्वति, "उल्लोलंतं उव्यदृत वा साइज्जइ" नि० चू०१६उ० उव्वट्टण न०(उद्बवर्तन) उद्-वृत्-भावे-ल्युट् / चालने, "उव्वट्टगे' समत्थेइ रमए वा वि / वृ० उ०। सुरभिचूर्णादिना (ग०३ अधि०) कल्कलोध्रादिना (बृ०१उ०) पिष्टिकादिना वा मलोत्तारणे, तं०। साधूनामुद्वर्तननिषेधोऽणायारशब्दे उक्तः) उद्व-तेने प्रमादाचरित तथा / उद्वर्तनं संसक्तचूर्णादिभिः उद्वर्तनिकाश्च न भस्मनि निक्षिप्तास्ततस्ताः काटिकाकुलाः श्वादिभिर्भक्ष्यन्तेपादैर्वा मृद्यन्ते ध०२ अधि०ा द्रव्यभेदैः स्नेहाद्यपहारार्थे व्यापारे च। उदयतेऽनेन, उद्-वृत्-णिच् करणे ल्युट् / शरीरनिर्मलीकरण-द्रव्यादौ, वाचाज्ञा० कर्मपरमाणूनास्वस्थितिकालतामपगमय्य दीर्घस्थितिकालतया व्यवस्थापने, पं० सं०॥ अधोदेशस्योपकरणेन परिवर्तने, ज्ञा० अ०३ वामपार्श्वेन सुप्तस्य दक्षिणपार्श्वेन वर्तने च। आव०४ अग उव्वट्टणा स्त्री०(उद्वर्तना) उद्वर्तनमेवोद्वर्तना। तत्प्रथमतया वाम-पार्श्वन सुप्तस्य दक्षिणपार्श्वेन वर्तने, “इच्छामि पडिक्कमिओ पगामसिज्जाए णिगामसिजाए उव्वट्टणाएपरियट्टणाए"आव०४ अ० उद्वयेतेप्राबल्येन प्रभूतीक्रियेते स्थित्यनुभागौ यया वीर्यविशेषपरिणत्या असौ उद्वर्तना। पं०सं०। उद्वर्त्य ते प्राबल्येन प्रभूतीक्रियते स्थित्यादि यथा जीववीर्यविशेषपरिणत्या सा उद्वर्तना स्थित्यनुमागयोवृहत्करणरूपे तृतीये करणे, क०प्र०ा विशे०। अथ स्थित्यनुभागविषया उद्वर्तना व्याख्यायते। उदयावलिवज्झाणं, ठिईण उव्वट्टणा उठिइविसया। सोकोस अवाहाओ, जा वावलि होई अतिठवणा।। उद्वर्तना स्थितिविषया भवति / उदयावलिकबाह्यानां स्थितोनामुदयावलिकादिसकलकरणयोग्येति न तदा स्थितीनां प्रतिषेधः किं सर्वासामप्युदयावलिकाबाह्यानां स्थितीनामुद्वर्तना नेत्याह। स्वोत्कृष्टाया अबाधायाः स्थितयस्तासामुद्वर्तनाएषा स्वोत्कृष्टा अबाधाप्रमाणा उत्कृष्टा अतिस्थापना। अतिस्थापना नाम उल्लङ्घना तदा अतिह्रस्वा ह्रस्वतरा अतिस्थापना तावत्यावजघन्या अबाधातलोऽपिजधन्या अतिस्थापना भवति। आवलिका आवलिकाप्रमाणा इयमत्र भावयना वध्यमानप्रकृतविती अबाधा तया तुल्या अबाधादीनां वा पूर्ववत्प्रकृतीनां या स्थितिः सा नोद्वर्तते सा उत्पद्य ततः स्थानादूर्द्ध वध्यमानप्रकृतेरबाधाया उपरितनेः क्षिप्यते अबाधाकालान्तः प्रविष्टत्वात् यासु पुनरबाधाया उपरितनी सा स्थितिः पर्यन्तमुद्वर्तयते तदेवमबाधान्तःप्रविष्टाः सर्वा अपि स्थितय उद्वर्त्य उद्वर्तनामधिकृत्य अतिक्रमणीया भवन्ति तथा वसतौ यैवोत्कृष्टा अबाधा स्थिता सैव उत्कृष्टा प्रतिस्थापना समयोना उत्कृष्टा अबाधासमयोना उत्कृष्टा अतिस्थापना द्विसमयोना उत्कृष्टा अबाधा द्विसमयोना उत्कृष्टा अतिस्थापना। एवं समयसमयादन्या अतिस्थापना तावद्वक्तव्या यावज्जघन्या अबाधा अन्तर्मुहूर्तप्रमाणाततोऽपिजधन्यतरा अतिस्थापना आवलिकामानं तच उदयावलिकालक्षणमवसेयं न युदयावलिकान्तर्गताः स्थितय उद्वर्तिताः "उव्वट्टणाठि ईए उदयावलियाए बाहिरं ठिईण' मिति वचनात् / ननु यदा वा बन्धे सत्यद्वर्तनां प्रवर्तिष्यत "अबंधा उव्वट्टइ" इति वचनात् तत उदयावलिकागताः स्थितयोऽबाधान्तर्गतत्वेन नोतिष्यनते किमुदयावलिकाप्रतिषेधेन तदयुक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् अबाधान्तर्गताः स्थितयो नोद्वर्तन्ते इति / किमुक्तं भवति अबाधान्तर्गताः स्थितयः स्वस्थानादुत्पाद्य अबाधायामध्ये पुनस्तासां वक्ष्यमाणक्रमेणोद्वर्तनानिक्षेपौ प्रवर्तमानौ न विरुध्येते तत उदयावलिकान्तर्गता अपि उद्वर्तनामाप्नुवन्तीति प्रतिषिध्यन्ते। संप्रति निक्षेपप्ररूपणार्थमाह। इच्छियठिइठाणाओ, आवलियं लंधिऊण तद्दलियं / सव्वेसु वि निक्खिप्पइ, ठिइठाणेसु उवरिमेसु।। ईप्सितस्थितिस्थानात् यतः स्थितिस्थानमुद्वर्तते ततऊर्द्धमित्यर्थः / आवलिकां लकयित्वा अतिक्रम्य तद्दलिकमुद्वय॑मानस्थितिदलिक सर्वेष्वपि उपरितनेषु स्थितिस्थानेषु निक्षिप्यते एव निक्षेपविधिः। संप्रति निक्षेपविषयप्रमाणनिरूपणार्थमाह। आवलिय असंखभागाई,जाव कम्मट्टिइ ति निक्खेवो। सम उत्तराणियाए, सावाहाए भवे ऊणे।। इह निक्षेपविषयो द्विधा जघन्य उत्कृष्टश्च। तत्रावलिकाया असंख्येभागमात्रासु स्थितिषु यः कर्मदलिकनिक्षेपः सजघन्यस्तथा हि सर्वोत्कृष्टात् स्थित्यग्रादध आवलिकाऽऽवलिकाया असंख्येयं च भार्ग भवतीत्यधस्तनीया स्थितिस्तस्या दलिकमतिस्थापनावलिकामात्रमतिक्रम्योपरितनाधिकाया अस-ख्येयभागभाविनीषु निक्षिप्यते नावलिकाया मध्येऽपि तथा स्वाभाव्यात् ततोऽसावेतावान् जघन्ये दलिके निक्षेपविषयः / एवं सति आवलिकाया असंख्येयतमे भागे नाधिकासु आवलिकामात्रासु स्थितिषु उद्वर्त्तनं भवतीति सिद्धम् / तथा च च सत्युकृष्टस्थितिबन्धे उद्वर्तनायोग्याः स्थितयो बन्धावलिकामबाधाभुपरितनी चावलिकामसंख्येयभागाधिका मुक्त्वा शेषा एव दृष्टव्याः / तथा हि बन्धावलिकान्तर्गतं सकलकरणयोग्यमिति कृत्वा बन्धावलिकान्तर्गताः स्थितयो नोद्वर्तन्ते अबाधान्तर्गता अपि नोद्वर्तनायोग्यास्तासामतिस्थापनात्वेन प्राक् प्रतिपादितत्वात् संख्येयभागाधिकमात्रभाविन्यश्च उपरितन्यः स्थितयप्रागुक्ता व्यक्ते रेव नोद्वर्तनायोग्याः संप्रत्युत्कृष्टो निक्षेपविषयश्चिन्त्यते 'जावकम्मट्टि' इत्यादि। इयमत्र भावना यदा आवलिकामावलिका संख्येयभागमध्यवर्तिनी द्वितिया अधस्तनीस्थिति रुद्वर्तयते तदा समयाधिकावलिकाया असंख्येयभागो निक्षेपविषयः यदहतु तृतीया स्थितिरुद्वर्तयते तदा द्विसमयाधिकः। एवं मामयवृद्ध्यातावद्दलिकनिक्षेपविषयो यावदुत्कृष्टो भवति स च कियान् भवतीति चेदुच्यते समयाधिकावलिका अबाधया वा हीना सर्वकर्मस्थितिः तथ हबाधोपरिस्थितीनामुद्वर्तना भवति तथाप्यबाधया उपरितने स्थितिस्थाने उद्वर्त्यमाने अबाधाया उपरिदलिकनिक्षेपो भवति न अबाधामध्ये उद्वर्त्यमानदलिकस्य उद्वर्त्यमानस्थितेरुद्ध निक्षेपात् तत्राप्युद्वय॑मानस्थितरुपरि आवलिकामात्राः स्थितीरतिक्रम्योपरितनोषु सर्वासुदलिकनिक्षेपणा भवति ततः स्थापनावलिकामुद्वय॑माना स्थितिं समयमात्रामबाधां वर्जयित्वा शेषाः सर्वा अपि कर्मस्थितिरुत्कृष्टो दलिकनिक्षेपविषयः। तथा चाह। आवाहोवरिठाणा, दलियं पडुचेह परमनिक्खेवो। Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उव्वट्टणा 1136 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उव्वट्टणा वरिपुटवट्टणुताणं, पडुबई जाइय जहन्नो। स्थापना वर्द्धते तावत् यावदावलिका परिपूर्णा भवति निक्षेपस्तु तत्र अबाधाया उपरितनं यत् स्थितिस्थानं तद्दलिकं प्रतीन्य उद्वर्तना-करणे सर्वत्रापि तावन्मात्रएव अतिस्थापनावलिकायां परिपूर्णायां निक्षेपोवर्द्धते परम उत्कृष्टो निक्षेपो भवति परम तु स्थितिस्थानं यस्मात्परं नोद्वर्तते इतिशब्द उद्वर्तनाकर्तव्यतापरिसमाप्तिसूचको यावच्चानेननवकर्मबन्धः तदधिकृत्य जघन्यो दलिकनिक्षेपः।। प्राक्तनस्थितिसत्कर्मणः सकाशात् द्वाभ्यामावलिकासंख्येयतमाभ्यां संप्रति यावन्मात्राः स्थितय उद्वर्तनयोग्यास्ताः प्रतिपादयति। भागाभ्यामधिको न भवति तावत् प्राक्तनस्थितिसत्कर्मणश्चरमउक्किट्ठे ठिइबंधे, बंधावलिया अवाहमेत्तं च / स्थितेरध आवलिकामसंख्येयभागाधिकामतिक्रम्योपरितने आवलिनिक्खेवं च जहण्णं,तामोत्तुं उव्वए सेसं॥ काया असंख्येयतमे भागे निक्षिपति / यदा तु द्वितीयमध स्तनी स्थितिमुद्वर्तयति तदा समयाधिके असंख्येयतमे भागे निक्षिपति उत्कृष्ट स्थितिबन्धे क्रियमाणं बन्धावलिकामबाधामात्रं निक्षेपं च एवं प्रकारेण दृष्टव्यम्। संप्रत्यल्पबहुत्वमुच्यते या जघन्या अतिस्थापना जधन्यम् / इह जघन्यनिक्षेपग्रहणात् सर्वोपारतनी आवलिका यश्च जघन्या निक्षेप एतौ वावपि सर्वस्तोकं परस्परं वा तुल्यौ एतौ आसंख्येयभागाधिका गृह्यते ततस्तां च मुक्त्वा शेषं सर्वमपि स्थि द्वावप्यावलिकासत्कासंख्येयतमभागप्रमाणौ ताभ्यामसंख्येयगुणा तिजातमुर्तते भावना चैतद्विषया प्रागेव कृता / एष निर्व्याघाते विधिः। उत्कृष्टा अतिस्थापना तस्या उत्कृष्टाबाधारूपत्वात् ततोऽप्युत्कृष्टो व्याघाते पुनरयम्। निक्षेपोऽसंख्येयगुणो यतोऽसौ समयाधिकावलिकाया साबाधया हीना निव्वाधाए एवं, वाघाओ संतकम्मठिइबंधो। सकर्मस्थितिः ततोऽपि सर्वकर्मास्थितिर्विशेषाधिकापं०सं०।क०प्र० आवलिअसंखभामो, जावलिओ तत्थ अइठवणा।। अथानुभागोद्वर्तनामाह। एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण दलिकनिक्षेपो नियाघातेप्याघाताभावे द्रष्टव्यः चरमं नो वट्टिाइ, जा ठाणंताणि फडगाणि तउ। व्याघाते पुनरन्यथा / अथ कोऽसौ व्याघात इत्याह / व्याघातः उस्सक्कियउवट्टइ, उदयाववट्टणा एवं। प्राक्तनस्थितिसत्कर्मापेक्षया इत्यधिकाभिनवकर्मबन्धरूपा तत्राति चरमस्पर्द्धकं नोद्वर्तयतेनापि द्विचरमं नापि त्रिचरमम् एतावता तावद्वाच्य स्थापना आवलिकाया असंख्ये यतमो भागः स च प्रवर्तमा यावचरमान् स्पर्द्धकानधोऽनन्तानि स्पर्द्धकानि नोद्वर्तयते किं तु तस्य नस्तावदवसेयो यावदावलिका / इयमत्र भावना / प्राक्तनसत्कर्म चतुष्कस्याधस्तादवतीर्य यानि स्पर्द्धकानि समयमात्रस्थितिगतानि स्थित्यपेक्षया समयादिनाऽभ्यधिको योऽभिनवकर्मबन्धस्य व्याघात तान्युदर्तयति तानि चोद्वय॑ आवलिकामात्रस्थितिगतानि अनन्तानि इहाभिप्रेतस्तनामा स्थापना आवलिका जघन्याया असंख्येयभागमात्रा। स्पर्द्धकानि अतिक्रम्योपरितने द्वे आवलिकासत्कासंख्येयभागमात्रगतेषु तथा हि प्राक्तनसत्कर्मस्थितेः सकाशात् समयमात्रेणाभ्यधिकेऽभि स्पर्द्धकेषु निक्षिपति / यथा पुनरधोऽवतीर्य द्वितीयसमयमात्रनवकर्मबन्धेसति प्राक्तनसत्कर्मणोऽप्यर्थो द्विचरमावा स्थितिर्नोद्वर्तते। स्थितिगतानि स्पर्द्धकानि उद्वर्तयति तथा आवलिकामात्रस्थितिगतानि एवं यावदान्नलिका जघन्याया असंख्येयभागमात्रा अन्यस्याश्चाव स्पर्द्धकानि अतिक्रम्य उपरितनेषु समयाधिकावलिकासत्कर्मलिकाया असंख्येयतमो भाग इति / एवं सभयद्येन समयत्रयेण संख्येयभागमात्रगतेषु स्पर्द्धकषु निक्षिपति एवं यथा यथा अधोऽवतरति यावदावलिकाया असंख्येयतमेनापि भागेनाधिके अभिनवकम्मबन्धे तथा तथा निक्षेपो वर्द्धते अतिस्थापना पुनः पुनः सर्वत्रापि द्रष्टव्यम्।यदा पुनाभ्यामावलिकासंख्येयतमाभ्यां भागाभ्यामधिकोऽ आवलिकामात्रस्थितिगतान्येव स्पर्द्धकानि 1 कियान पुनरुत्कृष्टो भिनवकर्मबन्ध उपजायते तदा प्राक्तनसत्कर्मणोऽन्त्यस्थितिरुद्वर्तते निक्षेपविषय इति चेदुच्यते बन्धावलिकायामतीतायां समयाधिकावलिउद्वर्त्य च आवलिकायाः प्रथम संख्येयतमंभागमतिक्रम्य द्वितीयेऽसंख्ये कामात्रगतानि स्पर्द्धकानि व्यतिरिच्य शेषाणि सर्वाण्यपि निक्षेपविषयः। यतमे भागे निक्षिप्यते एतौ अतिस्थापनानिक्षेपौ जधन्यौ / यदा पुनः संप्रत्यत्रैवाल्पबहुत्वं चिन्त्यते सर्वस्तोको जघन्यनिक्षेपः तस्यावलिसमयाभ्यधिकाभ्यां द्वाभ्यामावलिकाया असंख्येयतमाभ्यां भागाभ्याम कासत्कासंख्येयभागगतस्पर्द्धकमात्रविषयत्वात् ततोऽतिस्थापना धिकाभिर्नवकर्मबन्धस्तदा आवलिकायाः प्रथममसंख्येयतमं भागं अनन्तगुणा निक्षेपविषयस्पर्द्धकभ्य आवलिकामात्र स्थितिगतानां स्पर्द्धसमयाधिकमतिक्रम्य असंख्येयतमे भागे निक्षिप्यते एवमभिनव कानामनन्तगुणत्वात्। एवं सर्वत्राप्यनन्तगुणता स्पर्द्धकापेक्षया द्रष्टव्या कर्मबन्धस्य समयादिवृद्धौ अतिस्थापना प्रवर्द्धते सा च तावत् तत उत्कृष्टो निक्षेपोऽनन्तगुणः ततोऽपि सर्वो भागो विशेषाधिकः / यावदावलिका परिपूर्णा भवति। निक्षेपस्तुसर्वत्रापि तावन्मात्र एव भवति तदेवमुक्ता अनुभागोद्वर्तना। पं० सं०(कर्मप्रकृतौ तु "एव उव्वट्टणाई तत ऊर्द्ध पुनरपि नवकर्मनिक्षेप एव केवलो बर्धते। एवंदेवाह। उ" एवं चतुर्थपात् / अयमिहानुपयुक्तो ऽव्याख्यातोऽपि गाथापूर्तये आवलि, दोसंखंसी, जइ वड्डइ अहिणवो उठिइबंधो।। प्रदर्शितः) उद्वर्तनमुद्वर्तना। तत्कायान्निर्गमे मरणे, "दोण्हं उव्वट्टणा उक्किट्ठातो चरिमा, एवं जा वलिय अइठवणा॥ पण्णत्ता तं जहा नेरइयाणं चेव भवणवासीणं चेव'' उद्वर्तना अइठवणा वलियाए, पुण्णाए वङ्करंति निक्खेवो। नैरयिकभवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते अन्येषान्तु मरणमेवेति। स्था०२ यदा प्राक्तनस्थितिसत्कर्मापेक्षया अभिनवस्थितिबन्धो वर्द्धते ठा०। (उद्वर्तनायाः सर्वा वक्तव्यता उववायशब्दे दर्शिता यथा सान्तरं व्यावलिकाया असंख्येयांशो यतस्तौ भागौ ततः प्राक्तनास्थतिस- निरन्तरं चोद्वर्तन्ते इति सतोऽसतो वा नैरयिक विषयादुद्वर्त्य कर्मणोऽन्त्या स्थितिरूद्वर्तते। उद्वर्त्य चावलिकायोः प्रथमसंख्येयतमं / तीर्थकृत्त्वादिलाभः इति च अंतकिरिया शब्दे उक्तम्) भागमतिक्रम्य द्वितिये असंख्येयतमे भागे निक्षिपति एतावता ) खुङगकडजुम्मणेरइयाणं भंते ! अणंतरं उटवट्टित्ता कहिं स्थापनानिक्षेपौ जघनयो ततोऽभिनवकर्मबन्धस्य समयादिवृद्धावति-1 उववजति किं णे रइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिसुए Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवट्टणा ११४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उव्वेग उववजंति उव्वट्टणा जहा वकंतीए तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं गुरुगा' उद्घातः परिश्रान्त इति कृत्वा नष्टः / व्य०१ उ०। अतिपरिकेवइया उव्वट्टति गोयमा! चत्तारिवा अट्ठ वा वारस वा सोलस श्रान्ते, "हिंडतो उव्वातो सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी" व्य०४ उ०॥ वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उबट्टति तेणं भंते ! जीवा कहं उदाह (देशी) धर्मार्थे, दे०ना०। उव्वदृति? गोयमा ! से जहाणामए पवए एवं तहेव एवं सो चेव उव्वाहिज्जमाण त्रि०(उदाध्यमान) प्रावल्येन वाध्यमाने, “उच्चारपागमओ जाव आयप्पओगेणं उव्वदृति णोपरप्पओगेणं उव्वदृति - सवणेणं उव्वाहिजमाणे" आचा०२ श्रुका प्रावल्येन मोहोदयात्पीड्यमाने, रयणप्पभपुढविखुड्डागकडजुम्म एवं रयणप्पभाए वि एवं जाव "उव्वाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं" आचा०१ श्रु०५अ०। अहेसत्तमाए वि / एवं खुड्डागतेओगे खुड्डागदावरजुम्मे उटिवग्ग त्रि०(उद्विग्न) नद्-विज-कर्तरिक्त-सर्वत्र लवरामवन्द्रे खुड्डागकलिओगे णवरं परिमाणं जाणियध्वं सेसं तं चेव सेवं ||176 / / इति लोपः प्रा०1 आनन्दरसत्यागमानसे, भ० भंते ! भंतेत्ति (31 श०३१ उ०) कण्हलेस्सकडजुम्मे णेरड्या ३श०१ उभीते, "जम्मनचुभउव्विग्गा दुक्खस्संतगवेसिणो' उत्त० एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया १४अ०1"अडविजम्मणा णिच्चवासजणगाणं'' प्रश्न०१ द्वारा उद्वेगवति, तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा णिरवसेसा "उविग्ग अप्पुया असरणा अडवीवासं उति''प्रश्न णवरं उव्वटुंति त्ति अभिलावो भाणियव्वो सेसं तं चेव सेवं भंते ! 3 द्वा०। पराङ्मुखचित्ते, तेणं नरकेसु नारका णिचं तसिया णिचं मंते ! ति जाव विहरइ / उव्वट्टणासयं सम्मत्तं // 32|| भ०३१ उद्विग्या'' प्रज्ञा०२पद / यथोक्त दुःखानुभवतस्तद्गतवासपराङ्ज्ञा०३२ उ०॥ मुखचित्ताः जी० ३प्रति०|| उवट्टणासंकम पुं०(उद्वर्तनासंक्रम) उन्मानप्रकृतीनां बन्धे, उटिवग्गया स्त्री०(उद्विग्नता) इष्टवियोगाद्यनिमित्तकसहजत्या'आबंधाउव्वई' पं०सं०। स्तोकस्य रसस्य प्रभूतीकरणे, पं० सं०। गेच्छायाम, भवादुद्विग्नताशुद्धौ, द्वा०२१ द्वा०। उध्वट्टित्ताअव्य०(उद्वर्त्य) उद्गलनं कृत्वेत्यर्थे ,स्था० ३ठा०।। उव्विव धा०(उद्विज) उद्वेगे, उद्विजः // 14 // 227 // उद्विजेरन्त्यस्य उवट्टिय त्रि०(उदर्तित) पिष्टकादिना कृतोद्वर्तने, "अब्भंगिय संबाहिय वो भवति। उव्विवइ उद्विजते प्रा० उव्वट्टियमज्जियंचसे जाणं" पिं० तत्त्वाच्च्याविते, "उवट्टिया पओसं, उटिवह पुं०(उद्विह) द्वादशानामाजीविकोपासकानां तृतीये, भ० छोभ उठभामओय सेजते" या अभिनवस्थापिता सती धात्री उद्वर्तिता धात्रीत्वाच्च्याविता। पिं० कृतोद्वर्तनाके, "णरगा उवट्टिया अधण्णा ते 8 श०५ उ०। विय दीसंति' प्रश्र०१द्वा०ाततो वि उव्वट्टिया समाणा पुणो विपवजंति" उविहंत त्रि०(उद्विजहत्) ऊर्द्ध क्षिपति, भ०७ श०१४ उ०। उत्पतति प्रश्र०३ द्वा०"आउक्खएण उव्वट्टिया समाणा'' प्रश्न०१ द्वा०॥ च। किमपरं मणसा वि उव्विहत्ता इति ज्ञा०१७ अ० उव्वड्डत्रि०(उदृद्ध) उदृद्धिमपगते, "अमुगो पच्चंतराया उव्वड्डा अणजंता उविहमाण त्रि०(उद्विजहत) उद्विजहति, भ०१ श०६ उof पुरिसा कूडलेहे उवणेतु"। आ० म०द्विा उविहिय अव्य०(उद्व्यूह्य) उत्प्रेक्ष्येत्यर्थे, भ०१३ श०६ उ०/ उव्वत्त त्रि०(उद्धृत्त) कृतोद्वर्तने, "मच्छुव्वत्तं" मत्स्योद्वृत्तमेकं वन्दित्वा उव्वीढ त्रि०(उद्व्यूढ) ईर्वोन्यूढे 8/1/120 // इति उद्व्यूढशब्दे ऊत मत्स्यवद् द्रुतं साधुं द्वितीयपाइँन रेचकावर्तेन परावर्तते आव०३अ०। __ ईत्वं वा / उव्वीढं उव्वूढं। उत्प्रेरिते,प्रा० उध्वत्तण न०(उद्वर्तन) एकपादिन्यपाव-भवने, ध०३ अधिo उट्वीलय पुं०(अपवीडक) लज्जया अतिचारान् गोपायन्तमुप "उत्ताणयस्सपासल्लियकरणं उव्यत्तण। नि० चू० 4 उ०। उद्वर्तनं नाम देशविशेषैरपव्रीडयति, विगतलज्जं करोतीति अपनीडकः / पंचा० 15 तस्या उत्तानायाः पार्श्वतः करणम् / बृ०३ उ०। ऊर्द्ध वर्तने विव० स्था०ा लज्जयाऽतिचारान् गोपायन्तं विचित्रवचनैर्वि-लज्जीकृत्य "उव्वत्तणणिल्लेवणवीहंते अणिओगं" ऊर्द्धवर्तनं यदसाधुवर्तते। ओ०। सम्यगालोचनकारयितरि,आलोचनाप्रतीच्छके, भ०२५श०७उ०। अयं शरीरपरिचेष्टाकारिषु निव्योमकेषु , प्रव०७१ द्वा०। ह्यालोचकस्यात्यन्तमुपकारको भवतीति ध० 2 अधि०। अभिहितं च उव्वर (देशी) धर्मार्थे, दे०ना०। "ववहारं ववहरं आगममाई उ सुणइ पंचविहा / आवीलुवगृहतं जह उव्वहण न०(उद्बहन) उत्तोल्य वहनम् / उत्तोल्य स्कन्धादिना वहने, आलोएइ तं सववं" स्था०८ ठा०। विवाहे च / वाचला जीविकालाभेनात्मनो धारणे, स०॥ उव्वीलेमाण त्रि०(अवपीडयत्) वाधयति, "पंथको हिय उवलेमाणे 2 उव्वाधा०(उद्वा) भ्वा०प०अक०सेट्"स्वरादनतौवा" // 8 // 36 // विहिंसेमाणे 2 विहरइ'' वि०१२०१ अ० पा०॥ अकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्तेऽकारागमो वा भवति उवुडयणिवुडय न०(उन्मग्ननिमग्नत्व) ऊधिो जलगमने, इत्यकारागमोवा। उव्वाइ उव्वाभइ उद्भाति।प्रा०ा "उदाते रोहम्मावसु उपचारात्सातासातपरितापने, “सातस्स असातस्सय, परितावणमयं आः॥ ११॥इत्यादेशे कृतेओरुम्माइवसुआइउव्वाइ प्रा०धर्मार्थे, उव्वुडुनिवुडुयं करेति" सातमुन्मग्नत्वमिव असातपरितापन दे० ना०1 निमग्नत्वमिवेति। प्रश्र०३ द्वा०। उव्वागणिपुं०(उर्वाग्नि) वडवानले, अष्ट०। उबूढ न०(उद्व्यूढ) उद्-वि-ऊह-क्त ईर्वोदव्यूढे 1 / 120 / / इति उव्वात पुं०(उद्वात) परिश्रान्ते, "अत्तद्धाणे उव्वाता भिक्खोवहि- ऊत इत्वाभावे रूपम् / उत्प्रेरिते, प्रा०) साणएण पडिणीए" वृ०१ उ०। "उव्वातो दिवसं तिण्हं तु अतिक्कमे | उद्वेग पुं०(उद्वेग) उद्-विज्-घन-कुत्वम्। शोके, देवानामुद्वेगः। Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उव्वेग 1141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम तिहिं ठाणेहिं देवे उव्वेगमागच्छेज्जा तंजहा अहो णं मए इमाओ | गकारिणि, "असुईए उव्वेयणित्ताए भीमाए गब्भवसहीए वसियव्वं एयारूवाओ दिव्वाओ देवड्डीओ दिव्वाओ देवजुईओ दिव्वाओ भविस्सइ'" स्था०३ ठा० देवाणुभावाओ पत्ताओ लद्धाओ अभिसमणागयाओ चवियध्वं | उव्वेल्ल धा०(उद्वेष्ट) भ्वा० सक०आत्म०। वो दः।।४।२२३। उदः भविस्सइ 1 अहो णं मए माउओय पिउसुकं तं तदुभयसिद्धं / परस्य वेष्टरन्त्यस्य वाल्लः उव्वेल्लइ उव्वेढइ उद्वेष्टते। प्रा०। तप्पढमयाए आहारो आहारेयव्वो भविस्सइ 2 अहो णं मए उद्वेल्लिय त्रि०(उद्वेष्टित) उत्सारिते, "उव्वेल्लिए मुज्झमयस्स तो कलमलजंवालाए असुईए उव्वेयणित्ताए भीमाए गब्भवसहीए _साहाहिं" वृ०३ उ०|| वसियव्वं भविस्सइ॥३॥ उव्वेवपुं०(उद्वेग) उद् विज्-घञ्-कुत्वम्। उद्विजः 8 / 4 / 227 / इति (उव्वेगंति) उद्वेगंशोक मयेतश्चयवनीयं भविष्यतीत्येकं तथा मातुरोज __ अन्त्यस्य वा वः। चित्तव्याकुलत्वे, प्रा०) आर्तवं पितुः शुक्रं तत्तथाविधं किमपि विलीनानामति-विलीनं उसकण न०(अवष्वष्कण) ज्वालने, "णपणं जलणं जालणं उसकणंति तयोरोजःशुक्रयोरुभयं द्वयं तदुभयं तच्च तत् संसृष्ट संश्लिष्टं वा चेति एगट्ठा" नि०चू० 1 उ०| "जलमाणिधयाणं उकदृणा भण्णति'' परस्परमेकीभूतमित्यर्थः। तदुभयसंसृष्टं तदुभयसंश्लिष्ट वा एवलक्षणोय नि०चू०१उ०॥ आहारस्तस्य गर्भवासकालस्य प्रथमता तत्प्रथमता तस्यां प्रथमसमय उसड्डु त्रि०(उत्सृत) उचे, "उसड्डा उसडखुडगा'" राय01 इत्यर्थः। स आहर्तव्योऽभ्यवहार्यो भविष्यतीति द्वितीयम्। तथा कलमलो जठरद्रव्यसमूहः स एव जम्बालः कर्दमो यस्यां सा तथा तस्यामत उसण्ण न०(उषण) उष-क्युन् मरिचे, पिप्पलीमूले च शुण्ढ्यां चव्यिके पिपल्याच स्त्री० उसन्न शब्दो देशीवचनो बाहुल्यवचनोयथा"उसणसायं एवाशुचिकायामुउजनीयायामुद्रेगकारिण्यां भीमायाम्भयानिकायां गर्भ वेयणं वेयंति" कर्म प्रायः इत्यर्थे, जं०२ वक्ष०ा प्रयाहेणेत्यर्थे,त०) एव वसतिस्तस्यां वस्तव्यमिति तृतीयम्। स्था०३ ठा०३ उ०। निर्वेदे, अनु०। इष्टवियोगादिजन्ये चित्तव्याकुलत्वे, भ०३ श०६उ०। जीवा०। उसण्णदोस पुं०(उषणदोष) उषणेन बाहुल्येन अनुपूरतत्वेन चित्तदोष, तत्र द्वेषादुद्वेगो यथा। दोषोऽनृतादानसंरक्षणानामन्यतमः / रुद्रध्यानस्य लक्षणभेदे, औ०। स्थितस्यैव स उद्वेगो,योगद्वेषात्ततः क्रिया। उसभ(ह) पुं०[ऋ(वृषभ] ऋषभशब्दस्य द्विधा व्याख्या सामा-न्यतो राजविष्टिसमाजन्मवाधिते योगिनां कुले॥१४॥ विशेषतश्च। तत्र सामान्यतो यथा ऋषति गच्छति परमपदमिति ऋषभः। (स्थितस्यैवेति) स्थितस्यैवाप्रवृत्तस्यैव व क्रम उद्वेग उच्यते उदृत्वादी 8/1 / 131 / इत्युत्वे उसहो वृषभ इत्यपि / वर्षति सिञ्चति ततस्तस्मादनादरजनिताद्योगद्वेषात्क्रिया परवशादिनिमित्ता प्रवृत्तिः देशनाजलेन दुःखाग्निना दग्धं जगदिति अस्यात्वर्थः / वृषभे वा वा राजविष्टिसमा नृपनियुक्तानुष्ठानतुल्या योगिनां श्रीमतां श्राद्धानां कुले 5 / 1 / 133 // इति वृषभे ऋतो वेन सह उद् वा भवति। उसहो वसभो प्रा०। जन्मवाधते प्रतिबध्नाति अनादरेण योगक्रियाया योगिकुलजन्मबाधक धर्म०। वृषेण धर्मेण भातीति वृषभः जं०२ वक्ष०ा वृषभ उवहने एष त्वनियमात् द्वा०१८ द्वा०ा तदुक्तम्। आगमिको धातुः समग्रसंयमभारोद्वह नाद् वृषभःआ०म० द्वि०। वृषभ उद्वेगे विद्वेषा-दिष्टिसमं करणमस्य पापेन। उद्बहने उच्छूढं तेन भगवता जगत्संसारः समग्रं तेन ऋषभ इति सर्व एव भगवन्तो जगदुद्वहन्ति "अतुलं नाणदंसणचरित्तं वा एवं सामण्णएषा योगिकुलजन्मवाधक-मलमेतत्तद्विदामिष्टम् // सामान्यत ऋषभशब्दज्ञय व्युत्पत्तिः। आचू०२ अ०। एवञ्च सर्वेऽप्यर्हन्त 'उद्वेग इत्यादि' उद्वेगे चित्तदोषे विद्वेषाद्योगविषयात् विष्टिसमं ऋषभा वृषभा वा इत्युच्यन्ते तेन ऊर्वोवृषभ लाञ्छनत्वेन राजविष्टिकल्पं करणमस्य योगस्य पापेन हेतुभूतेन एतचैवंविधं करणं मातुश्चतुर्दशस्वप्नेषु प्रथमं वृषभदर्शनेन च ऋषभो वृषभोवेति ज०२ वक्षा योगिनां कुले जन्म तस्य वाधकमनेन योगिकुलजन्मापि जन्मान्तरे न लभ्यत इति कृत्वा योगिकुलजन्मवाधकमलमत्यर्थमेतत्तद्विदामिष्ट ऊरूसु उसभलंछनउसभं सुमितेण उसभजिणो जेण भगवतो योगविदामभिमतम् / षो०१४ विव० व्याकुलचित्ततायाम्, विरहजन्ये दोसु विऊरूसु उसभा उप्पराहुत्तालंछणभूया जेणे व मरुदेवीए दुःखोद्गमे भये च। उद्गतो वेगोयस्मात्। निश्चले, स्तिमिते, शीघ्रगामिनि भगवतीए चोद्दसण्हं महासुमिणाणं पढमं उसभो सुमिणे दिट्ठो तेण तस्स उसभ त्ति नाम कयं से सतित्थयराणं मायरो पढमं चवाच॥ उव्वेढ धा०(उद्वेष्ट) भ्वा०आ० सक सेट्-पृथक्करणे, वोदः // 223 / गयं पासंति ततो वसमं। उदः परस्य वेष्टरन्त्यस्यल्लो वा भवति इतिल्लत्वाभावे रूपम् उव्वेल्लइ अक्षरगमनिका त्वेवं यतो भगवत ऊव्वावृषभवदूर्द्धमुखंलाञ्छनं मरुदेवी उव्वेढइ उद्वेष्टते। प्रा०। "उव्वेढेज वा णिव्वेज्ज वा उप्पोसंवा करेज्जा" थ भगवती स्वप्ने प्रथममृषभं दृष्टवती तेन भगवान् ऋषभजिनः। उद्वेष्टयेत् पृथक्कुर्यात् आचा०२ श्रु०। आ०म०द्विका अवसर्पिण्यां प्रथमे तीर्थकरे, प्रव०७द्वा०ा अनु०। उध्वेढण न०(उद्वेष्टन) उद-वेष्ट ल्युट्-हस्तपादयोर्बन्धने, उपश्लेषे च। (1) ऋषभस्वामिनः पूर्वभवचरित्रम्। पृथक्करणे, उन्मुक्तबन्धने, त्रि०ा वाच०। आचा०२ श्रु०॥ (2) ऋषभस्वामिनस्तीर्थकरत्वहेतवः। उटवेयणग त्रि०(उद्वेजनक) उद्विज्यते उद्विग्नैर्भूयते, यस्मिन् स (3) ऋषभस्वामिनो जन्म तन्महोत्सवश्च / उद्वेजनकः / भयानके, उद्वेगकारिणि, "उव्वेयणायं जाईमरणं नरएसु (4) ऋषभस्वामिनो नाम। अणाओ य" आतु०। उद्वेगहेतुत्वान्निरवकाश प्राणबन्धे, प्रश्न०१ द्वा०। (5) ऋषभस्वामिनो बृद्धिः। उटवेयणित्त त्रि०(उद्वेजनीय) उद-विज्- अनीयर-कर्त्तरि / उद्वे-1 (6) ऋषभस्वामिनो जातिस्मरणम् / Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम (7) ऋषभस्वामिनो विवाहः / (8) ऋषभस्वामिनो ऽपत्यानि। (8) ऋषभस्वामिनो नीतिव्यवस्था। (10) ऋषभस्वामिनो राज्याभिषेकः / (11) ऋषभस्वामिनो राज्यसंग्रहः। (12) ऋषभस्वामिनो लोकस्थितिनिबन्धनं शिल्पादिशिक्षणं च। (13) ऋषभस्वामिनो वासः। (14) ऋषभस्वामिपुत्रराज्याभिषेकः। (15) ऋषभस्वामिनो दीक्षाकल्याणकम् / (16) ऋषभस्वामिनश्चीवरधारित्वकालमानम् / (17) ऋषभस्वामिनो भिक्षाकालमानम्। (18) ऋषभस्वामिनः श्रेयांसेन भवाष्टककथनम्। (16) ऋषभस्वामिनः श्रामण्यानन्तरं प्रवर्तनप्रकारः। (20) ऋषभस्वामिनः श्रमण्यावस्थावर्णनम्। (21) ऋषभस्वामिनः केवलोत्पत्यनन्तरं धर्मकथनम्। (22) ऋषभस्वामिनो वन्दनार्थं मरुदेव्या सह भरतगमनम् भरत दिग्विजयश्च। (23) ब्राह्मणानामुत्पत्तिप्रकारः तीर्थकरबलदेव वासुदेवाश्च भविष्यन्ति नवेत्यादिप्रश्नकदम्बकञ्च। (24) ऋषभस्वामिनः सङ्घसंख्या। (25) ऋषभस्वामिनः श्रमणवर्णनम्। (26) ऋषभस्वामिनः केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं भव्यानां कियताकालेन सिद्धिगमनं प्रवृत्तं कियन्तं कालं यावदनुवृत्तम् / (27) ऋषभस्वामिनो जन्मकल्याणकादिनक्षत्राणि / (28) ऋषभस्वामिनः शरीरसंपत्-शरीरप्रमाणं कौमारे राज्ये गृहित्वे च यावान् कालस्तन्मानं च। (26) ऋषभस्वामिनो निर्वाणगमनं देवकृत्यवर्णनं च। (30) चितानन्तरं शक्रकृत्यवर्णनम्। (31) इक्ष्वाकूणामपरा चितिका भरतकारिता। (१)अथ श्रीऋषभदेवचरित्रं तत्र प्रथमतः पूर्वभवचरित्रमाह। नाभी विणयभूमी, मरुदेवी उत्तरा असाढाय। राया य वयरनाहो, विमाणसव्वट्ठसिद्धाओ॥६६|| धणमिहुणसुरमहब्बल-ललियंगयवयरजंघमिहुणे अ। सोहम्मविजअचुअ, चक्की सव्वट्ठउसमे अ॥९७|| धणसत्थवाहघोसण-जइगमणं अडविवासठाणं च। बहुवोलीणे वासे, चिंताघयदाणमासि तया||६|| उत्तरकुरुसोहम्मे, महाविदेहे महाबलो राया। ईसाणे ललियंगो, महाविदेहे वयरजंघो Hell उत्तरकुरुसोहम्मे, विदेहि चेगिच्छियस्स तत्थ सुओ। . रायसुअसिट्टिमचा-सत्थासुयआ वयस्सासे / / 100 / अथवा प्रतिपादितः कुलकरवंश इदानीं प्राक् सचितेक्ष्वाकुवंशः प्रतिपाद्यते। सच ऋषभनाथप्रभव इत्यतस्तद्वक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽह। नाभीगाहा।६६गमनिका इयम् / नियुक्तिगाथा प्रभूतार्थप्रतिपादिका अस्यां च प्रतिपदं क्रियाध्याहारः कार्यः। स चेत्थं नाभिरिति नाभिर्नाम कुलकरो बभूव / विनीता भूमीति तस्य विनीतभूमौ प्रायः अवस्थानमासीत्।मरुदेवीति तस्य भार्या राजाच प्राग्भवे वैरनाभः सन् प्रव्रज्यां गृहीत्वा तीर्थ-करनामगोत्रं कर्मबन्ध्वा मृत्वा सर्वार्थसिद्धिमवाप्य ततस्तस्या मरुदेव्यास्तस्यां विनीतभूमौ सर्वार्थसिद्धयादिमानादवतीर्य ऋषभनाथः संजातः तस्योत्तराषाढनक्षत्रमासीदिति गाथार्थः / 6.6 / इदानीं यः प्राग्भवे वैरनाभो यथा च तेन सम्यक्त्वमवाप्तं यावतो वा भवानवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितः यथा च तेन तीर्थकरनाम-गोत्रं कर्म बद्धमित्यमुमर्थमभिधित्सुराहा धणगाहा।।६७६८। उत्तरगाहा।६६। उत्तरकुरुगाहा / / 10 / / अन्या अप्युक्तसम्बन्धा एव द्रष्टव्या तावत्यावत 'पढमेण पच्छिमेण गाहा' किन्तु यथावसर-मसम्मोहनिमित्तमुपन्यास करिष्यामः। प्रथमगाथागमनिका।धनःसार्थवाहोघोषणं योनिगमनमरवी वर्षास्थानं च बहवो लीने वर्षे चिन्ता घृतदानमासीत्तदा / / 67|| द्वितीयगाथा गमनिका / उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे महाबलो राजा ईशाने ललियङ्गो महाविदेहे च वैरजच इयमन्यकर्तकी गाथा सोपयोगा च / / 18 / / तृतीयगाथागमनिका उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे चिकित्सकस्यतत्र सुतः राजसुतश्रेष्ठ्यमात्यसार्थवाहसुता वयस्याः (से) तस्य। आसां भावार्थः कथानका दवसेयः प्रतिपदं चानुरूपक्रियाध्याहारः कार्यः इति। यथाधनोनामसार्थवाह आसीत् स हि देशान्तर गुन्तुमना घोषणां कारितवानित्यादि कथानकम् आव०१अ०|| द्वीपोऽस्ति जम्बूद्वीपोऽत्र, सदा यः परिरभ्यते। अम्भोधिना चिरायात-मित्रवल्लहरीभुजैः / / 1 / / विदेहे पश्चिमासंस्थे, क्षितिमण्डलमण्डनम्। क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, नगरं सुप्रतिष्ठितम् / / 2 / / प्रियंकरकरस्तत्र, राजा राजेव विश्रुतः। शुचिः कुबलयोल्लासी, प्रसन्नचन्द्रनामकः / / 3 / / आसीत्तत्र धनः सार्थ-वाहः पितृगृहं श्रियः। स षष्टित्रिशती संख्य-क्रयाणकमहाकरः // 4 // क्रयाणकानि संगृह्य, वाणिज्यार्थं कृतोद्यमः। सोऽपरेधुर्गन्तुकामो, वसन्तपुरपत्तनम्॥५।। सर्वलोकोपकाराय, सार्थवाहो धनस्तदा। आघोषयत्पुरे कृत्स्ने, भेरीवादनपूर्वकम्॥६॥ यो मया सममभ्येति, तस्य सर्वमहं ददे। क्रयाणान्यक्रयाणस्या-ऽवाहनानां च वाहनम् / / 7 / / सहायमसहायस्या-शम्बलानां च शम्बलम्। दस्युभ्यः श्वापदादिभ्य-स्त्रास्येऽहं पथि बन्धुवत्।।८।। अन्नैः पानैस्तथा वस्त्रैः , पात्रैरौषधभेषजैः। विसूरयति यो येन, सर्व यच्छामि तस्य तत्।।६।। तत् श्रुत्वा वणिजोऽनेके, संवहन्ति स्म सत्वरम्। व्यवहर्तुं परे भोक्तुं, दरिद्रद्रमकादयः॥१०॥ प्रस्थानं सुमुहूर्तेऽथ, सार्थवाहो विनिर्ममे। भाविमङ्गलसंसूचि-विहितानेकमङ्गलः।।११।। अत्रान्तरे धर्मघोषाऽऽचार्यः सूर्य इवापरः। पादैः पवित्रयन भूमि, दीप्यमानस्तपस्त्विषा / / 12 / / तमागच्छन्तमालोक्य, सद्वक्त्रानन्दकारकम्। सार्थवाहो नमस्कृत्य, प्रस्फुटत्कटको द्विधा / / 13 / / उपवेश्यासने प्राक्षीद्-गुरोर्गमनकारणम्। वसन्तपुरमेष्याम-स्त्वया सहेति तेऽभ्यधुः।।१४|| श्रुत्वा तान् सार्थपो भक्त्या, सूदानिति समादिशत्। सम्पाद्यमन्नपानाद्य-मेषान्निःशेषमन्वहम्॥१५॥ आचार्या अपि तस्याख्यन्, शुद्धिमाहारगोचराम्। तदा च कोऽपि पक्कामस्थालं तस्योपनीतवान्॥१६|| Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ सार्थवाहोऽवदत्पूज्या, विधायानुग्रहम्परम्। स्त्यानीभूतसुधाभानि, गृह्णीताम्राण्यमूनि मे / / 17 / / सार्थपैतानि कल्पन्ते, नाशस्त्रोपहतानि नः। धनोऽवादीद् व्रतं पूज्या-यौष्माकमतिदुष्करम्॥१८|| कल्प्यमन्नादिवः सर्व, पूज्याः सम्पादयिष्यते। प्रातः प्रयाणम्भावीतस्तदागत्यात्र तिष्ठत // 16 // चक्रे प्रयाणं सार्थेशो, गुरवोऽपि सहाचलन्। सजातेषु प्रयाणेषु, ततः कतिपयेष्वपि।।२०।। उज्जजम्भे तदा ग्रीष्मः, कालः कलितयौवनः। स्वकीयेनोष्मणा ज्वाला-जिह्वामप्यवहेलयन् // 21 / / नृपस्येव निदाघस्य, महायोध इवार्यमा / करैः शरैरिवाशेषान्, जनानाहन्त्यरीनिव।।२२।। तदा तापादिवोष्णांशु-स्तृष्णातिशयविह्वलः। पिवन करसहस्रेण, जलस्थानान्यशोषयत्॥२३॥ प्रस्वेदप्लुतसर्वाङ्ग-स्तदा धातुमयो जनः। ग्रीष्मनाडिन्धमध्नानाद्, द्रवरूप इवाभवत्॥२४|| निदाघदहनोत्तप्त-वालुका वसुमत्यपि। भ्राष्ट्रीभूताध्वगान् जन्तून, पचते चणकानिव॥२५॥ सत्यप्येवंविधे काले, यान्तःकान्तारमापतन्। प्रावृट्कालक्षमापाल-स्तत्राध्वनि रुरोध तान्।।२६।। सेनान्यस्तस्य गर्जन्तः, पर्जन्याः श्याममूर्तयः। पुरस्कृतेन्द्रधन्वान स्तडिद्दण्डासिधेनवः / / 27 / / वारिधाराशरासारै-रुपर्युपरिपातिभिः / नश्यतोऽपिजनान्घ्नन्ति, क्षेत्रधर्मानभिज्ञवत्।।२८।। (युग्मम्) कोऽपि श्रेयांसि वासांसि,पर्यधत्त न तद्भयात्। श्रीमन्तोऽपि जरद्वस्त्रा, संचरन्ति पुरेऽपि हि // 26 / / मार्गास्तदा जडैलब्धा-प्रसरैरवहाः कृताः! गन्तुं कोऽपि न शक्नोति, पदात् पदमपि क्वचित्॥३०॥ प्राज्यस्वर्णश्रियो मत्ता-स्तदानीन्निम्नगा अपि। लोकात्सर्वस्वमादाय, हदेषु प्रक्षिपन्यथा / / 31 / / स्थाने स्थाने ग्राहयन्ति, लोकेभ्यो वहका अपि। वर्त्मरक्षा धनमिव, तारकैरातलच्छलात् // 32 // पादमाकृप्य पङ्कस्तु, तद्वश्च इव दुईमः। क्षिप्रं पातयते भूमौ, प्रधानमपि मानुषम // 33 / / ईदृश्यभ्रागमे याते, प्रारम्भेऽप्यतिभैरवे। दुर्गान्मार्गान् धनो ज्ञात्वा, तत्रैवावासमाददे॥३४॥ कृत्वोटजान जनोऽप्यस्था-द्वेशमनीव निजे सुखम्। शुद्धोटजेऽस्थुराचार्या, माणिभद्रोपदर्शिते / / 3 / / प्राप्तोत्कर्षासु वर्षासु, निष्ठिते भोजने नृणाम्। कन्दमूलफलाशित्वं, तापसानामिवाभवत् // 36 // दुःखिताः साधवस्तत्र, कथञ्चित्कस्यचिद् गृहे। चेल्लभन्तेऽनवद्यानि, फलान्याददते तदा // 37 // एवं व्रजति काले च, स्तोकशेषे तपात्यये। निशायाः पश्चिमे यामे, चिन्ता सार्थपतेरभुत्॥३८|| दुःखितःकोऽस्ति मे सार्थे , स्मृतं सन्ति मुनीश्वराः। ते हि कन्दादि नानन्ति, निरवद्यान्नभोजिनः / / 3 / / तस्य तचिन्तयैकोऽपि, यामोऽगात् शतयामताम सार्थपः प्रातरायासीन्- मुनीनामाश्रये धनः॥४०।। ददर्श विस्मितः साधून, विविधासनसंस्थितान्। अध्यायाध्यापनपरान्, सुहितान् जिमितानिव / / 41 / / वन्दित्वा तान् गुरून् भक्त्या, विधत्ते स्म स्वगर्हणम्। पूज्याः सह मया नीताः कृता साराऽपि न क्वचित्॥४२॥ तदहं निष्फलो जज्ञे, ऽवकेशिरिव पादपः। क्षमध्वं मेऽपराधं तत्, यूयं सर्वसहा यतः॥४३॥ ऊचे गुरुस्ते साहय्यात्, क्षेमेण वयमागताः। दत्तं त्वयैव नः सर्व-मधृतिं भद्र ! मा कृथाः॥४४॥ सोऽवदचन्दनं धृष्ट-मपि सद्गन्धबन्धुरम्। अगुरुर्दह्यमनोऽपि, सदोद्रिरति सौरभम्।।४५।। पुनरूचे ध्रुवं पूज्या, अमृतेनैव निर्मिताः। अमन्तोर्वा समन्तोर्वा, यूयं समदृशस्ततः॥४६|| न्यमन्त्रयदथो पूज्यान, साधन प्रेषयताधना। यच्छामि प्रासुकाहार-माधारं देहवेश्मनः / / 47|| ययौ स्वावासमित्युक्त्वा, पश्चात्प्रैषि मुनिद्वयम्। तदर्हामन्यदन्नाद्य-मपश्यन् किञ्चनापि सः॥४८|| स्त्यानीभूतं घृतं दृष्ट्वा, स्माहेदं गृह्यतां प्रभो!। साधुः शुद्धमिति ज्ञात्वा, पतद्ग्रहमधारयत्॥४६॥ हिमस्त्यानं प्राज्यमाज्यं, निर्मलं निर्मलात्मकः / स्वयं यथेष्टं दत्ते स्मा-नन्यसामान्यभावतः॥५०॥ स्वयं ददत्तदा दानं, वीजं मोक्षमहातरोः। तीर्थकृत्कर्माचलनं, सम्यग्दर्शनमासदत्॥५१|| संग्रहमाह "धणसत्थवाहघोसण, जइगमणं अडविवासु ठाणं च। बहुवोलीणे वासे, चिंताघयदाणमासि तया" / / 5 / / धन्यमन्यो धनोऽनंसीद्, वनान्ते तन्मुनिद्वयम्। तदप्यात्माशिष दत्वा, धनायागान्निजाश्रयम्॥५३|| रजन्यामथ सार्थेशो, गुरून्नन्तुमुपागमत्। गुरवो धर्ममादिक्षन, मोक्षसोपानपद्धतिम् / / 54|| गुरूपदेशपीयुष-प्रवाहेण प्रसप्ता। पूरितं सार्थपस्याभू-मानसं मानसोपमम्॥५५॥ गुरून्नत्वा महासत्वान्, भावनां भावयन्नथ। कृतार्थ मन्यमानः स्वं, सौवं धाम जगाम सः॥५६।। लब्धाधिकारप्राप्तोऽथ, शरत्कालो महीतले / यदच्युताः पलायन्त, वारिदाःसपरिच्छदाः॥५७|| सरितः पदेषु लग्ना, वहन्ति निरहंकृताः। जीवनाशं प्रणेशुश्च, मार्गरोधकृतो वहाः / / 58|| वक्षः पुस्फोट पङ्कस्य,स्वामिनो विरहे सति। कमलान्युल्लसन्ति स्म, गते वैरिणि वारिदे // 56 // मेघागमे निलीयास्था-दधुनार्कः प्रकट्यभूत्। नाप्रस्ताव स्फुरत्यत्र, तेजस्तेजस्विनामपि // 60 / / सार्थवाहश्वचालाथ, गुरवोऽपि सहाचलन्। महावटी समुत्तीर्णा, दुष्करं किं महीयसाम् // 61 / / अनुज्ञाप्याथ सार्थेशं, गुरवो ययुरन्यतः। सार्थवाहः पुनर्गच्छन्, वसन्तपुरमासदत्।।६।। क्रयविक्रयमाधाय, दिनैः कतिपयैर्धनः। प्रत्यावृत्त्यागमभूरि-लाभः स्वं नगरं पुनः॥६३|| चिरं प्रपाल्य सम्यक्त्वं, पूर्णायुः शुद्धभावनः / इहोत्तरकुरुक्षेत्रे, सविपद्योदपद्यत॥६४|| धनजीवो युग्मधा , तत्र वैषयिकं सुखम्। आस्वाद्य पुण्यशेषेण, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत्॥६५॥ ततश्चयुतो धनजीवो, विदेहाः सपश्चिमे। विजये गन्धिलाक्त्यां , वैतादयगिरिमूर्द्धनि।।६६।। Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1144 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ गन्धाराख्ये जनपदे, पुरे गन्धसमृद्धके। राज्ञःशतबलस्याभू-चन्द्रकान्ता तनूद्रवः / / 67|| महाबलो धनस्यात्मा, महाबल इवापरः। वर्द्धमानः क्रमात्प्राप, यौवनं केलिभाजनम्॥६८|| कन्यां विनयवत्याख्या, भूभुजा पर्यणाय्यत। राज्ये तमथ संस्थाप्य, स्वयं राजाऽग्रहीहतम्॥६६।। सद्यःसोऽथ महाराजो, दुरमात्यप्रतारितः। यथेष्ट चेष्टते धर्म-विमुखो विषयोन्मुखः / / 7 / / प्रमादमदिरामत्तो, निर्गलशिरोमणिः / कृत्याकृत्यमजानाना, शिक्षाहीनो बनेऽभवत् / / 71 / / सङ्गीतकेऽन्यदा जाय-माने मन्त्रिमतल्लिका। स्वयं बुद्धः प्रबोधाय, भूभुजः प्रोचिवानिति / / 72 / / सर्वं गीतं विलपित, सर्व नाट्यं विडम्बना। सर्वेऽप्याभरणा भाराः, कामाः सर्वेऽपि दुःखदाः // 73 // सम्भिन्नमतिरूचे तं, किमप्रस्तावमुच्यते। वीणायां वाद्यमानायां, वेदोदारो न रोचते॥७४|| स्वयम्बुद्धस्तमाह स्म, नाऽहितोऽस्मि प्रभुं प्रति। ऐहिकस्यैव वक्ताऽसि, नामुष्मिकविधौ पुनः // 75 / / देव ! कारणमत्रास्ति, यत्त्वामभिदधेऽधुना। अद्योद्याने मयाऽदर्शि, चारणश्रमणद्वयम् // 76|| तत्समीपे मयाऽप्रच्छि, कियदायुमंदीशितुः। तेनाख्यायि मासमेकं, ततो भीतोऽभ्यधामिदम् // 77 // राजोचेऽमात्य ! सुप्तोऽहं, साधुजागरितस्त्वया। तदानीमेव सङ्गीतं, विससर्ज भयद्रुतः॥७८|| कथयामात्य ! को धर्मः, कर्तव्योऽल्पीयसाऽऽयुषा। लग्ने प्रदीपने विष्वक् कः कूपखननोद्यमः // 76|| मन्त्र्यूचे देव! मा भैषी-दिनमेकमपि व्रतम्। नस्याद्यद्यपवर्गाय, स्वर्गाय स्यान्न संशयः।।५०|| ततो राज्ये निजं पुत्र-मभिषिच्यानुशिष्य च। सप्तक्षेत्र्यां धनं प्राज्य-मप्त्वा मुक्त्वा परिग्रहम्॥१॥ ततः प्रव्रज्य राजर्षिाविंशतिदिनानि सः। कृत्वाऽनशनमीशाने, विमाने श्रीप्रभाभिधे // 8 // ललिताङ्गाभिधो जज्ञे, शक्रसामानिकः सुरः। देवी स्वयंप्रभा तस्य, तत्र दिव्यप्रभा प्रिया / / 3 / / क्रीडतोरपृथक्त्वेन, मनसोरिव देहयोः। तयोः कालो ययौ भूया-म्युताऽन्येधुः स्वयंप्रभा / / 84 // मुमूर्छ ललिताङ्गोऽपि, वजेणेवाभिताडितः। मनोभिरामरामाया, विगमे कस्य नासुखम् / / 8 / / मूच्छन्तेि विललापोचै-मुक्तकण्ठं रुरोद च। अज्ञानस्त्रीव शोकार्तः, शोकमाविश्वकार सः॥८६॥ स्वयंबुद्धोऽपि तन्मन्त्री, पश्चादादाय संयमम्। ईशानेऽजनि पूर्णायुः, सोऽपि शक्रसमः सुरः / / 87|| सोऽवधेः स्वामिनं मत्या, ललिताङ्गमुपागमत्। प्राग्वत्प्राबोधयद्वर्मा-ख्यानैःशाकापनोदवित् / / 88|| उपयुज्यावधि ज्ञात्वा, पुनस्तं स्माह मा मुह। भाविनी भवतो भार्या, मया ज्ञाताऽस्ति तत् शृणु।।८६॥ द्वीपेऽत्र धातकीखण्डे, प्राग्विदेहावनावभूत्। नन्दिग्रामे गृहपति-नागिलोऽतीव दुर्गतः / / 6 / / नागश्रीस्तस्य भार्याभू-त्कन्याः षड् जनितास्तया। प्रायेण हि दरिद्राः स्यु-बहुकन्या बहुक्षुधः / / 1 / / तत्प्रियाऽऽसीत्पुनर्गुर्वी, नागिलोऽथ व्यचिन्तयत्। स्थायद्यस्याः सुतैवातो, यास्याभ्यूर्ध्वमुखः क्वचित्।।१२ जाता सुताऽथ ताभ्यः स, राक्षसोभ्य इवानशत्। नागश्रीर्दुःखिता दुःस्था, तस्या नामापि न व्यधात्।।६३॥ लोकैर्निनामिकेत्युक्ता, दुर्भागा दुःखसेवधिः। परगेहेषु दुष्कर्म-करणाजीवति स्म सा॥६४|| अथान्यदाऽद्यडिग्भानां, हस्तेष्वालोक्य मोदकान्। ययाचे मातरं साऽपि, मातोचे पुत्रि! मोदकान्॥६५|| गतोऽस्त्यानेतुं त्वद्धेतो-स्त्वज्जन्मन्येव ते पिता। शैलादम्बरतिलका-तावद्दारूण्युपानय // 66 // दह्यमानतया मातुः, कालकूटकिरा गिरा। रज्जुमादाय याति स्म, मुञ्चन्त्यश्रूणि तं गिरिम् / / 6.7 / / युगन्धरमुनिस्तत्र, तदा केवलमासदत्। व्यन्तरैर्महिमा चक्रे, लोकास्तं नन्तुमाययुः / / 68|| निर्नामिकाऽपि तत्रागा-त्केवली धर्ममादिशत् / निर्नामिका गुरूनूचे, प्रभोऽहं कथमीदृशी / / 66) गुरुः स्माह पुरा धर्म-स्त्वया नाकरितत्फलम्। ततोऽधुनाऽपि तम्भद्रे! कुरु स्या येन सौख्यभाक् / / 10 / / सम्यक्त्वं गृहिधर्म च, साऽथ गुर्वन्तिकेऽग्रहीत्। साधर्मिकीति लोकेना-नुगृहीता सुखं स्थिता / / 101 / / तेपे तपांसि भूयांसि, स्यात्कर्मप्रलयो यतः। युगन्धरगुरोः पार्थे, साऽस्त्यात्तानशनाऽधुना / / 10 / / ततो मन्त्रिगिरा तस्याः, ससुरः स्वमदर्शयत्। निदानं साध्यधात्ती, दष्टा स्यामस्य पल्ल्यहम् / / 103|| मृत्वा सा तस्य भार्याऽभू-देवी स्वयं प्रभाभिधा। नवीभूतामिवायाता, तां रेमेऽथ स पूर्ववत्॥१०४।। कियत्यपि गते काले,ललिताङ्गस्ततश्चयुतः। जम्बूद्वीपे प्राग्विदेहा-ऽभ्यनते सीतोत्तरे तटे।।१०।। विजये पुष्कलावत्यां, लोहार्गलमहापुरे। सुवर्णजडलक्ष्मीभू-वैज्रजङ्घः सुतोऽभवत्।।१०६।। स्वयंप्रभाप्यथ च्युत्वा, विजयेऽत्रैव सा भवत्। चक्रिणः पुण्डरीकिण्या, वज्रसेनस्य पुत्रिका / / 107 / / यौवने चन्द्रशालास्था, श्रीमती सुस्थितस्य सा। उद्याने केवलोत्पत्ती, विलोक्यागच्छतः सुरान् / / 108 / / जातजातिस्मृतिर्दध्यौ, ललिताङ्गः क्व मे पतिः। तदज्ञानात्तदप्राप्तौ, मौनमेवास्तु मेऽधुना / / 106 / / कृतैरप्युपधारौधैः, सामुमोचन मूकताम्। धात्र्या पृष्टा रहः प्राह,पटमालिख्य चार्पयत्॥११॥ चक्रिणो वज्रसेनस्य, वर्षग्रन्थौ नृपागमे। तं पट पण्डिता धात्री, धृत्वा राजपथे स्थिता।।१११।। तत्रागाराजजनोऽपि, तं दृष्ट्वा जातिमस्मरत्। उवाचेदं चरित्रं मेऽ-लिखन्नूनं स्वयंप्रभा॥११२।। अभिज्ञानानि सर्वाणि, पण्डिताया अपूरयत्। श्रीमत्यै साऽथ गत्वाऽख्य-तदैव मुमुदे च सा / / 113 / / पितुर्व्यज्ञपयत्तन, श्रीमती पण्डितामुखात्। पिताऽपि तत्क्षणाद्वज्र-जङ्घमाजूहवत्ततः // 114|| ऊचे राजा वजजड्य! तव प्राग्भवपल्यसौ। अस्मिन्नपि भवे ते स्या-दिति तां पर्यणाययत्॥११५|| सह श्रियैव श्रीमत्या, वजडो मुकुन्दवत्। जगाम राज्ञाऽनुज्ञातो, लोहार्गलपुरं निजम्॥११६।। Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम स्वर्णजङ्घस्ततो राज्ये, वज्रजचं न्यवेशयत्। गमनिका / वैद्यसुतस्य च गेहे कृमिकुष्ठोपहतं यति दृष्ट्वा वदन्ति च ते स्वयं संयमसाम्राज्य-प्रपेदे निवृतिस्पृहः / / 17 / / वैद्यसुतं, कुरु अस्य चिकित्सां तैल चिकित्सकसुत / कम्बलकं चन्दनं वज्रजवृश्चिरं राज्यं, श्रीमत्या सह निर्ममे। वणिग्दत्वा अभिनिष्कान्तस्तेनैव भवेन अन्तकृतः। भावार्थः स्पष्ट एव दध्यावथ सुतं राज्ये, कृत्वा स्वः प्रव्रजिष्यते॥१८॥ वचित् क्रियाध्याहारः स्वबुद्ध्या कार्य इति गाथाद्वयार्थः। आव०१ अ०। राज्सोत्सुकः सुतस्ताव-त्पितुापादनाकृते। "उसभेणं अरहा कोसलिए चोद्दस पुव्वी होत्था" उसमेण अरहा विषधूमं व्यधाद्रात्रौ, सुप्तयोस्तेन तौ मृतौ / / 16 / / कोसलिए पुव्वभव चक्कवट्टोहोत्था" सण "उत्तरकुरुसोहम्मे, महाविदेहे महव्वलो राया। कथानकशेषमुच्यम्। ईसाणे ललिअंगो, महाविदेहे वइरजंघे" ||1 // (उक्तार्था) पडप्यौषधसामग्री, कृत्वाऽगुर्मुनिसंनिधौ। उत्पद्योत्तरकुरुषु, तौ द्वौ युगलधर्मिणौ। अनुज्ञाप्य मुनीन्द्रतं, चिकित्सामार भन्त ते॥३८॥ भुक्त्वा भोगांस्ततो जातौ, सौधर्म सुहृदौ सुरौ / / 20 / / मुनेः सर्वाङ्गमभ्यङ्गं,तेन तैलेन तव्यधुः। वज्रजङ्घस्य जीवोऽथ, भुक्त्वा भोगांस्ततश्चयुतः। तवीर्येण तदाक्रान्तः, साधुर्निश्चेतनोऽभवत् // 36 // जम्बूद्वीपे विदेहेषु, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते॥२१॥ आकुलास्तेन तैलेन, कृमयो निर्ययुर्बहिः। वैद्यस्य सुविधेः सूनु-र्जीवानन्दाभिधोऽभवत्। जीवानन्दस्ततो रत्न-कम्बलेन तथावृणोत्॥४०|| यदिने सोऽभवत्पुत्र श्चत्वारस्तहिनेऽपरे।।२२।। सर्वेऽपि कृमयो लग्नाः, शीतत्वाद्रत्नकम्बले। प्रसन्नचन्द्रभूपाल-पुत्रो नाम्ना महीधरः। वैद्यस्ततोऽक्षिपत्सर्वान, कृमींस्तान गोशवोपरि // 41 / / सुबद्धिनामा तनयः, सुनासीरस्य मन्त्रिणः / / 23 / / साधुमाश्वाश्व गोशीर्ष-चन्दननाथ सोऽलियत। धनदत्त श्रेष्ठिसनु-गुणाकर इति स्मृतः। आद्याभ्यङ्गेन कृमय-स्त्वग्गता निर्गतां मुनेः॥४२॥ पूर्णभद्राभिधः सार्थ-पतिसागरनन्दनः // 24 // द्वितीयेऽभ्यङ्गे मांसस्था-स्तृतीये चास्थिसंस्थिताः। जायन्ते स्मनृपामात्य-श्रेष्ठिसार्थपनन्दना। कृमयो निर्ययुः सर्वे , मन्त्राकृष्टा श्वाऽहगः // 43 // समं यवृधिरे सर्वे, समञ्च जगृहुः कलाः / / 2 / / संरोहिण्यौषधेः साधु, स्वर्णकान्तिमथाकरोत्। श्रीमत्या अपि जीवोऽथ, बभूवात्रैय पत्तने। विजहार ततः साधु-नवीकृतवपुः स तैः॥४४॥ सूनुरीश्वरदत्तस्य, श्रेष्ठिनः केशवाभिधः।।२६।। रत्नकम्बलगोशीर्ष-चन्दनस्य च विक्रयात्। तद्युताः सहवासाद्यैः,स्नेहात्षट् सुहृदोऽभवन्। चैत्यन्ते कारयामासु-मरुशृङ्गमिवोन्नतम्॥४५॥ विवेद वैद्यकजीवा नन्दोऽपि स्वपितुर्मुखात्।।२७|| कृत्वा द्रव्यस्तवन्तेऽथ, भावस्तवचिकीर्षवः / सदैव रममाणास्ते, परस्परावियोगिनः। सुसाधुसन्निधौ दीक्षां, षडप्यादाय धीधनाः / / 46 / / कदाचित्कस्यचिद्गहे, मोष्ठ्या तिष्ठन्ति नित्यशः // 28|| चिरं चारित्रमाचर्य, निरतीचारसुन्दरम्। अन्यदा वैद्यपुत्रस्य, जीवानन्दस्य वेश्मनि। मृत्वा षडपि ते ऽभूव-नच्युते त्रिदशोत्तमाः।।४७।। सर्वेषां तिष्ठतां तेषां, साधुर्भिक्षाकृतेऽभ्यगात्।।२६।। जम्यूद्वीपाभिधे द्वीप, विदेहार्द्ध च पूर्वतः। जगाद राजसूवैद्यं, परिहासेन किञ्चन। विजये पुष्कलावत्यां, नगरी पुण्डरीकिणी / / 48|| अस्ति व्याध्यौषधज्ञानं, केवलन्नास्ति ते कृपा // 30 // वज्रसेनो नृपस्तत्र, धारिणी तस्य वल्लभा। वेश्येव द्रव्यदृष्टिस्त्वं, यत्साधुंन चिकित्ससि। तेष्वच्युतच्युताः पञ्च, तत्पुत्राः क्रमशोऽभवन्॥४६॥ जीवानन्दो वदन्मित्र! सामग्री नौषधस्य मे // 31 / / चतुर्दशमहास्वप्न-सुचितः प्रथमोऽङ्गजः। ओषधेषु लक्षपार्क, तैलमस्त्येकमेव मे। वज्रनाभाख्यया ख्यातो, वैद्यस्यात्मा विविक्तधीः / / 5 / / गोशीर्षचन्दनं रत्न–कम्बलं चेति वो वशे॥३२।। बाहुनृपसुतस्यात्मा, सुबाहुर्मन्त्रिसन्ततेः। चान्दनं काम्बलं मूल्यं, पञ्चाप्यादाय ते गृहात्। आत्मापीठो महापीठः श्रेष्ठिसार्थेशपुत्रयाः // 51 // प्रययुर्विपणिश्रेण्यां, स्वस्थानं मुनिरप्यगात्॥३३।। केशवस्य च जीवोऽभू-त्स्वयशा राजपुत्रकः। वणिज वृद्धमेकं ते, स्माहुर्मूल्यादितो ननु। आश्रितो वजनाभस्य, शैशवादपि सोऽभवत् // 52 // गोशीर्षचन्दनं रत्न-चन्दनं च प्रयच्छनः॥३४॥ ते वर्द्धन्ते स्म षडपि,षड्गुणा इव देहिनः। सोऽवक्किं कार्यमाभ्यांव-स्तेऽभ्यधुः साधुवैद्यकम्। कलाचार्यात्कलाः सर्वे, स्पर्द्धयेवाच्छिदन धिया॥५३|| दध्यौ वृद्धो युवानोऽमी, धर्मकर्मविधित्सवः / 3 / / लोकान्तिकैरथेत्युक्ते, स्वामिस्तीर्थ प्रवर्तय। वृद्धः करोमि किन्नाह-मतस्तानाह स प्रधीः। वज्रसेनस्ततो राज्ये, वज्रनाभन्यवशयत्॥५४|| गोशीर्षकम्बलौ गृह्णन्त्वस्तु श्रेयोऽत्र मे फलम् // 36 / / स्वयं साम्बत्सरं दानं,दत्वा संयममग्रहात्। तौ समर्प्य स धर्मेण,धर्मात्मा श्रेष्ठिपुड्भवः। तुर्य ज्ञानं तदा भर्तुः, साङ्केतिकमिवामिलत् / / 5 / / व्रतं संगृह्य कर्माणि, निगृह्य च शिवं ययौ // 37 // आ० कoil राजा भ्रातृ॑श्चतुरोऽपि, लोकपालानिवाकरोत्। अमुमेवार्थमुपसंहरन् गाथाद्वयमाह। राजपुत्रं सुयशसं,सारथ्ये च न्यवेशयत्॥५६।। विजसुअस्स य गेहे, किमिकुट्ठोवहअंजई दलु। वज्रसेनजिनस्याभू-त्केवलज्ञानमेकतः। वितिअते विजसुअं, करेहिए अस्स तेगिच्छं। अन्यतश्चक्रशालाया मुत्पन्नं चक्रमायूधम् / / 57 / / तिल्लं तेगिच्छिसुओ, कंबलगं चंदणं च वाणिअओ। भगवन्तं ततोऽभ्यर्च्य,चक्रं चानुप्रपूज्य च। दाउं अभिनिक्खंतो, तेणेव भवेण अंतगडो॥ साधयामास सकलां, पृथ्वी देशैकलीलया।।५८।। Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ चक्रे च चक्रवर्तित्वा-भिषेकोऽस्याखिलेनूपैः। अपालयच्चिरं राज्य-मेकच्छत्रम्महीतले।।५।। अन्यदा समवासार्षी-द्वज्रसेनजिनेश्वरः। व्याख्यामधरितद्राक्षां, श्रुत्वा चक्रयादयोऽबुधन्॥६०।। पुत्रं निवेश्य राज्ये स्वे, वज्रनाभः ससारथिः। चतुर्भिर्धातृभिः सार्द्ध , प्रवव्राजान्तिके प्रभोः // 61 // प्राप्तकालं वज्रसेन-स्तीर्थकृन्निति ययौ। वज्रनाभो द्वादशाङ्गी, परे चैकादशाङ्गिनः॥६२॥ बाहुः साधुपञ्चशत्या, भक्तपानान्यपूरयत्। सुबाहुः सर्वसाधूना-मङ्गविश्रामणांव्यधात्॥६३| साधू पीठमहापीठौ, रहः स्वाध्यायकारिणौ। बाहुं सुबाहुमाचाया, लोकः सर्वश्च शंसति॥६४|| धन्यावेतौ महासत्वौ, वैयावृत्यं सुदुष्करम्। कुरुतः कुरुते कोऽन्यः, कष्टमाङ्गि कमीदृशम् // 65 / / इतरौ कुरुतोऽप्रीति-मावां स्वाध्यायिनावपि। न कोऽपिश्लाघते यद्वा, वल्लभकर्म चर्म च॥६६|| राजर्षिर्वज्रनाभोऽथ, विंशत्या स्थानकैस्तदा। तीर्थकरनामगोत्रं, कर्माबध्नान्महामनाः ॥६७||आ००|| २तीर्थकरत्वहेतुसंग्रहार्थं गाथाचतुष्टयमाह। साहु तिगि च्छऊणं, सामन्नं देवलोगरमणं च। पुंडरिगिणिए उचुआ, तओ सुआ वइरसेणस्स। पढमित्थ वइरनाहो, बाहुसुबाहू अ पढमहपीढो। तेसिं पिआ तित्थयरो, निक्खंता ते वि तत्थेव॥ पढमो चउदसपुव्वी, सेसा इकाररंग वीचउरो। विइओ वयावचं किइकम्म तईयओकासी।। भोगफलं बाहुबलं, पससणा जिट्ठइअरउचिअत्तं / पढमो तित्थयरतं, वीसहिं ठाणेहिं कासीअ॥ आसामक्षरगमनिका साधुं चिकित्सयित्वा श्रामण्यं देवलोके गमनञ्च पोण्डरीकिण्याञ्च च्युतः सुता वैरसेनस्य जाता इति वाक्यशेषः / प्रथमोऽत्र वइरनाभो बाहुसुबाहू च पीठमहापीठौ तेषां पिता तीर्थकरो निष्क्रान्तास्तेऽपि तत्रैव पितुःसकाश इत्यर्थः। प्रथमश्चतुर्दशपूर्वी शेषा एकादशाङ्गविदश्चत्वारः तेषां चतुर्णा बाहुप्रभृतीनांमध्ये द्वितीयो वैयावृत्त्यं कृतिकर्म तृतीयोऽकार्षीत् भोगफलं बाहुबलप्रशंसनाज्ज्येष्ठया इतरयोचितत्वं प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्यानैरकार्षीत् / भावार्थस्तूक्त एव क्रियाध्याहारोऽपिस्वबुझ्या कार्य इह विस्तभयान्नोक्त इति गाथाचतुष्टयार्थः। आव०१अ० (तीर्थकज्जन्मनिबन्धनकारणानि तित्थयरशब्दे) एतैः स्थानैर्वज्रनाभ-स्तीर्थकृत्कर्मबद्धवान्। साधुभक्तादिदानेन, बाहुश्चक्रभृतः श्रियम्।।१।। बाह्वोर्बलं सुबाहुश्च, साधुविश्रामणाद्व्यधात्। इतरौ तु तेन माया- कर्मणा स्त्रीत्वमर्जतः // 2 // ततः पूर्णायुषः कालं, कृत्वा पञ्चापि साधवः। षष्ठश्च सुयशाःसर्वे ,सर्वार्थसिद्धिमैयरुः // 3 // जम्बूद्वीपाभिधे द्वीपे, भरतार्द्ध च दक्षिणे। गङ्गासिन्धुसरिन्मध्य-खण्डे कल्पद्रुमण्डिते॥४॥ इहावसर्पिणीकाले, सुषमादुःषमारके। कुलकृत्सप्तमो-नाभि-मरुदो वा प्रियो ऽभवत्।।५।। पूर्वलक्षेषु चतुरा-शीतौ शेषेषुसत्स्विह। स नवाशीतिपक्षेषू-तराषाढायुते विधौ / / 6 / / आषाढे मासि कृष्णेऽपि चतुर्थेऽह्नि सुनिर्मले। जीवो युगादिदेवस्य, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धितः / / 7 / / देव्याः श्रीमरुदेवायाः, सरोवर इवोदरे। ज्ञानत्रयपवित्रात्माऽवततार मरालवत् / / 8 / / त्रैलोक्येऽपि तदैवासी-दङ्गिनां भवसङ्गिनाम्। उद्योतः कोऽप्यनिर्वाच्यः, सुखञ्च क्षणमद्भुतम्॥६॥ स्वप्नेष्वत्युत्तमाः स्वप्ना, वर्णराशौ स्वरा इव / निद्राणया तदा देव्या, दृश्यते स्म चतुर्दश॥१०॥ वृषभः १कुज्जरः २सिंहः३ पद्मवासाऽभिषेचनम् 4 / पुष्पदाम 5 शशी 6 सूर्यः७ पूर्णकुम्भः 8 सितध्वजः // 11 // पद्माकरः 10 पयोराशि 11 विमानं कल्पवासिनाम्। 12 रत्नोच्चयं 13 शिखी चेति 14 प्रविशन्तो मुखाम्बुजे।१२। तानाख्याति स्म सा नाभे-निद्राछेदे प्रमोदभात्। अत्युत्तम सुतप्रातिं, तस्याः सोऽपि न्यवेद-यत्॥१३॥ तदैवयुगपत्सर्वेऽप्यागत्य चलितासनाः। स्वप्नपाठकवद्देव्याः, शक्रा स्वप्नार्थमभ्यधुः / / 16 / / देवि त्वदङ्गजस्यैते, महास्वप्नाश्चतुर्दश। चतुर्दशयुजुमिते, लोके स्माहुरधीशताम्॥१५॥ चतुर्दशानांपूर्वाणा-मयमेव जगत्प्रभुः। उपदेक्ष्यति हेमान-मातृकां वीजसन्निभाम् // 16 // चतुर्दश पूर्वधरा, शिष्याश्चैतस्य भाविनः। तथा चतुर्दशचतु-ईशकानेष वक्ष्यति॥१७॥ एवं स्वप्नार्थमावेद्य, सर्वेऽपि त्रिदशाधिपाः। स्थानं निजनिजं जम्मु--र्विसृष्टा इव सेवकाः / / 18 / / तमिन्द्राख्यातमाकण्ये, स्वप्नार्थ देव्यमोदत। नाभिरप्यभजत्प्रीति, कस्येष्टाख्या मुदे न वा ॥१६|आ०क०। अमुमेवार्थमुपसहरन्नाह। उववाओ सबढे, सय्वेसिं पढमओ चुओ उसभो। रिक्खेणासाढाहिं, असाढ हुले चउत्थीए। गमनिका / उपपातः सर्वार्थ सर्वेषां संजातस्ततश्चायुष्कपरिक्षये सति प्रथमश्च्युतो ऋषभ ऋषभेण नक्षत्रेण आषाढाभिः आषाढबहुले चतुर्थ्यामिति गाथार्थः / इदानीं तद्वक्तव्यताभिधित्सयैनां द्वारगाथामाह नियुक्तिकारः। जम्मणे नामबुड्डीअ, जाइस्सरणे इ अ। वीवाह अ अवचे अभिसेए रजसंगहे। गमनिका (जम्मण इति) जन्मविषयो विधिर्वक्तव्यः वक्ष्यति च "चित्तबहुलट्ठमीए" इत्यादि इत्यादि (नाम इति) नामविषयो विधिर्वक्तव्यः / वक्ष्यति च "देसूणगं च इत्यादि" (बुड्डीयत्ति) वृद्धिश्व भगवतो वाच्या वक्ष्यति च "अह सो वड्डइ भगवं इत्यादि" (जाइसरणेइयत्ति) जातिस्मरणे च विधिर्वक्तव्यः / वक्ष्यति च "जाइस्सरोयमित्यादि" (वीवाहेयत्ति) विवाहे च विधिर्वक्तव्यः / वक्ष्यति च 'भोगसमुत्थमित्यादि' (अवच्चेत्ति) अपत्येषु क्रमो वाच्यः वक्ष्यति च "तोभरहवंभिसुन्दरी इत्यादि" (अभिसे गित्ति) राज्याभिषे के विधिर्वाच्यः / वक्ष्यति च "आभोएउं सक्को उवागओ इत्यादि' (रज्जसंगहेत्ति) राज्यसंगृहे विधिर्वाच्यः वक्ष्यति च "आसाहत्थीगावो इत्यादि" अयं समुदायार्थः / अवयवार्थन्तुप्रतिद्वारं यथावसरं वक्ष्यामः / Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1147- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ - (3) तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयाजन्म तन्महोत्सव चाह। चित्तबहुलहमीए, जाओ उसभो असाढनक्खत्ते। जम्मणमहो असय्वो, नेयवो जाव घोसण्णं / / गमनिका। चैत्रस्य बहुलाष्टम्यां जात ऋषभः आषाढनक्षत्रे जन्म-महश्च सर्वो नेतव्यो यावद्घोसणमिति गाथार्थः। भावार्थः कथातो ज्ञेयः सा चेयम् / क्रमात्पूर्णेष्वथाहःसु, चैत्रे कृष्णाष्टमीतिथौ। निशीथे सुषुवे सूनुं, देवीयुगलधर्मिणम्।।१।। अचेतना अपि दिश-स्तदानीं मुदिता इव। प्रसेदुः किं पुनर्वच्मि, लोकानां चेतनावताम् / / 2 / / वायवोऽपि सुखस्पर्शा, मन्दं मन्दंववुस्तदा। क्वाप्यदीक्षितमीदृक्षं, प्रेक्षमाणा इव प्रभुम् // 3|| उद्योतस्त्रिजगत्यासी-दध्वान दिवि दुन्दुभिः। नारका अप्यमोदन्त, भूरप्युच्छासमासदत्॥४॥ "गयदन्तसेलहिट्ठा, अट्ठ अहो लोगवासिणीदेवी। नन्दणवणकूडेसुं, अट्ठय तह उड्डलोगाओ" ||1|| दिक्कुमार्योऽष्टाधोलोक-वासिन्यः कम्पितासनाः। अर्हज्जन्मावधेत्विा -ऽभ्येयुस्तत्सूतिवेश्मनि॥५॥ भोगङ्करा भोगवती, सुभोगा भोगमालिनी। सुवत्सा वत्समित्राच, पुष्पमाला त्वनन्दिता |6|| नत्या प्रभुंतदम्बाञ्चे-शाने सूतिगृहं व्यधुः। संवर्तेनाशोधयक्ष्मा-मायोजनमितो गृहात्॥७॥ मेधंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी। तोयधारा विचित्रा च, वारिषेणा बलाहिका |8|| अष्टोज़लोकादेत्यैता, नत्वार्हन्तं समातृकम्। तत्र गन्धाम्बुपुष्पौध-वर्ष हर्षाद्वितेनिरे॥६॥ अथ नन्दोत्तरानन्दे, आनन्दा नन्दिवर्द्धने। विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चापराजिता // 10 // अष्टावभ्येत्य पौरस्त्य-रुचकानेरयादिमाः। जिनं जिनाम्बान्नत्वाऽस्थुः, प्राच्यां दर्पणपाणयः / / 11 / / समाहारा सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा यशोधरा। लक्ष्मीवती शेषवती, चित्रगुप्ता वसुंधरा // 12 // अपाच्यरुचकाद्रेश्चा-ष्टैत्य देवं समातृकम्। प्रणम्य दक्षिणेनैता-स्तस्थुर्भृङ्गारपाणयः॥१३|| इलादेवी सुरादेवी, पृथिवी पद्मवत्यपि। एकनासा नवमिका, भद्रा सीतेति नामतः॥१४॥ प्रत्यगुचुकशैलाद-दैत्य व्यञ्जनपाणयः। स्वामिनं मरुदेवीञ्च, नत्वाऽस्थुः पश्चिमेन तु॥१५॥ अलम्बुषा मितकेशी, पुण्डरीका च वारुणी। हासा सर्वप्रभा श्री_-रष्टोदगुचकाद्रितः॥१६|| तत्रागत्य जिनं जैनी, जननीं चात्तचामराः। प्रणिपत्योत्तरेणासा-चक्रिरे मोदमेदुराः // 17 // शतेरा चित्रकनका, चित्रा सौत्रामणी तथा। दीपहस्ता विदिक्षेत्या-स्थुर्विदिगुचकाद्रितः॥१८|| रुचकद्वीपतोऽप्येयु-श्वतस्रो दिकुमारिकाः। रूपा रूपासिका चापि, सुरूपा रूपकावती॥१६।। प्रकल्प्य भगवन्नालं, चतुरङ्गुलनिर्जितम्। खनित्वा विवरं तत्र, नालन्निक्षिप्य तं ततः // 20 // वैडूर्यरत्नैरापूर्य, वबन्धुर्हरितालयाः। पीठं तस्योपरितले, ततोऽर्हज्जन्मगेहतः।।२१।। पूर्वस्याञ्च दक्षिणस्या-मुत्तरस्यां विचक्रिरे। ताभिश्च त्रीणि कदली-गृहाणि स्वर्विमानवत्।।२२।। प्रत्येकमेषां मध्ये च, सिंहासनविभूषितम्। विचक्रिरे चतुःशालं, स्वर्णरत्नमणीमयम् / / 23 / / ता दक्षिणचतुःशाले, जिनं न्यस्य कराञ्जलौ। निन्युस्तन्मातरञ्चाप्त-चेटीवहत्तबाहवः // 24 // सिंहासने निवेश्योभा-वभ्यान H सुगन्धिना। ता लक्षपाकतेलेन, जरत्संवाहिका इव // 25 // आमन्दानन्दनिस्यन्द-प्रमोदितदृशो भृशम्। उभावुद्वर्तयामासु--दिव्येनोद्वर्त्तनेन ताः।।२६।। नीत्वा लाः प्राक् चतुःशाले, न्यस्य सिंहासने च तौ। स्नपयामासुरम्भोभिः, स्वमनोभिरिवामलैः / / 27 / / गन्धकाषायवासोभि-स्तदङ्गान्यमृजन्नथ। गोशीर्षचन्दनरसै-श्वर्चयामासुराश्रुताः।।२८|| ताभ्यामामोचयामासु-देवदूष्येच वाससी। विधुदुद्योतसध्यञ्चि, ताश्चित्राभरणानि च / / 26 / / अथोत्तरचतुःशाले, नीत्वा सिंहासनोपरि। न्यषीदयन् भगवन्तं, भगवन्मातरञ्च ताः॥३०॥ गोशीर्षचन्दनैधांसि, द्राक् क्षुद्रहिमवगिरेः। ताः समानययामासु-रमरैराभियोगिकैः // 31 // उत्पाधारणिदारुभ्यां, वह्निमहायतास्ततः। होमं वितेनुर्गोशीर्ष-चन्दनैरेधसात्कृतैः॥३२॥ रक्षापोट्टलिका बद्धा, तयोरथ जिनान्तिके। पर्वतायुर्भवत्युक्त्वा, स्फालयन्नश्मगोलको / / 33 / / सूतिकाभयने तस्मिन, मरुदेर्वी विभुं च ताः। शय्यागतौ विधायाऽस्थु-यन्त्यो मङ्गलान्यथ // 34 // आ०क० संग्रहमाह। तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमेणं अरहा कोसलिए चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे होत्था॥२०४॥ तं उत्तरासादाहिंचुए चइत्ता गब्भवकंते जाव अभीइणा परिनिव्वुए // 205 / / तेर्ण कालेणं तेणं समएणं उसमेणं अरहा कोसलिए जे से गिह्माणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे आसाढबहुल तस्स णं आसाढबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं सव्वट्ठसिद्धाओ महाविमाणाओ तित्तीसं सागरोवमद्वितीयाओ अणंतरं चइत्ता इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे इक्खागभूमिएनाभिकुलगरस्समरुदेवाए भारियाए। पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि आहारवक्कंतिए जाव गन्मए वकंते // 206|| उसमेणं अरहा कोसलिएतिनाणोवमएया वि होत्था चएस्सामि त्ति जाणइ जाव सुविणे पासइतं / गय सहगाहा "सव्वं तहेव नवरं, पढमं उसभमुहेणं अइंतं / पासइ सेसाउगयं, नाभिकुलगरस्स साहेई" सुविणपाढगा नत्थि नाभिकुलगरो सयमेव वागरेइ॥२०७॥ तेणं कालेणं तेणं समयेणं उसमेणं अरहा कोसलिएजे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स अट्ठमीपक्खेणं नवण्हं मासाणं Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ ११४८-अभिघानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणराइंदियाणं जाव आसाढाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गं दारयं पयाया॥२०८|| अथास्यामवसर्पिण्यां प्रथमधर्मप्रवर्तकत्वेन / परमोपकारित्वात्किञ्चिद्विस्तरतः श्रीऋषभदेवचरित्रं प्रस्तौति! 'तेणमित्यादितः अभीइ पंच मेहुत्थत्ति' पर्यन्तं तत्र (कोसलिएत्ति) कोशलायाभयोध्यायां भवः कौशलिकः // 204 / / तंजहेत्यादितः "परिनिव्वुएत्ति' पर्यन्तं सुगमम् // 205 / / तेणमित्यादितो गब्भवतेति पर्यन्तं सुगमम् // 206 / / उसभेणमित्यादितःसयमेव वागरे इतिपर्यन्तं तत्र मरुदेवा प्रथमं सुखेन (अइंति) प्रविशन्तं वृषभं पश्यति शेषास्तु जिनजनन्यः प्रथमं गज पश्यन्ति वीरमाता तु सिंहमद्राक्षीद / / 207 // तेणमित्यादितो दारगं पयायत्ति पर्यन्तं प्राग्वत्॥२०८|| कल्प०। अस्य संग्रहमाह। संवट्टमेहआयंसगा य भिंगारतालयंटाय। चामरजोईरक्खं, करिति एवं कुमारीओ।।११६|| संवर्तकमेघमुक्तप्रयोजनं किं कुर्वन्ति आदर्शकाच गृहीत्वा तिष्ठन्ति भृङ्गाराँस्तालवृन्ताँश्चेति तथा चामरं जातीरक्षां कुर्वन्ति एतत्सर्व दिक्कुमार्य इति गाथार्थः।।११६|| आव०१०॥ ततः सिंहासनं शाकं, चचा लाऽचलनिश्चलम्। अवधिं प्रयुज्य ज्ञात्वा, जन्मादिमजिनेशितुः / / 3 / / सद्यः स्वर्गाद्विमानेन, पालकेनेत्य देवराट्। जिनेन्द्रं च जिनाम्बां च, त्रिः प्रादक्षिणयस्ततः॥३६|| वन्दित्वा नमंसित्वाचे-त्येव देवेश्वरोऽवदत्। नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षि-धारिके विश्वदीपिके // 37 // अहं शक्राऽस्मि देवेन्द्रः, कल्पादाद्या दहागमम्। प्रभोर्युगादिदेवस्य, करिष्ये जननोत्सवम्॥३८|| भेतव्यं देवि! तन्नैवे-त्युक्त्वाऽवस्वापिनी ददौ। कृत्वा जिनप्रतिविम्बं, जिनाम्बासन्निधौ न्यमात् // 36 // भगवन्तं तीर्थकर, गृहीत्वा करसंपुटे। विचक्रे पञ्चधा रूपं, सर्वश्रेयोऽर्थिकः स्वयम्॥४०॥ एको गृहीततीर्थेशः,पार्वे द्वावात्तचामरौ। एको गृहीतातपत्र,एको वज्रधरः पुनः // 41 // शक्रराजस्ततश्चातु-निकायिकसुरान्वितः। शीघ्रं सुमेरुर्येनैव, वनं येनैव पण्डकम्।।४।। मेरुचूलादक्षिणेता-तिपाण्डकम्बला शिला। सिंहासनं चाभिषेके, तेनैवोपेति देवराट् / / 43 / / तत्र सिंहासने पूर्वा-ऽभिमुखे च निषीदति। द्वात्रिंशदपि देवेनद्राः, स्वामिपादान्तमैयरुः // 44 // प्रच्युतेन्द्रस्तत्र पूर्व, विदधात्यभिषेचनम्। ततोऽनुपरिपाटीतो , यावच्छनोऽभिशिषक्तवान् // 45 // ततश्च चमरादीन्द्रा,यावच्चन्द्रार्यमादयः। एवं जन्माऽभिषेकस्यो-त्सवं निवर्त्य देवराट्।।४६।। हर्षप्रकर्षात्सर्वा, प्राग्वत्समिरान्वितः। तीर्थनाथमुपादाय-सद्यः प्रत्यागमत्क्षणात्॥४७|| प्रतिसंहृत्य तीर्थेश-प्रतिबिम्बंसपद्यपि। तत्र मातुः सन्निधाने, भगवन्तमतिष्ठिपत्॥४८|| संत्यावस्वापिनीं च, दिव्य क्षौमयुगं ततः। दिव्वं कुण्डलयुग्मं च, विमोच्योच्छीर्षके प्रभोः॥४६|| श्रीदामगण्डसुल्लोचे, स्वामिनो रत्नदामयुक्। पद्मवल्लम्बमानान्तः-स्वर्णकन्दुकमादधे॥५०॥ वेन स्वामी तीर्थकरो, निर्निमेषविलोचनः। पश्यन् सुखं सुखेनैव, रममाणोऽस्ति निर्वृतः॥५१॥ ततो वैश्रवणः शक्रवचनात्तत्क्षणादपि। द्वात्रिंशद्धिरण्यकोटी, सुवर्णस्य च तावतीः / / 52|| द्वात्रिंशत्तु नन्दासना-न्यथ भद्रासनान्यपि। रूपयौवनलावण्य-सौभाग्यप्रमुखान् गुणान् / / 53|| न्यधात्तीर्थाधिनायस्य, जन्मवेश्मनिवासिषु / अथाभियोगिकैर्देवै-महानादेन देवराट् / / 54 / / वोषयामास शृण्वन्तु, भवन्तःसर्व एव हि। भवनवासिनो देवा, ज्योतिष्का व्यन्तरास्तथा // 55 // देवा वैमानिका देव्यः, कृत्वा सावहितं मनः / यो देवानुप्रियः कश्चि-स्वामिनस्त्रिजगत्पतेः // 56|| त्रिजगत्पतिमातुश्च, करिष्यस्यशुभं मनः। सप्तधार्यमञ्जरीव, शिरस्तस्य स्फुटिष्यति // 57|| चातुर्निकायिका देवा, एवं जन्मोत्सवं प्रभोः। नन्दीश्वरेऽष्टाहिकां च, कृत्वा जन्मुर्यथागतम् ॥५८||आ०का (४)नामद्वारमाह। देसूणगं च वरिसं, सकागमणं च वंसठवणाय। आहारमंगुलीए, ठवि देवा मणुन्नं तु ||1|| सको वंसट्ठवणा, इक्खु अगू तेण हुंति इक्खागा। जंच जहा जम्मि वए, जुग्गं कासीअतं सव्वं / / 2 / / देशोनं च वर्षं भगवतो जातस्य तावत् पुनः शक्रागमनं च संजातं तेन वंशस्थापना च कृता भगवत इति साऽयं ऋषभनाथः। अस्य ऋषभस्य गृहवासे असंस्कृत आसीदाहारइति। किं च सर्वे तीर्थकरा एव वालभावे वर्तमानाः न स्तन्योपयोगं कुर्वन्ति किन्त्वाहाराभिलाषे सति स्वामेवाङ्कलिं वदने प्रक्षिपन्ति तस्यां चाहारमङ्ल्यां नानारससमायुक्तं स्थापयन्ति देवा मनोज्ञं मनोऽनुकूलमेवमतिक्रान्तवालभावास्त्वग्निपक्वमेव गृह्णन्ति। ऋषभनाथस्तु प्रव्रज्यामप्रतिपन्नो देवोपनीतमेवाहारमुपभुक्तवानित्यभिहितमानुषङ्गि कमिति गाथार्थः // 110 // प्रकृतमुच्यते / माहेन्द्रेण वंशस्थापना च कृतेत्यभिहितं सा किं यथाकथञ्चित्कृता आहोश्वित् प्रवृत्तिनिमित्तपूर्विकेति / उच्यते प्रवृत्तिनिमित्तपूर्विका न यादृच्छिकी कथम् (आव० १अ०) शक्रः सौधर्मेन्द्रो वंशस्थापने प्रस्तुतेइखंगहीत्वा आगतः। अक अगकुटिलायां गतौ अनेकार्थत्वाद्धातूनाम् अक् धातोरौणादिके उण प्रत्यये अकुशब्दोऽभिलाषार्थः / ततः स्वामी इक्षोः / आकुनाऽभिलायेण करें प्रासारयत्शक्र आर्पयत्तेन कारणेन भवन्तिइक्ष्वाकुवंशभवा ऐक्ष्वाकाः / आ०का जं०॥ ऐक्ष्वाका ऋषभनाथवशजा इति एवं पञ्चवस्तु यथा येन प्रकारेण यस्मिन् वयसि योग्यं शक्रः कृतवांश्च तत्सर्वमिति / पश्चार्द्ध पाठान्तरं वा। तालफलाहयभगिणी, होहियत्ति सारवणा॥ तालफलाहतभगिनी भविष्यति पत्नीति / 'सारवणा' किल भगवतो नन्दायाश्च तुल्यवयःख्यापनार्थमेवं पाठ इति। तदेव तालफलाहतभगिनी भगवतो वालभाव एव मिथुनकैनभिःसका-शमानीता। तेन च भविष्यति ऋषभपत्नीति / 'सारवणा संगोपना कृतेति। तथा चानन्तरं वक्ष्यति नन्दायाः "सुमंगलासहि ओत्ति" अन्ये तु प्रतिपादयन्ति सर्वेयं जन्मद्वारवक्तव्यता द्वारगाथापिकिलैवं पठ्यते "जमणेय विवट्टीयत्ति" अलं प्रसङ्गेन आव०१ उ०। आ०क०) Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ नाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुच्छंसि एत्थ णं उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थंकरे पढमधम्मवरचकवट्टी समुप्पजिजेजा।। नाम्मा कोशलायामयोध्यायां भवः कौशलिकः भाविनि भूतपदुपचार इति न्यायादेतद्विशषणम् अयोध्यास्थापनाया ऋषभदेव राज्यस्थापनासमये कृतवात् तद्व्यक्तिस्तु भरतक्षेत्रनामान्वर्थकथनावसरे / "धणवइमनिनिम्माया" एतत्सूत्रव्याख्यायां दर्शयिष्यते / अर्हन्तश्च पार्श्वनाथादय इतः केचिदनङ्गीकृतराजधर्मकाः अपि स्युरित्यसौ केन। क्रमेणाहन्नभूदित्याह प्रथमो राजाइहावसर्पिण्यां नाभिकुलकरादियुग्मिमनुजः शक्रेण च प्रथममभिषिक्तत्वात्। प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जेता। यद्वा प्रथमो मनःपर्यवज्ञानात्राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतो भावतश्च साधुववर्तित्येन अत्रावसर्पिण्यामस्यैव भगवतः प्रथमस्तद्भवनात् जिनत्वं चावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानिनांस्थानाङ्गे सुप्रसिद्धम्। अवधिजिनत्वेऽनुव्यागयायमानेऽक्रमबद्धसूत्रमिति केवलिजिनत्वे चोत्तरग्रन्थेन सह पौनरुक्तयमिति व्याख्यानासङ्गति / श्रोतृणां प्रतिज्ञा तेन प्रथमकेवली आद्यः सर्वज्ञः। केवलित्वेचतीर्थकृन्ना-मोदयो भवतीत्याह प्रथमतीर्थकरः आद्यश्चतुर्वर्णसङ्घस्थापकः / उदिततीर्थकृन्नामा च कीदृशः स्यादिति प्रथमोधर्मवरोधर्मप्रधानश्चक्रवर्ती यथा चक्रवर्ती सर्वत्राप्रतिहतवीर्येण चक्रेण वर्तते तथा सोऽपीति भावः / समुत्पद्येत समुत्पन्नवानित्यर्थः / जं०२ वक्ष० (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युक्तः तित्थयर शब्दे वक्ष्यते) तं चेव सव्वं जाव देवा देवीओ य वसुहारवासिंसु सेसं तहेव चारगसोहणमाणुग्माणबद्धणउस्सुकमाइयं ठिइवडियजूयवजं सव्वं भणिण्यव्वं // 20 // "तंचेव सव्वमित्यादितो ठिइयडिययवजं सव्वंभाणियव्यंति" यावत्। तत्र देवलोकच्युतोद्भुतरूपोऽनेकदेवदेवीपरिवृतः सकलगुणैस्तेभ्यो युगलमनुष्येभ्यः परमोत्कृष्टः क्रमेण प्रवर्द्धमानः सन्नाहाराभिलाषे सुरसंचारितामृतरससरसामङ्गुलिं मुखे प्रक्षिपति। एवमन्येऽपि तीर्थकरा वाल्येऽवगन्तव्याः वाल्यातिक्रमे पुनरग्निपक्वाहारभोजिनः ऋषभस्तु प्रव्रज्यां यावत्सुरानीतोत्तरकुरुकल्पद्रुमफलान्यास्वादितवान् / अथ संजातकिञ्चिदूनवर्षे भगवति प्रथमजिनवंशस्थापनं शक्रः स्वजीतमिति विचिन्त्य कथं रिक्तपाणिःस्वामिसमीपंयामीतिमहतीभिक्षुयष्टिमादायः नाभिकुलकराङ्कस्थस्य प्रभोरगे तस्थौ दृष्टा चेक्षुयष्टि हृष्टवदनेन स्वामिना करे प्रसारिते इक्षु भक्षयसीति भणित्वा तां दत्त्वा इक्ष्वभिलाषात्स्वामिनो वंश इक्ष्वाकुनामाऽभवत् / गोत्रमपि अस्य एतत्पूर्वजानामिस्वभिलाषात्काश्यपनामेति शक्रो वंशस्थापनां कृतवान् / अथ किञ्चिद्युगलं मातापितृभ्यां तालवृक्षाऽधो मुक्तं तस्मादेतत्तालफलेन पुरुषो व्यापादितः / प्रथमोऽयमकालमृत्युः / अथ सा कन्या मातापित्रोः स्वर्गतयोः एकाकिन्येव वने विचचार / दृष्ट्वा च तां सुन्दरी युगलिकनरा नाभिकुलकराय न्यवेदयन्। नाभिरपि शिष्टयं सुनन्दानाम्नी ऋषभपत्नी भविष्यतीति सकललोकज्ञापनपुरस्सरंतांजग्राह। ततः सुनन्दासुमङ्गलाभ्यां सह प्रवर्द्धमानो भगवान् यौवनमनुप्राप्तः इन्द्रोऽपि प्रथमजिनविवाहकृत्यमस्माकं जीतमिति अनेकदेवदेवीकोटिपरिवारपरिवृतः समागत्य स्वामिनो वरकृत्यं स्वयमेव कृतवान् बधूकृत्यं च द्वयोरपि कन्ययोर्देव्य इति / ततस्ताभ्यां विषयोपभोगिनो भगवतः षट्लक्षपूर्वेषु गतेषु भरतब्राह्मीरूपं युगलं सुमङ्गला / बाहूवलिसुन्दरीरूपं युगलं, च सुनन्दा प्रसुषुवे / तदनु वैकोनपञ्चाशत्पुत्रयुगलानि क्रमात् सुमङ्गला प्रसूतवती / / 206 / / उसमेणं अरहा कोसलिए तस्संणं पंचनामधेञ्जा एवमाहिजंति तं जहा उसमेइ वा 1 पढमरायाइ वा 2 पढमभिक्खा यरे इवा ३पढमजिणे इ वा पढमतित्थंकरे इ वा 5 // 210 // "उसभेणं अरहा कोसलिए इत्यादितः पढमतित्थंकरेइवेति' पर्यन्तं तत्र इकारः सर्वत्र वाक्यालङ्कारे (पढमरायत्ति) प्रथमराजा चैवम्।२१०। कल्पा तिला आ० चूल। अथ यथा भगवान् वयः प्रतिपन्नवान् तथाऽऽह। तओ णं उसमे अरहा सो कोसलिए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे अल्लीणे भदए विणीए। कल्पना (5) इदानीं वृद्धिद्वारमधिकृत्याह। अह वट्टइ सो भयवं, दियजोगचुओ अणुवमसिरीओ। देवगणसंपडिवुडो, नंदाइसुमंगलासहिओ।।११।। असिअसिरोअसुनयणो, बिंवुट्ठो धवलदंतपंतीओ। वरपउमगब्भगोरा, फुल्लुप्पलगंधनीसासो॥१२०।। प्रथमगाथानिगदसिद्धैव द्वितीयगाथागमनिका / न सिता असिताः कृष्णा इत्यर्थः / शिरसि जाताः शिरोजाः केशाः असिताः शिरोजा यस्य स तथाविधः / शोभने नयने यस्यासौ सुनयनः / विम्बं गोहाफलं विम्बवदोष्ठौ यस्यासौ विम्बोष्ठः / धवले दन्तपक्ती यस्य स धवलदन्तपक्तिकः। वरपदागर्भवद्रौरः। फुल्लोत्पलग-न्धवन्निः श्वासो यस्येति गाथार्थः / 120 / आव० १अ०। (6) इदानीं जातिस्मरद्वारावयवार्थ तु विवरीषुराह। जाईसरो अभयवं, अप्परिवडिएहिं तिहिं उनाणेहिं। कंतीइ अबुद्धीइ अ, अन्महिओ तेहिं मणुएहिं // 21 / / गमनिका / जातिस्मरश्च भगवन् / अप्रतिपतितैरेव त्रिभिज्ञनिर्मतिश्रुतावधिभिः। अवधिज्ञानं हि देवलौकिकमेवाप्रच्युते भगवतो भवति तथा च कान्त्या च बुद्ध्या अभ्यधिकस्तेभ्यो मिथुनकमनुष्येभ्य इति गाथार्थः। (7) इदानी विवाहद्वारव्याधिख्यासयेदमाह। पढमो अकालमचू, तहि तालफलेण दारओ पहओ। कन्ना य कुलगरेणं, सिद्धे गहिया उसभपत्ती // 22 // भगवतो देशोनवर्षकाल एव किञ्चिन्मिथुनकं संजातापत्थमिथुनक तालवृक्षाधो विमुच्य नि:संशयं क्रीडागृहकमगमत् तस्माच तालवृक्षात्पवनप्रेरितमेकं तालफलमपतत्तेन दारको व्यापादितः। तदपि मिथुनकं तांदारिकां संवर्द्धयित्वा प्रतनु कषायं मृत्वा सुरलोकमुत्पन्नं सा चोद्यानदेवतेवोत्कृष्टरूपा एकाकिन्येव वने विचचार। दृष्ट्वा च तां त्रिदशवधूसमानरूपां मिथुनकनराः विस्मयोत्फुल्लनयनाः नाभिकुलकरायन्यवेदयन् / शिष्टश्च तैः कन्या कुलकरेण गृहीता ऋषभपत्नी भविष्यतीति कृत्वेति गाथार्थः / / भावार्थः कथातः सा चैयम् प्रगुणीकुरु कल्याणि-भूयिष्ठं भीक्ष्णकुङ्कुमम्। सीमन्तिनीनां सीमान्तं, परिपूर्तिकृते चिरात्॥२५॥ त्वं वयस्ये प्रशस्यानि, पुष्पदामान्युपानय। विचित्ररचनान्मुग्धे! मुकुटान्निकटीकुरु॥२६॥ चतुष्कान् पूरय द्वारि, मुक्ताक्षोदेन सुन्दरि!। Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम ११५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ वेद्यन्तः कुरु हेकाम, धेनुगोमयगोमुखम्॥२७।। निवेशयाऽत्र तन्वनि ! सत्वरं वरमश्चिके। पवित्राः शतपत्राक्षि ! त्वं चेहानय पादुकाः।।२८|| कार्यान्तरं च हित्वा त्वं, कस्तूरी सखि ! वर्तय। येन पुत्र्योः कपोलेषु लिख्यते पत्रवल्लरी॥२६॥ कुन्तले! कुन्तलोत्तसा-वाविष्कुरु वधूकृते। मङ्गल्यधवलान् यूयं, हे सख्यो दत्तसत्तमान् // 30 // जामे किमसि निद्रालु-स्तन्द्रालुरसि किं स्नुषे ! // किमङ्गभङ्गं मृदङ्गिः, त्वं करोषि शयालुवत्॥३१|| चस्तरीं विस्तरी मुञ्च, चतुरे किमनादरा। सानन्दा स्पन्दसे किंन, सखि ! मन्दायसे कथम्॥३२॥ लग्नमत्यन्तमासन्नं, भवत्यः किं न जानते॥ तदिदानीमनालस्या-स्त्वरध्वं स्वस्वकर्मसु // 33 / / (कुलकम्) मात्रादिमात्रक इव, स्थित्वा काश्चिदिवः स्त्रियः। रभसात्प्रारम्भन्ते स्म, कर्म वैवाहिकं ततः // 34 // तत्रोपवेशयामासुः,श्रीसुनन्दासुमङ्गले। काश्चित्स्वर्णासनेऽभ्युक्तुं, स्वभुवः कन्यके इव // 35 // गीयमानेषु योषाभि-र्धवलेषु कलस्वनम्। सुगन्धितैलेः सर्वाङ्ग-मयाभ्यान रञ्जसा / / 36|| ते अथोदर्तयामासु-नर्तयन्त्यो वपुलताम्। पिष्टिकाभिः सुपिष्टाभिः, कोमलैः परपल्लवैः / / 37 / / अतिष्ठिपन्नथैकान्ते, नूनं प्रवरमञ्चिके। अभिषेकुरतिप्रीत्यो, रुक्मपीठे इवोज्ज्वले॥३८।। तयोश्चतुषु कोणेषु, न्यधुर्वर्णकपूयकान्। कमितुं मन्मथस्येव प्रथमं पदमण्डकान्॥३६।। ततः कौसुम्भवासांसि, परिधाप्य च तत्क्षणात्। तयोर्निवेशयन्ति स्म, कन्चके ते सुरस्त्रियः।।४०।। नवस्वङ्गेषु तिलकान, प्रदेशिन्यः सभर्तृकाः / तयोश्चकुर्नवनिधी-निव कन्दर्पचक्रिणः॥४१॥ जात्वसंवास्पृशत् सव्या-सव्यत्वेनैतयोमिथः। कौसुम्भस्तन्तुभिस्त'-संपर्किभिरथापराः॥४२|| ते एवं कर्णके वाले, सुरनार्यो निचिक्षिपुः। आस्थानां ते क्षणं तत्र, नानाकेतिकुतूहलैः॥४३॥ तदैवतास्तयोर्वेगा-दुद्वर्णकमपि व्यधुः। विविग्ना प्राक्तनेनैव, पूर्वरूढिरियं यतः॥४४|| स्नानविष्टरमध्यास्य, स्नपयामासुराशु ते। हिरण्मयघटाम्भोभिः, सुखदैरमृतैरिव // 45 // अथ प्रमार्जयामासु-रङ्गयष्टिं मृगीदृशोः। आदर्शमिवतत्सख्यः, सुखस्पर्शनवाससा॥४६|| तयोः स्नानजलैरार्द्र केशपाशमवेष्टयन्। मसृणैरंशुकोद्देशै-रुत्तेजितकृपाणवत्॥४७॥ आश्वासात्तत्ततो वारि, विप्लुषस्तत्सखीजनः। करादिव करीन्द्रस्य, शीकरासारमातपः // 48 // धूपायन्तिस्म धूपेन, स्निग्धकेश्योः सुगन्धिना। ईषदाई केशपाशं, धौतानीवांशुकानि ताः॥४६॥ तत्पादान् पल्लवाताम्रा-नपि लाक्षारसेन ताः। अमण्डयन् धियेवेति, रक्तं रक्तेन युज्यताम् // 50 // सर्वाङ्गमङ्गरागेण, तन्वङ्गयो~लिपन्तताः। रवि लातपेनेव, काञ्चनाचलमेखले // 51 // तत्कपोलतले ताभि-लिखिता पत्रवल्लरी। प्रसर्पद्वानलेखेव, माद्यतः कामकुम्भिनः / / 5 / / अथाञ्जनेन तन्नेत्र-द्वयं ताभिरभूष्यत। इदिन्दिरकुलनेवे, नीलेन्दीवरकाननम्॥५३।। तयोर्ललाटपट्टान्त-इचान्दनं चन्द्रकं व्यधुः। आसितुः स्मरराजस्य, विमलां यष्टिकामिव // 54 // तयोर्बबन्धुर्धम्मिल्ल-मुल्लसन्माल्यगर्भितम्। निषङ्गमिव कामस्य, पूरितं कुसुमेषुभिः / / 5 / / अथ ताभ्यां कुमारीभ्यां, व्यूतानीवेन्दुरश्मिभिः / वासांसि वासयामासुः, पारिणेत्राणि तास्ततः॥५६।। तयोरबध्नन्मुकुट, चञ्चचन्द्रकराजितम्। रुक्मपड़ेरुहोत्तंस-व्योमगङ्गाविडम्बनम्॥५७॥ नेत्रैः कर्णान्तविश्रान्तै-र्वतंसे सत्यपि स्वयम्। अन्यमारोपयामासुः, पुनरुक्ता भया इव // 58|| कर्णयोमणिताटङ्की, निःक्षिपन्तिस्मतास्तयोः। द्विद्विरूपाविवार्केन्दू, विवाहं द्रष्टुमागतौ // 56 // निवेश्यते स्म देवीभि-स्तयोर्मुक्तासरो हृदि। वरिवस्यन्निवास्येन्दु-मभितस्तारकागणः / / 60 // केयूरे भुजयोन्य॑स्ते, इन्द्रनीलमये तयोः। पञ्चवाणस्य वाणानां, शाणे इव निशाणने // 61 / / निहितं काञ्चने रत्न, राजनीति धिया किल। विन्यस्यते स्म तत्पाणौ, सुरीभिर्मणिकङ्कणे // 62 / / अङ्गुलीषु तयोः क्षिप्ता-श्चारुहीरकमुद्रिकाः। दोलतायाः फलानीव, परिपाकारुणान्यथ / / 63 / / तद्वा श्रोणौ च सजाना, तयोश्चन्द्राश्ममेखला। गुरुनाभिसरस्तीरे, हंसावलिरिवोज्ज्वला // 64 // मञ्जीराणि तयोर्त्यस्यन्, झणत्कारीणि पादयोः। मरालानाह्नवयन्तीव, गतिं स्पर्द्धयतुं मदात्॥६५।। अथोत्पाट्यामरीभ्यां ते, दिवभूषणभूषिते। आसिते कौतुकागारे, मूर्ते वाणिश्रियाविव // 66 // विवाहाकल्पमाधातुं, विज्ञप्तो वज्रिणा विभुः / भोगकर्मास्ति लोके च, स्थितिर्देश्येत्यमन्यत // 67 / / ततश्च कल्पिताकल्पः, कृतमाङ्गल्यमज्जनः। विहिताशेषकृत्यश्च, कृत्यविद्भिर्यथाविधि // 68|| चान्दनैरसनिस्पन्नैः कृतदेहविलेपना! विच्छरितः पुण्यलक्ष्मी, कटाक्षैरिव सर्वतः॥६६।। वसानः पारिनेत्राणि, शुचीनि सिचयानि च। जिनेन्द्रोऽपि शरन्मेधा-कीर्णस्वर्णाचलोपमः॥७०|| सौधमध्याद्धरित्रीभृ-त्कन्दरादिव केसरी। निर्जगाम गुणग्राम-द्रुमारामसहोदरः // 71 / / अथाधिरुह्य जात्याश्व-मुच्चैःस्रवसमिन्द्रवत्। संक्रान्तैः पश्यतां नेत्रैः, सहस्रेक्षणतां वहन्॥७२।। मायूरेणातपत्रेण, स्वर्णकुम्भोपशोभिता। प्रावृषेण्यघनेनेवा-नीयमानस्तडित्वा 73|| शुभ्राभ्यां चामराभ्यां च, वीज्यमानो मुहुर्मुहुः / साम्राज्यकमलालीला-कमलाभ्यामिवाभितः // 74 / / तूर्यनादेन रोदश्यो-रुदरम्भरिणा ततः।। निर्घोषणेवघण्टायाः, सुघोषायाः प्रसर्पता // 75 / / श्रवं श्रवणपूरंच, गायद्भिः कलगीतिकाः। रक्तकण्ठैः कृतोत्कण्ठैः, कलकण्ठैरिवाङ्गिनाम्॥७६।। नृत्यद्भिरप्सरोवृन्दै-नानाभरणभारिभिः / Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम अनिलान्दोलितै: कल्प-शाखिशाखागणैरिय / / 77 / / वधूवरस्य सुत्रामा, बद्धवानञ्चलं मिथः। उत्तम्भितभुजैर्भट्ट:-पठ्यभानगुणोत्करः। तेषां मनांसीवोगाढमनुराग: परस्परम् // 2 // उत्तानीकृतहस्ताग्रैर्गजभिरिव कुञ्जरैः / / 78 / / कौतुकागारतो वेद्या-मथानिन्ये वधूवरम्। उत्तार्यमाणलवणो, देवीभिः पक्षयार्द्वयोः / / अवियोजितहस्ताग्रमामोचितपटाञ्चलम्॥३॥ पृष्ठे विम्बीफलोष्ठी भि-यमानैरुलूलुभिः / / 76 / / त्रायस्त्रिंशसुरः कोऽपि, चक्रे वेद्यामथानलम्। शुभोदकत्वपिशुनै:, शकुनैरानुकूलिकैः। व्यधाळूमं समित्क्षेपाद्, धूमपाताय कन्ययोः // 4 // अभ्यगान्मण्डपद्वारं, भगवान् शुभगं जनैः।। 80 // कंसारश्च सखण्डाज्य:,पक्वस्तेनैव नाकिना। तत्रावरुह्याथ विभु-रर्वत:सर्वतादिव। ताभ्यां प्रभुस्तद्वयी तेनात्स्यत स्वस्वपाणिना / / 5 / / अस्थित: स्थितिनिष्णात:, क्षणमेकमनुत्सुकः॥१॥ अथोचैर्मङ्गलाचारे, दीयमानेऽङ्गनाजनैः। अथ प्रगुणयामासुर्दधिदूर्वादिभाजनम्। रभसोल्लसितैरर्वगुण्यमिव लम्भितैः॥६॥ मन्धानमुशलादीश्च, मङ्गल्यानखिलानपि // 2 // मेसं सरोहिणीज्योत्स्ना-जवत्तत्राभितोऽनलम्। श्रूयमाणश्रुतिकटु-स्फुटल्लवणनि:स्वनम्। स्वाम्यभ्राम्यद्युतस्ताभ्यामामङ्गलचतुष्टयम्।।७।। शरावसंपुटं काचिन्मुमोच द्वारिसानलम्।। 83 // अथ श्यालकदेशीयः, कश्चिन्मङ्गलवर्तने। अथोद्भटं पट्टयुगं, सन्ध्यारागमिवारुणम्। स्वामिनं चरणाङ्गुष्ठे, नीचे भूयोऽभ्यधारयत्॥ 8 // परिधायाग्रत: काचि-दर्घदानोद्यताऽभवत्।।४।। यथेच्छ भगवांस्तस्मै, स्वर्णरत्नान्यदात्तदा। अह्राय जगदाय, सुभ्र! देहार्घमर्घदे। महान्तो ह्याङ्गिलग्नानां, ददते यन्न तन्न हि।। 6 / / स्फीतं यश श्वामुष्य, नवनीतं समुन्नय / / 85 / / कृतेषु पाणिमोक्षादि-कृत्येषु निखिलेष्यपि। उद्वेष्टय वचोवीची-शिशिरं चान्दनं रसम्। सुमङ्गलासुनन्दाभ्यां, सहारुढो हयं प्रभुः // 10 // दधि चैतद्गुणग्राम-वलक्षं क्षिप्रमुत्क्षिप॥८६॥ स्फीतावगीतसंगीत-मुखरीकृतदिङ्मुखः। समुन्मीलन्महानील-रत्नाकरसहोदरम्। प्रत्यग्रतोरणद्वार-माययौ निजवेश्मनः // 11 // द्रागेव शाहलां दूर्वां, सुवासिनि ! समुद्धर // 87 // घोटकं कूर्दयामासु-श्चिरं तत्र वधूवरम्। नन्वेष शेषभोगीन्द्र-भोगोपमभुजद्रयः। हर्षोत्कर्षेण कुर्वाणा, देवा जयजयारवम् // 12 // वरस्ते तोरणद्वारि, त्रिजगजैत्रबिक्रमः // 88 // तला इव समीरेण, प्रमोदेन प्रणोदिताः। ऊर्द्धः समस्ति सर्वाङ्गमुत्तरीयांशुकावृतः। पौलोम्याद्याश्च नन्तुतिपूर्णमनोरथाः॥ 13 // शरदिन्दुरिवोद्गच्छ, ज्योत्स्नाजातजटालितः // 8 // प्रविवेश तत: स्वामी, स्वसौर्ध कृतमङ्गलः। भृशं पुष्यन्ति पुष्पाणि, वातेनोद्वाति चान्दनम्। विवाहोत्साघ्सौन्दर्य-रजितास्त्रिजगज्जनः // 14 // तद्वारि सुचिरं श्वश्रु, वरं माधरमाधर / / 60 // शुष्कनीलफलस्वादु-नानापक्वान्नपेशला। इत्यवें धवलान् श्वश्रूः शृण्वाना: श्रुतिपावनैः / शालिसूपघृतप्राज्य-प्रलेव्यञ्जनाद्भुता।। 15 / / स्वामिने दत्तवत्यर्ध-मनर्घगुणशालिने॥११॥ मिथो जेमनवाराभू-द्भरिगौरवसुन्दरा। धृत्वान्तर्वामहस्तेन, विधायग्रे च दक्षिणम्। ताम्बूलांशुकदानाद्यैः, सम्माननमथाभवत्।। 16 // युगवैशाखमुशलै-श्चक्रे च प्रोक्षणक्षणम्।।६२ पूर्वपात्रप्रवेशादि-विवाहोत्सववृद्धिभिः। मनोरथेमिवारीणामथो लवणसंपुटम्। स्वामिन: पितरौ तत्र, मुमुदातेतरां सदा // 17 // भगवान् सव्यपादेन, दलयामास लीलया / / 63 / / कृतकृत्योऽथ शक्रादि-देवदेवीगणोऽखिलः। स्कन्धे पट्टाञ्चलेनाथ, समाकृष्य जगत्प्रभुः। प्रणिपत्य प्रभोः पादान्, स्थानं निजनिजंययौ // 18 // आ०क० नीत: श्वश्र्वा वधूपान्तमासांचक्रेऽथ शक्रवत्।।६४ // अमुमेवार्थमाह। मदनस्य फलं ग्राह्यमित्यस्य किल सूचकम्। भोगसमत्थं नाउं, वरकम कासि देविंदो। मदनस्य फलं पाणौ, बद्धं वध्वोर्वरस्य च॥६५ / / दुनं वरमहिलाणं, बहुकम्मं कासि देवीओ।। जीवन् मातापितृश्वश्रू-श्वशुरा: सधावाङ्गना:। भगवाँश्च तेन कान्याद्वयेन सार्द्ध विहरन् यौवनमनुप्राप्त: / अत्रान्तरे हस्तालेपं ददौ पिष्ट्वा, वधूट्यो: पाणिपङ्कजे॥६६॥ देवराजस्य चिन्ता जायाकृत्यमेतदतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां अथाम्भोधिपयः पात्र्यां, मुक्तलग्नघटीनिजे। प्रथमतीर्थकराणां विवाहकर्म क्रिय इति संचिन्त्यानेकत्रिदशवधूवृन्द जाते सति सहस्रांशु-विम्बे विम्बीफलद्युति।।६७॥ समन्वितोऽवतीर्णवानित्यवतीर्य च भगवत: स्वयमेव वरकर्म चकार / श्रुत्वा भाजनशब्दं च, सावधानस्ततो हरिः। पत्न्योरपि देव्यो वधूकर्मेति / अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह (भोगगाहा) योजयामास तत्कालं, वधूवरकरान्मिथ: / / 68|| गमनिका। भोगसमर्थ ज्ञात्या वरकर्म तस्य कृतवान् देवेन्द्रद्वयोर्वरमहिलअथान्योऽन्यस्य पश्यन्तो, विस्फारितविलोचना:। योर्वधूकर्म कृतवत्यो देव्य इति गाथार्थ: / भावार्थस्तूक्त एवं / / 123 / / निमेषमप्यकुर्वाणा, अन्तरायभयादिव !96 || (8) अथापत्यद्वारम्। रेजिरे ते तदा तत्र, तारमेलककारिणः। छप्पुटवसयसहस्सा, पुट्विं जायस्य जिणवरिंदस्स। विशन्त इव वक्षोऽन्तर्मिथस्तारासु संक्रमात्।। 100 // तो मरहवंभिसुंदरि, बाहुबली सुंदरी चेव॥ 12 // उच्चैः कौतुकधवलान्, जगुर्वध्वा: सखीतमाः। देवीसुमंगलाए, भरहो बभी अमिहुणगं जायं। नर्मकर्मणि चातुर्य, विभ्राणास्तत्र केलयः // 1 // देवीइ सुनंदाए० बाहुबली सुंदरी चेव // 125 // Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ (छप्पुटवगाहा'') निगदसिद्धैवेयं नवरमनुत्तरविमानादवतीय सुमङ्गलायाः पुन: बाहुपीठश्च भरतब्राझीमिथुनकं जातं तथा सुबाहुमहापीठश्च सुनन्दाया: बाहुबली सुन्दरीमिथुन कमिति / 124 / अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाह मूलभाप्यकार: (देवीगाहा 625) सुगमत्वान्न विवियते आह / किमेतावन्त्येव भगवतोऽपत्यानि उत नेति। उच्यते। अउणापन्नं जुअले, पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे। नीईणमइक्कमणे, निवेअणं उसमसामिस्स !! 126 // गमनिका / एकोनपञ्चाशतयुग्मानि पुत्राणां सुमङ्गला पुन:प्रसूतवती। अत्रान्तरे प्राग्निरूपितानां हक्कारादिप्रभृतीनां दण्डनीतीनां ते लोका: प्रचुरतरकषायसंभवात् अतिक्रमणं कृतवन्तः / ततश्च नीतीनामतिक्रमणे सति तल्लोका अभ्यधिक ज्ञानादिगुणसमन्वितं भगवन्तं विज्ञाय निवेदनं कथनमृषभस्वामिने आदितीर्थंकराय कृतवन्त इति क्रियाऽयं गाथार्थः। एवं निवेदिते सति भगवानाह। राया करंइदंडं, सिढे ते विंति अम्ह विसहो उ। मग्गह य कुलगरं सो, वेइ उसभो अ भे राया॥१२७ / / गमनिका। मिथुनकैर्निवेदिते सति भगवानाह। नीत्यतिक्रमणकारिणां राजा सर्वनरश्वरः करोति दण्ड स चामात्यारक्षिकादिबलयुक्तः कृताभिषेक: अनतिक्रमणीयाज्ञश्च भवति।एवं शिष्ट कथिते सति भगवता ते मिथुनका ब्रुवते भणन्ति अस्माकमपि राजा भवतुवर्तमानकालनिर्देश: खल्वन्यास्ववस प्पिणीषु प्राय: समानन्यायप्रदर्शनार्थः / त्रिकालगोचरसूत्र प्रदर्शनार्थों वा / अथवा प्राकृत शैल्या छान्दसत्वाच (विंतीति) उक्तवन्त: / भगवानाह यद्येवं (मग्गहयकुलगरंति याचयध्वे कुलकरं राजानं स च कुलकरस्तैर्याचित: सन् (वेत्तेति) पूर्ववदुक्तवान् ऋषभो (भे) भवतां राजेति गाथार्थः। ततश्च ते मिथुनका राज्याभिषेकनिर्वर्तनार्थमुदकानयनाय पद्मिनीसरो गतवन्तः / अत्रान्तरे देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव विभाषा पूर्ववत्यावदिहागत्याभिषेकं कृतवानिति / (10) ऋषभस्वामिनो राज्याभिषेक: / आभोएउं सको, उवागओ तस्स कुणइ अमिसे। मउडाइ अलंकारं, नरिंदजोगं च से कुणइ / / 128 / / गमनिका आभोगयित्वा उपयोगपूर्वकनावधिना विज्ञाय शक्रो देवराज उपागतस्तस्य भगवत: करोति अभिषेकम्। राज्याभिषेकमिति / तथा मुकुटाद्यलङ्कारंच आदिशब्दात्कटककुण्डलकेयूरादिपरिग्रहः / चशब्दस्य व्यवहित: संबन्धो नरेन्द्रयोग्यं (से) तस्य करोति अत्रापि वर्तमानकालनिर्देशप्रयोजनं पूर्ववदवसेयम् / पाठान्तरम् "आभोएउं सक्को, आगंतुं तस्स कासिअभिसेयं / मउडादिअलंकार, नरिंदजोगंच से कासी भावार्थः पूर्ववदेवेति गाथार्थ: / अत्रान्तरे ते मिथुन कनरास्तस्मात्पद्मसरस: खलु नलिनीपत्रैरुदकमादाय भगवत्समीपमागत्य तं चालंकृतविभूषितं दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्लनयनाः किंकर्तव्यताव्याकुलीकृतचेतसः कियन्तमपि काल स्थित्वा भगवत्पादयो: तदुदकं निक्षिप्तवन्त इति तानेवंविधक्रियोपेतान दृष्ट्वा देवराडचिन्तयत् अहो खलु विनीता एते पुरुषा इति वेश्रमणं यक्षराजमाज्ञापितवानिह द्वादशयोजनदीर्घा नवयोजनविष्फाम्भां विनीता नगरी निष्पादयेति।स चाज्ञासमनन्तरमेव दिव्यभवनप्राकारमालोपशोभितां नगरी चक्रे। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह। भिसिणीपत्तेहिरे, उदयं धित्तुं छुहंति पाएसु / साहुविणीया पुरिसा, विणीयनयरी अह निविट्ठा।।१२६ / / गमनिका विसिनीपत्रैरुदकं गृहीत्वा छु भन्तीति प्रक्षिपन्ति वर्तमाननिर्देश: प्राग्वत्पादयोरुपरि। देवराडभिहृतवान्। साधु विनीता. पुरुषा: विनीतनगरी अथ निविष्टति गाथार्थ: / 126 / (11) सांप्रतं राज्यसंग्रहद्वारमभिधित्सयाऽऽह। आसा हत्थी गावो, गहिया एएय रजसंगहनिमित्तं / चित्तूण एवमाई, चउट्विहं संगई कुणइ॥ 130 // गमनिका अश्वा हस्तिनो गावएतानिचतुष्पदानितदा गृहीतानि भगवता राज्ये संग्रह: तन्निमित्तं गृहीत्वा एवमादिचतुष्पदजातमसौ भगवान् चतुर्विधंवक्ष्यमाणलक्षणं संग्रहणं करोति। वर्तमाननिर्देशप्रयोजन पूर्ववत्। पाठान्तरं वा चतुर्विधं संग्रहं कासी इत्ययं गाथार्थः / / 130 / / स चायम्। उग्गा भोगा रायन्न खत्तिया संगहो भवे चउहा। आरक्खिगुरुवयं सा, सेसा जे खत्तिया ते उ॥ 131 / / स चायम् / उग्गहगाहा / गमनिका उग्रा भोगा राजन्या क्षत्रिया एवं समुदायरूप: संग्रहो भवेचतुर्धा : एतेषामेव यथासंख्यं रूवरूपमाह / (आरक्खेत्यादि) आरक्षका उग्रदण्डकारित्वात उग्रा गुर्विति गुरुस्थानीया भोगा: वयस्या इति राजन्या: समानवयस इति कृत्या वयस्याः शेषा उक्तव्यतिरिक्ता वे क्षत्रियास्ते तुशब्द: पुनश्शब्दार्थस्तेपुनः क्षत्रिया इति गाथार्थः। (12) लोकस्थितिनिबन्धनप्रतिपादनाय गाथाचतुष्टयमाह। आहारे सिप्पकम्मे, मामणाय विभूसणा। लेहे गणिए अरुवे अ, लक्खणे माणपोयए।। 132 / / ववहारे नीइजुद्धे अ, ईसत्थे उवासणा। तिगिच्छा अत्थसत्थे अ, बंधे घाए अमारणा / / 133 / / जत्तूसवसमावाए, मंगले कोडए इअ। वत्थे गंधे अमल्ले अ, अलंकारे तहेव य / / 134 / / चोलोवणविवाहे अ, दत्तिया मडयपूयणा। कावणा थूभसद्दे अ, छेलावणयपुच्छणा / / 135 / / एताश्चतस्रोऽपि द्वारगाथा: / एताश्च भाष्यकार: प्रतिद्वार व्याख्यास्यत्येव तथाप्यक्षरगमनिकामात्रमुच्यते तत्रापि प्रथमगाथामधिकृत्याहा तत्राहार इति आहारविषयो विधिवक्तव्यः कथं कल्पतरुफलाहाराभावः संवृत्त: कथं वा पक्काहार: संवृत्त इति तथा शिल्प इति शिल्पविषयो विधिर्वक्तव्यः / कुतः कथं कि यन्ति वा शिल्पान्युपजातानीति / कर्मणीति कर्मविषयो विधिर्वाच्यः यथा कृषिवाणिज्यादिकर्म संजातमिति तच्चाग्नावृत्पन्ने संजातमिति / च: समुचये (भामणेत्ति) ममीकारार्थे देशी वचनम् ततश्च परिग्रहममीकारो वक्तव्य: स य तत्काल एव प्रवृत्त: च: पूर्ववत् / विभूषणं विभूषणा मण्डनभित्यर्थः / सा वक्तव्या सा च भगवतः प्रथमं देवेन्द्रः कृता पश्चाल्लोकेऽपि प्रवृत्ता। लेख इति लेखनं लेख: लिपिविधानमित्यर्थः / तद्विपयो विधिवक्तव्यः तच जिनेन ब्राह्या दक्षिणकरेण प्रदर्शितमिति / गणितविषयो विधिर्वाच्यः एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या / गणित संख्यानं तय भगवता सुन्दर्या बामकरणोदिष्टमिति / च: समुच्चये Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम ११५३-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम रूपं काष्ठकर्मादि तय भगवतो भरतस्य कथितमिति / च: पूवर्वत्।। चालयन्ति पुनर्यक्षाः खल्वागम्य कर्णे कथयन्ति किमपि लक्षणं पुरुषलक्षणादितच भगवतैव बाहुबलिन: कथित मिति। मानमिति प्रष्टुर्विवक्षितमिति / अथवा निमित्तादिपृच्छा सुखशयनादिपृच्छा चेति मानोन्मानावमानगणिमप्रतिमानां लक्षणम्। (पोत इति) वोहित्थ: प्रोतं चतुर्थद्वार गाथासमासार्थः / / 35 // आव०१ अ०। इदानीं प्रथमद्वाराव वा अनयोर्मानप्रोतयोविधिर्वाच्यः / तत्र मानंद्विधा धान्यमानं रसमानं यवार्थाभिधित्सया मूलभाष्यकृदाह॥ च। तत्र धान्यमानुमक्तमा दो असती उपसती इत्यादि, रसमानं चउसट्ठिया आसी कंदाहारा, मूलाहाराय पत्तहाराय। वत्तीसिया एवमादि,,२ उन्मानं येनोन्मीयते यद्वोन्मीलयते तद्यथा कर्ष पुष्फफलभोइणो विय, जइआ किर कुलगरो उसहो। इत्यादिा अवमानं येनावमीयते तद्यथा हस्तेन व दण्डेन वा हस्तो वेत्यादि गमनिका / मूलाहाराश्च आसन कन्दाहारा: पत्राहाराश्च / 3 / गणिमं यद्गण्यते एकादिसंख्येति। प्रतिमान गुजाादिएतत्संर्वतदा पुष्फलभोजिनोऽपि च कदा यदा किल कुलकर ऋषभः / भावार्थः स्पष्ट प्रवृत्तमिति / पोता अपि तदेव प्रवृत्ताः / तथा प्रकर्षण उतनं प्रोत: एव नवरंते मिथुनका नरा एवंभूता आसन् किलशब्दस्तु परोक्षाप्तागममुक्ताफलादीनां प्रोतनं तदैव प्रवृत्तमिति / प्रथमद्वारगाथासमासार्थ: / / वादसंसूचक इति गाथार्थ: / तथा। 32 // द्वितीयगाथागमनिका (ववहारेत्ति) व्यवहारविषयो विधिर्वाच्यः आसी आइक्खुभोई, इक्खागा तेण खंत्तिया हुंति। राजकुल-करणभाषाप्रतिपादनादिलक्षणो व्यवहार: स च तदा प्रवृत्तो सणसत्तरसं धन्नं, आम ओमं च भुजीआ॥ लोकानां प्राय: स्वस्वभावापगमात् (णीतित्ति) नीतौ विधिर्वक्तव्यः / गमनिका। आसँश्च इक्षुभोजिन इक्ष्वाकवस्तेन क्षत्रिया भवन्ति / तथा नीतिहक्कारादिलक्षणा समाधुपायलक्षणा व तदैव जातेति (युद्धेयत्ति) सणः सप्तदशोयस्य तत्सणसप्तदशंधान्यं शाल्यादि आममपक्वम् (ओम) युद्धविषयो विधिर्वाच्यः। तत्र युद्धं बाहुयुद्धादिकलावकादीनां वा तदैवेति न्यूनं च (भुंजीया इति) भुक्तवन्त इति गाथार्थः / 137 / तथापि (ईसत्थेयत्ति) प्राकृतशैल्या उकारलोपात् इषुशास्त्रं धनुर्वेद स्तद्विषयो कालदोषात्तदर्पि नजीर्णवत्ततश्च भगवन्तंपृथ्वन्तः। भगवाँश्चाह हस्ताभ्यां विधिर्वाच्य इति तदपि तदैव राजधर्मे सति जातमथवा घृष्ट्वाऽऽहारयध्वमिति / / एकारान्तत्वासर्वेऽत्र प्रथमान्ता: एव द्रष्टव्या:। व्यवहार इतिव्यवहारस्तदा अमुमेवार्थ प्रतिपादन्नाह भाष्यकृत्। जात एवं सर्वत्र योज्यम् / यथा कयरे आगच्छइ वित्तरूवेत्यादि ,, ओमप्पाहारंता, अजीरमाणम्मि ते जिणमुर्विति। (उवासणेत्ति) उपासना नापितकर्म तदपि तदैव जातं हत्थेहि घंसिऊणं, आहारेहति ते भाणिया / / 38 // गमनिका / अवममप्याहारयन्तः / अजीर्यमाणे ते मिथुनकाजिनं प्रागनवस्थितनखलोमान एर प्राणिन आसन्निति गुरुनरेन्द्रादीनां चोपासनेति / चिकित्सा रोगहरणलक्षणा सा तदैव जाता / एवं सर्वत्र प्रथमतीर्थकरमुपयान्ति / पूर्वावसर्पिणी स्थितिप्रदर्शनार्थं वर्तमान निर्देशो भगवता चा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा आहारयध्वमिति ते भणिता: सन्त क्रियाध्याहार: कार्य / (अत्थसत्थेयत्ति) अर्थशास्त्रं (बंधे घाते य किं कुर्वन्ति। मारणेयत्ति) बन्धो निगडादिजन्य: / घातो दण्डादिताडना। जीविताद् आसीय पाणिघंसी,तिम्मिअतंदुलपवालपुडभोई। व्यारोपणं मारेणेति सर्वाणि तदैव जातानीति द्वितीयद्वारगाथा समासार्थ: हत्थतलपुडाहारा, जइआ किर कुलगरो उसभो / / 36 / / // 33 // तृतीयगाथागमनिका / एकारान्ता: प्रथमाद्वितीयान्ता: प्राकृते आसंश्च ते मिथुनका भगवदुपदेशात्पाणिभ्यां घटुं शीलं येषां ते भवन्त्येव तत्र ये ज्ञानादि पूजारूपा: उत्सवाः शक्रोत्सवादय: समवाया: पाणिघर्षिण: / एतदुक्तं भवति।ता एवौषधी: हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचं चापनीय गोष्ठ्यादिमेलका: एते तदा प्रवृत्ता: मङ्गलानि स्वस्तिकसिद्धार्थकादीनि भुक्तवन्तः / एवमपि कालदोषात् कियत्यपि गते काले ता अपि न कौतुकानि रक्षादीनि मङ्गलानि च कौतुकानि चेति समास: (मंगलेत्ति) जीर्णवत्यः / पुनर्भगवदुपदेशतः एवतीमिततन्दुलप्रवालपुटभोजिनो एकारोऽलाक्षणिको मुखसुखोचारणार्थः। एतानि भगवतः प्राग्देवैः कृतानि बभुवुः / तीमिततन्दुलान् प्रवालपुटे भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः / पुनस्तदैव लोके प्रवृत्तानि / तथा वस्त्रं चीनांशुकादि गन्धः तन्दुलशब्देनौषध्य एवोच्यन्ते। पुन: कियतापि कालेन गच्छता कोष्टपुटादिलक्षण: / माल्यं पुष्पदाम / अलङ्कारः केशभूषणादिलक्षणः। अजीर्णदोषादेव भगवदुपदेशेन हस्ततलपुटाहारा आसन्। हस्ततलपुटेषु एतान्यपि वस्त्रादीनि तदैव जातानीतितृतीयद्वारगाथासमासार्थः / आहारो विहितो येषामिति समास: / हस्ततलपुटेषु कियन्तमपि चतुर्थगाथागमनिका तत्र (चूडे ति) वा लानां चूडाकर्म तेषामेव कालमौषधी: स्थापयित्वोपभुक्तवन्त इत्यर्थः। तथा कक्षासुस्वेदयित्वेति कालाग्रहणार्थ: नयनमुपनयनं धर्मश्रवणनिमित्तं वा साधुसकाश यदा किल कुलकर ऋषभशब्द: परोक्षाप्तागमवादसंसूचकस्तदा ते नयनमुपनयनम्। विवाह: प्रतीत एव एते चूडादयस्तदा प्रवृत्ताः।। 350 / / मिथुनका एवं भूता आसन्निति गाथार्थः / 36 / पुनरनिहितप्रकारा दत्ता च कन्या पित्रादिना परिणीयत इति तत्सदैव संजातम्। भिक्षादानं वा व्यादिसंयोगैराहारितवन्तस्थद्यथा पाणिभ्यां धृष्ट्वा पत्रपुटेषु च मुहुर्त भृतकस्य पूजा नाम मरुदेव्यास्तदैव प्रथमसिद्ध इति कृत्वा देवैः कृतेति तीमित्वा तथा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा हस्तपुटेपु च मुहूर्त धृत्वा पुनर्हस्ताभ्यां लोके च रूढ़ा। अध्ययना अग्निसंस्कार: स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्य घृष्ठा कक्षास्वेदं च कृत्वा पुनस्तीमित्वा हस्तपुटेषु च मुहुर्त प्रथमं त्रिदशै: कृत: पश्चाल्लोकेऽपिं संजातः / भगवदादिदग्धस्थानेषु धृत्येत्यदिभङ्गकयोजना केचित्प्रदर्शयन्ति / घृष्ट्वा पदं विहाय तचायुक्तं स्तूपास्तदैव कृता: लोके च प्रवृत्ता: शब्दश्च रुदितशब्दो भागवत्येवापवर्ग त्वगपनयनमन्तरेण तीमितस्यापि हस्तपुटधृतस्य सौकुमार्यत्वानुपपत्ते: सति भरतदु:खमसाधारणं ज्ञात्वा शक्रेण कृतो लोकेऽपि रूढ़ एव / श्लक्ष्णत्वभावत्वाद्वा अदोष इति / द्वितीययोजना पुनर्हस्ताभ्यां घृष्ट्वा छेलापनकं इति देशीवचनमुत्कृष्टवालक्री डापनसेटिकाद्यर्थवाचकमिति। / पत्रपुटेषुतीमित्वा हस्तपुटेषुचमुहुर्तधृत्वेति। तृतीय-योजनापुनर्हस्ताभ्यां तथा प्रच्छनं प्रच्छना सा इंखिणिकादिलक्षणा इंखिणिकां कर्ममूले घष्टिकां | घृष्ट्वा पत्रपुटेषु तीमित्वा हस्तपुटेषु धृत्वा कक्षासु स्वेदयिन्वेति। Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह। घंसेऊणं तिम्मण, घंसणतिम्मणपवालपुडमोई। घंसियतिम्मपवाले, हत्थउडे कक्खसेए अ।। 40 // भावार्थ उक्त एव नवरमुक्तार्थाक्षरयोजना / घृष्ट्वा तीमितं कृतवन्त इत्यनेन प्रागभिहितप्रत्येकभङ्गकाक्षेप: कृतो वेदितव्यः / घृष्ट्वा प्रवालपुटतीमितभोजिन इत्यनने द्वितीययोजनाक्षेपः। घृष्ट्वेति घृष्ट्वा तीमनं प्रवाल इति प्रवाले तीमित्वा हस्तपुटेषु कियन्तमपि कालं विधाय भुक्तवन्त इति वाक्यशेष: इत्यनेन तृतीययोजनाक्षेप: / तथा कक्षास्वेदे च कृते सति भुक्तवन्त: इत्यनेनानन्तराभिहितत्रययुक्तेन चतुर्भङ्गकयोजनाक्षेप इति गाथार्थः। अत्रान्तरे। अगणिस्य य उट्ठाणं, दुमघसा दट्ठ भीअपरिगहणं। पासेसु परिच्छिंदह, गिण्हह पागं तओ कुण्हह / / 41|| आह सर्वं तीमनादि ते मिथुनकास्तीर्थकरोपदेशात्कृतवन्त: स च भगवान्जातिस्मर: सन् किमित्यन्युत्पादोपदेशनदत्तवानित्युच्यते तदा कालस्यैकान्तस्निग्धत्वात् असत्यपि यत्ने वस्तूस्पत्तेरिति स च भगवान् विजानति न ह्येकान्तस्निग्धरूक्षयो: कालयोर्वयुत्पाद: किं त्वनतिस्निग्धरूक्षकाल इत्यतो नादिष्टवानिति तेषां च चतुर्भङ्गविकल्पितमप्याहारं कालदोषान्न जीर्णवत्: इत्यस्मिन् प्रस्तावे अग्नेश्वोत्थानं संवृत्तमिति / कुत: द्रुमघर्षात्तं चोत्थितं प्रवृज्वालावलीसनाथं भूप्राप्तं तृणादिदहन्तं दृष्ट्वा अपूर्वरत्नवुद्धया ग्रहणंप्रति प्रवृत्तवन्त: दह्यमानास्तु भीतपरिकथनमृषभाय कृतवन्त: इति। भीतानां परिकथनं भीतपरिकथनम्। भीत्या वा परिकथन भीतिपरिकथनं पाठान्तरमिति। भगवानाह पावेत्यादि सुगम ते हि अजानाना वहावेवौषधी: प्रक्षिप्तवन्त: ताश्च दाहमापुः पुनस्ते भगवतो हस्तिकन्धगतस्य निवेदयन्ति ।स हि स्वयमेवौषधी क्षयतीति / भगवानाह न तत्राभिरोहितानां प्रक्षेपः / / 41 // इत्थं तावत्प्रथमं कुम्भकारशिल्पमुत्पन्नममुमेवार्थमुपसंहरन्नाह। पक्खेवदहणमोसहि,कहणं निग्गमणहत्थिसीसम्मि। पयणारंभपवित्ता, ताहे कासी य ते मणुआ।। 42 // मिंठेण हत्थिसीसे, मट्टियपिंडं गहाय कुडगं तु / निव्वत्ते सिअ तह आइजिणोवइटेण मग्गेण / / 43 / / निव्वत्तिए समाणे, जणई राया तओ बहुजणस्स। एवइआ मे कुय्वह, पथट्टि पढमसिप्पं तु / / 44 // भावार्थ उक्त एव किं तु क्रियाध्याहारकरणेनाक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्या / यथा प्रक्षेपं कृतव तो दहनौषधीनां बभूवेत्यादि उक्तमाहारद्वारम् / आव०१ अ०। शिलाद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह / पंचेव य सिप्पाइं,घडलोहे चित्तणंतकासवए एकेकस्य य पत्तो, वीसं वीसं भवे भेया।। 45 // पञ्चैव मूलभूतानि शिल्पानि। तद्यथा (घडलोहे चित्तणंतकासवएइति) तत्र घट इति कुम्भकारशिल्पस्योपलक्षणं (लोहेत्ति) लोहकारशिल्पस्य (चित्तेत्ति) चित्रकारशिल्पस्य "तमिति" देशीवचनं वस्त्रवाचकं ततोऽनेन वस्त्रशिल्पस्य ग्रहणं काश्यप इति नापितशिल्पस्य / इयमत्र | भावना। वस्त्रवृक्षेषु परिहीयमानेषु भगवता वस्त्रोत्पादनिमित्तवस्त्रशिल्पमुत्पादितं तदनन्तरं गृहाकारेष्वपि कल्पद्रुमेषु हानिमुपगच्छत्सु गृहकरणनिमित्तं लोहकारादिशिल्पमुत्पादितं पश्चात्प्राणिनां कालदोषानखरोमाणि अपि वर्द्धितुं प्रवृत्तानीति नापितशिल्पोत्पादना। गृहाण्यपि च चित्ररहितानि विशोभानि भान्तीति चित्रकारशिल्पोत्पादना कुम्भकारशिल्पोत्पाद-कारण प्रागेव भावितम्। एक्केकस्स येत्यादि एभ्य पञ्चभ्य एकैकस्य विंशतिर्विशतिर्भेदा: अभूवन्निति सर्वसंख्यया तदा शिल्पशतस्यो-त्पत्तिरभवदिति // 45 // संप्रति कर्ममामणाविभूषणाद्वारप्रतिपादनार्थमाह। कम्म किसिवाणिज्जाइ मामणा जा परिग्गहे ममता। पुव्व देवेहिं कया, विभूसणा मंडणा गुरुणो / / 46 / / कर्म नाम कृषिवाणिज्यादि / तचाग्नावुत्पन्ने संजातमिति (मामणेत्ति) ममीकारार्थे देशीवचनमेतत् / ततो योऽपरिग्रहे ममता सा मामणा ज्ञातव्यासा च तत्काल एव प्रवृत्तेति। तथा विभूषणा मण्डना सा च पूर्व देवेन्द्रैर्गुरोर्भगवत: आदितीर्थकृत: कृता पश्चाल्लोकेऽपि प्रवृत्तेति। संप्रति लेखगणितरूपद्वारद्वयप्रतिपादनार्थमाह। लेह लिवीविहाणं, जिणेण बंभीए दाहिणकरेण। गणिय संखाणं सुंदरीए वामेण उवइटुं / / 47 // लेखनं लेखो नाम सूत्रे नपुंसकता प्राकृतत्वाल्लिपिविधानं तच्च जिनेन भगवता ऋणभस्वामिना ब्राहम्या दक्षिणकरेण प्रदर्शितमत एव तदादित आरभ्य वाच्येत। गणितं नाम एकद्वित्र्यादिसंख्यानं तच्च भगवता सुन्दा वामकरेणोपदिष्टमत एव तत्पर्यन्तादारभ्य गण्यते। अधुना रूपलक्षणमानरूपद्वारत्रय प्रतिपादनार्थमाह। मरहस्स रूवकम्म, नराइलक्खणमहोइयं वलिणो। माणुम्माणुवमाणं, पमाणग णमा य वत्थूणं // 48 / / रूपं नाम काष्ठ कर्म पुस्तककर्मे त्येवमादि / तच्च भगवता भरतस्योपदिष्टम् / तथा नरादिलक्षणं पुरुषलक्षणादितच अथ भरतस्य काष्ठकर्माधुपदेशानन्तरं भगवता बाहुबलिन उदितं कथितम्। तथा मानं नाम वस्तूनां मानोन्मानावमानप्रमाणगणितानि तत्र मानं द्विधा धान्यमानं रसमानं च / धान्यमानम् "दो अ सतीए सइया दो य सईतो सेइया चत्तारि सेइया कुलवो चत्तारि कुलवो पत्थओ इत्यादि / रसमानं चउसट्ठिया चउतिसिया सोलसिया" इत्यादि। उन्मानं येनोन्मीयतेतच तुलागतं कर्ष: पलमित्यादि। अवमानं येनावमीयते तद्यथा हस्तो दण्डो युगमित्यादि। प्रमाणं प्रतिमानं तच सुवर्णपरिमाणहेतु: गुञ्जादि गणिम यदेकादिसंख्यया परिच्छिद्यते। यत्तु गणित तत्प्रागेव पृथग्द्वारतयाऽभिहितमेतत्पञ्चप्रकारमपि मानं भगवति राज्यमनुशासति भगवदुपदेशेन प्रवृत्तमिति (पोयए) इतिद्वारगाथायां यदुक्तं तस्य संस्कार: प्रोतकमिति। पोतक इति वा / तथाचाह! मणियाई दोराइसु. पोता तह सागरम्मि वहणाई। ववहारो लेहवणं, कज्जपरिच्छेयणत्थं वा // 46 // ये मणिकादय: आदिशब्दान्मुक्ताफलादिपरिग्रहः / दवरकादिषु लोके न प्रोता: क्रि यन्ते तदेतत्प्रकर्षेण ऊतनं तदा प्रवृत्तम्। अथवा पोता नाम सागरे समुद्रे प्रवहणानि तान्यपि तदैव प्रवृत्तानि / तथा व्यवहारो नाम विसंवादे सति राजकुलकरणे Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ गत्वा निजनिजभाषालेखापनलक्षण; कार्यपरिच्छे दनार्थ वा | पणमुक्तिलक्षण: स उभयरूपोऽपि तदा प्रवृत्त: कालदोषतो लोकानां प्राय: स्वस्वभावापगमात्। अधुना नीतियुद्धरूपं द्वारद्वयमभिधित्सुराह / नीई हकाराई, सत्तविहा अहव सामभेयाई। जुद्धाई बाहुजुद्धाइ, यइ वट्टयाईणं च // 50 // नीतिहक्कारादिलक्षणा सप्तविधा / तद्यथा हक्कारो मकरो धिक्कार: परिभाषणा मण्डलीबन्धश्चारके प्रक्षेपो महापराधे छविच्छेद इति / एषा सप्तविधापि नीतिस्तदा विमलवाहनकुलकरादारभ्य भरतकालं पर्यन्तं कृत्वा यथायोगं प्रवृत्ता। तथा च वक्ष्यति "किंचिच्च भरहकाले' इत्यादि। अथवा नीति म सामभेदादिका चतुष्प्रकारा। तद्यथा सामभोदो दण्ड; उपप्रदानमिति एषा। चतुविधाऽपि भगवत्काले समुत्पन्नेति। तथा युद्धानि नाम बाहुयुद्धादीनि / यदि वा वर्तकादीनां तानि उभयान्यपि तदा प्रवृत्तानि। सांप्रतमिषुशास्त्रोपासनारूपं द्वारद्वयमाह / ईसत्थं धणुवेदो, उवासणा मंसुकम्ममाईया। गुरुरायाईणं वा, उचासणापञ्जुवासणया।॥५१॥ इषुशास्त्रं नाम धनुर्वेदः स च राजधर्मे सति प्रावर्तत उपासना नाम श्मश्रुकर्तनादिरूपं नापितकर्म तदपि तदैव जातं पूर्वे ह्यनवस्थितनखरोमानस्तथा कालमाहात्म्यत: प्राणिनोऽभवन्निति। एषा च शिल्पान्तर्गततया प्रागभिहिताऽपि पुनः पृथग्द्वारतयोपन्यस्ता भगवत्काल एव नखरोमाण्यतिरेकेण प्रवर्द्धितुं लग्नानि तत्पूर्वमिति ख्यापनार्थम् / यदि वा उपासना नाम गुरुराजादीनां पर्युपासना सापि तदैव प्रवृत्ता। अधुना चिकित्सार्थशास्त्रबन्धघातरूपद्वारचतुष्टय प्रतिपादनार्थमाह। रोगहरणं तिगिच्छा, अत्थागमसत्थमत्थसस्थिति। निगडाइजमो बंधो, घातो दंडादितालणया / / 52 // चिकित्सा नाम रोगापहारक्रिया साऽपि तदैव भगवदुपदेशात्प्रवृत्ता। अर्थागमनिमित्तं शास्त्रमर्थशास्त्रम् बन्धो निगडादिभिर्यम: संयमनं धातो दण्डादिभिस्ताडना / एतेऽपि अर्थशास्त्रबन्धघातास्तत्काले यथायोगं प्रवृत्ताः। अधुना मारणयक्षोत्सवरूपद्वारत्रयप्रतिपादनार्थमाह / मारणया जीववहो,जन्नानागाइयाण पूयातो। इंदाइमहापूया, पइनियया ऊसवा होति / / 53 / / मारणं जीववधो जीवस्य जीविताद् व्यपरोपणं तच भरतेश्वरकाले समुत्पन्नम्।यज्ञा नागादीनां पूजा: उत्सवाः प्राय: प्रतिनियता: वर्षमध्ये प्रतिनियतदिवसभाविन: इन्द्रादिमहापूजास्त्वनियतकालभाविन्य इति महोत्सवानां प्रतिविशेषः / एतेऽपि तत्काले प्रवृत्ताः / संप्रति समवायमङ्गलरूपद्वारद्वयमभिधित्सुराहसमवाओ गोट्ठीणं,गामाईणं व संपसारो वा। तह मंगलाइसोत्थिय, सुवण्णसिद्धत्थगाईणि // 54|| समवायो नाम गोष्ठिनां मेलापकः / यदि वा ग्रामादीनामादिशब्दात् खेटवाटनगरादिपरिग्रहः / स एकीभावेन किमप्युद्दिश्य एकत्र मीलनं संप्रसारः समवायः / किमुक्तं भवति ग्रामादिजनानां किंचित्प्रयोजनमुद्दिश्य यदेकत्र मीलनं स वा समवाय इति / तथा मङ्गलानि नाम स्वस्तिकसुवर्णसिद्धार्थकादीनि पूर्वं देवैर्भगवतो मङ्गलवुद्ध्या प्रयुक्तानि ततो लोकेऽपि तथा प्रवृत्तानि। संप्रति कौतुकादिद्वारपञ्चकमाह। पुवं कयाई पहुणो, सुरेहिं रक्खादिकोउयाइंच। तह वत्थगंधमल्लालंकारकेसभूसाइ॥ 55 // तं दहण पवत्तो, लंकारे उजणो असेसो वि। पूर्व प्रवृत्तो भगवत: ऋषभस्वामिन: सूरैः कृतानि कौतुकानि रक्षादीनि ततो लोकेऽपि तानि जातानि। तथा वस्त्रं चीनांशुकादिभेदभिन्नं गन्ध: कुष्टपुटादिलक्षण: माल्यं पुष्पदाम / एतानि तदैव जातानि। अलङ्कार: केशभूषादिः तं चालङ्कारं भगवतो देवैः कृतं दृष्ट्वा अवशेषोऽपि स्वं स्वमलंकर्तु प्रवृत्तः। संप्रति चूलाद्वारमाह॥ विहिणा चूलाकम्म, वालाणं चोलयं नाम / / 56 // चूडा नाम विधिना शुभनक्षत्रतिथिमुहूर्तादौ धवलमङ्गलेष्ट - देवतापूजास्वजनभोजनादिलक्षणेन बालानां चूडाकर्म तदपि तदा प्रवृत्तम्। संप्रत्युपनयनद्वारमाह। उवनयणं तु कलाणं, गुरुमूले साहुणो तवोकम्म। घेत्तुं हवंति सडा, कोई दिक्खं पवजांति // 57 / / उपनयनं नाम तेषामेव वालानां कलानां ग्रहणाय गुरोः कलाचार्यस्य मूले समीपेनयनम् / यदि वा धर्मश्रवण निमित्तं साधोः सकाशं नयनमुपनयनं तस्माच साधोधर्म गृहीत्वा के चित् श्राद्धा भवत्यपरे लघुकर्माणो दीक्षां प्रपद्यन्ते। एतच्चोभयमपि तदा प्रवृत्तम् अधुना विवाहद्वारं दत्तिद्वारमाह। दढे कायं विवाह, जिणस्य लोगो विकाउमारद्धो। गुरुदत्तिया य कन्ना, परिणिज्जते ततो पायं / / 58 / / दत्तिव्य दाणमुसभ, दित्तं दटुंजणम्मि विपयत्तं। जिणमिक्खादाणं पिय, दट्ट भिक्खा पवत्ताओ॥ 56 // जिनस्य भगवत ऋषभस्वामिनो कृतं विवाह दृष्ट्वा लोकोऽपि स्वापत्यानां विवाह कर्तुमारब्धवान्। गतं विवाहद्वारम्। दत्तिद्वारमाह। भगवता युगलधर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राझी बाहुबलिने दत्ता बाहुबलिना सह जाता सुन्दरी भरतायेति दृष्ट्वा तत आरभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम्। अथवा दत्तिनाम दानं तच भगवन्तमृषभस्वामिनं सांवत्सरिकं दानं ददतं दृष्ट्वा लोकेऽपि प्रवृत्तम। यदि वा दत्तिनाम भिक्षादानं तच जिनस्य भिक्षादानं प्रपौत्रेण कृतं दृष्ट्वा लोकेऽपि भिक्षा प्रवृत्ता। लोका अपि भिक्षां दातुं प्रवृत्ता इति भावः। अधुना मृतकपूजाध्यापनास्तूपशब्दद्वाराण्याह। मडयं मयस्स देहो, तं मरुदेवीए पढमसिद्धो त्ति। देवेहिं पुरा महियं, झावणया अग्गिसक्कारो॥६॥ सो जिणदेहाईणं, देवेहिं कतो चितासु थूभा य। सद्दो य रुण्णसहो,लोगो वि ततो तहाय कतो / / 61 / / मृतकं नाम मृतस्य देहस्तच मृतकं मरुदेव्याः प्रथमसिद्ध इति कृत्वा देवैः पुरा महितं पूजितम् / तत आरभ्य लो के ऽपि मृतक पूजा प्रसिद्धि गता। ध्यापना नामाग्निसंस्कार: स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्यान्येषां च साधूनामिक्ष्वाकूनामितरेषां Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1156 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ च प्रथमं त्रिदशैः कृत: पश्चाल्लोकेऽपि संजातः। तथा भगवदेहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपा कृता: ततोलोकेऽपितत आरभ्य मृतकदाहस्थानेषु स्तूपाः प्रावर्तन्त / तथा शब्दो नाम रुदितशब्दः स च भगवत्यपवर्ग गते भरतदु: खमसाधारणमवबुद्धय तदपसरणाय शक्रेण कृतस्ततो लोकेऽपि तत: कालादारभ्य रुदितशब्दाः प्रवृत्तास्तथा चाह लोकोऽपि / तथा भरतवत् शक्रवत्वा रुदितशब्दं प्रवृत्त: कर्तुमारब्धवान्। संप्रति छेलापनकद्वारं पृच्छाद्वारं चाह। छेलावणमुक्किट्ठाइ, वालकीलावणं च सेंटाइ। इंखिणियादिरुयं वा, पुच्छा पुण किं कहिं कजं / / 62 / / अहव निमित्ताईणं सुह-सइयाइ सुहदुक्खपुच्छा वा। इचेवमाइयाई, उप्पन्नं उसमकालम्मि।। 63 / / छेलापनकमिति देशीवचनं तच्चानेकार्थ तथाचाह / उक्किट्ठाइ इत्यादि उत्कर्ष नाम हर्षवशादुत्कर्षण नर्दनमादिशब्दात् सिंहनादिता-दिपरिग्रहः / यदि वा वालक्रीडनं छेलापनकम् / अथवा शेंटितादि / तथा प्रच्छनं पृच्छा सा इंखिणिकादिरुदितलक्षणा। इंखिणिका हि कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति ततो यक्षा: खल्वागम्य तासां कर्णेषु किमपि प्रष्टुर्विवक्षितं कथयन्ति / आदिशब्दात् इंखिणिकासद्दश-परिग्रहः / अथवा किं कार्य कथं वा कार्यमित्येवं लक्षणा या लोके प्रसिद्धा पृच्छा सा प्रच्छना। यदि वा निमित्तादीनामादिशब्दात्स्वप्न फलाफलादिपरिग्रहः / पृच्छा प्रच्छना / अथवा सुखशयितादिरूपा सुखदुः खपृच्छा प्रच्छना इत्येवमादितया सर्वमुत्पन्नमृषभस्वामिकाले / उपलक्षणमेतत् / किञ्चिद्भरतकाले किञ्चित्कुलकरकाले च / तथाचाह। किंचिच भरहकाले, कुलगरकाले वि किंचि उप्पन्नं / पहुणा उदेसियाई, सव्वकला सिप्पकम्माइं॥६॥ किञ्चिन्निगडादिभिर्घात इत्यादिभरतकालोत्पन्नं किंचित् हकारितं कुलकरकालेऽप्युत्पन्नं प्रभुणा तु भगवता ऋणभस्वामिना सर्वा गणितप्रभृतयः कला: सर्वाणि घटशिल्पप्रभृतीनि शिल्पानि सर्वाणि च कृष्यादीनि कर्माणि देशितानि। आ० म०प्र०। आव०। (13) श्रीऋषभदेवस्य वास: / तओ णं उसमे अरिहा कोसलिए वीसं पुटवसयसहस्साई कु मारवासमज्झे वसइ वसइत्ता तेवहिं पुटवसयसहस्साई महारायवासमज्झे वसइ तेवहिं पुटवसयसहस्साई महारायवासमज्झे वसमाणे लेहाइआओ गणिअप्पहाणाओ सउणरुअपज्जवसाणाओ वाबत्तरि कलाओ चोसहिं महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिण्णि विपयाहिआए उवदिसइति।। ततो जन्मकल्याणकानन्तरमित्यर्थः। ऋषभोऽर्हन् कौशलिक: विंशति पूर्वशतसहस्राणि पूर्वलक्षाणि भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य कुमारत्वेनाकृता- 1 भिषेकराजसुतत्वेन वासोऽवस्थानं तन्मध्ये वसति। "कुमारवासमज्झावसई'' इति पाठे तु कुमारवासमध्यावसति आश्रयतीत्यर्थः / उषित्वा च त्रिषष्टिपूर्वलक्षाणि अत्रापि भावप्रधानो निर्देश इतिमहाराजत्वेन | साम्राज्येन वासोऽवस्थानंतन्मध्ये वसति। तत्र वसतश्च कथं प्रजाउपचक्रे इत्याह "तेवढिं इत्यादि'' त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि यावन्महाराजवासमध्ये वसन् लिपिविधानादिका गणितमङ्कविद्या धर्मकर्मव्यवस्थितौ / बहुप्रकारत्वात्प्रधाना यासुताः। शकुनरुतं पक्षिभाषितं पर्यवसाने प्रान्ते यासां तास्तथा द्वासप्ततिकला: कलनानि कलाविज्ञानानीत्यर्थस्ता: कलनीयभेदात् द्वासप्ततिः अर्थात् प्रायः पुरुषोपयोगिनी: / चतुषष्टि महिलागुणान् स्त्रीगुणान कर्मणां जीवनोपायानां मध्ये शिल्पशतं च विज्ञानशतं च कुम्भकारशिल्पादिकं त्रीण्यप्येतानि वस्तूनि प्रजाहिताय लोकोपकारायोपदिशति / अपिशब्द: एकोपदेशकपुरुषतासूचनार्थः / वर्तमाननिर्देशश्चात्र सर्वेषामाद्यतीर्थकराणामयमेवोपदेशविधिरिति ज्ञापनार्थम् / यद्यपि कृषिवाणिज्यादयो बहवो जीवनोपायास्तथापि ते पाश्चात्यकाले प्रादुर्बभूवुः / भगवता तु शिल्पशतमेवोपदिष्ट मत एवाचार्योपदेशजं शिल्पमनाचार्योपदेशं तुकर्मेति शिल्पकर्मणोर्विशेषमामनन्तीति। श्री हेमसूरिकृतादिदेवचरित्रे तु। "तृणहारकाष्ठहारकृषिवाणिज्यकान्यपि। कर्माण्यासूत्रयामास,लोकानांजीविकाकृते॥१॥" इत्युक्तमस्तितदाशयेन तुकम्माणमित्यत्र द्वितीयार्थे षष्ठी ज्ञेया। तथा च कर्माणिजधन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रीण्यप्युपदिशति इत्यपि व्याख्येयम् / शिल्पशतं च पृथगेवोपदिशति इति ज्ञेयमिति जं०२ गक्ष० / (अथात्र सूत्रसंक्षेपतः प्रोक्ता विस्तरस्तु राजप्रश्नीयादशेषु दृश्यमाना द्वासप्ततिकलास्ताश्च कालशब्दे दर्शयिष्यन्ते) शिल्पशतं चेदं कुम्भकृल्लोहकृच्चित्रतन्तुवायनापितलक्षणनि पञ्च मूलशिल्पानि तानि च प्रत्येकं विंशतिभेदानीति / तथा चार्षम् पंचेव य सिप्पाइं, घडलोहचित्तणंतकासाए। इक्किक्कस्य य पत्तो, वीसं वीसं भवे भेआ / / १॥"इति। नन्वत्रैषां पञ्च मूलशिल्पानामुत्पत्तौ किं निमित्तमित्युच्यते युग्मिनामामौषध्योदरे मन्दाग्नितया अपच्यमाने हुतभुजि प्राक्षिप्यमाने तुसमकालमेव दह्यमाने युगलिकनरैर्विज्ञप्तेन हस्तिस्कन्धारूढेन भगवता प्रथमं घटशिल्पमुपदर्शितं क्षत्रिया:शस्त्रपाणय एव दुष्टभ्य: प्रजारक्षेयुरिति लोहशिल्पं, चित्राङ्गेषु कल्पद्र मेषुहीयमानेषु चित्रकृच्छिल्पं, वस्त्रकल्प द्रुमेषु हीयमानेषु तन्तुवायशिल्पं, बहुले युग्मिधर्मे पूर्वमवर्द्धिष्णु रोमनख मा मनुजान्तुदत्विति नापितशिल्पमिति / श्री हेमाचार्यकृऋभचरित्रे तु गृहादिनिमित्तं वर्द्धक्ययस्कारयुग्मरूपं द्वितीयं शिल्पमुक्तं शेषं तत्तथैवेति। ननु भोग्यसत्कर्माण एवार्हन्तो भगवन्त: समुत्पन्नव्याधिप्रतीकारकल्पस्त्यादिपरिग्रहं कुर्वते नेतरत्तत: किमसौ निरवद्यैकरुचिर्भगवान् सायद्यानुसंबन्धिकलाद्युपदर्शने प्रववृते ? उच्यते समयानुभावतो वृत्तिहीनेषु दीनेषु मनुजेषु दु:स्थाविभाव्यसंजातकरुणैकरसत्वात् / समुत्पन्नविवक्षितरसो हि नान्यरससापेक्षो भवतीति वीर इव द्विजस्य चीवरदाने / अथैवं तर्हि कथमधिकलिप्सोस्तस्य सति सकलेंऽशुके शकलकदानं सत्यं भगवतश्चतुनिधारकत्वेन तस्य तावन्मात्रस्येव लाभस्यावधारणेनाधिक योगस्य क्षे मानिर्वाहक त्वदर्शनात् / कथमन्यथा भगवदंशस्थलस्तच्छकलग्रहणेऽपि तदुच्छत्कृितार्द्ध विभाजक स्तन्तु वाय; समजायत / किं च फलाद्युपाये न प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यसनाशक्तिरपि न स्यात् / ननु भवतु नामोक्तसुखहेतोर्जगद्भर्तुः कलाद्युपदर्शकत्वं परं'राजधर्मप्रवर्तकत्वं कथमुचितमुच्यतें / शिष्टानुग्रहाय दुष्टनिग्रहाय धर्मस्थिति संग्रहाय च / ते च राज्यस्थितिनिश्रयाः सम्यक्प्रवर्तमाना: कमेण परेषा महापुरुषमार्गोपदर्शकतया चौर्यादिव्यसननिवर्तनतो नारकातिथेयीनिवारकतया ऐहिकामुष्मिकसुखसाधकतया च प्रशस्ता एवेति / Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1157- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ महापुरुषप्रवृत्तिरपि सर्वत्र परार्थत्वसाधकताबहुगुणाल्पदोषकार्यकारणविचारणापूर्विकैवेति। युगादौ जगद्व्यवस्था प्रथमेनैव पार्थिवेन विधेयेति / ज्ञातमपीति स्थानाङ्गपञ्चमाध्ययनेऽपि धम्मणं चरमाणस्य पंचणिस्सा ठाणा पण्णत्ता तं जहा छक्काया 1 गणो 2 राया 3 गाहवई 4 सरीर 5 मित्याद्यावश्यकवृतौ राज्ञो निश्रामाश्रित्य राजा नरपतिस्तस्य धर्मसहायत्वं दुष्टेभ्य: साधुरक्षणादीत्युक्तमस्तीति परमकरुणापरीतचेतसःपरमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रययुक्तस्य भगवतो राजधर्मप्रवर्तकत्वेन काप्यनौचिती चेतसि चिन्तनीया युक्त्युपपन्नत्वात् तद्विस्तरस्तु जिनभगवत्पञ्चाशकसूत्रवृत्त्योर्यतनाद्वारे व्यक्त्या दर्शितोऽस्तीति तत एवावसेयो ग्रन्थगौरवभयादत्र न लिख्यते इति। एतेन ''राज्यं हि नरकान्तं स्वाद्यदि राजानधार्मिक": इत्युक्तिरपिघ्ढबद्धमूला न कम्पत इति। किं चात्र तृतीयारकप्रान्ते राज्यस्थित्युत्पादे धर्मस्थित्युत्पादः पञ्चमारकप्रान्ते "वसुअरुरीसंघधम्मो, पुव्वण्हे विज्जही अगणिसंघं / निवविमलवाहणसुहुममतिनयधम्ममज्झण्हे ? इति वचनात् धर्मस्थितिविच्छेदे राज्यस्थितिविच्छेदइत्यपिराज्यस्थितिहेतुत्वा भिव्यञ्चकमेवेति सर्व सुस्थमित्यलं विस्तरेणेति।०२ वक्ष०। कल्प 0 / स०। (14) पुत्राणां राज्याभिषेकस्तदनु च भगवान् किं चक्रे इत्याह। उवदिसित्ता पुत्तसयं, रजसए अमिसिंचइ। उपदिश्य कलादिकं पुत्रशतं भरतबाहुबलिप्रमुखं कोशलात क्षशिलादिराज्यशते अभिषिञ्चति स्थापयति / अत्र शङ्खादिप्र भजनावसानानि भरताष्ट नवति भ्रातृनामानि अन्तर्वाच्यादिषु सुप्रसिद्धानीति न लिखितानि देशनामानि बहून्यप्रतीतानीति / ज 2 वक्षः। कल्पसुबोधिकारेण तु दर्शितानि। नन्दननामानि तानिचेमानि। भरतः। 1 / बाहुबलिः।२६ शङ्क:३ विश्वकर्मा 4 विमल: 5 सुभक्षण: 6 अमल: 7 चित्राङ्ग ख्यातकीर्तिः 6 वरदत्त: 1 सागर: 11 यशोधर: 12 अमर: 13 रथवरः 14 कामदेव: 15 ध्रुव: १६वच्छ: 17 नन्द: 18 सुर: 16 सुनन्द: 20 कुरु: 21 अङ्गः 22 वङ्गः 23 कोशल: 24 वीर: 25 कलिङ्ग 26 मागध: 27 विदेह: 28 संगम: 26 दर्शाण: 30 गम्भीर:३१ वसुचर्मा 32 सुवर्मा 33 राष्ट्र:३४ सुराष्ट्र 35 बुद्धिकर: 36 विविधकर: 37 सुयशा: 38 यश:कीर्ति 36 यशस्कर: 40 कीर्तिकर; 41 सूरण: 42 ब्रह्मसेनः 43 विक्रान्त: 44 नरोत्तमः४५ पुरुषोत्तमः 46 चन्द्रसेन: 47 महासेन: 48 नभस्सेन: 46 भानु: 50 सुकान्त: ५१पुष्पयुत: 52 श्रीधर: 53 दुर्धर्षः 54 सुसुमार: 55 दुर्जय: 56 अजेयमान: 57 सुधर्मा 58 धर्मसेन: 56 आनन्दनः 60 आनन्द: 61 नन्द 62 अपराजित: 63 विश्वसेन: 64 हरिषेण: 65 जय:६६ विजय: 67 विजयन्त६८ प्रभाकर: 66 अरिदमन: 70 मान: 71 महाबाहुः 72 दीर्घबाहुः 73 मेघ: 74 सुघोष:७५ विश्व: 76 वराह: 77 सुसेन:७८ सेनापति:७६ कपिल: 80 शैलविचारी 51 अरिब्जयः 82 कुञ्जरबल: 83 जयदेव: 84 नागदत्त: 55 काश्यपः ८६बल: 87 धीर: ५५शुभमति: 86 सुमति: 60 पद्मनाभ: 11 सिंह: 12 सुजाति: 63 संजय:१४ सुनाम: 65 नरदेव: 66 चित्तहर: 67 सुरवर: 65 दृढरथ: 66 प्रभञ्जन: 100 / / इति। राज्यदेशनामानि तु अङ्ग: 1 / वङ्गः 2 / कलिङ्ग:३। चौड: 4 / गौड: 5 / कर्णाटकः / 6 कार्णाट:७।लाट: सौराष्ट्रः 6 काश्मीर: 10 सौवीर: 11 आभीर: 12 चीण: 13 महाचीणः / 14 गूर्जर: 15 वङ्गलः // 16 श्रीमाल: 17 नेपाल: 18 जहाल: 16 कौशल: 20 मालव: 21 सिंहल: 22 मरुस्थलादीनि 23 ज्ञेयानिलब्धवर्ण: कल्प०।(राज्यादिप्रधानस्य किं फलमित्यन्यत्र) अभिसिंचित्ता तेसीइं पुव्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ वसइत्ता जे से गिलामं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्सणं चित्तबहुलस्स णवमीपक्खे णं दिवसस्स पच्छिमे भागे चइत्ता हिरण्णं चइत्ता सुवण्णं चइत्ता कोसं कोट्ठागारं चइत्ता वलं चइत्ता वाहणं चइत्ता पुरं चइत्ता अंतेउरं चइत्ता विउलधणकणगरण्णमणिमो त्तियसंखसिलप्पवालरयणरत्तसतसारस्सा वइएजं विवड्डयित्ता विवोवइत्ता दाणं दाइ आणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीए सीआए से देवमणुअसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिअचक्कि अणंगलिअमुहमंगलिअपूरसमाणबद्धमाणगआइक्खगलंखमंखघंटिअगणेहिं ताहिं इटाहिं कंताहिं पीयाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं धणाहिं मगलाहिं सस्सिरीआहिं हिययगमणिआहिं हिययल्हायणिजाई कण्णमण्णनिव्वुइकराहिं अपुणरुत्ताहिं सट्ठसइआहिं वग्गुहिं अणवरयं अभिणंदंताय अभिवुणंताय एवं वयासी जय जय नंदा जय भद्दा धम्मेणं अभीए परीसहोवग्गाणं खंति खमे भयभेरवाणं धम्मे ते अविग्धं भवउ तिकट्ठ अभिणंदंति य अमिथुणंति य तएणं उसमे अरहा कोसलिएण पणमालासहस्से हिं पि छिनमाणा 2 एवं जाव णिग्गच्छइ जहा उववाए जाव आउलवोलबहुलं णमंकरे ते विणीआए रायहाणीए मज्भंण णिग्गच्छइ आसिअ संमजिअ सितसुत्तसुइकपुण्णवयाकरे कलिअं सिद्धत्थवणविउलराय मग्गं करेमाणे हयगयरहपहकरेमाणे पाइक्कचडकरेण य मंठं 2 उद्धतरेणुयं करेमाणे 2 जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता असोगवरपायवस्स अहेसीअं ठावेइ ठावेइत्ता सीआओ पचोरुहइ पचोरहइत्ता सयमेवाभरणालंकारं मुअइ मुअइत्ता सयमेव चउहिं अट्ठाहिं मुहिहिं लोअं करेइ करेइत्ता छटेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं भोगाणं राइन्नाणं खत्तिआणं चउहिं सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअंपव्वइए। अभिषिच्य अशीर्ति पूर्वलक्षाणि महानागो लौल्यं यत्र सचासौ वासश्च महारागवासो गृहवासस्तन्मध्ये वसति गृहपर्याये तिष्ठतीत्यर्थः / यद्यपि प्रागुक्तव्याधिप्रतीकारन्यायेनैव तीर्थकृतां गृहवासे प्रवर्तनं तथाऽपि समान्यत: सयथोक्तएवेतिनदोषः। यदा महान् अरागोऽलौल्यं यत्र सचासौ वासश्चेति योजनीयं यतो भगवदपेक्षया स एवंविध एवेति एतेन "ते वट्टि Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ पुव्वसयसहस्साईमहारायवासमज्झे वसई" इति पूर्वग्रन्थविरोधो नेति उषित्वा (जे सेत्ति) य. स (गिहाणंति) आर्षे ग्रीष्मशब्द: स्त्रीलिङ्गबहुवचनान्तश्च ततो ग्रीष्मस्येत्यर्थः प्रथमो मासो यथा ग्रीष्माणामवयवे समुदायोपचारादुष्णकालमासानां मध्ये प्रथमो मास: प्रथम: पक्षश्चैत्रबहुलश्चात्रान्धकारपक्षस्तस्य नवम्यास्तिथे: पक्षो गेहो यस्य तिथिमेलपातादिषु दर्शनात् तिथिपाते तत्कृत्यस्याष्टम्यामेव क्रियमाणत्वात् स नवमी पक्षोऽष्टमीदिवसस्तत्रानेन व्याख्यानेन "चित्तबहुलट्ठमीए' इत्याद्यागमविरोधात् / वाचनान्तरेण नवमीपक्षो नवमो दिवसः दिवस्याष्टमीदिवसस्य मध्यन्दिवादुत्तरकाले यद्यपि दिवसशब्दास्याहोरात्रवाचकत्वमन्यत्र प्रसिद्ध तथाऽप्यत्र प्रस्तावादिवसे गतो रजनीरजनि: इत्यादाविव सूर्यचारविशिष्टकालविशेषग्रहणमन्यथा दिवसपाश्चात्यभागस्यानुपपत्ते: त्यक्त्वा हिरण्यमघटितसुवर्ण रजतं वा सुवर्ण घटितं हैमं हेम वा कोशं भाण्डागारं कोष्ठागारं धान्याश्रयगृहं बलं चतुरङ्गवाहनं वेसरादिपुरान्त: पुरव्यक्ते विपुलंधनंगवादि कनकं सुवर्ण येभ्यस्सल्लक्षणेभ्यस्तानि रत्नानि मणयश्च प्राग्वत् मौक्तिकानि शुक्त्याकाशादिप्रभवानि शङ्खाश्च दक्षिणावर्ता:ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः शिला: पट्टादिरूपा: प्रवालानि विद्रुमाणि रक्तरत्नानि पद्मरागा: पृथग्ग्रहणमेषां प्राधान्यख्यापनार्थमुक्तस्वरूपं यत्ससारं सारातिसारं स्वापतेयं द्रव्यं त्यक्त्वा ममत्वत्यागेन विच्छz पुनर्ममत्वाकरणेन। कुतो ममत्वत्याग इत्याह। विगोप्यं जुगुप्सनीयमेतत् अस्थिरत्वादिति कथनेन कथं च निश्रात्यजनमित्याह / दायकानां गोत्रिकानां दायधनविभागं परिभाज्य विभागशो दत्त्वा तदाऽवनौ नाथपान्थादियाचकानामभावाद्गोत्रिकग्रहणं तेऽपिच भगवत्प्रेरिता निर्ममा: सन्त: शेषमात्रं जगृहुः / इदमेव हि जगद्गुरोर्जीतं यदीच्छावधि दानं दीयते तेषां च इयतैव इच्छापूर्ते: / ननुयदीच्छावधिकं प्रभो न तर्हि एदंयुगीनो जनएकदिनदेयं संवत्सरदेयं वा एक एव जिघृक्षेत् इच्छाया अपरिमितत्वात् / सत्यं प्रभुप्रभावेणैतादृशेच्छाया असंभवात्। सुदर्शनानाम्न्यां शिविकायामारूढमिति गम्यं किं विशिष्ट भगवन्तं सदेवमनुजासुरया स्वर्गभूपातालवासिजनसहितया पर्षदा समुदायेन समनुगम्यमानम् अग्रे अग्रतनभागे शाखिकादयोऽभिनन्दयन्तोऽभिष्टु वन्तश्च एवं वक्ष्यमाणमवादिषुरित्यन्वयः। तत्रशाखिकाश्चन्दन गर्भशङ्खहस्ता माङ्गल्यकारिण: शङ्खध्मा वा चाक्रिकाश्च चक्रभ्रामका: कुम्भकारतैलिकादयो वा लाङ्गलिकां गलावलम्बितसुवर्णादिमयहलधारिणो भट्टविशेषाः / मुखमाङ्गलिकाश्चाटुकारिण: पुष्टमाणा वा / मागधा वर्द्धमानका: स्कन्धारोपितनरा: आख्यापका: शुभाशुभकथका: लङ्का वंशाग्रलेखका: मङ्खाश्चित्रफलकहस्ता भिक्षाका गौरीपुत्रा इति रूढा: घाण्टिका घण्टावादकास्तेषां गणा: सूत्रेच आर्षत्वाद्प्रथमार्थे तृतीया अथाश्रुतव्याख्यानेच शाटिकादिगणैः परिवृतमिति पदं कुलमहत्तरा इति पदंचान्वययोजनार्थमध्याहार्यं स्यात्। साध्याहारव्याख्यातोऽनध्या हारव्याख्यालाघवमिति पञ्चमाङ्गेजमालिचरित्रे निष्क्रमणमहवर्णने शाटिकादीनां प्रथमान्ततया निर्देश एतस्यैवाशयस्य सूचकः। यदि च प्राय: सूत्राणि सोपस्काराणि भवन्तीति न्यायोऽनुप्रियते तदा साध्याहारव्याख्यानेऽप्यदोष: ताभिर्विवक्षिताभिरित्यर्थः / वा भिरभिनन्दयन्तश्चाभिष्ट्र वन्तश्चेति योजना। विवक्षितत्वमेवाह / इष्यन्ते स्मेतीष्टास्ताभिः प्रयोजनवशादिष्टमपि किं चित्स्वरुपतः कान्तं स्यादकान्त चेत्यत आह कान्ताभिः कमनीयशब्दाभिः प्रियाभि:प्रियार्थाभि: मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया | यास्ता मनोज्ञा भावत: सुन्दग इत्यर्थस्ताभिर्मनसा अम्यन्ते गम्यन्ते पुन:पुनः याः सुन्दरत्वातिशयात्ता: मनोमास्ताभिरुदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च कल्याणाप्तिसूचिकाभिः / शिवाभिर्निरुपद्रवाभि: शब्दार्थदूषणोज्झिताभिरित्यर्थः धन्याभिर्धनलम्भिकाभि: माइल्याभिः मङ्गले-ऽनर्थप्रतिधाते साध्वीभिः सश्रीकाभिः / अनुप्रासाद्यलकारोपेतत्वात् सशोभाभिः / हृदयगमनीयाभि: अर्थप्राकट्यचातुरीसचिवत्वात् सुबोधाभिः / हृदयप्रह्लादनीयाभि: हृदयगतकोपशोकादि - ग्रन्थिविद्रावणीभि: उभयत्र कर्तर्यनट् प्रत्ययः कर्णमनसोर्निर्वृत्तिकरीभिः अपुनरुक्ताभिरिति च स्पष्टमर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः अथवाऽर्थानामिष्टकार्याणां शतानि याभ्यस्ता अर्थशतास्ता एवार्थशतिका: स्वार्थे कप्रत्ययस्ताभिर्वाग्भिर्गीर्भिरेकार्थिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति / अनवरतं विश्रामाभावात् अभिनन्दयन्तश्च जयजयेत्यादिभणनसमृद्धिमन्तं भगवन्तमाचक्षाणा: अभिष्टु वन्तश्च भगवन्तमेवमवादिषु रिति / किमवादिषुरित्याह / जयजयेति भक्तिसंभ्रमे द्विर्व चनं नन्द ति समृद्धो भवतीतिनन्द: तस्यामन्त्रणमिदमिह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् / अथवा जयत्वं जगत्समृद्धिकरत्वाज्जय जय भद्रेति प्राग्वत् / नवरं भद्रः कल्याणवान् कल्याणकारी वा कथं शोभते स्मेत्याह / धर्मेण करणभूतेन न त्वभिमानलज्जादिना अभितो भवपरीषहोप सर्गेभ्यः / प्राकृतत्वात्पञ्चम्यर्थे पष्ठी परीषहोपसर्गाणांजेता भवेत्यर्थः। तथा क्षान्त्या नत्वसामादिना क्षम: सोढा भव भयमाकस्मिकं भैरवसिंहादिसमुच्छ तयो: प्राकृतत्वात् पदव्यत्यये भैरवभयानां वा भयङ्करभयानां क्षान्ता भवेत्यर्थः / नानावक्तृणां नानाविधवाग्भागीति न पूर्वविशेषणान्त: पातेन पौनरुक्त्यं धर्मे प्रस्तुते चारित्रधर्मे अविघ्नं विघ्नाभावस्ते तव भवतु इति कृत्वा धातूनामनेकार्थत्वादुपचार्य पुनः पुनरभिनन्दयन्ति वाचाऽभिष्टुवन्ति चेति / अथ येन प्रकारेण निर्गच्छति तमेवाह। "त एएणमित्यादि" ततस्तदनन्तरमृषभोऽर्हन् कौशलिको नयनमालासहसै: श्रेणिस्थितभगवद्दिदृक्षमाणनागरनेत्रवृन्दै: प्रेक्ष्यमाण: पुन: पुनरवलोक्य मान: आभीक्ष्ण्याद् द्विवचनमेवं सर्वत्र एवं तावद्वक्तव्यं यावनिर्गच्छति यथोपपातिके यथा प्रथमोपाङ्गे च पाठो भम्भासारसूत्रस्य निर्गमगम उक्तस्तथाऽत्र वाच्यो वाचनान्तरेण यावदाकुलवोलबहुनभ: कुन्निति पूर्यन्त इति / तत्र च यो विशेषस्तमाह / विनीताया रायधान्या मध्यं मध्येन भागेन इत्यर्थः / निर्गच्छति सुखं सुखेनेत्यादिवन्मध्यं मध्येनेति निपात: औपपातिकममश्चायं "हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिज्जमाणे 2 मणोमालासह स्सेहिं विच्छिप्पमाणे 2 वयणमालासहस्सेहि अभिथुध्वमाणे 2 कांतिरूवसोहग्गगुणे हिं पिच्छिजमाणे 2 अंगुलिमालासहस्सेहिं दायिज्जमाणे 2 दाहित्थेणं बहूणं णरणारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे 2 मंजुमंजुणा घोसेण आपडिपुच्छेमाणे 2 भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे 2 तंती तलतालतुडियगीयवाइयरवेण महुरेण य मणहरेण जयसग्धोसविसरण मंजुणा घोसेणं पडिवुज्झेमाणे कंदरगिरिवियरकुहरगिरिवरपासा उद्धघणभवणदेवकुलसिंघाडगतिगचउ कचचर आरामुजाणकाणणसहापवाएसदेसभागे पडिसुं आसयसंकुल करें ति हयहेसिअहत्थिगुलगुलाइ अरहघणघणाइ सद्दमीसिएणं महया कलकलरवेण जणस्स महुरेण पूरयंते सुगंधवरकुसुमचुण्णउविट्ठवासरेणुकविलं नभं करेंति कला गरुकंदुरुक्कतुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते समत Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम ११५६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ उक्खत्तिअचक्कवालंपउरजणवालवड्डपमुइअतुरीअप हाविअ विउलत्ति आउलपदमारभ्य निर्गच्छति पदपर्यन्तं तु सूत्रे साक्षादेवास्ति / अत्र | व्याख्या हृदयमालासहस्रैर्जनमनः समूहैरभिनन्धमानः 2 समृद्धिमुपनीयमानो जयजीवानन्देत्याद्याशीर्दानेन मनोरथमालासहसौरेतस्यैवाज्ञापरा भवाम इत्यादिजनतविकल्पैर्विशेषेण स्पृश्यमान: 2 इत्यर्थः / वदनमालासहस्रैर्वच नमालासहस्रैर्वा अमिष्ट्रयमान: 2 कान्त्यादिगुण हे तुभिः प्राय॑मानः २भर्तृतया खामितया वा स्त्रीपुरुषजनैरभिलष्यमाण: 2 दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणामञ्जलिमालासंयुतकरमुद्राविशेषवृन्दानि प्रतीच्छन् रगृह्णन् २किमुक्त भवति त्रैलोक्यनाथेनापि प्रभुणा पौराणामस्माकमञ्जलिरूपा भक्तिर्मनस्यवतारितेति दक्षिणहस्तदर्शनम्।तथा महाप्रमोदाय भवतीति कुर्वन् मञ्जुमञ्जुनातिकोमलेन घोषेण स्वरेण प्रतिपृच्छन् रप्रश्नयन् प्रणमतां स्वरूपादिवार्ताभवनानां विनीता नगरी गृहणां पङ्क्तया समश्रेणिस्थित्या सहस्राणि न तु पुष्यावकीर्णस्थित्या समतिक्रामन् 2 तन्त्रीतलताला: प्रसिद्धाः त्रुटितानि शेषवाद्यानि तेषां वादितं यादनं प्राकृतत्वात्पदव्यत्यय: गीतं च तयोः रेवेण / यद्वा तन्त्र्यादीनां त्रुटितान्तानांगीते गीतमध्ये यदादितं वादनं तेन यो रव: शब्दस्तेन मधुरेण मनोहरेण तथा जयशब्दस्य उद्घोष: उद्घोषणं विशदं स्पष्टतया प्रतिभासमानं यत्र तेन मञ्जुमञ्जुना घोषेण पौरजनरवेण च प्रतिबुद्ध्यभान: 2 सावधानीभवन् कन्दराणि दर्य: गिरीणां विवरकुहराणि | गुहापर्वतान्तराणि च गिरिवरा: प्रधानपर्वता: प्रासादा: सप्त भूमिकादय: ऊर्द्धघनभवनानि ऊर्ध्वविस्तृतगृहाणि देवकुलानि प्रतीतानि श्रृङ्गटकं त्रिकोणस्थानं त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्कं यत्र रथ्याचतुष्टयं चत्वरं बहुमार्गा आरामा: पुष्पजातिप्रधानवनखण्डा: उद्यानानिपुष्पादिमवृक्षयुक्तानि काननानि नगरासन्नानि सभा आस्थापिकाः प्रपा जलदानस्थानमेतेषां ये प्रदेशरूपा भागातान् तत्र प्रदेशा लघुतरा भागादेशास्तु लघवः प्रतिश्रुताः प्रतिशब्दास्तेषां शतसहस्राणि लक्षास्तै:संकुलान् कुर्वन् अत्र बहुवचनार्थे एकवचनं प्राकृतत्वात् हयानां हेषितेन हेषारवरूपेण हस्तिनां गुलगुलायितेन गुलगलायितरूपेण रथानां घनघनायितेन घणघणायितरूपेण शब्देन मिश्रितेन जनस्य महता कलकलरवेण आनन्दशब्दत्वान्मधुरेणाकरेण पूरयन् 2 अत्र नभ इति उत्तरग्रन्धवर्तिना पदेन योग: सुगन्धानांवरकुसुमानांच उद्वेध ऊर्द्ध गतो वासरेणुर्वासकरजस्तेन कपिलं नभः कुर्वन् कालागुरु: कन्दुरुक्कश्चीडाभिधं द्रव्यं तुरुष्कं सिह्नकं धूपश्च दशागादिर्गन्धद्रव्यसंयोगजः एषां निवहेन जीवलोकं वासयन्निव अत्रोत्प्रेक्षातु जीवलोकवासनस्यावास्तवत्वेन सर्वत: क्षुभितानिताश्च तया ससंभ्रमाणि चक्रवालानि जनमण्डलानियत्र निर्गमेतद्यथा भवतीत्येवं निर्गच्छन्तीति। प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बालवृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च शीघ्रं गच्छन्तस्तेषांव्याकुलाकुलानां यो वोल: शब्द: स बहुलो यत्र तत्तथा एवं भूतं नमः कुर्वन् विशेषाणानां व्यस्ततया निपात: प्राकृतत्वादिति निर्गत्य च यत्रागच्छति तदाह / आसी इत्यादि आसिक्तमीषसिक्तं गन्धोदकानि प्रमार्जितं कचवशोधनेन सिक्तं तनैव विशेषतोऽत एव शुचिकं पवित्र पुष्पैर्य उपचार: पूजातेन कलितंयुक्तमिदं च विशेषणं प्रमार्जितासिक्तशुचिकमित्येवं दृश्यं प्रभार्जिताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य एवंविधसिद्धार्थवनविपुलराजमार्ग कुर्वन् तथा हयगजरथानां (पहकरत्ति) देशीशब्दोऽयं समूहवाची तेन हयादिसेनयेत्यर्थः / तथा पदातीनां च टंकारेण वृन्देन च मन्दं च यथा भवति तथा क्रियाविशेषणं यथा हयादिसेना पाश्चात्यसमेति तथा बहुतरबहुतमकमित्यर्थः / उद्धतरेणुकमूर्ध्वगतरजस्कं कुर्वन् यत्रैव सिद्धार्थवनमुद्यानं यत्रैवाशोकवरपादपस्तत्रैवोपागच्छतीति उपागत्य यत्करोति तदाह उपागत्याशोकवरपादपस्याध: शिविकां स्थापयति स्थापयित्वा च शिविकाया: प्रत्यारोहति अवतरतीत्यर्थः / प्रत्यवरुह्य च स्यमेवाभरणालङ्कारान् तत्राभरणानि मुकुटानि अलङ्कारान् वस्त्रादीन् सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् आभरणानि च अलङ्काराश्चेति समाहारद्वन्द्वक रणाद्वा अवमुशति त्यजति कुलमहत्तारिकायां हंसलक्षणपदे अवमुच्य च स्वयमेव चतसृभिः (अट्ठाहिति) मुष्टिभिः करणभूताभिलुचनीयकेशानां पञ्चमभागलुचिकाभिरित्यर्थ: लोचं करोति अपराङ्गालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोऽलङ्कारादिमोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालङ्कारकेशविमोचनं तीर्थकृत: पञ्चमुष्टिकलोचसंभवेऽपि अस्य भगवश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचर: श्री हेमाचार्यकृतऋषभदेवचरित्राभिप्रायोऽयं प्रथममेकया मुष्ट्या श्मश्रुकूर्चयो: लोचे तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते एकां मुष्टिमयशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकाववदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुण्ठन्ती भरकतोपमानमाविभ्रती परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन्मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामेवमित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि सा तथैव रक्षितेति न ह्ये कन्तभक्तानां याञ्चामनुग्रहीतार: खण्डयन्तीत्येवेदानीमपि श्रीऋषभमूर्ती स्कन्धोपरि वेलरिका: क्रियन्ते इतिलुञ्चिताश्च केशा : शक्रेण हंसलक्षणपटे श्रीरोदधौ क्षिप्ता इति / षष्ठेनभक्तेन उपवासत्रयरूपेण अपानके चतुर्विधाहारेण आषाढाभिरित्यत्र "तेलुग्वे" त्यनेन उत्तरापदलोपे उत्तराषाढाभिर्वचन वैषम्यमार्षत्वात् नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाचन्द्रेणेति गम्यम् / उग्राणामनेनैव प्रभुणा आरक्षकत्वेन नियुक्तानां भोगानां गुरुत्वेन व्यवहृतानां राजन्यानां क्षत्रियाणां शेषप्रकृतितया विकल्पितानां चतुर्भिः पुरुषसहरौः सार्द्धमते च बन्धुभिः सुहृद्भिः भरतेन च निषिद्धा अपि कृतज्ञत्वेन स्वाम्युपकारं स्मरन्त: स्वामिविरहभीरवो वान्तान्न इर राज्यसुखे विमुखा यत्स्वामिनाऽनुष्ठेयं तदस्माभिरपीतिकृतनिश्चयाः स्वामिनमनुगच्छन्ति स्म। एकं देवदूप्यं शक्रेण वामस्कन्धे जीतमित्यर्पितमुपादाय न तु रजोहरणादिकं लिङ्ग कल्पावीतत्वाजिनेन्द्राणाम् / मुण्डो द्रव्यत: शिर: कूर्चलोचेन भावत: कोपाद्यपासनेन भूत्वा अगाराद् गृहवासान्निष्क्रम्येति गम्यमनगारिताभग्राहीत / गृही असंयतस्तत्प्रतिषेधादनगारी संयतस्तद्भावस्तत्ता तांसाधुताभित्यर्थ: प्रग्रजित: प्रगत: प्राप्त: इति यावत् / अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया निम्रन्थतया प्रव्रजित: प्रव्रजित: प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः / जं०२ वक्ष०। अत्रैव वक्तव्यशेषं चूर्णिकृदाह। ये स उसभे कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरिए पढमतित्थयरे वीसं पुव्वसयस्साई कुमारवासे वसित्ता तेवष्टुिं पुटवसयसहस्साई रजमणुपालेमाणे लेहाइयातो सउणरतपञ्जवसाणातो वायत्तरि कलातो चोसदि महिलागुणे सिप्पाणमेगंसयमेए तिन्नि पयाहियट्ठाए उवदिसइ उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जे सए अभिसिंचइ ततो लोगंतिएहिं देवोहिं जीयम्मि तिकटु संवोहिए संवच्छरियं दाणं दाऊण भरहं विणीयाए बाहुबलि बहलीए कच्छमहाकच्छाणं सहस्सपरिवारा भयवया सह अणु Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1160- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम पव्वइया अन्ने भणंति एए वि कच्छमहाकच्छे रज्जे ठवेइ ठवेइत्ता चेत्तबहुलट्ठमीए दिवसस्स पच्छिमे भागे सुदंसणाए सिवियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणे विणीयाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छमाणे जेणेव सिद्धात्थवणे जेणेव असोगयरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा भयवया सयमेव कतो चउमुडिओ लोचो पंचममुट्ठिग्गहणेहिं भगवतो कणगावदाते सरीरे अंजणरेहाओ इव रेहतीओसको उवलम्भिऊणंभणिया इतो भयवंएयातो एवमेव चिटुंतु तहेव वियातो तेण भगवतो चउमुडिओलोओ।लोयंकाऊंण छटेण भत्तेण अपाणएणं आसाढानक्खत्तेणं उग्गाणं भोगाण रायण्णाणं खत्तियाणं चउहिं सहस्सेहि सद्धि तेसिं पंचमुद्वितो लोचो आसि। एगं देवदूसमादाय पव्वइतो। सव्वतित्थयरा विणयं सामइयं करेमाणा एवं भणंति करेमिसामाइयं सव्वं सावजं जोग पच्चक्खामिजावज्जीवाए तिविहं तिविहेण जाव दोसिरामि भदंत इति न भणंति तथा कल्पत्वादत ऊर्ध्वमेतदेवोपसंहरन्नाहेत्यादिवक्तव्यम् / एवं भगवं कयसामाइओ नाणाभिग्गहं परमं घोरं घेत्तूण वोसट्ठचत्तदेहो विहरइ भगवं अरहा उसभे कोसलिए साहियं संवच्छरं चीवरधारी होत्था एवं जाव विहरइ / ताहे पुव्वमणिप्पगारेण दुवे कच्छमहा कच्छाणं पुत्ता णमिविणमिनो उवट्ठिया भयवं विणवंति जहा भयवं अझं तुझेहिं संविभागोण केवइवत्थुणा कत्तो त्ति ततो ते सन्नद्धबद्धकवया करवालवग्गहत्थाओ लग्गति विण्णवंति यति सज्झं ताव तुब्मेहिं सव्वेसिं तोगा दिन्ना ता अम्ह वि देह एवं तिसज्झं विण्णावंताणं मोलग्गंताणय कालो वच्चइ / अन्नय धरणो नागकुमारिंदो भयवतो वंदतो आगतो इमेहि य विन्नवियं ततो सो ते तहा जायमाणे भवइ भो सुणह भयवं चत्तसंगो गयरोसतोसो सरीरे वि निम्ममत्तो अकिंचणो परमजोगी निरुद्धासवो कमलपत्तनिरुवलेवचित्तो मा एयं जायह अहं तु भगवतो भत्तीए मा तुब्भं सामिसेवा अफला होउत्ति काउं पढियसिद्धाई अडयालीसं विजासहस्साइं देमि ताण इमातो चत्तारि महाविजातो / तं जहा / गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती तं गच्छह तुडभे विजारिद्धीए सजणं जणवयं उज्जलोभेऊण दाहिणिलाए उत्तरिल्लाए विज्ञाहरसेढीएगगणवल्लहपामोक्खे रहनेउरचक्कबालपामोक्खेय पण्णासं सद्धिं च विजाहरनगरे निवेसिऊणं विहरह / ते वि तं सव्वमाणत्तियं पडिच्छिऊण लद्धपसाया कामियं पुप्फगविमाणं विउव्विऊणं भगवं तित्थयरं नागरायं च वंदिऊण पुप्फगविमाणमारूढा कच्छमहाकच्छाणं भगवप्पसायं उवदंसेमाणा विणीयनगरिमतिगम्म भरहस्स रण्णो तमत्थं निवेइत्ता सयणं परियणं च गहाय वेयड्डे उत्तरसेढीए विनमीस४ि नगराई गगणवल्लभपमुहाई निवेसइ नमी दाहिणसेढीए रहनेउरचकवालाईणि पन्नासं नगरणि निवेसइ। जइजतोजणवयातो नीया मणुया तेसिंतनामा वेयड्ढे जणवया जाया / विजाहराणं च एगेगस्स अट्ठनिकाया सव्वे मिलिया सोलस ते पिइमे गोरीणं विजाणं मणुया गोरिया 1 मणूणं मणूया 2 गंधारीणं गंधारा 3 माणवीणं माणवा 4 केसिगाणं के सिगा 5 भूमितुंडिगाणं भूमितुंडिगां।६७। मूलवीरियाणं मूलवीरिया 5 संवुक्काणं / संवुक्का 6 कालीणं कालिया 10 समकीर्ण समका 11 सायंगीणं मायंगा। 12 पव्वईणं पव्वया 13 वंसालयाणं वंसालया 14 पंसुभूलियाणं पंसुमूलिया / 15 रुक्खमूलियाणं सक्खमूलिया 16 एवं ते नमिरिनमीसोल-सविज्जाहरनिकाए विभइऊणं देवा इव विजावलेण गगणवासिणो सयणपरियणसहिया एणुयदेवभोए भुजंति। पुरेसु भगवतो उसमसामिस्स रज्जमणुपालेमाणस्सवयपडिमा ठविया विजाहिवइणो य धरणस्स नागरयस्स / (आ० म०प्र०) चतुर्भिः सहौः समन्वित इत्युक्तम् / तत्र तेषां दीक्षां किं भगवान् प्रदत्तवान् उत नेति तत्राह। चउरो य सहस्सीओ,लोयं काऊण कप्पणा चेव। जं एस जहा काही, तं तह अम्मे विकाहामो // चत्वारि सहस्राणि सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् लोचमात्मन॑व पञ्चमुष्टिकं कृत्वा इत्थं प्रतिक्षां कृतवन्तो यत्क्रियानुष्ठानमेष भगवान् यथा येन प्रकारेण करिष्यतितत्तथा (अम्हे वि)वयमपि करिष्याम इति।भगवानपि भुवनगुरुत्वात्स्वयमेव सामायिकं प्रतिपद्य विजहार। तथा चाह "उसभो वरवसभगई", घेत्तूण अभिग्गहं परमघोरं / वोसलचत्तदेहो, विहरइ गामाणुगामं तु" (16) अथ भगवतश्वीवरधारित्वकालमाह। उसमेणं अरहा कोसलिए संवच्छरं साहियं चीवरधारी होत्था तेणं पर अचंलए॥ ऋषभोऽर्हन् कौशलिक: साधिक समासमित्यर्थ: (संवच्छर) वर्ष यावद्वस्त्रधारी अभवत्तत: परमचेलकः / अत्रायं केचन लिपिप्रमादादार्षेप्विदमधिकामित्याहुरतैरावश्यकचूर्णिगतश्रीऋषभदेवदेवदूप्याधिकारे अयमेवालापको द्रष्टव्यः / जं०२ वक्ष ! अथ भगवतो विहारमाह। उसभो वरवसभगई,घेत्तूण अभिग्गह परमधोरं। वेसठ्ठचत्तदेहो, विहरइ गामाणुगामं तु। ऋषभो वरवृषभगतिरभिग्रह-परमघोरं परम: परमसुखहेतुत्वात् घो:प्राकृतपुरुषैः कर्तुमशक्यत्वात्व्युत्सृष्टत्यत्त देहो ग्रामानुग्राम विहरति। व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया तथा चोक्तम्।"अच्छिं पि नोपमज्जिय नो वि य कंडूइ यामुणी गायं" इत्युक्त: खलु उपसर्गसहिष्णुतया स एवं भगवान् तैरात्मीयैः परिवृतो विजहार न तदा अद्यापि भिक्षादानं प्रवर्तते लोकस्य परिपूर्णत्वेनार्थित्वाभावात्तथाचाह। नविताव जणोजाणइ, का भिक्खा के रिसाय मिक्खयरा। ते मिक्खमलभमाणा, वणमज्झे तावसा जाता। नापि तावज्जनो जानाति यथा का भिक्षा कीदृशा वा भिक्षाचरा इति ततस्ते भगवत्परिवारभूता भिक्षामलभमाना: क्षुत्परीषहार्ताः भगवतो मौनव्रतावस्थितादुपदेशमनाकर्णयन्त: कच्छमहाकच्छाविदमुक्तवन्तः। अस्माकमनाथानां भवन्तौ नेतारावतः कियन्तं कालमस्माभिरेवं क्षुत्पिपासोपगतैरासितव्यं तावाध्तु:वयमपि तावन्न विद्यः यदि भगवाननागतमेव पृष्टोऽभवत् किमस्माभिः कर्तव्यं कि वा नेति ततः शोभमं भवेत् / इदानीं त्वेतावद्युज्यते भरतलज्जया गृहगमनमयुक्तमाहारमन्तरेण चाशितुं न शक्यते ततो वन वासो न: श्रेयान् तत्रोपवासरता: परिशटितपरिणतपत्राद्युपभोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तस्तिष्ठाम इत्येवं संप्रधार्य सर्वसम्मतेनैवं गङ्गनदीदक्षिणकूलेषु रम्येषु वनेषु वल्कलचीवरधारिण: खल्वाश्रमिणरसंवृत्तास्तथा चाह। वनमध्ये तापसा जातास्तयोश्च कच्छ महाक च्छयो: सुतौ नमिवनमीपित्रनुरागात्ताभ्यां सह विहृतवन्तौ तौ च वनश्रेयकाले ताभ्यामुक्तौ दारुण: खल्विदानीमस्माभिर्वनवासविधिरङ्गीकृत Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ स्वद्यात यूयं स्वगृहाणि। यदि वा भगवन्तमेवमुपसर्पत स चानुकम्पया अभिलपितफलदो भविष्यति तावपि च पित्रो: प्राणामं कृत्वा पित्रादेशं तथैव कृतवन्तौ भगवत्समीपमागत्य च प्रतिमास्थिते भगवति जलाशयेभ्यो नलिनीपत्रेषूदकमानीय सर्वतो जलप्रवर्षण कृत्वा आजातोच्छायप्रमाणसुगन्धि कुसुमप्रकरं च कृत्वा अवनतोत्तमाङ्ग क्षितिनिहितजानुकरतलौ प्रतिदिवसं त्रिन्सध्यं राज्यसंविभागप्रदानेन भगवन्तं विज्ञाप्य पुनस्तदुभयपाधे खङ्गव्यग्रहस्तौ तस्थतः / तथा चाह। नमिविनमीणं जयणा, नागिंदो वेजज्दाणवेयड्ने। उत्तरदाहिणसेढी. सट्ठिपन्नासनगराई।। नमिविनम्योर्याचनानागेन्द्रोभगवद्वन्दनायागतस्तेन विद्यादान मनुष्ठितं वैताढये पर्वते उत्तरदक्षिणश्रेण्योर्यथाक्रमं पष्टिपञ्चाशन्नगराणि निवेशितानि / भावार्थ: कथानकादवसेयः। तचेदम्। एवं भयवं कयसा-माइओ जाव नागरायस्स। भयवं अदीणमनसो, संवच्छरमणसिओ विहरमाणो॥ कन्नाहिं निमंतिज्जाइ, वत्थाभरणासणेहिं च / / भगवानपि अदीनमना निष्प्रकम्पचित्त: संवत्सरं वर्ष न अशितोऽनशितो विहरन् भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन लोके नाभ्यर्हितत्वात् कन्याभिर्निमन्त्र्यते वस्त्राणि पट्टदेवाङ्गादीनि आभरणानि कटककेयूरादीनि आसनानि सिंहासनानि तैश्च निमन्त्र्यते वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वत्। (17) अथैवं विहरता भगवता कियत्कालेन भिक्षा लब्धेत्यत आह। संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसमेण लोगनाहेण / सेसेहिं वीयदिवसे लद्धाओ पढममिक्खाओ। संवत्सरेण भिक्षा ऋषभेण लोकनाथेन प्रथमतीर्थकृता लब्धा शेषैरजितजिनादिभिर्द्वितीयदिवसे प्रथमभिक्षा लब्धा। संप्रति यद्यस्य पारणकमासीत्तदभिधित्सुराह॥ उसभस्स उपारणए, इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स। सेसाणं परमनं, अमियरसरसोवम आसी॥ ऋषभस्य लोकनाथस्य पारणके इक्षुरस आसीत् शेषाणाम जितस्वाम्यादीनां परमान्नं पायसममृतरसेन रसस्योपमा यत्र तदमृतरसरसोपममासीत्। तीर्थकृतां प्रथमपारणके यद्त्त तदभिधित्सुराह। घुट्ठच अहो दाणं, दिव्याणि य आहयाणि तूराणि। देवाय संनिवइया, वसुहारा चेव बुट्ठाय। देवैराकाशस्थितैर्युष्ट यथा अहो दानमिति / अहो शब्दो विस्मये अहो दानमहोदानमस्यायमर्थः / एवं हि दीयते एवं दत्तं भवतीति। तथा दिव्यानि तूराणि त्रिदशैराहतानि देवाश्च तदैव सन्निपतिता वसुधारानिपातार्थमाकाशे जृम्भका देवाः समागतास्ततो वसुधारा वृष्टा द्रव्यवृष्टिरभूदित्यर्थः / एवं सामान्येन पारणककालभाव्युक्तमिदानीं यत्र यथा च यचादितीर्थकरस्य पारणकमासीत्तदभिधित्सुराह। गयपुरसेजंसिक्खु-रसदाण वसुहारपीढगुरुपूया। तक्खसिलायलगमणं, बाहुबलिनिवेयणं चेद अस्या भावार्थ: कथानकादवसेयस्तचेदम् (आ० म०प्र०) आकरस्सर्ववस्तूनां, देशोऽस्ति कुरुनामक। समुद्र इव रत्नानां, गुणानामिव सज्जनः / / 1 / / पुरं गजपुरं तत्र, क्षरगजमदोर्मिभिः / तदैव नर्मदा जज्ञे, नूनं या दृश्यतेऽधुना // 2 // तत्र बाहुबले: पुत्रः, सोम्यस्सोमप्रभो नृपः / चित्रं पद्माहितानन्दः, सूरस्तीव्रप्रतापवान् // 3 // श्रेयांसस्तनयस्तस्य, यौवराज्यपदास्पदम्। क्रीडत्यद्यापि विश्वश्री-क्रोडान्तर्यद्यश: शिशुः॥ 4 // स स्वप्ने मन्दरं शैलं, श्यामवर्ण निरक्षत। तदैवामृतकुम्भेना-भ्यषिञ्चत् शुशुभेऽधिकम्॥५॥ राज्ञा दृष्टो भट: स्वप्ने, युध्यमान: सहारिभिः / श्रेयांसकृतसाहाय्यो, भगवान् सांऽपि तद्बलम्॥ 6 // श्रेष्ठी सुबुद्धिरद्राक्षी-त्स्वप्ने सूर्यमरश्मिकम्। श्रेयांसोऽशौन्यधाद्रश्मी-स्ततस्स द्विगुणं वभौ।।७।। राजस्थानेऽय मिलिताः, सर्वे स्वप्रान्यवेदयन्। असंभात्या: परं स्वप्र-फलमायाति तन्मतौ॥ 8 // श्रेयांसस्य महालाभो, भावीत्युक्त्वा महीपतिः / आस्थानीत: समुत्तस्थौ, श्रेयांसोऽपि ययौ गृहम्।।६।। तत्र वातायनासीन:, प्रभुमायान्तमैक्षत। सोऽथ दध्यौ मयेदृक्ष, नेपथ्य क्वाप्यदृश्यत॥ 10 // पितामहस्य मे यादृक, जातिस्मृतिरथाभावत्। प्राग्भवश्रुतमज्ञासीद, दृष्ट सस्मार चाखिलम्॥ 11 // तत्रेक्षुरसकुम्भं को-ऽप्यानयत्प्राभृतेऽस्य च। तमेव कुम्भमादायो-पस्थित: स प्रभुं प्रति // 12 // प्रभुणाऽपि शुध्यतीति, पाणिपात्रं प्रसारितम्। रस: सर्वोऽपि निक्षिप्त:,प्रभुरच्छिद्रपाणिकः / / 13 // नछद्यते विन्दुरपि, शिखाब्धिरिव वर्द्धते। स्वामी युगानिमस्तेन, वर्षान्तपारणं व्यधात्॥ 14 // प्रादुर्भूतानि दिव्य नि, वसुधाराऽपतगृहे। चेलोप्क्षेप: कृतो देव-देवदुन्दुभयो हताः॥ 15 // पञ्चवर्णा पुष्पवृष्टि-वृष्टिर्गन्धोदकस्य च। अहो दानमहो दान-मुदघोष्यम्बरे सुरैः॥ 16 // तद्देवागमनं वीक्ष्य, श्रेयांसगृहमाययुः। लोका: सर्वेऽपि राजानोऽन्ये च ते च तपस्विनः / / 17 / / श्रेयांसोऽचीकथदथ, भिक्षेदृग् दीयते जना:!। सुगतिर्लभ्यतेऽमुत्र, दत्ते चैषां सुचेतसास्॥१८॥ सर्वेऽपितमथ प्रोचुतिमेतत्कथं त्वया। यथा भगवतो भिक्षा, दीयतेऽन्नजलादिका / / 16 / / श्रेयांस: स्माह विज्ञातं, जातिस्मरणतो मया। अष्टौ भवान् भगवता, सहाहं भ्रान्तवान् यतः // 20 // पृष्टस्तैः कथयामास, प्राग्वदेव भवाष्टकम् / आ० क०॥ (१८)ऋषभ्सवामिनः श्रेयांसेन भवाष्टककथनम्॥ अट्ठभवग्गहणाणि वसुदेवहिंडीए तहा विट्ठाणा सुत्तत्थं संखेवतो भण्णइ सेजंसो भणइ। इओ य छट्ठमवे उत्तरकुरुए अहं मिहुणा इस्थिया भयवं मिहुणपुरिसो आसिाततो वयं तम्मि देवलोकभूए दसविहकप्परुक्खप्पभावसंपज्जमाणभोगोवभोगा कइयाइ। उत्तरकुरुद्वतीरदेसे असोगपायवच्छायाए वेरुलियमणिसिलायले णवणीयसरिसफासे सुहनिसण्णा अत्थामो / देवो य तम्मि हरए मजिउं उप्पइतो गगणदेसेण / ततो तेण नियगप्पभाए पभासियातो दसदिसातो ततो सो मिहुणपुरिसोतं तारिसं पस्समाणो किं विचिंतेऊण मोहं उवगतो कहमवि लद्धसण्णो भणइ हा सयंपभे ! कत्थासिं देहि मे पडिवयणं Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम तंचतस्स वयणं सोऊण इत्थिया वि कथमन्ने मए सयंपभाभिहाणं अणुभूय पयंगो, गंधमुच्छितो महुयरो, रस मुच्छितो मच्छो, फरिसमुच्छितो गइंदो, पुव्बंति चिंतेमाणो तहेव मोहमुवगया। पच्चागयचेयणा भणइ। अहो अज्ज वहबंधणमारणणि पावइ / एवं जीवा वि सोइंदिया इव सगया अहं सयंपभाजीवे तुज्झेहिं नामंगहियं ति ततो पुरिसो परंतुट्ठिमुव्वहंतो सद्दाइसंरक्खणपरा तदवरोधकारिसु पडणीएसु कलुसहियया इह लोगे भणइ अझे कहेहिं कहं तुमं सयंपभा। ततोसा भणइ कहेमिजंसुयमणुसुयं विमारणादीणि पावेंति परलोगे नरगाइदुक्खभायणं ततो दुहावहा कामा। च अत्थि ईसाणो कप्पो तस्स मज्झदेसातो उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एवं भणंतो सयंबुद्धो मए भणितो नूणं तुमं मम अहितोसि जो मं सिरिप्पभं नाम विमाणं तत्थ ललियंगतो नाम देवो अहिवई / तस्स संसइयपरलोयसुहेण लोभंतो संपइ सुहं च निंदतो दुहे पाडेतुमिच्छसि। सयंपभा अगमहिसी बहुमया आसिसा अहं तस्स य देवस्स तिए सह ततो संमिन्नसोएण भणितो सामि ! सयबुद्धों जहा जंबुको मच्छकंखी दिव्वविसयसुहसागरगयस्स बहुकालो दिवसो इवगतो। कया चिंतावरो मंसपंसिं चइत्ता णं मच्छं पइ धावितो मच्छो जले निमग्गो मंसपेसी पमलायमल्लदामो अहो दिद्विज्झायमाणो मए सपरिसाए विण्णवितो। सउणियाए गहियत्ति निरासो जातो तहा संदिद्धपरलोयसुहासाए दिट्ट देव! कीस विमणोदीससि।को ते माणसो संतावो। ततोसो देवो भणई। सुहं परिचयंतो उभयो विमुक्को सोइहिइ / सयंबुद्धो भणइ जं तुम मए पुव्वभवे तवो थोबो कतो ततो अहं तुम्भेहिं विप्पजुञ्जीहामित्ति परो तुच्छकसुहमोहितो भणसिं को तं सवेयणोपमाण करेइ को संतावो ततो अम्हेहिं पुणरवि पुच्छितो / कहेह कहं तुडभेहिं थोवो तपो कुसलजणपसंसियं रयणं सुहागयं कायम्मि पसत्तो न इच्छइ तं केरिस कतो / ततो भणति जंबुद्दीवे दीवे अवर विदेहे गंधिलावइविजए मन्नसि / तं संभिन्नसोयधीरा सरीर विभवाईण मणिव्वयाइ जाणिऊण गंधमायणवक्खारगिरिवरासण्णवेयड्डपव्वए गंधारा नाम जणवआतित्थ कामभोगे परिव्वज्ज तवसि संजमे य निव्वाणसुहकारणे जुत्तंत्ति / समिद्धजणासेवियं गंधसमिद्धं नाम नयरं / तत्थ राया जणवयहितो संभिन्नसोयो भणइ सयंबुद्ध ! मरणं होहित्ति किं सक्का पढममेव मुसाणे सयबलस्स रण्णो नत्तुओ अइबलस्स सुतो महाबलो नाम / सो ठाइउं नूणं तुमं टिट्टिभीसरिसो / जहा टिटिभी गगणपडणसंकिया अहंपिउपियामहपरंपरागयं रजसिरि अणुभवामि / मम य बालमित्तो धरेउकामा उद्धपाया सुवइ तहा तुममिरणं करि होहित्ति अइपयत्तकारी खत्तियकुमारो सयंबुद्धो नाम सो य जिणसासणभावियमई विइतो संपइकालियं सुहं परिचाय अणागयकालियं सुहं पत्थेसि नणु पत्ते संभिन्नसोतो सो पुण मंती बहुसु कजेसु पुच्छणिज्जो परं नाहियवाई एवं मरणसमए परलोगहियमायरिस्सामो / सयंबुद्धेण भणियं मुद्ध ? जुद्धे तेहिं समं रज्जमणुपालेमाणो समं इथिए बहुम्मि काले / काया वि संपलग्गे कुंजरतुरगदमण कजसाहगंन हवइ। न वा गेहे पज्जलिते कूवखणणं गीयपडिरत्तो नच्चमाणिं नट्टियं पस्सामि सयंबुद्धेण विण्णवितो देव ! कन्जकरं / जइ पुण दमणं खणणं वा पुव्वकयं होते तो परवलमहणं "सव्वंगीयं विलवियिं सव्वं नट्ट विंडवणा / सव्वा आभरणा भारा कामा जलणविज्झावणं च सुहेण होतं / एवं जो अणागयमेव परलोगहिए न पुण दुहावहा" ता परलोग हिए चित्तं निवेसियव्वं असासयंजीवियं अहितो उज्जमइ सो उक्कमंते सु पाणेसु परमदुक्खाभिभूतो किह विसयपडिबंधो / ततो मए भणियं कहं गीयं सवणामयं विलासेकहं परलोगमणुढेहित्ति / एत्थ सुणेहि वियक्खणकहियं उवएस 1 कोइ किल हत्थी जरापरिणतो गिम्हकाले कंचि गिरिनईसमुत्तरंतो विसमे तीरेपडितो नयणुब्भुदयं नट्ट विडवणा कहं वा देहविभूसणाणि आभरणाणि भारो सो सरीरगरुयत्तणेण दुव्वलत्तेण य उद्देउमसत्तो तत्थेव कालगतो सो लोगसारभूया पीइकरा कामा कहं दुहावहा / ततो संभंतेण सयंबुद्धेण अपाणदेसे सियालेण परिक्खइतो तेण मग्गेण एगो वायसो अतिगतो उदगं भणियं। सुणह सामी पसन्नचित्ता जहागीयं विलावो जहा काइ वि इत्थिया च उवजीवंतो चिट्ठइ उण्हेण यडज्झमाणे कलेवरे सो पएसो संकुचितो पव्विइयपइगा पइणो सुमरमाणी तस्स समागममभिलसंती भत्तुणो गुणे वायसो तुट्ठो अहो निरावाह जायं पाउसकाले य तं गयकलेवरं विकप्पेमाणी पदोसे पञ्चूसे य विलबमाणी चिट्ठइ। जहा वा को विभिचो गिरिनईपूरेण बुज्झमाणं महानय सोय पडियं समुहमतिगयं / तत्थ पहुस्स कुवियस्स पसायणानिमित्तं दासभावे अप्पाणं ठवेऊण पण्णत्तो मच्छमगरेहि छिन्नं ततो जलपूरियातो कलेवरातो वायसो निग्गतो तीरं जाणि वयणाणि भासइ ताणि विलावो तहा इत्थी पुरिसो वा अपस्समाणो तत्थेव निहणमुवगतो जइ पुण अणागयमेव निग्गतो होतो सरागमण्णोण्णाभिलासी कुवियपसायणानिमित्तं वा जातो तो दीहकालं सच्छंदप्पयारं विविहाणि य मंसोदगाणि य आहारतो। कायमणवाइयातो किरियातो पउंजइ ताओ कुसलनिबद्धओ गीयंतिए एयस्स दिटुंतस्स अयमुवसंहारो। जहा वायसो तहा संसारिणो सत्ता, वुचइतं पुण सामी चिंतेइ किं विलावपक्खे वट्टइन वा इति / नट्टं जहा जहा हत्थिकलेवरप्पवेसो तहा मणुस्सबोंदिलाभो जहा कलेवरभंतरे विडंवणा तथा भन्नइ / इत्थी पुरिसो वा जक्खाइट्ठो पीयमज्जो वा जातो मंसमुदगं च तहा विसयसंपत्ती, जहा मग्गनिरोधो तह तब्भवपडिबंधो, कायविक्खेवकिरिया तो दंसेइ सा विडवणा एवं / जा इत्थी पुरिसो वा जहा उदकसोयविच्छोभो तहामरणकालो जहा विवरानिग्गमो तहा पहुणो परितोसणनिमित्तं विदुसजणनिबद्धविधिमणुसरंतो जे परभवसंकमो।तंजाणाहि संभिन्नसो यसोजोतुच्छए निस्सारे थोवकालिए पाणिपायसिरनयणाधरादी सा जपणं वि परमत्थतो विडवणा / इयाणि कामभागे परिचइऊण तवसंजमुञ्जोगं करेइ सो सुग्गइगतो न सोहिइ जो आभरणाणि भारो भाविजइ। कोइपुरिसो सामिणो नियोगेण पेडागयाणि पुण विसएसु गिद्धो मरणसमयमुदिक्खइ सो सरीरभेए अगहियपाहे इयो मउडाईणि आभरणाणि वहेजा जहा सो अवस्संभारेण पीडिजइएवं जो चिरं दुही होहिइ तं मा जंबुक इर तुच्छकप्पणामेत्तसुहपडिबद्धो परविम्हयनिमित्तं ताणि चेव आभरणाणि जोग्गेसु सरीरहाणेसु विउलकालियंसुहमवमन्नसु। संभिन्नसोएण भणिको सो जंबुकदिलुतो। सन्निवेसियाणि वहइ सो वि भारेण पीडिज्जइ नवरं सो रागेण भारं न सयंबुद्धेण भणियं सुणाहि। कोइ किर वणयरो वणे संचरमाणो विसमे गणइ / कामा पुण एवं दुहावहा जहा सद्दमुच्छितो भिगो, रूवमुच्छितो / पएसे ठितो दिट्ठो एगो गइंदो। सो एगेण कंडेण आहतो निट्ठरं मम्मप्पदे Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ सलग्गकंडप्पहारेण पडितो पडतेण एगो महाकाओ सप्पोअक्क मितो अद्धनिग्गतो अत्थइततो पडियं गयं जाणिऊण सजीवं धणुमत्रकिरिय परेसु गहाय दंतमोत्तियगइंदं संलयमाणो तेण सष्पेण खश्तो मतो। ततो एगेण जंबुगेण परिभंतेणसोहत्थी सोय मणुस्सो दिह्रो / भीरुत्तणयेण अवसरितो मंसलोलुयाए पुणो अल्लीयइ / ततो निजीवंति निस्संसयो मुणिऊण तुट्ठो अवलोएइ चिंतेइय हत्थी जावज्जीवयं भत्तं मणुस्सो पप्पो य कंचि कालं होहिइ / जीवा बंधणं ताव खाएमि त्ति तुट्ठो मंदबुद्धी धणुकोडीए छिन्नपडिबंधाए तालुदोस भिन्नो मतो। जइसोपुण अप्पसारं तुच्छंति जीवा बंधणं परिहरिऊण हत्थी मणुस्सोरगकलेवरेसु लग्गतो ताणि य अण्णाणि चिरं खायंतो। एवं तुम पि जाणाहि / जो माणुससोक्खपडिबद्धो परलोगसाह णनिरवेक्खो सो जंबुको इव विणस्सिहिइज पि सामी तुब्भे भणह। संदिट्ठो परलोगो इति तं पिन / जुत्तं जतो तुब्भे मए सह कुमारकाले नंदण उज्जाणमुवगया तत्थ एगो देवो आगासातो उवेइ तं दवण अम्हे अवसरिया देवो य दिव्वाएगतीएखणेण अम्ह समीयं पत्तो। भणिया य अम्हे तेणं अहो महाबल! अहं तव पियामहो सयंबलो रज्जसिर पयाहिऊण विण्णवितो लंतगे कप्पे अहिवई जातो। तातुब्भे विमा पमायह। भावह अप्पाणं जिणवयणेणं ततोसुगइगामिणो भवेस्सह। एवं वोत्तूण देवो गतो। तंजइ सामिं तुब्भे सुमरह तत्थो अस्थि परलोगोत्ति। सद्दहइ। मया भणियं सुमरामि सयं तोत लद्धावगासो सयं बुद्धो भण्इ सुणह सामि ! पुव्ववुत्तंत। तुब्भं पुव्वजो कुरुचंदो नाम राया आसी तस्स य देवी कुरुमई हरिचंदो कुमारो सो य राया नथिकवाई बहूणं सत्ताणं वहाय समुहितो निस्सीलो निव्वतो एवं तस्स बहू कालोअतीतो मरणकालो अस्सायवेयणीयबहुलयाए नरगपडिरुवगो पोग्गलपरिणामो संवुत्तो गीयं सुश्महुरं अक्कोसंतिमन्नइ मणोहराणि रूवाणि विकतानिपासति खीरं खंडसक्करोवणीयं पूई मन्नइ चंदणाणुलेवणं मुंमुरं वेएइ हंसतूलमहुफासं कंटकिसाहासचयं पडिसेवइ तस्स तहाविहमसुभकम्मोदयातो विवरीयभावं जाणिऊण कुरुमई देवी हरिचंदेण सह पच्छन्नं पडियरइ / एवं सो कुरुचंदो राया परमदुक्खितो कालगतो तस्स नीहरणं काऊण सजणवयं गंधसमिद्धं नाएणं पालेइ पिउणो य तहाभूयं मरणमणुचिंतियस्स एवं मती समुप्पन्ना / अत्थि सुकयदुक्कयफलंति ततो अणेण एगो खत्तियकुमारो वालवयंसो सुबुद्धी संदिट्ठो। भद्द! तुम पंडियजणोवइदधम्मकहं पइदिणं मे कहेसुएसा चेव ते सेवत्ति। ततो सो एवं निउत्तोजजंधम्मसंसियं वयणं सुणेइतंतंराइणो निवेएइ राया सद्दहइ तहेव पडिवज्जइ / कयाइं च नगरस्स नाइदूरे तहारूवस्स साहुणो केवलनाणुप्पत्तिमहमि काउं देवा उवागया एवं सुबुद्धिणा खत्तियकुमारेण जाणिऊण हरिचंदस्स रण्णो निवेइयं। सो वि देवागमणविम्हितो तुरियं पवरतुरंगारूढो साहुसपीवमागतो वंदिऊण विणएण निसण्णोकेवलिमुह विणिग्गयं वयणामयं सुणेइ / सोऊण संसारमोक्खसरूवं अत्थि परभवसंकभोत्ति निस्संकिय जायए पुच्छइ। भयवं ! मम पिया कं गईं गतो। भगवया भणियं हरिचंद ! तव पिया अनिवारियपावसवो बहूणं सत्तावणं पीडाकरो पाकम्मगरुयत्ताए इह य विवरीयवियोधलंसणं पाविऊण अहे सत्तमपुढवीए नेरइओ जातो। सो तत्थ परमनिध्विसह निरुवमं निप्पडियारं दुक्खमणुभवइ / ततो कम्मविवागं पिउणा सोऊण हरिचंदो राया संसारभयभीतो वंदिऊण केवलनाणिं सनगरमइगतो ततो पुत्तस्स रायसिरि सम्पेऊण सुबुद्धिं संदियइ। तुम मम पुत्तस्स उवएसंदेजासि त्ति। तेण विण्णवितो सामि ! अहं केवलिणो वयणं सोऊण सह तुडभेहिं न करेभि तवं तो मए न सुयं परमत्थतो केवलिवयणं तम्हा अहं पितुब्भेहिं समं पव्वइस्सामि। जं पुण उवदेसो दायव्वोत्ति संदिसह तं मम पुत्तो काहिइ। ततो राया पुत्त संदिसइ तुमे सुबुद्धिसुयोवएसो कायव्वो। ततो पलित्तगिरिकंदरातो सीहो इव राया विणिग्गतो तव्वइतो केवलिसमीवे सह सुबुद्धिणा / ततो परमसंवेग्गो सज्झायपसत्थचिंतणपरो परिक्खवियकिलेसजालो समुप्पन्नकेवलनाणदंसणोपरिनिव्वतो तस्स हरिचंदस्स रायरिसिणो वंसे संखाईएसुनरवईसु धम्मपरायणेसु अतिक्कतेसुतुब्भे संपयं सामी: अहं पुण सुबुद्धिवंसे तं एस अम्हं नियोगो बहुसु पुरिसपरंपरागतो धम्मदेसणाहिगारोजं पुण एत्थ भया अकंडे विण्णविया तं कारणं सुणह। अज अहंनंदणवणं गतो आसीतत्थमएदुवेचारणसमणा दिट्ठा आइचजसे अमियतेओ य / ते य वंदिऊण पुच्छिया भयवं महाबलस्सरण्णो केवइयमाउयं चिट्ठइ तेहिं कहियं मासो सेसो ततो संभंतो आगतो एस परमत्थो। ततो जंजाणह से यंतमकाल हणिं करेहत्ति। एवं सयंबुद्धवयणं सोऊण अहं धम्माभिमुहो जाओ / आउपरिक्खयसवणे य आभट्ठियभायणमिव / सलिलपूरिजमाणमेव सुण्णहिययो भीतो सहसा उद्वितो कयंजली सयंबुद्धं सरणमुवतो वयस्स ! किमियाणिं माससेसजीवितो परलोगहियं करेस्सामि / तेण समासासितो सोम्म ! दिवसो वि बहुओ परिच त्तसव्यसावजस्स किमंग! पुण मासो ततो तरस वयणेण पुत्तसंकामियपयापालणव्वावारो गतो सिद्धाययणं कतो भत्तपरिचातो सयंबुद्धोवदिट्ठजिणमहिमा संपायणनिरतो सुमणसो संथारगसमणो जातो निरंतरंच संसारस्स अणिव्वयवेरणजणणि धम्मकहं च सुणमाणो समाहिपत्तो कालगतो इहागतो। एवं मए थोवो तवो चिण्णेत्ति एयं च अज्ज मम सपरिवारा य ललियंगएण देवेण कहियं / इच्छंतरे ईसायणदेवसयसमीवातो दढधम्मो नामदेवो आगतो भणइ अहो ललियंगय ईसाणदेवराया नंदीसरदीवं जिणमहिमं काउं वच्चइत्ति गच्छामि अहंपित्ति सो गतो ततो अजललियंगदेवसहिता इंदाणत्ताए अवस्सगमणं होहित्ति इयाणिं चेव वचामित्ति गयामो खणेण नंदीसरदीवं कया जिणायणेसु महिमा। ततो तिरियलोए सासयचेइयाण पूयं तित्थयरवंदणं च कुणमाणो चुतो ललियंगतो ततो अहं परमसोगग्गिडज्झमाणा विवसा सपरिवारा गया सिरिप्पभं विभामं / ततो सयंबुद्धदेवो आगतो परिगलमाणसरीरसोभं संदट्टण भणइ सयंपभे पच्चासन्नो ते चवणकालो तो जिणमहिमं करेहि जेण भवंतरे वि बोहिलाभो भवइत्ति / ततो हं तस्स वयणेण पुणरवि नंदिस्सदीवे समयक्खेत्ते य कयजिणवंदणपूया वुत्ता समाणा / जंबुद्दीवे दीवे पुव्वविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणीए नगरीए वइरसेणचक्कवट्टिस्स गुणवतीए देवीए दुहिया सिरिमई नाम जाया। धाईजणपरिणहिया सुहेण वड्डिया कलातो गहियातो अन्नया कयाइ पदोसे सव्वतोभद्दगं पासायमधिरूढा पस्सामि नगरबाहिं देवसंपायं / ततो मए देवजाइसु मरियासु मरिऊण य दुक्खेणाहयपरिचारिगाहिं जलकणगसित्ता पव्वागयवेयणा चिंत्तेमि / कत्थ मे पिया ललियंगतो देवो त्ति तेण प Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ विणा किं अणेण आमड्डेणं ति मूकत्तणं पवण्णा परियणो भणइ इभी से वाया जंभगेहिं निरुद्धा ततो तिगिच्छगेहिं होममंतरक्खाविहाणेहिं कतो महंतो पयत्तो अहं पि मूकत्तणं न मुयामि ! परिचारियाणं पुण लहिऊण माणत्तिं देमि / अन्नया पमयवणगयं ममं पंडिया नाम अम्मधाई विरहे भणइ। अहं ते धाई तो मे कहेहि सब्भूयं ततो मया भणियं अम्मो अत्थि कारणं जेणाहं मूयत्तणं पवण्णा ततो सा तुट्ठा भणइ पुत्ति ! साहसु मे कारणं ततो जहा भणसि तहा चेट्ठिस्सामि। ततो मया भणिया सुणाहि। अत्थि धायकीखंडे दीवे पुव्वविदेहे मंगलावइविजए नंदि ग्गामो नाम सन्निवेसो तत्थ अह इत्तो तइयभवे दरिद्वकुले सुलक्खणसुमंगलाईणं छण्हं भगिणीणं कणिवा जाया कयं च मे अम्मापिऊहिं नामं ततो निन्नामियत्ति पसिद्धिं गया / से कम्मपडिबद्धा य जीवामि / अन्नया कयाइ ऊसवे इन्भगडिंभाणि नाणाविहभक्खहत्थगयाणि सगिहेहिंतो निग्गयाणि पासम्मिताणि दवण मए माया जाइया अम्मे देहि मे मायेगं अन्नं वा भक्खं जेण / डिंभेहि समं रमामित्ति। तीए रुवाए आहया निच्छूढा य गिहातो कतो ते इहं भक्खा वच्चसु अंबरतिलकं पव्वयं तत्थ फलाणि खायसु मरसु वत्ति / ततो रोयंती निग्गया दिट्ठो मया जणो अंबरतिलगाभिमुहं वच्चतो या तेण सहिया दिट्ठो मया सिहरकरेहिं गगणतलमिव मिणिउं समुजुत्तो अंबरतिलको नाम पव्वतो तत्थजणो फलाणि गेण्हइमए विय पक्कपडियाणि साहूणि भक्खियाणि रमणिज्जयाएय गिरिवरस्ससहजणेण संचरमाणी सदं सुइमणोहरंसुणामि सद्दमणुसरंती गया पदेसं दिट्ठाजुगंधरा नाम आयरिया विविहनियमधरचउद्दसपुव्वी चउण्णोवगया तत्थ बहवो समागया देवा मणुया य तेसिं बंधमोक्खविहाणं कहेंति। अहं पि पाएसु णिवडिऊण एग देसे निसण्णा धम्मकहं सुणामि पुच्छिंया मए भयवं अत्थि मम मतो को विदुक्खिओ जीवो जीवलोगे। ततो तेहिं भगवंतेहिं भणियं निन्नामिमे तुहं सदा सुहासुहा सुइपहमागच्छंतिरूवाणि वि सुंदरमंगुलाणि पाससि गधे सुभासुभे अग्घायसि रसेवि मणुग्णामणुण्णे आसाएसि फासे वि इट्ठाणिढे पडिसंवेदेसि / अत्थिय तो सीउण्हछुहाणं पडिकारो नि सुहागयं सेविसि तमसि जोए पगासेण कज्जं कुणसि नरए पुण नेरइयाणं निचमसुभा सद्दरूवरसगंधफासा निप्पडियाराणि य परमदारुणाणि सीउण्हाणि तहा छुहापिवासातो य न य खणं पि निद्यासुहं तेसिं / ते य निचंधयारेसु चिट्ठमाणा दुक्खसयाणि विवसा अणुहवमाणा बहु कालं गमंति। तिरिया विसपक्खपरक्ख जाणियाणि दुक्खाणि सीउण्हखुहापिवासादीयाणि य अणुहवंति। तव पुण साहारणं सुहदुक्खं केवलमन्नोसिं रिद्धिं पस्समाणा दुहियमप्याणं तक्केसि / ततो मए पणयाए जह भणह तहत्ति पडिस्सुयं / तत्थ य धम्म सोऊण के इ पव्वइया केइ गिहिवासजोग्गाई सीलव्ययाई पडिवन्ना। ततो मए विन्नवियं भयवं जस्स नियमस्स पालणे हं सत्ता तं मे उवइसह / ततो मे तेहिं पंचअणुव्वयाई उवदिवाणि परितुट्ठा वंदिऊण जणेण सह नंदिग्गाममागता पालेमि ताणि अणुव्वयाणि परियायसती चउत्थछट्ठमोहिं खमामि / एवं काले गते कयभत्तपचक्खाणा एतो देव परमदंसणीयं पस्सामि सो भणह निन्नामिगे चिंतेहि होमिएयस्स भारियत्ति / ततो देवी मे भविस्ससि मया सह दिव्वे भोगे भुंजसि / एवं वोत्तूण असणं गतो अहमवि परितोसवसविसप्पमाणहियया देवदंसणेण लभिज्ज देवत्तति चिंतेऊण समाहीए कालगया ईसाणे कप्पे सिरिप्पभविमाणे ललियंगयस्स देवस्स अगमहिसी सयंपभा नामजाया। ओहिणाणोवयोगविण्णाय देवभवकारणा जहा एस ललियंगो अहुणोववन्नो समाणो नियपरियणं पभावितो देवीसु मज्झे सयं पभाए देवीए अज्झोववन्नो सा आउक्खए चुया देवो य लविउमाढतो सयंबुद्धोय महाबले कालगए गहियसामण्णो चिरकालं संजमं परिपालिऊण समाहिपत्तो कालगतो इहेव ईसाणे कप्पे इंदसामाणितो जातो तेण वि लवंतो संबोहितो भणितोय।जहा धायइसंडे दीवे अवरविदेहे नंदिग्गामे निन्नामिगा कयभ त्तपच्चक्खाणा चिट्ठइ तं नियदंसणेण पलोभेहि जेण कयनियाणा ते अग्गमहिसी सयंपभा जायइ। ततो अणेण नियदसणेण पलोभिया कयनियाणा इह मागयत्ति सहरिसंसहललियंगएणं सहिया निरुस्सुका बहुकालं अणुहवामि देवो य सो ललियंगतो आउक्खएण चुतो अम्मो न जाणामि कत्थ गतो। अहमवि तस्स वियोगदुहिया युत्ता समाणी इहमागया। देवुजोयदरिसणेण समुप्पन्नजाइस्सरणा तं देवं य मणसा परिवहंती मूअत्तणं पवन्ना। किं तेण विणा कएण संलावेण त्ति एस परमत्थो।तं सोऊण अम्मधाई ममं भणंति। पुत्ति ! सुटु ते कहियं एयं पुण पुव्वभवचरियं पडिलेहिजउततो अहं हेडावेहामि सोयललियंगतो जइ मणुस्सेसुआयातो होहिइ तो सचरियं दटूण जाई सुमरिहिइ तेण य सह निव्वुया विसयसुहमणुभवेसु / ततो सज्जितो पडो ततो विविहवण्णाहिं वट्टिगाहिं दोहिं वि जणीहिं पढमं तत्थ नंदिग्गामो लिहितो ततो झुंवरतिलगगिरियरसंसियकुसुमिया सोगतरुतलसंनिसन्ना गुरवो देवमेहुणगं च वंदणागयईसाणो कप्पो सिरिप्पभं विमाणं संदेवमिहुणं महावलो राया सयंबुद्धसंभिन्नसोयसहितो निन्नामिगा य तवसोसियसरीरा सव्वत्थललियंगयसयंपभाणं नामाणि लेहियाणि। ततो निप्फन्ने पडे धातीपट्टगं गहेऊण धायइसंडदीवं वच्चामित्ति गयणेण य नियत्ता पुच्छिया मया कीसअम्मो लहुं नियत्तासि सा भणइ पुत्ति ! सुण्ह कारणं इह अम्ह सामिणो तव पिउणोवरिसवद्धावणनिमित्तं विजयवासिणो बहुगा रायाणो समागया तं जइ इहेव तव हिययदइतो होहिइ तो लद्धमेवेति चें तिऊण नियत्ता / जइ इत्थ न होहिइ तो परिमग्गणं करेस्समामि गया भणिया सुटु कयंति। ततोवीयदिवसे पडंगहाय अवरण्हे आगया पसन्नमुही भणइपुत्ति ! निव्वुया होह दिट्ठो मया ते ललियंगतो पुच्छिया मया अम्मो साहसु कहंति। सा भणति पुत्ति ! मया रायमग्गे पसारितो पडो पड़ केइ आभिक्खकुसला आगमं पमाणं करेता पसंसति जे अकुसला ते वण्णरूवाईणि पसंसंति तत्थ दुम्मरिसणरायसुतो दुहतो कुमारो सपरिवारो आगतो सो मुहुत्तमेत्तं पासिऊण मुच्छितो पडितो खणेण आसत्थो मणुस्सेहिं पुच्छितो सामि ! किं मुच्छितो / सो भणइ नियचरियं पडयलिहियं दटूण जाती मए सुमरिया अहं ललियंगतो देवो आसि सयंपभा मे देवी मया पुच्छितो पुत्त ! साहसु को एसो संनिवेसो। भणइ पुंडरिगिणी नगरी पव्वयं मेरुं कहइअणगारो को वि एस साहू वीसरियं से नामं कप्प सोहम्मं साहइ महाबलं राया को वि एसो मंतिसहितो त्ति जंपइ। निन्नामिगं का वि एसा तवस्सिणी नयाणं से नामंति ततो विप्पावणा एसो त्ति मुणिऊण मया भणितो पुत्त संवदति सव्वं जंपुण वीसरियं तेण किं सव्वं तुमंललियंगतो सापुणते सयंपभा Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ धायइसंडे दीवे नंदिग्गामे कम्मदोसेण पंगुलिया जाया / समरिया ललियंगतो देवो जातो अहं पुणतंसदेवगिजाहे जाहे सुमरामिताहेताहे नियजाती ततो तीए आगमकुसलाए तव मग्गणहेतुं नियचरियं लहियं / लंतगं कप्पं नेमि सो सागरोवमस्स सत्तनवभागे देवसुहं भोत्तूण चुत्तो मम धायइसंडे गयाए पडो समप्पिउ कहिओ नियवुत्तंतो ततो मए तीसे तत्थ नो उववन्नो। तं पिललियंगयं एस मे पुत्तो जत्थ तिलमिएएण कमेण अणुकंपाए तव परिणग्गणं कयंनता पुत्त ! एहि नेमिधायइसंड संतोसेहि गया सत्तरसलिलयंगतो सो अट्ठारसमो एसो वि मे पुत्तसिणेहेण बहुसो नियदसणेणं पंगुलियं एवं भणिए उवहसितो मित्तेहिं गम्मउत्तो सिजउत्तो लंतगंकप्पं नीतोतंजाणामि सिरिमईए भत्ता ललियंगतो जातो वइरजंघो पंगुलिया। ततो सो अहो गीवं काउण अवक्रतो मुहुत्तमेत्तेण लोहम्गलाओ त्ति आणत्तो कंचुकी सद्दावेह वइरजंघं सद्दावितो आगतो दिट्टो मया धणो नाम कुमागेलंघणपवणादिसु अतीव समत्थोत्ति संजायवइरजंवोत्ति परितोसवियसियच्छीए अच्छेरयभूतोपणतो राइणो भणितोराइणा पुत्त ! वीयाभिहाणो आगतोपडं दखूण भणइ। केणेयं लिहियं चित्तं मया भणियं / वइरजंघ पुव्वभवसयंपभंसिरिमई ति अवलोइया तेण अहं कलहंसेणेव किं निमित्त पुच्छसि सो भणइ मम एवं चरियं अहं ललियंगतो नामासि कमलिणी विहिणापाणिग्गहितो दिण्णं तारण विपुलं धणं परिवारिगा तो सयंपभा मे देवी असंसयंतीएलहियं जइ वा अन्नेणं वितीए उवएसेणंति य विसज्जियाणि अम्हेगयाणि लोहगलं भुंजामो निरुवसम्णं भोगे। वइरसेणो तक्केमि ततो मए पुच्छितो जक् ते चरियं साहसु को एस संनिवेसो / सो वि राया लोगंतियदेवपडिबोहितो संवच्छरियं दाणं दाऊण भणइ नंदिग्गमो एसो पव्वतो अंबरतिलको जुगंधरा आयरिया एसा पोक्खलपालस्स नियपुत्तस्स रज्जं दाऊण नियगसुएहि नरवईहिं सहितो खमणकिलंता निन्नामिया महव्वलो राया सयंबुद्धसंभिन्नसोएहि सह पव्वइतो। उप्पण्णकेवलणाणो धम्मं दिसइ / मम वि कालेण पुत्तो जातो लिहितो एस ईसाणो कप्पो सिरिप्पभं विमाणं एवं सव्वं सपव्वयं कहियं / सो सुहेण वडितो कयाइ पोक्खलपालस्स केइ सामंता विसंवइया। ततो ततो भए भणितो जा एसा सिरिमती कुमारी तो तपिउछाए दुहिया सा तेण अम्हं पेसियंएउवइरजंघो सिरिमईयअम्हे पुत्तं नगरेठवेऊणं विउलेण सयंपभा तेण रण्णो निवेएमिजेण साते भवइ। एवं सोऊण सो समणसो खंधावारेण पत्थिया सरवणस्स मज्झेणं जाणजणेण पंथो पडिसिद्धो। गतो अहं कयक्झा आगया ता गच्छामि पुत्ति ! रण्णो निवेएमि जेण ते पि जहा दिट्टिविसो सरवणे सप्पो चिट्ठइ तो न जाइतेण पहेण गंतुं ति। ततो सयं कामो भवइ। गया रायसमीवं सद्दाविया अहं रण्णा माउसाहिया गया तं सरवणं परिहरंता कमेण पत्ता पंडरिगिणिं सुहं च तेहिं वइरजंधागमणे रायसमीवं रायाए कहितो व सुमइ !जो सिरिमइए ललियंगतो देवो आसि ततो ते संकिया सेवामागया अम्हे वि पोक्खलपालेण रण्णा पूइऊण तं जहा अहं जाणं न तहा सिरिमई अत्थि। अवरविदेहे सलिलावइविजए विसजिया पत्थिया सनगरं / भणइ य जणो सरवणुजाणमज्झेण गंतव्य वीयसोगा नाम नगरी जियसत्तू राया तस्स मणोहरी केकई दुवे देवीओ। जतो तत्थ ठियस्स साहुणो केवलनाणमुप्पन्नं / ततो देवाओं वइया तासिं जहक्कम अयलो विभीसणो य पुत्ता बलदेववासुदेवा पिउंमि उवरते देवुञ्जोएण पडिहयं विसं सप्पो निव्विसो जातो। ततो अम्हे कमेण पत्ता विजयद्धं भुजति / मणोहरी बलदेवमाया कम्मि काले पुत्तमापुच्छति सरवणं तत्थ आवासिया दिट्ठा नियभायरोमएसागरसेणमुणिसेणा सगणा अयल ! अणुभूया मे भत्तुणो सिरी पुण्णसिरी य संपइ पव्वयामि करेमि वंदिया भत्तिबहुमाणेणं पलिाभिया असणपाणखाइमसाइमेण।ततो अम्हे परलोगहियं विसजेहि मंतिसो नेहेण न विसज्जेइ निव्वंधे कए भणइ अम्मो ते गुणे अणुमोयंता कया अम्हे वि निस्संगा सामन्ने विहरिस्सामो / जइ ते निच्छतो ता देवलोगं गया मं बसणपडियं पडिबोहिज्जासि तीए रागमग्गमोत्तिण्णा पत्ता कमेण सनगरं पुत्तेण अम्हं विहरकाले भिच्चवग्गो पडिवनं पव्वइया / परमधिइबलेण अहीयाणि एक्कारस अंगाणि दाणमाणे हिं रंजितो दासघरे वि स धूमो पउंजितो अम्हे वि वरिसकोडी तवमणुचरिऊण अपडिवडियवेरग्गा समाहीए कालगयालंतगे विसज्जियपरियणा वासहरं रयणीए पविट्ठा / धूमधूसियधातू कालगया कप्पे देवो जातो ताव मंजाण वलदेववासुदेवाय बहुकालं समुदिता भोगे इहागया उत्तरकुराए त्ति। तं जाणामि अज्ज ! जा निन्नामिगा सा सयपभा भुजंति। कयाइ निग्गइ अणुजत्तं आसेहिं अवहिया अडविं पविसिया दूरं जा सिरिभई सा अह। जो सो महावलो राया सो य ललियंगतो देवो जो गंतूण आसविवन्ना विभीसणो कालगतो अयलो नेहेण न जाणइ ! यवइ रजंघो राया ते तुब्भे एवं जीवं से नामंगहियं सा अहं सयंपभा ततो परिस्समेण मुच्छितोएसो नेमिसीयलाणि बलगहणानि अहं च सामिणो भणियं / अज्जे देवुज्जोएण जाइंसंभरिऊण मए एवं चिंतियं देवभवे लतगकप्पगतो पुत्तसिणेहेण संगरं सुमरिऊण खणेणागतो विभीसणरूवं वड्वामि ततो सयंपभा आभट्टा तं सचमेयं कहियंति परितुट्ठमाणसाणि विउव्विऊण अयलो भणितो भाय! अहं विजाहरेहिं समंजुज्झिउंगतो ते पुटवभवसुमरणपञ्जलियसिणेहाणि तिण्णि पलिओवमाई जीविऊणं मए पासहिया तुज्झे पुण अंतरं जाणिऊणं केण वि मम रूवेण मोहिया। कालगयाणि सोहम्मे कप्पे देवा जाया / तत्थ विवराणापीति आसि ताछड्डुहिएयं कलेवरं सक्कारेसुअम्गिणा ततो सक्कारेऊण सनगरमागया। पलितोवमट्ठिई पालेऊण चुया वुच्छावइविजए पहंकराए नगरीए सामी पूइजमाणा जणेण सगिहं पविट्ठा एक्कासणनिसण्णा विया ततो मया सुविहिविज्जणपुत्तो केसवो नाम जातो / अहं पुण सेविसुतो तत्थ मणोहरीरूवं दंसियं संभंतो अयलो भणइ अम्मो! तुब्भेत्थ कतो त्ति ततो विणेअधिगो सिणेहो तत्थेव नगरे रायसुता मंतिसुतो सेद्विसुतो मए पव्वयाकालो संगरोय कहितो विभीसणमरणं च। अहं लंतगातो इह सत्थवाहसुतो य तेहिं विसयमती जाया कयाइ साहू महप्पा किमिकुठे। गतो तं च पडिबोहणनिमित्तं अणिचं मणुयरिद्धि जाणिऊण करेहि गहितोपडियरिओएयंजहापुव्वंजावसमहीएकालगयाअचुएकप्पेइंदसमाणा परलोगहियं / एवं वोत्तूण गतोअहं सगं कप्पं / अयलो वि देवा जाया ततो विइक्खए दुइत्ता केसवो वइरसेणस्स राण्णो मंगलावई। पुत्तसंकामियरज्जसिरी निविण्णकामभोगो पव्वइतो तवमणुचरिऊण | देवीए धारिणी वीसनामाप पुत्तो जातो वइरनामो रायसुयाई कमणे क Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1166- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम णगनाभरुप्पनाभपीठमहापीठा जाया। कणगनाभरुप्पनाभावी-यनामेण बाहुसुबाहू अहं पुण नगरे तत्थेव रायसुतो जातो वालो चेव वइरनाभंसमल्लीणो सारही सुजसो नाम वइरनाभेण सममणुपव्वइतो भगवया य वइरसेणेण वइरनाभो भरहे पढमतित्थयरो उसभो नाम आदिट्ठो कणगनाभो कचवट्टी भरहो इति सेसंजहा पुव्वं जाव सव्वद्वे देवा जाया ततो चुया इहागया मया य वइरसेणतित्थयरो परिसेण नेवत्थेण दिह्रोत्ति य पियामहलिंगदरिसणेण पोराणतो जाईतो सरियातो विनायं च अन्नपाणाइ दायव्वं तवस्सीण / तेसिंच तिणि विसु-विणाणमेतदेव फलं ज भयवतो भिक्ख दिन्ना / एयं च कह सोऊण नरवइमाईहिं पहट्टमाणसेहिं सेजंसो पूजितो आ० म०प्र०॥ स्वप्नानां च फलमिदं, यत्प्रभुः प्रतिलाभित: / / 22 // तदाकर्ण्य जन: सर्वः, श्रेयांसमभिनन्द्य च। अमन्दानन्दमेदस्वी, स्थानं निजनिजं ययौ // 23 / / श्रयांसोऽपि प्रभुर्यत्रावस्थित: प्रतिलाभितः। रत्नपीठं व्यधात्तत्र माऽसौ भू: क्रम्यतां जनैः / / 24 / / तय त्रिसंध्यमानर्च, लोकोऽप्राक्षीदिदं हि किम्। श्रेयांस: कथयामास, युगादिजिनमण्डलम्॥ 25 / / लोकेनापि ततो यत्र, यत्र श्रीभगवान् स्थित:। तत्र तत्र कृतं पीठं, सूर्यपीठं क्रमादभूत्॥ 26 // आ० क०। प्रस्तुतमाह। तखिसिलायलगमणं, बाहुबलिनिवेअणं चेव। अक्षरगमनिका क्रियाध्याहारत: कार्या। तथागजपुरं नाम नगरमासीत् श्रेयांसस्तत्र राजा तेनेजुरसदानं भगवन्तमधिकृत्य प्रवर्तितम् / तत्रार्द्धत्रयोदशहिरण्यकोटीपरिमाणा वसुदारा निपतिता। पीठमिति श्रेयांसेन यत्र भगवता पारितं तत्र तत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीति भक्त्या रत्नमयं पीठं कारितं गुरुपूजेति तदर्धनं चक्रे / अत्रान्तरे भगवत: तक्षशिलातलगमनं बभूव भगवत: प्रवृत्तिनियुक्तपुरुषैर्वाहुबलिनिवेदनं कृतमित्यक्षरगमनिका। एव मन्यासामपि संग्रह गाथानां स्वबुद्ध्या गमनिका कायेति गायार्थः / आ०म०प्र० अथ पुन: कथाशेषमुच्यते।। ज्ञात्वा स्वामिनमायान्तं, हर्षोत्कर्षेण पूरित:। अचिन्तयदाहुबलि:, स्वसर्वद्धा प्रभोः पदौ // 1 // नस्यामीत्यागतस्तत्र, यावत्प्रात: स नागरः / विजहार प्रभुस्तावद्वायुवन्मुनयोऽममा:॥२॥ अदृष्ट्वा स्वामिनं बाहुर्विनिर्मायाधृतिं पराम्। यत्रास्थाद्भगवांस्तत्र, धर्मचक्र मणीमयम्॥३॥ अष्टयोजनविस्तार मेकयोजनमुच्छ्रितम्। सहस्रारं सहस्रांशो रिव विम्बंन्यवेशयत्॥ 4 // पूजयामास पुष्पैस्त चके चाष्टाह्निकोत्सवम्। संस्थाप्य पूजकांस्तत्र, ययौ बाहुर्निजां पुरीम् / / 5 / / ततश्च विहरन् स्वामी, समीरण इवास्पृहः / यवनाडम्बयल्लादिम्लेच्छदेशेषु मौनभाक् // 6 // उपसर्गरसन्तुष्टः, सहमान: परीषहान्। आ० क०॥ (16) श्रामण्यानन्तरं कर्थ प्रभुः प्रववृते इत्याह॥ जप्पमिदं च णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ताणं अगाराओ अणगारि पव्वइए तप्पभिई च णं उसमे अहा कोसलिए णिचं वोसट्टकाए वि अत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववजांति तं दिव्वा वाजाव पडिलोमावा तत्थ पडिलोमा वेत्तेण जा जाव कसेण वा काए आउट्टेजा अणुलोमा वंदेज वा जाव पञ्जुवासेज वा ते सव्वे सम्म साहई जाव अणुहिओ सेज्जई।। यत: प्रभृति ऋषभोऽर्हन् कौशलिकः प्रव्रजितस्तत: प्रभृति नित्यं व्युत्सृष्टकाय: गृहकर्मवर्जनात्त्यक्तदेह: परीषहादिसहनात्ये केचिदुपसर्गा उत्पद्यन्ते तद्यथा दिव्या देवकृता: वाशब्द: समुच्चये यावत् करणात् 'माणुसा वा तिरिक्खजोणिआ वा इति'' पदग्रहप्रतिलोमा: प्रतिकूलतया वेद्यमाना अनुलोमा: अनुकूलतया वेद्यमाना: वा शब्द: पूर्ववत्। तत्र प्रतिलोमा वेत्रेण जलवंशेन यावच्छब्दात् "तयाए वा छियाए वा लयाए वा" इति ।तत्र तपयाऽसनादिकया छिवया श्लक्ष्णया लोहकुश्यया लतया कम्बया कर्षेण चर्मदण्डेन वाशब्द: प्राग्वत् / कश्चिद्दुष्टात्मा कार्य विवक्षात: कारकाणीत्याधारविवक्षायां सप्तमी। आकुट्टयेत्ताडयेदित्यर्थः / अनुलोमास्तु"वंदेजवायावत्करणात् पूएजा वासकारेज्जा वा सम्माणेज्जा वा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं इति''वन्देत वा स्तुतिकरणेन पूजयेद्वा पुष्पादिभि: सत्कुर्याद्वा वस्त्रादिभिः सन्मानयेद्वा अभ्युन्थानादिभि: कल्याणं भद्रकारित्वा त् मङ्गलमनर्थप्रतिघातत्वात् देवतामिष्टदेवतामिव चैत्यमिष्टदे-वताप्रतिमामिव पर्युपासीत वा सेवेतेति तान् प्रतिलोमानुलोम- भेदभिन्नान् उपसर्गान सम्यक् सहते भयाभावेन यावत्करणात् खमइ तितिक्खइत्ति क्षमते क्रोधाभावेन तितिक्षते दैन्यावलम्बनेन अध्यासयति अविचलकायतयेति। अथ भगवत: श्रमणावस्थां वर्णयन्नाह।। तएणं से भगवं समणे जाए इरिआसमिए जाव पारिद्वाव णआसमीए मणसडिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते जाव गुत्तबंभयारी अकाहे असाणे अमाए अलोहे संते पसंते उवसंते परिणिवुडे छिण्णसोए निरुवलेवे संखमिव निरंजणे जबकणगं वजायरूवे आदरिसपडभागे इव पागडभावे कुम्मो इव गुच्छिदिए पुक्खरपत्तमव निरुवलेवे गगणमिव निरालंबणे अणिले इव णिरालए चंदो इव सोमदंसणे सूरो तेयसि विहग इव अप्पडिबद्धगामी सागरो इव गंभीरे मंदरो इव अकं पे पुढ बि इव सवफासविसहे जीवो विव अप्पडिहयगई णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे से पडिबंधे चउटिवहे भवति तं जहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओ इह खलु माया मे पिया मे भाया मे भगिणी मे जाव संग थसंथुआ में हिरण्णं मे सुवण्णं मे जाव उवगरणं मे अहवा से समासओ सञ्चित्त वा अञ्चिते वा मीसए वा दव्वा जाए एवं तस्त णं भवइ खित्तओ गामे वा णगरे वा अरण्णे वा खेत्ते वा खले वा गिहे वा अंगणे वा एवं तस्स ण भवइ कालओ थोवे बालवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा उऊ वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालपडिबंधे एवं तस्स ण भवइ भावओ कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ वा एवं तस्सण भवइ।सेणं भगवं वासावासवजं हेमंतं गिम्हाणुसु पूजाप्राप्तौ जीविते दुर्विषहपरीषहाप्तौ चमरणे निष्पहः। संसारपारगामीति गामे एगराइएणगरे पंचराइए ववगयहाससोगअरइरइभयपरित्ता व्यक्तम् / कर्मणां सङ्गोऽनादिकालीनो जीवप्रदशैः सह संबन्धस्तस्य से णिम्ममे जिरहंकारे लहुभूए अगथे वासी तत्थ णं अदुढे निर्घातनं विश्लेषणं तदर्थमभ्युत्थित उद्यतो विहरति। अथ ज्ञानकल्पाकचंदणाणुलंवणे अरते लेतुम्मि कंचणम्मि अ समे / इह लोए / वर्णनायाह (तस्सणमित्यादि) तस्य भगवत: एतेनानन्तरोक्तेन विहारेण परलोए अपडिबद्ध ज विअमरणे निरवकंखे संसारगामी विहरत एकस्मिन् वर्षसहस्रे व्यतिक्रान्ते सति पुरिमतालस्य नगरबहि: कम्मसंघणिग्घायणं ठाए अन्मुट्ठिए विहरइ। तस्मणं भगवंतस्म शकटमुखे उद्याने न्यग्रोधवरपादपस्याधो ध्यानान्तरिकेति / अन्तस्य एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइक्वंते समाणे विच्छेदस्य करणमन्तरिका स्त्रीलिङ्गशब्द: अथवा अन्तरमेवान्तर्य पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उ जाणांसि भेषजादित्वात् स्वार्थे यण्प्रत्ययस्तत: स्त्रीत्वविवक्षायां डीपि प्रत्यये णग्गोहवरपायवस्स अहे झाणंतरिआए वट्टमाणस्स आन्तरी आन्तर्येवान्तरिका आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानाफग्गुणबहुलस्स एक्कारसीए पुटवण्हकालसमयंसि अट्ठमेणं भत्तेणं रम्भणमित्यर्थः / अतस्तस्यां वर्तमानस्य कोऽर्थः पृथक्त्ववितक अपाणएणं उत्तरासाढाणक्खत्तेणं जांगमुवागएणं अणुत्तरेणं सविचारम् 1 एकत्ववितर्क मविचारम् 2 सूक्ष्मकियमनिवर्ति 3 नामेणं जाव चरित्तेणं अणुत्तरेणं तवेण वलेणं वीरिएणं आलएणं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति 4 इति चतुश्वरणात्मकस्य शुक्लध्यानस्य विहारेणं भावणाए खंतीए गुत्तीए मुत्तीए तुट्ठीए अजवेणं मद्दवेणं चरणद्वये ध्याने चरमचरणद्वयमप्रतिपन्नस्येति योगनिरोधरूपध्यान-स्य लाघवेणं सुबचरिअसोवचिअफलनिवाणमग्गेणं अप्पाणं चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनि केवलिन्येव संभवात् / फाल्गुनबहुलभावेमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरावरणे कसिण स्यैकादश्यां पूर्वाह्नकालरूपो य: समयोऽवसरस्तस्मिन् अष्टमेन पडिपुण्णे केवलवरनणदसणे समुप्पण्णे जिणे जाए केवली भक्तनागमभाषयोपवासलक्षणेनापानकेन जलवर्जितेनोत्तराषाढानक्षत्रे सव्वन्नू सव्वदरिसी सणेरइअतिरिअनरामरस्स लोगस्स पज्जवे चन्द्रेण सहेति गम्यं ये गमुपागते सति। उभयत्रणं वाक्यालङ्कारे। अथवा आर्षत्वात्सप्तमयर्थे तृतीया अनुत्तरेणेति क्षपक श्रेणिप्रतिपन्नत्वेन जाणइ पासइ तंजहा आगई गई ठिई उववायं मुत्तकडं पडिसेविअं आवीकम्मरहोकम्मं तं तं कालं मणवयकाए जोगे केवलासन्नत्वेन परमविशुद्धिपदप्राप्तत्वेन न विद्यते उत्तरं प्रधानमप्रवर्टि वा छाद्यस्थिकज्ञानं यस्मात्तत्तथा तेन ज्ञानेन तत्वावबोधरूपेण एवं एवमादी जीवाण वि सटवभावे अजीवाण वि मवभावे यावच्छब्दात् दर्शनेन क्षायिकभावापन्नेन सम्यक्त्वेन चारित्रेण मोक्खमग्गस्स विसुद्धतराए बहवे जाणमाणे पासमाणे एस खलु विरतिपरिणामरूपेण क्षायिकभावापन्नेनैवतपसेति व्यक्तम् / बलेन मोक्खमग्गसममण्णेसिं च जीवाणं हियसुहणिस्स असकरे संहननोत्थप्राणेन वीर्ये ण मानसोत्साहेन आलयेन निर्दोषवसत्या सव्वदुक्खविमोक्खणे परमसुहसमाणणे भविस्सइ॥ विहारेण गोचरचर्यादिहिण्डलक्षणेन भावनया महाव्रतसंबन्धिन्या अथ कथं नु भगवान्वहरति स्मेत्याह (सेणमित्यादि) स भगवान् वर्षासु मनोगुप्त्यादिरूपतया पदार्थानामनित्यत्वादिचिन्तनरूपया वा क्षान्त्या प्रावृट्काले वासोऽव्सथानंतद्वळ वजनेनेत्यथ: / हेमन्ता: शीतकालमासाः क्रोधनिग्रहेण गुप्त्य प्राण्याख्यातस्वरूपया मुक्त्या निर्लोभतया तुष्ट्या ग्रीष्मा उष्णकालमासास्तेषुग्रामेऽल्पीयसि सन्निवेशे एका रात्रिर्वासमा इच्छा निवृत्त्या आर्जवेन मायानिग्रहेण मार्दवेन माननिग्रहेण लाघवेन नतया यस्य स एकरात्रिक:एकदिनवासीत्यर्थः / नगरे गरीयसि सन्निवेसे क्रियासु दक्षभावेन क्रियोक्तप्रत्यनिधानात् सोपचितं सोपचयं पुष्टमिति पञ्च रात्रयो वासमानतया यस्य स तथा पञ्चदिनवासीति भावः / यथा यावत् एतादृशेन समुत्पन्नोऽयमित्यन्वयः / एवमनन्तमविनाशित्वात् दिनशब्दोऽहोरात्रवाची तथा रात्रिशब्दोऽप्यहोरात्रवाचीति / ननु तहिं अभुत्तरं सर्वोत्तमत्वात्, नियाधातं कटकुठ्यादिभिरप्रतिहतत्वात् दिनशब्द एव कथं नोपात्त उच्यते / निशाविहारस्यासंयमहेतुत्वेन निरावणं क्षायिकत्वात् कृत्यं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण चतुानिनोऽपि तीर्थङ्करा अवगृहीतायां वसतावेवावासिषु: वत्स्यन्ति सकलस्वांशकलितत्वात् पूर्णचन्द्रवत् / केवलमसहायं "णहम्मि वसन्तीति वृद्धाम्नाय: / व्यपगतहास्यशोकारतिरतिभयपरित्रास: / छाउमथिएणाणे" इति वचनात् परं प्रधानं ज्ञानं च दर्शनं समाहारद्वन्द्वे तत्रारतिर्मानसौत्सुक्यमुद्वेगफलकर रतिस्तदभावः / परित्राम एकवद्भाव: तत: पूर्वपदाभ्यां कर्मधारयः। तत्र सामान्यविशेषोभयात्मके आकस्मिकं भयं शेष व्यक्तम्। निर्गतो ममेति शब्दो यस्मात् स तथा। ज्ञेयवस्तुनि ज्ञानं विशेषावबोधरूपं दर्शनं सामान्यावबोधरूपमिति / किमुक्तं भवति प्रभोममेत्यभिमानो नास्तीति षष्ठ्येकवचनान्तस्या- अत्रायमाशयः दूरादेव तालतमालादिकं तरुनिकरं विशिष्ट - स्मच्छब्दस्यानुकरणशब्दत्वान्ममेत्यस्य साधुता। निरहङ्कार: अहमिति व्यक्तिरूपतयाऽनवधारितमवलोकयत: पुरुषस्य सामान्ये व करणमहङ्कारः स निर्गतो यस्मात् स तथा लघुभूत ऊर्द्धगतिकत्वात्। वृक्षमात्रप्रतीतिजनक पदपरिस्फुटं किमपि रूपं चकास्ति तद्दर्शन अत एवाग्रन्थो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः।वास्या सूत्रधारशस्त्रविशेषण निर्विशेष विशेषाणामग्रहो दर्शनमिति वचनात् / पुनस्तस्यैव यत्तल्लक्षणं त्वचोत्खननं तत्राद्विष्टोऽद्वेषवान् / चन्दनानुलेपनेऽरक्तोऽ- प्रत्यासीदतस्तालतमालादिव्यक्ति रूपतयाऽवधारितं तमे व रागत्वत्। लेष्ठौ दृषदि काञ्चनेच सम: उपेक्षणीयत्वेनोभयत्र साम्यभाक्। तरुसमूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभाति इह लोके वर्तमान भवे मनुष्यलोके परलोके दवभवादौ तत्राऽप्रतिबद्धस्त- | तज्ज्ञानम् / ननु भवतु नाम इत्थमनुभवसिद्धे ज्ञाने छद्मस्थानां ऋत्यसुखनिष्पिपासित्वात् जीवितमरणयोर्निरवकाङ्गमिन्द्रनरेन्द्रदि / विशेषग्राहकता दर्शन च सामान्यग्राहकता परं केवलिनो ज्ञानक्षणे Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1165- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ समान्यांशग्रहणाद्दर्शनेन विशेषांशग्रहणाभावाद्वयोरपि सर्वार्थविषयत्वं विरुध्यति उच्यते ज्ञानक्षणे हि केवलिनांज्ञाने यावद्विशेषान् गृह्णति सति सामान्य प्रतिभातमेवाशेषराशिरूपत्वात्सामान्यस्यादर्शनक्षणे चदर्शने सामान्यं गृह्णति सतियावद् विशेषा: प्रतिभाता एव विशेषानालिङ्गितस्य सामान्यस्याभावात् अत एव निर्विशेषं विशेषारणामग्रहो दर्शनमित्युक्तमनन्तरोक्तग्रन्थे एकार्थः / ज्ञानप्रधानभावेन विशेषा गौणभावेन सामान्या दर्शनं प्रधानभावेन सामान्यं गौणभावेन इति विशेषः / समुत्पन्नसम्यकक्षायिकत्वेनावरणदेश स्याप्यभावात् / उत्पन्नकेवलस्य यद्भगवत: स्वरूपं तत् प्रकट्यति (जिणे जाए इत्यादि) जिनो रागादिजेता / केवलं श्रुलज्ञानाद्यसहायकं ज्ञानमस्थास्तीति केवली अत एव सर्वतो विशेषांशपुरस्कारेण ज्ञाता सर्वज्ञाता सर्वदर्शी सामान्यांशपुरस्कारेण / नन्वर्हतां केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोः क्षीणमोहान्तसमय एव क्षीणत्वेन युगपदुत्तिकत्वे उपयोगस्वभावात् क्रमप्रवृत्तौ च सिद्धायां सव्वन्नू सव्वदरिसि इति सूत्रं यथा ज्ञानप्राथम्यसूचकमुपन्यस्तम् तथा "सव्वदरीसी सव्वन्नू इत्येवं दर्शनप्राथम्यसूचकं किं न तुल्यन्यायत्वात् नैवं "सव्वाउ लद्धीओ, सागरोवउत्तस्स उववजंति णो अणागारोवउत्तस्स" इत्यागमादुत्पत्तिक्रमेण सर्वदा जिनानां प्रथमे समये ज्ञानं ततो द्वितीये दर्शनं भवतीति ज्ञापनार्थत्वा दित्थमुपन्यासस्येति छद्मस्थानांप्रथमे समये दर्शनं द्वितीयो ज्ञानमिति प्रसङ्गादोध्यम् उक्तविशेषशाद्वयमेव विशिनष्टि सनैरयिकतिर्यग्नरामरस्य लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकक्षेत्रखण्डस्य उपलक्षणादलोकस्यापि नभ: प्रदेशमात्रात्मक्षेत्रविशेषस्य पर्यायन् क्रमभाविस्वरूपविशेषान जानाति केवलज्ञानेन पश्यति केवलदर्शनेन पर्यायानित्युक्ते द्वयमपि ग्राह्यम् / न हि पर्यायद्रव्यवियुता भवेयुर्द्रव्यं वा पर्यायवियुत तेनाधेयमाधारमाक्षिपतीति अन्यथा आधेयत्वस्यैवानुपपत्तेः यथाकाशस्य न हि आकाश: क्वाप्यवतिष्ठते तस्याधारमात्ररूपस्यैव सिद्धान्ते भणनात् / अथवा सामान्य उक्तपर्यायाणां ज्ञान व्यक्यानिरूपयन्नाह / तद्यथा आगतिं यत: स्थानादागच्छन्ति विवक्षित स्थानंजीवाः गतिंयत्र मृत्वोत्पद्यन्ते स्थिति कायस्थितिभवस्थितिरूपां च्यवनं देवलोकाद्देवानाम् मनुष्यतिर्यक्ष्ववतरणम् / उपपातं देवनारकजन्मस्थानं भुक्तमशनादि कृति चौर्यादि प्रतिसेवितं मैथुनादि अवि: कर्म प्रकटकार्य कर्म प्रच्छन्नकृतं तं तं (कालंति) प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तस्मिन् 2 काले वीप्सायां द्विवचनं मनोवच: कायान् योगान करणत्रयव्यापारान् एवमादीन् जीवानामपि सर्वभावान् जीवधर्मानित्यर्थ: / अजी-वानामपि सर्वभावान् मोक्षमार्गस्य रत्नवयस्य विशुद्धतरकान् प्रकर्षकोटीप्रप्तान् कर्मक्षयहतून् भावान् ज्ञानाचारादीन् जानन् पश्यन् विहरतीति गम्यम् / कथं च जानन् पश्यन् विचरतीत्याह एषोऽनन्तरवक्ष्यमाणो धर्मः खलुरवधारणे मोक्षमार्गः सिद्धिसाधकत्वेन समदेशकस्यान्येषां च श्रोतृणां हितं कल्याणं पश्यभोजनवदित्यर्थः / सुखमनुकूलवेद्यं पिपासो: शीतजलजलपानवत् नि: श्रेयसं मोक्षस्तत्कर: उक्तानां हितादीनां कारक इति / सर्वदुःखविमोक्षण इति व्यक्त परमसुखमात्यन्तिकसुखं समापयतीति व्युत्पत्तिवशात्परमसुखसमानत: "समीपे:समान": इति प्राकृतसूत्रेण समानादेशऽनटि प्रत्यये रूपसिद्धिः / नि: श्रेयसेत्यत्र पकारलोप: प्राकृतत्वात् भविष्यतीति / / / जं०२ वक्ष० आव०॥ आ० म०प्र०। (21) अथ उत्पन्नकेवलज्ञानो भनवान् यथा धर्म प्रादुश्चकार तथाह। ततंणं से भगवं समणाणं णिग्गंथाणं णिग्गंधीणयपंचमहव्वयाई छच जीवणिकाए धम्म देसमाणे विहरति तं जहा पुढविकाए भावणागमेणं पंचमहव्वयाइं सभावणागाई भाणिअव्वाई।। तत: स भगवान् श्रमणानां निर्गन्थानां निर्ग्रन्थीनां च पञ्चमहाव्रतानि सर्वप्राणातिपातविरमणादीनि सभावनाकानि ईर्यासमित्यादिस्वभावेनोपेतानि षट् च जीवनिकायान पृथिव्यादित्र सान्तान् इत्येवंरूपं धर्ममुपदिशन् विरहतीति संबन्धः। तच्च धर्मेप्रक्रन्तव्ये षड्जीवनिकायकथनमुपक्रान्तं तज्जीवपरिज्ञानमन्तरेण व्रत पालनासंभव इति ज्ञापनार्थम् / नन्वनियम: प्रथमव्रते संभवेत् मृषावादविरमणादीनां तु भाषाविभागदिज्ञानाधीनत्वात् न संभवेदित्युच्यते शेषव्रतानामपि प्राणातिपातविरमणव्रतस्य रक्षकत्वेन नियुक्तत्वात् महावृक्षस्य वृक्षवत् तथा हि मृषाभाषामभाषमाणो ह्यभ्याख्यानादि विरतो न कुलवध्यादीन् अदतमनाददानोधनस्वामिनं सचित्तजलफलादिकं च मैथुनविरतो नवल क्षपञ्चेन्द्रियादीन् परिग्रहविरत: शुक्तिकस्तूरीमृगादींश्च नातिपातयेदिति। अथैतदेव किंचिद्वयक्त्या विवृणोति तद्यथा पृथिवीकायिकान् जीवान् उपदिशन् वहरतीति संबन्ध: / लाघवार्थकत्वेन सूत्रप्रवृत्तेर्देशग्रहणात्पूर्णोऽप्यालापको वाच्यः स चाय "आउक्काइए ते उकाइए वाउकाइए वाणस्सइकाइए तसकाइए त्ति" व्यक्तम् तथा पञ्चमहाव्रतानि सभावनाकानि भावनागमेन श्रीआचाराङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्धगतभावनाख्याध्ययनगतपाठेन भणितव्यानि अत्रच सूत्रे यदुद्देश प्रथम "पंचमहव्ययाई" इत्याधुक्तं निर्देश तु व्यत्ययेन "तं जहा पुढविकाइए'' इत्यादि तत्कथमिति नाशङ्कनीयम्। यत: पश्चादुद्दिष्टानामपि षड्जीवनिकायानां प्रस्तरतो बाङ्गे स्वल्पवक्तव्यतया प्रथम प्ररूपणाया युक्त्युपपन्नत्वात् सूचीकटाहन्यायोऽत्रानुसरणीयो विचित्रा सूत्राणांकृतिराचार्यस्येति न्यायेनवा स्वत एवेति ज्ञेयम्। ननुगृहिधर्मसंविनपाक्षिकधर्मावपि भगवता देशनीयौ मोक्षाङ्गत्वात् यदुक्तम् / "सावज्जजोगपरिवज्जणाउ सव्वत्तमो जईधम्मो / वीओ सावगधरमो तइओ संविग्गपवखपहो। 1 // " इति तत्कथमत्र तौ नोक्तौ उच्यते सर्वसावधवर्जकत्वेन देशनायां यतिधर्मस्य प्रथमं देशनीयत्वादत्यासन्नमोक्षपथत्वात् श्रमणसंघस्य प्रथम व्यवस्थापनीयत्वश्च प्राधान्यख्यापनार्थ प्रथममुपन्यासस्ततो व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिरिति न्यायादेतत्पुच्छभूतौ तावपि धर्मों भगवता प्ररूपिताविति ज्ञेयम् / भगवत्प्ररूपणामन्तरेणाऽन्ये पां तत्तद्ग्रन्थेषु तयोः प्ररूपणानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गे नेति। जं०२ वक्षा उसभेणं अरहा कोसलिएणं इमीसे उस्सप्पिणीए नवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं वीइक्कताहिं तित्थे पव्वत्तिए / स्था० १०ठा०॥ उज्जाणपुरिमताले, पुरीविणीयाइ तत्थ नाणवरं / चवकुप्पयायभरहे, निवेयणं चेव दोण्हं पि॥ तथा तस्मिन्नेवाहनि भरतनृपतेरायुधशालायां चक्रात्पादश्व बभूव (भरहे निवेयणं चेव दोण्हपित्ति) भरताय निवेदनं च द्वयोरपि ज्ञानरत्नचरत्नयोः / तनियुक्तपुरुषैः कृतमित्यध्याहार इति Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम गाथार्थः / अत्रान्तरेभरतश्चिन्तयामास पूजातावदूद्वयोरपि कार्या। कस्य प्रथमं कर्तुं युज्यते। किं चक्ररत्नस्य उत तातस्येति तत्र तातम्मि पूइए चक्कपूइयं पूअणारिहो ताओ। इह लोइयं तु चक्र, परलोअसुखावहो ताओ॥२४॥ ताते त्रैलोक्यगुरौ पूजिते सति चक्रं पूजितमेव तत्पूजानिबन्ध- | नत्वाच्चक्रस्य / तथा पूजामर्हतीति पूजार्हस्तातो वर्तते देवेन्द्रादितुल्यत्वात् / तथा इह लौकिकं चक्रं तुरेवकारार्थः स चावधारणे किमवधारयति / ऐहिकमेव चक्रं सांसारिक सुखहेतुत्वात् परलोकसुखावहस्तात: शिवसुखहेतुत्वादिति गाथार्थः तस्मात्तिष्ठतु तावचक्र तातस्य पूजा कर्तुं युज्यत इति संप्रधार्य तत्पूजाकरणसंदेशव्यापृतो बभूव / / इदानीं कथानकम् भरहो सव्वड्डीए भगवंतं वंदं उपयट्टी। मरुदेवी सामिणी यभगवंते पव्वइए भरहरजसिरि पासिऊण भणिया इयो मम पुत्तस्स एरिसी रज्जसिरी आसि संपयं सो खुहापिवासापरिगओ नग्गओ हिंडइत्ति / उव्वेयं करिया इयो भरहस्स तित्थगरविभूई वन्नेतस्स विन्नपत्तिजिया इयो पुत्तसोगेण य किलेसब्भामंतचक्खु जायं रुवंती एत्तो भरहेण गच्छतेण विनता। अम्मो एहि जेण भगवओ विभूतिं दंसेमि ताहे भरहो हत्थिखंधे पुरओ काऊण निग्गओ। समोसरणदेसे य गयणतलं सुरसमूहेण विमाणारूढेणोवरतेण विरायंतधयवर्ड पहयदेवदुंदुहिनिनायापूरियदिसामंडलं पासिऊण भरहो भणिया ईओ पेच्छ जइ एरिसी सिद्धी गम कोडिसयसहस्सभागेण वि। ततो तीए भगवओ उच्छवा इत्थतं पासंतीए चेव केवलमुप्पण्णं / अन्ने भणंति भगवओ धम्मकहासई सुणे तीए तकालं च तिकटुमाउयं / ततो सिद्धा / इह भरहे ओसप्पिणीए पढमसिद्धेत्ति काऊण देवेहिं पूजा कया सरीरं च खीरोए छूळ / भगवं च समोसरणमब्भत्यो सदेवमणुयासुराए सहाए धम्मं कहेइ। तत्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुव्वभवबद्धगणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पव्वइओ बंभी य पव्वइया। भरहो सावगो जाओ। सुंदरी पव्वयंती भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइत्ति रुद्धा सा वि साविया जाया। एस चउव्यिहो समणसंघो। ते य तापसा भगवओ नाणमुपन्नं ति कच्छसुकच्छवजा भगवओ सगासमागंतूण भवणवतिवाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवागिणं परिसंदण भगवओ सगासे पव्वइया एत्थ समोसरणे मरीचिमाइया बहवे कुमारा पव्वइया आ० म०प्र०। (22) सांप्रतमभिहितार्थसंग्रहपरमिदं गाथाचतुष्टयमाह। सहमरुदेवीइ निग्गओ कहणं पव्वजमुसभसेणस्स। बंभीमरीइदिक्खा, सुंदरिओरोहसु अदिक्खा / / 25 // पंच य पुत्तसयाई, मरहस्स य सत्तनत्तुअसयाई। सयण्हं पव्वइआ, तम्मि कुमारा समोसरणे // 26 / / भवणवइवाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी अ। सव्वट्ठिसपरिया का सीनाऊणुप्पया महिमं / / 27 / / दटूण कीरमाणिं, महिमं देवेहिं खत्तिओ मरिई। संतत्तलद्धबुद्धी, धम्मं सोऊण पव्वइओ // 28 // कथनं धर्मकथा परिगृह्यते / मरुदेव्यै भगवद्विभूतिकथनम् / तथा नशतानीति पौत्रकशतानि / तथा "सयण्हमिति" देसीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरिताभिधायकं चेति / मरीचिरिति जातमात्रो मरीचिं मुक्तवानित्यतो मरीचिमान् मरीचिरभेदोपचारान्मतुब्लोपावति। अस्य च प्रकृतोपयोगित्वात् कुमारसामान्याभिधाने सत्यपि भेदेनोपन्यासः / सम्यक्त्वेन लब्धा प्राप्ता बुद्धिर्यस्य स तथाविधः शेष सुगममिति गाथाचतुष्टयार्थः / आ० म०प्र० / आव० 1 अ० / (भरतविजयवक्तव्यता भरहशब्दे) भगवद्वन्दनार्थ सह मरुदेव्या निर्गत: (कहणं) भगवद्भितिकथनं ऋषभसेनस्य पुण्डरीकापरनाम्नः प्रव्रज्या ब्राह्यादिदीक्षा सुन्दा अवरोधार्थं धारणं (सयोह) समकालं समान्येन कुमारदीक्षाभिधानेऽपि मरीचेर्विशेषणाभिधानं प्रकृतोपयोगित्वात् (सम्मत्तलबुद्धित्ति) लब्धा सम्यक्त्वबुद्धिर्येन सलब्धसम्यक्त्वबुद्धि शेष स्पष्टम्। अथ भरत:किंचकारेत्याह "अथोत्थाय प्रभो: पूजा, विधाय भरतेश्वरः / चकार चक्ररत्नस्या ष्टाहिकामहिमोत्सवम्" (आ०क०) वारसवासाणि महारायाभिसेओ वुत्तो राइणो वियज्जियाताहे निययवगगं सरिउमारद्धोताहे दाइजाति सव्वे निएल्लया एवं परिवाडीए सुंदरी दाइया सा पंडुल्लुगितमुही सा य जदिवसंरुद्धा तद्दिवसमारब्भ आयंविलाणि करेति तं पासित्ता रुट्ठो ते कुडुबिए भणइ। किं मम नत्थि भोयणं जं एसा य रिसीरूवेण जाया वे ज्जा वा नत्थि तेहिं सिर्दु जहा आयंविलाणि करेइ ताहे तस्स तस्सोवरि पयणुओ रागो जाओ। सा य भणिया जइ रुचति तो मए समं भोगे भुंजाहि ण वि तो पव्ययाहि त्ति / ताहे पाएसु पडिया विसजिया पव्वइया। अन्नया भरहो तेसिंभाउयाणं दूयं पट्टवेइ। जहा मम रजं आयणहते भणंति अम्हं विरजं तारण दिण्णं तुडभं वि एतु ताय ताओ पुच्छिजिहित्ति / जं भणिहि ति तं करिहामो तेण समएण भगवं अट्ठावयमागओ विहरमाणे एत्थ सव्वे समोसरिया कुमारा तहे भणति तुडभेहिं दिण्णानि रजाई हरति भाया तो किं करेमो किं जुज्झामो उदाहु आयणामो ताहे सामी भोगेसु नियतावेमाणो तेसिं धम्मं कहेइ न मुत्तिसरिसं सुहमत्थि ताहे इंगालदाहकदिवंतं कहेइ / "जहा एगो इंगालदाहओए गं भाणं पाणियस्स भरेऊण गओ तं तेण उदगं निट्टवियं उवरि आइयो पासे अग्गी पुणो परिस्सम दारुगाणि कुट्टितस्स घरं गतो पाणियं पीयं / मुच्छितो सुमिणं पासइ / एवं असब्भावपट्ठवणा कूवतलागनदीदहसमुदाय सव्वे पीया।नय छिज्जइतहा।ताहे अन्नम्मि जिन्नरूवे तणपुलियं गहाय उस्सिंचइ / जं पडियसेंस तं जीहाण लिहइ एवं तुडभेहिं वि अणुत्तरा सव्वलोगे सव्वपुरिसा सव्वट्ठसिद्धअणुभूया तह वि तत्तिं न गया। एवं वेयालियं नाम अज्झयणं भासइ संबुज्झह किन्न वुज्झह / एवं अट्ठाणउई वि तेहिं अट्ठाणउई कुमारा पव्वइयत्ति कोइ पढमिल्लुएणसंबुद्धो कोइ वितिएण कोइ ततिएण। जाहे तेपव्वझ्या आ० म०प्र० अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह। मागहमाई विजओ, सुंदरिपव्वज्जवारसमिसेओ। आणावण भाउआणं, समुसरणे पुच्छदिटुंतो॥ मागधमादौ यस्य स मागधादि: कोऽसौ विजयो भरतेन कृत इति पुनरागतेन सुन्दर्यवस्थिता दृष्टा क्षीणत्वान्मुक्ता चेति द्वादश वर्षाण्यभिषेक कृतो भरताय आतापनं भ्रातृणां चकार तेऽपि च समवसरणे भगवन्त पूजयन्तः पृष्टवन्तः भगवता चाङ्गा सदाहकदृष्टान्तो गदित इति गाथाक्षरार्थ: / आ० म०प्र०॥ एवं षष्टिसहस्राद्या, सर्व निर्जित्य भारतम् // 30 // जाणा Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम ११७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम राजधान्या विनीतायां, प्रत्यगाद्भरतेश्वरः / महाराजाभिषेको भूत्तत्र द्वादशवार्षिक: // 31 // सर्वान् विसृज्य भूपाला नारेभे स्वजनेक्षणम्। दर्शमानेष्वथ स्वेषु, सुन्दरी दर्शिता यदा॥३२॥ दृष्ट्वा पाण्डुमुखी क्षामा, क्रुद्धः कौटुम्बिकानवक्। अस्ति मे भोजनं किं न, रूपेणेयं यदीदृशी।। 33 / / वैद्यो वा नास्ति शिष्टं तैः, सर्वमप्यस्ति ते प्रभो !! परं व्रतायाचामाम्लै:, कटकाद्यदिनात् स्थिता // 34 // अथ विज्ञाय तद्भावं, मुदितो भरताधिपः। श्रुत्वा च समवसृतं, प्रभुमष्टापदाचले॥३५ / / चिरादुत्कण्ठितस्तत्र,ततो गत्वा यमी मुदा। प्रभुं प्रणम्य सुन्दर्य, दापयामास संयमम् // 36 // अथ प्रत्यागतोऽयोध्यां, नगरी भरतेश्वरः / व्यज्ञप्यतयुधागार नियुक्तेनैत्य केनचित्।। 37 / / चक्रं न चक्रशालाया मद्यापि विशति प्रभो ! / विना त्वदाज्ञां कुर्वत्सु, राज्यानि तव बन्धुषु // 38 // चक्रवर्ती तत:सद्यो, दूतैस्तानूचिवानदः। राज्येष्वस्ति यदीच्छा वस्तत्सेवाक्रियतां मम॥३६॥ प्रत्युचिरेऽष्टानवतिः, कुमारास्तानहंयवः / राज्यं तातेन दत्तं न स्तत्किं भरतसेवया // 40 // यूयं व्रजत हे दूता! वयं त्वत्स्वामिना सह। तातं पृष्ट्वा करिष्यामः,सख्यं वाऽसख्यमेव वा // 41 // ततस्तेऽष्टापदे गत्वा, प्रभुंनत्वाऽवदन्नदः / राज्यं तावत्त्वया दत्तं, भ्राता हरति तद्वयम् // 42 // युध्यामहे किमथवा,तदाज्ञामनुमन्महे। धर्म तेषामथार्योऽवक्, लोभेयस्तान्न्यवर्तयन्। 43 / / नि: श्रेयससमं सौख्यं, संसारे क्वापि नास्त्यहो। अङ्गारदाहकस्यात्र, दृष्टान्तं शृणुताधुना // 44 // इहैकोऽङ्गारकृद्यातो, गृहीत्वाम्भोघट वने। पीतं तेनाम्बुतत्सर्वं, तृष्णयार्तेन कुम्भतः // 45 // उपर्यादित्यतापेन, पार्वेऽनवलनत्तथा। काष्ठकुट्टनखेदाच, पीडितस्तृष्णया पुनः॥ 46 / / सोऽथ गाढं गतो मूछा, सुप्त:स्वप्ने तदा जलम्। सर्व गेहसर: कूपनदीहदसमुद्रजम्।। 47 // सर्व पपौ परं तस्य, तृष्णा छिन्ना तथाऽपिन। ततो मरौ जीर्णकूपे , गृहीत्वा तृणपूलकम्॥ 46 // तेनाहृतं पयःशेषं, पतितालेढि जिह्वया। न छिन्ना या समुद्रान्ते, सा तृट्छेत्स्यति तेन किम्॥ 46 // अन्वभूवन् भवन्तोपि, सुखं भवसुखावधि। विमाने सर्वार्थसिद्धे, तृप्तिस्तदपि नाभवत्॥५०॥ ततो वैतालिकं नामाध्ययनं स्वाम्यभाषत। बुध्यध्वं किं न बुध्यध्वमित्यष्टानवतिध्रवाः / / 51 // कोऽपि प्रथमया बुद्धः, कश्चनापि द्वितीयया। बुद्धा: सर्वेऽपि सर्वाभिः, कुमारा: प्राव्रजस्तदा / / 52 / / ज्ञात्वा चरेभ्यस्तदृत्तं, भरतो भरतादिभूः / तेजांसीवांशुरग्नीनां, तेषां राज्यान्यपाहरत्।। 53 / / विज्ञाय लघुबन्धूनां, तद्राज्यहरणं तदा। आयान्त भारतं दूत मूचे बाहुबली बली // 54 / / अथ तृप्तिन ते भर्तुर्वृहत्कुक्षिरिवैष कः। बन्धूनामपि राज्यान्या च्छिनत्ति समातिलोभतः / / 55 / / मदीयमपि किं तद्वद्राज्यमेष जिहीर्षति। मरिचान्यप्यर्थीर्वाञ्छ त्यत्तुं चणकलीलया // 56 // आयातोऽहं तदेषोऽस्मि, राज्याय स्वं प्रभुं युधि। इत्युक्त्वा दूतमुत्सृज्य, बाहुबल्यप्यषेणयत्॥५७॥ ज्ञात्वाऽऽयान्तं च भरतं, सर्वांघेण तमभ्यगात्। ततस्तद्बलयोरासीत्संग्रामो द्वादशाब्दकः / / 58 / / अथ बाहुबलि: स्माह, किमेतै:कीटकुट्टनैः। आवयोरेव यद्वैरमावयोरेव यद्रण: / / 56 // अथाङ्गाङ्गिरणे देव प्रार्थनात्स्वीकृते शुभे। दृग्युद्धं प्रथमं चक्रे , भरतस्तत्र निर्जितः / / 60 // एवं वाग्युन्मुष्टीमुष्टि दण्डादण्डिरणैर्जितः / भरतोऽचिन्तयचक्री, एष एवास्म्यहं न किम् // 61 // तस्यैवं खिन्नचित्तस्य, चक्रं देवतयाऽर्पितम्। सगर्वस्तेन सोऽधावत्, हन्तुं बाहुबलिं प्रति॥ 62 // तभायान्तं समालोक्या चिन्तयदाहुबल्यपि। एतं सचक्रमप्येक मुष्टिघातेन चूर्णये॥६३॥ किं पुन: कामभोगानां, तुच्छानां कारणे मम। भ्रातुर्धष्टप्रतिज्ञस्य, वध: कर्तुं न युज्यते॥६४ // भव्यं में भ्रातृभिश्चक्रे , तत्करोम्यहमप्यत:। अथोचेऽधर्मयुद्धेच्छो ! धिक्के भरत ! पौरुषम्।। 65 / / अलं भोगैमेत्युक्त्वा , तदैव व्रतमाददे। भरतस्तनयं बाहो, राज्ये सोमप्रभंन्यधात्।। 66 // अग्रे केवलिन: सन्ति तातोपान्ते ममानुजा: / ततोऽहमपि यास्यामि, संजाते तत्र केवले॥६७॥ तत्रैवास्थात्प्रतिमये त्युपलस्तम्भनिश्चलः / पादयोतिबल्मीको, लताएहुतविग्रहः // 6 // वत्सरान्ते बोधकालं, ज्ञात्वा ब्राह्मी च सुन्दरी। स्वामिना प्रेषिते गत्वा, दृष्ट्वा तं वल्लिवेष्टितम्॥ 66 // नत्वोचतुरिदं बन्धो, हस्तिनोऽवतराधुना। द्विस्त्रिर्वचनमित्युक्त्वा, गते साध्व्यौ यथा गतम्।। 70 / / बाहुर्दध्यौ क्व हस्ती मे, मृषा चैते न जल्पतः। हुं ज्ञातं मानहस्त्यस्ति, को मानो मे विकेकिनः / / 71 / / तद्यामि स्वामिनं वन्दे, तान् स्वभ्रातृन मुनीनपि। उत्क्षिप्ते चरणे जातं, केवलज्ञानमुऽऽवलम्॥७२।। ततो गत्वा प्रभुं प्रेक्ष्य, तस्थौ केवलिपर्षदि। भरत: कुरुते राज्यं, मरीचिः श्रुतवानभूत // 73 // आ० क०। अथ किमभूदित्याह अन्यदा। बाहुबलिकोवकरणं, निवेअणं चक्किदेवया कहणं / नाहम्मेणं तुज्झे, दिक्खा पडिमायइन्नायं / / 31 / / पढम दिट्ठीजुद्धं, वयाजुद्ध तहेव वाहाहिं। मुट्ठीहि य डंडेहि य, सव्वत्थ विजिप्पए भरहो।। 32 // सो एव जिप्पमाणो, विहुरो अनरवई विचिंतेइ। किं मनि एस चक्की, जहि दाणिं दुव्वलो अह यं / / 33 // ताहे चक मणसी, करेइ पत्ते अचक्करयणम्मि। बाहुबलिणा य भणिअं, धिरत्यु रज्जस्स तो तुब्भ / / 34 / / चिंतेइ असो मज्झं, सहोयरा पुष्वदिक्खिया नाणी। अह य केवली होउं, बचेहामी ठिओ पडिमं / / 35 / / Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ ११७१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ संवच्छरेण धूअं, अमूढलक्खो उ पेसए अरहा। हत्थीओ ओअर त्तिअ, बुत्ते चिंता पए नाणं // 36 // उप्पन्नाणरयणा, तिन्नपइन्नो जिणस्स पामूले। गंतुं तित्थं नमिउं, केवलिपरिसाइ आसीणो / / 37 // काऊण एगछतं, भरहो वि अ भुंजए विउलभोए। मरिई वि सामिपासे, विहरइ तवसंजमसमग्गो॥३८॥ सामाइअमाईअं, इक्कारसमाउ जाव अंगाओ। उजुत्तो भत्तिगओ, अहिजिओ सो गुरुसगासे // 36 // भरतसंदेशाकर्णने सति बाहुबलिन: कोपकरणं तन्निवेदनं च क्रवर्तिभरताय दूतेन कृतं (देवयत्ति) युद्ध जीयमानेन किमयं चक्रवर्ती न त्वहमिति चिन्तिते / देवता आगतेति (कहणंति) बाहुबलिना परिणामदारुणान् भोगान् पर्यालोच्य कथनं कृतमलं मे राज्येनेति। तथा चाह। नाधर्मेण युध्यामीति। दीक्षा तेन गृहीता अनुत्पन्नज्ञान: कथमहं ज्यायान् लगीससो द्रक्ष्यामीत्यभिधानात् प्रतिमा अङ्गीकृता प्रतिज्ञा च कृता / नास्मादनुपपन्नज्ञानो यास्यामीति नियुक्तिगाथा। शेषास्तु भाष्यगाथा: / तयोश्च भरतबाहुबलिनो: प्रथम दृष्टियुद्धं, पुनर्वाग्युद्धं, तथैव बाहुभ्यां मुष्टिभिश्च दण्डैश्च सर्वत्रापि सर्वेषु जीयते भरतः। स एवं जीयमानो विधुरोऽथ नरपतिर्विचिन्तितवान् अर्हन्नादितीर्थकर: हस्तिन: अवतर इति चोक्ते चिन्ता तस्य जाता यामीति संप्रधार्य (पए) इति पदोत्क्षेपे ज्ञानमुत्पन्नमिति / उत्पन्नज्ञानस्तीर्णप्रतिज्ञो जिनस्य पादमूले गत्वा केवलिपर्णदं गत्वा तीर्थं नत्वा आसीन: अत्रान्तरे कृत्या एकच्छत्रं भुवनमिति वाक्यशेष: भरतोऽपि च भुङ्क्ते विपुलभोगान् / मरीचिरपि स्वामिपार्थे विहरति तप:संयमसमग्र: सच सामायिकादिकमेकादशमङ्ग यावत् / उद्युक्त: क्रियायां भक्तिगतो भगवति श्रुते वा अधीतवान् / स गुरुसकाश इत्युपन्यस्तगाथार्थः। अह अन्नया कयाई, गिझे उण्हेण परिगयसरीरो। अण्हाणएण चइओ, इमं कुलिंग विचिंतेइ॥ 40 // गमनिका / अथेत्यानन्तर्ये कदाचिदेकस्मिन् काले ग्रीष्मे उष्णेन परि गतशरीरः / अस्नानेनेत्यस्नानपरीषहेण त्याजित: संयमात् एतत्कुलिङ्ग वक्ष्यमाणं विचिन्तयतीति गाथार्थः / मेरुगिरीसमभारे,न हुमि समत्थो मुहुत्तमवि वोढुं / सामन्नए गुणे गुण रहिओ संसारमणुकंखी // 41 // कान् श्रमणनामेते श्रमणा: के ते गुणा: विशिष्टक्षान्त्यादयस्तान् कुतो यतो धृत्यादिगुणरहितोऽहं संसारानुकाङ्क्षीति गाथार्थः / ततश्च किं मम युज्यते / गृहस्थत्वं तावदनुचितं श्रमणगुणानुपालनमप्य शक्यम्॥ एवमणुचिंतयंतस्स, तस्स नियया मई समुप्पन्ना। लद्धो मए उवाओ, जाया मे सासया बुद्धी / / 42 / / एवमुक्तेन प्रकारेणानुचिन्तयतस्तस्य निजा मति: समुत्पन्ना न परोपदेशेन स ह्येवं चिन्तयामाप्त / लब्धो मया वर्तमानकालोचित: खलूपायो जाता मम शाश्वती बुद्धिः शाश्वतीत्याकालिकी प्रायोनिरवद्यजीविकाहेतुत्वादिति गाथार्थः / / यदुक्तमिदं कुलिङ्गमचिन्तयत्तत्प्रदर्शनायाहा समणा तिदंडविरया, भगवंतो निहुअसंकुचिअगत्ता। अजिइंदिअदंडस्स, ओहो उतिदंडं ममं चिन्हं / / 43|| गमनिका / श्रमणा मनोवाकायलक्षणत्रिदण्डविरता: एश्वर्यादिभगयोगाद्भगवन्त: निभृतान्यन्त:करणाशुभव्यापारपरित्यागात् संकुचितान्यशुभाकायव्यापारपरित्यागादङ्गानियेषां तेतथोच्यन्ते अहं तु नैवंविधो यत: अजितेन्द्रियेत्यादि न जितानीन्द्रियाणि चक्षुरादीनि दण्डाश्च मनोवाकायलक्षणा येन सतथोच्यते। तस्याजितेन्द्रियदण्डस्यतुत्रिदण्ड मम चिहमविस्मरणार्थमिति // लोइंदियमुंडा संजया उ अह यं खुरेण ससिहाओ। थूलगयाणि वहाओ, विरमणं से सया होउ।।४४ / / मुण्डो हि द्विधा भवति द्रव्यतो भावतश्च। तत्रैते श्रमणा द्रव्यभावमुण्डा: कथं लोचनेन्द्रियैश्च मुण्डा: संयता: सन्ति अहं पुनर्नेन्द्रियमुण्डो यत: अतोऽलं द्रव्यमुण्डतया तस्मादहं क्षुरेण मुण्ड: सशिखश्च भवामि / तथा सर्वप्राणिवधविरता:श्रमणा वर्तन्ते अहं तु नैवंविधो यत: अतः स्थूलप्राणातिपाताद्विरमणं मे सदा भवत्विति गाथार्थः // निकिंचणा य समणा, अकिंचणा मज्झ किंचणा हॉउ सीलसुगंधा समणा, अहयं सीलेण दुग्गंधो // 45 / / गमनिका / निर्गतं किंचनं हिरण्यादि येभ्यस्ते निष्किं चनाश्च श्रमणास्तथाऽविद्यमानं किंचनमल्पमपि येषां ते अकिशना जिनकल्पिकादय: अहं तु नैवंविधो यतो मार्गाविस्मृत्यर्थं मम किंचन भवतु पवित्रिकादि।तथा शीलेन शोभना गन्धो येषां ते तथाविधाः / अहं तु शीलेन दुर्गन्ध: अतो गन्धचन्दनग्रहणं मे युक्तमिति गाथार्थः / ववगयमोहा समणा, मोहच्छन्नस्स छत्तयं होउ। अणुवाणहा य समणा, मज्झं च उवाणाहा हुंतु // 46 // गमनिका / व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहा: श्रमणा: अहं तु नेत्थं यत: अतो मोहाच्छादितस्य च्छत्रकं भवतु अनुपानत्काश्च श्रमणा: मम चोपानहाँ भवतामिति गाथाक्षरार्थः॥ सुक्कंवरा य समणा, निरंबरा मब्भ धाउरत्ताई। हुंतु अ मे वत्थाई, अरिहोमि कसायकलुसमई / / 7 / गमनिका / शुक्लाम्बरा: श्रमणास्तथा निर्गतमम्बरं येभ्यस्ते निरम्बरा जिनकल्पिकादयः (मब्भत्ति) मम य एते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि किमित्य) योग्याऽस्मि तेषामेव कषायै: कलुषा मतिर्यस्यासावहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः॥ वजंति वज्जभीरुओ, बहुजीवसमाउलं जलारंभ। होउ मम परिमिएणं, जलेण ण्हाणं च पियणं च / / 48 // गमनिका वर्जयन्त्यवद्यभीरवो बहुजीवावद्यभीरवो बहुजीव समाकुलं जलारम्भंतत्रैव वनस्पतेरवस्थानात्। अवयं पापं अहं तु नेत्थ यत: अतो भवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति गाथार्थः / एवं सो राइअमई, निहगमइविगप्पि इमं लिगं / तद्धियहेउसु जुत्तं, परिवजं पवत्तेइ / / 46 / / स्थूलमृषावादादिनिवृत्तः एवमसौ रूचिता मतिर्यस्य असौ रुचितमति: अतो निजमत्या विकल्पिकं निजमतिविकल्पितमिदं Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1172- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ लिङ्ग विशिष्टम् / तस्य हितास्तद्धिता: तद्धिताश्च हेतवश्चेति समास: तैः सुछ युक्त श्लिष्टमित्यर्थः / परिव्राजामिदं परिव्राजं प्रवर्तयति शास्त्रकारवचनात् वर्तमाननिर्देशोऽप्यविरुद्ध एव पाठान्तरं वा (पारिट्वज ततो कारित्ति) पारिवाजं तत: कृतवानिति गाथार्थः / / भगवता च सह विजहार।तंच साधुमध्ये विजातीयं दृष्ट्वा कौतुकाल्लोक: पृष्टवान्। तथा चाह। अह तं पागडरूवं, दळु पुच्छेइ बहुजणो धम्मं / कहेइ जईणं तो सो, वियालणे तस्स परिकहणा // 50 // गमनिका / अथ तं प्रकटरूपं विजातीयत्वात् दृष्ट्वा पृच्छति बहुजनो धर्म कथयति यतीनां संबन्धिभूतं क्षान्त्यदिलक्षणं ततोऽसविति लोका भणन्ति यद्ययं श्रेष्ठो भवता किं नाङ्गीकृत इति विचारेण तस्य परि समन्तात्कथना परिकथना श्रमणास्त्रिदण्डविरता इत्यादिलक्षणा पृच्छतीति त्रिकालगोचरस्तत्र प्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशः / पाठान्तरम् / "अहतं पागडरूवं, दटुं पुच्छिसुबहुजणो धम्म। कहती सजतीणं सो, वियालणे तस्स परिकहणा" प्रवर्तत इति गाथार्थः / आ० म०प्र० आव०१ अ०। (23) ब्राह्मणानामुत्पत्तिप्रकारमाह। धम्मकहा अक्खित्ते, उवट्ठिए देइ सामिणो सीसे। गामनगराई विह रइ सो सामिणा सद्धं / / 51 // धर्मकथाक्षिप्तान उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान ग्रामनगरादीन् विहरति स स्वामिना सार्द्धम् / भावार्थ: सुगम इत्थं निर्देशप्रयोजन पूर्ववद्ग्रन्थकारवचनत्वाद्वा अदोष इति गाथार्थ: / / अन्यदा भगवान्विहरमाणोऽष्टापदमनुप्राप्तवांस्तत्र च समवसृतः भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्याकर्णनात्संजातमनस्तापोऽधृतिं चक्रे / कदाचिद्भोगान् दीयमानान् पुनरपि गृहन्तीत्यालोच्य भगवत्समिपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् भोगैर्निराकृतश्च चिन्तयामास / एतेषामेवेदानी परित्सक्तसङ्गानामाहारदोनेनापि तावद्धर्मानुष्ठानं करोमीति पञ्चभिः शकटैर्विचित्रमाहारमानाय्योपनिमन्त्र्य आधाकाहृतं च न कल्पते यतीनामिति प्रतिषिद्धेऽकृतकारितेनान्येन निमन्त्रितवान् राजपिण्डोऽप्यकल्पनीय इति प्रतिषिद्धः सर्वप्रकारैरहं भगवता परित्यक्त इति सुतरामुन्माथितो बभूव / तमुन्माथितं विज्ञाय देवराट् तच्छोकोपशान्तये भगवन्तमवग्रह पप्रच्छ। कतिविधोऽवग्रह इति भगवानाह / पञ्चविधोऽवग्रहस्तद्यथा / देवेन्द्रावग्रहो राजावग्रहो गृहपत्यवग्रह: सागारिकावग्रह: साधर्मिकावग्रहश्च / राजावग्रहो भरताधिपो गृह्यते / गृहपतिमण्डिलिको राजा। सागारिक: शय्यातर: साधर्मिक: संयत इत्येतेषां चोत्तरोत्तरेण पूर्व: पूर्वो बाधितो द्रष्टव्य इति / यथा राजावग्रहेण देवेन्द्रावग्रहो बाधित इत्यादिप्ररूपिते देवराडहं भगवन् ! य एते श्रमणा मदीयावग्रहे विहरन्ति तेषां मयाऽवग्रहोऽनुज्ञात इत्येवमभिधायाभिवन्द्य च भगवन्तं तस्थौ / भरतोऽचिन्तयदहमपि स्वकीयमवग्रहमनुजानामीत्येतावताऽपि न कृतार्थता भवतु भगवत्समीपेऽनुज्ञातावग्रहः शक्रं पृष्टवान् भक्तपानमिदमानीतमनेन किं कार्यमिति देवराडाह / गुणोत्तरान् पूजयस्व सोऽचिन्तयत् के मम साधुव्यतिरेकेण जांत्यादिभिरुत्तरा: पर्यालोचयता ज्ञातं श्रावका विरता विरतत्वाद्गुणोत्तरास्तेभ्यो दत्तमिति / पुनर्भरतो देवेन्द्ररूपं भास्वरमाकृतिमत् दृष्ट्वा पृष्टवान् किं यूयमेवभूतेन रूपेण | देवलोके तिष्ठत उत नेति देवराडाह नेति / तन्मानुषैर्द्रष्टुमपि न पार्यते भास्वरत्वात्। पुनरप्याह भरतस्तस्याकृतिमात्रेणास्माकं कौतुकं तन्निदर्श्यताम् / देवराजआह / त्वमुत्तमपुरुष इति कृत्वैकमगावयवं दर्शयामीत्यभिधाय योग्यालङ्कारविभूषितामङ्गुली मत्यन्तभास्वरामदर्शयत् / दृष्ट्वा च तां भारतोऽतीव मुमुदे शक्राङ्गुली च स्थापयित्वा महिमामष्टाहिकां चक्रे / ततः प्रभृति शक्रोत्सवः प्रवृत्त इति / भरतश्च श्रावकानाहूयोक्तवान। भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं भोक्तव्यं कृष्यादिच न कार्य स्वाध्यायपरैरासितव्यं भुक्ते च मदीयगृहद्वारासन्नव्यवस्थितैर्वतव्यम्। जितो भवान् वर्द्धते भयं तस्मान्माहनेति। ते तथैव कृतवन्तः / भरतश्च रतिसागरावगाढत्वात्प्रमत्तत्वात्तच्छन्दाकर्णनोत्तरकालमेव केनाहं जित इति। आम् ज्ञातं कषायैस्तेभ्य एव वर्द्धते भयमित्यालोचनापूर्वकं संवेगं यातवानिति / अत्रान्तरे लोकबाहुल्यात् सूपकारा: पाकं कर्तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्तः नेह ज्ञायते कः श्रावक: को वा नेतीतिलोकस्य प्रचुरत्वात्। आह भरत: पृच्छापूर्वकं देयमिति। ततस्तान् पृष्टवन्तस्ते को भवान् श्रावकाणां कति व्रतानि स आह श्रावकाणां न सन्तिब्रतानि कित्वस्माकंपञ्चाणुव्रतानि। कति शिक्षाव्रतानि के उक्तवन्त: सप्त शिक्षाव्रतानि / य एवंभूतास्ते राज्ञो निवेदिता: स च ककणीरत्नेन तान लाञ्छितवान्। पुन: षण्मासेनये योग्या भवन्तितानपिलञ्छितवान् षण्मासकालादनुयोगं कृतवानेवं ब्राह्मणा: संजाता इति। ते चस्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तस्ते च प्रव्रज्यां जगृहुः / परीषहभीरवस्तु श्रावका एवासन्निति। इयं च भरतराज्यस्थितिः। आदित्ययशसस्तुकाकणीरत्न नासीत्। सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान्महायश: प्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि केचन विचित्रपट्टसूत्रमयानीत्येवं यज्ञोपवीतप्रसिद्धिः अमुमेवार्थ समुसरणेत्यादिगाथया प्रतिपादयति। समुसरणभत्तउग्गह मंगुलियस क्कसावया अहिया। जेया वड्डइ कागिणि लंछणअणुसजणा अट्ट / / 52 // गमनिका / समवसरणं भगवतोऽष्टापदे खल्वासीत् / भक्तं भरतेनानीत तदग्रहणोन्माथितेसति भरते देवेशो भगवन्तमवग्रहं पृष्टवान भगवांश्च तस्मै प्रतिपादितवान् (अंगुलियत्ति) भरतनृपतिना देवलोकनिवासिरूपपृच्छायां कृतायामिन्द्रेणाङ्कुलिदर्शिता। तत एवारभ्य ध्वजोत्सव: प्रवृत्त (सव्वुत्ति) भरतनृपतिना कि मनेनाहारेण कार्यमिति पृष्टः शक्रोऽभिहितवान् / त्वदधिकेभ्यो दीयतामिति पर्यालोचयता ज्ञातं श्रावका अधिका इति (जेया वड्डइत्ति) प्राकृतशैल्या जितो भवान् वर्द्धत भयं भुक्त्वोत्तर कालं च ते उक्तवन्त: (कगणिलंछणत्ति) प्रचुरत्वात् काकणीरत्नेन लाञ्छनं चिह्नं तेषां कृतमासीत् (अमुसज्जणअट्ठत्ति)अष्टौ पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्त: अष्टौ वा तीर्थकरान् यावदिति गाथार्थः / अत ऊर्द्ध मिथ्यात्वमुपगता इति। राया आइचजसे, महाबले अइबले ग्रअ वलभद्दे / बलवीरियकतविरिण, जलविविरिए दंडविरिए अ।। 53 / / अस्या भावार्थ: सुगत एवेति गाथार्थः। एएहि अद्धभरह, सयलं भुत्तं सिरेण धरिओ अ। जिणसत्तिओ अमउडो, सेसेहिं चाइओ वोढुं / / 54 / / गमनिका / एभिरर्द्धभरतं सकलं भुक्तं शिरसा धृतश्च / कोऽसावित्याह। प्रवरो जिनेन्द्रमुकुटो देवेन्द्रोपनीत: शेषैर्नरपतिभिर्नशकितो वोद् महाप्रमाणत्वादिति गाथार्थः। Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1173 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ अस्सावगपडिसेहो,छट्टे अमासि अणुओगो। कालेण य मिच्छत्तं, जिणंतरे साहवुच्छेओ / / 55 / / गमनिका अश्रावकाणां प्रतिषेधः कृत उर्द्धमपि पष्ठे मासेऽनुयोगो बभूव। अनुयोग: परीक्षा कालेन गच्छता मिथ्यात्वमुपगता। कदा नवमजिनान्तरे किमिति यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति गाथार्थ:। साप्रतमुक्तार्थप्रतिपादना परसंग्रह गाथामाह। दाणं च माहणाणं, वेया कासी अपुच्छ निव्वाणं / कुंडाथूम जिणघरे, भरहो कविलस्स दिक्खा य / / 56 // दानं च माहनानां लोको दातुं प्रवृत्तो भरतपूजितत्वात् (वेया कासी य त्ति) आयान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति / तीर्थकरस्तुतिरूपान् श्रावक धर्मप्रतिपादकांश्च / आचार्यास्तु पश्चात्सुलसा याज्ञवल्क्यादिभिः कृता इति(पुच्छत्ति) भरतो भगवन्तमष्टापदसमवसृतमेव पृष्टवान्यादृग्भूता यूयमेवंविधा: तीर्थकृत: कियन्त: खल्विह भविष्यन्तीत्यादि (निव्वाणं ति) भगवानष्टापदे निर्वाणं प्राप्तो देवैरग्निकुण्डानि कृतानि स्तूपाः कृता: जिनगृहं भरतश्चकार कपिलो मरीचिसकाशे निष्क्रान्तो भरतस्य दीक्षा च संवृत्तेति समुदायार्थः / अवयवार्थ उच्यते। आद्यावयवद्वयं व्याख्यात-मेवा पृच्छावयवार्थ पुणरवि य गाथेत्यादिनाऽऽह || पुणरवि अ समोसरणे, पुच्छा अजिणं तु चक्किणो भरहे। / अप्पुट्ठो अदसारे, तित्थयरो को इहं भरहे / / 57 // गमनिका पुनरपिचसमवसरणे पृष्टवांश्च जिनंतु चक्रवर्ती भरतश्चक्रवर्तिन इत्युपलक्षणं तीर्थकृतश्चेति भरतविशेषणं वा चक्री भरतस्तीर्थकरादीन् पृष्टवान् / पाठान्तरं वा पुच्छी य जिणे य चक्किणो भरहे "पृष्टवान् जिनांश्चक्रवर्तिनश्च भरत: च शब्दस्य व्यवहित: संबन्ध: भगवानपितान् कथितवान् तथा अपृष्टश्च दशारान् तथा तीर्थकर: क इह भरतेऽस्यां परिषदीति पृष्टवान् भगवानपि मरीचिं कथितवानिति गाथाक्षरार्थः / तथा | चाह / नियुक्तिकारः।। जिणचक्किदसाराणं, वन्नपमाणाईनामगुत्ताई। आउपुरमाइपियरो, परियायगई च साही य॥५८॥ गमनिका जिनचक्र वर्तिवासुदेवानामित्यर्थ: / वर्णप्रमाणानि तथा / गामगोत्राणि तथा आयु: पुराणि मातापितरौ यथासंभवं पयार्य गति च / चशब्दाजिनानामन्तराणि च पृष्टवानिति द्वारगाथासमासार्थ: अवयवार्थं तु वक्ष्यामः॥ जारिसया लोगगुरओ, मरहे वासम्मि केवली तुब्भे / एरिसया कइ अन्ने, तया होहिंति तित्थरा || 56 / / यादृशा लोकगुरवो भारते वर्षे केवलिनो यूयमीदृशाः कियन्तोऽन्यऽत्रैवं तात! भविष्यन्ति तीर्थकरा ति गाथार्थः।। अह भणइ जिणवरिंदो, भरहे वासम्मि जारिसो उ अहं। एरिसया तेवीसं, अन्ने होहिंति तित्थयरा / / 60 // होही अजिओ संभव मभिनंदणसुमइसुप्पभसुपासो। ससिपुप्फदंतसीयल सिजंसोवासुपुञ्जो अ॥६१॥ विमलमणंत य धम्मो, संती कुंथू अरो अमल्ली अ। मुणिसुव्वयनमिनेमी, पासो तह बद्धमाणो अ।। 62 / / अह भणइ नरवरिंदो, भरहे वासम्मि जारिसो उ अहं। एरिसया कइ अने, ताया होहिंति रायाणो // 63 // गमनिका अथ भणति नरवरेन्द्रो भरत: भारते वर्षे यादृशस्त्वहं तादृशाः कत्यन्ये तात ! भविष्यन्ति राजान इति गाथार्थः / / अह भणइ जिणवरिंदो, जारिसओ तं नरिंदस लो। एरिसया इक्कारस, अन्ने होहिंति रायाणो।।६।। होही सगरो मघवं, सणंकुमारो अ रायसङ्कलो। संती कुंथू अ अरो, हवइ सुभूमो अकोरवो / / 65 / / नवमो अमहापउमो, हरिसेणो चेव रायसङ्कलो। जयनामो अनरवई, वारसमो वंभदत्तो अ॥६६॥ होहिंति वासुदेवा, नव अन्ने नीलपीअकोसिज्जा। हलमुसलचक्कजोही, सतालगरुडज्झया दो दो / / 67 // अथ भणति जिनवरेन्द्रो यादृशस्त्वं नरेन्द्रशार्दूल: सिंहपर्याय: ईदृशाः एकादश अन्ये भविष्यन्ति राजानस्ते चैते / (होहिंति) गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव यदुक्तमपृष्टश्च दशारान् कथितवान् / तदभिधित्सयाह भाष्यकार: (होहिंति) भविष्यन्ति वासुदेवा नव बलदेवाश्चानुक्ता अप्यत्र तत्सहचरत्वात् द्रष्टव्या: यतो वक्ष्यति स तालगरुलज्झया दो दो तेच सर्वे बलदेवा वासुदेवा यथासंख्यं नीलानि पीतानि च कौशेयानि वस्त्राणि येषां ते तथाविधाः / यथासंख्यमेवाह हलमुशलचक्र योधिनः / हलमुशलयोधिनो बलदेवा: चक्रयोधिनो वासुदेवा इति। सतालगरुडध्वजाभ्यां वर्तन्त इति सतालगरुडध्वजाः एते च भगवन्तो युगपद् द्वौ द्वौ भविष्यः / बलदेववासुदेवावितिगाथार्थ: / आ० म०प्र०। आव०१ अ०॥ "तित्थगरो को इहं भरहेत्ति" तद्व्याचिख्याससयाऽऽह / अह भणइ नरवरिंदो, ताय इमीसित्तियाइ परिसाए। अन्नो विको विहोही, भरहे वासम्मि तित्थयरो।।१।। अत्रान्तरे अथ भणति नरवरेन्द्र: तात ! अस्याः एतावत्याः परिषद:अन्योऽपि कश्चिद्भविष्यति तीर्थकर: अस्मिन् भारते वर्षे भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थ: / / तत्थ मरीई नाम, आइपरिव्वायगो उसभनत्ता। सज्झायज्झाणजुत्तो, एगते झायइ महप्पा / / 42 // गमनिका तत्र भगवत: प्रत्यासन्नभूभागे मरीचिनामा आदौ परिव्राजक आदिपरिव्राजक प्रवर्तकत्वात् ऋषभनप्ता पौत्रक इत्यर्थः / स्वाध्याय एव ध्यानं तेन युक्तः एकान्ते ध्यायति महात्मेति गाथार्थः / भरतपृष्टो भगवान्तं मरीचिं दर्शयति। तं दाएइ जिणिंदो, एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो। धम्मवरचक्कवट्टी, अपच्छिमो वीरनामुत्ति / / 53 / / जिनेन्द्र: एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् धर्मवरचक्रवर्ती अपश्चिमोवीरनामा भविष्यतीति गाथार्थः / / आइगरदसाराणं, तिविट्ठ नामेण पोअणाहिवई। पियमित्तचकवट्टी, मूआइविदेहवासम्मि॥४५॥ गमनिका आदिकर: (दसाराणंति) पृष्टनामा पोतना नाम नगरी। तस्या अधिपतिर्भविष्यतीति क्रिया / तथा प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती मूकायां नगर्या (विदेहवासम्मित्ति)महाविदेहे भविष्यतीति गाथार्थः / Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ तं वयणं सोऊणं,राया अंचियतणूसहसरीरो। अभिबंदिऊण पिअरं, मरीइ अभिवंदओ जाइ॥ 5 // गमनिका / तद्वचनं तीर्थकरवदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अञ्चितानि तनूरुहाणि शरीरे यस्य स तथाविध: अभिवन्द्य पितरं तीर्थकर मरीचिम् अभिवंदओ "इत्यभिवन्दको याति।पाठान्तरं वा।" मरीइं अभिवं जाइ त्ति मरीचिं याति किमर्थमभिवन्दितुमभिवन्दनायेत्यर्थः यातीति वर्तमानकालनिर्देशस्त्रिकालगोचरत्वप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः / सो विणएण उवपओ, काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। वंदइ अमित्थुणंतो, इमाहिं महुराहिं वग्गूहि // 13 // लाभा हु ते सुलद्धा, जंसि तुमं धम्मचकवट्टीणं / होहिसि दसचउदसमो, अपच्छिमो वीरनामुत्ति / / आइगरदसाराणं, तिविठ्ठना० (45) // 48 // स भरतो विनयेन करणभूतेन मरीचिसकासमुपगत: सन् कृत्या प्रदक्षिणां च (तिक्खुत्तोति) त्रि:कृत्वस्तिस्रो वारा इत्यर्थः वन्दते अभिष्टुते एताभिर्म धुराभिर्वाल्गुभिर्वाग्भिरिति गाथार्थः / (लाभेत्ति) गमनिका लाभा अभ्युदयप्राप्तिविशेषा हुकारो निपात: स चैवकारार्थः ।तस्य व्यवहित: संबन्ध: तव सुलब्धा एव यस्मात्त्वं धर्मचक्रवर्तिनां भविष्यति दशचतुर्दश: चतुर्विशतितम इत्यर्थः / अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः / (आइगरइत्ति) व्याख्या पूर्ववन्नेया एकान्तप्रदर्शनानुरञ्जितहृदयो भावितीर्थकरभक्त्या च तमभिवन्दनायोद्यते भरत एवाह / / न विते पारिव्वज, वंदामि अहं इमं च ते जम्म। जं होहिसि तित्थयरो, अपच्छिमो तेण वंदामि ||4|| गमनिका नापि च परिव्राजामिदं पारिवाजं वन्दमि अहमिदं च ते जन्म किं तु यद्भविष्यति तीर्थकर: अपश्चिमस्तेन धन्दामी ति गाथार्थः।। एव ण्हं थोऊणं, काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। आपुच्छिऊण पियर, विणीयनयरिं अह पविट्ठो।। 50 / / एवं स्तुत्वा हमिति निपात: पूरणार्थों वर्तते कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिःकृत्व: आपृच्छ्य पितरं ऋषभदेवं विनीतनगरीमयोध्यामथानन्तरं प्रविष्टो भरत इति गाथार्थ: / अत्रान्तरे। तं वयणं सोऊणं, तिव अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अमहियजायहरिसो, तत्थ मरीई इमं भणइ / / 51 // गमनिका तस्य भरतस्य वचनं तद्वचनं श्रुत्वा तत्र मरीचि: इदंभणतीति योगः कथमित्यत आह / त्रिपदीं दत्त्वा रङ्गमध्यगतमल्लवत् / तथा आस्फोट्य त्रि:कृत्व:तिस्रो वारा इत्यर्थ: / किं विशिष्ट: संस्तत आह। अभ्यधिको जातो हर्षों यस्येति समासः तत्र स्थाने मरचिरिदं वक्ष्यमाणलक्षणं भणति। वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः। जइ वासुदेवपठमो. मूआइविदेहचक्कवट्टित्तं / चरमो तित्थयराणं, होउ अलं इति य मम / / 52 // गमनिका यदि वासुदेव: प्रथमोऽहं भूकायां विदेहे चक्रवर्तित्वं प्राप्स्यामि तथा चरम;पश्चिमस्तीर्थकराणां भविष्यामि एवं तर्हि भवतु एतावन्मम एतावतैव कृतार्थ इत्यर्थः / अलं पर्याप्तमन्येनेति।। अह यं च दसाराणं, पिया य मे चक्षवट्टिवंसस्स। अञ्जो तित्थयराणं, अहो कुलं उत्तम मज्झ / / 53 / / गमनिका / अहमेव चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् किं दशाराणं प्रथमो भविष्यामीति वाक्यशेषः। पिता च मे मम चक्रवर्तिवंशस्य प्रथम इति क्रियाध्याहारः। तथा आर्यक: पितामह : सतीर्थकराणां प्रथम: यत एवमत अहो विस्मये कुलमुत्तमं ममेति गाथार्थ: / आव०१ अ०। आ० म०प्र०। (24) अथाऽवन्ध्यशक्तिवचनगुणप्रतिबुद्धस्य प्रभुपरिकरभूत स्य सङ्घस्य सङ्ख्यामाह। उसभस्सणं अरहओ कोसलिअस्स चउरासी गणहरा होत्था / उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स उसभसेण पामोक्खाओ चुलसीइं समणसाहस्सओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्था। उसहस्सणं बंभी सुंदरीपामोक्खाओ तिणि अजिआसयसाहस्सीओ उक्कोसिअजिआसंपया होत्था / उसभस्स णं सेजसपामोक्खाओ तिण्णि समणोवासगसयसाहस्सीओ पंचसयसाहस्सीओ उक्कोसिआसमणोवासगसंपया होत्था / उमभस्सणं सुभद्दापामोक्खाओ पंचसमणोवासिआसयसाहस्सीओ चउप्पण्णं च सहस्स उक्कोसिआ समणोवासिआसंपया होत्था / उसभस्स णं अरहउकोसलिअस्स अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितह वागरमाणाणं चत्तारि चउद्दसपुटवसिहस्सा अट्ठमायसया उको सिआ चउद्दसपुटवी संपया होत्था / उसमस्स णं णवओहिणाणिसहस्सा उक्कोसिआ संपया होत्था। उसभस्सणं वीसं जिणसहस्सा वीसं वेउव्विअसहस्सा सयाउको सिआ चउद्दसपुव्वी संपया होत्था / उसभस्स णं णवहिणणिसहस्सा उक्कोसिआ संपया होत्था ! उसभस्सणं वीसं जिणसहस्सा वीसं वे छबसया उकोसिया आवारस्स विउलमइसहस्सा छच्च सया पण्णासा वारसवाइसहस्सा छच्या सया पण्णासा उसभस्स णं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं अगमसिभदाणं वा बीसअणुत्तरोववाइआणं सहस्सा णव य सया उक्कोसिया उसभस्स णं वीसं समणसहस्सा सिद्धा चत्तालीसं अजिआसहस्सा सिद्धा सहि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा॥ सुगमं नवरं "जस्स जावइआ गणहरा तस्स तावइआ गणा'' इति वचनागणा: सूत्रे साक्षादनिर्दिष्टा अपि तावन्त एव बोध्या: / क्वचिजीर्णप्रस्तुतसूत्रादर्श "चउरासीति गणा गणहरा होत्था" इत्यपि पाठो दृश्यते तत्र चतुरसीतिपदस्योभयत्र योजनेन व्याख्या सुबोधैवेति। गणश्चैकवाचनाचारयतिसमुदायस्तं धरन्तीति गणधरा वाचनादिभिर्जा-नादिसंपादकत्वेन गणाधारभूता इति भावः (होत्था इति) अभवन् (उसभस्सणमित्यादि) ऋषभसेनप्रमुखानि चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि एष उत्कर्ष उत्कृष्टभागस्तत्र भवा औत्कर्षिका प्रत्यये डीर्वा "इत्यनेनडीविकल्पे रूपसिद्धिः / ऋषभस्यश्रमणसंपदभवत्। अत्र वाक्यान्तरत्वेन श्रमणशब्दस्य न पौनरुक्त्यमेव सर्वत्र Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ योज्यम् "उसहस्स णमित्यादि प्रायः कण्ठ्यानि नवरं चतुर्दशपूर्विसूत्रे व्यपदेश: तद्यथा युगानि पञ्चवर्षमानानि कालविशेषा: लोकप्रसिद्धानि अजितानां छद्मस्थानां (सव्वक्खरसन्निवाईणंति)सर्वेपाम वा कृतयुगादीनि तानि चक्रमवर्तीनि तत् साधायेक्रमवर्तिनो क्षराणामकारादीनां सन्निपाता व्यादिसंयोगा अनन्तत्वादनन्ता अपि गुरुशिष्यादिरूपा: पुरुषास्तेऽपि साध्यावसानलक्षणयाऽभेदप्रतिपत्त्या ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा / जिनतुल्यत्वे हेतुमाह" जिणो विव युगानि पदपद्धतिपुरुषा इत्यर्थस्तैः प्रमितान्तकरभूमियुगान्तकरअवितहमित्यादि जिन इवावितथं यथार्थं व्यागृणतां व्याकुर्वाणानां भूमिरिति पर्यायस्तीर्थकृत: केवलित्वकालस्तदपेक्षयान्तकरभूमिः केवलिश्रुतकेवलिनो: प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् / चत्वारि सहस्राणि कोऽर्थः ऋषभस्य इयति केवलपर्यायकालेऽतिक्रान्ते मुक्तिगमनं अष्टिमानि च शतानि एषा औत्कर्षिको चतुदर्शपूर्विसंपदभवत् प्रवृत्तमिति तत्र युगान्तकरभूमिर्यावदसंख्यातानि पुरुषा: पट्टाधिरूढास्ते (विउव्विअत्ति) वैक्रियलब्धिमन्तः शेषं स्पष्टम् / विपुलमतयो भन: युगानि पूर्वोक्तयुक्त्या पुरुषयुगानि समर्थपदत्वात् समासः / नैरन्तर्ये पर्यवज्ञानविशेषवन्त:द्वादशविपुलमतिसहस्राणि अधिकारात्तेषामेव द्वितीया। ऋषभात्प्रभूति श्रीअजितदेवतीर्थयावत्। श्रीऋषभपट्टपरम्पषट्शतानि पञ्चाशचेत्येवं सर्वत्र योज्यम् / वादिनो वादिलब्धिमन्त: रासूढा असंख्याता:सिद्धा:नतावन्तं कालं मुक्तिगमनविरह इत्यर्थः ।यस्तु परप्रवावदूकनिग्रह समर्थाः (उसभस्स णमित्यादि) देवगतिरूपायां आदित्ययश: प्रभृतीनां ऋषभदेववंशजानां नृपाणां चतुर्दशलक्षप्रमितानां कल्याणं येषां प्राय: सातोदयत्वात्तेषां तथा स्थितौ देवायूरुपायां कल्याण क्रमेण प्रथमत:सिद्धिगमन तत एकस्य सर्वार्थसिद्धप्रस्तटगमनयेषां ते तथा अप्रविचारसुखस्वामिकत्वात् / आगमिष्यद्भद्र मित्याद्यनेकरीत्या अजितजिनपितरं मर्यादीकृत्य नन्दीसूत्रवृत्तियेषामागामिभवे सेत्स्यमानत्वात् ते तथा तेषामनुत्तरोपपातिकानां चूर्णिसिद्धदण्डिकादिषु सर्वार्थसिद्धप्रस्तटगमनव्यवहित: सिद्धिगप्त उक्त: पञ्चानुत्तरलवसप्तमदेवविशषाणां द्वाविंशतिसहस्राणि नवशतानि स कोशलापट्टपतीन् प्रतिपत्त्यावसातव्योऽयं-पुण्डरीकगणधरादीन् "उसभस्सणमित्यादि" सुगम नवरं श्रमणार्यिकासंख्याद्यमीलने प्रतीत्येति विशेषस्तथा पर्यायान्तकरभूमिरेषा अन्तर्मुहूर्त यावत् अन्तेवासिसंख्या संपद्यते। केवलज्ञानस्य पर्यायो यस्य स तथा एवंविधे ऋषमें सति अन्तं (25) अथ भगवतः श्रमणवर्णकसूत्रमाह। भवान्तमकार्षीदकरोन्न वा कश्चिदपीति / यतो भगवदम्बा मरुदेवी उसमस्स णं बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो अप्पेगइया प्रथमसिद्धा सा तु भगवत्केवलोत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव सिद्धेति / / मासपरियाया जहा उववाइए सव्वो अणगारवण्णाओ जाव (26) अथ जन्मकल्याणकादिनक्षत्राण्याह / / उद्धंजाणु अहोसिरज्झाणकोहोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं उसमेणं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढे अबीइछठे होत्था तं भावेमाणा विहरंति॥ जहा उत्तरासाढाहिं चुण चुइत्ता गम्भ वक्वंते उत्तरासाढाहिं जाए अर्हतः ऋषभस्य बहवो अन्तेवासिनः शिष्यास्ते च गृहिणोऽपि उत्तरासाढाहिं रायाभिसे पत्ते उत्तरासाढाहिं मुंडे भवित्ता स्युरित्यनगारा: भगवन्त: पूज्या:अपि:समुच्चये एकका एके अन्येके अगाराओ अणगारि पव्वइए / उत्तरासादाहिं अणंते जाव चिदपीत्यर्थः / मासं यावत् पर्यायश्चारित्रपालनं येषां ते तथा / समुप्पण्णे अभीइणा परिणिव्वुए। यथोपपातिके सर्वो ऽनगारवर्णकस्ताथाऽत्रापि वाच्यः। कियद्यावदित्याह ऋषयोऽर्हन पञ्चसु च्यवनजन्मराज्याभिषेकदीक्षाज्ञानलक्षणेषु वस्तुषु ऊर्द्ध जानुनी येषां ते ऊर्द्धजानव: शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौ उत्तराषाढा नक्षत्र चन्द्रेण भुज्यमानं यस्य स तथा / अभिजिन्नक्षत्रं षष्ठे औपग्राहिकनिषद्याया अभावाचोत्कुटु-कासना इत्यर्थः / अध: निर्वाणलक्षणे वस्तुनि यस्य स यद्वा अभिजिति नक्षत्रे षष्ठं निर्वाणलक्षणं शिरसोऽधोमुखा नोद्धतिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टय: ध्यानरूपो य: कोष्ठः वस्तु यस्य स तथा उक्तभेवार्थं भावयति। तद्याथा उत्तराषाढाभिर्युतेन कुसूलस्तमुपागतास्तत्र प्रविष्टा: यथा हि कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्त न विप्रसतं चन्द्रेणेति शेषः। सूत्रे बहुवचनं प्राकृतशैल्या एवमग्रेऽपि च्युतः सर्वार्थ भवति एवं तेऽनगारा विषयेष्वपि प्रसृतेन्द्रिया न स्युरिति / संयमेन , सिद्धनाम्नो महाविभानान्निर्गत इत्यर्थः / च्युत्वा गर्भव्युक्रान्तमरुदेव्याः संवररूपेण तपसाऽनशनादिना समुच्चयार्थो गम्यः / संयमतपोग्रहणं कुक्षावतीर्णवानित्यर्थः / 1 / जातो गर्भवासान्निष्क्रान्तः / 2 / चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थं प्रधानत्वं च संयमनवकर्मानुपा- राज्याभिषेकं प्राप्तः।३। मुण्डो भूत्वा अगारं मुक्त्वा अनगारितां साधुतां दानहेतुत्वेन तपसश्चपुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन भवति चाभिनवकर्मा- प्रद्रजित: प्राप्त इत्यर्थः / पञ्चमी चात्र क्यब्लोपजन्या। 4 1 अनन्तरं नुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाचसकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति आत्मानं यावत् केवलज्ञानं समुत्पन्नम्। 5 / यावत्पदसंग्रह: पूर्ववत् अभिजिता भावयन्तो विहरन्ति तिष्ठन्तीत्यर्थः / अत्र यावत्पदसंग्राह्यः 'अप्पेगइआ युते चन्द्रे परिनिर्वृत: सिद्धिगतः। ननु अस्मादेव विभागसूत्रवलादादिदे दो भासपरिआया" इत्यादिक: औपपातिकग्रन्थो विस्तरभयान्न वस्य षट्कल्याणका: समापद्यमाना दुर्निवारा इति चेन्न तदेवहि लिखित इत्यवसेयम् कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्रा जातमिति (26) अथ ऋषभस्वामिनः केवलोत्पत्त्यनन्तरं भव्यानां किय विधित्सवो युगपत्ससंभ्रमा उपतिष्ठन्तेनह्ययं षष्ठकल्याणकत्वेन भवता ता कालेन सिद्धिगमनं प्रवृत्तं कियन्तं कालं यावदनुवृत्तं चेत्याह॥ | निरुप्यमाणो राज्याभिषेकस्तादृशस्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं अरहओ णं उसमस्स उविहा अंतकरभूमी होत्था तं जहा कल्याणक: अनन्तरोक्तलक्षणायोगात् / न च तर्हि निरर्थकमस्य जुगंतकरभूमी जाव असंखेलाई पुरिसजुगाइं परिआ कल्याणकाधिकारे पठनमिति वाच्यं प्रथमतीर्थेशराज्याभिषेकस्य यंतकरभूमी अंतोमुहुत्तपरिआए अंतमकासी॥ जातमिति शक्रेणक्रियमाणस्य देवकार्यत्वलक्षणसाधर्म्यण ऋषभस्य द्विविधा अन्तं भवस्य कुवन्तीति अन्तकरा मुक्तिगा समाननक्षत्रजाततया च प्रसङ्गेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् तेन समानमिनस्तेषां भूमिः काल: कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद्भूमित्वेन नक्षत्रजातत्वे सत्यपि कल्याणकत्वाभावेनानियतवक्तव्यतया क्व Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ चिद्राज्याभिषेकस्याकथनेऽपि न दोषः / अत एव श्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययने पर्युषणाकल्पेन श्रीभद्रबाहुस्वामिपादा "तेणं समएणं उसभे अरहा कोसलिएचउ उत्तरासादे अभिइपंचमे होत्था'' इतिपञ्चकल्याणकनक्षत्रप्रतिपादकमेव सूत्रं बबन्धिरे न तु राज्याभिषेकनक्षत्राभिधायकमपीति / न च प्रस्तुतव्याख्यानस्यानागमिकत्वं भावनीयम् आचाराङ्गभावनाध्ययने श्रीवीरकल्याणसूत्रस्यैव व्याख्यातत्वात्। (28) अथ भगवत: शरीरसंपदं शरीप्रमाणं च वर्णयन्नाह। उसभेणं अरहा कोसलिए वञ्जरिसहनारायसंघयणे स - मचउरंससंठाणट्ठिए पंचधणुसयाइं उड्डं उच्चत्तेणं होत्था।। उसभेणमित्यादि कण्ठ्यम्। अथ भगवत: ऋषभस्य कौमारे राज्ये गृहिल्वे च यावानकाल: प्रागुक्तस्तं संगहरूपतयाऽभिधातमाह। सूसमदूसमाए एगूणणउइए पक्खेहिं सेसेहिं कालगए वीइक्कते | जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।। im.1103ies पापातास पुटवसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगरि पटवइए उसभेणं अरहा एगं वाससहस्सछउमत्थपरिआयं पाउणित्ता एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरिआयं पाउणित्ता एगं पुष्वसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णंपरिआयं पाउणित्ता चउरासीई पुथ्वसहस्साइं सवाउअंपालइ पालइत्ता जे से हेमंताणं तच्च मासे पंचमे पक्खे माहबहुले तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं दसहिं अणगारसहस्सेहिं सद्धिं संपरिबुडे अट्ठावयसेलसिहरंसि चोदस्समेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलिअं संणिसण्णे पुटवण्हकालसमयं सि अभिइणा णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं सूसमदूसमाए एगूणणउइए पक्खेहिं सेसेहिं कालगए वीइकते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे॥ उसभेणमित्यादि व्यक्तमथ छायस्थ्यादिपर्यायाभिधानपुरस्सरं निर्वाणकल्याणकमाह। (उसभेणं इत्यादि) ऋषभोऽर्हन एकवर्षसहस्रं छद्मस्थपर्यायं प्राप्य पूरयित्वेत्यर्थः / एकं पूर्वलक्षं वर्षसहस्रोनं केवलिपर्यायं प्राप्य एकं पूर्वलक्षं बहुप्रतिपूर्ण देशेनापिन्यूनमिति यावत् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य चतुरशीतिपूर्वलक्षाणि सर्वायु: पालयित्वा उपभुज्य हेमन्तानां शीतकालमासानां मध्ययस्तृतीयो मास: पञ्चमः पक्षो माघबहुलो माघमासकृष्णपक्ष:तस्य माघबहुलस्य त्रयादेशीपक्षे त्रयोदशीदिने विभक्तिव्यत्यय:प्राकृतत्वात् दशभिरनगारसहनैः सार्द्ध संपरिवृत: अष्टापदशैलशिखरे चतुर्दशेन भक्तेनोपवासाहे नापनकेन पानीयाहाररहितनसंपर्यङ्कनिषण्ण: सम्यक् पर्यड्रेन पद्मासनेन निषण्ण उपविष्टः न तूर्द्धदमादिरिति भावः / पूर्वाह्नकालसमये अभिजिता नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाच्चन्द्रेण सुषमदु:षमायामेकोननवत्या पक्षेषु शेषेषु अत्रापि विभक्तिव्यत्यय: पूर्ववत् प्राकृतत्वात् / सप्तम्यर्थे तृतीया कालं गतो मरणधर्म प्राप्त: व्यतिक्रान्त: संसारात् / यावच्छब्दात् समुजाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे पडिनिव्वुडे इति" | संग्रहः / तत्र सम्यगपुनरावृत्त्या ऊर्द्धलोकाग्रलक्षणं स्थानं यात: प्राप्तोन पुन: सुगतादिवदवतारी यतस्तद्वचः "ज्ञानिनोधर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् / गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवतीर्थनिकारत: // 1 // इति छिन्नं जात्यादीनां बन्धनं हेतुभूतं कर्म येन स तथा। सिद्धो निष्ठितार्थ: बुद्धो ज्ञाततत्व: / मुक्तो भवोपग्राहिकर्माशेभ्यः अन्तकृत् सर्वदुःखानां परिनिर्वृतः समन्ताच्छीतीभूत: कर्मकृतसकल सन्तापविरहात् सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रहीणानि यस्य स तथा। जं०२वक्षाआ० म० प्र० स०॥ उसभेणं अरहा कोसलिए इमीसे उसप्पिणीए ततियाए सुसमदुस्समाए समए पच्छिमे भागे एगूणणउए अद्धमासे हिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणोसम० / / 26 / / (26) इदानीं निर्वाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह / अह भगवं भवमहणो, पुव्वाण अणूणगं सयसहस्सं। त्रिदशनर्रन्द्रः स्तूयमानो मोक्षं गत इति गाथार्थः / / अथ भगवति निर्वृते यद्देवकृत्यं तदाह / / दसहि सहस्सेहि समं, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो / / 55 // गमनिका। अथ भगवान् भवमथन: पूर्वाणामन्यून शतसहस्र मानुपूर्व्या विकृत्या प्राप्तोऽष्टापदं शैलं भावार्थ: सुगम एवेति गाथार्थः / अष्टापदगाहा गमनिका / अष्टापदशैले चतुर्दशभक्ते न से महर्षीणां दशभिः सहसै: समं निर्वाणमनुत्तरं, प्राप्त: अस्या अपि भावार्थ: सुगम एव। नवरं चतुर्दशभक्तं षड्ात्रोपवास: भगवन्तं चाष्टापदप्राप्तमपवर्गजिगमिषु श्रुत्वा भरतो दुःखसंतप्त मानस: पद्भ्यामेवाष्टापदं ययौ / देवा अपि भगवन्तं मोक्षजिगमिषु ज्ञात्वाऽष्टापदशैलं दिव्यविमानानारूढा: खल्वागतवन्त: उक्तं च / भगवति मोक्षगमनायोद्यते जाव य देवावासो, जाव य अट्ठा वओ नगवरिंदो। देवेहिं देवीहि य, अविरहियं संचरंतेहि तत्र भगवान् त्रिदशनरेन्द्रैः स्तूयमानो मोक्षं गत इति गाथार्थः / / अथ भगवति निवृत यद्देवकृत्यं तदाह / जं समयं च णं उसमे अरहा कोसलिए कालगए वीइकं ते समुज्जाए छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणें तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलिए तएणं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलिअं पासइ पासित्ता उहिं पउंजइपउंजइत्ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ आभोएइत्ता एवं वयासी परिणिव्वुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए एवं जीअमे अंतीअ पचुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराईणं तित्थगराणं परिणिव्वणमहिमं करेत्तए तं गच्छामि णं अहं पि भगवतो तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करेमि तिकट्ट वंदइ णमंसइ वंदइत्ताणमंसइत्ता चउरासईए सामाणिअसाहस्सीहिंतायतीसए तायतीसएहिं चउहिं लोगपालेहिं जाव चउहिं चउरासीईहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहिं अबहूहि सोहम्मकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिं असद्धिं संपरिबुडे ताए उकिट्ठाए जाय तिरिअमसंखे जाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं जेणेव अट्ठावए पवए भगवओ तित्थगरस्स सरीरए तेणे व उवागच्छइउवागच्छित्ता विमणे णिएणं देणं सुपुण्णणयरतित्थय Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभ रसरीरणं तिक्खुत्तो आयाहीणं पयाहीणं करेइ करेइत्ता णचासणे णाइदूरे सुस्सूसमाणे जाव पजुवासइ तेणं कालेणं तेणं समएणं इसाणे देविंदे देवराया उत्तरडलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिवई सूलपाणी वसहवाहणे सुरिंदे अयरं वरवत्थधरे जाव विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरइ / तएणं तस्स ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलइ / तएणं से ईसाणे जाव देवराया आसणं चलिअं पासइ पासइत्ता ओहिं पउंजइ पउंजइत्ता भगवं तित्थगरं ओहिणा आमोए आभोएता | जहा सक्के निअगपरिवारेणं आणेअव्वा जाव पज्जुवासइ / एवं सवे देविंदा जाव अचुए णिअगपरिवारेणं आणेअव्वो एवं जाव भवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलसजोइसिआणं दोणि निअगपरिवारा अव्वा / तएणं सक्के देविंदे देवराया ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिए देवे एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ णंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरइ साहरइत्ता तओ चिइगाइओ रएह एग भगवओ तित्थगरस्स एगं गणधराणं एगं अवसेसाणं अणगाराणं तएणं ते भवणवइ जाव वेमाणिया देवा णंदणवणाओ सरसाइं गोसीसवरचंदणकट्ठाइं साहरंति साहरंतित्ता तओ चिइगाओ रएहति एगं भगवओ तित्थगरस्स एगं गणहराणं अवसेसाणं अणगाराणं से / सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहरत्ति तएणं ते आमिओगा देवा खीरोदगं साहरंति। (जं समयं चणमित्यादि) यस्मिन् समये सप्तम्यर्थे द्वितीया एवं तच्छन्दवाक्येऽपि अवधिना ज्ञानेनाभोगयति उपयुनक्ति शेषं सुगममुपयुज्य एवमवादीत् किमित्याह। परिनिर्वृतः खलुरिति वाक्या-लङ्कारे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे ऋषभोऽर्हन् कौशलिकस्तत्तस्माद्धेतोः जीतं कल्पः आचार एतद्वक्ष्यमाणं वर्तते अतीतप्रत्युत्पन्नानागता-नामतीतवर्तमानानागतानां शक्राणामासनविशेषाधिष्ठातॄणां देवानां मध्ये इन्द्राणां परमैश्वर्ययुक्तानां देवेषु राज्ञां कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाणमहिमां कर्तुं तगच्छामि। णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य परिनिर्वाणमहिमां करोमीति कृत्वा भगवन्तं निवृतं वन्दते स्तुति करोति नमस्यतिप्रणमति। यच जीवरहितमपि तीर्थकरशरीरमिन्द्रवन्यं तदिन्द्रस्य सम्यग्दृष्टित्वेन नामस्थापनाद्रव्यभावार्हता वन्दनीयत्वेन श्रद्धानादिति तत्वम् / वन्दित्वा नत्वा च किं चक्रे इत्याह (चउरासीई इत्यादि) चतुरशीत्या सामानिकानां प्रभुत्वमन्तरेण वपुर्विभवद्युतिस्थित्यादिभिः शक्र तुल्यानां सहस्रेस्त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशकैर्गुरुस्थानीयै-र्देवैश्चतुर्भिर्लोकपालैः सोमयमवरुणकुवेरसंज्ञैः यावत्पदात्" अट्टहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणिआहिवईहिंति " अत्र व्याख्या अग्रमहिप्योऽष्टौ पद्या 1 शिखा 2 शची 3 अञ्जू 4 अमला 5 अप्सरा 6 नवमिका 7 रोहिणी 8 एताभिः षोडशसहस्रदेवदेवीपरिवारयुताभिः तिसृभिः पर्वद्भिर्बाह्यमध्याभ्यन्तररूपाभिः सप्तभिरनीकैहय 1 गज 2 रथ 3 सुभट 4 वृषभ 5 गन्धर्व 6 नाट्य 7 रूपैः सप्तभिरनीकानामधिपतिभिः चतसृभिश्चतुरशीतिभिश्चतुर्दिशं प्रत्येकं चतुरशीतिसहस्राङ्गरक्षकसद्भा-वात् षट्त्रिंशत् सहस्राधिकलक्षत्रयप्रमितैरङ्गरक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिः सौ धर्मकल्पवासिभिर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध सपरिवृतस्तया देव-जनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिषूत्कृष्टतमत्वात् यावत्पदात् " तुरिआए चवलाए चंडाए जयणाए उद्धआए सिग्घाए दिव्वाए देवगईए विईवयमाणे विईवयमाणेत्ति" अत्र व्याख्या त्वरितया मानसौत्सुक्यात् चपलया कायतः चण्डया क्रोधाविष्टयेव भीमसंवेदनात्। जवनया परमोत्कृष्टवेगत्वात्। अत्र च समयप्रसिद्धाश्चण्डा-दिगतयो न ग्राह्याः तासां प्रतिक्रम संख्यातयोजनप्रमाणक्षेत्रातिक्रमणात् तेनैतानि पदानि देवगतिविशेषणतया योज्यानि देवास्तु तथा भवस्वभावादचिन्त्यसामर्थ्यतोऽन्यन्तशीघ्रा एव चलन्तीति अन्यथा जिनजन्मादिषु महिमानिमित्तं तत्रैव झटित्येवात्यन्तदूरकल्पादिभ्यः सुराः कथमागच्छेयुरिति / उद्धतया उद्धतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा तया अत एव निरन्तर शीघ्रत्वयोगाच्छीघ्रया दिव्यया देवोचितया देवगत्या व्यतिव्रजन्व्यतिव्रजन् संभ्रमे द्विवचनं तिर्यगसंख्येयानांद्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन मध्यभागेन यत्रैवाष्टापदः पर्वतः यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य शरीरकं तत्रैवोपागच्छति। अत्र सर्वत्रातीतनिर्देशे कर्तव्ये वर्तमाननिर्देशस्त्रिकालभाविष्वपि तीर्थकरेष्वेतन्न्यायप्रदर्शनार्थ इति न हि निर्हेतुका ग्रन्थकाराणां प्रवृत्तिरिति। उपागत्य च तत्र यत् करोति तदाह (उ-वागचिछत्ताइत्यादि) उपागत्य विमनाः शोकाकुलमनाः अश्रुपूर्णनयनस्तीर्थकरशरीरकं त्रिःकृ त्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोतीति प्राग्वत्। नात्यासन्ने नातिदूरे शुश्रूषन्निव तस्मिन्नप्यवसरे भक्त्याविष्टतया भगवद्ववचनश्रवणेच्छाया अनिवृत्तेर्यावत् पदात् ' णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जवासइत्ति " परिग्रहः / अत्र व्याख्या नमस्यन् पञ्चाङ्गप्रमाणादिना अभि भगवन्तं लक्ष्मीकृत्य मुखं यस्य स तथा। विनयेनान्तरबहुमानेन प्राञ्जलीकृत इति प्राग्वत् / पर्यु-पास्ते सेवते इति। अथ द्वितीयेन्द्रवक्तव्यतामाह (तेणं कालेणमित्यादि) सर्व स्पष्ट नवरम् अरजांसि निर्मलानियान्यम्बरवस्त्राणि स्वच्छतया आकाशकल्पानि वसनानि धरतीति / यावत् करणात्" आलइअमालमउड़े णव हेमचारुचित्तचंचलकुंडलविहिज्जमाणगल्ले महिड्डीए महज्जुईए महाबले महावसे महाणुभावे महासुक्खे भासुरर्वोदीपलंबवणमालधरे ईसाणकप्पे ईसाणवडेंसए विमाणे सुहम्माए सभाए ईसाणं सि सिंहासणंसि से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्साणं असीईए सामाणिअसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायतीसगाणं चउण्णं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्ह परिसाणं सत्तण्हं अणीआणं सत्तण्ह अणीआहिवईणं चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिंच ईसाणकप्पवासीणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भवृित्तं महत्तरगत्तं आणा ईसरसेणवचं कारेमाणे पालेमाणे महया हयनदृगीयवाई अतंतीतलतालतुडिअघणमुअंगपड्पहडवाइअरवेण इति" संग्रहः / सर्वं स्पष्टनवरम् आलिङ्गिती यथास्थानं स्थापितौ मालामुकुटौ येन स तथा। नवाभ्यासिव हेम Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभ 1178- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसम मयाभ्यां चारुभ्यां चित्रकृद्धयां चञ्चलाभ्यामितस्ततश्चलद्भ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गल्लौ यस्य स तथेति (तएणमित्यादि) यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रो निजकपरिवारेण सह तथा भणितव्य ईशानेन्द्रः यावत्पर्युपास्तेइत्यन्तंवाच्य इत्यर्थः। (एवंसव्वे इत्यादि) एवं शक्रन्यायेन सर्वदेवेन्द्रा वैमानिकाः अत एव यावदच्युत इत्युत्तरसूत्रं संवदति / निजकपरिवारेणात्मीयात्मीयसामानिकादिपरिवारेण सहानेतव्या भगवच्छरीगन्तिकं प्रापणीया ग्रन्थवाचकेनेत्यर्थः / ग्रन्थापेक्षया चेदं सूत्रं योजनीयमेवं वैमानिकप्रकारेण यावद्भवनवासिनांदक्षिणोत्तरभवनपतीनामिन्द्रा विंशतिरित्यर्थः / अत्र यावच्छब्दो न गर्भगतसंग्रहसूचकः संग्राह्यपदाभावात् किं तु सजातीयभवनपतिसूचकः वानमन्तराणां व्यन्तराणां षोडशेन्द्राः कालादयः। ननुस्थानाङ्गादिषु द्वात्रिंशद्व्यन्तरेन्द्रा अभिहिताः इह तु कथं षोडश उच्यते मूलभेदभूतास्तुषोडश महर्धिकाः कालादय उपात्तास्तदेवान्तरभेदभूतास्तु षोडश अणपन्नीन्द्रादयोऽल्पर्द्धिकत्वान्नेह विवक्षिताः अस्ति होषाऽपि सूत्रकृत्प्रवृत्तिवैचित्री यदन्यत्र प्रसिद्धा अपि भावाः कुतश्विदाशयविशेषात्स्वसूत्रे सूत्रकारोन निबध्नाति यथा प्रतिवासुदेवाः अन्यत्रावश्यकनियुक्त्यादिषूत्तमपुरुषत्वेन प्रसिद्धा अपि चतुर्थाङ्गे चतुःपञ्चाशत्तमसमवाये नोक्ताः।" भरहेर-वएसुणं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए चउवण्णं 2 उप्पजिंसू 3 तं चउवीसं तित्थयरा वारस चक्कयट्टी णव बलदेवा णव वासुदेवा " इतिपरमुपलक्षणात्तेऽपि ग्राह्याः / ज्योतिष्काणां द्वौ चन्द्रसूर्यो जात्याश्रयणात् व्यक्त्या तु तेऽसंख्याता निजकपरिवाराः सहवर्तिस्वपरिकरा नेतव्याः। ततः शक्रः किं करोतीत्याह (तएणमित्यादि) ततःशक्रो देवेन्द्रो देवराजस्तान् बहून भवनपत्यादीन् देवानेवमवादीत् क्षिप्रमेव निर्विलम्बमेव भो ! देवानांप्रिया ! देवान् स्वस्वामिनोऽनुकूलाचरणेनानुप्रीणन्तीति देवानुप्रिया नन्दनवनात् रसानि स्निग्धानि न तु रूक्षाणि गोशीर्ष नाम्ना वरचन्दनंतस्य काष्ठानिसंहरत प्रापयतसंहृत्य च तिस्रश्चितिका रचयते। एकां भगवतस्तीर्थकरस्य एकां गणधराणामेकामवशेषाणामनगाराणामिति (तएण-मित्यादि) स्पष्टम् / अत्रायमावश्यकवृत्त्याद्युक्तश्चितारचनदिग्विभागः। नन्दनवनानीतचन्दनदारुभिर्भगवतः प्राच्या वृत्तां चितां गणधराणामपाच्यांत्र्यस्तां शेषसाधूनां प्रतीच्या चतुरस्रां सुराश्चारिति। नन्वावश्यकादाविरुवाकूणां द्वितीया चितोक्ता इह तु गणधराणां कथमिति उच्यते / अत्र प्रधानतया गणधराणामुपादानेऽप्युपलक्षणाद् गणधरप्रभृतीनामिक्ष्वाकूणां द्वितीया चिता ज्ञेयेतिनकाऽप्याशङ्का। जं० 2 वक्ष०ा अत्रान्तरे च देवाः सर्व एवाष्टापदमागताश्चितिकाकृतिरिति॥ते तिनश्चिताः वृत्तत्र्यनचतुम्नाकृतीः कृतवन्त इति / एका पूर्वेण अपरां दक्षिणेन तृतीयामपरेणेति। तत्र पूर्वा तीर्थकृतः दक्षिणा इक्ष्वाकूणामपरा शेषाणामिति / ततोऽग्रिकुमारा वदनैः खल्वग्निं प्रक्षिप्तवन्तः एत तव निबन्धनाल्लोके" अग्निमुखा वैदेवा" इति प्रसिद्धम् / वायुकुमारास्तु वातमुक्तवन्त इति। मांसशोणिते च ध्यामिते सति मेघकुमाराः सुरभिणा क्षीरोदजलेन निर्वापितवन्तः (स कथेति) सकथा हनुमोच्यते / तत्र दक्षिणां हनुमां भगवतः संबन्धिनीं शक्रो जग्राह वामामीशानः अधरख्यदक्षिणां पुनश्चरमः अधस्त्योत्तरांतुबलिः / अवशेषास्तुत्रिदेशाः / शेषाङ्गानि गृहीतवन्तः नरेश्वरादयस्तु भस्म गृहीतवन्तः। शेषालोकास्तु तद्भस्मनापुण्डकाणि चक्रुः ततएव च प्रसद्धिमप्युगतानि स्तूपानि जिनगृह चेति। भरतो भगवन्तमुद्दिश्य वर्द्धकिरत्नेन योजनायाम त्रिगव्यूतोच्छ्रितं सिंहनिषद्यायतनं कारितवान् निजवर्णप्रमाणयुक्ताश्चतुर्विंशतिजीवाभिगमोक्तपरिवारयुक्तास्तीर्थकरप्रतिमास्तथा भ्रातृशतप्रतिमाः आत्मप्रतिमांच स्तूपशतंच मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीतितत्रैकं भगवतः शेषाण्येकोनशतस्य भ्रातृणामिति। तथा लोहमयान्यन्त्रपुरुषांस्तद्द्वारपालांश्चकार दण्डरत्नेनाष्टापदंच सर्वत्र छिन्नवान्योजने योजनेऽष्टौ पदानि कृतवान् / सगरसुतैस्तु वंशानुरागाद्यथा परिखां कृत्वा गङ्गाऽवतारिता तथा ग्रन्थान्तरतो विज्ञेयमितिायाचकास्तेनाहिताग्रयः इत्यस्यव्याख्या देवैर्भगवत्सकथादौ गृहीते सतिश्रावका देवानतिशयभक्त्या याचितवन्तः देवा अपि तेषां प्रचुरत्यान्महता यत्नेन याचनाभिहता आहुः। अहो याचका इति / तत एव याचका रूढाः ततः अग्निं गृहीत्वा स्थापितवन्तस्तेन करणेनाहिताग्नयः इति तत एव च प्रसिद्धास्तेषां चाग्नीनां परस्परतः कुण्डसक्रान्तावयं विधिर्भगवतः संबन्धिभूतः सर्वकुण्डेषु सञ्चरति / इक्ष्वाकुकुण्डाग्निस्तु शेषकुण्डाग्नौ सञ्चरति / न भगवत्कुण्डानाविति शेषानगारकुण्डानेस्तु नान्यत्र संक्रम इति गाथार्थः / आ० म०प्र०। (30) ततश्चिताऽनन्तरं शक्रः किं करोतीत्याह। तए णं से सके देविंदे देवराया तित्थगरसरीरंग खीरोदगेणं पहाणेत्ति ण्हणेतित्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिंपई अणुलिंपइत्ता हंसलक्खणं पडसाडयं णिअंसेइ णिअंसे इत्ता सव्वालंकारविभूसिअं करेंति। तए णं ते भवणवई जाव वेमाणिआ गणहरसरीरगाइं अणगारसरीरगाइं पि खीरोदगेणं ण्हावेंति बहार्वेतित्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिंपति अणुलिंपतित्ता अह ताई दिव्वाइंदेवदूसजुअलाइंणिअंसंति णिसंतित्तासव्वालंकारविभूसिआइं करेंति तएणं से सक्के देविंदे देवराया ते बहवे भवणवई जाव वेमाणिए देवे एवं वयासी। खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! ईहामिगउसभतुरयजाववणलयभत्तिचि-त्ताओ तओ सिविआओ विउद्वहइ एमं भगवओ तित्थगरस्स एगं मणहराणं एगं अवसेसाणं अणगाराणं / तए णं बहवे भवणवई जाव वेमाणिआ तओ सिविआओ विउव्वंति एगं भगवओ तित्थगरस्स एगं गणहराणं एगं अवसेसाणं अणगाराणं तए णं से सक्के देविंदे देवराया विमाणे णिराणंदे अंसुपुण्णणयणे भगवओ तित्थगरस्स विणट्ठजम्मजरामरणस्स सरीरगं सीअं आरहेइ आरुहेइत्ता चिइगाए ठवेइतएणं ते बहवे भवणवई जाव वेमाणिआ देवा गणहराणं अणगाराणं य विणट्ठजम्मजरामरणाणं सरीरगाइं सीअं आरुति आरुहें तित्ता चिइगाए ठवेति / तए णं से सके देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सदावेइ सद्दावे इत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणु प्पिआ ! तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगणिकायं विउवहइ विउव्वहइत्ता एअमाणत्ति पचप्पिणह। तए णं ते अग्गिकु मारा देवा विमणा णिराणंदा अंसुपुण्णणयणा Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 . उसभ तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगणिकायं वि उव्वंति॥ तएणमित्यादि स्पष्टम् क्षीरोदकसंहरणानन्तरं स शक्रः किंकरोतीति दर्शयति (तएणमित्यादि) ततः शक्र स्तीर्थकरशरीरकं क्षीरोदकेन स्नपयति स्नपयित्वा गोशीर्षवरचन्दनेनानुलिम्पति अनुलिप्य हंसलक्षणो हंसविशदत्वात् शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पट्ट इत्यभिधीयते / तं हंसनामकंपटशाटकं निवासयति परिधापयतीत्यर्थः / परिधाप्य च सर्वालङ्कारविभूषितं करोति (तएणमित्यादि) ततस्ते भवनपत्यादयो देवा गणधराणामनगाराणं च शरीराणि तथैव चक्रुः अहतान्यखण्डितानि दिव्यानि वर्याणि देवदूष्ययुगलानि निवासयन्ति शेषं व्यक्तम् (तएणमित्यादि) ततः शक्रो भवनपत्यादीनेवमवादीत् क्षिप्रमेय भो देवानुप्रिया ! ईहामृगादिभक्तिचित्रास्तिस्रःशिविका विकुर्वत विकुर्व इति सौत्रो धातुस्तस्माद्रूपसिद्धिः शेषं स्पष्टम्। (तएणमित्यादि) ततः शक्रो भगवच्छरीरं शिविकायामारोहयति महा च चितिकास्थाने नीत्वा चितिकायां स्थापयति शेषं स्पष्टम् (तएणमित्यादि) स्पष्टम् (तएणमित्यादि) ततः स शक्रोऽग्निकुमारान् शब्दोपयति आमन्त्रयति शब्दापयित्वा एवमवादीत् भो अग्निकुमारा ! देवास्तीर्थकरचितिकायां गणधरचितिकायामनगारचितिकायां चापिकायं विकुर्वत विकुर्वित्वा एतामाज्ञप्तिकामाज्ञां प्रत्यर्पयत। शेष व्यक्तम् (त एणं अग्गिकुमारा देवा इत्यादि) व्याख्यातप्रायमेव (त एणं से सक्के इत्यादि) एतत् सूत्रद्वयमपि व्यक्तम् उज्ज्वालयत दीप-यत तीर्थकरशरीरकं यावदनगारशरीरकाणि च ध्यामयत स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत अग्निसंस्कृतानि कुरुतेति। (तएण-मित्यादि) ततः स शक्रो भवनपत्यादिदेवानेवमवादीत् भोदेवानुप्रियाः ! तीर्थकरचितिकायां यावदनगारचितिकायां च अगुरुं तुरुक्कं सिङ्गकंघृतं मधु च एतानिद्रव्याणि कुम्भाग्रशोऽनेककुम्भपरिमाणानि भाराग्रशोऽनेकविंशतितुलापरिमाणानि। अथवा पुरुषोत्क्षेप-णीयो भारः सोऽग्रं परिमाणं येषां ते भाराग्रास्ते बहुशो भाराग्रशः संहरतेति प्राग्वत् / अथ मांसादिषुध्यामितेषु अस्थिष्ववशिष्टेषु शक्रः किं चक्रे इत्याह "तएणमित्यादि" स्पष्टं नवरं क्षीरोदकेन क्षीरसमुद्रानीतजलेन निर्वापयत विध्मापयतेत्यर्थः / अथास्थिवक्तव्यतामाह" तएण मित्यदि "ततश्चितिकानिर्वापणादनुभगवतस्तीर्थकरस्यो परितनंदक्षिणं सक्थि दाढामित्यर्थः / शक्रो गृह्णाति ऊर्द्ध लोकवासित्वात् दक्षिणश्रेणिपतित्वाच्च / बलिःदाक्षिणात्यासुरेभ्यः सकाशाद् वी इति विशिष्टं रोचनं दीपनं दीप्तिरिति यावत् येषामस्तीति वैरोचनाः स्वार्थेऽण उदीच्याः सुराः दाक्षिणात्येभ्यः उत्तराणामधिकपुण्यप्रकृतिकत्वात् तेषामिन्द्र एवं वैरोचनराजोऽपिअधस्तनंवाम सक्थिगृह्णाति अर्धालोकवासित्वादुत्तरश्रेण्यधिपत्वाच अवशेषा भवनपतयो वत्करणात् व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च ग्राह्या वैमानिका देवा यथाऽर्ह यथा महर्द्धिकम् / अवशेषाणि अङ्गानि भुजाधस्थीनि उपाङ्गानि अङ्गसमीपवर्तीनि अडल्याद्यस्थीनिगृह्णातीति योगः / अयं भावः सनत्कुमाराद्यष्टाविंशतिरिन्द्रा अवशिष्टानष्टाविंशतिदन्तान् अन्येऽवशिष्टा इन्द्रा अङ्गोपाङ्गास्थीनीति। नव देवानां तद्ग्रहणे क आशय इत्याह / के चिञ्जिनभक्तया जिने निर्वृते जिनसक्थि जिनवदाराध्यमिति के चिजीतमिति पुरातनै रिदमाचीर्णमित्यस्माभिरपीदं कर्त्तव्यमिति केऽपि धर्मः पुण्यमिति कृत्वा / अत्र | ग्रन्थान्तरप्रसिद्धोऽयमपि हेतुः"पूअंति अपइदिअहं, अह कोइ पराभवं | जइ करेज्जा / तो परकालिअता उ, सलिलेण करेंति निअ-वखं " / / १॥सौधर्मेन्द्रेशानेन्द्रयोः परस्परंसवैरयोस्तच्छटादानेन वैरोपशमोऽपि इत्यादिको ज्ञेयस्तद्यया व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिरतो विद्याधरनराश्चिताभस्मशेषामिव गृह्णन्ति सर्वोपद्रवविद्रावणमिति कृत्वा आस्तां त्रिजगदाराध्यानां तीर्थकृतां योगभृच्चक्रवर्त्तिनामपि देवाः सक्थिग्रहणं कुर्वन्तीति / अथ तत्र विद्याधरादिभिरहं पूर्विकया भस्मनि गृहीते अखातायामेव गर्तायां जातायां मा भृत्तत्रपामरजनकृताशातनाप्रसङ्गः सातत्येन तीर्थप्रवृत्तिश्च भूयादिति स्तूपविधिमाह (तएणमित्यादि) सर्वं स्पष्टं नवरं सर्वात्मना रत्नमयानन्तर्बहिरपि रत्नखचितान् (महत्ति) महतोऽतिविस्तीर्णान् आलप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतप्रभवः त्रीन् चैत्यस्तूपान् चैत्याश्चित्तालादकाः स्तूपाश्चैत्यस्तूपास्तान् कुरुत / चितात्रयक्षितिष्वित्यर्थः आज्ञाकरणसूत्रे ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा स्तथैव कुर्वन्ति / ननु यथाज्ञाकरणसूत्रे यावत् करणेन सूत्रकृतो लाघवसूचा तथा पूर्वसूत्रेऽपिकथनलाघवचिन्ता कृता उच्यते विचित्रत्वात् सूत्रप्रवृत्तेरिति (तएणमित्यादि)ततस्तेबहवो भवनपत्यादयो देवा-स्तेषु स्तूपेषु यथोचितं तीर्थकरस्य परिनिर्वाणमहिमां कुर्वन्ति कृत्वा च यत्रैवाकाशखण्डे नन्दीश्वरवरो द्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति तत स शक्रः पौरस्त्याञ्जनकपर्वते अष्टाहिकामष्टानामह्नां दिवसानां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमायां सा अष्टाहिका तां महामहिमां करोति / ततः शक्रस्य चत्वारो लोकपालाः सोमयमवरुणवैश्रमणनामानस्तत्पार्श्ववर्तिषु चतुर्ष दधिमुखकपर्वतेषु अष्टाहिकां महामहिमां कुर्वन्ति त चात्र नन्दीश्वरवरादिशब्दाना कोऽन्वर्थ इत्युच्यते नन्द्यापळतपुष्करिणीप्रमुखपदार्थसमुद्भूता समृद्ध्या ईश्वरः स्फीतिमान्नन्दीश्वरस्य एवामनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरसिद्धायतनादिसमुद्भावेनवरो नन्दीश्वरवरः / तथा अञ्जनरत्नमयत्वादञ्जनास्ततः स्वार्थे कप्रत्ययः / यदा कृष्णवर्णत्वेनाञ्जनतुल्या इत्यञ्जनकाः उपमाने कप्रत्ययः / तथा दधिवदुज्ज्वलवर्ण मुखं शिखरं रजतमयत्वाद् येषां ते तथा बहुव्रीहौ कप्रत्ययः / अयेशानेन्द्रस्य नन्दीश्वरावतारवक्तव्यमाह (ईसाणेत्ति) ईशानो देवेन्द्र उत्तराहे अञ्जनके अष्टाहिकां तस्य लोकपाला उत्तराहाञ्जनकस्योपरिवारकेषु चतुषु दधिमुखकेषु अष्टाहिकां चमरश्व दाक्षिणात्याञ्जनके तस्य लोकपाला दधिमुखकपर्वतेषु बलीन्द्रः पाश्चात्याञ्जनके तस्य लोकपाला दधिमुखकेषु ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा अष्टाहिकाः महामहिमामहोत्सवभूताः कुर्वन्तीति। बहुवचनं चात्राष्टाहिकानां सौधर्मेन्द्रादिभिः पृथक् पृथक् क्रियमाणत्वात् (करित्ता इत्यादि) अथाष्टाहिका महामहिमाः कृत्वा यत्रैव लोकदेशे स्वानि स्वानि स्वसंबन्धीनि विमानानि यत्रैव स्वानि स्वानि भवनानि वासप्रासादाःयत्रैव स्वाः स्वाः सभाः सुधर्माः यत्रैव स्वकाः स्वकाः स्वस्वसंबन्धिनो माणवकनामानश्चैत्यस्तभाश्चैत्यशब्दार्थः प्राग्वत् तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च वज्रमयेषु गोलसमुद्गकेषु भाजनविशेषेषु जिनसक्थीनिप्रक्षिपन्तीति / सक्थिपदमुपलक्षणपरं तेन दशनाद्यपि यथार्ह प्रक्षिपन्तीति / अथ ज्ञाताधर्मकथाङ्गोक्तमल्लिनाथनिवेश्यतन्मध्यवर्तिजिनसक्थीन्यपूजन् वृषभजिनसक्थि च तत्र प्राक्षिपन्निति ज्ञेयं प्रक्षिप्य च अग्र्यैः प्रत्यग्रैवरैर्माल्यैश्च गन्धैश्वार्चयन्ति अर्चयित्वा च विपुलान् भोगोचितान् भोगान् भुजाना विहरन्त्यासत इति / अत्राह परः ननु चारित्रादिगुणविकलस्य भगवच्छरीरस्य पूज Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसम 1180- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभकूड नादिकंपूर्वमपि ममान्तव्रणमिव वाधते तदनु इदं जिनसक्थ्यादिपूजन क्षते क्षार इव सुतरां वाधते मैवं वादीः नामस्थापनाद्रव्यजिनानां भावजिनस्येव वन्दनीयत्वात् , तदाभगवच्छरीरस्य च द्रव्यजिनरूपत्वात सक्थ्यादीनां च तदवयवत्वाद्भावजिनादभेदेन वन्दनीयत्वमेव अन्यथा गर्भतयोत्पन्नमात्रस्य भगवतः "समणे भगवं महावीरे" इत्याद्यभिलापेन सूत्रकृतां सूत्ररचना शक्राणां शक्रस्तवप्रयोगादिकं च नौचितीमवेदिति। अत एव जिनसक्थ्याद्याशातनाभीरवो हि देवास्तत्र कामसेवनादौ न प्रवर्तन्ते इति। जं०२वक्ष०।। (31) अर्थक्ष्वाकूणां द्वितीयां चितिका वर्णयति॥ थूभसयभाउआणं, चउवीसं चेव जिणहरे कासी। सव्वजिणाणं पडिमा, वन्नपमाणेहिं निअगेहिं / / स्तूपशतं भ्रातृणां भरतः कारितवानिति तथा चतुर्विंशतिश्चैव जिनगृहे जिनायतने (कासित्ति) कृतवान् का इत्याह / सर्वजिनानां प्रतिमा वर्णप्रमाणैर्निजैरात्मीयैरिति गाथार्थः / आ० म०प्र० / श्रीऋषभदेवेन साक्रं यैर्दशसहस्रमुनिभिर्भक्तं प्रत्याख्यातं ते कियता कालेन सिद्धास्सन्तीति प्रश्न ऋषभदेवेन साकं दशसहसमुनयोऽ-भिजिन्नक्षत्रे सिद्धास्सन्तीत्येतदक्षराणि वसुदेवहिण्ड्यादौ वर्तन्ते इति बोध्यम्। श्वेन० 4 उल्ला० 31 प्र० / परिवेष्टनपट्टे , प्रव० 216 द्वा० / जी०।" वइरसंघयणे " लोहादिमयपट्टबद्धकाष्ठसम्पुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वाद्वजर्षभः।। भ०१श०१ उ० / उत्त०। वृषभे, जी० 3 प्रति० / रा। जं० / औ० / अनु० / ज्ञा० / ओषधि-भेदे, कर्णच्छिद्रे, कुम्भीरपुच्छे, मेदि०। पर्वतभेदे च धरणि / वराहपुच्छे, हेम० / " नाभिमूलात् यदा वर्ण, उत्थितः कुरुते ध्वनिम् / वृषभस्येव निर्वाति, हेलया ऋषभः स्मृतः " इति सङ्गीतशास्त्रोक्ते स्वरभेदे, राजकर्तव्ये, वाच० / कात्यायनगोत्रायाः शिलानाम्न्याः कन्यकायाः पितरि, तत्कथा ब्रह्मदत्तहिण्ड्यांदर्शिता तत एवाऽवधार्या / उत्त०१ अ०। ऋषभकूटाधिपदेवे च / स्था०८ ठा०। उसम(ह)कंठ पुं०(ऋषभकण्ठ) पुं०६ त० / वृषभस्य कण्ठे, वृषभकण्ठप्रमाणे रत्नविशेषे, रा०।" उसभकंठाण अट्ठसयं"। जी०३ प्रति०। उषभकूड न०(ऋषभकूट) जम्बूद्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे स्यनामख्याते पर्वते। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरभरहे वासे उसभकूडे णाम पव्वए पण्णत्ते गोअमा! गंगाकुंडस्स पच्चच्छिमेणं सिंधुकुंडस्य पुरच्छिमेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंवे एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डे भरहे वासे उसद्दकूडे णामं पव्वएपण्णत्ते अट्ठजोअणाई उड्डं उच्चत्तेणं दो जोअणाई उव्वेहेणं मूले अट्ठजोअणाई विक्खंभेणं मज्झेछ जोअणाई विक्खंभेणं उपरिं च चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं मूले साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाइं अट्ठारसजोअणाई परिक्खेवेणं उवरिं साइरेगाई दुवालसजोअणाई परिक्खेवेणं (पाठान्तरं) मूले वारसजोअणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ठजोअणाइं विक्खंभेणं उप्पिं चत्तारिजोअणाई विक्खंभेणं मूले साइ रेगाइं सत्ततीसंजाअणाइंपरिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेण्णं उप्पिं साइरेगाई वारसजोअणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अत्थेसण्हे जाव पडिरूवे सेणं एगाए पउमवरवेइआए तहेव जाव भवणं कोसं आयामेणं अद्ध-कोसं विक्खंभेणं देसूणं कोसं उड्डे उच्चत्तेणं अट्ठो तहेव उप्पलाणि पउमाणि जाव उसमे अ एत्थ देवे महड्डिए जाव दाहिणेणं रायहाणी तहेव मंदरस्स पव्वयस्स जहा विजयस्स अविसे सियं। भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटो नाम्ना पर्वतः प्रज्ञप्तः भगवानाह गौतम ! गङ्गाकुण्डस्य यत्र हिमवतो गङ्गा निपतति तद्गगाकुण्डं तस्य पश्चिमायां यत्र तु सिन्धुर्निपपति सिन्धुकुण्डं तस्य पूर्वस्यां क्षुल्लहिमवतो वर्षधरस्य दाक्षिणात्यनितम्बे सामीप्यकसप्तम्या नितम्बासन्ने इत्यर्थः / अत्र प्रदेशे जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटोनाम्नापर्वतः प्रज्ञप्तः अष्टयोजनान्यूोच्चत्वेन द्वेयोजने उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन उचत्वचतुर्थांशस्य भू-म्यवगाढत्वात् अष्टानां चतुर्थाश द्वयोरेव लाभात् / मूलमध्यान्तेषु क्रमादष्ट षट् चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन विस्तारेण उपलक्षणत्वादायामेनापि समवृत्तस्यायामविष्कम्भयोस्तुल्यत्वादिति / तथा मूलमध्यान्तेषु पञ्चविंशतिरष्टादश द्वादश च योजनानि सातिरेकाणि परिक्षेपेण परिधिना / अयास्य पाठान्तरं वाचनाभेदस्तद्गतं परिमाणान्तरमाह। मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्टयोजनानि तूपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन अत्रापि विष्कम्भायामातः साधिकत्रिगुणं मूलमध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक्तं सूबोधम्। अत्रापरः एकस्य वस्तुनो विष्कम्भादिपरिमाणे द्वैरूप्यासंभवेन प्रस्तुतग्रन्थस्यासातिशय स्थविरप्रणीतत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः यदेकस्यापि ऋषभकूटपर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादि पुनस्तत्रैवास्य द्वादशादियोजनविसृतत्वादीति सत्यं जिनभट्टारकाणा सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेव मतं मूलतः पश्वात्तु कालान्तरेण विस्मृत्यादिनाऽयं वाचनाभेदः / / यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिज्योंतिष्करण्डवृत्तौ" इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुःषमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणादिकं सर्वमप्यनेशत्। ततो दुर्भिक्षाति-क्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः सङ्घमेलापकोऽभवत् तद्यथा एको वल्लभ्यामेको मथुरायां तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद इत्यादि ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिविष्टमतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुषैरिति न काचिदनुपपत्तिः / किं च सैद्धान्तिकशिरोमणिपूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतक्षेत्रसमाससूत्रे उत्तरमतमेवं दर्शितं यथा" सव्वे वि उसहकूडा, उस्विट्ठा अट्ठ जोअणे हुंति / वारस अट्ठ य चउरो, मूले मज्झुवरि विच्छिण्णा॥१॥ मूले विछिपणे इत्यादिशेषवर्णकः प्राग्वत् / अथास्य पद्मवरवेदिकाद्याह / (से णं एगाए इत्यादि) स ऋषभकूटादिरेकया पावरवेदिकया तथैवेति। यथा सिद्धायतनकूटवर्णकः प्रागुक्तस्तथाऽत्रापि वक्तव्य इत्यर्थः कियत्पर्यन्त इत्याह / यावद्भगवत ऋषभाख्यदेवस्थानं स चाय" एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संप Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमदत्त 1181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभदत्त रिक्खित्ते उसहकूडस्स णं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाव विहरंति तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमध्यदेशभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते " इति अत्र व्याख्या पूर्ववत् / भवनमानं साक्षादेव सूत्रे दर्शयति / क्रोशमायामेनार्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनक्रोशं चत्वारिंशदधिकचतुर्दशधनुःशतरूपमूोच्चत्वेन / यद्यपि भवनायामापेक्षया किंचिन्न्यूनोच्छ्रायमानं भवति प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति श्रीज्ञाताधर्मकथा वृत्त्यादौ भवनप्रासादयोर्विशेषो दृश्यते तथाऽप्यत्र तयोरेकार्थकत्वं ज्ञेयम्। श्रीमलयगिरिसूरिभिः क्षेत्रसमासवृत्तौ एतेषां ऋषभकूटानामुपरि प्रत्येक मे कै कः प्रासादावतंसकः ते च प्रासादाः प्रत्ये कमेकं क्रोशमायामतोऽर्द्धक्रोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमुचैस्त्वेनेत्यत्रोक्तं भवनतुल्यप्रमाणतया ऋषभकूटेषु प्रासादानामभिधानादिति / अर्थों नामान्वर्थ ऋषभकूटस्य तथैवेति यथा जीवाभिगमादौ यमकादीनां पर्वतानामुक्तस्तयाऽत्रापि औचित्येन वक्तव्यः तदभिलापसूत्रं तु उत्पलानीत्यादिना सूचितं तदनुसारेणेदं " सेकेणटेणं भंते ! एवं वुचइ उसहकूडपव्वए उसह-कूडपव्वए गोयमा ! उसहकूडपव्वए खुड्डासु खुड्डियासु वावीसु पुक्खरिणीसुजाव विलपंतीसुबहूई उप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताईउसहकूडप्पभाई उसहकूडवणाई उसहकूडवण्णाभाई इति "अत्र व्याख्या प्रश्नसूत्रं सुगमम् / उत्तरसूत्रे ऋषभकूटपर्यते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीषु पुष्करिणीषु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानि पद्यानि यावत्सहस्रपत्राणि ऋषभकूटप्रमाणि ऋषभकूटाकाराणि ऋषभकूटवनितथा ऋषभकूटवर्णस्येव आभा प्रतिभासो येषां तानि ऋषभकूटव भानि ततस्तानि तदाकारत्वात्तद्वर्णत्वात्तद्वर्णसादृश्याच ऋषभकूटानीति प्रसिद्धानि तद्योगादेव पर्वतोऽपि ऋषभकूटः / उभयेषामपि नाम्नामनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः एवमन्यत्रापि परिभावनीयम्। प्रकारान्तरेणापिनामनिमित्तमाह" उसभे अएत्थदेवे" इत्यादि ऋषभश्चात्र देवो महर्द्धिकः अत्र यावत्करणात् " महशुईए जावउ-सहकूडस्स उसहाए रायहाणीए अण्णेसिंच बहूणं देवाण यदेवीण य आहेवचं जाव दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ से एएणडेणं एवं वुच्चइ उसहकूडपव्वए उसहकूडपव्वए" इतिपर्यन्तः सूत्रपाठो शेयः। अत्र व्याख्या प्राग्वत् " दाहिणेणं " इत्यादि राजधानी ऋषभदेवस्य ऋषभा नाम्नी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतस्तथैव वाच्या यथा विजया देवस्य प्रागुक्ता अविशषितं विशेषरहित क्रियाविशेषणमेतत् / अस्या विजयायाः राजधान्याश्च नामतोऽन्तरं तत्त्वस्मिन् वर्णके इति नामः। जं०२ वक्षः। जंबुमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं अट्ठ उसभकूडा पण्णत्ता। अष्टौ ऋषभकूटपद्धता अष्टास्वपि विजयेषु तद्भावात् ते च वर्षधरपर्वतप्रत्यासन्ना म्लेच्छखण्डत्रयमध्यखण्डवर्तिनः सर्वविजयभरतैरावतेषु भवन्ति तत्प्रमाणं चेदम्।" सव्ये वि उसहकूडा, उदिवट्ठा अट्ठ जोयणा होति। वारस अट्ठय चउरो, मूले मज्झवरि वित्थिन्न "त्ति॥१॥ उसम(ह)कूडदेव पुं०(ऋषभकूटदेव) ऋषभकूटनिवासिनि देवे, " जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए अट्ठ उसनकूडदेवा पण्णत्ता"। स्था०८ ठा। उसभ(होणाराय न०(ऋषभनाराच) यत् कीलिकारहित संहनन तदृषभनाराचम्। द्वितीये संहनने, पं० सं०। क० / स्था०। उसभणाह पुं०(ऋषभनाय) श्रीऋषभदेवे, आ० म० प्र० / उसभ(ह)दत्त पुं०(ऋषभदत्त) ब्राह्मणकुण्डग्रामवास्तव्ये कोडा-लसगोत्रे स्वनामख्याते ब्राह्मणवर्ये, आचा०२ श्रु०। आव० / कल्प० (यस्य देवानन्दानाम्न्या भाव्याः कुक्षौ प्रथम श्रीवीरजिनः पुत्रत्वेनोपपन्नस्ततो हरिणेगमेषिणा संकर्षितरित्रशलायां सिद्धार्थनरेन्द्रमहिष्यां संजज्ञे इति वीरशब्दे स्पष्टीभविष्यति) तस्य शेषवक्तव्यता चैवम्॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणं कुंडग्गामे णामं णयरे होत्था वण्णओ बहुसालए चेइयवण्णओ तत्थ णं माहणकुंडग्गामे णयरे उसभदत्ते णामं माहणे परिवसइ / अढे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए रिउव्वेय जउव्वेय सामवेय अयव्वणवेय जहा खंदओ जाव अण्णेसु य बहुसु य बंभणएसु य नएसु परिनिहिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णापावे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरई॥ तेणमित्यादि सुगमम् (अड्डेत्ति) समृद्धः (दित्तेत्ति) दीप्तस्तजस्वी दृप्तो वा दर्पवान्। (वित्तेत्ति) प्रसिद्धो यावत्करणात्" विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहइ " इत्यादि दृश्यम्।। भ० 6 श० 33 उ० // तस्स णं उसमदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाणामं माहणी होत्था सुकुमालपाणिपाया जाव पियदंसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा जाव विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसड़े परिसा पञ्जवासइतएणं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लद्धढे समाणे हट्ट जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता देव-णंदा माहणिं एवं वयासी एव खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासमएणं च-केणं जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरइ तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए तहा रूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए कि मंग पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपजुवासणयाए एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग ! पुण विपुलस्स अट्ठस्स गहणयाए तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो जाव पजुवासामो एयं णो इह भवे परभवे य हियाए सुहाए खमाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ तए णं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव हिययाकरयल जाव कट्ट उसभदत्तस्स माहणस्स एयमढे विणएणं पडिपुणेइ॥ (हियाएत्ति) हिताय पथ्यान्नवत् (सुहाएति) सुखाय शर्मणे (ख-माएत्ति) क्षमत्वाय सङ्गतन्वायेन्यर्थ (अणु गामिय Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमदत्त 1182 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसमदत्त ताए त्ति) अनुगामिकत्वाय शुभानुबन्धायेत्यर्थः (हट्ठ) इह यावत्करणादेवं दृश्यं (हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया) हृष्टं तुष्टमत्यर्थं तुष्ट हृष्ट वा विस्मितं तुष्टं च तोषवचित्तं यत्र तत्तथा / तद्यथा भवत्येवमानन्दिता ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगता ततश्च नन्दिता समृद्धतरतामुपगता (पीइमणा) प्रीतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः (परमसोमनसिया) परमसौमनस्यं सुष्ठ समनस्कता संजाता यस्याः सा परमसौमनस्थिता (हरिसवसविसप्पमाणहि-यया) हर्षवशेन विसर्पद्विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा। तएणं से उसमदत्ते माहणे को९वियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइयसमखुरवालिहाणसमलिहियसिंगेहिं जंबूणयमयकलावजुत्तपरिविसिद्धेहिं रययमयघंटसुत्तरज्जुप्पवरकंचणणत्थपग्गहोग्गहियएहिं णीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजु वाणएहिं णाणामणिमयघंटियाजालपरिगतसुजातजुगजुत्तररञ्जयजुगपसत्थसुविरचियनिम्मियपवरलक्खणोववेयंधम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह मम एयमाणत्तियं पञ्चपिणह। तएणं से कोडुवियपुरिसा उसमदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणाहह जाव हियया करयल जाव एवं सामी तहत्ता णाए विणएणं वयणं जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजाव धम्मियं जाण-प्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेत्ता जाव तमाणत्तियं पञ्चपिणंति तए णं से उसमदत्ते माहणे ण्हाए जाव अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छह उवागच्छइत्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूः / (लहुकरणजुत्तजोइए इत्यादि) लघुकरणं शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्ती यौगिकौ च प्रशस्तयोगवन्तौ प्रशस्तसदृशरूपत्वाद्यौ तौ तथा समाः खुराश्च प्रतीताः (वालिहाणत्ति) वालिधाने च पुच्छौ ययोस्तौ तथा समानि लिखितान्युल्लिखितानि शृङ्गाणि ययोस्तौ तथा ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां लघुकरणयुक्तयौगिकसमखुरवालिधानसमलिखितशृङ्गकाभ्यां गोयुवभ्यां युक्तमेवयानप्रवरमुपस्थापयतेति सम्बन्धः / पुनः किं भूताभ्यामित्याह / जाम्बूनदमयौ सुवर्णनिर्वृतौ यौ कलापौ कण्ठाभरणविशेषौ ताभ्यां युक्तौ प्रतिविशिष्टकौ च प्रधानौ जवादिभिर्यो तौ तथा ताभ्यां जाम्बूनदमयकलापयुक्तप्रतिविशिष्टकाभ्यां रजतमय्यौ रूप्यविकारे घण्टे ययोस्तौ तथा सूत्ररज्जुके कार्यासिकसूत्रदवरकमय्यौ वरकाञ्चने प्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्तेनासिकारज्जूतयोः प्रग्रहेण रश्मिना अवगृहीतकौ बद्धौ यौ तौ तथा ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां रजतमयघण्टसूत्ररज्जुकवरकाञ्चननस्ताः प्रग्रहावगृहीतकाभ्यां नीलोत्पलैमलजविशेषैः कृतो विहितः। (आमेलत्ति) आपीडः शेखरो ययोस्तौ ताभ्यां नीलोत्पलकृतापीडकाभ्याम् (पवरगोणजुवाणएहिति) प्रव-रगोयुवभ्यां नानामणिरत्नानां सत्कं यद्धण्टिकाप्रधानं जालं जालकं तेन परिगतं परिक्षिप्तं यत्तत्तथा सुजातं सुजातदारुमयं यद्युगं | यूपस्तत्सुजातयुग तच्च योक्त्ररज्जुकायुगञ्च योक्त्राभिधानरज्जुकायुगं सुजातयुगयोक्त्ररज्जुकायुगे ते प्रशस्ते अतिशुभे सुविरचिते सुघण्टिते निर्मिते निवेशिते यत्र तत् सुजातयुगयोक्त्ररज्जुकायुगप्रशस्तसुविरचितनिर्मितम् (एवमित्यादि) एवं स्वामिन् (तथेति) आज्ञया इत्येवं ब्रुवाण इत्यर्थः / विनयेनाञ्जलिकरणादिना। तएणं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसिण्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगल पायच्छित्ता किं ते वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहाररइयउचियकडयखड्डुगएगावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेजसोणिसुत्तगणाणामणिरयणभूसणविराइयंगी चीणंसुयवत्थपवरपरिहियादुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा सव्वोउय सुरभिकुसुमवरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभूसणभूसियंगी कालागुरुधूमधूविया सिरिसमाणवेसा जाव अप्पमहग्घभरणालंकियसरीरा बहुहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडहियाहिं वय्वरियाहिं चउसियाहिं इसिगणियाहिं खारुगणियाहिं जोणियाहिं पल्हवियाहिंल्हासियाहिंलउसियाहिं आरवीहिं दमिलाहिं सिंघलाहिं पुलिंदीहिं पक्कलीहिं वहिलीहिं मुरंडीहिं सवरीहिं पारसीहिणाणादेसीविदेसपरिपिडियाहिं सदेसनेवत्थगहियवे-साहि इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं कुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचकवालवरिसधरथेरकंचुइज्जमहत्तरगविंदपरिक्खित्ता जाव अंतेउराओ णिग्गच्छह णिग्गच्छइत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसालाजेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा। (तएणं सा देवाणदामाहणीत्यादि) इह च स्थाने वाचनान्तरे देवानन्दावर्णक एवं दृश्यते (अंतो अंतेउरंसिण्हाया) अन्तर्मध्येऽन्तःपुरस्य स्नाता अनेन च कुलीनाः स्त्रियः प्रच्छन्नाः स्नान्तीति दर्शितम् / (कयवलिकम्मा) गृहदेवताः प्रतीत्य (कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तान्यवश्यं कार्यत्वाद्यया सा तथा तत्र कौतुकानि मषीतिलकादीनि मङ्गलानि सिद्धार्थकदूर्वादीनि (किं ते) किञ्चान्यत् (वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहाररइयउचियकडयखड्डयएगावलीकंठसुत्तउरत्यमेवेजसोणिसुत्तगनाणामणिरयणभूसणविराइयंगी) वराभ्यां पादप्राप्तनूपुराभ्यां मणिमेखलया हारेण च रचितै रतिदैर्वा सुखदोचितैर्युक्तः कटकैश्च (खड्डगत्ति) अङ्गुलीयकैश्च एकावल्या च विचित्रमणिमय्या कण्ठसूत्रेण च उरःस्थेन च रूढिगम्येन ग्रैवेयकेण च प्रतीतेन उरःस्थग्रैवेयकेण वा श्रोणिसूत्रकेण च कटीसूत्रेण नानामणिरत्नानां भूषणैश्च विराजितमङ्ग शरीरं यस्याः सा तथा (चीणंसुयवत्थपवरपरिहिया) चीनांशुकं नाम यद्वस्त्राणां मध्ये प्रवरं तत्परिहितं निवसनीकृतं यया सा तथा (दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा) दुकूलो वृक्षविशेषस्तद्वल्क्लाजातं दुकूलं वस्त्रविशेषस्तत्सुकुमारमुत्तरीयमुपरिकायाच्छादनं यस्याः सा तथा (सव्वोउयसुरभिकुसुमवरियसिरया) सर्वतुक सुरभिकुसुमैर्वृत्ता वेष्टिताः शिरोजा यस्याः सा तथा (वरचंदणवंदिया) वरचन्दनं वन्दितं ललाटे निवेशितं यथा सा तथा (वराभरणभूसियंगीति) व्यक्तम्। (कालागुरुधूमधूविया) इत्यपि व्य Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभदत्त ११५३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसभदत्त तम् / (सिरिसमाणवेसा)श्रीर्देवता तया समाननेपथ्या इतः प्रकृ- वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः (मणसोएगत्तीभावकरणेणंति) अनेकस्य सत तवाचनानुप्रियते (खुज्जाहिति) कुडिजकाभिर्वक्रजङ्घाभिरित्यर्थः एकतालक्षणभावकरणेन (ठियाचेवत्ति) उर्द्धस्थानस्थितैव अनुप(चिलाइयाहिंति) चिलातदेशोत्पन्नाभिः यावत्करणादिदं दृश्यम् विष्टत्यर्थः। (वामणियार्हि) हस्वशरीराभिः(बडहियार्हि) मडहकोष्ठाभिः (वव्वरियाहिं तएणं सा देवाणंदा माहणी अगयपण्हया पप्पुयलोयणा संवपओसियाहिं इसिगणियाहिं थासगणियाहिं जोणियाहिं पल्हवियाहिं रियवलियवाहा कंचुकपरिक्खित्तिया धाराहतकलंबपुप्फगं पिव ल्हासियाहिं लओसियाहिं आरवीहिं दमिलाहिं सिंहलीहिं पुलिंदीहिं समुस्ससियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठाए पक्कणीहिं वहलीहिं मुरुंडीहिं सवरीहिं पारसीहिं नाणादेसीविदेस दहमाणी दहमाणी चिट्ठइ भंतेति? भगवं गोयमे समणं भगवं परिपिडियाहिं) नानादेशीभ्यो बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे तद्देशापेक्षया महावीरं वंदइणमंसइ वंदित्ताणमंसित्ता एवं वयासी किं णं भंते! देशान्तरे परिपिण्डिता यास्तास्तथा (सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं) एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया तं चेव जाव रोमकूवा स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः (इंगियचिंति देवाणुप्पिए अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी देहमाणी चिट्ठइ गोययपत्थियवियाणियाहिं) इङ्गितेन नयनादिचेष्टया चिन्तितञ्चपरेण प्रार्थितं मादिसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एंव वयासी एवं खलु चाभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः (कुसलाहिं विणीयाहिं) गोयमा! देवाणंदा माहणीमम अम्मगा अहंणं देवाणंदाए माहयुक्ता इति गम्यते (चेडियाचक्कवालवलिसधरथेरकंचुइज्जमहत्त णीए अत्तए तएणं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुटवपुत्तसिणेहाणुरयविंदपरिक्खिता) चेटीचक्रवालेनार्थात्स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां रागेणं आगयपण्हया जाव समुस्ससियरोमकूवा ममं अणिमिवर्द्धितकरणेन नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानाम्। (थेरकंचुइज्जत्ति) स्थविरकशुकिनामन्तःपुरप्रयोजननिर्वेदकानां प्रतीहाराणां वा साए दिट्ठीए देहमाणी देहमाणी चिट्ठइ तए णं समणे भगवं महामहत्तरकानां चान्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा। वीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसयं महइ इदं च सर्व वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति। महालियाए इसिपरिसाए जाव परिसापडिगया तए णं से उस भदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा तए णं से उसमदत्ते माहणे देवाणंदामाहणीए सद्धिं धम्मेयं णिसम्म हहतुढे उहाए उठेइ उद्देइत्ता समणं भगवं महावीरं तिजाणप्पवरं दुरूठेमाणे णियगपरियालसंपरिखुडे माहणकुंड क्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी एयमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! ग्गामं णयरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ निम्गच्छइत्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइउवागच्छइत्ता छत्ताइए तित्थक जहा खंदओ जाव से जहे यं तुब्मे वदह तिकट्ट उत्तरपुरच्छिमं राइसए पासइ पासइत्ता धम्मियं जाणप्पवरं उवेइ उवेइत्ता ध दिसीभागं अवक्कमइ अवक्कमइत्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं म्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहइ पचोरहइत्ता समणं भगवं उमुयइ उमुयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ करेइत्ता जेणेव महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिसमागच्छइ तं सचित्ताणं समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता समणं दव्वाणं विउसरणायाए एवं जहा विइए सए जाव तिविहाए पज्जु भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता वासणयाए पछ्वासइ / तएणं सादेवाणंदा माहणी धम्मियाओ एवं वयासी अलित्तेणं भंते ! लोए पलितेणं भंते ! लोए जराए जाणप्पवराओ पचोरुभइ पचोरुभइत्ता बहूहिं खुजाहिं जाव मरणेण य एवं एएणं कमेणं जहा खंदओ तहेव पव्वइए जाव महत्तरगपरिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइजाव बहूहि चउत्थअभिसमागच्छइ तं सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणायाए अचित्ताणं छहमदसम जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे दवाणं विमोयणयाए विणओणयाए गायलड्डीए चक्खुप्फासे बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउण्णइ पाउण्णइत्ता मासियाए अंजलिपग्गहेणं मणसो एगत्तीभावकरणेणं जेणेव समणे भगवं संलेहणाए अत्ताणं झूसेइझूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाइंछेदेइ महावीरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर छेदेइत्ता जस्स हाए कीरइ नग्गभावे जाव तम8 आराहेत्ता जाव तिक्खुत्तो आदाहिणं पयाहिणं करेइ करेइत्ता वंदइ णमंसइव- सव्वदुक्खप्पहीणे तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगदित्ता णमंसित्ता उसमदत्तं माहणं पुरओ व कट्टट्ठिया चेव सपरि- वओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा समणं वारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता पछुवासइ॥ एवं वयासी एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! एवं जहा उसभदत्तो (सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयएत्ति) पुष्पताम्बूलादिद्रव्याणां तहेव जाव धम्ममाइक्खइ तए णं समणे भगवं महावीरे देवाव्युत्सर्जनतया त्यागेनेत्यर्थः (अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाएत्ति)] गंदा माहणिं सयमेव पवावेइ पव्वावेइत्ता सयमेव अञ्जचंदणाए Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमदत्त 1184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसिणोदगतत्तभोइ अजाए सीसिणित्ताए दलयतिरत्ता तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा देवाणंदा माहणिं सयमेव मुंडावेइ मुंडावेइत्ता सयमेव सेहावेइ सेहावेइत्ता एवं जहा उसमदत्तनेमहंव अज्जचंदणाए अजाए इमं एयाणुरूवं धम्मियं उवदेसं सम्म पडिवज्जइ पडिवज्जइत्ता तमा णाए तह गच्छइ गच्छइत्ता जाव संजमेणं संजमइ / तए णं सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्जइसेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खप्पहीणा। (आगयपण्हयत्ति) आयातप्रसवा पुत्रस्नेहादागतस्तनडुखस्तन्येत्यर्थः (पप्पुयलोयणा) प्रप्लुतलोचना पुत्रदर्शनप्रवर्तितानन्दजलेन (संवरियवालयवाहा) संवृतौ हर्षातिरेकादतिस्थूरीभवन्तौ निषिद्धौ वलयैः कटकैर्बाहू भुजौ यस्याः सा तथा। (कंचुयपरिक्खि-त्तिया) कंञ्चको वारवाणः परिक्षिप्तो विक्षिप्ता विस्तारितो हर्षातिरे-कस्यूरीभूतशरीरतया यया सा तथा (धाराहयकदंवपुप्फगमिवसमुच्छसियरोमकूवा) मेघधाराभ्याहतकदम्बपुष्पमिव समुच्छ्वसितानि रोमाणि कूपेषु रोमरन्ध्रेषु यस्याः सा तथा (पेहमाणत्ति) प्रेक्षमाणा आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विरुक्तिः (भंतेत्ति) भदन्त! इत्येवमामन्त्रणवचसाऽऽमन्त्र्येत्यर्थः गोयम ! इति) एवमामन्त्र्येत्यर्थः / अथवा गौतम इति नामोचारणम् (अयीति) आमन्त्रणार्थे निपातो हे भो इत्यादिवत् (अत्तएत्ति) आत्मजः पुत्रः (पुव्वपुत्तसिणेहाणुराएणंति) पूर्व प्रथमगर्भाधानकालसम्भवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोऽनुरागः स पूर्वपुत्रस्नेहानुरागस्तेन (महइमहालिएत्ति) महती चासावतिमहती चेति महातिमहती तस्यै आलप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः (इसिपरि-साएत्ति) पश्यन्तीति ऋषयो ज्ञानिनस्तद्रूपा पर्षत्परिवार ऋषिपर्वत्तस्यै यावत्करणादिदं दृश्यम्- " मुणिपरिसाए जइपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयविंदपरिवाराए इत्यादि " तत्र मुनयो वाचंयमा यतयस्तु धर्मक्रियासु प्रयतमानाः अनेकानि शतानि यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशतप्रमाणानि वृन्दानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्यै (तए णं सा अज्जचंदणा अज्जेत्यादि) इह च देवानन्दाया भगवता प्रव्राजनकरणेऽप यदार्यचन्दनया पुनस्तत्करणं तत्तत्रैवानवगतावयमकरणादिना विशेषाधानमित्यव गन्तव्यमिति (तमाणाएत्ति)तदाज्ञया आर्यचन्दनाज्ञया। भ०६ श०३३ उ०। विपाकदशानां तृतीयदुःखविपाकोक्तसुजातकुमारस्य पूर्वभये जीवे च।" उसुयारणयरे उसभदत्ते गाहावई"। वि० 4 अ०। उसभ(ह)पुर न०(ऋषभपुर) राजगृहनगरप्रस्थायकराजपूर्वजेन प्रस्थापिते पुरभेदे, "तत्थ एगो वसतो अण्णेहिं परट्ठा एक्कगिरणे अत्थति नतीरति अण्णेहिं वसेतिहिं पराइणेतुं " / आ० चू०४ अ०। आव०।" क्षीणवास्तुनि तत्रापि, चरन्तं वृषभ वने। दृष्ट्वाऽन्याजप्यमृषभं, पुरंतत्र व्यधात्पुनः / / " आ० म० / आ० क० / यत्र जीवप्रादेशिकाख्या द्वितीयनिहवा उत्पन्नास्तस्मिन् नयरे, विशे० / आ० क० / स्था०।" उसहपुरेणवरे थूलकरंडउज्जाणे"। विपा०२ श्रु०२ अ०। उसभ(ह)पुरी स्त्री०(ऋषभपुरी) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वतः शीतो-दाया महानद्या दक्षिणतःस्थे राजधानीभेदे स्था०८ ठा० / उसभ(ह)सेण पुं०(ऋषभसेन) भगवत ऋषभदेवस्य प्रथमगणधरे," उसभसेणो नाम भरहस्स रण्णो पुत्तो सो धम्मं सोऊण पव्वइतो तेण तिहिं पुव्वाई गहिताइं उप्पण्णे विगते धुवे ''| आ० चू०१ अ०। कल्प० / स०। (अस्य ऋषभशब्दे वक्तव्यतोक्ता)"आ-इगरपुरिमताले पवत्तिया उसभसेणस्स"।नं। उसा स्त्री०(उषा) ओषत्यन्धकारम्-उष्-क-प्रातरादिसन्ध्यासु, " तेजःपरिहानिरुषा, भानोरोदयं यावत् " वृहत्संहितोक्ते काले, नक्षत्रप्रभाक्षयः काल उषा तेन पञ्चाशद्धटिकोत्तरमारभ्य सूर्याोदयपर्यन्तः। स कालः लग्नाद्यलाभे उषाकाले यात्राशस्ता अन्धकारेण सन्तापकरिण्या रात्रौ, मेदि०। क्षारभृमौ, ततः क्वचित् गौरादित्वाड्डी, स्त्री० / गव्याम् , हेम० / स्थाल्याम् , रमानाथः / प्रातःकाले, अव्य० मेदि० / अव्ययत्वात् ततो भवार्थे ट्युल्तुट् च उषातनः / तद्भवे, त्रि०। स्त्रियां डीप वाच०॥ उसिंचित्ता त्रि०(अपसिञ्चयित) उपतापयितरि," उसिणोदगवियडेण कायं उसिंचित्ता भवति'' उप्णोदकविकटेन कायं शरीरमपसिञ्चयिता भवति / तत्र विकटग्रहणादुप्णतैलेन काज्जिकादिना कायमुपतापयिता भवति, दशा०३ अ०। उसिक धा०(मुच् ) तुदा० सक० अनि० / मुचेश्छड्डावहेडमेल्लोसिक्करे अवणिलुञ्छधंसाडाः / / 8 / 4 / 61 // इति मुचेरुसिक्कादेशः / उसिक्कइ मुअइ मुञ्चति। प्रा०। उसिक्किया अव्य०(अपष्वष्क्य) प्रज्वाल्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु०। उसिण पुन०(उष्ण) उषति दहति जन्तूनित्युष्णम् , उत्त० 1 अ० / आहारपरिपाकादिकारणे वयाद्यनुगते स्पर्शभेदे, अनु० / स्था० (उष्णानिक्षेपः सीउण्हशब्दे वक्ष्यते) उष्णयुक्ते, त्र० / अमरः / उष्णस्पर्शपरिमाणे, 'उसिणं वेयणं वेएंति - उष्णां वेदना वेदयन्ते उष्णस्पर्शपरिणामा उष्णा, प्रज्ञा० 8 पद० / उष्णा प्रथमादिषु उष्णस्पर्शजनिता वेदना। स्था० 10 ठा०।" उसिणपरितावेहिं धिंसु " / आ० चू०१ अ०। उसिणजोणिय पु०(उष्णयोनिक) उष्णमेव योनिर्येषान्ते उष्णयोनिकाः / उष्णोत्पन्नेषु जीवेषु, भ०७ श०२ उ० / उसिणपरि(री)सह पुं०[उष्णपरि(री) षह] उषदाहे इत्यस्यौणादिकनक् प्रत्ययान्तस्य उष्णं निदाघादितापात्मकं तदेव परीषहः / परीषहभेदे, उत्त०२ अ०। सूत्र। तद्वक्तव्यता (उण्हपरीसप्रकरणे उक्ता) उसिणभूय त्रि०(उष्णीभूत) अस्वाभाविकमौष्ण्यं प्राप्ते, " उसिणे उसिणब्भू एयावि होत्था '' / भ० 3 श०२ उ० / अनन्तरपि नरकगतजाड्यापगमाज्जातोत्साहे, जी० प्रति०१ उ०।। उसिणोदग न०(उष्णोदक) स्वभावत एव क्वचिन्निर्झरादाधुष्णपरिणामेऽप्कायभेदे, जी०१ प्रति० / प्रज्ञा / क्वथितोदके, " उसिणोदगं तत्तफासुयं, पडिगाहेज संजए " / द०८ अ० / तच त्रिभिर्दण्डैरुत्कलितमावृतं यदुष्णोदकम् , प्रव० 135 द्वा० / पिं० / कल्प० / उसिणोदगतत्तभोइ(ण ) पुं०(उष्णादकतप्तभोजिन् ) त्रिदण्डोद्धतोष्णदकभोजिनि // उसिणोदगतत्तभोइणो, धम्मठियस्स मुणिस्स हीमतो। संसग्गिअसाहुराइहिं, असमाही उतहागयस्स वि॥१८॥ (उसिणोदगेत्यादि) मुनेरुष्णोदकतप्तभोजिनः त्रिदण्डोद्धतोष्णोदकभोजिनः / यदि वा उष्ण सन्न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणम्। तथा श्रुतचारित्राख्ये धर्मे स्थितस्य (हीमतोति) हीरस - Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसिणोदगतत्तभोइ 1185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार " यम प्रति लज्जा तद्वतोऽसंयमजुगुप्सावत इत्यर्थः / तस्यैवंभूतस्य मुने उसुकाल पुं०देशी०(उसुकाल) उदूखले, नि० चू० 13 उ०। राजादिभिः सार्द्ध यः संसर्गः संबन्धोऽसावसाधुरनर्थोदयहेतुत्वात्तथा उसुग पुं०(इषुक) इषु-स्थूला कन् शरप्रकारे, वाच० / इषुकाकारे, गतस्यापि यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसर्गवशादसमाधिरेवापध्या- आभरणे, तिलके च।" उसुपाइएहिं मंडेहिं नावणं अहवणं विभूसेमि" नमेव स्यात न कदाचित स्वाध्यायादिकं भवेदिति // 18 // पिं०। उसिणोदगनियड न०(उष्णोदकनिकट) अप्रासुके त्रिदण्डोद्धते पश्चाद् | उसुचोइय त्रि०(इषुचोदित) शराभिघातप्रेरिते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ वा सचित्तीभूते उष्णोदके, आचा०२ श्रु०१ अ०६ उ०। उ०। उसिणोसिण त्रि०(उष्णोष्ण) अत्युष्णे, प्रश्न०१द्रा०। उसुमट्टिया स्त्री०(इषुमृतिका) मुजादिभिः सह कुट्टितमृत्तिकायाम्," उसिय त्रि०(उषित)वस्-इण्-क्त-व्यवस्थिते," उसिया विइत्थिवासेसु साइसियाइपिवित होंति उसुमट्टिया य तम्मिस्सा / सरपुरिसा"। सूत्र० 1 श्रु०४ अ० 1 उ०। वसक्त पर्युषिते, कृतवासे, च। सछल्लीईसिगित्ति तस्सेव उवरितस्स छल्ली सो य मुंजो दब्भो वा एते उषदाहे-तादग्धे, मेदिका क्षरिते, धरणिः। भावेक्तावासे, न० वाच०। विप्पितत्तिकुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिजति एसा उसुमट्टिया आचा०२ श्रु०। कुसुमट्टिया वा " / नि० चू०१८ उ०। उसि(स्सि)(ऊसि)य त्रि०(उच्छ्रित) ऊर्द्ध नीते, ज्ञा०१ अ०। उचैः | उसुयार पुं०(इषुकार) इषु करोति-कृ-अण् / वाणकारके शिल्पि-भेदे, वाच०। कृते, उत्त० 22 अ०। प्रख्याते, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। ज्ञा०। प्रज्ञा०। ___ अस्य निक्षेपः। *उत्सृत त्रि०ा प्रवलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृते, चं० प्र०१पाहु०। विपा० / लम्बमाने, " मुत्तजालंतरूसियहेमजालगवक्खं " / रा०। उसुयारे निक्खेवो, चउदिवहो दुविहो होइदव्वम्मि। उसिवफलिअत्रि०(उच्छ्रितस्फटिक) उच्छ्रितं प्रख्यातं स्फटिकन्निर्मलं आगम नोआगमओ, नोआगमतो य सो तिविहो // 14 // यशोयस्याऽसौ उच्छ्रितस्फटिकः। प्रख्यातनिर्मत्रशसि, सूत्र०२ श्रु०७ जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य से पुण्णो तिविहो। अ० / उच्छ्रितानि स्फटिकानीव स्फटिकानि अन्तःकरणानि येषां ते एगभवियबद्धाओ, अभिमुहओ नामगोएय॥६५॥ तथा। शुद्धान्तःकरणेषु, सूत्र०२ श्रु०२ अ०1 उसुयारनामगोयं, वदेतो भावओ य उसुयारो। उसीणर पुं०(उशीनर) वृष्णिवंशोधवे क्षत्रियभेदे," उशीनरश्च विक्रान्तो, तत्तो समुट्ठियमिणं, उसुधारिखंति अज्झयणं / / 66 // वष्णयस्ते प्रकीर्तिताः " पौरवे नृपभेदे," उशीनरं च धर्म, तितिक्षुश्च गाथात्रयं स्पष्टमेव नवरमिषुकाराभिलाषेन नेयं तथा यदिषुकारामहाबलम् / हरिवंशेकपोतार्थे स्वशरीरमांस दानं प्रसिद्धम् , वाच० / त्समुत्थिते तत्तस्मै प्रायो हितमेव भवतीति इषुकाराय हितमिषुत्रिशङ्कुपुत्रे सुतारादेव्याः पतौ, ती०। कारीयमुच्यते प्राधान्याच राज्ञा निर्देशोऽन्यथा षड्भ्योऽप्येतत्समुत्थान उसीर पुंन०[उ(षी)शीर] वश-ईरन् किच वीरणमूले, सूत्र०१ श्रु०४ तुल्यमेवेति। अ०।ज्ञा० जी० आ०म०प्र०ारा०॥ प्रश्नाचं आचा०। उत्त०। संप्रति कोऽयमिषुकार इति तद्वक्तव्यतामाह नियुक्तिकृत्। तस्य गुणाः "उशीरं पाचनं शीतं, स्तम्भनं लघु तिक्तकम् / मधुरं पुटवभवे संघडिया उ, संपीया अन्नमण्णमणुरत्ता। ज्वरहद्धान्तिमलनुत्कफपित्तनुत्। तृष्णार्तिविष वीसर्पदाकृच्छ्रव्रणापहम्। भोत्तूण भोगभोगे, निग्गंथा पव्वए समणा ||7|| भावप्र०। काऊण य सामन्नं, पउमगुम्मे विमाणे उववन्ना। उसुपुं०(इषु) ईप्यते हिंस्यते अनेन ईष-उ-हस्वश्च / शरे, सूत्र०१श्रु०५ पलिओवमाइचउरो, ठिई उ उकोसया तेसिं / / 68| अ०१उ०। प्रतोदे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। शरपत्रफलादिसमुदाये, "अहेणं से उसू"। भ०५ श०६ उ०। कामस्य पश्चवाणत्वात्तदनुसृत्या तत्तो य चुया संता, कुरुजणवयपुरम्मि उसुयारे। पञ्चसंख्यान्विते वृत्तक्षेत्रान्त र्गते जीवावधि परिधिपर्य्यन्तकृतसरल- छा विजणा उववन्ना, चरिमसरीरा विगयमोहा / / 66 // रेखायां च / वाच०॥ राया उसुयारो य, कमलावइ देवि अग्गमहिसी से। तत्र इषोरानयनाय करणमाह। मिगुनामे य पुरोहिए, वासिट्ठी मारिया तस्स // 400 / / धणुवग्गाओ नियमा, जीवावग्गं विसोहइत्ताणं। उसुयारपुरे नयरे, उसुयारपुरोहिओ उ अणवयो। सेसस्स छहभागे, जं मूलं तं उसू होइ / / पुत्तस्स कए बहुसो, परित्तप्पंती दुयग्गावि // 1 // नियमादयश्यतया धनुःपृष्टवर्गात् जीवावर्ग विशोध्यापनीय शेष-स्य काऊण समणरूवं, तहियं देवो पुरोहिओ भणइ। षड्भागे षड्भिगि हृते यन्मूलमागच्छति तदिषुरिषुपरिमाणं भवति तत्र होहिंति तुम पुत्ता, दोन्नि जणा देवलोगचुया // 2 // भरतक्षेत्रस्य धनुःपृष्टवर्गः सप्तकः षट्को द्विकोऽष्टौ च शून्याः। तम्मात् तेहि य पव्वइयवं, जहा य न करेह अंतरायण्हे। जीवावर्गः सप्तकः पञ्चकः षट्कोऽष्टोशून्यानि।७५६०००००००० तस्य ते पव्वइया संतो, वोहेहिंती जणं बहूगं च / / 3 / / षभिर्भागे हुते जात एक कोऽष्टौ शून्यानि 100000000 एतस्य वर्गमूलनयने लब्धानि दशसहस्राणि कलानां तासामेकोनविंशत्या भागे तं वयणं सोऊणं, नगराओ निति ते वयग्गामं / हृते लब्धानि योजनानां पञ्चशतानि षड्वंशत्यधिकानि षट् कलाः वटृति य ते जहियं, गाहंति य णं असन्मावं // 4 // एतावान् भरतक्षेत्रस्येषुः। एवं सर्वेषामपि क्षेत्राणामिषव आनेतव्याः। ओ एए समणा वुत्ता, पेयपिसायपोरसादाय। १०पाहु। मा तेसिं अल्लियहा, सा मे पुत्ता विणासेज्जा / / 5 / / Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार ११८६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार इट्टण तहिं समणे, जाइ पोराणियं च सरिऊण / बोहिं तम्मापियरो, उसुयारं रायपत्तिं च // 6 // सीमंधराय राया, भिग्गू य वासिहरायपत्तियं / वंभणी दारगा चेव, छप्पए परिनिव्वुया // 7 // आसामक्षरार्थः स्पष्ट एव नवरं (संघडियत्ति) सम्यग्घटिताः पर-स्परं स्नेहेन संबद्धा वयस्या इति यावत् तेऽपि कदाचिद्विगलितान्तरप्रीतयोऽपि दाक्षिण्यजनलज्जास्तेस्तथा स्युरत आह / संप्रीताः सम्यगान्तरप्रीतिभाजस्तथाऽन्योन्यमनुरक्ता अतिशयख्यापनफलत्वादस्यात्यन्तस्नेहभाजः / अथवा (संघाडियत्ति) देशीपदमव्युत्पन्नमेव। मित्राभिधायि प्रीतिर्बाह्यानुरागः स्वभावतः प्रतिबन्धः पठ्यते च (घडियाउत्ति) घटिता मिलितास्तथा (भोगभोगेत्ति) भोक्तुं योग्या ये भोग्या भोगास्तान भोग्यभोगान् भोगभोगान्वाऽतिशायिनो भोगान्पाठान्तरतः कामभोगान्वा (णिग्गंथापव्वए समणत्ति) निर्ग्रन्थारत्यक्तग्रन्थाः प्राव्रजत् प्रव्रज्यां गृहीतवन्तस्ततश्च श्रमणतपस्विनोऽपि अभूवन्निति शेषः (दुयग्गाविति) देशीपदं प्रक्रमाच्छ्युत्वा द्वायपि दम्पती तथा अन्तरायं विघ्नं (ण्हेत्ति) अनयोस्तथा (णिंति-त्ति) नियोन्त्याधिक्येन गच्छन्ति कं व्रजग्रामं गोकुलप्रायग्रामं प्रत्यन्तग्राममित्यर्थः (गाहेंति असब्भावंति) ग्राहयतोऽसद्भावमसन्तमसुन्दरं चाथ साधुप्रेतत्वादिलक्षणं प्रेता भूताः पिशाचाः पिशाचनिकायोत्पन्नाः पौरुषादाश्च प्रस्तावतः पुरुषसंबन्धिमांसभक्षका राक्षसा इति यावत् (तेसिंति) सूत्रत्वात् तान् श्रमणान् (अल्लियहत्ति) आलीयेतामाश्रयेताम्। किमित्यत आहमा (भे) भवन्तौ पुत्रौ विनश्येतामिति। अत्र चेषुकारमिति राज्यकालनाम्ना सीमन्धरश्चेति मौलिकनाम्ना इति संभावयाम इति गाथैकादशावयवार्थः / भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः स चायं' जे तो दोन्नि गोवदारया साहुअणुकंपाए लद्धसम्मत्ता कालं काऊण देवलोगे उ चत्ता ते तओ देवलोगाओ चइउ खिइप्पइट्ठणयरे इडभकुले दो विभायरा जाया। तत्थ तेसिं अन्ने वि चत्तारि इन्भदारगा वयंसया जाया तत्थ वि भोगे भुंजिउंतहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मंसोऊण पव्वत्तिया सुविरकालं संजमं अनुपालेऊण भत्तपचक्खाउं कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पउमगुम्मविमाणे छा विजणा चउपालेउओवमद्वितिया देवा उववन्ना। तत्थजे ते गोववज्जादेवा तेचइऊण कुरुजणवए उसुयारपुरेएगो उसुयारो णाम राया जाओ वीओतस्सेव महादेवी कमलावती नाम संवुत्ता तइओ तस्स चेव राइयो भिगू नाम पुरोहिओ संवुत्तो धउत्थो तस्स चेव पुरोहियस्स भारिया संवुत्ता। वसिट्ठगोत्तेण जसा नाम सोय भिगू अणवचो गाढं तप्पए अवचनिमित्तं उवावगएदेवंयाणि पुच्छइनेमित्तिए। तेय दो वि पुव्वभवगो वा देवभवे वट्टमाणा ओहिणा जाणिउ जहा अम्हे एयस्स भिगुस्स पुरोहियस्स पुत्ता भविस्सामोतओसमणरूवंकाऊण उवागया भिगुसमीवं भिगुणा संभारिएण य वंदिया सुहासणत्था य धम्म कहेंति दोहिं वि सावगवयाणि गहियाणि / पुरोहिएण भन्नइ भगवं अम्हं अवचं होजति साहूहिं भणइ भविरसति दुवेदारगातेय डहरगा चेव पव्वइस्संति तेसिं तुब्भेहिं वाघातो न कायव्यो पव्वयंताणं तेसु बहुजणं संबोहिस्संति भणिऊण पडिगया देवा णाइचिरेण य चइऊण य तास पुरोहियस्स भारियाए वासिट्ठीए दुवे उदरे पञ्चायाया। तओ सो पुरोहिओ सभारिओ णयरविणिग्गओ पचंतगामे ठिओ व तत्थेव सा माहणी पसूया दारगा जाया ततो मा पव्वइरसंतित्ति का मायावित्तेहिं वुग्गाहिजंति जहां एए | पव्वइयगा डिक्करूवाइंधेत्तुमारेंति पच्छा तेसिं मंसं खायंति तं मा तुभे कयाईएएसिं अल्लिइस्सहा अन्नया तेतम्मि गामे रमंता बाहे निग्गया। इओ य अट्ठाणपडिवन्नया साहू आगच्छति ततो ते दारगा साहूं दवण भयभीया पलायंता णं एगम्मि वडपायवे आरूढा साहूणो समावत्तीए गहियभत्तपाणा तम्मि चेव वटपायवबहिडे ठिया मुहूत्तं च वीस्ममिऊणं भुंजिउं पयत्ता ते वडारूढापासंति साभावियं भत्तपाणं णत्थि मंसंति / तओ चिंतिउं पयत्ताकत्थ अम्हेहिं एयारिसाणि रूवाणि दिदुपुटवाणि त्ति जाई संभरिया संबुद्धा साहूणो वंदिउं गया अम्मापिउसमीवं मायावित्तं संबोहिऊण सह मायादित्तेण पव्वत्तिया देवी संबुद्धा देवीए गया संबोहिओ ताणि वि पव्वइयाणि / एवं ताणि छा वि के वलनाणं पाविऊण निव्याणमुवगयाणि त्ति " / इह तु सूत्रो-क्तस्यार्थस्याभिधानं प्रसङ्गत इत्यदोषः / उक्तो नाम निष्पन्ननि-क्षेपः। , संप्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं तचेदम्॥ देवा भवित्ताण पूरे भवम्मि, केई चुया एगविमाणवासी। पुरे पुराणे उसुयारणामे, खाए समिद्धे सुरलोयरम्मे // 1 // सकम्मसेसेण पुरा करणं, कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया। निविण्णसंसारभया जहा य, जिणिंदमग्गं सरणं पवण्णा // 2 // देवाः सूरा भूत्वोत्पद्य पुरे (भवम्मित्ति) अनन्तरातीतजन्मनि केचिदित्पनिर्दिष्ट नामानश्च ता भ्रष्टा एकस्मिन् पद्मगुल्मनाम्नि विमाने वसन्तीत्येवंशीला एकविमानवासिनः पुरे नगरे पुराणे चिरन्तने इषुकारनाम्नि ख्याते प्रथिते समृद्धे ऋद्धिमत्यत एव सुरलोकरम्ये देवलोकवद्रमणीये ते च किं सर्वथोपभुक्तेपुण्या एवततश्च्युता उतान्ययेत्याह / स्वमात्मीयं कर्म पुण्यप्रकृतिलक्षणं तस्य शेषमुद्वरित स्वकर्मशेषस्तेन लक्षणे तृतीया पुराकृतेन पूर्वजन्मान्तरोपार्जितेन कुलेष्वन्वयेषु उदारेषु उचेषु चः पुरणे तइति ये देवाः भूत्या च्युताः प्रसूता उत्पन्नाः (निविणत्ति) आषेन्वान्निर्विण्णा उद्विग्नाः कुतः संसारभवात् यान्ति परित्यज्य भोगादीनिति गम्यते / किमित्याह जिनेन्द्रमार्ग तीर्थकृदुपदर्शितं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्मकं मुक्तिपथं शरणमपायरक्षाक्षममाश्रयं प्रपन्ना अभ्युपगता इत्यध्ययनार्थसूच-नम्। कश्च किं रूपः सह जिनेन्द्रमार्ग प्रतिपन्न इत्याह। पुमत्तमागम्म कुमारदेवी, पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती। विसाल कत्ताय तहोसुयारो, रायत्थदेवी कमलायई य॥ 3 // पुस्त्वं पुरुषत्वमागम्य प्राप्य कुमारावकृतपाणिग्रहणौ द्वौ अपि पूणे सुलभबोधिकत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ वाऽनयोः पूर्वमुपादान पुरोहितस्तृतीयः। तस्य जसा च नाम्ना पत्नी चतुर्थः / विशालकीर्तिश्च विस्तीर्णयशाश्व तेष्विषुकारो नाम राजा पञ्चमः / अत्रैतस्मिन् भवे देवाति प्रधानपत्नी प्रक्रमात्तस्यैव राज्ञः कमलावती च नाम्ना षष्ठ इति सूत्रत्रयार्थः / संप्रति यथैतेषु जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिः कुमारयोर्जाता तथा दर्शयितुमाह। जाईजरामच्चुभयाभिभूए, वहिं विहारामिनिविट्ठचित्ता। संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा, दQण ते कामगुणे विरत्ती॥ 4 // पियपुत्तगा दोन्नि विमाहणस्स, सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स। सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिन्नं तव संजमंच / / 5 / / Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1187- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार जातिर्जन्म जराविश्रसा मृत्युः प्राणत्यागलक्षणस्तेभ्यो भयं सा-ध्वसं तेनाभिभूतौ बाधितौ जातिजरामृत्युभयाभिभूतौ पाठान्तरतश्च जातिजरामृत्युभयाभिभूते सत्यर्थात्संसारिजने बहिः संसाराद्विहारः स चार्थान्मोक्षस्तस्मिन्नभिनिविष्टं वधाग्रहं चित्तमन्तःकरणं ययोस्तौ तथा संसारश्चक्रमिव चक्रं भ्रमणोपलक्षितत्वात्संसारचक्रं तस्य विमोक्षणार्थ - परित्यागनिमित्तं दृष्ट्वा निरीक्ष्य साधूनिति शेषः यद्वा दृष्ट्वेति प्रेक्ष्य मुक्तिपरिपन्थिनोऽमी कामगुणा इति पर्यालोच्य तावनन्तरोक्तो (कामगुणेत्ति) सुब्ब्यत्ययात् कामगुणेभ्यः शब्दादिभ्यो विषयसप्तमी वा विरक्तौ प्रामुखीभूतौ प्रियौ वल्लभौ तौ चतौ पुत्रावेव पुत्रकौ च प्रियपुत्रौ द्वावपि नैक एव इत्यपि शब्दार्थो माहनस्य ब्राह्मणस्य स्वकर्मशीलस्य यजनयाजनादिस्वकीयानुष्ठाननिरतस्य पुराहितस्य शान्तिकर्तुः (सुमरितुत्ति) स्मृत्वा (पाराणयत्ति) सूत्रत्वात् पुराणमेव पौराणिकी चिरंतनी तत्रेति सन्निवेशे कुमारभावे वा वर्तमानाविति शेषः जातिजन्म तथा (सुचिण्णंति) सुचीर्ण सुचरितं वा निदानादिनाऽनुपहतत्वात् तपोऽनशनादि प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः संयमं च तपःसंयममिति समाहारद्वन्द्वो वाऽत्र कामगुणविरक्तिरेव जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिरिति सूत्रद्वयार्थः। ततस्तौ किमका मित्याह / / ते कामभोगेसु असज्जमाणा, माणुस्तएसं जे यावि दिव्वा। मोक्खाभिकंखी अमिजायसद्धा,तायं उवागम्म इमं उदाहु॥६॥ तौ पुरोहितपुत्रौ कामभोगेषूक्तरूपेषु (असज्जमाणत्ति) असंयतौ सङ्गमकुर्वन्तौ मानुष्यकेषुमनुजसंबन्धिषु ये चापि दिव्या देवसंब-न्धिनः कामभोगास्तेषु चेति प्रक्रमः मोक्षाभिकाङ्गिणौ मुक्त्यभिलाषिणावभिजातश्रद्धावुत्पन्नतत्वरुची तातं पितरमुपागम्येदं वक्ष्यमाणं (उदाहुत्ति) उदाहरतांतयोर्हि साधुदर्शनान्तरं क्व अस्माभिरित्थंभूतानि रूपाणि पुराऽपि दृष्टानीति चिन्तयतोर्जातिस्मरणमुत्पन्नं ततो जातवेराग्यौ प्रव्रज्याभिमुखावात्ममुत्कलीकरणाय तयोश्च प्रतिबोधोत्पादनाय वक्ष्यमाणमुक्तवन्ताविति सूत्रार्थः / यच्च तावुक्तवन्तौ तदाह। असामयं दट्ठ इमं बिहारं, बहु अंतरायं ण य दीहमाउं। तम्हा गिहम्मी न रहं लहामो, आमंतयामो चरिसामो मोणं // अशास्वतमनित्यं दृष्ट्वेमं प्रत्यक्षं विहरणं विहारं मनुष्यत्वेनावस्थानामत्यर्थः / भण्यते हि (भोगाई भुंजमाणे विहरतित्ति) किमित्येवमत आह / बहवः प्रभूता अन्तराया विघ्ना व्याध्यादयो यस्य तद्ब्रहन्तरायं बह्वन्तरायमपि दीर्घत्वावस्थायि स्यादित्याह 1 न च नैव दीर्घ दीर्घकालस्थित्यायुर्जीवितं संप्रति पल्योपमायुष्कताया अप्यभावात् यत एवं सर्वमनित्यं तस्मात् (गिहम्मित्ति) गृहे वेश्मनि न रतिधृति (लभामोत्ति)लभावहे प्राष्भुवः अतश्चामन्त्रयावः पृच्छाव आवां यथा चरिस्यावः आसेविप्याबहे मौनं मुनिभावं संयममिति सूत्रार्थः। एवं च ताभ्यामुक्ते। अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं, तवस्स वाघायकर वयासी। इमं वयं वेयविदो वयंति, जहाण होई अमुयाण लोगो // 8 // अहिज्जवेएपरिविस्स विप्पे, पुत्ते परिठ्ठप्प गिहंसि जाया। भुत्ताण भोगे सहइत्थियाहिं, आरणगा होहिमुणी पसत्था / अथानन्तरं तायते सन्तानं कराति पालयति सर्वापदय इति तातः स एव तातकस्तव तस्मिन्निवेशेऽवसर वा मुन्योर्भावतः प्रतिपन्नमुनिभावयोः तयोः कुमारयोस्तपसोऽनशनादेरुपलक्षणत्वा च्छेषसम्मानुष्ठानस्य च व्याघातकरं वाधाविषयिवचनमिति शेषः (घयासित्ति) अवादीत् यदवादीत्तदाहेमां वाचं वेदविदो वदन्ति प्रतिपादयन्ति यथा न भवति जायते असुतानामविद्यमानपुत्राणां लोकः तं विना पिण्डप्रदानाद्यभावे गत्याद्यभावात्तथा वेदयधः अतपत्यस्य लोका नसन्ति तथाऽन्यैरप्युक्तं "पुत्रेण जायते लोक "इत्येषा वैदिकी श्रुतिः। "अथ पुत्रस्यपुत्रेण, स्वर्गलोके महीयते" तथा" अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गा नैव च नेव च / गहिधर्ममनुष्ठाय,तेन स्वर्गे गमिष्यति"यत एवं तस्मादधीत्य पठित्वा वेदानृग्वेदादीन् परिवेश्य भोजयित्या विप्रान् ब्राह्मणान् तथा पुत्रान् प्रतिष्ठाप्य कलाकलत्रग्रहणादिना गृहस्थधर्मे निवेश्य कीदृशः पुत्रान् गृहे जातान्न तु गृहीतप्रतिपत्रकादीत्पाठान्तरे च पुत्रान्परिष्ठाप्य स्वामित्वे निवे-श्य गृहे (जायत्ति) गृहे जातौ पुत्रौ भुक्त्या णमिति वाक्यालङ्कारे भोगान् शब्दादीन सह स्त्रीभिनीरीभिस्ततोऽरण्ये भवौ आरण्यौ"आरण्याण्णो वक्तव्य इति ण प्रत्ययः " आरण्यावेवारण्यकावा-रण्यकव्रतधारिणौ (होहित्ति) भवतः संपद्येथां युवां मुनी तपस्विनौ प्रशस्तौलाध्यावित्थमेव ब्रह्मचर्याद्याश्रमव्यवस्थानादुक्तं हि "ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वाणप्रस्था यतिस्तथेति" इह चाधीत्य वेदानित्यनेन ब्रह्मचर्याश्रम उक्तः परिवेश्येत्यादिना च गृहाश्रम आरण्यकावित्यनेनच वाणप्रस्थाश्रमः मुनिग्रहणेन च यत्याश्रम इति सूत्र-द्वयार्थः / ___ इत्थं तेनोक्तौ कुमारको यदकार्टा तदाह / सो अग्गिणा आयगुणिंधणेणं, मोहानिला पज्जलणाहिएणं / संतत्तभावं परितप्पमाणं, लोलुप्पमाणं बहुहा बहुं च / / 10 / / पुरोहियं तक्कमसो गुणंतं,णिमंतयंतं च सुए धणेणं / जहक्कम कामगुणेसू चेव, कुमारगा ते पसमिक्ख चक्कं // 11 // वेया अहाया ण हवंति ताणं, मुत्तादिया णिति तमं तमेणं। जाया य पुत्ता ण भवंति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज एयं // 12 // खणमत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा, पकामदुक्खा आणकामपोक्खा। संसारमोक्खस्स विवक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ काममोगा // 13 // परिय्वयंते अणियत्तकामे, अहो य राओ परितप्पमाणे / अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे, पप्पेति मचुं पुरिसो जरं च // 14 // इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किब इमं अकिचं। तं एवमेवं लोलुप्पमाणे, हरा हरति त्ति कहं पमाए / / 15 / / सुतवियोगसंभावनाजनितं मनोदुःखमिह शोकः स चाग्निरिव शोकाग्निस्तेन आत्मनो गुणा आत्मगुणाः कर्मक्षयोपशमादिसमुद्भूताः सम्यग्दर्शनादयस्ते इन्धनं दाह्यतया यस्य स तथा त्नादि कालसहचरितत्वेन रागादयो वात्मगुणास्ते इन्धनमुद्दीपकतया यस्य स तथा तेन / मोहो मूढता अज्ञानामति यावत् सोऽनिल इव मोहानिलस्तस्यादधिकं महानगरदाहादिभ्योऽप्यनर्गल प्रज्वलनं प्रकर्षेण दीपनमस्येति अधिक प्रज्वलनो यद्वा प्रज्वलने - Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार नाविक इतराग्न्यपेक्षया यस्तेन पूर्वत्र प्राकृतत्वादाधिकशब्दस्य परनिपातस्तथा समिति समन्तात्तप्त इव तप्तोऽनिर्वृत्तत्वेन भावोऽन्तः करणमस्येति सन्तप्तभावस्तमत एव च परितप्यमानं समन्तादह्यमानमर्थाच्छरीरे तद्दाहस्यापि शोकावेशत उत्पत्तेर्लोलुप्यमानं तद्वियोगशङ्कावशोत्पन्नदुःखपरशुभिरतिशयेन हृदि छिद्यमानम्। वृद्धास्तु व्याचक्षते (लोलुप्पमाणंति) लोलुप्यमानं " भरणपोसणकुलसंताणसु य तुटभ भविस्सहत्ति “बहुधा अनेकप्रकारं बहु च प्रभूतं यथा भवत्येवं लोलुप्यमानं वेति संबन्धः / पुरोहितं पुरो वसन्तमिति प्रक्रान्तं (कमसोत्ति) क्रमेण परिपाट्या तु नयन्तः स्वाभिप्रायेण प्रज्ञापयन्तं निमन्त्रयन्तं च भोगैरुपच्छन्दयन्तं सुतौ पुत्रौ धनेन द्रव्येण यथाक्रम क्रमानतिक्रमेण कामगुणैरभिलषणीयशब्दादिविषयैः पाठान्तरतः कामगुणेषु वा चः समुच्चये एवेति पूरणे कुमारको तावनन्तरप्रक्रान्तौ प्रसमीक्ष्य प्रकर्षण ज्ञानाच्छादितमतिमालोच्य वाक्यं वक्ष्यमाणमुक्तवन्ताविति गम्यते / किं तदित्याह / वेदा ऋग्वेदादयोऽधीताः पठिता न भवन्ति जायन्ते त्राणं शरणं तदध्ययनमात्रतो दुर्गतिपतनरक्षणासिद्धेः / उक्तं हि तैरपि " अकारणमधीयानो, ब्राह्मणस्तुयुधिष्ठिर! दुष्कलेनाप्यधीयन्ते, शीलं तु मम रोचते " तथा " शिल्पमध्ययनं नाम, वृत्तं ब्राह्मणलक्षणम् / वृत्तस्थं ब्राह्मणं प्राहुर्नेतरान् वेदजीवकान् " तथा (भुजुत्ति) अन्तर्भावितण्यर्थत्वाभाजिता द्विजा ब्राह्मणा नयन्ति प्रापयन्ति तमो रूपत्वात्तमो नरकस्तमसा ज्ञानेन यद्वा तमसोऽपि यत्तमस्तस्मिन्न-तिरौद्ररौरवादिनरके णमिति वाक्यालङ्कारे ते हि भोजिता कुमार्ग-प्ररूपणपशुवधादावेव कर्मोपचयनिबन्धने असद्व्यापारे प्रवर्तन्त इति तत्प्रवर्तनतस्तद्भोजनस्य नरकगतिहेतुत्वमेवानेन च तेषां निस्तारकत्वं दुरापास्तमित्यर्थादुक्तम्। तथा जाताश्चोत्पन्ना पुत्राः सुता न भवन्ति त्राणं शरणं नरकादिकुगतौ निपततामिति गम्यते / उक्तं हि / तन्मतानुसारिभिरपि " यदि पुत्राद्भवेत्स्वर्गो, दानधर्मो न विद्यते / मुषितस्तत्र लोकोऽयं, दानधर्मो, निरर्थकः / बहुपुत्रा दुली गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च। तेषां च प्रथम स्वर्गः, पश्वाल्लोको गमिष्यति “यतश्चैवं ततः को नाम न कश्चित्संभाव्यते यस्ते तव अनुमन्येत शोभनमिदमित्यनुजानीयात्स विवेक इति गम्यते / एतदनन्तरमुक्तं वेदाध्ययनादित्रितयमितिभुक्त्वा भोगानिति चतुर्थोपदेशप्रतिवचनमाह। क्षणमात्र सौख्यं येषु ते तथा बहुकालं नरकादिषु दुःखं शारीरं मानसं च येभ्यस्ते तथा विधाः कदाचित् स्वल्पकालमपि सुखमतिशायिस्यात् दुःखं त्वन्यथेति स्वप्नकालमपि तद्बहुकालभाविनोऽपि दुःखस्योपहन्तृस्यादत आह। प्रकाममतिशयेन दुःखं येभ्यस्त तथा अनिकामसौख्या अपकृष्टसुखाः। ई-दृशेऽप्यायतौ शुभफलाः स्युरत आह। संसारमोक्षो विश्लेषः संसारमोक्षो निर्वृतिरित्यर्थः तस्य विपक्षभूतास्तत्प्रतिबन्धकतयाऽत्यन्तप्रतिकूलाः किमित्येवंविधास्त इत्याह ! खनिरिव खनिराकरोऽनर्थानामिहपरलोक दुःखावाप्तिरूपाणां तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः खनिरेवक एवंविधाः कामभोगा उक्तरूपाः / अनर्थखनित्वमेव स्पष्टयितुमाह / परिव्रजन् विषयसुखलाभार्थमितस्ततो भ्राम्यन् न निवृत्तकामोऽनुपरतेच्छः सन् (अहो य रायत्ति) आर्षत्वाचस्य च भिन्नक्रमत्वादहि रात्रौ च अहर्निशमिति यावत् परितप्यमानस्तत्तदवाप्तौ समन्ताचिन्ताग्निना दह्यमानः अन्ये सुहृतः स्वजनादयोऽथवाऽन्नं भोजन तदर्थ प्रमत्तस्तत्कृत्यसक्तवता अन्यप्रमत्तः अन्नप्रमत्तो वा धनं वित्तम् (एसमाणि त्ति) एषयन विविधोपायैर्गवेषयमाणः (पप्पोतित्ति) प्राप्नोति मृत्युं प्राणत्यागं कोऽसौ पुरुषो जरां च क्योहानिलक्षणां किं च इदं च मे मम अस्ति रजतरूप्यादि इदं च नास्ति पद्मारागादि इदं च मे मम कृत्यं कर्तव्यं गृहप्राकारादि इदमकृत्यं प्रारब्धमपि वणिजादिना न कर्तुमुचितं तमिति पुरुषमेवमेव वृथैव लोलुप्यमानमत्यर्थ व्यक्तवाचा वदन्ति हरन्त्यपनयन्ति आयुरिति हरादिरजन्यादयो व्याधिविशेषा वा हरन्ति जन्मान्तरं नयन्ति उपसंहर्तुमाह / इतीत्यस्माद्धेतोः कथं केन प्रकारेण प्रमादो उद्यमः प्रक्रमाद्धार्मे कर्तुमुचित इति शेष इति सूत्रषट्कार्थः। संप्रति तौ धनादिर्लोभयितुं पुरोहितः प्राह / धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पकामा। तवं कए तप्पइ जस्स लोगो,तं सव्वसाहीणमिहेव तुम्भ|१६|| धनं द्रव्यं प्रभूतं प्रचुर सह स्त्रीभिः समं नारीभिः स्वजनाः पितृपितृव्यादयः तथा कामगुणाः शब्दादयः (पगामत्ति) प्रकामा अतिशायिनस्तपः कष्टानुष्ठानं कृते निमित्तं तप्यते अनुतिष्ठति यस्य धनादेर्लोको जनस्तत्सर्वमशेष स्वाधीनमात्मायत्तमिहैवास्मिन्नेव गृहे (तुब्भत्ति) सूत्रत्वाधुवयोर्यद्यपि तयोः स्त्रियस्तदा न सन्ति तथाऽपि तदवाप्तियोग्यताऽस्तीति तासामभिधानमिति सूत्रार्थः / तत्र हेतुः। धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेहिं वा कामगुणेहि चेव। समणा भविस्साम गुणोघधारी, वहे विहारोअमिगम्म भिक्खू // 17 // धनेन द्रव्येण किं न किञ्चिदपीत्यर्थः / धर्मा एवातिसात्विकैरुयमानतया धूरिव धूधर्मधुरा तदधिकारे तत्प्रस्ताये स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव तथा च वेदेऽप्युक्तम्।" न प्रजया न धनेन न त्यागेनैके नामृतत्वमानसु" रित्यादि ततः श्रमणौ तपस्विनौ भविष्यावो गुणौघ सम्यग्दर्शनादिगुणसमूहं धारयतः इत्येवं शीलौ गुणौधधारिणौ बहिर्गामनगरादिभ्यो बहिर्वर्तित्वाद् द्रव्यतो भावतश्च क्वचिदप्यप्रतिबद्धत्वात् विहारो विहरणं ययोस्तो बहिर्विहारावप्रतिबद्धविहाराविति यावत् अभिगम्याश्रित्य भिक्षांशुद्धोद्गतामेवाहारयन्ताविति भाव इति सूत्रार्थः / आत्माऽस्तित्वमूलत्वात्सकलधानुष्ठानस्येति तन्निराकरणायाह पुरोहितः। जहा य अग्गी अरणी यसंतो, खीरे घयंतिल्लमहातिलेसु / एमेव जाया सरीरम्मिसत्ता, समुच्छई णासइणावचिट्टे // 18 // यथेत्यौषम्ये चशब्दोऽवधारणे यथैवाग्निर्वैश्वानरो (अरणीति) अरणितोऽग्निमन्थनकाष्ठादसन्नविद्यमान एव संमूर्च्छति तथा क्षीरे घृतं तैलमथ तिलेषु एवमेव हे जातौ पुत्रौ (सरीरम्मित्ति) शरीरे काये सत्वाः प्राणिनः (संमुच्छइत्ति) समूर्छयन्ति पूर्वमसत एव शरीराकारपरिणतभूतसमुदायत उत्पद्यन्ते तथा चाहुः पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तल्यानि एतेभ्यश्चैतन्यं मद्याङ्गेभ्यो मदशक्ति वत् तथा (णासइति) नश्यन्त्यभ्रपटलवत्प्रलय मुपयान्ति (नावचिट्ठित्ति) न पुनरवतिष्ठन्ते शरीरनाशे सति क्षणमप्यवस्थितिभाजो भवन्ति। यद्वा शरीरे सत्यप्यमी सत्वान सन्ति नावतिष्ठन्ते जलबुबुदवज्जीवः अत्र च प्रत्यक्षतोऽनुपलम्भ एव प्रमाणं न ह्यसौ शरीरे शरीरव्यतिरिक्तो वा भवान्तर Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1189 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार प्राप्तौ प्रत्यक्षत उपलभ्यत इति नास्ति शशिविषाणवदिति भाव इति / सूत्रार्थः / कुमारकावाहतुः। णोइंदियग्गिज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावो विय होइ नियो। अब्भत्थहेउं नियतस्स बंधो, संसारहेउं च वयंति बंधं / / 16 // नो इति निषेधे इन्द्रियैः श्रोत्रादिभिग्राह्यः सत्व इति प्रक्रमात्सत्वादयमिन्द्रियग्राह्य इत्याशक्याह / अमूर्तभावादिन्द्रियग्राह्यरूपाद्यभावात् अयमाशयः यदिन्द्रियग्राह्य सन्नोपलभ्यते तदसदिति निश्चीयते यथा प्रदेशविशेष घटो यत्तु तद्ग्राह्यमेव न भवति न तस्यानुपलम्भेऽप्यभावनिश्चयः पिशाचादिवत्तद्विषयानुपलम्भस्य संशयहेतुत्वात् / न च साधकप्रमाणाभावात्संशयविषयतैवास्त्विति वाच्यं तत्साधकस्यानुमानस्य सद्भावात् तथा ह्यस्त्यात्मा अहं पश्यामि जिवामीत्याद्यनुगत्य प्रत्ययान्यथानुपपत्तेरात्मा भावे हीन्द्रियाण्येव दृष्टानि स्युस्तेषु च परस्परं भिन्नेष्वहं पश्यामि जिव्रामी-त्यादिरनुगतोऽहमिति प्रत्ययोऽनेकेष्विव प्रतिपन्नेषु न स्यात् / उक्तं हि।" अहं शृणोमि पश्यामि, जिघ्राम्यास्वादयामि च / चेतयाम्यध्यवस्यामि, बुध्यामीत्येवमस्तिसः "॥१॥वृद्धास्तु व्याचक्षते अमूर्तत्वान्नोइन्द्रियग्राह्यो नो इन्द्रियं च मनो मनसश्चात्मैवातः स्वप्रत्यक्ष एवायमात्मा कस्मादुच्यते त्रैकाल्यकार्यव्यपदेशत्वात्तद्यथा // कृतवानहं करोम्यह करिष्याम्यहम् , उक्तवानहं ब्रवीम्यहं वक्ष्याम्यहं, ज्ञातवानहं जानेऽज्ञास्येऽहमिति / योऽयं त्रिकालकार्यव्यपदेशहेतुरहं प्रत्ययो नायमानुमानिको नचागमिकः किं तर्हि प्रत्यक्षकृत एवमने नैव आत्मानं प्रतिपद्यस्वनायमनात्मके घटादादुपलभ्यत इति। तथा अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः तथा हि यदव्यत्व सत्यमूर्त तन्नित्यं यथा व्योम अमूर्तश्चायं द्रव्यत्वे सत्यनेन विनाशानवस्थाने प्रत्युक्तो नचैवममूर्तत्वादेव तस्य बन्धासंभवे वा सर्वस्य सर्वदा तत्प्रसङ्ग इति वाच्यं यतः " अज्झप्पहेउं निययस्स बंधे "अध्यात्मशब्देन आत्मस्था मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते ततस्तद्धेतुस्तन्निमित्तः परस्थहेतुकृतत्वेऽतिप्रसङ्गादिदोषसंभवान्नियतो निश्चिता न संदिग्धो जगद्वेचित्र्यान्यथानुपपत्तेरस्य जन्तोर्बन्धः कर्मभिः संश्लेषो यथा ह्यमूर्तस्यापि व्योम्नो मूर्तेरपि घटादिभिः संबन्ध एवम-स्याप्यमूर्तेस्यापि मूर्तेरपि कर्मभिरसौ न विरुध्यते। तथा चाह"अरूपं हि यथाकाशं, रूपद्रव्यादिभाजनम्" तथा रूपी जीवोऽपि कर्मादिभाजनमिति मिथ्यात्वादिहेतुत्वाच न सर्वदा तत्प्रसङ्ग इत्यदोषः। एवं हि येषामेव मिथ्यात्वादितद्धेतुसंभवस्तेषामेवासौ न तु तद्विरहितानां सिद्धानामपि / तथा संसारश्चतुर्गतिपर्यटनरूपस्तद्धेतुं च तत्कारणं वदन्ति बन्धं कर्मबन्धनम् / एतेतामूर्तत्वाद् व्योम्न इव निष्क्रियत्वमपि निराकृतमिति सूत्रार्थः / यत एवमस्त्यात्मा नित्योऽत एव च भवान्तरयायो तस्य च बन्धो बन्धादेव मोक्ष इत्यतः। जहा वयं घम्ममयाणमाणा, पावं पुरा कम्ममकासि माहा। ओरुज्झमाणा परिरक्खयंता, तं नेव मुजो वि समायरामो // यथा येन प्रकारेण वयं धर्म सम्यग्दर्शनादिकमजानाना अनुवबुध्यमाना पापं पापहेतुं पुरा पूर्वं कर्म क्रियाम् (अकासित्ति) अकार्म कृतवन्तो मोहात्तत्वानवबोधात् अवरुध्यमाना गृहानिर्गममलभमानाः / परिरक्षमाणा अनुजीविभिरनुपाल्यमानाः (तदिति) पापकर्म (नेवत्ति) | नैव भूयोऽपि पुनरपि समाचरामोऽनुतिष्ठामो यतः संप्रत्युपलब्धमेवास्माभिर्वस्तुतत्वमिति भावः / सर्वत्र च / अस्मदोद्वयोश्च 1 / 2 / 56 / इति द्वित्वेऽपि बहुवचनमिति सूत्रार्थः॥ अन्माइयम्मिा लोगम्मि, सव्वओ परियारिए। अमोहाहिं पडतीहिं, गिर्हसि न रइं लभे // 21 // अभ्याहते आभिमुख्येन पीडिते लोके जने सर्वतः सासु दिक्षु परिवारिते परिवेष्टितेऽमोघाभिरबन्ध्यप्रहरणोपमाभिः पतन्नीभिरागच्छन्तीभिः (गिहंसित्ति) गृहं तस्य चोपलक्षणत्वात् गृहवासे न रतिमाशक्तिं लभामिलभावहे। यथा हि वागुरया वरिवेष्टितो मृगोऽमोधैश्च प्रहरणैयधेिनाभ्याहतो न रतिं लभते एवमावामपीति सूत्रार्थः / भृगुराह। केण अब्भाहतो लोगो, केण वा परियारिओ। को वा अमोहो वात्ता, जाया चिंतावरो हुमि / / 22 / / केन व्याधतुल्येनाभ्याहतो लोकः केन वा वागुरास्थानीयेन परिवारितः का वा अमोघा अमोधप्रहरणापमा अभ्याहतिः क्रियां प्रति करणतयोक्ता जातौ ! पुत्रौ ! चिन्तापगे (हुमिति) भवामि ततो ममावेद्यतामयमर्थ इति भाव इति सूत्रार्थः। तावाहतुः मच्चुणाब्भाहतो लोगो, जराए परियारिओ। अमोहा रयणी वोत्ता, एवं ताव विजाणह / / 23 // मृत्युनावृतान्तेनाभ्याहतो लोकरतस्य सर्वत्राप्रतिहतप्रसरत्वात्वात् जरया परिवारितः तस्या एव तदभिघातयोग्यतापादनपटीयस्त्वात् (अमोघारयण्णित्ति) रजन्य उक्ता दिवसाविनाभावित्वात्तासां दिवसाश्च तत्पतने ह्यवश्यंभावीजनस्याभिघातः एवं तात! विजानीतावगच्छतेति सूत्रार्थः / किं च। जाजा वनइ रयणी, ण सा पडि नियत्तई। अधम्म कुणमाणस्स, अफला होति राइओ॥ 24 // जा जा वच्चइ रयणी,ण सा पडिणियत्तइ। धम्म च कुणमाणस्स, सफला जति राइओ॥ 25 // या या (वचइत्ति) व्रजति रजनी रात्रिरुपलक्षणत्वाद्दिनं च न सा प्रतिनिवर्तते पुनरागच्छतितदागमने हिसर्वदा सैवैका जन्मरात्रिः स्यात्ततो न द्वितीया मरणरात्रिः कदाचित्प्रादुःस्यात्ताश्वधर्म्म कुर्वतो जन्तोरिति गम्यते अपला सन्ति रात्रयोऽधम्मे निबन्धनं च गृहस्थतेत्यायुषोऽनित्यत्वादधर्मकरणे तस्य निष्फलत्वात्तत्परित्याग एव श्रेयानिति भावः / इत्थं व्यतिरेकद्वारेण प्रव्रज्याप्रतिपत्तिहेतुत्वमभिधाय तमेवान्वयमुखेनाह। (जाजेत्यादि) पूर्ववत नवरं (धम्मंचत्ति) चशब्दः पुनरर्थे धर्म पुनः कुर्चत सफला धम्मलक्षणफलो-पार्जनतो न च व्रतप्रतिपत्तिं विनाधर्म्म इत्यतो व्रतं प्रतिपत्स्यावहि इत्यभिप्राय इति सूत्रद्वयार्थः / इत्थं कुमारवचनादाविर्भूतसम्यक्त्वस्तद्वचनमेव पुरस्कुर्वन् भृगुराह।। एगओ संवसित्ताणं, दुहओ सम्मत्तसंजुया। पच्छा जाया गमिस्सामो, मिक्खमाणा कुले कुले // 26 / / एकत एक स्मिन् स्थाने सडुष्य सहे वो सित्वा (दुहउत्ति) द्वय Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार ११९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसूयार च द्वयं च द्वये आवां युवां च व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं पुरुषप्राधान्याच नास्ति न विद्यते वासोऽवस्थानं मम गृह इति गम्यते वाशिष्ठे ! पुंल्लिङ्गता सम्यक्त्वेन संयुताः सहिता उपलक्षणत्वादेशविरत्या च वशिष्ठगोत्रोद्भवे ! गौरवख्यापनार्थं गोत्राभिधानं तच्च कथं नु नाम पश्चाद्यौवनावस्थोत्तरकालं कोऽर्थः पश्चिमे क्यसि जातौ ! पुत्रौ ! गमिष्यामो धर्माभिमुख्यमस्याः स्यादिति भिक्षाचर्याया भिक्षाटनस्योपलक्षणं व्रजिष्यामो वयं ग्रामनगरादिषु मासकल्पेन क्रमेणेति शेषोऽर्थाच प्रव्रज्यां चैतव्रतग्रहणस्य कालः प्रस्तावो वर्तत इति शेषः। किमित्येवमत आह। प्रतिपद्य भिक्षमाणा याचमानाः पिण्डादिकमिति गम्यते व कुले कुले गृहे शाखाभिः प्रतीताभिवृक्षो द्रुमो लभते प्राप्नोति समाधि स्वास्थ्य गृहे न त्वेकस्मिन्नेव वेश्मनि। किमुक्तं भवत्यज्ञातोच्छवृत्त्येति सूत्रार्थः / छिन्नाभिर्द्विधाकृताभिः शाखाभिस्तमेव वृक्षं यस्ताभिः समाधिमवाप्तवान् कुमारावाहतुः। (खाणुं ति) स्थाणुं जनो व्यपदिशतीति उपस्कारः / यथा हि तास्तस्य जस्सत्थि मन्चुणा सक्ख, जस्स वत्थि पलायणं / शोभासंरक्षणसहायकृत्यकरणादिना समाधितव एवं ममाप्येतो जो जाणइ न मरिस्सामि, सो तु कंखे सुए सिया // 27 / / सुतावतस्तद्विरहितोऽहमपि स्थाणुकल्प एवेति किं ममैवंविधस्य अजे व धम्म पडिवजयामो, स्वपरयोः किं चिदुपकारकमनवसृतमेव गृहवासेनेत्यभिप्रायः / किं च जहिं पवना ण पुणडमकमो। पक्षाभ्यां पतत्राभ्यां विहीनो विरहितः पक्षविहीनो वा दृष्टान्तान्तरसअणागयं नेव य अस्थि किंचि, मुचये यथेहास्मिन् लोके पक्षी विहङ्गमः पलायितुमप्यशक्त इति सद्धाखमं नो विणइत्तु राग / / 28 // मार्जारादिभिरभिभूयते यथा भृत्याः पदातयस्तद्विहीनो वा प्राग्वद्रणे संग्रामे नरेन्द्रो राजा शत्रुजनपराजयस्थानमेव जायते यथा विपन्नो यस्येत्यतिनिर्दिष्टस्वरूपस्यास्ति विद्यते मृत्युना कृतान्तेन सख्यं विनष्टसारो हिरण्यरत्नादिरस्येति विपन्नसारो वणिक् सांयात्रिको वेति मित्रत्वं, यस्य चास्ति पलायनं मृत्योरिति प्रक्रमः। तथा यो (जा-णत्ति) प्राग्वत्पोते प्रवहणे भिन्ने इति गम्यते नार्वाग् न च परत इत्युदधिमध्यवर्ती जानीते यथाऽहं न मरिष्यामि (सो हु कंखेसुएसियत्ति) स एव काङ्क्षति प्रार्थयते स्व आगामिनि दिने स्यादिदमिति गम्यतेनच कस्यचित् मृत्युना विपीदति पुत्रप्रहीणोऽस्मि तथा अहमपि कोऽर्थः पक्षभृत्यार्थसहायसह सख्यं ततो वा पलायनं तदभावज्ञानं वा अतोऽद्यैव धर्म प्रक्रमाद्याति भूताभ्यां विरहितोऽहमप्येवंविधएवेति सूत्रद्वयार्थः / / धर्म (पडिवज्जयामोत्ति) प्रतिपद्यामहे / तमेव फलोपदर्शनद्वारेण वाशिष्ट्याह। विशिनष्टि (जहेत्ति) आर्षत्वाद्यं धर्म प्रपन्ना आश्रिताः (नपुणब्भवामोत्ति) सुसंहिता कामगुणा इमीते, संपिं डया अग्गरसा पभूया। न पुनर्भविष्यामो न पुनर्जन्मानुभविष्यामस्तन्निबन्धनभूतकर्मापग मुंजामुता कामगुणे पकामं, पच्छा गमिस्सामो पहाए मग्गं / / माजरामरणाद्यभावोपलक्षणं चैतत्कथमनागतमप्राप्तनैव चास्ति सुष्ठ्वतिशयेन संभृताः संस्कृताः सुसंभृताः के ते कामगुणा वेणुवीकिञ्चिदतिमनोरममपि विषयसौख्याद्यनादौ संसारे सर्वस्य णाकलितकाकलीगीतादय इमे इति स्वगृहवर्तिनस्तान्प्रत्यक्षतया प्राप्तपूर्वत्वात्ततो न तदर्थमपि गृहावस्थानं युक्तमिति भावः / निर्दिशति ते तत्र तथा संपिण्डिताः सम्यक् पुजीकृताः (अगरसत्ति) यद्वाऽनागतमागतिविरहितं नैव चास्ति किंचित् किं तु सर्वमागतिमदेव चशब्दस्य गम्यमानत्वात् अग्रा रसाश्च प्रधाना मधुरादयश्च प्रभूताः प्रचुराः जरामरणादिव्यसनजातं ध्रुवं भावित्वादस्य ध्रुवस्थानम् / यद्वा अनागतं कामगुणान्तर्गतात्वेऽपि रसनापृथगुपादानमतिगृद्धिहेतुत्वाच्छब्दादिष्वपि यत्र मृत्योरागतिर्नास्ति तन्न किं चित् स्थानमस्ति यतश्चैवमतः श्रद्धाऽभिलाषः क्षमंयुक्तमिह लोकपरलोकयोः श्रेयःप्राप्तिनिमित्तमनुष्टानं चैषामेव प्रवर्तकत्वात्। कामगुणविशेषणं वा अग्रा रसास्त एव शृङ्गारादयो वा येषुत तथा। वृद्धास्त्वाहुः रसानां सुखानामग्रं रसागं ये कामगुणाः सूत्रे कर्तुमिति शेषः (णो-इति) नो अस्माकं विनयोपसाहाय्यकं रागं स्वजनाभिष्वङ्गलक्षणं तत्वतो हि कः कस्य स्वजनो न वा स्वजन इति। च प्राकृतत्वादग्रशब्दस्य पूर्वनिपातः (भोजामोति) भुञ्जीमहि तत्तस्माद्यस्मादमी सुसंभृतादि विशेषणविशिष्टा स्वाधीनाः सन्ति उक्तं च।" अयणं भंते जीवस्स सामाइत्ताए धूयत्ताए सुण्हत्ताए भज्जत्ताए स हि सयण-संबंधसंवुयत्ताए उववन्नपुव्वे हंता गोयमा ! असति अदुवा कामगुणानुक्तरूपान् प्रकाममतिशयेन ततो भुक्तभोगौ पश्चादिति अणंतखुत्तोत्ति" सूत्रद्वयार्थः / ततस्तयोर्वचनमाकर्ण्य पुरोहित वृद्धावस्थायां गमिष्यावः प्रतिपत्स्यावहे प्रधानमार्गमहापुरुषसेवितं उत्पन्नव्रत-ग्रहणपरिणामो ब्राह्मणी धर्मविघ्नकारिणीं मत्वेदमाह / / प्रव्रज्यारूपं मुक्तिपथमिति सूत्रार्थः। पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, पुरोहितः प्राह / वासिटिभिक्खायरियाए कालो। भुत्ता रसा भोइ जहाति णेवओ, साहाहि रुक्खो लभई समाहिं, ण जीवियट्ठा पयहामि भोए। छिण्णाहि साहाहिं तमेव खाणू / / 26 / / लाभं अलाभं च सुहं च दोक्खं, पंखाविहिणा व्द जहेव पक्खी, संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं // मिचटिवहीणो व्द रणे नरिंदो। भुक्ताः सेविता रसा मधुरादय उपलक्षणत्वाच्छेषकामगुणाश्च यद्वारसा इह विवन्नसारो वणिओ व्व पोते, सामान्येनैवास्वाद्यमानत्वादभोगा भण्यन्ते / (भोइत्ति) हे भवति ! पहीणपुत्तो मिह तहा अहं पि॥३०॥ आमन्त्रणवचनमेतत् जहाति त्यजति न इत्यस्मान् वयः शरीरावस्था प्रहीणौ प्रभृष्टौ पुत्रौ यस्मात्स प्रहीणपुत्रः / अथवा प्राकृते पूर्वापर | कालकृतोच्यते सा चेहाभिमतक्रियाकरणक्षमा गृह्यते ततश्च यद्भुक्ता निपातस्यातन्त्रत्वात्पुत्राभ्यां प्रहीणस्त्यक्तः पुत्रप्रहीणस्तस्य हः पूरणे / एवानेकशोभोगा वयश्चाभिमतक्रियाकरणकुमंजहाति उपलक्षणत्याजीवितं च Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार ततो यावन्नैतत्यजति तावद्दीक्षां प्रतिपद्यामहे इत्यभिप्रायस्तत् किं वयःस्थेाद्यर्थ दीक्षां प्रतिपद्यसे उच्यते कैश्चिद्दीक्षा वयःस्थैर्यादिविधायिनीत्याशक्याह नेति निषेधे जीवितमसंयमजीवितमुपलक्षणत्वाद्वयश्च तदर्थं प्रजहामि प्रकर्षणत्यजामि भोगान् शब्दान् किं तु लाभमभिमतवस्त्ववाप्तिरूपमलाभं च तदभावरूपं सुखमभिलषणीयविषयसंभोगजं चस्य भिन्नक्रमत्वात् दुःखं च वाधाऽऽत्मकं (संचिक्खमाणोत्ति) समतया ईक्षमाण पश्यन् किमुक्तं भवति लोभालोभयोस्तथा सुखदुःखयोरुपलक्षणत्वालीवितमरणादीनां च समतामेव भावयंश्चरिष्याम्यासेविष्ये किं तत् मौनं मुनिभावं ततो मुक्त्यर्थमेव मम दीक्षाप्रतिपत्तिरिति भाव इति सूत्रार्थः / वासिष्ठ-याह। मा हू तुमे सोयरियाण संहरे, जिण्णो व हंसो पडिसोयगामी। मुंजाहि भोगाई मए समाणं, दुक्खं खु मिक्खाचरियाविहारो॥३३॥ मा इति निषेधेहुरिति वाक्यालंकारे त्वंसोदरेशयिताः सोदर्याः सोदराद्य इति यः प्रत्ययः ते च समानकुक्षिभवा भ्रातरस्तेषामुपलक्षणत्वाच्छेषस्वजनानां भोगानां च (संभरित्ति) अस्मार्षीः क इव (जिण्णो व हंसोत्ति) इव शब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् जीर्णो वयोहानिमुपगतो हंस इव प्रधानपक्षीव प्रतिकूलः श्रोतः प्रतिश्रोतस्तद्गामी सन् किमुक्तं भवति यथाऽसौ नदीश्रोतस्यतिकष्ट प्रतिकूलगमनमारभ्यापि तत्राशक्तः पुनरनुश्रोत एवानुधावत्येवं भवानपि दुस्तरं संयमभारं वोढुमसमर्थः पुनः सहोदरान् सह भोगान् वा स्मरिष्यति तदिदमेवास्तुभुक्ष्व भोगान्मया (समाणंति) सुखदुःखहेतु (खुइति) खलु निश्चितं भिक्षाचर्या भिक्षाटनं विहारो ग्रामादिष्वप्रतिब-द्धविहारो दीक्षोपलक्षणं चैतदिति सूत्रार्थः। पुरोहित आह। जहा य भोई तणुयं भुजंगे, निम्मोयणं हेव्व पलेइ मुत्तो। / एमेय जाया पयहंति भोए, तेहं कहं नाणुगमिस्सएगो॥३४॥ छिंदितु जालं अवलंवरोहिया, मच्छा जहा कामगुणो पहाय। धीरेय मीलातवसा उदारा,घोराहु भिक्खायदियंचरंति॥३५॥ यथा च हेभवति ! पठ्यते त्ताहे भोगेत्ति तनुःशरीरं तत्र जातां तनुजां भुजगंमः सो निर्मोचनीये निर्मोकं हित्वा पर्येति समन्ताद्गच्छति मुक्त इति निरपेक्षोनाभिष्वक्त इत्यर्थः (समेतित्ति) एवमेतौ पठ्यते च (इमेतित्ति) अत्र च तथेति गम्यते तत्तथेमौ ते तवजातौ पुत्रौ प्रजहीतः प्रकर्षण त्यजतो भोगान्ततः किमित्याह तौ भोगांस्त्यजन्तौ जातौ अहं कथम् नानुगमिष्यामि प्रव्रज्याग्रहणेनानुसरिष्याम्येको द्वितीयो यदि तावदनयोः कुमारकयोरपीयात् विवेको यनिर्मोकवदत्यन्तसहचरितानपि भोगान् भुजङ्गवत् त्यजतस्ततःकिमिति भुक्तभोगोऽप्यहमेनान्नत्यक्षामि किं वाममासहायस्य गृहवासेनेति भावः। तथा छित्या द्विधा कृत्वा तीक्ष्णपुच्छादिना जालमानायमवलभिव जीर्णत्वादिना निःसारमिव वलीयोऽपीति गम्यते / रोहिता रोहितजातीया मत्स्या मीनाश्चरन्तीति संबन्धः / यथेति दृष्टान्तोपदर्शने यत्तदोश्च तित्यसंबन्धात्तथेति गम्यते ततस्तथा जा-लप्रायान् कामगुणान् प्रहाय परित्यज्य धुरि वहन्ति धौरेयास्तेषा-मिव शीलमुत्क्षिप्तभारवाहितालक्षणः स्वभावो येषां ते धौरेयशी-लास्तपसाऽनशनादिनोदाराः प्रधाना धीराः सत्ववन्त हुरिति य-स्मादभिक्षाचर्यां चरन्त्यासेवन्ते व्रतग्रहणोपलक्षणमेतदतोऽहमपीत्थं व्रतमेव ग्रहीष्य इति भावः इति सूत्रद्वयार्थः / / इत्थं तत्प्रतिबोधिता ब्राह्मण्याह। तहेव कोंचा समइकमता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। पलेंति पुत्ताय पई यमज्झं,तेहं कहं नाणुगमिस्सइक्का।। 36 / / नमसीवाकाश इव क्रौच्चाः पक्षिविशेषाः समतिक्रामन्तस्तान तान् देशानुल्लङ्घयन्तस्ततानि विस्तीणानि जालानि बन्धनविशेषरूपाण्यात्मनोऽनर्थहेतून्दलित्वा (हंसत्ति) चशब्दस्य गम्यमानत्वाद्धसाश्चपलेंतित्ति) परियन्तिसमन्ताद् गच्छन्तिपुत्रौ चसुतौ च पतिश्च भर्ता मम संबन्धिनोगम्यमानत्वाद्ये तेजालोपमविषयाभि-ष्वङ्ग भित्वा नमः कल्पे निरुपलोपतया संयमाध्वनि तानि संयमस्थानान्यतिक्रामन्तस्तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका सतो किं त्व-नुगमिष्याम्येव / एवंविधं वचनं हि स्त्रीणां पतिः पुत्रो वा गतिरिति / यदि वा जालानि भित्त्वेति हंसानामेव संबध्यते। समतिक्रामन्तः स्वातन्त्रेण गच्छन्त इति तु क्रौञ्चोदाहरणमजातकलत्रादिबन्धनसुतापेक्षं हंसोदाहरणं तु तद्विपरीतपत्यपेक्षमिति भावनीयमिति सूत्रार्थः / इत्थं चतुमिप्येकवाक्यतायां प्रव्रज्याप्रतिपत्तौ यद-भूत्तदाह। पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोचाभिणिक्खंत पहाय भोगे। कुटुंबसारं विउलुत्तमंतं, रायं अभिक्खं समुवाय देवी॥ 37 // वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसितो। माहणेणं परिचत्तं, धणं आइउमिच्छ सि / / 38 / / सव्वं जगं जइतुह, सव्वं वावि धणं भवे / सवं पिते अपनत्तं, नो वा ताणाइ ते तव / / 36 // मरिहसि रायं जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय। एक्को हुधम्मो नरदेवयाणं, न विजए अन्नमिहेह किंचि॥४०॥ पुरोहितं पुरो वसन्तमिति च भृगुनामानं सपुत्रं पुत्रद्वयान्वितं सदारं सपत्नीकं श्रुत्वाऽऽकर्ण्य अभिनिष्क्रम्य गृहान्निर्गत्य प्रहाय प्रकर्षण त्यक्त्वा भोगान् शब्दादीन् प्रव्रजितमिति गम्यते / कुटुम्बसारं धनधान्यादि विपुलं च विस्तीर्णतया उत्तमं च प्रधानतया विपुलोत्तम (यदिति) यत्पुरोहितेन त्यक्तं गृह्णन्तमिति शेषः (राय) राजानं नृपतिमभीक्ष्णं पुनः पुनः समुवाच सम्यगुक्तवती देवी कमलावती नाम तदग्रमहिषी। किमुक्तवतीत्याह वान्तमुद्गीर्णमशितुं भोक्तुं शीलमस्येति वान्ताशी पुरुषः पुमान् य इति गम्यते राजन् ! नृपते ! स न प्रसंशितः ग्लाघितो विद्वद्भिरिति शेषः / स्यादेतत्कथमहं वान्ताशीत्यत आह / ब्राह्मणेन परित्यक्तं परिहृत धनं द्रव्यमादातुं ग्रहीतुमिच्छसि परिहृतं धनं हि गृहीतोज्झितत्वाद्वान्तमिव ततस्तदादातुमिच्छंस्त्वमपि वान्ताशीव न चेदमुचितं भवादृशामित्यभिप्रायः / अथवा काक्वा नीयते राजन् ! वान्ताशी यः स प्रशस्यो न भवत्यतो ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनमादातुमिच्छसि न चैतद्भवत उचितं यतस्त्वमप्येवं वान्ताशितया अश्लाघ्य एव भविष्यसीति काकर्थः / किं च सर्व निरवशेषं जगद् भुवनं भवेदिति संबन्धो यदीत्यस्यायमर्थो न संभवत्येवैतत्कथञ्चित्संभवे वा (तुहंति) तव सर्वव्यापि धनं रजतरूप्यादिद्रव्यं भेवद्यदि तवेतीहापि योज्यते तथा सर्वमपितेतच पर्याप्तमशक्तमिच्छापरिपूर्ति प्रतीति शेषः / Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1192 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उसुयार आकाशसमत्वेन तस्या अपर्यवसितत्वात्तथा नैव त्राणाय जरामरणाद्यपनोदाय तदिति सर्वं जगद्धनं वा तवेति ते। इह च पुनः पुनः सर्वशब्दस्य युष्मदस्मदोश्वोपादानं भिन्नवाक्यत्वाद पुनरुक्तमिति भावनीयं पूर्वेण गर्हितत्वमनेन चानुपकारितां पुरोहितधनाढ्यग्रहणहेतुमादर्श्य संप्रत्यनित्यतां तद्धेतुमाह / मरिप्यसि प्राणांस्त्यक्षसि राजन् ! नृप ! यदा तदा वा यस्मिस्तस्मिन्वा काले अवश्यमेव मर्त्तव्यम् "जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु "रित्युक्तं हि " कश्चित्तावत्त्वया दृष्टः, श्रुतो वा शङ्कितोऽपि वा। क्षितो वा यदि वा स्वर्गे,यो जातो न मरिष्यति" तत्रापि चकदाचिदभिलषितवस्तु आदायैवमरिष्यामीत्यत आह। मनोरमाश्चितालादकान् कामगुणानुक्तरूपान् प्रहाय प्रकर्षण त्यक्त्वा त्वमेकाक्येव मरिष्यसिन किंचिदन्यत्त्वया सह यास्यतीत्यभिप्रायः। तथा एके (हुत्ति) एक एवाद्वितीय एव धर्मः सम्यग्दर्शनादिरूपो नरदेव ! नृप ! त्राणं शरणमापत्परिरक्षणाक्षमंन विद्यते नास्त्यन्यदपरमिह इहेति वेत्यभिधानं संयमस्थापनार्थं किंचिदिति स्वजनधनादिकं यदि वा इहेति लोके इहेत्यस्मिन् मृत्यौधर्म एवैकस्त्राणं मुक्तिहेतुत्वेन नान्यत् किंचित्ततःस एवानुष्ठेय इति सूत्रचतुष्टयार्थः। यतश्च धर्मादृते नान्यत्त्राणमतो। नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिसामि मोणं। अकिंचणा उजुकडा निरामिसा, परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥४१॥ दव्वग्गिणा जहा रणे, मज्झमाणेसु जंतुसु / अण्णो सत्ता पमोयंति, रागद्दोससवसंगया।। 42 / / एवमेवं वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया। मज्झमाणं न दुज्झामो, रागदोसग्गिणा जयं / / 43 / / भोगे भोचा वमित्ता य, लहुभूयावहा रणो। आमोयमाणा गच्छंति, दिया कामकमा इवा / / 44 // इमे य बद्धा फंदंति, मम हत्थज्जमागया। वयं च सत्ता कामेसु, भणियायो जहा इमे // 45 // सामिसं कललं दिस्सा, वज्झमाणं निरामिवं। आमित सव्वमुज्झिता, विहरिस्सामो निरामिसा॥४६॥ गिद्धावमेइ नच्चा णं, कामे सारबद्धणे।। उरउव्व सुवनपासे वा, संकमाणो तणु चरं / / 47 // णागो व्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। इति पच्छं महारायं, उसुयारे त्ति मे मुयं / / 48 / / नेति निषेधे अहमित्यात्मनिर्देशे रमे इति रतिमवाप्नोमि (पक्खिणो पंजरेवत्ति) वाशब्द औषम्ये भिन्नक्रमश्च ततः पक्षिणीव शकुनिकेव शारिकादिः पञ्जरे प्रतीत एव। किमुक्तं भवति यथाऽसौ दुःखोत्पादिनि पञ्जरे न रतिं प्राप्नोत्येवमहमपि जरामरणाद्युपद्रवविद्रुते भवपञ्जरे न रमे। अतश्छिन्नसन्ताना प्रक्रमात् विनाशितस्मेह सन्ततिः सती / छिन्नशब्दस्य सूत्रे परनिपातःप्राग्वत् चरिष्याम्यनुष्ठास्यामि मौनं मुनिभावम् / न विद्यमानं कश्चन द्रव्यतो हिरण्यादि भावतः कषायादिरूपमस्या इत्यकि श्चता अत एव ऋजुमायाविरहितं कृतमनुष्ठितमस्या इति ऋजुकृता / कथं चैवंभूतेत्याह। निष्क्रान्ता आमिषाद् गृद्धिहेतोरभिलषितविषयादेर्निर्गत या आमिषमस्या इति निरामिषा (परिग्गहारम्भनियत्तदोसेत्ति) प्राकृतत्वात् पूर्वपरनिपातोऽतन्त्रमिति परिग्रहारम्भदोषा अभिष्वङ्गनिस्त्रिशतादयस्तेभ्यो निवृत्तोपरता परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता / यद्वा परिग्रहारम्भनिवृत्ता अत एव चादोषा विकृतिविरहिता / अनयोविंशेषणसमासः। अपरं च दोषाग्निना दावानलेन यथाऽरण्ये वने दह्यमानेषु भस्मसात्क्रियमाणेषु जन्तुषु प्राणिष्वन्येऽपरे सत्वाः प्राणिनो विवेकितः प्रमोदन्ति प्रकर्षेण हृष्यन्ते। किमित्येवंविधास्त इत्याह। रागद्वेषयोर्वश आयत्तता रागद्वेषवशस्तं गताः प्राप्ताः (एवमेवंति) विन्दोरलाक्षणिकत्वादेवमेवत्ति वयं मूढत्ति) मूढानि मोहवशगा निकामभोगेषूक्तरूपेषु (मुच्छियात्त) मूञ्छितानि गृद्धानि दह्यमानमिव दह्यमानं न बुद्ध्यामहे नावगच्छामो रागद्वेषावग्निरिव रागद्वेषाग्निस्तेन कि तज्जगत्प्राणिसमूहं यो हि सविवेको रागादिमांश्च न भवतिसदावानलेनदह्यमानानत्वसत्वानवलोक्याहमप्येवमनेन दहनीय इति तद्रक्षणोपा-यतत्पर एव भवति न तु प्रमादवशगः सन् प्रमोदते। यस्त्वत्यन्तमज्ञो रागादिमांश्च स आयातमचिन्तयन् हृष्यति न तु तदुपशमापाये प्रवर्तते ततो वयमपि भोगापरित्यागादेवं विधान्येवेति भावः / येत्वेवंविधा न भवन्ति ते किं कुर्वन्तीत्याह भोगान् मनोज्ञशब्दादीन् (भो-चेति) भुक्त्वाऽऽसेव्य पुनरुत्तरकालं वान्त्वा चापहाय विपाकदारुणत्वाल्लघुर्वायुस्तद्वद्भुते भवनमेषां लघुभृताः कोऽथो वायूपडारतथाविधाः सन्तो विहरन्तीत्येवंशीला लघुभूतविहारिणोऽप्रति-बद्ध विहारिण इत्यर्थः / यद्वा लघुभूतः संयमस्तेन विहर्तु शीलं येषां ते तथा आसमन्तान्मोदमाना हृष्यन्त आमोदमानास्तथाविधानुष्ठानेनेति गम्यते / गच्छति विवक्षितस्थानमिति शेषः / क इव (दियाकामकमाइवेत्ति) इवशब्दो भिन्नक्रमस्ततो द्विजा इव कमो ऽभिलापस्तेन क्रामन्तीति कामक्रमाः यथा पक्षिणः स्वेच्छया यत्र यत्रावभासन्ते तत्र तत्रमोदमाना भ्राम्यन्ते एवमेतेऽप्यभिष्वङ्गस्य परतन्त्रताहेतोरभावाद्यत्र यत्र संयमयात्रानिर्वहणं तत्र तत्र यान्तीत्याशयः / पुनर्वहिरास्थां निराकुर्वन्तीत्याह इमे इत्युनुभृयमानतया प्रत्यक्षाः शब्दादयश्चः समुच्चये वद्धा नियन्त्रिता अनेकधोषायै रक्षिता इत्यर्थः एते किमित्याह। स्पन्दन्त इव स्पन्दन्ते अस्थितिधर्मतया ये। कीदृश इत्याह (मम हत्थजमागयत्ति) ममेत्यात्मनिर्देश उपलक्षणत्वात्तव नहस्तं करमार्य अद्य वा आगताःप्राप्ताः कोऽर्थः स्ववशा आत्मनोऽज्ञता दर्शयतुमाह। (वयं च सत्तत्ति) वयं पुनः शक्तानि संबन्धान्यभिष्वङ्गवन्तीत्यर्थः अबहुत्वेऽप्यस्मदोद्वयोश्चेति बहुवचनं कामेष्यभिलषणीयशब्दादिषु एवंविधेष्वपि चामीष्वभिष्वङ्ग इति मोहविलसितमिति भावः / यद्वा इमे च चेति चशब्दाद्वयं च स्पन्दामहे इव स्पन्दामहे आयुषश्चञ्चलतया परलोकगमनाय शेषं तथैव यत एवमतो भविष्यामो यथेमे पुरोहितादयः। किमुक्तं भवति यथाऽम भिश्चञ्चलत्वमवलोक्यते परित्यक्तास्तथा वयमपि त्यक्ष्याम इति / स्यादेतदस्थिरत्वेऽपि सुखहेतुत्वात् किमित्यमी स्पन्दन्ते इत्याह / सह मिषेण पिशितरूपेण वर्तत इति सामिषस्तं कललमिह गृधशकुनिकं वा दृष्ट्वाऽवलोक्य वाध्यमान पीड्यमानं पक्षान्तरैरिति गम्यते निरामिषमामिषविरहितमन्यथाभूत दृष्ट्वेतिगम्यते आमिषमभिष्वङ्गहेतुधान्यादि सर्व निरवशेषमुज्झित्वा त्यक्त्वा (विहरिस्सामोत्ति) विहरिष्याम्य प्रतिबद्धविहारितया चरिष्यामीत्यर्थः / निरामिषा परित्यक्ताभिष्वङ्गहेतुः उक्तानुवादे Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसुयार 1193 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सकइत्त नोपदेष्टुमाह गृध्रेण उपमा येषान्ते गृध्रोपमास्तानुक्तन्यायेन तुः समु-चये साधुदर्शनात् कुमारकयोः कुमारवचनात्तत्पित्रोस्तदवलोक-नार भिन्नक्रमश्च योक्ष्यते ज्ञात्वाऽवबुध्य णमिति प्राग्वत् कान् प्रक्र- कमलादेव्यास्ततोऽपि च राज्ञ इति परम्परयैव धर्मप्राप्तिर्जमाद्विषयामिषवतो लोकान् कामांश्च विषयांश्च संसारवर्द्धनात् , न्ममृत्युभयेभ्यः उक्तरूपेभ्य एवोद्विग्नानि प्रस्तानीति जन्ममृत्युभसंसारवृद्धिहेतून ज्ञात्वेति संबन्धः / अथवा कामयन्त इति कामा इति योद्विग्नानि दुःखस्यासातस्यान्तः पर्यन्तस्तद्गयेषकाणि तदन्वेषकाणि व्यत्पत्त्या कामयोगाद्वात्यन्तगृद्धिख्यापनार्थं कामा विषयिण एवोक्ता सापेक्षस्यापि समासो यथा देवदत्तस्य गुरुकुलमिति / पुनअतस्तान गृध्रोपमान् संसारवर्द्धकांश्च ज्ञात्वा किमित्याह (उरओ व्व स्तद्वक्तव्यतामेवाह / शासने दर्शने विगतमोहानामर्हतामन्यजन्मनि सुवन्नपासेवत्ति) इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वादापत्वाचोरग इव भुज्ग इव भावनयाऽभ्यास रूपया भावितानि वासितानि भावनाभावितानि। यद्वा सौपर्णेयपावें गरुडसमीपे शङ्कमानो भयत्रस्तमिति स्तोकं मन्दयत्नयेति भाविता भावना यैस्तानि भावितभावनानि पूर्वोत्तरनिपातयावत्। चरेः क्रियासु प्रवत्तश्च / अस्यायमाशयो यथा सौपर्णेयोपमै षियन स्यातन्त्रत्वादत एवाचिरेणैव स्वल्पे व कालेन दुःखस्यान्तं मोक्षवाध्यते तथा संयममासेवस्वा ततश्च किमित्याह (नागोव्व) अः स्पष्टः भुपगतानि प्राप्तानि / सर्वत्र च प्राकृतत्वात् पुल्लिङ्गनिर्देशः / मन्दमआशयश्चायं यथा नागो बन्धनं वरत्राण्डकादि छित्वा द्विधा विहायात्मनो तिस्मरणायाध्ययनार्थमुपसंहर्तुमाह / राजेषुकारः सह देव्या कमवसतिं विन्ध्याटवीं बजत्येवं भवानपि कर्मबन्धनमुपहत्यात्मनो वसतिं लावत्या ब्राह्मणश्च पुरोहितो भृगुनामा ब्राह्मणी तत्पत्नी यौ च दारको कर्मविगतः सुद्धो यत्रात्मावतिष्ठते साच मुक्तिरेव तां व्रजेरेतेन दो-क्षायाः तत्पुत्रौ चेति पूर्ववत् सर्वाणि तानि परिनिर्वृतानि कग्न्युिपशमतः प्रसङ्गतः फलमुक्तम् / एवं चोपदिश्य निगमयितुमाह / एतद यन्मयोक्तं शीतीभूतानि मुक्तिं गतानीति यावत् सूत्रत्रयार्थः / इति परिसमाप्तौ पथ्यं हितं महाराज ! प्रशस्यभूपते ! इषुकारनामन् ! एतच्चन मया ब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तोऽनुगमः। उत्त०१४ अ०। स्वनामख्याते नगरभेदे, स्वमनीषिकयैवोच्यते किंत्वित्येतन्मया श्रुतमवधारितं साधुसकाशादिति "उसुगारे णयरे उसभदत्ते गाहावई' विण०१ श्रु०१ अ०। गम्यते इति सूत्राष्टकार्थः / एवं च तद्वचनमाकर्ण्य प्रतिबुद्धो नूपस्ततश्व उसुयारपटवय पुं०(इषुकारपद्धत) धातकीखण्डविभागकारिणि पर्वते, यत्तौ द्वावपि चक्रतुस्तदाह। चइत्ता विउलं रहें, कामभोगे हि दुचहे। "दो उसुगारपव्वया'' इषुकारौ दक्षिणोत्तरयोर्दिशोर्धातकी खण्डविभागकारिणाविति। स्था०२ ठा०३ उ०।" समयक्खेत्ते चत्तारि निव्विसया निरामिसा, निण्णेहा निप्परिग्गहा।। 46 // सम्मं धम्म वियाणित्ता, चिचा कामगुणे वरे। उसुकारा" इषुकारा घातकीखण्डपुष्कराद्धयोः पूर्वोत्तरविभागकारिणतवं पगिलहक्खायं, घोरं घोरपरक्षमे / / 50 // श्चत्वारः, स० / स्था०। त्यक्त्वाऽपहाय विपुलं विस्तीर्ण राष्ट्र मण्डलं पाठान्तरतो राज्यं वा उसुयारिज न०(इषुकारीय)" उसुयार णाम गोय, वेदंतो भावओ य कामभोगांश्चोक्तरूपान् दुस्त्यजान दुष्परिहारान्निर्विषयौ शब्दा उसुयारो। तत्तो समुट्टियमिणं, उसुयारिजंति अज्झयणं " यदिषुकारात् दिविषयविरहितायत एव निरामिषौ / यद्वा विषयो देशस्तद्विरहितौ समुत्थितं तत्तस्मै प्रायोहितमेव भवतीति इषुकाराय हितराष्ट्रपरित्यागतः कामभोगत्यागतश्च निरामिषायभिष्वङ्गहेतुविर-हितौ मिषुकारीयमुच्यते / प्राधान्याच राज्ञो निर्देशोऽन्यथा षड्भ्योऽप्ये - कुतः पुनरेवंविधौ यतो निःस्नेहो निष्प्रतिबन्धौ निष्परिग्रहो तत्समुत्थानं तुल्यमेवेति। चतुर्दशे उत्तराध्ययने, उत्त०१४ अ०स०। क्वचिदविद्यमानस्वीकारौ सम्यगविपरीतं धर्म श्रुतचारित्रात्मकं विज्ञाय | *उसुपालन०(देशी०) उदूखले," उसुयालंसि वा कामजलंसिवा" विशेषतो ऽवबुध्य (चिंचत्ति) त्यक्त्वा कामगुणान् शब्दादीन् वरान् | आचा०२ श्रु०॥ प्रधानान् पूर्वविशेषणैर्गतार्थत्वेऽपि पुनरभिधानमतिशयव्यापकं / उसुलक्खकिरिओवम त्रि०(इषुलक्ष्यक्रियोपम) शरशव्यक्रियासदृशे, तपोऽनशनादि प्रगृह्याभ्युपगम्य यथाख्यातं येन प्रकारेण तीर्थकरादिभिः | " श्रुतः समाधिरव्यक्त, इषुलक्ष्यक्रियोपमः " / द्वा० 21 द्वा०। कथितं घोरमत्यन्तदुरनुचरं घोरः कर्मवरिणः प्रति रौद्रः पराक्रमो उसूलगपुं०(उमूलक) खातिकायां परवलपातार्थमुपरिच्छादित-गर्तायाम् धर्मानुष्ठानविषयसामर्थ्यात्मको यथोस्तौ / तथा देवीनृपौ तथैव " उसूलगसयग्धीओ" उत्त०६ अ०। कृतवन्ताविति शेष इति सूत्रद्वयार्थः / / उस्स(ण) त्रि० [(ऊ)स्मिन् ] उष् आधारे मनिन् वा हस्वः / शषोः संप्रति समस्तोपसंहारमाह। संयोगे सोऽग्रीष्मे 8 / 1 / 84 / इति षस्थाने सकारो मागध्याम्। एवं ते कमसो बुद्धा, सव्वे धम्मपरायणा। ग्रीष्मर्ती, प्रा०। जम्ममचुभयोव्विग्गा, दुक्खस्संतगवेसिणो // 51 // उस्स पुं०(अवश्याय) स्नेहे," अप्पहरिएसु अप्पुरसेसु" बृ० 4 उ० / सासणे विगयमोहाणं, पुव्वभावणभाविया। नि० चू० अचिरेणेव कालेन, दुक्खस्संतमुवागया।॥५२॥ राया सह देवीए, माहणो व पुरोहिओ। *उम्र पुं० / वसन्ति रसा अत्र-वस् रनिपातनान्न षत्वम् / किरणे, माहणी दारगा चेव, सय्वे ते परिनिव्वुडे त्ति वेमि / / 53 // सूर्यकिरणानां बहुलाकर्षकत्वेन रसवत्त्वात्तथात्वम् / वृषे, सुरभ्याम, लतायाम् पृथिव्याम् , स्त्री० / वाच०। एवममुना प्रकारेण तान्यनन्तरमुक्तरूपाणि षडपि क्रमशोऽभिहितपरिपाट्या बुद्धान्यवगततत्वानि सर्वाण्यशेषाणि धर्मपरायणानि उस्संकलिय त्रि०(उत्संकलित) निसृष्ट, आचा० 2 श्रु० / धम्मकनिष्ठानि पठ्यते च (धम्मपरंपरात्ति) परम्परया धो येषां तानि उस्सकइत्ता अव्य०(उत्ष्वष्क्य) उत्सृत्येत्यर्थे, लब्धावसरतयोपरम्पराधर्माणि प्राकृतत्वाच परंपराशब्दस्य परनिपातस्तथाहि | त्सुकीभूयेति यावत् / स्था० 6 ठा०। Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सकण 1164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सग उस्सकण-न०(उत्ष्वष्कण) स्वयोगप्रवृत्तकालावधेरूज़ पुरतः ष्वष्क णमारम्भकरणमुत्ष्वष्कणम् / ध०३ अधि० / स्वयोगप्रवृत्ते-र्नियतकालावधिपरतः करणे,। यथा काचिन्मराडकादिप्रार्थनया रुदन्तं वालमाश्वासयति यदुत मा रोदीः समीपगृहागतो मुनिरस्मद्गृहे आयास्यति तदा तदर्थमुत्थिताऽहं तवापि दास्यामीति / ततश्च साधावागते तस्य भिक्षादानायोत्थिता वालस्यापि ददातीति उत्ष्वष्कणम् / ध०३ अधि० (पाहुडिया शब्दे स्पष्टीभविष्यति)" उस्सक्कणं अहिसक्कणं परमुहोलंकिए अरोवा वि भावत्तपरेण जुओ अह भावाभिग्गहो नाम अवसर्पन्"ध०१ अधि०। उस्सकावइत्ता अव्य०(अपसय) अपसृतं कृत्वेत्यर्थे," उस्सकावइत्ता ' विवादे प्रतिपन्थिनं केनापि घ्याजेनापसापसृतं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते स्था०६ ठा०। उस्सग्गपुं०(उत्सर्ग) सृज विसर्गे उत्पूर्वात् सृजेर्घञ्! उज्झने, आद०५ अ०। अस्य निक्षेपः। नामं 1 ठवणा 2 दविए 3, खित्त काले 5 तहेव भावे य 6 / एसो उस्सग्गस्स तु, निक्खवो छव्विहो होइ॥३६॥ अर्थमधिकृत्य नियदसिद्धा विशेषार्थ तु प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः / तत्रापि नामस्थापने गतार्थ। द्रव्योत्सर्गादिरभिधित्सया पुनराह / / दव्वुडणा उजं जेण, जत्थ अवकिरइ दव्वभूओ वा। जं जत्थ वा वि खित्ते, जंजविर जम्मि वा काले // 37 // वितिरित्तो दव्वुस्सग्गो अकिंचिक्करं सदोसं च कत्तुं जो जं दव्वं छड्डेति तत्थ अकिं चिकरं जहा भिण्णं भिक्खभायणं सदोसं जहा विसकतमभियोगकतं वा एवमादि। अहवा जेण दव्वेण जत्थ वा दव्वे दव्वभूतोछड्डेतिएस दव्वुस्सग्गो जहा भरहादीहिं चकवट्टीहिं भारह वासं पव्वयंतेहिं छड्डितं जो वा खेत्तयं चयति जम्मि वा खेत्ते वयति किंचि जम्मि वा खेत्ते उस्सग्गो वणिज्जत्ति एवमादिको उस्सग्गो जो जं कालं उज्झति / जहा उज्झातो वसंतो मेदणो ण वाहत्ति छड्डितो वा सिरो एवमादि / अहवा खित्तकालं पप्प ण रीयिज्जति वासारत्ते वा ण विहरिजति / जच्चिरं व कालं उस्सग्गे जम्मि काले उस्सग्गे वणिज्जति। (आ० चू०५ अ०) द्रव्योज्झना तु द्रव्योत्सर्गः स्वयं (जंति) यद्दव्यमनेषणीयभवकिरतीति योगः (अवकी-रइत्ति) उत्सृजति (जेणेत्ति) येन करणभूतेन पात्रादिनोत्सृजति (जत्थत्ति) यत्र द्रव्ये व्यत्सृजति द्रव्यभूतो वा अनुपयुक्तो वा उत्सृजति एष द्रव्योत्सर्गोऽभिधीयते / द्वार क्षेत्रोत्सर्ग उच्यते (जंजत्थ वावि खेत्तेत्ति) यत् क्षेत्रलक्षणदेशाधुत्सृजति यत्र वाऽपि क्षेत्रे उत्सर्गो व्यावय॑ते एष क्षेत्रोत्सर्गः / कालोत्सर्ग उच्यते (जं जच्चिर जम्मि वा कालेत्ति) यं कालमुत्सृजति यथा भोजनमधिकृत्य रजनि साधवः (जचिरं वति) यावन्तं कालमुत्सर्गो यस्मिन् वा काले उत्सर्गो वर्ण्यते एष कालोत्सर्ग इति गाथार्थः / आव०५ अ०। भावोत्सर्गान् प्रतिपादयन्नाह / / भावं पसत्थमिअरं, जेण व भावेण अवकिरइ जंतु / अस्संजमं पसत्थे, अपसत्थे संजमं चयई॥ 38 // एवमादिणो आगमतो उस्सग्गो पसत्थो अपसत्थो अण्णणादीणं जातिमदादीण य अप्पसत्थो णाणादीण उज्झणा जेणवा भावेण चयति एवमादि (आ० चू०) भाव इति द्वारपरामर्श भावोत्सर्गो द्विधा प्रशस्तं शोभनं वस्त्वधिकृत्य (इतरत्ति) अप्रशस्तमशोभनं तथा येन वा भावेन उत्सर्जनीयवस्तुगतेन स्वरादिना अवकिरति जंतु उत्सृजति यत्तत्र भावेनोत्सर्ग इति तृतीयासमासः। तत्रासंयम प्रशस्ते भावोत्सर्गे त्यजति अप्रशस्ते तु संयमंत्यजतीति गाथार्थः। यदुक्तं येन वा भावनोत्सृजति तत्प्रकटयन्नाह। खरफरसाइसचेअण-मच अणं दुरभिगंधविरसाई। दवि अमवि चयइ दोसेणा, जेण भावुज्झणा सा उ / / 36!! खरपरुषादि सचेतनं खरं कठिनं परुष दुर्भाषिणोपनीतमचेतन दुरभिगन्धविरसादि यद्दव्यमपि त्यजति दोषेण येन स्वरादिना वा भावोज्झना सा उक्ता येनोत्सर्ग इति गाथार्थः / 36 / गतं मूलद्वारगाथायामुत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपद्वारम् / / अधुनैकार्थिकान्युच्यते॥ उस्सग्ग 1 विउस्सरणा,२ उज्झणा य 3 अवकिरण 4 छड्डण 5 विवेगो 6 / वजण 7 चयणु म्मुअणा, परिसाडण 10 साडणा चेव 11 // 40 // उत्सर्ग:व्युत्सर्जना उज्झना च अवकिरणं छर्दनं विवेकः वर्जनंत्य-जनम् उन्मोचना परिशातना शातना चैवेति गाथार्थः / आव० 5 अ०। उत्सर्जनीयस्य त्यागरूपे आभ्यन्तरतपोभेदे,तभेदः स द्विविधो बाह्य आभ्यन्तरश्च / तत्र बाह्यो द्वादशादिभेदस्योपधेरतिरिक्तस्थानेषणीयस्य संसक्तस्यान्नपानादेर्वा त्यागः। आभ्यन्तरः कषायाणां मृत्युकाले शरीरस्य च त्यागः / ननु उत्सर्गप्रायश्चित्तमध्य एवोक्तस्तत्किं पुनरत्र भणनेन सत्यं सोऽतिचारविशुद्ध्यर्थमुक्तः अथं तु सामान्येन निर्जरार्थ इत्यपौनरुक्त्यम् / प्रव०६ द्वा०। ध० / स० नं० / पश्चा० / यथा भामेत्युक्ते, सत्यभामेति गम्यते तथाऽत्राप्येकदेशेन समुदायावगमात् कायोत्सर्गे, प्रव०१ द्वा०। (काउस्सगशब्देऽशेषवक्तव्यता)" उस्सगंति " ई-पथनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्छ्वासप्रमाणं कायोत्सर्ग करोति / ओल्या सामान्योक्ती,ध०२ अधि०। दर्शा सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः यथा त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातविरतिः / दर्श० / पञ्चा० / इह विधित्सितस्य वस्तुनः कारणनिरपेक्षं सामान्यस्वरूपमुत्सर्ग उच्यते। बृ०४ उ० / अभिप्रेतवस्तुस्वरूपनिर्वाच्यं कारणनिरपेक्षमुत्सर्गः / नि० चू०११ उ०।" उस्सग्गो ओहो" उस्सग्गो पडिसेहो। नि० चू०१उ०। अथोत्सर्गापवाद-योबोधविचारः। अथयोऽयं " न हिंस्यात्सर्वाभूतानी "त्यादिना हिंसानिषेधः औत्सगिको मार्गः सामान्यतो विधिरित्यर्थः वेदविहिता तु हिंसाऽपवादपदं विशेषतो विधिरित्यर्थः / ततश्चापवादेनोत्सर्गस्य बाधितत्वान्न श्रौतो हिंसाविधिर्दोषायोत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्वलीयानिति न्यायात् / भवतामपि हि न खल्वेकान्तेन हिंसानिषेधः तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रतिसेवनानामनुज्ञानात् ग्लानाद्यसंस्तरे आधाकर्मादिग्रहणभणनाच / अपवादपक्षं च याज्ञिकी हिंसा देवतादिप्रीतेः पुष्टालम्बनत्वादिति परमाशङ्क्य स्तुतिकार आह नोत्सृष्टमित्यादि अन्यार्थमिति मध्यवर्ति पदं डमरुकमणिन्यायेनोभयत्रापि संबन्धनीयम् / अन्यार्थमृत्सृष्टमन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तमुत्सर्गवाक्यमन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते नापवादगोचरीक्रियते यमेवार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्ततेतयोनिम्नोन्नतादिव्वहारवत्परस्परसापेक्षत्वे नै कार्थसाधनविषयत्वात् यथा जै नानां संय Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सग्ग 1195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सग्गववाय मपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गस्तथाविधद्रव्यक्षे- मृद्री क्रिया न क्रियते क्रियत एवेत्यर्थः यथैतदेवमत्राप्युत्सर्गात्परित्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावे पञ्चकादियतनाs- भ्रष्टस्यापवादगमनम् / ननु किमुत्सर्गादपवादप्रसिद्धिरुतापवादानेषणीयादिग्रहणमपवादः सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव / न च दुत्सर्गस्य तत आह! मरणैकशरणस्य गत्यन्तराभावोऽसिद्धइति वाच्यं" सव्वत्थ संजमंसं उन्नयमविक्खनित्रय, पसिद्धि उन्नयस्स निनाउ। जमाउ अप्पाणमेव रक्खिज्जा ! मुच्चइ अइवायाओ, पुणो विसोही नया विरई" इत्यागमात् तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमधिकृत्य इय अन्नुघ्नपसिद्धा, उस्सग्गववायगातुल्ला।। कस्याञ्चिदवस्थायां किञ्चिद्वस्त्वपथ्यं तदेवावस्थान्तरे तत्रैव रोगे यथोत्तमा प्रेक्ष्य निम्नस्य प्रसिद्धिनिम्ना चोन्नतस्य प्रसिद्धिरित्येपथ्यमुत्पद्यतेहिंसावस्था देशकालामयान्प्रति " यस्यामकार्य कार्य वमन्योऽन्यप्रसिद्धावुत्सर्गादपवादोऽपवादादुत्सर्गः प्रसिद्ध इति स्यात्कर्म कार्य तु वर्जयेत् " इति, वचनात् यथा वलवदादेवरिणो लङ्घन द्वावप्युत्सर्गापवादौ तुल्यौ / तदेवमुत्सर्गापवादद्वारमुक्तम् / इदानीक्षीणधातोस्तु तद्विपर्यय एवं देशाद्यपेक्षया ज्वरिणोऽपि दधि-पानादि मल्पद्वारमुच्यते। शिष्यः पृच्छति भगवन् किमुत्सर्गा अल्पे उताप-वादा योज्यम्। तथा च वैद्याः "कालाविरोधि निर्दिष्ट, ज्वरादौ लडनं हितम्। उच्यते तुल्या यत आह। ऋतेऽनिलश्रमक्रोधशोककामकृतज्वरात् "एवं चयः पूर्वमपथ्यपरिहारो जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुँति अववाया। यश्च तत्रैवावस्थान्तरे तस्यैव परिभोगः स खलु उभयोरपितस्यैव रोगस्य जावइया अववाया, उस्सग्गा तेत्तिया चेव।। शमनार्थ इति सिद्धमेकविषयत्वम्-त्सर्गापवादयोरिति / भवतां चोत्सर्गोऽपवादश्चान्यार्थः।" न हिंस्यात्सर्वाभूत्यानी" त्युत्सर्गो हि यावन्त उत्सर्गास्तावन्तोऽपवादाः यावन्तोऽपवादास्तावन्त उत्सर्गाः दुर्गतिगतिनिषेधार्थः अपवादस्तु वैदिक हिंसाविधिदेवताऽतिथि-- कथमिति चेदुच्यते सर्वस्यापि प्रतिषेधस्यानुज्ञाभावात् द्वयेऽपितुल्याः। पितृप्रीतिसंपादनार्थः अतश्च परस्परनिरपेक्षत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन संप्रति सेयवलवंते इति द्वारद्वयं व्याविख्यासुराह। वाध्यते तुल्यबलयोर्विरोध इति न्यायात् भिन्नार्थत्वेऽपि तेन सट्ठाणे सहाणे, सेयावलिणो व हुंति खलु एए। तदाधनेऽतिप्रसङ्गात् / न च वाच्यं वैदिकहिंसाविधिरपि स्वर्गहेतुतया सट्ठाणपरहाणे, पहुंति वत्थूण निप्फन्ना / / दुर्गतिनिषेधार्थ एवेति तस्योक्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिर्लोठनात् शिष्यः पृच्छति किमुत्सर्गः श्रेयान् बलवांश्च उतापवादः / सूरिराह / एते तन्मन्तरेणापिच प्रकारान्तरैरपितत्सिद्धिभावाद्गत्यन्तराभावे ह्यपवादे खलु उत्सर्गा अपवादाश्च स्वस्वस्थाने श्रेयांसो वलिन इव भवन्ति / पक्षकक्षीकारः / स्या० / संप्रति किमुत्सर्गा अल्पे उतापवादास्तथा परस्थानेऽश्रेयांसो दुर्बलाश्च / अथ किं स्वस्थानं किं वा परस्थानमत उत्सर्गोऽपवादो वा स्वस्थाने श्रेयान्बलवांश्च। परस्थाने बलवानपि श्रेयांश्च आह। स्वस्थानपरस्थाने वस्तुनो निष्पन्ने। अथ वस्त्वेवन जानामि किं इत्याह। (सूत्र-म् )" नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा आमे ताल तद्वस्त्विति। उच्यते पुरुषो वस्तु तथा चाहा पलंवे अभिन्ने पडिगाहित्तए अववाइयं जहा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पक्के तालपलंवे भिन्ने वा पडिगाहित्तए " अथवा त्रिविधं सूत्र संथरओ सट्ठाणं, उस्सग्गो असहुणो परट्ठाणं। मुत्सर्गसूत्रमपवादसूत्रमुत्सर्गापवादसूत्रं च / तत्रौत्सर्गिकमापवादिकं इय सहाण परं वा, न होइ व वत्थू विणा किंचि / / चोक्तमुत्सर्गापवादसूत्रं पुनरिदम्।नो कप्पइ निग्गंथाण वाणिग्गंथीण वा संस्तरतो निस्तरत उत्सर्गः स्वस्थानमपवादः परस्थानमसहअन्नमन्नस्स मो यं आदित्तए वा आयमित्तए वा अन्नत्थागाढ हिं स्यासमर्थस्य यः संस्तरीतुंन शक्नोति तस्यापवादः स्वस्थानमु-त्सर्गः रोगाइयंकेहिं, अथवा चतुर्विधं सूत्रमौत्सर्गिकमापवादिकमुत्सर्गा- परस्थानमिति एवममुना प्रकारेण पुरुषलक्षणं वस्तु विना न किंचित् पवादमपवादौत्सर्गिकं तत्राद्यानित्रीण्युक्तानिचतुर्थमपवादौत्सर्गि-कमिदं स्वस्थानं परस्थानं वा किं तु पुरुषो वस्तु संस्तरति नवेत्यतः पुरुषात् यथा" चम्म मंसंच दलाहि मा अट्ठियाणि "आह उत्सर्ग इत्यपवाद इति स्वस्थानं परस्थानं वा निष्पद्यते तत उक्तं प्राक् स्वस्थानपरस्थाने वा कोऽर्थ उच्यते। वस्तुनो निष्पन्ने गतं सूत्रद्वारम्। बृ०१उ०। प्रकीर्णकथा-याम्, "उस्सग्गो उज्जयसग्गुस्सग्गो, अववाओ तस्स चेव पडिवक्खो। पइन्नकहा अववाओ णिच्छयकहा "नि० चू०५ उ०। अपानवायोापारे, उस्सग्गा वि निवतियं, धरेइ सालंबमववाओ॥ विष्ठोत्सर्गत्यागे, दाने, समाप्तौ, व्रतोत्सर्गः वार्षिकवेदपाठसमाप्तौ च उद्यतः सर्गोऽविहार उत्सर्गस्तस्य चोत्सर्गस्य प्रतिपक्षोऽपवाद वाच०। कथमिति चेदत आह उत्सग्दवमौदर्यादिषु विनिपतित प्रच्युतं उस्सग्गद्विइ स्त्री०(उत्सर्गस्थिति) उत्सर्गस्थाने, "उत्सग्गट्टिइ-सुद्धं ज्ञानादिसालम्बमपवादोधारयति ननुस उत्सगर्गोऽपवादं गतः सन् कथं जह दव्वं विवजयं लभइ' नि० चू०१६ उ०। न भग्नव्रतो भवति उच्यते। उस्सग्गववाइयकुसल पुं०(उत्सर्गापवादिककुशल) उत्सर्गश्च अपवादे घावंतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ कमेणं / भवमापवादिकं च तस्मिन् कुशलः / उत्सर्गापवादविषयविभागवेदिनि, किं वा मउई किरिया, न कीरए असहओतिक्खं / / दर्श। अपवादे भवमापवादिकं तस्मिन्नुत्सर्गापवादिके कुशला विषयविसर्वोऽप्यस्माकं प्रयासो मोक्षसाधननिमित्तं स च मोक्ष तथा साधयति भागवेदिन इत्यर्थः / ते ह्युत्सम्र्गापवादवेदितया समयानुरूपप्रवर्तमाना नेतरत् दृष्टान्तोऽयं यथा कोऽपि पाटलिपुत्रं गच्छन् धावन् उद्वातः श्रान्तो लोभगृहग्रस्तसिंहकेसरिकक्षपकसाधोरकालेऽपि दानदातृश्रावकवन्निभवति तथा न क्रमेण स्वभावगत्या मार्गज्ञः सन् गच्छति गच्छत्येवेति जरामाजो जायन्त इति। दर्श०॥ भावः केवलं चिरेण तत्पाटलिपुत्रमवाप्नोति यदि पुनः श्रान्तोऽपिधावति उस्सग्गववाय पुं०द्वि०व०(उत्सर्गापवाद) इतरेतरद्वन्द्वः / सामातदा अपान्तराल एव म्रियते एव मत्राप्यध्वादौ तादृशे कार्येऽपवाद- न्योक्तविशेषोक्तविध्योः, "उत्सग्गववायाणं वियाणगा सेवगा" मप्रतिपद्यमानो विनश्यति / किं च रोगिणस्तीक्ष्णां क्रियामसहमानस्य | उत्सर्गापवादयोः सामान्योक्तविशेषोक्तविध्योर्विज्ञापकाः। पश्चा० Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सग्गववाय 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सप्पिणी 11 विव०।" उस्सग्गववायाणं विसयविभागम्मिदक्खाणं / बहु वयणेण दुवयणमिति " प्राकृतलक्षणवशादुत्सर्गापवादयोः सामान्योक्तविशेषोक्तलक्षणयोः विषयिभागे गोचरविच्छित्तौ दक्षाणां छेकानाम्। जीवा० 1 अधि० / (पादप्रोञ्छनस्यौत्सर्गिकत्वापवादिकत्वविचारः पायपुंछणशब्दे) उस्सग्गववायकुसल पुं०(उत्सर्गापवादकुशल) सामान्योक्तो वि धिरुत्सर्गः यथा त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातविरतिर्विशेषोक्तो विधिरपवादः यथा'" पुढवाइसु आसेवा, उप्पण्णे कारणम्मिजयणाए। मिगरहियस्सठियस्स, अववाओ होइ नायव्यो " / तत्र कुशलः दर्श० / प्रवचनकुशलभेदे, सांप्रतमुत्सर्गापवादकुशलाभिधानौ तृतीयचतुर्थभेदौ युगपदभिधित्सुईथोत्तरार्द्धमाह उस्सग्गववायाणं, विसयविभागं वियाणाइ॥५३॥ उत्सर्गापवादयोर्जिनप्रवचनप्रतीतयोविषयाविभागं करणाकरणप्रस्तावं विशेषेण जानाति अवगच्छति / अयमत्राभिप्रायः नोत्सर्गमेव केवलमालम्बते नाप्यपवादमेव प्रमाणीकरोति किं तमुचलपुरश्रावकसमुदायवत् तयोरवसरमवबुध्यते / उक्तं च।" उन्नयमविक्खनिन्नस्स, पसिद्धि उन्नयस्स इयराओ / इय अन्नुनपसिद्धा, उस्सग्गववायगा तुल्ला " ज्ञात्वा च यथाऽवसरंतयोर्विषये स्वल्पव्ययां बहुलाभां प्रवृत्तिमातनोतीति ध०२०। (अयलपुरशब्दे तद्वक्तव्यतोक्ता) उस्सग्गववायधम्मता स्त्री०(उत्सर्गापवादधर्मता) प्रतिषेधानुज्ञालक्षणतायाम् , / " कामं सव्वपदेसु वि, उस्सगववायधम्मता जुत्ता। मोत्तुं मेहुणभावं, ण विणा तं रागदोसेहिं / उस्सग्गो पडिसेहो अववातो अणुण्णाधम्मतालक्खणताजुत्ता जुज्जते घटत इत्यर्थः / नि० चू०१ उ०। उस्सग्गमुत्तन(उत्सर्गसूत्र) औत्सर्गिकार्थप्रतिपादके सूत्रभेदे, वृ०१ उ०। (सुतशब्दे इदं व्याख्यास्यते) . उस्सग्गिय त्रि०(औत्सर्गिक) उत्सर्ग सामान्यविधिमर्हति ष्ठञ् सामान्यविधियोग्ये, स्त्रियां डीए स्या०। उस्सण्ण त्रि०(उत्सन्न) उद्-सद्-क्त-अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे।।१। 114 // इत्युत्सन्नपर्युदासान्नादेरत उत्वम् प्रा उच्छिन्ने, नष्टे च / वाच०। वसन्तपुरवास्तव्यः, कश्चिदुत्सन्नवंशकः / देशान्तरं व्रजन् सोऽथ, भ्रष्टोऽणाद् भौतपल्लिकाम् / आ० के०। उस्सण्ण (देशी०) बाहुल्ये," उस्सण्णं देयासायं वेयणं पदेंति उस्सण्णं बाहुल्येन प्रायेणेत्यर्थः / कर्मकाव्य०!" उसण्णमंसाहारा० भ०७श० ७उ०। एकान्ते, "उस्सण्णलक्खणसंजुया "नि० चू०३ उ०।उस्सण्णं नाम कोतिवावारं वहति प्रमितमित्यर्थः / अइणं स च लोगो आयरति। नि० चू०१० उ०। उस्सण्णदोस पुं०(उत्सन्नदोष) उत्सन्नमनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तत इत्युत्सन्नदोषः। रौद्रध्यानस्य प्रथमे लिङ्गे, आव० 4 अ०। उस्सप्पिणी स्त्री०(उत्सर्पिणी) उत्सर्पन्ति शुभा भावा अस्यामित्युत्सर्पिणी ज्यो०२ पाहु० / उत्सर्पति वर्द्धते अरकापेक्षया वर्द्धयति वा क्रमेण पुरादीन भावानित्युत्सर्पिणी। जं० 2 वक्ष० / भ० / दशसागरोपमकोटाकोटीपरिमाणे, शुभभाववर्द्धकेऽशुभभावहानिकारके कालभेदे, आ० म०प्र०। अनु० / विशे०। दससागरोपमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीए स्था 10 ठा। आ० म० द्वि०। जं०। उत्सर्पिण्यां च क्रमेण शुभा भावा अनन्तगुणतया परिवर्द्धन्ते अशुभाश्च हानिमुपगच्छन्तीति ज्यो०२ बाहु० / अत्र षडरकाः / उस्सप्पिणी कालेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते गोयमा ! छविहे पण्णत्ते ? तं जहा दुस्समदुस्समाकाले 1 जाव सुसमसुसमाकाले // एवमुत्सर्पिणीसूत्रमपि भाव्यं परं षडपि काला व्यत्ययेन भाव्या यथाऽवसर्पिण्यां षष्ठः कालो दुःषमाख्यः स एवात्र प्रथमो यावत् सुषमसुषमाकालः षष्ठ इति / जं० 2 वक्ष० / स्था० / भ० / आ० चू० (सुषमसुषमाद्यानां वर्णकः ओसप्पिणी शब्दे वक्ष्यते) एवमत्रापि ज्ञेवः केवलमरकविपर्ययः कर्तव्यः।" ओसप्पिणीए एसो कालविभागो जिणेहिं निदिट्ठो एसो चिय पडिलोमं विन्नेओ उस्सप्पिणीए वि" नं०। य एवं प्रागवसर्पिण्यां सुषमसुषमादयः कालविभागा उक्ता एत एवोत्सर्पिण्यामपि भवन्ति ज्ञातव्याः नयरं विभागेषु परिपाटिः प्रतिलोमेन ज्ञातव्या तद्यथा प्रथमः कालविभागोदुःषमदुःषमा द्वितीयो दुःषमा, तृतीयो दुःषमसुषमा, चतुर्थः सुषमदुःषमा, पञ्चमः सुषमा, षष्ठः सुषमसुषमेति (ज्यो०२पाहु०) सांप्रतं प्रागुद्दिष्टामुत्सर्पिणी निरूपयितुकामस्तत्प्रतिपादनपूर्वकं ततः प्रथमारकस्वरूपमाह॥ तीसे णं समाए इक्कवीसमाए वाससहस्सेहिं काले वीरकते आगमीसाए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिवए वालवकरणंसि अभीइणक्खत्ते चोद्दसपढमसमये अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिवुड्डीए परिवुडमाणो परिवुड्डमाणे एत्थ णं दूसमदूसमा णामं समा काले पडिवञ्जिस्सइ समणाउसो / तीसे णं मंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ गोअमा! काले भविस्सइ हाहाभूए भंभाभूए एवं सो चेव दूसमदूसमावे ढओ णेअव्वो॥ तस्यांसमायाभवसर्पिण्यांदुःषमानाम्न्यामेकविंशत्या वर्षसहौः प्रमिते काले व्यतिक्रान्तेआगमिष्यन्त्याभुत्सपिण्यांश्रावणमासस्य बहुलप्रतिपदि कृष्णप्रतिपदिपूर्वावसर्पिण्याः आषाढपूर्णिमापर्यन्तसमये पर्यवसानत्वात् वालवनाम्नि करणे कृष्णप्रतिपत्तिथ्यादिमार्द्धऽस्यैव सद्भावात् / अभीचिनक्षत्रे चन्द्रेण योगमुपागते चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमसमये प्रारम्भक्षणेऽनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावदनन्तगुणपरिवृत्या परिवर्द्धमानः। अत्रान्तरे दुष्षमदुष्षमानाम्ना समः कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण ! आयुष्मन् ! इति वर्णादीनां वृद्धिश्वयेनैवक्रमेण पूर्वमवसर्पिण्यरकेषुहानिरुक्ता तथैवात्र वाच्या चतुर्दशकालविशेषा पुनः निःश्वासादुच्छवासाद्वा गण्यते समयस्य निर्विभागकालत्वेनाद्यन्तव्यवहाराभावादावलिकायाश्चाव्यवहार्यत्वेनोपेक्षा / तत्र निःश्वासः उच्छ्वासो वा 1 प्राणः 2 स्तोकः३ भवः 4 मुहूर्तः 5 अहोरात्र 6 पक्षः 7 मासः 8 ऋतुः / अयनं 10 संवत्सरं 11 युगं 12 करणं 13 नक्षत्रम् 14 इति एतेषां चतुर्दशाना मध्ये पञ्चसूत्रसत्कादुक्तानामपरेषां चोपलक्षणं संगृहीतानां प्रथमसमये कोऽर्थः य एव हि एतेषां चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमः समयः स एवोत्सर्पिणीप्रथमारक प्रथमसमयः / अवसप्पिणीसत्कानामेषां द्वितीयाऽऽषाढपौर्णमासोचरमसमयः एवं पर्यवसा Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सप्पिणी ११९७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सप्पिणी नात् इदमुक्तं भवति अवसर्पिण्यादौ महाकाले प्रथमतः प्रवर्तमाने सर्वेऽपि तदवान्तरभूताः कालविशेषाः प्रथमत एव युगपत् प्रवर्तन्ते तदनु स्वस्वप्रमाणसमाप्तौ समाप्नुवन्ति तथैव पुनः प्रवर्तन्ते पुनः परिसमाप्नुवन्ति यावन्महाकालपरिसमाप्तिरिति / यद्यपि ग्रन्थान्तरे ऋतोराषाढादित्वेन कथनादुत्सप्पिण्याश्च श्रावणादित्वे अस्य प्रथमसमयो न संगच्छते ऋत्वर्द्धस्य गतत्वात् तथापि प्रावृट् श्रावणादिवर्षारात्रोऽश्वयुजादिः शरन्मार्गशीर्षादिर्हमन्ता माघादिर्वसन्तश्चैत्रादिग्रीष्मो ज्येष्ठादिर्भगवतीवृत्तिवचनात् श्रावणादित्वपक्षाश्रय-णेन समाधेयमिति न दोषः / किं चेदं सूत्रं गम्भीरग्रन्थान्तरे च व्यक्तानुपलभ्यमानभावार्थं कण्ठेनान्यथाप्यागमाविरोधेन मध्यस्थैर्बहुश्रुतैः परिभावनीयमिति। अथात्र कालस्वरूपं पृच्छति" तीसेणमित्यादि" सर्वं सुगमं नवरं दुष्यमदुष्षमायाः अवसर्पिणीषष्ठारकस्य वेष्टको वर्णको नेतव्यः प्रापणीयस्तन्मानत्वादस्याःगतः उत्सर्पिण्याः प्रथमोऽरः अथ द्वितीयारकस्वरूपं वर्णयति। तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंतगुणपरिवुड्डीए परिवुड्डेमाणे परिवुड्डमाणे एत्थ णं दूसमा णामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो॥ तीसेणमित्यादि सर्व सुगर्म नवरमुत्सर्पिणीद्वितीयारक इत्यर्थः अथाऽवसर्पिणीदुष्षमातोऽस्या विशेषमाह। ते णं कालेणं ते णं समए णं पुक्खलसंवट्टए णाम महामेहे पाउन्भविस्सइ भरहप्पमाणमित्ते आयामेणं तदणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं तएणं से पुक्खले संवट्टए महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ खिप्पामे व पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविजुआइस्सइ खिप्पामेव पविजुआइत्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमित्ताहिं धाराहिं उघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिस्सइजेणं भरहस्स वासभूमिभागं इंगालभूअं मुम्मुरभूअं छारीअभूवं तत्तकवेल्लुगभूअं तत्तसमजोइभूतं णिव्वाविस्सइ तंसि च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं खीरमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं तदणुरूवं च ण विक्खंभवाहल्लेणं तएणं से खीरमेहणामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाव खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिजाव सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ। जे णं भरहेवासस्स भूमीएवण्णं गंधं रसं फासं च जणइस्सइतंसिच णं खीरमेहंसि सत्तरत्तणिवतितं समाणंसि इत्थणं धयमेहे णामं महामेहे पउन्मविस्सइ / भरहप्पमाणमेते आयामेणं तदणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं तए णं सेघयमेहमहामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइजाव वासं वासिस्सइजेणं भरहस्सवासस्स भूमीए सिणेह भावं जणइस्सइ तंसि च णं घयमेहसि सत्तरत्ता णिवतितंसि समाणं सि एत्थ णं अयमे हे णामं महामे हे पाउन्भविस्सइभरहप्पमाणमित्ते आयामेव जाव वासंवासिस्सइ भरहे वासे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपटवयहरितग ओसहिपवालंकुरमाईए तस्स वणप्फइकाइए जणइस्सइ तंसि चणं अमयमेहंसि सत्तरत्तं णिवत्तितंसिसमाणंसि एत्थणं रसमेहे णामं महामेहे पाउब्मवि-स्सइ। भरहप्पमाणमित्ते आयामेणं जाव वासंवासिस्सइजेणं तेसिंबहूणं रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपव्वयहरितओसहिपवालंकुरमादीणं तित्तकडुअकसायविलमहुरे पंचविहे रसविसेसेजणइस्सइतएणं भरहे वासे भविस्सइ परूढरुक्खगुच्छगुम्मलयावल्लीतणपटवयहरिअओसहिए उपचिअतयपत्तपवालंकु रपुप्फफलसमुइए सुहोवभोगे आविभविस्सइ। 'तेणमित्यादि' तस्मिन् काले उत्सर्पिण्यां द्वितीयारकलक्षणे तस्मिन् समये तस्यैव प्रथमसमये पुष्कलं सर्वमशुभानुभावरूपं भरतभूरौक्ष्यदाहिकं प्रशस्तोदकेन संवर्त्तयति नाशयतीतिपुष्कलसंवर्तकः स च पर्यन्यप्रभृतिमेघत्रयापेक्षया महान मेघो दशवर्षसहस्रावधि एकेन वर्षणेन भूमेर्भावकत्वात् महामेघः प्रादुर्भविष्यति प्रकटीभविष्यति भरतक्षेत्रप्रमाणेन साधिकैकसप्ततिचतुःशताधिकचतुर्दशयोजनसहरनरूपेण मात्रा प्रमाणं यस्य स तथा केनायामेन दीर्घभावेन / अयं भावः पूर्वसमुद्रादारभ्य पश्चिमसमुद्रं यावत् वादलकं व्याप्तं भविष्यतीत्यर्थः ततनुरूपश्च तस्य भरतक्षेत्रस्याऽनुरूपः सदृशः सूत्रे च लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात् क्रियाविशेषणं वा केनेत्याह विष्कम्भबाहल्येन अत्र समाहारद्वन्द्ववशादेकवद्भावः कोऽर्थः यावान् व्यासो भरतक्षेत्रस्य इषुस्थाने पञ्चशतयोजनानिषड्विंशतिर्योजनानिषट्कालायोजनकोनविंशतिभागरूपास्तदतिरिक्तस्थानेतु अनियततया तथाऽस्यापि विष्कम्भः बाहल्यं तु यावता जलभारेण यावदवगाढभरतक्षेत्रतप्तभूमिमार्दी कृत्य तापः उपशाम्यते तावज्जलदनिष्पन्नमेव ग्राह्यमिति। अथ स प्रादुर्भूतः सन् यत्करिष्यति तदाह"तएणमित्यादि" ततश्च स पुष्कलसंवर्तकमेघः क्षिप्रमेवान्नमकाल एव' पतणतणाइस्सत्ति ' अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षेण स्तनितं करिष्यति गर्जिष्यतीत्यर्थः / तथा च कृत्वा 'पविजुत्ताइस्सत्ति' प्रकर्षेण विद्युतं करिष्यति तथा च कृत्या क्षिप्रमेव युगं रथावयवविशेषः मुसलं प्रतीतं मुष्टिः पिण्डिताङ्गुलिकः पाणिः येषां यत् प्रमाणमायामबाहल्यादिभिस्तेन मात्रा यासां ताभिःइयता प्रमाणेन दीर्घाभिःस्थूलाभिरित्यर्थःधाराभिः ओघेन सामान्येन सर्वत्र निर्विशेषण मेघो यत्र तंतथाविध सप्ताहोरात्रान् वर्ष वर्षिष्यतिवर्षा करिष्यतीत्यर्थः / जे णमिति पूर्ववत् भरतस्य वर्षस्य क्षेत्रस्य भूमिभागमङ्गारभूतं मुर्मुरभूतं क्षारिकभूतं तप्तकवेल्लुकभूतं तप्तसमज्योतिर्भूतं निर्वापयिष्यति स पुष्करसंवर्तको महामेघः। अथ द्वितीयमेधवक्तव्यमाहातंसि च णमित्यादि तस्मिश्च चशब्दो वाक्यान्तरप्रारम्भार्थः पुष्कलसंवर्तक महामेघे सप्तरात्रं यावनिपतिते सति निर्भर वृष्टे सति। अत्रान्तरे क्षीरमेघो नाम महामेघः प्रादुर्भविष्यति शेषं भरतेत्यादि प्राग्वत् / अथ स प्रादुर्भवन् किं करिष्यतीत्याह'तएणमित्यादि ' अत्र वासिस्सइ पर्यन्तं प्राग्वत् यो मेघो भरतस्य वर्षस्य भूम्या वर्णं गन्धं रसंस्पर्शचजनयिष्यति। अत्र वर्णादयः शुभा एव ग्राह्याः येभ्यो लोकोऽनुकूलं वेदयते अशुभवर्णादयः प्राक्कालानुभावे जनिता वर्तन्त एवेति ननु यदिशुभवर्णादीन् जनयति तदा तरुपत्रादिषु नीलो वर्णो जम्बूफलादिषु कृष्णः मरिचादिषुकटुको रसः का Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सप्पिणी 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सप्पिणी वेल्लादिषु तिक्तः चणकादिषु रूक्षः स्पर्शः सुवर्णादिषु गुरुः क्रकचादिषु खरः इत्यादयोऽशुभवर्णादयः कथं संभवेयुरित्युच्यते अशुभपरिणामा अप्येते अनुकूलवेद्यतया शुभा एव यथा मरिचादिगतः कटु करसादिः प्रतिकूलवेद्यतया शुभा अप्यशुभा एव यथा कुष्टादिगतः स्वेतवर्णादिरिति / अथ तृतीयमेघवक्तव्यमाह" तंसि इत्यादि "तस्मिन् क्षीरमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्रान्तरे घृतवत् स्निग्धो मेघो घृतमेघो नाम्ना महामेघः प्रादुर्भविष्यतीत्यादि सर्व प्राग्वत्। अथ स प्रादुर्भूतः किं करिष्यतीत्याह (तएणमित्यादि) सर्वं प्राग्वत् नवरं यो घृतमेघो भरतभूमेः स्नेहभावं स्निग्धतां जन-यिष्यतीति। अथ चतुर्थमेघवक्तव्यमाह" तंसि इत्यादि " तस्मिश्च घृतमेवे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्र प्रस्तावे अमृतमेघो यथार्थनामा महामेघः प्रादुर्भविष्यति यो वर्षिष्यति इति पर्यन्तं पूर्ववत्। यो मेघो भरते वर्षे वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वल्ल्यः तृणानि प्रतीतानि पवजा इक्ष्वादयः हरितानि दूर्वादीनि औषध्यः शाल्वादयः प्रवाला पल्ल-वाः अड्कुराःशाल्यादिवीजसूचयः इत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान् बादरवनस्पतिकायिकान् जनयिष्यतीति / अथ पञ्चममेघस्वरूपवक्तव्यमाह" तंसि च णमित्यादि " व्यक्तं परं रसजनको मेघो रसमेघः यो रसमेघस्तेषाममृतमेधोत्पन्नानां बहूनां वृक्षाद्य कुरान्तानां वनस्पतीनां तिक्तो निम्बादिगतः कटु को मरिचादिगतः कषायो विभीतकामलकादिगतः अम्लोऽम्लकाद्याश्रितः मधुरः शर्कराद्याश्रितः एतान् पञ्चविधान् रसविशेषान् जनयिष्यति / लवणरसस्य मधुरादिसंसर्गत्वादेतदभेदेन विवक्षणात् संभाव्यते तच तत्र माधुर्यादिसंसर्गः सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वोत्पत्तेः तेन पृथग् निर्देशः / एषां च पञ्चानां मेघानां क्रमेणेदं प्रयोजनसूत्रमुक्त मपि स्पष्टीकरणाय पुनर्लिख्यते / आद्यस्य भरतभूमेदाहोपशाः द्वितीयस्य तस्या एव शुभवर्णगन्धादिजनकत्वं तृतीयस्य तस्या एव स्निग्धताजनकत्वम्। न चात्र क्षीरमेघेनैव शुभवर्णगन्धरसस्पर्शसंपत्तौ भूमिस्निग्धतासंपत्तिरिति वाच्यं स्निग्धताधिक्यसंपादकत्वात्तस्य न हि यादृशी घृते स्निग्धता तादृशी क्षीरे दृश्यत इत्यनुभव एवात्र साक्षी। चतुर्थस्य तस्यां वनस्पतिजनकत्वं पञ्चमस्य वनस्पतिषु स्वस्वयोग्यरसविशेषजनकत्वं यद्यप्यमृतमेघतो वनस्प-तिसंभवे वर्णादिसंपत्तौ तत्सहचारित्वात् रसस्य संपत्तिस्तस्मादेव युक्तिमती तथाऽपि स्वस्वयोग्यरसविशेषान् संपादयितुं रसमेघएव प्रभुरिति तदाच यादृशं भरतंतादृशं तथा चाह। 'तएणं भरहे वासे' इत्यादितत उक्तस्वरूपपञ्चमेघवर्षणानन्तरंणमिति पूर्ववत्। भरतं वर्ष भविष्यति कीदृशमित्याह / प्ररूढा उद्गता वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वल्ल्यस्तृणानिपजा हरितौषधयश्च यत्त तत्तथा! अत्रसमासे कप्रत्ययः एतेनवनस्पतिसत्ताऽभिहिता। उपचितानि पुष्टिमुपगतानित्वक्पत्रप्रवालपल्लवाड्कुरपुष्पफलानि समुदितानि सम्यक् प्रकारेण उदयं प्राप्तानि यत्र तत्तथा तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् / एतेन वनस्पतिषु पुष्पफलान्ता रीतिर्दर्शिता / अत एव सुखोपभोग्यं सुखेनासेवनीयं भविष्यति अत्र वाक्यान्तर-योजनार्थमुपात्तस्य भविष्यति पदस्य न पौनरुक्त्यं भावनीय-मिति। अथ तत्कालीना मनुजास्तादृशं भरतं दृष्ट्वा यत् करिष्यन्ति तदाह। तए ण ते मणुआ भरहं वासं परूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लि- | तणपटवयहरिअओसहिए उवचिअतयपतपवालपल्लवंकुरपुप्फफलसमुइअं सुहोवयोगं जायं चावि पासिहिंति पासित्ता विलेहिं जो णिठ्ठइस्संति णिट्ठाइत्ता हट्ठतुट्ठा अण्णमण्णं सद्दाविस्संति सहाविस्संतित्ता एवं वदिस्संति जातं णं देवाणुप्पिआ भरहे वासेपरूठरुक्खगुच्छमुम्मलयवल्लितणपव्वयहरिअजाव सुहोवभोगं जेणं देवाणुप्पिया अम्हं केइ अज्जप्पमिइं असुभं कुणिमं आहारिस्सइसे णं अणेगाहिं छायाहिं वजणिज्जे तिकट्ट संठिइंठवेस्संति ठवेस्संतित्ता भरहे वासे सुहं सुहेण अभिरममाणा अभिरममाणा विहरिस्संति॥ 'तएणमित्यादि' ततस्ते मनुजा भरतवर्ष यावत् सुखोपभोग्यं चापि द्रक्ष्यन्ति दृष्ट्वा विलोक्य निर्धाविष्यन्ति निर्गमिष्यन्ति नि-(व्य हृष्टा आनन्दितास्तुष्टाः सन्तोषमुपगताः पश्चात्कर्मधारयः / अन्योन्यं शब्दायिष्यन्ति शब्दायित्वा च एवं वदिष्यन्तीति / अथ ते किं वदिष्यन्तीत्याह।"जातंणमित्यादि"जातं भो! देवानु-प्रिया! भरतं वर्ष प्ररूढवृक्षं यावत्सुखोपभोग्यं तस्माद्भो ! देवानु-प्रिया ! अस्माकमस्मजातीयानां कश्चिदद्य प्रभृति अशुभं कुणिमं मांसमाहारमाहारयिष्यति स पुरुषोऽनेकाभिश्छायाभिः इत्थं भावे तृतीया सहभोजनादिपङ्क्तिनिषण्णा याश्छायाः शरीरसंबन्धिन्यस्ताभिर्वर्जनीयः / अयमर्थः आस्तां तेषामस्पृश्यानां शरीरस्पर्शः तच्छरीरच्छायास्पर्शोऽपि वर्जनीयः क्वचिद्वज्जे ' इति सूत्रपाठे तुवा वर्जनीय इत्यर्थ इति कृत्वा संस्थितिं मर्यादां स्थापयिष्यन्ति स्थापयित्वा च भरतवर्षे सुखं सुखेनाभिरममाणा अभिरममाणा सुखेन क्रीडन्तः क्रीडन्तो विहरिष्यन्ति प्रवतिष्यन्त इति।। अथ भरतभूमिस्वरूपं पृच्छति। से णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइगोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ जाव कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव / तासे णं भंते ! समाए मणुआणं केरिसए आयारभावपडो आरे भविस्सइ गोअमा ! तेसिणं मणुआणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे बहूईओ रयणीओ उड्डं उच्चत्तेणं जहण्णेणं अतो मुहुत्तं उक्कासेणं साइरेगं वाससयं आउअंपालेहिंति पालेहितित्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अप्पेगइआ देवगामी ण सिझंति। 'तीसे णमित्यादि 'सर्व पूर्ववत् ननु कृत्रिममण्यादिकरणं तदानीतनमनुजानामसंभवि शिल्पोपदेशकाचार्याभावादुच्यते द्वितीयारे पुरादिनिवेशराजनीतिव्यवस्थादिकृजातिस्मारकादि पुरुषविशेषद्वारा वा क्षेत्राधिष्ठायकदेवप्रयोगेण वा कालानुभावजनितनैपुण्येन वा तस्य सुसंभवत्वात् कथमन्यथाऽत्रैव ग्रन्थे प्रस्तुतारकमाश्रित्य पुष्करसंवर्तकादिपञ्चमहामेघवृष्ट्यनन्तरं वृक्षादिभिरौषध्यादिभिश्च भारायां संजातायां भरतभूम्यां तत्कालानमनुजा विलेभ्यो निर्गत्य मांसादिभक्षणनियममर्यादां विधास्यन्ति तल्लोपकं चपङ्क्तेर्बहिः करिष्यन्तीत्यर्थाभिधायकं प्रागुक्तं सूत्रं संगच्छत इति। अथ मनुजस्वरूपमाह / 'तीसेणमित्यादि सर्वं अवसर्पिणीदुष्षमारकमनुजस्वरूपवद्भावनीयं नवरं (सिद्धिं ति) सकलकर्मक्षयलक्षणां सिद्धिं न प्राप्नुवन्ति चरणधर्मप्रवृत्त्यभावात् / अत्र भविष्यन्निर्देशप्राप्तेर्वर्तमाननिर्देशः पू Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सप्पिणी 1196 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सप्पिणी युक्तितः समाधेयः इत्युत्सपिण्यां द्वितीयारके " तीसे णं समाए | मविस्सई / मणुआणं जाव उसप्पिणीए पच्छिमे तिभागे वत्तएक्कवीसाए वास इत्यादि " तस्यां समायां दुषमानाम्न्यामेकविंशत्या व्वया सा भाणिअव्वा कुलगरवज्जा उसमसामिवज्जा / अण्णे पढ़ति वर्षसहस्रैः काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वणपर्यवैर्यावत् परिवर्द्धमानः।। तीसे णं समाए पढमे तिमाए इमे पण्णरस कुलगरा समुअत्रावसर दुमसुक्त नाम्ना समः काल उताब्दियत्तृित्वात्या- ਯਾਰਿ ਬਲਵੀਂ ਰੁ ਭਲੋ ਸੇ ਸੀ ਜ਼ੋਰ ਫੜ प्रतिपत्स्यते हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत् ! तीसेणमित्यादि सर्वं प्राग्वत् / पडिलोमाओ णेअव्वाओ। तीसे णं समाए पढमे तिभाए रायअवसर्पिणीचतुर्थारकसदृशत्वमुत्सर्पिणीतृतीयारकस्येति तत् सादृश्यं / धम्मे जाव धम्मचरणे अव्वोच्छिजिस्सइ। तीसे णं समाए मप्रकटयन्नाह / तीसेणमित्यादि प्रायः प्राग्व्याख्यातार्थम् / ज्झिमपच्छिमेसु तिभागेसु जाव पढममज्झिमेसु वत्तटवया तीर्थकरास्त्रयोविंशतिः पद्मनाभादयश्चतुर्विंशतिमस्य भद्रकृन्नाम्न- उसप्पिणी एसा भाणिअव्वा सुसमा तहेव सुसमसुसमा वि तहेव चतुर्थारके उत्पत्स्यमानत्वात् एकादश चक्रवर्तिनो भरतादयो वीर-चरित्रे जाव छव्विहा मणुस्सा अणुसजिस्संति जाव सणिधारी।। तु दीहदन्तादयः द्वादशस्यारिष्टनाम्नश्चतुरिक एव भावित्वात्।। सुषमा पञ्चसमालक्षणः कालस्तथैवाऽवसर्पिणीद्वितीयारकवदिति / नवबलदेवा जयन्तादयः नव वासुदेवा आनन्द्यादयः समुत्पत्स्यन्ते यत्तु सुषमसुषमा षष्ठारकः सोऽपि तथैव अवसर्पिणीप्रथमारकसदृश इत्यर्थः / तिलकादयः प्रतिविष्णवो वा नेहोक्तास्तत्र पूर्वोक्त एव हेतुरवसातव्यः / कियत्पर्यन्तमत्र ज्ञेयमित्याह यावत् षड्विधा मनुष्या अनुसंक्ष्यन्ति गतस्तृतीयार उत्सर्पिण्याः॥ संतत्या अनुवर्तिष्यन्ते यावच्छनैश्चारिणः / यावत् पदात् पद्मगन्धादयः अथ चतुर्थः। पूर्वोक्ता एव ग्राह्याः गतौ पञ्चमषष्ठौ तद्गमने चोत्सर्पिणी गता तस्यां च तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्से काले वीइक्कते अणंतेहि गतायामवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपं कालचक्रमपि गतम् , ज०२ वक्षः। वण्णपज्जवेहिं परिवड्डमाणे परिवड्डमाणे एत्थ णं दुस्समसुसमा एवं छटे अरए उस्सप्पिणीए समत्ते वि पढमे अरए एसा चेव णामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो। तीसे णं मंते ! वत्तव्वया तम्मिबोलीणे वीयारपयारंभे मत्ताह पंचमहाभारहे वासे समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ वासिस्संति कमेणं तं जहा पढमो पुक्खरावत्तो तावं निगोअमा! बहुसमरमणिज्जे जाव अकत्तिमेहिं चेव तेसिणं भंते ! व्वावेहिइ वीओखीरोदो वन्नकारी तइओ घओदओ नेहकारओ मणुआणं के रिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ गोअमा तेसि चउत्थो अमिओदओ ओसहिकारो पंचमो रसोदओ भूमीए सणं मणुआणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे बहूई धणूहिं उड्ढे स्सजणणो ते य विलवासिणो पइसमयं वड्डमाणसरीराउ पुढउचत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडीआउं अया हविसुहं दबण विलेहिंतो निस्सरंति धन्नं फलाई भुजंता मंसालिहिंति अयालिहिंतित्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव अंतं हारं निवारइस्संति तओ मज्झदोसमुत्तकुलगरा भविस्संति तत्थ करेहिति। तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पजिस्संति तं जहा पढमो विमलवाहणो वीओ सुवामो तइओ संगओ चउत्थो तित्थगरवंसे चक्कवट्टिवंसे दसारवंसे / तीसे णं समाए तेवीसं सुपासो पंचमो दत्तो छ8ो सुमुहो सत्तमो सम्मुची जाइसमरणेणं तित्थगर एक्कारस चक्कवट्टीणव बलदेवा णव वासुदेवा समुप्प विमलवाहणेणं विमलवाहणो नगराइ निवेसं काहीं अग्गिम्मि जिस्संति॥ उप्पन्ने अण्णं पाणगं सिप्पाइंकालाउलोगववहारं च सव्वं पव तेहि तइओ गुणनवइपक्खसमज्झिए हिए उस्सप्पिणीअरय-दुगे 'तीसे णमित्यादि ' तस्यां समायां सागरोपककोटाकोट्या द्वि वइकंते पुंडवद्धणदेसे सयबारे पुरे संमुइनरवइणे भद्दाए देवीए चत्वारिंशता वर्षसहरनियता कालव्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवै चउद्दसमहासुमिणसूइओ सेणिवरायजीवो रयणप्पभाए लोलुविद्वर्द्धमानोऽत्र प्रस्तावे सुषमदुष्षमा नाम्ना समः कालः उत्स बुद्धयपच्छडाओ चुलसीइंवाससहस्साइं आउंपालित्ता उव्वट्टो प्पिणीचतुर्थारकलक्षणः प्रतिपत्स्यते। समाणो कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववज्झिहिइवण्णप्पमाणलंवणअथ पञ्चमषष्ठावतिदेशत आह। आउणिगब्भावहारवजं पंचकल्लाणयाणं मासतिहिं नखत्ताणि तीसे णं समाए सागरोवमकोडीए वा पालीसाए वाससहस्सेहिं जहा मम तहेव भविस्संति नवरं नामेणं पउमनाहो देवसेणो ऊणिआए काले वीइक्कंता अणंतेहिं वण्णपज्जवेहिं जाव अणंत- विमलवाहणो अ। तओ वीयतित्थयरो सुपासाजीवो सूरदेवो गुणपरिवुड्डीए परिवुड्डमाणे परिवुड्डमाणे एत्थ णं सुसमदूसमा तइओ उदाइजीवो सुपासो चउत्थो पोट्टलिजीवो सयंपभो णामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो / साणं समा तिहा पंचमो दयओजीवाओ सव्वाणुभूई छट्ठो कित्तियजीवो देवसुओ विभजिस्सई पढमे तिभागे मज्झिमे तिभागे पच्छिमे तिभागे। सत्तमो संखजीवोदयो अट्ठमो आणंदजीवो पेटालो नवमो तीसे णं भंते ! समाए पढमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए सुनंदा जीवो पोट्टिलो दसमो सयगजीवो सयकित्ती एक्कारसमो आयारभावपडोआरे भविस्सइ गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे जाव देवइजीवो मुणिसुध्वओ वारसमो कण्णजीवो अमम्मा ते Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सप्पिणी १२००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्साचारण रसमो सव्वइजीवो निक्कसाओ चउद्दसमो बलदेवजीवो निप्पु- देवलोकच्युताभासितानि / क्वचित्पाठः देवलोयभूयाणं वायालीस लाओ पण्णरसो सुलसाजीवो निम्ममो सोलसमो रोहणीजीवो इसिभासियज्झयणा पन्नत्ता (पुरिसजुगाइंति) पुरुषाः शिष्यप्रशिष्याचित्तगुत्तो केइं पुण भणंति कक्किपुत्तो दत्तमानो पण्णरसउत्ति उत्तरे दिक्रमव्यवस्थिता युगानीव कालविशेषा इव क्रमसाधात्पुरुषयुगानि विक्कमवरिसे सेतुंजे उद्धारं कारित्ता जिणभवणमंडिअंच वसुई - (अ-णुपिडति) आनुपूर्व्या (अणुबंधति) पाठान्तरे तृतीयादर्शनादनुबकाउ अज्जियतित्थयरनामो सग्गं गंतुं चित्तगुत्तो नाम जिणवरो न्धेन सातत्येन सिद्धानिजावंति करणेन बुद्धाइंसव्वदुक्खप्पहीणा इति होहित्ति / इत्थ य बहुस्सुअसंसयं पमाणं सत्तरसो रेवइजीवो दृश्यम्। स० टी० समयायाने प्रतिवासुदेवेषु बलीस्थाने महाभीम इति। समाही अट्ठारसो सयालिजीवो संचरो एगूणवीसो दीवायणजीवो अहवा तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्तातं जहा उक्कोसा मज्झिमा जसोहरो वीसइमो कणजीवो विजओ एकवीसो नारयजीवो जहन्ना एवं छप्पिय समाओ भाणियव्याओ जाव दुसमदुसमा मल्लो वावीसयमो अंवडजीवो देवो तेवीसयमो अमरजीवो तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्तातं जहा उक्कोसा मज्झिमा जहन्ना। अणंतवीरिओ चउवीसयमोसायं वुद्धजीवो भद्द-करो अंतरालाइ एवं छप्पिय समाओ भाणियव्वाओ जाव सुसमसुसमा।। पच्छाणुपुटवीए जहा वट्टमाणजिणाणं भावि-चक्कवट्टिणो दुवालस उत्सर्पिण्यां दुष्षमदुष्षमादि तद्भेदानां चोक्तविपर्ययेणोत्कृष्टत्वं होहिंति तं जहादीहदंतो 1 गूढदंतो 2 सिरिचंदो 3 सिरिभूई: योज्यमिति। षष्ठेऽरके उत्कृष्टा चतुर्पु मध्यमा प्रथमे जघन्या। स्था०३ सिरिसोमो 5 पउमो 6 नायगो 7 महा-पउमो 8 विमलो ठा०१ उ०। अमलवाहणो 10 विलो 11 अरिठ्ठो 12 अ।नव भाविवासुदेवा उस्सप्पिणीगंडिया स्त्री०(उत्सर्पिणीगण्डिका)उत्सर्पिणीविषयतं जहा नन्दो 1 नन्दिमितो 2 सुन्दरबाहुः 3 महाबाहु 4 कवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतायां गण्डिकायाम् , स०॥ अइबलो 5 महाबलो 6 बलमद्दो ७दुविट्ठोतिविट्ठो यहानव उस्सप्पिणीसमय पुं०(उत्सर्पिणीसमय) उत्सर्पिणीशब्देतावसभाविपडिवासुदेवा जहा तिलओ 1 लोह-जंघो 2 वइरजंघो 3 पिण्युपलक्ष्यते दिनग्रहणेन रात्र्युपलक्षणवत्तयोः समयाः परमनिकृष्टाः केसरी / बली 5 पहाए 6 अपराजिओ 7 भीमो सुग्गीवो कालविशेषाः उत्सर्पिणीसमयाः। अवसर्पिण्युत्सर्पिण्योः समयेषु, कर्मः / / नव भाविबलदेवा तंजहा जयंतो 1 अजिओ 2 धम्मो 3 सुप्पमो v सुदंसणो 5 आणंदो 6 नंदणो 7 पउमो 8 संकरिसणोय। उस्सय पुं०(उच्छ्रय) शरीरे, आव० 5 अ० / स्वभावोन्नतत्वे तद्रूपे पञ्चचत्वारिंशत्तमे गौणाहिंसालक्षणेऽर्थे, प्रश्न० 2 श्रु० अ० / उच्चद्रव्याङ्के, इगसहीसलागा पुरिसा उस्सप्पिणीए तइए अरए भविस्संति "उच्छ्रायेण गुणितं चितेः फलम्" वाच०। अपिच्छम जणचक्कबट्टिणो जहपिणचउत्थे अरए होहिंति तओ दसमगाई कप्परुक्खा उप्पिं जहिंति अट्ठा-रसकोडाकोडीओ उस्सयण पुं०(उच्छ्राय) यस्मिश्च सति ऊवं श्रयति जात्यादिना सागरोवमाणं निरंतरं जुगलधम्मो भविस्स-इत्ति 21 ती०।। दध्मातः पुरुष उत्तानी भवति स उच्छ्रायः। माने, थंडिलुस्सयणाणिय "जात्यादीनामेतत्स्थानानां बहुत्वात् तत्कार्यस्यापि मानस्य बहुत्वमतो एगमगाए उसप्पिणीए पढमवीयाओ समाओ बायालीसं बहुवचनम्। छान्दसत्वान्नपुंसकलिङ्गता। सूत्र० 1 श्रु०६ अ०॥ वाससहस्साइंकालेणं पण्णत्ता। उस्सव पुं०(उत्सव) उद्-सू-अप्। आनन्दजनकव्यापारे, शक्रो-त्सवादी, (पढमवीयाउत्ति) एकान्तदुष्षमा दुःषमा चेति // 42 // त्रिचत्वा प्रश्न०२ श्रु०५ द्वा० / इन्द्रमहादौ, आ० चू० 1 अ०॥ रिंशत्स्थानकेऽपि किंचिल्लिख्यते (कम्मवियागज्झयणत्ति) कर्मणः उस्सविय अव्य०(उच्छ्राय्य) ऊर्ध्वं व्यवस्थाप्येत्यर्थे," अवहटुउस्सविय पुण्यपापात्मकस्य विपाकस्य फलं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि कर्मविपाकाध्ययनानि एतानि च एकादशाङ्गद्वितीयाङ्गयोः सम्भाव्यन्त दुरुहेजा " आचा०२ श्रु०१ अ०।" आमंतिय उस्सविय भिक्षु आयसा निमंतति " संस्थाप्योचावचैर्विश्रम्भजनकैराला-पैर्विश्रम्भे इति" जंबूदीवस्सणमित्यादि "जम्बूद्वीपपौरस्त्यान्ताद्गोस्तुभपर्वतो पातयितवा सूत्र०१ श्रु०४ अ०। द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्भश्च सहस्रं तदधिकाया द्वाविंशतेरल्पत्वेनाविवक्षणादेवं त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्तीति एवं उस्ससिय त्रि०(उच्छ्वसित) उल्लसिते, उत्त 20 अ॥ (चउद्दिसिंपित्ति) उक्तदिगन्तभविन चतस्रो दिश उक्ता अन्यथा एवं उस्ससियरोमकूव पुं०(उच्छ्वसितरोमकूप) साधोदर्शनाद् वा(तिदिसिंपित्ति) वाच्यं स्यात् तत्र चैवमभि-लाषाः " जंबूद्दीवस्स णं __ क्यश्रवणादुल्लसितरोमकूपे, उत्त 20 // दीवस्स दाहिणिल्लाओदओ भासस्सणं आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले उस्सेजमाण त्रि०(उच्छ्वस्यमान) उच्छ्वसिते क्रियमाणे " उचरिमंते एसिणं तेयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते " च्छस्ससेजमाणे वा अच्छिन्ने पुग्गले चलेज्जा " उच्छ्वस्यमान उएवमन्यत्सूत्रद्वयं नवपश्चिमायां संखा आवासपर्वत उत्तरस्यामुदकसीम च्छ्वासवायुपुद्गलः " स्था० 10 ठा०। इति॥४३॥ चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किंचिल्लिख्यते चतुश्चत्वारिंश उस्सा पुं०(अवश्याय) क्षपाजले,(स्था० 4 ठा०) योगगनात्पतति, (इसिभासियत्ति) ऋषिभाषिताध्ययनानि कालैकश्रुतविशेषभूतानि कल्प / धेनुपर्याये, देशी० // (दियालोयचुयाभासियात्ति) देवलोकच्यतैः ऋषीभूतैराभाषितानि | उस्साचारण पुं०(अवश्यायचारण) अवश्यायमयष्टभ्याष्काय Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्साचारण 1201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सारकप्प - जीवपीडामजनयति गतिमसङ्गं कुर्वाणे चारणभेदे, प्रव०६८ द्वा०। सूरिभिरपि निष्प्रतिमप्रतिभाप्राग्भारव्रतभवबादलब्धिसंपभैनि उस्सारकप्पपुं०(उत्सारकल्प) यत्रैकस्मिन् दिने बहुदिवसयोग्यसूत्रस्य पुणहेतु दृष्टान्तोपन्यासपुरस्सरं मध्ये विद्वज्जनसभं कृतास्ते वाचना दीयते तस्मिन् , आ० चू०१ अ०॥ निष्पृष्टप्रश्नव्याकरणाः / ततः समुच्छलितः पारमेश्वरप्रवचनगोचरः उत्सारकल्पस्य दोषादिवक्तव्यता / अथानुषङ्गिकमुत्सारकल्पि कीर्तिकोलाहलः प्रादुर्भूतः परतीथिकानामपि परमः परा-भवः निमग्नः प्रमोदपीयूषपयोनिधावस्तोकः श्रमणोपासकलोकः संपादिता सपदि कद्वारमभिधित्सुः प्रस्तावनामाह / / विशेषतस्तेन महती तीर्थस्ये प्रभावना / ततस्ते वाचकाः क्रियन्तमपि चोयगपुच्छा उस्सार-कप्पिओ नत्थि तस्स विह नाम। कालमलङ्कृतं ग्राम प्रबोध्य मिथ्यात्वनिद्राविद्रावणचैतन्य उस्सारे चउगुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ भव्यजन्तुजातमन्यत्र कुत्राऽपि व्यहार्षुः तेषु च दिनकरवदन्यत्र कल्पिकद्वारे व्याख्याते सति लब्धावकाशो नोदकः पृच्छां करोति प्रतापलक्ष्मीमुद्वहमानेषु परतीर्थिका उल्लूका इवाप्तप्रसरतया भगवन्नमीषां कल्पिकानां मध्ये किमित्युत्सारकल्पिकेनोपन्यस्तः / घोरघूत्कारकल्पं प्रवचनावर्णवादं कर्तुमारब्धाः / वदन्ति च श्रावकान् सूरिराह नास्त्युत्सारकल्पिक इति / भूयोऽपि परः प्राह / यधु- प्रति भोः स्वेताम्बरोपासका ! यद्यस्ति भवतां कोऽपि कण्डूलमुखो वादी त्सारकल्पिको नास्ति ततः कथं तस्य नाम श्रूयते गुरुराह यद्य- सप्रयच्छतुसांप्रतमस्माकं वादमिति। श्रावकैरुक्तम्। अहो विस्मृतमधुनैव स्त्युत्सारकल्पो नास्त्याव्यवह्रियते तथाऽपि न कल्पते उत्सारयितुं भवतां भवान्तरानुभूतमिव तत्तादृशमाचीनमपिलाघवं यदेवमनात्मज्ञा यद्युत्सारयति तदा चत्वारो गुरुकाः तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः / असमञ्जसंप्रलपत भवत्वेवं तथाऽप्यायान्तुतावत्केचिद्वाचका वा गणिनो तानेवाह! वा पश्चाच भणिष्यन्ति भवन्तः तत्करिष्याम इति / अथैकदा आणाणवत्थमिच्छा-विराहणा संजमे य जोगे य। कदाचिन्निजपाण्डित्याभिमानेन तु भुवनमपि तृणवन्मन्यमानस्तुण्ड ताण्डवाडम्बरेण वाचस्पतिमपि मूकमाकल्पयन् समागतः अप्पा परो पवयणं,जीवनिकाया परिच्चत्ता। कतिपयशिष्यकलितः औ-त्सारकल्पिकवाचकः / ततः प्रमुदिताः आज्ञा भगवतां तीर्थकृतामुत्सारकल्पकृता न कृता भवति तमा- श्रावकाः गताः अन्ययूथिकः नामभ्यर्णे निवेदितं तत्पुरतः चार्यमुत्सारयन्तं दृष्ट्वा अन्येऽप्याचार्या उत्सारयिष्यन्ति उदीया युष्माभिस्तदानीमस्माकं समीपे वादः प्रार्थित आसीत् / अस्माभिश्च अन्यदीया वा शिष्या विवक्षितशिष्यस्पर्धानुबन्धादुत्सारापयिष्यन्ति भणितमभूत् यदा वाचका अत्रागमिष्यन्ति तदा सर्वमपि युष्मदभिप्रेतं वेत्यनवस्था। मिथ्यात्वं वा प्रतिपन्ना अभिनवधर्माणः सत्वा व्रजेयुः / विधाम्याम इति तदिदानीमागताः सन्ति वाचकाः कुरुततैः सह वादगोष्ठी विराधना संजमे च संयमविषया योगे च योगविषया भवति / तथा पूरयत स्वप्रतिज्ञामित्यभिधाय गताः श्रावकाः स्वस्वस्थानम् / तेनोत्सारकेण आत्मा स्वजीवः पर उत्सारकल्पविषयः शिष्यः प्रवचन तैश्चान्ययूथिकैः प्राचीनपराभवप्रभवभयत्रान्तरेकः प्रच्छन्नवेषधारी तीर्थं जीवनिकायाः पृथिव्यादयः एतानि परित्यक्तानि भवन्तीति प्रत्युपेक्षकः किं सहृदयः शास्त्रपरिकर्मितमतिर्वाग्मी वाचकः किं वा नेति द्वारगाथासमासार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुः राज्ञाऽनवस्थे ज्ञानाय प्रेषितः स चागम्योत्सारकल्पिकवाचकं प्रश्नयति परमाणुपुद्क्षुण्णत्वादनादृत्य मिथ्यात्वं दर्शयितुं दृष्टान्तमाह। गलस्य कतीन्द्रियाणि भवन्तीति ततः स एवं पृष्टः सन् किंचिन्मात्रपल्लवपुटवमलियउस्सार-वायए आगए पडिमिलिंति। त्वरितग्राहितया यथोक्ताव्यभिचारिविचारबहिर्मुखत्वात् चिन्तयति यः पडिलेहपुग्गलिं विय, बहुजणओभाजणा तित्थे।। परमाणुपुद्गलः एकस्माल्लोकचरमान्तादपरं लोकचरमान्तमेकेनैव समयेन गच्छति स निश्चितं पञ्चेन्द्रियः कुतोऽनीदृशस्यैवंविधा तत्र तावत्प्रथमं कथानकमुच्यते / इह पुरा केचिदाचार्याः पूर्वान्त गमनवीर्यलब्धिरित्यभिसन्धाय प्रतिवचनमभिघत्ते भद्र ! परमाणुपुद्गतसूत्रार्थधारकतया लब्धवाचकनामधेयाः सर्वज्ञशासनसरसी गलस्य पञ्चापीन्द्रियाणि भवन्ति तत एवंविधं निर्वचनमवधार्य स पुरुषः रुहविकाशनैकसहस्ररश्मयः प्रावृषेण्यपयोमुच इव सरसदेशनाधा प्रत्यावृत्य गतः अन्ययूथिकानां संनिधौ कथितं सर्वमपि स्वरूपं राधरनिपाते महीमण्डलमेकार्णवधर्मकमादधाना गन्धहस्तिन इव तदनतस्ततः चिन्तितं स्वचेतसि तैनूनमयं शारदवारिद इव बहिरेव केवलं कलयूथेन सातिशयगुणवता निजशिष्यवर्गेण परिकलिता एक गर्जति अन्तस्तुच्छ एवेति विमृश्य समागतः संभूय भूयांसं लोकनीलं कंचिद्ग्राममुपागमन्। तत्र चाधिगतजीवाजीवादिविशेषणविशिष्टा बहवः कृत्वा वाचकान्तिकं क्षुभितोऽसौ स्वतुच्छ-तया तावन्तं समुदायश्रमणोपासकाः परिवसन्ति। ते च गुरूणामागमनमाकर्ण्य प्रमोदमेदुर मवलोक्य सञ्जातः स्वेदविन्दुसुचकितशरीरः आक्षिप्तः साटोपमन्यमानसाः स्वस्वपरिवारपरिवृताः सर्वेऽप्यागम्य तदीयं पादारविन्दम तीर्थको ग्राहितो यथाऽभिमतं पक्षविशेषं न शक्नोति निर्वोढुं प्रगल्भितो भिवन्द्य योजितकरकुड्यला यथावत्पुरतः आसाञ्च-क्रिरे / ततः दुस्तराणि प्रश्नोत्तराणि न जानीते लेशतोऽपि प्रतिवक्तुं ततः कृतो सूरिभिरपि रचिता यथोचिता धर्मदेशना / तदाकर्णनेन मिथ्यादृष्टिभिर्जितं जितमस्माभिरित्युत्कृष्ट कलकलः प्रादुर्भूत संजातसंवेगसुधासिन्धौ नान्तरमलः सकलोऽपि श्रावकलोको गतः प्रवचनमालिन्यं मुकुलितानि श्रमणोपासकवदनकमलानि विप्रतिपन्ना परमपरितोषपरवशः सूरीणां गुणग्रामोपवर्णनं कुर्वन् स्वं स्वं स्थानम् . यथा भद्रकादय इति / अथ गाथाक्षरार्थः पूर्वं कैश्चिद्वाचकैरन्ययूथिका तैश्च वाचकनभोमणिभिस्तत्रायातः प्रतिहतः खद्योतपोत- (मलिअत्ति) मानमर्दनेन मर्दितस्तत उत्सारवाचके आगते सति कल्पानामन्ययूथिनां प्रभाप्रसरः। ततो न शक्नुवन्ति तेऽन्ययूथिका प्रतिमर्दयन्ति प्रत्यावृत्त्या मानमर्दनं कुर्वन्ति कथमित्याह " पडिलेह" आचार्याणां व्याख्यानादिभिर्गुणैर्जायमानं निरुपमानं महिमानं द्रष्टुमिति | इत्यादि तैरन्यतीर्थिकः प्रत्युपेक्षकः पुरुषः प्रेक्षितस्ततः स आगत्यपृष्टवान् संभूय सर्वेऽप्युपमाचार्य वादे पराजित्य तृणादपि लघूकरिष्याम पुद्गलस्य परमाणोः कतीन्द्रियाणि तेन प्रत्युक्तंपञ्चेति। ततस्तैर्बहुजनइत्येकवाक्यतया चेतसि व्यवस्थाप्य समाजग्मुः सूरीणामन्तिकम्।। मध्ये स वाचको वादे निरुत्तरीकृतः एवमपभ्राजना साधवं तीर्थस्य भ Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प 1202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सारकप्प वति तत्र चाभिनवधर्मणां चेतसि विकल्प उपजायते यदि नाम वाचकोऽप्येनं न शक्नोति निर्वचनमर्पयितुं तन्नूनमेतेषां तीर्थकरेणैव न सम्यग्वस्तुतत्वं परिज्ञातमन्यथा कथमेष एवंविधे अथ व्यामुह्यते इति विपरिणामतो मिथ्यात्वगमनं भवेत् / भावितं मिथ्यात्वद्वारम्। अथ संयमविराधनां भावयति। जीवाजीवे न मुणइ, अलियभया कहेइ दगमिगाई। करणे अविवचासं, करेइ आगाढणागाढे // जीवाश्चाजीवाश्च जीवाजीवास्तानसौ वाचनामात्ररूपेणोत्सारकल्पेनानुयोगमवगाह्यमानो विविक्तेन न मुणति न जानीते तत्परिज्ञामात्राच कुतः संयमसद्भावस्तदुक्तं परमर्षिभिः।" जो जीवे विन याणइ, अजीवे वि न जाणइ ! जीवाजीवे अजाणतो, कह सो नाहिइ संजमं" तथा अलीकमत्यन्तभयाद्दकमृगादीन् कथयति किमुक्तं भवति स उत्सारकल्पिकपल्लवमात्रग्राहितया सत्यमेव भाषितव्यं नासत्यमिति कृत्वा उदकार्थिनां नदीतडागादौ पानीयमस्ति नास्ति वेति पृच्छतामलीक भा भूदिति कृत्वा विद्यते नद्यादौ जलमिति कथयति रागया प्रस्थितानांच व्याधानां दृष्टं मृगच्छदंनवेति पृच्छतामलीकभयादेव दृष्टमिति प्रयच्छति आदिशब्दात् शूक-रादिपरिग्रहः न पुनर्जानीते यथा। "सचा वि सानवत्तव्वा जओ पावस्स अरांभोत्ति' ततः सजलगतसूक्ष्मजन्तुजातस्य मृगादीनां वा यद् व्यपरोपणं ते करिष्यन्ति तत्सवमुत्सारकल्पकारकः प्राप्नोति। तथा करणे चारित्रे उत्सर्गापवादविधिमजानन यद्विपर्यासं करोति तद्यथा आगाढे ग्लानादिकार्ये अनागाढं त्रिः कृत्वः परिभ्रमणादिलक्षणमनागाढे वा आगाढं सद्यः प्रतिसेवनात्मकं करोति। एषा सर्वाऽपि संयमविराधना // अथ योगविराधनामाह। तुरियं नाहिजंते, नेव चिरं जोगजंति ता होति / लद्धो महंतसहो त्ति, केई पासाइ गेण्हंति / / कमजोगं न विजाणइ, विगईओ का य कत्थ जोगम्मि। अण्णस्स विदेति तहा, परंपरा घंटदिटुंतो।। अनुज्ञातोऽस्माकं गुरुभिः सकलोऽपि श्रुतस्कन्धः ततः किमनेन पठितेन कार्यमिति कृत्वा ते शिष्यास्त्वरितं शीघ्रं नाधीयन्ते नैव च ते चिरं योगैः श्रुताध्ययननिबन्धनतपोविशेषः यन्त्रिता नियमिता भवन्ति एकाहेनापि प्रभूतसूत्रार्थे वाचनानुज्ञाप्रदानात् / तथा लब्धोऽस्माभिर्गणिरयं वाचकोऽयमिति महान् शब्दस्ततः कुतो हेतोर्ययमत्राचार्यसन्निधौ निष्फलं तिष्ठाम इति परिभाव्य केचिद्गुरुचरणपर्युपासनापरिभग्नाः पानि गृह्णन्ति पार्श्वतोग्रामेषु यथास्वे-च्छविहरन्तीतिभावः (कमजोगमिति) योगक्रमं नापि नैव जानन्ति यथा अस्मिन् योगे एतावन्त्याचाम्लानि इयन्ति निर्विकृतिकानि इत्थं चानुद्देशादयः क्रियन्ते तथाऽधिकृतयः काः कुत्र योगे कल्पन्ते न वेत्येवमपि न जानाति यथा कल्पिकाकल्पिकनिशीथादियोगेषु न विसृज्यन्ते काश्चनापि विकृतयः व्याख्याप्रज्ञप्तियोगेषु पुनरवगाहिमविकृतिर्विसृज्यते दृष्टिवादयोगेषु तु मोदकः तथा चाह स एव कल्पाध्ययनस्य चूर्णिकृत् / " जहा कप्पियाकप्पियनिसीहाईणं विगईओन विसजिनंति। पन्नतीए ओगाहिमगविगई विसजिज्जइ दिट्ठीवाए मोदगोत्ति " / निशीथचूर्णिकृत्पुनराह" जोगो दुविहो आगाढो अणागाढो वा आगाढतरा जम्मि जोगे जयणा सो आगाढो यथा भगवतीत्यादि / इतरो अणागाढो यथा उत्तराध्ययनादि / आगाढे ओगाहिमगवजाओ नव विगईओ वजिजांति दसमाए भयणमहाकप्पसुए एक्को परं मोदकविगई कप्पइ सेसा आगाढेसु सव्वविगईओ न कप्पति अणागाढे पुण दस वि विगईओ भइयाओ जओ गुरुअणुण्णाएन कप्पंति त्ति " एवंविधां योगव्यवस्थामजानन् यदाऽसौ विराधयति सा योगविराधना / तथा (अन्नस्स वि दिति तहत्ति) ते उत्सारकल्पिका अन्यस्यापि स्वशिष्यादेः तथा चोत्सारकल्पेनैव वाचनां प्रयच्छन्ति सोऽप्यपरेषां तथैवेत्येवमुत्सारकल्पे प्रवाहतः क्रियमाणे परम्परया सूत्रार्थव्यवच्छेदः प्राप्नोतिघण्टादृष्टान्तश्चात्र वक्तव्यः। तमेवोपनययुक्त गाथात्रयेणाह। उच्छुकरणोवकुट्टग, पडणं घंटासियालनासणया। विगमाई पुच्छपरं-पराए नासंति जा सीहो / पडियरि साहेणं, साहिओ आसासिया मिगगणाय। इय कइ वयाइ जाणइ, पयाणि पढमिल्लुगुस्सारी।। किं पित्ति अन्न पुट्ठो, पच्चं तुस्सारणे अवोच्छित्ती। गीताममणखरंटण-पच्छित्तं कित्तिया चेव / / अत्र कथानकम्। एगस्स महावइयस्स उच्छुवाडो बहुसइओ निष्फन्नो तं सियालो पइसरित्ता खाइत्ति। ताहे सो उच्छसामी सियालग्गहणनिमित्त तस्स उच्छुवाडस्स परिपरंतेसु चउदिसि खाइयं खणावेइ तत्थ एगो सियालो परिओसोवराओ गिहित्ता कण्णे पुच्छंच कप्पित्ता दीवियचम्मेण वेढित्ता घंट आबंधित्ता विसजिओ नासंतो सियालेहिं दिट्ठो दूरओ ते सियाला अन्नारिसो त्ति काउं चएण पलाया तो विडूपहिं दिवा वुच्छिया किं नासहत्ति तेहिं कहियं अपुव्वं सरे करेमाणे किं पिअपुव्वं भूयं एत्ति। ते वि भएण पलायंता वरक्खूहिं दिट्ठा पुच्छिया तेहिं कहियं किं पिकिर एत्ति सिग्छ नासह ते पलायंता चित्तएहिं दिट्ठा पुच्छिया कहियं किं पिकिर एत्ति तुरियं पलायह ते विपलायंता सीहेण पुच्छिया कहियं तेहिं सीहो चिंतेइ मो पाणियसद्देन ओवाहणाओ मुयामि गवेसामि ताव तेण सणिय पडियरियत्ता सियालो विहिओघंटासीयालो कीस आओ लीक-यामोत्ति रोसेणं ते असियालादयो मिया आसमोभीयहहिओसोवराओ मए दीवियं चम्मो णट्टोघंटासीयलो कण वि अवराहेण घत्तुं तहाकओ एस दिट्ठतो। अयमत्थो वण्णओजस्सतीउस्सारिजति सोजावतिएहि दिवसेहिंजोगो समप्पइ तावति दिवसे कति वयाणं आलावगाणं किंचि पुत्तफासियम्मि खित्ता पव्वत्तं गंतूण गच्छागट्ठि-तणं करेति अन्नेसिं च उस्सारेतिते वि उस्सारा पत्ता पत्तेयं गच्छपाग-द्वित्तणेणं ठीएता सिस्साणं पडिच्छयाण य उस्सारकप्पं करेंति। अम्हे किर सुत्तत्थाणं अवोच्छित्तिं करेमो तत्थ जो सोपमिल्लुग-उस्सारी सो जहा ते सियाला तस्स घंटासियालरस अकित्ति घंटासदं च जाणति तओण को एस किं वा एयस्स गलएयरस गलएकस्स वा एस सद्यो एवं सो पढमिल्लुगुस्सारी किंचि वि जाणइ न सव्वं सब्भाव जो एयस्स पासे उस्सारकप्पं करेति सो कइवि आलावए जाणेत्ति न पुण अत्थं सो सिस्सेणं पुच्छिओ भणति किं पि के रिसो वि अत्थि एयस्स अत्थो सेसा कतिवए वि आलावए न कट्टति ते सिरसेहि पुच्छिजंता भणंति ण याणामो पुण किंपि एयं तस्स तुब्भे जोग वहह। एवं ते अप्पाणं च परं च नासिता विहरति / अह अन्नया गीयत्था Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प 1203 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सारकप्प आयरिया आगया तेहिं ते उबालद्धा गच्छाय अच्छित्ता गच्छेसुय पवेसिया सव्वे जहा एते दोसा तम्हान उस्सारेयव्वा कत्तिया ते भविस्संतिजे एवं निहोडिहिंति / गाथावयस्याप्यक्षरगमनिका इत्येवं क्रियते / यत्र तदिक्षुकरणमिक्षुवादस्तस्य रक्षणार्थम् वराको गताख्यानिकेत्यर्थः साख्यानिका तत्र क्रोष्टुः शृगालस्य पतनं ततो गृहपतिना गलके घण्टा बध्या मुक्तस्य दर्शनंशृगालानां नाशनं ततो वृकादीनां पृच्छा ततः सर्वेऽपि परम्परया नश्यन्ति यावत् सिंहः समा-गतस्तेन प्रतिजागर्य निरूप्य स घण्टाशृगालो हतः। शेषा मृगगणाः शृगालवृकादय आश्वासिताः / अयं दृष्टान्तः / अथ दान्तिकयो-जनामाह" इयकइवयाई इत्यादि " इत्यमुनैव प्रकारेण प्रथमि-ल्लुकोत्सारी शिष्यः कतिपयानि सूत्रालापकरूपाणि किञ्चिन्मा-त्रसूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रितानि जानीते अस्य च समीपे योऽन्यो-ऽधीते स कतिपयान् सूत्रालापकान् जानीतेन पुनरर्थ तस्यापि पावें यः पठति स सूत्रालापकानपि नाकर्षति। अन्येन पृष्टः प्रतिभणति अस्ति किमप्येतदङ्गोपाङ्गादिकं श्रुतंतयूयमेतस्य योगमुद्हतेति / एते च दुरधीतविद्यत्वात्प्रायः प्रत्यन्तग्राम एवार्थं लभन्ते। यत उक्तम्।" पाएण खीणदव्या, धणियपरट्ठा कयावए हाय / पञ्चतं सेवंती, पुरिसा दुरहीयवज्ञाया"।अतः प्रत्यन्तंगत्वा सूत्रार्थ-योरुत्सारणं कुर्वन्ति वदन्ति च वयं सूत्रार्थयोरव्यवच्छित्तिं कुर्म इति अन्यदा च यत्र प्रत्यन्तग्रामे गीतार्थानामागमनंतरुत्सारकल्पिकानां खरण्टनं यथा आः किमेवं सूत्रार्थयोः परिपाटिवाचनां परित्यज्य सकलश्रुतधर्मधूमकेतुकल्पमुत्सारकल्पमाचरन्तः आत्मानं च परं च नाशयतेत्यादि / ततश्च गच्छान्नावछिद्यते तेषामपुनःकरणेन प्रतिकान्तानां प्रायश्चित्तं दत्तम् (कित्तिय त्ति) कियन्तएतादृशा गीतार्था भविष्यन्ति य एवं शिक्षयिष्यन्ति तस्मात्प्रथमत एव नोत्सारणीयम् भाविता सप्रपञ्चं योगविराधना। अथात्मा परश्च परित्यक्त इति पदद्वयं भावयति। अप्पत्ताण उदितेण, अप्पओ इह परत्थ वि य चत्ते। सो वि अहु तेण चत्तो,जंन पढइ तेण गवेणं / / अपात्राणामयोग्यानां यद्वा अप्राप्तानां विवक्षितानुयोगभूमिमनुपा-गतानां श्रुतं ददतोत्सारकल्पकृता आत्मा इह परत्रापि चत्यक्तस्तत्रेह तद्वाचनादानसमुद्भूतापयशः वादादिनापरत्र बोधिदुर्लभत्वादिना तथा सोऽपि शिष्यो हु निश्चितं तेना चार्येण परित्यक्तो यत् तेन गणिवाचकत्वादिगणाधिष्ठितः सन्न पठति पठनाभावे हि कुतो यथावच्चरणपरिपालनम्। किं च - अजस्स हीलणाल-जणा य गारविअकारणमणज्जे। आयरिए परिवाओ, वोच्छेदो सुत्तस्स तित्थस्स। आर्यः सुजनः सुमानुष इत्येकोऽर्थः / तस्य यथावदागमार्थबोधविकलस्य वाचकनाम्ना हीलना भवति / अहो हीलेयं मम यदहं वाचकेत्यभिधीये तथा (लज्जणत्ति) वाचकमिश्रा अयमालापकः सिद्धान्ते विद्यते को वा अस्यालापकस्यार्थइति केनापि पृष्टस्य व्याकरणंदातुमशक्नुवतोभृशंलजा भवति ततश्च श्यामवदनकुब्जीकृतकन्धरश्चिन्तया विमनायमानोऽवतिष्ठते अनार्ये अनार्यस्य पुनस्तदेव गौरव्यकारणं गर्वनिबन्धनं जायते अहो वयमेव निस्सीमप्रतिष्ठापात्रं जगति वर्तामहे यदेवं वाचकपदवीमध्यारोहाम इति इत्थं परः परित्यक्तो मन्तव्य एव / आचार्ये च परिवादो भवति तथाहि सा बहुश्रुताचार्यपादुित्सारकल्पं | कारयित्वा गतः क्वापि नगरादौ पृष्ठश्च कैश्चिन्निष्णातैः किमर्पय पदं यावत् न किंचित् अयं जानीते ततस्ते ब्रुवते यैरेष सूत्रार्थमण्डलीमध्यलब्धिरेष आचार्यपदभाजनमाकरि तेऽप्याथार्या एवं विधा भविष्यन्तीत्यात्मा परित्यक्तः / तथा प्रवचनमपि तेनाचार्येण परित्यक्तं कथमित्याह श्रुतस्योत्सारकल्पवशादनधीयमानस्य व्यवच्छेदः प्राप्नोति श्रुते च व्यवच्छिद्यमाने ज्ञानाभावेच दर्शनचारित्रयोरप्यभावात्तीर्थस्यापि व्यवच्छेदः प्राप्नोति। यदि नाम तीर्थ व्यवच्छिद्यते ततः को दोष इत्याह / पवयणवोच्छेयवट्ट-माणो जिणवयणबाहिरमईओ। वंधइ कम्मरयमलं, जरमरणमणंतयं घोरं / / प्रवचनं तीर्थं तस्य व्यवच्छेदे हेतुरूपतया वर्तमानः कथंभूतोऽ सावित्याह 1 जिनवचनबाह्यमतिकः सर्वज्ञशासनबहिर्मुखशेमुषीको न खल्वनीदृशस्य प्रवचनव्यवच्छेदं कर्तुं मतिरुत्सहते स एवंभूतो बध्नाति कर्मरजोमलं रजःशब्देन बद्धावस्थं मलशब्देन निकाचितावस्थं कर्म परिग्टह्यते रजश्च मलश्चेति रजोमलं कर्मेव रजोमलं कर्मरजोमलं निकाचिताऽनिकाचितावस्थं कर्म यथाध्यवसायस्थानमनुबध्नातीत्यर्थः / कथंभूतमनन्तानि जरामरणानि यस्मात् तदनन्तजरामरणं गाथायां प्राकृतत्वादनन्तशब्दस्य परनिपातः / घोरं रौद्रं शारीरमानसदुःखोपनिपातनिबन्धनत्वात् इति / तथा षड्जीवनिकायानप्यगीतार्थतयाऽसौ विराधयतीति जीवनिकाया अपितेनोत्सारकेण परित्यक्ता अवसातव्याः। यत एते दोषास्ततो नोत्सारणीयम्॥ अथ क्रमेणैवाधीयमाने सूत्रे के गुणा उच्यन्ते। आणा विकोवणाणुओगबुज्झण उवओगनिजरागहणं / गुरुवासजोगसुस्सूसणा य कमसो अहिजते / / क्रमशः क्रमेणाधीयमाने अध्याप्यमानेच सन्ति एतेगुणास्तद्यथा आज्ञा तीर्थकृतां शिष्येणाचार्येण चाराधिता भवति (विकोवणत्ति) योगोदहनविधौ गच्छसामाचार्यां च विकोपना युत्पादना च शिष्यस्य कृता भवति ततश्च स्वयं सामाचारीवैतथ्यं न करोति अपरान् कुर्वतो निवारयति / तथा गच्छमध्ये द्वितीयपौरुष्यामनुयोगः प्रवर्तते तदाकर्णनान्मन्दबुद्धेरपि बोधनं जीवाजीवादितत्वेषु प्रबुद्धता संपद्यते बुद्ध्यमानस्य च श्रुते निरन्तरमुपगोगो जायते निरन्तरोपयुक्तस्यच महती निर्जरा प्रतिसमयसंख्येयभवोपात्तकर्मपरमाणुपटलापगमादुक्तं च।" कम्ममसंखेज्जभवं, वेइ अणुसमयमेव आउत्तो / अन्नयरम्मि वि जोगे सज्झायं मा विसेसेणं " नित्योपयुक्तस्य च शीघ्रं सूत्रार्थयोर्ग्रहणं भवति तथा हि गुरुवासेन गुरुकुलवासेन सार्द्ध योगः संबन्धो भवति अन्यथा क्रमेण सूत्रार्थाध्ययनायोगात्। यद्वा पदद्वयमिदं पार्थक्येन व्याख्यायते गुरूणामन्तिके वासो गुरुवासः स सेवितो भवति योगाश्च विधिवदाराधिता भवन्ति / आचार्यादीनां शुश्रूषा विनयवैयावृत्त्यादिना कृता भवति / यत एते गुणास्ततः क्रमेणैवाध्येतव्यः। उपसंहरन्नाह - इअदोसगुणे नाउं, उक्कमकमओ अहिज्जमाणाणं / उभयविसेसविहिन्नू , को वचणमन्मुवेजाहि॥ इतिशब्दः एवमर्थे एवमुत्क्रमतः क्र मतश्चाधीयानानामुपलक्षणत्वादध्यापयतां च यथाक्रमं दोषान् गुणांश्च ज्ञात्वोभयविशे Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प 1204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सारकप्प षविधिज्ञः क्रमाध्ययनगुणदोषविभागविधिवेदी आचार्यः शिष्यो वा को वेत्येवंविधविधिवेदी। तथा संविग्नो मोक्षाभिलाषी अपरितान्तः नामोत्सारकल्पस्य करणेन कारापणेन वा आत्मनो वचनमभ्यु- सूत्रार्थग्रहणायामहोरात्रमप्यपरिश्रान्तः एवंविध उत्सारणं कर्तुमर्हति एवं पेयादङ्गीकुर्यात् न कश्चिदित्यर्थः / यतश्चैवमतोऽनुपयोगित्वान्ना- गुणोपेत एवोत्सारकल्पं करोतीत्यर्थः॥ स्त्युत्सारकल्पिक इति / बृ० 1 उ०। पं० चू०॥ अथ यस्योत्सारकल्पः क्रियते तस्य गुणानाह। कारणेऽस्तीति निश्चाययन्पुनरपि परः प्राह। अभिगए पडिबद्धे, संविग्गे असलद्धिए। जइ नत्थि कओ नामं, असइ हु अत्थे न होइ अभिहाणं / अवट्ठिए य मेहावी, पडिबुज्झी जोअकारए।। तम्हा तस्स पसिद्धी, अभिहाणपसिद्धिओ सिद्धा। अभिगतः प्रतिबद्धसंविग्नश्च सलब्धिकः अवस्थितश्च मेधावी प्रतिवोधी यदिनास्त्युत्सारकल्पिकस्ततः कुतोऽस्य नामाभिधानमिदमायातंन योगकारकः ईदृग्गुणोपेतः उत्सारकल्पयोग्य इति नियुक्तिश्लोकसमाकुतश्चिदित्यर्थः / अनेन प्रतिज्ञातार्थः सूचितः / कुत इत्याह / सार्थः॥ असत्यविद्यमानेऽर्थे अभिधेये हुशब्दस्य हेत्वर्थवाचकत्वात् यस्मान्न अथैनमेव विवृणोति॥ भवत्यभिधानं किं तु सत्येवेति अनेन च हेत्वर्थ उपात्तः / यतश्चैवं सम्मत्तम्मि अभिगओ, विजाणओ वावि अन्भुवगओवा। तस्मात्तस्यार्थस्य प्रसिद्धिरभिधानप्रसिद्धित एव सिद्धा प्रतिष्ठितेति निगमनार्थः / दृष्टान्तोपनयौ स्वयमेवाऽभ्यूह्य वाच्योऽत्र प्रयोगः / सज्झाए अपडिबद्धे, गुरुसु निएल्लएसुंवा।।। अस्त्यत्सारकल्पिकः अभिधानवत्त्वात घटादिवत् यद्यदभिधानवत् सम्यक्त्वे आभिमुख्येन गतः प्रविष्टः सोऽभिगत उच्यते यो वा तत्तदस्ति यथा घटपटादि अभिधानवच्चेदं तस्मादस्तीति / इत्थं परेण जीवादिपदार्थानां विज्ञापको विशेषेण ज्ञाता सोऽभिगतः / यता स्वपक्षे समर्थिते सति प्रतिविधीयते भो भद्र ! सुष्ट्व प्रमाणानिकोऽ- योऽभ्युपगतो यावज्जीवं मया गुरुपाद मूलंन मोक्तव्यमिति कृताभ्युपगमः नैकान्तिकोऽयं भवता हेतुरुपन्यस्तस्तथा चाह। सोऽभिगतः। यः पुनः स्वाध्याये परावर्तनानुप्रेक्षादौ सततमायुक्तो गुरुषु जइ सव्वं विय नाम, सअत्थगं होज तो भवे दोसा। वा स्थिरममत्वानुबन्धः निजकेषु वा संबन्धिषु प्रव्रज्याप्रतिपन्नेषु संजातप्रेमस्थेमा एष त्रिविधोऽपि प्रतिबद्ध उच्यते।। जम्हा य अत्थगत्ते, माणिवं तम्हा अणेगंतो।। सविग्गो देव्वम्मि उ, भावे मूलुत्तरेसु उजुयंतो ! यदि सर्वमपि नाम सार्थकं भवेत् ततो भवेदस्माकं दोषः / उत्सारकल्पिकस्यास्तित्वापत्तिलक्षणो यस्मात्पुनः सार्थकत्वे नाम भक्तं लद्धी आहाराइसु, अणुओगे धम्मकहणे य / / विकल्पितं स्यात् सार्थकं स्यानिरर्थकमिति भावः / तत्र सार्थक संविग्नो द्विधा / द्रव्यतो भावतश्च / द्रव्ये द्रव्यसंविग्नो मृगः सदैव जीवाजीवादिकं निरर्थकं खरविषाणाकाशकुसुमकूर्मरोमबन्ध्या- सर्वतोऽपि चकितत्वात् / भावे भावसंविग्नो मूलोत्तरेषु तु मूलगुणोपुत्रादिकं यत एवं तस्मादनेकान्तोऽयं यदसद्भूतेऽर्थे न भवत्यभि- त्तरगुणेषु पुनर्यतमानः उद्यम संविदधानः साधुन्तव्यः सदैव संसाधानम् / इदमत्र तात्पर्यम् / अभिधानस्य वा भावाभावयोरपि सद्- रापायचकितत्वात्। तथा लब्धिराहारादिषूत्पादयितव्येष्वनुयोगे दातव्ये भावादभिधानवक्तृ लक्षणो हेतुर्यथा उत्सारकल्पिकस्याऽस्तित्वं धर्मकथने च विधेये यः स सलब्धिक इति। साधयति तथा नास्तित्वमपि साधयति उभयत्रापि साधारणत्वात् अतः लिंगविहारं वढिओ, मेरा मेहावि गहणओ भइओ। साधारणरूपोऽनैकान्तिकदोषदुष्टोऽयं हेतुरिति / इत्थेत व्यभिचारि पडिबुज्झइ जं कत्थइ, कुणइ अजोगं तदहस्स / / पक्षतया विलक्षीभूतः परः परित्यज्य यदृच्छाजल्पमाचार्यवचनमेव प्रमाणीकुर्वन्नित्याह / भगवन्नभ्युपगतं मयाऽनन्तरोक्तयुक्तितोऽभि अवस्थितो द्विधा लिङ्गे विहारे च / लिङ्गावस्थितः स्वलिङ्ग न धानस्य सार्थकत्वमनर्थकत्वं चेति / यदिदमुत्सारकल्पिकाभिधानं परित्यजति विहारावस्थितः संविग्नविहारं विहाय न पावस्थादिसार्थकमाहोस्विन्निरर्थकमिति विवर्तते संशयावर्तगर्तीयमस्माकं विहारमाद्रियते / मेधावी द्विधा ग्रहणमेधावी मर्यादामेधावी च उभावपि चेतस्तदिदानीमुद्रियतां निजवाग्वरत्रयेति। उच्यते। वक्ष्यमाणस्वरूपौतत्र मर्यादामेधाविनः उत्सारकल्पः क्रियतेस पुनर्ग्रहणे निकारणम्मि नामं पि, निच्छिमो इच्छिमो अकजम्मि। मेधावीवा स्यादमेधावी वा। द्विविधस्यापि कारणविशेषे उत्सार्यत इति ग्रहणतो मेधावी भक्तो विकल्पितः / तथा यत्कथ्यते अभिधीयते उस्सारकप्पियस्स उ, चोअगसुणुकारणं तं तु॥ तत्सर्व यः प्रतिबुध्यते स प्रतिवोढुं शीलमस्येति प्रतिबोधी यत्तस्य तत्र वत्स! निष्कारणे कारणाभावे नामापि नेच्छामो वयं किं पुनरथ कार्य उत्सायत तदर्थस्य ग्रहणे योग व्यापारं यः करोति कदाचित्प्रमाद्यति स प्रयोजने प्राप्ते इच्छाम उत्सारकल्पिकेनाप्यर्थमपितत्तु कारणं हेनोदक ! योगकारक इति तदेवं व्याख्याता" अभिगएइत्यादिगाथा। शृणु निशमय / तत्र तिष्ठतु तावत् कारणं कर्तुरधीनाः सर्वा अपि क्रिया इति ज्ञापनार्थं प्रथमतः उत्सारकमाह। अथोत्सारकल्पिकस्यैवापराचार्यपरिपाट्या गुणानाह। आयारदिट्ठिवायत्थं,जाणए पुरिसकारणविहिन्नू। अभिगयथिरसंविग्गे, गुरुअमुई जोगकारए चेव। संविग्गपरित्तंते, अरिहइ उस्सारणं काउ॥ दुम्महमलद्धीए, पडिबुज्झी परिणयविणीए॥ आयारः प्रथममङ्गं दृष्टिवादश्वरमंतयोरथ जानातीत्याचारदृष्टिवादार्थः / आयरियवण्णवाई, अणुकूले धम्मसद्धिए चेव / इहाचारदृष्टिवादग्रहणं वक्ष्यमाणकारणैरनयोरेवोत्सारणीयत्वात् / / एयारिसे महाभागे, उस्सारं काउमरिहइ।। इत्येवमर्थम् (पुरिसकारणविहिन्नू इति) पुरुषकारणविधिज्ञो नाम किमयं अभिगतः प्रतिबुद्धः स्थिरःसम्यग्दर्शनादक्षोभ्यः सं विग्नः पुरुष उत्सारकल्पमर्हति न वा येन कारणेनोत्सार्यते तदस्तिन1 को गुर्वमोची निष्ठुरं निभर्सितोऽपि गुरूणाममोचनशील: Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प 1205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सारकप्प योगकारकः पूर्ववत् / दुर्मेधा अपि यः सलब्धिकः परिपक्ववयाः परिणामको विनीतः अभ्युत्थानादिविनययोगतः आचार्यवर्णवादी गुरूणां गुणोत्कीर्तनकारी अनुकूलः आचार्याणामन्येषां वा पूज्यानां वैयावृत्त्यादिना हितकारी धर्मे तपःसंयमात्मके चारित्रधर्मे श्राद्धिकः श्रद्धावान् एतादृश एवंविधगुणोपेतो महाभागः शिष्यः उत्सारं कर्तु-मर्हति उत्सारकल्पस्य योग्यो भवतीत्यर्थः। अनीदृशानुत्सारयितुः प्रायश्चित्तमाह। अणभिगयमाझ्याणं, उस्सास्तिस्स चगुरू होति। उग्गहणम्मि वि गुरुगा, कालमसज्झाय वक्खेवे॥ आदेशद्वयेनापि ये गुणा उक्तास्तद्विपरीता ये अनभिगतादयस्तद्यथा अनभिगतः अप्रतिबद्धः असंविग्नः अलब्धिकः अनयस्थितः अमर्यादोऽमेधावी अप्रतिबोद्धा अयोगकारकः अपरिणतः अविनीतः आचार्यावर्णवादी अननुकूलः अधर्मश्रद्धालुः एतेषामुत्सारयतः उत्सारकल्पं कुर्वतः आचार्यस्य प्रत्येकं चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम् / (उग्गहणम्मि वि गुरुगात्ति) सूत्रमर्थ वा झगित्येवावगृह्णातीत्यवग्रहणः नन्द्यादिभ्योऽ नट् इति कर्तर्यनट्प्रत्ययः ग्रहणमेधावीत्यर्थः। तस्य यदि निष्कारणमुत्सारयति तदापि चत्वारो गुरुकाः / अथ किमर्थं मेधाविनो नोत्सायन्ते उच्यते यतोऽसौ प्रज्ञावत्त्वादेवानुपूर्व्यवपाठ्यमानो झगित्येव विवक्षितमुत्सारणीयं श्रुतं प्राप्स्यति ततः को नाम तस्योत्सारकल्पकरणेऽभ्यधिको गुणः। अथवा (उग्गहणम्मि वित्ति) यस्याचारान्तर्गतवस्त्रैषणाध्ययनस्योपक्रमणनिमित्तमुत्सार्यते तस्य यद्यप्युत्सारकल्पसमकालमेव सर्वमपि सूत्रमर्थ वा अवग्टहाति अपिशब्दान्मन्दमेधस्तया यद्यपि नावगृह्णाति तथाप्यवग्रहणे अनवग्रहणे वाऽकालोऽस्वाध्यायिक व्याक्षेपश्चन कर्तव्यःयदिकरोति तदा चत्वारोगुरुकाः। एतचाकालादिकमुपरिष्टाद्भावयिष्यते / अथवा (उग्गहणम्मि वि गुरुगत्ति) अन्यथा व्याख्यायते योऽवग्रहणे समर्थ उत्तममेधावी अपिशब्दः संभावनायां किं संभावयति यावन्मानं सूत्रं तस्योद्दिश्यते तावदशेषमप्यर्थेन युक्तमवगृह्णाति यो वा वैरस्वामिवत्पदानुसारिप्रतिभो भूयस्तरमप्यनु-सरति तस्योत्सारणीयम् / अथ नोत्सारयति तदा चतुर्गुरुकाः तत्रापि यावदुत्सारकल्पः क्रियते तावदकालोऽस्वाध्यायिकं व्याक्षेपश्च न कर्तव्यः यदि करोति तदापि चतुर्गुरुकाः। अथोत्सारकल्पकरणे यत् प्राक् कारणं संन्यासिकीकृतं तद्दर्श-यति॥ गच्छो अ अलद्धीओ, ओमाणं चेव अणहिसहाय। गिहिणो उमंदधम्मा, सुद्धं च गवेसए उवहिं / / कस्याप्याचार्यस्य गच्छः सर्वोऽपि वस्त्रपात्रशय्योत्पादने अलब्धिकः तत्रच क्षेत्रे स्वपक्षतः परपक्षतोवा अवमानं विद्यतेतेचसाधवोऽनधिसहाः शीतादिपरीषहान सोढुमसमर्थाः गृहस्थाश्च मन्दधर्माणः तुच्छधर्मश्रद्धकाः अप्रज्ञापिताः सन्तो न वस्त्रादि प्रयच्छन्ति सुद्धं चोपधिं साधवो गवेषयेयुरितिभगवतामुपदेशः सचदुर्लभत्वात्यादृशेनसाधुनानलभ्यते अत ईदृशे कार्ये लब्धिवान् दुर्मेधा अप्युत्सारकल्पं कृत्वा वस्वैषणाध्ययनमुद्दिश्य कल्पिकः क्रियते ततश्च कल्पिकीकृतः सन् किं करोति इत्याह। हिंडउगीयसहाओ,सलद्धिआउवहणंति से लद्धिं / तो एकओ विहिंडइ, आयरुस्सरियसुत्तत्थो॥ ___ गीतसहायो गीतार्थसाधुसहितो वस्वाधुत्पादनार्थं हिण्डताम् / अथ गीतार्थास्तस्य लब्धिभुषघ्नन्ति तत एककोऽप्यसहायोऽप्याचारोत्सारितसूत्रार्थः आचारान्तर्गतवस्वैषणादिसूत्रार्थमुत्सारकल्पकरणेन ग्राहितः सन् हिण्डते / ननु च किं कोऽपि कस्यापि लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमसमुत्थां लब्धिमुपहन्ति येनैवमुच्यते ते गीतार्थास्तस्योपलब्धुिपघ्नन्ति इत्यत आह // भिक्खू विहतणुवबल-अभागधेजो जहिं तहिं न पड़े। दुग्गतिगमाइभेदे, पडइ तहिं तत्थ सो नत्थि / / "कोइ किर परं वसईओसत्थो अडविं पवन्नो / तत्थय एगो रत्त-पटो निब्भग्गसिरसेहरो पंचण्ह वि सयाणं पुण्णे उवहणइ सो असत्थो तहाए पारद्धो दूरे अ अब्भवद्दलयं वासइ तेसिं उवरि न पडइ ते दुहा तिण्णा इयरोरत्तपडो पुविण्णेणं मज्झे मेलिओ सव्वत्थपडइजत्थसातत्थन पडइ जाव निव्वेडिओ एकओजाओ जत्थ सो तत्थ पडइ एवं एयारिसा परस्स पुत्ते उवहणंति “अथ गाथाक्षरार्थः भिक्षुरेकः सार्थेन सार्द्ध विहमध्वानं प्रविष्ट इति शेषः / ततस्तृष्णया सार्थः प्रारब्धः वार्दलं च वर्षितुमारब्धं यत्र येषां मध्ये सोऽभागधेयो यो भिक्षुस्तत्र वर्ष न पतति ततो द्विकत्रिकादिना द्विधा त्रिधादिना प्रकारेण सार्थस्य भेदः कृतस्तस्मिंश्च कृते यत्र स भिक्षुनास्ति तत्र सर्वत्र वर्ष पतति तस्योपरिन पततीत्येयं दृष्टान्तः। अथार्थोपनयः यथा स भिक्षुः पञ्चविंशतिकस्यापि सार्थस्य पुण्यान्युपहृतवानेवमन्येऽप्येवंविधाः परेषां लब्धिमतामपि स्वस्वकर्मक्षयोपशमसमुत्थां लब्धिमुपघ्नन्तीति। अथासौ कथं च वस्त्राण्युत्पादयतीत्युच्यते।। भिक्खं वा वि अडतो, विइआ पढमा य अहव सव्वासु / सहिओ व असहिओवा, उप्पापवायभावे वा / / भिक्षामटन् वस्त्राण्युत्पादयति वाशब्दो वक्ष्यमाणपक्षापेक्षायां विभाषायामपिशब्दः संभावनायां संभाव्यते। अयमपि प्रकार इति। अथ न शक्नोति युगपत् भिक्षामप्यटितुं वस्त्राण्युत्पादयितुं व्यतिक्रामति वा वेला भैक्षस्य वस्त्राण्युत्पादयतः / भिक्षां वाऽद्भिर्न प्राप्यन्ते वस्त्राणीत्यादिना कारणेन द्वितीयायां पौरुष्यामनुयोग-ग्रहणं हापयित्वा वस्त्राण्युत्पादयेत् / अथ तदा न लभते बह्नी वा हिण्डिः कर्तच्या ततः प्रथमायामप्युत्पादयेत्। अथ बहवो गृहस्था द्रष्टव्या महता च कष्टन ते श्रद्धांग्राह्यन्तेततः द्वयोरपिपौरुष्योः सर्वासुवा पौरुषीषुपर्यटति। यद्यपरे गीतार्थास्तस्य लब्धिं नोपघ्नन्ति तदा स तैः सहितोऽप्युत्पादयेद्वा वस्त्राणि प्रभावयेद्वा दानधर्म गृहिणांपुरतो यथा ईदृशः साधूनां धर्मो न कल्पतेऽमीषां भगवतामुद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्ट पिण्डशय्यावस्वपात्रचतुष्टयं गृहीतं तदमीषां वस्त्रादाक्नुपयोज्यमानो महती कर्मनिरत्यादि। अथ ते गीतार्थास्तस्य लब्धिमुपहन्युस्ततस्तैरसहितोऽप्येकाकी उत्पादयितुं वा प्रभावयितुं वा प्रभुर्न कश्चिद्दोषः / इत्थं तावद्वस्त्रादीनां कल्पिको भवत्विति कृत्वा यथा आचारः उस्सार्यते तथा प्रतिपादितम् / अथ दृष्टिवादी येन कारणेनोत्सार्यते तत्प्रतिपादयति। कालियसुआणु ओगम्मि, गंडियाणं समोयरणहेउं / उस्सारिंति सुविहिया, भूयवायं न अन्नेणं // . इह यो धर्मकथालब्धिसंपन्नः परमद्यापि स्वल्पपर्यायत्वात् दृष्टिवादं पठितुमप्राप्तस्तस्य कालिकश्रुतानुयोगेन धर्मकथां कुर्वाणस्य गण्डिकाः कुलकरतीर्थक रगण्डिकादयो दृष्टि वादान्तर्गता Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सारकप्प 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सिओदग उपयुज्यन्त इति तासां गण्डिकानां कालिकश्रुतानुयोगे समवता- पर्यटति यावन्मात्रमाहारमात्मना भुङ्क्ते तावन्मात्रमेवानयतीत्यर्थः / रणहेतोरुद्देशसमुद्देशादिविधिना न कल्पते तासामध्ययनादिकमिति तथा प्रेक्षन्ते वा प्रत्युपेक्षन्ते स तस्योत्सारकल्पिकस्योपधिं विशेकृत्वा सुविहिताः शोभनविहितानुष्ठाना आचार्या भूतवादं षसाधवः स वा उत्सारकल्पिको नान्येषामाचार्यक्षपकादीनामुपधिं दृष्टिवादमुत्सारयन्ति तान्येव वाचको भूयादित्यादिना कारणेन / अथ प्रत्युपेक्षते सर्वत्र मा भूदध्ययनव्याघात इति योज्यम्। "कालमसज्झायवक्खेवेत्ति" यत्प्राक् पदत्रयमुक्तं तत्राद्यं पदद्वयं एमेव लेवगहणं, लिंपइ वा अपणो न अन्नस्स। तावद्विवृणोति। खेत्तं वन पेहावे, न याचिते सोवहिं पेहे।। सज्झायमसज्झाए, सुद्धासुद्धे व उद्दिसे काले। एवमेव लेपग्रहणमुपलक्षणत्वात् लेपनमपि पात्रस्य तस्य निमित्त-मन्यैः दो दो अ अणोएसुं, एसुंतू अंतिम एकं // साधुभिः कर्तव्यम् / अथ शेषसाधवः कुतोऽपि हेतोरक्षणिकास्तत स एगंतरमायंविल-विगईए रक्खियं पि वजंत्ति। आत्मन एव पात्राणि लिम्पति नान्यस्य साधोः / क्षेत्रं च तं न प्रेक्षापयेत् जावइअ अहिजइ, तावइअंउहिसे केइ।। क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ तं न प्रहिणुयादित्यर्थः। नचाप्यसा-वुत्सारकल्पिक स्तेषां क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणामुपछि प्रत्युपेक्षेत। तस्योत्सारकल्पे क्रियमाणे स्वाध्यायिके अस्वाध्यायिके वा शुद्धे अशुद्धे दिति पण याहारं, न य बहुगं मा हु जग्गतो जिण्णं / वा काले विवक्षितश्रुतमुद्दिशेत् सर्वं वाक्यं सावधारणं भवतीति न्यायादुद्दिशेदेव न व्याघातं कुर्यात्। केन विधिनेत्थत आह (दो दो अ मोआइ निसग्गेसुं, बहुसो मा होज पलिमंथो / अणोएसुति) ओजःशब्देन विषयमुच्यते तद्विपरीतः अनोजाः समा प्रणीतं स्निग्धमधुरमाहारं परमान्नं शर्करादिकं तस्य गुरवः प्रयच्छन्ति द्विचतुःषडादय उद्देशका यत्राध्ययनेतत्रानोजस्सुउद्देशकेषु दिने दिने द्वौ सुखेनैवाहर्निशमपि दृष्टिवादादिसूत्रार्थान् प्रेक्षानिमित्तमिति भावः। तमपि द्वौ उद्देशकावुद्दिशेत् / कथमिति चेदुच्यते प्रथमायां पौरुष्यां प्रणीतं न च नैव बहुकं किं तु स्वल्पं कुत इत्याह मा भूत्सूत्रार्थनिमित्त प्रथममुद्देशकमुद्दिश्य च द्वितीय उद्दिश्यते द्वितीयमुभयोरप्युद्देशक- रजन्यामपि जाग्रतोऽजीर्णमिति रूक्षाहारभोजिनश्च बहुशो वारान्मोकायोस्तस्यानुयोगो दीयते ततश्चरमपौरुष्यां प्रथममुद्देशकमनुज्ञाय दिनिसर्गेषु प्रश्रवणसंज्ञादिकव्युत्सर्गेषु विधीयमानेषु परिमन्थः द्वितीयोद्देशकः समुद्दिश्यतेऽनुज्ञायते चेति चूर्णिलिखिता सामाचारी। सूत्रार्थव्याघातो मा भूदिति कृत्वा प्रणीतं दीयते / अल्पा च निद्रा तथा (ओजस्सत्ति) पञ्चसप्तादिसंख्याकेषु विषमेषूद्देशकमेकमेवोदिशेत्। स्वल्पप्रणीताहारभोजिनो भवतीत्यल्पनिद्राद्वारमपि व्याख्यातमवयथा शस्त्रपरिज्ञाध्ययने तथाहि तत्र सप्तोद्देशकास्तेषु च त्रिभिर्दिवसैः सातव्यम्। इत्थमुत्सारकल्पे समापिते सति विवक्षितं वस्त्रोत्पादनादिसदुद्देशकानुदिश्य चतुर्थे दिवसे एकएवावशिष्यमाणसप्तम उद्देशक कार्य पूर्वोक्तविधिना कार्यते तदेवं व्याख्यातमानुषङ्गिकमुत्सारउद्दिश्यते स च प्रथमपौरुष्यामुद्दिश्य चरमायामनुज्ञायते तथैकान्तर कल्पिकद्वारन् / बृ०१ उ०। मेक दिवसान्तरितमाचाम्ल-मसौ करोति एकस्मिन् दिवसे उस्सारग पुं०(उत्सारक) उत्सारकल्पाहे, बृ० 1 उ० (तल्लक्षआचाम्लमपरस्मिन् निर्विकृतिकं करोतीति भावः / तथा विकृत्यां णमुत्सारकप्पशब्देऽनन्तरमेव दर्शितम् ) द्वारपाले, हेम० / तेन हि रक्षितमपि खरण्टितभप्यसौ वर्जयति केचित्पुनराचार्या ब्रुवते यावत् प्रभुद्वारतो जना दूरीक्रियन्ते इति तस्य तथात्वम् अपसारके, वाच०॥ यत्परिमाणं श्रुतमसावधीतेतावदुद्दिशेत् यदि मेधावितया द्वे त्रीणि चत्वारि उस्सारण न०(उत्सारण) उद्-सृ-णिच् / ल्युट् / दूरीकरणे स्थाभूरितराणि वा अध्ययनान्यागमयति ततस्तानि सर्वाण्युद्दिश्यन्ते न नान्तरनयने, अपसारके, चालने, वाच०। उत्सारकल्पकरणे,"अरिहइ कश्चिद्दोष इति भावः / व्याख्यातं"कालमसज्झाएति" पदद्वयम्। उस्सारणं काउं" बृ०१ उ०। अथ" अवक्खेवेति" पदं विवृण्वन्नाह। उस्सारित त्रि०(उत्सारयत्) उत्सारकल्पं कुर्वति, बृ०१ उ०। आहारे उवकरणे, पडिलेहणलेवखित्तपडिलेहो। उस्सारिय त्रि०(उत्सारित)उद्-सृ-णिच्-क्त-दूरीकृते चालिते, वाच० / अप्पाहारो परिहा-रगो अजह अप्पनिहो अ॥ पातिते," सहसा उस्सारिओ य नावाए" संथा०। तस्योत्सारकल्पे कर्तुमारब्धे आहारग्रहणे उपकरणस्य प्रत्युपेक्षणे उस्सास पुं०(उच्छ्वास) ऊर्द्ध प्रबलः श्वासः उच्छ्वासः / आव०५ लेपग्रहणे क्षेत्रप्रत्युप्रेक्षणायां च व्याक्षेपो न कर्त्तव्यः / अल्पाहारश्च यथा अ०/उच्छ्वासने, प्रश्न०१श्रु०१ अ०॥"समयं उस्सास-नीसासो"। स भवति तथा कार्य परिहारः संज्ञा एककायिकी तयोः स्वल्पता प्रज्ञा० 1 पद० (प्रज्ञापनासप्तमोच्छ्वासपदोक्तवक्तव्यता ऽऽन शब्दे अल्पाहारतो भवति तथा वाऽसावल्यनिद्रो भवति तत्कर्तव्यमित्येषा उक्ता) (समोच्छ्वासनिश्श्वासप्रश्नः समशब्द) संग्रहगाथा | उस्सासग पुं०(उच्छ्वासक) उच्छ्वसन्तीत्युच्छ्वासकाः / उच्छ वासपर्याप्तिपर्याप्तकेषु नैरयिकादिवैमानिकान्तेषु जीवेषु, स्था०२ ठा० अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति। 2 उ० / उच्छ्वासयति वर्द्धयतीति उच्छ्वासः स एवोच्छ्वासकः हिंडाविति न वाणं, अहवा अन्नद्वयान सो अडइ। जीवितादेर्वद्धके, " जीविउस्साए " जीवितोच्छ्वासकः जीवितएहिंति वसे उवहि,पेहेई व सो अन्नेसिं॥ मस्माक मुच्छ्वासयति वर्द्धयतीति जीवितोच्छ्वासः स एव जीविणमिति / तमुत्सारकल्पिकमाचार्या भिक्षां न हिण्डापयन्ति वाश- तोच्छ्वासकः। ज्ञा०१०॥ ब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् संस्तरणे सतीति द्रष्टव्यं यदि पुनरसंस्तरणं उस्सिओदग त्रि०(उच्छ्रितोदक) ६ब० ऊर्द्ध वृद्धिगतजले, 'लवणेणं तदा ' अहवेति ' संस्तरणस्य प्रकारान्तरताद्योतकः अन्या- | समुद्दे उस्सिओदए 'उच्छ्रितोदकः ऊर्द्धं वृद्धिगतजलः साधिकषोडशर्थमन्येषामाचार्यग्लानबालवृद्धादीनामर्थाय नासावुत्सारकल्पिकः / योजनसहस्राणि / भ०६श०८ उ०। Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सिओसिय १२०७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उस्सुयत्त उस्सिओसिय पुं०(उत्सृतोत्सृत) द्रव्यतः ऊर्द्धस्थानस्थे भावतो उस्सुक्कावइत्ता अव्य०(उत्सुकय्य) उत्सुकीकृत्येत्यर्थे, उस्सु-कावइत्ता धर्मशुक्लाध्यायिनि, तादृशावस्थस्य कायोत्सर्गे च / आव०५अ० / "विवादे, परमुत्सुकीकृत्य लब्धावसरोजयार्थी विवदत स्था० 6 ठा०। (काउस्सग्गशब्दे स्पष्टीभविष्यति) उस्सुत्त त्रि०(उत्सूत्र) सूत्रादूर्द्धमुत्तीर्णं परिभ्रष्टमित्यर्थः / प्रव० 1 द्वा० / उस्सिघणन०(उत्सिङ्घन) वायूपयोगभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०७उ०। सूत्रोत्तीर्णे, व्य०३ उ० / " उस्सुत्तमणुवइ8 " उत्सूत्रं नाम उस्सिचइत त्रि०(उत्सिञ्चत् ) उत्सेचनं कुर्वति," उत्तिंगादिणा वाएचिट्ठसु यत्तीर्थकरादिभिरनुपदिष्टम् / व्य०१ उ०।" उस्सुत्तं सुत्तादवेयं "" दगअण्णयरेण कट्ठादिणा उस्सिचणं उस्सिचति " / नि० चू०१८ उ०। उस्सुत्तमणुवइ8" नि० चू०११ उ०।" उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणे" इति यथा छन्दोलक्षणम्।आव०३ अ०।आ० चू०।ऊर्द्ध आचा०। सूत्रादुत्क्रान्तः उत्सूत्रः। सूत्रमतिक्रम्य कृते," उस्सुत्तो उम्मग्गो ध०२ उस्सिचण न०(उत्सेचन) ऊर्द्ध सेचनमुत्सेचनम् / कूपादेः कोशा अधि०। सूत्रातितिक्रान्ते, पंचा० 14 विव०। सूत्र-रहिते," उस्सुत्तो दिनोत्क्षेपणे। आचा०१ श्रु०१अ०३ उ०। उद्-सिच्-करणे-ल्युट्। खलुन विजते अत्थो " व्य०५ उ० / संघा० / सूत्रादुत्कृते, सूत्रानुक्ते, उत्सेचनोपकरणे काष्ठादौ, आचा० 2 श्रु० / उत्क्रम्य आधारमतिक्रम्य आव० 4 अ०।" उस्सुत्ता पुण वाहइ स-मइ विगप्प सुद्धविणियमेणं " सेचनमुत्सेचनम्। आधारातिक्रमेण सेचने, वाच०। प्रति०ा तथोत्सूत्रप्ररूपका महा-व्रतपालनतपश्चरणादिकां क्रियां कुर्वन्तः उस्सिचमाण त्रि०(उत्सिञ्चत् ) आक्षिपति, ' भिक्षुवडियाए उ- कर्मलघुका भवन्ति नवेति प्रश्ने उत्सूत्रप्ररूपका महाव्रतपालनादिक्रियास्सिचमाणे णिस्सिचमाणे वा ' / आचा०२ श्रु०१ अ०६ उ०। सहिता निहवादय उत्कर्षतो नवमग वेयकं यावद्यान्ति तेन उस्सिचिय अव्य०(उत्सिञ्च्य) उत्सेचनं कृत्वेत्यर्थे,' उस्सि-चियाणं महाव्रतपालनादिक्रियावतां तज्जन्यं शुभं फलं भवतु परं तेषां कर्मणां उप्पत्तियाणं गिण्हाहि | आचा०२ श्रु०॥ लघुकता गुरुकताचचासर्वविद्वेद्येति। 18 प्र०॥ उस्सुत्तपरूवणा स्त्री०(उत्सूत्रप्ररूपणा) सूत्रानुपदिष्टार्थप्रज्ञापनायाम्, उस्सिक धा०(उत्क्षिप् ) तुदा-सक-ऊर्द्ध क्षेपे, उत्क्षिपेर्गुलु व्य० 1 उ०। नि० चू०। (सा च यथाच्छन्दस इति यथाच्छन्दसशब्दे) गुञ्छोत्थंघाल्लत्थोमुतोसिक्कहक्खुप्पाः / 8 / 4 / 43 / इति (अहाछन्दशब्दे उक्ता) नवरमुत्सूत्रभाषणफलम्। मरीचिना एष ममयोग्यः उस्सिनादेशः। उस्सिक्कइ / उक्खिवइ / उत्क्षिपति। प्रा०॥ शिष्य इति विचिन्त्य उक्तम्।" कपिला इत्थं पि इहयं पि " कपिल ! उस्सिट्ट त्रि(उत्सृष्ट) उत्सर्गविषयीकृते सूत्रे, सद्धेतुनोत्सृष्टमपि जैनेऽपि धर्मोऽस्ति मम मार्गेऽपि विद्यते तच्छुचा च कपिलस्तत्पाचे क्वचिदपोद्यते। द्वा०३ द्वा०॥ त्यक्ते, दत्ते च / वाच०। प्रव्रजितः मरीचिरपि अनेन उत्सूत्रवचनेन कोटाकोटिसागरप्रमाणं उस्सिण्ण न०(उत्स्विन्न) उण्डेरकादौ, बृ० 1 उ०। संसारभुपार्जयामास / यत्तु किरणावलीकारेण प्रोक्तं " कपिला इत्थं पि उस्सिय त्रि०(उत्सृत)ऊीकृते, आ० म०प्र०। द्रव्यतः ऊर्द्ध-स्थानस्थे इहयं पित्ति वचनम् "उत्सूत्रमिश्रितमिति। तदुत्सूत्रभाषिणां नियमादनन्त एव संसार इति स्वमतस्वारसिकतया ज्ञेयम् इदं हि तन्मतं ये उत्सूत्रभावतः ध्यानचतुष्टयरहिते कृष्णादिलेश्यांगते परिणामे, तादृशावस्थस्य भाषिणस्तेषां नियमादनन्त एव संसारः स्यात्। यदिच इदं मरीचिवचनकायोत्सर्गेच, आव०५ अ० (काउस्सग्गशब्दे स्पष्टीभविष्यति) मुत्सूत्रमित्युच्यते तदा अस्यापि अनन्तसंसारः प्रसज्यते न त्वसौ * उच्छ्रिक त्रि०ा उत्कटे," वंभचेराइंउस्सिताइ भवंति "सू०प्र०१८ संपत्तिस्तदिदमुत्सूत्रमिति। तच्चायुक्तम्। उत्सूत्रभाषिणः नियमात् अनन्त पाहु०। एव संसार इति नियमाभावात् / श्रीभग-वत्यादिबहुग्रन्थानुसारेण * उस्रिक पुं। उन अल्पार्थे स्वार्थे वा ठन् (घ) अल्पवाहके जीर्णवृषभे, उत्सूत्रभाषितशिरोमणिर्जमालिनिवस्यापि परिमितभवस्य दर्शनात्स अल्पक्षीरस्राविण्यां गव्याम् , स्त्री० / वाच०। चोत्सूत्र मिश्रकथनेऽपि अस्यमरीचिवन्नास्य उत्सूत्रत्वमपगच्छति उस्सियणिसण्णयपुं०(उत्सृतनिषण्णक) द्रव्यतऊर्द्धस्थानस्थे भावतः विषमिश्रितान्नस्य विषत्वमिवेत्यलं प्रसङ्गेन। कल्प०। आर्तरौद्रध्यातरि तादृशावस्थस्य कायोत्सर्गे च।" अट्ट रुदं च दुवे, | उस्सुय त्रि०(उत्सुक) उत्सुवतिषु-प्रेरणे मितद्धादिडुकन् इष्टा-वाप्तये झायइ झाणाइ जो ठिओ संतो। एसो काउस्सम्मो, दव्युसितो भावउ कालक्षेपासहिष्णौ, इष्टार्योद्युक्ते, च।"अप्पुस्सुओ उराले सुजयमाणो णिसण्णो "आव०५ अ० (काउस्सग्गशब्दे स्प-ष्टीभविष्यति) परिव्वय सूत्र०१ श्रु०१० अ०1 अल्पोत्सुकोऽविमनस्कः / आचा० उस्सुक त्रि०(उच्छुल्क) उन्मुक्तंशुल्कं विक्रेतव्यभाण्डं प्रतिराजदेयं द्रव्यं 2 श्रु०॥ यस्याः सा तथा। यस्मिंस्तत्तथा तस्मिन्। जं०३ वक्ष०ा भ० / कल्प०॥ उस्सुयत्त न०(उत्सुकत्व) पीडोत्पत्तौ यदि म्रियेऽहं तदा वरमित्येवअविद्यमानशुल्कग्रहणे,विपा० १श्रु०३अ०। अर्थाभावे, अव्य" उस्सुकं मादिरूपे औत्सुक्ये, आतु०।। वियरइ " ज्ञा० 8 अ० / उत्कण्ठायाम् , इच्छामात्रे, वाच० / छदास्थ एव उत्सुकायते न केवली। इतराभिलाषातिरेके, पो०३ विव०।" औत्सुक्यमात्रभवसादयति उमत्थेणं भंते ! मण से हसेजा वा उस्सुयाएज्ज वा ! प्रतिष्ठा, क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव / नातिश्रमापगमनाय यथा हंता हसेज वा उस्सुयाएन वा जहा णं भंते ! छ उमत्थे श्रमाय,राज्यं स्वहस्तधृतदण्डमिवातपत्रम्" अष्ट०१ अष्ट। मणूसे हसेल वा उस्सुआएग्ज वा तहा णं के वली वि हसेज उस्सुकविणिवित्ति स्त्री०(औत्सुक्यविनिवृत्ति) अभिलाषव्यावृत्तौ, वा उम्सुयाएछ वा? गोयमा ! णो इणट्टे समटे से श्रा०। के णटेणं जाव नो णं तहा के वली हसेल वा उस्सुआ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सुयत्त 1208- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उहट्ट एजवा? गोयमा। जणं जीवा चरित्तमोहणिज्जकम्मस्स उदएणं हसंति वा उस्सुयायंति वा से णं केवलिस्स नत्थि से तेणटेणं जावनो णं तहा केवली हसेज वा उस्सुयाएज वा / भ०५ श०४ उ०। उस्सुयन्मय त्रि०(उत्सुकीभूत) उत्प्रव्रजिते, बृ०१उ०।" उस्सुयब्भुएणं अप्पाणेणं " आचा०२ श्रु०। उस्सेइमन०(उत्स्वेदिम) उत्स्वेदेन निवृत्तमुत्स्वेदिमम्।येन व्रीह्यादिपिष्टं सुराद्यर्थमुत्स्वेदते (स्था०३ ठा०) तादृशे पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदके, आचा० 2 श्रु०। पिष्टभृतहस्तदिक्षालनजले, कल्प०।" तं उसिणं चेव पाणयंजं सीतोदगेण चेव संसिचियं उस्सेइमस्स इमं वक्खाणं '' / सीतोदगम्मि वुज्झति, दीवगमादी उसे इमं पिटुं। संसेइमं पुण विला-सिण्णा वुझंति जत्थुदए // 12 // मरहट्ठविसए उस्सेइ आदीवगा सीओदगे वुज्झंति उस्सेइमे उदाहरणं जहा पिटुं। अहवा पिट्ठस्स उस्सेज्जमाणस्स हेट्ठा जंपाणिअंतं उस्सेइमं पच्छद्धं गतार्थम्॥ पढमुस्सेतिसमुदयं, अकप्पकप्पं च होति केसिं चि। .. तं तु ण दुञ्जति जम्हा, उसिणं वीसंति जा दण्डो॥ 63 // तं दीवगादि उस्सेति मा एक् पि पाणिए दोसु वितिसुवा णिचलि-जंति तत्थ वितियततिजायसव्वेसिंवेअकप्पा पढमं पाणियं तं पिअकप्पंचेव | केसिं चि आयारियाणं कप्पं तंण घडति कम्हा जम्हा उसिणोदगमवि अणुवत्ते दंडेमि संभवति तं पुण कहि उस्सेति मे सुच्छूढेसु अचित्तं भविष्यतीत्यर्थः / नि० चू०१७ उ०। उस्सेतिमपिट्ठादी, तिलातिमीसेति मतिनायव्वं / कंकडुगादि उवक्खड, अतिपक्करसं तु पलियाम // 21 // उस्सेतिमंणाम जहा पिढे पुढविकायभायणं आउझायस्स भरेता मीसए अद्धहिजंति सुहं सेवत्थेणं उहाडिज्जति ताहे पिट्ठ-पयणयं रोट्टस्स भरेता ताहे तीसे थालीए जलभरियाए उवरि ठविञ्जति ताहे अहोछिट्टेणं तं पि ओसिजति हेट्ठा हुतं वा ठविज्जति। नि० चू०१५ उ०।। उस्सेगपुं०(उत्सेक) उद्-सि-घञ्-गर्वे, उद्रेके, उद्धृत्य बहिःसेचने च। वाच० / न सुखदुःखयोरुत्सेकविषादौ विधेयौ आचा० 1 श्रु०३ अ० १उ०। उत्सेहपुं०(उत्सेध) उत्सेधति कारणमतिक्रम्यवर्द्धतेउत्-सिधगत्याम्अच्। देहे तस्य शुक्रशोणितरूपसूक्ष्मकारणातिक्रमेण वर्द्धनात्तथात्वम्। वाच०। उच्छ्राये, स्था० 10 ठा०ाजा कर्तरि-अच्-उच्चे, त्रि०वाच०। शिखरे, "रययमए उस्सेहे" रजतमय उत्सेधः शिखरमाह च जीवाभिगममूलटीकाकारः "कूटो माडभागः / उच्छ्रयः शिखरमिति / शिखरभत्र माडभागस्य संबन्धि द्रष्टव्यम्। तद्वारस्य तस्य प्रागेवोक्तत्वात्। जीवा० 3 प्रति०। उस्सेहंगुल न०(उत्सेधाङ्गुल) उत्सेधः "अणंताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलाणमित्यादि" क्रमेणोच्छयो वृद्धिनयनं तस्माजातमङ्गुलमुत्सेधाडलम् / अथवा उत्सेधो नारकादिशरीराणामुच्चैस्त्वं तत्स्वरूपनिर्णयार्थमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलम् / अङ्गुलप्रमाणभेदे, अनु० (तभेदः अंगुलशब्दे उक्तः) उहार-पुं०(उहार) मस्त्यविशेषे, स किल नावमधस्तले जलस्य नयति। बृ४ उ। उह अव्य०(उद्धृत्य) उपरिकृत्वेत्यर्थे," उहट्टउहणिक्खित्ते सिया" आचा०२ श्रु०७ अ०। -:**********: - - इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताऽम्बराचार्य श्री श्री 1008 श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते अभिधान राजेन्द्रे उकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्। Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊणोयरिया मम्मा कार ऊकार माकामा ऊ अव्य० (ऊ) वेञ्-क्किप-संबोधने, वाक्यारम्भे, दयायां, रक्षायां च। मेदि०।अवसाने, वितर्के, वञ्चनायां, व्यसरे, निषेधे, एका०।प्राकृतेऽपि। ऊ गर्दाऽऽक्षेपविस्मयसूचने // 8|2|198 // ऊ इति गर्दादिषु प्रयोक्तव्यम्। गर्दा ऊ णिलज ! प्रकान्तस्य वाक्यस्य विपर्यासाशङ्कया विनिवर्तनलक्षण आक्षेपः। ऊ किंमए भणिअं। विस्मये ऊकहा मुणिणा अह आ। सूचने ऊ केय न विण्णाअं। प्रा० ऊ पुं० अवति रक्षति / अव-क्किप्-ऊप-महादेवे, चन्द्रे, वाचला तोये, तोयधौ, धरणीधरे, रक्षणकृति, पुरुषे, राजपुत्रके, उपकारे, अपाङ्गणे, क्वचिदर्थे, गले, मङ्गलकुम्भे, दैवे, वणिजरक्षणे च।"ऊकारो रजनीनाथे, पुरुषे राजपुत्रके। उपकारेऽपाङ्गणेच, कचिदर्थे प्रवर्तते। 4 गले मङ्गलकुम्भे च दैवे वणिजरक्षणे" एका०॥ ऊआस पुं० (उपवास) उप वस्-घञ्। ऊबोपे / 8 / 1 / 173 / इति उपेत्य स्थाने ऊत्। अभोजने, प्रा०। ऊज्झाय पुं० (उपाध्याय) प्राकृते ऊचोपे।८।१।१७३ / इति | उपेत्यस्य स्थाने ऊत्। पाठयितरि, प्रा०। ऊण त्रि० (ऊन) ऊन-हानौ-अच्-स्वप्रमाणाद्धीने, स्था० २ठा० / अवमे, स्था०६ ठा० / स्वतोऽवमे, सूत्र०२ श्रु०७ अ० / असंपूर्णे, ऊनार्थशब्दयोगे तृतीया एकेनोनः। ऊनार्थकशब्देन वा तृतीया। माषण ऊनः माषोनः / वाच० / व्यञ्जनाभिलावावश्यकैरसंपूर्णे अष्टाविंशे वन्दनकदोष, ध०२ अधि०।"वयणकरेण हि ऊणं जहण्णकालव्वसेसेहिं"। अष्टाविंशदोषमाहवचनैरालापकैः करणैर्वा अवनादिभिरावश्यंकैयूँनं हीनं यद्वन्दते यद्वा कश्चिदत्युत्सुकतया जघन्येनैव कालेन वन्दनं समर्पयति शेषैर्वा साधुभिर्वन्दिते सति पश्चाद्वन्दते तन्मूल नाम वन्दनकम्। बृ०३ उ०।अक्षरमात्रापदादिभिर्हेतूदाहरणाभ्यां वा हीनरूपे सूत्रदोषे, यथा अनित्यः शब्दो घटवदिति हेतूनम् / अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति उदाहरणहीनमित्यादि विशे० / अनु०। आ० म०वि०। ऊणत्त न० (ऊनत्व) हीनत्वे, "ऊणत्तं न कयाइविइ माणसंखं इमं तु अहिगिच्च" दर्श०। ऊणसयमागपुं०(ऊनशतभाग) ऊनश्चासौ शतभाग-श्योनशतभागः / शतभागेऽप्यपूर्यमाणे / आव० 3 अ०। ऊणाइतिरित्तमिच्छादसणवत्तिय त्रि० (ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यय) ऊनं स्वप्रमाणाधीनमतिरिक्तं ततोऽधिकमात्मादि वस्तु तद्विषयं मिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्य सः। ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्ययवति। तथा हि कोऽपि मिथ्यादृष्टिरात्मानं शरीरव्यापकमपि अङ्गुष्ठपर्वमात्र यवमानं श्यामाकतन्दुलमात्रं चेतिहीनतया चेति तथाऽन्यः पञ्चधनुःशतिकं सर्वव्यापकं चेत्यधिकयाऽभिमन्यते। स्था०२ ठा०। ऊणिय त्रि० (ऊनित) ऊनीभूते, "वायालीसं वासाइंऊणियाए'' जं० 2 वक्ष०। ऊणोयरन० (ऊनोदर) क-स-ऊने उदरे, प्रव०६ द्वा०॥ऊनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरः / ध०३ अधि०। स्तोकाऽऽहाराभ्यवहारादपूर्णोदरे, पञ्चा०१८ विव०। ऊणोयरिया स्त्री० [ऊनोदरिका(ता)] ऊनमुदरमूनोदरं तस्य करणं भावे-बुज-ऊनोदरिका / प्रव०६ द्वा० / ऊनमवममुदरं यस्य स ऊनोदरस्तस्य भाव ऊनोदरता। व्युत्पत्तिरेवेयमस्य प्रवृत्तिस्तूनतामात्रे / बाह्यतपोभेदे, ध०३ अधि० स०। पञ्चा०। ऊनोदरिका ऊणोयरिया इति अवमोदरिका ओमोयरिया इति च समानार्थका इति तद्भेदानाह। से किं तं ओमोदरिया ओमोदरिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा दथ्वोमोयरिया य भावोमोयरिया य भ०२५ श०७ उ०। सा द्विधा द्रव्यतो भावतश्च / प्रव०६द्वा० / अथवा। ओमोयरियं पंचहा, समासेण विहाहियं / दव्वओ खित्तकालेण, भावेणं पञ्जवेहि य॥१४॥ अवममूनमुदरं यस्मिन् तत् अवमोदरं तत्र भवमवमोदरिकं तत्तपः समासेन संक्षेपेण पञ्चधा व्याख्यातं द्रव्यतो द्रव्येण क्षेत्रेण कालेन भावेन च पुनः पर्यायैः। उत्त०३० अ० ___ तत्र द्रव्यतोऽवमोदरिकामाहसे किं तं दव्योमोयरिया य दवोमोयरिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा उवगरणदव्वोमोयरिया य भत्तपाणदय्वोमोयरिया य / से किं तं उवगरणदव्वोमोयरिया उवगरणदष्वोमोयरिया। एगे वत्थे एगे पादे वियत्तोवगरणसाइजणया सेत्तं उवगरणदव्वोमोयरिया। भ०२५ श०७०। द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया तत्र उपकरणविषयोनोदरिका जिनकल्पिकादीनां न तदभ्यासपरायणानां वा बोद्धव्या न पुनरन्येषां तेषां समुपध्यभावे समग्रसंयमपालनाभावात्। अथवा अन्येषामप्यतिरिक्तोपकरणाग्रहणतो भवत्येवोनोदरता। यदुक्तम्। जं वट्टइ उवगारे, उवगरणं तं च होइ उवगरणं। अइरित्तं अहिगरणं, अजओ य जयं परिहरंतो'' इति। (परिहरंतोत्ति) आसेवमानः परिहारोऽपरिभोग इति वचनात् / ततोऽयतश्च यत्परिभुजानो भवतीत्यर्थः / प्रव०६ द्वा०।द०। ग०। से किं तं भत्तपाणदव्योमोयरिया भत्तपाण दय्वोमोयरिया अट्ठकु कुडि अंडगप्पमाणमेत्ते क वले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे दुयालस जहा सत्तपसएपढमुद्देसए (म० 25 श०७ उ०) तद्यथा अह्रकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अबद्धोमोयरिया सोलस कुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊणोयरिया १२१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊणोयरिया कवले आहारमाहारेमाणे दुभागपत्त चउव्वीसं कुकुडिअंड- | गप्पमाणे जाव आहारेमाणे ओमोयरिया वत्तीसं कुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणपत्तो एक्को एक्कण विघासेण ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गये नो पकामरस भोइत्ति वत्तव्वंसिया (भ०७श०१उ०) सेत्तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया सेत्तं दव्दो मोयरिया भ०२५ श०७उ०॥ भक्तपानोनोदरिका पुनरात्मीयात्मी याहारमानपरित्यागतो विज्ञाय आहारमानं च "वत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। भरिसरस महिवलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला। कवलस्स य परिमाणं, कुकुडिअंडप्पमाणमेत्तं तु / जं वा अविगिय वण्णो, वयणं मिच्छुत्तिज्जवीसतो" इत्यादि / सा च अल्पाहारादिभेदतः पञ्चविधा भवति / यदाहुः। अप्पाहारअवज्जा, दुभागपत्ता तहेव किं बुण्णा। अट्ठ दुवालस सोलस, चउवीस तहेक्कतीसा य। अयमत्र भावार्थः। अल्पाहारोनोदरिका नाम एककवलादारभ्य यावदष्टौ कवला इति अत्र चैककवलमाना जघन्या अष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा व्यादिकवलमानभेदा। मध्यमा एवं नवभ्यः कवलेभ्यः आरभ्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपार्दोनोदरिका अत्रापि नव कवला जघन्या द्वादश कवलोत्कृष्टा शेषा तु मध्यमा। एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत् षोडश कवलास्तावद्विभागोनोदरिका जघन्यादिभेदत्रयभावना पूर्ववत् एवं सप्तदशभ्यो यावचतुर्विशतिकवलास्तावत्प्राप्तोनोदरिका एवं पश्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्कवलास्तावत्किश्चिदूनोदरिका जघन्यादिभेदत्रयं पूर्ववत् भावनीयम्। एवमनेनानुसारेण पानेऽपि भणनीया तथा स्त्रीणामप्येवं पुरुषानुसारेण द्रष्टव्या। प्रव०६द्वा०। विशेषव्याख्या। अट्ठकुकुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले आहारं आहारेमाणे निग्गये अप्पाहारे दुवालसककुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले आहारं आहारेमाणे अवद्धोमोयरिया सोलस कुक्कुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले आहारं आहारेमाणे दुभागपत्ते चउव्वीसं कुकुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले आहारं आहारेमाणे ओमोदरियातिवत्तट्वंसिया वत्तीसंकुकुडिअंडगप्पमाणमित्ते कवले आहार आहारमाणे समणे निग्गंथे पमाणपत्ते इतोएकेणवि कवलेणं ऊणगआहारं आहारेमाणे समणे णिग्गंथे णो पगामरसभोगीति वत्तव्वंसिया।॥ 12 // अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह // लक्खणमतिप्पसत्तं, अइरेगो वि खलु कप्पते उवही। इइ आहारेमाणं, अतिप्पमाणे बहू दोसा।। अतिरेकोऽपि खलु कल्पते उपधिरित्युच्यमाने लक्षणमतिप्रसक्तं ततो. मानेनैव प्रसङ्गेनाहारमप्यतिप्रमाणं कुर्यादिति हेतोराहारे मानमधिकृतसूत्रेणोच्यते यतोऽतिप्रमाणे गृह्यमाणे आहारे बहवो दोषाः "हाएज व वामेज इत्यादि' रूपाः॥ प्रकारान्तरेण संबन्धमाह॥ अहवा विपडिग्गहगे, भत्तं गेण्हति तस्स किं माणं। जं जं उवग्गहे वा, चरणस्स तग तग भणइ।। अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनेन अपिशब्दः संबन्धस्यैव समुचये पूर्वसूत्रेण प्रतिग्रहक उक्तः तस्मिंश्च प्रतिग्रहके साधवो भक्ते गृह्णन्ति तस्य भक्तस्य किं प्रमाणमित्यनेन प्रमाणमभिधीयते। अथवा किं संबन्धेन यत् चरणस्य चारित्रस्योपग्रहे वर्तते तत्तत्सूत्रकारोवदति। अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या / अष्टौ कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहारमाहरयन् निर्गन्थोऽल्पाहारो भण्यते द्वादश कक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रान्कवलानाहारमाहारयन् अपद्धावमौदर्यः द्वात्रिंशतं कुक्कुट्याण्डकप्रमाणमात्रान्कवलानाहारमाहारयन् श्रमणो निर्ग्रन्थः प्रमाणप्राप्तः / इत एकेनापि कवलेन ऊनमाहारमाहारयन् श्रमणो निर्ग्रन्थोन प्रकामभोजीति वक्तव्यः स्यात्। एष सूत्राक्षरार्थः।। अथ भाष्यप्रपञ्चमाह || निययाहारस्स सया, वत्तीसइमे उजो भवो भागो। तं कुकुडिप्पमाणं, नायट्वं बुद्धिमंतेहिं / निजकस्याहारस्य सदा यो द्वात्रिंशत्तमो भवति भागस्त कुक्कुटीप्रमाण पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् / कु कु ट्यण्डकप्रमाण ज्ञातव्यं बुद्धिमद्भिः // अत्रैव व्याख्यानान्तरमाह। कुच्छिय कुडी य कुकुडि-सरीरगं अंडगं मुहं तीए। जायइ देहस्स जओ, पुव्वं वयणं ततो सेसं / / कुत्सिता कुटी कुकुटीशरीरमित्यर्थः। तस्याः शरीररुपायाः कुक्कुट्या अण्डकमिवाण्डकं मुखं केन पुनः कारणेनाण्डकं मुखमुच्यते। तत आह यत् यस्मात् चित्रकर्मणि गर्भे उत्पातेवा पूर्वं देहस्य वदनं मुखं निष्पद्यते पश्चाच्छेषं ततः प्रथमभावितया मुखमण्डकमुच्यते। थलकुकुडिप्पमाणं, जंवा नायासिए मुहे खिदति। अयमन्नो सु विगप्पो, कुकुडिअंडो न वा कवले // इह कवलप्रेक्षपणाय मुखे विडम्बिते यदाकाशं भवति तत्स्थल भण्यते। स्थलमेव कुक्कुट्यण्डकं रथलकुकुट्यण्डकंतस्य प्रमाणं यदि नायासि ते मुखे कवलं प्रक्षिपति। किमुक्तं भवति यावत्प्रमाणमात्रेण कवलेन मुखे प्रक्षिप्यमाणेन मुखं न विकृतं भवति तत्स्थलकुक्कुट्यण्डकप्रमाणम् / गाथायामण्डकशब्दलोपः प्राकृतत्वात् / अयमन्यः कुकुठ्यण्डकोपमें कवले विकल्पः / अयमन्योऽर्थः कुक्कुट्यण्डकप्रमाणमात्रशब्दस्येत्यर्थः / एतेन कवलमात्रेणादिना संख्या द्रष्टव्या। तदेवं कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता। संप्रति नियुक्तिविस्तरः। अहत्ति भाणिऊणं,छम्मासा हावएउ वत्तीसा। नामं चोदगवयणं, पामाए होति दिटुंतो।। अष्टाविति भणित्वा यावदवमौदर्य तावदेतत्संस्तरतो मध्यं भणितमसंस्तरतः पुनः द्वात्रिंशत्कं प्रमाणं भणितमुत्सर्गः। पुनरयमुपदेशः षण्मासादारभ्य तावत् हापयेत्यावत्द्वात्रिंशत्कवलाः। इयमत्र भावना। यदि योगानां न हानिरुपजायते तदाषण्मासान् उपवासं कृत्वा पारणके एक सिक्थमाहारयेत् / अथ तेन न संस्तरति ततः पारणके द्वे सिक्थे आहारयेत्। एवमेकैकसिक्थपरिवृद्ध्या तावन्नेयं यावदेकं लम्बनं कवल Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊणोयरिया 1211 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊणोयरिया मित्यर्थः / तेनाप्यसंस्तरणे कवलपरिवृद्धिर्वक्तव्या / सा च तावत् यावदेकत्रिंशत्कवलाः षण्मासामुवासकर्तुमशक्नुवन् एके न दिवसेनोनं षण्मासक्षपणं कृत्वा एवमेव सिक्थकवलपरिवृद्ध्या पारणकं कुर्यात्। एवमेकावहान्या षण्मासक्षपणं तावत् वक्तव्यं यावच्चार्थं कृत्वा पूर्वप्रकारेण सिक्थककवलपरिवर्द्धनेन पारणकं परिभावयेत्। अथ न संस्तरति ततो दिने दिने भुक्त्वा मात्राप्येवमेव सिक्थादारभ्य यावत् द्वात्रिंशत् कवला इति / अत्र चोदकवचनं यद्येवमष्टावित्यादिसूत्रोपनिबद्धं नाममात्र वचनमात्रमाचार्य आह / सिद्धिप्रसादनिर्मापणाय योगानां संधारणनिमित्तमेतन्मध्यमुपात्तं सूत्रेण ततो न कश्चिद्दोषस्तथा चात्र प्रासादो भवति दृष्टान्तः। स चाग्रे भावयिष्यते। संप्रति यदुक्तं "छम्मासा होवते उ वत्तीसा" इति तद्भाव नार्थमाह। छम्मासक्खवणंतम्मि, सित्थमेगादिलंवणं / ततो लंवणमड्डी जा-वेक्कतीसमसंथरे / एक्कमेकं तु हावेत्ता, दिणं पुटवकमेण उ। दिणे दिणे उसित्थादी, पावे जुत्तीमसंथरे / षण्मासक्षपणान्ते सिक्थमेकमादिशब्दात् असंस्तरणे द्वे त्रीणि चत्वारि इत्यादिपरिग्रहोऽश्रान्तभुक्तमवमे संस्तरणे च सिक्थपरिवृद्धिस्तावत्कर्तव्या यावदवमकवलो भवति / तेनाप्यसंस्तरणे द्वात्रिंशदपि / द्रष्टव्याः परमेतत्कस्याऽपि कदाचित् अन्यथा प्रकामभोजित्वदोषप्रसक्तेर्यत आह। "एतो एगेण वि कवलेण ऊणगमाहारेमाणे समणे णिगंथे पगामरसभोइत्ति वत्तव्वं सिया" इह प्रकामग्रहणेन निकाममपि सूचितमतो द्वे अपि व्याख्यानयति। पगाम होइ वत्तीसा, निकामं होइ निचसो। दुयवि जहधा ते उ, गिद्धी हवति वजिया। द्वात्रिंशत्कवलाः प्रकामं भवति त एव यन्नित्यशः सर्वकालं भुज्यते तन्निकामम् / एते द्वे अपि द्वात्रिंशत्कवलेभ्यः एकेनापि कवलेनोनमाहारमहारयतो ऽपरिक्ते गृद्धिश्च वर्जिते भवति / "अधुनावमोयणमिति' व्याख्यानार्थमाह।। अप्पावड्ड दुभागो-मदेसणं नाममेत्तगं नाम। एइ दिणमेयतीसं, आहारेउ त्ति जं भणह॥ यदि नाम प्रतिदिनमेकत्रिंशमपि कवलानाहारापयेदिति भणथ यूयं प्रतिपादयथ तर्हि यत् अल्पार्द्धद्विभागावमौदर्यदेशनं तन्नाम मात्रकमेकत्रिंशतोऽपि कवलानां प्रतिदिवसमाहारानुज्ञानात्। आचार्य आह।। भण्णति अप्पाहारा-दओ समत्यस्स भिग्गहविसेसा। चंदायणादयो विव, सुत्तनिवातोपगामम्मि। भण्यते उत्तरं दीयते अल्पाहारादयः समर्थस्य सतोऽभिग्रहविशेषाश्चान्द्रायणादय इव। सूत्रनिपातः पुनरन्तिमोऽसमर्थस्य प्रकामनिकामनिषेधपर इत्यदोषः / ये चाल्पाहारादयोऽभिग्रहविशेषास्ते बहुना संयतसंयतीनां साधारणार्थ तथा चाह। अप्पाहारगहणं, जेणय आवस्सयाण परिहाणी। न वि जायइ तम्मत्तं, आहारेयव्वं तयं नियमा। अल्पाहाराग्रहणमल्पार्द्धाधुपलक्षणं तत इदमल्पार्द्धाद्याग्रहणमेतत् ज्ञापयति सिद्धिप्रासादनिर्मापणाय व्यापार्यमाणानामावश्यकानां योगानां यावन्मात्रेणाहारेण परिहानिर्नोपजायते तावन्मानंतमभिग्रहविशेषमभिगृह्याहारयितव्यम्। अत्रैव दृष्टान्तमभिधित्सुराह। दिट्ठतो (अ) मच्चेणं, पासदेणं तु रायसंदिटे। दवे खेत्ते काले, भावे ण य संकिलेसेइ॥ इयं गाथाक्षरयोजना। भावार्थस्तु केनापि राज्ञा अमात्य आज्ञप्तः शीघ्र प्रासादः कारयितव्यः स चामात्यो द्रव्ये लुब्धस्तान् कर्मकरान् द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च संक्लेशयति कथमित्याह। अलोणेण य सुक्कयं, सुक्खं नो पगामं दव्वतो। खेत्ताणुचियं उण्हे, काले उस्सरभोयणं / भावे न देति विस्सामं, निढरेहिं य खिंसइ। जेयं वित्तिं च नो देइ, नट्ठा अकयदंभणा / / द्रव्यतोऽलवणसंस्कृतं विशिष्टसंस्काररहितं शुष्कं वातादिना शोषं नीतं वल्लचनकादितदपि न प्रकामं न परिपूर्ण ददाति। क्षेत्रतो यत्तस्मिन् क्षेत्रे अनुचितं भक्तं वा पानं वा तद्ददाति / तथा उष्णे कर्म कारयति काले उत्सूरे भोजनं दापयति भावतो न ददाति विश्रामम् / निष्ठुरैश्ववचनैः खिसयति। जितामपि च कर्मकरतो लभ्यामपि वृत्तिं मूल्यं न ददाति। एवं च सति ते कर्मकराः प्रासादमकृत्वापि नष्टाः पलायिताः / स्थितः प्रासादोऽकृतो राज्ञा चैतज्ज्ञातं ततोऽमात्यस्य दण्डना कृता अमात्यपदाचयावयित्वा तस्य सर्वस्वापहरणं कृतमिति। एष दृष्टान्तः / __ सांप्रतमुपनयमाह // अकरणे य पसायस्स उ, जह सो मच्चो उदंडितो रन्ना। एमेवय आयरिए, उवणयणं होति कायव्वं / / यथा प्रासादस्यकरणे सोऽमात्यो राज्ञा दण्डित एवमेवाचार्य उपनयनं भवति कर्तव्यं तथैव राजस्थानीयेन तीर्थकरेण अमात्य-स्थानीयस्याचार्यस्य सिद्धिप्रासादसाधूनामर्थमादेशोदत्तः। सचकर्मकरस्थानीयानां साधूनां द्रव्यादिषु तत्करोति / यथा ते सर्वे पलायन्ते। तथा चाह। कजम्मि विनो विगति, भत्तं न तं च पञ्जत्तं / खेत्तुं खलु खेत्तादी, कुवसहि उब्भामगे चेव // तइयाए देति काले, ओमे वुस्सग्गवादिगो निचं / संगहउवग्गहे विय, न कुणइ भावे पयंडो य / / द्रव्यतः कार्येऽपि समापतिते विकृतिं घृतादिकां न ददाति / भक्तमपि प्रान्तं दापयति / तदपि च न पर्याप्तम् / क्षेत्रतः खलु क्षेत्रादीन् प्रेषयति खलु क्षेत्र नाम यत्र तु किमपि प्रायोग्यं लभ्यते आदिशब्दाद्यत्र स्वपक्षतः परपक्षतो वाऽपभ्राजना तदादिपरिग्रहः / कुवसतौ वा स्थापयति उद्भ्रामके वा ग्रामे यदा तदा वा प्रेषयति कालतः सदैव तृतीयायां भोजनं ददाति। अवमेऽपि दुभि:ऽप्युत्सर्गेवादिको नित्यं भावतः संग्रहंज्ञानादिभिरूपग्रह वस्त्रपात्रादिभिर्न करोति। प्रचण्डश्च प्रकोपनशीलः॥ लोएलोउत्तरे चेव, दो वि एए असाहगा। विवरीयत्ति व णो सिद्धी, अन्ने दो वि व माहगा / / लोके लोकोत्तरेऽपि च एतायनत्तरोक्तौ द्वावग्यसाधको Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊणोयरिया 1212 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊणोयरिया द्रव्यतो भावतश्च प्रासादस्य विपरीतवर्तिनः पुनरुभयथापि सिद्धिरिति कृत्वा अन्यौ द्वावपि द्रव्यतो भावतश्च प्रासादस्य साधकौ // सिद्धी पासायवडिं-सगस्स करणं चउट्विहं होइ। दवे खेत्ते काले, भावे य न संकिलेसेइ॥ सिद्धिः प्रासादावतंसकरणं चतुर्विधं भवति तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च / ततो गीतार्थो द्रव्यादिषु साधून न संक्लेशयति।। एवं तु निम्मवंति, ते वि अचिरेण सिद्धिपासाया। तेसिं पिइमो उ विही, आहारेयवए होति।। एवं द्रव्यादिषु संक्लेशाकरणतस्ते साधवोऽचिरेण स्तोकेन कालेन सिद्धिप्रासादं निर्मापयन्ति तेषामपि सिद्धिप्रासादनिर्मापकानामाहारयितव्ये अयं वक्ष्यमाणो विधिस्तमेवाह / / अनुमसणस्स सव्वं, जणस्स कुजा दवस्सदो भागं। वायपवियारणट्ठा, छन्भागं कुणइ यं कुञ्जा। अर्द्धमुदरस्य दधितक्रते मनदिसहितस्याशनस्य योग्यं कुर्यात् द्वौभागौ द्रव्यस्य पानीयस्य योग्यौ षष्ठं तु भागं वातप्रविचरणार्थमूनकं कुर्यात् / इयमत्र भावना। उदरस्य षड् भागाः कल्पन्ते तत्र ये भागा अशनस्य द्वौ भागौ पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचरणाय / एतच्च साधारणे प्रावृट्काले चत्वारो भागाः / सव्यञ्जनस्याशनस्य पञ्चमः षष्ठो वातप्रविचरणाय / उष्णकाले द्वौ भागावशनस्य सव्यञ्जनस्य त्रयः पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचरणायेति। एसो आहाराविही,जह भणितो सव्वभावदंसीहिं। धम्मवसगाय जोगा, जेण न हीयंति तं कुजा।। एष आहारविधिर्यथा सर्वभावदर्शिभिः सर्वज्ञैर्भणिता येन च प्रकारेण धर्मनिमित्ता अवश्यकर्तव्या योगा न हीयन्ते तं कुर्यान्नान्यदिति / व्य०द्वि०५उ01 अथ क्षेत्रावमौदर्यमाह। गामे नगरे तहा य, रायहाणि निगमे य आगरपल्ली। खेडे कव्वडदोणमुह-पट्टणमडंबसंबाहे // 16 // आसमपए विहारे, सन्निवेसे समायघोसे य। थलसेणाखंधारे, सत्थे संवटकोट्टेय / / 17 // कडेसु य रत्थासु य, घरेसु वा एवमित्तियं खित्तं / कप्पइ उ एवमाइ, एवं खित्तेणओ भवे // 18 // तिसृभिर्गाथाभिः कुलकम्। एवमिति अमुना प्रकरण हदथस्थप्रकारेण एतावन्नियतमानं क्षेत्र पर्यदितुंममवर्तते इति एवमादिहशालादिपरिग्रहः / अद्य एतावत्प्रमाणं भिक्षार्थं भ्रमितव्यमिति निर्धारणं क्षेत्रेण अवमौदर्य भवेत् / तदेव भिक्षाभ्रमणक्षेत्रमाह / कुत्र कुत्र भिक्षार्थं साधुर्धमति ग्रामे गुणान् प्रसतीति ग्रामस्तस्मिन् / अथवा कण्टकवाटकावृतो जनानां निवासो गामस्तमिन् ग्रामे / पुनर्नगरे नाऽत्र कराः सन्ति इति नगरं तस्मिन् / तथा राजधान्यां राजा धीयते यस्यां सा राजधानी सस्यां राजधान्यां राजपीठस्थाने निगमे प्रभूवणि निवासे आकरः स्वर्णाधुत्पत्तिस्थानं तस्मिन् आकरे पल्ली वृक्षवंशादिगहनाश्रिता प्रान्तजनस्थानंतस्यांपल्ल्याम्।खेटंधूलिप्रकारपरिक्षिप्तं तस्मिन् खेटे। पुनः खर्वट कुनगरंद्रोणमुखंजलस्थलनिर्गमप्रवेशंतत्भृगुकच्छादिकम्।। पत्तनं तुयत्र सर्वदिग्भ्यो जनाः पतति आगच्छन्ति इति पत्तनम्। अथवा पत्तनं रत्नखानिरिति लक्षणं तदपि द्विविधं जलमध्यवर्ति स्थलमध्यवर्ति च। मटम्बं यस्य सर्वदिक्षु सार्द्धतृतीययोजनान्तमो न स्यात्तत्र। तथा संबाधः प्रभूतचातुर्वर्ण्यनिवासःखटशब्दादारभ्य संबाधशब्दयावद्द्वन्दः समासः कर्तव्यः / खर्वटश्च द्रोणमुखं च पत्तनं च मटम्बं च संबाधश्च खर्वटद्रोणमुखपतनमटम्बसंबाधास्तेषां समाहारः खर्वटद्रोणमुखपत्तनमटम्बसंबाधं तस्मिन् खर्वटद्रोणमुखपत्तनमटम्बसंबाधे एतेषु स्थानेषु इत्यर्थः (16) पुनः कुत्र कुत्र इत्याह / आश्रमपदे तापसाश्रमोपलक्षिते स्थाने विहारे देवगृहे पुनः सन्निवे से यात्राद्यर्थसमागतजनावासे समाजः परिषत् घोषः आभीरपल्ली समाजश्च घोषश्च समाजघोषं तस्मिन् समाजघोष। स्थलं च सेना च स्कन्धावारश्च स्थलसेनास्कन्धावारं तस्मिन् स्थलसेनास्कन्धावारे। तत्र स्थलं उच्चभूमिभागः सेना चतुरङ्गकटकसमूहः स्कन्धावारः कटकोत्तरणनिवासः सार्थक्र याणकभृतां समूहः प्रतीत एव तत्र संवर्गों भयत्रस्तजनसमवायः कोट्टो दुर्गः संवर्तश्च कोट्टश्च संवर्तकोट्ट तस्मिन् संवर्तको?(१७) पुनवटिषु वृत्त्यादिपरिक्षिप्तगृहसमूहेषु रथ्यासुसेरिकासु च गृहेषुप्रसिद्धेषु च एतेषु च स्थानेषु अवमोदर्थ कृतं क्षेत्रतो भवति। अथ पुनः प्रकारान्तरेण क्षेत्रावमोदर्यमाह। पेडा य अद्धपेडा, गोमुत्तियपतंगबीहिया चेव। संवुकावट्टा य, गंतुं पञ्चागमा छट्ठा / / 19 // षड्विधा क्षेत्रावमोदरिका वर्तते पेटा पेटाकारा चतुष्कोणा पेटाकारण गोचर्या कृत्वा अवमोदरीकरणमेवमर्द्धपेटाकारेण गोचरीकरणं गोमूत्रिकाकारेण पतङ्गवीथिका पतङ्गशलभस्तस्य वीथिका उड्डयन पतङ्गवीथिका अनियता निश्चयरहिता शलभोड्डयनसदृशीत्यर्थः / पुनः शम्बूकावर्तः शम्बूकः शङ्खस्तद्धतआवर्तो भ्रमणं यस्यां सा शम्बूकावर्ता साऽपि द्विविधा अभ्यन्तरशम्बूका बहिःशम्बूका च / शङ्खनाभिरूपक्षेत्रे मध्यावहिर्गम्यते सा अभ्यन्तरशम्बूकावर्ता विपरीता बाह्यात् मध्ये आगमनरूपा बहिःशम्बूकावर्ता पञ्चमी / पुनः षष्ठी आयतं गन्तुं प्रत्यागमाज्ज्ञेया आदित एव आयतं सरलं गत्वा यस्यां प्रत्यागमो भवति सा षष्ठी ज्ञेया इत्यर्थः। एतासां भिक्षाचर्याणामपि अवमोदर्यत्वं ज्ञेयं यतो हि अवमोदर्यार्थमेव ईदृक् प्रकारेणैव साधुराहारार्थं भ्रमति तस्मान्नात्र दोषः // 16 // दिवसस्स पोरिसीणं, चउण्हं पिजत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेयय्वो // 20 // दिवसस्य चतसृणां पौरुषीणं प्रहराणां यावद् घटिकाचतुष्टयादिकोऽभिग्रहविषयः कालो भवति एवममुना प्रकारेण कालेन चरमाण इति गोचर्यां चरतः साधोः खलु निश्चयेन कालावम इति कालेन अवमं कालावमं मन्तव्यः॥ पुनः कालावमोदर्यमेव प्रकारान्तरेणाह / / अहव तइयपोरिसीए, ऊणाए घासमेसंते। चउभागूणाए वा, एवं कालेणओ भवे // 21 // अथवा तृतीयायां पौरुष्यामूनायां किञ्चिद्धीनायां ग्रासमाहारमेषयन् गवेषणां कुर्वन् वा अथवा चतुर्भागन ऊनायां तृतीपौरु Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊणोयरिया 1213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊणोयरिया ष्यां भिक्षा चर्या साधोरुक्तास्ति कालेन अवमोदर्य भवेत् / उत्त० 3 अ०॥ अथ भावावमोदर्यमाह। से किं तं भावोमोयरिया 2 अणेगविहा पण्णत्ता? तं जहा अप्पकोहे जाव अप्पलोभे अप्पसहे अप्पझंझे अप्पतुमं तुमे सेत्तं भावोमोयरिया सेत्तं भावोमोयरिया सेत्तं ऊनोमोयरिया॥ अल्पक्रोधः पुरुषः अवमोदरिका भवत्यभेदोपचारादिति (अप्पसद्देत्ति) अल्पशब्दो रात्र्यादावंसयतजागरणभयात् (अप्पझंझत्ति) इह झञ्झा विप्रकीर्णा कोपविशेषाद्वचनपद्धतिः चूया तूक्तम् / "झंझ अणत्थ य बहुप्पला वित्तं अप्पतुमं तुमेति। "तुमतुमो हदयस्थः कोपविशेष एव / भ० 25 श०७ उ०। भावादूनोदरिका क्रोधादिपरित्यागो यत उक्तम्। 'कोहाईणमणुदिणं, चाओ जिणवयणभावणाओ य। भावेणोणोदरिया, पन्नत्ता वीयरागेहिं / / " प्रव०६ द्वा० / द० / ग०। स्था० औ०। इत्थी वा पुरिसोवा, अलंकिओ वा एलंकिओ वा वि। अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं च वत्थेणं / / 22 / / अन्नेणं विसेसेणं, वन्नेणं भावमणुमुयंते उ। एवं चरमाणो खलु; मावोवमाणं मुणेयव्वं / / 23 / / युग्मम् एवमनुना प्रकारेण चरमाणः इति प्राकृतत्वाश्चरमाणस्य भिक्षायां भ्रममाणस्य साधोः खमु निश्चयेन (भावोवमाणं इति) भावोऽवमत्वं भावावमोदर्य (मुणितव्यं) ज्ञेयमित्यर्थः / भावेन अवमोदर्य भावावमोदर्य कोऽर्थः / यदा कश्चित्साधुरिति चिन्तयति अद्य कश्चिद्दाता भावमेतादृशं स्वरूपम् (अणुमुयंते इति) अनुन्मुञ्चन् अत्यजन् एतादृशस्वरूपं भजन मह्यम् आहारं दास्यति तदाऽहं ग्रहीष्यामि नान्यथेति भावः / को दाता कीदृशं च भावमत्यजन् तदाह (इत्थी) स्त्री वा पुरुषो वा अलंकृतः आभरणादिसहितोऽथवाऽनलकृतोऽऽलङ्कारै रहितः (अन्नयरवयत्थो) अन्यतरवयस्थो वालतरुणस्थविरादिकानां त्रयाणां वयसां मध्ये अन्यतरस्मिन् एकस्मिन् वयसि स्थितः। अन्यतरेण पट्टदुकूलादिवस्त्रेण उपलक्षितः / 22 / अन्येन विशेषेण कुपितप्रहसितादिनाऽवस्थाभेदेन उपलक्षितः वर्णेन स्वेतरक्तादिना उपलक्षितः भावं पर्यायमुक्तरूपमलङ्कारादिकम् (अणुमुयंते)अनुन्मुञ्चन्एतादृशः सन्मा आहारं दास्यति तदा लास्यामि इत्यभिग्रहधारणेन भावावमोदर्य ज्ञेयम् / अथ पर्यायावमोदर्यमाह। दवे खित्ते काले, भावम्मि आहियाउ जे भावा। एएहिं ओमचरओ, पजवचरओ भवे भिक्खू // 24 // द्रव्ये अशनपानादौ क्षेत्रे पूर्वोक्ते ग्रामनगरादौ काले पौरुष्यादौ भावे स्वीत्वादौआख्याताः कथिता ये भावाः पर्यायास्तैः सर्वरपि द्रव्यादिपर्याय : अवममवमोदर्यं चरति सेवति यः सोऽवमचरो भिक्षुः पर्यवचरको भवेत्। पर्यायावमोदर्यचरको भवतीत्यर्थः / एकसिक्थकाद्यल्पाहारेण द्रव्यतोऽवमोदर्यं स्यादेव परं ग्रामादौ क्षेत्रतः पौरुष्यादौ कालतः स्त्रीपुरुषादिषु भावतः कथमवमोदयं स्यात् उत्तरं क्षेत्रकालभावादिष्वपि विशिष्टाऽभिग्रहवशादवमोदर्य स्यादेव। इह पुनः पर्यायग्रहणेन पर्यवप्राधान्यविवक्षया पर्यवावमोदर्य ज्ञेयम्। 24 / उत्त०३० अ०।। ऊधारिता त्रि० (अवधारायितृ) निश्चितं वक्तरि, "अभिक्खणं अभिक्खणं ऊधारिता" ! अभीक्ष्णमवधारयिता / शङ्कितस्याप्यस्य निःशङ्कितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता / अथवा अवहारयिता परगुणानामपहारकारी यथा तथा हासादिकमपि परं भणति दासचोरस्त्वमित्याद्येकादशसमाधिस्थानम् / दशा०१ अ०। ऊमिणण न० (अवमान) लोकशास्त्रप्रसिद्धे प्रावणके, "चउणारी ऊमिणणं अहिगासु नत्थि उ विरोहे"ध०२ अधि०। ऊरण पुं० (ऊरण) नरभ्रे, रा०। मेषे, विशे०। ऊरस पुं० (ऊरस) उरसा वर्तत इति ऊरसः / बलवति बाहुबलिनीव पुत्रभेदे, स्था० 10 ठा० ऊरुघंटा पुं० (ऊरुघण्टा) जङ्घाघण्टायाम्, ज्ञा०१८ अ०। ऊरुयाबल पुं० (ऊरुकाबल) उरुकयोराबलनमूरुकाबलः / शारीरदण्डभेदे, प्रश्न०१ सं०३ द्वा०। ऊरुयाल पुं० (ऊरुदार) ऊर्योर्जयोरो दारणा ज्वालो वा ज्वालनं यः स तथा / शारीरदण्डभदे, प्रश्न०१ सं०३ द्वा०। ऊस पुं० (उस्त्र) वसन्ति रसा अत्र वस-रक्-नि-न षत्वम् रलोपे "लुप्तयरवशषसां दीर्घः |8|1|43 // इति लुत्पाधःस्थरेफस्य सकारस्यादेः स्वरस्य दीर्घः / किरणे, प्रा०।" * ऊष पुं०ऊष रुजायाम्, क०। पांशुक्षारे, द०५०।ऊषरादिक्षेत्रोद्भवे लवणिमनि, लवणसंमिश्ररजोविशेषे, पिं०।यदशादूषरं क्षेत्रम्, प्रज्ञा०१ पद। जीवा। मानुषनगरप्रथमकूटवैदूर्य्यपल्योपमस्थितिके नागदेवे, दी। कर्णरन्ध्रे चन्दनाद्रौ, तत्रचन्दनाद्रेर्विरहितापकत्वात्कर्णच्छिद्रस्य अल्पजलादिप्रवेशेनोद्वेगहेतुत्वात् क्षारमृत्तिकाया मलापहारकत्वातथात्वमिति भेदः / ऊषति अन्धकार मेचकं वा / प्रभाते, रेतसि, न० तस्य क्षारवत्त्वात्तीव्रत्वादुष्णत्वाच तथात्वम् / क्षारमृत्तिकायाम्, स्त्री० वाच०। ऊसहन०(ऊत्सृष्ट) उद्सृज्-क्ताउत्सर्जने, उचारादेस्त्यागे, आचा० 2 श्रु०॥ ऊसढ त्रि०(ऊत्सृत) उच्चे, जी०३ प्रतिकाज०। उत्कृष्ट, व्य० 6 उ० / "ऊसढाति वा गभियातिबा" आचा०२ श्रु०। "वन्नाइ जुयमूसढमित्याद्युक्ते शुभवर्णगन्धादियुक्ते," प्रव०२ द्वारा दशा। आचा। 'रसियं रसियं ऊसद ऊसद मण्णुण्णं मण्णुण्णं " सम०। ऊसण न० (उषण) उष-ल्युट् मरिचौ, पिष्पलीमूले, शुण्ठ्या , च० / चित्रके, पुं०। पिप्पल्यां, चव्ये च स्वी०।मरीच्यादीनां जिलोद्रेजकतया तथात्वम् वाचा ऊसण्हसण्हिया स्त्री० (उच्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका) उत् प्रावल्येन श्लक्षणश्लक्षणिका अनन्तेषु परमाणुषु, अनन्तैः परमाणुभिरेकस्या उच्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकाया अभिधानात्॥ प्रव० 254 द्वा० / "अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उसण्हणिया" अनन्तानां व्यवहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयाह्यादिसमुदयास्तेषां समितयो मिलनानि तासां समागमपरिणामयशादे कीभावनं समुदयसमितिः समागमस्तेन या परिमाणमात्रेतिगम्यते।सा एका अव्यन्त श्लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्लक्ष्णलक्ष्णिका। उत्प्रावल्येन श्लक्ष्ण लक्ष्णिकः उच्श्लक्ष्णश्लक्षिणकाः भ०६ श०७ उ०। ऊसत्त त्रि० (ऊत्सक्त) ऊर्द्धसक्त उत्सतः। उल्लोचतले उपरिसंबद्धे, "आसत्तो सत्त विउलवट्टमल्लदामकलावं" आ०म०प्र० ऊसर न० (ऊषर) ऊष मत्वर्थीयो रः ऊषं क्षारमृत्तिकां राति द Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊसर 1214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊसित्त दाति क-वा। क्षारमृत्तिकायुक्ते देशे, यस्मिन्नुसं वीजं न प्ररोहति यत्र | ऊसारिय त्रि० (उत्सारित) प्रलम्बीकृते, ज्ञा०१८ अ01 तृणादेरसम्भवः / श्रा०। प्र०। यो०। ऊसास पुं०(ऊच्छ्वास) उत्ऊर्द्ध श्वास उच्छ्वासः। आ० चू०५ अ०॥ ऊसरण न० (उत्सरण) उद्-सृ-ल्युट्। अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे।८1/ अनुत्साहोत्सन्ने त्सच्छे / 8111114 / इतिच्छपरस्य उत् ऊत्। 11114 / इति त्स परस्यादेरुत ऊत्, प्रा०1 आरोहणे, "थाणू सरणं प्रा० / ऊर्द्धगमनस्वभावे श्वासे, जो०१ पाहु० / अहोरात्रादिषूच्छतओ समुप्पयणं' विशे०। वासमानम् इह अहोरात्रे मासे वर्षे वर्षशते वोच्छ्वासपरिमाणमेवं पूर्वसूरिभिः ऊसरदेस पुं० (ऊपरदेश) ऊपरविभागे, श्रा०। संकलितम् / “एगं च सयसहस्सं, ऊसासाणं तु तेरस सहस्सा / ऊसल धा० (उल्लस) उद्-लस् उल्लासे, उल्लसो रूसलो सुम्म | नउपसणमग्गहिया, दिवसनिसि होति विन्नेया। मासचियऊसासा, लक्खा जिल्लसपुलआअंगुजोल्लारोआः।। 1 / 202 / इत्युल्लसेरू- तेतीससहस्स पणनऊई। सत्त य सयाई नाणसु, कहियाई पुव्वसूरिहिं। सलादेशः। ऊसलइ उल्लसइ उल्लसति। प्रा०॥ चत्तारि उ कोडी उ, लक्खा सत्ते व होति नायव्वा। अडयालीखसहस्सा, ऊसव धा० (उत्सव) उद्-सू-अप् अनुत्साहोत्सन्नेत्सच्छे / 8 / 1|| वारिसया होंति वरिसेणं "जीवा०३ प्रति० संख्येयावलिकात्मके काले, 114 / इत्यादेरुत उत्त्वम्। प्रा० / आनन्दजनकव्यापारे, "उसवो जत्थ | "संखेजा आवलियाओ ऊसासो" किल षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयोनाभत्तपाणं विसिटुं ऊसवाविज्जति" नि० चू० १६उ०। इंदाय महा पायं वलिकानां क्षुल्लकभवग्रहणं भवति तानि च सप्तदश सातिरेकाणि पइनियया / ऊसवा हुति " उत्सवाः प्रायः प्रतिनियता वर्षमध्ये उच्छ्वासनिःश्वासकालः / एवञ्च सङ्घघाताः आवलिका उच्छवासकालो प्रतिनियतदिवसभाविन इन्द्रादिमहाः / एते च भरतकाले प्रवृत्ताः | भवति, भ६श७उ।अनु। कर्म। (एकेन्द्रियादीनामुच्छ्वासवक्तव्यता आण "अण्णया कयाइं ऊसवे इन्भराडियाइं" आ० म०प्र०।"ऊसवे जहा | शब्दे उक्ता)उत्पचने, मरणे, "छेदणऊसास अणाहियासे य" वृ०१ उ०। एगति पव्वंतियगामे आभीराणि ताणि साहूण पासे धम्मसुणंतिताहे देवलोगे | ऊसासगपुं०(उच्छ्वासक) उच्छ्वसितीत्युच्छ्वासकः। आनपर्याप्तिवण्णंति एवं ते सिं अत्थधम्मे बुद्धी। अन्नया कयाइ इंदमहे वा उन्नाम्मि वा परिनिष्यन्ने, विशे० आ० म०वि०। ऊसवे नगरिं गयाणि जारिसा बारवती तत्यलोगं पेच्छंति ऊसासणाम न० (उच्छ्वासनामन्) यदुदयवशादात्मन उच्छ्वासनिःमंडियपसाहियसुगंधविवित्तनेवत्थं ताणि तं दखूण भणति। एस देवलोगो| श्वासलब्धिरुपजायते तस्मिन्नामकर्मभेदे, कर्म०। प्रव० / श्रा०। पं० जो सो तया साहूहि वन्नितो एत्ताहे जइ वचमो तो सुंदरतरं करेमो जेण सं०। "उससणलद्धिजुत्तो, हवेइ ऊसासणामवसा" उच्छ्वासनामवअम्ह वि देवलोगे उववजामो। ताहेताणि मंतूण साहूण साहिति जो तुब्भेहिं शादुच्छ्वासनामकर्मोदयेन उच्छ्वसनलब्धियुक्तो भवति उच्छ्वासनिःअम्हं कहितो देवलोगो सो पचक्खो अम्हेहिं दिह्रो। साहू भणंति न तारिसो श्वासलब्धितो जायते / यदुदयादुच्छ्वसनलब्धिरात्मनो भवति स देवलोगो अतो अण्णरिसो अणंतगुणो ततोताणि अब्भहियजायविम्याणि | वलब्धीनांक्षायोपशमिकत्वादौदयिकी लब्धिर्न संभवतीति चेत् नैतदस्ति पव्वइयाणि / एवं ऊसवेण सामानयलंभो / आ० म० द्वि०।। वैक्रियाहारकलब्धीनामौदयिकीनामपि संभवाद्वीर्यान्तरायक्षायोपश(पार्श्वस्थानामुत्सवा अन्यत्र) मैरपि चात्र निमित्तीभवतीति सत्यप्यौदयिकत्वे क्षायोपशमिकव्यपऊसववज्जन० (उत्सववज्य) उत्सवाभावे, "ऊसववञ्जकयाइ वि, लहुओ | / देशोऽपि न विरुद्धते। कर्म०। लहुया अभिक्खगहणम्मि'' व्य०१ उ०। ऊसासणिरोह पुं० (उच्छ्वासनिरोध) बालमरणसाधके प्राणनिरोधे, ऊसविय अव्य० (उच्छ्राय्य) ऊर्द्धस्थं कृत्वेत्यर्थे, "तणाई ऊसविय | व्य०१०उ०। अगणिणिसिरंति'' तृणानि कुशेषीकादीनि पौनः पुन्येनोधिःस्थानि | ऊसासीणसास पुं० (उच्छ्वासनिःश्वास) उच्छ्वासेन सह निःश्वासः कृत्वा, सूत्र०२ श्रु०२ अ०) प्राणसझके कालभेदे, "एगे ऊसासनीसासे एस पाणुत्ति वुच्चइ" भ०६ * उच्छ्रित त्रि०ा ऊर्धीभूते, ज्ञा० 8 अ01 आ० म०प्र० श०७उ०। * उच्छ्रयित त्रि०ा ऊर्वीकृते, ज्ञा०८ अ०। | ऊसासद्धा स्त्री० (उच्छ्वासाद्धा) उच्छ्वासप्रमितकालविशेषे, भ०६ ऊसवियरोमकूव त्रि० (उच्छ्रितरोमकूप) उच्छ्रितानि रोमाणि कूपेषु श०७ उ०। तद्रन्धेषु यस्य स तथा जातरोमाञ्चे, भ०११ श० 11 उ०। कल्प०/ऊसासपजति स्त्री० (उच्छ्वासपाप्ति) पर्याप्तिभेदे, यया "ऊसवियरोमकूवा छप्पिय अणगारे णिदसए दिट्ठी"आ०म० द्वि०। | पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यवर्गणा दलिकमादायोच्छ्वासरूपतया परिणमय्याऊससण त्रि० (उच्छ्वसन) उच्छ्वसितं कुर्वति, "ऊससमाणेनीससमाणे| लम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छ्वासपर्याप्तिः। कर्म०१ वा कासमाणे वा छायमाणे वा आचा०२ श्रु०॥ ऊसित्तन० (ऊसिक्त) उत्सेचनमुत्सिक्तम् भावे क्तः। अनुत्साहोत्सऊससियन० (उच्छ्वसित) उच्छ्वसनमुच्छ्वसितंभावे निष्ठाक्तप्रत्ययः।। न्नेत्सच्छे।५।११११४॥इति उत्ऊत् प्रा०। सौवीरस्य उत्सेचने, वृ० अनक्षरश्रुतभेदे, नं० / आ० म०प्र०। विशे० ! ऊर्द्ध प्रवलं श्वसितमु- 2 उ०। किट्ठमुत्सिक्तं ग्राह्यम्।। च्छ्वसितम्। ऊर्द्धश्वासग्रहणे, "अन्नत्थ ऊससिएणं" अन्यत्रोच्छ्व अथोत्सितपदं भावयति। सितात् ऊर्द्धश्वासग्रहणात्। उत् उर्द्ध प्रवलं वा श्वसितमुच्छ्वसितमिति समणत्थसघरपासंडे, जावंतिय अत्तणो य मुत्तूणं / व्युत्पत्तेः। ध०२ अधि०। आव०। छट्ठो नत्यि वि कप्पो, उस्सिचणमो जयट्ठाए।। ऊससिर त्रि०(उच्छसित) शीलार्थे तृन्-तत्स्थाने। शीलाधर्थस्येरः।। काज्जिकस्य सौवीरिणीतो यन्निष्काशनं तदुत्सितं तच पशधा 812 / 155 / इति तृन इरादेशः / उच्छ्वसनशीले, प्रा०। श्रमणार्थ साधूनामा येत्यर्थः / स्वगृहपतिमिश्रं 2 पाष / Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊसित 1215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 ऊहापन्नत्त ण्डिमिश्रं 3 यावदर्थिकमिश्रम् 4 आत्मार्थकृतम् 5 / एतान् पञ्चभेदान् | र्थमनर्गलितगृहद्वारे,"ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चिय तंते उरपरघरमुक्त्वा अपरः षष्ठो विकल्पोनास्तियदर्थमुत्सेचनं भवेत्। अत्र चात्मार्थं प्पवेसे " ज्ञा०५अ०। दशा०। औ०। यद् गृहिभिरुत्सितं तदेव ग्रहीतुं कल्पते न शेषाणीति / ऊसुअ त्रि० (उच्छुक) उद्गताः शुकाः यस्मात्सः / अनुत्साहोत्सन्ने दूषिताऽऽख्यनपुंसकभेदे, "दूसी दुविहो आसितो जो सावच्चो ऊसित्तो त्सच्छे1८1१1११४। इतिच्छ भागस्यादेरुत ऊत्वम्॥ उद्गतशुके, जो अणवचो"पं० भा०। प्रा०। ऊसिय त्रि० (उच्छ्रित) उद्-श्रि-त / उन्नते, कल्प० / औ०। ज्ञा०। ऊसुम्भ धा०(ऊल्लस)भ्वा-पर-अक-सेट्-उल्लासे, उल्लसेरूसउच्चैः कृते, उत्त०२२ अ० / उच्चे, विपा०१ श्रु०६ अ०। ऊर्कीकृते, लोसुम्भणिल्लसपुआअंगुजाल्लारोआः / 8 / 4 / 202 / औ० / उत्तुङ्गे, कल्प० / प्रख्याते, सूत्र०२ श्रु०७ अ० / पङ्कजले, इत्युल्लसेरूसुम्भादेशः ऊसुंभइ उल्लसइ उल्लसति, प्रा०॥ अतिलक्ष्य, परिव्यवस्थिते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। प्रासादादौ वास्तुभेदे, ऊह पुं० (ऊह) ऊह-घञ्। पृथिव्यादिसम्बन्धिन्यामोधमात्रसंज्ञायाम, नि० चू०१उ०।"ऊसियंजं उच्छ्रयेण कयं''आ० चू० ४अ०आव० / विशे० / मन्दमन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचितदेशे किमयं स्थाणुरुत पुरुष * उत्सृत त्रि० प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृते, चं०१८ पाहु० स०। इत्येवमात्मके तर्के, सूत्र०२ श्रु० 4 अ० / बुद्धिगुणभेदे, स च लम्बमाने, मुत्तजालतरुस्सियहेमजालमावक्खं, रा०। विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु तथाविधेषु व्याप्त्या वितर्कणम् (ध०१अधि०) ऊसियज्झय पुं० (उच्छ्रितध्वज) ऊर्धी कृतजयपताकायाम्, विपा० स्वरूपप्रतिपादनं स तर्कः कीर्त्यते ऊह इति च संज्ञान्तरं लभते १श्रु०२ अ०। २०३परि०। (तत्प्रामाण्यादिनिरूपणं तक्कशब्दे) चतुरशीत्यूहाङ्गशतस, ऊसियपभग त्रि० (उच्छ्रितपताक) ऊर्कीकृतपताकायुक्ते, "जहा स्त्रेषु, जो०२ पाहु० 1 आगमाविरोधिना तर्केण आगमार्थस्य एमिताहे ऊसियपड़ागं णयरं कयं" आ० म० द्वि०। "ऊसियपडाग- संशयपूर्वपक्षनिवारणपूर्वकोत्तरपक्षव्यवस्थापनेन निर्णयरूपे परीक्षण, गगणतलमणुलिहंता" रा०। अनन्वितार्थकविभक्त्यादिकल्पने पदान्तरेण आकाङ्कापूरणार्थेsऊसियफलिह पुं० [उच्छ्रि(त्सृ)तस्फटिक(परिघ)] उच्छ्रितं घ्याहारे, सांख्योक्ते ताराख्ये भेदे, आरोपे, समूहे च। वाच०। स्फटिकमिव स्फटिकमन्तःकरणं यस्य स तथा। मौनीन्द्रप्रवचना- ऊहंग न० (ऊहाङ्ग) चतुरशीतिमहाऽडडशतसहस्रेषु, जो०।२ पाहु०। बाह्यापरितुष्टमनसि, इति वृद्धव्याख्या केचित्त्वाहुः उच्छ्रितः अर्गला ऊहा स्त्री० (ऊहा) उह-अ० स्त्रीत्वात् टाप० / अध्याहारे, वाच०। स्थानादपनीय ऊर्कीकृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत वितर्कात्मिकायां तर्कबुद्धो, उत्त० 3 अ०। आ० म० द्वि०। इत्यर्थः / उत्सृतो वाऽपगतः परिघोऽर्गला गृहद्वारे यस्यासौ उत्सृतपरिधः / ऊहापन्नत त्रि० (ऊहाप्रज्ञप्त) तर्क बुद्ध्या प्रणीते, "ऊहापन्नत्तं उच्छ्रितपरिघो वा औदार्यातिरेकादतिशयदानदापित्वेन भिक्षुकप्रवेशा- | घोडियसिवभूउत्तराहिं इम' आ० म० द्वि०। ..... इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय–कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' ऊकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्।। समाप्तश्चायं द्वितीयो भागः॥ Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- _