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________________ उज्जुववहार 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 2 उजुववहार सा ताई गहिय सगिहे, गंतुं तुट्ठा करइ घयपुग्ने। इत्युक्तऋजुव्यवहारेऽवञ्चिकाक्रियेति द्वितीयो भेदः। सिट्टी उट्ठियहट्ठाउहाउं पत्तो नई इत्तो / / 8 / / संप्रति भाव्यपायप्रकाशनस्वरूपं तृतीयं भेदमाहकत्तोय आगओत-ग्गिहम्मि जामाउओ वयस्सजुओ। (हुतावायपगासणहुंतत्ति) प्राकृतशैल्या भाविनोऽशुद्धव्यवहारकृतो अइओ सगुत्तिभुत्ते, ते घयपुन्ने गओ तुरिया येऽपायास्तेषां प्रकाशनं प्रकटनं करोति भद्र ! मा कृथाः पापानि चौर्यादीनि अहहाउगिहे पत्तो, सिट्ठी साहावियं चिय कुभत्तं। इह परत्र चानर्थकारीणीत्याश्रितं शिक्षयति / भद्रश्रेष्ठीव निजपुत्रं धनं न परिविढि दटुं सुटु रुहओ भणइ इय भजे ! // 10 // पुनरन्यायप्रवृत्तमभ्युपेक्षत इति भावः। किं अलसे धयपुत्रा, न कया सा भणइ ते कया किंतु।। भद्र श्रेष्ठिकथा चैवम्॥ अणुताव तावियमण्णो, इय अप्पं निंदए सिट्ठी // 15 // हरिदेहं पि व भद्दिल, पुरमत्थि सुवनसंगयं सुगयं / हा वेचिया मुहाए, धण तव लुद्धेण सा भए सुद्धा / तत्थ सुपसत्यनयकुंज-केसरी केसरी राया // 1 // अन्नेहिं तयं भुतं, पावं मह चेव संजायं / / 13 // सिट्ठी भद्दो भद्दो, दंतीव दाणपसरदुल्ललिओ।। हट्ठी इचिरकालं, परवंचणपवणमाणसेण मए। तस्स य यंचणपवणो धणलुद्धमणो धणो तणओ।।२।। दुसहदुहनरयदामग्गिइंधण कह कओ अप्पा // 14 // मुणिचित्तं च सकरुणं, सअजुणं पंडवाण सिन्नं च। इय झूरंतो जाजइ, किं पि भूभागमग्गओ ताव। ते कीलिउं कया विहु, दुवे वि उज्ज्ञाणमणुपत्ता // 3 // मग्गम्मि मुणी एगं, गच्छंतं दट्टमिय भणइ॥१५॥ उच्छूढसभा भारं, निवूढदयं परूढगुरुवंसं। भयवं ! पडिक्खसुखणं, भणइ इमो गच्छिमो सकज्जेण। से लंपि वसुपइट्ठ, सुपइट्ठमुणिं नियतं तहिं // 4|| सिट्ठी वि आह किं को वि, नाह परिममइ परकब्जे // 16|| ते तं समणुत्तम्ममुत्तमंगसुनिविठ्ठकरयला नमिओ। अइसयनाणी साहू, भणेइ तं चिय भमेसि परकजे। निसियंति उवियठाणे , तो धम्मं कहइ इय सुमुणी // 5 // सामं मे इव पुट्ठो, बुद्धो तेणेव वयणेण // 17 // कमलसरं पिव मरुम-डलम्मि तमसम्मि रयणदीवं च / हरिनंदी आणंदिय-हियओ वंदिय मुणिं भणइ कत्थ। नरभवमिह दुलह लहिय, कुणह सत्तीइ जिणधम्मं // 6 // चिट्ठह तुब्भे भयवं ! भणइ मुणी इत्थउज्जाणे // 18|| तो मुणीकहियं धम्म, सोउं विन्नवइपहु तुह समीवे / इय सुणिउं पियपुत्ता, पहिट्ठचित्ता गहिंतु गिहधम्म / गिहिस्महं दिक्खं, नवरं पुच्छियससयणग्गं / / 19 / / मुणिचरणे जयसरणे, नमिओ पत्तानिए सरणे / / 7 / / पणमित्तु मुणिं गेहे, पत्तो मेलित्तु जंपए सयणे। भाविबहुभद्द सहोद्द, सुंदरो भद्दमाणसो भद्दो। इह तारिसो न लाभो, ता दिसि जत्ताइ गच्छामि।।२०।। वववहारसुद्धिनिरओ, गिहिधम्म पालयइ विसुद्धं / / 8 / / इत्थ दुवे सत्थाहा, एगो नियरयणपणगमप्पेइ। हट्टम्मि ठिओ निचं, धणो पुणो लुद्धओ धणे धणियं / तह नेइ इच्छिय पुरं, पुव्व वि उत्तं न मग्गेइ॥२१॥ कूडक्कयतुल्लमणो, कुडाईहिंच ववहरइणिचं / / 6 / / बीओ न देह किं चि वि, इच्छिय नयरं च नहु पराणेइ। अणविक्खिउं अपाए, तेणाणीयं पि लेइ पच्छन्नं / पुवञ्जियं पि गिण्हइ, वयमित्तो भणह केण समं / / 22 / / तं नाउ सो उ पिउणा, मिउणा वयणेण इय भणियो // 10 // ते विंति पढमएणं, सिट्ठी वजरइनियह आगंतु। वच्छ अवत्थ पच्छा-अपत्थभत्तं व दोसपडिहत्थं। तो ते पमोय कलिया, चलिया सह तेण मग्गम्मि / / 23 / / अन्नाएण दविण्णस्स, ण अज्जणं सज्जणा विति / / 11 / / हयवसहाई अदटुं, भणंति ते कत्थ सत्थवाहो सेो। अन्नाएण विढत्तं, दव्वमसुद्धं असुद्धदव्वेण। नियहनिसन्नमोग-हिट्टओ संसए सिट्ठी॥२४॥ आहारो वि असद्धो, तेण अशुद्धं सरीरं पि॥१२॥ तो तिविम्हइयमणा, सयणा नमि मुणिं समासीणा। देहेण असुद्धेण, जं जं किज्जइ कयावि सुहकिच्च। पणमिय पुच्छइ सिट्ठी, को इत्थ पसत्थ सत्थाहो // 25 // तं तं न होइ सफलं, बीयं पिव चऊसरनिहत्तं // 13 // साहू साहइ इह सव्वभावभेया दुहा उसस्थाहो। किंचि भविअवाय अन्ना नयपहपहियाणंपराण चिंतेसु / तत्थ य पढमो नियओ, सगुञ्जुओ सयणुवग्गुत्ति // 26| निजियकज्जलपसरो, अजसभरो फुरइ भवणम्मि |14|| सो दुहियस्स वि जीवस्स, देइन य कहवि किंपि सुकयधणं / / इह य पिवि हुंति कारा, पवासवहबंधहत्थछेयाई। परभवपहे पयट्टस्स, तस्सन पयं पि सह चलइ॥२७॥ परलोए पुण दारुण, नरगाईसुदुक्खर छोली // 15 // कलहाइएहिं एसो, लुंपइ पुष्वज्जियं पि सुकयलवं / संपासंपायवलं, जलजलण नरिदमाइसाहीणं / बीओ पुण सत्थाहो, सुगरू गुणरयणगणकलिओ॥२८॥ विहविलवं नाउ अनाय, उज्जुओ काह विज इहं // 16 // जिणसासणसुद्धागर, संभूए निम्मले य सत्थाए। वच्छ वियाणसु अन्नाय, अज्जियं पि विहवभरं। सो संमं देइ निए, पंचमहव्वयमहारयणे // 26 // पजते अइविरसं, सुजय भवथूलभावं च / / 17 / / जं तेहि पंचरयणेहिं, अज्जियं सुहकर सुकयदव्वं / अइलोहनेहपूरिय, अन्नायपईवभाविणा इमिणा / नय त कयावि गिण्हइ, कमेण पावेइ सियनयरं // 30 // नियवयभरभंजण खंजणेण कोमलइलए अप्पं // 18 // इय सोउं संविग्गो, हरिनंदी गिहए समणधम्म। इय जं पिओ वि पिउणा, सो गुरुणा लोह कम्मणा मलिणो। सयणा विससत्तीए, धम्मं गहिउँ गया सगिहे॥३१॥ न हु किंपितं पवजइ, चिट्ठइ पुव्वं व अनयपरो।। 16 हरिनंदीपरवचणकिरिया सक्किरियाई सो सणिकरवि। अह चोरे णिक्केणं, वरकुंडलजुयलसंजुयं हारं। कयसकिरिओ अकिरिय ठाणम्मि कमेण संपत्तो॥३२ उवणीयं जत्ति धणो, धणेण थोवेण गिण्हेइ / / 20 / / इत्यवेत्य हरिनन्दिवजनाः पापसंतमसदर्शयामिनीम्। चोरकराओ कइया, वि जाव रयणावलिं स गिण्हेइ। तां विमुच्य परवञ्चिकां क्रियां, सक्रियाःस्त यदिवा क्रियेच्छवः निवसिरिहरिओ विमलो, तो पत्तो मस्स हदृम्मि // 21 // इति हरिनन्दिकथा॥ तेण य भणिओ वरसिय, संचए दंसए धणो जाव।
SR No.016144
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1224
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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