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________________ उज्जुववहार 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उज्जुववहार ताव घण उट्टियाए, पडियारणावलीज्झत्ति // 22 // तं गहिउं उवलक्खिय, विमलो चुच्छेइ सिटि किं एयं। जा किं पि न सो जंपइ, खुहिओ ता जंपए विमलो।।२३।। अन्नं पि इमीइ समं, नट्ठवरहारकुंडलाईयं / तुह पासे तं पि अहं, मन्ने तालहु महप्पेसु // 24 // अन्नह निवेण नाणे, धणेण देहेण वा न छुट्टिहिसि। अह हण हणित्ति भणिओ , संपत्तो तलवरो तत्थ / / 2 / / बद्धो तेण धणो विमलपुच्छिओ सो भणइ जहा अज। लद्धो इक्को चोरो, से हिज्जंतेण इमो।। 26 // कहिओ मो सट्ठाणं, नरवरआहरणमाइसव्वाणं। तो रयणावलिसहिओ, स तेण नीओ निवसमीये // 27 // तो भिउडिभासुरेण निवेण से हाविओ धणो अहियं / रयणावलिकुंड लहा-- रमाइसव्वं समप्पेइ // 28 // इय सोऊण अखुद्दो, भद्दो गंतूण निवइपासम्मि। दाउपभूयविह वं कह कहमवि मोयए पुत्तं // 26 // तो नाउ बहुअवायं, चइऊण पुहावि दुजणं वधणं। दिक्खं गिव्हिय जाओ भद्दो भदाण आभागी // 30 // मुक्कववहारसुद्धी, सुमहंतसमुल्लसंतधणगद्धी। परिचत विमलभावो, नरए पत्तो धणो पायो // 31|| इत्येमाकर्ण्यसकर्णलोका , भद्रस्य भद्रकरणं चरित्रं / तद्भाव्यपायापसरेण मुक्तां, श्रयन्तु नित्ये व्यवहारशुद्धिं // 32 // इति भद्रश्रेष्ठिकथा।। इत्युक्तऋजुव्यवहारे भाव्यपाय प्रकाशनमिति तृतीयो भेदः। संप्रति सद्भावतो मैत्रीभाव इति चतुर्थ भेदमाह।। (मित्तीभावो यसब्भवत्ति) मित्रस्य भावः कर्मवा मैत्री तस्या भावो भवनं सत्ता सद्भावान्निष्कपटतया सुमित्रवन्निष्कपटमैत्री करोतीत्यर्थः। मित्रकपटभावयोश्छायातपयोरिव विरोधात् / उक्तंच, शाठ्येन मैत्री कलुषेण धर्म, परोपतापेन समृद्धिभावम् / सुखेन विद्यां पुरुषेण नारी वाच्छन्ति ये व्यक्तमपडितास्ते। इति चतुर्थ ऋजुव्यवहार भेदः। सुमित्रकथा चैवं। सुपुरिस पुरइवसुकरे, वरवत्थे सिरिपुरम्मि नयरम्मि। सिट्टी आसिनदीणो, समुद्ददत्तो समुद्दव्व॥१॥ सब्भावसारामित्ती, महंतदिप्पंतकंति कयसोहो। पुत्तो तस्स सुमित्तो, मित्तुव्व परं असत्तासो |2|| निद्धम्मो चत्त पुणो,लोहमओ मग्ग्णुव्य पीइहरो। परमम्मवहेणपरो, मित्तो तस्स त्थि यसुमित्तो ||3|| गुन्नविय कहसि पिउणो, ववहरणत्थं सुमित्त वसुमित्तो। संगहिय पउरपणिया, वणिया देसंतरे चलिया // 4 // मित्तपओसी दो सु-करिसपरो कोसिउव्व वसुमित्तो। उद्धमणो मित्तधणे, कुणइ विवायं इय पहम्मि॥५॥ जीवाण जओ धम्माओ, किं व पावाउ कहसु मह मित्त / भणइ सुमित्तो धम्मओ, नाणुजओ न उण पावाउ॥६॥ (यतः)दविणमलं कुलममलं, आणस्सरियं अभंपुरं विरियं / सुरसंपयं सिवपयं, धम्मा उचियजियाण धुवं / / 7 / / जइ पुण पावेण बुद्धि, रिद्धिसंसिद्धिमाइयो हुजा। तो हुजन को वि इहं, जडो दरिदो असिद्धो य॥८॥ रक्खियमिगे वि मयलं-छणो ससी हयमिगो वि मिगनाहो। सीहो तउ पावा जइति इय भणइ वसुमित्तो / / 6 / / इय वियवंता दुन्नि वि, सव्वस्स पणम्मि निम्मयपइन्ना। अन्नायधम्मनामे, कमेण कमिवि गया गामे // 10 // तत्थ य वसुमित्तेणं, मच्छरभरपूरिएण नियपक्खं। पुट्ठा गामीणजणा, पावा उ जउत्ति जंपति।।११।। जे परवंचणपउणा, विगलियकरुणा सया असचधणा। तप्पचक्खं पिच्छह, अतुच्छलच्छीइसंपन्ना।।१२।। अन्यैरप्युक्तम् नातीव सरलैर्भाव्यं, गत्वा पश्य वनस्थलीम्। सरलास्तत्र छिद्यन्ते कुब्जास्तिष्ठान्ति पादपाः // 13 // गुणानामेव दौरत्म्याधुरि धूर्यो निकल्पते। असंजातकिणस्कन्धः सुखं जीवति गौगलिः॥१४|| उत्तरदाणअसत्तो तस्स सुमित्तो मुरुक्खसत्थस्स। वसुमित्तेणं सत्था, उद्याडिओ गहियसव्वस्सं॥१५॥ सो एगागी अडवी-इनिवडिओ आहिदुक्खतत्तो वि। पगईइमित्तभावेण, परिगउ चिंतए एवं // 16 // भुजंतो रेजियपुव्व, जम्मकडुकम्मरुक्खफलमेयं / काऊणं संतोसं, वसुमित्ते वज्जिसुपओसं॥१७॥ इय चिंतिउंसुमित्तो, निसाइसावयगणाण वीहंतो। इक्कस्स निलुक्को गरु-यविडवविडविस्स कुहरम्मि॥१८॥ इत्तो निसुणइ दीवं-तरो उवत्ताण रुक्खसिहरम्भि। सो पक्खीणुल्लवियं, महल्लविहगेण पुट्ठाणं / / 16 / / भो विहगा कहह मह, कत्तो को इत्थ आगओ इण्हि। दीवंतरमिक्खेणं, किंकिरदढ व निसुयं वा // 20 // तेहि विजंजह दिह, सुय व दीवंतरेसु वा सव्वं। तह चेव तस्स कहियं एगो पुण भणइ तत्थ इमं / / 21 / / ताय अह पज्जपत्तो, सिंहलदीवा उ तत्थ नरवइणो। अस्थि जियमयणधूरिणि, धूया धूयाभयरणेहा / / 22 / / तीसे य अस्थि वियणइ-पिडियाए तइजओ मासो। विजेहि विपडिसिद्धा, तो पिउण दाविओ पडहो।।२३।। जो मह धूयं पउणेइ, तस्स वि य रेमि रज्ज अद्धमहं। सीइसमं विय नय को वि, पडहपछियइ पुण तथा।।२४।। अज्ज दिणं छट्ठीपढ-हयस्स तातीनयणरोगस्स। किं नत्थि ओसहमिह, किंवा अत्थत्ति मह कहसु // 25 // अह भणइ बुड्ढपक्खी , जाणंतेहिं विजह तहा एयं। दिवसम्मि विन कहिज्जइ, कि पुण रयणीइ हेपुत्तो॥२६|| तेणुत्तं महगरुयं, कुंटुं न य कोइ सुणइ इह ताय। ताकहसु आह सो विह,सुयपुव्वं वत्थमह एयं // 27|| अद्धाणं पवभमेहिं, इह निसि वसिएहिं जइणसाहहिं। संलक्खणुत्ति कहिओ, एस तरु नयणरोगहरो॥२८|| जइ कोइ एइतरुणो, पत्तरसेतीइ अत्थि सखिविज्जा। तो सा पउणिज्जइ लहु, इयं सा उचिंतइ सुमित्तो॥२६| छज्जीवहियामित्तीइ, मंदिरं दुइय दहणजलवाहा। सन्नाणरयणजलही, न अन्नहा बिंति जइणमुणी // 30 // इय नत्थिय तरुणं सर-जदलाइंगहित्तु सो अप्पं। वंधइ सिंहलदीवा, गयभारुंडस्स चरणरम्मि॥३१॥ नीओ तेण तहिं सो, छिविउं पडहं गओ निवइ पासे। विहिओ वि य पडिवत्ती,रन्ना पुट्टो कुसलवत्तं // 32 / / वाहरिय मयणरेह, वलिमडलमाइकाउनिवइ पासे। लोयणवेयणरहियं, करेइ तेणं दलरसेणं // 33 // परिणाविय निवकन्नं, दिन्नं रन्नय तस्स रज्जद्धं / सो तत्थच्छइ सुत्थिय, हियओ सव्वेसि हियनिरओ॥३४॥ वसुमित्तो वहणेणं, कया वि तत्थागयो विणिजेण। निवदंसरणाइपत्तो, गहिउं कोसल्लियं बहुयं / / 35 / / तत्थ सुमित्तं सुमहं-तराय लच्छीइ घटु दिप्पंतं। सो चत्तमित्रभावो, धसक्किओ चिंतए एवं // 36 / /
SR No.016144
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1224
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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