Book Title: Aagam 40 AAVASHYAK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [४०] श्री आवश्यक सूत्रम नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “आवश्यक" मलं एवं वत्ति: [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्ति; + भाष्यं + हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 1। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 09/04/2015, गुरुवार, २०७१ चैत्र कृष्ण ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूज - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आगमोदयसमितिसिद्धान्तसंग्रहे अङ्कः १. श्रीमदाचार्यवर्यभद्रबाहुततनियुक्तियुतं पूर्वधराचार्यविहितभाष्यभूषितं श्रीमद्भवविरहहरिभद्रसूरिसूत्रितवृत्त्यलङ्कृतं श्रीमदावश्यकसूत्रम् ( प्रथमो विभागः) प्रकाशक: जव्हरी चुनीलाल पन्नालालदत्तकिश्चिदधिकार्यद्रव्यसाहायेन शाह-वेणीचन्दसूरचन्द अस्सैका कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मुम्पय्यां निर्णयसागरमुद्रणास्पदे कोलभाटचीथ्या २३ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसंपत्. २४४२. विक्रमसंवत्. १९७२. क्राइष्टस्य. १९१६. वेतनं सपादरूप्यकत्रयम् । For Pare n t आवश्यकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: ५०+२१ मूलांक: ०१-०२ ११-३६ अध्ययनं १- सामायिकं ४ - प्रतिक्रमणं निर्युक्ति पीठिका →→→ / भाष्य - मंगलं --ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा: --उपक्रम आदिः ००१ ०१३ ०८० |--उपोद्घात-निर्युक्तिः ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता --भरतचक्री-कथानकं ३४३ भा. ०३९ -- बलदेव वासुदेव कथानकं ५४३ --समवसरण वक्तव्यता ५८८ ६६६ ७५४ ७७८ ७८९ ८१२ गणधर वक्तव्यता - दशधा सामाचारी -- निक्षेप, नय, प्रमाणादि -- निह्नव वक्तव्यता --सामायिकस्वरुपम -गति आदि द्वाराणि पृष्ठांक ०९११ ११०३ ०००४ ०००४ ००१६ ००३९ ०१२० ०१२३ ०२९९ ०३२० ૦૪૬૨ ०४८२ ०५१९ ०५६७ ६२४ ६५४ ६६९ आवश्यक मूल- सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: ०३-०९ ३७-६२ अध्ययनं २-चतुर्विंशतिस्तवः ५- कायोत्सर्ग आवश्यक सटीक (संक्षिप्त) विषयानुक्रम नि./ भा. अध्ययनं -१- सामायिकं ------- ८९० ९१९ ९६० ९९३ १०१३ नमस्कार व्याख्या अर्हत्, सिद्धादेः निर्युक्तिः सिद्धशिला वर्णनं आचार्य आदीनाम निक्षेपा: सामायिक व्याख्या, स्वरुपम् उद्देश वाचना- अनुज्ञा आदि सूत्र स्पर्शे भङ्गाः सामायिक- उपसंहार: अध्ययनं-२- चतुर्विंशतिस्तव: सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, --अर्हत: विशेषणं, --ऋषभादि नामानि प्रार्थनादि अध्ययनं - ३- वन्दनं -- गुरुवन्दन सूत्रपाठः :--मितावग्रह प्रवेशयाचना - क्षमापना प्रतिक्रमण-आदिः पृष्ठांक: ०९८४ १५२९ ~2~ ०७५९ ०८१४ ०८८७ ०८९८ ०९११ ०९८४ ०९८४ ०९९० १००६ १०२४ १०९४ मूलांक: १०--- ६३-९२ नि./भा. अध्ययनं ३ - वंदनकं ६- प्रत्याख्यानं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः दीप-अनुक्रमाः १२ अध्ययनं -४ - प्रतिक्रमणं नमस्कार व सामायिक-सूत्रं चत्वारः लोकोतम-मङ्गल एवं - शरणभूत पदार्थाः संक्षिप्त व ईर्यापथ प्रतिक्रमण शयन संबंधी प्रतिक्रमणं भिक्षाचर्यायाः प्रतिक्रमणं स्वाध्याय, उपकरणप्रतिलेखन असंयम आदि ३३ - आशातना सुच्चारणे मिथ्यादुष्कृतम् प्रवचनस्तुति, वंदना, क्षमापना अध्ययनं -५- कायोत्सर्गः सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठः अध्ययनं -५- प्रत्याख्यानं सम्यक्त्व व श्रावकव्रतप्रतिज्ञा विविध प्रत्याख्यानादिः पृष्ठांक: १०२४ १६०६ ११०३ १९४१ ११४१ ११४२ ११४४ ११५० १.१५२ ११५५ ११५६ १५२५ १५२८ १५२९ १५५८ १५७७ १६०६ १६२३ १६३७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले “आवश्यक सूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | 5. इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाड़ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी आवश्यक-सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुनः संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है | * हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र-निर्युक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .....मुनि दीपरत्नसागर. ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ॥ अहम् ॥ श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिविरचित श्रीमहद्रबाहुश्रुतकेवलिततनियुक्तियुतं श्रीमद्भवविरहहरिभद्रसूरिप्रणीतवृत्तिसमवेतं श्रीआवश्यकसूत्रम्. दीप अनुक्रम श्रीगणधरेन्द्रो विजयतेतराम प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र, वीरं श्रुतदेवता गुरूंन साधून । आवश्यकस्प विवृति, गुरूपदेशादहं वक्ष्ये ॥१॥ भनेनाभीष्टदेवतामसवा (अभियुरिज्यते इखभीष्ठः) जिनाः अवधिजिनादयस्तेषु पराः केवलिनलेपामिन्दः १ भमेनाभिमतदेयतासवः (अभिमन्यते विविधातरवेनस्पमिमता गासनदेवतादिः) श्रुताधिष्ठात्री देवता श्रुतदेवता, श्रुतरूपा देवता श्रुतदेवतेतिविग्रहे तु नाभिमतपेवतारचं किन्तु अधिक। तदेवताव स्थात्, अखा ज्ञानावरणीयक्षयोपशमसाधकत्वेन प्रणिपातो नानुचितः, "सुयदेवये" स्यादिवचनात् । अनेनाविरतरवेऽपि धुतदेवतायाः सवनीयता। शापिता, मिथ्यावापादनं तु सिद्धान्ताचरणोभयोतीर्णमेव भनेनाधिकृतदेवतास्तवः (शाकाप्रणेतृत्वेनाधिक्रियते हत्यधिकृता). ५साधुत्वाव्यभिचारादुपाध्याबवाचनाचार्यगणावडेदकाइयः. वृत्तिकार-कृत् प्रतिज्ञा ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-, नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत सूत्राक यद्यपि मया तथाऽन्यः, कृताऽस्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् । तदुचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥२॥हारिभद्री इहीवश्यकपरम्भप्रयासोऽयुक्तः, प्रयोजनादिरहितत्वात् , कण्टकशाखामर्दनवत् इत्येवमाद्याशङ्कापनोदाय प्रयोजनादियवृत्तिः पूर्व प्रदीत इति, उक्तं चं-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये दाविभागः१ |॥१॥"इत्यादि । अतः प्रयोजनमभिधेयं संबन्धो मङ्गलं च यथावसरं प्रदर्थत इति । तत्र प्रयोजनं तावत् पैरापरभेदभिन्नं द्विधा, पुनरेकैकं कर्तृश्रोत्रपेक्षया द्विधैवे, तंत्र द्रव्यास्तिकनयालोचनायामार्गमस्य नित्यत्वात् कर्तुरभाव एव, “इत्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीत् , न कदाचिन्न भविष्यति, न कदाचिन भवति" इतिवचनात् । पर्यायास्तिकनयालोचनायां चानित्यत्वात्तत्सद्भाव इति । तैस्वालोचनायां तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादागमस्य अर्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्ररचनापेक्षया| दीप अनुक्रम विवृतं विसरतोऽभियुक्तैरेभिरिति ध्वनितं, चतुरशीतिसहस्रप्रमितं च तदिति प्रघोषः २ अनेनास्याः समूलतामाह-संक्षेपरुचिजीवोपकाराब तन्निमित्रमाश्रित्येति वा. ४ चिकीर्षितायामावश्यकवितृती. ५ सूत्राभियरूपखावश्यकस्य, अभिधेयसंबन्धी मझलेच. काकदन्तपरीक्षाषडपूपाविवाक्यदृष्टान्तयोरुपलक्षकमिदम् | ८ पूर्वाचायः प्ररूपित, मवेति शेषः. ९ चर्चितविषवसाम्मस्वाय. १. अविभेन पारगमनादिरूपेष्टार्थसिद्धिः सिद्धार्थ सिद्धसंवन्ध श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते इस्या| दिवाक्य ग्रहः २ वक्तनियमात्. १३ परं प्रकृष्टम् अपरं तत्साधनभूतं फलम् १५ उपदेशस्योभवाश्रितत्वात्. १५ इष्टावधारणार्थः, उभयोरुभयफलास्पदता तेन | १६ कर्नुप्रयोजनविचारे "नस्थि नएहि विहूर्ण सुतं अस्थो व जिणमए किंची"ति वचनालयविचारणामाह-तत्रेत्यादिना. १. अर्थरूपस्य (जीवादेवांग्यस्य) १८ सर्वक्षेत्रापेक्षया (विदेदेषु तु सर्वदाभावः सूत्रस्य ) श्रुतचतामविनाशात्पर्यायाणा च्यामेवात् १९इत्यभिप्रायवतन्यादिशास्त्रवाक्यात् , तात्पर्य नुत्रिकालावस्थायित्वे. २० वापत्तिभाववयात्, २७ कर्तृसद्भावः २२ नययोरेकदेशमाहित्वात्स्थाद्वादश्रुतरूपप्रमाणविचारणादर्शनाब. २३ गणभूद्विहितां सूत्ररचनामपेक्ष्य. ॥ १ ॥ वृत्ति-रचनाया: उद्देश: ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक चानित्यत्वात् कथञ्चित् कर्तृसिद्धिरिति । तत्र सूत्रकर्तुः परमपवर्गप्राप्तिः अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादयितुः किं प्रयोजनमिति चेत् ,न किश्चित् , कृतकृत्यत्वात् , प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासोऽयुक्तः इतिचेत्, न, तस्य तीर्थकरनामगोत्रविपाकित्वात् , वक्ष्यति चं-"तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणादीहि" इत्यादिना । श्रोतृणां त्वपर तदर्थाधिगमः, परं मुक्तिरेवेति । कथम् ? ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षस्तन्मयं चावश्यकमितिकृत्वा, नावश्यकश्श्रवणमन्तरेण विशिष्टज्ञानक्रियावाप्तिरुपजायते, कुतः ?, तत्कारणत्वात्तदैवाप्तेः, तदवीप्तौ च पारम्पर्येण मुक्तिसिद्धे, इत्यतः प्रयोजनवानावश्यकप्रारम्भप्रयास इति । तदभिधेयं तु सामायिकादि। संबन्धश्च उपायोपेयभावलक्षणः तर्कानुसारिणः प्रति, कथम् , उपेयं सामायिकादिपरिज्ञानं, मुक्तिपदं वा, उपायस्तु आवश्यकमेव वचनरूपांपैन्नमिति, यस्मात्ततः सामायिकांद्यर्थनि श्चयो भवति, सति च तस्मिन् सम्यग्दर्शनादिमल्यं क्रियाप्रयत्नश्च, तस्माच मुक्तिपदमाप्तिरिति । अथवा उपोद्वातनि-11 दर्युक्तौ "उद्देसे निद्देसे य" इत्यादिना प्रन्थेन सप्रपञ्चेन स्वयमेव वक्ष्यति। कश्चिदाह--अधिगतशाखार्थानां स्वयमेव प्रयोज-14 SAX +SSSSSCROSes दीप अनुक्रम ववःशक्तिशीले इति तुन् । बाजकादिभिरिवस्थाकृतिगणवाडा तजपि. २ प्रयोजनं परं मुक्तिः, सा प्राप्तकेयकत्वात् 'मोक्षे भवेति वचनामोडेश्या, अवश्यम्भाविनी घसेति कृतकृया ३ प्रयासस्य तीर्थकृतो वा. ४ (गाथा १८५)५ प्रन्धेन. ६ अल्पवक्तव्यत्वात् सूचीकटाहन्यायेनावावपर, ७ सूत्राधाभयागमवाच्यावबोधः, ८ परमपदानुकूला ९ आवश्यकश्श्रवणं 10-11 विशिष्टज्ञानक्रियावाप्तिः १२ आवश्यकस्य. १३ ज्ञानाचापादकक्रियादि १४ अपरप्रयोजन. १५ परप्रयोजनं १६ एक्कारस्पेष्टावधारणावात अपरनयोजनस्य मान्यच्छास्त्रमुचराध्ययनादि परस्याप्यसामाविकादिमतोऽभावात् मुक्तनान्यः कोऽपि उपायः १७ रचितं. 14 आवश्यकात् १९ चतुर्विशतिस्तवादीनां. २० श्रद्धानुसारिणः प्रति. धर्मोत्तरानुसारी ग्यपोहबादी बौद्धः ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-, नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत क ॥२॥ सुत्राक दीप नादिपरिज्ञानात् शास्त्रादौ प्रयोजनाद्युपन्यासवैयर्यमिति, तन्न, अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुत्वात् तदुपन्यासोप-11 पत्तेः । प्रेक्षावा हि प्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका, प्रयोजनादी उक्तेऽपि च अनधिगतशास्त्रार्थस्य तन्निश्चयानुपपत्तेः, संशयतः प्रवृत्त्यभायात्तदुपन्यासोऽनर्थकः इति चेत् , न, संशयविशेषस्य प्रवृत्तिहेतुत्वदर्शनात् , कृषीवलादिवत् , इत्यलं प्रसङ्गेन । विभागः१ साम्प्रतं मङ्गलमुच्यते-यस्मात् श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति इति, उक्तं च--"श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वॉपि यान्ति विनायकाः॥१॥" इति । आवश्यकानुयोगश्च अपवर्गप्राप्तिबीजभूतत्वात् श्रेयोभूत एव, तस्मात्तदोरम्भे विघ्नविनायकाद्युपशान्तये तत् प्रदर्यत इति । तच्च मङ्गलं शाखादी मध्ये अवसाने चेष्यत इति । सर्वमेवेदं शास्त्रं मङ्गालमित्येतावदेवास्तु, मङ्गलबयाभ्युपगमस्त्वयुक्तः, प्रयोजनाभावात् इति चेत् , न, प्रयोजनाभावस्यासिद्धत्वात् । तथाच कथं नु नाम विनेया विवक्षितशास्त्रार्थस्याविनेन पारं गच्छेयुः, अतोऽर्थमादिमङ्गलोपन्यासः, तथा से एव कथं नु नाम तेषां स्थिरः स्याद् इत्यतोऽर्थ मध्यमङ्गलेस्य, स एवच कथं नुनाम शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्यअविच्छित्या उपकारकः स्याद् ? इत्यतोऽर्थ चरममङ्गलस्य इत्यतो हेतोरसिद्धता इति । तत्र "आभिणियोहियणाणं, सुयणाणं शाबासौ. २ प्रयोजनाविरुपन्यासस्य युक्तियुक्त वात्. ३ केवलशास्त्रस्य मूकत्वात् शास्त्रार्थस्येति. " प्रयोजनादेः ५ भनिष्टाननुबन्धीष्टसिदिसंशयस्य | नियुक्तिकृता साक्षादुक्तचात् ७ पृथगवतारणा. ८ महाम्तो विमा (पूर्वपदलोपादू विजनावकाः) नियुक्तिरूपः कल्पवात११ आवश्यकानुयोगा- ॥२॥ म्भे. १२ विशेशानामादिना मध्याना. १३-१४ शास्त्रस्येत्यध्याहार्यम्. १५ सपोचनिर्जरार्थत्वात्, १६ निर्विप्रसमाप्तिस्यांग्यच्छित्तिनिमित केति. 1. मगलप्रयोजनस शाण साधनाययोजनान्तराभावादित्यर्थः १८ "विभक्तियमन्ततसाद्याभाः" इति तसन्तमव्ययं, तथा चैतदमिति १९ भावार्थः १०विनेयानाम्. २१ वपन्यास इति. + शास्त्रवादी 1-0 इत्यतः -४ अनुक्रम 'मङ्गल'स्य व्याख्या एवं स्वरुपम् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक AKCCKASCE दीप चवे" त्यादिनाऽऽदिमालेमाह । तथा "वंदण चिति कितिकम्म" इत्यादिना मध्यमङ्गलं, वन्दनस्य विनयरूपत्वात् , तस्य चाभ्यन्तरतपोभेदत्वात् , तपोभेदस्य च मङ्गलत्वात् । तथा “पञ्चक्खाणं" इत्यादिना चावसानमङ्गलं, प्रत्याख्यानस्याचतपोभेदत्वादेव मङ्गलत्वमिति ॥ तत्रैतत्स्यात्, इदं मङ्गलत्रयं शास्त्राद्भिन्नमभिन्नं वा?, यदि भिन्नमतः शास्त्रममङ्गलं, तभेदान्य॑थानुपपत्तेः, अमङ्गलस्य च सतोऽन्यमङ्गलशतेनापि मङ्गलीकर्तुमशक्यत्वात् तम्मङ्गालोपन्यासवैयर्थ्य, तदुपादानेनिष्ठा वा, यथा प्रागमङ्गलस्य सतःशास्त्रस्य मङ्गलमुक्तम्, एवं मङ्गलान्तरमध्यभिधातव्यम् , आद्यमङ्गलाभिधानेऽपि तदमङ्गलत्वात् , इत्थं पुनरप्यभिधातव्यमित्यतोऽनिष्ठेति । अथाभिन्नम्, एवं सति शाखस्यैव मङ्गलवात् अन्यमङ्गलोपादानानर्धक्यमेव, अथ मङ्गलभूतस्याप्यन्यन्मङ्गलमुपादीयत इति, एवं सति तस्याप्यन्यदुपादेय मित्यनवस्थानुपङ्ग एव, अधानवस्था नेष्यत इति मङ्गलाभावप्रसङ्गः, कथम् ? यथा मङ्गलात्मकस्यापि सतः शास्त्रस्य अन्यमङ्गलनिरपेक्षस्यामङ्गलता', एवं मङ्गले स्याप्यन्यमङ्गलशून्यस्य, इत्येतो मङ्गलाभाव इति । I अत्रोच्यते-आद्यक्षोक्तदोषाभाषस्तावदनभ्युपगमादेव, तदभ्युपगमेऽपिच मङ्गलस्य लवणप्रदीपादिवत् स्वपरानुग्रहकारित्वादुक्तदोषामांव इति । चरमपक्षेऽपि न मङ्गलोपादानानर्थक्य, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय शाखस्यैव मङ्गलवा१प्रयोजनाभावरूपस्य, १ गाथा 1 आदिशब्देनायभागावसानपर्यन्तस्य अहः ३ ज नेरदओ इत्यादिना जानख सई निरार्थयाम्मलता ४ गाथा वन्दनकनि। |५ द्वितीयभेदः ६ धम्मो मंगलमुकि बदिसा संजमो तपो हति वचनात् ७ बाहोति ८ मालमेदवयव. १ पर्यवसानम्, १० पाखस्त्र ११ मालक.| | पस्याप्यन्यन्मजाककरणे. १२ मूलक्षयकरीति (अन्यद्वितीयमङ्गलकरणाभावात्) कृतस्य. १४ द्वितीयेति १५ द्वितीयकरणाभावात. याने संपन्नः। १७ भेदेति 14 अनिष्ठालक्षणेति. १९ अमेवपक्षे. * मङ्गलभूतस्यापि 1-1 1-४-५ अनुक्रम ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: रावश्यक प्रत सूत्राक |नुवादात्, एतदुक्तं भवति-कथं नु नाम विनेयो मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं गृहणीयात् ?, अतो मङ्गलमिदं शास्त्रमितिका हारिभद्रीथ्यते । आह-यद्यपि मगलमिदं शास्त्रमित्येवं न गृह्णाति विनेयस्तथापि तत् स्वतो मङ्गलरूपत्वात् खकार्यप्रसाधनाया-16 लमेवेति कथं नानर्थक्य ?, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह मङ्गालमपि मङ्गलबुङ्ख्या परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत्, विभागः१ तधाहि-साधुर्मङ्गलभूतोऽपि सन्मङ्गलबुद्ध्यैव गृह्यमाणः प्रशस्तचेतोवृत्ते व्यस्य तत्कार्यप्रसाधको भवति, यदा तु न: तथा गृह्यते तदा कालुष्योपहतचेतसः सत्त्वस्य न भवतीति, एवं शास्त्रमपीतिभावार्थः । आह-यद्येवममङ्गलमपि मङ्गल बुद्धेः प्राणिनो मङ्गलकार्यकृत्यामोतीति, अनिष्टं चैतदिति, न, तस्य स्वरूपेणैवामङ्गलत्वात्, मैंङ्गलस्य च स्वबुद्धिसापेसाक्षस्य स्वार्याभिनिवर्तकत्वादिति, तथाहि-यदि कश्चित्काञ्चनमेव काञ्चनतयाऽभिगृह्य प्रवर्तते ततस्तत्फलमासाद यति, न पुनरकाञ्चनं सत्काञ्चनबुझ्यो, नाप्यतदुख्येति । मङ्गलवयापान्तरालद्वयमित्थममङ्गलमापद्यत इति चेत्, न, अशेषशाखस्यैव तत्त्वतो मङ्गलवात, तस्यैव च संपूर्णस्यैव त्रिधा विभक्तत्वात् मोदकवदपान्तरालद्वयाभाव इति, यथा सिंहस्य कथनम्, २ इष्टनमस्कारादिमजलविधानद्वाराऽनूपते. ३ शास्त्रम्. १ भम्यनमस्कारादिमझलनिरपेक्षत्वेन. ५ निर्विप्नपारगमनादि. मल| रूपस्यापि मजककरणे. • मङ्गलकार्यकत, 'भोआगमओ भावो सुविसुबो साइयाइओ' ति (वि०४९ गाथा) वचनाक्षायिकादिभाववतो यतेमगलता. ९ लोकोत्तरतत्वप्राप्तिमसाज्ञापनाय.१०आसमसिदिताशापनाय, प्रधानमनलतासंपादनेति १२ मङ्गलवा .१३माङकार्यकत्. १५ माबुवा ३ ॥ गृशमार्ण मजलभूतमपि मङ्गलकार्यकृत्. १५ मङ्गलबुद्धेमंजककार्यकश्वे. १६ अमावस्य..खरूपेण मजलस्यापि तधात्वायत्तराइ मालेति १८ चो विशेषार्थः १९ मङ्गलस्वेति २० विझविध्वंसादि. २१ सुवर्णकार्य दारिधनाशादि. २२ काञ्चनकार्यद्भवतीति शेषः २३ काञ्चनमपि काञ्चनकार्यकृत् भवतीतिशेषः २४ मङ्गलं मङ्गलबुझा गृह्यमाणं तत्कार्यकृतितिनियमे. * तथच 1-३-४ दीप अनुक्रम ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक हि मोदकस्य त्रिधाविभक्तस्य अपान्तरालद्वयं नास्ति, एवं प्रकृतशास्त्रस्यापीति भावार्थः । मङ्गलत्वं चाशेषशास्त्रस्य निर्जदारार्थत्वात् , प्रयोगश्च-विवक्षितं शास्त्रं मङ्गलं, निर्जरार्थत्वात् , तपोवत् । कथं पुनरस्य निर्जरार्थतेति चेत्, ज्ञानरूपत्वात् , | ज्ञानस्य च कर्मनिर्जरणहेतुत्वात् , उक्तं च-"ज नेरइओ कम्मं, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥"। स्यादेतत्, एवमपि मङ्गलत्रयपरिकल्पनावैयर्थ्यमिति, न, विहितोत्तरत्वात् , तस्मात्स्थितहमेतत्-शास्त्रस्य आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलमुपादेयमिति । | आह-मङ्गलमिति कः शब्दार्थः?, उच्यते, अगिरगिलगिवगिमगि इतिदण्डेकधातुः, अस्य "इदितो नुम्धातोः" (पा० |४-१-५८) इति नुमि विहिते औणादिकालचूप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति, मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, मनाचते अधिगम्यते साध्यत इतियाँवत्, अथवा मङ्गेतिधर्माभिमानं, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मङ्ग उपपदे "आतोऽनुपसर्गे कः" (पा०३-२-३) इति कप्रत्ययान्तस्य अनुबन्धलोपे कृते "आतो लोप इटि च विति" (पा०६-४-६४ आतो लोप इटि च ) इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च प्रथमैकवचनान्तस्यैव मालमिति भवति, मङ्गलातीति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः। .. अनुमानस्य. २ मङ्गलमयस्य अविनसमात्यादिकार्यत्रयस्य पृथक्पृधक्तया साधकरवात्. ३ सिद्धम्, १ सदृशधातूनामेका पाठात. ५ प्रात्यर्थत्वात् गल्य र्थानां. ६ निदर्शनमात्रत्वाद्धातूनाम्. ७ पर्यायस्य पर्यायकथने प्रयोग एतस्य. दीप अनुक्रम मङ्गलस्य व्याख्या एवं द्रव्यादि चत्वारः भेदा: ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक आवश्यकतेच नामादि चतुर्विध, तद्यथा-नाममङ्गलं १ स्थापनामङ्गलं २ द्रव्यमङ्गलं ३ भावमङ्गलं ४ चेति । तत्र "यवस्तुनोऽभि-1 हारिभद्रीधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं (च) नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १॥" अयोयमर्थः-'यादा यवृत्तिः ॥४॥ 'वस्तुनो' जीवाजीचादेः 'नाम' यथा गोपालदारकस्येन्द्र इति, "स्थितमन्यार्थे' इति परमार्थतः त्रिदशाधिपेऽवस्थानात्, विभागः१ 'तदर्थनिरपेक्षम्' इति इन्द्रार्थनिरपेक्षं, कथम् ? तत्र गुणतोवर्तत इति, इन्दनादिन्द्रः 'इदि परमैश्वर्ये' इति तस्य परमैश्वर्य युक्तत्वात्, गोपालदारके तु तदर्थशन्यमिति, तथा पर्यायैः शक्रपुरन्दरादिभिः नाभिधीयत इति, इह नामनामवतोरभेहैदोपचाराद्गोपालवस्त्वेव गृह्यते, एवंभूतं नामेति, तथाऽन्यत्रावर्त्तमानमपि किश्चिद यादृच्छिक डिस्थादिवत्, चशब्दात्। यावद्रव्यभावि च प्रायस इति । यतु सूत्रोपदिष्टं "णाम आवकहियं तत् प्रतिनियतजनपदसंज्ञामाश्रित्येति, नाम च तन्मङ्गलं चेतिसमासः, तत्र यत् जीवस्थाजीवस्योभयस्य वा मझलमिति नाम क्रियते तन्नाममङ्गलं, जीवस्य यथा -सिन्धुविषयेऽग्निर्मङ्गलमभिधीयते, अजीवस्य यथा-श्रीमलाटदेशे दवरकवलनकं मङ्गलमभिधीयते, उभयस्य यथा-चंन्दनमालेति । “यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥२॥"A अस्यायमर्थः-'यद्' वस्तु 'तदर्थवियुक्त' भावेन्द्राद्यर्थरहितं, तस्मिन्नभिप्रायस्तदभिप्रायः, अभिप्रायो बुद्धिः, तदुयेत्यर्थः, करणिराकृतिः, यच्चेन्द्राधाकृति 'लेप्यादिकर्म क्रियते' चशब्दात्तदाकृतिशून्यं चाक्षनिक्षेपादि 'तत्स्थापनेति' तच्चे दीप अनुक्रम | 1 तवभेदपवियांण्यतिनियमात् प्राक्तत्वं मझलख हितप्राप्त्याभिधाय भेददर्शनाय, २ चतुर्विधे मङ्गले. आपत्ता नामलक्षणप्रतिपादकनमवेति वा. ४ भादिना तदुभयस्य. ५ गुणतः, ६ त्रिवधाधिपे.. इन्द्रस. ८ इन्दाति. ९ मभिधानान्तरेऽपि प्रागभिधानवाच्यत्वात् 10 परावृत्तिभावात ~11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक स्वरमल्पकालमितिपर्यायौ, चशब्दाद्याबद्रव्यभौवि च, स्थाप्यत इति स्थापना, स्थापना चासौ मङ्गलं चेति समासः, तत्र स्वस्तिकादि स्थापनामङ्गलमिति । “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्य तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतन | कथितम् ॥३॥" अस्यायं भावार्थ:-'भूतस्य' अतीतस्य भाविनो वा' एण्यतो 'भावस्य' पर्यायस्य 'कारणं' निर्मित 'यद्' एव 'लोके' 'तदू द्रव्यम्' इति द्रवति गच्छति ताँस्तान्पर्यायान् क्षरति "चेति द्रव्यं 'तत्त्वज्ञैः' सर्पस्तीर्थकृद्भिरितियावत् सचेतनम् अनुपयुक्तपुरुषाख्यम् अचेतनं ज्ञशरीरोदि तथीभूतमन्यद्वा कथितं" आख्यातं प्रतिपादितमित्यर्थः । तत्र द्रव्यं च तन्मगलं चेतिसमासः, तश्च द्रव्यमङ्गलं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तंत्र आगमतः खल्वागममधिकृत्य आगमापेक्षमित्यर्थः,नोआगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य, तत्रागमतो मङ्गलशब्दाध्येता अनुपयुक्तो द्रव्यमङ्गलम् 'अनुपयोगो द्रव्य' मितिवचनात् , तथा नोआगमतस्त्रिविध द्रव्यमङ्गलं, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलं १ भन्यशरीरद्रव्यमङ्गलं २ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं ३ द्रव्यमङ्गलमिति । तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं, शीर्यत इति शरीरं ज्ञशरीरमेव द्रव्यमगलं ज्ञशरीरव्यमङ्गलम् , आफूल्यन्तरे पूर्वाकारोळेदारनन्दीवरद्वीपादिस्थतिमादि. ३ स्थाप्यमानापेक्षवा,अन्यत्र तु तिष्ठतीति स्थापना. आदिना नन्दावादि, ५ भाग| मनोभागमाभ्यां विचारविष्यमाणावाजावार्थ इति । ६ वाशब्दस्य निपातानामनेकार्थत्वेन समुच्चयार्थवाद्भूतभविषपतोअति शेष (चकाराजगभविष्यपर्यायमिति | [विशेषावश्यके) विवक्षितख भावतया ८ "आगमकारणमाया देहो सदोष तो दबं" ति३०विशेषावश्यकवचनादुपादानादीनि विविधानि कारणानि. ९ इष्टावधारणार्थरवायोग्यत्वसद्भाव इति ज्ञापयति । १० पर्यायस क्रममाविस्वात्पूर्वपर्यायान् क्षरति, भूतापेक्षया क्षरति, भविष्यदपेक्षया गच्छतीत्यपि "द्वादशामार्थप्ररूपणाकारित्वातेषाम्. १२ आदिना भव्यपारीरमहा १३ ज्ञभन्यशरीरव्यतिरिक्तमप्रधान कारणादि च.१४ युक्तिदर्शनपुरस्सर रहितं अभ्यस्त । खरूपमेतदिति १५ पठिता. * उपलक्षणादनुपयुक्तान छानादि व्यतिरिक्तमलवात्तस्थ.+पेक्षयेत्यर्थः 1-01 ज्ञाता ३ दीप अनुक्रम ~ 12~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -1, भाष्यं -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सुत्रांक दीप भावश्यक अथवा ज्ञशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेतिसमासः। एतदुक्तं भवति-मङ्गलपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकाला- हारिभद्रीनुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्धशिलोदितलगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआगमतो ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, मङ्गलज्ञानशून्य यवृत्तिः ॥५ ॥ त्वाचे तस्य, इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः । तथा भन्यो योग्यः, मङ्गलपदार्थं ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य विभागः१ इति, तस्य शरीरं भव्यशरीरं, भव्यशरीरमेव द्रव्यमङ्गलम् , अथवा भव्यशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेतिसमास इति । अयं भावार्थ:-भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य मङ्गलोपयोगोधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तत् बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्यमङ्ग मिति,नोशब्दः पूर्ववत् । ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं च द्रव्यमङ्गलं संयमतपोनियमक्रियानुष्ठाता अनुपयुक्तः, आगमतोऽनुप-18 लायुक्तद्रव्यमङ्गलवत्, तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वा अतीतसंयमादिक्रियापरिणाम, तच उभयातिरिक्तं द्रव्यमङ्गलं, ज्ञशरी रद्रव्यमङ्गलवत्, तथा यदू भाविसंयमादिक्रियापरिणामयोग्यं तदपि उभयव्यतिरिक्त, भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलबत्, तथा पायदैपि स्वभावतः शुभवर्णगन्धादिगणं सुवर्णमाल्यादि, तदपि हि भावमङ्गलपरिणामकारणत्वाद् द्रव्यमङ्गलम् , अत्रापि नोशब्दः सर्वनिषेध एव द्रष्टव्यः, इत्युक्तं द्रव्यमङ्गलम् । "भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वेरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥४॥" अस्थायमर्थः-भवनं भावः, स हि वक्तुमिष्टक्रियानुभवलक्षणः सर्वे ः मजलभावेति. २ यत्र विधायानपानं जग्मुः शोभनां गतिं वाचंयमाः सेति, ( अनु.) आदिमा तीर्थकरनिर्वाणभूम्पादि, ३ आदिना मधुक-1 W ॥५ ॥ सम्भादि. ४ नोभागमतोपपावनाय. ५ भावमालकारणताज्ञापनाय. ६ मादिना युवादि. ७ सर्वनिषेध एव. ८ उभयसमुखवायापि. ९ आदिना तपोनियमादि | १० शारीरमारमण्यं वा. ११ जभव्यशरीरेति उभयं १२ निमित्तकारणस्यापि द्रव्यत्वार्थ. १३ पदित्यन्तः, - नानुपयुक्तः १-३-३-४ + चाती १३ अनुक्रम T ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक समाख्यातः, इन्दनादिक्रियानुभवनयुक्तेन्द्रादिवदिति । तत्र भावतो मङ्गलं भावमङ्गलम् , अथवा भावश्चासौ मङ्गलं चेति समासः, तच्च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो मङ्गलपरिज्ञानोपयुक्तो भावमङ्गलं, कथमिह भावमङ्गलोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यत इति, नह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव, दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभा-8 वाद् इति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानम् अवगमो भाव इत्यनान्तरं, तत्र 'अर्थाभिधानप्रत्ययाः तुल्य नामधेयाः' इति सर्वप्रवादिनामविसंवादस्थानम्, अग्निरितिच यज्ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा व तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभेत, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषांन्तरवद्वा, नचानाकारं तज्ज्ञानं, पदार्थान्तरवद्भिव-18 क्षितपदार्थापरिच्छेदप्रसाद, बन्धाद्यभावश्च, ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वादू, आकाशवत्, न चानलः सर्व एव दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधको, भस्मच्छन्नादिना व्यभिचारात्, इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतमुच्यते-नोआगमतो भावमङ्गलम् आगमवर्ज ज्ञानचतुष्टयमिति, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य, अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रोपयोगपरिणामो यः स नागम एव केवलः न चानागमः, इत्यतोऽपि मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायते, अथवा अन्नमस्काराद्युपयोगः मानाधिकारे भावाधिकारे भावलक्षणसिद्धी वा. २ अर्धाभिधानप्रत्ययेतिन्यायादप्रिज्ञानस्यामिरूपत्वं, तदव्यतिरिक्तस्व ज्ञानुरपि, तथा सत्ति अग्निलक्षणवमिति शायते. ३ ज्ञानात्मनोयतिरिकत्वे. ४ ज्ञानात्मनोमदात्. ५ प्रदीपयज्ज्ञानम् , अन्धवज्ञानातिरिक्तः पुरुषः, प्रदीपहस्तरबंध निकटस्वाय. ६ समवायापेक्षया रटान्तान्तरं अन्तरापेक्षया बा. विषयवैशिषशून्य, तथाच ज्ञेयस्य भिन्नत्वं ज्ञानात्, ८ प्रसङ्गोऽनिष्टापत्तिः १ चकारो नोपल भेतेत्यनेन सह समुश्चयार्थः, ज्ञानात्मनो दे दूषणान्तरमेतदिति १० स्थादित्यध्याहार्यम्, 1 चजकान्तमणिव्यवहितादेमंदा, भमाच्छादिवदुपयोगरूपोऽपि न दाहकादिगुण इति तत्पम् । १२ नोशब्दस्ख पर्युदासप्रतिषेधार्थत्वादागमवश्य ज्ञानचतुष्टयमिति. * ज्ञानोपयुक्तो. दीप अनुक्रम ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - आवश्यक ॥६॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाया-), निर्युक्ति: 1-1, भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः खल्वागमैकदेशत्वात् नोआगमतो भावमङ्गलमिति ॥ ननु नामस्थापनाद्रव्येषु मङ्गलाभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वादू दैव्यत्वं च समानं वर्त्तते; ततश्च क एषां विशेष इति, अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारो लक्ष्यते, तथा कर्तुःश्च सद्भूतेन्द्राभिप्रायो भवति, तथा द्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययः, तथा प्रणतिकृतधिय फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्त्तन्ते, फलं च प्रामुचन्ति केचिद्देवतानुग्रहात्, न तथा नार्मद्रव्येन्द्रयोरिति, तस्मात्स्थापनायास्तावदित्थं भेद इति । यथा च द्रव्यन्द्रो भावेन्द्रस्य कारणतां प्रतिपद्यते, तथोपयोगीपेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयिष्यति अवाप्तवांश्च न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेषः । भावमङ्गलमेवैकं युक्तं, स्वकीर्यप्रसाधकत्वात् न नामादयः, तत्कार्याप्रसाधकत्वात् पापवद् इति चेत्, न नामादीनामपि भावैविशेषत्वात् यस्मादविशिष्टमिन्द्रादि वस्तु उच्चरितमात्रैमेव नामादिभेदचतुष्टयं 3 १ नोशब्दस्य सर्वदेशनिषेधैकदेशवाचकत्वात् क्रमेण नोआगमतो मङ्गलपदार्थत्रयं ज्ञानचतुष्टयादिरूपम् २ इयेषु दधिदुर्वादिषु अन्यादिषु च मनलाभिधानं. ३ “अभिहाणं दण्वतं तपत्यसुन्नत्तणं च तुहाई” इतिविशेषावश्यके पृथ प्रोक्तं, अत्र तु तदर्थशून्यत्वं यत्वे हेतुतयोक्तम् 'वस्तुनोऽभिधान' मिति 'बहुतदर्शवियुक्त' मिति वचनानामस्थापनयोरपि द्रव्यत्वं कारणता सर्वत्रेति वा द्रव्यता, पूर्व निक्षेपचतुष्कस्य प्रकान्तत्वानामम्यभेदविषयाशङ्का विवक्षितेत्यादेस्तु द्रव्यत्वे हेतुता. ४ भावे संभवानान्न आह- द्रव्यत्वमिति विवक्षितभावशून्यत्वं हि तत् नच तद्भाव इति । ५ स्पष्टं लक्ष्यमानत्वादादौ स्थापनाभेदनिरूपणम् ६ सद्भावस्थापनापेक्षया. ७ अवितथेति ८ बुद्धिः ९ सहस्राक्षवज्रधरवादि १० प्रतीतिः ११ आराधना तत्परताना १२ सुतधनादि फलं. १३ तत्पाक्षिकेति १४ स्थूलबुद्धे लोकस्य तत्र तथाध्यवसायाद्यभावात् १५ शोआगमतो भावेन्द्रस्य. १६ धिज्ञानवतां १७ भव्यशरीर. १० श रीरद्रव्यं १९ अर्थक्रियाकारि ववित्यभिप्रेत्या २० निर्विशास्त्रपारगमनादि २१ नाममङ्गलादीनां २२ भवत्वात् २३ अयुत्पादितं. Education International For Parts Only ~ 15~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥६॥ wor Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [१], भाष्यं [-] आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित प्रतिपद्येते, भेदाश्च पर्याया एवेति, अथवा नामस्थापनाद्रव्याणि भावमङ्गलस्यैवाङ्गानि तत्परिणाम कारणत्वात्, तथा च मझलॉद्यभिधानं सिद्धार्थभिधानं चोपश्रुत्य अर्हत्प्रतिमास्थापनां च दृष्ट्वा भूतयतिभावं भव्ययतिशरीरं चोपलभ्य प्रीयः सम्य |ग्दर्शन दिभावमङ्गल परिणामो जायते इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः तत्र नोआगमतोऽर्हन्नमस्करादि भावमङ्गलमुक्त, अँधवा नोआगमतो भावमङ्गलं नन्दी, तत्र नन्दनं नन्दी, नन्दन्त्यनयेति वा भव्यप्राणिर्ने इति नन्दी, असावपि च मङ्गलवन्नामादिचतुर्भेदभिन्ना अवगन्तव्येति, तत्र नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यनन्दी द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतस्तु ज्ञशरीर भव्यशरीरोभयव्यतिरिक्ता च द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकारस्तूर्यसंघौतः 'भंभा मुकुंद मद्दल कडंब झलरि हुडुक्क कंसाला । काहलि तैलिमा वंसो, संखो पणवो य बारसमो ॥ १ ॥' तथा भावनन्द्यपि द्विधा - आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता + उपयुक्तः, नोआगमतः पञ्चप्रकारं ज्ञानं तच्चेदम् आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं ॥ १ ॥ १ जानीते. २ निक्षेपचतुष्कस्य भिन्नभिन्नाधिकरणतामाश्रित्याह ३ अवयवाः ४ भावमलनिदानत्वात् ५ आदिना ज्ञाननिर्जरादिग्रहः ६ विशेषनाम्नां कारणतायै, भादिना जिनेन्द्रादिः ७ सम्यग्दर्शनादेः प्रबलकारणत्वात् शय्यम्भवादिवत् ८ 'इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिद्वेणं भावेणं आवरसत्ति पर्य सेकाले सिक्खिस्स न ताव सिक्खति' इति अनुयोगद्वारचचनात् ९ शाखा दृष्ट्वा वा १० लिष्टस्याभावात्. ११ ज्ञानचारित्रोपयोगग्रहः १२ 'कपपंचनमुकारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिणा' इतिवचनात्सूत्रापेक्षं, १३ अनुयोगापेक्षं, नम्चनुयोगस्यैकदेशत्वा १४ कर्तृतामापन्नाः १५ दिव्वे तूरसमुभो' इति वचनात् क्रियाविशिष्ट इत्यध्याहार्यमन्यथा नामनन्दीखापतेः तिडिमा १४ सदुपयुक्तः १-३-४. Education International ज्ञानस्य आभिनिबोधिक आदि पञ्च प्रकारा: For Pasta Use Only ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप वश्यक व्याख्या अर्थाभिमुखो नियेतो बोधः अभिनियोधः, अभिनिबोध एव आभिनिवोधिक, विनयादिपाठात् अभिनि-I हारिभद्रीबोधशब्दस्य “विनयादिभ्यष्ठा" (पा० ५.४-३४) इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययो, यथा विनय एव चैनयिकमिति | SIयवृत्तिः त अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निवृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वाअथवा ऽभिनिबुध्यते तद् इत्याभिनिबोधिक, अवग्रहादिरूपं विभागः१ DIमतिज्ञानमेव. तस्य स्वसविदितरूपत्वात, भेदोचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वाऽनेनेत्याभिनिवोधिक, तदावरणकर्मक्षयोप-12 शम इति भावार्थः, अभिनिबुध्यते अस्मादिति वाऽऽभिनिबोधिक, तदावरणकर्मक्षयोपशम. एव, अभिनिबुध्यतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशम इत्याभिनिवोधिकं, आत्मैव वाऽभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादू अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिक, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति समासः तथा श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वादिति भावार्थः, अथवा श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं, तदावरणाशयोपशम इत्यर्थः, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतं, तदावरणक्षयोपशम एव, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयो-16 पशम इति श्रुतं, शृणोतीति वाऽऽत्मैव तदुपयोगानन्यत्वात् , श्रुतं च तज्ज्ञानं चेति समासः,चशब्दस्त्वनयोरेवं तुल्यकक्षतोभावनार्थः, स्वाम्यादिसाम्यात्, कथम् , य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयणाण"* पदार्थनान्तरीपकः. २ नियतविषयं, नतु विचन्द्रादिवत्. ३ प्रकाश्यप्रकाशकोभयरूपत्वादित्यर्थः, प्रा प्रकाशकम् . ४ एकत्वात् ककमैक्यात. ५ 'भावाकोंः' इत्यभिनिबोधशब्दनिष्पत्ती प्राग्वदाभिनिवोधिकशब्दनिष्पत्तिः, कर्तरि तु लिहादित्वादच्, ६ बहुलवचनात् कर्माविष्वपि को नपुंसके, प्राभृतको व्यमिति भग्वमाहेतिवचनायाभूताहा निष्पत्तिरेवमन्यत्राप्यूयम् . . ज्ञानदयानम्तरं चस्प पाठात्. तुल्यपक्षतोदोधनाय. "कृषन्तव्युत्पत्तये, उपसर्गावत्र विशेषको धातोः प्रकाशकमतौ * मित्रत्वाशङ्कापनोदाय कर्म१-४. SAKSAR अनुक्रम ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] अध्ययनं [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [ १ ], आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मिति वचनात् तथा यावान्मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य प्रवाहापेक्षया अतीतानागतवर्त्तमानः सर्व एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया च पट्ट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, उक्तं च भाष्यकारेण "दोवारे विजयाइसु गयस्स तिष्णचुए अहव ताई । अइरेगं णरभविअं णाणाजीवाण संबद्धं ॥ १ ॥” यथा च मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुकं, तथा श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषेयम्, एवं श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानं परोक्षम्, एवं श्रुतज्ञानमपि इति, एवकारस्त्ववधारणार्थः, परोक्षत्वमनयोरेवावधारयति, आभिनिवोधिक श्रुतज्ञाने एव परोक्षे इति भावार्थः । तथा अवधीयतेऽनेन इत्यवधिः, अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृतं परिच्छिद्यते, मर्यादया वेति, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव तदुपयोग हेतुत्वादित्यर्थः, अवधीयतेऽस्मादिति वेति अवधिः, तदावरणीयक्षयोपशम एव, अवधीयतेऽस्मिन्निति वेत्यवधिः, भावार्थः पूर्ववदेव, अवधानं वाऽवधिः विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, | अवधिश्वासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानं, चशब्दः खल्वनन्तरोक्त ज्ञानद्वय साधर्म्यप्रदर्शनार्थः स्थित्यादिसाधर्म्यात् कथम् ?, यावान्मतिश्रुतस्थितिकालः प्रवाहापेक्षया अप्रतिपत्तितैकसच्वाधारापेक्षया च, तावानेवावधेरपि, अतः स्थितिसाधर्म्यात्, १ एकेन्द्रियादिषु क्षयोपशमसद्भावाद्वयोः संज्ञासद्भावाञ्च श्रुतसचा (वि० १०२ प्रभृतिके), सम्यग्ज्ञानापेक्षया. २ श्रीमता जिनभङ्गगणिक्षमाश्रमणेन. ३ द्वौ पारौ विजयादिषु गतस्य श्रीन् वारान् अच्युतेऽथवा तानि ( षट्षष्टिसागरोपमाणि) अतिरिक्तं नरभविकं ( अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया) मानाजीवानां सर्वाद्धं (वि० ४३६) ४ भयादेशात्वादेशाद्वा. ५ आदिना क्षेत्रकालभावग्रहः ६ च्येन्द्रियम बोनिष्पाद्यत्वाद दर्शनरूपयोधव्यवच्छेदाय ८ रुपि व्यात्मिकया. ९ क्षयोपशमयाभावरूपत्वेनेदम् आत्मस्वरूपं ज्ञानमित्युक्तमिदम् तदावरण० १४. Eaton international For Pale Only ~18~ Dow war Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] अध्ययनं [-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [ १ ], आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ८ ॥ आवश्यक- ५ यथा मतिश्रुते विपर्ययज्ञाने भवतः, एवमिदमपि मिथ्यादृटेर्विभङ्गज्ञानं भवतीति विपर्ययसाधर्म्यात्, य एव च मतिश्रुतयोः स्वामी स एव चावधेरपि भवतीति स्वामिसाधर्म्यात्, विभङ्गज्ञानिनः त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाशी युगपज्ज्ञानत्रयं संभवतीति लाभसाधर्म्याश्च । तथा मनःपर्यवज्ञानं, अयं भावार्थ:-- | परिः सर्वतो भावे, अवनं अवः, अवनं गमनं |वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः पर्यवनं वा पर्यव इति, मनसि मैनसो वा पर्यवो मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं, अथवा मनसः पर्याया मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यनर्थान्तरं तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं इदं चार्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति, तथाशब्दोऽवधिज्ञानसारूप्यप्रदर्शनार्थः, कथम् ?, छद्म स्वस्वामिसाधर्म्यात्, तथा पुद्गलमोंत्रालम्बनत्व साम्यात्, तथा क्षायोपशमिकभावसाम्यात्, तथा प्रत्यक्षत्वसाम्याच्चेति । केवलमसहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं, शुद्धं वा केवलं तदावरणकर्ममल कलङ्काङ्करहितं सकलं वा केवलं तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः संपूर्णोत्पत्तेः, असाधारण वा केवलं, अनन्यसदृशमितिहृदयं, ज्ञेयानन्तत्वाद् अनन्तं वा केवलं यथावस्थिताशेष भूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना, केवलं च तज्ज्ञानं चेति समासः, चशब्दस्तुकसमुच्चयार्थः, केवलज्ञानं च पञ्चमकमिति, अथवाऽनन्त १ विषयसप्तमी. २ सम्बन्धे षष्टी. ३ दिना दर्शनं ज्ञानेनानेन विशेषोपयोग इति, विशुद्धतराणि वा मनोद्रव्याणि जानात्यनेनेति ज्ञापनाथ वा. ४ अरूपि म्यालम्बनस्यवच्छेदाप मात्रेति. ५ "जीवो अक्खो अत्यन्ावणभोयणगुणणिओ जेणं । तं पड़ बहह नाणं, जं पक्वं तयं तिविहं" (वि०८९) इति. ६ अपेक्षा सहावस्थानरूपा. ७ मत्यादीनां स्वावरणोपेत्तत्वात् अ लक्ष्म. ८ उत्पत्तिसमय एव. ९ म तारतम्यवत् म्यूनं या कदापि १० अन्यस्य कस्यापि रूप्यरूपि सूक्ष्मदूरेतरादिपदार्थां ग्राहकत्वात्. ११ आधारापेक्षयाऽसंख्येयत्वेऽपि व्यसंभवतो परि Education International For Par Use Only ~ 19~ हारिभद्री यवृत्तिः विभागः १ ॥ ८ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [१], भाष्यं [-] आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित राभिहितज्ञानसारूप्यप्रदर्शक एव, अप्रमत्तभावयतिस्वामिसाधर्म्यात् विपर्ययाभावयुक्तत्वाच्चेति गाथासमासार्थः ॥ आह-- मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते, उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयं उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति, भेदकृतो वा विशेषः, यस्मादवग्रहाद्यष्टाविंशतिभेदभिन्नं मतिज्ञानं तथाऽङ्गानङ्गादिभेदभिन्नं च श्रुतमिति, अथवाऽऽत्मप्रकाशकं मतिज्ञानं, स्वर्परप्रकाशकं च श्रुतमित्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेवैतदिति । अत्राह — एषां ज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनं इति, उच्यते, परोक्षत्वादिसाधर्म्यान्मतिश्रुतसद्भावे च शेषज्ञानसंभवात् आदावेव मतिश्रुतोपन्यासः, मतिज्ञानस्य पूर्व किमिति चेत्, उच्यते मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्येति, मतिपूर्वकत्वं चास्य "श्रुतं मतिपूर्वम्” (०ब्यनेकद्वादशभेदम् श्रीतत्त्वार्थे अ० १ सू० २० ) इति वचनात् तत्र यो मतिश्रुतपूर्वकत्वात्प्रत्यक्षत्वसाधर्म्याच्च ज्ञानत्रयोपन्यास इति, तत्रापि कालविपर्ययादिसा म्यान्मतिश्रुतोपन्यासानन्तरमेवावधेरुपन्यास इति, तदनन्तरं च छाद्मस्थिकादिसाधर्म्यान्मनःपर्यायज्ञानस्य तदनन्तरं भावमुनिस्वाम्यादिसाधर्म्यात्सर्वोत्तमत्वाच्च केवलस्येति गाथार्थः ॥ १ ॥ साम्प्रतं 'यथोद्देशं निर्देश:' इति न्यायाद् ज्ञानपञ्चकादावुद्दिष्टस्य अभिनिबोधिकज्ञानस्य स्वरूपमभिधीयते तच्चाभि १ न शेषज्ञानानामित्यर्थः २ मत्यादीनामपि तेन स्वरूपनिरूपणात् ३ संक्षेपविवरणरूपत्वात् ४ भावश्रुतस्य ५ मिध्यादृखिज्ञानावासौ न प्रा मतिश्रुते स्त इति प्राय इति । ६ ज्ञानत्रयोपन्यासे ७ लाभादिग्रहः ८ पुलावलम्बनत्वादिः ९ विपर्ययाभावत्वादिः + अनोच्यते । आभिनिबोधिक/मति ज्ञानस्य स्वरुपम् एवं भेद-प्रभेदाः For Parks Use One ~20~ harya Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥९ ॥ सूत्राक दीप निबोधिकज्ञानं द्विधा, श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च, यत्पूर्वमेव कृतश्रुतोपकारं इदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्तते तदू हारिभद्रीअवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति । यत्पुनः पूर्व तदंपरिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वात् औत्पत्तिक्यादिलक्षणं उपजा-141 यते तदश्रुतनिश्रितमिति । आह-"तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला' इति वचनात् तत्रापि किश्चित् श्रुतोपकारादेव जायते तरकथमश्रुतनिश्रितमिति, उच्यते,. अवग्रहादीनां श्रुतनिश्रिताभिधानादू औत्पत्तिक्यादिचतुष्टयेऽपिच अवग्रहादिसद्भा-12 वात् यथायोगमश्रुतनिश्चितत्वमवसेयं, न तु सर्वमेवेति, अयमत्र भावार्थः-श्रुतकृतोपकारनिरपेक्षं यदौत्पत्तिक्यादि तद-18 श्रुतनिश्चितं, प्रातिभमितिहृदयं, वैनयिकी विहायेत्यर्थः, बुद्धिसाम्याच तस्या अपि नियुको उपन्यासोऽविरुद्ध इत्यलंद प्रसङ्गेन । तत्र श्रुतनिश्चितमति ज्ञानस्वरूपप्रदर्शनायाह उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एष हुंति चत्तारि । आभिणियोहियनाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥२॥ व्याख्या-तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं अवग्रहः, तदर्थविशेषालोचनं ईहा, तथा|| प्रकान्ताविशेषनिक्षयोऽवाया, चशब्दः पृथक पृथक् अवग्रहादिस्वरूपस्वातळ्यप्रदर्शनार्थे, अवमहादीनां हादयः औषतिपयादिविषयकवस्तुसम्बन्धिपरिकर्म न भुतकृतमिति । २ परिकर्म विना. ३ "मक्षा नवनपोखशालिनी प्रतिभा मता " सैव प्रातिभा न स्वत्र धुसफेवकातिरिकं सामर्ययोगजन्यं प्रातिभम् सकूष्कृतनिश्रितस्वात् खागः, बाहुल्यापेक्षया तदमनुसरणं वधुतनिश्चितत्व, पहा पूर्वमशिक्षितशास्त्रार्थस्यायुतनिलितत्व नविकी त्वयति हाम, विमर्शभाधान्याच विचस्यान्तावा श्रुतकृती. अनुक्रम T ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 4 -2 प्रत - सूत्राक - पर्याया न भवस्तीरयुक्तं भवति, अवगतार्थविशेषधरणं धारणा, एवकारः मप्रदर्शनार्थः, 'एवं' अनेनैव क्रमेण भवन्ति, चत्वारि, आभिनिवोधिकज्ञानस्य भिद्यन्त इति भेदा विकल्पा अंशा इत्यनान्तरं, त एव वस्तूनि भेदपस्तूनि, कथम् !, यतो नानवगृहीतमीह्यते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यत इति । अथवा काका नीयते-एवं भवन्ति चत्वा-19 योभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि !, 'समासेन' संक्षेपेण अविशिष्टावमहादिभावस्वरूपापेक्षया, न तु विस्तरत इति, विस्त-13 रतोऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥२॥ इदानीमनन्तरोपम्यस्तानामवमहादीनां स्वरूपप्रसिपिपादयिषयेदमाह अस्थाणं ओगहणमि उग्गहो तह थियारणे ईहा । ववसायंमि अवाओ धरणमि य पारणं विति ॥३॥ व्याख्या-तत्र अर्यन्ते इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत्, ते च रूपादयः, तेषां अर्थानां, प्रथम दर्शनानन्तरं ग्रहणं अवग्रहणं । अवमहं भुवत इतियोगः । आह-वस्तुनः सामान्य विशेषात्मकतयाऽविशिष्टत्वात् किमिति प्रथमं दर्शनं न ज्ञानमिति, उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात्, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति । स च द्विधाव्यञ्जनावमहोऽर्थावग्रहश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहपूर्वकत्वादावग्रहस्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः प्रतिपाद्यत इति । तत्र व्यञ्जनावग्रह इति का शब्दार्थः१, उच्यते, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तच्च उपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसंघातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च व्यञ्जनानां अवग्रहो (अत्याणं ओगाहणं, उमाई पद वियालणं ईई । बवसायं च अवार्य, धरणं पुण धारणं विति ॥ ३॥) क्रमदर्शनार्थः धरणं पुण महणं अवग्रह दीप अनुक्रम T ~ 22~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सूत्राक आवश्यक-व्यञ्जनावग्रह इति । अयं च नयनमनोवर्जेन्द्रियाणामवसेय इति, न तु नयनमनसोः, अप्राप्तकारित्वात् , अप्रा- प्तकारित्वं चानयोः "पुहं सुणेइ सई रुवं पुण पासई अपुहं तु" इत्यत्र वक्ष्यामः । तथा च व्यञ्जनावग्रह चरमस- मयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणोऽर्थावग्रहः, सामान्यमानानिर्देश्यग्रहणमेकसामयिकमिति भावार्थः । 'तथा' इत्यानन्तर्ये 'विचारण' पर्यालोचन अर्थानामित्यनुवर्त्तते, ईहनमीहा तां, ब्रुवत इति संबन्धः । एतदुक्तं भवति- अवन-| हादुत्तीर्णः अवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषत्यागाभिमुखश्च प्रायो मधुरत्वादयः शङ्खशब्दधर्मा अत्र घटन्ते न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शाशब्दधर्मा इति मतिविशेष ईहेति । विशिष्टोऽवसायो व्यवसायः, निर्णयो निश्चयोऽवगम इत्यनान्तरं, तं व्यवसायं च, अर्थानामिति वर्तते, अवायं ब्रुवत इति संसर्गः, एतदुक्तं भवतिशाङ्क एवायं शाङ्ग एव षा इत्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवाय इति, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, व्यवसायमेवावायं ब्रुवत इति भावार्थः । धृतिर्धरण, अर्थानामिति वर्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तुनोऽविच्युतिस्मृतिवासनारूपं तद्धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते, पुनःशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, धरणमेव धारणां अवत इति, अनेन शास्त्रपारतच्यमाह, इत्थं तीर्थकरगणधरा हुवत इति । एवं शब्दमधिकृत्य श्रोत्रेन्द्रियनिवन्धना अवग्रहादयः प्रतिपादिताः, शेषेन्द्रियनिबन्धना अपि रूपादिगोचराः स्थाणुपुरुष-कुष्ठोत्पल-संभृतकरिलमांस-सोत्पलनालादी इत्थमेव द्रष्टव्याः, एवं मनसोऽपि स्वसे शब्दादिविषया अवग्रहादयोऽवसेया इति, अन्यत्र चेन्द्रियव्यापाराभावेऽभिमन्यमानस्येति । ततश्च व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः, गाथा०५२ चक्षुरादीनां क्रमशो दृष्टान्तदर्शनात् कोष्टपुटाख्यो गन्धद्रव्यविशेषः । स्वप्नात्. * अप्राप्यकारित्वात् ५41 वनावमा दीप अनुक्रम ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक | तस्य नयनमनोवर्जेन्द्रियसंभवात् , अर्थावग्रहस्तु पोढा, तस्य सर्वेन्द्रियसंभवात् । एवमीहादयोऽपि प्रत्येकं षट्पकारा 18 एवेति । एवं संकलिताः सर्व एव अष्टाविंशतिर्मतिभेदा अवगन्तब्या इति । अन्ये त्वेवं पठन्ति-अस्थाणं उम्गहणमि दिउग्गहों तत्र अर्थानामवग्रहणे सति अवग्रहो नाम मतिभेद इत्येवं अवते, एवं ईहादिष्वपि योज्यं, भावार्थस्तु पूर्वव दिति । अथवा प्राकृतशैल्या 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम' इति यथाऽऽचाराङ्गे-"अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावअंति" इत्यत्र अग्निना च स्पृष्टाः, अथवा स्पृष्टशब्दः पतितवाची, ततश्चायमर्थः-अग्नौ च पतिता 'एके' शलभादयः 'संघातमापद्यन्ते' अन्योऽन्यगात्रसंकोचमासादयन्तीत्यर्थः,तस्मादू अग्निसमारम्भोऽनेकसत्त्वव्यापत्तिहेतुः इत्यतो न कार्य: * इत्यादिविचारे द्वितीया तृतीयार्थे सप्तम्यर्थे च व्याख्यातेति । एवमत्रापि सप्तमी प्रथमार्थे द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥३॥ इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह 'उग्गह इकं समयं ईहावाया मुहुत्तमई तु । कालमसंखं संखं च धारणा होइ णायवा ॥४॥ व्याख्या-तत्र अभिहितलक्षणोऽर्थावग्रहो जघन्यो नैश्चयिकः, स खलु एक समयं भवतीति संवन्धः, तत्र काला दीप अनुक्रम T नोइन्द्रियस्यापि महणमुपलक्षणात् , अन्यथा न स्युर्भेदाः षट् , इन्द्रियत्वं वाभिप्रेतमत्र सस्थाभ्यन्तरनित्यन्वितत्वात्. २ ज्ञायतेऽनेन भाचारा-18 व्याख्या श्रीमतों काकारमाकनीति ३ अर्यावग्रहो द्विधा जघन्य उत्कृष्टा, आयो नैनयिक एवेतरः सौम्यवहारिक इति जघन्यो नैञ्चयिक इति प्रोतुः, व्याख्याजानतो विशेषप्रतिपतिन हि संदेवादल क्षणमिति न्यायात्. एवेत्यर्थः, संक. उचगहो. उन्गहु (नि०३) मुडुचमन्तं तु (१०) ~ 24 ~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥११॥ सूत्राक परमनिकृष्टः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रमतव्यतिभेदोदाहरणादू जरत्पदृशाटिकापाटनदृष्टान्ताच मा हारिभद्रीअवसेयः, तथा सांव्यवहारिकार्थावग्रहव्यञ्जनावग्रही तु पृथक् पृथग अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं भवत इति विज्ञातन्यौ। यवृत्तिः ईहा चावायश्च ईहावायी, प्राकृतशैल्या बहुवचनं, उक्तं च-"दुषयणे बहुवयणं छहीविहत्ती भण्णइ चउत्थी । जह हत्या विभागः१ तह पाया, णमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥१॥" तावीहावायौ मुहर्ताध ज्ञातव्यौ भवतः, तत्र मुहूर्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते, तस्याधं तु मुहर्धेि, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-व्यवहारापेक्षया एतद् मुहर्तार्धमुक्त, तत्त्वतस्त अन्तमहलमबसेयमिति । अन्ये वेवं पठन्ति 'मुहत्तमन्तं तु मुहुर्तान्तस्तु द्वेपदे, अयमर्थः-अन्तर्मध्यकरणे, तुशब्द एवकारा, स चावधारणे, एतदुकं भवति-ईहावायौ मुहूर्तान्तः, भिन्नं मुहूर्त ज्ञातव्यौ भवतः, अन्तर्मुहूर्तमेवेत्वर्थः । कलनं कालः तं काल, न विद्यते संख्या इयन्तः पक्षमासर्वयनसंवत्सरादय इत्येवंभूता यस्खासावसंख्या, पल्वोपमादिलक्षण इस्वर्थः, त कालमसंख्य, तथा संख्यायत्त इति संख्यः, इयन्तः पक्षमासत्वयनादव इत्येवं संख्याप्रमित इत्यर्थः, तं संख्ये च, चशम्दात् अन्तर्मुहर्स च, धारणा अभिहितलक्षणा भवति ज्ञातव्या, अयमत्र भावार्थ:-अवायोत्तरकालं अविच्युतिरूपा-अन्तर्मुहूर्त भवति, एवं स्मृतिरूपाऽपि, वासनारूपा तु तदावरणक्षयोपशमाख्या स्मृतिधारणाया बीज- भूता संख्येयवर्षायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालं असंख्येयवर्षायुषां पल्योपमादिजीविनां चासंख्येयमिति गाथार्थः ॥४॥ भाध्यकाराविम्याक्यानात. बहुवचन द्विवचने पीधिमकी भव्यते चतुर्थी । यथा हसी तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेम्पः"श्रद्धाजो-र ॥११ गुकोसे" इत्याविवचनादपवर्तनासमचात्तद्रवितानामसंख्येयायुषामितिदर्शनाष पल्योपमेत्यादि. 'जीयत् ५-६ ज्ञातव्यौ-३-३-४५ बहुववणेण दुपयणं 1-२-३-४ भषणए ५-६. दीप अनुक्रम ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक इत्थमवग्रहादीनां स्वरूपमभिधाय इदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिषुराहपुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढं तु । गंध रसं च फासं च बद्धपुडं वियागरे ॥५॥ व्याख्या---ए-ननु व्यञ्जनावग्रहनिरूपणाद्वारेण श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपादितव, किमर्थ पुन-1 दारयं प्रयास इति, उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथा व्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता, साम्प्रतं तु सूत्रता प्रतिपाचत इस्य दोषः। तत्र 'स्पृष्टं' इत्यालिङ्गितं, तनौ रेणुवत्, शृणोति गृह्णाति उपलभत इति पर्चायाः, कम् -शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः तं शब्द प्रायोग्यं द्रव्यसंघात, इदमत्र हृदयम्-तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात् श्रोत्रेन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणातापायः पटुतरत्वात् स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवहं गृह्णाति । रूप्यत इति रूपं तद्रूपं पुनः, पश्यति गृहाति उपल भत इत्ये कोऽर्थः, अस्पृष्टमनालिङ्गितं गन्धादिवन संबद्धमित्यर्थः, दुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टमेव, चक्षुषः अप्राप्तकारिस्वादिति भावार्थः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-अस्पृष्टमपि योग्यदेशाबस्थितं, न पुनरयोग्यदेशावस्थितं अमरलोकादि । गन्ध्यते घायत इति गन्धस्तं, रस्थत इति रसस्तं च, स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं च, चशब्दौ पूरणार्थों, 'बद्धस्पृष्टं इति बद्धमाश्लिष्ट नवशरावे तोयवदात्मप्रदेशरात्मीकृतमित्यर्थः, स्पृष्टं पूर्ववत , प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो 'बद्धपुई' ति, अर्थतस्तु स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टवद्धं । आह-पर्ख गन्धादि तत् सृष्टं भवत्येव, अस्पृष्टस्य चक्षुर्मनसोरसत्यपि व्यञ्जनावमहेऽयोवग्रहसनाबादस्त्येव पटुतरतेति प्राय इति. २ सांभाचे बन्धाभावसत्वेऽपि सटस्वार्थमेतत् , प्राणादीन्द्रियेभ्यो निपुणताख्यानाय वा. * नास्तीदम् 1-३-३-४, दीप अनुक्रम ल ~26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ १२ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Education International आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः बन्धायोगात्, ततश्च स्पृष्टशब्दोच्चारणं गतार्थत्वादनर्थकमिति, उच्यते, सर्वश्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्यायमदोष | इति । त्रिप्रकाराश्च श्रोतारो भवन्ति - केचिदू उद्घाटितज्ञाः, केचित् मध्यमबुद्धयः, तथाऽन्ये प्रपञ्चितज्ञा इति, तत्र प्रपचितज्ञानां अनुग्रहाय गम्यमानस्याप्यभिधानमदोषायैव, अथवा विशेषणसमासाङ्गीकरणाददोषः स्पृष्टं च तद्वद्धं च स्पृष्टवद्धं तत्र स्पृष्टं गन्धादि विशेष्यं, बद्धमिति च विशेषणं । आह - एवमपि स्पृष्टग्रहणमतिरिच्यते, यस्माद्यद्वद्धं न तत्स्पृष्टत्वव्यभिचारि, उभयपदव्यभिचारे च विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो यथा नीलोत्पलमिति, न चेह उभयपदव्यभिचारः, अत्रोच्यते, नैष दोषः, यस्मादेकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो, यथा अन्द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, भावनाअबू द्रव्यमेव, न द्रव्यत्वं व्यभिचरति, द्रव्यं पुनरबू चानवू चेिति व्यभिचारि, अथ च विशेषणविशेष्यभाव इति । प्रकृतभावार्थस्वयम् - आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरस्वादू अभावुकत्वात् अल्पद्रव्यरूपत्वात् प्राणादीनां चापटुत्वात् गृह्णाति निश्चिनोति घ्राणेन्द्रियादिगण इत्येवं व्यागृणीयात् प्रतिपादयेदितियावत् । आह-- भवतोक्तं योग्यदेशावस्थितमेव रूपं पश्यति, न पुनरयोग्यदेशावस्थितमिति, तत्र कियान् पुनश्चक्षुषो योग्यविषयः १, कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि शब्दादि गृह्णातीति, उच्यते, श्रोत्रं तावच्छब्द् जघन्यतः खल्वङ्गुला संख्येयमात्राद्देशात्, उत्कृष्टतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्य इति, चक्षुरिन्द्रियमपि रूपं जघन्येनाङ्गुलसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कृष्टतस्तु योजनशतसहस्राभ्यधिकव्यवस्थितं इति, धाणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाङ्गुला संख्येयभागमात्राश्रोत्रापेक्षयाऽपि २ पुनःशब्देन विशेषितेऽस्पृष्टत्ये या भणितिस्तदपेक्षया प्राह प्रथः, समग्रगायापेक्षया विषयक्षेत्रपरिमाणज्ञानार्यत्र द्वितीय इति. * बा. देति. For Park at Use Only ~ 27~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ १२ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक देशादागतं गन्धादिकं गृह्णन्ति, उत्कृष्टतस्तु नवभ्यो योजनेभ्य इति । आत्माङ्गुलनिष्पन्नं चेह योजनं ग्राह्यमिति । आह-उक्तप्रमाणं विषयमुलाच कस्माचक्षुरादीनि रूपादिकमर्थं न गृह्णन्तीति, उच्यते, सामर्थ्याभावात, द्वादशभ्यो नवभ्यश्च योज-12 नेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधपरिणामाभावाञ्च, मनसस्तु न क्षेत्रतो विषयपरिमाणमस्ति, पुद्गलमात्रनिवन्धनाभावात् , इह यत् पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति, न तस्य विषयपरिमाणमस्ति, यथा केवलज्ञानस्य, यस्य च विषयपरिमाणमस्ति, तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्टं, यथाऽवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वेति गाथासमासार्थः॥ । साम्प्रतं यदुक्तमासीत् यथा “नयनमनसोरप्राप्तकारित्वं 'पुढे सुणेइ सई' इत्यत्र वक्ष्यामः, तदुच्यते, नयनं योग्यदेशावस्थिताप्राप्तविषयपरिच्छेदक, प्राप्तिनिवन्धनतस्कृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात् , मनोवत्, स्पर्शनेन्द्रियं विपक्ष इति । आह-जलघृतवनस्पत्यालोकनेष्वनुग्रहसद्भावात् सूर्योद्यालोकनेषु चोपघातसद्भावात् असिद्धो हेतुः, मनसोऽपि प्राप्तवि-12 पयपरिच्छेदकत्वात्साध्यविकलो दृष्टान्तः, तथा च लोके वक्तारो भवन्ति-"अमेत्र मे गतं मनः" इति, अत्रोच्यते, प्राप्ठिनिवन्धनाख्यहेतुविशेषणार्थनिराकृतत्वाद् अस्याक्षेपस्येत्यदोषः। किं च-यदि हि प्राप्तिनिबन्धनौ विषयकृतावनुग्रहोपघातौ स्यातां, एवं तर्हि अग्निशूल जलाद्यालोकनेषु दाहभेदक्केदादयः स्युरिति । किं च-प्राप्त विषयपरिच्छेदकत्वे सति अक्षिअञ्जनमलशलाकादिकमपि गृह्णीयात् । आह-नायना मरीचयो निर्गत्य तमर्थ गृह्णन्ति, ततैश्च तेषां तैजसत्वात् सर्वेन्द्रियापेक्षया. २ प्राप्यकारीन्द्रियचतुष्कापेक्षया. ३ क्षेत्रेति. विषयेति. ५ विप्रकृष्ट कसिविनिर्दिश्यमाने स्खले इति. ६ नयनमरीचीनामेव निर्गमात, चक्षुपश्चानिर्गमात्, * निवन्धन, १-२-३-४ + निबन्धन. १-२-३-४ जलशूला. केदभेदा. दीप अनुक्रम ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत विभागः१ सूत्राक आवश्यक- सूक्ष्मत्वाच्चानलादिसंपर्के सत्यपि दाहाधभाव इति, अत्रोच्यते, प्राक् प्रतिज्ञातयोरनुग्रहोपघातयोरप्यभावप्रसङ्गाद् अयुक्तमे-दिहारि तत् तदस्तित्वस्य उपपत्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वाच्चै । व्यवहितार्थानुपलब्ध्या तदस्तित्वावसाय इति चेत्, न, तत्रापि तदुपलब्धी यवृत्तिः ॥१३॥ क्षयोपशमाभावात् व्यवहितार्थानुपलब्धिसिद्धे, आगममात्रमेवैतत् इति चेत्, न, युक्तिरप्यस्ति, आवरणाभावेऽपि परमा-3 ण्वादी दर्शनाभावः, स च तद्विधक्षयोपशमकृतः, यत्रोक्त-'साध्यविकलो दृष्टान्त' इति, तदप्ययुक्तं, ज्ञेयमनसोः संपर्कामावात् , अन्यथा हि सलिलकर्पूरादिचिन्तनादनुगृह्येत, वह्निशस्त्रादिचिन्तनाच्चोपहन्येत, न चानुगृह्यते उपहन्यते 'वेति । आह-मनसोऽनिष्टविषयचिन्तनातिशोकात् दौर्बल्यं आर्तध्या नादुरोऽभिघातश्च उपलभ्यते, तथेष्टविषयचिन्तनात्प्रमोदः, तस्मात्प्राप्तकारिता तस्येति, एतदप्ययुक्त, द्रव्यमनसा अनिष्टेष्टपुद्गलोपचयलक्षणेन सकर्मकस्य जन्तोरनिष्टेष्टाहारेणेवो| पघातानुग्रहकरणात्कथं प्राप्तविषयतेति । किच-द्रव्यमनो वा बहिः निस्सिरेत्, मनःपरिणामपरिणतं जीवाख्यं भाव-12 मनो वा ?, न तावद्भावमनः, तस्य शरीरात्रत्वात् , सर्वगतत्वे च नित्यत्वात् वन्धमोक्षाद्यभावप्रसः। अथ द्रव्यमनः, तदप्ययुक्तं, यस्मान्निर्गतमपि सत् अकिञ्चित्करं तत् , अज्ञत्वात्, उपलवत् । आह-करणत्वान्यमनसस्तेने प्रदीपेनेव प्रकाशितमर्थमात्मा गृह्णातीत्युच्यते, न, यस्मात् शरीरस्थेनैवानेन जानीते, न बहिर्गतेन, अन्तःकरणत्वात्, इह यदात्म सुवर्णादीनां भेदादिभावात् तैजसत्वेऽपि आह-सूक्ष्मत्वाचेति. २ शूलजलादिः । प्राप्तिनिबन्धनेत्यादिहेतोरसिद्धतोद्भावने. . नायनमरीचीनां. अयुतमेतदिति संटङ्कः ६ वारीरप्रमाणत्वात् विहाय तस तवस्थानमित्यर्थः. . आकाशादिवत् . यमनियमोच्छेदप्रसङ्गः. १ अन्यमनसा. अमेतत् . VI+घेति. 1 अति १-२-३. अनि प्राप्ति०५-६.६मरेत् ५-६.1 नास्तीवम् ५-६. दीप अनुक्रम ~29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक नोऽन्तःकरणं स तेन शरीरस्थेनैव उपलभते, यथा स्पर्शनेन, प्रदीपस्तु नान्तःकरणमात्मनः, तस्माद् दृष्टान्तदान्तिककायोर्वेषम्यमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुम इति गाथाथैः ॥ ५॥ किं च प्रकृतं !, स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्यादि, अत्र किं शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि शब्दद्रव्याणि गृह्णाति ? उत अन्यान्येव तद्भावितानि ? आहोस्विन्मिश्राणि इति चोदकाभिप्रायमाशङ्कथ, न तावत्केवलानि, तेषां वासकत्वात् , तद्योग्यद्रव्याकुलत्वाच्च लोकस्य, किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा गृह्णाति इत्यमुमर्थमभिधित्सुराह भासासमसेढीओ, सईज सुणइ मीसयं सुणई। वीसेढी पुण सई, सुणेइ नियमा पराघाए ॥६॥ | व्याख्या-भाष्यत इति भाषा, वक्रा शब्दतयोत्सृज्यमाना द्रव्यसंहतिरित्यर्थः, तस्याः समश्रेणयो भाषासमश्रेणयः, समग्रहणं विश्रेणिब्युदासाथै, इह श्रेणयः क्षेत्रप्रदेशपङयोऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्यन्ते, यासूत्सृष्टा सती भाषाऽऽद्यसमय एव लोकान्तमनुधावतीति, ता इतो भाषासमश्रेणीतः, इतो गतः प्राप्तः स्थित इत्यनान्तरम् , एतदुक्तं भवति-भाषासमश्रेणिव्यवस्थित इति । शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः-भाषात्वेन परिणतः पुद्गलराशिस्तं शब्द 'य' पुरुषाश्वादिसंबन्धिनं शृणोति गृह्णात्युपलभत इति पर्यायाः, यत्तदोनित्यसंबन्धात्तं मिश्रं शृणोति, एतदुक्तं भवति-व्युत्सृष्टद्रव्यभावितापान्तरालस्थशब्दद्रव्यमिश्रमिति । विश्रेणिं पुनः इत इति वर्तते, ततश्चायमों भवति-विश्रेणिब्यवस्थितः पुनः श्रोता 'शब्द' इति, पुनः शब्दग्रहणं पराघातवासितद्रव्याणामपि तथाविधशब्दपरिणाम भाषावर्गणाइन्वेति. दीप अनुक्रम ~ 30 ~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यकन ख्यापनार्थ, शृणोति 'नियमात् नियमेन पराघाते सति यानि शब्दद्व्याणि उत्सृष्टाभिघातवासितानि तान्येव, न हारिभदी पुनरुत्सृष्टानीति भावार्थः । कुतः ?-तेषामनुश्रेणिगमनात् प्रतीघाताभावाच, अथवा विश्रेणिस्थित एवं विश्रेणिरभिधीयते, यवृत्तिः [४ापदेऽपि पदावयवप्रयोगदर्शनात 'भीमसेनः सेनः सत्यभामा भामा' इतिगाथार्थः ॥ ६॥ केन पुनर्योगेन एषां वारद्रव्याणां विभा ग्रहणमुत्सर्गो वा कथं वेत्येतदाशङ्कय गुरुराहगिण्हइ य काइएणं, निस्सरइ तह वाइएण जोएणं । एगन्तरं च गिण्हइ, णिसिरइ एगंतरं चेव ॥७॥ व्याख्या-तत्र कायेन निवृत्तः कायिकः तेन कायिकेन योगेन, योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनन्तरं, सर्व एव हि वता कायक्रियया शब्दद्रव्याणि गृह्णाति, चशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चाप्यवधारणे, तस्य च व्यवहितः संवन्धः, गृह्णाति दिकायिकेनैव, निसृजत्युत्सृजति मुन्नतीति पयोया,तथेत्यानन्तयार्थः, उक्तिर्वाक वाचा निवृत्तो वाचिकस्तेन वाचिकेन योगेन। कथं गृह्णाति निसृजतीति वा ? किमनुसमयं उत अन्यथेत्याशङ्कासंभवे सति शिष्यानुग्रहार्थमाह-एकान्तरमेव गृह्णाति, निसृजति एकान्तरं चैव, अयमत्र भावार्थ:-प्रतिसमयं गृह्णाति मुश्चति चेति, कथम् ?, यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं,8 पुरुषाद्वापरुषोऽनन्तरोऽपि सन्निति, एवमेकैकस्मात्समयाद एकैक एवं एकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः । अयं गाथासमुदा-दा यार्थः। अत्र कश्चिदाह-ननु कायिकेनैव गृह्णातीत्येतद् युक्तं, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात् , निसृजति तु कथं वाचिकेन !, को 'ते हुग्या' इति सूत्रेण पूर्वस्योत्तरस्य वा लोपात् पदावयवायोगेण सम्पूर्णपदोपस्थित्या सदवबोधः, एवं च समस्तस्थल एवायं च तु भ्यस्तस्थले. SARAKA 2-54-2-54 ~ 31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 1 प्रत सूत्राक वाऽयं वाग्योग इति । किं वागेव व्यापारापन्ना आहोश्चित् तद्विसर्ग हेतुः कायसंरम्भ इति ?, यदि पूर्वो विकल्पः, स खल्वयुक्तः, तस्या योगत्वानुपपत्तेः, तथा चन वाकेवला जीवव्यापारः,तस्याः पुद्गलमात्रपरिणामरूपत्वात्, रसादिवत् , योगश्चात्मनः शरीरवतो व्यापार इति, न च तया भाषया निसृज्यते, किन्तु सैव निसृज्यत इत्युक्तं, अथ द्वितीयः पक्षः, ततः स कायव्यापार एवेतिकृत्वा कायिकेनैव निसृजतीत्यापन्नं, अनिष्टं चैतत् इति, अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् तदभावप्रसझात्, ततश्चात्मनः शरीरच्यापारे सति येनै शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, येन तु कायसंरम्भेण तान्येव मुश्चति स वाचिक इति, तथा येन मनोद्रब्याणि मन्यते स मानस इति, कायव्यापार एवार्य व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यत्तोऽदोषः। तथा एकान्तरं च गृह्णाति, निसृजत्येकान्तरं चैव' इत्यत्र केचिदेकैकव्यवहितं एकान्तरमिति मन्यन्ते, तेषां च विच्छिन्नरत्नावलीकल्पो ध्वनिरापद्यते, सूत्रविरोधश्च, यत उक्त-"अणुसमयमविरहियं निरन्तरं गिण्हइ" त्ति । आह-यत्पुनरिदमुक्तं "संतरं निसरति, नो निरंतर 12 एगेणं समएणं गिण्हति, एगेणं णिसरती"त्यादि, तत्कथं नीयते ?, उच्यते, इह ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तरोऽभिहितः, एतदुक्तं भवति"यथा आदिसमयादारभ्य प्रतिसमयं ग्रहणं, नैवं निसर्ग इति, यस्मादाधसमये नास्तीति, ग्रहणमपि निसगापेक्षया सान्तरमापद्यत इति चेत्, न, तस्य॑ स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य च ग्रहणपरतन्त्रत्वात् , यतो नागृहीतं निस शब्दनन्यसंहतिरूपा भाषा. २ इतिहेतोः ३ व्यापारविशेषेण, ४ समयस्य सूक्ष्मतमत्वेन आह-सूत्रेत्यादि ५ व्याख्यावत इत्वा, भगव्याख्यानेन विरुद्धतमत्वात्. ५ पूर्वमगृहीतत्वात् गृहीतानां च द्वितीयसमये निसर्गात.. गृहीतानां विना निसरी प्रहणाभावात् सान्तरता यथा तथा निसर्जने एवं ग्रहणाहणस्थापि सान्तरतेत्यर्थः. ८ प्रहमस्य-पूर्वसमयेऽनिसर्गेऽपि प्रणादित्यर्थः, निसर्जनं तु गृहीतानामेवेति तख परतन्त्रावं. दीप अनुक्रम ~ 32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत हारिभद्री| यवृत्तिः विभागः १ १५॥ सूत्राक ज्यत इति, अतः पूर्वपूर्वग्रहणसमयापेक्षया सान्तरव्यपदेश इति । तथा एकेन समयेन गृह्णाति एकेन निसृजति, किमुक्त भवति ?-ग्रहणसमयानन्तरेण सर्वाण्येव तत्समयगृहीतानि निसृजतीति । अथवा एकसमयेन गृह्णात्येव, आद्येन, न | निसृजति, तथा एकेन निसृजत्येव, चरमेण, न गृह्णाति, अपान्तरालसमयेषु तु ग्रहणनिसर्गावर्थगम्यौ इत्यतोऽविरोध इति । आह-ग्रहणनिसर्गप्रयलो आत्मनः परस्परविरोधिनी एकस्मिन्समये कथं स्यातामिति, अत्रोच्यते, नायं दोषः, एकसमये, कर्मादाननिसर्गक्रियावत् तथोत्पादव्ययक्रियावत् तथाऽङ्गुल्याकाशदेशसंयोगविभागक्रियावच्च क्रियायस्वभावोपपत्तेरिति गाथार्थः॥७॥ यदुक्तं-'गृह्णाति कायिकेन' इत्यादि, तत्र कायिको योगः पञ्चप्रकारः, औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदभिन्नत्वात्तस्य, ततश्च किं पश्चप्रकारेणापि कायिकेन गृह्णाति आहोस्विदन्यथा इत्याशङ्कासंभवे सति तदपनोदायेदमाहतिविहं मि सरीरंमि, जीवपएसा हवन्ति जीवस्स । जेहि उ गिण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥८॥ __ व्याख्या-'त्रिविधे त्रिप्रकारे, शीर्यत इति शरीर तस्मिन् , औदारिकादीनामन्यतम इत्यर्थः, जीवतीति जीवः तस्य प्रदेशाः जीवप्रदेशाः, भवन्ति, एतावत्युच्यमाने 'भिक्षोः पात्र' इत्यादौ षष्ठया भेदेऽपि दर्शनात् मा भूदू भिन्नप्रदेशत निसर्गात्, २ समयेन. ३ प्रागिति. १ अापत्तितो शेयी, अन्यथाऽऽधानन्यसमयग्रहणनिसर्गावधारणानुपपत्तेः. ५ मनोवाकाययोगानामात्मन्यापाररूपस्वात् , भात्मनकत्वात् , एकसमये परस्परविस्तुफियाकरणानुपपतिरित्यर्थः. यावदन्तिम गुणस्थानं भाथ्येव बन्धः कर्मणा, तद्विपाकवेदतश्च निसर्गः तेषामनुसमर्थ, आगमोपपछे च तस्मिन्नविरोधो वया तथाऽनापीत्यर्थः, * प्रदर्शनात्. दीप अनुक्रम HT॥१५॥ ~ 33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक याऽप्रदेशात्मसंप्रत्यय इत्यत आह-जीवस्य आत्मभूतां भवन्ति, ततश्चानेन निष्प्रदेशजीवादिनिराकरणमाह, सति निष्प्रदेशत्वे करचरणोरुग्रीवाद्यवयवसंसगाभावः, तदेकत्वापत्ते, कथम् -करादिसंयुक्तजीवप्रदेशस्य उत्तमाङ्गादिसंबद्धात्मप्रदेशेभ्यो भेदाभेदविकल्पानुपपत्तेरिति । य: किं करोतीत्याह-'यस्तु गृह्णाति' तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ४-न सर्वदैव गृह्णाति, किन्तु तत्परिणामे सति, किं ?-गृह्यत इति ग्रहण, ग्रहणमिति “कृत्यल्युटो बहुलं" (पा०३-३-११३) इतिवचनात्कर्मकारकं, शब्दद्रव्यनिवहमित्यर्थः, 'ततो' गृहीत्वा 'भाषते' वक्ति, भाषत इति भाषकः क्रियाऽऽविष्ट इत्यर्थः, अनेन निष्क्रियात्मवादब्यवच्छेदमाह,सति तस्मिन्निष्क्रियत्वात् अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वाद्भाषणाभावप्रसङ्गः, काम् ?भाष्यत इति भाषा तां भाषां । आह-'ततो भाषते भाषक' इत्यनेनैव गतार्थत्वादापाग्रहणमतिरिच्यते इति, न, अभिप्राया-3 परिज्ञानात् , यह भाष्यमाणैव भायोच्यते, न पूर्व नापि पश्चादू, इत्यस्यार्थस्य ख्यापनाय भाषाग्रहणमदुष्टमेवेति गाथार्थः ॥८॥ यदुक्तं-'त्रिविधे शरीरे' इत्यादि, तत्र न ज्ञायते कतमस् वैविध्यमिति, अतस्तदभिधातुकाम आहओरालियवेउब्बियआहारो गिण्हई मुयइ भासं । सचं मोसं सचामोसं च असबमोसं च ॥९॥ अभेदपच्या तप्रस्थाः प्रदेशा जीवाभिन्नाः, गुतदेव च जीवस्येस्युच्चारणे फलं, अन्यथा 'जीवप्रदेशा' इत्यनेन संबद्धार्थाचगमात, २ नैयायिकवैशेषिकादयः, तन्मते हि नित्यं निरवयवमेव, सावयवत्वे हि कार्यत्वापश्या अनित्यत्वापत्तिः, घटादीनामिव । ३ करचरणादयो हिसावयवा इत्युभयसंमतं, आत्मा च |सैः प्रत्यवयवमेव संयुज्यते, संयोगा स्यात्तदा यदि स्वादारमा सावयवः, प्रतिपदेशं च संयोगवान् , ततो निष्पवेशे करचरणाद्यवयवसंयोगो न स्वादात्मनः, संसमें हि निष्प्रदेशस्यात्मनः कादिभिः, करादीनामपि निष्प्रदेशकारमनः प्रत्ययययेन संसर्गात्स्वरूपापत्या निष्प्रदेशत्वेनैकत्वापत्तिः, भेदे सावयवत्वाप्रतिशातहानिः, अनेदे भिशापयवसंयोगानुपपत्तेस्तदेकतरेण सारमकता न सरित्यनिष्टेः. ५जीवप्रदेशः भाषणपरिणामे. ७ निस्क्रिय आत्मनि. दीप अनुक्रम SAREnatiithtimamana ~ 34~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥१६॥ सूत्राक व्याख्या-तत्र औदारिकवानौदारिकः, इहौदारिकशब्देनाभेदोपचाराद् मतुब्लोपाद्वा औदारिकशरीरिणो ग्रहणमिति, हारिभद्रीएवं वैक्रियवान्वैक्रियः, आहारकवानाहारक इति । असौ औदारिकादिः, 'गृह्णाति' आदत्ते 'मुञ्चति' निसृजति च, भाष्यत || इति भाषा तां भाषा, शब्दप्रायोग्यतया तद्धावपरिणतन्यसंहतिमित्यर्थः। किविशिष्टामित्याह-सतां हिता सत्या, सन्तो मुनय-टि। विभागः१ स्तदुपकारिणी सत्येति, अथवा सन्तो मूलोत्तरगुणास्तदनुपघातिनी सत्या, अथवा सन्तः पदार्था जीवादयः तद्धिता तत्प्रत्यायनफला जनपदसत्यादिभेदा सत्येति, तां सत्यां, सत्याया विपरीतरूपा क्रोधाश्रितादिभेदा मृषेति तां, तथा तदु-1४ भयस्वभावा वस्त्वेकदेशप्रत्यायनफला उत्पन्न मिश्रादिभेदा सत्यामृषेति तां, तथा तिसृष्वप्यनधिकृता शब्दमात्रस्वभावाऽऽमन्त्रण्यादिभेदा असत्यामृषेति तां च, चशब्दः समुच्चयार्थः,आसां च स्वरूपमुदाहरणयुक्तानां सूत्रदिवसेयमिति माथार्थः ॥९॥ आह-औदारिकादिः गृहाति मुञ्चति च भाषां' इत्युक्त, सा हि मुक्ता उत्कृष्टतः कियत्क्षेत्रं व्याप्नोतीति, उच्यते, दीप अनुक्रम ॥१६॥ प्रज्ञापनावाः, यतस्तन्त्र भाषालक्षणं पदमेकादशं "जणवय । सम्मय २ ठवणा ३ नामे रुवे ५ पदुश्च ६ सच्चे य । ववहार • भाव ८ जोगे | इसमे ओवम्मसथे १० य ॥१॥ कोहे माणे २ माया ३ लोभे ? पेजे ५ तहेव दोसे ६ य । हासे ७ भए ८३ खाइय ९ ज्वघाइयणिस्सिया १० दसG ॥३॥ भामंतणी आणवणी २ जायणी ३ वह पुच्छणी ४ व पपणवणी ५ । पञ्चवाणी ६ भासा, भासा इच्छाशुलोमा य॥३॥ अणभिमहिया- W | भासा, भासा म अभिगाइमि ९ बोरया । संसथकरणी भासा योगद १ अबोगदा १३ व ४॥ इति सत्यासत्यासत्यामृषास्वरूपं, सत्यमृषा तु | 'उप्पणमीसिया । विगयमी सिया २ वपणविगयमीसिभा ३ जीवमिस्सिया ४ अजीवमिस्सिा ५ जीवाजीवमिस्सिा ६ अर्णतमिस्सिा परित्तमि| रिसा ८ भवामिरिसा १ भदामीसिभा ... ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक SRO समस्तमेव लोकमिति, आह-यद्येवं 'कइ.' त्तिगाहा, अयं सूत्रतोऽभिसंबन्धः, अथवाऽर्थतः प्रतिपाद्यते, आह-द्वाद शभ्यो योजनेभ्यः परतो न शृणोति शब्द, मन्दपरिणामत्वात्तद्रव्याणामित्युक्तं, तत्र किं' परतोऽपि द्रव्याणामागतिसरस्ति ?, यथा च विषयाभ्यन्तरे नैरन्तैर्येण तद्वासनासामर्थ्य, एवं बहिरप्यस्ति उत नेति, उच्यते, अस्ति, केपाञ्चित् कृत्स्ना लोकव्याप्तेः, आह—यद्यकाहि समएहि लोगो, भासाइ निरन्तरं तु होइ फुडो । लोगस्स य कहभागे, कहभागो होह भासाए ॥१०॥ ____ व्याख्या-कतिभिः समयैः' 'लोक' लोक्यत इति लोकः चतुर्दशरज्ज्वात्मक क्षेत्रलोकः परिगृह्यते, भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टः व्याप्तः पूर्ण इत्यनान्तरं, लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः,॥१०॥ अत्रोच्यतेचउहि समएहि लोगो, भासाइ निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए ॥११॥ व्याख्या-चतुर्भिः समयैर्लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टः, आह-किं सर्वथैव भाषया उत विशिष्टयैवेति, | उच्यते, विशिष्टया, कथम् ?-इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति, सह्यभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि विसृजति, तानि च पूर्वसूचे 'ओरालियवेतिये खादिप्रतिपादनात २'भासासमसेवीभो' इत्यादी श्रोत्रेन्त्रिवादीनो हादशयोजनादिरूपख विषयस प्रतिपादनात् पृत्तिकृता. मन्दपरिणामलक्षणं विशेषहेतु श्रुत्वा अवगती प्रभा द्वादशसु योजनेषु, विषयकथनात् सन्दगव्याणां वासकत्वात् वाखः पूर्णत्त्वाच लोकस्पेति वा. धोनेन्द्रियामाश्वेऽनुमानज्ञापनाय कपाधिविलादि पान्दनव्याणां केषाशिलोकव्याक्षिप्रतिपत्ती. नतु पञ्चातिकावरूपो सम्यक्षेत्रादिरूपो पा.९ परमाणोः सप्तपदेशा यथा स्पना तथा नाओत्यनर्थान्तरदर्शनं. * सर्वयैव 1--५-६. दीप AC-TECCOCCASCCSC अनुक्रम ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ॥१७॥ सूत्राक - आवश्यक- विसृष्टानि असंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूलत्वाच्च विभिद्यन्ते, भिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्या- हारिभ गमेव कुर्वन्ति, कश्चित्तु महाप्रयत्नः, स खलु आदाननिसर्गप्रयलाभ्यां मित्त्वैव विसृजति, तानि च सूक्ष्मवादहुत्वाचायवृत्तिः अनन्तगुणवृद्ध्या वर्धमानानि षटूसु दिक्षु लोकान्तमामुपन्ति, अन्यानि च तत्पराघातवासितानि वासनाविशेषात् समस्तं विभागः१ लोकमापूरयन्ति, इह च चतुःसमयग्रहणात् त्रिपञ्चसमयग्रहणमपि प्रत्येतव्यं, तुलादिमध्यग्रहणवत्, तत्र कथं पुनत्रिभिः समयैः लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्ट इति ?, उच्यते, लोकमध्यस्थवक्तृपुरुषनिसृष्टानि, यतस्तानि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावन्ति, जीवसूक्ष्मपुद्गलयोः 'अनुश्नेणि गतिः' (तत्त्वार्थ० अ०२ सूत्र २७) इति वचनात् , दाद्वितीयसमये तु त एव हि षटू दण्डाश्चतुर्दिशमेकैकशो विवर्धमानाः षटू मन्थानो भवन्ति, तृतीयसमये तु पृथक पृथक् तदन्तरालपूरणात् पूर्णो भवति लोक इति, एवं त्रिभिः समयैर्भाषया लोकः स्पृष्टो भवति, यदा तु लोकान्तस्थितो* वा भाषको यक्ति, चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि नाड्या बहिरवैस्थितस्तदा चतुर्भिः समयेरापूर्यत इति, कथम् , एकसमयेन अन्तर्नाडीमनुप्रंविशति, योऽन्ये पूर्ववद्रष्टव्याः, यदा तु विदि व्यवस्थितो पक्ति, तदा पुद्गलानामनुश्रेणिगमनात् समयदयेनान्तनोंडीमनुप्रविशति, शेषसमयत्रयं पूर्ववद्रष्टव्यमित्येवं पञ्चभिः समयैरापूर्यत इति । अन्ये तु जैनस CCCC दीप अनुक्रम असंख्येवाः स्कन्धान तु परमाणवोऽसंख्येया तीनवनवकृविमएदव्यापेक्षया. जायतेऽनेन प्रसाणागतिव्यवस्थितिश्च नाया बहिः जन्मायभावच नस्लोकरीत्या नराणामिय न तोति चानुमीयते. ४ तथास्वाभाब्यादेव अनुकूलसामायभावावा बहिर्ना उषा न श्रेपयारम्भ इति. ५ व्यावहारिकी विदियत्र, सम्पथा व्यवस्थानाभावात्. * स्थूरत्वाच-३-५-६.+ वो वा १-२-३-५. ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक मुद्घातगत्या लोकापूरणमिच्छन्ति, तेषां चाद्यसमये भाषायाः खलु ऊर्धाधोगमनात् शेषदिक्षु ना मिश्रशब्दश्रवणसंभवः, उक्तं चाविशेषेण-"भासासमसेढीओ, सई जं सुणइ मीसयं सुणइ (६)त्ति । अथ मतं-'व्याख्यानतोऽर्थप्रतिपत्ति' xइति न्यायाद्दण्ड एव मिश्रश्रवणं भविष्यति, न शेषदिविति, ततश्चौदोष इति, अत्रोच्यते, एवमपि त्रिमिः समयैर्लोका पूरणमापद्यते, न चतुःसमयसंभवोऽस्ति, कथम् ?-प्रथमसमयानन्तरमेव शेषदिक्षु पराघातद्रव्यसद्भावात् द्वितीयसमय एव। मन्थानसिद्धेः, तृतीये च तदन्तरालापूरणात् इति । आह-जैनसमुदूघातवच्चतुर्मिरेवापूरणं भविष्यतीति को दोष इति, अत्रोच्यते, न, सिद्धान्तापरिज्ञानातू, इह जैनसमुद्घाते स्वरूपेणापूरणात्, न तत्र परीघातद्रव्यसंभवोऽस्ति, सकर्मकजीCीवव्यापारत्वात्तस्य, ततश्च कपाटनिवृत्तिरेव तत्र द्वितीयसमय इति, शब्दद्रव्याणां त्वनुश्रेणिगमनात्पराघातद्न्यान्तरवा सकस्वभावत्वाच्च द्वितीयसमय एव मन्थानापत्तिरिति, अचित्तमहास्कन्धोऽपि वैनसिकत्वात् पराघाताभावाच्च चतुर्भि(रेव पूरयति, न चैवं शब्द इति, सर्वत्रानुश्रेणिगमनात् , इत्यलमतिविस्तरेण, गमनिकामात्रमेवैतत् प्रस्तुतमिति । यदुक्त'लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः' इति, तत्रेदमुच्यते-'लोकस्य च' क्षेत्रगणितमपेक्ष्य 'चरमान्ते। असंख्येयभागे 'चरमान्तः' असंख्येयभागो भवति 'भाषायाः' समग्रलोकव्यापिन्याः इति गाथार्थः ॥११॥ * केवलिसमुद्घातमांदया. कांधोदण्डभागस्थितनोतुः श्रुतेर्मिनशब्दसा, चतुरनुलादिमानो दण्डो बनानुसारेण । वासहन्यसंभवः. ५ समुघा-2 तस्व. ५ वैनसिकत्वाभावात्तस्य परापात (वास) अन्याभावरहितत्वाच. ६ जाधोदण्डभवनानन्तरं चतम दिक्ष अनुश्रेणि गमनान् मन्धान संपत्तिरित्यर्थः । क्षेत्र आकाशस्य गणितं लोकप्रदेशद्वारा गणनमसंख्येयरूपं. 1 नेदम्. 1 श्रषणासं०. *मा. + स्वभावाच . दीप अनुक्रम T ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: हारिभद्रीयवृत्तिः [विभागः१ प्रत सुत्रांक 'तत्त्व-भेद-पर्यायैर्व्याख्या' इति न्यायात तत्त्वतो भेदतश्च मतिज्ञानस्वरूपमभिधाय इदानीं नानादेशजविनेयगणसुखप्रतिपत्तये तत्पर्यायशब्दान् अभिधित्सुराह ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सपणा सई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥१२॥ व्याख्या-'ईह चेष्टायां' ईहनमीहा सतामर्थानां अन्वयिनां व्यतिरेकिंणां च पोलोचना इतियावत्, अपोहन अपोहः निश्चय इत्यर्थः, विमर्शनं विमर्शः ईहाया उत्तरः, प्रायः शिरकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा घटन्ते इति संप्रत्ययो विमर्शः, तथा अन्वयधर्मान्वेषणा मार्गणा, चशब्दः समुच्चयार्थः, व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा, तथा संज्ञानं संज्ञा, व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, स्मरणं स्मृतिः, पूर्वानुभूतार्थालम्बनः प्रत्ययः, मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरिति, तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिरित्यर्थः, सर्वमिदं 'आभिनिवोधिकं' मतिज्ञानमित्यर्थः, एवं किञ्चिद्भेदाभेदः प्रदर्शितः, तत्त्वतस्तु मतिवाचकाः सर्व एवैते पर्यायशब्दा इति गाथार्थः ॥१२॥ तत्त्वभेदपर्यायैर्मतिज्ञानस्वरूपं व्याख्यायेदानीं नवभिरनुयोगद्वारैः पुनस्तद्रूपनिरूपणायेदमाहविसंतपय परूवणया दब्बपमाणं च खित्त फुसणा य । कालो अ अंतरं भाग, भावे अप्पाबहुं चेव ॥ १३ ॥ गइ इंदिए य कौए, जोए वेऐ कसाय लेसासु सम्मतनाणेदसणसंजयउवओगे आहारे ॥१४॥ "मस्थाणं ओमाहणं" (गाथा ३) "उम्मद इंहावाभो य" (गाथा २) भेददर्शनद्वारा भेदलक्षणाख्यानद्वारा च. + लम्बनम०२-३-४ दीप अनुक्रम आभिनिबोधिक-ज्ञानस्य पर्याया: एवं संतपदादि अनुयोगा: ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः भासँग परिक्त पर्जतं सुमे" सण्णी" य होइ भवं चरिमें "आभिणिबोहिअनाणं, मग्गिजइ एस ठाणेसु ॥ १६५ ॥ व्याख्या -- सच्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता गत्यादिभिर्द्वारैराभिनियोधिकस्य कर्त्तव्येति, अथवा सद्विषयं पदं सत्पदं शेषं पूर्ववत्, आह-किमसत्र्पदस्यापि प्ररूपणा क्रियते १ येनेदमुच्यते 'सत्पदप्ररूपणेति' क्रियत इत्याह खरविषाणादेरसत्पदस्यापीति, तस्मात् सद्ग्रहणमिति, अथवा सैन्ति च तानि पदानि च सत्पदानि गत्यादीनि तैः प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं मतेरिति । तथा 'द्रव्यप्रमाणं' इति जीवद्रव्यप्रमाणं वक्तव्यं, एतदुक्तं भवेति - एकस्मिन् समये कियन्तो मतिज्ञानं प्रतिपद्यन्त इति, सर्वे वा कियन्त इति, चः समुच्चये, 'क्षेत्रं' इति क्षेत्रं वक्तव्यं, कियति क्षेत्रे मतिज्ञानं संभवति, 'स्पर्शना च' वक्तव्या, कियत् क्षेत्रं मतिज्ञानिनः स्पृशन्ति, आह— क्षेत्रस्य स्पर्शनायाश्च कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रं, स्पर्शना तु तद्वाह्यतोऽपि भवति, अयं विशेष इति चशब्दः पूर्ववत्, कालश्च वक्तव्यः, स्थित्यादिकालः, अन्तरं च वक्तव्यं प्रतिपत्त्यादाविति, भागो वक्तव्यः, मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनां कतिभागे वर्त्तन्त इति, तथा भावो वक्तव्यः, कस्मिन् भावे मतिज्ञानिन इति, अल्पबहुत्वं च वक्तव्यं, आह-भागद्वारादेवायमर्थोऽवगतः, ततश्चालम नेनेति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह मतिज्ञानिनामेव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापेक्षया अल्प पूर्व हि पदस्य सत्यं अत्र तु वाप्यखेति न संभवव्यभिचाराभावेन विशेषणानर्थक्यं २ असदर्शविषयस्य. ३ वाच्यविचारणाप्रक्रमाद. ४ मतेर्गुणत्या जीवाभावाच ५ जीवध्यमाणस्याप्रासङ्गिकत्वापतेः ६ अभेदोपचारातद्वान् अपिनाऽवगा दक्षेत्रसमुषायः. ८ आदिना प्रतिपत्तिकालः सुषमादिः, ९ आदिना प्रतिपद्यमानतायाः, प्राह्मनाशोचरोत्पादान्तराचं प्रतिपश्यन्तराकं तचान्तर्मुदि वक्ष्यमाणं उभयोः प्रतिपाद्यमानयोर्द्वितीयं विरहकालोऽत्र समयादिः *त्यादिः कालः १. Education Internation For Parts Only ~40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥१९॥ सूत्राक A% |बहुत्वं वक्तव्यमिति समुदायार्थः । इदानी प्रागुपन्यस्तैगाथाद्वयेनाभिनिवोधिकस्य सत्पदप्ररूपणाद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते, हारिभद्रीकथम् ?, अन्विष्यते 'आभिनिबोधिकज्ञानं किमस्ति नास्तीति,' अस्ति, यद्यस्ति क तत् , तेत्र 'गताविति' गतिमङ्गीकृत्या-1 यदृत्तिः लोच्यते, सा गतिश्चतुर्विधा-नारकतिर्यङ्नरामरभेदभिन्ना, तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ आभिनियोधिकज्ञानस्य पूर्वप्रति-14विभागः१, पन्ना नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितैकाले भाज्याः, कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्नेति, तत्र प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये तत्प्रथमतयाऽऽभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, प्रथमसमय एव, शेषसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्ति । तथा 'इन्द्रियद्वारे' इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य मृग्यते, तत्र पश्चेन्द्रियाः पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीया | इति, द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानाः, एकेन्द्रियास्तु उभयविकलाः २ । तथा 'काय इति' कायमङ्गीकृत्य विचार्यते, तत्र त्रसकाये पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, इतरे तु भाज्याः, शेषकायेषु च पृथिव्यादिषु| उभयाभाव इति । तथा 'योग इति' त्रिषु योगेषु समुदितेथू पञ्चेन्द्रियवद्वक्तव्यं, मनोरहितवाग्योगेषु विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगे तूभयाभाव इति । तथा 'वेद इति' त्रिष्वपि वेदेषु विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपन्ना अवश्यमेव सन्ति, इतरे SAR % 15% दीप अनुक्रम 6425* ॥ १९॥ ज्ञानादावतिदेशसुगमवाय तिसूणां सहोपन्यासः, यहा 'आभिणियोहियनाणं मग्गिजइ एसु ठाणेसु' तिवचनात् तिसूणां गाधानामेकवाफ्यतेति सहो- पन्यासः. २ द्वारगाथयोः बारेषु विधाती. ३ छस्थमरूपकापेक्षया चेदं, सर्वज्ञानां तु निश्चिते एवं प्रतिपद्यमानतेतरे. ४ विवक्षितलायुपयोगस्थित्यपेक्षया, न। त्वपूर्वांवात्यपेक्षया. ५ स्थित्यपेक्षया. सम्धिपर्याप्तानां, करणापर्याप्तावस्थायाँ भवान्तरासादितसासादनसम्यक्त्वसमावसंभवात, सहचरितेषु, प्रत्येकरवाने वक्ष्यमाणत्वात् विकले सासादनाभ्युपगमेऽपि एकेन्द्रियेवनभ्युपगमात्तख. * नेदं ५-६. REarana NEntiaram.org ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः तु भाज्या इति ५। तथा कषाय इति द्वारं' कषायाः क्रोधमानमाया लोभाख्याः प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदभिन्ना इति, तत्राद्येषु अनन्तानुबन्धेषु क्रोधादिषूभयाभाव इति शेषेषु तु पश्चेन्द्रियेबद् योज्यम् ६ तथा 'लेश्यासु' चिन्त्यते, तत्र श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेश्याः कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबन्धादात्मनः परिणामा इत्यर्थः, तत्रोपरितनीषु तिसृषु लेश्यासु पञ्चेन्द्रियवद्योजनीयं इति, आद्यासु तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, नत्वितर इति ७। तथा 'सम्यक्त्वद्वारं' सम्यग्दृष्टिः किं पूर्वप्रतिपन्नः किं वा प्रतिपद्यमानक इति, अत्र व्यवहारनिश्चयाभ्यां विचार इति, तत्र व्यवहारनय आह— सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यमानकः आभिनिबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनमतिश्रुतानां युगपल्लाभात्, आभिनिवोधिकप्रतिपत्यनवस्थाप्रसङ्गाच्च । निश्चयनयस्वाह - सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपनः प्रतिपद्यमानश्च आभिनिबोधिकज्ञान लाभस्य, सम्यग्दर्शन सहायत्वात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात्, भेदे च क्रियाऽभावाविशेषात् पूर्ववद्वस्तुनोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गात् न चेरथं तत्प्रतिपत्त्यनवस्थेति ८ तथा 'ज्ञानद्वार' तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारं, मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवल भेदभिन्नं इति, अत्रापि व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां विचार इति, तत्र व्यवहारनयमतंमतिश्रुतावधिमनः पर्याय ज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना न तु प्रतिपद्यमानका इति मत्यादिलाभस्य सम्यग्दर्शन सहचरितत्वात्, केवली तु न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, तस्य क्षायोपशमिकज्ञानातीतत्वात्, तथा मत्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्गज्ञान १] सास्वादन कालस्यापवादविवक्षेति मलधारिपादाः २ शेषाणां पूर्वप्रतिपन्नत्वात् प्रतिपद्यमान भजना, पूर्वमवाप्याधुना तदुपयोगे तब्ध वा वर्त माना अग्र प्रतिपक्षत्वेन माझा नतु प्रतिपद्य व उज्झितवले. बन्धिषु ४ + नेदं १३. कलाभस्य १-३-५-६ वस्तुतो० ५-६. Eucation International For Penal Use On ~42~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत सूत्राक |वन्तस्तु विवक्षितकाले प्रतिपद्यमाना भवन्ति, न तु पूर्वप्रतिपन्ना इति । निश्चयनयमतं तु मतिश्रुतावधिज्ञानिनः पूर्वप्र-14 हारिभद्रीतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमाना अपि सम्यग्दर्शनसहचरितत्वात् मत्यादिलाभस्य संभवन्तीति, क्रियाकालनिष्ठा-|| कालयोरभेदात, मनःपर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एत्र, न प्रतिपद्यमानकाः, तस्य चं भावयतेरेवोत्पत्तेः, केवलिनां/विभागः१ तूभयाभाव इति । मत्याद्यज्ञानवन्तस्तु न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकाः, प्रतिपत्तिक्रियाकाले मत्याद्यज्ञानाभावात् , क्रियाकालनिष्ठाकालयोश्चाभेदात्, अज्ञानभावे च प्रतिपत्तिक्रियाऽभावात् ९ । इदानीं 'दर्शनद्वारं', तद्दर्शन चतुर्विध, चक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदभिन्नं, तत्र चक्षुर्दर्शनिनः अचक्षुर्दर्शनिनश्चै,किमुक्तं भवति ?-दर्शनलब्धिसम्पन्नानत दर्शनोपयोग |गिन इति 'सधाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स उप्पैजई' इति वचनात्, पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, अवधिदर्शनिस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एवे, न तु प्रतिपद्यमानकाः, केवलदर्शनिनस्तूभयविकला इति १० । 'संयत इति द्वारं', संयतः पूर्वप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यमान इति ११ । 'उपयोगद्वारं' स च द्विधा-साकारोऽनाकारश्च, तत्र साकारोपयोगिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, अनाकारोविशेषेति. २ शामज्ञानिनोरभेदान् आभिनियोधिकज्ञानवन्त इति बोध्यम्. ३ साकारानाकारयोः उपयोगयोगपद्याभावात् किम्वित्यादि. ४ एसदुपयोग ॥२०॥ वन्तः, न चारतात एव लब्धिचिन्ता पूर्ववत्. ५ इष्टावधारणार्थत्वादेवकारस्य अतिपयमानानां निषेधार्यवः, नतु मिथ्यात्वतां भवधिदानव्यवच्छेदाय, यहा। तस तद्वतामवश्यंभावान् साकारोपयोगोपयुकानामेव मतिज्ञानवोत्पत्तेः ७ 'नइंमि उछाउम स्थिए नाणे' इति सिद्धान्तमजीकृत्य. * नास्तीदम् ५-६.1 [+ अस्पचन्चे १-२-३-५-६. दीप +९ अनुक्रम ५५-2 T Mustaram.org ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक |पयोगिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव न प्रतिपद्यमानकाः । १२ अधुना आहारकद्वार, आहारकाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीया विवक्षितकाल इति, अनाहारकास्तु अपान्तरालगतौ पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रति-| |पद्यमानका इति १३ । तथा 'भाषक इति द्वारं', तत्र भाषालब्धिसंपन्ना भाषकाः, ते' भाषमाणा अभापमाणा वा पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भजनीया इति, तल्लब्धिशून्याश्चोभयविकला इति १४ । 'परीत इति द्वारं', तत्र परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, साधारणास्तु उभयविकला इति १५ । 'पर्याप्तक इति द्वार', तत्र पनिराहारादिपर्याप्तिभिर्ये पर्याप्तास्ते पर्याप्तकाः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानास्तु भजनीया इति, अपयोप्तकास्तु षट्पयोत्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नाः15 संभवन्ति, न वितरे १६ । 'सूक्ष्म इति द्वारं', तत्र सूक्ष्माः खलूभयविकलाः, बादरास्तु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, | इतरे तु विवक्षितकाले भाज्या इति १७ । तथा 'संज्ञिद्वार' तत्रेह दीर्घकालिक्युपदेशेन संज्ञिनः प्रतिगृह्यन्ते, ते च बादरवद्वक्तव्याः , असंज्ञिनस्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न वितर इति १८ । 'भव इति द्वार', तत्र भवसिद्धिकाः संज्ञिवद्ध-18 क्तव्याः, अभवसिद्धिकास्तूभयशून्या इति १९ । 'चरम इति द्वार', चरमो भवो भविष्यति यस्यासौ अभेदोपचाराचरम | | इति, तत्र इत्थंभूताः चरमाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, इतरे तु भाज्याः, अचरमास्तूभयविकलाः, उत्तरार्धे तु व्याख्या संक्षिपञ्चेन्जियाणां पण्णां पर्याप्तीना संभवात , तत्र पावश्यभावातस्य.२ प्रतिपचमानका भव्या इत्यर्थः । जातिभव्यम्यवच्छेदः फार द्वारपायस्थ, 14 'माभिणियोहिषनाणं मस्जिद एसु ठाणेमु' ति तृतीयगाधोत्तरार्धकक्षण, 4 तेषां २. दीप अनुक्रम TEAC ॥ ~44~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥२१॥ सूत्राक - तमेव । कृता सत्पदप्ररूपणेति, साम्प्रतं आभिनिबोधिकजीवद्रव्यप्रमाणमुच्यते-तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य विवक्षितकाले हारिभद्रीकदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति, यदि भवन्ति जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्तु क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेश- यवृत्तिः राशितुल्या इति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणा एव, उत्कृष्टतस्तु एभ्यो विशे- Iविभागार पाधिका इति । उक्तं द्रव्यप्रमाणं, इदानीं 'क्षेत्रद्वारं', तत्र नानाजीवान एकजीवं चाङ्गीकृत्य क्षेत्रमुच्यते, तत्र सर्वे एवा-1 भिनिबोधिकज्ञानिनो लोकस्य असंख्येयभागे वर्तन्ते, एकजीवस्तु ईलिकागत्या गच्छन्नूर्व अनुत्तरसुरेषु सप्तसु चतुर्दशभागेषु वर्तते, तेभ्यो वाऽऽगच्छन्निति, अधस्तु षष्ठीं पृथ्वीं गच्छंस्ततो वा प्रत्यागच्छन् पञ्चसु सप्तंभागेषु इति, नातः परमधा क्षेत्रमस्ति, यस्मात् सम्यग्दृष्टेः अधः सप्तमनरकगमनं प्रतिषिद्धमिति, आह-अधः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यग्दर्शनलाभस्य प्रतिपादितत्वात् आगच्छतः पञ्चसप्तभागाधिकक्षेत्रसंभव इति, अत्रोच्यते, एतदप्येयुक्तं, सप्तमनरकात् | सम्यग्दृष्टेरागमनस्यौप्यभावात् , कथम् , यस्मात् तत उद्धृतास्तिर्यवेवागच्छन्तीति प्रतिपादितं, अमरनारकाच सम्यग्दृष्टयो मनुष्येष्वेव, इत्यलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । 'स्पर्शनाद्वारं' इदानीं, इह यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रमुच्यते, स्पर्शना तु -- - दीप - अनुक्रम --- यद्यपि हादायोजनाम्यलोकमुशन्ति तथापि म्यूमता तावतीन विवक्षितावाल्पेति.२ अधोलोकस्य सम भागान् कृत्वेदमुक्त, पूर्व चतुर्दशा लोकभागाला ॥२१॥ | अत्र स्वधोलोकभागा हलत्र विवक्षैव मान, भाष्यकारादिभिस्वनापि पञ्च चतुर्दशभागाः प्रसापादिषत. ३ सिवान्तकर्मग्रन्थोभयमतेनापि पान्तसम्यक्त्वानामेव सप्तमनरकगमनाभ्युपगमान, ४ गमन विषयवाशाया अपुकता अपिना, यहा क्षेत्रसंभवायोग्यता सम्पदाप्टेरागमनायोग्यता चेति भवनयितुं. ५ अधिक क्षेत्रस्य | परिप्रदोऽपिना. * स्वेतेभ्यो २-४ सुतेभ्यो . 1OLoamera ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [१५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ततोऽतिरिक्ता अवगन्तव्या यथेह परमाणोरेकप्रदेशं क्षेत्रं सप्तप्रदेशा च स्पैर्शनेति । तथा 'कालद्वारं', तत्रोपयोगमङ्गीकृत्य एकस्यानेकेषां चान्तर्मुहूर्त्तमात्र एव कालो भवति जघन्यत उत्कृष्टतश्च तथा तलब्धिमङ्गीकृत्य एकस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त मेव, उत्कृष्टतस्तु षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, वारद्वयं विजयादिषु गतस्य अच्युते वा वारत्रयमिति, नरभवकालाभ्यधिक इति, तत ऊर्ध्वमप्रच्युतेनापवर्गप्राप्तिरेव भवतीति भावार्थ:, नानाजीवापेक्षया तु सर्वकाल एवेति, न यस्मादाभिनिवोधिकलब्धिमच्छून्यो लोक इति । इदानीं 'अन्तरद्वार', तत्रैकजीवमङ्गीकृत्य आभिनिवोधिकस्यान्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, कथम् ?, इह कस्यचित् सम्यक्त्वं प्रतिपन्नस्य पुनस्तत्परित्यागे सति पुनस्तदावरणकर्मक्षयोपशमाद् अन्तर्मुहूर्त्त मात्रेणैव प्रतिपद्यमानस्येति, उत्कृष्टतस्तु आशातनाप्रचुरस्य परित्यागे सति अपार्धपुद्गलपरावर्त्त इति, उक्तं च- “तित्थगरपवयणसुर्य, आयरियं गणहरं महिहीयं । आसर्दितो बहुसो, अनंतसंसारिओ होई ॥१॥” तथा नानाजीवानपेक्ष्य अन्तराऽ| भाव इति । 'भाग इति द्वारं' तत्र मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनामज्ञानिनां चानन्तभागे वर्त्तन्ते इति । 'भावद्वारं इदानीं तत्र | मतिज्ञानिनः क्षायोपशमिके भावे वर्त्तन्ते मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य क्षायोपशमिकत्वात् । तथा 'अल्पबहुत्वद्वारं', तत्राभिनिबोधिकज्ञानिनां प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नापेक्षया अल्पबहुत्वविभागोऽयमिति तत्र सद्भावे सति सर्वस्तोकाः प्रतिपद्यमा १ अधिकेति २ चारो दिसका द्वावृध्वधोदिको एकश्रावगाहस्थानमिति सप्तप्रदेशा स्पर्शना. ३ 'अनेकाभिनियोधिक जीवानामपीदमेवोपयोगकामानं केवलमिदन्तर्मुहूर्त्तमपि वृहत्तरमवसेयं' इति विशेषावश्यकौ ४ तीर्थंकरं प्रवचनं श्रुतं आचार्य गणधरं महर्दिकम् (आमशौषध्यादिलब्धिमन्तं ) । आशातयन् बहुशः अनन्तसंसारिको भवति ॥ १ ॥ ५ भागद्वारात्पार्थक्यज्ञापनाय धारा० १-२-३-४-६ + आसादेतो. २४. Eucation Internationa For Parts On ~46~ ayor Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६/१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: यवृत्तिः विभागः१ प्रत ॥ २२॥ सूत्राक नका, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यपदिनस्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, तथोत्कृष्टपदिनस्तु एतेभ्योऽपि विशेषाधिका इति गाथावयवार्थः ।। १५ ।। साम्प्रतं यथाच्यावर्णितमतिभेदसंख्याप्रदर्शनद्वारेणोपसंहारमाह आभिणिबोहियनाणे, अट्ठावीसइ हवन्ति पयडीओ। अस्य गर्मनिका-'आभिनिवोधिकज्ञाने अष्टाविंशतिः भवन्ति प्रकृतयः' प्रकृतयो भेदा इत्यनान्तरं, कथम् 1, इह व्यञ्जनावग्रहः चतुर्विधः, तस्य मनोनयनवजेन्द्रियसंभवात् , अर्थावग्रहस्तु पोढा, तस्य सर्वेन्द्रियेषु संभवात् , एवं ईहावायधारणा अपि प्रत्येक षड्भेदा एव मन्तव्या इति, एवं संकलिता अष्टाविंशतिर्भेदा भवन्ति । आह-पागू अवहै ग्रहादिनिरूपणायां 'अस्थाणं उग्गहणे' इत्यादावेताः प्रकृतयः प्रदर्शिता एव, किमिति पुनः प्रदश्यन्ते !, उच्यते, तत्र सूत्रे संख्यानियमेन नोकाः, इह तु संख्यानियमेन प्रतिपादनादविरोध इति । इदं च मतिज्ञानं चतुर्विधं-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतः सामान्यादेशेन मतिज्ञानी सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानीते, न विशेषादे दीप अनुक्रम V ॥२२॥ गाथार्धस्स उपसंहारवाक्यस्य वा. संक्षिप्ता विवृतिः ३ प्राग्वन् मनस इन्द्रियता. गाथा (३). ५ तृतीयगाथारूपे. ६ अवनदादीनां संख्याभेदं प्रत्येक विधाय न प्रतिपादिताः, म्याना श्यामवरहस्य अर्याचप्रहावायधारणानां च यथावदिम्बियादिभेदेन सूत्रे प्रतिपादनाभावात्. ७ 'आदेसोति पगारो ओघादेखेण सचदमाईति (१०३) विशेषावश्यकवचनात् इव्यसामान्येन. ८न सर्वेचियोपैरियर्थः, क्रियतां पुनः पर्यावाणामधियमात. नयनमनो१-३-४-५. | आभिनिबोधिक ज्ञानस्य २८ कर्मप्रकृतयः ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६/१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: है प्रत सूत्राक शत इति, एवं क्षेत्रतो लोकालोक, कालतः सर्वकालं, भावतस्तु औदयिकादीन् पश्च भावानिति, सर्वभावानां चानन्तभार्गमिति । उक्तं मतिज्ञानं, इदानीं अवसरप्राप्तं श्रुतज्ञान प्रतिपिपादयिपुराह सुपणाणे पयडीओ, वित्थरओ आवि वोच्छामि ॥१६॥ व्याख्या-श्रुतज्ञानं पूर्व व्युत्पादितं तस्मिन् , प्रकृतयो भेदा अंशा इति पर्याया, ताः, 'विस्तरतः' प्रपञ्चेन, चशब्दात संक्षेपतश्च, अपिशब्दः संभावने, अवधिप्रकृतीश्च 'वक्ष्ये' अभिधास्ये ॥ १६ ॥ इदानीं ता एव श्रुतप्रकृतीः प्रदर्शयन्नाह पत्तेयमक्खराई, अक्खरसंजोग जत्तिआ लोए । एवइया पयडीओ, सुय नाणे हुंति णायब्वा ॥१७॥ व्याख्या-एकमेकं प्रति प्रत्येक, अक्षराण्यकारादीनि अनेकभेदानि, यथा अकारः सानुनासिको निरनुनासिकश्च, पुनरेकेकनिधा-हस्वः दीर्घः प्लुतश्च, पुनरेकैकखिधैव-उदात्तः अनुदात्तः स्वरितश्च, इत्येवमकारः अष्टादशभेदः, इत्येवमन्येष्वपिन इकारादिषु यथासंभवं भेदजालं वक्तव्यमिति । तथा अक्षराणां संयोगा' अक्षरसंयोगाः संयोगाश्च द्यादयः यावन्तो लोके | ACCOACCASE दीप अनुक्रम धांतिकायादीनामाधार योऽम्य इतस्था, २ अतीतामागतवर्तमानरूपम् । क्षेत्रादिष्वपि सामान्यादेशमखनुवर्तनीय, 'भावमीण भाभि|णियोहि भनाणी आएसेणं सो भाचे जाण'ति श्रीमन्दीसूत्रगतं वाषयमालम्वेदम्. सर्वभावबोधेन सर्वज्ञत्वात्तियों तद्वारणाय, 'मतिश्रुतबोनिबन्धः सर्वजम्वेष्वसबंपर्याये' इति तत्वार्थे अ० १ सूत्रम् २. आलमये, सर्वपर्यायाणामनन्तभागं युपते मतिज्ञानी, सनशानिनोः कथविदभेदादेयं शामिद्वारा। शानभेदानां कपनं. ५ लवणे दीर्घाभा सम्यक्षराणां स्वाभावं व्यजनानां हवाधभावं भावेश्य, पूर्वव्युत्पादितं १-२-४-५. + दम् २-४, अक्षरसंयोगान०१. SARERaunintamarana अथ श्रुतज्ञानस्य प्रतिपादनम् क्रियते ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक- प्रत ॥२३॥ सुत्राक यथा घटैपट' इति 'च्या हस्ती' इत्येवमादयः एते चानन्ता इति,तत्रापि एकैकः अनन्तपर्यायः, स्वपरपर्यायापेक्षया इति। हारिभद्रीआह-संख्येयानां अकारादीनां कथं पुनरनन्ताः संयोगा इति, अत्रोच्यते, अभिधेयस्य पुद्गलास्तिकायादेरनन्तत्वात् | यवृत्तिः |भिन्नाच्चि, अभिधेयभेदे च अभिधानभेदसिद्ध्या अनन्तसंयोगसिद्धिरिति, अभिधेयभेदानन्त्यं च यथा-परमाणुः, द्विप्र-विभागः१ देशिको, यावद् अनन्तप्रदेशिक इत्यादि, तथैकत्रापि च अनेकाभिधानप्रवृत्तेः अभिधेयधर्मभेष्दा यथा-परमाणुः, निरंशो, निष्प्रदेशः, निर्भेदः, निरवयव इत्यादि, न चैते सर्वथैकाभिधेयवाचका ध्वनय इति, सर्वशब्दानां भिन्नप्रवृत्तिनि|मित्तत्वात् , इत्येवं सर्वद्रव्यपर्यायेषु आयोजनीयमिति, तथा च सूत्रेऽप्युक्तं-"अणंता गमा अणंता पजवा" अमुमेवार्थ || चेतस्यारोप्याह---'एतावत्यः' इयत्परिमाणाः प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् इत्येवं सर्वप्रकृमयः श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्या | दीप अनुक्रम मलयगिरीयायो वृत्ती 'बटः पट इत्यादि म्यान खीत्येवमादि' इति । अबाध उदाहरणे स्वरान्तरित : संयोगः द्वितीयस्मिंस्तु स्वरानन्तरित इति दृष्टान्तयं. २ संयोगा ३ संयोगः जे हमह केवलो से सवण्णसहिमओ व पजवेऽयारो । ते तस्स सपजाया, सेसा परपजवा सो ॥ १८॥ चायसप-८ जायविसेसणाइणा तस्स जमुवति । सधणमिवासंबई, भवन्ति तो पळवा तस्स ॥ १८॥ इति (विशेषावश्यकवचनात् ). ५ विपञ्चाशतः. ६ पदार्थपाम्देन जगत्रयाभिधानव भिमाचे संयोगबहुत्याभावादाह. अन्यथा अभिधेयस्वरूपाख्यानानुपपत्ते, कार्यस्थले सांकेतिक स्पलेऽपिच न न भिन्नान्यभिधानानि. विशिष्टैकशब्देनानेकाभिधेवाभिधानविचारमाश्रित्य, एकस्मिन्नपि वा वाश्येऽनन्ताभिधानाभ्युपगमनायकत्रेत्यादि. ९ सूक्ष्मवसूक्ष्मायो- गिरवापरपरमाणुसंयोगहीनत्वाविनाविस्वाश्यवानारम्यत्यादिना प्रवृत्तिः शब्दानामेषामत्र. १०इह गमा अशंगमा गृहमन्ते, अर्थगमा नामार्थपरिच्छेदास्ते चानन्ताः इति नन्दीवृत्ती. + घटः पटः १-२-४-५. हयादि २-४. न्यानो १.६ज्यान खी १.पिमियरवाए २-४-५, धर्मभेदो १-२-३-४. ॥२३ ।। ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक इति गाधार्थः ॥ १७ ॥ इदानी सामान्यतयोपदर्शितानां अनन्तानां श्रुतज्ञानप्रकृतीनां यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्य आत्मनः खलु अपश्यन्नाहकत्तो मे वण्णे, सत्ती सुयणाणसव्वपयडीओ। चउदसविहनिक्खेवं, सुयनाणे आवि वोच्छामि ॥१८॥ | व्याख्या-कुतो !, नैव प्रतिपादयितुं, 'मे' मम 'वर्णयितुं' प्रतिपादयितुं 'शक्तिः'सामर्थ्य, काः-प्रकृतीः, तत्र प्रकृतयो भेदाः, सर्वांश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, श्रुतज्ञानस्य सर्वेप्रकृतयः श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतय इति समासः, ताः कुतो मे वर्णयितुं शक्तिः, कथं न शक्तिः, इह ये श्रुतग्रन्थानुसारिणो मतिविशेषास्तेऽपि श्रुतमिति प्रतिपादिताः, उक्तं च-"तेऽविय मईविसेसे, सुयणाणभंतरे जाण" ताँश्चोत्कृष्टतः श्रुतधरोऽपि अभिलाप्यानपि सर्वान न भाषते, तेपामनन्तत्वात् आयुषः। परिमितत्वात् वाचः क्रमवृत्तित्वाचेति, अतोऽशक्तिः, ततः 'चतुर्दशविधनिक्षेप' निक्षेपणं निक्षेपो-नामादिविन्यासः, चतुर्दशविधश्चासौ निक्षेपश्चेति विग्रहस्तं 'श्रुतज्ञाने' श्रुतज्ञानविषयं, चशब्दात् श्रुताज्ञानविषयं च, अपिशब्दात् उभयविषयं च, तब श्रुतज्ञाने सम्यकश्रुते, श्रुताज्ञाने असंज्ञिमिथ्याश्रुते, उभय श्रुते दर्शनविशेषपरिग्रहात् अक्षरानक्षरश्रुते इति, 'वक्ष्ये'। अभिधास्ये इति गाथाथैः॥ १८॥ साम्प्रतं चतुर्दशविधश्रुतनिक्षेपस्वरूपोपदर्शनाहि-. (वियोषावश्यके १४३ ) तानपि च मतिविशेषान् धुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि. २ असंज्ञिना वक्ष्यमाणरपि नियमाभावासं जिनां सम्यक्श्रुतस्य न तहणं. ३ एकस्य परस्परविरुधर्माश्रयस्वाभावादाह-दर्शनेत्यादि, दर्शनशब्दमान श्रद्धानार्थः. नामस्थापनादब्याणामनादरः अप्रधानत्यादिनाश्मे वक्ष्य. मागरवाडा, श्रुतस्कम्भे भावभुते ये भेदालातुर्दशा तदपेक्षया चात्र चतुर्दशविधनिक्षेपेति, अधिकारावतरणिकैपेति च स्वरूपति, अक्षरसंश्यादिद्वाराणां च नात | एव पृथक् सूत्राणि, + नास्तीदं 1-1-1-५. * चतुर्दशनिक्षेप०२. दीप अनुक्रम ~ 50 ~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक 18 प्रत ॥२४॥ सूत्राक अक्खर सण्णी सम्मं, साईयं खलु सपजवसि च । गमियं अंगपविटुं, सत्तथि एए सपडिवक्खा ॥१९॥ हारिभद्री व्याख्या-तत्र 'अक्षरश्रुतद्वारं' इह 'सूचनात्सूत्र' इतिकृत्वा सर्वद्वारेषु श्रुतशब्दो द्रष्टव्य इति । तत्र अक्षरमिति, 31 यवृत्तिः किमुक्तं भवति ?-'क्षर संचलने' न क्षरतीत्यक्षरं, तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः, न यस्मादिदमनुपयोगेऽपि प्रयवत इति भावार्थः, विभागः१ इत्थंभूतभावाक्षरीकारणत्वादू अकारादिकमप्यक्षरमभिधीयते, अथवा अर्थान क्षरति न च शीयते इत्यक्षरं, तच समासतस्त्रिविधं, तद्यथा-संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरं चेति, संज्ञाक्षरं तत्र अक्षराकारविशेषः, यथा घटिकासंस्थानो धकारः, कुरुण्टिकासंस्थानश्चकार इत्यादि, तच्च ब्राहयादिलिपीविधानादनेकविधं । तथा व्यञ्जनाक्षरं, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन, व्यञ्जनं च तदक्षरं चेति व्यञ्जनाक्षर, तह सर्वमेव भाष्यमाणं अकारादि हकारान्तं, अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्य, तथा योऽक्षरोपलम्भः तत् लब्ध्यक्षरं, तच्च ज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि तदाव रणक्षयोपशमो वा । अत्र च संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं च द्रव्याक्षरमुक्त, श्रुतज्ञानाख्यभावाक्षरकारणत्वात् , लब्ध्यक्षरं तु भावाक्षरं, विज्ञानात्मकत्वादिति । तत्र अक्षरश्रुतमिति अक्षरात्मकं श्रुतं अक्षरश्रुतं, द्रव्याक्षराण्यधिकृत्य, अथवा अक्षरं च तत् श्रुतं च अक्षरश्रुतं, भावाक्षरमङ्गीकृत्य ।। १९ ।। उक्तमक्षरश्रुतं, इदानीमनक्षर श्रुतस्वरूपाभिधित्सयाह दीप अनुक्रम भाष्यमाणशब्दस्वैव यजमाक्षरत्वादाह-अर्थाभीश्यादि, प्रवेकं विभिचाक्षराणामाभिव्यञ्जकस्वाभायात् . २ रूपक्षराणि संशाम्य अनोभया ॥२४॥ पाण्याश्रित्य इन क्षरतीत्यादिव्युत्पश्या चेतनामाश्रित्य. + प्रग्यवतीति. २-५. इथंभूतो.1.1 भावा०५-५.६ कुरष्टिसं०1-2- रण्टिकासं०२ विस्मकर्म1-२-३-४. ~51~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ऊससि नीससिअं, निच्छूढे खासि च छीअं च । णीसिंघियमणुसारं, अणकखरं छेलियाईअं ॥२०॥ व्याख्या-उच्चसनं उच्छुसितं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तथा निःश्वसनं निःश्वसितं, निष्ठीवनं निध-यूतं, काशनं काशितं, चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं क्षुतं, चशब्दः समुच्चयार्थ एव, अस्य च व्यवहितः संबन्धः, कथम् ! सेण्टितं चानक्षरश्रुतमिति वक्ष्यामः, निःसिंङ्घनं नि:सिवितं, अनुस्वारवदनुस्वार, अिनक्षरमपि यदनुस्वारवदुचायेते हुङ्कारकरणादिवत् तत् 'अनक्षर-15 मिति' एतदुच्छसितादि अनक्षरश्रुतमिति, सेण्टनं सेण्टितं तत्सेण्टितं च अनक्षरश्रुतमिति । इह चोच्छ्वसितादि द्रव्यश्रुतमात्र, ध्वनिमात्रैत्वात्, अथवा श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतं,तस्य तद्भावेन परिणतत्वात् । आह-यद्येवं है किमित्युपैयुक्तस्य चेष्टापि श्रुतं नोच्यते,? येनोच्छसिताद्येवोच्यते इति, अत्रोच्यते, रूढा, अथवा श्रूयत इति श्रुतं, अन्वर्थसंVाज्ञामधिकृत्य उरसितायेव श्रुतमुच्यते, नचेष्टा, तेदभावादिति, अनुस्वारादयस्तु अर्थगमकत्वादेव श्रुतमिति गाथार्थः ॥२०॥ | उक्तमनक्षरश्रुतद्वारं, इदानीं 'संज्ञिद्वार' तत्र संज्ञीति कः शब्दार्थः 1, संज्ञानं संज्ञा, संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी, स च | त्रिविधः-दीर्घकालिकहेतुवाददृष्टिवादोपदेशाद, यथा नन्द्यध्ययने तथैव द्रष्टव्यः, ततश्च संज्ञिनैः श्रुतं संज्ञिश्रुतं, | आदिना सीकारपूरकाराधाः. २ घरपटादिषद्वाप्यवाचकभावतथा न परिणामीति मात्रग्रहण का सूचकत्वात्. करचरणादिक्रियाया अपि विवक्षितार्थ | | सूचकरबादाह. ५वतोपयुक्तस्व. श्रवणव्यवहाररूपया शास्त्रशलोकप्रसिद्धया, रूढी विशेषामहे माह-अथवेत्यादि. 6 निरर्थकार्यशून्यनिरासेन ९ अषणलक्षणान्वर्धस्याभावात् १० आदिना सेण्टितसीत्वारायाः, उच्छसितादीनामन्यावाद भनक्षरत्वमनुस्खारादीनां वर्णाचयवस्वाद्विशेषदर्शनाय चेदम् १५ यथोत्तरविशुनप्रमोसनेन शापितमाह 'सणिति असविणति य, सबसुए कालिनोवपुसेणं' (वि० ५२) २(मन्धीवृत्तिः ३६१०) १३ दीर्घकाकिफीसंज्ञया. •णीसंधिय०+२-२-३ निःसहनं २-१ अक्षरमपि भुतज्ञानो. दीप अनुक्रम T SAREauratonintenational ~ 52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक- हारिभद्रा | यवृत्तिः विभागः१ मा प्रत सुत्राक तथा असंज्ञिनः श्रुतं असंज्ञिश्रुतमिति । तथा 'सम्यक्श्रुतं' अङ्गानङ्गप्रविष्टं आचारावश्यकादि । तथा 'मिथ्या श्रुतं' पुरा- रामायणभारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक् श्रुतमितरद्वा इति । तथा 'साद्यमनाचं सपर्यवसितमपर्यवसितं च नियानुसारतोऽवसेयं, तत्र द्रव्यास्तिकनयादेशाद् अनाद्यपर्यवसित च, नित्यत्वात् , अस्तिकायवत् । पर्याया- स्तिकनयादेशात् (सादि सपर्यवसितं च, अनित्यत्वात्, नारकादिपर्यायवत् । अथवा द्रव्यादिचतुष्टयात् साधनाद्यादि अवगन्तव्यं, यथा नन्द्यध्ययने इति, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः, सप्तव 'एते' श्रुतपक्षाः सप्रतिपक्षाः, न पक्षान्तरमस्ति, संतोऽत्रैवान्तर्भावात् । तथा गैमा अस्य विद्यन्ते इति गमिकं, तच्च प्रायोवृत्त्या दृष्टिवादः । तथा गाथाद्यसमानग्रन्थं अगमिकं, तच्च प्रायः कालिकं । तथा अङ्गप्रविष्टं गणधरकृतं आचारादि, अनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृतं आवश्यकांदि, गाथाशेषमबंधारणेप्रयोगं दर्शयता व्याख्यातमेवेति गाथार्थः ॥ २० ॥ सत्पदग्ररूप दीप अनुक्रम SAR खाभाविकसम्यक्रयेतरत्वासंभवादाद, भवपूर्वचतुष्क वामस्य चरमभागध स्थाज्य एवं पदसविस्स सामसुर्य अभिण्पदसधुधिस्स सम्म| सुर्य' तिनन्दीवचनात्. २ सम्यग्मिण्यादर्शनवजीवस्वीकारेण भेदात् ३ सम्यग्दर्शनिनाम्, " श्रुतवतो जीवदयस्य नित्यत्वात् , द्रव्यमेव वासी मनुते. ५ पर्या वात , पोयमात्रापेक्षी चासौ. । (नन्दीवृत्तिः ३९४ प.) एकपुरुषभरतादिक्षेत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीजिनभाषितभावारूपणा भाभिय Xसादिसपर्यवसितं नानापुरुषमहाविदेहनीसपिण्यवसर्पिणीक्षायोपवामिकानाश्रित्य वन्यथा.. पर्यायादेः ८ किमिद्विशेषतो भूयो भूषस्तस्यैव सूत्रस्योचारणं गमः। 'स्थविरास्तु भदवास्वाम्यादयात्कृतमावश्यकनियुक्त्यादिकमनाप्रविष्ट (विशेषा०५५० तृती). सत्तवि एए सपढिवक्खा' इवेकानविंशगावासतर्क. " खलुशब्दव्याख्याने, अपितु सप्तानामपि प्रतिपक्षग्रहार्थः स्फुट एव. * मिथ्यात्वथुसं २ + तुE toनुसारितोऽ० ३-४सायं ३-३-४-५ ~ 53~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [२०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः णादि मतिज्ञानवदायोज्यं । प्रतिपादितं श्रुतज्ञानमर्थतः, साम्प्रतं विषयद्वारेण निरूप्यते तच्चतुर्विधं - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याणि जानीते न तु पश्यति, एवं क्षेत्रादिष्वपि द्रष्टव्यं । इदं पुनः श्रुतज्ञानं सर्वातिशयरत्नसमुद्रकल्पं, तथा प्रायो गुर्वायत्तत्वात् पराधीनं यतः अतः विनेयानुग्रहार्थं यो यथा चास्य लाभः तं तथा दर्शयन्नाह- आगमसत्थग्गहणं, जंबुद्धिगुणेहि अहिं । दिहं । बिंति सुयनाणलंभं तं पुच्वविसारया धीरा ॥ २१ ॥ व्याख्या - आगमनं आगमः, आङः अभिविधिमर्यादार्थत्वाद् अभिविधिना मर्यादया वा गमः परिच्छेद आगमः, स च केवलमत्यवधिमनः पर्यायलक्षणोऽपि भवति अतस्तद्व्यवच्छित्यर्थमाह-शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं श्रुतं, आगमग्रहणं तु षष्टितन्त्रादिकुशास्त्र व्यवच्छेदार्थ, तेपामनागमत्वात् सम्यकपरिच्छेदात्मकत्वाभावादित्यर्थः शास्त्रतया च रूढत्वात्, ततश्च आगमश्चासौ शास्त्रं च आगमशास्त्रं तस्य ग्रहणमिति समासः, गृहीतिर्ग्रहणं, यदुद्धिगुणैः वक्ष्यमाणलक्षणैः करणभूतैः अष्टभिः, दृष्टं, ब्रुवते श्रुतज्ञानस्य लाभः श्रुतज्ञानलाभस्तं, तदेव ग्रहणं, अवते, के ?, पूर्वेषु विशारदाः पूर्वविशारदाः, विशारदा विपश्चितः, धीरा व्रतानुपालने स्थिरा इत्ययं गाथार्थः ॥ २१ ॥ बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तं, ते चामीसुस्ससह पडिपुच्छर, सुणेड़ गिण्हइ य ईहए 'वावि । तत्तो अपोहए या धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ २२ ॥ व्याख्या - विनययुक्त गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति, पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति तच्छ्रुतमशङ्कितं करोतीति भा1 तत्स्वरूपतद्भेदस्वरूपसत्प्ररूपणादिद्वारा विदेशम्या रुपानेन प्ररूप्यते २-३ + वास्प २०हि विदि १-२-४-५ बीरा ३१ आणि ३६ वा १२-४-५ शुश्रूषते ५ | पुनः पुनः ३-४ बुद्धेः अष्टगुणाः तथा श्रवण एवं व्याख्यान-विधिः प्रतिपाद्येते For Park Use Only ~ 54~ wor Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक आवश्यक-वार्थः, पुनः कथितं तच्छृणोति, श्रुत्वा गृह्णाति, गृहीत्वा चेहते पर्यालोचयति किमिदमित्थं उत अन्यथेति, चशब्दः| हारिभद्री समुच्चयार्थः, अपिशब्दात् पर्यालोचयन् किश्चित् स्वबुद्धयाऽपि उत्प्रेक्षते, 'ततः' तदनन्तरं 'अपोहते च' एवमेतत् यदा॥२६॥ दिष्टमाचार्येणेति, पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति, करोति च सम्यक् तदुक्तमनुष्ठानमिति, तदुक्तानुष्ठानमपि च श्रुतप्राप्ति-विभागः१ हेतुर्भवत्येव, तदावरणकर्मक्षयोपशमादिनिमित्तत्वात्तस्येति । अथवा यद्यदाज्ञापयति गुरुः तत् सम्यगनुग्रहं मन्यमानः श्रोतुमिच्छति शुश्रूपति, पूर्वसंदिष्टश्च सर्वकार्याणि कुर्वन् पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, पुनरादिष्टः तत् सम्यक् शृणोति, शेष पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ २२ ॥ बुद्धिगुणा व्याख्याताः, तत्र शुश्रूषतीत्युक्तं, इदानीं श्रवणविधिप्रतिपादनायाह मूअं हुंकारं वा, याढकारपडिपुच्छचीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणितु सत्तमए ॥२३॥ | व्याख्या-'मूकमिति' मूकं शृणुयात्, एतदुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संबतगात्रः तूष्णीं खल्वासीत, तथा द्वितीये हुङ्कारं च दद्यात् , बन्दनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये वाढत्कारं कुर्यात् , बाढमेवमेतत् नान्यथेति, चतुर्थश्रवणे तु गृहीतपूर्वा-IN परसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् कथमेतदिति, पञ्चमे तु मीमांसां कुर्यात् , मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञासेतियावत्, ततः पठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चास्य भवति, परिनिष्ठा सप्तमे श्रवणे भवति, एतदुक्तं भव-| |ति-गुरुवदनुभापत एव सप्तमश्रवण इत्ययं गाथार्थः।२३शाएवं तावच्छ्वणविधिरुक्तः,इदानी च्याख्यानविधिमभिधित्सुराहसुत्तत्थो खलु पढमो.बीओनिज्जत्तिमीसओभणिओतहओय निरवसेसो.एस विही भणिअ अणुओगे॥२४॥ * तत्तत् २-३-५+ शुभूपते ५ शुश्रूषत इत्युक्तं ५ बाकार. १-२- वादकार १-२ बाटकर 11 मेवैतत् ५ = प्रसापारगमनं ४ मीसीमो दीप अनुक्रम ~554 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक व्याख्या-सूत्रस्यार्थः सूत्रार्थः सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते यस्मिन्ननुयोगे असौ सूत्रार्थ इत्युच्यते, सूत्रार्थमात्र-13 मंतिपादनप्रधानो वा सूत्रार्थः, खलुशब्दस्वेवकारार्थः, स चावधारणे, एतदुक्तं भवति-गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानल-4 क्षण एव प्रथमोऽनुयोगः कार्यः, मा भूत् प्रार्थमिकविनेयानां मतिसंमोहः, 'द्वितीयः' अनुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रका कार्य इत्येवंभूतो भणितो जिनैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च 'तृतीयश्च निरवशेषः' प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवंलक्षणो निरवशेषः, कार्य इति, स एष' उक्तलक्षणो विधानं विधिः प्रकार इत्यर्थः, भणितः प्रतिपादितः जिनादिभिः, क?, सूत्रस्य निजेन अभिधेयेन साधै अनुकूलो योगः अनुयोगः सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः, तस्मिन्ननुयोगेऽनुयोगविषय इति, अयं गाथार्थः ॥ २४ ॥ समाप्तं श्रुतज्ञानम् ॥ उक्तर्यकारेण श्रुतज्ञानस्वरूपमभिहितं, साम्प्रतं प्रागभिहितेप्रस्तावमवविज्ञानमुपदर्शयन्नाहसंखाईआओ खलु, ओहीनाणस्स सव्वपयडीओ। काओ भवपञ्चइया, खओवसमिआओ काओऽवि ॥२५॥ व्याख्या-संख्यानं संख्या तामतीताः संख्यातीता असंख्येया इत्यर्थः, तथा संख्यातीतमनन्तमपि भवति, ततश्चानन्ता अपि, तथा च खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैव संख्यातीताः, द्रव्यभावाख्य| उपोदात निक्षेपनियुक्त्योः कथविकचित्प्रतिपादनसंभवात्. २ नूतनशिघ्याणां प्रपडितज्ञानां बालानां. ३ रीकाचूयादिरूपः, प्रथमे संहितापदलक्षणः मध्ये पदार्थपदनिग्रहचालनाप्रत्यवस्वानादिरूपः तृतीयसिस्तु अर्थापत्तिप्रभूतिगम्य इत्यर्थः । सर्वश्रुतप्रतिव्याख्यानाधाक्यत्वेन चतुर्दशविधनिक्षेपवर्णनप्रतिज्ञातरूपेण, ५ स्थित्यादिसाधर्मरूपं. ६ संख्यानमपेक्ष्य सामान्ये वा नपुंसकं. ७ सतोरप्यनन्सयोरनयोरवधिज्ञानविषयापेक्षयादा कर्तव्यः + पर्याक०२-४-५ सूत्रार्थव्या सूत्रान्या०२-४-५ दीप अनुक्रम DECCASESS अथ अवधिज्ञानस्य स्वरुपम् दर्शयते ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ सुत्राक आवश्यकता यापेक्षया चानन्ता इति, 'अवधिज्ञानस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, प्रकृतयो भेदा अंशा इति पर्यायाः, एतदुक्तं भवति-यस्मादवधेः लोकक्षेत्रासंख्येयभागादारभ्य प्रदेशवृक्ष्या असंख्येयलोकपरिमाणं ॥२७॥ उत्कृष्ट आलम्बनतया क्षेत्रमुक्त, कालश्चावलिकाऽसंख्येयभागादारभ्य समयवृया खल्वसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाण | उक्तः, ज्ञेयभेदाच ज्ञानभेद इत्यतः संख्यातीताः तत्प्रकृतयः इति, तथा तैजसवारद्रव्यापान्तरालवय॑नन्तप्रदेशकाद् द्रव्यादारभ्य विचित्रवृद्धया सर्वमूर्तद्रव्याणि उत्कृष्टं विषयपरिमाणमुक्तं, प्रतिवस्तुगतासंख्येयपर्यायविषयमानं च इति, अतः (पुद्गला स्तिकार्य तत्पर्यायाँश्चाङ्गीकृत्य ज्ञेयभेदेन ज्ञानभेदादनन्ताः प्रकृतय इति, आसां च मध्ये 'काश्चन' अन्यतमाः 'भवप्रत्यया' भवन्ति अस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, स च नारकादिलक्षणः, स एव प्रत्ययः-कारणं यासां| ताः भवप्रत्ययाः, पक्षिणां गगनगमनवत् , ताश्च नारकामराणामेव, तथा गुणपरिणामप्रत्ययाः क्षयोपशमनिवृत्ताः क्षायोपशमिकाः काश्चन, ताश्च तिर्यनराणामिति । आह-क्षायोपशमिके भावेऽवधिज्ञान प्रतिपादितं, नारकादिभवश्च औद|यिका, स कथं तासां प्रत्ययो भवतीति, अनोच्यते, ता अपि क्षयोपशमनिवन्धना एव, किंतु असावेव क्षयोपशमः तस्मि दीप अनुक्रम 56 M॥२७॥ कोकयाम्देन पनास्तिकायस्व क्षेत्रशब्देन चानताकापास बोधसंभवादुक्तं लोकोत्रेति. लोक एवारम्भाहा २ एतावतो लोकक्षेत्रस्थासंभवादक क्षेत्रति सामान्येन, सामयापेक्ष पर्द, न तु नापति क्षेत्रे हश्य, विहाय लोकं जीवपुत्रळयौरनवस्थानात, फळेत कोके सूक्ष्मसूक्ष्मसरार्थज्ञान. । कर्पता प्रतिद। | ग्यमसंख्ययान , न तु कदाचनाप्यनन्तान् 'माणन्ते परछह कयाइ'सि भाष्योक्तः, जवन्यतस्तु संग्येयानसमवेयांश प्रतिवयं जानाति, परं वक्ष्यमाणत्वाविना नो भवप्रत्ययावधिप्रकृतयः * ०वर्तिनोऽनन्त०५+ प्रदेशिका 1-1-५ कायांसप 1 मे 11--४-५. ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दिनारकामरभवे सति अवश्यं भवतीतिकृत्वा भवप्रत्ययास्ता इति गाथार्थः ॥ २५॥ साम्प्रतं सामान्यरूपतया उद्दिष्टानां 8 अवधिप्रकृतीनां वाचः क्रमवर्तित्वातू आयुषश्चाल्पत्वात् यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्यमात्मनोऽपश्यन्नाह सूत्रकार:। कत्तो मे चपणे, सत्ती ओहिस्स सव्वपयडीओ। चउदसविह निक्खेवं, इहीपत्ते य वोच्छामि ॥ २६ ॥ व्याख्या-कुतो ? 'मे' मम, वर्णयितुं शक्तिः अवधेः सर्वप्रकृती, आयुषः परिमितत्वाद् वाचः क्रमवृत्तित्वाच्च, तथापि विनेयगणानुग्रहार्थं, चतुर्दशविधश्चासौ निक्षेपश्चेति समासः, तं अवधेः संवन्धिनं, आमषौंपध्यादिलक्षणा प्राप्ता ऋद्धियैस्ते प्राप्तर्धयः तांश्च, इह गाथाभङ्गभयाद्व्यत्ययः, अन्यथा निष्ठान्तस्य पूर्वनिपात एव भवति बहुव्रीहाविति, चशब्दः समुचयार्थः, वक्ष्ये' अभिधास्य इतिगाथार्थः॥ २६॥ यदुक्तं 'चतुर्दशविधनिक्षेपं वक्ष्ये' इति, तंप्रतिपादयंस्तावद्वारगाथाद्वयमाह ओही१खित्तपरिमाणे,२संठाणे ३ आणुगामिए ४ अवढिए५ चले ६ तिब्वमन्द ७पडिवाउत्पयाइ ८ अ॥२७॥ | नाण९दसण १०विभंगे ११, देसे १२ खित्ते १३ गई १४ इंअ । हड्डीपत्ताणुओगे य, एमेआ पडिवत्तिओ ॥२८॥ | व्याख्या-तत्र अवध्यादीनि गतिपर्यन्तानि चतुर्दश द्वाराणि, ऋद्धिस्तु समुञ्चितत्वात् पञ्चदशं । अन्ये वाचायो| अवधिरित्येतत्पदं परित्यज्य आनुगामुकमनानुगामुकसहितं अर्थतोऽभिगृह्य चतुर्दश द्वाराणि व्याचक्षते, यस्मात् नावधिः प्रकृतिः, किं तर्हि !, अवधेरेव प्रकृतयः चिन्त्यन्ते, यतश्च प्रकृतीनामेव चतुर्दशधा निक्षेप उक्त इति । पक्षद्वयेऽपि अवि कारणकारणे कारणचोपचारात , प्रयोजनं सु तदुवयनान्तरीयकताज्ञापनं, अन्यथा सिद्धवं ववश्यक्लप्तत्वाधान.२ संखाईभानो खलु ओहोनाणस्स सम्वपयडीओ' ति पूर्वधिन.३ षड्विंशतितमगाथायां 'पदसविड निक्लेवं इड्डीपत्ते य' इत्यत्र पस्योक्तसमुच्चयार्थत्वाचाब्दसमुचयनं. * गए + इभा दीप अनुक्रम SAX अवधिज्ञानस्य चतुर्दश-निक्षेपा: वर्णयते ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप आवश्यक- रोध इति । तत्र 'अवधिरिति' अवधेर्नामादिभेदभिन्नस्य स्वरूपमभिधातव्यं, तथा अवधिशब्दो द्विरावर्त्यते इति हारिभद्रीव्याख्यातमिति । तथा क्षेत्रपरिमाण' इति क्षेत्रपरिमाणविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, एवं संस्थानविषय इति । अथवा अर्थाद्वि-18 यवृत्तिः ॥२८॥ भक्तिपरिणाम' इति द्वितीयवेयं, ततश्च अवधेर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्न क्षेत्रप्रमाणं वक्तव्यं । तथा संस्थानमवधेर्वक्त विभागः१ व्यम् । 'आनुगामुक इति द्वार' अनुगमनशील आनुगामुकः, सविपक्षोऽवधिर्वक्तव्यः,एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त इतिकृत्वा, यथा 'कयरे आगच्छई (उत्तरा० अ०१२ गा०६) इत्यादि । तथा अवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः, द्रव्यादिषु कियन्तं कालं। अप्रतिपतितः सन्नुपयोगतो लब्धितश्चावस्थितो भवति । तथा चलोऽवधिर्वक्तव्यः, चलोऽनवस्थितः, स च वर्धमानः क्षीयमाणो वा भवति । तथा 'तीव्रमन्दाविति द्वार' तीव्रो मन्दो मध्यमश्चावधिर्वक्तव्यः, तत्र तीम्रो विशुद्धा, मन्दश्चाविशुद्धः, तीब्रमन्दस्तूभयप्रकृतिरिति । 'प्रतिपातोत्पादाविति द्वारं' एककाले द्रव्याद्यपेक्षया प्रतिपातोत्पादायवधेर्वक्तव्यौ | हा॥ २७ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-तथा 'ज्ञानदर्शन विभङ्गा' बक्तव्याः, किमत्र ज्ञानं ? किं वा दर्शनं ? को या विभङ्गः । परस्परतश्चामीपां अल्पबहुत्वं चिन्त्यमिति । तथा 'देशद्वारं कस्य देशविषयः सर्वविषयो वाऽवधिर्भवतीति वक्तव्यम् । क्षेत्रद्वारं' क्षेत्रविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, संबद्धासंघद्धसंख्येयासंख्येयापान्तराललक्षणक्षेत्रावधिद्वारेणेत्यर्थः । 'गतिरिति च' है अत्र इतिशब्द आद्यर्थे द्रष्टव्यः, ततश्च गत्यादि च द्वारजालमवधी वक्तव्यमिति । तथा प्राप्तानुयोगश्च कर्त्तव्या, अनु ॥ २८॥ तनावण्यादीनीत्यत्र व्याख्यातमर्थतः, ततश्चामेसनेषु भवधिपद योजना, टिष्पनके भन्ये वाचार्या इयत्रेतिम्याख्यातं, अन्न वाऽऽवृतिस्तथा पप्रथमान्तता प्रकृति क्षेत्रपरिमाणादी योज्यतयेति च.२ प्रतिपत्तिरिया, अन्यमतापेक्षयाऽदः, व्याख्यानं चातः तम्मतसरक. अशात् ५-६ अनुक्रम SCRED 4443 djuditurary.com ~ 59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक योगोऽन्वाख्यान, एवमनेन प्रकारेण 'एता' अनम्तरोकाः 'प्रतिपत्तयः' प्रतिपादनानि, प्रतिपत्तयः परिच्छित्तय इत्यर्थः, ततश्चावधिप्रकृतय एवं प्रतिपत्तिहेतुत्वात् प्रतिपत्तय इत्युच्यन्त इति गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ २८ ॥ साम्प्रतमनन्तरोक्तद्वारगाथाद्वयाद्यद्वारव्याचिख्यासयेदमाहनाम ठवणादविए, खित्ते काले भवे य भावे य। एसो खलु निक्खेवो ओहिस्सा होइ सत्तविहो ॥ २९॥ व्याख्या-तत्र नाम पूर्व निरूपित, नाम च तदवधिश्च नामावधिः, यस्यावधिरिति नाम क्रियते, यथा मर्यादायाः । तथा स्थापना चासाववधिश्च स्थापनावधिः, अक्षादिविन्यासः । अथवा अवधिरेव च यदभिधानं वचनपर्यायः स नामावधिः, स्थापनावधिर्यः खलु आकारविशेषः तत्तद्रव्यक्षेत्रस्वामिनामिति । तथा द्रव्येऽवधिब्यावधिः, द्रव्यालम्बन इत्यर्थः । अथवाऽयं एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त इतिकृत्वा द्रव्यमेवावधिव्यावधिः, भावावधिकारणं द्रव्यमित्यर्थः, यद्वोत्पद्यमानस्योपकारक शरीरादि तदवधिकारणत्वाद् द्रव्यावधिः । तथा क्षेत्रेऽवधिःक्षेत्रावधिः, अथवा यत्र क्षेत्रेऽवधिरु-16 त्पद्यते तदेवावधेः कारणत्वात् क्षेत्रावधिः, प्रतिपाद्यते वा । तथा कालेऽवधिः, कालावधिः अथवा यस्मिन् काले अवधिरुत्पद्यते कथ्यते वा स कालावधिः, भवनं भवः, स च नारकादिलक्षणः, तस्मिन् भवेऽवधिर्भवावधिः। भावः क्षायोपशमिकादिः द्रव्यपयायो वा, तस्मिन्नवधिः भावावधिः, चशब्दो समुच्चयाओं, 'एषः' अनन्तरब्यावणित, खलुशब्दः एक्का दीप 50-55453 अनुक्रम T अवधियंत्र क्षेत्रे ग्यास्यायते स क्षेत्रावधिरित्यर्थः * अवधेरेव १-५+ त1-2-1 भावावधेः का. ५. वयधिकरणरचात् एवं. अवधिज्ञानस्य सप्तविध-निक्षेपा: वर्णयते ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ सूत्राक आवश्यक- रार्थः, स चावधारणे, एष एष, नान्यः, निक्षेपणं निक्षेपः, अवधेर्भवति 'सप्तविधः' सप्तप्रकार इति गाथार्थः ॥ २९॥ पाया ॥ २९ ॥ इदानीं "क्षेत्रपरिमाणाख्यद्वितीयद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह॥ २९॥ जावइया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहपणा, ओहीखित्तं जहणणं तु ॥३०॥ | व्याख्या-तत्र क्षेत्रपरिमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नं भवति, यतश्च प्रायो जघन्यमादौ अतस्तदेव तावत्प्रतिपाकायते-'यावती' यरपरिमाणा, जीन्समयान् आहारयतीति त्रिसमयाहारकस्तस्य, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः तस्य, पन कश्चासी जीवच पनकजीवः वनस्पति विशेष इत्यर्थः, तस्य, अवगाहन्ति यस्यां प्राणिनः सा अवगाहना तनुरित्यर्थः, 'जघन्या' सर्वस्तोका, अवधेः क्षेत्र अवधिक्षेत्रं, 'जघन्य' सस्तोक, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगःअवधेः क्षेत्रं जघन्यमेतावदेवेति गाथाक्षरार्थः । अत्र च संप्रदायसमधिगम्योऽयमर्थःयोजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः । उत्पद्यते हि सूक्ष्मः, पनकत्वेनेह स ग्राह्यः॥१॥ संहत्य चापसमये, सा.यामं करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्याङ्गलविभागवाहुल्यमानं तु ॥२॥ खकतनुपृथुत्वमात्रं, दीर्घत्वेनापि जीवसामात् । तमपि द्वितीयसमये, संहत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥३॥ संख्यातीताख्यागुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुपृथुत्व घ्या, तृतीयसमये तु संहत्य ॥४॥ आयामस्तु प्रमाणं स्वादियुक्त/हल्यरूपप्रमाणसंकोचकृतिस्थाचागुनासंख्यभागवाहल्योकिर्न विरोधावहा. २ तिर्थक. ३ अधिः । वैध्यरूपा विस्तृतिः पृथुत्वं. *भिधित्सुराह २-1 + यावत्परिक बाइल्प. दीर्घा ४-५-६ दीप अनुक्रम T ॥ २९॥ ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक उत्पद्यते च पनका, स्वदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥५॥ |तावजघन्यमवधेरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगणसुसंप्रदायात् समवसेयम् पश्चभिः कुलकम् ____ अत्र कश्चिदाह-किमिति महामत्स्यः ? किं वा तस्य तृतीयसमये निजदेहदेशे समुत्पादः ? त्रिसमयाहारकत्वं वा कल्प्यत इति !, अत्रोच्यते, स एव हि महामत्स्यः त्रिभिः समयैरात्मानं संक्षिपन् प्रयत्नविशेषात् सूक्ष्मावगाहनो भवति, नान्यः, प्रथमद्वितीयसमययोश्च अतिसूक्ष्मः चतुर्थादिषु चातिस्थूर: त्रिसमयाहारक एव च तद्योग्य इत्यतस्तद्दहणमिति । अन्ये तव्याचक्षते-त्रिसमयाहारक इति, आयामविष्कम्भसंहारसमयद्वयं सूचिसंहरणोत्पादसमयश्चेत्येते त्रयः समयाः, विग्रहाभावाचाहारक एतेषु, इत्यत उत्पादसमय एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मः पनकजीवो जघन्यावगाहनश्च, अतस्तत्प्रमाणं जघन्यमवधिक्षेत्रमिति, एतच्चायुक्तं, त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकजीवविशेषणत्वात्, मत्स्यायामविष्कम्भ|संहरणसमयद्वयस्य च पनकसमयायोगात्, त्रिसमयाहारकत्वाख्यविशेषणानुपपत्तिप्रसङ्गात् इति, अलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥३०॥ एवं तावत् जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तं, इदानीं उत्कृष्टमभिधातुकाम आहसब्बबहुअगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिजासु । खित्तं सव्वदिसागं, परमोही खित्त निद्दिडो ॥ ३१ ॥ __ब्याख्या-सर्वेभ्यो विवक्षितकालावस्थायिभ्योऽनलजीवेभ्य एव बहवः सर्ववहवः, न भूतभविष्ययः, नापि शेषजीवेभ्यः, कुतः!, असंभवात् , अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्निजीवाः, सर्वबहवश्च तेऽग्निजीवाश्च सर्वबह्वग्निजीवाः, निरन्तरं इति क्रिया भरिजसु १-४-५ दीप अनुक्रम ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक % प्रत ३०॥ सुत्रांक 454-% विशेषणं 'यावत्' यावत्परिमाणं 'भृतवन्तो व्याप्तवन्तः 'क्षेत्र' आकाश, एतदुक्तं भवति-नैरन्तर्येण विशिष्टसूचीरचनया हारिभद्रीयावत् भृतवन्त इति । भूतकालनिर्देशश्च अजितस्वामिकाल एवं प्रायः सर्वबहवोऽनल जीवा भवन्ति अस्थामवसर्पिण्यांशीयवृत्तिः इत्यस्यास्य ख्यापनाङ्कः, इदं चानन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिकमपि भवति, अत आह–'सर्वदिकं' अनेन सूचीपरि- विभागः१ भ्रमणप्रमितमेवाह, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, क्षेत्र' अनन्तरच्यावर्णितं प्रभूतानलजीवमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः क्षेत्रनिदिष्टः,प्रतिपादितो गणधरादिभिरिति, ततश्च पर्यायेण परमावधेरेतावत्क्षेत्रमित्युक्तं भवति । अथवा सर्वबह्वग्निजीवा निरन्तरं यावद् भृतवन्तः क्षेत्रं सर्वदिकं एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्य युक्तः परमावधिः क्षेत्रमङ्गी- कृत्य निर्दिष्टो, भावार्थस्तु पूर्ववदेव, अयमक्षरार्थः । इदानीं साम्प्रदायिकः प्रतिपाद्यते-तत्र सर्ववह्वग्निजीवा बादराः प्रा-18 योऽजितस्वामितीर्थकरकाले भवन्ति, तदारम्भकपुरुषवाहुल्यात्, सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदिनस्तत्रैवावरुध्यन्ते, ततश्च सर्वबहवो| भवन्ति । तेषां च स्वबुद्ध्या पोढाऽवस्थानं कल्प्यते-एकैकक्षेत्रप्रदेश एकैकजीवावगाइनया सर्वतश्चतुरस्रो घनः प्रथम, सद एव जीवः स्वावगाहनया द्वितीयं, एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेण्यपि द्विभेदा, तत्र आद्याः पञ्च प्रकारा अनादेशाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् क्वचित्समयविरोधाच्च, षष्ठः प्रकारस्तु सूत्रादेश इति, ततश्चासौ श्रेणी अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीर दीप अनुक्रम * 8 ॥३०॥ मशिरीरावगाहनारचनया. २ रूपान्तरेण । भन्न पक्षे अनलजीचमितक्षेत्रस्थितम्यपरिच्छेदपाक्तिः मनुष्यार्थपरं पुरुषपदं. ५भनन्तानन्ता-1 स्ववसर्पिणीषु कशिनिदेव द्वितीयतीर्थकरकाले एते, सदानीतना एवोत्कृष्टा बादरा प्रायाः, बादरजीचमाने क्षिप्यन्त इति.. एकैकस्मिन्प्रदेशे एकैकजीवस्थाMपनेनेत्यर्थी, पारीररित्यर्थः ९ असंख्याकाशाम देशानन्तरेणावगाइनाऽभावात इतिमकधारिदमचत्रपादाः। ~63~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३१], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक 1564564 दीप पर्यन्तेन भ्राम्यते, सा च असंख्येयान् अलोके लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान व्यामोति, एतावदवधिक्षेत्रं उत्कृष्टमिति, सामर्थ्यमङ्गीकृत्यैवं प्ररूप्यते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तदा पश्यति न त्वलोके द्रष्टव्यमस्ति इति गाधार्थः ॥३१॥ एवं ताबजघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमभिहितं, इदानीं विमध्यमप्रतिपिपादयिषया एतावरक्षेत्रोपलम्भे चैतावत्कालोपलम्भः,18 तथा एतावत्कालोपलम्भे चैतावत्क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनाय चेदं गांथाचतुष्टयं जगाद शास्त्रकार:अंगुलमावलियाणं, भागमसंखिज्ज दोसु संखिज्जा । अंगुलमावलिअंतो, आवलिआ अंगुलपुहतं ॥ ३२॥ हत्थंमि मुहूत्तन्तो, दिवसंतो गाउयंमि बोद्धव्यो । जोयण दिवसपुत्तं, पक्खन्तो पण्णवीसाओ॥ ३३ ॥ भरहंमि अहमासो, जंबूदीवंमि साहिओ मासो । वासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च स्यगंमि ॥ ३४ ॥ संखिज्जमि उ काले, दीवसमुद्दावि हुति संखिज्जा । कालंमि असंखिने, दीवसमुहा उ भइयव्वा ॥ ३५॥ प्रथमगाथाच्याख्या-'अङ्कल' क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलं गृह्यते, अवध्यधिकाराच्च उच्छ्रयागुलमित्येके, आवलिका' असं ख्येयसमयसंघातोपलक्षितः कालः, उक्तं च-"असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति बुञ्चति" अङ्कलं चावलिका च अङ्गलावलिके तयोरङ्गलावलिकयोः, 'भाग' अंशं असंख्येयं पश्यति अवधिज्ञानी, एतदुक्तं भवतिक्षेत्रमङ्गलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् कालतः आवलिकाया असंख्येयमेव भागं पश्यत्यतीतमनागतं चेति, क्षेत्रकालदर्शनं रूपिविषयत्वादयधेरलोके च ताशयाभावादसंभवामिधानतादोषनिराकरणायाह. २ लोके तु सूक्ष्मसूक्ष्मतरादिवस्तुदर्षानेन सामर्थ्यवृद्धिः (विशेषा|वश्यके गाथा ६०६) ३ स्वापेक्षितजघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वात्. ४ असंख्येयानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन सैकाबलिकेयुज्यते (अनुयोगद्वारवृत्तिः ५३०५०)५क्षेत्रकालयोररूपित्वावधेश रूपिविषयवादाह. अनुक्रम T ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत हारिभद्री त: विभागः१ सूत्राक आवश्यक- चोपचारेणोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्रव्यवस्थितानि दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायांश्च विवक्षितकालान्तरवर्तिनः पश्यति, न तु क्षेत्रफली, मूर्त्तद्रव्यालम्बनत्वात्तस्येति । एवं सर्वत्र भावना द्रष्टव्या, क्रिया च गाथाचतुष्टयेऽप्यध्याहायों, तथा| ॥३१॥RI 'द्वयोः' अङ्गलावलिकयोः संख्येयी भागौ पश्यति, अङ्गलसंख्येयभागमात्रं क्षेत्रं पश्यन्नावलिकायाः संख्येयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः, तथा अङ्गुलं पश्यन् क्षेत्रतः आवलिकान्तः पश्यति, भिन्नामावलिकामित्यर्थः, तथा कालतः आवलिकां पश्यन् | क्षेत्रतोऽङ्गलपृथक्त्वं पश्यति, पृथक्यं हि द्विप्रभृतिरा नवभ्यः इति प्रथमगाथार्थः ॥ २२॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-'हस्ते'। इति हस्तविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो मुहर्त्तान्तः पश्यति, भिन्नं मुहर्तमित्यर्थः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् अवधिः पश्यतीत्युच्यते, तथा कालतो 'दिवसान्तो' भिन्नं दिवसं पश्यन् क्षेत्रतोगव्यूतं'इति गव्यूतविषयो बोद्धव्यः, तथा योजनविषयः साक्षेत्रतोऽवधिः कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, तथा, पक्षान्तो भिन्नं पक्षं पश्यन् काठता क्षेत्रतः पञ्चविंशति योजनानि पश्यतीति दाद्वितीयगाथार्थः॥३॥ तृतीयगाथा व्याख्यायते-'भरते' इति भरतक्षेत्रविषये अवधौ कालतोऽर्धमास उक्तः, एवं जम्बूदीपवि|पये चावधी साधिको मासः, वर्ष च मनुष्यलोकविषयेऽवधौ इति,मनुष्यलोकः खल्बर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः, वर्षपृथक्त्व च दीप अनुक्रम M ॥ १॥ अपचाराभावेऽनिष्टता दर्शयति इतः तस्येतीत्वम्तेन. २ विवक्षितेति. विवक्षितक्षेत्रस्थितमध्यपर्यायान् , कालज्ञानव्याख्यानावेदम्. ५ अवधेः प्रत्यक्षत्वात् न साक्षात्पश्यताति, ५ म्यूनां समयादिना. अन्यत्र द्वितीयान्तं पदमितिकर्मतोपपतिः अत्र सप्तम्यतत्वावस्तप्रमाण क्षेत्रस्थितनभ्यदर्शनसमचाऽय. घिया युपचाशवः, अग्रेऽपीटयो स्थले. ७ अर्धमासशब्दस्य प्रथमान्तवान् नानोपचारेण व्याख्यानं इस इयत्रेय, किन्तु सतिसप्तम्यन्ततया. 6 आ मानुषो. रात, मनुष्याणां गमागमेऽपि रुचकादिषु न ते तमन्मादिस्थानं. * पक्षामतः १-२ ~65~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: RSSC प्रत सूत्राक रुचकाख्यबाह्यद्वीपविषयेऽवधाववगन्तव्यमिति तृतीयगाथार्थः॥३४॥चतुर्थगाथा व्याख्यायते-संख्यायत इति संख्येयः,सच संवत्सरलक्षणोऽपि भवति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?-संख्येयो वर्षसहस्रात्परतोऽभिगृह्यते इति, तस्मिन् संख्येये, 'काले' कलनं कालः तस्मिन् काले अवधिगोचरे सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधेर्गोचरतया,द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति संख्येयाः, अपिशब्दान्महानेकोऽपि तदेकदेशोऽपीति, तथा काले असंख्येये पस्योपमादिलक्षणेऽवधिविषये सति, तस्यैव असंख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतः परिच्छेद्यतया द्वीपसमुद्राश्च 'भक्तव्या' विकल्पयितव्याः, कदाचिदसंख्येया एव, यदा इह कस्यचिन्मनुष्यस्य असंख्येयद्वीपसमुद्रविषयोऽवधिरुत्पद्यते इति, कदाचिन्महान्तः संख्येयाः कदाचिद् ऐकः, कदाचिदेकदेशः स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽवधेः विज्ञेयः स्वयम्भूरमणविषयमनुष्यवाह्यावधेर्वा, योजनापेक्षया च सर्वपक्षेषु असंख्येयमेव क्षेत्रमिति गाथार्थः ॥३५॥ एवं तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य क्षेत्रवृद्ध्या कालवृद्धिरनियता कालवृक्ष्या च |क्षेत्रवृद्धि प्रतिपादिता, साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया यदुद्धौ यस्य वृद्धिर्भवति यस्य वान भवति अमुमर्थमभिधित्सुराहकाले चउण्ड बुड्ढी, कालो भइयम्बु खित्तबुडीए । वुडीइ दब्वपजव, भइयव्वा खित्तकाला ७ ॥३६॥ अनुयोगद्वारसूत्राभिप्रायेणैकादशे तय॑भिमायेण तु त्रयोदयो. २ यावत् शीर्थप्रहेलिकेति शेयं, अत एव संख्यायत इति संख्येय इति व्युत्पत्तिः, संन्यबदार्या च तावत्येव संख्या ३ अभ्यन्तरावभ्यपेक्षया " तियरकोकमध्यभागगताः ५ असंख्येययोजनविस्तृतः ६ स्वयम्भूरमयादेः . अतिविस्तृतत्वात्तस्य. | आत्मन्यसंबद्धयात्. ९न द्वीपसमुद्रापेक्षयेति. १०नियतेति शेषः, क्षेत्रस्य प्रदेशानुसारेण वृद्धी कालस्य न समयानुसारेण वृद्धिः,अगुलमाने नभःखण्डेऽसंख्ये. योत्सपिण्यवसर्पिणीभावात, अन तुन विरोध इति नियता वृद्धिः, अत एव परिस्यूरेति प्राविमचमेति च भगने संगतिः, यथावत्तथा क्षेत्रकालवृद्धिवाझ्यभावात् चतुणी समप्रमाणमाश्रित्येति वा. "तमर्थ०५-६ + भयञ्च . दीप अनुक्रम 6434 ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक हारिभदीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सूत्राक - व्याख्या-काले' अवधिज्ञानगोचरे, वर्धमान इति गम्यते, 'चतुर्णा द्रव्यादीनां वृद्धिर्भवति, सामान्याभिधानात्, कालस्तु 'भक्तव्यः' विकल्पयितव्यः, क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिः तस्यां क्षेत्रवृद्धौ सत्यां, कदाचिद्वर्धते कदाचिन्नेति, कुतः - १५ व क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् कालस्य च परिस्थरत्वादिति, द्रव्यपर्यायौ तु वधेते, सप्तम्यन्तता चास्य “ऐ होति अयारन्ते, पयंमि विड्याए बहुसु पुंलिङ्गे । तइयाइसु छडीसत्तमीण एगमि महिलाये ॥१॥ अस्मालक्षणात सिध्यति, एवमन्यत्रापि प्राकृतशैल्या इष्टविभक्त्यन्तता पदानामवगन्तव्येति, तथा वृद्धौ च द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ तयोः वृद्धौ सत्यां भक्तव्यौ' विकल्पनीयो क्षेत्रकालावेव, तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात्, कदाचिदनयोवृद्धिर्भवति कदाचिन्नेति, द्रव्यपर्याययोः | सकाशात् परिस्थूरत्वात् क्षेत्रकालयोरिति भावार्थः, द्रव्यवृद्धौ तु पर्याया वर्द्धन्त एव, पर्यायवृद्धौ च द्रव्यं भाज्य, द्रव्यात् पर्यायाणां सूक्ष्मतरत्वात् अक्रमवर्तिनामपि च वृद्धिसंभवात् कालवृद्ध्यभावो भावनीय इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ अत्र कश्चिदाह-अधन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोः अवधिज्ञानसंबन्धिनोः क्षेत्रकालयोः अङ्गलावलिकाऽसंख्येयभागोप देवदत्ते भुक्के सबै कुटुम्ब भुक्तमितियत् , अन्यथा त्रयाणामित्यभिधेय स्यात् , कालवृद्धधनुसारेण व्यादिवृद्धिदर्शनाय चैवमभिधानं स्पात्, २ भजधातुर्दि सिद्धान्ते विकल्पार्थेऽपि भजनेयादिवत्. ३ अवधिगोचरस्व. ४ तृतीयैकवचनादिव्यवच्छेदार्थम्. ५ पुत् भवति अकारान्ते पदे द्वितीयायां बहुषु पुंलिङ्गे। तृतीयाविषु षष्ठीसप्तम्योरेकस्मिन् महिला (पुंलिङ्गे द्वितीयाबहुवचनान्ते पदे अकारान्तस्यैत् भवति, स्त्रीलिङ्गे च तृतीयादिषु षष्टीसप्तम्योजैकवचने एकारो भवति सर्वत्र) ६ गायारूपात् सूत्रात्, ७ रीत्या. 4 लुभविभक्त्यन्तता मूले.५ द्रव्यपर्याययोः संवेधाय. १० स्पर्शरसादीनां तत्पर्यायाण्यां वैकगुणादीनां , गुणानां पर्यायस्वानायुक्तमक्रमवर्तिपर्यायावं, नयी चात्र एवं अन्यपर्यायाधिकाचेच. ११ पर्यायवृद्धीन कालवृद्धि रिति समर्थनाय. १२ अंगुलमावलियाणमित्यादिना दीवसमुदा व भदयवा इत्यन्तेन विमध्यमत्वेन प्रतिपादितयोः * सिद्धेत्येव. दीप अनुक्रम 6560 ॥ ३२॥ ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप लक्षितयोः परस्परतः प्रदेशसमयसंख्यया परिस्थूरसूक्ष्मत्वे सति कियता भागेन हीनाधिकत्वमिति, अत्रोच्यते, सर्वत्र प्रतियोगिनः खल्वावलिकाऽसंख्येयभागादेः कालाद् असंख्येयगुणं क्षेत्रं, कुत एतत् !, अत आह सुहुमो य होइ कालो, तसो सुहमयरं हवह खितं । अङ्गलसेढीमित्ते, ओसप्पिणीओ असंखेजा ॥३७॥ व्याख्या 'सूक्ष्मः' श्लक्ष्णश्चै, भवति कालः, यस्माद् उत्पलपत्रशतभेदे समयाः प्रतिपत्रमसंख्येयाः प्रतिपादिताः, तथापि 'ततः' कालात् , सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्रं, कुतः ?, यस्मात् अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशपरिमाणं प्रतिप्रदेशं समयगणनया अवसर्पिण्यः असंख्येयाः, तीर्थकृद्भिः प्रतिपादिताः, एतदुक्तं भवति-अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशाग्रं असंख्येयावसर्पिणीसमयराशिपरिमाणमिति गाथार्थः॥ ३७ ॥ उक्तमवधेर्जधन्यादिभेदभिन्न क्षेत्रपरिमाणं, क्षेत्रं चावधिगोचरद्रव्याधारद्वारेणैवावधेरिति व्यपदिश्यते, अतः क्षेत्रस्य द्रध्यावधिकत्वात् तदभिधानानन्तरमेव अवधिपरिच्छेदयोग्यद्रव्याभिधित्सयाऽऽह81 तेआभासावाण, अन्तरा इत्ध लहइ पट्ठवओ। गुरुलहुअअगुरुलहुअं, तंपि अ तेणेच निढाइ ॥ ३८॥15 व्याख्या-अवधिश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नः, तत्र तावजघन्यावधिपरिच्छेदयोग्यमेवादावभिधीयते-तैजसं च भाषा च तैजसभाषे तयो व्याणि तैजसभाषाद्रव्याणि तेषामिति समासः, 'अन्तरात्' इति 'अर्थाद्विभक्तिपरिणाम:' विधेयस्य, २ चकारो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थः (इति मलयगिरिपादाः) ३ वक्ष्यमाणमसंख्येयावसर्पिणीमानम्, । एकप्रमाणानुलमा श्रेणिरूपे नभाखण्डे (नन्दीवृत्तिः १६६५०)५प्रदेशसंख्यानं. ६ साक्षादर्शनाभावादुपचारेपोलार्थः मगीदार्थोऽअधिः दम्पमिति. * अन्तरे ५-६ अनुक्रम W omarary.org ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [३८], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आवश्यक॥ ३३ ॥ अन्तरे, अथवा 'अन्तरे' इति पाठान्तरमेव, एतदुक्तं भवति तैजसवाग्द्रव्याणामन्तर इत्यन्तराले अत्रे तदयोग्य मन्यॐ देव द्रव्यं 'लभते' पश्यति, कोऽसावित्यत आह- प्रस्थापकः' प्रस्थापको नाम अवधिज्ञानप्रारम्भकः किंविशिष्टं तदिति, अत आह— 'गुरुलध्वगुरुलघु' गुरु च लघु च गुरुलघु तथा न गुरुलघु अगुरुलघु, एतदुक्तं भवति - गुरुलघुपर्यायोपेतं गुरुलघु अगुरुलघुपर्यायोपेतं चागुरुलघु इति । तत्र यत्तैजसद्रव्यासन्नं तद्गुरुलघु, यत्पुनर्भाषाद्रव्यासन्नं तद्गुरुलघु, 'तदपि च' अवधिज्ञानं प्रच्यवमानं सत्पुनः तेनैव द्रव्येणोपलब्धेन सता निष्ठां याति, मैच्यवतीत्यर्थः । तत्र अपिशब्दात् यत्प्रतिपाति तत्रायें क्रमो न पुनरवधिज्ञानं प्रतिपात्येव भवतीत्यर्थः चशब्दस्त्येवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः- तदेवावधिज्ञानमेवं प्रच्यवते, न शेपज्ञानानीति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ आह-कियत्प्रदेशं तद् द्रव्यं यत् तैजस| भाषा द्रव्याणामपान्तरालवर्त्ति जघन्यावधिप्रमेयमित्याशङ्कय तद्धि परमाण्वादिक्रमोपचयाद् औदारिकादिवर्गणानुक्रमतः प्रतिपाद्यमिति, अतस्तत्स्वरूपाभिधित्सया गाथाद्वयमाह- ओरालविउच्चाहारतेअभासाणपाणमणकम्मे । अह दव्ववग्गणाणं, कमो विवज्जासओ खित्ते ॥ ३९ ॥ कम्मोवरिं धुवेयर सुण्णेयरवग्गणा अणंताओ । चउधुवणंतरतणुवग्गणा य मीसो तहाऽचित्तो ॥ ४० ॥ प्रथमगाथा व्याख्या - आह-औदारिकादिशरीरप्रायोग्यद्रव्यवर्गणाः किमर्थं प्ररूप्यन्ते इति, उच्यते, विनेयानामव्यामोहार्थे, १] मध्यार्थोऽवान्तरः २ मध्यभागे तैजसभाषयोः ३ तजसभाषयोः ४ समुच्चयाय ५ हीयमानम्. ६ अवधिः ७ वैज्ञसभाषाऽयोग्यद्रव्यान्तदर्शनानन्तरमच्युतिरूपेण ८ मत्यादीनि प्रध्यवत इत्यर्थः २५ + ०णुपाण० Educatan Internationa For Parts Only ~69~ Before यवृत्तिः विभागः ॥ ३३ ॥ war Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत * सूत्राक *- तथा चोदाहरणमत्र-इह भरतक्षेत्रे मगधाजनपदे प्रभूतगोमण्डलस्वामी कुचिको नाम धनपतिरभूत्, सच तासां गव-| मतिबाहुल्यात् सहस्रादिसंख्यामितानां पृथक् पृथगनुपालनार्थ प्रभूतान् गोपश्चिक्रे, तेऽपि च परस्परसंमिलितासु तासु गोष्वात्मीयाः सम्यगजानानाः सन्तोऽकलहयन, तांश्च परस्परतो विवदमानानुपलभ्य असौ तेषामव्यामोहार्थं अधिकर-IN णव्यवच्छित्तये च रक्तशुरुकृष्णकर्बुरादिभेदभिन्नानां गवां प्रतिगोपं विभिन्ना वर्गणाः खल्ववस्थापितवान् इत्येष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-इह गोपतिकल्पस्तीर्थकृत् गोपकल्पेभ्यः शिष्येभ्यो गोरूपसदृशं पुद्गलास्तिकार्य परमाण्यादिवर्गणाबिभागेन निरूपितवानिति अलं प्रसङ्गेन, पदार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र औदारिकग्रहणाद् औदारिकशरीरग्रहणयोग्या वर्गणाः परिगृहीताः, ताश्चैवमवगन्तव्या:-इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति, तद्यथा-द्रव्यत: क्षेत्रतः कालतः भावतश्च, तत्र द्रव्यत एकप्रदेशिकानां यावदनन्तप्रदेशिकानां, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाना यावर्दसंख्येयप्रदेशावगाढानां, कालत एकसमयस्थितीनां यावदसंख्येयसमयस्थितीनां, भावतस्तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य कृष्णानां यावत् शुक्कानां सुरभिगन्धानां दुरभिगन्धानां चर, तिक्तरसानां यावन्मधुररसानां ५, मृदूनां यावद्भक्षाणां ८ गुरुलघूनामगुरुलघूनां च, एव-18 मेता द्रव्यवर्गणाद्या वर्गणाश्चतुर्विधा भवन्ति, प्रकृतोपयोगः प्रदश्यते-तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामप्येका, एवमेकैकपरमाणुवृद्ध्या संख्येयप्रदेशिकानां संख्येया वर्गणा असंख्येयप्रदेशिकानां चासंख्येयाः ततोऽनन्त दीप अनुक्रम गाः २ कलहः ३ समुदायान्, “कुचिकर्णधनपतिः ५ गोरूपाणि धेनवः ६ अवयवे समुदायोपचारात् प्रकरणाहा. . परमाणूनामपि प्रकृष्टदेशत्वात. लोकाकाशेऽवगाहनात् तख चेतावप्रमाणत्वात्. ९ अनन्तसमयान् बाववस्थानाभावात्.११ स्वस्वस्थान एकगुणादिनाउनन्तभेदवावात् प्रत्येकं. द्वित्रि० ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: हारिभद्री S यवृत्तिः प्रत विभागः१ सुत्रांक आवश्यक- प्रदेशिकानां अनन्ताः खल्वग्रहणयोग्या विलङ्गव ततश्च विशिष्टपरिणामयुक्ता औदारिकशरीरग्रहणयोग्याः खल्वनन्ता एवेति, ता अपि चोल्लङ्य प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमानास्ततस्तस्यैवाग्रहणयोग्या अनन्ता इति, ताश्च प्रभूतद्रव्यनिवृत्तत्वात् ॥ ३४॥ सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच्च औदारिकस्याग्रहणयोग्या इति, वैक्रियस्यापि चाल्पपरमाणुनिवृत्तत्वाद् वादरपरिणामयुक्तत्वाच्चाग्रहणयोग्या एव ता इति, पुनः प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमानाः खल्वनन्ता एवोल्लङ्घय तथापरिणामयुक्ता वैक्रियग्रहणयोग्या भवन्ति, ता अपिच प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमाना अनन्ता एवेति तावद् यावद् ऐकादिप्रचुरपरमाणुनिवृत्तत्वात् सूक्ष्मपरिणाम युक्तत्वाच्च वैक्रियस्याग्रहणयोग्या भवन्ति, एवं प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमानाः खल्वग्रहणयोग्या अप्यनन्ता एवेति, ताश्चाहारकस्य अल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वाद् बादरपरिणामोपेतत्वाच्च अग्रहणयोग्या एवेति, एवमाहारकस्य तेजसस्य भाषायाः आनापानयोर्मनसः कर्मणश्च अयोग्ययोग्यायोग्यानां वर्गणानां प्रदेशवृक्युपेतानामनन्तानां त्रयं त्रयमायोजनीयं । आहकथं पुनरिदं एकैकस्यौदारिकादेवयं त्रयं गम्यत इति, उच्यते, तैजसभाषाव्यान्तरवर्युभयायोग्यद्रव्यावधिगोचराभि धानात् । अथ' अयं द्रव्यवर्गणानां क्रमः, तत्र वर्गणा वर्गो राशिरिति पर्यायाः, तथा 'विपर्यासतो' विपर्यासेन 'क्षेत्रे ट्राइति क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः, एतदुक्तं भवति-एकप्रदेशावगाहिनां परमाणूनां स्कन्धानां चैका वर्गणा, तथा माद्विपदेशावगाहिनां स्कन्धानामेव द्वितीया वर्गणा, एवमेकैकप्रदेशवृद्ध्या संख्येयप्रदेशावगाहिनां संख्येया असंख्येयप्रदे द्वितीयाबहुवचनं, पताश्रीदारिकवैचायोग्या इति. २ बौदारिकपरिणमनयोग्यतारूपति. ३ औदारिकपारीतषा परिणमनीयाः" * वर्धमानाः २-४ x+ अतिप्रचुर युकत्वात् । आनपानयोः ५६ तथा सं०४-५-६. दीप अनुक्रम ENSARA५ कर ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक ROSSASSAGAR शावगाहिनां चासंख्येयाः, ताश्च प्रदेशप्रदेशोत्तराः खल्यसंख्येया विलय कर्मणो योग्यानामसंख्येया वर्गणा भवन्ति, पुनः प्रदेशवृद्ध्या तस्यैवायोग्यानां असंख्येया इति, अयोग्यत्वं चाल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वात् प्रभूतप्रदेशावगाहित्वाच, मनोद्रव्यादादीनामप्येवमेवायोग्ययोग्यायोग्यलक्षणं अयं त्रयमायोजनीयमिति। एवं सर्वत्र भावना कार्या, 'परं परं सूक्ष्म 'प्रदेशतोऽसं-16 ख्येयगुणं' (प्राक्कैजसात् ) इति (तत्त्वार्थे अ०२ सूत्रे ३८-३९) वचनात् , कालतो भावतश्च वर्गणा दिग्मावतो |दर्शिता एवेति गाथार्थः ॥ ३९॥ द्वितीयगाथान्याख्या-तत्रानन्तरगाथायां कर्मद्रव्यवर्गणोः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं प्रदेशोत्तरवृद्धया तदग्रहणप्रायोग्याः प्रदर्श्यन्ते-क्रियत इति कर्म, कर्मण उपरि कर्मोपरि, भुवेति-धुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, ध्रुववर्गणा इति ध्रुवा नित्याः सर्वकालावस्थायिन्य इति भावार्थः, 'इतरा' इति प्रदेशवृद्ध्या ततोऽनन्ता एवाध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, 'अध्रुवा' इति अशाश्वत्यः, कदाचिन्न सन्त्य पीत्यर्थः, ततः 'शून्या' इति सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा शून्यान्तरवर्गणाः परिगृह्यन्ते, शून्यान्यन्तराणि यास ताः शून्यान्तराः शून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति समासः, एतदुक्तं भवति–एकोत्तरवृद्धया व्यवहितान्तरा इति, ता अपि चानन्ता एव, तथा 'इतरेति' इतरग्रहणादशून्यान्तराः परिगृह्यन्ते, न शून्यानि अन्तराणि यासां ता अशून्यान्तराः, अशून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति विग्रहः, अशून्यान्तरवगंणा अव्यवहितान्तरा इत्यर्थः, ता अपि च प्रदेशोत्तरवृद्ध्या खल्वनन्ता एव भवन्ति, ततः 'चतुरिति' चैतम्रः ध्रुवाश्च योरभिधानं प्रसवात्. २ अष्टानां वर्गणानामन्ये तगावात, ३ सूत्र सूपनदिति सूत्रलक्षणात्. ४ तस्वासुटिसंभवे सत्येव भिमवर्गणारम्भः, अन्यता किञ्चिद्वर्गादिपरिणामवैचित्र्यं तदारसमे कारणम्. दीप अनुक्रम 14 ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥३५॥ सुत्राक - |ता अनन्तराबधुवानन्तराःप्रदेशोत्तरा एष वर्गणा भवन्ति,ततः 'तनुवर्गणाश्च तनुवर्गणा इति, किमुक्तं भवति!-भेदाभेदप- हारिभद्री|रिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यताऽभिमुखा इति, अथवा मिश्राचित्तरकन्धययोग्यास्ताश्चतस्र एव भवन्ति, ततो 'मित्र' इति । यवृत्तिः मिश्रस्कन्धो भवति, सूक्ष्म एवेषद्वादरपरिणामाभिमुखो मिश्रः, 'तथा' इति आनन्तये 'अचित्त' इति अचित्तमहा विभागः१ स्कन्धः, स च विश्नसापरिणामविशेषात् केवलिसमुद्घातगत्या लोकमापूरयन्नुपसंहरंश्च भवतीति । आह-अचित्तत्वाव्यभिचारात्तस्याचित्तविशेषणानर्थक्यमिति, न, केवलिसमुद्घातसचित्तकर्मपुङ्गललोकव्यापिमहास्कन्धव्यवच्छेदपरत्वात् विशेपणस्येति, अयमेव सर्वोत्कृष्ट प्रदेश इति केचिदू व्याचक्षते, न चैतदुपपत्तिक्षम, यस्मादुत्कृष्टप्रदेशोऽवगाहनास्थितिभ्यां असंख्येयभागहीनादिभेदाद् चतुःस्थानपतित उक्तः, तथा चोक-"उकोसपएसिआणं भंते ! केवइआ पज्जवा पण्णता ?, गोयमा ! अणन्ता, से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?, गोयमा! उक्कोसपएसिए उक्कोसपएसिअस्स दबयाए तुले, पएसट्टयाएवि तुल्ले, ओगाहणडयाए चउहाणवडिए, ठितीएवि ४, वण्णरसगन्ध अहि अ फासेहि छहाणवडिए” । अयं पुनस्तुल्य | ऐव, अष्टस्पर्शश्वासी पठ्यते, चतुःस्पर्शश्च अयमिति, अतोऽन्येऽपि सन्तीति प्रतिपत्तव्यं, इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥४०॥ दीप अनुक्रम 9-250 ॥३५॥ केपलिसमुद्धातावसरे प्रतिपदेषां भारमगृहीतत्वात् सचित्तता कर्मपुरलाना, चतुर्थसमवापेक्षया लोकव्यापकता, निस्संबवावाभावान्महास्कन्धता.२ अचि समहास्कन्धः ३ संपयेयभागासंख्येषगुणसंध्येयगुणमदः ४ वत्कृष्टमदेशिकानां भदन्त ! कियन्तः पर्यवाः प्रशसाः १, गौतम ! अनन्ता।, तरकेनायेंन भदन्त ! एवं मुल्यते !, गौतम ! उस्कृष्टप्रदेशिक उत्कृष्टप्रदेशिकस्य दयार्थत्तया तुल्यः प्रवेशार्थतयापि तुल्यः अवयाइनया चतुःस्थानपतितः स्थित्यापि, वर्णरसगन्धैरटभिः स्पर्शश्च षट्स्थानपतितः ५ वर्गणात्वात् परेलयाविधैरचित्तमहास्कन्धैः अवगाहनास्थितियां. ६ उत्कृष्टप्रदेशिकः . अचित्तमहास्कन्धः ८ महान्तः स्कन्धाः, ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [४०], भाष्यं [-] आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित प्राकू 'तेजसभाषाद्रव्याणामन्तराले गुरुलध्वगुरुलघु च जघन्यावधिप्रमेयं द्रव्यं' इत्युक्तं, नौदारिकादिद्रव्याणि, साम्प्रतमौदारिकादीनां द्रव्याणां यानि गुरुलघूनि यानि चागुरुखघूनि तानि दर्शयन्नाह - ओरालि अवेविअ आहारगतेअ गुरुलहू दव्वा । कम्मगमणभासाई, एआइ अंगुरुलहुआई ॥ ४१ ॥ व्याख्या - पदार्थस्तु औदारिकवै क्रियाहारक तैजैसद्द्रव्याणि गुरुलधूनि, तथा कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि च अगुरुलघुनि निश्चयनैयापेक्षयेति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ वक्ष्यमाणगाथाद्वयसंबन्धः --- पूर्व क्षेत्रकालयोरवधिज्ञानसंबन्धिनोः केवलयोः अङ्गुलावलिकाऽसंख्येयादिविभागकल्पनया परस्परोपनिबन्ध उक्तः, साम्प्रतं तयोरेवोक्तलक्षणेन द्रव्येण सह परस्परोपनिबन्धमुपदर्शयन्नाह - संखिज मणोदवे, भागो लोगपलियस्स बोडडवो । संखिज कम्मदब्वे, लोए धोवूणगं पलियं ॥ ४२ ॥ तेयाकम्मसरीरे, तेआदव्वे अ भासदव्वे अ । बोद्धव्यमसंखिज्जा, दीवसमुद्दा य कालो अ ॥ ४३ ॥ प्रथमगाधाव्याख्या - संख्यायत इति संख्येयः, मनसः संबन्धि योग्यं वा द्रव्यं मनोद्रव्यं तस्मिन् मनोद्रव्ये इति मनोद्रव्यपरिच्छेदके अवधौ, क्षेत्रतः संख्येयो लोकभागः, कालतोऽपि संख्येय एव, 'पoियस्स' पल्योपमस्य 1 तानि गुरुपूनि अगुरुपूनि देति नोक्तमित्यर्थः २ महणयोग्यतैजसेभ्यश्रतुःस्पर्शा इति कर्मप्रकृत्यादिषु अग्रहणान्तरिता ग्रहणयोग्या वर्गणा इति च मतं तेषां प्राग्रहणयोग्याः पात्पराः । अत्र लूभयाग्रहणयोग्या मध्ये तत एव तेजसासन्नानि गुरुपूनि इतराणीतरथेयुतिः १ एतन्मते एकान्तगुरुलघुद्रच्याभाषात्, व्यवहारमयापेक्षमेव गुरु लेडः लघु दीप उभयं वायुरनुभयं व्योमेत्यादि. 8 परस्परोपलम्भदर्शनेन वृद्धिद्वारा ५ परिणतं तथात्वेन. ६ आकाशस्थितं. नातीदम् ३ Education internationa For Par Use Only ~74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ३६॥ सूत्राक आवश्यक- बोद्धब्यो' विज्ञेयः, प्रमेयत्वेनेति, एतदुकं भवति-अवधिज्ञानी मनोद्रव्यं पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य संख्येयभार्ग काल- हारिभद्री तश्च पल्योपमस्य जानीते इति, तथा संख्येया लोकपल्योपमभागाः 'कर्मद्रव्ये' इति कर्मद्रव्यपरिच्छेदकेऽवधौ प्रमेयत्वेना .यवृत्तिः बोद्धव्या इति वर्तते, अयं भावार्थ:-कर्मद्रव्यं पश्यन् लोकपल्योपमयोः पृथक् पृथक् संख्येयान् भागान् जानीते,XI विभागः१ 'लोके' इति चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकविषयेऽवधौ क्षेत्रतः कालतः स्तोकैन्यून पल्योपमं प्रमेयत्वेन बोद्धव्यं इति वर्त्तते, इदमत्र हृदयं-समस्तं लोकं पश्यन् क्षेत्रतः कालतः देशोनं पल्योपमं पश्यति, द्रव्योपैनिबन्धनक्षेत्रकालाधिकारे प्रकान्ते। केवलयोर्लोकपल्योपमक्षेत्रकालयोग्रहण अनर्थकमिति चेत्, न, इहापि सामर्थ्यप्रापितत्वाद् द्रव्योपनिबन्धनस्य, अत एव पाच तदुपर्यपि ध्रुववर्गणादि द्रव्यं पश्यतः क्षेत्रकालवृद्धिरनुमेयेति गाथार्थः॥ ४२॥ द्वितीयगाथाच्याख्या-तेजोमयं । तैजसं, शरीरशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, 'तैजसशरीरे तैजसशरीरविपयेऽवधौ क्षेत्रतोऽसंख्येया द्वीपसमुद्राः प्रमेयत्वेन दबोद्धव्या इति, कालश्च असंख्येय एव, मिथ्यादर्शनादिभिः क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि तेन निवृत्तं तन्मयं वा कार्मणं, शीर्यते इति शरीर, कार्मणं च तच्छरीरं चेति विग्रहः तस्मिन्नपि तैजसबद्वक्तव्यं, एवं तैजसद्रव्यविषये चावधौ | भाषाद्रव्यविषये च क्षेत्रतो 'बोद्धव्या' विज्ञेयाः, संख्यायन्त इति संख्येया न संख्येया असंख्येयाः, द्वीपाश्च समुद्राश्च दीप अनुक्रम मा॥३० पूर्व क्षेत्रकाक यो दिव्याप्तिदर्शिता पर द्रव्येण तां दर्शनाय प्रकान्तं प्रकरणं. २ च्यन्याः , क्षेत्रकालवृदी दम्याणां अवश्यं वृद्धेः सामर्थ्यप्रापणं, काले चउण्ड तुदीत्यमेन निर्णीता च साप्राक, ३ सामध्यप्रापितस्यात्, वन्यपरिच्छेदतः क्षेत्रकालवृद्धि नियमः, सफलं प प्रयोपनिबन्धप्रकरणमेवं. ४ वक्ष्यति | विशेषोऽसंख्येवगतोऽने अन्न चासंगये येत्यादिना." स्तोकान्यून १-५-4+ पनिवन्धेन ५-६ ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 29 प्रत सूत्राक 9-9-42-580500-40-9-2- दीप द्वीपसमुद्राः, प्रमेयत्वेनेति, कालश्चासंख्येय एव, स च पल्योपमासंख्येयभागसमुदायमानो विज्ञेय इति, (ग्रन्थाग्रम् १०००) अत्र चासंख्येयत्वे सत्यपि यथायोगं द्वीपाद्यल्पबहुत्वं सूक्ष्मेतरद्रव्यद्वारेण विज्ञेयमिति । आह-एवं सति 'तेयाभासादवाण अन्तरा एस्थ लहइ पडवओ (गाथा ३८) इत्याद्युक्तं तस्य च तैजसभाषान्तरालद्रव्यदर्शिनोऽप्यङ्गलावलिकाऽसंख्येयभागादि क्षेत्रकालप्रमाणमुक्त तद्विरुध्यते,तैजसभाषाद्रव्ययोरसंख्येयक्षेत्रकालाभिधानात् , न, प्रारम्भकस्योभयायोग्यद्रव्यग्रहणात्, द्रव्याणां च विचित्रपरिणामत्वादू यथोक्तं क्षेत्रकालप्रमाणमविरुद्धमेव, अल्पद्रव्याणि वाऽधिकृत्य तदुक्तं, प्रचुरतैजसभाषाद्रव्याणि पुनरङ्गीकृत्येदं, अलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥४३॥ आह-जघन्यावधिप्रमेयं प्रतिपादयता गुरुलघु अगुरुलघु वा द्रव्यं पश्यतीत्युक्तं, न सर्वमेवे, विमध्यमावधिप्रमेयमपि चाङ्गुलावलिकासंख्येयभागाद्यभिधानात् न सर्वद्रव्यरूपं, तत्रस्थानामेव दर्शनात् , अत उत्कृष्टावधेरपि किमसर्वद्रव्यरूपमेवालम्बनं आहोस्विन्नेति, इत्यत्रोच्यते एगपएसोगाई परमोही लहइ कम्मगसरीरं । लहइय अगुरुयलघुअिंतेयसरीरे भवपुरत्तं ॥४४॥ व्याख्या-प्रकृष्टो देशः प्रदेशः एकश्चासौ प्रदेशश्चैकप्रदेशः तस्मिन् अवगाढं, अवगाढमिति व्यवस्थित, एकप्रदेशाव 1जसन्नध्येभ्यः कामणानि सूक्ष्माणि, अवक्षेप जसकामणेभ्यो बद्धानि स्थूलानि ततः पृथग वचनं. २ तथा च भासंख्य क्षेत्रकाल परिच्छेदप्रसङ्गः ३ सूक्ष्मतरद्वारेण प्रसङ्गापादने आह-इच्येत्यादि, उभयायोम्यवन्येभ्यः तैजसभाषाद्रयाणां यथायथं सूक्ष्मस्थूलत्वात् वैचिम्यपर्यन्तानुधावनम्, परिस्थूरन्यायारकाले चतुर्णी वृद्धिरित्युक्तेश व्यापातापत्तावाह-अल्पेत्यादि, तथा च स्तोकन्यूनतेजोभाषाव्यग्रहणशक्तावेतावत्कालपरिज्ञान मिति तयं. ५ रूपिमय 10 ६ प्रमेयं. ७ असंख्यातहीपोदधिसकललोकेऽप्यवधौ नत्र स्थितानां रूपिणां दर्शनात्. ८ सामस्त्येन, अन्यथाधिकप्रदेशावगाडानामप्ये कावगाहनाऽरत्येव, * पल्यो | पमसं०४. + अनोच्यते २-४. + अगुरुलहुभं 1-1. अनुक्रम T ~76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥ ३७ ॥ भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [ ४४ ], आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित गाढं परमाणुव्यणुकादि द्रव्यं, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः उत्कृष्टविधिरित्यर्थः, 'लभते' पश्यति, अवध्यवधिमतोरभेदोपचारादवधिः पश्यतीत्युक्तं तथा कार्मणशरीरं चे लभते, आह-परमाणुव्यणुकादि द्रव्यमनुक्तं कथं गम्यते तदालम्नत्वेनेति, ततैश्चोपात्तमेव कार्मणमिदं भविष्यति, न, तस्यैकप्रदेशाय नाहियानुपपत्तेः, 'लभते चागुरुलघु' चशब्दात् गुरुलघु, जोत्यपेक्षं चैकवचनं, अन्यथा हि सर्वाणि सर्वप्रदेशावगाढानि द्रव्याणि पश्यतीत्युक्तं भवति, तथा तैजसशरीरद्रव्यविषये अवधौ कालतो भवपृथक्त्वं परिच्छेद्यतयाऽत्रगन्तव्यमिति, एतदुक्तं भवति - यस्तैजसशरीरं पश्यति स कॉले तो भवपृथक्त्वं पश्यति इति इह च य एव हि प्राक् तैजसं पश्यतः असंख्येयैः काल उक्तः, स एव भववक्त्वेन विशेव्यत इति । आह- नन्वेकप्रदेशावगाढस्यातिसूक्ष्मत्वात् तस्य च परिच्छेद्यतयाऽभिहितत्वात् कार्मणशरीरादीनामपि दर्शनं गम्यत एवेत्यतः तदुपन्यासवैयर्थ्य, तथैकप्रदेशावगाढमित्यपि न वक्तव्यं, 'रूवगयं लभइ सर्व' इत्यस्य वक्ष्यमाणत्वादिति, अत्रोच्यते, न सूक्ष्मं पश्यतीति नियमतो बादरमपि द्रष्टव्यं बादरं वा पश्यता सूक्ष्ममिति, यस्मादुत्पत्तौ अगुरु १ आकाशप्रदेशेषु हि स्वभाव एष यद् यावदनन्ताणुकोऽपि ररुन्धोऽन्ये च तत्र मान्ति स्कन्धाः २ आपेक्षिकपरमरववच्छेदाय, जयन्यस्यापि प्य पेक्षया परमत्वादृयपेक्षया परमदर्शनाय. ३ एकप्रदेशावगाढद्रव्यदर्शनसमुच्चयाय ४ विशेष्यतया ५ विशिष्य परमाणुध्यणुकादेरनिर्देशात्, ६ एकप्रदेशादि. ७ जीवन परिणामिताः कर्मणापुद्राः नासंख्यानन्तरेण प्रदेशान्, जीवावगाहाभावात् इत्येकप्रदेशावगाडा: ८ अगुरुलघुदर्शनेऽपि गुरुलघुदर्शननियमाभावात् शब्देनाक्षेपः ९ जाति पुललक्षमा, कार्मणान्तानामभिहितत्वात् भवणादिकागुरुलघुदण्यापेक्षयेत्यर्थः १० धमधमांकाश जीवानामपि अगुरुलघुत्वात् पस्योपमासंख्येव भागरूपः १२ स्थूलत्वात् १३ अप्रेसनगावायां. Education International For Pale Only ~77 ~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः ॥ ३७ ॥ rog Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: *-MSS प्रत सूत्राक ॐॐ464555 लघु पश्यन्नपि न गुरुलधु उपलभते, घटादि वा अतिस्थूरैमपि, तथा मनोद्रव्य विदस्तेष्वेवे दर्शनं नान्येष्यतिस्थूरेष्वपि, एवं विज्ञानविषयवैचित्र्यसंभवे सति संशयापनोदार्थमेकप्रदेशावगाहिग्रहणे सत्यपि शेषविशेषोपदर्शनमदोषायैवेति । अथर्वा एकप्रदेशावगाहिग्रहणात् परमापवादिग्रहणं कार्मणं यावत्, तदुत्तरेषां चागुरुलध्वभिधानात्, चशब्दात् गुरुलघूनां चौदारिकादीनामित्येवं सर्वपुद्गल विशेषविषयत्वमाविष्कृतं भवति', तथा चास्यैव नियमार्थ 'रूपगतं लभते सर्व' इत्येतद् वक्ष्यमाणलक्षणमदुष्टमेवेति, एतदेव हि सर्व रूपगतं, नान्यदू इति, अलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः॥४४॥ एवं परमावधेर्द्रव्यमझीकृत्य विषय उक्तः, साम्प्रतं क्षेत्रकालावधिकृत्योपदर्शयन्नाहपरमोहि असंखिजा, लोगमित्ता समा असंखिजा । रूबंगयं लहइ सव्वं, खित्तोवमिअं अगणिजीवा ॥४५॥ | व्याख्या-परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् असौ परमावधिः क्षेत्रतः 'असंख्येयानि । लोकमात्राणि, खण्डानीति गम्यते, लभत इति संवन्धः, कालतस्तु 'समाः' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरसंख्येया एवं लभते, तथा द्रव्यतो 'रूपगत' मूर्तद्रव्यजातमित्यर्थः, 'लभते' पश्यति 'सर्व' परमाण्वादिभेदभिन्नं पुद्गलास्तिकायमेवेति, भावतस्तु वक्ष्यमाणाँस्तत्पर्यायान् इति । यदुक्तं 'असंख्येयानि लोकमात्राणि खण्डानि परमावधिः पश्यतीति तत्क्षेत्रनियमना भवधिः, २ भगुप्तवारम्भकापेक्षया. घटादीनां गुरुलघुत्वादपिः ४ मनःपयांवज्ञानिनः, ५ मनोहम्पेशानं. ७ घटादिषु, द्वितीयानचसमाधानाय. ९धुषवर्गणादीनामपितमदास्कम्धान्ताना. १० महणं. १ आदिना वैकिपाहारकौनसेनदः१२ विशेषा भेदाः प्रकारा: १३ परमावधेः. विषयस्य. १५ पूर्वेण सिद्धत्वात्, १६ पूर्वगाथावर्तितमेकपदेशावपाढादि. दीप अनुक्रम ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [४५], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आवश्यक याह-उपमानं उपमितं भावे निष्ठाप्रत्ययः, क्षेत्रस्योपमितं क्षेत्रोपमितं, एतदुक्तं भवति — उत्कृष्टावधिक्षेत्रोपमानं, 'अग्निहारिभद्रीजीवाः प्रागभिहिता एवेति, आह- 'रूपगतं लभते सर्व' इत्येतदनन्तरगाथायामर्थतोऽभिहितत्वात् किमर्थं पुनरुक्तमिति, यवृत्तिः ॥ ३८ ॥ अत्रोच्यते, उक्तः परिहारः, अथवा अनन्तरगाथायां 'एकप्रदेशावगाढं' इत्यादि परमावधेर्द्रव्यपरिमाणमुक्तं, इह तु ४ विभागः १ 'रूपगतं लभते सर्व' इति क्षेत्रकालद्वयविशेषणं एतदुक्तं भवति-रूपिद्रव्यानुगतं लोकमात्रासंख्येयखण्डोत्सर्पिण्यत्रसर्पिणीलक्षणं क्षेत्रकालद्वयं लभते, न केवलं, अरूपित्वात्तस्यें, रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वाच्चावधिज्ञानस्येति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ एवं तावत् पुरुषनधिकृत्य क्षायोपशमिकः खलु अनेकप्रकारोऽवधिरुक्तः, साम्प्रतं तिरश्वोऽधिकृत्य प्रतिपिपादयिषुराह * आहारतेयलंभो, उक्को सेणं तिरिक्खजोणीसु । गाउय जहण्णमोही, नरएस उ जोयणुकोसो ॥ ४६ ॥ व्याख्या - तत्राहारते जोग्रहणाद् औदारिकवैक्रियाहारक तेजोद्रव्याणि गृह्यन्ते, ततश्वाहारश्च तेजश्च आहारतेजसी तयोलभि इति समासः लाभः प्राप्तिः परिच्छित्तिरित्यनर्थान्तरं, इदमत्र हृदयं - तिर्यग्योनिषु योनियोनिमतामभेदोपचारात् तिर्यग्योनिकसत्त्वविषयो योऽवधिः तस्य द्रव्यतः खलु आहारतेजोद्रव्यपरिच्छेद उत्कृष्टत उक्तः, इत्थं द्रव्यानुसारेणैव क्षेत्रकालभावाः परिच्छेद्यतया विज्ञेया इति । इदानीं भवप्रत्ययावधिस्वरूपमुच्यते, स च सुरनारकाणामेव भवति, १ उत्तरः २ नास्मादन्यत् रूपगतमिति नियमनायेत्येवंरूपः ३ विधिनियमयोर्विधिरेव ज्यायान् इति न्यायमपेक्ष्य विधेर्बलीयरवाख्यानावाद-अथवेत्यादि. ४ अरूपत्वात् रुपिविष यश्चायधिरिति च निर्णीतमनेकशः ५ क्षेत्रकालद्वयस्य ६ मनुष्यान् इत्यर्थः परमो हिनाणविओ, केवलमंतो मुहुतमितेणेति (वि० ६८९) वचनात् परमावधेरा अन्तर्मुहुत्केवलोत्पत्तिः, केवलं च नरगतावेव चारित्रतपदिगुणहेतुत्वात् २-४-५ Education International For Penal Use Only ~ 79~ 1132 11 waryra Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप तत्र प्रथममल्प इतिकृत्वा नारकाणां प्रतिपाद्यत इति, अत आह-क्षेत्रतो 'गब्यूतं' परिच्छिनत्ति जघन्येनावधिः, क!- नरान् कायन्तीति नरकाः, के गैरै शब्दे इतिधातुपाठात् नरान् शब्दयन्तीत्यर्थः, इह च नरका आश्रयाः.IN आश्रयानयिणोरभेदोपचारात्, नरकेषु तु योजनमुत्कृष्ट इत्याह, एतदुक्तं भवति-नारकाधारो योऽवधिः असौ उत्कृष्टो योजनं परिच्छिनत्ति क्षेत्रतः, इत्थं क्षेत्रानुसारेण द्रव्यादयस्तु अवसेया इति गाथार्थः ॥४६॥ एवं नारकजातिमधिकृत्य जघन्येतरभेदोऽवधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं रत्नप्रभादिपृथिव्यपेक्षया उत्कृष्टेतरभेदमभिपित्सुराह चत्तारि गाउयाई, अगुवाई तिगांउया चेव । अट्ठाइजा दुषिण य, दिवहमेगं च निरएसु ॥४७॥ व्याख्या-तत्र नरका इति नारकालयाः, ते च सप्तपृथिव्याधारत्वेन सप्तधा भिद्यन्ते, तत्र रलप्रभाधाधारनरकेषु यथासंख्यमुत्कृष्टेतरभेदभिन्नावधेः क्षेत्रपरिमाणमिद-नरकेषु' इति सामर्थ्यात् तन्निवासिनो नारकाः परिगृह्यन्ते, तत्र रत्न-1 प्रभाधारनरके उत्कृष्टावधिक्षेत्रं चत्वारि गव्यूतानि, जघन्यावधेरर्धचतुर्थानि, अर्ध चतुर्थस्य येषु तान्यर्धचतुर्थानि, एवं शराप्रभाधारनरके परमावधिक्षेत्रमानं अर्धचतुर्थानि, इतरावधिक्षेत्रमानं तु त्रिगव्यूतं, त्रीणि गब्यूतानि त्रिगव्यूतं, एवं आधारभेदादाधेयभेदात् सप्त पृथिव्य आधारो वेषां ते तथा तत्वेनेति समासः २ तास्थ्यात्तापदेश इतिन्यावात् । प्यधिकरणबहुव्रीहेरपि दर्शनात् सम्यथाऽचत्वारीतिभावात् ५ उत्कृष्टति. ५ जघन्यति. तिगाश्यं. + नरएसु. 1 अबुढाईयाइ जहष्णयं अद्धगाउबताई । गाउप्रति भणि संविभ उकोसमजहणं ॥1॥[भाष्यगाथाऽभ्याख्याता च]. अनुक्रम 61-50-50* नारक-देवादिनाम् अवधि-क्षेत्र दर्शयते ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक प्रत ॥३९॥ सूत्राक सर्वत्र योज्यं यावन्महातमःप्रभाधारनरके उत्कृष्टावधिक्षेत्र गव्यूतं, जघन्यावधिक्षेत्रं चार्धगब्यूतमिति, रत्नप्रभाधारनरक हारिभद्रीइत्यादौ जात्यपेक्षमेकवचनं, अंनिर्दिष्टस्यापि नवरं पदार्थगमनिका, अर्ध तृतीयस्य अर्धतृतीयानि, द्वेच, अधिकमधू यवृत्ति यस्मिन् तद् अध्यर्धम् । आह-कुतः पुनरिदं , सामान्येन प्रतिपृथिव्याधारन रकं उत्कृष्टमवधिक्षेत्रमुक्तं चत्वारि गव्यू विभागः१ तानि' इत्यादि, अर्धगम्यूतोनं जघन्यमित्यवसीयते ?, उच्यते, सूत्रात् , तथा चोक्त-"रयणप्पभापुढ विनेरइयाणं भंते ! केवइयं खित्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा! जहण्णेणं अडुढाई गाउयाई उकोसेणं चत्तारि, एवं जाव महातमपुढ विनेरइयाण ? गोयमा ! जहण्णेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउय", आह-यद्येवं 'गाऊ जहण्णमोही णरएसु तु'(४६)। इत्येतब्याहन्यते, अत्रोच्यते, उत्कृष्टजघन्यापेक्षया तदभिधानाददोषः, इदमत्र हृदयम्-उत्कृष्टानामेव सप्तानामपि रत्नप्रभाद्यवधीनां |गव्यूतक्षेत्रपरिच्छित्तिकृत् अवधिर्जघन्य इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥४७॥ एवं नारकसंबन्धिनो भवप्रत्य-18 यावधेः स्वरूपमभिधायेदानी विबुधसंबन्धिनः प्रतिपिपादयिपुरिद गाथात्रयं जगाद सकीसाणा पढम, सुखं च सर्णकुमारमाहिंदा । तचंच बंभलंतग, सुकसहस्सारय चउथीं ॥४८॥ दीप अनुक्रम T नरकेवितिपब्याख्याने खनिरूपितपदे.२ इतिधर्मवतामपेक्ष्येति. ३ आश्रित्येति शेषः. ४ स्वस्वोरकष्टापेक्षया, ५ रवाप्रभापृथ्वीनरविका भदन्त !NT॥ ३९ ॥ कियत् क्षेत्रमवधिना जानन्ति पश्यन्ति,गीतम! जयन्येनार्धतृतीयानि गम्यूतानि उस्कृष्टेन चत्वारि, एवं यावम्मदातमःमभापृथ्वीनरयिका ! गौतम ! जघन्येनार्धगम्यूतं उत्कृष्टेन गम्यूतं. ६ विरुध्यते इति. विशेषणं भवेत्यादेः, तच्च देवसंबन्धिव्यवच्छेदाय. ८ भवप्रत्ययावधेः स्वरूपमिति. * परमावः। + अतिदिष्ट०. नारकं.६ पुच्छा. गाउयंतं. गाउय०. || स गम्यू..त्रितयं. ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१०], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढंचीं। तं चेव आरणचुय ओहीनाणेण पासंति ॥४९॥ छढि हिडिममज्झिमगेविज्जा सत्तमि च उवरिल्ला । संभिषणलोगनालिं, पासंति अणुसरा देवा ॥५०॥ तत्र प्रथमगाथाव्याख्या-शक्रश्चेशानश्च शक्रेशानी तत्र 'शक्रेशानाविति' शकेशानोपल क्षिताः सौधर्मेशानकल्पनिवासिनो देवाः सामोनिकादयः परिगृह्यन्ते, ते ह्यवधिना प्रथमां रत्नप्रभाभिधानां पृथिवीं 'पश्यन्ति' इति क्रियां द्वितीयगाथायां वक्ष्यति, तथा 'द्वितीयां च' पृथिवीमित्यनुवर्तते, 'सनत्कुमारमाहेन्द्राविति' सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवाधिपोपलक्षिताः तत्कल्पनिवासिनस्त्रिदशा एवं सामानिकादयो गृह्यन्ते, ते हि द्वितीयां पृथिवीमवधिना पश्यन्ति, तथा तृतीयां च पृथिवीं ब्रह्मलोकलान्तकदेवेशोपलक्षिताः तत्कल्पनिवासिनो विबुधाः सामानिकादयः पश्यन्ति, तथा शुक्रसहस्रारसुरनाथोपलक्षिताः खल्वन्येऽपि तत्कल्पनिवासिनो देवाश्चतुर्थी पृथिवीं पश्यन्तीति गाथार्थः॥४८॥ द्वितीयगाथा व्याख्या-4 यते-आनतप्राणतयोः कल्पयोः संबन्धिनो देवाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथ्वी, तामेव आरणाच्युतयोः सम्बन्धिनो देवा अवधिज्ञानेन पश्यन्ति, स्वरूपकथनमेवेदं, बिमलतरां बहुतरांचेति गाथार्थः ॥४९॥ तृतीयगाथा व्याख्यायते-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि वेयकानि(णि) विमानानि,तत्र अधस्त्यमध्यमवेयकनिवासिनो देवा अधस्त्यमध्यमवेयका,ते हि षष्ठी पृथिवीं तमोऽभिधानामवधिना पश्यन्तीति योगः, तथा सप्तमी च पृथिवीमुपरितनौवेयकनिवासिन इति, तथा 'संभिन्नलोकनाडी' चतुर्दशरज्ज्वात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानामवधिना पश्यन्ति, अनुत्तरविमानवासिनोऽनुत्तराः, तत्र एके इमाणां कापेनोक्त १ प्यपद्याभावात् पूर्वयोरेता यावदर्शनोक्तेश्चमतिपादनं यजेदेन तत्फलं. पुढधि. + आध.. | आध. दीप अनुक्रम 1%25-0%25% T ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [५० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आवश्यक. न्द्रियादयोऽपि भवन्ति तद्व्यवच्छेदार्थमाह- 'देवाः' । एवं क्षेत्रानुसारतो द्रव्यादयोऽप्यवसेयाः इति गाथार्थः ॥ ५० ॥ एवमधो वैमानिकावधिक्षेत्रप्रमाणं प्रतिपाद्य साम्प्रतं तिर्यगूर्ध्वं च तदेवं दर्शयन्नाह— ॥ ४० ॥ एएसिमसंखिजा, तिरियं दीवा य सागरा चैव । बहुअअरं उबरिमगा, उन्हें सगकप्पथूभाई ॥ ५१ ॥ व्याख्या- 'एतेषां शक्रादीनां संख्यायन्त इति संख्येयाः न संख्येया असंख्येयाः, तिर्यग, द्वीपाश्च-जम्बूद्वीपादयः, सागराश्च लवणसागरादयः क्षेत्रतोऽवधिपरिच्छेद्यतया अवसेयाः इति वाक्यशेषः, तथा उक्तलक्षणात्- असंख्येयद्वीपोदधिमानात् क्षेत्रात् वहुतरं, उपरिमा एव उपरिमका उपर्युपरिवासिनो देवाः, खल्ववधिना क्षेत्रं पश्यन्तीति वाक्यशेषः, तथा ऊर्ध्वं स्वकल्पस्तूपाद्येष यावत् क्षेत्रं पश्यन्ति, आदिशब्दाद् ध्वजादिपरिग्रहः इति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ इत्थं वैमानिकानां अवधिक्षेत्र मानमभिधाय इदानीं सामान्यतो देवानां प्रतिपादयन्नाह - संजोयणा खलु देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेजा, जहण्णयं पंचवीसं तु ॥ ५२ ॥ व्याख्या - संख्येयानि च तानि योजनानि चेति विग्रहः, खलुशब्दरत्वेवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य चोभयथा संबन्धमुपदर्शयिष्यामः 'देवानां' 'अर्धसागरे' इति अर्धसागरोपमे न्यूने आयुषि सति संख्येययोजनान्येव अवधिक्षेत्रमिति । अर्धसागरोपमन्यून एवं आयुषि सति, 'ततः परं' अर्धसागरोपमादावायुषि सति असंख्येयानि योजनानि अवधिक्षेत्रं १ प्रमाणमवधेः २ शापलक्षितानां ततरकल्पयासिसामानिकादीनामित्युक्तमेव प्राकू. उच सकप्प० + पण्णवीसं. Etication Internation For Parka Lise Only ~83~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४० ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक वैमानिकवर्जदेवानां सामान्यत इति । विशेषतस्तु ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च संस्थानविशेषादवसेयमिति । तथा जघन्यकमवधिक्षेत्रं देवानामिति वर्तते, 'पञ्चविंशतिः' तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् पञ्चविंशतिरेव योजनानि, एतच्च दशवर्षसहस्रस्थितीनामवसेय, भवनपतिव्यन्तराणामिति, ज्योतिष्काणां त्वसंख्येयस्थितित्वात् संख्येययोजनान्येव जघन्येतरभेदमवधिक्षेत्रमवसेयमिति, वैमानिकानां तु जघन्यमङ्गुलासंख्येयभागमात्रमवधिक्षेत्रं, तच्चोपपातकाले परभवसंबन्धिनमवधिमधिकृत्येति, उत्कृष्ट मुक्तमेव 'संभिण्णलोगन लिं, पासंति अणुत्तरा देवा' (५१) इत्यलमतिविस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ साम्प्रतमयमेवावधिः येषां सर्वोत्कृष्टादिभेदभिन्नो भवति, तान्प्रदर्शयश्चाह उकोसो मणुएK, मणुस्सतिरिएमु य जहण्णो य ।उकोस लोगमित्तो, पडिवाइः परं अपडिवाई ॥५३॥ | व्याख्या-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चोत्कृष्टोऽवधिः मनुष्येषु एव, नामरादिषु, तथा मनुष्याश्च तिर्यश्वश्च मनुष्यतिर्यञ्चः तेषु मनुष्यतिर्यक्षु च जघन्यः, चशब्द एवकारार्थः, तस्य चैवं प्रयोग:-मनुष्यतिर्यक्ष्वेव जघन्यो, न नारकसुरेषु, तत्र उत्कृष्टो लोकमात्र एव अवधिः, प्रतिपतितुं शीलमस्येति प्रतिपाती, ततः परमप्रतिपात्येव, लोकमा दाववधि पार प्रतिपादितत्बाईमानिकानामधेनांन सदधिकारः २ तत्र चतुर्णामपि निकायाना, तन्न वैमानिकाना, धाभिधानाभावात. ३ द्वितीयपावान, [५ तेषां जयन्येतरस्थित्योरर्धसागरोपमात् न्यूनत्वात्.५ तथा च देवानां सर्वजघन्यावधिनिषेधेऽपि न क्षतिः, भवप्रत्ययावधेः पचानावात् तस्य चोक्तमानवात्. वैमानिकावधिषु अनुत्तरोपपातिकावधेरैवोस्कृष्टत्वात् केवलमेत निर्दिष्एं. ७ भवगुणप्रत्ययसाधारणोऽयधिरिति. ८ संमिशलोगनाडिं पासंति भयुत्तरा देव इति सूत्रेण सबबहुअगणिजीआ इत्यनेन च. कृत्य. + तान्दर्श०. तेरिपिछएसु य जहष्णो. पदिवाई. 'जघन्यतः, दीप अनुक्रम T ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक- प्रत ॥४१॥ सुत्रांक दीप माने प्रतिपादिते प्रसङ्गतः प्रतिपात्यप्रतिपातिस्वरूपाभिधानमदोपायैवेति गाथार्थः ॥ ५ ॥ उक्त क्षेत्रपरिमाणद्वारं, साम्प्रतं संस्थानद्वारं व्याचिख्यासयेदमाह यवृत्तिः विभागः१ थिवुयायार जहण्णो, वो उक्कोसमायओ किंची। अजहण्णमणुकोसो य खित्तओ णेगसंठाणो ॥ ५४॥ व्याख्या-स्तिबुक' उदकबिन्दुः तस्येवाकारो यस्यासौ स्तिबुकाकारः, जघन्योऽवधिः । तमेव स्पष्टयन्नाह--'वृत्तः || सर्वतो वृत्त इत्यर्थः, पनकक्षेत्रस्य व लत्वात् । तथा उत्कृष्ट आयतः प्रदीर्घः 'किश्चित्' मनाक् बहिजीवश्रेणिपरिक्षेपस्य | स्वदेहानुवृत्तित्वात् , तथा 'अजपन्योत्कृष्टश्च' न जघन्यो नाप्युत्कृष्टः अजघन्योत्कृष्ट इति । चशब्दोऽवधारणे, अजघन्योत्कृष्ट एव, क्षेत्रतोऽनेकसंस्थानः' अनेकानि संस्थानानि यस्यासावनेकसंस्थान इति गाथार्थः ॥ ५४॥ एवं तावजघन्येतरावधिसंस्थानमभिहितं, साम्प्रतं विमध्यमावधिसंस्थानाभिधित्सयाऽऽह तैप्पागारे १ पल्लग २ पडहग ३ झल्लरि ४ मुइंग ५ पुष्फ ६ जवे । तिरियमणुएमु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ ॥५५॥ व्याख्या-'तप्र: उडुपकः तस्येवाकारो यस्यासौ तप्राकारः, तथा पालको नाम लाटदेशे धान्यालयः, आकारग्रहणमस्मृतस्योपेक्षानईत्वं हि प्रसवं. २ विनेयानां बोधविशेषोत्पादनात् प्रस्तुतेऽवधिमाने.३ पदक देशे पदसमुदायोपचारात् जीववेहेति, अन्यथा पत्रम-IN ॥४१॥ स्थानादेशस्याभ्युपगमापत्तः, न चै स्वदेदेखनेन विरोधोऽपि. * नेरहव । भवण २ वणयर ३ जोइस ४ कप्पालयाण ५ मोहिस्स । गेविज ६ गुत्तराण ७ य, हुँतागिइओ जहासंर्ख ॥ ॥ भवणवइवणयराण उडूं बहुभो अहोऽवसेसाणं । नारयजोहसिवाणं, निरिभ बोलिओ चित्रो ॥२॥ (भाष्यकृस्कृते अब्याख्याते). अनुक्रम अथ अवधे: संस्थानं कथयते ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 256 प्रत सूत्राक दीप नुवर्तते, तस्येवाकारो यस्यासी पलकाकारः, एवमाकारशब्दः प्रत्येकमभिसंबन्धनीयः इति, पटह एव पटहका-आतोयविशेषा, तथा चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा झलरी आतोचविशेषः एव, तथा अायतोऽधो विस्तीर्ण उपरि च तनुः, मृदङ्गः आतोद्यविशेष एव । 'पु'फेति' 'सूचनात्सूत्र' इतिकृत्वा पुष्पशिखावलिरचिता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते, यव' इति यवनालकः, स च कन्याचोलकोऽभिधीयते, अयं भावार्थः-तप्राकारादिरवधिर्यवनालकाकारपर्यन्तो यथासंख्यं नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्नकल्पातीतत्रैवेयकानुत्तरसुराणां सर्वकालनियतोऽबसेयः, तिर्यग्नराणां भेदेन नानाविधाभिधानादू, आह च-तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्च तिर्यग्मनुष्याः तेषामवधिः नानाविधसंस्थानसंस्थितो-नानाविधसंस्थितः, संस्थानशब्दलोपात्, स्वयंभूरमणजलधिनिवासिमत्स्यगणवत्, अपितु तत्रापि वलयं निषिद्धं मत्स्यसंस्थानतया, अवधिस्तु तदाकारोऽपीति 'भणितः' उक्तः अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति, अयं च भवनव्यन्तराणां उर्व बहुर्भवति, अवशेषाणां तु सुराणामधो, ज्योतिष्कनारकाणां तु तिर्यक्, विचित्रस्तु नरतिरश्चामिति गाथार्थः ॥ ५५॥ | उक्त संस्थानद्वारं, साम्प्रतमानुगामुकद्वारार्थप्रचिकटविषयेदमाहअणुगामिओ ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । अणुगामी' अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे ॥५६॥ व्याख्या-अनुगमनशील आनुगामुकः, लोचनवदू, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, आनुगामुक एव अवधिः, केषामित्यत आह-नरान् कायन्तीति नरकाः-नारकाश्रयाः तेषु भवा नारका इति, तेषां नारकाणां, तथैव' आनुगामुक| * आ०. +अ.1 अणुगामि. अनु. अनुक्रम स 4- 4- ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [ ५६ ], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आवश्यक- एव, दीव्यन्तीति देवास्तेषामिति । तथा आनुगामुकः, अननुगमनशीलोऽननुगामुकः स्थितप्रदीपवत्, तथा एकदेशानुगमन| शीलो मिश्रः, देशान्तरगतपुरुषैक लोचनोपघातवत्, चशब्दः समुच्चयार्थः, मिश्रश्च मनुष्याश्च तिर्यञ्चश्च मनुष्यतिर्यश्वस्तेषु मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिः स एवंविधस्त्रिविध इति गाथार्थः ॥ ५६ ॥ व्याख्यातमानुगामुकद्वारं, इदानीमवस्थितद्वारावयवार्थप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह- ॥ ४२ ॥ वित्तस्स अवद्वाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं । दब्बे भिण्णमुहतो, पज्जवलंभे य सन्त ॥ ५७ ॥ अाइ अवद्वाणं, छाबट्ठी सागरा उ कालेणं । कोसगं तु एवं इको समओ जहणेणं ॥ ५८ ॥ प्रथम गाथा व्याख्या - अवस्थितिरवस्थानं तद् अवधेराधारोपयोगलब्धितश्चिन्त्यते, तत्र क्षेत्रमस्याधार इतिकृत्वा क्षेत्रस्य संवन्धि तावदेवस्थानमुच्यते- तत्राविचलितः सन् 'त्रयस्त्रिंशत्सागराः" इति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यवतिष्ठते अनुत्तरसुराणां तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, त्रयस्त्रिंशदेव, 'कालेनेति' कालतः कालमधिकृत्य 'अर्थाद्विभक्तिपरिणामः । तथा 'देवें' इति द्रवति गच्छति ताँस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तस्मिन् द्रव्ये द्रव्यविषयं उपयोगावस्थानमवधेः, भिन्नश्चासौ मुहूर्त्तश्चेति समासः, अवनं अबः परि अवः पर्यवः तस्य लाभः पर्यवलाभः तस्मिंश्च पर्यवलाभे च पर्यवप्राठौ चावधेरुपयोगावस्थानं सप्ताष्टी वा समया इति । अन्ये तु व्याचक्षते - पर्यायेषु सप्त, गुणेषु अष्टेति, सहवर्त्तिनो गुणाः शुक्लत्वादयः, क्रमवर्त्तिनः पर्याया नवपुराणादयः, यथोत्तरं च द्रव्यगुणपर्यायाणां सूक्ष्मत्वात् स्तोकोपयोगता इति गाथार्थः॥५७॥ मानुगामुकद्वारमधुनाऽवस्थितङ्गारमाह नानु० + स एवावधि कोसभ व. Education International For Parts Only ~87~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४२ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 18h प्रत सूत्राक thức दीप द्वितीयगाथाब्याख्या-इह लधितोऽवस्थानं चिन्त्यते-अद्धा-अवधिलब्धिकालः, अत्र अद्धायाः-कालतोऽवस्थानं | अवधेलब्धिमङ्गीकृत्य तन्त्र चोन्यत्र क्षेत्रादौ 'षट्षष्टिसागरा' इति षट्रपष्टिसागरोपमाणि, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् मनागधिकानि 'कालेनेति' कालतः उत्कृष्टमेवेदं कालतोऽवस्थानमिति । जघन्यमवस्थानमाह-तत्र द्रव्यादाप्येकः समयो | जघन्येनावस्थानमिति, तत्र मनुष्यतिरश्चोऽधिकृत्य सप्रतिपातोपयोग'तो'ऽविरुद्धमेव, देवनारकाणामपि चरमसमयसम्यक्त्वप्रतिपत्ती सत्यां विभङ्गस्यैवावधिरूपापत्तेः, तदनन्तरं च्यवनाच्चाविरोध इति गाथार्थः ।। ५८ ॥ एवं तावदवस्थितद्वारमभिधाय इदानी चलद्वाराभिधित्सयाऽऽहबुढी वा हाणी वा, चउब्बिहा होइ खित्तकालाणं । दब्वेसु होइ दुविहा, छविह पुण पज्जवे होइ ॥१९॥ | व्याख्या-तत्र चलो ह्यवधिः वर्धमानःक्षीयमाणो वा भवति, सा च वृद्धिोनिर्वा चतुर्विधा भवति क्षेत्रकालयोः, तथा चाभ्यधायि परमगुरुणा-"असंखेजभागवुड्डी वा संखेजभागवुडी वा संखेजगुणवुट्टी वा असंखेजगुणवुड्डी वा," एवं हानिरपि, न तु अनन्तभागवृद्धिरनन्तगुणवृद्धिर्वा, एवं हानिरपि, क्षेत्रकालयोरनन्तयोरदर्शनात , तथा द्रव्येषु भवति || द्विधा वृद्धिहानिर्वा, कथम् -अनन्तभागवृद्धिर्वा अनन्तगुणवृद्धिा, एवं हानिरपि, द्रव्यानन्त्यादिति भावार्थः। तथा पद्दिधा 'पर्याये' इति जात्यपेक्षमेकवचनं पर्यायेषु भवति, वृद्धि हानिति वर्तते, पर्यायानन्त्यात्, कथम् ?-अनन्त न केवलं काळ इत्यपिशब्दार्थः, आदिना आधारादिप्रहः गुणपर्यायग्रहो बा. २ गुणत उत्पन्नेऽपि जघन्येन समयान्तरे प्रतिपातात् मरणेन. ३ अनन्तरसमय थी. ४ मसंख्येयभागवृदिया संख्येयभागवृद्धिा संख्येयगुणवृद्धिा मसंख्येवगुणवृद्धिा (प्रज्ञापनार्या ) *तन. + भन्यत्र च तोपयोगत्वे. द्विविधा. अनुक्रम : ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१९], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ४३08 यवृत्तिः सूत्राक % % आवश्यक-भागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुणवृद्धिः असंख्येयगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिरिति, एवं हानि-माहारिभक्षी रपि । आह-क्षेत्रस्यासंख्येयभागादिवृद्धौ तदाधेयरब्याणामपि तन्निबन्धनत्वादसंख्येयभागादिवृद्धिरेवास्तु, तथा द्रव्य-18 | स्थानन्तभागादिवृद्धौ सत्यां तत्पर्यायाणामपि अनन्तभागादिवृद्धिरिति षट्स्थानकमनुपपन्नमिति, अत्रोच्यते, सामान्यन्या- विभागः१ यमङ्गीकृत्य इदमित्थमेव, यदा क्षेत्रानुवृत्त्या पुद्गलाः परिसंख्यायन्ते, पुद्गलानुवृत्त्या च तत्पर्यायाः, न पत्रिर्व, कथम् । -यस्मात्म्वक्षेत्रादनन्तगुणाः पुद्गलाः, तेभ्योऽपि पर्याया इति, अतो यस्य यथैवोक्ता वृद्धिर्हानिर्वा तस्य तथैवाविरुद्धेति, प्रतिनियतविषयत्वात् , विचित्रावधिनिवन्धनाच्चेति गाथार्थः॥१९॥ एवं तावञ्चलद्वारं व्याख्यातम् , इदानीं तीब्रमन्दद्वा रावयवाथै व्याचिख्यासुरिदमाह • फड्डा पं असंखिज्जा, संखेजा यावि एगजीवस्स । एकष्फडवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो॥१०॥ फड्डा य आणुगामी, अणाणुगामी य मीसगा चेव । पडिवाइ अपडियाई, मीसोय मणुस्सतेरिच्छे ॥ ६१॥ प्रथमगाथाव्याख्या-इह फडकानि अवृधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिब्यवहितप्रदीपप्रभाफडुकानीव फडकानि, तानि चासंख्येयानि संख्येयानि चैकजीवस्य, तत्रैकफडकोपयोगे सति नियमात् 'सर्वत्र' सर्वैः फडकैरुपयुक्ता [भिवन्ति, एकोपयोगत्वाज्जीवस्य, लोचनयोपयोगवद, प्रकाशमयत्वाद्वा प्रदीपोपयोगवदिति । आह-तीनमन्दद्वारं प्रक्रान्तं 1 अनन्तभागगुणवृविहानी दन्ये, पर्यायषु षट्स्पानगा विहाँनिर्वा र हाम्या नेत्राभ्यां निरीक्षते नरो वुगपत् , न चानेकोपयोगता, तद्वदनाप्यनेकस्पर्धक-2 रुपयोगेऽप्येकदा नानेकोपयोगता, एकनेत्रोपयोगे च अपयोगोइयोरेव, युगपदुपयुज्यमानत्वात् ३ उपयोगः कार्य, न च दीप एकया दिशा प्रकाशयति केवलं, किंतु सर्वाभिः * स्वपर्याया. + फढाइ । युक्तो भवति. 0 दीप अनुक्रम ॐ ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] अध्ययनं [ - ], “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [६०], भाष्यं [-] आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Education inten विहाय फडकावधिस्वरूपं प्रतिपादयतः प्रक्रमविरोध इति, अत्रोच्यते, प्रायोऽनुगामुकाप्रतिपातिलक्षणी फडकी तीव्रौ, तिथे तरी मन्दौ, उभयस्वभावता च मिश्रस्येति गाथार्थः ॥ ६० ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या - फड्डुकानि - पूर्वोक्तानि तानि च अनुगमनशीलानि आनुगामुकानि, एतद्विपरीतानि अनानुगामुकानि, उभयस्वरूपाणि मिश्रकाणि च एवकारः अवधारणे, तान्येकैकशः प्रतिपतनशीलानि प्रतिपातीनि, एवमप्रतिपातीनि मिश्रकाणि च भवन्ति, तानि च मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिस्तस्मिन्नेव भवन्तीति । आह— आनुगामुकाप्रतिपातिफडुकयोः कः प्रतिविशेषः ?, अनानुगामुकप्रतिपातिफडकयोवेंति, अत्रोच्यते, अप्रतिपात्यानुगामुकमेव, आनुगामुकं तु प्रतिपात्यप्रतिपाति च भवतीति शेषः । तथा प्रतिपतत्येव प्रतिपाति, प्रतिपतितमपि च सत् पुनर्देशान्तरे जायत एवे, नेत्थमनानुगामुकमिति गाथार्थः ॥ ६१ ॥ व्याख्यातं तीव्र - न्दद्वारं, इदानीं प्रतिपातोत्पादद्वारं विवृण्वन् गाथाद्वयमाह - वाहिरलंभे भज्जो, दव्वे खित्ते य कालभावे य । उप्पा पडिवाओऽविय, तं भयं एगसमएणं ॥ ६२ ॥ अमितरलडीए, उ तदुभयं नत्थि एगसमएणं । उप्पा पडिवाओऽविय, एगयरो एगसमएणं ॥ ६३ ॥ प्रथमगाथाव्याख्या--तत्र द्रष्टुर्बहिर्योऽवधिस्तस्यैव एकस्यां दिशि अनेकासु वाँ विच्छिन्नः स वाह्यः तस्य लाभो १] विशेषस्पर्धक तीव्रत्वमवधेरितरथा चेतरत् मध्यमे व मिश्रतेति कारणं तीमादेः स्पर्धकान्येवेति सद्दर्शने न प्रक्रमविरोध इत्यर्थः २ असंख्ये यानां संख्येयानां बोत्पन्नानां स्पर्धकानामवस्थानात् क्षेत्रान्तरेऽपि ३ अनुगामुकादीनि ४ आ केवल्याप्तेः भवक्षयात् स्थानापेक्षया भवान्तरेऽवस्थानमा श्रित्य च ५ प्रतिपातिमोऽप्यानुगामुकत्वदर्शनादम् ६ स्पर्धक रूपकारणाभिधानद्वारेण. ७ अनुक्तसमुच्चयार्थत्वात् परिमण्डलाकारोऽपि तद्विपरीतानि च विशेषः । तदुभयं चेग● + For Park Use On ~90~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६३], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ प्रत 2 ॥४४॥ सूत्राक आवश्यक- बाह्यलाभा, अधिः प्रक्रमात् गम्यते, अस्मिन् बाह्यलाभे सति-बाह्यावधिप्राप्तौ सत्यां 'भाग्यो' विकल्पनीयः, कोऽसौ ? -उत्पादः प्रतिपात 'तदुभयगुणश्च एकसमयेनेति सम्बन्धः, किंविषय इति', आह-'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः, एवं क्षेत्र- कालभावविषय इति, अपिचशब्दाः पूरणसमुच्चयार्थाः । अयं भावार्थः-एकस्मिन् समये द्रव्यादौ विषये बाह्यावधेः कदाचिदुत्पादो भवति कदाचिद्ययः कदाचिदुभय, दावानलदृष्टान्तेन, यथा हि दावानलः खल्वेककाल एवैकतो दीप्यतेऽन्यतश्च ध्वंसत इति, तथा अवधिरपि एकदेशे जायते अन्यत्र प्रच्यवत इति गाथार्थः ॥ १२॥ द्वितीयगाथा| व्याख्या-इह द्रष्टुः सर्वतः संबद्धः प्रदीपप्रभानिकरवदवधिरभ्यन्तरोऽभिधीयते तस्य लब्धिरभ्यन्तरलब्धिः तस्या मभ्यन्तरलब्धौ तु सत्यां अभ्यन्तरावधिप्राप्तावित्यर्थः । तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि -तच्च तदुभयं च तदुभय, उत्पातप्रतिपातोभयं नास्त्येकसमयेन, 'द्रव्यादौ विषये' इत्यनुवर्तते, किं तर्हि -उत्पादः प्रतिपातो वा एकतर एव एकसमयेन, अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । अयं भावार्थः-प्रदीपस्येवोत्पाद एव प्रतिपातो वा एकसमयेन भवति अभ्यन्तरावधेर्न तूभयं, अप्रदेशावधित्वादेव, न ह्येकस्य एकपर्यायेणोत्पादध्ययौ युगपत्स्यातां अङ्गुल्याकुश्चनप्रसारणवदिति गाथार्थः॥६३ ॥ प्रतिपादितं प्रतिपातोत्पादद्वारं, इदानी यदुक्तं 'संखेज मणोदधे, भागो लोगपलियस्स' (४२) इत्यादि, तत्र द्रव्यादित्रयस्य परस्परोपनिवन्ध उक्तः, इदानीं द्रव्यपर्याययोः प्रसङ्गत एवोत्पादप्रतिपाता धिकारे प्रतिपादयन्नाह संख्येयो मनोजयविषयेऽपधी भागो लोकपस्योपमयोः * अवधेः तस्मिन् । गुणन विभा. पादः प्रति समवनेव. दीप +CCICC अनुक्रम ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६४], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत ROCESS सूत्राक दीप CCTOR दवाओं असंखिजे, संखेज्जे आवि पबचे लहइ । दो पज्जवे दुगुणिए, लहइ य एगाउ दबाउ ॥ ३४॥ व्याख्या–परमाण्वादिद्रव्यमेकं पश्यन् द्रश्यात्सकाशात् तत्पर्यायान् उत्कृष्टतोऽसंख्येयान् संख्येयाँश्चापि मध्यमतो लभते प्रामोति पश्यतीत्यनर्थान्तरं, तथा जघन्यतस्तु बौ पर्यायी द्विगुणितो 'लभते च' पश्यति च एकस्माद् द्रव्यात् , एतदुक्तं भवति-वर्णगन्धरसस्पर्शानेव प्रतिद्रव्यं पश्यति, न त्वनन्तान , सामान्यतस्तु द्रव्यानन्तत्वादेव अन|न्तान् पश्यतीति गाथार्थः ॥ ५४॥ साम्प्रतं युगपज्ज्ञानदर्शनविभङ्गद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह सागारमणागारा, ओहिविभंगा जहण्णगा तुल्ला । उवरिमगेवेनेसु उ, परेण ओही असंखिजो ॥६५॥ व्याख्या-तत्र यो विशेषग्राहकः स साकारः, स च ज्ञानमित्युच्यते, यः पुनः सामान्यग्राहकोऽवधिविभङ्गो वा सोऽनाकारः, स च दर्शनं गीयते, तत्र साकारानाकाराववधिविभङ्गो जघन्य को तुल्यावेव भवतः, सम्यग्दृष्टेरवधिः, मि. च्यादृष्टस्तु स एव विभङ्गा, लोकपुरुषग्रीवासस्थानीयानि अवेयकाणि विमानानि, उपरिमाणि च तानि प्रैवेयकाणि चेति समासः, तुशब्दोऽपिशब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः, भवनपतिदेवेभ्यः खल्वारभ्य उपरिमवेयकेष्वपि अयमेव न्यायो यदुत-साकारानाकारौ अवधिविभङ्गो जिघन्यादारभ्य तुल्यो विति, न तूत्कृष्टौ, ततः 'परेण' इति परतः अवधिरेव भवति, मिथ्या प्रतिदम्यं एकस्मिन्वा नानन्तानित्यर्थः २ क्षेत्रकालरूपौ विषयावधिकृत्य परस्परतस्तुल्ये न तु अव्यभावविषयौ (इति मलयगिरिपादाः आवश् कवृचौ) * संखिजा + असंखिमा असंखिजा जिघन्यको अनुक्रम T SAREauratoninternational अवधि एवं विभंग-ज्ञानस्य कथनं ~ 92~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ६५ ], भाष्यं [-] आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आवश्यक दृष्टीनां तत्रोपपाताभावात्, स च क्षेत्रतः असंख्येयो भवति, योजनापेक्षयेति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ इदानीं देशद्वारावयवार्थ ॐ प्रचिकटयिषुरिदमाह ।। ४५ ।। देवतित्थंकराय ओहिस्सऽबाहिरा हुंति । पासंति सव्वओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥ ६६ ॥ व्याख्या- 'नारकाः ' प्रानिरूपितशब्दार्थाः देवा अपि तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, नारकाश्च देवाश्च तीर्थकराश्चेति विग्रहः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः सम्बन्ध इति दर्शयिष्यामः, एते नारकादयः 'अवधेः ' अवधिज्ञानस्य न बाह्या अवाह्या भवन्ति, इदमन्त्र हृदयं - अवध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तर्वर्तन्ते, सर्वतोऽवभा १ सकत्वात्, प्रदीपयत्, ततश्चार्थादबाह्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः । तथा पश्यन्ति 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च खलुशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारण एव, सर्वास्वेव दिग्विदिविति, सर्वत एवेत्यर्थः । आह| अवधेरवाह्या भवन्तीत्यस्मादेव पश्यन्ति सर्वत इत्यस्य सिद्धत्वात् पश्यन्ति सर्वतः इत्येतदतिरिच्यते इति, अत्रोच्यते, नैतदेवं, अवधेरबाह्यत्वे सत्यपि अभ्यन्तरावधित्वे सत्यपीतिभावः, न सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, दिगन्तरालादर्शनात्, अवधेर्विचित्रत्वा, अतो नातिरिच्यत इति, 'शेषाः' तिर्यङ्नरा 'देशेन' इत्येकदेशेन पश्यन्ति, अत्रेष्टतोऽवधारणविधिः शेषा एव देशतः पश्यन्ति, न तु शेषा देशत एवेति गाथार्थः ॥ अथवा अन्यथा व्याख्यायते - नारकदेवतीर्थंकरा अवधेरवाह्या भवन्तीति, किमुक्तं भवति ? - नियतावधय एव भवन्ति, नियमेनैपामवधिर्भवतीत्यर्थः, अतः संशयः- किं ते तेन अत्रेष्टितो० + ०तीर्थंकरा. Education Internationa For Parts Only ~93~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४५ ॥ or Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६६], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्राक सर्वतः पश्यन्ति आहोश्विद्देशत इति, अतस्त ब्यवच्छेदार्थमाह-पश्यन्ति सर्वत एव । आह-यद्येवं पश्यन्ति सर्वतः' इत्ये| तावदेवास्तु, अवधेरबाह्या भवन्तीति नियतावधित्वख्यापनार्थमनर्थक, न, नियतावधित्वस्यैव विशेषणार्थत्वादस्य, अवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीतिज्ञापनार्थत्वाददुष्टं । आह-ननु नारकदेवानां भवप्रत्ययावधिग्रहणात् तीर्थकृतामपि प्रसिद्धतरपारभविकावधिसमन्वागमादेव नियतावधित्वं सिद्धमिति, अत्रोच्यते, नियतावधित्वे सिद्धे. ऽपि न सर्वकालावस्थायित्वसिद्धिरित्यतस्तत्प्रदर्शनार्थमवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीति ज्ञापना र्थवाददुष्टं । आह-यद्येवं तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति, न, तेषां केवलोत्पत्तावपि वस्तुतस्तत्परिच्छे४दस्य 'निष्ठत्वात् , केवलेन सुतरां संपूर्णानन्तधर्मकवस्तुपरिच्छित्तेः, छद्मस्थकालस्य वा विवक्षितत्वाददोष इति, अलं | |विस्तरेण, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ एवं देशद्वारावयवार्थमभिधायेदानी क्षेत्रद्वारं 'विधुवूपराह| "संखिजमसंखिजो, पुरिसमबाहाइ खित्तओ ओही। संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संघद्धो ॥ ६७॥ व्याख्या-तत्र संबद्धश्चासंबद्धश्च अवधिर्भवति, किमुक्तं भवति ? कश्चिद् द्रष्टरि संबद्धो भवति, प्रदीपप्रभावत् , | कश्चिच असंबद्धो भवति, विप्रकृष्टतमोव्याकुलदेशप्रदीपदर्शनवत् । तत्र यस्तावदसंबद्धः असौ संख्येयः असंख्येयो वा। पूर्णः सुखदुःखानामिति पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति । पुरुषादबाधा, अबाधनमबाधा अन्तरालमित्यर्थः, SCSCREAK दीप ANSRCHASIROCESS अनुक्रम ति, किमुकं भवति !-सदाऽवधेरवाया भवन्ति. नियतावधय इत्यर्थः । आह. + स्याप्यनष्टत्वात विवरीषु विश्वसं.अतिविप्र. ~ 94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ४६ ॥ भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [ ६७ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः * पुरुषस्य बाधा पुरुषाबाधा तथा पुरुपाबाधया हेतुभूतया सह वा क्षेत्रतः अवधिर्भवति, अयं भावार्थ:-- असंबद्धोऽवधिः क्षेत्रतः संख्येयो भवति असंख्येयो वा, योजनापेक्षयेति, एवं संबद्धोऽपि । एवमवधिः स्वतन्त्रः पर्यालोचितः, इदानीमबाधया चिन्त्यते— अत्र चतुर्भङ्गिका, तत्र संख्येयमम्तरं संख्येयोऽवधिः, संख्येयमन्तरं असंख्येयोऽवधिः असंख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः असंख्येयमन्तरमसंख्येयोऽवधिरिति चत्वारोऽपि विकल्पाः संभवन्ति, संबद्धे तु विकल्पाभावः । तथा 'लोके ' चतुर्दशरज्ज्वात्मके पश्चास्तिकायवति, ' अलोके च केवलाकाशास्तिकाये, चशब्दः समुच्चयार्थः, लोके अलोके च संबद्धः, कथम् ? - पुरुषे संबद्धो लोके च — लोकप्रमाणावधिः, पुरुषे न लोके - देशतोऽभ्यन्तरावधिः, न पुरुषे लोके-शून्यो भङ्गः, न लोके न पुरुषे-बाह्यावधिः, इयं भावना---लोकाभ्यन्तरः पुरुषे संबद्धोऽसंबद्धो वा भवति, यस्तु लोके संबद्धः स नियमात्पुरुषे संबद्ध इति, अतो भङ्गचतुष्टयं तृतीयभङ्गशून्यमिति, अलोकसंबद्धस्त्वात्मसंबद्ध एव भवतीति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ इदानीं गतिद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाऽऽह गइनेरहयाईया, हिट्ठा जह वण्णिया तब इहं । इड्डी एसा वणिजइत्ति तो सेसियाओवि ॥ ६८ ॥ व्याख्या -- तत्र गत्युपलक्षिताः सर्व एवेन्द्रियादयो द्वारविशेषाः परिगृह्यन्ते, ततश्च ये गत्यादयः सत्पदप्ररूपणाविधयः द्रव्यप्रमाणादयश्च, ते यथा अघस्तान्मतिश्रुतयोः ' वर्णिताः ' उपदिष्टाः तथैवेहापि द्रष्टव्या इति, विशेषस्त्वयम् - इह ये मतिं प्रतिपद्यन्ते तेऽवधिमपि, किन्त्ववेदकास्तथा अकषायिणोऽप्यवधेः प्रतिपद्यमानका भवन्ति क्षपकश्रेण्य• नेदं प्रत्यन्तरे. Ja Eucation Internationa For Pal Pal Use Only ~ 95~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४६ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६८], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 5 प्रत %5 सूत्राक 5C न्तर्गताः सन्त इति, तथा मनःपर्यायज्ञानिनश्च तथा अनाहारका अपर्याप्तकाश्च पूर्वसम्यग्दृष्टयः सुरनारका अप्यपान्तरालगत्यादाविति, शक्तिमधिकृत्येति भावार्थः । पूर्वप्रतिपन्नास्तु त एव ये मतेः विकलेन्द्रियासंज्ञिशून्या इति, उक्तमव|धिज्ञानमिति । तत्र अवधिज्ञानी उत्कृष्टतो द्रव्यतः सर्वमूलद्रव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतस्वादेशेनासंख्येयं क्षेत्रं, एवंद कालमपि, भावतस्त्वनन्तान् भावानिति । तत्र ऋद्धिविशेष 'एषः' अवधिः 'व्यावण्यते' गीयते अतः तत्सामान्यात् | शेषर्द्धयोऽपि वर्ण्यन्त इति गाथार्थः ॥ ६८॥ तत्र शेषर्द्धिविशेषस्वरूपप्रतिपादनायाहआमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लंमोसही चेव । संभिन्नसो उजुमइ, सब्बोसहि चेव बोहब्बो ॥६९॥ चारणआसीविस केवली य मणनाणिणो य पुथ्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य ॥७॥ प्रथमगाथाब्याख्या-आमर्शनमामर्शः संस्पर्शनमित्यर्थः, स एवौषधिर्यस्यासावामशौषधिा-साधुरेव संस्पर्शनमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थ इत्यर्थः, लब्धिलब्धिमतोरभेदात् स एवामर्शलब्धिरिति, एवं विखेलजल्लेष्वपि योजना कर्त्त % दीप 5C % अनुक्रम C अवघ्युत्पादमन्तरेणैतदुत्पादान्मनःपर्यायशानिनोऽवधेः प्रतिपद्यमानकाः २ प्राच्यनरतियम्भवान्त्यसमवादनन्तरं सुरनारकायुरुदयादेवं व्यपदेषाः 'थे। अमतिपतितसम्बस्वास्तियमनुष्येभ्यो देवनारका जायन्ते ते 'इतिहेमचन्द्रपादाः ३ विकलेन्त्रियाणां असंशिनां च सास्वादनसम्यक्रवाम्मतिश्रुतयोः पूर्वप्रतिपत्नसा स्यात् , परमवधस्तु न. ४ उपचारेय. ५ रोगापनथनबुओतिम श्रीहेमचन्द्रपादाः ६ मूत्रपुरीषयोरवयचो विमुच्यते, मन्ये वाहुः-विर उचारः प्रति प्रश्रवणमिति, मबीहेमचन्नपादाः (विघुऔषधिः) विकल्पे वि. + ओसही सोय • सोच बनु बोडग्या. आमशीषधि आदि ऋद्धेः स्वरुपम् प्रतिपाद्यते ~ 96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आवश्यक ॥ ४७ ॥ व्येति, तत्र 'विड्' उच्चारः ' खेल: ' श्लेष्मा 'जहो ' मल इति, भावार्थः पूर्ववत् सुगन्धाश्च भवन्ति । तथा यः * सर्वतः शृणोति स संभिन्नश्रोता, अथवा श्रोतांसि इन्द्रियाणि संभिन्नान्येकैकशः सर्वविधैयैरस्य परस्परतो चैति संभिन्न४ श्रोताः, संभिन्नान् वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सुबहूनपि शब्दान् शृणोति संभिन्नश्रोता, एवं संभिन्नश्रोतृत्वमपि लब्धिरेव । तथा ऋज्वी मतिः ऋजुमतिः सामान्यग्राहिकेत्यर्थः, मनःपर्यायज्ञानविशेषः, अयमपि च लब्धिविशेष एव, लब्धिलब्धिमतोश्चाभेदात् ऋजुमतिः साधुरेव । तथा सर्व एव विण्मूत्रकेशन खादयो विशेषाः खल्वोषधयो यस्य, व्याध्युपशमहेतव इत्यर्थः, असौ सर्वोपधिश्च, एवमेते ऋद्धिविशेषा बोद्धव्या इति गाथार्थः ॥ ६९ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या - अतिशयचरणाच्चारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः ते च द्विभेदा:- विद्याचारणा जङ्घाचारणाश्च तत्र जङ्गचारणः शक्तितः किल रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति, स च किलेकोत्पातेनैव रुचकवरद्वीपं गच्छति, आगच्छश्वोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दीश्वरं द्वितीयेन यतो गतः, एवमूर्ध्वमपि एकोत्पातेनैवा चलेन्द्रमूर्ध्नि स्थितं पाण्डुकवनं गच्छति, आगच्छ्श्वोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दनवनं द्वितीयेन यतो गतः । विद्याचारणस्तु नन्दीश्वरद्वीपगमन शक्तिमान् भवति, स वेकोत्पातेन मानुषोत्तरं गच्छति, द्वितीयेन नन्दीश्वरं, तृतीयेन त्वेकेनैवाऽऽगच्छति चकाराद्विदादीनां न्यायपनयन साहचर्य २ विवादयः ३ सर्वैरेव शरीरदेशैरिति म० श्रीहेमचन्द्रपादाः ४ सर्वांणीन्द्रियाणि सर्वविषयान् प्रत्येकं विदन्ति ५ परस्परं श्रोत्रचक्षुषी रूपशब्दविषयों वित्तो यवमन्येपि परस्परविषयज्ञानं. ६ द्वादशयोजन चक्रवर्त्तिकटकस्य युगपद् मुवाणस्य तत्सूर्यसंघातस्य वा युगपदास्फाल्यमानस्य. ७ जङ्घाभ्याम् सूत्रानुसारेणैकादशः चूर्ण्यनुसारेण तु त्रयोदशः, तत्र भरूणावासवाङ्कवस्योरधिकयोर्दर्शनात् चलादि० + पाण्डक० 1 सत्रको ० Education International For Parts Only ~97~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४७ ॥ wor Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] भाष्यं [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [७०], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः यतो गतः, एवमूर्ध्वमपि व्यत्ययो वक्तव्य इति । अन्ये तु शक्तित एव रुचकवरादिद्वीपमन योर्गोचरतया व्याचक्षत इति । तथा आस्यो- दंष्ट्राः तासु विषमेषामस्तीति आसीविषाः, ते च द्विप्रकारा भवन्ति-जातितः कर्मतश्च तत्र जातितो वृश्चि कमण्डूकोरगमनुष्यजातयः, कर्मतस्तु तिर्यग्योनयः मनुष्या देवाश्यांसहस्रारादिति, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतो ऽन्यतो वा गुणतः खल्वातीविषा भवन्ति, देवा अपि तच्छक्तियुक्ता भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः । तथा केवलिनश्च प्रसिद्धा एव । तथा मनोज्ञानिनो विपुलमनःपर्यायज्ञानिनः परिगृह्यन्ते । पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः, दशचतुदेशपूर्वविदः । अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकरा इत्यर्थः । 'चक्रवर्त्तिनः' 'चतुर्दशरत्नाधिपाः षट्खण्डभरतेश्वराः । ' बलदेवाः ' प्रसिद्धा एव। 'वासुदेवाः सप्तरलाधिपा अर्धभरतप्रभव इत्यर्थः । एते हि सर्व एव चारणादयो लब्धिविशेषा वर्त्तन्ते इति गाथार्थः ॥ ७० ॥ इह वासुदेवत्वं चक्रवर्त्तित्वं तीर्थकरत्वं च ऋद्धयः प्रतिपादिताः, तत्र तदतिशयप्रतिपादनायेदं गाथापञ्चकं जगाद नियुक्तिकार :-- सोलस रायसहस्सा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेवं । अगडतडंमी ठियं संतं ॥ ७१ ॥ चित्तृण संकलं सो वामगहत्थेण अंद्यमाणाणं । भुंजिज्ज व लिंपिज व महुमहणं ते न चार्यति ॥ ७२ ॥ दोसोला बत्तीसा, सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछति चकवहिं, अगडतडमी 'ठियं संतं ॥ ७३ ॥ ये सन्धिमन्तः पश्चेन्द्रियतिर्यगादयस्ते देवाः पर्यासावस्थायां शापादिना व्यापादने समय अपि देवभवत्यधिका तद्विदक्षितमिति अपर्यासावस्थायामेवैतन्यपदेशो देवानाम् * मेषामिति + ० सह० 1 ०हानतो वा० अपि च भितमि. अरिहंत चक्रवर्ती वासुदेव-बलदेव आदिनाम् अतिशय दर्शयते For Parts Only ~98~ or Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७५], भाष्यं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: यवृत्तिः प्रत ४८॥ सूत्राक आवश्यक चित्तूण संकलं सो, वामगहत्येण अंछमाणाणं । भुजिज्ज व लिंपिज्ज व, चक्कहरं ते न चापंति ॥ ७४ ॥ | हारिभद्रीजं केसवस्स उ बलं, तं दुगुणं होइ चक्कवहिस्स । तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ॥७॥ विभागः१ "आसां गमनिका-इह वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषाद्लातिशयो वासुदेवस्य संप्रदश्यते-पोडश राजसहस्राणि 'सर्वबलेन' हस्त्यश्वरधपदातिसंकुलेन सह शृङ्खलानिबद्धं ' अंछति' देशीवचनात् आकर्षन्ति वासुदेवं ' अगडतटेल कृपतटे स्थितं सन्तं, ततश्च गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेन ' अंछमाणाणं' ति आकर्षता भुञ्जीत बिलिम्पेत वा अव ज्ञया हृष्टः सन्, मधुमथनं ते न शक्नुवन्ति, आक्रष्टुमिति वाक्यशेषः । चक्रवर्तिनस्त्विदं बलं-द्वी षोडशकी, द्वात्रिंश-12 दादित्येतावति वाच्ये द्वौ पोडशकावित्यभिधानं चक्रवर्तिनो वासुदेवाद् द्विगुणख्यिापनार्थ, राजसहस्राणीति गम्यते, | सर्वबलेन सह शृङ्खलानिबद्धं आकर्षन्ति चक्रवर्तिनं अगडतटे स्थितं सन्तं गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेन आकर्षता भुञ्जीत विलिम्पेत वा, चक्रधरं ते न शक्नुवन्ति आऋमिति वाक्यशेषः । यत् केशवस्य तु बलं तद्विगुणं भवति चक्रवहर्तिनः, 'ततः' शेषलोकबलादू 'बला' बलदेवा बलवन्तः, तथा निरवशेषवीर्यान्तरायक्षयाद् अपरिमितं बलं येषां तेड परिमितबलाः, क एते-जिनवरेन्द्राः, अथवा ततः-चक्रवर्तिबलाद् बलवन्तो जिनवरेन्द्राः, कियता बलेनेति, आहअपरिमितबला इति । एता हि कर्मोदयक्षयक्षयोपशमसव्यपेक्षाः प्राणिनां लब्धयोऽवसेया इति । ७१-७२-७३-७४-७५ ॥४८॥ दीप अनुक्रम % १ अपरिमितेन बलेन बलपन्त इतिभावः (इतिमरुयगिरिपादाः) वाच्य. + ण्माणाति भा. वाच्य ~ 99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७५], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक इदानीं मनःपर्यायज्ञानं, लब्धिनिरूपणायां तत् सामान्यतो व्यपदिष्टमपि विषयस्वाम्यादिविशेषोपदर्शनाय ज्ञानपशकक्रमायातमभिधित्सुराह मणपज्जवनाणं पुण जणमणपरिचिन्तियत्थपायडणं । माणुसखित्तनिषद्धं गुणपच्चइयं चरितवओ॥ ७६॥ __ व्याख्या-'मनःपर्यायज्ञानं ' प्राकृनिरूपितशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, इदं हि रूपिनिवन्धनक्षायोपशमिकप्रत्यक्षादिसाम्येऽपि सति अवधिज्ञानात् स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति स्वरूपतः प्रतिपादयन्नाह-जायन्त इति जनाः, तेषां मनांसि जनमनांसि, जनमनोभिः परिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितश्चासावर्थश्चेति समासः, हैतं प्रकटयति प्रकाशयति जनमन:परिचिन्तितार्थप्रकटनं, मानुषक्षेत्र-अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तन्निवद्धं, तद्वहि~ वस्थितप्राणिमनःपरिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इत्यर्थः । गुणा:-क्षान्त्यादयः त एघ प्रत्ययाः-कारणानि यस्य तद्गुणप्रत्ययं, चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवान् तस्य चारित्रवत एवेदं भवति, एतदुक्तं भवति-अप्रमत्तसंयतस्य आमौंषध्यादिऋद्धि-8 प्राप्तस्यैवेति गाथार्थः॥७६॥ इदं द्रव्यादिभिर्निरूप्यते-तत्र द्रव्यतो मनःपर्याय ज्ञानी अर्धेतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्गतप्राणिमनो-1 भावपरिणतद्रव्याणि जानाति पश्यति च, अवधिज्ञानसंपन्नमनःपर्यायज्ञानिनमधिकृत्यैवं, अन्यथा जानात्येव न पश्यति, अथवा यतः साकारं तदतो ज्ञानं यतश्च पश्यति तेन अतो दर्शनमिति, एवं सूत्रे संभवमधिकृत्योक्तमिति, अन्यथा चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनं तत्रोत चतुर्धा विरुध्यते, क्षेत्रतः अर्धतृतीयेष्वेव द्वीपसमुद्रेषु, कालतस्तु पल्योपमासंख्येयभार्ग भादिना उनस्थस्या मिसाधर्म्यम् , २ भेदयदित्यर्थः ३ योगरूढतया नरा एष स्युः, परं संशिपजेन्द्रियग्रहणायैवं व्युत्पादन. * पागणं. दीप अनुक्रम AIMEducatan intimational rajancibansarm मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ मन:पर्यवज्ञानस्य वक्तव्यता ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७७], भाष्यं [-] (४०) ॥४९॥ प्रत सुत्रांक आवश्यक एण्यमतीतं वा कालं जानाति, भावतस्तु मनोद्रव्यपर्यायान् अनन्तानिति, तत्र साक्षान्मनोद्रव्यपर्यायानेव पश्यति, हारिभद्री बाह्याँस्तु तद्विषयभावापन्नाननुमानतो विजानाति, कुतः, मनसो मूर्त्तामूलद्रव्यालम्बनत्वात् , छमस्थस्य चामूर्तदर्शन- यवृत्तिः दाविरोधादिति । सत्पदप्ररूपणादयस्तु अवधिज्ञानवदवगन्तव्याः । नानात्वं चानाहारकापर्याप्तको प्रतिपद्यमानी नविभागः१ भवतः, नापीतरौ । उक्त मनःपर्यायज्ञानं, इदानीमवसरमाप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयनाह अह सव्ववपरिणामभावविपणत्तिकारणमणतं । सासयमपहिवाइ एगविहं केवलंन्नाणं ॥७७॥ व्याख्या-इह मनःपर्यायज्ञानानन्तरं सूत्रक्रमोद्देशतः शुद्धितो लाभतश्च प्राक केवलज्ञानमुपन्यस्तं, अतस्तदर्थोपदर्शनार्थमथशब्द इति, उक्तं च-“अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु"। सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च सर्वद्रव्याणि-जीवादिलक्षणानि तेषां परिणामाः-प्रयोगविनसोभयजन्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामाः तेषां भावः ही सत्ता स्वलक्षणमित्यनान्तरं तस्य विशेषेण शेपनं विज्ञप्तिः, विज्ञानं वा विज्ञप्तिः-परिच्छित्तिः, तत्र भेदोपचारात्, तस्या विज्ञप्तेः कारणं विज्ञप्तिकारणं, अत एव सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावविषयं तत् , क्षेत्रादीनामपि द्रव्यत्वात्, तच ज्ञेयानन्तत्वादनन्त, शश्वद्भयतीति शाश्वत, तच्च व्यवहारनयादेशादुपचारतः प्रतिपात्यपि भवति, अत आह-प्रतिपतनशीलं । ॥४९॥ पूप्रतिपाति न प्रतिपाति अप्रतिपाति, सदाऽवस्थितमित्यर्थः । आइ-अप्रतिपात्येतावदेवास्तु, शाश्वतमित्येतदयुक्त, न, दीप अनुक्रम मततदर्थोऽयमयघाब्दः * केवलं नाणं. + ज्ञापनं. Brajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ केवलज्ञान प्रतिपादयते ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७७], भाष्यं [-] (४०) 2-5-15:4% प्रत सूत्राक | अप्रतिपातिनोऽप्यवधिज्ञानस्य शाश्वतत्वानुपपत्तेः, तस्मादुभयमपि युक्तमिति । 'एकविधं ' एकप्रकार, आवरणाभावात् | भयस्यैकरूपत्वात् , 'केवलं' मत्यादिनिरपेक्षं ज्ञानं ' संवेदनं, केवलं च तत् ज्ञानं चेति समास इति गाथार्थः ॥ ७७ ॥ इह तीर्थकृत् समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थ देशनां करोति, तीर्थकरनामकर्मोदयात् , ततश्च ध्वनेः श्रुतरूपत्वात् तस्य च भावश्रुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसंभवादनिष्टापत्तिरिति मा भून्मतिमोहोऽव्युत्पन्नबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्त्यर्थमाह केवलणाणेणत्थे गाउं जे तत्थ पपणवणजोगे । ते भासह तित्थयरो वयजोग सुयं हवद सेसं ।। ७८ ॥ ___ व्याख्या-इह तीर्थकरः केवलज्ञानेन ' अर्थान् ' धर्मास्तिकायादीन मूर्तामनि अभिलाप्यानभिलाप्यान् ' ज्ञात्वा' विनिश्चित्य, केवलज्ञानेनैव ज्ञात्वा न तु श्रुतज्ञानेन, तस्य क्षायोपशमिकत्वात् , केवलिनश्च तदभावात् , सर्वशुद्धौ देशशुयभावादित्यर्थः । ये 'तत्र ' तेषामर्थानां मध्ये, प्रज्ञापनं प्रज्ञापना तस्या योग्याः प्रज्ञापनायोग्याः 'तान् भापते' तानेव वक्ति नेतरानिति, प्रज्ञापनीयानपि न सर्वानेव भापते, अनन्तत्वात, आयुषः परिमितत्वात, वाचः क्रमवर्तित्वाच्च, किं तर्हि !, योग्यानेव गृहीतृशक्त्यपेक्षया यो हि यावतां योग्य इति । तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिः प्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वाग्योग एव भवति, न श्रुतं, नामकर्मोदयनिबन्धनत्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात्, सच | श्रुतं भवति शेष, शेषमित्यप्रधानं, एतदुक्तं भवति-श्रोतृणां श्रुतग्रन्थानुसारिभाव श्रुतज्ञाननिवन्धनत्वाच्छेषमप्रधानं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः । अन्ये त्वेवं पठन्ति-वयजोगसुयं हवइ तेर्सि' स वाग्योगः श्रुतं भवति 'तेषां ' श्रोतां, भाषश्रुतकारणत्वादित्यभिप्रायः । अथवा 'चाग्योगश्रुतं' द्रव्यश्रुतमेवेति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ + दीप + अनुक्रम C-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७८], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक-४ सत्पदप्ररूपणायां च गतिमङ्गीकृत्य सिद्ध गती मनुष्यगतौ च, इन्द्रियद्वारमधिकृत्य नोइन्द्रियातीन्द्रियेषु, एवं स-12 हारिभद्री कायाकाययोः सयोगायोगयोः अवेदकेषु अकषायिषु शुक्ललेश्यालेश्ययोः सम्यग्दृष्टिषु केवलज्ञानिषु केवलँदर्शिषु, संय- यवृत्तिः ५०॥ तनोसंयतयोः साकारानाकारोपयोगयोः आहारकानाहारकयोः भाषकाभाषकयोः परीत्तनोपरीत्तयोः पर्याप्तनोपयोप्तयोः विभागः१ वादरनोवादरयो, संज्ञिषु नोसंज्ञिषु, भव्यनोभव्ययोः, मोक्षप्राप्ति प्रति भवस्थकेवलिनो भव्यता, चरमाचरमयोः, चरम:केवली अचरमः-सिद्धः भवान्तरप्रात्यभावात् , केवलं द्रष्टव्यमिति । पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानयोजना च स्वबुद्ध्या कर्त्तव्येति । 'द्रव्यप्रमाणं' तु प्रतिपद्यमानानधिकृत्य उत्कृष्टतोऽष्टशतं, पूर्वप्रतिपन्नाः केवलिनस्तु अनन्ताः, 'क्षेत्र' जघन्यतो लोकस्यासंख्येयभागः, उत्कृष्टतो लोक एव, केवलिसमुद्घातमधिकृत्य, एवं स्पर्शनाऽपि, 'कालतः' साद्यमपर्यन्तं, 'अन्तरं' नास्त्येव, प्रतिपाताभावात् , 'भागद्वारं' मतिज्ञानवद् द्रष्टव्यं, 'भाव' इति क्षायिके भावे ' अल्पबहुत्वं' मतिज्ञानवदेव । उक्तं केवल ज्ञान, तद्भिधानाच नन्दी, तदभिधानान्मङ्गलमिति । एवं तावन्मङ्गलस्वरूपाभिधानद्वारेण | ज्ञानपश्चकमुक्त, इह तु प्रकृते श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा च नियुक्तिकारेणाभ्यधायि-- इत्थं पुण अहिगारो सुयनाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽविअ अणुओगु पईवदिन्तो ॥७९॥ गमनिका-अत्र पुनः प्रकृते अधिकारः श्रुतज्ञानेन, यतः श्रुतेनैव 'शेषाणां' मत्यादिज्ञानानां आत्मनोऽपि च 'अनु ४ ॥५०॥ योगः' अन्वाख्यानं, क्रियत इति वाक्यशेषः, स्वपरप्रकाशकत्वात्तस्य, प्रदीपदृष्टान्तश्चात्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ ७९ ॥ इति पीठिकाविवरणं समाप्तम्, संयतानी नोसंयतासंगतानां चेति ( वि०) * वर्षानिपु. + पत्थं. आवश्यके पी० दीप अनुक्रम T Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अत्र आवश्यकसूत्रस्य वृत्तिकार-रचिता पीठिकाविवरणं समाप्त ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [७९], भाष्यं [-] साम्प्रतं मङ्गसाध्यः प्रकृतोऽनुयोगः प्रदर्श्यत इति, स च स्वपरप्रकाशकत्वात् गुर्वायत्तत्वाच्च श्रुतज्ञानस्येति, तथा चोक्तं- 'अत्र पुनरधिकारः श्रुतज्ञानेनेत्यादि' । आह- नन्वावश्यकस्यानुयोगः प्रकृत एव पुनः श्रुतज्ञानस्येत्ययुक्तमिति, अत्रोच्यते, आवश्यकस्य श्रुतान्तर्गतत्वप्रदर्शनार्थत्वाददोषः । आह-य द्यावश्यकस्यानुयोगः, तदावश्यकं किमङ्गमङ्गानि ? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः ? अध्ययनमध्ययनानि ? उद्देशक उद्देशकाः इति, अत्रोच्यते, आवश्यकं श्रुतस्कन्धस्तथाऽध्ययनानि च, शेषास्वनादेशा विकल्पा इति । आह—ननु नन्दीव्याख्याने अङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतनिरूपणायामनङ्गताऽस्याभिहितैव ततश्च किमङ्गमङ्गानीत्याद्याशङ्कानुपपत्तिरिति, अत्रोच्यते, तद्व्याख्यांऽनियमप्रदर्शनार्थत्वाददोषः, नावश्यं शास्त्रादौ नन्द्यध्ययनार्थकथनं कर्त्तव्यं, अकृते चाशङ्का संभवति । आह - मङ्गलार्थ शास्त्रादाववश्यमेव नन्येभिधानात् कथमनियम इति, अत्रोच्यते, ज्ञानाभिधानमात्रस्यैव मङ्गलत्वात् नावश्यमवयवार्थाभिधानं कर्त्तव्यमिति, तदकरणे चाशङ्का ६ भवति । किं चै— आवश्यकव्याख्यानारम्भे शास्त्रान्तरव्याख्यानारम्भोऽयुक्त एव, शाखान्तरं च नन्दी, पृथक् श्रुतस्कन्धत्वात् । आह— यद्येवमिह आवश्यकश्रुतस्कन्धानुयोगारम्भे किमिति तदनुयोग इति उच्यते, शिष्यानुग्रहार्थ १] एकोनविंशतिगाथाभ्याख्याने २ ज्ञानपञ्चकनिरूपकप्रकरणतथा नन्यध्ययनत्वात् २ अङ्गमङ्गानि किमिवाचामीचा. ४ नोवागमतो भावमङ्गखं हि नन्दी यतः ५ मूलसूत्रापेक्षया मन्दीव्याख्यानाऽनियमप्रदर्शनाय पक्षान्तरं-किशेत्यादि. ६ तस्य ज्ञानपञ्चकनिरूपणनिपुणप्रकरणानुयोगः * आवश्यका० + व्ययानानि भवति. मप्रदर्शनार्थत्वाददोष इति व्याह्नासंभव इति. Education intemational For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अत्र उपोद्घात् निर्युक्ति: आरभ्यते ~104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) आवश्यका ॥५१॥ प्रत सूत्राक न त्वयं नियम इत्यपवादप्रदर्शनार्थ वा, एतदुक्तं भवति-कदाचित्पुरुषाद्यपेक्षया श्रमणापि अन्यारम्भेऽपि चान्यद हारिभद्रीव्याख्यायत इति, अलं प्रसङ्गेन, तत्र शास्त्राभिधानं 'आवश्यकश्रुतस्कन्ध', तद्भेदाश्च अध्ययनानि यतः तस्माद् आव-15 यवृत्तिः श्यक निक्षेप्तव्यं श्रुतं स्कन्धश्चेति । किं च-किमिदं शाखाभिधानं प्रदीपाभिधानवद् यथार्थ आहोश्चित् पलाशाभिधानवद विभागः१ | अयथार्थ उत डिस्थाद्यभिधानवद् अनर्थकमेवेति परीक्ष्य, यदि च यथार्थ ततस्तदुपादेयं, तत्रैव समुदायार्थपरिसमावेरित्यतः शास्त्राभिधानमेव तावदालोच्यत इति । तत्र 'आवश्यकं' इति कः शब्दार्थः १, अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यक, अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकं, यथा अन्तं करोतीत्यन्तका, अथवा 'वस निवासे' इति गुणशून्य-12 मात्मानमाषासयति गुणैरित्यावासक, गुणसान्निध्यमात्मनः करोतीति भावार्थः । इदं च मङ्गलवन्नामादिचतुर्भेदभिन्नं,13 इदं च प्रपश्चतः सूचादवसेयमिति, उद्देशस्तु तदनुसारेणैव शिष्यानुग्रहायाभिधीयते इति, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने एव, द्रव्यावश्क द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मितिकृत्वा, नोआगमतो द्रव्यावश्यक त्रिविध-शशरीरं भव्यशरीरं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तंच, तदपि त्रिविध-लौकिकलोकोत्तरकुमावच दीप अनुक्रम ॥५१॥ बावश्यकन्याख्यानारम्भे पानान्तरस्यास्यानारम्भोऽयुक्त इत्यस्योपदर्शितस्य नियमस्यापवाद इति.२ प्रा नन्दी पश्चादावश्यकमित्यादिक क्रम परिस्वय, अपिना क्रमोऽपि पुरुषायपेक्षया एच. ३ मारण्यखापि पुरुषाचपेक्षयैव म्याश्येति दर्शनायापि चेति । समप्रशानवाच्यार्यपरिशानेति. ५ मनुयोगहाररूपान् तनावश्यकनिक्षेपाणां मुविस्तृतत्याऽभिहितत्वात्. ६ संक्षेपेण स्वरूपाभिधानरूपोऽनोद्देशः . शरीरभग्यशरीव्यतिरिक्त परामर्शनीयं तच्छदेन, प्रत्यासत्या. पुरुषाधपे०+ आहोस्वित्. wwjandiarary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यक-शब्दस्य अर्थ:, तस्य नामादि निक्षेपा: ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः ) अध्ययनं -1 मूलं [- / गाथा-1. निर्युक्तिः [९], आयं (-) निकभेदभिन्नं यथाऽनुयोगद्वारेषु, नवरं लोकोत्तरेणात्राधिकारः तच ज्ञानादिश्रमणगुणमुक्तयोगस्य प्रतिक्रमणं भावशून्यत्वाद् अभिप्रेतफलाभावाच्च, एस्थं उदाहरणं - वसंतपुरं नगरं, तत्थ गच्छो अगीतस्थसंविग्गो विहरति, तत्थ य एगो संविग्गो समणगुणमुक्कजोगी, सो दिवसदेवसियं उदउल्लादि असणाओ पडिगाहेत्ता महया संवेगेणं आलोएइ, तस्स पुण गणी अगीयत्थत्तणओ पायच्छित्तं देंतो भणति 'अहो इमो धम्मसद्धिओ साहू !, सुहं पडिसेवि, दुक्खं आलोएटं, एवं णाम एस आलोएइ अग्रहंतो, अतो असढत्तणओ सुद्धोत्ति' ऐयं च दहूण अपणे अगीयत्थसमणा पसंसंति, चिंतेंति य-वरं आलोएययं णत्थित्थ किंची पडिसेविएणं ति । अण्णदा कदाई गीयत्थे संविग्गो विहरमाणो आगओ, सो + तं | दिवसदेवसिय अविहिं दद्रूण उदाहरणं दापति- गिरिणगरे नगरे रयणवाणियओ रत्तरयणाणं घरं भरेऊणं पलीवेइ, तं १ अशोदाहरणं वसन्तपुरं नगरं तत्र गच्छोऽगीतार्थविशेो विहरति, तत्र चैकः संधिनः मुक्तभ्रमणगुणयोगः, स दिवसदेवसिकं उदकानेपणाः प्रतिगृह्य महता संवेगेनालोचयति, तस्य पुनराचायैः अगीतार्थत्वात् प्रायश्चित्तं ददत् भगति 'अहो अयं धर्मद्धिकः (तः ) साधुः सुखं प्रतिसेवितुं दुष्करमालोचितुं एवं नामैष आलोचयति. अगृहयन्, अतः अशठत्या शुद्ध इति एतद् दृष्ट्वाऽन्येऽगीतार्थश्रमणाः प्रशंसन्ति चिन्तयन्ति च परं आलोचयितव्यं नास्त्यत्र किञ्चिव्यतिसेवितेनेति । सत्र अन्यदा कदाचित् गीतार्थः संविभः विहरन् भागतः, स तं दिवसदैवसिकमविधिं दृष्ट्वोदाहरणं दर्शयति-गिरिणगरे नगरे रणि रक्तरः गृहं भृत्वा प्रदीपयति, तद्दृष्ट्वा सर्वलोकः प्रशंसति--अहो अयं धम्यो भगवन्तमनि तर्पयति, अन्यदा कदाचित् तेन प्रदीपितं, यात प्रवको जातः सर्वे नगरं दग्धं पश्राद्राज्ञा प्रतिहतो निर्विषय कृतः । अन्यत्रापि नगरे एवं एवं + एवं च.. Education intimational For Use Only www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः द्रव्यावश्यके अगीतार्थ संविग्नस्य उदाहरणं ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्राक आवश्यक-13 पासित्ता सबलोगो पसंसति-अहो इमो धण्णो भगवन्तं अगि तप्पेति, अण्णया कयाई तेण पलीवितं, वाओ य पबलोहारिभद्री जाओ, सच णगरं दह, पच्छा रपणा पडिहणिओ णिविसओ य कओ । अण्णहिपि णगरे एगो एवं चेव करेइ, सोयवृत्तिः ॥५२॥ राइणा सुओ जहा एवं करेइत्ति, सो सबस्सहरणो काऊण विसजिओ, अडवीए कीस ण पलीवेसि । जहा तेण विभागः१ वाणिअगेण अवसेसावि दहा, एवं तुमंपिऍतं पसंसित्ता एते साहुणो सबै परिचयसि, जाहे न ठाति ताहे साहुणो भणिआ|एस महाणिद्धम्मो अगीयस्थो अलं एयस्स आणाए, जदि एयरस णिग्गहो न कीरइ, तो अण्णेवि विणसति । इदानी भावावश्यक, तदपि द्विविधमेव-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो भावावश्यकं ज्ञाता उपयुक्तः, तदुपयोगानन्यत्वात् , अथवाऽऽवश्यकार्थोपयोगपरिणाम एवेति । नोआगमतस्तु ज्ञानक्रियोभयपरिणामो भावावश्यक, उपयुक्तस्य | क्रियेति भावार्थः, मिश्रवचनच नोशब्दः, इदमपि च लौकिकादित्रिविधं सूत्रादवसेयं, इह तु लोकोत्तरेणाधिकार इति ।। | उक्तमावश्यक, अस्य चामूनि अच्यामोहाथमेकार्थिकानि द्रष्टव्यानिएक एवमेव करोति, स राज्ञा श्रुतो यथा एवं करोतीति, स हृतसर्वस्वः (सर्वस्वहरण) कृत्वा विसष्टः, अटयां कथं (कुतः)न प्रदीपपसिN I W ॥५२॥ | यथा खेन वणिजा अवशेषा अपि दग्धाः पूर्व त्वमपि एतं प्रशस्य एतान् सर्वान् साधून परित्यजति, वदान सिष्ठति (विरमति) तदा साधयो भगिताःएष महानिर्धर्मा अगीतार्थः, श्रकमेतस्त्राशया, यदि एतस निग्रहो न क्रियतेऽतोऽन्येऽपि विनयन्ति. २ मावश्यकपदार्थज्ञराजनितसंवेगविशुद्धिमान् परिगामस्तन चोपयुक्तः (मनु.३) निण्णयरो. एवं पसंसंतो.+परिचषसि. CCCC दीप अनुक्रम Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) प्रत आवस्सय १ अवस्सकरैणिजर धुव३णिग्गहो ४ विसोही ५य।अझयणछक्क ६ वग्गोण्णाओ८ आराहणा९मग्गो १०॥१॥ समणेण सावएण य अवस्सकायध्वयं हवइ जम्हा । अहोर्णिसैस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥२॥ | एवं श्रुतस्कन्धयोरपि निक्षेपश्चतुर्विध एव द्रष्टव्यः, यथाऽनुयोगदारेषु, स्थानाशून्यार्थं तु किश्चिदुच्यते-इह नोआ-, गमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रकन्यस्तं, अथवा सूत्रमण्डजोदि, भावश्रुतं 'स्वागमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेवाश्यक, नोशब्दस्य देशवचनत्वात् । एवं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः सचेतनादिः, तत्र सचित्तो द्विपदादिः अचित्तो द्विप्रदेशिकादिः मिश्रः ६ सेनादिदेशादिरिति', तथा भाव-11 स्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव, नोआगमतस्त्वावश्यकश्रुतस्कन्ध एवेति, नोशब्दस्य देशवचनत्वात् , अथवा | ज्ञानक्रियागुणसमूहात्मकः सामायिकादीनामध्ययनानां समावेशात् , ज्ञानदर्शनकियोपयोग इत्यर्थः, नोशब्दस्तु मिश्र सूत्राक दीप SCALCASSESSAGAR अनुक्रम १ भावश्यकमवश्यकरणीयं भुवं निग्रहो विशोधिश्च । अध्ययनषदं वर्गो न्याय आराधना मार्गः ॥१॥ अमणेन श्रावकेण चावश्यकर्त्तव्यं भवति यस्मात् ।। अन्ते (सः ) महनिकास्य (भट्टो निशः) च, तस्मादावश्यकं नाम ॥२॥ श्रुतपर्यायत्वात्सूत्रनिर्देशोऽत्र प्राकृतत्वात , सुयशब्देन सूत्रमपि सूत्रकृतोऽजस्य सुयगदेतिवत् ३ आदिना योपद्धजकीरजवालजवल्कमप्रहः प्रस्तुतत्वादन्यथा सर्वमपि श्रुतमेवं, आगमे तु पदमात्रज्ञानोपयोगाजिनता. ५ सेणाइदेसाई ८९६सेनायाः हस्त्यश्वरवपदातिखाकुन्ताधात्मकः पाश्चात्यमध्यमामधेशरूपो मिश्रस्कन्धः (वियो. ८९६ गाथादृत्ती) सेणाए अगिमे बंधे सेणाए मजिसमे बंधे | सेणाए पछिमे खंधे (मनु.१०२) प्रथमादिपदाहामनगरादिप्रहः द्वितीयादिना देवाहयादिग्रहः * अवस्स करणं. + महोपिसिस्स. + आगमतो. नास्त्रीदम् ३ सेनादिदेशादि० JABERatinintimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यकस्य पर्याय-शब्दा:, श्रुतस्कन्धस्य निक्षेपा: ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥ ५३॥ प्रत सुत्रांक वचनः। सर्वपदैकवाच्यता सामायिकादिश्रुतविशेषाणां षण्णां स्कन्धः श्रुतस्कन्धः,आवश्यकं च तत् श्रुतस्कन्धश्चेति समासः हारिभद्रीआह-किमिदं आवश्यक षडध्ययनात्मकमिति,अत्रोच्यते,षडाधिकारात्मकत्वात् ,ते चामी सामायिकादीनां यथायोगमव- यवृत्ति 16 विभागः१ |सेया इति-सावजजोगविरई १ उक्तित्तण र गुणवओय पडिवत्ती शखलियस्स निंदण ४ वणतिगिच्छौ ५ गुणधारणा ६ चेव |॥१॥अस्या व्याख्या-अवद्यं पापं, युज्यन्त इति योगाः व्यापाराः, सहावयेन वर्त्तन्त इति सावद्याः, सावद्याश्च ते योगा|श्चेति समासः, तेषां विरमण विरतिः सामायिकार्धाधिकार इति १ उत्कीर्तनमुत्कीर्तना, तत्र गुणोत्कीर्तना अर्हतां चतु|विंशतिस्तवस्य २ । गुणा ज्ञानादयः मूलोत्तराख्यो वा, तेऽस्य विद्यन्त इति गुणवान् तस्य गुणवतः प्रतित्तिर्वन्दनाध्ययनस्य ३ । शब्दः समुच्चये, ' स्खलितस्येति 'श्रुतशीलस्खलितस्य निन्दना प्रतिक्रमणस्य ४ । तथा चारित्रात्मनो व्रणचिकित्सा-अपराधवणसरोहणं कायोत्सर्गस्य ५। अपगतप्रांतिचारेतरोपचितकर्मविशरणार्थमनशनादिगुणसंधारणा प्रत्याख्यानस्य ६ इत्याधिकाराः । एषां च प्रत्यध्ययनमर्थाधिकारद्वार एवावसरः प्रत्येतव्यः, इह तु प्रसङ्गतः स्कन्धो दीप अनुक्रम संबम्वषष्ठी, तेन परिभाषिता ज्ञात्वाऽभ्युपेत्याकरणरूपा विरतिरत्र, मतु केवळाभावरूपा निवृत्तिरूपा वा. २ अर्धाधिकार इति वर्तते. ३ व्यवहारगुवपेक्षया. ४ बन्दनकदानादिपूजा विशेषरूपा. ५ पुष्टाष्ठम्पने गुणवतोऽपि प्रतिपत्तिः कर्तव्येति दष्टब्र्ष ( मशयगिरिपावा:, अनु. वृत्तीच ) इति वचनादनुक्कस मुशवाय इत्यर्थः पविषावश्यकैरपगता येऽतिचारासादितर तिचारैः ७ भानुपूर्वानामप्रमाणवकम्यतार्थाधिकारसमषताररूपशास्त्रीयोपक्रमा|न्तर्गते पचमद्वारे. * वाक्यता.+ षषणामधिकारा. चिगिच्छ. JABERatinintamational Pranatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आवश्यकस्य षड् अध्ययनानि एवं तस्य अध्ययनंस्य नाम्न: अर्था: ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) प्रत %2527 सूत्राक पदर्शनद्वारेणोक्ता इति । इदानीं अध्ययनन्यासप्रस्तावा, तं चानुयोगद्वारक्रमायातं प्रत्यध्ययनं ओघनिष्पन्ननिक्षेपे' लापार्थ वक्ष्यामः । एष आवश्यकस्य समुदायार्थः, इदानीमवयवार्थप्रदर्शनाय एकैकमध्ययनं वक्ष्यामः, तत्र प्रथममध्ययनं सामायिक-12 समभावलक्षणत्वात् , चतुर्विंशतिस्तवादीनां च तद्भेदत्वात् प्राथम्यमस्येति । अयं च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । अनुयोगद्वाराणीति कः शब्दार्थः १,अनुयोगोऽध्ययनार्थः,द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानीति, यथा हि अकृतद्वार नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि च दुरधिगम कार्यातिपत्तये च, कृतचतुर्मूलद्वारं प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च, एवं सामायिकपुरमपि अर्धाधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च तुरधिगमं| भवति, सप्रभेदचतुर्दारानुगतं तु सुखाधिगर्म इत्यतः फलवान् द्वारोपन्यासः । तानि च अमूनि-उपक्रमो १ निक्षेपो २ऽनुगमो ३ नय ४ इति । तत्र शास्त्रस्य उपक्रमणं उपक्रम्यतेऽजेनास्मोदस्मिन्निति वा उपक्रमः, शास्त्रस्य न्यासर्देशानयनमित्यर्थः । तथा निक्षेपणं निक्षिप्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः न्यासः स्थापनेति पर्यायाः । एवमनुगमनं । अनुगमः नामनिष्पानिक्षेपे चेति (मलयगिरिपादाः) २ प्रत्यध्ययनं कार्यः, वाघवामिह सामाथिकाध्ययने इति महभारिपादानामभिप्रायः ३ सावजजोग. बिरइत्यादिना प्रतिपादितः, पण्णामपि अर्धाधिकाराणां प्रतिपादनात्. विना समभावमितरगुमानवस्थानात् तत्सनाव एव परगुणोत्पत्तेः प्राथम्यमस्पे पर्यः ५सामायिकस्य शानदानचारित्रभेदभिन्नतया धाशयादेश्व सम्यक्त्वादिसामायिकरूपत्वात् सामायिकभेदत्वाख्यानं. सामाविकाध्ययनस्य. - प्रतिपादनप्रकाराः 6 गुरुवारयोगः विभीतविनयविनयः "शुश्रूषा. " गुरुवाग्योगादीनां सर्वकारकवाघ्याच्या विरोध: * प्रतिपादनाय. +तहारो नास्तीदम्. दीप अनुक्रम wwwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्राक आवश्यक- अनुगम्यते वाऽनेनास्मादस्मिमिति वाऽनुगमः, सूत्रस्यानुकूलः परिच्छेद इत्यर्थः । एवं नयनं नीयते वाऽनेनास्मादस्मि- हारिभद्री I४ान्निति वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगम इत्यर्थः । आह-एषामुपक्रमादिद्वाराणां किमित्येवं क्रम इति, अनो-II.यवृत्तिः ५४॥ दाच्यते, न धनुषकान्तं सद् असमीपीभूतं निक्षिप्यते, न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगतं नय-विभागार विचार्यते इत्यतोऽयमेव क्रम इति । तत्रोपक्रमो द्विविधः-शास्त्रीय इतरश्च, तत्र इतरः षट्पकारः, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्न इति,तत्र नामस्थापने सुज्ञाने,द्रव्योपक्रमो द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरसध्यतिरिक्तश्च, स च त्रिविधः-सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्योपक्रम इति, तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमः काद्विपदचतुष्पदापदोपाधिभेदभिन्नः, पुनरेकैको द्विविधः परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्र परिकर्म-द्रव्यस्य गुणविशेषपरि णामकरणं तस्मिन्सति, तद्यथा-घृताापभोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणमिति, अथवा कर्णस्कन्धवर्धनादिक्रियेति, अन्ये तु शास्त्रगन्धर्वनृत्यादिकलासंपादनमपि द्रव्योपक्रम व्याचक्षते, इदं पुनरसाधु, विज्ञानविशेषात्मकत्वात् शास्त्रादिपरि-14 ज्ञानस्य, तस्य च भावत्वादिति, किन्तु आत्मद्रव्यसंस्कारविवक्षापेक्षया शरीरवर्णादिकरणवत् स्यादपीति । एवं शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनां, अपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वार्धक्यादि1 संभवलिः पर्यायैर्वस्तु नयति, गदिवा बहुधा वस्तुनः पर्यायाणां संभवात् विवक्षितपर्यायेण नयनं, भाचे पर्यायाणां मत्ताया शानं यथावर्थ, द्वितीय ॥ ५४॥ थिन् पर्यायाणां मध्ये संभवतः पर्यायानानियेति शेय, तया चाचे संबन्धे षष्ठी पञ्चम्याः ससुब, हितीचे सप्तमी चाविभाग इति षष्ठी, गम्ययप इति पञ्चम्यास्तसुख, शत्रस्य.. दीप अनुक्रम JABERatinintamational Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ 'उपक्रम' द्वारम् उच्यते ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) ACC प्रत सूत्राक गुणापादनमिति, आह-यत्स्वयं कालान्तरभाव्युपक्रम्यते यथा तरोर्वार्धक्यादि तत्र परिकर्मणि द्रव्योपक्रमता युक्ता, वर्णकरणकलादिसंपादनस्य तु कालान्तरेऽपि विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेः कथं परिकर्मणि द्रव्योपक्रमतेति, अनोच्यते, विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेरित्यसिद्ध, कथं, वर्णस्य तावन्नामकर्मविपाकित्वात् स्वयमपि भावात्, कलादीनां च क्षायोपशमिकत्वात् , तस्य च कालान्तरेऽपि स्वयमपि संभवात् , विभ्रमविलासादीनां च युवावस्थायां दर्शनात् (ग्रन्थाग्रम् १५००)। तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिर्विनाश एवोपक्रम्यते इति, आह-परिकर्मवस्तुविनाशोपक्रमयोरभेद एव, उभयत्रापि पूर्वरूपपरित्यागेनोत्तरावस्थापत्तेरिति, अत्रोच्यते, परिकर्मोपक्रमजनितोत्तररूपापत्तावपि अविशेषेण प्राणिनां प्रत्यभिज्ञानादिदर्शनात् वस्तुविनाशोपक्रमसंपादितोत्तरधर्मरूपे तु वस्तुन्यदर्शनात् विशेषसिद्धिरिति, अथवैकत्र विनाशस्यैव विवक्षितत्वाददोषः। एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पारागमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनविनाशादीति । मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति । विवक्षातश्च कारकयोजना द्रष्टव्या-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यात् द्रव्ये वोपक्रमो द्रव्योपक्रम इति । तथा क्षेत्रस्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः, आह-क्षेत्रम-12 हमूतं नित्यं च, अतस्तस्य कथं करणविनाशाविति, उच्यते, तद्व्यवस्थितद्रव्यकरणविनाशभावादुपचारतः खल्वदोषः, तथा च तात्स्थ्यात्तव्यपदेशो युक्त एव, मश्चाः क्रोशन्तीति यथा । तथा कालस्य वर्त्तनादिरूपत्वात् द्रव्यपर्यायरूपत्वात द्रव्योपक्रम एवोपचारात् कालोपक्रम इति, चन्द्रोपरागादिपरिज्ञानलक्षणो वा । भावोपक्रमो द्विधा-आगमतो नोआ-IN गमतश्च, आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्तु प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति, तत्राप्रशस्तो डोण्डिणिगणिकाऽमात्यादीनां, 8 दीप अनुक्रम % 84-% OCCCHECK मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) ॥५५॥ प्रत भावश्यक- पत्थोदाहरणाणि-एगे नगरे एगा मैरुगिणी, सा चिंतेति कह धूयाओ सुहियाओ होजत्ति, ताए जेडिया धूआ सि-I हारिभद्रीक्खाविआ जहा वरं इंतं मत्थए पहियाए आहणिज्जसि, तिाए आहतो, सो तुहो, पादं मदिउमारतो, णहु दुक्खा-IV यवृत्तिः विभागः१ |वित्ति, तीए मायाए कहियं, ताए भण्णति-जं करेहि तं करेहि, ण एस तुज्झ किंची अवरज्झइत्ति । बीया सिक्ख-18| विआ, तीएवि आहतो, सो झिंखित्ता उवसंतो, सा भणति-तुमंपि वीसत्था विहराहि, गवरं झिंखणओ एसुत्ति ।। इतईया सिक्यविआ, तीएवि आहतो, सो रहो, तेण ददपिद्रिता धाडिया यागतं अकुलपुत्ती जा एवं करेसि, तीए11 हामायाए कथितं, पच्छा कहवि अणुगमिओ, एस अम्ह कुलधम्मोत्ति, धूआ य भणिआ जहा देवतस्स तस्स तहा8 | वट्टिजासि, मा छड्डेहित्ति ॥ एगम्मि नगरे चउसडिकलाकुसला गणिया, तीए परभावोवक्कमणनिमित्तं रतिघरमि सवाओ पगईओ णियणियवावारं करेमाणीओ आलिहावियाओ, तत्थ य जो जो बहुइमाई, सो सो निययसिप्पं पसंसति, णाय-1 % सुत्रांक %A दीप अनुक्रम %95%E0 मत्रोदाहरणानि-एकस्मिनगरे एका मामणी सा चिन्तयति-कथं दुहितरः मुखिताः भवेयुरिति, तथा पेष्ठा दुहिता शिक्षिता यथा वरमायान्त मस्त के पाणिना आहन्याः, तयाऽऽहतः, स तुष्टः, पादं मपितुमारब्धः नैव हासितेति, तया मात्रे कथितं, तया भण्यते-बकरु (विकीपसि)तस्कुरुx | मेष तब (त्वयि ) किञ्चिदपराध्यति इति । द्वितीया शिक्षिता, तयाऽपयाहतः स झिशिवा (प्रभाष्य) पशान्तः, सा भणति-त्वमपि विश्वस्ता विहर, परं शिक्रणका (प्रभाषकः) एपइति । ततीया शिक्षिता, तयाऽप्याइतः, सरुटा, तेन हर पिहिता निर्धारिता च, स्वमकलपुत्री बेवं करोपि. तथा मात्र कवित।४॥५५॥ पश्चात् कथमपि अनुनीता, एषः अस्माकं कुकधर्म इति, दुहिता च भगिता यथा दैवतस्य तथा तस्य वर्तेथाः, मा त्याक्षीत् इति ॥ एकस्मिन्नगरे चतुष्पटिकलाकुशला गणिका, तया परभावोपक्रमणनिमित्र रतिगृहे सर्वाः प्रकृतयो निज निजव्यापार कुर्वत्य आलेशिताः, तन्त्र च यो यो वर्षक्यादिः, स स निजकं शिल्पं प्रशंसति, * बम्भिणी. + कि तपाहतो.1 एयस्ता तचिमा. | पुतिया हा एयरस || एड ५० 15% S wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अप्रशस्त उपक्रमे ब्राह्मण्या: एवं गणिकाया: द्रष्टांता:, ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [७९], भाष्यं [-] + भावो य सुअणुयत्तो भवइ, अणुयत्तिओ य ज्वयारं गाहिओ खद्धं खद्धं दबजातं वियरेइत्ति ऐसविअ अपसत्थो भावो वकमो ॥ एगंमि नगरे कोई राया अस्सवाहणियाए सहामच्चेणं निग्गओ, तत्थ से आसेण वच्चन्तेण खलिणे काईया वोसिरिआ, खिलरं बद्धं तं च पुढवीए थिरत्तणओ तद्वियं चैव रण्णा पडिनियत्तमाणेण सुइरं निज्झाइयं, चिंतियं चणेण-इह तलागं सोहणं हवइति, न उण वुत्तं, अमत्रेण इंगियागारकुसलेण रायाणमणापुच्छिय महासरं खणाविअं चेव, पालीए आरामा से पवरा कया, तेणं कालेणं १ रण्णा पुणरवि अस्सवाहणिआए गच्छंतेण दिडं, भणियं च णेणकेण इमं खणाविअं ? अमचेण भणिअं-राय ! तुम्भेहिं चेव, कहिं चिअ ?, अवलोयणाए, x अहियपरितुडेणं संवगुणा कया। एसविअ अप्पसत्थभावोवकमोति । उक्तः अप्रशस्तः, इदानीं प्रशस्त उच्यते तत्र श्रुतादिनिमित्तं आचार्यभावोपक्रमः प्रशस्त इति, आह— व्याख्याङ्गप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थकमिति, न, तस्यापि व्याख्याङ्ग १ ज्ञातभाववस्वनुवर्त्तनीयो भवति, अनुसय उपचारं प्राहितः प्रचुरं मधुरं यजातं वितरतीति एषोऽपि चाप्रशस्तो सावोपक्रमः ॥ एकस्मिन्नगरे कि द्वाजाऽश्ववाहनिकया सहामात्येन निर्गतः तत्र तस्याश्वेन बजता विषमभूमौ कार्यिकी ( प्रश्नवर्ण) व्युष्टा, पवलं बद्धं ( जातं), तच पृथव्याः स्थिरत्वात् तथास्थितमेव राज्ञा प्रतिनिवर्तमानेन सुधिरं निध्यांतं, चिन्तितं चानेन, इह तटाकः शोभनो भवति इति न पुनरुकं, अमात्येन इङ्गिताकारकुशलेन राजानमनापृच्छय महत्सरः खानितमेव, पाल्यां आरामस्तत्व प्रवराः कृताः, तस्मिन्काले पुनरप्यश्ववाहनिकषा गच्छता दृष्टं भणितं चानेन केनेदं खानितं, अमात्येन भणितं राजन् ! युष्माभिः, कथमेव, अवलोकनया, अधिकपरितुष्टेन संवर्धना कृता, एषोऽपि चाप्रशस्तभावोपक्रम इति । य. लेणं समपूर्ण / एवं x कहिए. संवहना. ३० अप्पसरथो भा० + एसोवि + कोवि Education intemational For Use Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः भावउपक्रमे एक राज: दृष्टांत: ~ 114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ५६ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [ ७९], भाष्यं [-] त्वात् उक्तं च – “गुवयत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद्भुर्वाराधनपरेण हितकाङ्क्षिणा भाव्यम् ॥ १ ॥” तथा च भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि - " गुरुचितायत्ताइं वक्खाणंगाई जेण सवाई । जेण पुण सुप्पसण्णं होइ तयं तं तहा कां ॥ १ ॥ आगारिंगियकुसल जदि सेयं वायसं वर पुजा । तहविय सिं नवि कूडे विरहंमि अ कारणं पुच्छे ॥ २ ॥ * णिवपुच्छिएण भणिओ गुरुणा गंगा कओमुही वहइ ? । संपाइयवं सीसो जह तह सवत्थ कायवं ॥ ३ ॥ " इत्यादि । आह-यद्येवं गुरुभावोपक्रम एवाभिधातव्यो न शेषाः, निष्प्रयोजनत्वात्, न, गुरुचित्तप्रसादनार्थमेव तेषामुपयोगित्वात्, तथा च देशकालावपेक्ष्य परिकर्मनाशौ द्रव्याणां उदकौदनादीनां आहारादिकार्येषु कुर्वन् विनेयो गुरोर्हरति चेत इति । | अथवोपक्रमस्य साम्यात् प्रकृते निरुपयोगिनोऽपि अन्यत्र उपयोक्ष्यन्त इत्युपन्यस्तत्वाददोष इत्यलं विस्तरेण । उक्त इतरः, इदानीं शास्त्रीय उच्यते-असावपि षड़िध एव तद्यथा-आनुपूर्वी १ नाम २ प्रमाणं ३ वक्तव्यता ४ अर्थाधिकारः ५ समवतार ६ इति । तत्रानुपूर्वी नामस्थापनद्रव्य क्षेत्र कलिंगणनोत्कीर्तन संस्थानसांमाचीरी भवभेदभिन्ना दशप्रकारा, तस्यां । यथासंभवतः समवतारणीयमिदं, विशेषतस्तूत्कीर्त्तनगणनानुपूर्वीद्वय इति, उत्कीर्त्तना-संशब्दना यथा- सामायिकं 1 गुरुचिचायचानि, म्याख्यानाङ्गानि येन सर्वाणि । येन पुनः सुप्रसनं भवति तद् तत्तथा कार्यम् 1 आकारेङ्गितया यदि श्वेतं वावसं वदेदुः पूज्याः । तथापि च ता (बचनं) नैव कूटयेद् विरहे च कारणं पृच्छेत् । १ नृपपृष्टेन भणितो गुरुणा ना कुठोमुखी पदति । संपादितवान् शिष्यो यथा तथा सर्वत्र कार्यम् । ३ । विशेषावश्यके गाथाः ९३१ - ९३३ - ९३४) २ जन्याद्युपक्रमाः सचिचाचिचायुपक्रमा या क्षेत्रस्योपालयादेपलेपनादिना कालस्य मुहूर्त्तादेः शिष्यदीक्षादी घटिकादिना विशे० * ०कुसका + समाचारी. मा. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः उपक्रमस्य आनुपुर्वी आदि षड्भेदानाम् वर्णनं ~ 115 ~ हारिभद्री• यवृत्तिः विभागः १ ॥ ५६ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) % 2456 चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि, गणनं परिसंख्यानं-एक द्वे त्रीणि चत्वारीत्यादि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा पूर्वपश्चादनानुपूर्वीभेदभिन्ना, तत्र सामायिक पूर्वानुपूया प्रथम, पश्चानुपूर्व्या षष्ठ, अनानुपूर्व्या त्वनियतं कचित्यधर्म क्वचिद्वितीय इत्यादि । तत्रानानुपूर्वीणामयं करणोपाय:-एकाघेकोत्तरा विवक्षितपदानां स्थापना क्रियते, तत्र पदत्रयस्थापनैव | तावत्संक्षेपतः प्रदश्यते-सामायिक चतुर्विशतिस्तवः वन्दनाध्ययनमिति । अत्र 'पुषोणुपुषि हेडा, समयाभेएण प्रत %%% सूत्राक दीप कुण जहाजेई । उवरिमतुल पुरओ नसेज पुबक्कमो सेंसे ॥१॥ जहितंमिनिक्खित्ते पुरओ सो चेव अंकविण्णासो । सो होइ समयभेदो बजेयवो पयत्तेणं ॥२॥ भावना क्षुण्णत्वान्न प्रतन्यते, नवरमागतंत्रयाणामतेषां पड़ा भवन्ति, अतश्च-16 बातम्रः खल्वनानुपूर्व्य इति । पपणां तु पदानां सप्तविंशत्युत्तराणि भिङ्गाकशतानि, अत्रापि सप्ताष्टादशोत्तराणि अनानुपूज्य इति । इदानीं नाम-प्रतिवस्तु नमनानाम, तचैकादि दशान्तं यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा च वक्तव्यं, पडूनानि त्ववतारः, तत्र षड् भावा औदयिकादयो निरूप्यन्ते, कक्षायोपशमिक एव सर्वश्रुतावतारः, तस्य क्षायोपशमिकत्वादिति । तथा प्रमाणं-द्रव्यादि प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाण, सच्चे प्रमेयभेदादेव चतूरूपं, तद्यथा-द्रव्यप्रमाणं १ क्षेत्रप्रमाणं २ कालप्रमाणं ३ भावप्रमाणं च ४, तत्र सामायिक भावात्मकत्वाद् भावप्रमाणविषयं, तच्च भावप्रमाणं त्रिधा-गुणनय| पूर्वानुपूर्वी (मादी) बधः समया (संकेता) भेदेन करु यथाज्येष्ठम् । वपरितुस्प पुरतः न्यखेत पूर्व (पूर्वानुपूर्वी) क्रमः शेषे (पश्चात् ) यस्मिनिक्षिसे पुरतः स एव अङ्कविन्यासः । स भवति समयभेवः बर्जवितव्यः प्रयजेन । २ । (अयोगद्वारेषु) ०णामानयनाय कर• + सेसो. पदप दानामभ्योऽन्याम्यासेन. अनुक्रम JABERatinintamational andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥ ५ ॥ यवृत्तिः प्रत सुत्रांक संख्याभेदभिन्न, तत्र गुणप्रमाणमपि द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र जीवादपृथग्भूतत्वात् सामायि-1 हारिभद्रीकस्य जीवगुणप्रमाणे समवतारः, तदपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदभिन्नं, तत्र बोधात्मकत्वात्सामायिकस्य ज्ञानगुणप्रमाणे सम-8 वतारः, तदपि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदभिन्नं, तत्र सामायिकस्य प्रायः परोपदेशसव्यपेक्षत्वादागमे समवतारः, सच विभागः१ लौकिकलोकोत्तरसूत्रार्थोभयात्मानन्तरपरम्पराभेदभिन्न इति, तत्र सामायिकस्य परमर्षिप्रणीतगणिपिटकान्तर्गतत्वात् लोकोत्तरे समवतार, सूत्रार्थरूपत्वाच्च तदुभय इति, तथेदं गौतमादीनां सूत्रत आत्मागमः, तच्छिष्याणां जम्बूस्वामिप्रभृतीनां अनन्तरागमः, प्रशिष्याणां तु प्रभवादीनां परम्परागम इति, एवमर्थतोऽर्हतामात्मागमः गणधराणामनन्तरागमः तच्छिप्याणां तु परम्परागम इति । नयप्रमाणे तु मूढनयत्वात्तस्य नाधुनाऽवतार इति, वक्ष्यति च-" मूढणइयं सुयं कालियं तु' इत्यादि संख्या नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालौपम्यपरिमाणभावभेदभिन्ना, यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा वक्तव्या, तत्रोत्कालिंकादिश्रुतपरिमाणसंख्यायां समवतारः, तत्र सूत्रत्तः सामायिक परिमितपरिमाणं, अर्थतोऽनन्तपर्यायवादपरिमितपरिमाणमिति । इदानीं वक्तव्यता-सा च त्रिविधा-स्वसमयवक्तव्यता १ परसमयवक्तव्यता २ उभयसमयवक्तव्यता ३ चेति । स्वसमय:-स्वसिद्धान्तः, वक्तव्यता-पदार्थविचारः, तत्र स्वसमयवक्तव्यताया | 11.५७५ १ नामस्थापनाइम्पीपम्पपरिमाणज्ञानगणनभावभेदाद् अनुयोगेषु यत्सूत्रम्-से किं तं संखप्पमाणे ? संख० अडविहे पण्णते, संजहा-नामसंसा ठवणासंखा दश्वसंखा ओखम्मसंखा परिमाणसंखा जागणासंखा गणणासंखा भावसंखा- इह संरुषाशवेन संख्यापासपोहणं इष्टव्यं प्राकृतमधिकृत्य (अनु. ५४९) *म्पर+लिकनु दीप अनुक्रम ACMCAMSAC T JAMERIEO swianmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७९], मस्य समवतारः, एवं परोभयसमयप्रतिपादकाध्ययनानामपि, यतः सर्वमेव सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं परसमयसंबन्ध्यपि सम्यक् श्रुतमेव, तस्य स्वसमयोपकारकत्वादिति । इदानीमर्थाधिकारः, स चाध्ययनसमुदायार्थः, स्वसमय वक्तव्य तैकदेशः, स च सर्वसावद्ययोगविरतिरूपः । इदानीं समवतारः, स च लाघवार्थ प्रतिद्वारं समवतारणाद्वारेण प्रदर्शित एव । उक्त उपक्रमः, इदानीं निक्षेपः, स च त्रिधा - ओघनिष्पन्नो १ नामनिष्पन्नः २ सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति ३ । तत्र ओघो नाम यत् सामान्यं शास्त्राभिधानं तच्चेह चतुर्विधमध्ययनादि, पुनः प्रत्येकं नामादिचतुर्भेदमनुयोगद्वारानुसारतः प्रप| श्वेनाभिधाय भावाध्ययनाक्षीणादिषु सामायिकमायोज्यं । नामनिष्पन्ने निक्षेपे सामायिकं तच्च नामादिचतुर्विधं, इदं च निरुक्तिद्वारे सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तौ च प्रपश्शेन वक्ष्यामः, आह-यदि तदिह नाम अवसरप्राप्तं किमिति निरुक्त्या - दावस्य स्वरूपप्रतिपादनं, तत्र चेत्स्वरूपाभिधानमस्य हन्त इहोपन्यासः किमिति, अत्रोच्यते, इह निक्षेपद्वारे निक्षेपमात्रस्यैवावसरः, निरुक्तौ तु तदन्वाख्यानस्येति, आह— इत्थमपि निरुक्तिद्वारे एव सामायिकव्याख्यानतः किं पुनः सूत्रेऽभिधीयते इति उच्यते, तत्र हि सूत्रालापकव्याख्यानं, न तु नाम्नः, निरुक्तौ तु निक्षेपद्वारन्यस्तं सामायिकमित्यध्ययनाभिधानं निरूप्यते, अलं 'प्रपञ्चेन, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापक निष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, स च प्राप्तलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् ?, सूत्राभावात्, असति च सूत्रे कस्यालापकनिक्षेप इति, अतोऽस्ति इतः तृतीय Education Inational १ आदिनाऽक्षीणाक्षपणाग्रहणं 'झयणं अकुलीनं आभी झवणा य पत्तेयं' ति वचनात् २ उपोद्घातनिर्युक्त २ इतः परं. ०कारित्वात्+सायच प्रसङ्गेन. भाष्यं [-] For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अथ निक्षेपस्य वर्णनं क्रियते ~ 118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-का मनुयोगद्वारमनुगमाख्यं, तत्रैव निक्षेपस्यामः । आह-यदि प्राप्तावसरोऽप्यसांविहन निक्षिप्यते किमित्युपेन्यस्यते |हारिभदीइति, उच्यते, निक्षेपसामान्यात् इह प्रदर्यत एव, न तु प्रतन्यते इति । इदानीमनुगमावसरः, स च द्विधा-निर्युक्त्य- Il यवृत्तिः ॥५८ ।। नुगमः सूत्रानुगमश्च, निर्युक्त्यनुगमस्त्रिप्रकारः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रसर्शिक-IIविभागः१ निर्युक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगत एव, यदधो नामादिन्यासान्याख्यान मुक्तमिति । इदानीमुपोद्घात-18 नियुक्त्यनुगमप्रस्तावः, स च उद्देशादिद्वारलक्षण इति, अस्य च महार्थत्वान्मा भूद्विघ्न इति आरम्भे मङ्गलमुच्यते। आहननु मङ्गलं प्रागेयोक्तं, भूयः किं तेन ?, अथ कृतमङ्गलैरपि पुनरभिधीयते, इत्थं तर्हि प्रतिद्वारं प्रत्यध्ययन प्रतिसूत्रं च वक्तव्यमिति । अत्राह कश्चित्-मङ्गलं हि शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने चेति प्रतिपादितं, तत्रादिमङ्गलमुक्तं, इदानीं मायमङ्गलमुच्यते, तन्न, अनारब्ध एव शास्त्रे कुतोमध्यावकाश इति, स्यादेतत् , चतुरनुयोगद्वारात्मकं यतः शाखें, अतोऽनुयोगद्वारद्वये ह्यतिक्रान्ते मध्यमङ्गलं, अत एव चानुयोगद्वाराणां शास्त्राङ्गतेति, नन्वेवमपि इदं शास्त्रमध्यं न भवति, अध्ययनमध्यत्वात् , शास्त्रमध्ये च मध्यमङ्गलावसर इति, तस्माद् यत्किश्चिदेतत् , ततश्चायं स्थितपक्षः-इह | यदादौ मङ्गलं प्रतिपादितं तदावश्यकादिमङ्गल, इदं तु नावश्यकमात्रस्य, सर्वानुयोगोपोद्घातनियुक्तित्वात् प्रक्रान्तोपोद्घातस्य, वक्ष्यति च-" आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । 'सूयगडे निजुत्ती, वोच्छामि तहा दसाणं ॥५८॥ आवश्यकसामाविकादीनां न्यासास्थानात निक्षेपस्थाने नाना कीर्तनमत्र तु व्याख्यान मिति. २ मावश्यकस्य दशकालिकस्य तथा उत्तराभ्याथ भाचारे । सूत्रकृते नियुकिं वक्ष्यामि तथा दशाश्रुतस्कन्धस्स च।। नम्वित्थमपि. + स्थितिपक्षः स्थितः पक्षः सुतगडे मिजति. दीप अनुक्रम CC Swlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) KACC प्रत सूत्राक च॥१॥" इत्यादि, तथा " सेसेसुवि अज्झयणेसु, होइ एसेव निजुत्ती” चतुर्विंशतिस्तवादिष्विति वक्ष्यति, अतो महार्थत्वात कथञ्चित् शास्त्रान्तरत्वाश्चास्यारम्भे मङ्गलोपन्यासो युक्त एवेति, आह-सामायिकान्वाख्यानेऽधिकृते को हि दशवकालिकादीनां प्रस्ताव इति, अत्रोच्यते, उपोद्घातसामान्यात्, यतस्तेषामपि प्रायः खल्वयमेवोपोधात इति,ट। अलं प्रपञ्चेन । तच्चेदं मङ्गलम्तित्थयरे भगवंते, अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी । तिपणे सुगइगइगए, सिद्धिपहपदेसए वंदे ॥ ८॥ गमनिका-तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः तान् वन्द इति योगः, तत्र 'तू प्लवनतरणयोः' इत्यस्य 'पात्तुदिवचिसिचिरिचिभ्यस्थम् ( उणादौ पा०२-१७२) इति थक्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते 'ऋत इद्वा धातोः (पा०७-१-१००) इति इत्ये रपरत्वे हलि चेति दीर्घत्वे परगमे च तीर्थ इति स्थिते 'डुकृञ् करणे' इत्यस्य 'चरेष्टः' (पा०३-२-१५) | इत्यस्मात् सूत्रात् टप्रत्ययाधिकारेऽनुवर्तमाने ' कृजो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु'(पा०३-२-२०) इतिटप्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते गुणे रपरत्वे परगमने च तीर्थकर इति भवति । तत्र तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ, तच नामादिचतुर्भेदभिन्नं, तत्र नोआगमतो द्रव्यतीर्थ नद्यादीनां समो भूभागोऽनपायश्च, तत्सिद्धौ तरिता तरणं तरणीयं च सिद्ध पुरुषबाडुपनद्यादि, द्रव्यता चास्येत् तीर्णस्यापि पुनस्तरणीयभावात् , अनेकान्तिकत्वात् , स्नानविवक्षायां च बाह्यमलापनयनात् आन्तरस्य शेषेष्वपि अध्ययनेषु भवत्यथैव नियुक्तिः (नियुक्तौ )२ मनास्तिकत्वात्. * ध्वपि. + स्वाच्छामा प्रप्सोन. प्रायोऽनु. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मङ्गलार्थे तिर्थंकर-आदीनाम् वन्दनं एवं तिर्थकरादि शब्दानाम् व्याख्या: ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-गाथा-], नियुक्ति: [८०], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-माणातिपातादिकारणपूर्वकत्वात , तस्य च तद्विनिवृत्तिमन्तरेणोत्पत्तिनिरोधाभावात् , प्रागुपात्तस्य च विशिष्ट क्रियास- हारिभद्री व्यपेक्षाध्यवसायजन्यस्य तत्पत्येनीकक्रियासहगताध्यवसायतः क्षयोपपत्तेः, तत्क्षयाभावे च भावतो भवतरणानुपपत्तेरिति । यवृत्तिः ॥ ५९॥ भावतीर्थं तु नोआगमतः संघः, सम्यग्दर्शनादिपरिणामानन्यत्वात्, यत उक्त-तिध भंते ! तिथं! तित्थकरे विभागः१ तित्थं?, गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थयरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो, पढमगणहरो वा "तरिता तु तद्विशेष एव साधुः, तथा सम्यग्दर्शनादित्रयं करणभावापन्नं तरणं, तरणीयो भवोदधिरिति । अथवा-पङ्कदाहपिपासा-1 नामपहारं करोति यत् । तद्धर्मसाधनं तथ्य, तीर्थमित्युच्यते बुधैः ॥१॥ पस्तावत् पापं, दाहः कपायाः, पिपासा विषयेच्छा, एतेषामपहरणसमर्थ यदित्यर्थः, अथवा सुखावतारं सुखोत्तारं १ सुखावतारं दुरुत्तारं २ दुःखावतारं सुखोत्तारं ३ दुःखीवतारं दुरुत्तार ४ मिति द्रव्यभावतीर्थ द्रष्टव्यं, तच्च सरजस्कशाक्यबोटिकसाधुसंवन्धि विज्ञेयं, अलं प्रसङ्गेन । तथा भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याध प्रयत्नस्य, |पण्णां भग इतीङ्गना ॥१॥" ततश्च समग्रेश्वर्यादिभगयोगाद्भगवन्तोऽर्हन्त इति तान् भगवतः । आह-तीर्थकरा दीप अनुक्रम मान्तरम. २ अभ्यन्तरमलख. प्राणातिपातादिकात. मिथ्यात्वादिलक्षण.५ सम्यग्दर्शनानुसारिणी, आन्तरकर्ममलक्षयाभावे. • सच्चतः। 10 भवतारणा० ८ तस्थाइमयं सरफखाणं ॥ १०४० ॥ तचनियाणं वीर्य बिसयमुकुसस्थभावणाणि । तवं च बोडियाण परिमं जहणं सिवफलं तु ॥३०५१॥ RI(विशे०) तीर्थ भदन्त ! तीर्थ तीर्थकरतीर्थम् ', गौतम! आईन् तावनियमातीर्थकरः तीर्य पुनः चतुवर्णः श्रमणसङ्कः प्रथमगणधरो वा । १० वाः। दिगम्बराः १२ जैनसाधवः १३ अमिण्या.* तक्षयाभावतो. + भवता. मितीय. ॥ ५९॥ wwwjandiarary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [-- /गाथा -], निर्युक्ति: [ ८० ], भाष्यं [-] नित्यनेनैव 'भगवत' इत्यस्य गतार्थत्वात् तीर्थकृतामुक्तलक्षणभगाव्यभिचारात् नार्थोऽनेनेति, न, नयमतान्तरावलम्बिपरिकल्पिततीर्थकर तिरस्कारपरत्वादस्येति, तथा च न तेऽविकलभगवन्तः तान् भगवतो, वन्द इति क्रिया सर्वत्र योग्या । तथा परे-शत्रवः, ते च क्रोधाद्याः, आक्रमणमाक्रमः - पराजयः तदुच्छेद इतियावत् परेषामाक्रमः पराक्रमः, | सोऽनुत्तरः-अनन्यसदृशो येषां ते तथाविधाः । आह--ये खलु ऐश्वर्यादिभगवन्तः तेऽनुत्तरपराक्रमा एव, तमन्तरेण विव|क्षितभगयोगाभावात् ततश्च 'अनुत्तरपराक्रमान्' इत्येतदतिरिच्यते इति, अत्रोच्यते, अनादिशुद्धेश्वर्यादिसमन्वितपर|मपुरुषप्रतिपादनपरनयवादनिराकरणार्थत्वाद् न दोषः, तथा चानुत्तरपराक्रमत्वमन्तरेणैव कैश्चित् हिरण्यगर्भादीनामनादिविवक्षित भगयोगोऽभ्युपगम्यत इति उक्तं च - "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ १ ॥" इत्यादि, अकर्त्रात्मवादव्यवच्छेदार्थ वा । अमितं- अपरिमितं शेयानन्तत्वात् केवलं अमितं ॐ ज्ञानं एषामित्यमित ज्ञानिनः । आह— येऽनुत्तरपराक्रमास्तेऽमितज्ञानिन एव नियमेन, क्रोधादिपरिक्षयोत्तरकालभाविस्वाद् अभितज्ञानस्येति, उच्यते, सत्यमेतत् किं तु क्लेशक्षयेऽप्यमितज्ञानानभ्युपगमप्रधाननयवादनिरासार्थत्वाद् उपन्यास इति, तथा चाहुरेके-" सर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थं तु पश्यतु । कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ? ॥ १ ॥ इत्यादि", स्वसिद्धान्तप्रसिद्धच्छद्मस्थवीतरागव्यवच्छेदार्थ वा । तथा तरन्ति स्म भवार्णवमिति तीर्णास्तान तीर्णान्, तीर्त्वा च भवौघं 'सुगतिगतिगतान्' तत्र सर्वज्ञत्वात्सर्वदर्शित्वाच्च निरुपमसुखभागिनः सुगतयः - सिद्धाः, तेषां १ अधिकभगवत इति * ०सिद्वैश्व० + दिशयो० Education national For Parts Only www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१ ] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-गाथा-], नियुक्ति: [८०], भाष्यं [-] (४०) W.यवृत्तिः प्रत सुत्राक आवश्यक- गतिः सुगतिगतिः, अनेन तिर्यङ्नरनारकामरगतिव्यवच्छेदेन पञ्चमीमोक्षगतिमाह, तां गताः-प्राप्ताः तान् , अनेन हारिभद्री चावाप्ताणिमाद्यष्टविधैश्वर्यस्वेच्छाविलसनशीलपुरुषतीर्णत्वप्रतिपादनपरनयवादव्यवच्छेदमाह, तथा च केचिदाहुः॥६०॥ | "अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥ इत्यादि" तथा सिद्धेः विभागः१ तस्या एव सुगतेः पन्थाः सिद्धिपथः तस्य प्रधाना देशकाः तद्वीजभूतसामायिकादिप्रतिपादकत्वात् प्रदेशकाः, अनेन वनवद्यानेकसत्त्वोपकारकतीर्थकरनामकर्मविपाकपरिणामवत् तत्स्वरूपमेवाह , तान् 'वन्दे अभिवादये इतिगाथार्थः ॥८॥ दाएवं तावदविशेषेण ऋषभादीनां महालार्थं वन्दनमुक्त, इदानी आसन्नोपकारित्वात् वर्तमानतीर्थाधिपतेः अखिलश्रुतज्ञानार्थप्रदर्शकस्य वर्धमानस्वामिनो वन्दनमाहखंदामि महाभाग, महामुर्णि महायसं महावीरं । अमरनररायमहिलं, तित्थयरमिमस्स तित्थस्स ॥८॥ व्याख्या-तत्र वन्दामीत्यादि दीपकं अशेषोत्तरपदानुयायि द्रष्टव्यं । तत्र भागः-अचिन्त्या शक्तिः, महान् भागोऽस्येति महाभागः तं, तथा मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः सर्वज्ञत्वात् , महाँश्वासी मुनिश्च महामुनिः तं, त्रैलोक्यव्यापित्वात् महद्यशोऽस्येति महायशाः तं, 'महावीर' इत्यभिधानं, अथवा 'शूर वीर विक्रान्तौ' इति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, अत्यन्तानुरक्तकेवलामलश्रिया विराजत इति वा वीरः, उक्तं च-"विदारयति X ॥६ ॥ यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः॥१॥" अमराश्च नराश्च अमरनरास्तेषां राजानः । मस्त्य महोपकारकं च वन्दे ( विशेष वृत्तौ ) * कर. + भनन्यानुरक्त. SEARAN दीप अनुक्रम FO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | विशेषणपूर्वक भगवत् महावीरस्य वंदना ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८१], Education intimational इन्द्रचक्रवर्त्तिप्रभृतयः तैर्महितः पूजितः तं तीथर्करं 'अस्य' वर्त्तमान कालावस्थायिनः तीर्थस्य इति गाथार्थः ॥ ८१ ॥ एवं तावदर्थवतुर्मङ्गलार्थं वन्दनमभिहितं इदानीं सूत्रकर्त्तृप्रभृतीनामपि पूज्यत्वात् वन्दनमाह इकारसवि गणहरे पवायए पवयणस्स वंदामि । सव्वं गणहरवंसं वापरावंसं पवयणं च ॥ ८२ ॥ व्याख्या--'एकादश' इति संख्यावाचकः शब्दः, 'अपिः' समुच्चये, अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयन्तीति गणधरास्तान्, प्रकर्षेण प्रधाना आदौ वा वाचकाः प्रवाचकाः तान् कस्य ?- 'प्रवचनस्य' आगमस्येत्यर्थः, किं ?--वंदामि एवं तावन्मूलगणधरवन्दनं, तथा 'सर्व' निरवशेषं, गणधराः - आचार्यास्तेषां वंश :- प्रवाहस्तं तथा वाचका उपाध्यायास्तेषां वंशस्तं तथा 'प्रवचनं च' आगमं च वन्द इति योगः । आह-इह वंशद्वयस्य प्रवचनस्य च कथं वन्द्यतेति, उच्यते, यथा अर्थवक्ता अर्हन् वन्द्यः, सूत्रवक्तारश्च गणधराः, एवं यैरिदमर्थसूत्ररूपं प्रवचनं आचार्योपाध्यायैरानीतं, तद्वंशोऽ ध्यानयनद्वारेणोपकारित्वात् वन्द्य एवेति, प्रवचनं तु साक्षाद्वृत्त्यैवोपकारित्वादेव वन्यमिति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ इदानीं प्रकृतमुपदर्शयन्नाह ते बंदिऊण सिरसा अत्थपुडुत्तस्स तेहि कहियस्स । सुयनाणस्स भगवओ निज्जुत्तिं कित्तहस्सामि ॥ ८३ ॥ व्याख्या- 'तान्' अनन्तरोक्तान् तीर्थकरादीन् 'वन्दित्वा' प्रणम्य 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन, किम् १-निर्युद्धिं कीर्त्तयिष्ये, कस्य !-' अर्थपृथक्त्वस्य' तत्र श्रुताभिधेयोऽर्थः तस्मात् सूत्रं पृथक् तद्भवः पृथक्त्वं च अर्थश्च पृथक्त्वं चेति एकव १ चान्द्रे निज उभयपदभावात्. २ तदेव पृथक्त्वमिति विशे० मलयगिरीयायां च बन्दे For Parts Only भाष्यं [-] ~124~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः गणधर - वंदना एवं निर्युक्तिरचना-प्रतिज्ञा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३], भाष्यं [-1 (४०) प्रत सुत्रांक दावः, अर्थेन वा पृथु अर्थपृथु तद्भावः अर्थपृथुत्वं श्रुतविशेषणमेव तस्य, 'तैः' तीर्थकरगणधरादिभिः कथितस्य' प्रति- हारिभद्रीपादितस्य, कस्य -श्रुत ज्ञानस्य भगवतः, स्वरूपाभिधानमेतत्, सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं नियुक्तिः तां 'कीर्त-II | यवृत्तिः यिष्ये प्रतिपादयिष्ये इति गाथार्थः ॥ ८३ ॥ आह-किमशेषश्रुतज्ञानस्य, न, किं तर्हि , श्रुतविशेषाणामावश्यका- [विभागः१ दीनामिति, अत एवाह आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निजुर्ति बुच्छामि तहा दसाणं च ॥ ८४ ॥ कप्पस्स य निज्जुर्ति ववहारस्सेव परमणिउणस्स । मूरिअपण्णत्तीए बुच्छं इसिभासिआणं च ॥ ८५॥ एतेसिं नितिं बुच्छामि अहं जिणोवएसेणं । आहरणहेउकारणपयनिवहमिणं समासेणं ॥८६॥ आसां गमनिका-आवश्यकस्य दशवैकालिकस्य तथोत्तराध्ययनाचारयोः समुदायशब्दानामवयवे वृत्तिदर्शनादू यथा भीमसेनः सेन इति उत्तराध्य इति उत्तराध्ययनमवसेयं, अथवाऽध्ययनमध्यायः, उत्तराध्यायाचारयोः, सूत्रकृतविषयां नियुकिं वक्ष्ये, तथा दशानां च संबन्धिनीमिति गाथार्थः॥८४ ॥ तथा कल्पस्य च नियुक्ति व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य, तत्र परमग्रहणं मोक्षाङ्गत्वात् निपुणग्रहणं त्वयंसकत्वात् , तथा च न मन्वादिप्रणीतव्यवहारवयंसकोऽयं, "सच्चपइण्णा खु ववहारा" इति वचनात् , तथा सूर्यप्रज्ञप्तेः वक्ष्ये, ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्तिं, क्रियाभिधानं | चानेकशः ग्रन्थान्तरविषयत्वात् समासव्यासरूपत्वाच शास्त्रारम्भस्य अदुष्टमेवेति गाथार्थः।1८५ ॥ एतेषां श्रुतविशे १ संज्ञाऽप्येषा श्रुत्तस्येति वि०. दीप अनुक्रम JAMERatnintammational wlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८६], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक * पाणां, नियुक्किं वक्ष्ये अहं जिनोपदेशेन, न तु स्वमनीषिकयैव, आहरणहेतुकारणपदनिवहां एतां समासेन, तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमाहरणं दृष्टान्त इतियावत् , साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकल क्षणो हेतुः, हेतुमुलकच प्रथम दृष्टान्ता|भिधानं न्यायप्रदर्शनार्थ-कचि तुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यते इति, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः, मत्स्यादीनां सलिलवत्, तथा कचिद्धेतुरेव केवलोऽभिधीयते, न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वः विशिष्टचिहोपलमध्यन्यथानुपपत्तेः, तथा चाभ्यधायि नियुक्तिकारेण-"जिणयणं सिद्ध चेव भण्णई कस्थवी उदाहरण । आसज्ज उ सोयारं हेजवि, कहंचिय भणेजा ॥१॥ इत्यादि" । कारणमुपपत्तिमात्र, यथा निरुपमसुखः सिद्धः, ज्ञानानाबाधप्रकर्षात् , नात्र आविद्वदङ्गनादिलोकप्रतीतः साध्यसाधनधर्मानुगतो दृष्टान्तोऽस्ति, तत्राहरणार्थाभिधायक पदमाहरणपदं, एवमन्यत्रापि भावनीयं । आहरणं च हेतुश्च कारणं च आहरणहेतुकारणानि तेषां पदानि आहरणहेतुकारणपदानि तेषां निवहः-संघातो यस्यां नियुक्ती सा तथाविधा तां 'एतां वक्ष्यमाणलक्षणां अथवा प्रस्तुता 'समासेना संक्षेपेणेति व्याख्यातं गाथात्रयमिति ॥८६॥ तत्र 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायात् आदावधिकृताऽऽवश्यकाद्या ध्ययनसामायिकाख्योपोदूधातनियुक्तिमभिधित्सुराह सामाइयनिजुर्ति चुच्छ उवएसियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण आगयं आणुपुच्चीए ॥ ८७॥ व्याख्या सामायिकस्य नियुक्तिः सामायिकनियुक्ति तां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, उप-सामीप्येन देशिता उपदेशिता तां, 1 जिनवचनं सिबमेव भण्यते कुत्रापि उदाहरणम् । आसाथ तु श्रोतारं हेनुमपि कचिद् भणेत् ॥ १॥ * कहिवि. + तथा तत्रोदा. बिध्ययन, दीप अनुक्रम JABERatinintamational wwwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ सामायिकस्य नियुक्ति: कथ्यते ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥ २ ॥ प्रत सूत्राक केन ?-'गुरुजनेन' तीर्थकरगणधरलक्षणेन, पुनरुपदेशनकालादारभ्य आचार्यपारम्पर्येण आगतां, स च परम्परको हारिभदी द्विधा-द्रव्यतो भावता, द्रव्यपरम्परक इष्टकानां पुरुषपारम्पर्येणानयन, अत्र चासंमोहार्थं कथानक गाथाविवरणस-1 यवृत्तिः माप्तौ वक्ष्यामः, भावपरम्परकस्त्वियमेव उपोद्घातनियुक्तिरेवं आचार्यपारम्पर्येणागतेति, कथम् ?, 'आनुा परिपाट्या विभागः१ जम्बूस्वामिनः प्रभवेनानीता, ततोऽपि शय्यम्भवादिभिरिति, अथवा आचार्यपारम्पर्येण आगतां स्वगुरुभिरुपदेशितामिति । आह-द्रव्यस्य इष्टकालक्षणस्य युक्तं पारम्पर्येण आगमनं, भावस्य तु श्रुतपर्यायत्वात् वस्त्वन्तरसंक्रमणाभावात् पारम्पर्येणागमनानुपपत्तिरिति, न च तद्वीजभूतस्य अर्हद्गणधरशब्दस्यागमनमस्ति, तस्य श्रुत्यनन्तरमेवोपरमादिति, अनोच्यते, उपचाराददोषः, यथा कार्यापणादू घृतमागतं घटादिभ्यो वा रूपादिविज्ञानमिति । एवमियमाचार्यपारम्पर्यहेतत्वात तत आगतेत्युच्यते, आगतेवागता, बोधवचनश्चायमागतशब्दो न गमि क्रियावचन इति, अलं विस्तरेण । दषपरंपरए इम उदाहरणं साकेयं णगर, तस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे सुरप्पिए नाम जक्खाययणे, सो य सुरप्पिओ जक्खो सन्निहियपाडिहरो, सो वरिसे बरिसे चित्तिजइ, महो य से परमो कीरइ, सो य चित्तिओ समाणो तं चेव चित्तकरं मारेइ, ॥६२॥ सम्पपरम्परके हदमुदाहरणम्-साफे नगर, तस्य वत्तरपौरस्त्ये (ईशानकोणे) दिग्भागे सुरप्रिय नाम पक्षायतनं, स सुरमियो यक्षा (पतिमारूपः) सनिहितमातिहार्यः, स वर्ष वर्षे चियते, महब तस्य परमः क्रियते, स च चित्रितः सन् तमेव चित्रकरं मारयति, नेदम् (कचित्र +न दोषः. गति०. दीप SLCHAKRA अनुक्रम RSON ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: द्रव्यपरम्पराए चित्रकारस्य दृष्टांत: ~ 127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] (४०) * प्रत सूत्राक आहे न चित्तिजाइ तओ जणमारिं करेइ, ततो चित्तगरा सधे पलाइउमारद्धा, पच्छा रण्णा णायं, जदि सवे पलायति, तो||| | एस जक्खो अचित्तिजंतो अम्ह बहाए भविस्सइ, तेणं चित्तगरा एकसंकलितबद्धा पाडुहुएंहिं कया, तेर्सि णामाई पत्तए। लिहिऊण घडए छूढाणि, ततो वरिसे वरिसे जस्स णाम उहाति, तेण चित्तेययो, एवं कालो वञ्चति । अण्णया कयाई | कोसंबीओ चित्तगरदारओ घराओ पलाइओ तत्थागओ सिक्खगो, सो भर्मतो साकेतस्स चित्तगरस्स घरं अल्लीणो, सोवि | एगपुत्तगो थेरीपुत्तो, सो से तस्स मित्तो जातो, एवं तस्स तत्ध अच्छतस्स अह तंमि वरिसे तस्स थेरीपुत्तस्स वारओ जातो, पच्छा सा थेरी बाहुप्पगार रुवति, ते रुवमाणी थेरी दहण कोसंबको भणति-किं अम्मो ! रुदसि , ताए सिई, सो| भणति-मा रुयह, अहं एवं जक्खं चित्तिस्सामि, ताहे सा भणति-तुम मे पुत्तो किं न भवसि ?, तोवि अहं चित्तेमि, अच्छह तुम्भे असोगाओ, ततो छभत्तं काऊण अहतं वत्थजुअलं परिहित्ता अगुणाए पोत्तीए मुहं बंधिऊण चोक्खेण यांपत्तेण सुइभूएण णवएहिं कलसएहिं पहाणेत्ता णवएहिं कुचएहिं णवएहि मल्ल संपुडेहिं अल्ले सेहिं षण्णेहिं च, चित्तेऊण पायव अथ न चिभ्यते तदा जनमारि करोति, ततचित्रकराः सर्वे पलायितुमारब्धाः, पवादाज्ञा ज्ञातं, यदि सवें पलायिष्यन्ते तर्हि एष यक्षोऽचिन्यमाण: अस्माकं वधाप भविष्यति, तेन चित्रकरा एकखलाबद्धा प्रतिभूकैः (पारितोषिकः) कृताः, तेषां नामानि पत्रके लिखित्वा घटे क्षिप्तानि, ततो वर्ष वर्षे यस नाम उत्तिहते, तेन चित्रवितव्यः, एवं कालो गाति । मन्पदा कदाचित् कौशाम्बीकः चित्रकरदारकः गृहात् पलायितः तत्रागतः शिक्षका (शिक्षितुं),स माम्यन् साकेतकसा चित्रकरस गृहमालीना, सोऽपि एकत्रका स्थविरापुत्रः, सोऽथ तस्य मित्रं जाता, एवं समिस्तिष्ठति अथ तस्मिन्वय तय स्थविरापुत्रस्य वारको जाता, पश्चात् सा स्थचिरा बहुप्रकार रोदिति, तो कदती हटा स्थविर कौशाम्बीको भणति--किमब! रोदिषि तथा शिष्टं ( वृत्तान्त),सभणति-त्रा रुदिहि महमेतं यक्ष चित्र यिष्यामि, तदा सा भवाति-वं मे पुत्रः किं नासि, तथापि अहं चित्रयामि, तिपय यूयमशोकाः, ततः षष्ठभक्तं कृत्वाव्हतं वायुगलं परिधावाटगुणया वधिकया मुखं सध्या चोक्षण प्रयतेन शुचीभूतेन नवैः कलशैः अपवित्वा नचैः कूर्चकैः नवमलकसंपुटैः असेपर्वण चित्रविस्वा पादप तितो भणति-* पाहुडएदि म..+ -सिं सहेसि.सिागेवगस. नास्तीदम्, मुहपोतीए.tण पण पव०. माडपसं०. अलेस्सेहि. | चित्तिओ चिनेक र दीप अनुक्रम Sirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥ ६३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८७], भाष्यं [-] डिओ भणइ-खमह जं मए अवरजं ति ?, ततो तुडो जक्खो भणति वरेहि वरं, सो भणति एयं चैव ममं वरं देहि, मा लोगं मारेह, भणति एतं ताथ ठितमेव, जं तुमं न मारिओ, एवं अण्णेबिन मारेमि, अण्णं भण, जस्स एगदे समवि पासे मि दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा तस्स तदाणुरूवं Vरूवं णिवत्तेमि, एवं होउत्ति दिण्णो वरो, ततो सो लद्धवरो रण्णा सकारितो समाणो गओ कोसंबीं णयरिं, तत्थ य सयाणिओ नाम राया, सो अण्णया कयाई सुहा सणगओ दूअं पुच्छइ - किं मम णत्थि ? जं अण्णराईण अस्थि, तेण भणिअं - चित्रासभा णत्थि, मणसा देवाणं वायए पत्थिवाणं, तक्खणमेत्तमेव आणत्ता चित्तगरा, तेहिं सभाओवासा विभत्ता पचित्तिता, तस्स वरदिण्णगस्स जो रण्णो देदियो, तेतरि उवमाणेण णायं जहा मिगावती एसत्ति, तेण पादंगुडगाणुसारेण देवीए रूवं णिवत्तिअं, तीसे चक्खुंमि उम्मिलिजंते १ क्षमस्व यन्मयाऽपराद्धमिति, ततस्तुष्टो यक्षो भणति वृणुष्व वरं स भगति एतमेव मम वरं देहि मा लोकं मारय ( मीमरः ) इति भणति एत सावस्थितमेव च त्वं मारितः एवमन्यानपि न मारविष्यामि, अन्यत्रण, (स भणति ) यस्व एकमपि देशं पश्यामि द्विपदस्य वा चतुष्पदस्य वा अपदस्य वा तख तदनुरूपं रूपं निर्वयामि एवं भवत्विति दत्तो वरः ततः स लब्धवरो राज्ञा सत्कृतः सन् गतः कौशाम्बी नगरी, तत्र च शतानीको नाम राजा, सोऽन्यदा कदाचित् सुखासनगतो दूतं पृच्छति किं मम नास्ति यदन्येषां राज्ञामस्ति ?, तेन भणितं चित्रसभा नास्ति, 'मनसा देवानां वाचा पार्थिवानां' (कार्यसिद्धिः इति नियमात् ) तत्क्षण एवं आशात्रिकृतः, तैः सभावकाशा विभज्य प्रचित्रिता: ( चित्रितुमारब्धाः ) त दत्तवराय यो राशोऽन्तः पुरक्रीडाप्रदेशः स दषः तेन तत्र (क्रीडाप्रदेशे ) तदनुरूपेषु निर्मितेषु (रूपेषु) कदाचिन्मृगावत्या जालकटकान्तरे पादाको दृष्टः, उपमानेन ज्ञातं यथा मृगावती एपेति तेन पादाङ्गुटकानुसारेण देण्याः रूपं निर्वर्त्तितं तस्याप्युम्मीवमाने एवं [] मारेहि मारेमो. युगपदे०. पासामि. V नेदम्, * वाया. + सभा खा. कड Education into For Fast Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 129 ~ ॥ ६३ ॥ www.ncbrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः (चित्रकारकथा मध्ये) शतानीक - मृगावति - कथानकं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक एगो मसिविन्दू ऊरुयंतरे पडिओ, तेण फुसिओ, पुणोऽवि जातो, एवं तिन्नि वारा, पच्छा तेण णाय, एतेन एवं होयवमेव, ततो चित्तसभा निम्मिता, राया चित्तसभ पलोएंतोतं पदेस पत्तो जस्थ सा देवी, तं णिवणंतेण सो बिन्द दिहो, विरु"हो, एतेण मम पत्ती धरिसियत्तिकाऊण वज्झो आणत्तो, चित्तगरसेणी उवहिता, सामि ! एस वरलाखोत्ति, ततो से खुजाए मुहं दाइयं, तेण तदाणुरूवं णिवत्तितं, तथापि तेण संडासओ छिंदावि ओ चेय, णिविसओ य आणतो, है सो पुणो जक्खस्स उपवासेण ठितो, भणिओ य-वामेण चित्तिहिसि, सयाणियस्स पदोसं गतो, तेण चिंतियं-पजोओ एयस्स अप्पीति वहेज्जा, ततो गेण मिगावईए चित्तफलए रूवं चित्तेऊण, पज्जोयस्स उहविरं, तेण दिई, पुच्छिओ, सिद्धं, तेण दूओ पयट्टितो, जदि मियावई न पट्टवेसि तो एमि, तेण असक्कारिओ णि खमणेण णिच्छूढो, तेण सिहं, इमोवि तेण दूयवयणेण रुडो, सबबलेण कोसंबि एइ, तं आगच्छतं सोउं सयाणिओ अप्पबलो अतिसारेण मओ, ताहे एको मीबिन्दुः अर्वन्तरे पतितः, सेन स्पृष्टः (मृष्टः ), पुनरपि जातः, एवं त्रीन् चारान् , पन्नात् तेन ज्ञातं, एतेनैवं भवितव्यमेच, ततभित्रसभा निर्मिता, ततो राजा चित्रसभा प्रलोकयन् तं प्रदेश प्रमः, यत्र सा देवी (चित्रिता), तो निर्णयता स बिन्दुईष्टः, निरुतः, एतेन मम पनी धर्पितेतिकृत्वा | वध्य आज्ञप्तः, चित्रकृच्छणिरुपस्थिता, स्वामिन् ! एष लन्धवर इति, ततस्ती कुब्जावा मुखं दर्शितं, तेन तदनुरूपं निर्वसितं, तथापि तेन संदंशकः (अङ्गुष्टतर्ग न्योर) वित एव, निविषयमाजप्त। स पुनर्वक्षाय (यक्षमारा) अपवासेन स्थितः, भणितश्न-बामेन चिनयिष्यसि, शतानीके प्रदेषं गतः, तेन चिन्तितंC|| प्रद्योत एतस्याभीति बहेन (बोई शक्तः), ससोऽनेन सगाववावित्रफलके रूपं चित्रविश्या प्रयोताय उपस्थापितं, तेन एं, पृष्टः, शिष्ट, तेन दसः प्रसिता. यदि सगावतीं न प्रस्थापयसि तोमि (योमिति घोषः) तेन असत्कृतः निर्थमनेन निष्काशितः, तेन शिष्ट, अयमपि तेन तूतवचनेन रुष्टः, सर्वबलेन कौशाम्बीमेति, तमागच्छन्तं भुया शतानीकोऽपवलोऽतीसारेण मृतः, तदा निम्माता. तिंबड्ण रुहो. वरलोिति विहितं. || नेदम, सितो. दीप अनुक्रम JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं -1 (४०) आवश्यक ॥६४॥ प्रत सुत्रांक (2R50- 24-30-0 मिगावईए चिन्तिअं-मा इमो बालो मम पुत्तो विणस्सिहिति, एस खरेणं न सक्कति, पच्छा दूतो पविओ, भणिओ- हारिभद्रीएस कुमारो बालो, अम्हेहिं गएहिं मा सामंतराइणा केणइ अण्णेणं पेल्लिजिहिइ, सो भणति-को ममं घारे,माणे पेलि-18 यवृत्तिः हिति, सा भणति-ओसीसए सप्पो, जोयणसए विज्जो किं करेहिति !, तो णगरिं दढं करेहि, सो भणति-आमं करेमि, | विभागा१ ताए भण्णति-उजेणिगाओ इडगाओ बलिआओ, 'ताहि कीरउ, आमंति, तस्स य चोद्दस राइणो वसवत्तिणो, तेणं तेसिं बैला ठविता, पुरिसपरंपरएण तेहिं आणिआओ इट्टगाओ, कयं णगरं दंडं, ताहे ताए भण्णति-इयाणि धास्स: भरेहि णगरिं, ताणेण भरिया, जा हे णगरी रोहगअसझा जाया, ताहे सा विसंवइया, चिन्तियं च णाए-धण्णा'णं ते गामागरणगर जाव सण्णिवेसा, जत्थ सामी विहरति, पथएजामि जइ सामी एज, ततो भगवं समोसढो, तत्थर | सबवेरा पसमंति, मिगावती णिग्गता, धम्मे कहिज्जमाणे एगे पुरिसे एस सवण्णुत्ति काउं पच्छण्णं मणसा पुच्छति, ताहे १एगावस्या चिन्तितं-मैष बालो मम पुत्रो बिनेशन, एष खरेण न शक्यते (साधयितुं), पश्चाता प्रस्थापितः, भणित:-एष कुमारो बाला, भस्मासु गतेषु मा सामन्तराजेन केनचिवन्येन प्रेरि, स भणति-को मषा नियमाणान् प्रेरखेत, सा भणति-उच्छीर्षके सो योजनशते वैधः किं करिष्यति ? तत् नगरी ददा कुरु, स भगति-भाममिति (ओमिति) करोमि, तया भण्यते-बीजबिन्य इष्टका बलवत्यः, ताभिः करोतु, भोमिति, तस्य च चतुर्दश राजानो यशवर्तिनः, तेन तेषां बलानि स्थापितानि, पुरुषपरम्परकेण तैरानीता इटकाः, कृतं नगरं एवं तदा तया भण्यते-इदानीं धनेन विभूति नगरी, सदा सेना ॥६४॥ मता, यदा नगरी रोधासाध्या जाता तदा सा विसंवदिता, चिन्तितं च तया-धन्यास्ते प्रामाकरनगराणि यावत् सनिवेशाः, यत्र स्वामी विहरति, प्रबनेयं यदि स्वामी आयायात् (एयात्), सतो भगवान् समवस्तः तत्र सर्ववैराणि प्रशाम्बन्ति, मृगावती निर्गता, धर्मे कध्यमाने एकः पुरुष एष सर्वज्ञ इतिकृत्वा | प्रच्छ मनसा पृष्ठति, तदा । धरमाणे.* सबला.+मेदम, पिण्यास ततो. जाव. दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [-- / गाथा-], निर्युक्तिः [ ८७], भाष्यं [-] ], सोमिणा भणिओ-वायाए पुच्छ देवाणुपिआ !, वरं बहवे सत्ता संबुज्झतित्ति, एवमवि भणिते तेण भण्णति- भगवं । जा सा सा सा ?, तत्थ भगवता आमंति भणितं, गोयमसामिणा भणिअं किं एतेण जा सा सा सा इति भणितं १, एत्थ तीसे उद्वाणपरियावणिअं सर्व भगवं परिकहेति - तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानाम नयरी, तत्थेगो सुवण्णगारो इत्थीलोलो, सो पंच पंच सुवण्णसयाणि दाऊण जा पहाणा कण्णा तं परिणति, एवं तेणं पंचसया पिंडिता, एकेकाए तिलगचोदसगं अलंकारं करेइ, जद्दिवसं जाए समं भोगे भुंज. इ तद्दिवसं देति अलंकारं, सेसकालं न देति, सो ईसालुओ तं घरं न कयाई मुयइ, नवा अण्णस्स अलि यंतुं देति, सो अण्णदा मित्तपगते वाहितो, अणिच्छंतो बला णीओ जेमेतुं, सो! तहिं गतोचि णाऊणं ताहिं चिंतिअं किं एतेणं अम्ह सुवण्णएणंति ?, अज्ज पतिरिक्कं ण्हामो समालभामो आविद्धामो अ, पहाआओ पइरिकमैज्जितवयविहीए तिलय चोदसणं अलंकारेण अलंकरेऊणं अद्दायं गहाय पेहमाणीओ चिति, सो अ 5 स्वामिना भणितः वाचा पृच्छ देवानुप्रिय ! वरं बहवः सरथाः संयन्त इति एवमपि भणिते तेन भण्यते भगवन् ! या सा सा सा ?, तत्र भगवता आममिति (ओमिति ) भणिते गौतमस्वामिना भणितं किमेतेन या सा सा खेति भणितं ?, अन्न तस्य स्थानपर्यापनिक सर्व भगवान् परिकथयतिसिन्काले सिम्समये चम्पानाशी नगरी सबैकः सुवर्णकारः खीलोलुपः स पञ्च पञ्च सु (सी) वर्णशतानि दवा या प्रधाना कन्या तो परिणयति एवं तेन पञ्चशती पिण्डिता एकैकस्याः तिलकचतुर्दशकान् अलङ्कारान् कारयति यहिवसे यया समं भोगान् मुझे (इति) तद्दिवले ददाति अलङ्कारान् शेषकाले न ददाति स ईष्यालुस्तत् गृहं न कदाचित् मुञ्चति, नवाऽभ्यस्य उपसतुं ददाति सोऽम्पदा मित्रप्रकृते (जेमनादिप्रकरणे) व्याहतः अनिच्छन् बलाचीतो जेमितुं स तत्र गत इति ज्ञात्वा ताभिविन्तितं किमेतेनास्माकं सुवर्णेनेति अय प्रतिरिक्तं ( यथेच्छं ) खामः समालभामः परिदध्याश्न, जाताः प्रतिरिक्तम. वनविधिना तिलकचतुर्दशरलङ्कारैरलङ्कृत्य आदर्श गृहीत्वा प्रेक्षमाणास्तिष्ठन्ति ६ नवरं || मविभणितो. 8 भणितं अरिथ लोलो ऽ मुंजहिति★ अहिएवं 4 सोय. ० मजन०. Education intimation For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः | चम्पानगर्ये सुवर्णकारस्य कथानकं ~132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं -1 (४०) ॥६५॥ प्रत ततो आगतो, तं दद्दूण आसुरुत्तो, तेण एक्का गहिया, ताव पिष्टिया जाव मयत्ति, ता। अण्णाओ भणति-एवं अम्हावि एके- हारिभद्रीका उ एएण हंतच ति, तम्हा एयं एत्थेव अद्दागपुंज करेमो, तत्थेगुणेहिं पंचहिं महिलासएहिं पंच एगूणाई अद्दागसयाईयवृत्तिः जमगसमगं पक्खित्ताई, तत्थ सो अदागपुंजो जातो, पच्छा पुणोवि तासिं पच्छातावो जाओ-का गती अम्ह पतिमा-विभाग रियाणं भविस्सति , लोभ उद्धसणाओ सहेयवाओ, ताहे ताहिं घणकवाडनिरंतरं णिच्छिड्डाई दाराई ठवेऊण अग्गी दिण्णो सबओ समंतओ, तेण पच्छाणुतावेण साणुकोसयाए अ ताए अकामणिजराए मणूसेसूबवण्णा पंचवि सया चोरा जाया, एगमि पथए परिवसंति, सोवि कालगतो तिरिक्खेसूबवण्णो, तत्थ जा सा पढम मारिया, सा एकं भवं तिरिएस पच्छा एगमि बंभणकुले चेडो आयाओ, सो अ पंचवरिसो, सो अ सुवण्णकारो तिरिक्खे सु उववट्टिऊण तं मि कुले चेव सूत्रांक दीप अनुक्रम सच तत आगतः, तत् दृष्ट्वा फुगः, तेनैका गृहीता तावत्पिट्टिता यावन्मृतेति, तदाश्या भणन्ति-एवं वयमपि एकैका एतेन हन्तव्येति, तसात् एन भत्रैव भादर्शपुखं कुर्मः, सौकोनैः पञ्चभिः महिलाशतैः एकोनानि पञ्चादर्शशतानि युगपत् प्रक्षिसानि, तत्र सादर्शक्षो जातः, पश्चारपुनरपि तासां पश्चातापो जात:-का गतिरस्साकं पतिमारिकाणां भविष्यति !, लोके चावहेलनाः सोम्याः, तदा ताभिर्वनकपाटनिरन्तरं निविदाणि द्वाराणि स्थापयित्वा (स्थायित्वा) अभिर्दतः सर्वतः समन्ततः, तेन पश्चात्तापेन सानुक्रोशतया च तयाऽकामनिर्जरया मनुष्येषूपमाः पचापि शतानि चौरा जाताः, एकस्मिन् प्रोपर्वते परिवसन्ति, सोऽपि कालगतः तिर्यक्षुत्पन्नः, तत्र था सा प्रथमं मारिता सा एकस्मिन् भवे तिर्षक्ष पश्चात एकस्मिन् बाह्मण कुले चेट आयातः (उत्पनः), स च पञ्चवर्षः, सच सुवर्णकारः तिन्य महत्व तस्मिन् कुल एव. + मिसमिसमाणो. तओ.मदेऽपि. || ओ णिहं.. लोएचि. JAMERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं -1 (४०) 645645% प्रत दौरिया जाया, सो पेडो तीसे बालग्गाहो, सा य णिच्चमेव रोयति, तेण उदरपोप्पयं करेंतेणं कहवि सा जोणिहारे हत्थेण आहता, तहा बवहिता रोवितुं, तेण णायं-लद्धो भए उवाओत्ति, एवं सो णिचकालं करेति, सो तेहिं मायपितीहिं णाओ, ताहे हणिऊणं धाडिओ, साविय पडुप्पण्णा चेव विद्दाया, सो य चेडो पलायमाणो चिरं णगरविणदुहसीलायारो जाओ, गतो एगं चोरपल्ली, जत्थ ताणि एगूणगाणि पंच चोरसयाणि परिवसंति, सावि पइरिक हिंडती एग गाम |गता, सो गामो तेहिं चोरोहिं पेलितो, सा य जेहिं गहिया, सा तेहिं पंचहिवि चोरसएहिं परिभुत्ता, तेसिं चिंता जाया -अहो इमा वराई एत्तिआण सहति, जइ अण्णा से घिइजिआ लभेजा तो से विस्सामो होजा, ततो तेहिं अण्णया कयाई तीसे विइजिआ आणीआ, जदिवसं चेव आणीआ तद्दिवसं चेव सा तीसे छिड्डाई मग्गइ, केण उवाएण मारेजा, सूत्राक *CREASSES दीप अनुक्रम दारिका जाता, सचेटलस्था बारमाहा, सा च नित्यमेव रोदिति, तेन उदरामर्शनं कुर्वता कथमपि सा योनिद्वारे हस्तेनाहता तथा अवस्थिता रोदनात् (भाये तुम्) तेन ज्ञात-लब्धो मयोपाय इति, एवं स नित्यकालं करोति, स ताभ्यां मातापितृभ्यां ज्ञातः तवा हत्या निर्धाटितः, सापि च प्रत्युत्पन्ना एवं (योग्यवयःस्थैय) विदुता, स च चेटः पलायमानः चिरं नगरविनष्टदुष्टशीलाचारी जातो, गत एका चौरपाली, यत्र च तानि एकोनानि पञ्चशतानि चौराः परिवसन्ति, सापि प्रतिरिक्त हिन्दन्ती एक ग्रामं गता, स मामस्वीरे: प्रेरितः (लुण्टितः), सा चैभिगृहीता, सा तैः पञ्चभिरपि चौरशतैः परिभुक्ता, तेषां चिन्ता जाता-अहो इयं बराकी एतावतां सहते, यचन्याऽस्या द्वितीया लभ्येत तदाऽस्या विश्रामो भयेन , ततस्तरन्यदा कदाचित्तस्या द्वितीयाऽनीता, यदिवस एवानीता तदिवस एव तस्थाश्मिाणि मार्गथति, केनोपाचेन मायेत, || नद घेव. दुइविण णागि. wwwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 134 ~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥ ६६ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [-गाथा-], निर्युक्तिः [ ८७], भाष्यं [-] ते' अण्णया कयाइ ओहाइया, ताए सा भणिआ, पेच्छं कूबे किंपि दीसइ, सा दहुमारद्धा, ताए तत्थेव छूढा, ते आगता पुच्छंति, ताए भण्णति अप्पणो महिलं कीस न सारिह ?, तेहिं णायं जहा एयाए मारिया, तओ तस्स बंभणचेडगस्स हिदए ठिअं जहा एसा मम पावकम्मा भगिणित्ति, सुबइ य भगवं महावीरो सबण्णू सबदरिसी, ततो एस समोसारणा पुच्छति । ताहे सामी भणति- - सा चैव सा तव भगिणी, एत्थ संवेगमावन्नो सो पवइओ, एवं सोऊन सवा सा परिसा पतणुरागसंजुत्ता जाया । ततो मिगावती देवी जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदित्ता एवं बयासी-जं णवरं पज्जोअं आपुच्छामि, ततो तुज्झ सगासे पवयामित्ति भणिऊण पज्जोअं आपुच्छति, ततो पज्जोओ तीसे महतीमहालियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए लज्जाए ण तरति वारेडं, ताहे विसज्जेइ, १ तेऽन्यदा कदाचिदुद्धाविताः, तदा सा मणिता, पश्य कूपे किमपि दृश्यते सा द्रहुमरच्या, तथा सन्नैव क्षिप्ता, ते भागताः पृच्छन्ति, तया भण्यन्ते-आत्मनो महेलां किं न रक्षत ( सारयत ) १, तैर्शातं यथैतया मारिता, ततस्तस्य ब्राह्मणचेटकख हृदि स्थितं यथैषा मम पापकर्मा भगिनीति श्रूयते च भगवान्महावीरः सर्वज्ञः सर्वदर्शी, तत एष समवसरणात् पृच्छति तदा स्वामी भगति सैव सा तव भगिनी, अत्र संवेगमापन्नः स प्रबजितः, एवं श्रुत्वा सर्वा सा परिषत् मतनुरागसंयुक्ता जाता, ततो मृगावती देवी यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा एवमवादीत् यत् परं प्रयोतमापृच्छामि ततस्त्वत्सकाशे प्रव्रजामीति भणिवा प्रद्योतमापृच्छति, ततः प्रयोतस्तस्यामतिमहत्यां सदेवमनुजासुरायां पर्षद लया न शक्नोति वारयितुं, तस्मात्, विसर्जयति (व्यसुक्षत्) * ते य. + एय सारवेइ. समोसरणे. पु. Education intimational For Free Only हारिभद्रीवृत्तिः विभागः १ ~135~ ॥ ६६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं -1 (४०) प्रत सूत्राक ततो मिगावती पजोयस्स उदयणकुमार णिक्खेवगणिक्खितं काऊण पचइआ, पज्जोअस्सवि अढ अंगारवईपमुहाओ देवीओ पवइयाओ, ताणिवि पंच चोरसयाणि तेणं गंतूण संबोहियाणि, पतं पसंगेण भणिों, एल्थ इट्टगपरंपरएण अहि यारो, एस दवपरंपरओ ॥ ८७ ॥ साम्प्रतं नियुक्तिशब्दस्वरूपाभिधानायेदमाहणिजुत्ता ते अत्था जं बहा तेण होइ णिजुत्ती। तहविय इच्छावे विभासिउ सुत्तपरिवाडी ॥८८॥ व्याख्या-निश्चयेन सर्वाधिक्येन आदी या युक्ता नियुक्ताः, अर्यन्त इत्यर्थाः जीवादयः श्रुतविषयाः, ते ह्या निर्युक्ता एव सूत्रे, 'यद्' यस्मात् 'बद्धाः सम्यग् अवस्थापिता योजिता इतियावत् , तेनेयं नियुक्ति निर्युक्तानां युक्तिनिर्युक्तयुक्तिरिति प्राप्ते युक्तशब्दस्य लोपः क्रियते, उष्ट्रमुखी कन्येति यधा, नियुक्तार्थव्याख्या नियुक्तिरितिहृदयं । आह-सूत्रे सम्यक् निर्युक्ता एवार्थाः पुनश्चेहेषां योजन किमर्थं ?, उच्यते, सूत्रे निर्युकानप्यर्थान् न सर्व एवाशेषान् अवबुध्यन्ते यतः, अतः । तथापि च सूत्रे निर्युक्तानपि सतः एषयति-इषु इच्छायामित्यस्य ण्यन्तस्य लद् इति" तिप्-शप्-गुणायादेशेषु कृतेषु एषयति, विविध भाषितुं विभाषितुं, का?-'सूत्रपरिपाटी' सूत्रपद्धतिरिति, एतदुक्तं भवति-अप्रतिबुध्यमाने श्रोतरि गुरुं तदनुग्रहार्थं सूत्रपरिपाव्येव विभापितुमेषयति-इच्छत इच्छत मा प्रतिपादयितुमित्थं प्रयोजयतीवति, सूत्रपरिपाटीमिति पाठान्तरं, शिष्य एव गुरुं सूत्रपद्धतिमनव बुध्यमानः प्रवतेयति-इच्छत इच्छत मम ततो सुगावती प्रद्योत उदयनकुमारस्य निक्षेपनिक्षिप्तं कृत्वा मनजिता, प्रयोतस्याप्पष्टौ अङ्गारवतीप्रमुखाः देयः प्रवजिताः, तानि पञ्च चौरमातानि तेन गत्वा संबोधितानि । पुतन् प्रसनेन भणितं, अत्र इटकापरम्परकेणाधिकारः, एष इच्यपरम्परकः ॥ १ भहवा सुवपरिवादी सुभोवएसोऽयं (वि.) श्रुतस्य विधिरिति वृत्तिः, "सायाधिक + सूत्रे. सूत्रनिक सूत्रेनि. नेदम्. पा. मनुष्य दीप अनुक्रम Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | नियुक्तिशब्दस्य स्वरुपम् ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] (४०) ६७॥ प्रत सुत्रांक व्याख्यातुं सूत्रपरिपाटीमिति, व्याख्या च नियुक्तिरिति, अतः पुनर्योजनमित्थमदोषायैवेति, अलं विस्तरेण, गमनिका- हारिभद्रीमात्रमेवैतदिति गाथार्थः ॥ ८८ ॥ यदुकं 'अर्थपृथक्त्वस्य तैः कथितस्येति तीर्थकरगणधरैः, इदानीं तेषामेव शीलादिसं- यवृत्तिः पत्समन्वितत्वप्रतिपादनायाह विभागः१ 'तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी । तो मुयह नाणवुहि भवियजणविवोहणहाए॥८९॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिण्हितं निरवसेसं । तित्थयरभासियाई गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥९॥ प्रथमगाथाव्याख्या-रूपकमिदं द्रष्टव्यं, तत्र वृक्षो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रब्यवृक्षः कल्पतरुः, यथा तमारुह्य कश्चित् तस्कुसुमानां गन्धादिगुणसमन्वितानां संचयं कृत्वा तदधोभागसेविनां पुरुषाणां तदारोहणासमर्थानां अनुकम्पया* कुसुमानि विसृजति, तेऽपिच भूपातरजोगुण्डनभयात् विमलविस्तीर्णपटेषु प्रतीच्छन्ति, पुनर्यधोपयोगमुपभुञ्जानाः सुखदमामुवन्ति, एवं भाववृक्षेऽप्यायोज्यं । तपश्च नियमश्च ज्ञानं च तपोनियमज्ञानानि तान्येव वृक्षस्त, तत्र अनशनादिवाद्या-13 भ्यन्तरभेदभिन्नं तपः, नियमस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियभेदभिन्नः, तत्र श्रोत्रादीनां संयमनमिन्द्रियनियमः क्रोधादीनां तु | नोइन्द्रियनियम इति, ज्ञान-केवलं संपूर्ण गृह्यते, इत्थरूपं वृक्षं आरूढः, तत्र ज्ञानस्य संपूर्णासंपूर्णरूपत्वात् संपूर्णता-12 ख्यापनायाह-संपूर्ण केवलं अस्यास्तीति केवली, असावपि चतुर्विधः-श्रुतसम्यक्त्वचारित्रक्षायिकज्ञानभेदात्, अथवा ॥६ ॥ श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानभेदात्, अतः श्रुतादिकेवलब्यवच्छित्तये सर्वज्ञावरोधार्थमाह-अमितज्ञानी, 'ततो' वृक्षात | * इत्थंभूतं. + ०योधा. दीप अनुक्रम SkcksCSCASSCOG Hiranatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [९०], भाष्यं [-] मुखति 'ज्ञानवृष्टि' इति कारणे कार्योपचारात् शब्दवृष्टि, किमर्थ ?-भव्याश्च ते जनाश्च भव्यजनाः तेषां विबोधनं तदर्थं तन्निमित्तमितियावत् । आह - कृतकृत्यस्य सतस्त स्वकथनमनर्थकं, प्रयोजनविरहात्, सति च तस्मिन् कृतकृत्यत्वानुपपत्तेः, तथा सर्वज्ञत्वाद्वीतरागत्वाच्च भव्यानामेव विबोधनमनुपपन्नं, अभव्याविबोधने असर्वज्ञत्वावीतरागत्वप्रसङ्गादिति, अत्रोच्यते, प्रथमपक्षे तावत् सर्वथा कृतकृत्यत्वं नाभ्युपगम्यते, भगवतः तीर्थ करनामकर्मविपाकानुभावात् तस्य च धर्मदेशनादिप्रकारेणैवानुभूतेः, द्वितीयपक्षे तु त्रैलोक्यगुरोर्धर्मदेशनक्रिया विभिन्नस्वभावेषु प्राणिषु तत्स्वाभाव्यात विवोधाविबोधकारिणी पुरुषोलूककमलकुमुदादिषु आदित्यप्रकाशनक्रियावत् उक्तं च वदिमुख्येन त्वद्वाक्यतोऽपि केषाविदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोर्मरीचयः कस्य, नाम नालोक हेतवः १ ॥ १ ॥ न चाद्भुतमुलुकस्य, प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः । स्वच्छा अपि तमस्त्वेन, भासन्ते भास्वतः कराः ॥ २ ॥ इत्यादि" यथा वा सुवैद्यः साध्यमसाध्यं व्याधिं चिकित्समानः प्रत्याचक्षाणश्च नातज्ज्ञः न च रागद्वेषवान्, एवं साध्यमसाध्यं भव्याभव्यकर्मरोगमपनयन्ननपनयंश्च भगवान्नातज्ज्ञो न च | रागद्वेषवानिति अलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ ८९ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या -- 'तां' इति तां ज्ञानकुसुमवृष्टिं, बुद्धिमयेनबुद्ध्यात्मकेन, बुद्धिरेवात्मा यस्यासौ बुद्ध्यात्मकस्तेन, केन ?-पटेन, 'गणधराः प्रागुक्ताः 'ग्रहीतुं' आदातुं 'निरवशेषां' संपूर्ण ज्ञानकुसुमवृष्टिं, बीजादिबुद्धित्वाद्गणधराणां ततः किं कुर्वन्ति :- भाषणानि भाषितानि, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तीर्थकरस्य भाषितानि तीर्थकरभाषितानि इति समासः, कुसुमकल्पानि, ग्रथ्नन्ति विचित्रकुसुममालावत्, किमर्थमित्याह-प्रगतं प्रशस्तै प्रधानमादौ वा वचनं प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदर्थ, कथमिदं भवेदितियावत्, प्रवक्तीति 1 श्रीमद्भिः सिद्धसेन दिवाकरपादैर्द्वात्रिंशिकायामिति प्रसिद्धिः साकथन ०. ०भावकत्वात् भवात्. Education intemational For Parts Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं -1, मूलं [-गाथा-], नियुक्ति: [९०], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक - हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ ॥६८॥ प्रत सुत्राक वा प्रवचनं सङ्घस्तदर्थमिति गाथार्थः॥९० ॥ प्रयोजनान्तरपतिपिपादयिषयेदमाह घिनुं च सुहं सुहगणणधारणा दाउं पुच्छिउं चेव । एएहिं कारणेहिं जीयंति कयं गणहरोहिं ॥९॥ व्याख्या-'ग्रहीतुं च' आदातं च प्रथितं सत्सूत्रीकृतं सुखं भवति अर्हद्वचनवृन्द, कुसुमसंघातवत्, 'च' समुच्चये, एतदुक्तं भवति-पदवाक्यप्रकरणाध्यायप्राभृतादिनियतक्रमस्थापितं जिनवचनं अयत्नेनोपादातुं शक्यते, तथा गणनं च धारणा च गणनधारणे ते अपि सुखं भवतः प्रथिते सति, तत्र गणन-एतावदधीतं एतावच्चाध्येतव्यमिति, धारणा अप्रच्युतिः अविस्मृतिरित्यर्थः, तथा दातुं प्रष्टुं च, 'सुखं' इत्यनुवर्तते, 'च' समुच्चय एव, एवकारस्य तु व्यवहितः संटङ्का, ग्रहीतुं सुखमेव भवतीत्थं योजनीयं, तत्र दान-शिष्येभ्यो निसर्गः, प्रश्नः-संशयापत्ती असंशयाथै विद्वत्सन्निधी स्ववि. वक्षासूचकं वाक्यमिति, 'एभिः कारणैः' अनन्तरोक्तैर्हेतुभूतैः 'जीवित' इति अव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः सूत्रमेव 'जीय'ति प्राकृतशेल्या 'कृतं' रचितं गणधरैः, अथवा जीतमिति अवश्य गणधरैः कर्त्तव्यमेवेति, तन्नामकर्मोदयादिति गाथार्थः ।।९१॥ आह-तीर्थकरभाषितान्येव सूत्र, गणधरसूत्रीकरणे तु को विशेष इति, उच्यते, स हि भगवान् विशिष्टमतिसंपन्नगणधरापेक्षया प्रभूतार्थमर्थमानं स्वल्पमेव अभिधत्ते, न वितरजनसाधारणं ग्रन्थराशिमिति, अत आह--- अत्थं भासह अरहा सुतं गंधंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुतं पवत्तह ॥१२॥ गाथेयं प्रायो निगदसिद्धैव, चालना प्रत्यवस्थानमात्रं त्वभिधीयते-कश्चिदाह-अर्थोऽनभिलाप्यः, तस्य अशब्दरू* शक्यं. + दातुं. * अत एवाह । एतदेवाह. + तिथं. चालन०. दीप अनुक्रम ॥६८॥ SiksiRSCRESCRECE wwjandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सूत्र-प्रवर्तनस्य कारण-दर्शनं ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [९२], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक रूपत्वात् , अतस्तं कथमसौ भाषत इति, उच्यते, शब्द एव अर्थप्रत्यायनकार्यत्वात् उपचारतः खलु अर्थ इति, यथा आचारवचनत्वाद् आचार इत्यादि, 'निपुणं' सूक्ष्म बहर्थ च, नियतगुणं वा निगुण, सन्निहिताशेषसूत्रगुणमितियावत्, पाठान्तरं वा 'गणहरा निपुणा निगुणा वा' ॥ ९२ ॥ आह-शब्दमर्थप्रत्यायकं अर्हन् भाषते, न तु साक्षादर्थ, गणभू-1 तोऽपिच शब्दात्मकमेव श्रुतं ग्रचम्ति, कः खल्वत्र विशेष इति, उच्यते, गाथा संबन्धाभिधान एवं विहितोत्तरत्वात् यरिकशिदेतत् । आह-तत्पुनः सूत्रं किमादि किंपर्यन्तं कियत्परिमाणं को वाऽस्य सार इति, उच्यतेSI सामाइयमाईयं मुयनाणं जाव बिन्दुसाराओ । तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स निब्वाणं ॥१३॥ व्याख्या-सामायिकमादौ यस्य तत्सामायिकादि, श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, 'यावद्विन्दुसाराद्' इति बिन्दुसारं यावत् बिन्दुसारपर्यन्तमित्यर्थः, यावच्छब्दादेव तु ब्यनेकद्वादशभेदं, 'तस्यापि श्रुतज्ञानस्य 'सार' फलं प्रधानतरं वा, चारइश्चरणं भावे ल्युट्प्रत्ययः, चर्यते वा अनेनेति चरणं, परमपदं गम्यत इत्यर्थः, सारशब्दः प्रधानफलपर्यायो वर्तते, अपि शब्दात् सम्यक्त्वस्यापि सारश्चरणमेव, अथवा व्यवहितो योगः, तस्य श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि, अपिशब्दात् निर्वाणमपि, अन्यथा ज्ञानस्य निर्वाणहेतुत्वं न स्यात्, चरणस्यैव ज्ञानरहितस्यापि स्याद्, अनिष्टं चैतत्, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (तत्त्वार्थे अ०१सू०१) इति वचनात् , इह त्वनन्तरफलत्वाचरणस्य तदुपलब्धिनिमित्तत्वाच्चै श्रुतस्य निवाणहेतुत्वसामान्ये सत्यपि ज्ञानचरणयोगुणप्रधानभावादित्यमुपन्यास इति, अलं विस्तरेण, 'सार' फलं 'चरणस्य'। अयप्पचायणफसमिति (विशे० ११२०) इति कार्यशब्दोन फलार्थकः. बौलेश्यवस्थारूपचरणावाप्लेरनन्तरं मोक्षावाले, क्षायिकज्ञानमालेरनन्तरं तुन, देशॉनपूर्वकोटीविहरणादुस्कृष्टतो दर्शनं तु चतुर्थेऽपि, न च तदनन्तरमपि तदाप्तिः ३ ज्ञानस्य फलं पिरतिरिति पत्रमं नाणं तो दया इत्यादिवचनात् . गाधार्थसंबग्धा. दीप अनुक्रम wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [९३], भाष्यं [-] आवश्यक - ५ संयमतपोरूपस्य, निर्वृतिर्निर्वाण-अशेषकर्मरोगापगमेन जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिपदमितियावत्, इहापि नियमतः शैलेश्यवस्थानन्तरमेव निर्वाणभावात् क्षीणघनघातिकर्मचतुष्कस्यापि च निरतिशयज्ञानसमन्वितस्य तामन्तरेणाभावात्, ।। ६९ ।। ४ अत उक्त सारश्चरणस्य निर्वाणं इति, अन्यथा हि तस्यामपि शैलेश्यवस्थायां क्षायिके ज्ञानदर्शने न न स्त इति, अतः सम्यग्दर्शनादित्रयस्यापि समुदितस्य सतो निर्वाणहेतुत्वं न व्यस्तस्येति गाथार्थः ॥ ९३ ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः'सुअनाणंमिवि जीवो वहंतो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तवसंजममइए जोए न एह बोढुं जे ॥ ९४ ॥ गमनिका -'श्रुतज्ञाने अपि' इति अपिशब्दान्मत्यादिष्वपि जीवो वर्त्तमानः सन् न प्राप्नोति मोक्षमिति, अनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः यः किंविशिष्ट इति, आह- यस्तपःसंयमात्मकान् योगान्न शक्नोति वोढुं इति, अनेन हेत्वर्थ इति, दृष्टान्तस्त्वभ्यूह्यो वक्ष्यति वाँ, प्रयोगश्च- 'न ज्ञानमेव ईप्सितार्थप्रापकं, सत्क्रियाविरहात्, स्वदेशप्रात्यभिलाषिगमनक्रियाशून्यमार्गज्ञज्ञानवत्, सौत्रो वा दृष्टान्तः मार्गज्ञनिर्यामकाधिष्ठितेप्सितदिक्संप्रापकपवनक्रियाशून्यपोतवत्, "जे" इति पादपूरणे, 'इ'जेराः पादपूरणे' इति वचनात् ॥ ९४ ॥ तथा चाह- Education intimatio अह छेपलद्धनिज्जाम ओवि वाणियगइच्छियं भूमिं । वारण विणा पोओ न चएह महण्णवं तरिचं ॥ ९५ ॥ तह नाणलद्धनिजाम ओवि सिद्धिवसहिं न पाउणह । निउणोबि जीवपोओ तवसंजममारुअविह्नणी ॥ ९६ ॥ *+नेतः परम् ५०. For Funny हारिभद्रीयवृत्ति; विभागः १ ~ 141 ~ ॥ ६९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [९६], भाष्यं [-] अध्ययनं [ - ], व्याख्या - येन प्रकारेण यथा, 'छेको' दक्षः, लब्धः- प्राप्तो निर्यामको येन पोतेन स तथाविधः, अपिशब्दात् सुकर्णधाराधिष्ठितोऽपि, वणिज इष्टा वणिगिष्टा तां भूमिं महार्णवं तरितुं वातेन विना पोतो न शक्नोति, प्राप्तुमिति वाक्यशेषः ॥ ९५ ॥ तथा श्रुतज्ञानमेव लब्धो निर्यामको येन-जीवपोतेनेति समासः, अपिशब्दात्सुनिपुणमतिज्ञानकर्णधाराधिष्ठि तोऽपि शेषं निगदसिद्धं, किन्तु 'निपुणोऽपि पण्डितोऽपि श्रुतज्ञानसामान्याभिधाने सत्यपि तदतिशयख्यापनार्थं निपुणग्रहणं, तस्मात् तपः संयमानुष्ठाने खल्वप्रमादवता भवितव्यमिति गाथाद्वयार्थः ॥ ९६ ॥ तथा चेहौपदेशिकमेव गाथासूत्रमाह नियुक्तिकारः संसारसागराओ उड्डो मा पुणो निबुडिया । चरणगुणविप्पहीणो बुडुद्द सुबहंपि जाणतो ॥ ९७ ॥ पदार्थस्तु दृष्टान्ताभिधानद्वारेणोच्यते यथा नाम कश्चित्कच्छपः प्रचुरतृणपत्रात्मक निश्छिद्र पटलाच्छादितोदकान्धकारमहादान्तर्गतानेक जलचरक्षोभादिव्यसनव्यथितमानसः परिभ्रमन्कथञ्चिदेव पटलरन्ध्रमासाद्य विनिर्गत्य च ततः | शरदि निशानाथकरस्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वबन्धुस्नेहाकृष्टचित्तः तेषामपि तपस्विनामदृष्ट कल्याणानामहमिदं सुर| लोककल्पं किमपि दर्शयामि इत्यवधार्य तत्रैव निमग्नः, अथ समासादितबन्धुः तद्रन्धोपलब्ध्यर्थं पर्यटन् अपश्यंश्च कष्टतरं व्यसनमनुभवति स्म । एवमयमपि जीवकच्छपोऽनादिकर्मसन्तानपटलसमाच्छादितान्मिथ्यादर्शनादितमोऽनुगतात् विविध| शारीरमानसाक्षिवेदनज्वरकुष्ठभगन्दरेष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगादिदुःखजलचरानुगतात्, संसरणं संसारः, भावे घञ्प्रत्ययः, स Education into For Parts Only www.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [९७], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- हारिभती यवृत्तिः विभागः१ ॥७०॥ प्रत THORVAS सुत्रांक एव सागरस्तस्मात् , परिभ्रमन् कथञ्चिदेव मनुष्यभवसंवर्तनीयकर्मरन्ध्रमासाद्य मानुषत्वप्राप्त्या उन्मग्नः सन् जिनचन्द्रवच- नकिरणावबोधमासाद्य दुष्प्रापोऽयमिति जानानः स्वजनस्नेहविषयाँतुरचित्ततया मा पुनः कूर्मवत् तत्रैवं निमजेत् । आहअज्ञानी कूर्मों निमज्जत्येव, इतरस्तु ज्ञानी हिताहितप्राप्तिपरिहारज्ञः कथं निमअति इति, उच्यते, चरणगुणैः विवि- धम्-अनेकधा प्रकर्षेण हीनः चरणगुणविहीणः निमजति बह्वपि जानन, अपिशब्दात् अल्पमपि, अथवा निश्चयनयदर्शनेन अज्ञ एवासी, ज्ञानफलशून्यत्वात् इति, अलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ प्रक्रान्तमेवार्थ समर्थयन्नाहसुबहुंपि सुय महीयं किं काही? चरणविप्पाहीणस्साअंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥ ९८॥ । अप्पंपि सुयमहीयं पयासयं होई चरणजुत्तस्स । इकोवि जह पईवो सचक्खुअस्सा पयासेइ ॥१९॥ गाथाद्वयमपि निगदसिद्धमेव, नवरं दीपानां शतसहस्राणि दीपशतसहस्राणि लक्षा इत्यर्थः, तेषां कोटी, अपिशब्दारे अपि ॥९८-९९ ॥ आह-इत्थं सति चरणरहितानां ज्ञानसंपत् सुगतिफलापेक्षया निरर्थिका प्रामोति, उच्यते। इष्यत एव, यत आह जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी नह चंदणस्स। एवं खुनाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नह सो गईए॥१०॥ गमनिका-यथा खरः चन्दनभारवाही भारस्य भागी न तु चन्दनस्य, एवमेव ज्ञानी चरणेन हीनः ज्ञानस्य भागी 'न' * व्यानुरक्त०. + व न्य, 1 महियं. मुक्कस्स. 1 कोठ्यपि. सदू अपि. सुगाईए. दीप अनुक्रम M ॥ ७ ॥ AMERIEatinidinational andiDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | चरणरहितं ज्ञानस्य निरर्थकता प्रतिपादयते ~ 143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१००], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक नैव 'सुगते' सिद्धिदयिताया इति गाधार्थः ॥ १०॥ इदानीं विनेयस्य मा भूदेकान्तेनैव ज्ञानेऽनादरः, क्रियायां च तच्छKiन्यायामपि पक्षपात इति, अतो द्वयोरपि केवलयोरिष्टफलासाधकत्वमुपदर्शयन्नाह हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो अ अंधओ॥१०१॥ इयं निगदसिद्धैव, वरं उदाहरणं-एगंमि महाणगरे पलीवर्ण संवृत्तं, तंमि ये अणाहा दुवे जणा-पंगलोय अंधालो य, ते णगरलोए जलणसंभमुभंतलोयणे पलाय माणे पासंतो पंगुलओ गमणकिरियाऽभावाओ जाण ओऽवि पलायणमगं कमागएण अगणिणा दहो, अंधोऽवि गमणकिरियाजुत्तो पलायणमग्गमजाणतो तुरितं जलणंतेण गंतुं अगणिभरियाए खाणीए पडिऊण दड्डो। एस दिडतो, अयमत्थोवणओ-एवं नाणीवि किरियारहिश्तो न कम्मम्गिणो पलाइउं समत्थो, इतरोऽवि णाणरहियत्तणओ त्ति । अत्र प्रयोगौ भवतः-ज्ञानमेव विशिष्टफलसा धकं न भवति, सक्रियायोगशून्यत्वात् , नगरदाहे पङ्गुलोचनविज्ञानवद्, नापि क्रियैव विशिष्टफल साधिका, संज्ञानसंटङ्करहितत्वात् , नगरदाह एव अन्धस्य पलायनक्रियावत् ॥ १०१॥ आह-एवं ज्ञानक्रिययोः समुदितयोरपि निर्वाणप्रसाधकसामानुपपत्तिः परमुदाहरणं-एकस्मिन् महानगरे प्रदीपनं संवृत्तं, तमित्र अनाथी द्वौ अनी-अन्धः पङ्गुच, तो नगरलोकान् ज्वलनसंभ्रमोटान्तलोचनान् पलायमानान् पश्यस्तो पहः गमन कियाऽभावात् जानमपि पलायनमार्ग क्रमागतेदाग्निना इग्धः अन्धोऽपि गमन क्रियायुक्तः पलायनमार्गमजानन् खरितं धवल. | नास्तिके (ज्वलनमार्गण)गवाऽग्निभूतायां बनी ( भूतेश्वटे) पतित्वा दग्धः । एष दृष्टान्तः, अयमत्रोपनयः (०मर्थोपनयः)-एवं ज्ञान्यपि कियारहितो | न कर्मानः पलायितुं समर्थः, इतरोऽपि ज्ञानरहितस्यात् इति. * वणर्ग. + तम्मिवि. 1 पंगुलभो अंधलओ य. अंधओ य. 1माणे संते पं०. । जाणतोऽवि. || नाणी. हितो वण असमरथो. प्रसाधकं प्रसाधिका. सज्ञान.. दीप ACASSANSAR अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ज्ञान-क्रिया समन्वये अन्ध-पन्गलस्य दृष्टांत: ~144 ~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ७१ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [१०१], भाष्यं [-] अध्ययनं [ - ], प्रसज्यते, प्रत्येकमभावात्, सिकता तैलवत् अनिष्टं चैतदिति, अत्रोच्यते, समुदायसामर्थ्य हि प्रत्यक्षसिद्धं, यतो ज्ञानक्रियाभ्यां कटादिकार्यसिद्धय उपलभ्यन्ते एव, न तु सिकतासु तैलं, न च दृष्टमपहोतुं शक्यते, एवमाभ्यामदृष्टकार्यसि द्विरप्यविरुद्धैव तस्माद्यत्किञ्चिदेतत् । तथा किच--न सर्वथैवानयोः साधनत्वं नेष्यते, देशोपकारित्वात्, देशोपकारित्वमभ्युपगम्यत एव यत आह संजोगसिद्धी फलं वयंति, नहु एगचकेण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिया, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।। १०२ ।। व्याख्या- किंतु तदेव समुदायं समग्रत्वादिष्टफलसाधकं, केवलं तु विकलत्वात् इतरसापेक्षत्वादसाधकमिति, अतः केवलयोरसाधकत्वं प्रतिपादितमिति, अलं विस्तरेण उक्तसंबन्धगाथा व्याख्यानं प्रकटार्थत्वान्न वितन्यते, नवरं 'समेत्ये'त्युक्तेऽपि 'तौ संप्रयुक्ता' विति पुनरभिधानमात्यन्तिकसंयोगोपदर्शनार्थमिति । एत्थं उदाहरणं- एगंमि रण्णे रायभरण णगराओ उबसिय लोगो ठितो, पुणोवि धाडिभयेण यं वहणाणि उज्झिअ पलाओ, तत्थ दुबे अणाहपाओ, अंधो पंगू य, उज्झिया, गयाए धाडीए लोगग्गिणा वातेण वणदवो लग्गो, ते य भीया, अंधो छुट्ट कच्छो अगितेण पलायर, पंगुणा Education intemational 3 अनोदाहरणं - एक रिये राजभयेन नगरात् उस्य ( उदुष्य ) लोक: स्थितः पुनरपि घाटिभयेन च वाहनानि वज्झित्या पलायितः, तत्र - द्वावनाथात्मानी (०थमायौ), अन्धा पख उज्झिती, गतायां धाव्यां लोकाशिना वातेन वनदयो लझ सी च भीती, अन्धः छुट्टकच्छोनिमार्गेण पलायते पशुना एत्य + पवहणाणि + कत्यो. For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१ ] ~ 145~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥ ७१ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [१०२], भाष्यं [-] भणितं अंध ! मा इतो णास णं, इतो चेव अग्गी, तेण भणितं कुतो पुण गच्छामि १, पंगुणा भणितं - अहंपि पुरतो अतिदूरे मग्गदेाऽसमत्थो पंगू, ता मं खंधे करेहि, जेण अहिकंटकजलणादि अवाए परिहरावेंतो सुहं ते नगरं पावेमि, तेणं तहत्ति पडिवज्जिय अणुद्धितं पंगुवयणं, गया य खेमेण दोवि नगरं ति । एस दिडतो, अयमत्थोवणओ-णाणकिरिया हिं सिद्धिपुरं पाविज्जइति । प्रयोगश्च - विशिष्टकारणसंयोगोऽभिलषितकार्यप्रसाधकः, सम्यक्रियोपलब्धिरूपत्वात्, अन्धपवोरिव नगरावाहिंरिति । यः पुनरभिलषितफलसाधको न भवति, स सम्यक्क्रियोपलब्धिरूपोऽपि न भवति, इष्टागमनक्रियाच कलविघटितैकचक्ररथवदिति व्यतिरेकः ॥ १०२ ॥ आह-ज्ञानक्रिययोः सहकारित्वे सति किं केन स्वभावेनोपकुरुते ? किमविशेषेण शिबिकोद्वाहकवद्, उत भिन्नस्वभावतया गमनक्रियायां नयनचरणादिव्रातवद् इति, अत्रोच्यते, भिन्नस्वभावतया, यत आह--- गाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुतिकरो । तिव्हपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ १०३ ॥ व्याख्या — तत्र कचवरसमन्वितमहागृहशोधनप्रदीपपुरुषादिव्यापारवद् इह जीवगृहकर्मक चवरभृतशोधनालम्बनो ज्ञानादीनां स्वभावभेदेन व्यापारोऽवसेय इति समुदायार्थः । तत्र ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं तच्च प्रकाशयतीति प्रकाशकं तच्च ज्ञानं प्रकाशकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वात्, गृहमलापनयने प्रदीपवत्, क्रिया तु तपःसंयमरूपत्वाद् इत्थमुपकुरुते भणितं अन् ! माइसोनेशः इत एवाभिः तेन भणितं कुतः पुनर्गच्छामि ? पहना भणितं अहमपि पुरतोऽतिदूरे मार्गदेशनाऽसमर्थः पङ्कः, तत् मां स्कन्धे कुरु, येनादिकण्टकादीन् अपायान् परिहारयन् सुखं त्वां नगरं प्रापयामि तेन तथेति प्रतिपद्यानुष्ठितं पहुवचनं गतौ च क्षेमेण द्वावपि नगरमिति, एष दृष्टान्तः, अयमत्रोपनयः- ज्ञान क्रियाभ्यां सिद्धिपुरं प्राप्यत इति * दंसणा + वातेरिति ० रूपो. इह To. Education intimatio For Parts Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मोक्षस्य आवश्यक ३ कारणानि कथ्यते ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥ ७२ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [१०३], भाष्यं [-] शोधयतीति शोधकं, किं तदिति, आह—- तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टविधं कर्मेति तपः, तच्च शोधकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वाद्, गृहकचव रोज्झनक्रियया तच्छोधने कर्मकरपुरुपवत्, तथा संयमनं संयमः, भावे अप्प्रत्ययः, आश्रवद्वारविरमणमितियावत्, चशब्दः पृथग् ज्ञानादीनां प्रक्रान्तफलसिद्धी भिन्नोपकारकर्तृत्वावधारणार्थः, गोपनं गुप्तिः, स्त्रियां चिन् * ( पा० ३-३-९४ ) आगन्तुककर्मकच वरनिरोध इतिहृदयं, गुप्तिकरणशीलो गुप्तिकरः, ततश्च संयमोऽपि अपूर्वकर्मकचवरा गमनिरोधतयैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वात्, गृहशोधने पवनप्रेरितकचवरागमनिरोधेन वातायनादिस्थगनवत्, एवं त्रयाणामेव, अपिशब्दोऽवधारणार्थः, अथवा संभावने, किं संभावयति ? ' त्रयाणामपि ज्ञानादीनां किंविशिष्टानां १ - निश्चयतः | क्षायिकानां न तु क्षायिकोपशमिकानामिति, 'समायोगे' संयोगे 'मोक्ष' सर्वथाऽष्टविधकर्ममल वियोगलक्षणः, जिनानां शासनं जिनशासनं तस्मिन्, 'भणितः ' उक्तः । आह— 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यागमो विरुध्यते, सम्यग्दर्शनमन्तरेण उक्तलक्षणज्ञानादित्रयादेव मोक्षप्रतिपादनादिति, उच्यते, सम्यग्दर्शनस्य ज्ञानविशेषत्वाद् रुचिरूपत्वात् ज्ञानान्तर्भावाद् अदोष इति गाथार्थः ॥ १०३ ॥ इह यत् प्राक् नियुक्तिकृताऽभ्यधायि 'श्रुतज्ञानेऽपि जीवो वर्त्तमानः सन्न प्राप्नोति मोक्षं' इत्यादि प्रतिज्ञागाथासूत्रं, तत्रैव सूत्रसूचितः खल्वैयं हेतुरवगन्तव्यः, कुतः ? - तस्यें क्षायोपशमिकत्वात्, अवधिज्ञानवत् इति, क्षायिकज्ञानाद्यवासौ च मोक्षप्राप्तिरिति तस्थं, अतः श्रुतस्यैव क्षायोपशमिकत्वमुपदर्शयन्नाह १ ज्ञानविशेषत्वसाधनाय २ क्षायोपशमिकत्वरूपः ३ श्रुतस्य अपिना गृहीतस्य मत्यादेश, अवधेस्तु दृष्टान्तत्वान्नात्र महः ४ तथाच क्षायोपशमिके ज्ञानकिये क्षायिकज्ञानाद्यथा सिद्वारा मोक्षसाधनमिति ५ श्रुतज्ञाने वर्त्तमानख मोक्षानवाः सम्यग् योग: समायोगः तस्मिन् मो० + ०परूपत्वाद Education intimatol For Parts Only हारिभद्रीवृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 147~ ॥ ७२ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०४], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक भावे खोवसमिए दुवालसंगपि होइ सुचनाणं । केवलियनाणलंभो नन्नत्य खए कसायाणं ॥१०४॥ ब्याख्या-भवनं भावः तस्मिन् , स चौदयिकाद्यनेकभेदः, अत आह–'क्षायोपशमिके' द्वादश अङ्गानि यस्मिंस्तत् द्वादशाङ्गं भवति श्रुतज्ञानं, अपिशब्दाद् अङ्गबाह्यमपि, तथा मत्यादिज्ञानत्रयमपि, तथा सामायिकचतुष्टयमपि, तथा के६ वलस्य भावः कैवल्य घातिकर्मवियोग इत्यर्थः, तस्मिन् ज्ञानं कैवल्यज्ञानं, 'कैवल्ये सति' अनेन ज्ञानग्रहणेनाज्ञानिप्रकृ-18 तिमुक्तपुरुषप्रतिपादनपरनयमतव्यवच्छेदमाह, (ग्रन्थानं २०००) तत्र 'बुझ्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते' इति वचनात प्रकृतिमुक्तस्य च बुद्ध्यभावात् ज्ञानाभाव इति, तस्य लाभ:-प्राप्तिः, कथं -कषायाणां क्रोधादीनां क्षये सति 'नान्यत्र' नान्येन प्रकारेण, इह च छद्मस्थवीतरागावस्थायां कषायक्षये सत्यपि अक्षेपेण कैवल्यज्ञानाभावे ज्ञानावरणक्षयानन्तरे ध भावेऽपि कपायक्षयग्रहण वस्तुतो मोहनीयभेदकषायाणामत्र प्राधान्यख्यापनार्थमिति, कषायक्षय एव सति निर्वाण भवति, तद्भावे त्रयाणामपि सम्यक्त्वादीनां क्षायिकत्वसिद्धेः। आहएवं तर्हि यदादावुक्तं 'श्रुतज्ञानेऽपि जीवो धर्तमानः सन्न प्राप्नोति मोक्षं, यस्तपःसंयमात्मकयोगशून्यः' इति, तद्विशेषणमनर्थक, श्रुते सति तपःसंयमात्मकयोगसहिष्णोरपि मोक्षाभावादिति, अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, किंतु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वश्रुतचारित्राणामपि समुदितानां क्षायिकसम्यक्त्वादि दीप अनुक्रम % 4%95 मादिनाधिमनःपर्यची. २ सम्यक्त्यवतादि. शेषिकादीनां ज्ञानस्थात्मरूपत्वाभावात् तेच प्राधा सर्वकषायझये केवयज्ञानदर्शनचारिमाणि, क्षाधिकसम्यक्रवं तु देशकपापक्षयेऽपि भवति, तेनात्र तदा कपायक्षषष भामान्यतः परामर्शः. * केवळभाग + भावात, womjanorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०४], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्रांक मावश्यक-निवन्धनत्वेन पारम्पर्येण मोक्षहेतुत्वाददोषः ॥ १०५ ॥ आह–इष्टमस्माभिः मोक्षकारणकारणं श्रुतादि, तस्यैव कथम- हारिभद्री लाभो लाभो वेति, मन्त्रोच्यते, यवृत्ति:॥७३॥ अट्ठण्हं पयडीणं अफोसठिहद वहमाणो उ । जीवोन लहइ सामाइयं चउण्डंपि एगयरं ।।१०५।। विभागः१ सत्तण्हं पपडीणं अन्भितरो ख कोडिकोडीणं । काऊण सागराणं जइ लहर चउपहमण्णयरं ॥१०६॥ प्रथमगाथाच्याख्या-'अष्टानां' इति संख्या, कासां-ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां, उत्कृष्टा चासी स्थितिश्चोत्कृष्ट-12 हास्थितिः तस्यां 'वर्तमानों भवन् 'जीव' आत्मा 'न लभते न प्राप्नोति, किं तत्-'सामायिक' पूर्वयाख्यातं, किंविशिष्टं - 'चतुर्णामपि सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसर्वविरतिरूपाणां 'एक'तरम्' अन्यतमत् इतियावत्, अपिशब्दात् मत्यादि च, न केवलं न लभते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि न भवति, यतोऽवाप्तसम्यक्त्वो हि न पुनस्तत्परित्यागेऽपि प्रन्थिमुल्लकच उत्कृष्टस्थिती कर्मप्रकृतीः बध्नाति, आयुष्कोत्कृष्टस्थितौ पुनर्वर्तमानः पूर्वप्रतिपन्नको भवति, अनुत्तरविमानोपपातकाले देवो, न तु] प्रतिपद्यमानक इति, तुशब्दाजधय॑स्थितौ च वर्तमानः पूर्वप्रतिपन्नत्वान्न लभते, आयुष्कजघन्यस्थितौ च वर्तमानो न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, जघन्यायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहणाधारत्वात्, तस्य च वनस्पतिषु भावात् , तत्र च पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकाभावात् , प्राकृतीनां च उत्कृष्टेतरभेदभिन्ना खल्वियं स्थितिा-आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च C ॥७३॥ मोक्षकारणस्य क्षायिकसम्पकवादेः कारणमिति. २ मादिना तपःसंयमौ. ३ सत्तार्थत्वात्सन्निति.. मानुपूर्वीनामादिरूप वपक्रमे ५ मत्यादिशानापेअं. सताना. *डीए, + श्रुतदेशसर्व०. 1 एकतरत्. तस्मक. - दीप - अनुक्रम - ANSAR wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१०६], भाष्यं -1 (४०) प्रत सूत्राक त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः, सप्ततिर्मोहनीयस्य, नामगोत्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुधकस्य, इति, IN जघन्या तु द्वादश मुहूर्चा वेदनीयस्थ, नामगोत्रयोरष्टौ, शेषाणामन्तर्मुहूर्त (तत्वार्थे अ०८ सूत्राणि १५-१६-१७-१८-१९२०-२१) इति गाथार्थः ॥१०५॥ आह-किमेता युगपदेव उत्कृष्टां स्थितिमासादयन्ति उत एकस्या उत्कृष्टस्थितिरूपायां संजातायां अन्या अपि नियमतो भवन्ति आहोस्विदन्यथा वा वैचित्र्यमंति, उच्यते अंत्र विधिरिति, मोहनीयस्य। उत्कृष्टस्थिती शेषाणामपि पण्णामुस्कृष्टैव, आयुष्कप्रकृतेस्तु उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु जघन्येति, मोहनीयरहितानां तु शेषप्रकृतीनां अन्यतमाया उत्कृस्थितेः सद्भावे मोहनीयस्य शेषाणां च उत्कृष्टा वामध्यमा वा, न तु जघन्येति प्रासङ्गिक द्वितीयगाथाव्याख्या-सप्तानामायुष्करहितानां कर्मप्रकृतीनां या पर्यन्तवर्तिनी स्थितिस्तामझीकृत्य सागरोपमाणां कोटीकोटी तस्याः कोटीकोव्या अभ्यन्तरत एव, तुशब्दोऽवधारणार्थः, कृत्वाऽऽत्मानमिति गम्यते 'यदि लभते यदि प्राप्नोति, चतुर्णा श्रुतसामायिकादीनामन्यतरत्, तत एवं लभते नान्यथेति, पाठान्तरं वा 'कृत्वा सागरोप&|माणां स्थितिं लभते चतुर्णामन्यतरत्' इत्यक्षरगमनिका । अवयवार्थोऽभिधीयते-सप्तानां प्रकृतीनां यदा पर्यन्तवर्तिनी। सागरोपमकोटीकोटी पल्योपमासंख्येयभागहीना भवति, तदा धनरागद्वेषपरिणामोऽत्यन्तदुर्भेद्यदारुग्रन्थिवत् कर्मग्रन्थि दीप अनुक्रम निवेकसपेति. प्रतिविधान, आहेत्यादितः संवेधकथनरूपं, प्रसास्तु पूर्वगुरुकष्टस्थिती सामायिकप्रतिषेधात् मध्यमायां तु लाभकधनात, स्वस्वस्थिती क्षीणायां या शेषा तिष्ठति सा. *मेवेति, + तत्र. तिसनाचे. न्तर एवं. ESC JAMERatinintamational wwjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ १०६ ], भाष्यं [-] ॥ ७४ ॥ आवश्यक- र्भवतीति, आह च भाष्यकार:-"गंठित्तिं सुदुम्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठिच । जीवरस कम्मजणिओ घणरागद्दोसपरिणामो ॥ १ ॥ इत्यादि" तस्मिन् भिन्ने सम्यक्त्वादिलाभ उपजायते, नान्यथेति, तद्भेदश्व मैनोविघातपरिश्रमादिभिः दुस्साध्यो वर्त्तते, तथाहि सं जीवः कर्मरिपुमध्यगतः तं प्राप्य अतीव परिश्राम्यति, प्रभूतकर्मारातिसैन्यान्तकृश्वेन संजातखेदत्वात्, संग्रामशिरसीव दुर्जयापाकृताने कशत्रुनरनरेद्र भटवत्। अपरस्वाह — किं तेन भिशेन ? किं वा सम्यत्तत्वादिनाऽवाप्तेन 1, यथऽतिदीर्घा कर्मस्थितिः सम्यक्त्वादिगुणरहितेनैव क्षपिता, एवं कर्मशेषमपि गुणरहित एव क्षपयित्वा विवक्षितफलभाग भवतु, अत्रोच्यते स हि तस्यामवस्थायां वर्त्तमानोऽनासादितगुणान्तरो न शेषक्षपणया विशिष्टफलप्रसाधनायालं, चित्तविघातादिप्रचुरविनत्वात् विशिष्टाप्राप्त पूर्वफलप्राप्यासन्नत्वात् प्रागभ्यस्तक्रियया तस्यावाप्तुमशक्यत्वाच्च, अनेकसंवत्सरानुपालिताचाम्लादिपुरश्चरणक्रियासादितगुणान्तरोत्तरसा हाय क्रियारहितविद्या साधकवत्, तथा चाह | भाष्यकार:- "पाएण पुत्रसेवा परिमउई साहणंमि गुरुतरिआ । होति महाविजाए किरिया पायं सविग्धा य ॥ १ ॥ तह कम्मठितीखवणे परिमउई मोक्खसाहणे गरुई । इह दंसणादिकिरिया दुलभा पायं सविग्धा य ॥ २ ॥” । अथवा १ अधिरिति दुर्भेदः कर्कशधनरुदगूडग्रन्थिवत् । जीवस्य कर्मजनितो घनरागद्वेषपरिणामः ॥ १ ॥ (विशेषावश्यके गाथा ११९५ ) २ विद्यासाथकस्य विभीषिकादिनेव मनःक्षोभः ३ प्रायेण पूर्वसेवा परिमृद्धी साधने गुरुतरा । भवति महाविद्यायाः क्रिया प्रायः सविज्ञा च ॥ १ ॥ तथा कर्मस्थितिक्षपणे परिगृद्धी मोक्षसाधने गुर्वी ग्रह दर्शनादिक्रिया दुर्लभा प्रायः सविता च ॥ २ ॥ (विशेषावश्यके गाये ११९९ - १२०० ) * मध्यं गतः + तावती. + ०रान्तरसहा० ०हित०. Education intemational For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१ ] ~ 151~ हारिभद्री यवृत्तिः विभागः १ ॥ ७४ ॥ www.ncbrary.org " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०६], भाष्यं -1 (४०) प्रत सूत्राक * यत एष बही कर्मस्थितिरनेन उन्मूलिता, अत एवापचीयमानदोषस्य सम्यक्त्वादिगुणलाभः संजायते, निश्शेषकर्मप-18 है रिक्षये सिद्धत्ववत् , तत एव च मोक्ष इति, अतो न शेषमपि कर्म गुणरहित एवापाकृत्य मोक्ष प्रसाधयतीति स्थितम् । इदानी सम्यक्त्वादिगुणमाप्तिविधिरुच्यते-जीवा द्विधा भवन्ति-भव्याश्चाभव्याश्च, तत्र भच्याना करणत्रयं भवति, करणमिति परिणामविशेषः, तद्यथा-यथाप्रवृत्तकरणं अपूर्वकरणं अनिवृत्तिकरणं च । तत्र यथैव प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं तच्चानादि, अप्राप्तपूर्वमपूर्व, निवर्त्तनशीलं निवर्ति न निवति अनिवर्ति, आ सम्यग्दर्शनलाभात् न निवर्तते, तत्राभव्यानां आद्यमेव भवति, तत्र यावदन्थिस्थानं तावदाद्यं भवति, तमतिकामतो द्वितीयं, सम्यग्दर्शनलाभाभिमुखस्य तृतीयमिति ॥१०६॥ इदानी करणत्रयमङ्गीकृत्य सामायिकलाभदृष्टान्तानभिधित्सुराह पल्लय १ गिरिसरिउवला २ पिवीलिया ३ पुरिस ४ पह ५ जरग्गहिया ६ । कुदव ७ जल ८ वत्थाणि ९ य सामाइयलाभविट्ठन्ता ॥ १०७॥ व्याख्या-तत्र पल्लकदृष्टान्त:-पल्लको लाटदेशे धाग्यधाम भवति, तत्र यथा नाम कश्चिन्महति पत्ये धान्य प्रक्षिपति8 स्वल्पिं स्वल्पतरं, प्रचुरं प्रचुरतरं त्वादत्ते, तच्च कालान्तरेण क्षीयते, एवं कर्मधान्यपल्ये जीवोऽनाभोगतः यथाप्रवृत्तकरणेन स्वल्पातरमुपचिन्वन् बहुतरमपचिन्वंश्च प्रन्थिमासादयति, पुनस्तमतिकामतोऽपूर्वकरणं भवति, सम्यग्दर्शनलाभाभिमु कर्मक्षपणनिवन्धनस्याध्यवसायमानस्य सर्ववैव भावात् (इति वियो० १२०३ गाथावृत्तौ), २ सम्यत्वाविरूप०. * उच्छेदिता. + नेदं. याधारो. नेदं न मल्पमल्पतरं. अल्पतर०. * दीप * अनुक्रम T wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सामायिकलाभे पल्लक-आदि ९ दृष्टन्तानि ~ 152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः ॥७५॥ 16विभागः१ प्रत सुत्रांक खस्य तु अनिवतीति, एष पल्यकदृष्टान्तः । आह-अयं दृष्टान्त एवानुपपन्नः, यतः संसारिणो योगवतः प्रति- समयं कर्मणश्चयापचयावुक्ती, तत्र चसियतस्य बहुतरस्य चयः अल्पतरस्य चापचयः, यत आगमः-"पल्ले महइ- महल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहए णालि । असंजएँ अविरए बहु बंधइ निजरइ थोवं ॥१॥ पल्ले महतिमहल्ले कुंभ सोहेइ पक्खिये णालिं । जे संजए पमत्ते बहु निजरइ बंधई थोवं ॥२॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभ सोहेइ पक्खिवे | न किंचि । जे संजए अपमत्ते बहु निजरे बंधइ न किंची॥३॥" ततश्च एवं पूर्वमसंयतस्य मिथ्यादृष्टेः प्रभूततरबन्धकस्य कुतो अन्धिदेशप्राप्तिरिति, अत्रोच्यते, ननु मुग्ध ! बाहुल्यमङ्गीकृत्य इदमुक्तं यद्-असंयतस्य बहुतरस्योपचयोऽल्प-11 तरस्य चापचयः, अन्यथाऽनवरतप्रभूततरबन्धाङ्गीकरणे खल्वपचयानवस्थानात् अशेषकर्मपुद्गलानामेव ग्रहणं प्रामोति, | अनिष्टं चैतत् , सम्यग्दर्शनादिप्राप्तिश्च अनुभवसिद्धा विरुध्यते, तस्मात् प्रायोवृत्तिगोचरमिदं पल्येत्यादि द्रष्टव्यमिति १ । कथं पुनरनाभोगतः प्रचुरतरकर्मक्षय इति आह-गिरेः सरिद् गिरिसरित् तस्यां उपलाः-पाषाणाः गिरिसरिदुपलाः तद्वत्, एतदुक्तं भवति यथा गिरिसरिदुपलाः परस्परसन्निघण उपयोगशून्या अपि विचित्राकृतयो जायन्ते, एवं यथाप्रवृत्तिकरणतो जीवास्तथाविधकर्मस्थितिविचित्ररूपाश्चित्रा इति २। पिपीलिका:-कीटिकाः, यथा तासां क्षिती स्वभावगमनं ANSAMRAX दीप अनुक्रम ACHAR T ॥७५॥ पत्येऽतिमहति कुम्भं प्रक्षिपति शोधयति नालिकाम् । असंयतोऽविरतः बहु बभाति निर्जस्यशि स्तोकम् ॥ १॥ पत्वेऽतिमहति कुम्भ शोधयति प्रक्षिपति मालिकाम् । यः संयतः प्रम तः बहु निर्जरपति बाराति स्तोकम् ॥२॥ पल्येऽतिम ति कुम्भ शोधयति प्रक्षिपति न किचित् । यः संवतोऽप्रमत्तः बहु Kानिजेरपति म बाति किचित् ॥३॥ २ अविरतिमिच्यादृष्टिः. * पन्या + एवमुक्त सस्थाहर खिलूपचपा.10तिचित्र djanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] (४०) प्रत CERIES सूत्राक भवति १ तथा स्थाण्वारोहणं २ संजातपक्षाणां च तस्मादप्युत्पतनं ३ स्थाणुमूर्धनि चावस्थानं ४ कासाश्चित् स्थाणुशिरसः प्रत्यवसर्पणं ५ एवमिहापि जीवानां कीटिकास्वभावगमनवत् यथाप्रवृत्तकरणं, स्थाण्वारोहणकल्पं त्वपूर्वकरणं, उत्पतनतुल्यं त्वनिवर्तिकरणमिति, स्थाणुपर्यन्तावस्थानसदृशं तु ग्रन्थ्यवस्थानमिति, स्थाणुशिरसः प्रत्यवसर्पणसमानं तु पुनः कमेस्थितिवर्धनमिति ३ । पुरुषदृष्टान्तो यथा-केचन व्रयः पुरुषा महानगरयियासया महाटवी प्रपन्नाः, सुदीर्घमध्वानं अतिक्रामन्तः कालातिपातभीरवो भवस्थानमाढीकमानाः शीघतरगतयो गच्छन्तः पुरस्तात् उभयतः समुत्खातकरवाल पाणितस्करद्वयमालोक्य तत्रैकः प्रतीपमनुप्रयातः अपरस्तु ताभ्यामेव गृहीतःतथाऽपरस्तावतिक्रम्य इष्टं नगरमनुप्राप्त इति। ४ एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनय:-एवमिह संसाराटव्यां पुरुषाः संसारिणत्रयः कल्प्यन्ते, पन्थाः कर्मस्थितिरतिदीर्घा, भयस्थान तु ग्रन्थिदेशः, तस्करद्वयं पुना रागद्वेषौ, तत्र प्रतीपगामी यो यथाप्रवृत्तकरणेन प्रन्थिदेशमासाद्य पुनरनिष्टपरिणामः सन् कर्मस्थितिमुत्कृष्टामासादयति, तस्करद्वयावरुद्धस्तु प्रबलरागद्वेषोदयो ग्रन्थिकसत्त्व इत्यर्थः, अभिलषितनगरमनुप्राप्तोऽपूर्वकरणतो रागद्वेषचौरौ अपाकृत्य अनिवर्तिकरणेनावाधसम्यग्दर्शन इति ४ । आह-सहि सम्यग्दर्शनमुपदेशतो लभते उतानुपदेशत एवेति, अत्रोच्यते, उभयथापि लभते, कथम् ?, पंथः परिभ्रष्टपुरुषत्रयवत् , यथा हि कश्चित् पधि परिभ्रष्टः उपदेशमन्तरेणैव परिभ्रमन् स्वयमेव पन्थानमासादयति, कश्चित्तु परोपदेशेन, अपरस्तु नासादयत्येव, एवमिहा १ पाशुद्धमे (इति वि० ११० गाथावृत्तौ) मूलं बुभोहिनामकः इत्यमरः. २ सर्वेऽप्येते सुमार्थाः, अन्यथा अपूर्वकरणकालामाकनवं विरुध्येत. गंसिसि सुदुग्नेलो कक्सदधणेश्यारिके घणरागहोसपरिणामोतिवचनात्, * पथपरि (पाटः पयश्च मार्गति निकायोषा), + १५५० ASAARCROSROSSk दीप अनुक्रम THESENTERTILINirmation aajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 154 ~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक- प्यत्यन्तापैनष्टसत्पथो जीवो यथाप्रवृत्तकरणतः संसाराटव्यां परिभ्रमन् कश्चिदन्थिमासाद्य अपूर्वकरणेन च तमतिक्रम्य ||हारिभद्री अनिवर्तिकरणमनुप्राप्य स्वयमेव सम्यग्दर्शनादि निर्वाणपुरस्य पन्धानं लभते, कश्चित्परोपदेशात् , अपरस्तु प्रतीपगामी 6 यवृत्तिः ॥७६ ॥ ग्रन्थिकसत्त्वो वा नैव लभते इति ५ । इदानी ज्वरहष्टान्तो-यथा हि ज्वरः कश्चित् स्वयमेवाति कश्चिनेषजोपयोगेन विभागः१ कश्चित्तु नैवाति, एवमिह मिथ्यादर्शनमहाज्वरोऽपि कश्चित्स्वयमेवापैति कश्चित् अर्हद्वचनभेषजोपयोगात् अपरस्तु | तदोषधोपयोगेऽपि नापति, करणत्रययोजना स्वयमेव कार्या ६ । कोद्रवदृष्टान्तः-यथा इह केपाश्चित् कोद्भवाणां | मदनभावः स्वयमेव कालान्तरतोऽपैति तथा केपाश्चित् गोमयादिपरिकर्मतः तथा परेषां नापति, एवं मिथ्यादर्शनभा-II वोऽपि कश्चित्स्वयमेवाति कश्चिदुपदेशपरिकर्मणा अपरस्तु नापति, इह च भावार्थः-स हि जीवोऽपूर्वकरणेन मदः नार्धशुद्धशुद्धकोद्रवानिव दर्शन मिथ्यादर्शनसम्यग्मिथ्यादर्शनसम्यग्दर्शनभेदेन त्रिधा विभजति, ततोऽनिवर्तिकरणविशेपात्सम्यक्त्वं प्रामोति, एवं करणत्रययोगवतो भव्यस्य सम्यग्दर्शनप्राप्तिः, अभव्यस्यापि कस्यचिदू यथाप्रवृत्तकरणतो ग्रन्थिमासाद्य अहंदौदिविभूतिसदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्त्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति, न शेषलाभ | इति । इदानीं जलदृष्टान्ता-यथा हि जल मलिनार्धशुद्धशुद्धभेदेन त्रिधा भवति, एवं दर्शनमपि मिथ्यादर्शनादिभेदेन अपूर्वकरणतस्त्रिधा करोतीति, भावार्थस्तु पूर्ववदेव ८ वस्त्रदृष्टान्तेऽप्यायोजनीयमिति गाथार्थः९॥ १०७ ।। प्रासङ्गिक मत्र पूर्वत्र च, परं न दृष्टान्तानुक्रमेण किंतु यथास्वरूपं. २ दर्शनमोहनीय पुतलरूपं, मिथ्यात्वस्य सरयेऽपि भागश्रयम्, शुद्धत्वावस्थानत आश्रित्य मिष्यापावस. ३ आदिना गणभूवादिविभूत्यादिमहा, तवं तु सत्कारकारणमेतदिति बुद्धौ. ४ देवत्वनरेन्द्रत्वसौभाग्यरूपबलावात्यादिप्रहः.*०न्तमनट +०तिदर्शन। SSCRICCCCC दीप अनुक्रम Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक मुच्यते-एवं सम्यग्दर्शनलाभोत्तरकालमवशेषकर्मणः पल्योपमपृथक्त्वमितिस्थितिपरिक्षयोत्तरकालं देशविरतिरवाप्यते, पुनः शेषायाः संख्येयेषु सागरोपमेषु स्थितेरपगतेषु सर्वविरतिरिति, पुनरवशेषस्थितेरपि संख्येयेष्वेव सागरोपमेषु क्षीणेषु उपशामकश्रेणी, अनेनैव स्यायेन अपकश्रेणीति, इयं च देशविरत्यादिप्राप्तिरेतावत्कालतो देवमनुष्येषु उत्पद्यमानस्य अप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य नियमेनोत्कृष्टतो द्रष्टव्येति, अन्यथा अन्यतरश्रेणिरहितसम्यक्त्वादिगुणप्राप्तिरेकभवेनाप्यविरुद्धेति, उक्तं च भाष्यकारेण-"सम्मेत्तमि उ लद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होजा । चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा हुति ॥ १ ॥ एवं अप्परिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अण्णतरसेढिवज एगभवेणं च सपाई ॥२॥" अभिहितं आनुषङ्गिक, इदानीं यदुदयात् सम्यक्त्वसामायिकादिलाभो न भवति, संजातो वाऽपैति, तानिहावरणरूपान् कषायान् प्रतिपादयन्नाह-पढमिछु । अथवा यदुक्तं 'कैवल्यज्ञानलाभो नान्यत्र कषायक्षयात्' इति, इदानीं ते कषायाः के ? कियन्तः ? को वा कस्य सम्यक्त्वादिसामायिकस्यावरणं ! को वा खलु उपशमानादिक्रमः कस्य इत्यमुमर्थमभिधित्सुराहपढमिल्लुयाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं । सम्मईसणलंभं भवसिद्धीयाविन लहंति ॥१८॥ देवभवेऽधिकस्थितावपि तावत्याः स्थितेः सनायादुपचयेन न देशविरतिप्रसङ्गः इति प्रथमपनाशकवृत्ती, २ सम्परवे तु कब्धे पल्योपमपृथकत्वेन श्रावको भवेत् । चरणोपशमक्षयेषु, सागराः संख्येवा अन्तरं भवति ॥१॥ एवममतिपतिते सम्पावे देवमनुषजम्मसु । अन्यतरणिय एकभवेनापि सर्वाणि ॥२॥ (विशे०१२२२-१२२३), श्रुतसम्यक्स्वादिप्राप्तिहेतुतया प्रसाः, नेदस्. + उपशमन तदिदानी क.. पपामादि. दीप अनुक्रम S wlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सम्यक्त्व-आदि सामायिके आवरणं (अनन्तानुबन्धि कषायानां कारणे सम्यक्त्व आदीनाम् अलाभ:) ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१०८], भाष्यं -1 (४०) आवश्यक ॥७७॥ प्रत सुत्राक उत्तरगाथा अपि प्रायः कियत्योऽपि उक्तसंबन्धा एवेति, तत्र व्याख्या-प्रथमा एव प्रथमिलुकाः, देशीवचनतो जहा हरिभद्री'पढमिल्ला एस्थ घरा' इत्यादि, तेषां प्रथमिल्लुकानां-अनन्तानुबन्धिनां क्रोधादीनामित्युक्तं भवति, प्राथम्यं चैषां सम्यक्त्वा- यवृत्तिः ख्यप्रथमगुणविघातित्वात् क्षेपणक्रमाद्वेति, उदयः-उदीरणावलिकागततत्पुद्गलोतसामर्थ्यता तस्मिन् उदये, किम् ?-13 विभागः१ 'नियमात् नियमेनेति, अस्य व्यवहितपदेन साधू संबन्धः, तं च दर्शयिष्यामः, इदानीं पुनः प्रथमिठुका एव विशिप्यन्ते-किविशिष्टानां प्रथमिछुकानां कर्मणा तत्फलभूतेन संसारेण वा संयोजयन्तीति संयोजनाः, संयोजनाश्च . कषायाश्चेति विग्रहः तेषामुदये, किम् -नियमेन सम्यक्-अविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं तस्य लाभा-प्राप्तिः सम्यग्दर्श-18 नलाभः तं, भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः । आह-सर्वेषामेव भवे सति सिद्धिर्भवति ?, उच्यते, एवमेतत्, किंतु इह । प्रकरणात् तद्भवो गृह्यते, तद्भवसिद्धिका अपि न लभन्ते' न प्रामुवन्ति, अपिशब्दाद् अभव्यास्तु नैव, अथवा परीतसंसारिणोऽपि नैवेति गाथार्थः ॥ १०८॥ बिइयफसायाणुदए अपञ्चक्खाणनामधेजाणं । सम्मईसणलंभं विरयाविरई न उ लहंति ॥१०॥ व्याख्या-'द्वितीया' इति देशविरतिलक्षणद्वितीयगुणघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा, 'कषाया' इति 'कप गती' इति कषशब्देन कर्माभिधीयते, भवो वा, कषस्य आया लाभाः प्राप्तयः कषायाः क्रोधादयः, द्वितीयाश्च ते कषायाश्चेति समासः, तेषां, 'उदयः' इति अस्य पूर्ववदर्थः, किंविशिष्टानां ?-'अप्रत्याख्याननामधेयानां न विद्यते देशविरतिसर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानं येषु उदयप्राप्तेषु सत्सु ते अप्रत्याख्यानाः, सर्वनिषेधवचनोऽयं नञ् द्रष्टव्यः, अप्रत्याख्याना एवं नामधेय येषां । दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 157~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक ते तथाविधाः तेषामुदये सति, किम् ।-सम्यग्दर्शनलाभ, भव्या लभन्ते इति शेषः, अयं च वाक्यशेषो विरताविरतिविशेषणे तुशब्दसंसूचितो द्रष्टव्यः, तथा चाह-विरमणं विरतं तथा न विरतिः अविरतिः विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्ती सा तथोच्यते, देशविरतिरित्यर्थः, तां विरताविरतिं नतु लभन्ते, तुशब्दात् सम्यग्दर्शनं तु लभन्ते इति गाथार्थः ॥१०९॥ | तइयकसापाणुदए पचक्खाणावरणनामधिजाणं । देसिकदेसविरई चरित्तलंभ न उ लहति ॥११॥ व्यायाविरतिलक्षणतृतीयगुणपातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा तृतीयाः, कषायाः' पूर्ववत , तृतीया ते कपायाश्चेति। समासः, कपायाः क्रोधादय एवं चत्वारस्तेषां 'उदय' इति पूर्ववत्, किंविशिष्टानां ?-आवृण्वन्तीत्यावरणा, प्रत्याख्यान सर्वविरतिलक्षणं तस्यावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणा एव नामधेयं येषां ते तथाविधास्तेषां । आह-नन्वप्रत्याख्याननामधेयानामुदये न प्रत्याख्यानमस्तीत्युक्त, नत्रा प्रतिपिद्धत्वात् , इहापिच आवरणशब्देन प्रत्याख्यानप्रति धात् क एषां प्रतिविशेष इति, उच्यते, तत्र न सर्वनिषेधवचनो वत्तेते, इह पुनः आउने मर्यादेषदर्थवचनत्वात् ईपदमर्यादया वाऽऽवृण्वन्तीत्यावरणाः, ततश्च सर्वविरतिनिषेधार्थ एवायं वर्तते न देशविरतिनिषेधे खल्यावरणशब्द इति, तथा चाह-देशश्चैकदेशश्च देशैकदेशी, तत्र देशः-स्थूरपाणातिपातः, एकदेशः तस्यैव यथादृश्यवनस्पतिकायातिपातः, 1 तयोः विरतिः-निवृत्तिः तां, लभन्ते इति वाक्यशेषः, अत्रापि वाक्यशेषः चारित्रविशेषणे तुशब्दाक्षिप्त एव द्रष्टव्यः, यत आह-'चारित्र' इति 'धर गतिभक्षणयो' रिति, अस्य 'अर्तिलूघूसूखनिसहिचर इत्रः' (पा.३-२-१८४) इतीत्रप्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनिन्दितमनेन इति चरित्रंक्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, एतदुक्तं भवति-इहान्यजन्मोपात्ता दीप अनुक्रम Sirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [११०], भाष्यं [-] (४०) श्यक- ॥ ७८॥ MCIA प्रत सुत्रांक विधकर्मसंचयापचयाय चरण चारित्रं, सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा क्रियेत्यर्थः, तस्य लाभश्चारित्रलाभस्तं न तु लभन्ते, हारिभद्रीतुशब्दादेशैकदेशविरतिं तु लभन्त एवेति गाथार्थः॥ ११०॥ इदानीममुमेवार्थमुपसंहरनाह यवृत्तिः मूलगुणाणं लभं न लहइ मूलगुणघाइणं उदए । उदए संजलणाणं न लहइ चरणं अहक्खायं ॥१११॥ विभागः१ व्याख्या-मूलभूता गुणा मूलगुणा उत्तरगुणाधारा इत्यर्थः, ते च सम्यक्त्वमहानताणुव्रतरूपाः तेषां मूलगुणानां लाभ 'न लभते' न प्राप्नोति, कदेति आह-मूलगुणान् घातयितुं शीलं येषां ते मूलगुणघातिनः तेषां मूलगुणघातिना-अन-12 न्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणानां द्वादशानां कषायाणामुदये, तथा ईषद् ज्वलनात् संज्वलनाः सपदि परीषहादिसंघातज्वलनाद्वा संज्वलनाः क्रोधादय एव चत्वारः कषायाः तेषां संज्वलनानामुदये न लभते चारश्चरणं, भावे ल्युट्प्रत्ययः, लब्धं वा त्यजति, किं सर्वम् ।-नेत्याह-यथैवाख्यातं यथाख्यातं इति अकषाय, सकपायं तु लभते एवेति ॥१११॥ न च यथाख्यातचारित्रमात्रोपघातिन एव संज्वलनाः, किंतु शेषचारित्रदेशोपघातिनोऽपि, तदुदये शेषचारित्रदेशातिचारसिद्धेः, तथा चाहसव्वेविअ अइयारा संजलणाणं तु उद्यओटुंति । मूलच्छिज्जं पुण होइ बारसण्हं कसायाण ॥११२ ॥ व्याख्या-'सर्वे' आलोचनादिच्छेदपर्यन्तप्रायश्चित्तशोध्या, अपिशब्दात कियन्तोऽपिच, अतिचरणाम्यतिचाराः X ॥७८॥ चारित्रस्खलनाविशेषाः, संज्वलनानामेवोदयतो भवन्ति, तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात् द्वादशानां पुनः कषायाणां उदयतः, किम् ?-मूलच्छेद्यं भवति, एवं पदयोगः कर्त्तव्यः, 'मूलेन' अष्टमप्रायश्चित्तेन 'छिद्यते' विदार्यते यद्दोपजातं तन्मूलच्छेद्यं, दीप अनुक्रम T Sirajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [११२], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक अशेषचारित्रच्छेदकारीति भावार्थः, पुनःशब्दस्तु प्रक्रान्तार्थविशेषणार्थ एवेति, 'भवति' संजायते 'द्वादशानां' अनन्तानुबन्धिमभृतीनां कषायाणां, उदयेनेति संवध्यते, अथवा मूलच्छेद्यं यथासंभवतः खल्यायोजनीय, प्रत्याख्यानावरणकषा-1 योदयतस्तावत् मूलच्छेद्य-सर्वचारित्रविनाशः, एवमप्रत्याख्यानकषायानन्तानुवन्ध्युदयतस्तु देशविरतिसम्यक्त्वं मूलच्छेचं यथायोगमिति गाथार्थः ॥ ११२ ॥ यतश्चैवमतःवारसविहे कसाए खइए उबसामिए व जोगेहिं । लम्भह चरित्तलंभो तस्स विसेसा हमे पंच ॥ ११३॥ व्याख्या 'द्वादशविधे द्वादशप्रकारे अनन्तानुवन्ध्यादिभेदभिन्ने 'कषायें क्रोधादिलक्षणे, 'क्षपिते सति' प्रशस्तयोगैः-निर्वाणहुतभुक्तुल्यता नीते 'उपशमिते' भस्मच्छन्नाग्निकल्पतां प्रापिते, वाशब्दात् क्षयोपशमं वा-अर्धविध्यातानलोद्घट्टनसमतां नीते 'योगैः' मनोवाकायलक्षणैः प्रशस्तैर्हेतुभूतैरिति, किम् ? लभ्यते चारित्रलाभः 'तस्य' चारित्रला भस्य सामान्यस्य न तु द्वादशविधकषायक्षयादिजन्यस्यैवेति, 'विशेषा' भेदा 'एते' वक्ष्यमाणलक्षणाः 'पञ्च' पञ्चेति संख्या, &ा(इति) गाथाक्षरार्थः ॥११३ ॥ अनन्तरगाधासूचितपञ्चचारित्रभेदप्रदर्शनायाह सामाइयं च पदम छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥११४ ॥ तत्तो य अहक्खायं खायं सम्बंमि जीवलोमि। चरिकण सुविहिआ वच्चंतयरामरं ठाणं ॥११५॥ "प्रथमगाथाव्याख्या-'सामायिक' इति समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणां आया-समायः, समाय एवं सामायिक, विनयादिपाठात् स्वार्थे ठक्, आह-समयशब्दस्तत्र पठ्यते, तत्कथं समाये प्रत्ययः, उच्यते, 'एकदेशविकृतमनन्यवद्र दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: चारित्रस्य सामायिक-आदि पञ्च-भेदा: एवं तेषाम् व्याख्या: ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं [-] (४०) % आवश्यक % ॥७९॥ प्रत सुत्रांक |वती' तिन्यायात् , तच सावद्ययोगविरतिरूपं, ततश्च सर्वमध्येतच्चारित्रं अविशेषतः सामायिक, छेदादिविशेषैस्तु विशे- हारिभद्री प्यमाणं अर्थतःशब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति, तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्र स्वल्पकालमित्वरं, तच्च भरतैरवतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु अनारोपितव्रतस्य पविभागः१ शिक्षकस्य विज्ञेयमिति, यावत्कथिकं तु यावत्कथा आत्मनः तावत्कालं यावत्कथं यावत्कथमेव यावत्कधिक आभववतीतियावत्, तच्च मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयमिति, तेषामुपस्थापनाऽभावात्, अत्र प्रसङ्गतो मध्यमविदेहपुरिमपश्चिमतीर्थकरतीर्थवर्तिसाधुस्थितास्थितकल्पः प्रदर्श्यते-तत्र ग्रथान्तरे विवक्षितार्थप्रतिपादिकेयं गाथा"आचेलकु१देसिय २ सेजायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ वय ६ जिड ७ पडिकमणे ८ मासं ९ पजोसवणकप्पो १०॥१॥" अस्या गमनिका-चउसु ठिआ छसु अहिआ, केषु चतुर्ष इति, आह-सिज्जायरपिंडे या चाउज्जामे य पुरिसजिडे य । किनकम्मस्स य करणे चत्तारि अवडिआ कप्पा ॥१॥नास्य चेलं विद्यते इत्यचेलकः तावः अचेलकत्वं अचेलकत्वे स्थिताः, एतदुक्तं भवति-न वैदेहमध्यमतीर्थकरतीर्थसाधवः पुरिमपश्चिमतीर्थवर्तिसाधुवत् अचेलवे स्थिताः कुतः:-तेषां ऋजुप्रज्ञत्वात् महाधनमूल्यविचित्रादिवत्राणामपि परिभोगात्, पुरिमपश्चिमतीर्थकरतीर्थवत्तिसाधूनां तु ॥७९॥ ऋजुवक्रजडत्वात् महाधनमूल्यादिवस्त्रापरिभोगाज्जीर्णादिपरिभोगाच्च अचेलकत्वमिति । आह-जीर्णादिवस्त्रसद्भावे, कथमचेर लकत्वम् ।, उच्यते, तेषां जीर्णत्वात् असारत्वात् अल्पत्वात् विशिष्टार्थक्रियाऽप्रसाधकत्वात् असत्त्वाविशेषात् इति, तथा चेत्थंभूतवस्त्रसद्भावेऽपि लोकेऽचेलकत्वव्यपदेशप्रवृत्तिदृश्यते, यथा-काचिदङ्गना जीर्णवखपरिधाना अन्याभावे सति दीप अनुक्रम T rajancionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आचेलक आदि दश कल्पा: ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं [-] (४०) S प्रत सूत्राक **** तदावेऽपि च समर्पितसाटकं कुविन्दं तनिष्पादनमन्थरं प्रति आह-त्वर कोलिक ! नग्निकाऽहमिति' १। तथा औद्दे|शिकेऽप्यस्थिता एव, कथम् ?-इह पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधु उद्दिश्य कृतमशनादि सर्वेषामकल्पनीयं, तेषां तु यमुद्दिश्य कृतं तस्यैवाकल्पनीयं न शेषाणामिति २ । तथा शय्यातरराजपिण्डद्वारम्,-पिण्डग्रहणमुभयन संवध्यते, तत्र शथ्यातर|पिण्डे स्थिता एव, शय्यातरपिण्डोहि यथा पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां अकल्पनीयः, एवं मध्यमतीर्थंकरसाधूनामपि । राज |पिण्डे चास्थिताः, कथम् । स हि पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनामग्राह्य एव, मध्यमानां तु दोषाभावात् गृह्यते ४ा तथा कृतिकर्म वन्दनमाख्यायते, तत्रापि स्थिताः, कथम् ? यथा पुरिगपश्चिमतीर्थकरसाधूनां प्रभूतकालपत्रजिता अपि संयत्या पूर्व वन्दनं | कुर्वन्ति, एवं तेषामपि, यथा वा क्षुल्लका ज्येष्ठार्याणां कुर्वन्ति, एवं तेषामपि ५ । ब्रतानि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि तेष्वपि स्थिता एव, यथा पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधवः व्रतानुपालनं कुर्वन्ति, एवं तेऽपीति, आह-तेषां हि मैथुनविरतिवज्योनि चत्वारि व्रतानि, ततश्च कथं स्थिता इति, उच्यते, तस्यापि परिग्रहेऽन्तर्भावात् स्थिता एव, तथाच नापरिगृहीता योषित् उपभोकुं पार्यते । तथा ज्येष्ठेति-ज्येष्ठपदे स्थिता एव, किन्तु पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां उपस्थापनया| ज्येष्ठः, तेषां तु सामायिकारोपणेनेति । तथा प्रतिक्रमणे अस्थिताः, पुरिमपश्चिमसाधूनां नियमेनोभयकालं प्रतिक्रमणं,81 | तेषां तु अनियमः, दोषाभावे सर्वकालमप्यप्रतिक्रमणमिति ८ तथा मासपर्युषणाकल्पद्वार,-तत्र मासकल्पेऽप्यस्थिताः कथम् ?-पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां नियमतो मासकल्पविहारः, मध्यमतीर्थकरसाधूनां तु दोषाभावे न विद्यते, एवं पर्यु|पणाकल्पोऽपि वक्तव्यः, एतदुक्तं भवति--तस्मिन्नपि अस्थिता एव ९-१०-इति समुदायार्थः, विस्तरार्थस्तु कल्पादवग * दीप अनुक्रम EAXE ॐ* ainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [-- /गाथा -], निर्युक्तिः [ ११५], भाष्यं [-] ॥ ८० ॥ आवश्यक- न्तव्यः । अभिहितमानुषङ्गिकं, इदानीं प्रकृतमुच्यते - आह-पुरिमपश्चिमतीर्थकर साधूनामपि यदित्वरं सामायिकं तत्रापि ★ करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीव' इतीत्वरस्याप्याभवग्रहणात् तस्यैव उपस्थापनायां परित्यागात् कथं न प्रतिज्ञा* लोप इति, अत्रोच्यते, - अतिचाराभावात्, तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगविनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य शुद्ध्यन्तरापादनेन संज्ञामात्र विशेषात् इति । चशब्दो वाक्यालङ्कारे, 'प्रथमं' आद्यं चारित्रमिति, इदानीं 'छेदोपस्थापनं' छेदश्चोपस्थापनं च यस्मिंस्तच्छेदोपस्थापनं, एतदुक्तं भवति – पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनो यत्र तच्छेदोपस्थापनं तच्च सातिचारमनतिचारं च तत्रानतिचारं यदित्यरसामायिकस्य शिक्षकस्य आरोष्यत इति, तीर्थान्तरसंक्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थात् वर्धमान स्वामितीर्थं संक्रामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्ताविति, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यत् पुनर्प्रतोचारणमिति, उक्तं छेदोपस्थापनं, इदानीं परिहारविशुद्धिकं तत्र परिहरणं परिहारः- तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिकं तच्च द्विभेदं निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च तत्र निर्विशमान कास्तदासेवकाः तदव्यतिरेकात् तदपि चारित्रं निविंशमानकमिति, आसेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायाः त एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानात् निर्विष्टका| विकाः तदव्यतिरेकाञ्चारित्रमपि निर्विष्टकायिकमिति, इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका भवन्ति, अपरे तु तद्वैयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः एतेषां च निर्विशमानकानामयं परिहारः - परिहारियाण उ तवो जहण्ण मज्झो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहिं पत्तेयं । १ । 1 परिहारिकाणां तु तपो जपन्यं मध्यमं तथैवोत्कृष्टम् । शीतोष्ण वर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् । 1। Ja Educat For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 163~ ॥ ८० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं [-] (४०) प्रत तत्थं जहण्णो गिम्हे चउत्थ छई तु होइ मझिमओ । अठममिहमुकोसो पत्तो सिसिरे पवक्खामि । २ । सिसिरे तु जह पणादी छट्ठादी दसमचरिमगो होति । वासासु अहमादी बारसपजतगो णेओ।३। पारणगे आयाम पंचसु गहो भदोसभिग्गहो भिक्खे । कप्पडियादि पइदिण करेति एमेव आयामं । ४ । एवं छम्मासतवं परितु परिहारिया अणुचरति । अणुचरगे परिहारियपदहिते जाव छम्मासा ।५। कप्पडितोवि एवं छम्मासतवं करेंति सेसा उ । अणुपरिहारिंगभावं वयंति कप्पष्टिगत्तं च । ६। एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वण्णिओ कप्पो । संखेवओ विसेसा विसेससुत्ताओ णायवो । ७॥ कप्पसमत्ती' तयं जिणकप्पं वा उविति गच्छं वा । पडिवजमाणगा पुण जिणस्स पासे पर जंति । ८ । तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व णो उ अण्णस्स । एतेसिं जं चरणं परिहारविसुद्धिगं तं तु ।९।''तथा' इत्यानन्तर्यार्थे, गाथाभङ्गाभयाव्यवहितस्योपन्यासः, 'सूक्ष्मसंपराय' इति संपर्येति एभिः-संसारमिति संपरायाः कषायाः, सूक्ष्मा लोभांशावशेषत्वात् सूत्राक दीप अनुक्रम तत्र जघन्य प्रीष्मे चनुयः पठस्तु भवति मध्यमकम् । अष्टम इह उत्कृष्टं इतः शिक्षिरे प्रवक्ष्यामि । २ । शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं | भवति । वर्षामु अष्टमादि द्वादशपर्यन्तकं ज्ञेयम् । ३ । पारणके आचामाम्लं पत्र महा द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् । कल्पस्थितादयः प्रतिदिन कुर्वन्ति एवमेवाचामाम्लम् । । । एवं षण्मासतपः चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । मनुचरकाः परिहारिकपदस्थिताः बावत्वपमासाः। ५। कल्पस्थितोऽपि एवं पण्मासतपः करोति शेषास्तु अनुपरिहारिकमा प्रजन्ति कल्पस्थितस्वं चाराएवमेयोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कपः । संक्षेपतः विशेषतो विशेषसूत्राज्ञातव्यः 1. कल्पसमाप्ती तं जिनकल पोपयन्ति वा । प्रतिपद्यमामकाः पुनर्जिनस्ट पार्थ प्रपचन्ते । । तीर्थकरसमीपासेवकप पार्थे वा गत्वन्यस्य । एतेषा | यचरणं परिहारविशुद्धिक तणु ॥९॥ anataniorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं -] (४०) आवश्यक प्रत सुत्रांक | संपराया यत्र तत् सूक्ष्मसंपराय, तच्च द्विधा-विशुध्यमानक संक्लिश्यमानकं च, तत्र विशुध्यमानक क्षपकोपशमकश्रेणि-| | हारिभद्रीद्वयमारोहतो भवति, संक्तिश्यमानक तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्येति, 'चः' समुच्चये इति गाथार्थः॥११॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-'ततश्च' सूक्ष्मसंपरायानन्तरं यथैवाख्यातं यथाख्यातं अकषायचारित्रमिति यथा ख्यातं-प्रसिद्धं सर्वस्मिन् । विभागः१ जीवलोके, तच छद्मस्थवीतरागस्य केवलिनश्च भवति, तत्र च छद्मस्थस्य उपशामकस्य क्षपकस्य वा, केवलिनस्तु सयोगिनोऽयोगिनो वेति, शेषं निगदसिद्ध, नवरं मरणं मरः जरा च मरश्च जरामरौ तौ अविद्यमानी यस्मिन् तदजरामरमिति गाथार्थः ॥ ११५ ॥ तत्रतेषां पश्चानां चारित्राणां आद्यं चारित्रत्रय क्षयोपशमलभ्यं चरमचारित्रद्वयं तूपशमक्षयल8 भ्यमेव, तत्र तत्कर्मोपशमक्रमप्रदर्शनायाह ___ अणदंसनपुंसित्थी चेयछकं च पुरुसवेयं च । दो दो एगन्तरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ॥ ११६ ॥ अथवा चरमचारित्रद्वयं श्रेण्यन्त विनस्तद्विनिर्गतस्य च भवति, अतः श्रेणिद्वयावसरः, तत्र उभयश्रेणिलाभे चादावुपशमश्रेणिर्भवतीत्यतस्तरस्वरूपाभिधित्सर्यवाह-अणदंस० । गाधाब्याख्या-तत्रोपशमश्रेणिप्रारम्भको भवत्यप्रमत्तसंयत एव, अन्ये तुप्रतिपादयन्ति-अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति, श्रेणिपरिसमाप्ती प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतमो भवति, स चैवमारभते-अण रणेति दण्डकधातुः अस्याच्प्रत्ययान्तस्य अण इति भवति, शब्दार्थस्तु अणन्तीत्यणाः, ॥८१॥ अणन्ति-शब्दयन्ति अविकलहेतुत्वेन असातवेयं नारकाद्यायुष्क इत्यणा:-आद्या क्रोधादयः, अथवा अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयः अनाः, समुदायशब्दानामवयवे वृत्तिदर्शनात् भीमसेनः सेन इति यथा, तत्रासौ प्रतिपत्ता प्रशस्तेष्वध्यवसाय 26-SCCSCAR-800- अनुक्रम JAMERatunintamational Jhaneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११६], भाष्यं [-] (४०) प्रत FET सूत्राक SAROSARO | स्थानेषु वर्तमानः प्रथम युगपदन्तर्मुहर्त्तमात्रेण कालेन अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन् उपशमयति, एवं सर्वत्र युगपदुपश|मककालोऽन्तर्मुहर्सप्रमाण एव द्रष्टव्यः, ततो दर्शनं दर्शस्तं, दर्शनं त्रिविधं-मिथ्या सम्यग्मिथ्या सम्यग्दर्शनं युगपदेवेति, ततोऽनुदीर्णमपि नपुंसकवेदं युगपदेव यदि पुरुषः प्रारम्भका, पश्चात्स्त्रीवेदमेककालमेवेति, ततो हास्यादिषद-हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सापदं, पुनः पुरुषवेदं । अथ स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथम नपुंसकवेदमुपशमयति पश्चात्पुरुषवेदं ततः षट्वं ततः स्त्रीवेदमिति । अथ नपुंसक एव प्रारम्भकः ततोऽसौ अनुदीर्णमपि प्रथमं स्त्रीवेदमुपशमयति पश्चात्पुरुषवेदं ततः पदं ततो नपुंसकवेदमिति, पुनः 'द्वौ द्वौ क्रोधाद्यौ 'एकान्तरिती' संचलनविशेषक्रोधाद्यन्तरितो 'सदृशी' तुल्यौ 'सदृशं' युगपदुपशमयति, एतदुक्तं भवति-अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधौ सदृशौ क्रोधत्वेन युगपदुपशमयति, ततः संज्वलनं क्रोधमेकाकिनमेव, ततः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदेव ततः संज्वलनमानमिति, एवं मायाद्वयं सदृशं पुनः संज्वलनां मायां, एवं लोभद्वयमपि पुनः संग्वलनं लोभमिति, तं चोपशमयंत्रिधा करोति, द्वौ भागौ युगपदुपशमयति, तृतीयभाग संख्येयानि खण्डानि करोति, तान्यपि पृथक पृथक् कालभेदेनोपशमयति, पुनः संख्येयखण्डानां चरम-1 खण्डं असंख्येयानि खण्डानि करोति, सूक्ष्मसंपरायस्ततः समये समये एकैकं खण्डं उपशमयतीति, इह च दर्शनसप्तके 81 उपशान्ते निवृत्तिवादरोऽभिधीयते, तत ऊर्यमनिवृत्तिबादरो यावत् संख्येयान्तिमद्विचरमखण्ड । आह-संज्वलनादीनां । युक्त इत्थमुपशमः, अनन्तानुबन्धिनां तु दर्शनप्रतिपत्तावेवोपशमितत्वान्न युज्यत इति, उच्यते, दर्शनप्रतिपत्ती तेषां क्षयो दीप अनुक्रम wwwjandiarary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ८२ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [११६], भाष्यं [-] पशमात् इह चोपशमादविरोध इति, आह-क्षयोपशमोपशमयोरेव कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, क्षयोपशमो ह्युदीर्णस्व क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षया उपशमः, प्रदेशानुभवतस्तु उदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उत्कं च भाष्यकारेण - "वेदेई संतकम्मं खओवसमिएस नाशुभावं सो । उवसंतकसाओ उण वेएइ न संतकम्मंपि ॥ १ ॥” आह-संयतस्यानन्तानुबन्धिनामुदयो निषिद्धस्तत् कथमुपशम इति उच्यते स ह्यनुभावकर्माङ्गीकृत्य न तु प्रदेशकर्मेति, तथा चोकमार्षे - "जीवे' णं भन्ते ! सयंकडं कम्मं वेदेइ ?, गोयमा ! अत्थेगइअं वेइए अत्थेगइअं नो वेएइ, से केणट्टेणं ? भन्ते ! पुच्छा, गोयमा ! दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तंजहा-पएसकम्मे अ अणुभावकम्मे अ, तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा वेएइ, तत्थ णं जं तं अणुभावकम्मं तं अत्येगइअं वेएड्, अत्थे गइयंणो वेएइ" इत्यादि, ततश्च प्रदेशकर्मानुभावोदयस्येहोपशमो द्रष्टव्यः । आह-यद्येवं संयतस्य अनन्तानुबन्ध्युदयतः कथं दर्शनविघातो न भवति ?, उच्यते, प्रदेश कर्मणो मन्दानुभावत्वात्, तथा कस्यचिदनुभावकर्मानुभवोऽपि नात्यन्तमपकाराय भवन्नुपलभ्यते, यथा संपूर्णमत्यादिचतुर्ज्ञानिनः तदावरणोदय इत्यलं विस्तरेण ॥ ११६ ॥ १ वेदयत्ति सत्कर्म क्षायोपशमिकेषु मानुभावं सः । उपशान्तकषायः पुनर्वेदद्यति न सत्कर्मापि । १ २ जीवो भदन्त ! स्वयंकृतं कर्म वेदयति ! गौतम ! अस्त्येककं (किञ्चिद्) वेदयति, अस्त्येककं न वेदयति, तत् केनार्थेन ? भदन्त ! पृच्छा, गौतम द्विविधं कर्म प्रज्ञसं, तद्यथा- प्रदेशकर्म अनुभावकर्म च तत्र यत्तत् प्रदेशकर्म तत् नियमाद्वेदयति, तत्र यत् अनुभावकर्म तत् अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो बेदयति Education intemational For Fasten हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 167 ~ ॥ ८२ ॥ dancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११६], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक अत्र स्थापना उपशम श्रेणेः-इह च संख्येयलोभखण्डान्युपशमयन् बादरसंपरायः, चरमसंख्येयखण्डासंख्येयखण्डान्युप शमयन् सूक्ष्मसंपराय इति, तथा चाह नियुक्तिकारःसूक्ष्म लोभाणु वेअंतो जो खलु उवसामओ व खवगो बा। सो सुष्टुमसंपराओ अहखाया ऊणओ किंची।। ११७॥ गाथेयं गतार्थत्वात् न वित्रियते, नवरं यथाख्यातात् किश्चिन्यून इति, ततः सूक्ष्मसंपरायाव-| स्थामन्तमुहर्त्तमात्रकालमानामनुभूयोपशामकनिम्रन्थो यथाख्यातचारित्रीभवति ॥११७॥ स च | यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते तदवस्थश्च वियते, ततो नियमतोऽनुत्तरविमानवासिषु उत्पयते, श्रेणि सं-मा प्रच्युतस्य त्वनियमः, अथाबद्धायुः अतोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्र उपशामकनिम्रन्थो भूत्वा नियमतः पुनरपि| संको"उदितकपायः कात्स्येन श्रेणिप्रतिलोममावर्तते, तथा चामुमेवार्थमभिधित्सुराह नियुक्तिकार: जवसाम उवणीआ गुणमहया जिणचरित्तसरिसंपि। . पडिवायंति कसाया किं पुण सेसे सरागत्थे ॥११८॥ ... दर्शन. व्याख्या-'उपशमः' शान्तावस्था तमुपशम, अपिशब्दात् क्षयोपशममपि, उपनीताः गुणर्म.... . हान् गुणमहान तेन गुणमहता-उपशमकेन, किम् ?-प्रतिपातयन्ति कषायाः, संयमा भवे वा, कम् ?-जिनचारित्रतुल्यमपि उपशमकं, किं पुनः शेषान् सरागस्थानिति । यथेह भस्मच्छन्नानलः पवनाथासादितसहकारिका ख-मा ०० -अ-मा दीप अ-प्र-को अनुक्रम T नए श्री. JAMERatinintamational S ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [११८], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक हारिभद्री| यवृत्तिः विभागः१ ॥ ३ ॥ प्रत सुत्रांक रणान्तरः पुनः स्वरूपमुपदर्शयति, एवमसावप्युदितकषायानलो जघन्यतस्तद्भव एव मुक्तिं लभते, उत्कृष्टतस्तु देशोनमर्धपुद्गलपरावर्त्तमपि संसारमनुवनातीति ॥ ११८ ॥ यतश्चैवं तीर्थकरोपदेशः अत औपदेशिकं गाथाद्वयमाह नियुक्तिकारः जइ उवसंतकसाओ लहइ अर्णतं पुणोऽपि पडिवाण हुभे वीससियब्वं थेवे य कसायसेसंमि ॥११९॥ अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । गहु मे वीससियव्वं थेवपि हुतं यहं होइ ॥ १२० ॥ प्रथमगाथा प्रकटार्थत्वान्न वितन्यते, द्वितीयगाथाव्याख्या-ऋणस्य स्तोकं ऋणस्तोकं तथाच स्वल्पादपि ऋणात दासत्वं प्राप्ता वणिग्दुहितेति, उक्त च भाष्यकारेण-"दासत्तं देइ अणं अचिरा मरणं वणो विसर्पतो। सबस्स दाहमग्गी देंति कसाया भवमणतं ॥ १॥" अपिचशब्दनिपातसाफल्यं पूर्वोक्तानुसारेण स्वबुद्ध्या वक्तव्यमिति गाथार्थः ॥१२० ॥ इत्थमौपशमिकं चारित्रमुक्तं, इदानी क्षायिकमुच्यते, अथवा सूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रद्वयं उपशमश्रेण्यङ्गीकरणेनोकं, इदानीं क्षपकश्रेण्यङ्गीकरणतः प्रतिपादयन्नाह____ अण मिच्छ मीस सम्मं अट्ठ नपुंसिस्थीवेय छक्कं च। पुंवेयं च खबेइ कोहाइए य संजलणे ॥ १२१॥ व्याख्या-इह क्षपकश्रेणिप्रतिपत्ताऽसंयतादीनामन्यतमोऽत्यन्तविशुद्धपरिणामो भवति, स च उत्तमसंहननः, तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि प्रतिपद्यते, अपरे तु धर्मध्यानोपगत एवेति, प्रतिपत्तिकमश्चायम्-प्रथममन्तर्मुहर्तेन अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन् युगपत्क्षपयति, तदनन्तभागं तु मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य ततो मिथ्यात्वं सहैव तदंशेन युगपत् 1 दासत्वं ददाति करणं अचिराम्मरण बगो विसर्पन । सर्वस्व दाहमग्निर्ददति कषाया भवमनन्तम् ॥ 1 ॥ (विशेषावश्यकगाया 1211), दीप अनुक्रम T wwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [१२१], Education into क्षपयति, यथा हि अतिसंभृतो दावानलः खलु अर्धदग्धेन्धन एव इन्धनान्तरमासाद्य उभयमपि दहति एवमसावपि क्षपकः तीवशुभ परिणामत्वात् सावशेषं अन्यत्र प्रक्षिप्य क्षपयति, एवं पुनः सम्यग्मिथ्यात्वं ततः सम्यक्त्वमिति, इह च यदि बज्रायुः प्रतिपद्यते अनन्तानुबन्धिक्षये च व्युपरमति, ततः कदाचित् मिथ्यादर्शनोदयतस्तानपि पुनरुपचिनोति, मिथ्यात्वेतद्वीजसंभवात्, क्षीणमिथ्यात्वस्तु नोपचिनोति, मूलाभावात्, तदवस्थश्च मृतोऽवश्यमेव त्रिदशेषु उत्पद्यते क्षीणसप्तकोऽपि तदप्रतिपतितपरिणाम इति, प्रतिपतितपरिणामस्तु नानामतित्वात् सर्वगतिभाग् भवति, आह- मिथ्यादर्शनादिक्षये किमसौ अदर्शनो जायते उत नेति, उच्यते, सम्यग्दृष्टिरेवासौ, आह--ननु सम्यग्दर्शनपरिक्षये कुतः सम्यग्दृष्टित्वम् ?, उच्यते, निर्मदनीकृतकोद्रवकल्पा अपनीतमिध्यात्वभावा मिथ्यात्वपुद्गला एवं सम्यग्दर्शनं, तत्परिक्षये। च तत्त्वश्रद्धानलक्षणपरिणामाप्रतिपातात् प्रत्युत श्लक्ष्णाभ्रपटलापगमे चक्षुर्दर्शनवत् शुद्धतरोपपत्तेरिति अलं प्रपथेन । स च यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते ततो नियमात् सप्तके क्षीणे अवतिष्ठत एव, स च सम्यग्दर्शनमशेषमेव क्षपयति, अबद्धायुस्तु अनुपरत एव समस्तां श्रेणिं समापयति इति, स च स्वल्पसम्यग्दर्शनावशेष एवं अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरण कषायाष्टकं युगपत् आरभते ॥ १२१ ॥ एतेषां च मध्यभागं क्षपयन् एताः सप्तदश प्रकृतीः क्षपयति, तत्प्रतिपादकमिदं गाथाद्वयम् - भाष्यं [-] इआणुवी दो दो जाइनामं च जाव चउरिंदी । आयावं उज्जोयं थावरनामं च सुट्टमं च ।। १२२ ।। साहारणमपज्जतं निधानिदं च पयलपयलं च । थीणं खबेइ ताहे अवसेसं जं च अट्टहं ॥ १२३ ॥ व्याख्या--गतिश्रानुपूर्वी च गत्यानुपूर्व्यो 'दो दो' इति द्वे द्वे तन्नामनी, जातिनाम चेत्यस्मात् नामग्रहणं अभिसंघ For Fasten ~ 170~ www.laincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२३], भाष्यं [-] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः प्रत सुत्राक आवश्यक- ध्यते, एतदुक्तं भवति-नरकगतिनाम नरकानुपूर्वीनाम च, आनुपूर्वी-वृषभनासिकाम्यस्तरसंस्थानीया, यया कर्मपुद्गल- |संहत्या विशिष्ट स्थान प्राप्यतेऽसौ, यया वोर्वोत्तमाङ्गाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरविशेषो भवति साऽऽनुपूर्वीति, तथा ॥८४॥ तिर्यग्गतिनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम च, एवं गत्यानुपूर्वीनामनी द्वे द्वे, तथा 'जातिनाम' एकेन्द्रियादिजातिनाम यावच्चतुरि-16 न्द्रियाः, एतदुक्तं भवति-एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम एवं शेषयोजनाऽपि कार्येति । आह-एकेन्द्रियाद्यानुपूर्वीनाम कस्मान्नोच्यते, आचार्य आह-तस्य तिर्यगानुपूर्वीनामक्षपणप्रतिपादनेनोक्तार्थत्वात् , 'चः समुच्चये, तथा 'आतपं ६ इति आतपनाम, यदुदयात् आतपवान् भवति, 'उद्योत' इति उद्योतनाम, यदुदयादुद्योतवान् भवति, स्थावरा:-पृथि ब्यादयः तन्नाम च पूर्ववत्, 'सूक्ष्म' इति सूक्ष्मनाम च, 'साधारणं' इति साधारणनाम, अनन्तवनस्पतिनामेत्यर्थः, 'अपर्याप्त' इति अपर्याप्तकनाम, तथा निद्रानिद्रा च इत्यादि प्रकटार्थत्वान्न विप्रियते, नवरं स्त्याना चैतन्यऋद्धिर्यस्यां सा स्त्यानधिः, स्त्यानयुत्तरकालमवशेष यदष्टानां कषायाणां तत् क्षपयति, सर्वमिदमन्तर्मुहर्त्तमात्रेणेति, ततो नपुंसकवेदं, ततः खीवेदं, ततो हास्यादिपर्दू, ततः पुरुषवेदं च खण्डनयं कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, तृतीयखण्डं तु संज्वलनक्रोधे प्रक्षिपति, पुरुषे प्रतिपत्तर्ययं क्रमः, नपुंसकादिप्रतिपत्तरितु उपशमश्रेणिन्यायो वक्तव्यः, ततः क्रोधादीच संज्वलनान् प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालेनोक्तेनैव न्यायेन क्षपयति, श्रेणिपरिसमाप्तिकालोऽप्यन्तर्मुहर्तमेव, अन्तर्मुहूर्तानामसंख्येयत्वात् , लोभ|चरमखण्डं तु संख्येयानि खण्डानि कृत्वा पृथक पृथक् कालभेदेन क्षपयति, चरमखण्डं पुनरसंख्येयानि खण्डानि करोति, तान्यपि समये समये एकैकं क्षपयति, इह च क्षीणदर्शनसतको निवृत्तिवादर उच्यते, तत ऊध्र्वमनिवृत्तिवादरी यावत् दीप अनुक्रम SCXXX K ॥८४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२३], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक चरमलोभखण्डमिति, तत ऊर्बमसंख्येयखण्डानि क्षपयन् सूक्ष्मसंपरायो यावशरमलोभाणुक्षयः, तत ऊर्ध्वं यथाख्यात. चारित्रीभवति ।। १२३ ॥ स च महासमुद्रप्रतरणपरिश्रान्तवत् मोहसागरं तीवों विश्राम्पति, ततश्छास्थवीतरागत्वद्वि चरमसमययोः प्रथमे निद्रादि क्षपयति तथा चाह नियुक्तिकार:दावीसमिकण नियंठो दोहि उ समएहि केवले सेसे । पढमे निई पयलं नामस्स इमाओ पयडीओ ॥ १२४ ॥ देवगइआणुपुब्धीविउविसंघयण पढमबजाइ । अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ॥ १२५ ॥ 5 अर्धस्तु प्रायः सुगमत्वात् न वितन्यते, नवरं वैकुर्विकं च संहननानि चेति समासः, तानि प्रथमसंहननवोनि क्षप-| दयति, तानि च षड्भवन्ति, तथा चोक्तम्-"बजेरिसहनारायं परमं विइयं च रिसहनारायं।णारायमद्धणाराय कीलिया| तह य छेवई ॥१॥" तथा अन्यतरसंस्थानं मुक्त्वा यस्मिन्व्यवस्थितः शेषाणि क्षपयति, तानि चामूनि-"चरसे णग्गोहे | मंडले साति वामणे खुजे । हुंडेवि अ संठाणे जीवाण छ मुणेयबा ॥१॥ तुलं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकोडं च । हेडिलकायमडहं सवत्थासंठियं हुंडं ॥२॥" तथा तीर्थकरनाम आहारकनाम च क्षपयति, यद्यतीर्थकरः प्रतिपत्तेति, अथ तीर्थकरस्ततः खल्याहारकनामैवेति, 'चः' समुचये ॥ १२४-१२५ । चरमे नाणावरणं पंचविहं दसणं चउवियप्पं । पंचविहमंतराय खवइत्ता केवली होइ ॥ १२६ ॥ बनषभनारा प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराधम् । नाराचमनाराचं कीलिका सवैव सेवार्तम् ॥1॥ २ चतुरखं म्यमोध मण्डलं सादि वामन कुन्जम् । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां पद मुणितन्यानि ॥1॥ तुल्यं विस्तृतबाइल्यान्या सेपबदल व मदभकोई च । भधाकाथमदर्भ सर्वग्रासन खित हुण्डम् ॥२॥ दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 172 ~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२६], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥ ५ ॥ प्रत ACESSASS* सुत्रांक गमनिका-घरमे समये ज्ञानावरणं पञ्चविध मतिज्ञानावरणादि, दर्शनं चतुर्विकल्पं चक्षुर्दर्शनादि पञ्चविधमन्तरायं च हारिभद्रीदानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाख्यं क्षपयित्वा केवली भवतीति गाथार्थः ॥ १२६ ॥ ततः यवृत्तिः असंख्ये. लो. स्थापना चेयम्. विभागा नसंख्याको संभिषणं पासंतो लोगमलोगं च सवओसव्वं । तं नस्थि जंन पासह भूयं भव्वं भविस्सं च ॥१२७॥ माया. व्याख्या समेकीभावेन भिन्न भिन्न, यथा बहिस्तथा मध्येऽपीत्यर्थः, अथवा संभिन्नमिति-18 मान सं.को. द्रव्यं गृह्यते, कथम् कालभावी हि तत्पर्यायौ, ताभ्यां समस्ताभ्यां समन्ताद्वा भिन्नं संभिन्न | 'पश्यन्' उपलभमानो, लोक्यत इति लोकः, केवलज्ञानभास्वतोपलभ्यत इति भावार्थः, अलोहास्यादि कोऽप्युपलभ्यत एव, तथापि धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां यत्र स लोकः इति तं, अलोकं च इत्यनेन क्षेत्र प्रतिपादितं भवति, द्रव्याघेतावदेव विज्ञेयमिति, किमेकया दिशा!-नेत्याह-'सर्वतः मात्र प्रत्या......... सर्वासु दिक्षु, तास्वपि किं कियदपि द्रब्यादि उत नेत्याह-'सर्व' निरवशेष, अमुमेवार्थ स्पष्टयदान नाह-तन्नास्ति किञ्चित् ज्ञेयं यन्न पश्यति 'भूत' अतीतं, भवतीति भव्य, वर्तमानमित्यर्थः।। अनन्ता..... भावकर्मणोः प्राप्तयोः 'भव्यगेयेत्यादिनिपातनात्' (भव्यगेयप्रवचनीयोपस्थापनीयजन्याप्लाघ्यापात्या वा (पा०३-४-६८) कर्तरि सिद्धं, 'भविष्यद' भावि वा, 'च' समुच्चये इति गाथार्थः ॥ १२७ ।। दीप ०००००० बी. अनुक्रम ॥८५ JABERatunintamational wajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२७], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक * इत्थं तावदुपोद्घातनिर्युक्तौ प्रस्तुतायां प्रसङ्गतो यदुक्तं-'तपोनियमज्ञानवृक्षमारूढः केवली' इति अयमसौ केवली निदर्शितः, एतस्मात् सामायिकादिश्रुतं आचार्यपारम्पर्येण आयातं, एतस्माच्च जिनप्रवचनप्रसूतिः, सर्वमिदं प्रासङ्गिकं निर्यु-| तिसमुत्थानप्रसङ्गेनोक्तं, इदानीमपि केयं जिनप्रवचनोत्पत्तिः कियदभिधानं चेदं जिनमवचनं को वाऽस्य अभिधानविभाग इत्येतत् प्रासङ्गिकशेषं शेषद्वारसङ्घहं वाऽभिधातुकाम आहजिणपषयणउप्पत्ती पवयणएगढिया विभागो यादारविही य नयविही वक्खाणविही य अणुओगो ॥१२८॥ व्याख्या-इह 'जिनप्रवचनोत्पत्तिः प्रवचनैकार्थिकानि एकाधिकविभागच एतत् त्रितयमपि प्रसङ्गशेष, द्वाराणां विधिः द्वारविधिः, विधान विधिः, स ह्युपोद्घातोऽभिधीयते, नयविधिस्तु चतुर्थ अनुयोगद्वारमिति, शिष्याचार्यपरीक्षाऽभि धानं तु व्याख्यानविधिरिति, अनुयोगस्तु सूत्रस्पर्शकनियुक्तिः सूत्रानुगमश्चेति समुच्चयार्थः । आह-चतुर्थमनुयोगद्वार नियविधिमभिधाय पुनस्तृतीयानुयोगद्वाराख्यानुयोगाभिधानं किमर्थम् ? उच्यते, नयानुगमयोः सहचरभावप्रदर्शनार्थ, तथाहि-नयानुगमौ प्रतिसूत्रं युगपद् अनुधावतः, नयमतशून्यस्य अनुगमस्याभावात्, अनुयोगद्वारचतुष्टयोपन्यासे तु नयानामन्तेऽभिधानं युगपद्वक्तुं अशक्यत्वात् । आह-चतुरनुयोगद्वारातिरिक्तव्याख्यानविधेरुपन्यासो अनर्थकः, न, अनुगमाङ्गत्वात् , व्याख्याऽङ्गत्वाच्चानुगमाङ्गता इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १२८ ॥ तत्र जिनप्रवचनोत्पत्तिनियुक्ति समुत्थानप्रसङ्गतोऽभिहिता, अर्हद्वचनत्वात् प्रवचनस्य, इदानी प्रवचनैकार्थिकानि तद्विभागं च प्रदर्शयन्नाहजाएगट्ठियाणि तिपिण उ पवयण सुत्रां तहेव अत्थो । इकिकस्स य इत्तो नामा एगडिआ पंच ।। १२९॥ दीप अनुक्रम GRSC+ walainginrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रवचनस्य एकार्था: शब्दा; ~174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ८६ ॥ 英多次 “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [– /गाथा -], निर्युक्ति: [ १३१], भाष्यं [-] सुय धम्म तित्थ मग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा। सुत्तं तंतं गंथो पाढो सत्थं च एगट्ठा ॥ १३० ॥ अणुओगो व नियोगो भास विभासा य वत्तियं चैव । अणुओगस्स उ एए नामा एगट्टिआ पंच ॥ १३१ ॥ प्रथमगाथा व्याख्या - एकोऽर्थो येषां तान्येकार्थिकानि, त्रीण्येव, प्रवचनं पूर्वव्याख्यातं, सूचनात् सूत्रं, अर्यत इत्यर्थः, 'चः' समुच्चये, इह च प्रवचनं सामान्यश्रुतज्ञानं, सूत्रार्थी तु तद्विशेषादिति, आह- सूत्रार्थयोः प्रवचनेन सहैकार्थता युक्ता, तद्विशेषत्वात् सूत्रार्थयोस्तु परस्परविभिन्नत्वात् न युज्यते, तथा च सूत्रं व्याख्येयं अर्थस्तु तद्व्याख्यानमिति, अथवा त्रयाणामध्येषां भिन्नार्थतैव युज्यते, प्रत्येकमेकार्धिकविभागसद्भावात्, अन्यथा एकार्थिकत्वे सति भेदेनैकार्थिकाभिधानमयुक्तमिति, अत्रोच्यते, यथा हि मुकुलविकसितयोः पद्मविशेषयोः संकोचविकासपर्यायभेदेऽपि कमलसामान्यतयाऽभेदः, एवं सूत्रार्थयोरपि प्रवचनापेक्षया परस्परतश्चेति, तथाहि-अविवृर्त मुकुलतुल्यं सूत्रं तदेव विवृतं प्रबोधितं विकच कल्पमर्थः, प्रवचनं चोभयमपीति, यथा चैषामेकार्थिक विभाग उपलभ्यते - कमलमरविन्दं पङ्कजमित्यादि पद्मकार्थिकानि, तथा कुडूमलं वृन्दं संकुचितमित्यादि मुकुलैकार्थिकानि, तथा विकचं फुलं विबुद्धमित्यादि विकसितैकार्थिकानि, तथा प्रवचन सूत्रार्थानामपि पद्ममुकुल विकसितकल्पानामेकार्थिकविभागोऽविरुद्धः । अथवा अन्यथा व्याख्यायते - एकार्थिकानि त्रीण्येवाश्रित्य वक्तव्यानि, प्रवचनमेकार्थगोचरः तथा सूत्रमर्थश्चेति, शेषं पूर्ववत् । आह-द्वारगाथायां यदुक्तं 'प्रवचनै कार्थिकानि वक्तव्यानि ' तव्याहन्यते, न, सामान्यविशेषरूपत्वात्प्रवचनस्य, सूत्रार्थयोरपि प्रवचनविशेषरूपत्वेन प्रवचनत्वोपपत्तेः । आह-यद्येवं विभागश्चेति द्वारोपन्यासानर्थक्यं, न, विभागश्चेति किमुक्तं भवति ? नाविशेषेणैकार्थिकानि वक्तव्यानि सामान्यविशेषरूप Education intimation For Pres हारिभद्री • यवृत्तिः विभागः १ ~ 175 ~ ॥ ८६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३१], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक का स्थापि प्रवचनस्थ-पञ्चदशेति, किं तर्हि :-विभागश्च वक्तव्यः, विशेषगोचराभिधानपर्यायाणां सामान्यगोचराभिधानपर्या-13 |यत्वानुपपत्तेः, न हि चूतसहकारादयो वृक्षादिशब्दपर्याया भवन्ति, लोके तथाऽदृष्टत्वाद् इति गाथार्थः ॥ १२९॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-श्रुतस्य धर्मः-स्वभावः श्रुतधर्मः, बोधस्वभावत्वात् श्रुतस्य धर्मो बोधोऽभिधीयते, अथवा जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च तद्धर्मश्चेति समासः, सुगतिधारणाद्वा श्रुतं धर्मोऽभिधीयते, 'तीर्थ' प्राकृनिरूपितशब्दार्थ, तिच्च संघ इत्युक्त, इह तु तदुपयोगानन्यत्वात् प्रवचनं तीर्थमुच्यते, तथा मृश्यते-शोध्यते अनेनात्मेति मार्गः, मार्गण वा मार्गो, अन्वेषणं शिवस्येति, तथा प्रगतं अभिविधिना जीवादिषु पदार्थेषु वचनं प्रावचनं, प्रवचनं तु पूर्ववत् । उक्तः प्रवचनविभागः, इदानी सूत्रविभागोऽभिधीयते-तत्र सूचनात् सूत्रं, तन्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति तन्त्रं, तथा अभ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थ इति ग्रन्थः, पठन पाठः पठ्यते वा तदिति पाठः पठ्यते वाऽनेनास्मादस्सि|निति वा अभिधेयमिति पाठः, व्यक्तीक्रियत इति भावार्थः, तथा शास्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा ज्ञेयमात्मनेति वा शास्त्र, एकाधिकानीति पुनरभिधान सामान्यविशेषयोः कथचि दख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ १३० ॥ तृतीयगाथाव्याख्या सूत्रस्यार्थेन अनुयोजनमनुयोगः, अथवा अभिधेयो व्यापारः सूत्रस्य योगः, अनुकूलोऽनुरूपो वा योगोऽनुयोगः, यथा घटशब्देन घटोऽभिधीयते, तथा नियतो निश्चितो वा योगो नियोगः, यथा घटशब्देन घट एवोच्यते न पटादिरिति, तथा भाषणात् भाषा, व्यक्तीकरणमित्यर्थः, यथा घटनात् घटः, चेष्टावानर्थों घट इति, विविधा भाषा| [विभाषा, पर्यायशब्दैः तत्स्वरूपकथनं, यथा घटः कुटः कुम्भ इति, वार्तिकं वशेषपर्यायकथनमिति शेष सुबोध, अयं गाथा दीप अनुक्रम JABERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३१], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥८७॥ प्रत सुत्रांक समुदायार्थः, अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र प्रवचनादीनामविशेषेणैकार्थिकाभिधानप्रक्रमे सति एकाथिकानुयोगादे- हारिभद्रीभेदेनोपन्यासान्वाख्यानं अर्थगरीयस्त्वख्यापनार्थं, उक्तं च-'सुत्तधरा अस्थधरो इत्यादि' ॥११॥ तत्र अनुयोगा-18 विभागः१ ख्यप्रथमद्वारस्वरूपव्याचिख्यासयाऽऽहणामं ठवणा दविए खित्ते काले य वयण भावे या एसो अणुओगस्स उणिक्खेवो होइ सत्तविहो ॥१३२॥ गमनिका-'नाम' प्राक् निरूपितं, तत्र नामानुयोगो यस्य जीवादेरनुयोग इति नाम क्रियते, नानो वा अनुयोगो नामा|नुयोगः, नामव्याख्येत्यर्थः, 'स्थापना' अक्षनिक्षेपादिरूपा, तत्र अनुयोगं कुर्वन् कश्चित् स्थाप्यते, स्थापनायामनुयोगः स्थापनानुयोग इति समासः, स्थापना चासौ अनुयोगश्चेति वा, 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषयोऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, स च आगमनो-12 आगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्त द्रव्यस्थ द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैः द्रव्ये द्रव्येषु वाऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, एवं क्षेत्रादिष्वपि | षडूभेदयोजना कायेंति,तत्र द्रव्यानुयोगो द्विविधः-जीवद्रव्यानुयोगः अजीवद्रव्यानुयोगश्च, एकैकः स चतुर्धा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतो जीव एकं द्रव्यं क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढः कालतोऽनाद्यपर्यवसितः भावतोऽनन्तज्ञा-10 नदर्शनचारित्राचारित्रदेशचारित्रअगुरुलघुपर्यायवान् इति, अजीवद्रव्याणि परमाण्वादीनि, तत्र परमाणुव्यत एक द्रव्यं | क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढः कालतो जघन्येन समयमेकं द्वौ वा उत्कृष्टतस्तु असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, भावतस्तु एकरस एकवर्णः द्विस्पर्श एकगन्ध इति, एतेषां च स्वस्थानेऽनन्ता रसादिपर्याया एकगुणतिकादिभेदेन द्रष्टव्याः, एवं व्यणुका| दीनामप्यनन्ताणुस्कन्धावसानानां स्वरूपं द्रष्टव्यं, उक्को द्रव्यानुयोगः, इदानी द्रव्याणां स च जीवाजीवभेदभिन्नानां दीप अनुक्रम SRAOS ॥८७॥ JABERatin intimational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अनुयोगस्य नामादि सप्त निक्षेपा: वर्ण्यते ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक अबसेयः, यथा प्रज्ञापनायां समुदितानां जीवानामजीवानां च विचारः, तथा चोकं-"जीवपज्जवाणं भंते ! कि संखेजा असंखेज्जा अणंता ?, गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेजा अणंता, एवं अजीवपज्जवाणं पुच्छा उत्तरं च दवं" अलं विस्तरेण । द्रव्येणानुयोगः प्रलेपाक्षादिना, द्रव्यस्तैरेव अक्षादिभिः प्रभूतैरिति, द्रव्ये फलकादौ द्रव्येषु प्रभूतासु निषद्यासु अवस्थितोऽनुयोगं करोतीति । एवं क्षेत्रानुयोगेऽपि क्षेत्रस्य भरतक्षेत्रादेः क्षेत्राणां जम्बूद्वीपादीनां यथा बीपसागरप्रज्ञाया| मिति, क्षेत्रेण यथा पृथिवीकायादिसंख्याव्याख्यानं, उक्तं च "बुद्दीवपमाणं, पुढविजिआणं तु पत्थयं काउं । एवं मविजमाणा हवंति लोगा असंखिज्जा ॥१॥" क्षेत्रैरनुयोगो यथा “बहुँहिं दीवसमुद्देहिं पुढविजिआणमित्यादि" क्षेत्रे तिर्य-1 ग्लोकेऽनुयोगो भरतादौ वा क्षेत्रेषु अनुयोगः अर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु । कालस्य अनुयोगः समयादिप्ररूपणा, कालानां & प्रभूतानां समयादीनो, कालेनानुयोगो यथा-बादरवायुकायिकानां वैक्रियशरीराण्यद्धापल्योपमस्य असंख्यभागमात्रेणापशहियन्ते, कालैरनुयोगो यथा प्रत्युत्पन्नत्रसकायिका असंख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते प्रतिसमयापहारेण, कालेऽनुयोगो द्वितीयपौरुष्या, कालेषु अवसर्पिण्यां त्रिषु कालेषु-सुषमदुप्पमायां चरमभागे दुष्पमसुषमायां दुष्पमायां है चेति, उत्सपिण्यां कालद्वये-दुष्पमसुषमायां सुषमदुष्षमायां च । वचनस्यानुयोगो यथा इत्थंभूतं एकवचनं, वचनानां द्विवचनबहुवचनानां पोडशानां वा, वचनेनानुयोगो यथा-कश्चिदाचार्यः साधादिभिरभ्यर्थित एकवचनेन करोति, जीवपर्यया भवन्त ! कि संख्येया असंख्येया अनम्ताः !, गौतम ! नो संख्येयाः नो असंख्येषा अनन्ता, एक्मजीवपर्यवाणां पृच्छा उत्तरं च इष्टयं । जम्बूद्वीपप्रमाणं पृथ्वीजीवानां तु प्रस्थकं कृत्वा । एवं मीयमाना भवन्ति लोका असंख्येयाः ॥1॥ ३ बहुभिपिसमुः पृथ्वी जीवाना. दीप अनुक्रम JABERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ८८ प्रत सुत्राक CCC वचनैः स एव बहुभिः असकृत् अभ्यर्थितो वेति, वचनेऽनुयोगः क्षायोपशमिके, वचनेषु तेष्वेव बहुषु, अन्ये तु प्रतिपा- हारिभद्रीदयन्ति-वचनेषु नास्त्यनुयोगः, तस्य क्षायोपशमिकत्वात् , तस्य चैकत्वादिति भावार्थः । भावानुयोगो द्विधा-आगमतो| यूपत्तिः नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमत औदयिकादेरन्यतमस्येति, भावानां औदयिकादीनां, भावेन संग्रहा- विभागार दिना, उक्तं च-"पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तंजहा-संगहढ्याए १ उवग्गहठ्ठयाए २ निजरठ्ठयाए ३ सुयपज्जवजातेणं ४ अबोरिछत्तीए ५" भावैरेभिरेव समुदितैरनुयोगः, भावे क्षायोपशमिके, भावेषु आचारादिषु, अथवा प्रतिक्षणपरिणामत्वात् | क्षयोपशमस्य भावषु अनुयोगः, अथवा भावेषु नास्त्येव, क्षयोपशमस्यैकत्वात् । एतेषां च द्रव्याद्यनुयोगानां परस्परसमावेशः स्ववुड्या वक्तव्यः, उक्तं च भाष्यकारेण-"दवे णियमा भावो ण विणा ते यावि खित्तकालेहिं (ग्रन्धानम् २५००) खित्ते तिण्हषि भयणा काले भयणाए तीसुपि ॥१॥ इत्यादि" उक्तोऽनुयोगः, एतद्विपरीतस्तु अननुयोग इति गाथार्थः। ॥ १३२ ॥ साम्प्रतं तत्प्रतिपादकदृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाहवच्छगगोणी १खुज्जा २ सज्झाए ३ चेव वहिरउल्लाबो४।गामिल्लए ५य वयणे सत्सेवय हुंति भावंमि ॥१३३॥13 व्याख्या-तत्र प्रथममुदाहरणं द्रव्याननुयोगानुयोगयोः बत्सकगौरिति-गोदोहओ जदि जं पाडलाए वच्छयं तं || M ॥ ८॥ | बहुलाए मुयइ बाहुलेर वा पाडलाए मुयइ, ततो अणणुओगो भवति, तस्स य दुद्धकजस्स अपसिद्धी भवति, जदि पुण. पत्रभिः स्थानैः सूत्र वाचन, सपा-संग्रहार्थाय । उपमहााय र निर्जराथाय । श्रुतपर्वावनातन परिवषा ५। २ गोदोदको यदि यः। पाटलाया वत्स बटुलावै मुमति, बाहुलेयं पाटलायै मुमति, ततोऽननुषोगो भवति, तस्य च दुग्धकार्यसमप्रसिद्धिर्भवति, यदि पुनः दीप अनुक्रम JABERator jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अनुयोग-अननुयोगे वत्सकगौ आदि दृष्टान्ता: ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [ १३३], आष्यं [-] जं' जाए तं ताए मुयइ, तो अणुओगो, तरस व दुद्धकजस्स पसिद्धी भवति । एवं इहावि जदि जीवलक्खणेण अजीवं परूवेइ अजीवलक्खणेण वा जीवं, तो अणणुओगो भवति । तं भावं अण्णा गेण्हति तेण अत्थो विसंवदति, अत्थेण विसंवयंतेण चरणं, चरणेण मोक्खो, मोक्खाभावे दिक्खा णिरत्थि अह पुण जीवलक्खणेण जीवं परुवेइ, अजीचलक्खणेणं अजीवं, तो अणुओगो, तरस य कज्जसिद्धी भवतित्ति, अविगलो अत्थावगमो, ततो चरणबुडी, ततो मोक्खोति । एस पढमदितो ॥ १ ॥ । क्षेत्रानुगानुयोगयोः कुनोदाहरणम् – पइहोणे णगरे सालिवाहणो राया, सो बरिसे वरिसे भरुयच्छे नरवाहणं रोहेति, जाहे य वरिसारत्तो पत्तो ताहे सयं णगरं पडिजाति, एवं कालो चच्चति, अण्णया तेण रण्णा रोहणं गएल एणं अत्थाणमंडवियाए णिच्छूढं, तस्स य पडिग्गहधारिणी खुजा, अपरिभोगा एसा भूमी, णूर्ण राया जातुकामो, तीसे य राउलओ जाणसालिओ परिचिओ, ताए तरस सिहं, सो पए जाणगाणि पमक्खित्ता पयट्टावियाणि य 1 यो यस्यास्तं तस्यै मुञ्चति, ततोऽनुयोगः तस्य च दुग्धकार्यस्य प्रसिद्धिर्भवति । एवमिहापि यदि जीवलक्षणेन अजीवं प्ररूपयति, अजीवलक्षणेन वा जीवं ततोऽननुयोगो भवति तं भावमन्यथा गृह्णाति तेनार्थी विसंवदति, अर्थेन विसंवदता चारित्रं (विसंवदति ), चरणेन मोक्षः, मोक्षाभावे दीक्षा निरर्थिका । अथ पुनर्जीवलक्षणेन जीवं प्ररूपयति, अजीवलक्षणेन अजीवं, ततोऽनुयोगः, तस्य च कार्यस्य सिद्धिर्भवति इति अविकलोऽर्थावगमस्तववरणदृद्धिः ततो मोक्ष इति एष प्रथमदृष्टान्तः १. २ प्रतिष्ठाने नगरे शालिवाहनो राजा, स वर्षे वर्षे भृगुकच्छे नरवाहनं रुणद्धि, यदा च वर्षांरात्रः प्राप्तो भवेत् ) तदा स्वर्क नगरं प्रतियाति, एवं कालो प्रगति, अन्यदा तेन राज्ञा रोधकेन (रोद्धुं गतेन आस्थानमण्डपकायां नियुतं, तस्य च प्रतिमहचारिणी कुब्जा, अपरिभोगा एषा भूमिः पूनं राजा यातुकामः, तस्याथ राजकुलगो पानशालिक परिचितः तथा ती शिष्टं प्रगे यानानि प्रमप्रवर्तितवान् Education intemational For Use Only www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः क्षेत्र अनुयोग- अननुयोगे कुब्जस्य उदाहरण ~ 180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ८९ ॥ Jus Educati 446 “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [१३३], भाष्यं [-] तं दहूण सेसओ खंधावारो पछिओ, राया रहंमि एकलो- धूलादिभया गच्छिस्सामित्ति पर पयट्टो, जाव सवोऽवि खंधावारो पतिओ दिडो, राया चिंतेति-ण मया कस्सवि कथितं, कहमेतेहिं णायं?, गविहं परंपरएण जाव खुजत्ति, खुज्जा पुच्छिता, ताए तह चेव अक्खायं, एस अणणुओगो, तीसे मंडवियाए खेत्तं चैव चिन्तिज्जति, विवरीओ अणुओगो, एवं णिष्पदेसमेगन्तणिञ्चमेगमागासं पडिवज्जावेंतस्स अणणुभगो, सप्पएसादि पुण पडिवजावेंतस्स अणुओगोति ॥ २ ॥ कालाननुयोगानुयोगयोः स्वाध्यायोदाहरणं-ऐको साधू पादोसियं परियतो रहसेणं कालं पण याणति, सम्मद्दिद्विगा य देवया तं हितद्वयाए बोधेति मिच्छादिट्टियाए भएणं, सा तकरस घडियं भरेडं महया महया सदेणं घोसेति-महितं महितंति, सो तीसे कण्णरोडयं असहंतो भणति--अहो तकवेलत्ति, सा पडिभणति-जहा तुझं सज्झायवेलत्ति, ततो साहू, उवरंजिऊण 3 तं दृष्ट्वा शेषः स्कन्धावारः प्रस्थितः, राजा रहसि एकको भूत्यादिभवात् गमिष्यामीति प्रगे प्रवृत्तः (गन्तुं ), यावत् सर्वोऽपि स्कन्धावारः प्रस्थितो दृष्टः, राजा चिन्तयति न मया कचिदपि कथितं कथमेतैज्ञतम् ! गवेषितं परम्परकेण बायकुब्जेति कुब्जा पृष्टा तथा तथैवारूपातं, एषोऽननुयोगः, तस्याः भण्डपिकायाः क्षेत्रमेव चिन्तयेदिति, विपरीतोऽनुयोगः, एवं मिष्यदेशमेकान्तनित्यमेकमाकाशं प्रतिपाद्यमानस्य अननुयोगः, समदेशादि पुनः प्रति| पाद्यमानस्य अनुयोग इति । २ एका साधुः प्रादोषिकं परिवर्त्तयन् रभसा कालं न जानाति, सम्यग्दृष्टिका च देवता तं हितार्थाय बोधयति मिथ्यादृष्टिकाया ॥ ८९ ॥ भयेन सा तक्रस्य घटिकां भूत्वा महता महता शब्देन घोषयति-मथितं मचितमिति स तस्याः कर्णरोडकं ( रार्टि) असहमानो भणति अहो तकवेळेति, सा प्रतिभणति यथा तव स्वाध्यायवेलेति ततः सारुपयुज्य. For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] काल अनुयोग - अननुयोगे स्वाध्यायस्य उदाहरणं हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 181 ~ “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक मिच्छामिदुकर्ड भणति, देवताए अणुसासिओ-मा पुणो एवं काहिसि,मा मिच्छद्दिडियाए छलिहिजिसि, एस अणणुओगो, काले पढियवं तो अणुओगो भवति ॥ ३॥ इदानी बचनविषयं दृष्टान्तद्वयमननुयोगानुयोगयोः प्रदश्यते-तत्र प्रथमं बधिरोल्लापोदाहरणम् -ऐगंमि गामे बहिरकुटुंषयं परिवसति, थेरो थेरी य, ताणं पुत्तो तस्स भज्जा, सो पुत्तो हलं वाहेति, पथिएहिं पंथं पुच्छितो भणति-घरजाहै यगा मज्झ एते बइला, भजाए य से भत्तं आणीयं, तीसे कथेति जहा-बइला सिंगिया, सा भणति-लोणितमलोणितं वा, माताए ते सिद्धयं, सासूए कहियं, सा भणति-थूलं वा बरडं वा वा थेरस्स पोतं होहिद, थेरं सदावेइ,'धेरो भणइ-पिड ते जीएण, एगपि तिलं न खामि, एवं जदि एगवयणे परूवितबे दुवयणं परवेति, दुवयणे वा एगवयणं तो अणणुओगो, अह तहेव परूवेति, अणुओगो॥४॥ दीप अनुक्रम मिथ्या मे दुष्कृतं भणति, देवतयाऽनुशिष्टः-मा पुनरेवं कार्षीः, मा मिष्यादृष्टया चीफलः, एषोऽननुयोगः, काले पठितव्यं तदानुयोगो भवति । २ एकस्मिन् ग्रामे बधिरकुटुम्बकं परिवसति, स्थविरः स्थविरा च, तयोः पुत्रः तख भायर्या, स पुत्रो हलं वाहपति, पथिकैः पन्थानः पृष्टो भणति-गृहजाती ममैतौ बलीवदों, भार्यया च तसा भक्तमानीतं, तस्यै कथयति यथा-बलीवौं अमिती, सा भणति-लोणितं (सलवणं) अलोणितं वा, मात्रा ते साधितं व कषिर्त, सा भणति-धूई वा वा स्थविरस्य पोतिका भविष्यति, स्थविरं शब्दयति, स्थविरो भणति-पिचामि (पापथः) जीवितं (तेन), एकमपि तिळ न सादामि, एवं बकवचने प्ररूपवितव्ये द्विवचनं प्ररूपयति द्विवचने वा एकवचनं तदानुयोगः, भय तयैव प्ररूपयति सदाऽनुयोगः Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] (४०) ॥९ ॥ प्रत आवश्यकता ग्रामेयकोदाहरण द्वितीयं वचन एव, प्रस्तुतानुयोगप्राधान्यख्यापनार्थमिति । एगमि नयरे एगा महिला, सा भत्तारे हारिभद्री मए कट्ठादीणिवि ताव अकीयाणि, घोच्छामोत्ति अजीवमाणी खुडयं पुत्तं घेत्तुं गामे पवुत्था, सो दारओ बढतो मायरायवृत्तिः पुच्छति-कहिं मम पिता!, मओ त्ति, सो केणं जीविताइतो, भणति-ओलग्गाए, तो भणइ-अहंपि ओलग्गामि, सा विभागः१ भणति-ण जाणिहिसि ओलग्गिउं, तो कह ओलग्गिजइ, भणिओ-विणयं करिजासि, केरिसो विणओ?, जोकारो कायबो णीयं चकमियचं छंदाणुवत्तिणा होयचं, सो णगरं पधाविओ, अंतरा णेण वाहा मिगाणं णिलुका दिहा, वड्डेणं सद्देणं| जोकारोत्ति भणितं, तेणं सद्देणं मा पलाणा, तेहिं घेत्तुं पहतो, सम्भावो णेण कहिओ, भणितो तेहि-जदा एरिस पेच्छे-II जासि, तदा णिलुकतेहिं णीय आगंतवं, य उल्लविज्जति, सणि वा, ततो गेण रयगा दिट्ठा, ततो णिलुकंतो सणिअं| एति, तेसिं च रयगाणं पोत्ता हीरंति, धाणयं बर्द्ध, रक्खंति, एस चोरोत्ति बंधिओ पिट्टिओ सम्भावे कहिए मुक्को, सुत्रांक दीप अनुक्रम एकमिनगरे एका महिला, सा भर्तरि एते काहादीन्यपि तावद्विक्रीतवती, गर्दिताः म इति बजीवन्ती भुलकं पुर्व गृहीत्या प्रामं प्रोषिता, स दारको वर्धमानः मातरं पृष्ठति-कमम पिता !, मृत इति, स केन जीविकाषितः । भणति-अवलगनया, ततो भगति-अहमपि अवलगामि, सा भणति-न जानासि भवलगित, ततः कथमवलम्यते , भणित:-विनयं कुर्याः, कीरशो विनयः1, जोरकारः (जयोरकारः) कर्तव्यः नीचैर्गतम्यं छन्दोवृत्तिना भवितव्यं, स नगरं प्रधावितः, अन्तरा अनेन ग्याधा मृगेभ्यः (मगान् प्रहीतुं) निलीना इष्टाः, बृहता नाम्देन जोरकार इति भणितं, तेन याम्देन सुगाः पला-5॥ यिताः, दीवा प्रहतः, सजावोऽनेन कविता, भणितस-पदैतादर्श पश्येस्तदा निलीयमानेन गम्तम्ब, गपशलाप्यते, शनैः शनैर्वा, ततोऽनेन बजका रष्टाः) वसो निलीयमानः शनैः गच्छति, तेषां व रजकानां पनाणि हियन्ते, स्थानं वन रक्षन्ति, एप चौर इति पदः पिहितः सदाचे कविते मुक्ता Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 183 ~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] (४०) प्रत तेहि भणितं-सुद्धं भवतु, एगस्थ बीयाणि वाविजंति, तेण भणि-सुद्धं भवतु, तेहिवि पिट्टिओ, सम्भावे कहिए मुक्को, एरिसे-बहुं भवतु भंडं (डिं) भरेह एयस्स, अण्णत्थ मडयं णीणिज्जतं दर्दु भणति-बहु भवतु एरिसं, तत्थवि हतो, सन्भावे कहिए मुक्को भणितो एरिसे वुचति-अच्चंतविओगो भवतु एरिसेणं, अण्णत्थ विवाहे भणइ-अचंतविओगो भवतु एरिसेणं, तत्थवि हतो, सम्भावे कहिए भणितो-एरिसे(सा)णं णिचं पिच्छया होह सासयं च भवतु एयं, अण्णत्थ णिअलब यं दंडिअं दद्दूण भणति-णिच्वं एयारिसाण पेच्छंतओ होहि, सासतं च ते भवतु, तत्थवि हतो सम्भावे कहिए मुक्कोएयाओ भे लहुं मोक्खो भवतु, एयं भणिज्जसि, अण्णत्थ मिते संघाडं करेंति, तत्थ भणति-एयाओभेलहु मोक्खो भवतु, तत्थवि हतो सम्भावे कहिते मुक्को एगस्स दंडगकुलपुत्तगस्स अल्लीणो, तत्थ सेवंतो अच्छति । अण्णया दुम्भिक्खे तस्स कुलपुत्तगरस अंबिलजवागू सिंद्धल्लिया, भजाए से सो भणति-जाहि महायणमझाओ सद्देहि जो मुँजति सीतला अजोग्गा, सूत्राक दीप अनुक्रम माणितं-शुद्धं भवतु, एकत्र वीजानि अध्यन्ते, तेन भणितं-शुद्ध भवतु, तैरपि पिहितः, सद्भावे कथिते मुक्का, एतादृशे-बटु भवतु भावानि भरन्तु | एतेन, अन्यत्र सूतक नीयमानं दृष्ट्वा भणति-बहु भवस्वेतादर्श, तत्रापि इतः, सद्भावे कथिते मुक्तो भणितः एतारश उच्चते-अत्यन्त वियोगो भवस्वीहशेन, अन्यत्र विवाहे भणति-भवन्तं वियोगो भवत्वीरशेन, तत्रापि हतः, सदावे कधिते भपिता-दरशानां नित्यं प्रेक्षका भवत शावतं च भवस्वेतत्, अन्यत्र लिगउपदं दपिडकं दृष्ट्वा भणति-निसमेतारशानां मेक्षको भव, शाश्वतं च ते भवतु, तन्त्रापि इतः सजावे कषिते मुक्तः, एतस्मात् भवतां लघु मोक्षो भवतु, एतत् | भणेः, अन्यत्र मित्रादि संधाटकं कुर्वन्ति, सत्र भणति-एतस्मात् भवतां घुमोक्षो भवतु, तत्रापि हतः सदावे कयिते मुक्त एक दण्डिककुलपुरमालीनः, तन्त्र | सेवमानस्तिष्ठति । अन्यदा दुर्भिक्षे तसा कुलपुत्रकस्य अम्लयवागू सिद्धा, भार्यया तस्य स भणितः-याहि महाजनमध्याद पान्दय यत् भुले शीतलायोग्या, Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 184 ~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ १३३ ], भाष्यं [-] आवश्यक ते गंतु सो भणिओ-एहि किराई सीतलीहोति अंबेली, सो लज्जितो, घरंगएण अंबाडिओ, भणितो-एरिसे कज्जे णीअं कण्णे कहिज्जइ, अण्णया घरं पलित्तं, ताहे गंतुं सणिअं कण्णे कहेति, जाव सो तहिं अक्खाउं गतो ताव घरं सवं झामिअं, ॥ ९१ ॥ ४ तत्थावि अंबाडिओ भणिओ य- एरिसे कज्जे नवि गम्मति अक्खायएहिं अप्पणा चैव पाणीयाई काउं गोरसंपि छुम्भइ जहा तहा विज्झाउत्ति, अण्णया धुवंतस्स गोभत्तं छूढं । एवं जो अण्णंमि कहेयबे अण्णं कहेइ ताहे अणणुओगो भवति, सम्मं कहिज्जमाणे अणुओगो भवति ॥ सप्तैव च भवन्ति 'भावे' भावविषये अननुयोगानुयोगयोः प्रतिपादकानि | सप्तोदाहरणानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ १३३ ॥ तानि चामूनि - Education intimational सावगभजा १ सत्तवइए २ अ कुंकणगदारए ३ नउले ४ । कमलामेला ५ संबस्स साहसं ६ सेणिए कोवो ७ ॥ १३४ ॥ १ तेन गत्वा स भणितः, एहि किल शीतलीभवति रच्चा, लक्षितः, गृहगतेन तिरस्कृतः, भवितः ईदृशे कार्ये नीचैः कर्णयोः कथ्यते, अन्यदा गृहं प्रदीसं, तदा गत्वा शनैः कर्णयोः कथयति यावत्स तत्राख्यातुं गतस्तावद्दं सर्वं ध्यातं तत्रापि तिरस्कृतो मणितश्व- ईशे कार्ये नैव गम्यते आख्यायकेन, आत्मनैव पानीयादि कृत्वा गोरसं (गोभक्तादि) अपि क्षिप्यते, यथा तथा विध्यावत्विति, अन्यदा धूपयतः ( उपरि ) गोभक्कं ( उणादि ) क्षितं । एवं योऽन्यस्मिन् कथयितम् अन्यत् कथयति तदाऽननुयोगो भवति, सम्यक् कथ्यमाने अनुयोगो भवति । For Fast Use Onl मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] भाव अनुयोग अननुयोगे 'श्रावकभार्या' आदि सप्त दृष्टाता: ~ 185 ~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ९१ ॥ www.ncbrary.org "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-तत्र आवकभार्योदाहरणं-सांवगेण णिययभजाए वयंसिया विउबिया दिवा, अज्झोववण्णो, दुब्बलो भवति, महिलाए पुच्छिते निबंधे कए सिई, ताए भणित-आणेमि, तेहिं चेव वत्थाभरणेहिं अप्पाणं णेवस्थित्ता अंधयारे| अल्लीणा, अच्छितो, पच्छा बिइयदिवसे अधिति पगतो वयं खंडियंति, ताए साभिण्णाण पत्तियावितो। एवं जो ससमयबत्तवयं परसमयवत्तवयं भणति, उदइयभावलक्खणेणं उपसमियलक्खणं परवेति, ताहे अणणुओगो भवति, सम्म परूविजमाणे अणुओगोत्ति १ सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकः-सत्तपदिगो ऐगंमि पञ्चंतगामे एगो ओलग्गयमणूसो, साधुमाणादीणं न सुणेति, ण वा अल्लीणति, ण वा सेज देति, मा मम धम्म कहेहिन्ति, ताहे मा सदओ होहामित्ति । अण्णया कया तं गामं साहुणो आगता, पडिस्सयं मम्गति, ताहे गोहिलएहिं एसो न देतित्ति सोवि एतेहिं पवंचिओ होउत्ति तस्स घरं चिंधि, जहा एरिसो तारिसो सावगोत्ति तस्स घर जाह, तं गता पुच्छंता, दिहो, जाव ण चेव आढाति, तत्थेकेण साहुणा भावकेण निजभाया वयस्था पैक्रिया (उजूतरूपा) दृष्टा, अायुपपनो, दुर्बलो भवति, महेलया पृष्ट निर्बन्धे कृते शिर्ष, तया भपित-आनयामि। तरेव वखाभरणैरात्मानं नेपथ्यविस्खा अन्धकारे भालीना, स्थितः, पलाद्वितीयदिवसे अति प्रगतः तं खण्डितमिति, तया साभिज्ञानं प्रत्यायितः । एवं यः स्वसमयवतम्पतां परसमयवतम्यतां भणति, औदविकभावलक्षणेनौपशमिकलक्षणं प्ररूपपति, तदाऽननुयोगो भवति, सम्पङ प्ररूपमाणे अनुयोग इति । K२ साप्तपदिकः एकसिन् प्रत्यन्तग्रामे एकोऽवलगकमनुष्यः साधुबाह्मणादीनां न शूणोति न वा सेवते (बालीनोति)नचा शय्यां ददाति, मा मे धर्म चीकयन् इति बदामा सवयो भूवमिति । अन्यदा कदाचित् तं ग्रामं साधव भागताः, प्रतिनयं मार्गयन्ति, सदा गोष्ठीकैरेष न ददातीति सोऽप्येभिः प्रतितो भवस्विति तख गृहं दर्शितं यथा-मामाशो वा श्रावक इति तस्य गृहं यात, तदू गताः पृच्छन्तः, स्टो याववादियते, सीकेन साधुना दीप अनुक्रम SAAORG JABERaanitation lanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) S आवश्यक- ॥१२॥ विभागः१ प्रत भणिअं-जदि वा ण चेव सो एसो अहवा पर्वचिता मोत्ति, तं सोकण पुच्छिता तेण, कथितं जहा ! अम्ह कथितं हारिभद्री एरिसो तारिसो सावगोत्ति, सो भणति-अहो अकज्ज, ममं ताव पवंचतु, ता किं साधुणो पवंचितेन्ति, ताहे मा यवृत्तिः सारत्ता तेसिं होउत्ति भणति-देमि पडिस्सयं पकाए यवत्थाए-जदि मम धर्म ण कहेह, साहहिं कहियं-एवं होजत्ति, दिणं परं, परिसारत्ते वित्ते आपच्छतेहिं धम्मो कहिओ, तत्थ ण किंचि तरइ घेत्तुं मूलगुणउत्तरगुणाणं मधुम-IGI जमंसविरतिं वा, पच्छा सत्तपदिवयं दिण्ण-मारेउकामेणं जावइएणं कालेणं सत्त पदा ओसकिजति एवइ कालं पडिक्खित्तु मारेयवं, संबुझिस्सतित्तिकाउं, गता। अण्णया चोरो(रओ गतो, अवसउणेणं णिअत्तो, रत्तिं सणिअंघरं एति, तद्दिवस च तस्स भगिणी आगएलिआ, सा पुरिसणेवत्थिंआ भाउज्जायाए समं गोज्झपेक्खिया गया, ततो चिरेण आगया, णिद्द-1 फंताओ तहेव एकमि चेव सयणे सइयाओ, इअरो अ आगओ, ततो पेच्छति, परपुरिसोत्ति असिं करिसित्ता आहणेमित्ति, सुत्रांक ACRECR दीप अनुक्रम 564 भणित-यदि वा नव स एषोऽथवा प्रवद्धिताः इति, तच्छुत्वा पृष्टास्तेन, कधितं यथाऽस्माकं कषितं माया श्रावक इति, स भणति-अहो। भकार्य, मां तावत्प्रसञ्चयता, तत् किं साधवः अवश्यन्ते, मा तेषामसारसा भूत इति भणति-ददामि प्रतिश्रय एकया व्यवस्थया-यदि मयं धर्म न कथयत, साधुभिः कषितम्-एवं भवत्विति, वसं गृहं, वर्षाराचे वृत्ते भारष्टैधर्मः कथितः, नत्र म किञ्चित् शक्रोति प्रहीतुं मूलगुणोत्तरगुणानां मधुमयमांसविरति बा, पनातू सप्तपदिकवतं दत्त, मारयितुकामेन बापता कालेन सप्त पदानि अवयष्यन्ते एतावन्तं कालं प्रतीक्ष्य मारवितम्ब, संभोग्यत इतिकृत्वा गताः। भन्यदा चौरो (भूत्वा) गतः, अपशकुनेन निवृत्तः, रात्री शनैहमेति, तदिवसे च तस्य भगिनी आगता, सा पुरुषनेपथ्या भानु यया समं नृत्यविशेषप्रेक्षिका गता, सतभिरणागता, निहाकान्ते तकमिानेच शयने शविते, इतरमागतः, ततः पश्यति, परपुरुष इत्यसि कहा भाहन्भीति वर्थ कारण S wlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक SAMASSACRACKASA वतं सुमरियं, ठितो सत्तपदंतरं, एअंमि अंतरे भगिणीअ से बाहा भजाए अतिआ, ताए दुक्खाविनंतियाए भणिअंहला! अधणेहि वाहाओ मे सीसं, तेण सरेण णाया भगिणी एसा मे पुरिसणेवत्थत्ति लज्जितो जातो, अहो मणागं मए अकज न कयंति । उवणओ जहा सावगभजाए, संबुद्धो, विभासा, पबइओ२। KI इदानी कोङ्कणकदारकोदाहरणम्-कोंकणंगविसर एक्को दारगो, तस्स माया मुया, पिता से अण्णमहिलिअंण लभति सवत्तिपुत्तो अस्थित्ति । अण्णदा सपुत्तो कहाणं गतो, ताहेणेण चिंतिअं-एअस्स तणएण महिल ण लभामि, मारेमित्ति कंडं खित्तं, आणत्तो-वच्च कंडं आणेहि, सो पहावितो, अण्णेणं कंडेणं विद्धो, चेडेण भणिअं-किं ते कंडं खित्तं, विद्धो मित्ति, पुणोवि खितं, रडन्तो मारिओ, पुर्व अजाणतेण विद्धोमित्ति अणणुओगो, मारिजामित्ति एवं णाते अणुओगो, अहवा सारक्खणिजं मारेमित्ति अणणुओगो, सारक्खंतस्स अणुओगो । जहा सारक्खणिजं मारेंतो विपरीतं करेति, वतं स्मृत, स्थितः सप्तपदान्तर, अन्नान्तरे भगिन्यास्तस्य भुजो भार्ययाऽऽक्रान्तः, तया दुःखितया (दुःखयन्त्या) भणितम्-हले ! अपनय भुजाया मे | शिरः, सेन स्वरेण ज्ञाता भगिनी एषा मे पुरुषनेपध्येति सजितो जातः, अहोमनाक् (बिलम्बेन) मया अकार्य न कृतमिति । उपनयो यथा श्रावकभाषया, संवृद्धो, | निभाषा, प्रबजितः। २ कोकणकविषये एको दारकः, तस्स माता मृता, पिता तस्म भन्थम हेलां न लभते सपशीपुत्रोऽस्तीति, अन्यदा सपुत्रः काटेभ्यो गता, | तदाऽनेन चिन्तित एतेन समयेन मदेसी मलमे, मारयामीति धारः क्षिप्तः, आज्ञप्तः-ग्रज शरमानप, स प्रभावितः, अन्येन शरेण विद्धः, पेटकेन (वारण) भणित-किं त्वया शरः क्षिप्तः, विद्धोऽसीति, पुनरपि क्षिप्तः, रटन मारितः, पूर्वमजानता विद्धोऽसीति (पुत्रविचारे) अननुयोगः, मायें इमिखेवं ज्ञावे अनु| योगा, अथवा संरक्षणीयं मायामीति अननुयोगः (पितुः) संरक्षतः अनुयोगः । यथा संरक्षणीयं मारयन् विपरीतं करोति, दीप अनुक्रम JNEERIEREITLITERATUTTA Saintainsionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - आवश्यक॥ ९३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [ १३४], आष्यं [-] एवं अण्णं परुवेयवं अण्णं परुवेमाणस्स विपरीतत्वात् अणणुओगो भवति, जहाभूतं परूवेमाणस्स अणुओगो भवति ‍। उले उदाहरण-एगा चांरगभडिया गब्भिणी जाया, अण्णावि णडलिया गम्भिणी चेव, तत्थ एगाए राईए ताओ सरिसिआओ पसूआओ, ताए चिंतिअं - मम पुत्तस्स रमणओ भविस्सइ, तस्स पीर्यं खीरं च देति । अण्णआ तीसे अविरतिआए खंडंतीए जत्थ मंचुलिआए सो डिकरओ उत्तारितो, तत्थ सप्पेणं चडिसा खड़तो मतो, इतरेण णउलेण ओयरंतो दिट्ठो मंचुलिआओ सप्पो, ततो ोणं खंडाखंडि कतो, ताहे सो तेण रुहिरलित्तेणं तुंडेणं तीसे अविरतियाए मूलं गंतूण चाडूणि करेइ, ताए णायं एतेण मम पुत्तो खइओ, मुसलेण आहणित्ता मारितो, ताहे धावंती गया पुत्तस्स मूलं, जाव सप्पं खंडाखंडीकयं पासति, ताहे दिगुणतरं अधितिं पगता । तीसे अविरइआए पुषिं अणणुओगो पच्छा अणुओगो, एवं जो अण्णं परुवेयवं अण्णं परुवेति सो अणणुओओ, जो तं चैव परूवेति तस्स अणुभगो ४ । १ एवमन्यारूपयितव्यं ( यत्र तत्र ) अन्यत् प्ररूपयतः विपरीतत्वात् अननुयोगो भवति यथाभूतं रूपयतः अनुयोगो भवति. २ नकुलविषयमु दाहरणं एका चारकभट्टिनी (भर्तृका) गर्भिणी जाता, अन्याऽपि नकुलिका गर्भिणी चैव तत्रैकस्यां रात्री ते युगपत् प्रसूते, तथा चिन्तितं मम पुत्रख रमणको भविष्यति, तस्मै (पृथुकं क्षीरं च दते । अन्यदा तस्यां अविरयां कण्डयन्यां यत्र मचिकायां स पुत्रः अवतारितः (शायितः), तत्र सर्वेण पठित्वा खादितः (दष्टः सुतः, इतरेण मकुलकेनावतरन् दृष्टः मचिकायाः सर्पः, ततस्तेन खण्डखण्डीकृतः, तदा स तेन रुधिरलिप्तेन तुण्डेन तस्या अविरत्या मूलं गत्वा चाटूनि करोति तथा ज्ञातं एतेन मम पुत्रः खादितः, मुशलेनाहत्य मारितः तदा धावन्ती गता पुत्रस्य मूर्ख, पावस खण्डखण्डीकृतं पश्यति तदा द्विगुणामप्रति प्रगता । तस्या अविरतेः पूर्वमननुयोगः पश्चादनुयोगः, एवं योज्यत् प्ररूपयितव्यमन्यत् प्ररूपयति सोऽननुयोगः यस्तदेव प्ररूपयति तस्य अनुयोगः । Education national For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 189~ ॥ ९३ ॥ www.ancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) प्रत कमलामेलाउदाहरण-बारवईए बलदेवपुत्तस्स निसढस्स पुत्तो सागरचंदो रूवेणं उकिहो, सबेसि संवादीणं इहो, तत्थ य बारवईए वत्थषरस व अण्णस्स रण्णो कमलामेलानाम धूआ उकिसरीरा, सा य उम्गसेणपुत्तस्स णभसेणस्स वरेलिया, इतो य णारदो सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगतो, अन्भुडिओ, उपविढे समाणे पुच्छति-भगवं! किंचि अच्छेरय दिड, आम दिई, कहिं ? कहेह, इहेव वारवईए कमलामेलाणामदारिया, कस्सइ दिण्णिआ, आम, कर्थमम ताए। समं संपओगो भवेजा, ण याणामित्ति भणित्तागतो। सोय सागरचंदो तं सोऊण णवि आसणे णवि सयणे धिति लभति, दारियं फलए लिहतो णामं च गिण्हतो अच्छति, णारदोऽवि कमलामेलाए अंतिअंगतो, ताएवि पुच्छिओ-किंचि अच्छेरयं दिछपुर्वति, सो भणति दुवे दिवाणि, रूवेण सागरचंदो विरूवत्तणेण णभसेणओ, सागरचंदे मुच्छिता णहसेणए विरत्ता, णारएण समासासिता, तेण गंतुं आइक्खितं-जहा इच्छतित्ति । ताहे सागरचंदस्स माता अण्णे अ सूत्राक दीप अनुक्रम कमलामेलोदाहरण-द्वारिकायां बलदेवपुत्रस्य निषधस्य पुनः सागरचन्द्रः रूपेणोत्कृष्टः, सर्वेषां शाम्यादीनामिष्टः, तत्र च द्वारिकायां वास्तव्यस्यैव अन्यस्य राज्ञः कमलामेलानाझी दुहिता उस्कृष्टशरीरा, सा चोग्रसेनपुत्रेण नभःसेनेन वृता, इता नारदः सागरचन्द्रस्य कुमारस्य सकाशं (पार्थ)आगतः, अभ्युस्थितः, उपविष्टे सति पृच्छति-भगवन् ! किश्चिदाश्चर्य दृष्टम् । ॐदएं, क कययत, इहैव द्वारिकायां कमलामेलानाम्नी दारिका, कम्मैचिदत्ता',* कथं मम तया समं | संप्रयोगो भवेत् । न जानामीति भणित्वा गतः। स च सागरचन्द्रः सत् श्रुत्वा नाण्यासने नापि शयने प्रति लभते, तो दारिका फलके लिखन् नाम च गृहम् । | तिष्ठति, नारदोऽपि कमलामेलावा अन्तिक गतः, तयाऽपि पृष्टः (सुखनृत्तान्तः ) किविदाचा दृष्टपूर्वमिति, स भणति-वे दृष्टे रूपेण सागरचन्द्रः | विरूपतया नभःसेनः, सागरचन्दे मूर्छिता, नभःसेने विरका, नारदेन समाश्वासिता, तेन गत्वाऽऽख्यात-यथेच्छत्तीति, तदा सागरचन्द्रस्य माता अन्ये च JABERatinintamational wwjanataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- प्रत सूत्राक कुमारा आदण्णा मरइत्ति, संवो आगतो जाव पेच्छति सागरचंदं विलबमाण, ताहे णेण पच्छतो ठाइऊण अच्छीणि हारिभदीदोहिवि हत्थेहि छादिताणि, सागरचंदेण भणितं-कमलामेलत्ति, संवेण भणितं–णाहं कमलामेला, कमलामेलोऽह, साग-18 यवृत्तिः रचंदेण भणित-आमं तुम चेव मर्म विमलकमलदललोअणि कमलामेलं मेलिहिसि, ताहे तेहिं कुमारेहिं संबो मज्ज। [विभागः१ पाएत्ता अब्भुवगच्छाविओ, विगतमदो चिंतेति-अहो मए आलो अब्भुवगओ, इदाणी किं सक्कमण्णहाकाउं?, णिवहि-12 यवंति पज्जपणं पण्णत्तिं मग्गिऊण जंदिवसं तस्स णभसेणस्स विवाहदिवसो तद्दिवसं ते सागरचंदसंबप्पमुहा कुमारा| उज्जाणं गंतुं णारदस्स सरहस्सं दारिया सुरंगाए उज्जाणं णेत्तुं सागरचंदो परिणाविओ, ते तत्थ किडुता अच्छति । इतरे य तं दारियं ण पेच्छंति, मग्गंतेहिं उज्जाणे दिडा, विजाहररूवा विउषिया, णारायणो सबलो णिग्गओ, जाव | अपच्छिमं संवरूवेणं पाए पडिओ, सागरचंदस्स चेव दिण्णा, णभसेण तणया अ खमाविया । एत्थ सागरचंदस्स8 कुमाराः सिमा त्रियत इति, शाम्ब भागतो यावत्प्रेक्षते सागरचन्द्र विलपन्त, तयाऽनेन पयास्थित्वा अक्षिणी द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यो छादिते, सागरचन्द्रेण भणितं-कमलामेलेति, शाम्बेन भणित-माह कमलामेला कमलामेलोऽई, सागरचनेश मणित-एवं त्वमेव मां विमलकमलदललोचनो कमला| मेला मेलविष्यसि, तदा तैः कुमारः शाम्यो मथं पायविचाऽभ्युपगमिता, विगतमदचिन्तयति-महो मयाऽऽसमभ्युपगतं, इदानी कि पाक्यमन्यथाकत,12 ।॥१४॥ | निर्वहणीयमिति प्रद्युम्नं प्रज्ञप्ति मार्गविरवा यदिवसे तख नभासेनस्य निवाइदिवसः तसिन् दिपसे ते सागरचनशाम्बप्रमुखाः कुमारा उद्यान यत्वा नारदेन। सरहवं दारिको सुरक्रया उद्यानं नीत्वा सागरचन्द्रः परिणायितः, ते तन्त्र कीवन्तस्तिष्ठन्ति । इतरे च तो दारिकां न प्रेक्षन्ते, मार्गपजिरुषाने रटा, विद्याधररूपाणि विकृषितानि, नारायणः सबलो निर्गतः, यावत्यान्ते शाम्बरूपेण पादयोः पतितः, सागरचन्द्रायैव दचा, नमःसेनतनयाय क्षमिताः । अत्र सागरचन्द्रस्य. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~191~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) प्रत संबं' कमलामेलं मण्णमाणस्स अणणुओगो णाहं कमलामेलेति भणिते अणुओगो, एवं जो विवरीयं परूवेति तस्स अणणुओगो जहाभावं परुवेमाणस्स अणुओगो ५) संवस्स साहसोदाहरणं-जंबूवई णारायण भणति-एक्कावि मए पुत्तस्स अणाडिया ण दिहा, णारायणेण भणितंहै अज दाएमि, ताहे णारायणेण जंबूवतीअ आभीरीरूवं कर्य, दोवि तकं घेत्तुं बारबईमोइण्णाणि, महियं विकिणति, संबेण* |दिवाणि, आभीरी भणिता-एहि महिअं कीणामित्ति, सा अणुगच्छति, आभीरो मग्गेण एति, सो एकं देउलिअं पविसइ, सा आभीरी भणति–णाहं पविसामि किंतु मोल्लं देहि तो एत्थ चेव ठितो तकं गेण्हाहि, सो भणति-अवस्स पविसितवं, साणेच्छति, ताहे हत्थे लग्गो, आभीरो उद्धाइऊण लग्गो संबेण सम, संबो आवट्टितो, आभीरो वासुदेवो जातो इतरी जंबूवती, भंगुट्ठीकाऊण पलातो, बिईयदिवसे मड्डाए आणिज्जतो खीलयं घडतो एइ, जोकारे कए वासुदेवेण सूत्राक दीप अनुक्रम T शाम्ब कमलामेला मन्यमानस्थाननुयोगो नाई कमलामेलेति भणितेऽनुयोगः, एवं यो विपरीतं प्ररूषयति तस्यामनुयोगो यथाभावं प्ररूपयतः अनुयोगः। २ शाम्यस्य साहसोदाहरणम्-जम्यूबती नारायण भणति-एकाऽपि मया पुत्रस्य अनातिनं एष्टा, नारायणेन भणितम्-अध दर्शयामि, सदा नारायणेन जम्बूषत्या आमीरीरूपं कृतं, बावपि तक गृहीत्या द्वारिकामवती?, गोरस विक्रीणीतः, शाम्येन दृष्टी, आभीरी भणिता-एहि गोरस क्रीणामीति, साऽनुगच्छति, भाभीरः पृष्ठत एति, स एकं देवकुलं प्रविशति, साऽऽभीरी भणति-माहं प्रविशामि, किंतु मूल्यं दधास्तदाऽत्रैव स्थितसकं गृहाण, स भणतिअवश्यं प्रवेष्टव्यं, सामेच्छति, तदा हस्ते लमः, भाभीर उद्धाव्य लाः शाम्बेन समं, शाम्बोज्प्यावृत्तः, आभीरो वासुदेवो जात इतरा जम्बूप ती माही(शिरोऽवगुण्ठन) कृत्वा पलायितः, द्वितीय दिवसे बलात्कारेण आनीयमानः कीलकं घटयन् एति, जयोकारे कृते वासुदेवेन. wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) ९५॥ प्रत आवश्यक| पुच्छिओ-किं एवं घडिजतित्ति, भणति-जो पारिओसियं बोल्लं काहिति तस्स मुहे खोट्टिणिहित्ति । पढमं अणणुओगो हारिभद्री यवृत्तिः | णोत अणुओगो, एवं जो विवरीयं परूवेति तस्स अणणुओगो इतरस्स अणुओगो ६।। विभागः१ श्रेणिकविषयकोपोदाहरणं-रायगिहे णगरे सेणिओराया, चेल्लया तस्स भजा, सा वद्धमाणसामिमपच्छिमतित्थगरं वंदित्ता 18 यालियं माहमासे पविसति, पच्छा साहू दिछो पडिमापडिवण्णओ, तीए रत्तिं सुत्तिआए हत्थो किहवि विलंबिओ, जया सीतेण गहिओ तदा चेतितं, पवेसितो हत्थो, तस्स हत्थस्स तणपणं सर्व सरीरं सीतेण गहिअंतीए भणि-स तवस्सी किं करिस्सति | संपय? पच्छा सेणिपण चिंतिय-संगारदिण्णओ से कोई, रुहेण कल्लं अभओ भणिओ-सिग्धं अंतेजरं पलीकेहि, सेणिओ गतो सामिसगासं,अभएण हस्थिसाला पलीविया,सेणिओ सामिपुच्छति-चेल्लणाकिं एगपत्ती अणेगपत्ती?,सामिणा भणि-एगपत्ती, सुत्रांक दीप अनुक्रम पृष्टः-किमेतत् धन्यते इति, भणति-या पर्युषितं वृत्तान्तोहापं करिष्यति तस्य मुखे झेप्स्यते इति । प्रथममननुयोगः ज्ञाते अनुयोगः, एवं यो विपरीत प्ररूपयति रामपाननुयोग इतरख अनुयोगः, २ राजगृहे नगरे श्रेणिको राजा चेछना तस्य भार्था, सा वर्धमानस्वामिनमपत्रिमतीर्थकर वन्दिया निकाले माधमासे प्रविशति, पश्चात् साधुईष्टः प्रतिपन्नप्रतिमः, तस्सा रात्रौ सुप्ताया इस्तः कथमपि विलम्बितः (बहिः स्थितः) यदा शीतेन गृहीतः सदा चेतितं, प्रवे. शिवोहता, तस्य हस्तम सम्बन्धिना सर्व पारीर कीसेन गृहीतं, पश्चात् तया भणित-स तपस्वी किं करिष्यति साम्पतं , पत्रात श्रेणिकेन चिन्तित दससहेत्तो-N ऽस्या: कवित, रुटेन कम्येभयो भणित:-शीघ्रमन्तःपुरं प्रदीपय, श्रेणिको गतः स्वामिसकाशं, अभयेन हस्तिषशाला प्रदीपिता, बेणिकः स्वामिनं पृच्छति-18 चेलना किमेकपली अनेकपली!, स्वामिना भणितं-एकपती, eu॥ Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक ताहे मा डझिहितित्ति तुरितं णिग्गओ, अभओ णिप्फिडति, सेणिएणं भणिों-पलीवितं !, सो भणति-आमं, तुर्म किंण पविट्ठो, भणति-अहं पषइस्सामि किं मे अग्गिणा , पच्छा णेण चिंतिअं-मा छड्डिजिहितित्ति भणितं-ण डझत्ति । सेणियस्स चेल्लणाए पुर्वि अणणुओगो पुच्छिए अणुओगो, एवं विवरीए परूविए अणणुओगो जहाभावे परुविए अणुओगो ७ ॥ १३४ ॥ इत्थं तावदनुयोगः सप्रतिपक्षः प्रपश्चेनोक्तः, नियोगोऽपि पूर्वेप्रतिपादितस्वरूपमात्रः सोदाहरणोऽनुयोगवदवसेयः, साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तभाषादिस्वरूपप्रतिपादनायाह कढे १ पुत्थे २ चित्ते ३ सिरिघरिए ४ पुंड ५ देसिए ६ चेव । भासगविभासए वा वत्तीकरणे अ आहरणा ॥१३५॥ &I व्याख्या-तत्र 'काष्ठ' इति काष्टविषयो दृष्टान्तः, यथा काष्ठे कश्चित् तद्रूपकारः खल्वाकारमानं करोति, कश्चित्स्थ लावयवनिष्पत्ति, कश्चित् पुनरशेषाङ्गोपाङ्गाद्यवयवनिष्पत्तिमिति, एवं काष्ठकल्पं सामायिकादिसूत्र, तत्र भाषकः परिस्थूरमर्थमात्रमभिधत्ते-यथा समभावः सामायिकमिति, विभाषकस्तु तस्यैवानेकधाऽर्थमभिधत्ते-यथा समभावः सामायिक, समानां वा आयः समायः स एव स्वार्थिकप्रत्ययविधानात्सामायिकमित्यादि, व्यक्तीकरणशीलो व्यक्तिकर।, यः खलु निरवशेषव्युत्पत्त्यतिचारानतिचारफलादिभेदभिन्नमर्थं भापते स व्यक्तिकर इति, स निश्चयतश्चतुर्दशपूर्वविदेव, इह च तदा मा दाहीति त्वरित निर्गतः, अभयो निस्सरति, श्रेणिकेन भणितं-प्रदीपितं !, स भणति-आमं, त्वं किं न प्रविष्टः !, भणति-अई प्रमजिप्यामि कि ममाभिना ? पश्चादनेन चिन्तितं-मा त्याक्षीदिति भणितं-दग्धेति । श्रेणिकस्य चेछनाया पूर्वमननुयोगः गृष्टेऽनुयोगः, एवं विपरीते प्ररूपितेऽननुयोगः यथाभावे प्ररूपिते अनुयोगः । दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भाषा आदे: स्वरुपम् प्रस्तुयते ~ 194 ~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३५], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥९६ ॥ प्रत सूत्राक भाषकादिस्वरूपव्याख्यानात् भाषादय एवं प्रतिपादिता द्रष्टव्याः, कुतः?, भाषादीनां तत्प्रभवत्वात् १ । इदानीं पुस्त- हारिभद्री| विषयो दृष्टान्तः-यथा पुस्ते कश्चिदाकारमात्रं करोति, कश्चित् स्थूरावयवनिष्पत्ति, कश्चित्त्वशेषावयवनिष्पत्तिमिति, दाा- यवृत्तिः |न्तिकयोजना पूर्ववत् २॥ इदानी चित्रविषयो दृष्टान्तः-यधा चित्रकर्मणि कश्चित् वत्तिकाभिराकारमात्रं करोति, कश्चित्तविभागार हरितालादिवर्णो दं, कश्चित्त्वशेषपर्यायनिष्पादयति, दार्शन्तिकयोजना पूर्ववत् ३ । श्रीगृहिकोदाहरणं-श्रीगृह-भाण्डागारं तदस्यास्तीति 'अत इनिठनौ' (५-२-११५) इति ठनीकादेशे च कृते श्रीगृहिक इति भवति, तदृष्टान्तः-तत्र कश्चिद् रलानां भाजनमेव वेत्ति-इह भाजने रक्षानीति, कश्चित्तु जातिमाने अपि, कश्चित्पुनर्गुणानपि, एवं प्रथमद्वितीयतृतीयकल्पा भाषकादयो द्रष्टव्याः ४। तथा 'पॉर्ड' इति पुण्डरीकं पद्म तद् यथेषद्भिन्नार्धभिन्नविकसितरूपं त्रिधा भवति, एवं भाषादि विज्ञेयं ५ । इदानी देशिकविषयमुदाहरणं-देशनं देशः कथनमित्यर्थः, तदस्यास्तीति देशिकायथा कश्चिद्दे-15 शिकः पन्थानं पृष्टः दिङमात्रमेव कथयति, कश्चित् तब्यवस्थितनामनगरादिभेदेन, कश्चित् पुनस्तदुस्थगुणदोषभेदेन | कथयतीति, दाान्तिकयोजना पूर्ववत् ज्ञेया ६। एवमेतानि भाषकविभाषकव्यक्तिकरविषयाण्युदाहरणानि प्रतिपादितानि इति गाथार्थः ॥१३५॥ इत्थं तावद्विभाग उक्तः, इदानी द्वारविधिमवसरमाप्तं विहाय व्याख्यान विधिं प्रतिपादयनाहगोणीरचंदणकंधारचेडीओ३ सावएश्वहिर ५गोहे ६ । टंकणओ ववहारो७, पडिवक्खो आयरियसीसे॥१३६॥ आह-चतुरनुयोगद्वारानधिकृतो व्याख्यानविधिः किमर्थं प्रतिपाद्यत इति, उच्यते, शिष्याचार्ययोः सुखश्रवणसुखव्याख्यानप्रवृत्त्या शास्त्रोपकारार्थः, अथवा अधिकृत एव वेदितव्यः, कुतः, अनुगमान्तभोंवात्, अन्तभोवस्तु दीप अनुक्रम ॥ ९६ JABER मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: व्याख्यानविधि प्रतिपादनाय गो: इति दृष्टान्ताः, धृतस्य उदाहरणं ~ 195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) -* प्रत सूत्राक व्याख्यानत्वात् इति । आह-यद्यसावनुगमाङ्गं ततः किमित्ययं द्वारविधेः पूर्व प्रतिपाद्यते?, उच्यते, द्वारविधेरपि बहुवक्तव्यत्वात् मा भूदिहापि व्याख्याविधेविपर्ययः, अतोऽत्रैव आचार्यशिष्ययोर्गुणदोषाः प्रतिपाद्यन्ते, येन आचार्यों गुणवते शिष्यायानुयोगं करोति, शिष्योऽपि गुणवदाचार्यसन्निधावेव शृणोतीति । आह-यद्येवं व्याख्यानविधिरनुगमाङ्गं इहावतार्योच्यते तत्कथं द्वारगाथायामप्येवं नोपन्यस्त इति, उच्यते, सूत्रव्याख्यानस्य गुरुवख्यापनार्थ, विशेषेण सूत्रव्याख्यायां आचार्यः शिष्यो वा गुणवानन्वेष्टव्य इत्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमःप्रक्रान्तगाथाव्याख्या-तत्र गोदृष्टान्तः, एते चाचार्यशिष्ययोः संयुक्ता दृष्टान्ताः, एक आचार्यस्य एकः शिष्यस्येति द्वौ वा एकस्मिन्नेवावतार्याविति । VI एगमि' णगरे एगेण कस्सइ धुत्तस्स सगासाओ गावी रोगिता उद्वितंपि असमत्था णिविद्या चेव किणिता. ४ सो तं पडिविकिणति, कायगा भणंति-पेच्छामो से गति पयारं तो किणीहामो, सो भणति-मएवि उवविद्या चेव गहिया, जदि पडिहाति ता तुम्हेवि एवमेव गिण्हह । एवं जो आयरिओ पुच्छितो परिहारंतरं दाउमसमत्थो भणति-मएवि एवं सुयं तुम्हेवि एवं सुणहत्ति, तस्स सगासे ण सोअचं, संसइयपयत्वंमि मिच्छत्तसंभवा, जो पुण एकमिन्नगरे एफेन कस्यचितूर्तस्य सकाशाङ्कौगिणी बत्थातुमप्पसमा निविष्टैच कीता, स तां प्रतिविक्रीणाति, कायका भणन्ति-प्रेक्षामहेऽस्या गतिप्रचार, ततः फेन्यामा, स भणति-मयापि उपविश्व गृहीता, यदि प्रतिभाति तदा यूवमपि एवमेव गृहीत । एवं व आचार्यः पृष्टः परिवारान्तरं दातुमसमर्थो IN भणति-मयाऽपि एवं श्रुतं यूयमपि एवं शृणुतेति, तस्य सकाशे न श्रोतव्यं, सांधाषिकपदार्थे मिथ्यावसंभवात, यः पुन दीप GES अनुक्रम JAMERatinintamational Handiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ धूर्तस्य उदाहरणं प्रस्तुयते ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥९७ ॥ प्रत अविफलगोविकिणगो इच अक्खेषणिण्णयपसंगपारगो तस्स सगासे सोयचं, सीसोऽवि जो अवियारियगाही पढमगोविकण- हारिभद्रीगोव सो अजोग्गो इतरो जोग्गोत्ति १।। यवृत्तिः | चंदणकथोदाहरणं-बारवईए वासुदेवस्स तिणि भेरीओ, तंजहा-संगामिआ उन्भुतिया कोमुतिया, तिण्णिवि गोसी-विभागः१ सचंदणमइयाओ देवयापरिग्गहियाओ, तस्स चउत्थी भेरी असिवुवसमणी, तीसे उप्पत्ती कहिज्जइ-सको सुरमज्झे| वासुदेवस्स गुणकित्तणं करेति-अहो उत्तमपुरिसाणं गुणा, एते अवगुणं ण गेण्हति णीएण य ण जुझंति, तत्थेगो देवो | असद्दहतो आगतो, वासुदेवोऽवि जिणसगासं वंदओ पहिओ, सो अंतराले कालसुणयरूवं मययं विउवेति वावण्णं दुन्भिगंध, तस्स गंधेण सबो लोगो पराभग्गो, वासुदेवेण दिछो, भणितं चणेण-अहो कालसुणगस्सेतस्स पंडुरा दंता, सोहंति, देवो चिंतितो-सचं सचं गुणग्गाही। ततो वासुदेवस्स आसरयणं गहाय पधावितो, सो बंडुरापालएण णाओ, तेण सूत्राक ACCORROAD दीप अनुक्रम विकलगोविनायक वाक्षेपनिर्णयप्रसापारगः तख सकायो धोतव्यं, शिष्योऽपि योऽपिचायग्राही प्रथमगोविकायक इव सोऽयोग्यः, इतरो योग्य | इति ।।२ चन्दनकन्धोदाहरण-द्वारिकायां वासुदेवस्य तिखो भेयः, तद्यथा-समामिकी भाभ्युदविकी कौमुदीकी, तिसोऽपि गोशीर्षचन्दनमय्यो देवतापरिगहोता तस चतुर्थी भेरी अशियोपशमनी, तस्या उत्पत्तिः कथ्यते-पाकः सुरमध्ये वासुदेवस्य गुणकीर्तनं करोति-अहो उत्तमपुरुषाणां गुणाः, एते अवगुणं न गृहन्ति नीचेन च न युध्यन्ते, तत्रैको देवोऽश्रदधत् आगतः, वासुदेवोऽपि जिनसकाशं बन्दकः (बन्दनाय) प्रस्थितः, सोऽन्तराले कृष्णवरूपं मृतकं विक-मा पैति व्यापमं दुरभिगन्ध, सस्थ गन्धेन सर्यो कोकः पराभन्मः, वासुदेवेन दृष्टः, भणितं चानेन-अहो कृष्णानः एतस्य पाण्डरा दन्ताः शोभन्ते, देवधिस्तितवान्-सत्यं सत्यं गुणग्राही । ततो वासुदेवस्वाश्वरवं गृहीत्वा प्रधाषितः, स मन्दुरापालकेन ज्ञातः, तेन चितेति. ॥९७॥ wlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: वासुदेव कृष्णस्य चन्दन्कन्या-भेर्या: उदाहरणं ~ 197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) कुवित, कुमारा रायाणो व निग्गया, तेण देवेण हयविहया काऊण धाडिआ, वासुदेवोऽवि निग्गओ, भणति-मम कीस | आसरयणं हरसि, देवो भणति-मं जुज्झे पराजिणिऊण गेण्ह, वासुदेवेण भणियं-बाद, किह जुज्झामो? तुम भूमीए अहं रहेण, ता रहं गिण्ह, देवो भणति-अल रहेणंति,एवं आसहत्धीवि पडिसिद्धा, बाहुजुद्धादियाई सवाई पडिसेहेइ, भणइला Vाय-अहिडाणजुद्धं देहि, वासुदेवेण भणि-पराजिओऽहं, णेहि आसरयणं, णाहं नीयजुज्झेण जुज्झामि, ततो देवो तुठो भणितादिओ-वरेहि वरं, किं ते देमि , वासुदेवेण भणिअं-असिवोवसमणी भेरी देहि, तेण दिण्णा, एसुप्पत्ती भेरीए। तहिं 3 हैसा छण्हं छह मासाणं वज्जति, पचुप्पण्णा रोगा वाही वा उवसमंति, णवगा बि छम्मासे ण उप्पजंति, जो सदं मुणेति। तत्थडण्णदा आगंतुओ वाणिअओ, सो अतीव दाहजरेण अभिभूतो भेरीपालयं भणइ-गेह तुर्म सयसहस्सं, मम एत्तो पलमेत्तं देहि, तेण लोभेण दिण्णं, तस्थ अण्णा चंदणथिग्गलिआ दिण्णा, एवं अण्णेणवि अण्णेणवि मन्गितो दिण्णं च,8 6454544%* प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम कृजितं, कमारा राजानम निर्गताः, सेन देवेन हतविहतीकृत्य घाटिताः, वासुदेवोऽपि निर्गतः, भणति-मम कस्मादश्वरले हरसि, देवो भणतिमा युद्दे पराजिल्य गृहाण, वासुदेवेन भणित-बाढ़, कयं युध्यावहे वं भूमौ अहं रथेन, सद् रथं गृहाण, देवो भवति-भल रयेनेति, एवमश्वहस्तिनावपि प्रतिषिद्धी, (बाहुयुद्धादीनि सर्वाणि प्रतिषेधयति, भणति च-अधिष्टानयुद्धं देहि, बासुदेवेन भणितं-पराजितोऽहं नय अवरत्न, नाहं नीचयुद्धेन युभ्ये, ततो देवस्तुधे भाणितवान्-शुष्य वरं, किं तुभ्यं ददामि?, वासुदेवेन भणितं-अशिवोपशमनी मेरी देहि, तेन दचा, एषोपनियोः । तत्र सापतिः पहिर्मासैः बाद्यते, प्रत्युत्पन्ना रोगा व्याधयो वोपशाम्बन्ति, नवका अपि पदसु मासेषु नोप्पधन्ते, यः शब्द शृणोति । तत्रान्यदाऽऽगन्तुको पणिछ, सोऽतीव दाहवरेणाभिभूतो मेरीपालक भणति-गृहाण स्वं शतसहसं, ममैतस्मात् पळमात्रं देहि, तेन लोभेन दत्तं, तत्रान्या चन्दनधिग्गलिका दचा, एवमन्येनापि अन्येनापि मार्गितो दचं च * वाहे. JABERatinintamational Rainrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) हारिभद्रीयवृत्ति विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यका सा चंदणकथा जाता, अण्णदा असिवे वासुदेवेण ताडाविया, जाव तं चेव सभ ण पूरेति, तेण भणि-जोएइ भेरि, दिवा कंथीकता, सो भेरिवालो ववरोविओ, अण्णा भेरी अट्ठमभत्तेणाराहइत्ता लद्धा, अण्णो भेरिवालो कओ, सो आय॥९८॥ रक्खेण रक्खति, सो पूइतो-जो सीसो सुत्तत्थं चंदणकंथांव परमतादीहिं । मीसेति गलितमहवा सिक्खितमाणी ण सो जोग्गो ॥१॥ कंथीकतसुत्तत्थो गुरुवि जोग्गो ण भासितबस्स । अविणासियसुत्तत्था सीसायरिया विणिदिवा ॥२॥२॥ . इदानी पेटयुदाहरणम्-वसंतपुरे जुण्णसेहिधूता, णवगस्स य सेहिस्स धूआ, तासिं पीई, तहवि से अस्थि धेरो अम्हे | एएहिं उबहिताणि, ताओ अण्णा कयावि मजितुं गताओ, तत्थ जा सा णवगस्स धूआ, सा तिलगचोदसगेणं अलंकारेण अलंकिआ, सा आहरणाणि तडे ठवेत्ता उत्तिण्णा, जुण्णसेहिधूआ ताणि गहाय पधाविता, सा वारेति, इतरी अकोसंती गता, ताए मातापितीणं सिई, ताणि भणंति-तुण्हिका अच्छाहि, णवगस्स धूआ ण्हाइत्ता णियगघरं गया, अम्मापिईहिं| सा (भेरी) चन्दनकन्या जाता, अम्बदाऽशिवे चासुदेवेन ताडिता, यावत्ता सभामपि न पूरयति, तेन भणितं पश्यत भेरी, दष्टा कम्पीकता, स ला भेरीपालो व्यपरोपितः, भन्या भेर्यष्टमभक्तेनाराभ्य लब्धा, अन्यो भेरीपालकः कृतः, स आत्मरक्षेण रक्षति, स पूजितः-यः शिष्यः सूत्राय चन्दनकन्धामिव परमतादिभिः । मित्रयति गलितमथवा शिक्षितमानी, न स योग्यः । । । कन्थीकृतसूत्रार्थों गुरुरपि योग्यो न भाषितम्यस्य (अनुयोगस्य) अविनाशितसूत्रायाः शिष्याचा विनिर्दिष्टाः ।२।२ वसन्तपुरे जीर्णश्रेष्टिदुहिता, नवस्य च श्रेष्ठिनः दुहिता, तयोः प्रीतिः, तथापि तयोरति वैर वयमेतैरवर्तितानि, ते अन्यदा कदाचिम्मकुंगते, तत्र या सानवकस्य दुहिता, सा तिलकचतुर्दशकेन अलकारेणालता, साभरणानि तटे स्थापयित्वाऽवतीर्णा, जीर्णष्ठिदुहिता तानि गृहीत्वा प्रधाविता, सा वारयति, इतरामोशन्ती गता, तया मातापितृभ्यां शिष्टं, तो भगतः-तूष्णीका तिष्ठ, नवकस्य दुहिता वास्वा निजगृहं गता, मातादपितृभ्यो * कन्याकया. + वालओ. 1 आदरेण कथं क. 44444SAGROCERORS दीप अनुक्रम M॥९८॥ JAMERatinine Mondinaryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) प्रत 5564%954555 साहइ, तेहिं मग्गिय, ण देंति, राउले ववहारो, तत्थ णथि सक्खी, तत्थ कारणिया भणंति-चेडीओ वाहिजंतु, तेहिं| वाहिता भणिता-जति सुज्झच्चयं ता आविंध, ताहे सा जुण्णसेडिचेडी जं हत्थे तं पाए, ण जाणति, तं च से असिलिह, ताहे तेहिं णाअं-जहा एयाई इमीसे ण होति, ताहे इतरी भणिआ-तुमे आर्विध, ताए कमेण आविद्धं, सिलिडं च से जायं, भणिया य-मेल्लाहि, ताए तहेव णिच्चं आमुचंतीए पडिवाडीए आमुकं, ताहे सो जुण्णसेट्ठी डंडितो। जहा सो एगभविअं मरणं पत्तो, एवायरिओविज अण्णस्थ तं अण्णहिं संघाडेति, अण्णवत्तवाओ अण्णत्थ परूवेति उस्सग्गादिआओ, एवं सो संसारदंडेण दंडिजति, तारिसस्स पासे ण सोतवं, जहा सा चेडी जसं पत्ता, एवं चेवायरिओ जो ण विसंवाएति, तेण अरिहंताणं आणा कता भवति, तारिसस्स पासे सोयम् । एत्थ गाथा-अस्थाणथनिउत्ताऽऽभरणाणं जुण्णसेद्विधूअधाण सूत्राक दीप अनुक्रम कथयति, ताभ्यो मार्गितं, न दत्तः, राजकुले व्यवहारः, तत्र नास्ति साक्षी, तत्र कारणिका भणन्ति-चेम्वौ व्याहिता, तैयाहत्य भणिता यदि वावकीनं तिलकचतुर्दशकं तदा परिधेदि, तदा सा जीर्णश्रेष्ठिचेटी यत् हसे (हस्तासम्बन्धि) तत् पादे (परिवधाति), न जानाति, तच तस्या अश्लिष्ट, तदा तैति-ययैतान्यस्या न भवन्ति, तदेवरा भणिता-वं परिधेहि, तथा कमेण परिहितं, लिष्टं च तस्या जातं, भणिता च-मुन, तया तथैव नित्यमामुञ्चन्त्या परिपाया आमुफ, तदा स जीर्ण श्रेष्ठी दण्डितः । यथा स एकभाविकं मरणं प्राप्तः, एबमाचार्थोऽपि यत् (सूत्रं) अन्यत्र (उत्सगांदी) तद् अन्यत्र (अपवादादी) संघातयति, अन्ववक्तव्यता अन्यत्र प्ररूपयति उत्सर्गादिकाः, एवं स संसारदण्देन दण्डवते, तारशस्त पार्भे न श्रोतव्यं, यथा सा चेटी यशः प्राप्ता, एवमेवाचार्यो यो न विसंवादयति, तेनाहता आज्ञा कृता भवति, तादृशस्त्र पार्धे श्रोतव्यं । अत्र गाथे-अस्थानार्थनियोक्ता आभरणानां जीर्णश्रेष्टिदुहितेव । न * वाहिता. + एते से.णिो . मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥९९॥ प्रत गुरू विधिभणिते वा विवरीयनिओअओ सीसो ॥१॥ सत्थाणत्थनिउत्ता ईसरधूआ सभूसणाणं व । होइ गूरूहारिभद्रीसीसोऽविअ विणिओ तो जहा भणितं ॥२॥ ३॥ श्रावकोदाहरणं पूर्ववत्-नवरमुपसंहारः-चिरपरिचितंपि यवृत्तिः ण सरति सुत्तत्थं सावगो सभज व । जो ण सो जोग्गो सीसो गुरुत्तर्ण तस्स दूरेणं ॥१॥४ ।। विभाग-१ बधिरगोदाहरणं पूर्ववदेव, उपसंहारस्तु गाथयोच्यते-अण्णं पुट्ठो अण्णं जो साहइ सो गुरू ण बहिरोथ । ण य | सीसो जो अण्णं सुणेति अणुभासए अणं ॥ १ ॥ ५ । एवं गोधोदाहरणोपसंहारोऽपि वक्तव्यः ६ । इदानीं टणकोदाहरणं-उत्तरॉवहे टंकणा णाम मेच्छा, ते सुवण्णणं दक्षिणावहाई भंडाई गेण्हंति, ते य परोप्परं। भासं ण जाणंति, पच्छा पुंजं करेंति, हत्थेण उँ छाएंति, जाव इच्छा ण पूरति ताव ण अवर्णेति, पुण्णे अवणेति, एवं सुत्रांक दीप अनुक्रम गुरुः विधिमाणिते वा विपरीत नियोजकः शिष्यः । । । स्वस्थानार्थ नियोक्का ईश्वरदुहिता स्वभूषणानामिव । भवति गुरुः शिष्योऽपिच विनियोग तद (विनियोजयन्) बथा भणितम् । ३। २ चिरपरिचितावपि न मारति सूत्राधौँ श्रावकः स्वभार्यामिव । यो न स योग्यः शिष्यः गुरुवं तस्य दूरेण । ३ भन्यस्पृष्टोऽन्यत् यः कथयति स न गुरुधिर इव । न च शिष्यो योऽन्यच्छृशोत्यनुभाषतेऽन्यत् । ।। ४ उत्तरापथे दहणानामानो म्लेच्छाः, ते सुवर्णेन दक्षिणापथानि भाण्डानि गृहन्ति, ते च परस्परं भाषां न जानने, पश्चात् पुञ्ज कुर्वन्ति, हस्तेन स्वाच्छादयन्ति, यावदिच्छा न पूर्यते वावनापनयन्ति, पूर्णेऽपनयन्ति, एवं हत्येण अछाडेति. 4 ॥१९॥ www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [– /गाथा ], निर्युक्ति: [ १३६], भाष्यं [-] ते'सिं इच्छियपडिच्छियववहारो एवं अक्खेवनिण्णयपसंगदाणग्गहणाणुवत्तिणो दोवि । जोग्गा सीसायरिआ टंकणवणिओवमा एसा ॥ १ ॥ ७ ॥ इत्थंप्रकारेण गवादिषु द्वारेषु साक्षादभिहितार्थविपर्यय:- प्रतिपक्षः आचार्यशिष्ययोर्यथायोगं योजनीयः, स च योजित एवेति गाथार्थः ॥ १३६ ॥ इदानीं विशेषतः शिष्यदोषगुणान् प्रतिपादयन्नाह कस्स न होही वेसो अनभुवगओअ निरुवगारी अ । अप्पच्छंदमईओ पद्विअओ गंतुकामो अ ॥ १३७ ॥ विणओणएहिं कriजलीहि छंदमणुअत्तमाणेहिं । आराहिओ गुरुजणो सुर्य बहुविहं लहुं देह ॥ १३८ ॥ आह- शिष्यदोषगुणानां विशेषाभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, कालान्तरेण तस्यैव गुरुत्वभवनात्, अयो ग्याय व गुरुपदनिबन्धनविधाने तीर्थकराज्ञादिलोपप्रसङ्गात् । प्रथमगाथाव्याख्या - कस्य न भविष्यति द्वेष्यः- अप्रीतिकरः यः किम्भूतः १ - अभ्युपगतः अनभ्युपगतः श्रुतोपसंपदाऽनुपसंपन्न इति भावार्थः, उपसंपन्नोऽपि न सर्व एवाद्वेप्यो भवतीत्यत आह-' निरुपकारी च निरुपकर्त्तुं शीलमस्येति निरुपकारी, गुरोरकृत्यकारीत्यर्थः, उपकार्यपि न सर्व एवाद्वेष्य इत्यत आह-आत्मच्छन्दा आत्मायत्ता मतिर्यस्य कार्येषु असावात्मच्छन्दमतिः, स्वाभिप्रायकार्यकारीत्यर्थः, गुर्वायत्तमतिरपि न सर्व एवाद्वेप्यः अत आह— 'प्रस्थितः ' 1 तेषां ईच्छितीति (इप्सितप्रतीति) व्यवहार एवं आक्षेपनिर्णयप्रसङ्गदानमहणानुवर्त्तिनो द्वयेऽपि योग्या आचावैशिष्या टङ्कणयणिगुपमा एषा । * मुकेन. For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३८], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥१०॥ प्रत GAONGS सूत्राक संपस्थितद्वितीय इति, गन्तुकामश्च गन्तुकामोऽभिधीयते यो हि सदैव गन्तुमना व्यवतिष्ठते, वक्ति च-श्रुतस्कन्धादिप *हारिभद्रीरिसमाप्ताववश्यमहं यास्यामि, क इहावतिष्ठते इति, अयमयोग्यः शिष्य इति गाथार्थः ॥ १३७ ॥ इदानीं दोपपरिज्ञानपूर्व-|| | यवृत्तिः कत्वात् गुणाः प्रतिपाद्यन्ते-द्वितीयगाथाव्याख्या-विनयः-अभिवन्दनादिलक्षणः तेन अवनताः विनयावनताः तैरित्य-विभागः१ भूतैः सद्भिः, तथा पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यस्ते कृतप्राञ्जलयः तैः, तथा छन्दो-गुर्वभिप्रायः तं सूत्रोक्तश्रद्धानसमर्थनकरणकारणादिनाऽनुवर्तयनिः आराधितो गुरुजनः, 'श्रुतं' सूत्राओंभयरूपं 'बहुविध अनेकप्रकारं 'लघु' शीभं ददाति' |प्रयच्छतीति गाथार्थः ॥१३८॥ इदानीं प्रकारान्तरेण शिष्यपरीक्षा प्रतिपादयन्नाह-- सेलघण कुडग चालणि परिपूणग हंस महिस मेसे आमसग जलूग बिराली जाहग गोभेरि आभीरी ॥१३९॥ व्याख्या-एतानि शिध्ययोग्यायोग्यत्वप्रतिपादकान्युदाहरणानीति । किंच-चरियं च कल्पितं वा आहरणं दुविहमेव नायब । अस्थस्स साहणवा इंधणमिव ओदणहाए । १ । तत्थ इमं कप्पिों जहामुग्गसेलो पुक्खलसंवट्टओ अ महामहो जंबूदीवप्पमाणो, तत्थ णारयत्थाणीओ कलई आँलाएति-मुग्ग-1 | सेलं भणति-तुज्झ नामग्गहणे कए पुक्खलसंवट्टओ भणति-जहा णं एगाए धाराए विराएमि, सेलो| ॥१०॥ चरितं च कपितं वाऽऽहरणं द्विविधमेव शासम्यम् । अर्थस्य साधनार्थाय इन्धनानीबौदनार्थाय ।। तनेदं कपितं यथा-मुशैकः पुष्करसंवर्षका महामेधः जम्यूद्वीपप्रमाणः, तत्र नारवस्थानीयः कलहमालगयति (मायोजयति)-मुद्रशैलं भणति-तब नाममइणे ते पुष्कलसंवर्तको भणति-यथैकया धारया विद्दावयामि, शैल * आलो(जो एति. दीप अनुक्रम T मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति | शिष्यपरिक्षविषयक विविध-दृष्टांता: ~ 203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) प्रत उप्पासितो भणति-जदि मे तिलतुसतिभागपि उल्लेति तो णाम ण वहामि, पच्छा मेहस्स मूले भणति मुग्गसेलवयणाई, सो रुट्ठो, सबादरेण वरिसिउमारद्धो जुगप्पहाणाहि धाराहिं, सत्तरत्ते वुढे चिंतेति-विराओ होहित्ति ठिओ, पाणिए ओसरिए इतरो मिसिमिसिंतो उज्जलतरो जातो भणति-जोहारोत्ति, ताहे मेहो लज्जितो गतो । एवं चेव कोइ सीसो मुग्गसेलसमाणो एगमवि पदं ण लग्गति, अण्णो आयरिओ गज्जतो आगतो, अहं णं गाहेमित्ति, आह-आचार्यस्यैव तजाव्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते । गावो गोपालकेनेव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥ ताहे पढावेउमारद्धो, ण सकिओ, दलजिओ गओ, एरिसस्स ण दायर्व, किं कारणं ?-आयरिए सुत्तमि अ परिवादो सुत्तअस्थपलिम थी। अण्णेसिपियर हाणी पुढावि ण दुद्धया वंझा ॥१॥ पडिवक्खो कण्ह भूमी-बुढेवि दोणमेहे ण कण्हभोमाओ लोट्टए उदयं । गहणधरणासमत्थे इअ देयमछित्तिकारमि ॥१॥ सूत्राक - दीप अनुक्रम 94564560 सत्मासितो (असूषितः) भणति-यदि मे तिलतपत्रिभागमपि भावति तदा नाम न वहामि, पनारमेघस्य मूले भणति मुद्रशैलवचनानि, स रुष्टा, सादरेण वर्षितुमारब्धः, युगप्रधानाभिधाराभिः, सप्तरात्रं दृष्टे चिन्तयति-बिद्रुतो भविष्यति इति खितः, पानीयेऽपसते इसरो दीप्यन् उज्ज्वलतो जातो भणति-जुहारः (जयोकारः) इति, तदा मेघो लजितो गतः ॥ एवमेव कश्चिच्छिष्यो मुद्राकसमान एकमपि पदं न लगयति, अम्ब आचार्यः गर्जयन् आगतः, अहमेनं मायामि तदा पाठयिनुमारब्धः, न शक्तिः , लजितो गतः, ईशाय न दातम्यं, कि कारणम् !-आचार्ये सूत्रे च परिवादः सूत्रार्थपरिमन्धः (विशः)। अन्येषामपिच हानिः स्पृष्टाऽपि न दुग्धदा (दोमा) वन्ध्या ॥1॥प्रतिपक्षः कृष्णभूमिः-पृष्टेऽपि द्रोणमेघे न कृष्णभूमात् लुठति उदकम् । प्रहगधरणसमर्थे दातव्यमपिछत्तिकरे।।। * बहेवि. + पमाणाहिं. f निराइमो. भणितो. जि. पलिमंथा. दुज्मथा. भूमीसु. wwsainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 204 ~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः प्रत सुत्रांक % - % आवश्यक | इदानी कुटोदाहरणम्-कुटा घटा उच्यन्ते, ते दुविहा-नवा जुण्णा य, जुण्णा दुविहा-भाविया अभाविया य, भाविआ दुविहा-पसत्थभाविआ अपसत्थभाविआ य, पसत्था-अगुरुतुरुक्कादीहिं, अपसत्था-पलंडुलसुणमादीहि, पसत्थ- ॥१.शा भाविया बम्मा अवम्मा य, एवं अपसत्थावि, जे अपसत्था अवम्मा जे य पसत्था वम्मा ते ण सुंदरा, इतरे सुंदरा, अभाविता ण केणइ भाविता-णवगा आवागातो उत्तारितमेत्तगा, एवं चेव सीसगा णवगा-जे मिच्छद्दिडी तप्पढमयाए गाहिजंति, जुण्णावि जे अभाविता ते सुंदरा-कुप्पवयणपासत्थेहिं भाविता एवमेव भावकुडा । संविग्गेहि पसत्था वम्माडधम्मा य तह चेव ॥१॥जे अपसस्था बम्मा जे य पसस्था संविग्गा य अवम्मा एते लगा, इतरेवि अवम्मा । अहवा कूडा चउविहा-छिडुकुडे १ बोडकुडे २ खंडकुडे ३ संपुण्णकुडे ४ इति, छिड्डो जो मूले छिड्डो, बोड ओ जस्स ओठा नस्थि, खंडो एग ओहपुडं नस्थि, संपुण्णो सवंगो चेव, छिडे जं छुटं तं गलति, बोडे तावति ठाति, खंडे एगेण पासेण ते द्विविधाः, नपा जीर्णाश्व, जीणी शिविधा-भाविता प्रभाविताच, भाविता द्विविधाः-प्रशसभापिता अपशतभाविताब, प्रास्ता:-मगुरुतुरुष्कादिभिः, अप्रशस्ता:-पलाण्डुलशुनादिभिः, प्रशस्तभाषिता बाम्या अवाम्याच, एवमप्रशस्ता अपि, ये अप्रशसा अवाम्या ये च प्रशस्ता वाम्याने न सुन्दराः, इतरे मुम्दराः, अभाविता न केनचिद्राविता-गवका आपाकादुत्तारितमात्राः, एवमेव शिष्या नवका-ये मिथ्यारष्टयप्रथमतया प्रायन्ते, जीर्णा अपि येऽभाविताने सुन्दराः । कुपवधनपार्श्वबैभाषिता एवमेव भावकुटाः । संविः प्रास्ताः वाम्या अवाम्याश्च तथैव । १। ये अप्रशाम्ता वाम्या ये च प्रशस्लाः संविशात्रावाम्या | पुते लष्ठाः, इतरेऽपयवाम्याः । अथवा कुटाचतुर्विधाः-छिनकुटा अनोष्टकुटः खडकुटा संपूर्ण कुटः इति, छिद्रो यो मूले छिदवान्, अनोएकुटः-यस्य मोष्टी न साला, खण्ड एकमोधपुटं नास्ति, संपूर्णः साङ्गव, हिने परिक्षप्तं तबलति, बोटके तावत् तिष्ठति, सण्डे एकेर पाण. *आवाहगाओ. + ओसण्येदि. बारे बहम्मा. सत्य बोडो. 2 दीप 2 अनुक्रम T ॥१०॥ Simlanmiorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक दछड्डिजइ, जदि इच्छा थोवेणवि रुभइ,एस विसेसो बोडखंडाणं,संपुग्णो सर्व धरेति,एवं चेव सीसा चत्तारि समोतारेयवाही PM चालन्युदाहरणम्-चालनी-लोकप्रसिद्धा यया कणिकादि चाल्यते,-जह चालणीए उदयं छुम्भंतं तक्षणं अधोxणीति । तह सुत्तस्थपयाई जस्स तु सो चालणिसमाणो॥१॥ तथाच शैलच्छिद्रकुटचालनीभेदप्रदर्शनार्थमुक्तमेव भाष्य कृता-सेलेयछिद्दचालणि मिहो कहा सोउ उडियाणं तु । छिड्डाह तत्थ बेहो सुमरिंसु सरामिणेयाणीं ॥१॥ एगेण विसति वितिएण नीति कण्णेण चालणी आह । धण्णु त्थ आह सेलो जं पविसइ णीइ वा तुम्भं ॥२॥ तावसखउरकविणयं चालणिपडिवक्खु ण सबइ दवपि । इदानी परिपूणकोदाहरणम्-तत्र परिपूर्णकः घृतपूर्णक्षीरकगालनकं चिटिकावासो वा, तेन ह्याभीर्यः किल घृतं गोलयन्ति, स च कचवरं धारयति घृतमुज्झति, एवं-बक्खाणादिसु दोसे हिययंमि ठवेति मुअति गुणजालं । सीसो सो उ अजोग्गो भणिओ परिपूणगसमाणो ॥१॥ आह-सर्वज्ञमतेऽपि दोषसंभव इित्ययुक्तं, सत्यमुक्तमेव भाष्यकृता SEEKERABASACRORE दीप अनुक्रम T निःसरति, यदीच्छा सोकेनापि रयते, एष विशेषो बोटकण्डयोः, संपूर्णः सर्व धारयति, एवमेव शिष्यावरचारः समवतारयितव्याः । २ वधा चाडम्यामुदकं क्षिप्यमाणं तक्षणमधो गच्छति । तथा सूत्रार्थपदानि बस तुस चासनीसमानः।।। ३ शैलजिचालनीनां मिथः का भुत्वोस्थिताना । चिद आह-तत्रोपविष्टः अम्मा मरामि नेदानीम् ।।। एकेन विशति कर्णेन द्वितीयेन निःसरति चाळन्याइ । धन्याऽत्र माह शैलो बनविशति निःसरति वा तव (स्वयि) २ । तापसकमण्डलु चाकनीमतिपक्षः न सवसि इवमपि. ४ व्याख्यानादिपु दोषानं पये स्थापयति मुजति गुणजालम् । शिष्यः स स्वयोग्यो भणितः परिपूर्णकसमानः । । * रुमति. + परिपूणकः (स्थात्). इत्युक्त. THESENTERTILITREATORE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) हारिभद्री प्रत सूत्राक आवश्यक- सवण्णुपमाणाओ दोसा ण हु संति जिणमए किं चि । जं अणुवउत्तकहणं अपत्तमासज्ज व भवंति । १। ॥१०॥ MI इदानी हंसोदाहरणम्-अंवत्तणेण जीहाइ कूहआ होइ खीरमुदगंमि । हंसो मोत्तूण जलं आपियइ पयं तह मुसीसोा .यवृत्तिः नाविभागः१ ॥१॥ मोत्तूण दढं दोसे गुरुणोऽणुवउत्तभासितादीए । गिण्हइ गुणे उ जो सो जोग्गो समयत्थसारस्स ॥२॥ इदानीं महिषोदाहरणम्-सयमवि ण पियइ महिसो ण य जूहं पियइ लोलियं उदयं । विग्गहक्गिहाहि तहा अथक-IN पुच्छाहि य कुसीसो॥१॥ मेषोदाहरणम्-अवि गोप्पदंमिवि पिवे सुढिओ तणुअत्तणेण तुंडस्स। ण करेति कलुसमुदगं मेसो एवं सुसीसोऽवि ॥१॥ मशकोदाहरणम्-मैसगो व तुदं जच्चादिएहि णिच्छुभते कुसीसोऽवि। जलूकोदाहरणम्-जलूगा व अदूर्मतो पिबति सुसीसोऽवि सुयणाणं । बिराल्युदाहरणम्-छड्डेउँ भूमीए जह खीरं पिबति दुमज्जारी । परिसुडियाण पासे सिक्खति एवं विणयभंसी ॥१॥ सर्वज्ञप्रामाण्यात् दोपा नैव सन्ति जिनमते केऽपि । यदनुपयुक्तकथनं अपात्रमासाद्य वा भवन्ति ।। २ अम्लतया जिवायाः कृर्षिका भवति क्षीरमुदके । हंसो मुक्त्वा जलमापियति पयः तथा सुशिष्यः । । । मुक्त्वा दृढं दोषान् गुरोरनुपयुक्तभाषितादिकान् । गृवाति गुणांस्तु यः स योग्यः समयार्थ(ब) सारस्य ।। ३ स्वयमपि न पिबति महिषो न च यूथं पिबति लोठितमुदकम् । विग्रहविकथाभिस्तथा मविश्वान्तपूच्छाभित्र कुशिष्यः ।।। ४ अपि x ॥१०२॥ गोपदेऽपि पिथति मेषानुवेन तुण्डस्य । न करोति कलुषमुदकं मेष एवं सुशिष्योऽपि ।।। ५ मशक इव तुदन् जात्यादिभिरावदाति (तुति) कुशिष्योऽपि. ६ जलौका इव अदुन्वन् पिबति सुशिष्योऽपि श्रुत्तज्ञान. उदयित्वा भूमौ बया क्षीरं पिबति दुष्टमाजोरी । पर्षदुस्थितानां पार्चे शिक्षते एवं विनयभंशी. ॥१॥* केवि. + भणति. वि० दीप अनुक्रम ECRESEASC ainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) %256. प्रत जाहकस्तिर्यविशेषः, तदुदाहरणम्-पातुं थोवं थोवं खीरं पासाणि जाहओ लिहइ । एमेव जितं काउं पुच्छति मतिम ण खेदेति । १। गोउदोहरणम्-एगेण धम्महितेण चाउचेजाण गावी दिण्णा, ते भणति-परिवाडीए दुज्झउ, तहा कतं, पढमपरिवाडीदोहगो चिंतेति-अज व मझं दुद्धं, कलं अण्णस्स होहिति, ता किं मम तणपाणिएण इह हारवितेण ?, ण दिण्ण, एवं सेसेहि वि, गावी मता, अवण्णवादो य धिजाइयाणं, तद्दवण्णदयवोच्छेदो, उक्तं च-अण्णो दोग्झति कलं णिरस्थयं से वहामि किं चारिं। चउचरणगवी उ मता अवण्ण हाणी उ बडुआणं ॥१॥प्रतिपक्षगौः-मो मे होज अवण्णो गोवज्झा मा पुणो व ण लभेजा । वयमवि दोज्झामो पुण अणुग्गहो अण्णदूहेऽवि । दान्तिकयोजना-सीसा पडिच्छगाणं भरोत्ति तेवि य सीसगभरोत्ति । ण करेंति सुत्तहाणी अण्णत्थवि दुलहं तेसिं ॥१॥ अविणीयत्तणओ। -%-525 सूत्राक A दीप अनुक्रम पीत्वा लोकं लोक क्षीरं पायोजहिको लेडि । एवमेव जीतं (परिचितं) कृत्वा पृष्ठति मतिमान न खेदयति।।। २ गवोदाहरणम्-एलेन । धर्माधिकेन चातुभ्यो गीता, ते भमन्ति-परिपाया दुहन्तु, तथा कृतं, प्रथमपरिपाटीदोहकनिम्तयति-अचव मम दुग्ध, कल्ये अन्यस्य भविष्यति, तरिक मम तृणपानीवाभ्यामाहारिताभ्यामिह !, न दत्तं, एवं शेपैरपि, गौमता, अवर्णवाद धिग्जातीवानां, तद्न्यान्यस्यव्यवच्छेदः, उक्तंच-भन्यो घोषति काये निरर्थक तथा वहामि कि चारीम् । चतुचरणा गौतय, अवर्णो हानिस्तु बटुकानाम् । १।३ माऽस्माकं भूवयों गोवधका (इति) मा पुनश्च न लभिध्वम् । वयमपि धोश्यामः पुनरनुप्रदोऽम्येन दुग्धेऽपि । । " शिष्याः प्रतीच्छकानां भार इति तेऽपि च शिष्यभार इति । न पूर्वन्ति सूबहानिः अन्यत्रापि दुर्लभ वेषां । । । अविनीतत्वात्. *वाडिगो. + मजन इ. JNEERITLintuitmarama awwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥१०॥ प्रत AC भेयुदाहरणं पूर्ववत् । आभीर्युदाहरणम्-आंभीराणि घयं गड्डीए घेत्तूण पट्टणं विकिर्णाणि गयाणि, आढत्ते मैप्पे |हारिभदीआभीरी हेडओ ठिता पडिच्छिति, आभीरोऽवि वारगेण अप्पिणति, कथमवि अणुवउत्तं प्पिणणे गहणे वा अंतरे वारंगो यवृत्तिः भग्गो, आभीरी भणति-आ सच गामेल्लग! किं ते कर्डी, इतरोऽवि आह-तुम उम्मत्ता अण्णं पलोएसि अण्णं गेण्हसि, विभागः १ ताणं कलहो, पिट्टापिट्टी जाता, सेसंपि घयं पडियं, उसूरए जताणं सेसघयरूवगा बलद्दा य तेणेहिं हडा, अणाभागिणो संवुत्ताणि। एवं जो सीसो पञ्चुच्चारादि करेंतो अण्णहा परूवेतो पढतो वा सिक्खावितो भणति-तुमे चेव एवं वक्खाणि कहि वा-मा णिण्हवेहि दाउ उवजुंजिअ देहि किंचि चिंतेहि। बच्चामेलियदाणे किलिस्ससि तं चऽहं चेव॥१॥पडिवक्खे कहाणगं पूर्ववत्, नानात्वं प्रदीते, भग्गे वा रगे उत्तिण्णो, दोहिषि तुरितं तुरितं कप्परेहिं घतं लइ, थेवं नई, सो आभीरोभणति सुत्रांक दीप अनुक्रम T SSC भाभीरा घृतं गन्न्या गृहीत्वा पत्तनं विकायका गताः, आरम्धे माने आभीरी अधःस्थिता प्रतीप्सति, आभीरोऽपि वारकेणार्पयति, कथमप्यनुपयुक्त अर्पणे हणे बान्तरा घटो भना, भाभीरी भणति-आः सत्वं ग्रामेषक! कि स्वया कृतं !, इतरोऽध्याह-खमुन्मत्ताऽन्य प्रलोकयसि अन्य गृहाखि, तयोः कलही (जातः) केशाकेशि जातं, शेषमपि धूतं पतितं, हारे पासोः शेषधृतरूप्यका बलीवदी च सेगहती, अनाभागिनी (भोगाना) संवृत्ती । एवं यः शिष्यः | प्रत्युचारादि कुर्वन् अन्यथा प्ररूपयन् पठन् वा शिक्षितः भणति-स्ववैवं व्याख्यातं कथितं वा, मा अपलपीः दवा उपयुज्य देहि किचिचिन्तय । व्यत्याने |दितदाने पयसि त्वं चाहमेव।। ।प्रतिपक्षे कथानकं, भने घटे उत्तीणी, द्वाभ्यामपि त्वरित चरितं क सं जातं, सोक नई, स आभीरो भणति*विकिणगानि, + मेप्पे. । पदिच्छेति. पि. . बसूरयं. भाभागीणि संचाणि || बारगो उदीष्णो. ॥१०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) PHOROSCCU प्रत सूत्राक मए ण सुट्ट पणामितं, सावि भणति-मए ण सुहु गहियं । एवं आयरिएण आलावगे दिपणे विणांसितो, पच्छा आयरिओ ४ भणति-मा एवं कुमुहि, मया अणुवउत्तेण दिण्णो त्ति, सीसो भणति-मए ण सुह गहितोत्ति । अहवा जहा आभीरो जाणति एवडा धारा घडे माइत्ति, एवं आयरिओऽवि जाणति-एव९ आलावर्ग सकेहिति गहिउंति गाथार्थः ॥१३९॥ । इत्थमाचार्यशिष्यदोषगुणकथनलक्षणो व्याख्यानविधिः प्रतिपादितः, इदानीं कृतमङ्गलोपचारो व्यावर्णितप्रसङ्गविसरः प्रदर्शितब्याख्यान विधिरुपोद्घातदर्शनायाह उद्देसे १ निद्देसे २निग्गमे ३ खित्त ४ काल ५ पुरिसे ६अ। कारण ७ पचप ८ लक्खण ९ नए १० समोआरणा ११ ऽणुमए १२॥१४॥ किं १३ काविहं १४ कस्स १५ कहिं १६ केसु १७ कह १८ केचिरं १९ हवह कालं। कइ २० संतर २१ मविरहिअं २२ भवा २३ गरिस २४ फासण २५ निरुती २६ ॥१४१॥ व्याख्या-उद्देशो वक्तव्यः, एवं सर्वेषु क्रिया योज्या, उद्देशन मुद्देशः-सामान्याभिधानं अध्ययनमिति, निर्देशन। निर्देशः-विशेषाभिधानं सामायिकमिति, तथा निर्गमणं निर्गमः, कुतोऽस्य निर्गमणमिति वाच्यं, क्षेत्र वक्तव्य कस्मिन् मथा नमुष मर्पित, साऽपि भणति-मया न सुए गृहीत । एवमाचार्येण आलापके पत्ते विनाशितः, पवादाचार्यों भणति-मै कुही, मयाऽनुपयुक्तेन | दच इति, पिण्यो भणति-मया न सुए गृहीत इति । भयवा यथा आभीरो जानाति-एतावती भारा घटे माति इति, एवमाचार्योऽपि जानाति-पतावन्तं आतापकं शक्ष्यति महीनुमिति. *दिगि.+विणासेंते. माति. से य. परदेशः समुद्देशः. दीप अनुक्रम SSSSSSS Hirwaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति व्याखान-विधि: उपोद्घात: -- उद्देश, निर्देश-आदि २६ पदार्था: ~210 ~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥१०४|| हारिभद्रीय यवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्राक क्षेत्रे ?, कालो वक्तव्यः कस्मिन् काले ?, पुरुषश्च वक्तव्यः कुतः पुरुषात् ?, कारणं वक्तव्यं किं कारणं गौतमादयः शृण्वन्ति:, तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः स च वक्तव्यः, केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टं ? को वा गणधराणां श्रवण इति, तथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि, तथा नया-नैगमादयः, तथा तेषामेव समर्वतरणं वक्तव्यं यत्र संभवति, वक्ष्यति च 'मूढणइयं सुयं कालियं तु' इत्यादि, 'अनुमतं' इति कस्य व्यवहारादेः किमनुमतं सामायिकमिति, वक्ष्यति-तवसंजमो अणुमओ' इत्यादि, किं सामायिकम् ? जीवो गुणपडिवण्णो' इत्यादि वक्ष्यति, कतिविध सामायिक ? 'सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च' इत्यादि प्रतिपादयिष्यांते, कस्य सामायिकमिति, वक्ष्यति-'जस्त सामाणिओ अप्पा इत्यादि, क सामायिक, क्षेत्रादाविति, वक्ष्यति-'खेत्तकाल दिसि गति भविय' इत्यादि, केषु सामायिकमिति, सर्वद्रव्येषु, वक्ष्यति-संधगतं सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सवे इत्यादि, कथमवाप्यते 1, वक्ष्यति'माणुस्सखित्तजाई' इत्यादि, कियश्चिरं भवति ? कालमिति, वक्ष्यति-सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाइ ठिती' इत्यादि, 'कति' इति कियन्तः प्रतिपद्यन्ते ? पूर्वप्रतिपन्नास वेति वक्तव्यं, वक्ष्यति च-'सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमित्ताउ' इत्यादि, दीप * अनुक्रम * ॥१०॥ सम्यक्त्वसामायिकादे, २ मूदनविक र कालिकं तु. ३ तपःसंयमोऽनुमतः, जीवो गुणप्रतिपक्षः, ५ सामायिक च विविध सम्पावं श्रुतं | तथा चारित्रं च. ६ यस समानीतः आरमा. ० क्षेत्रकालदिग्गतिभप. सर्वगतं सम्पक्वं श्रुने चरित्रे न पर्यवाः स. ९मानुष्यं क्षेत्रं आतिः. १. सम्यक्त्वस्य धुसख च षषष्टिः सागरोपमाणि स्थिति का सम्पावदेशविरताः पक्ष्यखासंख्यभागमात्रा एष. * समवतारणं च. + संभवन्ति । यति. | दिसिकाळ. पाचन्ते पाश्चेति मेत्ता. * JABERatinintamational djanmitraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] (४०) र प्रत - सूत्राक 'सान्तर' इति सह अन्तरेण वर्तत इति सान्तरं, किं सान्तरं निरंतरं वा!, यदि सान्तरं किमन्तरं भवति?, वक्ष्यति-कालमणतं च सुते अद्धापरियट्टगो य देसूणो' इत्यादि, 'अविरहित' इति अविरहितं कियन्तं कालं प्रतिपद्यन्त इति, वक्ष्यति |-'सुर्तसम्मअगारीणं आवलियासंखभाग' इत्यादि, तथा 'भवा' इति कियतो भवानुत्कृष्टतः खल्ववाप्यन्ते 'सम्मत्तदेसविरता| पलियस्स असंखभागमित्ता उ । अभवा चरित्ते' इत्यादि, आकर्षणमाकर्षः, एकानेकभवेषु ग्रहणानीति भावार्थः, 'तिण्हें सहस्सपुहुतं सयपुहुत्तं च होति विरईए । एगभवे आगरिसा' इत्यादि, स्पर्शना वक्तव्या, कियत्क्षेत्रं सामायिकवन्तः स्पृश-| न्तीति, वक्ष्यति-सम्मेत्तचरणसहिआ सधं लोगं फुसे निरवसेस' इत्यादि, निश्चिता उक्तिनिरुक्तिर्वक्तव्या-'सम्मद्दिडी अमोहो सोही सब्भाव दंसणे वोही' इत्यादि वक्ष्यति। अयं तावद्गाथाद्वयसमुदायार्थः, अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः। अत्र कश्चिदाह-पूर्वमध्ययन सामायिक तस्यानुयोगद्वारचतुष्टयमुपन्यस्तं, अतस्तदुपन्यास एवं उद्देशनिर्देशावुक्ती, तथापनामनिष्पन्ननिक्षेपदये च, अतः पुनरनयोरभिधानमयुक्तमिति, अत्रोच्यते, तत्र हि अत्र द्वारद्वयोक्तयोरनागतग्रहणं द्रष्टव्यं,। अन्यथा तद्रणमन्तरेण द्वारोपन्यासादय एव न स्युः, अथवा द्वारोपन्यासादिविहितयोस्तत्राभिधानमात्रं इह त्वर्थानुग दीप --% अनुक्रम - - -- कालोऽनन्तश्च श्रुते, पुद्गलपरावर्तन देशोनः. २ श्रुतसम्यक्त्यागारिणां आवलिकाऽसंख्यभाग. ३ सम्यक्त्वदेशविरताः पयस्वासंकषभाग' |मात्रानेव । अष्टभवास्तु चारित्रे. प्रयाणां सहस्रपथक्वं, बातधर च भवति विरतेः । एकभये भाको:-५ सम्बक्रवचरणसहिताः सर्व लोकं शान्ति दिवशेष सम्यग्दृष्टिरमोदः शोधि। सजावा दर्शनं घोषित वापते. + दम भावार्थ इति..ति भावार्थः एतार JAMERatinintamational www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 212 ~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक- मद्वाराधिकारे विधानतो लक्षणतश्च व्याख्या क्रियत इति । आह-यद्येवं निर्गमो न वक्तव्यः, तस्यागमद्वार एवाभि- ॥१०५॥ हितत्वात , तथा च 'आत्मागम' इत्याद्युक्तं, ततश्च तीर्थकरगणधरेभ्य एव निर्गतमिति गम्यते इति, उच्यते, सत्यं किंतु इह तीर्थकरगणधराणामेव निर्गमोऽभिधीयते, कोऽसौ तीर्थकरो गणधराश्चेति, वक्ष्यते-वर्धमानो गौतमादयश्चेति, यथा च तेभ्यो निर्गतं तथा क्षेत्रकालपुरुषकारणप्रत्ययविशिष्टमित्यतोऽदोष इति । आह-ययेवं लक्षणं न वक्तव्यं, उपक्रम एव नामद्वारे क्षायोपशमिकभावेऽवतारितत्वात् , प्रमाणद्वारे च जीवगुणप्रमाणे आगमे इति,उच्यते,तत्र निर्देशमात्रत्वात्, इह तु प्रपञ्चतोऽभिधानाददोषः, अथवा तत्र श्रुतसामायिकस्यैवोक्तं, इह तु चतुर्णामपि लक्षणाभिधानाददोषः। आहनयाः प्रमाणद्वार एवोक्ताः किमिहोच्यन्ते ।, स्वस्थाने च मूलद्वारे वक्ष्यमाणा एवेति, उच्यते, प्रमाणद्वारोक्ता एवेह व्याख्यायन्ते, अथवा प्रमाणद्वाराधिकारात्तत्र प्रमाणभावमात्रमुक्त, इह तु स्वरूपावधारणमवतारो वाऽऽरभ्यते, एते च | सर्व एव सामायिकसमुदायार्थमात्रविषयाः प्रमाणोक्ता उपोद्घातोक्ताश्च नयाः प्रसूत्रविनियोगिनः, मूलद्वारोपन्यस्तनयास्तु ४ सूत्रव्याख्योपयोगिन एवेति । आह-प्रमाणद्वारे जीवगुणः सामायिकं ज्ञानं चेति प्रतिपादितमेश्व, ततश्च किं सामायिकदमित्याशङ्कानुपपत्तिः,उच्यते,जीवगुणत्वे ज्ञानत्वे च सत्यपि किं तज्जीव एव आहोस्विद् जीवादन्यदिति संशयः,तदुच्छित्त्यर्थमुप न्यासाददोषः। आह-नामद्वारे क्षायोपशमिक सामायिकमुक्तं तत्तदावरणक्षयोपशमाल्लभ्यत इति गम्यत एव, अतः कथं लभ्यत इत्यतिरिच्यते, न, क्षयोपशमलाभस्यैवेह शेषाङ्गलाभचिन्तनादिति । एवं यदुपक्रमनिक्षेपद्वारद्वयाभिहितमपि पुनः *ऽभिधानतो. + वक्ष्यति । तथा च यथा च, चिन्यते. न तु सूत्रविनियोगिनः मेवेति. दीप अनुक्रम ॥१०५॥ walanminary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्राक प्रतिपादयति अनुगमद्वारावसरे तदशेष निर्दिष्टनिक्षिप्तप्रपञ्चव्याख्यानार्थमिति । आह-उपक्रमः प्रायः शास्त्रसमुत्थानार्थ उक्तः, अयमप्युपोद्घातः शाखसमुद्घातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः, उच्यते, उपक्रमो देशमात्रनियतः, तदुद्दिष्टवस्तुप्रबोधनफलस्तु प्रायेणोपोद्घातः, अर्थानुगमत्वात् इत्यलं विस्तरेण, प्रकृतमुच्यते ॥ १४१॥ तत्रोदेशद्वारावयवार्थप्रतिपादनायेदमाह नाम ठवणा दपिए स्वेत्ते काले समास उद्देसे । उद्देसुद्देसंमि अ भावंमि अहोई अहमओ ॥ १४२ ॥ व्याख्या-तत्र नामोद्देशः यस्य जीवादेरुद्देश इति नाम क्रियते, नाम्नो वा उद्देशः नामोद्देशः, स्थापनोद्देशः-स्थाप४ नाभिधानं उद्देशन्यासो वा, 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषय उद्देशो द्रव्योद्देशः, स च आगमनोआगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्तः द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये या उद्देशो द्रव्योद्देशः, द्रव्यस्य-द्रव्यमिदमिति, द्रव्येण-द्रव्यपतिरयमिति, द्रव्ये-सिंहासने राजा चूते कोकिलः गिरी मयूर इति, एवं क्षेत्रविषयोद्देशोऽपि वक्तव्यः,एवं कालविषयोऽपीति, समासः' संक्षेपस्तद्विषय उद्देशः समासोद्देशः, स च अङ्गश्रुतस्कन्धाध्ययनेषु द्रष्टव्यः, तत्र अजसमासोदेश:-अङ्गं अङ्गी तदध्येता तदर्थज्ञ इत्येवमन्यत्रापि योजना कार्या, उद्देश:-अध्ययनविशेषः तस्य उद्देश उद्देशोदेशः, तद्विषयश्च उद्देश इति, स चोद्देशोद्देशोऽभिधीयते-उद्देशवान् तदध्येता | तदर्थज्ञो वेति, भावविषयश्च भवति उद्देशः अष्टमक इति, स चाय-भावः भावी भावज्ञो वेति गाथार्थः ॥१४२॥ अयमेव देशोऽष्टविधविशिष्टनामसहितो निर्देश इत्यवसेयः, तथा चाह नियुक्तिकार:एमेव य निद्देसो अट्ठविहो सोऽवि होइ णायब्यो । अविसेसिअमुद्देसो विसेसिओ होइ निदेसो॥१४३॥ दीप अनुक्रम JAMERatinintamational Swlanniorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४३], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक हारिभद्री ॥१०६॥ यवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक व्याख्या-एवमेव च यथा उद्देश उक्तस्तथा,निर्देशोऽप्यष्टविध एव भवति ज्ञातव्यः, सर्वथा साम्यप्रात्यतिप्रसङ्गविनिवृत्त्यर्थमाह-किंतु 'अविशेषितः' सामान्याभिधानादिगोचरः उद्देशः, विशेषितस्तु भवति निर्देशः, यथा नामनिर्देशो जिन-1 भद्र इत्याद्यभिधानविशेषनिर्देशः, स्थापनानिर्देशः स्थापनाविशेषाभिधान निर्देशस्थापना वा, विशिष्टद्रव्याभिधानं द्रव्यनिदेशः यथा-गौः, तेन वा--अश्ववानित्यादि, एवं क्षेत्रविशेषाभिधानं क्षेत्रनिर्देशः यथा-भरतं, क्षेत्रेण-सौराष्ट्र इत्यादि, कालविशेषाभिधानं कालनिर्देशः यथा-समय इत्यादि, तेन वा-धासन्तिक इत्यादि, समासनिर्देशा-आचाराई आवश्यकश्रुतस्कन्धः सामायिक चेति, उद्देशनिर्देश:-शखपरिज्ञादेःप्रथमो द्वितीयो वेति, भगवत्यां वा पुद्गलोदेशो वेति, भावव्यत्यभिधानं भावनिर्देशः यथा-औदयिक इत्यादि, तेन-औदयिकवान् क्रोधीत्यादि वेति अलं विस्तरेणेति गाथार्थः॥१४३।।। | इह समासोद्देशनिर्देशाभ्यामधिकारः, कथं ?, अध्ययनमिति समासोडेशः सामायिकमिति समासनिर्देशः, इदं च सामायिक नपुंसकम् , अस्य च निर्देष्टा त्रिविधः-स्त्री पुमान् नपुंसक चेति, तत्र को नयो नैगमादिः के निर्देशमिच्छतीत्यमुं अर्थमभिधित्सुराहदुविहपि णेगमणओ णिसे संगहो य ववहारो। निदेसगमुजुमुओ उभयसरित्वं च सहस्स ॥१४४ ।। ____ व्याख्या-'द्विविधमपि' निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच्च नैगमनयो निर्देशमिच्छति, कुतः, लोकसंव्यवहारप्रवणत्वात् | नैकगमत्वाचास्येति, लोके च निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच्च निर्देशप्रवृत्तिरुपलभ्यते, निर्देश्यवशात् यथा-वासवदत्ता * णिदिई. दीप अनुक्रम |१०६॥ मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [-] (४०) प्रत + सूत्राक प्रियदर्शनेति, निर्देशकवशाच्च यथा-मनुना प्रोक्तो अन्धो मनुः,अक्षपादप्रोक्तोऽक्षपाद इत्यादि,लोकोत्तरेऽपि निर्देश्यवशात् यथा-पड्रजीवनिका, तत्र हि पड् जीवनिकाया निर्देश्या इति, एवमाचारक्रियाऽभिधायकत्वादाचार इत्यादि, तथा निर्देशकवशात् जिनवचनं कापिलीयं नन्दसंहितेत्येवमादि, एवं सामायिकमर्धरूपं रूढितो नपुंसकमितिकृत्वा नैगमस्य निर्देश्यवशानपुंसकनिर्देश एव, तथा सामायिकवतः स्त्रीपुन्नपुंसकलिङ्गत्वात् तत्परिणामानन्यत्वाच्च सामायिकार्थरूपस्य स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गत्वाविरोधमपि मन्यते, तथा निर्देष्टुस्विलिङ्गसंभवात् निर्देशकवशादपि त्रिलिङ्गतामनुमन्यते नैगमः । आह--'द्विविधमपि नैगमनयः' इत्येतावत्युक्ते निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच निर्देशमिच्छतीति क्रियाऽध्याहारः कुतोऽवसीयते इति, उच्यते, यत आह-निर्दिष्टं' वस्त्वङ्गीकृत्य, संग्रहो व्यवहारः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धो, निर्देशमिच्छ-IN तीति वाक्यशेषः अत्र भावना-वचनं ह्यर्थप्रकाशकमेवोपजायते, प्रदीपवत् , यथा हि प्रदीपः प्रकाश्यं प्रकाशयन्नेव आत्मरूपं प्रतिपद्यते, एवं ध्वनिरप्यर्थ प्रतिपादयन्नेव, ततस्तत्प्रत्ययोपलब्धेः, तस्मानिर्दिष्टवशात् निर्देशप्रवृत्तिरिति, ततश्च सामायिकमर्थरूपं रूढितो नपुंसकमतस्तद धिकृत्य संग्रहो व्यवहारश्च निर्देशमिच्छतीति, अथवा सामायिकवतः खीपुंन पुंसकलिङ्गत्वात् तत्परिणामानन्यत्वाच्च सामायिकार्थस्य त्रिलिङ्गतामपि मन्यत इति । तथा निर्देशकसत्वमङ्गीकृत्य सामा-17 xयिकनिर्देशं ऋजुसूत्रो मन्यते, वचनस्य वक्तुरधीनत्वात् तत्पर्यायत्वात् तद्भावभावित्वादिति । ततश्च यदा पुरुषो निर्देष्टा तदा पुंलिङ्गता, एवं स्त्रीनपुंसकयोजनाऽपि कार्या, तथा 'उभयसदृशं' निर्देश्यनिर्देशकसदृशं, समानलिङ्गमेव वस्त्वङ्गीकृत्य, शब्दस्य निर्देशप्रवृत्तिरिति वाक्यशेषः, एतदुक्तं भवति-उपयुक्तो हि निर्देष्टा निर्देश्यादभिन्न एव, तदुपयोगानन्यत्वात्, दीप अनुक्रम JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१०७॥ प्रत सुत्रांक ततश्च पुंसः पुमांसमभिदधतः पुनिर्देश एव, एवं स्त्रियाः स्त्रियं प्रतिपादयन्त्याः स्त्रीनिर्देश एव, एवं नपुंसकस्य नपुंसक- मभिदधानस्य नपुंसकनिर्देश एव, यदा तु पुमान् स्त्रियमभिधत्ते, तदा रुयुपयोगानन्यत्वात् स्त्रीरूप एवासी, निर्देश्य- निर्देशकयोः समानलिङ्गतैव, एवं सर्वत्र योज्यं, असमानलिङ्गनिर्देष्टाऽस्य अवस्वेव, यदा पुमान् पुमांसं त्रियं चाहेति, कुतः, तस्य पुरुषयोपिद्विज्ञानोपयोगभेदाभेदविकल्पद्वारेण पुरुषयोषिदापत्तेः, अन्यथा वस्त्वभावप्रसङ्गात् , तस्मादुपयुक्तो यमर्थमाह स तद्विज्ञानानन्यत्वात्तन्मय एव, तन्मयत्वाच्च तत्समानलिङ्गनिर्देशः,ततश्च सामायिकवक्ता तदुपयोगानन्यत्वात् | सामायिक प्रतिपादयन्नात्मानमेवाह यतः तस्मात्तत्समानलिङ्गाभिधान एवासी, रूढितच सामायिकार्थरूपस्य नपुंसकत्वा स्त्रियाः पुंसो नपुंसकस्य वा प्रतिपादयतः सामायिकं नपुंसकलिङ्गनिर्देश एवेति गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु विशेविवरणादवगन्तव्य इति । सर्वनयमतान्यपि चामूनि पृथग्विपरीतविषयत्वात् न प्रमाण, समुदितानि त्वन्तर्बाह्यनिमित्तसामग्रीमयत्वात् प्रमाणमिति अलं विस्तरेण, गमनिकामात्रप्रधानत्वात् प्रस्तुतप्रयासस्य ॥ १४४ ॥ इदानीं निर्गमविशेषस्वरूपप्रतिपादनायाहनामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो उ निग्गमस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ॥१४५ ॥ | गमनिका-नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्य'निर्गम:-आगमनोआगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिका, स च त्रिधा-सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नः, तत्र सचित्तात्सचित्तस्य यथा पृथिव्या अकरस्य, सचित्तान्मिश्रस्य यथा-भूमेः पतङ्गस्य, सचित्तादचित्तस्य पक्षस्य अचित्तत्वात. * संयोज्यं. + ति सामा०. निम्यरूप द्रव्याद्वा. रिक्त सचिता.. RSSRADHA दीप अनुक्रम ॥१०७॥ Swlanmiorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१४५], भाष्यं [-] (४०) -- - प्रत सूत्राक -- -- यथा भूमेष्पिस्य, तथा मिनात्सचित्तस्य यथा-देहाँस्कृमिकस्य, मिश्रान्मिश्रस्य यथा--स्त्रीदेहान्गर्भस्य, मिश्रादचित्तस्य । यथा-देहादू विष्ठायाः, अचित्तात्सचित्तस्य यथा-काष्ठात्कृमिकस्य, अचित्तान्मिश्रस्य यथा-काष्ठाद् घुणस्य, अचित्तादचित्तस्य यथा-काष्ठाद् पूणचूर्णस्य । अथवा द्रव्यात् द्रव्यस्य द्रव्यात् द्रव्याणां द्रव्येभ्यो द्रव्यस्य द्रव्येभ्यो द्रव्याणा|मिति, तत्र द्रव्याद् द्रव्यस्य यथा-रूपकात् रूपकस्य निर्गमः, एकस्मादेव कलान्तरप्रयुक्तादिति भावार्थः, एकस्मादेव कलान्तरतः प्रभूतनिर्गमो द्वितीयभङ्गभावना, प्रभूतेभ्यः स्वल्पकालेनैकस्य निर्गमो भवति तृतीयभङ्गभावना, प्रभूतेभ्यः प्रभूतानां कलान्तरतश्चतुर्थभनभावनेति, 'क्षेत्रे' इति क्षेत्रविषयो निर्गमः प्रतिपाद्यते, एवं सर्वत्र अक्षरगमनिका कार्या, तत्र कालनिर्गमः-कालो ह्यमूर्तस्तथापि उपचारतो वसन्तस्य निर्गमः दुर्भिक्षाद्वा निर्गतो देवदत्तो वालकालाद्धेति, अथवा कालो द्रव्यधर्म एव, तस्य द्रव्यादेव निर्गमः, तत्प्रभवत्वादिति, एवं भावनिर्गमःतत्र पुद्गलाद्वर्णादिनिर्गमः, जीवारक्रोधादिनिर्गमः इति, तयोर्या पुद्गलजीवयोवर्णविशेषक्रोधादिभ्यो निर्गम इति, एष एव निर्गमस्य निक्षेपः पविध इति गाथार्थः ॥१४५ ॥ एवं शिष्यमतिविका शार्थ प्रसङ्गत उक्तोऽनेकधा निर्गमः, इह च प्रशस्तभावनिर्गममात्रेण अप्रशस्तापगमेन वाऽधिकारः, शेरैरपि तदङ्गत्वाद, इह च द्रव्यं वीरः क्षेत्र महासेनवर्न काल: प्रमाणकालः भावश्च भावपुरुषः, एवं च निर्गमाङ्गानि द्रष्टव्यानीति एतानि च द्रव्याधीनानि यतः अतः प्रथमं जिनस्यैव मिथ्यात्वादिभ्यो निर्गममभिधित्सुराह १ उमणतायाः, २ केशायुतत्वात एवममेऽपि. र्गमो वक्तव्यः तृती.. + कालान्तरतश्व०. विकासार्थ. ४ दीप अनुक्रम Tanatarary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ १०८ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [१४६], भाष्यं [-] किर देसिता साहूणं अडविविप्पणट्ठाणं । सम्मत्तपढमलंभो बोद्धवो वद्धमाणस्स ॥ १४६ ॥ गमनिका - पन्थानं किल देशयित्वा साधूनां अटवीविप्रनष्टानां पुनस्तेभ्य एव देशनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्वप्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्धमानस्येति समुदायार्थः ॥ १४६ ॥ अवयवार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदम् - अवरविदेहे एगंमि गामे बलाहिओ, सो य रायादेसेण सगडाणि गहाय दारुनिमित्तं महाडविं पविडो, इओ य साहुणो मग्गपवण्णा सत्थेण समं वचंति, सत्थे आवासिय भिक्खटुं पविद्वाणं गतो सत्थो, पहवितो, अयाणंता विभुला, मूढदिसा पंथं अयाणमाणा तेण अडविपंथेण मज्झण्हदेसकाले तण्हाए हाए अपरद्धा तं देस गया जत्थ सो सगडसण्णिवेसो, सो य ते पासित्ता महंतं संवेगमावण्णो भणति - अहो इमे साहुणो अदेसिया तवस्त्रिणो अडविमणुपविद्या, तेसिं सो अणुकंपाए विपुलं असणपाणं दाऊणं आह-एह भगवं । जेण पथे णमवयारेमि, पुरतो संपत्थिओ, ताहे तेऽवि साहुणो तस्सेव मग्गेण अणुगच्छति, १ अपरविदेहेषु एकस्मिन्ामे बलाधिकः, स च राजादेशेन शकटानि गृहीत्वा दारनिमित्तं महादवीं प्रविष्टः इतच साधवः मार्गप्रपन्नाः सार्थेन समं - जन्ति, सायें आवासिते भिक्षार्थं प्रविष्टेषु गतः सार्थः, प्रधावितः, अजानन्तो भ्रष्टा, दिग्मूढाः पन्थानमजानानाः तेन सटवीपथेन मध्याह्नदेशकाले तृषा क्षुधा अपराद्वाः ( च व्याप्ताः ) तं देशं गता स शकटसन्निवेशः, स च तान् दृट्टा महान्तं संवेगमापनो भगति अहो इमे साधवोऽदेशिकास्तपखिनोऽटवीमनुप्रविष्टाः, तेभ्योऽसौ अनुकम्पया विपुलमशनपानं दत्त्वाऽऽह-पुत भगवन्तः ! येन पथि युष्मानवतारयामि, पुरतः संप्रस्थितः, तदा तेऽपि साधवः तस्यैव पृष्ठतः अनुगच्छन्ति *जह मिच्छत्ततमाओ विणिमाओ जदय केवलं पत्तो । जहय पयासिअमेयं साम तह पवस्वामि ॥ १ ॥ (गाथैषाऽव्याख्याता नियुक्तिपुस्तके) + पहाविता व पारा. Education intemational For Fans at Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 219~ ॥१०८॥ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्ति Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्तिः [१४६], भाष्यं [१] ततो गुरू तस्स धम्मं कहेदुमारद्धो, तस्स सो अवगतो, ते पंथं समोयारेता नियत्तो, ते पत्ता सदेस, सो पुण अविश्यसम्मदिट्ठी कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पलिओ मठिइओ देवो जाओ । अस्यैवार्थस्योपदर्शकमिदं गाथाद्वयमाह भाष्यकारः -- | अवरविदेहे गामस्स चिंतओ रायदारुवणगमणं । साहू भिक्खनिमित्तं सत्था हीणे तर्हि पासे ॥१॥ (भाष्यम्) दाणन पंधनयणं अणुकंप गुरू कहण सम्मतं । सोहम्मे उबवण्णो पलियाउ सुरो महिडीओ ॥ २ ॥ (भाष्यम्) गमनिका - अवरविदेहे ग्रामस्य चिन्तको राजदारुवनगमनं, निमित्तशब्द लोपोऽत्र द्रष्टव्यः, राजदारुनिमित्तं वनगमनं, साधून भिक्षानिमित्तं सार्थाष्टस्तत्र दृष्टवानं दानमन्नपानस्य, नयनं पैथि अनुकम्पया गुरोः कथनं सम्यक्त्वं प्राप्तः मृत्वा सौधर्म उपपन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिक इति गांधाद्वयार्थः । लण य सम्मत्तं अणुकंपाए उ सो सुविहियाणं । भासुरवर बोंदिधरो देवो वैमाणिओ जाओ ॥ १४७ ॥ गमनिका - ध्या च सम्यक्त्वं अनुकम्पयाड सौ सुविहितेभ्यः भास्वरां- दीप्तिमती घरां प्रधानां 'वोदिं' तनुं धारयतीति समासः, देवो वैमानिको जात इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ १४७ ॥ तथा चचऊण देवलोगा इह चैव य भारहंमि वासंमि । इक्खागकुले जाओ उसभसुअसुओ मरीइत्ति ॥ १४८ ॥ १ ततो गुरुः ती धर्म कमवितुमारूयः तेन सोऽवगतः सान्यधि समवतार्थ निवृतः से प्राप्ताः खदेशं, स पुनरविरतसम्यग्दृष्टिः कार्य कृत्वा स्त्रीधर्मे कल्पे पस्योपमस्थितिको देवो जातः, * पवि नयनं + गाथार्थः. सो. Education intol Forsy मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अत्र भाष्यम् आरब्धं तद् अन्तर्गत भगवन् महावीरस्य प्रथमभवस्य वर्णनं ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१०९॥ S “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [१४८ ], भाष्यं [२] व्याख्या—ततः स्वायुष्कक्षये सति च्युत्वा देवलोकादिहैव भारते वर्षे इक्ष्वाकुकुले 'जातः' उत्पन्नः ऋषभसुतसुतो मरीचिः सामान्येन ऋषभपौत्र इति गाथार्थः ॥ १८ ॥ यतश्चैवमतः इक्खागकुले जाओ इक्खागकुलस्स होइ उप्पत्ती । कुलगरवंसेऽईए भरहस्स सुओ मरीइति ॥ १४९ ॥ व्याख्या - इक्ष्वाकूणां कुलं इक्ष्वाकुकुलं तस्मिन्, 'जातः' उत्पन्नः, भरतस्य सुतो मरीचिरिति योगः, तत्र सामान्यऋषभपौत्रत्वाभिधाने सति इदं विशेषाभिधानमदुष्टमेव, स च कुलकरवंशेऽतीते जातः, तत्र कुलकरा वक्ष्यमाणलक्षणास्तेषां वंशः कुलकरवंशः प्रवाह इति समासः, तस्मिन्नतीते- अतिक्रान्ते इति, यतश्चैवमत इक्ष्वाकुकुलस्य भवति उत्पत्तिः, वाच्येति वाक्यशेषः इत्ययं गाथार्थः ॥ १४९ ॥ तत्र कुलकरवंशेऽतीत इत्युक्तं, अतः प्रथमं कुलकराणामेवोत्पत्तिः प्रतिपाद्यते, यत्र यस्मिन्काले क्षेत्रे च तत्प्रभवस्तन्निदर्शनाय चेदमाह - ( ग्रन्थाग्रम् ३००० ) ओसप्पिणी इमीसे तइयाऍ समाऍ पच्छिमे भागे । पलिओ महभाए सेसंमि उ कुलगरुप्पत्ती ॥ १५० ॥ अजभर हमझिल्लुतिभागे गंगसिंधुमज्झमि । इत्थ बहुमज्झदेसे उप्पण्णा कुलगरा सन्त ॥ १५१ ॥ प्रथम गाथागमनिका --- अवसर्पिण्यामस्यां वर्त्तमानायां या तृतीया समा- सुषमदुष्पमासमा, तस्याः पश्चिमो भागस्तस्मिन् | कियन्मात्रे पल्योपमाष्टभाग एव शेषे तिष्ठति सति कुलकरोत्पत्तिः संजातेति वाक्यशेष इति गाथार्थः ॥ १५० ॥ द्वितीय • वंशः प्रवाहा For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 221 ~ ॥१०९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५१], भाष्यं [२...] (४०) प्रत सूत्राक SXसन गाथागमनिका-अर्धभरतमध्यमत्रिभागे, कस्मिन् ?-गङ्गासिन्धुमध्ये, अत्र बहुमध्यदेशे न पर्यन्तेषु, उत्पन्नाः कुलकराः। सप्त, अर्धे भरतं विद्याधरालयवैतान्यपर्वतादारतो गृह्यत इति गाथार्थः ।। १५१ ॥ इदानी कुलकरवक्तव्यताभिधायिका द्वारगाथां प्रतिपादयन्नाह| पटवभवजम्मनाम पमाण संघयणमेव संठाणं । वणित्थियाउ भागा भवणोवाओ यणीई य॥१५२।। गमनिका-कुलकराणां पूर्वभवा वक्तव्याः, जन्म वक्तव्यंः तथा नामानि प्रमाणानि तथा संहननं वक्तव्यं, एवशब्दः पूरणार्थः, तथा संस्थानं वक्तव्यं तथा वर्णाः प्रतिपादयितव्याः तथा स्त्रियो वक्तव्याः तथा आयुर्वक्तव्यं भागा वक्तव्याःकस्मिन् वयोभागे कुलकराः संवृत्ता इति, भवनेषु उपपातः भवनोपपातः वक्तव्यः, भवनग्रहर्ण भवनपतिनिकायोपपातप्रदर्शनार्थ, तथा नीतिश्च या यस्य हकारादिलक्षणा सा वक्तव्येति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति | ॥ १५२॥ तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयेदमाहअवरविदेहे दो वणिय वयंसा माइ उज्जुए चेव । कालगया इह भरहे हत्थी मणुओ अ आयाया ॥१५३ ॥ दहुँ सिणेहकरणं गयमारुहणं च नामणिप्फत्ती । परिहाणि गेहि कलहो सामत्थण विनवण हत्ति ॥ १५४ ॥ गमनिका-अपरविदेहे द्वौ वणिग्वयस्यौ मायी ऋजुश्चैव कालगतौ इह भरते हस्ती मनुष्यश्च आयाती, दृष्ट्वा स्नेहकरणं गजारोहणं च नामनिवृत्तिः परिहाणिः गृद्धिः कलहः, 'सामथर्ण' देशीवचनतः पोलोचनं भण्यते, विज्ञापना-ह * पुत्रभव कुलगराणं उसभनिर्णिदास भरहरणो म । इक्खागकुलुप्पत्ती णेयज्ञा आणुपुत्रीए । (गाथैषा नियुक्ति पुस्तके ऽव्याख्याता च ), दीप अनुक्रम मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अत्र कुलकरस्य वक्तव्यता प्रस्तुता: ~ 222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥११०॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-), निर्मुक्तिः [१५४] आयं [२...] इति गाथार्थः ॥ १५४ ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, अध्याहार्यक्रियायोजना च स्वबुद्ध्या प्रतिपदं कार्या, यथा - अपर विदेहे द्वौ वणिग्वयस्यौ अर्भूतामिति, नवरं हस्ती मनुष्यश्च आयाताविति, अनेन जन्म प्रतिपादितं वेदितव्यं, अवरविदेहे दो मित्ता वाणिअया, तत्थेगो मायी एगो उज्जुगो, ते पुण एगभ चैव ववहति तत्थेगो जो मायी सो तं उज्जुभं अतिसंधे, इतरो सचमगृहंतो सम्म सम्मेण ववहरति, दोवि पुण दाणरुई, ततो सो उज्जुगो का काऊण इहेव दाहिणहे मिहुणगो जाओ, बंको पुण तंमि चैव पदेसे हत्थिरयणं जातो, सो य सेतो वण्णेणं चउदंतो य, जाहे ते पडिपुण्णा ताहे तेण हत्थिणा हिंडतेण सो दिट्ठो मिहुणगो, दडूण य से पीती उप्पण्णा, तं च से आभिओगजणिअं कम्ममुदिण्णं, ताहे तेण मिहुणगं खंधे विलइयं तं दद्दूण य तेण सवेण लोपण अन्भद्दियमणूसो एसो इमं च से विमलं वाहणंति तेण से विमलवाहणोत्ति नामं कर्य, तेसिं च जातीसरणं जायं, ताहे कालदोसेण ते रुक्खा परिहार्यंति- मतंगा भिंगंगा तुडियं च १ अपरविदेहेषु द्वौ मित्रे वणिजी, तत्रैको मायावी एक ऋकः, तो पुनरेकत एव व्यवहरतः, तत्रैको यो मायावी स तमृद्धं मतिसन्दधाति इतरः सर्वमहयन् सम्यग् साम्येन व्यवहरति द्वावपि पुनदांनहची, ततः स ऋका कालं कृत्येव दक्षिणार्थे मिथुनकनरो जातः, वक्रः पुनः तस्मिमेव प्रदेशे हस्तिएवं जातः स च वर्णेन तचतुर्दन्तश्च यदा तौ प्रतिपूण तदा तेन हस्तिना हिण्डमानेन स दृष्टः मिथुनकनरः दृष्ट्वा च तस्य प्रीतिरूपश्वा तच्च तस्याभियोगजबिर्त कमदीर्ण, तदा तेन मिथुनकनरः स्कन्धे विलगितः, तदृष्ट्वा च तेन सर्वेण लोकेन अभ्यधिकमनुष्य एष इदं चास्य विमलं वाहनमिति तेन तस्य विमलवाहन इति नाम कृतं तयोश जातिसारणं जातं, तदा कालदोषेण ते वृक्षाः परिहीयन्ते, तद्यथा-मनाङ्गा मुद्राङ्गाटिताहा * प्रतिपादं + खावासिष्टा०. स. + ष्णा जाता. सं० म०. Education into For Parts Only परिभीयवृत्तिः विभागः १ ~ 223 ~ ॥११०॥ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१५४], भाष्यं [२...] (४०) प्रत चित्तगा (य) चित्तरसा । गेहागारा अणियणा सत्तमया कप्परुक्खत्ति ॥१॥ तेसु परिहार्यतेसु कसाया उप्पण्णा-इमं मम, तमा एस्थ कोइ अण्णो अल्लियउत्ति भणितुं पयत्ता, जो ममीकयं अलियइ तेण कसाइजंति, गेण्हणे अ संखडंति, ततो तेहिं चिंतितं-किंचि अधिपतिं ठवेमो जो ववत्थाओ ठवेति, ताहे तेहिं सो विमलवाहणो एस अम्हेहिंतो अहितोत्ति ४ उवितो, ताहे तेण तेसिं रुक्खा विरिका, भणिया य-जो तुभं एयं मेरं अतिक्कमति तं मम कहिजाहत्ति, अहं से 'दंड करिहामि, सोऽवि किह जाणति !, जाइस्सरो तं वणियत्तं सरति, ताहे तेसिं जो कोई अवरज्झइ सो तस्स कहिज्जइ, ताहे | सो तेसिं दंड ठवेति, को पुण दंडो, हक्कारो, हा तुमे दुइ कयं, ताहे सो जाणति-अहं सबस्सहरणो कतो, तं वरं किर हतो मे सीसं छिपणं,ण य एरिसं विडवणं पावितोत्ति,एवं बहुकाले हकारदंडोअणुवत्तिओ । तस्स य चंदजसा भारिया, तीए समं भोगे भुंजंतस्स अवरं मिथुणं जायं, तस्सविकालंतरेण अवरं,एवं ते एगवंसंमि सत्त कुलगरा उप्पण्णा। पूर्वभवाः खल्व-14 सूत्राक दीप अनुक्रम KESAKAC बित्रााचित्ररसाः । गृहाकारा अनमा सक्षमकाः कल्पवृक्षा इति, ॥१॥ तेषु परिहीयमाणेषु कपाया उत्पना, इदं मम, मा अन्न कोऽप्यन्यो लगीत् इति भणितुं प्रवृत्ता, यो समीकृतं जगति सेन कपावन्ते, महणे च शिलन्ति (संखण्डयन्ति), सतबिन्तितं-कमपि अधिपति स्थापयामो यो अवस्था स्थापपति, सदा वैः स विमकवाहन एषोऽसाम्पमधिक इति स्थापितः, तदा तेन तेम्मो वृक्षा विभक्काः, भणिताब-यो युष्माकं एतां मर्यादा अतिकामति तं माझं रुपयेतः, अहं तस्य दण्वं करिष्यामि, सोऽपि कथं जानीते , जातिम्मरसद् वणिक्वं सरति, तदा तेषां यः कश्चिदपराध्यति स सम्म कथ्यते, तदा स तस्य दण्ड (स्थापयति, कः पुनर्दण्डः, दाकार:-हा खया दुष्कृतं, सदा स जानीने-अई सर्वखहरणीकृतः (खाम्), तदा वरं किल हतः शिरो मे छि, मचेटशं बिटम्बना, प्रापित इति, एवं बहुकालं हाकारदण्दोऽनुवर्तितः। तस्य च चम्यसा भार्या, तथा समं भोयाम्भुअतोऽपर मिथुनकं (युग्म) मातं, तस्यापि कालान्तरेणापरं, एवं ते एकवंशे सप्त कुलकरा उत्पमाः। * चित्र्तगा. + भई बसेरामि. परितोति, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 224 ~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ १५४ ], भाष्यं [ २...] आवश्यक - ४ मीषां प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः, जन्म पुनरिव सर्वेषां द्रष्टव्यम् । व्याख्यातं पूर्वभवजन्मद्वारद्वयमिति, इदानीं कुलकरनामप्रतिपादनायाह ॥ १११ ॥ * पदमित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो अ पसेणइए मरुदेवे चैव नाभी य ॥ १५५ ॥ गमनिका - प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित् मरुदेवश्चैव नाभिश्चेति, भावार्थः सुगम एवेति गाथार्थः ॥ १५५ ॥ गतं नामद्वारम् अधुना प्रमाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह व धणुसया य पढमो अट्ठ य सत्तद्धसत्तमाई च । छच्चेव अछट्ठा पंचसया पणवीसं तु ॥ १५६ ।। व्याख्या - नव धनुःशतानि प्रथमः अष्टौ च सप्त अर्धसतमानि षड् च अर्धपठानि पञ्च शतानि पञ्चविंशति, अन्ये पठन्ति पञ्चशतानि विंशत्यधिकानि, यथासंख्यं विमलवाहनादीनामिदं प्रमाणं द्रष्टव्यं इति गाथार्थः ॥ १५६ ॥ गतं प्रमागद्वारं, इदानीं कुलकरसंहननसंस्थानप्रतिपादनायाह बञ्जरिसहसंघयणा समचउरंसा य हुंति संठाणे । वण्णंपि य बुच्छामि पत्तेयं जस्स जो आसी ॥ १५७ ॥ गमनिका -- वज्रऋषभसंहननाः सर्व एव समचतुरस्राश्च भवन्ति 'संस्थाने' इति संस्थानविषये निरूप्यमाणा इति, वर्णद्वारसंबन्धाभिधानायाह-वर्णमपि च वक्ष्ये प्रत्येकं यस्य य आसीदिति गाथार्थः ॥ १५७ ॥ चक्खुम जसमं च पसेणइअं एए पिअंगुवण्णाभा । अभिचंदो ससिगोरो निम्मलकणगप्पभा सेसा ॥ १५८ ॥ वसुदेवहिण्डीतः पण्यवीसाय + पञ्चविंशतिश्च प्यमाणे Education into For Free Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 225 ~ ॥१११॥ www.landbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] *%* “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ १५८ ], भाष्यं [ २...] गमनिका — चक्षुष्मान् यशखी च प्रसेनजिच्चैते प्रियङ्गुवर्णाभाः अभिचन्द्रः शशिगौरः निर्मलकनकप्रभाः शेषाः विमलवाहनादयः, भावार्थः सुगम एव, नवरं निर्मलकनकवत् प्रभा-छाया येषां ते तथाविधा इति गाथार्थः ॥ १५८ ॥ गतं वर्णद्वारं, स्त्रीद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह चंदजसचंदकता सरूव पडिरूव चक्खुकंता य। सिरिकंता मरुदेवी कुलगरवत्तीण नामाई ॥ १५९ ॥ गमनिका - चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुःकान्ता च श्रीकान्ता मरुदेवी कुलकरपलीनां नामानीति गाथार्थः ॥ १५९ ॥ एताश्च संहननादिभिः कुलकरतुल्या एव द्रष्टव्याः, यत आह संघणं ठाणं उच्चत्तं चैव कुलगरेहि समं । वण्णेण एगवण्णा सव्वाओं पिरंगुबण्णाओं ॥ १६० ॥ गमनिका - संहननं संस्थानं उच्चैस्त्वं चैव कुलकरैः- आत्मीयैः समं अनुरूपं आसां प्रस्तुतस्त्रीणामिति, किंतु प्रमाणेन ईषन्यूना इति संप्रदायः, तथापि ईषन्यूनत्वान्न भेदाभिधानमिति, वर्णेन एकवर्णाः सर्वाः प्रियङ्गुवर्णा इति गाथार्थः ॥ १६० ॥ स्त्रीद्वारं गतं इदानीं आयुद्वारम् - | पलिओ मदसभए पढमस्साडं तओ असंखिज्जा । ते आणुपुव्विहीणा पुब्वा नाभिस्स संखेचा ॥ १६९ ॥ व्याख्या - पल्योपमदशभागः, 'प्रथमस्य' विमलवाहनस्य आयुरिति, ततः अन्येषां चक्षुष्मदादीनां असंख्येयानि, पूर्वाणीति योगः, तान्येवानुपूर्वीहीनानि नाभेः संख्येयान्यायुष्कमित्ययं गाथार्थः ॥ १६१ ॥ * ० भागो. For Parts Only www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम "आवश्यक"- मूलसू अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६१], भाष्यं [२...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-18/ अन्ये तु व्याचक्षते-पल्योपमदशभाग एव प्रथमस्थायुः ततो द्वितीयस्य असंख्येयाः-पल्योपमासख्येयभागा इति वाक्य हारिभद्रीशेषः, त एव चानुपूर्वीहीनाः शेषाणामायुष्कं द्रष्टव्याः तावद् यावत्पूर्वाणि नाभेः संख्येयानि इति, अविरुद्धा चेयं यत्तिः ॥११॥ व्याख्येति । अन्ये तु व्याचक्षते-पल्योपमदशभागः प्रथमस्य आयुष्क, ततः शेषाणां 'असंखेजा' इति समुदितानां विभाग-१ पल्योपमासंख्येयभागाः, एतदुक्तं भवति-द्वितीयस्य पल्योपमासंख्येयभागः, शेषाणां तत एवासंख्येयभागोऽसंख्येयभागः पात्यते तावद्यावन्नाभेः असंख्येयानि पूर्वाणि । इदं पुनरपव्याख्यानं, कुतः ?, पश्चानामसंख्येयभागानां पल्योपमचत्वारिंशत्तमभागानुपपत्तेः, कथम् ?, पाल्योपमं विंशतिभागाः क्रियते, तदष्टभागे कुलकरोत्पत्तिः, प्रथमस्य दशभाग आयुः, शेषाणां पञ्चानामर्धरूपाचत्वारिंशत्तमभागाद् असंख्यातोऽसंख्यातो भाग आयुः तथाऽप्य किश्चिन्यून चत्वारिंशत्तमो भागोऽवशिष्यते, यतः कृतविंशतिभागपल्योपमस्य अष्टभागे अष्टभागे इदं भवति, ततोऽपि दशभागे दी जाती, गताः | असंख्याताः पञ्चभागाः, अर्धाद् यदधैं किञ्चिन्यूनं स चत्वारिंशत्तमो भाग इति, उक्त च-'पलिओवमठ्ठभागे सेसंमि उM कुलगरुप्पत्ती' (गाथा १५०), तत्रापि प्रथमस्य दशमभाग आयुष्कमुक्त, तस्मैिश्चापगते विंशतितमभागद्वयस्य व्यपगमाच्छेषश्चत्वारिंशद्भागोऽवतिष्ठते, स च संख्येयतमः, ततश्च कालो न गच्छति, आह-अत एव नाभेरसंख्येयानि पूर्वाणि आयुष्कमिट, उच्यते, इष्टमिदं, अयुक्तं चैतत्, मरुदेव्याः संख्येयवर्षायुष्कत्वात्, न हि केवलज्ञानमसंख्येयवर्षायुषांशा | भवतीति, ततः किमिति चेत्, उच्यते, ततश्च नाभेरपि संख्येयवर्षायुषकत्वम् ।। १५१॥ यत आह- . * या भागाः, + तिम०. पमवि०. क्रियन्ते. आतौ. ति. मिष्ट. दीप अनुक्रम T www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६२], भाष्यं [२...] (४०) प्रत सूत्राक जंचेव आउयं कुलगराण तं चेव होई तासिपि । जं पढमगस्स आउं तावइयं चेव हथिस्स ॥१२॥ | गमनिका-यदेव आयुष्कं कुलकराणां तदेव भवति तासामपि-कुलकराङ्गनाना, संख्यासाम्याच तदेवेत्यभिधीयते, तथा यत्तु प्रथमस्यायुः कुलकरस्य, तावदेव भवति हस्तिनः, एवं शेषकुलकरहस्तिनामपि कुलकरतुल्यं द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥ १६२ ॥ इदानी भागद्वारं-कः कस्य सर्वायुष्कात् कुलकरभाग इति--- जं जस्स आउयं खलु तं दसभागे सम विभईऊणं। मज्झिल्लतिभागे कलगरकालं वियाणाडि ||१६३॥ । व्याख्या-यद्यस्यायुष्कं खलु तद् दशभागान् समं विभज्य मध्यमाष्टत्रिभागे कुलकरकालं विजानीहीति गाथार्थः। ॥ १६३ ॥ अमुमेवार्थ प्रचिकटयिषुराहपढमो य कुमारत्ते भागो चरमो य बुडभावंमि । ते पयणुपिज्जदोसा सव्वे देवेसु उबवण्णा ॥ १६४ ॥ गमनिका-तेषां दशानां भागानां प्रथमः कुमारत्वे गृह्यते, भागः चरमश्च वृद्धभाग इति, शेषा मध्यमा अष्टौ भागाः कुलकरभागा इति, अत एवोक्तं 'मध्यमाष्टत्रिभागे' इति, मध्यमाश्च ते अष्टौ च मध्यमाष्टौ त एव च त्रिभागस्तस्मिन् द्र कुलकरकालं विजानीहि, गत भागद्वार, उपपातद्वारमुच्यते-ते प्रतनुप्रेमदेषाः, प्रेम रागे वर्त्तते, द्वेषस्तु प्रसिद्ध एव, सर्वे विमलवाहनादयो देवेषु उपपना इति गाथार्थः ॥ १६४ ॥ न ज्ञायते केषु देवेषु उपपन्ना इति, अत आह दो चेव सुवणेसुं उदाहिकुमारेसु हुँति दो चेव । दो दीवकुमारेसुं एगो मागेसु उववण्णो ॥१६५॥ * भागो. + ०इएणं. भाव. विदया. दीप अनुक्रम JAMERatinintamational मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६५], भाष्यं [२...] (४०) आवश्यक ॥११३॥ प्रत सूत्रांक गमनिका-दावेव सुपर्णेषु देवेषु उदधिकुमारेषु भवतः द्वावेव द्वौ द्वीपकुमारेषु एको नागेषु उपपन्नः, यथासंख्यमय हारिभद्रीविमलवाहनादीनामुपपात इति गाथार्थः ॥ १६५ ॥ इदानीं तत्स्त्रीणां हस्तिनां चोपपातमभिधित्सुराह यवृत्तिः हत्थी छचित्थीओ नागकुमारेसु हुँति उबवण्णा । एगा सिद्धि पत्ता मरुदेवी नामिणो पत्ती ॥१६६ ॥ विभागः१ गमनिका-हस्तिनः पटू स्त्रियश्चन्द्रयशाद्या नागकुमारेषु भवन्ति उपपन्नाः, अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-एक एव हस्ती| षट् स्त्रियो नागेषु उपपन्नाः, शेषैर्नाधिकार इति, एका सप्तमी सिद्धि प्राप्ता मरुदेवी नाभेः पत्नीति गाथार्थः ॥ १६ ॥ उक्तमुपपातद्वारं, अधुना नीतिद्वारप्रतिपादनायाह| हकारे मकारे धिक्कारे चेव दंडनीईओ । वुच्छं तासि विसेसं जहक्कम आणुपुवीए ॥ १६७ ॥ | गमनिका-हकारः मक्कारः धिक्कारश्चैवं दण्डनीतयो वर्त्तन्ते, वक्ष्ये तासां विशेषं यथाक्रम-या यस्येति, आनुपू-14 ा-परिपाट्येति गाथार्थः ॥ १६७ ॥ पढ़मबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया।पंचमछहस्स य सत्तमस्स तइया अभिनवा उ ॥ १६८॥ । गमनिका-प्रथमद्वितीययोः-कुलकरयोः प्रथमा दण्डनीतिः-हकाराख्या, तृतीयचतुर्थयोरभिनवा द्वितीया, एतदुक्तं ११३॥ भवति-स्वल्पापराधिनः प्रथमया दण्डः क्रियते, महदपराधिनो द्वितीययेत्यतोऽभिनवा सेति, सां च मकाराख्या, तथा *वं. द्वितीयेति. दीप अनुक्रम wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६८], भाष्यं [२...] (४०) प्रत सूत्राक दीपञ्चमषष्ठयोः, सप्तमस्य तृतीयैव अभिनवा-धिकाराख्या, एताश्च तिम्रो लघुमध्यमोत्कृष्टापराधगोचराः खल्ववसेया इति गाथार्थः॥१६८॥ सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीओ होति भरहस्स ।उसभस्स गिहावासे असक्कओ आसि आहारो ॥१६९॥ गमनिका शेषा तु दण्डनीतिः माणवकनिधर्भवति भरतस्य, वर्तमानक्रियाभिधानं इह क्षेत्रे सर्वावसर्पिणीस्थितिप्रदर्शनार्थ, अन्यास्वप्यतीतासु एप्यासु चावसर्पिणीषु अयमेव न्यायः प्रायो नीत्युत्पाद इति, तस्य च भरतस्य पिता ऋषभनाथः, तस्य च कपभस्य गृहवासे असंस्कृत आसीदाहारः-स्वभावसंपन्न एवेति, तस्य हि देवेन्द्रादेशाद्देवाः देवकुरुत्तरकुरुक्षेत्रयोः स्वादूनि फलानि क्षीरोदाचोदकमुपनीतवन्त इति गाथार्थः ।। १६९ ॥ इयं मूठनियुक्तिगाथा, एनामेव भाग्यकृद् व्याख्यानयन्नाह परिभासणा उ पढमा मंडलिबंध मि होइ बीया । चारग छविछेआई भरहस्स चउब्विहा नीई ॥३॥1 (भाष्यम् ) गमनिका-यदुक्तं शेषा तु दण्डनीतिर्माणवकनिधेर्भवति भरतस्य'सेयं-परिभाषणातु प्रथमा,मण्डलीबन्धश्च भवति द्वितीया तु, चारकः छविच्छेदश्च भरतस्य चतुर्विधा नीतिः, तत्र परिभाषणं परिभाषा-कोपाविष्करणेन मा यास्यसीत्यपराधिनोडभिधानं, तथा मण्डलीवन्धः-नास्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यं, चारको-बन्धनगृहं, छविच्छेदः-हस्तपादनासिकादिच्छेद इति, इयं * भाषपकारेण व्याण्यामादस्वाः मूलवं तन पाश्चात्यभागकल्पना नियुक्त. मूलभाष्य + बंधोमि । मूलभाथ्यगाथेति नियुक्तिपुस्तके । दीप अनुक्रम manniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६९], भाष्यं [३] (४०) आवश्यक ॥११४|| प्रत सुत्राक भरतस्य चतुर्विधा दण्डनीतिरिति । अन्ये स्वेवं प्रतिपादयन्ति-किल परिभाषणामण्डलिबन्धी ऋषभनाथेनैवोत्पादिताविति, हारिभद्रीचारकच्छविच्छेदौ तु माणवकनिधेरुत्पन्नौ इति, भरतस्य-चक्रवर्त्तिन एवं चतुर्विधा नीतिरिति गाथार्थः ॥३॥ अथ यवृत्तिः कोऽयं भरत इत्याह-ऋषभनाथपुत्रः,अथ कोऽयं ऋषभनाथ इति तद्वक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽह-नाभी गाहा । अथवा प्रतिपादितः कुलकरवंशः,इदानीं प्राकसूचितेवाकुवंशः प्रतिपाद्यते-सच ऋषभनाथप्रभव इत्यतस्तद्वक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽहनाभी विणीअभूमी मरुदेवी उत्तरा य साढा य । राया य बहरणाहो विमाणसब्बट्ठसिद्धाओ ॥१७॥ गमनिका-इयं हि नियुक्तिगाथा प्रभूतार्थप्रतिपादिका, अस्यां च प्रतिपदं कियाऽध्याहारः कार्यः, स चेस्थम्-नाभि-13 रिति नाभिनाम कुलकरो बभूव, विनीता भूमिरिति-तस्य विनीताभूमौ प्रायः अवस्थानमासीद्, मरुदेवीति तस्य भार्या, राजा चप्राग्भवे वैरनाभः सन् प्रवज्यां गृहीत्वा तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धा मृत्वा सर्वार्थसिद्धिमवाप्य ततस्तस्याः मरुदेव्याः तस्यां विनीतभूमौ सर्वार्थसिद्धाद्विमानादवतीर्य ऋषभनाथः संजातः, तस्योत्तराषाढानक्षत्रमासीत् इति गाथार्थः ॥ १७॥g इदानीं यः प्राग्भवे वैरनाभः यथा च तेन सम्यक्त्वमवाप्तं यावतो वा भवान् अवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितः यथा च | तेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धमित्यमुमर्थमभिधित्सुराहधणसत्थवाह घोसण जइगमण अडविवासठाणं च । बहुवोलीणे वासे चिंता घयदाणमासि तया ॥ १७१ ॥ * प्रतिपाद. + धमिहुणसुरमहब्बलललियंगयवदरअंधमिहुणे य । सोहम्मविजभचुन चक्की सबह उसभे ॥ (गायेयं व्याख्याता नियुक्ती) दीप 054 अनुक्रम X ॥११४॥ MISTANTam.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति | अत्र ऋषभनाथस्य वक्तव्यता दर्शयते, तद अन्तर्गत पर्वभवा: - धन सार्थवाह आदीनाम वर्णनं क्रियते ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलस अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१७१], भाष्यं [३...], प्रक्षेपं [१] (४०) -46-4SS* प्रत सूत्राक उत्तरकुरु सोहम्मे महाविदेहे महब्बलो राया। ईसाणे ललियंगो महाविदेहे वइरजंघो॥१॥ (प्रक्षिप्ता) उत्तरकुरु सोहम्मे विदेहि तेगिच्छियस्स तत्थ सुओ। रायसुय सेहिमचासत्याहसुया वयंसा से ॥ १७२ ॥ | अन्या अपि उक्तसंबन्धा एव द्रष्टव्याः तावत् यावत् 'पढमेण पच्छिमेण' गाहा, किंतु यथाऽवसरमसंमोहनिमित्तमुपन्यासं करिष्यामः । प्रथमगाथागमनिका-धनः सार्थवाहो घोषणं यतिगमनं अटवी वर्षस्थानं च बहुवोलीने वर्षे चिन्ता घृतदानमासीत्तदा । द्वितीयगाथागमनिका-उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे महाबलो राजा ईशाने ललिताङ्गो महाविदेहे च वैरजङ्घः । इयमन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च । तृतीयगाथागमनिका-उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे चिकित्सकस्य तत्र सुतः राजसुतश्रेष्ठ्यमात्यसार्थवाहसुता वयस्याः 'से' तस्य । आसां भावार्थः कथानकादवसेयः, प्रतिपदं च अनु-18 रूपः क्रियाऽध्याहारः कार्य इति, यथा-धनः सार्थवाह इति धनो नाम सार्थवाह आसीत् , स हि देशान्तरं गन्तुमना घोषणं कारितवानित्यादि । कथानकम्- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं अवरविदेहे वासे धणो नाम सत्यवाहो होत्था, सो खितिपतिहिआओ नयराओ वसंतपुरं पढिओ वणिजेणं, घोसणयं कारेइ-जो मए सद्धिं जाइ तस्साहमुदंतं वहामित्ति, तंजहा-खाणेण वा पाणेण वा वस्थेण वा पत्तेण वा ओसहेण वा भेसजेण वा अण्णेण षा केणई जो जेण विसूरइति । तस्मिन्काले तसिसमयेऽचरविदेहे वर्षे धनो नाम सार्थवाहोऽभूत् , स क्षितिमतिष्ठितात् नगराइसन्तपुरं प्रस्थितो वाणिज्येन, घोषणां कारयति-यो मया साधं याति तस्याहमुवन्त पहामीति, सबधा-सादनेन वा पानेन वा बस्त्रेण वा पानेग वा औषधेन चा भैपायन वा अन्येन वा यो (बिना) येन केनचिद्विपीदति इति' हवं अन्यककी सोपयोगा चेति वृत्तिकारा: +धनसा. दीप अनुक्रम rajaniorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥११५॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-), निर्मुक्तिः [ १७२] भाष्यं [३]...].] तं च सोऊण बहवे तडियकप्पडियादओ पयट्टंति, विभासा, जाव तेण समं गच्छ साहूण संपठितो, को पुण कालो ?, चरमनिदाघो, सो य सत्थो जाहे अडविमज्झे संपत्तो ताहे वासरत्तो जाओ, ताहे सो सत्थवाहो अइदुग्गमा पंथत्तिकाउं तत्थेव सत्थनिवेस कार्ड वासावासं ठितो, तंमि य ठिते सबो सत्थो ठितो, जाहे य तेसिं सत्थिलियाणं भोयणं णिट्ठियं ताहे कंदमूलफलाणि समुद्दिसिङमारद्धा, तत्थ साहुणो दुक्खिया जदि कहवि अहापवत्ताणि लभंति ताहे गेहंति, एवं काले वच्चते थोवावसेसे वासारत्ते ताहे तस्स घणस्स चिंता जाता को एत्थ सत्थे दुक्खओत्ति ?, ताहे सरिअं जहा मए समं साहुणो आगया, तेसिं च कंदाइ न कप्पंति, ते दुक्खिता तवस्सिणो, कलं देमित्ति पभाए निमन्तिता भणंति-जं परं अम्ह कप्पिअं होजां तं गेहेजामो, किं पुण तुब्भं कप्पति ?, जं अकथमकारियं भिक्खामेत्तं, जं वा सिणेहादि, तो तेण साहूण घयं फासूयं विउलं दाणं दिण्णं, सो य अहाउयं पालेत्ता कालमासे कालं किवा तेण दाणफलेण उत्तरकुराए १छ्रुत्वा च टिककार्यटिकादयः प्रवर्त्तन्ते विभाषा (वर्णनं ), वावशेन समं गच्छः साधूनां संप्रस्थितः कः पुनः कालः ?, परमनिदाघः, स च सार्यो यदाऽटवीमध्ये संप्राप्तः तदा वर्षात्रो जातः, तदा स सार्थवाहोऽतिदुर्गमाः पन्थान इतिकृत्वा तत्रैव सार्थनिवेशं कृत्वा वर्षावास स्थितः तस्मिन स्थिते सर्वः सार्थः स्थितः यदा च तेषां सार्थिकानां भोजनं निष्ठितं तदा कन्दमूलफलानि समुदेष्टं (अ) आरब्धाः, तत्र साधवः दुःखिता यदि कथमपि यथाप्रवृत्तानि हमन्ते तदा गृह्णन्ति एवं काले व्रजति स्तोकावशेषो वर्षांरात्रः तदा धनस्य चिन्ता जाता क एतसिन्सार्वे दुःखित इति, तदा स्मृतं यथा मया समं साधव आगतास्तेषां कम्दादि न कल्पते, ते दुःखितास्तपखिनः, कक्ये दास्ये इति प्रभाते निमंत्रिता भणन्ति यत्परमस्माकं कल्यं भवेत्तवृद्दीष्यामः, किं पुनर्भवतां कल्पते ?, यदकृतमकारितं भिक्षामात्रं यद्वा खेहादि ततः तेन साधुभ्यो पृतं प्रासुकं विपुलं दानं दतं स च यथायुकं पाठविला काळमासे कालं कृत्वा तेन दानफलेन उत्तरकुरुषु * होज, + सिणेहंति. bination For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 233 ~ ॥ ११५ ॥ warg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-), निर्मुक्तिः [ १७२] भाष्यं [३]...].] मणूसो जाओ, ओ आउक्खएणं सोहम्मे कप्पे देवो उववण्णो, ततो चइऊण इहेव जंबूदीवे दीवे अवरविदेहे गंधिला वतीविजए वेयहुपए गंधारजणवए गन्धसमिद्धे विज्जाहरणगरे अतिबलैरण्णो नत्ता सयबलराइणो पुत्तो महाबलो नाम राया जाओ, तत्थ सुबुद्धिणा अमचेण सावगेण पिअवयस्सेण णाडयपेक्खा अक्वित्तमणो संबोहिओ, मासावसेसाऊ बावीस दिणे भत्तपच्चक्खाणं काउं मरिऊण ईसाणकप्पे सिरिप्पभे विमाणे उलियंगओ नाम देवो जाओ, ततो चइऊण इहेब जंबूदीवे दीवे पुक्खलावइविजए लोहग्गलणगरसामी वइरजंघो नाम राजा जाओ, तत्थ सभारिओ पच्छिमेवए पत्रयामिति चिंतंतो पुत्तेण वासघरे जोगधूवधूविए मारिओ, मरिऊण उत्तरकुराए सभारिओ मिहुणगो जाओ, तओ सोहम्मे कप्पे देवो जाओ, ततो चइऊण महाविदेहे वासे खिइपइट्ठिए णगरे वेज्जपुतो आयाओ, जद्दिवसं च जातो तदिवसमे गाहजातगा से इमे चत्तारि वयंसगा तंजहा - रायपुत्ते सेट्ठिपुत्ते अमञ्चपुत्ते सत्थाहपुत्तेत्ति, संवडिआ ते, अण्णया कयाइ १ मनुष्यो जातः, तत आयुः क्षयेण सौधर्मे कल्पे देव उत्पन्नः ततक्युस्वा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे अपरविदेहेषु गन्धिलावत्यां वैतान्यपर्वते गान्धारजनपदे गन्धसमृद्धे विद्याधरनगरे अतिबलराजस्य नप्ता शतबळराजस्य पुत्रः महाबलनामा राजा जातः, तत्र सुबुद्धिना अमात्येन श्रावण प्रियवयस्येन नाटकप्रेक्षाक्षिक्षमनाः संबोधितः, मासावशेषायुः द्वाविंशतिदिनीं भक्तप्रत्याख्यानं कृत्वा त्वेशानकल्पे श्रीप्रभे विमाने ललिताकनामा देवो जातः ततच्युत्वे व जम्बूद्वीपे द्वीपे पुष्कलावतीविजये लोहार्गलनगरस्वामी वज्रजङ्घनामा राजा जातः, तत्र सभार्यः पश्चिमे वयसि प्रवजामीति चिन्तयन् पुत्रेण वासगृहे योगधूपधूपिते ( तेन) मारितः, मृत्योत्तरकुरुषु सभार्यो मिथुनको जातः, ततः सौधर्मे कल्पे देवो जातः, ततयुत्वा पुनरपि महाविदेहे वर्षे क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे वैद्यपुत्र आयातः, यदिवसे च जातस्तद्दिवसे एकाही तास्तस्येमे चत्वारो वयस्यास्तथथा - राजपुत्रः श्रेष्ठिपुत्रः अमात्यपुत्रः सार्थवाहपुत्र इति संबधितास्ते, अन्यदा कदाचित् सेणं. + बस्स २०. पुणोवि म० For Past Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 234 ~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७२], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक तस्स वेजस्स घरे एनओ सवे सन्निसण्णा अच्छंति, तत्थ साहू महप्पा सो किमि कुद्रेण गहिओ अइगतो भिक्खस्स, तेहिं हारिभद्री सप्पणयं सहासं सो भण्णति-तुन्भेहिं नाम सबो लोगो खायचो, ण तुन्भेहिं तवस्सिस्स वा अणाहस्स वा किरिया यवृत्तिः ॥११६॥ कायबा, सो भणति-करेजामि, किं पुण? ममोसहाणि णत्थि, ते भणंति-अम्हे मोल्लं देमो, किं ओसहं जाइजउ ?, सो विभागः१ भणति-कंबलरयण गोसीसचंदणं च, तइयं सहस्सपागं तिलं तं मम अस्थि, ताहे मम्गिडं पवत्ता, आग-1 |मियं च णेहिं जहा-अमुगस्स वाणियगस्स अस्थि दोवि एयाणि, ते गया तस्स सगासं दो लक्खाणि घेत्तुं, वाणिअओ संभंतो भणति-किं देमि?, ते भणंति-कंचलरयणं गोसीसचंदणं च देहि, तेण भण्णति-किं एतेहिं कजं?, भणंति-साहुस्स दकिरिया कायबा, तेण भणितं-अलाहि मम मोल्लेण, इहरहा एव गेण्हह, करेह किरियं, ममवि धम्मो होउत्ति, सो वाणि-18 यगो चिंतेइ-जई ताव एतेसिं बालाणं परिसा सद्धा धम्मस्सुवरिं, मम णाम मंदपुण्णस्स इहलोगपडिबद्धस्स नत्थि, सो| तप वैषख गृहे एकतः सनिषपणाविष्ठन्ति, तत्र साधर्महात्मा स कृमिकृष्टेन गृहीतः अतिगतो भिक्षावै, तैः सप्रणयं सहास्यं सोऽमाणि-युष्माभिनाम सर्वो लोकः खादितम्यः, न युष्मामिः तपस्विनो वा अनाथस्य वा क्रिया (चिकित्सा) कर्तब्या, स भणति-करोमि किं पुनः मम औषधानि न सन्ति, ते भणन्ति-वर्ष मूल्यं दद्यः, किमौषधं याच्यते (तां), स भणति-कम्बलरख गोशीषचन्दनं च, तृतीयं सहसपार्क तैलं सन्ममास्ति, तदा मार्ग-IC यितुं प्रवृत्ताः, ज्ञातं च तैः यथा-अमुकस्य वणिजो हे अपि एते स्तः, ते गतास्तख सकामं हे लक्षे गृहीत्वा, वणिक संम्रान्तो भण्यति-किं ददामि !, ते भणन्ति-कम्ब- ॥११६॥ लरवं गोशीर्षचन्दनं च देहि, तेन भव्यते-किमेतैः का!, भणन्ति - साधोः क्रिया कर्त्तव्या, तेन भणितं-अकं मम मूल्येन, इतरक्षेत्र गृहीत कुरुवं क्रियां, ममापि धर्मों भवत्तिति, स वणिम् चिन्तयति-यदि तावदेतेषां बालानामीदशी श्रद्धा धर्मस्योपरि, मम नाम मन्दपुण्यस्ख इहलोकप्रतिबद्धस्त्र नास्ति, स * एगयओ. + कोदेण. बाइयोसयसहक दीप अनुक्रम T Gaindiorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७२], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सूत्राक | संवेगमावण्णो तहारूवाणं घेराणं अंतिए पवइओ सिद्धो। अमुमेवा) उपसंहरन् गाथावयमाहविजसुअस्स य गेहे किमिकुट्ठोवहु जई दडे । बिति य ते विजसुयं करेहि एअस्स तेगिच्छं ॥१७३ ॥ तिल्लं तेगिच्छसुओ कंवलग चंदणं च वाणियओ। दाउ अभिणिक्खंतो तेणेच भवेण अंतगडो ॥१७४ ॥ । गमनिका वैद्यसुतस्य च गेहे कृमिकुष्ठोपद्भुतं मुंनिं दृष्ट्वा वदन्ति च ते वैद्यसुत-कुरु अस्य चिकित्सा, तैलं चिकित्सकसुतः कम्बलकं चन्दनं च वणिग् दत्त्वा अभिनिष्क्रान्तः, तेनैव भवेन अन्तकृत, भावार्थः स्पष्ट एव, कचित् क्रिया ध्याहारः स्वबुद्ध्या कार्य इति गाथाद्वयार्थः ॥ १७३-१७४ । कथानकशेषमुच्यते-इमेवि घेतूण ताणि ओसहाणि लगता तस्स साहुणो पास जत्थ सो उज्जाणे पडिमं ठिओ, ते तं पडिम ठिों वंदिऊण अणुण्णवेति-अणुजाणह भगवं II अम्हे तुम्हें धम्मविग्धं काउं उवडिआ, ताहे तेण तेल्लेण सो साहू अन्भंगिओ, तं च तिलं रोमकूवेहि सर्व अइगतं, तमिय | अइगए किमिआ सषे संखुद्धा, तेहिं चलंतेहिं तस्स साहुणो अतीव वेयणा पाउन्भूया, ताहे ते निग्गते दडूण कंबलरयणेण संवेगमापन तथारूपाणां स्थविराणां मन्तिके प्रबजितः सिद्धः। २ इमेऽपि गृहीरवा तान्यौपचानि गवासस्य साधो पावत्र स उद्याने प्रतिमया स्थितः, ते तं प्रतिमया, स्थितं वन्दित्वाऽनुज्ञापयन्ति-अनुजानीहि भगवन् ! वयं तव धर्मविभं कमुपस्थिताः, तदा तेन सैलेन स साधुरभ्यङ्गितः, तच तेलं रोमकूपैः ("पेषु) सर्व मतिमतं (व्याप्तं), समिखातिगते कमयः सर्वे संक्षुब्धाः , तेषु चलासु तख साधोरतीय वेदना प्रादुर्भूना, तदा तानिर्गतान् ट्रा कम्बलरखेन * यति. + बन्दन्ते च. रोिमं कू० दीप अनुक्रम AmEaaMind मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३...], (४०) मावश्यक ॥११॥ यवृत्ति प्रत सुत्रांक सो पाउओ साहू, तं सीतलं, तं चे तेल्लं उपहवीरियं, किमिया तत्थ लग्गा, ताहे पुषाणीयगोकडेवरे पप्फो डेंति, ते सबे|| हारिभद्रीपडिया, ताहे सो साहू चंदणेण लित्तो, ततो समासत्थो, एवेकसि दो तिण्णि वारे अन्भंगेऊण सो साहू तेहिं नीरोगो कओ, पदम मक्खिजति, पच्छा आलिंपति गोसीसचंदणेणं पुणो मक्खिजइ, एवेताए परिवाडीए पढमभंगे तयागया | विभागः१ णिग्गया बिइयाए मंसगया तइयाए अद्विगया ३दिया णिग्गया, ततो संरोहणीए ओसहीए कणगवण्णो जाओ, ताहे| खामित्ता पडिगता, ते पच्छा साहू जाता, अहाउयं पालइत्ता तम्मूलागं पंचवि जणा अचुए उववण्णा, ततो चइऊण इहेव जंबूदी चे पुषविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरगिणीए नयरीए वे रसेणस्स रण्णो धारिणीए देवीए उयरे पढमो वइर-1 णाभो णाम पुत्तो जाओ, जो से वेजपुत्तो चक्कवट्टी आगतो, अवसेसा कमेण बाहुसुबाहुपीढमहापीहत्ति, वइरसेणो पइओ, सोय तिथंकरो जाओ, इयरेवि संवडिया पंचलक्खणे भोए भुजंति, जद्दिवसं वइरसेणस्स केवलनाणं उप्पीपणं,। स प्रावृतः साधुः, तत् शीतलं, तचैव सैकं वणवीर्य, क्रमवसन लामाः, तदा पूर्वानीतगोकलेवरे प्रस्फोटयन्ति (क्षिपन्ति), ते सर्वे पतिताः, तदा साधुः स चन्दनेन लिप्तः, ततः सभाषन्तः, एवमेकं ही श्रीन वारान् अभ्यङ्गय स साधुसी रोगः कृतः, प्रथमं वक्ष्यते पश्चादालिप्यते गोशीपचन्दनेन पुनस्रः। क्ष्यते, एवमेतया परिपाया प्रथमाभ्य वगता निर्गता द्वितीचार्या मांसगतास्तूतीयायामस्थिगतानिया निर्गताः, ततः संसहयोषध्या कनकवणीमाता, तदा। क्षमविश्वा प्रतिगताः, ते पखात् साधयो आता, यथायुष्कं पालयित्वा तन्मूलं पञ्चापि जना अध्यते प्रत्यक्षात तसव्युवा इहैव जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहेषु पुष्करावती[विजये पुण्डरी किन्यां नगर्या वनसेनस्य राज्ञः धारिण्या देण्या उदरे प्रथमो वजनाभनामा पुत्रो जासः, यः स वैद्यपुत्रश्वकवी आयातः (उत्पः), अवयोषाः क्रमेण बाहुसुबाहुपीठमहापीठा इति, वनसेनः प्रनजिता, सच तीर्थकरो जातः, इतरेऽपि संवर्धिताः पञ्चल क्षणान् भोगान् भुजते, बहिवसे वज्रसेचस्य केवल-12 | ज्ञानमुत्पर्य, *च. + परकोडियं. ताडे पावणिजति. दीवे दीवे. बरसेगस्स. सो वेजपुत्तो. सो जाओ. णभोए. समुष्पणं. दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३...], (४०) प्रत तदिवसं वइरणाभस्स चक्करयणं समुप्पण्णं, वइरो चक्की जाओ, तेणं साहुवेयावच्चेण चक्वट्टीभोया उदिण्णा, अवसेसा चत्तारि मंडलिया रायाणो, तत्थ वइरणाभचर्कवहिस्स चउरासीर्ति पुबलक्खा सबाउग, तत्थ कुमारो तीसं मंडलिओ सोलस घउषीस महाराया चोद्दस सामण्णपरिआओ, एवं चउरासीइ सवाउयं, भोगे भुजंता विहरंति, ओय तित्थयरसमोसारणं, सो पिउपायमूले चउहिवि सहोदरेहिं सहिओ पवइओ, तस्थ वइरणाभेण चउद्दस पुषा अहिजिया, सेसा एकारसंगवी चउरो, तत्थ वाहू तेर्सि वेयावच्चं करेति, जो सुबाहू सो साहुणो चीसामेति, एवं ते करेंते वइरणाभो भगवं अणुवूहइ-अहो सुलद्धं जम्मजीविअफलं, जं साहूर्ण वेयावच्चं कीरइ, परिस्संता वा साहुणो वीसामिछति, एवं पसंसइ, एवं पसंसिजतेसु तेसु तेसिं दोण्हं पच्छिमाणं अप्पत्ति भवइ, अम्हे सज्झायंता न पसंसिज्जामो, जो करेइ सो पसंसिज्जइ2 सूत्राक 888SADSENSAX दीप अनुक्रम तदिवसे वजनामस्य चकरवं समुत्पन, बज्रनाभः चक्री जातः, तेन साधुवैयाभूत्येन चक्रवत्तिभोगा उदीमा: (लब्धाः), अवशेषाश्चस्वारो माण्डालिका राजानो (जाताः), तत्र वज्रनाभचक्रवर्तिनश्चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि सर्वायुष्कं कुमारः त्रिंशतं भाण्डलिकः पोडश चतुर्विंशति महाराजः चतुर्दश श्रामण्यपर्यायः, एवं चतुरशीतिः सर्वायुष्र्फ, भोगान् भुजमाना विहरन्ति, इतश्च तीर्थकरसमवसरणं, स पितृपादमूले चतुर्भिरपि सहोदरैः सहितः प्रवजितः, तत्र वज्रनामेन चतुर्दश पूर्वाष्पधीतानि, शेषा एकादशाङ्गवियः चत्वारः, तत्र बाहुलेषां बयावृत्य करोति, यः सुबाहुः स साधून वित्रमयति, एवं तौ कुर्वन्तौ वज्रनाभो भगवान् भनुहयति-अहो सुजम् जन्मजीवितफलं, यत् साधूनां वैयावृत्त्वं क्रियते, परिश्रान्ता चा साधवो विनम्यन्ते, एवं प्रशंसति, एवं प्रशस्वमानयोस्तयोईयोः | पश्चिमयोरनीतिक भवति, भावां स्वाध्यायन्तौ न प्रशस्खाचहे, यः करोति स प्रशस्यते, * किस्स. + सीई. सरणे. वीज. taindinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥११८॥ प्रत सुत्राक सबो (यो) लोगववहारोत्ति, वइरणाभेण य विसुद्धपरिणामेण तित्थगरणामगोतं कम्मं बद्धति । अमुमेवार्थमुपसंहरन्निदं गाथाचतुष्टयमाह साहुं तिगिच्छिऊणं सामपणं देवलोगगमणं च । पुंडरगिणिए उ चुया तओ सुया वइरसेणस्स ॥ १७ ॥ ४ पद मित्थ बहरणाभो बाहु सुबाहु य पीढमहपीढ़े।तेसि पिआ तिथअरो णिक्खंता तेऽवि तत्धेव ॥१७६ ॥ पढमो चउदसपुब्वी सेसा इकारसंगविउ चउरो । बीओ वेयावच्चं किइकम्मं तइअओ कासी ॥ १७७॥ भोगफलं बाहुवलं पसंसणा जिट्ट इयर अचियत्तं । पढमो तित्थयरत्तं वीसहि ठाणेहि कासी य ॥ १७८ ॥ ___ आसामक्षरगमनिका-साधु चिकित्सित्वा श्रामण्यं देवलोकगमनं च पौण्डरीकिण्यां च च्युताः, ततः सुता वैरसेनस्य जाता इति वाक्यशेषः, प्रथमोऽत्र वैरनाभः बाहुः सुबाहुश्च पीठमहापीठी, तेषां पिता तीर्थकरो निष्क्रान्तास्तेऽपि तत्रैवपितुः सकाशे इत्यर्थः, प्रथमश्चतुर्दशपूर्वी शेषा एकादशाङ्गविदश्चत्वारः, तेषां चतुर्णा बाहुप्रभृतीनां मध्ये द्वितीयो वैयावृत्त्य कृतिकर्म तृतीयोऽकार्षीत्, भोगफलं बाहुबलं प्रशंसनं ज्येष्ठ इतरयोरचियत्त, प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्थानैरकार्षीत्, भावार्थस्तु उक्त एव, क्रियाऽध्याहारोऽपि स्वबुद्ध्या कार्यः, इह च विस्तरभयानोक्त इति गाथाचतुष्टयार्थः ॥१७५-१७६-१७७-१७८॥यदुक्तं प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्थानैरकाषीत्,'तानि स्थानानि प्रतिपादयन्निदं गाथात्रयमाह सौ(यो) लोकव्यवहार इति, बननाभेन च विशुवपरिणामेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धमिति. * पीढा. + चिकित्सयित्वा. विदरनामःबाहुफलं. विंशया (खात्). दीप अनुक्रम ११०॥ CES Haniprayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७९], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सूत्राक 64-90 अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसुं। वच्छल्लया एएसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥ १७९ ।। दसण विणए आवस्सए य सीलब्बए निरइआरो। खणलव तवचियाए वेयावच्चे समाही य ॥१८॥ अप्पुष्चनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तिस्थयरत्तं लहइ जीवो ॥१८१॥ | व्याख्या-तत्र अशोकाद्यष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीति अर्हन्तः-शास्तार इति भावार्थः १ । सिद्धास्तु अशेषनिष्ठितकर्माशाः परमसुखिनः कृतकृत्या इति भावार्थः २ प्रवचन-श्रुतज्ञानं तदुपयोगानन्यत्वाद्वा सङ्घ इति । गृणन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवः-धर्मोपदेशा दिदातार इत्यर्थः ४ । स्थविरा:-जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नाः, तत्र जातिस्थविरः पष्टिवर्षः श्रुतस्थविरः समवायधरः पर्यायस्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः ५। बहु श्रुतं येषां ते बहुश्रुताः, आपेक्षिकं बहुश्रुतत्वं, एवमर्थेऽपि संयोज्यं, किंतु सूत्रधरेभ्योऽर्थधराः प्रधानाः तेभ्योऽप्युभयधरा इति ६ । विचित्रं अनशनादिलक्षणं तपो| विद्यते येषां ते तपस्विनः सामान्यसाध वो वा ७ । अरहन्तश्च सिद्धाश्च प्रवचनं च गुरवश्च स्थविराश्च बहुश्रुताश्च तपस्विनश्च अर्हत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विनः । वत्सलभावो वत्सलता, सा चानुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनायथानुरूपोपचारलक्षणा तया, एतेषामहदादीनामिति, प्राक् षष्ठयर्थे सप्तमी 'बहुस्सुए तबस्सीण' वा पाठान्तरं, तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बध्यत इति, अभीक्ष्ण-अनवरतं ज्ञानोपयोगे च सति बध्यते ८ । दर्शन-सम्यक्त्वं, विनयो-ज्ञानादिविनया, |स च दशवकालिकादवसेया, दर्शनं च विनयश्च दर्शनविनयी तयोर्निरतिचारः तीर्थकरनामगोत्रं कर्म वनाति १०-११ | अहम्तव्य (सात). ROCKROGRESEARCHAEOS दीप अनुक्रम RSSCX JABERatinintamanna मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अरिहन्त आदि २० स्थानकानाम् वर्णनं ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ १८१], भाष्यं [३...], आवश्यक आवश्यकम् - अवश्यकर्त्तव्यं संयमव्यापार निष्पन्नं तस्मिंश्च निरतिचारः सन्निति १२ । शीलानि च व्रतानि च शीलव्रतानि | शीलानि - उत्तरगुणाः व्रतानि - मूलगुणाः तेषु च अनतिचार इति १३ । क्षणलवग्रहणं कालोपलक्षणं, क्षणलवादिषु संवेग॥ ११९ ॥ ४ भावनाध्यानासेवनतश्च बध्यते १४ । तथा तपस्त्यागयोर्बध्यते, यो हि यथाशक्त्या तपः आसेवते त्यागं च यतिजने विधिना करोति १६ । व्यावृतभावो वैयावृत्त्यं तच्च दशधा, तस्मिन्सति बध्यते १७ । समाधिः- गुर्वादीनां कार्यकरणेनं स्वस्थतापादनं समाधौ च सति बध्यते १८ । तथा अपूर्वज्ञानग्रहणे सति श्रुतभक्तिः श्रुतबहुमानः, स च विवक्षितकर्मबन्धकारणमिति १९ । तथा प्रवन्ननप्रभावनता च सा च यथाशक्त्या मार्गदेशनेति २० । एवमेभिः कारणैः अनन्तरोक्तः तीर्थकरत्वं लभते जीव इति गाथात्रयार्थः ॥ १७९-१८०-१८१ ॥ Jus Eau पुरिमेण पच्छिमेण य एए सब्वेऽवि फासिया ठाणा । मज्झिमएहिं जिणेहिं एक्कं दो तिष्णि सच्वे वा ॥ १८२ ॥ गमनिका - पुरिमेण पश्चिमेन च एतानि - अनन्तरोक्तानि सर्वाणि स्पृष्टानि स्थानानि, मध्यमैजिनैः एकं द्वे त्रीणि सर्वाणि चेति गाथार्थः ॥ १८२ ॥ आहतं च कहं बेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं । बज्झइ तं तु भगवओ तइयभवोसकइत्ताणं ॥ १८३॥ गमनिका - तच तीर्थकरनामगोत्रं कर्म कथं येद्यत इति, अग्लान्या धर्मदेशनादिभिः, बध्यते तत्तु भगवतो यो * यथाशक्ति (स्यात्) + ०करणद्वारेण. For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः १ विभागः १ ~ 241 ~ ॥ ११९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति तिर्थकर - कर्मन: वेदनं, तस्य बन्धनं borg Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८३], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सूत्राक भवस्तस्मात् तृतीय भवमवसर्दी, अथवा बध्यते तत्तु भगवतस्तृतीयं भवं प्राप्य, ओसकइत्ताणंति -तस्थिति संसार वाऽवस]ति, तस्य धुत्कृष्टा सागरोपमकोटीकोटिर्वन्धस्थितिः, तच्च प्रारम्भवन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति, यावदपूकरणसंख्येयभागैरिति, केवलिकाले तु तस्योदय इति गाथार्थः॥१८३।। तत्कस्यां गतौ बध्यत इत्याहनियमा मणुयगईए इत्थी पुरिसेयरो य सुहलेसो। आसेवियबहुलेहिं वीसाए अण्णयरएहिं ॥ १८४॥ गमनिका-नियमात् मनुष्यगतौ बध्यते,कस्तस्यां बनातीत्याशश्याह-खी पुरुष इतरो वेति-नपुंसक (का), किं सर्व एवी, नेत्याह-शुभा लेश्या यस्यासौ शुभलेश्यः, स 'आसेवितबहुलेहिं बहलासेवितैः-अनेकधाऽऽसेवितरित्यर्थः, प्राक्तशैल्या पूर्वापरनिपातोऽतोत्रं, विंशत्या अन्यतः स्थानैनातीति गाथार्थः ॥ १८४॥ कथानकशेषमिदानीम-बाहुणा वेयाविचकरणेण चकिभोगा णिवत्तिया, सुबाहुणा वीसाश्मणाए बाहुबलं निवत्ति, पच्छिमेहिं दोहिं ताए मायाए इत्थिनामगो कम्ममज्जितंति, ततो अहाउअमणुपालेत्ता पंचवि कालं काऊण सबसिद्धे विमाणे तित्तीससागरोवमठिइया देवा दीप अनुक्रम बाहुना पैवाखूषकरणेन चकिभोगा लिर्तिताः, सुबाहुना विश्रामणया बाहुबलं निवेसितं, पश्चिमाभ्यां द्वाभ्यां तथा मायया नीनामगोत्रं कर्म अर्जितमिति, ततो यथायुष्कमनुपास्य पञ्चापि काळं कृत्वा सर्वार्थसिदे विमाने वयविंशरसागरोपमस्थितिका देवाः करणं. + पच्यते. .तनंच. बाहुणावि. पवैयावृत्य वीसावणाए, andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८४], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक ॥१२०॥ प्रत सुत्रांक 4%95 उवण्णा, तत्थवि अहाउयं अणुपालेत्ता पढर्म वइरणाभो चइऊण इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए वइकताए सुसमा- हारिभद्रीएवि सुसमदुसमाएवि बहुवीइताए चउरासीइए पुषसयसहस्सेसु एगूणणउए य पक्खेहि सेसेहिं आसाढबहुलपक्खच-15.यवृत्तिः उत्थीए उत्तरासाढजोगजुत्ते मियंके इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदे वीए भारियाए कुञ्छिसि गन्भत्ताए उव-15 विभागः१ वण्णो, चोईस सुमिणा उसभगयाईआ पासिय पडिबुद्धा, नाभिस्स कुलगरस्स कहेइ, तेण भणियं-तुभ पुत्तो महाकुलकरो भविस्सइ, सक्कस्स य आसणं चलियं, सिग्धं आगमणं, भणइ-देवाणु पिए ! तव पुत्तो सयलभुवणमंगलालओ पढमराया पढमधम्मचकावट्टी भविस्सइ, केई भणंति-बत्तीसपि इंदा आगंतूण वागरेंति, ततो मरुदेवा हहतुवा गम्भ वह-६ | इति । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउववाओ सबढे सब्वेसिं पढमओ चुओ उसभो । रिक्खेण असाढाहिं असाढबहुले चउत्थीए ॥१८५॥ गमनिका-उपपातः सर्वार्थे सर्वेषां संजातः, ततश्च आयुष्कपरिक्षये सति प्रथमशच्युतो ऋषभ ऋक्षेण-नक्षत्रेण आषा उत्पन्नाः, तन्त्रापि यथायुरनुपाख्य प्रथम वजनाभन्युचा अस्या अवसर्पिण्याः सुषमसुषमायाँ व्यतिक्रान्तायां सुषमायामपि सुषमदुष्पमावामपि बहुव्य|तिकान्तायां चतुरशीतौ पूर्वशतसहस्त्रेषु एकोननवतौ च पक्षेषु शेषेषु आषाढकृष्णपक्षचतुथ्यौ उत्तराषाढायोगयुक्त मुगाले इक्ष्वाकुभूमी नामेः कुलकरस मरुदेश्या भायांवाः कुक्षी गर्भतयोत्पन्नः, चतुर्दश स्वमान ऋषभगजादिकान ट्रा प्रतिबद्धा, नाभये कुलकराय कथयति, तेन भणितं तव पुत्रो महाकुलको भविष्यति, ॥१२०॥ शकल्प चासनं चलितं, शीघ्रमागमन, भणति-देवासुप्रिये ! तव पुत्रः सकलभुवनमालालयः प्रथमराजः प्रथमधर्मचक्रवर्ती भविष्यति, केचिद् भणस्ति-द्वात्रिशपि इन्या आगत्य म्यागृणन्ति, ततो मरुदेवी हष्टतुष्टा गर्भ बहतीति. * मरुदेवण, + पपइस०. नाभिकुल गुपिया. दीप अनुक्रम JABERatane मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋशभस्य जन्म,वृद्धिः, जातिस्मरण आदिनाम् वर्णनं ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१८५], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सूत्राक है ढाभिः आषाढबहुले चतुर्थ्यामिति गाथार्थः ॥ १८५॥ इदानीं तद्वक्तव्यताऽभिधित्सया एनां द्वारगाथामाह नियुक्तिकारः जम्मणे नाम बुढी अ, जाईएँ सरणे इअ । वीवाहे अ अवच्चे अभिसेए रजसंगहे ॥ १८६ ॥ गमनिका-जमण' इति जन्मविषयो विधिवक्तव्यः, वक्ष्यति च 'चित्तबहुलमीए' इत्यादि, नाम इति-नामविषयो विधिर्वक्तव्यः, वक्ष्यति 'देसूणगं च' इत्यादि, 'वुड्डी यत्ति' वृद्धिश्च भगवतो वाच्या, वक्ष्यति च 'अह सो बहुति भगव-15 मित्यादि', 'जातीसरणेतियत्ति' जातिस्मरणे च विधिर्वक्तव्यः, वक्ष्यति च 'जाईसरो य' इत्यादि, 'वीवाहे यत्ति' वीवाहे |च विधिर्वतव्यः, यक्ष्यति च 'भोगसमत्थं' इत्यादि, 'अवच्चेत्ति' अपत्येषु क्रमो वाच्यः, वक्ष्यति च 'तो भरहवंभिसुंदरी-IN त्यादि' 'अभिसेगत्ति' राज्याभिषेके विधिर्वाच्यः 'आभोएडं सको उवागओ' इत्यादि वक्ष्यति, 'रजसंगहेत्ति' राज्यसंग्रहविषयो विधिर्वाच्यः, 'आसा हत्थी गावों इत्यादि । अयं समुदायार्थः, अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं यथावसरं वक्ष्यामः । तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयाहचित्तबहुलट्ठमीए जाओ उसभो असाढणक्खत्ते । जम्मणमहो असव्वोयब्यो जाव घोसणयं ॥ १८७॥ गमनिका-चैत्रबहुलाष्टम्यां जातो ऋषभ आषाढानक्षत्रे जन्ममहश्च सर्वो नेतव्यो यावद्घोषाणमिति गाथार्थः ॥१८७|| भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सा य मरुदेवा नवर्ह मासाणं बहुपडिपुषणाणं अट्ठमाण! य राईदियाण सा च महदेवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धासु च रानिन्दिवेषु. * जातीसरणेतिय (वृत्ती). + नामेति. 1 ०णकमिति. माणं राई.. दीप अनुक्रम PROCCANCE JAMERatinintamational IndiaTary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति भगवत: जन्म-कल्याणकस्य वर्णनं ~ 244 ~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक ॥१२१॥ प्रत बहुवीइकताणं अद्धरत्तकालसमयसि चित्तबहुलमीए उत्तरासाँढानक्खत्ते आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया, जायमाणेसुहारिभद्रीय तित्थयरेसु सबलोए उज्जोओ भवति, तित्थयरमायरो य पच्छण्णगब्भाओ भवंति जरारुहिरकलमलाणि य न हवंति, यवृत्तिः ततो जाते तिलोयणाहे अहोलोयवत्थवाओ अह दिसाकुमारीओ, तंजहा-भोगकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी विभागः १ सुवच्छा वच्छमित्ता य, पुष्फमाला आणिंदिया ॥१॥ एयासिं आसणाणि चलंति, ततो भगवं उसहसामि ओहिणा जायं | आभोएऊण दिवेण जाणविमाणेण सिग्घमागंतण तित्थयरं तित्धयरजणणिं च मरुदेविं अभिवदिऊण संलवंति-नमोऽरथु| ते जगप्पईवदाईए, अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहोलोयवस्थवाओ अ दिसाकुमारीओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम करेमो तं तुन्भेहि न भाइयबंति, ततो तंमि पदेसे अणेगखंभसयसंनिविई जम्मणभवणं विउबिऊण संवट्टगपवणं विउचंति, ततो तस्स भगवंतस्स जम्मणभवणस्स आजोयर्ण सवतो समंता तणकडकंटककक्करसकराइ तमाहुणिय आहुणिय एगते सुत्रांक दीप अनुक्रम बहुव्यतिक्रान्तेषु अर्धरात्रिकालसमये कृष्णाटम्यां उत्तराषाढानक्षत्रे अरोगा भरोग दारकं प्रजाता, जायमानेषु च तीर्थकरेषु सर्वलोके उद्योतो भवति, तीर्थकरमातरम प्रच्छन्नगर्भा भवन्ति जरारुधिरकलिमलानि च न भवन्ति, ततो जाते त्रिलोकनाथे अधोलोकवासपा अष्ट दिकुमार्यः, तथा-भोगकरा भोगवती सुभोगा भोगमालिनी । सुवत्सा वत्समित्रा च पुष्पमाला अनिन्दिता ॥१॥ एतासामासनानि चलम्ति, ततो भगवन्त ऋषभस्वामिनं भवधिना जातं आभोग्य दिव्येन मानविमानेन भीनमागम्य तीर्यकर तीर्थकरजननी च मरुदेवीमभिवन्य संकपन्ति-गमोऽस्तु तुभ्यं जगप्रदीपदायिके ! वयं देवानुप्रिये! अधोलोकवातम्या मष्ट दिकुमार्यः भगवततीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कुमैतत् त्वया न भेतव्यमिति, ततमामिन् प्रदेशे अनेकताभशतसनिविष्ट जन्मभवनं वि-1 कुर्य संवरकपवनं चिकुर्वन्ति, ततस्तस्य भगवतः जम्मभवनसायोजन सर्वतः समन्ताव तुणकाटकपटककर्करशर्करादि तत् आधुप आधूर्यकान्त " उत्तरासादक. ॥१२॥ wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति मुनि दीपरत्नसागरेण ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) प्रत HESEARS सूत्राक पक्खिवंति, ततो खिप्पमेव पचुवसमंति, ततो भगवतो तित्थगरस्स जणणीसहिअस्स पणाम काऊण नाइदूरे निविट्ठाओ परिगायमाणीओ चिट्ठति । तओ उढलोगवत्थवाओ अह दिसाकुमारीओ, तंजहा-मेघंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी । तोयधारा विचित्ता य, वारिसेणा चलाया ॥१॥ एयाओऽवि तेणेव विहिणा आगंतूण अभवद्दलयं विउवित्ता आजोयण भगवओ जम्मणभवणस्स णञ्चोदयं णाइमट्टियं पफुसियपविरलं रयरेणुविणासणं सुरभिगंधोदयवासं वासित्ता पुष्फबद्दलयं विउवित्ता जलथलयभासरप्पभूयस्स विंटठाइस्स दसवण्णस्त कुसुमस्स जाणुस्सेधपमाणमेत्तं पुप्फवासं वासंति, त' चेव जाव आगायमाणीओ चिट्ठति । तओ पुरच्छिमरुयगवत्थवाओ अह दिसाकुमारिसामिणीओ, तंजहा-णंदुत्तरा य जंदा आणंदा पंदिवद्धणा चेव । विजया य वेजयंती जयति अवराजिया चेव ॥१॥ तहेवागंतूण जाप न तुन्भेहिं । बीहियवंति भणिऊण भगवओ तिस्थगरस्स जणणिसहिअस्त पुरिच्छिमेणं आदंसगहथिआओ आगायमाणीओ चिट्ठति । प्रक्षिपन्ति, ततः क्षिप्रमेव प्रत्युपधामयन्ति, ततो भगवते तीर्थंकराय जननीसहिताय प्रणामं कृत्वा नाविदूरे निविटाः परिगायन्त्य तिष्ठन्ति । तत ऊर्यलोकवास्तव्या अष्ट दिशुमायः, तद्यथा-मेघरा मेघवती, सुमेधा मेघमालिनी । तोषधारा विचित्रा च, वारिषेणा बलाहका ॥१॥ एता अपि तेनैव विधिनागस्वाभ्रवर्दल बिकुर्ववित्वा आयोजनं भगवतो जन्मभवनात् नात्युदकं नातिमृतिक विश्लशीकरं (फुसारं) रजोरेणुविनावानं सुरभिगन्धोदकवर्षी वर्षयित्वा पुष्पवलं विकुष्य जलस्थलजमाखरप्रभूतस्य वृन्तस्थायिनः वशाधवर्णस्य कुसुमख जानूरसेपप्रमाणमात्रां पुष्पवर्षा वर्षयन्ति, तदेव यावद् भागाधनस्यस्तिहन्ति । | ततः पूर्वदिपुचकवासल्या मष्टी विकमारीखामिया, तबधा-नम्दोत्तराच नन्दा आनन्दा नन्दिवर्धना चैव । विजया जयन्ती जयन्ती अपराजिता चैव ॥ तथैवागल्य वाववयान सम्पमिति भणिया भगवतस्तीर्थकराजननीसहितात्पूर्वखा आदर्शहला भागावल्यसिन्ति। 'सिपा.. + तह चेव. यंती. पुरच्छिमेणं. दीप अनुक्रम T M www.jandiarary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) प्रत आवश्यक-इएवं दाहिणरुयगवत्थबाओ अट्ट, तंजहा-समाहारा सुप्पदिण्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा । लच्छिमती भोगवती, चित्तगुत्ता हारिभद्री॥१२२॥ | वसुंधरा ॥१॥ तहेवागंतूण जाव भुवणाणंदजणणस्स जणणिसहिअस्स दाहिणणं भिंगारहत्थगयाओ आगायमाणीओयवृत्तिः |चिट्ठति । एवं पच्छिमरुयगवत्थषाओऽवि अट्ट, तंजहा-इलादेवी मुरादेवी, पहवी पउमावती। एगणासा णवमिआ, सीया| वभागार भद्दा य अहमा ॥१॥ एयाओऽवि तिस्थयरस्स जणणिसहिअस्स पञ्चस्थिमेणं तालियंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ चिट्ठति ।। एवं उत्तररुयगवत्यवाओऽवि अह, तंजहा-अलंबुसा मिस्सकेसी, पुंडरिगिणी य वारुणी। हाँसा सबप्पभा चेव, सिरि हिरी चेवर उत्तरओ ॥१॥ तहेवागंतूण तिस्थगरस्स जणणिसहिअस्स उत्तरेण णातिदूरे चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ चिट्ठति ।। ततो विदिसिरुायगवत्थवाओ चत्तारि विजुकुमारीसामिणीओ, तंजहा-चित्ता य चित्तकणगा, सत्तेरा सोयामणी ॥ तहेवागंतूण तिहुअणबंधुणो जणणिसहिअस्स पाउसु विदिसासु दीवियाहत्थगयाओ णाइदूरे आगायमाणीओ चिट्ठति । ततो| सुत्रांक 4.5%40 दीप अनुक्रम T एवं दक्षिणरुचकवास्तम्या भष्ट, तपथा-समाहारा सुपदचा, सुमबुद्धा यशोधरा । लक्ष्मीवती भोगवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ॥2॥ तवागत्य यावत भुवनानन्दजनकाजननीसहितात दक्षिणस्यां भृकारहता भागायत्यस्तिष्ठन्ति । एवं पश्रिमश्चकवास्तव्या अपि अष्ट, तद्यथा-इलादेवी सुरादेवी, पृथ्वी पद्मावती । एकनासा नवमिका, सीता भदा चाष्टमी ॥१॥ एता अपि तीर्थकरात् जननीसहिता पश्चिमायां तालतन्तहस्तगता आगायन्यसिन्ति । एवमुत्तररुचकवास्तव्या अपि अष्ट, तयथाअलम्बुसा मिश्रकेशी, पुण्डरी किणी च वारुणी । हासा सर्वप्रभा चैव, श्री ही वैवोत्तरतः ॥१॥ तथैवागाव तीर्थकराजननीसहितादुत्तरखा नातिदूरे चामरहला|गता आगायन्यतिष्ठन्ति । ततो विनिमुचकवासायावतमा विद्युत्कुमारीस्वामिन्या, तयथा-चित्रा च चित्रकनका, सत्तारा सौदामिनी ॥ तथवागत्य त्रिभुवनकभोजननीसदिवाचतभूषु विविक्ष दीपिकाहस्तगता नातिदूरे आगायन्यस्तिष्ठन्ति । ततो मासा. + उपरा. सि बाहिररु.. 15453 | ॥१२॥ JABERatinintamational wwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) % प्रत 09--% मज्झरुयगवत्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारिपहाणाओ, तंजहा-रूयया रूययंसा, सुरूया रूयगावती ॥ तहेवागंतूण जाव ण उवरोहं गंतबंतिकट्ठ भगवओ भवियजणकुमुयसंडमंडणस्स चउरंगुलवज णाभिं कप्पंति, वियरयं खणंति, णाभिं वियरए आनिहणंति, रयणाणं वैराण य पूरेंति, हरियालियाए य पीढं बंधेति, भगवओ तिस्थयरस्स जम्मणभवणस्स पुरच्छिमदाहिण-IN उत्तरेण तओ कदलीहरए विज्यंति, तेर्सि बहुमज्झदेसे तओ चंदसाले विउति, तेसिं बहुमज्झदेसे तओ सीहासणे विजचंति, भगवं तित्थयरं करायलपरिग्गहिअंतिस्थगरजणणिं च बाहाए गिहिऊण दाहिणिले कदलीपरिचाउस्साले सीहासणे निवेसिऊण सयपागसहस्सपागेहिं तिलहिं अन्भंगेति, सुरभिणा गंधवट्टएण उबदिति, तती भगवं तित्थयरं करकम-| लजुअलरुद्धं काऊण तिहुयणनिब्बुइयरस्स जणणिं च सुइरं बाहाहिं गहाय पुरच्छिमिल्ले कदलीघरचाउस्सालसीहासणे सन्नि-1 सूत्राक - दीप *-*-04-04 अनुक्रम १ मध्यरुचकवास्तव्यातलो दिकुमारीप्रधानाः, तद्यथा-रुचका रुचकांशा, सुरुचा रुचकावती । तथैवागत्य यावनोपरोध गन्तव्यमितिकृत्वा भगवतो | भव्यजनकुमुदषण्डमण्ढनस्य चतुरङ्गलबजे नाभि कप यन्ति, विवरं खनम्ति, नाभि विवरे नियन्ति, स्नै त्रैश्च पूरयन्ति, हरितालिकया च पीठं बन्नन्ति, भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनाद् पूर्वदक्षिणोत्तरासु त्रीणि कलीगृहाणि विकुर्वयन्ति, तेषां बहुमध्यदेशे तिखश्चन्द्रशाला विकुर्वन्ति, तासां बहुमध्यवेदो त्रीणि सिंहासनानि विकन्ति, भगवन्तं तीर्थकर करतलपरिगृहीतं तीर्थकरजननी च बासोः गृहीत्वा दाक्षिणात्ये कदलीगृहचतुःशाले सिंहासने निचेश्व शतपाकसह*बपाकतसरभ्यङ्गायन्ति, सुरभिणा गन्धवर्तकेनोदर्शयन्ति, तत्तो भयवन्तं सीधकरं करकमलयुगकरुदं कृत्वा त्रिभुवनानितिकरस्य जननी च सुचिरं बाहुभ्यां गृ दीत्या पौरस्त्वे कदलीगृहचतुःशालसिंहासने मारीभो पहा०. . करकमल. घरगे. लसीहा०, ३ निसियापेकण. खहरे। || भयं. छिन्दति. wwjandiarary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक ॥१२३॥ प्रत सूत्राक 'वेसावेति, ततो मजणविहीए मजति, गंधकासाइएहि अंगया ई लूहेंति, सरसेणं गोसीसचंदणेणं समालहेंति, दिवाई देवहारिभद्रीदूसजुअलाई नियसंति, सबालंकारविभूसियाई करेंति, तओ उत्तरिले कदलीघरचाउस्सालसीहासणे निसीयाविति, ताओ यवृत्तिः |आभिओगेहिं चुलहिमवंतागो सरसाई गोसीसचंदणकट्ठाई आणावेऊण अरणीए अगि उप्पाएंति, तेहिं गोसीसचंदणक- विभागः१ हेहिं अग्गि उज्जालेंति, अग्गिहोम करेंति, भूइकम्मं करेंति, रक्खापोलिअं करेंति, भगवओ तित्थंकरस्स कण्णमूलंसि दुवे| पाहाणवट्टए टिटियावेति, भवउ २ भवं पधयाउएत्तिक? भगवंतं तित्थकरं करतलपुडेण तित्थगरमातरं च बाहाए गहाय जेणेव भगवओ जम्मणभवणे जेणेव स यणिज्जे तेणेव उवागच्छंति, तिस्थयरजणणि सयणिजे निसियाति, भगवं तित्थयरं पास ठवेंति, तित्धकरस्स जणणिसहिअस्स नाइदूरे आगायमाणीओ चिट्ठति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसंवह मेह आयंसगा य भिंगार तालियंटा य | चामर जोई रक्खं करेंति एयं कुमारीओ॥१८८॥ सचिवेशयन्ति, ततो मजन विधिना मजयन्ति, गन्धकापावी भिरङ्गानि रूक्षयन्ति, सरसेन गोशीर्षचन्दनेन समालभन्ते, दिग्यानि देवदूष्ययुगलानि परिधापयन्ति, सर्वालङ्कारविभूषिते कुर्वन्ति, तत औतरे कदलीगृहचतुशालसिंहासने निषादयन्ति, तत भाभियोगिकैः क्षुहकहिमवतः सरसानि गोशीर्ष-14 चन्दनकाष्ठानि आनाथ्य अरणीतोऽनिमुत्पादयन्ति, तैयाँशीर्षचन्दमकार्व्हरमिं उज्ज्वालयन्ति, अभिहोमं कुर्वन्ति, भूतिकर्म कुर्वन्ति, रक्षापोहलिकां कुर्वन्ति, भगवततीर्थरस्य कर्णमूले द्वौ पाषाणवतुंलो भास्फालयन्ति, भवतु २ भवान् पर्वतायुष्क इतिकृत्वा भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च भुजयोगृहीत्वा यत्रैव भगवतो जन्मभवनं यत्रैव शयनीयं तत्रैवोपागछन्ति, तीर्थकरजननीं शयनीये निषादयन्ति, भगवन्तं तीर्थकरं पा स्थापयन्ति, तीर्थकरस्य x C ॥१२३॥ जननीसहितख नातिदूरे भागापयस्तिम्ति । निसियाति, गंधकासाइए. गावाई. 1 सत्य आभिमोगिहि. नवाससय.. || मेर अह अनुलोमा चदिसिरुभगा उ म पस्ने । वविदिसि मजारुयगा इति छप्पणा दिसि कुमारी॥1॥ सोपयोगा प्रक्षिप्ता. निवेशयन्ति. दीप SSC-CHACANCCESCOR अनुक्रम E Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 249~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८८], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सूत्राक SSGCARRANG गतार्था, द्वारयोजनामात्र प्रदर्श्यते-'संवट्ट मेहे'ति संवर्तकं मेघम् उक्तप्रयोजनं बिकुर्वन्ति, आदर्शकांश्च गृहीत्वा तिष्ठन्ति, भृङ्गारांस्तालवृत्तांश्चेति, तथा चामरं ज्योतिः रक्षां कुर्वन्ति, एतत् सर्वं दिक्कुमार्य इति गाथार्थः ॥ १८८॥ ततो सकस्स देविंदस्स णाणामणिकिरणसहस्सरजिअं सीहासणं चलिअं, भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएति, सिग्छ । पालएण विमाणेणं एइ, भगवं तित्थयरं जणाणिं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदई नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-णमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए !, अहं णं सक्के देविंदे भगवओ आदितिस्थगरस्स जम्मणमहिमं करेमि, तंण तुमे ण उवरुझियबंतिकट्ट ओसोयर्णि दलयति, तित्थगरपडिरूवगं विउबति, तित्थयरमाउए पासे ठवेति, भगवं तित्थयरं करयलपुडेण गेण्हति, अप्पाणं च पंचधा विउबति-गहियजिणिंदो एको दोणि य पासंमि चामराहत्था । गहिउज्जलायवत्तो |एको एकोऽथ बजघरो॥१॥ ततो सको चाउबिहदेवनिकायसहिओ सिग्मं तुरियं जेणेव मंदरे पथए पंडगवणे मंदरचूलियाए दाहिणेणं अइपंडुकंवलसिलाए अभिसेयसीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे पुरच्छाभिमुहे निसीयति, ततः शकस देवेन्द्रस नानामणिकिरणसहस्रजित सिंहासनं चलितं, भगवन्तं तीर्थकरमवधिनाऽऽभोगवति, शीनं पालकेन विमानेनायाति, भगवन्तं तीर्थकर जननी च त्रिकृत्व भादक्षिणप्रदक्षिणं करोति, वन्दते नमस्थति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु तुभ्यं रखकुक्षिधारिके !, अहं शक्रो देवेन्द्रो भगवत आदितीर्थकरस्य जम्ममहिमानं करोमि, तत् खया नोपरोडध्यमितिकृत्वाऽचस्वापिनीं ददाति, तीर्थकरप्रतिरूप विकुर्वति, तीर्थकरमातुः पा स्थापयति, भगवन्तं तीर्धकरं करतलपुटेन गृहाति, आत्मानं च पञ्चधा विकुर्वति-गृहीतजिनेन्न एको द्वौ च पायोश्वामरहस्तौ । गृहीतोजावलातपत्र एक एकोऽध वज्रधरः ॥1॥ ततः वानः चतुर्विधदेवनिकायसहितः शीधे त्वरितं यत्रैव मन्दरे पर्वते पाण्डकने मन्दरपूलिकाया दक्षिणेन अतिपाण्टकम्बलशिलायामभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासने पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, माषहए. दीप अनुक्रम Hinatandionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८८], भाष्यं [३...], (४०) प्रत आवश्यक- पत्थ बत्तीसपि इंदा भगवओ पादसमीवं आगच्छंति, पढम अचुयईदोऽभिसेयं करेति, ततो अणु परिवाडीए जाव सको हारिभद्री तितो चमरादीया जाव चंदसूरत्ति, ततो सक्को भगवओ जम्मणाभिसेयमहिमाए निबत्ताए ताए सबिड्डीए चउबिहदेवणि-18 यवृत्तिः ॥१२४॥ कायसहिओ तित्थंकरं घेत्तूण पडियागओ, तित्थगरपडिरूवं पडिसाहरइ, भगवं तित्थयरं जणणीए पासे ठवेइ, ओसो- |विभागः१ ४ वर्णि पडिसंहरइ, दिवं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थगरस्स ऊसीसयमूले ठवेति, एग सिरिदामगंडं तवणिज्जु जललंबूसगं सुवण्णपयरगमंडियं नाणामणिरयणहारद्धहारउवसोहियसमुदयं भगवओ तित्थगरस्स उप्पिं उल्लोयगंसिX निक्खिवति, जे णं भगवं तित्थगरे अणिमिसाए दिहीए पेहमाणे सुहं सुहेणं अभिरममाणे चिट्ठति, ततो समणो सक्कव-18 यणेणं बत्तीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीसं सुवण्णकोडीओ बत्तीसं नंदाई बत्तीसं भदाई सुभगसोभग्गरूवजोवणगुणलावणं भगवतो तित्थकरस्स जम्मणभवणमि साहरति, ततो सको अभिओगिएहिं देवेहि महया महया सद्देणं उग्धोसावेइ RCRAC सुत्रांक दीप अनुक्रम अत्र द्वात्रिंशवपि इन्द्रा भगवतः पादसमीपमागच्छन्ति, प्रथममच्युतेन्द्रोऽभिषेकं करोति, ततोऽनु परिपाच्या यावत् शकतातश्चमरावयः यावश्चन्द्रस्या इति, ततः शको भगवतो जन्माभिषेकमहिमनि निवृत्ते तया सर्व चतुर्विधदेवनिकायसहितम्तीर्थकरं गृहीत्वा प्रत्यागतः, तीर्थकरमतिरूपं प्रतिसंरति, भगवन्तं तीर्थकर जनन्याः पा स्थापयति, अवस्वापिनी प्रतिसंहरति, दिव्य औमयुगलं कुण्डल युगलंच भगवतस्तीकरखोमटीर्षकमूले स्थापयति, X| एकं श्रीदामगण्वं तपनीयोजनलालम्बूसके सुवर्णप्रतरकमण्डितं नानामगिरनहारार्धहारोपशोभितसमुश्यं भगवतम्तीर्धकरवोपरि प्रलोचे निक्षिपति, यद् भगवातीर्थकरोनिमेषया दृश्या प्रेक्षमाणः सुखंसुखेनाभिरममाणस्तिष्ठति, ततो वैवमणः शक्रवचनेन द्वात्रिंशतं हिरण्यकोडी द्वाविंधातं सुवर्णकोटीः द्वात्रिंशत् मन्दा| सनानि द्वात्रिंशत् भवासनानि सुभगसौभाग्यरूपयौवनगुणलावण्यं भगवतम्तीर्थकरस्य जन्मभवने संहरति, ततः शक आभियोगिकदेवमहता महता शब्देनो घोषयति. अभिनिश्वि.. +पेहमाणे पेहमाणे, अभिओगेहि. ॥१२४॥ KERA lanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ १८८ ], भाष्यं [३...], हंदि ! सुणंतु बहवे भवणवइवाणमंतरजोइ सि अवेमाणिआ देवा य देवीओ य जेणं देवाणुपिआ ! भगवओ तित्थगरस्स तित्थगरमाऊए वा असुर्भ मणं संपधारे ति, तस्स णं अजय मंजरीविव सत्तहा मुद्धाणं फुट्टउत्तिकट्टु घोसणं घोसावेइ, ततो णं भवणवश्वाणमंतरजोइसियवेमाणिआ देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं काऊण गता नंदीसरवरदीयं तत्थ अट्ठाहिआमहिमाओ काऊण सए सए आलए पडिगतति । जंमणेत्ति गयं, इदानीं नामद्वारं, तत्र भगवतो नामनिबन्धनं चतुर्विंशतिस्तवे वक्ष्यमाणं 'ऊरुसु उसभलछण उसभं सुमिणंमि तेण उसभजिणो' इत्यादि, इह तु वंशनामनिबन्धनमभिधातुकाम आह देसूणगं च वरिसं सागमणं च वंसठवणा य । आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुष्णं तु ॥ १८९ ॥ व्याख्या - देशोनं च वर्ष भगवतो जातस्य तावत् पुनः शक्रागमनं च संजातं, तेन वंशस्थापना च कृता भगवत इति, सोऽयं ऋषभनाथः अस्य गृहा वासे असंस्कृत आसीदाहार इति । किं च सर्वतीर्थकरा एव बालभावे वर्त्तमाना न स्तन्यो:पयोगं कुर्वन्ति, किन्त्वाहाराभिलाषे सति स्वामेवाङ्गुलिं वदने प्रक्षिपन्ति, तस्यां च आहारमङ्गुल्यां नानारससमा १ इन्दियन्तु बहवो भवनपतिष्यम्तर ज्योतिष्कवैमानिका देवाख देष्यथ यो देवानुप्रिया ! भगवति वीर्थकरे तीर्थकर मातरि वा अशुभं मनः संप्रधारयति, तस्यार्थमअरीव सप्तधा मूत्र स्फुटत्वितिकृत्या घोषणां घोषयति, ततो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका देवा भगवतस्तीथेकरस्य जन्ममहिमानं कृत्वा गता नन्दीश्वरवरद्वीपं तत्राष्टादिकामहिमानं कृत्वा स्वके स्वके आलये प्रतिगता इति । जन्मेति गतम् धारेंति. + ऋषभख. गृहवासे. नो०. Education intimation For Use Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८९], भाष्यं [३...], (४०) प्रत सुत्रांक दायुक्तं स्थापयन्ति देवा 'मनोज्ञ' मनोऽनुकूलम् । एवमतिक्रान्तबालभावास्तु अग्निपक्कं गृह्णन्ति, ऋषभनाथस्तु प्रव्रज्यामप्र- आवश्यक हारिभद्री|तिपन्नो देवोपनीतमेवाहारमुपभुक्तवान् इत्यभिहितमानुषङ्गिकमिति गाधार्थः ॥ १८९ ॥ प्रकृतमुच्यते-आह-इन्द्रेण । यवृत्तिः ॥१२५॥ वंशस्थापना कृता इत्यभिहितं, सा किं यथाकथञ्चित् कृता आहोस्वित् प्रवृत्तिनिमित्तपूर्विकेति, उच्यते, प्रवृत्तिनिमित्त- विभागः१ पूर्विका, न यादृच्छिकी, कथम् - सक्को वंसट्टवणे इक्खु अगू तेण हुंति इक्खागा । जं च जहा जंमि वए जोगं कासी य तं सव्वं ॥ १९०॥ कथानकशेषम्-जीतमेतं अतीतपचुप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविंदाणं पढमतित्थगराणं पंसद्ववर्ण करेत्तएत्ति, ततो |तिदसजणसंपरिवुडो आगओ, कहं रित्तहत्थो पविसामित्ति महतं इक्खुलहिं गहाय आगतो। इओ य नाभिकुलकरो उस-18|| भसामिणा अंकगतेण अच्छइ, सकेण उवागतेण भगवया इक्खुलट्ठीए दिही पाडियत्ति, ताहे सकेण भणियं-भय ! कि इक्खू अगू भक्षयसि ?, ताहे सामिणा हत्थो पसारिओ हरिसिओ य, ततो सक्केण चिंतियं-जम्हा तित्थगरो इक्खू अहिलसइ, तम्हा इक्खागवंसो भवउ, पुषगा य भगवओ इक्खुरसं पिपियाइया तेण गोतं कासवंति । एवं सको वंसं ठाविऊण जीतमेतत् अतीतानागतवर्तमानानां वाकाणां देवेन्द्राणां प्रथमतीर्थकराणां वंशस्थापना कमिति, ततखिदयाजनसंपरिपत मागतः, कथं रिक्तहसःल प्रविशामोति महती इचयष्टिं गृहीत्वाऽऽगतः । इतच नाभिकुलकरो कपभस्वामिनाङ्कगतेन तिष्ठति, शक उपागते भगवतेक्षुयष्टी रष्टिः पातितेति, सदा शक्रेण V॥१२५॥ भणितम्-भगवन् ! किमिखं भक्षयसि, सदा स्वामिना इलः प्रसारितोच, ततः शक्रेण चिन्तितम्-यमात् तीर्थकर चमभिलपति, तस्मादिक्ष्वाकुवंशो | |भवतु, पूर्वजाल भगवत इक्षुरस पीतवस्यालेन गोत्रं काश्पपमिति । एवं शको वंध स्थापषिवा पकमेव. + भरवयलि. -१-4-582 CASSACRICORDS दीप अनुक्रम Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [१९० ], भाष्यं [ ३...], गंभ, पुणोवि 'जं च जहा जंमि वए जोगं कासी य तं सर्वति । गाथा गतार्था, तथाऽप्यक्षरगमनिका क्रियते तत्र 'शो' देवराडिति 'वंशस्थापने' प्रस्तुते इथं गृहीत्वा आगतः, भगवता करे प्रसारिते सत्याह-भगवन् ! किं इक्खुं अकुभक्षयसि ?, अकुशब्दः भक्षणार्थे वर्त्तते, भगवता गृहीतं, तेन भवन्ति इक्ष्वाकाः - इक्षुभोजिनः, इक्ष्वाका ऋषभनाथवंशजा इति । एवं 'यच्च' वस्तु 'यथा' येन प्रकारेण 'यस्मिन् वयसि योग्यं शक्रः कृतवांश्च तत्सर्वमिति, पश्चार्धपाठान्तरं वा 'तालफलाहयभगिणी होही पत्तीति सारवणा' 'तालफलाह तभगिनी भविष्यति पत्नीति सारवणा' किल भगवतो नन्दायाश्च तुल्यवयःख्यापनार्थमेवं पाठ इति, तदेव तालफलाहत' भगिनी भगवतो बालभाव एव मिथुनकैर्नाभिसकाशमानीता, तेन च भविष्यति पत्नीति सारवणा-संगोपना कृतेति, तथा चानन्तरं वक्ष्यति "णंदाय सुमंगला सहिओ" । अन्ये तु प्रतिपादयन्ति सर्वैवेयं जन्मद्वारवतव्यता, द्वारगाथाऽपि किलैवं पठ्यते-'जम्मणे य विवडीय'त्ति, अलं प्रसङ्गेन । इदानीं वृद्धिद्वारमधिकृत्याह - अह बढइ सो भयवं दियलोयचुओ अणोवमसिरीओ। देवगणसंपरिवुडो नंदाइ सुमंगला सहिओ ॥ १९९ ॥ असिअसिरओ सुनयणो विंबुट्ठो धवलदंतपंतीओ । वरपउभगभगोरो फुङ्खप्पलगंधनीसासो ॥ १९२ ॥ प्रथमगाथा निगदसिद्धैव, द्वितीयगाथागमनिका -न सिता असिताः - कृष्णा इत्यर्थः, शिरसि जाताः शिरोजाः - केशाः असिताः शिरोजा यस्य स तथाविधः, शोभने नयने यस्यासौ सुनयनः बिल्वं (म्बं ) - गोल्हाफलं बिल्व (ब) वदोष्ठौ यस्यासौ 1 गतः पुनरपि यच यथायमिन्वयसि योग्यं अकार्षीञ्च तसर्वमिति । * भगवं + भक्षणार्थ: 5 कब फलाइवं तदैव. फळात. For Parts Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 254~ by Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९२], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक ॥१२६॥ यवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक विल्बो(म्बो)धः, धवले दन्तपङ्की यस्य स धवलदन्तपतिकः, वरपद्मगर्भवद् गौरः पुष्पोत्पलगन्धवनिःश्वासो यस्येति गाथार्थः ॥ १९१-१९२ ॥ इदानीं जातिस्मरणद्वारावयवार्थ विर्वरिषुराह जाइस्सरो अ भयवं अप्परिवडिएहि तिहि उ नाणेहि। कंती हि य बुद्धीहि य अभहिओ तेहि मणुएहिं ॥ १९३ ॥ गमनिका-जातिस्मरणश्च भगवान् अप्रतिपतितैरेव त्रिभिमा॑नः मतिश्रुतावधिभिः, अवधिज्ञानं हि देवलौकिकमेव | अप्रच्युतं भगवतो भवति, तथा कान्त्या च बुझ्या च अभ्यधिकस्तेभ्यो मिथुनकमनुष्येभ्य इति गाधार्थः ॥ १९३ ॥ इदानी विवाहद्वारव्याचिख्यासयेदमाह पढमो अकालमचू तहिं तालफलेण दारओ पहओ। कपणा य कुलगरेणं सिढे गहिआ उसहपत्ती ॥१९४॥ दा व्याख्या-भगवतो देशोनवर्षकाल एव किश्चन मिथुनकं संजातापत्यं सद् अपत्यमिथुनकतालवृक्षाधो विमुच्य रिरसया। क्रीडागृहकमगमत्, तस्माच्च तालवृक्षात् पवनप्रेरितमेकं तालफलमपतत् , तेन दारको व्यापादितः, तदपि मिथुनकं तां दारिका संवर्धियित्वा प्रतनुकषायं मृत्वा सुरलोका उत्पन्नं, सा चोद्यानदेवतेवोत्कृष्टरूपा एकाकिन्येव वने विचचार, दृष्ट्वा च तां त्रिदशवधूसमानरूपां मिथुनकनरा विस्मयोत्फुल्लनयना नाभिकुलकराय न्यवेदयन् , शिष्टे च तैः कन्या कुलकरण गृहीता| ऋषभपली भविष्यतीतिकृत्वा, अयं गाथार्थः ।। भगवांश्च तेन कन्याद्वयेन सार्धे विहरन् यौवनमनुप्राप्तः, अत्रान्तरे * विवू. + कंतीइ. बुद्धीइ. संवध्य. लोकमुत्पन्न. दीप अनुक्रम ॥१२॥ JABERatinindantational hintaneorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ १९४ ], भाष्यं [ ३...], देवराजस्य चिन्ता जाता - कृत्यमेतदतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां प्रथमतीर्थकराणां विवाहकर्म क्रियत इति संचिन्त्य अनेकत्रिदशसुरवधूवृन्दसमन्वितोऽवतीर्णवान्, अवतीर्य च भगवतः स्वयमेव वरकर्म चकार, पत्न्योरपि देव्यो वधूकर्मेति ॥ १९४ ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह - भोग समत्थं ना वरकम्मं तस्स कासि देविंदो । दुण्हं वरमहिलाणं बहुकम्मं कासि देवीओ ॥ १९५ ॥ गमनिका - भोगसमर्थं ज्ञात्वा वरकर्म तस्य कृतवान् देवेन्द्रः, द्वयोः वरमहिलयोर्वधूकर्म कृतवत्यो देव्य इति गाथार्थः, भावार्थस्तूत एव ॥ १९५ ॥ इदानीमपत्यद्वारमभिधित्सुराह छप्पुव्वसयसहस्सा पुवि जायस्स जिणवरिंदस्स । तो भरहवंभिसुंदरिबाहुबली चैव जायाई ॥ १९६ ॥ निगदसिद्धैवेयं, नवरमनुत्तरविमानादवतीर्य सुमङ्गलाया बाहुः पीठश्च भरतब्राह्मीमिथुनकं जातं, तथा सुबाहुर्महापीठश्च सुनन्दाया बाहुबली सुन्दरी च मिथुनकमिति ॥ १९६ ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह मूलभाष्यकारः-| देवी सुमंगलाए भरहो वंभी य मिहुणयं जायं । देवीह सुनंदाए बाहुबली सुंदरी चेव ॥ ४ ॥ ( मू० भा० ) सुगमत्वान्न वित्रियते । आह-- किमेतावन्त्येव भगवतोऽपत्यानि उत नेति, उच्यते, Education into अापण अले पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे । नीईणमइकमणे निवेअणं उसभसामिस्स ॥ १९७ ॥ गमनिका - एकोनपञ्चाशत् युग्मानि पुत्राणां सुमङ्गला पुनः प्रसूतवती, अत्रान्तरे प्राक् निरूपितानां हकारादिप्रभृ For Fans Only www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 256 ~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [१९७], भाष्यं [४], (४०) प्रत सुत्रांक भावश्यक- तीनां दण्डनीतीनां ते लोकाः प्रचुरतरकषायसंभवाद् अतिक्रमणं कृतवन्तः, ततश्च नीतीनामतिक्रमणे सति ते लोका हारिभद्री अभ्यधिक ज्ञानादिगुणसमन्वितं भगवन्तं विज्ञाय 'निवेदन' कथनं ऋषभस्वामिने आदितीर्थकराय कृतवन्त इति क्रिया, दि अयं गाथार्थः ॥ १९७ ॥ एवं निवेदिते सति भगवानाह--- विभागः१ राया करेइ दंडं सिढे ते विंति अम्हवि स होउ । मग्गह य कुलगरंसोअ बेइ उसभो य भे राया ॥ १९८॥ | गमनिका-मिथुनकैर्निवेदिते सति भगवानाह-नीत्यतिक्रमणकारिणां 'राजा' सर्वनरेश्वरः करोति दण्डं, स च अमात्यारक्षकादिवलयुक्तः कृताभिषेकः अनतिक्रमणीयाज्ञश्च भवति, एवं 'शिष्टे' कथिते सति भगवता 'ते' मिथुनका 'ब्रुवते' भणन्ति-अस्माकमपि 'स' राजा भवतु, वर्तमानकालनिर्देशः खल्वन्यास्वपि अवसर्पिणीषु प्रायः समानन्यायप्रदर्शनार्थः त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थों वा, अथवा प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च बेंति इति-उक्तवन्तः, भगवानाह-ययेवं 'मग्गह य कुलगरं' ति याचध्वं कुलकरं राजानं, स च कुलकरस्तोचितः सन् 'बेईत्ति पूर्ववदुक्तवान्-ऋषभो 'भे' भवतां | राजेति गाथार्थः ॥ १९८ ॥ ततश्च ते मिथुनका राज्याभिषेकनिवर्तनामुदकानयनाय पद्मिनीसरो गतवन्ता, अत्रान्तरे। | देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव, विभाषा पूर्ववत् यावदिहागत्याभिषेक कृतवानिति । अमुमेवार्थमुपसंहरन् अनुक्तं च | M ॥१२७॥ प्रतिपादयन्निदमाहKI आभोएउं सक्को उवागओ तस्स कुणइ अभिसे मउडाइअलंकारं नरिंदजोग्गं च से कुणह ॥१९९ ॥ दीप अनुक्रम ratangionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९९], भाष्यं [४...], (४०) CH+M प्रत सूत्राक गमनिका-आभोगयित्वा' उपयोगपूर्वकेन अवधिना विज्ञाय 'शको' देवराज उपागतः, 'तस्य' भगवतः करोति 'अभिषेक' राज्याभिषेकमिति, तथा मुकुटाद्यलङ्कारं च, आदिशब्दात् कटककुण्डलकेयूरादिपरिग्रहः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, नरेन्द्रयोग्यं च 'से' तस्य करोति, अत्रापि वर्तमानकालनिर्देशप्रयोजनं पूर्ववदवसेयं, पाठान्तरं वा 'आभोएउं सक्को आगंतुं तस्स कासि अभिसेयं । मउडाइअलंकारं नरेंदजोग्ग च से कासी ॥१॥" भावार्थः पूर्ववदेवेति गाथार्थः ॥ १९९ ॥ अत्रान्तरे ते मिथुनकनरास्तस्मात् पद्मसरसः खलु नलिनीपत्रैरुदकमादाय भगवत्समीपमागत्य तं चालत-18 विभूषितं दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्लनयनाः किंकर्तव्यताब्याकुलीकृतचेतसः कियन्तमपि कालं स्थित्वा भगवत्पादयोः तदुदकं । निक्षिप्तवन्त इति, तानेवंविधक्रियोपेतान् दृष्ट्वा देवराट् अचिन्तयत्-अहो खलु विनीता एते पुरुषा इति वैश्रवणं यक्षराx|| जमाज्ञापितवान्-इह द्वादशयोजनदीर्घा नवयोजनविष्कम्भां विनीतनगरी निष्पादयेति, स चाज्ञासमनन्तरमेव दिव्यभ वनप्राकारमालोपशोभितां नगरी चक्रे । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह-अत्रान्तरे । भिसिणीपत्तेहिअरे उदयं घिनुं छुहंति पाएस।साहु विणीआ पुरिसा विणीअनयरी अह निविट्ठा ॥२०॥ | गमनिका-बिसिनीपत्ररितरे उदकं गृहीत्वा 'छु तित्ति' प्रक्षिपन्ति, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् , पादयोः, देवराजोडि[भिहितवान-साधु विनीताः पुरुषा विनीतनगरी अथ निविष्टेति गाथार्थः ॥ २०॥ गतमभिषेकद्वारम् , इदानी संग्रहद्वाराभिधित्सयाऽऽह * विनीता.. + भिसिनी. देवराडमि०. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१२८॥ %% “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ २०१], भाष्यं [ ४...], आसा हत्थी गावो गहिआई रज्जसंगहनिमित्तं । घिस्सूण एवमाई चउब्विहं संग्रहं कुणइ ॥ २०९ ॥ गमनिका - अभ्वा हस्तिनो गाव एतानि चतुष्पदानि तदा गृहीतानि भगवता राज्ये संग्रहः राज्यसंग्रहस्तन्निमित्तं गृहीत्वा एवमादि चतुष्पदजातमसौ भगवान् 'चतुर्विधं वक्ष्यमाणलक्षणं संग्रहं करोतिं वर्त्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'चडविहं संगहं कासी' इति अयं गाथार्थः ॥ २०१ ॥ स चायम् उग्गा १ भोगा २ रायण्ण ३ खत्तिआ ४ संगहो भवे चउहा। आरक्खि १ गुरु २ वयंसा ३ सेसा जे खप्ति ४ ते उ ।। २०२ ॥ गमनिका - उद्या भोगा राजन्याः क्षत्रिया एषां समुदायरूपः संग्रहो भवेच्चतुर्धा, एतेषामेव यथासंख्यं स्वरूपमाह - आरक्खीत्यादि, आरक्षका उग्रदण्डकारित्वात् उग्राः, गुर्विति गुरुस्थानीया भोगाः, वयस्या इति राजन्याः समानवयस इतिकृत्वा वयस्याः शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये क्षत्रियाः 'ते तु' तुशब्दः पुनःशब्दार्थः ते पुनः क्षत्रिया इति गाथार्थः ॥ २०२ ॥ इदानीं लोकस्थितिवैचित्र्यनिबन्धनप्रतिपादनमाह Education intimational आहारे ९ सिप्प २ कम्मे ३ अ, मामणा ४ अ विभूसणा ५ । देहे ६ गणिए ७ अ रूबे ८ अ, लक्खणे ९ माण १० पोअए ११ ॥ २०३ ॥ * भोजाः + •पादनायाह For Fasten हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 259~ ॥१२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्ति आहार, शिल्प, कर्म आदि द्ववाराणां वर्णनं Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२०४], भाष्यं [४...], (४०) प्रत सूत्राक यवहारे १२नीह १३ जुद्धे १४ अ, ईसत्थे १५ अ उवासणा १६॥ तिगिच्छा १७ अस्थसत्थे १८ अ, बंधे १९ घाए २० अ मारणा २१ । २०४॥ जण्णू २२ सब २३ समवाए २४, मंगले २५ कोउगे २६ इअ । वत्थे २७ गंधे २८ अ मल्ले २९ अ, अलंकारे ३० तहेव य ॥ २०५॥ चोलो ३१ वण ३२ विवाहे ३३ अ, दत्तिआ ३४ मडयपूअणा ३५। झावणा ३६ धूम ३७ सद्दे ३८ अ, छेलावणय ३९ पुच्छणा ४०॥ २०६॥ एताश्चतम्रोऽपि द्वारगाथाः, एताश्च भाष्यकारः प्रतिद्वारं व्याख्यास्यत्येव, तथाप्यक्षरगमनिकामात्रमुच्यते, तत्रापि प्रथमगाथामधिकृत्याह-तत्र 'आहार' इति आहारविषयो विधिवक्तव्यः, कथं कल्पतरुफलाहारासंभवः संवृत्तः कथं वा| पक्काहारः संवृत्त इति, तथा 'शिल्प' इति शिल्पविषयो विधिर्वक्तव्यः, कुतः कदा कधं कियन्ति वा शिल्पानि उपजातानि!, 'कर्मणि' इति कर्मविषयो विधिर्वाच्यः, यथा कृषिवाणिज्यादि कर्म संजातमिति, तश्चाग्नौ उत्पन्ने संजातमिति, 'च' समुचये 'मामणत्ति' ममीकारार्थे देशीवचनं, ततश्च परिग्रहममीकारो वक्तव्यः, स च तत्काल एवं प्रवृत्तः, 'चः' पूर्ववत्, विभूषणं विभूषणा मण्डनमित्यर्थः, सा च वक्तच्या, सा च भगवतः प्रथमं देवेन्द्रैः कृता, पश्चालोकेऽपि प्रवृत्ता, 'लेख इति लेखनं लेख:-लिपीविधानमित्यर्थः, तद्विषयो विधिर्वक्तव्यः, तच्च जिनेन ब्राझ्या दक्षिणकरेण प्रदर्शितमिति, गणित * लवणयण. दीप अनुक्रम ARCH wlanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२०६], भाष्यं [४...], (४०) हारिभद्री Kायवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक- विषयो विधिर्वाच्यः, एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या, गणितं-संख्यानं, तच्च भगवता सुन्दर्या वामकरणोपदिष्टमिति, 'चः समुच्चये, रूप-काष्टकर्मादि, तच्च भगवता भरतस्य कधितमिति, 'च' पूर्ववत्, 'लक्षणं' पुरुषलक्षणादि, तच्च भगवतव ॥१२९॥ बाहुबलिनः कथितमिति, 'मानमिति' मानोन्मानावमानगणिमप्रतिमानलक्षणं, 'पोत' इति बोहित्यः प्रोतं वा अनयोमानपोतयोविधिर्वाच्यः, तत्र मानं द्विधा-धान्यमानं रसमानं च, तत्र धान्यमानमुक्तम्-'दो असतीओ पसती' इत्यादि, रसमानं तु 'चउसहीया बत्तीसिआ' एवमादि १, उन्मानं-येनोन्मीयते यद्वोन्मीयते तद्यथा-कर्ष इत्यादि २. अवमानं येनावमीयते यद्वाऽवमीयते तद्यथा-हस्तेन दण्डेन वा हस्तो वेत्यादि ३, गणिमं-यद्गण्यते एकादिसंख्ययेति ४, प्रतिमान-गुञ्जादि ५, एतत्सर्वं तदा प्रवृत्तमिति, पोता अपि तदैव प्रवृत्ताः, अथवा प्रकर्षेण उतनं | प्रोतः-मुक्ताफलादीनां प्रोतनं तदैव प्रवृत्तमिति प्रथमद्वारगाधासमासार्थः । द्वितीयगाथागमनिका-'ववहारे' त्ति व्यवहारविषयो विधिर्वाच्यः, राजकुलकरणभाषाप्रदानादिलक्षणो व्यवहारः, स च तदा प्रवृत्तो, लोकानां प्रायः ४ स्वस्वभावापगमात्, 'णीतित्ति' नीती विधिर्वक्तव्यः, नीतिः-हकारादिलक्षणा सामाधुपायलक्षणा वा तदैव जातेति,8 हजुद्धे यत्ति' युद्धविषयो विधिर्वाच्यः, तत्र युद्धं-बाहुयुद्धादिकं लावकादीनां वा तदैवेति, 'ईसत्थे यत्ति' प्राकृतशैल्या सुकारलोपात् इषुशास्त्रं-धनुर्वेदः तद्विषयश्च विधिर्वाच्य इति, तदपि तदैव जातं राजधर्मे सति, अथवा एकारान्ताः 8 सर्वत्र प्रथमान्ता एव द्रष्टव्याः, व्यवहार इति-व्यवहारस्तदा जातः, एवं सर्वत्र योज्यं, यथा-'कयरे आगच्छति दित्त * प्रतिपादना०. + स्वभावोपग०. दीप अनुक्रम ॥१२९॥ JAMERatinintamational Nalaneiorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६], भाष्यं [४...], (४०) ACC प्रत सूत्राक 18| रुवे इत्यादि' 'उवासणेति' उपासना-नापितकर्म तदपि तदैव जातं, प्राग्व्यवस्थितनखलोमान एवं प्राणिन आसन् इति, & गुरुनरेन्द्रादीनां वोपासनेति, 'चिकित्सा' रोगहरणलक्षणा सा तदैव जाता एवं सर्वत्र क्रियाध्याहारः कार्यः, 'अत्थसत्थे य' त्ति अर्थशाखं, 'बंधे घाते य मारणे ति' बन्धो-निगडादिजन्यः घातो-दण्डादिताडना जीविताब्यपरोपणं मारणेति, सर्वाणि तदैव जातानीति द्वितीयद्वारगाथासमासार्थः । तृतीयगाथागमनिका-एकारान्ताः प्रथमद्वितीयान्ताः प्राकृते भवन्त्येव, तत्र यज्ञाः-नागादिपूजारूपा उत्सवाः-शक्रोत्सवादयः समवाया:-गोष्ठयादिमेलकाः, एते तदा प्रवृत्ताः, मङ्गलानि-स्वस्तिकसिद्धार्थकादीनि कौतुकानि-रक्षादीनि मङ्गलानि च कौतुकानि चेति समासः, मंगलेत्ति एकारः अलाक्षणिको मुखसुखोच्चारणार्थः, एतानि भगवतः प्राग देवैः कृतानि, पुनस्तदैव लोके प्रवृत्तानि, तथा 'वर्ख' चीनांशुकादि 'गन्धः' कोष्टपुटादिलक्षणः 'माल्यं पुष्पदाम 'अलङ्कारः केशभूषणादिलक्षणः, एतान्यपि वस्त्रादीनि तदैव जातानीति तृतीयद्वारगाथासमासार्थः । चतुर्थगाथागमनिका-तत्र 'चूलेति' बालानां चूडाकर्म,तेषामेव कलाग्रहणार्थ नयनमुपनयनं धर्मश्रवणनिमित्तं वा साधुसकाशं नयनमुपनयनं, वीवाह' प्रतीत एव, एते चूडादयः तदैव प्रवृत्ताः (३५००), दत्ता च कन्या पित्रादिना परिणीयत इत्येतत्तदैव संजातं, भिक्षादानं वा, मृतकस्य पूजना मरुदेव्यास्तदैव प्रथमसिद्ध इतिकृत्वा देवैः कृतेति लोके च रूढा, 'ध्यापना' अग्निसंस्कारः, स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्य प्रथमं त्रिदशैः कृतः, पश्चाल्लोकेऽपि संजातः, भगवदादिदग्धस्थानेषु स्तूपाः तदैव कृता लोके च प्रवृत्तार, शब्दश्च-रुदितशब्दो भगवत्येवापवर्ग गते भरतदुःखमसाधारणं ज्ञात्वा शक्रेण कृतः, लोकेऽपि रूढ एव, 'छेलापनकमिति' देशीवचनमुस्कृष्टबालक्रीडापन सेण्टिताद्यर्थवाचकमिति, तथा दीप अनुक्रम ANS-NCRACXC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] ***** “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [२०६...], भाष्यं [४...], आवश्यक पृच्छनं पृच्छा, साईङ्किणिकादिलक्षणा इङ्क्षिणिकाः कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति, पुनर्वक्षाः खस्वागत्य कर्णे कथयन्ति किमपि प्रष्टुर्विवक्षितमिति, अथवा निमित्तादिप्रच्छना सुखशयितादिप्रच्छना वेति चतुर्थद्वारगाथासमासार्थः ॥ २०३ - २०४ - ५ ॥१३०॥ २०५- २०६ ॥ इदानीं प्रथमद्वारगाथाऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सया मूलभाष्यकृदाहआसी अ कंदहारा मूलाहारा य पत्तहारा य । पुष्पफलभोइणोऽवि अ जहआ किर कुलगरो उसभो ॥ ५ ॥ ( मू० भा० ) गमनिका -- आसंश्च कन्दाहारा मूलाहाराश्च पत्राहाराश्च पुष्पफलभोजिनोऽपि च, कदा ?, यदा किल कुलकर ऋषभः । भावार्थः स्पष्ट एव । नवरं ते मिथुनका एवंभूता आसन्, किलशब्दस्तु परोक्षाष्ठाऽऽगमवादसंसूचक इति गाथार्थः ॥ तथा आसी अ इक्खुभोई इक्खागा तेण खत्तिआ हुंति । सणसत्तरसं घण्णं आमं ओमं च भुंजीआ ॥ ६ ॥ ( मू० भा० ) गमनिका - आसंश्च इक्षुभोजिन इक्ष्वाकवस्तेन क्षत्रिया भवन्ति, तथा च शणः सप्तदशो यस्य तत् शणसखदर्श 'धान्यं' शाल्यादि 'आम' अपक्कं 'ओमं' न्यूनं च 'भुंजीआ' इति भुक्तवन्त इति गाथार्थः ॥ ६ ॥ तथापि तु कालदोषात्तदपि न जीर्णवन्तः, ततश्च भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवाँश्चाह - हस्ताभ्यां पृष्ट्वाऽऽहारयध्वमिति । अमुमेवार्थे प्रतिपादयन्नाह मूलभाष्यकृत् -- ओमपाहारंता अजीरमाणंमि ते जिणमुर्विति । हत्थेहिं घंसिऊणं आहारेहन्ति ते भणिआ ॥ ७ ॥ ( सू० भा० ) Education intaatiol For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~263~ ॥१३०॥ daincibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६...], भाष्यं [७], (४०) प्रत सूत्राक गमनिका-ओममप्याहारयन्तः अजीर्यमाणे 'ते' मिथुनका 'जिन' प्रथमतीर्थकर उपयान्ति, सर्वावसर्पिणीस्थितिप्रदर्श-INT नार्थो वर्तमाननिर्देशो, भगवता च हस्ताभ्यां धृष्ट्वा आहारयध्वमिति ते भणिताः सन्तः । किम् ? आसी अ पाणिधंसी तिम्मिअतंदुलपवालपुडभोई। हत्थतलपुडाहारा जइआ किर कुलकरो उसहो ।॥८॥(मू०भा०) व्याख्या-आसँश्च ते मिथुनका भगवदुपदेशात् पाणिभ्यां धष्टुं शीलं येषां ते पाणिघर्षिणः, एतदुक्तं भवति-ता एवौषधीः हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचं चापनीय भुक्तवन्तः, एवमपि कालदोषात् कियत्यपि गते काले ता अपि न जीर्णवन्तः, पुनर्भगवदुपदेशत एव तीमिततन्दुलप्रवालपुटभोजिनो बभूवुः, तीमिततन्दुलान् प्रवालपुटे भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तन्दुलशब्देन औषध्य एवोच्यन्ते । पुनः कियताऽपि कालेन गच्छता अर्जरणदोषादेव भगवदुपदेशेन हस्ततलपुटाहारा द आसन् , हस्ततलपुटेषु आहारो विहितो येषामिति समासः, हस्ततलपुटेषु कियन्तमपि कालमौषधीः स्थापयित्वोपभुक्तवन्त इत्यर्थः । तथा कक्षासु स्वेदयित्वेति, यदा किल कुलकरो वृषभः, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः, तदा ते मिथुनका एवंभूता आसन्निति गाथार्थः ॥ पुनरभिहितप्रकारद्व्यादिसंयोगैराहारितवन्तः, तद्यथा-पाणिभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु च। मुहूर्त तीमित्वा तथा हस्ताभ्यां घृष्टा हस्तपुटेषु च मुहूर्त धृत्वा पुनहस्ताभ्यां पृष्ट्वा कक्षास्वेदं च कृत्वा पुनस्तीमित्वा हस्त-15) पुटेषु च मुहर्त धृत्वेत्यादिभङ्गकयोजना, केचित् प्रदर्शयन्ति घृष्ट्वापदं विहाय, तच्चायुक्तं, त्वगपनयनमन्तरेण तीमितस्यापि । *श्रष्टुं. + अजीरण, ऋषभः. SC-C40454444 दीप अनुक्रम JABERatinintamational Intorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६...], भाष्यं [८], (४०) हारिभद्री विभागः पवृत्तिः प्रत FET सुत्रांक आवश्यक- हस्तपुटघृतस्य सौकुमार्यत्वानुपपत्तेः, श्लक्ष्णत्वग्भावत्वाद्वा अदोष इति, द्वितीययोजना पुनः-इस्ताभ्यां पृष्ट्वा पत्रपुटेषु तीमित्या हस्तपुटेषु मुहूर्त धृत्वेति, तृतीययोजना पुनः-हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु च तीमित्वा हस्तपुटेषु च धृत्वा कक्षासु| ॥१३॥ स्वेदयित्वेति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाहघंसेऊणं तिम्मण घसणतिम्मणपवालपुडभोई । घसणतिम्मपवाले हत्थउडे कक्खसेए य॥९॥ (मू०भा०) | भावार्थ उक्त एव, नवरम् उक्तार्थाक्षरयोजना-घृष्ट्वा तीमनं कृतवन्त इत्यनेन प्रागभिहितप्रत्येकभङ्गकाक्षेपः कृतो |वेदितव्यः, 'घृष्टिप्रवालपुटतीमितभोजिन' इत्यनेन द्वितीययोजनाक्षेपः, 'धृष्टदेति' तिमनं 'प्रवाल' इति प्रवाले तिमित्वा हस्तपुटे कियन्तमपि कालं विधाय भुक्तवन्त इति शेषः, इत्यनेन तृतीययोजनाक्षेपः, तथा कक्षास्वेदे च कृते सति भुक्तवन्त भइत्यनेन अनन्तराभिहितत्रययुक्तेन चतुर्भङ्गकयोजनाक्षेप इति गाथार्थः ।। अत्रान्तरे अगणिस्स य उडाणं दुमघंसा दडू भीअपरिकहणं । पासेसुं परिछिंदह गिण्हह पागं च तो कुणह ॥१०॥(मू० भा०) आह-सर्वं तीमनादि ते मिथुनकास्तीर्थकरोपदेशात्कृतवन्तः, स च भगवान् जातिस्मरः, स किमित्यायुत्पादोपदेशं न दत्तवानिति, उच्यते, तदा कालस्यैकान्तस्निग्धत्वात् सत्यपि यत्ने वलयनुत्पत्तेरिति । स च भगवान् विजानाति- न दाधेकान्तस्निग्धरूक्षयोः कालयोवहयुत्पादः किंतु अनतिस्निग्धरूक्षकाल इत्यतो नादिष्टवानिति, ते च चतुर्थेभङ्गविकल्पि-16 * सेईल. + तिमितं. घटा. पर सन् कि.. || चतुर्भ०. -+ दीप अनुक्रम शा JAMERatinintamational Manmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६...], भाष्यं [१०], (४०) प्रत सूत्राक तमप्याहारं कालदोषान्न जीर्णवन्त इत्यस्मिन्प्रस्तावे अग्नेश्चोत्थानं संवृत्तमिति, कुतः, द्रुमघर्षात् , तं चोस्थितं प्रवृद्धज्यालावलीसनाथं भूप्राप्ठ तृणादि दहन्तं दृष्ट्वा अपूर्वरलबुद्धया ग्रहणं प्रति प्रवृत्तवन्तः,दह्यमानास्तु भीतपरिकथनं ऋषभाय कृत-I वन्त इति,भीतानां परिकथन भीतपरिकथनं, भीत्या वा परिकथनं भीतिपरिकथनं पाठान्तरमिति । भगवानाह-पार्थे'त्यादि, सुगम, ते खजानाना वहावेवीषधीः प्रक्षिप्तवन्तः, ताश्च दाहमापुः, पुनस्ते भगवतो हस्तिस्कन्धगतस्य म्यवेदयन-स हि स्वयमेवौषधीक्षयतीति, भगवानाह-न तत्रातिरोहितानां प्रक्षेपः क्रियते, किन्तु मृत्पिण्डमानयध्वमिति, तैरानीतः, |भगवान् हस्तिकुम्भे पिण्ड निधाय पत्रकाकार निदर्येदृशानि कृत्वा इहैव पक्वा एतेषु पार्क निवत्तेयध्वमित्युक्तवानिति,। ते तथैव कृतवन्तः, इत्थं तावत्प्रथमं कुम्भकारशिल्पमुत्पन्नम् ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह पक्खेव डहणमोसहि कहणं निग्गमण हस्थिसीसंमि। पयणारंभपवित्ती ताहे कासी अ ते मणुआ॥११॥+ (मू०भा०) भावार्थ उक्त एव, किन्तु क्रियाऽध्याहारकरणेन अक्षरगमनिका स्वबुद्धया कार्या, यथा-प्रक्षेपं कृतवन्तो दहनमौषधीनां बभूवेत्यादि । उक्तमाहारद्वार, शिल्पद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहपंचेव य सिप्पाई घडलोहे २ चित्त ३ णंत ४ कासवए ।इकिकस्स य इत्तो वीसं वीसं भवे भेया ॥२०७॥ गमनिका-पञ्चैव 'शिल्पानि' मूलशिल्पानि, तद्यथा-घडलोहे चित्तर्णतकासवए,तत्र घट इति-कुम्भकारशिल्पोपलक्षणं, * कुम्माका, + मिंटेण हस्थिपिदे मट्टियपिंड गहाय कुदगं च । निवत्तेसि अ तइआ जिणोपहवेण मग्गेण ॥ 1 ॥ नित्तिए समाणे भण्णई रावा तभी बहुजणस्त । एवहभा में कुबा पहिले पदमसिष्यं तु ॥२॥ (प्रक्षिप्ते अभ्यास्याते च). दीप अनुक्रम JAMEnicata Ibinataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१३२॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्तिः [२०७], भाष्यं [११], लोहमिति - लोहकार शिल्पस्य चित्रमिति-चित्रकरशिल्पस्य णंतमिति - देशीवचनं वस्त्रशिल्पस्य काश्यप इति नापितशि ल्पस्य, एकैकस्य च एभ्यो विंशतिविंशतिः भवन्ति भेदा इति गाथार्थः ॥ २०७ ॥ साम्प्रतं शेषद्वारावयवार्थप्रतिपाद नायाऽऽह भाष्यकारः --- Education Intational कम्मं किसिवाणिजाइ ३ मामणा जा परिग्गहे ममया ४ । पुवि देवेहि कया विभूसणा मंडणा गुरुणो ५ ।। १२ ।। लेहं लिबीविहाणं जिणेण गंभीर दाहिणकरेणं ६ । गणिभं संखाणं सुंदरीइ वामेण उवइ ७ ॥ १३ ॥ 'भरहस्स रूवकम्मं ८ नराइलक्खणमहोइअं बलिणो ९ । माणुस्मार्णवमार्णप्पमाणेगणिमावत्थूणं १० ॥ १४ ॥ मणिआई दोराइसु पोआ तह सागरंभि वहणाई ११ । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेदत्थं वा १२ ।। १५ ।। पीई हकाराई सत्तविहा अहव सामभेआई १३ । जुदाइ बाहुजुदाइआइ वाइआणं वा १४ ॥ १६ ॥ (भाष्यम् ) * लोहे (मुले). For Funny हारिभद्री वृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~267~ ॥१३२॥ cibrary.org Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [२०७...], भाष्यं [१७], (४०) प्रत सूत्राक ईसत्थं धणुवेओ १५ उवासणा मंसुकम्ममाईआ १६॥ गुरुरायाईणं वा उचासणा पज्जुवासणया ॥१७॥ रोगहरणं तिगिच्छा १७ अस्थागमसत्थमस्थसत्थंति १८॥ निअलाइजमो बंधो १९ घाओ दंडाइताहणया २० ॥१८॥ मारणया जीववहो २१ जण्णा नागाइआण पूआओ २२॥ इंदाइमहा पायं पइनिअया ऊसवा हुंति २३ ॥ १९॥ समवाओ गोहीणं गामाईणं च संपसारो वा २४ । तह मंगलाई सत्थिअसुवणसिद्धस्थयाईणि २५ ॥२०॥ पुचि कयाइ पहुणो सुरेहि रक्खाइ कोउगाई च २६ । तह वत्थगन्धमल्लालंकारा केसभूसाई २७-२८-२९-३०॥२१॥ तं दङ्गण पवसोऽलंकारे जणोऽवि सेसोऽवि। विहिणा चूलाकम्म बालाणं चोलया नाम ३१ ॥२२॥ उवणयणं तु कलाणं गुरुमूले साहुणो तओ धम्म । चित्तं हवंति सहा केई दिक्खं पवनंति ३२ ॥२६॥ दीप अनुक्रम JABERatinintamational Jainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [२०७...], भाष्यं [२४], (४०) आवश्यक |हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ ॥१३॥ प्रत सुत्रांक KARACES दछु कर्य विवाहं जिणस्स लोगोऽवि काउमारद्धो ३३ ॥ गुरुदत्तिआ य कण्णा परिणिज्जते तओ पायं ॥ २४ ॥ त्तिव्य दाणमुसभं दितं दई जणमिवि पवत्तं। जिणभिक्खादाणंपि हु, दई भिक्खा पवत्ताओ ३४ ॥२५॥ मडयं मयस्स देहो तं मरुदेवीह पदमसिद्धत्ति । देवेहि पुरा महिअं३५ झावणया अग्गिसकारो॥२६॥ सो जिणदेहाईणं देवेहि कओ ३६ चिआसु थूभाई ३७ । सद्दो अरुपणसद्दो लोगोऽवि तओतहा पगओ ३८ ॥२७॥ छेलावणमुकिट्ठाइ बालकीलावणं व सेंटाई ३९। इंखिणिआइ रु वा पुच्छा पुण किं कह कर्ज ॥२८॥ अहव निमित्ताईणं सुहसइआइ सुहदुक्खपुच्छा वा ४० इचेवमाइ पाएणुप्पन्नं उसभकालंमि ॥२९॥ किंचिच (त्थ) भरहकाले कुलगरकालेऽवि किंचि उप्पन्नं । पहुणा य देसिआई सब्वकलासिप्पकम्माई ।। ३० ।। (भाष्यम्) दीप अनुक्रम ॥१३३॥ JABERatinintamational M andinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [२०७...], भाष्यं [३०], एताश्च स्पष्टत्वात् प्रायो द्वारगाथाव्याख्यान एव च व्याख्यातत्वात् न प्रतभ्यन्ते ॥ उसभचरिआहिगारे सव्वेसिं जिणवराण सामण्णं । संबोहणाइ वुत्तुं वुच्छं पत्ते अमुसभस्स ॥ २०८ ॥ व्याख्या - ऋषभचरिताधिकारे 'सर्वेषाम्' अजितादीनां जिनवराणां 'सामान्यं' साधारणं संबोधनादि, आदिशब्दात परित्यागादिपरिग्रहः, वक्तु, किम् ?, वक्ष्यति नियुक्तिकारः प्रत्येकं केवलस्य ऋषभस्य वक्तव्यतामिति गाथार्थः ॥ २०८ ॥ Education intimatio बोहण १ परिचाए २, पत्ते ३ उबहिंमि अ ४ । अन्नलिंगे कुलिंगे अ ५, गामापार ६ परीसहे ७ ॥ २०९ ॥ जीबोवलंभ ८ सुलभे ९, पञ्चकखाणे १० अ संजमे ११ । छमस्थ १२ तवोकम्मे १३, उप्पाया नाण १४ संग १५ ॥ २९० ॥ तित्थं १६ गणो १७ गणहरो १८, धम्मोवायरस देसगा १९ । परिआअ २० अंतकिरिआ, कस्स केण तवेण वा २१ १ ।। २११ ।। आसां व्याख्या– स्वयंबुद्धाः सर्व एव तीर्थकृतस्तथापि तु कल्प इतिकृत्या लोकान्तिका देवाः सर्वतीर्थकृतां संबोधनं कुर्वन्ति । परित्याग इति परित्यागविषयो विधिर्वक्तव्यः, किं भगवन्तश्चारित्रप्रतिपत्ती परित्यजन्तीति । प्रत्येकमिति-कः कियत्परिवारो निष्क्रान्तः । उपधाविति - उपधिविषयो विधिर्वक्तव्यः कः केनोपधिरासेवितः को वा विनेयानामनुज्ञात For Parts Only Janibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति तीर्थकराणाम् संबोधन, परित्याग आदि २१ द्वाराणां वर्णनं आरभ्यते ~ 270 ~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२११], भाष्यं [३०...], (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः प्रत सुत्राक आवश्यक- इति । 'अन्यलिङ्गं साधुलिङ्गं 'कुलिङ्गं तापसादिलिझं, तत्र न ते अन्यलिङ्गे निष्क्रान्ता नापि कुलिङ्गे, किंतु तीर्थकर लिङ्ग एवेति, ग्राम्याचाराः-विषयाः परीपहा:-क्षुत्पिपासादयः, तत्र ग्राम्याचारपरीषहयोर्विधिर्वाच्यः, कुमारपवजित॥१३४॥ विषया न भुक्ताः शेषैर्भुक्ताः, परीषहाः पुनः सर्वैर्निर्जिता एवेति प्रथमद्वारगाथासमासार्थः । साम्प्रतं द्वितीयगाथागम-विभागः१ निका-तत्र जीवोपलम्भः सर्वैरेव तीर्थकरैर्नव जीवादिपदार्था उपलब्धा इति । श्रुतलाभः-पूर्वभवे प्रथमस्य द्वादशादाहानि खल्यासन् शेषाणामेकादशेति । प्रत्याख्यानं च पञ्चमहाव्रतरूपं परिमपश्चिमयोः मध्यमानां तु चतुर्महात्रतरूपमिति, PM मैथुनस्य परिग्रहेऽन्तर्भावात्। संयमोऽपि पुरिमपश्चिमयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनाभ्यां द्विभेदर, मध्यमानां सामायिककारूप एव, सप्तदशप्रकारो वा सर्वेषामिति । छादयतीति छद्म-कर्माभिधीयते, छमनि तिष्ठन्ति इति छद्मस्थाः, का कियन्त 5 कालं छद्मस्थः खल्वासीदिति । तथा तपाकर्म-किं कस्येति वक्तव्यं । तथा ज्ञानोत्पादो वक्तव्यो, यस्य यस्मिन्नहनि केवल| मुत्पन्नमिति । तथा संग्रहो वक्तव्यः, शिष्यादिसंग्रह इति द्वितीयद्वारगाथासमासार्थः । साम्प्रतं तृतीयद्धारगाथागमनिका-तत्र तीर्थमिति-कथं कस्य कदा तीर्थमुत्पन्नमित्यादि वक्तव्यं, तीर्थ-प्रागुक्तशब्दार्थं तच्च चातुर्वर्णः श्रमणसङ्घः, तच ऋषभादीनां प्रथमसमवसरण एवोत्पन्नं, वीरस्य तु द्वितीय इति द्वारं । गण इति-एकवाचनाचारक्रियास्थानां समु-18॥१३॥ दायो न कुलसमुदाय इति, ते च ऋषभादीनां कस्य कियन्त इति वक्तव्यं । तथा गणधरा:-सूत्रकारः, ते च कस्य | कियन्त इति वक्तव्यम् । तथा धर्मोपायस्य देशका वक्तव्याः, तत्र दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्य। दीप SOCISCO4G अनुक्रम JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२११], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक उपायो-द्वादशाङ्गं प्रवचनम् अथवा पूर्वाणि धर्मोपार्यस्तस्य देशका:-देशयन्तीति देशकाः, तेच सर्वतीर्थकृतां गणधरा| टाएव, अथवा अन्येऽपि यस्य यावन्तश्चतुर्दशपूर्वविदः । तथा पर्याय इति-कः कस्य प्रत्रज्यादिपर्याय इत्येतद्वकव्यं । तथा अन्ते क्रिया अन्तक्रिया सा च निर्वाणलक्षणा, सा च कस्य केन तपसा संजाता वाशब्दात् कस्मिन् वा संजाता कियत्परि४ वृतस्य चेति वक्तव्यमिति तृतीयद्वारगाथासमासार्थः ॥ २०९-२१०-२११ ॥ इदानीं प्रथमद्वारगाधाऽऽद्यदलावयसे वार्थप्रतिपादनायाह सच्वेऽवि सयंबुद्धा लोगन्तिअबोहिआ य जीएणं १ । सव्वेसिं परिचाओ संवच्छरिअं महादाणं ।। २१२ ॥ | व्याख्या सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, गर्भस्थानामपि ज्ञानत्रयोपेतत्वात् , लोकान्तिका:-सारस्वतादयः ८ तद्बोधिताच जीतमितिकृत्वा-कल्प इतिकृत्वा, तथा च स्थितिरियं तेषां यदुत-स्वयंबुद्धानपि भगवतो बोधयन्तीति ।। |सर्वेषां परित्यागः सांवत्सरिक महादान-वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ।। २१२॥ रज्जाइचाओऽवियर पत्ते को व कत्तिअसमग्गोको कस्सुवही? कोवाऽणुण्णाओ केण सीसाणं४॥२१॥ व्याख्या-राज्यादित्यागोऽपि च परित्याग एव, 'प्रत्येकम्' एकैका को वा कियत्समग्र इति वाच्यं, कः कस्योपपिरिति, को वाऽनुज्ञातः केन शिष्याणामिति गाथार्थः ॥२१३ ॥ इदं च गाथाद्वयमपि समासव्याख्यारूपमवगन्तव्यम् । साम्प्रतं | प्रपञ्चेन प्रथमद्वारगाथाऽऽद्यावयवार्थप्रतिपादनायाह *धर्मोपावस्य. दीप अनुक्रम Swlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ १३५॥ +ে++* “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्तिः [२१४], भाष्यं [३०...], सारस्य १ माइचा २ वण्ही ३ वरुणा ४ य गहतोया ५ य । सिआ ६ अव्वाबाहा ७ अग्गिचा ८ चैव रिट्ठा ९ य ॥ २१४ ॥ गमनिका --- 'साररसयमादिचत्ति' सारस्वतादित्याः, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिकः, 'वण्ही वरुणा यत्ति' प्राकृतशैल्या वकारलोपात वरुणाश्च, गर्दतोयाश्च तुषिता अन्यावाधाः 'अग्गिच्चा चैव रिट्ठा यत्ति' अग्नयश्चैव रिष्ठाश्च, अग्नयश्च संज्ञान्तरतो मरुतोऽप्यभिधीयन्ते, रिष्ठाश्चेति 'तात्स्थ्यासह्यपदेश:' ब्रह्मलोकस्थरिष्ठप्रस्तटाधाराष्टकृष्णराजिनिवासिन इत्यर्थः । अष्टकृष्णराजी स्थापना त्वेवम् । उक्तं च भगवत्याम् - "केहिं णं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! उपिं सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हेट्ठि बंभलोए कप्पे रिडे विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडगसमचउरंस संठाणसंठियाओ अट्ठ कण्हराईओ पण्णत्ताओ" एताश्च स्वभावत एवात्यन्तकृष्णा वर्त्तन्त इति, अलं प्रपञ्चकथयेति गाथार्थः ॥ २१४ ॥ एए देवनिकाया भयवं बोहिंति जिणवरिंदं तु । सब्वजगज्जीवहिअं भयवं । तित्थं पवत्तेहिं ॥ २१५ ।। गमनिका - एते देवनिकायाः स्वयंवुद्धमपि भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरेन्द्रं तु, कल्प इतिकृत्वा, कथम् ?, सर्वे च ते जगज्जीवाश्च सर्वजगज्जीवाः तेषां हितं हे भगवन् ! तीर्थं प्रवर्त्तयस्वेति गाथार्थः ॥ २१५ ॥ उक्तं संबोधनद्वारम् इदानीं परित्यागद्वारमाह संवच्छरण होही अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं । तो अत्यसंपयाणं पवत्तए पुत्रवसरंमि ॥ २१६ ॥ १ कुत्र हे भगवन् ! कृष्णराजयः प्रशसाः ?, गौतम ! उपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोरालोके कल्पे रिहे प्रस्तटविमाने, अत्र अक्षाटकसमचतुरससंस्थानसंस्थिता भष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः संवन्धविवक्षा. Education intimation For Past Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 273~ ॥ १३५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्तिः [२१६], भाष्यं [३०...], भावार्थ: स्पष्ट एव, नवरं पूर्वसूर्ये पूर्वाह्णे इत्यर्थः इति गाथार्थः ॥ २१६ ॥ कियत्प्रतिदिनं दीयत इत्याह एगा हिरण्णकोडी अट्ठेव अणूणगा सपसहस्सा । सूरोदयमाईअं दिज्जह जा पायरासाओ ॥ २१७ ॥ गमनिका --- पूर्वार्ध सुगमं, कथं दीयत इत्याह-सूर्योदय आदौ यस्य दानस्य तत् सूर्योदयादि, सूर्योदयादारभ्य | दीयत इत्यर्थः कियन्तं कालं यावत् ? -- प्रातरशनं प्रातराशः प्रातर्भोजनकालं यावत् इति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ यथा दीयते तथा प्रतिपादयन्नाह - सिंघाडगतिगचउक्कचचरच उमुहमहापह पहेतुं । दारेसु पुरवराणं रत्थामुहमज्यारेसुं ॥ २९८ ॥ | वरवरिआ घोसिजर किमिच्छअं दिजए बहुविहीअं । सुरअसुरदेव दाणवनरिंदमहिआण निक्खमणे ॥ २१९ ॥ तत्र शृङ्गाटकं 4 त्रिकं चतुष्कं + चत्वरं चतुर्मुखं 'महापथो' राजमार्गः, पथशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, सिङ्गाटकं च त्रिकं चेत्यादिद्वन्द्वः क्रियते, तथा द्वारेषु पुरवराणां प्रतोलिषु इति भावार्थ:, 'रथ्यामुखानि' रथ्याप्रवेशा 'मध्येकारा' मध्या एव तेषु रथ्यामुखमध्य कारेष्विति गाथार्थः ॥ किं १, वरवरिका घोप्यते - वरं याचध्वं वरं याचाध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते, किमिच्छकं दीयत इति कः किमिच्छति १ यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समयत एव किमि - च्छकमित्युच्यते । एकमपि वस्त्वङ्गीकृत्यैतत्परिसमाध्या भवति, अतः बहवो विधयो मुक्ताफलप्रदानादिलक्षणा यस्मिंस्त * सिट + मध्या० याचयध्वं. For Parts Only www.ncbray.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~274~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२१९], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सुत्राक आवश्यक बहुविधिकं । 'सुरअसुरेत्यादि' सुरअसुरग्रहणात् चतुष्प्रकारदेवनिकायग्रहणं,देवदानवनरग्रहणेन तदुपलक्षितेन्द्रग्रहणं वेदि- हारिभद्री तव्यमिति गाथार्थः ॥ २१८-२१९ ॥ इदानीमेकैकेन तीर्थकृता कियद्रव्यजातं संवत्सरेण दत्तमिति प्रतिपादयन्नाह- यवृत्तिः । ॥१३६|| तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीइंच हुँति कोडीओ। असिहं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिपणं ॥ २२०॥ विभागः १ - भावार्थः सुगम एव, प्रतिदिनदेयं त्रिभिः षट्यधिकैर्वासरशतैः गुणितं यथावर्णितं भवति इति गाथार्थः ॥ २२० ॥ ॥ इति प्रथमवरवरिका ॥ साम्प्रतमधिकृतद्वारार्थानुपात्येव वस्तु प्रतिपादयन्नाहचीरं अरिहनेमि पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मुत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ २२१ ॥ रायकुलेसुऽवि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तिअकुलेसुन य इत्आिभिसेआ कुमारवासंमि पबहआ ॥२२२॥ संती कुंथू अ अरो अरिहंता चेव चवही अ । अवसेसा तित्थयरा मंडलिआ आसि रायाणो ॥ २२३ ।। । एताः तिम्रोऽपि निगदसिद्धा एव, परित्यागद्वारानुपातिता तु राज्य चोक्तलक्षणं विहाय प्रत्रजिता इत्येवं भावनीया दि२२१-२२२-२२३ ॥ गतं परित्यागद्वारं, साम्प्रतं प्रत्येकद्वारं व्याचिख्यासुराह एगो भगवं वीरो पासोमल्ली अतिहि तिहि सरहिं भय च वासपज्जोछह पुरिससएहि निक्खंतो ॥२२४॥1॥१६॥ उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तिआणं च । चउहि सहस्सेहुसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ २२५॥ * स्त्रीपाणिग्रहणराज्याभिषेकोभयरहिता इत्यर्थः । दीप अनुक्रम 6 + मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 275~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२२५], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-एको भगवान् वीर:-चरमतीर्थकरः प्रवजितः, तथा पार्थो मलिश्च त्रिभित्रिभिः शतैः सह, तथा भगवाश्च वासुपूज्यः षद्धिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्तः-प्रबजितः । तथा उग्राणां भोगानां राजन्यानां व क्षत्रियाणां च चतुर्भिः। सहस्रः सह ऋषभः, किम् . निष्क्रान्त इति वर्तते, शेषास्तु-अजितादयः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ता इति, उप्रादीनां| च स्वरूपमधः प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः ।। २२४-२२५ ॥ साम्प्रतं प्रसङ्गतोऽत्रैव ये यस्मिन् वयसि निष्क्रान्ता इत्येतदभिधित्सुराह वीरो अरिहनेमी पासो मल्ली अ वासुपूजो अ। पढमवए पव्वदआ सेसा पुण पच्छिमवयंमि ॥२२६॥ | निगदसिद्धैव । गतं प्रत्येकद्वारं, साम्पतमुपधिद्वारप्रतिपादनायाह सब्वेऽपि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउच्चीस । न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे चा५ ॥२२७॥ । गमनिका-सर्वेऽपि 'एकदृष्येण' एकवस्त्रेण निर्गताः जिनवराश्चतुर्विंशतिः, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, 'सर्वे' यावन्तः खल्वतीता जिनवरा अपि एकदृष्येण निर्गताः, किं पुनस्तन्मतानुसारिणः न सोपधयः । ततश्च य उपधिरासेवितो * भगवभिः स साक्षादेवोकः, यः पुनर्विनेयेभ्यः स्थविरकल्पिकादिभेदभिन्नेभ्योऽनुज्ञातः स खलु अपिशब्दात् ज्ञेय इति, चतुर्विशतीति संख्या भेदेन वर्तमानावसर्पिणीतीर्थकरप्रतिपादिकेति । गतमुपघिद्वारम् , इदानीं लिङ्गद्वार-सर्वे तीर्थकृतः तीर्थकरलिङ्ग एव निष्कान्ताः, न च नाम अन्यलिङ्गेन गृहस्थलिङ्ग कुलिङ्गे वा, अन्यलिङ्गाद्यर्थ उक्त एवेति गाथार्थः ॥ २२७ ॥ इदानी यो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदभिधित्सुराह दीप अनुक्रम T IBEntirahi wwwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२२७], भाष्यं [३०...], (४०) आवश्यक- ॥१३७॥ प्रत सुत्रांक %255454645464 सुमई ध निचभत्तेण निग्गओ वासुपुज्ज जिणो चउत्थेणं । पासो मल्लीवि अ अट्टमेण सेसा उ छट्टेणं ॥२२८॥ हारिभद्री व्याख्या-सुमतिः तीर्थकर, थेति निपातः, 'नित्यभकेन' अनवरतभक्तेन 'निगेतो' निष्कान्तः, तथा वासुपूज्योायवृत्तिः जिनश्चतुर्थेन, निर्गत इति वर्तते, तथा पाश्चों मयपि चाष्टमेन, 'शेषास्तु' ऋषभादयः षष्ठेनेति गाथार्थः ॥२२८॥ साम्प्रत विभागः१ | मिहैव निर्गमनाधिकाराद्यो यत्र येषूद्यानादिषु निष्कान्त इत्येतत्प्रतिपाद्यते| उसभी अ विणीआए बारवईए अरिहवरनेमी । अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥ २२९॥ उसभो सिद्धत्ववर्णमि वासुपुजो बिहारगेहंमि । धम्मो अ बप्पगाए नीलगुहाए अ मुणिनामा ।। २३०॥ | आसमपर्यमि पासो वीरजिर्णिदो अनायसंडमि । अवसेसा निक्खंता, सहसंपवणंमि उज्जाणे ॥ २३१ ॥ एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एवं ॥ इदानी प्रसङ्गत एव निर्गमणकालं प्रतिपादयन्नाहपासो अरिहनेमी सिजसो सुमह मल्लिनामो अ । पुवण्हे निक्खंता सेसा पुण पच्छिमहमि ॥ २३२ ॥ निगदसिद्धा इत्यलं विस्तरेण ॥ गतमुपधिद्वारं, तत्प्रसङ्गत एव चान्यलिङ्गकुलिङ्गार्थोऽपि व्याख्यात एव । इदानीं ग्राम्याचारद्वारावयवार्थे प्रतिपादयन्नाहगामायारा विसया निसेविआ ते कुमारवज्जेहिं ६।गामागराइएमु व केसु विहारो भवे कस्स ॥२३३॥ ता॥१३७॥ व्याख्या-ग्राम्याचारा विषया उच्यन्ते, निषेवितास्ते कुमारवर्जस्तीर्थकृद्धिा, ग्रामाकरादिषु वा केषु विहारो भवेत् कस्येति वाच्यमिति गाथार्थः ॥ २३३ ।। तत्र दीप अनुक्रम 1945 Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२३४], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक kमगहारायगिहाइसु मुणओ खित्तारिएसु विहरिंसु । उसभो नेमी पासो वीरो अ अणारिएरॉपि ॥२३४॥ सूत्रसिद्धा ॥ गतं ग्राम्याचारद्वार, साम्प्रतं परीषहद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽहउदिआ परीसहा सिं पराइआ ते अजिणवरिंदेहिं नव जीवाइपयत्थे उवलभिऊणं च निक्खंता ८॥२३॥ | व्याख्या-उदिताः परीषहाः-शीतोष्णादयः अमीषां पराजितास्ते च जिनवरेन्द्रैः सर्वैरेवेति ॥ गतं परीषहद्वारं, व्याख्याता च प्रथमद्वारगाथेति ॥ साम्प्रतं च द्वितीया व्याख्यायते-तत्रापि प्रथमद्वारम् , आह च नव जीवादिपदार्थान् उपलभ्य च निष्क्रान्ताः, आदिशब्दाद् अजीवाश्रवबन्धसंवरपुण्यपापनिर्जरामोक्षग्रह इति गाथार्थः ॥ २३५॥गतं जीवो४ापलम्भद्वारम् , अधुना श्रुतोपलम्भादिद्वारार्थप्रतिपादनायाह पढमस्स बारसंग सेसाणिकारसंग सुयलंभो ९। पंच जमा पढमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि ॥२३६ ॥ पञ्चक्खाणमिणं १० संजमो अ पढमंतिमाण दुविगप्पो । सेसाणं सामइओ सत्तरसंगोअ सव्वेर्सि ११॥२३७॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव, नवरं 'पढमतिमाण दुविगप्पो' ति सामायिकच्छेदोपस्थापनाविकल्पः ।। २३६-२३७ ॥ साम्प्रतं छद्मस्थकालतपःकर्मद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह वाससहस्सं १ वारस २ चउदस ३ अट्ठार ४ चीस ५ वरिसाई। मासा छ ६ व ७तिपिण अ८ चउ ९तिग १० दुग ११ मिकग १२ दुर्ग च १३ ॥२३८॥ 4900-5-45+ दीप अनुक्रम + Singtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२३९], भाष्यं [३०...], (४०) आवश्यक ॥१३८॥ प्रत सुत्राक तिग १४ दुग १५ मिकग १६ सोलस वासा १७ तिषिण अ१८ तहेवऽहोरत्तं १९ । हारिभद्रीमासिकारस २० नवर्ग २१ चउपपण दिणाइ २२ चुलसीई २३ ॥ २३९॥ । 6 यवृत्तिः तह बारस वासाई, जिणाण छउमस्थकालपरिमाणं १२।उग्गं च तवोकम्मं विसेसओ वडमाणस्स १३॥२४०॥ |विभागः१ एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एव ॥ २३८-२३९-२४० ॥ इदानीं ज्ञानोत्पादद्वारं विवृण्वन्नाहफग्गुणयहुलिकारसि उत्तरसाहाहि नाणमुसभस्स पोसिकारसि सुद्धे रोहिणिजोएण अजिअस्स २॥२४॥ कत्तिअबहुले पंचमि मिगसिरजोगेण संभवजिणस्स।पोसे सुहचउद्दसि अभीइ अभिणंदणजिणस्स ४ ॥२४२॥ चित्ते सुद्धिकारसि महाहि सुमइस्स नाणमुप्पणं । चित्तस्स पुषिणमाए पउमाभजिणस्स चित्ताहिं ६ ॥२४३॥ फग्गुणबहुले छट्ठी विसाहजोगे सुपासनामस्साफग्गुणबहुले सत्तमि अणुराह ससिप्पहजिणस्स ८॥२४४॥ कत्तिअसुद्धे तइया मूले सुविहिस्स पुप्फदंतस्स ९।पोसे बहुलचउद्दसि पुव्वासाढाहि सीअलजिणस्स १०॥२४॥ |पण्णरसि माहबहुले सिज्जंसजिणस्स सपणजोएणं ११ सयभिय वासुपुजे बीयाए माहसुद्धस्स १२ ॥ २४६॥ पोसस्स सुद्धमट्टी उत्तरभद्दवय विमलनामस्स १२ । वइसाह बहुलचउदसि रेवइजोएणऽर्णतस्स १४ ॥२४७॥ पोसस्स पुषिणमाए नाणं धम्मस्स पुस्सजोएणं १५। पोसस्स सुदनवमी भरणीजोगेण संतिस्स १६ ॥ २४८॥ ॥१३८॥ चित्तस्स सुद्धतहआ कित्तिअजोगेण नाण कुंथुस्स १७। कत्तिअसुद्धे वारसि अरस्स नाणं तु रेवइहिं १८ ॥२४९॥ मग्गसिरसुइकारसीइ मल्लिस्स अस्सिणीजोगे १९। फग्गुणबहुले वारसि सवणेणं सुब्वयजिणस्स२० ॥२५०॥ दीप अनुक्रम antarainine मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [२५१], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक मगसिरसुद्धिकारसि अस्सिणिजोगेण नमिजिर्णिदस्स २१ । आसोअमावसाए नेमिजिर्णिदस्स चित्ताहिं २२ ॥२५॥ चित्ते बहुलचउत्थी विसाहजोएण पासनामस्स २३ वइसाहसुद्धदसमी हत्थुत्तरजोगि चीरस्स २४।१४ ॥२५॥ तेवीसाए नाणं उप्पण्णं जिणवराण पुब्वण्हे । वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्ताऍ चरिमाए ॥ २५३ ।। | एताश्च त्रयोदश गाथा निगदसिद्धाः । साम्प्रतमधिकृतद्वार एव येषु क्षेत्रेपूत्पन्नं तदेतदभिधित्सुराहउसभस्स पुरिमताले धीरस्सुजुवालिआनईतीरे । सेसाण केवलाई जेसुनाणेसु पबहआ ॥ २५४ ॥ निगदसिद्धा । साम्पतमिहैव यस्य येन तपसोत्पन्नं तत्तपः प्रतिपादयन्नाहअट्ठमभत्ततंमी पासोसहमल्लिरिट्ठनेमीणं । वसुपुज्जस्स चउत्थेण छट्ठभत्तेण सेसाणं ॥ २५ ॥ निगदसिद्धा । गतं ज्ञानोत्पादद्वारं, इदानी संग्रहद्वारं विवरीषुराह चुलसीइं च सहस्सा १ एगं च २ दुवे अतिणि ४ लक्खाई। तिषिण अ वीसहिआई ५ तीसहिआई च तिपणेच ६॥२५६ ॥ तिपिण अ७ अट्ठाइजा ८ दुवे अ९ एगं च १० सयसहस्साई। चुलसीदं च सहस्सा ११ विसत्तरि १२ अट्ठसहि च १३ ॥ २५७ ॥ दीप अनुक्रम Halfaniorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२५८], भाष्यं [३०...], (४०) आवश्यक हारिभद्री| यवृत्तिः ॥१३॥ विभागः१ प्रत सुत्रांक छाढि १४ चउसहि १५ बावहिं १६ सहिमेव १७ पण्णासं १८॥ चसा १९ तीसा २०वीसा २१ अट्ठारस २२ सोलस २३ सहस्सा ॥२५८॥ चउदस य सहस्साई २४ जिणाण जइसीससंगहपमाणं । अज्जासंगहमाणं उसभाईणं अओ बुच्छं ।। २५९ ॥ तिण्णेव प लक्खाई १ तिण्णि य तीसा य २ तिपिण छत्तीसा। तीसा य छच्च ४ पंच य तीसा ५ चउरो अ वीसा अ॥२६॥ चत्तारि अतीसाई ७ तिषिण अ असिआइ ८ तिण्हमेत्तो अ। बीमुत्तरं 'छलहिअं१तिसहस्सहिअंच लक्खं च ११॥ २६१ ॥ लक्खं १३ अट्ठसयाणि अबावट्ठिसहस्सचउसयसमग्गा १५। एगट्ठी छच सया १६ सहिसहस्सा सया उच्च १७ ।। २६२ ।। सढि १८ पणपण्ण १९ वपणे २० गचत्त २१ चत्ता २२ तहहतीसं च २३। छत्तीसं च सहस्सा २४ अजाणं संगहो एसो ।। २६३ ॥ पढमाणुओगसिद्धो पत्तेअंसावयाइआणंपि । नेओ सम्बजिणाणं सीसाण परिग्गहो (संगहो) कमसो १५ ॥ २६४ ॥ दीप अनुक्रम ॥१३॥ wjaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२६४], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक एता अपि नव गाथाः स्पष्टा एवेति न प्रतन्यन्ते ॥ २५६-२६४ ।। गतं संग्रहद्वार, व्याख्याता च द्वितीयद्वारगाहथेति । साम्प्रतं तृतीयाद्यद्वारप्रतिपादनाय आहतित्थं चाउचण्णो संघो सो पदमए समोसरणे । उप्पण्णो अ जिणाणं चीरजिणिदस्स वीअंमि१६ ॥२१५॥ निगदसिव, नवरं वीरजिनेन्द्रस्य 'द्वितीये' इति अन्न यत्र केवलमुत्पन्नं कल्पात्तत्र कृतसमवसरणापेक्षया मध्यमायां द्वितीयमुच्यत इति ॥ २६५ ॥ गतं तीर्थद्वारं, साम्प्रतं गणद्वारं व्याचिख्यासुराह चुलसीह १ पंचनउई २ विउत्तरं ३ सोलसुत्तर ४ सयं च ५। सत्तहिअं ६ पणनउई ७ तेणउई ८ अट्ठसीई अ९॥२६६ ॥ इक्कासीई १० बावत्तरी अ११ छावहि १२ सत्तवण्णा य १३ पपणा १४ तेयालीसा १५ छत्तीसा १६ चेव पणतीसा १७ ॥ २७॥ तित्तीस १८ अट्ठबीसा १९ अट्ठारस २० चेव तहय सत्तरस २१ । इकारस २२ दस २३ नवगं २४ गणाण माण जिर्णिदार्ण १७॥ २६८॥ एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एव, नवरमेकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो गणो न कुलसमुदाय इति पूज्या च्याचक्षते ॥ २६६-२६७-२६८ ॥ गतं गणद्वारम् , अधुना गणधरद्वारच्याचिख्यासयाऽऽहएकारस उ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावइआ जस्स गणा तावहा गणहरा तस्स १८॥२६॥ दीप अनुक्रम JAMERatinintamatana S wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~282 ~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२६९], भाष्यं [३०...], (४०) |हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक-हा निगदसिद्धैव, नवरं मूलसूत्रकर्त्तारो गणधरा उच्यन्ते ॥ २६९ ।। गतं गणधरद्वारम् , इदानीं धर्मोपायस्य देशका | इत्येतब्याचिख्यासुराह॥१४॥ धम्मोवाओ पवयणमहवा पुयाई देसगा तस्स । सबजिणाण गणहरा चउदसपुब्बी व जे जस्स ॥ २७॥ सामाइयाइया वा वयजीवणिकायभावणा पढम । एसो धम्मोवाओ जिणेहि सब्वेहि उवइटो १९ ॥ २७१ ॥ । गाथाद्वयमपीदं सूत्रसिद्धमेव ॥२७० ।। २७१॥ गतं धर्मोपायस्य देशका इति द्वारम् , इदानी पर्यायद्वारप्रतिपादनायाहउसभस्स पुब्वलक्खं पुव्वंगूणमजिअस्स तं चेव । चउरंगूणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥ २७२ ॥ पणवीसं तु सहस्सा पुव्वाणं सीअलस्स परिआओ। लक्खाई इकवीसं सिजंसजिणस्स वासाणं ॥२७३ ॥ चउपपणं १२ पण्णारस १३ तत्तो अद्धहमाइ लक्खाई १४॥ अड्डाइज्बाई १५ तऔं वाससहस्साई पणवीसं १६ ।। २७४ ॥ तेवीसं च सहस्सा सयाणि अट्ठमाणि अहवंति १७ ॥ इगवीसं च सहस्सा १८ वाससउणा य पणपण्णा १९ ॥ २७५।। अद्धहमा सहस्सा २० अहाइज्जा य २१ सत्त य सयाई २२। सयरी २३ बिचत्तवासा २४ दिक्खाकालो जिर्णिदाणं ।। २७६ ॥ दीप ) अनुक्रम -१ ॥१४०॥ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२७६], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक एताः पञ्च निगदसिद्धा एव ॥ २७२-२७६ ॥ एवं तावत्सामान्येन प्रत्रज्यापर्यायः प्रतिपादितः, साम्प्रतमत्रैव भेदेन भगवतां कुमारादिपर्यायं प्रतिपादयन्नाहउसभस्स कुमार पुष्वाणं वीसई सयसहस्सा । तेवढी रजंमी अणुपालेऊण णिक्खंतो ।। २७७॥ अजिअस्स कुमारत्तं अट्ठारस पुष्वसयसहस्साई। तेवपणं रज्जंमी पुष्वंगं चेव बोद्धव्वं ॥ २७८॥ पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो असंभवजिणस्स । चोआलीसं रज्जे चउरंग चेव योद्धव्वं ।। २७९॥ अद्धतेरस लक्खा पुख्वाणऽभिणंदणे कुमारत्तं । छत्तीसा अई चिय अटुंगा चेव रजंमि ॥ २८॥ सुमइस्स कुमारत्तं हवंति दस पुब्वसयसहस्साई । अउणातीसं रजे वारस अंगा य बोद्धच्चा ।।२८१ ॥ पउमस्स कुमारत्तं पुवाणखट्टमा सयसहस्सा । अर्द्धं च एगवीसा सोलस अंगा य रजमि ॥ २८२ ॥ पुब्बसयसहस्साई पंच सुपासे कुमारवासो उ । चउदस पुण रजंमी वीसं अंगा य योद्धव्वा ॥ २८३॥ अट्ठाइज्जा [अबुट्टा उ] लक्खा कुमारवासोससिप्पहे होइ । अर्द्ध छ चियरजे चउवीसंगा य बोडब्बा ॥२८४॥ पण्णं पुब्बसहस्सा कुमारवासो उ पुष्फदेतस्स । तावरजंमी अट्ठावीसं च पुष्वंगा ॥ २८५ ॥ [पणवीससहस्साई पुब्बाणं सीअले कुमारत्तं । ताचा परिआओ पपणासं चेव रज्जमि ॥ २८६ ॥ वासाण कुमारत्तं इगवीसं लक्ख हंति सिजसे । तावइ परिआओ पायालीसं च रजमि ।। २८७ ॥ |गिहवासे अट्ठारस वासाणं सयसहस्स निअमेणं । चउपण्ण सयसहस्सा परिआओ होइ वसुपुज्जे ॥ २८८ ॥ दीप 545454ॐ25-25% अनुक्रम T 945025% www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~284 ~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२८९], भाष्यं [३०...], (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक-पण्णरस सपसहस्सा कुमारवासो अ तीसई रज्जे । पणरस सयसहस्सा परिआओ होइ विमलस्स ॥ २८॥ अहहमलक्खाई वासाणमणतई कुमारत्ते । तावइ परिआओ रज्जमी हुंति पण्णरस ।। २९० ॥ ॥१४॥ धम्मस्स कुमारसं वासाणड्डाइआई लक्खाई । तावइअं परिआओ रज्जे पुण हुंति पंचेव ॥ २९१ ॥ संतिस्स कुमार मंडलियचक्किपरिआ चउमुंपि । पत्तेअं पत्तेअं वाससहस्साई पणवीसं ॥ २९२ ॥ एमेव य कुंथुस्सवि चउमुवि ठाणेसु हुंति पत्तेअं। तेवीससहस्साई वरिसाणहमसया य ॥२९३ ॥ एमेव अरजिणिंदस्स चउसुवि ठाणेसु हुंति पत्तेअं। इगवीस सहस्साई वासार्ण हुंति णायव्या ॥२९४ ॥ । मल्लिस्सवि वाससयं गिहवासे सेस तु परिआओ । चउपपण सहस्साई नव चेष सयाइ पुण्णाई॥ २९५॥ अट्ठमा सहस्सा कुमारवासो उ सुब्वयजिणस्स । तावइ परिआओ पण्णरससहस्स रजंमि ॥ २९६॥ नमिणो कुमारवासो वाससहस्साइ दुपिण अद्धं च । तावइ परिआओ पंच सहस्साई रज्जंमि ॥२९७ ॥ तिण्णेव य पाससया कुमारवासो अरिहनेमिस्स । सत्त य वाससयाई सामण्णे होइ परिआओ॥ २९८॥ |पासस्स कुमारत्तं तीसं परिआऔं सत्तरी होइ । तीसा य वडमाणे यायालीसा उ परिआओ ॥ २९९ ॥ | आद्यानां सुविधिपर्यन्तानामनुपरिपाव्येयं श्रामण्यपर्यायगाथा-तद्यथाउसभस्स पुब्बलक्खं पुष्वंगूणमजिअस्स तं चेव । चउरंगूणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥३०॥ सेसाणं परिआओ कुमारवासेण सहिअओ भणिओ। पत्तेअंपि अ पुव्वं सीसाणमणुग्गहढाए ॥३०१॥ CCCXCXCXCXCXCXC CONSCC दीप अनुक्रम + | ॥१४॥ Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३०२], भाष्यं [३०...], (४०) * प्रत सूत्राक *** छउमत्वकालमित्तो सोहेज सेसओ उ जिणकालो । सच्याउअंपि इत्तो उसभाईणं निसामेह ॥ ३०२॥ चउरासीइ १ बिसत्तरि २ सही ३ पण्णासमेव ४ लक्खाई। चत्ता ५ तीसा ६ वीसा ७ दस ८ दो ९ एग १० च पुब्वाणं ।। ३०॥ चउरासीई ११ यावत्तरी १२ अ सट्ठी १३ अ होइ वासाणं। तीसा १४ च दस १५ य एर्ग १६ च एवमेए सयसहस्सा ॥३०४॥ पंचाणउह सहस्सा १७ चउरासीहें अ१८ पंचवण्णा १९य। तीसा २० य दस २१ य एग २२ सयं २३ च यावत्तरी २४ चेव २०॥ ३०५ ॥ प्रा एताच एकोनत्रिंशदपिगाथाः सूत्रसिद्धा एव द्रष्टव्या इति । गतं पर्यायद्वारम्, इदानीमन्तक्रियाद्वारावसर इति, तत्रान्ते |क्रिया अन्तक्रिया-निर्वाणलक्षणा, सा कस्य केन तपसा क जाता, वाशब्दात्कियत्परिवृतस्य चेत्येतत्प्रतिपादयन्नाहहा निव्वाणमंतकिरिआ सा चउदसमेण पदमनाहस्स । सेसाण मासिएक वीरजिर्णिदस्स छदेणं ॥ ३०६॥ अहावयचंपुखितपावासम्मेअसेलसिहरेसुं । उसभ वसुपुज्ज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ ३०७ ।। Wएगो भयर्व वीरो तित्तीसाइ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसरहिं पंचर्हि सएहि नेमी उ सिडिगओ ॥३०८ ॥ पंचहि समणसएहिं मल्ली संती उनसएहिं तु । अठ्ठसएणं धम्मो सएहि छहि वासुपुज्जजिणो ॥ ३०९॥ सत्तसहस्साणतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साई। पंचसयाइ सुपासे पउमाभे तिणि अह सपा ॥३१॥ * दीप अनुक्रम JABERatinintamational Siwanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३११], भाष्यं [३०...], (४०) आवश्यक ॥१४॥ प्रत सुत्राक | दसहि सहस्सेहि उसभो सेसा उसहस्सपरिबुडा सिद्धा। कालाइ जं न भणिपढमणुओगाउणेअं॥३१॥ हारिभद्रीइचेवमाइ सव्वं जिणाण पढमाणुओगओणेअं। ठाणासुण्णत्थं पुण भणि २१ पगयं अओ वुच्छं ॥३१२॥ यवृत्तिः उसभजिणसमुट्ठाणं उठाणं जं तओ मरीइस्स । सामाइअस्स एसो जं पुब्वं निग्गमोऽहिंगओ॥ ३१३॥ विभागः१ एता अप्यष्टौ निगदसिद्धा एव । |चित्तबहुलडमीए चउहि सहस्सेहि सो उ अवरण्हे । सीआ मुर्दसणाए सिखत्थवर्णमि छठेणं ।। ३१४ ॥ __गमनिका-चैत्रबहुलाष्टम्यां चतुर्भिः सहस्रैः समन्वितः सन् अपराहे शिबिकायां सुदर्शनायां व्यवस्थितः सिद्धार्थेवने षष्ठेन भक्तेन निष्कान्त इति वाक्यशेषः, अलकूरणकं परित्यज्य चतुर्मुष्टिकं च लोचं कृत्वेति ॥३१४ ॥ आह-चतुर्भिः सहस्रः समन्वित इत्युक्तं, तत्र तेषां दीक्षां किं भगवान् प्रयच्छति उत नेति, नेत्याहचउरो साहस्सीओ लोअंकाऊण अप्पणा चेव । जे एस जहा काही तंतह अम्हेऽवि काहामो ॥१५॥ | गमनिका-प्राकृतशैल्या चत्वारि सहस्राणि लोचं पञ्चमुष्टिकं कृत्वा आत्मना चैव इत्थं प्रतिज्ञा कृतवन्त:-'यत्' क्रियाऽनुष्ठानं 'एप' भगवान् 'यथा' येन प्रकारेण करिष्यति तत्तथा 'अम्हेऽवि काहामोत्ति' वयमपि करिष्याम इति || D१४२॥ गाथार्थः ॥ ३१५ ॥ भगवानपि भुवनगुरुत्वात्स्वयमेव सामायिक प्रतिपद्य बिजहार । तथा चाह उसभी वरवसभगई पितृणमभिग्गहं परमघोरं। वोसहचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ॥३१६॥ * बसमसमगह । दीप अनुक्रम JAMERatinintamational khaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३१६], भाष्यं [३०...], (४०) प्रत सूत्राक गमनिका-ऋषभो वृषभसमगतिर्गृहीत्या अभिग्रह 'परमघोरं' परमा-परमसुखहेतुभूतत्वात् घोरः-प्राकृतपुरुषैः कर्तुमशक्यत्वात् तं, 'व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो विहरति ग्रामानुग्रामं तु व्युत्सृष्टो-निष्पतिकर्मशरीरतया, तथा चोक्तम्-'अच्छिपि |नो पमजिज्जा, णोऽविय कंडविया मुणी गाय' त्यक्तः-खलु दिव्याधुपसर्गसहिष्णुतया, शेष सुगममिति गाथार्थः ॥३१६ ॥ स एवं भगवांस्तैरात्मीयैः परिवृतो विजहार, न च तदाऽद्यापि भिक्षादानं प्रवर्तते, लोकस्य परिपूर्णत्वादर्थ्यभावाच्च, तथा चाह मूलभाष्यकार: णवि ताव जणो जाणइ का भिक्खा ? केरिसा व भिक्खयरा। ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाया ॥ ३१ ॥ (मू० भा०) गमनिकानापि तावजनो जानाति-का भिक्षा ? कीदृशा वा भिक्षाचरा इति, अतस्ते भगवत्परिकरभूता भिक्षामलभमानाः क्षुत्परीषहार्ता भगवतो मौनव्रतावस्थिताद् उपदेशमलभमानाः कच्छमहाकच्छावेवोक्तवन्तः-अस्माकमनाथानां भवन्तौ नेताराविति, अतः कियन्तं कालमस्माभिरेवं क्षुत्पिपासोपगतरासितव्यं ?, तावाहतुः-वयमपि न विद्मः, यदि भगवान् अनागतमेव पृष्टो भवेत्-किमस्माभिः कर्त्तव्यं ? किं वा नेति, ततः शोभनं भवेत् , इदानीं तु एतावद्युज्यतेभरतलज्जया गृहगमनमयुक्तमाहारमन्तरेण चासितुं न शक्यत इत्यतो वनवासो नः श्रेयान् , तत्रोपवासरताः परिशटितपरिणतपत्रायुपभोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तस्तिष्ठाम इति संप्रधार्य सर्वसंमतेनैव गङ्गानदीदक्षिणकूले रम्यवनेषु वल्कल । अक्ष्यपि नो प्रमार्जयेत् नापि च कण्डूयेत् मुनिर्गानम्, दीप अनुक्रम JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋषभदेवस्य आहार अन्तराय कथनं एवं तं भिक्षाप्राप्ते: कथा ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ३१६...], भाष्यं [३१], ॥१४३॥ आवश्यक - चीरधारिणः खल्वाश्रमिणः संवृत्ता इति, आह चै 'वनमध्ये तापसा जाताः' इति गाथार्थः ॥ तयोश्च कच्छमहाकच्छयोः सुतौ नमिचिनमिनौ पित्रनुरागात् ताभ्यामेव सह विहृतवन्तौ तौ च वनाश्रयणकाले ताभ्यामुक्तौ - दारुणः खल्विदानीमस्माभिर्वनवासविधिरङ्गीकृतः तथाथ यूयं स्वगृहाणीति, अथवा भगवन्तमेव उपसर्पथः, स वोऽनुकम्पयाऽभिलषितफलदो भविष्यति, तावपि च पित्रोः प्रणामं कृत्वा पित्रादेशं तथैव कृतवन्तौ भगवत्समीपमागत्य प्रतिमास्थिते भगवति जलाशयेभ्यो नलिनीपत्रेषु उदकमानीय सर्वतः प्रवर्षणं कृत्वा आजानूच्छ्रयमानं सुगन्धिकुसुमप्रकरं च अवनतोत्तमाङ्गक्षितिनिहितजानुकरतला प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं राज्यसंविभागप्रदानेन भगवन्तं विज्ञाप्य पुनस्तदुभयपार्श्वे खड्गव्यग्रहस्तौ तस्थतुः ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः नमिषिनमीणं जायण नागिंदो विज्जदाण वेअहे । उत्तरदाहिणसेढी सहीपण्णासनगराई ॥ ३१७ ॥ अक्षरगमं निका- नमिविनमिनोर्याचना, नागेन्द्रो भगवद्वन्दनायागतः तेन विद्यादानमनुष्ठितं वैताढ्ये पर्वते उत्तरदक्षिणश्रेण्योः यथायोगं षष्टिपञ्चाशन्नगराणि निविष्टानीति गाथाक्षरार्थः ॥ ३१७ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्अन्नया धरणो नागराया भगवंतं वंदओ आगओ, इमेहि य विष्णविअं, तओ सो ते तहा जायमाणे भणति-भगवं चत्तसंगो, ण एयरस अस्थि किंचि दायचं, मा एयं जाएह, अहं तुम्भं भगवओ भत्तीए देमि, सामिस्स सेवा अफला मा 3 अन्यदा धरणो नागराजः भगवन्तं वन्दितुमागतः आभ्यां विज्ञसं च ततः स तौ तथा याचमानी भगति भगवान् त्यक्कसङ्गः नैतस्य विद्यते किञ्चिदातव्यं, मैनं याचिष्टं, अहं वां भगवतो भक्त्या ददामि स्वामिनः सेवाऽफला मा. * नेदम् प्र० + चा. Education intemational For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~289~ ॥ १४३॥ www.r मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३१७], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत सूत्राक भिवउत्तिका पढियसिजाणं गंधवपन्नगाणं अडयालीसं विजासहस्साई गिण्हह,ताण इमाओ महाविजाओ पत्तारि,संजहानागोरी गंधारी रोहिणी पण्णत्तित्ति, तं गच्छह तुम्भे विज्जाहररिद्धीए सयणं जणवयं च उचलोभेऊण दाहिणिलाए उत्तरिलाए य विजाहरसेडीए रहनेउरचकवालपामोक्खे गगणवल्लभपामोक्खे य पण्णासं सहिं च विजाहरणगरे णिवेसिऊण विहरह । तो ते लप्पसाया कामियं पुष्फयविमाणं विउविऊण भगवंतं तिरथयरं नागरायंच वंदिऊर्ण पुष्फयविमाणारूढा कच्छमहाकच्छाणं भगवप्पसायं उवदंसेमाणा विणीयनगरिमुवैगम्म भरहस्स रण्णो तमत्थं निवेदिता सयणं परियणं गहाय वेयढे पञ्चए णमी दाहिणिलाए विजाहरसेढीए विणमी उत्तरिल्लाए पण्णासं सडिं च विजाहरनगराइ निवेसिऊण विहरति । अत्रान्तरेभगवं अदीणमणसो संवच्छरमणसिओ विहरमाणो । कण्णाहि निमंतिजइ वत्थाभरणासणेहिं च ॥३१८॥ । व्याख्या-भगः खल्वैश्वर्यादिलक्षणः सोऽस्यास्तीति भगवान् असावपि अदीनं मनो यस्यासी अदीनमनाः-निष्प्रक भूदितिकृत्वा पठितसिद्धानां गन्धर्वप्रशकानां अष्टचत्वारिंशत् विद्यासहस्राणि गृहीतं, तासामिमा महाविद्याश्चतस्रः, सयथा-गौरी गान्धारी रोहिणी प्रज्ञसिरिति, तदू गछतं बुवा विद्याधरयो खजनं जनपदं चोपप्रलोम्य दक्षिणस्यामुत्तरयां च विद्याधरश्रेषयां स्थनूपुरचकवातप्रमुखाणि गगनवडभप्रमुखानि च पञ्चापातं षष्टिं च विद्याधरनगराणि निवेश्य विहरतं । ततस्तौ लब्धप्रसादी कामितं पुष्पकविमानं चिकुव्य भगवन्तं तीर्थकरं नागराज मन्दिरका पुष्पकविमानास्वी कयामहाकच्छाभ्यां भगवत्प्रसाई अपदर्शयन्ती विनीतानगरीमुपागम्य भरताय राशे तमर्थ निवेय स्वजनं परिजनं गृहीत्वा वैताको पर्वते न मिदाक्षिणात्यायो विद्यापरण्यां विगमिरीसरायां पञ्चाशतं षष्टिं च विद्याधरनगराणि निवेश्य विहरता. * दोवि. + मतिगम्म. दीप अनुक्रम मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३१८], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक ॥१४॥ प्रत सुत्रांक म्पचित्त इत्यर्थः । 'संवत्सरं वर्ष न अशितः अनशितः विहरन् भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन लोकेनाभ्यर्हितश्च (श्चेति) कृत्वा कन्या- हारिभद्रीभिनिमन्त्र्यते, वस्त्राणि-पट्टांशुकॉनि आभरणानि-कटककेयूरादीनि आसनानि-सिंहासनादीनि एतैश्च निमन्त्र्यत इति । यवृत्तिः वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववदिति गाथार्थः॥३१॥ एवं विहरता भगवता कियता कालेन भिक्षा लब्धेत्येतत्प्रतिपादनायाह- वि. संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसमेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ३१९ ॥ गमनिका-संवत्सरेण भिक्षा लब्धाः ऋषभेण लोकनाथेन-प्रथमतीर्थकृता, शेपैः-अजितादिभिः भरतक्षेत्रतीर्थकृद्भिः द्वितीयदिवसे लब्धाः प्रथमभिक्षा इति गाथार्थः ॥ ३१९ ॥ तीर्थकृतां प्रथमपारणकेषु यद्यस्य पारणकमासीत | तदभिधित्सुराहउसभस्स उ पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसी ॥ ३२० ॥ गमनिका-ऋषभस्य तु इक्षुरसः प्रथमपारणके आसीलोकनाथस्य, शेषाणाम्-अजितादीनां परमं च तदन्नं च परमानं-पायसलक्षणं, किंविशिष्टमित्याह-अमृतरसबद रसोपमा यस्य तद् अमृतरसरसोपममासीदिति गाथार्थः ॥३२०॥ तीर्थकृतां प्रथमपारणकेषु यद्वृत्तं तदभिधित्सुराहघुईच अहोदाणं दिव्वाणि अ आयाणि तराणि । देवा य संनिवइआ वसुहारा चेव बुढा य॥ ३२१॥ पाला ॥१४॥ | गमनिका-देवैराकाशगतैः घुष्टं च अहोदानमिति-अहोशब्दो विस्मये अहो दानमहो दानमित्येवं दीयते, सुदत्तं । + पञ्चेवाजादीनि. नास्ति पदद्वयमिदं. SAX दीप अनुक्रम wwwsainatorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३२१], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत सूत्राक भवतामित्यर्थः, तथा दिव्यानि च आहतानि तूराणि तदा त्रिदशैरिति देवाश्च सन्निपतिताः, तदैव वसुधारा चैव वृष्टा, वसु द्रव्यमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३२१ ।। एवं सामान्येन पारणककालभाव्युक्तम्, इदानीं यत्र यथा च यच आदितीर्थकरस्य पारणकमासीत् तथाऽभिधित्सुराहगयउर सिजसिक्खुरसदाण चमुहार पीढं गुरुपूआ। तक्खसिलार्यलगमणं बाहुबलिनिवेअणं चेव ॥ ३२२ ॥ ___ अस्या भावार्थः कथानकादवबोद्धव्यः । तच्चेदम्-कुरुजणपदे गयपुराणगरे बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो, तस्स पुत्तो सेजसो जुवराया, सो सुमिणे मंदरं पधयं सामवणं पासति, ततो तेण अमयकलसेण अभिसित्तो अभहि सोभितुमाढत्तो, नगरसेट्टी सुबुद्धिनामो, सो सूरस्स रस्सीसहस्सं ठाणाओ चलिय पासति, नवरं सिजसेण हक्युत्तं, सो य अहिअयरं तेयसंपुण्णो जाओ, राइणा सुमिणे एको पुरिसो महप्पमाणो महया रिउघलेण सह जुझंतो दिठो, सिजसेण| साहाजं दिण्णं, ततो गेण तं बलं भग्गति, ततो अत्थाणीए एगओ मिलिया, सुमिणे साहति, न पुण जाणंति-कि भविस्सइत्ति, नवरं राया भणइ-कुमारस्स महंतो कोऽपि लाभो भविस्सइत्ति भणिऊण उडिओ अत्थाणीओ,सिजंसोऽवि गओ कुरुजनपदे गजपुरनगरे बाहुबलिपुत्रः सोमप्रभः, सस्य पुत्रः श्रेयांसो युवराजः, स खमे मन्दरं पर्वतं श्यामवर्णमपश्यत् , ततस्तेग अमृतकलशेनाभिपिक्का अभ्यधिकं शोभितुमारब्धः, नगरसेटी सुबुद्धिनामा, स सूर्यस्ख रहिमसहसं स्थानात् चलितं अपश्यत्, नवरं श्रेयांसेन अभिक्षिप्त, सचाधिकतर तेजःसंपूर्णो जावः, राज्ञा खसे एकः पुरुषो महाप्रमाणो महता रिपुबलेन सह युध्यमानो दृष्टः, श्रेयांसेन साहावं दत्तं, ततोऽनेन तदुलं भामिति, सतआस्थानिकायां एकतो | मिलिताः, खमान् साधयन्ति, न पुनजानम्ति-किं भविष्यतीति, नवरं राजा भणति-कुमारस्य महान् कोऽपि लाभो भविष्यतीति भणिया उस्थित आस्थानिकातः, श्रेयांसोऽपि गतो * पेढ०. +दूल.. .पुरे. धिाणाओ. 'साहियं. दीप अनुक्रम Alandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋषभदेवस्य प्रथम भिक्षादाने श्रेयांसक्मारस्य प्रबन्ध: ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक- ॥१४५॥ प्रत सुत्रांक १५4 नियंगभवणं, तत्थ य ओलोयणहिओ पेच्छति सामि पविसमाणं, सो चिंतेइ-कहिं मया एरिस नेवत्वं दिवपुष ? जारिस हारिभद्रीपपितामहस्सत्ति, जाती संभरिता-सो पुषभवे भगवओ सारही आसि, तत्थ तेण बइरसेणतित्थगरो तित्थयरलिंगेण यवृत्तिः दिहोत्ति, वइरणाभे य पत्नयंते सोऽवि अणुपबइओ, तेण तत्थ सुयं जहा-एस वइरणाभो भरहे पढमतित्थयरो भविस्स- विभागः१ इत्ति, तं एसो सो भगवंति। तस्स य मणुस्सो खोयरसघडएण सह अतीओ,तं गहाय भगवंतमुवडिओ, कप्पइत्ति सामिणा पाणी पसारिओ, सबो निसिहो पाणीसु, अच्छिद्दपाणी भगवं, उपरि सिहा पहाइ, न य छड्डिजइ, भगवओ एस लद्धी, |भगवया सो पारिओ, तत्थ दिघाणि पाउन्भूयाणि, तंजहा-वसुहारा वुढा १ चेलुक्खेवो को २ आयाओ देवदुंदुहीओ ३ गंधोदककुसुमवरिसं मुकं ४ आगासे य अहोदाणं घुईति ५। तओ तं देवसंनिवाअं पासिऊण लोगो सेज्जंसघरमुवगओ, ते तावसा अन्ने य रायाणो, ताहे सेजंसोते पण्णवेइ-एवं भिक्खा दिजइ, एएसिंच दिण्णे सोग्गती गम्मइ, ततो ते सवेऽवि निजकभवन, तन्त्र पायलोकनस्थितः पश्यति खामिनं प्रविशन्त, स चिन्तयति- भया देश नेपथ्य पूर्व पायां प्रपितामहस्पति, जातिः स्मृता, |-स पूर्वभवे भगवतः सारथिरासीत्, तत्र तेन वज्रसेनतीर्थकरतीर्थकरलिङ्गेन दृष्ट इति, बजनाभे च प्रनजति सोऽप्यनुश्वजितः, तेन तन्त्र श्रुतं यथा-एष चजनाभो भरते प्रथमतीर्थकरा भविष्यतीति, तदेष स भगवानिति । तस्य च मनुष्य इक्षुरसघटेन सहागतः,तं गृहीत्वा भगवन्तमुपस्थिता, कापत इति खामिना | ता, समा नष्टः पाण्याः, भानपाणभगवान्, उपरि शिखा वर्धते, न चाधः पतति, भगवत एपा कब्धिः, भगवता स पारितः, तत्र विग्यानि ॥१४५॥ प्रादुर्भूतानि-तद्यथा-वसुधारा वृष्टा चेलोत्क्षेपः कृतः २ आइता देवदुन्दुभयः ३ मन्धोदकुसुमवर्षा मुक्का ४ आकाशे चाहोदानं घुष्टमिति ५ । ततस्तं | देवसनिपावं दृष्ट्वा लोकः श्रेयांसगृहमुपागतः, ते तापसा अन्ये च राजानः, तदा श्रेयांसस्तान् प्रज्ञापयति-एवं भिक्षा दीयते, एतेभ्यन वृत्ते सुगतिर्गम्यतेल | ततस्ते सर्वेऽपि दीप 9 अनुक्रम 4562-234ॐ -6-45 मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत सूत्राक पुच्छंति-कहं तुमे जाणियं? जहा-सामिस्स भिक्खा दायवत्ति, सेजंसो भणइ-जाइसरणेण, अहं सामिणा सह अह भवग्गहणाई अहेसि, तओ ते संजायकोउहल्ला भणति-इच्छामो णाउं असु भवग्गहणेसु को को तुम सामिणो आसित्ति, ततो सो तेसिं पुच्छंताणं अप्पणो सामिस्स य अट्ठभवसंबद्धं कहं कहेइ जहा “वसुदेवहिंडीए", ताणि पुण संखेवओ इमाणि, तंजहा-ईसाणे सिरिप्पभे विमाणे भगवं ललिअंगओ अहेसि, सेजसो से सर्यपभादेवी पुबभवनिन्नामिआ १ पुषविदेहे, पुक्खलावइविजए लोहग्गले नयरे भगवं वइरजंघो आसि, सिजंसो से सिरिमती भारिया २ तत्तो उत्तरकुराए भगवं मिहुणगो सेजंसोऽवि मिहुणिआ अहेसि ३ ततो सोहम्मे कप्पे दुवेऽवि देवा अहेसि ४ ततो भगवं अवरविदेहे विजपुत्तो सेजसो पुण जुण्णसेठिपुत्तो केसवो नाम छटो मित्तो अहेसि ५ ततो अचुए कप्पे देवा ६ ततो भगवं पुंडरीगिणीए नगरीए बहरणाहो सेजंसो सारही ७ ततो सबठ्ठसिद्धे विमाणे देवा ८ इह पुण भगवओ पपोत्तो जाओ सेजंसोत्ति । तेर्सि पृच्छन्ति-कथं वषा ज्ञातं ' यथा स्वामिने भिक्षा दातम्येति, श्रेयांसो भणति-जातिम्मरगेन, आहे स्वामिना सहाष्टी भवप्रणाभ्यभूवं, ततस्ते संजासकौतूहला भणन्ति - इच्छामो ज्ञातुं, अष्टम् भवग्रहणेषु कस्करवं स्वामिनोऽभव इति, ततः स तेम्पः पृछाय आत्मनः स्वामिनबाटभवसंपर्दा कथा कथयति यथा वसुदेवहिण्डयां, तानि पुनः संक्षेपत इमानि, तद्यथा-ईशाने श्रीप्रभे बिमाने भगवान् ललिताङ्गक आसीत्, श्रेयांसमस्य वर्षप्रभा देवी पूर्वभवनिर्वामिका । पूर्व विदेहेषु पुष्कलाचतीविजये लोहार्गले नगरे भगवान् बज्रज भासीत्, श्रेयांसस्तस्य श्रीमती भायो २ तत उत्तरकुरुषु भगवान् मिथुनकः श्रेयांसोऽपि मिथुनिका भासीर ३ ततः सौधर्मे करपे द्वावपि देवौ अभूताम् । ततो भगवानपरविदेहेषु वैयपुत्रः श्रेयांसः पुनर्जाणवेष्टिपुत्रः केशवनामा पर्छ मित्रमभूत् ५ ततोऽच्युते कल देवी ६ ततो भगवान पुपडरीकियां नगर्या वजनाभः श्रेयांसः सारथिः ततः सर्वार्थसिद्ध विमाने देवौ ८ इह पुनर्भगवतः प्रपौत्रो जातः श्रेयांस इनि । तेषां दीप अनुक्रम JAMERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 294 ~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], (४०) R प्रत सुत्रांक -ॐS आवश्यकता Jच तिण्हवि सुमिणाण एतदेव फलं-जं भगवओ भिक्खा दिण्णत्ति । ततो जणवओ एवं सोऊण से जंसं अभिणंदिऊण हारिभद्री सट्ठाणाणि गतो, सेजंसोऽवि भगवं जत्थ ठिओ पडिलाभिओ ताणि पयाणि मा पाएहिं अकमिहामित्ति भत्तीए तत्थयवृत्तिः ॥१४६॥ रयणामयं पेढं करेइ, तिसंझं च अचिणइ, विसेसेण य पवदेसकाले अचिणेऊण भुंजइ, लोगो पुच्छइ-किमयंति, सेजंसो| विभागः१ भणति-आदिगरमंडलगंति, ततो लोगेणवि जत्थ जत्थ भगवं ठितो तत्थ तत्थ पेढं कयं, तं च कालेण आइचपेढं संजायंति गाथार्थः ॥ एवं भगवतः खल्बादिकरस्य पारणकविधिरुक्तः, साम्प्रतं प्रसङ्गतः शेषतीर्थकराणामजितादीनां येषु स्थानेषु प्रथमपारणकान्यासन यैश्च कारितानि तद्गतिश्चेत्यादि प्रतिपाद्यते, तत्र विवक्षितार्थप्रतिपादिकाः खल्वेता गाथा इति । हस्थिणउरं १ अओज्झा २ सावत्थी ३ सय चेव साकेअं४। विजयपुर ५ बंभथलयं ६ पाडलिसंड ७ पउमसंड ८॥ ३२३ ॥ सेयपुरं ९रिद्वपुरं १० सिहत्वपुरं ११ महापुरं १२ चेष। धण्णकड १३ बद्धमाणं १४ सोमणसं १५ मंदिरं १६ चेव ।। ३२४ ॥ चकपुरं १७ रायपुरं १८ मिहिला १९ रायगिहमेव २० बोडव्वं । वीरपुरं २१ बारचई २२ कोअगई २३ कोल्लयग्गामो २४ ॥ ३२५ ।। | ॥१४६॥ पत्रयाणामपि स्खमानामेतदेव फलं-पत् भगवते भिक्षा दरोति । ततो जनपद एवं श्रुत्वा श्रेयांसमभिनन्य स्वरषानं गतः, श्रेयांसोऽपि भगवान् | वत्र स्थिता मतिलम्भिता तानि चरणानि मा पादराक्रमिषमिति भक्त्यातच रत्नमय पीठं करोति, विसावं चायति, विशेषेण च पर्वदेशकालेऽविश्वा भुके, लोकः15 एच्छति-किमेतदिति, श्रेयांसो भणति-आदिकरमण्डलमिति, ततो लोकेनापि यत्र यन्न भगवान् स्थितः तत्र तत्र पीठं कृतं, तत्र कालेनादित्यपीठं संजातमिति. दीप अनुक्रम Swlanmiorary.org मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३२६], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत सूत्राक एएसु पढमभिक्खा लद्धाओ जिणवरेहि सब्वेहिं । दिण्णाउ जेहि पदम तेसिं नामाणि वोच्छामि ॥ ३२६ ॥ सिज्जंस १बंभदत्ते २सुरेंददत्ते ३ य इंददते ४ अ । पउमे ५ अ सोमदेवे ६ महिंद ७ तह सोमदत्ते ८ अ ।। ३२७ ।। पुस्से ९ पुणब्वसू १० पुणनंद ११ सुनंदे १२ जए १३ अ विजए १४ य । तत्तो अ धम्मसीहे १५ सुमित्त १६ तह बग्घसीहे १७ अ॥ ३२८ ॥ अपराजिअ १८ विस्ससेणे १९ वीसइमे होइ बंभदत्ते २० अ। दिपणे २१ वरदिपणे २२ पुण धणे २३ पहले २४ अ बोडब्धे ।। ३२९ ॥ एए कयंजलिउडा भसीबहुमाणमुफलेसागा । तत्काल पहट्ठमणा पडिलाभेसुं जिणवरिंदे ॥ ३३०॥ हसव्वहिंपि जिणेहिं जहि लहाओ पढमभिक्खाओ । तहिअं वसुहाराओ खुट्टाओ पुष्फवडीओ ॥ ३३१॥ अद्धत्तेरसकोडी उकोसा तत्थ होइ बसुहारा । अहत्तेरस लक्खा जहपिणआ होइ वसुहारा ॥ ३३२ ।। सब्वर्सिपि जिणाणं जेहिं दिण्णाउ पढमभिक्खाओ। ते पयणुपिजदोसा दिव्ववरपरकमा जाया ॥ ३३३ ॥ | कई तेणेव भवेण निब्बुआ सव्वकम्मउम्मुक्का । अन्ने तइअभवेणं सिजिझस्संति जिणसगासे ॥ ३३४ ॥ अक्षरगमनिका तु क्रियाऽध्याहारतः कार्या, यथा-गजपुरं नगरमासीत् , श्रेयांसस्तत्र राजा, तेनेचरसदानं भगवन्तम दीप अनुक्रम T JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३३४], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः | विभागः१ ॥१४७|| प्रत सुत्रांक |धिकृत्य प्रवर्तितं, तत्रार्धत्रयोदशहिरण्यकोटीपरिमाणा वसुधारा निपतिता, पीठमिति-श्रेयांसेन यत्र भगवता पारित तत्र तत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीतिभक्त्या रलमयं पीठं कारितं । गुरुपूजेति-तदर्चनं चक्रे इति । अत्रान्तरे भगवतः तक्षशिलातले गमनं बभूव, भगवत्प्रवृत्तिनियुक्तपुरुषैर्बाहुबलेनिवेदनं च कृतमित्यक्षरगमनिका । एवमन्यासामपि संग्रहगाथाना स्वबुद्ध्या गमनिका कार्येति गाथार्थः ॥ ३२२-३३४ ॥ इदानी कथानकशेषम् बाहुबलिणा चिंति-कल्ले | सबिड्डीए वंदिस्सामित्ति निग्गतो पभाए, सामी गतो विहरमाणो, अदिखे अद्धिति काऊण जहिं भगवं वुत्थो तत्थ धम्मचक्क चिंधं कारियं, तं सवरयणामयं जोयणपरिमंडलं पंचजोयणूसियदंडं । सामीवि बहलीयर्डचइलाजोणगविसयाइएसु निरुवसग्गं विहरतो विणीअणगरीए उज्जाणत्थाणं पुरिमतालं नगरं संपत्तो । तत्थ य उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे सगङमुहं नाम उजाणं, तंमि णिग्गोहपायवस्स हेटा अहमेणं भत्तेणं पुषण्हदेसकाले फरगुणबहुलेकारसीए उत्तरासाढणक्खत्ते पवज्जादिवसाओ आरम्भ वाससहस्संमि अतीते भगवओ तिहुअणेकबंधवस्स दिवमणतं केवलनाणमुप्पण्णंति । अमुमेवार्थमुपसंहरन् गाथाषदमाह दीप अनुक्रम T ।॥१४७॥ बाहुबलिना चिन्तितम्-कल्ये सर्वया बन्दिष्य इति निर्गतः प्रभाते, स्वामी गतः विदरन् , अदृष्ट्वाऽचतिं कृत्वा यत्र भगवानुपितस्तत्र धर्मचक्र चिकारितं, तत् सर्वरनमय योजनपरिमण्डलं पापोजनोचित दण्ड । स्वाम्पपि बहल्यडम्बहलायोनकविषयादिकेषु निरुपसर्ग बिहरन् विनीतनगर्या वधानस्थानं पुरिमतार्क नगरं संप्राप्तः । तत्र व उत्तरपूर्वदिग्भागे शकटमुखं नाम उचानं, तस्मिन् न्यग्रोधपादपस्याधः अष्टमेन भकेन पूर्वाह्नदेशकाले फाल्गुनकृष्णैकादश्या उत्तराषाढानक्षत्रे प्रमज्यादिवसादारभ्य वर्षसहस्त्रेऽतीते भगवतत्रिभुवनैकबान्धवख दिव्यमनन्तं केवलज्ञानमुग्पन्नामिति । Awajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा ], निर्युक्ति: [ ३३५], भाष्यं [३१...], कलं सविडीए पूएमहदडु धम्मचक्कं तु । विहरह सहस्समेगं छउमत्थो भारहे वासे ॥ ३३५ ॥ बहली अडंबइलाजोणगविसओ सुवण्णभूमी अ । आहिंडिआ भगवआ उसभेण तवं चरंतेणं ॥ ३३६ ॥ बहली अ जोणगा पल्हगा य जे भगवया समणुसिद्धा । अन्ने य मिच्छजाई ते तइआ भइया जाया ॥ ३३७ ॥ | तित्थयराणं पढमो उसभरिसी विहरिओ निरुषसग्गो । अट्ठावओ णगवरो अग्ग (घ) भूमी जिणवरस्स ||३३८ || छउमत्थष्परिआओ वाससहस्सं तभो पुरिमताले । णग्गोहस्स व हेडा उप्पण्णं केवलं नाणं ॥ ३३९ ॥ फग्गुणबहुले एकारसीद अह अहमेण भन्तेणं । उप्पण्णंमि अनंते महत्वया पंच पण्णव ॥ ३४० ॥ आसां भावार्थः सुगम एव, नवरम् अनुरूपक्रियाऽध्याहारः कार्यः, यथा कल्ले - प्रत्यूषसि सर्वर्ध्या पूजयामि भगव - न्तम्- आदिकर्त्तारं अहमिति - आत्मनिर्देशः, अदृष्ट्वा भगवन्तं धर्मचक्रं तु चकारेत्यादि गाथापट्टाक्षरार्थः ।। ३३५-३४० ॥ | महाव्रतानि पञ्च प्रज्ञापयतीत्युक्तं, तानि च त्रिदशकृतसमवसरणावस्थित एव तथा चाहउप्पर्णमि अणते नाणे जरमरणविप्प मुक्कस्स । तो देवदाणविंदा करिंति महिमं जिनिंदस्स ।। ३४१ ॥ गमनिका - उत्पन्ने-घातिकर्मचतुष्टयक्षयात् संजाते अनन्ते ज्ञाने केवल इत्यर्थः, जरा-बयोहानिलक्षणा मरणं-प्रतीतं जरामरणाभ्यां विप्रमुक्त इति समासः तस्य, विप्रमुक्तवद्विप्रमुक्त इति, ततो देवदानवेन्द्राः कुर्वन्ति महिमां ज्ञानपूजां जिनवरेन्द्रस्य । देवेन्द्रग्रहणात् वैमानिकज्योतिष्कग्रहः, दानवेन्द्रग्रहणात् भवनवासिव्यन्तरेन्द्रग्रहणं । सर्वतीर्थकराणां च For Fasten www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्ति ~ 298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४१], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक- बालक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१४८॥ प्रत 900CKR सुत्राक देवा अवस्थितानि नखलोमानि कुर्वन्ति, भगवतस्तु कनकाबदाते शरीरे जटा एवाञ्जनरेखा इव राजन्त्य उपलभ्य घृता इति गाथार्थः ॥ ३४१ ॥ इदानीमुक्तानुक्तार्थसंग्रहपरां संग्रहगाथामाहउजाणपुरिमताले पुरी(इ) विणीआइ तत्थ नाणवरं । चक्कुप्पांया य भरहे निवेअणं चेव दोण्हपि ॥ ३४२ ॥ गमनिका-उद्यानं च तत्पुरिमतालं च अद्यानपुरिमतालं तस्मिन् , पुर्या विनीतायां तत्र ज्ञानवरं भगवत उत्पन्नमिति वाक्यशेषः । तथा तस्मिन्नेवाहनि भरतस्य नृपतेरायुधशालायां चकोत्पादश्च बभूव । 'भरहे निवेअर्ण चेव दोण्हपि' त्ति भरताय निवेदनं च द्वयोरपि-ज्ञानरलचकरलयोः तन्नियुक्तपुरुषैः कृतमित्यध्याहार इति गाथार्थः ।। ३४२ ॥ अत्रान्तरे | भरतश्चिन्तयामास-पूजा तावडूयोरपि कार्या, कस्य प्रथमं कर्तुं युज्यते ? किं चक्ररत्नस्य उत तातस्येति, तत्रतापंमि पूइए चक पूइ पूअणारिहो ताओ । इहलोइअं तु चकं परलोअसुहावहो ताओ ॥ ३४३ ॥ गमनिका-'ताते'-त्रैलोक्यगुरी पूजिते सति चक्र पूजितमेव, तत्पूजानिवन्धनत्वाचकस्य । तथा पूजामर्हतीति पूजाई तातो वत्तेते, देवेन्द्रादिनुतत्वात्। तथा इह लोके भवं चैहलौकिकंतु चक्रं, तुरेवकारार्थः, स चावधारणे, किमवधारयति ? ऐहिकमेव चक्र, सांसारिकसुखहेतुत्वात् । परलोके सुखावहः परलोकसुखावहस्तातः, शिवसुखहेतुत्वाद् इति गाथार्थः ॥२४३ ॥ तस्मात् | "तिष्ठतु तावच्चक, तातस्य पूजा कर्तुं युज्यते' इति संप्रधार्य तत्पूजाकरणसंदेशव्यापतो बभूव । इदानीं कथानकम् अनुक्रम 8-1504 ॥१४८॥ T * पाभो य (स्पात) + आइहवरसालाए अप्पणं चकरयण भरहस्स । अक्ससहस्सपरिखुदं सवरयणामर्ष पकं ॥१॥(म० अपा.) wwtondinram.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति : ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४३], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत भरहो सबिड्डीए भगवंत बंदिउ पयट्टो, मरुदेवीसामिणी य भगवते पबइए भरहरज्जसिरि पासिऊण भणियाइआ-मम | पुत्तस्स एरिसी रजसिरी आसि, संपयं सो खुहापिवासापरिगओ नग्गओ हिंडइत्ति उबेयं करियाइआ, भरहस्स तित्थकरविभूई घण्णेतस्सवि न पत्तिज्जियाइआ, पुत्तसोगेण य से किल झामलं चक्खं जायं रुयंतीए, तो भरहेण गच्छंतेण |विण्णत्ता-अम्मो ! एहि, जेण भगवओ विभूई दंसेमि । ताहे भरहो हत्थिखंधे पुरओ काऊण निग्गओ, समवसरणदेसे य ४ गयणमंडलं सुरसमूहेण विमाणारूढणोत्तरंतेण विरायंतघयवर्ड पहयदेवदुंदुहिनिनायपूरियदिसामंडलं पासिऊण भरहो | भणियाइओ-पेच्छ जइ एरिसी रिद्धी मम कोडिसयसहस्सभागेणवि, ततो तीए भगवओ छत्ताइन्छतं पासंतीए चेवर केवलमुप्पणं । अण्णे भणंति-भगवओ धम्मकहासई सुणंतीए । तत्कालं च से खुट्टमाउगं, ततो सिद्धा, इह भारहोसप्पिणीए पढमसिद्धोत्तिकाऊण देवेहिं पूजा कया, सरीरं च खीरोदे छूढं, भगवं च समवसरणमझत्थो सदेवमणुयासुराए। सूत्राक दीप अनुक्रम भरतः सर्वध्या भगवन्तं वन्दितुं प्रवृत्तः, मरुदेवीस्वामिनी च भगवति प्रमजिते भरतराज्यनियं दृष्ट्वा भणितवती-मम पुत्रस्येदशी राज्यश्रीरभवत् , | साम्प्रतं स क्षुपिपासापरिगता नमो हिण्डत इत्यदेगं कृतवती, भरते तीर्थकरविभूति वर्णयत्यपि न प्रतीतवती, पुत्रशोकेन च तस्याः किल भ्यामलं पशुजर्जातं | रुदत्याः, तदा भरतेग गच्छता विज्ञप्ता-अम्प ! पहि, वेन भगवतो विभूतिं दर्शयामि । सदा भरतः हसिस्कम्भे पुरतः कृत्वा निर्गतः, समवसरणदेशे च गगन मण्डलं सुरसमूहेन विमानारूढनोत्तरता विराजध्वजपर्ट प्रहत्तदेवदुन्दुभिनिनादापूरितदिग्मण्डलं दृष्ट्वा भरतो भणितवान् पश्य यदि ईदशी ऋतिर्मम कोटीश| तसहभागमापि, ततस्तथा भगवतवातिरछत्रं पश्यन्त्या एत्र केवलमुत्पन्नं । अन्वे भणन्ति-भगवतो धर्मकथाशब्दे ण्वमयाः । तरकालं च तस्याः त्रुटितमायुः, ततः सिद्धा, ए मरतावसर्पियो प्रथमसिद्ध इतिकृत्या देवैः पूजा कृता, शरीरं च क्षीरोदे क्षिसं, भगवांव समवसरणमध्यस्था सदेवमनुजासुराया swwjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मरुदेव्या: केवलज्ञान एवं निर्वाणस्य प्रबन्ध: ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४३], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक ॥१४९॥ प्रत सुत्रांक द सभाए धर्म कहेइ, तत्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुववद्धगणहरनामगोत्तो जायसंवेगो पबइओ, बंभी य पवइआ, हारिभद्री भरहो सावगो जाओ, सुंदरी पश्यंती भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइत्ति निरुद्धा, सावि साविआ जाया, एस चउबिहो सम-IN | यवृत्तिः णसंघो । ते य ताबसा भगवओ नाणमुप्पण्णंति कच्छमहाकच्छवजा भगवओ सगासमागंतूण भवणवइयाणमंतरजोइ-18 |विभागः१ सियवेमाणियदेवाइण्णं परिसं दहण भगवओ सगासे पबइआ, इत्थ समोसरणे मरीइमाइआ बहवे युमारा पपइआ । साम्प्रतमभिहितार्थसंग्रहपरमिदं गाथाचतुष्टयमाह|सह मरुदेवाइ निग्गओ कहणं पब्बल उसभसेणस्स।भीमरीइदिक्खा सुंदरी ओरोहसुअदिक्खा ॥३४४॥18 [पंच य पुससयाई भरहस्स य सत्त नसूअसयाई । सयराह पब्बइआ तंमि कुमारा समोसरणे ॥ ३४५ ॥ भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी अ । सविड्डिइ सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिम ॥३४६॥ दडूण कीरमाणिं महिमं देवेहि खत्तिओ मरिई । सम्मत्तलद्धबुद्धी धम्मं सोऊण पब्वइओ ॥ ३४७ ।। व्याख्या-कथन' धर्मकथा परिगृह्यते, मरुदेव्यै भगवद्विभूतिकथनं वा । तथा 'नप्तशतानीति' पौत्रकशतानि । तथा| दीप अनुक्रम ॥१४९॥ सभायां धर्म कथयति, सन्त भयमसेनो नाम भरतपुत्रा पूर्वपद्धगणधरनामगोत्रः जातसंवेगः प्रबजिता, पाणी प्रजिता, भरतः श्रावको | जातः, सुन्दरी नजन्ती भरतेन खीरवं भविष्यतीति निरुद्धा, सापि श्राविका ज्ञाता, एष चतुर्विधः श्रमगसः । ते च तापसा भगवतो शानमुत्पन्नमिति कच्छमहाकच्छवर्जा भगवतः सकाशामागत्य भवनपतिप्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकदेवाकीणों पर्पदं रहा भगवतः सकाशे प्रनजिताः, अत्र समवसरणे मरीच्यादिका बहवः कुमाराः प्रबजिता: JABERatinintamational Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], (४०) COCALENSCNOR प्रत सूत्राक सयराहमिति' देशीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरितार्थाभिधायकं वेति । 'मरीचिरिति' जातमात्रो मरीचीन्मुक्तवान् इत्यतो मरीचिमान मरीचिः, अभेदोपचारान्मतुब्लोपादेति, अस्य च प्रकृतोपयोगित्वात्कुमारसामान्याभिधाने सत्यपि भेदेनोपन्यासः । सम्यक्त्वेन लब्धा-पाप्ता बुद्धिर्यस्य स तथाविधः । शेष सुगममिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ ३४४-३४७ ॥ कथानकम्-भरहोऽवि भगवओ पूअं काऊण चक्करयणस्स अठ्ठाहिआमहिमं करियाइओ, निवत्ताए अष्टाहिआए तं, चक्करयणं पुर्वा हिमुहं पहावि, भरहो सबबलेण तमणुगच्छिआइओ, तं जोयणं गंतूण ठिअं, ततो सा जोअणसंखा जाआ, पुषेण य मागहतित्थं पाविऊण अहमभत्तोसितो रहेण समुद्दमवगाहित्ता चक्कगाभिं जाव, ततो णामकं सरं विसजियाइओ, सो दुवालसजोयणाणि गंतूण मागहतित्थकुमारस्स भवणे पडिओ, सो तं दद्दूण परिकुविओ भणइ-केस णं |एस अपस्थिअपस्थिए ?, अह नामयं पासइ, नायं जहा उप्पण्णो चक्कवट्टित्ति, सरं चूडामणिं च घेत्तूण उवडिओ भणतिअहं ते पुषिल्लो अंतेवालो, ताहे तस्स अठ्ठाहिमहामहिमं करेइ । एवं एएण कमेण दाहिणेण वरदाम, अवरेण पभासं, ताहे | दीप अनुक्रम भरतोऽपि भगवतः पूजा कृत्या पाकरणस्याष्टाहिकामहिमानं कृतवान् , निवृत्तेऽष्टाहिके तचकरवं पूर्वाभिमुखं प्रधावितं, भरतः सर्वदलेन तदनुगतवान् तद्योजनं गत्वा स्थितं, ततः सा योजनसंख्या जाता, पूर्वयां व मागधतीर्थ प्राप्पाष्टमभक्कोपितो रथेन समुद्रमवगाह्य चकनाभि यावत्, ततो नामाई वारं | विसृष्टवान्, स द्वादमा योजनानि गत्या मागधतीर्थकुमारस्य भवने पतितः, स तं दृष्ट्वा परिकुपितो भणति-क पुषोभार्थितमार्थक: ?, अध नाम पश्यति, ज्ञातं | यथा अस्पनश्चक्रवर्तीति, शरं चूरामणि च गृहीत्वोपस्थितो भणति-अहं तव पौरस्त्योऽन्तपालः, तदा तस्याष्टाहिक महामहिमान करोति । एवमेतेन क्रमेण | | दक्षिणस्यां वरदामं अपरयां प्रभास, तदा * मरीचिवान्. + पुवामुई. % JABERatinintamational wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भारतस्य दिग्विजय-साधनार्थे गमनं ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], (४०) आवश्यक ॥१५ ॥ प्रत सिंधुदेविं ओयवेइ, ततो वेयङगिरिकुमारं देवं, ततो तमिसगुहाए कयमालयं, तओ सुसेणो अद्धबलेण दाहिणिलं सिंधु- हारिभद्री[निक्खूड ओयवेइ, ततो सुसेणो तिमिसगुहं समुग्घाडेइ, ततो तिमिसगुहाए मणिरयणेण उज्जो काऊण उभओ पासिं|.यवृत्तिः पंचधणुसयायामविक्खंभाणि एगूणपण्णांसं मंडलाणि आलिहमाणे उज्जोअकरणा उम्मुग्गनिमुग्गाओ अ संकमेण विभागः१ उत्तरिऊण निग्गओ तिमिसगुहाओ, आवडिअं चिलातेहिं सम जुद्धं, ते पराजिआ मेहमुहे नाम कुमारे कुलदेवए| |आराहेति, ते सत्तरत्तिं वास वासेंति, भरहोऽवि चम्मरयणे खंधावारं ठवेऊण उपरि छत्तरयणं ठवेइ, मणिरयणं छत्तरयणस्स पडिच्छभा"ए ठवेति, ततोपभिइ लोगेण अंडसंभवं जगं पणीअंति, तं ब्रह्माण्डपुराणं, तत्थ पुवण्हे साली दुप्पइ, अवरण्हे जिम्मइ, एवं सत्त दिवसे अच्छति, ततो मेहमुहा आभिओगिएहिं धाडिआ, चिलाया तेसिं वयणेण | उवणया भरहस्स, ततो चुलहिमवंतगिरिकुमारं देवं ओयवेति, तत्थ बावत्तरि जोयणाणि सरो उवरिहुत्तो गच्छति, 9 सुत्रांक -06 HAMAROO -2 दीप अनुक्रम 2-564 सिन्धुदेवीमुपैति, ततो वैताम्यगिरि कुमार देषं, ततसमिश्नगुहायाः कृतमाल्यं, ततः सुपेणोऽर्धयलेन दाक्षिणात्य सिन्धुभिकूट उपति, ततः सुपेणतमिश्रगुहां समुद्घाटयति, ततस्तमिसगुदायां मणिरलेनोद्योतं कृत्वोभवपाश्चैवोः पनधनुःशखायामविष्कम्भाणि मन्डलाणि एकोनपञ्चाशतमालिसन् वद्योतकरणादुम्मन्नानिमने च संक्रमेणोत्तीर्य निर्गतस्तमिखगृहाथाः, आपतितं किरातैः समं युद्ध, ते पराजिताः भेषमुखान् नाम कुमारान् कुलदेवता आराधयन्ति, ते | सप्तरात्र वर्षा वर्षयन्ति, भरतोऽपि चर्मरखे स्कन्धाचार स्थापयित्वोपरि उबरवं खापयति. मनिरतं उपस्वस प्रतीक्ष्यभागे ( मध्ये दण्डख) स्थापयति, तत:प्रभृति खोकनाण्डप्रभवं जगवाणीतमिति, ततसा पूर्वावशालय पुच्यन्ते. अपराहे जिस्यते एवं सर दिनानि तिष्ठति, ततो मेघमखा आभियोपिकनिधोटिता, किरातारोपां वचनेनोपनता भरताय, ततः शुलकहिमवद्भिरिकुमारं देवमुपैति, तत्र द्वाससति योजनानि शर उपरि गच्छति, * गुदमुग्धा Dil+०पणासमंजमायो.tarरपतिपिछ. अच्छति. ला॥१५॥ Sarwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ २४७ ] भष्यं [३१]...]. ततो उसभकूडए नाम लिह, ततो सुसेणो उत्तरिलं सिंधुनिक्खुडं ओयवेद, ततो भरहो गंगं औयवेद, पच्छा सेणावती उत्तरिलं गंगानिक्खुडं ओयवेइ, भरहोऽवि गंगाए सद्धिं वाससहस्सं भोगे भुंजइ, ततो वेयडे पदए णमिविणमिहिं समं बारस संवच्छराणि जुद्धं, ते पराजिआ समाणा विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि गहाय उबहिया, पच्छा खंड गप्पवायगुहाए नहमालयं देवं ओयवेइ, ततो खंडगप्पवायगुहाए नीति, गंगाकूलए नव निहओ उवागच्छति, पच्छा दक्खिणिलं गंगानिक्खुड सेणावई ओयवेइ, एतेण कमेण सहीए वाससहस्सेहिं भारहं वासं अभिजिणिऊण अतिगओ विणीयं रायहाणिंति, वारस वासाणि महा-रायाभिसेओ, जाहे बारस वासाणि महारायाभिसेओ वत्तो राइणो विसज्जिआ ताहे निययवग्गं सरिउमारद्धो, ताहे दाइजंति सबै निइलिआ एवं परिवाडीए सुंदरी दाइआ सा पंडुलंगितमुही, सा य जदिवस रुद्धा तदिवसमारद्धा आयंबिलाणि करेति, तं पासित्ता रुहो ते कुटुंबिए भाइ-किं मम नत्थि भोयणं ?, जं एसा एरिसी 2 तव रूपभकूटे नाम लिखति, ततः सुषेण औत्तरीयं सिम्पुनिप्कूटं उपयाति ततो भरतो गङ्गामुपयाति पश्चात्सेनापतिरोत्तरं गङ्गानिष्टमुपयाति, भरतोऽपि गत्या सार्धं वर्षसहस्रं भोगान्भुनकि, ततो वैताये पर्वते नमिविनभिभ्यां समं द्वादश संवत्सराणि युद्धं तौ पराजितौ सन्तौ विनमिः श्रीरखं नमिः रजानि गृहीत्वोपस्थिती, पश्चात्खण्डप्रपातगुहाया नृत्यमाल्यं देवमुपयाति ततः खण्डप्रपातगुहाया निर्याति, गङ्गाकूले नव निधय उपागच्छन्ति, पश्चात् दाक्षिनायं गङ्गानिष्कूटं सेनापतिरुपयाति एतेन क्रमेण षष्टथा वर्षसहस्रैः भारतं वर्षे अभिजित्वातिगतो विनीतां राजधानीमिति द्वादश वर्षाणि महाराजाभिषेको, यदा द्वादश वर्षाणि महाराजाभिषेको वृतो राजानो विसृष्टाः तदा निजकवर्गातुमारब्धः, तदा दन्ते सर्वे निजकाः, एवं परिपाव्या सुन्दरी दर्शिता सा पण्डुराङ्गितमुखी, सा च यदिवसे रुद्रा तस्मादिवसादारभ्याचाम्डानि करोति तां ष्ट्ठा रुष्टस्तान् कौटुम्बिकान् भणति किं मम नास्ति भोजनं पदेवा ईशी * नामयं + गंगाकुलेण गच्छंतिति. + महारथा०. Education intimational For Funny www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः भगवत् पुत्री सुन्दरी एवं तस्या चारित्ररागः ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥ १५१ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [३४७ ] भष्यं [३१]...]. रुवेण जाया, विज्जा वा नत्थि ?, तेहिं सिद्धं जहा-आयंबिलाणि करोति, ताहे तस्स तस्सोवरिं पयणुओ रागो जाओ, सा य भणिया- जइ रुच्चइ तो मए समं भोगे भुंजाहि, णवि तो पचयाहित्ति, ताहे पायसु पडिया विसज्जिया पवइआ । अन्नया भरहो तेसिं भाउयाणं दूयं पड़वेइ जहा मम रज्जं आँयणह, ते भति-अम्हवि रज्जं ताएण दिण्णं, तुज्झवि, एतु ताव ताओ पुच्छिजिहित्ति, जं भणिहिति तं करिहामो । ते णं समए णं भगवं अद्वावयमागओ विहरमाणो, एत्थ सधे समोसरिआ कुमारा, ताहे भणति-तुम्भेहिं दिण्णाई रज्जाई हरति भाया, ता किं करोमो ? किं जुज्झामो जयाहु आया णामो?, ताहे सामी भोगेसु निवत्तावेमाणो तेसिं धम्मं कहेइ-न मुत्तिसमं सुहमत्थि, ताहे इंगालदाहकदितं कहेइ - जहा एगो इंगालदाहओ एवं भाणं पाणिअस्स भरेक णं गओ, तं तेण उदगं णिङ्कविअं, उवरिं आइचो पासे अग्गी पुणो परिस्समो दारुगाणि कुतरस, घरं गतो पाणं पीअं, मुच्छिओ सुमिणं पासइ, एवं असम्भावपट्टवणाए कुवतलागनदिदहसमुद्दा यसबे ते 5 रूपेण जाता, वैद्य या न सन्ति ? तैः शिष्टं यथाऽऽचाम्लानि करोति तदा तस्य तस्या उपरि प्रतनुको रागो जातः सा च भणिता-पदि रोचते तदा मया समं भोगान् मुद्रक्ष्य, मैव तर्हि प्रबल, तदा पादयोः पतिता विसृा प्रत्रजिता । अम्वदा भरतस्तेषां भ्रातॄणां दूतान् मेषपति यथा मम राज्यमाज्ञापयत, भगन्ति अस्माकमपि राज्यं तातेन दत्तं तथापि, एतु तावत्तातः पृण्डवते, यमिति तत्करिष्यामः । तस्मिन्समये भगवानष्टापद्मागतो विहरन्, अन्त्र सर्वे समवसृताः कुमाराः सदा भणन्ति - युष्माभितानि राज्यानि हरति आता, तकिं कुर्मः ? किं युध्यामह उताहो आज्ञप्यामहे, तदा स्वामी भोगेभ्यो नव यमानः तेभ्यो धर्म कथयति-न मुक्तिसमं सुखमस्ति तदाऽङ्गारदा हकदृष्टान्तं कथयति-यथैकोऽङ्गारदादक एक भाजनं पानीयस्य नृत्वा गतः तत्सेनोदकं निष्ठापितं, उपरि आदित्यः पार्श्वयोरभिः पुनः परिश्रमो दारूणि कुतः गृहं गतः पानं पीतं मूच्छितः स्वमं पश्यति, एवमसद्धावस्थापनवा कूपतटाकनदीइदसमुदाय सर्वे * •याह + अट्ठावदे समागतो. भरहो ता ताओ करेमि भरे. 8 कोणतस्व. Education national For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~305~ ॥ १५१ ॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ३४७], भाष्यं [३१...], | बाहुबले कथानकं पीओ, न य ि हे एगंमि जिष्णकुत्रे तणपूलिअं गहाय उस्सिंचर, जं पडियसेसं तं जीहाए लिहइ । एवं तुम्भेहिंपि अणु सद्दफरिसा सबसिद्धे अणुभूआ, तहवि तत्तिं न गया । एवं वियालिअं नाम अज्झयणं भासइ 'संवाह किं न बुज्झहा ?" एवं अझणउए वित्तहिं अहाणउइ कुमारा पवइआ, कोइ पढमिलुएण संबुद्धो कोइ चितिएण कोइ ततिएण जाहे ते पवइआ । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह मागमाई विजय सुंदरिपब्बज बारसभिसेओ । आणवण भाउगाणं समुसरणे पुच्छ दितो ॥ ३४८ ॥ मनिका - मागधमादौ यस्य स मागधादिः कोऽसौ ? विजयो भरतेन कृत इति । पुनरागतेन सुन्दर्यवरोधस्थिता दृष्टा, क्षीणत्वान्मुक्ता चेति । द्वादश वर्षाणि अभिषेकः कृतो भरताय, आज्ञापनं भ्रातॄणां चकार, तेऽपि च समवसरणे भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवता चाङ्गारदाहकदृष्टान्तो गदित इति गाथाक्षरार्थः ॥ ३४८ ॥ इदानीं कथानक शेषम् — कुमारेसु | पवइएस भरहेण बाहुबलिणो दूओ पेसिओ, सो ते पदइए सोउं आसुरुतो, ते बाला तुमए पवाविआ, अहं पुण जुद्ध समत्थो, १] पीताः, न च ते तृष्णा, तदेकस्मिञ्जीर्णकृपे तृणपूलं गृहीति पतितशेषं तद्विवा लेति । एवं युध्माभिरपि अनुचराः सर्वलोके शब्दस्पर्शाः सर्वार्थसिद्धेऽनुभूताख्यापि तृप्तिं न गताः एवं वैदारिकं नामाध्ययनं भाषते, संबुध्यत किं न युध्यत ? एवमष्टनवत्या वृत्तेरटनवतिः कुमाराः प्रमजिताः कचित् प्रथमेन संकुद्धः कविद्वितीयेन कक्षितृतीयेन यदा ते प्रमजिताः। २ कुमारेषु प्रब्रजितेषु भरतेन बाहुबलिने दूत्तः प्रेषितः, स तान्प्रवजितान् कुद्धः, ते बालास्वया प्रमाजिताः, अहं पुनः युद्धसमर्थः *पीआय + परिछज मागहवरदामप्रभास सिंधुडप्पा मिसमुद्दा स िवाससहस्से, ओअवि भागओ भरहो ॥ १ ॥ ( प्र० अध्या० ). For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] ~306~ www.jincibrary.org " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४८], भाष्यं [३१...], (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यकता एहि, किंवा ममंमि अजिए भरहे तुमे जिंअंति । ततो सबवलेण दोवि मिलिआ देसंते, बाहुबलिणा भणिों-किं हारिभद्री अणवराहिणा लोगेण मारिएणं, तुर्म च अहं च दुवेऽवि जुज्झामो, एवं होउत्ति, तेसिं पढम दिहिजुद्धं जायं, तत्थ भरहोल्य वृत्तिः ॥१५२४ पराजिओ, पच्छावायाए, तत्थवि भरहो पराइओ,एवं बाहाजुद्धेण पराजिओ मुडिजुद्धेऽवि पराजिओ दंडजुद्धेऽवि जिप्पमाणो विभागः१ भरहो चिंतियाइओ-किं एसेव चक्की ? जेणाई दुबलोत्ति, तस्स एवं चिंतंतस्स देवयाए आउहं दिणं चकरयणं, ताहे सो तेणं गहिएणं पहाविओ। इओ बाहुबलिणा दिहो गहियदिवरयणो आगिओ, सगवं चिंतियं चाणेण-सममेएण भंजामिद एयं, किं पुण तुच्छाण कामभोगाण कारणा भट्ठनियपइण्णं एवं मम वावाइउ न जुत्त, सोहणं मे भाउगेहिं अणुडिअं अहमवि तमणुढामित्ति चिंतिऊण भणियं चाणेण-धिसि धिसि पुरिसत्तणं ते अहम्मजुद्धपवत्तस्स, अलं मे भोगेहिं, गेण्हाहि |रज, पबयामित्ति, मुकदंडो पबइओ, भरहेण बाहुबलिस्स पुत्तो रजे ठविओ । बाहुबली विचिंतेइ-तायसमीवे भाउणो मे तत् एदि, किं वा मव्यजिते भरते त्वया जितमिति । ततः सर्वपलेन द्वावपि मिलितौ देशान्ते, बाहुबलिना भणित-किमनपराधिना लोकेन मारितेन !.C |वं चाई पदादेव युझ्यावद, एवं भवस्थिति, तयोः प्रथम दृष्टियुदं जातं, तत्र भरतः पराजितः, पञ्चाद्वाचा, तत्रापि भरतः पराजितः, एवं बाहयुदेन पराजितो| | मुष्टियुद्धअपि पराजितो वायुवेऽपि जीवमानो भरतश्चिन्तितवान-किमेष एव चक्रवती १ नाहं दुर्बल इति । तस्यैवं चिन्तयतो देवतया माधुधं दतं चकर.लि | तदा स तद् गृहीत्वा प्रधावितः । इतो बाहुबलिना राष्टः गृहीतदिव्यरज भागता, सगर्व चिन्तितं चानेन-सममेतेन भनमयेनं, कि पुनस्तुच्छानो कामभोगान | ॥१५॥ | कारणाअष्टपतिजमेनं व्यापादयितुं न युक्त, शोभनं मे भ्रातृभिरनुचितं, अहमपि तदनुतिष्ठामि इति चिन्तयित्वा भणितं चानेन-भिरिया पुरुषावं तेऽधर्मयुरप्रवृत्तस्य, भलं मे भो ज्यं, अनजामीति, मुक्तदण्डः मनजितः, भरतेन बाहुबलिनः पुत्रो राज्ये स्थापितः । पाहुपक्षी विचिन्तयति-तातसमीपे | भातरो मे * चि नेदम् भुंजामि. दीप अनुक्रम JABERatinintamational wjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ३४८], आष्यं [३१]...]. लेडुयरा समुप्प ते किह निरइसओ पिच्छामि, एत्थेय ताव अच्छामि जाव केवलनाणं समुप्पण्णंति, एवं सो पडिमं ठिओ, मा जाणइ सामी तहवि न पढवे, अमूढलक्खा तित्थयरा, ताहे संवच्छरं अच्छइ काउस्सग्गेणं, वल्लीविताणेणं वढिओ, पाया य धम्मीयनिग्गएहिं भुयंगेहिं, पुण्णे य संवच्छरे भगवं बंभीसुंदरीओ पहवेइ, पुर्वि न पट्टविआ, जेण तया सम्मं न पडिवाइत्ति, ताहिं सो मग्गंतीहिं वहीतणवेढिओ दिट्ठो, परुदेणं महल्लेणं कुचेणंति, तं दडूण बंदिओ, इमं च भणियं ताओ आणवेइ-न किर हत्थिविलग्गस्स केवलनाणं समुप्पजइति भणिऊणं गयाओ, ताहे पचि तितो कहिं एत्थ इत्थी ?, ताओ अ अलियं न भणति, ततो चिंतंतेण णायं-जहा माणहत्थित्ति, को य मम माणो, | वच्चामि भगवंतं वंदामि ते य साहुणोति पादे उक्खित्ते केवलनाणं समुप्पण्णं, ताहे गंतूण केवलिपरिसाए ठिओ । ताहे भरहोऽवि रज्जं भुंजइ । मरीईवि सामाइयादि एकारस अंगाणि अहिज्जिओ । साम्प्रतमभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथासप्तकमाह 1 लघुतराः समुत्पन्नज्ञानातिशयाः तान् कथं निरतिशयः पश्यामि अत्रैव तावत्तिष्ठामि यावत्केवलज्ञानं समुत्पन्नमिति (समुत्पद्यत इति ) एवं स प्रतिमां स्थितः, मानपर्वतशिखरे, जानाति स्वामी तथापि न प्रस्थापयति, अमूडलक्ष्यास्तीर्थकराः, तदा संवत्सरं तिष्ठति कायोत्सर्गेण, बलषितानेन वेष्टितः पादौ च वल्मीक निर्भुजः, पूर्णे च संवासरे भगवान् माझीसुन्दयाँ प्रस्थापयति, पूर्वं न प्रस्थापिते येन तदा सम्यक् न प्रतिपद्यत इति, ताभ्यां मार्गय स्त्रीभ्यां स वली तृणचेष्टितो दृष्टः प्ररूढेन महता कूर्चेनेति तं दृष्ट्रा वन्दितः इदं च भणितम्-तात आज्ञापयति न किल हस्तिविलस्य केवलज्ञानं समुत्पयत. इति भणिलागते, तदा प्रचिन्तितः ( चिन्तितुमारब्धवान् ) का इस्ती ?, तातखालीकं न भगति, ततचिन्तयता ज्ञातं यथा मानो हस्तीति कख मम मानः, जामि भगवन्तं (प्रति) वन्दे तां साधूनिति पादे वक्षिसे केवलज्ञानं समुत्पन्नं तदा गत्वा केवपिदि स्थितः । तदा भरतोऽपि राज्यं भुनक्ति । मरीचिरपि सामायिकादीन्येकादशाङ्गान्यधीतवान् पविआओ + पडिवनिहित्ति जेङज ! ताभो. किछ चिन्तितो Education into For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] ॥ १५३ ॥ आवश्यक- ४ बाहुबलिकोवकरणं निवेअणं चक्कि देवया कहणं । नाहम्मेणं जुज्झे दिक्खा पडिमा पइण्णा य ।। ३४९ ।। पढमं दिट्ठीजुद्धं वायाजुद्धं तहेव बाहाहिं । मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सव्वत्थवि जिप्पर भरहो ॥ ३२ ॥ सो एव जिप्पमाणो विहरो अह नरवई विचिते । किं मन्नि एस चक्की ? जह दाणि दुब्बलो अहयं ॥ ३३ ॥ संवच्छरेण धूअं अमूढलक्खो उ पेसए अरिहा । हत्थीओ ओयरति अ वुत्ते चिन्ता पए नांणं ॥ ३४ ॥ उप्पण्णनाणरयणो तिष्णपइण्णो जिणस्स पामूले। गंतुं तित्थं नमिउं केवलिपरिसाइ आसीणो ॥ ३५ ॥ काऊन एगछतं भरहोऽवि अ भुंजए बिउलभोए । मरिईवि सामिपासे विहरह तवसंजम समग्गो ॥ ३६ ॥ सामाइ अभाईअं इकारसमाङ जाव अंगाउ। उज्जुतो भत्तिगतो अहिजिओ सो गुरुसगासे ॥ ३७ ॥ (भाष्यम्) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ३४९], भाष्यं [३२], आसामभिहितार्थानामपि असंमोहार्थमक्षरगमनिका प्रदर्श्यते - भरतसंदेशाकर्णने सति बाहुबलिनः कोपकरणं, तन्नि वेदनं चक्रवर्त्तिभरताय दूतेन कृतं, 'देवयत्ति' युद्धे जीयमानेन भरतेन किमयं चक्रवर्ती न त्वहमिति चिन्तिते देवता आगतेति, 'कहणंति' बाहुबलिना परिणामदारुणान् भोगान् पर्यालोच्य कथनं कृतं अलं मम राज्येनेति, तथा चाह - नाघ र्मेण युध्यामीति, दीक्षा तेन गृहीता, अनुत्पन्नज्ञानः कथमहं ज्यायान् लघीयसो द्रक्ष्यामीत्यभिसंधानात् प्रतिमा अङ्गीकृता प्रतिज्ञा च कृता - नास्मादनुत्पन्नज्ञानो यास्यामीति निर्युक्तिगाथा, शेषास्तु भाष्यगाथाः ३४९ ॥ * ताहे च नाणी अयं केव Education intemational परयमि बाहुबलिया व भणिभं चिरत्थु रजस्स तो तुझ ॥ १ ॥ चिते व सो म सहोरा पुलिया पडिमं ॥ २ (प्र० अग्वा० ) For Fasten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१ ] ~309~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥१५३॥ www.janbay.org " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३४९], भाष्यं [३७], (४०) प्रत सूत्राक तयोश्च भरद धर्म दृष्टियुद्धं पुनर्वाग्युद्धं तथैव बाहुभ्यां मुष्टिभिश्च दण्डैश्च, 'सर्वत्रापि' सर्वेषु युद्धेषु जीयते || भरतः। स एवं विधुरोऽध नरपतिर्विचिन्तितवान्-किं मन्ये एष चक्रवत्ती? यथेदानी दुर्बलोऽहमिति ॥ कायो-11 त्सर्गावस्थिते भगवति बाहुबलिनि संवत्सरेण 'धूतां' दुहितर अमूढलक्षस्तु प्रेषितवान् 'अर्हन' आदितीर्थकरः, 'हस्तिनः अवतर' इति चोक्ने चिन्ता तस्य जाता, यामीति संप्रधार्य 'पदे' इति पादोत्क्षेपे ज्ञानमुत्पन्नमिति ॥ उत्पन्नज्ञानरत्नस्तीर्णप्रतिज्ञो जिनस्य पादमूले केवलिपार्षदं गत्वा तीर्थ नत्वा आसीनः॥ अत्रान्तरे कृत्वा एकच्छवं भुवनमिति वाक्यशेषः,भरतोऽपि च भुले विपुलभोगान् । मरीचिरपि स्वामिपाचे विहरति तपःसंयमसमनः ।। स च सामायिकादिकमेकादशमङ्गं यावत् उद्युक्तः क्रियायां, भक्तिगतो भगवति श्रुते वा, अधीतवान् स गुरुसकाश इत्युपन्यस्तगाथार्थः ॥ १२-३७ ।। अह अण्णया कयाई गिम्हे उण्हेण परिगयसरीरो । अण्हाणएण चइओ इमं कुलिंग विचिंतेइ ॥ ३५०॥ गमनिका-'अथ' इत्यानन्तर्ये 'कदाचिद्' एकस्मिन्काले ग्रीष्मे उष्णेन परिगतशरीरः 'अस्नानेनेति' अस्नानपरीपहेण त्याजितः संयमात् 'एतत्कुलिङ्ग' वक्ष्यमाणं विचिन्तयतीति गाथार्थः ॥ ३५०॥ मेरुगिरीसमभारे न हुमि समत्थो मुहुत्तमवि वोढुं । सामण्णए गुणे गुणरहिओ संसारमणुकखी ॥ ३५१ ॥ गमनिका-मेरुगिरिणा समो भारो येषां ते तथाविधास्तान् नैव समर्थो मुहर्तमपि वोटु, कान?, श्रमणानामेते श्रामणाः, " दुहितरी. + पदो.. परिषद. तत्ती. दीप अनुक्रम S wlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मरीचि कथानक ~310 ~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३५१], भाष्यं [३७...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१५४॥ प्रत सुत्रांक के ते?, गुणाः विशिष्टक्षान्त्यादयस्तान् , कुतो, यतो धृत्यादिगुणरहितोऽहं संसारानुकाङ्गीति गाथार्थः ॥ ३५१॥ ततश्च किं मम युज्यते , गृहस्थत्वं तावदनुचितं, श्रमणगुणानुपालनमप्यशक्यं स न एवमणुचितंतस्स तस्स निअगा मई समुप्पण्णा । लद्धो मए उवाओ जापा मे सासपा बुद्धी ॥३५२।। । व्याख्या-'एवं' उक्तेन प्रकारेण अनुचिन्तयतस्तस्य निजामतिः समुत्पन्ना, न परोपदेशेन, स ह्येवं चिन्तयामास-1 लब्धो मया वर्तमानकालोचितः खलूपायः, जाता मम शाश्वता बुद्धिः, शाश्वतेति आकालिकी प्रायो निरवधजीविकाहेतुखात् इति गाथाथैः ॥ ३५२ ॥ यदुक्तं 'इदं कुलिङ्गं अचिन्तयत्' तत्प्रदर्शनायाहसमणा तिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकुइअअंगा। अजिइंदिअदंडस्स उ होउ तिथं महं चिंधं ॥ ३५३ ॥ गमनिका-श्रमणाः मनोवाकायलक्षणत्रिदण्डविरताः, ऐश्वर्यादिभगयोगानगवन्तः, निभृतानि-अन्तःकरणाशुभव्यापारचिन्तनपरित्यागात् संकुचितानि-अशुभकायव्यापारपरित्यागात् अङ्गानि येषां ते तथोच्यन्ते, अहं तु नैवंविधो यतोऽत:-'अजितेन्दियेत्यादि' न जितानि इन्द्रियाणि-चक्षुरादीनि दण्डाश्च-मनोवाकायलक्षणा येन स तथोच्यते, तस्य अजितेन्द्रियदण्डस्य तु भवतु त्रिदण्डं मम चिहं, अविस्मरणार्थमिति गाथार्थः ॥ ३५३ ॥ लोइंदिअमुंडा न अहयं खुरेण ससिहो अ । थूलगपाणिवहाओ वेरमणं मे सया होउ ॥ ३५४ ॥ गमनिका यो भवति-द्रव्यतो भावतश्च, तत्रैते श्रमणा द्रव्यभावमुण्डाः, कथम् ।, लोचेन इन्द्रियैश्च मुण्डाः। दीप अनुक्रम | ॥१५४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३५४], भाष्यं [३७...], (४०) प्रत सूत्राक संयतास्तु, अहं तो यतः अतः अलं द्रव्यमुण्डतया, तस्मादहं क्षुरेण मुण्डः सशिखश्च भवामि, तथा सर्वप्राणिवधविरताः अहं तु नेवंविधो यतः अतः स्थूलप्राणातिपाताविरमणं मे सदा भवत्विति गाथार्थः ॥३५४॥ निकिंचणा य सभा अकिंचणा मज्म किंचणं होउ । सीलसुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥३५५ ॥ गमनिका-निर्गतं किंचन-हिरण्यादि येभ्यस्ते निष्किञ्चनाश्च श्रमणाः तथा अविद्यमान किशनम्-अल्पमपि येषां । तेऽकिञ्चना-जिनकल्पिकादयः, अहं तु नैवंविधो यतः अतो मार्गाविस्मृत्यर्थं मम किश्चनं भवतु पवित्रिकादि। तथा शीलेन शोभनो गन्धो येषां ते तथाविधाः, अहं तु शीलेन दुर्गन्धः अतो गन्धचन्दनग्रहणं मे युक्तमिति | गाथार्थः ॥ ३५५ ॥ तथाववगयमोहा समणा मोहच्छपणस्स छत्तयं होउ । अणुवाहणा य समणा ममं तु उवाहणा होन्तु ।। ३५६॥ गमनिका-व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहाः श्रमणाः, अहं तु नेत्थं यतः अतो मोहाच्छादितस्य छन्त्रकं भवतु। | अनुपानकाच श्रमणाः मम चोपानही भवत इति गाथाक्षरार्थः ॥ ३५६ ॥ तथा सुकंवरा य समणा मिरंचरा मज्म धाउरत्ताई । हुंतु इमे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई ॥ ३५७ ॥ गमनिका-शुक्लान्यम्बराणि येषां ते शुक्लाम्बराः श्रमणाः, तथा निर्गतमम्बरं (अन्धानम् ४०००) येषां ते निरम्बरा दीप अनुक्रम *काननं. + अन अ. ना जि.. गाथार्थः. JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३५८], भाष्यं [३७...], (४०) आवश्यक ॥१५५॥ प्रत सुत्रांक जिनकल्पिकादयः 'मञ्झन्ति' मम च, पते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणब्युदासः,धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि हारिभद्रीकिमिति ?, 'अहोऽस्मि' योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः कलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः॥३५७॥तथा यवृत्तिः वजंतऽवज्जभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभं । होउ मम परिमिएणं जलेण पहाणं च पिअणं च ॥ ३५८ ॥ विभागः१ गमनिका-वर्जयन्ति अवधभीरवो बहुजीवसमाकुलं जलारम्भ, तत्रैव वनस्पतेरवस्थानात् , अवयं-पापं, अहं तु नेत्थं यतः अतो भवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति गाथार्थः ॥ ३५८॥ एवं सो रुइअमई मिअगमहविगप्पि इमं लिंगं । तडितहेउसुजुत्तं पारिवलं पवत्तेह ॥ ३५॥ | गमनिका-स्थूलमूषावादादिनिवृत्तः, एवमसौ रुचिता मतिर्यस्य असौ रुचितमतिः, अतो निजमत्या विकल्पितं निजमतिविकल्पितं, इर्द लिङ्ग, किंविशिष्टम् -तस्य हितास्तद्धिताः तद्धिताश्च ते हेतवश्चेति समासः, तैः सुषु युक्त-श्लिष्ट-IN मित्यर्थः, परिव्राजामिदं पारिवज्यं, प्रवर्त्तयति, शास्त्रकारवचनात् वर्तमाननिर्देशोऽप्यविरुद्ध एव, पाठान्तरं वा 'पारिवज है ततो कासी' ति पारिवाज-तंतः कृतवानिति गाधार्थः ॥ ३५९ ॥ भगवता च सह विजहार, तं च साधुमध्ये विजातीयं | दृष्ट्वा कौतुकाल्लोकः पृष्टवान् , तथा चाह| अह तं पागडरूवं दई पुच्छेइ बहुजणो धम्मं । कहा जईणं तो सो विआलणे तस्स परिकहणा ॥ ३६॥ TRI | ॥१५५॥ गमनिका रूप-विजातीयत्वात् दृष्ट्वा पृच्छति बहुर्जनो धर्म, कथयति यतीनां संबन्धिभूतं क्षान्त्यादियतो रुचि दीप अनुक्रम JAMERatinenta sairatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्ति: [ ३६१], भाष्यं [३७...], भणन्ति यद्ययं श्रेष्ठो भवता किं नाङ्गीकृत इति विचारणे तस्य परि-समन्तात् कथना विरता इत्यादिलक्षणा, पृच्छतीति त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशः, पाठान्तरं वा 'अह तं पागडरूवं दट्टु पुच्छि बहुजणो धम्मं । कहतींसु जतीणं सो वियालणे तस्स परिकहणा ॥ १ ॥' प्रवर्त्तत इति गाथार्थः ॥ ३६० ॥ लक्षणं ततोऽस परिकथना 'श्रम 'धम्मकहाअक्खित्ते उबट्टिए देइ भगवओ सीसे । गामनगराइआई बिहरइ सो सामिणा सद्धिं ॥ ३६१ ॥ गमनिका - धर्मकथाक्षितान् उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान्, ग्रामनगरादीन् विहरति स स्वामिना सार्धं, भावार्थ: सुगमः, इत्थं निर्देशप्रयोजनं पूर्ववत्, ग्रन्थकारवचनत्वाद्वाऽदोष इति गाथार्थः ॥ ३६१ ॥ अन्यदा भगवान् विरमाणोऽष्टापदमनुप्राप्तवान्, तत्र च समवसृतः भरतोऽपि भ्रातृप्रव्रज्याकर्णनात् संजातमनस्तापोऽधृतिं चक्रे, कदाचिद्भोगान् दीयमानान् पुनरपि गृह्णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् भोगेः निराकृतश्च चिन्तयामास| एतेषामेवेदानीं परित्यक्तसङ्गानां आहारदानेनापि तावद्धर्मानुष्ठानं करोमीति पञ्चभिः शकटशतैर्विचित्रमाहारमानाय्योपनिमन्त्र्य आधाकर्माहृतं च न कल्पते यतीनामिति प्रतिषिद्धः अकृताकारितेनान्नेन निमन्त्रितवान्, राजपिण्डोऽप्यकल्पनीय इति प्रतिषिद्धः सर्वप्रकारैरहं भगवता परित्यक्त इति सुतरामुन्माथितो बभूव, तमुन्माथितं विज्ञाय देवराट् तच्छोकोपशान्तये भगवन्तमवग्रहं पप्रच्छ कतिविधोऽवग्रह इति, भगवानाह - पञ्चविधोऽवग्रहः, तद्यथा- देवेन्द्रावग्रहः राजा * प्रतिषिद्धे. Education intemational For Funny ww मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६१], भाष्यं [३७...], (४०) प्रत सुत्रांक - आवश्यक वग्रहः गृहपत्यवग्रहः सागारिकावग्रहः साधर्मिकावग्रहश्च, राजा-भरताधिपो गृह्यते, गृहपतिः-माण्डलिको राजा, सागा- हारिभद्री रिका-शय्यातरः, साधर्मिकः-संयत इति, एतेषां चोत्तरोत्तरेण पूर्वः पूर्वो बाधितो द्रष्टव्य इति, यथा राजाऽवग्रहेणायात ॥१५६॥ विभागः१ देवेन्द्रावग्रहो बाधित इत्यादि प्ररूपिते देवराडाह-भगवन् ! य एते श्रमणा मदीयावग्रहे विहरन्ति, तेषां मयाऽवग्रहोड-13 नुज्ञात इत्येवमभिधाय अभिवन्ध च भगवन्तं तस्थौ, भरतोऽचिन्तयत्-अहमपि स्वमवग्रहमनुजानामीति, एतावताऽपि नः कृतार्थता भवतु, भगवत्समीपेऽनुज्ञातावग्रहः शक्र पृष्टवान्-भक्तपानमिदमानीतं अनेन किं कार्यमिति, देवराडाहxगुणोत्तरान् पूजयस्व, सोऽचिन्तयत्-के मम साधुव्यतिरेकेण जात्यादिभिरुत्तराः १, पयोलोचयता ज्ञातं श्रावका विरता-15 विरतत्वाद्गुणोत्तराः, तेभ्यो दत्तमिति । पुनर्भरतो देवेन्द्ररूपं भास्वरमाकृतिमद् दृष्ट्वा पृष्टवान्-किं यूयमेवंभूतेन रूपेण देवलोके तिष्ठत उत नेति, देवराज आह-नेति, तत् मानुपैष्टुमपि न पार्यते, भास्वरत्वात् , पुनरम्याद भरतः-तस्याकृतिमात्रेणापि अस्माकं कौतुकं, तन्निदयंतां, देवराज आह-खमुत्तमपुरुष इतिकृत्वा एकमङ्गावयवं दर्शयामीत्यभिधाय योग्यालङ्कारविभूषितां अङ्गुलीमत्यन्तभास्वरामदर्शयत् , दृष्ट्वा च तां भरतोऽतीव मुमुदे, शकाली च स्थापयित्वा महिमामष्टाहिका चक्रे, ततःप्रभृति शक्रोत्सवप्रवृत्त इति । भरतश्च श्रावकानाद्वय उक्तवान् भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं | भोक्तव्यं, कृष्यादि च न कार्य, स्वाध्यायादिपरैरासितव्यं, भुक्के च मदीयगृहद्वारासन्नव्यवस्थितैः वक्तव्यम्-जितो भवान् । इमनलाविति पादिक इमान रूपं, बाहुल्याद् अनुक्तान्महेः, तथा च हजनिभ्यामिममिति सूत्रेणेमन , दीर्घादिस्वप्रस्तुत एच. "नाग ४ ग्रहा. + माने दीप अनुक्रम T JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६१], भाष्यं [३७...], (४०) प्रत सूत्राक वर्धते भयं तस्म, हनेति, ते तथैव कृतवन्तः, भरतश्च रतिसागरावगाढत्वात् प्रमत्तत्वात् तच्छन्दाकर्णनोत्तर-1 कालमेव केनाहं जित आः ज्ञातं-कपायैः, तेभ्य एव च वर्धते भयमित्यालोचनापूर्व संवेगं यातवान् इति । अत्रा-18 ५न्तरे लोकबाहुल्यात् सूपकाराः पाकं कमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्त:-नेह ज्ञायते-का श्रावकः को वा नेति, लोकस्य प्रचुरत्वात्, आह भरत:-पृच्छापूर्वकं देयमिति । ततस्तान् पृष्टवन्तस्ते-को भवान् , श्रावकः, श्रावकाणां कति | व्रतानि ?, स आह-श्रावकाणां न सन्ति व्रतानि, किन्त्वस्माकं पञ्चाणुव्रतानि, कति शिक्षाब्रतानि ?, ते उक्तवन्तः-सप्त |शिक्षाब्रतानि, य एवंभूतास्ते राज्ञो निवेदिताः, स च काकिणीरलेन तान् लाञ्छितवान्, पुनः षण्मासेन येऽन्ये भवन्ति तानपि लाञ्छितवान् , षण्मासकालानुयोगं कृतवान् , एवं ब्राह्मणाः संजाता इति । ते च स्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तः, ते च प्रवज्यां चक्रुः, परीपहभीरवस्तु श्रावका एवासन्निति 7 इयं च भरतराज्यस्थितिः, आदित्ययशसस्तु काकिणीरत्नं नासीत् , सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान्, महायशःप्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि, केचन विचित्रपट्टसूत्रमयानि, है इत्येवं यज्ञोपवीतप्रसिद्धिः । अमुमेवा) समोसरणेत्यादिगाथया प्रतिपादयतिसमुसरण भत्त उग्गह अंगुलि झय सक्क साषया अहिआ।जेआ बहुइ कागिणिलंछण अणुसज्जणा अट्ठ॥३६२॥10 गमनिका-समवसरण भगवतोऽष्टापदे खल्वासीत् , भक्तं भरतेनानीतं, तदग्रहणोन्माथिते सति भरते देवेशो भगव|न्तमवग्रहं पृष्टवान् , भगवांश्च तस्मै प्रतिपादितवान् । 'अंगुलि झय'ति भरतनृपतिना देवलोकनिवासिरूपपृच्छायां कृतायां इन्द्रेण अङ्गुलिः प्रदर्शिता, तत एवारभ्य ध्वजोत्सवः प्रवृत्तः । 'सकत्ति भरतनृपतिना किमनेनाहारेण कार्यमिति पृष्टः दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६३], भाष्यं [३७...], (४०) आवश्यक- ॥१५७॥ प्रत शकोऽभिहितवान्-त्वदधिकेभ्यो दीयतामिति, पर्यालोचयता ज्ञात-श्रावका अधिका इति । 'जेया वहइत्ति' प्राकृतशैल्या हारभद्रा 'जितो भवान् वर्धते भयं' भुक्तोत्तरकालं ते उक्तवन्तः, 'कागिणिलंछणत्ति' प्रचुरत्वात् काकिणीरलेन लाञ्छनं-चिहं तेषांक यवृत्तिः कृतमासीत् 'अणुसज्जणा अढ'त्ति अष्टी पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्तः, अष्टौ वा तीर्थकरान यावदिति गाथार्थः ॥ तत ऊध्र्व विभागः१ मिथ्यात्वमुपगता इति ॥ ३६२ ॥ |राया आइञ्चजसो महाजसे अइचले अ बलभद्दे । बलविरिए कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ।। ३६३ ॥ । भावार्थः सुगम एवेति गाधार्थः॥ एएहिं अद्धभरहं सपलं भुतं सिरेण धरिओ अ। पवरो जिणिंदमउडो सेसेहि न चाहओ बोई ।। ३६४॥ ___ गमनिका-एभिरर्धभरतं सकलं भुक्त, शिरसा धृतश्च, कोऽसावित्याह-अवरो जिनेन्द्रमुकुटो देवेन्द्रोपनीतः शेषः| नरपतिभिः न शकितो वोढुं, महाप्रमाणत्वादिति गाथार्थः ॥ ३६४ ।। अस्सावगपडिसेहो छढे छठे अ मासि अणुओगो । कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुवोच्छेओ ॥ ३६५ ।। गमनिका-अश्रावकाणां प्रतिषेधः कृतः, ऊर्ध्वमपि पष्ठे षष्ठे मासे अनुयोगो बभूव, अनुयोगः-परीक्षा, कालेन गच्छता मिथ्यात्वमुपगताः, कदा!, नवमजिनान्तरे, किमिति !, यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति गाथार्थः ॥ ३६५ ॥ साम्प्रत C ॥१५७॥ मुक्तानुक्तार्थप्रतिपादनाय संग्रहगाथामाह *प्रथमो. सुत्रांक । दीप अनुक्रम SHA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Education 66 “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [− /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ३६६], भाष्यं [३७...], माहाणं १ वेए कासी अ २ पुच्छ ३ निव्वाणं ४ कुंथूभ ६ जिणहरे ७ कविलो ८ भरहस्स दिक्खा य ९ ॥ ३६६ ॥ ( मूलदारगाहा ) गमनिका - दानं च माहनानां लोको दातुं प्रवृत्तो, भरतपूजितत्वात् । 'वेदे कासी अ'त्ति आर्यान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव, तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति, तीर्थकृत्स्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपादकांश्च, अनार्यस्तु पश्चात् सुलसायाज्ञवल्क्यादिभिः कृता इति । 'पुच्छ'त्ति भरतो भगवन्तमष्टापदसमवसृतमेव पृष्टवान् यादृग्भूता यूयं एवंविधास्तीर्थकृतः कियन्तः खल्विह भविष्यन्तीत्यादि । 'णिबाणं'ति भगवानष्टापदे निर्वाणं प्राप्तः, देवैरग्निकुण्डानि कृतानि, स्तूपाः कृताः, जिनगृहं भरतश्चकार, कपिलो मरीचिसकाशे निष्क्रान्तः, भरतस्य दीक्षा च संवृत्तेति समुदायार्थः ॥ ३६६ ॥ अवयवार्थ उच्यतेआद्यावयवद्वयं व्याख्यातमेव, पृच्छावयवार्थे तु 'पुणरवि' गाथेत्यादिना आह पुणरवि अ समोसरणे पुच्छीअ जिणं तु चक्किणो भरहे। अप्पुट्ठो अ दसारे तित्थयरो को इहं भरहे ? || ३६७ ॥ गमनिका - पुनरपि च समवसरणे पृष्टवांश्च जिनं तु चक्रवर्त्तिनः भरतः, चक्रवर्त्तिन इत्युपलक्षणं तीर्थकृतश्चेति, भरत - विशेषणं वा चक्री भरतस्तीर्थकरादीन् पृष्टवान् । पाठान्तरं वा 'पुच्छीय जिणे य चक्किणो भरहे' पृष्टवान् जिनान् चक्रवर्त्तिनश्च भरतः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, भगवानपि तान् कथितवान्, तथा अपृष्टश्च दशारान्, तथा तीर्थकरः क इह भरतेऽस्यां परिपदीति पृष्टवान्, भगवानपि मरीचिं कथितवान् इति गाथाक्षरार्थः ॥ ३६७ ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः - * चक्रवर्ती For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१ ] ~ 318~ www.ncbrary.org " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३६८], भाष्यं [३७...], (४०) प्रत सुत्रांक जिणचफिदसाराणं वण्ण १ पमाणाई २ नाम ३ गोत्ताई ४। आवश्यक हारिभद्री आऊ ५ पुर ६ माइ ७ पियरो ८ परियाय ९ गई च १० साही ॥ ३३८ । (दारगाहा) यवृत्तिः ॥१५८॥ [विभाग १ गमनिका-जिनचक्रिदशाराणां' जिनचक्रवर्तिवासुदेवानामित्यर्थः, वर्णप्रमाणानि तथा नामगोत्राणि तथा आयु:| पुराणि मातापितरी यथासंभवं पर्यायं गतिं च, चशब्दात् जिनानामन्तराणि च शिष्टवान् इति द्वारगाथासमासाथैः ॥३६८॥ अवयवार्थं तु वक्ष्यामः । तत्र प्रश्नावयवमधिकृत्य तावदाह भाष्यकार: जारिसया लोअगुरू भरहे वासंमि केवली तुम्भे । एरिसया कइ अन्ने ताया! होहिंति तित्धयरा ॥ ३८॥ (भाष्यम् ) व्याख्या-यादृशा लोकगुरवो भारते वर्षे केवलिनो यूयं, ईदृशाः कियन्तोऽन्येऽत्रैव तात ! भविष्यन्ति तीर्थकराः। ४ इति गाथार्थः ॥ ३८॥ अह भणइ जिणवरिंदो भरहे वासंमि जारिसो अहयं । एरिसया तेवीसं अण्णे होहिंति तित्थयरा ।। ३६९ ॥ निगदसिद्धा॥ ते चैवं |॥१५८॥ होही अजिओ संभव अभिणदण सुमइ सुप्पभ मुपासो।ससि पुष्पदंत सीअल सिजंसो वासुपुज्जो अ॥३७०॥3 दाविमलमणतइ धम्मो संती कुंथू अरो अ मल्ली अ। मुणिमुन्वय नमि नेमी पासो तह बहमाणो अ॥ ३७१॥ * भरते. +चे मासे. दीप अनुक्रम T wwjandiarary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 319~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [३८], (४०) xिk प्रत सूत्राक हा- भावार्थः सुगम एवार द अह भणइ नरवरिंदो भरहे वासंमि जारिसो उ अहं । तारिसया कइ अण्णे ताया होहिंति रायाणो? ॥३७२॥ गमनिका-अथ भणति नरवरेन्द्रो-भरतः, भारते वर्षे यादृशस्त्वहं तादृशाः कल्यन्ये तात! भविष्यन्ति राजान इति गाथार्थः॥ ३७२ ॥ अह भणइ जिणवरिंदो जारिसओ तं नरिंदसलो । एरिसया एकारस अण्णे होहिं ति रायाणो ॥ ३७३ ॥ गमनिका-अथ भणति जिनवरेन्द्रो-यादृशस्त्वं नरेन्द्र शार्दूलः, शार्दूल:-सिंहपर्यायः, ईदशा एकादश अन्ये भविप्यन्ति राजानः ॥ ३७३ ॥ ते चैतेहोही सगरो मघवं सर्णकुमारो य रायसहूलो । संती कुंथू अ अरो होई सुभूमो य कोरब्बो ॥ ३७४ ।। णवमो अ महापउमो हरिसेणो चेव रायसङ्कलो । जयनामो अ नरवई वारसमो वंभदत्तो अ ॥ ३७५ ॥ 8गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । यदुक्तम् 'अपृष्टश्च दशारान् कथितवान् तदभिधित्सुराहि भाष्यकार:होहिंति वासुदेवा नव अण्णे नीलपीअकोसिज्जा। हलमुसलचक्कजोही सतालगरुडज्क्षया दो दो॥३९॥ (भाष्यम्) व्याख्या-भविष्यन्ति वासुदेवा नव बलदेवाश्चानुक्का अप्यत्र तत्सहचरत्वात् द्रष्टव्याः, यतो वक्ष्यति 'सतालगरुडझया दो दो', ते च सर्वे बलदेववासुदेवा यथासंख्यं नीलानि च पीतानि च कौशेयानि-वस्त्राणि येषां ते तथाविधाः, _* तादृशः. + हवइ. सयाह. दीप अनुक्रम CX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: वासुदेव-बलदेव आदीनाम् नाम-निर्देश: ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ३७५], भाष्यं [ ३९ ], आवश्यक - यथासंख्यमेव हलमुशलचक्रयोधिनः- हलमुशलयोधिनो बलदेवाः चक्रयोधिनो वासुदेवा इति, सह तालगरुडध्वजाभ्यां वर्त्तन्त इति सतालगरुडध्वजाः । एते च भवन्तो युगपद् द्वौ द्वौ भविष्यतः, बलदेववासुदेवाविति गाथार्थः ॥ वासुदेवा*भिधानप्रतिपादनायाह ॥ १५९ ॥ Jus Educati तिबिहू अ १ दिवि २ सयंभु ३ पुरिमुत्तमे ४ पुरिससीहे ५ । तह पुरिसपुंडरीए ६ दत्ते ७ नारायणे ८ कण्हे ९ ।। ४० ।। (भाष्यम् ) निगदसिद्धा || अधुना बलदेवानामभिधानप्रतिपादनायाह- अपले १ विजए २ भद्दे ३, सुप्पभे ४ अ सुदंसणे ५ । आणंदे ६ णंदणे ७ पउमे ८, रामे ९ आवि अपच्छिमे ॥ ४१ ॥ (भाष्यम्) निगदसिद्धा || वासुदेवशत्रुप्रतिपादनायाह आसग्गीवे १ तारय २ मेरय ३ महुकेढवे ४ निसुंभे ५ अ । बलि ६ पहराए ७ तह रावणे ८ अ नवमे जरासिंधू ॥ ४२ ॥ (भाष्यम् ) निगदसिद्धा एव ॥ एए खलु पडिसत्तू कित्ती पुरिसाण वासुदेवाणं । सन्वे अ चक्कजोही सच्वे अ या सचकेहिं ॥ ४३ ॥ (भाष्यम्) गमनिका - एते खल प्रतिशत्रवः एते एवं खलुशब्दस्य अवधारणार्थत्वात् नान्ये, कीर्त्ति पुरुषाणां वासुदेवानां सर्वे चक्र For हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 321 ~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥१५९॥ www.laincibrary.org Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३७५], भाष्यं [४३], (४०) प्रत सूत्राक CENCE योधिनः, सर्वे च हताः स्वचकैरिति-यतस्तान्येव तच्चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः, पुण्योदयात् वासुदेवं प्रणम्य || तानेव व्यापादयन्ति इति गाथार्थः ॥ एवं तावत्यागुपन्यस्तगाथायां वर्णादिद्वारोपन्यास परित्यज्य असंमोहार्थVIमुत्क्रमेण जिनादीनां नामदारमुक्त, पारभविकं चैषां वर्णनामनगरमातृपितृपुरादिकं प्रथमानुयोगतोऽवसेयं, इह विस्तर-1 भयानोक्कमिति ॥ साम्प्रतं तीर्थकरवर्णप्रतिपादनायाहपउमाभवासुपुज्जा रत्ता ससिपुष्पदंत ससिगोरा । सुब्बयनेमी काला पासी मल्ली पियंगामा ॥ ३७६ ।। वरकणगतविअगोरा सोलस तित्थंकरा मुणेयब्वा । एसो वषणविभागो चउवीसाए जिणवराणं ॥ ३७७॥ गाथाद्वयं सूत्रसिद्धमेव ।। साम्प्रतं तीर्थकराणामेव प्रमाणाभिधित्सयाह पंचेर्व १ अपंचम २ चत्तार ३ बुह ४ तह तिग ५ चेव ।। अड्डाइजा ६ दुषिण ७ अ दिवड ८ मेगं घणुसयं ९ च ।। ३७८॥ नउई १० असीइ ११ सत्तरि १२ सट्ठी १३ पण्णास १४ होइ नायव्वा । पणयाल १५ चत्त १६ पणतीस १७ तीसा १८ पणवीस १९ वीसा २०य ॥ ३७९ ॥ पण्णरस २१ दस धणूणि य २२, नव पासो २३ सत्तरयणिओ वीरो। नामा पुब्बुत्ता खलु तित्थयराणं मुणेयब्वा ॥ ३८॥ सभी पंचधगुस्सय पासो नव सत्तरयणिो वीरो । सेसह पंच अङ्क य, पण्या दस पंच परिदीणा 10(० अध्या०). दीप अनुक्रम 1564 JABERatinintamational wwlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३८०], भाष्यं [४३...], (४०) आवश्यक हारिभद्री ॥१६॥ प्रत सुत्रांक एतास्तिस्रोऽपि पाठसिद्धा एव ॥ ३७८-३७९-३८० ॥ साम्प्रतं भगवतामेव गोत्राणि प्रतिपादयन्नाहमुणिसुब्वओ अ अरिहा अरिहनेमी अ गोअमसगुत्ता।सेसा तित्थयरा खलु कासवगुत्ता मुणेयब्वा ॥ ३८१॥ दू विभागः१ निगदसिद्धा ॥ आयुष्कानि तु प्राक्प्रतिपादितान्येवेति न प्रतन्यन्ते, भगवतामेव पुरप्रतिपादनाय गाथात्रितयमाह इक्खाग भूमि १ उज्झा २ सावस्थि ३ विणिअ ४ कोसलपुरं ५ च । कोसंबी ६ वाणारसी ७ चंदाणण ८ तह य काकंदी ९॥ ३८२ ॥ भदिलपुर १० सीहपुरं ११चंपा १२ कंपिल्ल १३ उज्ज्ञ १४ रयणपुरं १५ । तिण्णेव गयपुरंमी १८ मिहिला १९ तह चेव रायगिहं २०॥ ३८३ ॥ मिहिला २१ सोरिअनयर २२ वाणारसि २३ तह य होइ कुंडपुरं। उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥ ३८४ ॥ निगद सिद्धाः॥ भगवतामेव मातृप्रतिपादनायाहमरुदेवि १ विजय २ सेणा ३ सिद्धत्था ४ मंगला ५ सुसीमा ६ य । ॥१६॥ पुहवी ७ लक्खण ८ सामा ९नंदा १०विण्ह ११ जया १२ रामा १३ ॥ ३८५।। सुजसा १४ सुब्बया १५ अइरा १६, सिरी १७ देवी १८ पभावई १९ । पउमावई २० अ वप्पा २१ अ, सिव २२ वम्मा २३ तिसला २४ इअ ॥ ३८६॥ दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भगवत: नगरी, माता, पिता आदिनाम् नाम-निर्देश: ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३८७], भाष्यं [४३...], (४०) प्रत सूत्राक गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥ भगवतामेव पितृप्रतिपादनायाहनाभी१जिअसत्तू २ आ, जियारी ३ संवरे ४ इअ । मेहे ५ धरे ६ पइढे ७ अ, महसेणे ८ अखत्तिए॥३८७) सुग्गीवे ९ दढरहे १० विण्ड ११, चसुपूजे १२ अ अखत्तिए। कयवम्मा १३ सीहसेणे १४ अ, भाणू १५ विससेणे १६ इअ ॥ ३८८।। सूरे १७ सुदंसणे १८ कुंभे १९ सुमित्तु २० विजए २१ समुदविजए २२ अ। राया अ अस्ससेणे २३ सिद्धत्थेऽविय २४ खत्तिए ॥ ३८९॥ | निगदसिद्धाः॥पयायो-गृहस्थादिपर्यायो भगवतामुक्त एव तथैव द्रष्टव्यः। साम्प्रतं भगवतामेव गतिप्रतिपादनायाह सब्वेवि गया भुक्खं जाइजरामरणबंधणविमुका । तित्थयरा भगवंतो सासयसुक्खं निरावाहं ॥ ३९० ॥ | निगदसिद्धा ॥ एवं तावत्तीर्थकरान् अङ्गीकृत्य प्रतिद्वारगाथा व्याख्याता, इदानीं चक्रवर्तिनः अङ्गीकृत्य व्याख्यायते|एतेषामपि पूर्वभववक्तव्यतानिवद्धं पयवनादि प्रथमानुयोगादवसेयं, साम्प्रतं चक्रवर्तिवर्णप्रमाणप्रतिपादनायाह सब्वेवि एगवण्णा निम्मलकणगप्पभा मुणेयब्वा । छक्खंडभरहसामी तेसि पमाणं अओ चुच्छं ।। ३९१ ॥ |पंचसय १ अद्धपंचम २ वायालीसा य अधणुअंच। इगयाल धणुस्सद्धं ४ च चउत्थे पंचमे चत्ता ५॥३९२॥ पणतीसा ६ तीसा ७ पुण अट्ठावीसा ८ य वीसइ ९धणूणि।। पण्णरस १० बारसेव य ११ अपच्छिमो सत्त य धणूणि १२॥ ३९३ ॥ दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~324 ~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१६१॥ निगदसिद्धाः ॥ नामानि प्राक्प्रतिपादितान्येव, साम्प्रतं चक्रवर्त्तिगोत्रप्रतिपादनायाह-ॐ कासवगुत्ता सब्बे चउदसरयणाहिया समक्खाया। देविंदबंदिएहिं जिणेहि जिअरागदोसेहिं ॥ ३९४ ॥ सूत्रसिद्धा । साम्प्रतं चक्रवर्त्यायुष्कप्रतिपादनायाह- %%% “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्तिः [ ३९४], भाष्यं [४३...], Education intol चउरासी १ बावत्तरी अ पुण्वाण सघसहस्साई २ । पंच ३ यतिणि अ ४ एवं च ५ सयसहस्सा उ वासाणं ॥ ३९५ ॥ पंचाणss सहस्सा ६ चउरासीई अ ७ अहमे सठ्ठी ८ । तीसा ९ य दस १० य तिण्णि ११ अ अपच्छिमे सत्तवाससया १२ ।। ३९६ ।। गाथाद्वयं पठित सिद्धम् ॥ इदानीं चक्रवर्त्तिनां पुरप्रतिपादनायाह जम्मण विणीअ १ उज्झा २ सावत्थी ३ पंच हत्थिणपुरंमि ८ । वाणारसि ९ कंपिल्ले १० रायगिहे ११ चैव कंपिल्ले १२ ॥ ३९७ ।। निगदसिद्धा एव ॥ साम्प्रतं चक्रवर्त्तिमातृप्रतिपादनायाह सुमंगला १ जसवई २ भद्दा ३ सहदेवि ४ अइर ५ सिरि ६ देवी ७ । तारा ८ जाला ९ मेरा १० य वप्पमा ११ तह य चूलणी अ ॥ ३९८ ॥ निगदसिद्धा ॥ साम्प्रतं चक्रवर्त्तिपितृप्रतिपादनायाह For Fasten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] चक्रवर्तिनां आयुः, नगरी, माता आदिनाम् नाम-निर्देश: ~325~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा १ | ॥ १६९॥ www.ncbrary.org “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [३९९], भाष्यं [४३...], (४०) 25 % प्रत % सूत्राक उसभे १ सुमित्तविजए २ समुद्दविजए ३ अ अस्ससेणे अ ४। तह वीससेण ५ सूरे ६ सुदंसणे ७ कत्तचिरिए ८ अ ॥ ३९९ ॥ पउमुत्तरे ९ महाहरि १०विजए राया ११ तहेव बंभे १२ अ। ओसप्पिणी इमीसे पिउनामा चक्कबहीणं ।। ४००॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥ पर्यायः केषाश्चित् प्रथमानुयोगतोऽवसेयः, केषाश्चित् प्रत्रज्याऽभावात् न विद्यत एवेति ॥ ४ साम्प्रतं चक्रवर्तिगतिप्रतिपादनायाहअहेच गया मोक्खं सुभुमो बंभो अ सत्तमि पुढविं । मघवं सर्णकुमारो सर्णकुमारं गया कप्पं ॥४०१॥ निगदसिद्धा ॥ एवं तावञ्चक्रवर्मिनोऽप्यधिकृत्य व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, इदानी वासुदेवबलदेवाङ्गीकरणतो व्याख्यायते-एतेषामपि च पूर्वभववक्तव्यतानिवद्धं च्यवनादि प्रथमानुयोगत एवावसेयं, साम्प्रतं वासुदेवादीनां वर्णप्रमाणप्रतिपादनायाहवण्णेण वासुदेवा सब्वे नीला बला य सुक्किलया। एएसि देहमाणं वुच्छामि अहाणुपुठवीए ॥ ४०२॥ पढमो धणूणसी३१ सत्तरि २ सही ३ अ पण्ण ४ पणयाला ५। अउणत्तीसं च धणू ६ छब्बीसा ७ सोलस ८ दसेव ९॥ ४०३ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ नामानि प्रागभिहितान्येव । साम्प्रतं वासुदेवादीनां गोत्रप्रतिपादनायाह *** दीप अनुक्रम FRENCEॐ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१६२॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्ति: [ ४०४], भाष्यं [४३...], Education intimation बलदेववासुदेवा अद्वेष हवंति गोयमसगुप्ता । नारायणपत्रमा पुण कासवगुसा मुणेअब्वा ॥ ४०४ ॥ निगदसिद्धा ॥ वासुदेवबलदेवानां यथोपन्यासमायुःप्रतिपादनायाह सीई १ बिसत्तरि २ सही ३ तीसा य ४ दस ५ य लक्खाई । पण्णडि सहस्साई ६ छप्पण्णा ७ बारसे ८ गं च ९ ॥ ४०५ ॥ पंचासीई १ पण्णत्तरी अ २ पण्णडि ३ पंचवण्णा ४ य । सत्तरस सयसहस्सा ५ पंचमए आउअं होइ ॥ ४०६ ॥ पंचासीइ सहस्सा ६ पण्णठ्ठी ७ तह य वेव पण्णरस ८ । बारस सयाई ९ आउं बलदेवाणं जहासंखं ॥ ४०७ ॥ निगदसिद्धाः ॥ साम्प्रतममीषामेव पुराणि प्रतिपाद्यन्ते - तत्र --- पोअण १ बारवइतिगं ४ अस्सपुरं ५ तह य होइ चपुरं ६ । वाणारसि ७ रायगि ८ अपच्छिमो जाओ महुराए ९ ॥ ४०८ ॥ निगदसिद्धा । एतेषां मातापितृप्रतिपादनायाह- मिगावई १ उमा चैव २, पुहवी ३ सीआ य ४ अम्मया ५ । लच्छीमई ६ सेसमई ७, केगमई ८ देवई ९ इअ ॥ ४०९ ॥ भद्द १ सुभद्दा २ सुप्पभ ३ सुदंसणा ४ विजय ५ वैजयंती ६ अ । तह य जयंती ७ अपराजिआ ८ य तह रोहिणी ९ चैव ॥ ४१० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित वासुदेव बलदेवादिनां आयुः, नगरी, माता आदिनाम् नाम-निर्देश: For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~327~ ॥ १६२॥ wor Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४११], भाष्यं [४३...], (४०) प्रत सूत्राक हवह पयावह १बंभो २ रुहो ३ सोमो ४ सियो ५ महसियो ६अ। अग्गिसिहे ७ अ दसरहे ८ नवमे भणिए अवसुदेवे ९॥४११॥ निगदसिद्धाः॥ एतेषामेव पर्यायवक्तव्यतामभिधित्सुराहपरिआओ पवजाऽभावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ बलाणं सो पुण पढमऽणुओगाओं णायब्वो॥ ४१२॥ निगदसिद्धा एव । एतेषामेव गति प्रतिपादयन्नाह8 एगो अ सत्तमाए पंच य छट्ठी' पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीएं ।। ४१३॥ गमनिका एकश्च सप्तम्यां पश्च च षष्ठयां पञ्चम्यामेकः एकश्च चतुर्थी कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्यां यास्यति गतो वेति| सर्वत्र कियाध्याहारः कार्यः, भावार्थः स्पष्ट एव ॥ ४१३ ॥ बलदेवगतिप्रतिपिपादविषयाऽऽह *बीसभूई । पाइए २ घणदस ३ समुदत्त सेवाले ५ । पिनमित्त सलिममिले ७ पुणवसू गंगदसे ॥१॥ एवाई नामाई पुषभचे मासि बासुदेवाणं । इत्तो बकदेवाणं जहकर्म कित्तइस्लामि ॥ २ ॥ विरसनंदी । सुचती २४ सागरदत्ते ३ असोभ ललिए ५। वाराह धणस्सेणे . भवराइब रायललिए य॥३॥ संभून सुभद २ मुदसणे ३भ सिजंस पह ५ गंगे ६ । सागर समुइनामे ८ वमसेणे ९४ अपरिक्रमे ॥ ॥ एए धम्मावरिमा किचीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुवभवे आसीआ जत्थ निणाइ कासी ॥५॥ महुरा । व कणगवत्थू २ सावधी ३ पोमणं च रायगिहं ५ कावंदी ५ मिहिलावि य. वाणारसि इस्थिणपुरं च ॥ ६॥ गावी जूए संगामे इत्थी पाराइए रंगमि । भनाणुरागगुही परबडी मावगा इभ ॥७॥ महसुका पाणय संतगाव सहसारओ अ माहिंदा । बंभा सोहम्म सर्णकुमार नवमो महामुका ॥ ८॥ तिपणेवणुसरेहिं तिषणेव भवे तहा महासुखा । अवसेसा बलदेवा क्षणंतरं बंमलोगचुभा ॥९॥(म० अण्या०). दीप अनुक्रम SERICA JABERatin intimationa wwwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४१४], भाष्यं [४३...], (४०) आवश्यक ॥१६शा प्रत सुत्रांक अढतगडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पंभि । उबवण्णु तओ चइ सिज्झिस्सइ भारहे वासे ॥ ४१४॥ दहारिभद्रीगमनिका-अष्ट अन्तकृतो रामाः, अन्तकृत इति ज्ञानावरणीयादिकर्मान्तकृतः, सिद्धिं गता इत्यर्थः । एकः पुनःयवृत्तिः ब्रह्मलोककल्ये उत्पत्स्यते उत्पन्नो वेति क्रिया । ततश्च ब्रह्मलोकाच्युस्खा सेत्स्यति मोक्षं यास्यति भारते वर्ष इति गाधार्थः ॥ ४१४ ॥ आह-किमिति सर्वे वासुदेवाः खल्वधोगामिनो रामाश्चोर्ध्वगामिन इति ?, आहअणिआणकडा रामा सव्वेऽवि अ केसवा निआणकडा । उहुंगामी रामा केसव सब्वे अहोगामी ॥ ४१५॥ | गमनिका-अनिदानकृतो रामाः, सर्वे अपि च केशवा निदानकृतः, ऊर्ध्वगामिनो रामाः, केशवाः सर्वे अधोगामिनः ।। भावार्थः सुगमो, नवरं प्राकृतशैल्या पूर्वापरनिपातः 'अनिदानकृता रामाः' इति, अन्यथा अकृतनिदाना रामा इति द्रष्टव्यं, केशवास्तु कृतनिदाना इति गाथार्थः ॥४१५|| एवं तावदधिकृतद्वारगाथा 'जिणचक्किदसाराणमित्यादिलक्षणा प्रपश्वतो व्याख्यातेति । साम्प्रतं यश्चक्रवर्ती वासुदेवो वा यस्मिन् जिने जिनान्तरे वाऽऽसीत् स प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेन जिनान्तरागमनं, तत्रापि तावत्प्रसङ्गत एव कालतो जिनान्तराणि निर्दिश्यन्ते उसमो वरवसभगई ततिअसमापच्छिमंमि कालंमि | उप्पण्णो पढमजिणो भरहपिआ भारहे वासे ॥१॥ ॥१६॥ * सबबलु तत्य भोए, भो अवरोवमा दस व ॥ १॥ तत्तो म चहत्तार्ण इहेब उस्सप्पिणीइ भरह मि । भवसिद्धिमा अभयवं सिजिलस्सइ कहतिथंमि ॥ (सार्चा पाठान्तररूपा). दीप अनुक्रम T andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: जिनानाम् अन्तराणि प्रदर्श्यते ~ 329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्ति: [ ४१५], भाष्यं [४३...], पण्णासा लक्खेहिं कोडीनं सागराण उसभाओ । उप्पण्णो अजिअजिणो ततिओ तीसाऍ लक्खेहिं ॥ २ ॥ जिणवसह संभवाओ दसहि उ लक्खेहि अयरकोडीणं । अभिनंदणो भगवं एवइकालेण उप्पण्णो ॥ ३॥ अभिनंदणात सुमती नवहि उ लक्खेहि अपरकोडीणं । उप्पणी सुहपुणो सुप्पभनामस्स वोच्छामि ॥ ४ ॥ उई य सहस्सेहिं कोडीनं सागराण पुण्णाणं । सुमद्दजिणाउ पडमो एवतिकाले उप्पण्णो ॥ ५ ॥ पउमपहनामाओ नवहि सहस्सेहि अयरकोडीणं । कालेणेबद्द एणं सुपासनामो समुप्पण्णो ॥ ६ ॥ | कोडीसएहि नवहि उ सुपासनामा जिणो समुप्पण्णो । चंदप्यभो पभाए पभासयंतो उ तेलोकं ॥ ७ ॥ उईए कोडीहिं ससीउ सुविहीजिणो समुत्पण्णो । सुविहिजिणाओ नवहि उ कोडीहिं सीअलो जाओ ॥ ८ ॥ सीअलजिणाउ भयवं सिज्जंसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए वरिसेहिं तहा इमेहिं तु ॥ ९ ॥ छब्वीसाऍ सहस्सेहिं चैव छावट्टि सयसहस्सेहिं । एतेहिं ऊणिआ खलु कोडी मग्गिल्लिआ होइ ॥ १० ॥ चडपण्णा अयराणं सिसाओ जिणो उ वसुपुज्जो । वसुपुज्जाओ विमलो तीसहि अयरेहि उप्पण्णो ॥ ११ ॥ Jus Education intimatio For Patenty *% * ~330~ www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४१५...], भाष्यं [४३...], (४०) हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक-दविमलजिणा खप्पणो नवहिं अपरेहिणतइजिणोऽवि । चउसागरनामेहिं अर्णतईतो जिणो धम्मो ॥१२॥ धम्मजिणाओ संती तिहि उ तिचउभागपलिअऊणेहिं । अयरेहि समुप्पण्णो पलिअद्धेणं तु कुंथुजिणो ॥१३॥ पलिअचउभारणं कोडिसहस्सूणएण वासाणं । कुंथूओ अरनामो कोडिसहस्सेण मल्लिजिणो ॥ १४ ॥ मल्लिजिणाओ मुणिसुब्बओ य चउपण्णवासलक्खेंहिं । सुब्वयनामाओं नमी लक्खेहिं छहि उ उप्पण्णो ॥१५॥ पंचहि लक्खेहिं तओ अरिहनेमी जिणो समुप्पण्णो । तेसीइसहस्सेहिं सएहि अमेहिं च ॥१६॥ नेमीओ पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अड्डाइजसएहिं गएहि चरमो समुप्पण्णो॥१७॥ | इयमन्त्र स्थापना-उसभाओ कोडिलक्ख ५० अजिओ, कोडिलक्ख ३० संभवो, कोडिलक्ख १० अभिनंदणो, कोडिलक्स ५ सुमती, कोडीओ नउईओ सहस्सेहिं ९० पउमप्पहो, कोडीनवसहस्सेहिं ९ सुपासो, कोडीनवसपहिं ९ चंदप्पभो, कोडीओ उइओ ९० पुष्पदंतो, कोडीओ णवहि उ ९ सीअलो, कोडीऊणा १०० सा० ६६२६००० वरिसाई सेजंसो, सागरोपमा ५४ वासुपुज्जो, तीससागराई ३० विमलो, सागरोवमाई ९ अणंतो, सागरोवमाई ४ धम्मो, सागरोवमाई ३ अणाई पलिओवमचउभागेहिं तिहिं संती, पलिअद्धं २ कुंथू, पलियचउम्भाओ ऊणओवासकोडीसहस्सेण १ अरो, वासकोडीसहस्सं १ मल्ली, वरिसलक्खचउपण्णा मुणिसुबओ, बरिसलक्ख ६ नमी, वरिसलक्ख ५ अरिहनेमी, परिससहस्सा ८३७५० पासो, वाससयाई २५० वद्धमाणो । जिणंतराई । साम्प्रतं चक्रवर्तिनोऽधिकृत्य जिनान्तराण्येव प्रतिपाद्यन्ते-तत्र दीप अनुक्रम 44 T ॥१६४॥ JABERatinintamational wwwlandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४१६], भाष्यं [४३...], (४०) प्रत सूत्राक उसमे भरहो अजिए सगरो मघवं सर्णकुमारो । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चकवहिदुगं ॥ ४१६ ।। संती कुंथू अ अरो अरहंता चेव चक्कवही अ। अरमल्लीअंतरे उ हवद सुभूमो अ कोरब्वो ॥४१७॥ मुणिसुब्बए नर्मिमि अ हुति दुवे पउमनामहरिसेणा। नमिनेमिसु जयनामो अरिट्टपासंतरे पंभो॥ ४१८॥ इह च असंमोहाथै सर्वेषामेव जिनचक्रवर्त्तिवासुदेवानां यो यस्मिन् जिनकालेऽन्तरे वा चक्रवर्ती वा वासुदेवो वा भवि-18 प्यति बभूव वा तस्य अनन्तरव्यावर्णितप्रमाणायुःसमन्वितस्य सुखपरिज्ञानार्थमयं प्रतिपादनोपाय: बत्तीसं घरयाई काऊं तिरियायताहिं रेहाहि । उड्डाययाहिं कार्ड पंच घराई तओ पढमे ॥ १॥ पन्नरस जिण निरन्तर सुण्णदुर्ग ति जिण सुण्णतियगं च । दो जिण सुण्ण जिणिदो सुण्ण जिणो सुण्ण दोण्णि जिणा ॥२॥ वितियपतिठवणा-दो चक्कि सुण्ण तेरस पण चकि सुण्ण चक्कि दो सुण्णा । चक्कि सुण्ण दुचकी सुण्णं चकी दु सुण्णं च ॥३॥ ततियपंतिठवणा-दस मुण्ण पंच केसव पण सुपणं केसि सुण्ण केसी य । दोसुण्ण केसवोऽवि य सुण्णदुर्ग केसब ति सुण्णं ॥४॥ प्रमाणान्यायूंषि चामीषां प्रतिपादितान्येव । तानि पुनर्यथाक्रमं ऊर्ध्वायतरेखाभिरधोधोगृहद्वये स्थापनीयानीति । तत्र इयं स्थापना साम्प्रतं प्रदर्श्यते दीप अनुक्रम dancinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~332 ~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४१८], भाष्यं [४३...], (४०) आवश्यक पूर्वलक्षाः हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१६॥ PK सूत्रांक विष्टः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंह दीप अनुक्रम भरती मघवान : निरकुमार शान्ति ॥१६॥ ऋषभः अजितः ElehatanjR सुमतिः पभमभा सुपावः चन्द्रप्रभः सुविधिः कीतकः श्रेयांसः वासुपूज्य: विमला अनन्तः धर्मः E JABERatinintamational nangionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४१८], भाष्यं [४३...], (४०) प्रत टा सूत्राक SC उक्तसम्बन्धगाथात्रयगमनिका-ऋषभे तीर्थकरे भरतश्चक्रवर्ती, तथा अजिते तीर्थकरे सगरश्चक्रवर्ती भविष्यति एवं। तीर्थकरोकानुवादः, सर्वत्र भविष्यकालानुरूपः क्रियाध्याहारः कार्यः, त्रिकालसूत्रप्रदर्शनार्थो वा भूतेनापि न दुष्यति, तथा चावोचत्--'मघवा सणंकुमारो सणंकुमारं गया कप्पं' इत्यादि । एवं सर्वत्र योज्यमिति । मघवान् सनत्कुमारश्च एतच्चक्रवर्तिद्वयं धर्मस्य शान्तेश्च अनयोरन्तरं तस्मिन् जिनान्तरे चक्रवर्तिद्वयं भविष्यत्यभवद्वेति गाथार्थः ॥ द्वितीयगाथागमनिका-शान्तिः कुन्धुश्चारः, एते त्रयोऽप्यशोकाद्यष्टमहाप्रातिहादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तश्चैव चक्रवर्त्तिनश्च, तथा अरमहयन्तरे तु भवति सुभूमश्च कौरव्या,तुशब्दोऽन्तरविशेषणे, नान्तरमात्रे, किन्तु पुरुषपुण्डरीकदत्तवासुदेवद्वयमध्यइति गाथार्थः॥ तृतीयगाथागमनिका-मुनिसुव्रते तीर्थकरे नमौ च भवतः द्वौ, की द्वो?, पद्मनाभहरिषेणी 'नमिनेमिसु जयनामो अरिङपासंतरे बंभो' त्ति नमिश्च नेमी च नमिनेमिना, अन्तरग्रहणमभिसंवध्यते, ततश्च नमिनेम्यन्तरे जयनामाVIऽभवत्, अरिष्टग्रहणाद अरिष्टनेमिः, पाश्चेति पार्श्वस्वामी, अनयोरन्तरे ब्रह्मदत्तो भविष्यत्यभवति गाथार्थः । ॥ ४१६-४१७-४१८ ॥ इदानीं वासुदेवो यो यत्तीर्थकरकालेऽन्तरे वा खल्वासीत् असौ प्रतिपाद्यते पंचरहते वदंति केसवा पंच आणुपुब्वीए । सिजंस तिविहाई धम्म पुरिससीहपेरता ॥ ४१९ ॥ अरमल्लिअंतरे दुपिण केसवा पुरिसपुंडरिअदत्ता । मुणिमुव्वयनमिअंतरि नारायण कण्हु नेमिमि ॥ ४२० ॥ गमनिका-पञ्च अर्हतः वन्दन्ते केशवाः, एतदुक्तं भवति-पञ्च केशवा अर्हतो वन्दन्ते, वन्दन्त इत्येतेषां सम्यक्त्वख्यापनार्थमिति । कियन्तोऽर्हन्तः ? किमेकः द्वौ त्रयो वा ?, नेत्याह-'पंच' पञ्चेति पश्चैव, किं यथाकथञ्चित् ? दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४२०], भाष्यं [४३...], (४०) आवश्यक- ॥१६॥ प्रत सूत्राक नेत्याह-आनुपूर्त्या परिपाख्या 'सिजंस तिविछाई धम्म पुरिससीहपेरंता' श्रेयांसादीन त्रिपृष्ठादयः धर्मपर्यन्तान् पुरुष- हारिभद्रीसिंहपर्यन्ता इति, वन्दन्त इति शास्त्रकारवचनत्वात् वर्तमाननिर्देशः, पाठान्तरं वा 'पंचऽरिहंते वंदिसु केसया' इत्यादि यवृत्तिः गाधार्थः ॥ द्वितीयगाथागमनिका-अरश्च मल्लिश्च अरमल्ली तयोरन्तरम्-अपान्तरालं तस्मिन् , द्वौ केशवौ भविष्यतः, विभागा१ को द्वौ इत्याह-पुरुषपुण्डरीकदत्तौ 'मुणिसुबयणमिअंतरे णारायणो' त्ति मुनिसुव्रतश्च नमिश्च मुनिसुव्रतनमी तयोरन्तरं मुनिसुव्रतनम्यन्तरं तस्मिन् नारायणो नाम वासुदेवो भविष्यति अभवद्वा । तथा 'कण्हो ये नेमिंमि'त्ति कृष्णाभिधान-IX चरमो वासुदेवो नेमितीर्थकरे भविष्यति बभूव वेति गाथार्थः॥४१९-४२० ॥ एवं तावत् चक्रवत्तिनो वासुदेवाश्च यो यजिनकाले अन्तरे वा स उक्तः, साम्प्रतं चक्रवर्तिवासुदेवान्तराणि प्रतिपादयन्नाहचिकिदुगं हरिपणगं पणगं चकीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥ ४२१॥ । गमनिका-प्रथममुक्तलक्षणकाले चक्रवर्तिद्वयं भविष्यति अभवद्वा, ततखिपृष्ठादिहरिपश्चर्क, पुनः पञ्चकं मघवादीनां चक्रवर्तिनां, पुनः पुरुषपुण्डरीकः केशवः, ततः सुभूमाभिधानश्चक्रवर्ती, पुनर्दत्ताभिधानः केशवः, पुनः पद्मनामा चक्रवत्येव, पुनर्नारायणाभिधानः केशवः, पुनः हरिषेणजयनामानौ द्वौ चक्रवर्तिनौ, पुनः कृष्णनामा केशवः, पुनब्रह्मदत्वाभिधानश्चक्रवर्तीति, क्रियायोगः सर्वत्र प्रथमपदवद् द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ ४२१ ॥ उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतं १६६॥ प्रस्तुमः-तत्र यदुक्तम् 'तित्थगरो को इहं भरहे!' त्ति तब्याचिख्यासयाऽऽह-मूलभाष्यकार: 'कण्ड (इति स्वास्). दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Education শ ভও “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [४२१], भाष्यं [४४ ], अह भगह नरवरिंदो ताय ! इमीसित्तिआइ परिसाए । अण्णोऽवि कोऽवि होही भरहे वासंमि तित्थयरो ? ॥ ४४ ॥ ( सू० भा० ) गमनिका - अत्रान्तरे अथ भणति नरवरेन्द्रः- तात ! अस्था एतावत्याः परिषदः अन्योऽपि कश्चिद् भविष्यति तीर्थकरोऽस्मिन् भारते वर्षे १, भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थः ॥ तस्थ मरीईनामा आइपरिव्वायगो उसभनन्ता। सज्झायाणजुत्तो एगंते झायह महत्या ॥ ४२२ ॥ गमनिका - 'तत्र' भगवतः प्रत्यासन्ने भूभागे मरीचिनामा आदी परिव्राजक आदिपरिव्राजकः प्रवर्त्तकत्वात्, ऋषभ नप्ता - पौत्रक इत्यर्थः । स्वाध्याय एवं ध्यानं स्वाध्यायध्यानं तेन युक्तः, एकान्ते ध्यायति महात्मेति गाथार्थः ॥ ४२२ ॥ तं दाइ जिनिंदो एव नरिंद्रेण पुच्छिओ संतो। धम्मवरचक्कवही अपच्छिमो वीरनामुक्ति ॥ ४२३ ॥ गमनिका - भरतपृष्टो भगवान् 'तं' मरीचिं दर्शयति जिनेन्द्रः, एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् धर्मवरचक्रवर्ती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यति इति गाथार्थः ॥ ४२३ ॥ आइगरु दसाराणं तिवि नामेण पोअणाहिवई । पिअमित्तचकवट्टी मूआइ विदेहवासंमि ॥ ४२४ ॥ गमनिका - आदिकशे दशाराणां त्रिपृष्ठनामा पोतना नाम नगरी तस्या अधिपतिः भविष्यतीति क्रिया । तथा प्रियमित्रनामा चक्रवतीं मूकायां नगर्यो 'विदेहवासंमित्ति महाविदेहे भविष्यतीति गाथार्थः ॥ ४२४ ॥ तं वयणं सोडणं राया अंचियतणूरुहसरीरो । अभिवंदिऊण पिअरं मरीइमभिवंदओ जाइ ।। ४२५ ।। For Farina Pts at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मरीचि, तस्य कुलमद-प्रसंग: ~ 336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४२५], भाष्यं [४४], (४०) आवश्यक ॥१६७|| प्रत सुत्रांक गमनिका 'तद्वचनं तीर्थकरवदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अश्चितानि तनूरुहाणि-रोमाणि शरीरे यस्य स तथाविधः हारिभद्रीअभिवन्द्य 'पितरं तीर्थकर मरीचिं अभिवन्दिष्यत इत्यभिवन्दको याति । पाठान्तरं वा 'मरीइमभिवंदिउँ जाइत्तियत्तिः मरीचिं याति किमर्थम् -अभिवन्दितुं-अभिवन्दनायेत्यर्थः, यातीति वर्तमानकालनिर्देशः त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थ विभागः१ इति गाथार्थः ॥ ४२५ ॥ सो विणएण उवगओ काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। वंदर अभित्थुर्णतो इमाहि महराहि वग्गृहि ॥४२६॥ गमनिका-'सः' भरतः विनयेन-करणभूतेन मरीचिसकाशमुपागतः सन् कृत्वा प्रदक्षिणं च 'तिक्खुत्तो'त्ति त्रिकृत्वः तिम्रो वारा इत्यर्थः, वन्दते अभिष्टुवन एताभिः 'मधुराभिः' वल्गुभिः वाग्भिरिति गाथार्थः ॥ ४२६ ॥ लाहा हु ते सुलहा जंसि तुम धम्मचक्कबहीणं । होहिसि दसचउदसमो अपच्छिमो चीरनामुत्ति ॥ ४२७ ॥ | गमनिका-'लाभा' अभ्युदयप्राप्तिविशेषाः, हुकारो निपातः, स चैवकारार्थः, तस्य च व्यवहितः संबन्धः, 'ते' तव सुलब्धा एव, यस्मात् त्वं धर्मचक्रवर्तिना भविष्यसि 'दशचतुर्दशमः' चतुर्विंशतितम इत्यर्थः, अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः ॥ ४२७ ॥ तथा आइगरु० (४२१) पूर्ववत् ज्ञेया । एकान्तसम्यग्दर्शनानुरञ्जितहृदयो भावितीर्थकरभक्त्या च तमभिवन्दनायोधतो भरत एवाह ॥१६७॥ *मुपगतः दीप अनुक्रम Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४२८], भाष्यं [४४], (४०) प्रत सूत्राक SC हैणावि अ पारिब्वज वंदामि अहं इमं व ते जम्मं । जे होहिसि तिस्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥ ४२८ ॥ | गमनिका नापि च परिव्राजामिदं पारिबाज बन्दामि अहं इदं च ते जन्म, किन्तु यविष्यसि तीर्थकरः अपश्चिमः तेन वन्दे इति गाथार्थः ॥ ४२८ ॥ तथाएवण्हं थोऊणं काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो । आपुच्छिऊण पिअर विणीअणगरि अह पविट्ठो ॥४२९ ॥ गमनिका-एवं स्तुत्वा 'हमिति निपातः पूरणार्थो वर्त्तते, कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिकृत्वः आपृच्छय 'पितरं' ऋषभदेवं 'विनीतनगरी अयोध्या 'अथ' अनन्तरं प्रविष्टो भरत इति गाथार्थः ॥ ४२९ ॥ अत्रान्तरेतब्वपर्ण सोऊणं तिषई आप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अन्भहिअजायहरिसो तस्थ मरीई इमं भणह॥४३॥ गमनिका-तस्य-भरतस्य वचनं तद्वचनं श्रुत्वा तत्र मरीचिः इदं भणतीति योगः, कथमित्यत आह-त्रिपदी दत्त्वा, रङ्गमध्यगतमल्लवत्, तथा आस्फोव्य त्रिकृत्व:-तिम्रो वारा इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् इत्यत आह-अभ्यधिको जातो हों दायस्येति समासः, तत्र स्थाने मरीचिः 'इदं वक्ष्यमाणलक्षणं भणति, वर्त्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ ४३० ।। जह वासुदेवु पदमो मूआइ विदेहि चकवहितं । चरमो तित्थयराणं हो अलं इत्ति मज्झ ।। ४३१॥ गमनिका-यदि वासुदेवः प्रथमोऽहं मूकायां विदेहे चक्रवर्तित्वं प्राप्स्यामि, तथा 'चरमः पश्चिमः तीर्थकराणां४ भविष्यामि, एवं तर्हि भवतु एतावन्मम, एतावतैव कृतार्थ इत्यर्थः, 'अलं' पर्याप्तं अन्येनेति । पाठान्तरं वा 'अहो भए एत्ति ल ' ति गाथार्थः ॥ ४३१ ॥ दीप अनुक्रम T JAMERatinintamational Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४३२], भाष्यं [४४...], (४०) आवश्यक ॥१६॥ प्रत सुत्राक अहयं च दसाराणं पिभा य मे चक्कवहिवंसस्स । अजो तित्थयराणं, अहो कुलं उत्तम मज्झ ॥ ४३२॥ हारिभद्री गमनिका-अहमेव, चशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, किम् , दशाराणां प्रथमो भविष्यामीति वाक्यशेषः, पिता च 'मे' मम नायवृत्तिः चक्रवर्तिवंशस्य प्रथम इति क्रियाऽध्याहारः । तथा 'आर्यकः' पितामहः स तीर्थकराणां प्रथमः, यत एवं अतः 'अहो विभागः१ विस्मये कुलमुत्तमं ममेति गाथार्थः ॥ ४३२ ॥ पृच्छाद्वारं गतम् , इदानीं निर्वाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहअह भगवं भवमहणो पुख्वाणमणूणगं सयसहस्सं अणुपुचि विहरिऊर्ण पत्तो अडावयं सेलं ॥४३३ ॥ । गमनिका-अथ भगवान् भवमथनः पूर्वाणामन्यून शतसहनं आनुपूर्ध्या विहृत्य प्राप्तोऽष्टापदं शैलं, भाषार्थः सुगम एवेति गाथार्थः ॥ ४३३ ॥ अट्ठावयंमि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीणं । दसहि सहस्सेहि समं निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४॥ गमनिका-अष्टापदे शैले चतुर्दशभक्तेन स महर्षीणां दशभिः सहस्रैः समं निर्वाणमनुत्तर प्राप्तः । अस्या अपि भावार्थः सुगम एव, नवरं चतुर्दशभक्तं-परात्रोपवासः । भगवन्तं चाष्टापदप्राप्त अपवर्गजिगमिधु श्रुत्वा भरतो दुःखसंतप्तमानसः पद्यामेव अष्टापदं ययौ, देवा अपि भगवन्तं मोक्षजिगमिथु ज्ञात्वा अष्टापदं शैलं दिव्यविमानारूढाः खलु आगतवन्तः, | उकं च 'भगवति मोक्षगमनायोद्यते-जाव य देवावासो जाव य अडावो नगवरिंदो। देवेहि य देवीहि य अविरहियं ॥१५॥ CAR दीप अनुक्रम *जारिसयेत्यत आरभ्य अन्तरा बिहाथैकादश सर्वा अपि भाष्यगाथा इति कस्यचिदभिप्रायः. JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४३४], भाष्यं [४४...], (४०) प्रत सूत्राक संचरतेहिं ॥१॥" तत्र भगवान् त्रिदशनरेन्द्रैः स्तूयमानो मोक्षं गत इति गाथार्थः ॥ ४३४ ॥ साम्प्रतं निर्वाणगमनविधिप्रतिपादनाय एनां द्वारगाथामाहनिब्वाणं१चिइगागिई जिणस्स इक्खागसेसयार्ण चर।सकहाश्थूभ जिणहरे४ जायगश्तेणाहिअग्गित्ति ६४३५ | व्याख्या-'निर्वाणमिति' भगवान् दशसहस्रपरिवारो निर्वाणं प्राप्तः, अत्रान्तरे च देवाः सर्व एवाष्टापदमागताः । 'चितिकाकृतिरिति' ते तिस्रः चिता वृत्तव्यम्रचतुरस्राकृतीः कृतवन्तः इति, एका पूर्वेण अपरां दक्षिणेन तृतीयामपरेणेति, तत्र पूर्वा तीर्थकृतः दक्षिणा इक्ष्वाकूणां अपरा शेषाणामिति, ततः अग्निकुमाराः वदनैः खलु अग्निं प्रक्षिप्तवन्तः, तत एव निबन्धनालोके 'अग्निमुखा वै देवाः' इति प्रसिद्ध, वायुकुमारास्तु वातं मुक्तवन्त इति, मांसशोणिते च ध्यामिते सति मेघ| कुमाराः सुरभिणा क्षीरोदजलेन निर्वापितवन्तः। 'सकथेति' सकथा-हनुमोच्यते, तत्र दक्षिणां हनुमां भगवतः संबन्धिनी शको जग्राह वामामीशानः आधस्त्यदक्षिणां पुनश्चमरः आधस्त्योत्तरां तु बलिः, अवशेपास्तु त्रिदशाः शेषाङ्गानि गृही-13 तवन्तः, नरेश्वरादयस्तु भस्म गृहीतवन्तः, शेषलोकास्तु तदस्मना पुण्डूकाणि चक्रुः, तत एव च प्रसिद्धिमुपागतानि । 'स्तूपा जिनगृहं चेति' भरतो भगवन्तमुद्दिश्य वर्धकीरलेन योजनायाम त्रिगव्यूतोच्छ्रितं सिंहनिषद्यायतनं कारितवान्, |निजवर्णप्रमाणयुक्ताः चतुर्विंशति जीवाभिगमोक्तपरिवारयुक्ताः तीर्थकरप्रतिमाः तथा भ्रातृशतप्रतिमा आत्मप्रतिमां च स्तूपशतं च,मा कश्चिद् आक्रमणं करिष्यतीति, तत्रैकां भगवतः शेषान् एकोनशतस्य भ्रातृणामिति, तथा लोहमयान यन्त्र| पुरुषान् तद्वारपालांश्चकार, दण्डरलेन अष्टापदं च सर्वतश्छिन्नवान्, योजने योजने अष्टौ पदानि च कृतवान् , सगरसुतैस्तु दीप अनुक्रम WATonmitraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: जिनेश्वरस्य निर्वानगमनविधि: कथयते ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४३५], भाष्यं [४४...], (४०) आवश्यक हारिभद्री यवृत्तिः विभागा१ ॥१६॥ प्रत 2 सुत्रांक स्ववंशानुरागाद्यथा परिखां कृत्वा गङ्गाऽवतारिता तथा ग्रन्थान्तरतो विज्ञेयमिति । 'याचकास्तेनाहिताग्नयः' इत्यस्य व्याख्या- देवैर्भगवत्सकथादौ गृहीते सति श्रावका देवान् अतिशयभक्त्या याचितवन्तः, देवा अपि तेषां प्रचुरत्वात् महता यलेन याचनाभिद्रुता आहुः-अहो याचका अहो याचका इति, तत एव हि याचका रूढाः, ततोऽग्निं गृहीत्वा स्वगृहेषु स्थापितवन्तः, तेन कारणेन आहिताग्नय इति तत एव च प्रसिद्धाः, तेषां चाग्नीनां परस्परतः कुण्डसंक्रान्तावयं विधिःभगवतः संबन्धिभूतः सर्वकुण्डेषु संचरति, इक्ष्वाकुकुण्डाग्निस्तु शेषकुण्डाग्निषु संचरति, न भगवत्कुण्डाग्नौ इति, शेषानगारकुण्डाग्निस्तु नान्यत्र संक्रमत इति गाधाः ।। ४३५ ॥ साम्प्रतमप्रतिहतद्वारगाथाया द्वारद्वयव्याचिख्यासया मूलभाष्यकार आह थूभसय भाउगाणं चउचीसं चेव जिणहरे कासी। सव्वजिणाणं पडिमा वण्णपमाणेहिं निअएहिं ।। ४५॥ (मू०भा०) गमनिका-स्तूपशतं भ्रातॄणां भरतः कारितवान् इति, तथा चतुर्विंशतिं चैव जिनगृहे-जिनायतने (नानि) 'कासीति' कृतवान् , का इत्याह-सर्वजिनानां प्रतिमा वर्णप्रमाणः 'निजैः' आत्मीयैरिति गाथार्थः । साम्प्रतं भरतवक्तव्यतानिवद्धां संग्रहगाथां प्रतिपादयन्नाह आयंसघरपचेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य ॥ ४३६ ॥ अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-भगवतो निवाणं गयस्स आययणं काराविय भरहो अउज्झमागओ, कालेण भगवतो निर्वाणं गतस्य आयतनं कारयित्वा भरतोऽयोध्यामागतः, कालेन. 0 दीप -%20-% अनुक्रम ॥१६॥ X JAMERatani मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भरत चक्रे: केवलज्ञान-वक्तव्यता ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३५], भाष्यं [४५], (४०) प्रत सूत्राक % % ये अप्पसोगो जाओ, ताहे पुणरवि भोगे भुंजिउं पवत्तो, एवं तस्स पंच पुषसयसहस्सा अइकता भोगे भुजंतस्स, अन्नया कयाइ सबालंकारभूसिओ आयसघरमतिगतो, तत्थ य सबंगिओ पुरिसो दीसइ, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलिजयं पडियं, तं च तेण न नायं पडियं, एवं तस्स पलोयंतस्स जाहे सा अंगुली दिहिंमि पडिया, ताहे असोभतिआ दिवा, ततो कड़गंपि अवणेइ, एवमेकेकमवणेतेण सधमाभरणमवणीअं, ताहे अप्पाणं उच्चियपउमं व पउमसरं असोभतं पेच्छिय संवेगावण्णो परिचिंति पयत्तो-आगंतुगदबेहिं विभूसियं मे सरीरगति न सहावसुंदरं, एवं चिन्तन्तस्स अपुषकरणज्झाणमुवडिअस्स केवलनाणं समुप्पणति । सको देवराया आगओ भणति-दवलिंग पडिवजह, जाहे निक्खमणमहिमं । करेमि, ततो तेण पंचमुडिओ लोओ कओ, देवयाए रओहरणपडिग्गहमादि उवगरणमुवणीअं, दसहिं रायसहस्सेहिं समं पचइओ । सेसा नव चक्किणो सहस्सपरिवारा निक्खंता । सक्केण वंदिओ, ताहे भगवं पुबसयसहस्स केवलिपरियागं पाउ चाल्पशोको जातः , तदा पुनरपि भोगान् भोक्तुं प्रवृत्तः, एवं तस्य पञ्च पूर्वशतसहस्राणि अतिक्रान्तानि भोगान् भुतानस्य, अन्पदा कदाचित् | सर्वालङ्कारविभूषित भादर्शगृहमतिगतः, तत्र च सर्वाशिका पुरुषो दृश्यते, तस्वैवं प्रेक्षमाणस्वानुलीयकं पतितं, तच तेन न ज्ञातं पतितं, एवं तस्य प्रलोकमानख यदा साङ्गुलिष्टी पतिता, तदाऽशोभमाना टा, ततः कटकमपि अपनपति, एवमेकैकमपनयता सर्वमाभरणमपनीतं, तदाऽऽरमानं उचितपर्म इव पनसरः अशोभमान प्रेक्ष्य संवेगापनः परिचिन्तितुं प्रवृत्तः-आगन्तुकयैः विभूषितं मे शरीस्कमिति न स्वभावसुन्दरम् , एवं चिन्तयतः अपूर्वकरणध्यानमुपस्थितस्य केवलज्ञानं समुत्पामिति । शक्रो देवराज आगतो भगति-वन्यलिङ्गं प्रतिपद्यस्व, यतः निष्कमणमहिमानं करोमि, ततस्तेन पञ्चमुष्टिका लोचः कृतः, देवतया रजोहरणप्रतिमहादि उपकरणमुपनीतं, दशभिः राजसहस्रैः समं प्रवाजितः। शेषा नव चक्रिणः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ताः । शक्रेण वन्दितः, तदा भगवान् पूर्वशतसहस्र केचलिपर्याय पालयित्वा । दीप %90% अनुक्रम 4 JAMERatandi ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४३६], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-णिचा परिणिधुडो य । आइञ्चजसो सक्केणाभिसित्तो, एवमट्टपुरिसजुगाणि अभिसित्ताणि । उक्तो भावा(गाथा)र्थः, साम्प्रतम- हारिभद्री क्षरगमनिका-आदर्शकगृहे प्रवेशः, कस्य? 'भरहेत्ति' भरतस्य प्राकृतशैल्या षष्ट्या सप्तमी, तथा पतनं चाङ्गुलीयस्य वभूव, | | यवृत्तिः ॥१७॥ शेषाणां कटकादीनां तून्मोचनं अनुष्ठितं, ततः संवेगः संजातः, तदुत्तरकालं ज्ञानमुत्पन्नमिति, दीक्षा च तेन गृहीता, चशब्दा-1 विभागः१ निर्वृत्तश्चेत्यक्षरार्थः ॥४३६॥ उक्तमानुषङ्गिकं इदानीं प्रकृतां मरीचिवक्तव्यतां पृच्छतां कथयतीत्यादिना प्रतिपादयति-तत्र पुच्छताण कहेइ उपट्टिए देइ साहुणो सीसे । गेलन्नि अपडिअरणं कविला इत्यपि इहयंपि ॥ ४३७॥ गमनिका-पृच्छतां कथयति, उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यान् , ग्लानवे अप्रतिजागरणं कपिल ! अत्रापि इहापि। भावार्थ:-स हि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो मरीचिः भगवति निवृत्ते साधुभिः सह विहरन् पृच्छतां लोकानां कथयति धर्म, जिनप्रणीतमेव, धर्माक्षिप्तांश्च प्राणिन उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यानिति । अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः, साधवोडप्यसंयतत्वान्न प्रतिजाग्रति, स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः खलु एते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान् कारयितुं युज्यते, तस्मात् कञ्चन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति, अपगतरोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्मशुश्रूपया तदन्तिकमागत इति, कथिते साधुधर्मे स आह-यद्ययं मार्गः किमिति भवता एतदङ्गीकृतम् ?, मरीचिराह-पापोऽहं, 'लोएंदियेत्यादिविभाषा| पूर्ववत्, कपिलोऽपि कर्मोदयात् साधुधर्मानभिमुखः खल्वाह-तथापि किं भवद्दर्शने नास्त्येव धर्म इति, मरीचिरपि ९७०॥ प्रचुरकर्मा खल्वयं न तीर्थकरोक्तं प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत्त इति संचिन्त्याह-कबिला एत्थंपित्ति' अपिशब्दस्यैव कारार्थत्वात् निरुपचरितः खल्वत्रैव साधुमार्गे 'इहयंपित्ति' स्वल्पस्तु अत्रापि विद्यते इति गाथार्थः ॥ ४३७॥ स ह्येवमाII परिनितम्ब । मादित्ययशाः शक्रेणाभिषिक्तः, एवमपुरुषयुगान्यभिषिक्तानि । दीप अनुक्रम T wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४३७], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सूत्राक कर्ण्य तत्सकाश एवं प्रव्रजितः, मरीचिनाऽप्यनेन दुर्वचनेन संसारोऽभिनिवर्तितः, त्रिपदीकाले च नीचैर्गोत्रं कर्म बद्धमिति ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाइ दुम्भासिएण इक्केण मरीई दुक्खसायरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं सागरसरिनामधेनाणं ।। ४३८॥ तम्मूलं संसारो नीआगोत्तं च कासि तिवइंमि । अपडिकतो बंभे कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३९ ॥ प्रथमगाथागमनिका-'दुर्भाषितेनैकेन उक्तलक्षणेन मरीचिर्दुःखसागरं प्राप्तःभ्रान्तः कोटीना कोटी कोटीकोटी तां, केषादमित्याह-'सागरसरिनामधेजाणंति' सागरसदृशनामधेयानां, सागरोपमाणामिति गाथार्थः। द्वितीयगाथागमनिका-'तन्मूल'दु भाषितमूलं संसारः संजातः, तथा स एव नीचर्गोत्रं च कृतवान्-निष्पादितवान् त्रिपद्यां' प्राग्व्यावर्णितस्वरूपायामिति । 'अप-| ४ाडिकंतो बभेत्ति' स मरीचिः चतरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् दुर्भाषितात् गर्वाच्च 'अप्रतिकान्तः' अनि वृत्तः ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिः देवः संजात इति। कपिलोऽपि ग्रन्धार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितक्रियारतो विजहार, आसुरिनामा च शिष्योऽनेन प्रबाजित इति, तस्य स्वाचारमात्रंदिदेश, एवमन्यानपि शिष्यान् स गृहीत्वा शिष्यप्रवचनानुराग. तत्परो मृत्वा ब्रह्मलोक एवोत्पन्नः, स ह्युत्पत्तिसमनन्तरमेव अवधि प्रयुक्तवान्-किं मया हुतं वा ? इष्टं वा ? दानं वा दत्तं ? &ायनेषा दिव्या देवर्द्धिः प्राप्क्षेति, खं पूर्वभवं विज्ञाय चिन्तयामास-ममहि शिष्यो न किञ्चिद्वेत्ति, तत्तस्य उपदिशामि तत्त्व[मिति, तस्मै आकाशस्थपश्चवर्णमण्डलकस्थः तत्त्वं जगाद, आह च-कपिलो अंतद्धिओ कहए' कपिलः अन्तर्हितः कथितवान्, किम् ?-अव्यक्तात् व्यकं प्रभवति, ततः षष्टितन्त्रं जातं, तथा चाहुस्तन्मतानुप्तारिणः-"प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कार दीप अनुक्रम JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | भगवत् महावीरस्य पूर्व-भावानाम् कथनं ~344 ~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४३९], भाष्यं [४५...], (४०) प्रदी हारि यवृत्तिः विभाग:१ प्रत सुत्रांक आवश्यक स्तस्माद्गणश्च पोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥१॥" इत्यादि, अलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः दि इति गाथार्थः ॥ ४३८-४३९ ॥ ॥१७॥ इक्खागेसु मरीई चउरासीई असंभलोगमि । कोसिउ कुल्लागंमी (गेसुं) असीइमाउं च संसारे ॥ ४४०॥ गमनिका-इश्वाकुषु मरीचिरासीत्, चतुरशीतिं च पूर्वशतसहस्राण्यायुष्क पालयित्वा 'बंभलोयंमि' ब्रह्मलोके कल्पे देवः संवृत्तः, ततश्चायुष्कक्षयाचयुत्वा 'कोसिओ कुल्लाएसुन्ति' कोल्लाकसंनिवेशे कौशिको नाम ब्राह्मणो बभूव, 'असीइमाउँ |च संसारेत्ति' स च तत्राशीतिं पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमनुपाल्य 'संसारेत्ति' तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे पर्यटित इति | गाथार्थः ।।४४०॥ संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा स्थूणायां नगर्या जात इति, अमुमेवार्थ 'थूणाईत्यादिना प्रतिपादयति थूणाइ पूसमित्तो आउं बावत्तरिं च सोहम्मे । चेइअ अग्गिजोओ चोवडीसाणकप्पमि ॥ ४४१॥ । व्याख्या-स्थूणायां नगर्या पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः संजातः 'आउं बावत्तरि सोहम्मेति तस्यायुष्क द्विसप्ततिः पूर्वशतसहस्राण्यासीत्, परिव्राजकदर्शने च प्रवज्यां गृहीत्वा तां पालयित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्मे कल्पे अजधन्योत्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति । 'चेइअ अग्गिजोओ चोवठ्ठीसाणकप्पमीति' सौधर्माच्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निद्योतो ब्राह्मणः संजातः, तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीत्, परित्राट् च संजातो, मृत्वा चेशाने देवोऽजघन्योत्कृष्टहै स्थितिः संवृत्त इति गाथार्थः ।। ४४१॥ दीप अनुक्रम SANG ॥१७॥ JABERatinintamational wwwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४२], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सूत्राक मंदिरे अग्गिभूई छप्पण्णा उ सणकुमारंमि । सेअवि भारद्दाओ चोआलीसं च माहिदें ॥ ४४२॥ गमनिका-ईशानाञ्चयुतो 'मन्दिरेत्ति' मन्दिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राह्मणो बभूव, तत्र षट्पञ्चाशत् पूर्वशतसह8 स्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्च बभूव, मृत्वा 'सर्णकुमारमीति' सनत्कुमारकल्पे बिमध्यमस्थितिर्देवः समुत्पन्न इति । 'सेअवि भारदाएँ चोआलीसं च माहिंदेत्ति' सनत्कुमारात् च्युतः श्वेतब्यां नगर्या भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्न | इति, तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूर्वशतसहस्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्चाभवत् , मृत्वा च माहेन्द्रे कल्पेऽजघन्योत्कृस्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः ॥ ४४२॥ संसरिअ थावरो रायगिहे चउतीस यंभलोगंमि । छस्सुवि पारिव्वजं भमिओ तत्तो अ संसारे ॥ ४४३॥ गमनिका-माहेन्द्रात् श्युत्वा संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे ततः स्थावरो नाम ब्राह्मणो राजगृहे उत्पन्न इति, तत्र च चतुस्त्रिंशत् पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं परिव्राजकश्चासीत्, मृत्वा च ब्रह्मलोकेऽजघन्योत्कृष्ठस्थितिर्देवः संजातः, एवं षट्स्वपि वारासु परिबाजकत्वमधिकृत्य दिवमाप्तवान् । 'भमिओ तत्तो अ संसारे' ततो ब्रह्मलोकाफ्युत्वा भ्रान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति गाथार्थः ॥ ४४४ ॥ रायगिह विस्सनंदी विसाहभूई अ तस्स जुवराया। जुवरण्णो विस्सभूई विसाहनंदी अ इअरस्स ॥ ४४४ ॥ रायगिह विस्सभूई विसाहभूइसुओ खत्तिए कोडी। वाससहस्सं दिक्खा संभूअजइस्स पासंमि ॥ ४४५ ॥ * ओ. दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], (४०) आवश्यक ॥१७॥ हारिभद्री यवृत्तिः |विभागः१ प्रत भावार्थः खल्वस्य गाथाद्वयस्य कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-रायगिहे नयरे विस्सनंदी राया, तस्स भाया विसाहभूई, सोय जुवराया, तस्स जुवरण्णो धारिणीए देवीए विस्सभूई नाम पुत्तो जाओ, रण्णोऽवि पुत्तो विसाहनंदित्ति, तत्थ विस्स- भूइस्स वासकोडी आऊ, तत्थ पुष्फकरंडकं नाम उज्जाणं, तत्थ सो विस्सभूती अंतेउरवरगतो सच्छंदसुहं पवियरइ, ततो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीसे दासचेडीओ पुष्फकरंडए उज्जाणे पत्ताणि पुष्पाणि अ आणति, पिच्छंति अ विस्सभूतिं कीडतं, तासिं अमरिसो जाओ, ताहे साहिति जहा-एवं कुमारो ललइ, किं अम्ह रजेण वा बलेण वा जइ| विसाहनंदी न भुंजइ एवंविहे भोए, अम्ह नामं चेव, रज पुण जुवरण्णो पुत्तस्स जस्सेरिसं ललिअं, सा तासि अंतिए सोउं देवी ईसाए कोवघरं पविठ्ठा, जइ ताव रायाणए जीवंतए एसा अवस्था, जाहे राया मओ भविस्सइ ताहे एत्व अम्हे | को गणिहित्तिी, राया गमेइ, सा पसायं न गिण्हइ, किं मे रजेण तुमे वत्ति, पच्छा तेण अमच्चस्स सिर्छ, ताहे अमच्चोऽवि | सुत्रांक दीप अनुक्रम राजगृहे नगरे विश्वनन्दी राजा, तस्य भ्राता विशाखभूतिः, स च युवराजः, तस्य युवराजय धारिण्या देव्या विधभूति म पुत्रो जातः, राज्ञोऽपि पुत्रो विशाखनन्दीति, तस्य विधभूतवर्षकोव्यायुः, तत्र पुष्पकरण्डकं नाम उचान, तत्र स विबभूतिः चरान्तःपुरगतः स्वछन्देन सुसं प्रविचरति, ततो या सा विशास्त्रनन्दिनो माता तथा दासचेयः पुष्पकरण्डकादुधाचारपुष्पाणि पत्राणि चानवन्ति, प्रेक्षन्ते च विश्वभूति क्रीडन्तं, तासाममों जाता, सदा साधयन्ति यथा-एवं कुमारो कलति (विलसति), किमसाकं राज्येन वा बलेन वा यदि विपासनन्दी न मुझे एवंविधान् भोगान् , अस्माकं नामव, राज्य पुनर्युचराजस्व पुत्रस्य वस्येशं ससितं, सा तासामन्तिके श्रुत्वा देवीjया कोपगृहं प्रविष्टा, यदि तावद्राशि जीपति एषाऽवस्था, षदा राजा महतो भविष्यति तदानास्मान् को गणिव्यति राजा गमवति, सा प्रसाद न गृहाति, किं मे राज्येन स्वया वेति, पश्चात्तेनामात्याय शिर्ष, तदाऽमात्योऽपि. M ॥१७॥ ॐ 582 JABERatinintimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], (४०) KARNANCR प्रत 'तं गमेइ, तहवि न ठाति, ताहे अमञ्चो भणइ-राय!मा देवीए वयणातिकमो कीरउ, मा मारेहिइ अपाणं, राया भणइ-को उवाओ होजा?, ण य अम्हं वंसे अण्णंमि अतिगए उजाणे अण्णओ अतीति, तस्थ वसंतमासं ठिओ, मासग्गेसु अच्छति, अमच्चो भणति-उवाओ किजउ जहा-अमुगो पर्चतराया उकुडो(बट्टो),अणजंता पुरिसा कूडलेहे उवणेतु, एवमेएण कयगेण ते कूडलेहा रण्णो उवहाविया, ताहे राया जत्तं गिण्हइ,तं विस्सभूपणा सुयं, ताहे भणति-मए जीवमाणे तुम्भे किं निग्गच्छही, ताहे सोगओ, ताहे चेव इमो अइगओ, सोगतोतं पञ्चतं, जाव न किंचिपिच्छइ अहेमरेत, ताहे आहिंडित्ता जाहे नत्वि कोई जो आणं अइक्कमति, ताहे पुणरवि पुप्फकरंडयं उज्जाणमागओ, तत्थ दारवाला दंडगहियग्गहत्था भणंति-मा अईह सामी!, सो भणति-किं निमित्तं , एत्थ विसाहनन्दी कुमारो रमइ, ततो एयं सोऊण कुविओ विस्सभूई, तेण नायं-अहं कयगेण निग्गच्छाविओत्ति, तत्थ कविहलता अणेगफलभरसमोणया, सा मुडिपहारेण आहया, ताहे तेहिं कविहेहिं भूमी अत्थुआ, सूत्राक दीप अनुक्रम 4-07 तां गमयति, तथापि न विष्ठति, तदाऽमात्यो भणति-राजन् ! मा देव्या वचनातिक्रमं करोतु, मा मीमरदात्मानं, राजा भपति क उपायो भवेत् ,न चास्माकं बंदोऽम्यस्मिन् भतिगते उद्याने अन्योऽतिवाति, तत्र वसन्तमासं खितः मासोऽतिहति, अमात्यो भणति-उपायः क्रियतां यथा-असुका प्रत्यन्तराजः | सस्कृष्टः (स.), भज्ञायमानाः पुरुषा कूटलेखानुपनयन्तु, एवमेतेन कृतकेन ते कूटलेखा राज्ञे उपस्थापिता:, तदा राजा यात्रा ग्रहाति, तत् विभूतिना धुतं, तदा भगति-मयि जीवति यूर्व किं निर्गच्छत, तदा सगतः, तवैवार्य (विशाखनन्दी) अतिगतः,स गतः तं प्रत्यन्तं, यावन्न कविपश्यति उपद्रवन्त, तदादिण्डव बदा नासि कोऽपि य आज्ञामतिकामति, तदा पुनरपि पुष्पकरडकमुद्यानमागतः, तत्र द्वारपाला गृहीतदग्दारहता भणन्ति-मा अतियासी: स्वामिन् !, स भणति-किंनिमित्तम् अत्र विशाखनन्दी कुमारी रमते, तत पुतत् श्रुत्वा कुपितो विश्वभूतिः, तेन शातं अहं कृतकेन निर्गमित इति तत्र कपिस्थलता अनेकफकभरसमवनता, सा मुष्टिमहारेणाइता, तदा तेः कपिचभूमिरास्तृता. मासतमासम्मे७. + मरतं. wwwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥१७३॥ “आवश्यक" - मूलसूत्र -१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [४४४ ] भष्यं [ ४५...], ते' भणति एवं अहं तु सीसाणि पाडितो जइ अहं महलपिउणो गोरखं न करेंतो, अहं भे छम्मेण नीणिओ, तम्हा अलाहि भोगेहिं, तओ निग्गओ भोगा अवमाणमूलन्ति, अज्जसंभूआणं थेराणं अंतिए पबइओ, तं पवइयं सोउं ताहे राया संतेउरपरियणो जुवरायाय निग्गओ, ते तं खमावेंति, ण य तेसिं सो आणतिं गेण्हति । ततो बहूहिं छट्टमादिपहिं अप्पाणं भावेमाणो विहरइ, एवं सो विहरमाणो महुरं नगरिं गतो । इओ य विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुराए पिउच्छाए रण्णो अग्गमहिसीए धूआ लद्धेल्लिआ, तत्थ गतो, तत्थ से रायमग्गे आवासो दिण्णो । सो य विस्तभूती अणगारो मासखमणपारणगे हिंडतो तं पदेसमागओ जत्थ ठाणे विसाणंदीकुमारी अच्छति, ताहे तरस पुरिसेहिं कुमारो भण्णति - सामि ! तुम्भे एयं न जाणही, सो भणति न जाणामि, तेहिं भण्णति- एस सो विस्तभूती कुमारो, ततो तस्स तं दद्दूण रोसो जाओ। एत्यंतरा सूतिआए गावीए पेहिओ पडिओ, ताहे तेहिं उकिकलयलो कओ, इमं च णेहिं भणिअं तं बलं तुज्झ ३ तानू भणति एवमहं युष्माकं शिरांस्यपातविष्यं यद्यहं पितृव्यस्य गौरवं नाकरिण्यम्, अहं भवद्भिश्छद्मना नीतः, तस्मादलं भोगेः, ततो निर्गतो भोगा अपमानमूलमिति, आर्यसंभूतानां स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितः तं प्रत्रजितं श्रुत्वा तदा राजा सान्तःपुरपरिजनो युवराजश्व निर्गतः, ते तं क्षमयन्ति न च तेषां स आशा (विशति) गृह्णाति । ततो बहुभिः षष्ठाष्टमा दिकैरात्मानं भावयन् विहरति, एवं स विहरन् मथुरा नगरौं गतः । इतश्व विशाखनन्दी कुमारखत्र मधुरायां पितृष्वसू राशोऽमहिन्या दुहिता लब्धपूर्वा (इति) तत्र यतः, तत्र तत्र राजमार्गे आवासो दत्तः । स च विश्वभूतिरनगारः मासक्षमणपारणे इिण्डमानः तं प्रदेशमागतः यत्र स्थाने विशाख नन्दी कुमारः तिष्ठति, तदा तस्य पुरुषैः कुमारो भभ्यते - स्वामिन्! एवं एनं न जानीयाँ स भणति न जानामि, तैर्भण्यते - एप स विश्वभूतिः कुमारः, ततस्तस्य तं दृष्ट्वा रोषो जातः । अत्रान्तरे प्रसूतया गया प्रेरितः पतितः, तदा तैरुत्कृष्टः कृतः इदं च तैर्भणितम् तत् बलं तव Intimational For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 349 ~ ॥१७३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत ASRANASA सूत्राक कविठ्ठपाडणं च कहिं गतं, ताहे णेण ततो पलोइय, दिडो य णेण सो पावो, ताहे अमरिसेणं तं गाधि अग्गसिंगेहिं गहाय उई उपहति, सुदुब्बलस्सवि सिंघस्स किं सियालेहिं बलं लंपिज्जी, ताहे चेव नियत्तो, इमो दुरप्पा अज्जवि मम रोस वहति, ताहे सो नियाण करेति-जइ इमस्स तवनियमस्स बंभचेरस्स फलमस्थि- तो आगमसाणं अपरिमितबलो भवामि । तत्थ सो अणालोइयपडिकतो महासुके उववन्नो, तत्थुकोसठितिओ देवो जातः । ततो चइऊण पोअणपुरे णगरे पुत्तो पयाव-14 इस्स मिगाईए देवीए कुञ्छिसि उववण्णो । तस्स कह पयावई नाम, तस्स पुर्व रिउपडिसत्तुत्ति णाम होत्था, तस्स य भद्दाए देवीए अत्तए अयले नाम कुमारे होत्या, तस्स य अयलस्स भगिणी मियावईनाम दारिया अतीव ख्ववती, सा य उम्मुक्कबालभावा सबालंकारविभूसिआ पिउपायबंदिया गया, तेण सा उच्छंगे निवेसिआ, सो तीसे रूबे जोवणे य अंगफासे य मुच्छिओ, तं विसज्जेत्ता पउरजणवयं वाहरति-जं एत्थं रयणं उप्पजइ तं कस्स होति ?, ते भणंति-तुभ, एवं तिष्णि कपिथपातनं च क गतं ?, तदाऽनेन ततः प्रलोकितं, दृष्टश्चानेन स पापः, तदाऽमर्पण सां गां मनश्काभ्यां गृहीत्वोर्षमुरिक्षपति, सुदुर्बलस्थापि | सिंहस्य किं गालवलं छहयते, तदैव निवृत्ता, अब दुरामाध्यापि मयि रोपं चहति, तदा स निदानं करोति-पद्यस्य तोनियमस्या ब्रह्मचर्यख फलमस्ति ताई भागमिष्यन्यो भपरिमितबलो भूयासं । तत्र सोनाकोचितप्रतिकान्तो महानुफे पनः, तत्रोकृष्टस्थितिको देवो जातः । ततनयुत्वा पोतनपुरे नगरे पुत्रः प्रजापतेलंगावया देव्याः कृक्षी उत्पन्नः । तस्य कर्थ प्रजापति म ?, तस्य पूर्व रिपुप्रतिशत्रुरिति नामाभवत्, तस्य च भद्राया देव्या भात्मजः मचलो नाम कुमारोऽभवत्, तस्य चाचळव भगिनी मृगावती नाम दारिकाऽतीव रूपवती, सा चोन्मुक्तवालभाचा सर्वालारविभूषिता पितृपादवन्दिका गता, तेन सोरसने निवेशिता, स तसा रूपे यौवने चाकस्पर्श च मूर्णितः, तां विसज्य पौरजनपर्व पाइरति-यन्त्र रसमुत्पद्यते तस्कस्य भवति , ते भणन्ति-तव, एवं श्रीन्. दीप अनुक्रम T 1661 JABERatantntantiational Contantanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मुलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], (४०) आवश्यक- ॥१७॥ प्रत वारा साहिए सा चेडी उबविआ, ताहे लज्जिआ निग्गया, तेसिं सवेसि कुबमाणाणं गंधवेण विवाहेण सयमेव विवाहिया, हारिभद्री| उप्पाइया णेणं भारिया, सा भद्दा पुत्तेण अयलेण समं दक्षिणावहे माहेस्सरिं पुरि निवेसेति, महन्तीए इस्सरीए कारियत्ति यवृत्तिः माहेस्सरी, अयलो मायं ठविऊण पिउमूलमागओ, ताहे लोएण पयावई नाम कयं, पया अणेण पडिवण्णा पयावइत्ति, विभागा१ वेदेऽप्युक्तम्-"प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयत" । ताहे महासुक्काओ चइऊण तीए मियावईए कुञ्छिसि उववण्णो, सत्त सुमिणा दिडा, सुविणपाढएहिं पढमवासुदेवो आदिहो, कालेण जाओ, तिण्णि यसे पिहकरंडगा तेण से तिविणाम कयं,8 माताए परिमक्खितो उम्हतेलेणंति, जोबणगमणुपत्तो। इओ य महामंडलिओ आसग्गीवो राया, सोगेमित्तियं पुच्छति-कत्तो मम भयंति, तेण भणिय-जो चंडमेहं दूतं आधरिसेहिति, अवर तेय महाबलगं सीह मारेहिति, ततो ते भयंति, तेण सुयं जहापयावइपुत्ता महाबलवगा, ताहे तत्थ दूतं पेसेति, तत्थ य अंतेउरे पेच्छणयं वदृति,तत्थ दूतो पविहो,राया उद्विओ, पेच्छणयं8 सूत्राक दीप अनुक्रम वारान् साधित्ते सा चेटबुपस्थापिता, तदा लजिता निर्गताः, सर्वेषां तेषां कूजतां गान्धर्वेण विवाहेन स्वपमेव विवाहिता,त्पादिता तेन भार्या, सा भदा पुत्रेणाचलेन समं दक्षिणापथे माहेश्वरीं पुरी निविशति, महला इथयों का रितेति माहेश्वरी, अचलो मातरं खापयित्वा पितृमूलमागतः, उदा लोकेन प्रजापतिः नाम कृतं, प्रजा भनेन प्रतिपन्ना प्रजापतिरिति । तदा महाशुकात् व्युत्वा तथा मृगावत्याः कुक्षाबुरपना, सस स्वप्ना दृष्टाः, खानपाठः प्रथमवासुदेव आदिष्टः, कालेन जातः, त्रीणि च तस्य पृष्ठकरण्डकानि तेन तसा त्रिपृष्ठः नाम कृतं, मात्रा परिम्नक्षितः उगतलेनेति, यौवनमनुप्राप्तः । इता महामाण्डलिकः अश्वनीचो राजा, स नैमितिकं पृच्छति-कुतो मम भयमिति, तेन भणितम्-यमण्डमेधं दूर्त आर्षियति, अपरं तब च महाबलिनं सिंदं मारविष्यति, ततस्तव भवमिति, तंन श्रुतं यथा-प्रजापतिपुषी महापलिनी, तदा तत्र दूतं प्रेषयति, वा चान्तःपुरे प्रेक्षणकं वर्तते, नाता प्रविष्टः, राजोत्थितः, प्रेक्षणक ॥१७४। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत भग्गं, कुमारा पेच्छणगेण अक्खित्ता भणति-को एस, तेहिं भणिअं-जहा आसग्गीवरण्णो दूतो, ते भणंति-जाहे एस वच्चेज ताहे कहेजाह, सो राइणा पूएऊण विसजिओ पहाविओ अप्पणो विसयस्स, कहियं कुमाराणं, तेहिं गंतूण अद्धपहे हओ, तस्स जे सहाया तेसबे दिसोदिसि पलाया, रण्णा सुयं जहा-आधरिसिओ दूओ, संभंतेण निअत्तिओ, ताहे रण्णा बिउण |तिगुणं दाऊण मा हु रण्णो साहिजसु ज कुमारेहिं कयं, तेण भणियं-- साहामि, ताहे जे ते पुरतो गता तेहि सि? | जहा-आपरिसिओ दूतो, ताहे सो राया कुविओ, तेण दूतेण णायं जहा-रण्णो पुर्व कहितेलयं, जहावित्तं सिहं, ततो | आसग्गीवेण अण्णो दूतो पेसिओ, वच्च पयावई गंतूण भणाहि-मम सालिं रक्खाहि भक्खिजमाणं, गतो दूतो, रण्णा कुमारा उवलदा-किह अकाले म खवलिओ?, तेण अम्हे अवारए चेव जत्ता आणत्ता, राया पहाविओ, ते भणंति-अम्हे बच्चामो, ते रुम्भंता मड्डाए गया, गंतूण खेत्तिए भणंति-किहऽण्णे रायाणो रखियाइया?, ते भणंति-आसहस्थिरहपुरिस सूत्राक SUBSCASSESSACROCESS दीप अनुक्रम भमं, कुमारी प्रेक्षणकेनाक्षिप्ती मणताक एप.,तैर्भणितं यथा-अश्वनीवराजय दतः, ती भणता-पदा एप मजेत् सदा कपयेत, स राशा पूजयित्वा VIविसष्टः प्रधावित आत्मनो विषयाय, कथितं माराभ्यो, ताभ्यां गत्वाऽपये इतः, तस्य वे सहायाः तेसो दिघोदिशि पलायिताः, राज्ञा श्रुतं यथा-आधापती दूता, संभ्रान्तेन निवर्तितः, तदा राशा दिगुण विगुणं बच्चा मैव चीकधः राज्ञे यत्कुमाराभ्यां कृतं, तेन भणितं साधयामि, तदा ये ते पुरतो गतास्त। | शिष्टं पधा-आधर्षितो दूता, सदा स राजा कुपितः, तेन तेन शातं यथा-राजे पूर्व कथितं, यथावृत्तं शिर्ष, ततः भवानीचेणान्पो दूतः प्रेषिता, मज प्रजापति | गत्या भण-मम पाकीन् भक्ष्यमाणान् रक्ष, गतो दूतः, राजा कुमारावपालम्धी-किमकाले मुस्कुरामश्रितः १,तेनामाकमवारके एव यानाशला, राजा प्रभावितः (गन्तुमारब्धः), ती भणता, भावां बजावः, तौ रुप्यमानौ बलाइती, गजा क्षेत्रिकान भणत:-कथमन्बे राजानः रक्षितवन्तः, ते भणन्ति-माहस्तिरमपुरुष JABERatinintamational wwwsainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 352 ~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], (४०) हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ प्रत आवश्यक- पागार काऊणं, केचिरं ।, जाव करिसणं पविडं, तिवित भणति-को एच्चिरं अच्छति !, मम त पएस दरिसह, तेहिं कहियं- |एताए गुहाए, ताहे कुमारो रहेणं तं गुहं पविहो, लोगेण दोहिवि पासेहि कलयलो कओ, सीहो वियंभंतो निग्गओ, ॥१७५॥ लकुमारो चिन्तेइ-एस पाएहिं अहं रहेण, विसरिसं जुद्धं, असिखेडगहत्थो रहाओ ओइण्णो, ताहे पुणोवि विचिन्तेइ-एस दाढानक्खाउहो अहं असिखेडएण, एवमवि असमंजसं, तंपि अणेण असिखेडग छड्डियं, सीहस्स अमरिसो जातो-एगंता| रहेण गुहं अतिगतो एगागी, बितिअं भूमि ओतिष्णो, तति आउहाणि विमुक्काणि, अज णं विणिवाएमित्ति महता अवदालिएण वयणेण उक्खंदं काऊण संपत्तो, ताहे कुमारेण एगेण हत्येण उवरिल्लो होहो एगेणं हेडिलो गहिओ, ततोणेण जुण्ण-| पडगोविच दुहाकाऊण मुक्को, ताहे लोएण उकुटिकलयलो कओ, अहासन्निहिआए देवयाए आभरणवत्थकुसुमवरिस, परिसियं, ताहे सीहो तेण अमरिसेण फुरफुरतो अच्छति, एवं नाम अहं कुमारेण जुद्धेण मारिओत्ति, तं च किर कालं। सुत्रांक दीप अनुक्रम T प्राकार कृत्या, फियथिर १, यावत् कर्षणं प्रविष्ट (भवति), त्रिपृष्ठः भगतिक इयश्चिरं तिष्ठति ?, सझं तं प्रवेशं दर्शयत, तैः कथितं-एतस्यां गुहायां, दतदा कुमारो रथेन तो गुहां प्रविष्टः, कोकेन कलकको योरपि पार्वयोः कृतः, सिंहो विजम्भमाणः निर्यतः, कुमारबिन्तपति-पुष पादाभ्यामहं रथेन, विप्नदर्श बुद्ध, भसिखेटकहतः स्यादवतीर्णः, सदा पुनरपि विचिन्तयति एष दंष्ट्रानवायुधः अहमसिनेटकेन, एवमयसमजसं, तप्यसिखेटकमनेन त्यक्त, सिंहस्खामों। रा॥१७॥ जात:-एक तावत् रथेन गुहामतिगतः एकाकी, द्वितीय भूमिमवतीर्णः, तृतीयमायुधानि विमुक्कानि, भय एनं विनिपातयामीति महताऽवदारितेन वदनेनोरकन्द । |कृत्वा संप्राप्तः, तदा कुमारेणैकेन मोनोपरितन ओष्ठ एकेनाधल्यो गृहीतः, ततस्तेन जीर्णपट इच विधाकृत्य मुक्तः, तदा कोकेनोकृष्टिकहकलः कृतः, यथासनि|दितथा तुदेवतयाभरणवत्रकुसुमवर्ष वर्षित, तदा सिंहसेनामर्षेण पुरंस्तिष्ठति, एवं नामाई कुमारेण बुदेन मारिता इति, तसिंच किल काले. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत भगवओ गोअमसामी रहसारही आसी, तेण भण्णति-मा तुर्म अमरिसं पहाहि, एस नरसीहो तुम मियाहियो, तो जइ सीहो सीहेण मारिओ को एत्थ अवमाणो?, ताणि सो वयणाणि महुमिव पिवति, सो मरित्ता नरएसु उबवण्णो, सो कुमारो। तच्चम्म गहाय सनगरस्स पहावितो, ते" गामिल्लए भणति-च्छह भो तस्स घोडयगीवस्स कहेह जहा अच्छसु वीसत्थो, तेहिं गंतूण सिई, रुहो दूतं विसजेइ, एते पुत्ते तुमं मम ओलग्गए पडवेहि, तुर्म महल्लो, जाहे पेच्छामि सकारेमि रजाणि य देमि, तेण भणियं-अच्छंतु कुमारा, सयं चेवणं ओलग्गामित्ति, ताहे सो भणति-किं न पेसेसि ? अतो जुद्धसज्जो निग्गच्छा सि, सो दूतो तेहिं आधरिसित्ता धाडिओ, ताहे सो आसग्गीवो सबबलेण उवडिओ, इयरेवि देसते ठिआ, सुबहुं कालं जुज्झेऊण हयगयरहनरादिक्खयं च पेच्छिऊण कुमारेण दूओ पेसिओ जहा-अहं च तुमंच दोषिणवि जुद्धं सर्पलग्गामो, किंवा बहुएण अकारिजणेण मारिएण? एवं होउत्ति, बीअदिवसे रहेहिं संपलग्गा, जाहे आउधाणि खीणाणि सूत्राक दीप अनुक्रम भगवतो गीतमस्वामी रथसारथिरासीत् , तेन भण्यरो-मा त्वममय वाहीः, एष नरसिंहः बसगाधिपः, सबदि सिंदः सिंहन मारिता कोनापमानी तानि वचनानि स मचिव पिचति, समूत्वा नरके उत्पमा, स कुमारस्तचर्म गृहीत्वा खनगराप प्रभावितः, तांश प्रामेयकान् भवति-गान भोः सबै अश्वपीवाय कथयत बचा लिष्ठ विश्वतः, तैर्गत्वा शिष्ट, रुहो दूतं विसृजति, एचौ पुत्री ममावलगके प्रस्थापष, स्वं वृद्धः, यतः पश्यामि सस्कारयामि राज्यानि च ददामि, तेन भणितम्-तिएता कुमारी स्वयमेवावलगामीति, तदा स भणति-किन प्रेषयसि । अतो युद्धसज्जो निर्गच्छ, स दूतसराय धादितः, तदा सोनाग्रीवा सर्वमलेनोपस्थिता, इतरेऽपि देशान्ते स्थिताः, सुपडं कालं युवा हयगजरथनरादिक्षवं च प्रेक्ष्य कुमारेण दूतः प्रेषितो यथा-मई पसंच द्वायपि युद्ध संप्रलगाक, किंचा पाहुनाकारिजनेन मारितेनी, एवं भवविति, द्वितीयदिवसे रथैः संभलनाः, यदायुधानि क्षीणानि, ते प. + महो. 1 निग्गयाति. JAMERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥१७६॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [४४५], भाष्यं [४५...], ताहे चक्के मुयइ, तं तिविडुरस तुंत्रेण उरे पडिअं, तेणेव सीसं छिन्नं देवेहिं उग्धु-जहेस तिविद्दू पढमो वासुदेवो उप्पण्णोति । ततो सबे रायाणो पणिवायमुवगता, उयविअं अहभरहं, कोडिसिला दंडवाहाहिं धारिआ, एवं रहावत्तपवयसमीवे जुद्धं आसी । एवं परिहायमाणे वले कण्हेण किल जाणुगाणि जाव किहवि पाविआ । तिविट्टू चुलसीइवाससयसहस्साई सवाउयं पालइत्ता कालं काऊण सत्तमाए पुढवीए अप्पइद्वाणे नरए तेत्तीसं सागरोवमद्वितीओ नेरइओ उववण्णो । अयमासां भावार्थः, अक्षरार्थस्त्वभिधीयते - राजगृहे नगरे विश्वनन्दी राजाऽभूत्, विशाखभूतिश्च तस्य युवराजेति, तत्र 'जुवरण्णो' ति युवराजस्य धारिणीदेव्या विश्वभूति नामा पुत्र आसीत्, विशाखनन्दिश्चेतरस्य राज्ञ इत्यर्थः, तत्रेत्थमधिकृतो मरीचिजीवः 'रायगिहे विस्तभूति'त्ति राजगृहे नगरे विश्वभूतिर्नाम विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत्, तत्र च वर्षकोव्यायुष्कमासीत्, तस्मिंश्च भवे वर्षसहस्रं 'दीक्षा' प्रव्रज्या कृता संभूतियतेः पार्श्वे । तत्रैवrafts महरा सनिआणो मासिएण भत्तेणं । महसुके उबवण्णो तओ चुओ पोअणपुरंमि ॥ ४४६ ॥ १ तदा चक्रं मुञ्चति, तत् त्रिपृष्ठस्य तुम्बेनोरसि पतितं तेनैव शिरदिनं देवैस्युष्टम्-यथैष त्रिष्टष्ठः प्रथमो वासुदेव उत्पन्न इति । ततः सर्वे राजानः प्रणिपातमुपागताः, उपचितं ( साधितं ) अर्धभरतं, कोटीशिला दण्डबाहुभ्यां धारिता, पूर्व स्थावर्णपर्वतसमीपे युद्धमासीत् । एवं परिदीयमाणे बले कृष्णेन किल जानुनी यावत् कथमपि प्रापिता । त्रिष्टष्ठश्चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि सर्वायुः पालयित्वा कालं कृत्वा सप्तम्यां पृथिभ्यामप्रतिष्ठाने नरके प्रयत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकः नैरधिक उत्पन्नः। द्वितीए + ०न्दिनमा रा० नेदम् नेदम् भूतिर्नाम 8 इति. Education intimation For at Unity मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 355 ~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥१७६॥ incibrary.org Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति : [४४६], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सूत्राक गमनिका-पारणके प्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं चकार, मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तो मासि|केन भक्तेन महाशुक्रे कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिदेव इति, 'ततो' महाशुक्राच्युतः पोतनपुरे नगरे पुत्तो पयावहस्सा मिआईदेविकुच्छिसंभूओ।नामेण तिविद्दुत्ती आई आसी दसाराणं ॥ ४४७॥ गमनिका-पुत्रः प्रजापते राज्ञः मृगावतीदेवीकुक्षिसंभूतः नाम्ना त्रिपृष्ठः 'आदिः'प्रथमः आसीदू दसाराणां, तत्र वासुदेवत्वं चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयखिंश (ग्रन्थानम् ४५००) सागरोपमस्थिति रकः संजात इति ॥ ४४७ ॥ अमुमर्थ प्रतिपादयन्नाहचुलसीईमप्पइड्ढे सीहो नरएसु तिरियमणुएसु । पिअमित्त चकवट्टी मूआइ विदेहि चुलसीई ॥ ४४८॥ गमनिका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वायुष्कमासीत्, तदनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः, तस्मादप्युद्वय सिंहो बभूव, मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति, 'तिरियमणुएमुत्ति' पुनः कतिचित् भवग्रहणानि तिर्यग्मनुष्येषूत्पद्य 'पिअमित्त चक्कवट्टी मूआइ विदेहि चुलसीहत्ति अपरविदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयनृपतेः धारिणीदेव्यां प्रियमित्राभिधानः चक्रवती समुत्पन्नः, तत्र चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथार्थः ॥ ४४८॥ पुत्तो धर्णजयस्सा पुहिल परिआउ कोडि सबढे । णंदणं छत्तग्गाए पणवीसा सयसहस्सा ॥४४९॥ गमनिका-तत्रासौ प्रियमित्रः पुत्रो धनञ्जयस्य धारिणीदेच्याश्च भूत्वा चक्रवर्चिभोगान् भुक्त्वा कथञ्चित् संजातसं* गंदणो उत्तगाए. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- गाथा-], नियुक्ति: [४४९], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-18 वेगः सन् 'पोहिल इति' प्रोष्ठिलाचार्यसमीपे प्रबजितः 'परिआओ कोडि सबढे' त्ति प्रव्रज्यापर्यायो वर्षकोटी बभूव, मृत्वा महाशुक्रे कल्पे सर्वार्थे विमाने सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवोऽभवत् 'णंदण छत्तग्गाए पणवीसा सयसहस्सेति' ततः सर्वा-1 यवृत्तिः ॥१७७॥ विभागा१ सार्थसिद्धायुत्या छत्रापायां नगी जितशत्रुनृपतेभेद्रादेव्या नन्दनो नाम कुमार उत्पन्न इति, पञ्चविंशतिवर्षशतसहस्राण्या युष्कमासीदितिगाथार्थः ॥ ४४९ ॥ तत्र च वाल एव राज्यं चकार, चतुर्विशतिवर्षसहस्राणि राज्यं कृत्वा ततः| पञ्चज्ज पुहिले सयसहस्स सब्वत्थ मासभत्तेणं । पुप्फुत्तरि उववण्णो तओ चुओ माहणकुलंमि ॥ ४५०॥ गमनिका-राज्यं विहाय प्रवज्यां कृतवान् पोट्टिलत्ति पोष्ठिलाचार्यान्तिके 'सयसहस्स'ति वर्षशतसहस्रं यावदिति.18 कथम् ?, सर्वत्र मासभक्तेन-अनवरतमासोपवासेनेति भावार्थः, अस्मिन् भवे विंशतिभिः कारणैः तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निकाचियित्वा मासिकया संलेखनयाऽऽस्मानं क्षपयित्वा षष्टिभक्तानि विहाय आलोचितप्रतिक्रान्तो मृत्वा 'पुप्फोत्तरे उववण्णोत्ति' प्राणतकल्पे पुष्पोत्तरावतंसके विमाने विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति । 'ततो चुओ माहणकुलमित्ति' ततः पुष्पोत्तराच्चयुतः ब्राह्मणकुण्डग्रामनगरे ऋसभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः पत्न्याः कुक्षौ समुत्पन्न इति गाथार्थः ॥ ४५० ॥ कानि पुनर्विशतिः कारणानि ? यैस्तीर्थकरनामगोत्रं कर्म तेनोपनिबद्धमित्यत आह Tod॥१७७॥ अरिहंतसिद्धपवयण ॥४५॥दसण॥४५२॥अप्पुव्व०॥४३॥पुरिमेण॥४६४ातं च कहं॥४५६॥निअमा०॥४६॥ * पोटिल इति, + विंशत्या (स्थात् ). निकाच्य (स्थात् ). दीप अनुक्रम wwwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४५७], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सूत्राक एता ऋषभदेवाधिकारे व्याख्यातत्वान्न विनियन्ते । माहणकुंडग्गामे कोडालसगुत्तमाहणो अस्थि । तस्स घरे उबवण्णो देवाणंदाइ कुञ्छिसि ॥४५॥ अस्या व्याख्या-पुष्पोत्सराजयुतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे कोडालसगोत्रो ब्राह्मणः ऋषभदत्ताभिधानोऽस्ति, तस्य गृहे। उत्पन्नः, देवानन्दायाः कुक्षाविति गाथार्थः॥ ४५७॥ साम्प्रतं वर्धमानस्वामिवक्तव्यतानिवद्धां द्वारगाथामाह नियुक्तिकार: सुमिण १ मवहार २ ऽभिग्गह ३ जम्मण ४ मभिसेअ ५ वुद्धि ६ सरणं ७ च । भेसण ८ विवाह ९ बच्चे १० दाणे ११ संबोह १२ निक्खमणे १३॥ ४५८ ॥ गमनिका सुमिणेति' महास्वप्ना वक्तव्याः, यान् तीर्थकरजनन्यः पश्यन्ति, यथा च देवानन्दया प्रविशन्तो निष्काम-161 दन्तश्च दृष्टाः, त्रिशलया च प्रविशन्त इति । 'अवहारत्ति' अपहरणमपहारः स वक्तव्यो यथा भगवानपहत इति । 'अभि गहेत्ति' अभिग्रहो बक्तव्यः, यथा भगवता गभंस्थेनैव गृहीत इति । 'जम्मणेति' जन्मविधिर्वक्तव्यः । 'अभिसे उत्ति। अभिषेको वक्तव्यः, यथा विबुधनाथाः कुर्वन्ति, 'बुढित्ति' वृद्धिर्वक्तव्या भगवतो यथाऽसौ वृद्धिं जगाम । 'सरणंति' द जातिस्मरणं च वक्तव्यं । 'भेसणेति' यथा देवेन भेषितः तथा बक्तव्यं । 'विवाहेति' विवाहविधिर्वक्तव्यः । 'अवच्चेत्ति अपत्यं-पुत्रभाण्डं वक्तव्यं । 'दाणेत्ति' निष्क्रमणकाले दानं वाच्यं । 'संबोहेति' संबोधनविधिवक्तव्यः यथा लोकान्तिकाः संबोधयन्ति । 'निक्खमणेत्ति' निष्क्रमणे च यो विधिरसौ वक्तव्य इति गाथासमुदायार्थः ॥ ४५८ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति भाष्यकार एव, तत्र स्वमद्वाराषयवार्थमभिधित्सुराह दीप अनुक्रम wwjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भगवत् महावीर (वर्धमान)स्य संबंधे स्वप्न, अपहार, अभिग्रह आदि द्वाराणाम् कथनं ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४५८], भाष्यं [४६], (४०) आवश्यक RSS हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१७८॥ प्रत सुत्रांक गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेअ ४ दाम ५ ससि ६ दिणयर ७ सय ८कुम्भ। पउमसर १० सागर ११ विमाणभवण १२ रयणुच्चय १३ सिहिं च १४ ॥ ४६॥ (भाष्यम्) गमनिका-गजं वृषभं सिंह अभिषेक दाम शशिनं दिनकर ध्वज कुम्भं पद्मसरः सागर विमानभवनं रत्नोच्चयं | शिखिनं 'च, भावार्थः स्पष्ट एव, नवरं अभिषेक:-श्रियः परिगृह्यते, दाम-पुष्पदाम रत्नविचित्रं, विमानं च तद्भवनं च विमानभवन-वैमानिकदेवनिवास इत्यर्थः, अथवा वैमानिकदेवप्रच्युतेभ्यः विमानं पश्यति, अधोलोकोद्वृत्तेभ्यस्तु भवनमिति, न तूभयमिति ॥ एए चउदस सुमिणे पासइ सा माहणी सुहपसुत्ता। रयणि उबवण्णो कुञ्छिसि महायसोचीरो॥४७॥(भा०) ___गमनिका-एतान् चतुर्दश महास्वप्नान् पश्यति सा ब्राह्मणी सुखप्रसुप्ता, यस्यां रजन्यामुत्पन्नः कुक्षी महायशा वीर इति । पश्यतीति निर्देशः पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'एए चोइस सुमिणे पेच्छिआ माहणी' ततश्च दृष्टवतीति गाथार्थः॥ अह दिवसे बासीई वसइ तहि माहणीइ कुञ्छिसि।चिंतइ सोहम्मवई, साहरि जे जिणं कालो॥४८॥ (भा०) । गमनिका-अथ दिवसान् ब्यशीतिं वसति तस्या ब्राह्मण्याः कुक्षाविति । अथानन्तरं एतावत्सु दिवसेषु अतिक्रान्तेषु चिन्तयत्ति सौधर्मपतिः संहत्तुं 'जे' निपातः पादपूरणार्थः, जिन कालो वर्तते इति गाथार्थः ॥ किमिति संहियत इत्याहअरहत चकवडी बलदेवा चेव वासुदेवाय । एए उत्तमपुरिसा नहु तुच्छकुलेसु जायंति ॥४९॥(भाष्यम् ) भावार्थः स्पष्ट एव, नवरं 'तुच्छकुलेषु' असारकुलेषु इति । केषु पुनः कुलेषु जायन्ते इत्याह दीप अनुक्रम H ॥१७८॥ JABERatinintamational Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [५०], (४०) प्रत सूत्राक उग्गकुलभोगखत्तिअकुलेसु इक्खागनायकोरब्वे । हरिवंसे अविसाले आयंति तहिं पुरिससीहा ॥५०॥(भा०) | गमनिका उपकुलभोजक्षत्रियकुलेषु इक्ष्वाकुज्ञातकौरव्येषु पुनः कुलेषु हरिवंशे च विशाले 'आयति' आगच्छन्ति उत्पद्यन्त इत्यर्थः 'तत्र' उग्रकुलादौ 'पुरुषसिंहाः तीर्थकरादय इति गाथार्थः॥ यस्मादेवं तस्माद् भुवनगुरुभक्त्या चोदितो देवराजो हरिणेगमेपिमभिहितवान्-एष भरतक्षेत्रे चरमतीर्थकृत् प्रागुपात्तकर्मशेषपरिणतिवशात् तुच्छकुले जातः, तदयमितः संहृत्य क्षत्रियकुले स्थाप्यतामिति । स हि तदादेशात्तथैवचके।भाध्यकारस्तु अमुमेवार्थ 'अह भणती' त्यादिना प्रतिपादयतिअह भणइ णेगमेसि देविंदो एस इत्य तित्थयरो। लोगुत्तमो महप्पा पववण्णो माहणकुलंमि ॥५१॥ (भा०) गमनिका-'अथ' अनन्तरं भणति 'णेगमेर्सि' ति प्राकृतशैल्या हरिणेगमेषि देवेन्द्रः 'एप' भगवान् 'अत्र' ब्राह्मणकुले | 'लोकोत्तमो' महात्मा उत्पन्न इति गाथार्थः । इदं चासाधु, ततश्चेदं कुरुखत्तिअकुंडग्गामे सिद्धत्थो नाम खत्तिओ अत्थिा सिद्धस्थभारिआए साहर तिसलाइ कुञ्छिसि॥५२॥ (भा०) | गमनिका-क्षत्रियकुण्डग्रामे सिद्धार्थों नाम क्षत्रियोऽस्ति, तत्र सिद्धार्थभार्यायाः संहर त्रिशलायाः कुक्षाविति गाथार्थः ॥ बादंति भाणिऊणं वासारत्तस्स पंचमे पक्खे । साहरइ पुव्वरते हत्थुत्तर तेरसी दिवसे ॥५३॥ (भाष्यम् ) गमनिका-स हरिणेगमेषिः 'बादंति भाणिऊणति बाढमित्यभिधाय, अत्यर्थ करोमि आदेश, शिरसि स्वाम्यादेशमिति, वर्षारात्रस्य पश्चमे पक्षे मासद्वयेऽतिक्रान्ते अश्वयुगबहुलत्रयोदश्यां संहरति पूर्वरात्रे-प्रथममहरद्वयान्त इति भावार्थः, हस्तोत्तरायां त्रयोदशीदिवसे इति गाथार्थः॥ दीप अनुक्रम JABERatinintamiationa ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [१४], (४०) आवश्यक ॥१७॥ प्रत सुत्रांक गयगाहा ॥५४॥ हारिभद्रीएए चोदससुमिणे पासह सा माहणी पडिनिअत्ते। रयणी अवहरिओ कुच्छीऑमहायसो वीरो॥५६॥(भा) यत्तिः पूर्ववत् । इदं नानात्वं पश्यति सा ब्राह्मणी प्रतिनिवृत्तान् यस्यां रजन्याम् अपहतः कुक्षितः महायशा वीर इति गाथार्थः॥ विभाग-१ गयगाहा ॥५६॥ (भाष्यम्) एए चोदस सुमिणे पासइ सातिसलया सुहपसुत्ता जरयणिं साहरिओ कुञ्छिसि महायसो वीरो॥७॥ भा०|| | इदं गाधाद्वयं त्रिशलामधिकृत्य पूर्ववद्वाच्यम् ॥ गतमपहारद्वारम् , साम्प्रतमभिग्रहद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहतिहि नाणेहि समग्गो देवी तिसलाइ सो अकुञ्छिसि।अह वसह सपिणगम्भो छम्मासे अद्धमासंच॥२८॥भा० | गमनिका-'अथ' अपहारानन्तरं वसति संज्ञी चासौ गर्भश्चेति समासः, क-देव्याः त्रिशलायाः स तु कुक्षी, आहसर्यो गर्भस्थः संन्येव भवतीति विशेषणवैफल्यं, न, दृष्टिवादोपदेशेन विशेषणत्वात्, सच ज्ञानद्वयवानपि भवत्यत आह-त्रिभिानः-मतिश्रुतावधिभिः समनः । कियन्तं कालमित्याह-पण्मासान् अर्धमासं चेति गाथार्थः ।। अह सत्तमंमि मासे गम्भत्थो चेवऽभिग्गहं गिण्हे।नाहं समणो होहं अम्मापिअरंमि जीवंते॥५९॥ (भा०) | गमनिका-अथ सप्तमे मासे गर्भादारभ्य तयोर्मातापित्रोर्गर्भप्रयलकरणेनात्यन्तस्नेहं विज्ञाय अहो ममोपर्यतीव अनयोः स्नेह इति यद्यहमनयोः जीवतोः प्रवज्यां गृहामि नूनं न भवत एतावित्यतो गर्भस्थ एव अभिग्रहं गृहाति. ॥१७९॥ *म (मूळे) -9649-7-%4562-%-2-560% दीप अनुक्रम 4% Swataniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [१९], (४०) प्रत सूत्राक क ज्ञानत्रयोपेतत्वात् । किंविशिष्टमित्याह-नाहं श्रमणो भविष्यामि मातापित्रोजींवतोरिति गाथार्थः ॥ एवंदोण्हं वरमहिलाणं गन्भे वसिऊण गन्भमकुमालो । नवमासे पडिपुण्णे सत्त य दिवसे समहरेगे ॥३०॥(भा) | गमनिका-द्वयोवरमहिलयोः गर्भे उपित्वा गर्ने सुकुमारः गर्भसुकुमारः, प्रायः अप्राप्तदुःख इत्यर्थः । कियन्तं कालम् । &ानव मासान् प्रतिपूर्णान् सात दिवसान् 'सातिरेकान् समधिकान् इति गाथार्थः ॥ अह चित्तसुद्धपक्खस्स तेरसीपुव्वरत्तकालंमि । हत्थुत्तराहिं जाओ कुण्डग्गामे महावीरो॥६१॥ (भाष्यम्) | गमनिका-अथ' अनन्तरं चैत्रस्य शुद्धपक्षः चैत्रशुद्धपक्षः तस्य चैत्रशुद्धपक्षस्य त्रयोदश्यां पूर्वरात्रकाले-प्रथममहरद्वयान्त इति भावार्थः । हस्तोत्तरायां जातः हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तराः-उत्तराफाल्गुन्य इत्यर्थः । कुण्डग्रामे महावीर इति ॥ जातकर्म दिक्कुमार्यादिभिनिवर्तितं पूर्ववदवसेयं, किञ्चित्प्रतिपादयन्नाहआभरणरयणवासं बुढं तित्थंकरंमि जायंमि । सको अ देवराया उवागओ आगया निहओ ॥ १२॥ (भा०) | गमनिका-आभरणानि-कटककेयूरादीनि रक्षानि-इन्द्रनीलादीनि तद्वर्ष-वृष्टिं तीर्थकरे जाते सति, शक्रश्च देवराज उपागतस्तत्रैव, तथा आगताः पद्मादयो निधय इति गाथार्थः ॥ तुहाओ देवीओ देवा आणदिआ सपरिसागा । भयवंमि बद्धमाणे तेलुकसुहावहे जाए ॥६३॥ (भाष्यम्) | व्याख्या-तुष्टा देव्यः देवा आनन्दिताः सह परिषद्भिः वर्तन्त इति सपरिषदः भगवति वर्धमाने त्रैलोक्यसुखावहे जाते सतीति गाथार्थ: ।। गतं जन्मद्वार, अभिषेकद्वारावयवार्थ प्रतिपादयन्नाह दीप अनुक्रम Jamaiahini ALMorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [६४], (४०) आवश्यक ॥१८॥ प्रत सुत्रांक भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी ।सब्बिडीइ सपरिसा चविहा आगया देवा ॥६४॥(भा०) हारिभद्री गमनिका-भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनश्चेति समासः, विमानवासिनश्च सर्वा सपरिषदः चतुर्विधायवृत्तिः आगता देवा इति गाथार्थः॥ विभाग-१ देवेहिं संपरिबुढो देविंदो गिहिऊण तित्थयरं । नेऊण मंदरगिरि अभिसेअंतत्थ कासीअ ॥६५॥(भाष्यम्) व्याख्या-देवैः सपरिवृतो देवेन्द्रो गृहीत्वा तीर्थकरं नीत्वा मन्दरगिरि अभिसेअंति अभिषेकं तत्र कृतवांश्चेति गाथार्थः ।। काऊण य अभिसे देविंदो देवदाणवेहि समं । जणणीह समप्पित्ता जम्मणमहिमं चकासी॥६६॥ (भा०) गमनिका-कृत्वा चामिषेक देवेन्द्रो देवदानवैः सार्ध, देवग्रहणात् ज्योतिष्कवैमानिकग्रहणं, दानवग्रहणात् व्यन्तरभवनपतिग्रहणमिति । ततो जनन्याः समर्प्य जन्ममहिमां च कृतवान् स्वर्गे नन्दीश्वरे द्वीपे चेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदिन्द्रादयो भुवननाथेभ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति तद्दर्शनायाहखोमं कुंडलजुअलं सिरिदामंचेव देह सक्को से। मणिकणगरयणवासं उवच्छुभे जंभगा देवा ॥३७॥(भा०) ___गमनिका-क्षीम' देववस्त्रं 'कुण्डलयुगलं' कर्णाभरणं 'श्रीदाम' अनेकरत्नखचितं दर्शनसुभगं भगवतो ददाति शक्रः | 'से' तस्य । इत्थं निर्देशस्त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थः । 'जम्भकाः' व्यन्तरा देवाः, शेष सुगममिति गावार्थः॥ ||१८०॥ विसमणवपणसंचोहा उ ते तिरिअजंभगा देवा।कोडिग्गसो हिरणं रयणाणि अ तत्थ उपणिति ॥१८॥(भा०) | गमनिका-वैश्रमणवचनसंचोदितास्तु ते तिर्यग्जृम्भका देवाः । तिर्यगिति तिर्यग्लोकजुम्भकाः 'कोव्यमशः' कोटीप दीप T अनुक्रम ( मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [६८], (४०) प्रत सूत्राक 5%25 रिमाणतः 'हिरण्यम्' अघटितरूपं रत्नानि च इन्द्रनीलादीनि तत्रोपनयन्तीति गाथार्थः । गतमभिषेकद्वारं, इदानी वृद्धिद्वारावयवार्थमाहअह बड्डइ सो भयवं दिअलोअचुओअणोवमसिरीओ।दासीदासपरिवुडोपरिकिण्णो पीढमद्देहिं ॥१९॥(भा०) अस्य व्याख्या-अथ वर्धते स भगवान् देवलोकच्युतः अनुपमश्रीको दासीदासपरिवृतः 'परिकीर्णः पीठमर्दै' महानुपतिभिः परिवृत इति गाथार्थः ॥ द्वारम् । . असिअसिरओ सुनयणो० ॥७० ॥ जाईसरो अभयव०॥७१ ॥ (भाष्यम् ) गाथाद्वयमिदं ऋषभदेवाधिकार इव द्रष्टव्यम् । भेषणद्वारावयवार्थमाहअह ऊणअट्ठवासस्स भगवओ सुरवराण मज्झंमि । संतगुटुंकित्तणयं करेइ सको सुहम्माए ॥७२॥ (भा०) गमनिका-'अथ' अनन्तरं न्यूनाष्टवर्षस्य भगवतः सतः सुरवराणां मध्ये सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः तेषां कीर्चनंशब्दनमिति समासः, करोति 'शको' देवराजः 'सुधर्मायां' सभायां व्यवस्थित इति गाथार्थः ॥ किंभूतमित्यत आहबालो अबालभायो अवालपरकमो महावीरो नहु सक्कइ भेसे अमरेहिं सईदएहिंपि ॥७३॥ (भाष्यम् ) गमनिका बालः न बालभावोऽबालभावः, भावः-स्वरूपं, न बालपराक्रमोऽवालपराक्रमः, पराक्रमः-चेष्टा, 'शूर वीर * गुणकितणय (सूची). दीप अनुक्रम 5--% 8 T SAE% JAMER ama wwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~364~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७३], (४०) प्रत सुत्रांक N आवश्यक-विक्रान्ता' विति कषायादिशत्रुजयाद् विक्रान्तो वीरः, महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः, नैव शक्यते भेषयितुं 'अमरैः' देवैः हारिभद्रीसेन्ट्रैरपीति गाथार्थः॥ यवृत्तिः ॥१८॥ तं वयणं सोऊणं अह एगु सुरो असहंतो उाएइ जिणसण्णिगासं तुरिअं सो भेसणवाए ॥७॥ (भाष्यम्)विभागः१ गमनिका-तद्वचनं श्रुत्वा अथैकः 'सुरो देवः अश्रद्धानस्तु-अश्रद्दधान इत्यर्थः, 'एति आगच्छति 'जिनसन्निकाशा |जिनसमीपं त्वरितमसौ, किमर्थम् -'भेषणार्थम्' भेषणनिमित्तमिति गाथार्थः । स चागत्य इदं चक्रे सप्पं च तरुवरंमी काउंतिदूसरण डिंभं च । पिट्ठी मुबीइ हओ वंदिअ वीर पडिनिअत्तो ॥ ७५ ॥ (भा०) | अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-देवो भगवओ सकाशमागओ, भगवं पुण चेडरूवेहि समं रुक्खखेड्डेण कीलड, तेस रुक्खेस जो पढम विलग्गति जोय पढम ओलुहति सो चेडरूवाणि वाहेइ, सो अ देवो आगंतूण हेडओ रुक्सस्स सप्परूवं विउवित्ता अच्छइ उप्परामुहो, सामिणा अमूढेण वामहत्थेण सत्ततिलमित्तत्ते छुढो, ताहे देवो चिंतेइ-पत्थ ताव न छलिओ । अह पुणरवि सामी तेंदूसएण रमइ, सो य देवो चेडरूवं विउविऊण सामिणा समं अभिरमइ, तत्थ सामिणा ॥१८॥ देवो भगवतः सकाशामागतः, भगवान्पुनः चेटरूपैः समं पक्षक्रीडया कीडति, तेषु क्षेषु यः प्रथममारोदति या प्रथममवरोहति स चेटरूपाणि वाहयति, सच देव आगत्यायो वृक्षस सर्परूपं विकुळ तिष्ठति अपरिमुखः, स्वामिना अमूढेन वामहस्तेन सप्ततालमात्रतस्यक्ता, तदा देवचिन्तयति-अन्न तावना उलितः । अब पुनरपि स्वामी तिन्दूसकेन रमते, स च देवश्चटरूपं विकुर्य खामिना सममभिरमते, तत्र स्वामिना 25555 दीप अनुक्रम T ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७५], (४०) प्रत सूत्राक सो जिओ, तस्स उपरि विलग्गो, सो य वहिउँ पवत्तो पिसायरूवं विउवित्ता, तं सामिणा अभीएण तलष्पहारेण पहओ जहा तस्थेव णिबुड्डो, एत्थवि न तिण्णो छलिउँ, देवो वंदित्ता गओ। अयं पुनरक्षरार्थ:-सर्प च तरुवरे कृत्वा 'तेन्दूसकेन' क्रीडाविशेषण हेतुभूतेन 'डिम्भं च' बालरूपं च, कृत्वेत्यनुवर्तते । पृष्ठौ मुष्टिना हतः वन्दित्वा वीर प्रतिनिवृत्त इत्यक्षरार्थः ॥ अन्यदा भगवन्तमधिकाष्टवर्ष कलाग्रहणयोग्यं विज्ञाय मातापितरौ लेखाचार्याय उपनीतवन्तौ । आह च अह तं अम्मापिअरो जाणित्ता अहिअअट्ठवासंतु। कयकोउअलंकारं लेहायरिअस्स उवणिति ॥७६॥ (भा०) * गमनिका-'अर्थ' अनन्तरं भगवन्तं मातापितरौ ज्ञात्वा अधिकाष्टवर्षे तु कृतानि रक्षादीनि कौतुकानि केयूराद योऽलङ्काराश्च यस्येति समासः, तं 'लेखाचार्याय उपाध्यायायेत्यर्थः । 'उवणेति' ति प्राकृतशैल्या उपनयतः, पाठान्तरं वा 'उवणेसु' तदा उपनीतवन्त इति गाथार्थः । अत्रान्तरे देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव, अवधिना च विज्ञायेदं प्रयोजनं अहो खस्वपत्यस्नेहविलसितं भुवनगुरुमातापित्रोः येन भगवन्तमपि लेखाचार्याय उपनेतुमभ्युद्यतौ इति संप्रधार्य आगत्य चोपाध्यायतीर्थकरयोः परिकल्पितयोः बृहदल्पयोरासनयोः उपाध्यायपरिकल्पिते बृहदासने भगवन्तं निवेश्य शब्दलक्षणं पृष्टवान् ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयति भाष्यकारः 'सक्को अ०' इत्यादिनेति । *सको अ तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता।सदस्स लक्खणं पुच्छे वागरण अवयवा इंदं ॥७॥(भा०) स जितः तस्योपरि विलनः, स च वर्धित प्रवृत्तः पिशाचरूपं विकुय, तथा स्वामिनाऽभीतेन तळप्रहारेग प्रहतः यथा तत्रैव निमनः, अवापि न | शक्तन्वलित, देवो वन्दित्वा गतः। 5*45*CACHARAKAR दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७७], (४०) यवृत्तिः प्रत सुत्रांक आवश्यक- गमनिका-शक्रश्च तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं 'भगवंत' तीर्थकर आसने निवेश्य शब्दस्य लक्षणं पृच्छति । पाठान्तरं हारिभद्री दवा 'पुच्छिसु सद्दलक्खणं, वागरणं अवयवा इंद' पृष्टवान् शब्दलक्षणं, भगवता च व्याकरणमभ्यधायि, व्याक्रियन्ते । ॥१८२॥ लौकिकसामयिकाः शब्दा अनेनेति व्याकरण-शब्दशास्त्र, तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरणं | विभागः१ संजातमिति गाथार्थः ॥ द्वारम् । विवाहद्वारावयवार्थमभिधित्सयाऽऽहउम्मुकचालभायो कमेण अह जोवणं अणुप्पत्तो। भोगसमत्थं णा अम्मापिअरोउ वीरस्स ॥ ७८॥ (भा)x । गमनिका-एवं उन्मुक्तो बालभावो येनेति समासः, 'क्रमेण उक्तप्रकारेण 'अथ' अनन्तरं 'यौवनं वयोविशेषलक्षणं बालादिभावात् पश्चात् प्राप्तः अनुप्राप्तः । अत्रान्तरे भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयः तेषां समर्थों भोगसमर्थः तं ज्ञात्वा भगवन्तं, कौ ?-मातापितरौ तु वीरस्येति गाथार्थः ॥ किम् ?तिहिरिक्खंमि पसत्थे महन्तसामन्तकुलपसूआए।कारंति पाणिगहणं जसोअवररापकण्णाए ॥७९॥(भा) गमनिका-तिथिश्च ऋक्षं च तिथिऋक्षं, ऋक्ष-नक्षत्रं, तस्मिन् तिथिऋक्षे, 'प्रशस्ते' शोभने, महन्च तत्सामन्तकुलं च महासामन्तकुलं तस्मिन् प्रसूतेति समासः तया, कारयतः मातापितरौ, पाहणं पाणिग्रहणं, कया ?-यशोदा चासौ ॥१८॥ वरराजकन्या चेति विग्रहः तया, तब 'महासामन्तकुलप्रसूतया इत्यनेनाग्वयमहत्त्वमाह, 'बरराजकन्यया' इत्यनेन तु/ तत्कालराज्यसंपधुकतामाहेति गाथार्थः ॥ द्वारम् । अपत्यद्वारावयवार्थं व्याचिख्यासुराह CANCY दीप अनुक्रम JAMERIEntriamona Makrandibraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [८०], (४०) प्रत सूत्राक पंचविहे माणुस्से भोगे मुंजितु संह जसोभाए । तेयसिरिव सुरूवं जणेइ पिअदसणं धूअं ॥८॥(भा०) गमनिका-'पञ्चविधान्' पञ्चप्रकारान् शब्दादीन मनुष्याणामेते मानुष्यास्तान् भोगान् भुक्त्वा 'ततो' यशोदायाः, तेजसः श्रीः तेजःश्रीः तां तेजःश्रियमिव सुरूपां, अथवा तस्याः श्रियमिवेति पाठान्तरं वा । जनयति प्रियदर्शनां 'धुतां' दुहितर, 'जणिसु' वा पाठः, जनितवानिति गाथार्थः॥ द्वारम् । अत्रान्तरे च भगवतः मातापितरौ कालगती, भगवानपि तीर्णप्रतिज्ञः प्रव्रज्याग्रहणाहितमतिः नन्दिवर्धनपुरस्सरं स्वजनमापृच्छति स्म, स पुनराह-भगवन् ! क्षारं क्षते मा | क्षिपस्व, कियन्तमपि कालं तिष्ठ, भगवानाह-कियन्तम् , स्वजन आह-वर्षद्वयं, भगवानाह-भोजनादौ मम व्यापारो नदी वोढव्य इति, प्रतिपन्ने भगवान् समधिक वर्षद्वयं प्रासुकैषणीयाहारः शीतोदकमप्यपिवन तस्थौ, अत्रान्तर एव महादानं दत्तवान् ,लोकान्तिकैश्च प्रतिबोधितः पुनः पूर्णावधिः प्रबजित इति ॥ अमुमेवार्थं संक्षेपतः प्रतिपादयन् आह नियुक्तिकृत्हत्थुसरजोएणं कुंडग्गाममि खत्तिओ जच्चो । वनरिसहसंघयणो भविअजणविबोहओ वीरो ॥ ४५९॥ सो देवपरिग्गहिओ तीसं वासाइ वसइ गिहवासे । अम्मापिइहिं भयवं देवत्तगएहि पब्वइओ ॥ ४६० ॥ गमनिका-हस्तोत्तरायोगेन' उत्तराफाल्गुनीयोगेनेत्यर्थः, कुण्डग्रामे नगरे क्षत्रियो 'जात्यः' उत्कृष्ट इत्यर्थः, वज्रऋषभदू संहननो भव्यजनविरोधको वीरः, किम् ?-मातापितृभ्यां भगवान् देवत्वगताभ्यां प्रबजित इति योगः। द्वितीयगाथाग * तमो वृत्ती प्र० दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६०], भाष्यं [८०], (४०) S प्रत सुत्रांक आवश्यक- मनिका-'सः' भगवान देवपरिगृहीतः त्रिंशद्वर्षाणि वसति, उषित्वा वा पाठान्तरं, गृहवासे शेष व्याख्यातमेव ॥ ४५९-18 हारिभद्री४६०॥ साम्प्रतं भाष्यकारः प्रतिद्वारं अवयवार्थ व्याख्यानयति-'संवच्छरेण.' गाथेत्यादिना यवृत्तिः ॥१८॥ संवच्छरेण ॥८१॥ एगा हिरण्ण ॥८॥ सिंघाडय०॥८३॥ वरवरिआ०॥४॥ तिपणेव य० ॥८५॥ (भा०) विभागः१ इदं गाथापश्चकं ऋषभदेवाधिकारे व्याख्यातत्वान्न वित्रियते ॥ द्वारम् । संबोधनद्वारावयवार्थमाह सारस्सयमाइचा०॥ ८६ ।। एए देवनिकाया०॥८७॥ (भा०) एवं अभिथुव्वंतो बुडो बुडारविंदसरिसमुहो। लोगंतिगदेवेहि कुंडग्गामे महावीरो ॥ ८८ ॥ (भा०) इदमपि गाथात्रयं व्याख्यातत्वात् न प्रतन्यते । आह-ऋषभदेवाधिकारे 'संवोहणपरिच्चाएत्ति' इत्यादिद्वारगाथायां संबोधनोत्तरकालं परित्यागद्वारमुक्तं, तथा मूलभाष्यकृता व्याख्या कृतेति, अधिकृतद्वारगाथायां तु 'दाणे संबोध निक्खमणे' इत्यभिहितं, इत्थं व्याख्या (च) कृतेति । ततश्च इह दानद्वारस्य संबोधनद्वारात् पूर्वमुपन्यासः तत्र वा संबोधनद्वारादुत्तरं परित्यागद्वारस्य विरुध्यत इति, उच्यते, न सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत-संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्ति-17 cारिति, अधिकृतग्रन्थोपन्यासान्यथानुपपत्तेः, नियमेऽपीह दानद्वारस्य बहुतरवक्तव्यत्वात् संबोधनद्वारात्मागुपन्यासो न्याय प्रदर्शनार्थोऽविरुद्ध एव, अधिकृतद्वारगाथानियमे तु व्यत्ययेन परिहारः-तत्राल्पवक्तव्यत्वात् संबोधनद्वारस्य प्रागुपभ्यासः, ॥१८॥ इत्येतावन्तः संभविनः पक्षाः, तत्त्वं तु विशिष्टश्रुतविदो जानन्तीति अलं प्रसझेन ॥ द्वारम् । साम्प्रतं निष्क्रमणद्वारावयहै वाथै व्याचिख्यासुराह SSSS*** दीप अनुक्रम IBERatinintammational allantanasarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [८९], (४०) प्रत सूत्राक CIRCRACT मणपरिणामोअकओ अभिनिक्खमणमिजिणवरिंदेणादेवोहि य देवीहिँ यसमंतओ उच्छयं गयण।।८९॥ (भा०) गमनिका-मनःपरिणामश्च कृतः 'अभिनिष्क्रमणे' इति अभिनिष्क्रमणविषयो जिनवरेन्द्रेण, तावत् कि संजातमित्याह-देवैर्देवीभिश्च 'समन्ततः' सर्वासु दिक्षु 'उच्छयं गयणं' ति व्याप्तं गगनमिति गाथार्थः॥ भवणवइवाणमंतरजोहसवासी विमाणवासी आधरणियले गयणयले विजुजोओकओ खिप्पं ॥१०॥(भा०) | गमनिका-थैर्देवैः गगनतलं व्याप्तं ते खल्बमी वर्तन्ते-भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनश्चेति समासः, ज्योतिःशब्देन इह तदालया एवोच्यन्ते, विमानवासिनश्च । अमीभिरागच्छनिः धरणितले गगनतले विद्युतामिवोद्योतो विद्युदुद्योतः कृतः क्षिप्रं शीघ्रमिति गाथार्थः ।। जाव य कुंडग्गामो जावय देवाण भवणआवासा । देवोह य देवीहि य अविरहिअं संचरंतेहिं ॥ ९१ ॥ (भा०) | गमनिका-यावत् कुण्डग्रामो यावच्च देवानां भवनावासां अत्रान्तरे धरणितलं गगनतलं च देवैः देवीभिश्च 'अविरहित' ब्याप्तं संचरद्भिरिति गाथार्थः ॥ अत्रान्तरे देवैरेव भगवतः शिविकोपनीता, तामारुह्य भगवान् सिद्धार्थवनमगमत् , अमुमेवार्थ प्रतिपादयति-'चंदप्पभा येत्यादिना'चन्दप्पभा य सीआ उवणीआ जम्मजरणमुक्कस्स।आसत्तमल्लदामा जलयथलयविकुसुमहिं ॥९॥ (भा०) व्याख्या-चन्द्रप्रभा शिबिकेत्यभिधानं 'उपनीता' आनीता, कस्मै ?-जरामरणाभ्यां मुक्तवत् मुक्तः तस्मै-वर्धमानाये दीप अनुक्रम Hiralanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [९२], (४०) आवश्यक ॥१८४॥ प्रत सुत्रांक त्यर्थः, पष्ठी चतुर्थ्यर्थे द्रष्टव्या। किंभूता सेत्याह-आसक्तानि माल्यदामानि यस्यां सा तथोच्यते, तथा जलजस्थलजदि- हारिभद्रीव्यकुसुमैः, चर्चितेति वाक्यशेषः इति गाथार्थः ॥ शिबिकाप्रमाणदर्शनायाह यवृत्ति पंचासह आयामा धणूणि विछिपण पण्णवीसंतु। छत्तीसइमुग्विद्धासीया चंदप्पभा भणिआ ॥९३॥ (भा०ाद विभागः१ __व्याख्या-पश्चाशत् धनूंषि आयामो-दैर्ध्य यस्याः सा पञ्चाशदायामा धषि, विस्तीर्णा पञ्चविंशत्येव, पत्रिंशद्धषि 'उविद्धत्ति' उच्चा, उच्चैस्त्वेन षट्त्रिंशद्धपीति भावार्थः, शिविका चन्द्रप्रभाभिधाना 'भणिता' प्रतिपादिता तीर्थकरगणधरैरिति, अनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाहेति गाथार्थः॥ सीआइ मज्झयारे दिव्वं मणिकणगरयणचिंचइसीहासणं महरिहं सपायचीद जिणवरस्स ॥१४॥(भा०) | व्याख्या-शिविकाया मध्य एव मध्यकारस्तस्मिन् 'दिव्यं सुरनिर्मितं मणिकनकरत्नखचितं सिंहासनं महाई, तत्र मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः कनक-देवकाञ्चनं रत्लानि-मरकतेन्द्रनीलादीनि 'चिंचइ ति देशीवचनतः खचितमित्युच्यते । सिंहप्रधानमासनं सिंहासनं, महान्तं भुवनगुरुमर्हतीति महार्ह, सह पापीठेनेति सपादपीठं, जिनवरस्य, कृतमिति | वाक्य शेषः इति गाथार्थः॥ ॥१८॥ आलइअमालमउडो भासुरवोंदी पलंबवणमालो । सेययवत्थनियत्थो जस्स य मोल्लं सपसहस्सं ॥१५॥ उद्वेणं भत्तेणं अज्झवसाणेण सोहणेण जिणो । लेसाहि विसुज्झतो आहहई उत्तम सीअं ॥९६॥ (भा०) * सुंदरेण वृत्तौ. दीप SCSSCk अनुक्रम T Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१६], (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-आलइ आविद्धमुच्यते, माला-अनेकसुरकुसुमग्रथिता, मुकुटस्तु प्रसिद्ध एव, माला च मुकुटश्च मालाxiमुकुटी आविद्धी मालामुकुटौ यस्येति विग्रहः । भास्वरा-छायायुक्ता बोन्दी-तनुः यस्य स तथाविधः, प्रलम्बा वनमाला-151 प्रागभिहिता अन्या वा यस्येति समासः । 'सेययवत्थनियत्थो' ति नियत्थं-परिहितं भण्णइ, निवसितं श्वेतं वस्त्रं येन स निवसितश्वेतवस्त्रः, बन्धानुलोम्यात् निवसितशब्दस्य सूत्रान्ते प्रयोगः, लक्षणतस्तु बहुव्रीही निष्ठान्तं पूर्व निपततीति पूर्व द्रष्टव्यः, श्वेतवस्त्रपरिधान इत्यर्थः । यस्य च मूल्यं शतसहस्र दीनाराणामिति गाथार्थः । स एवंभूतो भगवान् मार्गशीर्ष-18 बहुलदशम्या हस्तोत्तरानक्षत्रयोगेन 'छट्वेणं भत्तेणं' इत्यादि, पछेन भक्तेन, दिनद्वयमुपोषित इत्यर्थः । अध्यवसानं-अन्तःकरणसव्यपेक्ष विज्ञानं तेन 'सुन्दरेण शोभनेन 'जिनः' पूर्वोक्तः, तथा लेश्याभिर्विशुध्यमानःमनोवाकायपूर्विकाः कृष्णादि-I द्रव्यसंबन्धजनिताः खलु आत्मपरिणामाः लेश्या इति, उक्तं च-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् ,परिणामो य आत्मनः। स्फटिक-13 स्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥" ताभिः विशुध्यमानः, किम् ?-आरोहति 'उत्तमा प्रधानां शिबिकामिति गाथार्थः ।। सीहासणे निसण्णो सकीसाणा य दोहि पासेहिं । वीअंति चामरेहिं मणिकर्णगविचित्तदंडेहिं ॥१७॥ (भा०) द्रा व्याख्या-तत्र भगवान् सिंहासने निषण्णः शक्रेशानौ च देवनाथौ द्वयोः पार्श्वयोः व्यवस्थिती, किम् ?-वीजयतः, काभ्याम् ?-चामराभ्यां, किंभूताभ्याम् ?-मणिरत्नविचित्रदण्डाभ्यामिति गाथार्थः ॥ एवं भगवति शिविकान्तर्वतिनि |सिंहासनारूढे सति सा शिविका सिद्धार्थोद्याननयनाय उत्क्षिप्ता ॥ कैरित्याह * यण वृत्ती. दीप अनुक्रम Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~372 ~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥१८५॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [४६०...], भाष्यं [९८], | पुठिंब उक्खित्ता माणुसेहिं सा हट्टरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीअं असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ ९८ ॥ ( भा० ) ६ हारिभद्रीव्याख्या - 'पूर्व' प्रथमं 'उत्क्षिप्ता' उत्पाटिता, कैः ?-मानुषैः, सा शिक्षिका, किंविशिष्टैः १-हृष्टानि रोमकूपानि येषामितिसमासः, तैः । पश्चाद्वहन्ति शिविकां, के ? - असुरेन्द्रसुरेन्द्रनागेन्द्रा इति गाथार्थः ॥ असुरादिस्वरूपव्यावर्णनायाहचलचवलभूसणधरा सच्छंदविडव्विआभरणधारी । देविंददाणविंदा बहंति सीअं जिनिंदस्स ।। ९९ ।। (भा० ) _यवृत्तिः विभागः १ गमनिका - चलाश्च ते चपलभूषणधराश्चेति समासः । चलाः- गमनक्रियायोगात् हारादिचपलभूषणधराश्च । स्वच्छन्देन - स्वाभिप्रायेण विकुर्वितानि-देवशक्त्या कृतानि आभरणानि - कुण्डलादीनि धारयितुं शीलं येषामिति समासः । अथवा चलचपलभूषणधरा इत्युक्तं, तानि च भूषणानि किं ते परनिर्मितानि धारयन्ति उत नेति विकल्पसंभवे व्यवच्छेदार्थमाह'स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः क एते ? देवेन्द्रा दानवेन्द्राः, किम् ?-वहन्ति शिबिकां जिनेन्द्रस्येति गाथार्थः । अत्रान्तरेकुसुमाणि पंचवण्णाणि सुयंता दुंदुही य ताडंता । देवगणा य पहड़ा समंतओ उच्छयं गयणं ॥ १०० ॥ ( भा० ) व्याख्या---भगवति शिविकारूढे गच्छति सति नभःस्थलस्थाः कुसुमानि शुक्लादिपञ्चवर्णानि मुञ्चन्तः तथा दुदुम्भींस्ताडयन्तश्च, के ?- 'देवगणाः' देवसंघाताः, चशब्दस्य प्राक्संबन्धो व्यवहितः प्रदर्शित एव, प्रकर्षेण हृष्टाः प्रहृष्टाः, किम् ? - भगवन्तमेव स्तुवन्तीति क्रियाऽध्याहारः । एवं स्तुवद्भिर्देवैः किमित्याह-'समन्ततः' सर्वासु दिक्षु सर्व 'उच्छयं गगणं' व्याप्तं गगनमिति गाथार्थः ॥ | वणसंडोब्ब कुसुमिओ पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुम भरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं । १०१ भा० ) Education intemational For Funny ॥१८५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः भगवत: दीक्षा (अभिनिष्क्रमण) स्य वर्णनम् ~ 373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०१], (४०) X* प्रत सूत्राक गमनिका-वनखण्डमिव कुसुमितं पद्मसरो वा यथा शरत्काले शोभते कुसुमभरेण-हेतुभूतेन, 'इय' एवं गगनतलं सुरगणैः शुशुभे इति गाथार्थः ॥ सिद्धत्थवणं च(व)जहा असणवणं सणवणं असोगवणाचूअवर्णव कुसुमिअंइअगयणयलं सुरगणेहिं१०२(भा०) व्याख्या-सिद्धार्थकवनमिव यथा असनवनं, अशनाः-बीजकाः, सणवनं अशोकवनं चूतवनमिव कुसुमितं, 'इ' एवं गगनतलं सुरगणै रराजेति गाथार्थः॥ अयसिवणं व कुसुमिअं कणिआरवणं व चंपयवणं य । तिलयवणं व कुसुमिअं इअ गयणतलं सुरगणेहिं ॥१०३ ॥ (भा०) व्याख्या-अतसीवनमिव कुसुमितं, अतसी-मालवदेशप्रसिद्धा, कर्णिकारवनमिव चम्पकवनमिव तथा तिलकवनमिव कुसुमितं यथा राजते, 'इ' एवं गगनतलं सुरगणैः क्रियायोगः पूर्ववदिति गाथार्थः॥ वरपडहभेरिझल्लरिदुंदुहिसंखसहिएहिं तूरेहिं । धरणियले गयणयले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥१०४॥(भा०) व्याख्या-घरपटहभेरिझल्लरिदुन्दुभिशङ्खसहितैस्तूयः करणभूतैः, किम् ?-धरणितले गगनतले ‘तूर्यनिनाद' तूर्यनिर्घोषः परमरम्योऽभवदिति गाथार्थः। एवं सदेवमणुआसुराएँ परिसाएँ परिवुडो भयवं । अभिथुव्वंतो गिराहिं संपत्तो नायसंडवणं ॥१०५॥ (भा०) *55* दीप अनुक्रम * JAMERatinila Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१८६॥ aus Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ४६०...], भाष्यं [१०५], गमनिका—'एवं' उक्तेन विधिना, सह देवमनुष्यासुरैर्वर्त्तत इति सदेवमनुष्यासुरा तया, कयेत्याह-परिषदा परिवृतो भगवान् अभिस्तूयमानो 'गीर्भिः' वाग्भिरित्यर्थः, संप्राप्तः ज्ञातखण्डवनमिति गाथार्थः ॥ उज्जाणं संपत्तो ओरुभइ उत्तमाउ सीआओ । सयमेव कुणइ लोअं सको से पढिच्छए केसे ॥ १०६ ॥ ( भा० ) गमनिका - उद्यानं संप्राप्तः, 'ओरु हइत्ति' अवतरति उत्तमायाः शित्रिकायाः, तथा स्वयमेव करोति लोचं, 'शो' देवराजा 'से' तस्य प्रतीच्छति केशानिति, एवं वृत्तानुवादेन ग्रन्थकारवचनत्वात् वर्त्तमाननिर्देशः सर्वत्र अविरुद्ध एवेति गाथार्थः ॥ ' जिणवरमणुण्णवित्ता अंजणघणरूपगविमल संकासा । केसा खणेण नीआ खीरसरिसनामयं उदहिं ॥ १०७ ॥ ( भा० ) गमनिका - शक्रेण - जिनवरमनुज्ञाप्य अञ्जनं प्रसिद्धं घनो - मेघः रुकु - दीप्तिः, अञ्जनघनयो रुक् अञ्जनघनरुक् अञ्जनघन रुग्वत् विमलः संकाशः - छायाविशेषो येषां ते तथोच्यन्ते । अथवा अञ्जनघनरुचकविमलानामिव संकाशो येषामिति समासः 'रुचकः' कृष्णमणिविशेष एव क एते १-केशाः किम् ? -क्षणेन नीताः, कम् ? - 'क्षीरसदृशनामानमुदधिं क्षीरोदधिमिति गाथार्थः ॥ अत्रान्तरे च चारित्रं प्रतिपत्तुकामे भगवति सुरासुरमनुजवृन्दसमुद्भवो ध्वनिस्तूर्यनिनादश्च शक्रादेशाद् विरराम, अमुमेवार्थे प्रतिपादयन्नाह दिव्वो मणूसघोसो तूरनिनाओ अ सकवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवजह चरितं ॥ १०८ ॥ (भा० ) गमनिका - 'दिव्यो' देवसमुत्थो मनुष्यघोषश्च चशब्दस्य व्यवहितः संवन्धः, तथा तूर्यनिनादश्च शक्रवचनेन 'क्षिप्र For Funny हा रिभद्री यवृत्तिः विभागः १ ~ 375~ ॥१८६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Education intam “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०८], मेव' शीघ्रमेव 'निलुकोत्ति' देशीवचनतो विरतः 'यदा' यस्मिन् काले प्रतिपद्यते चारित्रमिति गाथार्थः ॥ स यथा चारित्रं प्रतिपद्यते तथा प्रतिपिपादयिषुराह काऊण नमोकारं सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे । सव्वं मे अकरणिज्जं पार्वति चरितमारूढो ॥ १०९ ॥ ( भा० ) व्याख्या - कृत्वा नमस्कारं सिद्धेभ्यः अभिग्रहमसौ गृह्णाति, किंविशिष्टमित्याह सर्व 'मे' मम 'अकरणीयं' न कर्त्तव्यं, किं तदित्याह - पापमिति, किमित्याह - चारित्रमारूढ इतिकृत्वा, स च भदन्तशब्दरहितं सामायिकमुच्चारयतीति गाथार्थः ॥ चारित्रप्रतिपत्तिकाले च स्वभावतो भुवनभूषणस्य भगवतो निर्भूषणस्य सत इन्द्रो देवदूष्यवस्त्रमुपनीतवान् इति । अत्रान्तरे कथानकम् - एगेण देवदूसेण पचएड, एतं जाहे अंसे करेइ एत्थंतरा पिडवयंसो धिज्जाइओ उवडिओ, सो अ दाणकाले कहिंपि पवसिओ आसी, आगओ भज्जाए अंबाडिओ, सामिणा एवं परिचत्तं तुमं च पुण वणाइ हिंडसि, जाहि जइ | इत्थंतरेऽवि लभिज्जासि । सो भणइ सामि ! तुब्भेहिं मम न किंचि दिण्णं, इदार्णिपि मे देहि । ताहे सामिणा तरस दूसस्स अद्धं दिण्णं, अनं मे नत्थि परिचत्तंति । तं तेण तुष्णागस्स उवणीअं जहा एअस्स दसिआओ बंधाहि । कत्तोत्ति 1 एकेन देवदूष्येण प्रनजति, एतद् यदासे करोति, अत्रान्तरे पितृवयस्यो चिजातीयः उपस्थितः स च दानकाले कुत्रापि प्रोषितोऽभवत् आगतो भार्यया तर्जितः खामिना एवं परित्यक्तं त्वं च पुनर्वनानि हिण्डसे याहि यद्यत्रान्तरेऽपि लभेयाः । स भगति-स्वामिन्! युष्माभिर्मम न किञ्चितं इदानीमपि मझं देहि तथा स्वामिना तसे दूध्यस्थार्थं दत्तं, अभ्यम्मे नास्ति परित्यक्तमिति । तत्तेन तुलवायायोपनीतं यथैतस्य दशा बधान । कुत इति For Funny www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०९], (४०) आवश्यक ॥१८७॥ प्रत सूत्राक ACANCIENC-DACC0 पुच्छिए भणति-सामिणा दिण्णं, तुण्णाओ भणति-तंपि से अर्दू आणेहि, जया पडिहिति भगवओ अंसाओ, ततो अहं हारिभद्रीतण्णामि ताहे लक्खमोलं भविस्सइत्ति तो तुज्झवि अर्द्ध मज्झवि अद्धं, पडिवण्णो ताहे पओलग्गिओ, सेसमुवरियवृत्तिः भणिहामि । अलं प्रसङ्गेन ॥ तस्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिसमनन्तरमेव मनःपर्यायज्ञानमुदपादि, सर्वतीर्थकृतां चाय विभागः१ क्रमो, यत आह तिहि नाणेहि समग्गा तित्थयरा जाव हुँति गिहवासे।। पडिवणमि चरित्ते चउनाणी जाव छउमत्था ॥११०॥ (भा०) व्याख्या-'त्रिभिमा॑नः' मतिश्रुतावधिभिः संपूर्णाः तीर्थकरणशीलास्तीर्थकरा भवन्तीति योगः। किं सर्वमेव कालम् , नेत्याह-यावद्गृहबासे भवन्तीति वाक्यशेषः । प्रतिपन्ने चारित्रे चतुर्सानिनो, भवन्तीत्यनुवर्तते । कियन्तं कालमित्याहयावत् छद्मस्थाः तावदपि चतुज्ञानिन इति गाथार्थः ॥ एवमसी भगवान् प्रतिपन्नचारित्र: समासादितमनःपर्यवज्ञानो ज्ञातखण्डादापृच्छय स्वजनान् कारग्राममगमत् । आह च भाष्यकार:बहिआ य णायसंडे आपुच्छित्ताण नायए सब्वे। दिवसे मुहत्तसेसे कुमारगामं समणुपत्तो ॥१११॥ (भा०)। व्याख्या-बहिर्धा च कुण्डपुरात् ज्ञातखण्ड उद्याने, आपृच्छच 'ज्ञातकान्' स्वजनान् 'सर्वान्' यथासन्निहितान्, ISI ॥१८७॥ १ पृष्टे भणति-स्वामिना दत्तं, तुमचायः भणति-तदपि तस्या आनय, बदा पतति भगवतोऽसात् , ततोऽहं क्यामि । तदा लक्षमूल्यं भविष्यवीत्ति, ततस्तवाप्य ममाप्यध, प्रतिपक्षस्तदा प्रावलमः । शेषमुपरिष्टात् भणिष्यामि. दीप अनुक्रम Swajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: भगवत् महावीरस्य विहार एवं उपसर्गानां वर्णनं ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [४६०...]. आष्यं [१११], तस्मात् निर्गतः, कर्मारग्रामगमनायेति वाक्यशेषः । तत्र च पथद्वयं-एको जलेन अपरः स्थल्यों, तत्र भगवान् स्थल्यां गतवान् गच्छंश्च दिवसे मुहूर्त्तशेषे कर्मारग्राममनुप्राप्त इति गाथार्थः ॥ तत्र प्रतिमया स्थित इति । अत्रान्तरे तत्थेगो गोवो, सो दिवस बइले बाहित्ता गामसमीवं पतो, ताहे चिंतेइ एए ग्रामसमीवे चरंतु, अर्हपि ता गावीओ दुहामि, सोऽवि ताव अन्तो परिक्रम्मं करेइ, तेऽवि बइला अडविं चरन्ता पविडा, सो गोवो निग्गओ, ताहे सामिं पुच्छड़-कहिं बइला ?, ताहे सामी तुण्डिको अच्छइ, सो चिंतेइ एस न याणइ, तो मग्गिडं पवत्तो सवरत्तिपि, तेऽवि बहल्ला सुचिरं भमित्ता गामसमीवमागया माणुसं दद्दूण रोमंथंता अच्छंति, ताहे सो आगओ, ते पेच्छइ तत्थेव निविहे, ताहे आमुरुतो एएण दामएण आहणामि, एएण मम एए हरिआ, पभाए घेतूण वचिहामिति । ताहे सको देवराया चिंते किं अज्ज सामी पढमदिवसे करेइ ?, जाव पेच्छइ गोवं धावतं, ताहे सो तेण थंभिओ, पच्छा आगओ तं तज्जेति-दुरप्पा ! न याणसि सिद्धत्थरायपुत्तो एस पवइओ । एवंमि अंतरे सिद्धत्यो सामिस्स माउसियाउतो बालतवोकम्मेणं वाणमन्तरो जाएलओ, १ पादाभ्याम् प्र०२ उत्रेको गोपः स दिवस बलीवर्दी वाहवा ग्रामसमीपं प्राप्तः, तदा चिन्तयति एती ग्रामसमीपे चरत, अहमपि तावदू गा दोझि, सोऽपि तावदन्तः परिकर्म करोति तावपि बलीवर्दी चरन्तावटवीं प्रविष्टौ स गोपो निर्गतः, तदा स्वामिनं पृच्छतिक बलीवदों, तदा खामी तूष्णीकस्तिष्ठति, स चिन्तयति एष न जानाति ततः मार्गवितुं प्रवृत्तः सर्वराजमपि तावपि बलीवदों सुचिरं भ्राम्खा ग्रामसमीपमागतौ मानुषं दृड्डा रोमन्थायमानौ तिष्ठतः, तदा स आगतः तौ पश्यति तत्रैव निविष्ट, तदा कुद्ध एतेन दाम्नाऽऽहन्मि एतेन मम एवौ हतौ प्रभाते गृहीत्वा वजिष्यामीति । तदा शो देवराजचिन्तयति किमथ स्वामी प्रथमदिवसे करोति यावत्पश्यति गोपं धावन्तं, तदा स तेन खम्भितः पश्चादागतस्त्रं तपति-दुरात्मन् ! न जानीषे सिद्धार्थराजपुत्र एष प्रवजितः पुरास्निन्तरे सिद्धार्थः स्वामिनः मातृष्वसेयः वातपः कर्मणा वानमम्तरो जातोऽभवत् Euta For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 378~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१११] (४०) आवश्यक- ॥१८॥ प्रत सुत्रांक सो आगओ । ताहे सको भणइ भगवं! तुभ उवसग्गबहुलं, अहं बारस बरिसाणि तुम्भं वेयावच्च करेमि, ताहे सामिणा हारिभद्रीभणि-न खलु देविंदा! एयं भूकंवा (भवं वा भविस्सं वा) जपणं अरहता देविंदाण वा असुरिंदाण वा निस्साए कट्टरायवृत्तिः केवलनाणं उप्पाडेंति, सिद्धिं वा वञ्चंति, अरहंता सरण उहाणबलविरियपुरिसकारपरकमेणं केवलनाणं उप्पाडेति । ताहे विभागः१ सकेण सिद्धस्थो भण्णइ-एस तव नियल्लओ, पुणो य मम वयणं सामिस्स जो परं मारणंतिअं उबसगं करेर तं वारेजसु,81 एवमस्तु तेण पडिस्सु, सको पडिगओ, सिद्धत्यो ठिओ। तदिवसं सामिस्स छपारणयं, तो भगवं विहरमाणो गओ कोलागसण्णिवेसे, तस्थ य भिक्खडा पविहो बहुलमाहणगेह, जेणामेव कुल्लाए सन्निवेसे बहुले माहणे, तेण महुपयसंजुत्तेण परमण्णण पडिलाभिओ, तत्थ पंच दिवाई पाउन्भूयाई । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह गोवनिमित्तं सकस्स आगमो वागरेइ देविंदो । कोल्लाबहुले छहस्स पारणे पयस वसुहारा ॥ ४६१॥ . व्याख्या-ताडनायोचतगोपनिमित्तं प्रयुक्तावधेः 'शक्रस्य देवराजस्य, किम् ?, आगमनं आगमः अभवत्, विनिवार्य स आगतः । तदा शको भणति-भगवन् ! तव नवसर्गबहुलं (श्रामण्यं) अहं द्वादश वर्षाणि तब वैयावृत्यं करोमि, तदा स्वामिना भणितम्-न खलु देवेन्द्र ! एतद्भूत वा ३(भवति वा भविष्यति पा) बद् अन्तः देवेन्द्राणां वा असुरेन्द्राणां चा निश्रया कृत्या केवलज्ञानमुत्पादयन्ति, सिदिया बजन्ति, अहन्तः सकेन अत्यामबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण केवलज्ञानमुत्पादयन्ति । तदा शरण सिद्धार्थों भव्यते-पुष तव निजकः, पुना मम पचन-स्वामिनः ॥१८८ या पर मारणान्तिकमुपसर्ग करोति सं वारयः । तेन प्रतिधुतं, पाकः प्रतिगतः, सिद्धार्थः स्थितः । तदिवस स्वामिना पापारणक, ततो भगवान् विहान गतः कोलाकस निवेशे, तन्त्र च भिक्षा प्रविष्टः पालनाक्षणगृयत्रैव कुल्लाकसनिवेशे बहुलो ब्राह्मणः, तेन मधुपतसंयुक्तेन परमार्जन प्रतिलम्भितः, तना दिग्यानि प्रादुर्भूतानि दीप A अनुक्रम T JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~379~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) प्रत सूत्राक च गोपं 'वागरेइ देविंदो' त्ति भगवन्तमभिवन्ध 'व्याकरोति' अभिधत्ते देवेन्द्रो-भगवन् ! तवाह द्वादश वर्षाणि वैयावृत्त्यं करोमीत्यादि, 'वागरिंसु' या पाठान्तर, व्याकृतवानिति भावार्थः, सिद्धार्थ वा तत्कालप्राप्त व्याकृतवान् देवेन्द्रः-भगवान् खया न मोक्तव्य इत्यादि । गते देवराजे भगवतोऽपि कोल्लाकसन्निवेशे बहुलो नाम ब्राह्मणः 'षष्ठस्य' तपोविशेषस्य पारणके, किम्, 'पयस' इति पायसं समपनीतवान, 'वसुधारे'ति तद्गहे वसुधारा पतितेति गाथाक्षरार्थः॥ कथानकम्-तओ। सामी विहरमाणो गओ मोरागं सन्निवेसं, तत्थ मोराए दुइजता नाम पासंडिगिहत्था, तेर्सि तत्थ आवासो, तेसिं च कुलवती भगवओ पिउमित्तो, ताहे सो सामिस्स सागएण उवडिओ, ताहे सामिणा पुवपओगेण बाहा पसारिआ, सो| भणति-अस्थि घरा, एत्थ कुमारवर ! अच्छाहि, तत्थ सामी एगराइअं बसित्ता पच्छा गतो, विहरति, तेण य भणियं-1 विवित्ताओ वसहीओ, जइ वासारत्तो कीरइ, आगच्छेजह अणुग्गहीया होजामो । ताहे सामी अङ्क उउबद्धिए मासे | विहरेत्ता वासावासे उवागते तं चेबदुइजतयगाम एति, तत्थेगमि उडवे वासावासं ठिओ । पढमपाउसे य गोरूवाणि चारित्र अलभंताणि जुण्णाणि तणाणि खायंति, ताणि य घराणि उबेल्ति, पच्छा ते वारेति, सामी न वारेइ, पच्छा दूइजंतगा| ततः स्वामी विहरन् गतो मोराकं सन्निवेश, सत्र मोराके दूइजन्ता (द्वितीयान्ता)नाम पापण्डिनो गृहस्वाः, तेषां तन्त्रावासः, तेषां च कुलपतिः । भगवतः पितुः मित्रम्, तदास स्वामिनं स्वागतेन उपस्थितः, तदा स्वामिना पूर्वप्रयोगेण बाहुः प्रसारितः, स भणति-सन्ति गृहाणि, अत्र कुमारवर ! तिध, तब स्वामी एका रानि उपिया पश्चागतः, विहरति, तेन च भप्पितम्-विविक्ता वसतयः, यदि वर्षारानः क्रियते, बागमिष्यः अनुगृहीता अभविष्याम । तदा स्वामी अष्टौ ऋतुबद्धान् मासान् विद्वत्य वर्षावासे उपागते तमेव द्वितीयान्तकग्राममेति, तत्रैकमिन् उटजे वर्षावासं स्थितः । प्रथमावृषि च गावः चारिमलभमाना जीणोनि तृणानि खादन्ति, तानि च गृहाणि उद्वेलयन्ति, पश्चाने वारयन्ति, स्वामी न वारयति, पञ्चादू द्वितीयान्तकाः.* उवणे प्र०.२ मढे प्र. दीप अनुक्रम JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) आवश्यक- ॥१८९॥ प्रत तस्स कुलवइस्स साहेति जहा एस एताणि न णिवारेति, ताहे सो कुलवती अणुसासति, भणति कुमारवर! सउणीवि ताव | हारिभद्री|अप्पणिअं रक्खंति, तुमं वारेज्जासि, सप्पिवासं भणति ।ताहे सामी अधियत्तोग्गहोत्तिकाउं निग्गओ, इमे य तेण पंच | यवृत्ति | अभिग्गहा गहीआ, तंजहा-अचियत्तोग्गहे न वसिय १ निच्चं वोसहकाएण २ मोणेणं ३ पाणीसु भोत्तवं ४ गिहत्थो नाविभागः१ वंदियघो नऽभुढेतबो ५, पते पंच अभिम्गहा । तत्थ भगवं अद्धमासं अच्छित्ता तओ पच्छा अहितगार्म गतो । तस्स पुण| अडिअगामस्स पढम वद्धमाणगं नाम आसी, सो य किह अछियग्गामो जाओ,धणदेवो नाम बाणिअओ पंचहिं धुरसरहिं| गणिमधरिममेजस्स भरिपहिं तेणंतेण आगओ, तस्स समीवे य वेगवती नाम नदी, तं सगडाणि उत्तरंति, तस्स एगो बइलो। | सो मूलधुरे जुप्पति, तावच्चएण ताओ गड्डिओ उत्तीण्णाओ, पच्छा सो पडिओ छिन्नो, सो वाणिअओ तस्स तणपाणि पुरओ छडेऊण तं अवहाय गओ। सोऽवि तत्थ वालुगाए जेठ्ठामूलमासे अतीव उण्हेण तण्हाए छुहाए य परिताविजइ, सुत्रांक ACCOLCANCY दीप अनुक्रम तमै कुलपतये कथयन्ति-पधा एष एता न निवारयति, तदा स कुलपतिरनुशालि, भणति-कुमारवर शकुनिरपि तावदात्मीयं नीदं रक्षति,बंधारयः, | सपिपास भणति । तदा खामी मप्रीतिकावग्रह इतिकृया निर्गतः, इमे च तेन पब अभिमहा गृहीताः, तबधा-अमीतिकावप्रहेन वसनीय, नित्यं म्युरसृष्टकायेन, मौनेन, पाग्योभीकम्प, गृहस्थो न वन्दयितव्यः, नाभ्युत्थासम्पः, पते पञ्च अभिप्रहाः । तत्र भगवान् अर्धमासं स्थित्वा ततः पश्चात् अस्थिकामं गतः, तस्य | पुनरस्थिकग्रामस्य प्रथम वर्षमानक नामासीत्, स च कथमस्थिकग्रामो जातः, धनदेवो नाम वणिक् पञ्चभिर्धशतैः धिमधरिममे तैखेन मार्गेज आगतः, तस्य समीपे च वेगवती नाम नदी, तां शकटानि उत्तरन्ति, तस्य एको बलीवर्दः समूलधुरि योग्यते, तदीयेन (पीण) तामन्य उत्तीर्णाः, पचास्स छिनः पतितः, स पणिक् तख तृणपानीयं पुस्तस्त्वक्त्वा तं अपहाय गतः । सोऽपि तत्र वालुकायां ज्येष्ठामूलमासे अतीवोषणेन तृपया क्षुधा च परिताप्यते. * रक्खंति प्र०. १८९॥ 1 IDrom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) प्रत हवद्धमाणओ य लोगो तेणतेण पाणि तणं च वहति, न य तस्स कोइवि देइ, सो गोणो तस्स पओसमावण्णो, अकाम तण्हाछुहाए य मरिऊणं तत्थेव गामे अग्गुजाणे सूलपाणीजक्खो उप्पण्णो, उवउत्तोपासति तं बलीवहसरीरं, ताहे रुसिओम मारि विउपति, सो गामो मरिउमारद्धो, ततो अद्दण्णा कोउगसयाणि करति, तहवि ण हाति, ताहे भिष्णो गामो अण्णगा-| मेसु संकेतो, तत्वाविन मुंचति, ताहे तेसिं चिंता जाता-अम्हेहिं तत्थ न नज्जइ-कोऽवि देवो वा दाणवो वा विराहिओ, तम्हा तहिं चेव बच्चामो, आगया समाणा नगरदेवयाए विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उपक्खडावेंति, बलिउवहारे करता समंतओ उडमुहा सरणं सरणंति, जं अम्हेहिं सम्मं न चेहि तस्स खमह, ताहे अंतलिक्खपडिवण्णो सो देवो भणति-तुम्हे दुरप्पा निरणुकंपा, तेणतेण य एह जाह य, तस्स गोणस तर्ण वा पाणिअंधान दिण्णं, अतो नस्थि भेमोक्खो, ततो व्हाया पुप्फबलिहत्थगया भणंति-दिवो कोवो पसादमिच्छामो, ताहे भणति-एताणि माणुसअछिआणि सूत्राक दीप अनुक्रम वर्धमान लोक तेन मार्गेण पानीयं तृणं च पति, न च तमै कश्चिदपि ववाति, सगौलव प्रद्वेषमापनः, अकामतृषा क्षुधा च मृत्मा तीच यामे अनोबाने (मायुधाने)शूलपाणिर्यक्ष बत्पनः, उपयुक्तः पश्यति तत् बलीधईशरीर, तदा रुष्टो मारि विकुर्वतिस प्रामो म मारब्धः, ततोऽतिमुपगताः कौतुकशतानि कुर्वन्ति, तथापि न तिष्ठति (म चिरमति), बदा भिनो प्रामः अन्यप्रामेषु संक्रान्तः, तत्रापि न मुञ्चति, तदा तेषां चिन्ता जाता, अस्माभिसत्र न ज्ञायतेकोऽपि देवो वा दानयो वा विराबः, तस्मात् तवैव भजामः, भागताः सन्तः नगरदेवतायै विपुलमशन पानं वाचं खाद्य उपस्कुर्वन्ति, बल्खुपहारान् कुर्वन्तः समन्तत मुखाः शरणं शरणमिति, बदमाभिः सम्पम् न चेष्टितं तत् क्षमस्व, तदा अन्तरिक्ष प्रतिपन्नः स देवो भणति-यूर्य दुरात्मानो निरनुकम्पाः, तेन मार्गगव आगच्छत यात च, तम गये तृणं वा पानीयं वा न दत्तं, तो नाति भवतां मोक्षः, ततः, खाताः हस्तगतपुष्पवालिकाः भणन्ति-re: कोपः प्रसाइमिच्छामः, तदा भणति-एतानि मानुपास्थीनि T arorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥ १९०॥ Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६१] भष्यं [१११...] 'पुंजं काऊण उवरि देवउलं करेह, सूलपाणिं च तत्थ जक्खं बलिवद्दं च एगपासे ठवेह, अण्णे भणति तं बल्लरूवं करेह, तस् य हेट्ठा ताणि से अट्ठिआणि निहणह, तेहिं अचिरेण कथं, तत्थ इंदसम्मो नाम पडियरगो कओ । ताहे लोगो पंथिगादि पेच्छइ पंडरडिअगामं देवउलं च ताहे पुच्छंति अण्णे कयराओ गामाओ आगता जाह वत्ति, ताहे भांतिजत्थ ताणि अहियाणि, एवं अट्ठिअगामो जाओ । तत्थ पुण वाणमंतरघरे जो रत्तिं परिवसति सो तेण सूलपाणिणा जक्खेण वाहेत्ता पच्छा रतिं मारिजइ, ताहे तत्थ दिवस लोगो अच्छति, पच्छा अण्णत्थ गच्छति, इंदसम्मोऽवि धूपं | दीवगं च दाई दिवसओ जाति । इतो य तत्थ सामी आगतो, दूतिंज्जतगामपासाओ, तत्थ य सबो लोगो एगत्थ पिंडिओ अच्छइ, सामिणा देवकुलिगो अणुण्णविओ, सो भणति-गामो जाणति, सामिणा गामो मिलिओ चेवाणुण्णविओ, गामो भणति एत्थ न सक्का वसिउं, सामी भाइ- नवरं तुम्हे अणुजाणह, ते भांति - ठाह, तत्थेकेको वसहिं देइ, सामी णेच्छति, 1 पुलं कृत्वा उपरि देवकुलं कुरुत, शूलपाणि च तत्र यक्षं बलीवदं चैकपार्थे स्थापयत अन्ये भणन्ति तं बलीवर्दरूपं कुरुत, तस्याधस्तात् तानि तस्याथीनि निहत, तैरचिरात् कृतं तत्र इन्द्रशर्मा नाम प्रतिचरकः कृतः । तदा लोकः पान्यादि पश्यति, पाण्डुरास्थिकप्रामं देवकुलं च तदा पृच्छन्ति अन्ये कतरस्मात् ग्रामादागताः ? यात वेति, तदा भणन्ति यत्र तानि अस्थीनि, एवमस्थिकप्रामो जातः । तत्र पुनर्थ्यन्तरगृहे यो रात्रौ परिवसति स तेन शूलपा गिना यक्षेण वारिवा पा रात्री मार्यते, ततस्तन्त्र दिवस ( यावत्) लोकस्तिष्ठति, पश्चात् अम्पन्न गच्छति इन्द्रशर्मापि भूपं दीपकं च दवा दिवसे याति । इतश्च तत्र स्वामी आगतः, द्वितीयान्तग्रामपार्श्वात्, तत्र च सर्वो लोक एकत्र पिण्डितस्तिष्ठति, स्वामिना देवकुलि कोऽनुज्ञापितः स भगति-ग्रामो जानाति, स्वामिना ग्रामो मिति एवानुज्ञापितः, प्रामो भणति-अत्र न शक्ता वसितुं खामी भणति-परं यूगमनुजानीत, ते भजन्ति-विचत, तत्रैकैको वसतिं दते खामी नेच्छति For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 383~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥ १९०॥ www.incibrary or Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) प्रत सूत्राक जाणति-जहेसो संबुझिहितित्ति, ततो एगकूणे पडिम ठिओ, ताहे सो इंदसम्मो सूरे धरेते चेव धूवपुप्फ दाउं कप्पडियकारोडिय सबे पलोइत्ता भणति-जाह मा विणस्सिहिह, तंपि देवज्जयं भणति-तुम्भेवि णीध, मा मारिहिजिहिध, भगवं तुसिणीओ, सो वंतरो चिंतेइ-देवकुलिएण गामेण य भण्णंतोऽवि न जाति, पेच्छ जं से करेमि, ताहे संझाए चेव भीमं| अट्टहासं मुअंतो बीहावेति ॥ अभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथाद्वयमाहदूइज्जतगा पिउणो वयंस तिब्वा अभिग्गहा पंच।अचियत्तुग्गहिन वसण १ णिचं वोसह २ मोणेणं ३॥४२॥ पाणीपत्तं ४ गिहिवंदणं च ५ तो बडमाणवेगवई । घणदेव सूलपाणिंदसम्म यासऽद्विअग्गामे ।। ४६३ ॥ | व्याख्या-विहरतो मोराकसन्निवेश प्राप्तस्य भगवतः तन्निवासी दूइजन्तकाभिधानपापण्डस्थो दूतिजंतक एवोच्यते, 'पितुः' सिद्धार्थस्य 'वयस्यः' स्निग्धका, सोऽभिवाद्य भगवन्तं वसतिं दत्तवान् इति वाक्यशेषः । विहत्य च अन्यत्र 5/ वर्षाकालगमनाय पुनस्तत्रैवागतेन विदितकुलपत्यभिप्रायेण, किम् ?, 'तिबा अभिग्गहा पंच' त्ति 'तीब्रा रौद्राः अभिग्रहाः पञ्च गृहीता इति वाक्यशेषः । ते चामी 'अचियतुम्गहि न बसणं ति' 'अचियत्त' देशीवचनं अप्रीत्यभिधायक, ततश्च तत्स्वामिनो न. प्रीतियस्मिन्नवग्रहे सोऽप्रीत्यवग्रहः तस्मिन् 'न वसन' न तत्र मया वसितव्यमित्यर्थः, "णिचं वोस मोणे जानाति-पौष संभोग्यत इति, तत एकमिन् कोणे प्रतिमा स्थितः, तदा स इन्वयमा सूर्य प्रियमाणे (सति) एप धूपपुष्पं दवा कापेटिका करोटिकान् सर्वान् प्रलोक्य भणति-पात मा विनेशत, तमपि देवा भणति-यूषमपि निर्गत, मा मारिध्वं (म), भगवान् तूष्णीका, स म्यन्तरबिन्तयति-देवकुलिकेन प्रामेण च भण्यमानोऽपि न याति, पक्ष यत्तख करोमि, तदा सभ्यायामेव भीममहाहहास मुभन भापयति । दीप 25-45-456-1945%456 अनुक्रम JAMERatinintimational Swjanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~384 ~ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] (४०) विभागः१ प्रत सूत्राक आवश्यक- ति नित्यं सदा व्युत्सृष्टकायेन सता मौनेन विहर्त्तव्यं पाणिपत्तंति पाणिपात्रभोजिना भवितव्यं, 'गिहिवंदणं चेत्ति' गृहस्थस्य । चात्तगृहस्थस्याहारिभद्री॥१९॥ वन्दनं, चशब्दादभ्युत्थानं च न कर्तव्यमिति । एतान् अभिमहान गृहीत्वा तथा तस्मानिर्गत्य 'वासऽडिअग्गामेत्ति' वर्षा-LI | यवृत्तिः कालं अस्थियामे स्थित इति अध्याहारः, स चास्थिग्रामः पूर्व वर्धमानाभिधः खल्वासीत् , पश्चात् अस्थिप्रामसंज्ञामित्थं प्राप्तः, तत्र हि वेगवतीनदी, तां धनदेवाभिधानः सार्थवाहः तं प्रधानेन गवाऽनेकशकटसहितः समुत्तीर्णः, तस्य च गोरनेकशकटस-14 मुत्तारणतो हृदयच्छेदो बभूव, सार्थवाहः तं तत्रैव परित्यज्य गतः, सवर्धमाननिवासिलोकाप्रतिजागरितो मृत्वा तत्रैव शुलपाणिनामा यक्षोऽभवत्, दृष्टभयलोककारितायतने स प्रतिष्ठितः, इन्द्रशर्मनामा प्रतिजागरको निरूपित इत्यक्षरार्थः। एवमन्यासामपि गाथानामक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति । कथानकशेषम्-जाहे सो अट्टहासादिणा भगवंतं खोभे| पवत्तो ताहे सो सबो लोगो तं सई सोऊण भीओ, अज सो देवजओ मारिजइ, तत्थ उप्पलो नाम पच्छाकडओ पासावच्चिजओ परिषायगो अडंगमहानिमित्तजाणगो जणपासाओ तं सोऊण मा तित्थंकरो होज अधिति करेइ, बीहेइ काय रतिं गं, ताहे सो वाणमंतरो जाहे सदेण न बीहेति ताहे हत्थिरवेणवसर्ग करेति, पिसायरूवेणं नागरूवेण य. दीप अनुक्रम T ॥१९॥ बदा सोऽहाहहाखादिना भगवन्तं क्षोभयितुं प्रवृत्तम्ताद। स सर्वलोकस्तं शब्द शुरवा भीतः, अब स देवार्यः मार्यते, तत्रोत्पलो नाम पधारकृतकः पापित्यः परिमाजकोटाजमहानिमित्तज्ञायक: जनपाक्षात् तत् श्रुत्वा मा तीर्थकरो भवेत् (इति) अर्शत करोति, बिभेति च रात्री गन्त, ततः स न्यन्तरः यदा शब्देन न बिभेति तदा हस्तिरूपेणोपसगै करोति, पिशायरूपेण नागरूपेण च JAMERatinintamational wwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~385~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ ( मूलं + निर्युक्तिः + + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६३ ] भष्यं [ १११...] एतेहिंपि जाहे न तरति खोडं ताहे सत्तविहं वेदणं उदीरेइ, तंजंहा सीसवेयणं कण्ण अच्छि नासा दंत नह पद्विवेदणं च एकेका बेअणा समत्था पागतस्स जीवितं संकामे, किं पुण सत्तवि समेताओ उज्जलाओ, अहियासेति, ताहे सो देवो जाहे न तरति चालेडं वा खोटं वा, ताहे परितंतो पायवडितो खामेति, खमह भट्टारगति । ताहे सिद्धत्थो उद्धाइओ भणति हंभो सूलपाणी ! अपत्थिअपत्थिआ न जाणसि सिद्धत्थरायपुत्तं भगवंतं तित्थयरं, जइ एयं सको जाणइ तो ते निविसयं करेइ, ताहे सो भीओ दुगुणं खामेइ, सिद्धरथो से धम्मं कहेइ, तत्थ उवसंतो महिमं करेइ सामिस्स, तत्थ लोगो चिंतेइ सो तं देवज्जयं मारिता इदाणिं कीलइ, तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परियाविओ पहायकाले मुहुतमेवं निद्दापमादं गओ, तत्थ इमे दस महासुमिणे पासित्ता पडिबुद्धो, तंजहा - साठपिसाओ हओ, सेअसणो वित्तको इलो अ दोऽवि एते पज्जुवासंता दिडा, दामदुगं च सुरहिकुसुममयं गोवग्गो अ पज्जुवार्सेतो, पउमसरो विबुद्धपंकओ, १ एतैरपि यदा न शक्नोति क्षोभयितुं तदा सप्तविधां वेदनामुदीरयते, तद्यथा शीर्षवेदनां कर्ण० अक्षि० नासा० दन्त० नख पृडिवेदनां च एकैका वेदना समय प्राकृतस्य जीवितं संक्रमितुं किं पुनः सप्तापि समेता वला?, अध्यास्ते, तदा स देवो यदा न शक्नोति चालयितुं वा क्षोभवितुं वा तदा परिश्रान्तः पादपतितः क्षमयति क्षमस्व भट्टारकेति । तदा सिद्धार्थ उद्भावितो भगति इंटो शूलपाणे!, अप्रार्थितार्थक ! न जानासि सिद्धार्थराजपुत्रं भगवन्तं तीर्थंकरं यद्येतद् शक्रो जानाति तदा त्वां निर्विषयं करोति तदा स भीतो द्विगुणं क्षमपति, सिद्धार्थः तस्मै धर्म कथयति, तत्रोपशाम्तो महिमानं करोति स्वामिनः, तत्र लोकश्चिन्तयति स तं देवा मारवित्वेदानीं क्रीडति तत्र स्वामी देशोनान् चतुरो यामान् अतीय परितापितः प्रभातकाले मुहूर्तमा निद्राप्रमादं गतः सत्रेमान् दश महास्वप्तान् रष्ट्वा प्रतिबुद्धः, तद्यथा-तालपिशाचो हतः, वेतशकुनः चित्रकोकिला द्वावपि एतौ पर्युपासमानौ दो दामकिं सुरभिकुसुममयं गोवर्गश्च पर्युपासमानः, पद्मसरः विपङ्कर्ज. Education national For Past Use Only www.brary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 386~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] (४०) आवश्यक ॥१९२॥ प्रत -* सुत्रांक -55-45-45 सागरो अ मे निस्थिण्णोत्ति, सूरो अ पइण्णरस्सीमंडलो उग्गमंतो, अंतेहि य मे माणुसुत्तरो वेढिओत्ति, मंदरं चारूदो- हारिभद्रीमित्ति । लोगो पभाए आगओ, उप्पलो अ, इन्दसम्मो अ, ते अ अञ्चणि दिवगंधचुण्णपुष्फवासं च पासंति, भट्टारगायवृत्ति च अक्खयसबंर्ग, ताहे सो लोगो सबो सामिस्स उक्किट्ठसिंहणायं करेंतो पाएमु पडिओ भणति-जहा देवजएणं देवो विभागः १ उवसामिओ, महिमं पगओ, उप्पलोऽवि सामि दहूं वंदिअ भणियाइओ-सामी! तुन्भेहिं अंतिमरातीए दस सुमिणा दिवा, तेसिम फलंति-जो तालपिसाओ हओ तमचिरेण मोहणिज्जं उम्मूलेहिसि, जो अ सेअसउणो तं सुकझाणं काहिसि, जो दाविचित्तो कोइलो तं दुवालसंग पण्णवेहिसि, गोवग्गफलं च ते चउबिहो समणसमणीसावगसाविगासंघो भविस्सइ, पउम-1 सरा चउबिहदेवसंघाओ भविस्सइ, जं च सागरं तिण्णो तं संसारमुत्तारिहिसि, जो अ सूरो तमचिरा केवलनाणं ते उप्प-| |जिहित्ति, जंचतेहिं माणुसुत्तरो वेदिओ तं ते निम्मलो जसकीतिपयावो सयलतिहुअणे भविस्सइत्ति, जंच मंदरमारूढोऽसि सागर मया निस्तीर्ण इति, सूर्यश्च प्रकीर्णरश्मिमण्डल उद्गच्छन् , अप्रैश मया मानुषोत्तरो वेष्टित इति, मन्दर चारूदोऽसीति । लोकः प्रभाते आगतः, उत्पा , इन्वयर्मा च, ते चार्गनिका दियगम्पपूर्णपुष्पवर्ष च पश्यन्ति, भट्टारकं चाक्षतसां तदा स लोका सर्वः स्वामिनः कृष्टं सिंहनादं कुर्वन् पादयोः । पतितो भणति-यथा-देवार्वेण देव उपशमिता, महिमानं प्रगतः, उत्पलोऽपि स्वामिनं दृष्ट्वा वन्दित्वा भणितवान्-स्वामिन् ! स्वया भम्हारानी दश स्वमा दृष्टाः, | नेपामिद फल मिति-पतालपिशाचो सातदपिरेण मोहनीयमन्मळयिष्यसि. या श्वेतशकुनः तत् पश्यानं करियसि यो विचित्र कोकिला बत् द्वादशाही प्रज्ञापयिष्यसि, गोवर्गफलं च तव चतुर्विधः श्रमणश्रमणीश्रावकश्राविकासङ्घः भविष्यसि, पानसरसः चतुर्विधदेवसंघातो भविष्यति, यच्च सागरस्तीर्णतत् ४ ॥१९२॥ | संसारमुत्तरिष्यसि, यत्र सूर्यस्तत् अचिरान केवलज्ञानं ते वत्परसयत इति, यच्चान्नैमानुषोत्तरो देष्टितस्तते निर्मला यशःकीर्तिप्रतापत्रिभुवने सकले भविष्यतीति, बच मन्दरमारूढोऽसि. दीप अनुक्रम 5 14 JABERatinintamational wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~387~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६३ ] भष्यं [ १११...] 'तं सीहासणत्थो सदेवमणुआसुराए परिसाए धम्मं पण्णवेहिसित्ति, दामदुर्गं पुण न याणामि, सामी भणति हे उप्पल ! जष्णं तुमं न जाणासि तण्णं अहं दुविहं सागाराणगारिअं धम्मं पण्णवेहामित्ति, ततो उप्पलो वंदित्ता गओ, तत्थ सामी अद्धमासेण खमति । एसो पढमो वासारतो १ । ततो सरए निग्र्गतूण मोरागं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ सामी बाहि उज्जाणे ठिओ, तत्थ मोराए सण्णिवेसे अच्छंदा नाम पासंडत्था, तत्थेगो अच्छंदओ तंमि सण्णिवेसे कोंटलवेंटलेण जीवति, सिद्धत्थओ अ एकलओ दुक्खं अच्छति बहुसंमोइओ पूअं च भगवओ अपिच्छतो, ताहे सो वोलेंतयं गोवं सद्दावेत्ता भणति-जहिं पधावितो जहिं जिमिओ पंथे य जं दिडं, दिट्ठो य एवंगुणविसिद्धो सुमिणो, तं वागरेइ, सो आउट्टो गंतुं गामे मित्तपरिचिताणं कहेति, सधेहिं गामे य पगासिअं - एस देवज्जओ उज्जाणे तीताणागयवट्टमाणं जाणइ, ताहे अण्णोऽवि लोओ आगओ, सबस्स वागरे, लोगो आउट्टो महिमं करेइ, लोगेण अविरहिओ अच्छा, ताहे सो लोगो १ तसिंहासनस्थः सदेवमनुजासुरायां पर्षद धर्म प्रज्ञापविष्यसि इति दामद्विकं पुनर्न जानामि, स्वामी भगति है उत्पल ! यत्वं न जानीषे तदहं द्विविधं सागारिकानगारिकं धर्मं प्रज्ञापयिष्यामीति, तत उपलो वन्दिया यतः, तत्र स्वामी अर्धमासेन क्षपयति । एप प्रथमो वर्षोरात्रः । ततः शरदि निर्गत्य मोराकं नाम सनिवेशं गतः, तत्र स्वामी बहिस्याने स्थितः, तत्र मोराके सन्निवेशे यथाच्छन्दा नाम पापण्डस्थाः, तत्रैकः यथाछन्दकः तस्मिन् सन्निवेशे कार्मणवशीकरणादिना जीवति, सिद्धार्थक एकाकी दुःखं तिष्ठति बहुलंमुदितः पूजां च भगवतः अपश्यन् तदा स ब्रजन्तं गोषं शब्दयित्वा भगति - पत्र गतः यत्र जिमितः पथि च यद्दृष्टं दृष्टक गुणविशिष्टः स्वप्नः तब्याकरोति स बावर्जितो प्रामे गत्वा मित्रपरिचितेभ्यः कथयति, सर्वैश्रीमे च प्रकाशितं एप देवार्य उद्याने अतीतानागतवर्त्तमानं जानाति, तदा अन्योऽपि कोक आगतः, (तमा अपि ) सर्व व्याकरोति, लोक आवर्णितो महिमानं करोति, लोकेनाविरहितः तिष्ठति तदा स होफो For Fans Use Only www.ncbayor मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 388~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] (४०) आवश्यक- 16 ॥१९॥ प्रत सुत्राक CCESCORT भणइ-एस्थ अच्छंदओ नाम जाणओ,सिद्धत्थो भणति-सो ण किंचि जाणइ, ताहे लोगो गंतुं भणइ-तुम न किंचि जाणसि, हारिभद्रीदेवजओ जाणाइ, सो लोयमझे अप्पाणं ठावेउकामो भणति-एह जामो, जइ मन्झ पुरओ जाणइ तो जाणइ, ताहेयवृत्तिः लोगेण परिवारिओ एइ, भगवओ पुरओ ठिओ तणं गहाय भणति-एयं तणं किं छिंदिहिति नवत्ति, सो चिंतेइ-जइ विभागः१ भणति-न छिजिहि इति ता णं छिंदिस्स, अह भणइ-छिजिहित्ति, तोन छिंदिस्सं, ततो सिद्धस्थेण भणिों-न छिजिहित्ति, सो छिदिउमाढत्तो, सक्केण य उवओगो दिण्णो, वजं पक्खितं, अच्छंदगस्स अंगुलीओ दसवि भूमीए पडिआओ, ताहे| लोगेण खिसिओ, सिद्धत्थो य से रुहो । अमुमेवार्थ समासतोऽभिधित्सुराहरोहा य सत्त वेयण थुइ दस सुमिणुप्पलऽद्धमासे य । मोराए सकारं सको अच्छंदए कुविओ॥४६४ ॥ समासव्याख्या-रौद्राश्च सप्त वेदना यक्षेण कृताः, स्तुतिश्च तेनैव कृता, दश स्वप्ना भगवता दृष्टाः, उत्पलः फलं जगाद, 'अदमासे यत्ति' अर्धमासमर्धमासं च क्षपणमकापीत् , मोरायां लोकः सत्कारं चकार, शक्रः अग्छन्दके तीर्थकरहीलनात् परिकुपित इत्यक्षरार्थः ॥ इयं नियुक्तिगाथा, एतास्तु मूलभाष्यकारगाथाः भणति-अब यथारउन्दको नाम ज्ञायका, सिद्धार्थो भणति-सन किचिद जानाति, तदा लोको गत्वा भणति-वं न किञ्चित् जानासि, देवार्यको नानाति, स लोकमध्ये आस्मानं स्थापयितुकामो भणति-एत बामः, यदि मम पुरतो जानाति तदा जानाति, तदा लोकेन परिचारित एति, भगवतः पुरतः | ॥१९॥ स्वितः तृणं गृहीत्वा भणति-एतत् तृणं किं डेस्पते मवेति, स चिन्तयति-बदि भगति-मत्स्यते इति तदेतत् छेत्स्वामि, अथ भणति-हेरखते इति तदान छेत्स्वामि, ततः सिद्धार्थेन भणितम्-न त्स्वतीति, समारब्धः, शक्रेण च उपयोगो दत्तः, वनं प्रक्षिसं, मच्छन्दकस्याख्यो दशापि भूमी पतिताः, तदा कोकेन हीछितः, सिद्धार्थच ती स्टः । ॐ दीप अनुक्रम - walanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६४], भाष्यं [११२] (४०) प्रत सूत्राक भीमहहास हत्थी पिसाय नागे य वेदणा सत्त । सिरकपणनासदन्ते नहऽच्छी पट्ठीय सत्तमिआ॥११२ ।। (मू०भा०) तालपिसायं १ दो कोइला य ३ दामदुगमेव ४ गोवरगं ५। सर ६ सागर ७ सूरं ८ ते ९ मन्दर १० सुविणुप्पले चेव ॥ ११३ ॥ (मू०भा०) मोहे१यमाण २ पवयण ३ धम्मे ४ संघे५य देवलोए ६य। संसारंणाण ८ जसे ९ धम्म परिसाएँ मजमि ॥ ११४ ॥ (मू० भा०) व्याख्या-भीमाट्टहासः हस्ती पिशाचो नागश्च वेदनाः सप्त शिरःकर्णनासादन्तनखाक्षि पृष्ठौ च सप्तमी, एतयन्त-1 दरेण कृतं । तालपिशाचं द्वौ कोकिलौ च दामद्वयमेव गोवर्ग सरः सागर सूर्य अत्रं मन्दरं 'सुविणुप्पले चेवत्ति' एतान्ह स्वमान् दृष्टवान् , उत्पलश्चैव फलं कथितवान् इति । तच्चेदम्-मोहं च ध्यानं प्रवचनं धर्मः सहश्च 'देवलोकश्च देवजनिश्चेत्यर्थः, संसारं ज्ञानं यशः धर्म पर्षदो मध्ये, मोहं च निराकरिष्यसीत्यादिक्रियायोगः स्वबुद्ध्या कार्यः॥ मोरागसण्णिवेसे बाहिं सिद्धत्थ तीतमाईणि । साहह जणस्स अच्छंद पओसो छेअणे सको ॥१॥ अर्थोऽस्याः कथानकोक्त एव वेदितव्य इति । इयं गाधा सर्वपुस्तकेषु नास्ति, सोपयोगा च । कथानकशेषम्-तओ सिद्धत्थो तस्स पओसमावण्णो तं लोग भणति-एस चोरो, कस्स गेण चोरियंति भणह, अत्थेत्थ वौरघोसो णाम ततः सिद्धार्थः तस्मिन् प्रदेषमापनस्तं लोक भणति-एष चौरः, कस्थानेन चोरितं इति मग, अस्त्यत्र वीरघोषो नाम दीप अनुक्रम janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~390~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६४], भाष्यं [११४] (४०) आवश्यक 5425 यवृत्तिः ॥१९४|| 3 प्रत सुत्रांक कम्मकरो!, सो पादेसु पडिओ अहति, अस्थि तुभ अमुककाले दसपलयं वट्टयं णहपुष ?, आम अत्थि, तं एएण हरिय, तं पुण| हारिभद्री कहिं १, एयरस पुरोहडे महिसिंदुरुक्खस्स पुरधिमेणं हत्थमित्तं गंतूणं तत्थ खणिउं गेण्हह । ताहे गता, दिछ, आगया कल विभागः१ कलं करेमाणा । अण्णंपि सुणह-अस्थि एत्थं इंदसम्मो नाम गिहवई, ताहे भणति-अस्थि, ताहे सो सयमेव उवडिओ,जहा | अहं, आणवेह, अस्थि तुभ ओरणओ अमुयकालंमि नहिलओ!, स आह-आम अस्थि, सो एएण मारित्ता खइओ, & अछियाणि य से बदरीए दक्खिणे पासे उकुरुडियाए नियाणि, गया, दिहाणि, उकिटकलयलं करता आगया, ताहे| भणति-एयं विति। अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकृत्• तण छेयंगुलि कम्मार वीरघोस महिसिंदु दसपलि। पिइइंदसम्म ऊरण पयरीए दाहिणुकुरुडे ॥ ४६५ ।। व्याख्या-अच्छन्दकः तृणं जग्राह, छेदः अङ्गुलीनां कृतः खल्विन्द्रेण, 'कम्मार वीरघोसत्ति' कर्मकरो वीरघोषः, तत्सं-IA वन्ध्यनेन 'महिसिंदु दसपलिय' दशपलिकं करोटक गृहीत्वा महिसेन्दुवृक्षाधः स्थापित, एक तावदिदं, द्वितीयं-इन्द्रशर्मण ऊरणकोऽनेन भक्षितः, तदस्थीनि चाद्यापि तिष्ठन्त्येव बदर्या अध दक्षिणोत्कुरुट इतिगाथार्थः ॥४६५॥ ततियं पुण अवच्चं, कर्मकर, सपाइयोः पतित: महमिति, अस्ति तव अमुककाले दशपलमानं वर्तुलं नष्टपूर्वम् !, ओमति, तदनेन हृतं, तरपुमः १, एतस्य गृहपुरतः D ॥१९४॥ | खजुरीवृक्षस्य पूर्वस्यां सामानं गत्वा तन्न खात्वा गृहीत । तदा गताः, टं, आगताः कळकळं कुर्वन्तः । अन्यदपि शृणुत-अस्त्यत्र इन्द्र शर्मा नाम गृहपतिः, तदा भणति-अमित, तदा स खबमेनोपस्थितः, यथाऽयं, भाज्ञापयत, अस्ति तवोर्णायुः अमुककाले नष्टः, स माह-ओमस्ति, स एतेन मारमिया सादितः, भस्थीनि च तख बर्या दक्षिणे पाय उस्कुस्टके निस्सातानि, गताः, दृष्टानि, वत्कृष्टकलकलं कुर्वन्त आगताः, तदा भणन्ति-एतद्वितीयम् २ तृतीयं पुनरवाच्यं. दीप 45-45-45-45600- अनुक्रम T wwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६५] आयं [१९४...] अलाहि भणितेण, ते निबंधं करेंति, पच्छा भणति वच्चह भज्जा से कहेहिइ, सा पुण तस्स चैव छिड्डाणि मग्गमाणी अच्छति, ताए सुर्य जहा सो विडंबिओत्ति, अंगुलीओ से छिन्नाओ, सा य तेण तद्दिवसं पिट्टिया, सा चिंतेति-नवरि एवं गामो, ताहे साहेमि, ते आगया पुच्छंति, सा भणइ मा से नामं गेण्हह, भगिणीए पती ममं नेच्छति, ते उक्किडिं करेमाणा तं भणति एस पावो, एवं तस्स उड्डाहो जाओ, एस पावो, जहा न कोइ भिक्खपि देइ, ताहे अप्पसागारियं आगओ भणइ-भगवं । तुम्भे अन्नत्थवि पुज्जिज्जह, अहं कहिं जामि ?, ताहे अचियसोग्गहोत्तिकाउं सामी निभ्गओ । ततो वच्चमाणस्स अंतरा दो वाचालाओ- दाहिणा उत्तरा य, तासिं दोन्हवि अंतरा दो नईओ-सुवण्णवालुगा रूप्पवालुगा य, ताहे सामी दक्खिण्णवाचालाओ सन्निवेसाओ उत्तरवाचालं वञ्चइ, तत्थ सुवण्णवालुयाए नदीए पुलिणे कंटियाए तं वत्थं विलग्गं, सामी गतो, पुणोऽवि अवलोइअं किं निमित्तं १, केई भणंति-ममत्तीए, अवरे किं थंडिले पडिअं अथंडिलेत्ति, १ अलं भमितेन ते निर्वन्धं कुर्वन्ति, पश्चाद् भगति -मजत भार्या तस्य कथयिष्यति, सा पुनस्तस्य छिद्राण्येव सुगयमाणा तिष्टति, तया श्रुतम् - पथा स विडम्बित इति अक्षयस्तस्व छिन्नाः, सा च तेन तदिवसे पिहिता सा चिन्तयति परमायातु ग्रामः, तदा साथयामि त भगताः पृच्छन्ति सा भणति मा तस्य नाम ग्रहीष्ट, भगिन्याः पतिर्मा नेच्छति, त उत्कृष्टिं कुर्वन्तस्तां भणन्ति एष पापः एवं तस्योड्डाहो जातः, एष पापः, यथा ( यदा) न कचिदू भिक्षामपि ददाति तदाऽल्पसागारिक भागतो भणति भगवन्तः ! यूयमन्यत्रापि पूज्यध्यध्वं अहं क यामि ?, तदा अप्रीतिकावग्रह इतिकृत्वा स्वामी निर्गतः । ततो व्रजतः अन्तरा हे वाचाले दक्षिणा उत्तरा च तयोर्द्वयोरपि अन्तरा द्वे नयौ सुवर्णवालुका रूत्यवालुका च तदा स्वामी दक्षिणवाचालात् सन्निवेशात् उत्तराचा व्रजति, तत्र सुवर्णालुकाया नयाः पुखिने कष्टिकायां तद्वत्रं विलनं, स्वामी गतः पुनरप्यवलोकितं किं निमित्तम् ?, केचिद् भणन्ति-ममत्वेन, अपरे किं स्थण्डिले पतितमस्पण्डिले इति. Education into For Use Only www.laincibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 392 ~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६५], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीविभागः१ यवृत्तिः ॥१९५॥ प्रत सुत्रांक कई-सहसागारेणं, केई-वरं सिरसाणं वत्थपत्तं सुलभं भविस्सइ, तं च तेण धिज्जाइएण गहिरं, तुण्णागस्स उवणी, सयसहस्समोठं जाय, एकेकस्स पण्णासं सहस्साणि जायाणि । अमुमेवार्थमभिधित्सुराह तइअमवचं भजा कहिही नाहं तओ पिउवयंसो । दाहिणवायालसुवण्णवालुगाकंटए वत्थं ॥ ४६६ ॥ पदानि-तृतीयमवाच्य भार्या कथयिष्यति । ततः पितुर्वयस्यस्तु दक्षिणवाचालसुवर्णवालुकाकण्टके वस्त्रं, क्रियाऽध्या| हारतोऽक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति । ताहे सामी वच्चइ उत्तरवाचालं, तत्व अंतरा कणगखलं नाम आसमपयं, तत्थ दो पंथा-उज्जुगो को य, जो सो उजुओ सो कणगखलंमग्मेण वच्चइ, बंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहाविओ, तत्थ गोवालेहिं वारिओ, एत्थ दिविविसो सप्पो, मा एएण वच्चह, सामी जाणति-जहेसो भविओ संबुझिहिति, तओ गतो जक्खघरमंडवियाए पडिमं ठिओ । सो पुण को पुवभवे आसी, खमगो, पारणए गओ वासिगभत्तस्स, तेण मंडुक्कलिया विराहिआ, खुड्डएण परिचोइओ, ताहे सो भणति-किं इमाओऽवि मए मारिआओ लोथमारिआओ दरिसेइ, ताहे खुड्डएण -१ दीप अनुक्रम केचित्-सहसाकारेण, केचित्-पर शिष्याणां वनपा सुकभं भविष्यति तच तेन धिरजाती येन गृहीतं, तुधाकस्य अपनीतं, शतसहस्त्रमूल्यं जातं, एकैकस्य पञ्चाशत् सहस्राणि जातानि । २ सदा खामी प्रति उत्तरवाचार्क, तत्रान्तरा कनकवलनामाश्रमपदं तत्र द्वौ पम्बानी-कर्वकन, योऽसी कखः स कनकखलमध्येन बजाति, वफः परिदरन्, स्वामी मखना प्रभावितः, तत्र गोपावारितः, अत्र रशिविषः सपा, मैतेन माजीः, स्वामी जानाति-यथैष भम्पः | |संभोत्यत इति, ततो गतो यक्षगृहमण्डपिकायां प्रतिमा स्थितः । स पुनः कः पूषभये आसीत् , क्षपकः, पारणके गतः पर्युषितभक्ताव, वेन मण्डूकी विराद्धा, धक्षकेन परिचोदितः, तदा स भणति-किमिमा अपि मया मारिताः कोकमारिता दर्शयति, सदा धखकेन. N ॥१९५॥ JAMERasurahin Handiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक" - मूलसूत्र -१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६६ ] भष्यं [१९४...] नायं वियाले आलोहिइत्ति, सो आवस्सए आलोएत्ता उवविट्टो, खुड्डुओ चिंतेइ - नूर्ण से विस्सरियं, ताहे सारिअं रुडझे आहणामित्ति उद्धाइओ खुड्डगस्स, तत्थ थंभे आवडिओ मओ विराहियसामण्णो जोइसिएसुउबवण्णो, ततो खुओ कणगखले पंचण्डं तावससयाणं कुलवइस्स तावसीए उदरे आयाओ, ताहे दारगो जाओ, तस्थ से कोसिओत्ति नामं कथं, सो य अतीव तेण सभावेण चंडकोधो, तत्थ अन्नेऽवि अत्थि कोसिया, तस्स चंडकोसिओत्ति नामं कर्य, सो कुलवती मओ, ततो य सो कुलबई जाओ, सो तत्थ वणसंडे मुच्छिओ, तेसिं तावसाण ताणि फलाणि न देइ, ते अलभंता गया दिसो दिसं, जोऽवि तत्थ गोवालादी एति तंपि हंतुं धाडेइ, तस्स अदूरे सेयंबियानाम नयरी, ततो रायपुत्तेहिं आगंतूर्ण विरहिए पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तरस गोवालएहिं कहियं, सो कंटियाणं गओ, ताओ छड्डेत्ता परसुहत्थो गओ रोसेण धमधमंतो, कुमारेहिं दिट्ठो पंतओ, तं दद्दूण पलाया, सोऽवि कुहाडहत्थो पहावेत्ता खड्डे आवडिऊण पडिओ, सो ज्ञातं विकाले माहोचविध्यतीति स आवश्यके आलोचवित्वा उपविष्टः कचिन्तयति नूनमस्य विस्मृतं ततः स्मारितं रुष्ट आहम्मीत्युद्धावितः क्षुल्लकाय, तत्र स्तम्भे आफजितो तो विराधितश्रामण्यः ज्योतिष्केषु वत्पन्नः, ततयुतः कनकसले पञ्चानां तापसवानां कुलपतेः तापस्या उदरे आयातः, तदा दारको जातः, तत्र तस्य कौशिक इति नाम कृतं स चातीव तेन स्वभावेन षण्ढक्रोधः, सत्र अन्येऽपि सन्ति कौशिकाः, तस्य चण्डकौशिक इति नाम कृतं स कुलपतितः, ततश्च स कुलपतितः, स तत्र वनखण्डे मूर्छितः तेभ्यः तापसेभ्यः तानि फलानि न ददाति तेऽलभमामा गत्ता दिशि दिशि, योऽपि तत्र गोपालादिक भायाति तम्रपि वा घाटयति, तस्यादूरे वेतम्बीकानामनगरी, ततो राजपुत्रैरागत्य विरहिले प्रतिनिवेशेन भो विनाशितन, तस्मै गोपालकैः कथितं स कण्टकेम्पो गतः, तस्यचत्वा परशुहस्तो गतो रोपेण चमचमाचमानः कुमारः आगच्छन्तं दृष्ट्वा पछायिताः सोऽपि कुठारहखः प्रधाव्य गर्ने आपत्य पतितः, स Education intimation For Only ancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 394 ~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६६], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः ॥१९६॥ प्रत कुहाडो अभिमुहो ठिओ, तत्थ से सिरं दो भाए कर्य, तत्थ मओ तंमि चेव वणसंडे दिट्टीविसो सप्पो जाओ, तेण रोसेण लोभेण य तं रक्खइ वणसंडं,तो ते ताबसा सवे दहा, जे अदहगा ते नहा, सो तिसंझं वणसंडं परियचिऊणं जं सउण- गमवि पासइ तं डहर, ताहे सामी तेण दिडो, ततो आसुरुत्तो, ममं न याणसि, सूर णिज्झाइत्ता पच्छा सामि पलोएइ, सो न उज्झइ जहा अण्णे, एवं दो तिण्णि वारा, ताहे गंतूण डसइ, डसित्ता अवक्कमइ-मा मे उवरि पडिहित्ति, तहवि न मरइ, एवं तिणि वारे, ताहे पलोएंतो अच्छति अमरिसेणं, तस्स भगवओ रूवं पेच्छंतस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कतिसोम्मयाए, ताहे सामिणा भणिअं-उवसम भो चंडकोसिया, ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जातीसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेता भत्तं पञ्चक्खाइ मणसा, तित्थगरो जाणइ, ताहे सो बिले तुंडं छोढुं ठिओ, माऽहं रुटो संतो लोग मारेहं, सामी तस्स अणुकंपाए अच्छइ, सामि दहण गोवा बल45 सुत्रांक 60-500-567 दीप अनुक्रम ॥१९६॥ कुठारः अभिमुखः स्थितः, वन्न तस्थ शिरो विभागीकृतं, तन्न मृतस्तम्भिव बनलपटे दृष्टिविपः सो जातः, तेन रोषेण लोभेन च तं रक्षति बनखण्वं, | ततस्ते तापसाः सर्वे दग्धाः, ये अदग्धास्ते नष्टाः, स त्रिसन्ध्यं वनसण्ड परीय यं जन शकुनमपि पश्यति सं दहति तदा स्वामी तेन ए,ततः कुछः, मो न जानासि!, सूर्य निष्याय पश्चात्स्वामिनं प्रलोकपति, स न दाते यथाऽन्ये, एवं द्वौ श्रीन वारान , तदा गस्वा दधाति, इष्ट्वाऽपकामति-मा ममोपरि पप्तत् इति | तथापि न म्रियते, एवं ग्रीन वारान् , तदा प्रलोकमानस्तिष्ठति अमर्षेण, तख भगवतो रूपं प्रेक्षमाणस्य ते विषभृते अक्षिणी विध्याते स्वामिनः | कान्तिसौम्येन, तदा खामिना भणितम्-उपपाम्य भोः चण्डकौधिक !, तदा तस्य ईहापोहमार्गणगवेषणां कुर्वतः जातिमारणं समुत्पच, तदा विकृषः भाद| क्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा भकं प्रत्याख्याति मनसा, तीर्थकरो जानाति, तदा सवितुण्डं स्थापयित्वा स्थितः, माऽदं टः सन् कोकं मीमरम्, स्वामी तसानुकम्पया |तिहति, स्वामिनं रा. Jaintain i ng wajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक मालवच्छवाला अलियंति, रुक्खेहिं आवरेत्ता अप्पाणं तस्स सप्पस्स पाहाणे खिवंति, न चलतित्ति अलीणो कठेहिं पट्टिओ, तहवि न फंदतित्ति तेहिं लोगस्स सिहं, तो लोगो आगंतूण सामि वंदित्ता तंपि य सप्पं महेइ, अण्णाओ य घयविकिणियाओ तं सप्पं मक्खेंति, फरुर्सिति, सो पिवीलियाहिं गहिओ, तं वेयर्ण अहियासेत्ता अद्धमासस्स मओ सहस्सारे उवपणो । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउत्तरवाचालंतरवणसंडे चंडकोसिओ सप्पो । न डहे चिंता सरणं जोइस कोवा हि जाओऽहं ॥४६७॥ गमनिका-उत्तरवाचालान्तरवनखण्डे चण्डकौशिकः सर्पः न ददाह चिन्ता स्मरणं ज्योतिष्क क्रोधाद् अहिर्जातोऽह|मिति, अक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति ॥ ४६७ ।। अनुक्तार्थ प्रतिपादयन्नाह उत्तरवायाला नागसेण खीरेण भोयणं दिब्वा । सेयवियाय पएसी पंचरहे निजरायाणो॥ ४६८॥ गमनिका-उत्तरवाचाला नागसेनः क्षीरेण भोजनं दिव्यानि श्वेतम्यां प्रदेशी पश्चरथैः नयका राजानः-नैयका गोत्रतः, प्रदेशे निजा इत्यपरे । शेषो भावार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदम्-तओ सामी उत्तरवाचालं गओ, तत्थ दीप अनुक्रम 03-1-50 गोपालवत्सपाला आगच्छन्ति, वृक्षरावार्यात्मानं तस्य सर्पस्व (उपरि) पापाणान् क्षिपन्ति, न चलतीति ईपल्लीना काठपंडितः, तथाऽपि न सन्दत राति लोकाय शि, तो कोक आगत्य स्वामिनं वन्दित्वा तमपि च सर्प महति,अन्यान चूतविक्रायिकासं सपै क्षयन्ति शान्ति स पिपीलिकाभिहीतः। तो वेदनामध्याय अधमासेन मृतः सहस्रारे उत्पनः । २ सतः स्वाम्युत्तरवाचालं गतः, तत्र JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा१ ॥१९७॥ प्रत पक्खक्खमणपारणते अतिगओ, तत्थ नागसेणेण गिहवइणा खीरभोयणेण पडिलाभिओ, पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि, ततो सेयवियं गओ, तत्थ पदेसी राया समणोवासओ भगवओ महिमं करेइ, तओ भगवं सुरभिपुरं वच्चइ, तत्वंतराए जगा रायाणो पंचहिं रथेहिं एन्ति पएसिरण्णो पासे,तेहिं तत्थ सामी वंदिओ पूइओ य,ततो सामी सुरभिपुरं गओ, तत्व गंगा उत्तरियवा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नाविओ, खेमल्लो नाम सउणजाणओ, तत्थ य णावाए लोगो विलग्गइ, कोसिएण महासउणेण वासियं, कोसिओ नाम उलूको, ततो खेमिलेण भणियं-जारिसं सउणेण भणियं तारिस अम्हेहिं मारणंतियं पावियचं, किं पुण ! इमस्स महरिसिस्स पभावेण मुचिहामो, सा य णावा पहाविया, सुदाढेण य णागकुमारराइणा दिडो भयवं णावाए ठिओ, तस्स कोवो जाओ, सो य किर जो सो सीहो वासुदेवत्तणे मारिओ सो संसारं भमिऊण सुदाढो नागो जाओ, सो संवट्टगवायं विउवेत्ता णावं ओबोलेउं इच्छइ । इओ य कंबलसंबलाणं आसणं चलियं, का पुण| सुत्रांक दीप अनुक्रम T पक्षक्षपणयारणकेऽतिगतः, तत्र नागसेनेन गृहपतिना क्षीरभोजनेन प्रतिकम्भितः, पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, ततः श्वेतम्बीं गतः, सन्न प्रदेशी राजा श्रमणोपासको भगवतो महिमानं करोति, ततो भगवान् सुरभिपुरं अजति, तत्रान्तरा नयका राजानः पञ्चभी स्थैरायान्ति प्रदेशिराज्ञः पार्थे, तैखत्र स्वामी बन्दितः पूजितश्च, ततः स्वामी सुरभिपुरं गतः, तत्र गङ्गा उत्तरीतम्या, तत्र सिद्धयानो नाम माविकः, क्षेमिलो नाम शकुन ज्ञाता, तत्र च नाचि लोको विक्रगति, कौशिकेन महापाकनेन वासितं, कौशिको नाम उलूकः, ततः क्षेभिलेन भणितं-यादशं शकुनेन भणितं तारयामसारीभारणान्तिकं प्राप्तम्ब, किं पुनः! अस मह। प्रभावेण मोषामदे, साच नीः प्रधाविता, गुड्रेिण च नागकुमारराजेन स्टो भगवान् नावि स्थितः, तस कोपो जाता, सप किक यः स सिंह वासुदेवस्ये मारितः स संसार भान्स्वा सुदंष्टो नागो जाता, स संवतकयातं विकुष्यं नावमुगुदयितु इच्छति । इतम कम्बलसम्यकबोरान किर्स, का पुमा १९७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~397~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] (४०) . प्रत माकंबलसंचलाण उष्पत्ती महुराए नगरीए जिणदासो वाणियओ सहो, सोमदासी साविया, दोऽवि अभिगयाणि परिमा-1 णकडाणि, तेहिं चउपयस्स पचक्खायं, ततो दिवसदेवसि गोरस गिण्हंति, तत्थ य आभीरी गोरस गहाथ आगया, सा ताए सावियाए भण्णइ-मा तुम अण्णस्थ भमाहि, जत्तिअं आणेसि तत्तिअंगेण्हामि, एवं तासिं संगर्य जायं, इमावि गंधपुडियाइ देइ, इमावि कूइगादि दुद्धं दहियं वा देइ, एवं तासिं दढं सोहियं जायं । अण्णया तासिं गोवाणं विवाहो। जाओ, ताहे ताणि निमंति, ताणि भणन्ति-अम्हे वाउलाणि ण तरामो गंतु, जं तत्थ उवउज्जति भोयणे कडगभंडादी। हवस्थाणि आभरणाणि धूवपुष्फगंधमलादि वधूवरस्स तं तेहिं दिण्णं, तेहिं अतीव सोभावियं, (५०००) लोगेण य सला-14 हियाणि, तेहिं तुडेहिं दो तिवरिसा गोणपोतलया हसरीरा उवठिया कंबलसंबलत्ति नामेणं, ताणि नेच्छंति, बला बंधि गयाणि,ताहे तेण सावरण चिंतियं-जइ मुचिहिति ताहे लोगो वाहेहित्ति, ता एत्थ चेव अच्छंतु, फासुगचारी किणिऊणं सूत्राक दीप अनुक्रम काबशम्बलयोरुत्पत्तिः --मधुरायां नगर्यो जिनदासो पनिर थावः, सोमदासी श्राविका, अपि अभिगतौ (जीवादिशातारी)कृतपरिमाणी, ताभ्यां चतुष्पदं प्रवाण्यातं, ततो दिवसदैवसिक गोरसं गृहीतः, तत्र चामीरी गोरसं गृहीत्वा आगता, सा तया भाविकया भण्यते-मा स्वमन्यत्र भ्रमी, बाबदामयसि तावहामि, एवं तयोः संगतं जातं, इयमपि गन्धपूटिकादि ददाति, इयमपि फूधिकादि दुग्ध दधि वा ददाति, एवं तपो सोहर जातं ।। अन्पदा तेषां गोपानी विवाहो जातः, तदा तौ निमनपतः, तो भणतः-आवां व्याकुलीन शाकुब मागन्त, यत्तत्रोपयुज्यते भोजने कटाहभाण्डा दिपसाग्याभरणानि भूपपुष्पगन्धमाश्यादि वधूवरयोः सीदंसं, तैरतीच शोभित, लोकेन चडाधिती, ताभ्यां वृष्टाभ्यां द्वौ त्रिी गोपोतो हटवारीरी उपरथापिती कम्बलशम्बकापिति नाना, ती नेच्छतः, पळावा गती, तदा तेन श्रावकेण चिन्तितं-पवि मुच्यते तदा लोको वाइविष्यति इति तद् अत्रैव तिष्ठता, मासुकचारिकीत्वा 43 JAMERatinintamational andiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कंबल-शंबल कथानक ~398~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥१९८॥ Educati “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ४६८], आष्यं [१९४...] दिज्जइ, एवं पोसिज्जंति, सोऽवि सावओ अडमीचउदसीसु उववास करेइ पोत्थयं च वाएइ, तेऽवि तं सोऊण भदया जाया सण्णिणो य, जद्दिवसं सावगो न जेमेइ तद्दिवसं तेऽवि न जेमंति, तस्स सावगस्स भावो जाओ जहा इमे भविया उवसंता, अब्भहिओ य नेहो जाओ, ते रुवस्सिणो, तस्स य सावगस्स मित्तो, तत्थ भंडीरमणजत्ता, तारिसा नरिथ अष्णस्स बइला, ताहे तेण ते भंडीए जोएत्ता णीआ अणापुच्छार, तत्थ अण्णेण अण्णेणवि समं धावं कारिया, ताहे ते छिन्ना, तेण ते आणेउं बद्धा, न चरंति नय पाणियं पिवंति, जाहे सबहा नेच्छति ताहे सो सावओ तेर्सि भत्तं पञ्चखाइ, नमु कारं च देइ, ते कालगया नागकुमारेसु उबवण्णा, ओहिं पउंजंति, जाव पेच्छति तिरथगरस्त उवसग्गं कीरमाणं, ताहे तेहिं चिंतियं अलाहि ता अण्णेणं, सामिं मोएमो, आगया, एगेण णावा गहिया, एगो सुदाढेण समं जुज्झइ, सो महि डिगो, तस्स पुण चवणकालो, इमे य अहुणोववण्णया, सो तेहिं पराइओ, ताहे ते नागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति १ दीयते, एवं पोप्येते, सोऽपि श्रावकोऽष्टमीचतुर्दश्योरुपवासं करोति पुस्तकं च वाचयति तावपि तत् खा भट्टको जाती संशिनौ च यदिवसे श्रावको न जैमति तद्दिवसे तावपि न जेमतः, तस्य धावकस्य भावो जातः यथेमौ भव्यायुपशान्तौ अभ्यधिक हो जातः, तौ रूपवन्ती, तख धाव कस्प मित्रं तत्र भण्डीरमणयात्रा, तादृशी न खोऽन्यस्य बलीवद्द, तदा तेन मण्यां योजयित्वा नीती अनापृच्छया, तत्रान्येनान्येनापि समं भावनं कारिती, तदा तो डिली, तेन तावानीय बद्धौ न चरतो न च पानीयं पिचतः यदा सर्वथा नेच्छतस्तदा स श्रावकस्तो भक्तं प्रत्याख्यापयति, नमस्कारं च ददाति, तौ कागती नागकुमारेपनी अवधिं प्रयुद्धां यावत्पश्यतः तीर्थकरस्योपसर्गे क्रियमाणं तदा ताभ्यां चिन्तितम् अहं तावदन्वेन खामिनं मोचयाः, भागतो, एकेन गृहीता, एक सुर्दद्देन समं युध्यते स महर्दिकः, तत्र पुनमकाः, इमौ चाधुनोत्पन्नौ स ताभ्यां पराजितः, तदा तौ नागकुमारौ तीर्थंकरस्य महिमानं कुरुतः For Parts Only हारिभद्रीवृत्तिः विभागः १ ~ 399~ ॥ १९८ ॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक CSCOPRASANSAR सत्तं रूवं च गायंति, एवं लोगोऽवि, ततो सामी उत्तिष्णो, तत्थ देवेहिं सुरहिगंधोदयवासं पुष्फवासं च बुई, तेऽवि पडिगया । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसुरहिपुर सिहजत्तो गंगा कोसिअ विऊय खेमिलओ।नाग सुदाढे सीहे कंबलसबला य जिणमहिमा॥४६९॥ महुराए जिणदासो आहीर विवाह गोण उपचासे । भंडीर मित्त अवच्चे भत्ते णागोहि आगमणं ॥ ४७० ॥ | वीरवरस्स भगवओ नावारूढस्स कासि उवसग्गं । मिच्छादिवि परद्धं कंबलसबला समुत्तारे ॥ ४७१॥ पदानि-सुरभिपुरं सिद्धयात्रः गङ्गा कौशिकः विद्वांश्च खेमिलकः नागः सुदंष्ट्रः सिंहः कम्बलसबली च जिनमहिमा, मथुरायां जिनदासः आभीरविवाहः गोः उपवासः भण्डीरः मित्रं अपत्ये भक्तं नागी अवधिः आगमनं वीरवरस्य भगवतः नावमारूढस्य कृतवान् उपसर्ग मिथ्याष्टिः 'परद्धं विक्षिप्तं भगवन्तं कम्बलसबली समुत्तारितवन्तौ । अक्षरगमनिका स्वबुझ्या कार्या । ततो भगवं दगतीराए इरियावहियं पडिकमइ, पत्थिओ ततो, णदीपुलिणे भगवओ पादेसु लक्खणाणि दीसंति महुसिथचिक्खले, तत्थ पूसो नाम सामुहिओ, सो ताणि पासिऊण चिंतेइ-एस चकवट्टी गतो एगागी, वच्चामि णं वागरेमि, तो मम एत्तो भोगा भविस्संति, सेवामिणं कुमारत्तणे, सामीऽवि धूणागस्स सण्णिवेसरस बाहिं पडिमं दीप CARRORSCRk अनुक्रम सर्व रूपं च गायतः, एवं लोकोऽपि, ततः स्याम्पुत्तीर्णः, तत्र देवैः सुरभिगम्धोदकवर्षों पुष्पवर्षा च टा, तावपि प्रतिगती २ ततो भगवान् दकतीरे। इपिथिकी प्रतिकाम्यति, प्रस्थितस्ततः, नदीपुलिने भगवतः पादयोक क्षणानि श्यन्ते मधुसिक्थकर्दमे, तत्र पुष्पो नाम सामुद्रिका, स तानि हटा चिन्सटायति-एष चकवती गत एकाकी, प्रजामि तं व्याकरोमि, ततः ममामानोगा भविष्यन्ति, सेवेतं कुमारत्वे, खाम्बपि स्थूणाकस्य सनिवेशस्य बहिर्भागे प्रतिमा AIMEducatan intimational ForParaTREPwaalpontv मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७१], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१९९॥ प्रत [ठिओ, तत्थ सो सामि पिच्छिऊण चिंतेइ-अहो मए पलालं अहिजि, एएहि लक्खणेहिं जुत्तं, एएण समणेण न होउं इओ य सको देवराया ओहिणा पलोएइ-कहिं अज सामी ?, ताहे सामि पेच्छद, तं च पूस, आगओ सामि वन्दित्ता भणति-भो पूस ! तुम लक्खणं न याणसि, एसो अपरिमिअलक्षणो, ताहे वण्णेइ लक्खगं अधिभतरगं-गोखीरगोरं रुहिरे पसत्थं, सत्धं न होइ अलिअं, एस धम्मवरचाउरंतवकवट्टी देविंदनरिंदपूइओ भवियजणकुमुयाणंदकारओ भविस्सइ, ततो सामी रायगिह गओ, तत्थ णालंदाए बाहिरियाए तंतुवागसालाए एगदेसंमि अहापडिरूवं उग्ग अणुण्णवेत्ता पढौ मासक्खमणं उपसंपन्जित्ताणं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मंखली नाम मंखो, तस्स भद्दा भारिया गुविणी सरवणे नाम सण्णिवेसे गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए पसूआ, गोण्णं नाम कयं गोसालोत्ति, संवहिओ, मंखसिप्पं अहिजिओ, चित्तफलयं करेइ, एकलओ विहरतओ रायगिहे तंतुवायसालाए ठिओ, जत्थ सामी ठिओ, तत्थ वासावासं उवागओ। सुत्रांक 24 दीप अनुक्रम ॥१९॥ स्थितः, तत्र स स्वामिन प्रेक्ष्य चिन्तयति-अहो मा पलालमधीत, पुतैर्लक्षणैर्युक्तः, एतेन श्रमणेन न भाष्यं । इतच शक्रो देवराजोअधिना प्रलोकयति-काद्य स्वामी?, तदा स्वामिनं प्रेक्षते, तं च पुष्पं, आगतः स्वामिनं वन्दिावा भणति-भोः पुष्प! त्वं लक्षणं न जानासि, एपोअरिमितलक्षणः, तदा | पर्णयति लक्षणमभ्यन्तरं-गोक्षीरगौरं रुधिरं प्रशस, शाखं न भवति मलीक, एष धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती देवेन्द्रनरेन्द्रपूजितः भव्यतनकुमदानन्दकारकः भविप्य ति, ततः स्वामी राजगृहं गतः, तत्र नालन्दास्पशाखापुरे तन्तुवायशालायां एकदेशे यथाप्रतिरूपमवग्रहमनुज्ञाप्य प्रथमं मासक्षपणमुपसंपच विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मङ्कलि म मङ्गः, तख भद्रा भायां गुर्षिणी शरवणे नाम सनिवेशे गोबहुलस्य ब्राह्मणस्य गोशालायां प्रसूता, गीर्ण नाम कर्त गोशाल इति, संवर्धितः, महशिल्पमध्यापितः,चित्रफलकं करोति, एकाकी विहरन् राजगृहे तन्तुवायशालायां स्थितः, पत्र स्वामी स्थितः, तत्र वर्षांचासमुपागतः JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७१], भाष्यं [११४...] (४०) % 50% प्रत सूत्राक भगवं मासखमणपारणए अम्भितरियाए विजयस्स घरे विउलाए भोयणविहीए पडिलाभिओ, पंच दिवाणि पाउम्भूयाणि, गोसालो सुणेत्ता आगओ, पंच दिवाणि पासिऊण भणति-भगवं! तुझं अहं सीसोत्ति, सामी तुसिणीओ निग्गओ, बितिअमासखमणं ठिओ, बितिए आणदस्स घरे खजगविहीए ततिए सुर्णदस्स घरे सब कामगुणिएणं, ततो चउत्थं मासखमणं उवसंपन्जिताणं विहरइ । अभिहितार्थोपसंग्रहायेदमाहथूणाऍ यहिं पूसो लक्षणमभंतरं च देविंदो । रायगिहि तंतुसाला मासक्खमणं च गोसालो ॥ ४७२ ॥ मंखलि मंख सुभद्दा सरवण गोवहुलमेव गोसालो। विजयाणंदसुणंदे भोअण खजे अ कामगुणे ॥४७३॥ पदानि-स्थूणायां बहिः पुष्यो लक्षणमभ्यन्तरं च देवेन्द्रः राजगृहे तन्तुवायकशाला मासक्षपणं च गोशालः मञ्जली मङ्ख: सुभद्रा शरवर्ण गोपाल एवं गोशालो विजय आनन्दः सुनन्दःभोजनं खाद्यानि च कामगुणं । शरवर्ण-गोशालोत्पत्तिस्थानं । शेषाऽक्षरगमनिका स्वधिया कार्या । गोसालो कत्तियदिवसपुषिणमाए पुच्छइ-किमहं अज भत्तं लभिस्सामि?, सिद्धत्धेण भणियं-कोदवकूरं अंबिलेण कूडरूवगं च दक्खिणं, सो णयरिं सवादरेण पहिडिओ, जहा भंडीसुणए, न कहिंचिवि संभाइयं, दीप अनुक्रम भगवान् मासक्षपणपारणके अभ्यन्त रिकार्या विजयस्व गृहे विपुलेन भोजन विधिना प्रतिलभितः, पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूनानि, गोशाला स्वागतः, | पज्ञ दिव्यानि इसा भणति-भगवन् ! सवाई शिष्य-इति, स्वामी तूष्णीको निर्गतः, द्विवीषभासक्षपणं स्थितः, द्वितीयमिन् आगन्दस्य गृहे खाद्यकविधिना तृतीये सुनन्दख रहे सर्वकामगुणितेन, ततश्रतुर्थं मासक्षपणमुपसंपद्य विहरति । २ गोशालः कार्तिकपूर्णिमादिवसे पृच्छति-किमहमव भक्तं लप्स्ये', सिद्धान | भणितम्-कोदवतन्दुलान् भरलेन कूटरूप्यं च दक्षिणायां, स नगर्या सादरेण प्रहिण्डिता, यथा गन्त्रीचा, न कमिबिपि संभाजितः, का Hinatandionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 402~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत आवश्यकताहे अवरण्हे एक्केणं कम्मकरण अंबिलेण कूरो दिण्णो, ताहे जिमिओ, एगो रूवगो दिण्णो, रूवगो परिक्खाविओ जावहारिभद्री॥२०॥ | कूडओ, ताहे भणति-जेण जहा भवियवं ण तं भवति अण्णहा, लजिओ आगतो। तओ भगवं चउत्थमासखमणपार- यवृत्तिः गए नालिंदाओ निग्गओ, कोल्लाकसन्निवेसं गओ, तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोयावेति घयमहुसंजुत्तेणं परमण्णेणं, विभागः१ ताहे तेण सामी पडिलाभिओ, तत्थ पंच दिवाणि । गोसालोऽवि तंतुवागसालाए सामि अपिच्छमाणो रायगिहें सब्भ-18 तरबाहिरि गवसति, जाहे न पेच्छइ ताहे नियगोवगरणं धीयाराणं दाउ सउत्तरोठं मुंडं काउं गतो कोलागं, तत्थ भगवतो मिलिओ, तओ भगवं गोसालेण समं सुवण्णखलगं वच्चइ, एत्थंतरा गोवा गावीहिंतो खीरं गहाय महल्लिए थालीए| णवरहिं तंदुलेहिं पायसं उवक्सडेंति, ततो गोसालो भणति-एह भगवं! एस्थ भुंजामो, सिद्धत्थो भणति-एस निम्माण चेव न वच्चइ, एस भजिहिति उल्लहिज्जती, ताहे सो असद्दहतो ते गोवे भणति-एस देवजगो तीताणागतजाणओ| सुत्राक दीप अनुक्रम तदाऽपराहे एकेन कर्मकरेण अग्लेन तन्दुला दत्ता, तदा जिमितः, एको रूप्यको दलः, रूप्यकः परीक्षितः यावत् कूटः, तदा भणति-येन यथा | भवितव्यं न सवसन्यथा, लजित आगतः । ततो भगवान् चतुर्थमासक्षपणपारणके नालन्दाया निर्गतः, कोल्लाकसनिवेशं गतः, तत्र बहुलो माह्मणो श्राह्मणान् । भोजपति पृतमधुसं युकेन परमान, तदा तेन स्वामी प्रतिलम्भितः, तन्त्र पञ्च दिच्यानि । गोशालोऽपि तन्वायशालायां खामिनमप्रेक्षमाणः राजगृहं साभ्यन्तर|४|| बायं गवेषवनि, यदा न प्रेक्षते सदा निजकोपकरणं धिक्कारेभ्यो दत्त्वा सोत्तरीष्ठं मुण्डनं कृत्वा गतः कोलार्क, तब भगवता मिलितः, ततो भगवान् गोशालेन | समं सुवर्णखलं नजति, सत्रान्तरा गोपा गोभ्यः क्षीरं गृहीत्वा महल्यां स्थास्यां नषैतन्दुलैः पायसमुपस्कुर्वन्ति, तसो गोपालो भणति-पाव भगवन् ! अत्र। भुणावा, सिद्धार्थो भणति-एषा निर्माणमेव न प्रजिष्यति, एषा भवति वाहिश्यमाना, तदा सोऽवदधानः तान् गोपान भणति-एष देवार्यकः तीतानागतशाषकात Ajanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक CROCODAEOS भणति-एस थाली भजिहिति, तो पयत्तेण सारक्खह, ताहे पयत्तं करेंति-वंसविदलेहिं सा बद्धा थाली, तेहिं अतीव बहुला तंदुला छूढा, सा फुट्टा, पच्छा गोवालाणं जेणं जं करुळ आसाइयं सो तत्थ पजिमिओ, तेण न लद्ध, ताहे | सुडतरं नियतिं गेहइ । अमुमेवार्थ कथानकोक्तमुपसंजिहीर्घराह-- कुल्लाग घहुल पायस दिब्बा गोसाल दहु पयज्जा। बाहिं मुवण्णखलए पायसथाली नियइगहणं ॥ ४७४ ॥ पदानि-कोल्लाका बहुलः पायसं दिव्यानि गोशालः दृष्ट्वा प्रव्रज्या बहिः सुवर्णखलात् पायसस्थाली नियतेनेहर्ण च।। पदार्थ उक्त एव । बभणगामे नंदोवनंद उवर्णद तेय पञ्चद्धे । चंपा दुमासखमणे वासापास मुणी खमह ॥ ४७५ ॥ पदानि-श्राह्मणग्रामे नन्दोपनन्दी उपनन्दः तेजः प्रत्यर्धे चम्पा द्विमासक्षपणे वर्षावास मुनिःक्षपयतीति । अस्याः पदार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् ततो सामी बंभणगामंगतो, तत्थ नंदो उवणंदोय भायरो, गामस्स दो पाडगा, एक्को नन्दस्स बितिओ उवणंदस्स, ततो सामी नंदस्स पाडगं पविठ्ठो नंदघरं च, तत्थ दोसीणेणं पडिलाभिओ नंदेण दीप अनुक्रम भणसि-एषा स्थाली भक्ष्यति ततः प्रयत्नेन संरक्षत, तदा प्रयतं कुर्वन्ति, बंशविदलः सा बड़ा स्थाली, तैरतीय बद्दबस्सन्दुलाः क्षिप्ताः, सा स्फुटिता, पसात् गोपालानां येन यरकपालमासादितं स तत्र प्रजिमितः, तेन न लब्धं, तदा सुष्टुतरं नियति गृहाति। ततः स्वामी ब्राह्मणप्रामं गतः, तत्र नन्द उपनन्दा भातरी, ग्रामस्य द्वौ पाटको, एको नन्दस्य द्वितीय अपनन्दस्य, ततः स्वामी नन्दस्य पाटकं प्रविष्टः नन्दगृहं च, तत्र पिताजेन प्रतिलम्भितः नन्देन, * खल पायसथाली निषाद गहणं च.प्र. ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~404 ~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७५], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक- ॥२०॥ प्रत - सुत्रांक गोसालो उवनंदस्स, तेण उवर्णदेण संदिहं देहि भिक्खं, तत्थ न ताव वेला, ताहे सीअलकूरो णीणिओ, सो तं णेच्छइ, 5 हारिभद्रीपच्छा सा तेणवि भण्णति-दासी! एयस्स उवरि छुभसुत्ति, तीए छूढो, अपत्तिएण भणति-जइ मज्झ धम्मायरिअस्स | अस्थि तवो तेए वा एयरस घर डग्झउ, तरथ अहासण्णिहितेहिं वाणमंतरेहिं मा भगवतो अलियं भवउत्ति तेण तं दही साविभागः१ घरं । ततो सामी चंपं गओ, तत्थ वासावासं ठाइ, तत्थ दोमासिएण खमणेण खमइ, विचित्तं च तवोकम्म, ठाणादीए पडिमं ठाइ, ठाणुकडगो एवमादीणि करेइ, एस ततिओ वासारत्तो। कालाऍ सुण्णगारे सीहो विजुमई गोहिदासी य । खंदो दन्तिलियाए पत्तालग सुण्णगारंमि ॥ ४७६ ॥ पदानि-कालायां शून्यागारे सिंहः विद्युन्मती गोष्ठीदासी च स्कन्दः दन्तिलिकया पात्रालके शुन्यागारे। अक्षरगमनिका क्रियाऽध्याहारतः स्वधिया कार्या । पदार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-ततो चरिमं दोमासियपारणयं बाहिं पारेत्ता कालायं नाम सणिवेसं गओ गोसालेण सम, तत्थ भगवं सुण्णघरे पडिमं ठिओ, गोसालोऽवि तस्स दारपहे ठिओ, १ गोशाल उपनन्दस्व, तेनोपनन्देन संविष्टम्-देहि भिक्षा, तत्र न तावडेला, तदा शीतलकुरो नीतः, स तं नेच्छति, पश्चात् सा तेनापि भावते-दालि! |एतस्योपरि क्षिति, तथा क्षिसः, अप्रीया भणति-पदि मम धर्माचार्यख अस्ति तपसोजो वा एतस्य गृहं दद्यतां, तब वधासनिहितवनिमन्तरेः मा भगवान् अकीको भवरिवति तैस्तद् दग्धं गृहं । ततः स्वामी चम्पां गतः, तत्र वर्षावासं तिपति, तत्र दिमासक्षपणेन तपस्थति, विचित्रं च तपःकर्म, स्थानादिना | ॥२०१॥ प्रतिमा (कायोत्सर्ग) करोति, स्थानमुत्कटुकः एवमादीनि करोति, एष तृतीयो वरात्रः । २ ततश्चम द्विमासिकपारण बदिष्कृत्वा काला नाम | सजियेशं गतः गोशालेन समं, तत्र भगवान शून्यगृहे प्रतिमा स्थितः, गोकालोऽपि तस्य द्वारपये स्थितः. दीप अनुक्रम JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत तत्थ सीहो नाम गामउडपुत्तो विजुमईए गोहीदासीए समं तं चेव सुपणघरं पविठ्ठो, तत्थ तेग भण्गइ-जइ इत्थ समणो दावा माहणो वा पहिको वा कोह ठिओ सो साहउ जा अन्नत्थ बच्चामो, सामी तुहिक्कओ अच्छइ, गोसालोऽपि तुहि-2| कओ, ताणि अच्छित्ता णिग्गयाणि, गोसालेण सा महिला छिक्का, सा भणति-एस एस्थ कोइ, तेण अभिगतूण पिट्टिओ, एस धतो अणायारं करेंताणि पेच्छंतो अच्छाइ, ताहे सामि भणइ-अहं एफिलओ पिट्टिज्जामि, तुम्भेण बारेह. सिद्धत्यो। भणइ-कीस सील न रक्खसि ?, किं अम्हेऽवि आहष्णामो?, कीस वा अंतो न अच्छसि, ता दारे ठिओ। ततो निग्गतण |सामी पत्तकालयं गओ, तत्थवि तहेव सुण्णघरे ठिओ, गोसालो तेण भएण अंतो ठिओ, तस्थ खंदओ नाम गामउडपुत्तो। अप्पिणिभियादासीए दत्तिलियाए समं महिलाए लज्जतो तमेव सुण्णघरं गओ, तेऽपि तहेव पुच्छति, तहेव तुहिका सूत्राक दीप अनुक्रम T तब सिंहो नाम ग्रामपुत्रः विद्युन्मस्या गोष्ठीदास्या समं तदेव यम्प प्रविष्टः, तत्र तेन भन्यते-या श्रमणो वा ब्राह्मणो वा पथिको वा कवित स्थितः स साधयतु यतः अन्यत्र सजायः, स्वामी तूष्णीकस्तिष्ठति, गोशालोऽपि तूष्णीका, तौ स्थिस्त्रा निर्गती, गोशालेन सा महेला स्पृष्टा, सा भगति-एषोऽत्र कश्चित् , तेनाभिगम्य पिहितः, एष धूतः अनाचारं कुर्वन्ती पश्यन् तिष्ठति, तदा स्वामिनं भणति-अदमे काकी पिधे, यूर्य न वास्यत, सिद्धार्थों भणति-कृतः शीलं न रक्षसि ?, किं वयमपि आहन्यामहे', कुतो वान्त: म तिष्ठसि ?, खतो द्वारे स्थितः। ततो निर्गत्य स्वामी पात्राल के गतः, तत्रापि तथैव शून्पगृहे स्थितः गोशालस्तेन भयेनाम्त: स्थितः, तत्र स्कन्दको नाम ग्रामङ्कटपुत्रः पाश्मीवया दास्या दन्तिलिकया समं महिकायाः लजमानः तदेव शून्यगृहं गतः, तावपि तथैव छतः, तथैव तूष्णीकी JAMERatinintamational Mandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७६], भाष्यं [११४...] (४०) . हारिभद्रीयवृत्ति विभागः१ C प्रत - सुत्रांक - - - आवश्यक-IDI |अच्छंति, जाहे ताणि निग्गच्छति ताहे गोसालेण हसियं, ताहे पुणोऽवि पिट्टिओ, ताहे सामि खिंसइ-अम्हे हम्मामो, | तुम्भे न वारेह, कि अम्हे तुम्हे ओलग्गामो ?, ताहे सिद्धत्थो भणति-तुम अप्पदोसेण हम्मसि, कीस तुंडं न रक्खेसि-1 ॥२० ॥ • मुणिचंद कुमाराए कूवणय चंपरमणिजउजाणे । चोराय चारि अगडे सोमजयंती उचसमेइ ।। ४७७॥ । पदानि-मुनिचन्द्रः कुमारायां कृपनयः चम्परमणीयोद्याने चौरायां चारिकोडगडे सोमा जयन्ती उपशामयतः । पदार्थः। कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तैतो भगवं कुमारायं नाम सण्णिवेस गओ, तत्थ चम्परमणिजे उजाणे भगवं पडिमं ठिओ। इओ य पासावचिजो मुणिचंदो नाम थेरो बहुस्सुओ बहुसीसपरिवारो तंमि सन्निवेसे कूवणयस्स कुंभगारस सालाए। ठिओ, सो य जिणकप्पपडिम करेइ सीसं गच्छे ठवेत्ता, सो य सत्तभावणाए अपाणं भावेति, तवेण सत्तेण सुत्तेण |एगत्तेण बलेण य । तुलहा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ ॥१॥ एआओ भावणाओ, ते पुण सत्तभावणाए भावेंति, सा पुण “पढमा उवस्सयंमि, बितिया बाहिं ततिय चउकमि । सुण्णधरंमि चउत्थी, तह पंचमिआ मसाणंमि॥१॥" तिष्ठतः, यदा ती निर्गच्छतः तदा गोशालेन हसितं, तदा पुनरपि पिट्टितः,तदा स्वामिनं जुगुप्सते-अहं बन्ये, पूर्वन वारयत, किंयुष्मान् वयमवलगामः सदा सिदार्थो भणति-स्वमारमदोषेण इभ्यसे, कुतस्तुपर्ड न रक्षसि । ततो भगवान् कुमारा नाम सनिवेशं गतः, वन चम्परमणीय स्थान प्रातमा भर खितः । इतन्त्र पार्वापरयः मुनिचन्द्रो नाम स्थविरः बहुश्रुतः बहुशियपरिवारः तस्मिन् संनिवेशे कूपनयस्य कुम्मकारस्य शालायां खितः, सच जिनकल्पप्रतिमा करोति शिष्यं गच्छे स्थापयित्वा । ते सवभावनयामानं भावयन्ति-तपसा सत्वेन सत्रेणकरवेन बलेन च । तुलना पञ्चधोक्ता जिनकत्वं प्रतिपिल्सोः ॥ १॥ एताः भावनाः, ते पुनः सत्वभावनया भावयन्ति, सा पुनः-प्रथमा उपाश्रये द्वितीया बहिः तृतीया चतुष्के । शून्यगृहे चतुर्थी तथा पबमी श्मशाने॥१॥ *- दीप अनुक्रम T V ॥२०२।। wwjanataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~407~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] (४०) 2-54-4-54 प्रत सो बितियाए भावेइ । गोसालो सामि भणइ-एस देसकालो हिंडामो, सिद्धत्थो भणइ-अज्ज अम्ह अन्तर,पच्छा सो हिंडतो, ते पासावचिजे पासति, भणति य-के तुभे?, ते भणंति-अम्हे समणा निग्गंधा, सो भणति-अहो निग्गंधा, इमो भे एत्तिओ गंथो, कहिं तुम्भे निग्गंधा ?, सो अप्पणो आयरियं वण्णेइ-एरिसो महप्पा, तुम्भे एत्थ के ?, ताहे तेहिं भण्णइ|जारिसो तुमं तारिसी धम्मायरिओऽवि ते सयंगहीयलिंगो, ताहे सो रुट्ठो-अम्ह धम्मायरियं सवहत्ति जइ मम धम्मायरियस्स अस्थि तयो ताहे तुभ पडिस्सओ डज्झउ, ते भणंति-तुम्हाणं भणिएण अम्हे न डज्झामो, ताहे सो गतो साहब सामिस्स-अज मए सारंभा सपरिग्गहा समणा दिहा, तं सर्व साहइ, ताहे सिद्धत्थेण भणियं-ते पासावञ्चिज्जा साहवो, न ते डझंति, ताहे रत्ती जाया, ते मुणिचंदा आयरिया बाहिं उबस्सगस्स पडिम ठिआ, सो कूवणओ तद्दिवस सेणीए भत्ते पाऊण वियाले एइ मत्सेल्लओ, जाव पासेह ते मुणिचंदे आयरिए, सो चिंतेइ-एस चोरोत्ति, तेण ते गलए गहीया, ते सूत्राक दीप FAGAROGRAM अनुक्रम 1Xस द्वितीयया भावयति । गोशाला स्वामिन भणति-एप देशकालः हिषडाबहे, सिद्धार्थो भणति-अयामाकमतर (उपचास.), पश्चात्स हिण्डमानः तान् पाया त्यान् पश्यति, भणति च-के यूयम् ,ते भणन्ति-वयं श्रमणा निन्थाः , स भगति-अहो निर्भन्धाः, अयं भवतामिपान ग्रन्था, क यूयं निर्गन्धा:', स आत्मन जाआचार्य वर्णयति-ईरशो महारमा, यूपमत्र के ?, तदा तैर्भण्यते-याशस्वं तादशोधर्माचार्योऽपि वव स्वगृहीतलिङ्गः, तदा स रुपा-मम धर्माचार्य शपथ इति यदि मम धर्माचार्यखास्ति तपः सदा युष्माकं प्रतिश्रयो दातां, ते भणन्ति-युष्माकं भणितेन वयं न दह्यामहे, तदा स गतः कथयति स्वामिने, अथ मया सारम्भाः सपरिमहा श्रमणारष्टाः, तत् सर्व कथयति, तदा सिवान भणितम्-ते पापसासाचयोन ते दाम्ते, तदा रानि ता, ते मुनिचन्द्राचाया बहिस्साश्रयस्थ प्रतिमा स्थिता। स कूपनतो भक्के तदिवसे श्रेणी पीत्वा विकाले आयाति मत्तः, यावपश्यति तान् मुनिचन्द्वान् भाचार्यान् , स चिन्तयति-एष चौर इति, तेन ते ग्रीवायां गृहीताः, ते Hinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~408~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक ॥२०३|| विभागः१ प्रत निरुस्सासा कया, न य झाणाओ कंपिआ, ओहिणाणं उप्पण्णं आउंच णिडिअं, देवलोअंगया, तत्थ अहासन्निहिपहिं हारिभद्रीवाणमंतरेहिं देवेहि महिमा कया, ताहे गोसालो बाहिं ठिओ पेच्छइ, देवे उबट्टते नियंते अ, सो जाणइ-एस डझइ यत्तिः सो तेसिं उवस्सगो, साहेइ सामिस्स, एस तेसिं पडिणीयाणं उवस्सओ डग्झइ, सिद्धत्थो भणइ-न तेसिं उबस्सओ डन्झइ,81 तेसिं आयरियाणं ओहिणाणं उप्पण्णं, आउयं च णिढ़िय, देवलोगं गया, तत्थ अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि महिमा कया, ताहे गोसालो बाहिंठिओ पिच्छइ, ताहे गओ तं पदेस, जाय देवा महिमं काऊण पडिगया, ताहे तस्स तं गंधोद|गवासं पुष्फवासं च दण अन्भहियं हरिसो जाओ, ते साहुणो उट्टवेइ-अरे तुम्भे न याणह, एरिसगा चेव बोडिया हिंडह, उद्देह, आयरिय कालगयंपि न याणह, सुवह रतिं सबं, ताहे ते जाणंति-सच्चिलओ पिसाओ, रतिपि हिंडइ, ताहे तेऽवि तस्स सद्देण उडिआ, गया आयरियस्स सगासं, जाव पेच्छंति-कालगयं, ताहे ते अद्धितिं करेइ-अम्हेहिं ण णाया सुत्रांक ASAN दीप अनुक्रम निरुच्छासाः कृताः, न च ध्यानाकम्पिताः, अवधिज्ञानं उत्पन्नं आयुध निहितं, देवलोकं गताः, तत्र यथासविदितम्यस्तरदेवमहिमा फुतः, सदा गोशालो बहिःखितः पश्यति-देवानवपतत उत्पत्ततच, स जानाति-एप दह्यते स तेषामुपाश्रयः, कथयति खामिने-एष तेषां प्रत्पनीकानामुपाश्रयो दाते, सिद्धार्थो भाति-न तेषामुपाश्रयो दयते, तेषामाचार्याणामधिज्ञानमुत्पत्रं, आयुध निष्ठितं, देवलोकं गताः, तत्र यथासनिहितपन्तरदेवमहिमा कृतः, तदा गोशालो बहिःस्थितः प्रेक्षते, तदा गतसं प्रदेश, यापदेवा महिमानं कृत्वा प्रतिगताः, तदा तख वा मन्धोदका पुष्पवर्षां च स्टाऽभ्यधिको हो जातः, तान् साधनस्थापयति-अरे सूर्य न जानीथ, ईशा एवं मुण्टका हिपटवे, अतिष्ठत, आचार्य कालगतमपि न जानीथ, खपिय रात्रिं सर्वा, सदा ते जानन्तिसखः पिशाचः, रात्रावपि हिण्डते, सदा तेऽपि तस्य शब्देन उत्थिताः, गता आचार्यख सकाशं, यावरमेक्षन्ते कालगतं, तदा तेऽति कुर्वन्ति-अम्माभिने ज्ञाता ॥२०३॥ JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत आयरिया कालं करेंता, सोऽवि चमढेत्ता गओ । ततो भगवं चोरागं सभिवेसं गओ, तत्थ चारियत्तिकाऊण उडवालगा अगडे पक्विविजेति, पुणो य उत्तारिजंति, तस्य पढमं गोसालो सामी न, ताव तत्थ सोमाजयन्तीओ नाम दुवे| उप्पलस्स भगिणीओ पासावच्चिजाओ जाहे न तरंति संजमं काउं ताहे परिवाइयत्तं करेंति, ताहिं सुर्य-एरिसा केवि दो जणा उड़बालएहिं पक्विविजंति, ताओ पुण जाणंति-जहा चरिमतित्थगरो पबइओ, ताहे गयाओ, जाव पेच्छंति, ताहि | मोइओ, ते उज्झसिआ अहो विणस्सिउकामेति, तेहिं भएण खमाविया महिया य। पिट्टीचंपा चासं तत्थं च जम्मासिएण खमणेणं । कयंगल देउलवरिसे दरिद्दथेरा य गोसालो ॥ ४७८ ॥ ततो भगवं पिट्ठीचंपंगओ, तत्थ चउत्थं वासारतं करेइ, तत्थ सो चउम्मासियं खवणं करेंतो विचित्तं पडिमादीहिं। करेइ, ततो बाहिं पारित्ता कयंगलं गओ, तत्थ दरिद्दधेरा नाम पासंडत्या समहिला सारंभा सपरिगहा, ताण वाडगस्स सूत्राक 69 दीप अनुक्रम मादायाँ: काळ कर्वन्तः, सोऽपि तिरस्कृत्य गतः । ततो भगवान् चोराके सन्निवेशं गतः, तत्र चारिकावितिहरवा कोपालकै अग प्रक्षिप्येते, पुनश्रोचायते, तत्र प्रथमो गोशालो न स्वामी, तावत्तत्र सोमाजयन्तीनाम्न्यौ हे उत्पल व भगिन्यौ पाचीपरये यदा न तस्तः (यातः) संयम क बड़ा परिवाजिका कुरुतः, ताभिः श्रुतम्-ईशी काचिदपि ही जनी आरक्षक प्रक्षिप्येते, ते पुन जीनीता-यथा चरमतीर्थकर मनजितः, तदा गते, यावापश्यतः साताभ्यां मोचिता, ते तिरस्कृताः अहो विनंएकामा इति, ते येन क्षामितः माहितश्च । २(पृष्ठचम्पा वरात्र तत्र चातुर्मासिकेन क्षपणेन । कृतामलायां देवकुलं दिवर्षा दरिद्वषविराम गोशालः ॥ ८॥) ३ततो भगवान् पृष्ठचम्पां गतः, तत्र चतुर्थ वर्षारानं करोति, नत्र स चतुर्मासक्षपर्ण कुर्वन् विचित्रं कायोत्सर्गा दिभिः करोति, ततो बदिः पारयित्वा कृतामको गतः,तन्त्र दरिद्रस्थाविरा नाम पापण्डवाः समहेनाः सारम्भाः सपरिग्रहाः तेषां वाटकख. *मुणी चाचम्मासिख मणेणं. Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥२०४॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [ ४७८ ], निर्मुक्तिः [VIC), भाष्यं [१९४...] अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], मेज्झे देवडलं, तत्थ सामी पडिमं ठिओ, तद्दिवसं च फुसिअं सीयं पडति, ताणं च तदिवस जागरओ, ते समहिला गायंति, तत्थ गोसालो भणति एरिसोऽवि नाम पासंडो भण्णइ सारंभी समहिलो य, सवाणि य एगडाणि गायंति वाति य, ताहे सो तेहिं णिच्छूढो, सो तहिं माहमासे तेण सीएण सतुसारेण अच्छइ संकुइओ, तेहिं अणुकंपतेहिं पुणोऽवि आणिओ, पुणेोऽवि भणति, पुणोऽवि णीणिओ, एवं तिणि वारा णिच्छूढो अतिणिओ य, ततो भणइ जड़ अम्हे फुडं भणामो तो णिच्छुभामो, तत्थऽण्णेहिं भण्णइ एस देवज्जवस्त्र कोऽवि पडिआवाहो छसधारो वा आसी तो तुण्डिकाणि अच्छह, सच्चाउज्जाणि य खडखडाचेह जहा से सद्दो न सुइति, - सावत्थी सिरिभद्दा निंदू पिउदन्त पयस सिवदते। दारगणी नखवालो हलिद्द पडिमाऽगणी पहिआ ॥ ४७९ ॥ ततो सामी सावथिंगओ, तत्थ सामी बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ गोसालो पुच्छति-तुम्भे अतीह ?, सिद्धत्थो भणति - Education Intimation १ मध्ये देवकुलं तत्र स्वामी प्रतिमां स्थितः तदिवसे च स्वपविन्दु शीतं पतति तेपां च सदिवसे जागरणं, ते समहिला गायन्ति तत्र गोशाल भणतिईशोऽपि नाम पापण्डो भन्यते सारम्भः समहि सर्वे चैकत्र गायन्ति वादयन्ति च तदा स तैर्निशितः, स तत्र मात्रमासे तेन सीतेन समुपारेण तिष्ठति संकुचितः तैरनुकम्पयद्भिः पुनरष्यामीतः पुनरपि भगति पुनरपि नीतः एवं त्रीन् वारान् बहिर्निक्षितः आनीत, ततो भगति-यदि वयं स्फुटं भणामः सदा निष्काश्यामहे, तत्रान्धेर्भण्यते एष देवाख कोऽपि पीठमयाहकछत्र धरो या भविष्यति ततः तूष्णीका तिष्ठत, सर्वांतोयानि वादयत यथा तत्र शब्दो न श्रूयते २ ( आवस्ती श्रीमङ्गा निन्दुः पितृदत्तः पायसं शिवदत्तः । द्वारमभिः नवा वाला हरिद्रः प्रतिमा अशिः पथिकाः ॥ ४७९॥ ) ३ ततः स्वामी श्रावस्तीं गतः, तत्र स्वामी दहिः प्रतिमां स्थितः, तत्र गोशालः पृच्छति यूयं चलत ?, सिद्धार्थं भणति -- For Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 411~ ॥२०४॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [-1 मूलं [- / गाथा-], ], निर्बुक्तिः [ ४७९], आष्यं [ ११४...]] अज्ज अम्हं अंतरं, सो भणति अज अहं किं लभिहामि आहारं ?, ताहे सिद्धत्थो भणइ-तुमे अज्ज माणुसमंसं खाइअवंति, सो भणति तं अज्ज जेमेमि जत्थ मंससंभवो नस्थि, किमंग पुण माणुसमंसं १, सो पहिडिओ । तत्थय सावत्थीए नयरीए पिउदत्तो णाम गाहाबई, तस्स सिरिभद्दा नाम भारिआ, सा य जिंदू, जिंकू नाम मरंतवियाइणी, सा सिवदत्तं नेमित्तिअं पुच्छर- किहवि मम पुत्तभंडं जीविजा १, सो भणति जो सुतवस्सी तरस तं गन्धं सुसोधितं रंधिऊण पायसं करेत्ता ताहे देह, तस्स य घररस अण्णओ हुतं दारं करेजासि, मा सो जाणित्ता उहिहित्ति, एवं ते थिरा पया भविस्सइ, ताए तहा कथं, गोसालो य हिंडतो तं घरं पविट्टो, तस्स सो पायसो महुघयसंजुत्तो दिण्णो, तेण चिंतिअं एत्थ मंसं कओ भविस्सइत्ति १ ताहे तुडेण भुतं, गंतुं भणति चिरं ते णेमित्तियत्तणं करेंतस्स अजंसि णवरि फिडिओ, सिद्धत्थो भणइन विसंवयति, जइ न पत्तियसि वमाहि, वमियं दिट्ठा नक्खा विकूइए अवयवाय, ताहे रुट्ठो तं घरं मग्गड़, तेहिवि तं वारं ओहाडियं तं तेण १ अद्यामाकमभक्तार्थः, स भणति अयाहं किं लप्स्ये आहारम् ?, तदा सिद्धार्थों भणति वयाऽथ मनुष्यमांसं खादितव्यमिति स भणति तद् अच जेमामि यत्र मांससंभवो नालि, किमङ्ग पुनर्मनुष्य मांसं ? स प्रहिण्डितः । तत्र वस्य नगर्यां पितृदत्तो नाम गाथापतिः, तस्य श्रीभद्रा भाव नाम, सा च निन्दुः, निम्दुनम त्रियमाणमजनिका सा शिवदर्श नैमिचिकं पृच्छति कथमपि मम पुत्रभाण्डं जीवेत् ?, स भगति यः सुतपस्वी तस्मै तं गर्भं सुशोधितं रथयित्वा पायसं कृत्वा तदा देहि, तस्य च गृहस्वाम्यतो भूतं द्वारं कुर्याः मा सशाखा चाक्षीत् इति एवं तव स्थिरा प्रजा भविष्यति, तथा तथा कृतं, गोशालक्ष हिण्डमानः सद्गृहं प्रविष्टः तसै तत्पायसं मधुघृतसंयुक्तं दतं तेन चिन्तितम् अत्र मांसं कुतो भविष्यति इति तदा तुष्टेन भुकं गत्वा भणति चिरं तव नमि विं कुतोऽयासि परं स्फिटितः सिद्धार्थों भणतिम विसंवदति यदि न प्रत्येषि वन, बान्तं दृष्टा नखा विकिरता अवयवान, तदा तद्गृमार्गपति, ताभ्यां अपि तद्द्वारं स्फेटिलं, सतेन Education intemational For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 412 ~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७९], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक E0%A5% हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा१ १२०५॥ प्रत सूत्राक % ने जाणति, आहाडिओ करेइ, जाहे न लभइ ताहे भणति-जइ मम धम्मायरियस्स तवतेओ अस्थि तओ डझर, ताहे सवा दहा बाहिरिआ। ताहे सामी हलिङ्गो नाम गामो तं गओ, तत्थ महापमाणो हलिदुगरुक्खो, तत्व सावत्थीओ णगरीओ निग्गच्छंतो पविसंतो य तत्थ वसइ जणवओ सत्यनिवेसो, सामी तत्थ पडिमं ठिओ, तेहिं सत्थेहिं रतिं सीयकालए अग्गी जालिओ, ते बड्डे पभाए उद्वेत्ता गया, सो अग्गी तेहिं न विज्झाविओ, सो डहतो सामिस्स पासं गओ, सो सामी परितावेइ, गोसालो भणति-भगवं! नासह, एस अग्गी एइ, सामिस्स पाया दहा, गोसालो नहोतत्तो य णंगलाए डिंभ मुणी अच्छिकडणं चेव । आवत्ते मुहतासे मुणिओत्ति अ बाहि बलदेवो॥४८॥ ततो सामी नंगला नाम गामो, तत्थ गतो, सामी वासुदेवघरे पडिम ठिओ, तत्थ गोसालोऽवि ठिओ. तत्थ य चेड़स्वाणि खेलंति, सोऽवि कंदप्पिओ ताणि चेडरूवाणि अच्छीणि कहिऊण बीहावेइ, ताहे ताणि धावंताणि पडंति, जाणूणि न जानाति, आधाटीः करोति, बदा न लभते तदा भणति-यदि मम धर्माचार्यस्य तपस्तेजोऽसि तदा दक्षता, तदा सर्वा दग्धा बाहिरिका । तदा स्वामी इरिहाको नाम ग्रामः तं गतः, तन महस्त्रमाणो हरिदको वृक्षः, तन्त्र श्रावस्तोतो नगर्या निर्गच्छन् प्रविसंश्च तत्र वसति जानपदः सार्थनिवेशः, स्वामी तत्र प्रतिमा स्थितः, तैः साधिक रात्रौ शीतकाले नियालितः, ते वृहति प्रभाते उत्थाय गताः, सोऽग्निस्तैर्न विध्यातः, स दहन् स्वामिनः पार्थं गतः, स स्वामिनं परितापयति, गोशालो भणति-भगवन्तः ! नश्यत एषोऽभिरावाति, स्वामिनः पादौ दग्धी, गोशालो नष्टः । ततश्च नालायां विम्भाः मुनिः अधिकर्षण DI(विकृतिः) चैव । आवर्ने मुखवासः मुषितः (पिशाचः) इति च बहिबलदेवः ॥ १८॥ ततः खामी नका नाम ग्रामस्तत्र गतः, स्वामी वासुदेवगृहे मतिमा स्थिता, तत्र गोशाकोऽपि स्थितः, तत्र च चेटरूपाणि कीडन्ति, सोऽपि कान्दर्षिकः तानि चेटरूपाणि अक्षिणी कर्षयित्वा विकृत्य) भापयति, तदा तानि धावस्ति पतन्ति जानूनि दीप अनुक्रम ||२०५॥ JABERatinintimational S wlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [-1 मूलं [- / गाथा-], ], निर्बुक्तिः [ ४८० ] भष्यं [ ११४...]] ये फोडिज्जंति, अध्पेगइयाणं खुखुणगा भजंति, पच्छा तेसिं अम्मापियरो आगंतूण तं पिवृंति, पच्छा भणति देवज्जगस्स एसो दासो नूणं न ठाति ठाणे, अण्णे वारेंति-अलाहि, देवजयस्स खमियां । पच्छा सो भगति अहं हम्मामि, तुम्भे न वारेह, सिद्धत्थो भणति-न ठासि तुमं एकलो अवस्स पिट्टिज्जसि, ततो सामी आवत्तानाम गामो तत्थ गतो, तत्थवि सामी पडिमं ठिओ बलदेवघरे, तत्थ मुहमकडिआहिं भेसवेइ, पिट्टेतिवि, ततो ताणि चेडरूवाणि रूवंताणि अम्मापिऊणं साहति, तेहिंगंतूण घेचिओ, मुणिओत्तिकाउं मुको, मुणिओ-पिसाओ, भणति य-किं एएण हरणं ?, एवं से सामिं हणामो जो एवं न वारेइ, ततो सा बलदेवपडिमा हलं बाहुणाऽद्दिक्खिविऊर्ण उडिआ, ततो ताणिय पायपडियाणि सामिं खातिचोरा मंडव भोजं गोसालो वहण तेय झामणया । मेहो य कालहत्थी कलंबुयाए उ उवसग्गा ॥ ४८१ ॥ ततो सामी चोरायं नाम संणिवेसं गओ, तत्थ गोहिअभत्तं रज्झइ पञ्चति य, तत्थ य भगवं पडिमं ठिओ, गोसालो १ च स्फुटति, घुर्पुरका (गुरुका) अध्येककानां भज्यन्ते, पश्चात् तेषां मातापितरौ आगत्य तं पितः पश्चात् मणतः देवार्थस्य पुष दासो नूनं न तिष्ठति स्थाने, अन्ये वारयन्ति अलं, देवार्थख क्षमितम्यं पश्चात् भगति अहं इम्वे यूयं न वारयत, सिद्धार्थो भगति न तिष्ठसि त्वमेकाकी अवश्यं पिट्टिष्य से, ततः स्वामी आवर्ता नाम ग्रामस्तत्र गतः तत्रापि स्वामी प्रतिमां स्थितः बलदेवगृहे, तत्र मुखमर्कटिकाभिर्मापयति, पियतेऽपि ततस्तानि चेटरूपाणि रुदन्ति अम्बापित्रोः कथयन्ति ताभ्यां गत्वा पिहितः, मुगित इतिकृत्वा मुक्तः, मुणितः पिशाचः, भणतश्च-किमेतेन इतेन ? पुनमस्य स्वामिनं हन्यः य एनं न वारयति, ततः सा बलदेवप्रतिमा हलं बाहुनाऽभिक्षिप्योत्थिता, ततः ते पादपतिताः स्वामिनं क्षमयन्ति (चोराकः मण्डपः भोज्यं गोशालो हननं तेजः दाहः । मेघश्व कालहस्ती कलम्बुकायां तूपसर्गाः ॥ ४८१ ) ततः स्वामी चोराकं नाम सनिवेशं गतः, तत्र गोष्ठिकभक्तं राज्यले पच्यते च तत्र च भगवान् प्रतिमां स्थितः, गोशालो Education intol For Party www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 414 ~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - आवश्यक ॥ २०६॥ Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) निर्मुक्तिः (४८१), अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा ), भाष्यं [१९४...]] भणति- -अज एत्थ चरियां, सिद्धत्थो भाइ-अज अम्हे अच्छामो, सोऽवि तत्थ णिउडुकुंडियाए पलोएड-किं देसकालो नवत्ति, तत्थ य चोरभयं, ताहे ते जाणंति-एस पुणो पुणो पलोएइ, मण्णे-एस चारिओ होज्जत्ति, ताहे सो घेतूण निस हम्मइ, सामी पच्छण्णे अच्छा, ताहे गोसालो भणति मम धम्मायरियस्स जइ तवो अत्थि तो एस मंडवो डज्झउ, डड्डो । ततो सामी कळंबुगा नाम सण्णिवेसो तत्थ गओ, तत्थ पञ्च्चतिआ दो भायरो मेहो कालहत्थी य, सो कालहत्थी चोरेहिं समं उद्धाइओ, इमे य पुढे अग्गे पेच्छइ, ते भति-के तुम्भे ?, सामी तुसिणीओ अच्छइ, ते तत्थ हम्मंति, न य साहंति, तेण | ते बंधिऊण महलस्स भाउअस्स पेसिआ, तेण जं भगवं दिठ्ठो तं उट्ठित्ता पूइओ खामिओ य, तेण कुंडग्गामे सामी दिपुषो लाडेसु य उवसग्गा घोरा पुण्णाकलसा य दो तेणा । बाहया सक्केणं भद्दिअ वासासु चउमासं ॥ ४८२ ॥ ततो सामी चिंतेइ - बहुं कम्मं निज्जरेय, लाढाविसयं वच्चामि ते अणारिया, तत्थ निज्जरेमि, तस्थ भगवं १ भणति अथात्र चरितव्यं, सिद्धाय भणति-अय वयं तिष्ठामः सोऽपि तत्र निकृत्युत्कटतया प्रलोकपति किं देशकालो न वेति तत्र च चोरभयं तदा ते नामन्ति एष पुनः पुनः प्रलोकयति मन्ये एष चौरो भवेत् इति तदा स गृहीत्वाऽत्यन्तं हन्यते, स्वामी प्रच्छन्ने तिष्ठति तदा गोशालो भणति मम धर्माचार्य यदि तपोऽस्ति तदेष मण्डपो दातां, दग्धः। ततः खामी कलम्बुका नाम संनिवेशः तत्र गतः, तत्र प्रत्यन्तिको द्वौ भ्रातरौ भेघः कालहस्ती च स कालहली चारैः सममुद्धाषितः, इमौ चाग्रतः पूर्व प्रेक्षते, ते भणन्ति को युवां ?, स्वामी तूष्णीकस्तिष्ठति, तौ तत्र इम्येते, न च कथयतः तेन ती बध्वा महते भ्रात्रे प्रेषिती तेन च यद् भगवान् दृष्टः सदुस्थाय पूजितः क्षमित तेन कुण्डप्रामे स्वामी दृष्टपूर्वः (लादेषु च उपसर्गाः घोराः पूर्णकलश हौ स्तेनी बजती शक्रेण भट्टिका वर्षायां चतुमांसी ॥ ४८२ ॥ ) ततः स्वामी चिन्तयति बहु कर्म निर्जरथितव्यं, छाडाविषयं व्रजामि तेनार्याः, तत्र निर्जरयामि तत्र भगवान् For Parts Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 415 ~ ॥ २०६ ॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८२], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक अच्छारियादितं हियए करेइ । ततो पविछो लाढाविसयं कम्मनिज्जरातुरिओ, तत्थ हीलणनिंदणाहिं बहुं कर्म निजरेइ, पच्छा ततो णीइ । तत्थ पुण्णकलसो नाम अणारियग्गामो, तत्वंतरा दो तेणा लाढाविसयं पविसिउकामा, अवसउणो एयरस वहाए भवउत्तिकद्दु अर्सि कहिऊण सीसं छिंदामत्ति पहाविआ, सक्केण ओहिणा आभोइसा दोऽवि बजेण हया। एवं |विहरता भद्दिलनयरिं पत्ता, तत्थ पंचमो वासारत्तो, तत्थ चाउम्मासियखमणेणं अच्छति, विचित्तं च तवोकर्म ठाणादीहिं। कयलिसमागम भोयण मंखलि दहिकूर भगवओ पडिमा।जंबूसंडे गोही य भोयणं भगवओ पडिमा ॥४८३ ।। १ ततो बाहिं पारेत्ता विहरतो गओ, कयलिसमागमो नाम गामो, तत्थ सरयकाले अच्छारियभत्ताणि दहिकूरेण निसह दिति, तत्थ गोसालो भणति-वच्चामो, सिद्धत्थो भणति-अम्ह अंतरं, सो तहिं गओ, भुंजइ दहिकूरं सो, बहिफोडो न चेव धाइ, तेहिं भणिय-बई भायणं करंबेह, करंबियं, पच्छा न नित्थरह, ताहे से उबरि छुर्द, ताहे। सावकदृष्टान्तं हवये करोति । ततः प्रविष्टो काढाविषयं कर्मनिर्जरास्वरितः, तत्र हीलननिन्दनाभिहु कर्म निरपति, ततः पश्चात् निर्गच्छति । तत्र पूर्णकलशो नामानार्थग्रामः, तत्रान्तराद्वी सेनी लादाविषयं प्रवेष्टुकामी, अपशकुन एतस्य बधाय भववितिकृत्वाऽसि कष्टा शीर्ष छिन् इति प्रधावितो, शकणावधिनाभोग्य द्वावपि वनेण इत्तौ । एवं बिहरन्तौ मदिकानगरी प्राप्ती, तत्र पञ्चमो वर्षारानः, तत्र चतुर्मासक्षपणेन तिष्ठति, विचित्रं च तपःकर्म स्थानादिभिः। कदलीसमागमः भोजनं महिदधिकरभगवतः प्रतिमा । जम्बूषण्डः गोष्टी (गोष्ठीका) भोजनं भगवतः प्रतिमा ॥ ५ )सतो। बहिः पारयित्वा विहरम् गतः, कदलीसमागमो नाम मामा, रान पाएकाले लावकभक्तं दधिरेणात्यन्तं दीयते, सन गोशालो भणति-बजावा, सिद्धार्थों भणति-अमाकमभक्ताथा, स तत्र गतः, भुके दधिर, सोपविस्फोटः न चैव प्रायते, तैर्भणितं यूहनाजनं करम्बय, करम्वितं, पश्चात मिस्तरति, तदा तस्योपरि क्षिप्तं. दीप अनुक्रम intandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८३], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक- हारिभद्री यवृत्तिः विभाग-१ ॥२०७॥ प्रत सुत्रांक उक्किलंतो गच्छइ । ततो भगवं जंबूसंडं नाम गामं गओ, तत्थवि अच्छारियाभत्तं तहेव नवरं तत्थ खीरकूरे, तेहिवि तहेव धरिसिओ जिमिओ अतंवाए नंदिसेणोपडिमा आरक्खि वहण भय डहणं । कूविय चारिय मोक्खे विजय पगम्भा य पत्तेअं॥४८४॥ ततो भगवं तवायं णाम गाम एइ, तत्थ नंदिसेणा नाम घेरा बहुस्सुआ बहुपरिवारा पासावच्चिजा, तेऽवि जिणकप्पस्त परिकम्मं करेंति, इमोऽवि बाहिं पडिमं ठिओ, गोसालो अतिगओ, तहेव पुच्छइ, खिंसति य, ते आयरिआ तदिवस। चउक्के पडिमं ठायंति, पच्छा तहिं आरक्खियपुत्तेण चोरोत्तिका भलएण आहओ, ओहिणाणं, सेसं जहा मुणिचंदस्स, जाव गोसालो बोहेत्ता आगतो । ततो सामी कृपि नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ तेहिं चारियत्तिका घिपति बझंति पिट्टिजति य । तत्थ लोगसमुलावो-अहो देवजओ रूवेण जोवणेण य अप्पतिमो चारिउत्तिकाउं गहिओ । तत्थ विजया तदोत्कलन् गच्छति । ततो भगवान जम्बूपई नाम माम गतः, तत्रापि लावकभक्तं तथैष नवरं तत्र क्षीरफूरी, तैरपि तथैव धर्षितो अमितन्त्र (तानायां मन्दिषेणः प्रतिमा बारक्षका हननं भयं दहनं । कूपिका चारिकः मोक्षः विजया प्रगल्भा च प्रत्येकम् ॥५८५1) ततो भगवान् तम्बाकं नाम प्राममागात् , तन्त्र नन्विषेणा नाम स्थविरा बहुश्रुता बहुपरिवाराः पार्थापत्याः, तेऽपि जिनकल्पस्य परिकर्म कुर्वन्ति, अयमपि बहिः प्रतिमया स्थितः, गोशालोऽतिगतः, तथैव पृच्छति, विंसति च, ते प्राचार्यास्तहिवसे चतुष्के प्रतिमया अस्थुः, पश्चात्तत्रारक्षकपुश्रेण चौर इतिकृत्वा भलेनाहतः, भवधिज्ञान, योर्ष यथा मुलिचवस्त्र, याबद्गोशालो बोधयित्वाऽऽगतः । ततः खामी कूपिकासनिवेशं गतः, तत्र तैश्वारिका वितिकृत्वा गृोने वध्येते पिवेते च । तत्र लोकसमुल्लापः-अहो देवार्यः रूपेण बोचनेन चाप्रतिमश्चारिक इतिकृत्वा गृहीतः । तत्र विजया दीप अनुक्रम T ॥२०७॥ JABERati Sarwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८४], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत पंगम्भा य दोणि पासंतेवासिणीओ परिवाइयाओ लोयस्स मूले सोऊण-तित्थकरो पबइओ, वच्चामो ता पलोएमो, को जाणति होज्जा, ताहे ताहि मोइओ-दुरप्पा ! ण याणह चरमतित्धकरं सिद्धत्थरायपुत्तं, अज भे सक्को उबालभहिइ, ताहे मको खामिओ य । 'पत्तेय' ति पिहिपीहीभूता सामी गोसालो य, कहं पुण!, तेर्सि बच्चताणं दो पंथा, ताहे गोसालो। भणति-अहं तुम्भेहि समं न वच्चामि, तुम्भे ममं हम्ममाणं न वारेह, अविय-तुन्भेहिं समं बहूवसग्गं, अण्णं च-अहं चेव पढम हम्मामि, तओ एकलओ विहरामि, सिद्धत्थो भणति-तुमं जाणसि । ताहे सामी वेसालीमुहोपयाओ, इमो य भगवओ फिडिओ अण्णओ पहिओ, अंतरा य छिण्णद्धाणं, तत्थ चोरो रुक्खविलग्गो ओलोएति, तेण दिह्रो, भणति-एको नग्गओ समणओ एइ, ते य भणंति-एसो न य बीहेइ नस्थि हरियवंति, अज्ज से नस्थि फेडओ, जं अम्हे परिभवति तेणेहि पहे गहिओ गोसालो माउलोत्ति वाहणया । भगवं वेसालीए कम्मार घणेण देविंदो ॥ ४८५॥ सूत्राक दीप अनुक्रम प्रगल्भा च हे पाश्चान्तेवासिन्यौ परिवाजिके लोकस्य पा श्रुत्वा-तीर्थकरः प्रबजितः, प्रजावतावत् प्रलोच्यावः, को जानाति ? भवेत् (सः), तदा ताभ्यां मोचितः-दुरात्मन् ! न जानीषे (दुराधमानः ! न जानी) चरमतीर्थंकर सिदार्थराजपुत्रं, अद्य भवद्भयः शक उपालप्स्थति, रादा मुक्तः क्षमितश्च । 'प्रत्येक मिति पृथक् पृथग्भूतौ स्वामी गोशालश, कथं पुनः, तयोर्नजतोः द्वौ पन्थानो, तदा गोशाको भणति-अहं भवद्भिः समं न बजामि, यूयं मां इन्यमानं न वारयत, अपिच-भवद्भिः समं बहूपसर्ग, अन्यच अदमेव प्रथम हुन्थे, तत एकाकी विहरामि, सिद्धार्थों भणति-वं जागीचे । तदा स्वामी विधालामुखः प्रस्थितः (प्रयातः), अयं च भगवतः स्फिटितोऽन्यतः प्रस्थितः, अन्तरा च छिन्नावा, वत्र चोरो वृक्षविलमोऽवलोकयति, तेन दृष्टो, भणति-एको नमः श्रमणक एति, ते च भणन्ति-एप नैव बिभेति नास्ति हर्तव्यमिति, अद्य तस्य नास्ति स्फेटका, यदस्मान् परिभवति । (स्तेनैः पथि गृहीतो गोशालो मातुल इतिकृत्वा वाहनम् । भगवान् विशालायां कर्मकारः बनेन देवेन्द्रः ॥ ४८५॥) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८५], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक आगओ पंचहिवि सएहिं वाहिओ माउलत्तिकाऊणं, पच्छा चिंतेइ-वरं सामिणा समं, अविय-कोइ मोएइ सामि, हारिभद्री तस्स निस्साए मोयणं भवइ, ताहे सामि मग्गिउमारद्धो । सामीविवेसालिंगओ, तत्थ कम्मकरसालाए अणुण्णवेत्ता पडिमयवृत्तिः ॥२०८॥ ठिओ, सा साहारणा, जे साहीणा तत्थ ते अणुण्णविआ । अण्णदा तत्थेगो कम्मकरो छम्मासपडिलग्गओ आढत्तो सोह- विभागार कतिहिकरणे, आउहाणि गहाय आगओ, सामिं च पासइ, अमंगलंति सामिं आहणामित्ति पहाविओ घणं उग्गिरिऊणं, सक्केण य ओही पउत्तो, जाव पेच्छइ, तहेव निमिसंतरेण आगओ, तस्सेव उवरिं सो घणो साहिओ, तह चेव मओ, सकोऽवि वंदिता गओगामाग बिहेलग जक्स्व तावसी उचसमावसाण थुई । छवण सालिसीसे विसुज्झमाणस्स लोगोही ॥ ४८६॥ ततो सामी गामायं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थुजाणे विहेलए विभेलयजक्खो नाम, सो भगवओ पडिमं ठियस्स आगतः पञ्चभिरपि शतवाहितः मातुल इतिकृत्वा, पश्चाश्चिन्तयति-वरं स्वामिना समं, अपिच-कोऽपि मोचयति स्वामिनं, तस्य निश्रया मोचन भवति, तदा स्वामिनं मार्गविनुमारब्धः। स्वाम्बपि विश्वालां गतः, तन्त्र कर्मकरशालायां अनुज्ञाप्य प्रतिमां स्थितः, सा साधारणा, ये स्वाधीनास्तत्र तेऽनुशापिताः । अन्यदा समेकः कर्मकरः षण्मासान् प्रतिलमः ( भन्नः) आरम्भः शोभनतिधिकरणे, आयुधानि गृहीत्वाऽऽगतः, स्वामिनं पश्यति च, अमङ्गलमिति स्वामिन-1 |२०८॥ माहन्मीति प्रधाक्तिो घनमुद्रीर्य, शक्रेण चावधिः प्रयुक्तः, यावत्पश्यति, तथैव निमेषान्तरेणागतः, तस्मैवोपरि सपना साधितः, तथैव मृतः, शक्रोऽपि वन्दित्वा गतः। (प्रामाकः विभेलकः यक्षः तापसी उपशमावसाने स्तुतिः । षष्ठेन पालिशी बिशुभ्यमानस्य लोकावधिः ॥ ४८६ ॥ ततः स्वामी प्रामाकं नाम सनिवेशं | गतः, तत्रोद्याने विभेलके विभेलक यक्षो नाम, स भगवतः प्रतिमा स्थितस दीप अनुक्रम JABERatinintamational wwjandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत महिमं करेइ । ततो भगवं सालिसीसयं नाम गामो तहिं गतो, तत्थुज्जाणे पडिमं ठिओ माहमासो य वट्टइ, तत्थ कडपूयणा नाम वाणमंतरी मामि दळूण तेयं असहमाणी पच्छा तावसीरूवं विउवित्ता वक्लनियत्था जडाभारेण य सणं सरीरं पाणिपण ओलेत्ता देहमि उवरिं सामिस्स ठाउं धुणति वातं च विउबइ, जइ अन्नो होन्तो तो फुट्ठो होन्तो, तं तिवं वेअणं अहियासितस्स भगवओ ओही विअसिउब लोग पासिउभारद्धो, सेसं कालं गब्भाओ आढवेत्ता जाव सालिसीसं ताव एकारस अंगा सुरलोयप्पमाणमत्तो य ओही, जावतियं देवलोएम पेच्छिताइओ । साऽवि वंतरी पराजिआ,18 पच्छा सा उवसंता पूअं करेइपुणरवि भद्दिअनगरे तवं विचित्तं च छट्ठवासंमि । मगहाए निरुवसग्गं मुणि उउबडंमि विहरित्था ॥ ४८७॥ ततो भगवं भदियं नाम नगरिंगतो, तत्थ छह वासं उवागओ, तत्थ वरिसारत्ते गोसालेण सम समागमो, छठे मासे गोसालो सूत्राक दीप अनुक्रम महिमानं करोति । ततो भगवान् शालिशीर्षों नाम ग्रामः तत्र गतः, तत्रोधाने प्रतिमा स्थितो माघमासान वर्तते, तन कटपूतना नाम ग्यन्तरी स्वामिनं दृष्ट्वा तेजोऽसहमाना पश्चातापसीरूपं विकुथै वल्कलवना जटाभारेण च सर्व शरीरं पानीदेनाईविस्वा देहस्य उपरि स्वामिनः स्थित्वा भूनाति वातं ध विकुर्वति, पान्योऽभविष्यचदा स्फुटितोऽभविष्यत् , तो तीव्र वेदनामध्यासयतो भगवतोऽवधिविकशित इव लोकं द्रष्टुमारब्धः, शेषे काले गर्भादारभ्य यावच्छालिशीर्ष तावदेकादशाकानि सुरलोकप्रमाणमाश्चावधिः, यावत् देवलोकेऽदर्शत् । साऽपि व्यन्तरी पराजिता पत्रात्सोपशान्ता पूजां करोति । (पुनरपि भनिकानगों तपो विचित्रं च पावर्षायाम् । मगधेषु निरुपसर्ग मुनिः ऋतुबद्ध व्यहावीत् ॥ १८ ॥) ततो भगवान् भद्रिको नाम नगरी गतः, तन्त्र पाही वर्षा-1 मुपागतः । तत्र वर्षाराने गोचालेन समं समागमः, षष्ठे मासे गोशालो wjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं - गाथा-], नियुक्ति: [४८७], भाष्यं [११४...] (४०) तो पच्छा मगहायवृत्ति हारिभद्री ॥२०९॥ [विभागा१ प्रत मिलिओ भगवओ। तत्थ चउमासखमणं विचित्ते व अभिग्गहे कुणइ भगवं ठाणादीहि, बाहिं पारेत्ता ततो पच्छा मगहा | विसए विहरइ निरुवसग्गं अह उडुवद्धिए मासे, विहरिऊण| आलभिआए वासं कुंडागे तह देउले पराहुत्तो । महण देउलसारिअ मुहमूले दोसुवि मुणित्ति ॥ ४८८॥ आलंभि नयरिं एइ, तत्थ सत्तमं वासं उवागओ, चउमासखमणेणं तबो, वाहिं पारेत्ता कुंडागं नाम सन्निवेसं तत्थ एति । तत्थ वासुदेवघरे सामी पडिमं ठिओ कोणे, गोसालोऽवि वासुदेवपडिमाए अहिवाणं मुहे काऊण ठिओ, सो य से |पडिचारगो आगओ, तं पेच्छइ तहाठियं, ताहे सो चिंतेइ-मा भणिहिइ रागदोसिओ धम्मिओ, गामे जाइत्तु कहेइ, पह पेच्छह भणिहिह 'राइतओ'त्ति, ते आगया दिडो पिट्टिओ य, पच्छा चंधिज्जइ, अन्ने भणंति-एस पिसाओ, ताहे मुक्को। सुत्रांक दीप अनुक्रम T मीलितः भगवता । तन्त्र चतुर्मासक्षपणं विचित्रवाभिमहान् करोति मगवान स्थानादिभिः, बहिः पारयित्वा ततः पश्चात् मयपविषये विहरति निरु-| पसर्गम भतुवद्धिकान् (दान) मासान् , विद्वत्य (आलभिकायां वी कुण्डागे तथा देवकुले पराक्मुखः । मनं देवकुलसारकः मुखमूले द्वयोरपि मुनिरिति ॥४८॥) भारम्भिको नगरीमेति, तत्र सप्तमं वर्षारात्रमुपागतः, चतुर्मासक्षपणेन तपः, बहिः पारविश्या कुण्डाकमामा सनिवेशः तौति । तत्र वासुदेवगृहे | स्वामी कोणे प्रतिमा स्थितः, गोशालोऽपि वासुदेवप्रतिमाया मुझे अधिष्ठान कृत्वा स्थितः, सच तथाः प्रतिचारक मागतः, संप्रेक्षते तयास्थितं, तदा स चिन्तयति-मा भाणिषुः रागद्वेषवान् धार्मिका, प्रामे गत्वा कथयत्ति-पूत प्रेक्षध्वं भणिध्यय रागवान् इति, ते भागता दष्टः पिहिता, पक्षात् बध्यते, अन्ये भणन्ति- एष पिशाचा, तदा मुक्तः । ॥२०॥ wwwtainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८८], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत तओ निग्गया समाणा मद्दणा नाम गामो, तत्थ बलदेवस्स घरे सामी अन्तोकोणे पडिम ठिओ, गोसालो मुहे तस्स| | सागारिअंदा ठिओ, तत्थवि तहेव हओ, मुणिओत्तिकाऊण मुक्को । मुणिओ नाम पिसाओ। बहुसालगसालवणे कडपूअण पहिम विग्धणोवसमे । लोहग्गलंमि चारिय जिअसत्तू उप्पले मोक्खो ॥४८॥ RI ततो सामी बहसालगनाम गामो तत्थ गओ, तत्थ सालवर्ण नाम उज्जाणं, तत्थ सालज्जा वाणमंतरी, सा भगवओ सापकोडअण्णे भणति-जहा सा कडपूअणा वाणमंतरी भगवओ पडिमागवस्त उवसगं करेइ, ताहे उवसंता महिम करेइ । ततो णिग्गया गया लोहम्गलं रायहाणिं, तत्थ जियसत्तू राया, सो य अण्णेग राइणा समं विरुद्धो, तस्स चारपुफारिसेहिं गहिभा, पुग्छिता न साहति, तत्थ चारियत्तिकाऊण रपणो अस्थाणीवरगवस्त उवविआ, तत्थ य उप्पलो। सूत्राक दीप अनुक्रम तो निर्गती सन्ती मदना नाम ग्रामः, सन बलदेवस्य गृहे स्वामी अन्तःकोण प्रतिमा स्थितः, गोशालो मुखे तस्य सागारिक (मेहनं) दत्त्वा स्थितः, तत्रापि तथैव हत्तः, मुणित इतिकृत्वा मुक्कः । मुणितो नाम पिशाचः । (बहुशालकशाकवने कटपूतना (वत्) प्रतिमा विज्ञकरणमुपशमः । लोहार्गले लिचारिकः जितशत्रुः उत्पळ: मोक्षः ॥ ४८९१) ततः स्वामी बहुशालकनामा प्रामः तत्र गतः, तत्र शाळवने नामोधानं, तत्र सहबा (शालार्या) व्यन्तरी, सा भगवतः पूजां करोति, अन्ये भणन्ति-यथा सा कपूतना व्यन्तरी भगवतः प्रतिमागतस्योपसर्ग करोति, तदोपशान्ता महिमानं करोति । ततो निर्गतौ गती लोहार्गलां राजधानी, नत्र जितश राजा, स चान्येन राज्ञा सम विरुवा, तस चारपुरुषहीती पृच्छयमानौ न कथषतः, तत्र चारिकावितिकृत्या राज्ञे मास्यामें निकाचरगतायोपस्थापितो, तत्र चोत्यको मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४८९], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक- हारिभद्री यवृत्तिः ॥२१०॥ विभागः१ प्रत सुत्राक अहिअगामाओ सो पुवमेव अतिगतो, सो य ते आणिजते दण उछिओ, तिक्खुत्तो चंदइ, पच्छा सो भणइ-ण एस चारिओ, एस सिद्धत्धरायपुत्तो धम्मवरचक्कवट्टी एस भगवं, लक्खणाणि य से पेच्छह, तत्थ सकारिऊण मुक्को। तत्तो य पुरिमताले वग्गुर ईसाण अच्चए पडिमा । मल्लीजिणायण पडिमा उण्णाए वंसि बहुगोडी ।। ४९०॥ ततो सामी पुरिभतालं एइ, तत्थ वग्गुरो नाम सेठी, तस्स भद्दा भारिआ, वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया, बहूणि देवस्स उवादिगाणि काउं परिसंता । अण्णया सगडमुहे उज्जाणे उज्जेणियाए गया, तत्व पासंति जुण्णं देवउलं सडियपडियं, तत्थ मल्लिसामिणो पडिमा, तं णमंसंति, जइ अम्ह दारओ दारिआ वा जायति तो एवं चेवं देउलं करेस्सामो, एयभत्ताणि य होहामो, एवं नमंसित्ता गयाणि । तत्थ अहासन्निहिआए वाणमंतरीए देवयाए पाडिहेर कयं, आहूओ गम्भो, ज, चेव आहूओ तंचेव देवउल काउमारद्धाणि, अतीव तिसंझं पूअं करेंति, पबतियगे य अल्लियंति, एवं सो सावओ दीप अनुक्रम 1.ऽस्थिकामात्स पूर्वमेवातिगतः, स च तावानीवमानौ दृष्ट्वोस्थितः, विकृत्वः वन्दते, पचास भणति-एष न चारिका, एष सिद्धार्थराजपुत्रः धर्मपरचक्रपत्ती एष भगवान् , कक्षणानि चाख प्रेक्षय, तन्न सरकारयित्वा मुक्तः (ततश्च पुरिमचाले वारः ईशानः अर्चति प्रतिमाम् । माहीजिनायतनं प्रतिमा अषणाके बंशी बहुगोष्टी । ४९० ॥) ततः स्वामी पुरिमतालमेति, तत्र बरगुरो नाम श्रेष्ठी, तस्य भद्रा भार्या, वन्ध्या अन्नसविनी जानुकूपरमाता, बहूनि देवखोपवाचितानि कृया परिश्रान्ता । अन्यदा शकटमुखे बचाने क्यानिकाथै गती, तन्न पश्यतः जीर्य देवकुलं शटितपतितं, तन मछीस्वामिनः प्रतिमा, तो नमस्वतः, यथावयोदोरको दारिका ना जायते तदैवमेवं देवकुलं करिष्यावः, एतजक्ती च भविष्यावः, एवं नम स्थिरवा गतौ । तत्र यथाससिदितया म्यन्तर्या देवतया प्रातिहार्य कृतं उत्पनो गर्भः, यदैवाहूतस्तदैव देवकुलं कर्तुमारधी, अतीच त्रिसन्ध्वं पूजां कुरुतः, पर्वत्रिके चाश्रयता, एवं स श्रावको ||२१०॥ rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९०], भाष्यं [११४...] (४०) * * *5 जाओ। इओ य सामी विहरमाणो सगडमुहस्स उजाणस्स नगरस्स य अंतरा पडिमं ठिओ, वग्गुरो य हाओ उल्लपड| साडओ सपरिजणो महया इहीप विविहकुसुमहत्थगओ तं आययणं अचओ जाइ । ईसाणो य देविंदो पुषागयओ सामि | वंदित्ता पजुवासति, वग्गुरं च वीतीवंतं पासइ, भणति य-भो वग्गुरा ! तुम पञ्चक्खतित्थगरस्स महिमं न करेसि तो पडिमं अञ्चओ जासि, एस महावीरो वद्धमाणोत्ति, तो आगओ मिच्छादुक्कडं काउं खामेति महिमं च करेइ । ततो सामी |उण्णार्ग वचाइ, एत्थंतरा वधूवर सपडिहुत्तं एइ, ताणि पुण दोण्णिवि विरुवाणि दंतिलगाणि य, तत्थ गोसालोभणति-अहो | इमो सुसंजोगो-"तत्तिल्लो विहिराया, जाणति दूरेवि जो जहिं वसइ । जं जस्स होइ सरिसं, तं तस्स विइजयं देह ॥१॥"|| जाहे न ठाइ ताहे तेहिं पिट्टिओ, पिट्टित्ता बंसीकुडंगे छूढो, तत्थ पडिओ अत्ताणओ अच्छइ, बाहरइ सामि, ताहे CAR प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम 15555*5 जातः । इतश्च स्वामी विहरन शाकटमुखस्योद्यानस्य नगरस्य च मध्ये प्रतिमां स्थितः, जागुरच सात बापटशाटकः सपरिजनः महस्यध्या विविधकुसुमहस्तका (हस्तगतविविधकुसुमः) तदायतनमर्चको याति । ईशानन देवेन्द्रः पूर्वागतः स्वामिन पन्दिरमा पर्युपाते, बारं च व्यतिबजन्तं पश्यत्ति, भणति च-मो वग्गुर ! प्रत्यक्षतीर्थकरय महिमानं न करोषि ततः प्रतिमामचितुं यासि, एष महावीरो वर्धमान इति, तत आगतो मिथ्यादुरकृतं कृत्वा क्षमयति महिमानं च करोति । ततः स्वामी वर्णाक मजति, अचान्तरा वधूवरौ सप्रतिपक्ष (संमुख) भायातः, तौ पुन द्वांवपि विरूपौ दन्तुरीच, तत्र गोशालो भणति-अहो अयं | सुसंयोगा ! 'दक्षो विधिराजः जानाति दूरेऽपि यो यत्र बसति । यद्यख भवति योग्य, तत्तख द्विसीयं ददाति ॥1॥ यदा न तिष्ठति तदा ताभ्यां पिट्टितः, पिहयित्वा बंशीकु क्षिप्तः, तत्र पतितोऽत्राणतिष्ठति, व्याहरति स्वामिनं, तदा * उत्ताणमो (तत्परः) t andinrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 424 ~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९०], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक ॥२१॥ प्रत सुत्राक PAL सिद्धत्थो भणति-सयंकयं ते, ताहे सामी अदूरे गंतुं पडिग्छइ, पच्छा ते भणंति-नूणं एस एयरस देवजगस्स पीदिया-दहारिभद्रीवाहगो वा छत्तधरो वा आसि तेण अवडिओ, ता णं मुयह, ततो मुक्को । अण्णे भणति-पहिपहिं उत्तारिओ यवृत्तिः सामि अच्छतं दण। विभागः१ गोभूमि बजलावे गोवकोवे य वंसि जिणुवसमे । रायगिहट्ठमवासा बज्जभूमी बहुवसग्गा ॥ ४९१ ॥ I ततो सामी गोभूमिं वच्चइ । एत्थंतरा अडवी घणा, सदा गावीओ चरंति तेण गोभूमी, तत्थ गोसालो गोवालए भणइ-अरे वज्जलाढा! एस पंथो कहिं वच्चइ ?। वज्जलाढा नाम मेच्छा । ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोससि?, ताहे |सो भणइ-असूयपुत्ता खउरपुत्ता ! सुहु अक्कोसामि, ताहे तेहिं मिलित्ता पिट्टित्ता बंधित्ता वंसीए छढो, तत्थ अण्णेहिं पुणो मोइओ जिणुवसमेणं । ततो रायगिहं गया, तत्थ अहम वासारत्तं, तत्थ चाउम्मासखवणं विचित्ते अभिग्गहे बाहिं पारेत्ता सरए सिद्धार्थो भणति-स्वयंकृतं स्वया, तदा स्वामी अदूरं गत्वा प्रतीच्छनि, पश्चाचे भणन्ति-नूनमेष एतस्य देवार्यख पीठिकावाहको वा छत्रधरो याऽऽसीत् तेनावस्थितः, तत् एनं सुचत, ततो मुक्तः । अन्ये भणन्ति-पथिकैरुत्सारितः स्वामिनं तिष्ठन्तं दृष्ट्वा ॥ (गोभूमिः ववलाढा गोपकोपश्च वंशी जिनोषशमः । राजगृहेऽष्टमवर्षारानः वनभूमिः बहूपसगाः ॥ ४९11) ततः स्वामी गोभूमि व्रजति । अत्रान्तराष्टवीधना, सदा गावचरन्ति तेन गोभूमिः, सन्त्र गोशाको ॥२१॥ गोपालकान् भणति-भरे बनलाढाः! एष पन्थाः प्रति! । बबलाढा नाम म्लेच्छाः । तदा ते गोपा भणन्ति-कुत भाकोशसिी, सदा स भगति-असूयपुत्राः सौरपुत्राः सुष्टु आक्रोशामि, तदा तैमिक्षिवा पियित्वा वडा वंश्यो शितः, तत्रान्यैः पुनः मोचितो जिमोपशमन । ततो राजगृहं गतौ, तबाहम वर्षारा रात्र चातुर्मासक्षपणं विचित्रा अमिमहाः बहिः पारयित्वा शरदि* असुयपुत्ता पमुयपुत्ता । असुदपियपुत्ता (अमुना प्रामुखुनाः । अवतपितृपुत्राः।) दीप अनुक्रम M JAMERatinintimational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~425~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९१], भाष्यं [११४...] (४०) 1567 प्रत 'दिद्रुत करेति समतीए, जहा-एगस्स कुटुंबियस्स बहुसाली जाओ, ताहे सो पंथिए भणति-तुभ हियइच्छि भत्तं देमि मम लूणह, एवं सो उवाएण लूणावेद, एवं चेव ममवि बहुं कम्मं अच्छइ, एतं अच्छारिएहिं निजरावेयवं । तेण अणारियदेसेसु लाढावज्जभूमी सुद्धभूमी तत्थ विहरिओ, सो अणारिओ हीलइ निंदइ, जहा बंभचेरेसु-'छुछु करेंति आहेसु समणं कुक्कुरा डसंतु'त्ति एवमादि, तत्थ नवमो वासारत्तो कओ, सो य अलेभडो आसी, वसतीवि न लब्भइ, तत्थ छम्मासे अणिचजागरियं विहरति । एस नवमो वासारत्तो।अनिअयवासं सिद्धत्वपुरं तिलत्थंव पुच्छ निष्फत्ती। उप्पाडेइ अणज्जो गोसालो बास बहुलाए ॥ ४९२॥ ततो निग्गया पढमसरए सिद्धत्थपुरं गया । तओ सिद्धत्थपुराओ कुम्मगाम संपडिआ, तत्वंतरा तिलत्थंबओ, तं दहण गोसालो भणह-भगवं! एस तिलरथंबओ किनिष्फजिहिति नवत्ति, सामी भणति-निष्फजिहिति, पए य सत्त कष्टान्तं करोति समत्या यथा-एकस्य कौटुम्बिकसप बहुशालिजातः, तदा स पथिकान भणति-युष्मभ्यं हृदयेष्टं मक्तं ददामि मम लुनीत, एवं स पायेन लावयति, एवमैच ममापि बहु कर्म तिष्ठति, एतत् लावकैनिजेरणीयं । तेनानायदेशेषु लावावनभूमिः शुबभूमिस्त विहतः सोऽना हीलति निन्दति, यथा प्रह्मचर्ये-'खुकुर्वन्ति भवन श्रमणं कुकुरा! दशन्तु' इति एवमादि । तत्र नवमो वरात्रः कृतः, स चास्थिर भासीत् , वसतिरपि न लभ्यते, तत्र षण्मासान अनित्यचागरिक विहरति । एष नवमो वर्षारानः । (अनिषतदासः सिद्धार्थपुरं तिलस्तम्यः पृच्छा निष्पत्तिः । उत्पाटयसनायों गोशालो वर्षा बहुलायाः ॥४१२॥) ततो निर्गतौ प्रथमशरदि सिद्धार्थपुरं गतौ, ततः सिद्धार्धपुरात् कूर्मग्राम संग्नस्थितौः, तत्रान्तरा तिलस्तम्बः, तं दृष्ट्वा गोशालो भणति-भगवन् ! एष तिलसम्बः कि निष्पत्सते नवेति, स्वामी भणति-निष्पत्यते, एते च सप्त ॐ454%E0% सूत्राक दीप अनुक्रम *ॐ T % %25% JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 426~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥२१२॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [-1 मूलं [- / गाथा-], ], निर्बुक्तिः [ ४९२] आयं [ ११४...]] तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता एगाए तिलसँगलियाए बच्चायाहिंति' ततो गोसालेण असद्दहंतेण ओसरिऊण सडुगो उप्पाडिओ एगते पडिओ, अहासन्निहिएहि य वाणमंतरेहिं मा भगवं मिच्छावादी भवड, वासं वासितं, आसत्थो, बहुलिआ य गावी आगया, ताए खुरेण निक्खित्तो पइडिओ, पुप्फा य पञ्चाजाया- • मगहा गोब्बरगामो गोसंखी वेसियाण पाणामा । कुम्भग्गामायावण गोसाले गोवण पट्टे ।। ४९३ ॥ ताहे कुम्मगामं संपत्ता, तस्स वाहिं वेसायणो वालतवस्ती आयावेतिं, तरस का उप्पत्ती ?, चंपाए नयरीए रायगिहस्स य अंतरा गोब्बरगामो, तत्थ गोसंखी नाम कुटुंबिओ, जो तेसिं अधिपती आभीराणं, तस्स बन्धुमती नाम भज्जा अवियावरी । इओ य तस्स अदूरसामंते गामो चोरेहिं हओ, तं हंतूण बंदिग्गहं च काऊण पहाविया । एकाऽचिरपसूइया पतिंमि मारिते चेडेण समं गहिया, सा तं चेडं छड्डाविया, सो चेडओ तेण गोसंखिणा गोरुवाणं गुएण दिडो गहिओ य अप्पणियाए महिलियाए दिण्णो, तत्थ पगासियं जहा मम महिला गूढगभा आसी, तत्थ य उगलेयं मारेत्ता ३ तिलपुष्पजीवा उपत्य एकस्यां तिलशिम्यायां प्रत्यायास्यन्ति ततो गोशाळेनाश्रदधताऽपसृत्य समूल उत्पादित एकान्ते पतितः, वयासनिहितेष्यन्तरेखमा भगवान् मृषावादी भूः, वर्षा वर्षिता, आश्वस्ता, बहुलिका च गौरांगता, तस्याः सुरेण निक्षिप्तः प्रतिष्ठितः, पुष्पाणि च प्रत्याजातानि । (मगधी गोवरामः गोशी वैशिकानां प्राणामिकी कुसंग्राम आतापना गोशाल: गोवनं प्रद्विष्टः ॥ ४९२ ॥ ) तदा कर्मप्रामं संमाप्ती, तस्माद्वहिः वैश्यावनो बालतपस्वी भातपति, तस्व कोरपत्तिः ?, चम्पाया नगर्यो राजगृहस्य चान्तराले गोवरग्रामः, रात्र गोशट्टी नाम कौटुम्बिकः, यस्तेषामधिपतिराभीराणां तस्य वन्धुमतिनाम भार्याऽप्रस विनी । इतश्च तस्थादूरखामन्ते ग्रामऔरिहंतः तं इत्वा बन्दीग्राहं च कृत्वा प्रधाविताः । एकाऽचिरप्रसूता पत्यौ मारिते दारकेण सभं गृहीता सा तं दारकं याजिता, स दारकस्तेन गोशङ्खिना गोरूपेभ्यो गतेन दृष्टो गृहीतश्रात्मीयाये महेलावे दत्तः, तत्र प्रकाशितं यथा मम महेला गूढगर्भाऽऽसीत्, तत्र च उगलकं मारयित्वा Education intol For Fans Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 427 ~ ॥२१२॥ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक 358 लोहिअगंधं करेत्ता सूइयानेवत्था ठिया, सर्व जं तस्स इतिकत्तवं तं कीरइ, सोऽविताव संवहुइ, सावि से माया चंपाए विक्किया, वेसियाथेरीए गहिया एस मम धूयत्ति, ताहे जो गणियाणं उवयारो तं सिक्खाविया, सा तत्थ नामनिग्गया गणिया जाया । सो य गोसंखियस्स पुत्तो तरुणो जाओ, घियसगडेणं चंपं गओ सवयंसो, सो तत्थ पेच्छइ नागरजर्ण जहिच्छि अभिरमंतं, तस्सवि इच्छा जाया-अहमवि ताव रमामि, सो तत्थ गतो वेसावाडयं, तत्थ सा चेव माया अभिरुइया, मोल्लं देइ विआले. हायविलित्तो बच्चइ । तत्थ वच्चंतस्स अंतरा पादो अमेझेण लित्तो, सोन याणइ केणावि लित्तो। एत्वंतरा तस्स कुलदेवया मा अकिबमायरउ बोहेमित्ति तत्थ गोठ्ठए गाविं सवच्छियं विउविऊण ठिया, ताहे सो तं पायं| तस्स उवरि फुसति, ताहे सो वच्छओ भणइ-किं अम्मो! एस ममं उवरि अमेज्झलित्तयं पादं फुसइ, ताहे सा गावी माणुसियाए वायाए भणइ-'किं तुमं पुत्ता! अद्धिति करेसि, एसो अज मायाए समं संवासं गच्छइ, ते एस परिसं अकिच्चं रुधिरगन्ध कृत्वा प्रसूतिनेपल्या स्थिता, सर्व पत्तस्येतिकर्तव्यं तस्करोति, सोऽपि तावत् संवर्धते, साऽपि तस्य माता चम्पायां विक्रीता, वेश्यास्थविरया गृहीतैषा मम दुहितेति, तदा यो गणिकानामुपचारतं शिक्षिता, सा तत्र निर्गतनामा गणिका जाता । स च गोशालिनः पुनस्तरुणो जातो, घृतशकटेन | चम्पां गतः सक्यस्यः, स तत्र प्रेक्षते नागरजनं याठिकमभिरममाणं, तखापीच्छा जाता-अहमपि ताप रमे, स तत्र गतो वेषापाठ के, सन्न संच माताभिः | रुचिता, मूल्यं ददाति विकाले वातविलिप्तो ब्रजति । तत्र व्रजतः अन्तरा पादोऽमध्येन लिप्तः, स न जानाति केनापि लिप्तः । भवान्तरे तस्य कुलदेवता मा। | अकृत्यमाचारीत् बोधयामीति तन गोहे गां सवत्सां विकुऱ्या स्थिता, तदा स तं पादं तस्योपरि स्पृशति, तदा स वसो भणति-किमम्ब ! एप ममोपरि अमे| भयलिप्त पाद स्पृशति, तदा सा गार्मानुष्या काचा भणति-किं त्वं पुत्राति करोपि!, एषोऽध मात्रा सम संवासं गच्छति, तदेव इरशमकत्वं दीप अनुक्रम Tangtionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 428~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥२१॥ CALCC प्रत विवसइ अन्नपि किं न काहितित्ति' । ताहे तं सोऊणं तस्स चिंता समुप्पण्णा-'गतो पुच्छिहामि', ताहे पविडो पुच्छइ-'का तुज्झ उप्पत्ती, ताहे सा भणति-किं तव उप्पत्तीए, महिलाभावं दाएइ सा, ताहे सो भणति 'अन्नपि एत्तिनं मोठं देमि, साह सम्भावं'ति सबहसावियाए सवं सिहति, ताहे सो निग्गओ सग्गामं गओ, अम्मापियरो य पुच्छइ, ताणि न साहेति, ताहे ताव अणसिओ ठिओ जाव कहियं, ताहे सो त मायरं मोयावेत्ता वेसाओ पच्छा विरागं गओ, एयावस्था विसयत्ति पाणामाए पवजाए पवइओ, एस उप्पत्ती। विहरतोयतं कालं कुम्मग्गामे आयावेइ, तस्स य जडाहिंतो छप्पयाओ आइच्चकिरणताविआओ पडंति, जीवहियाए पडियाओ चेव सीसे छुभइ, तंगोसालो दळूण ओसरित्ता तत्थ गओभणइ-कि भवं मुणी मुणिओ उयाहु जूआसेज्जातरो, कोऽर्थः १ 'मन् ज्ञाने ज्ञात्वा प्रत्रजितो नेति, अथवा किं इत्थी पुरिसे वा?, |एकसिं दो तिणि वारे, ताहे वेसिआयणो रुडो तेयं निसिरइ, ताहे तस्स अणुकंपणहाए वेसियायणस्स य उसिणतेय सूत्राक C4% दीप 25% अनुक्रम व्यवसति बन्यदपि किं न करिष्यतीति । तदा तत् धुत्वा तस्स चिन्ता समुत्पना 'गतः प्रक्ष्यामि सदा प्रविष्टः पृच्छति-का सयोस्पतिः, तदा सा भजात कितवात्यया,महिलाभावं दर्शयति सा, तदा सभणति-अन्यदपि एतावन्मूल्यं ददामि कव समावमिति शपथशापितया सर्व शिष्मिति, तदास | निर्गतः खग्राम गतः, मातापित्तरीच पृच्छति, तीन कथषतः, तदा तावदनशितः स्थितो यावत्कथितं, सदा सतां मातरं मोचविस्वा वेश्यायाः पाद्वैराग्यं गतः, | एतदवस्था विषया इति प्राणामिक्या प्रवज्यया प्रवजितः, एषोत्पत्तिः । विहरंश्च तत्काले कूर्मग्रामे आतापयति, तस्य च जटायाः पदपदिका आदिवकिरणता पिताः पतन्ति, जीवहिताय पनिता एब शीर्षे क्षिपति, तद्बोशाको राष्ट्राध्यसूत्य तन्त्र गतो भवति-किं भवान् मुनिर्मुणित आहोश्वित् यूकाशय्यातरः, अथवा किं] ४ाबी पुरुषो वा', एकचःद्वी बीन्वारान्, तदा वैश्यायनो रुष्टस्तेजो निस्नति, तदा तस्यानुकम्पनार्थाय वैश्वानख चोष्णतेजा ॥२१॥ JAMERatinental antanatarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~429~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत पडिसाहरणहाए एत्थंतरा सीयलिया तेयलेस्सा निस्सारिया, सा जंबूदीवं भगवओ सीयलिया तेयलेसा अम्भितरओ वढेति, इतरा तं परियंचति, सा तत्थेव सीयलियाए विज्झाविया, ताहे सो सामिस्स रिद्धिं पासित्ता भणति-से गयमेवं भगवं! से गयमेवं भयवं, कोऽर्थः -- याणामि जहा तुम्भं सीसो, खमह, गोसालो पुच्छइ-सामी! किं एस जूआसेजातरो भणति ?, सामिणा कहिय, ताहे भीओ पुच्छइ-किह संखित्तविउलतेयलेस्सो भवति?, भगवं भणति-जेणं गोसाला! छठं छठेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयावेति, पारणए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासणेण जावेद जाव। छम्मासा, सेणं सखित्तविउलतेयलेस्सो भवति । अण्णया सामी कुम्मगामाओ सिद्धत्थपुरं पत्थिओ, पुणरवि तिलथंबगस्स अदरसामंतेण वीतीवयइ, पुच्छइ सामि जहा-न निष्फण्णो, कहियं जहा निष्फण्णो,तं एवं वणस्सईणं पट्ट परिहारो, पिउद्द-14 परिहारो नाम परावर्त्य परावये तस्मिन्नेव सरीरके उववजंतितं असद्दहमाणो गंतृण तिलसेंगलियं हत्थेण फोडिता ते तिले | सूत्राक दीप अनुक्रम प्रतिसंहरणार्थ अत्रान्तरे कीतला तेजोलेश्या निस्सारिता, सा जम्बूद्वीपं भगवतः शीतला तेजोलेश्याभ्यन्तरतो वेष्टपति, इतरा तो पर्यंति, सा तय शीतकया विध्यापिता, तदा स स्वामिन कादि हा भणति-असौ गत एवं भगवन् ! असौ गत एवं भगवन् !, न जानामि यथा तव शिष्यः, क्षमख, गोपाल पृच्छति-स्वामिन् ! किमेष यूकाशच्यातरो भणति १, स्वामिना कथितं, तदा भीतः पृच्छति-क संक्षिप्त विपुलतेजोलेश्यो भवति?, भगवान् भणति-यो गोशाल! पहपठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणाऽऽतापयति, पारणके सनस्त्रया कुल्माषपिण्डिकषा एकेन चपासुकजलचुलुकेन यापयति यावत्पण्मासाः, स संक्षिसविपुलतेजोळेश्यो भवति । अन्यदा स्वामी धर्मप्रामासिद्धार्थपुरं प्रस्थितः, पुनरपि तिलस्तम्बस्थादूरसामन्तेन व्यतिनजाति, पृष्ठति स्वामिनं यथा न निष्पन्नः, कथितं यथा | निष्पक्षः, तदेवं वनस्पतिजीवाना परावय परिहारा, शरीरके बत्पद्यन्ते, तदअहधानो गत्वा तिलशम्बा विदार्य हसेन तातिलान् T JABERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 430~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], (४०) भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२१॥ प्रत सूत्राक 4-0 गणेमाणो भणति-एवं सधजीवावि पउर्दु परियति, णियइवादं धणियमवलंबेत्ता तं करेइ जं उवदिई सामिणा जहाहारिभद्रीसखित्तविउलतेयलेस्सो भवति, ताहे सो सामिस्स पासाओ फिट्टो सावत्थीए कुंभकारसालाए ठिओ तेयनिसम्गं आयावेइयवृत्तिः छहिं मासेहिं जाओ, कृवतडे दासीओ विण्णासिओ, पच्छा छदिसाअरा आगया, तेहिं निमित्तउल्लोगो कहिओ, एवं सो|विभागः१ अजिणो जिणप्पलावी विहरइ, एसा से विभूती संजाया। वेसालीए पडिमं डिंभमुणिउत्ति तत्थ गणराया। पूएइ संखनामो चित्तो नावाए भगिणिसुओ॥४९४ ॥ भगवंपि बेसालिं नगरि पत्तो, तत्थ पडिमं ठिओ, डिंभेहिं मुणिउत्तिकाऊण खलयारिओ, तत्थ संखो नाम गणराया, सिद्धत्थरस रण्णो मित्तो, सो तं पूरति।पच्छा वाणियग्गामं पहाविओ, तत्वंतरा गंडइया नदी, तं सामी णावाए उत्तिण्णो, ते णाविआ सामि भणंति-देहि मोलं, एवं वाहंति, तत्थ संखरपणो भाइणिज्जो चित्तो नाम दूएकाए गएल्लओ, णावाकडएण एइ, ताहे तेण मोइओ महिओ य।। गणयन् भणति एवं सर्वे जीवा अपि परावर्य परिवर्तन्ते, नियतिवाई बाढमवलमय तकरोति बदुपदिष्टं स्वामिना यथा संक्षिसविपुलतेजोलेश्यो। भवति, तदा स स्वामिनः पार्थास्फिटितः श्रावस्त्यां कुम्भकारशालायां स्थितस्तेजोनिसर्गमातापयति, पहिमसिर्जातः, कूपतटे दास्तां विन्यासिता, पश्चात् पद | दिशाचरा मागतासैनिमित्तारलोका कथितः, एवं सोऽजिनो जिनालापी विहरति, एषा तस्य विभूतिः संजाता। (वेसालीए पूर्व संखो गणराय पिनवयंसो| उ । गंडहया सर रपर्ण चित्तो नावाए भगिणिसुओ इति प्र.) भगवानपि वैशाली नगरी प्राप्तः, तत्र प्रतिमा स्थितः, डिम्भैः पिशाच इतिकृत्वा स्वळीकृतः ॥२१॥ | तन्त्र धाको नाम गणराजः, सिद्धार्थ राजो मित्रं, स पूजयति । पश्चाद्वाणिजमाम प्रधावितः, तत्रान्तरा गण्टिका नदी, तां स्वामी नायोत्तीर्णः, ते नाविकाः |स्वामिनं भणन्ति-देहि मूल्य, एवं व्यथयन्ति, सत्र शहराको भागिनेयः चित्रो नाम दूतकाय गतवानभूत, नावाकटकेनैति, सदा तेन मोचितः महिता ।। वस्थ पनी एक माहनो भयो, सा रुसिभा कोसह, तमो गुफा तेवळेसा, सादडा,जामो तस्स पच्चओ, जहा सिवा में तबाहता दीप अनुक्रम 4%254 Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९५], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक SESAXCCCC वाणियगामायावण आनंदो ओहि परीसह सहिति । सावत्धीए वासं चित्ततधो साणुलहि बहिं ॥ ४९५॥ तत्तो वाणियग्गामं गओ, तस्स चाहिं पडिमं ठिओ । तत्थ आणंदो नाम सावओ, छह छट्वेण आयावेइ, तस्स ओहिनाणं समुप्पणं, जाव पेच्छइ तित्थंकर, वंदति भणति य-अहो सामिणा परीसहा अहियासेजंति, एश्चिरेण कालेण तुझं केवलनाणं उपजिहिति पूएति य । ततो सामी सावस्थि गओ, तत्थ दसमं वासारतं, विचित्तं च तवोकर्म ठाणादिहिं । ततो साणुलड़ियं नाम गाम गओ।। पडिमा भद्द महाभह सवओभरा पढमिआ चउरो । अट्ठयवीसाणंदे बहुलिय तह उज्झिए दिव्या ॥ ४९६ ॥ तत्थ भई पडिमं ठाइ, केरिसा भद्दा ? पुषाहत्तो दिवस अच्छइ, पच्छा रति दाहिणहुत्तो, अवरेण दिवसं, उत्तरेण रात, एवं छहभत्तण निद्विआ, पच्छा न चेव पारेइ, अपारिओ चेव महाभई पडिमं ठाइ, सा पुण पुवाए दिसाए अहोरत्तं, एवं चउमुवि दिसासु चत्वारि अहोरत्ताणि, एवं सा दसमेणं निठ्ठाइ, ताहे अपारिओ चेव सबओभई पडिम ठाइ, सा पुण|8 हा ततो वाणिज्यमामं गतः, तस्मात् बहिः प्रतिमां स्थितः । तत्रानन्दो नाम आवकः, पटपटेनातापयति, तस्यावधिज्ञानं समुत्पलं, यावपश्यति तीर्थ रं, वन्दते भणति च-अहो सामिना परीपहा अध्यास्यन्ते, चिरेण कालेन तब केवलज्ञानमुत्पत्स्यते पूजयति च । ततः स्वामी श्रावती गतः, तत्र दशर्म | वर्षारानं, विचित्रं च तपःकर्म स्थानादिभिः । ततः सानुलष्टं नाम ग्रामं गतः । तत्र भइपतिमा करोति, कीदृशी भद्रा, पूर्वमुधो दिवसं तिष्ठति, पवादात्री - |क्षिणमुखः, अपरेण दिवसमुत्तरेण रानी, एवं षष्ठभकेन निहिता, पश्चात् नैव पारयति, अपारित एव महामनप्रतिमा करोति, सा पुनः पूर्वस्या दिश्यहोरात्रभेचं पतष्वपि दिनु पवार्यहोरामाणि, एवं सा दयामेन निसिएति, तदाऽपारित एव सर्वतोभना प्रतिमा करोति, खा पुनः दीप अनुक्रम JABERatinintamational mandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४९६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-सिवतोभद्दा इंदाए अहोरत्तं एवं अग्गेईए जामाए नेरईए वारुणीए वायबाए सोम्माए इंसाणीए, विमलाए जाई उड्डलोइ-हाहारिभदी॥२१५॥ याई दवाणि ताणि निझायति, तमाए हेट्ठिलाई, एवमेवेसा दसहिंवि दिसाहिं बावीसइमेणं समप्पइ । | यवृत्तिः I 'पढमिआ चउरो' त्ति पुवाए दिसाए चत्तारि जामा, दाहिणाएवि ४ अवराएवि४ उत्तराएवि ४ा बितीयाए अह, पुवाए विभागः१ बेचउरो जामाणं एवं दाहिणाए उत्तराएवि अह, एए अह । ततीयाए वीसं, पुवाए दिसाए बेचउक्कं जामाणं जाव अहो बेचउक्का, एए वीसं । पच्छा तासु समत्तासु आणंदस्स गाहावइस्स घरे बहुलियाए दासीए महाणसिणीए भायणाणि खणीकरेंतीए दोसीणं छड्डेउकामाए सामी पविठ्ठो, ताए भण्णति-किं भगवं! अहो ?, सामिणा पाणी पसारिओ, ताए परमाए सद्धाए दिण्णं, पंच दिवाणि पाउन्भूआणि । दृढभूमीए बहिआ पेढालं नाम होइ उजाणं । पोलास चेयंमी ठिएगराईमहापडिम ॥ ४९७॥ सर्वतोभद्रा ऐन्यामहोरात्रमेवमामेश्यां याम्या नैऋत्यां वारुग्यो वायन्यां सोमायामशान्यां पिमलायां यानि अलौकिकानि न्याणि तानि निध्यायति, तमायामधस्तनानि, एवमेषा दशभिरपि दिम्भिाविंशतितमेन समाप्यते । प्रथमा चरवार इति पूर्वसां दिशि चत्वारो यामा, दक्षिणस्थामपि । अपरखामपि ४ वत्सरसामपि । दितीयायामा पूर्वस्वां द्विचत्वारो यामा एवं दक्षिणस्यामुच्चरस्यामप्यष्ट एतेऽटा । तृतीयस्था विशतिः, पूर्वसां दिशि द्विचतुष्कं । यामानां यावदधो द्विचतुष्कमेते विंशतिः । पश्चातामु समासासु मानन्दस्य गाथापतेह बहुलिकायां दास्या महान सिम्यां भाजनानि प्रक्षालयम्त्यां पर्युषितं त्यकामायां स्वामी प्रविष्टः, तथा भण्यते-भिगवन् ! अर्थः, स्वामिना पाणिः प्रसारितः, तया परमया अदया दर्ग, पत्र दिव्यानि प्रादुर्भूतानि. * बाहिंx ॥२१५॥ | पेढालुजाणमागो भव प्र.. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९७], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक ततो सामी दढभूमि गओ, तीसे बाहिं पेढालं नाम उजाणं, तत्थ पोलासं चेइअं, तत्थ अहमेणं भत्तेणं एगराइयं | पडिम ठिओ, एगपोग्गलनिरुद्धदिही अणमिसनयणो, तस्थवि जे अचित्ता पोग्गला तेसु दिहि निवेसेइ, सचित्तेहिं दिहि। अप्पाइजइ, जहासंभवं सेसाणिवि भासियबाणि, इसिंपन्भारगओ-ईसि ओणयकाओसक्कोअ देवराया सभागओभणइ हरिसिओ वयणं। तिपिणवि लोग समस्था जिणवीरमण न चालेखं ॥४९८॥ इओ य सक्को देवराया भगवंतं ओहिणा आभोएत्ता सभाए सुहम्माए अस्थाणीवरगओ हरिसिओ सामिस्स नमोकार | काऊण भणति-अहो भगवं तेलोकं अभिभूअ ठिओ, न सका केणइ देवेण या दाणवेण वा चालेसोहम्मकप्पवासी देवो सकस्स सो अमरिसेणं । सामाणिअ संगमओ बेइ सुरिंदं पडिनिविट्ठो ॥ ४९९ ॥ तेल्लोकं असमत्थंति पेहए तस्स चालणं काउं । अज्जेव पासह इमं ममवसगं भट्ठजोगतवं ॥५०॥ अह आगओ तुरंतो देवो सफस्स सो अमरिसेणं । कासी य हउवसग्गं मिच्छट्ठिी पडिनिविट्ठो ॥५०१॥ इओ य संगमओ नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धीओ, सो भणति-देवराया अहो रागेण । ततः स्वामी रतभूमि गतः, तस्या बहिः पेढालं नामोद्यानं, तन्त्र पोलासं चैत्वं, तत्राष्टमेन भनेकरात्रिकी प्रतिमा स्थितः, एक पुतलनिरुद्धष्टिरनिमेपनयना, तत्रापि येऽचित्ताः पुजलास्तेषु दृष्टिं निवेशपति, सचिनेभ्यो दृष्टिं निवर्तयति, यथासंभवं शेषान्यपि भाषितम्यानि, ईस्मारभारगत ईषदवनतकाथः । इतच कशाको देवराजः भगवन्तमवधिनाभोग्य सभायां सुधर्मायामास्थानीवरगतो हएः स्वामिने नमस्कृत्य (स्वामिने नमस्कार कृष्वा) भणति-अहो भगवान् त्रैलोक्यमभिभूय स्थितः, न शाक्यः केनचिद्देवेन वा दानवेन वा चालयितुम् । इस संगमको नाम सौधर्मकल्पवासी देवः शकसामानिको भवसिद्धिकः, स भणति-देवराजः अहो रागेण *चलेयं जे प्रा. दीप अनुक्रम mlanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | संगमदेवकृत् उपसर्गाणाम् वर्णनं ~434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०१], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक यवृत्तिः ||२१६॥ प्रत सुत्रांक ************ उल्लवेइ, को माणुसो देवेण न चालिज्जइ?, अहं चालेमि, ताहे सको तं न वारेइ, मा जाणिहिइ-परनिस्साए भगवं तवो- हारिभद्रीकम्मं करेइ, एवं सो आगओधूली पिचीलिआओ उईसा चेव तहय उण्होला। विछय नउला सप्पा य मूसगा चेव अट्ठमगा ॥५०२॥ ति विभागा१ हत्थी हत्थीणिआओ पिसायए घोररूव वग्धो य । थेरो थेरीह सुओ आगच्छह पक्कणो य तहा ॥५०३ ॥ खरवाय कलंकलिया कालचक तहेव य । पाभाइय उवसग्गे वीसइमो होइ अणुलोमो ॥ ५०४॥ सामाणिअदेवहि देवो दावेह सो विमाणगओ। भणइ य वरेह महरिसि! निष्फत्ती सग्गमोक्खाणं ॥५०५॥ उवहयमइविषणाणो ताहे वीरं बहु प्पसाहेउ । ओहीए निज्झाइ झायह छज्जीवहियमेव ॥ ५०६॥ । ताहे सामिस्स उवरिं धूलिवरिसं वरिसइ, जाहे अच्छीणि कण्णा य सबसोत्ताणि पूरियाणि, निरुत्सासो जाओ, तेण सामी तिलतुसतिभागमित्तंपि झाणाओ न चलाइ, ताहे संतोतं तो साहरिता ताहे कीडिआओ विउधह बजतुंडाओ, |ताओ समंतओ विलम्गाओ खायंति, अण्णातो सोत्तेहिं अन्तोसरीरगं अणुपविसित्ता अण्णेणं सोएणं अतिंति अण्णेण णिति, दीप अनुक्रम * बलपति, को मनुष्यो देवेन नचायते, मई चालवामि, तदा शकतं न चारयति, मा शासीत् परनिश्चया भगवान् तपःकर्म करोति, एवं स आगतः । तदा खामिन उपरि भूलिवर्षा वर्षवति, पवाक्षिणी कौँ च सर्वश्रोतांसि पूरितानि, निरुप्यासी जातः, तेन स्वामी तिनुपविभागमात्रमपि ध्यानान | चलति, तदा श्रान्तस्तां तसः सहस्य तदा कीटिका विकृति वज्रनुपिडकाः, ताः समन्ततो बिलमा खादन्ति, अभ्यश्यात् श्रोतसोऽन्तःशरीरमनुप्रविश्यान्येन श्रोत| सातिषान्ति (अन्येन नियान्ति), बहु सहाचे प्रा. + जाव प्र.. पालिको प्रक ॥२१६॥ * ** wwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत चालिणी जारिसो कओ, तहवि भगवं न चालिओ, ताहे उसे वज्जतुंडे विउबइ, ते तं उदंसा वज्जतुंडा खाईति, जे एगेण |पहारेण लोहियं नीणिति, जाहे तहवि न सका ताहे उण्होला विउबति, उण्होला तेल्लपाइआओ, ताओ तिक्खेहिं तुंडेहि | अतीव डसंति, जहा जहा उपसग्गं करेइ तहा तहा सामी अतीव झाणेण अपाणं भावेइ , जाहे तेहिं न सकिओ ताहे| विच्छुए विउचति, ताहे खायंति, जाहे न सका ताहे नउले विउबइ, ते तिक्खाहिं दाढाहिं उसंति, खंडखंडाई च अवकणेति, पच्छा सप्पे विसरोसपुण्णे उग्गविसे डाहजरकारए, तेहि वि न सका, मूसए विउबइ, ते खंडाणि अवणेत्ता तत्थेव बोसिरति मुत्तपुरीसं, ततो अतुला वेयणा भवति, जाहे न सका ताहे इत्थिरूवं विउबति, तेण हस्थिरूपेण सुंढाए गहाय है सत्तट्टताले आगार्स उक्खिवित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छति, पुणो भूमीए "विंधति, चलणतलेहि मलइ, जाहे न सको ताहे हस्थिणियारूवं विउबति, सा हत्थिणिया सुंडाएहि दंतेहिं विंधइ फालेइ य पच्छा काइएण सिंचाइ, ताहे चलणेहिं मलेइ सूत्राक दीप अनुक्रम T चाकनीसदशः कृतः, तथापि भगवास चलति (पक्षिता,), तवा उद्देशान् बचतुण्डान बिकुर्वति, ते तमुया वत्रतुण्डाः सादन्ति, ये एकेन प्रहारेण रुधिरं निष्काशावन्ति, बदा तथापि न शक्ततदा पवेकिका विकुर्वति, 'पहोला इति तैलपापिया' सास्तीवगैस्तुपैरतीव दशन्ति, यथा यथोपसर्ग करोति तथा तथा स्वाम्यतीव पानेनामानं भावयति, बदा तेन पाकितातो वृधिकान् बिकुति, तदा खादन्ति, पदा न शक्तस्तदा नकुलान् विकर्वति, ते तीक्ष्णाभिष्ट्रिाभिदेशन्ति, सपडसादानि च अपनयन्ति, पश्चात् सनि विषरोषपूर्णान् उपविषान् दाहम्बरकारकान , तैरपि न शक्तो मूषकान् विकुर्वति, ते खण्डान्यपनीय तत्रैव पुरुषजन्ति भूत्रपुरीषं, ततोऽतुला बेदना भवति, यदा न शाक्तिस्तदा हसिरूपं विकृति, तेन हस्तिरूपेण सुपचया गृहीत्वा सप्लाटतालानाकाको परिक्षष्य पाइन्तमुशलाभ्यां प्रतीच्छति, पुनर्भूम्यां विध्यति, चरणतलैमईयति, बदाम शक्कलदा इस्तिनीरूपं विकुर्वति, साइसिनी शुण्डाभिदन्तैर्विध्यति विदारयति च पवाकाधिकेन सिञ्चति, तदा चरमैमदेवति, उबंधति.. www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 436~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥२१७॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ - ], निर्मुक्तिः (१०६), मूलं [- /गाथा ), भाष्यं [१९४...]] आहे न सका ताहे पिसायरूवं विउयति, जहा कामँदेवे, तेण उवसग्गं करेई, जाहे न सका ताहे वग्धरुवं विजवति, सो दाढेहिं नखेहि य फालेइ, खारकाइएण सिंचति, जाहे न सका ताहे सिद्धत्थरायख्वं विउति, सो कट्टाणि कलुणाणि विलवइ एहि पुत्त ! मा मा उज्झाहि, एवमादि विभासा, ततो तिसलाए विभासा, ततो सूर्य, किह ?, सो ततो खंधावारं विज्वति, सो परिपेरंतेसु आवासिओ, तत्थ सूतो पत्थरे अलभंतो दोपहवि पायाण मज्झे अनिंग जालेत्ता पायाण उवरि उक्खलियं काउं पयइओ, जाहे एएणवि न सक्का ततो पण विउयति, सो ताणि पंजराणि बाहुसु गलए कण्णेसु य ओलएइ, ते सउणगा तं मुंडेहिं खायंति विंधंति सण्णं काइयं च वोसिरंति, ताहे खरवार्य बिउबेइ, जेण सक्का मंदरंपि चालेडं, न पुण सामी विच तेण उप्पाडेत्ता उप्पाडेत्ता पाडेइ, पच्छा कलंकलियवायं विउचाइ, जेण जहा चक्काइट्ठगो वह ममाडेिजइ, नंदिआपत्तो वा, जाहे एवं न सका ताहे कालचकं विउयति, तं घेत्तूर्ण उडुं गगणतलं गओ, एत्ताहे १] यदा न तदा पिशाचरूपं विकुर्वति, यथा कामदेवे तेनोपसर्गं करोति यदा न शक्तस्तदा व्यानरूपं विकुर्वति स दंष्ट्राभिर्नश पाटयति क्षारकाविक्या सिञ्चति यदा न शक्कलदा सिद्धार्थराजरूपं विकुर्वति, स कष्टानि करुणानि विलपति एहि पुत्र मा मा उन्सीः एवमादिर्विभाषा, ततक्षिशल्या विभाषा, ततः सूर्य, कथं ? स तत्तः स्कन्धावारं विकुर्वति, स पर्यन्तेषु परितः आवासितः, तत्र सूदः प्रस्तरान लभमानो द्वयोरपि पदोर्मध्येऽमिं ज्वलबिया पदोषपरि पिठरिकां कृत्वा पत्कुमारब्धवान् यदेतेनापि न शकस्ततञ्चाण्डालं विकुर्वति स वाले पञ्जराणि बाह्वोर्गले कर्णयोध उपलगयति ते शकुनास्तं तुण्डेः खादन्ति विध्यन्ति संज्ञां कायिक च व्युत्सृजन्ति तदा खरवासं विकुर्वति येन शक्यते मन्दरोऽपि चालवितुं न पुनः स्वामी विचलति तेनोत्पाव्य उत्पाका पातयति, पश्चात्कलङ्कलिकावानं विकुर्वति, येन यथा चक्राविद्धः तथा भ्राम्यते नन्यावत वा यदैवं न शक्तस्तदा कालचक्रं विकुर्वति, तद्दीखोर्ध्वं गगनतलं गतोऽधुना. * कामदेवो तवो उदसमां प्र०. Education intimatio For Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 437 ~ ॥२१७॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०६], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक मारेमित्ति मुएइ वजसंनिभं जं मंदरंपि चूरेजा, तेण पहारेण भगवं ताव णिबुड्डो जाव अग्गनहा हत्याणं, जाहे न सका। तणवि ताहे चिंतेति-न सका एस मारे, अणुलोमे करेमि, ताहे पभायं विउचाइ, लोगो सपो चंकमिज पवत्तो भणति-देवजगा! अच्छसि अज्जवि, भयवपि नाणेण जाणइ जहा न ताव पभाइ जाव सभावो पभायंति, एस वीसइमो । अन्ने भणन्ति-तुहोमि तुज्य भगवं! भण किं देमि? सगं वा ते सरीरं नेमि मोक्खं वा नेमि, तिण्णिवि लोए तुज्झ पादेहिं पाडेमि !, जाहे न तीरइ ताहे मुहुयरं पडिनिवेसं गओ, कलं काहिति, पुणोवि अणुकहइचालुय पंथे तेणा माउलपारणग तत्थ काणच्छी । तत्तो सुभोम अंजलि सुच्छित्ताए य विडरूवं ॥५०७॥ ततो सामी वालुगा नाम गामो तं पहाविओ, एत्थंतरा पंचचोरसए विउबति, वालुगं च जत्थ खुष्पइ, पच्छा तेहि माउलोत्ति वाहिओ पबयगुरुतैरेहिं सागयं च वजसरीरा दिति जहिं पत्यावि फुट्टिज्जा, ताहे वालयं गओ, तत्थ सामी मारयामीति मुश्चति वनसलिभ वन्मन्दरमपि चूरयेत ,तेन प्रहारेण भगवान् तावत् बडितो यावदमनला हसायोः,पदा न शक्तोनापि तदा चिन्तयति-न वाक्य एप मारयितुम् , अनुलोमान् करोमि, तदा प्रभात विकुर्वति, लोकः सर्वधकमितुं प्रवृत्तो भणति-देवार्य ! तिपसि ममापि, भगवान ज्ञानेन जानाति यथा न तावत्रभाति यावत्स्वभावतः प्रभातमिति, एष विंशतितमः । अन्ये भणन्ति-तुष्टोऽस्मि तुभ्यं भगवन् ! भण किं ददामि स्वर्ग वा ते शरीर नयामि मोक्षं वा नयामि, श्रीनपि लोकान् तव पादयोः पातयामि, बदा न शक्नोति तदा सुष्टुतरं प्रतिनिवेशं गतः, कल्ये करिष्यति, पुनरप्यनुकर्षति । ततः स्वामी वालुका | नाम ग्राम प्रधावितः, अन्नान्तरे पा चौरशतानि विकुर्वति, वालुकां च यत्र मापते, पश्चात् तैर्मातुल इति चाहितः पर्वतगुरुतरः स्वागतं वनशरीरा ददति, यत्र पर्वता अपि स्फुटेयुः, सदा पालकां गतः, तत्र स्वामी. * तस्थेतरा प्र०. सरीरेहिं कसाघाई व०प्र०. दीप अनुक्रम JAMERatunintimational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०७], भाष्यं [११४...] (४०) ॥२१८॥ +5 प्रत सुत्रांक परिडिओ, तत्थावरतं भगवतो रूवं काणच्छि अविरइयाओ णडेइ, जाओ तस्थ तरुणीओ ताओ हम्मति, ताहे|हारिभटीनिग्गतो। भगवं सुभोमं वकाइ, तत्थवि अतियओ भिक्खायरियाए, तत्थवि आवरेत्ता महिलाणं अंजलिं करेइ, पच्छा तेहिं यात्तिः पिट्टिजति, ताहे भगवं णीति, पच्छा सुच्छेत्ता नाम गामो तहिं वच्चाइ, जाहे अतिगतो सामी भिक्खाए ताहे इमो आवरेत्ता विभागः१ विडरुवं विउवा, तत्थ हसद य गायइ य अट्टहासे य मुंचति, काणच्छियाओ य जहा विडो तहा करेइ, असिहाणि य भणइ, तत्थवि हम्मइ, ताहे ततोवि णीतिमलए पिसायरूयं सिवरूवं हथिसीसए चेष । ओहसणं पडिमाए मसाण सको जवण पुच्छा ॥५०८॥ ततो मलयं गतो गार्म, तत्थ पिसायरूवं विउवति, उम्मत्तयं भगवतो रूवं करेइ, तत्थ अविरइयाओ अवतासेइ गेण्हाइ, तत्थ चेडरूवेहि छारकयारेहि भरिजइ लेडु(ह)एहिं च हम्मइ, ताणि य बिहावेइ, ततो ताणि छोडियपडियाणि नासंति तस्थ कहिते हम्मति, ततो सामी निग्गतो, हत्थिसीसं गामं गतो, तत्थ भिक्खाए अतिगयस्स भगवओ सिवरुवं विउबई भिक्षा प्रदिण्डितः, तत्राबुल भगवती रूपं काणाक्षोऽविरतिका बाधते,यास्तत्र तरुण्यस्ता प्रम्ति, सदा निर्गतः। भगवान् सुभौम मजति, तत्रापि अतिगतो भिक्षाचाँधि, तवाप्यावृत्य महिलाभ्योऽजलिं करोति, पक्षातः पित्यते, तदा भगवान् निर्गच्छति, पश्चात् सुक्षेत्रनामा प्रामस्न नजति, पदातिगतः स्वामी भिक्षा तदाऽयमावृत्य विटरूपं विकुर्वति, सहसति च गायति च महाहहासांश्च मुञ्चति, काणाक्षिणी च बया विटलया करोति, अशिष्टानि च भणति, समापि |२१८॥ इम्यते, ततोऽपि निर्धाति । ततो मलयं गतो माम,तन्त्र पिशाचरूपं विकुर्वति, उन्मतं भगवतो रूपं करोति, तत्रापिरतिका अपत्रासयति गृहाति, तत्र चेटरूपैर्भपाकचरीमियते ले कैश्च हन्यते तानि च भापयते, सत्तमतानि छोटितंपत्तितानि नश्यन्ति, तत्र कथिते हन्यते, ततः खामी निर्गतो, इतिशी प्रामं गतः, तत्र मिक्षावै भतिगतस्य भगवतः शिव (भव्य) रूपं विकुति. * एयषि प्र०. दीप अनुक्रम T Jamanna मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 439~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- / गाथा-], भाष्यं [१९४...] निर्युक्तिः [५०८], निर्मुक्तिः (१०८), सागारियं च से कसाइययं करेइ, जाहे पेच्छइ अविरइयं ताहे उडवेइ, पच्छा हम्मति, भगवं चिंतेति-एस अतीव गाढं उड्डाई करेइ अणेसणं च, तम्हा गामं चैव न पविसामि बाहिं अच्छामि, अण्णे भणति - पंचालदेवरूवं जहा तहा विषति, तदा किर उप्पण्णो पंचालो, तो वाहिं निग्गओ गामस्स, जओ महिलाजहं तओ कसाइततेण अच्छति, ताहे किर ढोंढसिवा पवत्ता, जम्हा सकेण पूइओ ताहे ठिआ, ताहे सामी एगंतं अच्छति, ताहे संगमओ उसेइ- न सका तुमं ठाणाओ चालेउं ?, पेच्छानि ता गामं अतीहि, ताहे सको आगतो पुच्छइ भगवं ! जत्ता मे ? जवणिज्जं अवावाहं फासूयविहारं १, वंदिता गओ तोसलिकुसीसरूवं संविच्छेओ इमोत्ति वज्झो य । मोएइ इंदालिङ तत्थ महाभूहलो नाम ।। ५०९ ॥ ताहे सामी तोसलिं गतो, बाहिं पडिमं ठिओ, ताहे सो देवो चिंतेइ, एस न पविसइ, एत्ताहे एत्थवि से ठियस्स करेमि उवसग्गं ततो खुड्डुगरूवं बिउबित्ता संधिं छिदइ उवकरणेहिं गहिएहिं धाडीए तओ सो गहितो भणति, मा ममं हणह, 3 सागारिकं (ध) च तस्य कपानि (सम्धं करोति यदा प्रेक्षतेऽविरतिकां तदोत्थापयति, पचाम्पते, भगवान् चिन्तयति पुषोऽतीव गाडमपभ्राजन करोति अनेषणां च तस्माड्राममेव न प्रविशामि वहिल्लिष्टामि, अन्ये भजन्ति पञ्चालदेवरूपं यथा तथा विकुर्वति, तदा किलोपसः पञ्चालः, ततो बहिर्निर्गतो ग्रामात् यतो महिलाधं ततः कापायित केन तिष्ठति, तदा किल हेलना प्रवृत्ता यस्मात् शक्रेण पूजितस्तस्मात्स्थिता ( निवृचा ), सदा स्वाम्येकान्ते विहति तदा संगमकोऽपहसति न शक्यस्वं स्थानाञ्चालयितुं ?, प्रेक्षे तावद्वामं याहि तदा शक भागतः पृच्छति भगवन् ! यात्रा भवतां ? यापनीयमध्यायार्थ मासुकविहारः यन्दित्वा गतः। तदा स्वामी तोसलिं गतः बहिः प्रतिमया स्थितः, तदा स देवचिन्तयति एष न प्रविशति, अधुनाऽयापि भव स्थितस्य करोम्युपसर्ग, ततः शुलकरूपं विकु सन्धि छिनत्ति उपकरणेषु गृहीतेषु धाव्या, ततः स गृहीतो भगति मा मां वधिष्ट. Education national For Fast Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 440 ~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०९], भाष्यं [११४...] (४०) विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक- अहं किं जाणामि?,आयरिएण अहं पेसिओ, कहिं सो ?, एस बाहि अमुए उज्जाणे, तत्थ हम्मति, बज्झति य, मारेजउत्ति हारिभद्री॥२१९॥ द्रय वज्झो णीणिओ, तत्थ भूइलो नाम इंदजालिओ, तेण सामी कुंडग्गामे दिडओ, ताहे सो मोएइ, साहइ य--जहा एसायवृत्तिः |सिद्धत्थरायपुत्तो, मुको खामिओ य, खुड्डओ मग्गिओ, न दिहो, नायं जहा से देवो उवसर्ग करेइ|मोसलि संधि, सुमागह मोएई रडिओ पिउवयंसो। तोसलि य सत्तरजू वावत्ति तोसलीमोक्खो ॥ ५१०॥ ततो भगवं मोसलिं गओ, तत्थवि बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थवि सो देवो खुडुगरूवं विउवित्ता संधिमार्ग सोहेइ पडिलेहेइ य, सामिस्स पासे सवाणि उवगरणाणि विउबइ, ताहे सो खुडओ गहिओ, तुमं कीस एत्थ सोहेसि ?, साहइ-मम धम्मायरिओ रति मा कंटए भंजिहिति सो सुहं रत्तिं खत्तं खणिहिति, सो कहिं !, कहिते गया दिडो सामी, ताणि य परिपेरन्ते पासंति, गहितो आणिओ, तत्थ सुमागहो नाम रहिओ पियमित्तो भगवओ सो मोएइ, ततो सामी तोसलिं अई किंजाने 1, आचार्यणाई प्रेषिता, कसा, एष बहिरमुकमिनुधाने, तत्र हन्यते बध्यते च, मार्यतामिति च वध्यो निष्काशितः, तत्र भूतिको नामेन्द्रजालिका, तेन स्वामी कुण्डमामे रयः, तदास मोचयति, कथयति प-यप सिद्धार्थराजपुत्रो, मुक्तः क्षामितश्च, क्षुलको मार्गितः, गए, ज्ञातं यथा तस्य देव उपसर्ग करोति । ततो भगवान मोसलिगता, तत्रापि पहिः प्रतिमया स्थितः, तत्रापि स देवः भुलकरूपं विकुष्य सन्धिमार्ग शोधयति प्रतिलिखति च, स्वामिनः पाणे सर्वापयुपकरणानि विकुर्वति, तदा स क्षुल्लको गृहीतः, स्वं कधमत्र शोधयसि !, कथयति-मम धर्माचार्यः रात्रौ मा कण्टका भारिपुः इति स ॥२१९॥ सुत्रं रात्रौ खात्रं खनिष्यति, सक?, कथिते गता हष्टः स्वामी, तानि च परितः पर्यन्ते पश्यन्ति, गृहीत आनीतः, तत्र सुमागधो नाम राष्ट्रिकः पितृमित्रं भगवतः समोचयति, सतः स्वामी तोसली दीप अनुक्रम T Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१०], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत गओ, तत्थवि तहेव गहिओ, नधर-उकलंबिजिउमादत्तो, तत्थ से रजू छिपणो, एवं सत्त वारा छिण्णो, ताहे सिहं तोसतालियस्स खत्तियस्स, सो भणति-मुयह एस अचोरो निद्दोसो, तं खुड्डयं मग्गह, मग्गिजंतो न दीसइ, नायं जहा देवोत्तिसिजस्थपरे तेणेसि कोसिओ आसवाणिओ मोक्खो। वयगाम हिंडणेसण बियदिणे वेइ उवसंतो॥५११॥ ततो सामी सिद्धत्थपुरं गतो, तत्थवि तेण तहा कयं जहा तेणोति गहिओ, तत्थ कोसिओ नाम अस्सवाणियओ, ६ तेण कुंडपुरे सामी दिहिलओ, तेण मोयाविओ। ततो सामी वयगामति गोउलं गओ, तत्थ य तदिवसं छणो, सबस्थ परमणं उवक्खडियं, चिरं च तस्स देवरस ठियस्स उवसग्गे कार्ड सागी चिंतेइ-गया छम्मासा, सो गतोत्ति अतिगओ जाव असणाओ करेति, ततो सामी उवउत्तो पासति, ताहे अद्धहिंडिए नियत्तो, बाहिं पडिमं ठिओ, सो य सामि ओहिणा आभोएति-किं भग्गपरिणामो न वत्ति?,ताहे सामी तहेव सुद्धपरिणामो, ताहेदई आउट्टो, न तीरइ खोभेडं, जो OCTC+ सूत्राक % दीप अनुक्रम गतः, तथापि तथैव गृहीता नवरं महम्पयितुमारब्धः, तत्र तय रश्मिा , एवं सप्त वासंश्छिला, तवा शिर्ष सोसनिकाय क्षत्रियाय, स भणति-मुशतः | एपोऽचोरो निर्दोषा, संचड मार्गपत, माग्यमाणो न पश्यते, ज्ञातं यथा देव इति । ततः स्वामी सिद्धार्थपुरं गतः, तत्रापि तेन तथा कृतं यथा तेन इति | | गृहीतः, सत्र कौशिकनामा मनवाणि, तेन कुण्ठपुरे स्वामी रष्टः, तेन मोचितः । ततः स्वामी प्रजप्राममिति गोकुलं गता, तप च तस्मिन् दिवसे क्षणः, सर्वत्र | परमानमुपस्कृतं, तस्मिन् देवेच चिरमुपसगांकृत्या स्थिते स्वामी चिन्तयति-गताः षण्मासाः स गत इति अतिगतो यावदनेषणाः करोति, ततः स्वाम्युपबुक पश्यति, तदाहिग्यितो निर्गतः, पहिः प्रतिमया स्थिता, सच स्वामिनमवधिमाऽऽभोगपति-कि भापरिणामो नति, तदा स्वामी तथैष शुद्धपरिणामः, तदा ट्वामृतः, न पश्यते क्षोभवितुं, यः. *तस्थवि ०. ACAUSA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५११], भाष्यं [११४...] (४०) COMGAOG प्रत सुत्रांक आवश्यक- छहिं मासेहिं न चलिओ एस दीहेणावि कालेण न सक्का चालेड, ताहे पादेसु पडिओ भणति-सच्चं जं सको भणति, सर्वहारिभद्री खामेइ-भगवं ! अहं भग्गपतिण्णो तुम्हे समत्तपतिण्णा॥२२॥ यवृत्तिः दवचह हिंडह न करेमि किंचि इच्छा न किंचि वत्तब्यो । तत्थेव वच्छवाली थेरी परमन्नवसुहारा ॥१२॥ | विभागा। छम्मासे अणुबई देवो कासीय सो उ उवसम्गं । दण वयग्गामे बंदिय वीरं पडिनियत्तो ॥५१३ ॥ जाह एत्ताहे अतीह न करेमि उवसर्ग, सामी भणति-भो संगमय! नाहं कस्सइ वत्तबो, इच्छाए अतीमि वा णवा, ताहे ६ सामी बितियदिवसे तत्थेव गोले हिंडतो वच्छवालथेरीए दोसीणेण पायसेण पडिलाभिओ,ततो पंच दिवाणि पाउम्भूयाणि.४ |एंगे भणंति-जहा तद्दिवस खीरं न लद्धं ततो वितियदिवसे ऊहारेऊण उवक्खडियं तेण पडिलाभिओ। इओ य सोहम्मे कप्पे सधे देवा तद्दिवसं ओघिग्गमणा अच्छंति, संगमओ य सोहम्मे गओ, तत्थ सक्को तं दण परमहो ठिओ, भणइ पद्भिर्मासैनं चलित एष दीघेणापि कालेन न शक्यश्वालयितुं, तदा पादयोः पतितो भणति-सत्यं यच्छको भणति, सर्व क्षमयति-भगवन्तः ! मई ल भमप्रतिज्ञो पूर्व समाप्तप्रतिज्ञाः । याताऽधुनाटत न करोम्युपसर्ग, स्वामी भणति-भोः संगमक! नाई केनापि वक्तव्य इच्छाश्टाभि वा नवा, तदा स्वामी ॥२२०॥ | द्वितीय दिवसे तत्रैव गोकुले हिण्डमानः, वत्सपालिकया स्थविरया पर्युषितेन पायसेन प्रतिलाभितः, ततः पञ्च दिग्यानि प्रादुर्भूतावि, एके भणन्ति-यथा | तदिवसा क्षीरेयी न लब्धा ततो द्वितीयदिवसे अवार्योपरकृतं तेन प्रतिळागितः । इतश्च सौधर्म कल्ये सर्वे देवाः तदिवस (गायत्) अद्विममनसस्तियन्ति, संगमका सौधर्म गता, तत्र पाक्रम हवा पराङ्मुखः स्थितो भणति * परिवामिलो इति पर्यन्तं न प्र.. % दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक 'देवे-भो ! सुणह एस दुरप्पा, ण एएण अम्हवि चित्तावरक्खा कया अन्नेसि वा देवाण, जओ तित्थकरो आसाइओ, न पएण अम्ह कर्ज, असंभासो निविसओ य कीरउ-- है वो चु(ठि)ओ महिहीओ वरमंदरचूलियाइसिहरंमि । परिवारिउ सुरवहहिं आउंमि सागरे सेसे॥५१॥ ताहे निच्छूढो सह देवीहि मंदरचूलियाए जाणएण विमाणेणागम्म ठिओ,सेसा देवा ईदेण वारिता,तस्स सागरोवमठिती सेसा। आलभियाए हरि विजू जिणस्स भत्ति' वंदओएइ।भगवं पियपुच्छा जिय उवसग्गत्ति धेवमवसेसं ॥५१॥॥ हरिसह सेयविधाए सावत्थी खंद पडिम सक्को य । ओयरिउ पडिमाए लोगो आउद्दिओ वंदे ॥ ५१६॥ तत्थ सामी आलभियं गओ, तत्थ हरि विजुकुमारिंदो एति, ताहे सो वंदित्ता भगवओ महिमं काऊण भणतिभगवं ! पियं पुच्छामो, नित्थिण्णा उवसग्गा, बहुं गये थोवमवसेस, अचिरेण भे केवलनाणं उपजिहिति । ततो सेयदावियं गओ, तस्थ हरिसहो पियपुच्छओ एइ, ततो सावत्थिं गओ, बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ खंदगपडिमाए महिम लोगो दीप अनुक्रम देवान्-भोः ऋणुत एप दुरात्मा, तेनामाकमपि चित्तावरक्षा कृता अन्येषां वा देवानां, बततीर्थकर माशातिता, नैतेनामा कार्यम् , संभाष्यो निर्विषयच क्रियतां । तदा नियूंदः सब देचीभिः मन्दरचूलिकायां यानकेन विमानेनागल्य स्थितः, शेषा देवा इन्द्रेण वारिताः, तख सागरोपमस्थितिः शेषा । ४ तत्र स्वामी मालम्भिको गता, तत्र हरिवियुत्कुमारेन्ज एति, तदा स वन्दिवा भगवतो महिमानं कृपा भगति-भगवन् ! प्रियं पृच्छामि निस्तीणों उपसर्गाः, बहु गतं स्तोकमवशेषम् , अचिरेण भवतां केवलज्ञानमुत्परस्पते । ततः श्वेताम्बीं गतः, तत्र हरिस्सदः प्रियमका पति, ततः भावी गतः, बहिः प्रतिमषा स्थितः, तत्र स्कन्दप्रतिमाया महिमानं लोकः armanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५१६], भाष्यं [११४...] (४०) हारिभद्री|यवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक करेइ, सको ओहिं पउंजति, जाव पेच्छइ खंदपडिमाए पूर्य कीरमाणं, सामि णादायति, उत्तिण्णो, सा य अलंकिया रहं विलग्गिहितित्ति, ताहे सको तं पडिमं अणुपविसिऊण भगवंतेण पडिओ, लोगो तुह्रो भणति-देवो सयमेव विलग्गि॥२२॥ |हिति, जाप सामि गंतूण वंति, ताहे लोगो आउट्टो, एस देवदेवोति महिमं करेइ जाव अच्छिओद कोसंबी चंदसूरोपरणं वाणारसीय सक्को उ । रायगिहे ईसाणो महिला जणओ य धरणो य ॥५१७॥ ततो सामी कोसपिं गतो, तत्थ चंदसूरा सविमाणा महिमं करेंति, पियं च पुच्छंति, वाणारसीय सको पियं पुच्छइ, रायगिहे ईसाणो पिय पुच्छइ, मिहिलाए जणगो राया पूर्व करेति, धरणो य पियपुच्छओ एइबेसालि भूयणंदो चमरुप्पाओ य सुंसुमारपुरे । भोगपुरि सिंदकंग माहिंदो खत्तिओ कुणति ॥५१८॥ ततो सामी वेसालिं नगरिं गतो, तत्थेक्कारसमो वासारत्तो, तस्थ भूयाणंदो पियं पुच्छइ नाणं च वागरेइ । ततो सामी दीप अनुक्रम T करोति, पाकोऽवधि प्रयुनक्ति, पापापेक्षते स्कन्दमतिमायाः पूजां क्रियमाणां, स्वामिनं नानियन्ते, अवतीर्णः, साप मलता रथं विलगविष्यतीति, तदा। पक्रस्तां प्रतिमामनुमविश्व भगवन्माण प्रस्थिता, छोकस्तुष्टो भष्पति-देवः स्वयमेव विलागिपति, पावत्स्वामिनं गया वन्दते, तदा कोक आवृत्त:-एष देवदेव इति महिमानं करोति यावत् स्थितः । ततः स्वामी कौशाम्यां गतः, तत्र सूर्याचन्दमसौ सविमानौ महिमानं कुरुतः, प्रियं च पृच्छतः, वाराणस्यां शक्रः प्रियं पृच्छति, राजगृहे ईशानः प्रियं पृच्छति, मिथिकायां जनको राजा पूजां करोति, धरणच प्रियप्रछक एति । ततः स्वामी विशाको नगरी गतः, वर्षकादशो पारात्रः, तत्र भूतानन्दः प्रियं पृच्छति, ज्ञानं च म्यागृणाति । ततः स्वामी ॥२२॥ aajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१८], भाष्यं [११४...] (४०) AC प्रत सूत्राक MIKसुमारपुरं एइ, तत्थ चमरो उप्पयति, जहा पन्नत्तीए, ततो भोगपुरं एइ, तत्व माहिंदो नाम खत्तिओ सामि दलण सिंदिकंदयेण आहणामित्ति पहावितो, सिंदी-खजूरी वारण सणकुमारे नंदीगामे पिउसहा वंदे । मंढियगामे गोबो वित्तासणयं च देविंदो ॥५१॥ एत्यंतरे सणंकुमारो एति, तेण धाडिओ तासिओ य, पियं च पुच्छइ। ततो नंदिगाम गओ, तत्थ णंदी नाम भगवओ पियमित्तो, सो महेइ, ताहे मेंढियं एइ । तत्थ गोवो जहा कुम्मारगामे तहेव सक्केग तासिओ वालरज्जुएण आहणंतोकोसंविए सयाणीओ अभिग्गहो पोसबहुल पाडिवई । चाउम्मास मिगावई विजयसुगुत्तो य नंदा य ॥५२०॥ तिचावाई चंपा दहिवाहण वमुमई विजयनामा । धणवह मूला लोयण संपुल दाणे य पब्वजा ।। ५२१॥ | ततो कोसंविंगओ, तत्थ सयाणिओ राया, मियावती देवी, तच्चावाती नामा धम्मपाढओ, सुगुत्तो अमच्चो, गंदा से भारिया, सा य समणोवासिया, सा य सहित्ति मियावईए वयंसिंदा, तत्थेव नगरे धणावहो सेट्ठी, तस्स मूला भारिया, एवं ते सकम्मसंपत्ता अच्छंति । तत्थ सामी पोसबहुलपाडिवए इमं एयारूवं अभिम्गह अभिगिण्हइ चरबिह-दवओ ४ १ सुंमुमारपुरमैति, तब चमर उत्पतति, क्या प्रज्ञप्ती, ततो भोगपुस्मेति, सत्र माहेन्द्रो नाम क्षत्रियः स्वःमिन रष्ट्वा सिन्दीकपडकेन आहन्मीति प्रधाविता, सिन्दी खजूरी । अत्रान्तरे सनत्कुमार आगच्छति, तेन निर्धादितः श्रासितश्च,प्रियं पृच्छति । ततो नन्दीग्रामं गतः, तत्र नन्दीनामा भगवतः पितृमित्रम्, समहति । तदा मेखिकाने ति, तत्र गोपो यथा कारनामे तथैव शकेण बासितः वालरज्ज्वान् । ततः कोशाध्यां गतः, तत्र शतानीको राजा, मृगावती देवी, नववादी नाम धर्मपाठकः, सुगुप्तोऽमात्यो, नन्दा तस्य भार्या, सा च श्रमग्योपातिका, सा च श्राद्धीति मृगावत्या वयस्पा, तत्रैव नगरे धनावहः श्रेष्टी, सख मूला भार्या, एवं ते स्वकर्मसंप्रयुक्ता विहन्ति । तत्र स्वामी पौष्ण कृष्णप्रतिपदि हममेतद्पमामिग्रहमभिगृहाति चतुर्विध मण्यतः ४. दीप अनुक्रम IBERatinintammational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: चन्दनबालाया: कथानक ~446~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) * प्रत सुत्रांक भावश्यक-देवओ कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्तओ एलुगं विक्खंभइत्ता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जहा रायधूया दास- हारिभद्री तणं पत्ता नियलबद्धा मुंडियसिरा रोवमाणी अहमभत्तिया, एवं कप्पति सेसं न कप्पति, एवं घेत्तूण कोसंबीए अच्छति, यवृत्तिः ॥२२२॥ दिवसे दिवसे भिक्खायरियं च फासेइ,किं निमित्तं ?, बावीस परीसहा भिक्खायरियाए उइज्जति,एवं चत्तारि मासे कोसंबीए विभागा? हिंडंतस्सत्ति । ताहे नंदाए घरमणुप्पविहो, ताहे सामी णाओ, ताहे परेण आदरेण भिक्खा णीणिया, सामी निग्गओ, सा अधिति पगया,ताओ दासीओ भणंति-एस देवजओ दिवसे दिवसे एस्थ एइ,ताहे ताए नायं-नूर्ण भगवओ अभिग्गहो कोई, ततो निरायं चेव अद्धिती जाया, सुगुत्तो य अमच्चो आगओ, ताहे सो भणति-किं अधितिं करेसि!, ताए कहियं, भणति-किं अम्ह अमबत्तणेणं, एवञ्चिरं कालं सामी भिक्खं न लहइ, किं च ते विनाणेणं, जइ एवं अभिग्गहं न याणसि, तेण सा आसासिया, कल्ले समाणे दिवसे जहा लहइ तहा करेमि। एयाए कहाए वट्टमाणीए विजयानाम पडिहारी द्रव्यतः कुल्मापाः सूर्पकोणेन, क्षेत्रतः देहली विषकन्य, कालतो निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु, भावतो यथा राजसुता दासत्वं प्रामा निगडयदा मुण्डितशिराः | रुदन्ती अष्टममक्तिका, एवं कल्पते शेषं न कल्पते, एवं गृहीत्वा कोशाम्यां तिहति, दिवसे दिवसे मिक्षाचीच स्पृशति, किं निमित्तम् द्राविंशतिः परीपहा ] |भिक्षाचर्यायामुदीयन्ते, एवं चत्वारो मासाः कोशाम्यां हिण्डमानस्येति । तदा नन्दाया गृहमनुप्रविष्टः, तदा स्वामी ज्ञातः, तदा परेणादरेण भिक्षा आनीता, स्वामी निर्गतः, साश्यति प्रगता, ता दास्यो भणन्ति-एष देवायों दिवसे दिवसे वायाति, तदा तया हात-जून मगवतोऽभिग्रहः कश्चित् , तो नितरां चैवा तिर्जाता, सगसचामाय भागतः, सदास भणति-किमति करोपितया कथितं, भणति-किमाकममात्यत्वेन चिर का स्वामी मिक्षा गमते,IMI दकिं च तव विज्ञानेन ।, योनमभिप्रहं न जानासि , तेन साऽऽशासिता, कल्ये समाने (सति) दिवसे यथा कभते सवा करोमि । एतस्यां कमायो वर्तमाशनायां बिजया नाम प्रतिहारिणी दीप SESSASRACT अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत | मिंगावतीए भणिया सा केणइ कारणेणं आगया, सा तं सोऊण उल्लावं मियावतीए साहइ, मियावतीवि तं सोऊण | महया दुक्खेणाभिभूया,सा चेडगधूया अतीव अद्धितिं पगया, राया य आगओ पुच्छइ, तीए भण्णइ-किं तुझ रजेणं? मते वा, एवं सामिस्स एवतियं कालं हिंडंतस्स भिक्खाभिग्गहो न नजइ, न च जाणसि एत्थ विहरतं, तेण आसासिया-तहा करेमि जहा कल्ले लभइ, ताहे सुगुत्तं अमच्चं सद्दावेद, अंबाडेइ य-जहा तुम आगयं सामि न याणसि, अज किर चउत्थो मासो हिंडंतस्स, ताहे तच्चावादी सद्दावितो, ताहे सो पुच्छिओ सयाणिएण-तुभं धम्मसत्थे सवपासंडाण आयारा आगया | ते तुम साह, इमोऽवि भणितो-तुमंपि बुद्धिवलिओ साह, ते भणति-बहवे अभिग्गहा, ण णजंति को अभिप्पाओ?, दव जुत्ते खेतजुते कालजुत्ते भावजुत्ते सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, ताहे रण्णा सबत्थ संदिवाओ लोगे, तेणविर परलोयकंखिणा कयाओ, सामी आगतो, न य तेहिं सबेहिं पयारेहिं गेण्हइ, एवं च ताव एयं । इओ य सयाणिओ चं सूत्राक 4- 28 दीप अनुक्रम गावस्या भणिता सा केनचिरकारणेमागता, सातमुखापं श्रुत्वा मृगावती कथयति, सगावस्यपि सं श्रुत्वा महता दुःखेनाभिभूता, सा पेटकहिताऽतीया प्रति प्रगता, राजा धागतः पृष्ठति, तथा भण्यते-किं तव राज्येन मया पा', एवं खामिन एतावन्तं कालं हिण्डमानस्स मिक्षाभिग्रहो न ज्ञायते, न च जानामन्त्र विहरत, तेनामाखिता-तथा करिष्यामि यथा कल्ये लभते, सदा सुगुप्तममात्य शब्दयति अपलभते च-पधा स्वमागर्त स्वामिनं न जानासि, भय किलचतुर्थों मासो हिण्डमानस्य, तदा तत्त्वबादी शब्दितः, तदा स पृष्टः शतानीकेन-तव धर्मपाले सर्वपापण्डानामाचारा आमतालान् त्वं कथष, अवमपि |भणिता यमपि पुदिवली कथष, ती भणता-बहनोऽभिप्रहाः, न ज्ञायते कोऽभिप्रायः, अध्ययुक्तः क्षेत्रयुक्तः कालगुको भावयुक्तः सप्त पिण्षणाः सप्त पानपणाः, मतदाराशा सर्वत्र संदिष्टा लोके, तेनापि परलोककाक्षिणा कृताः, स्वाम्यागतः, न च तैः सबै प्रकारकाति, पर्वच सावदेतत् । इतपातानीकश्यप AHandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) 4 % - प्रत आवश्यकता पहाविओ, दधिवाहणं गेहामि, नावाकडएणं गतो एगाते रत्तीते, अचिंतिया नगरी वेढिया, तरथ दहिषाहणो पलाओ, हारिभद्री रण्णा य जगहो घोसिओ, एवं जग्गहे घुढे दहिवाहणस्स रणो धारिणी देवी,तीसे धूया वसुमती, सा सह धूयाए एगेण १ यवृत्तिः ॥२२३॥ होडिएण गहिया, राया य निग्गओ, सो होडिओ भणति-एसा मे भजा, एयं च दारियं विकणिसं, (५५००)सा तेण विभागा१ मणोमाणसिएण दुक्खेण एसा मम धूया ण णज्जइ किं पाविहितित्ति अंतरा चेव कालगया, पच्छा तस्स होडियस्स चिंता जाया-दुह मे भणियं-महिला ममं होहित्ति, एतं धूयं से ण भणामि, मा एसावि मरिहित्ति, ता मे मोल्लंपि ण होहित्ति ताहे तेण अणुयत्तंतेण आणिया विवणीए उड्डिया, धणावहेण दिहा, अणलंकियलावण्णा अवस्सं रण्णो ईसरस्स वा एसा धूया, मा आवई पावउसि, जत्तियं सो भणइ तत्तिएण मोल्लेण गहिया, बरं तेण समं मम तमि नगरे आगमणं गमर्ण च होहितित्ति, णीया णिययघरं, कासि तुमंति पुच्छिया, न साहइ, पच्छा तेण धूयत्ति गहिया, एवं सा पहाविया, मूलावि सुत्रांक 64-10 दीप 62% अनुक्रम ॥२२शा मघाविता, दधिवाहनं गृहामि, नीकटकेन गत एकया राज्या, मचिन्तिता रिता नगरी, तत्र दधिवाहनो राजा पलायितः, राज्ञा प पाहो धोपितः, एवं बढ़दे पुरे दधिवाइनस्य राज्ञो धारिणी देवी, तस्याः पुत्री वसुमती, सा सह दुहिना एकेन नाविकेन गृहीता, राजा च निर्गतः,सनामिको भणति-एषा में भायो, | एतां च बालिका विक्रव्ये, सा तेन मनोमानसिकेन दुखेन एषा मम दुहिता न ज्ञायते किं प्राप्यतीति इत्यन्तरेप कालगता, पचात्तस्य नाविकमा चिन्ता जाता-II दुपु मया भणितं-मबिला मम भविष्यतीति, पता दुहितरं तथा न भणामि, मा एषापि मृतेति, ततो मे मूल्यमपि न भविष्यतीति, तदा तेनानुवर्षयता मानीता विषण्यामू कृता, धनावहेन एटा, मनलस्कृतलावण्याऽवश्वं राज्ञ चिरस्थ वैचा दुहिता, मा मापदःप्रापदिति, यावत्स भणति तावता मूल्येन गृहीता, बरं तेन | समं मम सचिवमरे भागमनं गमनं च भविष्यतीति, नीता निजगृदं, कासि त्वमिति पृष्ठा, न कथयति, पश्चानेन दुहितेति गृहीता, एवं सा अपिता, मूऽपि wlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~449~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत नेण भविया-एस तुज्न भूया, एवं सा तत्थ जहा नियघरं तहा सुहसुहेण अच्छति, तारवि सो सदासपरियणो लोगो सीलेणं विणएण य सयो अप्पणिज्जओ कओ, ताहे ताणि सबाणि भणति-अहो इमा सीलचंदणत्ति, ताहे से वितियंस नाम जायं-चंदणत्ति, एवं वच्चति कालो, ताए य घरणीए अवमाणो जायति, मच्छरिजइ य, को जाणति ? कयाति एस एवं पडिवजेजा, ताहे अहं घरस्स अस्सामिणी भविस्सामि, तीसे य वाला अतीव दीहा रमणिज्जा किण्हा य, सो सेट्टी मज्झण्हे जणविरहिए आगओ, जाव नत्थी कोइ जो पादे सोहेति, ताहे सा पाणियं गहाय निग्गया, तेण वारिया, सा मड्डाए पधाविया, ताहे धोवंतीए वाला बद्धेल्लया छुट्टा, मा चिक्खिले पडिहिंतित्ति तस्स हत्थे लीलाकडयं, तेण धरिया, बद्धा य, मूला य ओलोयणवरगया पेच्छइ, तीए णाय-विणासियं कज, जइ एयं किहवि परिणेइ तो ममं एस नत्थिा जाव तरुणओ वाही ताव तिगिच्छामित्ति सिडिमि निग्गए ताए ण्हावियं सहावेत्ता बोडाविया, नियलेहिं बद्धा, पिट्टिया सूत्राक दीप RA अनुक्रम सेन भणिता-एषा तब दुदिता, एवं सा तत्र यथा निजगृहे तथा सुखसुखेन तिष्ठति, तथापि स सदासपरिजनो कोका पनि विनयेन च सर्व आत्मीयः कृतः, तदा ते सर्वे मनुष्या भणस्ति-अहो इयं शीलचन्दनेति, तदा तस्या द्वितीयं नाम जातं चन्दनेति, एवं मजति काला, तथा च | गृहिण्या अपमानो जापते, मत्सरायते च, को जानाति ? कदाचिदेष एता प्रतिपयेत, तदाऽई गृहस्वास्वामिनी भविष्यामि, तस्यान याला अतीव दीर्धा रमणीयाः कृष्णाब, सश्रेष्ठी मध्याहे जमविरहिते मागतः, यावसास्ति कोऽपि यः पादी शोधयति, तदा सा पानीवं गृहीत्वा निर्गता, तेन बारिता, सा बलात् प्रधाविता, तदा प्रक्षालयन्या वाला यहाश्चुटिताः, मा कर्दमे पप्तन् (इति)सख इसे कीडाकाष्ठं तेन घताः बहान, मूला चावलोकनवरगता प्रेक्षते, तया ज्ञातं| विनष्ट कार्य, यदि एतां कथमपि परिणेष्यति तदा ममैष नासि, यावत्तरुणो व्याधिस्तावचिकित्सामि इति श्रेणिनि निर्गते वया नापितं शब्दयित्वा मुद्धिवा, | निगडा, पिहिता. JAMERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 450~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक ॥२२॥ प्रत सुत्रांक य, वारिओ णाए परिजणो-जो साहइ वाणियगस्स सो मम नत्थि, ताहे सो पिल्लियओ, सा घरे छोटूर्ण बाहिरि कुहंडिया, हारिभद्रीसो कमेण आगओ पुच्छइ-कहिं चंदणा, न कोइवि साह्इ भयेण, सो जाणति-नूर्ण रमति उवरिं वा, एवं रातिपियवृत्तिः पुच्छिया, जाणति-सा सुत्ता नूणं, बितियदिवसेऽवि सा न दिवा, तत्तिय दिवसे घणं पुच्छइ-साहह मा भे मारेह, ताहे विभागः१ द्राथेरदासी एका, सा चिंतेइ-किं मे जीविएण?, सा जीवउ वराई,ताए कहियं-अमुवघरे, तेण उम्पाडिया, छुहाहयं पिच्छित्ता करं पमग्गितो, जाव समावत्तीए नस्थि ताहे कुम्मासा दिहा, तीसे ते सुप्पकोणे दाऊण लोहारघरं गओ, जा नियलाणि छिंदावेमि, ताहे सा हथिणी जहा कुलं संभरिउमारद्धा एलुगं विक्खंभइत्ता, तेहिं पुरओकरहिं हिययभंतरओ रोवति, सामी य अतियओ, ताए चिंतियं-सामिस्स देमि, मम एवं अहम्मफलं, भणति-भगवं! कप्पइ ?, सामिणा पाणी पसारिओ, चउबिहोऽवि पुण्णो अभिग्गहो, पंच दिवाणि, ते वाला तयवत्था चेव जाया, ताणिऽवि से नियलाणि फुट्टांणि| दीप अनुक्रम T च, वारितोऽनया परिजन:-यः कथयति पणिजः स मम नास्ति, तदा स प्रेरितः(भीतः), तां गृहे नित्या कोशागारो मुक्तिः , स कमेणागतः पृच्छति-क चन्दना कोऽपि कथयति भयेन, स जानाति नूनं रमते परिवा, एवं राचावपि पृष्टा, जानाति सा सुप्ता नून, द्वितीयदिवसेऽपि साम रष्टा, तृतीचे दिवसे धनं| पृच्छति-कथयत मा पूर्व मारयत, तदा स्थविरदाखेका, सा चिन्तयति-किं मम जीवितेग, सा जीवतु वराकी, तथा कथितम्-अमुकस्मिन् गृहे,तेनोद्घाटितं, क्षुधाहतां प्रेक्ष्य कूर प्रमागिता, यावत्समापल्या नास्ति तदा कुश्माषा टाः, तस्यै तान् सूर्पकोणे दवा कोहकारगृहं गतो यचिगवान् छेदयामि, तदा सा ॥२२४|| इसिसनी यथा कुलं संम्ममारब्धा देवी विष्कम्य, तेषु पुरस्कृतेषु दयाभ्यन्तरे रोदिति-स्वामी चातिगतः, तथा चिन्तितं स्वामिने वदामि, ममैतदधर्मफल IGI भणति-भगवन् ! कल्पते , खामिना पाणिः प्रसारितः, चतुर्विधोऽपि पूर्णोऽभिमहः, पञ्च दिव्यानि, ते वालासवस्था एवं आताः, तथा निगवे अपि ते फुटिते * कुद्धम्बिया प्र०. + परियणं प्र० Swlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक ) सोवणियाणि नेउराणि जायाणि, देवेहि य सबालंकारा कया, सक्को देवराया आगओ, वसुहारा अद्धतेरसहिरण्णकोडिओ पटियाओकोसंबीए य सबओ उग्घुटु-केण पुण पुण्णमंतेण अज सामी पडिलाभिओ?, ताहे राया संतेउरपरियणो आगओ, ताहे तत्व संपुलो नाम दहिवाहणस्स कंचुइज्जो, सो बंधित्ता आणियओ, तेण सा णाया, ततो सो पादेसु पडिऊण परुण्णो, राया पुच्छइ-का एसा ?, तेण से कहियं-जहेसा दहिवाहणरष्णो दुहिया, मियावती भणइ-मम भगिणीधूयत्ति, अमच्चोऽवि सपत्तीओ आगओ, सामि वंदइ, सामीवि निग्गओ, ताहे राया तं वसुहारं पगहिओ, सक्केण वारिओ, जस्सेसा देइ तस्साभवइ, सा पुच्छिया भणइ-मम पिउणो, ताहे सेठिणा गहियं । ताहे सक्केण सयाणिओ भणिओ-एसा चरिमसरीरा, एयं संगोवाहि जाव सामिस्स नाणं उप्पज्जइ, एसा पढमसिस्सिणी, ताहे कन्नतेउरे छढा, संवहति । छम्मासा तया पंचहि दिवसेहिं ऊणा जद्दिवसं सामिणा भिक्खा लद्धा । सा मूला लोगेणं अंबाडिया हीलिया य । सौचणे नूपुरे जाते, देवा सर्वालकारा कृता, शक्रो देवराज भागतः, वसुधारार्धत्रयोदशाहिरण्यकोटयः पतिताः, कोशाव्यां च सर्वोपुष्टं, केन पुनः पुण्यमताय स्वामी प्रतिकम्भितः १, तदा राजा सान्तःपुरपरिजन आगतः, तदा तन्त्र संपुलो नाम दधिवाहनस्य कचकी, समानीतसेम सा ज्ञाता, ततः स पदोः पतिस्वा प्रणः, राजा पृच्छति-पा, तेन तौ कथितं-यथैषा दधिवाहनस्य राज्ञो दुहिता, सुगावती भणति-मम भगिनीदुहितेति, अमात्योऽपि | सपनीक आमतः स्वामिनं वन्दते, स्वाम्बपि निर्गतः, तदा राजा तां वसुधारा ग्रहीतुमारब्धः, शक्रेण बारितः, यी एषा ददाति तस्याभवति, सा पृष्टा भणतिमम पितुः, तदा अधिना गृहीतं । तदा शक्रेण शतानीको भणितः-एषा चरमशरीरा एतां संगोपय पावरस्वामिनो ज्ञानमुत्पद्यते, एषा (स्वामिनः) प्रथमशिष्या, तदा कन्यान्तापुरे क्षिप्ता संवर्धते । पपासालदा पश्मभिर्दिवसैरूना यदिवसे स्वामिना भिक्षा लब्धा । सा मूला लोकेम तिरस्कृता दीलिता च।। दीप 5-50-250 अनुक्रम Direon मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 452 ~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५२२], भाष्यं [११४...] (४०) * प्रत * सुत्रांक मावश्यक-दसत्तो सुमंगलाए सणकुमार सुछेत्स एइ माहिंदो। पालग वाइलचणिए अमंगलं अपणो असिणा ॥ ५२२ ॥15 हारिभद्री॥२२५॥ | सामी ततो निग्गतूण सुमंगल नाम गामो तहिं गओ, तत्थ सर्णकुमारो एइ, वंदति पुच्छति य । ततो भगवं सुच्छित्तं विभागः१ गओ, तत्थ माहिंदो पियं पुच्छओ एइ । ततो सामी पालगं नाम गामं गओ, तत्थ वाइलो नाम वाणिअओ जत्ताए पहाविओ, अमंगलन्तिकाऊण असिं गहाय पहाविओ एयस्स फलउत्ति, तत्थ सिद्धत्थेण सहत्थेण सीसं छिणं चंपा वासावासं जक्खिदे साइदत्तपुच्छा य । वागरणदुहपएसण पञ्चक्खाणे य दुविहे उ ॥ ५२३ ॥ ततो स्वामी चंपं नगरि गओ, तत्थ सातिदत्तमाणस्स अग्गिहोत्तसालाए वसहि उवगओ, तत्थ चाउम्पासं खमति, तत्थ पुण्णभद्दमाणिभद्दा दुवे जक्खा रत्तिं पज्जुवासंति, चत्तारिवि मासे पूर्व करेंति रत्तिं रतिं, ताहे सो चिंतेइ-किं जाणति एसतो देवा महंति, ताहे विनासणानिमित्तं पुच्छइ-को ह्यात्मा, भगवानाह-योऽहमित्य'भिमन्यते, स कीदृशः १, * * * दीप अनुक्रम * * स्वामी ततो निर्गख सुमङ्गलं नाम मामः तत्र गतः, तत्र सनत्कुमार आयाति, वन्दते पृच्छति च । ततो भगवान् सुक्षेत्रं गतः, तत्र माहेन्द्रः प्रियप्रज्छक आयाति । ततः स्वामी पाळकं नाम प्रामं गतः, तत्र वातबलो नाम वणिक यात्राथै प्रधावितः,अमलमितिकृत्याऽसिं गृहीत्वा प्रभावितः एतस्य फलत्चिति तत्र सिवान स्वहसेन वीर्य छिनाम् । २तता स्वामी पम्पा नगरी गतः, तत्र स्वातिवत्तवाक्षणस मनिहोत्रशालायां वसतिमुपागता, तत्र चतुर्मासी क्षपयति सत्र पूर्णभरमाणिमही दी यक्षी रात्री पर्युपासाते, धतुरोऽपि मासान् पूजां कुरुतो रात्रौ रात्री तदास चिन्तयति-विजानाति एषका (यत्) देवी मायतः, सदा विविविधानिमित्तं पृच्छति। पुमंगल सणकुमार मुछेत्ताए य पद माहिंदो प्र.. + अनुपका खिसंवेदनसिद्धः हिन्द्रियगोचरातीतस्यात् ॥२२५॥ AMER मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५२३], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक दसूक्ष्मोऽसौ, किं तत् । सूक्ष्मम्, यन्न गृहीमः, मनु शब्दगम्धानिला, नेते, इन्द्रियग्राह्यास्तेन, ग्रहणमात्मा, ननु ग्राह यिता साकि भंते ! पदेसणयं ? किं पञ्चक्खाणं, भगवानाह-सादिदत्ता ! दुविह-पदेसणगं-धम्मियं अधम्मियं च । पदेसणं नाम उवएसो । पञ्चक्खाणेऽवि दुविहे-मूलगुणपञ्चक्खाणे उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । एएहिं पएहिं तस्स उवगतं । भगवं ततो निग्गओ जभियगामे नाणस्स उप्पया वागरेइ देविंदो। मिढियगामे चमरो वंदण पियपुच्छणं कुणह ॥५२४॥ , जभियगाम गओ, तत्थ सको आगओ, बंदित्ता नविहिं उवदंसित्ता वागरेइ-जहा एत्तिएहिं दिवसेहिं केवलनाणं उप्प-| जिहिति । ततो सामी मिढियागार्म गओ, तत्थ चमरओ वंदओ पियपुच्छओ य एति, वंदित्ता प्रच्छित्ता य पडिगतो।छम्माणि गोव कडसल पवेसणं मज्झिमाएँ पावाए । खरओ विवो सिद्धत्य वाणियओनीहरावे ॥२५॥ ततो भगवं छम्माणि नाम गामं गओ, तस्स बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ सामीसमीवे गोवो गोणे छड्डेऊण गामे पविडो, किं भदन्त ! प्रदेशनम् । कि प्रत्याख्यानम् !, भगवानाह-स्वाति बत्त ! विविध प्रदेशन-धार्मिकमधार्मिकं च प्रदेशनं नाम उपदेशः । प्रत्याख्यानमपि द्विविध-मूलगुणप्रत्याश्यानमुत्तगुणनखाण्यानं च । एतैः पदैरुपगतं तस्य (ज्ञानीति)। ततो भगवामिर्गतः। २ गम्भिकानामं गतः, तन्त्र पाक भागतः, वन्दित्वा नाव्यविधिमुपदश्य ब्यागृणोति ययनिर्विवसः केवलज्ञानमुत्पत्स्यते । ततः स्वामी मिमिकामामं गतः, तत्र चमरो पन्दकः प्रियाछायाति, वन्दित्वा पृष्ट्वा च प्रतिगतः । ३ सतो भगवान् षण्माणी नाम मा गतः, तस्मादहिः प्रतिमया स्थितः, सत्र स्वामिसमीपे गोपो बळीवी वक्त्वा प्रामं प्रविष्टः, * इन्द्रियाणां सूक्ष्मोन विषया. + इन्जियातिकान्तार्थाडष्टे.. या शायते. नुषा महश्यन्ते इति. भिन्बेन्द्रियरूपकम् प्राहक इन्द्रिया| परपर्यायः. इन्द्रियाणां पदार्थ प्राहकः. दीप अनुक्रम 2 T JAMERatunintimational wwjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 454~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२४], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक- दोहणाणि काऊण निग्गओ, ते य गोणा अडविं पविठ्ठा चरियबगस्स कज्जे, ताहे सो आगतो पुच्छति-देवजग ! कहिं ते हारिभद्रीबइल्ला ?, भगवं मोणेण अच्छइ, ताहे सो परिकुविओ भगवतो कण्णेसु कडसलागाओ छुहति, एगा इमेण कण्णेण एगा। यवृत्ति ॥२२६॥ विभागा१ इमेण, जाव दोनिवि मिलियाओ ताहे मूले भग्गाओ, मा कोइ उक्खणिहितित्ति । केइ भणति-एक्का चेव जाव इयरेण कण्णेण निग्गता ताहे भग्गा ।-कण्णेसु तर तत्तं गोवस्स कर्य तिविड्णा रण्णा । कण्णेसु वद्धमाणस्स तेण छूढा कडसलाया ॥१॥ भगवतो तद्दारयणीयं कम्म उदिणं । ततो सामी मज्झिमं गतो, तत्थ सिद्धत्थो नाम वाणियगो, तस्स घरं भगवं अतीयओ, तस्स य मित्तो खरगो नाम वेजो, ते दोऽवि सिद्धत्थस्स घरे अच्छंति, सामी भिक्खस्स पविट्ठो, वाणियओ वंदति थुणति य, वेजो तित्थगरं पासिऊण भणति-अहो भगवं सबलक्खणसंपुण्णो किं पुण ससल्लो, ततो सो| वाणियओ संभंतो भणति-पलोएहि कहिं सल्लो ?, तेण पलोएतेण दिवो कण्णेसु, तेण वाणियएण भण्णइ-णीणेहि एवं 1 दोहनानि कृत्वा निर्गतः, तौ च बलीवो अटवीं प्रविष्टौ चरणरूप कार्याय, तदा स आगतः पृच्छति-देवायक! कती बक्षीवदौ १, भगवान् मौनेन तिष्ठति | तदा सपरिकुपितः भगवतः कर्णयोः कटशलाके क्षिपति, एकाऽनेन कर्णेन एकाऽनेन, यावरे अपि मीलिते तदा मूले भमे, मा कश्चिदुत्वनीरिति । केचिजणस्तिएकैव यावदितरेण कर्णेन निर्गता तदा भना।-कर्णयोः तसं वपुर्गोषस्य कृतं त्रिपृष्ठेन राज्ञा । कर्णयोवर्धमानस्य तेन क्षिप्ते कटशलाकि ॥३॥ भगवतस्तद्वारा ॥२२६॥ वेदनीयं कर्मोदीण । ततः स्वामी मध्यमा गतः, तत्र सिद्धार्थो नाम वनिक, तस्स गृहे भगवानतिगतः, तख च मित्रं खरको नाम वैधः, तौ द्वावपि सिद्धार्थगृहे पतितः, स्वामी भिक्षा प्रविष्टा, पणिक वन्दते सौति च, बैधतीर्थकरं दृष्ट्वा भणति-बहो भगवान् सर्वलक्षणसंपूर्णः किं पुनः सशक्यः, ततः स वणिक |संमान्तो भणति-पक्षोकय क शल्य १, तेन प्रलोकयता र कर्णयोः, तेन पणिजा भण्यते-यपनय एतत् SASARASAROSARE दीप अनुक्रम Myanmitraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [-1 मूलं [- / गाथा-], निर्बुक्तिः [ ५२४] भाष्यं आयं [ ११४...]] महातवस्सिस्स पुण्णं होहितित्ति, तबवि मज्झवि, भणति-निष्पडिकम्मो भगवं नेच्छति, ताहे पडियरावितो जाव दिट्ठो उज्जाणे पडिमं ठिओ, ते ओसहाणि गहाय गया, तत्थ भगवं तेलदोणीए निवज्जाविओ भक्खिओ य, पच्छा बहुएहिं मणूसेहिं जंतिओ अतो य, पच्छा संडासतेण गहाय कड्डियाओ, तत्थ सरुहिराउ सलागाओ अंछियाओ, तासु य अंछिज्जतिसु भगवता आरसियं, ते य मणूसे उप्पाडित्ता उडिओ, महाभेरवं उज्जाणं तत्थ जायं, देवकुलं श्व, पच्छा संरोहणं ओसहं दिन्नं, जेण ताहे चैव पडणो, ताहे वंदित्ता खामेत्ता य गया । सबेसु किर उवसगेसु कयरे दुबिसहा ?, उच्यते, कडपूर्वणासीयं कालचकं एयं चैव सर्वं निक्कड्किज्जतं, अहवा - जहण्णगाण उवरि कडपूयणासीयं मज्झिमगाण जवरि कालचकं उक्कोसगाण उवरिं समुद्धरणं । एवं गोवेणारद्धा उवसग्गा गोवेण चैव निहिता । गोवो अहो सत्तमिं पुढविं गओ । खरतो सिद्धत्थो य देवलोगं तियमवि उदीरयंता सुद्धभावा । गता उपसर्गाः । - १ महातपस्विनः पुण्यं भविष्यतीति, तजापि ममापि भणति-निष्पत्तिकर्मा भगवान्लेच्छति, तदा प्रतिवारितो यावदृष्ट उद्याने प्रतिमया स्थितः, तापधानि गृहीत्वा गती, तत्र भगवान् तैरुद्रोण्यां निमज्जितः प्रक्षितश्च पश्चाद्बहुभिर्मनुष्यैयन्त्रित भकान्त, पचात्संवंशकेन गृहीत्वा कर्षिते तत्र सरुधिरे शलाके आकृष्टे, तयोश्वाकृष्यमाणयो भंगवताऽऽरसितं तां मनुष्यानुत्पाक्योस्थितः महाभैरवमुधानं तत्र जातं, देवकुलं च पचासंरोहणमौषधं दत्तं येन तदैव प्रगुणः, तदा वन्दित्वा क्षमयित्वा च गतौ। सर्वेषु किलोपसर्गेषु कतरे दुर्विषहाः १, उच्यते, फटपूतनाशीतं कालचक्रमेतदेव शल्यं निकृष्यमाणम्, अथवा जघन्यानामुपरि कटपूतनाशीतं मध्यमानामुपरि कालचक्रमुःकृष्टानामुपरि शल्योद्धरणम् । एवं गोपेनारख्या उपसर्ग गोपेनैव निहिताः । गोपोऽधः सप्तम पृथिवीं गतः । खरकः सिद्धार्थ देवलोकं गतौ तीनामपि ( वेदनां) उदीरयन्तौ शुद्धभाव। Education intrational For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .......आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 456 ~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२२७॥ Ja Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [५२६], भाष्यं [११४...] -जंभिय यहि उजुवालिय तीर विपावस सामसालअहे । छद्वेणुकुडुयस्स उ उप्पण्णं केवलं गाणं ।। ५२६ ।। तो सामी अभियग्रामं गओ, तरस बहिया वियावत्तस्स चेइयस्स अदूरसामंते, वियावतं नाम अव्यक्तमित्यर्थः, भिन्नपडियं अपागडं, उज्जुवालियाए नदीए तीरंभि उत्तरिले कूले सामागस्स गाहावतिस्स कटुकरणसि, कटुकरणं नाम छेतं, सालपायवस्स अहे उडुगणिसेज्जाए गोदोहियाए आयावणाते आयावेमाणस्स छणं भत्तेणं अपाणएणं वइसाहसुद्धदसमीए इत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागतेणं पातीणगामिणीए छायाए अभिनिविट्टाए पोरुसीए पमाणपत्ताए झाणंतरियाए बट्टमाणस्स एकत्तवियक वोटीणस्स सुहुमकिरियं अणियहिं अप्पत्चस्स केवलवरणाणदंसणं समुप्पण्णं । तपसा | केवलमुत्पन्नमिति कृत्वा यद्भगवता तप आसेवितं तदभिधित्सुराह जो य तवो अणुचिण्णो वीरवरेणं महाणुभावेणं । छउमत्थकालियाए अहकमं कित्तहस्सामि ॥ ५२७ ॥ व्याख्या - यच्च तप आचरितं वीरवरेण महानुभावेन छद्मस्थकाले यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् तद्यथाक्रमं येन क्रमेणानुचरितं भगवता तथा कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः ॥ ५२७ ॥ तच्चेदम् ततः स्वामी कामं गतः तस्माद्वहिः वैयावृत्त्यस्य चैत्यस्यादूरसामन्ते, भिनपतितमप्रकटम्, ऋजुवालुकाया नद्यासीरे औत्तरत्वे कूले श्यामाक गृहपतेः क्षेत्रे (काष्ठकरणं नाम क्षेत्रम् ), शापादपस्याध उत्कटुकथा निषद्यया गोदोद्दिकपाऽऽतापनयाऽऽवापयतः पहेन मक्केनापानकेन वैशाख शुदशम्य दस्तो सराभिर्नक्षत्रेण योगमुपागते प्राचीनगामिन्यां छायायामभिनिर्वृत्तायां पौण्यां प्रमाणप्राप्तायां ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य कस्यमितर्क यतिकान्तस्य सूक्ष्मक्रियमनिवृत्ति अप्रासस्य केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्। For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] भगवन्त महावीरं केवलज्ञान प्राप्तिः एवं तपसः वर्णनं ~ 457 ~ | हारिभद्गीयवृत्तिः विभागः १ ॥२२७॥ www.ncbrary.org " आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२८], भाष्यं [११४...] (४०) प्रत सूत्राक नव किर चाउम्मासे छफिर दोमासिए उवासीय । पारस य मासियाई बावसरि अरमासाई ॥५२८॥ व्याख्या-जव किल चातुर्मासिकानि तथा पट् किल द्विमासिकानि उपोषितवान्, किलशब्दः परोक्षासागमवादस-1 सूचका, द्वादश च मासिकानि द्विसप्तत्यर्द्धमासिकान्युपोषितवानिति क्रियायोग इति गाथार्थः॥ ५२८॥ एग किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासीय । अहाइलाइ दुवे दो चेव दिवहमासाई॥५२९॥ व्याख्या-एक किल पण्मासं द्वे किल त्रैमासिके उपोषितवान् , तथा "अहाइज्जाइ दुवे' त्ति अर्द्धतृतीयमासनिष्पन्नं |तपः-क्षपणं वाऽर्धतृतीय, तेऽर्धतृतीये द्वे, चशब्दः क्रियानुकर्षणार्थः, द्वे एव च 'दिवड्डमासाई ति सार्धमासे तपसी क्षपणे वा,क्रियायोगोऽनुवर्चत एवेति गाथार्थः ॥ ५२९ ॥ भई च महाभई पडिमं तत्तो य सब्बओभई । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासीय अणुपद्धं ॥ ५३०॥ व्याख्या-भद्रां च महाभद्रां प्रतिमा ततश्च सर्वतोभद्रा स्थितवान, अनुबद्धमिति योगः, आसामेवानुपूर्ध्या दिवस|प्रमाणमाह-द्वौ चतुरः दशैव च दिवसान स्थितवान्, अनुबद्धं-सन्ततमेवेति गाथार्थः ॥ ५३॥ गोयरमभिग्गह जुर्य खमणं छम्मासियं च कासीय । पंचदिवसेहि ऊणं अब्बहिओ बच्छनयरीए ॥५३१॥ व्याख्या-गोचरेऽभिग्रहो गोचराभिग्रहस्तेन युतं क्षपणं षण्मासिकं च कृतवान् पश्चभिर्दिवसैन्यूनम् , 'अव्यथितः अपीडितो 'वत्सानगी' कौशाम्ब्यामिति गाथार्थः ॥ ५३१॥ दस दो य किर महप्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्ठमभत्तेण जई एकेकं चरमराईयं ॥५३२॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५३२], भाष्यं [११४...] (४०) आवश्यक हारिमन्त्री यवृत्तिा ॥२२८॥ विभागा प्रत सुत्रांक व्याख्या-दश द्वे च सङ्ख्यया द्वादशेत्यर्थः, किल महात्मा 'टासि मुणि' त्ति स्थितवान् मुनिः, एकरात्रिकी प्रतिमा |पाठान्तरं वा 'एकराइए पडिमेत्ति एकरात्रिकीः प्रतिमाः, कथमित्याह 'अष्टमभक्तन' त्रिरात्रोपवासेनेति हृदयम्, 'यतिः' प्रयत्नवान , एकैको 'चरमरात्रिकी चरमरजनीनिष्पन्नामिति गाथार्थः ॥ ५३२ ॥ दो चेव य छडसए अजणातीसे उवासिया भगवं । न कयाइ निच्चभत्तं चउत्थभत्तं च से आसि ॥५३३॥ व्याख्या-द्वे एव च पष्ठशते एकोनत्रिंशदधिके उपोषितो भगवान्, एवं न कदाचिन्नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं वा 'से| तस्याऽऽसीदिति गाथार्थः ।। ५३३ ॥ पारस बासे अहिए छटुं भत्तं जहण्णयं आसि । सव्वं च तचोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स ॥ ५३४ ॥ व्याख्या-द्वादश वर्षाण्यधिकानि भगवतश्छद्मस्थस्य सतः 'षष्ठं भक्त' द्विरात्रोपवासलक्षणं जघन्यकमासीत् , तथा सर्वं च तपःकर्म अपानकमासीद्वीरस्य, एतदुक्तं भवति-क्षीरादिद्रवाहारभोजनकाललभ्यव्यतिरेकेण पानकपरिभोगो नाऽऽसेवित इति गाथार्थः ॥ ५३४ ॥ पारणककालमानप्रतिपादनायाहतिषिण सए दिवसाणं अउणावपणं तु पारणाकालो। उकुडयनिसेजाणं ठियपडिमाणं सए बहुए ॥५३५॥ व्याख्या-त्रीणि शतानि दिवसानामेकोनपञ्चाशदधिकानि तु पारणकालो भगवत इति, तथा 'उरकुटुकनिष-| द्यानां स्थितप्रतिमानां शतानि बहूनीति गाथार्थः ॥ ५३५ ।। पब्बवाए पढम दिवसं एत्थं तु पक्खिवित्ता णं । संकलियंमि उ संते जं लडतं निसामेह ॥ ५३६ ॥ दीप अनुक्रम | ॥२२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ५३६ ], भाष्यं [ ११४ ...] व्याख्या - प्रव्रज्यायाः सम्बन्धिभूतं दिवसं प्रथमम् 'एत्थं तु' अत्रैवोकलक्षणे दिवसगणे प्रक्षिप्य संकलिते तु सति यलब्धं तत् 'निशामयत' शृणुतेति गाथार्थः ॥ ५३६ ॥ बारस चैव य वासा मासा छचेव अद्धमासो य। वीरवरस्स भगवओ एसो छमस्थपरियाओ ॥ ५३७ ॥ व्याख्या - द्वादश चैव वर्षाणि मासाः षडेवार्धमासश्च वीरवरस्य भगवतः एष छद्मस्थपर्याय इति गाथार्थः ॥ ५३७ ॥ एवं तवोगुणरओ अणुपुवेणं सुणी विहरमाणो । घोरं परीसहचमुं अहियासित्ता महावीरो ॥ ५३८ ॥ व्याख्या- 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण तपोगुणेषु रतः तपोगुणरतः 'अनुपूर्वेण' क्रमेण मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः विहरन् 'घोरां' रौद्रां 'परीषहचमूं' परीपहसेनामधिसह्य महावीर इति गाथार्थः ॥ ५३८ ॥ उप्पर्णम अनंते नमि य छाउमत्थिए नाणे । राईए संपतो महसेणवर्णमि उज्जाणे ॥ ५३९ ॥ व्याख्या – 'उत्पन्ने' प्रादुर्भूते कस्मिन् ? - 'अनन्ते' ज्ञेयानन्तत्वात् अशेषज्ञेयविषयत्वाच्च केवलमनन्तं नष्टे च छाद्मस्थि के ज्ञाने, रात्र्यां संप्राप्तो महसेनवनमुद्यानं, किमिति ? - भगवतो ज्ञानरलोत्पत्तिसमनन्तरमेव देवाः चतुर्विधा अध्यागता आसन्, तत्र च प्रव्रज्याप्रतिपत्ता न कश्चिद्विद्यत इति भगवान् विज्ञाय विशिष्टधर्मकथनाय न प्रवृत्तवान् ततो द्वादशसु योजनेषु मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलायें नाम ब्राह्मणः, स यज्ञं यष्टुमुद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागता इति, ते च चरमशरीराः, ततश्च तान् विज्ञाय ज्ञानोत्पत्तिस्थाने मुहूर्त्तमात्रं देवपूजां जीतमितिकृत्वा अनुभूय Education intemational For Paraine Pte Onl Mor मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः केवलज्ञानोत्पत्तिः एवं तदनन्तरम् समवसरण रचनायाः कथनं ~460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] ++++ Jus Educati “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ५३९ ], भाष्यं [ ११४ ...] आवश्यक- ४ देशनामात्रं कृत्वा असंख्येयाभिर्देवकोटीभिः परिवृतो देवोद्योतेनाशेषं पन्थानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेषु पद्मेषु चरण-हारिभद्रीन्यासं कुर्वन् मध्यमानगर्या महसेनवनोद्यानं संप्राप्त इति गाथार्थः ॥ ५३९ ॥ ॥२२९॥ अमरनररायमहिओ पत्तो धम्मवरचक्कवहितं । बीपि समोसरणं पावाए मझिमाए उ ।। ५४० ॥ व्याख्या - स एव भगवान् अमराश्च नराश्च अमरनराः तेषां राजानः तैर्महितः -पूजितः प्राप्तः किमित्याह-धर्मश्वासौ वरश्च धर्मवरः तस्य चक्रवर्त्तित्वं, तत्प्रभुत्वमित्यर्थः । पुनर्द्वितीयं समवसरणम् अपिशब्दः पुनः शब्दार्थे द्रष्टव्यः, पापायां मध्यमायां प्राप्त इत्यनुवर्त्तते, ज्ञानोत्पत्तिस्थानकृतपूजापेक्षया चास्य द्वितीयता इति गाथार्थः ॥ ५४० ॥ तत्थ किल सोमिलजोत्ति माणो तस्स दिक्वकालंमि । पउरा जणजाणवया समागया जन्नवाडंमि ॥ ५४१ ॥ व्याख्या--' तत्र' पापायां मध्यमायां, किलशब्दः पूर्ववत्, सोमिलार्य इति ब्राह्मणः, तस्य 'दीक्षाकाले' यागकाल इत्यर्थः, 'पौराः' विशिष्टनगरवासिलोक समुदाय: 'जनाः' सामान्यलोकाः जनपदेषु भवा जानपदाः, विषयलोका इत्यर्थः, | समागता यज्ञपाट इति गाथार्थः ॥ ५४१ ॥ अत्रान्तरे एते य विवित्ते उत्तरपासंभि जन्नवाडस्स । तो देवदाणविंदा करेंति महिमं जिनिंदस्स ।। ५४२ ।। व्याख्या -- एकान्ते च विविके उत्तरपार्श्वे यज्ञपाटकस्य ततो देवदानवेन्द्राः कुर्वन्ति महिमां जिनेन्द्रस्य, पाठान्तरम् वा 'कासी महिमं जिनिंदस्स' कृतवन्त इति गाथार्थः ॥ ५४२ ॥ अमुमेवार्थे किञ्चिद्विशेषयुक्तं भाष्यकारः प्रतिपादयन्नाह For Parts Only यवृत्तिः विभागः १ ~ 461~ ॥२२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [५४२], भाष्यं [११५] (४०) प्रत सूत्राक भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी य । सविहिए सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ ११५॥ (भाष्यम्) व्याख्या-भवनपतिव्यन्तरज्योतिर्वासिनो विमानवासिनश्च सर्वद्ध्या हेतुभूतया सपरिषदः कृतवन्तः ज्ञानोत्पत्तिमहिमाम् इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं समवसरणवक्तव्यतां प्रपश्चतः प्रतिपादयतां द्वारगाथामाह समोसरणे केवईया रूंचे पुच्छ वागरण सोयपरिणामे । दाणं च देवमल्ले मल्लोणयणे उवरि तित्थं ॥ ५४३ ॥ दारगाहा ।। व्याख्या समोसरणे'ति समवसरणविषयो विधिर्वक्तव्यः, ये देवाः यत् प्राकारादि यद्विधं यथा कुर्वन्तीत्यर्थः। केवइयत्ति कियन्ति सामायिकानि भगवति कथयति मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते ?, कियतो वा भूभागादपूर्वे समवसरणेऽदृष्टपूर्वेण वा साधुना आगन्तव्यमिति। रूवत्ति'भगवतो रूपं व्यावर्णनीयं, 'पुच्छत्ति किमुत्कृष्टरूपतया भगवतः प्रयोजनमिति पृच्छा कार्योसरंच वक्तव्यं,कियन्तो वा युगपदेव हन्नतं संशयं पृच्छन्तीति, वागरण'ति व्याकरणं भगवतो वक्तव्यं, यथा युगपदेव सङ्ख्या-1 तीतानामपि पृच्छतां व्याकरोतीति, 'युच्छावागरण' ति एक वा द्वारं, पृच्छाया व्याकरणं पृच्छाव्याकरणमित्येतद्वक्तव्यं, 'सोयपरिणामे'त्ति श्रोतृषु परिणामः श्रोतृपरिणामः, स च वक्तव्यः,यथा-सर्वश्रोतृणां भागवती वाक् स्वभाषया परिणमत इति । 'दाणं च'त्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं च कियत् प्रयच्छन्ति चक्रवत्योदयः तीर्थकरप्रवृत्तिकथकेभ्य इति वक्तव्यं । देवमले'त्ति गन्धप्रक्षेपात् देवानां सम्बन्धि माल्यं देवमाल्य-वल्यादि कः करोति कियत्परिमाणं चेत्यादि । 'मल्लाणवणे'त्ति माल्यानयने दीप अनुक्रम 29 mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 462~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५४३], भाष्यं [११५...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यकयकीयो विधिरसी वक्तव्यः, 'उवरि तित्थति उपरीति पौरुष्यामतिक्रान्तायां तीर्थमिति-गणधरो देशनां करोतीति गाथासमुदा- हारिभदी यार्थः । अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यामः । इयं च गाथा केषुचित्पुस्तकेषु अन्यत्रापि दृश्यते, इह पुनर्युज्यते, द्वारनियमतो | यवृत्तिः ॥२३०॥ संमोहेन समवसरणवक्तव्यताप्रतीतिनिवन्धनत्वादिति ।। ५४३ ॥ आह-इदं समवसरणं किं यत्रैव भगवान् धर्ममाचष्टे विभाग: १ तत्रैव नियमतो भवत्युत नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमद्वारावयवार्थ विवृण्वन्नाहजस्थ अपुब्वोसरणं जत्थ व देवो महिहिओ एइ । वाउदयपुप्फबद्दलपागारतियं च अभिओगा ॥५४४॥ व्याख्या-यत्र क्षेत्रे अपूर्व समवसरणं भवति, अवृत्तपूर्वमित्यर्थः, तथा यत्र वा भूतसमवसरणे क्षेत्रे देवो महर्द्धिकः 'एति' आगच्छति, तत्र किमित्याह-वातं रेण्बाद्यपनोदाय उदकवल भाविरेणुसंतापोपशान्तये तथा पुष्पवलं क्षितिविभूषायै, वईलशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्येकमभिसंबध्यते,तथा प्राकारत्रितयं च सर्वमेतदभियोगमहन्तीत्याभियोग्या:-देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, अन्यत्र त्वनियम इति गाथार्थः॥५४४॥ एवं तावत् सामान्येन समवसरणकरणविधिरुक्ता, साम्प्रतं विशेषेण प्रतिपादयन्नाह मणिकणगरयणचित्तं भूमीभागं समंतओ सुरभि । आजोअणंतरेणं करेंति देवा विचित्तं तु ॥५४५॥ व्याख्या-मणयः-चन्द्रकान्तादयः कनक-देवकाञ्चनं रत्लानि-इन्द्रनीलादीनि, अथवा स्थलसमुद्भवा मणयः जल-11 समुभवानि रत्नानि, तैश्चित्रं, भूभागं 'समन्ततः सर्वासु दिक्षु 'सुरभिं' सुगन्धिगन्धयुक्तं, किम् ?-कुर्वन्ति देवा विचित्रं दीप %20-%2500 अनुक्रम 112oll JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५४५], भाष्यं [११५...] (४०) प्रत सूत्राक CAKACEBOOK तु, किंपरिमाणमित्याह-आयोजनान्तरतो योजनपरिमाणमित्यर्थः, पुनर्विचित्रग्रहणं वैचित्र्यनानात्वख्यापनार्थम् , अथवा कुर्वन्ति देवा विचित्रं तु, किंभूतम् !-मणिकनकरत्नविचित्रमिति गाथार्थः ॥ ५४५ ॥ वेंटहाई सुरभि जलथलयं दिव्वकुसुमणीहारिं । पइरंति समन्तेणं दसवण्णं कुसुमवासं ॥ ५४६ ॥ व्याख्या-वृन्तस्थायि सुरभि जलस्थलजं दिव्यकुसुमनिर्झरि प्रकिरन्ति समन्ततः दशार्द्धवर्णं कुसुमवर्ष, भावार्थः सुगमो, नवरं नि रि-प्रबलो गन्धप्रसर इति गाथार्थः॥ ५४६॥ | मणिकणगरपणचित्ते चाउद्दिसिं तोरणे विउव्वंति । सच्छत्तसालभंजियमय रहयचिंधसंठाणे ॥५४७॥ व्याख्या-मणिकनकरनचित्राणि 'चद्दिसित्ति चतसृष्वपि दिक्षु तोरणानि विकुर्वन्ति, किंविशिष्टान्यत आहछत्रं-प्रतीतं सालभजिका:-स्तम्भपुत्तलिकाः 'मकर'त्ति मकरमुखोपलक्षणं ध्वजाः प्रतीताः चिहानि-स्वस्तिकादीनि संस्थानंतद्रचनाविशेष एष, सच्छोभनानि छत्रसालभजिकामकरध्वजचिह्नसंस्थानानि येषु तानि तथोच्यन्ते, एतानि व्यन्तरदेवाः कुर्वन्तीति गाथार्थः॥ ५४७॥ |तिन्नि य पागारवरे रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा । मणिकंचणकविसीसगविभूसिए ते विउति ॥ ५४८ ॥ व्याख्या-त्रीश्च प्राकारवरान् रत्नविचित्रान् तत्र सुरगणेन्द्रामणिकाञ्चनकपिशीर्षकविभूषितांस्ते विकुर्वन्तीति, भावार्थः स्पष्टः, उत्तरगाथायां वा व्याख्यास्यति ।। ५४८ ॥ सा चेयम्अभंतर मज्झ पहिं विमाणजोइभवणाहिवकया उ । पागारा तिषिण भवे रयणे कणगे य रयए य ॥५४९ ॥ दीप अनुक्रम T ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५४९], भाष्यं [११५...] (४०) आवश्यक -% ॥२३॥ प्रत k सुत्रांक व्याख्या-अभ्यन्तरे मध्ये च बहिविमानज्योतिर्भवनाधिपकृतास्तु आनुपूर्व्या प्राकारास्त्रयो भवन्ति, 'रयणे कणगे | हारिभद्रीय रयए यत्ति रत्नेषु भवो रातः रत्नमय इत्यर्थः, तं विमानाधिपतयः कुर्वन्ति, कनके भवः कानका तं ज्योतिर्वासिनः यवृत्तिः विभागः१ |कुर्वन्ति, राजतो-रूप्यमयश्च तं भवनपतयः कुर्वन्ति इति गाथार्थः ॥ ५४९ ॥ मणिरयणहेमयाविय कविसीसा सव्वरयणिया दारा ।सब्बरयणामय चिय पडागधयतोरणविचित्ता ॥५५॥ __व्याख्या-मणिरत्नहेममयान्यपि च कपिशीर्षकाणि, तत्र पञ्चवर्णमणिमयानि प्रथमप्राकारे वैमानिकाः, नानारतमयानि द्वितीये ज्योतिष्काः, हेममयानि तृतीये भवनपतय इति, तथा सर्वरलमयानि द्वाराणि त एव कुर्वन्ति, तथा सर्वरत्नमयान्येव मूलदलतः पताकाध्वजप्रधानानि तोरणानि विचित्राणि कनकचन्द्रस्वस्तिकादिभिः, अत एव प्रागुक्तं मणिकनकरत्नविचित्रत्वमेतेषामविरुद्धमिति गाथार्थः ।। ५५० ॥ तत्तो य समंतेणं कालागरुकुंदुरुक्कमीसेणं । गंधेण मणहरेणं धूवघडीओ विउन्ति ॥५१॥ व्याख्या-ततश्च समन्ततः कृष्णागरुकुन्दुरुक्कमिश्रेण गन्धेन मनोहारिणा युक्ताः, किम् ?-धूपघटिका विकुर्वन्ति । त्रिदशा एवेति गाथार्थः॥ ५५१॥ | उक्कुडिसीहणायं कलयलसद्देण सव्वओ सव्वं । तित्थगरपायमूले करेंति देवा णिवयमाणा ॥ ५५२ ॥ व्याख्या-तत्रोत्कृष्टिसिंहनादं तीर्थकरपादमूले कुर्वन्ति देवा निपतमानाः, उत्कृष्टिः-हर्षविशेषप्रेरितो ध्वनिविशेषः, किविशिष्टम् !-कलकलशब्देन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु युक्तं 'सर्वम्' अशेषमिति गाथार्थः॥ ५५२ ॥ दीप अनुक्रम ॥२३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 465~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५५३], भाष्यं [११५...] (४०) -SA प्रत सूत्राक चेइदुमपेढछंदय आसणछत्तं च चामराओ य । जं चऽपणं करणिज्जं करेंति तं वाणमंतरिया ॥५५३ ॥ व्याख्या-चैत्यगुमम्-अशोकवृक्षं भगवतः प्रमाणात द्वादशगुणं तथा पीठं तदधो रत्नमयं तस्योपरि देवच्छन्दक तन्मध्ये सिंहासनं तदुपरि छत्रातिच्छत्रं च, चः समुच्चये, चामरे च यक्षहस्तगते, चशब्दात् पद्मसंस्थितं धर्मचक्र च,12 यच्चान्यद्वातोदकादि 'करणीय' कर्तव्यं कुर्वन्ति तद् व्यन्तरां देवा इति गाथार्थः ॥ ५५३ ॥ आह-किं यद्यत्समवसरणं| भवति तत्र तत्रायमित्थं नियोग उत नेति, अत्रोच्यते साहारणओसरणे एवं जस्थिहिमं तु ओसरइ । एक्कु चिय तं सव्वं करेइ भयणा उ इयरेसिं ॥५४॥ व्याख्या साधारणसमवसरणे एवं साधारण-सामान्यं यत्र देवेन्द्रा आगच्छन्ति तत्रैवं नियोगः, 'जस्थितिमं तु ओसर-18 इति यत्र तु ऋद्धिमान् समवसरति कश्चिदिन्द्रसामानिकादिः तत्रैक एव तत्प्राकारादि सर्व करोति, अत एव च मूलटीकाकृताऽभ्यधायि-"असोगपायवं जिणउच्चत्ताओ वारसगुणं सक्को विउबई" इत्यादि, 'भयणा उ इतरेसिं' ति यदीन्द्रा नागच्छन्ति ततो भवनवास्यादयः कुर्वन्ति वा न वा समवसरणमित्येवं भजनेतरेषामिति गाथार्थः ॥ ५५४ ॥ सूरोदय पच्छिमाए ओगाहन्ती पुचओऽईइ । दोहि पउमेहिं पाया मग्गेण य होइ सत्तऽन्ने ॥ ५५५ ।। व्याख्या-एवं देवैर्निष्पादिते समवसरणे सूर्योदये-प्रथमायां पौरुष्याम् , अन्यदा पश्चिमायां 'ओगाहतीए'त्ति अवगाहन्त्याम्-आगच्छन्त्यामित्यर्थः, 'पुबओऽतीतीति पूर्वद्वारेण 'अतीतित्ति आगच्छति प्रविशतीत्यर्थः । कथमित्याह-द्वयोः दीप अनुक्रम T JAMERatinintamational Shirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५५५], भाष्यं [११५...] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक'पद्मयोः सहस्रपत्रयोः देवपरिकल्पितयोः पादौ स्थापयन्निति वाक्यशेषः, 'मग्गेण य हाँति सत्तऽपणे त्ति मार्गतश्च पृष्ठतश्च छत्तश्च पहारिभद्रीभवन्ति सप्तान्ये च भगवतः पद्मा इति,तेपांच यद्यत् पश्चिमं तत्तत्पादन्यासं कुर्वतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति गाथार्थः ॥५५५॥ यवृत्तिः ॥२३२| आयाहिण पुब्वमुहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया। जेट्ठगणी अपणो वा दाहिणपुब्वे अदूरंमि ॥ ५५६ ॥ विभागः१ WI व्याख्या-स एवं भगवान् पूर्वद्वारेण प्रविश्य 'आदाहिण'त्ति चैत्यद्वमप्रदक्षिणां कृत्वा 'पुबमुहो'त्ति पूर्वाभिमुख है। उपविशतीति, 'तिदिसि पडिरूवगा उ देवकय'त्ति शेषासु तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि तु तीर्थकराकृतीनि सिंहासनादि युक्तानि देवकृतानि भवन्ति, शेषदेवादीनामप्यस्माकं कथयतीति प्रतिपत्त्यर्थमिति, भगवतश्च पादमूलमेकेन गणधरेणाहै विरहितमेव भवति, स च ज्येष्ठो वाऽन्यो वेति,पायो ज्येष्ठ इति,स ज्येष्ठगणिरन्यो वा दक्षिणपूर्वदिग्भागे अदूरे-प्रत्यासन्न एव भगवतो भगवन्तं प्रणिपत्य निषीदतीति क्रियाऽध्याहारः, शेषगणधरा अध्येवमेव भगवन्तमभिवन्ध तीर्थकरस्य मार्गतः पार्वतश्च निषीदन्तीति गाथार्थः ॥५५६॥ भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपसुन्दरतरत्वात् त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं तत्साम्यमसाम्य वेत्याशङ्कानिरासार्थमाहजे ते देवेहि कया तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स । तेसिपि तप्पभाषा तयाणुरूवं हवह रूवं ॥ ५५७ ॥ व्याख्या-यानि तानि देवैः कृतानि तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि जिनवरस्य, तेषामपि 'तत्मभावात् तीर्थकरमभावात् ॥२३॥ दातदनुरूप तीर्थकररूपानुरूपं भवति रूपमिति गाथार्थः ॥ ५५७॥ तित्थाइसेससंजय देवी चेमाणियाण समणीओ । भवणवइवाणमंतर जोइसियाणं च देवीओ ॥५५८ ॥ दीप अनुक्रम wwwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 467~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५५८], भाष्यं [११५...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-'तीर्थ' गणधरस्तस्मिन् स्थिते सति 'अतिसेससंजय'त्ति अतिशयिनः संयताः, तथा देव्यो वैमानिकानां तथा श्रमण्यः तथा भवनपतिव्यन्तरण्योतिष्कानां च देव्य इति समुदायार्थः ।। ५५८ ॥ अवयवार्थप्रतिपादनाय आहकेवलिणो तिउण जिणं तिस्थपणामं च मग्गओ तस्स । मणमादीवि णमंता वयंति सहाणसट्ठाणं ॥ ५५९॥ | व्याख्या-केवलिनः 'त्रिगुणं' त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य 'जिनं तीर्थकर तीर्थप्रणामं च कृत्वा मार्गतः तस्य' तीर्थस्य गणधरस्य । | निषीदन्तीति क्रियाध्याहारः, 'मणमाईवि नमंता वयंति सट्ठाणसठ्ठाण'ति मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि भगवन्तमभिवन्ध | तीर्थ केवलिनश्च पुनः केवलिपृष्ठतो निषीदन्तीति । आदिशब्दान्निरतिशयसंयता अपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य मनःपर्यायज्ञानिनां पृष्ठतो निषीदन्ति, तथा वैमानिकदेव्योऽपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य साधुपृष्ठतः तिष्ठन्ति न निषीदन्ति, तथा श्रम|ण्योऽपि तीर्थकरसाधूनभिवन्द्य वैमानिकदेवीपृष्ठतः तिष्ठन्ति न निपीदन्ति, तथा भवनपतिज्योतिष्कम्यन्तरदेच्योऽपि तीर्थकरादीनभिवन्द्य दक्षिणपश्चिमदिग्भागे प्रथम भवनपतिदेव्यः ततो ज्योतिष्कव्यन्तरदेव्यः तिष्ठन्तीति, एवं मनःपर्यायज्ञान्यादयोऽपि नमन्तो प्रजन्ति स्वस्थानं स्वस्थानमिति गाथार्थः ।। ५५९ ॥ भवणवई जोइसिया बोद्धव्या वाणमंतरसुरा य । वेमाणिया य मणुया पयाहिणं जंच निस्साए ॥५६॥ | व्याख्या-भवनपतयः ज्योतिष्का बोद्धच्या व्यंतरसुराश्च, एते हि भगवन्तमभिवन्ध साधूंश्च यथोपन्यासमेवोत्तर-1 पश्चिमे पायें तिष्ठन्तीत्येवं बोद्धव्याः, तथा वैमानिका मनुष्याश्च, चशब्दात् खियश्चास्य, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। किम् ?-'पयाहिणं' प्रदक्षिणां कृत्वा तीर्थकरादीनभिवन्द्य तेऽप्युत्तरपूर्वं दिग्भागे यथासंख्यमेव तिष्ठन्तीति ॥५६०॥ अत्र च दीप अनुक्रम DIDraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६०], भाष्यं [११५...] (४०) SANG ॥२३॥ प्रत सुत्राक मूलटीकाकारेण भवनपतिदेवीप्रभृतीनां स्थान निषीदनं वा स्पष्टाक्षरै!क्तम्, अवस्थानमात्रमेव प्रतिपादितं, पूर्वा- हारिभद्रीचार्योपदेशलिखितपट्टकादिचित्रकर्मबलेन तु सर्वा एव देव्यो न निषीदन्ति, देवाः पुरुषाः स्त्रियश्च निषीदन्तीति प्रति-1 यवृत्तिः विभागः१ पादयन्ति केचन इत्यलं प्रसङ्गेन । 'जं च निस्साए'त्ति, यः परिवारो यं च निश्रां कृत्वा आयातः स तत्पार्षे एव तिष्ठ-18 तीति गाथार्थः ॥ ५६० ॥ साम्प्रतमभिहितमेवार्थ संयतादिपूर्वद्वारादिप्रवेशविशिष्टं प्रतिपादयन्नाह भाष्यकार:संजयवेमाणित्थी संजय (इ) पुब्वेण पविसि वीरं। काउं पयाहिणं पुच्चदक्खिणे ठंति दिसिभागे॥११६॥ (भा०) गमनिका-संयता वैमानिकस्त्रियः संयत्या पूर्वेण प्रवेष्टुं वीरं कृत्वा प्रदक्षिणं पूर्वदक्षिणे तिष्टन्ति दिग्भागे इति गाथार्थः॥ जोइसियभवणवंतरदेवीओ दक्षिणेण पविसंति । चिट्ठति दक्षिणावरदिसिंमि तिगुणं जिणं का ॥११७॥ (भाष्यम्) गमनिका-ज्योतिष्कभवनव्यन्तरदेव्यो दक्षिणेन प्रविश्य तिष्ठन्ति दक्षिणापरदिशि त्रिगुणं जिनं कृत्वा इति गाथार्थः॥ अवरेण भवणवासी वंतरजोइससुराय अइगंतुं। अवरुत्तरदिसिभागे ठंति जिणं तो नमंसित्ता॥११८॥(भा०) गमनिका-अपरेण भवनवासिनो व्यन्तरज्योतिष्कसुराश्चातिगन्तुम् अपरोत्तरदिग्भागे तिष्ठन्ति जिनं नमस्कृत्य ॥२३३॥ इति गाथार्थः॥ समहिंदा कप्पसुरा रायाणरणारिओ उदीणेणं पविसित्ता पुब्वुत्तरदिसी चिट्ठति पंजलिआ॥११९॥ (भा०) दीप अनुक्रम T wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१६०...], भाष्यं [११९] (४०) प्रत ASSAXAS** सूत्राक गमनिका-समहेन्द्राः कल्पसुरा राजानो नरा नार्यः 'औदीच्येन' उत्तरेण इत्यर्थः, प्रविश्य पूर्वोत्तरदिशि तिष्ठन्ति प्राञ्जलय इति गाथार्थः ॥ भावार्थः सर्वासां सुगम एव ।। अभिहितार्थोपसङ्घहाय इदमाह| एफेकीय दिसाए तिगं तिगं होइ सन्निविडं तु । आदिचरिमे विमिस्सा धीपुरिसा सेस पसेयं ॥५१॥ व्याख्या-पूर्वदक्षिणाअपरदक्षिणाअपरोत्तरापूर्वोत्तराणामे कैकस्यां दिशि उक्तलक्षणम् संयतवैमानिकाङ्गनासंयत्यादि त्रिक त्रिकं भवति सन्निविष्टं तु, आदिचरमे पूर्वदक्षिणापूर्वोत्तरदिगद्वये विमिश्राः संयतादयः स्त्रीपुरुषाः शेषदिगूद्वये 7 प्रत्येक भवन्तीति गाथार्थः ॥ ५६७ ॥ तेषां चेत्थं स्थितानां देवनराणां स्थितिप्रतिपादनाय आहएतं महिड्डियं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता।णवि जंतणा ण विकहा ण परोप्परमच्छरोण भयं ॥५६२॥ व्याख्या-येऽल्पर्धयः पूर्व स्थिताः ते आगच्छन्तं महर्दिक प्रणिपतन्ति, स्थितमपि महद्धि पश्चादागताः प्रणमन्तो। बजन्ति, तथा नापि यन्त्रणा-पीडा न विकथा न परस्परमत्सरो न भयं तेषां विरोधिसत्त्वानामपि भवति, भगवतोऽनुभावात् , इति गाथार्थः ॥ ५६२।। एते च मनुष्यादयः प्रथमप्राकारान्तर एव भवन्ति ये उक्ताः, यत आहबिइयंमि हॉति तिरिया तइए पागारमन्तरे जाणा।पागारजढे तिरियाऽवि होति पत्तेय मिस्सा वा ॥५६३॥ | व्याख्या-द्वितीये प्राकारान्तरे भवन्ति तिर्यश्चः, तथा तृतीये प्राकारान्तरे यानानि, 'प्राकारजढे' प्राकाररहिते || बहिरित्यर्थः, तिर्यश्चोऽपि भवन्ति, अपिशब्दात् मनुष्या देवा अपि, ते च प्रत्येक मिश्रा वेति, ते पुनः प्रविशन्तो भवन्ति निर्गच्छन्तश्चैके इति गाथार्थः ॥ ५६३ ॥ द्वारम् १ । द्वितीयद्वारावयवार्थमभिधित्सुः संबन्धगाथामाह दीप अनुक्रम Siwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६४], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक सव्वं च देसविरति सम्मं घेच्छति व होति कहणा उइहरा अमूढलक्खो न कहेइ भविस्सइ ण तंच ॥५६४॥ हारिभद्री Kा व्याख्या-'सधं च देसविरतिति सर्वविरतिं च देशविरतिं च,विरतिशब्द उभयथापि सम्बध्यते, सम्यक्त्वं ग्रहीष्यतिीयवृत्तिः ॥२३४|| दवा भवति कथना तु प्रवर्तते कथनमित्यर्थः, 'इहर' त्ति अन्यथा न मूढलक्षोऽमूढलक्षः सर्वज्ञेयाविपरीतवेत्ता इत्यर्थः,दा विभागार | किम् ,न कथयति । आह-समवसरणकरणप्रयासो विबुधानामनर्थकः,कृतेऽपि नियमतोऽकथनात् इत्याह-भविष्यति न तच्च, यद् भगवति कथयत्यन्यतमोऽप्यन्यतमत्सामायिकं न प्रतिपद्यते इति, भविष्यत्काल स्त्रिकालोपलक्षणार्थ इति । गाथार्थः ॥ ५६४ ॥ 'केवइय'त्ति कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते इत्याहमणुए चउमण्णयरं तिरिए तिण्णि व दुवे च पडिबजे । जइ नत्थि नियमसो चिप सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती ॥५६॥ अथवा-कथं भविष्यति न तच्चेत्याह-यतः-'मणुए गाहा । व्याख्या-मनुष्ये प्रतिपत्तरि चतुर्णामन्यतमप्रतिपत्तिरिति, पाठान्तरं वा 'मणुओ चउ अण्णतरंति मनुष्यश्चतुर्णामन्यतमत्मतिपद्यते, तिर्यञ्चः त्रीणि वा-सर्वविरतिवर्जानि, द्वे चा-सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यन्ते इति । यदि नास्ति मनुष्यतिरश्च कश्चित्प्रतिपत्ता ततो नियमत एव सुरेषु सम्यक्त्वप्रतिपत्तिर्भवतीति गाथार्थः॥ ५६५॥ स चेत्थं धर्ममाचष्टेतित्थपणाम काउं कहेइ साहारणेण सद्देणं । सब्वेसिं सपणीणं जोयणणीहारिणा भगवं ॥ ५६६ ॥ ॥२३४॥ | व्याख्या-नमस्तीर्थायेत्यभिधाय प्रणामं च कृत्वा कथयति, साधारणेन प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य शब्देन, केषां साधारणेPIनेत्याह-'सर्वेषाम्' अमरनरतिरश्चां सम्झिनां, किंविशिष्टेन ?-'योजननिर्झरिणा' योजनव्यापिना भगवानिति, एतदुक्तं | AGRA दीप अनुक्रम Jantainm munitam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६६], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत - सूत्राक 4 भवति-भागवतो ध्वनिः अशेषसमवसरणस्थसजिजिज्ञासितार्थप्रतिपत्तिनिवन्धनं भवति, भगवतः सातिशयत्वादिति गाथार्थः ॥ ५५६॥ आह-कृतकृत्यो भगवान् किमिति तीर्थप्रणाम करोतीति !, उच्यतेतप्पुब्बिया अरहया पूइयपूता य विणयकम्मं च । कयकिच्चोऽपि जह कहं कहए णमए तहा तित्थं ॥५६७ ॥ व्याख्या-तीर्ध-श्रुतज्ञानं तत्पूर्विका 'अर्हत्ता' तीर्थकरता, तदभ्यासप्राप्तेः, पूजितेन पूजा पूजितपूजा सा च कृताऽस्य भवति, लोकस्य पूजितपूजकत्वाद् , भगवताऽप्येतत्पूजितमिति प्रवृत्तेः, तथा 'विनयकर्म च वक्ष्यमाणवैनयिकधर्ममूलं कृतं भवति, अथवा-कृतकृत्योऽपि यथा कथां कथयति नमति तथा तीर्थमिति । आह-इदमपि धर्मकथनं कृतकृत्यस्यायुक्तमेव, न, तीर्थकरनामगोत्रकर्मविपाकत्वात् , उक्तं च-'तं च कथं वेदिज्जती'त्यादि गाथार्थः ॥ ५६७ ॥ आह-क केन साधुना कियतो वा भूभागात् समवसरणे खल्वागन्तव्यम् , अनागच्छतो वा किं प्रायश्चित्तमिति , उच्यतेजत्थ अपुष्वोसरणं न दिडपुज्यं व जेण समणेणं । बारसहिं जोयणेहिं सो एइ अणागमे लहुया ॥५१८॥ व्याख्या-यत्रापूर्व समवसरणं, तत्तीर्थकरापेक्षया अभूतपूर्वमित्यर्थः,न दृष्टपूर्व वा येन श्रमणेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः स आगच्छति, 'अनागच्छति' अवज्ञया ततोऽनागमे सति'लहुग' त्ति चतुलेघवःप्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः॥५५॥द्वारम्।। अन्ये त्वेकगाथयैवानया प्रकृतद्वारव्याख्यां कुर्वते, साऽप्यविरुद्धा व्युत्पन्ना चेति ॥रूपपृच्छाद्वारावयवार्धं विवृण्वन् आह-18 सब्वसुरा जइ रूवं अंगुहपमाणयं विउब्वेजा। जिणपार्यगुह पहण सोहए तं जहिंगालो॥५६९॥ *तब कयं वेद्यते?. - 0 दीप 4 अनुक्रम wwjanataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५६९], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा१ ॥२३५।। प्रत सुत्रांक व्याख्या-कीय भगवतो रूपमित्यत आह-सर्वसुरा यदि रूपमशेषसुन्दररूपनिर्मापणशक्त्या अङ्गुष्ठप्रमाणक विकु- वीरन् तथापि जिनपादानुष्ठ प्रति न शोभते तदू यथाऽझार इति गाथार्थः ॥ ५६९ ॥ साम्प्रतं प्रसङ्गतो गणधरादीनां रूपसम्पदभिधित्सयाऽऽहगणहर आहार अणुत्तरा (य)जाव वण चक्कि वासु बला।मण्डलिया ताहीणा छहाणगया भवे सेसा ॥५७० व्याख्या-तीर्थकररूपसम्पत्सकाशादनन्तगुणहीना गणधरा रूपतो भवन्ति, गणधररूपेभ्यः सकाशादनन्तगुणहीना खल्वाहारकदेहाः, आहारकदेहरूपेभ्योऽनन्तगुणहीनाः 'अनुत्तराश्चे' ति अनुत्तरवैमानिका भवन्ति, एवमनन्तरानन्तरदेहरूपेभ्योऽनन्तगुणहानिर्द्रष्टच्या, अवेयकाच्युतारणप्राणतानतसहस्रारमहाशुक्रलान्तकबहालोकमाहेन्द्रसनत्कुमारेशानसीधर्मभवनवासिज्योतिष्कव्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमहामाण्डलिकानामित्यत एवाह-'जाव वण चकि वासु बला । मंडलिया ता हीणत्ति' यावत् व्यन्तरचक्रवत्तिवासुदेववलदेवमाण्डलिकास्तावत् अनन्तगुणहीनाः, 'छट्वाणगया भवे सेस'त्ति शेषा राजानो जनपदलोकाश्च पदस्थानगता भवन्ति,अनन्तभागहीना वा असोयभागहीना वा समवेयभागहीना वा सोयगुणहीना वा असक्वेयगुणहीना वा अनन्तगुणहीना वा इति गाथार्थः ॥५७०॥ उत्कृष्टरूपतायां भगवतः प्रतिपाद|यितुं प्रक्रन्तायामिदं प्रासङ्गिकं रूपसौन्दर्यनिवन्धनं संहननादि प्रतिपादयन्नाह संघयण रूव संठाण वण्ण गइ सत्त सार उस्सासा । एमाइणुत्तराई हवंति नामोदए तस्स ॥ ५७१॥ व्याख्या-'संहनन' वनऋषभनाराचं 'रूपम्' उक्तलक्षणं 'संस्थान' समचतुरनं 'वर्णो देहच्छाया 'गतिः' गमनं दीप अनुक्रम ॥२३५॥ T wlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: गणधराणाम् रूप-संपतादिनां वर्णनं ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१७१], (४०) भाष्यं [११९...] 4444 प्रत सूत्राक 'सत्व' वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य आत्मपरिणामः, सारो द्विधा-बाह्योऽभ्यन्तरक्ष, बायो गुरुत्वम् , आभ्यन्तरो ज्ञानादिः,'उच्छासः'प्रतीत एव,संहननं च रूपंच संस्थानं च वर्णश्च गतिश्च सत्त्वं च सारश्च उच्छासश्चेति समासः। एवमादीनि वस्तून्यनुत्तराणि भवन्ति तस्य भगवतः, आदिशब्दात् रुधिरं गोक्षीराभं मांसं चेत्यादि, कुत इत्याह-'नामोदयादिति नामाभिधानं कर्मानेकभेदभिन्नं तदुदयादिति गाथार्थः ॥५७१॥ आह-अन्यासां प्रकृतीनां वेदना गोत्रादयो नानो वा ये इन्द्रियाङ्गादयः प्रशस्ता उदया भवन्ति ते किमनुत्तरा भगवतः छद्मस्थकाले केवलिकाले वा उत नेति ?, अत्रोच्यतेपगडीण अण्णासुवि पसस्थ उदया अणुत्तरा होति । खय उवसमेऽपि य तहा खपम्मि अविगप्पमाहंसु॥५७२ | व्याख्या-पगडीणं अण्णासुवि' ति, पछ्यर्थे सप्तमी, प्रकृतीनामन्यासामपि प्रशस्ता उदया उच्चैर्गोत्रादयो भवन्ति, किमितरजनस्येव , नेत्याह-'अनुत्तरा' अनन्यसदृशा इत्यर्थः, अपिशब्दानानोऽपि येऽन्ये जात्यादय इति । 'खय उवसमेऽवि य तह ति,क्षयोपशमेऽपि सति ये दानलाभादयः कार्यविशेषा अपिशब्दादुपशमेऽपि ये केचन तेऽप्यनुत्तरा भवन्ति इति क्रियायोगः, तथा कर्मणः क्षये सति क्षायिकज्ञानादिगुणसमुदयम् 'अविगप्पमाहंसुत्ति अविकल्प-व्यावर्णनादिविकल्पातीतं सर्वोत्तममाख्यातवन्तः तीर्थकृद्गणधरा इति गाथार्थः ॥ ५७२ ॥ आह-असातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नाम्नो वा या अशुभास्ताः कथं तस्य दुःखदा न भवन्ति इति ?, अत्रोच्यतेअस्सायमाझ्याओ जावि य असुहा हवंति पगडीओ।णिबरसलवोव्व पए ण होति ता असुहया तस्स ॥५७३॥ व्याख्या-असाताद्याः या अपि च अशुभा भवन्ति प्रकृतयः, ता अपि निम्बरसलव इव 'पयसि' क्षीरे लवो-बिन्दुः, दीप अनुक्रम marwlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५७३], भाष्यं [११९...] (४०) ॥२३६॥ प्रत सुत्रांक -15% न भवन्ति ताः अशुभदाः असुखदा वा 'तस्य' तीर्थकरस्येति गाथार्थः ॥५७३। उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतद्वारमधिकृत्याहउत्कृष्टरूपतया भगवतः किं प्रयोजनमिति ?, अत्रोच्यते, यवृत्तिः धम्मोदएण रूवं करति रूवस्सिणोऽवि जइ धम्म । गिज्शवओ य सुरूवो पसंसिमो तेण रूवं तु ॥६७४॥ व्याख्या-दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्योदयः तेन रूपं भवतीति श्रोतारोऽपि प्रवर्तन्ते, तथा कुर्वन्ति 'रूपस्विनोऽपि' (वस्सिणोऽवि) रूपवन्तोऽपि यदि धर्म ततः शेषैः सुतरां कर्त्तव्य इति श्रोतृबुद्धिःप्रवर्तते, तथा 'माह्यवाक्यच' आदेयवाक्यश्च सुरूपो भवति, चन्दात् श्रोतृरूपाचभिमानापहारी च अतः, प्रशंसामो भगवतस्तेन रूपमिति गाथार्थः॥ ५७१ ॥ द्वारम् । अथवा पृच्छेति भगवान् देवनरतिरश्चां प्रभूतसंशयिनां कथं व्याकरणं कुर्वन् संशयव्यव|च्छित्तिं करोतीति !, उच्यते, युगपत् , किमित्याह| कालेण असंखणवि संखातीताण संसईणं तु ।मा संसयवोच्छित्ती न होज कमवागरणदोसा ॥५७५ ॥ व्याख्या-कालेनासयेयेनापि समातीतानां संशयिना-देवादीनां मा संशयव्यवच्छित्तिर्न भवेत्, कुतः।-क्रमव्या-18 करणदोषात्, अतो युगपत् व्यागृणातीति गाथार्थः ॥ ५७५ ॥ युगपळ्याकरणगुणं प्रतिपिपादयिषुराहसब्वत्थ अविसमत्तं रिहिविसेसो अकालहरणं च । सवण्णुपचओऽवि य अचिंतगुणभूतिओ जुगर्व ॥१७॥ R२३६॥ व्याख्या-'सर्वत्र' सर्वसत्वेषु 'अविषमत्वं' युगपत् कथनेन तुल्यत्वं भगवत इति, रागद्वेपरहितस्य तुल्यकालसंशयिनां 18 युगपत् जिज्ञासतां कालभेदकथने रागेतरगोचरचित्तवृत्तिप्रसङ्गात् , सामान्यकेवलिनां तत्प्रसङ्ग इति चेत् , न, तेषामित्थं दीप 45 अनुक्रम JISEX Surajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 475~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५७६], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक देशनाकरणानुपपत्तेः, तथा ऋद्धिविशेषश्चायं भगवतो-यद् युगपत् सर्वेषामेव संशयिनामशेषसंशयध्यवरिछसि करोतीति ।। अकालहरणं चेत्थं भगवतः, युगपत् संशयाऽपगमात्, क्रमकथने तु कस्यचित् संशयिनोऽनिवृत्तसंशयस्यैव मरणं स्थात्, न च भगवन्तमष्यवाप्य संशयनिवृत्त्यादिफलरहिता भवन्ति प्राणिन इति, तथा सर्वज्ञप्रत्ययोऽपि च तेषामित्वमेव भवति, न घसर्वज्ञो हगताशेषसंशयापनोदायालमिति, क्रमव्याकरणे तु कस्यचिदनपेतसंशयस्य तत्प्रतीत्यभावः स्यात्, तथाऽचिन्त्या गुणभूतिः-अचिन्त्या गुणसंपद् भगवत इति, यस्मादेते गुणास्ततो युगपत्कथयति इति गाथार्थः ॥ ५७६ ॥ द्वारम् ॥ श्रोतृपरिणामः पर्यालोच्यते-तत्र यथा सर्वसंशयिनां समा सा पारमेश्वरी वागशेषसंशयोन्मूलनेन स्वभाषया. परिणमते तथा प्रतिपादयन्नाहवासोदयस्स व जहा वण्णादी होति भायणविसेसा । सब्वेसिपि सभासा जिणभासा परिणमे एवं ॥५७७॥ व्याख्या-'वर्षोदकस्य वा' पृष्ट धुदकस्य वा, वाशब्दात् अन्यस्य वा, यथैकरूपस्य सतः वर्णादयो भवन्ति, भाजनविशेपात्, कृष्णसुरभिमृत्तिकायां स्वच्छ सुगन्धं रसवच्च भवति उपरे तु विपरीतम् , एवं सर्वेषामपि श्रोतॄणां स्वभाषया जिनभाषा परिणमत इति गाथाथैः ॥ ५७७ ॥ तीर्थकरवाचः सौभाग्यगुणप्रतिपादनायाहसाहारणासवते तदुवओगो उ गाहगगिराए । न य निविज्वइ सोया किढिवाणियदासिआहरणा ॥ ५७८॥ व्याख्या-साधारणा-अनेकपाणिषु स्वभाषात्वेन परिणामात् नरकादिभयरक्षणत्वाद्वा, असपला-अद्वितीया, साधारणा(चा)ऽसावसपना चेति समासः, तस्यां साधारणासपनायां सत्या, किम् !, तस्थामुपयोगस्तदुपयोग एव भवति श्रोतुः, दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ५७८ ], भाष्यं [ ११९...] आवश्यक- 6 तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् कस्यां १-ग्राहयतीति ग्राहिका, ग्राहिका चासौ गीश्च ग्राहकगीः तस्यां ग्राहकगिरि, उपयोगे सत्य* प्यन्यत्र निर्वेददर्शनादाह-न च निर्विद्यते श्रोता, कुतः खल्वयमर्थोऽवगन्तव्यः १ इत्याह-- किंढिवणिगूदास्युदाह॥२३७॥ रणादिति, तच्चेदम् - एगस्स वाणियगस्स एका किडिदासी, किढी थेरी, सा गोसे कहाणं गया, तहाचुहाकिलंता मज्झण्हे आगया, अतिथेवा कट्ठा आणीयत्ति पिट्टिता भुक्खियतिसिया पुणो पडविया, सा य चहुं कहयभारं ओगाहतीए पोरुसीए गहायागच्छति, कालो य जेहामूलमासो, अह ताए थेरीए कडभाराओ एवं कठ्ठे पडियं, ताहे ताए ओणमित्ता तं गहियं तं समयं च भगवं तित्थगरी धम्मं कहियाइओ जोयणनीहारिणा सरेणं, सा थेरी तं सद्द सुर्णेती तद्देव ओणता सोउमादत्ता, उण्हें खुहं पिवास परिस्समं च न विंदइ, सूरत्थमणे तित्थगरो धम्मं कहेउमुडिओ, थेरी गया । एवंसव्वाउअपि सोया खवेज्ज जह हु सययं जिणो कहए। सीउण्हखुष्पिवासापरिस्समभए अविगर्णेतो ॥ ५७९ ॥ व्याख्या - भगवति कथयति सति सर्वायुष्कमपि श्रोता क्षपयेत् भगवत्समीपवत्येंव, यदि हु 'सततम्' अनवरतं जिनः कथयेत् । किंविशिष्टः सन्नित्याह- शीतोष्णक्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यविगणयन्निति गाथार्थः। ५७९ | द्वारम् । साम्प्रतं दानद्वा १ एकस्य वणिजः एका काष्ठिकी दासी, काष्ठिकी स्थविरा, सा गोसे ( प्रत्युषसि ) काष्ठेभ्यो गता, तृष्णाधाकान्ता मध्याद्वे भागता, अतिखोकानि काठान्यानीतानीति पिहिता बुभुक्षिततृषिता पुनः प्रस्थापिता, सा च गृहन्तं काष्ठभारमचगाहमानायां पौरभ्यां गृहीत्वा गच्छति, काल ज्येष्ठामूढो मासः अथ तस्याः स्वविरायाः काष्ठभारात् पु काएं पतितं तदा तयावनम्य तगृहीतं तस्मिन् समये च भगवांस्तीर्थकरो धर्म कथितवान् योजनव्यापिना स्वरेण सा स्वविरा तं शब्दं शृण्वन्ती तथैवावनता श्रोतुमारब्धा, उष्णं पिपासां परिश्रमं च न वेति सूर्यास्तमये तीर्थकरो धर्म कथविस्वोत्थितः, स्थविरा ता. For First हारिभद्री• यवृत्तिः विभागः १ ~ 477 ~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥२३७॥ www.joncibrary.org Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५७९], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक रावयवार्थमधिकृत्योच्यते-तत्र भगवान् येषु नगरादिषु विहरति, तेभ्यो वार्ता ये खल्वानयन्ति, तेभ्यो यत्प्रयच्छन्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं च चक्रवत्योदयस्तदुपप्रदिदर्शयिषुराहवित्ती उ सुवपणस्सा पारस अद्धं च सयसहस्साई । तावइयं चिय कोडी पीतीदाणं तु चकिस्स ॥५८०॥ | व्याख्या-'वृत्तिस्तु' वृत्तिरेव नियुक्तपुरुषेभ्यः, कस्येत्याह-सुवर्णस्य, द्वादश अर्द्ध च शतसहस्राणि, अर्द्धत्रयोदश सुवर्णलक्षा इत्यर्थः, तथा तावत्य एव कोव्यः प्रीतिदानं तु,केषामित्याह-चक्रवर्तिनां, तत्र वृत्तिर्या परिभाषिता नियुक्तपुरुषेभ्यः, प्रीतिदानं यद् भगवदागमननिवेदने परमहर्षात् नियुक्तरेभ्यो दीयत इति, तत्र वृत्तिः संवत्सरनियता, प्रीतिदानमनियतम् , इति गाथार्थः ॥५८०॥ एवं चेव पमाणं णवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलिआण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा ॥५८१॥ व्याख्या-एतदेव प्रमाणं वृत्तिप्रीतिदानयोः, नवरं 'रजतं तुरूप्पं तु 'केशवा' वासुदेवा ददति, तथा माण्डलिकानां राज्ञां सहस्राण्यर्द्धत्रयोदश रूप्यस्य वृत्तिनियुक्तेभ्यो वेदितव्या, 'पीईदाणं सतसहस्स' ति 'सूचनात् सूत्र' मिति प्रीतिदानमर्द्धत्रयोदशशतसहस्राण्यवगन्तव्यानीति गाथाङ्कः॥ ५८१॥ किमेत एव महापुरुषाः प्रयच्छन्ति ?, नेत्याहभत्तिविहवाणुरूपं अण्णेऽवि य देति इन्भमाईया। सोऊण जिणागमणं निउत्तमणिओइएसुं वा ॥ ५८२॥ व्याख्या-भक्तिविभवानुरूपं अन्येऽपि च ददति इभ्यादयः, इभ्यो-महाधनपतिः, आदिशब्दात् नगरपामभोगिकादयः, कदा:-श्रुत्वा जिनागमनं,केभ्यो ?-नियुक्तानियोजितेभ्यो वेति,गाथार्थः।।५८२॥ तेषामित्थं प्रयच्छतां के गुणा इति',उच्यते दीप अनुक्रम T Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५८३], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक ॥२३॥ वत्तिः प्रत सूत्राक देवाणुअसि भत्ती पूषा थिरकरण सत्तअणुकंपा। साओदय दाणगुणा पभावणा चेव तिस्थस्स ॥ ५८३ ॥ हारिभनी व्याख्या-देवानुवृत्तिः कृता भवति, कथं ?, यतो देवा अपि भगवतः पूजां कुर्वन्त्यतः तदनुवृत्तिः कृता भवति, तथा भक्तिश्च भगवतः कृता भवति, तथा पूजा च, तथा स्थिरीकरणमभिनवश्राद्धकानां, तथा कथकसत्त्वानुकम्पा च कृतेति, तथा विभागा? सातोदयवेदनीय बध्यते, एते दानगुणाः, तथा प्रभावना चैव तीर्थस्य कृता भवतीति गाथार्थः ॥ ५८३॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं | | देवमाल्यद्वाराषयवार्थेमधिकृत्योच्यते-तत्र भगवान प्रथमां सम्पूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे, अवान्तरे देवमाल्यं प्रविशति, बलि-1 है रित्यर्थः, आह-कस्तं करोति इति ?, उच्यते राया व रायमचो तस्सऽसई परजणवओ वाऽवि। दुबलिखंडियवलिछडियर्तदुलाणाढगं कलमा ॥५८४॥ - ब्याख्या-राजा वा' चक्रवर्तिमण्डलिकादि: 'राजामात्योवा' अमात्यो-मन्त्री,तस्य राज्ञोऽमात्यस्य वा असति-अभावे नगरनिवासिविशिष्टलोकसमुदायः पौरं तत्करोति, प्रामादिषु जनपदो वा, अत्र जनपदशब्देन तनिवासी लोकः परिगृह्यते, Pस किंविशिष्टः किंपरिमाणो वा क्रियत इति !, आइ-'वुब्बली'त्यादि,तत्र दुर्बलिकया खण्डितानां 'बली'ति बलवत्या छटि-2 तानां तन्दुलानाम् आढक-चतुःप्रस्थपरिमाणं, 'कलमे ति प्राकृतशैल्या कलमानां-तन्दुलानाम् इति गाथार्थः ॥५८४॥ है किंविशिष्टानामिति? आह | ॥२३८॥ भाइयपुणाणियाणं अखंडफुडियाण फलगसरियाणं। कीरह बली मुरावि यतत्थेव छुहंति गंधाई ॥५८५ ॥ व्याख्या-विभक्तपुनरानीतानां भाजनम्-ईश्वरादिगृहेषु वीननार्थमर्पणं तेभ्यः प्रत्यानयनं-पुनरानयनमिति, विभका दीप अनुक्रम JanEas Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५८५], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक भवते पुनरानीताश्चेति समासः, तेषां, किंविशिष्टानाम् -अखण्डाः-सम्पूर्णावयवाः अस्फुटिताः-राजीरहिताः, अखण्डाश्च तेऽस्फुटिताश्च इति समासः,तेषां, फलगसरिताणं'ति फलकवीनितानाम् एवंभूतानामाढकं क्रियते बलिः, सुरा अपि च तत्रैव बलौ प्रक्षिपन्ति गन्धादीनिति गाथार्थः ॥५८५॥द्वार|माल्यानयनद्वारं,इदानीं तमित्थं निष्पन्नं बलिं राजादयस्त्रिदशसहिताः गृहीत्वा तूनिनादेन दिग्मण्डलमापूरयन्तः खल्वागच्छन्ति,पूर्वद्वारेण च प्रवेशयन्ति,अत्रान्तरे भगवानप्युपसंहरतीति, आहबलिपविसणसमकालं पुव्वहारेण ठाति परिकहणा । तिगुणं पुरओ पाडण तस्सद्धं अवडियं देवा ॥५८६ ।।। । व्याख्या-पूर्वद्वारेणेति व्यवहित उपन्यासः, बलेः प्रवेशनं पूर्वद्वारेण, बलिप्रवेशनसमकालं तिष्ठति उपरमते धर्मकथेति, 'तिगुणं पुरओ पाडण' प्रविश्य राजादिबलिव्यग्रदेहो भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य तं बलिं तत्पादान्तिके पुरतः पातयति, तस्य चार्द्धमपतितं देवाः गृहन्ति, इति गाथार्थः ।। ५८६ ॥ अद्धहं अहिवइणो अवसेसं हवह पागयजणस्स । सब्वामयप्पसमणी कुप्पइ णऽण्णो य छम्मासे ॥ ५८७ ॥ है व्याख्या-शेषार्द्धस्य अर्द्ध-अर्द्धार्द्ध तदधिपतेर्भवति राज्ञ इत्यर्थः, अवशेष यद्दलेरास्ते तद्भवति कस्य ?, प्रकृतिषु भवः प्राकृतो-जनस्तस्य, स चेत्धंसामो भवति-ततः सिकुथेनापि शिरसि प्रक्षिप्तेन रोगः खलूपशमं याति, अपूर्यश्च षण्मासान यावन्न भवतीति, आह च-सर्वामयप्रशमनः, कुप्यति नान्यश्च षण्मासं यावत् । प्राकृतशैल्या स्त्रीलिङ्गनिर्देश इति गाथार्थः ॥ ५८७ ॥ द्वारम् ॥ अपरे त्वनन्तरोक्तद्वारद्वयमष्येकद्वारीकृत्य व्याचक्षते, तथापि अविरोध इति । इत्थं बलौ प्रक्षिप्ते भगवान् प्रथमात् प्राकारान्तरात् उत्तरद्वारेण निर्गत्य उत्तरपूर्वायां दिशि देवच्छन्दके यथासुखं समाधिना व्यवतिष्ठत दीप अनुक्रम JABERaunihathiational dainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५८७], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक इति । भगवत्युत्थिते द्वितीयपौरुष्यामाद्यगणधरोऽन्यतमो वा धर्ममाचष्टे । आह-भगवानेव किमिति नाचष्टे ?, तत्कथने है के गुणा इति', उच्यते यवृत्तिः ॥२३९॥ खेयविणोओसीसगुणदीवणा पञ्चओउभयओऽवि । सीसायरियकमोऽविय गणहरकहणे गुणा होति॥१८॥ विभागः१ व्याख्या-खेदविनोदो भगवतो भवति, परिश्रमविश्राम इत्यर्थः, तथा 'शिष्यगुणदीपना' शिष्यगुणप्रख्यापना च कृता भवति, तथा प्रत्यय उभयतोऽपि श्रोतणामुपजायते-यथा भगवताऽभ्यधायि तथा गणधरेणापि, गणधरे वा तदन3न्तरं तदुक्तानुवादिनि प्रत्ययो भवति श्रोणाम्-नान्यथावाचयमिति, तथा शिष्याचार्यक्रमोऽपि च दर्शितो भवति, Kआचार्यात् उपश्रुत्य योग्यशिष्येण तदर्थान्धाख्यानं कर्त्तव्यमिति, एते गणधरकथने गुणा भवन्ति इति गाथार्थः ॥५८८॥ आह-स गणधरः क्व निषण्णः कथयतीति, उच्यतेराओवणीयसीहासणे निविट्ठो व पायवीढमि । जिट्ठो अन्नयरो वा गणहारी कहइ बीआए ॥५८९॥ व्याख्या-राज्ञा उपनीतं राजोपनीतं राजोपनीतं च तत् सिंहासनं चेति समासः, तस्मिन् राजोपनीतसिंहासने उपविष्टो वा भगवत्पादपीठे, स च ज्येष्ठा अन्यतरो वा गणं-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी कथयति द्वितीयायां पौरुष्यामिति गाथार्थः ॥ ५८९ ॥ आह-स कथयन् कथं कथयतीति ?, उच्यते ॥२३९॥ Cखाईएऽवि भवे साहइ जं वा परोउ पुच्छिज्जा । ण य णं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥५९०दी व्याख्या-समातीतानपि भवान् , असङ्ख्येयानित्यर्थः, किं ?-'साहइत्ति देशीवचनतः कथयति, एतदुक्तं भवति 464 दीप अनुक्रम T JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५९०], (४०) भाष्यं [११९...] प्रत सूत्राक |असङ्ख्येयभवेषु यदभवद्भविष्यति वा, यद्वा वस्तुजातं परस्तु पृच्छेत् तत्सर्व कथयतीति, अनेनाशेषाभिलाप्यपदार्थप्र|तिपादनशक्तिमाह, किं बहुना ?-'न च' नैव, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'अणाइसेसित्ति अनतिशयी अवध्याद्यतिशयरहित इत्यर्थः,विजानाति यथा एष गणधरछद्मस्थ इति,अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥५९०॥ समवसरणं समत्तं । एवं तावत्समवसरणवक्तव्यता सामान्येनोक्ता, प्रकृतमिदानी प्रस्तूयते-तत्र भगवतः समवसरणे निष्पन्ने सत्यत्रान्तरे | देवजयशब्दसम्मिश्रदिव्यदुन्दुभिशब्दाकर्णनोत्फुल्लनयनगगनावलोकनोपलब्धस्वर्गवधूसमेतसुरवृन्दानां यज्ञपाटकसमीपाभ्यागतजनानां परितोषोऽभवद्-अहो विष्टं, विग्रहवन्तः खलु देवा आगता इत्याह|तं दिव्वदेवघोसं सोऊणं माणुसा तहिं तुहा । अहो(हु) जण्णिएण जडं देवा किर आगया इहई ॥ ५९१ ।। व्याख्या-तं दिव्यदेवघोपं श्रुत्वा मनुष्याः 'तत्र' यज्ञपाटे तुष्टाः, 'अहो विस्मये, यज्ञेन यजति लोकानिति याज्ञिकः | तेनेष्टं, कुतः-एते देवाः किल आगता अत्रेति, किलशब्दः संशय एव, तेषामन्यत्र गमनादिति गाथार्थः॥५९१ ॥ तत्र च यज्ञपाटे वेदार्थविदः एकादशापि गणधरा ऋत्विजः समन्वागता इत्याह चएक्कारसवि गणहरा सब्वे उग्णयविसालकुलवंसा । पावाएँ मज्झिमाए समोसढा जन्नवाडम्मि ॥५९२॥ व्याख्या-एकादशापि गणधराः समवस्ताः यज्ञपाट इति योगः, किंभूता इत्याह-'सर्वे' निरवशेषाः उन्नताः-प्रधानजातित्वात् विशालाः-पितामहपितृव्याधनेकसमाकुलाः कुलाम्येव वंशाः-अन्वया येषां ते तथाविधा, पापायां दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९२], भाष्यं [११९...] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सूत्राक आवश्यक मध्यमायां 'समवस्ताः' एकीभूताः, व?-यज्ञपाट इति गाथार्थः ॥५९२॥आह-किमाद्याः किनामानो वा त एते गणधराः इति ?, उच्यते | ॥२४॥ पढमित्थ इंदई विदओ उण होह अग्गिभूहत्ति । तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ।। ५९३ ॥ व्याख्या-प्रथमः 'अत्र' गणधरमध्ये इन्द्रभूतिः, द्वितीयः पुनर्भवति अग्निभूतिरिति, तृतीयश्च वायुभूतिः, ततो व्यक्तः चतुर्थः सुधर्मश्च पञ्चमः, इति गाथार्थः ।। ५९३ ॥ मंडियमोरियपुत्ते अकंपिए चेव अपलभाषा य । मेयजे य पभासे गणहरा होंति वीरस्स ॥ ५९४ ॥ व्याख्या-मण्डिकपुत्रः मौर्यपुत्रः, पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, अकम्पितश्चैव अचलभ्राता च मेतार्यश्च प्रभासः, एते गणधरा भवन्ति वीरस्य इति गाथार्थः ॥ ५९४ ॥ कारण णिकखमणं वोच्छं एएसि आणुपुवीए । तित्थं च सुहम्माओ णिरवचा गणहरा सेसा ॥ ५९५॥ | व्याख्या-'यत्कारणं' यन्निमित्तं निष्क्रमणं यत्तदोनित्यसम्बन्धात् तत् वक्ष्ये 'एतेषां गणधराणाम् 'आनुपूर्व्या' परिपाव्या, तथा तीर्थ च सुधर्मात् सञ्जातं, 'निरपत्या' शिष्यगणरहिताः गणधराः 'शेषाः' इन्द्रभूत्यादयः इति गाथार्थः। An५९५ ॥ तन्त्र जीवादिसंशयापनोदनिमित्तं गणधरनिष्क्रमणमितिकृत्वा यो यस्य संशयस्तदुपदर्शनायाह-- * सुधर्मेति स्पावाच्यं, परं सुधर्म इति संज्ञा तख, यद्वा 'सुः पूजाया' मिति तत्पुरुषे अनादिस्वादे सुधर्म इति, अथ च समासान्तविधेरनित्यस्वाद् , अथवा पाधिम्मतेचान विकल्पत एवेति बोध्य पयायथं मुधिया. दीप अनुक्रम 25556565 JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: गणधराणाम् नामानि एवं संबंधित-वर्णनं, तेषाम् संशया: विषये भगवद्-कथनं तथा संशय-निवारणं ~ 483 ~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९६], भाष्यं [११९...] (४०) 646464 प्रत सूत्राक % जीधे कम्मे तज्जीव भूर्य तारिसय बंधमोक्खे य । देवा जेरइएं या पुणे परलोय व्याणे ॥५९६ ॥ व्याख्या-एकस्य जीवे संशयः-किमस्ति नास्ति इति, तथा परस्य कर्मणि, ज्ञानवरणीयादिलक्षणं कर्म किमस्ति नास्ति ? इति, अपरस्य 'तजीवे' त्ति किं तदेव शरीरं स एव जीव उत अन्य इति, न जीवसत्तायाम् इति, तथा 'भूते ति अपरस्य भूतेषु संशयः, पृथिव्यादीनि भूतानि सन्ति न वेति, अपरस्य 'तारिसय' त्ति किं यो यादृश इह भवे स तादृश एव अन्यस्मिन्नपि ? उत नेति, 'बन्धमोक्खे यत्ति अपरस्य तु किं बन्धमोक्षी स्तः उत न इति, आह-कर्मसंशयात् अस्य को विशेष इति ?, उच्यते, स कर्मसत्तागोचरः, अयं तु तदस्तित्वे सत्यपि जीवकर्मसंयोगविभागगोचर इति, तथा अपरस्य देवाः किं सन्ति ? नेति वा, अपरस्य तु नारकाच संशयगोचराः, किं ते सन्ति न सन्ति वा ?, तथा अपरस्य पुण्ये संशयः, कर्मणि सत्यपि किं पुण्यमेव प्रकर्षप्राप्तं प्रकृष्टसुखहेतुः, तदेव चापचीयमानमत्यन्तस्वल्पावस्थं दुःखस्य उत तदतिरिक्तं पापमस्ति आहोस्विदेकमेव उभयरूपम् उत स्वतन्त्रमुभयमिति, अपरस्य तु परलोके संशयः, सत्यप्यात्मनि | परलोको-भवान्तरलक्षणः किमस्ति नास्ति ? इति, अपरस्य तु निर्वाणे संशयः, निर्वाणं किमस्ति नास्ति । इति, आहबन्धमोक्षसंशयात् अस्य को विशेष इति, उच्यते, स हि उभयगोचरः, अयं तु केवलविषय एव, तथा कि संसाराभावमात्र एवं असौ मोक्षः १ उत अन्यथा ? इत्यादि, इति गाथार्थः ॥ ५९६ ।। साम्प्रतं गणधरपरिवारमानप्रदर्शनाय आहपंचण्डं पंचसया अछहसया य होंति दोण्ह गणा। दोण्हं तु जुयलयाणं तिसओ तिसओ भवे गच्छो ॥५९७॥ व्याख्या-पश्चानामाद्यानां गणधराणां पञ्च शतानि प्रत्येकं प्रत्येक परिवार इति, तथा अर्द्ध चतुर्थस्य येषु तानि 2 दीप % अनुक्रम JAMERatunintamathama Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~484 ~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५९६], (४०) भाष्यं [११९...] यवृत्तिः प्रत -05-6-%% सुत्रांक आवश्यक- अर्धचतुर्थानि २ शतानि अर्द्धचतुर्थशतानि २ मानं ययोः तौ अर्धचतुर्थशतौ भवतः द्वयोः प्रत्येक गणौ, इह गणः समुदाय हारिभद्रीशाएव उच्यते, न पुनरागमिक इति,तथा द्वयोस्तु गणधरयुगलयोः त्रिशतः त्रिशतो भवति गच्छः, एतदुक्तं भवति-उपरितनानां विभागा१ चतुर्णा गणधराणां प्रत्येकं त्रिशतमानः परिवार इति गाथार्थः ॥५९७। उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतं उच्यते-ते हि देवाः तं यज्ञ| पाटं परिहत्य समवसरणभुवि निपतितवन्तः, तांश्च तथा दृष्ट्वा लोकोऽपि तत्रैव ययौ, भगवन्तं तु त्रिदशलोकेन पूज्यमानं |दृष्ट्वा अतीव हर्ष चक्रे, प्रवादश्च सञ्जातः-सर्वज्ञोऽत्र समवसृतः, तं देवाः पूजयन्ति इति, अत्रान्तरे खल्वाकर्णितसर्वज्ञ प्रवादोऽमध्मातः खल्विन्द्रभूतिर्भगवन्तं प्रति प्रस्थित इत्याह| सोऊण कीरमाणी महिमं देवेहि जिणवरिंदस्स । अह एइ अहम्माणी अमरिसिओ इंदभूइत्ति ॥ ५९८ ॥ व्याख्या-श्रुत्वा च क्रियमाणां, दृष्ट्वा वा पाठान्तरं, महिमां देवर्जिनवरेन्द्रस्य, अथास्मिन् प्रस्तावे 'एइ' त्ति आगच्छति भगवत्समीपम् 'अहम्माणि' त्ति अहमेव विद्वान् इति मानोऽस्य इति अंहमानी, 'अमपितः' अमर्षयुक्तः, अमों-मत्सर-IN विशेषः, मयि सति कोऽन्यः सर्वज्ञः ? इति, अपनयामि अद्य सर्वज्ञवादम् , इत्यादिसङ्कल्पकलुषितान्तरात्मा, कोऽसौर इत्याह-इन्द्रभूतिः, इति गाथार्थः ॥५९८॥ स च भगवत्समीपं प्राप्य भगवन्तं च चतुखिंशदतिशयसमन्वितं त्रिदशासुरन- I रेश्वरपरिवृतं दृष्ट्वा साशङ्कः तदनतस्तस्थौ, अत्रान्तरे| आभहो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥५९९ ॥ व्याख्या-'आभाषितश्च' संलप्तश्च, केन ?-जिनेन, किंविशिष्टेन ?-जाति:-प्रसूतिः जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं-दश- दीप अनुक्रम T 4%15 JABERatinintinational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~485~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५९९], (४०) भाष्यं [११९...] प्रत सूत्राक विधप्राणवियोगरूपम् एभिर्विप्रमुक्तस्तेन, कथम् ?--नाना च हे इन्द्रभूते ! गोत्रेण च हे गौतम ! किंविशिष्टेन जिनेन इत्याह-सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना । आह-यो जरामरणविप्रमुक्तः स सर्वज्ञ एवेति गतार्थत्वात् विशेषणवैयय, न, नयवादपरिकल्पितजात्यादिविनमुक्तमुक्तनिरासार्थत्वात् तस्येति, तथा च कैश्चित् अचेतना मुक्ता गुणवियोगमोक्षवादिभिरिष्यन्त एवेतिर गाथार्थः ॥५९९॥ इत्थं नामगोत्रसंलप्तस्य तस्य चिन्ताऽभवत्-अहो नामापि मे विजानाति, अथवा प्रसिद्धोऽई, को मान वेति?, यदि मे हद्गत संशयं ज्ञास्यति अपनेष्यति वा, स्थान्मम विस्मय इति, अनान्तरे भगवानाहकि मनि अस्थि जीवो उआहु नत्थित्ति संसओ तुज्म । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्यो॥६००॥ व्याख्या- गौतम! किं मन्यसे-अस्ति जीव उत नास्तीति, ननु अयमनुचितस्ते संशयः, अयं च संशयस्तव विरुद्ध-I वेदपदश्रुतिनिबन्धनः, तेषां वेदपदानां चार्थ न जानासि, यथा न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इति । अन्ये तु-किंशब्दं परिप्रश्नार्थे व्याचक्षते, तच्च न युज्यते,भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् , संशयवतश्च तत्प्रयोगदर्शहै नात् , किमित्थमन्यथेति वा, अथवा किमस्ति जीव उत नास्ति इति मन्यसे,अयं संशयस्तव, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः ॥६००॥ यदुक्तम्-'संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धन' इति, तान्यमूनि वेदपदानि-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य सज्ञाऽस्ती" त्यादीनि, तथा स वै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्यादीनि च, एतेषां चायमों भवतः चेतसि विपरिवर्तते-विज्ञानमेव चैतन्य, नीलादिरूपत्वात् , चैतन्यविशिष्टं यक्षीलादि तस्मात् , तेन घनो विज्ञानघनः, स एव । 'एतेभ्यः' अध्यक्षतः परिच्छिद्यमानस्वरूपेभ्यः, केभ्यः?-'भूतेभ्यः पृथिव्यादिलक्षणेभ्यः,किम् ?- समुत्थाय' उत्पद्य, पुनस्तानि दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग: १ ॥२४२॥ प्रत S सुत्राक ARSALARANG एव 'अनु विनश्यति' अनु-पश्चाद्विनश्यति विज्ञानघनः, 'न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति' प्रेत्य मृत्वा न पुनर्जन्म न परलोकसभाऽस्ति इति भावार्थः। ततश्च कुतो जीवः ?, युक्त्युपपन्नश्च अयमर्थः, (इति) ते मतिः-यतः प्रत्यक्षेणासौ न परिगृह्यते, यतः 'सत्संप्र- योगे पुरुषस्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्ष' न चास्य इन्द्रियसम्पयोगोऽस्ति, नाप्ययमनुमानगोचरः, यतः-प्रत्यक्षपुरस्सरं पूर्वोपलब्धलिङ्गालिङ्गिासम्बन्धस्मृतिमुखेन तत्प्रवर्तते, गृहीताविनाभावस्य धूमादनलज्ञानवत्, न च इह तलिङ्गाविनाभावग्रहः, तस्याप्रत्यक्षत्वात् , नापि सामान्यतोदृष्टादनुमानात् सूर्येन्दुगतिपरिच्छेदवत् तदवगमो युज्यते, दृष्टान्तेऽपि तस्याध्यक्षतोग्रहणात्, न चागमगम्योऽपि, आगमस्यानुमानादभिन्नत्वात् , तथा च-घटे घटशब्दप्रयोगोपलब्धावुत्तरत्र घटध्वनिश्रवणात् (ग्रन्था०६०००) अन्वयव्यतिरेकमुखेन घट एवानुमितिरुपजायते, न च इत्थमारमशब्दः शरीरादन्यत्र प्रयुज्यमानो इष्टो यमात्मशब्दात् प्रतिपद्येमहि इति, किं च-आगमानामेकज्ञेयेऽपि परस्परविरोधेन प्रवृत्तेरप्रमाणत्वात् , तथा च-'एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुश्रुताः॥१॥ इत्यागमः, तथा 'न रूपं भिक्षवः पुद्गल' इत्याचपर।, पुद्गले रूपं निषिध्यते, अमूर्त आत्मा इत्यर्थः, तथा 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता इत्यादिश्चान्यः, तथा 'सवै अयमात्मा ज्ञानमय' इत्याद्यपर इति, एते च सर्व एव प्रमाणं न भवन्ति, परस्परविरोधेन एकार्थाभिधायकत्वात. पाटलिपुत्रस्वरूपाभिधायकपरस्परविरुद्धवाक्यपुरुषवातवत् , अतो न विद्या-किमस्ति नास्ति 1, इत्ययं ते अभिप्रायः, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दात् युति हृदयं च, तेषामेकवाक्यतायामयमर्थ:-विज्ञानधन एवेति दीप अनुक्रम ॥२४॥ JABERDAMOH मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 487~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक ज्ञानदर्शनोपयोगरूपं विज्ञानं ततोऽनन्यत्वात् आत्मा विज्ञानघनः, प्रतिप्रदेशमनन्तविज्ञानपर्यायसहातात्मकत्वाद्वारा विज्ञानधना, एषशब्दोऽवधारणे, विज्ञानघनानन्यत्वात् विज्ञानघन एव, 'एतेभ्यो भूतेभ्या' क्षित्युदकादिभ्या 'समस्थाय' कश्चिद्भूत्वा इति हृदयं, यतो न घटाद्यर्थरहितं विज्ञानमुत्पद्यते, न च भूतधर्म एव विज्ञान, सदभावे मुक्त्यव स्थायां भावात् , तद्भावेऽपि मृतशरीरादावभावात्, म च वाच्यं-पष्टसत्तायामपि भवतानिवृत्तौ शरीरभावेऽपि चैतन्यहै निवृत्तेः नवतावद्भूतधर्मता चैतन्यस्य, घटस्थ द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वे सति सर्वथा नवताऽनिवृत्तेः, न च इत्थं देहा चैतन्यस्यानिवृत्तिः, तथा श्रुतावप्युक्तम्-"अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्यः चन्द्रमस्थस्तमिते शान्तेऽग्री शान्तायां वाचि किंज्योतिरेवार्य पुरुषः, आत्मा ज्योतिः सम्राट् इतिहोवाच," तान्येव हि भूतानि विनाशव्यवधानाभ्यां ज्ञेयभावेन दाविनश्यन्ति, अनु-पश्चात् विनश्यति अनुविनश्यति, स च विवक्षितविज्ञानाऽऽत्मना उपरमते भाविविज्ञानात्मना उत्प-14 यते सामान्यविज्ञानसन्तत्या द्रव्यतया अवतिष्ठत इति, न च पूर्वोत्तरयोरत्यन्तभेदः, सति तस्मिन् एकस्य विज्ञानस्य विज्ञानत्वासत्त्वप्रसङ्गात् , 'न प्रेत्यसज्ञाऽस्ति' इति न प्राक्तनी घटादिविज्ञानसज्ञाऽवतिष्ठते, साम्प्रतविज्ञानोपयोगविदानितत्वात इत्ययं वेदपदार्थ इति, तथा सौम्य ! प्रत्यक्षतोऽपि आत्मा गम्यत एव, तस्य ज्ञानात् अनन्यत्वात् , तद्धर्मत्वात चैतन्यस्य, ज्ञानस्य च स्वसंविदितरूपत्वात् , तथा च नीलविज्ञानमेव उत्पन्नमासीत् इतिदर्शनात्, न च अननुभूतेऽथें । स्मृतिप्रभवो युज्यते, न च भिन्नं ज्ञानमात्मनः, प्रमात्रन्तरवत् विवक्षितप्रमातुः संवेदनानुपपत्तेः, न च स्वात्मनि क्रियावि-5 टारोधः, प्रदीपवत् तस्य स्वपरप्रकाशकत्वात्, इत्थं तावत् भवतोऽपि अयमनन्तपोयात्मकत्वात् ज्ञानदेशावभासितत्वात् दीप अनुक्रम JABELLEGETnintentiation मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६००], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्रांक 40% आवश्यक- प्रदीपदेशोद्योतितघटवत् देशतः प्रत्यक्ष एव, ज्ञानावरणीयाद्यशेषप्रतिवन्धकापगमसमनन्तराविर्भूतकेवलज्ञानसम्पदा सर्व-18 हारिभद्री प्रत्यक्ष इति । अनुमानगम्योऽप्ययं-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं, भोग्यत्वात्, ओदनादिवत् , व्योमकुसुमं विपक्ष इत्यनु- यवृत्तिः ॥२४॥ मानं, न च लिजयविनाभूतलिङ्गोपलम्भव्यतिरेकेणानुमानस्य एकान्ततोऽप्रवृत्तिः, हसितादिलिङ्गविशेषस्य ग्रहाख्यलिजय विभागः१ विनाभावग्रहणमन्तरेणापि ग्रहगमकत्वदर्शनात्, न च देह एवं ग्रहो, येन अन्यदेहदर्शनमविनाभावग्रहणनियामकं भव-12 तीति । आगमगम्यता त्वस्याभिहितैव । इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत् इति । [छिपणमि संसयंमी जिणेण जरमरणविष्पमुक्केण । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ।। ६०१॥ व्याख्या-एवं 'छिन्ने' निराकृते संशये जिनेन जरामरणाभ्याम्-उक्तलक्षणाभ्यां विप्रमुक्तः तेन 'स' इन्द्रभूतिः 'श्रमणः प्रवजितः' साधुः संवृत्त इत्यर्थः, पञ्चभिः सह खण्डिकशतैः, खण्डिका:-छात्रा इति गाथार्थः॥६०१॥ इह च वेदपदोपन्यासस्तदा वेदानां सजातत्वात् तेन च प्रमाणवेन अङ्गीकृतत्वात् । इति प्रथमो गणधरः समाप्तः॥ तं पव्वइयं सो बितिओ आगच्छई अमरिसेणं । वच्चामि ण आणेमी पराजिणित्ता ण तं समणं ॥६०२॥ | व्याख्या-तम्' इन्द्रभूतिं प्रवजितं श्रुत्वा 'द्वितीयः खल्वग्निभूतिरत्रान्तरे आगच्छति अमर्षेण प्राग्व्यावणित-18 स्वरूपेण हेतुभूतेन, ब्रजामिणमिति वाक्यालङ्कारे, आनयामि इन्द्रभूतिमिति गम्यते, पराजित्य, णं पूर्ववत्, तं श्रमणम्' ॥२४॥ इन्द्रजालिककल्पमिति गाथार्थः ॥६०२॥ स हि तेन छलादिना विनिर्जित इतीदानीं तस्य का वातों इत्यादि चिन्तयन् 18|जिनसकाशं प्राप्तः, दृष्ट्वा च भगवन्तं विस्मयमुपगत इति, अत्रान्तरे 4 दीप -*4 अनुक्रम T *-* Surajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६०३], भाष्यं [११९...] (४०) +5 %22% प्रत % सूत्राक आभट्ठो य जिणेण जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ।। ६०३ ॥ व्याख्या-पूर्ववत्, नामगोत्राभ्यां संलप्तश्चिन्तयामास-नामापि मे वेत्ति, अथवा प्रसिद्धोऽहं, को मां न वेत्ति ।, यदि मे हृद्गतं संशयं ज्ञास्यति अपनेष्यति वा, तदा सर्वज्ञाशङ्का स्यात् इति ॥ अत्रान्तरे भगवताऽभिहित:कि मण्णि अस्थि कम्मं उदाहु णस्थित्ति संसओ तुज्झ । वेयपयाणय अत्यं ण जाणसी तेसिमोअत्थो ॥६०४॥ | व्याख्या-किं मन्यसे अस्ति कर्म उत नास्तीति !, नन्वयमनुचितस्ते संशयः, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदनिवन्धनो वर्त्तते. वेदपदानां चार्थ न जानासि, यथा च न जानासि तथा वक्ष्यामः, तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यक्षरार्थः तानि च अमूनि वेदपदानि-“पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति यत्नजति यद् दूरे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यत" इत्यादि, तथा 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादि, तेषां चायमर्थः ते मता विपरिवर्तते-पुरुष:-आत्मा, एवशब्दोऽवधारणे, स च कर्मप्रधानादिव्यवच्छेदार्थः, 'इद' सर्व प्रत्यक्षवर्तमान चेतनाचेतन, ग्निमिति वाक्यालङ्कारे, 'यद् भूत' यद् अतीतं यच्च 'भाव्यं भविष्य, मुक्तिसंसारावपि स एव इत्यर्थः, 'उतामृतत्वस्येशान' इति, उतशब्दोऽप्यर्थे, अपिशब्दश्च समुच्चये, 'अमृतत्वस्य' अमरणभावस्य-मोक्षस्य ईशानः-प्रभुश्चत्यर्थः 'यत्' इति यच्चेति चशब्दलोपात्, 'अनेन' आहारेण 'अतिरोहति' अतिशयेन वृद्धिमुपैति, 'यद् एजति' यत् चलति-पश्वादि, 'यत् न एजति' यन्न चलति-पर्वतादि, 'यहूरे' मेर्वादि, 'यद् उ अन्तिके उशब्दोऽवधारणे, 'अन्तिके समीपे यत्, तत्पुरुष एव इत्यर्थः, 'यदू अन्तर' मध्ये 'अस्य' चेतनाचेतनस्य सर्वस्य, यदेव सर्वस्यास्य बाह्यतः, तत्सर्वं दीप 4X750-%+%25% अनुक्रम T JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 490~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०४], भाष्यं [११९...] (४०) ॥२४४॥ प्रत सुत्रांक आवश्यक- पुरुष एव इति, अतः तदतिरिक्तस्य कर्मणः किल सत्ता दुःश्रद्धेया, ते मतिः, तथा प्रत्यक्षानुमानागमगोचरातीतं च एतत्, हारिभद्री[अमूर्तस्य च आत्मनो मूर्तकर्मणा कथं संयोग ? इति, कथं वा अमूर्तस्य सतः मूर्तकर्मकृतावुपघातानुग्रही स्यातामिति, यवृत्तिः लोके तन्त्रान्तरेषु च कर्मसत्ता गीयते 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादौ, अतो न विद्मः-किमस्ति नास्ति वा . ते अभिप्रायः, तत्र विभागः१ वेदपदानां च अर्थ न जानासि, चशब्दाद्युक्तिं हृदयं च, तेषां वेदपदानामेकवाक्यतया व्यवस्थितानामयमर्थः-एतानि | हि पुरुषस्तुतिपराणि वर्त्तन्ते, तथा जात्यादिमदत्यागाय अद्वैतभावनाप्रतिपादकानि वा, न कर्मसत्ताप्रतिषेधकानि, अन्या र्थानि वा, सौम्य ! इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, यतः नाकर्मणः कर्तृत्वं युज्यते, प्रवृत्तिनिवन्धनाभावात् , एकान्तशुद्धत्वात् , गगनवत् , इतश्च अकमो नारम्भते, एकत्वात् , एकपरमाणुवत्, न च अशरीरवानीशानः खल्वारम्भको युज्यते, तस्य | ट्रास्वशरीरारम्भेऽपि उक्तदोषानतिवृत्तेः, न च अन्यस्तच्छरीरारम्भाय व्याप्रियते, शरीरित्वाशरीरित्वाभ्यां तस्यापि आर-18 म्भकत्वानुपपत्तेः, न च शुद्धस्य देहकरणेच्छा युज्यते, तस्या रागविकल्पत्वात् , तस्मात् कर्मसद्वितीयः पुरुषः कर्ता इति । न च तत्कर्म प्रत्यक्षप्रमाणगोचरातीत, मप्रत्यक्ष्त्वात् , त्वत्संशयवत्, भवतोऽपि अनुमानगोचरत्वात्, तच्चेदमनुमानम्शरीरान्तरपूर्वकं बालशरीर, इन्द्रियादिया। युवशरीरवत् , न च जन्मान्तरातीतशरीरपूर्वकमेवेद, तस्यापान्तराल-13 गतावभावेन तत्पूर्वकत्वानुपपत्तेः,न चाशरीरिणो नियतगर्भदेशस्थानप्राप्तिपूर्वका शरीरग्रहो युज्यते, नियामककारणाभावात्, न स्वभाव एव नियामको, वस्तुविशेषाकारणतावस्तुधर्मविकल्पानुपपत्तेः, स्वभावो हि वस्तुविशेषो वा स्यादकारणता वा वस्तुधर्मो वा', न सावत् वस्तुविशेषः, अप्रमाणकत्वात् , किं च-समूतॊ वा स्यादमूतों वा!, यदि मूतः, कर्मणोऽस्य च दीप अनुक्रम JABERatinintamational Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६०४], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक न कश्चिझेदा, कम्मैव सज्ञान्तरवाच्यं तत् , अथ अमूतों, न तहिं नियामको देहकारणं वा, अमूर्तत्वात, गगनवत्, तथाहि-नामूर्तान्मूर्तप्रसूतिरिति,न चाकारणता स्वभावः, कारणाभावस्थाविशिष्टत्वात् युगपदशेषदेहसंभवमाप्तेः, अकारणताविशेषाभ्युपगमे च तद्भावप्रसङ्गः, न च वस्तुधर्मः स्वभावः, आत्माख्यवस्तुधर्मत्वेन अमूर्त्तत्वात् , गगनवत्, तस्य देहादिकारणत्वानुपपत्तेः, मूर्तवस्तुधर्मत्वे पुनरसौ न पुद्गलपर्यायमतिवर्त्तते, कर्मापि च पुद्गलपर्यायानन्यरूपमेष इत्यविप्रतिपत्तिरिति, तस्मात् यच्छरीरपूर्वकं बालशरीरं तत्कार्मणमिति, आगमगम्यं च एतत्, 'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन कर्मणा' इत्यादिश्रुतिवचनप्रामाण्यात्, तथा अमूर्तस्यापि आत्मनो विशिष्टपरिणामवतः मूर्तकर्मपुद्गलसम्बन्धोऽविरुद्ध एव, आकाशस्येव घटादिसंयोग इति, तथा अमूर्तस्यापि मूर्तकृतावुपघातानुग्रहावविरुद्धौ, विज्ञानस्य मदिरापानौषधादिभिः उपघातानुग्रहदर्शनात्, इत्यलं प्रसङ्गेनेति ।छिपकमि संसपंमी जिणेण जरमरणविप्पमुकेणं । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ।। ६०५॥ व्याख्या-इत्थं छिन्ने संशये जिनेन जरामरणविषमुक्तेन स श्रमणः प्रबजितः पञ्चभिः सह खण्डिकशतैः, भावार्थः सुगम इति गाथार्थः ॥ ६०५ ।। द्वितीयो गणधरः समाप्तः॥ ते पब्वाइए सोउं तइओ आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६०६॥ व्याख्या-'तो' इन्द्रभूतिअग्निभूती प्रबजितौ श्रुत्वा तृतीयो वायुभूतिनामा आगच्छति जिनसकाशं, उभयनिष्क्रमणाकर्णनादपेताभिमानः सञ्जातसर्वज्ञप्रत्ययः खलु अत एवाहं ब्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे, वन्दे भगवन्तं, दीप अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~492~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०६], भाष्यं [११९...] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥२४५॥ प्रत सुत्रांक आवश्यक- तथा वन्दित्वा पर्युपासयामि इति गाथार्थः ॥ ६०६ ॥ इति सञ्जातसङ्कल्पो भगवत्समीपं गत्वा अभिवन्ध च भगवन्त तदनतस्तस्थी, अत्रान्तरे| आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । णामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥६०७॥ व्याख्या-पूर्ववत् ॥ इत्थमपि संलप्तो हृद्गतं संशयं प्रष्टुं क्षोभादसमथों भगवताऽभिहितःतज्जीवतस्सरीरंति संसओ णवि य पुच्छसे किंचि । वेयपयाण य अत्यं ण जाणसी तेसिमो अत्थो॥ ६०८॥ ___ व्याख्या-स जीवः तदेव शरीरमिति, एवं संशयस्तव, नापि च पृच्छसि किञ्चित् विदिताशेषतत्त्वम् , अयं स संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्तते, वेदपदानां चार्थं न जानासि, तेषां तव संशयनिवन्धनानामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथाक्षरार्थः । तानि चामूनि परस्परविरुद्धानि वेदपदानि-विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय शान्येवान विनश्यति न प्रेत्यसब्ज्ञाऽस्ति' इत्यादीनि,तथा 'सत्येन लभ्यः तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शद्धो.यं । पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः' इत्यादीनि चेति, एतेषां चायमर्थः ते बुद्धी प्रतिभासते-'विज्ञानघने'त्यादीनां पूर्ववत् व्याख्या, नवरं न प्रेत्य सज्ञा अस्ति-न देहात्मनोः भेदसज्ञाऽस्ति, भूतसमुदायमात्रधर्मत्वात् चैतन्यस्य, ततश्चामूनि किल शरीरातिरिक्तात्मोच्छेदपराणि वर्तन्ते, 'सत्येन लभ्य' इत्यादीनि तु देहातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि इति, अतः संशयः, युक्ता च भूतसमुदायमात्रधर्मता चेतनायाः, ते मतिः, तत्र एवोपलब्धेगौरतादिवदिति, तथा प्रत्यक्षादि बहुतमेतमिदनभित्युक्तेश्वौरादिकोऽयं ज्ञेयो, बट्टा पर्युपादासेर्वजन्तात्कृगो नान्न इति णिधि रूपमैतत्, पर्युपासे इति कचिवस्त्यपि. - दीप - अनुक्रम +- 90-NCR40-4 ||२४५॥ IBERali wjandiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६०८], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक प्रमाणगोचरातिकान्तश्च देहातिरिक्त आत्मेति, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दाधुति हृदयं च, तेषामयमर्थः-तत्र |'विज्ञानघनेत्यादीनां प्रथमगणधरवक्तव्यतायां व्याख्यातत्वात् न प्रदश्यते, 'सत्येन लभ्य इत्यादीनां तु सुगमत्वादिति । न च तत्रैव उपलब्ध्या हेतुभूतया चेतनायाः शरीरधर्मताऽनुमातुं युज्यते, तद्धर्मतया तत्रोपलम्भासिद्धेः, न च तस्मिन् सत्येव उपलम्भः तद्धर्मत्वानुमानाय अलं, व्यभिचारदर्शनादू, यतः स्पर्शे सत्येव रूपादयः उपलभ्यन्ते, न च तद्धर्मता। तेषामिति, तस्मात् शरीरातिरिक्तात्माख्यपदार्थधर्मश्चेतना इति, देशप्रत्यक्षश्चायम् , अवग्रहादीनां स्वसंवेद्यत्वात् , भावना प्रथमगणधरवत् अवसेया, अनुमानगम्योऽपि, तच्चेदम्-देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, पश्चवातायनोपलब्धाोंनुस्मतृदेवदत्तवत्, आगमगम्यता तु अस्य प्रसिद्धा एव 'सत्येन लभ्य' इत्यादिवेदपदप्रामाण्याभ्युपगमादिति, अलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतत् । |छिपकमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं ॥६०९॥ व्याख्या--पूर्ववत् ॥ तृतीयो गणधरः समाप्त इति । अस्य च प्रथमगणधरादिदं नानात्वं-तस्य जीवसत्तायां संशयः, अस्य तु शरीरातिरिके खल्वात्मनि, न तु तस्य सत्तायामिति ॥ ते पब्वइए सोउं वियत्तो आगच्छई जिणसगासं। वच्चामि ण चंदामी पंदित्ता पज्जुवासामि ।। ६१०॥ व्याख्या-तान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा इन्द्रभूतिप्रमुखान् व्यक्तो नाम गणधरः आगच्छति जिनसका, किंविशि-IC टेनाध्यवसायेन इत्याह-व्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे, वन्दामि भगवन्तं जिनं, तथा वन्दित्वा पर्युपासयामि इति दीप अनुक्रम T 49-4 Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 494 ~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१०], भाष्यं [११९...] (४०) हारिभद्रायवृत्तिः विभागात प्रत सुत्रांक आवश्यक- गाथाक्षरार्थः । इत्येवंभूतेन सङ्कल्पेन गत्वा भगवन्तं प्रणम्य सत्पादान्तिके भगवत्सम्पदुपलब्ध्या विस्मयोत्फुल्नयन- स्तस्थौ, अत्रान्तरे२४६॥ । आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सब्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ११ ॥ व्याख्या-पूर्ववत् । किं मणि पंच भूया अधि नस्थित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण जाणसी तेसिमो अस्थो ।। ५१२॥ हा व्याख्या-किं 'पञ्च भूतानि' पृथिव्यादीनि सन्ति न सन्तीति वा मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् । संशयश्च तवायं विरुदावेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्तते, शेषं पूर्ववत्, तानि चामूनि वेदपदानि वर्तन्ते-'स्वनोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेय' इत्यादीनि, तथा 'द्यावा पृथिवी' इत्यादीनि च, तथा 'पृथ्वी देवता आपो देवता' इत्यादीनि च, एतेषां चायमर्थः तव प्रतिभासते-'खप्नोपमं स्वप्नसदृश, वैनिपातोऽवधारणे 'सकलम्' अशेषं जगत् एष ब्रह्मविधिः' एष परमार्थः प्रकार इत्यर्थः 'अञ्जसा' प्रगुणेन न्यायेन 'विज्ञेयो' विज्ञातन्यो भाग्य इत्यर्थः, ततश्चामूनि किल भूतनिवपराणि, शेषाणि तु सत्ताप्रतिपादकानीति, अतः संशयः, तथा भूताभाव एव च युक्त्युपपन्नः, ते चित्तविभ्रमः, तेषां प्रमाणतोऽग्रहणात् , तथाहि-चक्षुरादिविज्ञानस्य आलम्बन परमाणवो वा स्युः परमाणुसमूहो वा , न तावदणवो, विज्ञाने अप्रतिभासनात्, नापि तत्समूहो, चान्तत्वात् , द्विचन्द्रवत् , धान्तता चास्य समूहिभ्यस्तत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीयत्वात् अवस्तुत्वात् , अतः कुतो भूतसत्तेति, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दायुक्ति हृदयं च तेषां तवसंशयनिबन्धनानां वेदपदा दीप अनुक्रम ॥२४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१२], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक कर* नामयमर्थः, 'स्वमोपमं वै सकल मित्यादीन्यध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनादिसंयोगस्यानियतत्वादस्थिरत्वादसारत्वामाद्विपाककटुकत्वादास्थानिवृत्तिपराणि वर्तन्ते, न तु तदत्यन्ताभावप्रतिपादकानि इति, तथा 'द्यावा पृथिवी'त्यादीनि त। सुगमानि, तथा सौम्य !न च चक्षुरादिविज्ञाने परमाणवो नावभासन्ते, तेषां तुल्यातुल्यरूपत्वात् , तुल्यरूपस्य च चक्षुरादि-13 विज्ञाने प्रतिभासनात्, न च तुल्यं रूपं नास्त्येव, तदभावे खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणान्येषामणुत्वाभावप्रसङ्गात् , न च तद् अन्यव्यावृत्तिमात्रं परिकल्पितमेव, स्वरूपाभावेऽन्यव्यावृत्तिमात्रतायां तस्य खपुष्पकल्पत्वप्रसङ्गात्, तथा चाशे-12 पदार्थव्यावृत्तमपि खपुष्पं स्वरूपाभावान्न सत्ता धारयति, न च तद्रूपमेव सजातीयेतरासाधारणं तदन्यव्यावृत्तिः, तस्य तेभ्यः स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः, स्वभावभेदानभ्युपगमे च सजातीयेतरभेदानुपपत्तेः, सजातीयैकान्तब्यावृत्ती च विजातीयव्यावृत्तावनणुत्ववदणुत्वाभावप्रसङ्गः, भावे च तुल्यरूपसिद्धिरिति, न चेयमनिमित्ता तुल्यबुद्धिः, देशादिनिय| मेनोत्पत्तेः, न च स्वमबुद्ध्या व्यभिचार, तस्या अप्यनेकविधनिमित्तबलेनैव भावात्, आह च भाष्यकार:-"अणुभूय दिह चिन्तिय सुय पयइवियार देवयाऽणूया । सुमिणस्स निमित्ताई पुण्णं पावं च नाभावो ॥१॥" न च भूताभावे स्वमास्वमगन्धर्षपुरपाटलिपुत्रादिविशेषो युज्यते, न चालयविज्ञानगतशक्तिपरिपाकसमनन्तरोपजातविकल्पविज्ञानसामर्थ्यमस्यास्तु-| ल्यबुद्धेः कारणं, स्वलक्षणादस्वलक्षणानुपपत्तेः, नापि पारम्पर्येण तदुत्पत्तियुज्यते, स्वलक्षणसामान्यलक्षणातिरिक्तवस्त्व&भावेन पारम्पर्यानुपपत्तेः, बाह्यनीलायभावे च शक्तिविपाकनियमो न युज्यते, नियामकसहकारिकारणाभावात् । 1 अनुभूतं आई चिन्तितं श्रुतं प्रकृतिविकारः देवताऽनूपः । समय निमित्तानि पुण्यं पापं च नाभावः ॥ १॥ दीप अनुक्रम JABERatinentationa wlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६१२], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक ॥२४७॥ हारिभद्रीयवृत्तिः |विभागः१ प्रत सुत्रांक किंच-आलयात्पीतादिसंवेदनजननशक्कयो भिन्ना वा स्युरभिन्ना वा !, यद्यभिन्नाः सर्वैकत्वप्रसङ्गा, एकालयाभेदाभ्यथानुपपत्तेः, ततश्च कुतस्तासां पीतादिप्रतिभासहेतुता , प्रयोगश्च-नीलविज्ञानहेतुतया परिकल्पिता शक्तिर्न तद्धर्मा, शक्त्यन्तररूपत्वात् , शक्त्यन्तरस्वात्मवत् , अथ भिन्नास्तथाप्यवस्तुसत्यो वा स्युः वस्तुसत्यो वा?, यद्यवस्तुसत्यः समूहवत्कुतः प्रत्ययत्वम् ?, अथ वस्तुसत्यो बाह्योऽर्थः केन वार्यत इति !, एवमणूनां तुल्यरूपग्रहणं तदाभासज्ञानोत्पत्तेः, न च विषयबलोपजातसंवेदनाकारस्य विषयानेदाभेदविकल्पद्वारेणानुपपत्तिर्भाव्या, विशिष्टपरिणामोपेतार्थसन्निधावात्मनः कालक्षयोपशमादिसव्यपेक्षस्य नीलादिविज्ञानमुत्पद्यते, तथापरिणामादू, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा नीलात्संवेदनानीलसंवेदनान्तरानुपपत्तिः, प्रागुपन्यस्तविकल्पयुगलकसम्भवादित्येवं परमाणुतुल्यरूपग्रहोऽविरुद्धः, अतुल्यरूपं तु योगिगम्यत्वात् विशिष्टक्षयोपशमाभावात्सर्वथा न परिगृह्यते, न च परमाणूनां बहुत्वेऽपि विशेषाभावाद् घटशरावादिबुद्धेः तुल्यत्वप्रसङ्गो, विशेषाभावस्यासिद्धत्वात् , तथा च परमाणव एव विशिष्टपरिणामवन्तो घट इति, न च परमाणुसमुदायातिरिक्तानि भूतानि इत्यलं प्रसङ्गेन । छिपकमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पचईओ पंचहिँ सह खंडियसएहि ॥ ११३॥ व्याख्या-पूर्ववत् । इति चतुर्थों गणधरः समाप्तः । ते पब्वइए सोउं सुहमो आगच्छई जिणसगासं । वचामि ण बंदामी बंदित्ता पजुवासामी ॥ १४ ॥ दीप अनुक्रम R॥२४७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 497~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६१४], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-'तान् इन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रत्रजितान् श्रुत्वा सुधर्मः पञ्चमो गणधर आगच्छति जिनसकाश, किम्भूतेनाध्यवसायेन इत्याह-पश्चाट्टै पूर्ववत् । स च भगवन्तं दृष्ट्वा अतीव मुमुदे, अत्रान्तरे आमट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६१५ ।। व्याख्या-पूर्ववत् । किं मण्णि जारिसो इह भवंमिसो तारिसो परभवेऽवि? वेयपयाण य अत्थंण जाणसी तेसिमो अस्थो ॥३१६।। व्याख्या-किं मन्यसे ? यो मनुष्यादिर्यादृश इह भवे स तादृशः परभवेऽपि, नन्वयमनुचितस्ते संशयः, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , संशयश्च तवायं विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्त्तते, तानि चामूनि-"पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते' पुरुषत्वं प्रामोतीत्यर्थः 'पशवः पशुत्वम्' इत्यादीनि, तथा 'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इत्यादीनि च, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चः पूर्ववत् , तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यक्षरार्थः। तत्र वेदपदानां त्वमित्थमर्थ मन्यसे-पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते, पुरुषत्वमेव प्राप्नोतीत्यर्थः, तथा पशवो-गवादयः पशुत्वमेवेत्यमूनि भवान्तरसादृश्याभिधायकानि, तथा 'शृगालो वै एप' इत्यादीनि तु भवान्तरे वैसादृश्यख्यापकानीत्यतः संशयः, कारणानुरूपं च कार्यमुत्पद्यते इति तेऽभिप्रायो, यतो न शालिबीजाद्गोधूमाङ्करप्रसूतिः इति, तत्र वेदपदानामयमर्थः-पुरुषः खबिह जन्मनि स्वभावमाईवाजेवादिगुणयुक्तो मनुष्यनामगोत्रे कर्मणी बद्धा मृतः सन् पुरुषत्वमश्नुते, न तु नियमतः, एवं पशवोऽपि पशुभवे मायादिगुणयुक्ताः पशुनामगोत्रे कर्मणी बवा मृताः सन्तः पशुत्वमासादयन्ति, न तु नियो गतः इति, कर्मसापेक्षो जीवानां दीप अनुक्रम 4-28 Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 498~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६१६], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- ॥२४८॥ प्रत सूत्राक गतिविशेष इत्यर्थः, शेपाणि तु सुगमानि, नव नियमतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते, वैसादृश्यस्यापि दर्शनात्, तद्यथा-- 1हारिभदीशाच्छरो जायते, तस्मादेव सर्पपानुलिप्तात् तृणानीति, तथा गोलोमाविलोमभ्यो दूर्वेति, एवमनियमः, अथवा कारणानु- यवृत्तिः रूपकार्यपक्षेऽपि भवान्तरवैचित्र्यमस्य युक्तमेव,यतो भवाडरबीजं सौम्य सात्मकं कर्म,तच्च तिर्यग्नरनारकामराद्यायुष्कभेद- विभागः १ भिन्नत्वात् चित्रमेव, अतः कारणवैचित्र्यादेव कार्यवैचित्र्यमिति, वस्तुस्थित्या तु सौम्य ! न किश्चिदिह लोके परलोके वा सर्वथा समानमसमान वाऽस्ति, तथा चेह युवा निजैरप्यतीतानागतैर्वालवृद्धादिपर्यायैः सर्वथा न समानः, अवस्थाभेदग्रहणात् , नापि सर्वथाऽसमानः, सत्ताद्यनुगमदर्शनाद्, एवं परलोकेऽपि मनुजो देवत्वमापन्नो न सर्वथा समानोऽसमानो वा, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, अन्यथा दानदयादीनां वैयर्थ्यप्रसङ्गात् । छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण । सो समणो पब्वइओ पंचहिँ सह खंडियसएहिं ॥ ६१७॥ व्याख्या-पूर्ववत् ॥ इति पञ्चमो गणधरः समाप्तः। ते पब्वइए सोउ मंडिओ आगच्छह जिणसगासं । बच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पज्जुबासामि ॥ ६१८॥ व्याख्या-तानिन्द्रभूतिप्रमुखान् प्रबजितान् श्रुत्वा मण्डिकः षष्ठो गणधरः आगच्छति जिनसकाश, किम्भूतेनाध्यवसायेनेत्याह-वच्चामि णमित्यादि पूर्ववत् । स च भगवत्समीपं गत्वा प्रणम्य च भुवननाथमतीव मुदितः तद | ॥२४८॥ प्रतस्तस्थौ, अत्रान्तरे आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविष्पमुफेणं । नामेण य गोत्तेण य सब्बण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६१९॥ दीप अनुक्रम T CROSSSSS JanEa ion Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६१९], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-पूर्ववत् । किंमनिबंधमोक्खा अस्थि ण अधित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अस्थं ण याणसी तेसिमो अत्थो ॥ ३२०॥ | व्याख्या-किं मन्यसे बन्धमोक्षौ स्तो न वा?, नन्वयमनुचितस्ते संशयः,व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्त्तते, वेदपदानां चार्थ न जानासि, चः पूर्ववत् , तेषामयमों-वक्ष्यमाणलक्षण इत्यर्थः । तानि चामूनि वेदपदानि स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा, न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तरं वा वेद' इत्यादीनि, तथा 'नह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इत्यादीनि हाच, एषां चायमर्थस्ते चेतसि प्रतिभासते-स एषः-अधिकृतो जीवः विगुणः-सत्त्वादिगुणरहितः विभुः-सर्वगतः न बध्यते पुण्यपापाभ्यां न युज्यत इत्यर्थः, संसरति वा, नेत्यनुवर्तते, न मुच्यते-न कर्मणा वियुज्यते, बन्धाभावात् , मोचयति वाऽन्यम् , अनेनाकर्तृकत्वमाह, न वा एष बाह्यम्-आत्मभिन्नं महदहङ्कारादि अभ्यन्तरं-स्वरूपमेव वेद-विजानाति, प्रकृतिधर्मत्वात् ज्ञानस्य, प्रकृतेश्चाचेतनत्वाद्वन्धमोक्षानुपपत्तिरिति भावः । ततश्चामूनि किल बन्धमोक्षाभावप्रतिपादकानि, तथा 'नह बैं' नैवेत्यर्थः, सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्तीति-बाह्याध्यात्मिकानादिशरीरसन्तानयुक्तत्वात् सुखदुःखयोरपहतिः संसारिणो नास्तीत्यर्थः, अशरीरं वा वसन्तम्-अमूर्त्तमित्यर्थः, प्रियाप्रिये न स्पृशतः, कारणाभावादित्यर्थः, अमूनि च बन्धमोक्षाभिधायकानीति, अतः संशयः,तथा सौम्य भवतोऽभिप्रायो-बन्धोहि जीवकर्मसंयोगलक्षणः,स आदिमानादिदारहितो वा स्यात् ?, यदि प्रथमो विकल्पस्ततः किं पूर्वमात्मप्रसूतिः पश्चात्कर्मणः उत पूर्व कर्मणः पश्चादात्मनः आहोन्धि दीप अनुक्रम JABERatinintamational Malaingionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२०], भाष्यं [११९...] (४०) हारिभद्री यवृत्ति विभागः१ प्रत सूत्राक आवश्यक- युगपदुभयस्येति !, किं चातः, न तावत्पूर्वमात्मप्रतियुज्यते, निर्हेतुकत्वाद् , व्योमकुसुमवत् , नापि कर्मणः प्राक् प्रसूतिः, ॥२४९॥ कर्तुरभावात्, न चाकर्तृकं कर्म भवति, युगपत्प्रसूतिरप्यकारणत्वादेव न युज्यते, न चानादिमत्यप्यात्मनि बन्धो युज्यते, भावा बन्धकारणाभावाद् गगनस्येव, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा मुक्तस्यापि बन्धप्रसङ्गः, तथा च सति नित्यमोक्षत्वान्मो- क्षानुष्ठानवैयर्यम् , अथ द्वितीयः पक्षः, तथापि नात्मकर्मवियोगो भवेद् , अनादित्वाद्, आत्माकाशसंयोगवद्, इत्थं मोक्षो न घटते, तथा देहकर्मसन्तानानादित्वाच्च कुतो मोक्ष इति ते मतिः। तत्र वेदपदानामयमर्थः-स एप-मुक्तात्मा विगताः छानस्थिकज्ञानादयो गुणा यस्य स विगुणः विभुः-विज्ञानात्मना सर्वगतः न बध्यते-मिथ्यादर्शनादिवन्धकारणाभावात् संसरति वा-मनुजादिभवेषु कमेंबीजाभावात्, नेत्यनुवर्तते, न मुच्यते, मुक्तत्वात् , मोचयति वा तदा खलूप-1 देशदानविकलत्वात् , नेत्यनुवर्तते, तथा संसारिकसुखनिवृत्त्यर्थमाह-नवा एष-मुक्तात्मा बाह्यं-सकन्दनादिजनितम् आभ्यन्तरम्-आभिमानिक वेद-अनुभवात्मना विजानातीत्येवमेतानि मुक्तात्मस्वरूपाभिधायकाम्पेव, शेषाणि तु सुगमानि, तथा जीवकर्मणोरप्यनादिमतोरनादिमानेव संयोगो, धर्माधर्मास्तिकायाकाशसंयोगवदिति, न चानादित्वात्संयोगस्य वियोगाभावः, यतः काञ्चनोपलयोः संयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि क्षारमृत्पुटपाकादिद्रव्यसंयोगोपायतो विघटते, एवं जीवकर्मणोरपि ज्ञानदर्शनचारित्रयोगोपायाद्वियोग इति, न चानादित्वात्सर्वस्य कर्मणो जीवकृतत्वानुपपत्तिः, यतो वर्तमानतया मिथ्यादर्शनादिसव्यपेक्षात्मनोपात्तं कृतमित्युच्यते, सर्व च वर्तमानत्वेन मिथ्यादर्शनादिसव्यपेक्षात्मोपात्त ६ कर्म अनादि च, कालवत्, यथा हि यावानतीतः कालस्तेनाशेषेण वर्तमानत्वमनुभूतमथ चासावनादिरिति, न चामृतस्य दीप अनुक्रम T ॥२४९॥ JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६२०], भाष्यं [११९...] मूर्त्तसंयोगो न घटते, घटाकाशसंयोगदर्शनाद्, वियोगस्तु दर्शितएव, न च मुक्तस्यापि कर्मयोगः, तस्य कषायादिपरिणामाभावात् कषायादियुक्तश्च जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते इति न चेत्थं भव्योच्छेदप्रसङ्गः, अनागत का उवत्तेपामनन्तत्वात् न च परिमितक्षेत्रे तेषामवस्थानाभावः, अमूर्त्तत्वात् प्रतिद्रव्यमनन्त केवलज्ञानदर्शन सम्पातव नर्त्तकीनयनविज्ञानसम्पातवद्धा, इत्यलं प्रसङ्गेन । छिण्णंमि संसयंमी जिणेण जरमरणविष्यमुकेणं । सो समगो पव्वहओ अद्भुदुहिं सह खंडियसएहिं ॥ ६२१ ।। व्याख्या -- पूर्ववत्, नवरम् - अर्द्धचतुर्थैः सह खण्डिकशतैः । इति षष्ठो गणधरः समाप्तः । ते पव्वइए सोउं मोरिओ आगच्छई जिणसगासं । वच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पजुवासामि ।। ६२२ ।। व्याख्या - पूर्ववत्, नवरं मौर्य आगच्छति जिनसकाशमिति नानात्वम् । आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविषयमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं ।। ६२३ ॥ सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव । किं मन्नसि संति देवा उयाहु न सन्तीति संसओ तुज्झं । वेयपयाण य अत्थं न याणसी तेसिमो अत्थो ॥ ६२४ || व्याख्या - कंसन्ति देवा उत न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं प्राग्वत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो वर्त्तते, पश्चार्द्धं पूर्ववत् । तानि चामूनि वेदपदानि 'स एप यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छती' त्यादीनि, तथा 'अपाम सोमम्, अमृता अभूम, अगमन् ज्योतिः, अविदाम देवान् किं नूनमस्मांस्तृणवदरातिः किमु धूर्त्तिरमृतम Education intemational For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ६२४ ], भाष्यं [११९...] ॥२५०॥ आवश्यक र्त्यस्ये' त्यादीनि च, तथा 'को जानाति ? मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुबेरादीनि' त्यादि, एतेषां चायमर्थस्ते मती ॐ प्रतिभासते यथा अपाम- पीतवन्तः सोमं - उतारसम् अमृता-अमरणधर्माणः अभूम-भूताः स्म, अगमन् - गताः ज्योतिःस्वर्गम्, अविदाम देवान् देवत्वं प्राप्ताः स्मः, किं नूनमस्मांस्तृणवत्करिष्यतीति, अयमर्थः- अरातिर्व्याधिः किमु प्रश्ने । धूतिः- जरा अमृतमर्त्यस्य- अमृतत्वं प्राप्तस्य पुरुषस्येत्येवं द्रष्टव्यम्, अमरणधर्मिणो मनुष्यस्य किं करिष्यन्ति व्याधयः १ । तथा सौम्य ! त्वमित्यं मन्यसे - नारकाः सङ्किष्टासुरपरमाधार्मिकायत्ततया कर्मवशतया च परतन्त्रत्वात् स्वयं च दुःख| सम्प्रतप्तत्वादिहागन्तुमशक्ता एवं, अस्माकमप्यनेन शरीरेण तत्र कर्मवशतया एवं गन्तुमशक्यत्वात् प्रत्यक्षीकरणोपायासम्भवाद् आगमगम्या एव, श्रुतिस्मृतिग्रन्थेषु श्रूयमाणाः श्रद्धेया भवन्तु ये पुनर्देवाः स्वच्छन्दचारिणः कामरूपाः प्रकृ|ष्टदिव्यप्रभावात् इहागमनसामर्थ्यवन्तस्ते किमितीह नागच्छन्ति ? यतो न दृश्यन्त इति, अतो न सन्ति ते, अस्मदाद्यप्रत्यक्षत्वात् खरविषाणवत्, तत्र वेदपदानां चेत्यादि पूर्ववत्, तत्र वेदपदानामयमर्थः ' को जानाति ? मायोपमान् गीर्वा णानिन्द्रय मवरुणकुबेरादीनित्यादि, तत्र परमार्थचिन्तायां सन्ति देवाः, मत्प्रत्यक्षत्वात् मनुष्यवत् भवतोऽपि, आगमाच्च सर्वथा, सर्वमनित्यं मायोपमं न तु देवनास्तित्वपराणि वेदवाक्यानीति, तथा स्वच्छन्दचारिणोऽपि चामी यदिह नागच्छन्ति तत्रेदं कारणम्-नागच्छन्तीह सदैव सुरगणाः, सङ्क्रान्तदिव्यप्रे मत्वाद्विषयप्रसक्तत्वात् प्रकृष्टरूपगुणस्त्रीप्रसक्तविच्छिन्नर म्यदेशान्तरगतमनुष्यवत्, तथाऽसमाप्तकर्तव्यत्वाद्, बहु कर्त्तव्यताप्रसाधन प्रयुक्त विनीत पुरुषवत्, तथाऽनधीनमनुजकार्यस्थात्, नारकवत्, अनभिमतगेहादौ निःसङ्गयतिवद्वेति, तथाऽशुभत्वान्नरभवस्य तद्गन्धासहिष्णुतया नागच्छन्ति, Educat For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~503~ ॥२५०॥ Boor मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२४], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक CCCCCCC मृतकडेवरमिव हंसा इति, जिनजन्ममहिमादिषु पुनर्भक्तिविशेषाद् भवान्तररागतश्च कचिदागच्छन्त्येष, तथा चैते साम्प्रतं भवतोऽपि प्रत्यक्षा एष, शेषकालमपि सामान्यतश्चन्द्रसूर्यादिविमानालयप्रत्यक्षत्वात्तद्वासिसिद्धिः, इत्यलं प्रसङ्गेन । | छिन्नंमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्वइओ अहर्हि सह खंडियसएहि ॥ ६२५ ॥ व्याख्या-पूर्ववत् । समाप्तः सप्तमो गणधरः। ते पब्वइए सो अपिओ आगच्छई जिणसगासं। वच्चामि ण चंदामी वंदित्ता पजवासामि ॥ ६२६।। व्याख्या-पूर्ववन्नवरमकम्पिकः आगच्छतीति नानात्वम् । KI आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६२७ ॥ व्याख्या-सपातनिका पूर्ववदेव । किं मन्ने नेरइया अस्थि न अथित्ति संसओ तुझं । वेयपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्यो ॥६२८॥ | व्याख्या-नरान् कायन्तीति नरकास्तेषु भवा नारकाः, किं नारकाः सन्ति न सन्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुद्भवो वत्तेते, शेष पूर्ववत्, वेदपदानि चामूनि-'नारको पै एष जायते, यः शूद्रान्नमश्नाति' इत्यादि, 'एष' ब्राह्मणो नारको भवति यः शूद्रान्नमत्ति, 'नह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ती' त्यादि,गतार्थ, युक्तय एवोच्यन्ते-तत्राकम्पिकाभिप्रायमाह-सौम्य ! त्वमित्थं मन्यसे-देवा हि चन्द्रादयस्तावत् प्रत्यक्षा एव, अन्येऽप्युपयाचितादिफलदर्शनानुमानतोऽवगम्यन्ते, नारकास्त्वभिधानव्यतिरिक्तार्थशून्याः कथं गम्यन्त इति !, प्रयोगश्च-न सन्ति दीप अनुक्रम Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 504 ~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२८], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक ॥२५शा प्रत सुत्राक __ नारकाः, साक्षादनुमानतो वाऽनुपलब्धेः, व्योमकुसुमवत् , व्यतिरेके देवाः, इत्वं पूर्वपक्षमाशक्य भगवानेवाह-सौम्य ।। ते हि नारकाः कर्मपरतन्त्रत्वादिहागन्तुमसमर्थाः, भवद्विधानामपि तत्र गमनशक्त्यभावः, कर्मपरतन्त्रत्वादेव, अतो भव- 11 हारिभद्री यवृत्तिः द्विधानां तदनुपलब्धिरिति, क्षायिकज्ञानसम्पदुपेतानां तु वीतरागाणां प्रत्यक्षा एव, तेषां सकलज्ञानयुक्तत्वाद् अपास्तस-18विभागात मस्तावरणत्वात् , न चाशेषपदार्थविदः साक्षात्कारिक्षायिकभावस्था न सन्ति, यतो ज्ञस्वभाव आत्मा ज्ञानावरणीयप्रतिबद्धस्वभावत्वात् नाशेष वस्तु विजानाति, तरक्षयोपशमजस्तु तस्य स्वरूपाविर्भावविशेषो दृश्यते, तथा च कश्चिद्वहु जानाति कश्चिदहतरमिति क्षायोपशमिकोऽयं ज्ञानवृद्धिभेद इति, न ह्ययं ज्ञानविशेषः खल्वात्मनस्तत्स्वाभाव्यमन्तरेणोपपद्यते। इति, एवं चापगताशेषज्ञानावरणस्य ज्ञस्वभावत्वादशेषज्ञेयपरिच्छेदकत्वमिति, तथा चास्मिन्नेवार्थे लौकिको दृष्टान्तः, यथा| हि पद्मरागादिरूपलविशेषो भास्वरस्वरूपोऽपि स्वगतमलकलङ्काङ्कितस्तदा वस्त्वप्रकाशयन्नपि क्षारमृत्पुटपाकायुपायतस्तदपाये प्रकाशयति, एवमात्मापि ज्ञस्वभावः कर्ममलिनः प्रागशेष वस्त्वप्रकाशयन्नपि सम्यक्त्वज्ञानतपोविशेषसंयोगोपायतोऽपेत-| समस्तावरणः सर्व वस्तु प्रकाशयति, प्रतिबन्धकाभावात् , न चाप्रतिबद्धस्वभावस्यापि पद्मरागवत्सर्वत्र प्रकाशनव्यापाराभावः, तस्य ज्ञस्वभावत्वाद्, न हि ज्ञो ज्ञेये सति प्रतिवन्धशून्यो न प्रवर्तते, न च प्रकाशकस्वभावपद्मरागेणैव व्यभिचारो। |भावयितव्या, तस्य सनिकृष्टार्थप्रकाशनात्, विप्रकृष्टविषये तु देशविप्रकर्षेणैव प्रतिबद्धत्वादप्रवृत्तिः, न चात्मनोऽपि देशवि-| प्रकर्ष एवापरिच्छेदहेतुः, तस्यागमगम्येषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेष्वखिलपदार्थेष्वधिगतिसामर्थ्यदर्शनात् , तथा च परमा- ॥२५॥ णुमूलकीलोदकामरलोकचन्द्रोपरागादिपरिच्छेदसामर्थ्यमस्यागमोपदेशतः क्षयोपशमवतोऽपि दृश्यते, एवं साक्षात्कारि। दीप अनुक्रम andiDram.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६२८], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक क्षायिकमपि प्रतिपत्तव्यमिति । एवं क्षायिकज्ञानवतां नारकाः प्रत्यक्षा एव, भवतोऽप्यनुमानगम्याः, तच्चेदम्-विद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापफलं, कर्मफलत्वात् , पुण्यफलवत्, न च तिर्यगूनरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात्, अनुत्तरसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत्, तथाऽऽगमगम्याश्च ते, यत एवमागम:-"सप्ततानुबन्धमुक्तं दुःखं नरकेषु तीव्रपरिणामम् । तिर्यभूष्णभयक्षुत्तृडादिदुःखं सुखं चाल्पम् ॥ १॥ सुखदुःखे मनुजानां मनःशरीराश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवानामस्पं दुःखं तु मनसि भवम् ॥२॥' इत्यादि, एवम्छिपणंमि संसपमी जिणेण जरमरणविष्पमुकेणं । सो समणो पब्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ॥६२९॥ व्याख्या-पूर्ववन्नवरं त्रिभिः सह खण्डिकशतैरिति ॥ अष्टमो गणधरः समाप्तः॥ ते पचहए सो अपलभाया आगच्छइ जिणसगासं । बच्चामि ण बंदामी वंदित्ता पज्जुवासामि ॥ ६३०॥ व्याख्या--पूर्ववन्नवरम्-अचलभ्राता आगच्छति जिनसकाशमिति । आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गोत्तेण य सब्वण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६३१॥ व्याख्या-सपातनिका पूर्ववत् । । |किं मन्नि पुग्णपावं अत्थि न अस्थिति संसओ तुझं । वेयपयाण य अस्थं ण याणसी तेसिमो अस्थो॥३२॥ ८ व्याख्या-किं पुण्यपापे स्तः न वा ? मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिप्रभवो दर्शनान्तरविरुद्धश्रुतिप्रभवश्व, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, चशब्दाद्युक्तिं हृदयं च, तेषामयमर्थ इत्यक्षरार्थः । तानि दीप अनुक्रम Janmitrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 506~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६३२], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- ॥२५२॥ प्रत सुत्रांक चामूनि वेदपदानि-'पुरुष एवेदं ग्निं सर्व मित्यादीनि यथा द्वितीयगणधरे, व्याख्यापि तथैव, स्वभावोपन्यासोऽपि तथै-पाहारिभद्रीच, तथा सौम्याचलनातः त्वमित्वं मन्यसे-दर्शनविप्रतिपत्तिश्चात्र, तत्र केषाशिदर्शनम्-पुण्यमेवैकमस्ति न पापं. तदेव रायवृत्ति विभागः१ चावाप्तप्रकर्षावम्थं स्वर्गाय क्षीयमाणं तु मनुष्यतिर्यमारकादिभवफलाय,तदशेषक्षयाच्च मोक्ष इति, यथाऽत्यन्तपथ्याहारासेवना-8 दुत्कृष्टमारोग्यसुखं भवति, किञ्चित्किश्चित्पथ्याहारपरिवर्जनाचारोग्यसुखहानिः, अशेषाहारपरिक्षयाच सुखाभावकल्पोऽपवर्गः, अन्येषां तु पापमेवैकं,न पुण्यमस्ति, तदेव चोत्तमावस्थामनुप्राप्तं नारकभवायालं, क्षीयमाणं तु तियनरामरभवायेति, तदत्यन्तक्षयाच मोक्ष इति, यथा अत्यन्तापथ्याहारसेवनात्परमनारोग्यं, तस्यैव किञ्चित्किश्चिदपकर्षादारोग्यसुखम् ,अशेषपरित्यागान्मृतिकल्पो मोक्ष इति, अन्येषां तूभयमप्यन्योऽन्यानुविद्धस्वरूपकल्पं सम्मिश्रसुखदुःखाख्यफलहेतुभूतमिति, तथा च किल नैकान्ततः संसारिणः सुखं दुःखं चास्ति, देवानामपीादियुक्तत्वात् , नारकाणामपि च पञ्चेन्द्रियत्वानुभवाद्, इत्थंभूतपुण्यपापाख्यवस्तुक्षयाचापवर्ग इति, अन्येषां तु स्वतन्त्रमुभयं विविक्तसुखदुःखकारणं, तत्क्षयाच निःश्रेयसावाप्तिरिति, अतो दर्शनानां परस्परविरुद्धत्वात् अप्रमाणत्वादस्मिन्विषये प्रामाण्याभाव इति तेऽभिप्रायः, 'पुण्यः पुण्येने -16 त्यादिना प्रतिपादिता च तत्सत्ता, अतः संशयः, तत्र वेदपदानां चार्थ न जानासि, तेषामयमर्थः यथा द्वितीयगणधरे तथा स्वभावनिराकरणयुक्तो वक्तव्यः, सामान्यकर्मसत्तासिद्धिरपि तथैव वक्तव्या, या दर्शनानामप्रामाण्यं मन्यसे, परस्पर-131 । ॥२५॥ विरुद्धत्वाद्, एतदसाम्प्रतम् , एकस्य प्रमाणत्वात् , तथा च पाटलिपुत्रादिस्वरूपाभिधायकाः सम्यक् तद्रूपाभिधायकयुक्ताः परस्परविरुद्धवचसोऽपि न सर्व एवाप्रमाणतां भजन्ते, तत्र यत्प्रमाणं तदप्रमाणनिरासद्वारेण प्रदर्शयिष्यामः, तत्र न दीप अनुक्रम Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ६३२ ], भाष्यं [ ११९...] तावरपुण्यमेवापचीयमानं दुःखकारणं, तस्य सुखहेतुत्वेनेष्टत्वात् स्वल्पस्यापि स्वल्पमुख निर्वर्त्तकत्वात् तथा चाणीयसो हेमपिण्डादणुरपि सौवर्ण एव घटो भवति, न मार्त्तिक इति, न च तदभावो दुःखहेतुः, तस्य निरुपाख्यत्वात्, न च सुखाभाव एव स्वसत्ताविकलो दुःखं, तस्यानुभूयमानत्वात् ततश्च स्वानुरूपकारणपूर्विका दुःखप्रकर्षानुभूतिः, प्रकर्षानुभूतित्वात् पुण्यप्रकर्षानुभूतिवत् न च पुण्यलेश एवानुरूपं कारणमस्या इति, एवं दृष्टान्तोऽप्याभासितथ्यः, केवलपुण्यवादनिरासः । केवलपापपक्षेऽपि विपरीतमुपपत्तिजालमिदमेव वाच्यं नापि तत्सर्वथाऽन्योऽन्यानुविद्धस्वरूपं निरंशवस्त्वन्तरमेव, सर्वथा सम्मिश्रसुखदुःखाख्य कार्यप्रसङ्गाद्, असदृशश्च सुखदुःखानुभवो, देवानां सुखाधिक्यदर्शनात्, नारकाणां च दुःखाधिक्यदर्शनात् न च सर्वथा सम्मिश्रैकरूपस्य हेतोरल्पबहुत्वभेदेऽपि कार्यस्य स्वरूपेण प्रमाणतोऽल्पबहुत्वं विहाय भेदो युज्यते, न हि मेचककारणप्रभवं कार्य्यमन्यतमवण्णत्कटतां विभर्त्ति तस्मात् सुखातिशयस्यान्यन्निमित्तमन्यच्च दुःखातिशयस्येति । न च सर्वथैकस्य सुखातिशयनिबन्धनांशवृद्धिदुःखातिशयकारणांशहान्या सुखातिशयप्रभवाय कल्पयितुं न्याय्या, भेदप्रसङ्गात्, तथा च यद्वृद्धावपि यस्य वृद्धिर्न भवति तत्ततो भिनं प्रतीतमेव, एवं सर्वथैकरूपता पुण्यपापयोर्न घटते, कर्मसामान्यतया त्वविरुद्धाऽपि, यतः - 'सात (सद्वेद्य) सम्यक्त्व हास्य रतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यमन्यत्पाप ( तत्त्वा० अ०८ सू० २६) मिति, सर्व चैतत्कर्म, तस्माद्विविके पुण्यपापे स्त इति । संसारिणश्च सत्त्वस्यैतदुभयमप्यस्ति, किञ्चित्कस्यचिदुपशान्तं किश्चित्क्षयोपशमतामुपगतं किञ्चित्क्षीणं किश्चिदुदीर्णम्, अत एव च सुखदुःखातिशय वैचित्र्यं जन्तूनामिति । - Education intimation For Parts Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६३३], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक- छिपणमि संसर्यमी जिणेण जरमरणविप्पमुफेणं । सो समणो पब्वहओ तिहि उ सह खंडियसपहिं ।। १३३॥ हारिभद्रीव्याख्या-पूर्ववत् । नवमो गणधरः समाप्तः।। सायदृत्तिः ॥२५३॥ ते पव्वइए सो मेयजो आगच्छई जिणसगासं । बच्चामि ण वंदामी वंदित्ता पञ्जुवासामि ॥ ६३४ ॥ विभागः१ व्याख्या-पूर्ववन्नवरं मेतार्यः आगच्छतीति । आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सब्वण्णू सव्वदरिसीणं ।। ६३५ ॥ सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव।। [किं मण्णे परलोगो अस्थि णस्थित्ति संसओ तुजतं । वेपपयाण य अत्थं ण याणसी तेसिमो अत्यो ॥ ६३६ ।।। BI व्याख्या-किं परलोको-भवान्तरगतिलक्षणोऽस्ति नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत् , अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिमित्तो वर्त्तते, शेषं पूर्ववत्, तानि चामूनि वेदपदानि-विज्ञानघने त्यादीनि, तथा 'स वै आत्मा ज्ञानमय' इत्यादीनि च पराभिप्रेतार्थयुक्तानि यथा प्रथमगणधर इति, भूतसमुदायधर्मत्वाच चैतन्यस्य कुतो भवान्तरगतिलक्षणपरलोकसम्भव इति ते मतिः, तद्विधाते चैतन्यविनाशादिति, तथा सत्यप्यात्मनि नित्येऽनित्ये वा कुतः परलोकः १, तस्यात्मनोऽपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वात् विभुत्वात् तथा निरन्वयविनश्वरस्वभावेऽप्यात्मनि कारणक्षणस्य सर्वथाऽभावोत्तरकालमिह लोकेऽपि क्षणान्तराप्रभवः कुतः परलोक इत्यभिप्रायः, तत्र वेदपदानां चार्थं न जानासि, तेषामयमर्थः-तत्र 'विज्ञानघने'त्यादीनां पूर्ववद्वाच्यं, न च भूतसमुदायधर्मश्चैतन्य, कचित्सन्निकृष्टदेहोपलब्धावपि चैतन्य दीप अनुक्रम ॥२५३॥ T wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६३६], (४०) भाष्यं [११९...] प्रत सूत्राक |संशयात्, न च धर्मिग्रहणे धर्माग्रहणं युज्यते, इतश्च देहादन्यच्चैतन्य, चलनादिचेष्टानिमित्तत्वात् , इह ययस्य चलनादिचेष्टानिमित्तं तत्ततो भिन्नं दृष्टं, यथा मारुतः पादपादिति, ततश्च चैतन्यस्याऽऽत्मधर्मत्वात्तस्य चानादिमत्कर्मसन्तति समालिशितत्वात् उत्पादन्ययधौव्ययुक्तत्वात्कर्मपरिणामापेक्षमनुष्यादिपर्यायनिवृत्त्या देवादिपर्यायान्तरावाप्तिरस्याविरुशाद्धति, नित्यानित्यैकान्तपक्षोक्तदोषानुपपत्तिश्चात्रानभ्युपगमात् इति ।। छिण्णंमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पब्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ॥६३७॥ व्याख्या-पूर्ववत् । दशमो गणधरः समाप्तः॥ | ते पष्चइए सोउं पभासो आगच्छई जिणसगासं । वचामि ण चंदामी वंदित्ता पजुवासामि ॥ ६३८॥ व्याख्या-पूर्ववन्नवरं प्रभासः आगच्छतीति। आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुकेणं । नामेण य गोत्तेण य सवण्णू सव्वदरिसीणं ॥ ६३९ ॥ सपातनिका व्याख्या पूर्ववदेव। किं मपणे निव्वाणं अस्थि णस्थित्ति संसओ तुझं । चेयपयाण य अत्थं ण याणसि तेसिमो अत्यो ॥१४॥ &ा व्याख्या-किं निर्वाणमस्ति नास्तीति मन्यसे, व्याख्यान्तरं पूर्ववत्, अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिसमुत्थो वर्तते, शेषं पूर्ववत् । तानि चामूनि वेदपदानि-'जरामर्थं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं' तथा 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, परमपरं ४|च, तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेति, एतेषां चायमर्थस्तव मती प्रतिभासते-अग्निहोत्रक्रिया भूतवधोपकारभूतत्वात दीप अनुक्रम JABERatinintamational Sarwaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ६४० ], भाष्यं [ ११९...] हारिभद्री• यवृत्तिः ॥२५४॥ आवश्यक - ४ शबलाकारा, जरामय्यवचनाच्च तस्याः सदाकरणमुक्तं, सा चाभ्युदयफला, कालान्तरं च नास्ति यस्मिन्नपवर्गप्रापणक्रियारम्भ इति, तस्मात्साधनाभावान्नास्ति मोक्षः, ततश्चामुनि मोक्षाभावप्रतिपादकानि, शेषाणि तु तदस्तित्वख्यापकानीत्यतः संशयः, तथा संसाराभावो मोक्षः, संसारश्च तिर्यग्नरनारकामरभवरूपः, तद्भावानतिरिक्तश्चात्मा, ततश्च तदभावे ५५ विभागः १ आत्मनोऽप्यभाव एवेति कुतो मोक्षः ? । तत्र वेदानां चार्थे न जानासि तेषामयमर्थ:-'जरामय्यं वा' वाशब्दोऽप्यर्थे, ततश्च यावज्जीवमपि न तु नियोगत इति, ततश्चापवर्गप्रापणक्रियारम्भकालास्तिताऽनिवार्य्या, न च संसाराभावे तदव्यतिरिक्तत्वात् आत्मनोऽप्यभावो युज्यते, तस्यात्मपर्यायरूपत्वात् न च पर्यायनिवृत्तौ पर्याविणः सर्वथा निवृत्तिरिति, तथा च | हेमकुण्डलयोरनम्यत्वं, न च कुण्डलपर्यायनिवृत्तौ हेनोऽपि सर्वथा निवृत्तिः, तथाऽनुभवात् इत्थं चैतदङ्गीकेर्त्तव्यम्, अन्यथा पर्यायनिवृत्ती पर्याचिणः सर्वथा निवृत्त्यभ्युपगमे पर्यायान्तरानुपपत्तिः प्राप्नोति, कारणाभावात्, तदभावस्य च सर्वदाऽविशिष्टत्वात् तस्मात्संसारनिवृत्तावप्यात्मनो भावात् वस्तुस्वरूपो मोक्ष इति ॥ छिण्णमि संसयंमी जिणेण जर भरणविप्पमुषेणं । सो समणो पव्वइओ तिहि उ सह खंडियसएहिं ॥ ६४१ ॥ व्याख्या - पूर्ववदेव । एकादशो गणधरः समाप्तः । उक्त गणधर संशयापनयनवक्तव्यता । साम्प्रतमेतेषामेव वक्तव्यताशेषप्रतिपिपादयिषया द्वारगाथामाह-| खेत्ते काले जम्मे गोत्तमगार छउमत्थपरियाए । केवलिय आउ आगम परिणेष्याणे तवे चैव ॥ ६४२ ॥ दारगाहा एकारान्ताः शब्दाः प्राकृतशैल्या प्रथमैकवचनान्ता द्रष्टव्याः, ततश्च गणधरानधिकृत्य क्षेत्र-जनपदग्रामनगरादि Education infamational For Funny |॥२५४॥१ ~ 511~ www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः गणधर विषयक खेत्र काल आदि वक्तव्यता Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६४२], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक तद्वक्तव्यं जन्मभूमिः, तथा कालो नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षितो वाच्यः, जम्म वक्तव्यं, तच्च मातापित्रायत्तमित्यतो मातापितरौ वाच्यौ, गोत्रं यद्यस्य तद्वाच्यम्, 'अगारछउमत्थपरियाए' त्ति पर्यायशब्दः उभयत्राप्यभिसम्बध्यते, अगारपर्यायो| गृहस्थपर्यायो वाच्यः, तथा छद्मस्थपर्यायश्चेति, तथा केवलिपर्यायो वाच्यः, सर्वायुष्कं वाच्यं, तथा आगमो वाच्यः, कः कस्यागम आसीत् , परिनिर्वाणं वाच्यं, कस्य भगवति जीवति सति आसीत् कस्य वा मृते इति, तपश्च वक्तव्यं, किं केनापवर्ग गच्छता तप आचरितमिति ?, चशब्दात्संहननादि च वाच्यम्, इति गाथासमुदायार्थः । इदानीमयवयवार्थः । प्रतिपाद्यते-तत्र क्षेत्रद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहमगहा गोब्बरगामे जाया तिण्णेव गोयमसगोत्ता । कोल्लागसन्निवेसे जाओं विअत्तो सुहम्मो य ॥ ६४३॥ ब्याख्या-मगधाविषये गोबरग्रामे सन्निवेशे जातात्रय एवाद्याः 'गोय'त्ति एते त्रयोऽपि गौतमसगोत्रा इति, कोल्ला४ गसन्निवेशे जातो व्यक्तः सुधर्मश्चेति गाथार्थः। मोरीयसन्निवेसे दोभायरो मंडिमोरिया जाया । अयलो य कोसला' महिलाए अकपिओ जाओ ॥ ६४४॥ | व्याख्या-मौर्यसन्निवेशे द्वौ धातरौ मण्डिकमौयौं जाती, अचलश्च कौशलायां मिथिलायामकम्पिको जात इति गाथार्थः । तुंगीय सन्निचेसे मेयजो वच्छभूमि' जाओ। भगवपि य पभासो रायगिहे गणहरो जाओ॥६४५॥ दारं ।। ब्याख्या-तुझिकसन्निवेशे मेतार्यों वत्सभूमौ जातः, कोशाम्बीविषय इत्यर्थः, भगवानपि च प्रभासो राजगृहे गण दीप अनुक्रम JAMERatinintamational Monsonantos मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६४५], भाष्यं [११९...] (४०) यवृत्ति प्रत सुत्रांक आवश्यक- धरो जात इति गाथार्थः ।। कालद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र कालो हि नक्षत्रचन्द्रयोगोपलक्षित इतिकृत्वा यद्यस्य गण-11 | हारिभद्री द भृतो नक्षत्रं तदभिधित्सुराह॥२५५॥ जेट्ठा कित्तिय साई सवणो हत्थुत्तरा महाओ योरोहिणि उत्तरसाढा मिगसिर तह अस्सिणी पूसो ॥६४६॥ विभागात व्याख्या-ज्येष्ठाः कृत्तिकाः स्वातयः श्रवणः हस्त उत्तरो यासां ताः हस्तोत्तरा-उत्तरफाल्गुन्य इत्यर्थः, मघाश्च रोहिण्यः उत्तराषाढा मृगशिरस्तथा अश्विन्यः पुष्यः, एतानि यथायोगमिन्द्रभूतिप्रमुखाना नक्षत्राणीति गाधार्थः॥द्वारम् । जन्मद्वार प्रतिपाद्यते-मातापित्रायत्तं च जन्मेतिकृत्वा गणभृतां मातापितरावेव प्रतिपादयन्नाह वसुभूई धणमित्ते धम्मिल धणदेव मोरिए चेव । देवे वसू य दत्ते बले य पियरो गणहराणं ॥ ६४७ ॥ व्याख्या-वसुभूतिः धनमित्रः धर्मिलः धनदेवः मौर्यश्चैव देवः वसुश्च दत्तः बलश्च पितरो गणधराणां, तत्र त्रया-8 णामाद्यानामेक एव पिता, शेषाणां तु यथासङ्ख्यं धनमित्रादयोऽवसेया इति गाथार्थः ॥ पुहवीय वारुणी महिलाय विजयदेवा तहा जयंती याणंदा य वरुणदेवा अइभद्दा य मायरो ॥६४८॥दारं॥ &ा व्याख्या-पृथिवी च वारुणी भद्रिला च विजयदेवा तथा जयन्ती च नन्दा च वरुणदेवा अतिभद्रा च मातरः, तत्र पृथिवी त्रयाणामाद्यानां माता, शेषास्तु यथासङ्ख्यमन्येषां, नवरं विजयदेवा मण्डिकमौर्ययोः पितृभेदेन द्वयोर्माता, धनदेवे ॥२५॥ पश्चत्वमुपगते मौय्येण गृहे घृता सैव, अविरोधश्च तस्मिन् देश इति गाथार्थः ॥ गोत्रद्वारप्रतिपादनाय आहतिपिण य गोयमगोत्ता भारदा अग्गिवेसवासिहा । कासवगोयमहारिय कोडिण्णदुर्ग च गोत्ताई ॥ ६४९ ॥ दीप अनुक्रम MERein e mandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~513~ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५०], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-त्रयश्च गौतमगोत्राः इन्द्रभूत्यादयः, भारद्वाजाग्निवैश्यायनवाशिष्टाः यथायोग व्यक्तसुधर्ममण्डिकाः, काश्यपगौतमहारीतसगोत्राः मौर्याकम्पिकाचलभातर इति, कौण्डिन्यसगोत्री द्वौ मेतार्यप्रभासावित्येतानि गणधराणां गोत्राणीति गाथार्थः ।। द्वारम् ॥ अगारपर्यायद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह पण्णा छायालीसा बायाला होइ पण्ण पण्णा य । तेवण्ण पंचसठी अडयालीसा य छायाला ॥५०॥ व्याख्या-पञ्चाशत् पटुत्वारिंशत् द्विचत्वारिंशत् भवति पञ्चाशत् पश्चाशच्च त्रिपञ्चाशत् पश्चषष्टिः अष्टचत्वारिंशत् षट्चत्वारिंशत् इति गाथार्थः ॥ छत्तीसा सोलसगं अगारवासोभवे गणहराणं । उमस्थयपरियागं अहम कित्तइस्सामि ॥ ६५१ ॥ दारं ॥ व्याख्या-पत्रिंशत् षोडशकम् 'अगारवासों' गृहवासो यथासक्यम् एतावान् गणधराणाम् इति गाथार्द्धम् । द्वारम् । अनन्तरद्वारावयवार्थपतिपिपादयिपयाऽऽह पश्चाद्धे-छद्मस्थपर्याय 'यथाक्रम' यथायोग कीर्तयिष्यामि इति गाथार्थः॥ तीसा बारस दसगं बारस बायाल चोइसदुगंच।णवगंवारस दस अट्टगं च छउमत्थपरियाओ ॥६५२॥ दारं॥ गाथेय निगदसिद्धा ॥ केवलिपर्यायपरिज्ञानोपायप्रतिपादनायाहएउमस्थपरीयागं अगारवासं च वोगसित्ता णं । सवाउगस्स सेसं जिणपरियागं बियाणाहि ॥ ६५३ ।। व्याख्या-उनास्थपर्यायम् अगारवासं घ व्यवकलग्य सर्वायुष्कस्य शेष जिनपर्यायं विजानीहीति गाथार्थः ॥ स चायं जिनपर्याय: दीप अनुक्रम T AREaintaina JEngiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 514 ~ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५४], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- ॥२५॥ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक RRCRACCESS वारस सोलस अट्ठारसेव अट्ठारसेव अड्डेव । सोलस सोल तहेकवीस चोद सोले यसोलेय ॥ ६५४ ॥दारं ॥ निगदसिद्धा । सर्वायुष्कप्रतिपादनायाहपाणउई चउहत्तरि सत्तरि तत्तो भवे असीई य । एगं च सयं तत्तो तेसीई पंचणउई य ॥ ६५५॥ अत्तरिच वासा तत्तो यावत्तरिंच वासाई। बावट्ठी चत्ता खलु सव्वगणहराउयं एयं ॥६५६॥ दारं॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । आगमद्वारावयवार्थ प्रतिपादयन्नाह-- सव्वे य माहणा जच्चा, सब्वे अज्झावया विऊ । सब्वे दुवालसंगी य, सव्वे चोदसपुब्बिणो॥ ६५७॥ दारं ॥ ___ व्याख्या सर्वे च ब्राह्मणा जात्याः, अशुद्धा न भवन्ति, सर्वेऽध्यापकाः, उपाध्याया इत्यर्थः, 'विद्वांसः' पण्डिताः, । अयं गृहस्थागमः, तथा सर्वे द्वादशाङ्गिनः, तत्र स्वल्पेऽपि द्वादशाङ्गाध्ययने द्वादशाङ्गिनोऽभिधीयन्त एव अतः सम्पूर्ण ज्ञापनार्थमाह-सर्वे चतुर्दशपूर्षिण इति गाथार्थः ॥ परिनिर्वाणद्वारमाहपरिणिव्या गणहरा जीवते णायए णव जणा उ । इंदभूई सुहम्मो य रायगिहे निव्वुए वीरे ॥ ६५८ ॥ दारं ॥ निगदसिद्धा । तपोद्वारप्रतिपादनायाहमासं पाओवगया सव्वेऽवि य सव्वलद्धिसंपण्णा । बजरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणा ॥६५९॥ व्याख्या-'मासं पायोवगय'त्ति सर्व एव गणधराः मासं पादपोपगमनं गताः-प्राप्ताः, द्वारगाथोपन्यस्तचशब्दार्थमाह-सर्वेऽपि च सर्वलब्धिसम्पन्नाः-आमोषध्याद्यशेषलब्धिसम्पन्ना इत्यर्थः, वज्रऋषभसंहननाः समचतुरस्राश्च संस्थानत दीप अनुक्रम ॥२५६॥ K amorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 515~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६५९], भाष्यं [११९...] (४०) 457 प्रत सूत्राक इति गाथार्थः । उक्तः सामायिकार्थसूत्रप्रणेतृणां तीर्थकरगणधराणां निर्गमः, साम्प्रतं क्षेत्रद्वारमवसरप्राप्तमुलय काल-IN द्वारमुच्यते, अनन्तरमेव द्रव्यनिर्गमस्य प्रतिपादितत्वात् कालस्य च द्रव्यपर्यायत्वात् अन्तरङ्गत्वाद् 'अन्तरङ्गबहिरङ्गासायोश्चान्तरङ्ग एवं विधिलवान्' इति परिभाषासामोदिति, नियुक्तिकृता तु क्षेत्रस्याल्पवक्तव्यत्वादन्यथोपन्यासः कृत इति । स च कालो नामाद्येकादशभेदभिन्नः, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यादिकालस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहदब्वे अद्ध अहाउय उवकमे देसकालकाले यो तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥६६०॥ दारगाहा॥ | व्याख्या-तत्र 'द्रव्य' इति वर्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, 'अद्धेति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्ववंद्धाकालः समयादिलक्षणो वाच्यः, तथा यथाऽऽयुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा 'उपक्र-1 मकाल' अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः सामाचारीयथायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनान्तरं, ततश्चाभीष्टवस्त्ववाप्स्यवसरकाल इत्यर्थः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्रैकः काल-11 शब्दः प्राग्निरूपित एव, द्वितीयस्तु सामयिका, कालो मरणमुच्यते, मरणक्रियाकलनं कालकाल इत्यर्थः, चः समुच्चये, तथा च प्रमाणकालः' अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्णकालो वाच्यः, वर्णश्चासौ कालश्चेति वर्ण| कालः, 'भावि'त्ति औदयिकादिभावकालः सादिसपर्यवसानादिभेदभिन्नो वाच्य इति, 'प्रकृतं तु भावेनेति भावकालेनाधिकार इति गाथासमुदायार्थः ।। साम्प्रतमवयवार्थोऽभिधीयते-तत्राद्यद्वारावयवार्धाभिधित्सयाऽऽह चेयणमचेयणस्स व व्वस्स ठिइ उ जा चउवियप्पा । सा होइ दव्यकालो अहवा दवियं तु तं चेव ॥६६१ ॥ Ix दीप अनुक्रम utana langionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: काल, तस्य द्रव्य-भाव आदि एकादश-भेदानां स्वरुपम् वर्णयते ~516~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६१], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्राक -R आवश्यक- व्याख्या-चेतनाचेतनस्य देवस्य स्कन्धादेः, बिन्दुरलाक्षणिकः, अथवा चेतनस्याचेतनस्य च द्रव्यस्य स्थान-स्थिति- हारिभद्री व या सादिसपर्यवसानादिभेदेन 'चतुर्विकल्पा' चतुर्भेदा सा स्थितिर्भवति द्रव्यस्य कालो द्रव्यकालः, तत्पर्यायत्वात् , यवृत्ति ॥२५७|| अथवा 'द्रव्यं तु तदेव द्रव्यमेव कालो द्रव्यकाल इति गाथार्थः ॥ चेतनाचेतनद्रव्यचतुर्विधस्थितिनिदर्शनायाह विभागः१ गइ सिद्धा भवियाया अभविय पोग्गल अणागयहा यातीय तिन्नि काया जीवाजीवडिई चउहा ॥६६सादारं। व्याख्या-'गतित्ति देवादिगतिमधिकृत्य जीवाः सादिसपर्यवसानाः, 'सिद्ध'त्ति सिद्धाः प्रत्येक सिद्धत्वेन साधपर्यवसानाः 'भवियाय'त्ति भव्याश्च भव्यत्वमधिकृत्य केचनानादिसपर्यवसानाः, 'अभविय'त्ति अभव्याः खल्वभव्यतया अनाद्यपर्यवसाना इति जीवस्थितिचतुर्भङ्गिका । 'पोग्गल'त्ति पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, ते हि पुद्गलत्वेन सादिसपर्यवसानाः, 'अणागयद्धत्ति अनागताद्धा-अनागतकाला, स हि वर्तमानसमयादिः सादिरनन्तत्वाचापर्यवसान इति, 'तीयद्धति । अतीतकालोऽनन्तत्वादनादिः साम्प्रतसमयपर्यन्तविवक्षायां सपर्यवसान इति, 'तिण्णि काय'त्ति धर्माधर्माकाशास्तिकायाः दाखल्वनाद्यपर्यवसाना इति, इत्थं जीवाजीवस्थितिश्चतुर्डेति गाथार्थः॥ द्वारम् । अद्धाकालद्वारावयवार्थं व्याधिख्यासुराह समयावलिय मुटुत्ता दिवसमहोरत्त पक्ख मासाय। संवच्छर युग पलिया सागर ओसप्पि परियहा ।।३६३।।दारं 8 व्याख्या-तत्र परमनिकृष्टः कालः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितपशाटिकापाटनदृष्टान्तादवसेयः, ४ आवलिका-असोयसमयसमुदायलक्षणा, द्विघटिको मुहूर्तः, दिवसश्चतुष्पहरात्मकः, यद्वा आकाशखण्डमादित्येन स्वभा[भियाप्तं तद्दिवसं इत्युच्यते, शेष निशेति, अहोरात्रमष्टपहरात्मकमहर्चिशमित्यर्थः, पक्षः पञ्चदशाहोरात्रात्मका, मास: दीप अनुक्रम २५७|| ACCASS Hiandinraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कालस्य समय, आवलिका, मुहूर्त आदि भेदा: ~ 517~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६३], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत -%E सूत्राक तद्विगुणः, चः समुच्चये, संवत्सरो-बादशमासात्मकः, युगं पञ्चसंवत्सरम् , असङ्ख्येययुगात्मक पलितमिति उत्तरपदलोपाद्, इत्थं सागरोपममपि, तत्र पल्योपमदशकोटीकोव्यात्मकं सागरमाख्यायते, उत्सर्पिणी-सागरोपमदशकोटीकोव्या-13 त्मिका, एवमवसपिण्यपि, परावर्तोऽनन्तोत्सपिण्यवसर्पिण्यात्मकः, स च द्रव्यादिभेदभिन्नः प्रवचनादवसेय इति | गाथार्थः ॥ द्वारम् ॥ यथाऽऽयुष्ककालद्वारमुच्यते-तत्राद्धाकाल एवायुष्ककर्मानुभवविशिष्टः सर्वजीवानां वर्तनादिमयो| यथायुष्ककालोऽभिधीयते, तथा चाहनेरइयतिरियमणुयादेवाण अहाउयं तु जं जेण। निव्वत्तियमण्णभवे पालेंति अहाउकालो सो ॥ ६६४ ॥दारं ॥ __व्याख्या-नारकतिर्यग्मनुष्यदेवानां यथायुष्कमेव यद्येन निवेर्तितं-रौद्रध्यानादिना कृतम् 'अन्यभवे' अन्यजन्मनि तद् यदा विपाकतस्त एवानुपालयन्ति स यथायुष्ककालस्तु, इति गाथार्थः । द्वारम् ॥ साम्प्रतमुपक्रमकालद्वारमाहदुविहोवक्कमकालो सामायारी अहाउयं चेव । सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागे ॥६६५॥ दारं॥ | व्याख्या-द्विविधश्चासावुपक्रमकालश्चेति समासः, तदेव द्वैविध्यमुपदर्शन्नाह-सामायारी अहाउअंचेव' समाचरणं समाचारः-शिष्टाचरितः क्रियाकलापस्तस्य भावः "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च” (पा०५-१-१२४) ध्यञ्। समाचार्य, पुनः स्त्रीविवक्षायां पिगौरादिभ्यश्चे (पा०४-१-४१) ति डीए, यस्ये (पा० यस्येति च ६०४-१४८) त्य-18 कारलोपः, यस्य हल (पा०६-४-४९) इत्यनेन तद्धितयकारलोपः, परगमनं सामाचारी, तस्या उपक्रमणम्-उपरिमनुतादिहानयनमुपक्रमः, सामाचार्युपक्रमश्चासौ कालश्चेति समासः, यथाऽऽयुष्कस्योपक्रमणं दीर्घकालभोग्यस्य लघुतरकालेन । दीप अनुक्रम RECTORG JABERam Vincionarrow मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~518~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६५], भाष्यं [११९...] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक क्षपणमुपक्रमः, यथायुष्कोपक्रमश्चासौ कालश्चेति समासः, तत्र हि कालकालवतोरभेदात् कालस्यैव आयुष्काधुपाधिविशिष्ट- स्योपक्रमो वेदितव्य इत्यभिप्रायः । तत्र सामाचारी त्रिविधा-'ओहे दसहा पदविभागे'त्ति 'ओघ' सामान्यम् , ओघः ॥२५८॥ 18 सामाचारी सामान्यतः स पाभिधानरूपा, सा चोघनियुक्तिरिति । दशविधसामाचारी इच्छाकारादिलक्षणा, पदविभाग सामाचारी छेदसूत्राणीति । तत्रौघसमाचारी नवमात्पूर्वात् तृतीयाद्वस्तुन आचाराभिधानात् तत्रापि विंशतितमात्माभृतात् , तत्राप्योधप्राभृतप्राभृतात् नियूंढेति, एतदुक्तं भवति-साम्पतकालप्रव्रजितानां तावच्छतपरिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्कादिहासमपेक्ष्य प्रत्यासन्नीकृतेति । दशविधसामाचारी पुनः षड्विंशतितमादुत्तराध्ययनात्स्वल्पतरकालपत्रजितपरिज्ञानार्थ निव्यूटेति । पदविभागसामाचार्यपि छेदसूत्रलक्षणान्नवमपूर्वादेव निव्यूढेति गाथार्थः॥ साम्प्रतमोघनियुक्तिर्वाच्या, सा च सुप्रपञ्चितखादेव न विनियते, साम्प्रतं दशविधसामाचारीस्वरूपदर्शनायाहइच्छा मिच्छी तहाकारो, आवसिया य नि सीहिया । आपुच्छणीय पडिपुच्छा छंद॑णा य निमंतणा ।। ६६६ ॥ उवसंपयो य काले, सामायारी भवे दसहा । एएसि तु पयाणं पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥६६७॥ दारगाहाओ। ६ व्याख्या-एषणमिच्छा करणं कारः, तत्र कारशब्दःप्रत्येकमभिसम्बध्यते, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण करणम् इच्छाहि कारः इच्छाक्रियेत्यर्थः, तथा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु इच्छाक्रिययान च बलाभियोगपूर्विकयेति भावार्थः१, तथा मिथ्या-वितPथ(ग्रन्था-६५००)मनृतमिति पर्यायाः, मिथ्याकरणं मिथ्याकारः, मिथ्याक्रियेत्यर्थः, तथा च संयमयोगवितथाचरणे विदित CLEASSADARA दीप अनुक्रम T ॥२५८॥ JABERam RSamiprayam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | सामाचारी, तस्या इच्छा-मिच्छा आदि भेदा: ~ 519~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६७], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक जिनवचनसाराः साधवस्तक्रियाया वैतथ्यप्रदर्शनाय मिथ्याकारं कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति हृदयं २, तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवं स्वरूपः ३, अवश्यकर्त्तव्योगनिष्पन्ना आवश्यिकी ४, चः समुच्चये, तथा निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिको ५, आप्रच्छनमापृच्छा, सा विहारभूमिगमनादिप्रयोजनेषु गुरोः कार्या ६, चः पूर्ववत्, तथा प्रतिपृच्छा, सा च प्राङ्गियुक्तेनापि करणकाले कार्या, निषिद्धेन वा प्रयोजनतः कर्तुकामेनेति, तथा छन्दना च प्राग्ग-1 हीतेनाशनादिना कार्या ८, तथा निमन्त्रणा अगृहीतेनैवाशनादिनाऽहं भवदर्थमशनाद्यानयामि इत्येवम्भूता ९, उपसम्पञ्च विधिनाऽऽदेया १०। एवं 'काले' कालविषया सामाचारी भवेदशविधा तु । एवं तावत्समासत उक्ताः, साम्प्रतं प्रपञ्चतः। प्रतिपदमभिधित्सुराह-एतेषां पदानां, तुर्विशेषणे, गोचरप्रदर्शनेन 'प्रत्येक' पृथकू पृथक् प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथाद्वयसमासार्थः । तत्रेच्छाकारो येष्वर्थेषु क्रियते तत्प्रदर्शनायाहजइ अब्भत्थेज परं कारणजाए करेज से कोई । तत्थवि इच्छाकारो न कप्पई बलाभिओगो उ ।। ६६८ ॥ | व्याख्या-'यदी त्यभ्युपगमे अन्यथा साधूनामकारणेऽभ्यर्थना नैव कल्पते, ततश्च यद्यभ्यर्थयेत् 'परम्' अन्यं साधु ग्लानादौ कारणजाते कुर्यात् वा, 'से' तस्य कर्तुकामस्य 'कश्चिद् अन्यसाधुः, तत्र कारणजातग्रहणमुभयथाऽपि सम्बध्यते, तत्रापि तेनान्येन वा साधुना तत्तस्य चिकीर्षित कर्तुकामेन इच्छाकारः, कार्य इति क्रियाध्याहारः, अपिः चश ब्दार्थे, अथवाऽपीत्यादिना न्यक्षेण वक्ष्यति, किमित्येवमत आह-न कल्पत एव बलाभियोग इति गाथार्थः ॥ उक्तगा-18 Hथावयवार्थप्रतिपादनायैवाह SEKACK दीप अनुक्रम T I JAMERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~520~ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६६९], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- ॥२५९॥ प्रत सुत्रांक ROCCA%EC अन्भुवगमंमि नज्ज अन्भत्थे ण वद्दा परो उ । अणिगूहियबलविरिएण साहुणा ताव होय ॥६॥ हारिभदी। व्याख्या-'यद्यभ्यर्थयेत् पर'मित्यस्मिन् यदिशब्दप्रदर्शिते अभ्युपगमे सति ज्ञायते, किमित्याह-अभ्यर्थयितं 'न31 यवृत्तिः वर्तते' न युज्यते एव परः, किमित्यत एवाह-न निगूहिते बलवीये येनेति समासः, बलं-शारीरं वोर्यम्-आन्तरः शक्ति- विभागः १ विशेषः, तावच्छन्दः प्रस्तुतार्थप्रदर्शक एव, अनिगृहितबलवीर्येण तावदित्थं साधुना भवितव्यमिति । पाठान्तरं वा 'अणिगहियबलविरिएण साहुणा जेण होयचं'ति, अस्यायमर्थः-येन कारणेनानिगूहितबलवीर्येण साधुना भवितव्यमिति युक्तिः अतः अभ्यर्थयितुं न वर्त्तते पर इति गाथार्थः॥ आह-इत्थं तर्हि अभ्यर्थनागोचरेच्छाकारोपन्यासोऽनर्थक इति?, उच्यते, जह हुन तस्स अणलो कजस्स वियाणतीण वा वाणं। गिलाणाइहिं वा हुन वियावडो कारणेहिं सो॥ ६७० ॥ | व्याख्या-यदि भवेत् 'तस्य' प्रस्तुतस्य कार्यस्य, किम्?-'अनला' असमर्थः विजानाति न वा, वाणमिति पूरणार्थों निपातः, ग्लानादिभिर्वा भवेद्यापूतः कारणैरसौ तदा सञ्जातद्वितीयपदोऽभ्यर्थनागोचरमिच्छाकारं रत्नाधि बिहाया-3 न्येषां करोतीति गाथार्थः ॥ आह च राइणियं बजेता इच्छाकारं करेह सेसाणं । एवं मज्झं कर्ज तुम्भे उ करेह इच्छाए ॥ ६७१॥ व्याख्या-रनानि द्विधा-द्रव्यरत्नानि भावरत्नानि च, तत्र मरकतवजेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि, सुखहेतुत्वमधिकृत्य तेषामनैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च, भावरतानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, सुखनिबन्धनतामङ्गीकृत्य तेषामेकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च, भावरत्नैरधिको रत्नाधिकस्तं वर्जयित्वा इच्छाकारं करोति शेषाणां,कथमित्याह-इदं मम कार्य-1 दीप अनुक्रम % A ॥२५९॥ CKR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~521~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educati “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६७१], भाष्यं [११९...] वस्त्रसवनादि यूयं कुरुतेच्छया न बलाभियोगेनेति गाथार्थः ॥ 'जइ अब्भत्थेज परं कारणजाए'ति एतावन्मूलगाथाया व्याख्यातं, साम्प्रतं 'करेज्जं से कोई' त्ति अस्य गाथाऽवयवस्यावयवार्थ प्रतिपादयति, अत्रान्यकरणसम्भवे, कोरणप्रतिपादनायाह अहवाऽवि विणासेंतं अन्भत्थतं च अण्ण दद्दणं । अण्णो कोइ भणेजा तं साहुं णिरडीओ ॥ ६७२ ॥ व्याख्या - तत्र ' अहवावि विणासेंतं' ति अक्षराणां व्यवहितः सम्बन्धः स चेत्थं द्रष्टव्यः- विनाशयन्तमपि चिकीचिंतं कार्यम्, अपिशब्दात् गुरुतरकार्यकरणसमर्थमविनाशयन्तमध्यभ्यर्थयन्तं वा अभिलषितकार्य करणाय कञ्चन अन्यं साधुं दृष्ट्रा किमित्याह- 'अन्यः' तत्प्रयोजनकरणशक्तः कश्चिद्भणेत् तं साधुं निर्जरार्थीति गाथार्थः ॥ किमित्याह● अहयं तुभं एवं करेमि कर्ज तु इच्छकारेणं । तत्थऽवि सो इच्छं से करेइ मज्जायमूलियं ॥ ६७३ ॥ व्याख्या-अहमित्यात्मनिर्देशे युष्माकम् 'इदं' कर्तुमिष्टं कार्यं करोमि 'इच्छाकारेण' युष्माकमिच्छाक्रियया, न बला दित्यर्थः, तत्रापि 'स' कारापैकः साधुः 'इच्छं से करेइ'त्ति सूचनात्सूत्रम्, इच्छाकारं करोति, नम्वसौ तेनेच्छाकारेण याचितस्ततः किमर्थमिच्छाकारं करोतीत्याह-मर्यादामूलं, साधूनामियं मर्यादा न किञ्चिदिच्छाव्यतिरेकेण कश्चित्कारयितव्य | इति गाथार्थः ॥ व्याख्यातोऽधिकृतगाथावयवः, साम्प्रतं 'तत्थवि इच्छाकारो'त्ति अस्यापिशब्दस्य विषयप्रदर्शनायाह१०] संभवे कारणं प्रतिपादयचाह प्र० २ करणं कारखं कारयतीति कारापयति णके च कारापक इति स्यात् स्वचशब्दमदन्तं वर्णयद्भिः पूपैः कचिनानोऽप्यदस्तख मिति वृद्धेरिष्टश्वात् For Parts Only "बैंक के बैंक कर द न * % % ~ 522 ~ nirg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६७४], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक ॥२६॥ SSCCCC प्रत सुत्रांक अहवा सयं करेन्तं किंची अण्णस्स वावि दवणं । तस्सवि करेज इच्छं मछपि इमं करेहित्ति ॥ ६७४ ॥ हारिभद्री व्याख्या-अथवा 'स्वकम्' आत्मीयं कुर्वन्तं 'किचित्' पात्रलेपनादि अन्यस्य वा दृष्ट्वा किम् ?-तस्याप्यापनप्रयोजनः टायत्तिा सन् कुर्यादिच्छाकार, कथम् -ममापीद-पात्रलेपनादि कुरुतेति गाथार्थः॥ इदानीमभ्यर्थितसाधुगोचरविधिप्रदर्शनायाऽऽह| तत्थवि सो इच्छं से करेइ दीवेइ कारणं वाऽवि । इहरा अणुग्गहत्थं कायव्वं साहुणो किचं ॥६७५ ॥ ___ व्याख्या-तत्राप्यभ्यर्थितः सन् 'इच्छाकारं करोति' इच्छाम्यहं तव करोमीति, अथ तेन गुर्वादिकार्यान्तरं कर्त्तव्यमिति तदा दीपयति कारणं वापि, 'इहरा' अन्यथा गुरुकार्यकर्त्तव्याभावे सति अनुग्रहार्थ कर्त्तव्यं साधोः कृत्यमिति गाधार्थः ॥ | अपिशब्दाक्षिप्तेच्छाकारविषयविशेषप्रदर्शनार्यवाह- अहवा णाणाईणं अट्ठाएँ जइ करेन किच्चाणं । वेयावच्चं किंची तत्थवि तेसिं भवे इच्छा ।। ६७६ ॥ व्याख्या-अथवा ज्ञानादीनामर्थाय, आदिग्रहणादर्शनचारित्रग्रहण, यदि कुर्यात् 'कृत्यानाम् आचार्याणां वैयावृत्त्यं 'कश्चित्' साधुः, पाठान्तरं वा 'किंचित्ति किञ्चिद्विश्रामणादि, तत्रापि 'तेषां' कृत्यानां तं साधु वैयावृत्त्ये नियोजयतां भवे | इच्छे' ति भवेदिच्छाकारः, इच्छाकारपुरःसरं योजनीय इति गाथार्थः ॥ किमित्यत आह-यस्मात् ॥२६॥ आणायलाभिओगो णिग्गंथाणं ण कप्पई काउं । इच्छा पजियव्वा सेहे राईणिए (य) तहा ॥ ३७७॥ व्याख्या-आज्ञापनमाज्ञा-भवतेदं कार्यमेवेति, तदकुर्वतो बलात्कारापणं बलाभियोग इति, स 'निर्ग्रन्धानां साधूनां न कल्पते कर्तुमिति, किन्तु 'इच्छत्ति इच्छाकारः प्रयोक्तव्यः, प्रयोजने उत्पन्ने सति शैक्षके तथा रत्नाधिके चालापकादि AATES% दीप अनुक्रम JAMERR oma andiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~523~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] * * “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [६७७ ], भाष्यं [ ११९...] प्रष्टुकामेन, आद्यन्तग्रहणादन्येषु चेति गाथार्थः ॥ एष उत्सर्ग उक्तः, अपवादस्त्वाज्ञाबलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ, तेन च सहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते, बहुस्वजननालप्रतिबद्धे त्वपरित्याज्ये अयं विधिः-प्रथममिच्छाकारेण योज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया पुनर्बलाभियोगेनेति, आह च जह जचबाईलाणं आसाणं जणवएसु जायाणं । सयमेव खलिणगहणं अहवावि बलाभिओगेणं ।। ६७८ ॥ | पुरिसजाएऽवि तहा विणीयविणयंमि नत्थि अभिओगो। सेसंमि उ अभिओगो जणवय जाए जहा आसे ॥६७९॥ व्याख्या—यथा जात्यवाह्वीकानामश्वानां जनपदेषु च-मगधादिषु जातानां, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, स्वयमेव खलिनग्रहणं भवति, अथवापि बलाभियोगेनेति, खलिनं - कविकमभिधीयते, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः - पुरुषजातेऽपि तथा, जातशब्दः प्रकारवचनः, 'विणीयविणयंमि' त्ति विविधम्-अनेकधा नीतः प्रापितः विनयो येन स तथाविधः तस्मिन् नास्त्यभियोगो जात्यबाहीकाम्बवत्, 'सेसंमि उ अभिओगो' त्ति शेषे - विनयरहिते चलाभियोगः प्रवर्त्तते, कथं?- जनपदजाते यथाऽम्बे इति गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ अवयवार्थस्तु कथानकादवसेयः, तश्चेदम् — बलसिए एगो किसोरो, सो दमिज्जिकामो बेयालियं अहिवासिऊण पहाए अग्घेऊण वाहियालिं नीतो, खलिणं से ढोइयं, सयमेव तेण गहियं विणीयोत्ति । तत्तो राया सयमेवारूढो, सो हिययइच्छियं वूढो, रण्णा उयरिऊण १०वाहणार्णति प्र० २ बाल्डीकविषये एकोऽव किशोरः, स दमयितुकामो वैकालिकमधिवास प्रभावेऽवित्वा बाझा भीतः कविकं तस्मै होकितं स्वयमेव तेन गृहीतं, विनीत इति । ततो राजा स्वयमेवारूढः, स हृदयेप्सितं व्यूढः राज्ञोती For Party मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 524~ crayon Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६७९], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सुत्रांक हारिभद्रीआवश्यक आहारलयणादिणा सम्म पडियरिओ, पतिदियहं च सुद्धत्तणओ एवं वहइ, न तस्स बलाभिओगो पवत्तइ । अवरो पुण मगहादिजणवए जातो आसो, सोऽवि दमिजिउकामो वेथालियं अहिवासितो, मायरं पुच्छर-किमयंति, तीए भणियं विभागः१ ॥२६१॥1कलं पाहिजसि तं, सयमेव खलिणं गहाय बहतो नरिंदै तोसिजासि, तेण तहा कयं, रण्णावि आहारादिणा सबो से उवयारो कओ, माऊए सिहं, तीए भणितो-पुत्त ! विणयगुणफलं ते एय, कलं पुणो मा खलिणं पडिवजिहिसि, मा वा15 बहिहिसि, तेणं तहेव कयं, रण्णावि खोखरेण पिट्टित्ता बला कवियं दाऊण वाहिता पुणोऽवि जवसं से णेरुद्धं, तेण माऊए| सिह, सा भणइ-पुत्त ! दुच्चेट्ठियफलमिणं ते, तं दिहोभयमग्गो जो ते रुच्चइ तं करेहिसि । एस दिईतो अयमुवणओ-जो। ४ सय न करेइ वेयावच्चादि तत्थ बलाभिओगोऽवि पयट्टाविजइ जणवयजाते जहा आसेत्ति । तस्माद्वलाभियोगमन्तरेणैव मोक्षार्थिना स्वयमेव प्रत्युत इच्छाकारं दत्त्वा अनभ्यर्थितेनैव वैयावृत्त्यं कार्यम् ॥ आह-तथाऽप्यनभ्यर्थितस्य स्वयमिच्छाकारकरणमयुक्तमेवेत्याशझ्याह आहारलयनादिना सम्पर प्रतिचरितः, प्रति दिवसं च शुद्धत्वादेवं वहति, न तस्य बलाभियोगः प्रवर्तते । अपरः पुनर्मगधादिजनपदजातोऽना, सोऽपि दमवितुकामो वैकालिकमधिवासितः, मातरं पृच्छति-किमेतदिति , तया भणितं-कावे वाहासे (वाहयिष्यतासे)वं, (तत्) खषमेव कविकं गृहीत्वा बदन् नरेन्द्र तोपषितासि (ये!),तेन तथा कृतं, राज्ञाऽपि माहारादिना सर्वस्तस्योपचारः कृतः, मात्रे शिर्ष, तया भणित:-पुष विनयगुणफळ तवैतत् । । ॥२६१॥ कल्ये पुनर्मा कविकं प्रतिपविष्टाः, मा चा वाक्षी, तेन तथैव कृतं, राज्ञाऽपि खोखरेण (प्रतोदेन कशया वा) पिहयित्वा बकारकविकं दवा वाहयित्वा पुनरपि यवसं तस्य निरुद्धं, तेन मान्ने शिष्टं, सा भणति-पुत्र ! दुवेष्टितफलमिदं तव, तदृष्टोभयमार्गो वस्तुभ्यं रोचते तं कुर्याः । एव दृष्टान्तोऽयमुपनयः-या स्वयं न करोति वैवावृत्यादि तत्र बलाभियोगोऽपि प्रवत्यते जनपदजाते यथास इति. दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~525~ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८०], भाष्यं [११९...] (४०) ACC प्रत सूत्राक R अम्भवणाए मरुओ वानरओ चेव होइ दिढतो । गुरुकरणे सयमेव उ वाणियगा दुणि दिलुता ॥ ६८०॥ व्याख्या-अभ्यर्थनायां मरुकः, पुनः शिष्यचोदनायां सत्यां वानरकश्चैव भवति दृष्टान्तः, गुरुकर गे स्वयमेव तु वणिजी द्वौ दृष्टान्त इति समासार्थः ॥ व्यासार्थः कथानकेभ्योऽवसेय इति, तानि चामूनि एगेस्स साहुस्स लडी अस्थि, सो ण करेइ वेयावच्चं बालबुड्डाणंति, आयरियपडिचोइतो भणइ-को में अम्भत्थेद, आयरिएण भणिओ-तुम अम्भस्थणं मग्गंतो चुक्चिहिसि, जहा सो मरुगोत्ति । एगो मरुगो नाणमदमत्तो कत्तियपुण्णिमाए नरिंदजणवदेसुं दाणं दाउमभुडिएमु ण तत्थ बच्चइ, भजाए भणितो-जाहि, सो भणइ-एगं ताव सुद्दाणं परिग्गहं| करेमि, वीयं तेसिं घरं वच्चामि , जस्स आसत्तमस्स कुलस्स कर्ज सो मम आणेत्ता देउ, एवं सो जावज्जीवाए दरिदो जातो। एवं तुमंपि अब्भत्थर्ण मग्गमाणो चुकिहिसि निजराए, एतेसिं बालबुड्डाणं अण्णे अत्थि करेंतगा, तुज्झवि एस लद्धी एवं चेव विराहित्ति । ततो सो एवं भणिओ भणइ-एवं सुंदरं जाणंता अप्पणा कीस न करेह !, आयरिया एकस्य साधोलेब्धिरसि, स न करोति वैवावृत्त्वं बालदानामिति,भाचार्यप्रतिचोदितो भणति-को मामभ्यर्धयते ?, आचार्येण भणितः-स्वमभ्वर्धनां मार्गयन् अश्यास, यथा स मरुका (माह्मणः ) इति । एको माह्मणो ज्ञानमदमत्तः कार्तिकपूर्णिमाया नरेन्द्रजनपदेषु दानं दातुमभ्युस्थितेषु न तन्त्र मजति, भार्यया भणितः-याहि, स भणति-पकं तावत् शहाणा प्रतिग्रहं मोमि, द्वितीयं तेषां गृहे मशामि, यस्याससमस कुलस्य कार्य स महमानीय ददातु, एवं स यावजी दरिद्रो जातः । एवं त्वमप्यभ्यर्थनां मार्गयन् प्रश्यसि निर्जरायाः, एतेषां बालवृद्धानामन्ये सन्ति कत्तार, सवाप्येषा कम्धिरेवमेव नश्यति । ततः स एवं भणितो भणति-एवं सुन्दरं जानाना आत्मना कुतो न कुरुत, पाचार्या दीप अनुक्रम RC-Re%% ASSACRICKASS AREaintun Sarwajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~526~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८०], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत आवश्यकभणंति-सरिसोऽसि तुर्म तस्स वानरगस्स, जहा एगो वानरो रुक्खे अच्छइ, वासासु सीतवातेहिं झडिज्झति, ताहे | हारिभद्रीसुघराए सउणिगाए भणिओ-'वानर ! पुरिसोऽसि तुमं निरत्थयं वहसि बाहुदंडाई । जो पायवस्स सिहरे न करेसि कुडिं ॥२६॥ यवृत्ति । पडालिं वा ॥१॥ सो एवं तीए भणिओ तुहिको अच्छइ, ताहे सा दोच्चपि तच्चपि भणइ, ततो सो रुहो तं रुक्खं विभागः१ दुरुहिउमाढत्तो, सा नट्ठा, तेण तीसे तं घरं मुंबं सुंबं विक्खितं,भणइ य-नविसि ममं मयहरिया नविसि ममं सोहिया व णिद्धा वा । सुघरे। अच्छसु विधरा जा वट्टसि लोगतत्तीसु ॥१॥ सुहं इदाणे अच्छ । एवं तुमंपि मम चेव उवरिएण| जाओ, किं च-मम अन्नपि निजरादारं अस्थि, तेण मम बहुतरिया निजरा, ते लाहं चुकीहामि, जहा सो वाणियगो| दो वाणियगा ववहरंति, एगो पढमपाउसे मोल्लं दायवयं होहित्ति सयमेव आसाढपुण्णीमाए घरं पच्छ(स्थ)इतो, बीएण अर्द्ध वा तिभागं वा दाऊण छवाविय, सयं ववहरइ, तेण तदिवसं बिउणो लाहो लद्धो, इयरो चुक्को । एवं चेव जइ सुत्रांक दीप अनुक्रम भणन्ति-सदशोऽसि त्वं तस्य कः, यधैको बानरो वृक्षे तिष्ठति, वर्षासु शीतवातैः किश्यति, तदा सुगृहिकया शकुन्या भणित:-वानर ! पुरुषोऽसि त्वं निरर्थक वहसि बाहुदण्डान् । यः पादपस्थ शिखरे न करोषि कुटी पटालिका वा ॥१॥स एवं तया भगितस्तूष्णीकस्तिष्ठति, तदा सा द्विरपि निरपि भणति, | ततः स रुष्टस्तं वृक्षमारोहुमारब्धः, सा नष्टा, तेन तस्यासद्हं दवरिकादवरिक विक्षिप्तम्, भगति च-नाप्यसि मम महत्तरिका नाप्यसि मम सुहृदा स्निग्धा चा | सुगृहिके ! तिष्ठ विगृहा या वर्तसे लोकतप्तौ ॥ १ ॥ सुखमिदानी तिछ । एवं स्वमपि मम चैवोपरितनो जातः, किंव-ममान्यदपि निर्जराद्वारमस्ति, तेन मम बहुतरा निर्जरा, तं लाभ अश्यामि,-यथा स वणिक् द्वौ वणिजौ व्यवहरतः, एकः प्रथमावृषि मूल्य दातव्यं भविष्यतीति स्वयमेवाषाढपूर्णिमायां त्यक्त्वा गृहं गतः, (प्रच्छेदित), द्वितीयेना वा त्रिभार्ग वा दवा स्थगित (स्थापितं), रूयं व्यवहरति, तेन तदिवसे द्विगुणो डाभो लब्धा, इतरो अष्टः । एवमेव | ॥२९ SAREAKimand Haniprayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र- [०१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 527~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८०], भाष्यं [११९...] (४०) 45-45-456 प्रत सूत्राक अहं अप्पणा वेयावच्चं करेमि तो अचिंतणेण सुत्तत्था नासंति, तेहि य नहेहिं गच्छसारवणाऽभावेण गणस्सादेसादिअप्पडितप्पणेण बहुयरं मे नासेइति । आह च-सुत्तत्थेसु अचिन्तण आएसे बुडसेहगगिलाणे । बाले खमए वाई इड्डीमाइ2 अणिड्डी य ॥१॥ एएहि कारणेहिं तुंबभूओ उ होति आयरिओ। वेयावच्चं ण करे कायर्व तस्स सेसेहिं ॥ २॥ जेण कुलं आयतं तं पुरिसं आयरेण रक्खेजा। न हु तुंबंमि विणडे अरया साहारया होति ॥ ३॥ बाले सप्पभए तहा इडिमंतंमि आगए पाणगादिगए आयरिए लहुत्तं, एवं वादिम्मिवि, अणिस्सरपबइयगा य एएत्ति जणापवादो, सेसं कंटं। आह-इच्छाकारेणाहं तव प्रथमालिकामानयामीत्यभिधाय यदा लब्ध्यभावान सम्पादयति तदा निर्जरालाभविकलस्तस्येच्छाकारः, इत्यतः किं तेनेत्याशझ्याहसंजमजोए अन्भुट्टियस्स सद्धाऍ काउकामस्स । लामो चेव तवस्सिस्स होइ अद्दीणमणसस्स ।। ६८१॥ व्याख्या-'संयमयोगे' संयमव्यापारे अभ्युत्थितस्य तथा 'श्रद्धया' मनःप्रसादेन इहलोकपरलोकाशंसां विहाय कर्तुकामस्य, किम् ?-'लाभो चेव तवसिस्स'त्ति प्रकरणान्निर्जराया लाभ एव तपस्विनो भवति अलब्ध्यादौ, अदीनं मनोऽस्येति अदीनमनास्तस्यादीनमनस इति गाथार्थः ॥ द्वारं १ । इदानीं मिथ्याकारविषयप्रतिपादनायाह यद्यहमात्मना वैयावृष्यं करोमि तदाऽचिन्तनेन सूत्राओं नश्यतः, तयोश्च नष्टयोर्गच्छसारणाऽभावेन गणस्य . आदेशादेरप्रतितपंणेन यहुतर मे नश्यतीति । सूत्रार्थयोरचिन्तनमादेशे बढे शैक्षके ग्लाने । बाले क्षपके वादी ऋद्धिमदादि अनृद्धिश्च ॥१॥ एतैः कारणैस्तुम्बभूतस्तु भवत्याचार्यः । वैयावृत्यं न कुर्यात् कर्त्तव्य तस्य शेषैः ॥ २ ॥ यस्ख कुलमायतं सं पुरुषमादरेण रक्षेत् । नैव तुम्बे विनष्टे अरकाः साधारा भवन्ति ॥३॥ बाले सर्पभये तथा कनिमत्यागते पानकाद्यर्थ गते भाचार्ये लघुत्वम्, एवं वादिन्यपि, अनीश्वरमनजिताश्चैत इति जनापवादः, शेष काख्यम् । दीप - अनुक्रम -- - - -- s wianeiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~528~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८१], भाष्यं [११९...] (४०) यवृत्ति प्रत सूत्रांक आवश्यक-संजमजोए अन्भुद्विपस्स किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एतंति चियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्यं ॥ ६८२॥ हारिभद्री | व्याख्या-संयमयोगः-समितिगुप्तिरूपस्तस्मिन्विषयभूतेऽभ्युत्थितस्य सतः यत्किञ्चिद्वितथम्-अन्यथा आचरितम्-श ॥२६॥ विभागात आसेवितं, भूतमिति वाक्यशेषः, 'मिथ्या एतदिति' विपरीतमेतदित्येवं विज्ञाय किम् ?-'मिच्छत्ति काय' मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः । संयमयोगविषयायां च प्रवृत्तौ वितथासेवने मिथ्यादुष्कृतं दोषापनयनायालं, न तूपेत्यकरणगोचरायां |नाप्यसकृत्करणगोचरायामिति गाथाहृदयार्थः ॥ तथा चोत्सर्गमेव प्रतिपादयन्नाह-- जह य पडिकमियवं अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चेव न कायब्वं तो होइ पए पडिकतो॥ ६८३ ॥ व्याख्या-यदि च 'प्रतिक्रान्तव्य' निवर्तितव्यं, मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमित्यर्थः, 'अवश्य नियमेन कृत्वा पापकं कर्म, ततश्च 'तदेव' पाप कर्म न कर्त्तव्यं, ततो भवति 'पदे' उत्सर्गपदविषये प्रतिक्रान्त इति । अथवा-'पदे'त्ति प्रथमं प्रतिकान्त इति गाथार्थः । साम्प्रतं यथाभूतस्येदं मिथ्यादुष्कृतं सुदत्तं भवति तथाभूतमभिधित्सुराह जं दुक्कइंति मिच्छा तं भुजो कारणं अपूरतो। तिविहेण पडिकतो तस्स खलु दुकर्ड मिच्छा ।। ६८४ ॥ ___ व्याख्या-'यदि'त्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, करणमिति योगः, ततश्च यत्कारणं' यद् वस्तु दुष्टु कृतं दुष्कृतम् 'इति' एवं विज्ञाय 'मिच्छत्ति सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्तं, तदू 'भूयः' पुनः प्रागुक्तं दुष्कृतकारणम् 'अपूरयन्' ॥२६॥ अकुर्वन्ननाचरन्नित्यर्थः, यो वर्सत इति वाक्यशेषः, 'तस्स खलु दुकर्ड मिच्छत्ति सम्बद्ध एव ग्रन्थः, तत्र स्वयं कायेनाप्यकुर्वन्नपूरयन्नभिधीयत एवेत्यत आह-'तिविहेण पडिकतो' ति त्रिविधेन मनोवाकायलक्षणेन योगेन कृतकारितानुमति 2525%25AKER दीप अनुक्रम T AREaintinintimational Vijandiararyom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~529~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education in छ %%%% “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ६८४ ], भाष्यं [ ११९...] भेदयुक्तेन 'प्रतिक्रान्तो' निवृत्तो यस्तस्माद्दुष्कृतकारणात् तस्यैव खलुशब्दोऽवधारणे, 'दुष्कृतं' प्रागुक्तं दुष्कृतफलदातृत्वमधिकृत्य 'मिथ्ये 'ति मिथ्या भवतीति क्रियाध्याहारः अथवा व्यवहितयोगात्तस्यैव मिथ्यादुष्कृतं भवति नान्यस्येति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग् भवति तत्प्रतिपादनायाह तिमिच्छतं व निसेवर पुणो पावं । पञ्चक्खमुसाबाई मायानियडीपसंगो य ॥ ६८५ ॥ व्याख्या- 'यत्' पापं किञ्चिदनुष्ठानं दुष्कृतमिति विज्ञाय 'मिच्छत्ति मिथ्यादुष्कृतं दत्तमित्यर्थः, यस्तदेव निषेवते पुनः पापं स हि प्रत्यक्षमृषावादी वर्त्तते, कथम् ? - दुष्कृतमेतदित्यभिधाय पुनरासेवनात् तथा मायानिकृतिप्रसङ्गञ्च तस्य स हि दुष्टान्तरात्मा निश्चयतश्चेतसाऽनिवृत्त एव गुर्वादिरञ्जनार्थं मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छति, कुतः १, पुनरासेवनात्, तत्र मायैव निकृतिर्मायानिकृतिस्तस्याः प्रसङ्ग इति गाथार्थः ॥ कः पुनरस्य मिथ्यादुष्कृतपदस्यार्थ इत्याशङ्कयाह | मित्ति मिउमद्दवत्ते छत्ति य दोसाण छायणे होइ । मित्तिय मेराऍ ठिओ दुत्ति दुर्गुछामि अप्पाणं ॥ ६८६ ।। व्याख्या – 'मी' त्येवं वर्णः मृदुमार्दवत्वे वर्त्तते, तत्र मृदुत्वं- कायनाता मार्दवत्वं भावनम्रतेति, 'छे'ति च दोषस्यअसंयमयोगलक्षणस्य छादने - स्थगने भवति, 'मी'ति चायं वर्णः मर्यादायां- चारित्ररूपायां स्थितोऽहमित्यस्यार्थस्याभिधायकः 'दु' इत्ययं वर्णः जुगुप्सामि-निन्दामि दुष्कृतकर्मकारिणमात्मानमित्यस्मिन्नर्थे वर्त्तत इति गाथार्थः ॥ कत्ति कर्ड मे पाव इत्ति य डेवेमि तं उचसमेणं । एसो मिच्छा उक्कडपयक्खरत्यो समासेणं ॥ ६८७ ॥ दारं ॥ व्याख्या- 'क' इत्ययं वर्णः कृतं मया पापमित्येवमभ्युपगमार्थे वर्त्तते, 'ड' इति च 'डेवेमि तं'ति लक्ष्यामि - अतिक्र For Prints at Use Only www.jancibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४० ], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~530~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८७], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक- ॥२६४॥ प्रत सुत्राक मामि तत्, केनेत्याह-उपशमेन हेतुभूतेन, 'एषः अनन्तरोतः प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृतपदस्याक्षरार्थ इति 'समासेन' हारिभद्रीसङ्केपेणेति गाथार्थः ॥ आह-कथमक्षराणां प्रत्येकमुक्तार्थतेति, पदवाक्योरेवार्थदर्शनादिति, अत्रोच्यते, इह यथा वाक्यैक- यवृत्तिः विभाग देशत्वात्पदस्यार्थोऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्वार्थोऽप्यवसेय इति, अन्यथा पदस्याप्यर्थशून्यत्वप्रसङ्गः, प्रत्येकमक्षरेषु तद-3 भावादिति, प्रयोगश्च-इह यद्यत्र प्रत्येकं नास्ति तत्समुदायेऽपि न भवति, प्रत्येकमभावात्, सिकतातैलवदिति, इष्यते च वर्णसमुदायात्मकस्य पदस्यार्थः, तस्मात्तदन्यथाऽनुपपत्तेर्वार्थोऽपि प्रतिपत्तव्य इत्यलं प्रसङ्गेनेति । द्वारम् २। साम्प्रतं तथाकारो यस्य दीयते तत्पतिपिपादयिषयाऽऽह कप्पाकप्पे परिणिट्टियस ठाणेसु पंचसु ठियस्स । संजमतबडगस्स उ अविकप्पेणं तहाकारो॥६८८ ॥ व्याख्या-कल्पो विधिराचार इति पर्यायाः, कल्पविपरीतस्त्वकल्पः, जिनस्थविरकल्पादिर्वा कल्पः, चरकादिदीक्षा पुनरकल्प इति, कल्पश्चाकल्पश्च कल्पाकल्पमित्येकवद्भावस्तस्मिन् कल्पाकल्पे, परि-समन्तात् निष्ठितः परिनिष्ठितो, ज्ञाननिष्ठां प्राप्त इत्यर्थः, तस्य, तथा तिष्ठन्त्येतेषु सत्सु शाश्वते स्थाने प्राणिन इति स्थानानि-महाव्रतान्यभिधीयन्ते, तेषु स्थानेषु पञ्चसु स्थितस्य, महाव्रतयुक्तस्येत्यर्थः, तथा संयमतपोभ्यामाब्यः-सम्पन्न इत्यनेनोत्तरगुणयुक्ततामाह, तस्य किमित्याह'अविकल्पेन' निश्चयेन, किम्?-तथाकारः, कार्य इति क्रियाध्याहार इति गाथार्थः । इदानीं तथाकारविषयप्रतिपादनायाह ॥२६४॥ वायणपडिमुणणाए उबएसे सुत्तअस्थकहणाए।अबितहमेयंति तहा पडिमुणणाए तहकारो॥ ६८९॥ दारं॥ व्याख्या-वाचना-सूत्रप्रदानलक्षणा तस्याः प्रतिश्रवण-प्रतिश्रवणा तस्यां वाचनाप्रतिश्रवणायां, तथाकारः कार्यः, s8%99% Axe दीप अनुक्रम JABERatan intamational Hanipray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~531~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६८९], भाष्यं [११९...] (४०) प्रत सूत्राक SCRESCREE % % % एतदुक्तं भवति-गुरौ वाचनां प्रयच्छति सति सूत्रं गृहानेन तथाकारः कार्यः, तथा सामान्येनोपदेशे-चक्रयालसामाचारीप्रतिबद्धे गुरोरन्यस्य वा सम्बन्धिनि तथाकारः कार्यः, तथा 'सुत्तअस्थकहणाए'त्ति सूत्रार्थकथनायां, व्याख्यान इत्यर्थः, किम्-तथाकारः कार्यः, तथाकार इति कोऽर्थ इति ?, आह-अवितथमेतत् यदाहुयूंयमिति, न केवलमुक्केध्वेवार्थेषु तथाकारप्रवृत्तिः, तथा 'पडिसुणणाए' त्ति प्रतिपृच्छोत्तरकालमाचार्ये कथयति सति प्रतिश्रवणायां च तथाकारप्रवृत्तिरिति, चशब्दलोपोऽत्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं स्वस्थाने स्वस्थाने खल्विच्छाकारादिप्रयोक्तुः फलप्रतिपादनायाहजस्स य इच्छाकारो मिच्छाकारोय परिचिया दोऽवि । तइओय तहकारो न दुल्लमा सोग्गई तस्स ॥ ६९०॥ | व्याख्या-यस्य चेच्छाकारो मिथ्याकारश्च परिचिती द्वावपि तृतीयश्च तथाकारो न दुर्लभा सुगतिस्तस्येति गाथा निगदसिद्धैव । द्वार ३ ॥ साम्प्रतमावश्यकीनैपेधिकीद्वारद्वयावयवार्थमभिधित्सुः पातनिकागाथामाह आवस्सियं च णितो जं च अइंतो निसीहियं कुणइ । एयं इच्छं नाउं गणिवर ! तुम्भतिए णिउणं ।। ६९१ ॥ ___ व्याख्या--शिष्यः किलाह-आवस्सिय'ति आवश्यिकी-पूर्वोका सामावश्यिकी च निन्तो निर्गच्छन् यां च 'अतितो' ति आगच्छन् , प्रविशन्नित्यर्थः, नैषेधिकों करोति, 'एतद् आवश्यिकीनषेधिकीद्वयमपि स्वरूपादिभेदभिन्नं इच्छामि ज्ञातुं हे गणिवर युष्मदन्तिके 'निपुणे सूक्ष्मं ज्ञातुमिच्छामीति क्रियाविशेषणमिति गाथार्थः । एवं शिष्येणोके सत्याहाचार्यः दीप % 2 अनुक्रम NALANDS JABERatinintamational LIMIDramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~532~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९२], भाष्यं [११९...] (४०) आवश्यक ।।२६५॥ प्रत RECEM सूत्राक आवस्सियं च णितो जं च अईतो णिसीहियं कुणइ । वंजणमेयं तु दुहा अत्यो पुण होइ सो चेव ॥ ६९२ हारिभद्री___ व्याख्या-आवश्यिकी च निर्गच्छन् यां च प्रविशन्नैपेधिकी करोति, 'व्यञ्जन' शब्दरूपं एतं तु दुह'त्ति एतदेव | यवृत्तिः शब्दरूपं द्विधा, अर्थः पुनर्भवत्यावश्यिकीनषेधिक्योः स एवं' एक एव, यस्मादवश्यकर्त्तव्ययोगक्रियाऽऽवश्यिकी निषि विभागः१ द्धात्मनश्चातिचरिभ्यः क्रिया नैषेधिकीति, न ह्यसावप्यवश्यं कर्तव्यं व्यापारमुल्लच प्रवर्तते, आह-ययेवं भेदोपन्यासः |किमर्थम् ?, उच्यते, क्वचित् स्थितिगमनक्रियाभेदादभिधानभेदाचेति गाथार्थः ॥ आह-'आवश्यिकी च निर्गच्छन्नित्युक्तं, तत्र साधोः किमवस्थानं श्रेय उताटनमिति !, उच्यते, अवस्थानमिति, कथम् ?, यत आहएगग्गस्स पसंतस्स न होंति इरियाझ्या गुणा होति। गंतव्वमवस्सं कारणमि आवस्सिया होइ ।।१९३॥ व्याख्या-एकमग्रम्-आलम्बनमस्येत्येकाग्रस्तस्य, स चाप्रशस्तालम्बनोऽपि भवत्यत आह-'प्रशान्तस्य' क्रोधरहितस्य तिष्ठतः, किम् ?, न भवन्ति ईयोदयः, ईरणमीा -गमनमित्यर्थः, इहेयाकार्य कर्म ई-शब्देन गृह्यते, कारणे कार्योपचाराद्, ईा आदी येषामात्मसंयमविराधनादीनां दोषाणां ते ईर्यादयो न भवन्ति, तथा गुणाश्च स्वाध्यायध्यानादयो भवन्ति, प्राप्तं तर्हि संयतस्यागमनमेव श्रेय इति तदपवादमाह-न चावस्थाने खलूक्तगुणसम्भवान्न गन्तव्यमेव, किन्तु 'गन्सबम ॥२६॥ वस्सं कारणमि' गन्तव्यम् 'अवश्यं नियोगतः 'कारणे' गुरुग्लानादिसम्बन्धिनि, यतस्तत्रागच्छतो दोषा इति, तथा च *गम्यषपः कर्माधारे इति पञ्चमी तथा चातिचारानाभित्ोत्यर्थः. दीप 6 - अनुक्रम R Hanipramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 533~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ६९३ ], भाष्यं [ ११९...] कारणे' गच्छतः 'आवस्सिया होइ' आवश्यकी भवतीति गाथार्थः ॥ आह-कारणेन गच्छतः किं सर्वस्यैवावश्यकी भवति उत नेति १, नेति, कस्य तर्हि ?, उच्यते - आवस्सिया उ आवस्सएहिं सव्वेहिं जुप्तजोगिस्स । मणवयणकायगुसिंदियस्स आवस्सिया होइ ॥ ६९४ ।। व्याख्या - आवश्यकी तु 'आवश्यकैः' प्रतिक्रमणादिभिः सर्वैर्युक्त योगिनो भवति, शेषकालमपि निरतिचारस्य क्रियास्थस्येति भावार्थः, तस्य च गुरुनियोगादिना प्रवृत्तिकालेऽपि 'मण' इत्यादि पश्चार्द्ध मनोवाक्कायेन्द्रियैर्गुप्त इति समासः, तस्य, किम् ? - आवश्यकी भवति, इन्द्रियशब्दस्य गाथाभङ्गभयाद्व्यवहितोपन्यासः कायात्पृथगिन्द्रियग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् अस्ति चायं न्याय: - 'सामान्यग्रहणे सत्यपि प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनोपन्यासो' यथा ब्राह्मणा आयाता | वशिष्टोऽप्यायात इति गाथार्थः । उक्ताssवश्यिकी, साम्प्रतं नैषेधिक प्रतिपादयन्नाह सेनं ठाणं च जहिं चेएइ तर्हि निसीहिया होइ। जम्हा तत्थ निसिद्धो तेणं तु निसीहिया होइ ॥ ६९५ ॥ व्याख्या---शेरतेऽस्यामिति शय्या - शयनीयस्थानं तां शय्यां 'स्थानं चे 'ति स्थानमूर्ध्वस्थानं', कायोत्सर्गः, यत्र 'चेतयते' 'चिती सज्ञाने' अनुभवरूपतया विजानाति वेदयतीत्यर्थः, अथवा 'चेतयते' इति करोति, शयनक्रियां च कुर्वता निश्चयतः शय्याः क्रिया कृता भवति, ततश्च यत्र स्वपितीत्यर्थः, चशब्दो वीरासनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, अथवा तुशब्दार्थे द्रष्टव्यः, स च विशेषणार्थः, कथम् ?, प्रतिक्रमणाद्य शेषकृतावश्यकः सन्ननुज्ञातो गुरुणा शय्यां स्थानं च यत्र चेतयते 'तत्र' एवंनमुकं प्र० 1 शय्या प्र० 1 प्रतिक्रमणाचशेपैः कार्यैः समापितावश्यककृत्यर्थः * कारणात् प्र० + किमुच्यते प्र० Forest Use Only janyr मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~534~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२६६ ।। “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ६९५ ], भाष्यं [ ११९...] विधस्थितिक्रिया विशिष्ट एव स्थाने नैषेधिकी भवति नान्यत्र, किमित्यत आह- यस्मात्तत्र निषिद्धोऽसौ तेनैव कारणेन नैषेधिकी भवति निषेधात्मकत्वात्तस्या इति गाधार्थः ॥ पाठान्तरं वा से ठाणं च जदा चेतेति तया निसीहिया होइ। जम्हा तदा निसेहो निसेहमइया च सा जेणं ॥ ६९६ ।। मुक्तार्थत्वात्सुगमैव । अनेन ग्रन्थेन मूलगाथायाः 'आवश्यक व निर्गच्छन् यां चागच्छन् नैषेधिकी करोति व्यञ्जनमेतद् द्वेधे' त्येतावत् स्थितिरूपनैपेधिकीप्रतिपादनं व्यञ्जनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम् । अमुमेवार्थमुपसजिहीर्षुराह भाष्यकारः आवस्सियं च णितो जं च अहंतो निसीहियं कुणइ । सेजाणिसीहियाए णिसीहिया अभिमुहो होई ॥ १२० ॥ ( भा० ) व्याख्या - आवश्यकच निर्गच्छन् यां चागच्छन् नैषेधिकीं करोति तदेतद् व्याख्यातम् उपलक्षणत्वात्सह तृतीयपादेन 'व्यञ्जनमेतद् द्विवे' त्यनेनेति । साम्प्रतम् 'अर्थः पुनर्भवति स एवेति गाथावयवार्थः प्रतिपाद्यते तत्रेत्थमेक एवार्थो भवति यस्मान्नैषेधिक्यपि नावश्यं कर्त्तव्यव्यापारगोचरतामतीत्य वर्त्तते यतः प्रविशन् संयमयोगानुपालनाय शेषपरिज्ञानार्थ चेत्थमाह । 'सेज्जानिसीहियाए निसीहियाअभिमुहो होइति शय्यैव नैषेधिकी तस्यां शय्यानैषेधिक्यां विषयभूतायां, किम्?, शरीरमपि नैषेधिकीत्युच्यत इति, अत आह—शरीरनैषेधिक्या आगमनं प्रत्यभिमुखस्तु, अतः संवृतगात्रैर्भवितव्यमिति सज्ञां करोतीति गाथार्थः ॥ इतश्चैक एवार्थो यत आहजो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओ होइ। अणिसिद्धस्स निसीहिय केवल मेत्तं हवइ सदो ॥ १२१ ॥ (भा०) For Parts Only * ~ 535~ हारिभद्री यवृत्तिः विभागः १ ॥२६६: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः bayo Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९६...], भाष्यं [१२१] (४०) % % % 4%AA% % प्रत %% सूत्राक % E व्याख्या-यो भवति निषिद्धात्मा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्यः आत्मा थेनेति समासः, नैषेधिकी 'तस्य' निषिद्धात्मनो 'भावतः' परमार्थतो भवति, न निषिद्धोऽनिषिद्धः वक्तेभ्य एवातिचारेभ्यः तस्य अनिषिद्धस्य-अनुपयुक्तस्थागच्छतः नैषेधिकी, किम् ?-'केवलमे हवइ सद्दों' केवलं शब्दमात्रमेव भवति, न भावत इति गाथार्थः ॥ आह-यदि | नामैवं तत एकार्थतायाः किमायातमिप्तिा, अच्यते, निषिद्धात्मनो नैषेधिकी भवतीत्युक्त, सच आवस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धोत्ति होइ नायव्वो। अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा आवस्सए जुत्तो॥१२२ ॥ दारं (भाष्यम् ) व्याख्या-'आवश्यके' मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानलक्षणे युक्तः 'नियमनिसिद्धोत्ति होइ नायषो' नियमेन निषिद्धो नियमनिषिद्ध 'इति' एवं भवति ज्ञातव्यः, आवश्यिक्यपि चावश्यकयुक्तस्यैवेत्यत एकार्थतेति । अथवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, निषिद्धात्माऽपि नियमादावश्यके युक्तो यतः अतोऽप्येकार्थतेति, पाठान्तरं वा 'अहवावि [निसिद्धप्पा सिद्धार्ण अंतियं जाईत्ति, अस्थायमर्थः-एवं क्रियाया अभेदेनावश्यकीनषेधिक्योरेकार्थतोका, इह तु कार्याभेदेनो-15 च्यते, अथवा निषिद्धात्माऽपि सिद्धानामन्तिक-सामीप्यं 'याति' गच्छति, अपिशब्दावावश्यकयुकोऽपि, अतः कार्याभेदा-16 देकार्थतेति गाथार्थः ।। द्वार ४-५॥ साम्प्रतमापृच्छादिद्वारचतुष्टयमेकगाथयैव प्रतिपादयन्नाहआपुच्छणा उ कजे पुवनिसिडेण होइ पडिपुच्छा । पुष्वगहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं ॥ ६९७॥ व्याख्या-आप्रच्छनमापृच्छा सा च कर्तुमभीष्टे कार्ये प्रवर्त्तमानेन गुरोः कार्या-अहमिदं करोमीति । द्वारं ५। तथा| दीप अनुक्रम 56225%A Engtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~536~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [६९७], भाष्यं [ १२२] ॥२६७॥ आवश्यक- ४ पूर्वनिषिद्धेन सता भवतेदं न कार्यमिति, उत्पन्ने च प्रयोजने कर्त्तुकामेन 'होति पडिपुच्छ' त्ति प्रतिपृच्छा कर्त्तव्या भवति, * पाठान्तरं या - 'पुवनिउत्तेण होइ पष्ठिपुच्छा' पूर्वनियुक्तेन सता यथा भवतेदं कार्यमिति तत्कर्तुकामेन गुरोः प्रतिपृच्छा कर्त्तव्या भवति अहं तत्करोमीति, तत्र हि कदाचिदसौ कार्यान्तरमादिशति समाप्तं वा तेन प्रयोजनमिति । द्वारं ७ । तथा पूर्वगृहीतेनाशनादिना छन्दना शेपसाधुभ्यः कर्त्तव्या - इदं मयाऽशनाद्यानीतं यदि कस्यचिदुपयुज्यते ततोऽसाविच्छाकारेण ग्रहणं करोत्विति । द्वारं ८ । तथा निमन्त्रणा भवत्यगृहीतेनाशनादिना अहं भवतोऽशनाद्यानयामीति गाथार्थः द्वारं ९ ॥ इदानीमुपसम्पद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते सा चोपसम्पद् द्विधा भवति गृहस्थोपसम्पत्साधूपसम्पश्च्च, तत्रास्तां तावद् गृहस्थोपसम्पत्, साधूपसम्पत्प्रतिपाद्यते सा च त्रिविधा - ज्ञानादिभेदाद्, आह च- उवसंपया यतिविहा णाणे तह दंसणे चरिते य । दंसणणाणे तिविहा दुविहा य चरितअट्ठाए । ६९८ ।। व्याख्या - उपसम्पश्च त्रिविधा 'ज्ञाने' ज्ञानविषया तथा दर्शनविषया चारित्रविषया च तत्र दर्शनज्ञानयोः सम्बन्धिनी त्रिविधा द्विविधा च चारित्रार्थायेति गाथार्थः ॥ तत्र यदुक्तं- 'दर्शनज्ञान योस्त्रिविधे'ति तत्प्रतिपादयन्नाह Jus Educat वा संघाचेव, गहणं सुतत्थतदुभए । वैयावने खमणे, काले आवकहाइ य ।। ६९९ ।। व्याख्या - वर्त्तनासन्धना चैव ग्रहणमित्येतत्त्रितयं 'सुत्तत्थतदुभए'ति सूत्रार्थभियविषयमवगन्तव्यमिति, एतदर्थ - मुपसम्पद्यते, तत्र वर्त्तना प्राग्गृहीतस्यैवास्थिरस्य सूत्रादेर्गुणनमिति, सन्धना तु तस्यैव प्रदेशान्तरविस्मृतस्य मेलनं घटना योजना इत्यर्थः, ग्रहणं पुनः तस्यैव तत्प्रथमतया आदानमिति, एतत्त्रितयं सूत्रार्थोभयविषयं द्रष्टव्यम्, एवं ज्ञाने नव For Fans at Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 537 ~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥२६७॥ jaibrary org Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६९९], भाष्यं [१२२...] (४०) %254 प्रत सूत्राक भेदाः, दर्शनेऽपि दर्शनप्रभावनीयशास्त्र विषया एत एव द्रष्टव्या इति, अत्र च सन्दिष्टः सन्दिष्टस्योपसम्पद्यते इत्यादिचतुर्भ-१ निका, प्रथमः शुद्धः शेषास्त्वशुद्धा इति, 'द्विविधा च चारित्रार्थाय'ति यदुक्तं तत्प्रदर्शनायाह-'वेयावच्चे खमणे काले आवकहाइ य' चारित्रोपसम्पद् वैयावृत्यविषया क्षपणविषया च, इयं च कालतो यावत्कथिका च भवति, चशब्दादित्वरा च भवति, एतदुक्तं भवति-चारित्रार्थमाचार्याय कश्चिद्वैयावृत्त्यकरत्वं प्रतिपद्यते, सच कालत इत्वरो यावत्कथिकश्च भव-18 तीति गाथासमासार्थः ॥ साम्प्रतमयमेवार्थो विशेषतः प्रतिपाद्यते-तत्रापि सन्दिष्टेन सन्दिष्टस्योपसम्पदातव्येति मौलिकोऽयं गुण इति, एतत्प्रभवत्वादुपसम्पद इति, अतः अमुमेवार्थमभिधित्सुराह संदिडो संदिवस्स चेव संपजई उ एमाई । चउभंगो एत्थं पुण पढमो भंगो हवइ सुद्धो ॥ ७००॥ . व्याख्या-'सन्दिष्टो' गुरुणाऽभिहितः सन्दिष्टस्यैवाचार्यस्य यथा अमुकस्य सम्पद्यतां उपसम्पदं प्रयच्छेत इत्यर्थः, एवमादिश्चतुर्भङ्गः, स चायं-तद्यथा-सन्दिष्टः सन्दिष्टस्योक्त एव, सन्दिष्टः असन्दिष्टस्यान्यस्याऽऽचार्यस्येति द्वितीयः, असन्दिष्टः सन्दिष्टस्य, न तावदिदानी गन्तव्यं गन्तव्यं त्वमुकस्येति तृतीयः, असन्दिष्टः असन्दिष्टस्य-न तावदिदानी गन्तव्यं न चामुकस्येति, अत्र पुनः प्रथमो भङ्गो भवति शुद्धः, पुनःशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् द्वितीयपदेनाव्यवच्छित्ति|निमित्तमन्वेऽपि द्रष्टच्या इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं वर्त्तनादिस्वरूपप्रतिपादनायाह| अधिरस्स पुब्बगहियस्स वत्तणा जं इहं थिरीकरणं । तस्सेव पएसंतरणट्ठस्सऽणुसंधणा घडणा ॥७०१॥ आचार्थस्य. दीप SARSEX अनुक्रम R ainrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 538~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७०२], भाष्यं [१२२...] (४०) आवश्यक यवृत्ति २६८॥ प्रत सुत्रांक गहणं तप्पडमतया मुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । अस्थग्गहणंमि पाय एस विही होइ णायवो ॥ ७०२॥ हारिभद्री गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । नवरं-प्रायोग्रहणं सूत्रग्रहणेऽपि कश्चिद्भवत्येव प्रमार्जनादिरिति ज्ञापनार्थम् ॥ साम्प्रतमधिकृतविधिप्रदर्शनाय द्वारगाथामाह A विभागा मजणणिसेज्जअक्खा कितिकमुस्सग्ग बंदणं जेडे । भासंतो होई जेट्टो नो परियारण तो वन्दे ॥ ७०३॥ एतद्व्याचिख्यासयैवेदमाहठाणं पमज्जिऊणं दोण्णि निसिजाउ होंति कायब्बा।एगा गुरुणो भणिया वितिया पुण होंति अक्खाणं ॥ ७०४॥ निगद सिद्धा, नबरम्-'अक्वाण ति समवसरणस्य, न चाकृतसमवसरणेन व्याख्या कर्त्तव्येत्युत्सर्गः ॥ व्याख्यातं द्वारत्रयं, कृतिकर्मद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह दो घेव मत्तगाइं खेले तह काइयाए बीयं तु । जावइया य सुणेती सव्वेऽवि य ते तु वंदति ॥ ७०५ ॥ निगदसिद्धैव, नवरं मात्रक-समाधिः, कृतिकर्मद्वार एव च विशेषाभिधानमदुष्टमिति, अर्द्धकृतव्याख्यानोत्थानानुत्थानाभ्यां पलिपन्थाऽऽत्मविराधनादयश्च दोषा भावनीया इति द्वारम् । अधुना कायोत्सर्गद्वारं व्याचिख्यासुराह सव्ये काउस्सर्ग करेंति सव्वे पुणोऽवि चंदंति । णासपणे णाइदूरे गुरुवयणपडिच्छगा होति ॥ ७०६॥ व्याख्या-सर्वे श्रोतारः 'श्रेयांसि बहुविनानी'तिकृत्वा तद्विघातायानुयोगप्रारम्भनिमित्तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, ते 8 दीप अनुक्रम C २६८॥ Jaintain मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 539~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७०६ ], भाष्यं [ १२२...] चोत्सार्य सर्वे पुनरपि वन्दन्ते, ततो नासने नातिदूरे व्यवस्थिताः सन्तः, किम् ?- गुरुवचनप्रतीच्छका भवन्ति-शृण्वन्तीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं श्रवणविधिप्रतिपादनायाह- णिद्दा विगहा परिवजिएहिं गुरोर्हि पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुच्वं उवउत्तेहिं सुणेयच्वं ॥ ७०७ ॥ अभिकखतेहिं सुहासिया हूँ वयणाइँ अत्थसाराहं । विन्हियमुहेहिं हरिसागएहिं हरिसं जणतेहिं ॥ ७०८ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धं । नवरं 'हरिसागएहिं' ति सञ्जातहर्षैरित्यर्थः अन्येषां च संवेगकारणादिना हर्ष जनयद्भिः, एवं च शृण्वद्भिस्तैर्गुरोरतीय परितोषो भवतीति ॥ ततः किमित्याह गुरुरिओसगणं गुरुभत्तीए तहेब विणएणं । इच्छियसुसत्थाणं विप्पं पारं समुवर्षति ॥ ७०९ ॥ व्याख्या – 'गुरुपरितोषगतेन' गुरुपरितोषजातेन सता गुरुभक्त्या तथैव विनयेन, किम् ?, सम्यक्सद्भावप्ररूपणया ईप्सित सूत्रार्थयोः 'क्षिप्रं' शीघ्रं पारं समुपयान्ति-निष्ठां व्रजन्तीति गाथार्थः ॥ क्वाणसमत्ती जोगं काऊण काइयाईणं । वंदति तभ जे अण्णे पुव्वं चिय भणन्ति ॥ ७१० ॥ निगदसिद्धा । नवरम् अन्ये आचार्या इत्थमभिदधति-किल पूर्वमेव व्याख्यानारम्भकाले ज्येष्ठं वन्दन्त इति । द्वारगाथापश्चार्धमाक्षेपद्वारेण प्रपञ्चतो व्याचिख्यासुराह चोति जइहु जिट्टो कहिंचि सुत्तत्थधारणाविगलो । वक्खाणलद्धिहीणो निरत्थयं वंदणं तंमि ॥ ७११ ॥ निगदसिद्धा । नवरं निरर्थकं वन्दनं, तस्मिंस्तत्फलस्य प्रत्युच्चारक श्रवणस्याभावादिति भावना । Jus Education intemational For Fasten জন% ~ 540 ~ www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७११], भाष्यं [१२२...] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सुत्रांक आवश्यक अह वयपरियाएहि लहुगोऽविहु भासओ इहं जेहो। रायणियवंदणे पुण तस्सवि आसायणा भंते!॥७१२॥ व्याख्या-अथ वयापर्यायाभ्यां लघुरपि भाषक एवेह ज्येष्ठः परिगृह्यते, रत्नाधिकवन्दने पुनः तस्याप्याशातना ॥२६९॥ भदन्त ! प्राप्नोति, तथाहि-न युज्यत एव चिरकालप्रव्रजितान् लघोर्वन्दनं दापयितुमिति गाथार्थः ॥ इत्थं पराभि प्रायमाशझ्याहजइवि चयमाइएहि लहुओ सुत्तत्थधारणापडओ । वक्खाणलडिमंतो सोचिय इह घेप्पई जेहो ॥ ७१३ ॥ व्याख्या-प्रकटार्था । आशातनादोषपरिजिहीर्षया त्वाहआसायणावि णेवं पडुच जिणवयणभासयं जम्हा । वंदणयं राइणिए तेण गुणेणंपि सो चेव ॥७१४॥ प्रकटाथैव । नवरं 'तेन गुणेन' अहेद्वचनव्याख्यानलक्षणेनेति । इदानीं प्रसङ्गतो वन्दनविषय एव निश्चयव्यवहारनयमतप्रदर्शनायाहनवओएत्थ पमाणं न य परियाओऽवि णिच्छयमएणं । ववहारओ उ जुज्जइ उभयनयमयं पुण पमाणं ॥७१५॥ | व्याख्या-न 'वयः' अवस्थाविशेषलक्षणम् 'अत्र' वन्दनकविधौ प्रमाणं, न च 'पर्यायोऽपि' प्रव्रज्याप्रतिपत्तिलक्षणः निश्चयमतेन' निश्चयनयाभिप्रायेण, ज्येष्ठवन्दनादिव्यवहारलोपातिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमाह-व्यवहारतस्तु युज्यते, किमत्र प्रमाबाणमिति सन्देहापनोदार्थमाह-उभयनयमतं पुनः प्रमाणमिति गाथार्थः ॥ प्रकृतमेवार्थ समर्थयन्नाह निच्छयो दुन्नेयं-को भावे कम्मि वई समणो । ववहारओ उ कीरइ जो पुष्वठिओ चरित्संमि ॥ ७१६ ॥ दीप अनुक्रम ॥२६९॥ CINEaiand Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~541~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७१६], भाष्यं [१२३] (४०) %% % - -९ प्रत -१० सूत्राक 0 4 व्याख्या-निश्चयतो दुर्जेयं-को भावे कस्मिन्-प्रशस्तेऽप्रशस्ते वा वर्तते श्रमण इति, भावश्चेह ज्येष्ठः, ततश्चानतिशयिनः बन्दनकरणाभाव एव प्राप्त इत्यतो विधिमभिधित्सुराह-व्यवहारतस्तु क्रियते वन्दनं 'यः पूर्वस्थितश्चारित्रे' यः प्रथमं| प्रबजितः सन्ननुपलब्धातिचार इति गाथार्थः ।। आह-सम्यक् तद्गतभावापरिज्ञाने सति किमित्येतदेवमिति, उच्यते, व्यवहारप्रामाण्यात् , तस्यापि च बलवत्त्वाद् , आह च भाष्यकार:ववहारोऽविशु बलवं जं छउमत्थंपि बंदई अरहा। जा होइ अणाभिण्णो जाणतो धमयं एयं ॥ १२३ ॥ (भा०) व्याख्या-व्यवहारोऽपि च बलवानेव, 'यद्' यस्मात् छद्मस्थमपि पूर्वरत्नाधिकं गुर्वादि वन्दते 'अर्हन्नपि' केवल्यपि, अपिशब्दोऽत्रापि सम्बध्यते । किं सदा !, नेत्याह-जा होइ अणाभिन्नो'त्ति यावद् भवत्यनभिज्ञातः यथाऽयं केवलीति, किमिति वन्दत इति, अत आह-जानन् धर्मतामेतां व्यवहारनयबलातिशयलक्षणामिति गाथार्थः ॥ आह-यद्येवं सुतरां क्यापर्यायहीनस्य तदधिकान् वन्दापयितुमयुक्तम् , आशातनाप्रसङ्गादिति, उच्यते, | एत्थ उ जिणवयणाओ सुत्तासायणबहुत्तदोसाओ। भासंतगजेट्टगस्स उ कायच्वं होइ किइकम्मं ॥ ७१७ ॥ व्याख्या-'अत्र तु व्याख्यानस्ताववन्दनाधिकारे 'जिनवचनात्' तीर्थकरोक्तत्वात् तथा च अवन्द्यमाने सूत्राशातनादोपबहुत्वात् 'भाषमाणग्येष्ठस्यैव' प्रत्युच्चारणसमर्थस्यैवेत्यर्थः, किं ?, कर्त्तव्यं भवति 'कृतिकर्म वन्दनमिति गाधार्थः ।। * प्रामोतीत्यतः प्र० दीप अनुक्रम JABERatanihi andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~542~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७१७ ], भाष्यं [१२३...] आवश्यक एवं तावद् ज्ञानोपसम्पद्विधिरुक्तः, दर्शनोपसम्पद्विधिरप्यनेनैव तुल्ययोगक्षेमत्वादुक्त एव वेदितव्यः तथा च दर्शनप्रभावनीय शास्त्रपरिज्ञानार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति ॥ अधुना चारित्रोपसम्पद्विधिमभिधातुकाम आह- ॥२७०॥ Educa दुविहाय चरितंमी वेयावच्चे तहेव खमणे य। णियगच्छा अण्णंमि य सीयणदोसाइणा होति ॥ ७१८ ॥ व्याख्या - द्विविधा च चारित्रविषयोपसम्पद् वैयावृत्त्यविषया तथैव क्षपणविषयाच, आह-किमत्रोपसम्पदा ?, स्वगच्छ एव तत्कस्मान्न क्रियत इति उच्यते, निजगच्छादन्यस्मिन् गमनं सीदनदोषादिना भवति गच्छस्य, आदिशब्दादन्यभावादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ इत्तरिया विभासा वेयावचंमि तहेव खमणे य । अविगिट्ठविगिमि य गणिणो गच्छस्स पुच्छाए ॥ ७१९ ॥ व्याख्या - इह चारित्रार्थमाचार्यस्य कश्चिद्वैयावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते स च कालत इत्वरो यावत्कथकच भवति, | आचार्यस्यापि वैयावृत्यकरोऽस्ति वा न वा, तत्रायं विधिः- यदि नास्ति ततोऽसाविष्यत एव, अथास्ति स इत्वरो वा स्याद्यावत्कथिको वा, आगन्तुकोऽप्येवं द्विभेद एव, तत्र यदि द्वावपि यावत्कथिको ततश्च यो लब्धिमान् स कार्य्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयते इति, अथ द्वावपि लब्धियुक्तौ ततो वास्तव्य एव कार्य्यते, इतरस्तूपाध्यायादिभ्यो दीयत इति, अथ नेच्छति ततो वास्तव्य एव प्रीतिपुरस्सरं तेभ्यो दीयते, आगन्तुकस्तु कार्यत इति, अथ प्राक्तनोऽप्युपाध्यायादिभ्यो नेच्छति तत आगन्तुको विसर्ज्यत एव, अथ वास्तव्यो यावत्कथिक इतरस्त्वित्वर इत्यत्राप्येवमेव भेदाः कर्त्तव्याः यावदागन्तुको विसर्ज्यते, नानात्वं तु वास्तव्य उपाध्यायादिभ्योऽनिच्छन्नपि प्रीत्या विश्राम्यत इति, अथ वास्तव्यः खन्वित्वरः For Firstly हारिभद्रीवृत्ति विभागः १ ~ 543~ ॥२७०॥ Janibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७१९], भाष्यं [ १२३...] आगन्तुकस्तु यावत्कथिकः, ततोऽसौ वास्तव्योऽवधिकालं यावदुपाध्यायादिभ्यो दीयते, शेषं पूर्ववत्, अथ द्वावपीत्वरौ तत्राप्येक उपाध्यायादिभ्यः कार्य्यते शेषं पूर्ववद्, अन्यतमो वाऽवधिकालं यावद्धार्यत इत्येवं यथाविधिना विभाषा कार्येति । उक्ता वैयावृत्योपसम्पत्, साम्प्रतं क्षपणोपसम्पत्प्रतिपाद्यते चारित्रनिमित्तं कश्चित्क्षपणार्थमुपसम्पद्यते सच क्षपको द्विविधः-इत्वरो यावत्कथिकश्च, यावत्कथिक उत्तरकालेऽनशनकर्त्ता, इत्वरस्तु द्विधा विकृष्टक्षपकोऽविकृष्टक्षपकश्च, तत्राष्टमादिक्षपको विकृष्टक्षपकः, चतुर्थषष्ठक्षपकस्त्वविकृष्ट इति । तत्रायं विधिः - अविकृष्टक्षपकः खल्वाचार्येण प्रष्टव्यः - हे | आयुष्मन् ! पारणके त्वं कीदृशो भवसि १, यद्यसावाह-ग्लानोपमः, ततोऽसावभिधातव्यः - अलं तव क्षपणेन, स्वाध्यायवैयावृत्यकरणे यलं कुरु, इतरोऽपि पृष्टः सन्नेवमेव प्रज्ञाप्यते, अन्ये तु व्याचक्षते - विकृष्टक्षपकः पारणककाले ग्लानकल्पतामनुभवन्नपीष्यत एव यस्तु मासादिक्षपको यावत्कथिको वा स इष्यत एव तत्राप्याचार्येण गच्छः प्रष्टव्यो यथाऽयं क्षपक उपसम्पद्यत इति, अनापृच्छय गच्छं सङ्गच्छतः सामाचारीविराधना, यतस्ते सन्दिष्टा अप्युपधिप्रत्युपेक्षणादि तस्य न कुर्वन्ति, अथ पृष्टा ब्रुवते - यथाऽस्माकं एकः क्षपकोऽस्त्येव, तस्य क्षपणपरिसमाप्तावस्य करिष्यामः, ततोऽसौ प्रियते, अथ नेच्छन्ति ततस्त्यज्यते, अथ गच्छस्तमप्यनुमन्यते ततोऽसाविष्यत एव तस्य च विधिना प्रतीच्छितस्योद्वर्त्तनादि कार्य, यत्पुनः प्रमादतोऽनाभोगतो वा न कुर्वन्ति शिष्यास्तदाऽऽचार्येण चोदनीया इत्यलं प्रसङ्गेन इति गाथार्थः ॥ चारित्रोपसम्पद्विधिविशेषप्रतिपादनायाह For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 544~ bray o Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२०], भाष्यं [१२३...] (४०) श्यक ॥२७॥ प्रत सुत्रांक उपसंपन्नो जं कारणं तु तं कारणं अपूरेतो । अहवा समाणियमी सारणया वा विसग्गो वा ॥७२० ॥ दारं- हारिभद्री यवत्तिः व्याख्या-उपसम्पन्नो 'यत्कारणं' यन्निमित्तं, तुशब्दादन्यच्च सामाचार्य्यन्तर्गतं किमपि गृह्यते, 'तत्कारणं' वैयावृच्यादि 'अपूरयन्' अकुर्वन् , यदा वर्त्तत इत्यध्याहारः, किम् -तदा'सारणया वा विसग्गो वा तदा तस्य 'सारणा' चोदना वा क्रियते, अविनीतस्य पुनः विसर्गों वा-परित्यागो वा क्रियत इति, तथा नापूरयन्नेव यदा वर्तते तदैव सारणा विसर्गो वा क्रियते, किं तु ? 'अहवा समाणियमि'त्ति अथवा परिसमाप्तिं नीते अभ्युपगतप्रयोजने स्मारणा वा क्रियते, यथा-समाप्तं, तद्विसर्गो वेति गाथार्थः ॥ उक्ता संयतोपसम्पत् , साम्प्रतं गृहस्थोपसम्पदुच्यते-तत्र साधूनामियं सामाचारी-सर्वत्रैवाध्वादिषु वृक्षायधोऽप्यनुज्ञाप्य स्थातव्य, यत आहूइत्तरियं पिन कप्पइ अविदिन्नं खलु परोग्गहाईसुं। चिट्टितु निसिइत्तु व तइयब्वयरक्खणट्ठाए ॥७२१ ॥ व्याख्या-'इत्वरमपि' स्वल्पमपि, कालमिति गम्यते, न कल्पते अविदत्तं खलु परावग्रहादिषु, आदिशब्दः परावनहानेकभेदप्रख्यापकः, किं न कल्पते इति ?, आह-'स्थातुं' कायोत्सर्ग कर्नु 'निषीदितुम् उपवेष्टुं, किमित्यत आह-'तइयबयरक्खणडाए' अदत्तादानविरत्याख्यतृतीयत्रतरक्षणार्थ, तस्माद्भिक्षाटनादावपि व्याघातसम्भवे क्वचित् स्थातुकामेनानु- " ज्ञाप्य स्वामिनं विधिना स्थातव्यम् , अटव्यादिग्वपि विश्रमितुकामेन पूर्वस्थितमनुज्ञाप्य स्थातव्यं, तदभावे देवतां, यस्याः सोऽवग्रह इति गाथार्थः । उता दशविधसामाचारी, साम्प्रतमुपसंहरमाह दीप अनुक्रम GLOSG CAMERH ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~545~ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२२], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत - सूत्राक एवं सामाधारी कहिया दसहा समासओ एसा । संजमतबड्डयाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ ७२२ ॥ निगदसिद्धा । सामाचार्यासेवकानां फलप्रदर्शनायाह एवं सामायारि जुजता चरणकरणमाउसा । साह खवंति कम्म अणेगभवसंचियमणतं ॥ ७२३ ॥ निगदसिद्धा एव । इदानी पदविभागसामाचार्याः प्रस्तावः, सा च कल्पव्यवहाररूपा बहुविस्तरा स्वस्थानादवसेया, इत्युक्तः सामाचार्युपक्रमकालः, साम्प्रतं यथाऽऽयुष्कोपक्रमकालः प्रतिपाद्यते स च सप्तधा, तद्यथा अावसानिमित्ते आहारे वेयणा पराघाए । फासे आणापाणु सत्तविहं झिजए आई ॥७२४ ॥ व्याख्या-अध्यवसानमेव निमित्तम् अध्यवसाननिमित्तं तस्मिन्नध्यवसाननिमित्ते सति, अथवा अध्यवसानं रागस्नेहभयभेदेन त्रिधा तस्मिन्नध्यवसाने सति, तथा दण्डादिके निमित्ते सति, आहारे प्रचुरे सति, वेदनायां नयनादिसम्ब|न्धिन्यां सत्यां, पराघातो गर्त्तापातादिसमुत्थस्तस्मिन् सति, स्पर्श भुजङ्गादिसम्बन्धिनि, प्राणापानयोनिरोधे, किम् ?, सर्वत्रैव क्रियामाह-'सप्तविध सप्तप्रकारमेवं भिद्यते आयुरिति गाथासमुदायार्थः ।। अवयवार्थस्तूदाहरणेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि-रागाध्यवसाने सति भिद्यते आयुर्यथादा एगस्स गावीओ हरियाओ, ताहे कुढिया पच्छओ लग्गा, तेहिं नियत्तियाओ, तत्थेगो तरुणो अतिसयदिवरूवधारी दीप अनुक्रम T एकस गावो हताः, तदा प्रामाधिपाः (आरक्षकाः) पश्चाहनाः, तैनिवर्तिताः, तौकः तरुणोऽतिशयदिव्यरूपधारी ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आयुष्य-उपक्रमस्य सप्त कारणानि ~546~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत भावश्यक-दतिसिओ गामं पविडो, तस्स तरुणीए नीणियमुदगं, सो य पीतो, सा तस्स अणुरत्ता, होकारंतस्सविण ठाति, सो उठित्ता हारिभद्री गतो, सावि तं पलोएंती तहेव उ[यत्तेति, जाहे अद्दिस्सो जाओ ताहे तहठिया चेव रागसंमोहियमणा उयल्ला एवं रागज्झ- यवृत्तिः ॥२७२॥ वसाणे भिजति आउंति। तथा स्नेहाध्यवसाने सति भिद्यते आयुर्यथा-एगस्स वाणियगस्स तरुणी महिला, ताणि परोप्परम-विभागः१ तीवमणुरत्ताणि, ताहे सो वाणिजगेण गतो, पडिनियत्तो वसहि एक्काहेण ण पावइ, ताहे वयंसगा से भणति-पिच्छामो किं सच्चो अणुरागो न वत्ति ?, ततो एगेणागंतूण भणिया-सो मउत्ति, तीए भणियं-किं सच्चं?, सच्चं सञ्चंति, ततो तिन्निवारे पुच्छित्ता मया, इयरस्स कहियं, सोऽवि तह चेव मतो । एवं स्नेहाध्यवसाने सति भिद्यते आयुरिति, आह-रागस्नेहयोः कः प्रतिविशेष इति?, उच्यते, रूपाद्याक्षेपजनितः प्रीतिविशेषो रागः, सामान्यस्त्वपत्यादिगोचरः स्नेह इति, भयाध्यवसाने भिद्यते आयुर्यथा सोमिलस्येति-बारवतीए वासुदेवो राया, वसुदेवो से पिया देवई माया, सा कंचि महिलं| पुत्तस्स थर्ण देति दळूण अद्धिति पगया, वासुदेवेण पुच्छिया-अम्मो ! कीस अद्धितिं पकरेसि, तीए भणियं-- सुत्रांक SAHARSAGAR दीप अनुक्रम ॥२७॥ तृषितो ग्राम प्रविष्टः, तस्मै तरण्याऽऽनीतमुदकं, सच पीतवान्, सा तमिञ्चनुरक्ता, हुशारणत्यपि न तिष्ठति, स उत्थाय गतः, सापि तं प्रलोकयन्ती। तयैव स्थितेति (2) बदाऽदृश्यो जातस्तदा तथास्थितब रागसंमूदमना मृता । एवं रागाध्यवसानेन भिद्यते आयुरिति । एकस्य वणिवतरुणी महिला, तो परस्परमतीव अनुरक्ती, तदा स वाणिज्याय गतः, प्रतिनिवृत्ती यसतिमेकाहेन न प्राप्स्यति, तदा वयस्थालय भणन्ति-प्रेक्षामहे किं सत्योऽनुरागो च येति, तत एकेनागत्य भणिता-स मृत इति, तवा भणितम्-सिस्र्य, सत्यं सत्यमिति, ततःत्री वारान् पृष्ठा मुता, इतरी कथितं, सोऽपि तथैव मृतः। द्वारिकार्या वासुदेवो राजा, वसुदेवस्तस्य पिता देवकी माता, सा काशिन्महिला पुत्राय स्तन्यं ददतीं दृष्ट्वाति प्रयता, वासुदेवेन पृष्टा-अम्ब! किमति प्रकरोषि!, तया भणितम् * ताहे पत्तेति प्र. Standinary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~547~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत जात ! न मे पुत्तभंडेण केणइ थणो पीउत्ति, वासुदेवेण भणिया-मा अद्धिति करेसि, इण्हि ते देवयाणुभावेण पुत्तसंपत्तिं करेमो, देवया आराहिया, तीए भणिय-भविस्सइ से दिवपुरिसो पुत्तोत्ति, तहेव जायं । जायस्स य से गयसुकुमालोत्ति नामं कयं । सो य सबजादवपितो सुहंसुहेण अभिरमइ, सोमिलमाहणधूया य रूववतित्ति परिणाविओ, अरिह नेमिस्स य अंतियं धर्म सोऊण पबइओ, गतो य भगवया सद्धिं, धिज्जाइयस्सवि अपत्तियं जायं । कालेण पुणो भगवया 8 दसद्धिं बारवतिमागओ, मसाणे य पडिमं ठितो, दिहो य धिज्जाइएण, ततो कुविएण कुडियंठो मत्थए दाऊण अंगाराणं? से भरितो, तस्स य सम्म अहियासेमाणस्स केवलं समुप्पण्णं, अंतगडो य संवुत्तो । वासुदेवो य भगवतो रिहनेमिस्स चलणजुयलं नमिऊणं सेसे य साहू वंदिऊण पुच्छइ-भगवं ! कतो गयसुकुमालोत्ति?, भगवया कहियं-मसाणे पडिमं ठितो आसि, वासुदेवो तत्थेव गतो, मतो दिडो, कुविएण भगवं पुच्छिओ-केणेस मारिउत्ति ?, भगवया भणियं-जस्सेव तुम सूत्राक दीप अनुक्रम CCCCC जात ! न मम पुत्रभाण्टेन केनचित् सन्यं पीतमिति, वासुदेवेन भणिता-मारुति कार्की, इदानीं तप देवतानुभाधेन पुत्रसंपत्ति करोमि, देवता| राजा, तया भणित-भविष्यति तखा दिव्यपुरुषः पुत्र इति, तथैव जातं । जातस्य च तस्य गजमुकुमाल इति नाम कृतं । स च सर्ववादरप्रियः सुखं सुखेना| भिरमते, सोमिलबाह्मणदुहिता च रूपवतीति परिणायितः, अरिष्टने मेश्वान्तिके धर्म श्रुत्वा प्रनजितः, गत भगवता सार्थः, विजातीयस्थाप्यप्रीतिकं जातं । कालेन पुनर्भगवता सार्थ द्वारिकायामागतः, श्मशाने च प्रतिमा स्थितः, र धिरजातीयेन, ततः कुपितेन कुण्डिकाकण्ठं (पाली)मस्तके दवाझाः तस्य भृतः, तख च सम्बगध्यस्थतः केवलं समुत्पन्नम्, अन्तकृच संवृत्तः । वासुदेवश्च भगवतोऽरिष्टनेमेश्वरणयुगलं नत्वा शेषांश्च साधून बन्दिस्वा पृच्छति-भगवन् ! . गजमुकमाल इति!, भगवता कथितं-श्मशाने प्रतिमया स्थित श्रासीत्, वासुदेवस्तत्रैव गतः, मृतो यः, कुपितेन भगवान् पृष्टः-केनैष मारित इति, भगवता भणित-यस्यैव त्वां shirwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~548~ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२४], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्री यवृत्तिः विभागा ॥२७॥ प्रत सुत्रांक नयरिं पविसंत दट्टण सीस फुष्टिहीतित्ति । धिज्जाइओऽवि माणुसाणि पहाविऊण जाव नीति ताव दिहो अणेण पबिसंतो। वासुदेवो, भयसभेतस्स य से सीसं तडित्ति सयसिक्करं फुद्दति । एवं भयाध्यवसाने सति भिद्यते आयुरिति । द्वारं । यदुक्तं 'निमित्ते सति भिद्यते आयुरिति तन्निमित्तमनेकप्रकार प्रतिपादयन्नाह दंडकससत्थरजू अग्गी उद्गपडणं विसं वाला । सीउण्हे अरह भयं खुहा पिवासा य वाही य ॥ ७२५ ॥ मुत्तपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो।घसणघोलणपीलण आउस्स उवक्कमा एए ॥ ७२६॥ दार॥ __ व्याख्या-दण्डकशाशस्त्ररज्जवः अग्निः उदकपतनं विषं व्यालाः शीतोष्णमरतिर्भयं क्षुत्पिपासा च व्याधिश्च मूत्रपुरीपनिरोधः जीर्णाजीपणे च भोजन बहुशः घर्षणघोलणपीडनान्यायुषः उपक्रमहेतुत्वादुपक्रमा एते, कारणे कार्योपचारात्, यथा-तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यस्तथा आयुर्घतमिति । तत्र दण्डादयः प्रसिद्धा एव, 'ग्याला' सप्पों उच्यन्ते, धणं चन्दनस्येव, घोलनम् अङ्गुष्ठकालिगृहीतसञ्चाल्यमानयूकाया इव, पीडनम् इक्ष्वादेरिवेति गाथार्थः॥ द्वारं । तथाऽऽहारे सत्यसति वा भिद्यते आयुर्यथा-ऐगो मरुगो छणे अट्ठारस वारे भुजिऊण सूलेण मओ, अण्णो पुण छुहाए मओत्ति । द्वारं । वेदनायां सत्यां भिद्यते आयुर्यथा शिरोनयनवेदनादिभिरनेके मृता इति । द्वार । तथा पराघाते सति भिद्यते आयुर्यथा-1 नगरी प्रविषान्तं दृष्ट्वा शीर्ष स्फुटिव्यतीति । धिरजातीयोऽपि मातुधान् प्रस्थाप्य यावद्याति तावदृष्टोऽनेन प्रविान् वासुदेवा, भवसनान्तस्य च तस्य | शीर्ष चटदिति शतशर्कर स्फुटितमिति । २ एको ब्राझणः क्षणेऽष्टादश वारान्भुक्त्वा अालेन मृतः, बन्यः पुनः क्षुधा सव इति । दीप अनुक्रम T ॥२७॥ JABERahind Smalaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~549~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२६], भाष्यं [१२३...] (४०) S -ORE प्रत %454545% सूत्राक विजले वा तडीए वा खाणीए वा पेल्लियस्सेति। द्वार। तथा स्पर्श सति भिद्यते आयुर्यथा-तयाविसेणं सप्पेणं छित्तस्स, जहा वा बभदत्तस्स इत्थीरयणं, तमि मए पुत्तेण से भणियं-मए सद्धिं भोगे भुंजाहिसि, सीए भणियं-न तरसि मज्झं फरिसं विसहितए, न पत्तियइ, आसो आणिओ, सो तीए हत्थेण मुहाओ काळ जाव छित्तो, सो गलिऊण सुरक्खएण मतो, तहावि अपत्तियंतेण लोहमयपुरिसो कओ, तीए अवरुंडिओ, सोऽवि विलीणोति । द्वारं । तथा प्राणापाननिरोधे |सति भिद्यते आयुर्यथा-छगलगाणं जण्णवाडादिसु मारिजंताणं । द्वार । एवं सप्तविध भिद्यते आयुरिति । न चैतत्स र्वेषामेव, किंतु सोपक्रमायुषां न निरुपक्रमायुपामिति । तत्र-देवा नेरइया वा असंखवासाउया व तिरिमणुया । उत्तमपुरिसा य तहा चरिमसरीरा य निरुवकमा ॥१॥ सेसा संसारत्था भइया निरुवकमा व इतरे वा । सोवकमनिरुवक्कम-12 भेदो भणिओ समासेणं ॥२॥ आह-अध्यवसायादीनां निमित्तत्वापरित्यागाझेदोपन्यासो विरुध्यत इति, न, आन्तरेतरविचित्रोपाधिभेदेन निमित्तभेदानामेवोपन्यासात्, सकलजनसाधरणत्वाच्च शास्त्रारम्भस्य, आह-ययेवमुपक्रम्यते दीप अनुक्रम १ कर्दमेन वा तव्या वा खन्था वा प्रेरितस्येति । त्वग्विषेण सर्पण स्पृष्टस्य, यथा वा ब्रह्मदत्तस्य स्त्रीरतं, तस्मिन् मते पुत्रेण तस्दै भणित-मया साधं भोगान् | भुरक्षवेति, तया भणितं न शक्रोषि मम स्पर्श बिसोवं, न प्रत्येति, अश्व आनीतः, स तया हस्तेन मुस्खास्कटी थावस्पृष्टः, स गिलित्वा (विलीय) शुक्रायेण | मृतः, तथाप्यप्रत्यायत्ता लोहमयपुरुषः कृतः, तया आलिहिसः, सोऽपि विलीन इति । अजाना यशपाटकादिषु मार्यमाणानाम् । देवा नैरविका या असंख्यवर्षायुषश्च तियाराः । उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीराच निरुपक्रमाः ॥ १॥ शेषाः संसारखा भक्का निरुपमा वा इतरे वा । सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन ॥२॥ JABER मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 550~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२७४ ॥ आयुस्ततश्च कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्च कथम् ?, संवत्सरशतमुपनिबद्धमायुः, तस्यापान्तराल एव व्यपगमात्कृतनाशः, ५- येन च कर्मणा तदुपक्रम्यते तस्याकृतस्यैवाभ्यागम इति, अत्रोच्यते, यथा वर्षशतभक्तमप्यग्निकव्याधितस्याल्पेनापि काले| नोपभुञ्जानस्य न कृतनाशो नाप्यकृताभ्यागमस्तद्वदिहापीति, आह च भाष्यकार :- "कम्मोवक्कामिज्जइ अपत्तकालंपि जइ ततो पत्ता । अकयागमकयनासामोक्खा नासा सयादोसा ॥ १ ॥ न हि दीहकालियस्सवि णासो तस्साणुभूतितो खिष्पं । बहुकालाहारस्स व दुयमग्गितरोगिणो भोगो ॥ २ ॥ सबं च पदेसतया भुज्जइ कम्ममणुभावतो भइतं । तेणावस्साणुभवे के कतनासादयो तस्स १ ॥ ३ ॥ किंचिदकालेऽवि फलं पाविज्जइ पञ्चए य कालेण । तह कम्मं पाविज्जइ कालेणवि पचए अण्णं ॥ ४ ॥ जह वा दीहा रज्जू उज्झइ कालेण पुंजिया खिष्पं । विततो पडोऽवि सुरसइ पिंडीभूतो य कालेणं ॥ ५ ॥” इत्यादि । ततश्च यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति द्वारगाथावयवार्थः । व्याख्यात उपक्रमकालः, साम्प्रतं देशकालद्वारावयवार्थ उच्यते तत्र देशकालः प्रस्तावोऽभिधीयते स च प्रशस्तोऽप्रशस्तञ्च तत्र प्रशस्तस्वरूपप्रतिपादनायाह निडूमगं च गामं महिलाथूभं च सुण्णयं दहुं । णीयं च कागा ओलेन्ति जाया भिक्खस्स हरहरा ॥ ७२७ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७२६ ], भाष्यं [१२३...] Educat 1 कर्मोपक्रम्यते अप्राप्तकालेऽपि यदि ततः प्राप्ताः । अकृतागमकृतनाशमोक्षानाश्वाशतादोषाः ॥ १ ॥ न हि दीर्घकालिकस्यापि नाशस्तस्यानुभूतितः क्षिप्रम् । बहुकालीनाहारस्यैव द्रुतमझिकरोगिको भोगः ॥ २ ॥ सर्व च प्रदेशत्तया मुज्यते कर्म अनुभावतो भक्तम् । तेनावश्यानुभवे के कृतनाशादयस्वस्य ? ॥ ३ ॥ किञ्चिदकालेऽपि फलं पाच्यते पच्यते च कालेन । तथा कर्म पाच्यते कालेनापि पच्यतेऽन्यत् ॥ ४ ॥ यथा वा दीर्घा रज्जूर्दद्यते कालेन पुञ्जिता क्षिप्रम् । पिवतः पटोऽपि शुष्यति पिण्डीभूतश्च कालेन ॥ ५ ॥ For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 551~ ॥२७४॥ dancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७२७], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक 60-6500-50-55- 2424 | व्याख्या-निमकं च ग्रामं महिलास्तूपं च कूपतटमित्यर्थः, शून्यं दृष्ट्वा, तथा नीचं च काका: 'ओलिन्ति' त्ति गृहाणि प्रति परिभ्रमन्ति, तांश्च दृष्ट्वा विद्यात् यथा जाता भैक्षस्य 'हरहरे' त्यतीव भिक्षाप्रस्ताव इति, पाठान्तरं वा 'नीयं च काए ओलिन्ते' रष्ट्रत्यनुवर्तत इति गाथार्थः । अप्रशस्तदेशकालस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहनिम्मच्छियं महुं पायडोणिही खजगावणो सुण्णो। जायंगणे पसुत्ता पउत्धवइया य मत्ता य॥७२८ ॥ दारं॥ व्याख्या-निर्माक्षिक मधु, प्रकटो निधिः, खाद्यकापणः शून्यः, कुल्लूरिकापण इति भावार्थः, अतो मध्वादीनां ग्रहणप्रस्तावः, तथा या चाङ्गणे प्रसुप्ता प्रोषितपतिका च मत्ता च तस्या अपि ग्रहणं प्रति प्रस्ताव एवेति, आसवेन मदनाकुलीकृतत्वात्तस्या इति गाथार्थः । दारं । इदानीं कालकाला प्रतिपाद्यते-कालस्य-सत्त्वस्य श्वादेः कालो-मरणं कालकाला, अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहकालेण कओ कालो अम्हं सज्झायदेसकालंमि । तो तेण हओ कालो अकालकालं करेंतेणं ॥ ७२९ ॥ व्याख्या-कालेन' शुना 'कृतः कालः' कृतं मरणम् अस्माकं स्वाध्यायदेशकाले ततोऽनेन हतः कालः-भग्नः स्वाध्यायकालः, 'अकाले' अप्रस्तावे 'कालं' मरणं कुर्वतेति गाथार्थः। द्वारम् । इदानीं प्रमाणकालः प्रतिपाद्यतेतत्राद्धाकालविशेष एव मनुष्यलोकान्तर्वर्ती विशिष्टव्यवहारहेतुः अहर्निशरूपः प्रमाणकाल इति, आह चदुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई अ।चउपोरिसिओ दिवसो राती चउपोरिसी चेव ॥७३० ॥ व्याख्या-द्विविधः प्रमाणकाला-दिवसप्रमाणं च भवति रात्रिश्च, चतुष्पौरुषिको दिवसः रात्रिश्चतुष्पौरुष्येव, ततश्च दीप अनुक्रम Palanmitrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 552 ~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२७५॥ Jus Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७३० ], भाष्यं [१२३...] प्रमाणमेव कालः प्रमाणकालः, पौरुषीप्रमाणं त्वन्यत्रोत्कृष्टहीनादिभेदभिन्नं प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः । द्वारं । इदानीं वर्णकालस्वरूप प्रदर्शनायाह पंचण्डं वण्णाणं जो खलु वण्णेण कालओ वण्णो । सो होइ वण्णकालो वणिजइ जो व जं कालं ॥ ७३१ ॥ व्याख्या–पञ्चानां शुक्लादीनां वर्णानां यः खलु वर्णेन छायया कालको वर्णः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्कृष्ण एव, अनेन गौरादेर्नामकृष्णस्य च व्यवच्छेदः, स भवति वर्णकालः, वर्णश्चासौ कालश्चेति वर्णकालः, 'वण्णिजइ जो व जं कालं ति वर्णनं वर्णः, प्ररूपणमित्यर्थः, ततश्च वर्ण्यते-प्ररूप्यते यो वा कश्चित्पदार्थो यत्कालं स वर्णकालः, वर्णप्रधानः कालो वर्णकाल इति गाधार्थः ॥ इदानीं भावकालः प्रतिपाद्यते - भावानामौदयिकादीनां स्थितिर्भावकाल इति, आह च सादी पज्जवसिओ चभंगविभागभावणा एत्थं । ओदइयादीयाणं तं जाणसु भावकालं तु ॥ ७३२ ॥ व्याख्या - सादिः सपर्यवसितश्चतुर्भङ्गविभागभावना अत्र कार्या, केषाम् ?- औदयिकादीनां भावानामिति, ततश्च | योऽसौ विभागभावनाविषयस्तं जानीहि भावकालं तु, इयमक्षरगमनिका, अयं भावार्थ:- औदायको भावः सादिः सपर्यत्र| सानः सादिरपर्यवसानः अनादिः सपर्यवसानः अनादिरपर्यवसान इत्येवमौपशमिकादिष्वपि चतुर्भङ्गिका द्रष्टव्या, इयं पुनरत्र विभागभावना - औदयिक चतुर्भङ्गिकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं विषयः - नारकादीनां नारकादिभवः खल्बौ ॥२७५॥ | दयिको भावः सादिसपर्यवसानः, मिथ्यात्वादयो भव्यानामौदयिको भावोऽनादिसपर्यवसानः, स एवाभव्यानां चरमभङ्ग | इति । उक्तः औदयिकः, औपशमिकचतुर्भङ्गिकायां तु द्व्यादयः शून्या एव, प्रथमभङ्गस्त्वौपशमिकसम्यक्त्वादयः, औपश For Fans at Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा १ ~ 553~ ancibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३२], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक मिको भावः सादिसपर्यवसान इति । उक्त औपशमिका, क्षायिकचतुर्भनिकायां तु ज्यादयः शून्या एव, क्षायिक चारित्र दानादिलब्धिपश्चकं च क्षायिको भावः सादिसपर्यवसाना, सिद्धस्य चारित्र्यचारित्र्यादिविकल्पातीतत्वात् , क्षायिकज्ञान-121 दर्शने तु सादिरपर्यवसाने इति, अन्ये तु द्वितीयभङ्ग एव सर्वमिदं प्रतिपादयन्ति । उक्तः क्षायिकः, क्षायोपशमिकचतुर्भ-18 निकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं विषयः-चत्वारि ज्ञानानि क्षायोपशमिको भावः सादिसपर्यवसानः, मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने भव्यानामनादिसपर्यवसाने, एते एवाभन्यानां चरमभङ्ग इति । उक्तः क्षायोपशमिका, पारिणामिकचतुर्भशिकायां द्वितीयभङ्गशून्यानां शेषभङ्गानामयं गोचर:-पुद्गलकाये व्यणुकादिः पारिणामिको भावः सादिसपर्यवसानः, भव्यत्वं भव्यानामनादिः सपर्यवसानः, जीवत्वं पुनः चरमभङ्ग इति, उक्तः पारिणामिकः । उक्कार्थसङ्ग्रहगाथा-बीयं दुतियादीPाया भंगा वजेत्तु विझ्ययं सेसे । भवमिच्छसम्मचरणे दिहीनाणेतराणुभवजिए ॥१॥ इति गाथार्थःना एत्थं पुण अहिगारो पमाणकालेण होइ नापब्वो। खेतमि कमि काले विभासियं जिणवरिंदेणं ॥७३३ ॥ है। व्याख्या-'अत्र पुनः' अनेकविधकालप्ररूपणायाम् 'अधिकारः' प्रयोजनं प्रस्तावः प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्यः । आह-'दवे अद्ध' इत्यादिद्वारगाथायां 'पगयं तु भावेणती' त्युक्त, साम्प्रतमत्र पुनरधिकारः प्रमाणकालेन भवति ज्ञातव्य र इत्युच्यमानं कथं न विरुद्ध्यत इति !, उच्यते, क्षायिकभावकाले भगवता प्रमाणकाले च पूर्वाहे सामायिक भाषितमित्य| (औदयिकाद्यनुक्रमेण) द्वितीयं द्वितीयादीन् तृतीयादीन् भङ्गान् वर्जयित्वा शोषयोरपि द्वितीयं वर्जवित्वा (३-1-1-३-३ भनाः) भने मिथ्यात्वे (भन्येऽभम्वे च)(औ०) सम्पक्स्वे(मा.) चरणे (मतरूपे) (मायो) दर्शनज्ञानयोः मवादी अज्ञाने (भच्ये अभव्ये च) (पा.) अणौ मन्यावे जीवत्वे ॥१॥ दीप अनुक्रम T Mahanesamaroo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~554~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२७६॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७३४ ], भाष्यं [ १२३ ...] विरोधः । अथवा प्रमाणकालोऽपि भावकाल एव तस्याद्धाकालस्वरूपत्वादित्यलं विस्तरेणेति । 'उद्देसे निद्देसे ये' त्याद्युपो द्घातनिर्युक्तिप्रतिबद्धद्वारगाथाद्वयस्य व्याख्यातं कालद्वारमिति । साम्प्रतं यत्र क्षेत्रे भाषितं सामायिकं तदजानन् प्रमाणकालस्य चानेकरूपत्वाद्विशेषमजानन् गाथापश्चार्द्धमाह चोदक:- 'खेत्तंमि कंमि काले विभासियं जिणवरिंदेणं' १ इति गाथार्थः ॥ चोदकप्रश्नोत्तरप्रतिपिपादविषयाऽऽह- वहसाहसृकारसीऍ पुग्वण्हदेसकालंमि । महसेणवणुजाणे अनंतरं परंपरं सेसं ॥ ७३४ ॥ व्याख्या-- वैशाख शुद्धैकादश्यां 'पूर्वाहदेशकाले' प्रथमपौरुष्यामिति भावार्थः । कालस्यान्तरङ्गत्वख्यापनार्थमेव प्रश्नव्यत्ययेन निर्देशः । महसेनवनोद्याने क्षेत्रे अनन्तरनिर्गमः सामायिकस्य, 'परम्परं सेस' ति शेषं क्षेत्रजातमधिकृत्य परम्प रनिर्गमस्तस्येति, आह च भाष्यकार :- "खेत्तं महसेणवणोवलक्खियं जत्थ निग्गयं पुषिं । सामाइयमन्नेसु य परंपरविणिग्गमो तस्स ॥ १ ॥” इति गाथार्थः ॥ गतं मूलद्वारगाधाद्वयप्रतिवद्धं क्षेत्रद्वारम्, इह च क्षेत्रकालपुरुषद्वाराणां निर्गमाङ्गता व्याख्यातैव ततश्च निर्गमद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह-'नामं ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ निग्गमस्सा निक्खेवो छबिहो होइ' सि येयं गाथोपन्यस्ता अस्या एव भावनिर्गमप्रतिपादनायाह नियुक्तिकार :खइयंमि वहमाणस्स निग्गयं भयवओ जिणिंदस्स । भावे खओवसमियंमि वहमाणेहिं तं गहियं ॥ ७३५ ॥ व्याख्या - क्षायिके वर्त्तमानस्य भगवतो निर्गतं जिनेन्द्रस्य भावे, भावशब्दः उभयथाऽप्यभिसम्बध्यते, भावे क्षायोप १ क्षेत्रं महासेनवनोपलक्षितं यत्र निर्गतं पूर्वम् । सामायिकमन्येषु च परम्परविनिर्गमस्तस्य ॥ १ ॥ For Farners at Use Only Education Intol हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~555~ ॥२७६॥ facibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७३५], भाष्यं [१२३...] (४०) * प्रत सूत्राक शमिके वर्तमानः 'तत्' सामायिकमन्यञ्च श्रुतं गृहीतं, गणधरादिभिरिति गम्यते । तत्र गौतमस्वामिना निषधात्रयेण चतुदर्श पूर्वाणि गृहीतानि, प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते, भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णे इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा, एता एवं तिम्रो निषद्याः, आसामेव सकाशाद्गणभृताम् 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदि' ति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सत्ताऽयोगात्, ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशाङ्गमुपरचयन्ति, ततो भगवमणुण्णं करेइ, सक्को ये दिवं वइरमयं थालं दिवचुण्णाणं भरेऊण सामिमुवागच्छइ, ताहे सामी सीहासणाओ उठित्ता पडिपुण्णं मुहिं केसराणं गेण्हइ, ताहे गोयमसामिप्पमुहा एक्कारसवि गणहरा इसिं ओणया परिवाडीए ठायंति, ताहे देवा आउज्जगीयसदं निरंभंति, ताहे सामी पुर्व तित्थं गोयमसामिस्स दबेहिं गुणेहिं पज्जवेहिं अणुजाणामित्ति भणति चुण्णाणि य से सीसे छुहइ, ततो देवावि चुण्णवासं पुष्फवासं च उवरिं वासंति, गणं च सुधम्मसामिस्स धुरे ठवेऊण अणुजाणइ । एवं सामाइयस्सवि अस्थो भगवतो निग्गओ, सुत्तं गणहरेहितो निग्गतं, इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः । (ग्रन्थानम् ७०००) साम्प्रतं पुरुषद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाऽऽह दव्याभिलावचिंधे वेए धम्मत्यभोगभावे य । भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥ ७३६ ॥ १२- दीप अनुक्रम भगवाननुहां करोति, शमा दिग्ध वारसमकं खालं दिव्यचूर्ण त्वा खामिनमुपागच्छति, सदा स्वामी सिंहासनात्याय प्रतिपूर्णा मुष्टि गन्धानां । गृहाति, तदा गौतमस्वामिप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदवनताः परिपाया तिष्ठन्ति, तदा देवा बातोयगीतशब्दं निरुग्धन्ति, सदा स्वामी पूर्व तीर्थ गौतममामिने व्यर्गुणैः पर्यवैरनुज्ञानामीति भणति चूर्णानि च तस्य भी क्षिपति, ततो देवा अपि चूर्णवर्षों पुष्पवर्षा च उपरि वर्षन्ति, गर्म च सुधर्मस्वामिनं धुरि स्थापयित्वाऽनुजानाति । एवं सामायिकस्यापिथों भगवतो निर्गतः, सूत्रं गणधरेभ्यो निर्गतम् । * मणसीकरेदप्र. kit मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~5564 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७३६], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक हारिभद्री यवृत्तिः २७७॥ प्रत सुत्रांक RSAEXCLES व्याख्या-'दब'त्ति द्रव्यपुरुषः, स चागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरातिरिक्तकभविकवद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रभेदभिन्नो द्रष्टव्यः, अधवा व्यतिरिक्तो द्विधा-मूलगुणनिर्मितः उत्तरगुणनिर्मितश्च, तत्र मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येव, अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः-शब्दः, तत्राभिलापपुरुषः पुल्लिङ्काभिधानमात्रं घटः पट इति वा, चिहपुरुषस्त्वपुरुषोऽपि पुरुषचिह्नोपलक्षितो यथा नपुंसक श्मश्रुचिह्नमित्यादि, तथा त्रिष्वपि लिङ्गेषु स्त्रीपुनपुंसकेषु तृणज्वालोपमवेदानुभवकाले वेदपुरुष इति, तथा धर्मार्जनव्यापारपरः साधुर्धर्मपुरुषः, अर्थार्जनपरस्त्वर्थपु|रुषो मम्मणनिधिपालवत् , भोगपुरुषस्तु सम्प्राप्तसमस्तविषयसुखभोगोपभोगसमर्थश्चक्रववित्, 'भावे य' त्ति भावपुरुपश्च, चशब्दो नामाद्यनुक्तभेदसमुच्चयार्थः, 'भावपुरिसो उ जीवो भावे' ति पू:-शरीरं पुरि शेते इति निरुक्तवशाद् भावपुरुषस्तु जीवः, 'भावि' त्ति भावद्वारे निरूप्यमाणे भावद्वारचिन्तायामिति भावार्थः, अथवा 'भावे ति भावनिर्गमप्ररूपणायामधिकृतायां, किम्?-'पगयं तु भावेणं' ति 'प्रकृतम्' उपयोगस्तु भावेनेत्युपलक्षणाद् भावपुरुषेण-शुद्धेन जीवेन, तीर्थकरेणेत्यर्थः, तुशब्दावेदपुरुषेण च गणधरेणेति, एतदुक्तं भवति-अर्थतस्तीर्थकरान्निर्गतं सूत्रतो गणधरेभ्य इति, एवमन्येऽपि यथासम्भवमायोज्या इति गाथार्थः ॥ गतं पुरुषद्वारं, साम्प्रतं कारणद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह- . |णिक्खेवो कारणंमी चउब्धिहो दुविहु होइ दव्वंमि । तहब्बमण्णव्वे अहवावि णिमित्तनेमित्ती १७३७॥दार।। | अस्या गमनिका-निक्षेपणं निक्षेपो न्यास इत्यर्थः, करोतीति कारण, कार्य निर्वयतीति हृदय, तस्मिन् कारणे-कारण *पण्डः क्लीयो नपुंसकमिति हैम्युक्तः नपुंस्त्वम्, दीप अनुक्रम ॥२७७॥ Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~557~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७३७], भाष्यं [१२३...] विषयः 'चतुर्विधः' चतुर्भेदः नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणः, नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यकारणं व्यतिरिक्तं द्विधा, यत आहद्विविधो भवति द्रव्ये, निक्षेप इति वर्त्तते, सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा द्रव्ये इति द्रव्यकारणविषयो द्विविधो निक्षेपः परिगृह्यते, तदेव द्रव्यकारणद्वैविध्यं दर्शयति- 'तद्द्द्रव्य' मिति तस्यैव पटादेर्द्रव्यं तद्रव्यं-तन्त्वादि, तदेव कारणमिति द्रष्टव्यं, तद्विपरीतं वेमाद्यन्यद्रव्यकारणमिति । अथवाऽन्यथा द्विविधत्वं निमित्तं नैमित्तिकमपि, अपिशब्दादन्यथापि कारणनानातेति, तां वक्ष्यति । तत्र पटस्य निमित्तं तन्तवस्त एवं कारणं, तद्व्यतिरेकेण पटानुत्पत्तेः, यथा च तन्तुभिर्विना न भवति पटस्तथा तद्भूतातानादिचेष्टादिव्यतिरेकेणापि न भवत्येव तस्याश्च चेष्टाया बेमादिनिमित्तं ततो निमित्तस्येदं नैमित्तिकमिति गाथार्थः ॥ समवाई असमबाई छव्विह कत्ता य कैम्म करणं च । तत्तो य संपयाणापयाण तह संनिहाणे य ॥ ७३८ ॥ व्याख्या -समेकी भावे अवोऽपृथक्त्वे अय गतौ, ततश्चैकीभावेनापृथग्गमनं समवायः-संश्लेषः स येषां विद्यते ते समवायिनः तन्तवो यस्मात्तेषु पटः समवैतीति, समवायिनश्च ते कारणं च समवायिकारणं- तन्तुसंयोगाः, कारणद्रव्यान्तरधर्मत्वात् पटाख्यकार्यद्रव्यान्तरस्य दूरवर्त्तित्वात् असमवायिनः त एव कारणमसमवायिकारणमिति । आह-अर्थाभेदे सत्यनेकधा कारणद्वयोपन्यासोऽनर्थक इति, न, सञ्ज्ञाभेदेन तन्त्रान्तरीयाभ्युपगम प्रदर्शनपरत्वात्तस्य, अथवा षड्विधं कारणम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः करोतीति कर्त्तरि व्युत्पत्तेः, स्वेन व्यापारेण कार्ये यदुपयुज्यते तत्कारणं, कथं पति करण कम्मं चेति व्याख्या. For Farine Pest Use Only ancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 558~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७३८ ], भाष्यं [ १२३...] ॥२७८॥ आवश्यक- धमित्याह- कर्त्ता च कारणं, तस्य कार्ये स्वातन्त्र्येणोपयोगात्, तमन्तरेण विवक्षित कार्यानुत्पत्तेः अभीष्टकारणवत्, ततश्च घटोत्पत्तौ कुलालः कारणं, तथा करणं च मृत्पिण्डादि करणं, तस्य साधकतमत्वात्, तथा कर्म च कारणं क्रियते निर्वर्त्यते यत्तत्कर्म-कार्यम्, आह- तत्कथमलब्धात्मलाभं तदा कारणमिति?, अत्रोच्यते, कार्यनिर्वर्त्तनक्रियाविषयत्वात्तस्योपचारात्कारणता, उक्तं च- “निर्वर्त्य वा विकार्य वा प्राप्यं वा यत्क्रियाफलम् । तत् दृष्टादृष्टसंस्कारं कर्म कर्तुर्थदीप्सितम् ॥ १ ॥ इत्यादि, मुख्यवृत्त्या वा सौकर्यगुणेन कर्म कारणं, तथा सम्प्रदानं च घटस्य कारणं, तस्य कर्मणाऽभिप्रेतत्वात्, तमन्तरेण तस्याभावात्, सम्यक् सत्कृत्य या प्रयलेन दानं सम्प्रदानम्, अत एव च रजकस्य वस्त्रं ददातीति न सम्प्रदाने चतुर्थी, किंतु ब्राह्मणाय घटं ददातीति, तथाऽपादानं कारणं, विवक्षितपदार्थापायेऽपि तस्य ध्रुवत्वेन कार्योपकारकत्वाद्, 'दो अवखण्डने' दानं खण्डनम् अपसृत्य मर्यादया दानमपादानं, पिण्डापायोऽपि मृदो ध्रुवत्यादपादानतेति, सा व घटस्य कारणं, तामन्तरेण तस्यानुत्पत्तेः, तथा सन्निधानं च कारणं, तस्याधारतया कार्योपकारकत्वात्, सन्निधीयते यत्र कार्य तत्सन्निधानम्-अधिकरणं तच्च घटस्य चक्रं तस्यापि भूः, तस्या अप्याकाशम्, आकाशस्य त्वधिकरणं नास्ति, स्वरूपप्रतिष्ठितत्वात्, घटस्य चेदं कारणम्, एतदभावे घटानुत्पत्तेरिति गाथार्थः ॥ उक्तं द्रव्यकारणम्, इदानीं भावकारणप्रतिपादनायाह Jus Educato दुविहं च होइ भावे अपसत्थ पसत्थगं च अपसत्थं । संसारस्सेगविहं दुविहं तिविहं च नायव्वं ॥ ७३९ ॥ व्याख्या - भवतीति भावः, स चौदयिकादिः, स एव कारणं संसारापवर्गयोरिति भावकारणं, तत्र 'द्विविधं च' द्विप्र For Parts Only हारिभद्री• यवृत्तिः" विभागः १ ~ 559~ ॥ २७८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७३९], भाष्यं [१२३...] कारं च भवति, भावे विचार्यमाणे, कारणमिति प्रक्रमाद्गम्यते, भावविषयं वा, भावकारणमित्यर्थः, अप्रशस्तम्-अशोभनं प्रशस्तं - शोभनं च तत्राप्रशस्तं संसारस्य सम्बन्धि एकविधम्-एकभेदं द्विविधं द्विभेदं त्रिविधं त्रिभेदं च ज्ञातव्यं, चश व्दश्चतुर्विधाद्यनुक्तकारणभेदसमुच्चयार्थ इति गाथार्थः ॥ यदुक्तं- 'संसारस्यैकविध' मित्यादि, तदुपप्रदर्शनायाहअस्संजमो य एक्को अण्णाणं अविरई य दुविहं तु । अण्णाणं मिच्छत्तं च अविरती चेव तिविहं तु ॥ ७४० ॥ व्याख्या- 'असंयमः' अविरतिलक्षणः, स ह्येक एव संसारकारणम्, अज्ञानादीनां तदुपष्टम्भकत्वादप्रधानत्वादिति, तथाऽज्ञानमविरतिश्च द्विविधं तु संसारकारणं, तत्राज्ञानं कर्माच्छादितजीवस्य विपरीतावबोध इति, अविरतिस्तु सावद्ययोगानिवृत्तिरिति तथा मिथ्यात्वमज्ञानं चाविरतिश्चैव त्रिविधं तु संसारकारणं, तत्र मिथ्यात्वम्-अतत्त्वार्थश्रद्धानं, शेषं गतार्थम्, एवं कषायादिसम्पर्कादन्येऽपि भेदाः प्रतिपादयितव्या इति गाथार्थः ॥ उक्तमप्रशस्तं भावकारणम्, अधुना प्रशस्तमुच्यते होइ पसत्थं मोक्खस्स कारणं एगदुविहतिविहं वा । तं चैव य विवरीयं अंहिगारो पत्थरणेत्थं ॥ ७४१ ॥ व्याख्या - भवति प्रशस्तं भावकारणं मोक्षस्य कारणमिति, तच्च 'एक' मित्येकविधं द्विविधं त्रिविधं वा, इदं पुनः 'तदेव' च संसारकारणम् असंयमादि विपरीतं द्रष्टव्यम्, एकविधं संयमः, द्विविधं ज्ञानसंयमौ त्रिविधं सम्यग्दर्शनज्ञानसंयमा इति, 'अधिकार' प्रस्ताव: 'प्रशस्तेन' भावकारणेन 'अत्र' सामायिकान्वाख्याने, मोक्षाङ्गत्वादस्येति । ततश्च प्रशस्त For Farina Pat Use Only www.lincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 560~ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७४१], भाष्यं [१२३...] (४०) -- - आवश्यक- ॥२७९॥ -- प्रत - सुत्रांक %- भावरूपं चेदं, कारणं च मोक्षस्य इति अधिकारभावनेति गाथार्थः । इत्थं कारणद्वारे अधिकार प्रदर्य पुनः कारण- हारिभद्रीद्वारसङ्गतमेव वक्तव्यताशेषमाशङ्काद्वारेणाभिधित्सुराह यवृत्तिः विभागः१ तित्थयरो किं कारण भासह सामाइयं तु अज्झयणं । तित्थयरणामगोत्तं कम्मं मे वेइयव्वंति ॥७४२ ॥ व्याख्या-तीर्थकरणशीलस्तीर्थकरः, तीर्थ पूर्वोक्तं, स 'किंकारणं किंनिमित्तं भाषते सामायिक त्वध्ययन?, तुशब्दादन्याध्ययनपरिग्रहः, तस्य कृतकृत्यत्वादिति हृदयम्, अत्रोच्यते-'तीर्थकरनामगोत्र तीर्थकरनामसझं, गोत्रशब्दः सम्ज्ञा-18 यां, कर्म मया वेदितव्यमित्यनेन कारणेन भाषत इति गाथार्थः॥ तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहिं । बज्झइ तं तु भगवओ तइयभवोसकइत्ता णं ॥ ७४३ ॥ व्याख्या-पूर्ववत् ॥ |णियमा मणुयगतीए इत्थी पुरिसेयरोव्व सुहलेसो । आसेवियबहुलेहिं वीसाए अण्णयरएहिं ॥ ७४४ ॥ | व्याख्या-पूर्ववदेव । इत्थं तीर्थकृतः सामायिकभाषणे कारणमभिधायाधुना गणभृतामाशङ्काद्वारेण तच्छ्वणकारणं प्रतिपादयन्नाहगोयममाई सामाइयं तु किंकारणं निसामिन्ति।। णाणस्स तं तु सुंदरमंगुलभावाण उवलद्धी ॥ ७४५ ॥ ॥२७९॥ | व्याख्या-गौतमादयो गणधराः 'किंकारणं तु' किंनिमित्तं, किंप्रयोजनमित्यर्थः, सामायिकं 'निशामयन्ति शृण्वन्ति, अत्रोच्यते-'नाणस्स' त्ति प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, ततश्च ज्ञानाय-ज्ञाना), तादर्थे चतुर्थी, तेषां हि-16 % दीप % अनुक्रम A-% H onorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~561~ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७४५], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक COM भगवद्वदननिर्गतं सामायिकशब्दं श्रुत्वा तदर्थविषयं ज्ञानमुत्पद्यत इति भावना, तत्तु ज्ञानं 'सुन्दरमङ्गुलभावानां' शुभेतरपदार्थानां 'उबलद्धी' त्ति उपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तमिति गाथार्थः ॥ सा च सुन्दरमगुलभावोपलब्धिः प्रवृत्तिनिवृत्त्योः कारणम्, आह चहोड पवित्तिनिवित्ती संजमतव पावकम्मअग्गहणं । कम्मविवेगो य तहा कारणमसरीरया चेव ॥ ७४६ ।।। व्याख्या-शुभेतरभावपरिज्ञानाद्भवतः 'प्रवृत्तिनिवृत्ती' शुभेषु प्रवृत्तिर्भवतीतरेभ्यो निवृत्तिरिति, ते च प्रवृत्तिनिवृत्ती 'संयमतव' इति संयमतपसोः कारणं, तत्र निवृत्तिकारणत्वेऽपि संयमस्य प्रागुपादानमपूर्वकर्मागमनिरोधोपकारेण प्राधा-१ न्यख्यापनार्थ, तत्पूर्वकं च वस्तुतः सफल तपः, कारणान्यथोपन्यासस्तु संयमे सत्यपि तपसि प्रवृत्तिः कार्येत्यमुनाउंशेन प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यलं प्रसङ्गेन, तयोश्च संयमतपसोः 'पावकम्मअग्गहणं' ति पापकर्माग्रहणं कर्मविवेकश्च, तथा 'कारणं' निमित्त प्रयोजन यथासङ्ग्यम् , उक्तं च परममुनिभिः-'संथमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले' इत्यादि, अणण्यः -अनाश्रवः योदाणं कर्मनिर्जरा, कर्मविवेकस्य च प्रयोजनम् 'असरीरया चेवेति अशरीरतैव, चः पूरणार्थः, इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं विवक्षितमर्थमुक्तानुवादेन प्रतिपादयन्नाहकम्मविवेगो असरीरयाय असरीरया अणाबाहा । होअणबाहनिमित्तं अवेयणमणाउलो निरुओ॥ ७४७॥ व्याख्या-कर्मविवेकः कर्मपृथग्भावः अशरीरतायाः कारणम् , अशरीरता 'अणावाहाए' त्ति अनावाधायाः कारणं १ संयमोऽनाभवफलः तपो व्यवदानफलं दीप अनुक्रम 24-0 JABERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~562~ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७४७], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥२८॥ । प्रत सुत्रांक भवति, 'अनाबाधनिमित्तम्' 'अनाबाधकार्य, निमित्तशब्दः कार्यवाचकः, तथा च वक्तारोभवन्ति-अनेन निमित्तेन-अनेन हारिभदीकारणेन मयेदं प्रारब्धम्, अनेन कार्येणेत्यर्थः, ततश्च भवत्यनाबाधकार्यम् , 'अवेदनः' वेदनारहितो, जीव इति गम्यते, यवृत्ति। स चावेदनत्वादू 'अनाकुलः' अविह्वल इत्यर्थः, अनाकुलत्याच नीरुम्भवतीति गाथार्थः॥ विभागा नीरुयत्ताए अयलो अयलत्ताए य सासओ होइ । सासयभावमुबगओ अब्वाबाहं सुहं लहह ॥ ७४८॥ दारं ॥ व्याख्या स हि जीवः नीरुतया अचलो भवति, अचलतया च शाश्वतो भवति, शाश्वतभावमुपगतः किम् ?, अन्या-13 बाधं सुखं लभत इति गाथार्थः ॥ इत्थं पारम्पर्येणाव्यायाधसुखार्थ सामायिकश्श्रवणमिति । गतं कारणद्वारं, प्रत्ययद्वारमधुना व्याख्यायत इति, आह चपच्चयणिक्खेघो खलु वंमी तत्तमासगाइओ । भावंमि ओहिमाई तिविहो पगयं तु भावेणं ॥ ७४९ ॥ व्याख्या-प्रत्याययतीति प्रत्ययः प्रत्ययनं वा प्रत्ययः, तन्निक्षेपः-तझ्यासः, खलुशब्दोऽनन्तरोक्तकारणनिक्षेपसाम्य-14 प्रदर्शनार्थः, ततश्च नामादिश्चतुर्विधः प्रत्ययनिक्षेपो, नामस्थापने सुगमे, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयस्तप्तमाषकादिः, आदिशब्दाद्ध-12 टदिव्यादिपरिग्रहः, द्रव्यं च तत्प्रत्याय्यप्रतीतिहेतुत्वात् प्रत्ययश्च द्रव्यप्रत्यया-तप्तमाषकादिरेव, तज्जो वा प्रत्याय्यपुरुषप्रत्यय इति, भावम्मि' ति भावे विचार्यमाणेऽवध्यादिविविधो भावप्रत्ययः, तस्य बाह्यलिङ्गकारणानपेक्षत्वाद्', आदि ॥२८॥ शब्दान्मनःपर्यायकेवलपरिग्रहः, मतिश्रुते तु बाह्यलिङ्गकारणापेक्षित्वान्न विवक्षिते, बहु चात्र वक्तव्यं तच नोच्यते, अन्ध-19 |विस्तरभयादिति, 'प्रकृतम्' उपयोगस्तु सामायिकमङ्गीकृत्य 'भावेणं' ति भावप्रत्ययेनेति गाथार्थः । अत एवाह दीप RECERS अनुक्रम CAMERure , armyanmitrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 563~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educator “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५०], भाष्यं [१२३...] केवलणाणित्ति अहं अरहा सामाइयं परिकहेई । तेसिंपि पचओ खलु सव्वण्णू तो निसामिति ॥ ७५० ॥ दारं ॥ व्याख्या - केवलज्ञानी अहमिति स्वप्रत्ययादर्द्दन् प्रत्यक्षत एवं सामायिकार्थमुपलभ्य सामायिकं परिकथयति, 'तेषामपि श्रोतॄणां गणधरादीनां हृङ्गताशेषसंशयपरिच्छिया 'प्रत्ययः' अवबोधः सर्वज्ञ इत्येवंभूतो भवति, अस्मादेव यत्कंश्चिदुक्तं- 'सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तत्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥ १ ॥' इत्यादि, तयुदस्तं वेदितव्यम्, अन्यथा चतुर्वेदे पुरुषे लोकस्य तद्व्यवहारानुपपत्तेः, विजृम्भितं चात्रास्मत्स्वयूथ्यैः प्रवचन सिद्ध्यादिषु, | अतः सञ्जातप्रत्यया 'निशामयन्ति' शृण्वन्तीति गाथार्थः ॥ गतं प्रत्ययद्वारम् इदानीं लक्षणद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहनामं ठवणा दविए सरिसे सामण्णलक्खणागारे । गइरागइ णाणत्ती निमित्त उप्पाय विगमे य ॥ ७५१ ॥ व्याख्या - लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं-पदार्थस्वरूपं तच्च द्वादशधा, तत्र नामलक्षणं लक्षणमितीयं वर्णानुपूर्वी स्थापनालक्षणं लकारादिवर्णानामाकारविशेषः, द्रव्यलक्षणं ज्ञशरीराद्यतिरिक्तं यद्यस्य द्रव्यस्यान्यतो व्यवच्छेदकं स्वरूपं, यथा गत्यदि धर्मास्तिकायादीनाम् इदमेव किञ्चिन्मात्रविशेषात्सादृश्यसामान्यादिलक्षणभेदतो निरूप्यते तत्र 'सरिसे' चि सादृश्यं लक्षणम्, इहत्यघटसदृशः पाटलिपुत्रको घट इति, 'सामन्नलक्खणं' ति सामान्यलक्षणं यथा सिद्धत्वं सिद्धानां | सद्द्रव्यजीवमुक्तादिधर्मैः सामान्यमिति, 'आगारे' त्ति आक्रियतेऽनेनाभिप्रेतं ज्ञायत इत्याकारो वाह्यचेष्टरूपः, स एवाअन्तराकूतगमक रूपत्वालक्षणमिति, उक्तं च- "आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषितेन च । नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं १ जीवपुल गत्यादि, तस्य धर्मास्तिकायादिकार्यत्वात् तलक्षणता. For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 564~ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५१], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- ॥२८॥ हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग: १ प्रत सुत्राक * * * मनः॥१॥” इति, 'गइरागई' त्ति गत्यागतिलक्षणं द्वयोर्द्वयोः पदयोर्विशेषणविशेष्यतया अनुकूलं गमनं गतिः प्रत्या- वृत्त्या प्रातिकूल्येनागमनमागतिः, गतिश्चागतिश्च गत्यागती ताभ्यां ते एव वा लक्षणं गत्यागतिलक्षणं, तञ्चतुर्धा-पूर्वपदव्या- |हतमुत्तरपदव्याहतमुभयपदव्याहतमुभयपदाव्याहतमिति, तत्र पूर्वपदव्याहतोदाहरणम्-'जीवे णं भंते ! नेरइए? नेरहए जीवे !, गोयमा ! जीवे सिय नेरइए सिय अनेरईए, नेरइए पुण नियमा जीवे' उत्तरपदव्याहतोदाहरणम्-'जीवह भंते ! जीवे जीवे जीवइ !, गोयमा ! जीवइ ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ सिय नो जीवई' सिद्धानां जीवनाभावादिति हृदयम् , उभयपदव्याहतोदाहरणम्-'भवसिद्धिए ण भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए ?, गोयमा भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए, नेरइएवि सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिए' उभयपदाव्याहतोदाहरणम्-जीवे भंते ! जीवे जीवे जीवे ?, गोयमा ! जीवे नियमा जीवे जीवेऽवि नियमा जीवे' उपयोगो नियमाजीवः जीवोऽपि नियमादुपयोग इति भावना । लोकेऽपि गत्यागतिलक्षणं-रुवीय घडोत्ति चूतो दुमोत्ति नीलोप्पलं च लोगमि। जीवो सचेयणोत्ति य विगप्पनियमादयो भणिया ॥१॥' तथा 'नाणत्ति' ति नानाभावो नानाता-भिन्नता, सा च लक्षणं, सा पुनश्चतुर्दा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो नानाता द्विधा-तद्व्यनानाता अन्यद्रव्यनानाता च, तत्र तद्व्यनानाता परमा जीवो भवन्त ! नरयिको नैरपिको जीवः १, गौतम ! जीवः स्वारविकः स्यादनैरयिकः, नैरयिकः पुनर्नियमाजीवः । जीवति भदन्त ! जीवो जीवो जीवति !, गौतम! जीवति तावनियमाजीयः, जीवः पुनः स्याज्जीवति स्यानो जीवति । भवसिद्धिको भदन्त ! नैरविको नैरविको भवसिद्धिकः १, गौतम ! भवसिद्धिका स्थावरविकः स्वादनैरपिका, नैरपिकोऽपि स्थाजन्यसिबिका स्वादभन्यसिद्धिकः । जीवो भवन्त | जीवो जीवो जीयो, गीतम! जीवो नियमाजीचः । जीवोऽपि नियमाजीवः । २रूपी पर इति चूतो तुम इति नीलोत्पलं च कोके । जीवः सचेतन इतिषविकल्पनियमादयो भणिताः ॥1॥ दीप X4%A4%AE अनुक्रम ॥२८॥ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~565~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५१], भाष्यं [ १२३ ...] णूनां परस्परतो भिन्नता, अन्यद्रव्यनानाता परमाणो णुकादिभेदभिन्नता, एवमेकादिप्रदेशावगाढैकादिसमयस्थित्येकादिगुणशुक्कानां तदतन्नानाता वाच्या, इदं च लक्षणं पदार्थस्वरूपावस्थापकत्वात् 'निमित्तं' ति लक्ष्यते शुभाशुभमनेनेति लक्षणं निमित्तमेव लक्षणं निमित्तलक्षणं तच्चाष्टधा, उक्तं च- "भोमसुमिणंतरिक्खं दिवं अंगसर लक्खणं तहय । वंजणमडविहं खलु निमित्तमेवं मुणेयवं ॥ १ ॥” स्वरूपमस्य ग्रन्थान्तरादव सेयम् ॥ 'उप्पाद' त्ति यतो नानुत्पन्नं वस्तु लक्ष्यते अत उत्पादोऽपि वस्तुलक्षणं, 'विगमोय' त्ति विगमश्च विनाशश्च वस्तुलक्षणं, तमन्तरेणोत्पादाभावात्, न हि वक्रतयाऽविनष्टमङ्गुलिद्रव्यं ऋजुतयोत्पद्यत इति भावनेति गाथार्थः ॥ वीरियभावे तहा लक्खणमेयं समासओ भणियं । अह्वावि भावलक्खण चउव्विहं सद्दहणमाई ॥ ७५२ ॥ व्याख्या -' वीरियं' ति वीर्य सामर्थ्यं यद्यस्य वस्तुनः तदेव लक्षणं वीर्यलक्षणम्, आह च भाष्यकारः- “विरिति बलं जीवस्स लक्खणं जं च जस्स सामत्थं । दवस्स चित्तरूवं जह विरिय महोसहादीणं ||१||” तथा भावानाम्-औदयिकादीनां लक्षणं पुद्गलविपाकादिरूपं भावलक्षणं, यथोदयलक्षणः औदयिकः, उपशमलक्षणस्त्वोपशमिकः, तथानुत्पत्तिलक्षणः क्षायिको, मिश्रलक्षणः क्षायोपशमिकः, परिणामलक्षणः पारिणामिकः, संयोगलक्षणः सान्निपातिक इति । अथवा भावाश्च ते लक्षणं चात्मन इति भावलक्षणं, तत्र सामायिकस्य जीवगुणत्वात् क्षयोपशमोपशमक्षय स्वभावत्वाद् भावलक्षणता, अमु१ भौमं स्वाममान्तरीक्षं दिव्यमानं स्वरगतं लक्षणगतं तथा च व्यञ्जनमष्टविधं खलु निमित्तमेतद् मुणितव्यम् ॥ १ ॥ २ वीर्यमिति वज्रं जीवस्य लक्षणं यच्च यस्य सामर्थ्यम् । द्रव्यस्य चित्ररूपं यया वीर्यं महोपचादीनाम् ॥ १ ॥ For Funny incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 566~ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५२], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- * ॥२८॥ विभागः१ प्रत सुत्रांक RSS% मेवार्थ चेतस्यारोप्याह-'भावे य' इत्यादि, भावे च-विचार्यमाणे तथा लक्षणमिदं 'समासतः' सक्षेपतो भणितं । सामा- हारिभद्रीयिकस्य वैशेषिकलक्षणाभिधित्सयाऽऽह-'अहवावि भावलक्षण चउविध सद्दहणमादी' अथवाऽपि भावस्प-सामायिकस्य ।यवृत्ति लक्षणमनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, चतुर्विधं श्रद्धानादीति गाथार्थः ॥ यदुक्कं-'चतुर्विधं श्रद्धानादि' तत्प्रदर्शनायाहसद्दहण जाणणा खलु विरती मीसा य लक्षणं कहए। तेऽवि णिसार्मिति तहा चउलक्खणसंजुयं चेव।।७५शादार ] व्याख्या-इह सामायिक चतुर्विधं भवति, तद्यथा-सम्यक्त्वसामायिकं श्रुतसामायिक चारित्रसामायिकं चारित्राचारित्रसामायिकं च, अस्य यथायोग लक्षणं 'सद्दहणं' ति श्रद्धानं, लक्षणमिति योगः सम्यक्त्वसामायिकस्य, 'जाणण'त्ति ज्ञानं ज्ञा-संवित्तिरित्यर्थः, सा च श्रुतसामायिकस्य, खलुशब्दो निश्चयतः परस्परतः सापेक्षत्वविशेषणार्थः, 'विरति'त्ति विरमणं विरतिः-अशेषसावद्ययोगनिवृत्तिः, सा च चारित्रसामायिकस्य लक्षणं, 'मीसा य' त्ति मिश्रा-विरताविरतिः, सा च चारित्राचारित्रसामायिकस्य लक्षणं, कथयतीत्यनेन स्वमनीषिकाऽपोहेन शाखपारतन्यमाह, भगवान् जिन एवं कथयति, तस्य च कथयतः 'तेऽपि गणधरादयः 'निशामयन्ति' शृण्वन्ति 'तथा' तेनैव प्रकारेण चतुर्लक्षणसंयुक्तमेवेति गाथार्थः ।। उक्त लक्षणद्वारम् , अधुना नयद्वार प्रतिपिपादयिषुराह १२८२॥ णेगमसंगहयवहारउजुसुए चेव होइ बोडब्वे । स य समभिरूढे एवंभूए य मूलणया ॥ ७५४ ॥ व्याख्या-नयन्तीति नयाः-वस्त्वयबोधगोचरं प्रापयन्त्यनेकधर्मात्मकज्ञेयाध्यवसायान्तरहतव इत्यर्थः, ते च नैगमा दीप अनुक्रम T JAMERIMIMIRE Handiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: समायिक्स्य सम्यक्त्व-आदि चतुर्भेदाः, अथ सप्त मूल-नयानाम वर्णनं क्रियते ~567~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५४], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक दादयः, नैगमः सङ्ग्रहः व्यवहारः ऋजुसूत्रश्चैव भवति बोद्धव्यः, शब्दश्च समभिरूढः एवम्भूतश्च मूलनया इति गाथासमु दायाथों निगदसिद्धः॥ अवयवार्थं तु प्रतिनयं नयाभिधाननिरुक्तद्वारेण वक्ष्यति, आह चराणेगेहिमाणेहिं मिणइत्ती णेगमस्स पोरुत्ती। सेसाणंपि णयाणं लक्खणमिणमो सुणेह वोच्छ ॥ ७५५ ॥ RI व्याख्यान एक नैक-प्रभूतानीत्यर्थः, कैर्मानैः-महासत्तासामान्यविशेषज्ञानैमिमीते मिनोतीति वा नैकम इति. इयं नैकमस्य निरुक्तिः, निगमेषु वा भवो नैगमः, निगमाः-पदार्थपरिच्छेदाः, तत्र सर्व सदित्येवमनुगताकारावयोधहे-18 | तुभूतां महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेष द्रव्यत्वादिव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च विशेष परमाणुमिति । आह-इत्थं तोयं नैगमः सम्यग्दृष्टिरेवास्तु, सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् , साधुवदिति, नैतदेवं, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार:-"ज सामण्णविसेसे परोप्परं वत्थुतो य सो भिण्णे । मन्नइ अच्चंतमतो मिच्छद्दिडी कणातोष ॥१॥ दोहिवि गएहि नीतं सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पहाणत्तणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥२॥" अथवा निलयनप्रस्थकग्रामोदाहरणेभ्योऽनुयोगद्वारप्रतिपादितेभ्यः खल्वयमयसेय इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामावमेतत् । 'सेसाण' मित्यादि शेषाणामपि नयानां-सङ्ग्रहादीनां लक्षणमिदं शृणुत 'वक्ष्ये' अभिधास्य इत्यय गाथार्थः ।।.. यत् सामान्यविशेषौ परस्परं वस्तुतश्च स मिनौ । मन्यतेऽयम्तमतो मिथ्यादृष्टिः कणाद इव ॥ १ ॥ द्वाभ्यामपि नयाभ्यां नीतं शाबमुलूकेन तथापि | मिथ्यात्वम् । यत् स्वविषयप्रधानत्वेनान्योऽन्यनिरपेक्षौ ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम JAMERatinin MILMiDraryam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~568~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२८३॥ Jus Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५६ ], भाष्यं [ १२३ ...] संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बेंति । वच विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदव्वेसुं ।। ७५६ ॥ व्याख्या - आभिमुख्येन गृहीतः - उपात्तः सङ्गृहीतः पिण्डितः - एकजातिमापन्नः अर्थों विषयो यस्य तत्सङ्गृहीतपिण्डितार्थं सङ्ग्रहस्य वचनं सङ्ग्रहवचनं 'समासतः' सङ्क्षेपतः, ब्रुवते तीर्थकरगणधरा इति, एतदुक्तं भवति - सामान्यप्रति पादनपरः खलु अयं सदित्युक्ते सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विशेषान्, तथा च मन्यते विशेषाः सामान्यतोऽर्थान्तरभूताः ॐ स्युरनर्थान्तरभूता वा?, यद्यर्थान्तरभूताः न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् खपुष्पवत्, अथानर्थान्तरभूताः सामान्यमात्रं ते, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत्, पर्याप्तं व्यासेन, उक्तः सङ्ग्रहः । 'बच्चति' इत्यादि व्रजति-गच्छति निःआधिक्येन चयनं चयः अधिकश्चयो निश्चयः - सामान्यं विगतो निश्चयो विनिश्चयः - निःसामान्यभावः तदर्थं तन्नि मित्तं, सामान्याभावायेति भावना, व्यवहारो नयः, क ? - 'सर्वद्रव्येषु सर्वद्रव्यविषये, तथा च विशेषप्रतिपादनपरः खलु, अयं हि सदित्युक्ते विशेषानेव घटादीन् प्रतिपद्यते, तेषां व्यवहारहेतुत्वात् न तदतिरिक्कं सामान्यं, तस्य व्यवहा* रापेतत्वात् तथा च- सामान्यं विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, यदि भिन्न विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, न चोपल४ भ्यते, अधाभिन्नं विशेषमात्रं तत्, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवदिति, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्चयः- आगोपालाङ्गनाद्यवबोधो न कतिपयविद्वत्सन्निबद्ध इति, तदर्थं व्रजति सर्वद्रव्येषु, आह च भाष्यकार:- "अमरादि पाचवण्णादि निच्छए जंमि वा जणवयस्स । अस्थे विनिच्छओ सो विनिच्छयत्थोत्ति जो गेज्झो ॥ १ ॥ बहुतरओत्ति य तं चिय गमेइ १] अमरादीन् पञ्चवर्णादीन् नेच्छति यस्मिन् वा जनपदस्य अर्ये विनिश्चयः स विनिश्चयार्थ इति यो प्रातः ॥ १ ॥ बहुतर इति च वमेव गमयति For Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 569~ ॥२८३॥ janibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५७], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत % - सूत्राक भासतेऽवि सेसए मुयह । संववहारपरतया ववहारो लोयमिच्छंतो ॥२॥" इत्यादि, उक्तो व्यवहार इति गाथार्थः ।। पचुप्पण्णग्गाही उजुसुओ नयविही मुणेयच्चो । इच्छह विसेसियतरं पञ्चुप्पण्णं णओ सद्दो ॥ ७५७ ॥ । व्याख्या-साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानमित्यर्थः, प्रति प्रति वोत्पन्नं प्रत्युत्पन्न-भिन्नव्यक्तिस्वामिकमित्यर्थः, तम्रहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही, ऋजुसूत्र ऋजुश्रुतो वा नयविधिर्विज्ञातव्यः तत्र ऋजु-वर्तमानमतीताना गतवपरित्यागात् वस्त्वखिलं ऋजु तत्सूत्रयति-गमयतीति ऋजुसूत्रः, यद्वा ऋजु-वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं तु ज्ञान, है ततश्चाभिमुखं ज्ञानमस्येति ऋजुश्नुतः, शेषज्ञानानभ्युपगमात्, अयं हि नयः वर्तमानं स्वलिङ्गवचननामादिभिन्नमष्येक वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि-अतीतमेष्यं वा न भावा, विनष्टानुत्पन्नत्वाद् अदृश्यत्वात्, खपुष्पवत्, तथा हापरकीयमप्यवस्तु निष्फलत्वात, खपुष्पवत . तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु, तच्च न लिङ्गादिभेदभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्ग&ाभिन्नं तु तटा तटी तटमिति, वचनभिन्नमापो जलं, नामादिभिन्न नामस्थापनाद्रव्यभावा इत्युक्त ऋजुसूत्रः, 'इच्छति प्रतिपद्यते 'विशेषिततरं' नामस्थापनाद्रव्यविरहेण समानलिङ्गवचनपर्यायध्वनिवाच्यत्वेन च प्रत्युत्पन्न-वर्तमानं नयः, का?, 'शप आक्रोशे' शप्यतेऽनेनेति शब्दः, तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, तथाहि-अयं नामस्थापना द्रव्यकुम्भाःन सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात् , खपुष्पवत् , न च भिन्नलिङ्गवचनमेकं, लिङ्गवचनभेदादेव, स्त्रीपुरुषकावत् कुटवृक्षवदू, अतो घटः कुटः कुम्भ इति स्वपर्यायध्वनिवाच्यमेवैकमिति गाथार्थः॥ १ सतोऽपि योषान् मुञ्चति । संव्यवहारपरतया व्यवहारो लोकमिच्छन् ॥ १ ॥ 4-2- - 2 दीप 4 अनुक्रम Jamaiahin HDainraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 570~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७५८], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक हारिभद्री ॥२८४॥ | यवृत्तिः विभागः १ प्रत सुत्रांक वत्थूओ संकमणं होह अवत्थू णए समभिरूढे । वंजणमत्वतदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ॥७५८ ॥ व्याख्या-वस्तुनः सङ्घमणं भवति अवस्तु नये समभिरूढे, वस्तुनो-घटाख्यस्य सङ्कमणम्-अन्यत्र कुटाण्यादौ गमनं किम् ?-भवति अवस्तु-असदित्यर्थः, नये पर्यालोच्यमाने एकस्मिन्नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः तस्मिन् , इयमन भा- वना-पटः कुटः कुम्भ इत्यादिशब्दान् भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचरानेव मन्यते, घटपटादिशब्दानिव, तथा च घटनाद् घटः, विशिष्टचेष्टावानर्थों घट इति, तथा 'कुट कौटिल्ये' कुटनात्कुटः, कौटिल्ययोगात्कुटः, तथा 'उभ उम्भ पूरणे' उम्भनात् उम्भः, कुस्थितपूरणादित्यर्थः, ततश्च यदा घटार्थे कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र सङ्का|न्तिः कृता भवति, तथा च सति सर्वधर्माणां नियतस्वभावत्वादन्यत्र सङ्कान्त्योभयस्वभावापगमतोऽवस्तुतेत्यलं विस्तरेण, उक्तः समभिरूढः । 'बञ्जण' मित्यादि व्यज्यतेऽनेन व्यनक्तीति वा व्यञ्जन-शब्दः अर्थस्तु-तद्गोचरः, तच्च तदुभयं प तदुभय-शब्दार्थलक्षणम् 'एवम्भूतो' यथाभूतो नयः विशेषयति, इदमत्र हृदयम्-शब्दमर्थेन विशेषयत्यर्थं च शब्देन, घट चेष्टाया' मित्यत्र चेष्टया घटशब्दं विशेषयति, घटशब्देनापि चेष्टां, न स्थानभरणक्रियां, ततश्च यदा योषिन्मस्तकव्यवस्थितः चेष्टावानर्थो घटशब्देनोच्यते तदा स घटः, तद्बाचकश्च शब्दः, अन्यदा वस्त्वन्तरस्येव चेष्टाऽयोगादघटत्वं तद्ध्वनेश्चावाचकत्वमिति गाथार्थः ॥ एवं तावन्नैगमादीनां मूलजातिभेदेन संक्षेपलक्षणमभिधायाधुना तत्मभेदसङ्ख्या प्रदर्शयन्नाहएकेको य सयविहो सत्त णयसया हवंति एमेव । अण्णोऽवि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥७५९॥ व्याख्या-अनन्तरोक्तनैगमादिनयानामेकैकश्च स्वभेदापेक्षया 'शतविधा शतभेदः सप्त नयशतानि भवन्ति एवं तु, दीप अनुक्रम JABERatin international मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~571~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७५९ ], भाष्यं [ १२३...] | अन्योऽपि चाऽऽदेशः पञ्च शतानि भवन्ति तु नयानां शब्दादीनामेकत्वाद् एकैकस्य च शतविधत्वादिति हृदयम् । अपिशब्दात्षट् चत्वारि द्वे वा शते, तत्र पट् शतानि नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारद्वये प्रवेशाद् एकैकस्य च शतभेदत्वात्, तथा चत्वारि शतानि सङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्र शब्दानामेकैकनयानां शतविधत्वात्, शतद्वयं तु नैगमादीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां द्रव्यास्तिकत्वात्, शब्दादीनां च पर्यायास्तिकत्वात् तयोश्च शतभेदत्वादिति गाथार्थः ॥ एएहिं दिट्टिवाए परूवणा सुत्तअत्थकहणा य । इह पुण अणन्भुवगमो अहिगारो तिहि उ ओसन्नं ॥ ७६० ।। व्याख्या- 'एभिः ' नैगमादिभिर्नयैः सप्रभेदैर्दृष्टिवादे प्ररूपणा, सर्ववस्तूनां क्रियत इति वाक्यशेषः, सूत्रार्थकथना च, आह-वस्तूनां सूत्रार्थानतिलङ्घनादध्याहारोऽनर्थक इति, न, तत्सूत्रोपनिबद्धस्यैव सूत्रार्थत्वेन विवक्षितत्वात्, तद्व्यतिरेकेणापि च वस्तुसम्भवात्, 'इह पुनः' कालिकश्रुते 'अनभ्युपगमः' नावश्यं नयैर्व्याख्या कार्येति, किन्तु १, श्रोत्रपेक्षं कार्या, तत्राप्यधिकार स्त्रिभिराद्यैः 'उत्सन्नं' प्रायस इति गाथार्थः । आह-' इह पुनरनभ्युपगम' इत्यभिधाय पुनस्त्रिनयानुज्ञा किमर्थमिति, उच्यते णत्थि णएहि विणं सुतं अत्थो व जिणमए किंचि । आसज्ज उ सोयारं गए णयविसारओ बूया ॥ ७६१ ॥ व्याख्या -- नास्ति नयैर्विहीनं सूत्रमर्थो वा जिनमते किञ्चिदित्यतस्त्रिनयपरिग्रहः, अशेषनयप्रतिषेधस्त्वाचार्य विनेयानां विशिष्टबुद्ध्यभावमपेक्ष्य इति । आह च- आश्रित्य पुनः श्रोतारं विमलमतिं, तुशब्दः पुनःशब्दार्थे, किम् ? -नयान्नयविशा Education intimatio For Fasten www.janbay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~572~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६१], भाष्यं [१२३...] (४०) यवृत्तिः प्रत सुत्रांक आवश्यक- रदो-गुरुर्ब्रयादिति गाथार्थः ॥ उक्तं नयद्वारम् , अधुना समवतारद्वारमुच्यते-कैतेषां नयानां समवतारः, क वाऽन हारिभद्रीवतार इति संशयापोहायाह॥२८५|| विभागः१ मूढनइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं । अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो॥ ७६२ ॥ | व्याख्या-मूढा नया यस्मिन् तन्मूढनयं तदेव मूढनयिक, स्वार्थे ठक्, अथवा अविभागस्था मूढाः, मूढाश्च ते नयाश्च दिमूढनयाः तेऽस्मिन्विद्यन्ते 'अत इनिठना' (पा०५-२-११५) विति मूढनयिक, श्रुतं 'कालिकं तु कालिकमिति काले-प्रथमचरमपौरुषीद्वये पठ्यत इति कालिक, न नयाः समवतरन्ति, अत्र प्रतिपदं न भण्यन्त इति भावना । आहकक पुनरमीषां समवतारः', 'अपुहुत्ते समोतारों' अपृथग्भावोऽपृथक्त्वं चरणधर्मसमाद्रव्यानुयोगानां प्रतिसूत्रमविभागेन वर्तनमित्यर्थः, तस्मिन्नयानां विस्तरेण विरोधाविरोधसम्भवविशेषादिना समवतारः, 'नस्थि पुहुत्ते समोतारों' नास्ति पृथक्त्वे समवतारः, पुरुषविशेषापेक्षं वाऽवताय॑न्त इति गाधार्थः॥ आह-कियन्तं कालमपृथक्त्वमासीत् ?, कुतो वा समारभ्य पृथक्त्वं जातमिति?, उच्यते, जावंति अजवहरा अपुहुत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पुटुत्तं कालियसुअ दिविवाए य॥ ७६३ ॥ व्याख्या-यावदार्यवैराः गुरवो महामतयस्तावदपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्यासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् , GI २८५४ कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् , अन्यथा सर्वानुयोगस्यैवापृथक्त्वमासीदिति । तत आरतः पृथक्त्वं कालिकश्रुते दृष्टिवादे चेति गाथार्थः ॥ अथ क एते आर्यवैरा इति?, तत्र स्तवद्वारेण तेषामुत्पत्तिमभिधित्सुराह PROGRA दीप अनुक्रम FOR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~573~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक तुंबवणसंनिवेसाओं निग्गय पिउसगासमल्लीणं । छम्मासियं छसु जयं माऊयसमन्नियं वंदे ॥ ७६४ ॥ व्याख्या-तुम्बवनसन्निवेशान्निर्गत पितुः सकाशमालीनं पाण्मासिकं षट्सु-जीवनिकायेषु यत-प्रयत्नवन्तं मात्रा च |समन्वितं वन्दे, अयं समुदायार्थः । अवयवार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम् वैइरसामी पुबभवे सक्कस्स देवरणो वेसमणस्स सामाणिओ आसि । इतो य भगवं वद्धमाणसामी पिहिचंपाए नयरीए सुभूमिभागे उज्जाणे समोसढो, तत्थ य सालो राया महासालो जुवराया, तेर्सि भगिणी जसवती, तीसे भत्ता पिठरो, पुत्तो य से गागलीनाम कुमारो, ततो सालो भगवतो समीवे धर्म सोऊण भणइ-जं नवरं महासालं रजे अभिसिंचामि ततो तुम्हें पादमूले पचयामि, तेण गंतूण भणितो महासालो-राया भवसु, अहं पबयामि, सो भणइ-अहंपि पचयामि, जहा तुम्भे इह अम्हाणं मेढीपमाणं तहा पवइयस्सवित्ति, ताहे गागिली कंपिल्लपुरातो आणेउं रजे अभिसिंचितो, तस्स माया जसवती कंपिल्लपुरे नगरे दिणिया पिठररायपुत्तस्स, तेण ततो आणिओ,तेण पुण तेसिं दो पुरिससहस्सवाहिणीओ वनस्वामी पूर्वभवे शकस्य देवराजख वैश्रमणस्य सामानिक भासीत् । इतश्च भगवान् वर्धमानखामी चम्पायर्या नगर्या सुभूमिभाग बचाने समयस्तः, तत्र च शालो नाम राजा महाशालो युवराजः, तयोर्भगिनी यशोमती, तस्या भर्ती पिठरः, पुत्रश्च तस्या गागलीन म कुमारः, ततः शालो भगवतः समीपे धर्म श्रुत्वा भपति-यमवरं महाशालं राज्येऽभिषिञ्चामि, ततो युष्माकं पादमूले प्रत्रजामि, तेन गत्वा भणितो महायाला-राजा भव, अहं प्रवजामि, स भणतिअहमपि प्रव्रजामि, यथा यूयमिह अस्माकं मेडीप्रमाणातथा प्रवजितस्थापीति, तदा गागिलीः काम्पील्यपुरादानीय राज्येऽभिषिक्तः, तसा माता यशोमती काम्पील्यपुरे नगरे दत्ता पिठरराजपुत्राय, तेन तत आनीतः, तेन पुनस्लयो. सहस्रपुरुषवाहिन्यौ PARICS दीप अनुक्रम djanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: वज़स्वामिन: कथानक ~574~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- ॥२८॥ प्रत सीयाओ कारियाओ, जाव ते पबइया, सावि तेसि भगिणी समणोवासिया जाया, तेऽवि एकारसंगाई अहिजियाबारिभाती अण्णया य भगवं रायगिहे समोसढो, ततो भगवं निग्गतो चंपं जतो पधावितो, ताहे सालमहासाला सामि पुच्छंति-अम्हे | यवृत्तिः पिहिचं वच्चामो, जइ नाम कोइ तेसिं पथएज सम्मत्तं वा लभेज, सामी जाणइ-जहा ताणि संबुझिहिन्ति, ताहे तेसि विभागः१ सामिणा गोतमसामी विइज्जओ दिण्णो, सामी चंपं गतो, गोयमसामीऽवि पिटिचंपंगतो, तत्थ समवसरणं, गागलि पिठरो| जसवती य निग्गयाणि, ताणि परमसंविग्गाणि, धम्म सोऊण गागलीपुत्तं रजे अभिसिंचिकण मातापितिसहितो पबइओ, गोयमसामी ताणि घेत्तूण चंपं बच्चइ, तेसिं सालमहासालाणं चंपं वचंताणं हरिसो जातो-संसारातो उत्तारियाणित्ति, ततो सुभेणऽझवसाणेण केवलनाणं उत्पन्नं, तेसिपि चिंता जाया-जहा अम्हे एतेहिं रज्जे ठावियाणि पुणरवि धम्मे ठावियाणि संसारातो मोइयाणि, एवं चिंतताणं सुभेणऽज्झवसाणेण तिण्हवि केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं ताणि उप्पण्णनाणाणि सूत्राक दीप अनुक्रम शिक्केि कारिते, यावत्तौ प्रमजिती, साऽपि तयोमंगिनी श्रमणोपासिका जाता, तावपि एकादशानाम्पधीतवस्ती । अन्यदाच भगवान् राजगृहे समयप्रसृतः, ततो भगवान् निर्गतः चम्पा यतः प्रधावितः, तदा शालमहाशाली स्वामिनं पृच्छतः-आवां बजावः पृष्टचम्पा, यदि नाम कोऽपि तेषां प्रजेत् सम्यक्त्वं वा लमेत, स्वामी जानाति-यथा ते संभोत्स्यन्ते, तदा तयोः स्वामिना गौतमस्वामी द्वितीयको दत्तः, स्वामी चम्पां गतः, गौतमस्खाम्यपि पृष्ट चम्पां गतः, तन्त्र समवसरणं, गागली: पिटरो यशोमती च निर्गताः, ते परमसंविनाः, धर्म श्रुस्वागागली: पुत्रं राज्येऽभिषिच्य मातापितृसहितः प्रबजितः, गौतमस्वामी तान् गृहीत्वा चम्पां बजाति, तयोः शालमहाशालयोश्चम्पां बजतोहों जातः-संसारादुत्तारिता इति, ततःशुमेनाध्यवसायेन केवलज्ञानमुत्पन्न, तेषामपि चिन्ता जाता-यथा वयमेताभ्यां राज्य स्थापिताः पुनरपि धर्मे स्थापिताः संसाराम्भोचिताः, एवं चिन्तयता शुभेनाध्यवसायेन प्रयाणामपि केवलज्ञानं समुत्पन्नम्, एवं ते उत्पञ्चज्ञान ॥२८॥ म JABERatam inthirational rajandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~575~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) गयाणि चंप, सामि पदक्खिणे तित्थं नमिऊण केवलिपरिसं पधाषिताणि, गोयमसामीऽवि भगवं पदक्खिणेऊण पादेसु पिडितो उहितो भणइ-कहं वच्चह, एह सामि बंदह, ताहे भगवया भणिओ-मा गोयम ! केवली आसाएहि, ताहे आउट्टो दखामेइ, संवेगं चागतो, चिंतेइ य-माऽहं न चेव सिग्झेज्जा । इतो य सामिणा पुर्व वागरियं अणागए गोयमसामिम्मि जहा जो अढापदं विलग्गइ चेइयाणि य वंदइ धरणिगोयरो सो तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति, तं च देवा अन्नमन्नस्स कहिंति, जहा किर धरणिगोयरो अहावयं जो विलग्गति सो तेणेव भवेण सिज्झइ, ततो गोयमसामी चिंतइ-जह अहावयं वञ्चेजा, ततो सामी तस्स हिययाकूतं जाणिऊण तावसा य संबुझिहिन्तित्ति भगवया भणितो-चच्च गोयम ! अट्ठावयं चेइयं वंदेउ, ताहे भगवं गोयमो हडतुडो भगवं वंदित्ता गतो अठ्ठावयं, तत्थ य अट्ठावदे जणवायं सोऊण तिण्णि तावसा पंचसयपरिवारा पत्तेयं २ अठ्ठावयं विलग्गामोत्ति, तंजहा-कोडिण्णो दिण्णो सेवाली, कोंडिण्णो ANSAR प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम गताअम्पा, स्वामिनं प्रदक्षिणाय खीर्थ नत्वा केवलिपंपदं प्रधाविताः, गौतमस्वाम्यपि भगवन्तं प्रदक्षिणव्य पादयोः पतित उस्थितो भणति-कथं ४(क)जत, एत स्वामिनं वन्दछ, तदा भगवता भगिता-मा गौतम! केवलिन आशातय, सदाऽवृत्तः क्षमयति, संवेगं चागतः, चिन्तयति प-माई। नव सैत्सम् । इतना स्वामिना पूर्व ब्याकृतमनागते गौतमस्वामिनि-यथा योऽष्टापदं विकगति चैत्यानि च वन्दते धरणीगोचरः स तेनैव भवग्रहणेन सिध्यत्ति, सातच देवा अन्योऽन्यं कथयन्ति, यथा किल धरणीगोचरोऽष्टापदं यो विलगति स तेनैव भवेन सिध्यति, ततो गौतमस्वामी चिन्तयति-यथाऽष्टापदं बजेयं, ततः स्वामी तस्स हृदयाकृतं ज्ञात्वा तापसाक्ष संभोत्यन्त इति भगवता भणितः-व्रज गौतमाटापदं चैवं वन्दितुं, सदा भगवान् गौतमो हृष्टतुष्टो भगवन्तं वन्दिरया गतोऽष्टापदं, तत्र चाष्टापदे जनवादं श्रुत्वा यस्तापसाः पञ्चशतपरिचाराः प्रत्येकं प्रत्येकं अष्टापदं विलगाम इति, तद्यथा-कौण्डिन्यः दत्तः शेवाला, पौण्डिन्यः TA wirjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 576~ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- R८७॥ 50-52 प्रत सुत्रांक -34646 सपरिवारो चउत्थं २ काऊण परछा मूलकंदाणि आहारेइ सच्चित्ताणि, सो पढ़म मेहलं चिलग्गो, दिण्णोऽवि छहस्स २ हारिभद्रीपरिसडियपंडुपत्ताणि आहारेइ, सो बिइयं मेहलं विलग्गो, सेवाली अहमं अट्टमेण जो सेवालो सर्यमएलओ तं आहा- यवृत्तिः रेइ, सो तइयं मेहलं विलग्गो । इओ य भगवं गोयमसामी उरालसरीरो हुतवहतडितरुणरविकिरणतेयो, ते तं एजंत विभाग १ पासिऊण भणंति-एस किर थुल्लसमणओ एत्थ विलग्गिहितित्ति, जं अम्हे महातवस्सी सुक्कालुक्खान तरामो विलग्गि। भगवं च गोयमो जंघाचारणलद्धीए लूतापुडगपि निस्साए उप्पयइ, जाव ते पलोएंति, एस आगतो २ एस अईसणं गतोत्ति, एवं ते तिण्णिवि पसंसति, विम्हिया अच्छंति य पलोएन्ता, जदि उत्तरति एयस्स वयं सीसा।गोयमसामीवि चेइ-18 याणि वंदित्ता उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए पुढविसिलावट्टए असोगवरपादवस अहे ते रयर्णि वासाए उवागतो। इओ य। सकस्त लोगपालो बेसमणो अट्ठावयं चेइयवंदओ आगतो, सो चेइयाणि वंदित्ता गोयमसामि वंदह, ततो से भगवं सपरिवारश्चतुर्थं चतुर्थं कृत्वा पश्चात् कन्दमूलानि माहास्यति सचिचानि, स प्रथमा मेखलां विलमः, दत्तोऽपि षष्ठं षष्ठेन परिशटितपाण्डुपत्राण्याहा-2 स्यति, स द्वितीयो मेखळां विलमः, शेवालोऽष्टमाटमेन यः शेवालः स्वयम्लानः (मृतः) तमाहारयति, स तृतीयां मेखलां विलमः । इतम भगवान् गौतमखामी उदारशरीरो हुतबहताडितरुणरविकिरणतेजाः, ते तमायान्तं दृष्टा भणन्ति-एष किल स्थूलश्रमणकोन विलगिष्यति इति, यदर्ष (वयं) महासपखिनः शुष्का रूक्षा न शाहुमो पिलगिनुम् । भगवान गौतमो जक्काचारणलब्ध्या लतातन्तुमपि निनायोस्पतति, थावसे प्रलोकयन्ति, पुष आगतः २ एपोप्रदर्शनं गत इति एवं से त्रयोऽपि प्रशंसन्ति, विस्मिताच तिन्ति प्रलोकयन्तो, यद्युत्तरति एतस्य वयं शिष्या।। गीतमस्थाम्यपि चैत्यानि वन्दिया उत्तरपार-1 स्खे दिग्भागे पृथ्वीशिलापटके अशोकवरपादपस्याधता रजनी वासायोपागतः । इतश्च शक्रस्य लोकपालो वैधमणोऽष्टापदं चैववन्दक आगतः, स चैत्यानि वन्दित्वा गौतमस्वामिनं वन्दते, ततस्तमौ भगवान् दीप 6464k अनुक्रम २७ Gaindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~577~ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७६४ ], भाष्यं [ १२३...] धम्मकहावसरे अणगारगुणे परिकहेइ, जहा भगवंतो साहवो अंताहारा पंताहारा एवमादि, वेसमणो चिंतेइ एस भगवं एरिसे साहुगुणे वण्णेइ, अप्पणो य से इमा सरीरसुकुमारता जा देवाणवि न अत्थि, ततो भगवं तस्साकूतं नाऊण पुंडरीयं नाममज्झयणं परुवेइ, जहा पुंडरिगिणी नगरी पुंडरीओ राया कंडरीओ जुवराया जहा नातेसु तं मा तुमं बलियत्तं दुब्बलियत्तं वा गेण्हाहि, जहा सो कंडरीओ तेणं दुम्बलेणं अट्टदुहट्टो कालगतो अहे सत्तमाए उबवण्णो, पुंडरीओ पुण पडिपुण्णगहकपोलोऽवि सबहसिद्धे उबवण्णो, एवं देवाणुप्पिया ! दुब्बलो बलिओ वा अकारणं, एत्थ झाणनिग्गहो कायवो, झाणनिग्गहो परं पमाणं, ततो वेसमणो अहो भगवया मम हिययाकूतं नायंति आउट्टो संवेगमावण्णो वंदित्ता पडिगतो । तत्थ वेसमणस्स एगो सामाणिओ देवो जंभगो, तेण तं पुंडरीयज्झयणं उग्गहियं पंचसयाणि, सम्मत्तं च पडिवण्णो, ततो भगवं बिइयदिवसे चेइयाणि वंदित्ता पच्चोरुहइ, ते य तावसा भणति-तुम्भे अम्हं आयरिया अम्हे तुब्भं १ धर्मकथावसरेऽनगारगुणान् परिकथयति, यथा भगवन्तः साधवोऽन्साहाराः प्रान्साहारा एवमादीन् वैश्रमणश्रिन्तयति एव भगवान् ईदृशान् साधुगुणान् वर्णयति, आत्मनश्चास्येयं शरीरसुकुमारता यादृशी देवानामपि नास्ति, ततो भगवान् तस्याकृतं ज्ञात्वा पुण्डरीकं भामाध्ययनं प्ररूपयति, यथा- पुण्डरीकिणी नगरी पुण्डरीको राजा कण्डरीको युवराजः यथा ज्ञातेषु तन्मा त्वं यलित्वं दुर्बलत्वं वा ग्राहीः, यथा स कण्डरीकस्तेन दौर्बल्येन भर्त्तदुःखार्त्तः कालग तोऽधः सप्तम्यामुख्यः पुण्डरीकः पुनः प्रति पूर्णगहकपोलोऽपि सर्वार्थसिद्धे उत्पन्नः एवं देवानुप्रिय ! दुर्बलो वलिको वाडकारणम्, नत्र ध्याननिग्रहः कर्त्तव्यः, ध्याननिग्रहः परं प्रमाणं ततो वैश्रमणोऽहो भगवता मम हृदयाकृतं ज्ञातमित्यावृत्तः संवेगमापन्नो वन्दित्वा प्रतिगतः । तत्र वैश्रमणस्य एकः सामानिको देवो जम्भकः तेन तत् पुण्डरीकाध्ययनमवगृहीतं पञ्चशतानि सम्यक्त्वं च प्रतिपन्नः, ततो भगवान् द्वितीयदिवसे चैत्यानि वदित्वा प्रत्यवतरति ते च तापसा भगन्ति यूथमसाकमाचार्या वयं युष्माकं Education intemational For Parts Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~578~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], (४०) भाष्यं [१२३...] आवश्यक- ॥२८॥ प्रत सुत्रांक सीसा, सामी भणति-तुभ य अम्ह य तिलोयगुरू आयरिया, ते भणति-तुभवि अण्णो?, ताहे सामी भयवतो हारिभद्रीगुणसंथवं करेइ, ते पवाविता, देवयाए लिंगाणि उवणीयाणि, ताहे भगवया सद्धिं वचंति, भिक्खावेला य जाता, भगवंयवृत्तिः भणइ-किं आणिजउ पारणमित्ति, ते भणति-पायसो, भगवं च सबलद्धिसंपुण्णो पडिग्गहं घतमधुसंजुत्तस्स पायसस्स दिविभागा भरेत्ता आगतो, ते भगवता अक्खीणमहाणसिएण सधे उपट्टिया, पच्छा अप्पणा जिमितो, ततो ते सुइतरं आउट्टा, तेर्सि च सेवालभक्खाणं पंचण्हवि सयाणं गोतमसामिणो तं लद्धिं पासिऊण केवलनाणं उप्पण्णं, दिण्णस्स पुणो सपरिवारस्स भगवतो छत्तातिच्छत्तं पासिऊण केवलनाणं उप्पन्नं, कोडिण्णस्सवि सामि दट्टण केवलनाणं उप्पन्नं, भगवं च पुरओ पकड्ढमाणो सामिं पदाहिणं करेइ, ते केवलिपरिसं गता, गोयमसामी भणइ-एह सामि वंदह, सामी भणइ-गोयमा! मा केवली आसाएहि, भगवं आउट्टो मिच्छामिदुक्कडंति करेइ, ततो भगवओ सुहुतरं अद्धिती जाया, ताहे सामी गोयमं शिष्याः, स्वामी भणति-युष्माकममाकं च त्रिलोकगुरव आचार्याः, ते भणन्ति-युष्माकमपि अन्यः १, तदा स्वामी भगवतो गुणसंस्तवं करोति, ते प्रवाजिताः, देवतया सिङ्गान्युपनीतानि, तदा भगवता सार्ध ब्रजन्ति, भिक्षावेला च जाता, भगवान भणति-किमानीयतां पारणमिति, ते भणन्ति-पायसः, भगवांश्च सर्वलम्धिसंपूर्णः पत्तई घृतमधुसंयुक्केन पायसेन भृत्वाऽप्रातः, ते भगवताऽक्षीणमहानसिकेन सर्व उपस्थापिताः, पवादात्मना जेमितः, ततस्ते सुष्टुतरमावृत्ताः, तेषां च शेवालभक्षकाणी पञ्चानामपि शतानां गौतमस्वामिनस्तां लधि दृष्ट्वा केवलज्ञानमुत्पश्चं, दत्तस्य पुनः सपरिवारस्य भगवत छनातिच्छन दृष्ट्वा केवलज्ञानमुत्पन्नं, कौडिन्यस्थापि स्वामिनं दृष्ट्वा केवलज्ञानमुस्पन, भगवांश्च पुरतः प्रकृप्यन स्वामिनं प्रदक्षिणीकरोति, ते केवलिपर्पदं गताः, गौतमस्वामी ॥२८॥ भणति-पुत स्वामिनं बन्दध्वं, स्वामी भणति-पौतम 1 मा केवलिन आशातय, भगवानावृत्तो मिथ्यामेदुष्कृतमिति करोति, ततो भगवतः मुष्ठतरमाएतिजांसा, तदा स्वामी गौतम दीप अनुक्रम Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 579~ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत Wणति-किं देवाणं वयणं गेझं? आतो जिणवराणं ?, गोयमो भणति-जिणवराणं, तो किं अद्धिति करेसि?, ताहे सामी। प्रचित्तारि कडे पण्णवेइ, तंजहा-सुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंबल कडे, एवं सीसावि सुंबकडसमाणे ४, तुमं च गोयमा! मम कम्ब| 21 FIलकडसमाणो, अविय-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा!, पण्णत्तीआलावगा भाणियबा, जाव अविसेसमणाणत्ता अंते भविस्सामो.18 Vताहे सामी गोयमनिस्साए दुमपत्तयं पण्णवेह । देवो वेसमणसामाणिओ ततो चइऊण अवंतीजणवए तुंबवणसन्निवेसे | धणगिरी नाम इम्भपुत्तो, सो य सड्डो पचइउकामो, तस्स मातापितरो बारेंति, पच्छा सो जत्थ जस्थ परिजइ ताणि २ विपरिणामेड, जहाऽहं पवइसकामो । इतो य धणपालस्स इन्भस्स दुहिया सुनंदानाम, सा भणइ-मर्म देह, ताहे सा तस्स टिण्णा। तीसे य भाया अजसमिओ नाम पुर्व पवइतओ सीहगिरिसगासे । सुनंदाए सो देवो कुच्छिसि गब्भत्ताए उबवण्णो, ताहे धणगिरी भणइ-एस ते गम्भो बिइज्जओ होहित्ति सीहगिरिसगासे पवइओ, इमोऽवि नवहं मासाणं दारगो सूत्राक दीप अनुक्रम 47544%95695 भणति-किं देवानां वचनं माहामातो जिनवराणाम् । गीतमो भणति-जिनवराणां, ततः किमति करोषि , तदा स्वामी चतुरः कटान् प्रशापयति तयथा-गुम्बकटो चिदलकटकटः कम्बलकटः, एवं शिष्या भपि शुम्बकटसमामा, त्वं च गौतम! मम कम्बलकटसमानः, अपिच-चिरसंसोऽसि मया गौतम!, प्रशस्यालापका भणितव्याः, यावत् अविशेषनानात्वो अन्ते भविष्यावः, तदा स्वामी गौतमनिश्रया दुमपत्रकं प्रज्ञापयति । देवो वैश्रमणसामानिकस्ततश्युत्वाऽवन्तीजनपदे तुम्बवनसधिवेशे धन गिरि मेभ्यपुत्रः, स च श्रादः प्रनजितुकामः, तस्य मातापितरौ बारयतः, पश्चात्स यत्र यन्त्र नियते तान् तान् विपरि णमयति यथाऽहं मनजितुकामः । इतच धनपाळस्पेभ्यस्य दुहिता सुनन्दा माम, सा भणति-मां दत्त, तदा सा तस्मै दचा । तस्याश्च नाताऽऽर्थसमितो नाम पर्व नजितः सिंहगिरिसकाशे । सुनन्दायाः स देवः कुक्षी गर्भतयोत्पतः, तदा धनगिरिभणति-एष तव गौं द्वितीयको भविष्यतीति सिंहगिरिसकाशे। ममजिता, अयमपि नवसु मासेषु दारको * क्याहो Jaintain H indiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~580~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः विभागार ॥२८९॥ + प्रत जाओ, तत्थ य महिलाहिं आगताहिं भण्णइ-जह से पिया ण पबइओ होतो तो लट्ठहोतं,सोसण्णी जाणति-जहा मम पिया पवइओ, तरसेवमणुचिंतेमाणस्स जाईसरणं समुप्पन्न, ताहे रत्ति दिवा य रोवइ, वरं निविजंती, तो सुहं पवइस्संति, एवं छम्मासा वचंति । अण्णया आयरिया समोसढा, ताहे अजसमिओ धणगिरी य आयरियं आपुच्छंति-जहा सण्णातगाणि |पेच्छामोत्ति, संदिसाविति, सजणेण य वाहित, आयरिएहिं भणिय-महति लाहो, जं अज सश्चित्तं अचित्तं वा लहह त सर्व लएह, ते गया, जवसग्गिजिउमारद्धा, अण्णाहिं महिलाहिं भण्णइ-एयं दारगं उबडेहिं, तो कहिं णहिति, पच्छा ताए भणियं-मए एवइयं कालं संगोविओ, एताहे तुमं संगोवाहि, पच्छा तेण भणियं-मा ते पच्छायावो भविस्सइ, ताहे सक्खिं काऊण गहितो छम्मासिओ ताहे चोलपट्टएण पत्ताबंधिओ, न रोवइ, जाणइ सण्णी, ताहे तेहिं आयरिएहिं भाणं भरियति हत्थो पसारिओ, दिण्णो, हत्थो भूमि पत्तो, भणइ-अज्जो नजइ बहरंति, जाव पेच्छंति देवकुमारोवर्म दारगति, % सुत्रांक % % % * दीप % % अनुक्रम % T 2038-009 १जातः, तत्र च महिलाभिरागताभिर्भण्यते-पोतस्य पिता न प्रबजितोऽभविष्यत्तदा लटमभविष्यत, स संज्ञी जानाति-यथा मम पिता प्रवजितः, तखेवमनुचिन्तयतो जातिसरणं समुत्पन्नं, तदा रात्री दिवा च रोदिति, वरं निर्विचते इति, ततः सुखं प्रनजिष्यामीति, एवं षण्मासा व्रजन्ति । भम्पदाऽऽचाया। समवस्ताः , तदाऽऽर्यसमितो धनगिरिश्वाचार्यमापूच्छतो-यथा सज्ञातीयान् पश्याव इति, संदिशतः, शाकुनेन च व्याहृतम्, आचार्यभणितम्-महोल्लामा, पदप सचित्तमचित्तं वा लभेयाथ तत्सर्व प्रायती गती. उपसर्गबितमारल्या. अन्याभिमहिलाभिर्भण्यते-एनंदारकमपस्थापय, ततः नेष्यता, पचात्तया भाणतमचेतावन्तं काल संगोपितोऽधुना त्वं संगोपय, पश्चात्तेन भणितं-मा तव पश्चात्तापोभत. तटासाक्षिणः करवा ग्रहीतः पापमासिकलदाचालपटकन पात्रवन्यापाया (मोलिको काया), न रोदिति, जानाति संज्ञी, तदा तैराचार्यांजनं भारितमिति हस्तः प्रसारितः, दो, दसो भूमि प्राप्तः, भणति-आर्य! शायते पत्रमिति' यावत् प्रेक्षन्ते देवकुमारोपमं दारकमिति, MT॥२८॥ % andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~581~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७६४], भंणइ य-सारक्खह एयं पवचणस्स आहारो भविस्सइ एस, तत्थ से वइरो चेव नामं कयं, ताहे संजईण दिण्णो, ताहिं सेज्जातरकुले, सेज्जातरगाणि जाहे अप्पणगाणि चेडरुवाणि व्हार्णेति मंडेति वा पीहगं वा देति ताहे तस्स पुबिं, जाहे उच्चारादी आयरति ताहे आगारं दंसेइ कूबइ वा, एवं संबइ, फासुयपडोयारो तेसिमिट्ठो, साहूवि बाहिं विहरंति, ताहे सुनंदा पमग्गिया, ताओ निकुखेवगोत्ति न देंति, सा आगंतॄण थणं देइ, एवं सो जाव तिवरिसो जातो । अन्नता साहू विहरंता आगता, तत्थ राउले बबहारो जाओ, सो भणइ-मम एयाए दिण्णओ, नगरं सुनंदाए पक्खियं, ताए बहूणि खेलणगाणि गहियाणि, रण्णो पासे वबहारच्छेदो, तत्थ पुढहोत्तो राया दाहिणतो संघो सुनंदा ससयणपरियणा वामपासे |णरवइस्स, तत्थ राया भणइ-ममकएण तुम्भे जतो चेडो जाति तस्स भवतु, पडिस्सुतं, को पढमं बाहरतु ?, पुरिसातीओ धम्मुत्ति पुरिसो वाहरतु, ततो नगरजणो आह-एएसिं संवसितो, माता सद्दावेड, अविय माता दुक्करकारिया भाष्यं [१२३...] 1 भणति च संरक्षतैनं, प्रवचनस्वाधारो भविष्यत्येषः, तत्र तस्य बन्न एव नाम कृतं तदा संवतीभ्यो दत्तः, ताभिः शय्या तरकुले, शय्यातरा बदामनभेटरूपाणि स्वपयन्ति मण्डयन्ति वा सन्यं वा ददति तदा तसै पूर्व, यदोच्चारादि भाचरति तदाऽऽकारं दर्शयति कूजति वा, एवं संवर्धते, मासुकप्रतिकारस्तेषामिष्टः साधवोऽपि बहिर्विहरन्ति तदा सुनन्दा मार्गयितुमारब्धा, ता निक्षेपक इति न ददति, साऽऽगल्य स्तन्यं ददाति एवं स यावत्रिवार्षिको जातः । अम्पदा साधवो विहरन्त आगताः, तत्र राजकुले व्यवहारो जातः, स भणति-ममैतया दक्षः, नगरं सुनन्दाया: पाक्षिकं, तथा बहूनि क्रीडनकानि गृहीतानि राज्ञः पार्श्वे व्यवहारच्छेदः, तत्र पूर्वाभिमुखो राजा दक्षिणस्यां सङ्घः सुनन्दा सस्वजनपरिजनाः वामपार्श्वे नरपतेः तत्र राजा भगति ममीकृतेन युष्माकं यतो दारको याति तस्य भवतु, प्रतिश्रुतं कः प्रथमं व्याहरतु १, पुरुषादिको धर्म इति पुरुषो व्याहरतु ततो नगरजन आह-एतेषां परिचितः माता शब्दयतु अपिचमाता दुष्करकारिका For Fasten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 582 ~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६४], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक- ॥२९॥ प्रत सूत्रांक पुणो य पेलवसत्ता, तम्हा एसा चेव वाहरउ, ताहे सा आसाहत्थीरहवसहगेहि य मणिकणगरयणचित्तेहिं बालभावलो- हारिभद्रीभावाएहि भणइ-एहि पइरसामी 1, ताहे पलोईतो अच्छद, जाणइ-जइ संघ अवमन्नामि तो दीहसंसारिओ भविस्सामि, यवृत्तिः अविय-एसावि पवइस्सइ, एवं तिन्नि वारा सहाविओ न एइ, ताहे से पिया भणइ-जइऽसि कयववसाओ धम्मज्झयमू-विभागः १ सियं इमं वइर! । गेण्ह लहुं रयहरणं कम्मरयपमज्जणं धीर! ॥१॥ ताहेऽणेण तुरितं गंतूण गहियं, लोगेण य जयइ धम्मोत्ति उक्कटिसीहनाओ कतो, ताहे से माया चिंतेइ-मम भाया भत्ता पुत्तोय पयइओ, अहं किं अच्छामि', एवं सावि पवाइया जो गुज्झएहिं बालो णिमंतिओ भोयणेण वासंते । णेच्छइ विणीयविणओ तं वइररिसिं णमंसामि ॥७६५॥ | व्याख्या-यः गुह्यकैर्देवैः बालस्सन् 'निमंतिउ' ति आमन्त्रितः भोजनेन वर्षति सति, पर्जन्य इति गम्यते, नेच्छति विनीतविनय इति, वर्तमाननिर्देशस्त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थः, पाठान्तरं वा 'नेच्छिंसु विणयजुत्तोतं वइररिसिं नमसामि' ति, अयं गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् दीप अनुक्रम ॥२९॥ पुन कोमलसवा, तस्मादेषव न्याहरत, तदा सा अवहस्तिरथवृषभश्च मजिकनकरवचित्रबालभावलोभावहभणति-एहि वनस्वामिन् !, सदा प्रलोकयन् | | तिष्ठति, जानाति-यदि सहमवमन्ये तथा दीर्घसंसारो भविष्यामि, अपिच-एषाऽपि प्रजिष्यति, एवं श्रीन वारान् शादितो नैति, तदा तस्य पिता भणतियद्यसि कृतम्यवसायो धर्मध्वजमुचितमिमं वन ! गृहाण लघु रजोहरणं कर्मरजःप्रमानं धीर! ॥१॥ तदाऽनेन त्वरितं गत्वा गृहीतं, लोकेन च जयति जिनधर्म इत्युकृष्टिसिंहनादः कृता, तदा तस्य माता चिन्तयति-मम भ्राता भर्ता पुत्रश्च प्रवजितः, आई किसिधामि १, एवं साऽपि मनजिता. *मुक्यवसाओ। JABERatin intimational Swatanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~583~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७६५ ], भाष्यं [१२३...] Harsha जाहे धणं न पियइति पदाविओ, पबइयाण चैव पासे अच्छइ, तेण तासिं पासे इक्कारस अंगाणि सुयाणि पढं तीण, ताणि से उबगयाणि, पदाणुसारी सो भगवं, ताहे अद्ववरिसिओ संजइपडिस्सयाओ निकालिओ, आयरियसगासे अच्छर, आयरिया य उज्जेणीं गता, तत्थ वासं पडति अहोधारं, ते य से पुवसंगइया जंभगा तेर्णतण वोलेंता तं पेच्छति, ताहे ते परिक्खानिमित्तं उत्तिष्णा वाणिययरूवेणं, तत्थ बइले उलदेत्ता उवक्खडेंति, सिद्धे निमंतिंति, ताहे पढितो, जाब फुसियमत्थि, ताहे पडिनियत्तो, ताहे तंपि ठितं पुणो सहावेंति, ताहे वइरो गंतूण उवउत्तो दवतो ४, दबओ पुप्फफलादि खेत्तओ उज्जेणी कालओ पढमपाउसो भावतो धरणिच्छिवणणयणनिमेसादिरहिता पहहतुठ्ठा य, ताहे देवत्तिकाऊण नेच्छति, देवा तुट्ठा भणति-तुमं दडुमागता, पच्छा वेडवियं विनंति, उज्जेणीए जो जंभगेहि आणक्खिऊण धुयमहिओ । अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे ॥ ७६६ ।। १ सोऽपि यदा स्तन्यं न पियतीति (तदा) प्रत्राजितः, प्रबजितानां चैव पार्श्वे तिष्ठति, तेन तासां पार्श्वे एकादशाङ्गानि श्रुत्तानि पठन्तीनां तानि तस्योपगतानि पदानुसारी स भगवान् तदाऽष्टवार्षिकः संवतीप्रतिश्रयात् निष्काशितः, भाचार्यंसकाशे तिष्ठति, भाचार्याश्रोजयिनीं गताः, तत्र वर्षां पतली अहतधारं, ते च तस्य पूर्वसंगतिका जृम्भकाः तेन मार्गेण व्यतिक्राम्यन्तस्तं परीक्षन्ते तदा ते परीक्षानिमित्तमवतीर्णाः वणिभूपेण, तत्र बलीवर्दान् अवलाच ( उत्तार्थ ) उपरकुर्वन्ति, सिद्धे निमप्रयन्ति तदा प्रस्थितः यावत् बिन्दुपालः (फुसारिका ) अस्ति, तदा प्रतिनिवृत्तः, तदा सोऽपि स्थितः पुनः शब्दयन्ति तदा यो गत्वोपयुक्तो द्रव्यतः 8 दन्यतः पुष्पफकादि क्षेत्रत उजयिनी कातः प्रथमप्रावृद भावतो धरणिस्पर्शनयन निमेषादिरहिताः प्रहष्टतुष्टान, तदा देव इति कृत्वा नेच्छति, देवास्तुष्टा भणन्ति स्वां द्रष्टुमागताः, पञ्चाद्वैयिविद्यां दति For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 584~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यकता प्रत व्याख्या-उज्जयिन्यां यो 'जुम्भकः' देवविशेषैः ‘आणक्खिऊणं' ति परीक्ष्य 'स्तुतमहितः स्तुतो वास्तवेन महितो ||हारिभद्रीविद्यादानेन अक्षीणमहानसिकं सिंहगिरिप्रशंसितं वन्द इति गाथाक्षरार्थः । अवयवार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं- Gयवृत्तिः हा विभागार पुणरवि अन्नया जेहमासे सन्नाभूमिं गयं घयपुन्नेहिं निमंतेन्ति, तत्थवि दबादिओ उवओगो, नेच्छति, तत्थ से णहगा| मिणी विजा दिण्णा, एवं सो विहरइ । जाणि य ताणि पयाणुसारिलद्धीए गहियाणि एक्कारस अंगाणि ताणि से संजय| मझे थिरयराणि जायाणि, तत्थ जो अज्झाति पुवगयं तंपि णेण सर्च गहियं, एवं तेण बहु गहियं, ताहे वुञ्चति पढाहि, ततो सो एयंतगंपि कुडेतो अच्छइ, अन्नं सुणेतो । अण्णया आयरिया मज्झण्हे साहूसु भिक्खं निग्गएसु सन्नाभूमि निग्गया, वइरसामीवि पडिस्सयवालो, सो तेसिं साहूणं वेंटियाओ मंडलिए रएत्ता मज्झे अप्पणा ठाउं वायणं देति, ताहे परिवाडीए एक्कारसवि अंगाई वाएइ, पुछगयं च, जाव आयरिया आगया चिंतेति-लहुं साहू आगया, सुगंति सई सुत्रांक - दीप अनुक्रम पुनरपि अन्यदा ज्येष्टमासे संज्ञाभूमि गतं घृतपूर्णनिमन्त्रयन्ति, तत्रापि द्रव्यादिक उपयोगः, नेच्छति, नत्र तस्मै नभोगामिनी विया दत्ता, एवं सबिहरति । यानि च तानि पदानुसारिकाध्या गृहीताम्येकादशाहानि, तानि तव संयतमध्ये स्थिरतराणि जातानि, तत्र योऽध्येति पूर्वगतं तदप्यनेन सर्व। | गृहीतम्, एवं तेन बहु गृहीतं, तदोव्यते पठ, ततः स आगच्छदपि (अधीतमपि) कुड्यन् तिष्ठति, अन्यत् शृण्वन् । अन्यदा आचार्या मध्याहे साधुषु भिक्षाये | निर्गतेषु संज्ञाभूमि निर्गताः, पजस्खाम्यपि प्रतिश्यपालः, स तेषां साधूनां विपिटका मण्डल्या रचयित्वा मध्ये आरमना स्थित्वा वाचनां ददाति, तदा परिपाव्या एकादशाण्यानि वाचवति, पूर्वगतं च, यावदाचार्या आगताश्चिन्तयन्ति-लघु साधव भागताः, ऋण्यन्ति शब्द ॥२९॥ antaurano Jaindiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~585~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत |मघोपरसियं, बहिया सुर्णेता अच्छंति, नायं जहा वइरोत्ति, पच्छा ओसरिऊण सद्दपडियं निसीहियं करेइ, मा से संका लाभविस्सइ, ताहे तेण तुरियं विंटियाओ सहाणे ठवियाओ, निग्गंतूण य दंडयं गेहइ, पाए य पमजेइ, ताहे आयरिया चिंतेन्ति-मा णं साहू परिहविसति ता जाणावेमि, ताहे रत्तिं आपुच्छइ-अमुगंगाम वच्चामि ? तत्थ दोवा तिन्नि वा दिवसे अच्छिस्सामि, तत्व जोगपडिवण्णगा भणति-अम्हं को वायणायरिओ?, आयरिया भणंति-वइरोत्ति, विणीया तहत्ति पडिसुतं, आयरिया चेव जाणंति, ते गया, साहूविपए वसहि पडिलेहिता वसहिकालणिवेयणादि वइरस्स करेंति, निसिज्जा य से रइया, सो तत्थ निविठ्ठो, तेऽवि जहा आयरियरस तहा विणयं पउंति, ताहे सो तेसिं करकरसद्देण सवेसि अणु परिवाडीए आलावए देइ, जेऽवि मंदमेहावी तेवि सिग्धं पट्टवेउमारद्धा, ततो ते विम्हिया, जोऽविएइ आलावगो पुवपढिओ हतंपि विण्णासणत्थं पुच्छंति, सोऽविसबं आइक्खइ, ताहे ते तुहा भणंति-जइ आयरिया कइवयाणि दियहाणि अच्छेजा ततो सूत्राक दीप अनुक्रम T मेघौधरसितं, बहिः शृण्वन्तस्तिष्ठन्ति, ज्ञातं यथा पत्र इति, पश्चादपसृत्य शब्दपतितं नषेधिौं करोति, मा तख शङ्का भूत, तदा तेन विण्टिकारस्वकारितं स्वस्थाने स्थापिताः, निर्गत्य च दशकं गृहाति, पादौ च प्रमार्जयति, तदाऽऽचार्याश्चिन्तयन्ति-मैनं साधवः परिभूवन् तत् ज्ञापयामि, तदा रात्रावादापृच्छति-अमुक ग्राम प्रजामि १, तन्त्र द्वौ वा श्रीन् वा दिवसान् स्थास्यामि, तन्त्र योगप्रतिपक्षा भणन्ति-अस्माकं को वाचनाचार्यः ?, आचार्या भणन्ति-वत्र इति, विनीता (हति) तथेति प्रतिश्रुतम् , आचार्या एव जानन्ति, ते गताः, साधबोऽपि प्रभाते वसति प्रतिलेख्य वसतिकालनिवेदनादि बजाय कुर्वन्ति, | निषिद्या च तसै रचिता, स तत्र निविष्टः, तेऽपि यथा आचार्यस्य तथा विनयं प्रयुञ्जन्ति, तदा स तेभ्यः व्यक्तव्यक्तशब्देन सर्वेभ्योऽनुपरिपाव्या आलापकान् ददाति, येऽपि मन्दमेधसतेऽपि शीघ्र प्रस्थापयितुमारब्धाः, ततस्ते विसिताः, योऽप्येति आलापकः पूर्वपठितस्तमपि विन्यासनार्थ पृच्छन्ति, सोऽपि सर्वमाख्याति, तदा ते तुष्टा भणन्ति-यद्याचार्याः कतिपयान दिवसान तिष्ठेयुसतः JAMERatmi ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 586~ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सुत्रांक RSSC आवश्यक-18/ एस सुयक्वंधो लहुं समप्पेजा, जं आयरियसगासे चिरेण परिवाडीए गिण्हंति तं इमो एकाए पोरसीए सारेइ, एवं हारिभद्री सो तेसिं बहुमओ जाओ, आयरियाऽवि जाणाविओत्तिकाऊण आगया, अवसेसं च वरं अज्झाविजउत्ति, पुच्छंति य ॥२९२॥ यवृत्तिः -सरिओ सज्झाओ, ते भणंति-सरिओ, एसच्चेव अम्ह वायणायरिओ भवउ, आयरिया भणंति-होहिद, मा तुम्भे एतं विभागः१ परिभविस्सह अतो जाणावणाणिमित्तं अहं गओ, ण उण एस कप्पो, जओ एतेण सुयं कन्नाहेडएण गहियं, अओ एयस्स | उस्सारकप्पो करेयबो, सो सिग्घमोस्सारेइ, वितियपोरुसीए अत्थं कहेइ, तदुभयकप्पजोगोत्तिकाऊण, जे य अत्था | आयरियस्सवि संकिता तेऽवि तेण उग्घाडिया, जावइयं दिठिवायं जाणंति तत्तिओ गहिओ, ते विहरता दसपुरं गया, उज्जेणीए भद्दगुत्ता नामायरिया, थेरकप्पट्टिता, तेसिं दिडिवाओ अत्थि, संघाडओ से दिन्नो, गओ तस्स सगासं, भदगुत्ता य थेरा सुविणगं पासंति-जहा किर मम पडिग्गहो खीरभरिओ आगंतुएण पीऊ समासासिओ य, पभाए साहणं एष श्रुतस्कन्धो लघु समामुयात् , यदाचार्यसकाशे चिरेण परिपाया गृह्यते तदयमेकया पौरुष्या सारयति, एवं स तेषां बहुमतो जातः, आचार्या अपि ज्ञापित इतिकृत्वा आगताः, अवशेष च वरमध्याप्यतामिति, पृच्छन्ति च-भूतः स्वाध्यायः', ते भणन्ति-भूतः, एष एवास्माकं वाचनाचार्यो भवतु, भाचार्या भणन्ति-भविष्यति, मा यूपमेनं परिभूत अतो ज्ञापनानिमित्तमहं गतः, म पुनरेप करप्यः, यत एतेन श्रुतं कहिटकेन गृहीतम्, अत एतस्त्रोत्सारकल्पः कर्तव्यः, स शीघमुल्सारयति, द्वितीयपौरुष्यामथै कथयति, तदुभवकल्पयोग्य इतिकृत्वा, ये चार्था आचार्यस्वापि शक्तिास्तेऽपि तेनोद्घाटिताः, यावन्तं रष्टिवादं जानन्ति तावान् गृहीतः, ते विहरन्सो दशपुरं गताः, उज्जयिन्यां भद्गुप्तनामान आचार्याः स्थविरकल्पस्थिताः, तेषां दृष्टिवादोऽस्ति, संघाट-18 ॥२९॥ कोसै दत्तः, गतस्तस्य सकाश, भद्रगुप्ताश्च स्थविराः स्वमं पश्यन्ति-यथा किल मम पतहहः क्षीरभूत आगन्तुकेन पीतः समावासितश्च, प्रभाते साधुभ्यः *समासिओ अप्र० दीप % अनुक्रम %25 JAmEairat मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 587~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक साहेति, ते अन्नमनाणि वागरेंति, गुरू भणंति-ण याणह तुम्भे, अज्ज मम पाडिच्छओ एहिति, सो सर्व सुत्तत्थ घेस्थि-I हित्ति, भगवंपि बाहिरियाए वुच्छो, ताहे अइगओ दिहो, सुयपुषो एस सो वइरो, तुडेहिं उवगूहिओ, ताहे तस्स सगासे | दस पुवाणि पढिताणि, तो अणुण्णानिमित्तं जहिं उद्दिठो तहिं चेव अणुजाणियघोत्ति दसपुरमागया । तत्थ अणुण्णा |आरद्धा ताय नवरि तेहिं जंभगेहिं अणुण्णा उवढविया, दिवाणि पुष्पाणि चुण्णाणि य से उवणीयाणित्ति ॥ अमुमेवार्थ चेतस्यारोप्याह ग्रन्थकृत् जस्स अणुनाए वायगत्तणे दसपुरंमि नयरंमि । देवेहि कया महिमा पयाणुसारिं नमसामि ।। ७६७ ।। व्याख्यान्यस्यानुज्ञाते 'वाचकत्वे' आचार्यत्वे दसपुरे नगरे 'देवैः' जुम्भकैः कृता महिमा, सम्पादिता पूजेति भावना, तं पदानुसारिणं नमस्य इति गाथार्थः॥४४॥ अण्णया य सीहगिरि वइरस्स गणं दाऊण भत्तं पञ्चक्खाइऊणं देवलोग गओ । वइरसामीऽवि पंचहिं अणगारसएहिं |संपरिवुडो विहरइ, जत्थ जत्थ वच्चइ तत्थ तत्थ ओरालवण्णकित्तिसहा परिभमंति, अहो भगवंति, एवं भगवं कथयस्ति, ते अन्यदन्यत् व्याकुर्वन्ति, गुरवो भणन्ति- जानीथ यूयम् , अब मम प्रतीच्छक एष्यति, स सबै सूत्राय ग्रहीष्यतीति, भगवानपि बाहिरिकाबामुषितः, तदा मागतो दृष्टः, श्रुतपूर्व एष स वनः, तुरुपरहितः, तदा तस्य सकाशे दश पूर्वाणि पठितानि, ततोऽनुशानिमिर्च पन्नोदिष्टसौवानुज्ञातव्य इति दशपुरमागताः तत्राऽनुज्ञाऽरब्धा तावन्नवर तैर्जम्भकैरनुज्ञा उपस्थापिता, दिव्यानि पुष्पाणि चूर्णानि चामै अपनीतानीति । २ अन्यदा च सिंह| गिरिजवामिनं गर्ण दचा भकं प्रत्याख्याय देवलोकंगतः। वज्रस्वाम्पपि पञ्चभिरनगारशतः संपरिवृतो विहरति, यत्र यत्र बजति तत्र तत्र उदारवर्णकीतिशब्दाः परिनाम्यन्ति, अहो भगवानिति, एवं भगवान् +-+ACCORDCASEARC4 दीप अनुक्रम LIT ETTO wjanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 588~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥२९३॥ Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७६७], भाष्यं [१२३...] भेवियजणविवोहणं करेंतो विहरइ । इओ य पाडलिपुत्ते नयरे घणो सेट्ठी, तस्स धूया अश्व रूववती, तस्स यजाणसालाए साहूणीओ ट्टियाओ, ताओ पुण वइरस्स गुणसंथवं करेंति, सभावेण य लोगो कामियकामियओ, सिट्ठिधूया चिंतेइ - जइ मम सो पति होज्ज तोऽहं भोगे भुंजिस्सं, इयरहा अलं भोगेहिं, वरगा पंति, सा पडिसेहावेइ, ताहे साहेति पबइयाओ सो ण परिणेइ, सा भणइ जइ न परिणेइ अहंपि पबज्जं गिव्हिस्सं, भगवंपि विहरंतो पाडलिपुत्तमागओ, तत्थ से राया | सपरियणो अम्मोगइयाए निग्गओ, ते पवइगा फडगफड्डुगेहिं एंति, तत्थ बहवो उरालसरीरा, राया पुच्छइ-इमो भगवं वइरसामी ?, ते भर्णति-न हवइ, इमो तस्स सीसो, जाव अपच्छिमं विंदं, तत्थ पविरलसाहुसहितो दिट्ठो, राइणा वंदिओ, ताहे उज्जाणे ठिओ, घम्मोऽणेण कहिओ, खीरासवलद्धी भगवं राया इयहियओ कओ, अंतेउरे साहद्द, ताओ भणंति-अम्हेऽवि वच्चामो, सर्व अंतेउरं निग्गयं सा य सेट्ठिधूया लोगस्स पासे सुणेत्ता किह पेच्छिजामित्ति चिंतेंती १ भव्यजनविबोधनं कुर्वन् विहरति । इतश्च पाटलीपुत्रे नगरे घनः श्रेष्ठी, तस्य दुहिता अतीव रूपवती, तस्य च यानशालायां साध्ध्यः स्थिताः ताः पुनजस्य गुणसंस्तवं कुर्वन्ति स्वभावेनैव लोकः कामितकामुकः, श्रेष्ठदुहिता चिन्तयति यदि मम स पतिर्भवेत् तदाऽहं भोगान् मोक्ष्ये, इतरथाऽलं भोगः, वरा आयान्ति सा प्रतिषेधयति, तदा साधयन्ति प्रब्रजितकाः- सन परिणेध्यति सा भणति-यदि न परिणेष्यति अहमपि प्रब्रज्यां ग्रहीष्यामि, भगवानपि विहरन् पाटलीपुत्रमागतः, तत्र तस्य (स) राजा सपरिजनः अहंपूर्विकया निर्गतः ते प्रब्रजितकाः स्पर्धक स्पर्धकैरायान्ति तत्र बहव उदारशरीराः, पृच्छति भयं भगवान् वज्रस्वामी ?, ते भणन्ति न भवति, भयं तस्य शिष्यः, यावदपश्विमं वृन्दं तत्र प्रवर साधुसहितो दृष्टः राज्ञा वन्दितः, तदोथाने ॥२९३॥ - स्थितो, धर्मोऽनेन कथितः, क्षीराश्रवलब्धिको भगवान्, राजा हृतहृदयः कृतः, अन्तःपुराय कथयति, ता भणन्ति वयमपि व्रजामः सर्वमन्तःपुरं निर्गतं, सा च श्रेष्ठिदुहिता लोकल पार्श्वे श्रुत्वा कथं प्रेक्षयिष्य इति चिन्तयन्ती For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 589~ Janibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६७], भाष्यं [१२३...] (४०) % 24NAC प्रत है अच्छति, वितियदिवसे पिया विनविओ-तस्स देहि, अण्णहा अप्पाणं विवाएमि, ताहे सबालंकारभूसियसरीरा कया, अणेगाहिं धणकोडिहिं सहिया णीणिया, धम्मो कहिओ, भगवं च खीरासवलद्धीओ, लोओ भणति-अहो सुस्सरो भगवं ४ सवगुणसंपन्नो, णवरि रूवविहूणो, जइ रूवं होतं सवगुणसंपया होता, भगवं तेसिं मणोगयं नाउं तत्थ सयसहस्सपत्तपउम विउबति, तस्स उवरि निविट्ठो, रूवं विउबति अतीव सोम, जारिस परं देवाणं, लोगो आउट्टो भणति-एय एयस्स साहावियं रूवं, मा पत्थणिज्जो होहामित्ति विरूवेण अच्छइ सातिसउत्ति, रायाऽवि भणति-अहो भगवओ एयमवि अस्थि, ताहे अणगारगुणे वण्णेइ-पभू य असंखेजे दीवसमुद्दे विउवित्ता आइन्नविइन्नए करेत्तएत्ति, ताहे तेण स्वेण धम्मं कहेति, ताहे सेहिणा निमंतिओ भगवं विसए निंदति, जइ ममं इच्छइ तो पबयउ, ताहे पवतिया ॥ अमुमेवार्थ हृदि व्यवस्थाप्याहजो कन्नाह धणेण य निमंतिओ जुव्वर्णमि गिहवइणा । नयरंमि कुसुमनामे तं चइररिसिं नमसामि ॥ ७६८॥ सूत्राक ASAHES दीप अनुक्रम तिष्ठति, द्वितीयविवसे पिता विज्ञप्तः-सी देवि, अन्यथा आत्मानं व्यापादयामि, तदा सर्वालङ्कारभूपितशरीरा कृता, अनेकाभिर्धनकोटिभिः सहिता नीता, धर्मः कथितः, भगवान क्षीरानवलब्धिका, लोको भणति-अहो मुखरो भगवान् सर्वगुणसंपनः, नवरं रूपविहीनः, यदि रूपमभविष्यत् सर्वगुणसंपदभविष्यत्, भगवान् तेषां मनोगतं ज्ञात्वा तत्र शतसहस्रपत्रपमं बिकुर्वति, तखोपरि निविष्टः, रूपं विकुर्वति अतीच साम्ब, पादशं परं देवानां, लोक भावृत्तो भणति-एतदेतख खाभाविक रूपं, मा प्रार्थनीयो भूवमिति विरूपस्तिष्ठति सातिशय इति, राजाऽपि भणति- अहो भगवत एतदष्यति, तदा अनगारगुणान् | वर्णयति-प्रभुनासंगयेयान द्वीपसमदान विकच आकीर्णविप्रकीर्णान कर्तमिति, सदा तेन रूपेण धर्म कथयति, तदा हिना निमन्त्रितो, भगवान विषयान्डू | निन्दति, यदि मामिच्छति तदा प्रव्रजतु, तदा प्रबजिता। HAR CAMEaurat मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~590~ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७६८], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥२९४|| प्रत सुत्रांक व्याख्या-या कन्यया धनेन च निमन्त्रितो यौवने 'गृहपतिना' धनेन नगरे 'कुसुमनाम्नि पाटलिपुत्र इत्यर्थः, तं व- हारिभद्रीररिसिं नमस्य इति गाथार्थः॥ ४ यवृत्तिः तेण य भगवया पयाणुसारित्तणओ पम्हुडा महापरिणाओ अज्झयणाओ आगासगामिणी विज्जा उद्धरिया, तीए या विभागा१ गयणगमणलद्धिसंपण्णो भगवंति ॥ उक्तार्थाभिधित्सयाऽऽहजेणुद्धरिया विजा आगासगमा महापरिन्नाओ। वदामि अजवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं ॥ ७६९ ॥ व्याख्या-येनोद्धृता विद्या 'आगासगम' त्ति गमनं-गमः आकाशेन गमो यस्यां सा तथाविधा महापरिज्ञाऽध्ययनात्, वंदे 'आर्यवहर' आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यायः आर्यश्चासौ वैरश्चेति समासः, तं अपश्चिमो यः श्रुतधराणामिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमन्येभ्योऽधिकृतविद्यायाञ्चानिषेधख्यापनाय प्रदाननिराचिकीर्षया तदनुवादतस्तावदित्थमाह भणइ अ आहिंडिज्जा जंबुद्दीवं इमाइ विजाए । गंतुं च माणुसनगं विजाए एस मे विसओ ॥ ७७० ॥ व्याख्या-भणति च, वर्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वत् , 'आहिण्डेत' इति पाठान्तरं वा 'अभाणंसु य हिंडेज' त्ति वभाण च हिण्डेत-पर्यटेत् जम्बूद्वीपमनया विद्यया, तथा गत्वा च 'मानुषनर्ग' मानुषोत्तरं पर्वतं, तिष्ठेदिति वाक्यशेषः, विद्याया एष मे विषयों गोचर इति गाथार्थः ॥ 81॥२९४॥ दीप अनुक्रम तेन च भगवता पदानुसारितया विस्मृता महापरिज्ञाध्ययनादाकाशगामिनी विद्योता, तया च गगनगमनहन्धिसंपनी भगवामिति । JAMERaiaWILama www.jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~591~ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७१], (४०) भाष्यं [१२३...] प्रत सूत्राक भणइ अधारेअब्धा न हु दायब्वा इमा मए विज्वा । अप्पिडिया उ मणुआ होहिंति अओ परं अन्ने ॥ ७७१ ॥ | व्याख्या-'भणति च' इत्यस्य पूर्ववढ्याख्या, 'धारयितव्या' प्रवचनोपकाराय न पुनर्दातच्या इयं मया विद्या, हुशब्दः पनःशब्दार्थः, किमिति ?-'अप्पिढिया उ मणुया होहिंति अतो परं अण्णे' अल्पर्द्धय एव मनुष्या भविष्यन्ति अतः परमन्ये | एच्या इति गाथार्थः ॥ ४८॥ सो भगवं एवं गुणविज्जाजुत्तो विहरंतो पुषदेसाओ उत्तरावहं गओ, तत्थ दुभिक्खं जायं, पंथावि वोच्छिण्णा, ताहे संघो उवागओ नित्थारेहित्ति, ताहे पडविज्जाए संघो चडिओ,तत्थ य सेजायरो चारीए गओएड. ते य उप्पतिते पासइ,ताहे सो असियएण सिहं छिंदित्ता भणति-अहंपि भगवं! तुम्ह साहम्मिओ, ताहे सोऽपि लइओ इमं सुत्तं सरतेण-'साहम्मियवच्छलंमि उज्जुया उज्जुया य सज्झाए। चरणकरणमि य तहा, तित्थस्स पभावणाए य॥१॥ ततो पच्छा 18| उप्पइओ भगवं पत्तो पुरियं नयरिं, तत्थ सुभिक्खं, तत्थय सावया बहुया, तत्थ राया तच्चण्णिओसडओ, तत्थ अम्हच्चयाणं सड्ढयाणं तच्चण्णिओवासगाण य विरुद्धेण मल्लारुहणाणि वटुंति, सवत्थ ते उवासगा पराइज्जति, ताहे तेहिं राया पुष्पाणि स भगवान् एवं गुणविधायुक्तो विहरन् पूर्वदेशात् उत्तरापथं गतः, तत्र दुर्मिनं जातं, पन्धानोऽपि व्युच्छिन्नाः, तदा सह रुपागतः निस्तारयेतिर (निस्तारयिष्यतीति), तदा पटविद्यया (द्यायां) सश्वटितः, तत्र च शय्यासरश्नाय गत आयाति, तांश्चोत्पतितान् पश्यति, नदास दारेण शिखा हिवा | भणति-अहमपि भगवन् ! तव साधर्मिकः, तदा सोऽपि कपित इदं सूत्रं स्मरता-'साधर्मिकवात्सल्ये उद्युक्ता धुक्ताश्च स्वाध्याये । चरणकरणे च तथा तीर्थस्थG प्रभावनाय च ॥१॥ ततः पश्चादुत्पतितो भगवान् प्रामः पुरिका नगरी, तन्त्र सुभिक्षं, तत्र च श्रावका बहवः, तत्र च राजा तनिकः (बौद्धः) श्रावः, तत्रामाकीनानां श्राद्वानां तवनिकोपासकानां च विरुद्धतया माल्यारोहणानि वर्तन्ते, सर्वत्र ते उपासकाः पराजीयम्ते, तदा ते राज्ञा पुष्पाणि दीप अनुक्रम M ME - A nantayom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~592~ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७१], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥२९५॥ प्रत १ सुत्राक 25 वाराविओ पजोसवणाए, सड्डा अद्दण्णा जाया नथि पुष्पाणित्ति, ताहे सबालवुड्डा वइरसामि उवडिया, तुम्भे जाणह, जइ हारिभद्रीतुम्भेहिं नाहेहिं पवयणं ओहामिज्जइ, एवं भणितो बहुप्पयारं ताहे उप्पइसण माहेस्सरिंगओ, तत्थ हुयासणं नाम वाणमंतरं, यवृत्तिः तत्थ कुंभो पुष्फाण उठेइ, तत्थ भगवतो पितिमित्तो तडिओ, सो संभंतो भणइ-किमागमणप्पओयणं, ताहे भणति-पुष्फेहिं। विभागा१ |पओयणं, सो भणइ-अणुग्गहो, भगवया भणिओ-ताव तुम्भे गहेह जाव एमि, पच्छा चुलहिमवंते सिरिसगासं गओ, सिरीए। य चेतियअच्चणियनिमित्तं पउमं छिन्नगं, ताहे वंदित्ता सिरीए निमंतिओ, तं गहाय पइ अग्गिघरं, तत्थऽणेणं विमाणं विउवियं, तत्थ कुंभं छोढुं पुप्फाणं ततो सो जंभगगणपरिवुडो दिवेणं गीयगंधवनिनाएणं आगासेणं आगओ, तस्स पउमस्स |बेटे वाइरसामी ठिओ, ततो ते तच्चण्णिया भणंति-अम्ह एवं पाडिहेरं, अग्धं गहाय निग्गया, तं वोलेत्ता विहारं अरहतघरं | गया, तत्थ देवेहि महिमा कया, तत्थ लोगस्स अतीव बहुमाणो जाओ, रायावि आउट्टो समणोवासओ जाओ। उक्त-18 मेवार्थ बुद्धबोधायाह निवारितानि पर्युषणायां, श्राद्धाः खिना जाताः, न सन्ति पुष्पाणीति, सदा सबानूडा ववस्वामिनमुपस्थिताः पूर्व जानीथ यदि युष्मासु नाथेषु प्रवचनमवधाप्यते, एवं भणितो बहुप्रकार तदोत्पत्य माहेश्वरीं गतः, तत्र हुताशनं नाम व्यन्तरायतन, तन कुम्भः पुष्पाणामुत्तिष्ठते, तत्र भगवतः पितृमित्रमारा| मिकः, स संभ्रान्तो भणति-किमागमनप्रयोजनम् , तदा भणति-पुष्पैः प्रयोजन, स भणति-अनुग्रहः, भगवता भणितः तावखूर्व गृहीत यावदायामि, | पक्षाखहिमवति श्रीसकाशं गतः, श्रिया च त्याचनिकानिमिर्च पा जिलं, तदा वन्दित्वा श्रिया निमन्त्रिता, तद् दीवाऽऽयाति भनिगृह, तत्रानेन विमानं | | ॥२९५॥ | बिकुर्वित, तत्र कुम्भ निक्षिप्य पुष्पाणां ततः स जम्भकगणपरिवृतो दिव्येन गीतगन्धर्वनिनादेनाकाशेनागतः, तस्य पनख वृन्ते वज्रस्वामी स्वितः, ततस्ते तचनिका | भणन्ति- अस्माकमेतत् प्रातिहार्यम् , ब गृहीवा निर्गताः, तंव्यतिक्रम्य बिहारमहदहं गताः, तत्र देवमहिमा कृतः, तत्र लोकस्यातीय बहुमानो जातः, | राजाऽष्यावृत्तः श्रमणोपासको जातः । दीप अनुक्रम AMERAPIPAT janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~593~ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७२], भाष्यं [१२३...] (४०) 2-54 प्रत सूत्राक माहेसरीउ सेसा पुरिअं नीआ हुआसणगिहाओ । गयणयलमइवइत्ता वइरेण महाणुभागेण ॥ ७७२ ॥ व्याख्या-'माहेश्वर्याः' नगर्याः 'सेस'त्ति पुष्पसमुदायलक्षणा, सा पुरिका नगरी नीता 'हुताशनगृहात्' व्यन्तरदेवकुलसमन्वितोद्यानात्, कथम् !-गगनतलमतिव्यतीत्य-अतीवोल्लल्य, वइरेण महानुभागेन, भागः-अचिन्त्या शक्तिरिति गाथाक्षरार्थः ॥ एवं सो विरहंतो चेव सिरिमाल गओ। एवं जाव अपुहत्तमासी, एस्थ गाहाअपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पुहताणुओगकरणे ते अत्थ तओ उ बुच्छिन्ना ।। ७७३ ।। व्याख्या-अपृथक्त्वे सति अनुयोगः चत्वारि द्वाराणि-चरणधर्मकालद्रव्याख्यानि भाषते एकः, वर्तमाननिर्देशफलं प्राग्वत् , पृथक्त्वानुयोगकरणे पुनस्तेऽर्था:-चरणादयः तत एव-पृथक्त्वानुयोगकरणाद् ब्यवच्छिन्ना इति गाथार्थः । साम्प्रतं येन पृथक्त्वं कृतं तमभिधातुकाम आहदेविंदवंदिएहि महाणुभागेहि रक्खिअजेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ।। ७७४ ।। व्याख्या-देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभागैः रक्षितालिकापुष्पमित्रं प्राज्ञमष्यतिगुपिलत्वादनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमयलोक्य युगमासाद्य प्रवचनहिताय 'विभक्तः' पृथक् पृथगवस्थापितोऽनुयोगः, ततः कृतश्चतु -चरणकरणानुयोगादिरिति गाथार्थः । साम्प्रतमार्यरक्षितस्वामिनः प्रसूति प्रतिपिपादयिषयाऽऽहमाया य रुद्दसोमा पिआ य नामेण सोमदेवुत्ति । भाया य फग्गुरक्खिा तोसलिपुत्ता य आयरिया ॥७७६॥ निज्जवण भद्दगुत्ते वीसुं पढणं च तस्स पुब्वगयं । पब्वाविओ अभाया रक्खिअखमणेहिं जणओ अ॥७७६ ॥ एवं स विहरमेव श्रीमाकं गतः, एवं यावदपृथक्त्वमासीत्, भन गाथा दीप अनुक्रम T JanEainा Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~594 ~ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक- व्याख्या-गाथाद्वयार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तेणे कालेणं तेणं समएणं दसपुरं नाम नयरं, तत्थ सोमदेवो माहणो, हारिभद्री॥२९॥ |तस्स रुद्दसोमा भारिया, तीसे पुत्तो रक्खिओ, तस्साणुजो फग्गुरक्खिओ। अच्छतु ताव अजरक्खिया, दसपुरनयर | यवृत्तिः कहमुप्पन्न !,-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाए नयरीए कुमारनंदी सुवण्णकारो इस्थिलोलो परिवसति, सो जत्थ जत्थ सुस्वं विभाग १ दारियं पासति सुणेति वा तत्थ पंच सुवण्णसयाणि दाऊण तं परिणेइ (ग्रन्थानम् ७५००) एवं तेण पंचसया पिंडिया, हताहे सो ईसालुओ एकक्खंभं पासादं कारिता ताहिं समं ललइ, तस्स य मित्तो णाइलो णाम समणोवासओ। अण्णया। य पंचसेलगदीवयस्थवाओ पाणमंतरीओ सुरवतिनिओएण नंदीस्सरवरदीवं जत्ताए पस्थियाओ, ताणं च विजमाली नाम पंचसेलाहिपती सो चुओ, ताओ चिंतेति-कंचि बुग्गाहेमो जोऽम्हं भत्ता भयिजत्ति, नवरं वच्चंतीहि चपाए कुमारणदी। पंचमहिलासयपरिवारो ललंतोदिहो, ताहिं चिंतिय-एस इत्थिलोलो एवं वुग्गाहेमो, ताहे ताहिं उज्जाणगयरस अप्पा दंसिओ.IN SAASA दीप अनुक्रम T २९६॥ तस्मिन् काले समिन् समये दशपुर नाम मगर, तत्र सोमदेवो ब्राह्मणः, तस्य सोमा भायो, तस्याः पुत्रो रक्षिता, समानुजः फागुरक्षितः । विहन्तु टातावदार्यरक्षिताः, दशपुरनगर कधमुत्पन्नम् -तस्मिन् काले सस्मिन् समये चम्पायां नगर्या कुमारनन्दी सुवर्णकारःखीलोलुपः परिवसति, स यत्र यत्र सुरूपा दारिका || पश्यति शृणोति वा तत्र पशमुवर्णशतानि दावा तां परिणयति, एवं तेन पञ्चशती पिण्डिता, तदा सईयालुरेकस्तम्भं प्रासाद कारयित्वा वाभिः समं हति- तस्य च मित्रं नागिलो नाम श्रमणोपासकः । अन्यदा च पञ्चशैलकद्वीपवास्तग्ये व्यन्तयाँ सुरपतिनियोगेन नन्दीश्वरवरद्वीपं यात्रायै प्रस्थिते, तयोख विद्युन्माली नाम पत्नशैलाधिपतिः (पतिः)स युतः, ते चिन्तयता-कञ्चित् ब्युहाहयावः य भावयोभा भवेदिति, नबर वजन्तीम्यां चम्पायां कुमारनन्दी पत्रमहि, लाशतपरिवारो छलन् दृष्टः, ताभ्यां चिन्तितम्-एष श्रीलोलुपः एनं व्युहाइपावः, तदा ताभ्यामुद्यानगताय आत्मा दतिः, Santan RAMMIDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | आर्यरक्षितस्वामिन: कथानकं (तन्मध्ये कुमारनन्दी सुवर्णकार, प्रभावती राज्ञि, उदायन राजानाम् अपि कथानक) ~595~ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत ताहे सो भणति-काओ तुम्भे ?, ताओ भणंति-देवयाओ, सो मुच्छिओ ताओ पत्थेइ, ताओ भणंति-जइ अम्हाहिं कज तो पंचसेलगं दीवं एजाहित्ति भणिऊणं उप्पतिता गयाओ, सो तासु मुच्छिओ राउले सुवण्णगं दाऊण पडहगं णीणेति| कुमारणंदि जो पंचसेलगं णेइ तस्स धणकोडिं देइ, थेरेण पडहओ वारिओ, वहणं कारियं, पत्थयणस्स भरियं, थेरो त दवं पुत्ताण दाऊण कुमारणंदिणा सह जाणवत्तेण पस्थिओ, जाहे दूरे समुद्देण गओ ताहे थेरेण भण्णइ-किंचिवि , पेच्छसि !, सो भणति-किंपि कालयं दीसइ, थेरो भणति-एस वडो समुद्दकूले पचयपादे जाओ, एयस्स हेण एवं वहणं | जाहिति, तो तुम अमूढो वडे विलग्गेज्जासि, ताहे पंचसेलगाओ भारंडपक्खी एहिंति, तेर्सि जुगलस्स तिन्नि पाया, ततो तेसु सुत्तेसु मझिल्ले पादे सुलग्गो होजाहि पडेण अप्पाणं बंधिउं, तो ते तं पंचसेलयं णेहिंति, अह तं वडं न विलग्ग|सि तो एयं वहण वलयामुहं पविसिहित्ति तत्व विणस्सिहिसि, एवं सो विलग्गो, णीओ य पक्खीहि, ताहे ताहिं वाणमंतरीहिं सूत्राक -850-540-562 दीप अनुक्रम 560-64 तवा स भणति के युवा ?, ते भणता-देवते, स मूछितः ते प्रार्थयते, ते भणतः-यथावाभ्यो कार्य तत् पचयीलं वीपमाया इति भणिरबोरपत्य गते, सतयोमूठितो राजकुले सुवर्ण दत्वा परहं निष्काशयति कुमारनन्दी यः पञ्चशैलं नयति तमै धनकोर्टी ददाति, स्थविरेण पटहो वारितः, प्रवहणं कारितं, पथ्यदनेन भृत, स्थविरस्तत् इन्य पुत्रेन्यो दत्वा कुमारनन्दिना सह यानपानेण प्रस्थितः, यदा दूरं समुद्रण गतस्तदा स्थविरेण भग्यते-किचिदपि प्रेक्षसे !,सत भणति-किमपि कृष्णं दृश्यते, स्थविरो भणति-एष बटः समुद्रकूले पर्वतमूले जातः, एतस्याधस्तात् एतत् प्रवहणं यास्यति, सत् त्वमसूडो बढे विळोः, तमा पनशैलात् भारण्डपक्षिण एष्यन्ति, तयोयुगलयोनयः पादाः, ततस्तेषु सुप्लेषु मध्य मे पादे सुलझो भवेः पटेनाश्मानं बड़ा, ततस्ते त्वां पाशैलं नेष्यन्ति, भय तं वटं न चिलगिध्यसि तदा एतत् प्रवहणं वलयामुखं प्रवेक्ष्यति इति तत्र विनक्ष्यसि, एवं स विलयः, नीतश्च पक्षिभिः, तदा ताभ्यां व्यन्तरीभ्यां Sandiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~596~ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], (४०) भाष्यं [१२३...] यवृत्तिः प्रत आवश्यक- हादिडो, रिद्धी य से दाइया, सो पगहिओ, ताहिं भणिओ-न एएण सरीरेण अम्हे भुंजामो, किंचिज लनपवेसादि करेहि, हारिभद्री जहा पंचसेलाधिपती होहिसि, तोऽहं किह जामि?, ताहिं करयलपुडेण नीओ सउजाणे छड्डिओ, ताहे लोगो आगंतूण ॥२९७॥ पुच्छइ, ताहे सो भणति-दिई सुयमणुभूयं जं वित्तं पंचसेलए दीवे' त्ति, ताहे मित्तेण वारिजंतोवि इंगिणिमरणेण मओ || विभागा | पंचसेलाहिवई जाओ, सहस्स निवेदो जाओ-भोगाण कजे किलिस्सइ, अम्हे जाणता कीस अच्छामोति पचइओ, कालं काऊण अक्षुए उववन्नो, ओहिणा तं पेच्छइ, अण्णया णंदिस्सरवरजत्ताए पलायंतस्स पडहो गले ओलइओ, ताहे वायतो गंदिस्सरं गओ, सहो आगओ तं पेच्छइ, सो तस्स तेयं असहमाणो पलायति, सो तेयं साहरेत्ता भणति-भो ममं जाणसि? सो भणति-को सक्कादी इंदे ण याणति !, ताहे तं सावगरूवं दसेइ, जाणाविओ य, ताहे संवेगमावन्नो भणति-संदिसह |इयाणि किं करेमि?, भणति-वद्धमाणसामिस्स पडिमं करेहि, ततो ते सम्मत्तबीयं होहित्ति, ताहे महाहिमवंताओ दृष्टः, अविश्वास दर्शिता, स प्रगृद्धः, ताभ्यां भणित:-नैतेन शरीरेणावां मुबहे, किधिबळनप्रवेशादि कुरु, यथा पञ्चौलाधिपतिर्भविष्यसि इति, तदहं कथं यामि, नाम्यां करतलपुटेन नीतः स्वोयाने त्यक्तः, तदा लोक भागल्य पृच्छति, तदा स भणति-'रई श्रुतमनुभूतं यदृत्त पनशैले द्वीपे इति, तदा मिश्रेण पार्यमाणोऽपि दमिनीमरणेन मुतः पञ्चशैलाधिपतिजातः, श्राद्धस्य निर्वेदो जाता, भोगानां कृते (कार्य) किश्यते, पर्ष जानानः किं तिष्ठाम | इति प्रबजितः, कालं कृत्वाऽच्युते उत्पन्नः, अवधिना तं पश्यति, अन्यदा नन्दीश्वरवरयात्रायां पलायमानस्य पटहो गले उचलगितः, तदा वादयन् नम्दीधरं गतः, ॥२९७॥ बाद आगतः तं प्रेक्षते, सतस्य तेजोऽसहमानः पहायते, स तेजःसंहृत्य भणति-मो मां जानासि ?, स भणति-का पाकादीन् इन्द्वान् न जानाति, तदा तत् | श्रावकरूपं दर्शयति, ज्ञापिता, तदा संवेगमापको भणति-संदिशत इदानी किं करोमि, भगति-वर्धमानस्वामिनः प्रतिमां कुरु, ततो सम्यक्रवचीजं भवि प्यति इति, तदा महाहिमवतो CASCACANCE सुत्रांक दीप अनुक्रम ASTRA JAMERAMhana Dinatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~597~ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सूत्राक गोसीसचंदणरुक्खं छेत्तूण तत्व पडिमं निवत्तेऊण कट्ठसंपुडे छुभित्ता आगओ भरवास, वाहणं पासइ समुद्दस्स मज्झे | उप्पाइएण छम्मासे भमंतं, ताहे तेण तं उप्पाइयं उवसामियं सा य खोडी दिन्ना, भणिओ य-देवाहिदेवस्स एत्थ पडिमा । कायवा, वीतभए उत्तारिया, उदायणो राया, तावसभत्तो, पभावती देवी, वणिएहिं कहितं-देवाहिदेवस्स पडिमा करेयवत्ति, ताहे इंदादीणं करेंति, परसू ण वहति, पभावतीए सुर्य, भणति-वद्धमाणसामी देवाहिदेवो तस्स कीरउ, जाहे| | आयं ताव पुवनिम्माया पडिमा, अंतेउरे चेइयघरं कारियं, पभावती पहाया तिसंझं अच्चेद, अण्णया देवी णच्चइ राया सावीणं वाएइ, सो देवीए सीसं न पेच्छइ, अद्धिती से जाया, तओ वीणावायणयं हत्थओ भई, देवी रुडा भणइ-किं दुहु न-11 च्चिय, निब्बंधे से सिह, सा भणति-किं मम?, सुचिरं सावयत्तणं अणुपालियं, अण्णया चेडिं पहाया भणति-पोत्ताई| आणेहि, ताए रत्ताणि आणीयाणि, रुहा अद्दाएण आया, जिणघरं पविसंतीए रत्तगाणि देसित्ति, आहया मया चेडी, गोशीपचन्दनवृक्षं वित्वा तत्र प्रतिमा निर्वत्यै काधसंपुरे शिष्या मागतो भरतवर्ष, प्रवहणं पश्यति समुद्स्य मध्ये शापातेन षण्मास्या अमत् , तदा | तेन तदुत्पातिकमुपशमितं सा च पेटा दत्ता, भणितश्च-देवाधिदेवस्थान प्रतिमा कर्त्तव्या, चीतभये उत्तारिता, उदायनो राजा, तापसभक्तः, प्रभावती देवी, वणिग्भिः कथित-देवाधिदेवस्थ प्रतिमा कर्त्तव्येति, तदेन्द्रादीनां कुर्वन्ति, परशुर्न वदति, प्रभावत्या श्रुतं, भणति-वर्धमानस्वामी देवाधिदेवस्तव क्रियता, यदा |माहतं सावरपूर्वनिर्मिता प्रतिमा, अन्तःपुरे चैत्यगृई कारितं, प्रभावती माता निसन्ध्यमर्चयति, अन्यदा देवी नृत्यति राजा वीणा वादयति, स देव्याः शीर्ष न प्रेक्षते, भतिस्तस्य जाता, ततो वीणावादनं हस्ताद् भ्रष्टं, देवी रुष्टा भणति-किं दुष्ट नृत्तं, निर्धन्धे तस्यै शिष्एं, सा भणति-किं मम ? सुचिरं श्रावकरवमनुपादलितम् , अन्यदा चेटौं माता भगति-पोतान्यानय, तया रकान्यानीतानि, रष्टा, आदर्शनाहता, जिनगृहं प्रविशन्त्या रक्तानि ददासीति, माइता मृता चेटी, दीप अनुक्रम - 25 Sandiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~598~ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) हारिभद्रीयवृत्तिा विभागः१ प्रत आवश्यकताहे चिंतेइ-मए वयं खंडियं, किं जीवितेणंति !, रायाणं आपुग्छइ-भत्तं पञ्चक्खामित्ति, निबंधे जइ परं बोधेसि, पडि- स्सुय, भत्तपञ्चक्खाणेण मया देवलोगं गया, जिणपडिमं देवदत्ता दासचेडी खुजा सुस्सूसति, देवो उदायणं संबोहेति, ॥२९॥ न संबुज्झति, सो य तावसभत्तो, ताहे देवो तावसरूवं करेइ, अमयफलाणि गहाथ सो आगओ, रण्णा आसाइयाणि, पुच्छिओ-कहिं एयाणि फलाणि?, नगरस्स अदूरे आसमो तहिं, तेण समं गओ, तेहिं पारदो, णासंतो वणसंडे साहवो| पेच्छा, तेहिं धम्मो कहिओ, संयुद्धो, देवो अत्ताणं दरिसेइ, आपुच्छित्ता गओ, जाव अत्थाणीए चेव अत्ताणं पेच्छइ, एवं सडो जाओ। इओ य गंधारओ सावगो सवाओ जम्मभूमीओ वंदित्ता वेयड्ढे कणगपडिमाज सुणेत्ता उववासेण ठिओ, जइ वा मओ दिवाओवा, देवयाए दंसियाओ, तुहा य सबकामियाणं गुलिगाणं सयं देति, ततो णीतो सुणेइ-वीतभए |जिणपडिमा गोसीसचंदणमई, तं वंदओ एइ, वंदति, तत्थ पडिभग्गो, देवदत्ताए पडियरिओ, तुडेण य से ताओ गुलियाओ सुत्रांक CASSOROSCR दीप अनुक्रम तदा चिन्तयति-मया ब्रतं खण्डितं, किं जीवितेनेति, राजानमापृष्ठति-भक्तं प्रत्याख्यामीति, निर्बन्ध यदि पर बोधयसि, प्रतिश्रुतं, भक्तप्रत्याख्यानेन मृता देवलोकं गता, जिनप्रतिमा देवदत्ता वासी कुम्जा शुश्रूषते, देव उदायनं संबोधयति, न संयुध्यते, स च तापसमक्तः, तदा देवस्तापसरूपं करोति, अमृतफलानि स गृहीत्वागतः, राज्ञा आस्वादितानि, पृष्टः-कतानि फलानि', नगरवारे आश्रमः तत्र, तेन समं गतः, तैः प्रारब्धः, नश्यन् बनसण्डे साधून पश्यति, धर्मः कथितः, संबुद्धः, देव आत्मानं दर्शयति, आपछप गतः, याबदास्थानिकायामेवात्मानं पश्यति, एवं श्राद्धो जातः । इतना गान्धारः श्रावकारी ||२९८॥ सर्वा जन्मभूमीवन्दिवा बताये कनकमतिमाः श्रुत्वोपचासेन स्थितः, यदि वा मृतो दृष्टा वा, देवतया दर्शिताः, तुष्टा च सर्वकामिताना गुटिकानां शतं ददाति, ततो निर्गच्छन् शृणोति-वीतभये जिनप्रतिमा गोपीचन्दनमयी, न पन्दितुमायाति, वन्दते, तब प्रतिभमः, देवदत्तया प्रतिचरितः, तुष्टेन च तस्यै ता गुटिका ROMAnmoraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~599~ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत दिण्णाओ, सो पञ्चतिओ । अण्णया ताए चिंतिय-मम कणगसरिसो वण्णो भवउत्ति, ततो जायरूववण्णा णवकणगसरिस-| रूवा जाया, पुणोऽवि चिंतेइ-भोगे भुंजामि, एस राया ताव मम पिया, अण्णे य गोहा, ताहे पजोयं रोएइ, तं मण-all सिकाउंगलियं खाइ, तस्सवि देवयाए कहियं, एरिसी स्ववतित्ति, तेण सुवष्णगुलियाए दूओ पेसिओ, सा भणति पेच्छामि ताव तुम, सोऽणलगिरिणा रति आगओ, दिट्ठो ताए, अभिरुचिओ य, सा भणति-जइ पडिम नेसि तो जामि, 18ताहे पडिमा नस्थिति रतिं यसिऊण पडिगओ, अन्नं जिणपडिमरूवं काउमागओ, तत्थ द्वाणे ठवेत्ता जियसामि सवण्ण-II गुलियं च गहाय उज्जेणिं पडिगओ, तत्थ नलगिरिणा मुत्तपुरिसाणि मुक्काणि, तेण गंधेण हत्थी उम्मत्ता. तेच दिस गंधोद एइ, जाव पलोइयं, णलगिरिस्स पदं दिई, किंनिमित्तमागओत्ति, जाव चेडी न दीसइ, राया भणति-चेडी णीया, Xणाम पडिमं पलोएह, नवरं अच्छइत्ति निवेइयं, ततो राया अचणवेलाए आगओ, पेच्छइ पडिमाए पुष्पाणि मिलाणाणि,12 सूत्राक दीप अनुक्रम दचाः, स मनजितः । अम्बदा तथा चिन्तितं-मम कमकसदृशो वर्णो भवविति, ततो जातरूपवर्णा नवकमकसदशरूपा जाता, पुनरपि चिन्तयति| भोगान् भुजे, एष राजा तावन्मम पिता, मन्ये चारक्षा: (गोधाः), तदा प्रयोत रोषयति, तं मनसिकृत्य गुटिका खादति, तस्यापि देवतया कथितम्| इंदशी रूपवतीति, तेन सुवर्णगुटिकायै दूतः प्रेषितः, सा भणति पश्यामि तावावां, सोऽनलगिरिणा रात्रावागतः, दृष्टस्तया, अभिरुचिता, सा भणति यदि प्रतिमा नयसि नहिं यामि, तदा प्रतिमा नास्तीति रानाचुपित्वा प्रतिगतः, अभ्यत् जिनप्रतिमारूपं कृत्वाऽऽगतः, तन्त्र स्थाने स्थापयित्वा जी वस्स्वामिनं सुवर्णगुलिकां च गृहीत्वा उज्जयिनी प्रतिगतः, तन्नानलगिरिणा मूत्रपुरीषाणि मुक्तानि, तेन गन्धेन हस्तिन उन्मत्ताः, तां च दिशं गन्धो याति, यावत्प्रलोकितम् | | अनलगिरेः पदं रटं, किंनिमित्तमागत इति, यावच्चेटी न दृश्यते, राजा भगति-बेटी नीता, नाम प्रतिमा प्रकोकपथ, नवरं तिष्ठतीति निवेदितं, ततो राजार्चन| वेळायामागतः, पश्यति प्रतिमायाः पुष्पाणि म्लानानि, AREaintinue ACMiDramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~600~ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत आवश्यक ततो निवणतेण नार्य पडिरूवगन्ति, हरिया पडिमा, ततोऽणेण पजोयस्त दूओ विसजिओ, ण मम चेडीए कजं, पडिमा हारिभद्री॥२९९|| विसजेहि, सो ण देइ, ताहे पहाविओ जेठमासे दसहिं राइहिं समं, उत्तरंताण य मरु खंधाधारो तिसाए मरिउमारद्धो, यवृत्तिः करण्णो निवेड्यं, ततोऽणेण पभावती चिंतिता, आगया, तीए तिन्नि पोखराणि कयाणि, अग्गिमस्स मज्झिमस्स पच्छि-विभागः१ मस्स, ताहे आसत्यो, गओ उजेणिं, भणिओ य रण्णा-किं लोगेण मारितेण?,तुझं मज्झ य जुद्धं भवतु, अस्सरहहस्थि पाएहिं वा जेण रुच्चइ, ताहे पज्जोओ भणति-रहेहिं जुज्झामो, ताहे णलगिरिणा पडिकप्पितेणागओ, राया रहेण, ततो। दरण्णा भणिओ-अहो असच्चसंधोऽसि, तहावि ते नत्थि मोक्खो, ततोऽणेण रहो मंडलीए दिन्नो, हत्थी वेगेण पच्छओ लग्गो, रहेण जिओ, जं जं पायं उक्खिबइ तत्थ तत्थ सरे छुभइ, जाव हत्थी पडिओ, उत्तरन्तो बद्धो, निडाले य से अंको कओ-दासीपतिओ उदायणरण्णो, पच्छा णिययणगर पहाविओ, पडिमा नेच्छइ, अंतरा वासेण उबद्धो ठिओ, सूत्राक दीप अनुक्रम । ततो निर्णयता ज्ञातं प्रतिरूपकमिति, हत्ता प्रतिमा, ततोऽनेन प्रयोताय दूतो विसृष्टः, न मम घेव्या कार्य, प्रतिमा विसर्जय, स न ददाति, तदा। प्रधावितो ज्येष्ठमासे दशभिः राजभिः समम् , उत्तरताच मरूं स्कन्धावारस्तृषा मर्तुमारब्धः, राज्ञे निवेदितं, ततोऽनेन प्रभावती चिन्तिता, आगता, तया ब्रीणि पुष्कराणि कृतानि, मनस्य मध्यस्य पाश्चास्यसम, तदा विश्वस्तः, गत उजयिनी, भणितच राज्ञा-किं लोकेन मारितेन ?, तब मम च युदं भवतु, मन्त्ररथहतिपादैर्वा वेन रोचते, तदा प्रद्योतो भणति-स्थैर्युध्यावहे, तदाऽनलगिरिणा प्रतिकल्पितेनागतो, राजा रथेन, ततो राज्ञा भणितः अहो असत्यसन्धोऽसि, तथापि ते नास्ति मोक्षः, ततोऽनेन स्थो मण्डल्या दत्तः, हस्ती वेगेन पृष्ठतो लमः, रथेन जितः, यं यं पादमुरिक्षपति तन्त्र तत्र शरान क्षिपति, यावद्धस्ती पतितः, अवतरन् बद्धो, कळाटे च तस्याकः कृतः-दासीपतिः उदायनराजस्य, पश्चालिज नगरं प्रधावितः, प्रतिमा नेच्छति, अन्तरा वर्षयाऽवबद्धः स्थितः, 15646452-25% ॥२९॥ Gaindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~601~ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत ताहे उक्खंदभएण दसवि रायाणो धूलीपागारे करेत्ता ठिया, जंच राया जेमेइतं च पजोयस्सवि दिजइ, नवरं पजोसवणयाए । सूएण पुच्छिओ-कि अज जेमेसि ?, ताहे सो चिंतेइ-मारिजामि, ताहे पुच्छइ-किं अज पुच्छिज्जामि ?, सो भणति-अज पज्जोसवणा राया उवासिओ,सो भणति अहंपि उववासिओ, ममविमायापियाणि संजयाणि, ण याणियं मया जहा-अज पज्जो-18 सवणत्ति, रण्णो कहियं, राया भणति-जाणामि जहा सो धुत्तो, किं पुण मम एयंमि बद्धलए पज्जोसवणा चेव ण सुज्झइ, ताहे मुक्को खामिओ य, पट्टो य सोवण्णो ताणक्खराण छायणनिमित्तं बद्धो, सो य से विसओ दिन्नो, तप्पभिति पट्टबद्धया रायाणो जाया, पुर्व मउडबद्धा आसि, वत्ते वासारत्ते गतो राया, तत्थ जो वणियवग्गो आगतो सो तहिं चेव ठिओ, ताहे तं INIदसपुरं जाय, एवं दसपुर उप्पणं । तत्थ उप्पण्णा रक्खियज्जा।सो य रक्खिओ जंपिया से जाणति तं तत्थेव अधिज्जिओ.IN पच्छा घरे ण तीरइ पढिउंति गतो पाडलिपुत्तं, तत्थ चत्तारि वेदे संगोवंगे अधीओ सभत्तपारायणो साखापारओ जाओ, सूत्राक दीप अनुक्रम तदा भवस्कन्दभयेन दशापि राजानः भूकिपाकारान् कृत्वा स्थिताः, यत्र राजा जेमति तच प्रद्योतायापि दीयते, नबरं पर्युषणायां सूदेन पृष्टः-किमद्य जेमसि।, तदा स चिन्तयति-मार्य, सदा पृच्छति-किमद्य पृच्छये, स भणति-अध पर्युषणा, राजोपोषितः, स भणति-अहमप्युपोषितः, ममापि मातापित्तरी अयसी, न शातं मया पथा-अथ पर्युषणेति, राजे कथितं, राजा भणति-जानामि यथा पुष पूनः, किं पुनः ममैतमिन् बढे पर्युषणैव न शुध्यति, तदा मुक्तः | क्षमितश्च, पद्दश्च सौवर्णस्तेषामक्षराणां छादनानिमित्तं बद्धः, स च विषयस्तस्मै दत्तः, तत्प्रभृति बद्धपदा राजानों जाताः, पूर्व मुकुटबद्धा आसन् , मृत्ते वर्षाराने ६गतो राजा, तन यो वाणिग्वर्ग आगतः स तत्रैव स्थितः, तदा तद्दशपुरं जातम्, एवं दशपुरमुसनम् । तत्रोत्पना रक्षिताः । स च रक्षितो यस्थिता तख जानाति तत्तत्रैवाधीतवान्, पश्चाद्दे न तीर्यते पठितुमिति गतः पाटलीपुत्रं, तत्र चतुरो वेदान् साहोपात्रानधीतवान् समस्त पारायणः शाखापारगो जातः Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: आर्य रक्षितस्य प्रबन्धः ~602~ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) भावश्यक ॥३०॥ प्रत कि बहुणा ?, चोदस विजाठाणाणि गहियाणि णेण, ताहे आगतो दसपुरं, ते य रायकुलसेवगा णजति रायकुले, तेणं हारिभद्रीसंविदितं रणो कयं जहा एमि, ताहे ऊसियपडार्ग नगरं कयं, राया सयमेव अम्मोगतियाए निग्गओ, दिहो सकारिओयवृत्तिः अग्गाहारो य से दिनो, एवं सो नगरेण सण अहिनंदितो हत्धिखंधवरगओ अपणो घरं पत्तो, तत्थवि वाहिरभंत-विभागा१ रिया परिसा आढाति, तंपि चंदणकलसादिसोभियं, तत्थ बाहिरियाए उवठ्ठाणसालाए ठिओ, लोयस्स अग्धं पडिच्छइ, ताहे वयंसगा मित्ता यसबे आगए पेच्छइ, दिठो परीयणेण यजणेण अग्घेण पजेण य पूडओ,घरं च से दुपयचउप्पयहिरपणसुव-18 ण्णादिणा भरियं, ताहे चिंतेइ-अंमं न पेच्छामि, ताहे घरं अतियओ, मायरं अभिवादेइ, ताए भण्णाइ-सागयं पुत्तत्ति?, पुणरवि मज्झत्था चेव अच्छइ, सो भणति-किं न अम्मो! तुज्झ तुट्ठी, जेण मए एतेण णगरं विम्हियं चोद्दसण्हं विजाठाणाणं आगमे कए, सा भणति-कहं पुत्त! मम तुट्ठी भविस्सति?, जेण तुर्म बहूणं सत्तार्णवहकारणं अधिजिउमागओ, सुत्रांक दीप अनुक्रम RSS RSSEX किंबहुना , चतुर्दषा विद्यास्थानानि गृहीताम्यनेन, तदाऽजातो दशपुर, ते च राजकुलसे वका ज्ञायन्ते राजकुले, तेन संविदितं राज्ञः कृतं यथगि, तदो ितपताकं नगरं कृतं, राजा स्वयमेव अभिमुस्रो निर्गतः, दृष्टः सत्कारितः अग्रासनं च तस्मै दत्तम्, एवं स नगरेण सर्वेणाभिनन्धमानो वरहस्तिस्कन्धगत आत्मनो गृह प्राप्तः, तत्रापि बाझाम्यन्तरिका पर्षदाद्रियते, तदपि चन्दनक लशादिशोभितं, तब बाझायामास्थानशालायां स्थितः, लोकस्या) प्रतीच्छति, सदा | क्यस्या मित्राणि च सर्वानागतान् पश्यति, दृष्टः परिजनेन च जनेन मर्चेण पायेन च पूजितः, गृहं च तख द्विपदचतुष्पदहिरण्यसुवर्णा दिना भृतं, तदा चिस्तयति-अम्बां न पश्यामि, तदा गृहमतिगतो, मातरमभिवादयते, तया भण्यते-स्वागतं पुत्रेति, पुनरपि मध्यस्वैव तिष्ठति स भणति-किं नाम्ब ! तव नुधिः, येम मयाऽऽगकता मगरं विस्मितं चतुर्दशानां विद्यास्थानानामागमे कृते, सा भणति-कथं पुत्र ! मम तुष्टिभवेत् 1, बेन व पर्ना सस्वानां | वधकारणमधील्यागतो. ॥३०॥ JAIMER Liandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~603~ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत जेण संसारो वहिजइ तेण कह तुस्सामि ?, किं तुम दिडीवायं पढिउमागओ, पच्छा सो चिंतेइ-केत्तिओ वा सो होहिति?, जामि पढामि, जेण माउए तुही भवति, किं मम लोगेण तोसिएणं ?, ताहे भणति-अम्मो ! कहिं सो दिहिविवाओ, सा भणति-साहूणं दिठिवाओ, ताहे सोनामस्स अक्खरत्थं चिंतेउमारद्धो-दृष्टीनां वादो दृष्टिवादा,ताहे सो चिंतेइ नाम चेव सुंदरं, जइ कोइ अज्झावेइ तो अज्झामि, मायावि तोसिया भवउत्ति, ताहे भणइ-कहिं ते दिडिवादजाणंतगा?, सा भणइ-अम्ह उच्छुघरे तोसलिपुत्ता नाम आयरिया, सो भणइ-कलं अज्झामि, मा तुझे उस्सुगा होही, ताहे सो रति दिठिवायणामत्थं चिन्ततो न चेव सुत्तो, बितियदिवसे अप्पभाए चेव पठिओ, तस्स य पितिमित्तो बंभणो उपनगरगामे वसइ, तेण हिज्जो न दिहओ, अज्ज पेच्छामि च्छणंति उच्छुलहीओ गहाय एति नव पडिपुण्णाओ एगं च खंडं, इमो य नीइ, सो पत्तो, को तुम?, अजरक्खिओऽहं, ताहे सो तुडो उवगृहइ, सागयं ?, अहं तुझे दडुमागओ, 5-%85%25%95% सूत्राक दीप अनुक्रम SC-RRC-RLS येन संसारो वध्यते तेन कथं तुष्यामि !, कि दृष्टिवाद पठित्वाऽऽयतः, पचास चिन्तयति-कियान्वा स भविष्यति', यामि पठामि, वेन मातुसुष्भिवति, किंमम लोकेन तोपितेन तदा भणति-अम्ब ! कस दृष्टिबादः, सा भणति-साधूना टिवादः, तदास नामोऽक्षरार्थ (पदार्थ) चिम्तयितुमारब्धः, तदा स चिन्तयति-नामैव सुन्दरं, यदि कोऽप्यध्यापयति तदाऽधीये, माताऽपि तोपिता भवविति, तदा भणति-क ते दृष्टिवादं जानानाः !, सा भणति-समाकमिक्षुगृहे सोसलिपुत्रा नामाचार्याः, स भणति-कल्येऽध्येष्ये,मोत्सुकावं भूतदास रात्री दृष्टिवादनामा चिन्तयन् नैव सुप्तः, द्वितीय दि. बसेऽप्रभात एवं प्रस्थितः, तस्य च पितृमित्रं माह्मण अपनगरमामे वसति, तेन झोन एटः, अब प्रेक्षे क्षणमिति चयष्टीचीत्वाऽध्याति मप प्रतिपूर्णा एकं च। खण्डम् । अयं च निर्गच्छति, स प्रासः, कस्त्वम्, मार्यरक्षितोऽई, तदा स तुष्ट उपगृहते, स्वागतम्, अहं युष्मान नष्टमागतः, Mandinrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~604 ~ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥३०॥ प्रत सुत्रांक तोहे सो भणति-अतीहि, अहं सरीरचिंताए जामि, एयाओ य उच्छुलट्ठीओ अम्माए पणामिजासि भणिजसु य-दिहो हारिभद्रीमए अजरक्खितो, अहमेव पढम दिहो, सा तुट्ठा चिंतेइ-मम पुत्तेण सुंदरं मंगलं दिलं, नव पुवा घेत्तया खंडं च, सोऽवि विभागा१ चिंतेइ-मए दिष्टिवादरस नव अंगाणि अज्झयणाणि वा घेत्तवाणि, दसमं न य सबं, ताहे गतो उच्छुघरे, तस्थ चिंतेइ--| किह एमेव अतीमि ! गोहो जहा अयाणतो, जो एएसिं सावगो भविस्सइ तेण सम पविसामि, एगपासे अच्छइ अल्लीणो, तत्थ य डुरो नाम सावओ, सो सरीरचिंतं काऊण पडिस्सयं बच्चड, ताहे तेण दरहिएण तिन्नि निसीहिआओ कताओ. एवं सो इरियादी ढहरेणं सरेणं करेइ, सो पुण मेहावी तं अवधारेइ, सोऽवि तेणेव कमेण उवगतो, सबेसिं साह्वणं वंद|णयं कयं, सो सावगो न वंदितो, ताहे आयरिएहिं नातं-एस णवसहो, पच्छा पुच्छर-कतो धम्माहिगमो ?, तेण भणियएयस्स सावगस्स मूलाओ, साहहिं कहियं-जहेस सड्डीए तणओ जो सो कलं हस्थिखंघेण अतिणीतो, कहंति, ताहे सर्व तदा स भणति-यायाः, अहं शारीरचिन्ताये यामि,एताप्रेक्षुयष्टयो माने दया भणेश-दष्टो मयाऽऽरक्षितः, अहमेव प्रथम दृष्टः, सा तुष्टा चिम्तयतिमम पुत्रेण सुन्दर मा टं, नव पूर्वाणि माहीतम्यानि खण्द्धं च, सोऽपि चिन्तयति-मया दृष्टिवादस्य नवानानि अध्ययनानि वा ग्रहीतव्यानि, दशम चन सर्वे, तदा गत इक्षुगृहे, तन्त्र चिन्तयत्ति-कथमेवमेव प्रविशामि प्राकृतो यथाऽजानानः, 4 एतेषां श्रावको भविष्यति तेन समं प्रविशामि, एकवा तिष्ठति बालीनः, तन्त्र च दगुरो नाम शावकः, स शरीरचितो कृत्या प्रतिवर्ष ब्रजति, तदा तेन दरस्थितेन तिम्रो नषेधिपः कृताः, एवं सईयादि हरेणारा (महता) खरेण करोति, स पुनर्मेधावी सवधारयति, सोऽपि तेनैव क्रमेणोपगतः, सर्वेषां साधूनां चन्दनं कृतं, स श्रावको न बन्दितः, तदा आचार्य ज्ञातम्-एष नवश्राद्धः, पञ्चास्पृच्छति-कुतो धर्माधिगमः, तेन भणितम्-पतस्य श्रावकस्य मूला, साधुभिः कथितं-यथैष श्राकासनयः यः स करये इस्तिस्कन्धेन प्रवेशितः (इति), कथमिति, तदा सर्व दीप अनुक्रम andinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~605~ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७७६], भाष्यं [१२३...] सांहेर, अहं दिद्विवातं अज्झाइडं तुज्झ पासं आगतो, आयरिया भणंति-अम्ह दिक्खा अन्भुवगमेण अज्झाइजर, भणइपद्ययामि, सोवि परिवाडीए अज्झाइज्जइ, एवं होउ, परिवाडीए अज्झामि किं तु मम एत्थ न जाइ पबइजं, अण्णस्थ वच्चामो, एस राया ममाणुरत्तो, अण्णो य लोगो, पच्छा ममं बलावि नेज्जा, तम्हा अण्णहिं वच्चामो, ताहे तं गहाय अण्णत्थ गता, एस पढमा सेहनिप्फेडिया, एवं तेण अचिरेण कालेण एकारस अंगाणि अहिज्जियाणि, जो दिठ्ठिवादो तोसलिपुत्ताणं आयरियाणं सोऽवि अणेण गहितो, तत्थ य अजवइरा सुवंति जुगप्पहाणा, तेसिं दिट्टिवादो बहुओ अस्थि, ताहे सो तत्थ बच्चइ उज्जेणि मज्झेणं, तत्थ भद्दगुत्ताण थेराणं अंतियं उवगतो, तेहिंदि अणुब्रूहितो- घण्णो कतत्थो यत्ति, अहं संलेहियसरीरो, नत्थि ममं निजामओ, तुमं निज्जामओ होहित्ति, तेण तहन्ति पडिस्सुयं, तेहिं कालं करेंतेहिं भण्णइ मा वइरसामिणा समं अच्छिज्जासि, वीसुं पडिस्सए ठितो पढेज्जासि, जो तेहिं समं एगमवि रतिं संवसइ १ कथयति, अहं दृष्टिवादमध्येतुं तव पार्श्वमागतः, आचार्या भणन्ति अस्माकं दीक्षाया अभ्युपगमेन अध्याप्यते, भणति प्रजामि, सोऽपि परिपाठ्याअध्याध्यते, एवं भवतु, परिपाव्याऽधीये, किन्तु ममात्र जायते प्रतिम, अन्यत्र मजामः, एष राजा मय्यनुरक्तः, अन्यश्च लोकः, पश्चात् मां बलादपि नयेत् तस्मादन्यत्र व्रजामः, तदा तं गृहीत्वा अन्यन्त्र गताः, एषा प्रथमा शिष्यनिस्फेटिका, एवं तेनाचिरेण कालेनैकादशाङ्गानि अधीतानि, यो दृष्टिवादस्तोस लिपुत्राणामाचार्याणां सोऽप्यनेन गृहीतः, तदा चार्यवज्राः श्रूयन्ते युनप्रधानाः तेपां (पार्श्वे ) दृष्टिवादो बहुरस्ति, तदा स तत्र वजति उज्जयिनीमध्येन तत्र भद्रगुप्तानां स्थविराणामन्तिकमुपगतः, तैरप्यनुहितः- धन्यः कृतार्थश्चेति, अहं संलिखितशरीरः, नास्ति मम निर्वापकः, एवं निर्यापको भवेति, तेन तथेति प्रतिश्रुतं तैः कालं कुर्वद्भिः भण्यले मा वज्रखामिना समं स्वाः विश्व प्रतिभये स्थितः पठे, यस्तैः सममेकामपि रात्रि बसति For Party Jibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~909~ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सुत्रांक रसो तेहिं अणु मरइ, तेण य पडिस्सुतं, कालगए गतो वइरसामिसगासं, बाहिं ठितो, तेऽवि सुविणयं पेच्छंति, तेसिं पुणहरिभदी. आवश्यक थोवमवसिढ़ जातं, तेहिं वि तहेव परिणामियं, आगतो, पुच्छितो-कत्तो!, तोसलिपुत्ताणं पासातो, अजरक्खितो, यवृत्तिः ॥३०॥ आम, साहु, सागतं, कहिं ठितो, बाहि, ताहे आयरिया भणति-बाहिंठियाणं किंजाइ अज्झाइ, किं तुम न याणसि, विभागः१ ताहे सो भणइ-खमासमणेहिं अहं भद्दगुत्तेहि थेरेहिं भणितो-घाहिं ठाएजासि, ताहे उवउजित्ता जाणंति-सुंदरं, न निकारणेण भणति आयरिया, अच्छह, ताहे अज्झाइ पवत्तो, अचिरेण कालेण नव पुवा अहिजिया, दसमं आढत्तो घेत्तुं, ताहे अजवइरा भणंति-जविताई करेहि, एतं परिकंमं एयस्स, ताणि य सुहुमाणि गाढताणि य, चउबीसं जवियाणि गहियाणि अणेण, सोऽवि ताव अज्झाइ । इतो य से मायापियरं सोगेण गहियं-उज्जोयं करिस्सामि अंधकारतरं कयं, ताहे ताणि य अपाहिति, तहवि न एइ, ततो डहरतो से भाता फग्गुरक्खिओ, सो पट्टविओ, एहि सबाणिऽवि स ताननु वियते, सेन च प्रतिभुतं, कालगते गतो वनस्वामिसकाश, बहिःस्थितः, तेऽपि स्वमं पश्यन्ति, तेषां पुनः लोकमवशिष्ट जातं (स्थितं), तैरपि। तथैव परिणामितम्, आगतः, पृष्टः कुतः, सोसलिपुत्राणां पार्थात, आर्यरक्षितः, ओं, साधु, स्वागतम्, कस्थितः, बहिः, सदा भाचार्या भणन्तिबदिःस्थिताना किंजायतेऽध्ये (शक्यतेऽध्यापयितुं), किंवं न जानीये, तदास भण ति-क्षमाश्रमणैरह भद्रगुसैः स्थविर्भणित:-पहिः तिः, वदोषयुध्य जानन्ति-सुन्दरं, न निष्कारणं भणन्याचार्याः, तिष्ठ, सदाऽध्येतुं प्रवृत्तः, अचिरेण कालेन नव पूर्वाण्यधीतानि, दशममारतो ग्रहीतुं, तवा आर्यवत्रा का॥३०२॥ भणन्ति-यावकानि कुरु, एतत् परिकमैतस्य, तानि च सूक्ष्माणि गावान्तानि च, चतुविशतिर्यविकानि गृहीतानि अनेन, सोऽपि तावदध्येति । इतश्च तस्य मातापितरौ कोकेन गृहीती-उद्योतं करिष्यामि अन्धकास्तरं कृतं, तदा तौ च सं दिषातः, तथापि नैति, नतो लघुतस्य भासा फल्गुरक्षितः, स प्रस्थापितः, एहि सर्वेऽपि दीप अनुक्रम JAMERatoon laingiata.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~607~ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत पवयंति जइ वच्चन, सो तस्स न पत्तियइ, जइ ताणि पवयंति तो तुम पढमं पञ्चजाहि, सो पचइओ, अग्झाइओ य, अज्ज-14 रक्खितो जविएसु अतीव धोलिओ पुच्छइ-भगवं! दसमस्स पुवस्स कि सेसं १, तत्थ विंदुसमुद्दसरिसवमंदरेहिं दिखैतं | करेंति, बिंदुमेत्तं गतं ते समुद्दो अच्छइ, ताहे सो विसादमावण्णो, कत्तो मम सत्ती एयस्स पारं गंतुं ?, ताहे आपुच्छइभगवमहं वच्चामि ?, एस मम भाया आगतो, ते भणंति-अज्झाहि ताव, एवं सो निश्चमेव आपुच्छइ, तओ अज्जवइरा | उवउत्ता-किं ममातो चेव एयं वोच्छिजंतर्ग, ताहे अणेण नातं-जहा मम थोवं आउं, न य पुणो एस एहिति, अतो महिंतो वोच्छिजिहिति दसमपुर्व, ततोऽणेण विसजिओ, पढिओ दसपुरं गतो। वइरसामीऽवि दक्षिणावहे विहरंति.IN तेसिं सिंभाधियं जातं, ततोऽणेहिं साहू भणिया-ममारिहं सुंठि आणेह, तेहिं आणीया, सा तेण कण्णे ठविता, जेमेंतो आसादेहामित्ति, तं च पम्हुई, ताहे बियाले आवस्सयं करेंतस्स मुहपोत्तियाए चालियं पडियं, तेसिं उवओगो जातो सूत्राक दीप अनुक्रम XRACKG नशान्ति यदि प्रजसि, स तख न प्रवेति, यदि ते प्रवजम्ति तदा त्वं प्रथम प्रव्रज, स प्रश्नजितः, अधीता, आर्थरक्षितो यविकेषु अतीव पूर्णितः पृच्छतिभगवन् ! दशमस्य पूर्व विशेष, तत्र बिन्दुसमुद्रसर्पपमन्दरैः दृष्टान् कुर्वन्ति, विन्दुमात्रं गतं तव समुद्रतिष्ठति, तदा स विषादमापनः, कुतो मम शक्तिः एतस्य पार गर्नु , तदा भारछति-भगवन् ! अहं ब्रजामि, एष मम भ्राता आगतः, ते भगन्ति-अधीव तावत्, एवं स नित्यमेव आपृच्छति, तत मार्यवना उपयुक्ताः-किंमदेवतत् म्युचरस्यति , तदा अनेन ज्ञात-पथा ममायुः स्तोक, न च पुनरेष आयास्थति, भत्तो मत्यु च्छेस्पति दामं पूर्व, ततोऽनेन विसृष्टः, प्रस्थितो दशपुरं गतः । वनस्वाम्यपि दक्षिणापये विहरन्ति, तेषां श्लेष्माधिक्यं जातं, ततोऽमीभिः साथयो भणिता:-ममाही सुण्ठीमानयत, तैरानीता, सा तैः करें स्थापिता, जेमन् मास्वादयिष्यामीति, तच्च विस्मृतं, तदा विकाले आवश्यक कुर्वतो मुखपोतिकमा चालिता पतिता, तेषामुपयोगो जात: janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~608~ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) ८ आवश्यक ॥३०॥ प्रत MEROSAROCKS अहो पमत्तो जातोऽहं, पमत्तस्स य नत्थि संजमो, त सेयं खलु मे भत्तं पञ्चक्खापत्तए, एवं संपेहेति, दुभिक्खं च बार-1 हारिभद्रीसवरिसियं जायं, सबतो समंता छिन्ना पंथा, निराधारं जाय, ताहे वइरसामी विजाए आहडपिंडं आणेऊण पवइयाण ४ यवृत्तिः विभागा१ देइ, भणइ य-एवं बारसवरिसे भोत्त, भिक्खा य नस्थि, जइ जाणह उस्सरंति संजमगुणा तो भुंजह, अह जाणहनवि तो भत्तं पचक्खामो, ताहे भणंति-किं एरिसेण विजापिंडेण भुत्तेणं ?, भत्तं पञ्चक्खामो, आयरिएहि य पुषमेव | | नाऊण सिस्सो वइरसेणो नाम पेसणेण पवियओ, भणियओ य-जाहे तुमं सतसहस्सनिष्फणं भिक्खं लहिहिसि ताहे | जाणिज्जासि-जहा नई दुभिक्खंति । तओ वइरसामी समणगणपरिवारिओ एगं यषयं विलग्गिउमारद्धो, एस्थ भत्तं पञ्चक्खामोत्ति । एगो य तस्थ सुडुओ साहूहिं बुच्चइ-तुम बच्च, सो नेच्छइ, ताहे सो एगमि गामे तेहिं विमोहिओ, पच्छा गिरि विलग्गा, खुडतो ताण य गइमग्गेण गंतूण मा तेसिं असमाही होउत्ति तस्सेव हेठा सिलातले पाओवगतो. CO-- सुत्रांक दीप अनुक्रम अहो प्रमत्तो जातोऽहं, प्रमत्तस्य च नामित संयमः, तपोवः खलु मम भक्तं प्रत्यास्थातुम् , पूर्व संप्रेक्षते, दुर्भिक्षं च द्वादशवार्षिकं जातं, सर्वतः समन्तात् | छिन्नाः पन्थानः, निराधारं जातं, तदा वज्रस्वामी विद्याहृतं पिण्डमानीय प्रमजितेभ्यो ददाति, भणति च-एवं द्वादश वर्षाणि भोक्तव्यं, भिक्षा च नास्ति, यदि जानीय-उत्सर्पन्ति संयमगुणास्तदा भुध्वं,अथ जानीय नैवतदा भक्त प्रत्याख्यामः, तदा भणन्ति-किमीदशेन विद्यापिण्डेन भुक्तेन !, भक्तं प्रत्याश्यामः, आचार्यैश्च पूर्वमेव ज्ञात्वा शिष्यो वनसेनो नाम प्रेषया प्रस्थापितः, भणितक-यदा वं शतसहसनिष्पना भिक्षा लभेयास्तदा जानीयाः-यथा नई दुर्भिक्षमिति । ततो बन्नस्वामी श्रमणगणपरिवृत एकं पर्वतं विलगितुमारब्धः, मन्त्र भकं प्रत्यास्याम इति । एकश्च तत्र क्षुल्लकः साधुभिरुश्यते-वं ब्रज, स बेच्छति, तदा स एकस्मिन् | प्रामे तैर्विमोहितः, पश्चात् गिरि बिलमाः, क्षुद्धकः तेषां च गतिमार्गेण गत्वा मा तेषामसमाधिभूरिति तस्वैवाधस्तात् शिलातले काबपोपगतः, ॥३०॥ meaninraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~609~ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [ ७७६ ], भाष्यं [ १२३...] अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], तितो सो उण्हेण नवनीतो जहा विरातो अचिरेण चैव कालगतो, देवेहिं महिमा कया, ताहे आयरिया भणति खुड्डुएण साहिओ अड्डो, ततो ते साहूणो दुगुणाणियसद्धासंवेगा भणंति-जइ ताव बालएण होतएण साहिओ अहो तो किं अम्हे सुंदरतरं करेमो ?, तत्थ य देवया पडिणीया, ते साहूणो सावियारुषेण भत्तपाणेण निमंतेइ, अज्ज भे पारणयं, पारेह, ताहे आयरिएहिं नायं जहा अचियत्तोग्गहोत्ति, तत्थ य अब्भासे अण्णो गिरी तं गया, तत्थ देवताए काउस्सग्गो कतो, सा आगंतूण भणइ-अहो मम अणुग्गहो, अच्छह, तत्थ समाहीए कालगता, ततो इंदेण रहेण वंदिया पदाहिणीकरितेण, तरुवरतणगहणादीणि पासहाणि कताणि, ताणि अज्जवि तहेव संति, तस्स य पछयस्त रहावत्तोत्ति नामं जायं । तंमि य भगवंते अद्धनारायसंघयणं दस पुवाणि य वोच्छिण्णा । सो य वइरसेणो जो पेसिओ पेसणेण सो भमंतो सोपारयं पत्तो, तत्थ य साबिया अभिगता ईसरी, सा चिंतेइ किह जीविहामो ? पडिकओ, नत्थि, ताहे सयसहस्सेण तद्दिवसं भत्तं १ ततः स उच्णेन यथा नवनीतं विलीनोऽचिरेण कालेनैव कालगतः, देवैर्महिमा कृतः, तदा आचार्या भणन्ति शुलकेन साधितोऽर्थः ततस्ते साधवो द्विगुणानीत श्रद्धासंवेगा भणन्ति यदि बालकेन सता तावत् साधितोऽर्थः तदा किं चयं सुन्दरतरं न कुर्मः, 'च देवता प्रत्यनीका, तान् साधून् श्राविकारूपेण भक्तपानेन निमन्त्रयति, अद्य भवतां पारणक, पास्यत, तदा आचार्यशतं यथा अप्रीतिकावग्रह इति, तत्र जाभ्यासेऽभ्यो गिरितं गताः, तत्र देवतायाः कायोत्सर्गः कृतः साऽऽगत्य भणति अहो ममानुग्रहः तिष्ठत तत्र समाधिना काळगताः, ततः इन्द्रेण रथेन वन्दिताः प्रदक्षिणीकुर्वता, तरुवरसृणगहनानि नतपार्श्वानि कृतानि तान्यचापि तथैव सन्ति, तस्य च पर्वतस्य रथावर्त्त इति नाम जातम् । तस्मिं भगवति अर्धनाराचसंहननं दश पूर्वाणि च म्युच्छिन्नानि ( दशमं पूर्व च व्युच्छिलं) । स च वज्रसेनो यः प्रेषितः प्रेषया आम्यन् सोपारकं प्राप्तः, तत्र च धाधिका अभिगता (अभिगतजीवाजीवा ) ईश्वरी, सा चिन्त यति कथं जीविष्यामः ?, प्रतिक्रिया (आधारो नास्ति, तदा शतसहस्रेण तहिवसे भक्तं For Parts Use Only ancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 610~ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥३०॥ प्रत निफाइयं, चिंतियं-इत्थ अम्हे सबकालं उज्जितं जीविए, माइदाणिं पत्थेव देहबलियाए वित्ति कप्पेमो, नत्थि पडिको तो एत्थ सयसहस्सनिष्फण्णे विसं छोटूण जेमेऊण सनमोकाराणि कालं करेमो, तं च सज्जितं, नबि ता विसेणं संजोइ हारिभद्री नायता वितण सजाइयवृत्तिः जइ, सो य साहू हिंडतो संपत्तो, ताहे सा हतुवा तं साहुं तेण परमण्णेण पडिलाभेति, तं च परमत्थं साहइ, सो साहविभागः१ भणइ-मा भत्तं पच्चक्खाह, अहं वइरसामिणा भणिओ-जया तुम सतसहस्सनिष्फणं भिक्खं लहिहिसि ततो पए चेव | सुभिक्खं भविस्सइ, ताहे पवइस्सह, ताहे सा वारिया ठिता। इओ य तदिवसं चेव वाहणेहिं तंदुला आणिता, ताहे | पाडेकओ जातो, सो साहू तत्थेव ठितो, सुभिक्खं जातं, ताणि सावयाणि तस्संतिए पवइयाणि, ततो वइरसामितस्स पउप्पय | जायं वसो अवडिओ। इतोय अजरक्खिएहिं दसपुर गंतूण सबोसयणबग्गो पनावितो माता भगिणीओ, जो सो तस्स खंतओ सोऽवि तेर्सि अणुराएण तेहिं चेव समं अच्छइ, न पुण लिंगं गिण्हइ लज्जाए, किह समणो पवइस्सं ?, एस्थ मम धूताओ सूत्राक दीप अनुक्रम निष्पादित, चिन्तितम्-अत्र वयं सर्वकालमूर्जितं जीविताः, मेदानी भत्रैव देहवलिकया वृति कल्ययामः, नाति आधारसतोऽत्र शतसहस्सनिष्पने विषं क्षिप्त्वा जिभिस्वा सनमस्काराः कालं कुर्मः, तथ सजितं, नैव तावद्विषेण संयुज्यते, सच साधुहिण्डमानः संप्राप्तः, तदा स हटतुष्टा सं साधु तेन परमानेन प्रतिलाभवति, तं च परमार्थ साधति, स साधुभगति-मा भक्कं प्रत्याख्यासिष्ट, अवजस्वामिना भणितः यदा वं शतसहस्सनिष्पनां भिक्षा सप्यसे ततः प्रभात एवं सुभिक्षं भविष्यति, सदाप्रजिष्यय, तदा सावारिता स्थिता। इतश्च तदिवस एव प्रवणैतन्दुला आनीताः, तदाऽधारो जातः, स साधुस्तत्रैव स्थितः, सुभिक्षं जातं ते सर्वे श्रावकाः तस्खान्तिक प्रमजिताः, ततोषजस्वामिनः पदोत्पतनं जातं वंशोऽवस्थितः । इतश्चार्यरक्षितैर्दापुरं गत्वा सर्वः स्वजनवर्गः प्रबाजितः माता भगिन्यो, यस्तस्य स पिता सोऽप्यनुरागेण तेषां तेः सममेव तिष्ठति, न पुनर्लिङ्गं गृह्णाति लमया, कथं श्रमणः प्रबजिच्यामि', अन्न मम दुहितरः NCES | ॥३०४॥ AMERIAnd handiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~611~ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सुहातो नत्तुइओ य, किह तासिं पुरओ नग्गओ अच्छिस्सं ?, आयरिया:य तं बहुसो २ भणंति-पवयसु, सो भणइ-जइ समं जुयलेणं कुंडियाए छत्तएणं उवाहणेहिं जन्नोवइएण य तो पचयामि, आमंति पडिस्सुतं, पबइओ, सो पुण चरणक-18 रणसम्झायं अणुयत्तंतेहिं गेण्हावितबोत्ति, ततो सो कडिपट्टगच्छत्तवाणहकुंडियबंभमुत्ताणि न मुयइ, सेसं सर्व परिहरइ । अण्णया चेइयवंदया गया, आयरिएहिं पुर्व चेडरूवाणि गहियाणि भणंति-सवे बंदामो छत्तइल्लं मोतुं, ताहे सो चिंतेइएते मम पुत्ता नतुगा य बादजंति अहं कीस न बंदिजामि, ततो सो भणइ-अहं किन पवइओ, ताणि भणंतिकुंतो पबझ्याण छत्तयाणि भवंति !, ताहे सो चिंतेइ-एताणि वि ममं पडिचोदेंति, ता छड्डेमि, ताहे पुत्तं भणइ-अलाहि, पुत्ता! छत्तएण, ताहे सो भणति-अलाहि, जाहे उण्हं होहिति ताहे कप्पो उवरि कीरहिति, ततो पुणो भणंति-मोत्तूण |कुंडइलं, ताहे पुत्तेण भणिओ-मत्तएण चेव सन्नाभूमि गम्मइ, एवं जनोवइयंपि मुयइ, आयरिया भणंति सूत्राक 4-CRORS दीप अनुक्रम नुषा नप्तारश्र, कथं तास पुरतो नमः स्थास्यामि, आचार्याश्च तं बहुमोर भणन्ति-अवज, स भणति-यदि समं युगलेन कुण्डिकया छत्रकेणोपानद्यां | यज्ञोपवीतेन च तदा प्रजामि, ओमिति प्रतिश्रुतं, प्रबजितः, स पुनश्ररणाकरणस्वाध्यायमनुवर्तयनिमोहयितब्ध इति, ततः स कटीपट्टकच्छनोपानरकण्डिकानमसूत्राणि न मुथति, शेष सबै परिहरति । भन्यदा चैत्यवन्दका गताः, आचार्यः पूर्व विम्भरूपाणि ग्राहितानि भणस्ति-सर्वान् बन्दामहे छत्रिर्ण मुक्त्वा, तदा स चिन्तयति-पते मम पुत्रा नप्तारा वन्यन्ते भई कथं न बन्ये , ततः स भणति-महं किं न प्रबजितः ।, तानि भगन्ति-कुतः मनजिताना छत्राणि भवेयुः, तदा स चिन्तयात-एतान्यपि मा प्रति नोदयन्ति, ततस्त्य जामि, तदा पुत्रं भणति-अलं पुत्र! छत्रेण, तदा स भगति-अलं, यहोणं भविष्यति तदा काप उपरि करिष्यते, सतः पुनर्भणन्ति-मुक्त्वा कृषिद्धकावन्तं, तदा पुत्रेण माणितः-मात्रकेवर्सज्ञाभूमि गम्पते, एवं यज्ञोपवीतमपि मुबति, आचार्या भणन्ति AREasthanidhana Plainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~612~ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक- को वा अम्हे न याणइ जहा बंभणा !, एवं तेण ताणि सवाणि मुक्काणि, पच्छा ताणि भणंति-सबे वंदामो मोत्तूण कडि- हारिभद्री पट्टाल, ताहे सो भणइ-सह अज्जयपज्जएहिं मा वंदह, अण्णो वंदिहिति मम, न मुबह कडिपट्टयं । तत्थ य साह भत्तप-IN | यवृत्तिः ॥३०५ चक्खातो, ततो कडिपट्टयवोसिरणयाए आयरिया वण्णेति-एयं मडयं जो वहइ तस्स महलं फलं भवति, पुषं च साहविभागा१ सण्णिएल्लगा चेव भणंति-अम्हे एतं वहामो, ततो आयरियसयणवग्गो भणइ-अम्हे वहामो, ते भण्डता आयरियसगासं| पत्ता, आयरिएहिं भणिया-अम्हं सयणवग्गो किं मा निजरं पावउ ?, तुम्हे चेव भणह-अम्हे वहामो, ताहे सो थेरो भणइकिं एत्थ पुत्ता। वहया निजरा?, आयरिया भणति-आमंति. ततो सो भणह-अहं वहामि, आयरिया भणति-एत्थ। |उवसग्गा उप्पजति, चेडरूवाणि नग्गेति, जइ तरसि अहियासेउं तो वहाहि, अह नाहियासिहि ताहे अम्ह न सुंदर होइ, सो भणइ-अहियासेस, जाहे सो उक्खित्तो ताहे तस्स मग्गतो पबइया उडिया, ताहे खुडगा भणंति-मुयह कडिपट्टयं, NI को वाऽस्मान्न जानाति यथा ब्राह्मणा (इति), एवं तेन तानि सर्वाणि मुक्तानि, पश्चात्तानि भणन्ति-सर्वान् बन्दामहे मुक्त्वा कटीपकवन्तं, तदा ४ स भणति-सह पितृपितामहमा वन्दिश्वम् , अम्यो वन्दिप्यते मां, न मुञ्चति कटीपई । तत्र च साधुः प्रत्याख्यातभक्ता, ततः कटीपट्टकम्युत्सर्जनायाचार्या वर्ण वन्ति-एतन् मृतकं वो वहति तख महत्कलं भवति, पूर्व च साधवः संज्ञिता एवं भणन्ति-वयमेतत् बहामः, तत आचार्यस्वजनच! भणति-वयं वहामः, हाते कलहायमाना आचार्यसकाशं प्राप्ताः, भाचार्भणिताः अमार्क स्वजनवर्गः किं मा निर्जरी प्रापत् । पूपमेष भणय-पर्य बहामा, तवा स स्खबिरी भणति| किमत्र पुत्र! बढी निर्जरा, आचार्या भणन्ति-भोमिति, ततः स भणति-मई पहामि, आचायी भणन्ति-अनोपसर्गा उत्पद्यन्ते, पेटस्पाणि ननयन्ति, यदि शमोध्यध्यासितुं तदा वह, अब नाध्यासयसि तदा अम्माकंन सुन्दरं भवति, सभणति-अध्यासिये, यदा स चरिशतसादा तस पृष्टतः प्रजिता अस्थिताः, तदा क्षुल्लका मणम्ति-मुजफटीपी, दीप अनुक्रम ॥३०५॥ Minarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~613~ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [ ७७६ ], भाष्यं [ १२३...] अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], | सो मोत्तूण पुरतो कतो दोरेण बद्धो, ताहे सो लज्जतो तं वहइ, मग्गतो मम सुण्हादी पेच्छति, एवं तेण उवसग्गो उछितो अहितासेतवोत्ति काऊण वूढो, पच्छा आगतो तहेव, ताहे आयरिया भणति - किं खंत 1 इमं १, सो भणइ उवसग्गो उडिओ, आयरिया भणति-आणेह साडयं, ताहे भणइ किं एत्थ साडएण ?, दिट्ठं जं दिट्ठवं, चोलपट्टओ चैव भवउ, एवं ता सो चोलपट्टयं गिण्हावितो । पच्छा भिक्खं न हिंडइ, ताहे आयरिया चिंतेंति-एस जइ भिक्खं न हिँडइ तो को जाणइ कयादि किंचि भवेज १, पच्छा एकलओ किं काहिति ?, अवि य-एसो निज्जरं पावेयवो, तो तहा कीरउ जह भिक्खं हिंडइ, एवं चेव आयवेयावच्चं, पच्छा परवेयावच्चंपि काहिति ततोऽणेण सबै साहूणो अप्पसागारियं भणियाअहं वच्चामि तुम्हे एकलया समुदिसेज्जाह पुरतो खंतस्स, तेहिं पडिस्सुतं, ततो आयरिया भणंति-तुम्भे सम्मं वजह खंतस्स अहं गामं वच्चामित्ति, गता आयरिया, तेऽवि भिक्खं हिंडेऊण सबै एगलया समुद्दिसंति, सो चिंतेइ-मम एस दाहिति १ स मुक्त्वा पुरतः कृतः दवरकेन बद्धः, तदा स जन्तं वहति पृष्ठतो मम खुषाद्याः पश्यन्ति एवं तेनोपसर्ग उत्थितोऽध्यासितव्य इतिकृत्वा व्यूदम् पश्चात् आगतस्तथैव तदा आचार्या भणन्ति किं वृद्ध इदं ?, स भणति उपसर्ग उत्थितः, आचार्या भणन्ति-आनय शाटकं, तदा भणति-क्रिमन्न शाटकेन ?, दृष्टं यद्रष्टव्यं चोलपट्ट एव भवतु एवं तावत्स चोलपट्टकं प्राहितः । पश्चात् भिक्षां न हिण्डते, तदा आचार्यात्रिन्तयन्ति एप यदि भिक्षां न हिण्डते तदा को जानाति कदाचित् किञ्चित् भवेत् १, पञ्चादेकाकी किं करिष्यति १ अपि च-एप निर्जरां प्रापयितव्यस्ततस्तथा क्रियतां यथा भिक्षां हिण्डते, एवमेवात्मवैयावृत्थं, पश्चात्परवैयावृत्यमपि करिष्यति, ततोऽनेन सर्वे साधवोऽल्पसागारिकं भणिताः अहं व्रजामि यूयमेकाकिनः समुद्दिशेत पुरतः पितुः तैः प्रतिश्रुतं तत आचा भणन्ति यूयं सम्यक् वृद्धस्य वर्त्तिताध्वे अहं ग्रामं ब्रजामीति गता आचार्याः, तेऽपि भिक्षां हिण्डित्या सर्वे एकाकिनः समुद्दिशन्ति, स चिन्तयति महामेष दास्यति For Prints Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~614~ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७७६ ], भाष्यं [ १२३...] आवश्यक- ईमो दाहि, एक्कोवि तस्से न देइ, अण्णो दाहिति, एस वराओ किं लभइ ?, अण्णो दाहिति, एवं तस्स न केणइ किंचिवि दिन्नं, ताहे आसुरुतो न किंचिवि आलवे, चिंतेइ-कलं ताव एड पुत्तो मम, तो पेक्ख एए जं पावेमि, ताहे बीयदिवसे ॥३०६ ॥ आगता, आयरिया भणति किह खन्ता ! वट्टियं भे ?, ताहे भणइ-युत्त ! जइ तुमं न होतो तोऽहं एक्कंपि दिवस न जीवंतो, एतेवि जे अण्णे मम पुत्ता नत्तुगा य तेऽवि न किंचि दिन्ति, ताहे ते आयरिएण तस्समक्खं अंबाडिया, तेविय अन्भुवगया, ताहे आयरिया भणति - आणेह भायणाणि जाऽहं अप्पणा सन्तस्स पारणयं आणेमि, ताहे सो खंतो चिंतेइ कह मम पुत्तो हिंडइ ?, लोगप्पगासो न कयाइ हिंडियपुचो, भणइ-अहं चैव हिंडामि, ताहे सो अध्पणा खंतो निग्गतो, सो य पुण रुद्धिसंपुण्णो चिरावि गिहत्यत्तणे, सो य अहिंडतो न याणइ-कतो दारं वा अवदारं वा, ततो सोएगं घरं अवद्दारेण अतिगतो, तत्थ तद्दिवसं पगतं वत्तेलयं, तत्थ घरसामिणा भणितो-कतो अवधारण पवइयओ अइयओ ?, Educato 3 अर्थ दास्यति, एकोऽपि तस्मै न ददाति, भन्यो दास्यति ग्रुप वराकः किं कमते ?, अम्यो दास्यति, एवं तस्मै न केनचिकिदिति दोन |लपति, चिन्तयति-कल्ये तावदायातु पुत्रो मम, तर्हि प्रेक्षध्वमेतान् यध्यापयामि, तदा द्वितीय दिवसे आगताः, आचार्या भणन्ति-कथं पिवच तब, तदा भणति| पुत्र ! यदि त्वं नाभविष्यतमेकमपि दिवस माजीविष्यमेवेऽपि येऽम्थे मम पुत्रा नहारथ तेऽपि न किञ्चिद्ददति, तदा ते आचार्येण तत्समक्षं निर्भरिताः, तेऽप्यभ्युपगतवन्तः, तदा आचायां भजन्ति-आनयत पात्राणि यावदहमात्मना पितुः पारणमानयामि, तदा स वृद्धयति कथं मम पुत्रो हिण्डेत ?, छोकप्र काशो न कदाचित् दिण्डितपूर्वः, भणति अहमेव द्विण्डे, तदा स भ्रात्मना वृद्धो निर्गतः स च पुनब्धिसंपूर्णः चिरादपि गृहस्थत्वे, स चाहिण्डमानो न जानातिकुतो द्वारं वाऽपद्वारा ततः स एकं गृहमपद्वारेणातिगतः, तत्र तदिवसे प्रकृतं वर्तते, तत्र गृहस्वामिना भणितः कुतोऽपद्वारेण प्रनजित आयातः, "भन्नदिवसं For Purina Pts at Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 615~ ॥ ३०६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) ACCESSOCTOR प्रत सूत्राक खतेण भणितो-सिरीए आयंतीए कओ दार वा अवदारं वा?, यतो अतीति ततो सुंदरा, गिहसामिणा भणियं-देह से भिक्ख. तत्थ लगा लद्धा बत्तीसं, सो ते घेषण आगतो, आलोइयं अणेण, पच्छा आयरिया भणति-तुझं बत्तीस सीसा होहिंति परंपरेण आवलियाठावगा, ततो आयरिएहिं भणिता-जाहे तुम्भे किंचि राउलातो लहह विसेसं तं कस्स| NIदेही, भणइ-भणाणं, एवं चेव अम्ह साहूणो पूयणिज्जा, पतेसिं चेव एस पढमलाभो दिजउ, सबे साहण दिण्णा, ताहेर पुणो अप्पणो अछाए उत्तिण्णो, पच्छा अणेण परमन्नं घतमहुसंजुतं आणितं, पच्छा सयं समुदिहो, एवं सो अप्पणा चेव पहिडितो लद्धिसंपुष्णो बहूणं बालदुखलाणं आहारो जातो तत्थ य गच्छे तिणि पूसमित्ता-एगो बलियापसमित्तो. एगो घयपुस्समित्तो एगो वत्थपुस्स मित्तो, जो दुश्चलिओ सो झरओ, घयपूसमित्तो घतं उप्पादेति, तस्सिमा लद्धी-दवओ४ | दबतो घतं उप्पादेयचं, खेत्तओ उजेणीए, कालतो जेहासादेसु मासेसु, भावतो एगा धिज्जाइणि गुविणी, तीसे भत्तुणा वृद्धेन भणित:-श्रिया आयान्त्याः कुतो द्वारं वा अपहारं था, यत भायाति ततः सुन्दरा, गृहस्वामिना भाणितं-देहि भसै भिक्षा, तत्र मोदका लब्धा | द्वात्रिंशत् , स तान् गृहीत्वाऽप्रातः, आलोचितमनेन, पश्चादाचार्या भणन्ति-युष्माकं द्वात्रिंशच्छिष्या भविष्यन्ति परम्पर केणावलिकास्थापकाः, तत आचायमैगिता:-यदा यूयं कचित् राजकुल्लात् सभध्वं विशेष तं कमै दत्त!, भणति-बाह्मणेभ्यः, एवमेवास्माकं साधवः पूजनीयाः, एतेभ्य एवैष प्रथमलामो दीयता, सर्वे साधुम्यो इचाः, तदा पुनरात्मनोऽयोतीणः, पक्षाबनेन परमानं धृतमधुसंयुक्तमानीतं, पश्चात्स्वयं समुरिष्टः, एवं स आत्मनैव महिण्डितो लब्धिसंपूर्णों |बहूनां वालदुर्बलानामाधारो जातः । सन्न पग त्रयः पुष्पमित्रा:-एको दुईलिकापुष्प मित्र एको घृतपुष्पमित्र एको वसपुष्पमित्रः, यो दुर्थलिका स स्मारका, घृत पुष्पमित्रो घृतमुत्पादयति,तस्येयं रिधः-दृव्यतो ध्यतो घृतमुत्पादयितव्य क्षेत्रत उमायिन्या कालतो ज्येष्ठापाडयोमांसयोः, भावत एका धिग्जातीया गुची, तस्या भी दीप अनुक्रम T 1963-6 Santainid and मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~616~ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) आवश्यक ॥३०७॥ प्रत सुत्रांक थोवं थोवं पिंडतेण छहिं मासेहिं वारओ घतस्स उप्पाइतो, वरं से वियाइयाए उवजुजिहितित्ति, तेण य जाइयं, अन्नं यवृत्तिः नत्थि, तंपि सा हहतुहा दिजा, परिमाणतो जत्तियं गच्छस्स उवजुज्जइ, सो य शिंतो चेव पुच्छइ-कस्स कित्तिएणं घएणं || विभागः१ कज, जत्तियं भणति तत्तियं आणेइ । बत्थपुस्समित्तस्स पुण एसेच लद्धी वत्थेसु उप्पाइयबएसु, दवतो वत्थं, खेत्ततो वइदिसे महुराए वा, कालतो वासासु सीतकाले बा, भावओ जहा एका कावि रंडा तीए दुक्खदुक्खेण छुहाए मरंतीए कत्तिजण एका पोत्तो वुणाविया कलं नियंसेहामित्ति, एत्यंतरे सा पुस्समित्तेण जाइया हतुहा दिजा, परिमाणओ |सबस्स गच्छस्स उपाएति । जो दुबलियपुस्समित्तो तेण नववि पुबा अहिजिया, सो ताणि दिवा य रत्ती य झरति, एवं 6|| |सो झरणाए दुबलो जातो, जइ सो न झरेज ताहे तस्स सर्व चेव पम्हुसइ, तस्स पुण दसपुरे चेव नियल्लगाणि, ताणि | पुण रत्तवडोवासगाणि, आयरियाण पास अलियंति, ततो ताणि भणति-अम्ह भिक्खुणो झाणपरा, तुभं झार्ण नत्थि, सो सोक पिण्मयता पहिमांसपेटो घृतस्य उत्पादितः, वरं तस्याः प्रस्ताया अपयुज्यते इति, तेन च याचितम्, भन्यजालि, सदपि सा हस्तुशा दद्यात्, परिमाणतो याबद्लयोपयुज्यते, स च निर्गमेव पृच्छति-कस्स कियता मृतेन कार्यम्, वावगणति तावदानयति । वखपुष्पमित्रस्य पुनरेव सब्धिः वोपूरपादवितव्येषु, द्रव्यतो वस्त्रं क्षेत्रतो वैदेशे मधुरायां वा, कालतो वर्षासु शीतकाले वा, भावतो यथा एका काऽपि विधवा तया भतिदुःखेन क्षुधा ॥३०७॥ ब्रियमाणया कर्तवित्वा एकं वस्त्रं वायितं कल्ये परिधास्य इति, अत्रान्तरे सा पुणमित्रेण वाचिसा हृष्टपुष्टा दद्यात्, परिमाणतो याबद्दच्छस्य सर्वख उत्पादयति। यो दुईलिकापुष्पमित्रतेन नबापि पूर्वाणि अधीतानि, सतानि दिवा रात्री च सारत, एवं समरणेन दुर्वलो जाता, यदि सन मरेत् तदा तस्य सर्वमेव विस्मरति, तस्य पुनर्दशपुरे एव निजकाः, ते पुना रक्तपटोपासकाः, आचार्याणां पाः आगच्छन्ति (पार्थमाभयन्ति) ततस्ते भगन्ति-अस्माकं भिक्षवो ध्यानपराः, युष्माकं ध्यानं नास्ति, दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~617~ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७७६], भाष्यं [१२३...] आयरिया भणति-अम्ह झाणं, एस तुम्भ जो निएलओ दुब्बलियपुस्तमित्तो एस झाणेण चैव दुब्बलो, ताणि भणंतिएस गिहत्यत्तणे निद्धाहारेहिं बलिओ, इयाणिं नत्थि, तेण दुब्बलो, आयरिओ भणइ एस नेहेण विणा न कयाइ जेमेइ, ताणि भणंति-कतो तुम्भं नेहो ?, आयरिया भणति घतपूसमित्तो आणेइ, ताणि न पत्तियंति, ताहे आयरिया भणतिएस तुम्ह मूले किं आहारेत्ताइतो ?, ताणि भणति निद्धपेसलाणि आहारेत्ताइतो, तेसिं संबोहणाए घरं ताणं विसज्जिओ, एत्ताहे देह, तहेव दाउँ पयत्ताणि, सोऽवि झरइ, तंपि नज्जइ छारे छुब्भइ, ताणि गाढयरं देति, ततो निविण्णाणि, ताहे भणिओ-एत्ता हे मा झरउ, अंतपंतं च आहारेइ, ताहे सो पुणोऽवि पोराणसरीरो जातो, ताहे ताण उवगतं, धम्मो कहिओ, सावगाणि जायाणि । तत्थ य गच्छे इमे चत्तारि जणा पहाणा तंजहा- सो चैत्र दुब्बलिय समित्तो विंझो फग्गुरक्खितो गोडामाहिलोत्ति, जो विंझो सो अतीव मेहावी, सुतत्थतदुभयाणं गहणधारणासमत्यो, सो पुण सुत्तमंडलीए 1 आचायां भणन्ति अस्माकं ध्यानम्, एष युष्माकं यो निजको दुवैलिकापुष्यमित्र एष ध्यानेनैव दुर्बलः, ते भणन्ति-एप गृहस्थायें खिग्धाहारैलिकः, इदानीं नास्ति, तेन दुर्बल, आधार्थी भणति एष स्नेहेन विज्ञान कदाचित् जेमति, ते भगन्ति कुतो युष्माकं स्नेहः, आचार्या भणन्ति घृतपुष्पमित्र आनयति, तेन प्रतियन्ति तदा आचार्या भणन्ति पुष युग्माकं मूले किमाहृतवान् ?, ते भणन्ति खिग्धपेशखानि आहतवान् तेषां संबोधनाय गृहे तेषां विसृष्टः, अधुना दत्त, संधैव दातुं प्रवृत्ताः, सोऽपि समरति, तदपि ज्ञायते क्षारे क्षिप्यते (यथा ), ते गाढतरं ददति, ततो निर्विण्णानि तदा भणितः अधुना मा सार्षीः, अन्तप्रान्तं चाहारयति, तदा स पुनरपि पुराणशरीरो जातः, तदा तेषामुपगतं, धर्मः कथितः, श्रावका जाताः । तत्र च गच्छे इमे चत्वारो जनाः प्रधानाखवथास एव दुवैलिकापुष्पमित्रः विन्ध्यः फल्गुरक्षितः गोष्ठसाहिल इति, यो विन्ध्यः सोऽतीव मेधावी, सूत्रार्थतदुभयानां प्रणवारणासमर्थः, स पुनः सूत्रमण्डल्यां For Purana Prsteny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 618~ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६], भाष्यं [१२३...] (४०) RSS R हारिभद्रीयवृत्तिः प्रत सुत्रांक आवश्यक- विसूरह जाव परिवाडी आलावगस्स एइ ताव पलिभजइ, सो आयरिए भणइ-अहं सुत्तमंडलीए विसुरामि, जओ चिरेण आलावगो परिवाडीए एइ, तो मम वायणायरियं देह, ततो आयरिएहिं दुबलियपुस्समित्तो तस्स वायणायरिओ दिण्णो, ॥३०८॥ ततो सो कइवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुवड़ितो भणइ-मम वायणं देंतस्स नासति, जं च सण्णायघरे नाणुप्पे-15 दहियं, अतो मम अग्झरंतस्स नवमं पुर्व नासिहिति, ताहे आयरिया चिंतेति-जइ ताव एयरस परममेहाविस्स एवं झर-5 तस्स नासइ अन्नस्स चिरनई चेव-अतिसयकओवओगो मतिमेहाधारणाइपरिहीणे । नाऊण संसपुरिसे खेत्तं कालाणुभावं च ॥१॥ सोऽणुग्गहाणुओगे वीसुं कासी य सुयविभागेण । सुहगहणादिनिमित्तं गए य सुणिमूहियविभाए ॥२॥ सविसयमसद्दहता नयाण तमत्तयं च गेण्हंता । मन्नंता य विरोह अप्परिणामाइपरिणामा ॥ ३॥ गच्छिज मा हु मिच्छ परिणामा य सुहमाऽइबहुभेया । होजाऽसत्ता घेचू ण कालिए तो नयविभागो॥४॥ यदुक्तम्-'अनुयोगस्ततः कृतश्चतुर्डे' ति, तत्रानुयोगचातुर्विध्यमुपदर्शयन्नाह मूलभाष्यकार: विषीदति यावत् परिपाट्यालापकसायाति तावप्रतिभज्यते, स आचार्यान् भणति-अहं सूत्रमण्डल्यां विषीदामि, यतश्चिरेणालापकः परिपाट्याऽऽ याति सम्मा हा वाचनाचार्य दत्त, तत आचालिकापुष्पमित्रतम वाचनाचार्यों दत्तः, ततः स कतिचिदपि दिवसान वाधनां दावाचार्यमुपस्थितो भणति-मम | वाचनां ददतो नश्यति, यच सज्ञातीयगृहे नानुप्रेक्षितम् अतो ममासरतो नवमं पूर्व नक्ष्यति, तदा आचार्याश्चिन्तयन्ति-यदि ताव देवस्य परममेधाविन एवं सरतो नश्यति भन्यस्य चिरनष्टमेव । कृतातिशयोपयोगो मतिमेधाधारणाभिः परिहीणान् । ज्ञावा शेषपुरुषान् क्षेत्रं कालानुभावं च॥ ॥ सोऽनुग्रहाय | अनुयोगान् पृथक् अकाच श्रुतविभागेन । सुखमहणादिनिमित्तै नयांश्च सुनिगृहितविभागान् ॥ २॥ स्वविषयमअवतो नवानां तन्मानं च गृहन्तः । मन्यमा-15 नाश्च विरोधमपरिणामा अतिपरिणामाः (१)॥२॥गमत मा मिथ्यात्वं परिणामाश्च सूक्ष्मा अतिबहुभेदाः । भवेयुरशका ग्रहीतुं न कालिके ततो नपविभागः ॥४॥ दीप SSICALENGAL अनुक्रम MER Mandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~619~ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७६...], भाष्यं [१२४] (४०) प्रत सूत्राक ४ कालियसुयं च इसिभासियाईतइओय सूरपण्णत्ती|सव्वोय दिडिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो १२४(मू.भा) व्याख्या-कालिकश्रुतं चैकादशाङ्गरूपं, तथा ऋषिभाषितानि-उत्तराध्ययनादीनि, 'तृतीयश्च' कालानुयोगः, स च सूर्य-| प्रज्ञप्तिरिति, उपलक्षणात् चन्द्रप्रज्ञात्यादि, कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः, ऋषिभाषितानि धर्मकथानुयोग इति गम्यते, 18 सर्वश्च दृष्टिवादश्चतुर्थों भवत्यनुयोगः, द्रव्यानुयोग इति हृदयमिति गाधार्थः ॥ तत्र ऋषिभाषितानि धर्मकथानुयोग इत्युक्तं, ततश्च महाकल्पश्रुतादीनामपि ऋषिभाषितत्वाद् दृष्टिवादादुद्धृत्य तेषां प्रतिपादितत्वाद् धर्मकथानुयोगत्वप्रसङ्ग इत्यतस्तदपोद्धारचिकीर्षयाऽऽहजं च महाकप्पसुयं जाणि य सेसाणि छेयसुत्ताणि । चरणकरणाणुओगोत्ति कालियत्थे उवगयाइं ॥ ७७७ ॥ | व्याख्या-यच्च महाकल्पश्रुतं यानि च शेषाणि छेदसूत्राणि कल्पादीनि चरणकरणानुयोग इतिकृत्वा कालिकार्थे | उपगतानीति गाथार्थः॥ इयोणि जहा देविंदवंदिया अजरक्खिया तहा भण्णइ-ते विहरंता महुरं गया, तत्थ भूतगुहाए वाणमंतरघरे ठिता। इतो य सक्को देवराया महाविदेहे सीमंधरसामि पुच्छइ निगोदजीवे, जाहे निओयजीवा भगवया वागरिया ताहे दीप अनुक्रम इदानीं यथा देवेन्द्रवन्दिता आरक्षितास्तथा भण्यते-ते विहरन्तो मधुरां गताः, तत्र भूतगुदायाँ व्यन्तरगृहे स्थिताः । इतश्च शको देवराजो महाविदेदेषु सीमन्धरस्वामिनं पृच्छति निगोदजीवान् , बदा निगोदजीवा भगवता व्याकृतासदा JAMESH Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अनुयोगस्य चतुर् भेदा: ~620~ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...] (४०) प्रत आवश्यक- भणइ-अस्थि पुण भारहे वासे कोइ जो निओए वागरेजा, भगवता भणितं-अस्थि अज्जरक्खितो, ततो माहणरूवेण हारिभद्री [दा सो आगतो, तं च थेररूवं करेऊण पचइएमु निग्गएसु अतिगतो, ताहे सो वंदित्ता पुच्छइ-भगवं! मम सरीरे महल-IIयवृत्तिः वाही इमो, अहं च भत्तं पञ्चक्खाएज ततो जाणह मम केत्तिय आऊयं होजा?, जविएहिं फिर भणिया आऊसेढी, विभागा१ तत्थ उवउत्ता आयरिया जाव पेच्छंति आ वरिससतमहियं दो तिन्नि वा, ताहे चिंतेइ-भारहो एस मणुस्सो न भवइ, विजाहरो वा वाणमंतरो वा, जाव दो सागरोवमाई ठिती, ताहे भमुहाओ हत्थेहि उक्खिवित्ता भणइ-सको भवाणं, ताहे सर्व साहइ-जहा महाविदेहे मए सीमंधरसामी पुच्छितो, इहं चम्हि आगतो, तं इच्छामि सोउं निओयजीवे, ताहे से कहिया, ताहे तुट्ठो आपुच्छइ-वञ्चामि ?, आयरिया भणंति-अच्छह मुहुत्तं, जाव संजता एन्ति, एत्ताहे | दुक्कहा संजाता, थिरा भवंति जे चला, जहा एत्ताहेऽवि देविंदा एन्तित्ति, ततो सो भणति-जइ ते ममं पेच्छंति सुत्रांक दीप 28-%25%-05465%95 अनुक्रम भणति-अस्ति पुनर्भारते घर्ष कश्चित् यो निगोदान प्याकुर्यात् ?, भगवता भणितम्-अस्ति आर्यरक्षितः, ततो ब्राह्मणरूपेण स भागतः, तच्च स्थविररूप कृत्वा प्रव्रजितेषु निर्गतेषु अतिगतः, तदा स बन्दिस्या पृच्छति-भगवन् ! मम धारीरे महान् व्याधिरयम् , अहं च भक्तं प्रत्यास्यायां ततो ज्ञापयत मम किय| दायुरस्ति ?, यविकेषु किल भणिता आयुश्रेणिः, तत्रोपयुक्ता आचार्या यावत्पश्यन्ति आयुर्वर्षशतमधिकं हे त्रीणि वा, तदा चिन्तयति-भारत एष मनुष्यो न भवति, | विद्याधरो वा म्यन्तरो वा, यावत् रे सागरोपमे स्थितिः, तदा ध्रुवौ हस्ताभ्यामुक्षिप्य भणति-शको भवान्, तदा सबै कथयति-यथा महाविदेदेषु मया सीमन्धरस्वामी पृष्टः, इह चास्वागतः, तदिच्छामि श्रोतुं निगोदजीवान् , तदा तम्मै कथिताः, तदा तुष्ट आपृष्ठति-वजामि, भाचार्या भणन्ति-विष्ठत मुहूर्त, यावासयता आयाति, अधुना दुष्कथा संजाता, स्थिरा भवन्ति ये चलाः, यथाऽधुनाऽपि देवेन्द्रा आयान्तीति, ततः स भणति-पदि ते मां पश्यन्ति. | ॥३०९॥ JAMERAMKunal Standiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~621 ~ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७७७ ], भाष्यं [ १२४...] तेणं चैव अप्पसत्तत्तणेण निदाणं काहिंति तो वच्चामि ततो चिन्धं काउं वच्च, ततो सको तस्स उवस्सयस्त अण्णहुत्तं काउं दारं गतो, ततो आगता संजया पेच्छति, कतो एयस्स दारं ?, आयरिएहिं वाहिरिता - इतो एह, सिद्धं च जहा सक्को आगतो, ते भति-अहो अम्देहिं न दिट्ठो, कीस न मुहुत्तं धरितो ?, तं चैव साहइ-जहा अप्पसत्ता मणुया निदाणं काहिन्ति तो पाडिहेरं काऊण गतो, एवं ते देविंदवंदिया भवति । ते कयाइ विहरंता दसपुरं गया, महुराए अकिरियावादी उहितो, नत्थि माया नत्थि पिया एवमादिनाहियवादी, तहियं च नत्थि वाई, ताहे संग संघाडओ अजरक्खियसगासं पेसिओ, जुगप्पहाणा ते, ते आगंतॄण तेसिं साहिति, ते य महल्ला, ताहे तेहिं माउलो गोद्वामहिलो पेसिओ, तस्स बादलद्धी अस्थि, तेण गंतूण सो वादी विणिग्गिहितो, पच्छा सावगेहिं गोडामाहिलो धरितो, तत्थेव वासारतं ठितो । इतोय आयरिया चिंतंति को गणहरो भवेज्जा ?, ताहे णेहिं दुब्बलियपूसमित्तो समक्खितो, जो पुण से सयणवग्गो तेसिं १ तेनैवाल्पस्वत्वेन निदानं करिष्यन्ति ततो प्रजामि, तवहिं कृत्वा प्रज, ततः शक्रस्तस्य उपाश्रयस्यान्यतः कृत्वा द्वारं गतः, तत श्रागताः संयताः पश्यन्ति कुतो द्वारमेतस्य ?, आचार्यव्याहृताः इत आयात, शिष्टं च यथा शक्र आगतवान्, ते भगन्ति-अहो अस्माभिनं दृष्टः कथं न सुटतः, तदेव कपयति यथाऽल्पसच्या मनुजा निदानं करिष्यन्ति तत् प्रातीहार्थं कृत्वा गतः, एवं ते देवेन्द्रवन्दिता भवन्ति । ते कदाचित् विहरन्तो दशपुरं गताः, मथुरायामक्रियावादी शथितः नास्ति माता नास्ति पिता एवमादिनास्तिकवादी, तत्र च नास्ति वादी, तदा संपेन संघाटक आर्यरक्षितसकाशं प्रेषितो युगप्रधानास्ते, तौ आगत्य तेभ्यः कथयतः, ते च वृद्धाः सदा तैमतुलो गोष्ठमाहिल: प्रेषितः, तस्य वादलब्धिरखि, तेन गत्वा स बादी विनिगृहीतः पश्चात् श्रावकैः गोठमा दिलो रतः, तत्रैव वर्षा स्थितः । इतश्चाचार्याश्चिन्तयन्ति को गणधरो भवेत् ?, तदा तैर्दुहिकापुष्पमित्रः समाख्यातः (निर्धारितः ), यः पुनस्तेषां स्वजनयस्तस्य Education International For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः आर्यरक्षितस्यकथा मध्ये गोष्ठा माहिल, फल्गुरक्षित एवं दुर्बलिका पुष्पमित्रस्य कथानकं ~622~ by Dig Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥३१०॥ प्रत गोहामाहिलो फग्गुरक्खितो वाऽभिमतो, ततो आयरिया सबै सद्दावित्ता दिइंतं करिति-जहा तिण्णि कुडगा-निप्पावकुडो तेलकुडो घयकुडोत्ति, ते तिनिवि हेबाहुत्ता कता निष्फावा सोऽवि णिति, तेल्लमवि नीति, तत्थ पुण अवयवा लग्गति, धितकुडे बहुं चेव लग्गइ, एवमेव अजो! अहं दुब्बलियपूसमित्तं प्रति सुत्तत्थतदुभएसु निष्फावकुडसमाणो जातो, फग्गुर- क्खितं प्रति तेलकुडसमाणो, गोहामाहिलं प्रति घतकुडसमाणो, अतो एस सुत्तेण य अत्येण य उवगतो दुब्बलियपूसमित्तो तुभ आयरिओभवउ, तेहिं पडिच्छितो, इयरोवि भणिओ-जहाऽहं वट्टिओ फग्गुरक्खियस्स गोदामाहिलस्स य तहा तुम्हेहि वट्टियवं, ताणिविभणियाणि-जहा तुम्भे ममवट्टियाणि तहा एयस्स बढेजह, अविय-अहं कए वा अकए वान रूसामि, एसन खमहिति, तो सुतरामेव एयस्स वट्टेजाह, एवं दोवि वग्गे अप्पाहेत्ता भत्र्स पञ्चक्खाइउं देवलोगं गता। गोडामाहिलेणवि सुतं जहाआयरिया कालगता, ताहे आगतो पुच्छइ-को गणहरो ठविओ?, कुडगदिहतोयसुतो, तओ सो वीसुंपडिस्सए ठाइऊणागतो सुत्रांक दीप % अनुक्रम गोष्ठमादिलः फल्गुरक्षितो वाऽभिमतः, तत आचार्याः सर्वान् शब्दयित्वा दृष्टान्तं कुर्वन्ति-यथा यः कुटा:-निष्पावकुटस्तैलकुटो पृतकुट इति, ते योऽपि अर्वाङ्मुखीकृता निष्पावाः सर्वेऽपि निर्गग्छन्ति, तैलमपि निर्गच्छति, नत्र पुनरवयवा लगन्ति, घृतकुटे बढेर लगति, एवमेवाः ! भई दुर्बलिकापुष्पमित्र प्रति सूत्रार्थतदुभयेषु निष्पावकुटसमानो जातः, फल्गुरक्षितं प्रति तैलकुटसमानः, गोष्ठमाहिलं प्रति घृतकुटसमानः, अत एष सूत्रेण चार्थेन चोपगतो दुर्चलिकापुष्पमित्रो युष्माफमाचार्यों भवतु, तैः प्रतीप्सितः, इतरोऽपि भणितः-यथाऽहं वृत्तः कलगुरक्षिते गोटमाहिले च तथा त्वषाऽपि वर्णितयं, तेऽपि भजिता:-यथा यूयं मयि वृत्तासाथैतस्मिन् वर्षेभ्यम् , अपिच-अहं कृते वा भकृते वा नारुपमेयन क्षमिप्यते, ततः सुतरामेवैतमिन् वर्तध्वम् , एवं द्वावपि | वौँ संदिश्य भक्तं प्रत्याख्याय देवलोकं गताः । गोष्ठमाहिलेनापि श्रुतं-यथा आचार्याः कालगताः, तदा आगतः पृच्छति-को गणधरः श्रापितः, कुटटष्टान्त श्रुता, ततः स पृथग् प्रतिश्रये स्थित्वा आगतः ॥३१॥ JAMERautela landiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~623~ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७७], भाष्यं [१२४...] (४०) प्रत सूत्राक तेसिं सगास, ताहे तेहिं सहिं अम्भुडितो भणिओ य-इह चेव ठाहि, ताहे नेच्छइ, ताहे सो बाहिंठितो अण्णे बुग्गाहेइ, ते न सकति वुग्गाहे । इतो य आयरिया अत्थपोरुसिं करेंति, सो न सुणइ, भणइ य-तुन्भेऽत्थ निप्पावयकुडगा, ताहे तिम उद्विएम विंझो अणुभासइ तं सुणेइ, अहमे कम्मप्पवायपुबे कम्मं वणिज्जइ, जहा कम्मं बज्झइ, जीवस्स य कम्मस्सx य कह बंधो?, एत्थ विचारे सो अभिनिवेसेण अन्नहा मन्नतो परूवितोय निण्हओ जाओत्ति ॥ अनेन प्रस्तावेन क एते ४ानिहवा इत्याशङ्काऽपनोदाय तान् प्रतिपिपादयिषुराहबहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुगतिगअबद्धिया चेव । सत्तेए णिण्हगा खलु तित्थंमि उ बद्धमाणस्स॥७७८॥ व्याख्या-'बहुरय'त्ति एकसमयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेर्बहुषु समयेषु रताः-सक्ताः बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः १। 'पदेस' त्ति पूर्वपदलोपात् जीवप्रदेशाः प्रदेशाः, यथा महावीरो वीर इति, | जीवः प्रदेशो येषां ते जीवप्रदेशाः निवा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयम् २ । 'अवत्त' त्ति उत्तरपदलोपादव्यक्तमता अव्यक्ताः, यथा भीमसेनो भीम इति, व्यक्तं-स्फुट, न व्यक्तमव्यक्तम्-अस्फुटं मतं येषां तेऽव्यक्तमताः, संयताधवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति भावना ३ । 'समुच्छेद' ति प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षच्छेदः समुच्छेदः-विनाशः, समुच्छे तेषां सकाशे, तदा नतैः सरन्युस्थितो भणिता-दहव तिच, तदा नेच्छति, तदास बहिःस्थितोऽन्यान् म्युहायति, तान् न शक्रोति न्युह्राहयितुम् । इतवाचार्या अर्थपौरूषी कुर्वन्ति, सन फणांति, भणति च-यूयमत्र निष्पावकुटसमानाः, तदा तेथितेषु विन्ध्योऽनुभाषते सत् मृणोति, अष्टमे कर्मप्रवादपूर्वे कर्म वयते, यथा कर्म बध्यते, जीयस्य च कर्मणश्च कथं बन्धः !, अन्न विचारे सोऽभिनिवेशेनान्यथा मन्यमानः प्ररूपयंश्च निडयो जातः इति । दीप अनुक्रम T JanEaineKा Manfanmitrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | निह्नवाः, तेषाम् सप्त-मता:, तेषाम् नामानि इत्यादिः ~624 ~ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७८], भाष्यं [१२४...] (४०) आवश्यक- ॥३११॥ प्रत सुत्राक दमधीयते तद्वेदिनो वा तदधीते तद्वत्ती' (पा०४-२-५९) त्यण् सामुच्छेदाः, क्षणक्षयिभावप्ररूपका इति भावार्थः हारिभद्री'दुग'त्ति उत्तरपदलोपादेकसमये द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वेदिनो वा द्वैक्रियाः, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभ यवृत्तिः वप्ररूपिण इत्यर्थः ५ । 'तिग' ति त्रैराशिका जीवाजीवनोजीवभेदात्रयो राशयः समाहृताः त्रिराशि तत्प्रयोजनं येषां ते विभागः१ |राशिकाः, राशित्रयख्यापका इति भावना ६ । 'अबद्धिगा चेव' त्ति स्पृष्ट जीवेन को न स्कन्धव बद्धमबद्धम्, अब मेषामस्ति विदन्ति येत्यवद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपका इति हृदयम् ७ । 'सत्तेते निण्या खलु तित्थंमि उ वद्धमाणस्स' ति सप्तैते निलवाः खलु, निहव इति कोऽर्थः -स्वप्रपञ्चतस्तीर्थकरभाषितं निहतेऽर्थ पचाद्यचि (नन्दिग्रहिपचा-15 दिभ्योल्युणिन्यचा पा० ३-१-१३४) ति निह्नवो-मिथ्यादृष्टिः, उक्तं च-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नःप्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥" खल्विति विशेषणे, किं विशिनष्टि-अन्ये तु द्रव्यलि-1 ङ्गतोऽपि भिन्ना बोटिकाख्या इति, तीर्थे वर्द्धमानस्य, पाठान्तरं वा-एतेसि निग्गमणं वोच्छामि अहाणुपुबीए' त्ति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं येभ्यः समुत्पन्नास्तान् प्रतिपादयन्नाहबहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ॥७७९॥ व्याख्या-बहुरताः जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात् प्रभवो येषां ते तथाविधाः, जीवप्रदेशाच, तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः, अव्यक्ता आषाढात्, सामुच्छेदाः अश्वमित्रादिति गाथार्थः॥ गंगाओ दोफिरिया छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती । थेरा य गोहमाहिल पुट्टमवद्धं परूविंति ॥ ७८० ॥ दीप अनुक्रम ॥३१॥ AMERIAL मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~625~ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] ****** “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७८०], भाष्यं [१२४...] व्याख्या - गङ्गात् द्वैक्रियाः, षडुलुकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिः, स्थविराश्च गोष्ठामाहिलाः स्पृष्टमवद्धं प्ररूपयन्ति, कर्मेति गम्यते, 'पुहमबद्धं परुविंसु' वा पाठान्तरं ततश्चावद्धिका गोष्ठामाहिलात् सञ्जाता इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं येषु पुरेपूत्पन्नास्त एते निह्नवास्तानि प्रतिपादयन्नाह- साथी उस पुरं सेविया मिहिल उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई ॥ ७८१ ॥ व्याख्या - श्रावस्ती ऋषभपुरं श्वेतविका मिथिला, उल्लुकातीरं पुरमन्तरखि दशपुरं रथवीरपुरं च नगराणि, निहवानां यथायोगं प्रभवस्थानानि, वक्ष्यमाणभिन्नद्रव्य लिङ्गमिथ्यादृष्टि बोटिकप्रभवस्थानरथवीरपुरोपन्यासो लाघवार्थ इति गाथार्थः ॥ भगवतः समुपजात केवलस्य परिनिर्वृतस्य च कः कियता कालेन निह्नवः समुत्पन्न इति प्रतिपादयन्नाह-चोदस सोलस वासा चोदसवीमुत्तरा य दोण्णि सया । अट्ठावीसा य दुवे पंचैव सपा उ चोयाला ।। ७८२ ।। व्याख्या - चतुर्दशपोडशवर्षाणि तथा 'चोदसवीमुत्तरा य दोन्नि सय त्ति चतुर्दशाधिके द्वे शते विंशत्युत्तरे च द्वे शते, वर्षाणामिति गम्यते, तथाऽष्टाविंशत्यधिके च द्वे शते, तथा पञ्चैव शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि इति गाथार्थः ॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार एव प्रतिपादयिष्यति ॥ | पंच सया चुलसीया छच्चैव सया णवोत्तरा होंति । णाणुप्पत्तीय दुबे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा ॥ ७८३ ॥ व्याख्या - पश्च शतानि चतुरशीत्यधिकानि षट् चैव शतानि नवोत्तराणि भवन्ति । ज्ञानोत्पत्तेरारभ्य चतुर्दशपोडशवर्षाणि यावदतिक्रान्तानि तावदत्रान्तरे द्वावाद्यादुत्पन्नौ उत्पन्ना निर्वृत्ते भगवति, यथोक्तकाले चातिक्रान्ते शेषाः Education intimation For Paints Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~ 626~ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ३१२॥ Jain Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- / गाथा - ], निर्युक्तिः [७८३], सत्यन्यकादय इति, बोटिकप्रभवकालाभिधानं लाघवार्थमेवेति गाथार्थः ॥ अधुना सूचितमेवार्थं मूलभाष्यकृद् यथाक्रमं स्पष्टयन्नाह चोदस वासाणि तथा जिणेण उप्पाडियस्स णाणस्सा तो बहुरयाण दिट्ठी साबस्थीए समुप्पण्णा ॥ १२५॥ (मू० भा० ) व्याख्या - चतुर्दशवर्षाणि तदा 'जिनेन' वीरेणोत्पादितस्य ज्ञानस्य ततोऽत्रान्तरे बहुरतानां दृष्टिः श्रावस्त्यां नगर्यो समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ यथोत्पन्ना तथोपदर्शयन् सङ्ग्रहगाथामाह- भाष्यं [ १२५ ] | जेट्टा सुदंसण जमालिडणोज्ज सावस्थितेंबुगुञ्जाणे । पंचसया य सहस्सं ढंकेण जमालि मोसूणं ॥ १२६॥ ( मू० भा० ) व्याख्या - कुण्डपुरं नगरं तत्थ जमाली सामिस्स भाइणिज्जो, सो सामिस्स मूले पंचसय परिवारो पञ्चइओ, तस्स भज्जा सामिणो दुहिता, तीसे नामाणि जेडत्ति वा सुदंसणत्ति वा अणोज्जत्ति वा सावि सहस्तपरिवारा अणुपबइया, जहा पण्णत्तीए तहा भाणियवं, एक्कारसंगा अहिज्जिया, सामि आपुच्छिऊण पंचसय परिवारो जमाली सावत्थ गतो, तत्थ तेंदुगे उज्जाणे कोइए चेइए समोसढो, तत्थ से अंतपंतेहिं रोगो उप्पन्नो, न तरइ निसन्नो अच्छिउं, तो समणे भणियाइओ - सेज्जासंथारयं करेह, ते काउमारद्धा ॥ अत्रान्तरे जमालिर्दाहज्वराभिभूतस्तान् विनेयान् पप्रच्छ-संस्तृतं न कुण्डपुरं नगरं तत्र जमालिः स्वामिनो भागिनेयः स स्वामिनो मूले पञ्चशतपरीवारः प्रब्रजितः, तस्य भार्या स्वामिनो दुहिता, तस्या नामानिज्येष्ठेति वा सुदर्शनेति वा अनवद्येति वा, साऽपि सहस्रपरिवारा अनुप्रब्रजिता, यथा प्रज्ञप्तौ तथा भवितव्यम्, एकादशाज्ञान्यधीतानि, स्वामिनमा पृच्छय पञ्चशतपरीवारो जमालिः श्रावस्तीं गतः तत्र तिन्दुक उद्याने कोके चैये समयसृतः तत्र तस्यान्तप्रान्तै रोग उत्पन्नः न शक्नोति निषण्णः खातुं ततः श्रमजानू भवितवान् शय्यासंस्तारकं कुरुत, ते कर्त्तुमारब्धाः. For Port Only ~ 627 ~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥३१२ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः जमाली- प्रथम निह्नवस्य कथानकं Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], (४०) भाष्यं [१२६] प्रत सूत्राक वेति ?, ते उक्तवन्तः-संस्तृतमिति, स चोस्थितो जिगमिषुरर्धसंस्तृतं दृष्ट्वा क्रुद्धः, सिद्धान्तवचनं स्मृत्वा 'क्रियमाणं कृत'-18 ISI मित्यादि कर्मोदयतो वितथमिति चिन्तयामास, 'क्रियमाणं कृत' मित्येतद् भगवद्वचनं वितर्थ, प्रत्यक्षविरुद्धत्वात् , अश्रा-15 वणशब्दवचनवत् , प्रत्यक्षविरुद्धता चास्यार्धसंस्तृतसंस्तारासंस्तृतदर्शनात् , ततश्च क्रियमाणत्वेन प्रत्यक्षसिद्धेन कृतत्वध-4 |मोऽपनीयत इति भावना, ततो यदू भगवानाह तदनृतं, किन्तु कृतमेव कृतमिति, एवं पर्यालोच्यैवमेव प्ररूपणां चकारेति, स चेत्थं प्ररूपयन स्वगच्छस्थविरैरिदमुक्तः-हे आचार्य ! 'क्रियमाणं कृत' मित्यादि भगवद्वचनमवितथमेव, नाध्यक्षविरुद्धं, यदि क्रियमाणं क्रियाविष्टं कृतं नेष्यते ततः कथं प्राक् क्रियाऽनारम्भसमय इव पश्चादपि क्रियाऽभावे तदिष्यत इति, सदा प्रसङ्गात् , क्रियाऽभावस्याविशिष्टत्वात् , तथा यच्चोक्तं भवता 'अर्द्धसंस्तृतसंस्तारासंस्तृतदर्शनात् ' तदप्ययुक्तं, यतो यद् यदा यत्राकाशदेशे वस्त्रमास्तीयते तत्तदा तत्रास्तीणमेव, एवं पाश्चात्यवस्त्रास्तरणसमये खल्वसाधास्तीर्ण एव,13 दाविशिष्टसमयापेक्षीणि च भगवद्वचनानि, अतोऽदोष इति ॥ एवं सो जाहे न पडिवजह ताहे केइ असदहता तस्स बयण गया सामिसगासं, अण्णे तेणेव समं ठिया, पियर्दसणावि, तत्थेव ढंको नाम कुंभगारो समणोवासओ, तत्थ ठिया, सा | वंदितुं आगया, तंपि तहेव पण्णवेद, सा य तस्साणुराएण मिच्छसं विपडिवण्णा, अजाणं परिकहेइ, तं च ढंक भणति, सो जाणति-एसाऽवि विप्पडिवण्णा नाहबएणं, ताहे सो भणति–सम्म अहं न याणामि एवं विसेसतरं, अण्णया एवं स यदा न प्रविपश्यते तदा केचिदधतमस्य वचनं स्वामिसकाशं गताः, मन्ये तेनैव समं स्थिताः, प्रियदर्शनाऽपि, तत्रैव बड़ो नाम कुम्भकारः श्रमणोपासकः, तत्र स्थिता, सा वन्दितुमागता, सामपि तथैव प्रज्ञापयति, सा च तस्यानुरागेण मिथ्यात्वं विप्रतिपन्ना, भार्याभ्यः परिकथयति, संचर भणति, स जानाति-एषाऽपि विप्रतिपन्ना नाथवचनेन, तदास भणति-सम्यगई न जानामि एतत् विशेषतरम्, सम्पदा दीप अनुक्रम JAMEaration Horary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~628~ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥३१३॥ Jus Educati “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७८३...], भाष्यं [ १२६ ] कयाई सज्झायपोरुसिं करेइ, ततो ढंकेण भायणाणि उपत्तंतेण ततोहुत्तो इंगालो छूढो, ततो तीसे संघाडीए एगदेसो दडो, सा भणइ सावय ! किं ते संघाडी दडा ?, सो भणइ-तुम्भे चैव पण्णवेह जहा दज्झमाणे अड्डे, केण तुब्भ संघाडी दहा ?, ततो सा संबुद्धा भाइ - इच्छामि समं पडिचोयणा, ताहे सा गंतूण जमालिं पण्णवेह बहुविहं, सो जाहे न पडिवज्जइ ताहे सा सेससाहुणो य सामिं चैव उवसंपण्णाई, इतरोऽवि एगागी अणालोइयपडिकंतो कालगतो ॥ एप सहहार्थः, अक्षराणि त्वेवं नीयन्ते, जेठ्ठा सुदंसणा अणोजति जमालिघरणीए नामाई, सावत्थीए नयरीए तेंदुगुज्जाणे जमालिस्स एसा दिट्ठी उप्पण्णा, तत्थ पंचसया य साहूणं सहस्सं च संजईणं, एतेसिं जे सतं ण पडिवुद्धं तं ढंकेण पडिवोहियंति वक्कसेसं, जमालिं मोत्तूणंति ॥ अन्ये त्वेवं व्याचक्षते - जेठ्ठा महत्तरिगा सुदंसणाऽभिहाणा भगवतो भगिणी, तीसे जमाली पुत्तो, तस्स अण्णोजा नाम भगवतो दुहिता भारिया ॥ शेषं पूर्ववत् । गतः प्रथमो निह्नवः, साम्प्रतं द्वितीयं प्रतिपादयन्नाह - ३ कदाचित्स्वाध्यायपरूप करोति ततो उन भाजनान्युदर्त्तयता ततोऽङ्गारः क्षिप्तः, ततस्तस्याः संधाव्या एकदेशो दग्धः, सा भणति श्रावक ! किं वया संघाटी दग्धा ? स भगति-यूयमेव प्रज्ञापयत यथा दद्यमानमदग्धं केन युष्माकं संघाटी दग्धा ? ततः सा संबुद्धा भगति इच्छामि सम्यक् प्रतिचोदनां, तदा सा गत्वा जमालि प्रज्ञापयति बहुविधं स यदा न प्रतिपद्यते सदा सा शेषसाधवश्च स्वामिनमेवोपसंपन्नाः, इतरोऽपि एकाक्यनाथोचितमतिक्रान्तः काळगतः । २ ज्येष्ठा सुदर्शना अनवचेति जमालि गृहिण्या नामानि श्रावस्यां नगर्यो तिन्दुकोयाने जमालेरेषा दृष्टिपन्ना, तत्र पञ्चशतानि च साधूनां सहस्रं च संय तीनां एतेषां ये स्वयं न प्रतिबुद्धास्ते उन प्रतिबोधिता इति वाक्यदोषः, जमालि मुस्वेति । अन्ये त्वेवं व्याचक्षते - ज्येडा महतरा सुदर्शनाभिधाना भगवत्तो भगिनी, तस्था जमातिः पुत्रः, तस्य अनवद्या नाम भगवतो दुहिता भार्या । For Parnasse Only हारिभद्रीयवृत्ति विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~629~ ॥३१३॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२७] (४०) प्रत सूत्राक सोलस वासाणि तया जिणेण उष्पाडियस्स णाणस्स । जीवपएसियदिछी उसमपुरंमी समुप्पण्णा॥१२७॥(भा०) व्याख्या-पोडश वर्षाणि तदा जिनेनोत्पादितस्य ज्ञानस्य जीवप्रदेशिकदृष्टिस्तत ऋषभपुरे समुत्पन्ना इति गाथार्थः। कथमुत्पन्ना रायगिह नगरं गुणसिलयं चेइय, तत्थ वसू नामायरिओ चोदसपुषी समोसढो, तस्स सीसो तीसगुत्तो नाम, सो आयप्पवायपुवे इमं आलावयं अज्झावेइ-एगे भंते ! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तवं सिया, नो इणमढे समहे, एवं दो जीवपएसा तिणि संखेजा असंखेजा वा, जाव एगेणावि पदेसेण ऊणो णो जीवोत्ति वत्तवं सिया, जम्हा कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपदेसतुलपएसे जीवेत्ति वत्तव' मित्यादि, एषमज्झावितो मिथ्यात्वोदयतो व्युस्थितः सन्नित्थमभिहितवान्यद्येकादयो जीवप्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवाख्यां लभन्ते, किन्तु चरमप्रदेशयुक्ता एवं लभन्त इति, ततः स एवैकः प्रदेशो जीव इति, तद्भावभावित्वात् जीवत्वस्येति, स खल्वेवं प्रतिपादयन् गुरुणोको-नैतदेवं, जीवाभावप्रसलिङ्गात्, कथम् !, भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽप्यजीवः, अन्यप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत्, प्रथमादिप्रदेशो शिवा जीवः, शेषप्रदेशतुल्यपरिमाणत्वाद्, अन्त्यप्रदेशवत्, न च पूरण इतिकृत्वा तस्य जीवत्वं युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वाविशेषाद्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वमित्येवमप्युक्तो यदान प्रतिपद्यते तोहे से काउस्सग्गो कतो, एवं सो बहहिं राजगृह नगरं गुणशीळं चैलां, तत्र वसुनामा आचार्यश्चतुर्दशपूर्वी समवसूतः, तस्य शिष्यस्तिष्यगुप्तो नाम, स भात्मप्रवादपूर्वे इममालाप मध्येति–एको | भदन्त ! जीवप्रदेशो जीष इति वक्तव्यं स्यात् ?, नैषोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ जीवप्रदेशौ त्रयः संख्येया असंख्येया वा, यावदेकेनापि प्रदेशेनोनो न जौय इति | वक्तव्यं स्यात् , यस्मात् कृत्वप्रतिपूर्णक्षोकाकाशानदेशतुल्यप्रदेशो जीव इति वक्तव्य" एवमधीयानः । २ तदा तस्थ कायोत्सर्गः कृतः, एवं स बहुभिर दीप अनुक्रम O niorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | तिष्यगुप्त - वितिय निह्नवस्य कथानक ~630~ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२७] (४०) आवश्यक सायवृत्तिः ॥३१४॥ प्रत असन्भावभावणाहिँ मिच्छत्ताभिनिवेसेण य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणो वुष्पाएमाणो गतो आमलकप्पं नगरि . .. तस्थ अंचसालवणे ठितो, तत्थ मित्तसिरी नाम समणोवासओ, सो जाणइ-जहेस निण्हओ, अण्णया कयाइ तस्स संखडी जाता, ताहे तेण निमंतिओ-तुब्भेहिं सयमेव घरं आगंतवं, ते गता, ताहे तस्स निविहस्स विउला खज्जगविही नीणिता,विभागः १ ताहे सो ताओ एकेकाओ खंडं खंडं देइ, एवं कूरस्स कुसणस्स वत्थस्स, पच्छा पादेसु पडितो, सयणं च भणइ-एह |वंदह, साह पडिलाभिया, अहो अहं धण्णो सपुण्णो जं तुम्भे मम घरै सयमेवागता, ताहे ते भणंति-किं धरिसियामो अम्हे एवं तुमे !, सो भणति-ससिद्धतेण तुम्हे मया पडिलाभिया, जइ नवरं वद्धमाणसामिस्स तणएण सिद्धतेण पडिलाभेमि, तत्थ सो संबुद्धो भणइ-इच्छामि अजो! सम्म पडिचोयणा, ताहे पच्छा सावएण विहिणा पडिलाभितो, मिच्छामि दुक्कडं च कत, एवं ते सो संबोहिया, आलोइय पडिकता विहरति ॥ अमुमेवार्थमुपसंजिहीर्घराह सुत्रांक MC - दीप अनुक्रम १०सद्भावोद्भावनामिर्मिध्यावाभिनिवेशेन चात्मानं परं च तदुभयं च व्युहावन् व्युत्पादयन् गत आमलकरूपां नगरौं, तब भाम्रशालबने स्थितः, तत्र मित्रश्रीनाम | |श्रमणोपासकः, स जानाति-वयष मिशः भन्यदा कदाचित् तस्य(गृहे)संसद्धी जाता, तदा तेन निमन्त्रितः-युष्माभिः स्वयमेव गृहमागन्तव्यं,ते गताः, तदा तस्व| निविष्टस्य विपुल वाचकविधिरानीतः, तदा स तस्मात् एकैकस्मात् खण्डं खण्डं ददाति, एवं कूरख कुसिपाय (व्यानरूप) वनस्य, पश्चात्पादयोः पतितः,IKIM३१ स्वजनं च भणति-आयात बन्दध्वं, साधवः प्रतिकाभिताः, अहो अहं धन्यः सपुण्यो यत्स्वयं यूषमेव मम गृहमागताः, तदा ते भणन्ति-धिर्षिताः सो वयमेवं वया, स भणति-स्वसिद्धान्तेन यूयं मया प्रतिकाभिताः, यदि परं वर्धमानस्वामिसत्केन सिद्धान्तेन प्रतिलम्भयामि, रात्र स सम्बुद्धो भणति-दच्छाम्यार्य सम्यक् प्रतिचोदना, सदा पश्चात् श्रावकेन विधिना प्रतिकम्भितो, मिथ्या मे दुष्कृतं च कृतम्, एवं ते सर्वे संबोधिताः, भालोचितप्रतिकाम्ता विहरन्ति ।। Hiandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~6314 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], (४०) भाष्यं [१२८] --- - प्रत सूत्राक रायगिहे गुणसिलए वसु चोदसपुचि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा णयरी मित्तसिरी कूरपिंडाई ॥१२८॥(भाकाका | व्याख्या-अस्याः प्रपञ्चार्थ उक्त एव, अक्षरगमनिका तु उसपुरंति वा रायगिहंति वा एगठा, तत्थ रायगिहे गुणसिलए उज्जाणे वसु चोद्दसपुबी आयरिओ समोसढो, तस्स सीसाओ तीसगुत्ताओ एसा दिट्ठी समुप्पण्णा, सो मिच्छत्ताभिभूओ आमलकप्पा नाम नयरी तं गओ, मित्तसिरी सावओ, तेण कूरपुवगादि [देशीयवचनत्वात् करसिक्थादिनेत्यर्थः दिहिं पडिबोहिउत्ति ॥ गतो द्वितीयो निह्नवः, साम्प्रतं तृतीयं प्रतिपादयन्नाह चोद्दा दोवाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अश्वत्तयाण दिट्ठी सेयवियाए समुपपन्ना ।। १२९ ।। (भा.) __व्याख्या-चतुर्दशाधिके द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य ततोऽव्यक्तकदृष्टिः श्वेतन्यां नगर्या समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ कथमुत्पन्ना सेयवियाए नयरीए पोलासे उज्जाणे अज्जासाढा नामायरिया समोसढा, तेसिं सीसा बहवे आगाढजोग पडियन्ना, स एवायरिओ तेसिं वायणायरिओ, अन्नो तत्थ नत्थि, ते य रति हिययसूलेण मया सोहम्मे IN नलिणिगुम्मे विमाणे देवा उववन्ना, ओहिं पउंजंति, जाव पेच्छति तं सरीरगं, ते य साहू आगाढजोवाही, तेवि न ऋषभपुरमिति वा राजगृहमिति वा एकायौं, तब राजगृहे गुणशील अद्याने वसुश्चतुर्दशपूर्वी भाचार्यः समवस्तः, तस्य शिष्यात्रिष्यगुप्तात् एषा दृष्टि: समुत्पना, स मिध्यात्वाभिभूत मामलकल्पा नाम नगरी तां गतः, मिनी बावकः, तेन कूरसिक्थादिदृष्टान्तः प्रतियोधित इति । २ श्वेतविकायो नगयों पोलासमुद्यानमार्याषाढा नाम आचार्या समवस्ताः, तेषां शिष्या यहव भागादयोग प्रतिपदाः, स एवाचार्थस्तेषां वाचनाचार्यः, अन्यस्तन्त्र नास्ति, ते च रात्री हृदयशूलेन मृताः सौधर्म नलिनीगुश्मे विमाने देवा उत्पन्नाः, अवधि प्रयुञ्जन्ति, याचस्प्रेक्षन्ते तच्छीरकं, ते च साधव मागादयोगवाहिनस्वेऽपि न दीप अनुक्रम AMERA N amibrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अव्यक्तमत रूप तृतीय निह्नव संबंधे आषाढाचार्यस्य कथानक ~632 ~ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२९] (४०) आवश्यक ॥३१५॥ प्रत सुत्रांक याणंति-जहा आयरिया कालगता, ताहे तं चेव सरीरगं अणुप्पविसित्ता ते साहुणो उहवेति, वेरत्तिय करेह, एवं तेण| हारिभद्रीतसिं दिवपभावेण लहुं चेव सारियं, पच्छा सो ते भणइ-खमह भंते ! जंभे मए अस्संजएण वंदाविया, अहं अमुगदि-IRTAN विभाग:१ वसे कालगतो, तुझं अणुकंपाए आगतो, एवं सो खामेत्ता पडिगतो, तेवि तं सरीरंग छड्डेऊण चिंतेति-एचिरं कालं | ४। अस्संजतो वंदितो, ततो ते अवत्तभावं भावेति-को जाणइ किं साहू देवो वा ? तो न वंदणिज्जोत्ति । होज्जासंजतनमणं होज मुसाबायममुगोत्ति ॥ १ ॥ थेरवयणं जदि परे संदेहो कि सुरोत्ति । साहुत्ति देवे कह न संका किं सो देवो अदेवोत्ति ॥२॥ तेण कहिएत्ति व मती देवोऽहं स्वदरिसणाओ य । साहुत्ति अहं कहिए समाणरूवंमि किं संका ? ॥ ३ ॥ देवस्स व किं वयणं सच्चंति न साहरूवधारिस्स । न परोप्परंपि बंदह जं जाणतावि जययोत्ति ॥ ४॥ एवं भण्णमाणावि जाहे| |ण पडिवजंति ताहे उग्घाडिया, ततो विहरता रायगिह गया, तत्थ मोरियवंसपसूओ बलभद्दो नाम राया समणोवासओ, जानन्ति-यथा भाचार्याः कालगताः, तवा तदेव शरीरमनुप्रविश्य तान् साधूनुत्थापयन्ति, वैराधिकं कुरत, एवं तेन तेषां दिव्यप्रभावेण कष्वेव | सारित, पश्वास तान् भणति-क्षमध्यं भदन्ताः! यन्मया भवन्तोऽसंयतेन वन्दिताः, अहममुकष्मिन् दिवसे कालगतः, युष्माकमनुकम्पचा भागतः, एवं स क्षमविस्वा प्रतिगतः, तेऽपि तच्छरीरकं वक्त्वा चिन्तयन्ति-इयचिरं कालमसंवतो बन्दितः, ततस्तेऽव्यक्तभावं भावयन्ति-को जानाति किं साधुदेवो वा!, ततो न बन्दनीय इति । भवेदसंयतनमनं भवेन्सपावादोऽसुक इति ॥ १॥ स्थविरवचनं यदि परस्मिन् संदेवः किं सुर इति ।। साधुरिति देवे कथं न शाहा! किं ।॥३१५॥ स देवोऽदेव इति ॥ २ ॥ तेन कथित इति च मतिदेवोऽहं रूपदर्शनाच । साधुरहमिति कविते समानरूपे का पाया ॥३॥ देवस्यैव किं वचनं सत्यमिति न साधुरूपधारिणः । न परस्परमपि वम्बध्वं यजानाना अपि यतय इति ॥ १॥ एवं भग्यमाना अपि यदान प्रतिपचन्ते तदोघाटिताः, सतो बिहरन्तो राजगृहं |गताः, तत्र मौर्यवंशप्रसूतो बलभद्रो नाम राजा श्रमणोपासकः, दीप अनुक्रम AMERIMARS ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~633~ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१२९] (४०) प्रत सूत्राक तेण ते आगमिया-जहा इहमागतत्ति, ताहे तेण गोहा आणत्ता-वच्चह गुणसिलगातो पवइयए आणेह, तेहिं आणीता, रण्णा पुरिसा आणत्ता-सिग्धं एते कडगमद्देण मारेह, ततो हत्थी कडगेहि य आणीएहिं ते पभणिया-अम्हे जाणामो जहा तुम सावओ, तो कहं अम्हे माराविहि ?, राया भणइ-तुम्हे चोरा णु चारिया णु अभिमरा णु?, को जाणइ?, ते भणंति| अम्हे साहुणो, राया भणइ-किह तुम्भे समणा?,जं अबत्ता परोप्परस्सवि न वंदह, तुम्भे समणा वा चारियावा?, अहंपि सावगो वा न वा?, ताहे ते संबुद्धा लज्जिया पडिवन्ना निस्संकिया जाया, ताहे अंबाडिया खरेहिं मउएहि य, संबोहणहाए तुम्भं इमं मए एयाणुरूवं कर्य, मुक्का खामिया य॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाहसेयवि पोलासाडे जोगे तदिवसहिययसूले य । सोहंमिणलिणिगुम्मे रायगिहे मुरिय वलभद्दे ॥१३०॥(भा०) व्याख्या-श्वेतव्यां नगर्यो पोलासे उद्याने आषाढाख्य आचार्यः, योग उत्पाटिते सति तदिवस एव हृदयशूले च, उत्पन्ने मृत इति वाक्यशेषः, स च सौधर्म कल्पे नलिनिगुल्मे विमाने, समुत्पद्यावधिना पूर्ववृत्तान्तमवगम्य विनेयानां दीप अनुक्रम तेन ते ज्ञाता-यथेहागता इति, तदा तेन आरक्षा आज्ञप्ता-बजत गुणशीलात् प्रबजितान् आनयत, रानीताः, राज्ञा पुरुषा आज्ञप्ताः-शीघ्रमेतान कटकमदन मर्दयत, ततोहस्तिषु कटकेषु चानीतेषु ने प्रभणिता:-वयं जानीमो यथा त्वं श्रावकः, तत् कथं मसान् मारविष्यसि ?, राजा भणति-यूर्य चौरा नु चारिका नु मभिमरा नु', को जानाति !, ते भणन्ति-वयं साधवः, राजा भणति-कथं घूर्य श्रमणाः , बदव्यताः परस्परमपि न बन्दवं, यूयं श्रमणा वा चारिका वा! अहमपि श्रावको वा न था?, तदा ते संबुद्धा नजिताः प्रतिपन्ना निश्शद्धिता जाताः, तदा निभसिताः खरदुभिश्न, संबोधनार्थाय युष्माकं मयेदमेतदनुरूप कृतं, मुक्ताः क्षामिताब Jantaintain Raniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~634~ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३०] (४०) आवश्यक- ॥३१६॥ प्रत सूत्रांक योगान् सारितवानिति वाक्यशेषः, सुरलोकगते तस्मिन्नव्यक्तमतास्तद्विनेया विहरन्तो राजगृहे नगरे मौर्य बलभद्रो राजा, तेन सम्बोधिता इति वाक्यशेषः, एवमन्या अपि सङ्ग्रहगाथा स्वबुद्ध्या व्याख्येया इति । उक्तस्तृतीयो निहवा, " हारिभद्री | यवृत्तिः चतुर्थव्याचिख्यासयाऽऽह विभागा१ बीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स चीरस्स । सामुच्छेदयदिही मिहिलपुरीए समुप्पण्णा ॥१३१॥ (भा०) व्याख्या-विंशत्युत्तरे द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य ततोऽत्रान्तरे सामुच्छेदिकदृष्टिः मिथिलापुर्या समुत्प-18 नेति गाथार्थः ॥ यथोत्पन्ना तथा प्रदर्शयन्नाह-- मिहिलाए लच्छिघरे महगिरिकोडिपण आसमित्ते य । उणियाणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य ॥१३२॥ (भा०) व्याख्या-मिहिलाए नयरीए लच्छिहरे चेतिए महागिरीआयरियाण कोडिण्णो नाम सीसो ठितो, तस्स आसमित्तो सीसो, सो अणुप्पवादपुबे नेउणियं वत्थु पढति, तत्थ छिण्णछेदणयवत्तधयाए आलावगो जहा पडुत्पन्नसमयनेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव वेमाणियत्ति, एवं बिइयादिसमएसु बत्तर्व, एत्थ तस्स वितिगिच्छा जाया-जहा सवे पडुप्पन्नसमयसंजाता वोच्छिजिस्संति-एवं चकतो कम्माणुवेयणं सुकयदुक्क्याणति । उप्पादाणतरतोसबस्स विणाससम्भावा ॥१॥ मिथिलायां गगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्ये महागिर्याचार्याणां कोण्डिन्यो नाम शिष्यः स्थितः, तस्याश्चमित्रः शिष्यः, सोऽनुप्रवावपूर्षे नैपुणिक वस्तु पढति, तत्र | || ॥३१६॥ | छिमछेदनकयकव्यतायामालापको यथा-प्रत्युत्पञ्चसमयनैरविका म्युच्छेत्स्यन्ति, एवं बाबहमानिका इति, एवं द्वितीयादिसमयेष्यपि वक्तव्यम्, भन्न तस्य विधिचिकित्सा जाता-यथा सर्व प्रत्युत्पनसमयसंजाता म्युच्छेत्स्यन्ति-एवं च कुतः कर्माणुवेदनं सुकृतदुष्कृतागामिति । उत्पादानन्तरं सर्वस्य विनाशसनावात् ॥१॥ दीप अनुक्रम 4584% JABERatinintamational laindinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | चतुर्थ निह्नव अश्वमित्रस्य कथानकं ~635~ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३२] (४०) । प्रत सूत्राक सो एवमादि परुवेतो गुरुणा भणिओ-एगनयमएणमिणं सुत्तं वच्चाहि मा हु मिच्छत्तं । निरवेक्खो सेसाणवि नयाण हिदयं वियारेहि ॥२॥ नहि सबहा विणासो अद्धापजायमेत्तणासंमि । सपरप्पज्जाया अणंतधम्मिणो वत्थुणो जुत्ता ॥३॥ अह सुत्तातोत्ति मती णणु सुत्ते सासयंपि निद्दिई । वत्थु दषट्ठाए असासयं पजवहाए ॥ ४ ॥ तत्थवि ण सब-16 नासो समयादिविसेसणं जतोऽभिहितं । इहरा ण सबनासे समयादिविसेसणं जुत्तं ॥५॥ जाहे पण्णविओवि नेच्छति वाहे उग्घाडितो, ततो सो समुच्छेदं वागरेंतो कंपिलपुरं गतो, तत्थ खंडरक्खा नाम समणोवासया, ते य सुंकपाला, तेहि ते आगमिएल्लगा, तेहिं ते गहिया, ते मारेउमारद्धा, ते भणंति भयभीया-अम्हेहिं सुयं जहा तुम्भे सावगा, तहावि एते साह मारेह, ते भणंति-जे ते साहू ते वोच्छिण्णा तुझं चेव सिद्धंतो एस, अतो तुम्भे अण्णे केवि चोरा, ते भणतिमा मारेह, एवं तेहिं संबोहिया पडिवण्णा सम्मत्तं । अयं गाथार्थः ॥ अक्षराणि तु क्रियाध्याहारतः स्वधिया ज्ञेयानि । गतश्चतुर्थों निहवः, साम्प्रतं पञ्चममभिधित्सुराह स एवमादि प्ररूपयन् गुरुणा भणित:-एकनयमतेनेदं सूर्य माजीओ मिथ्यात्वम् । निरपेक्षः शेषाणामपि नयानां हदयं विचारय ।२॥न हि सर्वथा विनाशोऽवापर्यायमात्रनाशे । स्वपरपबिरनम्तधर्मिणो वस्तुनो युक्तः ॥३॥ अथ सूत्रादिति मतिनंनु सूत्रे शाश्वतमपि निर्दिष्टम् । वस्तु द्रव्यार्थतवाऽशावत पर्यवार्थतया ॥ ४॥ तत्रापि न सर्वनाशः समयादिविशेषणे यतोऽभिहितम् । इतस्था न सर्वनाशे समयादि विशेषणं युक्तम् ॥ ५॥ यदा प्रज्ञापितोऽपि नेच्छति तदोद्घाटितः, ततः स सामुच्चेदं व्याकुर्वन् काम्पील्यपुरं गतः, तत्र खण्डरक्षा नाम श्रमणोपासकाः, ते च शुल्कपालाः, तस्ते ज्ञाताः, तैस्ते गृहीताः, ते मारयितुमारब्धाः, ते भणन्ति भयभीता:-भस्माभिः श्रुतं यथा यूयं श्रावकाः, तथापि एतान् साधून मारयय, ते भगन्ति-ये वे साधव ज्युच्छिमा युष्माकमेव [सिद्धान्त एषा, भतो यूयमन्थे केऽपि चौराः, ते भणन्ति-मा मीमरत, एवं तैः संबोधिताः प्रतिपनाः सम्यक्त्वम् । दीप अनुक्रम T REaiORonal wajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 636 ~ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३३] (४०) आवश्यक ॥३१७॥ प्रत सुत्रांक अट्ठावीसा दो वाससया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। दो किरियाणं दिही उल्लुगतीरे समुम्पण्णा॥१३॥(भा): हारिभद्री| व्याख्या-अष्टाविंशत्यधिके द्वे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य, अत्रान्तरे द्वैक्रियाणां दृष्टिः उल्लुकातीरे समुत्पनेति गाथार्थः॥ यथा समुत्पन्ना तथा निदर्शनायाह विभागः१ णइखेडजणव उल्लुग महगिरिधणगुत्त अजगंगे य । किरिया दोरायगिहे महातवो तीरमणिणाए॥१३४॥ (भा०) मा व्याख्या-उलुका नाम नदी, तीए उबलक्खिओ जणवतोवि सो चेव भण्णइ, तीसे य नदीए तीरे एगंमि खेडठाण, बीयमि उल्लुगातीरं नगरं, अण्णे तं चेव खेडं भणंति, तत्थ महागिरीण सीसो धणगुत्तो नाम, तस्सवि सीसो गंगो नाम आयरिओ, सो तीसे नदीए पुषिमे तडे, आयरिया से अवरिमे तडे, ततो सो सरयकाले आयरिय वंदओ उच्चलिओ, सो य खल्लाडो, तस्स उल्लुगं नदि उत्तरंतस्स सा खल्ली उण्हेण डन्झइ, हिहा य सीयलेण पाणिएण सीतं, ततो सो चिंतेइ|सुत्ते भणियं जहा एगा किरिया वेदिजइ-सीता उसिणा वा, अहं च दोकिरियाओ वेएमि, अतो दोऽवि किरियाओ एगसमएण वेदिजंति, ताहे आयरियाण साहइ, ताहे भणिओ-मा अज्जो! एवं पन्नवेहि, नस्थि एगसमएण दो किरियाओ उल्लकानाझी नदी, तयोपलक्षितो जनपदोऽपि स एव भव्यते, तस्याश्च नधास्तीर एकस्मिन् खेटस्थान, जिवीये जलकावीर नगरम् , अम्बे तदेव खेट-18 मिति भणन्ति, तत्र महागिरीणां शिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्यापि शिष्यो गको नामाचार्यः, स तस्या नद्याः पौरस्तो तीरे, आचार्यास्तस्य पाश्चात्ये तटे, ततः सह शरत्काले आचार्य बन्दितमुचलितः, स च खवाटा, तस्योलका नदीमुत्तरतः सा खलतिरुष्णेन दाते, अधस्ताच शीतलेन पानीयेन शीतं, ततः स चिन्तयप्ति-सूत्र ॥१७॥ भनितं यथा एका क्रिया वेद्यते-शीतोष्णा वा, महं च द्वे किये वेवयामि, अतो दे अपि किये एकसमयेन वैयेते, तदाऽऽचार्येभ्यः कथयति, तदा भणितःमा आर्य! एवं प्रजीक्षपः, नास्ति (एतत् यत् ) एकसमयेन द्वे किये दीप अनुक्रम AIMEROLA binataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: पंचम निह्नव गंग-आचार्यस्य कथानकं ~637~ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३४] (४०) 54 9 % RECE5% प्रत सूत्राक वेदिति, जतो समओ मणो य सुहुमा ण लक्खिजंति उत्पलपत्रशतवेधवत् , एवं सो पण्णवितोऽवि जाहे न पडिबजा |ताहे उग्याडितो, सो हिंडतो रायगिहं गतो, महातवो तीरप्पभे नाम पासवणे, तत्थ मणिणागो नाम नागो, तरस चेतिए ठाति, सो तत्थ परिसामञ्झे कहेति-जहा एगसमएण दो किरियाओ वेदिजंति, ततो मणिनागेण भणियं तीसे परिसाए मज्झे-अरे दुइसेहा ! कीस एयं अपण्णवणं पण्णवेसि ?, एत्थ चेव ठाणे ठिएण भगवता वद्धमाणसामिणा वागरियंजहा एर्ग किरियं वेदेति, तुम तेर्सि किं लठ्ठतरओ जाओ?, छडेहि एवं वादं, मा ते दोसेणासेहामि-'मणिनागेणारद्धो भयोववत्तिपडिबोहिओ वोत्तुं । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो ॥१॥त्ति गाथार्थः॥ गतः पञ्चमो निवः, पष्ठमधुनोपदर्शयन्नाहपंचसया चोयाला तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिही उववण्णा ॥ १३५ ॥ (भा०) व्याख्या-पञ्च वर्षशतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि तदा सिद्धिं गतस्य वीर (ग्रंथाग्रं ८०००) स्य, अत्रान्तरे पुर्यन्तर-| जिकायाम् , अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, त्रैराशिकदृष्टिरुत्पन्नेति गाथार्थः । कथमुत्पन्नेति प्रदश्यते-तत्र %96 C दीप अनुक्रम वेवेते, यतः समयो मनश्च सूक्ष्मे न लक्ष्येते, एवं स प्रशापितोऽपि यदान प्रतिपद्यते तदोद्घाटितः, स हिण्डमानो राजगृहं गतः, महातपस्तीरप्रभ नाम | प्रश्रवणं, वत्र मणिनागो नाम नागः, तस्स चैहये तिष्ठति, स तत्र पर्षग्मध्ये कथयति-यथा एकसमयेन तु किये वेयेते, ततो मणिनागेन भणितं तस्याः पर्षदो मध्ये-अरे दुष्टशैक्ष! कथमेतामप्रज्ञापनां प्रज्ञापयसि!, अत्रैव स्थाने स्थितेन भगवता वर्धमानस्वामिना व्याकृतं-बधैका क्रियां पेदयति, वं तेभ्यः किं लटतरो जातः, यजैनं वाद, मा त्वां (ते) दोषेण शिक्षवामि-मणिनागेनारब्धो भयोपपत्तिप्रतियोधित क्रिया । इच्छामः (इति) गुरुमूलं गत्वा ततः प्रतिकान्तः॥१॥ wiandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: षष्ठ निह्नवरूप त्रैराशिकमत प्ररुपक रोहगुप्तस्य कथानक ~638~ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७८३...], भाष्यं [ १३६] ॥३१८॥ आवश्यक * पुरिमंतरंजि भूयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य। परिवाय पोहसाले घोसणपडिसेहणा वाए । १३६ ।। (भा० ) व्याख्या - सङ्ग्रहगाथा | अस्याश्च कथानकादर्थोऽवसेयः, तच्चेदम्-अंतरंजिया नाम पुरी; तत्थ भूयगुहं नाम चेतियं, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिता, तत्थ बलसिरी नाम राया, तेसिं सिरिगुत्ताणं थेराणं संहियरो रोहउत्तो नाम सीसो, अण्णगामे ठितओ, ततो सो उवज्झायं वंदओ एति, एगो य परिवायओ पोट्टं लोहपट्टएण बंधिरं जंबुसालं गहाय हिंडर, पुच्छितो भणइ-नाणेण पोट्टं फुडइ तो लोहपट्टेण बद्धं, जंबुडालं च जहा एत्थ जंबूदीवे णत्थि मम पडिवादित्ति, ततो तेण पडहतो णीणावितो-जहा सुण्णा परप्पवादा, तस्स लोगेण पोट्र्साठो चेव नामं कतं, सो पडहतो रोहगुत्तेण वारिओ, अहं वादं देमित्ति, ततो सो पडिसेहित्ता गतो आयरियसगासं, आलोएइ एवं मए पडहतो विणिवारिओ, आयरिया भणंति-दुड्डु कथं, जतो सो विजाबलिओ, वादे पराजितोऽवि विज्जाहिं उबडाइति तस्स इमाओ सत्त विज्जाओ, तंजहाविच्छु सप्पे मूसग मिई वराही य कायपोआई। एयाहिं विज्जाहिं सो उ परिव्वायओ कुसलो ॥१३७॥ (भा०) Jus Educat १ अन्तरक्षिका नाम पुरी, तत्र भूतगुदं नाम चैत्यं तत्र श्रीगुप्ता नाम आचार्याः स्थिताः, तत्र बलश्रीनांम राजा, तेषां श्रीगुतानां स्थविराणां अतिबादो रोहगुप्तो नाम शिष्यः, अम्यग्रामे स्थितः, ततः स उपाध्यायं वन्दितुमावाति, एक परिवाद लोहपहेनोदरं बच्चा, जम्बूशालां गृहीत्वा हिण्डते, पृष्टो भणतिज्ञानेनोदरं स्फुटति तत् लोहपट्टेन वलं, जम्बूशास्त्रां यथाऽत्र जम्बूद्वीपे नास्ति मम प्रतिवादीति, ततस्तेन परहो निष्काशितो यथा परप्रवादाः, तस्य लोकेन पोहशाल एव नाम कृतं स पटहो रोहगुप्तेन वारितः, अहं वादं ददामीति, ततः स प्रतिषिध्य गत आचार्यसकाशम्, आलोचयति एवं मया परहो विनिवारितः, आचार्या भगन्ति दुष्ठु कृतं यतः स विद्याबी, वादे पराजितोऽपि विद्याभिरुत्तिष्ठते, तस्माः सप्त विद्याः, तद्यथा+सद्धि एगो For Parent हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~639~ ॥३१८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३७] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-तत्र वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, सति सर्पप्रधाना, 'मूसग त्ति मूषकप्रधाना, तथा मृगी। नाम विद्या, मृगीरूपेणोपघातकारिणी, एवं वाराही च, 'कागपोति' त्ति-काकविद्या, पोताकीविद्या च, पोताक्यः सक-18 निका भण्यन्ते, एतासु विद्यासु, एताभिवा विद्याभिः स परिव्राजकः कुशल इति गाथार्थः ॥ सो भणइ-किं सका एत्ताहे| निलकि, ततो सो आयरिएण भणिओ-पढियसिद्धाउ इमाउ सस पडिवक्खविज्जाओ गेह, तंजहामोरी नउलि बिराली बग्घी सीही उलूगि ओवाई। एयाओ विजाओ गेण्ह परिवायमहणीओ॥१३८ ॥ (भा०)13 ___ व्याख्या-मोरी नकुली बिराली व्याघ्री सिंही च उलूकी 'ओवाइ' त्ति ओलावयप्रधाना, एता विद्या गृहाण परिवाजकमथिन्य इति गाधार्थः ॥ रेयहरणं च से अभिमतेउं दिण्णं, जइ अन्नंपि उट्टेइ तो रयहरणं भमाडिजासि, तो अजेयो होहिसि, इंदेणावि सक्किहिसि नो जेतुं, ताहे ताओ विजाओ गहाय गो सभ, भणियं चऽणेण-एस किं जाणति !,12 एयस्स चेव पुवपक्खो होउ, परिवाओ चिंतेइ-एए निजणा तो एयाण चेव सिद्धतं गेण्हामि, जहा-मम दो रासी, तंजहा-जीवा य अजीवा य, ताहे इयरेण चिंतियं-एतेण अम्ह चेव सिद्धंतो गहिओ, तेण तस्स बुद्धिं परिभूय तिन्नि दीप अनुक्रम स भणति-कि शवया अधुना निकातुम् , ततः स ाचावेण भणित:-पठितसिद्धा इमाः सम प्रतिपक्षविद्या गृहाण, तद्यथा- । रजोहरणं च तस्मायभिमन्य | दत्तं, यद्यन्यदपि उत्तिष्ठते सदा रजोहरण प्रामयेस्ततोऽआयो भविष्यसि, इन्द्रेणापि शक्ष्य से नो नेतुं, तदा ता विद्या गृहीत्वा गतः सभा, भणितं चानेन-एष कि जानाति , एतस्यैव पूर्वपक्षो भवतु, परिवाद चिन्तयति-एते निपुणास्तत एतेषामेव सिद्धान्तं गृहामि, यथा मम ही राशी, तयथा-जीवाश्च अजीवान, तदा इतरेण चिन्तितम्-पतेनास्माकमेव सिद्धान्तो गृहीतः, तेन तस्य बुद्धि परिभूय प्रयो CAMERuratix . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~640~ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३८] (४०) आवश्यक ॥३१९॥ प्रत रासी ठविया-जीवा अजीवा नोजीवा, तत्थ जीवा संसारस्था, अजीवा घडादि, नोजीवा पिरोलियाछिन्नपुच्छाई, हारिभद्रीदिलुतो दंडो, जहा दंडस्स आदिमज्झं अग्गं च, एवं सबे भावा तितिहा, एवं सो तेण निप्पट्ठपसिणवागरणो कओ, ताहे - यवृत्तिः सो परिवायओ रुठ्ठो विच्छुए मुथइ, ताहे सो तेसिं पडिवक्खे मोरे मुयइ, ताहे तेहिं हएहिं विछिएहि पच्छा सप्पे मुयइ, विभागः१ इयरो तेसिं पडिधाए नउले मुयइ, ताहे उंदुरे तेसिं मजारे, मिए तेर्सि वग्धे, ताहे सूयरे तेर्सि सीहे, काके तेसिं उलुगे, ताहे पोयागी मयइ तसि ओलाई, एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दभी मुका, तेण य सा रयहरणेण आहया, सा परिवायगस्स12 उपरि छरित्ता गया, ताहे सो परिवायगो हीलितो निच्छूढो, ततो सो परिवायगं पराजिणित्ता मओ आयरियसगासं, आलोएइ-जहा जिओ एवं, आयरिया आह-कीस तए उहिएण न भणियं ?-नस्थित्ति तिन्नि रासी, एयस्स मए बुद्धिं परिभूय पण्णविया, इयाणिपि गंतुं भणाहि, सो नेच्छा, मा मे ओहावणा होउत्ति, पुणो पुणो भणिओ भणइ-को वा एत्थ सुत्रांक दीप अनुक्रम राशयः स्थापिता:-जीवा अजीवा नोजीवाः, तत्र जीवा: संसारस्थाः, अजीवा घटाइयः, नोजीवा गृहकोकिलाछिनपुच्छादयः, दृष्टान्तो दण्डः, यथा दण्डस्यादिमध्यमग्रंच, एवं सर्वे भावास्त्रिाविधाः, एवं स तेन निष्पृष्टप्रभव्याकरणः कृतः, तदा स परिवाटू रुष्टो वृश्चिकान् मुञ्चति, तदा स तेषां प्रतिपक्षान् मयूरान् मुञ्चति, तदा तैहतेषु वृषिकेषु पवारसपान मुजाति, इतरस्तेषां प्रतिघाताय नकुलान् मुञ्चति, तदोन्दुरान् सेषां मार्जारान्, मृगान् तेषां व्याघान्, तदा शूकरान् तेषां सिंहान , काकांपामुलूकान् , तदा पोताक्यसासामोलवकान, एवं यदा न शक्रोति तदा गर्दभी मुक्ता, तेन च सा रजोहरणेनाहता, सा परिनाज उपरि हदित्वा गता, सदास परिबाद हील्यमानो निष्काशितः, ततः स परिबाजकं पराजित्य गत आचार्यसकाशम, आलोचयति-यथा जित एवम्. आचायाँ आहुः कथं तदोलिष्टता न भणित-न सन्ति राशयय इति, एतस्य बुदि परिभूव मया प्रशापिताः, इदानीमपि गत्वा भण, स नेच्छति, मा मेऽपभाजना भूदिति, पुनः पुनर्मणितो भणति-को वात्र ॥३१९॥ R andionaryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~641~ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], (४०) भाष्यं [१३८] प्रत दोसो ? जइ तिन्नि रासी भणिया, अस्थि चेव तिन्नि रासी, आयरिया आह-अज्जो! असब्भावो तित्थगरस्स आसायणा य, तहाविन पडिबजइ, ततो सो आयरिएण समं वायं लम्गो, ताहे आयरिया राउलं गया भणति-तेण मम सिस्सेण अवसिद्धंतो भणिओ, अम्हं दुवे चेव रासी, इयाणि सो विपडिवन्नो, तो तुन्भे अम्हं वायं सुणेह, पडिस्सुयं राइणा, ततो तेसिं रायसभाए रायपुरओ आवडियं, जहेगदिवसं उद्याय २ छम्मासा गया, ताहे राया भणइ-मम रज अवसीदति, ताहे। आयरिएहिं भणियं-इच्छाए मए एचिरं कालं धरिओ, एत्ताहे पासह कलं दिवसं आगए निगिण्हामि, ताहे पभाए भणइ-कुत्तियावणे परिक्खिजउ, तत्थ सबदवाणि अस्थि, आणेह जीवे अजीवे नोजीवे य, ताहे देवयाए जीवा अजीवा Pाय दिण्णा, नोजीया नस्थि, एवमादिचोयालसएणं पुच्छाणं निम्गहिओ ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह[सिरिगुत्तेणऽवि छलुगो छम्मासे कहिऊण वाय जिओ।आहरणकुत्तियावण चोयालसएण पुच्छाणं॥१३९॥भा० सूत्राक दीप अनुक्रम दोषः ? यदि प्रयो राशयो भणिताः, सम्स्येच यो राशयः, आचार्या आहुः-आर्य ! असद्भावस्तीर्थकरवाशातना च, तथापि न प्रतिपद्यते, ततः स आचार्येण समं वादं (क) लमः, तदा आचार्या राजकुलं गता भणन्ति-तेन मम शिष्येणापसिद्धान्तो भणितः, अस्माकं द्वौ एवं राशी, इदानीं स विप्रतिपन्नः, तन् यूयमावयोर्वाई शृणुत, प्रतिश्रुतं राज्ञा, ततस्तयो राजसभायां राज पुरत आपतितः (वादः), यथेको दिवसस्तथोत्थाय २ षण्मासी गता, तदा राजा भणति-मम राज्य अव सीदति, तदाचार्भणितम्-इच्छया मयेयचिरै कालं तः,अधुना पश्यत कल्ये दिवसे भागते निगृहामि तदा प्रभाते भणति-कुत्रिकापणे परीक्ष्यतां, तत्र सर्वदच्याणि सन्ति, मानव जीवान् अजीवान नोजीवांश्च, तदा देवतया जीवा अजीवान दत्ता, नोजीचा न सन्ति, एवमादिचतुश्चत्वारिंशेन शतेन पृच्छानां निगृहीतः। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~642~ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७८३...], भाष्यं [ १३९] आवश्यक व्याख्या - निगदसिद्धा, नवरं चोयालसयं - तेण रोहेण छम्मूलपयत्था गहिया, तंजा - दवगुणकम्मसामन्नविसेसा छडओ य समवाओ, तत्थ दवं नवहा, तंजहा-भूमी उदयं जलणो पवणो आगासं कालो दिसा अप्पओ मणो यत्ति, ॥३२० ॥ ४ गुणा सत्तरस, तंजहा-रूवं रसो गंधो फासो संखा परिमाणं पुहुत्तं संयोगो विभागो परापरत्तं बुद्धी सुहं दुक्खं इच्छा ४ विभागः १ हारिभद्रीयवृत्तिः दोसो पयत्तो य, कम्मं पंचधा-उक्खेवणं अवक्खेवणं आउंचणं पसारणं गमणं च, सामण्णं तिविहं महासामण्णं १ सत्तासामण्णं त्रिपदार्थसद्बुद्धिकारि २ सामण्णविसेसो द्रव्यत्वादि ३, अन्ये त्वेवं व्याख्यानयन्ति - त्रिपदार्थसत्करी सत्ता, सामण्णं द्रव्यत्वादि, सामन्नविसेसो पृथिवीत्वादि, विसेसा अंता ( अनंता य), इहपच्चयहेऊ य समवाओ, एए छत्तीसं भैया, एत्थ एकेके चत्तारि भंगा भवति, तंजहा-भूमी अभूमी नोभूमी नोअभूमी, एवं सवत्थ, तत्थ कुत्तियावणे भूमी मग्गिया लेडुओ लद्धो, अभूमीए पाणियं, नोभूमीए जलाद्येव तु नो राज्यन्तरं, नोअभूमीए लेहुए चेव एवं सवत्थ । आह च भाष्यकार:- जीवमजीवं दार्ड णोजीवं जाइओ पुणो अजीवं देइ चरिमंमि जीवं न उ णोजीवं सजीवदलं Educal १ चतुवरवारिंशं शतं तेन रोइगुसेन पद मूलपदार्थों गृहीताः, तद्यथा-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषाः षष्टश्च समवायः, तत्र द्रव्यं नवचा, तद्यथा-भूमिरुदकं ज्वलनः पवन आकाश कालो दिन आत्मा मनश्चेति गुणाः सप्तदश, तद्यथा रूपं रसो गन्धः स्पर्शः संख्या परिमाणं पृथक्त्वं संयोगो विभागः परस्यमपरत्वं बुद्धिः सुखं दुःखमिच्छा द्वेषः प्रयध, कर्म पञ्चधा उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनं च सामान्यं त्रिविधं महासामान्यं सत्तासामान्यं सामान्यविशेषः, सामान्यं सामान्यविशेषः विशेषा अम्या (अनम्यान ), दहप्रत्यय हेतु समयायः, एते षटूत्रिंशत् भेदाः, मकैकसिन् चत्वारो मङ्गा भवन्ति, तथथा भूमिर भूमिर्नो भूमिन अभूमिः, एवं सर्वत्र तत्र कुत्रिकापणे भूमिर्मार्गिता हुदंशः, अभूमेः (मार्गणे ) पानीयं भोभूमेर्जलाचेव, नोभूमेरेव, एवं सर्वत्र जीवमजीवं दवा नोजीवं याचितः पुनरजीवम् ददाति चरमे जीवं नतु नो जीवं सजीवदम् ॥ १ ॥ * भाष्यगता दश गाथा अन For at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~643~ ॥३२०॥ danibrary.org Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१३९] (४०) SCR प्रत सूत्राक ततो निग्गहिओ छलूगो, गुरुणा से खेलमल्लो मत्थए भग्गो, ततो निद्धाडिओ, गुरूवि पूतिओ णगरे य गोसणय कयंवद्धमाणसामी जयइत्ति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहवाए पराजिओ सो निविसओ कारिओ नरिंदेणं । घोसावियं च णगरे जयइ जिणो वद्धमाणोति॥१४०॥(भा०) | निगदसिद्धा, तेणोषि सरक्खरडिएणं चेव वइसेसियं पणीय, तं च अण्णमण्णेहिं खाई णीयं, तं चोलूयपणीयन्ति |बुच्चइ, जओ सो गोत्तेणोलूओ आसि ॥ गतः षष्ठो निह्नवः, साम्प्रतं सप्तमं प्रतिपादयितुमाहपंचसया चुलसीया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अवद्धियाण दिट्ठी दसपुरनयरे समुप्पण्णा ॥ १४१॥(भा.) व्याख्या-पश्च वर्षशतानि चतुरशीत्यधिकानि तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्य, ततोऽवद्धिकदृष्टिः दशपुरनगरे समुत्पन्नेति गाथार्थः ॥ कथमुत्पन्ना?, तत्रार्यरक्षितवक्तव्यतायां कथानकं प्रायः कथितमेव, यावद् गोष्ठामाहिलः प्रत्युच्चारके कर्मबन्धचिन्तायां कर्मोदयादभिनिविष्टो विप्रतिपन्न इति । तथा च कथानकानुसन्धानाय प्रागुक्तानुवादपरां सङ्ग्रहगाथामाहदसपुरे नगरुच्छुघरे अजरक्खियपूसमित्ततियगं च । गोहामाहिल नवमहमेसु पुच्छा य विंझस्स ॥१४२॥ (भा०) - इयमर्थतः प्राग्व्याख्यातेवेति न वित्रियते, प्रकृतसम्बन्धस्तु-विंझो अहमे कम्मपवायपुबे कर्म परवेति, जहा १ ततो निगृहीतः पदुलकः, गुरुणा तस्य मस्तके श्लेष्मकुपियका भन्ना, ततो निर्धाटितः, गुरुरपि पूजितो, नगरे च घोषणं कृतं-पर्धमानस्थामी जयतीति । २ तेनापि स्वभमखरपिटतेनैव वैशेषिक प्रणीतं, तवान्यान्यैः ग्याति नीतं, तचोलूकप्रणीतमित्युच्यते, यतः स योत्रेणोलूक आसीत् । ३ विभ्योऽष्टमे कर्मप्रवादपूर्षे कर्म प्ररूपयति, यथा दीप अनुक्रम JanEaiam ond ainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सप्तम निहनव गोष्ठा माहिलस्य कथानक ~644 ~ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४२] (४०) ॥३२॥ प्रत सूत्रांक किंचि कम्मं जीवपदेसेहिं बद्धमत्तं कालन्तरद्वितिमपप्प विहडइ शुष्ककुख्यापतितचूर्णमुष्टिवत् , किंचिपुण बद्धं पुढे च कालं- हारिभद्रीतरेण विहडइ, आर्द्रलेपकुड्यो सस्नेहचूर्णवत्, किंचि पुण बद्धं पुढे निकाइयं जीवेण सह एगत्तमावन्नं कालान्तरेण वेइज-18 यवृत्तिः इत्ति ॥ एवं श्रुत्वा गोष्ठामाहिल आह-नन्वेवं मोक्षाभावः प्रसभ्यते, कथम् !, जीवात् कर्म न वियुज्यते, अन्योऽन्यावि विभाग:१ भागबद्धत्वात् , स्वप्रदेशवत् , तस्मादेवमिष्यतांपुट्टो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेह । एवं पुढमबद्धं जीवं कम्म समन्नेह ॥ १४३॥ (म० भाष्यम् )| व्याख्या-स्पृष्टो यथाऽबद्धः कञ्चुकिन पुरुषं कशुकः 'समन्वेति' समनुगच्छति, एवं स्पृष्टमबद्धं कर्म जीवं समन्वेति, प्रयोगश्च-जीवः कर्मणा स्पृष्टो न च बध्यते, वियुज्यमानत्वात् , कझुकेनेव तद्वानिति गाथार्थः । एवं गोडामाहिलेण भणिते विझेण भणिय-अम्हं एवं चेव गुरुणा वक्खाणियं, गोवामाहिलेण भणियं-सो य ण याणति, किं वक्खाणेइ , ताहे सो संकिओ समाणो गओ पुच्छिउँ, मा मए अन्नहा गहियं हवेज, ताहे पुच्छिओ सो भणइ-जहा मए भणियं तहा तुमएवि अवगर्य, तहेवेदं, ततो विझेण माहिलवुत्तो कहिओ, ततो गुरुर्भणति--माहिलभणिती मिच्छा, कहं ! यदुक्तम्-जीवात् KAR दीप अनुक्रम 6-0-556 ता॥३२॥ किश्चित्कर्म जीवप्रदेशबंदमानं कालान्तर स्थितिममाप्य पृथग्भवति किशिपुनस्पृष्टं (स्पृष्टबई) कालान्तरेण पृथग्भवति, किश्चित्पुनर्वहस्पृष्टं (स्पृष्टबई) निकाचितं जीवेन सहकत्वमापनं कालान्तरेण वेद्यत इति । २ एवं गोष्ठमाहिलेन भणिते विन्ध्येन भणितम्-अस्माकमेवमेव गुरुणा व्याख्यातं, | गोहमाहिलेन भणित-स च न जानाति, म्याण्यानयति !, तदा सशङ्कितः सन् गतः प्रष्टुं, मा मयाऽन्यथा गृहीतं भूद्, तदा पृष्टः स भणति-यथा मथ मणितं तथा वापि अवगतं, तथैवेदं, ततो विन्ध्येन माहिमवृत्तान्तः कथितः, ततो गुरुर्भणति-माहिलमणितिर्मिध्या, कथम् !. ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~645~ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४३] (४०) प्रत सूत्राक USDROSCOM COM कर्म न वियुज्यत इत्यादि, अत्र प्रत्यक्षविरोधिनी प्रतिज्ञा, यस्मादायुष्ककर्मवियोगात्मकं मरणमध्यक्षसिद्धमिति, हेतुरष्य-81 नैकान्तिकः, अन्योऽन्याविभागसम्बद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो वियोगदर्शनात् , दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य युक्तत्वासिद्धेः, ताप्येणानादिरूपत्याद्भिन्नं च जीवात् कम्र्मेति, तथा यच्चोक्तम्-'जीवः कर्मणा स्पृष्टो न बध्यत इत्यादि' अत्रापि किं प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेव उत त्वामात्रे कंचुकेनेव, यदि प्रतिप्रदेश दृष्टान्तदा न्तिकयोरसाम्य, कंचुकेन प्रतिप्रदेशमस्पृष्टत्वात् , अथ त्वग्मात्रे स्पृष्ट इति, ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कर्म, पर्यन्तमात्रवर्तित्वाद्, बाह्याङ्गमलवत् , एवं च सर्वो जीवो मोक्षभाक्, कर्मानुगमरहितत्वात् , मुक्तवत् , तथाऽन्तर्वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तन्निमित्तकमाभावात् , सिद्धस्येव, न च भिन्न देशस्यापि वेदनाहेतुत्वं युज्यते,शरीरान्तरगतेनातिप्रसङ्गात् न च स्वकृतत्वं निवन्धनम्,8 अत्रान्तर्वर्तिप्रदेशानां कर्मयोगरहितानां कर्तृत्वानुपपत्तेः, तस्माद् यत् किञ्चिदेतदिति । एवं गेण्हिऊण सो विझेण भणितोएवं आयरिया भणंति, ततो सो तुहिको हिओ चिंतेश-समप्पउ तो खोडेहामि, अन्नया नवमे पुचे साहूण पञ्चक्खाणं |वणिजइ, जहा-पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए इत्यादि, गोष्ठामाहिलो भणति-नैवं सोहणं, किं तर्हि ? पञ्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं । जेसिं तु परीमाणं तं दुई आससा होइ ॥ १४४ ॥ (मू० भा०) | व्याख्या-प्रत्याख्यानं श्रेयः, 'अपरिमाणेन' कालावधि विहाय कर्तव्यं, एवं क्रियमाणं श्रेयो भवति, येषां तु परिमाणं 1 एवं गृहीत्वा स विन्ध्येन भणितः-एवमाचार्या भणन्ति, ततः स तूष्णीकः स्थितश्चिन्तयति-समाप्यता ततः स्वरूयिष्यामि, अन्पदा नवमे पूर्व साधूनां प्रत्याख्यानं वय॑ते, यया प्राणातिपात प्रत्याश्यामि यावजीवं, नैवं शोभनम् । दीप अनुक्रम Pandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~646~ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४४] (४०) आवश्यक ॥३२२॥ प्रत सुत्रांक प्रत्याख्याने तत् प्रत्याख्यानं 'दुष्टम्' अशोभनं, किमिति ?, यतस्तत्र 'आससा होई' त्ति अनुस्वारलोपादाशंसा भवति,131 |हारिभद्रीप्रयोगश्च-यावज्जीवकृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्ट, परिमाणपरिच्छिन्नावधित्वात् , श्वः सूर्योदयात् परतः पारयि-II | यवृत्तिः ध्यामीत्युपवासप्रत्याख्यानवत् , तस्मादपरिमाणमेव प्रत्याख्यानं श्रेयः, आशंसारहितत्वात् , तीरितादिविशुद्धोपवासादि-141 | विभाग:१ वदिति गाथार्थः ॥ एवं पन्नवेंतो विझेण भणिओ-न होति एयं एवं जं तुमे भणिय, सुण, एत्थंतरंमि य जं तस्स अवसंसं नवमपुवस्स तं समत्तं, ततो सो अभिनिवेसेण पूसमित्तसयासं चेव गंतूण भणइ-अण्णहा आयरिएहिं भणियं अन्नहा तुमं पण्णवेसि ॥ उपन्यस्तश्चानेन तत्पुरतः स्वपक्षः, तत्राऽऽचार्य आह-ननु यदुक्तं भवता-'यावजीवं कृतावधिप्रत्याख्यानमाशंसादोषदुष्टमित्यादि' एतदयुक्तं, यतः कृतप्रत्याख्यानानां साधूनां नाशंसा-मृताः सेविष्याम इति, किन्तु मृतानां देवभवे मा भूद् व्रतभङ्ग इति कालावधिकरणम्, अपरिमाणपक्षे तु भूयांसो दोषाः, कथम् ?, अपरिमाणमिति | कोऽर्थः ?, किं यावच्छक्तिः उत अनागताद्धा आहोश्विदपरिच्छेदः?, यदि यावच्छक्तिरस्ति, एवं सति शक्तिमितकालावध्युपगमादस्मन्मतानुवाद एव, आशंसादोषोऽपि काल्पनिकस्तुल्यः, अनागताद्धापक्षेऽपि भवान्तरेऽवश्यंभावी व्रतभङ्गः, अपरिच्छेदपक्षेऽपि कालानियमात् व्रतभङ्गादयो दोषा इति । एवं आयरिएहि भणिए न पडिवजइ, ततो जेऽवि ॥३२२॥ एवं प्रज्ञापयन् विनयेन भणितः न भवत्येतत् एवं यत्त्वया भणितं, शृणु, अनान्तरे च यत्तस्थावशिष्ट नवमपूर्वस्व तत्समाप्तं, ततः सोऽभिनिवेशेन पुष्पमित्रसकापामेव गरवा भणति-अन्यथाऽञ्चाणितमन्यथा त्वं प्रज्ञापयसि २ एवमाचाणिते न प्रतिपयते, ततो येऽपि दीप MAGAR अनुक्रम JAMERAama Lanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~647~ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४४] (४०) 5 - *5-45-4 प्रत सूत्राक CANCESCARRC-ROS अण्णगच्छेल्लया थेरा बहुस्सुया ते पुच्छिया भणंति-एत्तिय चेव, ततो सो भणति-तुम्भे किं जाणह, तित्थगरेहिं एत्तियं siभणियं जहाऽहं भणामि, ते भणंति-तुमं न याणसि, मा तित्थगरे आसाएहि, जाहे न ठाइ ताहे संघसमयाओ कओ, ततो सब संघेण देवयाए काउस्सग्गो कओ जा भद्दिया सा आगया भणति-संदिसहत्ति, ताहे सा भणिया-बच्च तित्थगरं पुच्छ -किं जं गोहामाहिलो भणति तं सच्च किं जं दुबलियापूसमित्तप्पमुहो संघोत्ति, ताहे सा भणइ-मम अणुग्गहं देह काउसग्गं गमणापडिघायनिमित्तं, तओ ठिया काउस्सरगं, ताहे सा भगवंतं पुच्छिऊण आगया भणति-जहा संघो सम्मावादी, इयरो मिच्छावादी, निलओ एस सत्तमओ, ताहे सो भणति-एसा अपिहिया वराई, का एयाए सत्ती गंतूणं?, तोवि न सद्दहइ, ताहे संघेण बज्झो कओ, ततो सो अणालोइयपडिकतो कालगतो ॥ गतः सप्तमो निहवः, भणिताश्च देशविसं. वादिनी निवाः, साम्प्रतमनेनैव प्रस्तावेन प्रभूतविसंवादिनो बोटिका भण्यन्ते, तत्र कदैते सजाता इति प्रतिपादयन्नाह-18 छब्वाससयाई नबुत्तराई तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्सा तो बोडियाण दिही रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥१४॥(भा०) -964 दीप 540-45 अनुक्रम *5 अन्यगच्छीयाः स्थविरा बहुश्रुता पृष्टा भणन्सि-एतावदेव, ततः स भणति-यूयं किंजानीथ, तीर्थकररेतावद्भणितं बचाई भयामि, ते भणन्तितवं न जानासि, मा तीर्थकरान् आशातय, बदान तिष्ठति तदा सकसमवायः कृतः, ततः सर्वसन देवतायाः कायोत्सर्गः कृतो, या भदिका सामागता भणति संदिशति, तदा सा भगिता-बज तीर्थकर पृच्छ-किं यत् गोष्ठमाहिको भणति तत्सत्यं कि यहुबलिकापुष्पमित्रप्रमुखः सह इति?, तदा सा भणति-समानुग्रह दत्त कायोत्सर्ग गमनाप्रतिघातनिमित्तं, ततः स्थिताः कायोत्सग, सदा सा भगवन्तं पृष्ट्वा भागता भणति-यथा सतः सम्यग्वादी, इतरो मिथ्यावादी, निय एष सप्तमका, तदा स भगति-एषाऽस्पनिका बराकी कैतस्याः शतिर्गन्द, ततोऽपिन धाति, तदासनेन बामः कृतः, ततः सोऽनाकोचितप्रतिकान्तः कालगत: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~648~ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४५] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक G निगदसिद्धैव, तत्र यथा बोटिकानां दृष्टिरुत्पन्ना तथा संग्रहगाथयोपदर्शयन्नाह | हारिभद्री॥३२३॥ रहवीरपुरं नपरं दीवगमुजाण अन्जकण्हे य । सिवइस्सुपहिमि य पुच्छा धेराण कहणा य॥१४६॥ (मू०भा०) यवृत्तिः | व्याख्या-रहवीरपुरं नगरं, तत्थ दीवगमुज्जाणं, तत्थ अज्जकण्हा णामायरिया समोसढा, तत्थ य एगो सहस्समल्लो विभागः १ सिवभूती नाम, तस्स भज्जा, सा तस्स मायं बहुत-तुज्झ पुत्तो दिवसे २ अहरते एइ, अहं जग्गामि छुहातिया अच्छामि ताहे ताए भण्णति-मा दारं देजाहि, अहं अज जग्गामि, सा पसुत्ता, इयरा जग्गइ, अहुरते आगओ बारं मग्गइ, मायाए अंबाडिओ-जत्थ एयाए वेलाए उग्घाडियाणि दाराणि तत्थ वच्च, सो निग्गओ, मग्गंतेण साहपडिरसओ उग्घा-18 डिओ दिट्ठो, वंदित्ता भणति-पथावेह मं, ते नेच्छंति, सयं लोओ कओ, ताहे से लिंगं दिण्णं, ते विहरिया । पुणो आग-1 याणं रण्णा कंबलरयणं से दिण्णं, आयरिएण किं एएण जतीणं ?, किं गहियंति भणिऊण तस्स अणापुच्छाए फालियं| निसिज्जाओ य कयाओ, ततो कसाईओ। अन्नया जिणकप्पिया वण्णिजंति, जहा-'जिणकप्पिया य दुविहा पाणीपाया स्थवीरपुर नगरं, तत्र दीपकारुयमुद्यान, तत्र आर्यकृष्णा नामाचार्याः समवस्ताः , तन्न चैकः सहसमहः शिवभूतिनाम, तस्य भार्या, सा तस्य मातरं कल हयति-तव पुत्रो विवसे दिवसेऽर्धराख्ने आयाति,अहं जागर्मि क्षुधादिता तिष्ठामि, तदा तया भपयते-मा दारं पिधाः, अहमय आगर्मि, सा प्रसुप्ता, इतरा | जागति, अर्थराख्ने मागतो द्वारं मार्गपति, मात्रा निभर्तिसतः-पौतयां पेलाबामुदारितानि द्वाराणि तत्र ब्रज, स निर्गतः, मार्गबता साधुप्रतिश्रय उद्घाटितो Aष्टः , वन्दित्वा भणति-प्रवाजयत मां, ते नेच्छन्ति, स्वयं कोचः कृतः, तदा तम्मै लिदचं,ते चिढ़ताः । पुनरागतेषु राज्ञा कम्बकर तो दत्तम् , आचार्येण ॥३२३॥ किमेतेन यतीनाम् । विगृहीतमिति भकिवा तमनापृच्छय स्काटितं नि पद्याका कृताः, ततः पावितः । अन्यदा जिनकहिपका वपर्यन्ते, यथा-जिनकल्पिकाच द्विविधाः पाणिपात्रा MACROSS दीप अनुक्रम T SantaintaN Sandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: बोटिक मत-उत्पत्ति संबंधे शिवभूतिकथा ~649~ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८३...], भाष्यं [१४६] (४०) प्रत सूत्राक पिडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउरणा एकेका ते भवे दुविहा ॥१॥ दुगतिगचउक्कपणगं नवदसएक्कारसेव चारसगं । एए अह विकप्पा जिणकप्पे होंति उवहिस्स ॥२॥ केसिंचि दुविहो उवहीरयहरणं पोत्तिया य,अन्नेसिं तिविहो-दो ते चेव कप्पो| ४ बहिओ, चउबिहे दो कप्पा, पंचविहे तिष्णि,नवविहे रयहरणमुहपत्तियाओ, तहा-'पत्तं पत्ताबंधो पायवर्ण च पायकेसरिया। सापडलाई रयत्ताणं च गोच्छओ पायणिज्जोगो ॥१॥ दसविहे कप्पो वहितो, एगारसविहे दो, बारसविहे तिन्नि । एत्थं रेसिवभरणा पछिओ-किमियाणि एत्तिओ उवही धरिजति?, जेण जिणकप्पो न कीरइ. गरुणा भणियं-ण तीरइ-18 xसो याणि बोच्छिन्नो, ततो सो भणति-किं वोच्छिज्जति ?, अहं करेमि, सो चेव परलोगस्थिणा कायबो, किं उवहिपडि-I ग्गहेण!, परिग्गहसम्भावे कसायमुच्छाभयाइया बहुदोसा, अपरिग्गहत्तं च सुए भणियं, अचेला य जिणिंदा, अतो अचेलया सुंदरत्ति, गुरुणा भणिओ-देहसम्भावेऽवि कसायमुच्छाइया कस्सवि हवंति, तो देहोऽवि परिचइयबोत्ति पतहधराश्च । सप्रावरणा अप्रावरणा एकैकास्ते भवेयुद्धिविधाः ॥1॥ द्विकः निकः चतुष्कः पञ्चको नवको दशक एकादपक एव द्वादशकः । एते विकल्पा जिनकल्पे भवन्त्युपधेः ॥ ३॥ केषाञ्चिद्विविध उपधिः रजोहरणं मुखवत्रिका च, अन्येषां त्रिविधः-द्वी तावेव कल्पो पर्धितः, चतुर्विधे द्वौ कल्पो, पञ्चविधे प्रयः, नवविधे रजोहरणमुखवत्रिके, तथा-पात्रं पानयन्धः पात्र स्थापनं च पात्रकेशरिका । पटला रजखाणं च गोच्छकः पात्रनियोगः ॥ १॥ दशविधे xकल्पो वर्धितः, एकादशविधे द्वौ, द्वादशविधे अयः । अत्रान्तरे शिवभूतिना पृष्टः-किमिदानीमेतावानुपधिर्धियते, येन जिनकल्पो म क्रियते, गुरुणा भणितं न शक्यते, स इदानी छिमः, ततः स भणति-किंम्युरिछयते?, अहं करोमि, स एव परलोकार्थिना कर्तव्यः, किमुपधिपरिग्रहेण', परिग्रहसद्भावे कषायमूहोमयादिका बहवो दोषाः, अपरिग्रहत्वं च श्रुते भणितम् , अचेलाच जिनेन्द्राः, अतोश्चेलता सुन्दरेति, गुरुणा भणितः-देहसमावेऽपि कषायमूच्छादयः कस्यचित् भवन्ति, ततो देहोऽपि परित्यक्तव्य इति, दीप अनुक्रम KUR JABELLEGEInthti Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~650~ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७८३...], भाष्यं [ १४६] आवश्यक- अपरिग्गहत्तं च सुते भणियं, धम्मोपकरणेवि मुच्छा न कायवत्ति, जिणावि णेगतेण अचेला, जओ भणियं-'सवेवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा इत्यादि' एवं थेरेहिं कहणा से कतति गाथार्थः ॥ एवंपि पण्णविओ कम्मोदएण चीवराणि ॥ ३२४ ॥ छड्डेत्ता गओ, तस्सुत्तरा भइणी, उज्जाणे ठियस्स वंदिया गया, तं दहूण तीएवि चीवराणि हड्डियाणि, ताहे भिकुखं पविडा, गणियाए दिट्ठा, मा अम्ह लोगो विरजिहित्ति उरे से पोत्ती बद्धा, ताहे सा नेच्छइ, तेण भणियं -अच्छउ एसा, तव देवयाए दिण्णा, तेण य दो सीसा पञ्चाविया-कोडिनो कोट्टवीरे य, ततो सीसाण परंपराफासो जाओ, एवं बोडिया उप्पण्णा || अमुमेवार्थमुपसंजिहीर्षुराह मूलभाष्यकार:-- ऊहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइउत्तराराहि इमं । मिच्छादंसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पण्णं ॥ १४७ ॥ बोडियसिवईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिष्णकोहवीरा परंपराफासमुप्पणा || १४८|| ( मू० भा० ) व्याख्या – 'ऊया' स्वतर्कबुद्ध्या 'प्रज्ञतं' प्रणीतं वोटिकशिवभूत्युत्तराभ्यामिदं मिथ्यादर्शनम्, 'इणमो'त्ति एतच्च क्षेत्रतो रथवीरपुरे समुत्पन्नमिति गाथार्थः ॥ बोटिकशिवभूतेः सकाशात् बोटिकलिङ्गस्य भवत्युत्पत्तिः, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'बोडियलिंगस्स आसि उप्पत्ती' ततः कौडिन्यः कुट्टवीरच, 'सर्वो द्वन्द्वो विभाषया एकवद्भवअपरिग्रहत्वं च सूत्रे भणितं, धर्मोपकरणेऽपि मूर्च्छा न कर्त्तव्येति, जिना अपि नैकान्तेनाचेलाः, यतो भणितं 'सर्वेऽपि एकदूष्येण निर्गता जिनाचतुवैिशतिः, एवं स्थविरैः कथवा तसै कृतेति । एवमपि प्रज्ञापितः कर्मोदयेन चीवराणि त्यक्त्वा गतः, तस्योत्तरा भगिनी, उद्यानस्थिताय वन्दितुं यता, सं दृष्ट्वा तयाऽपि चीवराणि त्यक्तानि तदा भिक्षायै प्रविष्टा, गणिकया दृष्टा, माsस्मासु ढोको विरङ्गीदिति वरसि तस्या वनं बद्धं तदा सा नेच्छति, तेन भणितं तिष्ठत्वेतत् तुभ्यं देवतया दतं तेन च द्वौ शिष्यो प्रमाजिती कौण्डिन्य: कोहवीरच, ततः शिष्याणां परम्परास्पर्शो जातः, एवं बोटिका उत्पन्नाः । Jus Educato For Fasten हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 651 ~ ॥३२४॥ www.joncibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७८४], भाष्यं [१४८] (४०) प्रत सूत्राक ती' ति कौण्डिन्यकोट्टवीरं तस्मात् , परम्परास्पर्शम्-आचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिकृत्योत्पन्ना-सञ्जाता, बोटिक ष्टिरध्याहरणीयेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं निववक्तव्यतां निगमयन्नाह| एवं एए कहिया ओसप्पिणीए उ निण्या सत्त । वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पध्वयणे णस्थि ।। ७८४ ॥ | व्याख्या-'एवम् उक्तेन प्रकारेण 'एते' अनन्तरोकाः 'कविता प्रतिपादिताः, अवसर्पिण्यामेव निवाः सप्त अमी वीरवरस्य 'प्रवचने' तीर्थे, 'शेषाणाम्' अर्हता प्रवचने 'नस्थित्ति न सन्ति, यद्वा नास्ति निवसत्तेति गाथार्थः॥ मोत्तुणमेसिमिक सेसाणं जावजीविया दिट्ठी । एकेकस्स य एत्तो दो दो दोसा मुणेयब्वा ॥ ७८५॥ | व्याख्या-मुक्त्वैषामेकं गोष्ठामोहिलं निहवाधम 'शेषाणां' जमालिप्रभृतीनां प्रत्याख्यानमङ्गीकृत्य यावजीविका दृष्टिः, नापरिमाणं प्रत्याख्यानमिच्छन्तीति भावना, आह-प्रकरणादेवेदमवसीयते किमर्थमस्योपन्यास इति ?, उच्यते, प्रत्यहमुपयोगेन प्रत्याख्यानस्योपयोगित्वान्मा भूत् कश्चित् तथैव प्रतिपद्येत (तेति), अतो ज्ञाप्यते-निलवानामपि प्रत्याख्याने इयमेव दृष्टिः, एकैकस्य च एत्तो' त्ति अतोऽमीषां मध्ये द्विौ दोषौ विज्ञातव्यौ, मुक्त्वैकमिति वर्तते, भावार्थ तु वक्ष्यामः, परस्परतो यथाऽऽहुबहुरता जीवप्रदेशिकान्-भवन्तः कारणद्वयान्मिथ्यादृष्टयः, यद्भणथ-एकप्रदेशो जीवः, तथा क्रियमाणं च कृतमित्येवं सर्वत्र योज्य, गोष्ठामाहिलमधिकृत्यैकैकस्य त्रयो दोषा इति यथाहुबहुरतान् गोष्ठामाहिला:-दोपत्रयाद् भवन्तो मिथ्यादृष्टयः यत् कृतं कृतमिति भणतः तथा बद्धं कर्म वेद्यते यावज्जीवं च प्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ तत्रता दृष्टयः किं संसाराय आहोस्विदपवर्गायेत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह दीप अनुक्रम K antionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~652 ~ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८६], भाष्यं [१४८...] (४०) आवश्यक ॥३२५॥ RECES-1- प्रत सुत्राक सत्तेया दिडीओ जाइजरामरणगम्भवसहीणं । मूलं संसारस्स उ भवंति निग्गंथरूवेणं ।। ७८६॥ त हारिभद्रीव्याख्या-सप्तैता दृष्टयः, बोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचारः, 'जातिजरामरणगर्भवसतीना मिति, जाति- यवृत्तिः ग्रहणान्नारकादिप्रसूतिग्रह इत्यतो गर्भवसतिग्रहणमदुष्टं 'मूलं' कारणं, भवन्तीति योगः, मा भूत् सकृद्धाविनीनां जाति-13 विभागः१ जरामरणगर्भवसतीनां मूलमिति प्रत्ययः अत आह–'संसारस्स उ' संसरणं संसार:-तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिरूपः प्रदी| गृह्यते, तस्यैव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , निम्रन्थरूपेणेति गाथार्थः ॥ आह-एते निवाः किं साधवः ? उत तीर्थान्तरीयाः? उत गृहस्था इति ?, उच्यते, न साधवः, यस्मात् साधूनामेकस्याप्यर्थाय कृतमशनादि शेषाणामकल्प्यं, नैवं निहवानामिति, आह च पवयणनीहयाण जंतेसिं कारियं जहिं जत्थ । भजं परिहरणाए मूले तह उत्तरगुणे य॥ ७८७॥ व्याख्या-पवयणनीहूयाण'ति नियंति देशीवचनमकिञ्चित्करार्थे, ततश्च प्रवचन-यथोक्त क्रियाकलापं प्रत्यकिञ्चित्कराणां 'यद्' अशनादि तेषां कारितं यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे तदू भाज्य' विकल्पनीयं परिहरणया, कदाचित् । परिहियते कदाचिन्नेति, यदि लोको न जानाति यथैते निहवाः साधुभ्यो भिन्नास्तदा परिहियते, अथ च जानाति तदा न परिहियत इति, अथवा परिहरणा-परिभोगोऽभिधीयते, यत उक्तम्-"धारणा उवभोगो परिहरणा तस्स परिभोगो" ॥३२५॥ तत्र भाज्यं 'मूले' मुलगुणविषयमाधाकर्मादि तथा उत्तरगुणविषयं च क्रीतकृतादीत्यतो नैते साधवः, नापि गृहस्था गृही-1 १ धारणमुपभोगः परिहरणं तस्य परिभोगः, दीप CANCC अनुक्रम 155-5 CAMER ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~653~ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७८७], भाष्यं [१४८...] (४०) प्रत सूत्राक तलिङ्गत्वात् , नापि तीर्थान्तरीयाः, नान्यतीर्थ्याः, यतस्तदर्थाय यत् कृतं तत् कल्प्यमेव भवति, अतोऽव्यक्ता एत इति | |गाथार्थः ॥ आह-बोटिकानां यत् कारितं तत्र का वार्ता ?, उच्यतेमिच्छादिट्टीयाणं जंतेसिं कारियं जहिं जस्थ । सम्बपि तय सुद्धं मूले तह उत्सरगुणे य ॥ ७८८ ॥ दारं ॥ | व्याख्या-'मिथ्यादृष्टीनां बोटिकानां 'यद्' अशनादि तेषां कारितं यस्मिन् काले यत्र क्षेत्रे सर्वमपि तत् शुद्धं 3-कल्प्यमिति भावना, मूलगुणविषयं तथोत्तरगुणविषयं चेति गाथार्थः । उक्त समवतारद्वारम् , अधुनाऽनुमतद्वारं व्या ख्यायते-तत्र यद्यस्य नयस्य सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानुमतं तदुपदर्शयन्नाहसातवसंजमो अणुमओ निग्गंथं पवयणं च ववहारो। सहजसुयाणं पुण निव्वाणं संजमो चेव ॥ ७८९॥ दारं ॥ व्याख्या-तापयतीति तपः तपप्रधानः संयमस्तपःसंयमः असौ 'अनुमतः' अभीष्टो मोक्षाङ्गतयेति, निम्रन्थानामिदं नम्रन्थ्यम्-आहेतमिति भावना, किं!-प्रवचनं श्रुतमित्यर्थः, चशब्दोऽनुक्कसम्यक्त्वसामायिकसमुच्चयार्थः, 'ववहारों' त्ति एवं व्यवहारो व्यवस्थितः, व्यवहारग्रहणाच्च तदधोवर्तिनगमसंग्रहनयद्वयमपि गृहीतं वेदितव्यं, ततश्चैतदुक्तं भवतिनैगमसंग्रहव्यवहारास्त्रिविधमपि सामायिक मोक्षमार्गतयाऽनुमन्यन्ते, तपःसंयमग्रहणाच्चारित्रसामायिकं, प्रवचनग्रह|णाद् श्रुतसामायिक, पशब्दात् सम्यक्त्वसामायिकम् , आह-यद्येवं किमिति मिथ्यादृष्टयः १, उच्यते, यतो व्यस्तान्यप्यनुमन्यन्ते, न सापेक्षाण्येव, शब्दऋजुसूत्रयोः पुनः कारणे कार्योपचारात् निर्वाणमार्ग एव निर्वाणं संयम एवेत्यनुमतम् , ऋजुसूत्रमुल्लङ्यादौ शब्दोपन्यासः शेषोपरितननयानुमतसंग्रहार्थः, एतदुक्तं भवति-ऋजुसूत्रादयः सर्वे चारित्रसामायि दीप अनुक्रम JAMERIX KIMiDramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~654~ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७८९], Sanat आवश्यक-कमेव मोक्षमार्गत्वेनानुमन्यन्ते, नेतरे द्वे, तद्भावेऽपि मोक्षाभावात् तथाहि - समग्र ज्ञानदर्शनलाभेऽपि नानन्तरमेव हारिभद्रीमोक्षः, किन्तु सर्वसंवररूपचारित्रावाप्त्यनन्तरमेव, अतस्तद्भावभावित्वात् तदेव मोक्षमार्ग इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ 2 यवृत्तिः 'उद्देसे निद्देसे य' इत्याद्युपोद्घातनिर्युक्तिप्रथमद्वारगाथावयवार्थी गतः, इदानीं द्वितीयद्वारगाथाप्रथमावयवः किमिति द्वारं १ विभागः १ व्याख्यायते किं सामायिकं ?, किं तावज्जीवः ? उताजीवः ? अथोभयम् ? उतानुभयं ?, जीवाजीवत्वेऽपि किं द्रव्यं ? उत ॥ ३२६ ॥ भाष्यं [१४८...] गुण इत्याशङ्कासम्भवे सत्याह आया खलु सामयं पञ्चकखायंतओ हवड़ आया । तं खलु पञ्चकखाणं आवाए सव्वदव्वाणं ॥ ७९० ॥ व्याख्या – 'आत्मा' जीवः खलुशब्दोऽवधारणे, आत्मैव-जीव एव सामायिकमित्य जीवादिपूर्वोक्त विकल्पव्यवच्छेदः, 'पञ्चक्खायंतओ हवइ आय' त्ति स च प्रत्याचक्षाणः- प्रत्याख्यानं कुर्वन् 'क्रियमाणं कृत' मिति क्रियाकालनिष्ठा कालयो | रभेदाद् वर्तमानस्यैवातीतापत्तेः कृतप्रत्याख्यानोऽपि गृह्यते, स एव च परमार्थत आत्मा, श्रद्धानज्ञान सावद्य निवृत्ति स्वस्वभावावस्थितत्वात् शेषः संसारी पुनरात्मैव न भवति, प्रचुरघातिकर्मभिस्तस्य स्वाभाविकगुणतिरस्करणात्, अतो द्वितीयाऽऽत्मग्रहणं, 'तं खलु पच्चक्खाणं' ति खलुशब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतित्वज्ञापनार्थः, तत् प्रत्याख्यानं जीवपरिणतिरूपत्वाद्विषयमधिकृत्य 'आवाए सबदवाणं' ति सर्वद्रव्याणामापात - आभिमुख्येन समवाये, निष्पद्यत इति वाक्यशेषः, तस्य श्रद्धेयज्ञेयक्रियोपयोगित्वात् सर्वद्रव्याणामिति । आह- किं सामायिकमिति स्वरूपप्रश्ने प्रस्तुते सति|विषयनिरूपणमस्यान्याय्यम्, अप्रस्तुतत्वाद्, बाह्यशास्त्रवत्, उच्यते, अप्रस्तुतत्वादित्यसिद्धं, तथाहि - सामायिकस्य विषयनि Forty ~655~ ॥ ३२६ ॥ janbrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७९०], भाष्यं [१४९] (४०) *% प्रत सूत्राक A रूपणं प्रस्तुतमेव, सामायिकस्याङ्गभूतत्वात् , सामायिकस्वात्मवदित्यलं विस्तरेण, इति गाथार्थः । तत्र यदुक्तम् 'आत्मा 18 खलु सामायिक' मिति, तत्र यथाभूतोऽसौ सामायिक तथाभूतमभिधित्सुराह मूलभाष्यकार: सावजजोगविरओ तिगुत्तो छसु संजओ । उवउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होई ॥१४९॥ (म.भा) व्याख्या सावद्ययोगविरतः अवद्यं मिथ्यात्वकषायनोकवायलक्षणं सहावयेन सावद्यो योगस्तद्विरत:-तद्विनिवृत्तः, त्रिभिः-मनोवाकायैर्गुप्तः षट्सु-जीवनिकायेषु संयतः-प्रयत्नवान, तथाऽवश्यकर्तव्येषु योगेषु सदोपयुक्तः, यतमानश्च तेष्वेवासेवनया, इत्थम्भूत एवात्मा सामायिकं भवतीति गाथार्थः ।। साम्प्रतं यदुक्तम् 'तं खलु पञ्चक्खाणं आवाए सबदवाण' ति, तत्र साक्षान्महाव्रतरूपं चारित्रसामायिकमधिकृत्य सर्वद्रव्यविषयतामस्योपदर्शयन्नाहपढमंमि सबजीवा विइए चरिमेय सब्वब्वाइं । सेसा महव्वया खलु तदेकदेसेण व्वाणं ॥७११ ॥ | व्याख्या-'प्रथम' प्राणातिपातनिवृत्तिरूपे व्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने 'सर्वजीवा' सस्थावरसूक्ष्मेतरभेदा विषयखेन द्रष्टव्याः , तदनुपालनरूपत्वात् तस्येति, तथा 'द्वितीये' मृवावादनिवृत्तिरूपे 'चरिमे च' परिग्रहनिवृत्तिरूपे सर्वद्रव्याणि विषयत्वेन द्रष्टव्यानि, कथम् ?, नास्ति पञ्चास्तिकायात्मको लोक इति मृपावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात् , तन्नि|वृत्तिरूपत्वाच्च द्वितीयव्रतस्य, तथा मूर्छाद्वारेण परिग्रहस्यापि सर्वद्रव्यविषयत्वाच्चरमवतस्य च तन्निवृत्तिरूपत्वादशेपरव्यविषयतेति पूर्वार्द्धभावना । 'सेसा महबया खलु तदेकदेसेण दवाणं' ति शेषाणि महान तानि, खस्वित्यवधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, तेषामेकदेशस्तदेकदेशस्तेन तदेकदेशेनैव हेतुभूतेन द्रव्याणां, भवन्तीति क्रियाध्याहारः, दीप अनुक्रम CKS JanEa me Panatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | सामायिक-स्वरुप संबंधे वक्तव्यता ~656~ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९१], भाष्यं [१४९...] (४०) यवृत्तिः ॥३२७॥ प्रत सुत्रांक कथम् ?-तृतीयस्य ग्रहणधारणीयद्रव्यादत्तादानविरतिरूपत्वात् , चतुर्थस्य च रूपरूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यब्रह्मविरतिरूप- हारिभद्रीत्वात् , षष्ठस्य च रात्रिभोजनविरतिरूपत्वादिति पश्चार्द्धभावना, इति गाथार्थः ॥ एवं चारित्रसामायिक निवृत्तिद्वारेण| सर्वद्रव्यविषयं श्रुतसामायिकमपि श्रुतज्ञानात्मकत्वात् सर्वद्रव्यविषयमेव सम्यक्त्वसामायिकमपि सर्वद्रव्याणां सगुणपर्या विभागः१ याणां श्रद्धानरूपत्वात् सर्वविषयमेवेत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र सामायिकमजीवादिव्युदासेन जीव एवेत्युक्तं, तस्य च नयमतभेदेन द्रव्यगुणप्राप्ती सकलनयाधारद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां स्वरूपव्यवस्थोपस्थापनायाहजीवो गुणपडिवन्नो णयस्स दव्वढियस्स सामइयं । सो चेव पज्जवणयडियस्स जीवरस एस गुणो ॥ ७९२ ॥ | व्याख्या-'जीवः' आत्मा, गुणैः प्रतिपन्न:-आश्रितः-गुणप्रतिपन्नः, गुणाश्च सम्यक्त्वादयः खल्यौपचारिकाः, 'नयस्य' द्रव्यार्थिकस्य सामायिकमिति वस्तुत आत्मैव सामायिक, गुणास्तु तव्यतिरेकेणानवगम्यमानत्वान्न सन्त्येव, तत्प्रतिपत्तिरपि तस्य भ्रान्ता, चित्रे निम्नोन्नतभेदप्रतिपत्तिवदिति भावना, स एव सामायिकादिर्गुणः पर्यायार्थिकनयस्य, परमार्थतो यस्माज्जीवस्य एष गुण इति, उत्तरपदप्रधानत्वात् तत्पुरुषस्य, यथा तैलस्य धारेति, न तत्र धाराऽतिरेकेणापरं तैलमस्ति, एवं न गुणातिरिक्तो जीव इति, इत्थं चेदमङ्गीकर्तव्यमिति मन्यते, तथाहि-गुणातिरिक्तो जीवो नास्ति, प्रमाणानुपलब्धेः, | रूपाद्यर्थान्तररूपघटवत् , तस्माद्गुणः सामायिकमिति हृदयं, न तु जीव इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं पर्यायार्थिक एव ॥३२७॥ स्वं पक्षं समर्थयन्नाहउपज्जंति वयंति य परिणम्मति य गुणा ण दव्वाई। दब्बप्पभवा य गुणा ण गुणप्पभवाई व्वाई ॥७९३॥ दीप अनुक्रम AREaatma Mandinrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~657~ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९३], भाष्यं [१४९...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, अनेनोत्पादव्ययरूपेण परिणमन्ति च गुणाः, चशब्द एवकारार्थः स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः-गुणा एव न द्रव्याण्युत्पादव्ययरूपेण परिणमन्तीति, अतस्त एव सन्ति, उत्पादन्ययपरिणामत्वात् , पत्रनीलतारक्ततादिवत्, तदतिरिक्तस्तु गुणी नास्त्येव, उत्पादच्ययपरिणामरहितत्वाद्, वान्धेयादिवत् , किश्च 'दधप्पभवा य गुणा न' द्रव्यात् प्रभवो येषां ते द्रव्यप्रभवाः, चशब्दो युक्त्यन्तरसमुच्चये, गुणा न भवन्ति, तथा गुणप्रभवाणि | द्रव्याणि, नैवेति वर्तते, अतो न कारणत्वं नापि कार्यत्वं द्रव्याणामित्यभावः, सतः कार्यकारणरूपत्वात् , अथवा द्रव्यप्रभवाश्च गुणा न, किन्तु गुणप्रभवाणि द्रव्याणि, प्रतीत्यसमुत्पादोपजातगुणसमुदये द्रव्योपचारात् , तस्माद् गुणः सामा|यिकमिति गाथार्थः ॥ एवं पर्यायाथिकेन स्वमते प्रतिपादिते सति द्रव्यार्थिक आह-द्रव्य प्रधानं न गुणाः, यस्मात्जं जं जे जे भावे परिणमइ पओगवीससा ब्वं । तं तह जाणाइ जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि ॥७९४ ॥ दारं ॥ व्याख्या-यद् यद् यान यान् भावान् विज्ञानघटादीन् परिणमति प्रयोगविनसातो द्रव्यं तत्,प्रयोगेन घटादीन् विश्रसातोऽनेन्द्रधनुरादीन , द्रव्यमेव तदुत्प्रेक्षितपर्यायमुत्फणविफणकुण्डलितादिपर्यायसमन्वितसर्पद्रव्यवत्, तथाहि-न तत्र केचनोत्फणादयः सर्पद्रव्यातिरिक्ताः सन्ति, निर्मूलत्वात् , किन्तु तदेव तत्र परमार्थसदिति, किश्च-तत् 'तथैव' अन्वयप्रधानं पर्यायोपसर्जनं जानाति परिच्छिनत्ति जिनः 'अपज्जवे जाणणा णस्थि' त्ति अपर्याये-निराकारे 'जाणणा नत्यि'त्ति परिज्ञा नास्ति, न च ते पर्यायाः तत्र वस्तुनि सन्तो द्रव्यमेव, तदाकारवत्, ततश्च तदेव सत् , केवलिनाऽप्यवगम्यमानत्वात् , केवलस्वात्मवत् , तस्माजीव एव सामायिकमिति गाथार्थः । अथवा 'उप्पज्जति' त्ति इयमेव गाथा द्रव्यार्थिकमतेन दीप अनुक्रम JamEaa nd मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~658~ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९४], भाष्यं [१४९...] (४०) आवश्यक ॥३२॥ प्रत सूत्राक व्याख्यायते-द्रव्यार्थिकवादी पर्यायाथिकवादिनं प्रत्याह-गुणा न सन्त्येव, कुतो ?, यस्मादुत्पद्यन्ते व्ययन्ते च, अनेनोत्पा-18 हारिभद्रीदव्ययपरिणामेन परिणमन्ति गुणा एव, न द्रव्याणि, ततश्च तान्येव सन्ति, सततमवस्थितत्वादू , अपरोपादेयत्वात् , यवृत्तिः द्रव्यप्रभवाश्च गुणाः परोपादाना वर्तन्ते, न गुणप्रभवाणि द्रव्याण्यपरोपादानत्वात्, तस्मादात्मैव सामायिकमिति | विभागः१ गाथार्थः ॥ एवमवगतोभयनयमतश्चोदक आह-किमत्र तत्त्वमिति !, अत्रोच्यते-सामायिकभावपरिणतः आत्मा सामा|यिक, यस्माद् यत् सत् तद् द्रव्यपर्यायोभयरूपमिति, तथा चागमःजं जं जे जे भावे परिणमइ पओगवीससा व्वं । तं तह जाणाइ जिणो अपजवे जाणणा नस्थि ॥ ७९५ ॥ व्याख्या-यद् यद् यान् यान 'भावान्' आध्यात्मिकान बाह्यांश्च परिणमति प्रयोगविनसा(तो) द्रव्य, भावार्थः पूर्ववत् , तत्तथापरिणाममेव जानाति जिनः, अपयोये परिज्ञा नास्ति, तस्मादुभयात्मकं वस्तु, केवलिना तथाऽवगतत्वादिति || गाथार्थः ॥ साम्प्रतं कतिविधमिति द्वारमिति व्याख्यायते, तत्रसामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च । दुविहं चेव चरित्तं अगारमणगारियं चेय ॥ ७९६ ॥ व्याख्या-'सामायिक' प्रागनिरूपितशब्दार्थ, 'च' पूरणे 'त्रिविध त्रिभेदं, सम्यक्त्वम्, अनुस्वारलोपात्, श्रुतं तथा चारित्रं, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, तत्र सम्यक्त्वमिति सम्यक्त्वसामायिक, तद् द्विविध नैसर्गिकमधिगम च, अथवा दशविधम्-एकैकस्यौपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकभेदभिन्नत्वात् , अथवा विविध-क्षायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च, कारकरोचकव्यञ्जकभेदं वा, श्रुतमिति श्रुतसामायिक, तच्च सूत्रार्थोभयात्मकत्वात् त्रिवि दीप अनुक्रम ॥३२८॥ CAMER amiDramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~659~ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९६], भाष्यं [१४९...] (४०) प्रत सूत्राक धम् , अक्षरानक्षरादिभेदादनेकविधं चेति, 'चारित्रम्' इति चारित्रसामायिक, तच्च क्षायिकादि त्रिविधं, सामायिकच्छेदोपस्थाप्यपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातभेदेन वा पञ्चविधम् , अथवा गृहीताशेषविकल्पं द्विविधम्-अगारसामायिकमनगारसामायिकं च, तथा चाह-'दुविधं चेव चरितं अगारमणगारियं चेव' द्विविधमेव चारित्रं मूलभेदेन, अगा:-वृक्षास्तैः कृतमगारं-गृहं तदस्यास्तीति मतुबूलोपादगार:-गृहस्थस्तस्यै दम्-आगारिकम् , इदं चानेकभेदं, देशविरतेचित्ररूपत्वात्, अनगार:-साधुस्तस्येदम्-आनगारिक चैव । आह-सम्यक्त्वश्रुतसामायिक विहाय चारित्रसामा-| यिकभेदस्य साक्षादभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, अस्मिन् सति तयोनियमेन भाव इति ज्ञापनार्थ, चरमत्वाद्वा यथाऽस्य भेद उक्त एवं शेषयोरपि वाच्य इति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं मूलभाष्यकारः श्रुतसामायिक व्याचिख्यासुस्तस्याध्ययनरूपत्वादाहअज्झयणंपि य तिविहं सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । सेसेमुवि अज्झयणेसु होइ एसेव निजुत्ती ॥ १५० ॥ (भा) - व्याख्या-अध्ययनमपि च त्रिविधं सूत्रविषयमर्थविषयं च तदुभयविषयं चैव, अपिशब्दात् सम्यक्त्वसामायिकमप्यौप शमिकादिभेदात् त्रिविधमिति । प्रक्रान्तोपोद्घात नियुक्तरशेषाध्ययनव्यापितां दर्शयन्नाह-शेपेष्वपि चतुर्विंशतिस्तवादिष्वतान्येषु वाऽध्ययनेषु भवति एव नियुक्तिः-उद्देशनिर्देशादिका निरुक्तिपर्यवसानेति । आह-अशेषद्वारपरिसमाप्तावतिदेशो न्याय्यः, अपान्तराले किमर्थमिति?, उच्यते, 'मध्यग्रहणे आद्यन्तयोर्ग्रहणं भवती ति न्यायप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ अधुना कस्येति द्वारं प्रतिपाद्यते, तत्र यस्य तद् भवति तदभिधित्सयाऽऽह दीप अनुक्रम JABERatinintamational Swlanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~660~ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९७], भाष्यं [१५०] (४०) आवश्यक ॥३२९॥ प्रत सुत्रांक जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ ७९७॥ हारिभद्रीव्याख्या-यस्य 'सामानिक' सन्निहिता, अप्रवसित इत्यर्थः, 'आत्मा' जीवः, क?-'संयमें मूलगुणेषु 'नियमेयवृत्तिः उत्तरगुणेषु 'तपसि' अनशनादिलक्षणे 'तस्य' एवम्भूतस्याप्रमादिनः सामायिक भवति, 'इति' एवं केवलिभि-11 विभागः१ भाषितमिति गाथार्थः ॥ जो समो सयभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ ७९८ ॥ व्याख्या-यः समः' मध्यस्थः, आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः, 'सर्वभूतेषु' सर्वप्राणिषु 'बसेषु' द्वीन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु च पृथिव्यादिषु, तस्य सामायिकं भवति, एतावत् केवलिभाषितमिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं फलप्रदर्शनद्वारेणास्य करणविधानं प्रतिपादयन्नाहसावजजोगप्परिवजणछा,सामाइयं केवलियं पसत्थं। गिहत्थधम्मा परमंति णचा,कुज्जा बुहो आयहियं परत्थं ।। ___ व्याख्या-सावद्ययोगपरिवर्जनार्थ सामायिक 'कैवलिक' परिपूर्ण 'प्रशस्त' पवित्रम्, एतदेव हि गृहस्थधर्मात् 'परम' प्रधानम् 'इति' एवं ज्ञात्वा कुर्याद् 'बुधः' विद्वान् 'आत्महितम्' आत्मोपकारक 'परार्थम्' इति परः मोक्षस्तदर्थे, न तु15 सुरलोकाद्यवाप्त्यर्थम् , अनेन निदानपरिहारमाह, इति वृत्तार्थः॥ ७९९ ॥ परिपूर्णसामायिककरणशक्त्यभावे गृहस्थोऽपि गृहस्थसामायिकं 'करेमि भंते ! सामाइयं सावज जोग पञ्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव नियमं पजुवासामी'त्येवं कुर्यात्, दीप अनुक्रम Standiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~6614 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educal ** % % %%%%%%%%%* “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [७९७], आह-तस्य सर्वं त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याचक्षाणस्य को दोष इति १, उच्यते, प्रवृत्तकर्मारम्भानुमत्यनिवृत्त्या करणासम्भव एव, तथा भङ्गप्रसङ्गदोषश्चेति । आह च सव्वंति भाणिकणं विरई खलु जस्स सब्विया णत्थि । सो सव्वविरइवाई चुकह देसं च सव्वं च ॥ ८०० ॥ व्याख्या- 'सर्व' ति उपलक्षणात् सर्व सावधं योगं प्रत्याख्यामि त्रिविधं त्रिविधेन, इत्येवं 'भाणिऊण' अभिधाय 'विरतिः' निवृत्तिः खलु यस्य 'सर्विका' सर्वा नास्ति, प्रवृत्तकर्मारम्भानुमतिसद्भावात् स सर्वविरतिवादी 'चुकइत्ति भ्रश्यति 'देसं च सवं चे' ति देशविरतिं सर्वविरतिं च प्रतिज्ञाताकरणात् । आह-आगमे त्रिविधं त्रिविधेनेति गृहस्थप्रत्याख्यानमुक्तं तत्कथमिति १, उच्यते, स्थूलसावद्ययोगविषयमेव तत्, आह च भाष्यकारः - “जति किंचिदप्पजोयणमपपं वा विसेसिउं वत्युं । पञ्चक्खेज्ज ण दोसो सयंभुरमणादिमच्छव ॥ १ ॥ जो वा निक्खमिउमणो पडिमं पुत्तादिसंतइणिमित्तं । पडिवज्जिज्ज तओ वा करिज्ज तिविहंपि तिविहेणं ॥ २ ॥ जो पुण पुवारद्धाणुज्झियसावज्जकम्मसंताणो । तद्णुमतिपरिणतिं सो ण तरति सहसा णियते ॥ ३ ॥ इत्यादि" तथाऽपि गृहस्थसामायिकमपि परलोकार्थिना कार्यमेव, तस्यापि विशिष्टफलसाधकत्वाद्, आह च नियुक्तिकारः | सामाइयंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा || ८०१ ॥ भाष्यं [१५०...] 3 यदि किञ्चिदप्रयोजनमप्राप्यं वा विशेष्य वस्तु । प्रत्याचक्षीत न दोषः स्वयम्भूरमणादिमत्स्य इव ॥ १॥ यो वा निष्क्रमितुमनाः प्रतिमां पुत्रादिसन्ततिनिमितम् प्रतिपद्येत सको वा कुर्यात्रिविधमपि त्रिविधेन ॥२॥ यः पुनः पूर्वारब्धानुज्झितसावद्य कर्मसंतानः। तदनुमतिपरिणति स न शक्नोति सहसा निवर्त्तयितुम् २॥ For Parts मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~662~ cibrary org Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥३३०॥ Jus Educator “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८०१ ], भाष्यं [ १५०...] व्याख्या - सामायिक एव कृते सति श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् प्रायोऽशुभयोगरहितत्वात् कर्मवेदक इत्यर्थः, अनेन कारणेन 'बहुशः' अनेकधा सामायिकं कुर्यादिति गाथार्थः ॥ किञ्च - जीवो पमायबहुलो बहुसोऽवि अ बहुविसु अस्थेसुं । एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ ८०२ ॥ व्याख्या - जीवः प्रमादबहुल: 'बहुशः' अनेकधाऽपि च बहुविधेष्वर्थेषु शब्दादिषु प्रमादवांचैकान्तेनाशुभबन्धक एव, अतोऽनेन कारणेन तत्परिजिहीर्षया बहुशः सामायिकं कुर्यात् - मध्यस्थो भूयादिति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं सङ्क्षेपेण सामायिकवतो मध्यस्थस्य लक्षणमभिधित्सुराह— जो णवि वह रागे णवि दोसे दोण्ह मज्झयारंमि । सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सम्वे अमज्झत्था || ८०३ ॥ व्याख्या - यो नापि वर्तते रागे नापि द्वेषे, किं तर्हि ? - 'दोह मज्झयारंमि' द्वयोर्मध्य इत्यर्थः, स भवति मध्यस्थः, | शेषाः सर्वेऽमध्यस्था इति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं व किं सामायिकमिति निरूपयन् द्वारगाथात्रयमाह - खेत्तदिसाका लगइ भवियसण्णिऊसासदिङिमाहारे । पचत्तमुत्तजन्म द्वितिवेयसण्णाकसायाऊ || ८०४ ॥ णाणे जोगुवओगे सरीरसंठाणसंघयणमाणे । लेसा परिणामे वेयणा समुग्धाय कम्मे य ।। ८०५ ॥ णिव्वेढणमुच्वट्टे आसवकरणे तहा अलंकारे । सयणासणठाणत्थे चंक्रम्मंतेय किं कहियं ॥ ८०६ ॥ दारगाहाओ व्याख्या - आसां समुदायार्थः क्षेत्रादिकालगतिभव्य संज्ञिउच्छ्रासदृष्ट्याहारकानङ्गीकृत्याऽऽलोचनीयं किं क सामायिकमिति योगः, तथा पर्याप्त सुप्तजन्मस्थितिवेदसंज्ञाकपायायूंषि चेति, तथा ज्ञानं योगोपयोगी शरीरसंस्थान संहननमा For Parent हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~663~ ॥३३०॥ yog Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०६], भाष्यं [१५०...] (४०) M प्रत सूत्राक नानि लेश्याः परिणाम वेदनां समुद्घातं कर्म च क्रिया पूर्ववत् , तथा निर्वेष्टनोद्वर्त्तने अङ्गीकृत्यालोचनीयं-क्व किमिति । आश्रवकरणं तथाऽलङ्कार तथा शयनासनस्थानस्थानधिकृत्येति, तथा चङ्कमतश्च विषयीकृत्य किं सामायिक क इत्यालोच-11 नीयमिति समुदायार्थः । अवयवाथै तु प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति-तत्रोप्रलोकादिक्षेत्रमङ्गीकृत्य सम्यक्त्वादिसामायिकानां लाभादिभावमभिधित्सुराहसंमसुआणं लंभो उहुँ च अहे अ तिरिअलोए । विरई मणुस्सलोए विरयाविरई य तिरिएK ॥ ८०७॥ | व्याख्या-सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः 'लाभः' प्राप्तिः 'उहुं च' इत्यूर्यलोके च 'अधे य'त्ति अधोलोके च तिर्यग्लोके । च, इयमत्र भावना-ऊर्ध्वलोके मेरुसुरलोकादिषु ये सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते जीवास्तेषां श्रुताज्ञानमपि तदैव सम्यक्श्रुतं भवतीति, एवमधोलोकेऽपि महाविदेहाधोलौकिकग्रामेषु नरकेषु च ये प्रतिपद्यन्ते, एवं तिर्यग्लोकेऽपीति, 'विरई मणुस्सलोगे' ति विरतिशब्देन सर्वविरतिसामायिकं गृह्यते, तच्च लाभापेक्षया मनुष्यलोक एव भवति, नान्यत्र, मनुष्या एवास्य | प्रतिपत्तार इति भावना, क्षेत्रनियमं तु विशिष्टश्रुतविदो विदन्ति, 'विरयाविरई य तिरिएK' ति विरताविरतिश्च देशविर-| |तिसामायिकलक्षणा लाभविचारे तिर्यक्षु भवति, मनुष्येषु च केषुचित् ।। पुष्वपडिवनगा पुण तीसुवि लोएसु निअमओ तिण्हं । चरणस्स दोसु निअमा भयणिज्जा उड्डलोगमि॥८०८॥ व्याख्या-पूर्वप्रतिपन्नकास्तु त्रयाणां नियमेन त्रिष्वपि लोकेषु विद्यन्ते, चारित्रसामायिक स्वधोलोकतिर्यगूलोकयो दीप ASSAKAAMSKREM अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~664~ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०८], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक ॥३३॥ - प्रत सुत्रांक रेव, ऊर्ध्वलोके तु भाज्या इत्यलं प्रसञ्जेनेति गाथार्थः ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं दिगद्वारावयवार्थाभिधित्सया दिकस्वरूप-15 हारिभद्रीप्रतिपादनायाह यवृत्तिः नामं ठवणा दविए खेत्तदिसा तावखेत्त पन्नवए। सत्तमिया भावदिसासा होअट्ठारसविहा उ ॥ ८०९॥ दारं ।। विभागः१ व्याख्या-नामस्थापने सुगमे 'दविए' ति द्रव्यविषया दिक् द्रव्यदिक,सा च जघन्यतस्त्रयोदशप्रदेशिकं दशदिक्प्रभवं द्रव्यं, तत्रैकैकः प्रदेशो विदिश्वेते चत्वारः, मध्ये स्वेक इत्येते पञ्च, चतसषु च दिक्ष्वायतावस्थिती द्वौ द्वाविति, आह च भाष्यकार:-'तेरेसपदेसियं खलु तावतिएसुं भवे पदेसेसुं। जं दवं ओगाढं जहण्णगं तं दसदिसागं ॥१॥ अस्य चेयं स्थापनेति, _ उत्कृष्टतस्त्वनन्तप्रदेशिकमिति, 'खेत्तदिस' त्ति क्षेत्रदिक्, सा चानेकभेदा मेरुमध्याष्टप्रादेशिकरुच-- - काद् बहियादिव्युत्तरश्रेण्या शकटोर्द्धिसंस्थानाश्चतस्रो दिशः, चतसृणामप्यन्तरालकोणावस्थिता एक प्रदेशिकाश्छिन्नावलिसंस्थानाश्चतन्त्र एव विदिशः ऊर्च चतुःप्रदेशिकचतुरस्रदण्डसंस्थाना एकैव, अघोड प्येवंप्रकारा द्वितीयेति, उक्तं च–'अठ्ठपैदेसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एस पभवो दिसाणं एसेव भवेऽणुदिसाणं ॥ १॥ दुपदेसादिदुरुत्तर एगपदेसा अणुत्तरा चेव । चउरो चउरो य दिसा च उरादि अणु-10 तरा दोण्णि ॥२॥ सगडुद्धिसंठिताओ महादिसाओ भवंति चत्तारि । मुत्तावली य चउरो दो चेव य होन्ति रुयगनिभा॥३॥ ॥३३१॥ प्रयोदशप्रादेशिकं खलु तावत्सु भरपदेशेषु। यद्रव्यमवगाई जघन्यं तदनदिकम् ॥१॥ २ अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यगूलोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेष एवं भवेदनुदिशाम् ॥ १ द्विप्रदेशादिश तरिकप्रदेशाऽनुत्तरेव । चतखश्चतस्रो दिशश्च । चतुराये अनुत्तरे द्वे॥ २ ॥ शकटोविंसंस्थिता महाविशो भवन्ति चतस्त्रः। मुक्ताक्लीय चतस्रो दे एव भवतो रुचकनि भे ॥३॥ दीप अनुक्रम Jantairated + andiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~665~ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८०९], भाष्यं [१५०...] (४०) - - - प्रत सूत्राक - -- इयं च स्थापनेति • आसां च नामानि-'ईदग्गेई जम्मा य रती वारुणी य वायवा । सोमा ईसाणाऽवि य विमला ये तमा य बोद्धया ॥ १॥ इंदा विजयद्दाराणुसारतो सेसिया पदक्षिणतो । अढवि तिरिय-दिसाओ उहुं विमला तमा चाधो ॥ २॥ 'तावखेत्त' ति, तापः-सविता तदुपलक्षिता क्षेत्रदिक् | तापक्षेत्रदिक, सा चानियता-'जे सिं जत्तो सूरो उदेति तेसिं तई हवइ पुवा। तावकूखेत्तदिसाओ|| पदाहिणं सेसियाओसिं ॥ १ ॥' 'पण्णवए' त्ति प्रज्ञापकस्य दिक् प्रज्ञापकदिक्-'पण्णवओ जद-|| भिमुहो सा पुचा सेसिया पदाहिणतो । तस्सेवणुगंतवा अग्गेयादी दिसा नियमा ॥१॥ सप्तमी ।।।।। भावदिकू सा भवत्यष्टादशविधैव, दिश्यते अयममुक इति संसारी यया सा भावदिक, सा चेत्थं भवत्यष्टादशविधा-पुढेविजलजलण वाया मूला खंधग्गपोरबीया य । बितिचउपंचेदिय तिरियनारगा देवसंघाया ॥१॥ मुच्छिमकमाकम्मभूमगणरा तहऽन्तरद्दीवा । भावदिसा दिस्सइ जं संसारी णिययमेताहिं ॥२॥ ऐन्द्री आमेयी यमा चर्कती वारणी पवायच्या । सोमा ईशानाऽपिच विमला न तमा (मी) बोल्या ॥1॥ पेन्द्री विजयद्वारानुसारतः | शेषाः प्रदक्षिणतः । अष्टापि तिर्यदिशः ऊध्वं विमला तमा चाधः ॥ २ ॥ २ येषां यतः सूर्य उदेति तेषां सा भवति पूर्वा । तापक्षेत्रदिशः प्रादक्षिण्येन शेषाः भनयोः ॥ १॥ प्रज्ञापको अभिमुखः सा पूर्वा शेषाः प्रदक्षिणतः । तस्या एवामुगन्तव्या आशेच्याद्या दिशो नियमात् ॥ ॥ ५ पृथ्वीजलवलनीता मूलानि स्कन्धानपर्व बीजानि च । द्विविधातुपोन्द्रियाः तिर्यो" नारको देवसंघातः॥१॥ संमूर्छजकांक मभूमिकनरामथान्तरद्वीपाः । भावविह दिश्यते यत् संसारी नियत मेताभिः ॥२॥ - दीप अनुक्रम KAR --- 4 - 5 INMorary.orm JABERatini मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~666~ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥३३२ || “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८०९ ], भाष्यं [ १५०...] ति गाधार्थः ॥ इह च नामस्थापनाद्रव्यदिग्भिरनधिकार एव, शेषासु यथासम्भवं सामायिकस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नो वा वाच्यः, तत्र क्षेत्रदिशोऽधिकृत्य तावदाह वाईआसु महादिसासु पडिवज्रमाणओ होइ । पुण्य पडिवन्नओ पुण अन्नयरीए दिसाए उ ॥ ८१० ॥ व्याख्या - पूर्वाद्यासु महादिक्षु विवक्षिते काले सर्वेषां सामायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति, न तु विदिक्षु, तास्वेक| प्रदेशिकत्वेन जीवावगाहनाभावात्, आह च भाष्यकारः -- “छिण्णावलिरुयगागिइदिसासु सामाइयं ण जं तासु । सुद्धासु णावगाहइ जीवो ताओ पुण फुसेजा ॥ १ ॥” पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां दिशि भवत्येव, पुनःशब्दस्यैवकारार्थत्वादिति गाथार्थः ॥ ८११ ॥ तापक्षेत्रप्रज्ञापकदिक्षु पुनरष्टसु चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानकश्च सम्भवति, अधऊर्ध्वदिग्द्वये तु सम्यक्त्वश्रुत सामायिकयोरेवमेव, देशविरति सर्वविरतिसामायिकयोस्तु पूर्वप्रतिपनकः सम्भवति, प्रतिपद्यमानकस्तु नैवेति, उक्तं च-" असु चउण्ड नियमा पुवपवण्णो उ दोसु दोण्हेव । दोण्ह तु पुत्रपवण्णो सिय णण्णो तात्रपण्णव ॥ १ ॥” भावदिक्षु पुनरेकेन्द्रियेषु न प्रतिपद्यमानको नापि पूर्वप्रतिपन्नश्चतुर्णामपि विक|लेन्द्रियेषु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति नेतरः, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु सर्वविरतिवर्णानां पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानको भाग्यः, विवक्षितकाले नारकामराकर्मभूमिजान्तरद्वीपकनरेषु सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नकोऽस्त्येव, छिन्नावलीचाकृतिदिक्षु सामायिकं न यस्मात्तासु । शुद्धासु नावगाहते जीवः ताः पुनः स्पृशेद ॥ १ ॥ २ अष्टसु चतुर्णां नियमात्पूर्वप्रपन्नस्तु द्वयोर्द्वयोरेव द्वयोस्तु पूर्वप्रपन्नः स्यात् नान्यस्तापप्रज्ञापकयोः ॥ १ ॥ For Funny हारिभद्री - ववृत्तिः विभागः १ ~667~ ॥३३२ || acibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [−], मूलं [-- /गाथा - ], निर्युक्तिः [८१०], भाष्यं [१५०...] इतरस्तु भाज्यः, कर्मभूमिजमनुष्येषु चतुर्णामपि पूर्वप्रतिपन्नोऽस्त्येव, प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्यः, सम्मूच्छिमेषु तूभयाभाव इति उक्तं च- “उभयाभावो पुढवादिएस विगलेसु होज्ज उबवण्णो । पंचदियतिरिए णियमा तिरहं सिय पवजे ॥ १ ॥ णारगदेवा कम्मग अंतरदीवेसु दोण्ह भयणा उ । कम्मगणरेसु चउसुं मुच्छेसु तु उभयपडिसेहो ॥ २ ॥ द्वारं ॥ कालद्वारमधुना, तत्र कालत्रिविध:- उत्सर्पिणीकालः अवसर्पिणीकालः उभयाभावतोऽवस्थितश्चेति, तत्र भरतैरावतेषु विंशतिसा| गरोपमकोटीकोटिमानः कालचक्र भेदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीगतः प्रत्येकं षड्विधो भवति, तत्रावसर्पिण्यां सुषमसुषमाख्यश्चतुः| सागरोपमकोटी कोटिमानः प्रवाहतः प्रथमः, सुषमाख्यस्त्रिसागरोपमकोटिकोटिमानो द्वितीयः, सुषम दुष्पमाख्यस्तु सागरोपमकोटी कोटिद्वयमानस्तृतीयः, दुष्पमसुषमाख्यस्तु द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्र न्यून सागरोपम कोटी कोटिमानश्चतुर्थः, दुष्प| माख्यस्त्वेकविंशतिवर्षसहस्रमानः पञ्चमः, दुष्पमदुष्पमाख्यः पुनरेकविंशतिवर्षसहस्रमान एव पष्ठ इति, अयमेव चोत्क्रमणोत्सर्पिण्यामपि यथोक्तसङ्ख्योऽवसेयः काल इति, अवस्थितस्तु चतुर्विधः, तद्यथा- सुषमसुषमाप्रतिभागः सुषमाप्रतिभागः सुषमदुषमाप्रतिभागः दुष्पमसुषमाप्रतिभागश्चेति, तत्र प्रथमो देवकुरूत्तरकुरुषु द्वितीयो हरिवर्षरम्यकयोः तृतीयो हैमवतैरण्यवतयोः चतुर्थो विदेहेष्विति, तत्रेत्थमनेकधा काले सति यस्य सामायिकस्य यस्मिन् काले प्रतिपत्तिरित्येतदभिधित्सुराह १ उभयाभावः पृथ्व्यादिकेषु विकलेषु भवेत् उपपन्नः । पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु नियमात् प्रयाणां स्वात्प्रतिपद्यमाने ॥१॥ नारक देवाकर्मकान्तरीयेषु द्वयोभंजना तु कर्मजनरेषु चतुर्णां संमूषु भयप्रतिषेधः ॥ २ ॥ For Parts Only www.incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~899~ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८११], भाष्यं [१५०...] (४०) यवत्तिः प्रत सुत्रांक संमत्तस्स सुयस्स य पडिवत्ती छब्विहमि कालंमि । विरई विरयाविरई पडिवजह दोसु तिसु वावि ॥११॥ हारिभद्रीआवश्यक| व्याख्या-सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च द्वयोरप्यनयोः सामायिकयोः प्रतिपत्तिः षड्विधे-सुषमसुषमादिलक्षणे काले सम्भ-18 विभागः१ ॥३३॥ वति, स च प्रतिपत्ता सुषमसुषमादिषु देशन्यूनपूर्वकोव्यायुष्क एव प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नकास्त्वनयोर्विद्यन्त एव, 'विरति' समग्रचारित्रलक्षणां तथा 'विरताविरतिं' देशचारित्रात्मिकां प्रतिपद्यते कश्चित् द्वयोः कालयोखिषु वाऽपि कालेषु, अपिः |सम्भावने, अस्य चार्थमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः,तत्रेय प्रकृतभावना-उत्सर्पिण्या द्वयोर्दुष्षमसुषमायां सुषमदुष्षमायां च,अवसर्पिण्यां| त्रिषु सुषमदुष्षमायाँ दुष्पमसुषमायां दुष्षमायां चेति,पूर्वप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव, अपिशब्दात् संहरणं प्रतीत्य पूर्वप्रतिपन्नकः सर्वकालेष्वेव सम्भवति, प्रतिभागकालेषु तु त्रिषु सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमानका सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नकस्त्वस्त्येव,7 चतुर्थे तु प्रतिभागे चतुर्विधस्यापि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु विद्यत एव, बाह्यद्वीपसमुद्रेषु तु काललि|ङ्गरहितेषु त्रयाणां प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति गाथार्थः ॥८११॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं गतिद्वारमुच्यते|चउसुवि गतीसु णियमा सम्मत्तसुपस्स होइ पडिवत्ती । मणुएसु होइ विरती विरयाविरई य तिरिएK ८१२ PI व्याख्या-चतसृष्वपि गतिषु, नियमात् इति नियमग्रहणमवधारणार्थे चतसृष्वेव न मोक्षगताविति हृदयं, सम्यक्त्व श्रुतयोर्भवति प्रतिपत्तिः, सम्भवति विवक्षिते काल इत्यर्थः, अपिशब्दः पृथिव्यादिषु गत्यन्तर्गतेषु न भवत्यपीति सम्भा-12 वयति, पूर्वप्रतिपन्नकरत्वनयोर्विद्यत एव, तथा मनुष्येषु भवति विरतिः-प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य मनुष्येष्वेव सम्भवति 04- दीप अनुक्रम -* ॥३३॥ 56 AREaintunintamaniana janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~669~ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८१२], भाष्यं [ १५०...] 'विरतिः' समग्रचारित्रात्मिका, पूर्वप्रतिपन्नापेक्षया तु सदा भवत्येव, 'विरताविरतिश्च' देशचारित्रात्मिका तिर्यक्षु, भवतीत्यनुवर्तते, भावना मनुष्यतुल्येति गाथार्थः ॥ ८१२ ॥ भव्यसंज्ञिद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहभवसिद्धिओ उ जीवो पडिवज्जइ सो चउण्हमण्णयरं । पडिसेहो पुण असण्णिमीसए सण्णि पडिवले ॥ ८१३॥ व्याख्या - भवसिद्धिको भव्योऽभिधीयते भवसिद्धिकस्तु जीवः प्रतिपद्यते 'चतुर्णी' सम्यक्त्वसामायिकादीनाम् 'अन्यतरत्' एकं द्वे त्रीणि सर्वाणि वा, व्यवहारनयापेक्षयेत्थं प्रतिपाद्यते, न तु निश्चयतः केवलसम्यक्त्व सामायिकसम्भवोऽस्ति, श्रुतसामायिकानुगतत्वात् तस्य, एवं संइयपि, यत आह-संन्नि पडिवज्जे, पूर्वप्रतिपन्नकस्तु भव्यसंज्ञिषु विद्यत एव, प्रतिषेधः पुनरसंज्ञिनि मिश्रकेऽभव्ये च, इदमत्र हृदयम्-अन्यतमसामायिकस्य प्रतिपद्यमानकान् प्राक् प्रतिपन्नान् वाssश्रित्य प्रतिषेधः असंज्ञिनि 'मिश्रके' सिद्धे, यतोऽसौ न संज्ञी नाप्यसंज्ञी न भव्यो नाप्यभव्यः अतो मिश्रः, अभव्ये च, पुनः शब्दस्तु पूर्वप्रतिपन्नोऽसंज्ञी सास्वादनो जन्मनि सम्भवतीति विशेषणार्थः, संज्ञी प्रतिपद्यत इति व्याख्यातमेवेति गाथार्थः ॥ ८१३ ॥ गतं द्वारद्वयम् । उच्छ्रासदृष्टिद्वारद्वयाभिधित्सयाऽऽह ऊसासगणीसा सग मीसग पडिसेह दुबिह पडिवण्णो । दिडीइ दो णया खलु ववहारो निच्छओ चेव ||८१४॥ दारं व्याख्या - उच्छ्रसितीति उच्छ्रासकः, निःश्वसितीति निःश्वासकः, आनापानपर्याप्तिपरिनिष्पन्न इत्यर्थः, स हि चतुर्णामपि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्यस्त्येवेति वाक्यशेषः, मिश्रः खल्वानापानपर्याप्याऽपर्याप्तो भण्यते, तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य प्रतिषेधः, नासौ चतुर्णामपि प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावना, 'दुविहपडिवन्नो' त्ति स एव द्विवि For Parts Use Only incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~670~ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१४], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक ॥३४॥ हारिभद्रीयवृत्ति। विभागा H प्रत सुत्राक -28-02 धस्य सम्यक्त्वश्रुतसामायिकस्य प्रतिपन्नः-पूर्वप्रतिपन्नो भवति, देवादिर्जन्मकाल इति, अथवा 'मिश्रः' सिद्धः, तत्र चतु- मप्युभयथाऽपि प्रतिषेधः, द्विविधस्य दर्शनचारित्रसामायिकस्य शैलेशीगतः पूर्वप्रतिपन्नो भवति, असावपि च ताव- मिश्र एवेति । दृष्टी विचार्यमाणायां द्वौ नयौ खलु विचारको व्यवहारो निश्चयश्चैव, तत्राद्यस्य सामायिकरहितः सामा- यिकं प्रतिपद्यते, इतरस्य तयुक्त एव, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादिति गाथार्थः ।। ८१४ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतमाहारकपर्याप्तकद्वारद्वयं प्रतिपादयन्नाहआहारओ उ जीवो पडिवजइ सो चउण्हमण्णयरं । एमेव य पज्जत्तो सम्मत्तसुए सिया इयरो॥ ८१५ ॥ । व्याख्या-आहारकस्तु जीवः प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत् , पूर्वप्रतिपन्नस्तु नियमादस्त्येव, एवमेव च पर्याप्तः पडू. भिरण्याहारादिपर्याप्तिभिश्चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, 'सम्मत्तसुए सिया इयरों' त्ति इतर:-अनाहारकोऽपर्याप्तकश्च, तत्रानाहारकोऽपान्तरालगतौ सम्यक्त्वश्रुते अङ्गीकृत्य स्यात्-भवेत् पूर्वप्रतिपन्नः, प्रतिपद्यमानकस्तु नैवेति वाक्यशेषः, केवली तु समुद्घातशैलेश्यवस्थायामनाहारको दर्शनचरणसामायिकद्वयस्येति, अपर्याप्तोऽपि सम्यक्त्वश्रुते अधिकृत्य स्यात् पूर्वप्रतिपन्न इति गाथार्थः ।। ८१५ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतं सुप्तजन्मद्वारद्वयब्याचिख्यासयेदमाहणिहाए भावओऽवि य जागरमाणो चउण्हमपणयरं । अंडयपोयजराज्य तिग तिग चउरो भवे कमसो ॥८१६॥ व्याख्या-इह सुप्तो द्विविधः-द्रव्यसुप्तो भावसुप्तश्च, एवं जाग्रदपीति, तत्र द्रव्यसुप्तो निद्रया, भावसुप्तस्त्वज्ञानी, तथा द्रव्यजागरो निद्रया रहितः, भावजागरः सम्यग्दृष्टिः, तत्र निद्रया भावतोऽपि च जाग्रत् चतुर्णा सामायिकानाम दीप %95 अनुक्रम 4% ॥३३४॥ janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~671~ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१६], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक न्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेत्यध्याहारः, अपिशब्दो विशेषणे, किं विशिनष्टि -भावजागरः द्वयोः प्रथमयोः पूर्वप्रतिपन्न एव, द्वयस्य तु प्रतिपत्ता भवतीति, निद्रासुप्तस्तु चतुर्णामपि पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपद्यमानकः, भावसुप्तस्तूभयविकलः, नयमताद्वा प्रतिपद्यमानको भवति, अलं विस्तरेण । जन्म त्रिविधम्-अण्डजपोतजजरायुजभेद|भिन्नं, तत्र यथासङ्ग्य 'तिग तिग चउरो भवे कमसो' त्ति अण्डजाः-हंसादयः त्रयाणां प्रतिपद्यमानकाः सम्भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सन्त्येव, पोतजाः-हस्त्यादयोऽप्येवमेव, जरायुजाः-मनुष्यास्तेऽपि चतुर्णामित्थमेव, औपपातिकास्तु प्रथमयोद्धयोरेवमिति गाथार्थः ।। ८१६ ॥ स्थितिद्वारमधुनाऽऽह| उक्कोसयहितीए पडिवजते य णत्थि पडिवण्णो । अजहण्णमणुकोसे पडिवजंते य पडिवण्णे ॥ ८१७॥ व्याख्या-आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टस्थिति वश्चतुर्णामपि सामायिकानां 'पडिवजते य णत्थि पडिवण्णो' त्ति प्रतिपद्यमानको नास्ति प्रतिपन्नश्च नास्तीति, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आयुषस्तूत्कृष्टस्थितौ द्वयोः पूर्वप्रतिपन्न इति, अजघन्योत्कृष्टस्थितिरेवाजघन्योत्कृष्टः स्थितिशब्दलोपात्, 'पडिवर्जते य पडिवण्णो' त्ति, स हि चतुर्णामपि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, प्रतिपन्नश्चास्त्येव, जघन्यायुष्कस्थितिस्तु न प्रतिपद्यते, न पूर्वप्रतिपन्नः, क्षुलकभवगत इति, शेषकर्मराशिजघन्यस्थितिस्तु देशविरतिरहितस्य सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नः स्याद्, दर्शनसप्तकातिकान्तः क्षपका | अन्तकृत् केवली, तस्य तस्यामवस्थायां देशविरतिपरिणामाभावात् , जघन्यस्थितिकर्मवन्धकत्वाच्च जघन्यस्थितित्वं तस्य, दीप अनुक्रम JamEai n d M andionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~672 ~ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१७], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक CROR ॥३३५॥ प्रत सूत्राक न तूपातकर्मप्रवाहापेक्षयेति, आह च भाष्यकार:-"ण जहण्णाउठिईए पडिवजइ णेव पुषपडिवण्णो । सेसे पुवपवण्णो। हारिभद्रीदेसविरतिवजिए होज ॥१॥" ति गाथार्थः॥ ८१७ ॥ द्वारं । साम्प्रतं वेदसंज्ञाकषायद्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह- I चउरोऽवि तिविहवेदे चउमुवि सण्णासु होइ पडिवत्ती । हेट्ठा जहा कसाएसु वणियं तह य इहयंपि।।८१८॥ [विभागः१ व्याख्या-चत्वार्यपि सामायिकानि 'त्रिविधवेदे' स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणे उभयथाऽपि, सन्तीति वाक्य शेषः, इयं भावनाचत्वार्यपि सामायिकान्यधिकृत्य त्रिविधवेदे विवक्षिते काले प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, अवेदस्तु देशविरतिरहितानां त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नः स्यात् , क्षीणवेदःक्षपको, न तु प्रतिपद्यमानकः । द्वारं । तथा चतसृष्वपि संज्ञासु-18 आहारभयमैथुनपरिग्रहरूपासु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य भवति 'प्रतिपत्तिः' प्रतिपद्यमानको भवति, न न भवति, इतरस्त्वस्त्येव । द्वारम् । अधो यथा 'पढमिल्लुगाण उदये' इत्यादिना कषायेषु वर्णितम् , इहापि तथैव वर्णितव्य, समुदायार्थस्त्वयम्-सकपायी चतुर्णामध्युभयथाऽपि भवति, अकषायी तु छद्मस्थवीतरागस्त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपद्यमानकः । द्वारमिति गाथार्थः ॥ ८१८ ॥ गतं द्वारत्रयं, साम्प्रतमायुज्ञानद्वारद्वयाभिधित्सयाऽऽहसंखिज्जाऊ चउरो भयणा सम्मसुयऽसंखवासीणं । ओहेण विभागेण य नाणी पडिवजई चउरो॥ ८१९ ॥ व्याख्या-सोयायुनरः चत्वारि प्रतिपद्यते, प्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति वाक्यशेषः, 'भयणा सम्मसुयऽसंखवासीणं' ति | भजना-विकल्पना सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोरसङ्ख्येयवर्षायुषाम् , इयं भावना-विवक्षितकालेऽसङ्घयेयवर्षायुषां सम्यक्त्व न जघन्यायुःस्थिती प्रतिपद्यते नैव पूर्वप्रतिपन्नः । शेषे पूर्वप्रतिपन्नो देशाविरतियजिते भवेत् ॥ १॥ %EXECS दीप अनुक्रम SOMEN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~673~ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१९], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक -45 श्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति । द्वारम् । 'ओहेण विभागेण य णाणी पडिबजए चउरो'त्ति ओघेन-सामान्येन ज्ञानी प्रतिपद्यते चत्वार्यपि नयमतेन, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, विभागेन चाभिनिबोधिकश्रुतज्ञानी युगपदाद्यसामायिकद्वयप्रतिपत्ता सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति, उपरितनसामायिकद्धयस्यापि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, इतरस्त्वस्त्येवेति, अवधिज्ञानी सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्न एव न प्रतिपद्यमानकः, देशविरतिसामायिकं तु न प्रतिपद्यते, गुणपूर्वकत्वात् तदवाप्सेः, स्यात् पुनः पूर्वप्रतिपन्नः, सर्वविरतिसामायिकं तु प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि भवति, मनःपर्यायज्ञानी देशविरतिरहितस्य त्रयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव, न प्रतिपद्यमानकः, युगपद्धा सह तेन चारित्रं प्रतिपद्यते। तीर्थकृद्, उक्तं च-"पडिवन्नमि चरित्ते चउणाणी जाव छउमत्थो" त्ति, भवस्थः केवली पूर्वप्रतिपन्नः सम्यक्त्वचारित्रयोः न तु प्रतिपद्यमानक इति गाथार्थः ॥ ८१९ ॥ गतं द्वारद्वयं, साम्प्रतं योगोपयोगशरीरद्वाराभिधित्सयाहचउरोऽवि तिविहजोगे उवओगदुगंमि चउर पडिवजे । ओरालिए चउकं सम्मसुय विउब्धिए भयणा ॥८२०॥ व्याख्या 'चत्वार्यपि' सामायिकानि सामान्यतः 'त्रिविधयोगे' मनोवाकायलक्षणे सति प्रतिपत्तिमाश्रित्य विवक्षितकाले सम्भवन्ति, (ग्रंथानम् ८५०० ) प्राक्प्रतिपन्नता स्वधिकृत्य विद्यन्त एव, विशेषतस्वौदारिककाययोगवति योगत्रये चत्वार्युभयथाऽपि, वैक्रियकाययोगवति तु सम्यक्त्वश्रुते उभयथाऽपि, आहारककाययोगवति तु देशविरतिरहितानि त्रीणि सम्भवन्ति, तैजसकार्मणकाययोग एव केवले अपान्तरालगतावाद्यं सामायिकद्धयं प्राक्प्रतिपन्नतामधिकृत्य स्यात् , प्रतिपने चारित्रे चतुज्ञांनी यावच्छमस्या दीप अनुक्रम 56-5-45 5 AmEaia n d andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~674 ~ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२०], भाष्यं [१५०...] (४०) बावश्यक ॥३३॥ प्रत सुत्रांक मनोयोगे केवले न किञ्चित् , तस्यैवाभावाद्, एवं वाग्योगेऽपि, कायवाग्योगद्वये तु स्याद् द्वयमाद्यं प्राक्प्रतिपन्न ताम- हारिभद्री|धिकृत्य, सम्यक्त्वात् प्रतिपततो विकलेन्द्रियोपपातिषु घण्टालालान्यायेनेति विस्तरेणालम् । द्वारम् । 'उवओ-11वृत्तिः गदुगंमि चउरो पडिवजे' त्ति उपयोगद्वये-साकारानाकारभेदे चत्वारि प्रतिपद्यते, प्राकुप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव, अत्राह- विभागः१ सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवन्ती' त्यागमादनाकारोपयोगे सामायिकलब्धिविरोधः, उच्यते, प्रवर्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्थ, अवस्थितौपशमिकपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगे सामायिकलब्धिप्रतिपादनाद| विरोध इति, आह च भाष्यकार:-"ऊसरदेसं दहेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छस्स अणुदए उवसमसंमं लहइ जीवो ॥१॥" अवस्थितपरिणामता चास्य-'जं मिच्छरसाणुदओ ण हायए तेण तस्स परिणामो । जे पुण सय-12 मुवसंतं ण वहुएऽवहितो तेणं ॥२॥ दारं । 'ओरालिए चउकं सम्मसुत विउबिए भयण' त्ति औदारिके शरीरे सामायिकचतु|कमुभयथाऽप्यस्ति, सम्यक्त्वश्रुतयोवेंक्रियशरीरे भजना-विकल्पना कार्या, एतदुक्तं भवति-सम्यक्त्वश्रुतयोक्रियशरीरी प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्चास्ति, उपरितनसामायिकद्वयस्य तु प्राक्प्रतिपन्न एव, विकुर्वितवैक्रियशरीरश्चारणश्रावकादिः श्रमणो वा, न प्रतिपद्यमानकः, प्रमत्तत्वात् , शेषशरीरविचारो योगद्वारानुसारतोऽनुसरणीय इति गाथार्थः ॥८२०४ द्वारत्रयं गतं, साम्प्रतं संस्थानादिद्वारत्रयावयवार्थप्रतिपादनायाह ॥३३६॥ ऊपरदेश दाधं च विध्याति बनदवः प्राप्य । इति मिथ्यात्वस्यानुदये औपशमिकसम्यक् लभते जीवः ।। ।। २ यस्मिथ्यात्वस्यानुदयो न हीय तेन तस्व परिणामः । यत्पुनः सदुपशान्तं न वर्धते अवस्थितस्तेन ॥१॥ दीप - अनुक्रम - - - JanEaa nd Dancinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~675~ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२१], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक सव्वेसवि संठाणेसु लहइ एमेव सव्वसंधयणे । उक्कोसजहण्णं वजिऊण माणं लहे मणुओ॥ ८२१ ॥ दारं ॥ | व्याख्या-संस्थितिः संस्थानम्-आकारविशेषलक्षणं, तच्च षोढा भवति, उक्त च-"समचउरंसे णग्गोहमंडले साइ12 वामणे खुजे । हुंडेऽवि य संठाणे जीवाणं छम्मुणेयवा ॥१॥ तुल्लं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकुटुं च । हेछिलकायम-18 डह सबत्थासंठिय हुंडं ॥२॥ इत्यादि, तत्र सर्वेष्वपि संस्थानेषु 'लभते' प्रतिपद्यते चत्वार्यपि सामायिकानि. प्राकप्रतिपन्नोऽप्यस्तीत्यध्याहारः, 'एमेव सबसंघयणे त्ति एवमेव सर्वसंहननविषयो विचारो वेदितव्यः, तानि च षट्र संहन नानि भवन्तीति, उक्तं च-"वजेरिसभणारायं पढम बितियं च रिसभणाराय । णाराय अद्धणाराय कीलिया तहय छेवडा M॥१॥ रिसभो उ होइ पट्टो वजं पुण कीलिया मुणेयबा । उभओमक्कडबंध णारायं तं वियाणाहि ॥२॥" इह चेत्थं म्भूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननमुच्यते न त्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात्। 'उक्कोसजहणं बजिऊण माणं लभे मणुओं' ति उत्कृष्टं जघन्यं च वर्जयित्वा मान-शरीरप्रमाणं लभते-प्रतिपद्यते मनुजः प्रकरणादनुवर्तमानं चतुर्विधमपि सामायिक, प्राक् प्रतिपन्नोऽपि विद्यत इति गाथाढ़ेंहदयम्, अन्यथा नारकादयोऽपि सामान्येन सामायिकद्वयं त्रीणि वा लभन्त एवेति, उक्तं च-"कि जहण्णोगाहणगा पडिवजति उकोसोगाहणगा समचतुरनं न्यग्रोधमण्डलं सादि वामनं कुम्जम् । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां पद ज्ञातव्यानि ।।३।। तुल्यं विल्तारबहुलमुत्सेधबहुलं च मङमकोय। अधमलनकायमा सर्वप्रासंखितं इण्डम् ॥२॥२ वर्षभनाराचं प्रथम द्वितीयं च पमनाराचम । नारायमर्थनारा कीलिका तथैव सेवारीम। ॥१॥ अषमस्तु भवति पट्टो वनं पुनः कीलिका ज्ञातव्या । उभयतो मर्कटबन्धो नाराचं तत् विजानीहि ॥ २ ॥ ३ किं जवन्यावगाहना प्रतिपयन्ते दीप अनुक्रम उत्कृष्टावगाहनका wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~676~ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२१], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥३३७॥ प्रत अजहणुकोसोगाहणग त्ति पुच्छा ?, गोतमा ! णेरइयदेवा ण जहण्णोगाहणगा किंचि पडिवजति, पुषपडिवण्णगा पुण सिया सम्मत्तसुताण, ते चेव अजहण्णुकोसोगाहणगा उक्कोसोगाहणगा व सम्मत्तसुतेपडिवजंति, णो सेसेत्ति । पुषपडिवण्णगा| दोवि दोहं चेव । तिरिएमु पुच्छा ?, गोतमा ? एगेंदिया तिसुवि ओगाहणासु ण किंचि पडिवजंति, णावि पुषपडिवण्णगा। जहणोगाहणगा विगलिंदिया सम्मत्तसुयाणं पुषपडिवण्णगा हवेज्जा ण पडिवजमाणगा,अजहण्णुकोसोगाहणगाउकोसोगाहणगा पुण ण पुवपडिवण्णा णाविपडिवजमाणगा,सेसतिरिया जहण्योगाहणगा सम्मत्तसुयाण पुवपडिवण्णगा होज्जा णोपडिवजमाणगा,अजहन्नुकोसोगाहणगा पुण तिण्हं दुहावि संति, उक्कोसोगाहणागा दोण्हं दुहाविमणुएसु पुच्छा?, गोतमा! समुच्छिममणुस्से पडुच्च तिसुवि ओगाहणासु चउण्हंपि सामाइयाणं ण पुबपडिवण्णगा नो पडियजमाणगा। गम्भवतिय जहण्णोगाहणमणूसा सूत्रांक दीप - अनुक्रम - T भजघन्योत्कृष्टावगाहना इति पृच्छा ?, गौतम ! नैरषिकदेवा न जघन्यावगाहनाः किचित्प्रतिपयन्ते, पूर्वप्रतिपन्नकाः पुनः स्युः सम्यनत्वश्रुतयोः, त एवाजधम्बोत्कृष्टावगाहना तस्कृष्टावगाहनाश्च सम्यक्त्वश्रुते प्रतिपचन्ते, नशेपे इति । पूर्वपतिपत्रका द्वयेऽपि द्वयोरेव । तियेच पृच्छा, गौतम! एकेन्द्रियास्तिसृष्वप्यवगाहनासु न किदित् प्रतिपयन्ते, नापि पूर्वप्रतिपन्नाः । जघन्यावगाहना विकलेन्द्रियाः सम्यक्रवधुतयोः पूर्वप्रतिपन्ना भवेयुर्न प्रतिपद्यमानाः, अजघन्योत्कृष्ठावगाहना उस्कृष्टावगाहनाः पुनर्न पूर्वप्रतिपना नापि प्रतिपद्यमानाः, शेषतिय जो जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपमा भवेयुर्न प्रतिपद्यमानाः, भजघन्योस्कृष्टावगाहनाः पुनप्रयाणां विधाऽपि सन्ति, उत्कृष्टावगाहना द्वयोर्तिधाऽपि । मनुजेषु पृठा', गौतम! संमूर्छनजमनुध्यान प्रतीत्य | |तिसष्वप्यवगाहनासु चतुर्णामपि सामायिकादीनां न पूर्वप्रतिपला न प्रतिपद्यमानाः । गर्भग्युकास्तिकजधन्यावगाइनमनुष्याः ॥३३७॥ JABERatin intimational Mandinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~677~ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२१], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत 45%E5% A सूत्राक सम्मत्तसुयाण पुचपडिवण्णगा होजा णो पडिवजमाणगा, अजहण्णुकोसोगाहणगा पुण चउपहवि दुधावि संति, उक्कोसोगाहणगा पुण दुण्हं दुधावी' त्यादि, अलं प्रसङ्गेन । गतं द्वारत्रयम् , अधुना लेण्याद्वारावयवार्थमभिधित्सुराहसम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरितं । पुब्बपडिवण्णगो पुण अण्णयरीए उ लेसाए ॥ ८२२॥ | व्याख्या-सम्यक्त्वं च श्रुतं चेति एकवद्भावस्तत् सम्यक्त्वश्रुतं 'सर्वासु' कृष्णादिलेश्यासु 'लभते' प्रतिपद्यते, 'शुद्धासु' तेजोलेश्याद्यासु तिसृष्वेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , 'चारित्रं' विरतिलक्षणं, लभत इति वर्तते, एवं प्रतिपद्यमानकमधिकृत्य लेश्याद्वारं निरूपितम् , अधुना प्राक्प्रतिपन्नमधिकृत्याऽऽह-'पुवपडिवण्णओ पुण अण्णतरीए उ लेसाए' पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायां-कृष्णाद्यभिधानायां भवति । आह-मतिश्रुतज्ञानलाभचिन्तायां शुद्धासु तिसृषु । प्रतिपद्यमानक उक्तः कथमिदानी सर्वास्वभिधीयमानः सम्यक्त्वश्रुतप्रतिपत्ता न विरुध्यत इति !, उच्यते, तत्र कृष्णादि-18 द्रव्यसाचिव्यजनिताऽऽत्मपरिणामरूपां भावलेश्यामाश्रित्यासावुक्तः, इह त्ववस्थितकृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामेव, इत्यतो न विरोधः, उक्तं च-"से पूर्ण भंते । किण्हलेसा णीललेस्सं पप्पणो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुजो भुज्जो परिणमति !, हंता गोतमा 1 किण्णलेस्सा णीललेस्स पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति, से केणद्वेर्ण भंते ! एवं चुच्चति-किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव णो परिणमइ, गोतमा। सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्ना भवेयुर्न प्रतिपद्यमानाः, मजघन्योत्कृष्टावगाहनाः पुनश्चतुर्णामपि विधाऽपि सन्ति, उत्कृष्टाषगाहनाः पुनयोबिधाऽपि । २ अथ नून भदन्त ! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तदूपतया नो तर्णतया न तद्न्धतया न तदसतया न तत्स्वर्शतया भूयो भूयः परिणमति, हन्त गौतम! कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य न तदूपतया थावत्परिणमति, अब केनार्थेन भदन्त ! एवं प्रोच्यते-कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य वाचन परिणमति !, गौतम ! दीप अनुक्रम T AC Awtandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~678~ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२२], भाष्यं [१५०...] (४०) 4964554-963 हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग: १ प्रत सुत्रांक आवश्यक आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागमायाए वा से सिया, किण्हलेस्सा णं साणो खलु णीललेसा, तत्थ गता उसकति वा | अहिसक्कइ वा, से तेणडेणं गोतमा ! एवं बुच्चति-किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव णो परिणमति, अयमस्यार्थः-'आगार' ॥५३८ RI इत्यादि, आकार एवं भाव आकारभावः, आकारभाव एवं आकारभावमात्रं, मात्रशब्द: खल्वाकारभावव्यतिरिक्तप्रति- बिम्बादिधर्मान्तरप्रतिषेधवाचकः, अतस्तेनाकारभावमात्रेणैवासौ नीललेश्या स्यात्, न तु तत्स्वरूपापत्तितः, तथा प्रति रूपो भागः प्रतिभागः, प्रतिबिम्बमित्यर्थः, प्रतिभाग एवं प्रतिभागमात्र, मात्रशब्दो वास्तवपरिणामप्रतिषेधवाचकः, अतसास्तेन प्रतिभागमात्रेणैव असौ नीललेश्या स्यात् , न तु तत्स्वरूपत एवेत्यर्थः, स्फटिकवदुपधानवशादुपधानरूप इति दृष्टान्तः ततश्च स्वरूपेण कृष्णालेश्यैवासौ न नीललेश्या, किं तर्हि !, तत्र गतोत्सर्पति, किमुक्तं भवति ?-तत्रस्थैव-स्वरूपस्थैव | Mनीललेश्यादि लेश्यान्तरं प्राप्योत्सर्पते इत्याकारभाव प्रतिबिम्बभागं वा नीललेश्यासम्बन्धिनमासादयतीत्यर्थः "एवं नीले लेसा काउलेसं पप्प जाव णीललेसा णं सा णो खलु काउलेसा, तत्थ गता उस्सकइ वा ओसक्का वा" अयं भावार्थःतगतोत्सर्पति किमुक्तं भवति ?-तत्रस्थैव स्वरूपस्थवोत्सर्पति, आकारभावं प्रतिबिम्बभागं वा कापोतलेश्यासम्बन्धिनमासादयति, तथाऽपसर्पति वा-नीललेश्यैव कृष्णलेश्यां प्राप्य, भावार्थस्तु पूर्ववत्, 'एवं काउलेसा तेउलेसं पप्प, दीप अनुक्रम ||३३८॥ आकारभावमात्रेण वा तस्याःस्यात् प्रतिभागमात्रेण वा तस्याः स्यात्, कृष्णलेश्या सा, न खलु नीललेश्या सा, तत्र गता अवध्वष्कति वा अभिष्वकति | वा, तत् तेनार्धन गौतम! एवमुच्यते-कृष्णलेल्या नील लेश्यां प्राप्य यावन्न परिणमति । २ एवं नीललेश्या कापोतलेश्यां प्राप्य यावन्नीललेश्या सा न खलु कापोतलेश्या, तन्न गतोत्सर्पति वा भपसर्पति वा । ३ एवं कापोतलेश्या तेजोलेश्यां प्राप्य, AnEaini n e jandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~679~ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२२], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत सूत्राक S तेउलेसा पम्हलेस पप्प, पम्हलेसा सुक्कलेस पप्प, एवं सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प' भावार्थस्तु पूर्ववत् , 'एवं किण्हेलसा नील-2) लेसं पप्प, किण्हलेसा काउलेसं पप्प, किण्हलेसा तेउलेसं पप्प, एवं जाव सुक्कलेसं पप्प, एवमेगेगा सबाहिं चारिज्जति'. ततश्च सम्यक्त्वश्रुतं सर्वास्ववस्थितकृष्णादिद्रव्यलेश्यासु लभते नारकादिरपि, शुद्धासु तेजोलेश्याद्यासु तत्तद्न्यसाचिव्य| सञ्जातात्मपरिणामलक्षणासु तिसृषु च चारित्रं, शेष पूर्ववदिति गाथाथैः ।। ८२२ ॥ द्वारं । साम्प्रतं परिणामद्वारावयवार्थ प्रतिदर्शयन्नाह वहुंते परिणाम पडिवजह सो चउपहमण्णयरं । एमेवऽवठियंमिवि हायंति न किंचि पडिवले ॥ ८२३ ॥ व्याख्या--परिणामः-अध्यवसायविशेषः, तत्र शुभशुभतररूपतया बढेमाने परिणामे प्रतिपद्यते स 'चतुर्णा' सम्य&ाक्त्वादिसामायिकानामन्यतरत्, 'एमेवऽवडियंमिवि' ति एवमेवावस्थितेऽपि शुभे परिणामे प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्य तरदिति, 'हायति ण किंचि पडिबजे त्ति क्षीयमाणे शुभे परिणामे न किश्चित् सामायिक प्रतिपद्यते, प्राकृतिपन्नस्तु |४|त्रिष्वपि परिणामेषु भवतीति गाथार्थः ॥ ८२३ ॥ द्वारम् ।। अधुना वेदनासमुद्घातकर्मद्वारद्वयव्याचिख्यासयाऽऽहदुविहाऍ वेयणाए पडिवजह सो चउण्हमपणयरं । असमोहओऽवि एमेव पुब्बपडिवण्णए भयणा ॥८२४ ॥ व्याख्या-द्विविधायां वेदनायां-सातासातरूपायां सत्यां प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत्, प्राकप्रतिपन्नश्च भवति.IN तेजोलेश्या पाटेश्यां प्राप्य, पालेश्या शुक्ललेश्यां प्राप्य, एवं शुक्ललेश्या पद्मलेश्यां प्राप्य । एवं कृष्णलेश्या मील लेश्यां प्राप्य कृष्णलेश्या कापोतलेश्यां प्राप्य कृष्णलेश्या तेजोलेश्यां प्राप्य, एवं यावत् शुक्ललेइयां प्राप्य, एचमेकैका सर्वामिश्चार्यते. CSCG दीप अनुक्रम kORG CAC tandonorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~680~ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२४], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागा ॥१९॥ प्रत सुत्रांक 2645 असमोहतोऽवि एमेव' ति असमवहतोऽप्येवमेव प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत्, प्राक्प्रतिपन्नश्च भवति, समवहतस्तु केवलिसमुद्घातादिना सप्तविधेन प्रतिपद्यते, किन्तु 'पुवपडिवण्णए भयण' ति पूर्वप्रतिपन्न के समवहते विचारयितुमारब्धे भजना सेवना समर्थना कार्या, पूर्वप्रतिपन्नो भवतीत्यर्थः, सप्तविधत्वं पुनः समुद्घातस्य, यथोक्तम्-'केवलि कसायमरणे वेदण वेउवि तेय आहारे । सत्तविह समुग्धातो पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ १॥ इह च पूर्वप्रतिपन्नके भजना, समवहतो हि सामायिकबयस्य त्रयस्य वा पूर्वप्रतिपन्नको भावनीय इतिगाथार्थः ॥ ८२४ ॥ गतं द्वारद्वयं, निर्वेष्टनद्वारप्रतिपादनायाहदग्वेण य भावेण य निविलुतो चउण्हमण्णयरं । नरएस अणुव्वढे दुगं चउक्कं सिया उ उबट्टे ।। ८२५॥ व्याख्या-द्रव्यतो भावतश्च निर्वेष्टयन् चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नश्चास्ति, द्रव्यनिर्वेष्टनं कर्मप्रदेशवि| सङ्घातरूपं भावनिर्वेष्टनं क्रोधादिहानिलक्षणं, तत्र सर्वमपि कर्म निवेष्टयंश्चतुष्टयं लभते, विशेषतस्तदावरणं ज्ञानावरणं निर्वेष्टयन् श्रुतसामायिकमाप्नोति मोहनीयं तु शेषत्रयमिति, संवेष्टयंस्त्वनन्तानुवन्ध्यादीन् न प्रतिपद्यते, शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथाऽप्यस्ति । द्वारम् । उद्वर्तनाद्वारमधुना-नरकेषु-अधिकरणभूतेष्वनुद्वर्तयन् , तत्रस्थ एवेत्यर्थः, नरकाबेति पाठान्तरं, 'दुर्ग' ति आद्यं सामायिकद्विकं प्रतिपद्यते, तदेव चाधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति, उद्वृत्तस्तु 'स्यात्' कदाचित् चतुष्क प्रतिपद्यते कदाचित् त्रिक, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्यस्त्येवेति गाथार्थः ।। ८२५ ॥ तिरिएसु अणुव्वतिगं चउकं सिया उ उव्वहे। मणुएमु अणुब्बट्टे चउरो ति दुगं तु उबट्टे ॥ ८२६ ॥ केवली पायो मरणं वेदमा वैक्रिय तेजस आहारकः । सप्तविधः समुद्धातः प्रज्ञप्तो वीतरागः ॥1॥ दीप अनुक्रम ३३९॥ binataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~681 ~ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२६], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-तिर्यक्षु' गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु संशिष्वनुद्वृत्तः सन् 'त्रिकम्' आद्य सामायिकत्रयमधिकृत्य प्रतिपत्ता प्राक्प्रतिपन्नश्च भवतीत्यध्याहारः, 'चउकं सिया उ उघट्टे' उद्धृत्तस्तु मनुष्यादिष्वायातः 'स्यात्' कदाचिच्चतुष्टयं स्यात् त्रिक स्यात् द्विकमधिकृत्योभयथाऽपि भवतीति, 'मणुएसु अणुबट्टे चउरो ति दुगं तु उबट्टे मनुष्येष्वनुत्तः सन् चत्वारि प्रतिपद्यते प्राक्प्रतिपन्नश्च भवति, त्रीणि द्विकं, तुशब्दो विशेषणे, उद्वत्तस्तिर्यग्नारकामरेप्वायातः त्रीणि द्विकं वाऽधिकृत्योभयथाऽपि भवतीति गाथार्थः ॥ ८२६ ॥ देवेसु अणुब्बट्टे दुगं चउक्कं सिया उ उब्वट्टे । उब्वट्टमाणओ पुण सव्वोऽवि न किंचि पडियज्जे ॥ ८२७ ॥ । ब्याख्या-देवेष्वनुद्वत्तः सन् 'द्विकम्' आद्यं सामायिकद्वयमाश्रित्योभयथाऽपि भवतीति क्रिया, 'चउकं सिया उ उबट्टे' त्ति पूर्ववत् , उद्धर्तमानकः पुनरपान्तरालगतौ सर्वोऽप्यमरादिर्न किञ्चित् प्रतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नस्तु द्वयोर्भवतीति गावार्थः ॥ ८२७ ॥ द्वारम् ॥ आश्रवकरणद्वारप्रतिपादनायाहणीसवमाणो जीवो पडिवजह सोचउण्हमण्णयरं । पुवपडिवण्णओ पुण सिय आसवओ वणीसवओ॥८२८॥ व्याख्या-निश्रावयन् यस्मात् सामायिक प्रतिपद्यते, तदावरणं कर्म निर्जरयन्नित्यर्थः, शेषकर्म तु बभन्नपि जीवआत्मा प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरत् , पूर्वप्रतिपन्नकः पुनः स्यादानवको बन्धक इत्यर्थः, निःश्रावको वा, वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, आह-निर्वेष्टनद्वारादस्य को विशेष इतिः, उच्यते, निर्वेष्टनस्य कर्मप्रदेशविसङ्घातरूपत्वात् क्रिया * दीप अनुक्रम C-CG 298 JABERahim Indianminaryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~682~ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८२८], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक ॥३४०॥ सुत्राक ACCORRANGADGAON कालो गृहीतः, निःश्रवणस्य तु निर्जरारूपत्वान्निष्ठाकाल इति, अथवा तत्र संवेष्टनवक्तव्यताऽर्थतोऽभिहिताः, इह तु हारिभद्रीसाक्षादिति गाथार्थः ॥ ८२८ ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽलङ्कारशयनासनस्थानचङ्कमणद्वारकदम्बकव्याचिण्यासयाऽऽह- । यवृत्तिा ___ उम्मुक्कमणुम्मुके उम्मुंचते य केसलंकारे । पडिवजेजऽन्नयरं सयणाईसुंपि एमेव ॥ ८२९ ।। विभाग: | व्याख्या-'उन्मुक्ते' परित्यक्ते 'अनुन्मुक्ते' अपरित्यक्ते अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, उन्मुश्चंश्च केशालङ्कारान् , केशग्रहणं कटककेयूराद्युपलक्षणं, प्रतिपद्येत अन्यतरचतुर्णा 'सयणादीसुपि एमेव' त्ति शयनादिष्वपि द्वारेषु तिसृष्वप्यवस्थास्वेव-13|| मेव योजना कार्या, उन्मुक्तशयनोऽनुन्मुक्तशयनः तथोन्मुञ्चन् चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक्क्षतिपन्नश्च भवति, एवं शेषयोजना कार्या, इति गाथार्थः ॥ ८२९ ।। उपोद्घातनियुक्ती द्वितीयद्वारगाथायां केति द्वारं गतम् , अधुना केष्विति द्वारं न्याचिख्यासुराहMI सब्वगर्य सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पजवा सब्वे । देसविरई पडुच्चा दोण्हवि पडिसेहणं कुज्जा ॥ ८३० ।। व्याख्या-अथ केषु द्रव्येषु पर्यायेषु वा सामायिकमिति ?, तत्र सर्वगतं सम्यक्त्वं, सर्वद्रव्यपर्यायरुचिलक्षणत्वात् तस्य, तथा 'श्रुते' श्रुतसामायिके 'चारित्रे' चारित्रसामायिके न पर्यायाः सर्वे विषयाः, श्रुतस्याभिलाप्यविषयत्वाद्, द्रव्यस्य | चाभिलाप्यानभिलाष्यपर्याययुक्तत्वात् , चारित्रस्यापि पढमंमि सबजीवा इत्यादिना सर्वद्रव्यासर्वपयोयविषयतायाः ॥४०॥ प्रतिपादितत्वात् , देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि-सकलद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात् , न सर्वद्रव्यविषयं नापि सर्व-13 पर्यायविषयं देशविरतिसामायिकमिति भावना । आह-अयं सामायिकविषयः किंद्वारे प्ररूपित एवेति किं पुनरभिधानम् 18 । दीप अनुक्रम JABERator djandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~683~ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३०], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत सूत्राक उच्यते, किं तदिति तत्र सामायिक जातिमात्रमुक्त, विषयविषयिणोरभेदेन, इह पुनः सामायिकस्य किंद्वार एव द्रव्यत्वगणवनिरूपितस्य ज्ञेयभावेन विषयाभिधानमिति, आह च भाष्यकार:-"किं तन्ति जातिभावेण तत्थ इह णेयभावतो-10 मिहिन विसयविसयिभेदो तत्थाभेदोवयारो त्ति ॥१॥ गाथार्थः ॥ ८३१ ॥ केष्विति गतं, कथं पुनः सामायिकमवाप्यते तत्र चतुर्विधमपि मनुष्यादिस्थानावाप्ती सत्यामवाप्यत इतिकृत्वा ततूकमदुर्लभताख्यापनायाह नियुक्तिकार:माणस खेत जाई कुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवणोग्गह सहा संजमो य लोगमि दुलहाई ॥ ८३१ ॥ इंदियलद्धी निवत्तणा य पज्जत्ति निरुवहयखेम । धायारोमगं सद्धा गाहगउधोग अठ्ठो य (अन्यदीया) चोल्लग पासग धपणे जूए रयणे य सुमिण पके य । चम्मजुगे परमाणू दस दिट्ठन्ता मणुपलंभे ॥ ८३२॥ । व्याख्या-'मानुष्यं मनुजत्वं क्षेत्रम्' आर्य 'जाति' मातृसमुत्था 'कुल' पितृसमुत्थं 'रूपम्' अन्यूनाङ्गता 'आरोग्य रोगाभावः 'आयुष्कं' जीवितं 'बुद्धि' परलोकप्रवणा 'श्रवणं धर्मसम्बद्धम् 'अवग्रहः' तदवधारणम् अथवा श्रवणावग्रहो-यत्यवग्रहः 'श्रद्धा' रुचिः 'संयमश्च अनवद्यानुष्ठानलक्षणः, एतानि स्थानानि लोके दुर्लभानि, एतदवाप्ती च विशि-1|| टसामायिकलाभ इति गाथार्थः ॥ ८३२ ॥ अथ चैतानि दुर्लभानि-'इन्द्रियलब्धिः' पञ्चेन्द्रियलब्धिरित्यर्थः, निर्वर्तना च इन्द्रियाणामेव, पर्याप्ति:-स्वविषयग्रहणसामर्थ्यलक्षणा, 'निरुवहत'त्ति निरुपहतेन्द्रियता, 'क्षेम' विषयस्य 'धात सुभिक्षम् 'आरोग्य' नीरोगता 'श्रद्धा' भक्तिः 'ग्राहकः' गुरु 'उपयोगः' श्रोतुस्तदभिमुखता 'अहो यत्ति अर्थित्वं च किं तदिति (बारे) जातिद्वारेण तत्रेह ज्ञेयभावतोऽभिहितम् । अत्र विषयविषयिभेदः तत्राभेदोपचारः इति ॥ ३ ॥ * भावना प्र. दीप अनुक्रम T JanENIMAR wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मनुष्यभवस्य दुर्लभत्व संबंधे दश दृष्टान्ताः ~684~ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक- ॥३४॥ प्रत सूत्राक धर्म इति गाथार्थः । भिन्नकर्तृकी किलेयम् । जीवो मानुष्यं लब्ध्वा पुनस्तदेव दुःखेन लप्स्यते, बह्वन्तरायान्तरितत्वात् , हारिभद्रीब्रह्मदत्तचक्रवर्तिमित्रब्राह्मणचोल्लकभोजनवत , अत्र कथानकम्-भदत्तस्स एगो कप्पडिओ ओलम्गओ, बहुसु आवतीसुरायवृत्तिः अवस्थासु य सवत्थ सहायो आसि, सो य रज पत्तो, बारससंवच्छरिओ अभिसेओ कओ, कप्पडिओ तत्थ अल्लियापि विभागः १ ण लहति, ततोऽणेण उवाओ चिन्तितो, उवाहणाओ धए बंधिऊण धयवाहएहि समं पधावितो, रण्णा दिछो, उत्तिणेणं| अवगृहितो, अण्णे भणति-तेण दारवाले सेवमाणेण बारसमे संवच्छरे राया दिछो, ताहे राया तं दहण संभंतो, इमो सो वराओ मम सुहदुक्खसहायगो, एत्ताहे करेमि वित्तिं, ताधे भणति-कि देमि त्ति?, सो भणति-देह करचोलए घरे घरे जाव सबंमि भरहे, जाधे णिहितं होजा ताहे पुणोवि तुभ घरे आढवेऊण भुंजामि, राया भणति-किं ते एतेण ?, देसं| ते देमि, तो सुहं छत्तछायाए हथिखंधवरगतो हिंडिहिसि, सो भणति-किं मम एदहेण आहट्टेण!, ताहे सो दिण्णो चोलगो, ततो पढमदिवसे राइणो घरे जिमितो, तेण से जुवलयं दीणारो य दिण्णो, एवं सो परिवाडीए सबेसु राउलेसु ब्रह्मदत्तस्यैकः काटिकोऽवलगका, बहीवापरसु अवस्थासु च सर्वत्र सहाय आसीत् , स व राज्य प्राप्तः, द्वादशवार्षिकोऽभिषेकः कृतः, कार्पटिकस्तत्र | प्रवेशमपि न लभते, ततोऽनेनोपायश्चिन्तितः, उपानहो ध्वजे बडा ध्वजवाहकैः समं प्रधावितः, राज्ञा दृष्टः, उचीणेनावगूढः, अन्ये भणन्ति-तेन द्वारपालान् | सेवमानेन द्वादशे संवत्सरे राजा दृष्टः,तदा राजा तं दृष्ट्वा संभ्रान्तः, अयं स वराको मम सुखदुःखसहायकः, अधुना करोमि बृत्ति, तदा भणति-कि ददामीति, स भणति-देहि करभोजनं (करतया योजनं) गृहे गृहे यावत् सर्वस्मिन् भरते, यदा लिष्ठितं भवेत्तदा पुनरपि तव गृहादारभ्य भुजे, राजा भणति-कि ॥३४१॥ ते एतेन !, देशं तुभ्यं ददामि, ततः सुखं छत्रच्छायायां बरहस्तिस्कन्धगतो हिण्डियसे, स भणति-किं ममैतावता आडम्बरेण (उपाधिना), तदा तचम्म । दत्तं (कर) भोजन, ततः प्रथमदिवसे राज्ञो गृहे जिमितः, तेन तस्मै युगलं दीनारश्च दत्तः, एवं स परिपाच्या सर्वेषु राजकुलेषु दीप अनुक्रम M anorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~685~ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु तेसिं च जे भोइया, तत्थ य णगरे अणेगाओ कुलकोडीओ, णगरस्स चेव सो कता अंत कहिति, ताधे गामेसु ताहे पुणो भरहवासस्स, अवि सो वच्चेज अंतं ण य माणुसत्तणातो भट्टो पुणो माणुसत्तणं लहइ ! पासग' त्ति, चाणक्कस्स सुवणं नस्थि, ताधे केण उवाएण विढविज सुवण्णं ?, ताधे जंतपासया कता, केइ भणंतिवरदिण्णगा, ततो एगो दक्खो पुरिसो सिक्खावितो, दीणारथालं भरियं, सो भणति-जति मर्म कोइ जिणति सो थालं गेहतु, अह अहं जिणामि तो एगं दीणारं जिणामि, तस्स इच्छाए जंतं पडति अतो ण तीरइ जिणितुं, जहा सोण जि-IPI प्पइ एवं माणुसलंभोऽवि, अवि णाम सो जिप्पेज ण य माणुसातो भट्ठो पुण माणुसत्तणं २। 'धण्णे ति जत्तियाणि भरहे धण्णाणि ताणि सवाणि पिण्डिताणि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, ताणि सवाणि आडुआलित्ताणि, तत्थेगा जुण्णमधेरी सुप्प गहाय ते विणिज पुणोऽविय पत्थं पूरेज, अवि सा देवप्पसादेण पूरेज ण य माणुसत्तणं ३ । 'जए' जधा एगो! सूत्राक दीप द्वात्रिंशति वरराज्यसहस्रेषु तेषां च ये भोजिकाः (ग्रामाधिपतयः ), तन्त्र च नगरेऽनेकाः कुलकोब्धः, नगरस्यैव स कदाउन्स करिष्यति ?, तदा ग्रामेषु । तदा पुनर्भरतवर्षस्य,अपि स मजेदन्तं न च मानुष्यामृष्टः पुनमानुष्यं लभते । । 'पाशक' इति,चाणक्यस्य सुवर्ण नास्ति तदा केनोपायेन उपार्जयामि सुवर्ण , तवा यन्त्रपाशकाः कृताः, केविनणन्ति-वरदत्ताः, तत एको दक्षः पुरुषः शिक्षितः, दीनारस्थालं भृतं, स भगति-यदि मां कोऽपि जयति स स्थालं गृह्यातु, अथाई जयामि तदैकं दीनार जयामि, तस्वेच्छया यन्त्र पतति अतो न शक्यते जेतुं, यथा स न जीयते एवं मानुण्यलाभोऽपि, अपि नाम स जीयेत न च मानुष्याइष्टः पुनमानुष्यम् ३ । धान्यानी'ति, यावन्ति भरते धान्यानि तानि सर्वाणि पिण्डितानि, तन्त्र प्रस्थः सर्वपाणां क्षिप्तः, तानि सर्वाणि मिनितानि (विलोडितानि) तत्रैका जीर्ण स्थविरा सूपं गृहीत्वा तानि बच्चिनुयात् पुनरपि च पूरयेप्रस्थम् , अपि सा देवप्रसादेन पूरयेत् न च मानुष्यम् ३ । 'यूतं' यथा एको | ORROREXREx अनुक्रम JAMEaasana tandinary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~686~ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८३२ ], भाष्यं [ १५०...] आवश्यक राय, तस्स सभा अठ्ठखंभसतसंनिविद्वा जत्थ अत्थायणयं देति, एकेको य खंभो असयंसिओ, तस्स रण्णो पुत्तो रज्जकंखी चिंतेति-थेरो राया, मारिकण रज्जं गिण्हामि, तं च अमचेण णायं, तेण रण्णो सिद्धं ततो राया तं पुत्तं भणति-॥३४२ ॥ अम्ह जो ण सहइ अणुकर्म सो जूतं खेलति, जति जिणति रज्जं से दिज्जति, कह पुण जिणियवं १, तुझ एगो आओ, अवसेसा अम्हं आया, जति तुमं एगेण आएण अट्ठसतरस खंभाणं एकेक अंसियं असते बारा जिणासि तो तुज्झ रज्जं, अवि य देवताविभासा । 'रतणे' त्ति, जहा एगो वाणियओ बुट्टो, रयणाणि से अस्थि, तत्थ य महे महे अण्णे वाणियया कोडिपडागाओ उन्भेति, सो ण उब्भवेति, तस्स पुत्तेहिं थेरे पस्थे ताणि रयणाणि देसी वाणिययाण हत्थे विक्कीताणि, वरं अम्हेऽवि कोडिपडागाओ उन्भवेन्ता, ते य वाणियगा समंततो पडिगया पारसकूलादीणि, थेरो आगतो, सुतं जधा विक्कीताणि, ते अंबाडेति, लहुं रयणाणि आणेह, ताहे ते सबतो हिंडितुमारद्धा, किं ते सवरयणाणि पिंडिज्ज ?, अविय Jus Educat १ राजा, तस्य सभाटोतरस्तम्भशतसन्निविष्टा यत्रास्थानिकां ददाति, एकेक स्तम्भोऽष्टशतांत्रिकः, तस्य राज्ञः पुत्रो राज्यकाही चिन्तयति-वृद्धो राजा, मारविश्वा राज्यं गृह्णामि तचामात्येव ज्ञातं तेन राज्ञे शिष्टं ततो राजा तं पुत्रं भगति असमाकं यो न सहतेऽनुक्रमं स धूर्त क्रीडति यदि जयति राज्यं तस्मै दीयते कथं पुनर्जेसम्यम् ? सबैक आयः अवशेषा अस्माकमायाः, यदि त्वमेकेनायेनाष्टशतस्त्र स्तम्भानामेकैकममिष्टशतवारान् जयसि तदा तव राज्यम्, अपिच देवताविभाषा । 'नानी'ति यथैको वणिकू वृद्धः खानि तख सन्ति तत्र च महे महेऽन्ये वणिजः कोटीपताका उच्छ्रयन्ति, स नोपपति, तस्य पुत्रैः स्थविरे प्रोषिते सानि रखानि देशीयवणिजां हस्ते विशीतानि, वरं वयमपि कोटीपताका उच्छ्रयन्तः ते च वणिजः समन्ततः प्रतिगताः पारसकुलादीनि (स्थानानि), स्थविर आगतः श्रुतं वथा विक्रीतानि, तान् निर्भयति, लघु रखानि आनयत, तदा ते सर्वतो हिण्डितुमारब्धाः, किं ते सर्वरखानि पिण्डयेयुः १, अपि च For Purina Pts Only हारिभद्रीवृतिः विभागः १ ~ 687~ ||३४२॥ baby org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत देवप्पभावेण विभासा ५ । 'सुविणए' त्ति-एगेण कष्पडिएण सुमिणए चंदो गिलितो, कप्पडियाण कथितं, ते भणंति-11 संपण्णचंदमंडलसरिसं पोवलियं लभिहिसि, लद्धा घरच्छादणियाए, अण्णेणवि दिडो, सो व्हाइऊण पुप्फफलाणि गहाय सविणपाडगस्स कथेति, तेण भणितं-राया भविस्ससि । इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो अपत्तो. सो य णिविष्णो। अपहति. जाव आसो अधियासितो आगतो, तेण तं दद्दूण हेसितं पदक्खिणीकतो य, ततो विलइओ पढे, एवं सो राया जातो. साडे सो कप्पडिओ तं सुणेति, जधा-तेणऽवि दिछो एरिसो सुविणओ, सोवि आदेसफलेण किर राया जातो. सोय। चिंतेति-बच्चामि जत्थ गोरसो तं पिबेत्ता सुवामि , जाव पुणो तं चेव सुमिर्ण पेच्छामि, अस्थि पुण सो पेच्छेजा ?, अवि य सो ण माणुसातो ६ । 'चकत्ति दारं, इंदपुरं नगरं, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाणं वराण देवीणं बावीसं पुत्ता, अण्णे भणति-एकाए चेव देवीए पुत्ता, राइणो पाणसमा, अण्णा एका अमच्चधूया, सा पर परिणितेण दिवेलिया,12 सूत्राक दीप अनुक्रम देवभाषेण विभाषा ५ । स्वाक इति, एकेन कापैटिकेन वो चन्द्रो गिलितः, काटिकेभ्यः कथितं, ते भणन्ति-संपूर्णचन्द्रमण्डलसदशी पोलिका लप्यसे, लब्धा गृहछादनिक्या, अन्येनापि यः, सनात्वा पुष्पफलानि गृहीवा स्वप्मपाठकाय कथयति, तेन भणित--राजा भविष्यसि । हता सप्तमे दिवसे तत्र राजा मृतोऽपुत्रा, सच निर्विष्णसिधति, यावदश्वोऽध्यासितः (अधिवासितः) आगतः, तेन सं रा देषितं प्रदक्षिणीकृतन, ततो बिलगितः पृष्ठे, एवं स राजा जाता, तदा स कार्पटिकस्तत् शृणोति, यधा-तेनापि दृष्ट इंदशः स्वभः, स त्वादेशकलेन किल राजा जातः, स च चिन्तयति-वजामि यत्र गोरसतं पीत्वा स्वपिमि, यावत्पुनसमेव स्वप्नं प्रेक्षयिष्ये, अस्ति पुनः स प्रेक्षेत ?, अपि च स न मानुष्यात् ६ । चक्रमिति द्वारम् , इन्द्रपुर नगरम्, इन्द्रदत्तो राजा, तस्पेष्टानां वराणां देवीनां द्वाविंशतिः पुत्राः, अन्ये भणन्ति-एकस्या एव देव्याः पुत्राः, राज्ञः प्राणसमाः, अन्या एकाऽमात्यदुहिता, सा परं परिणयता दृष्टा, C+ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~688~ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक-सा अण्णता कताइ रिउन्हाता समाणी अच्छति, रायणा य दिट्ठा, का एसत्ति ?, तेहिं भणितं तुम्भे देवी एसा, ताहे सो ताए समं रतिं एकं वसितो, सा य रितुपहाता, तीसे गन्भो लग्गो, साथ अमचेण भणिएलिता जया तुमं गन्भो आहूतो भवति तदा ममं साहिज्जसु ताए तरस कथितं दिवसो मुहुत्तो जं च रायाएण उल्लवितं सातियंकारो, तेण तं पत्तए लिहितं, सो सारवेति णवण्हं मासाणं दारओ संजातो, तस्स दासचेडाणि तद्दिवसं जाताणि, तंजहा अग्गियओ पद्यतओ बहुलियो सागरो य, ताणि य सहजातगाणि, तेण कलायरियरस उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणियप्पहाणाओ कलाओ गाहितो, जाहे ताओ गाहिंति आयरिया ताघे ताणि तं कहुंति वाउलेंति य, पुत्रपरिच्चएणं ताणि रोडंति, तेण ताणि ण चैव गणिताणि, गहिताओ कलाओ, ते य अण्णे चावीसं कुमारा गाहिजंता तं आयरियं पिद्धति अवयणाणि य भणति, जति सो आयरिओ पिट्टेति ताहे गंतूण मातृणं साहति, ताहे ताओ तं आयरियं खिंसंति-कीस आणसि ?, किं सुलभाणि ||३४३|| “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८३२], भाष्यं [१५०...] Jus Educato १] साऽन्यदा कदाचित् ऋतुभ्राता सती तिष्ठति, राज्ञा च दृष्टा, कैपेति १, तैर्भणितं युष्माकं देण्येषा तदा स तया सह रात्रिमेकामुषितः, सा च ऋतुखाता तस्या गर्भो खन्नः सा चामात्येन भणितपूर्वी-पदा तव गर्भ उत्पन्नो भवति तदा मां कथयेः, तथा तस्से कथितं दिवस मुहूतों यच राज्ञो सत्यङ्कारः तेन तत्पत्रे लिखितं स संरक्षति, नवसु मासेषु दारकः संजातः, तख दासचेटान्तदिवसे जाताः, तद्यथा अग्निः पर्वतो बाहुलिकः सागर, ते च सहजाताः तेन कलाचायोयोपनीतः तेन लेखादिका गणितप्रधानाः कला ग्राहितः, यदा ता ग्राहयन्त्या चायांदा ते तं निन्दयन्ति व्याकुलयन्ति च पूर्वपरिचयेन ते तिरस्कुर्वन्ति तेन ते नैव गणिताः, गृहीताः कलाः, ते चान्ये द्वाविंशतिः कुमारा ब्राह्ममाणातमाचार्य पियन्ति अवचनानि च भणन्ति यदि स आचार्यः पिहृति तदा गया मातृभ्यः कथयन्ति तदा ताः तमाचार्य हीलयन्ति ( उपालभन्ते ) कथमाहंसि?, किं सुलभानि For Fans at Use Only A ~689~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥३४३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक ROCCASSOCRACK पुत्तजम्माणि?, अतो ते ण सिक्खिता । इओ य महुराए पवयओ राया, तस्स सुता णिबुती णाम दारिया, सा रणो | अलंकिया उवणीता, राया भणति-जो तव रोयति भत्तारो, तो ताए भणित-जो सूरो बीरो विकतो सो मम भत्ता होउ, से पुण रजं दिजा, ताधे सा तं बलवाहणं गहाय गता इंदपुरं नगरं, तस्स इंददत्तस्स बहवे पुत्ता, इंददत्तो तुट्ठो चिंतेइपूर्ण अहं अण्णेहितो राईहितोलछो तो आगता, ततो तेण उस्सितपडागं नगरं कारित, तत्थ एकमि अक्खे अह चक्काणि, तेसिं परतो घिडल्लिया ठविया, सा अपिछम्मि बिंधितबा, ततो इंददत्तो राया सन्नद्धो णिग्गतो सह पुत्तेहि, सावि कण्णा । सबालंकारभूसिया एगमि पासे अच्छति, सो रंगोते य रायाणो ते य दंडभडभोइया जारिसो दोवतीए, तत्थ रणो जेडो पुत्तो सिरिमालीणाम कुमारो, सो भणितो-पुत्त! एस दारिया रजं च घेत्तवं, अतो विंध एतं पुत्तलियंति, ताधे सोऽकतकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणु चेव गेण्हित्तुं ण तरति, कहऽविऽण गहितं, तेण जतो वच्चतु ततो बच्चतुत्ति मुक्को .. पुत्रजन्मानि?, अत्तले न शिक्षिताः । इतश्च मधुरायां पर्वतो राजा, तस्य सुता नितिनाम दारिका, सा राशेऽलस्कृतोपनीता, राजा भण्पति-यस्तुभ्यं रोचते भासततस्तवा भणिते-पायरो वीरो विक्रान्तः स मम मत्ती भवतु, स पुना राज्यं दद्यात्, तदा सा तलवाहन गृहीत्वा गता इनपुर नगर, तस्पेन्द्रदत्तस्य बहवः पुत्राः, इन्द्रदत्तस्तुष्टश्चिन्तयति-नूनमहमन्येभ्यो राजभ्यो लष्टमात भागता, ततस्तेनोचितपता नगर कारितं, तत्रैकस्मिन् भक्षे (भक्षाटके) | अष्ट चक्रागि, तेषां पुरतः शालभक्षिका स्थापिता, साक्षिण वेधितव्या, तत इन्द्रदत्तो राजा सन्नद्धो निर्गतः सह पुत्रैः, साऽपि कन्या सर्वालङ्कारभूषितकस्मिन् पाच तिष्ठति, स रङ्गः तेच राजानते च दण्डभटभोजिका यारशो द्रौपद्याः, तत्र राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः श्रीमाली नाम कुमारः, स भणितः-पुत्र! एषा दारिका राज्यं च ग्रहीतव्यम् , अतो विध्यनां शालभञ्जिका इति, तदा सोऽकृतकरणः तस्य समूहस्य मध्ये धनुरेव ग्रहीतुं न शक्नोति, कथमध्यनेन गृहीतं, तेन यतो ब्रजतु ततो मजरिवति मुक्तः परसे प्र. दीप 32 अनुक्रम Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~690~ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सुत्राक आवश्यकता सरो, सो चके अप्फिडिऊण भग्गो, एवं कस्सइ एक अरगंतरं वोलीणो कस्सइ दोणि कस्सइ तिण्णि अण्णेसिं वाहि- हारिभद्री कारण चेव णीति, ताधे राया अधितिं पगतो-अहोऽहं एतेहिं धरिसितोत्ति, ततो अमञ्चेण भणितो-कीस अधिति करेह , यवृत्तिः ॥४४॥ राया भणति एतेहिं अहं अप्पधाणो कतो, अमच्चो भणति-अस्थि अण्णो तुब्भ पुत्तो मम धूताए तणइओ सुरिंददत्तो विभागः१ णाम, सो समत्थो विधितं, अभिण्णाणाणि से कहिताणि, कहिं सो, दरिसितो, ततो सोराइणा अवगृहितो, भणितो-सेयं तव एए अह रहचक्के भेत्तूण पुत्तलियं अच्छिम्मि विधित्ता रजसुकं णिवुतिदारियं संपावित्तए, ततो कुमारो जधाऽऽणवेहत्ति भणिऊण ठाणं ठाइतूण धणुं गेण्हति, लक्खाभिमुहं सरं सजेति, ताणि य दासरूवाणि चउद्दिसं ठिताणि रोडिंति, अण्णे |य उभयतो पासिं गहितखग्गा, जति कहवि लक्खस्स चुक्कति ततो सीसं छिदितबंति, सोऽवि से उवज्झाओ पासे ठितो भयं देति-मारिजसि जति युकसि, ते बावीसपि कुमारा मा एस विन्धिस्सतित्ति विसेस उल्लंठाणि विग्घाणि करेंति, शरः, सचक्रे आस्फाल्य भन्नः, एवं कस्यचित् एकमरकान्तरं म्यतिक्रान्तः कस्यचित् द्वे कस्यचित्रीणि, अन्येषां बाह्य एवं निर्गपति, सदा राजाऽरति प्रगतः-अहो अहमेतैर्षित इति, ततोऽमात्येन भणित:-किमति करोपि!, राजा भणति-एतैरहमप्रधानः कृतः, अमात्यो भणति-अस्त्यन्यो युष्माकं पुत्रो | मम दुहितुस्तनुजः सुरेन्द्रदत्तो नाम, स समयों वेधितुम्, अभिज्ञानानि ती कथितानि, कुत्र स:?, दर्शितः, ततः स राज्ञाऽवगृहितो, भणितः-श्रेवस्तवै-14 तानि अष्ट रथचक्राणि भिवा शालभझिकामणि बिझा रायशुल्का निर्वृतिदारिकां संप्राप्तुं, ततः कुमारो यथाऽऽज्ञापयतेति भाणस्वा स्थानं स्थिरवा धनुहाति,X॥३४४|| लक्ष्याभिमुखं शरं निसृजति (सजयति),ते च दासाश्चतुर्दिशं स्थिताः स्खलनां कुर्वन्ति, अन्यौ चोभयतः पार्श्वयोंहीतखही, यदि कथमपि लक्ष्याश्यति | तदा शीर्ष छेत्तव्यमिति, सोऽपि तस्योपाध्यायः पार्थे स्थितः भयं ददाति-मारविष्यसे यदि अश्यसि, ते द्वाविंशतिरपि कुमारा मा एष व्यासीदिति विशेषो. | वृक्षला विनान् कुर्वन्ति. TAGRAC-SER दीप अनुक्रम Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~691~ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक ततो ताणि चत्तारि ते य दो पुरिसे बावीसं च कुमारे अगणतेण ताणं अट्ठण्हं रहचकाणं अंतरं जाणिऊण तमि लक्खे णिरुद्धाए दिहीए अण्णमति अकुणमाणेण सा धिइलिया वामे अच्छिम्मि विद्धा, ततो लोगेण उकिद्विसीहणादकलकलुमिस्सो साधुकारो कतो, जधा तं चक्कं दुक्खं भेत्तुं एवं माणुसत्तणंपि ७ । 'चम्मत्ति-जधा एगो दहो जोयणसय सहस्सविच्छिण्णो चम्मेण गद्धो, एग से मज्झे छिडु जत्थ कच्छभस्स गीवा मायति, तत्थ कच्छभो वासस ते वाससते गते &ागी पसारेति. तेण कहवि गीवा पसारिता, जाव तेण छिद्रेण निग्गता, तेण जोतिसं दिट्ट कोमदीए पुष्कफलाणि य. सो आगतो, सयणिज्जयाणं दाएमि, आणेत्ता सवतो पलोयति, ण पेच्छति, अवि सो, ण य माणुसातो ८। युगदृष्टान्तप्रतिपादनायाऽऽहपुचते होज जुगं अवरते तस्स होज समिला उ । जुगछिडुमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥ ८३३ ।। व्याख्या-जलनिधेः पूर्वान्ते भवेद् युगम् , अपरान्ते तस्य भवेत् समिला तु, एवं व्यवस्थिते सति यथा युगच्छिद्रे प्रवेशः संशयितः, 'इय' एवं संशयितो मनुष्यलाभो, दुर्लभ इति गाथार्थः॥ ततस्तांचतुरस्तौ च द्वौ पुरुषौ द्वाविंशति च कुमारानगणयता तेषामष्टानां रथचक्राणामन्तरं ज्ञात्वा तमिलक्ष्य निरुद्या दृष्टया अन्यत्र मतिमकुर्वता सा शालभञ्जिका बामेऽक्षिण विद्धा, ततो लोकेनोकृष्टिसिंहनादकलकलोम्मिश्रः साधुकारः कृतः, यथा तच्चकं दुःखं भेतुमेवं मानुष्यमपि । चमेति-यथै को दो योजनशतसहसविस्तीर्णश्चर्मणा नद्धः, एक तस्य मध्ये छिदं यत्र कच्छपस ग्रीवा माति, तत्र कच्छपो वर्षशते वर्षशते गते ग्रीवां प्रसारयति, तेन कथमपि ग्रीवा प्रसारिता यावत्तेन छिद्रेण निर्यता, तेन ज्योतिरष्ट कौमुयां पुष्पफलानि च, स आगतः, स्वजनानां दर्शयामि, आनीय सर्वतः प्रलोकयति, न प्रेक्षते, अपि सः, न च मानुफ्यात् । दीप अनुक्रम JABERatoain atanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~692~ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३४], (४०) भाष्यं [१५०...] यवृत्तिः विभागः१ प्रत FET सूत्राक आवश्यक-18जह समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसेज जुग्गछिड़ कहवि भमंती भमंतंमि ॥ ८३४ ॥ ॥३४५॥ | व्याख्या-यथा समिला प्रभ्रष्टा 'सागरसलिले' समुद्रपानीये 'अणोरपार'मिति देशीवचनं प्रचुरार्थे उपचारत आरा-| दागपरभागरहित इत्यर्थः, प्रविशेत् युगच्छिद्रं कथमपि भ्रमन्ती भ्रमति युग इत्येवं दुर्लभं मानुष्यमिति गाथार्थः॥ सा चंडवायवीचीपणुल्लिया अवि लभेज युगछिडूं। ण य माणुसाउ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥८३५॥ ___ व्याख्या-सा समिला चण्डवातवीचीप्रेरिता सत्यपि लभेत युगच्छिद्रं, न च मानुष्या भ्रष्टो जीवः प्रतिमानुषं लभत इति गाथार्थः ॥ इदानीं परमाणू , जहा एगो खंभो महापमाणो, सो देवेणं चुण्णेऊणं अविभागिमाणि खंडाणि काउण णालियाए पक्खितो, पच्छा मंदरचूलियाए ठितेण फुमितो, ताणि णवाणि, अस्थि पुण कोवि?, तेहिं चेव पोग्गलेहिं तमेव खंभं णिवत्तेज!, णो त्ति, एस अभावो, एवं भट्ठो माणुसातो ण पुणो। अहवा सभा अणेगखंभसतसहस्ससंनिविठ्ठा, सा कालंतरेण झामिता पडिता, अस्थि पुण कोइ ?, तेहिं चेव पोग्गलेहिं करेजा, णोत्ति, एवं माणुस्सं दुल्लहं । इय दुल्लहलंभं माणुसत्तणं पाविऊण जो जीवो । ण कुणइ पारत्तहियं सो सोयह संक्रमणकाले ।। ८३६ ॥ | व्याख्या-'इय' एवं दुर्लभलाभ मानुषत्वं प्राप्य यो जीवो न करोति परत्र हित-धर्म, दीर्घत्वमलाक्षणिक, स शोचति 'सङ्क्रमणकाले' मरणकाल इति गाथार्थः॥ इदानी परमाणु:-यथैका सम्भो महाप्रमाणः, स चूर्णयित्वा देवेनाविभागानि सदानि कृत्वा नासिकायो प्रक्षिप्तः, पश्चान्मन्दरचूलायर्या स्थितेन । [फूकृतः, तानि नष्टानि, भस्ति पुनः कोऽपि ?, तैरेव पुनलैस्तमेव सम्भ निर्वतयेत, नेति, एषोऽभावः, एवं अष्टो मानुष्यान्न पुनः । अथवा सभा अनेकराम्भशतसहससन्निविष्टा, सा कालान्तरेण दग्धा पतिता, अस्ति पुनः कोऽपि, तेरेव पुलः कुर्यात्, नेति, एवं मानुष्यं दुर्लभम् । दीप अनुक्रम ॥३४५॥ Xiandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~693~ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३७], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत सूत्राक CAKC जह वारिमज्झछूढोव्व गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ। वग्गुरपडिउव्य मओसंवइओ जह व पक्खी ॥८३७॥ व्याख्या-यथा वारिमध्यक्षिप्त इव गजवरो मत्स्यो वा गलगृहीतः वागुरापतितो वा मृगः संवर्त-जालम् इतःप्राप्तो यथा वा पक्षीति गाथार्थः । ४/सो सोयइ मचुजरासमोच्छुओ तुरियणिद्दपक्खित्तो । तायारमबिंदतो कम्मभरपणोल्लिओ जीवो ॥ ८३८॥ | | व्याख्या-सोऽकृतपुण्यः शोचति, मृत्युजरासमास्तृतो-व्याप्तः, त्वरितनिद्रया प्रक्षिप्तः, मरणनिद्रयाऽभिभूत इत्यर्थः, वातारम् 'अविन्दन्' अलभन्नित्यर्थः, कर्मभरप्रेरितो जीव इति गाथार्थः ॥ स चेत्थं मृतः सन्हा काऊणमणेगाई जम्ममरणपरियट्टणसयाई । दुक्खेण माणुसत्तं जइ लहइ जहिच्छया जीवो ॥ ८३९॥ व्याख्या-कृत्वाऽनेकानि जन्ममरणपरावर्तनशतानि दुःखेन मानुपत्वं लभते जीवो यदि यहच्छया, कुशलपक्षकारी [8/ पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभत इति गाथार्थः ॥ तं तह दुल्लहलंभं विजुलयाचंचलं माणुसत्तं । लद्धण जो पमायह सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥ ८४० ॥ व्याख्या-तत्तथा दुर्लभलाभ विद्युल्लताचञ्चलं मानुषत्वं लब्ध्वा यः'प्रमाद्यति' प्रमादं करोति स कापुरुषो न सत्पुरुष इति दीप अनुक्रम वारियांग्गजबन्धन्योरिति मेदिन्याम् । आत्मनेपदमनित्यमित्या प्रासमपि न स्याद् अप्राप्तमपि च साहित्यनित्यस्यार्थस्तेन 'सम्यक् प्रणम्य न लभन्ति | कदाचनापि' इत्यत्रेवान परसौपदित्वापेक्षया न शतृर्षिरोधावहः + मणुसयत्तं प्र. 3-2-%-25 RTICIDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~694 ~ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४०], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक- ॥३४६॥ प्रत सुत्रांक गाथार्थः । इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-यथैभिर्दशभिदृष्टान्तैर्मानुष्यं दुर्लभं तथाऽऽर्यक्षेत्रादीन्यपि स्थानानि, ततश्च हारिभद्रीसामायिकमपि दुष्पापमिति, अथवा मानुष्ये लब्धेऽप्येभिः कारणैर्दुर्लभं सामायिकमिति प्रतिपादयन्नाह यवृत्ति आलस्स मोहऽवण्णा थंभा कोहा पमाय किवणत्ता । भयसोगा अण्णाणा वक्खेव कुतूहला रमणा ॥८४१॥ विभागः१ व्याख्या-आलस्यान्न साधुसकाशं गच्छति शृणोति वा, मोहादु गृहकर्तव्यतामूढो वा, अवज्ञातो वा किमेते विजा-2 नन्तीति, स्तम्भाद् वा जात्याधभिमानात् क्रोधाद् वा साधुदर्शनादेव कुप्यति, 'प्रमादात्' या मयादिलक्षणात् 'कृप-14 णत्वात्' वा दातव्यं किञ्चिदिति, 'भयात्' वा नरकादिभयं वर्णयन्तीति, 'शोकात्' वा इष्टवियोगजात् 'अज्ञानात् कुद्द-14 ष्टिमोहितः, 'व्याक्षेपादू' बहुकर्तव्यतामूढः, 'कुतूहलात्' नटादिविषयात् , 'रमणात्' लावकादिखेड्डेनेति गाथार्थः ॥८४१॥ एतेहिं कारणेहिं लडूण सुदुल्लहपि माणुस्सं । ण लहइ सुतिं हियकरि संसारुत्सारणि जीवो ।। ८४२ ॥ व्याख्या-एभिः 'कारणैः' आलस्यादिभिर्लब्ध्वा सुदुर्लभमपि मानुष्यं न लभते श्रुति हितकारिणी संसारोत्तारिणी जीव इति गाथार्थः ॥ व्रतादिसामग्रीयुक्तस्तु कर्मरिपून विजित्याविकलचारित्रसामायिकलक्ष्मीमवाप्नोति, यानादिगुणयुकयोधवजयलक्ष्मीमिति ॥ आह चजाणावरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं च णीती य । दक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥ ८४३ ॥ ॥३४॥ व्याख्या-यानं हस्त्यादि, आवरणं-कवचादि, प्रहरणं-खड्गादि, यानावरणप्रहरणानि, युद्धे कुशलत्वं च-सम्यग् | ज्ञानमित्यर्थः, 'नीतिश्च' निर्गमप्रवेशरूपा 'दक्षत्वम् आशुकारित्वं 'व्यवसाय शौर्य शरीरम् अविकलम् 'आरोग्यता, दीप अनुक्रम 445 JABERatinintamational standiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~695~ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४३], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक व्याधिवियुक्तता चैवेति । एतावद्गुणसामय्यविकल एव योधो जयश्रियमामोतीति दृष्टान्तः, दार्शन्तिकयोजना त्वियंजीवो जोहो जाणं वयाणि आवरणमुत्तमा खंती । झाणं पहरणमिई गीयत्थत्तं च कोसलं ॥ १॥ दवाइजहोवायागुरूवपडिवत्तिवत्तिया णीति । दक्खतं किरियाणं जं करणमहीणकालंमि ॥२॥ करणं सहणं च तवोवसग्गदुग्गावती' ववसाओ। एतेहिं सुणिरोगो कम्मरिडं जिणति सबेहिं ॥३॥ विजित्य च समनसामायिकश्रियमासादयतीति गाथार्थः J॥ ८४३ ।। अथवाऽनेन प्रकारेणाऽऽसाद्यत इति दिडे सुएऽणुभूए कम्माण खए कए उवसमे अ। मणवयणकायजोगे अ पसत्थे लब्भए बोही॥ ८४४ ॥ व्याख्या-दृष्टे भगवतः प्रतिमादौ सामायिकमवाप्यते, यथा श्रेयांसेन भगवदर्शनादवाप्तमिति, कथानकं चाधः कथितमेव, श्रुते चावाप्यते यथाऽऽनन्दकामदेवाभ्यामवाप्तमिति, अत्र कथानकमुपरितनाङ्गादवसेयम् , अनुभूते कियाकलापे सत्यवाप्यते, यथा वल्कलचीरिणा पित्रुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणेनेति, कथानक कथिकातोऽवसेयं, कर्मणां क्षये कृते | सति प्राप्यते, यथा चण्डकौशिकेन प्राप्तम् , उपशमे च सत्यवाप्यते यथाऽङ्गऋषिणा, मनोवाकाययोगे च प्रशस्ते लभ्यते बोधिः, सामायिकमनर्थान्तरमिति गाथार्थः ॥ अथवाऽनुकम्पादिभिरवाप्यते सामायिकमित्याह| अणुकंपऽकामणिजर चालतवे दाणविणयविभंगे। संयोगविप्पओगे वसणूसवइहि सकारे ॥ ८४५ ॥ जीवो योधो पानं व्रतानि आवरणमुत्तमा क्षान्तिः । ध्यानं प्रहरणमिष्टं गीतार्थत्वं पीपाल्यम् ॥ ॥ व्यादियथोपायानुरूपप्रतिपत्तिवर्तिता नीतिः । दक्षत्वं क्रियाणां यत्करणमहीनकाले ॥२॥ करणं सहनं च तपसः उपसर्गदुर्गापत्ती व्यवसायः । एतैः सुनीरोगः कर्मरिघु जयति सः ॥३॥ दीप अनुक्रम rajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सामायिक-लाभ संबंधे किञ्चित् वक्तव्यता एवं दृष्टान्ता: ~696~ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४६], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- वेजे मेंठे तह इंदणाग कयउण्ण पुप्फसालसुए। सिवदुमहरवणिभाउय आहीरदसपिणलापुत्ते ॥ ८४६॥ हारिभद्री MI व्याख्या-अनुकम्पाप्रवणचित्तो जीवः सामायिक लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वाद्, वैद्यवत् , प्रतिज्ञेयमेव मनाग विशे-II.यवृत्तिः ॥३४७॥ पितव्या, हेतुदृष्टान्तान्यत्वं तु प्रतिप्रयोग भणिष्यामः-अकामनिर्जरावान् जीवः सामायिकं लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वा-31 मिण्ठवत्, बालतपोयुक्तत्वादिन्द्रनागवत् , सुपात्रप्रयुक्तयथाशक्तिश्रद्धादानत्वात् कृतपुण्यकवत् , आराधित विनयत्वात् । [पुष्पशालसुतवत् , अवाप्तविभङ्गज्ञानत्वात् तापसशिवराजऋषिवत् , दृष्टद्रव्यसंयोगविप्रयोगत्वात् मथुराद्वयवासिवणिगर यवत् , अनुभूतव्यसनत्वादू भ्रातृदयशकटचक्रव्यापादितमलण्डीलब्धमानुषत्वस्त्रीगर्भजातप्रियद्वेष्यपुत्रद्वयवत् , अनुभूतितोत्सवत्वादाभीरवत्, दृष्टमहर्द्धिकत्वादशार्णभद्रराजवत , सत्कारकाणिोऽप्यलब्धसत्कारत्वादिलापुत्रवत्, इयमक्षरग-14 मनिका, साम्प्रतमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते-बारवतीए कण्हस्स वासुदेवस्स दो वेज्जा-धनंतरी वैतरणी य, धनंतरी अभ-II विओ, वेतरणी भविओ, सो साधूण गिलाणाणं पिएण साहति, जं जस्स कायब तं तस्स फासुएण पडोआरेण साहति, जति &से अप्पणो अस्थि ओसधाणि तो देति, धण्णतरी पुण जाणि सावजाणि ताणि साहति असाधुपाओग्गाणि, ततो साहुणो भणति-अम्हं कतो एताणि ?, सो भणति-ण मए समणाणं अठाए अज्झाइतं वेजसत्थं, ते दोवि महारंभा महापरिग्गहा। दीप अनुक्रम ॥३४७॥ पद्वारिकायां कृष्णा पासुदेवस्य द्वी वैची-धन्वन्तरी वैतरणिश्च, धन्वन्तयंभव्यो, वैतरणिभव्यः, स साधुभ्यो ग्लानेभ्यः प्रीत्या कथयति, यद्यस्य कर्त्तव्यं में तत्तौ प्रासुकेन प्रतीकारेण कथयति, यदि तस्वात्मनोऽस्ति (सन्ति) औषधानि तदा ददाति, धन्वन्तरी पुनर्यानि सावधानि तानि कथयति असाधुमायोग्याणि, ततः साधवो भणन्ति-अस्माकं कुत एतानि', स भगति-न मया श्रमणानामर्थाय वैद्यकशास्त्रमधीतं, तो द्वायपि महारम्भी महापरिग्रही AREainlodwilm gandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~697~ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४६], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक यसबाए बारवतीए तिगिच्छे करेंति, अण्णदा कण्हो वासुदेवो तित्थगरं पुच्छति-एते बहूर्ण ढंकादीणं वधकरणं काऊण कहिं गमिस्संति?. ताघे सामी साधति-एस धणंतरी अप्पतिहाणे णरए उववजिहिति, एस पुण वेतरणी कालंजरवत्तिणीय गंगाए महाणदीए विझस्स य अंतरा वाणरत्ताए पञ्चायाहिति, साधे सो वयं पत्तो सयमेव जूहवतित्तणं काहिति, तत्थ Kअण्णया साहूणो सत्येण समं धाविस्संति, एगस्स य साधुस्स पादे सल्लो लग्गिहिति, ताधे ते भणंति-अम्हे पडिच्छामो, सो भणति-मा सबे मरामो, बच्चह तुब्भे अहं भत्तं पञ्चक्खामि, ताहे णिबंध काउं सोऽवि ठिओ, ण तीरति सल्लं जीणेतुं, पच्छा थंडिलं पावितो छायं च, तेऽवि गता, ताहे सो वाणरजहवती तं पदेस एति जत्थ सो साध, जाव परिलहिता दण किलिकिलाइतं. तो तेण जहाहिवेण तेसि किलिकिलाइतसई सोऊण रूसितेण आगंतण दिट्टो सो साध , तस्स तं दळूण ईहापूहा करेंतस्स कहिं मया एरिसो दिहोत्ति?, जातीसंभरिता, बारवई संभरति, ताहे तं साधु वंदति, तं च से सलं सर्वखो द्वारिकायां चिकित्सा कुरुतः, अन्यदा कृष्णो वासुदेवस्तीर्थकर पृच्छति-एतौ बहूनां दादीनां वधकरणं कृत्वा क गमिष्यतः १, तया स्वामी कथयति-एष धम्बन्सरी अप्रतिष्ठाने नरके उत्पत्स्यते, एप पुनर्वैतरणी काळभरवर्तिन्यो (अव्या) गङ्गाया महानद्या विन्ध्यस्य चान्तरा वानरतया प्रत्यायासबि, तदा स वयः प्राप्तः स्वयमेव यूधपतित्वं करिष्यति, तत्राम्यदा साधवः सार्थेन सममागमिष्यन्ति, एकस्व च साधोः पादे शव्यं लगिष्यति, तदा ते भणन्ति-वयं प्रतीक्षामहे, स भणति-मा सबै नियामहे, व्रजत यूयमहं भक्तं प्रत्याश्यामि तदा सोऽपि निर्बन्धं कृत्वा स्थितः, न शक्रोति शल्यं निर्गमिन, पश्चात् स्थपिडर्स प्रापितः छायाँ च, तेऽपि गताः, तदा स वानरयूथाधिपतिसं प्रदेशमेति बन स साधुः, यावत् पौरस्यसं दृष्टा किलकिलावित, सतोग यूयाधिपेन तेषां किलकिलावितशब्दं श्रुत्वा रुटेनागस्य दृष्टः स साधुः, तस्य तं दृष्ट्वा ईहापोही कुर्वतः क मवेदशो दृष्ट इति, जातिः स्मृता, द्वारिका संस्मरति, तदा तं साधु वन्दते, तच्च तस्य शल्य दीप अनुक्रम JABERatinintimatama Malanmitrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~698~ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४६], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक- CC ॥३४८॥ प्रत सुत्रांक पासति, ताहे तिगिच्छं सर्व संभरति, ततो सो गिरि विलग्गिऊण सल्लुद्धरणिसलरोहणीओ ओसहीओ य गहाय आगतो, |ताधे सल्लुद्धरणीए पादो आलितो, ततो एंगमुहुत्तेण पडिओ सल्लो, पउणावितो संरोहणीए, ताहे तस्स पुरतो अक्ख-18 यवृत्तिः राणि लिहति, जधा-अहं बेतरणी नाम वेजो पुवभवे वारवतीए आसि, तेहिंवि सो सुतपुबो, ताधे सो साधू धम्म विभाग: १ कथेति, ताहे सो भत्तं पञ्चक्खाति, तिप्णि रातिदियाणि जीवित्ता सहस्सारं गतो ॥ तथा चाऽऽह सो वाणरजूहवती कंतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरवोंधिरो देवो येमाणिओ जाओ ॥ ८४७ ॥ व्याख्या-निगदसिद्धा । ओहिं पर्युजति जाव पेच्छति तं सरीरगं तं च साधु, ताहे आगंतूण देविहिं दाएति, भणति |य-तुज्झप्पसादेण मए देविड्डी लद्धत्ति, ततोऽणेण सो साधू साहरितो तेसिं साधूणं सगासंति, ते पुच्छंति-किहऽसि आगतो, ताहे साहति । एवं तस्स वाणरस्स सम्मत्तसामाइयसुयसामाइयचरित्ताचरित्तसामाइयाण अणुकंपाए लाभो18 जातो, इतरधा णिरयपायोग्गाणि कम्माणि करेत्ता णरयं गतो होन्तो। ततो चुतस्स चरित्तसामाइयं भविस्सति सिद्धीय ॥ | पश्यति, तदा चिकित्सा सर्वा संस्मरति, ततः स गिरि विडम्य शल्योदरणीशल्यरोहिण्योषध्यौ च गृहीत्वाऽऽगतः, तदा शक्योडरण्या पाद लिप्सः, तत एकेन मुहान पतितं शल्यं, प्रगुणितः संरोहण्या, तदा तख पुरतोऽक्षराणि लिखति-यथाऽहं वैतरणि म वैयः पूर्वभवे द्वारिकायामासं, तैरपि श्रुतपूर्वः। सा, वदास साधुर्धर्म कश्यति, तदा स भक्तं प्रत्याख्याति, बीन् रात्रिन्दिवान जीवित्वा सहसारं गतः ॥ भवधि प्रयुणक्ति वावप्रेक्षते तहरीरं तं च साधं, | तदाऽऽगत्य देवर्षि दर्शयति, भणति च-युष्माप्रसादेन मया देवपिलब्धेति, ततोऽनेन स साधुः संहृतसेषां साधूनां सकाशमिति, ते पृच्छन्ति-कथमस्या-10 ॥३४८॥ गतः, तदा कथयति । एवं तस्य वानरय सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकचारित्राचारित्रसामायिकानामनुकम्पया लाभो जातः, इवस्था नरकमायोग्याणि | कर्माणि कृस्वा नरकं गतोऽभविष्यत् ततायुतख चारित्रसामायिकं भविष्यति सिदिबएगते दीप C अनुक्रम CESS* Standinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~699~ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत अकामणिजराए, वसंतपुरे नगरे इन्भवधुगा णदीए हाति, अण्णो य तरुणो त दङ्ण भणति-सुण्हात ते पुच्छति एस | भणदी मत्तवारणकरोरु!। एते य णदीरुक्खा अहं च पादेसु ते पडिओ ॥१॥ सा भणति-'सुभगा होंतु णदीओ चिरं| च जीवंतु जे णदीरुक्खा । मुण्हातपुच्छगाण य पत्तिहामो पियं कार्ड ॥२॥ ततो सो तीए घरं वा दारं वा अयाणन्तो चिन्तेति-"अन्नपानहरेबाला, यौवनस्थां विभूषया । वेश्यां स्त्रीमुपचारेण, वृद्धां कर्कशसेवया ॥१॥" तीसे बिइजियाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलोएंताणि अच्छंति, तेण तेसिं पुष्पाणि फलाणि य दाऊण पुच्छिताणि-का एसा?, ताणि भणति-अमुगस्स सुण्हा, ताहे सो चिंतेति-केण उवाएण एतीए समं मम संपयोगो भवेज्जा!, ततो गेण चरिका दाण& माणसंगहीता काऊण विसज्जिता तीए सगासं, ताए गंतूण सा भणिता-जधा अमुगो ते पुच्छति, तीए रुहाए पत्तुल्लगाणि साधोवंतीए मसिलित्तेण हत्थेण पिट्ठीए आहता, पंचंगुलीओ जाताओ, ओबारेण य णिच्छदा, सा गता साहति-णामंपिण सूत्राक कलSSSS दीप अनुक्रम १ अकामनिर्भरया, वसन्तपुरे नगरे इभ्यवधूना नाति, अन्यश्च तरुणतां दृष्टा भणति-सुखातं ते पृष्ठति एषा नदी माधारणकरोरु !। एते च | नदीवृक्षा महं च पादयोस्ते पतितः ॥ 1 ॥ सा भणति-सुभगा भवन्तु नद्यशिरं व जीवन्तु ये नदीवृक्षाः। मुखातपृच्छकेभ्यश्च प्रियं कर्तु यतिष्यामहे ॥ १ ॥ ततः16 |स तथा गृई वा द्वारं वा अजानानचिन्तयति तस्याः द्वितीयानि (तया सहागतानि) चेटरूपाणि वृक्षान प्रलोकयन्ति तिष्ठन्ति, तेन तेभ्यः पुष्पाणि फलानि | च दचा पृशानि-वैषा, सानि भणन्ति-अमुक मुषा, तदास चिन्तयति-केनोपायेनैतया समं मम संप्रयोगो भवेत्। ततोऽनेन चरिका दानमानसंगृहीता, |कृत्वा विसृष्टा तस्याः सकापां, तया गरवा सा भणिता-यथाऽमुकस्वां पृच्छति, तया रुष्टया भाजनाम्युहर्तयन्त्या मषीक्षिप्लेन हस्तेन पृष्ठी आइता, पञ्जाजलयो । माता अवद्वारेण च निष्काशिता, सागता कथयति-नामापि न JABERatinintamaniana Daroo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~700~ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक ॥३४९॥ प्रत सहति. तेण णातं जहा-कालपक्खपंचमीए, ताहे तेण पुणरवि पेसिता पवेसजाणणानिमित्तं, ताहे सलज्जाए आहणिऊण सहति, तेण हारिभद्रीअसोगवणियाए छिंडियाए निच्छूढा, सा गता साहति-णामपि ण सहति, तेण गातो पवेसो, तेणावदारेण अइगतो, यवृत्तिः असोगवणियाए सुत्ताणि, जाव ससुरेण दिवा, तेण णातं, जधा-ण मम पुत्तोत्ति, पच्छा से पादातो णेउरं गहितं, चेतितं विभागः१ |च तीए, भणितो य णाए-णास लहुं, सहायकिच्चं करेज्जासि, इतरी गंतूण भत्तारं भणति-इत्थं घम्मो, जामो असोगवणियं, गताणि, असोगवणियाए पसुत्ताणि, ताहे भत्तारं उद्यवेत्ता भणति-तुझं एतं कुलाणुरूवं ?, जं मम पादातो ससुरो उरं गण्हति, सो भणति-सुवसु लभिहिसि पभाते, थेरेण सिंह, सो रुहो भणति-विवरीतोऽसि थेरा', सो भणति-मए दिछो अण्णो शाहे विवादे सा भणति-अहं अप्पाणं सोहेमि, एवं करेहि, हाता, ताहे जक्खघरं अइगता, जो कारी सो लग्गति || दोण्हं जंघाण अंतरेण बोलतओ, अकारी मुञ्चति, सा पधाविता, ताहे सो विडो पिसायरूवं काऊण सागतएणं गेण्हति, - - सुत्रांक - % दीप % अनुक्रम C ॥३४९॥ सहते, तेन ज्ञातं यथा-कृष्णपक्षपञ्चम्या, तदा तेन पुनरपि प्रेषिता प्रवेशज्ञानार्थ, सदा सकजया भादमाशोकवनिकायाधिण्डिकया निष्काषिता, सा गता कथयति-नामापि न सहते, तेन ज्ञातः प्रवेशः, ते नापबारेणातिगतोऽशोकच निकायां सुप्लौ, यावत् अरेण रटौ, तेन ज्ञात-यथा न मम पुत्र इति, पश्चात्तस्याः पादात् नपुरं गृहीते, चेतितं च तया, भणितश्चानया-नश्य लघु, सहायकृत्यं कुर्याः, इसरा गया मार भणति-अनधर्मः, याचोऽशोकवनिको, गती, अशो कच निकायां प्रसुप्तौ, तदा भरिमुत्थाप्य भणति-युष्माकमेतत् कुलानुरूपं !, यन्मम पादानशुरो नूपुरं गृह्णाति, सभणति-स्वपिहि हप्यसे प्रभाते, स्थविरेण | शिर्ष, स रुटो भणति-विपरीतोऽसि स्थविर, स भणति-मया दृष्टोऽन्यः, तदा विवादे सा भणति-महमात्मानं शोधषामि, एवं कुरु, खाता, तदा यक्षगृहमतिगता, योऽपराधी सलगति योजयोरन्तरा व्यतिक्रामन् , अनपराधो मुच्यते, सा प्रभाविता, सदा स विटोऽपि पिशाचरूपं कृत्वा आलिङ्गनेन गृहाति, te% Jaintain मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 701~ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत ताहे तत्थ गंतण जक्खं भणति-जो मम पितिदिण्णओ तं च पिसायं मोत्तूण जइ अण्णं जाणामि तो मे तमं जाणासित्ति. जक्खो विलक्खो चिंतेति-पेच्छह केरिसाणि मंतेति !, अहंपि वंचितो णाए, णस्थि सतित्तणं धुत्तीए, जाव चिंतेति ताव णिप्फिडिता, ताहे सो थेरो सबेण लोगेण हीलितो, तस्स ताए अद्धितीए निद्दा नहा, ताहे रण्णो तं कण्णे गतं, रायाणएण अंतेउरवालओ कतो, आभिसिकं च हत्धिरयणं रण्णो वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छति, देवी य हथिर्मठे आस-1 XIत्तिया, णवरं रति हस्थिणा हत्थो पसारितो,सा पासायाओ ओयारिया, पुणरवि पभाए पडिविलाता, एवं बच्चति कालो, अण्णता चिरं जातंति हत्थिमेंठेण हत्थिसंकलाए हता, सा भणति-सो पुरिसो तारिसो ण सुवति, मा रूसह, ते थेरो पच्छति, सो चिंतेति-जति एताओवि ऍरिसिओ, किंनु ताओ भदियाउत्ति सुत्तो, पभाते सधो लोगो उहितो. सो न उहितो, राया भणति-सुवउ, सत्तमे दिवसे उहितो, राइणा पुच्छितेण कहितं-जहेगा देवी ण याणामि कतरत्ति, ताहे सूत्राक दीप अनुक्रम तदा तत्र गत्वा यक्ष भणति-यो मम पितृद स प पिशाचं मुक्त्वा यद्यन्यं जामामि तदा मोजानासि इति, पक्षो विलक्षश्चिन्तयति-प्रेक्षध्वं कीरशानि मन्त्रयति । अहमपि वञ्चितोऽनया, नास्ति सतीस्वं धूर्तायाः, यावचिन्तयति तावनिर्गता, तदा स स्थविरः सर्वेण लोकेन हीलितः, तस्य तया:एस्था निदा नष्टा, तदा राज्ञस्सत् करें गतं, राशाम्तःपुरपालकः कृतः, भाभिषेकं च हस्तिरनं राज्ञो वासगृहस्वाधस्ताद्वर्ष तिष्ठति, देवीच इस्तिमेण्ढे मासका, नवरं रात्रौ हस्तिना हसः प्रसारिता, सा प्रासादात् अयतारिता, पुनरपि प्रभाते प्रतिविलगिता, एवं व्रजति कालः, अन्यदा चिरं जातमिति हस्तिमेण्टेन हस्तिअडलया हता, सा भणति-स पुरुषस्तादृशो न स्वपिति, मा रुषः, तत् स्थविरः पश्यति, स चिन्तयति-यचेता अपि ईरश्यः किंतु ता भद्रिका इति सुप्तः, प्रभाते सर्वो लोक स्थितः, स मोस्थितः, राजा भणति-स्वपित, सप्तमे दिवसे उत्थितः, राज्ञा पृष्टेन कथितं-अर्थका देवी न जानामि कतरेति, तदार * एरिसं करेंति. Sirajandiarary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~702 ~ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) | यवत्तिः प्रत आवश्यक- राणा भेंडमओ हत्थी कारितो, सबाओ अंतेपुरियाओ भणियाओ-एयस्स अच्चणियं करेत्ता ओलंडेह, सबाहिं हारिभद्री ओलंडितो, सा णेच्छति, भणति-अहं बीहेमि, ताहे राइणा उप्पलणालेण आहता, जाव उमुच्छिता पडिया ॥३५॥ ४ विभाग: १ ततो से उवगत-जधेसा कारित्ति, भणिता-'मत्तं गयमारुहंतीए भेंडमयस्स गयस्स भयतिए । इह मुच्छित उप्पलाहता तत्थ न मुच्छित संकलाहता ॥१॥ पुट्ठी से जोइया, जाव संकलपहारा दिठ्ठा, ताहे राइणा हस्थिमेंठो सा य दुयगाणि₹ वि तम्मि हथिम्मि विलग्गाविऊण छण्णकडए विलइताणि, भणितो मिठो-एत्थ अप्पततीओ गिरिप्पवातं देहि, हथिस्सल दोहिवि पासेहिं वेलुग्गाहा ठविता, जाव हथिणा एगो पादो आगासे कतो, लोगो भणति-किं तिरिओ जाणति !, एताणि मारेतवाणि, तहायि राया रोसं ण मुयति, ततो दो पादा आगासे ततियवारए तिन्नि पादा आगासे एकेण पादेण ठितो, लोगेण अकंदो कतो-किं एतं हत्थिरयणं विणासेहि ?, रण्णो चित्तं ओआलितं, भणितो-तरसि णियत्तेजी, सुत्रांक दीप अनुक्रम X ॥३५०॥ राज्ञा भिण्डमयो हस्ती कारितः, सर्वा अन्तःपुरिका भणिताः एतस्थानिकां कृत्वोलयत, सर्वाभिरुहितः, सा नेण्ठति, भणति-अहं विमेमि, तदा | राजोत्पलनालेनाहता, यावम्मर्षिता पतिता, ततस्तेनोपगतं-यथैषाऽपराधिनीति, भणिता-मत्तं गजमारोहन्ति !, भिण्डमयान् गजात विम्यन्ति ! । इह मूर्षितो.। त्पलाहता, सच न मूर्षियता शहलाहवा ॥१॥ पृष्ठिस्तस्या अवलोकिता, यावत् राजालापहारा दृष्टाः, तदा राज्ञा हस्तिमेण्टः साप द्वे अपि तस्मिन् हस्तिनि बिलगम्य छिन्नकटके विलगितानि, भणितो मेण्डा-भत्रात्मतृतीयो गिरिप्रपातं देहि, हस्तिनो योरपि पार्थयो कुन्तपादाः स्थापिताः, यावद्धमिलना एकः पाद । आकामो कृता, लोको भणति-किं तिथं जानाति !, एसी मारयितथ्यौ, तथाऽपि राजा रोपं न मुशति, सतोही पादावाकाशे तृतीयवारे नयः पादा भाकाशे एकेन पादेन स्थितः, कोकेनाकन्दः कृतः-किमेतत् हस्तिरनं विनाशयत !, राज्ञश्चित्तं द्रावित, भणितः यानोपि निवर्तयितुं , Panminaryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 703~ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४७ ], भाष्यं [१५०...] भणति जति अभयं देह, दिण्णं, तेण नियत्तितो अंकुसेण जहा भमिता थले ठितो, ताहे उत्तारेत्ता णिबिसताणि कयाणि । एगस्थ पचंतगामे सुन्नघरे ठिताणि, तत्थ य गामेलयपारद्धो चोरो तं सुन्नघरं अतिगतो, ते भांति-वेढेतुं अच्छामो, मा कोघि पविसउ, गोसे घेच्छामो, सोऽवि चोरो लुहंतो किहवि तीसे दुक्को, तीसे फासो वेदितो, सा दुक्का भणति कोऽसि तुमं ?, सो भणति चोरोऽहं तीए भणियं तुमं मम पती होहि, जा एतं साहामो जहा एस चोरोत्ति, तेहिं कलं पभाए मँठो गहिओ, ताहे उविद्धो सूलाए भिण्णो, चोरेण समं सा वञ्चति, जावंतरा नदी, सा तेण भणिता-जधा एत्थ सरत्थंभ अच्छ, जा अहं एताणि वत्थाभरणाणि उत्तारेमि, सो गतो, उत्तिष्णो पधावितो, सा भणति - "पुण्णा नदी दीसइ कागपेज्जा, सबं पियाभंडग तुज्झ हत्थे । जधा तुमं पारमतीतुकामो, धुवं तुमं भंड गहीउकामो ॥ १ ॥ सो भणति - चिरसंधुतो बालि ! असंधुएणं, मेल्हे पिया ताव धुओऽधुवेणं । जाणेमि तुज्झ प्पयइस्सभावं, अण्णो णरो १ भणति-यद्यभयं दत्त, दत्तं, तेन निवर्त्तितोऽङ्कुशेन यथा भ्रात्वा स्थले स्थितः, तदोत्तार्थं निर्विषयीकृतौ । एकत्र प्रत्यन्तग्रामे शून्यगृहे स्थितौ तत्र मायकप्रारब्धश्चौरसात् शून्यगृहमतिगतः, ते भजन्ति-वेष्टयित्वा तिष्ठामः, मा कोऽपि प्रविक्षत् प्रत्यूषे ग्रहीष्यामः सोऽपि चौरो गच्छन् ( लुठन् ) कथमपि तया स्पृष्टः, तस्याः स्पर्शो विदितः सा स्पृष्टा भणति कोऽसि त्वं ? स भणति चौरोऽहं तथा भणितं वं मम पतिभव यावदेनं कथयावो यचैव चीर इति, तैः कल्ये प्रभाते मेण्डो गृहीतः, तदावबद्धः शूलायां मिश्रः चैौरेण समं सा बजति यावदन्तरा नदी, सा तेन भणिता यथाऽय शरस्तम्ये तिष्ठ यावदहमेतानि वस्त्राभरणान्युत्तारयामि स गतः उत्तीर्णः प्रधावित, सा भणति पूर्णा नदी दयते काकपेया सर्व प्रियाभाण्डकं तब हस्ते यथा एवं पारमतिगन्तुकामो भाण्डं प्रहीतुकामः ॥ १ ॥ स भणति चिरसंस्तुतो बाले ! असंस्तुतेन स्वजसि प्रियं तावत् भुवोऽध्रुवेन । जानामि तव प्रकृतिस्वभावमम्यो नरः * पेच्छामो + उहो. ध्रुवं Education Intimo For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~704~ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८४७ ], भाष्यं [ १५०...] अध्ययन [ - ], आवश्यक- 8 को तुह विस्ससेज्जा ? ॥ १ ॥" सा भणति किं जाहि?, सो भणति जहा ते सो मारावितो एवं ममंपि कहंचि मारेहिसि । इतरोवि तत्थ विद्धो उदगं मग्गति, तत्थेगो सट्टो, सो भणति-जति नमोकारं करेसि तो देमि, सो उदगस्स अठ्ठा गतो, ॥३५१ ॥ जाव तंमि एंते चैव सो णमोकारं करेंतो चैव कालगतो, वाणमंतरो जातो, सङ्घोवि आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, सो देवो ओहिं पयुंजति, पेच्छति सरीरगं सहुं च बद्धं, ताहे सो सिलं विउबित्ता मोएति, तं च पेच्छति सरथंभे णिलुकं, ताहे से घिणा उप्पण्णा, सियालरूवं विउवित्ता मंसपेसीए गहियाए उदगतीरेण वोलेति, जाव णदीतो मच्छो उच्छलिऊण तडे पडतो, ततो सो मंसपेसि मोत्तूण मच्छस्स पधावितो, सो पाणिए पडितो, मंसपेसीवि | सेणेण गहिता, ताहे सियालो झायति, ताए भण्णति-मंसपेसी परिचज मच्छं पेच्छसि जंबुआ ! । चुक्को मंसं च मच्छं च कलुणं झायसि कोण्हुआ ! ॥ १ ॥ तेण भण्णति- 'पत्तपुडपडिच्छण्णे ! जणयस्स अयसकारिए । चुक्का पत्तिं च जारं च Educati १] कस्वयि विश्वस्यात् ? ॥ १ ॥ सा भणति किं यासि ?, स भगति यथा स्वया स मारितः एवं मामपि कथञ्चिन्मारविष्यसीति । इतरोऽपि तत्र विद्ध उदकं मार्गयति, तत्रैकः आः, भवति यदि नमस्कारं करोषि तदा ददामि स उदकार्थं गत्तः, यावचस्मिन्नागच्छति चैव स नमस्कारं कुर्वन्नेव कालगतः, व्यन्तरो जातः, श्राद्धोऽप्यारक्षकपुरुषैर्गृहीतः स देवोऽवधि प्रयुनक्ति, पश्यति शरीरं श्राद्धं च यद्धं तदा स शिलां विकुर्थ मोचयति तां च पश्यति पार स्तम्बे निकीनां तदा तत्र घृणोत्पन्ना शृगालरूपं विकुष्यं गृहीतमांसपेशीक उदकतीरेण पतिव्रजति यावद्या मत्स्य उच्छय तटे पतितः, तत्तः स मांसपेशीं मुक्त्वा मत्स्याय प्रभावितः स पानीये पतितः, मांसपेश्यपि श्येनेन गृहीता, तदा शृगाको ध्यायति, तया भण्यते- मांसपेशी परित्यज्य मत्स्यं प्रार्थयसे जम्बूक ! अष्टो मांसाच मत्स्याश्च करुणं ध्यायसि जम्बूक ! ॥ १ ॥ तेन भण्यते पत्रपुटप्रतिच्छन्ने ! जनकस्य अयशस्कारिके ? | अष्टा पत्यु जाराच For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~705~ ॥३५१॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [ ८४७ ], भाष्यं [ १५०...] अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], कलुणं झायसि बंधकी ! ॥ २ ॥ एवं भणिया ता विलिया जाता, ताहे सो सयं रूवं दंसेति, पण्णवित्ता दुत्ता - पवयाहि, ताहे सो राया तैंज्जितो, तेण पडिवण्णा, सकारेण णिक्खता, देवलोयं गता एवमकामनिज्जराए मेण्ठरस २ ॥ बालतवेणवसंतपुरं नगरं, तत्थ सिद्धिघरं मारिए उच्छादितं, इंदणागो नाम दारओ, सो छुट्टो, छुहितो गिलाणो पाणितं मग्गति, जाव सवाणि मताणि पेच्छति, वारंपि लोगेण कंटियाहिं ढकियं, ताहे सो सुणइयच्छिदेण णिग्गंतूण तंमि नगरे कप्परेण भिक्खं हिंडति, लोगो से देइ सदेसभूतपुवोत्तिकाउं, एवं सो संवइ । इतो य एगो सत्थवाही रायगिहं जाउकामो घोसणं घोसावेति, तेण सुतं, सत्थेण समं पत्थितो, तत्थ तेण सत्थे कूरो लद्धो, सो जिमितो, ण जिष्णो, बितियदिवसे अच्छति, सत्थवाहेण दिट्ठो, चिंतेति-णूणं एस उववासिओ, सो य अधत्तलिंगो, बितियदिवसे हिंडतस्स सेट्ठिणा बहु गिद्धं च दिण्णं, सो तेण दुबे दिवसा अजिण्णएण अच्छति, सत्थवाही जाणति- एस छढण्णकालिओ, तस्स सद्धा जाता, करुणं ध्यायसि बलि ? ॥ १ ॥ एवं भणिता तदा उपलीका जाता, तदा स स्वकीयं रूपं दर्शयति, प्रज्ञाप्योका प्रमज, तदा स राजा वर्जितः तेन प्रतिपक्षा, सरकारेण निष्क्रान्ता, देवलोकं गता एवमकामनिर्जरया मेण्ठस्य २ ।। याहतपसा वसन्तपुरं नगरं तत्र श्रेष्ठिगृदं मार्योत्सादितम् इन्द्रनागो नाम दारकः, स खुटितः, बुभुक्षियो म्लानः पानीयं मार्गयति यावत्सर्वान् मृतान् पश्यति द्वारमपि लोकेन कण्टकैराच्छादितं तदा स शून्यच्छिद्रेण निर्गत्य गरे करेण भिक्षां हिण्डते, लोकस्तस्मै ददाति स्वदेशे भूतपूर्व इतिकृत्वा, एवं स संवर्धते । इतचैकः सार्थवाहो राजगृहं यातुकामो घोषणां घोषयति तेन श्रुतं, सार्थेन समं प्रस्थितः, तत्र सार्थे तेन कूरो लब्धः, स जिमितः, न जीर्णः, द्वितीयदिवसे तिष्ठति, सार्थवाहेन दृष्टः चिन्तयति नूनमेष उपोषितः, स चाण्यलिङ्गो, द्वितीय दिवसे हिण्डमानाय श्रेष्ठिना बहु खिग्धं च द, स तेन द्वौ दिवसी अजीर्णेन तिष्ठति, सार्थवाहो जानाति एव पानकालिकः, तस्य श्रद्धा जाता, * सरकारेण दीक्षाग्रहणाय. Fürsten मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४० ], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~706~ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत 2-56056 सुत्रांक आवश्यक- सो ततियदिवसे हिंडतो सत्यवाहेण सद्दावितो, कीसऽसि कलं णागतो, तुहिको अच्छति, जाणइ, जधा-छह क तेल्लय, हारिभद्री ताहे से दिण्णं, तेणवि अण्णेवि दो दिवसे अच्छावितो, लोगोवि परिणतो, अण्णस्स णिमंतेतस्सविण गेण्हति, अण्णे |8| यवृत्तिः ॥३५२॥ भणंति-एसो एगपिंडिओ, तेण तं अवापदं लद्धं, वाणिएण भणितो-मा अण्णस्स खणं गेण्हेज्जासि, जाव णगरं गम्मति विभागः१ ताव अहं देमि, गता णगरं, तेण से णियघरे मढो कतो, ताधे सीसं मुंडावेति कासायाणि य चीवराणि गेण्हति, ताधे विक्खातो जणे जातो, ताधे तस्सवि घरे णेच्छति, ताधे जद्दिवस से पारणयं तद्दिवस से लोगो आणेइ भत्तं, एगस्स पडिच्छति, ततो लोगो ण याणति-कस्स पडिच्छितंति ?, ताधे लोगेण जाणणाणिमित्तं भेरी कता, जो देति सो ताडेति, ताहे लोगो पविसति, एवं वश्चति कालो । सामी य समोसरितो, ताहे साधू संदिसावेत्ता भणिता-मुहुत्तं अच्छह, अणेसणा, तंमि जिमिते भणिता-ओयरह, गोतमो य भणितो-मम वयणेणं भणेजासि-भो अणेगपिंडिया ! एगपिंडितो ते स तृतीय दिवसे हिण्डमानः सार्थवाहेन शब्दितः, किमासी: कल्ये नागतः, तूष्णीकस्तिष्ठति, जानाति, यथा-पठं कृतं, तदा ती दत्तं, तेनाप्यन्यावपि द्वौ दिवसी स्थापितः, कोकोऽपि परिणतः, अन्यस्य निमन्त्रयतोऽपि न गृह्णाति, अन्ये भणन्ति-एप एफपिण्टिकः, तेन तत् अर्धारपदं लब्धं, | वणिजा भणितः-माऽन्यस्य पारणं गृह्णीयाः, पावनगरं गम्यते सायदई दास्यामि, गता नगरं, सेन तस्य निजगृहे मठः कृतः, तदा शीर्ष मुण्डयति कापायिकाणि |च चीवराणि गृह्णाति, तथा विण्यातो जने जाप्तः, तदा तखापि गृहे नेच्छति, तदा यमिन् दिवसे तस्स पारणं तस्मिन् दिवसे तस्य लोक आनयति भक्तम्, एकल्य ॥३५॥ | प्रतीच्छति, नतो लोको न जानाति-कस्य प्रतीष्टमिति, तदा कोकेन ज्ञापनानिमित्तं मेरी कृता, यो ददाति स ताडवति, तदा लोकः प्रविशति, एवं ब्रजति | कालः । स्वामी च समवस्तः, तदा साधवः संदिशन्तो भगिता:-मुहूर्त तिष्ठत, भनेषणा, तसिन् जिमिते भणिता:-भवतरत, गौतमन भणितो-मम वच . नेन भणे:-भो भनेकपिक्निक ! एकपिण्डिकसया अहापदं प्र. IGI दीप 4 अनुक्रम CAMEmirathi X angionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 707~ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४७ ], भाष्यं [ १५०...] देहुमिच्छति, ताहे गोतमसामिणा भणितो रुट्ठो, तुम्भे अणेगाणि पिंडसताणि आहारेह, अहं एगं पिंडं भुंजामि, तो अहं चेव एगपिंडिओ, मुहुत्तन्तरस्स उवसंतो चिंतेति-ण एते मुखं वदंति, किह होजा ?, लद्धा सुती, होमि अणेगपिंडितो, | जद्दिवसं मम पारणयं तदिवस अणेगाणि पिंडसताणि कीरंति, एते पुण अकतमकारितं भुंजंति, तं सचं भणंति, चिन्तंतेण जाती सरिता, पत्तेयबुद्धो जातो, अज्झयणं भासति, इंदणागेण अरहता वृत्तं, सिद्धो य । एवं वालतवेण सामाइयं लद्धं तेण ३ । दाणेण, जधा-एगाए वच्छवालीए पुत्तो, लोगेण उस्सवे पायसं ओवक्खडितं, तत्थासन्नघरे दारगरुवाणि पासति पायसं जिर्मिताणि, ताधे सो मायरं भणेइ-ममवि पायसं रंधेहि, ताहे णत्थित्ति सा अद्धितीए परुण्णा, ताओ सएज्झियाओ पुच्छंति, णिब्बंधे कथितं ताहिं अणुकंपाए अण्णापवि अण्णाएव आणीतं खीरं साली तंदुला य, ताधे थेरीए पायसो रद्धो, ततो तस्स दारयस्स व्हायरस पायसस्स घतमधुसंजुत्तस्स थाले भरेऊण जवहितं साधू य १ द्रष्टुमिच्छति, तदा गौतमस्वामिना भणितो रुष्टः, यूयमनेकानि पिण्डशतान्याहारयत, अहमेकं पिण्डं मुझे, ततोऽहमेवैकपिण्डकः मुहूर्त्तान्तरेणोपशान्तचिन्तयति नैते सुधा वदन्ति कथं भवेत् ?, लब्धा श्रुतिः, भवाम्यनेकपिण्डिको, यदिवसे मम पारणं तदिवसेऽनेकानि पिण्डशतानि क्रियन्ते, एते पुनरकृतमकारितं भुञ्जन्ति तत्सत्यं भणन्ति, चिन्तयता जातिः स्मृता, प्रत्येकबुद्धो जातः, अध्ययनं भापते, इन्द्रनागेन अर्हता वृत्ता, सिद्ध एवं बालतपसा सामायिकं लब्धं तेन । दानेन यथा-एकस्या करसपाल्याः पुत्रः, लोकेनोत्सवे पायसमुपस्कृतं तत्रासक्षगृहे दारकरूपाणि पश्यति पायसं जिमन्ति, तदा स मातरं भणति ममापि पायसं पच तदा नास्तीति सात्या प्ररुदिता, ताः सख्यः पृच्छन्ति, निर्वन्धे कथितं ताभिरनुकम्पया अन्ययाऽपि अन्ययाऽपि आनीतं क्षीरं शातयस्तदुळाच, तदा स्थविरया पायसं पर्क, ततः तस्मै दारकाय खाताय मृतमधुसंयुक्तेन पायसेन स्थालो नृत्योपस्थापितः साधुख For Farina Pest Use Only dancebray org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~708~ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक ॥३५३॥ प्रत मासखवणपारणते आगतो, जाव थेरी अंतो वाउला ताब तेण धम्मोऽवि मे होउत्ति तस्स पायसस्स तिभागो दिण्णो, पुणो हारिभद्रीचिंतितं-अतिथोवं, बितिओ तिभागो दिण्णो, पुणोविणेण चिंतितं-एत्थ जति अण्णं अंबक्खलगादि छुभति तोऽवि ण- यवृत्तिः स्सति, ताहे तइओ तिभागो दिण्णो, ततो तस्स तेण दबसुद्धेण दायगसुद्धेण गाहगसुद्धेण तिविहेण तिकरणसुद्धेण विभागः१ भावेणं देवाउए णिवद्धे, ताधे माता से जाणति-जिमिओ, पुणरवि भरित, अतीव रंकत्तणेण भरितं पोट्ट, ताधे रत्ति। विसूइयाए मतो देवलोगं गतो, ततो चुतो रायगिहे नगरे पधाणस्स घेणावहस्स पुत्तो भद्दाए भारियाए जातो, लोगो य गभगते भणति-कयपुत्रो जीवो जो उबवण्णो, ततो से जातस्स णामं कतं कतपुण्णोत्ति, वहितो, कलाओ गहियातो,15 परिणीतो, माताए दुललियगोडीए छूढो, तेहिं गणियाघरं पवेसितो, बारसहिं वरिसेहिं णिद्धणं कुलं कतं, तोऽवि सोण| णिग्गच्छति, मातापिताणि से मताणि, भजा य से आभरणगाणि चरिमदिवसे पेसेति, गणितामायाए णात-णिस्सारो सुत्रांक दीप अनुक्रम मासक्षपणपारणाय आगतः, यावरस्थविराऽन्ताकुला (म्यागुता)तावतेन धर्मोऽपि मम भवरिवति तस्स पावसस विभागो दत्तः, पुनश्चिन्तिxतम्-अतिस्तोकं, द्वितीयविभागो दत्तः, पुनरप्यनेन चिन्तितम्-अत्र यद्यन्यदप्यम्लखलादि क्षिप्यते तदपि नश्यति, तदा तृतीयविभागो दत्तः, ततस्तस्मात्तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन ग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन भावेन देवायुर्निबद्धं, तदा माता तस्य जानाति-जिमितः, पुनरपि भृतः, अतीच रहतया भृत४ मुदरं, तदा रात्री विसूचिकया मृतो देवलोकं गतः, ततब्युतो राजगृहे नगरे प्रधानस्य धनावहस पुत्रो भद्रायो भार्यायां जातः, कोकन गर्भगते भणति*कृतपुण्यो जीवो यः वरपन्नः, ततस्तस्य जातस्य नाम कृतं कृतपुण्य इति, वृद्धा, कलाः गृहीताः, परिणीता, मात्रा दुललितगोष्ठयां शिप्तः, तेर्गणिकागृहं प्रवे- शितो, द्वादशभिर्वनिधनं कुलं कृतं, तदाऽपि सन निर्गच्छति, मातापितरौ तस मृतौ, भार्या च तस्याभरणानि चरमदिवसे प्रेषते, गणिकामात्रा ज्ञात-18 | निस्सारः * धणसत्यवाहस्सप्र० ॥३५६।। Handsorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 709~ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत लिकतो, ताघे ताणि अण्णं च सहस्सं पडिविसज्जितं, गणियामाताएभण्णइ-निच्छुभउ एसो, सा णेच्छति, ताहे चोरिय णीणिओ घरं सजिज्जति, उत्तिण्णो बाहिं अच्छति, ताहे दासीए भण्णति-णिच्छूढोऽवि अच्छसि?, ताहे निययघरयं सडियपडियं गतो, ताहे से भज्जा संभमेणं उहिता, ताहे से सर्च कथितं, सोगेणं अप्फुण्णो भणति-अस्थि किंचि? जा अन्नहिं जाइत्ता | ववहरामि, ताहे जाणि आभरणगाणि गणितामाताए जं च सहस्सं कप्पासमोल्लं दिण्णं ताणि से दंसिताणि, सत्थो य तद्दिविसं कपि देसं गंतुकामओ, सो तं भंडमोल्लं गहाय तेण सत्येण समं पधावितो, बाहिं देउलियाए खट्टे पाडिऊणं सुत्तो। अण्णस्स य वाणिययस्स माताए सुतं, जधा-तव पुत्सो मतो वाहणे भिन्ने, तीए तस्स दवं दिण्णं, मा कस्सइ कधिज्जसि, तीए चिंतितं-मा दवं जाउ राउलं, पविसिहिति मे अपुत्ताए, ताहे रत्तिं तं सत्थं एति, जा कंचि अणाहं पासेमि, ताहेत पासति, पडिबोधित्ता पवेसितो, ताहे घरं नेतूण रोवति-चिरणगत्ति पुचा!, सुण्हाणं चउण्हं ताणं कषेति-एस देवरो भे सूत्राक दीप अनुक्रम CAE कृतः, तदा तानि अम्बच सहसं प्रतिबिमई, गणिकामात्रा भन्यते-निष्काश्यता एषः, सा नेच्छति, तदा चौर्येण निनीषितः, गृह सज्यते, बत्तीर्ण स्तिराति बहिः, सदा दास्या भण्यते-निष्काशितोऽपि तिमि तदा निजगृहं शटितपतितं गता, सदा तस्य भार्या संभ्रमेणोस्थिता, तदा ती स कथितं, शोकेन व्याप्तो भणति-असि किजित ? यावदन्यत्र यात्वा व्यवहरामि, सदा यान्याभरणानि गणिकामाना यच्च सहवं कांसमूल्यं दत्तं तानि तस्मै दर्शितानि, सार्थश्च तस्मिन् दिवसे कमपि देशं गन्तुकामः, स तत् भाण्डमूल्यं गृहीत्वा तेन सार्थेन समं प्रधाचितः, यहिदेवकुलिकायां खा पातयित्वा सुप्तः । अन्यस्य पाच वणिजो मात्रा श्रुतं, यथा-सव पुत्रो मृतो वाहने मिले, तया तसे जब दर्त, मा कचित् चीकधः, तथा चिन्तितं-मा अध्यं यासीत् राजकुलं, प्रवेक्ष्यति Rममापुत्रायाः, तदा रात्री तं सार्थमेति, यद् कधिदनाथं पश्यामि, तदा तं पश्यति, प्रतियोध्य प्रवेशितः, तदा गृहं नीखा रोदिति-चिरनष्टः पुत्र! सुपाभ्य तमभ्यस्ताभ्यः कथयति-एप देवा भवन्तीनां IX JAMERatinimy मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 710~ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक ॥३५४॥ विभाग १ प्रत चिरणहओ, ताओ तस्स लाइताओ, तत्थवि वारस वरिसाणि अच्छति, तरथ एकेकाए चत्तारि पंच चेडरूवाणि हारिभद्रीजाताणि, थेरीए भणित-एत्ताहे णिच्छुभतु, ताओ ण तरंति धरितुं, ताधे ताहि संबलमोदगा कता, अंतोयवृत्ति रयणाण भरिता, वरं से एयं पाओग्गं होति, ताधे वियर्ड पाएत्ता ताए चेव देवउलियाए ओसीसए से संपलं ठवेत्ता पडियागता, सोऽवि सीतलएण पवणेणं संबुद्धो पभातं च, सोवि सत्थो तद्दिवस मागतो, इमाएवि गवेसओ पेसिओ, | ताहे उडवित्ता घर णीतो, भन्जा से संभमेण उद्विता, संवलं गहितं, पविट्ठो, अभंगादीणि करेति, पुत्तो य से तदा गम्भिणीए जातो, सो एकारसवरिसो जाओ, लेहसालाओ आगतोरोयति-देहि मे भत्तं, मा उवज्झाएण हम्मिहामित्ति, ताए ताओ संबलथइयातो मोयगो दिण्णो, णिग्गतो खायंतो, तत्थ रयणं पासति, लेहचेडएहिं दिई, तेहिं पूवियस्स दिण्णं, दिवे दिवे अम्ह पोलियाओ देहित्ति, इमोवि जिमिते मोयगे भिंदति, तेण दिवाणि, भणति-सुंकभएण कताणि, तेहिं रयणेहिं तहेव सूत्रांक दीप अनुक्रम T चिरनष्टः, तास्तस्मिन् लग्नाः, तत्रापि द्वादश वर्षाणि तिष्ठति, तत्रैकैकस्याश्चत्वारः पत्र पुत्रा जाताः, स्थविरया भणितम्-अधुना निष्काशषन्त, |तान धतुं शक्नुवन्ति, तदा तामिः शम्मलमोदकाः कृताः, अन्तो नेन भूताः, वरं तखैतत् प्रायोग्यं भवति, तदा विकटं पाययित्वा तखामेव देवकुलिकायामुच्चीर्षके सख शम्बलं स्थापयित्वा प्रत्यागता, सोऽपि शीतलेन पवनेन संबुद्धः प्रभातं च, सोऽपि सार्थस्तस्मिन् दिवसे भागता, अनषाऽपि गवेषका प्रेषितः, तदोत्थाप्य गृहं नीतः, भार्या तख संभ्रमेण उस्थिता, वाम्बलं गृहीतं, प्रविष्टः, अभ्यशादीनि करोति, पुत्रश्च तस्य तदा गर्भिण्या जातः, स एकादशवार्षिको जातः, लेखशाकावा मागतो रोदिति-देहि मा भक्कं मोपाध्यायेन पानिपम्, तया तस्याः शम्बलस्थमिकातो मोदको दत्तः, निर्गतः खादन् , तन्त्र रसं पश्यति, लेखदारकैर्दष्टं, तैरापूपिकाय दत्त, दिवसे दिवसेज्माकं पोलिका दचा इति, अवमपि जिमिते मोदकान् भिनत्ति, तेन एष्टानि, भणति-शुस्कभयेन कृतानि, तैरनेस्तयैव ५ ॥३५४॥ JABERatinintamational IMotoa मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~711~ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत पवित्थरितो । सेतणओ य गंधहत्थी णदीए तंतुएण गहितो, राया आदण्णो, अभयो भणति-जइ जलकतो अस्थि तो छडेति, सो राउले अतिबहुअत्तणेण रतणाण चिरेण लम्भिहितित्तिकाऊण पडहओ णिप्फिडितो-जो जलकंतं देति । तस्स राया रजं अद्धं धूतं च देति, ताधे पुविएण दिण्णो,णीतो, उदगं पगासितं, तंतुओ जाणति-धलं णीतो, मुक्को, पणहो, राया चिंतेति-कतो?, पुवियस्स पुच्छति-कतो एस तुझं ?, निबंधे सिद्ध-क्रयपुण्णगपुत्तेण दिण्णो, राया तुट्ठो, कस्स अण्णस्स होहिति?, रण्णा सदाविऊण कतपुण्णओ धूताए विवाहितो, विसओ से दिण्णो, भोगे भुंजति, गणितावि आ गता भणति-एञ्चिरे कालं अहं वेणीबंधेण अच्छिता, सबवेतालीओ तुम अवाए गवेसाविताओ, एत्थ दिहोत्ति, कत-| दिपुण्णओ अभयं भणति-एत्थ मम चत्तारि महिलाओ, तं च घरं ण याणामि, ताहे चेतियघरं कतं, लेप्पगजक्खो कत पुण्णगसरिसो कतो, तस्स अचणिया घोसाविता, दो य बाराणि कताणि, एगेण पवेसो एगेण णिप्फेडो, तत्थ अभओ सूत्राक दीप अनुक्रम प्रविस्तृतः । सेचनकच गन्धहस्ती नयां तम्तुकेन गृहीतः, राजा खिनः, भभयो भणति-यदि जलकान्तो भवेत् तदा त्यजेत, स राजकुलेऽतिबहुत्वेन रवानां चिरेण लप्स्यत इतिकृया परहो दापित:-यो जलकान्तं ददाति तस्मै राजा राज्यमधं दुहितरं च ददाति, तदाऽऽपिकेन पत्तो, नीतः, पदकं प्रकाशितं, तन्नुको जानाति-स्थलं नीतः, मुक्तो, नष्टः, राजा चिन्तयति-कुतः', भापूपिकं पृच्छति-कुत पुष तबी, निर्वधे शिष्टं-कृतपुण्यकपुत्रेण दत्सा, राजा तुष्टः, कस्यान्यस्य भवेत, राज्ञा शब्दयित्वा कृतपुण्यको दुहित्रा विवाहितः, विषषस्तौ दत्तः, भोगान् भुनक्ति, गणिकाऽप्यागता, भणति-इयचिरं कालमई बेणीबन्धेन स्थिता, सर्ववैचालिकास्त्वदर्थ गवेषिताः, अब इष्ट इति, कृतपुण्यकोभयं भणति-अत्र मम चतनो महेलाः, तच गृहं न जानामि, तदा चैत्यगृह कृतं, हेप्ययक्षः कृतपुण्यकसदशः कृतः, तस्यानिका घोषिता, हेच द्वारे कृते, एकेन प्रवेश एकेन निर्गमः, तत्राभयः JAMERIRAL A nmorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~712~ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यकता प्रत सुत्रांक यक- तपुण्णओ य एगस्थ बारभासे आसणवरगया अच्छंति, कोमुदी आणत्ता, जधा पडिमपवेसो अश्वणिय करेह, णयरे |हारिभद्रीघोसितं-सबमहिलाहिं एत्तवं, लोगोऽवि एति, ताओऽवि आगताओ, चेडरूवाणि तत्थ बप्पोत्ति उच्छंगे णिविसंति, णाताओ। यवृत्तिः तेण, थेरी अंबाडिता, ताओऽवि आणिताओ, भोगे मुंजति सत्तहिवि सहितो। बद्धमाणसामी य समोसरितो, कतपु-13 |विभागः१ गणओ सामि वंदिऊण पुच्छति-अप्पणो संपत्ति विपत्तिं च, भगवता कथितं-पायसदाणं, संवेगेण पवइतो । एवं दाणेण सामाइयं लब्भति ४ । इदाणि विणएणं, मगधाविसए गोचरगामे पुष्फसालो गाहावती, तस्स भद्दा भारिया, पुत्तो से पुप्फसालसुओ, सो मातापितरं पुच्छति-को धम्मो ?, तेहिं भष्णति-मातापितरं सुस्सूसित-दो चेव देवताई माता य पिता य जीवलोगमि । तत्थवि पिया विसिट्ठो जस्स बसे बट्टते माता ॥१॥ सो ताण एप मुहधोवणादिविभासा, देवताणि द्रव ताणि सुस्सूसति । अण्णता गामभोइओ आगतो, ताणि संभंताणि पाहुण्णं करेंति, सोचिंतेति-एताणवि एस देवतं, एतं । कृतपुण्यकश्यकत्र द्वाराभ्यासे आसनवरगतौ तिष्ठतः, कौमुदी माज्ञप्ता, यथा प्रतिमाप्रवेशोऽचनां कुरुत, मगरे घोषितं-सर्वमहिलाभिरागम्तव्यं, | लोकोऽप्यायाति, ता अपि आगताः, चेटरूपाणि तत्र यप्प इति उत्सले निविशन्ते, ज्ञातास्तेन, स्थविरा निर्भसिता, ता अपि आनीताः, भोगान् भुनक्ति सप्तभिरपि सहितः । वर्धमानस्वामी च समवसृतः, कृतपुण्यकः स्वामिनं वन्दिया पृच्छति-आत्मनः सम्पत्ति विपति च, भगवता कवित-पायसदानं, संवेगेन प्रवजितः । एवं दानेन सामायिक लभ्यते । इदानीं विनयेन , मगधाविषये गूर्वरनामे पुष्पशालो गाथापतिः, भद्रा तस्य भार्या, पुत्रस्तस्य पुष्पपासुतः, समात-IC ॥३५५॥ रपितरं पृच्छति-पो धर्मः, ताभ्यां भण्यते-मातरपितरौ शुषितम्यौ, एष दैवते माता च पिता च जीवकोके । तत्रापि पिता विशिष्टो यस वशे वर्त्तते | माता ॥ १॥स तयोः प्रगे मुखधापनादिविभाषा, देवते इव तौ शुरूषते । अन्या ग्रामभोजिक मागतः, ती संभ्रान्तौ प्राघूये कुरुतः, स चिन्तयति-एतयोरपि एतदेवतम्, एतं CCCCC दीप अनुक्रम T JABERatinintamational Manmintarmom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~713~ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत पूएमि तो धम्मो होहिति, तस्स सुस्सूसं पकतो । अण्णता तस्स भोइओ, तस्सवि अण्णो, तस्सवि अण्णो, जाप सेणिय |रायाणं ओलग्गिउमारद्धो, सामी समोसढो, सेणिओ इड्डीए गंतुण वंदति, ताहे सो सामि भणति-अहं तुम्भे ओलग्गामि?, सामिणा भणित--अहं रयहरणपडिग्गहमत्ताए ओलग्गिजामि, ताणं सुणणाए संबुद्धो, एवं विणएण सामाइय लब्भति५ । इदानी विभंगेण लब्भति, जधा-अस्थि मगधाजणवए सिवो राया, तस्स धणधन्नहिरण्णाइ पइदियहं वहुति, चिंता जाया-अत्थि धम्मफलंति, तो महं हिरण्णादि वहृति, ता पुण्णं करेमित्तिकलिऊण भोयणं कारितं, दाणं च णेण |दिण्णं, ततो पुत्तं रज्जे ठवेऊण सकततंबमयभिक्खाभायणकडुच्छुगोवगरणो दिसापोक्खियतावसाण मज्झे तावसो जातो, छहमातो परिसडियपंडुपत्ताणि आणिऊण आहारेति, एवं से चिट्ठमाणस्स कालेण विभंगणाणं समुप्पन्न संखेजदीवसमुद्दविसयं, ततो णगरमागंतूण जधोवलद्धे भावे पण्णवेति । अण्णता साधवो दिडा, तेसिं किरियाकलावं विभंगाणुसारेण सूत्राक दीप अनुक्रम पूजयामि ततो धर्मो भविष्यति, तस्य शुश्रूषां प्रकृतः । अन्यदा तस्स भोजिका, तस्याप्यम्यः, तस्याप्यन्यः यावच्छ्रेणिक राजानमवलगितुमारब्धः, स्वामी समवस्तः, श्रेणिक सा गत्वा वन्दते, तदा स स्वामिन भणति-अहं स्वामवलगामि, स्वामिना भणितम्-मई रजोहरणप्रतिग्रहमात्रयाऽवलग्ये, तेषां श्रवणेन संबुद्धः । एवं विनयेन सामायिक लभ्यते । इदानी विभङ्गेन लभ्यते, यथाऽस्ति मगधाजनपदे शिवो राजा, तस्य धनधान्य हिरण्यादि प्रतिदिवसं वर्धते, चिन्ता जाता-भस्ति धर्मफलमिति, ततो मम हिरण्यादि वर्धते, तत् पुण्यं करोमीति कलायित्वा भोजनं कारितं, दानं चानेन दस, ततः पुत्र राज्य स्थापयिष्या ख तताम्रमयभिक्षाभाजनकहुन्छुकोपकरणो दिक्योक्षिततापसानो मध्ये तापसो जातः, षष्टमात् परिशटितपाण्डुपत्राणि आनीय आहारयति, एवं तस्य | मातिष्ठतः कालेन विभमज्ञानं समुत्पन्न संख्येयद्वीपसमुद्रबिषयं, ततो नगरमागत्व यथोपलब्धान भावान् प्रज्ञापयति । भन्यदा साधको दृष्टाः, तेषां क्रियाक लापं विभङ्गानुसारेण CINEaurane .. Manatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 714 ~ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक ॥५६॥ प्रत लोएमाणस्स विसुद्धपरिणामस्स अपुवकरणं जातं, ततो केवली संवुत्तोत्ति ६ । संयोगविओगओऽवि लम्भति, जवा दो हारिभद्रीमथुराओ-दाहिणा उत्तरा य, तस्थ उत्तराओ वाणियओ दक्खिणं गतो, तत्थ एगो वाणियओ तप्पडिमो, तेण से | | यवृत्तिः 1४ विभागः१ पाहुण्णं कतं, ताहे ते णिरंतरं मित्ता जाता, अम्हं थिरतरा पीती होहितित्ति जति अम्ह पुत्तो धूता य जायति तो संयोग करेस्सामो. ताहे दक्खिणेण उत्तरस्स धूता बरिता, दिण्णाणि बालाणि, एत्वंतरे दक्षिणमथुरावाणियओ मतो, पुत्तो से तमि ठाणे ठितो, अण्णता सो हाति, चाहिसं चत्तारि सोवण्णिया कलसा ठविता, ताण बाहिं रोपिया, ताणं वाहि । तंबिया, ताण बाहिं मट्टिया, अण्णा य पहाणविधी रहता, ततो तस्स पुवाए दिसाए सोवण्णिओ कलसो गहो, एवं चउ-12 दिसंपि, एवं सवे णहा, उद्वितस्स पहाणपीदपि गई, तस्स अद्धिती जाता, णाडइज्जाओ वारिताओ, जाव घरं पविछो ताघे स्वविता भोयणविही, ताधे सोवणियरूप्पमताणि रइयाणि भायणाणि, ताधे एकेकं भायणं णासिउमारद्धं, ताहे सो सूत्राक दीप अनुक्रम ॥३५६॥ लोकमानस्य विशुद्धपरिणामस्यापूर्षफरणं जातं, ततः केवली संवृत्त इति । संयोगवियोगतोऽपि उभ्यते, पथा रे मधुरे दक्षिणोत्तराच, तत्रोत्तरस्या वणिक् दक्षिणां गतः, तत्र एको वणिक् तरपतिमः, तेन तस्य प्राघूण्य कृतं, तदा तो निरन्तरं मित्रे जाती, भावयोः स्थिरतरा प्रीतिभविष्यतीति यथावयोः । पुत्रो दुहिता चा जायते तदा संयोगं करिष्यावः, तदा दाक्षिणात्यनौत्तरस्य दुहिता वृता, दत्ता बालिका । मन्त्रान्तरे दक्षिणमथुराबणिक मृतः, पुत्रस्तस्य तस्मिन् स्थाने स्थितः, अन्यदा समाति, चतुर्दिशं चरवारः सौवर्णिकाः कलशाः स्थापिताः, तेभ्यो बहिः रौप्यकाः तेभ्यो बहिस्तानास्तेभ्यो बहिः मात्र्तिकाः, अन्यश्च स्नानविधी रचितः, ततस्तस्य पूर्वस्या दिशः सौवर्णः कलशो नष्टः, एवं चतुर्दिग्भ्योऽपि, एवं सर्वे नष्टाः, स्थितस्य मानपीठमपि नष्टं, तस्यात्तिर्जाता, | नाटकीया बारिताः, याबदाई प्रविधसदोपस्थितो भोजनविधिः, तदा सौवर्णरूप्यमयानि रचितानि भाजनानि, तदा एकैकं भाजनं मंष्टमारब्ध, तदास Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~715~ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत पेच्छति णासंति, आवि से मूलपत्ती सावि णासिउमाढत्ता, ताहे तेण गहिता, जत्तियं गहिये तत्तिय ठितं, सेस सानई, ताघे गतो सिरिघरं जोएति, सोऽवि रित्तओ, जंपि णिहाणपउत्तं तंपि णई, जंपि आभरणं तंपि णस्थि, जंपि बुहिपउत्तं तेवि भणंति-तुम ण याणामो, जोऽवि दासीवग्गो सोऽविणहो, ताधेचिंतेति-अहो अहं अधण्णो, ताधे चिंतेति/ पयामि, पञ्चइतो । थोवं पढित्ता हिंडति तेण खंडेण हत्थगयेण कोउहल्लेणं, जइ पेच्छिज्जामि, विहरंतो उत्तरमधुरं गतो।। ताजिवि रयणाणि समरकुलं गताणि, ते य कलसा, ताहे सो मज्जति, उत्तर माथुरो वाणिओ उवगिर्जतो जाव ते आगया | कलसा, ताहे सो तेहिं चेव पमजितो, ताहे भोयणवेलाए तं भोयणभंडं उववितं, जहापरिवाडीय ठित, ततो सोऽवि साधूतं घरंपविहो, तत्थ तस्स सत्थवाहस्स धूया पढमजोबणे वट्टमाणी वीयणयं गहाय अच्छति, ताहे सो साधूतं भोयणभंड पेच्छति, (०९०००) सत्यवाहेण भिक्खा णीणाविता, गहितेवि अच्छति, ताहे पुच्छइ-कि भगवं! एवं चेडिं पलोएह, सूत्राक दीप अनुक्रम प्रेक्षते नश्यन्ति, यापि च सस्य मूळपात्री साऽपि नंष्टुमारब्धा, तदा तेन गृहीता, यावद्गृहीतं तापरिस्थतं, शेष नई, तदा गतः श्रीगृहं पश्यति, सोऽपि रिक्तः, पदपि निधानप्रयुक्तं तदपि नष्ट, बयाभरणं तदपि नास्ति, बदपि वृद्धिप्रयुक्तं तेऽपि भगन्ति-यो न जानीमः, योऽपि दासीवर्गः Gसोऽपि नष्टः, तदा चिन्तयति-बहो महमधन्यः, तदा चिन्तयति-प्रवजामि, प्रबजितः । स्तोकं पठित्वा हिण्हते तेन खडेन हस्तगतेन कौतूहलेन, यदि प्रेक्षेय, विहरन् उत्तरमथुरां गतः, । तान्यपि स्वानि श्वशुरकुलं गतानि, ते च कलशाः, तदा स मजति उत्तरमाथुरपणिगुपगीयमानः यावत्र भागताः कळमाः, तदा स | नरेव प्रमहक्तः, तदा भोजनकायां तदेव भोजनभाण्डमुपस्थितं यथापरिपाटि च स्थितं, ततः सोऽपि साधुस्नगई प्रविष्टः, तत्र तख सार्थवाहस्य दुहिता प्रथमयो| बने वर्तमाना व्यजनं गृहीत्या तिष्ठति, सदा स साधुम्म भोजनभाण्डं प्रेक्षते, सार्यवाहेन भिक्षा मानायिता, गृहीतायामपि तिष्ठति, तदा पृच्छति-कि भगवन् ! एतां चेटी प्रलोकयति ? Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~716~ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक ॥३५७॥ प्रत ताहे सो भणति-ण मम चेडीए पयोयणं, एयं भोयणभंड पलोएमि, ततो पुच्छति-कतो एतस्स तुम आगमो !, सोहारिभद्रीभणति-अज्जयपज्जयागतं, तेण भणित-सम्भावं साह, तेण भणियं-मम पहायंतस्स एवं चेव पहाणविही उवहिता, एवं सबाणिऽवि जेमणभोयणविही सिरिघराणिऽवि भरिताणि, णिक्खित्ताणि दिवाणि, अदिपुवा य धारिया आणेत्ता देंति, साहू भणति-एवं मम आसी, किह ?, ताहे कहेति-हाणादि, जइ ण पत्तियसि ततो जेण तं भोयणवत्तीखंडं ढोइत, चडत्ति लग्गं, पिउणो य णाम साहति, ताहे णातं जहा एस सो जामातुओ, ताहे उठेऊण अवयासित्ता परुण्णो भणतिएयं सर्व तदवत्थं अच्छति, एसा ते पुवदिष्णा चेडी पडिच्छसुत्ति, सो भणति-पुरिसो वा पुर्व कामभोगे विप्पजति, कामभोगा वा पुर्ष पुरिसं विष्पहयंति, ताहे सोऽवि संवेगमावण्णो मर्मपि एमेव विष्पयहिस्संतित्ति पषइतो । तत्धेगेण विप्पयोगेण लद्धं, एगेण संयोगेण सामाइयं लद्धंति । इदाणिं वसणेण, दो भाउगा सगडेण वञ्चंति, चकुलेण्डा य सुत्रांक 21-1-2745% दीप अनुक्रम तदा स भगति-नमम चेन्या प्रयोजनं, एतत् भोजनभाण्डं प्रलोकयामि, ततः पृच्छति-कुत पुतख तवागमः, स भणति-आर्यकार्यकागतं (पितृपितामहागतं), तेन भनित-सहाचं कथय, तेन भणितं-मम सायमानीवमेव मानविधिरुपरिषता, एवं सोऽपि जेमनभोजनविधिः, श्रीगृहाण्यपि भृतानि, निस्रातानि इष्टानि, अष्टपूर्वाध धारका आनीय ददति, साधुर्भणति-पतन्ममासीद, कथम् । तदा कथयति-नानादि, यदि न प्रत्येषि (बदा न प्रत्यगात् ) तदाऽनेन सनोजनपात्रीखण्डं डोकितं, झटिति कन, पितुन नाम कथयति, तदा ज्ञातं यथा एष स जामाता, तदोस्थायावकाश्य प्ररुदितो भणति| एतत् सर्व तदवस्पं तिष्ठति, एषा खया पूर्व दत्ता चेटी प्रतीच्छेति, स भणति-पुरुषो वा पूर्व कामभोगान् विप्रजहाति, कामभोगा वा पूर्व पुरुषं विप्रजाति, तदा सोऽपि संवेगमापनो मामप्येवमेव विप्रहाखन्तीशि प्राजितः । तत्रैकेन विप्रयोगेन लब्धमेकेन संयोगेन सामायिक सम्धमिति । इदानीं व्यसनेन, ही। भ्रातरौ शकटेन बजतः, चक्रौलण्डिका (द्विमुखः सर्पः) च. ॥३५७॥ Alhanginrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~717~ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) % % 2 प्रत संगडवट्टाए लोलति, महल्लेण भणियं-उषत्तेहि भंडिं, इतरेण वाहिया भंडी, सा सन्नी सुणेति, छिण्णा चक्केण, मता इस्थियार जाया हत्थिणापुरे णगरे, सो महल्लतरो पुर्व मरित्ता तीसे पोट्टे आयाओ पुत्तो जाओ, इट्ठो, इतरोऽवि तीसे चेव पोट्टे आयाओ, जं सो उबवण्णो तं सा चिंतेति-सिल व हाविजामि, गब्भपाडणेहिं वि ण पडति, तओ सो जाओ दासीए हत्थे | दिण्णो, छडेहि, सो सेछिणा दिडो णिज्जतो, तेण घेत्तूण अण्णाए दासीए दिण्णो, सो तस्थ संवहइ । तत्थ महल्लगस्स णाम | रायललिओ इयरस्स गंगदत्तो, सो महलो जं किंचि लहइ ततो तस्सवि देति, माऊए पुण अणिहो, जहिं पेच्छइ तहिं। कट्ठादीहिं पहणइ । अण्णया इंदमहो जाओ, तओ पियरेण अप्पसागारियं आणीओ, आसंदगस्स हेठा कओ, जेमाविजइ, ओहाडिओ, ताहे कहवि दिहो, ताहे हत्थे घेत्तण कडिओ, चंदणियाए पक्खितो, ताहे सो रुवाइ, पिउणा हाणिओ, एत्थंतरे साहू भिक्खस्स अतियओ, सिटिणा पुच्छिओ-भगवं! माउए पुत्तो अणिडो भवद ?, हता भवइ, किह पुण!, सूत्राक 4%--5 दीप अनुक्रम SSCR शकटवर्तन्यो लुठति, महता भणित-जय गन्त्रीम्, इतरेण वाहिता गन्त्री, सा संझिनी शृणोति, जिला पण, मता खी जाता हस्तिनागपुरे नगरे, स महान् पूर्व मूत्वा सस्था उदरे आयातः पुत्रो जातः, इष्टः, इतरोऽपि तस्या एवोदरे आवातः, बदास पासादा सा चिन्तयति-शिकाभिव हापयामि, गर्भपातनैरपि न पतति, ततः स जातो दास्या हस्ते दत्तः, यज, स भेष्ठिना स्टोनीयमानः, तेन गृहीत्वाऽन्यसै दासै दशः, स तत्र संवर्धते । तत्र महतो नाम राजललित इतरस्य गङ्गादचा, स महान यत्किविहभते ततस्तमायपि ददाति, मातुः पुनरनिष्टः, यत्र प्रेक्षते तत्र काष्टादिभिः प्रदन्ति । अन्यदा इन्दमहो जातः, सतः पित्राऽपसागारिकमानीतः, पक्ष्यस्खाधतात्कृतः, जेम्यते, निष्काशितः (प्रच्छन्नः) तदा कथमपि दृष्टः, सदा हसे गृहीत्वा कर्षितः, चन्दनिकायां (वोंगृहे) प्रक्षिप्तः, तदा स रोदिति, पित्रा सपित:-मत्रान्तरे साधुभिक्षावै अतिगतः, श्रेष्ठिना पृष्टः-भगवन् ! मातुः पुत्रोऽनिष्टो भवति!, ओम् (एवमेव) भवति, कथं पुनः', * उववेज प्र. JanEain andiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~718~ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥३५८|| Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४७ ], भाष्यं [१५०...] ताहे भणति 'यं दृष्ट्रा वर्धते क्रोधः, स्नेहश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववैरिकः ॥ १ ॥ यं दृष्ट्वा वर्धते स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एप मे पूर्वबान्धवः ॥ २ ॥ ताहे सो भणइ भगवं ? पवावेह एवं?, बाढंति विसज्जिओ पबइओ । तेसिं आयरियाण समासे भायावि से नेहाणुरागेण पवइओ, ते साहू जाया इरियासमिया, अणिस्सितं तवं करेंति, ताहे सो तत्थ णिदाणं करेइ-जइ अस्थि इमस्स तवणियम संजमस्त फलं तो आगमेस्साणं जणमणणयणाणंदो भवामि, घोरं तवं करेत्ता देवलोयं गओ । ततो चुओ वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जाओ, इयरोऽवि बलदेवो, एवं तेण वसणेण सामाइयं लद्धं ७ । उत्सवे, एगंमि पच्चंतियगामे आभीराणि, ताणि साहूणं पासे धम्मं सुर्णेति, ताहे देवलोए वर्णेति, एवं तेसिं अस्थि धम्मे सुबुद्धी । अण्णदा कयाइ इंदमहे वा अण्णंमि वा उत्सवे गयाणि नगरिं, जारिसा बारवइ, तत्थ लोयं पासन्ति मंडितपसाहियं सुगंधं विचित्तणेवत्थं, ताणि तं दण भणति -एस सो देवलोओ जो साहूहिं वण्णिओ, १ तदा भणति तदा स भगति-भगवन् ! प्रग्राजयैनी, बाढमिति, विसृष्टः प्रबजितः। तेषामाचार्याणां सकाशे भ्राताऽपि तस्य स्नेहानुरागेण प्रब्रजितः, तो साभू जाती ईयसमिती अनिश्रितं तपः कुरुतः, तदा स तत्र निदानं करोति-दयस्ति अस्य तपोनियमसंयमस्य फलं तदायत्यां जनमनोनयनानन्दो भवेयं, घोरं तपः कृत्वा देवलोकं गतः । ततश्युतो वसुदेवपुत्रो वासुदेवो जातः इतरोऽपि महदेवः एवं तेन व्यसनेन सामायिक धम्। उत्सवे, एकस्मिन् प्रत्य तग्रामे आभीराः, ते साधूनां पार्थे धर्म गुण्वन्ति तदा देवलोकान् वर्णयन्ति एवं तेषामस्ति धर्मे सुबुद्धिः अन्यदा कदाचित् इन्द्रमदे वाऽन्यस्मिन्वोल्स वे गता नगरी, बादशा द्वारिका, तत्र लोकं पश्यन्ति मण्डितप्रसाधितं सुगन्धं विचिन्त्रनेपथ्यं ते तं दृड्डा भणन्ति-एप स देवलोको यः साधुभिर्वर्णितः For Farina Peny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~719~ ॥ ३५८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः bayo Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत एत्ताहे जइ वच्चामो सुंदर करेमो, अम्हेवि देवलोए उववजामो, ताहे ताणि गंतूण साहूण साहति-जो तुम्भेहिं अम्ह कहिओ देवलोओ सो पञ्चक्खो अम्हेहिं दिहो,साहू भणंति-ण तारिसो देवलोओ, अण्णारिसो, अतो अणंतगुणो, तओ ताणि अन्भ-12 दाहियजातविम्याणि पवइयाणि । एवं उस्सवेण सामाइयलंभो । इहित्ति, दसण्णपुरे णगरे दसण्णमहो राया, तस्स पंच। देवीसयाणि ओरोहो, एवं सो रूवेण जोवणेण बलेण य वाहणेण य पडिबद्धो एरिस णस्थित्ति अण्णस्स चिंतेइ, सामी समोसरिओ दसण्णकूडे पचते । ताहे सो चिंतेइ-तहा कलं वंदामि जहा ण केणइ अण्णेण वंदियपुधो, तं च अभत्थिय सको णाऊण चिंतेइ-वराओ अप्पाणयं ण याणति, तओ राया महया समुदएण णिग्गओ वंदिउँ सबिडिए, सक्को य देव-पटू राया एरावणं विलग्गो, तस्स अट्ठ मुहे विउबइ, मुहे २ अठ्ठ अठ्ठदंते बिउबेइ, दंते २ अट्ठ अहपकसरणि ओ विउबेड, एकेकाए पुकरणीए अट्ट २ पउमे विउवेइ, पउमे २ अठ्ठ अट्ठ पत्ते विउबेइ, पत्ते २ अट्ठ २ बत्तीसबद्धाणि दिवाणि णाडगाणि विउबइ, सूत्राक दीप अनुक्रम अधुना (अत्र) यदि आयाखामः सुन्दरमकरिष्यामः, वयमपि देवलोके उत्पत्त्यामहे, तदा ते गत्वा साधून कथयन्ति-यो युधमामिरमान् कधितो देवलोकः स प्रत्यक्षोऽस्माभिईष्टः, साधवो भणन्ति-न तादृशो देवलोकः, अन्यादृशः, अतोऽनन्तगुणः, ततस्तेऽस्यधिकजातविस्मयाः प्रवजिताः । एवमुत्सवेन सामायिकलाभः । ऋद्धिरिति, दशार्णपुरे नगरे दशाणभद्रो राजा, तस्य पञ्च देवीशतानि भवरोधः, एवं स रूपेण यौवनेन बलेन च वाहनेन च प्रतिबद्धः ईशं नास्त्यन्यस्येति चिन्तयति, स्वामी समवस्तो दशाकटे पर्वते । सदा स चिन्तयति-तथा कल्ये वन्दिताहे यथा न केनचिदन्येन वन्दितपूर्वः, तथाभ्यर्थितं को | ज्ञात्वा चिन्तयति-वराक माध्मानं न जानाति, ततो राजा महता समुदयेन निर्गतो बन्दितुं सर्वा, पानश्च देवराज ऐरावणं विलनः, तस्याष्टौ मुखानि| विकृति, मुखे २ भष्टाष्ट दन्तान् विकुर्वति, दन्ते २ अष्ट अष्ट पुष्करिणीविकुर्वति, एकैकस्यां पुष्करिण्यामष्टाष्ट पनानि विकुति, पमे २ अष्टाष्ट पत्रामि | विहर्षति, पत्रे २ अष्टाष्ट द्वात्रिंशद्वद्धानि दिव्यानि नाटकानि विकृति, ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~720~ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत आवश्यक- एवं सो सविठ्ठीए उवगिजमाणो आगओ, तओ एरावणं विलग्गो चेव तिक्खुत्तो आदाहिणं पयाहिणं सामि करेइ, ताहे ताह हारिभद्रीसो हत्थी अग्गपादेहिं भूमीए ठिओ, ताहे तस्स हथिस्स दसष्णकूडे पचते देवताप्पसाएण अग्गपायाणि उहिताणि, तओ से यवृत्तिः ॥२५॥ीणाम कतं गयग्गपादगोत्ति, ताहे सो दसण्णभद्दो चिंतेइ-एरिसा कओ अम्हाणं इहित्ति , अहो कएलमोऽणेण धम्मो,विभागात अहमवि करेमि, ताहे सो सब छड्डेऊण पवइओ।एवं इड्डीए सामाइयं लहइ १०। इयाणिं असक्कारेणं, एगो धिज्जाइओ तहास्वाणं थेराणं अंतिए धम्म सोचा समहिलिओ पवइओ, उग्गं २ पवर्ज करेंति, णवरमवरोप्पर पीती ण ओसरइ, महिला मणागं घिजाइणित्ति गधमुबहति, मरिऊण देवलोयं गयाणि, जहाउगं भुत्तं । अतो य इलावद्भणे णगरे इलादेवया, तं एगा सत्यवाही पुत्तकामा ओलग्गति, सो चविऊण पुत्तो से जाओ, णामं च से कयं इलापुत्तो त्ति, इयरीवि गवदोसेणं तओ चुया लेखगकुले उप्पण्णा, दोऽवि जोवणं पत्ताणि, अण्णया तेण सा लेखगचेडी दिवा, पुषभवरागेण अज्झोववण्णो, ABC- सुत्रांक - दीप अनुक्रम एवं स सर्वध्योपगीयमान आगतः, तत ऐरावणे विक्रम एव निकृष्व भादक्षिणप्रदक्षिणं स्वामिनं करोति, तदा स हस्ती अग्रपादैः भूमौ स्थितः, सदा तस्य हस्तिनो दशार्णकूरे पर्वते देवताप्रसादेन अप्रपादा उत्थिताः, वतस्तस्य कृतं नाम गजाप्रपादक इति, तदा स दाणभचिन्तयति-ईशा कुतोऽस्माकमृद्धिरिति भहो तोऽनेन धर्मः, अहमपि करोमि, तदा स सर्व त्यक्त्वा प्रबजितः । एवममा सामायिक लभ्यते । इदानीमसरकारेण-एको धिग्जातीयक्षथारूपाणां स्थविरणामन्तिके धमै श्रुत्वा समहिला प्रवजितः, जामुना प्रवज्यां कुरुतः, नवरं परस्परं प्रीति पसरति, महेला धिरजातीयेति मनाक गई. मुदाति, मृरखा देवलोकं गतौ, यथायुष्क भुक्तम् । इतवेलावर्धने नगरे इलादेवता, तामेका सार्थवाही पुत्रकामाऽवलगति, स युवा पुत्रस्तस्य जातः, नाम ! च तस्य कृतमिलापुत्र इति, इतरापि गर्वदोषेण ततब्युता सहकले उत्पन्ना, द्वावपि यौवनं प्राप्ती, अन्यदा तेन सा लचकपेटी दृष्टा, पूर्वभवरागेणाभ्युपपाः,* ॥३५९॥ JanEaa nd S amiDrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~721~ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८४७ ], भाष्यं [ १५०...] सामग्गिजंतीविण लग्भइ जत्तिएण तुलइ तत्तिएण सुवण्णेण ताणि भणंति- एसा अम्ह अक्खयणिही, जइ सिप्पं सिक्ख सि अम्हेहिय समं हिंडसि तो ते देमो, सो तेहिं समं हिंडिओ सिक्खिओ य, ताहे विवाहणिमित्तं रण्णो पेच्छयणं करेहित्ति भणितो, वेण्णातडं गयाणि, तस्थ राया पेच्छति संतेपुरो, इलापुत्तो य खेडाउ करेइ, रायाए दिट्ठी दारियाए, राया ण देइ, रायाणए अदेन्ते अण्णेऽवि ण देति, साहुकाररावं वदृति, भणिओ-लेख ! पडणं करेह, तं च किर वंससिहरे अहं कई कतेलयं, तत्थ खीलयाओ, सो पाउआउ आहिंधर मूले विधियाओ, तओऽसिखेडगहत्थगओ आगासं उप्पइत्ता ते खीलगा पाउ| आणालियाहि पवेसेतवा सत्त अग्गिमाइद्धे सत्त पच्छिमाइडे काऊण, जइ फिडर तओ पडिओ सयहा खंडिज्जइ, तेण कथं, राया दारियं पलोएइ, छोएण कलकलो कओ, ण य देइ राया रायाण पेच्छइ, राया चिंतेइ-जइ मरइ तो अहं एवं दारियं परिणेमि, भणइ-ण दिई, पुणो करेहि, पुणोऽवि कथं, तत्थऽचि ण दिहं ततियंपि वाराकयं तत्थवि ण दिडं, सा मार्ग्यमाणापि न लभ्यते यावता तोस्यते तावता सुवर्णन, ते भगन्ति एवास्माकमक्षयनिधिः, यदि शिल्पं शिक्षसे असाभित्र समं हिण्डसे तदा तुभ्यं दद्मः स तैः समं दिन्दितः शिक्षितश्च तदा विवाहनिमित्तं राज्ञः प्रेक्षणकं कुर्विति भणितो, बेनातटं गताः, तत्र राजा प्रेक्षते सान्तःपुरः, इलापुत्रश्च क्रीडाः करोति, राम्रो दृष्टिर्दारिकायां राजा न ददाति, राज्यददति अन्येऽपि न ददति साधुकाररवो वर्त्तते, भणितो- लक! पतनं कुरु तत्र च वंशशिखरेतिका कृतं तत्र कीलिकाः, स पादुके परिदधाति मूलविले, तयोऽसिखेटकहस्तगत आकाशमुत्पत्य ताः कीलिकाः पादुकानलिकासु प्रवेशवितव्याः सप्ताग्राविदाः सप्त पञ्चादाविदाः कृत्वा, यदि स्वयति ततः पवितः शतथा सम्यते, तेन कृतं राजा दारिकां प्रलोकयति, लोकेन कलकलः कृतः, राजा न च ददाति राजा न प्रेक्षते, राजा चिन्तयति-यदि म्रियते तदाऽहमेतां दारिकां परिणयामि भणति न दृष्टं पुनः कुरु, पुनरपि कृतं तत्रापि न दृष्टं तृतीयवारमपि कृतं तत्रापि न, पाठ आबंधति प्र० For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~722~ by org Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८४७], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक- ॥३६०॥ प्रत -*-5-25% चउत्थियाए वाराए भणिओ-पुणो करेहि, रंगो विरत्तो, ताहे सो इलापुत्तो वंसग्गे ठिओ चिंतेइ-धिरत्थु भोगाणं, एस हारिभद्रीराया एत्तियाहि ण तित्तो, एताए रंगोवजीवियाए लग्गिजं मग्गइ, एताए कारणा ममं मारेउमिच्छइ, सो य तत्थ ठियोत : एगत्थ सेठिघरे साहुणो पडिलाभिजमाणे पासति सबालंकाराहिं इस्थियाहिं, साहूय विरत्तत्तेण पलोयमाणे पेच्छति, ताहे विभागा१ भणइ-'अहो धन्या निःस्पृहा विषयेषु अहं सेडिसुओ एत्थंपि एसअवत्थो, तत्थेव विरागं गयस्स केवलणाणं उप्पणं ।। ताएऽवि चेडीए विरागो विभासा, अग्गमहिसीएऽवि, रण्णोऽवि पुणराबत्ती जाया विरागो विभासा, एवं ते चत्तारिऽवि केवली जाया, सिद्धा य । एवं असक्कारेण सामाइयं लब्भइ, ११ अहवा तित्थगराणं देवासुरे सक्कारे करेमाणे दडूण जहा मरियस्स ॥ अहवा इमेहिं कारणेहिं लंभो अन्भुट्ठाणे विणए परकमे साहुसेवणाए य । संमईसणलंभो विरयाविरईइ विरईए ॥ ८४८॥ सुत्रांक F दीप अनुक्रम AC-0-06-2 चतुर्धबारे भणितः-पुनः कुरु, रको विरक्तः, तदा स इलापुत्रो वंशाग्ने स्थितश्चिन्तयति-धिगस्तु भोगान् , एष राजा एतावतीभिर्न तृप्तः, एतया रोपजीविकया लगितुमभिलष्यति, एतस्याः कारणात् मा मारयितुमिच्छति, स च तत्रस्थित एकत्र श्रेष्टिगृहे साधून प्रतिलम्भ्यमानान् पूरयति सर्वालकाराभिः, बीभिः, साधूंश विरक्ताचे प्रलोकयन् प्रेक्षते, तदा भणति-अहं श्रेष्टिसुतः भत्रापि एतदवस्था, तत्रैव वैराग्यं गतस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । तथा अपि चेल्या वैराग्यं विभाषा, मममहिण्या भपि, राज्ञोऽपि पुनरावृत्तिांता वैराग्यं विभाषा, पर्वते पवारोऽपि केवलिमो जाताः सिद्धाश्च । एवमसरकारेण सामायिक लभ्यते । अथवा तीर्थकराणां देवासुरान् सत्कारान् कुर्वतो दृष्ट्वा यथा मरीचे अथवा एभिः कारणैलाभा. |॥३६॥ CAMEai . andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | सामायिक-लाभस्य अन्य कारणानि प्रस्तुयते ~723~ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८४८ ], भाष्यं [ १५०...] व्याख्या - अभ्युत्थाने सति सम्यग्दर्शनलाभो भवतीति क्रिया, विनीतोऽयमिति साधुकथनात्, तथा 'विनये' अञ्जलिप्रग्रहादाविति, 'पराक्रमे' कपायजये सति, साधुसेवनायां च सत्यां कथञ्चित् तत्क्रियोपलब्ध्यादेः सम्यग्दर्शनलाभो भवतीत्यध्याहारः, विरताविरतेश्च विरतेश्चेति गाथार्थः ।। ८४८ ॥ कथमिति द्वारं गतं । तदित्थं लब्धं सत् कियच्चिरं भवति कालं ?, जघन्यत उत्कृष्टतश्चेति प्रतिपादयन्नाह - | सम्मत्तस्स सुयस्स य छावडी सागरोवमाई ठिई। सेसाण पुचकोडी देसूणा होइ उक्कोसा ।। ८४९ ।। व्याख्या – सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च षट्षष्टिः सागरोपमाणि स्थितिः, कथं? 'विजयाइस दो वारे गयस्स तिष्णछुए व छावडी । पारजम्मपुषकोडी मुहुत्तमुकोसओ अहियं ॥ १ ॥' 'शेषयोः' देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वकोटी देशोना भवति, 'उक्कोस त्ति उत्कृष्टस्थितिकालः, जघन्यतस्त्वाद्यत्रयस्यान्तर्मुहूर्तं सर्वविरतिसामायिकस्य समयः, चारित्रपरिणामा|रम्भसमयानन्तरमेवाऽऽयुष्कक्षयसम्भवात्, देशविरतिप्रतिपत्तिपरिणामस्त्वान्तमहूर्तिक एव, नियमितप्राणातिपातादिनिवृतिरूपत्वात, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामन्तर्मुहुर्त्तः सर्वजीवानां तु सर्वाणि सर्वदैवेति गाथार्थः ॥ ८४९ ॥ द्वारम् ॥ अधुना कइत्ति द्वारं व्याख्यायते -कतीति कियन्तः वर्तमानसमये सम्यक्त्वादिसामायिकानां प्रतिपत्तारः प्राक्प्रतिपन्नाः प्रतिपतिता वेति, अत्र प्रतिपद्यमानकेभ्यः प्राक्प्रतिपन्नप्रतिपतितसम्भवात्तानेव प्रतिपादयन्नाह सम्मत्तसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ता उ । सेदीअसंखभागो सुए सहस्सग्गसो विरई ।। ८५० ॥ व्याख्या -- सम्यक्त्वदेशविरताः प्राणिनः क्षेत्रपलितस्यासवेयभागमात्रा एव, इयं भावना - क्षेत्रपलितासङ्ख्येयभागे Fürsten janibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~724~ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५०], (४०) भाष्यं [१५०...] आवश्यक र विभाग:१ यवृत्तिः ॥३६१॥ प्रत सुत्रांक यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एवं उत्कृष्टतः सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोरेकदा प्रतिपत्तारो भवन्ति, किन्तु देशविरतिसामा- यिकप्रतिपत्तृभ्यः सम्यक्त्वप्रतिपत्तारोऽसोयगुणा इति, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति । 'सेढीअसंखभागो सुएत्ति इह संवर्तितचतुरस्रीकृतलोकैकप्रदेशनिवृत्ता सप्तरज्वात्मिका श्रेणिः परिगृह्यते, तदसयेयभाग इति, तस्याः खल्वसवेयभागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एव एकदोत्कृष्टतः सामान्यश्रुते-अक्षरात्मके सम्यगमिथ्यात्वानुगते विचार्य प्रतिपत्तारो भवन्तीति हृदयं, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति । 'सहस्सग्गसो बिरई' सहस्रायशो विरतिमधिकृत्य उत्कृष्टतः प्रतिपत्तारो ज्ञेया इत्यध्याहारः, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति गाथार्थः ॥ ८५० ॥ प्राक्प्रतिपन्नानिदानी प्रतिपादयन्नाहसम्मत्तदेसविरया पडिवन्ना संपई असंखेना । संखेजा य चरित्ते तीसुवि पडिया अणंतगुणा ।। ८५१ ।। व्याख्या-सम्यक्त्वदेश विरताः प्रतिपन्नाः 'साम्प्रतं' वर्तमानसमयेऽसोया उत्कृष्टतो जघन्यतश्च, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः, एते च प्रतिपद्यमानकेभ्योऽसोयगुणा इति । अत्रैवान्तरे सामान्यश्रुतापेक्षया प्रापतिपन्नान् प्रतिपादयता 'सुयपडिवण्णा संपइ पयरस्स असंखभागमेत्ता उ' इदमेष्यगाथाशकलं व्याख्येय, द्वितीय तूत्तरत्र, तत्राक्षरात्मकाबिशिष्टश्रुतप्रतिपन्नाः साम्प्रतं प्रतरस्य सप्तरज्ज्वात्मकस्यासोयभागमात्राः, असङ्ख्येयासु श्रेणिषु यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इत्यर्थः, सोयाश्च चारित्रे प्राक्प्रतिपन्ना इति, 'त्रिभ्योऽपि' चरणदेशचरणसम्यक्त्वेभ्यः पतिताः 'अणंतगुण'त्ति प्राप्य प्रतिपतिता अनन्तगुणाः प्रतिपद्यमानकपाक्यतिपन्नेभ्यः, तत्र चरणप्रतिपतिता अनन्ताः, दीप अनुक्रम ॥३६॥ JABERatinintamational N angionary army मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~725~ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५२], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत सूत्राक तदसोयगुणास्तु देशविरतिप्रतिपतिताः, तदसङ्ख्येयगुणाश्च सम्यक्त्वप्रतिपतिता इति । अत्रान्तरे सामान्यश्रुतप्रतिपतितानधिकृत्यैष्यगाथापश्चार्द्ध ब्याख्येयं सेसा संसारत्था सुयपरिवडिया हु ते सो॥८५२|| सम्यक्त्वप्रतिपतितेभ्यस्तेऽनन्तगुणा इति गाथार्थः ॥ ८५२ ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽन्तरद्वारावयवार्थ उच्यते-सकृदवाप्तमपगतं पुनः सम्यक्त्वादि कियता कालेनावाप्यते ?, कियदन्तरं भवतीति, तत्राक्षरात्मकाविशिष्टश्रुतस्यान्तरं जघन्यमन्तमुहूर्तम् , उत्कृष्ट स्वाह__कालमणतं च सुए अद्धापरियडओ उ देसूणो। आसायणबहुलाणं उक्कोसं अंतरं होई ॥ ८५३ ॥ व्याख्या-एक जीवं प्रति कालोऽनन्त एव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वादनुस्वारस्य चालाक्षणिकत्वात् , 'श्रुते' सामान्यतोऽक्षरात्मके 'उक्कोसं अंतरं होईत्ति योगः । तथा सम्यक्त्वादिसामायिकेषु तु जघन्यमन्तर्मुहूर्तकाल एव, उत्कृष्टं त्वाहउपार्द्धपुद्गलपरावर्त एव देशोनः, किम् ?-उत्कृष्टमन्तरं भवतीति योगः, केषाम् ?-आशातनावहुलानाम् , उक्तंच-"तित्थगरपवयणसुयं आयरियं गणहरं महिड्डीयं । आसाइन्तो बहुसो अर्णतसंसारिओ होइ ॥१॥"त्ति गाथार्थः॥ ८५३ ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतमविरहितद्वारार्थमाह-अथ कियन्तं कालमविरहेणैको व्यादयो वा सामायिक प्रतिपद्यन्त इत्याहसम्मसुयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ । असमया चरित्ते सव्वेसु जहन्न दो समया ॥ ८५४ ॥ व्याख्या-'सम्यक्त्वश्रुतागारिणां' सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानामित्यर्थः, नैरन्तर्येण प्रतिपत्तिकालः आव[लिकाअसोयभागमात्राः समया इति, तथाऽष्टौ समयाः चारित्रे निरन्तरं प्रतिपत्तिकाल इति, 'सर्वेषु' सम्यक्त्वादिषु + अपार्धेति प्र० । तीर्थकरं प्रवचनं श्रुतमाचार्य गणधरं महर्धिकम् । आशातयन् बहुशोऽनम्तसांसारिको भवति ॥ ३॥ दीप अनुक्रम CARSA ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~726~ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५४], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक ॥३६॥ प्रत सुत्रांक 'जघन्य अविरहप्रतिपत्तिकालो द्वौ समयाविति गाथार्थः ॥ ८५४ ॥ तत्रास्मादेवाविरहद्वाराद् विरहकाला प्रतिपक्ष इति हारिभदी गम्यमानस्वादनुद्दिष्टोऽपि द्वारगाथायां प्रदर्श्यते यवृत्तिः सुयसम्म सत्तयं खलु विरयाविरईय होइ पारसगं । विरईए पन्नरसगं विरहियकालो अहोरत्ता ॥ ८५५ ॥ ४ विभागः१ व्याख्या-श्रुतसम्यक्त्वयोरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकाल: 'सप्तकं खलु' इत्यहोरात्रसप्तक, ततः परमवश्यं कचित् कश्चित् । प्रतिपद्यत इति, जघन्यस्त्वेकसमय इति, 'विरताविरतेश्च भवति द्वादशक' देशविरतेरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालोऽहोरा द्वादशकं भवति, जघन्यतस्तु त्रयः समया इति, 'विरतेः पञ्चदशकं विरहितकालः अहोरात्राणि' सर्वविरतेरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालोऽहोरात्रपञ्चदशकं, जघन्यतस्तु समयत्रयमेवेति गाथार्थः ॥ ८५५ ॥ साम्प्रतं भवद्वारमुच्यते-कियतो |भवानेको जीवः सामायिकचतुष्टयं प्रतिपद्यत इति निदर्शयन्नाहसम्मत्तदेसविरई पलियस्स असंखभागमेत्ताओ। अट्ट भवा उ चरित्ते अणंतकालं च सुयसमए । ८५६ ॥ व्याख्या-सम्यक्त्वदेशविरतिमन्तः मतुबूलोपात् सम्यक्त्वदेशविरतास्तेषां तत्सामायिकद्वयं प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवानां प्रक्रान्तत्वात् क्षेत्रपल्योपमस्यासमवेयभागमात्रे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त उत्कृष्टतः प्रतिपत्तिभवाः, जपन्यतस्त्वेकः, अष्टौ भवाः 'चारित्रे' चारित्रे विचार्ये, उत्कृष्टतस्त्वादानभवाः खल्वष्टी, ततः सिध्यतीति, जघन्यतस्त्वेक एव, अणंतकालं च सुयसमपत्ति 'अनन्तकालः' अनन्तभवरूपस्तमनन्तकालमेव प्रतिपत्ता भवत्युत्कृष्टतः सामान्यश्रुतसामायिके, जघन्यस्त्वेकभवमेव, मरुदेवीवेति गाथार्थः ॥ ८५६ ॥ द्वारम् ॥ साम्प्रतमाकर्षद्वारमधिकृत्याह दीप अनुक्रम T ॥३६॥ aajaneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~727~ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५७], भाष्यं [१५०...] (४०) 2584 प्रत सूत्राक CASACAREKC तिण्ह सहस्सपुहत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवतिया होति नायब्वा ॥ ८५७॥ व्याख्या-आकर्षणम् आकर्षः-प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः, तत्र त्रयाणां-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां सहस्रपृथक्त्वं, पृथक्त्वमिति द्विप्रभृतिरा नवभ्यः, शतपृथक्त्वं च भवति विरतेरेकभवे आकर्षा एतावन्तो भवन्ति | ज्ञातव्या उत्कृष्टतः, जघन्यतस्त्वेक एवेति गाथार्थः ॥ ८५७ ॥ तिण्ह सहस्समसंखा सहसपुहुत्तं च होइ विरईए । णाणभवे आगरिसा एवइया होति णायब्वा ॥८५८॥ व्याख्या-त्रयाणां सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां सहस्राण्यसाधेयानि, सहस्रपृथक्त्वं च भवति विरते, एतावन्तो नानाभवेष्वाकर्षाः । अन्ये पठन्ति-'दोण्ह सहरसमसंखा' तत्रापि श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिकानान्तरीयकत्वादनुक्तमपि प्रत्येतव्यम् , अनन्ताश्च सामान्यश्रुते ज्ञातव्या इत्यक्षरार्थः । इयं भावना-त्रयाणां ह्येकभवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्त, भवाश्च पस्योपमासयेयभागसमयतुल्याः, ततश्च सहस्रपृथक्त्वं भवति तैगुणितं सहस्राण्यसवेयानीति, सहस्रपृथक्त्वं चेत्थं भवति-विरतेः खल्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्त, भवाश्चाष्टौ, ततश्च शतपृथक्त्वमष्टभिर्गुणितं सहस्रपृथक्त्वं भवतीत्यवयवार्थः ॥ ८५८ ॥ द्वारं ॥ स्पर्शनाद्वारमधुना, तत्रेय गाथासम्मत्तचरणसहिया सव्यं लोग फुसे णिरवसेसं । सत्त य चोइसभागे पंच य सुयदेसविरईए ।। ८५९॥ व्याख्या-'सम्यक्त्वचरणसहिताः सम्यक्त्वचरणयुक्ताः प्राणिन उत्कृष्टतः सर्व लोकं स्पृशन्ति, किं बहिाध्या ?, दीप अनुक्रम morayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 728~ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८५९], भाष्यं [१५०...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभाग:१ ॥३६॥ प्रत सुत्रांक नेत्याह-निरवशेषम्' असङ्ख्यातप्रदेशमपि, एते च केवलिसमुद्घातावस्थायामिति, जघन्यतस्त्वसङ्ख्येयभागमिति । तथा- | 'सत्त य चोहसभागे पंच य सुयदेसविरईए'त्ति श्रुतसामायिकसहिताः सप्त चतुर्दशभागान् स्पृशन्ति, अनुत्तरसुरेष्विलि- कागत्या समुत्पद्यमानाः, चशब्दात् पञ्च तमःप्रभायां देशविरत्या सहिताः पञ्च चतुर्दशभागान् स्पृशन्तीति, अच्युते उत्प|द्यमानाः, चशब्दात् म्यादींश्चान्यत्रेति, अधस्तु ते न गच्छन्त्येव घण्टालालान्यायेनापि तं परिणाममपरित्यज्येति गाथार्थः ॥ ८५९ ॥ एवं क्षेत्रस्पर्शनोक्ता, साम्प्रतं भावस्पर्शनोच्यते-किं श्रुतादिसामायिक ? कियद्भिर्जीवैः स्पृष्टमित्याह सव्वजीवहिं सुयं सम्मचरित्ताई सबसिद्धेहिं । भागेहि असंखेजेहिं फासिया देसविरईओ ॥ ८६०॥ व्याख्या--सर्वजीवैः सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतैः सामान्यश्रुतं स्पृष्टं, सम्यक्त्वचारित्रे सर्वसिद्धैः स्पृष्टे, तदनुभवमन्त| रेण सिद्धत्वानुपपत्ते, भागैरसङ्क्षवेयैः सिद्धभागैः स्पृष्टा देशविरतिस्तु, इदमत्र हृदयं-सर्वसिद्धानां बुद्ध्याऽसङ्ख्येयभागीकृतानामसयेयभागैर्भागोनर्देशपिरतिः स्पृष्टा, असङ्ख्येयभागेन तु न स्पृष्टा, यथा-मरुदेवास्वामिन्येति गाथार्थः ॥ ८६०॥ द्वारम् ॥ इदानीं निरुक्तिद्वारं, चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य निर्वचनं, क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथनं निरुक्तिः, तत्र सम्यक्त्वसामायिकनिरुक्तिमभिधित्सुराहसम्मदिहि अमोहो सोही सम्भाव देसणं बोही । अविवजओ सुदिद्वित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥ ८६१ ॥ व्याख्या-सम्यक् इति प्रशंसार्थः, दर्शन-दृष्टिः, सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-सम्यग्दृष्टिः, अर्थानामिति गम्यते, * प्रतिमदेशव्याहयेत्यर्थः, दीप अनुक्रम ॥३६३॥ Vertainmintary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 729~ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६१], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत सूत्राक मोहनं मोहः-वितथग्रहः न मोहः अमोह:-अपितधग्रहा, शोधनं-शुद्धिः मिथ्यात्वमलापगमात् सम्यक्त्वं शुद्धिा, सत्|जिनाभिहितं प्रवचनं तस्य भावः सद्भावः तस्य दर्शनम्-उपलम्भः सद्भावदर्शनमिति, बोधनं बोधिरित्यौणादिक इत्, |परमार्थसम्बोध इत्यर्थः, अतस्मिंस्तदध्यवसायो विपर्ययः न विपर्ययः अविपर्ययः, तत्त्वाध्यवसाय इत्यर्थः, सुशब्दः प्रशं|सायां, शोभना दृष्टिः सुदृष्टिरिति, एवमादीनि सम्यग्दर्शनस्य निरुतानीति गाथार्थः ॥ ८६१ ॥ श्रुतसामायिक-IN निरुक्तिप्रदर्शनायाऽऽहअक्खर सन्नी संमं सादियं खलु सपजवसियं च । गमियं अंगपविढं सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ८६२॥ | व्याख्या-दयं च गाथा पीठे व्याख्यातत्वान्न वित्रियते ॥ देशविरतिसामायिकनिरुक्तिमाह विरयाविरई संवुडमसंखुडे बालपडिए चेव । देसेकसविरई अणुधम्मो अगारंधम्मो य ॥ ८६३ ॥ | व्याख्या-विरमणं विरत, भावे निष्ठाप्रत्ययः, न विरतिः-अविरतिः, विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्तौ सा विरताविरतिः, संवृतासंवृताः सावद्ययोगा यस्मिन् सामायिके तत् तथा, संवृतासंवृताः-स्थगितास्थगिताः परित्यकापरित्यक्ता इत्यर्थः, एवं वालपण्डितम्, उभयव्यवहारानुगतत्वाद्, देशैकदेशविरतिः प्राणातिपातविरतावपि पृथिवीकायाद्यविरति-14 | गृह्यते, अणुधर्मो बृहत्साधुधर्मापेक्षया देशविरतिरिति, अगारधर्मश्चेति न गच्छन्तीत्यगाः-वृक्षास्तैः कृतमगारं-गृहं तद्योगादगार:-गृहस्थः तद्धर्मश्चेति गाथार्थः ॥ ८६३ ॥ सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिमुपदर्शयन्नाहसामाइयं समइयं सम्मावाओ समास संखे वो । अणवजं च परिणा पञ्चक्खाणे य ते अट्ठ ॥ ८६४ ॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सामायिक शब्दस्य पर्याया: कथानकं सहितेन कथयते ~ 730~ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६४], भाष्यं [१५०...] (४०) प्रत कर सुत्रांक आवश्यक- व्याख्या-'सामायिकम्' इति रागद्वेषान्तरालवी समः मध्यस्थ उच्यते, 'अय गता' विति अयनम् अयः-मन- हारिभद्री॥३६॥ समित्यर्थः, समस्य अयः समायः स एव विनयादिपाठात् स्वार्थिकठक्प्रत्ययोपादानात् सामायिकम् , एकान्तोपशान्तिगमन- यवृत्तिा मित्यर्थः, समयिक समिति सम्यक्शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः-सम्यग् दयापूर्वकं जीवेषु गमनमित्यर्थः, समयोऽ- विभागः१ स्यास्तीति, 'अत इनि उना (पा०५-२-११५) विति ठन् समयिक, सम्यग्वादः रागादिविरहः सम्यक् तेन तत्प्रधानं हवा वदनं सम्यग्वादः, रागादिविरहेण यथावद् वदनमित्यर्थः, समासः 'असु क्षेपण' इति असनम् आस:-क्षेप इत्यर्थः, संशब्दः प्रशंसार्थः शोभनमसनं समासः, अपवर्गे गमनमात्मनः कर्मणो वा जीवात् पिदत्रयप्रतिपत्तिवृत्या क्षेपः समासः, 31'संक्षेपः' संक्षेपणं संक्षेपः स्तोकाक्षरं सामायिक महार्थ च द्वादशाङ्गपिण्डार्थत्वात् , अनवद्यं चेति अवयं पापमुच्यते नास्मिन्नवद्यमस्तीत्यनवयं सामायिकमिति, परिः-समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिज्ञा सामायिकमिति, परिहरणीयं वस्तु वस्तु प्रति आख्यानं प्रत्याख्यानं च, त एते सामायिकपर्याया अष्टाविति गाथार्थः ॥ ८६४ ॥ एतेषामष्टानामप्यर्थानामनुष्ठावन् यथासङ्खवेनाष्टावेव दृष्टान्तभूतान् महात्मनः प्रतिपादयन्नाहदमदंते मेयजे कालयपुच्छा चिलाय अत्तेय । धम्मरुद्द इली तेथलि सामाइए अड्डदाहरणा ॥ ८६५ ॥ | व्याख्या--दमदन्तः मेतार्यः कालकपृच्छा चिलातः आत्रेयः धर्मरुचिः इला तेतलिः, सामायिकेऽष्टावुदाहरणानीति || ॥३६४॥ गाथासमुदायार्थः ॥ ८६५ ॥ अवयवार्थस्तु कथानकेभ्योऽवसेय इति, तत्र यथोद्देशं निर्देश इति सामायिकमर्थतो दमद *इण् गतौ इति प्र. + आयः प्र० उपशमविवेकसवररूपं. दीप अनुक्रम Cड JAMEaix Hanmitrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 731~ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६५], (४०) भाष्यं [१५०...] प्रत सूत्राक 25-452 न्तानगारेण कृतमिति तच्चरितानुवर्णनमुपदेशार्थमद्यकालमनुष्याणां संवेगजननार्थ कथ्यते हथिसीसए णगरे राया दमदंतो| नाम, इओ य गयपुरे णगरे पंच पंडवा, तेसिं तस्स य वइरं, तेहिं तस्स दमदमंतस्स जरासंधमूलं रायगिहं गयस्स सो| विसयो लूडितो दह्रो य, अण्णदा दमदंतो आगओ, तेण हस्थिणापुरं रोहितं, ते भएण ण णिति, तओ दमदंतेण ते| भणिया-सियाला चेव सुण्णगविसए जहिच्छियं आहिँडेह, जाव अहं जरासंधसगास गओ ताव मम विसयं लुडेह, इदाणिं णिप्फिडह, ते ण णिति ताहे सविसयं गओ। अण्णया णिविणकामभोगो पबइओ, तओ एगल्लविहारं पडिवण्णो विहरंतो हथिणापुरं गओ, तस्स बाहिं पडिमं ठिओ, जुहिहिलेण अणुजत्ताणिग्गएण वैदिओ, पच्छा सेसेहिवि चउहि पंडवेहिं बंदिओ, ताहे दुजोधणो आगओ, तस्स मणुस्सेहिं कहियं जहा-एस सो दमदतो, तेण सो मातुलिंगेण आहओ, पच्छा संघावारेण एतेण पत्थर २ खिवंतेण पत्थररासीकओ, जुधिहिलो नियत्तो पुच्छइ-पत्थ साह आसि हस्तिशीर्षे नगरे राजा दमदन्तो नाम, इतश्च गजपुरे नगरे पज पाण्डवाः, तेषां तस्य च वैरं, तैस्तस्य दमदन्तस्य जरासम्धमूलं राजगृहं गतस्य स विघयो लुण्डितो दग्धश्न, अन्यदा दमदन्त आगतः, तेन हस्तिनागपुरं रुदं, ते भयेन न नियान्ति, ततो दमदम्तेन ते भणिताः-शृगाला इव शून्यविषये यथेच्छमाहिण्डवं, याचदुहं जरासन्धसकाशं गतस्तावन्मम विषयं लुपटयत, इदानीं निर्गवछत, ते न निर्गच्छन्ति तदा स्वविषयं गतः । भन्यदा निर्विष्णकामभोगः प्रबजितः, तत एकाकिविहार प्रतिपनो बिहरन् हस्तिनागपुरं गतः, तस्मात् बहिः प्रतिमया स्थितः । युधिष्ठिरेणानुयात्रानिर्गतेन वन्दितः, पश्चात् दोपैरपि चतुर्भिः पाण्डवैर्वन्दितः, तदा दुर्योधन भागतः, तस्व मनुष्यैः कथितं-वथा एष स दमदन्तः, तेन स बीजपूरेणाहतः, पश्चात्स्कन्धावारेणापच्छता प्रस्तरं २.क्षिपता प्रस्तरराशीकृतः, युधिष्ठिरो निवृत्तः पृच्छति-साधुरनासीत्. * दमदमंतो प्र०+ आहिंडिया प्र. ACCESRACASSACRORE दीप अनुक्रम k% X MIDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 732 ~ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८६५], भाष्यं [१५१] (४०) आवश्यक- हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ ॥३६५॥ प्रत सुत्रांक कहिं सो, लोएण कहियं-जहा एसो पत्थररासी दुजोहणेण कओ, ताहे सो अंबाडिओ, ते य अवणिया पत्थरा, तेल्लेण अभंगिओ खामिओ य । तस्स किर भगवओ दमदंतस्स दुजोहणे पंडवेसु य समो भावो आसि, एवं कातवं ॥ अमुमे- वार्थ प्रतिपादयन्नाह भाष्यकार:निक्खंतो हत्थिसीसा दमदंतो कामभोगमवहाय । णवि रज्जद रत्तेसुं दुढेसु ण दोसमावज ॥१५१॥ (भा०) व्याख्या-निष्क्रान्तो हस्तिशीर्षात् नगराद्दमदन्तो राजा कामभोगानपहाय, कामः-इच्छा भोगा:-शब्दाद्यनुभवाः कामप्रतिवद्धा वा भोगाः कामभोगा इति, स च नापि रज्यते रक्तेषु न प्रीतिं करोति, अप्रीतेषु द्विष्टेषु न द्वेषमापद्यते, वर्तमान निर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः ।। तथाहि-मुनयः खल्वेवम्भूता एव भवन्ति, तथा चाह|वंदिजमाणा न समुक्कसंति,हीलिजमाणा न समुज्जलंति । दंतेण चित्तेण चरंति धीरा, मुणी समुग्धाइयरागदोसा | व्याख्या-वन्द्यमानाः 'न समुक्कसंति' न समुत्कर्ष यान्ति, तथा हील्यमाना 'न समुज्वलन्ति' न कोपाग्निं प्रकटयन्ति, किं तर्हि?-'दान्तेन' उपशान्तेन चित्तेन चरन्ति धीराः मुनयः समुद्घातितरागद्वेषा इति गाथार्थः ॥ ८६६ ॥ तथा तो समणो जह सुमणो भावेण य जइण होह पावमणो । सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसुं। | व्याख्या-ततः 'समणो'त्ति प्राकृतशैल्या यदि सुमनाः, शोभनं धर्मध्यानादिप्रवृत्तं मनोऽस्येति सुमनाः समणोत्ति 10 सः', लोकेन कधित-वथैष प्रस्तरराशियाँधनेन कृतः, तदा स निर्भसितः, ते चापनीताः प्रस्तराः, तैले नाम्यजितः क्षमिता । तस्य किल भग। तो दमदन्तस्य दुर्योधने पाण्डवेषु च समभाव आसीत् , एवं कर्तव्यं । दीप अनुक्रम + ॥३६५॥ III JAMERIEstinitionational P andinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~733~ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६७], भाष्यं [१५१...] (४०) 25% % प्रत सूत्राक भण्यते, किमित्यम्भूत एव !, नेत्याह-'भावेन च' आत्मपरिणामलक्षणेन यदि न भवति पापमनाः-अवस्थितमना अपीत्यर्थः अथवा भावेन च यदि न भवति पापमनाः, निदानप्रवृत्तपापमनोरहित इति भावना, तथा स्वजने च मात्रा४/दिके जने चान्यस्मिन् समः-तुल्यः, समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः ॥ ८६७ ॥ लास्थि य सि कोइ वेसो पिओव सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होह समणो एसो अपणोवि पजाओ ।। ८६८ ॥ M व्याख्या-नास्ति च 'से' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, एतेन भवति समणः, सम् अणति-गच्छ तीति समणः, एपोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ द्वारम् ॥ इदानीं समयिक, तत्र कथानकम्साएते णगरे चंडवडंसओ राया, तस्स दुवे पत्तीओ-सुदंसणा पियदसणा य, तत्थ सुदंसणाए दुवे पुत्ता-सागरचंदो मुणिचंदो य पियर्दसणाएवि दो पुत्ता-गुणचंदो बालचंदो य, सागरचंदो जुवराया, मुणिचंदस्स उज्जेणी दिण्णा कुमारभुत्तीए । इओ य चंडवडंसओ राया माहमासे पडिम ठिओ वासघरे जाव दीवगो जलइत्ति, तस्स सेज्जावाली चिंतेइ-15 दुक्खं सामी अंधतमसे अच्छिहिति, ताए बितिए जामे विज्झायंते दीवगे तेलं छूढं, सो ताव जलिओ जाव अद्धरत्तो, ताहे| साकेते नगरे चन्द्रावतसको राणा, तय है पन्यो- सुदर्शना प्रियदर्शना च, तत्र सुदर्शनाया द्वौ पुत्री-पागरचन्द्रो मुनिचन्दन, प्रियदर्शनाया अपि द्वौ पुत्री-गुणचन्द्रो बालचन्द्रश्च, सागरचन्द्रो युवराजः, मुनिचन्द्रायोजयिनी कुमारभुक्त्वां दत्ता । इतन चन्द्रावतंसको राजा माघमासे प्रतिमया स्थितो वासगृहे यावदीपो बडतीति, तख शय्यापालिका चिन्तयति-दुःखं स्वामी अन्धतमसे स्वास्थति, तथा द्वितीये यामे विध्यायति दीपे तैलं क्षिप्तं, स तावत्यस्वहितो यावदर्धरात्रं, तदा अनवखित प्र. 252C दीप अनुक्रम C% JAMERatinintamational nhatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 734 ~ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], (४०) भाष्यं [१५१...] आवश्यक ||३६६॥ प्रत सुत्रांक पुणोवि तेलं छूट ताव जलिओ जाव पच्छिमपहरो, तत्थवि छूढं, ततो राया सुकुमारो विहायंतीए रयणीए घेयणाभिभूओहारिभद्री. कालगओ, पच्छा सागरचंदो राया जाओ । अण्णया सो माइसवत्तिं भणइ-गेह रजं पुत्ताण ते भवउत्ति, अहं पञ्चयामि, | यवृत्तिः साणेच्छइ एएण रजं आयत्तंति, तओ सा अतिजाणनिजाणेसु रायलच्छीए दिपंतं पासिऊण चिंतेइ-मए पुत्ताण रज CICIविभागः१ |दिजंतं ण इच्छिय, तेवि एवं सोभन्ता, इयाणीवि णं मारेमि, छिद्दाणि मग्गइ, सो य छूहालू, सेण सूतस्स संदेसओ [दिण्णो, एत्तो चव पुषण्हियं पडावजासि, जइ विरामि, सूएण सीहकेसरओ मोदओ चेडीए हत्थेण विसजिओ, पियदसणाए दिहो, भणइ-पेच्छामि णं ति, तीए अप्पितो, पुर्व णाए विसमविखया हत्था कया, तेहिं सो विसेण मक्खिओ, पच्छा भणइ-अहो सुरभी मोयगोत्ति पडिअप्पिओ, चेडीए ताए गंतूण रण्णो समप्पिओ, ते य दोवि कुमारा रायसगासे अच्छंति, तेण चिंतियं-किह अहं एतेहिं छुहाइएहिं खाइस?, तेण दुहा काऊण तेसिं दोण्हवि सो दिण्णो, ते खाइउमारद्धा, पुनरपि तैलं क्षिप्तं तावचलितो यावत्पश्चिमप्रहरः, तदापि शिसं, ततो राजा सुकुमालो बिभातायां रजन्या वेदनाभिभूतः कालगतः, पश्चात्सागरचन्द्रो राजा जातः । अम्बदा स मातृसपनी भणति-गृहाण राज्यं पुत्रयो भवरिवति, अहं प्रवजामि, सा नेच्छति एतेन राज्यमायत्तमिति, ततः सा अतियान| निर्याणयोः राजलक्ष्म्या दीप्यमानं दृष्ट्वा चिन्तयति-मया पुत्रयो राज्यं दीयमानं नेष्ट, तावप्येवमशोभिप्यतः, इदानीमायेनं मास्यामि द्विाणि मार्गयति, स| |च शुधातः, तेन सूदाय संदेशो इत्तः, अन्नव पौवाहिकं प्रस्थापयेयंदू भक्षयामि, सूदेन सिंहकेशरिको मोदक शेळ्या हस्तेन विसृष्टः, प्रियदर्शनया दृष्टः, भणति-- प्रेक्षे तमिति, तयार्पितः, पूर्वमनया विपन्न क्षिती इसी कृती, ताभ्यां स विषेण प्रक्षितः, पश्चात् भणति-अहो सुरभिर्मोदक इति प्रत्यर्पितः, चेव्या तया | गत्वा राजे समर्पितः, ती च द्वावपि कुमारी राजसकादो तिष्ठतः, तेन चिन्तितं-कथमहमेतयोः क्षुधातयोः खाइयामि', तेन द्विधा कृत्वा तांभ्यां द्वाभ्याम् स दत्तः तौ खादितुमारम्धी, दीप अनुक्रम ॥६६॥ JHNEDIO M andinraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 735~ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८६८ ], भाष्यं [ १५१...] जब विसवेगा आगंतुं पबत्ता, राइणा संभंतेण वेज्जा साविता, सुवण्णं पाइया, सज्जा जाया, पच्छा दासी सदाविया, पुच्छिया भणइ-ण केणवि दिडो, णवरं एयाणं मायाए परामुझे, सा सद्दाविया भणिया-पावे ! तदा गेच्छसि रज्जं दिजंतं, इयाणिमिमि णाहं ते अकयपरलोयसंबलो संसारे छूढोहोंतोति तेसि रज्जं दाऊण पवइओ । अण्णया संघाडओ साहूण उज्जेणीओ आगओ, सो पुच्छिओ-तत्थ णिरुवसग्गं ?, ते भांति - णवरं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य बाहिन्ति पाखंडत्थे साहूणो य, सो गओ अमरिसेणं तत्थ, विस्सामिओ साहूहिं, ते य संभोइया साहू, भिक्खावेलाए भणिओ -आणिजउ, भणइ असलाभिओ अहं, णवरं ठवणकुलाणि साहह, तेहिं से चेहओ दिण्णो, सो तं पुरोहियधरं दंसित्ता पडिगओ, इमोवि तत्थेव पड़डो बडुबड्डेणं सद्देणं धम्मलाभेइ, अंतउरिआओ निग्गयाओ हाहाकारं करेंतीओ, सो बडबडणं | सद्देणं भणइ किं एयं साविएत्ति, ते णिग्गया बाहिं बारं बंधेति, पच्छा भांति-भगवं! पणञ्चसु, सो पडिग्गहं ठवेऊण पणश्चिओ, १ यावत् विषयेगा आगन्तुं प्रवृत्ताः, राज्ञा संभ्रान्तेन वैद्याः शब्दिताः, सुवर्ण पायितौ, सज्जौ जातौ पश्चादासी शब्दिता, पृष्टा भणति न केनापि दृष्टः नवरमेतयोर्मात्रा पर सृष्टः, सा शब्दिता भणिता पापे ! तदा नैषीद्राज्यं दीयमानम् इदानीमनेनाहं त्वयाऽकृतपरलोकशम्बलः संसारे क्षिप्तोऽभविष्यदिति तयो राज्यं दत्वा प्रमजितः । अन्यदा संघाटकः साध्वोरुजविनीत आगतः स पृष्टलन निरुपसर्ग, तौ भगतः नवरं राजपुत्रः पुरोहितपुत्र बाते पाषण्ड७ स्वान् साधुंध, स गतोऽमर्पण तन्त्र, साधुभिर्विश्रमितः, तेच सांभोगिकाः साधवो भिक्षावेलायां भणितः आनीयतां ?, भणति आत्मलब्धिकोऽहं नवरं स्थापमाकुलानि कथयत, तैस्ती बुहको वृत्तः स तत्पुरोहित गृहं दर्शयित्वा प्रतिगतः, अयमपि तत्रैव प्रविष्टो वृहता बृहता शब्देन धर्मलाभयति, अन्तःपुर्यो निर्गता हाहाकारं कुर्वत्यः स वृहता वृहता शब्देन भगति किमेतत् श्राविके? इति, ती निर्गती बहिर्द्वारं बीतः पश्चात् भगतः- भगवन्! प्रनसंय स प्रतिग्रहं स्थापयित्वा प्रनर्त्तितः, For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~736~ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८६८ ], भाष्यं [ १५१...] आवश्यक 'ते' ण याणंति बाएडं, भणति जुज्झामो, दोवि एकसरा ते आगया, मम्मेहिं आया, जहा जंताणि तहा खलखलाविआ + हारिभद्रीतओ णिसिहं हणिऊण बाराणि उग्धाडित्ता गओ, उज्जाणे अच्छति, राइणो कहियं, तेण मग्गाविओ, साहू भांति - पाहूयवृत्तिः ॥३६७॥ णओ आगओ, ण याणामो, गवेसंतेहिं उज्जाणे दिडो, राया गओ खामिओ य, णेच्छइ मोतुं, जइ पञ्चयंति तो मुयामि, ४ विभागः १ ताहे पुच्छिया, पडिसुर्य, एगत्थ गहाय चालिया जहा सहाणे ठिया संधिणो, लोयं काऊन पद्याविया, रायपुत्तो सम्म करेति मम पित्तियत्तोत्ति, पुरोहियसुयो दुगंछइ अम्हे एएण कवडेण पञ्चाविया, दोवि मरिऊण देवलोगं गया, संगारं करेंति-जो पढमं चयइ तेण सो संबोहेयवो, पुरोहियसुओ चइऊण तीए दुगुंछाए रायगिहे मेईए पोट्टे आंगओ, तीसे सिट्टिणी वयंसिया, सा किह जाया!, सा मंसं विक्किणइ, ताए भण्णइ मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं सर्व किणामि, दिवसे २ आणेइ, एवं तासिं पीई घणा जाया, तेसिं चेव घरस्स समोसीइयाणि ठियाणि, सा य सेडिणी निंदू, ताहे मेईए रहस्सियं Ja Educat १ तौ न जानीतो वादयितुं भणतः - युध्याबहे, द्वावपि तौ सहवागतौ, मर्माहती, यथा यन्त्राणि तथा अस्थिरसन्धिकौ कृती, ततो निसृष्टं इत्वा द्वाराणि उद्घा गतः, उद्याने तिष्ठति, राशे कथितं तेन मार्गितः साधवो भगन्ति प्राचूर्णक आगतः, न जानीमः, गवेषयद्भिस्थाने दृष्टः, राजा गतः क्षामितथ, नेच्छति मोकुं यदि प्रव्रजतस्तदा मुखामि तदा पृष्टौ प्रतिश्रुतम् एकत्र गृहीत्वा चालिती यथा स्वस्थाने संधयः स्थिताः, लोचं कृत्वा प्रभाजिती, राजपुत्रः सम्यकू करोति-मम पैतृक ( पितृव्यः ) इति, पुरोहितसुतो जुगुप्सते- भावामेतेन कपटेन प्रब्राजितौ द्वावपि मृत्वा देवलोकं गतौ सङ्केतं कुरुतः यः प्रथमं ध्यवते तेन स संबोध्यः पुरोहितसुतया तया जुगुप्सया राजगृहे मातङ्गचा उदरे आगतः, तस्याः श्रेष्ठिनी वयस्था, सा कथं जाता ?, सा मांसं विक्रीणाति तथा भण्यतेमान्यत्र हिण्डिष्टाः अहं सर्वे कीणिष्यामि दिवसे २ आनयति एवं तयोः प्रीतिर्धना जाता, तेषामेव गृहस्य समवसृतानि स्थितानि सा च श्रेष्ठिनीनिन्दुः तदा मातङ्गया राहसिकमेव संगरं प्र० + आयातो प्र० प्रातिवेश्मिकानि तापत्यप्रसूः For Pune P ॥३६७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~737~ bra og Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [ ८६८ ], भाष्यं [ १५१... ] अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], चैत्र तीसे पुतो दिण्णो, सेट्ठिणीए धूया मइया जाया, सा मेईए गहिया, पच्छा सा सेट्टिणी तं दारगं मेईए पाएड पाडेति, तुब्भपभावेण जीवउत्ति, तेण से नामं कयं मेयज्जोत्ति, संवडिओ, कलाओ गाहिओ, संबोहिओ देवेण, ण संबुज्झइ, ताहे अहं इब्भकण्णगाणं एगदिवसेण पाणी गेण्हाविओ, सिबियाए नगरिं हिंडई, देवोवि मेयं अणुपविट्ठो रोइउमारद्धो, जइ ममवि धूया जीवंतिया तीसेवि अज्ज विवाहो कओ होंतो, भत्तं च मेताण कयं होतं, ताहे ताए मेईए जहावत्तं सिद्धं, तओ रुट्ठो देवाणुभावेण य ताओ सिबियाओ पाडिओ तुमं असरिसीओ परिणेसित्ति खड्डाए छूढो, ताहे | देवो भाइ-किह ?, सो भणइ - अवण्णो, भाइ - एत्तो मोएहि किंचिकालं, अच्छामि वारस वरिसाणि, तो भणइ-किं करेमि ?, भणइरण्णो धूयं दवावेहि, तो सवाओ अकिरियाओ ओहाडियाओ भविस्संति, ताहे से छगलओ दिण्णो, सो रयणाणि वोसिरइ, तेण रयणाण थालं भरियं, तेण पिया भणिओ रण्णो धूयं वरेहि, रयणाण थालं भरेता गओ, किं १ तस्यै पुत्रो दत्तः, श्रेष्ठिन्या दुहिता सृता जाता सा मातङ्गया गृहीता, पवारसा श्रेष्ठिनी दारकं तं मातङ्गयाः पादयोः पातयति, तव प्रभावेण जीवस्थिति, तेन तस्य नाम कृतं मेतार्थ ( मातङ्गयात्मज) इति, संवृद्धः, कला ग्राहितः, संबोधितो देवेन, न संयुध्यते, तदाऽष्टानामिन्य कम्पानामेकदिवसेन पाणीग्रहितः शिविकया नगर्यां हिण्डते, देवोऽपि मातङ्गमनुप्रविष्टो रोदितुमारब्धः, यदि ममापि दुहिताऽजीविष्यत् तखा अपि विवाहः अद्य कृतोऽभविष्यत्, भकं च मेतानां कृतमभविष्यत्तदा तथा मेल्या यथावृत्तं शिष्टं, ततो रुष्टो देवानुभावेन च तस्याः शिविकारतः पातितः खमसदृशः परिणयसि इति गतयां शिक्षः, तदा देवो भणति कथं ?, स भणति अवर्णः, भणति इतो मोचय कञ्चित्कालं तिष्ठामि द्वादश वर्षाणि ततो भगति किं करोमि ?, भणति राज्ञो दुहितरं दापय, तत् सर्वा अक्रिया अपस्फेटिता भविष्यन्ति तदा तस्मै डगलको दन्तः, स रत्नानि व्युत्सृजति, तेन रखानां स्थालो भृतः तेन पिता भणितः राज्ञो दुहितरं वृशुव रवैः स्वालं भूत्वा गतः, किं For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~738~ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक ॥२६८॥ प्रत सुत्रांक मग्गसि, धूयं, णिच्छूढो, एवं थालं दिवसे २ गेण्हइ, ण य देइ, अभओ भणइ-कओ रयणाणि ?, सो भणइ-छगलओहारिभद्रीहगइ, अम्हवि दिजउ, आणीओ, मडगगंधाणि वोसिरइ, अभओ भणइ-देवाणुभावो, किं पुण!, परिक्खिजउ, किह , यवृत्तिः भणइ-राया दुक्खं चेन्भारपबतं सामि बंदओ जाति, रहमगं करेहि, सो कओ, अजवि दीसइ, भणिओ-पागारं सो-18विभागः १ वणं करेहि, कओ, पुणोवि भणिओ-जइ समुदं आणेसि तत्थ हाओ सुद्धो होहिसि तो ते दाहामो, आणीओ, वेलाए हाविओ, विवाहो को सिवियाए हिंडतेण, ताओवि से अण्णाओ आणियाओ, एवं भोगे भुजति बारस वरिसाणि, पच्छा बोहितो, महिलाहिवि बारस वरिसाणि मग्गियाणि, दिण्णाणि य, चउधीसाए वासेहिं सवाणिवि पबइयाणि, णवपुवी जाओ, एकल्लविहारपडिम पडिवण्णो, तत्थेव रायगिहे हिंडइ, सुवष्णकारगिहमागओ, सो य सेणियस्स सोवण्णियाणं | जवाणमट्ठसतं करेइ, चेइयच्चणियाए परिवाडिए सेणिओ कारेइ तिसंझं, तस्स गिहं साहू अइगओ, तस्स एगाए वायाए मार्गपति !, दुहितर, तिरस्कृतः, एवं स्थानं दिवसे २ गृह्णाति, न च यदासि, अभयो भणति-कुत्तो रत्नानि !, स भणति-गलो हदति, भस्मभ्यमपि ददातु, आनीतः, मृतकगन्धानि म्युस्मृजाति, अभयो भणति-देवानुभाषः, किं पुनः परीक्ष्यते, कथं, भणति-राजा दुःखं वैभारपर्यंत स्वामिवन्दको याति, रथमार्ग कुरु, स कृतः, अद्यापि दृश्यते, भणितः-प्राकारं सौवर्ण कुरु, कृतः, पुनरपि भणितः यदि समुद्रमानयसि सन खातः शुद्धो भविष्यसि तदा ते दास्यामः, आनीतः, बेलायां वापितो, विवाहः कृतः शिबिकया हिण्डमानेन, ता अपि तथान्या आनीताः, एवं भोगान् भुनकि बादश वर्षाणि, पश्चादोधितः,४॥३६८॥ महेलाभिरपि द्वादश वर्षाणि मागितानि दत्तानि च, चतुर्विधात्या वः सर्वेऽपि प्रमजिताः, नवपूर्वी जातः, एकाकिविहारप्रतिर्मा प्रतिपक्षः, तत्रैव रामगृहे हिटते, सुवर्णकारगृहमागतः, स च श्रेणिकस सीवर्णिकानां यवानाम शातं करोति, चैस्वार्थ निकाय परिपाया श्रेणिका कारपति त्रिसम्ध्यं, तस्य गृहं साधुरः। तिगतः, तस्मैकया वाचा दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~739~ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक भिक्खा ण णीणिया, सो य अगओ, ते य जवा कोंचएण खाइया, सो आगओ ण पेच्छइ, रण्णो य चेतियञ्चणियवेला दुक्कइ, अज अहिखंडाणि कीरामित्ति, साधु संकइ, पुच्छइ, तुण्हिको अच्छइ, ताहे सीसावेढेण वंधति, भणिओ य-साह जण गहिया, तहा आवेढिओ जहा अच्छीणि भूमीए पडियाणि, कोंचओ य दारुं फोडेतेण सिलिंकार आहओ गलए, 18 || तेण वन्ता, लोगो भणइ-पाव ! एए ते जवा, सोवि भगवं कालगओ सिद्धो य, लोगो आगओ, दिवो मेत्तज्जो, रणो| कहिय. ययाणि आणत्ताणि, दारं ठइत्ता पवइयाणि भणंति-सावग! धम्मेण वड्डाहि, मुकाणि, भणइ-जह उष्पवयह तो भे कविल्लीए कड्डेमि, एवं समइयं अपए य परे य काय ॥ तथा च कथानकाबैंकदेशप्रतिपादनायाह जो कोंचगावराहे पाणिया कोंचगं तु णाइक्खे । जीवियमणपेहंत मेयजरिसिं णमंसामि ॥ ८६९ ॥ व्याख्या-यः क्रौचकापराधे सति प्राणिदयया 'क्रोश्चकं तु' कोञ्चकमेव नाचष्टे, अपितु स्वप्राणत्यागं व्यवसितः, तम-1 नुकम्पया जीवितमनपेक्षमाणं मेतार्यऋषि नमस्य इति गाथार्थः ॥ ८६९ ॥ |णिप्फेडियाणि दोण्णिवि सीसावेढेण जस्स अच्छीणि । ण य संजमाउ चलिओ मेयजो मंदरगिरिव ॥८७०॥ भिक्षा मानीता, स चासिंगतः, ते च यवाः कीचेन खादिताः, स आगसो न प्रेक्षते, राजश्व चैत्याचैनिकावेला दौफते, अद्यास्थिखण्टानि किये इति, साधु शकते, पृच्छति, तूष्णीकम्तिमति, तदा शिरमावेष्टनेन बधाति, भणितश्च-कथय येन गृहीताः, तथापितो यथाऽक्षिणी भूमी पतिते, कौञ्च दारु पाट| यता शलाकयाऽहतो गले, तेन वान्ताः, लोको भणति-पाप ! एते ते यवाः, सोऽपि भगवान् कालगतः सिद्धन, लोक भागतः, दृष्टो मेतार्थः, राज्ञः कथितं वध्या बाप्ताः, द्वार स्थगित्वा प्रमजिता भणन्ति-श्रावक! धर्मेण वर्धव, मुक्ताः, भणति-यदि उत्प्रव्रजत तदा भवतः कटाहे वषिष्यामि । एवं समयिकमात्मनि परमिश्च कर्त्तव्यम् । बिप्र. * केण प्र०+ ताहे प्र. दीप अनुक्रम T ABERDINAana Handiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~740~ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७०], भाष्यं [१५१...] आवश्यक॥३६९॥ प्रत सुत्रांक व्याख्या-'निष्कासिते' भूमौ पातिते द्वे अपि शिरोवन्धनेन यस्याक्षिणी, एवमपि कदथ्येमानोऽनुकम्पया 'नच' नैव संय- हारिभटीमाञ्चलितो यस्तै मेतार्यऋषि नमस्य इति गाथाभिप्रायः॥८७०॥ द्वारम् ॥ इदानीं सम्यग्वादस्तत्र कथानकम्-तुरुविणीए णय- यवृत्तिः रीएजियसत्तू राया, तत्थ भद्दा धिज्जाइणी, पुत्तो से दत्तो, मामगो से अजकालगो तस्स दत्तस्स सोअपवइओ।सो दत्तो जूय- विभागार पसंगी मज्जपसंगी य, उल्लगिउमारद्धो, पहाणो दंडोजाओ, कुलपुत्तए भिंदित्ताराया धाडिओ, सोयराया जाओ, जण्णा णेण8 सुबह जहा। अण्णता तं मामगं पेच्छद,अह भणइ-तुट्ठोधम्म सुणेमित्ति, जण्णाण किं फलं ?, सोभणइ-किं धर्म पुग्छसि?,धम्मद |कहेइ, पुणोवि पुच्छइ,णरगाणं पंधं पुच्छसि , अधम्मफलं साहइ, पुणोवि पुच्छइ, असुभाणं कम्माणं उदयं पुच्छसि ?, तं पि परिकहेइ, पुणोवि पुच्छइ, ताहे भणइ-णिरया फलं जण्णस्स, कुद्धो भणइ-को पञ्चओ?, जहा तुमं सत्तमे दिवसे सुणयकुंभीए पञ्चिहिसि, को पच्चओ?, जहा तुज्झ सत्तमे दिवसे सण्णा मुहं अइगच्छिहिति, रुट्ठो भणइ-तुज्झ को मञ्चू !, भणइ-अहं सुइरं कालं पवज काउं देवलोगं गच्छामि, रुहो भणइ-रुंभह, ते दंडा निविण्णा, तेहिं सो चेव राया आवाहिओ-1 तुरुमिण्यां नगयां जितशयू राजा, तत्र भद्रा धिग्जातीया, पुत्रस्तस्या दत्तः, मातुलोऽथार्यकालकस्तस्य दत्तस्य, स च प्रवशितः । स च दत्तो यूतप्रसङ्गी मद्यप्रसङ्गी च, अवलगितुमारब्धः, प्रधानो दण्डिको जातः, कुलपुत्रान् भेदयित्वा राजा मिष्काशितः, स च राजा जातः, यज्ञा अनेन सुबहब इष्टाः । अन्यदा ॥३६९॥ मातुलं प्रेक्षते, अथ भणति-तुष्टो धर्म ऋणोमीति, यज्ञानां किं फलम् ?, स भणति-कि धर्म पृच्छसि , धर्म कथयति, पुनरपि पृच्छति, नरकाणां पन्थानं पृच्छसि!, अधर्मफलं कथयति, पुनरपि पृच्छति, अशुभानां कर्मणामुदर्य पृष्ठसि, तमपि परिकथयति, पुनरपि पृच्छति, तदा भति-भरकाः फलं यज्ञस्य, कुद्धो भणति-कः प्रत्ययः, यथा स्वं ससमदिवसे श्वकुम्भ्यां पक्ष्यसे, का प्रत्ययः?, यथा तब सप्तमे दिवसे संशा मुखमतिगमिष्यति, रुष्टो भणति-तब कथं मायुः, भणति-अहं सुचिरं कालं प्रवध्यां कृत्वा देवलोकं गमिष्यामि, रुष्टो भणति-रुन्छ, ते दण्डिका निर्विषणाः, तैः स चैव राजाऽऽहूतः-*कया म. दीप अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~741~ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७०], भाष्यं [१५१...] (४०) -१० ट्र प्रत सूत्राक एहि जाव एवं ते बंधित्ता अप्पेमो, सो य पच्छन्नो अच्छइ, तस्स दिवसा विस्सरिया, सत्तमे दिवसे रायपथं सोहायेइ। मणुस्सेहि य रक्खाइ । एगो य देवकुलिगो पुप्फकरंडगहत्थंगओ पसे पविसइ, सन्नाडो" बोसरिता पुप्फेहि ओहाडेइ, रायावि सत्तमे दिवसे आसचडगरेणं णीति, जामि तं समणयं मारेमि, जाति, वोलतो जाव अण्णेणं आसकिसोरेणं सह पुप्फेहि पक्खिविया खुरेणं मुहं सण्णा अइगआ, तेण णातं जहा मारेज्जामि, ताहे दंडाण अणापुच्छाए णियत्तिउमारद्धो |ते जाणंति दंडा-नूर्ण रहस्सं भिण्णं, जाव घरं ण पवेसइ ताव गेण्हामो, गहिओ, इयरो य राया आणीओ, ताहे तेण साकंभीए सुणए छुभिसा बारं बद्ध, हेहा अग्गी जालिओ, ते सुणया ताविजन्ता तं खंडाखंडेहि छिंदति । एवं सम्मावाओ। ६कायबो, जहा कालगजेणं ॥ तथा चामुमेवार्थमभिधित्सुराह दत्तेण पुच्छिओ जो जपणफलं कालओ तुरुमिणीए । समयाए आहिएणं संमं वुझ्यं भदंतेणं ॥ ८७१ ॥ व्याख्या-'दत्तेन' धिरजातिनृपतिना पृष्टो यो यज्ञफलं कालको मुनिस्तुरुमिण्यां नगर्या तेन 'समतयाऽऽहितेन' एहि यावदेनं तुभ्यं बड़ाऽर्पयामः, स च प्रच्छनास्तिष्ठति, तख दिवसा विस्मृताः, सप्तमे दिवसे राजपथं शोधयति, मनुष्यैश्च रक्षयति । एकच देवकु-| लिकाहसागतपुष्पकरण्डका प्रत्यूषसि प्रविशति, संज्ञाकुलो व्युत्सम्य पुष्पैराच्छादयति, राजाऽपि सप्तमे दिवसे नवसमूहेन निर्गच्छति, यामि तं श्रमणक मार| यामि, वाति, व्यतिनजन् वावदन्येनाश्वकिशोरेण सह पुष्पैरुरिक्षप्ता खुरेण मुखं संज्ञाऽतिगता, तेन ज्ञातं यथा मायें, तदा दण्डिकाननाच्छय निवर्तितुमारुधः, ते जानन्ति दण्डिका:-नून रहस्यं भिन्न, वावगुहं न प्रविशति तावहीमः, गृहीतः, इतरश्च राजा आनीतः, तदा तेन कुम्भ्यां गुनः सिस्वा द्वार बदम्, अधस्तादमिर्चालितः, ते वानस्ताप्यमानास्तं सण्डमाश्छिन्दन्ति । एवं सम्पग्बादः कर्त्तव्यः, क्या कालकार्येण * हत्यो प्र० ॥ पोडोप्र. दीप अनुक्रम CAMERALDIL ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~742~ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥ ३७० ॥ Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ८७१ ], भाष्यं [ १५१... ] मध्यस्थतया गृहीतेन, इहलोकभयमनपेक्ष्य 'समं वुइयं भयंतेणं' ति सम्यगुदितं भदन्तेन, मा भूद् मद्वचनादधिकरणप्रवृतिरिति गाथार्थः ॥ ८७१ ॥ द्वारं ॥ समासद्वारमिदानीं तत्र कथानकम् - खिइपडिए णगरे एगो धिज्जाइओ पंडियमाणी सासणं खिंसइ, सो वाए पइण्णाए उग्गाहिऊण पराइणित्ता पञ्चाविओ, पच्छा देवया चोरैयस्स उवगयं, दुर्गुछं न मुंबइ, सण्णातया से उवसंता, अगारी हं ण छडुइ, कम्मणं दिण्णं, किह मे वसे होज्जा ?, मओ देवलोए उबवण्णो । सावि तण्णिवेपण पवइया, अणालोइया चेव कालं काऊण देवलोए उववण्णा । तओ चऊण रायगिहे णयरे धणो नाम सत्थवाहो, तस्स चिलाइया नाम चेडी, तीसे पुत्तो उववण्णो णामं से कयं चिलायगोति । इयरीवि तस्सेव धणस्स पंचण्हं पुत्ताणमुवरि दारिया जाया, सुंसुमा से णामं कथं, सो य से बालग्गाहो दिण्णो, अगालिओ करेइ, ताहे णिच्छूढो सीहगुहं चोरपलिं गओ, तत्थ अग्गष्पहारी नीसंसो य, चोरसेणावई मओ, सो य सेणावई जाओ, अण्णया धोरे भणइ १ क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे एको धिग्जातीयः पण्डितम्मन्यः शासनं निन्दति स वादे प्रतिज्ञया उद्धाद्य पराजित्य प्रनाजितः पश्चाद्देवताचोदितस्योपगतं जुगुप्सां न मुद्धति, सजातीयास्तस्योपशान्ताः, अगारी खेहं न त्यजति, कार्मणं दक्षं कथं मे वशे भवेत् ?, सुतो देवलोक उत्पन्नः । साऽपि तन्निर्वेदेन प्रमजिता, अनालोचिकैव (च्यैव ) कालं कृत्वा देवलोक उत्पन्ना। ततश्युत्वा राजगृहे नगरे धनो नाम सार्थवाहः, ar fचलाता नाम दासी, तस्याः पुत्र उत्पन्न, नाम तस्य कृतं चिळातक इति । इतराऽपि राचैव धनस्य पञ्चानां पुत्राणामुपरि दारिका जाता, सुंसुमा तस्या नाम तं स च तस्बै बालग्राहो दसः, अचेष्टा: करोति, तदा निष्काशितः सिंहगुहां चौरपीं गतः, तत्राममहारी निस्तृपाण, चौरसेनापतितः, स च सेनापतिर्जातः, अम्पदा चौरान् भगति * मोहि यस्स प्र० + समिद्धे विक्रियाः For Fasten हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~743~ ॥३७०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ibrary.org Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत रायगिहे धणो णाम सत्यवाहो, तस्स घूया सुसुमा दारिया, तहिं वच्चामो, धणं तुम्ह सुंसुमा मज्झ, ओसोवाणिं दाउँ अइगओ, णाम साहिता धणो सह पुत्तेहिं आधरिसितो, तेऽवि तं घरं पविसित्ता धणं चेडिं च गहाय पहाविया, धणेण णयरगुत्तिया सद्दाविया, मम धूयं णियत्तेह, दबं तुम्भ, चोरा भग्गा, लोगो धर्ण गहाय णियत्तो, इयरो सह पुत्तेहिं चिलायगस्स मग्गो लग्गो, चिलाओवि दारियं गहाय णस्सइ, जाहे चिलाअओण तरइ सुसुमं वहिउँ, इमेवि दुका, ताहे सुसुमाए सीसं गहाय पत्थिओ, इयरे धाडिया णियत्ता, छुहाए य परियाविति, ताहे धणो पुत्ते भणइ-ममं मारित्ता खाह, ताहे वचह णयर, ते नेच्छंति, जेठो भणइ-ममं खायह, एवं जाव डहरओ, ताहे पिया से भणइ-मा अण्णमण्णं मारेमो, एयं । चिलायएण ववरोवियं सुसुमं खामो, एवं आहारिता पुत्तिमंसं । एवं साहूणवि आहारो पुत्तिमंसोवमो कारणिओ, तेण |आहारेण णयरं गया, पुणरवि भोगाणमाभागी जाया, एवं साहूवि णिवाणसुहस्स आभागी भवति । सोवि चिलायओ सूत्राक दीप अनुक्रम T राजगृहे धनो नाम सार्थवाहः, तस्स दुहिता संमुमा दारिका, तत्र बजामः, धनं पुष्माकं मुंमुमा मम, अवस्वापिनी दवाऽतिगतः, नाम साधा। यस्वा धनः सह पुराधर्षितः, तेऽपि सद्गृहं प्रविश्य धनं पेटी च गृहीत्वा प्रधाविताः, धनेन नगरगुप्तिकाः शब्दिताः, मम दुहितर निवयत, द्रव्यं युष्मार्क, चौरा भन्नाः, लोको धनं गृहीत्वा निवृत्तः, इतरः सह पुत्रैक्लिासस्य पृष्ठतो लनशिलातोऽपि दारिकां गृहीत्वा नश्यति, यदा चिलातो न शझोति सुंसुमा बोदुम्, इमेऽपि आसनीभूताः, तदा सुंसुमावाः शीर्ष गृहीत्वा प्रस्थितः, इतरे धाटिका निवृत्ताः, क्षुधा च परिताप्यन्ते तदा धनः पुत्रान् भणति-मां मारयित्वा खादत, तदा बजत नगरं, ते नेष्यन्ति, ज्येष्ठो भणति-मां खादत, एवं बावलघुः, तदा पिता तेषां भणति-मा भन्योऽन्य मारयाव (मीमराम), एना चिलातेन | म्यपरोपितां सुंसुमा खादामः, एचमाहार्य पुत्रीमांसम् । एवं साधूनामप्याहारः पुत्रीमांसोपमः कारणिकः, तेनाहारेण नगरं गताः, पुनरपि भोगानामाभागिनो जाताः, एवं साधयोऽपि मिर्चाणसुखामामाभागिनो भवन्ति । सोऽपि चिकातः andiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 744 ~ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥३७१ ॥ Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [ ८७१], भाष्यं [१५१...] सीसेण गहिएणं दिसामूढो जाओ, जाव एवं साहुं पास आयाविंतं, तं भणइ-समासेण धम्मं कहेहि, मा एवं चैव तुम्भवि सीस पाडेमि, तेण भणियं-उवसमविवेयसंवरं, सो एयाणि पयाणि गहाय एगते चिंतिमारद्धो-उवसमो कायबो कोहाईणं, अहं च कुद्धओ, विवेगो धणसयणस्स कायचो, तं सीसं असिं च पाडेइ, संवरो इंदियसंवरो नोइंदियसंवरो य, एवं १ विभागः १ झायइ जाव लोहियगंधेण कीडिगाओ खाइडमारद्धाओ, सो ताहिं जहा चालिणी तहा कओ, जाव पायच्छिराहिं जाव सीसकरोडी ताव गयाओ, तहवि ण झाणाओ चलिओत्ति ॥ तथा चामुमेवार्थं प्रतिपिपादयिषुराह— जो तिहि पएहि सम्मं समभिगओ संजमं समारूढो । उवसमविवेयसंवरचिलायपुत्तं णमंसामि ॥ ८७२ ॥ व्याख्या -- यस्त्रिभिः पदैः सम्यक्त्वं 'समभिगतः' प्राप्तः, तथा संयमं समारूढः कानि पदानि ? उपशमविवेकसंवराः उपशमः - क्रोधादिनिग्रहः, विवेकः - स्वजनसुवर्णादित्यागः, संवर- इन्द्रियनोइन्द्रियगुप्तिरिति, तमित्थम्भूतमुपशमविवेकसंवरचिलातपुत्रं नमस्ये, उपशमादिगुणानन्यत्वाच्चिलातपुत्र एवोपशमविवेकसंवर इति, स चासौ चिलातपुत्रश्चेति समानाधिकरण इति गाथार्थः ॥ ८७२ ॥ १ शीर्षे गृहीते (गृहीतशीर्षः ) दिमूढो जातः, यावदेकं साधुं पश्यति आतापयन्तं सं भणति समासेन धर्मे कथय, मैवमेव तवापि शीर्ष पीपलं, तेन भणितम्-उपशमविवेकसंवरं स एतानि पदानि गृहीत्वा एकान्ते चिन्तितुमारब्धः-उपशमः कर्त्तव्यः क्रोधादीनाम्, अहं च कुद्धः, विवेको धनस्वजनस्य कर्तव्यः तत् शीर्षमसि च पातयति, संवर इन्द्रियसंवरो नोइन्द्रियसंवर, एवं ध्यायति यावदुधिरगन्धेन कीटिकाः खादितुमारब्धाः, स ताभिर्वथा चालनी तथा कृतः यावत् पाशिरातो यावत् शीर्षकरोटिका तावद्वताः, तथापि न ध्यानावखित इति । For Paint Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः ~ 745 ~ ॥३७१ ॥ jacibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक अहिसरिया पाएहिं सोणियगंधेण जस्स कीडीओ। खायंति उत्तमंगं तं दुक्करकारयं वंदे ॥ ८७३ ॥ व्याख्या-अभिस्ताः पद्यां शोणितगन्धेन यस्य कीटिका अविचलिताध्यवसायस्य भक्षयन्त्युत्तमाङ्ग, पद्यां शिराविधगता इत्यर्थः, तं दुष्करकारकं वन्दे इति गाथार्थः ॥ ८७३ ॥ पीरो चिलायपुत्तो मृयइंगलियाहिं चालिणिव्व कओ। सो तहवि खज्जमाणो पडिवण्णो उत्तम अहं ॥८७४॥ | व्याख्या-धीरः सत्त्वसम्पन्नश्चिलातीपुत्रः 'मूतिंगलियाहिं' कीटिकाभिर्भक्ष्यमाणश्चालनीव कृतो या, तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थ, शुभपरिणामापरित्यागादिति हृदयम् । अड्डाइजेहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुसेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥ ८७५ ॥ व्याख्या-अर्द्धतृतीय रात्रिन्दिवैः प्राप्तं चिलातीपुत्रेण देवेन्द्रस्येव अमरभवनं देवेन्द्रामरभवनम् , अप्सरोगणसङ्कुलं रम्यमिति गाथार्थः ॥ ८७५ ॥ द्वारं ॥ संक्षेपद्वारमधुना सयसाहस्सा गंधा सहस्स पंच य दिवड्डमेगं च । ठविया एगसिलोए संखेचो एस णायब्चो ।। ८७६ ॥ व्याख्या-चत्तारि रिसी गंथे सतसाहस्से काउंजियसत्तं रायाणमुवत्थिया, अम्ह सत्थाणि सुणेहि तुमं पंचमो लोगपालो, तेण भणियं-केत्तिय, ते भणंति-सयसाहस्सियाओ संधियाओ चत्तारि, भणइ-मम रजं सीयइ, एवं अद्धद्धं ओसरंतं चवार क्रपयो ग्रन्थान् पातसाहस्त्रान् कृत्वा जितशत्रुराजानमुपस्थिताः, अस्माकं शास्त्राणि शूण स्वं पनमो लोकपालः, तेन भणितम्-कियत् !, VI भणन्ति-पातसाहसिका संहिताबतसः, भणति-मम राज्यं सीदति, एवमर्धाधमपसरत् गाथाहदयम्.प्र. दीप अनुक्रम T JaintaintiN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 746~ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७६], (४०) भाष्यं [१५१...] ३७२।। प्रत जावेकेको सिलोगो ठिओ, तंपि न सुणइ, ताहे चउहिवि णियमतपदरिसणसहितो सिलोगो कओ, स चायम्-'जीणे हारिभद्री भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ १॥ आत्रेय एवमाह-जीर्णे भोज-81 यवृत्तिः विभागः१ जनमासेवनीयमारोग्यार्थिनेति, एवं प्रत्येकं योजना कार्या, एवं सामायिकमपि चतुर्दशपूर्वार्थसंक्षेपो वर्तत इति ॥ द्वारम् ॥ अधुनाऽनवद्यद्वारं, तत्राऽऽख्यानकम्-वसंतपुरे नगरे जियसत्तू राया धारिणी देवी तेसिं पुत्तो धम्मरुई, सो य राया थेरो ताव सो पवइउकामो धम्मरुइस्स रज दाउमिच्छइ, सो माउं पुच्छइ-कीस ताओ रज्ज परिचयइ ?, सा भणइ-संसार, बद्धणं, सो भणइ-ममवि न कर्ज, सह पियरेण तावसो जाओ, तत्थ अमावसा होहितित्ति गंडओ उग्घोसेइ-आसमे कल्लं | अमावसा होहिति तो पुष्फफलाण संगहं करेह, कलं ण वट्टइ छिंदिउं, धम्मरुई चिंतेइ-जइ सबकालं ण छिजेज तो सुंदरं होजा । अण्णया साहू अमावासाए तावसासमस्स अदूरेण वोलेंति, ते धम्मरुई पिच्छिऊण भणइ-भगवं ! किं सूत्राक नाACACARE दीप अनुक्रम ॥७२॥ यावदेकैकः श्लोकः स्थितः, तमपि न शृणोति, तदा चतुर्भिरपि निजमतप्रदर्शनसहितः श्लोकः कुतः । २ वसन्तपुरे नगरे जितशचू राजा, धारणी देवी, तयोः पुत्रो धर्मरुचिा, स च राजा स्थविरस्तावत्स प्रबजितुकामो धर्मश्चये राज्यं दातुमिच्छति, स मातरं पृच्छति-कुतस्तातो राज्य परित्यजति ?, सा भणतिसंसारवर्धन, स भणति-ममापि न कार्य, सह पित्रा तापसो जातः, तबामावस्या भविष्यतीति मरुक उदूघोषयति-आश्रमे कल्येमावास्या भविष्यति ततः पुष्पफलाना संग्रहं कुरुष, कल्ये वसते , धर्मचिश्चिन्तयति--यदि सर्वकालं न छियेत तदा सुन्दरं भवेत् । अन्यदा साधवोमावास्यायां तापसाश्रम| स्यारेण व्यतिपास्ति, तान् धर्मरूचिः प्रेक्ष्य मणति-भगवन्तः ! किं AMERIMond मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~747~ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७६], भाष्यं [१५१...] (४०) SANSAHARSACA प्रत तुझं अण्णाउट्टी णत्थि? तो अडविं जाह, ते भणति-अम्हं जावज्जीवाए अणाउट्टी, सो संभंतो चिंतेउमारद्धो, साहवि गया, जाई संभरिया, पत्तेयबुद्धो जाओ ॥ अमुमेवार्थमभिधित्सुराहसोऊण अणाउहि अणभीओ वजिऊण अणगं तु । अणवजय उवगओ धम्मरुई णाम अणगारो ।। ८७७॥ | व्याख्या-'श्रुत्वा' आकर्ण्य, आकुट्टनम् आकुद्दिश्छेदनं हिंसेत्यर्थः, न आकुट्टिः-अनाकुट्टिस्तां सर्वकालिकीमाकर्ण्य, 'अणभीतः' 'अण रण' इति दण्डकधातुः, अणति-गच्छति तासु तासु जीवो योनिष्वनेनेत्यण-पापं तद्धीतः, वर्जयित्वाऽणं तु-परित्यज्य सावद्ययोगम् 'अणवजयं उवगओ'त्ति वर्जनीयः वर्मः अणस्य वर्ध्यः अणवय॑स्तभावस्तामणवर्ण्यतामुपगतः साधुः संवृत्त इत्यर्थः, धर्मरुचि मानगार इति गाथार्थः ॥ ८७७ ॥ द्वारं ॥ साम्प्रतं परिज्ञाद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यत इति, तत्र कथानकं प्रागुक्तम् , इदानीं गाथोच्यते परिजाणिऊण जीवे अजीवे जाणणापरिणाए । सावजजोगकरणं परिजाणइ सो इलापुत्तो॥ ८७८॥ व्याख्या-परिज्ञाय जीवानजीवांश्च 'जाणणापरिण्णाए' त्ति ज्ञपरिज्ञया 'सावद्ययोगकरणं' सावद्ययोगक्रियां परिजाणई' त्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया स इलापुत्र इति गाथार्थः ॥ ८७८ ॥ द्वारं ॥ प्रत्याख्यानद्वारं, तत्र कथानकम्-तेतैलिपुरणयरे कणगरहो राया, पउमावई देवी, राया भोगलोलो जाते २ पुत्ते वियंगेइ, तेतलिसुओ अमच्चो, कलाओ सूत्राक दीप अनुक्रम T युष्माकमनाकुहिमर्मास्ति ?, सतोऽटवीं याथ, ते भणन्ति-अस्माकं यावज्जीवमनाकुट्टी, स संभ्रान्तचिन्तयितुमारब्धः, साधयोऽपि गताः, जाति । दस्ता , प्रत्येकयुद्धो जातः । २ तेतलीपुरे नगरे कनकरथो राजा, पद्मावती देवी, राना भोगकोलुपः जातान जातान् पुत्रान न्यायति, तेतलीसुतोऽमात्यः, कळादः R EEGA ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~748~ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७८], भाष्यं [१५१...] (४०) हारिभद्री प्रत आवश्यक- सियारसेट्ठी, तस्स धूया पोटिला आगासतलगे दिडा, मग्गिया, लद्धा य, अमच्चो य एगते पउमाधईय भण्णइ-एगं कहवि कुमारं सारक्खह तो तव य मम य भिक्खाभायणं भविस्सइत्ति, मम उयरे पुत्तो, एवं रहस्सगयं सारवेमो, संपत्ती य । यवृत्तिः ॥३७३॥ पोट्टिला देवी य समं चेव पसूया, पोट्टिलाए दारिया देवीए दिण्णा, कुमारो पोट्टिलाए, सो संवइ, कलाओ य गेण्हइ । ल विभाग:१ अण्णया पोट्टिला अणिहा जाया, णाममविण गेण्डइ, अण्णया पधइयाओ पुच्छह-अस्थि किंचि जाणह, जेणं अहं पिया होजा, ताओ भणंति-ण बट्टइ एयं कहे, धम्मो कहिओ, संवेगमावण्णा, आपुच्छइ-पवयामि, भणइ-जइ संबोहेसि. ताए पडिस्सुयं, सामण्णं काउं देवलोगं गया । सो राया मओ, ताहे पउरस्स दसेइ कुमार, रहस्सं च भिंदइ, ताहे सोड भिसित्तो, कुमारं माया भणइ-तेतलिसुयस्स सुहु बडेजाहि, तस्स पहावेण संसि राया जाओ, तस्स णामं कणगझओ, हताहे सबढाणेसु अमच्चो ठविओ, देवो तं बोहेइ,ण संबुज्झइ, ताहे रायाणगं विपरिणामेइ, जओ जओ ठाइ तओ तओ सुत्रांक CRORDERCORN दीप अनुक्रम ॥३७॥ पुष्यकारः श्रेष्ठी, तस्य दुहिता पोहिलाकाशतले रष्टा, मार्गिता, लब्धाच, अमात्यश्चैकान्ते पद्मावत्या मण्यते-एक कथमपि कुमारं संरक्षय तदा तव मम व भिक्षाभाजनं भविष्यतीति, ममोदरे पुनः, एनं रहस्यगतं सारयामः, समापन्या, पोहिला देवी च सममेव प्रसूते, पोहिलाया दारिका देव्यै दत्ता, कुमारः पोहिलाये, स संवर्धते, कलान गृहाति । भन्यदा पोहिलाऽनिष्टा जाता, नामापि न गृहाति, भन्यदा प्रबजिताः पृच्छति-अस्ति किशिवानीग बेनाई प्रिया भवेयं, ता भणन्ति-न वर्तते एतस्कवयितुं, धर्मः कथितः, संवेगमापना, बाच्छत्ति-प्रव्रजामि, भणति-यदि संबोधयसि, तया प्रतिश्रुतं, बामण्यं कृत्वा | देवलोकं गता । स राजा मतः, तदा पौरेभ्यो दर्शयति कुमार, रहस्यं च भिनत्ति, तदा सोऽभिषिक्तः, कुमारं माता भणति-तेतलीसुते सुष्ट वयाः , तस्य प्रभावेण स्वमसि राजा आता, तस्य नाम कनकध्वजः, तदा सर्वस्थानेष्वमात्यः स्थापितः, देवर्स बोधयति, न संयुध्यते, तदा राजानं विपरिणमयति, यतो पतस्तिष्ठति, ततस्ततो राजा AREainmahale +Handicrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 749~ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७८], भाष्यं [१५१...] (४०) *-- प्रत राया परंमुहो ठाइ, भीओ घरमागओ, सोऽवि परियणो णाढाइ, सुहुतरं भीओ, ताहे तालपुडं विसं खाइ, ण मरइ, तकको असी खंधे णिसिओ, ण छिंदइ, उबंधइ, रज्जु छिदइ, पाहाणं गलए बंधित्ता अस्थाहं पाणियं पविडो, तत्थवि थाहो जाओ, ताहे तणकूडे अग्गि काउं पविहो, तत्थवि ण डज्झइ, ताहे णयराओ णिप्फिडइ जाव पिडओ हत्थी धाडेइ, पुरओ पवातखड्डा, दुहओ अचक्खुफासे मञ्झे सराणि पतंति, तत्थ ठिओ, ताहे भणइ-हा पोट्टिले साविगे २ जइ |णिस्थारेजा, आउसो पोट्टिले ! कओ वयामो?, ते आलावगे भणइ जहा तेतलिणाते, ताहे सा भणइ-भीयस्स खलु भो पछज्जा, आलावगा, तं दट्टण संबुद्धो भणइ-रायाणं उवसामेहि, मा भणिहिति-रुहो पाइओ, ताहे साहरियं जाव सम-16 ततो मग्गिजइ, रण्णो कहियं-सह मायाए णिग्गओ, खामेत्ता पवेसिओ, निक्खमणसिवियाए णीणिओ, पबइओ, तेण ददं आवइगहिएणावि पञ्चक्खाणे समया कया । अत्र गाथा सूत्राक *SAXASA दीप अनुक्रम परामुखस्तिष्ठति, भीतो गृहमागतः, सोऽपि परिजनो नाद्रियते, सुषुतरं भीतः, तदा तालपुटं विषं खादति, न म्रियते, कोऽस्लिः स्कन्धे बाहितः न छिनत्ति, वनाति, रज्जू छिनत्ति, पाषाणान् गले बट्टाऽस्ताचे पाचीये प्रविष्टः, तत्रापि साधो जातः, तदा तृणकूरेऽग्निं कृत्वा प्रविष्टः, तत्रापि न दद्यते, तदा नगरानिर्गच्छति, यावत्पृष्ठतो हस्ती धाटयति, पुरतः प्रपातगर्ता, उभयतोऽचक्षुः स्पों मध्ये शराः पतन्ति, तत्र स्थितः, तदा भगति-हा पोहिले माबिके ! २ यदि निस्तारयिष्यसि, भायुप्मति ! पोहले कुतो ब्रजामः १, तानालापकान् भगति यथा तेतलिज्ञाते, वड़ा सा भणति-भीतस्य खलु भोः प्रमज्या, आलापकाः, तं दृष्ट्वा संयुद्धो भणति-राजानमुपशमय, मा बीभणत-रुष्टः प्रवजितः, तदा संहृतं यावासमन्ततो माय॑ते, राज्ञः कथितं, सह मात्रा निर्गतः, क्षमवित्वा प्रवेशितः, निष्कमणशिविकया निर्गतः, प्रबजितः, तेन रवमापगृहीतेनापि प्रत्याख्याने समता कृता । JABERatinintamational Nangionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 750~ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७९], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभ सूत्रस्वरूप वि०१ द्रीया प्रत ॥७ ॥ सुत्रांक पञ्चक्खे दहणं जीवाजीवे य पुण्णपावं च । पचक्खाया जोगा सावज्जा तेतलिमुएणं ।। ८७९ ॥ व्याख्या-प्रत्यक्षानिव दृष्ट्वा देवसंदर्शनेन, कान् !-जीवाजीवान् पुण्यपापं च प्रत्याख्याता योगाः सावधास्तेतलिसुते- |नेति गाथार्थः ॥ ८७९ ।। गतं निरुक्तिद्वारं, समाप्ता चोपोदूधातनियुक्तिरिति । | अथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यवसरः, सा च प्राप्तावसराऽपि नोच्यते, यस्मादसति सूत्रे कस्यासाविति, ततश्च सूत्रानुगमे वक्ष्यामः । आह-यद्येवं किमिति तस्याः खल्विहोपन्यासः, उच्यते, नियुक्तिमात्रसामान्यात्, एवं सूत्रानुगमोऽप्यवसरप्राप्त एव, तत्र च सूत्रमुच्चारणीय, तच्च किम्भूतं , तत्र लक्षणगाथा अप्परगंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अडहि य गुणेहि उववेयं ॥ ८८०॥ ब्याख्या-अल्पग्रन्धं च महार्थं चेति विग्रहः, 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदि' त्यादिवत्, अधिकृतसामायिकसूत्रवद्वा, द्वात्रिंशदोषविरहितं यच्च, क एते द्वात्रिंशद्दोपाः!, उच्यन्तेअलियमुवघायजेणयं निरस्थयमवयं छेल दुहिलं । निस्सारमधिर्यमूणं पुर्णरुतं वाहयमजुत्तं ॥ ८८१॥ कमभिष्णवणभिषणं वित्तिभिन्नं च लिंग भिन्नं च।अणभिहियमपयमेव य सभीवहीण वहियं च ॥४८ कालजतिच्छविदोसा समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावतीदोसो य होइ असमांसदोसो य॥८८३॥ उर्वमारूबंगदोसाऽनिदेसै पदधसंघिदोसो य । एए उ सुत्तदोसा बत्तीसं होंति णायव्वा ॥८८४॥ व्याख्या-तत्र 'अनृतम्' अभूतोद्भावनं भूतनिहवश्च, अभूतोद्भावन-प्रधानं कारणमित्यादि, भूतनिहवा-नास्त्यात्मे दीप अनुक्रम ॥३७॥ CREASCCCC JANEai E mitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्ति: प्रस्तुयते, सामायिकस्य ३२ दोषानाम् कथनं ~ 751~ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८८४], (४०) भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्राक त्यादि १, 'उपघातजनक' सत्त्वोपघातजनकं, यथा वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि २, वर्णक्रमनिर्देशवत् निरर्थकमारादेसा|| दिवत् , आर आत् एस् इत्येते आदेशाः, एतेषु वर्णानां क्रमनिदर्शनमात्र विद्यते, न पुनरभिधेयतया कश्चिदर्थः प्रतीयते, इत्येवंभूतं निरर्थकमभिधीयते, डित्यादिवद्वा ३, पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बन्धार्थमपार्थकं, तथा दश दाडिमानि पडपूपाः कुण्डमजाजिन पललपिण्डः त्वर कीटिके ! दिशमुदीची, स्पर्शनकस्य पिता प्रतिसीन इत्यादि ४, वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलं वाक्छलादि, यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि ५, द्रोहस्वभावं दुहिलं, यथा-'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्पमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन युज्यते ॥ १॥ कलुषं वा दुहिलं, येन पुण्यपापयोः समताऽs|पाद्यते, यथा-'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः' इत्यादि , 'निःसारं' परिफल्गु वेदवचनवत् ७, वर्णादिभिदरभ्यधिकम्-अधिकंद, तैरेव हीनम्-ऊनम् ९, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिक, यथाऽनित्यः शब्दोः कृतकत्वप्रयत्ना-] नन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि, एताभ्यामेव हीनम्-ऊनं यथा-अनित्यः शब्दो घटवत् अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादि ८-९, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम् अन्यत्रानुवादात् , अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं, तत्र शब्दपुनरुक्तम्-इन्द्र | इन्द्र इति, अर्थपुनरुक्तम्-इन्द्रः शक्र इति, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं, यथा-पीनो देवदत्तो दिवा न भुले धल-18 वान् पट्विन्द्रियश्च, अर्थादापन्नं रात्रौ भुत इति, तत्र यो ब्रूयात्-दिवा न भुङ्क्ते रात्री भुत इति स पुनरुतमाह १०,16 'व्याहत' यत्र पूर्वेण पर विहन्यते, यथा-'कर्म चास्ति फलं चास्ति, कर्ता नास्ति च कर्मणा' मित्यादि ११, 'अयुक्तम् । अनुपपत्तिक्षम, यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥ इत्यादि | दीप अनुक्रम __ JAMERatin hindiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~752~ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८८४], भाष्यं [१५१...] (४०) सूत्रस्वरूपं वि०१ आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥३७५|| प्रत सुत्रांक १२, 'क्रमभिन्नं' यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न क्रियते, यथा 'स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा' इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति ब्रूयात् इत्यादि १३, 'वचनभिन्नं' वचनव्यत्ययः, यथा वृक्षावेतौ पुष्पिताः इत्यादि १४, विभक्तिभिन्नं विभक्तिव्यत्ययः, यथेष वृक्ष इति वक्तव्ये एष वृक्षमित्याह १५, लिङ्गाभिन्नं लिङ्गव्यत्ययः, यथेयं स्त्रीति वक्तव्येऽयं स्त्रीत्याह १६, 'अनभिहितम्' अनुपदिष्टं स्वसिद्धान्ते, यथा सप्तमः पदार्थो दशमं द्रव्यं वा वैशेपिकस्य, प्रधानपुरुषाभ्यामभ्यधिक साक्ष्यस्य, चतुःसत्यातिरिक्त शाक्यस्येत्यादि १७, अपदं पद्यविधी पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभिधानं, यथाऽऽर्यापदे वैतालीयपदाभिधानं १८, 'स्वभावहीन' यद्वस्तुनः स्वभावतोऽन्यथावचनं, यथा शीतोऽग्निर्मूर्तिमदाकाशमित्यादि १९, 'व्यवहितम्' अन्तर्हितं, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमभिधीयते, यथा हेतुकथनमधिकृत्य सुप्तिङन्तपदलक्षणप्रपश्चमर्थशास्त्रं वाऽभिधाय पुनर्हेतुवचनमित्यादि २०, कालदोषः अतीतादिकालव्यत्ययः, यथा रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये विशतीत्याह २१, यतिदोषः-अस्थानविच्छेदः तदकरणं वा, |२२, 'छवि:' अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यमिति २३, 'समयविरुद्धं च' स्वसिद्धान्तविरुद्धं यथा सास्यासत् कारणे कार्य सद वैशेषिकस्येत्यादि २४, वचनमा निर्हेतुकं यथेष्टभूदेशे लोकमध्याभिधानवत् २५, 'अर्धापत्तिदोष' यत्रार्थादनिष्टापत्तिः, यथा 'ब्राह्मणो न हन्तव्य' इति, अर्थादब्राह्मणघातापत्तिः २६, 'असमासदोषः समासब्यत्ययः, यत्र वा समासविधौ सत्यसमासवचनं, यथा राजपुरुषोऽयमित्यत्र तत्पुरुष समासे कर्त्तव्ये विशेषणसमासकरणं बहुव्रीहिसमासकरणं यदिवा असमासकरणं राज्ञः पुरुषोऽयमित्यादि २७, 'उपमादोषः' हीनाधिकोपमानाभिधानं, यथा मेरुः सर्पपोपमः, सर्षपो दीप अनुक्रम ॥३७५॥ -Ranatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~753~ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [८८४], (४०) भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्राक -CCESS मेरुसमो बिन्दुः समुद्रोपभ इत्यादि २८, रूपकदोषः स्वरूपावयवव्यत्ययः, यथा पर्वतरूपावयवानां पर्वतेनानभिधानं, समुद्राव-8 नयवानां चाभिधानमित्यादि २९, 'अनिर्देशदोषः' यत्रोद्देश्यपदानामेकवाक्यभावो न क्रियते, यथेह देवदत्तः स्था ल्यामोदनं पचतीति वक्तव्ये पचतिशब्दानभिधानं ३०, ‘पदार्थदोषः' यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदस्यार्थान्तरपरिकल्पनाss-12 श्रीयते, यथेह द्रव्यपर्यायवाचिनां सत्तादीनां द्रव्यादर्थान्तरपरिकल्पनमुलूकस्य ३१, 'सन्धिदोषः' विश्लिष्टसंहितत्वं व्य-18 त्ययो वेति ३२ । एभिर्विमुक्तं द्वात्रिंशद्दोषरहितं लक्षणयुक्तं सूत्रं तदिति वाक्यशेषः, द्वात्रिंशद्दोषरहितं यच्च' इति वचनात्तच्छन्दनिर्देशो गम्यते ॥ अष्टाभिश्च गुणैरुपेतं यत् तलक्षणयुक्तमिति वर्तते, ते चेमे गुणाः निहोस" सारंवन्तं च हेउ समलंकियं । उर्वणीयं सोयारं च मिय" महुरमेव य॥८८५ ॥ व्याख्या-निर्दोष' दोषमुक्तं 'सारवत्' बहुपर्याय, गोशब्दवत्सामायिकवद्वा, अन्वयव्यतिरेकलक्षणा हेतवस्ताक्तम् , 'अल कृतम्' उपमादिभिरुपेतम्, 'उपनीतम्' उपनयोपसंहृतं, 'सोपचारम्' अग्राम्याभिधानं, 'मितं' वर्णादिनियतप-1 रिमाणं, 'मधुर' श्रवणमनोहरम् । अथवाऽन्ये सूत्रगुणाः अप्पक्खरमसंदिर सौरवं विस्सओमुहं । अत्योभमणर्वजं च मुत्तं सवण्णुभासियं ॥ ८८६ ॥ ब्याख्या-'अल्पाक्षरं' मिताक्षरं, सामायिकाभिधानवत् , 'असंदिग्ध' सैन्धवशब्दवल्लवणघोटकाद्यनेकार्थसंशयकारि । न भवति, 'सारवत्' बहुपर्याय, 'विश्वतोमुखम्' अनेकमुखं प्रतिसूत्रमनुयोगचतुष्टयाभिधानात् , प्रतिमुखमनेकार्थाभिधायकं वा सारवत्, 'अस्तोभक वैहिहकारादिपदच्छिद्रपूरणस्तोभकशून्यं, स्तोभकाः-निपाताः, 'अनवद्यम्' अगा, न दीप अनुक्रम T VIN indinrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 754~ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८८६], भाष्यं [१५१...] (४०) सूत्रस्वरूप आवश्यक-1 हिंसाभिधायक-'पटू शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभित्रिभिः ॥ १॥ इत्या-1 हारिभ- दिवचनवत् , एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति । ततश्च सूत्रानुगमात् सूत्रेऽनुगतेऽनवद्यमिति निश्चिते पदकछेदानन्तरं द्रीया सूत्रपदनिक्षेपलक्षणः सूत्रालापकन्यासः, ततः सूत्रस्पर्शनियुक्तिश्चरमानुयोगद्वारविहिता नयाश्च भवन्ति, समकं चैतदनुग॥३७६॥ च्छतीति, आह च भाष्यकार:-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओय निक्खेवो । सुत्तप्फासियनिजत्ती णया य समगं तु | वच्चंति ॥१॥" सूत्रानुगमादीनां चायं विषया-सपदच्छेदं सूत्रमभिधाय अवसितप्रयोजनो भवति सूत्रानुगमः, सूत्रालापकन्यासोऽपि नामादिनिक्षेपमात्रमेवाभिधाय, सूत्रस्पर्शनियुक्तिस्तु पदार्थविग्रहविचारप्रत्यवस्थानाधभिधायेति, तच्च प्रायो नगमादिनयमतविषयमिति वस्तुतस्तदन्तर्भाविन एव नया इति, न चैतत् स्वमनीषिकयोच्यते, यत आह भाष्यकार:| "होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो । सुत्तालावयनासो नामाइण्णासविणिओगं ॥ १॥ सुत्तफासियनिजुत्तिविनिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सो चिय नेगमणयाइमयगोयरो होइ ॥ २॥" आह-यद्येवमुत्कमतो निक्षेपद्वारे किमिति सूत्रालापकन्यासोऽभिहित?, उच्यते, निक्षेपसामान्यालाघवार्थमित्यलं प्रसङ्गेन । एवं विनेयजनानुग्रहायानुगमादीनां प्रसङ्गतो विषयविभागः प्रदर्शितः, अधुना प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र सूत्रं सूत्रानुगमे सत्युच्चारणीयं, तच्च पञ्चनमस्कारपूर्वक तस्याशेषश्रुतस्कन्धान्तर्गतत्वात्, अतोऽसावेव सूत्रादौ व्याख्येयः, सर्वसूत्रादित्वात् , सर्वसम्मतसूत्रादिवत् , सूत्रादित्वं चास्य सूत्रादौ व्याख्यायमानत्वात् , नियुक्तिकृतोपन्यस्तत्वाद्, अन्ये तु व्याचक्षते मङ्गलत्वादेवायं सूत्रादौ व्याख्यायत इति, तथाहि-त्रिविधं मङ्गलम्-आदौ मध्येऽवसाने च, तत्राऽऽदिमङ्गलार्थ नन्दी अनुक्रम [१] ॥३७६॥ binataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मू. (१) नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं ...मूलसूत्र - (१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है। ~ 755~ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], (४०) नियुक्ति: [८८६], भाष्यं [१५१...] प्रत सूत्राक व्याख्याता, मध्यमङ्गलार्थ तु तीर्थकरादिगुणाभिधायकः 'तिर्थकरें' इत्यादि गाथासमूहः, नमस्कारस्त्ववसानमङ्गलार्थ इति, एतच्चायुक्त, शास्त्रस्यापरिसमाप्तत्वादवसानत्वानुपपत्तेः, न चाऽऽदिमङ्गलत्वमप्यस्य युज्यते, तस्य कृतत्वात् , कृतकरणे चानवस्थाप्रसङ्गात् , अलं पा परबुद्धिमान्द्यप्रदशेनेन, नैष सतां न्यायः, सर्वथा गुरुवचनाद् यथाऽवधारित तत्त्वार्थमेव प्रतिपादयामः । सूत्रादिश्च नमस्कारः, अतस्तमेव प्राग् व्याख्याय सूत्रं व्याख्यास्यामः, स चोत्पत्त्याधनुयोगद्वारानुसारतो व्याख्येयः, तत्र नमस्कारनियुक्तिप्रस्ताविनीमिमामाह गाथां नियुक्तिकारः उत्पत्ती (१) निक्खेवो (२) पयं (३) पयत्थो (४) परूवणा (५) वत्थु (६)। अखेच (७) पसिद्धि (८) कमो (९)पओयणफलं नमोकारो॥ ८८७॥ व्याख्या-उत्पादनम् उत्पत्तिः, प्रसूतिः उन्माद इत्यर्थः, सोऽस्य नमस्कारस्य नयानुसारतश्चिन्त्यः, तथा निक्षेपण निक्षेपो ग्यास इत्यर्थः, स चास्य कार्यः, पद्यतेऽनेनेति पदं तच्च नाभिकादि, तच्चास्य वाच्यं, तथा 'पदार्थः' पदस्यार्थः४ पदार्थः, स च वाच्या, तस्य च निर्देशः सदाद्यनुयोगद्वारविषयत्वात, प्रकर्षेण रूपणा-प्ररूपणा कार्येति, वसन्त्यस्मिन् गुणा इति वस्तु तदह वाच्यम्, आक्षेपणम् आक्षेपः आशङ्केत्यर्थः, सा च कार्या, प्रसिद्धिः तत्परिहाररूपा वाच्येति, क्रमः अहंदादिरभिधेयः, 'प्रयोजनं तद्विषयमेव, अथवा येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्-अपवर्गाख्यं, तथा 'फल' तच्च किया-18 |ऽनन्तरभावि स्वर्गादिकम्, अन्ये तु व्यत्ययेन प्रयोजनफलयोरर्थप्रतिपादयन्ति, नमस्कारः(९५०० ग्रन्थाग्रं ) खल्वेभिद्वारश्चिन्त्य इति गाथासमुदायार्थः ॥ ८८७ ॥ 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमानित्योत्पत्तिद्वारनिरूपणायाऽऽह नियुक्तिकार: दीप अनुक्रम [१] I AMERatina NMEnaryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र नमस्कार नियुक्ति: प्रस्तुयते ~756~ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ ॥३७७॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्ति: [८८८], उत्पन्नाऽणुप्पन्नो इत्थ नयाऽऽइनिगमस्सऽणुप्पन्नो । सेसाणं उप्पन्नो जइ कस्तो ?, तिविहसामित्ता ॥ ८८८ ॥ ब्याख्या—उत्पन्नश्चांसावनुत्पन्नश्च स इति समानाधिकरणः क्तेन नञ्विशिष्टेनानञ् ( पा- २ - १ - ६ ) कृताकृतादिव - यादुत्पन्नानुत्पन्नः स्याद्वादिन एव एवंप्रकारः समासो युज्यते, नान्यस्यैकान्तवादिनः, एकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्मानभ्युपगमात्, आह-- स्याद्वादिनोऽपि कथमेकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यास इति, उच्यते, 'एत्थ णय'त्ति अत्र नयाः प्रवर्तन्ते, ते च नैगमादयः सप्त, नैगमोऽपि द्विभेदः - सर्वसङ्ग्राही देशसङ्ग्राही च, तत्रादिनैगमस्य सामान्यमात्रावलम्बित्वात् तस्य | चोत्पादव्ययरहितत्वान्नमस्कारस्यापि तदन्तर्गतत्वादनुत्पन्नः, 'सेसाणं उप्पण्णो 'ति शेषाः - विशेषग्राहिणस्तेषां शेषाणां विशेपग्राहित्वात् तस्य चोत्पादव्ययवत्त्वात् उत्पादव्ययशून्यस्य वान्ध्येयादिवदवस्तुत्वात् नमस्कारस्य च वस्तुत्वादुत्पन्न इति, आह- शेषाः सङ्ग्रहादयः, सङ्ग्रहस्य च विशेषग्राहित्वं नास्तीति, उच्यते, तस्यादिनैगम एवान्तर्भावान्न दोष इति, अत: शेषाणामुत्पन्नः, 'जइ कत्तो'त्ति यद्युत्पन्नः कुतः इति, आह- 'तिविह- सामित्ता' त्रिविधं च तत् स्वामित्वं चेति समासः, तस्मात्रिविधस्वामित्वात्-त्रिविधस्वामिभावात् त्रिविधकारणादित्यर्थः । आह-एवमप्येकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यासदोषस्तदवस्थ एव, न, अशेषवस्तुन एव तत्त्वतः सामान्यविशेषात्मकत्वात्, सामान्यधर्मैः सत्त्वादिभिरनुत्पादाद् विशेषधर्मैः संस्थानानुपूर्व्यादिभिरुत्पादाद्, विजृम्भितं चात्र भाष्यकृता तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयाद्, गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः ८८८ यदुक्तं- 'त्रिविधस्वामित्वादिति, तत् त्रिविधस्वामित्वमुपदर्शयन्नाह समुट्ठाण १ वाघणा २ लडिओ ३ पढमे नयत्तिए तिविहं । उज्जुसुय पढमवज्रं सेसनया लद्धिमिच्छति ॥ ८८९ ॥ Education intimation अध्ययन [ - ], Forsy भाष्यं [१५१...] ~757~ नमस्कार० वि० १ ॥३७७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ibrary.org Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८८९], भाष्यं [१५१...] (४०) 4 PD9 प्रत सूत्राक व्याख्या-समुत्थानतो वाचनातो लब्धितश्च नमस्कारः समुत्पद्यत इति वाक्यशेषः, सम्यक् सङ्ग प्रशस्तं वोत्थान समुत्थानं तन्निमित्तं नमस्कारस्य, कस्य समुत्थानम्, अन्यस्याश्रुतत्वात्तदाधारभूतत्वात् प्रत्यासन्नत्वाद् देहस्यैव गृह्यते इति, युक्तं च देहसमुत्थानं नमस्कारकारणं, तद्भावभावित्वान्यथाऽनुपपत्तेरिति, अतः समुत्थानतः १, वाचन वाचना-परतः | श्रवणम् अधिगम उपदेश इत्यनर्थान्तरं, सा च नमस्कारकारणं, तद्भावभावित्वादेवेति, अतो वाचनातः २, लब्धिः -तदावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणा, सा च कारणं, तद्भावभावित्वादेव, अतो लब्धितश्च ३, पदान्तप्रयुक्तश्चशब्दो नयापेक्षया त्रयाणामपि प्राधान्यख्यापनार्थः । अत एवाह-पढमे णयत्तिए तिविह'ति प्रथमे नयत्रिकऽशुद्धनेगमसाहव्यवहाराख्ये विचायें समुत्थानादि त्रिविधं नमस्कारकारणमिति, आह-प्रथमे नयत्रिकेऽशुद्धनगमसनही कथं त्रिविधं कारणमिच्छतः, तयोः सामान्यमात्रावलम्बित्वाद, उच्यते, 'आदिनेगमस्सऽणुप्पन्न' इत्यत्रेव प्रथमानयत्रिकात् तयोरुत्कलितत्वान्न दोषः, 'उज्जुसुयपढमवजंति' ऋजुसूत्रः प्रथमवर्ज-समुत्थानाख्यकारणशून्यं कारणद्वयमेवेच्छति, समुत्थानस्य व्यभिचारित्वात्, तद्भावेऽपि वाचनालब्धिशून्यस्यासम्भवात, 'सेस नया लद्धिमिच्छति'त्ति शेषनयाः-शब्दादयो लब्धिमेव एका कारणमिच्छन्ति, वाचनाया अपि व्यभिचारित्वात्, तथाहि-सत्यामपि वाचनायो लब्धिरहितस्य गुरुकर्मणोऽभव्यस्य वा नैवोत्पद्यते नमस्कारः, तस्यां सत्यामेवोत्पद्यते, ततोऽसाधारणत्वात्सव कारणमिति गाथार्थः ॥ ८८९ ॥द्वारम् १॥ इदानीं निक्षेपः, स च चतुर्धा-नामनमस्कारः स्थापनानमस्कारः द्रव्यनमस्कारः भावनमस्कारश्च, नामस्थापने सुगमे, ज्ञभव्यश|रीरातिरिक्तद्रव्यनमस्काराभिधित्सयाऽऽह दीप अनुक्रम JABERatinintamational Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: द्रव्यनमस्कारस्य व्याख्यानं ~ 758~ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९०], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक- निहाइ दव्वभावोवउत्तुजं कुज संमदिही उ।(मूलदार २)नेवाइअं पयं (मू०३) दवभावसंकोअणपयत्थो ८९० नारकमर० हारिभ- व्याख्या-निवादिव्यनमस्कारः, नमस्कारनमस्कारवतोरव्यतिरेकात्, आदिशब्दात् द्रव्यार्थों वा यो मन्त्रदेवता-1 वि०१ द्रीया द्याराधनादाविति, एस्थ दबनमोक्कारे उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, धारिणीसहिओ ओलोयणं करेइ, दमग-4 १३७८॥ पासणं, अणुकंपाए नइसरिसा रायाणोत्ति भणइ देवी, रण्णा आणाविओ, कयालंकारो दिण्णवत्यो तेहिं उवणीओ, सोय कच्छ्रए गहिएल्लओ, भासुर ओलग्गाविजइ, कालंतरेण रायाणए से रजं दिण्णं, पेच्छइ दंडभडभोइए देवयाययणपूयाओ। करेमाणे, सो चिंतेइ - अहं कस्स करेमि?, रण्णो आययणं करेमि, तेण देउलं कयं, तत्थ रण्णो देवीए य पडिमा कया, पडिमापवेसे आणीयाणि पुच्छंति, साहइ, तुट्ठो राया सकारेइ, सो तिर्सझं अच्चेइ, पडियरणं, तुझेण राइणा से सबढाणगाणि दिण्णाणि, अन्नया राया दंडयत्ताए गओ तं सर्वतेउरहाणेसु ठवेऊणं, तत्थ य अंतेउरियाओ निरोह असहमाणिओ तं चेव उवचरंति, सो नेच्छइ, ताहे ताओ भत्तगं नेच्छंति, पच्छा सणियं पविठ्ठो, विट्टालिओ य, राया आगओ, सिढे विणासिओ। अन्नद्रव्यनमस्कारे उदाहरणम्-वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, धारणीसहितोऽवलोकन करोति, दमकदर्शनम् , अनुकम्पया नदीसदृशा राजान इति भणति देवी, राज्ञाऽऽनीतः, कृतालङ्कारो दत्तवस्त्रस्तः उपनीतः, स चकच्छा गृहीतः, भास्वरमवलग्यते, कालान्तरेण राज्ञा तस्मै राज्यं दत्तं, दण्डभटभोजिकान् । ॥३७८॥ | देवतायतनपूजाः कुर्वतः प्रेक्षते, स चिन्तयति-अई कस्य करोमि !, राज्ञ आषतनं करोमि, तेन देवकुलं कृतं, तन्त्र राज्ञो देख्याच प्रतिमा कृता, प्रतिमाप्रवेशे आनीते पृच्छतः, कथयति, तुष्टो राजा सत्कारयति, स त्रिसन्ध्यमर्चवति, प्रतिचरणं, तुष्टेन राज्ञा तस्मै सर्वस्थानानि दत्तानि, अन्यदा राजा दण्डयात्राय गतः तं सर्वेष्वन्तःपुरस्थानेषु स्थापयित्वा, तत्र चान्तःपुर्यः निरोधमसहमानास्तमेवोपचरन्ति, स नेच्छति, तदा ता भक्तं नेच्छन्ति, पश्चात् शनैः प्रविष्टः, विनष्ठश्च, राजा आगतः, शिष्टे विनाशितः । * नेदं प्र० दीप ॐ45454 अनुक्रम [१] Tangibraryam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 759~ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९०], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक 606 रायस्थाणीओ तित्थयरो, अंतेउरत्थाणीया छक्काया, अहवाण छक्काया किंतु संकादओ पदा, मा सेणियादीणवि दवनमोकारो भविस्सइ, दमगत्थाणिया साहू, कच्छूलस्थाणीय मिच्छत्तं, भासुरत्थाणीयं सम्मत्तं, डंडो विनिवाओ संसारे, एस दबनमोकारो । भावोवउत्तु जं कुज सम्मद्दिडी उ' नोआगमतो भावनमस्कारः 'यत् कुर्यात् यत् करोति शब्दकियादि सम्यग्दृष्टिरेवेति, अत्र च नामादिनिक्षेपाणां यो नयो यं निक्षेपमिच्छति तदेतद्विशेषावश्यकादाशङ्कापरिहारसहितं विज्ञेयम्, इह तुअन्धविस्तरभयादल्पमतिविनेयजनानुग्रहार्थं च नोक्तमिति ॥ द्वारं॥पदद्वारमधुना-पद्यतेऽनेनेति पदं, तच पञ्चधा-नामिक नैपातिकम् औपसर्गिकम् आख्यातिकं मिश्रं चेति, तत्राश्व इति नामिकं, खल्विति नैपातिकं, परीत्यौपसर्गिक, धावतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्र, एवं नामिकादिपञ्चप्रकारपदसम्भवे सत्याह-'नेवाइयं पर्य' ति निपतत्यर्हदादिपदादिपर्यन्तेप्विति निपातः, निपातादागतं तेन वा निर्वृत्तं स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययविधानात् नैपातिकमिति, तत्र || नम' इति नैपातिकं पदं॥द्वारम् ॥ पदार्थद्वारमधुना-तत्र गाथावयवः 'दबभावसंकोयणपयत्यो तिनम इत्येतत् पूजार्थणम प्रहत्वे' धातुः 'उणादयो बहुल' (पा०३-३-१) मित्यसुन्, नमोऽर्हद्भयः, स च द्रव्यभावसङ्कोचनलक्षण इति, तत्र द्रव्यसंकोचन करशिरःपादादिसङ्कोचा, भावसङ्कोचनं विशुद्धस्य मनसो नियोगः, द्रव्यभावसङ्कोचनप्रधानः पदाथों द्रव्यभाव|| सङ्कोचनपदार्थ, शाकपार्थिवादेराकृतिगणत्वात् प्रधानपदलोपः, अत्रच भङ्गचतुष्टयं-द्रव्यसङ्कोचो न भावसकोच इत्येका, यथा पालकस्य, भावसङ्कोचो न द्रव्यसङ्कोच इत्यनुत्तरदेवानां द्वितीयः, द्रव्यभावयोः सङ्कोच इति शाम्बस्य तृतीयः, न राजस्थानीयस्तीर्थकर, अन्त:पुरस्थानीयाः पटू कायाः, अथवा न षट् कायाः किंतु शादीनि पदानि, मा श्रेणिकादीनामपि ग्यनमस्कारो भूद।। दमकखानीयाः साधवा, कालू स्थानीयं मिथ्यात्वं, भास्वरस्थानीयं सम्यक्त्वं, दण्डो विनिपातः संसारे, एष द्रव्यनमस्कारा' यजनानु०प्र० दीप अनुक्रम [१] JABERatinintamational Oniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 760~ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९०], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक द्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोच इति शून्यः । इह च भावसङ्कोचः प्रधानो द्रव्यसङ्कोचोऽपि तच्छुद्धिनिमित्त इति गाथार्थः | हारिभ-ST १ ८९०॥ द्वारं ॥ प्ररूपणाद्वारप्रतिपादनायाऽऽह वि०१ द्रीया दुविहा परूवणा छप्पया य १ नवहा य २ छप्पया इणमो। ॥३७९॥ किं १ कस्स २ केण च ३ कहिं ४ किचिरं ५ कइविहो व ६ भवे ॥ ८९१ ॥ व्याख्या-'द्विविधा' द्विप्रकारा प्रकृष्टा-अधाना प्रगता वा रूपणा-वर्णना प्ररूपणेति, द्वैविध्यं दर्शयति-पट्पदा च नवधा च-नवप्रकारा नवपदा चेत्यर्थः, चशब्दात् पञ्चपदा च, तत्र 'छप्पया इणमो' षट्पदेयं षट्पदा इदानी वा, किं] कस्य ! केन वाकवा? कियचिरं! कतिविधो वा भवेन्नमस्कार इति गाथासमुदायार्थः ॥ ८९१ ॥ तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहकिं? जीवो तप्परिणओ (दा०१) पुब्धपडिवन्नओउ जीवाणं। जीवस्स व जीवाण व पडुच पडिवजमाणं तु।।८९२॥ व्याख्या-किंशब्दः क्षेपप्रश्ननपुंसकव्याकरणेषु, तत्रेह प्रश्ने, अयं च प्राकृतेऽलिङ्गः सर्वनामनपुंसकनिर्देशः सर्वलिङ्गैः ४|| सह यथायोगमभिसम्बध्यते, किं सामायिक ? को नमस्कारः, तत्र नैगमाद्यशुद्धनयमतमधिकृत्याजीवादिव्युदासेनाह-IN |जीवो नाजीवः, स च सङ्ग्रहनयापेक्षया मा भूदविशिष्टः स्कन्धः, यथाऽऽहुस्तन्मतावलम्बिनः-पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं । ॥३७९॥ पायच भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहती'त्यादि, तथा तन्नयविशेषापेक्षयैव मा भूदविशेपो ग्राम इत्यतो नो-16 स्कन्धो नोग्राम इति वाक्यशेषः, सर्वास्तिकायमयः स्कन्धः, तद्देशो जीवः, स चैकदेशत्वात् स्कन्धो न भवति, अनेकस्क RSSC% दीप अनुक्रम CAGAR [१] Trainrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 761~ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९२], भाष्यं [१५१...] (४०) धापत्तेः, अस्कन्धोऽपि न भवति, स्कन्धाभावप्रसङ्गाद, अनभिलाप्योऽपि न भवति, वस्तुविशेषत्वात, तस्मानोस्कन्धः, स्कन्धैकदेश इत्यर्थः, स्कन्धदेशविशेषार्थद्योतको नोशब्दः, एवं नोग्रामोऽपि भावनीयः, नवरं ग्रामः-चतुर्दशभूतग्रामसमु-13 दायः, यथोक्तम्-"एगिदिय सुहुमियरा सन्नियरपणिंदिया सबितिचऊ । पज्जत्तापजत्ता भेदेणं चोदसग्गामा ॥१॥" अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-सामान्येनाशुद्धनयानां जीवस्तज्ज्ञानलब्धियुक्तो योग्यो वा नमस्कारः, शब्दादिशुद्धनयमतं त्वधिदाक्रत्याह-तपरिणओ' जीव इति वर्तते, स हि नमस्कारपरिणामपरिणत एव नमस्कारो नापरिणत इत्यर्थः। एकत्वानेकत्व-15 चिन्तायां तु नैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारान्तर्गतत्वात् सङ्ग्रहादिभिरेव विचारः, तत्र सङ्ग्रहस्य नमस्कारजातिमात्रापेक्षत्वादेको नमस्कारः, व्यवहारस्य व्यवहारपरत्वाद् बहवो नमस्काराः, ऋजुसूत्रादीनां वर्तमानमात्रग्राहित्वाद् बहव एवोपयुक्ताश्चेति समासार्थः, व्यासार्थों विशेषावश्यकादवसेयः, किमितिद्वारं गतं । साम्प्रतं कस्य ? इति द्वारम्, इह च प्राक्प्रतिपन्नप्रति-I पद्यमानकाङ्गीकरणतोऽभीष्टमर्थ निरूपयन्नाह-'पुवपडिवन्नओ उ जीवाण' इत्यादि, प्रकृतचिन्तायामिह पूर्वप्रतिपन्न एव यदाऽधिक्रियते तदा व्यवहारनयमतमाश्रित्य जीवानां जीवस्वामिक इत्यर्थः, प्रतिपद्यमानं तु प्रतीत्य जीवस्य जीवानां (वा) इत्यक्षरगमनिका, भावार्थस्तु नयैश्चिन्त्यते-यस्मान्नमस्कार्यनमस्कद्वयाधीनं नमस्कारकरणं, तत्र नैगमव्यवहारमतं नमस्कार्यस्य नमस्कारः, न कर्तुः, यद्यपि नमस्कारक्रियानिष्पादकः कर्ता तथाऽपि नासौ तस्य, स्वयमनुपयुज्यमानत्वात्, यतिभिक्षावत, तथाहि-न दातुर्भिक्षा निष्पादकस्य, अपि तु भिक्षोभिक्षेति प्रतीतम्, अत्र च सम्बन्धविशेषापेक्षावशप्रापिता एकेन्द्रियाः सूक्ष्मेतराः संज्ञीतराः पञ्चेन्द्रियाः सद्वित्रिचनुष्काः। पर्याशापर्याप्तभेदेन चतुर्दश मामाः ॥1॥* क्षविवक्षावा. प्र. अनुक्रम [१] jandiararyan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~762~ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक- अष्टौ भङ्गा भवन्ति, तद्यथा-जीवस्य १ अजीवस्य २ जीवानां ३ अजीवानां ४ जीवस्य चाजीवस्य च ५ जीवस्य चाजी-1 नमस्कार. हारिभ- वानां च ६ जीवानामजीवस्य च ७ जीवानामजीवानां च ८, अत्रोदाहरणानि-"जीवस्स सो जिणस्स व अजीवस्स उ जिद्रीया गिदपडिमाए । जीवाण जतीणं पिव अज्जीवाणं तु पडिमाणं ॥१॥जीवस्साजीवस्स य जइणो विवस्स चेगओ समयं । जीवहस्साजीवाण य जइणो पडिमाण चेगस्थं ॥ २॥ जीवाणमजीवस्स य जईण विवस्स चेगओ समयं । जीवाणमजीवाण य जईण पडिमाण चेगत्थं ॥३॥" सहमतं तु नमःसामान्यमानं तत्स्वामिमात्रस्य च वस्तुनो जीवो नम इति च तुल्याधिकरणम्, अभेदपरमार्थत्वात् तस्य, कश्चित्तु शुद्धतरः पूज्यजीवपूजकजीवसम्बन्धाजीवस्यैव नमस्कार इत्येकं भझं प्रतिपद्यते, ऋजुसूत्रमतं तु नमस्कारस्य ज्ञानक्रियाशब्दरूपत्वात् तेषां च कर्तुरनर्थान्तरत्वात् कर्तृस्वामिक एव, शब्दादिमतमपीदमेव, केवलमुपयुक्तकर्तृस्वामिकोऽसी, तस्य ज्ञानमात्रत्वात् ज्ञानमात्रता चास्योपयोगादेव फलप्राप्तेः, शब्दक्रियाव्यभिचारात, एकत्वानेकत्वविचारस्तु नैगमादिनयापेक्षया पूर्ववदायोजनीय इति गाथार्थः॥ ८९२ ।। कस्येति गतं, केन?|| इत्यधुना निरूप्यते-केन साधनेन साध्यते नमस्कारः, तत्रेय गाथानाणावरणिजस्स य दसणमोहस्सतह खओवसमे । (दा०३)जीवमजीवे अट्ठस भंगेउ होइ सब्बत्थ ।।८९ ८ ०॥ जीवस्य स जिनस्यैव अजीवस्य तु जिनेन्द्रप्रतिमायाः । जीवानां यत्तीनामपि अजीवानां तु प्रतिमानाम् ॥1॥ जीवस्थाजीवस्य च यतेविम्यस्य चकतः समकम् । जीवसाजीवानां च यतेः प्रतिमानो चैकत्र ॥१॥जीवानामजीवख च यतीना दिमाख चैकतः समकम् । जीवानामजीवानां च यतीनां प्रतिमानां चैका ॥३॥ CSCCCCRes दीप अनुक्रम [१] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 763~ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९३], भाष्यं [१५१...] (४०) व्याख्या ज्ञानावरणीयस्य' इति सामान्यशब्देऽपि मतिश्रुतज्ञानावरणीयं गृह्यते, मतिश्रुतज्ञानान्तर्गतस्यात् तस्य, तथा सम्यगर्दशनसाहचर्याज्ज्ञानस्य दर्शनमोहनीयस्य च क्षयोपशमेन साध्यते, प्राकृतशैल्या तृतीयानिर्देशो द्रष्टव्यः, तस्य चावरणस्य विविधानि स्पर्धकानि भवन्ति-सर्वोपघातीनि देशोपघातीनि च, तत्र सर्वेषु सर्वघातिषूद्घातितेषु देशोपघा-1 तिनां च प्रतिसमयं विशुयपेक्षं भागैरनन्तैः क्षयमुपगच्छभिर्विमुच्यमानः क्रमेण प्रथममक्षरं लभते, एवमेकैकवर्णप्राप्त्या समस्तनमस्कारमिति, क्षयोपशमस्वरूपं पूर्ववद् । गतं केनेति द्वारं, कस्मिन्नित्यधुना, तत्र कस्मिन्निति सप्तम्यधिकरणे, अ|धिकरणं चाधारः, स च चतुर्भेदः, तद्यथा-व्यापकः तैऔपश्लेषिक: सामीप्यको वैषयिकश्च, तत्र व्यापकः तिलेषु तैलम्, औपश्लेषिका-कटे आस्ते, सामीप्य कः-गङ्गायां घोषः, वैषयिकः-रूपे चक्षुः, तत्राद्योऽभ्यन्तरः, शेषा बाह्याः, तत्र नैगमव्यवहारौ बाह्यमिच्छतः, तन्मतानुवादि च साक्षादिदं गाथाशकलं-'जीवमजीवेत्यादि जीवमजीव इति प्राकृतल्याऽनुस्वा रस्याभूतस्यैवागमः, तत्त्वतस्तु जीवे अजीवे इत्याद्यष्टसु भङ्गेषु भवति सर्वत्रेति भावना, नमस्कारो हि जीवगुणत्वाजीवः, स ४ च यदा गजेन्द्रादौ तदा जीवे, यदा कटादौ तदाऽजीवे, यदोभयाऽऽत्मके तदाजीवाजीवयोः, एवमेकवचनबहुवचनभेदा-12 दष्टौ भङ्गाः प्रागुक्ता एव योज्या। आह-पूज्यस्य नमस्कार इति नैगमव्यवहारौ, स एव च किमित्याधारो न भवति ? येन पृथगिष्यते, उच्यते, नावश्यं स्वेन स्वात्मन्येव भवितव्यम्, अन्यत्रापि भावात् , यथा देवदत्तस्य धान्य क्षेत्र इति, तुशब्दाच्छेपनयाक्षेपः कृतः, संक्षेपतो दश्यते-तत्र सञ्चहोऽभेदपरमार्थत्वात् कश्चिद्वस्तुमात्रे अभीच्छति, कश्चित्तद्धमत्वाजीव इति, ऋजुसूत्रस्तु जीवगुणत्वाज्जीव एव मन्यते, आह-ऋजुसूत्रोऽन्याधारमपीच्छत्येव, 'आकाशे वसती ति वचनादू, उच्यते, अनुक्रम [१] CAMEaurat SLAndionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 764~ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९३], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक द्रव्यविवक्षायामेवं न गुणविवक्षायामिति, शब्दादयस्तूपयुक्त ज्ञानरूपे जीव एवेच्छन्ति नान्यत्र, नवा शब्दक्रियारूपमिति हारिभ वि०१ द गाथार्थः ॥ ८९३ ॥ कस्मिन्निति द्वारमुक्तं, साम्प्रतं कियच्चिरमसौ भवतीति निरूप्यते, तत्रेयं गाथाद्रीया उवओग पडुचंतोमुहुत्त लद्धीइ होइ उ जहन्नो । उक्कोसटिइ छावहि सागरा (दा०५)ऽरिहाइ पंचविहो॥८९४॥ ॥३८॥ व्याख्या-उपयोगं प्रतीत्य अन्तर्मुहूर्त स्थितिरिति सम्बध्यते जघन्यतः उत्कृष्टतश्च, 'लद्धीए होइ उ जहन्नो' लब्धेश्च क्षयोपशमस्य च भवति तु जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त एव, उत्कृष्टस्थितिलब्धेः षट्षष्टिसागरोपमाणि, सम्यक्त्वकाल इत्यर्थः, एक जीवं प्रतीत्यैषा, नानाजीवान पुनरधिकृत्योपयोगापेक्षया जघन्येनोत्कृष्टतश्च स एव, लन्धितश्च सर्वकालमितिद्वारम्।। कतिविधो वा ? इत्यस्य प्रश्नस्य निर्वचनार्थों गाथावयवः-'अरिहाइ पंचविहो'त्ति अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसाधुपदादिस|न्निपातात् पञ्चविधार्थसम्बन्धात् अहंदादिपञ्चविध इत्यनेन चार्थान्तरेण वस्तुस्थित्या नमःपदस्याभिसम्बन्धमाहेति गाथार्थः । दी। ८९४ ॥ द्वारम् ॥ गता षट्पदप्ररूपणेति, साम्प्रतं नवपदाया अवसरः, तत्रेयं गाथा संतपयपरूवणया १दव्वपमाणंच २ खित्त३ फुसणा य४ कालो अ५अंतरं भागभाव ८ अप्पापहुंचेव ९ | व्याख्या-सत् इति सद्भूतं विद्यमानार्थमित्यर्थः, सच्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणा सत्पदनरूपणा, कार्येति वाक्य ॥३८॥ शेषः, यतश्च नमस्कारो जीवद्रव्यादभिन्न इत्यतो द्रव्यप्रमाणं च वक्तव्यं, कियन्ति नमस्कारवन्ति जीवद्रव्याणि ?, तथा क्षेत्रम्' इति कियति क्षेत्रे नमस्कारः, एवं स्पर्शना च कालश्च अन्तरं च वक्तव्यं, तथा भाग इति नमस्कारवन्तः शेष-16) 6 अनुक्रम [१] Aanasarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 765~ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९५], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक जीवानां कतिथे भागे वर्तन्त इति, 'भावे' त्ति कस्मिन् भावे ? 'अप्पाबहुं चेव' त्ति अल्पबहुत्वं च वक्तव्यं, प्राक्प्रतिप-13 नप्रतिपद्यमानकापेक्षयेति समासार्थः ॥ ८९५ ॥ व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते, तत्राद्यद्वाराभिधित्सयाऽऽहसंतपयं पहिवन्ने पडिवज्जते अ मग्गणंगइसुं । इंदिअ २ काए ३ वेए ४ जोए अ५ कसाय ६ लेसासु ७॥८९३॥ सम्मत्त ८ नाण ९ देसण १० संजय ११ उवओगओअ १२ आहारे १३ ॥ भासग १४ परित्त १५ पज्जत्त १६ सुहमे १७ सन्नी अ१८ भव १९ चरमे २०॥ ८९७ ॥ | व्याख्या-इदं गाथाद्वयं पीठिकायां व्याख्यातत्वान्न वित्रियते । द्वारम् । अनुक्तद्वारत्रयावयवार्थप्रतिपादनायाह पलिआसंखिजहमे पडिवन्नो हुन (दा०२) खित्तलोगस्स।सत्तसु चउदसभागेसु हुज (दा०३)फुसणावि एमेव | व्याख्या-'पलियासंखेज्जइमे पडिवन्नो होज' ति इयं भावना-सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमस्यासङ्ख्येयतमे भागे यावन्तः प्रदेशा एतावन्तो नमस्कारप्रतिपन्ना इति॥द्वारम् ॥ खित्तलोगस्स सत्तसु चोदसभागेसु होज' त्ति गतार्थ, नवरमधोलोके 8 पञ्चस्विति ॥द्वारम् ॥ 'फुसणावि एमेव त्ति नवरं पर्यन्तवर्तिनोऽपि प्रदेशान् स्पृशतीति भेदेनाभिधानमिति गाथार्थः॥८९८ द्वारं ॥ कालद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽहएगं पडुच्च हिडा तहेच नाणाजिआण सब्बद्धा (दारं ५)। अंतर पडुच्च एणं जहन्नमतोमुहुत्तं तु ॥ ८९९ ॥ व्याख्या-एक जीवं प्रतीत्याधस्तात् षटूपदप्ररूपणायां यथा काल उक्तस्तथैव ज्ञातव्यः, नानाजीवानप्यधिकृत्य तथैव, दीप अनुक्रम [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 766~ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [८९९], भाष्यं [१५१...] (४०) 2- 4-54- 2 आवश्यक- यत आह-तहेव नाणाजीवाण सबद्धा भाणियबा' काका नीयते॥द्वारम् ॥ अंतर पडुच्च एगं जहन्नमन्तोमुहुत्तं तु कण्ठ्यं, नमस्कार हारिभ- नवरं प्रतीत्यशब्दस्य व्यवहितो योगः, एक प्रतीत्यैवमिति गाथार्थः ॥ ८९९ ॥ से वि०१ द्रीया उकोसेणं चेयं अद्धापरिअडओ उ देसूणो।णाणाजीवेणस्थि उ (द्वारंद)भावे य भवे खओवसमे (द्वारं८)॥१०॥ ॥३८२॥ | व्याख्या-उकोसेणं चेयं, तमेव दर्शयति-'अद्धापरियट्टओ उ देसूणो णाणाजीवे णथि उ' नानाजीवान प्रतीत्य नास्त्यन्तरं, सदाऽव्यवच्छिन्नत्वात् तस्य ॥ द्वारं। 'भावे य भवे खओवसमें त्ति, प्राचुर्यमङ्गीकृत्यैतदुक्तम् , अन्यथा क्षायिकौपशमिकयोरप्येके वदन्ति, क्षायिके यथा-श्रेणिकादीनाम् , औपशमिके श्रेण्यन्तर्गतानामिति, यथासङ्ख्यं च भागद्वारावयवार्थानभिधानमदोषायैव, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति गाथार्थः ॥ ८९० ॥ द्वारं । भागद्वारं व्याचिख्यासुराह जीवाणऽणतभागो पडिवण्णो सेसगा अर्णतगुणा (द्वारं)। वत्थु तरिहंताइ पञ्च भवे तेसिमो हेऊ ॥१०॥ व्याख्या-जीवाणणन्तभागो पडिवण्णे सेसगा अपडिवनगा अणंतगुणत्ति ॥ द्वारम् ।। अल्पबहुत्वद्वारं यथा पीठिकायां का मतिज्ञानाधिकार इति । साम्प्रतं चशब्दाक्षिप्तं पञ्चविधप्ररूपणामनभिधाय पश्चार्थेन वस्तुद्वारनिरूपणायेदमाह-'वस्तु' इति वस्तु द्रव्यं दलिकं योग्यमहमित्यनान्तरं, वस्तु नमस्काराहो अहंदादयः पञ्चैव भवन्ति, तेषां वस्तुत्वेन नमस्कारा-॥३८२॥ है त्वेऽयं हेतुः-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः ॥९०१ ॥ अधुना चशब्दसूचितां पञ्चविधां प्ररूपणां प्रतिपादयबाह आरोवणा य भयंणा पुच्छा तह दायणा य निजवणा । नमुकारऽनमुकारे नोआइजुएं व नवहा वा ॥९०२॥ व्याख्या-आरोपणा च भजना पृच्छा तथा 'दायना' दर्शना दापना वा, निर्यापना, तत्र किं जीव एव नमस्कार! 62 अनुक्रम [१] amitrayon मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~767~ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०२], भाष्यं [१५१...] (४०) k9 प्रत सूत्राक आहोस्विन्नमस्कार एव जीवः ? इत्येवं परस्परावधारणम् आरोपणा, तथा जीव एव नमस्कार इत्युत्तरपदावधारणम् १, अजीवाद्यवच्छिद्य जीव एव नमस्कारोऽवधायते, जीवस्त्वनवधारितः, नमस्कारो वा स्यादनमस्कारोवा, एपा एकपदव्यभिचाराशजना २, किंविशिष्टो जीवो नमस्कारः? किंविशिष्टस्त्वनमस्कार इति पृच्छा ३, अन्न प्रतिव्याकरण दापना। नमस्कारपरिणतः जीवो नमस्कारो नापरिणत इति ४, निर्यापना त्वेष एव नमस्कारपर्यायपरिणतो जीवो नमस्कारः, नमस्कारोऽपि जीवपरिणाम एव नाजीवपरिणाम इति, एतदुक्तं भवति-दापना प्रश्नार्धव्याख्यानं निर्यापना तु तस्यैव निगमनमिति, अथवेयमन्या चतुर्विधा प्ररूपणेति, यत आह-'नमोकारऽनमोकारे णोआदिजुए व णवधा वा तत्र प्रकआत्यकारनोकारोभयनिषेधसमाश्रयाचातुर्विध्यं, प्रकृतिः-स्वभावः शुद्धता यथा नमस्कार इति, स एव नजा सम्बन्धादका-IN रयुक्तः अनमस्कारः, स एव नोशब्दोपपदे नोनमस्कारः, उभयनिषेधात्तु नोअनमस्कार इति, तत्र नमस्कारस्तत्परिणतो जीवः, अनमस्कारस्त्वपरिणतो लब्धिशून्यः अन्यो चा, 'नोआइजुए वत्ति नोआदियुक्तो वा नमस्कारः अनमस्कारश्च, अनेन भङ्गकद्धयाक्षेपो वेदितव्यः, नोशब्देनाऽऽदियुक्तो यस्य नमस्कारस्येतरस्य चेत्यक्षरगमनिका, तत्र नोनमस्कारो विवक्षया नमस्कारदेशः अनमस्कारो वा, देशसर्वनिषेधपरत्वान्नोशब्दस्य, नोअनमस्कारोऽपि अनमस्कारदेशो वा नमस्कारो वा, देशसर्वनिषेधत्वादेव, एषा चतुर्विधा, नैगमादिनयाभ्युपगमस्त्वस्याः पूर्वोक्तानुसारेण प्रदर्शनीया, 'नवधा वे' ति| प्रागुक्ता पश्चविधा इयं चतुर्विधा च सङ्कलिता सती नवविधा प्ररूपणा प्रकारान्तरतो द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥ ९०२ ॥ प्ररूपणाद्वारं गतम्, इदानीं निःशेषमिति, साम्प्रतं 'वत्थु तऽरहताई पंच भवे तेसिमो हेउ' त्ति गाथाशकलोपन्यस्तमवस दीप अनुक्रम 444 antaintml ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~768~ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥३८३॥ Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्ति: [९०२], अध्ययन [ - ], रायातं च वस्तुद्वारं विस्तरतो व्याख्यायत इति, तत्रानन्तरोक्तं गाथाशकलं व्याख्यातमेव, नवरं तत्र यदुक्तं 'तेषां वस्तु नमस्कार० त्वेऽयं हेतु' रिति, स खल्विदानीं हेतुरुच्यते, तत्रेयं गाथा * वि० १ मग्गे १ अविष्पणासो २ आयारे ३ विणयया ४ सहायत्तं ५ | पंचविहनमुकारं करेमि एएहिं हेकहिं ॥ ९०३ ॥ भाष्यं [ १५१...] व्याख्या - मार्गः अविप्रणाशः आचारः विनयता सहायत्वम् अर्हदादीनां नमस्काराईत्वे एते हेतवः, यदाह-पञ्चविधनमस्कारं करोमि एभिर्हेतुभिरिति गाथासमासार्थः ॥ इयमत्र भावना- अर्हतां नमस्कारार्हत्वे मार्गः सम्यग्दर्शनादिलक्षणो हेतुः यस्मादसौ तैः प्रदर्शितस्तस्माच्च मुक्तिः, ततश्च पारम्पर्येण मुक्तिहेतुत्वात् पूज्यास्त इति । सिद्धानां तु नमस्का राहत्वेऽविप्रणाशः, शाश्वतत्वं हेतुः तथाहि तदविप्रणाशमवगम्य प्राणिनः संसारवैमुख्येन मोक्षाय घटन्ते । आचार्याणां तु नमस्काराईत्वे आचार एव हेतु:, तथाहि तानाचारवत आचाराख्यापकांश्च प्राप्य प्राणिन आचारपरिज्ञानानुष्ठानाय भवन्ति । उपाध्यायानां तु नमस्कारार्हत्वे विनयो हेतुः, यतस्तान् स्वयं विनीतान् प्राप्य कर्मविनयनसमर्थविनयवन्तो (प्र) भवन्ति देहिन इति । साधूनां तु नमस्काराद्दत्वे सहायत्वं हेतुः, यतस्ते सिद्धिवधूसङ्गमैकनिष्ठानां तदवातिक्रियासाहाय्यमनुतिष्ठन्तीति गाथार्थः ॥ ९०३ ॥ एवं तावत्समासेनाईदादीनां नमस्कारार्हत्यद्वारेण मार्गप्रणयनादयो गुणा उक्ताः साम्प्रतं प्रपञ्चेनार्हतां गुणानुपदर्शयन्नाह - अडवीर देसिअसं १ तहेब निजामया समुद्दमि २ । छक्कायरक्खण्डा महगोवा तेण बुचंति ३ ॥ ९०४ ॥ For Fans Only ~769~ ||३८३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०४], भाष्यं [१५१...] (४०) - - - प्रत --- सूत्राक - व्याख्या-अटव्या देशकत्वं कृतमर्हद्भिः, तथैव निर्यामकाः समुद्रे, भगवन्त एव पट्कायरक्षणार्थ यतः प्रयत्नं चक्रुः महागोपास्तेनोच्यन्त इति गाथासमासार्थः ॥९०४ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र द्वारावयवार्थोऽभिधीयते अडविं सपञ्चवायं वोलित्ता देसिओवएसेणं । पावंति जहिहपुरं भवाडविपी तहा जीवा ॥९०५॥ पावंति निव्वुइपुरं जिणोवइटेण चेव मग्गेणं । अडवीह देसिअत्तं एवं नेअंजिणिंदाणं ॥९०६ ॥ व्याख्या-'अटवी' प्रतीता 'सप्रत्यपायाम्' इति व्याधादिप्रत्यपायबहुला 'वोलेत्त' ति उल्लङ्गन्य 'देशिकोपदेशेन' निपुः। णमार्गज्ञोपदेशेन प्राप्नुवन्ति 'यथा 'इष्टपुरम्' इष्टपत्तनं, भवाटवीमप्युल्लङ्घयेति वर्तते, तथा जीवाः किं प्राप्नुवन्ति ?-'निव-| तिपुरं' सिद्धिपुरं जिनोपदिष्टेनैव मार्गेण, नान्योपदिष्टेन, ततश्चाटव्यां देशिकत्वमेवं 'ज्ञेयं ज्ञातव्यं, केषां ?-जिनेन्द्राणामिति गाथादयसमासार्थः॥९५-९६ ॥ व्यासार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एत्थं अडवी दुविहा-दबाडवी भावाडवी य, तस्थ दवाडवीए ताव उदाहरणं-वसंतपुरं णयरं, धणो सत्यवाहो, सो पुरंतर गंतुकामो घोसणं कारेइ जहा णंदिफलणाए, तओ तत्थ बहवे तडिगकप्पडिगादयो संपिंडिया, सो तसि मिलियाणं पंधगुणे कहेइ-एगो पंथो उजुओ एगो को, जो सो को तेण मणागं सुहसुहेण गम्मइ, बहुणा य कालेण इच्छियपुरं पाविजइ, अवसाणे सोवि उजुर्ग चेव ओयरइ, जो| - - दीप - अनुक्रम - [१] -- न अत्राटंबी द्विविधा-वन्याटवी भावाटवी च, तत्र दण्याटम्यां ताबदाहरणम्-बसन्तपुरं नगर, धनः सार्थवाहः, स पुरान्तरं गन्तुकामो घोषणा कारयति-यथा नन्दीफलज्ञाते, ततस्तत्र वयस्खटिककापटिकादयः संपिण्डिताः, स तेभ्यो मिलितेभ्यः षधिगुणान् कथयति-एकः पन्थाः काजरेको पत्रः, यः सबक्रखेन मनाए सुषंसुखेन गम्यते, बहुना च कालेन ईप्सिसपुरं प्राप्यते, अवसाने सोऽपि मखमेवावतरति, यः Ajanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~770~ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०६], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥३८॥ पुण उज्जुगो तेण लहुं गम्मइ, किच्छेण य, कहं १, सो अईव विसमो सण्हो य, तत्थ ओतारे चे दुवे महाघोरा वग्ध- नमस्कार [सिंहा परिवसंति, ते तओ पाए चेव लग्गति, अमुयंताण य पहं न पहवंति, अवसाणं च जाव अणुवदृति, रुक्खा य एत्थ|| वि० १ एगे मणोहरा, तेसिं पुण छायासु न वीसमियवं, मारणप्पिया खु सा छाया, परिसडियपंडुपत्ताणं पुण अहो मुहुत्तगं वीसमिय, मणोहररूवधारिणो महुरवयणेणं एत्थ मग्गंतरठिया बहवे पुरिसा हकारेंति, तेसिं वयणं न सोयवं, सस्थिगा। खणपि ण मोत्तवा, एगागिणो नियमा भयं, दुरंतो य घोरो दवग्गी अप्पमत्तेहिं उल्लवेयबो, अणोल्हविजतो य नियमेण | डहइ, पुणो य दुग्गुच्चपचओ स्वउत्तेहिं चेव लंघेयवो, अलंघणे नियमा मरिजति, पुणो महती अगुविलगबरा वंसकु| डंगी सिग्घं लंघियबा, तमि ठियाणं बहू दोसा, तओ य लहुगो खड्डो, तस्स समीवे मणोरहो णाम बंभणो णिच्च | सण्णिहिओ अच्छइ, सो भणइ-मणाग पूरेहि एयंति, तस्स न सोयचं, सो ण पूरेयबो, सो खु पूरिजमाणो महल्लतरो सूत्राक ******XXXXXX दीप अनुक्रम पुनःमतेन लघु गम्यते, कृच्छ्रेण च, कथं ?, सोऽतीव विषमः लवणव, तश्रावतार एव द्वौ महाबोरौ व्यापसिंही परिक्सतः, तो ततः पादयोरेव | लगतः, अमुजतोश पन्थानं न प्रभवन्ति, अवसानं च यावदनुपत्तेते, वृक्षावत्रिके मनोहराः, तेषां पुनश्छायासु न विनमितव्यं, मारणमियव सा छाया, परिशटितपादुपत्राणामधो मुहूर्त निमितव्यं, मनोहररूपधारिणश्च बहवो मधुरवचनेनान्न मार्गान्तरस्थिताः पुरुषा आकारयन्ति, तेषां वचनं न श्रोतव्यं, सार्षिकाः क्षणमपि न मोक्तव्याः, एकाकिनो नियमानयं, दुरन्तो घोरच दवागिरप्रमत्तैर्विध्यापयितव्यः, अविध्यापितश्च नियमेन दहति, पुनश्च दुर्गोच्चपर्वत उपयुक्तरेव || लङ्कषितम्यः, अनुल्लङ्कने च नियमात् म्रियते, पुनमहती भतिगुपिलगहरा बंशकुडङ्गी शी लकवितव्या, तखां स्थितानां बहवो दोषाः, ततश्च लघुगतः, तस्य समीपे मनोरथो नाम माहाणो नित्यं सन्निहितस्तिष्ठति, स भणति-मनाक् पूरयैनमिति, तस्य न श्रोतव्यं, स न पूरचितम्यः स हि पूर्यमाणो महचरो ॥३८४॥ MiDrayom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~771~ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०६], भाष्यं [१५१...] (४०) भवद पंथाओ य भजिजइ, फलाणि य एत्थ दिवाणि पंचप्पयाराणि णेत्ताइसुहंकराणि किंपागाणं न पेक्खियवाणि ण| भोत्तवाणि, बावीसं च णं एत्थ घोरा महाकराला पिसाया खणं खणमभिद्दवति तेऽषि ण ण गणेयबा, भत्तपाणं च तत्थ विभागओ विरसं दुलभ चत्ति, अप्पयाणयं च ण कायचं, अणवरयं च गंतवं, रत्तीए वि दोणि जामा सुवियचं, सेसदुगेय गंतवमेव, एवं च गच्छंतेहिं देवाणुप्पिया! खिप्पमेव अडवी लंपिज्जइ, लंघित्ता य तमेगंतदोगच्चवज्जियं पसत्थं सिवपुरं पाविजइ, तत्थ य पुणो ण होति केइ किलेसत्ति । तओ तत्थ केइ वेण समं पयट्टा जे उज्जुगेण पधाविया, अण्णे पुण इयरेण, तओ सो पसत्थे दिवसे उच्चलिओ, पुरओ वच्चंतो मग्गं आहणइ, सिलाइसु य पंथस्स दोसगुणपिसुणगाणि अक्खराणि लिहइ, पत्तियं गयमेत्तियं सेसंति विभासा, एवं जे तस्स निद्देसे बढ़िया ते तेण सम अचिरेण तं पुरं पत्ता, जेऽवि लिहियाणुसारेण संमं गच्छति तेऽवि पावंति, जे न वट्टिया न वा वटुंति छायादिषु पडिसेविणो ते न पत्ता न भवति पन्थानच भज्यन्ते, फलानि चान दिव्यानि पनप्रकाराणि नेत्रादिसुखकराणि किपाकानां न प्रेक्षयितम्यानि न भोक्तव्यानि, द्वाविंशतिश्चात्र घोरा महाकरालाः पिशाचाः क्षणं क्षणममिवन्ति तेऽपि न गणयितच्याः, भक्तपानं च तत्र विभागतो विरसं दुर्लभ चेति, अप्रयाणं च न कर्तव्यम् , अनवरतं च गन्तव्यं, रात्रावपि द्वौ बामौ स्वप्तव्यं शेषहिके च गन्तव्यमेव, एवं गच्छदिरेव देवानुप्रियाः ! शिप्रमेवाटवी छापते, इयित्वा च तदेकान्तदौर्गखवर्जितं प्रशक्तं शिवपुर प्राप्यते, तत्र च पुनर्न भवन्ति केचिस्केशा इति । ततस्तत्र केचित्तेन समं प्रवृत्ता थे जुना प्रभाविता, मन्ये पुनरितरेण, ततः स प्रशसो दिवसे उच्चलितः, पुरतो वजन् माग आहन्ति (समीकरोति), शिलादिसु च पयो गुणदोषपिशुनाम्यक्षराणि लिखति, एतावदतमतावच्छेपमिति विभाषा, एवं ये तस्य निर्देशे वृत्तास्ते तेन सममचिरेण तापुरं प्राप्ताः, येऽपि विखितानुसारेण सम्पगच्छन्ति तेऽपि प्राप्नुवन्ति, ये न वृत्ता न वा वर्तन्ते छायादिषु प्रतिसे विनम्न माता न अनुक्रम [१] JABERatinintamational Maminayam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~772 ~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०६], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया नमस्कार० वि०१ --- ॥३८५॥ ॐ यावि पार्वति । एवं दवाडवीदेसिगणायं, इयाणि भावाडवीदेसिगणाए जोइज्जइ-सत्थवाहत्थाणीया अरहंता, उग्घोसणाथा- णीया धम्मकहा तडिगाइथाणीया जीवा, अडवीत्थाणीओ संसारो, उज्जुगो साहुमग्गो, वंको य सावगमग्गो, पप्पपुर स्थाणीओ मोक्खो, बग्धसिंघतुहा रागद्दोसा, मणोहररुक्खच्छायाथाणीया इथिगाइसंसत्तवसहीओ, परिसडियाइत्था णीआओ अणवज्जवसहीओ, मन्गतडत्थहकारणपुरिसथाणगा पासत्थाई अकल्लाणमित्ता, सस्थिगाथाणीया साहू, दवग्गाइथाणिया कोहादओ कसाया, फलथाणीया विसया, पिसायथाणीया बावीस परीसहा भत्तपाणाणि एसणिज्जाणि, अपयाणगथाणीओ निचुजमो, जामदुगे सज्झाओ, पुरपत्ताणं च णं मोक्खसुहंति । एत्थय तं पुर गंतुकामो जणो उवएसदाणा इणा उवगारी सत्यवाहोत्ति नमसति, एवं मोक्खत्थीहिवि भगवं पणमियबो ॥ तथा चाहजह तमिह सत्यवाहं नमइ जणोतं पुरं तु गंतुमणो । परमुवगारित्तणओ निविग्वत्थं च भत्तीए ॥ ९०७ ॥ अरिहो उ नमुकारस्स भावओ खीणरागमयमोहो । मुक्खत्थीणपि जिणो तहेव जम्हा अओरिहा ॥१०॥ १चापि प्राप्नुवन्ति । एवं दम्याटबीदेशिकज्ञातम्, इदानीं भावाढवीदेशिकज्ञाते योज्यते सार्थवाहस्थानीया अर्हन्तः, उन्धोषणास्थानीया धर्मकथा' तटिकाविस्थानीवा जीवाः, अटवीस्थानीयः संसारः, कजः साधुमार्गः, वक्र श्रावकमार्गः, प्राप्यपुरस्थानीयो मोक्षः च्यामसिंहतुल्यौ रागद्वेषी, मनो हरवृक्षच्छायास्थानीयाः स्यादिसंसक्तवसतयः, परिशटितादिस्थानीया मनद्यवसतयः, मार्गतटस्थादायकपुरुषस्थानीयाः पार्थस्थादयोऽकल्याणमित्राणि, सार्मिकस्थानीयाः साधवः, दवाझ्यादिस्थानीवाः क्रोधादयः कपायाः, फलस्थानीया विषयाः, पिशाचस्थानीया विंशतिः परीषहाः, भक्तपानान्येषणीयानि, अभयाणस्थानीयो नियोधमा, यामहिके स्वाध्यायः, पुरप्राप्तानां च मोक्षसुखमिति । अत्र च तत्पुरं गन्तुकाभी जन उपदेशदानादिनोपकारी सार्थवाह इति नमस्पति, एवं मोक्षार्थिभिरपि भगवान् प्रणन्तभ्यः । अनुक्रम R ॥३८५॥ JABERatinintamational randiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अरहंत-व्याख्या एवं तस्य नमस्कारः ~ 773~ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९०८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक गाथाद्वयं निगदसिद्धं, नवरं मदशब्देन द्वेषोऽभिधीयते इति ॥ संसाराअडवीए मिच्छत्तन्नाणमोहिअपहाए । जेहिं कय देसिअत्तं ते अरिहंते पणिवयामि ॥९०९॥ व्याख्या संसाराटव्यां, किंविशिष्टायां ?-'मिथ्यात्वाज्ञानमोहितपथायां तत्र मिथ्यात्वाज्ञानाभ्यां मोहितः पन्था यस्यामिति विग्रहः, तस्यां, यैः कृतं देशिकत्वं तानर्हतः 'प्रणौमि' अभ्यर्थयामीति गाधार्थः ॥ ९०९॥ दृष्ट्वा ज्ञात्वा च सम्यक् पन्धानमासेव्य च कृतं नान्यथा, तथा चाऽऽहसम्मईसणदिछो नाणेण य सुङ तेहिं उबलद्धो । चरणकरणेण पहओ निब्वाणपहो जिणिंदेहिं ॥९१०॥ | व्याख्या-'समग्दर्शनेन' अविपरीतदर्शनेन दृष्टः, ज्ञानेन च 'सुष्टु यथाऽवस्थितः तैरर्हद्भिातः, चरणं च करणं |चेत्येकवद्रावस्तेन 'प्रहतः' आसेवितः 'निर्वाणपधा' मोक्षमार्गो जिनेन्द्रैः । तत्र व्रतादि चरणं, पिण्डविशुयादि च करणं, यथोक्तम्-'वय समणधम्म संजम वेयविच्चं च भगुत्तीओ। णोणादितियं तवे को निग्गहाई चरणमेयं ॥१॥ पिंडवि सोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ २ ॥” इति गाथार्थः S| ॥९१० ॥ न केवलं प्रहत एव, किन्तु ते खल्वनेन पथा निवृतिपुरमेव प्राप्ता इति, आह च-. सिद्धिवसहिमुवगया निव्वाणसुहं च ते अणुप्पत्ता । सासयमब्बावाहं पत्ता अयरामरं ठाणं ॥९११ ॥ व्याख्या-'सिद्धिवसति' मोक्षालयम् 'उपगताः' सामीप्येन-कर्मविगमलक्षणेन प्राता इति, अनेनैकेन्द्रियव्यवच्छेद 'अभ्यर्थयामि प्र. दीप अनुक्रम [१] JAMERatanitamtarnama ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~774~ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९११], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक-वामा माय माह, केषाञ्चित् सुखदुःखरहिता एव ते तत्र तिष्ठन्तीति दर्शनम् , अत आह-निर्वाणसुखं च तेऽनुप्राप्ता' निरतिशय-पूनमस्क हारिभ- सुखं प्राप्ता इत्यर्थः, ते च केषाश्चिद्दर्शनपरिभवादिनेहाऽऽगच्छन्तीति दर्शनं, तन्निवृत्त्यर्थमाह-'शाश्वतं नित्यम् 'अव्या- वि०१ द्रीया बाध' व्याबाधारहितं प्राप्ताः 'अजरामरं स्थानं जरामरणरहितं स्थानमिति गाथार्थः ॥९११॥ द्वारं १॥ साम्प्रतं द्वितीय द्वारव्याचिख्यासयाऽऽह॥३८॥ पावंति जहा पारं संमं निजामया समुहस्स । भवजलहिस्स जिणिंदा तहेव जम्हा अओ अरिहा ॥ ९१२॥ व्याख्या-'प्रापयन्ति' नयन्ति 'यथा' येन प्रकारेण 'पारै पर्यन्तं 'सम्यक्' शोभनेन विधिना 'निर्यामका प्रतीताः, कस्य? समुद्रस्य, 'भवजलधे' भवसमुद्रस्य जिनेन्द्रास्तथैव, पारं प्रापयन्तीति वर्तते, यस्मादेवमतस्तेऽर्हाः, नमस्कार-1|| स्येति गम्यते, अयं संक्षेपार्थः ॥ ९१२ ॥ भावत्थो पुण एत्थ निजामया दुविहा, तंजहा-दवनिजामया भावनिजामया य, दबनिजामए उदाहरणं तहेव घोसणगं विभासा । एत्थ अट्ठवाया वण्णेयबा, तंजहा पाईर्ण वाए पडीणं वाए ओईणं| वाए दाहिणं वाए, जो उत्तरपुरथिमेण सो सत्तासुओ, दाहिणपुवेणं तुंगारो, अवरदाहिणेणं बीआओ, अवरुत्तरेण गजभो, एवेते अह वाया, अन्नेवि दिसासु अट्ट चेव, तत्थ उत्तरपुवेणं दोन्नि, तंजहा-उत्तरसत्तासुओ पुरथिमसत्तासुओ य ॥३८॥ भावार्थः पुनरत्र निर्यामका द्विविधाः, तद्यथा-व्यनिर्धामका भावनियामकाच, व्यनियर्यामके उदाहरणं तथैव घोषणं विभाषा । अन्नाष्टौ चाता वर्ण वितव्याः, तबधा-प्राचीनवातः प्रतीचीनवातः उदीचीनबातो दाक्षिणात्यवातः, य उन्नरपौरस्त्यः स सत्वासुकः दक्षिणपूर्वस्यां तुझारः, अपरदक्षिणस्या बीजापः है अपरोसरस्यां गर्जभः, एवमेतेऽष्टवाताः, अन्येऽपि विश्वष्टैत्र, तत्रोत्तरपूर्वस्यों द्वौ, तद्यथा-उत्तरसाचासुका पूर्वसधासुकब, * विभावो. विजाओ अनुक्रम [१] Manmorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~775~ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक GROCERON444 इयरीए वि दोनिवि पुरथिमतुंगारो दाहिणतुंगारो य, दाहिणवीयावो अवरवीयावो य, अवरगजभो उत्तरगजभो य, एए |सोलस वाया । तत्थ जहा जलिहिंमि कालियावायरहिए गजहाणुकूलवाए निउणनिजामगसहिया निच्छिडपोता जहिडियं| पट्टणं पावेति, एवं चमिच्छत्तकालियावायविरहिए सम्मत्तगजभपवाए। एगसमएण पत्ता सिद्धिवसहिपट्टणं पोया ॥ ९१३ ॥ व्याख्या-मिथ्यात्वमेव कालिकावातः तेन विरहिते भवाम्भोधौ तथा सम्यक्त्वगर्जभप्रवाते, कालिकावातो ह्यसाध्यः गर्जभस्त्वनुकूल, एकसमयेन प्राप्ताः सिद्धिवसतिपत्तनं 'पोता.' जीवबोहित्थाः, तन्निर्यामकोपकारादिति भावना ॥ ततश्च यथा सांयात्रिकसार्थः प्रसिद्धं निर्यामकं चिरगतमपि यात्र सिद्ध्यर्थं पूजयति, एवं ग्रन्थकारोऽपि सिद्धिपत्तनं प्रति प्रस्थितोऽभीष्टयात्रासिद्धये निर्यामकरलेभ्यस्तीर्थकृयः स्तवचिकीर्षयेदमाह निजामगरयणाणं अमूढनाणमइकण्णधाराणं । वंदामि विणयपणओ तिविहेण तिदंडविरयाणं ।। ९१४ ॥ & व्याख्या-'निर्यामकरत्नेभ्यः' अहवयः 'अमूढज्ञाना' यथावस्थित ज्ञाना मननं मतिः-संविदेव सैव कर्णधारो येषां ते तथाविधास्तेभ्यो वन्दामि विनयप्रणतस्खिविधेन त्रिदण्डविरतेभ्य इति गाथार्थ ।। ९१४ ॥ द्वारं २॥ साम्प्रतं तृतीयद्वारच्याचिख्यासयाऽऽहपालंति जहा गावो गोवा अहिसावयाइदुग्गेहिं । पउरतणपाणिआणि अवणाणि पावंति तह चेव ॥ ९१५ ॥ इतरस्यामपि द्वावेव-पूर्वतारो दक्षिणतुकारश्र, दक्षिणबीजापोऽपरबीजापश्च, अपरगर्जभ उत्तरगर्जभश्न, एते पोडश वाताः । तत्र यथा जलधौ कालिकावातरहिते गर्जभानुकूलवाते निपुणनिर्यामकसहिता निविठदपोता यधेप्सितं पत्तनं प्राप्नुवन्ति । दीप अनुक्रम [१] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~776~ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१६], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार वि. बीया 4-34CATI प्रत सुत्रांक आवश्यक जीवनिकाया गावो जं ते पालंति ते महागोवा । मरणाइभया उ जिणा निब्वाणवणं च पार्वति ॥९१६ ॥ हारिभ तो उवगारित्तणओ नमोऽरिहा भविअजीवलोगस्स । सव्वस्सेह जिणिंदा लोगुत्तमभावओ तह य ॥९१७॥ व्याख्या-गाथात्रयं निगदसिद्धमेव ॥ द्वारम् ३॥ एवं तावदुक्तेन प्रकारेण नमोऽर्हत्वहेतवे गुणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं ॥३८७॥18 प्रकारान्तरेण नमोऽहत्वहेतुगुणाभिधित्सयाऽऽह रागद्दोसकसाए, इंदिआणि अ पंचवि । परीसहे उवस्सग्गे, नामयंता नमोऽरिहा ॥ ९१८ ॥ व्याख्या-रागद्वेषकषायेन्द्रियाणि च पञ्चापि परीपहानुपसर्गान्नामयन्तो नमोऽहीं इति । तत्र 'रज रागे' रज्यते अनेन अस्मिन् वा रञ्जनं वा रागः, स च नामादिश्चतुर्विधः, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यरागो द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, | आगमतो रागपदार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्ता, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदस्त्रिविधः, व्यतिरिक्तोऽपि कर्मद्रव्य रागो नोकर्मद्रव्यरागच, कर्मद्रव्यरागश्चतुर्विधः-गवेदनीयपुद्गला योग्याः १ बध्यमानका २ बद्धाः उदीरणावलिका|प्राप्ताश्च ४, बन्धपरिणामाभिमुखा योग्याः, बन्धपरिणामप्राप्ता बध्यमानकाः, निवृत्तबन्धपरिणामाः सत्कर्मतया स्थिता |जीवेनाऽऽत्मसात्कृता बद्धाः, उदीरणाकरणेनाऽऽकृष्योदोरणावलिकामानीताश्चरमा इति, नोकर्मद्रव्यरागस्तु कर्मरागैकदेशस्तदन्यो वा, तदन्यो द्विविधः-प्रायोगिको वैश्रसिकश्च, प्रायोगिको कुसुम्भरागादिः, वैश्रसिकः सन्ध्याभरागादिः, भावरागोऽप्यागमेतरभेदाद् द्विधैव, आगमतो रागपदार्थज्ञ उपयुक्तः, नोआगमतो रागवेदनीयकर्मोदयप्रभवः परिणामविशेषः, स च बेधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, अप्रशस्तस्त्रिविधः-दृष्टिरागो विषयरागः नेहरागश्च, तत्र त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां दीप अनुक्रम -CONGR ॥३८७॥ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~777~ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) 464 प्रत सूत्राक पावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः, यथोक्तम्-"असियसयं किरियाणं अकिरियवाईणमाह चुलसीई। अन्नाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसा ॥१॥ जिणवयणबाहिरमई मूढा णियदसणाणुराएण। सवण्णुकहियमेते मोक्खपहं न उ पवजंति ॥२॥" विषयरागस्तु शब्दादिविषयगोचरः, स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलोऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति, तत्रेह रागे उदाहरणम्-खितिपतिहियं णयरं, तत्थ दो भाउगा-अरहन्नओ अरहमित्तो य, महंतस्स भारिया खुड्डुलए रत्ता, सो नेच्छइ, बहुसो उवसग्गेइ,भणिया य अणेण-किं न पेच्छसि भाउगंति?, भत्तारोमारिओ, सापच्छा भणइइयाणि पि न इच्छसि !, सो तेण निवेएण पवइओ, साहू जाओ, सावि अहवसट्टा मया सुणिया जाया, साहुणो य तं गामं गया, सुणियाए दिहो, लग्गा मैग्ग मग्गिं, उवसग्गोत्ति नहो रत्तीए । तत्थवि मया मक्कडी जाया अडवीए, तेऽवि कम्मधम्मसंजोगेण तीसे अडवीए मझेणं वच्चंति, तीए दिहो, लग्गा कंठे, तत्थवि किलेसेण पलाओ, तत्थवि मया जक्खिणी जाया, ओहिणा पेच्छइ, छिद्दाणि मग्गइ, सोऽवि अप्पमत्तो, सा छिदं न लहइ, साय सवादरेणं तस्स छिदं मग्गेइ, अशीतं शतं क्रियावादिनामक्रियावादिनामाहुश्चतुरशीतिम् । अज्ञानिकाना सप्तपष्टिं बैनयिकानां च द्वात्रिंशत ॥१॥ जिनवचनबाह्यमतयो मूढा निजदर्शनानुरागेण । सर्वशकथितमेते मोक्षपयं नैव प्रपद्यन्ते ॥२॥क्षितिप्रतिष्टितं नगरं, तत्र ही भ्रातरी-भरहनकोऽहंन्मिनन, महतो भायो क्षुलके रक्ता, स नेच्छति, बहु उपसर्गयति, भणिता चानेन-किं न पश्यसि भ्रातरमिति, भर्चा मारितः, सा पश्चानाति-इदानीमपि मेच्छसि ?, स तेन निदेन प्रबजितः, साधुजर्जातः, साऽपि आर्शवपाती मृता शुनी जाता, साधवन तं ग्रामं गताः, शुन्या दृष्टः, लमा पृथतः पृष्ठतः, उपसर्ग इति नहो रात्रौ । तत्रापि मुसा मर्कटी जाता अटया, तेऽपि कर्मधर्मसंयोगेन तस्या भटव्या मध्येन व्रजन्ति, तया दृष्टः, लझा कण्ठे, तत्रापि क्लेदोन पलायितः तत्रापि मुता यक्षिणी जाताऽवधिना क्षते, छिद्राणि मार्गवति, सोऽप्यप्रमत्तः, सा छिद्रं न लभते, सा च सादरेण तस्य छिदं मार्गवति, * तदैवाऽऽगल्य साश्शेष मुहुर्भ,रिवाकरोत्. दीप अनुक्रम [१] -564 द NERAL Swatanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | स्नेहराग विषयक दृष्टांत: ~778~ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥३८८॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्तिः [१८], एवं च जाइ कालो, तेण किर जे समवया समणा ते तं भणति - हसिऊण तरुणसमणा भणति धन्नोऽसि अरहमित्त ! तुमं । जंसि पिओ सुणियाणं वयंस ! गिरिमक्कडीणं च ॥ १ ॥ अण्णया सो साहू वियरयं उत्तर, तत्थ य पायविक्खंभं पाणियं, तेण पादो पसारिओ गइभेएण, तत्थ य ताए छिद्दं लहिऊण ऊरुओ छिन्नो, मिच्छामि दुक्कर्डति - पडिओ माहं आउकाए पडिओ होज्जत्ति, सम्मदिडियाए सा धाडिया, तहेव सप्पासो लाइओ रूढो य देवयप्पहावेणं, अन्ने भणति-सो भिक्खस्स गओ अन्नगामे, तत्थ ताए वाणमंतरीए तस्स रूवं छाएता तस्स रूवेणं पंथे तलाए पहाइ, अन्नेहिं दिडो, सिद्धं गुरूणं, आवस्सए आलोएइ, गुरूहिं भणियं संवं आलोएहि अज्जो !, सो उवउत्तो मुहणंतगमाइ, भणइन संभरामि खमासमणा !, तेहिं पडिभिण्णो भणइ नत्थित्ति, आयरिया अणुवडियस्स न दिंति पायच्छित्तं, सो चिंतेइ किं कह वत्ति ? सा उवसंता साहइ एयं मए कयं सा साविया जाया, सवं परिकहेइ। एस तिविहो अप्पसत्थो, तस्स अप्पसत्थस्स इमा Education Intamational १ एवं च याति कालः तेन ( सह ) किल ये समवयसः श्रमणास्ते तं भणन्ति - हसित्वा तरुणश्रमणा भणन्ति धन्योऽसि भईन्मित्र ! स्वम् । यदसि प्रियः शुन्या वयस्य ! गिरिमन्या ॥ १ ॥ अन्यदा स साधुवितरकमुत्तरति तत्र च पादविष्कम्भं पानीयं तेन पादः प्रसारितो यतिभेदेन तत्र च तथा छिद्रं लब्ध्वोर डिसं, मिष्या मे दुष्कृतमिति पतितो माऽहमप्काये पतितो भूयमिति, सम्पदस्या सा घाटिता, तथैव सप्रदेशो गितो स्टन्न देवताप्रभावेण अम्बे भणन्ति-समिक्षा गतोऽभ्यप्राने, तन्त्र तथा म्यन्तयां तस्य रूपं छादयित्वा तस्य रूपेण पथि तडाके खाति, अम्बेरंष्टा, शिष्टं गुरुम्थः, आवश्यके भालोचयति, गुरुभिर्भणितं सर्वमाखोचय जाये ! स उपयुक्तो मुखानन्तकादि (केषु) भगति न संस्मरामि क्षमाश्रमणाः । तैः प्रतिभिनो भणति नास्तीति आचार्या अनुपस्थिताय न ददते प्रायश्चित्तं स चिन्तयति किं कथं वेति, सोपशान्ता कथयति सम्मया कृतं सा श्राविका ज्ञाता, सर्व परिकथयति । एष त्रिविधः अप्रशस्तः, तस्याप्रशस्तस्यैषा संमं प्र० जाव परिक्रमणं देवसियं ताब आभोएति प्र आयं (१५१...] For Fast Use Only ~ 779 ~ नमस्कार - वि० १ ॥ ३८८ ॥ Janray org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) 64GRAM प्रत सूत्राक णिरुत्तगाहा-रजति असुभकलिमलकुणिमाणिढेसु पाणिणो जेणं । रागोत्ति तेण भण्णइ जं रज्जइ तत्थ रागरथो॥१॥ एषोऽप्रशस्तः, प्रशस्तस्त्वहंदादिविषयः, यथोक्तं-"अरहतेसु य रागो रागो साहसु बंभयारीसु । एस पसत्थो रागो अज्ज सरागाण साहूणं ॥१॥" एवंविधं रागं नामयन्तः-अपनयन्तः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदादपनीत एव गृह्यते, आहप्रशस्तनामनमयुक्त, न, तस्यापि बन्धात्मकत्वात् , आह-'एस पसत्थों' इत्यादि कथं, सरागसंयतानां कूपखननोदाहरणात् प्राशस्त्यमित्यलं प्रसङ्गेन । इदानीं दोषो द्वेषो वा, 'दुष वैकृत्ये' दुष्यतेऽनेन अस्मिन्नस्माद्दूषणं वा दोषः, 'द्विष अप्रीतौ' वा द्विष्यतेऽनेनेत्यादिना द्वेषः, असावपि नामादिश्चतुर्विधो न्यक्षेण रागवदवसेयः, तथाऽपि दिगमात्रतो निर्दिश्यते-नोआगमतो द्रव्यद्धेषः ज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्तः कर्मद्रव्यद्वेषो नोकर्मद्रव्यद्वेषश्च, कर्मद्रव्यद्वेषः योग्यादिभेदाश्चतुविधा एव पुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यदोषो दुष्टत्रणादिः, भावद्वेपस्तु द्वेषकर्मविपाकः, स च प्रशस्तेतरभेदः, प्रशस्तोऽज्ञानादिगोचरः, तथा ह्यज्ञानमविरतिमित्यादि द्वेष्टि, अप्रशस्तस्तु सम्यक्त्वादिगोचरः, तत्राप्रशस्ते उदाहरण-गंदी नाम नाविओ गंगाए लोग उत्तारेइ, तत्थ य धम्मरूई णाम अणगारो तीए नावाए उत्तिण्णो, जणो मोठं दाऊण गओ, साहू रुद्धो, फिडिया भिक्खावेला, तहावि न विसज्जेइ, वालुयाए उपहाए तिसाइओ य अमुचंतो रुट्ठो, सो य दिट्ठीविसलद्धिओ, निरुतगाथा-'रज्यन्ति अशुभकलिमलकुणिमामिष्टेषु प्राणिनो येन । राग इति तेन भण्यते यद्यति तत्र रागस्थः ॥१॥२ आहेसु च रागो रागः साधुषु ब्रह्मचारिषु । एष प्रास्तो रागोऽथ सरागाणां साधूनाम् ॥1॥३ नन्दो नाम माविको गङ्गायां लोकानुचारयति, नव च धर्मरुचि म भनगारस्तया नावोतीर्णः, जनो मूल्यं दावा गतः, साधू रुदः, स्फिटिता भिक्षावेला, तथाऽपि न विसर्जयति, वालुकायामुष्णार्या तृषार्दितबामुध्यमानो रुष्टा, स च दृष्टिविषलब्धिमान्, दीप अनुक्रम [१] ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | द्वेष-विषयक दृष्टांत: ~780~ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया वि०१ ॥३८९॥ तेण डहो मओ एगाए सभाए घरकोइलओ जाओ, साहूवि विहरतो तं गाम गओ, भत्तपाणं गहाय भोचकामो समं नमस्कार अइगओ, तेण दिडो, सो पेक्खंतओ चेव तस्स आसुरत्तो, भोत्तुमारद्धस्स कयवरं पाडेइ, अन्नं पासं गओ, तत्थषि, एवं कहिंचि न लम्भइ, सो तं पलोएइ, को रे एस? नाविगनंदमंगुलो?, दहो, समुई जओ गंगा पविसइ तत्थ वरिसे २ अण्णणेणं मग्गेणं वहइ, चिराणगं जं तं मयगंगा भण्णइ, तत्थ हंसो जाओ, सोऽवि माहमासे सत्थेण पहाईए जाइ, तेण दिहो, पाणियस्स पक्खे भरिऊण सिंचइ, तत्थवि उदविओ पच्छा सीहो जाओ अंजणगपवए, सोऽवि सत्येण त वीईवयइ, सीहो उडिओ, सत्थो भिन्नो, सो इमं न मुयइ, तत्थवि दह्रो, मओ य वाणारसीए बडुओ जाओ, तत्थवि | भिक्खं हिंडतं अन्नेहिं डिभरूवेहि समं हणइ, छुभइ धूली, रुढेण दहो, तत्थेव राया जाओ, जाई संभरइ, सबाओ अई-14 यजाईओ सरइ असुभाओ, जइ संपयं मारेइ तो बहुगाओ फीडो होमित्ति तस्स जाणणाणिमित्तं समस्सं समालंबेइ, जो एवं अनुक्रम तेन दग्धो मृत एकां समायां गृहकोकिलो जातः, साधुरपि विहरन् तं ग्रामं गतः, भक्तपानं गृहीत्वा भोकुकामः सभामतिगतः, तेन दृष्टः, स पश्यमेव तौ कुवः, मोक्कुमारब्धे कचबरं पातयति, अन्य पार्थ गतः, तत्रापि, एवं कुत्रापि न लभते, स तं प्रलोकयतिको रे एपः नाविको नन्दोमाला ?, दग्धः, समुदं यतोगमा प्रविशति तत्र वर्षे घऽन्यान्येन मार्गेण यहति, चिरन्तनो यः स मृतगङ्गेति भण्यते, सब इंसो जाता, सोऽपि माघमासे सार्थेन प्रभाने (पधातीतो), याति, तेन दृष्टः, पानीयेन पक्षी भृत्वा सिञ्चति, तन्नाप्यषावितः पश्चात् सिंहो जातोऽञ्जनकपर्वते, सोऽपि सार्थेन तंव्यतिब्रजति, सिंह उत्थितः, सार्थों भिन्नः, स एनं न मुञ्चति, तत्रापि दग्धो मृतश्च वाराणस्यां बटुको जातः, तत्रापि मिक्षां हिण्डमानमन्वैदिम्भरूपैः समं हन्ति, क्षिपति भूलि, रुष्टेन दग्धः, तत्रैव राजा जातः, जाति सरति, सवा अतीतजातीरशुभाः सरति, यदि सम्प्रति मार्वेय तदा बहोः स्फिटितोऽभविष्यम् इति तस्य ज्ञाननिमित्तं समस्या समालम्बयति, य एनां ॥३८९॥ [१] JABERatinintamational manorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 781~ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक पूरइ तस्स रजस्स अद्धं देमि, तस्स इमो अत्थो-गंगाए नाविओ नंदो, सहाए घरकोइलो। हंसो मयंगतीराए, सीहो। अंजणपथए ॥१॥ वाणारसीए बडुओ, राया तत्थेव आगओं एवं गोवगावि पदति, सो विहरतो तत्थ समोसढो, आरामे ठिओ, आरामिओ पढइ, तेण पुच्छिओ साहइ, तेण भणियं-अहं पूरेमि 'एएसिंघायओ जो उ सो इत्येव समागओ' सो घेत्तूर्ण रण्णो अग्गओ पढाइ, राया सुर्णतओ मुच्छिओ, सो हम्मइ-सो भणइ हम्ममाणो कर्ष कार्य अहं न याणामि । लोगस्स कलिकलंडो एसो समणेण मे दिनो॥१॥राया आसत्थो वारेइ, केणंति पुच्छति, साहइ-समणेणं, राया तत्थ मणुस्से | विसज्जेइ, जइ अणुजाणह वंदओ एमि, आगओ सहो जाओ, साहूवि आलोइयपडिकतो सिद्धो ॥ एवं विधं द्वेष नामयन्त | इत्यादि रागवदायोज्य, इह रागद्वेषौ क्रोधाद्यपेक्षया नयैः पर्यालोच्येते-जैगमस्य सङ्ग्रहव्यवहारान्तर्गतत्वात् सङ्ग्रहादिभिरखे विचारः, तत्र सङ्घहस्यामीतिजातिसामान्यात् क्रोधमानौ द्वेषः, मायालोभौ तु प्रीतिजातिसामान्याद् रागः, व्यवहारस्य तु कोधमानमाया द्वेषः, मायाया अपि परोपघातार्थ प्रवृत्तिद्वारेणाप्रीतिजातावन्तर्भावात् , लोभस्तु रागः, ऋजुसू-8 पूरयति तस्मै राज्यस्सा ददामि, तस्वैपोऽर्थः-बायाँ नाधिको नम्दः सभायां गृहकोकिलः । हंसो मृतगातीरे सिंहोऽजनपर्यते ॥ १ ॥ वाराणस्या बटुको राजा तत्रैवागतः' एवं गोपा अपि पठन्ति, स बिहरन तन्त्र समवस्तः, आरामे स्थितः, आरामिकः पठति, तेन पृष्टः कथयति, तेन भणितम्-अहं पूरयामि, एतेषां धातको यस्तु सोऽत्रैव समागतः स गृहीत्वा राज्ञोऽमतः पठति, राजा शृण्वन् मूर्छितः, स हन्यते, ख भणति हन्यमानः कान्यं कर्तुंमहं न जाने । लोकस्य कतिकारक एष श्रमणेन मह्यं दत्तः ॥१॥राजा आश्वस्तो वारयति, केनेति पृच्छति, कथयति-श्रमणेन, राजा तत्र मनुष्यान् विसृजति-यदि अनुज्ञानीत वन्दितुमायामि, आगतः श्राद्धो जातः, साधुरण्यालोचितप्रतिक्रान्तः सिद्धः । दीप अनुक्रम [१] Hiandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~782~ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥३९.०॥ Jus Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [ १५१...] त्रस्य त्वप्रीतिरूपत्वात् क्रोध एव परगुणद्वेषः, मानादयस्तु भाज्याः, कथं १, यदा मानः स्वाहङ्कारे प्रयुज्यते तदाऽऽत्मनि । नमस्कार ० बहुमानप्रीतियोगाद् रागः, यदा तु स एव परगुणद्वेषे प्रयुज्यते तदाऽप्रीतिरूपत्वाद् द्वेषः, एवं मायालोभावप्यात्मनि १ वि० १ हू मूर्च्छार्पणाद् रागः, तावेव परोपघातनिमित्तयोगादप्रीतिरूपत्वाद् द्वेषः, शब्दादीनां तु लोभ एव मानमाये स्वगुणोपका* रमूर्च्छात्मकत्वात् प्रीत्यन्तर्गतत्वाल्लोभस्वरूपवदतस्त्रितयमपि रागः, स्वगुणोपकारांशरहितास्तु मानाद्यंशाः क्रोधश्च परो|पघातात्मकत्वात् द्वेष इत्यलं प्रसङ्गेन, विशेषभावना विशेषावश्य कादव सेयेति ॥ द्वारम् ॥ अथ कषायद्वारं, शब्दार्थः प्राग्वत्, तेषामष्टधा निक्षेपः, नामस्थापनाद्रव्यसमुत्पत्तिप्रत्ययादेशरसभावलक्षणः, आह च- "णामं ठवणा दविए उत्पत्ती पञ्चए य आपसे । रसभावकसायाणं णएहिं छहिं मग्गणा तेसिं ॥ १ ॥” तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यकपायो व्यतिरिक्तः कर्मद्रव्यकपायो नोकर्मद्रव्यकषायश्च कर्मद्रव्यकषायो योग्यादिभेदाः कषायपुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यकषायस्तु सर्जकषायादिः, उत्पत्तिकपायो यस्माद् द्रव्यादेर्वाह्यात् कषायप्रभवस्तदेव कषायनिमित्तत्वाद् उत्पत्तिकषाय इति उक्तं च- "किं' एसो कठयरं जं मूढो खाणुगंमि अप्फिडिओ । खाणुस्स तस्स रूसइ ण अप्पणो दुप्पओगस्स ॥ १ ॥' प्रत्यय| कषायः खल्यान्तरकारणविशेषः तत्पुद्गललक्षणः, आदेशकषायः कैतवकृतभृकुटिभजुराकारः, तस्य हि कषायमन्तरेणापि तथादेशदर्शनात्, रसकषायो हरीतक्यादीनां रसः, भावकषायो द्विविधः - आगमतस्तदुपयुक्तो नोआगमतस्तदुदय एव नामस्थापनाइये अपतौ प्रत्यय आदेशे द रसभावक पायाणां नयैः षर्मार्गणा तेषाम् ॥ १ ॥ २ किमेतस्मात्कष्टतरं यन्मूढः स्थाणावास्फालितः । स्थाणवे तसै रुम्पति नात्मनो दुष्प्रयोगाय ॥ १ ॥ For Parts Only ॥ ३९० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः कषाय, तस्य अष्ट्वध-निक्षेपाः ~783~ bray o Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सच क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधा, क्रोधोऽपि नामादिभेदाच्चतुर्विधः कषायप्ररूपणायां भावित एव, तथापि व्यतिरिक्को द्रव्यक्रोधः प्राकृतशब्दसामान्यापेक्षत्वात् चर्मकारकोत्थः रजकनीलिकोत्थश्च क्रोध इति गृह्यते, भावक्रोधस्तु क्रोधोदय एव, सच चतुर्भेदः, यथोक भाष्यकृता-"जलरेणुभूमिपबयराईसरिसो चउबिहो कोहो" प्रभेदफलमुत्तरत्र वक्ष्यामः । तत्थे कोहे उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे उच्छन्नवंसो एगो दारगो देसतरं संकममाणो सत्येण उग्झिओ तावसपल्लिं गओ, तस्स नाम अग्गिओत्ति, तावसेण संवडिओ, जम्मो नामं सो तावसो, जमस्स पुत्तोत्ति जमदग्गिओ जाओ, सो घोर तबच्चरणं करेइ, विक्खाओ जाओ। इओ य दो देवा वेसाणरो सहो धनंतरी तावसभत्तो, ते दोषि परोप्परं पन्नवेंति, भणंति य-| साहुतावसे परिक्खामो, आह सहो-जो अहं सबअंतिगओ तुम्भ य सबप्पहाणो ते परिक्खामो । इओ य मिहिलाए णयरीए तरुणधम्मो पउमरहो राया, सो चंपं वच्चइ वसुपुजसामिस्स पामूलं पबयामित्ति, तेहिं सो परिक्खिजइ भत्तेणं पाणेण य, पंथे य विसमे सो सुकुमालओ दुक्खाविज्जइ, अणुलोमे य से उबसग्गे करिंति, सो धणियतरागं थिरो जाओ,x सूत्राक 299%AR-कला दीप अनुक्रम [१] जलरेणुभूमिपर्वतराजीसदृशश्चतुर्विधः कोधः । २ तन्त्र क्रोधे उदाहरणम्-वसन्तपुरे नगरे उत्समवश एको दारको देशान्तरं संक्रामन् सानोनितस्तापसपड़ीं गतः, तस्य नामाग्निक इति, तापसेन संवर्धितः, यमो नाम स तापसः, यमस्य पुत्र हति जामदम्यो जातः, स घोर तपश्चरणं करोति, विख्यातो जातः। इतश्च द्वौ देवी-वैश्वानरः श्राद्धो धन्वन्तरी (च) तापसभक्तः, तौ द्वावपि परस्परं प्रज्ञापयतः, भणतश्च-साधुतापसी परीक्षावहे, माह श्राव:-योऽस्माकं सर्वान्तिको युष्माकं सर्वप्रधानस्ती परीक्षावहे । इतच मिथिलायां नगयौं तरुणधर्मा पारयो राजा, स चम्पां मजति वासुपूज्यस्वामिनः पादमूले प्रमजामीति, ताभ्यां स परीक्ष्यते भक्केन पानेन च, पथि च विषमे स सुकुमारो दुःख्यते, अनुलोमांश्च तस्योपसर्गान् कुरुता, स बार स्थिरो जातः, Sanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | क्रोधकषाय संबंधे परसुरामस्य कथानक ~ 784~ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) * हारिभ आवश्यक- नसो तेहिं न खोभिओ, अने भणंति-"सावओ भत्तपञ्चक्खाइओ, ते सिद्धपुत्तरूवेणं गया, अइसए साहिति, भणंति य-18 18|मा इमं करेहि जहा चिरं जीवियधं, सो भणइ-बहुओ मे धम्मो होहीति, न सको खोभे । गया जमदग्गिस्स मूलं, सउ-1 दीया तणरूवाणि कयाणि, कुच्चे से घरओ कओ, सउणओ भणइ-भद्दे ! जामि हिमवंत, सा न देइ मा ण एहिसित्ति, सो सवहे ॥३९शा करेइ-गोधायकाइ जहा एमित्ति, सा भणइ-न एएहिं पत्तियामित्ति, जइ एयस्स रिसिस्स दुक्कियं पियसित्ति तो ते विसजेमि, सो रुडो, तेण दोवि दोहिंवि हत्थेहिं गहियाणि, पुच्छियाणि भणति-महरिसि! अणवच्चोसित्ति, सो भणइ-सच्चयं, खोभिओ, एवं सो सावगो जाओ देवो । इमोऽवि ताओ आयावणाउ ओत्तिन्नो मिगकोडगं णयरं जाइ, तत्थ जियसनू राया, सो उहिओ-किं देमि?, धूयं देहित्ति, तस्स धूयासयं, जा तुम इच्छइ सा तुज्झत्ति, कनंतेउरं गओ, ताहि दण निच्छढं, न लजिसित्ति भणिओ, ताओ सुजीकयाओ, तत्थेगा रेणुएणं रमइ तस्स धूया, तीए णं फलं पणामिय, -*- अनुक्रम 64646 * स ताभ्यां न क्षोभितः, भन्ये भणन्ति-श्रावको भक्तप्रत्याख्यायका, तो सिद्धपुत्ररूपेण गती, अतिशयान् कथयतः, भणतन-मा इमं कार्षीः यथा | चिरं जीवितम्यं, स भणति-बहुमें धर्मो भविष्यति, न शक्यः (कः)क्षोभयितुं । गती जमद मूलं, शकुनरूपे कृते, कूचें तस्य गृहं कृतं, शकुनको भणतिभने । पामि हिमवन्तं, सान ददाति मा न गा इति, स शपथान् करोति-गोधातकादीन् यथैष्यामीति, सा भणति-मैतः प्रत्येमि इति, पपेतस्य रूपे?कृतं पिबसीति तदा त्वां विसजामि, स रुष्टः, तेन द्वावपि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां गृहीती, पृष्टौ भणतः-मह! मनपसोऽसीति, स भणति-सत्यं, क्षोभितः, एवं स श्रावको जासो देवः । अयमपि तस्खा आतापनाया अवती! मृगकोष्ठकं नगरं याति, तत्र जितशबू राजा, स स्थितः-किं ददामि !, दुहितरं देहीति, तस्व दुहितशत, या स्वामिच्छति सा तवेति, कन्थान्तापुरं गतः, ताभिदृष्ट्वा निष्टयतं, न जसीति भणिसः, ताः कुम्जीकृताः, तत्रैका रेणी रमते तस्य दुहिता, तस्यै ४ अनेन फलं दत्तम् , * नेदं वाक्यं प्रत्यन्तरे ॥३९॥' Air JAMERatose Wwwsaneiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~785~ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) RKS प्रत इच्छिसित्तिय भणिया, तीए हत्थो पसारिओ, निजतीए उचट्ठियाओ खुज्जाओ, सालियरूवए देहि, ताओ अखुज्जाओ कयाओ, कन्नकुजं नयरं संवुत्तं, इयरीविणीया आसमं,सगोमाहिसो परियणो दिन्नो, संवहिया,जोषणपत्ता जाहे जाया ताहे वीवाहधम्मो जाओ, अण्णया उदुमि जमदग्गिणा भणिया-अहं ते चरुगं साहेमि जेणं ते पुत्तो बंभणस्स पहाणो होहिति, तीए भणियएवं कजरत्ति, मज्झ य भगिणी हस्थिणापुरे अणंतवीरियस्स भज्जा, तीसेऽवि साहेहि खत्तियचरुगंति. तेण साहिओ. सा चिंतेइ-अहं ताव अडविमिगी जाया, मा मम पुत्तोवि एवं नासउत्ति तीए खत्तियचरू जिमिओ, इयरीए इयरो पेसिओ, दोण्डवि पत्ता जाया, तावसीए रामो, इयरीए कत्तवीरिओ, सो रामो तत्थ संवहइ । अन्नया एगो विज्जाहरो तत्थ समोसडो. तत्थ एसो पडिलग्गो, तेण सो पडिचरिओ, तेण से परसुविजा दिण्णा, सरवणे साहिया, अण्णे भणति-जमदग्गिस्स परंपरागयत्ति परसुविज्जा सा रामो पाढिओत्ति । सा रेणुगा भगिणीघरं गयत्ति तेण रण्णा सम संपलग्गा, तेण । सूत्राक दीप अनुक्रम [१] इच्छसीति च भणिता, तया हसः प्रसारितः, नीयमानायामुपस्थिताः कुम्नाः, षालीनां रूपं देवि, ता बकुब्जाः कृताः, कन्यकुब्ज नगरं संजूरी, इतरापि नीताानमं, सगोमाहिषः परिजनो दत्तः, संवर्षिता, यौवनप्राप्ता पदा जाता, तदा बीवाइधो जातः, अन्यदा कती धामदम्येन भणिता-मई तव चर्क साधयामि येन तब पुत्रो प्राणानां प्रधानो भवतीति, तया भगितम्-एवं क्रियतामिति, मम च भगिनी हस्तिनागपुरेऽनम्तवीर्यस्य भार्या, तस्या अपि साधय क्षत्रियचरू मिति, तेन साचितः, सा चिन्तयति-मई तावद्ध्वीमगी जाता, मा मम पुत्रोऽपि एवं नीनेशत् इति तथा क्षत्रियचर्जिमितः, इतरस्यायपि इतरः प्रेषितः, द्वयोरपि पुत्री जातो, तापस्या समः, इतरखाः कार्तवीर्यः, स रामसत्र संवर्धते । अम्पदा एको विद्याधरसन्न समवस्तः, तन्नैप प्रतिलमः, तेन स प्रतिचरितः, तेन समै पशुविद्या दत्ता, पारवणे साधित्ता, मन्ये भणन्ति-बामदम्यस्य परम्परागतेति पशुविधा तो रामः पाठित इति । सा रेणुका भगिनीगृहं गतेति तेन राज्ञा समं संप्रलमा, तेन JABERatinintamational landjanmorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 786~ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ श्रीया ॥१९२॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९१८], से पुतो जाओ, सपुत्ता जमदग्गिणा आणिया, रुट्ठो, सा रामेण सपुत्तिया मारिया, सोय किर तत्थेव इसुसत्थं सिक्खिओ, तीसे भगिणीए सुर्य, रण्णो कहियं, सो आगओ आसमं विणासित्ता गावीए घेत्तणं पहाविओ, रामस्स कहियं, तेण पहाविऊण परसुणा मारिओ, कत्तवीरिओ व राया जाओ, तस्स देवी तारा। अन्नया से पिउमरणं कहियं, तेण आगएणं जमदग्गी मारिओ, रामस्त कहियं, तेणागएणं जलतेणं परसुणा कत्तवीरिओ मारिओ, सयं चैव रज्जं पडिवन्नं । इओ य सा तारा देवी तेण संभ्रमेण पलायंती तावसासमं गया, पडिओ से मुद्देणं गब्भो, नामं कथं सुभूमो, रामस्स परसू जहि २ खत्तियं पेच्छइ तहिं तहिं जलइ, अन्नया तावसासमरस पासेणं बीईवयइ, परसू पज्जलिओ, तावसा भणति -अम्हेच्चिय खत्तिया, तेण रामेण सत्तवारा निक्खत्ता पुहवी कया, हणूणं था भरियं, एवं किर रामेणं कोहेणं खत्तिया कहिया ॥ एवंविधं क्रोधं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् । मानोऽपि नामादिश्चतुर्विध एव, कर्मद्रव्यमानस्तथैव नोकर्मद्रव्यमानस्तु स्तब्धद्रव्यलक्षणः, भावमानस्तु तद्विपाकः, स च चतुर्धा, यथाऽऽह - 'तिणस लयाकडडियसलेत्थंभोवमो Education intimation 3 तस्याः पुत्रो जातः सपुत्रा जामद-बेनानीता, रुष्टः, सा रामेण सपुत्रा मारिता, स च किल तत्रैवेशानं शिक्षितः, तस्या भगिन्या तं राज्ञे कथितं स भगत आश्रमं विनाश्य गा गृहीत्वा प्रधावितः रामाय कथितं तेन प्रधान्य पश्च मारितः कार्त्तवीर्यच राजा जातः, तस्य देवी तारा । अम्यदा तस्य पितृमरणं कथितं तेनागतेन जमदझिमोरितः, रामाय कथितं तेनागतेन ज्वलन्या पत्र कार्तवीयों मारितः स्वयमेव राज्यं प्रतिपन्नम् । इतश्व सा तारादेवी तेन संभ्रमेण पलायमाना तापसाश्रमं गता, पतितच तस्याः स्वमुखेन गर्भः, नाम कृतं सुभूमः, रामस्य पर्छः यत्र २ क्षत्रियं पश्यति तत्र तत्र ज्वखति अम्बदा तापसाश्रमस्य पार्श्वेन व्यविमजति, पर्शज्वंखिता, तापसा भणन्ति वयमेव क्षत्रियाः, तेन रामेण सप्त द्वारा निःक्षत्रिया पृथ्वी कृता, हनुभिः स्याएं सुतं एवं किल रामेण क्रोधेन क्षत्रिया हताः । २ विनिशकता काष्ठास्थिशैलस्तम्भोपमो मानः । भाष्यं [ १५१...] For any ~787~ नमस्कार • वि० १ ॥३९२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) AGAR प्रत माणो'त्ति, अत्रोदाहरण-सो सुभूमो तत्थ संवडइ विजाहरपरिग्गहिओ, अन्नया परिखिज्जइ विसाईहिं, इओ य रामो नमित्तं पुच्छइ-कओ मम विणासोत्ति?, भणियं-जो एयंमि सीहासणे निवेसिहिति एयाउ दाढाओ पायसीभूयाओ खाहिति तो भयं, तो तेणं अवारियं भत्तं कर्य, तत्थ सीहासणं धुरे ठवियं, दाढाओ से अग्गओ कयाओ । इत्तो य मेहणाओ [विज्जाहरो सो पउमसिरिघूयाए नेमित्तियं पुच्छइ-कस्सेसा दायबा', सो सुभोमं साहइ, तप्पभिइओ मेहनाओ सुभोमं ओल ग्गइ, एवं वच्चइ कालो। इओ य सुभूमो मायरं पुच्छइ-किं एत्तिगो लोगो? अन्नोवि अत्थि', तीए सर्व कहियं, तो मा जाणीहि मा मारिजिहिसित्ति, सो तं सोऊणमभिमाणेण हथिणारं गओत सभ, सीहासणे निविहो, देवया रडिऊण नहा.12 ताओ दाढाओ परमणं जायाओ, तो तं माहणा पैहया, तेणं विजाहरेणं तेसिमुवरि पाडिति, सो वीसस्थो भुंजइ, रामस्स परिकहियं, सन्नद्धो तत्थागओ परसुं मुयइ, विज्झाओ, इमो य तं चेव थालं गहाय उडिओ, चक्करयणं जाय, तेणी सूत्राक दीप अनुक्रम [१] स सुभूमस्तन संवर्धते विद्याधरपरिगृहीतः, अन्यदा परीक्ष्यते विषादिभिः, इतश्च रामो नैमित्तिकं पृच्छति-कुतो मम बिनाश इति, मणित-य एतमिसिहासने निवेक्ष्यति एता दहाः पायसीभूताः खादिष्यति ततो भयं, ततस्तेनावारितं भक्तं कृतं, तत्र सिंहासनं धुरि स्थापित, दंष्ट्राच तस्याप्रतः कृताः । इतश्च मेघनादो विद्याधरः स पद्मश्रीदुहितुनैमित्तिकं पृच्छति-कम एषा दातव्या?, स सुभूमं कथयति, तव्यभूति मेघनादः सुभूममवलगति, एवं व्रजति कालः। इतच सुभूमो मातरं पृच्छति-किमियान् लोकः? अन्योऽप्यस्ति ?, तया सर्व कथितं, ततो मा गा मा मारिषि इति, स बत् श्रुत्वाभिमानेन हसिनागपुरं गतस्तां (a) सभां, सिंहासने निविष्टः, देवता रटित्वा नष्टा, ता दंष्ट्राः परमानं जाताः, ततस्तं ब्राह्मणा इन्तुमारब्धास्तेन विद्याधरेण तेषामुपरि पायन्ते (प्रहाराः), स विश्वस्तो भुक्के, रामाय परिकथितं, समबस्तत्रागतः पशुं मुञ्चति, विध्यातः, अयं च तमेव स्थालं गृहीत्वोत्थितः, चकरवं जातं, तेच * पहाया प्र. taminary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | मानकषाय संबंधे सुभूमचक्रवर्ती ~788~ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार. वि०१ प्रत आवश्यक-सीसं छिपणं रामस्स, पच्छा तेण सुभोमेण माणेणं एकवीसं वारा निबंभणा पुहवी कया, गम्भावि फालिया ॥ एवंविध हारिभ दमानं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् । माया चतुर्विधा, कर्मद्रव्यमाया योग्यादिभेदाः पुद्गला इति, नोकर्मद्रव्यमाया निधानाद्रीया दिप्रयुक्तानि द्रव्याणि, भावमाया तत्कर्मविपाकलक्षणा, तस्याश्चैते भेदा:- मायावलेहिगोमुत्तिमिंदसिंगघणसिमूलसमा ॥३९३॥ मायाए उदाहरणं पंडरजा-जहा तीए भत्तपञ्चक्खाइयाए पूयाणिमित्तं तिन्नि वारे लोगो आवाहिओ, तं आयरिएहिं नायमायाए वाहन आलोआविया, ततियं च णालोविया, भणइ-एस पुबम्भासेणागच्छइ, सा य मायासल्लदोसेण किम्बिसगा जाया, एरिसी दुरंता मायेति ॥ अहवा सवंगसुंदरित्ति, बसंतपुरं णयरं, जियसत्तू राया, धणवईधणावहा भायरो सेट्ठी, धणसिरी य से भगिणी, सा य बालरंडा परलोगरया य, पच्छा मासकप्पागयधम्मघोसायरियसगासे पडिबुद्धा, भायरोवि सिनेहेणं तहेव, सा पबइमिच्छा, ते तं संसारनेहेणं न देंति, सा य धम्मवयं खखं खर्च करेइ,भाउज्जायाओ से कुरुकुरायंति, तीए सूत्राक SEX दीप अनुक्रम शीर्ष छिन्नं रामस्थ, पश्चात्तेन सुभूमेन मानेनकविंशति वारान निवांझणा पृथ्वी कृता, गौं अपि पाटिताः । २ माया अबलेखगोमूत्रिकामेषशाय-14 नबंशीमूलसमा । मायायामुवाहरगं पण्डार्या (पाण्डुराया)-पथा तया प्रत्याख्यातभकया पूजानिमित्तं श्रीन बारान् लोक आहूतः, तद् आचाहतम् , आलोचिता, तृतीयं च नाकोधिता, भणनि-एष पूर्वाभ्यासेनागच्छति, सा च मायाशल्यदोषेण किस्विपिकी जावा, इंशी तुरन्ता मायेति । अथवा सर्वासुन्दरीति, | वसन्तपुरं नगर, जितशत्रू राजा धनपतिर्धनावहो प्रातरौ श्रेष्ठिनी, धनश्रीश्च तयोभंगिनी, सा च वालरण्डा परलोकरवा च, पत्रात मासकस्यागतधर्मवोषाचार्यसकाशे प्रतिबुद्धा, भ्रातरावपि बेहेन (तस्याः मेहेन) तथैव, सा प्रवजितुमिच्छति, तौ ता संसारनेहेन न ददाते, सा च धर्मव्ययं प्रचुर प्रचुर करोति, भातृजाये किमीसः, तथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मायाकषाय संबंधे पांडु आर्या तथा सर्वांगसुन्दरी-कथा ~ 789~ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक विचितिय-पेच्छामि ताव भाउगाणचित, किमेयाहिंति?, पच्छा नियडीए आलोइऊण सोवणयपवेसकाले वीसत्थं वीसत्थं बई धम्मगयं जंपिऊण तओ नडखिड्डेणं जहा से भत्ता सुणेइ तहेगा भाउज्जाया भणिया-किं बहुणा ! साडियं रक्खेज्जासि, तेण चिंतिय-नृणमेसा दुच्चारिणिति, यारियं च भगवया असईपोसणंति, तओर्ण परिहवेमित्ति पल्लंके उवविसंती वारिया, मा चिते-हा किमेयंति, पच्छा तेण भणिय-पराओ मे णीहि, सा चिंतेइ-कि मए दुक्कडं कयंति, न किंचि पासइ, तो तत्थेव भमिगयाए किच्छेण णीयारयणी, पभाए उल्लुग्गंगी निग्गया, धणसिरीए भणिया-कीस उलगंगित्ति, सारुयंती भणह-नयाणामो अवराह, गेहाओ य घाडिया, तीए भणिय-वीसस्था अच्छह, अहं ते भलिस्सामि, भाया भणिओ-किमेयमेवंति, सेण भणिय-अलं मे दुट्ठसीलाए, तीए भणियं-कहं जाणासि', तेण भणियं-तुज्झ चेव सगासाओ, सुया से धम्मदेसणा निवारणं च, तीए भणिय-अहो ते पंडियत्तणं वियारक्खमत्तं च धम्मे य परिणामो, मए सामनेण बहुदोसमेयं विचिन्तितं पश्यामि सावज्ञानोभित, किमताभ्यामिति, पश्वाचिकृत्याऽऽलोच्य शयनप्रवेशकाले विश्वस्त विश्वस्त बई धर्मगत जपित्वा ततो नाटकीदवा यथा तखा भर्ना गुणोति तथैका भातु या मणिता-किंबहुना ! शाटिकां रक्षेः, तेन चिन्तितं-नूनमेषा दुभारिणीति, निवारितं च भगवता असतीपो. वणमिति, सत एनो परिष्ठापयामीति पत्यो पविक्षन्ती बारिता, सा चिन्तयति-दा किमेतदिति, पक्षाचेन भणितं-गृहाम्मे निर्गच्छ, सा चिन्तयति- िमया। दुष्कृतं कृतमिति, न किञ्चित्पश्यति, तत्तसनव भूमिगतया कण नीता रजनी, प्रभाते म्हानाङ्गी निर्गता, धनप्रिया भणिता-कचं म्लानाङ्गीति, सा रुदन्ती भणति-न जानाम्यपराधम् , गृहाच निर्धाटिता, तथा भणित-विश्वस्ता तिष्ठ, अहं त्यां मिलयिष्यामि, माता भनित:-किमेतदेवमिति, सेन भणितम्-अल में| दुष्टशीलया, तथा भणित-कथं जानासि , तेन भणितं-तवेव सकाशाद, श्रुता तखा धर्मदेशना निवारणं च, तथा भणितम्-अहो तब पादिवं विचारक्षमत्वं | च धर्मे च परिणामः, मया सामान्येन बहुदोषमेतद् दीप अनुक्रम *SEXS* [१] JABEnatum janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 790~ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत ॥३९४|| भगवया भणियं तीसे उचइई वारिया य, किमतावतैव दुच्चारणी होइ, तओ सो लजिओ, मिच्छादुक्कडं से दवा- नमस्कार. [विओ, चिंतियं च णाए-एस ताव मे कसिणधवलपडिवजगो, बीओवि एवं चेव विण्णासिओ, नवरं सा भणिया-कि वि०१ बहुणा, हत्थं रक्खिजसित्ति, सेसविभासा तहव, जाव एसोऽवि मे कसिणधवलपडिवज्जगोत्ति एत्थ पुण इमाए नियडिए अभक्खाणदोसओ तिवं कम्ममुवनिवद्धं, पच्छा एयस्स अपडिक्कमिय भावओ पबइया, भायरोऽवि से सह जायाहिं पवइया, अहाउयं पालइत्ता सवाणि सुरलोगं गयाणि, तत्थवि अहाउयं पालयित्ता भायरो से पढम चुया सागेए णयरे असोगदत्तस्स इन्भस्स समुहदत्तसायरदत्ताभिहाणा पुत्ता जाया, इयरीवि चविऊण गयपुरे णयरे संखस्स इभसावगस्स धूया आयाया, अईवसुंदरित्ति सवंगसुंदरी से नाम कर्य, इयरीओ विभाउज्जायाओ चविऊर्ण कोसलाउरे गंदणाभिहाणस्स इन्भस्स सि-15 रिमइकंतिमइणामाओ धूयाओ आयाओ, जोवणं पत्ताणि, सवंगसुंदरी कहवि सागेयाओ गयपुरमागरण असोगदत्तसिडिणा सुत्रांक दीप अनुक्रम ॥३९४॥ भगवता भणितं तस्यै उपदिष्ट चारिता च, किमेतावतैव दुबारिणी भवति, ततः स कजितः, मिथ्यामेदुष्कृतं तखै दापित, चिन्तितं चानया-एप तावन्मे कृष्णधवलप्रतिपसा, द्वितीयोऽपि एवमेव जिज्ञासितः (परीक्षितः), नवरं सा भणिता-किं बहुना !, हस्तं रक्षेरिति, शेषविभाषा तथैव, यावदेपोऽपि मे कृष्णधवलप्रतिपत्तेति, अन पुनरनया माययाऽभ्याख्यानदोषतस्ती कर्मोपनिवद, पश्चादेतमादप्रतिक्रम्प भावतः प्रवजिता, भातरावपि तस्याः सह आयाभ्यां (मनजितायां) मन जिती, वधायुष्क पालयित्वा सर्वे सुरलोकं गताः, तन्त्रापि यथायुष्कं पालयित्वा भ्रातरौ तस्याः प्रथम च्युतौ साकेते नगरेऽशोकदत्तस्थेभ्यस्थ समुदत्तसागरबत्ताभिधानी पुत्री जाती, इतरापि युवा गजपुरे नगरे शसभ्यश्चावकरस दहिया पायाता, अतीव सुन्दरीति सर्वाङ्गसुन्दरी तस्या नाम कृतम्, इतरे अपि प्रातृजाये युवा कोशलपुरे नन्दनाभिधानन्यस्य श्रीमतिकान्तिमतिनाग्यो दुहितरी जाते, पौष प्राप्ताः, सामसुन्दरी क्यमपि साकेतागजपुरमागतेनाशोकवचत्रेष्टिना CAS P a nmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 791~ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) दिडा, कस्सेसा कन्नगत्ति, संखस्स सिद्विरस सबहुमाणं समुद्ददत्तस्स मग्गिया लद्धा विवाहो य कओ, कालंतरण सो विसज्जावगो आयओ, उवयारो से कओ, वासघरं सज्जियं । एत्थंतरंमि य सवंगसुंदरीए उइयं तं नियडिनिबंधणं पढमकम्म, तओ भत्तारेण से वासघरठिएण वोलेंती देविगी पुरिसच्छाया दिवा, तओऽणेण चिंतियं-दुह्रसीला मे महिला, कोवि अवलोएउ गओत्ति, पच्छा साऽऽगया, ण तेण बोल्लाविया, तो अदुहट्टयाए धरणीए चेव रयणी गमिया, पहाए से भत्तारो अणापुच्छिय सयणवग्गं एगस्स धिज्जाइयस्स कहेता गओ सागेयं णयर, परिणीया यऽणेण कोसलाउरे णंदणस्स धूया सिरिमइत्ति, भाउणा य से तीसे भइणी कंतिमई, सुयं च णेहि, तओ गाढमद्धिई जाया, विसेसओ तीसे, पच्छा ताणं गमागमसंववहारो वोच्छिन्नो, सा धम्मपरा जाया , पच्छा पवइया, कालेण विहरंती पबत्तिणीए समं साकेयं गया, पुवभाउज्जायाओ उवसंताओ भत्तारा य तासिं न सुह। एत्वंतरंमि य से उदियं नियडिनिबंधणं वितियकम्मै, पारणगे| अनुक्रम [१] दृष्टा, कस्यैषा कन्यकेति, शसस श्रेष्ठिनः सबहुमानं समुद्रदत्ताय मागिता लब्धा वीवाहन कृतः, कालान्तरेण स नेतुमागतः, अपचारस्तस्य कृतः, वासगृहं सजितम् । अत्रान्तरे च सर्वाङ्गसुन्दयो उदितं तत् माया निवन्धनं प्रथमकर्म, ततो भत्री तस्या वासगृहस्थितेन वज्रम्ती दैविकी पुरुषच्छाया दृष्टा, ततोऽनेन चिन्तितं-दुष्टशीला मम महिला, कोऽप्यवलोक्य गत इति, पश्चासाऽयता, न तेनालापिता, तत पादुःखस्थितया (खार्तया) धरण्यामेव रजनी गमिता, प्रभाते तस्या भताऽनापृच्छय स्खजनवर्गमेकं विग्जातीयं कथयित्वा गतः साकेत नगर, परिणीता चानेन कोशलपुरे नन्दनस्य दुहिता श्रीमतिरिति, भ्रात्रा च तस्य तथा भगिनी कान्तिमतिः, श्रुतं चैभिः, ततो गाढमतिर्जाता, विशेषतस्तस्याः, पश्चातयोगमागमसंध्यवहारो न्युटिमा, सा धर्मपरा जाता, पञ्चामनजिता, कालेन विहरन्ती प्रवर्तिन्या समं साकेतं गता, पूर्वनातुषि उपशान्ते भारीच तयोने सुषु । मत्रान्तरे च तस्या उदितं निकृतिनियन्धनं । द्वितीयं कर्म, पारणके JABERDER wwsainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 792 ~ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) 9% आवश्यक दिभिक्खनु पविठ्ठा, सिरिमई य वासघरं गया हारं पोयति, तीए अभुट्ठिया, सा हारं मोत्तूण भिक्खत्थमडिया, एत्थ- नमस्कार हारिभ- मिचित्तकम्मोइण्णणं मयूरेणं सो हारो गिल्लिओ, तीए चिंतियं-अच्छरीयमिण, पच्छा साडगद्धेण ठड्यं. भिक्खा वि. द्रीया पडिग्गाहिया निग्गया य, इयरीए जोइयं-जाव नस्थि हारोत्ति, तीए चिंतियं-किमेयं बडखेहूं, परियणो पुपिछओ, सो भणइ-न कोइ एत्थ अजं मोतूण पविट्ठो अन्नो, तीए अंबाडिओ, पच्छा फुटू । इयरीएवि पवत्तिणीए सिर्छ, तीए भणियं ॥३९५|| 1-विचित्तो कम्मपरिणामो, पच्छा उग्गतरतवरया जाया, तेसिं चाणत्यभीयाणं तं गेहूं ण उग्गाहइ, सिरिमई कंतिमइओ भतारेहिं हसिजति, ण य विपरिणमंति, तीएवि उम्गतवरयाए कम्मसेसं कर्य, एत्थंतरंमि सिरिमई भत्तारसहगया वास-ID हरे चिड, जाव मोरेण चित्ताओ ओयरिऊण निग्गिलिओ हारो, ताणि संवेगमावण्णाणि, अहो से भगवईए महत्थता जं: न सिमिदंति खामेउं पयट्टाणि, एत्थंतरंमि से केवलमुप्पण्णंति, देवेहि य महिमा कया, तेहिं पुच्छियं, तीएऽवि साहिओ -१% * -१ अनुक्रम [१] भिक्षा प्रविष्टा, श्रीमतिश्च वासगृहगता हारं प्रोतति, तथाऽभ्युस्थिता, सा हारं मुक्त्वा भिक्षार्थमुत्थिता, अत्रान्तरे चित्रकर्मोत्तीर्णेन मयूरेण स हारो गिलितः, तया चिन्तितम्-भावयमिदं, पश्चात् शाटकान स्थगित, भिक्षा प्रतिगृहीता निर्गता च, इतरया दृष्ट-यावन्नास्ति हार इति, तथा चिन्तित-किमेषा बहती श्रीदा, परिजनः पृष्टः, स भणति-न कोऽपि मन्नार्या मुक्त्वा प्रविष्टोऽन्यः, तया निर्भसितः, पश्चात् स्फिटितम् । इतस्याऽपि प्रबर्सिन्याः शिष्ट, तयार भणित-विचित्रः कर्मपरिणामः, पश्चात् उनतरतपोरता जाता, तैश्वानर्थभीतैः तद्हं नावगाडते, श्रीमतिकान्तिमयौ भर्तृम्यां इस्येते, न च विपरिणमतः, सथाउप्युग्रतपोरतया कर्मशेष कृतम् , अत्रान्तरे श्रीमतिर्भा सह गता वासगृहे तिष्ठति, यावन्मयूरेण चित्रावतीर्य निर्गिलितो हारः, तौ संवेगमापनौ, अहो तस्सा भगवत्या गाम्भीयं यत्र शिष्टमिमिति क्षमयितुं प्रवृत्तौ, अन्नान्तरे तस्याः केवलज्ञानमुत्पन्नमिति, देवैध महिमा कृतः, तैः पृष्टं, तयाऽपि कथितः ॥३९५॥ JABERatinintamational andibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 793~ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत परभववतंतो, ताणि पवइयाणि, एरिसी दुहावहा मायत्ति । अहंवा सूयओ-एगस्स खंतस्स पुत्तो खुडओ सुहसीलओ जाव| 31 W ड-अविरतियत्ति, खतेण धाडिओ लोयस्स पेसणं करेंतो हिंडिऊण अट्टवसट्टो मओ, मायादोसेण रुक्खकोहरे सूतओ। जाओ. सोय अक्खाणगाणि धम्मकहाओ जाणइ जातिसरणेणं, पढइ, वणचरएण गहिओ. कुंटितो पाओ अच्छि च काणिय, विधीए उड्डिओ, ण कोइ इच्छइ, सो सावगस्स आवणे ठवित्ता मुलस्स गओ, तेण अप्पओ जाणाविओ, कीओ, |पंजरगे छढो, सयणो मिच्छदिठिओ, तेसिं धर्म कहेइ, तस्स पुत्तो महेसरधूयं दणं उम्मत्तो, तं दिवसं धर्म ण सुणेति ण वा पञ्चक्खायंति, पुच्छियाणि साहति, वीसस्थाणि अच्छह, सो दारओ सद्दाविओ, भणिओ व ससरक्खाणं ढक्काहि, AIकिरिय अहि, ममं च पच्छतो इट्टगं उक्खणिऊणं णिहणाहि, तहा कयं, सो अविरतओ पायपडितो विनवेइ-धूयाए वरं देहि, सूयओ भणइ महेसरस्स-जिणदासस्स देहि, दिना, सा गबं वहइ-देवदिन्नत्ति, अन्नया तेण हसियं, निबंधे 2 सूत्राक दीप अनुक्रम परभववृत्तान्तः, तौ प्रवजिती, ईशी दुःखावहा भायेति । भयवा शुकः-एकस्य वृद्धस्य पुत्रः क्षुलकः सुखशीलो यावरणशि-अविरतिकेति, वृद्धन निर्धाटितः लोकस्य मेषणं कुर्वन् हिण्डयित्वा आत्तवशातों मृतो, मायादोषेण वृक्षकोटरे शुको जातः, स चाख्यानकानि धर्मकथाश्च जानाति जातिस्मरणेन, पठति, वनचरेण गृहीतः, कुष्टितः पादः अक्षि व काणितं, बीभ्यामवतारितः, न कोऽपीच्छति, स श्रावकस्यापणे स्थापयित्या मूल्याय गतः, तेनात्मा ज्ञापितः, कीतः, पञ्जरे क्षिप्तः, स्वजनो मिभ्याष्टिः, तेभ्यो धर्म कथयति, तस्य पुत्रो माहेश्वरस्य दुहितर रट्वोन्मतसदिवसे धर्म न शुण्यन्ति न वा प्रत्याख्यास्ति, पृष्टाः कथयन्ति, विश्वस्तास्तिष्टत, स दारकः शब्दित:-मणितत्र-सरजस्कानां पार्श्व व्रज, टिकरिका (कपालं) अय, मां च पश्चात् इष्टकमुत्साय निजहि, तथा कृतं, सोऽविरतः पादपतितो विज्ञपयति-दुहितुर्वरं देहि, शुको भणति महेश्वराय-जिनदचाय देहि, दत्ता, सा गर्व वहति-देवदति, अन्यदा लेन | | हसितं, निबन्धे+नेदमुदाहरणं प्रत्यः M anainrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 794 ~ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक-मा कहियं, अमरिसं वहइ, संखडीए वखित्ताणि हरइ, भणति-तुमंसि पंडितउत्ति पिच्छं उप्पाडियं, सो चिंतेइ-कालं हरामि, नमस्कार हारिभ- भणइ-णाहं पंडितओ सा पहाविई पंडितिया,-एगा पहाविणी कूरं छत्तं जिंती धोरेहिं गहिया, अहंपि एरिसे मग्गामि | वि०१. द्रीया रत्तिं एह रूबए लएत्ता जाइहामो, ते आगया, वातकोणएण णकाणि छिण्णाणि, अन्ने भणंति-खत्तमुहे खुरेण छिन्नाणि, ॥३९६॥ बितियदिवसे गहिया, सीस कोट्टेइ भणति य-केण तुन्भेत्ति?, तेहिं समं पहाविया, एगमि गामे भत्तं आणेमिति कलालकुले विक्किया, ते रूवए घेत्तूणं पलाया, रात्तिं रुक्खं विलग्गा, तेवि पलाया उलग्गति, महिसीओ हरिऊणं तत्थेव आवासिया मंसं खायंति, एको मंसं घेत्तूण रुक्खं विलग्गो दिसाओ पलोएइ, तेण दिहा, रूपए दाइए, सो दुक्को, जिन्भाए गशाहिओ. पडतेण आसइत्ति भणिते आसइत्ति काऊणं णडा, सा घरं गया, साहाविई पंडितिया णाहं पंडितओ।ताहे पुणोवि* अण्णं लोमं उक्खणइ, पुणरवि दारियापिउणा दारिदेण धणयओ छलाविओ रूवगा दिन्नत्ति कूडसक्खीहिं दवाविओ, कथितम् , अमर्ष वहति, संसख्या व्याक्षिप्तेषु हरति, भणति-त्वमसि पण्डित इति पिच्छमुत्पाटितं, स चिन्तयति-कालं इरामि, भणति-नाई। पण्डितः, सा नापिती पण्डिता-एका नापितो कूरं क्षेत्रं नयन्ती चौरैयूँहीता, अहमपीदृशान् मायामि रात्रावायात रूप्वकान् लात्वा यास्यामः, ते आगताः, क्षुरप्रेण मासिका पिछलाः, अन्ये भणन्ति-क्षत्रमुखे क्षुरप्रेण छिन्नानि, द्वितीय दिवसे गृहीता, शीर्ष कुट्टयति भणति च-केन यूष्माकमितिी, तैः समं प्रधाविता, ॥३९६॥ एकस्मिन् मामे भक्तमानवामीति कलालकुले विक्रीता, ते रूप्यकान् गृहीत्वा पलायिताः, राम्रो वृक्षं विलना, तेऽपि पलायिता अबलगन्ति, महीपीईस्वा तत्रैवावासिता मांसं खादन्ति, एको मांसं गृहीत्वा वृक्षं विलमो दिशः प्रलोकयशि, तेन दृष्टा, रूप्यकान् दर्शयति, स भागतः, जिलया गृहीतः, पतता आल इति भणिते आस्ते इति कृत्वा मष्टाः, सा गृहं गता, सा नापिती पण्डिता नाई पण्डितः । तदा पुनरपि अन्य पिच्छमुखनति, पुनरपि दारिका पित्रा दारिमेण । धनदलितः रूप्यका दत्ता इति, कूटसाक्षिभिदापितः, CROSS दीप अनुक्रम [१] Patanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 795~ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [ १५१...] दारिया मग्गिया, कुबे छूढा, सुरंगं खणाविया, पिया कप्पासं कत्ताविओ, सपुत्तया णिजाहि, सो गओ दिसं, इमावि गणियवेसेणं पुत्रमागया, तिलक्खागिया कोलिगिंणी चोरनिमित्तं चंदपुत्तं सद्दाइस्सामित्ति असंतपणं पत्तियावितो राया वाणियदारियाए, एवमाईणि पंच सवाणि रतीगयाणि, पिंच्छित्ता मुको, सेणेणं गहिओ, दुण्हं सेणाणं भंडताणं पडिओ, असोगवणियाए पेसेलियाए पुत्तेण दिडो, भणिओ य-संगोवाहि, अहं ते कर्ज काहामि, संगोविओ, अण्णस्स रज्जे दिज| माणे भिंडमए मयूरे विलग्गेणं रत्ति राया भणिओ, पेसिल्लियापुचस्स रज्जं दिण्णं, तेण सत्तदिवसे मग्गियं, दोवि कुला पद्याविया, भत्तं पञ्चक्खायं, सहस्सारे उववण्णो ॥ एवंविधां मायां नामयन्त इत्यादि पूर्ववत्, लोभश्चतुर्विधः - कर्मद्रव्यलोभो योग्यादिभेदाः पुद्गला इति, नोकर्मद्रव्यलोभस्त्वाकरमुक्तिश्चिकणिकेत्यर्थः, भावलोभस्तु तत्कर्मविपाकः, तद्भेदाचैते- 'लोहो हलिद्दखंजणकद्दमकिमिरायसामाणों सर्वेषां क्रोधादीनां यथायोगं स्थितिफलानि पैक्खचउमासवच्छरजा| वज्जीवाणुगामिणो कमसो । देवनरतिरियनारगगइसाहणहेयवो नेया ॥ १ ॥ लोभे लुद्धनंदोदाहरणं - पाडलिपुत्ते लुद्धणंदो अध्ययन [ - ], १ दारिका मार्गिता ( याचिता ), कूपे शिक्षा, सुरङ्गा खानिता, पिता कसं कर्त्तितः, सपुत्रा नियहि स गतो दिशि इयमपि गणिकावेषेण पूर्वमा गता, तिलखादिका कोलिकी चौरनिमित्तं चन्द्रपुत्रं शब्दविष्यामीति असता प्रत्ययितो राजा वणिग्दारिकया, एवमादीनि पञ्च शतानि रात्रिगतानि निपिच्छीकृत्य मुक्तः, श्वेनेन गृहीतः द्वयोः श्येनयोः कलहयतोः पतितोऽशोकवनिकायां, प्रेयिकापुत्रेण दृष्टः, भणित-संगोपय, अहं तव कार्य करिष्यामि, संगोपितः, अन्यस्मै राज्ये दीयमाने भिण्मये मयूरे विलग्झेन रात्रौ राजा भक्तिः, प्रेयिकायाः पुत्राय राज्यं दतं तेन सप्तमदिवसे मार्गितं द्वे अपि कुले प्रमाजिते, भक्तं प्रत्याख्यातं सहस्रारे उत्पन्नाः । २ लोमो हरिद्रास्त्रअनकर्दम कृमिरागसमानः । ३ पक्षचतुर्माससंवत्सरयावजीवानुगामिनः क्रमशः । देवनरतिर्यङ्गनारकगतिसाधनहेतवो शेयाः ॥ १ ॥ लुब्धनन्दोदाहरणम्-पाटलिपुत्रे लुब्धनन्दो * कोलित्रिणी प्र० For Past Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः लोभकषाय संबंधे लुब्धनन्दस्य कथा ~796~ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार. वि०१ प्रत सुत्रांक भावश्यक-गावाणियओ, जिपादत्तो सावओ, जियसत्तू राया, सो तलागं खणावेइ, फाला य दिवा कम्मकरेहि, (पं० १००००) सुरा- हारिभ- मोल्लंति दो गहाय वीहीए सावगस्स उवणीया, तेण ते णेच्छिया, गंदस्स उपनीया, गहिया, भणिया य-अण्णेवि आणे- द्रीया जह, अहं चेव गेण्डिस्सामि, दिवसे २ गिण्हइ फाले । अण्णया अब्भहिए सयणिज्जामंतणए बलामोडीएणीओ, पुत्ता X ॥३९७माणमा भणिया-फाले गेण्हह, सो य गओ, ते य आगया, तेहिं फाला ण गहिया, अछुछा य गया पूवियसालं, तेहिं ऊणगं । हा मोल्लंति एगते एडिया, किंह पडियं, रायपुरिसेहिं गहिया, जहावत्तं रन्नो कहियं । सो नंदो आगओ भणइ-हिया ण वत्ति, तेहि भण्णइ-किं अम्हेवि गहेण गहिया !, तेण अइलोलयाए एत्तियस्स लाभस्स फिट्टोऽहंति पादाण दोसेण एकाए कुसीए दोषि पाया भग्गा, सयणो विलवइ । तओ रायपुरिसेहिं सावओ णंदोय घेत्तूण राउलं नीया, पुच्छिया, सावओ भणइ-मझ इच्छापरिमाणातिरितं, अविय-कूडमाणति, तेण न गहिया, सावओ पूएऊण विसजिओ, नंदो सूलाए यणिक, जिनदत्तः श्रावकः, जितम राजा, स तडाग खानयति, कुश्यश्च दृष्टाः कर्मनः, सुरामूल्यमिति दे गृहीत्वा वीच्यां श्रावकायोपनीते, तेन ते नेटे, नन्दायोपनीते, गृहीते, भणिताश्व-अन्या अपि आनयेत भइमेव प्रहीष्यामि, दिवसे दिवसे कुश्यौ गृद्धाति । बन्यदा अभ्यधिके खजनामन्त्रणे बलादाकारेण नीतः, पुत्रा भणिताः-कुश्यौ गृहीयात, सच गतः, ते चागताः,तैः कुझ्यौ न गृहीते, आकुष्टाश्च गताः आपूपिकचाला, तैरूनं मूल्यमित्येकान्ते क्षिसे, है कि पतितं, राजपुरुपैहीताः, यथावृत्तं राज्ञे कयितं । स नन्द मागतो भणति-गृहीते न वेति, तैर्भग्यते-किं वयमपि ग्रहेण गृहीता, तेनातिलौल्यतया एतावतो छाभात् अष्टोऽमिति पादयोषेणैकया कुश्या द्वावपि पादौ भनौ, स्वजनो विलपति । ततो राजपुरुषैः श्रावको नन्दन गृहीत्वा राजकुछ है नीती, पृष्टी, श्राकको भगति-ममेच्छापरिमाणातिरिकम् , अपिष-कूटमानमिति, तेन न गृहीते, पावकः पूजयित्वा विसृष्टः, नन्दः शूलायां बीहीए नीया + कीडो फिट्टो विडो. दीप अनुक्रम ॥३९७॥ MER H andionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 797~ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक कामिनो, सकलोय उच्छाइओ, सावगो सिरिघरिओ ठवियो।एरिसो दुरंतो लोभो॥ एवंविधं लोभ नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ।। ४ अथेन्द्रियद्वारमुच्यते, तत्रेन्द्रियमिति कः शब्दार्थः', 'इदि परमैश्वर्ये' इन्दनादिन्द्रः, सर्वोपलब्धिभोगपरमैश्वर्यसम्बन्धा जीवः, तस्य लिङ्गं तेन दृष्टं सृष्टं चेत्यादि, 'इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गम्' इत्यादिना सूत्रेण निपातनात् सिद्ध, तच्च द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, तत्र निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रिय, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियमिति, अमूनि च स्पर्शनादिभेदेन पञ्च भवन्ति अतो बहुवचनम् , उक्तं च-"स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि"(तत्त्वा० अ०२ सू०२०) एतानि च नामितानि अलं दुःखायेति, अत्रोदाहरणानि । तत्थं सोईदिए उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे पुप्फसालो नाम गंधविओ, सो अइसुस्सरो [विख्वो य, तेण जणो हयहियओ कओ, तंमि णयरे सत्थवाहो दिसायत्तं गएलओ, भद्दा य से भारिया, तीए केणवि कारणेण दासीओ पयट्ठियाओ, ताओ सुणंतीओ अच्छंति, कालं न याणति, चिरेण आगयाओ अंबाडियाओ भणंतिमा भट्टिणी! रूसेह, जं अज अम्हाहिं सुर्य तं पसूणवि लोभणिज, किमंग पुण सकण्णाणं ?, कहंति !, ताहिं से कहियं, सा हियएण चिंतेइ-कहमहं पेच्छिज्जामि ? । अन्नया तत्थ णयरदेवयाए जत्ता जाया, सर्व च णयरं गर्य, सावि गया, मित्रः, सकुलश्रोत्सावितः, भावका श्रीगृहिकः स्थापितः । एतादृशो दुरन्तो लोमः । २ नम्र श्रोत्रेन्द्रिये उदाहरण-वसन्तपुरे नगरे पुष्पशालो नाम गान्धर्विकः सोऽतीव सुखरो विरूपन, तेन जनो हतहदयः कृतः, तसिजगरे सार्थवाहो दिग्यानां गतोऽभूत्, भद्रा च तस्य भार्या, तया कमचिदपि कारणाय दास्यः प्रवर्चिताः, ताः शृण्वन्त्यसिष्ठन्ति, कालं न जानन्ति, चिरेणागता उपालब्धा भणन्ति-मा स्वामिनि ! रुषः, यदयास्माभिः श्रुतं तत्पशूनामपि लोभनीयं, किमङ्ग पुनः सकांना 1, कथमिति !, ताभिस्तस्यै कथितं सा हृदयेन चिन्तयति-कथमहं प्रेक्षयिष्ये । अन्पदा तन नगरदेवतावा यात्रा जाता, सर्वच नगरं गतं, साऽपि गता,* जिणदत्तो. दीप अनुक्रम [१] JABERatinintamational Manmitraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 798~ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ श्रीया ।। ३९८ ।। Jus Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [ १५१...] अध्ययन [ - ], लोगोवि पणमिऊणं पडिएइ पहायदेसकालो य वहह, सोवि गाइऊण परिस्संतो परिसरे सुत्तो, सा य सत्थवाही दासीए समं आगया, पणिवइत्ता देउलं पयाहिणं करेइ, चेडीहिं दाइओ एस सोत्ति, सा संभंता, तओ गया, पेच्छइ विरूवं दंतुरं भणइ-दिडं से रूवेणं चैव गेयं, तीए निच्छूढं, चेतियं चऽणेण, कुसीलएहिं से कहियं, तस्स अमरिसो जाओ, तो से घरमूले पच्चूसकालसमए गाइडमारो पडत्थवइयानिवद्धं, जह आपुच्छर जहा तत्थ चिंतेइ जहा लेहे विसज्जइ जहा आगओ घरं पविसइ, सा चिंतेइ सभूयं वहइ ताए अन्भुद्वेमित्ति आगासतलगाओ अप्पा मुक्को, सा मया, एवं सोइंदियं दुक्खाय भवइ ॥ चखिदिए उदाहरणं - महुराए णयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, सा पयईए धम्मसद्धा, तत्थ भंडीरवर्ण चेइयं, तरस जत्ता, राया सह देवीए णयरजणो य महाविभूईए निग्गओ, तत्थेगेणमिष्भपुत्त्रेण जाणसंठियाए देवीए जवणियंतरविणिग्गओ सालत्तगो सनेउरो अईव सुंदरी दिट्ठो चलणोत्ति, चिंतियं चऽणेणं-जीए एरिसो चलणो सा रूवेण १ लोकोऽपि प्रणम्य प्रत्येति प्रभातदेशकाल वर्त्तते, सोऽपि निगीय परिभ्रान्तः परिसरे सुप्तः सा च सार्थवाही दावा सममागता प्रणय देवकु प्रदक्षिणां करोति, पेटीभिदर्शितः एप स इति सा संभ्रान्ता, ततो गता, प्रेक्षते विरूपं दन्तुरं भणति दृष्टं तस्य रूपेणेव गेयं तथा नियुतं चेतितं चानेन तस्मै कुशीलवैः (विदूषकः) कथितं तस्यामय जातः, ततस्तत्या गृहसूले प्रत्यूषकालसमये गातुमारब्धः प्रोषितपतिकानिवद्धं यथा आपृच्छति यथा तत्र चिन्तयति यथा लेखान् विसृजति यथाऽगतो गृहं प्रविशति सा चिन्तयति-समीपे (भूमी) वर्त्तते तद्युतिष्ठामीति आकाशतळादात्मा मुक्तः, सा मृता, एवं श्रोत्रेन्द्रियं दुःखाय भवति चचारेन्द्रिये उदाहरणं मथुरायां नगय जितशत्रू राजा, धारिणी देवी, सा प्रकृत्या धर्मश्रदा, तत्र भण्डीरवर्ण चैत्यं तस्य यात्रा, राजा सह देण्या नगरजनअ महाविभूत्या निर्गतः तत्रैकेनेभ्यपुत्रेण यानसंस्थिताया देव्या यवनिकान्तरविनिर्गतः सालककः सन्पुरोऽतीवसुन्दरी धरण इति, चिन्तितं चानेन यस्था ईशचरणः सा रूपेण For Fasten नमस्कार • वि० १ ~ 799~ ॥३९८॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत तियससुंदरीणषि अम्भहिया, अज्झोववन्नो, पच्छा गविद्या का एसत्ति, णाया, तग्घरपञ्चासन्ने वीही गहिया, तीसे दादासचेडीणं दुगुणं देइ महामणुस्सत्तणं च दाएइ, ताओ हयहिययाओ कयाओ, देवीएवि साहंति, संववहारो लग्गो, देवीएवि गंधाई तओ चेव गिण्हंति । अण्णया तेण भणियं-को एयाओ महामोला गंधाइपुडियाओ उच्छोडेइ ?, चेडीए सिह-अम्हाणं सामिणित्ति, तेण एगाए पुडियाए भुजपत्ते लेहो लिहिऊण छूढो, जहा-काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे!, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१॥ पच्छा उग्गाहिऊणं विसजिया, देवीए उम्पाडिया, वाचिओ लेहो, चिंतियं चऽणाए-धिरत्थु भोगाणं, पडिलेहो लिहिओ, यथा-'नेह लोके सुखं किश्चिच्छादितस्यांहसा भृशम् । मितं च जीवितं नृणां, तेन धर्मे मतिं कुरु ॥ १॥ पादप्रथमाक्षरप्रतिबद्धो भावार्थः पूर्वश्लोकवदवसेयः, तओ बंधिऊण पुडिया ण सुंदरगंधत्ति विसजिया चेडी, तीए पडिअप्पिया पुडिया, भणियं चऽणाए|देवी आणवेइ-ण सुंदरा गंधत्ति, तुद्वेण छोडिआ, दिट्ठो लेहो, अवगए लेहत्थे विसन्नो पोचाई फालेऊण निग्गओ, चिंतिय सूत्राक ॐCCCCCCC दीप अनुक्रम [१] त्रिदशसुन्दरीभ्योऽषभ्यधिका, अध्युपपशः, पश्चाद्वेषिता-कैपेति !, ज्ञाता तद्प्रयासने वीथी गृहीता, तस्या दासचेटीभ्यो विगुणं ददाति महामनुव्यस्वं च दर्शवते, ता हुतहृदयाः कृताः, देव्यायपि कथयन्ति, संव्यवद्दारो नमः, देव्या अपि गन्धादिसत एवं गृहन्ति । अन्यदा तेन भणितंक एता महामूक्या गम्धादिपुटिका उच्छोटयति', चेज्या शिष्टम्-भस्माकं स्वामिनीति, तेनैकखां पुटिकायां मूर्जपने लेखो किखित्वा क्षिप्तः, यषा-पवादुहास विसृष्टा, देव्योपाटिता, वाचितो लेख:, चिन्तितं पानया-धिगरतु भोगान्, प्रतिलेखो लिसिता-ततो बढ़ा पुटिका न सुन्दरपन्वेति बिमा चेटी, तया प्रत्य|पिता पुटिका, भाषितं चानया-येण्याज्ञापयति सुन्दरा गन्धा इति, तुष्टेन छोटिता, दृष्टो लेखोऽवगते लेखा विषण्णः पोवानि साढयित्वा निर्गतः, चिन्तितं | JABERatinintamational randiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~800~ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) ། नमस्कार वि०१ आवश्यक- हारिभद्रीया ॥३९॥ प्रत ६ चणेणं-जाव एसा न पाविया ताव कहमच्छामित्ति परिभमंतो य अन्नं रजं गओ, सिद्धपुत्ताण दुक्को, तत्थ नीई वक्खा- णिजाइ, तत्थवि अयं सिलोगो-'न शक्यं त्वरमाणेन, प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । भार्यां च रूपसम्पन्नां, शत्रूणां च पराजयम् ॥ १॥ एत्थ उदाहरणं-वसंतपुरे णयरे जिणदत्तो णाम सत्थवाहपुत्तो, सो य समणसट्टो, इओ य चंपाए परममाहेसरो घणो णाम सत्थवाहो, तस्स य दुवे अच्छेरगाणि-चउसमुद्दसारभूया मुत्तावली धूया य कन्ना हारप्पभत्ति, जिणदतेण सुयाणि, बहुप्पगारं मग्गिओ ण देइ, तओऽणेण चट्टवेसो कओ, एगागी सयं चेव चपं गओ, अंचियं च वट्टइ, तत्थेगो अज्झावगो, तस्स उवडिओ पढामित्ति, सोभणति-भत्तं मे नत्थि, जइ नवरं कहिंपी लभसित्ति, धणो य भोयणं ससरक्खाणं देइ, तस्स उवडिओ, भत्तं मे देहि जा विजं गेहामि, जं किंचि देमित्ति पडिसुयं, धूया संदिवा-जं किंचि से दिजाहित्ति, | तेण चिंतियं-सोहणं संवत्तं, बल्लूरेण दामिओ विरालोत्ति, सो त फलाइगेहिं उवचरइ, सा ण गेण्हइ उवयारं, सो य| सूत्राक SC4G दीप अनुक्रम [१] अचानेन-यावदेषान प्राप्ता तावक तिहामीति परिनाम्यश्चान्यत् राज्यं गतः, सिद्धपुत्रानाश्रितः, तत्र नीतियाख्यायते, तत्राप्ययं लोकः । अत्रो*दाहरण-वसन्तपुरे नगरे जिनदत्तो नाम सार्थवाहपुत्रः, स च श्रमणभावः, इतश्च चम्पायर्या परममाहेम्मो धनो नाम सार्थवाहः, तस्य च द्वे आश्चर्य-चतु: समुद्रसारभूता मुक्कावळी दुहिता च कन्या हारमभेति, जिनदत्तेन श्रुते, सुबहुप्रकार मार्मितो न ददाति, ततोऽनेन विश्वेषः कृतः, एकाकी स्वयमेव चम्पा गतः, अञ्चितं च वर्तते, तसैकोऽध्यापकस्तमुपस्थितः पठामीति, स भपाति-भक मे नास्ति, यदि पर कापि लभस इति, धनश्च भोजनं सरजस्केभ्यः ददाति, तमुपस्थितः, मक्तं मे देहि यावदिया गृह्णामि, यत्किञ्चिदामीति प्रतिश्रुतं, दुहिता संविधा-यक्किश्चिद वा इति, तेन चिन्तितं-शोभनं संवृतं, दुर्वरेण (बारेण ) वामितो बिवाल इति, सता फलादिकैरूपचरति, सा न रागाति उपचार, स पास्वरितो ॥३९॥ Donatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~801~ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक अतुरिओ णीइंगाही थके थके सम उवचरइ, ससरक्ला य तं खरंटेइ, तेण सा कालेणावज्जिया अझोववन्ना भणइ-18 (पलायऽम्ह, तेण भणियं-अजुत्तमेयं, किंतु तुम उम्मत्तिगा होहि, केजावि अकोसेजाहि, तहा कयं, वेज्जेहिं पडिसिद्धा, पिया से अद्विति गओ, चट्टेण भणिय-परंपरागया मे अस्थि विजा, दुकरो य से उवयारो, तेण भणियं-अहं करेमि. चद्वेण भणियं-पउंजामो, किंतु बंभयारीहिं कर्ज, तेण भणियं-अत्थि भगवंतो ससरक्खा ते आणेमी, चट्टेण भणियंजइ कहवि अबभयारिणो होति तो कर्ज न सिम्झइ, ते य परियाविति, तेण भणिय-जे सुंदरा ते आणेमि, कतिहिं है। कज, चउहि, आणीया सहवेहिणो य दिसावाला, कयं मंडलं, दिसापाला भणिया-जओ सिवासहो तं मणागं विंधे-2 जह, स सरक्खा य भणिया हुंफुटत्तिकए सिवाख्यं करेजह, दिक्करिगा भणिया-तुम तह चेव अच्छेजह, तहा कय, विद्धा ससरक्खाण, पउणा चेडी, विपरीणओ घण्णो, चट्टेण वुत्त-भणियं मए-जइ कहवि अभयारिणो होति कजं न नीतिमाही अवसरेऽवसरे सम्पगुपचरति, सरजस्कान तं निरसयति, तेन सा कालेनावर्जिता अध्युपपना भणति-पलाम्यतेऽस्माभिः, तेन भणितम्भयुक्तमेतत्, किन्तु स्वमुन्मत्ता भव, वैद्यानपि आकोशेः, तथा कृतं, वैयैः प्रतिषिद्धा, पिता तथा अति गतः, विप्रेण भणितं-परम्परागताऽस्ति में विद्या, दुष्करश्च तथा उपचारः, तेन भणितम्-नई करोमि, विप्रेण भणितं-प्रयुञ्जमः, किन्तु ब्रह्मचारिभिः कार्य, सेन भणितम्-सन्ति भगवन्तः सरजस्कास्तानानयामि, चहेन भाणित-यदि कथाश्चिदपि अबचारिणो भविष्यन्ति तदा कार्य न सेत्स्यति, ते च पर्यापद्यन्ते, तेन भणितं-ये सुन्दरास्तान् बानयामि, कतिमिः कार्य, चतुर्भिः, श्रानीताः शब्दवेधिनश्च दिक्पालाः, कृतं मण्डलं, दिक्पाला भणिता:-यतः शिवाशब्द आयाति तं शीघ्रं विध्येत, सरजस्काश्च भणिताः-फुडितिकृते शिवारतं कुर्यात, दुहिता भणिता-नवं तथैव तिष्टेः, तथा कृतं, विद्धाः सरजस्काः, प्रगुणीभूता पुत्री, विपरिणतो धन्यः, पढेनोक्त-भणितं मया यदि कथमध्यनह्मचारिणो भवेयुः कार्य च दीप अनुक्रम 3945 [१] anatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~802~ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) वि०१ प्रत आवश्यक-सिन्झईत्यादि, धणेण भणियं-को उयाओ?, चहेण भणियं-एरिसा बंभयारिणो हवंति, गुत्तीओ कहेइ, दगसोकराइसुनमस्कार हारभ- गवेसिओ नत्थि, साहूण दुको- तेहिं सिठ्ठाओ 'वसहिकहणिसिर्जिदियकुडतरपुबकीलियपणीए । अइमायाहारविभूसणा य नव बंभगुत्तीओ ॥१॥ एयासु बढमाणो सुद्धमणो जो य बंभयारी सो। जम्हा उ बंभचेरं मणोणिरोहो जिणाभिहियं । ॥४०॥ ॥२॥' उवगए भणिया-बंभयारीहिं मे कजं, साहू भणइ-न कप्पइ निग्गंधाणमेयं, चट्टस्स कहियं-लद्धा बंभयारी ण पुण इच्छंति, तेण भणियं-एरिसा चेव परिचत्तलोगवावारा मुणओ भवंति, किंतु पूजिएहिंवि तेहिं कज्जसिद्धी होइ, तंनामाणि |लिक्खंति, न ताणि खुद्दवंतरी अक्कमइ, पूइया, मंडलं कर्य, साहुणामाणि लिहियाणि, दिसावाला ठविया, न कूवियं सिवाए, पउणा चेडी, धणो साहणमल्लियंतो सहो जाओ, धम्मोवगारित्ति चेडी मुत्ताफलमाला य तस्सेव दिन्ना, एवं अतुरंतेण सा तेणं पावियत्ति सिलोगत्थो । सो एवं सुणिऊण परिणामेइ-अहंपि सदेसं गंतुमतुरंतो तत्थेव किंचि उवायं चिंतिस्सामित्ति सुत्रांक 40 दीप अनुक्रम [१] ।॥४००। सेस्पति, धनेन भणिक उपायः !, विप्रेण भणितं-इंदशो ब्रह्मचारिणः स्युः, गुप्तीः कथयति, परिमाजफेषु गवेषिसो नास्ति, साधूनां पार्थे आगतः, पः शिष्टा:-वसतिः कथा निषोन्द्रियाणि कुख्यान्तरं पूर्वकीदितं प्रणीतम् । अतिमात्राहारो विभूषणं च नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः ॥ १॥ एतासु वर्तमानः शुदमना पश्च ब्रह्मचारी सः । यसमाच ब्रह्मचर्य मनोनिरोधो जिनाभिहितम् ॥ २॥ उपगते भणिता:-ब्रह्मचारिभिर्म कार्य, साधचो भवन्ति- कल्पते निमंन्यानामेतत्, चट्टाय कथितं, लब्धा ब्रह्मचारिणो न पुनरिच्छन्ति, तेन भणित-ईरशा एव परित्यक्तलोकव्यापारा मुनयो भवन्ति, किं तु पूजितैरपि तैः कार्यसिद्धिर्भवति, तमा४ मानि लिख्यन्ते, न तानि शुद्रष्यन्तर्य आक्रमस्ते, पूजिताः, मण्डलं कृतं, साधुनामानि लिखितानि, विकृपाला स्थापिताः, न कूजितं शिवया, प्रगुणा (जाता) लदुहिता, धनः साधूनामयन् श्रादो जातः, धर्मोपकारीति चेटी मुक्ताफलमाला च तस्मायेव वसा, एवमस्वरमाणेन सा तेन प्रादेति लोकार्थः । स एतत् ४ श्रुत्वा परिणमयति-अहमपि स्वदेशं गत्वावरमाणस्तत्रैव कशिदुपायं चिन्तयिष्यामीति SAREaintune Tandiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~803~ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) गओ सदेस, तत्थ य विजासिद्धा पाणा दडरक्खा, तेण ते ओलग्गिया, भणति-किं ते अम्हेहिं कजं ?, सिद्ध-देवि घडेह, ४ तेहिं चितिय-उच्छोभं देमो जेण राया परिचयइ, तेहिं मारी विउविया, लोगो मरिउमारद्धो, रन्ना पाणा समाइट्टा-लभेह मारि, तेहिं भणियं-गवेसामो विज्जाए, देवीवासघरे माणुसा हत्थपाया विउविया, मुहं च से रुहिरलित्तं कयं, रण्णो निवेइयं-वत्थवा चेव मारी, नियघरे गवेसाहि, रण्णा गविद्या दिडा य, पाणा समाइटा-सविहीए विवादेह तो खाई मंडले मज्झरतंमि अप्पसागारिए वावाएयबा, तहत्ति पडिसुए णीया सगिह रत्तिं मंडलं, सो य तत्थ पुवालोइयकवडो गओ, सखलियारं मारेउमारद्धा, तेण भणियं-कि एयाए कयंति, ते भणंति-मारी एसत्ति मारिजइ, तेण भणियं-कहमेयाए आगिईए मारी हवइत्ति', केणति अवसद्दो ते दिण्णो, मा मारेह, मुयह एयं, ते नेच्छंति, गाढतरं लग्गो, अहं भे कोडिमोल्लं अलंकारं देमि मुयह एवं, मा मारेहिति, बलामोडीए अलंकारो उवणीओ, तीए चिंतिय-निकारणवच्छल्लोति तमि अनुक्रम [१] यतः स्वदेश, तनच विद्यासिदाचपडाला दण्डारक्षाः, तेन तेऽवलगिताः, भान्ति-कितवासाभिः कार्यम् , शिष्टं, देवीं मीलयत, तेनिम्तितम्आलं दो येन राजा परित्यजति, मारिर्षिकर्षिता, लोको मर्जुमारब्धः, राज्ञा चाग्दालाः समाविष्टा:-समध्यं मारी, तेर्भणितावेषयामो विधया, देवीवासगृहे मानुष्या हसपादा विकृर्विताः, मुखं च तस्या रुधिरलिप्तं कृतं, राज्ञः निवेदित-वास्तव्यैव मारी, निजगृहे गवेषय, राज्ञा गवेपिता दृष्टा च, चाण्डालाः समादिष्टा:स्वविधिना व्यापादयत तदाऽवश्यं मण्डले मध्यरात्रेयपसागारिके व्यापादयितय्या, तथेति प्रतिवते नीता स्वगृहं रात्री मण्डल, सच तत्र पूर्याकोचितकपटो | गतः, सोपचारं मारयितुमारब्धा, सेन भणित-किमेतया कृतमिति, ते भणन्ति-मार्येषेति मार्यते, तेन भणित-कथमेतयाऽऽकृत्या मारिभवतीति, केनचिदपशब्दो दत्त युष्माकं, मा मारवत, मुञ्चतैना, ते नेच्छन्ति, गाढतरं लमः, अहं युष्मभ्यं कोटिमूल्यमलकारं ददामि मुश्तैना, मा मारयतेति बलात् अलङ्कार | उपनीतः, तथा चिन्तितं-निष्कारणवत्सल इति तस्मिन् rajaniorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~804 ~ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) ། नमस्कार वि०१ द्रीया प्रत सूत्राक आवश्यकतापडिबंधो जाओ, पाणेहि भणियं-जइ ते निबंधो एयपि न मारेमो, किंतु निविसयाए गंतवं, पडिसुए मुक्का, सो तं गहा- हारिभ Pाय पलाओ, तो पाणप्पओ वच्छलगोत्ति दढयरं पडिबद्धा आलावाईहिंघडिया, देसंतरंमि भोगे भुंजंता अच्छंति । अण्णया सो पेच्छणगे गंतुं पयट्टो, सा नेहेण गंतुं न देइ, तेण हसिय, तीए पुच्छिओ-किमेयंति?, निबंधे सिद्ध, निविण्णा, तहासवाणं ॥४०॥ अजाणं अंतिए धर्म सोचा पषइया, इयरोवि अट्टदुहट्टो मरिऊण तदिवसं चेव नरगे उववण्णो । एवं दुक्खाय च विखदियंति ॥ पाणिदिए उदाहरणं-कुमारो गंधप्पिओ, सो य अणवरयंणावाकडएण खेल्लइ, माइसवत्तीए तस्स मंजूसाए विसं छोहण णईए पवाहियं, तेण रमंतेण दिहा, उत्तारिया, उग्घाडिऊण पलोइड पवत्तो, पडिमंजूसाईएहिं गंधेहिं समुहै गको दिहो, सोऽणेण उग्घाडिऊण जिंघिओ मओ य । एवं दुक्खाय घाणिदियन्ति ॥ जिभिदिए उदाहरणं-सोदासो राया मंसप्पिओ, आमाषाओ, सूयस्स मंसं बीरालेण गहिय, सोयरिएसु मग्गिय, न लद्धं, डिंभरुवं मारिय, सुसंहियं प्रतिबन्यो जातः, चाण्डाभणितं- यदि ते निर्बन्ध एनां नैव मारयामः, किंतु निर्विषयतया (देशाबहिः ) गन्तव्यं, प्रतिश्रुते मुका, स तां गृहीत्या पलायितः, ततः प्राणप्रदो वत्सल इति इवतरं प्रतिवद्धालापादिमिर्मीलिता, देशान्तरे मोगान् भुजानी तिष्ठतः । सम्पदा सप्रेक्षणके गन्तुं प्रवृत्तः, सा खेडेन गन्तुं न ददाति, तेन हसितं, तया पृष्ठः-किमेतदिति, निर्बन्धे शिष्ट, निर्विष्णा, तयारूपाणामार्याणामन्तिके धर्म श्रुत्वा प्रवजिता, इतरोऽप्यातदुःखातों मृत्वा त दिवसं (तदोषादेव) नरके उत्पनः । एवं दुःखाय पारिन्द्रियमिति । नाणेन्द्रिये प्रदाहरणं-कुमारो गन्धप्रियः, स चानवरतं नावाकटकेन क्रीडति, | मातृसपक्या तस्स मजूषायां विषं क्षित्वा नयाँ प्रवाहितं, तेन रममाणेन रटा, उत्तारिता, उषाव्य प्रलोकपितु प्रवृत्तः, प्रतिमञ्जूषादिगर्गन्धैः समुद्रो इष्टः, सोऽनेनोदूधाब्य प्रातो मसन । एवं दुःसाय प्राणेन्द्रियमिति । जिडेन्द्रिये उदाहरण-सोदासो राजा मांसमिया, अमाषातः, शुकख मांस मारिण गृहीतं, शौकरिकेषु मार्गितं, न सम्धं, डिम्मरूपं मारितं, मुसंहितं दीप अनुक्रम [१] |॥४०॥ Sanmiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~805~ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत पुच्छा, कहियं, पुरिसा से दिना-मारेहप्ति, नवरेण नाओ भिच्चेहि य रक्खसोत्ति महुँ पाएत्ता अडवीए पवेसितो, चच्चरे DIठिओ गयं गहाय दिणे २ माणुस्सं मारेइ, केइ भणंति-विरहे जणं मारेति, तेणंतेणं सत्थो जाइ, तेण सुत्तेण न जाणिओ, IP 18 साढू य आवस्सयं करेन्ता फिडिया, ते दणं ओलग्गइ, तवेण न सक्केइ अलिइड, चिंता, धम्मकहणं, पवजा । अन्ने भणति-सो भणइ वचते-ठाह, साढू भणइ-अम्हे ठिया तुम चेव ठाहि, चिंतेइ, संबुद्धो, साइसया आयरिया, ते ओहि-18 नाणी, केत्तियाणमेवं होहि । एवं दुक्खाय जिभिदियंति ॥ फासिंदिए उदाहरण-वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, सुकुमालिया से भज्जा, तीसे अईव सुकुमालो फासो, राया रजं न चिंतेइ, सो एवं निश्चमेव पडिभुजमाणो अच्छइ, एवं कालो वच्चइ, भिच्चेहिं सामंतोऽहिमंतेऊण तीए सह निच्छूढो, पुत्तो से रज्जे उविओ, ते अडवीए बच्चति, सा तिसाइया, जलं मग्गिय, अच्छीणि से बद्धाणि मा बीहेहित्ति, छिरारुहिरं पजिया, रुहिरे मूलिया छूढा जेण ण थिजइ, छुहाइया सूत्राक ******UPICASSO दीप अनुक्रम [१] पृष्ठति, कषितं, पुरुषालमै दसा-मारयतेति, नागरेण ज्ञातो मृत्यैव राक्षस इति मर्थ पायविया भटम्या प्रवेशितः, चावरे खितो गजं गृहीत्वा दिने २ मनुष्यं मारवति, केचितणन्ति-विरहे जनं मारयति, तेन मार्गेण सार्थों याति, तेन सुक्षेन न ज्ञातः, साधवश्वावश्यकं कुर्वन्तः स्फिटिताः, तेन दृष्ट्वाऽवलायन्ते, तपसा न शक्रोति आश्रयितुं, चिन्तयति, धर्मकयनं, प्रवज्या । अन्ये भणन्ति-स भणति बजत:-तिहत, साधयो भणन्ति-वयं स्थिता स्वमेव तिष्ठ, चिन्तयति, संबुद्धः, सातिशया भाचार्याः, ते अवधिज्ञानिमः, कियतामेवं भविष्यति । एवं दुःखाय जिहन्द्रियमिति । स्पर्शनेन्द्रिय उदाहरणं-वसन्तपुरे नगरे जितशत्रू राजा, सुकमालिका तस्य भार्या, तस्या अतीव सुकुमाल: स्पः, राजा राज्यं न चिन्तयति, स एतां नित्यमेव प्रतिभुजानः तिष्ठति, एवं कालो बजाति, भूखैा सामन्तोऽपि मनयित्वा तया सह निष्काशितः, पुत्रसव राज्य स्थापितः, तावडयां बजतः, सा तृषार्दिता, जकं मार्गितम्, भक्षिणी तस्या बबे| |मा भैपीरिति, शिरारुधिरं पायिता, रुधिरे मूलिका क्षिप्ता, येन न स्स्यायति, क्षुधादिता Morayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~806~ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥४०२॥ प्रत उरूमंसं दिन्नं, उरूग संरोहिणीए रोहियं, जणवयं पत्ताणि, आभरणगाणि सारवियाणि, एगत्थ वाणियतं करेइ, पंगू य नमस्कार से वीहीए सोहगो, घडिओ, सा भणइ-न सक्कणोमि एगागिणी गिहे चिडि विदिजियं लभाहि, चिंतियं चऽणेण-निर- वि०१ वाओ पंगू सोहणो, तओऽणेण सो नेड्डुवालगो निउत्तो, तेण य गीयछलियकहाइहिं आवज्जिया, पच्छा तस्सेव लग्गा भत्तारस्स छिद्दाणि मग्गइ, जाहे न लभइ ताहे उजाणियागओ सुवीसत्थो बहुं मजं पाएत्ता गंगाए पक्खित्तो, सावित दवं खाइऊण खंधेण तं वहइ, गायति य घरे २, पुच्छिया भणइ-अम्मापिईहिं एरिसो दिन्नो किं करेमि?, सोऽवि राया। एगत्थ णयरे उच्छलिओ, रुक्खछायाए सुत्तो, ण परावत्तति छाया, राया तत्थ मयओ अपुत्तो, अस्सोय अहिवासिओ तत्थ गओ, जयजयसद्देण पडिबोहिओ, राया जाओ, ताणिवि तत्थ गयाणि, रण्णो कहिये, आणावियाणि, पुच्छिया, साहइअम्मापीईहि दिनो, राया भणइ-'बाहुभ्यां शोणितं पीतमुरुमांसं च भक्षितम् । गङ्गायां वाहितो भत्ता, साधु साधु सुत्रांक दीप अनुक्रम है ४०२॥ जरुमांस दत्तं, करु संरोहिण्या रोहितं, जनपद प्राप्ती, भाभरणानि संगोषितानि, एकत्र वणिक्वं करोति, पक्षश्च तस्या वीयाः शोधकः, मीलितः, सा भणति-न शक्नोमि एकाकिनी गृहे स्वातुं द्वितीयं सम्भय, चिन्तितं चानेन-निरपायः पट्टः शोमनः, ततोऽनेन स गृहपालको नियुक्तः, तेन च गीत लितकथादिभिरावर्जिता, पश्चातेनैव लग्ना, भर्तुमिछदाणि मार्गयति, यदा न लभते तदोद्यानिकागतः सुविधस्तो बहु मर्ग पायपिरचा गझायो प्रक्षिप्तः, साऽपि तद्रव्यं खादयित्वा स्कन्धेन तं बहति, गायतश्च गृहे गृहे, पृष्ठा भणति-मातापितृभ्यामीटशो दत्तः, किं करोमिी, सोऽपि राजा एकत्र नगरे निर्गतः, वृक्षच्छावायां सुप्तः, न परावर्तते काया, राजा च तत्र मृतोऽपुत्रः, अश्वश्वाधिवासितस्तन्न गतः, जवजयपाल्देन प्रतियोधितः, राजा जातः, तावपि तत्र गती, राशे कचितम्, आनायिती, पृष्टा, कथयति-मातापितृभ्यां वृत्तः, राजा भणति Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~807~ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) पतिव्रते? ॥ १॥' निविसयाणि आणत्ताणि । एवं दाहंपि विसेसओ सूमालियाए दुक्खाय फार्सिदियं ॥ किञ्च-'शब्दसङ्गे यतो दोषो, मृगादीनां शरीरहा । सुखार्थी सततं विद्वान् , शब्दे किमिति सङ्गवान् ? ॥१॥ पतङ्गानां क्षयं दृष्ट्वा, सद्यो रूपप्रसङ्गतः । स्वस्थचित्तस्य रूपेषु, किं व्यर्थः सङ्गसम्भवः ॥२॥ उरगान गन्धदोषेण, परतन्त्रान् समीक्षच कः । गन्धासक्तो भवेत्कायखभावं वा न चिन्तयेत् ॥ ३॥ रसास्वादप्रसङ्गेन, मत्स्याद्युत्सादनं यतः । ततो दुःखादिजनने, रसे का सङ्गमाप्नुयात् ॥ ४॥ स्पर्शाभिषक्तचित्तानां, हस्त्यादीनां समन्ततः । अस्वातन्त्र्यं समीक्ष्यापि, का स्यात्स्पर्शनसंवशः? ॥५॥ इत्येवंविधानीन्द्रियाणि संसारवर्द्धनानि विषयलालसानि दुर्जयानि दुरन्तानि नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ॥ अधुना परीषहद्वारावसरः, तत्र 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीपहा' इति निर्वचनं, तत्र मार्गाच्यवनार्थ दर्शनपरीषहः प्रज्ञापरीषहश्च, शेषास्तु निर्जरार्थमिति, एते च द्वाविंशतिः परिसङ्ग्याता एय, तद्यथाक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याऽऽकोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञा ज्ञानदर्शनानि विस्तरतोऽवगन्तव्याः, अस्य भावार्थः-'क्षुधातः शक्तिमान साधुरेषणां नातिलइत्येत् । यात्रामात्रोद्यतो विद्वानदीनोऽविप्लवश्चरेत् ॥१॥ पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविद् दैन्यवर्जितः । शीतोदकं नाभिलषेन्मृगयेत् कल्पितोदकम् ॥२॥ शीताभिघातेऽपि यतिस्त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः । वासोऽकल्प्यं न गृह्णीयादग्निं नोज्ज्वालयेदपि ॥३॥x उष्णतप्तो न त निन्देच्छायामपि न संस्मरेत् । स्नानगात्राभिषेकादि, व्यजनं चापि वर्जयेत् ॥४॥नदष्टो देशमशकैखास निविषयावाजतौ । एवं द्वयोरपि विशेषतः सुकुमाछिकायाः दुःखाथ स्पर्शनेन्द्रियम् । अनुक्रम [१] 9 % andiDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सदृष्टांत एक-एक इन्द्रियविषयात् जिवितव्यस्य हाने: कथनं 'परिषह' शब्दस्य व्याख्या एवं २२ भेदा: वर्णनं ~808~ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार० वि०१ प्रत सूत्राक आवश्यक- द्वेष मुनिव्रजेत् । न वारयेदुपेक्षेत, सर्वाहारप्रियत्ववित् ॥ ५॥ वासोऽशुभं न वा मेऽस्ति, नेच्छेत् तत्साध्वसाधु वा हारिभ- लाभालाभविचित्रत्वं, जाननाम्येन विप्लुतः ॥६॥ गच्छंस्तिष्ठन्निषण्णो वा, नारतिप्रवणो भवेत् । धर्मारामरतो नित्य, द्रीया स्वस्थचेता भवेन्मुनिः॥७॥ सङ्गपङ्कसुदुर्बाधाः, स्त्रियो मोक्षपथार्गलाः । चिन्तिता धर्मनाशाय, यतोऽतस्ता न चिन्तयेत् ॥४०॥ ॥८॥ग्रामाद्यनियतस्थायी, सदा वाऽनियतालयः । विविधाभिग्रहयुक्तश्चर्यामेकोऽप्यधिश्रयेत् ॥९॥ श्मशानादिनिषद्यासु, ख्यादिकण्टकवर्जिते । उपसर्गाननिष्टेष्टानेकोऽभीरस्पृहः क्षमेत् ॥ १०॥ शुभाशुभासु शय्यासु, सुखदुःखे समुस्थिते । सहेत सङ्गं नेयाच्च, श्वस्त्याज्येति च भावयेत् ॥११॥ नाक्रुष्टो मुनिराक्रोशेत् , साम्या ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेक्षेतोपकारित्वं, न तु द्वेष कदाचन ॥ १२॥ हतः सहेतैव मुनिः, प्रतिहन्यान्न साम्यवित् । जीवानाशात् क्षमायोगाद्, गुणाप्तेः क्रोधदोषतः ॥ १३ ॥ परदत्तोपजीवित्वाद्, यतीनां नास्त्ययाचितम् । यतोऽतो याचनादुःखं, क्षाम्येन्नेच्छेदगारिताम् ॥ १४ ॥ परकीयं परार्थं च, लभ्येतान्नादि नैव वा । लब्धे न माद्येन्निन्देद्वा, स्वपरान्नाप्यलाभतः ॥ १५॥ नोद्विजेद् रोगसम्प्राप्तो, न चाभीप्सेचिकित्सितम् । विपहेत तथाऽदीनः, श्रामण्यमनुपालयेत् ॥ १६ ॥ अभूताल्पाणुचेलत्वे, कादा[चिरकं तृणादिषु । तत्संस्पर्शोद्भवं दुःखं, सहेन्नेच्छेच तान् मृदून् ॥ १७ ॥ मलपङ्करजोदिग्धो, ग्रीष्मोष्णक्लेदनादपि । नोद्विविजेत् स्नानमिच्छेद्वा, सहेतोद्वर्तयेन वा ॥ १८ ॥ उत्थानं पूजनं दानं, स्पृहयेन्नात्मपूजकः । मूर्छितो न भवेल्लब्धे, दीनोऽ सत्कारितो न च ॥ १९ ॥ अजानन वस्तु जिज्ञासुन मुह्येत् कर्मदोपवित् । ज्ञानिनां ज्ञानमुद्वीक्ष्य, तथैवेत्यन्यथा न तु ॥२०॥ विरतस्तपसोपेतश्छद्मस्थोऽहं तथाऽपि च । धर्मादि साक्षान्नैवेक्षे, नैवं स्यात् क्रमकालवित् ॥ २१॥ जिनास्तदुकं दीप अनुक्रम | ॥४०॥ Bhandiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~809~ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक जीवो वा, धर्माधौं भवान्तरम् । परोक्षत्वात् मृषा नैवं, चिन्तयेत् महतो ग्रहात् ॥ २२ ॥ शारीरमानसानेव, स्वपरप्रेरि1 तान्मुनिः । परीषहान् सहेताभीः, कायवाङ्मनसा सदा ॥ २३ ॥ ज्ञानावरणवेद्योत्था, मोहनीयान्तरायजाः । कर्मसूदय& भूतेषु, सम्भवन्ति परीषहाः ॥ २४ ॥ क्षुत्पिपासा च शीतोष्णे, तथा दंशमशादयः। चर्या शय्या वधो रोगः, तृणस्पर्श मलावपि ॥ २५ ॥ वेद्यादमी अलाभाख्यस्त्वन्तरायसमुद्भवः । प्रज्ञाऽज्ञाने तु विज्ञेयौ, ज्ञानावरणसम्भवौ ॥२६॥ चतुर्दशैते ग विज्ञेयाः, सम्भवेन परीपहाः । ससूक्ष्मसम्परायस्य, च्छद्मस्थारागिणोऽपि च ॥ २७ ॥ क्षुत् पिपासा च शीतोष्णे, दंशहैश्चर्या वधो मलः । शय्या रोगतृणस्पर्शी, जिने वेद्यस्य सम्भवाद् ॥ २८ ॥' इति । एष संक्षेपार्थः ॥ अवयवार्थस्तु परीषहा ध्ययनतोऽवसेय इति । एस्थवि दवभावविभासा, दवपरीसहा इहलोयणिमित्तं जो सहइ परवसो वा बंधणाइसु, तत्थ 8| उदाहरणं जहा चक्के सामाइए इंदपुरे इंददत्तस्स पुत्तो, भावपरीसहा जे संसारवोच्छेयणिमित्तं अणाउलो सहइ तेरि चेव उवणओ पसत्थो । अधुनोपसर्गद्वाराबसरः, तत्रोप-सामीप्येन सर्जनमुपसर्गः, उपसृज्यतेऽनेनेति वा उपसर्गः कर णसाधनः, उपसृज्यतेऽसाविति वोपसर्गः कर्मसाधनः, स च प्रत्ययभेदाच्चतुर्विधः-दिव्यमानुषतर्यग्योन्यात्मसंवेदनाभेदात्, तत्थ दिवा चउविहा-हासा पदोसा वीमंसा पुढोवेमाया, हासे खुड्डगा अण्णं गाम भिक्खायरियाए गया, वाणमंतरि भन्नापि हव्यभावविभाषा-व्यपरीषहा इहलोकनिमित्तं यः सहते परवशो चा बन्धनादिभिः, सोदाहरणं यथा चके सामायिके इग्दपुरे इन्द्रदतस्य पुत्रः, भावपरीषदा पान् संसारयुक्छेदनिमित्तमनाकुलः सहते, तेष्वेव उपनतः प्रशस्तः । २ तत्र दिव्याश्चतुर्विधाः-हास्थात् प्रद्वेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रया, हाखे शुलकाः अन्य प्रामं भिक्षाचर्याय गताः, प्यन्तरी दीप अनुक्रम [१] JAMEainturnmalama anatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | उपसर्ग-द्वारस्य वर्णनं ~810~ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभद्रीया ॥४०४ ॥ Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९१८], भाष्यं [ १५१...] उबाईति - जइ फवामो तो वियडिडं डेरगकण्हवण्णएण अवणियं देहामो, लद्धं, सा मग्गर, अन्नमन्नस्स कहणं, मग्गिऊण दिन्नं, एयं ते तंति, ताहे सयं चैव तं पक्खाइया, कंदप्पिया देवया तेसिं रूवं आवरेत्ता रमइ, वियाले मग्गिया, न दिट्ठा, देवयाए आयरियाण कहियं । पओसे संगमओ । वीमंसाए एगस्थ देउलियाए साहू वासावासं वसेत्ता गया, तेसिं च एगो पुषिं पेसिओ, तओ चैव वरिसारतं करे आगओ, ताए देउलियाए आवासिओ, देवया चिंतेइ किं दढधम्मो नवत्ति सङ्घीरुवेण उवसग्गेइ, सो नेच्छइ, तुडा बंदर । पुढोवेमाया हासेण करे पदोसेण करेज्ज, एवं संजोगा । माणुस्सा चउबिहाहासा पओसा वीमंसा कुसीलपडिसेवणया, हासे गणियाधूया, खुड्डुगं भिक्खस्स गयं उवसग्गेइ, हया, रण्णो कहियं, खुड्डगो सद्दाविओ, सिरिघरदितं कहेई । पओसे गयसुकुमालो सोमभूइणा ववरोविओ, अहवा एगो धिज्जाइओ एगाए अविरइयाए सद्धिं अकिचं सेवमाणो साहुणा दिट्ठो, पओसमावण्णो साहुं मारेमित्ति पहाविओ, साहुं पुच्छइ-किं तुमे 1 सुपबाचन्ते यदि प्यामहे तदा विकटय्य लघुकृष्णवर्णेनार्चनं दास्यामः, लब्धं, सा मार्गयति, अन्योऽन्यस्सै कथनं, मार्गवित्वा दत्तम् एतत्ते तदिति, तदा स्वयमेव तं प्रवादिता, कान्दर्पिका देवता तेषां रूपमावृत्य रमते, विकाले मार्गिताः, न दृष्टाः देवतपाऽऽचार्याय कथितं । प्रद्वेषे संगमकः । विमर्शे एकत्र देवकुलिकायां साधवो वर्षांरात्रसुचित्वा गताः तेषां चैकः पूर्व प्रेषितः, तत्रैव वर्षांरात्रं कर्तुमागतः तवां देवकुलिकायामावासितः देवता चिन्तयति किं धर्मा नवेति धीरूपेणोपसर्वयति, स नेच्छति, तुष्टा बन्दते । पृथग्विमात्रा हास्येन कृत्वा प्रद्वेषेण कुर्यात् एवं संयोगाः । मानुष्याश्चतुर्विधाः-हास्यात् प्रद्वेषात् विमशत् कुशीलप्रतिषेवनया, हास्खे गणिकादुहिता, हुडकं भिक्षायै गतमुपसर्गयति, इता, राशः कथितं शुलकः शब्दितः, श्रगृहष्टान्तं कथयति । मद्वेषे गजसुकुमालः सोमभूतिना व्यपरोपितः, अथवा एको चिजातीय एकवाऽविरतिकथा सार्थमकायें सेवमानः साधुना दृष्ट, प्रद्वेषमापनः साधु मारयामीति प्रधावितः साधुं पृच्छति किं स्वयाऽद्य For Fans at Use Only नमस्कार० वि० १ ~811~ ॥४०४ ॥ www.lincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) NE प्रत ४) अज्ज दिडतिी, साहू भणइ-बह सुणेइ कन्नेहिं सिलोगो । वीमसाए चंदगुत्तो राया चाणकेण भणिओ-पारत्तियपि किंपि| दि| करेजासि, सुसीसो य फिर सो आसि, अंतेउरे धम्मकहणं, उवसग्गिजति, अण्णतिस्थिया य विणडा, णिच्छूढा य, साह सदाविया भणंति-जइ राया अच्छा तो कहेमो, अइगओ राया ओसरिओ, अंतेउरिया उवसग्गेति, हयाओ, सिरिघर४ दिहतं कहेइ । कुसीलपडिसेवणाए ईसालू य भज्जाओ चत्तारि रायसंणार्य, तेण घोसावियं-सत्तवइपरिक्खित्तं घरं न है लहइ कोइ पवेसं, साहू अयाणतो वियाले वसहिनिमित्तं अइयओ, सो य पवेसियल्लओ, तत्थ पढमे जामे पढमा आ गया भणइ-पडिच्छ, साहू कच्छ बंधिऊण आसणं च कुम्मबंध काऊण अहोमुहो ठिओ चीरवेढेणं, न सकिओ, किसित्ता गया, पुच्छति-केरिसो ?, सा भणइ-एरिसो नस्थि अण्णो मणूसो, एवं चत्तारिवि जामे जामे किसिऊण गयाओ, पच्छा एगओ मिलियाओ साहंति, उपसंताओ सड्डीओ जायाओ । तेरिच्छा चढविहा-भया पओसा आहारहेड अवश्चलयण सूत्राक दीप अनुक्रम [१] S दृष्टमिति ?, साधुभणति-बहु ऋणोति कर्णाभ्यां शोकः । विमान चन्द्रगुप्तो राजा चाणक्येन भणितः पारनिकमपि किचित् कुरु, सुशिष्यश्च किल स आसीत्, अन्तःपुराय धर्मकथनम् , उपसर्यन्तेऽन्यतीर्घिकाश्च विनष्टाः, निर्वासिताश्न, साधवः शब्दिता भणन्ति-यदि राजा तिष्ठति तदा कथयामः, अतिगतो राजाऽपस्तः, अन्तःपुरिका उपसर्गम्ति,हताः, श्रीगृहदृष्टान्त कथयन्ति। कुशीलप्रतिषेवनायामीयालय भार्याश्चतस्रो राजकुटुम्ब, तेन घोषित-सप्तवृतिपरिक्षित | | गृहं न लभते कोऽपि प्रय, साधुरजानामो निकाले यसतिनिमित्तमतिगतः, स च प्रवेशितः, तत्र प्रथमे यामे प्रथमाऽगता भणति-प्रतीच्छ, साधुः कच्छ बिना आसनं च कर्मबन्ध कृत्वाग्धोमुखः स्थितश्वीरवेष्टनेन, न शकितः, क्लिशिया गता, पृच्छन्ति-कीरशः, सा भणति-शो नास्त्यम्यो मनुष्यः, एवं चितम्रोऽपि वामे यामे क्लिपित्वा गताः, पश्चान्मीलिताः एका कथयन्ति, उपशान्ताः श्राख्यो जाताः। तैरवाचतुर्विधाः-भयात् प्रवेषात् आहारहेतोः अपत्यालय Moray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~812~ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार. वि०१ आवश्यक-13 सारक्षणया, भएण सुणगाई डसेजा, पओसे चंडकोसिओ मक्कडादी वा, आहारहे सीहाइ, अवच्चलेणसारक्खणहे हारिभ- काकिमाइ । आत्मना क्रियन्त इति आत्मसंवेदनीया, जहा उद्देसे चेतिए पाहुडियाए, ते चउबिहा-घट्टणया पवडणया थंभद्रीया गया लेसणया, घट्टणया अच्छिमि रयो पविडो चमदिउं दुक्खिउमारद्धं अह्वा सयं चेव अच्छिमि गलए वा किंचि सालुगाइ ॥४०५॥ उहियं घट्टइ, पवडणया ण य पयत्तेणं चंकमइ, तत्थ दुक्खाविजइ, थंभणया नाम ताव बइठ्ठो अच्छिओ जाव सुत्तो थद्धो जाओ, अहवा हणुयातमाई, लेसणया पायं आउंटित्ता अच्छिओ जाव तत्थ व तत्थ वाएण लइओ, अहवा नहूँ सिक्खामित्ति अइणामियं किंचि अंग तत्थेव लग्गं, अहवा आयसंवेयणिया वाइया पित्तिया संभिया सैनिवाइया एए दबोवसग्गा, भावओ उवउत्तस्स एए चेव, उक्तं च-"दिवा माणुसगा चेव, तेरिच्छा य वियाहिया । आयसंवेयणीया य, उवसग्गा चउबिहा ॥१॥ हासप्पओसवीमंसा, पुढोवेमाय दिविया । माणुस्सा हासमाईया, कुसीलपडिसेवणा ॥२॥ अनुक्रम [१] संरक्षणाय, भयेन वादिर्दशेत् , प्रद्वेषे चण्डकौशिको मर्कटादियां, माहारहेतोः सिंहादिः, अपत्यलयनसंरक्षणहेतोः काफ्यादिः । यथोद्देशे चैत्ये प्राम|तिकायां, ते चतुर्विधा:-पहनता प्रपतनता सम्मनता लेषणता, घनता अविण रजः प्रविष्ठ मर्दिवा दुःखयितुमारब्ध अथवा स्वयमेव अक्षिण गले वा किञ्चिासालुकादि उस्थितं घयति, पतनता न च प्रवलेन चक्रम्यते, तत्र दुःण्यते, सम्भनता नाम तावदुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः स्तब्धो जातः, अथवा हचुयन्त्रादि, लेषगता पादमाकृष्य स्थितो यावत्तत्र वा तन्त्र वातेन लग्नः, अथवा नृत्यं शिक्ष इति अतिनामितं किजिवनं तत्रैव लाम्, अधयाऽऽरमसंवेदनीया बातिकाः पैत्तिकाः श्लेष्मिकाः सानिपातिका एते इम्योपसर्गाः, भावत उपयुक्तस्यैत एव, दिव्या मानुष्यकाक्षेत्र तैरनाश्च न्याख्याताः । आत्मसंवेदनीयानोपसर्गाचतुर्विधाः ॥ १॥ हास्यप्रदेपविमर्शपश्विमात्रा दिव्याः । मानुप्या हास्वादयः कुशीकप्रतिपेवना ॥२॥ ॥४०५॥ AMERIENDRA Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~813~ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९१८], भाष्यं [१५१...] (४०) - - - प्रत सूत्राक तेरिच्छिंगा भया दोसा, आहारद्वा तहेव य । अवच्चलेणसंरक्षणहाए ते वियाहिया ॥३॥ घट्टणा पवडणा| चेव, थंभणा लेसणा तहा। आयसंवेयणीया उ, उवसग्गा चउपिहा ॥४॥” इत्याद्यलं प्रसङ्गेन, एतनामयन्तो नमोऽहो इति व्याख्यातमय गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्राकृतशैल्याऽनेकधाऽर्हच्छन्दनिरुक्तसम्भवं निदर्शयन्नाह इंदियविसपकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे । एए अरिणो हंता अरिहंता तेण वुचंति ॥ ९१९॥ व्याख्या-इन्द्रियादयः पूर्ववत्, वेदना त्रिविधा-शारीरी मानसी उभयरूपा च, 'एए अरिणो हता' इत्यत्र प्राकृत| शैल्या छान्दसत्वात् 'सुपा सुपी'त्यादिलक्षणतः एतेषामरीणां हन्तारः यतोऽरिहन्तारः 'तेनोच्यन्ते' तेनाभिधीयन्ते, अरी णां हन्तारोऽरिहन्तार इति निरुक्तिः स्यात्, एतदनन्तरगाथायामेत एवोक्ताः पुनरमीषामेवेहोपन्यासोऽयुक्त इति ?, अत्रोसच्यते, अनन्तरगाथायां नमस्कारार्हत्वे हेतुत्वेनोक्ताः, इह पुनरभिधाननिरुक्तिप्रतिपादनार्थमुपन्यास इति गाधार्थः॥ साम्प्रतं प्रकारान्तरतोऽरय आख्यायन्ते, ते चाष्टौ ज्ञानावरणादिसंज्ञाः सर्वसत्त्वानामेवेति, आह च., अट्ठविहंपिय कम्मं अरिभूअं होइ सब्बजीवाणं । तं कम्ममरिं हंता अरिहंता तेण वुचति ॥ ९२० ॥ व्याख्या-'अष्टविधमपि' अष्टप्रकारमपि, अपिशब्दादुत्तरप्रकृत्यपेक्षयाऽनेकप्रकारमपि, चशब्दो भिन्नक्रमः, स चाव १ तैरवा भयापादाहाराबाय तथैव च । अपत्यलयनसंरक्षणार्थाय ते व्याख्याताः ॥ ३ ॥ घटना प्रपतनैव सम्भनं क्षेपणं तथा । भरमसंवेदनीवास्तु उपसर्गानुर्विधाः॥४॥ दीप अनुक्रम [१] JABERatinintamatana Mandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'अरिहंत'/'अरहंत' शब्दस्य विविध-व्याख्या: एवं नमस्कारस्य फलम् ~814 ~ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥ ४०६ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९२०], अध्ययन [ - ], धारणे, ज्ञानावरणादि, ततश्वाष्टविधं कर्मैव 'अरिभूतं' शत्रुभूतं भवति 'सर्वजीवानां' सर्वसत्त्वानामनवबोधादिदुःखहेतुत्वादिति भावः, पश्चार्द्ध पूर्ववत्, एवंविधा अरिहन्तार इति गाथार्थः ॥ ९२० ॥ अथवा अरिहंति वंदनमंसणाई अरिहंति पूअसकारं । सिडिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुच्चति ॥ ९२९ ॥ व्याख्या- 'अई पूजायाम्' अर्हन्तीति पचाद्यचू' कर्तरि अर्हाः, किमर्हन्ति ?-वन्दननमस्करणे, तत्र वन्दनं शिरसा नमस्करणं वाचा, तथाऽर्हन्ति पूजासत्कारं तत्र वस्त्रमाल्यादिजन्या पूजा, अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः, तथा 'सिद्धिगमनं चार्हन्ति' सिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धि:- लोकान्तक्षेत्रलक्षणा, वृक्ष्यति च- 'ईंह बोदिं चइत्ता णं तत्थ गंतॄण सिज्झई' तद्गमनं च प्रत्यर्हा इति, 'अरहंता तेण बुच्चंति' प्राकृतशैल्या अर्हास्तेनोध्यन्ते, अथवा अर्हन्तीत्यर्हन्त इति गाथार्थः ॥ ९२१ ॥ तथा - देवासुरमणुए अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा। अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण बुच्चति ॥ ९२२ ॥ व्याख्या -- देवासुरमनुजेभ्यः पूजामर्हन्ति प्राप्नुवन्ति तद्योग्यत्वात्, सुरोत्तमत्वादिति युक्तिः, इत्थमनेकधाऽन्वर्थमभिधाय पुनः सामान्यविशेषाभ्यामुपसंहरन्नाह - 'अरिणो हंता' इत्यादि पूर्ववदेव, अरीणां हन्तारः यतः अरिहन्तारस्तेनोच्यन्ते, तथा रजसो हन्तारः यतो रजोहन्तारस्तेनोच्यन्ते इति, रजो बध्यमानकं कर्म भण्यत इति गाथार्थः | इदानीममोघताख्यापनार्थमपान्तरालिकं नमस्कारफलमुपदर्शयति- ९२२ ॥ अरहंतनमुकारो जीवं मोएह भवसहस्साओ । भाषेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिला भाए ॥ ९२३ ॥ व्याख्या - अर्हतां नमस्कारः अहेज मस्कार, इहा हेच्छब्देन बुद्धिस्थार्हदाकारवती स्थापना गृह्यते, नमस्कारस्तु नमःशब्द एव, * इह तनुं स्ववस्वा तत्र गत्वा सिध्यति For Parts Only भाष्यं [ १५१...] ~ 815~ नमस्कार० वि० १ ॥४०६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः by org Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२३], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक 'जीवम् आत्मानं 'मोचयति' अपनयति, कुतः:-भवसहस्रेभ्यः, 'भावेन' उपयोगेन क्रियमाणः, इह च सहस्रशब्दो यद्यपि दश शतसङ्ग्यायां वर्तते तथाऽप्यत्रार्थादनन्तसङ्ख्यायामवगन्तव्यः, अनन्तभवमोचनान्मोक्षं प्रापयतीत्युक्तं भवति, आह-न सर्वहै स्यैव भावतोऽपि नमस्कारकरणे तद्भव एव मोक्षः, तत्कधमुच्यते-जीवं मोचयतीत्यादि, उच्यते, यद्यपि तद्भव एव है। मोक्षाय न भवति तथाऽपि भावनाविशेषाद्भवति पुनः 'बोधिलाभाय' बोधिलाभार्थ, बोधिलाभश्चाचिरादविकलो मोक्ष हेतुरित्यतो न दोष इति गाथार्थः ॥ ९२३ ॥ तथा चाह अरिहंतनमुकारो धन्नाण भवक्खयं कुणताणं । हिअयं अणुम्मुअंतो विसुत्तियावारओ होइ ॥ ९२४ ॥ व्याख्या-अर्हन्नमस्कार इति पूर्ववत्, धन्यानां भवक्षयं कुर्वताम् , तत्र धन्याः-ज्ञानदर्शनचारित्रधनाः साध्वादयः, तेषां भवक्षयं कुर्वतामिति, अत्र तद्भवजीवितं भवः तस्य क्षयो भवक्षयस्तं कुर्वताम्-आचरता, किम् ?-'हृदय' चेतः अनुन्मुञ्चन्' अपरित्यजन् , हृदयादनपगच्छन्नित्यर्थः, विस्रोतसिकावारको भवति, इहापध्यानं विस्रोतसिकोच्यते, तद्वारको भवति, धर्मध्यानैकालम्बनतां करोतीति गाथार्थः ॥ ९२४ ॥ अरहतनमुकारो एवं खलु वणिओ महत्थुत्ति । जो मरणमि उवग्गे अभिक्खण कीरए बहुसो ॥ ९२५ ॥ दी व्याख्या-अर्हन्नमस्कार एवं खलु वर्णितो 'महार्थ' इति महानर्थों यस्य स महार्थः, अल्पाक्षरोऽपि द्वादशाङ्गार्थसङ्घाहित्वान्महार्थ इति, कथं पुनरेतदेवमित्याह-यो नमस्कारो 'मरणे' प्राणत्यागलक्षणे उपाने-समीपभूते 'अभिक्षणम्' अनवरतं क्रियते 'बहुशः' अनेकशः, ततश्च प्रधानापदि समनुस्मरणकरणेन ग्रहणात् महार्थः, प्रधानश्चायमिति । आह च दीप अनुक्रम [१] Exam Alanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~816~ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२५], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया नमस्कार ॥४०७॥ RSS RSSSSSSSEX भाष्यकार:-"जलणाइभए सेसं मोत्तुंऽप्पेगैरयणं महामोल । जुहि वाऽइभएघेप्पइ अमोहसस्थं जह तहेह ॥१॥ मोत्नपि । वारसंग स एव मरणमि कीरए जम्हा । अरहंतनमोकारो तम्हा सो बारसंगथो ॥२॥ सबंपि बारसंग परिणामविसुद्धि-II वि०१ हेउमेत्तायं । तकारणभावाओ किह न तदत्थो नमोकारो॥३॥ण हु तंमि देसकाले सको बारसविहो सुयक्खंघो । [सयो अणुचिंते घेतंपि समत्थचित्तेणं ॥ ४ ॥ तप्पणईणं तम्हा अणुसरिययो सुहेण चित्तेणं । एसेव नमोकारो कयनुतं मन्नमाणेणं ॥५॥" इति गाथार्थः॥ ९२५ ॥ उपसंहरन्नाह___अरिहंतनमुक्कारो, सब्वपाचप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।। ९२६ ॥ व्याख्या-किंबहुना?, इहाहनमस्कारः, किम् -सर्वपापप्रणाशनः, तत्र पांशयतीति निपातनात् पापं. पिबति वा हित-18 मिति पापम् , औणादिकः पः प्रत्ययः, सर्वम्-अष्टप्रकारमपि कर्म-पापं जातिसामान्यापेक्षया, उक्तं च 'पापं कमैव तत्त्वत' ठा इत्यादि, तत्प्रणाशयतीति सर्वपापप्रणाशनः, मङ्गलानां च सर्वेषां नामादिलक्षणानां 'प्रथम' इति प्रधान प्रधानार्थकारित्वात, अथवा पञ्चामूनि भावमङ्गलान्यहंदादीनि, तेषां प्रथमम्-आद्यमित्यर्थः, 'भवति मङ्गाल मिति संपद्यते मङ्गलमिति गाथार्थः खलनाविभये मुक्त्वा अप्येक रसं महामूल्यम् । युधि वाऽतिभये गृह्यतेऽमोघशस्त्रं यथा तथेह ॥ १ ॥ मुक्त्वाऽपि द्वादशाकं स एव मरणे क्रियते | ॥४०७॥ यस्मात् । अईनमस्कारस्तस्मात्स द्वादशनार्थः ॥२॥ सर्वमपि द्वादशा परिणामविशुद्धिमानहेतुकम् । तत्कारणभावात् कथं न तदर्थो नमस्कारः ॥३॥ नैव तस्मिन् देशकाले शभ्यो द्वादशाविधः श्रुतस्कन्धः । सर्वोऽनुचिन्तयितुं बादमपि समर्थचित्तेन ॥ ४ ॥ तत्प्रणतीनां (सनावात) तसावनुसनव्यः शुभेन | चित्तेन । एष एष नमस्कारः कृतज्ञत्वं मन्यमानेन ॥ ५ ॥ (गायेयं गाथाचतुरुकाजिनसंबन्धा तत्र) * पारण मुहिते + मत्थं मुनिते. अनुक्रम [१] JABERatinintamational Ancionaryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~817~ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२७], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक MI॥ ९२६ ॥ उक्तस्तावदहनमस्कारः, साम्प्रतं सिद्धनमस्कार उच्यते, तत्र सिद्ध इति कः शब्दार्थः ।, उच्यते-'विध संराद्धौ। राध साध संसिद्धौ' 'पिधू शास्त्रे माङ्गल्ये 'ति, सिध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन निष्पन्नः-परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः सिद्धौंदनवत् स सिद्ध इत्यर्थः, स च सिद्धः शब्दसामान्याक्षेपतः, अर्थतस्तावच्चतुर्दशविधा, तत्र नामस्थापनादव्यसिद्धान् व्युदस्य शेषनिक्षेपप्रतिपादनायाह कम्मे १ सिप्पे अ २ विजाय ३, मंते ४ जोगे अ५ आगमे ६। अत्य ७ जत्ता ८ अभिप्पाए ९, तवे १० कम्मक्खए ११ इय ॥ ९२७ ॥ व्याख्या-कर्मणि सिद्धः कर्मसिद्धः-कर्मणि निष्ठां गत इत्यर्थः, एवं शिल्पसिद्धार विद्यासिद्धः ३ मन्त्रसिद्धः ४ योगसिद्धः ५ आगमसिद्धः ६ अर्थसिद्धः ७ यात्रासिद्धः ८ अभिप्रायसिद्धः ९ तपःसिद्धः १० कर्मक्षयसिद्ध ११ श्चेति गाथासमासार्थः ॥ ९२७ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापनासिद्धौ सुखावसेयौ, द्रव्यसिद्धो निष्पन्न ओदनः |सिद्ध इत्युच्यते, साम्प्रतं कर्मसिद्धादिव्याचिख्यासया कर्मादिस्वरूपमेव प्रतिपादयन्नाह कम्मं जमणायरिओवएसयं सिप्पमन्नहाभिहिअं। किसिवाणिजाईयं घडलोहाराइभेअं च ॥ ९२८ ॥ व्याख्या-इह कर्म यदनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं गृह्यते, 'शिल्पम्' अन्यथाऽभिहितमिति, कोऽर्थः - इह यदाचार्योपदेशजं ग्रन्थनिबन्धाद्वोपजायते सातिशय कर्मापि तच्छिल्पमुच्यते, तत्र भारवहन कृषिवाणिज्यादि कर्म घटकारलोहकारादिभेदं च शिल्पमिति गाथार्थः ॥ ९२८ ॥ साम्प्रतं कर्मसिद्धं सोदाहरणमभिधित्सुराह दीप अनुक्रम 40-50 [१] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'सिद्ध' शब्दस्य अर्थ, सदृष्टांत तेषाम् भेदा: एवं सिद्धानां नमस्कारस्य फलम् ~818~ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ द्रीया आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९२९], Jus Educat अध्ययन [ - ], ||४०८ || जो सव्वकम्मकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिट्ठिओ होइ । सज्झगिरिसिद्धओविव स कम्मसिद्धत्ति विन्नेओ ९२९ व्याख्या- 'यः' कश्चित् सर्वकर्मकुशलो यो वा 'यत्र' कर्मणि सुपरिनिष्ठितो भवत्येकस्मिन्नपि सत्यगिरिसिडक इव स कर्मसिद्ध इति विज्ञेयः कर्मसिद्धो ज्ञातव्य इति गाथाक्षरार्थः ॥ ९२९॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-कोकणगदे से एगंमि दुग्गे ★ सज्झरस भंडं उरुंभेइ विलएत्ति य, ताणं च विसमे गुरुभारवाहित्ति काऊण रण्णा समाणत्तं, एएसिं मएवि पंथो दायवो न पुण ए४ एहिं कस्सइ । इभ एगो सिंघवओ पुराणो सो पडिभज्जतो चिंतेइ तहिं जामि जहिं कम्मे ण एस जीवो भज्जइ सुहं न विंदइ, सो तोसं मिलिओ, सो गंतुकामो भाइ, कुंदुरुक्क पडिबोहियलओ सिद्धओ भणइ - सिद्धियं देहि ममं, जहा सिद्धयं सिद्धया गया सउझयं, सो य तेसिं महत्तरओ सचवडुं भारं वहइ, तेण साहूणं मग्गो दिनो, ते रुट्ठा राउले कहेंति, ते भणति अहं रायावि मग्गं देइ भारेण दुक्खा विजंताणं ता तुमं समणस्स रित्तस्स स्थिकस्स मग्गं देसि ? रण्णा भणियं दुहु ते कयं मम आणा लंघियत्ति, तेण भ णियं देव! तुमे गुरुभारवाहित्तिकाऊणमेयमाणन्तं ?, रण्णा आमंति पडिस्सुयं, तेण भणियं-जइ एवं तो सो गुरुतरभारवाही, भाष्यं [ १५१...] १ कोङ्कणकदेशे एकस्मिन् दुर्गे समाजाण्डमवतारयति आरोहयति च तेषां च विषमे गुरुभारवाहिन इतिकृष्णा राज्ञा समाज्ञप्ते, एतेभ्यो मयाऽपि पन्था दातव्यो न पुनरेतैः कस्मैचित् । इतबैकः सैन्धवीयः पुराणः स प्रतिभनश्चिन्तयति तत्र यामि यत्र कर्मणि नैष जीवो भज्यते सुखं न विन्दति स तैर्मिलितः, स गन्तुकामो भणति, कुटस्तमतिबोधितः सिद्धो भणति सिद्धिं देहि मां यथा सिद्धं सिद्धा गताः सार्क, स च तेषां महत्तरः सर्वबहुं भारं वहति, तेन साघुम्यो मार्गों इतः, ते रुष्टा राजकुले कथयन्ति, 'भणन्ति अस्माकं राजाऽपि मार्ग ददाति भारेण दुःखयमानानां तवं श्रमणाय रिकाय विभ्रान्ताय मार्ग ददासि १, राज्ञा भणितं दुष्टुवया कृतं समाया कति तेन भमितं देव त्वया गुरुभारवाहीति कृस्वेतदाशसं १, राज्ञा नोमिति प्रतिश्रुतं तेन भणितं - यद्येवं तदा स गुरुतरभारवाही, For Fans Only ~819~ नमस्कार० वि० १ ॥ ४०८ ॥ www.incibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९२९], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत 5-%2564 कह !-जं सो अवीसमंतो अट्ठारससहस्ससीलंगनिम्भर भार वहइ, जो मएवि वोढुं ण पारिओत्ति, धम्मकहा यऽणेण कया, हो महाराय !-'वुझंति नाम भारा ते पुण वुझंति वीसमंतेहिं । सीलभरो वोढयो जावज्जीव अविस्सामो॥१॥ राया पडिबुद्धो, सो य संवेगं गओ, अब्भुडिओत्ति, एस कम्मसिद्धोत्ति ॥ साम्प्रतं शिल्पसिद्धं सोदाहरणमेवाभिधातुकाम आहजो सव्वसिप्पकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ । कोकासवईविव साइसओ सिप्पसिद्धो सो॥९३०॥ व्याख्या-यः कश्चिदनिर्दिष्टस्वरूपः सर्वशिल्पेषु कुशलः सर्वशिल्पकुशलः, यो यत्र वा सुपरिनिष्ठितो भवत्येकस्मिनपि कोकाशवर्द्धकियत् सातिशयः शिल्पसिद्धोऽसौ गाथाक्षरार्थः ॥९३० ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सोपी-18|| रए रहकारस्स दासीए बंभणेण दासचेडो जाओ, सो य मूयभावेण अच्छइ मा णजीहामित्ति, रहकारो अप्पणो पुत्ते सिक्खावेइ, ते मंदबुद्धी न लएति, दासेण सर्व गहियं, रहकारो मओ, रायाए दासस्स सर्व दिन्नं जं तस्स घरए सारं। इओ य उजेणीए राया सावगो, तस्स चत्वारि सावगा-एगो महाणसिओ सो रंधेइ, जइ रुच्चइ जिमियमेत्तं जीरइ 499 सूत्राक दीप अनुक्रम कर्थ -यस्सोऽविनाम्यन् अष्टादशसहस्रशीलानिर्भर भारं वहति यो मयापि वोई न पारितः (शक्तः) हति, धर्मकथा चानेन कृता-भो महाराजन् !उदन्ते नाम भाराः ते पुनस्यन्ते विश्राम्यद्भिः । शीलभरो चोदव्यो यावजीवमविश्रामः॥१॥राजा प्रतिबुद्धः स च संवेगं गतोऽभ्युस्थित इति, पुष कर्मसिद्ध इति । २ सोपारके रथकारस्य दास्यां ब्राह्मणेन दासचेटो जातः, स च मूकभावेन तिष्ठति मा ज्ञायिषि इति, रथकार भात्मनः पुत्रान् शिक्षयति, ते मन्दबुद्धयो न गृहन्ति, दासेन सवै गृहीतं, स्थकारो मृतः, राज्ञा दासाय सर्व दचं यत्तस्य गृहस सारम् । इतबोजाविम्यां राजा श्रावकः, तस्य चत्वारः श्रावका:-एको महानसिकः स पचति, यदि रोचते जिमितमात्रेण जीवति, JAMERatinintamational MAanaintary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सिद्धानाम् व्याख्या मध्ये 'कोकासवर्धकी'-कथा ~820~ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३०], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- अहवा जामेणं विहिं तिहिं चउहिं पंचहि, जइ रुच्चइन चेव जीरइ, विदिओ अभंगेइ, सो तेलस्स कुलवर सरीरे पवेसेइ, तं। हारिभ- चेव णीणेइ, ततिओ सेजं रएइ, जइ रुच्चइ पढमे जामे विबुज्झइ अहवा वितिए ततिए चउत्थे, अहया सुवइ चेव, चउ-- वि०१ द्रीया स्थो सिरिघरिओ, तारिसो सिरिघरओ को जहा अइगओ न किंचि पेच्छइ, एए गुणा तेसिं, सो यराया अपुत्तो निवि ण्णकामभोगो पबजोवायं चिंतेतो अच्छा । इओ य पाडलिपुत्ते णयरे जियसत्तु राया, सोय तस्स णयरिं रोहेइ, एत्वंतरंमि। ॥४०९॥ हाय तस्स रण्णो पुवकयकम्मपरिणइवसेण गाढं सूलमुप्पणं, तओऽणेण भत्तं पञ्चक्खायं, देवलोयं गओ, णागरगेहि य से णयरी दिशा, सावया सद्दाविया पुच्छइ-किकम्मया, भंडारिएण पवेसिओ, किंचिवि न पेच्छइ, अण्णेण दारेण दरिसिर्य, सेजावालेण एरिसा सेज्जा कया जेण मुहुत्ते मुहुत्ते उठेइ, सूएण एरिस भत्तं कर्य जेणं वेलं वेलं जेमेइ, अभंगएण| एक्कओ पायाओ तेल्लं ण णीणियं, जो मम सरिसो सो नीणेउ, चत्तारिवि पबइया, सो तेण तेल्लेण डझंतो कालओ : अनुक्रम [१] ' अथवा यामेन हाय विभिश्चतुर्भिः पञ्चमिः, यदि रोचते नैव जीयंति, द्वितीयोऽभ्यङ्गवति, स तैलस कुदव र शरीरे प्रवेशयति तदेव निष्काशयति, तृतीयः शश्यां रचयति, यदि रोचते प्रथमे बामे विबुध्यते अथवा द्वितीये तृतीये चतुर्थे, अथवा स्वपित्येव, चतुर्थः श्रीगृहिकस्तादर्श श्रीगृहं कृतं यथाऽविगतोम विविपश्यति, एते गुणास्तेषां, सच राजाऽपुत्रो निर्विणकामभोगः प्रवज्योपायं चिन्तयन् तिष्ठति । इस पाटलीपुत्रे नगरे जितशत्रु राजा, सच तस्य नगरौं रुणदि, अनान्तरे च तस्य राज्ञः पूर्वकर्मपरिणतिवशेन गाई शूलमुत्पर्य, ततोऽनेन भकं प्रत्याख्यातं, देवलोकं गतः, नागरैन तम नगरी दमा, बावकाः शब्दिताः पृच्छयन्ते-किंकर्मकाः १, भाण्डागारिकेण प्रवेशितः, किञ्चिदपि न पश्यति, अन्येन द्वारा दर्शितं, शब्यापाळकेनेशी वाम्या कृता येन मुहू मुहू वत्तिष्ठति, सूदेनेटर्श मकं कृतं येन बार वार जेमति, अम्बाकेनैकस्मात् पदस्तैलं न निष्काशित, यो मम सदशः स निष्काशयतुं, चत्वारोऽपि प्रबजिताः। स तेन तैलेन इयमानः कृष्णो ॥४०९॥ ॐ mantionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~821~ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३०], भाष्यं [१५१...] (४०) - - प्रत जाओ, कागवन्नो नाम जायं । इओ य सोपारए दुन्भिक्खं जायं, सो कोकासो उजेणिं गओ, रायाणं किह जाणावेमित्ति कवोतेहिं गंधसालि अवहरइ, कोडागारिएहिं कहियं, मग्गिएण दिहो आणीओ, रण्णा णाओ, वित्ती दिन्ना, तेणागासगामी खीलियापओगनिम्माओ गरुडो कओ, सो य राया तेण कोकासेण देवीए य सम्म तेण गरुडेण णहमग्गे हिंडइ, जोण णमइ तं भणइ-अहं आगासेण आगंतूण मारेमि, ते सबे आणाविया, तं देवि सेसियाओ देवीओ पुच्छंतिजाए खीलियाए नियत्तइ जंतं, एगाए वच्चंतस्स इस्साए णियत्तणखीलिया गहिया, तओ णियत्तणवेलाए णार्य, ण णिय त्तइ, तओ उद्दामं गच्छंतस्स कलिंगे असिलयाए पंखा भग्गा, पंखाविगलोत्ति पडिओ, तओ तस्संघायणाणिमित्तं उवगकरणहा कोकासो णयरं गओ, तत्थ रहकारो रहं निम्मवेइ, एगं चक निम्मवियं एगस्स सबं घडियल्लयं किंचि २ नवि, ता सो| ताणि उवगरणाणि मग्गइ, तेण भणियं-जाव घराओ आणेमि, राउलाओ न लग्भन्ति निकालेड, सो गो, इमेण तं - 4%2500-5%40-4560 सूत्राक मकर दीप अनुक्रम [१] जातः, काकवर्णों नाम जानम् । इतन्त्र सोपारके दुर्भिक्षं जातं, स कोकाश उज्जयिनी गतः, राजानं कथं ज्ञापयामीति कपोतर्गन्धशालीनपहरति । कोष्ठागारिकैः कथितं, मार्गयदिष्ट आनीता, राज्ञा ज्ञातो, दृचिर्दचा, तेनाकाशगामी कीलिकाप्रयोगनिर्मितो गरुडः कृतः, स च राजा तेन कोकाशेन देच्या च समं तेन गरुदेन नभोमार्गे हिण्डते, यो न नमति तं भणति-अहमाकाशेनागत्य मारयिष्यामि, ते सर्वे आज्ञापिताः, तो देवीं शेषा देव्यः पृच्छन्ति-पया कीखिकया निवत्यंते यन्त्रम् , एकया मजत ईमेया निवर्तनकीलिका गृहीता, ततो निवर्तनवेलायां ज्ञातं, न निवर्त्तते, तत उद्दामं गच्छतः कलिङ्गेऽसिलतथा पक्षी भनौ, पक्षविकल इति पतितः, ततस्तरसंघातनानिमित्तमुपकरणाथै कोकाशो नगरं गतः, तन रथकारो रथं निर्मिभीते, एकं चक्रं निर्मितं, एकस्सा सर्व, घटितं किजिकिजिलैव, ततः स तानि उपकरणानि मार्गवति, तेन भणितम्-यावद् गृहाद् भानयामि, राजकुलात् न लभ्यन्ते निष्काशयितुं, स गतः, अनेन 4 Mandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~822~ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ दीया ॥ ४१० ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्ति: [९३०], भाष्यं [ १५१...] संघाइयं उद्धं कथं जाइ, अप्फिडियं नियत्तं पच्छओमुहं जाइ, ठियंपि न पडइ, इयरस्सऽञ्चयं जाइ, अप्फिडियं पडइ, सो आगओ पेच्छइ निम्मायं, अक्खेवेण गंभ्रूण रण्णो कहेइ, जहा कोकासो आगओत्ति, जस्स वलेणं कागवण्णेण सबै रायाणो वसमाणीया, तो गहिओ, तेण हम्मंतेण अक्खायं, गहिओ सह देवीप, भत्तं बारियं, नागरएहिं अजसभी एहिं कागपिंडी पवतिया, कोकासो भणिओ-मम सयपुत्तस्स सत्तभूमियं पासायं करेहि, मम य मझे, तो सबे रायाणए आणवेस्सामि, तेण निम्मिओ, कागवण्णपुत्तस्स लेहं पेसियं, एहि जाय अहं एए मारेमि, तो तुमं मायापित्तं ममं च मोएहिसित्ति दिवसो दिनो, पासाअं सपुत्तओ राया विलइओ, खीलिया आया, संपुडो जाओ, मओ य सपुत्तओ, कागव ण्णपुत्त्रेण तं सवं णयरं गहियं, मायापित्तं कोकासो य मोयावियाणि । एसेवंविहो सिप्पसिद्धोति ।। साम्प्रतं विद्यादिसिद्धं प्रतिपादयन्नादौ तावत् स्वरूपमेव प्रतिपादयति- १ तत्संघटितम् ऊर्ध्वं कृतं याति आस्फोटितं निवृत्तं पश्चान्मुखं याति स्थितमपि (स्थापितमपि ) न पतति इतरस्यात्ययं याति भास्फोटितं पतति, स नागतः पश्यति निर्मितम्, अक्षेपेण गत्वा राज्ञे कथयति, यथा-कोकाश आगत इति, यस्य बढेन काकवर्णेन सर्वे राजानो वशमानीताः, ततो गृही. तः तेन हन्यमानेनाख्यातं गृहीतः सह देव्या, भक्तं वारितं, नागरैरवशोभीतैः काकपिण्डिका प्रवर्तिता, कोकाशो भणितः मम शतस्य पुत्राणां सप्तभौमं प्रासादं कुरु मम च मध्ये, ततः सर्वान् राजकुठे आनाययिष्यामि तेन निर्मितः, काकवर्णपुत्राय लेखः प्रेषितः, एहि यावदहमेतान् मारयामि, ततस्वं मातापितरं मां व मोचयेरिति दिवसो दत्तः, प्रासादं सपुत्रो राजा बिलनः, कीलिकाऽऽहता, संपुटो जातः, मृत सपुत्रः, काकवपुत्रेण तद् सबै नगरं गृहीतं मातापितरी कोकाश मोचिताः । एष एवंविधः शिल्पसिद्ध इति । Education intemational For Fasten नमस्कार ० वि० १ ~823~ | ॥ ४१० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३१], भाष्यं [१५१...] (४०) 006 2 प्रत सूत्राक इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतुत्ति तव्विसेसोयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतुत्ति ॥९३१॥ । व्याख्या स्त्री विद्याऽभिहिता पुरुषो मन्त्र इति तद्विशेषोऽयं, तन्त्र विदृ लाभे 'विद सत्तायां' वा, अस्य विद्येति भवति, 'मन्त्रि गुप्तभाषणे' अस्य मन्त्र इति भवति, एतदुक्तं भवति-यत्र मन्ने देवता स्त्रीसा विद्या, अम्बाकुष्माण्ड्यादि, का यत्र तु देवता पुरुषः स मन्त्रः, यथा विद्याराजा, हरिणेगमेषिरित्यादि, विद्या ससाधना वा साधनरहितश्च मन्त्र इति | सावरादिमन्त्रवदिति गाथार्थः ॥ ९३१ ॥ साम्प्रतं विद्यासिद्धं सनिदर्शनमुपदर्शयन्नाहविजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि । सिझिज महाविजा विजासिद्धजखउडुब्ब ॥ ९३२॥ व्याख्या-'विद्यानां' सर्वासामधिपतिः-चक्रवर्ती 'विद्यासिद्ध' इति विद्यासु सिद्धो विद्यासिद्ध इति, यस्य वैकाऽपि सिद्धयेत् 'महाविद्या' महापुरुषदत्तादिरूपा स विद्यासिद्धः, सातिशयत्वात् , क इव ?-आर्यखपुटवदिति गाथाक्षराः। ॥ ९३२ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-विजासिद्धा अजखउडा आयरिया, तेसिं च चालो भाइणिजो, तेण तेर्सि पासओ विज्जा कन्नाहाडिया. विजासिद्धस्स य णमोकारेणावि किर विजाओ हवंति, सो विजाचकवट्टी त भाइणेज भरुकच्छे साहुसगासे ठविऊण गुडसत्थं णयरं गओ, तत्थ किर परिवायओ साहहिं वाए पराजिओ अद्धितीए कालगओ 005* दीप अनुक्रम [१] विद्यासिद्धा आर्यखपुटा आचार्याः, तेषां च बालो भागिनेयः, तेन तेषां पाश्चात् विद्या कर्णाहता, विद्यासिद्धस्य च नमस्कारेणापि किल विद्या भवन्ति, दस विद्याचक्रवर्ती तं भागिनेयं भृगुरुच्छे साधुसकाशे स्थापयित्वा गुडशस्त्रं नगरं गतः, तत्र किल परिवाजकः साधुभिवादे पराजितोऽस्त्वाः कालगतः । JanEaiaa une ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~824 ~ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४११॥ Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९३२], अध्ययन [ - ], तंमिं गुडसत्थे णयरे बहुकरओ वाणमंतरी जाओ, तेण तत्थ साहूणो सबै पारद्धा, तणिमित्तं अज्जखडडा तत्थ गया, तेण गंतूण तस्स कण्णेसु उवाहणाओ ओलइयाओ, देवकुलिओ आगओ पेच्छइ, गओ, जणं घेत्तृण आगओ, जओ जओ उग्घाडिज्जति तओ तओ अहिद्वाणं, रण्णो कहियं, तेणवि दिडं, कट्ठलट्ठीहिं पहओ, सो अंतेउरे संकामेइ, मुको, पहियओ, वडुकरओ अन्नाणि य वाणमंतराणि पच्छओ उप्फिडंताणि भमंति, लोगो पायपडिओ विन्नवेइ-मुयाहित्ति, तस्स देवकुले महाविस्संदा दोनि महइमहालियाओ पाहाणमईओ दोणीओ, ताओ सो वाणमंतराणि य खडखडाविंताणि पच्छओ हिंडंति, जणेण विन्नविओ, सो वाणमंतराणि य मुक्काणि, ताओ दोणीओवि आरओ आणित्ता छड्डियाणि, जो मम सरिसो आणेहितित्ति मुक्काओ । सो य से भाइणिजो आहारगेहीए भरुयकच्छे तच्चणिओ जाओ, तस्स विजापहावेण पत्ताणि आगासेणं उवासगाणं घरेसु भरियाणि पंति, लोगो बहुओ तम्मुहो जाओ, संघेण अज्जखउडाण पेसियं, आगआ, अक्खायं भाष्यं [ १५१...] २ तस्मिन् गुडशस्त्रे नगरे हत्करो व्यन्तरो जातः तेन तत्र साधवः सर्वे प्रारब्धाः (उपसर्गवितुं ), तनिमित्तमाखपुटास्तत्र गताः तेन गरबा कर्णयोरुपानाववलगिती, देवकुलिक आगतः पश्यति, गतः, जनं गृहीत्वाऽऽगतः यतो यत बघाव्यते ततस्ततोऽधिष्ठानं राशे कथितं तेनापि दृष्टं, काष्ठयष्टिभिः प्रहृतः सोऽन्तःपुरे संक्रमयति, मुक्तः, पृष्ठतो बृहत्करोऽन्ये च व्यन्तराः पृष्ठत उत्स्फिटन्तो भ्राम्यन्ति, छोकः पादपतितो विज्ञपयति-मुश्चेति, तस्य देवकुले महाविपन्दे द्वे द्रोण्यौ अतिमहत्या पाषाणमथ्यौ, ते स व्यन्तराख खाकारं कुर्वन्तः पश्चात् हिण्डन्ते, जनेन विज्ञप्तः, स व्यन्तरा मुक्ताः, ते द्रोण्यो अि अव आनीय खते, यो मम सदृश आनेष्यतीति मुक्ते । स च तस्य भागिनेय आहारगृळ्या भृगुकच्छे तचनीको जातः, तस्य विद्याप्रभावेण पात्राणि आकाशेनोपासकानां गृहेषु श्रुतान्यायान्ति, लोको बहुस्तन्मुखो जातः संघेनार्थखपुटेभ्यः प्रेषितम् आगताः, आख्यातम्. For Only ~ 825~ नमस्कार० वि० १ ॥४११॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३२], भाष्यं [१५१...] (४०) * प्रत * सूत्राक परिसी अकिरिया उद्वितत्ति, तेर्सि कप्पराणं गतो मत्तओ सो तेण वत्थेण उच्छाइयओ जाइ, टोप्परिया गया, सबपवरे आसणे ठिया, अन्नत्थ कयाइ एइ, भरिया २ आगया, आयरिएहिं अंतरा आगासे पहाणो ठविओ, सवाणि भिण्णाणि, सो चेल्लओ भीओ नहो, आयरिया तत्थ आगया, तश्चणिया भणति-एहि बुद्धस्स पाए पडिहित्ति, आयरिया भणंति-एहि पुत्ता! सुद्धोदणसुया वंद मम, बुद्धो निग्गओ, पाएसु पडिओ, तत्थ थूभो दारे, सोऽवि भणिओ-एहि पाएहिं पडाहित्ति |पडिओ, उडेहित्ति भणिओ अद्धोणओ ठिओ, एवं चेव अच्छहित्ति भणिओ हिओ पासल्लिओ, नियंठणामिओ नामेण सो जाओ । एस एवंविहो विज्जासिद्धोत्ति ॥ साम्प्रतं मन्त्रसिद्धं सनिदर्शनमेयोपदर्शयतिसाहीणसम्यमंतो बहुमंतो वा पहाणमंतो वा । नेओ समंतसिद्धो खंभागरिसुव्व साइसओ ॥ ९३३ ॥ व्याख्या स्वाधीनसर्वमन्त्रो बहुमन्त्री वा मन्त्रेषु सिद्धो मन्त्रसिद्धः, प्रधानमन्त्रो वेति प्रधानैकमन्त्रो वेति ज्ञेयः, स मन्त्रसिद्धः, क इव-स्तम्भाकर्षवत् सातिशय इति गाथाक्षरार्थः ॥९३३ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् * * दीप अनुक्रम [१] एतारशी अकियोस्थितेति, तेषां कराणामप्रतो मात्रकः स तेन वशेणाच्छादितो याति, टोप्परिका गता, सर्वप्रवरे आसने रिखता, अन्यत्र कदाचिदायाति, भूतानिरभागतानि, भाचार्यैरन्तराऽऽकाशे पाषाणः स्थापितः, सर्वाणि भिवानि, स क्षुलकः (शिष्यः) भीतो नष्टः, आचार्यास्तत्रागताः, तच्चनीका भणन्ति-आयात पुरस्थ पादयोः पततेति, आचार्या भणन्तिभावाहि पुत्र! शुद्धोदनसुत! चन्दख मां, बुद्धो निर्गतः, पादयोः पतितः, तत्र स्तूपो द्वारे, सोऽपि भणिता-एदि पादयोः पतेति पतितः, अत्तिष्ठति भणितः अर्घावनतः स्थितः, एवमेव तिहेति भणितः स्थितः पार्थावनतो, निर्मन्यनामित इति नाना स जातः । एष एवंविधो विद्यासिद्ध इति । JanEaind ainatorary.om मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~826~ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३३], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- नमस्कार द्रीया ॥४१॥ प्रत सूत्राक एमि णयरे उक्किसरीरा रण्णा विसयलोलुएण संयई गहिया, संघसमवाए एगेण मंतसिद्धेण रावंगणे खंभा अन्छति | ते अभिमंतिया, आगासेणं उप्पाइया खडखडिंति, पासायखंभावि चलिया, भीएण मुक्का, संघो खामिओ। एसेवंविहो | मंतसिद्धोत्ति भण्णइ । साम्पतं सदृष्टान्तं योगसिद्धं प्रतिपिपादयिषुराहसव्वेचि व्वजोगा परमच्छेग्यफलाऽहवेगोऽपि । जस्सेह हुज सिद्धो सजोगसिद्धो जहा समिओ ॥ ९३४ ॥ । व्याख्या सर्वेऽपि' कात्स्येन द्रव्ययोगाः 'परमाश्चर्यफला परमाद्भुतकार्याः, अथवैकोऽपि यस्येह भवेत् सिद्धः स योगसिद्धः, योगेषु योगे वा सिद्धो योगसिद्ध इति, सातिशय एव, (यथा) समिता इति गाथाक्षरार्थः ॥९३४ ॥ भावार्थः कथानकगम्यः,तच्चेदम्-आभीरविसए कण्हा(ण्णा)ए बेन्नाए यणईए अंतरे ताबसा परिवसंति, तत्थेगो पादुगालेवेणं पाणिये चक्कमंतो भमइ एति जाइ य, लोगो आउट्टो, सडा हीलिजंति, अजसमिया वइरसामिस्स माउलगा विहरंता आगया, सड्डा उवडिया अकिरियत्ति. आयरिया नेच्छंति, भणति-अज्जो! किन्न ठाह !, एस जोगेण केणवि मक्खेइ, तेहिं अहापर्य | लद्धं, आणीओ, अम्हेऽवि दाणं देमुत्ति, अह सो सावगो भणइ-भगवं! पाया धोवंतु, अम्हेवि अणुग्गहिया होमो एकमिन् नगरे उस्कृष्टशरीरा राशा विषयलोलुपेन संयती गृहीता, संघसमवाये एकेन सिद्धमन्त्रेण राजाङ्गणे सम्भास्तिष्ठन्ति तेऽभिमन्त्रिताः आकाशैनीत्याटिताः बटरकारं कुर्वन्ति, प्रासादसम्भा अपि चलिताः, भीतेन मुक्ता संघः क्षामितः । एष एवंविधो मन्यसिख इति भण्यते । २ भाभीरविषये कृष्णा(कन्या)या बेन्नाथाच नचोरन्तरा तापसाः परिवसन्ति, तत्रैकः पादुकाळेपेन पानीये चक्रम्बमाणो भ्राम्यति मायाति पाति च, कोक भावर्जितः, श्राद्धा दीयन्ते, भार्यसमिता वनखामिनो मातुला विहरत भागताः, बाबा उपस्थिता भक्रियेति, भाचार्या नेच्छन्ति, भयन्ति--आर्थाः ! किन प्रतीक्षध्वम् । एष योगेन | केनापि प्रक्षपति, तैरर्थपद खब्धम्, आनीतः, वयमपि दानं दम इति, अथ स श्रावको भमति-भगवन् ! पादौ प्रक्षालयता, वयमप्यनुगृहीता भवामः, दीप अनुक्रम ॥४१२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~827~ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३४], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक | अनिच्छंतस्स पाया पाउगाओ य धोयाओ, गओ पाणिए निम्बुडो, उकिट्ठी कया, एवं डंभएहिं लोगो खजइत्ति, आयरिया निग्गया, जोगं पक्खित्ता गई भणिया-हे वियन्ने ! तटा देहि एहि पुत्ता! परिमं कूलं जामि, दोवि तडा मिलिया, गया, ते तावसा पबइया बंभद्दीवगवस्थचा बंभदीवगा जाया । एस एवंविहो जोगसिद्धोत्ति ॥ अधुनाऽऽगमार्थसिद्धौ प्रतिपादयतिआगमसिद्धो सवंगपारओ गोअमुच गुणरासी । पउरत्यो अत्यपरो व मम्मणो अत्यसिहति ॥९३५ ॥ ___ व्याख्या-आगमसिद्धः 'सर्वाङ्गपारगः' द्वादशाङ्गविदितभावः, अयं च महातिशयवानिति, यत उक्तं-'संखाइए उ भवे साइइ जंचा परोउ पुग्छिज्जा । न य ण अणाइसेसी वियाणई एस छउमस्थो ॥१॥'इत्यादि, अयं च गौतम इव गुणराशिरिति । अत्र च भूयांसि सातिशयचेष्टितान्युदाहरणानीति, तथा 'प्रचुरार्थः प्रभूतार्थः अर्थपरोवा, तन्निष्ठ इत्यर्थः, अर्थसिद्ध इति तदतिशययोगादेव, मम्मणवदिति गाथाक्षरार्थः ॥ ९३५ ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तत्थागमसिद्धो किर सयंभुरमणेऽवि मच्छगाईया । जं चिट्ठति स भगवं उवउत्तो जाणई तयंपि ॥१॥ अत्यसिद्धो पुण रायगिहे अनिच्छतः पादौ पादुके च धौते, गतः पानीये निबूद्धितः, उस्कृष्टिः (निन्दा) कृता, एवं दम्भैः लोकः खाद्यत इति, आचार्या निर्गताः, योग प्रक्षिष्य नदी भणिता-हे देने ! तटमर्पय एहि पुत्रि पूर्व कुलं यामि, वावपि तटौ मिलितो, गताः, ते तापसाः मनजिताः ब्रह्मदीपवास्तव्या ब्रमद्वीपका जाताः । एष एवंविधो योगसिद्ध इति । २ संख्यातीतांस्तु भवान्कथयति यहा परस्तु पृच्छेत् । नैवान तिशयी विजानाति एष उमस्थः ॥1॥ तत्रागमसिदः किल स्वयम्भूरमणेऽपि मत्स्याथाः । यथेष्टयन्ति स भगवानुपयुक्तो जानाति तकदापि ॥ १॥ अर्थसिद्धः पुना राजगृ दे. * कलकल: + देहीत्यन्त न प्र. दीप ACCASEX अनुक्रम [१] JanEain ainiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'अर्थसिद्ध'स्य प्ररुपणार्थे मम्मणश्रेष्ठिन: कथा ~828~ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३५], भाष्यं [१५१...] (४०) हारिभ आवश्यक दणयरे मम्मणोत्ति, तेण महया किलेसेण अइबहुगं दविणजायं मेलियं, सो त ण खायइ ण पिवइ, पासाउवरि चऽणेण|| नमस्कार दीया अणेगकोडिनिम्मायगन्भसारो कंचणमओ दिवरयणपज्जत्तो वरवइरसिंगो महंतो एगो बलद्दो काराविओ, वीओ य आ-INT वि०१ 18ढत्तो, सोऽवि बहुनिम्माओ, पत्थंतरंमि वासारत्ते तस्स निम्मावणनिमित्तं सो कच्छोट्टगबिइज्जो णईपूराओ कडविरूढगो। ॥४१३॥ कहाणि य उत्तारेइ । इओ य राया देवीए सह ओलोयणगओ अच्छइ, सो तहाविहो अईव करुणालंबणभूओ देवीए दिहो, |तओ तीए सामरिस भणियं-सच्चं सुबइ एवं मेहनइसमा हवंति रायाणो । भरियाई भरेंति दढं रित्तं जत्तेण वजेइ ॥१॥ |रण्णा भणियं-किह वा ), तीए भणियं-जं एस दमगो किलिस्सइ, रण्णा सद्दाविओ भणिओ य-किं किलिस्ससि ?, तेण भणियं-बलद्दसंघाडगो मे ण पूरिजइ, रण्णा भणियं-बलइसयं गेह, तेण भणियं-ण मे तेहिं कजं, तस्सेव बितिजं पूरेह,IX केरिसो सोत्ति घरं नेऊण दरिसिओ, रण्णा भणियं-सबभंडारेणविन पूरिजइ इमो, ता एत्तिगस्स विभवस्स अलं ते तिहाएत्ति नगरे मम्मण इति, तेन महता केशेनातिबटुकं यजात मिलित, स तन्न खादति न ,पिबति, प्रासादस्योपरि चानेनानेककोटीनिर्मितगर्मसारः कामन-IN मयो दिव्यरक्षपर्याप्तो परवाशको महान् एको बळीपदः कारिता, द्वितीयच आरम्धः, सोऽपि बहुनिर्मातः, अनासो वर्षाराने तस्य निर्माणनिमिर्त स कच्छोड़क- द्वितीयो नदीपूरात काष्ठविरूवः काठाम्येबोचारयति । हतच राजा देण्या सहावलोकनगतस्तिष्ठति, स तथाविधोऽतीच करुणालम्बनभूतो देव्या दृष्टः, ततस्तया सामर्ष भणितं सत्यं भूयते एतत्-मेघनदीसमा भवन्ति राजानः । भूतानि भरन्ति र रिक्त बलेन वर्जयन्ति ॥१॥राशा भणितं-कथं वा, तथा भणितं-15 ॥४१३॥ यदेष दमकः किश्यते, राज्ञा शब्दितो भणितश्च-किलिश्यसे?, तेन भणितं-बलीवदसंघाटको मे न पूर्वते, राज्ञा माणित-बलीवशातं गृहाण, तेन भणितन में तैः कार्य, तस्यैव द्वितीयं पूरय, कीटशः स इति गृहं नीत्वा दार्शितः, राज्ञा भणितं-सर्वभाण्डागारेणापि न पूर्यते अयं, तावदेतावतो विभवस्य (स्थान), अलं तव तृष्णयेति. अनुक्रम [१] andinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~829~ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९३५], अध्ययन [ - ], तेर्ण भणियं जावेसो न पूरिओ ताव मे न सुहं, आरद्धो य उवाओ पेसियाणि दिसासु भंडाणि आढत्ताओ किसीओ आढताणि गयतुरयसंडपोसणाणि, रण्णा भणियं-जइ एवं ता किं थेवस्स कए किलिस्ससि १, तेण भणियं किलेससहं मे सरीरं वावारंतरं चेयाणि नत्थि महग्घाणि य वासारचे दारुगाणित्ति निवहियवा य पइण्णत्ति अओ करेमित्ति, रण्णा भणियं पुजंतु ते मणोरहा, तुमं चेव बितिज्जगं पूरिडं समत्थो न पुण अहंति निम्गओ, तेण कालेण पूरिओ । एस एवंविहो अत्थसिद्धोति ॥ साम्प्रतं यात्रादिसिद्धप्रतिपादनायाऽऽछ— Education intimation जो निचसिद्धजत्तो लद्धवरो जो व तुंडियाइव्व । सो किर जन्त्तासिडोऽभिप्याओ बुद्धिपजाओ ॥ ९३६ ॥ व्याख्या -- यो नित्यसिद्धयात्रा, किमुक्तं भवति !-स्थलजलचारिपथेषु सदैवाविसंवादितयात्र इति, लब्धवरो यो वा तुण्डिकादिवत् स किल यात्रासिद्ध इति । उत्तरद्वारानुसम्बन्धनायाऽह-अभिप्रायः बुद्धिपर्याय इति गाथाक्षरार्थः ॥ ९३६४ भावार्थरत्वाख्या नगोचरः, तच्चेदम्-पढमं ताव जो किर बारस वाराओ समुदं ओग्गाहित्ता कयकज्जो आगच्छ सो जत्तासिद्धो, तं अन्नेऽवि जन्तगा जत्तासिद्धिनिमित्तं पेच्छति । एगंमि य गामे तुंडिगो वाणियगो, तस्स भाष्यं [ १५१...] 9 तेन भणितं यावदेष न पूर्वते तावन्न मे सुखं, भारब्धश्रोपायः प्रेषितानि दिक्षु भाण्डानि आरब्धाः कृपयः भरण्यानि गजगण्डपोषणानि राज्ञा भणितं यद्येवं तकि लोकस्य कृते क्रिश्यसि तेन भणितं क्लेशक्षमं मे शरीरं व्यापारान्तरं चेदानीं नास्ति महावाणि च वर्षांरात्रे दारूणीति निहितव्याऽपि च प्रतिज्ञेत्यतः करोमि, राज्ञा भणितं पूर्वन्तां ते मनोरथाः, स्वमेव द्वितीयकः पूरयितुं समर्थः न पुनरहमिति निर्गतः तेन कालेन पूरितः । एष एवंविधोऽर्थसिद्ध इति । २ प्रथमं area: fee द्वादश वाराः समुद्रमवगाह्य कृतकार्य आगच्छति स यात्रासिहः, वमन्येऽपि यान्तः यात्रासिद्धिनिमित्तं पश्यन्ति । एकस्मिन प्रामे तुण्डिको वणिक् तस्त्र For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~830~ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ द्वीया २४१४ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९३६], अध्ययन [ - ], सेयसहस्वाराओ वहणं फुद्धं, तहाबि न भज्जइ, भणइ य-जले नहं जले चेव लबभइ सयणाइएहिंपि दिजमाणं नेच्छर, पुणो पुणो तं तं भंडं गहाय गच्छ, निच्छरण से देवया पसन्ना, खद्धं खद्धं दबं दिनं, भणिओ य-अन्नंपि किं ते करेमि ?, तेण भणियं जो मम नामेण समुदं ओगाहइ सो अवियन्नो एउ, तहत्ति पडिसुर्य, एवेस जत्तासिद्धो । अने भणति-किर निजामगस्स वासुलओ समुद्दे पडिओ, सो तस्स कए समुदं उचिउमादत्तो, तओ अनिविण्णस्स देवयाए वरो दिन्नोति ॥ कृतं प्रसङ्गेन, साम्प्रतमभिप्रायसिद्धं प्रतिपादयन्नाह — Education intimation | विउला विमला सुहमा जस्स मई जो चउब्विहाए वा । बुद्धीए संपन्नो स बुद्धिसिद्धो इमा साय ॥ ९३७ ॥ व्याख्या- 'विपुल' विस्तारवती एकपदेनानेकपदानुसारिणी 'विमला' संशयविपर्ययानध्यवसाय मलरहिता 'सूक्ष्मा' अत्यन्तदुःखावबोध सूक्ष्मव्यवहितार्थपरिच्छेदसमर्था 'यस्य मतिः' इति यस्यैवंभूता बुद्धिः स बुद्धिसिद्ध इति यश्चतुर्विधया वा औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया बुद्ध्या सम्पन्नः स बुद्धिसिद्धो वर्तते, इयं च सा चतुर्विधा बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ ९३७ ॥ उत्पत्तिआ १ वेणइआ २, कंमिया ३ पारिणामिआ ४ । बुद्धी चउब्विहा वुत्ता, पंचमा नोवल भए ॥ ९३८ ॥ भाष्यं [ १५१...] शतसहस्रवाराः प्रवहणं भनं, तथाऽपि न विरमति, भगति च जले नहं जले चैव लभ्यते, स्वजनादिभिरपि दीयमानं नेच्छति, पुनः पुनस्तद्भाण्ड गृहीत्वा गच्छति निखयेन तस्य देवता प्रसन्ना, प्रचुरं प्रचुरं द्रव्यं दत्तं भणितश्च-अन्यदपि किं तव करोमि १, तेन भणितं यो मम नाम्ना समुदमवगाहते सोऽविपन्न आयातु तथेति प्रतिश्रुतं एवमेष यात्रासिद्धः । अन्ये भणन्ति किल नियमकस्य वासुलः समुद्रे पतितः, स तस्य कृते समुद्रं रिक्कीकर्तुमारब्धः, ततोऽनिर्विण्णाय देवतया वरो दत्त इति । For Fans Only ~ 831~ नमस्कार० वि० १ ॥४१४ ॥ wwwg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः औत्पातिकी आदि चतुर्विधाः बुद्धि:, तेषाम् व्याख्या एवं भेदाः Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९३८], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, आह-क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः, सत्यं, किन्तु स खल्वन्तरङ्गत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति १, विनयः-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी २, अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्प,कादाचित्कं वा कर्म शिल्पं नित्यव्यापारः, 'कर्मजा18 इति कर्मणो जाता कर्मजा ३, परिः-समन्तानमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्म इत्यर्थः स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा पारिणामिकी ४, बुध्यतेऽनयेति-बुद्धिः-मतिरित्यर्थः, सा च चतुर्विधोक्ता तीर्थकरगणधरैः, किमिति !, यस्मात् पञ्चमी नोपलभ्यते केवलिनाऽप्यसत्त्वादिति गाथार्थः ॥ औत्पत्तिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाहपुवमदिवमस्सुअमवेइअ तक्खणविसुद्धगहिअत्था । अब्वायफलजोगिणि बुद्धी उप्पत्तिआ नाम॥ ९३९ ॥ ___ व्याख्या-'पूर्वम्' इति बुद्ध्युत्पादात् प्राक् स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतः 'अवेदितः' मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धः-यधावस्थितः गृहीत:-अवधारितः अथे:-अभिप्रेतपदार्थों यया सा तथा, इहकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्त-| राबाधितं वाऽव्याहतमुच्यते, फलं-प्रयोजनम् , अव्याहतं च तत्फलं च अव्याहतफलं योगोऽस्या अस्तीति योगिनी अव्याहतफलेन योगिनी अव्याहतफलयोगिनी, अन्ये पठन्ति-अव्याहतफलयोगा,अव्याहतफलेन योगो यस्याः साऽव्याहतफलयोगा| बुद्धिः औत्पत्तिकी नामेति गाधार्थः॥ साम्प्रतं विनेयजनानुग्रहायास्या एव स्वरूपप्रतिपादनाथेमुदाहरणानि प्रतिपादयन्नाह भरहसिल १पणिअ २ रुक्खे ३ खडग ४ पड ५ सरड ६ काग ७ उच्चारे ८1 गय ९घयण १० गोल ११ खंभे १२, खुड्ग १३ मग्गिस्थि १४ पद १५ पुत्ते १६॥९४०॥ पणः+ मुद्रिका. दीप अनुक्रम [१] JABERame. a ntarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | औत्पातिकीबुद्धिः विषयक विविध-दृष्टांता: ~832~ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४१], भाष्यं [१५१...] (४०) 2 आवश्यक हारिभद्रीया नमस्कार वि०१ ॥४१५॥ भरहसिल १ मिंद २ कुकुड ३ तिल ४ चालुअ५ हत्थि ६ अगड ७ वणसंडे ८। पायस ९ अइआ १० पत्ते ११ खाडहिला १२ पंचपिअरो अ१३ ॥९४१ ॥ महुसित्य १७ मुद्दि १८ अंक १९ अ नाणए २० मिक्खु २१ चेडगनिहाणे २२। सिक्खा य २३ अस्थसत्थे २४ इच्छा य महं २५ सयसहस्से २६॥ ९४२॥ व्याख्या-आसामर्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चामुनि-उज्जेणीएणयरीए आसन्नो गामोणडाणं, तत्थेगरस णडस्स| भज्जा मया, तस्स य पुत्तो डहरओ, तेण अन्ना आणीया, सा तस्स दारगस्स न वट्टइ, तेण दारएण भणियं-मम लहूं न वट्टसि, तहा ते करेमि जहा मे पाएसु पडिसित्ति, तेण रत्तिं पिया सहसा भणिओ-एस गोहो एस गोहोत्ति, तेण नायंमम महिला विणहत्ति सिढिलो रागो जाओ, सा भणइ-मा पुत्ता! एवं करेहि, सो भणइ-मम लहन वट्टसि, भणईबट्टीहामि, ता लडं करेमि, सा वहिउमारद्धा, अन्नया छाहीए चेव एस गोहो एस गोहोत्ति भणित्ता कहिंति पुट्टो य छाहिं दंसेइ, तओ से पिया लजिओ, सोऽवि एवंविहोत्ति तीसे घणरागो जाओ, सोऽवि विसभीओ पियाए समं जेमेइ।अन्नया जयिन्या नगर्या आसनो ग्रामो नटामा, तत्रैकस नटस्थ भायों सता, तस्य च पुत्रो लघुः, तेनान्याऽऽनीता, सा तस्मिन् दारके न (सु) वर्तते, तेन दारकेण भणित-मयि लष्टा न पसे, तथा तव करिष्यामि यथा मे पादयोः पतिष्यसीति, तेन रात्री पिता सहसा भगिता-एषोऽधम एषोऽधमः (गोधः), तेन ज्ञातं-मम महिला विनष्टेति श्लयो रागो जातः, सा भणति-मा पुत्र! एवं कार्षी:, स भणति-मयि सुन्दरा नवर्तसे, भणति-वरवं, तदा कष्टं करोमि, सा वर्तितुमारग्धा, भन्यदा छायायामेवैष गोध एष गोध इति भणित्वा केति पृष्टा छायां दर्शयति, ततस्तस्य पिता लजितः, सोऽपि एवंविध इति तखां धनरागो जातः, सोऽपि विषभीतः पित्रा समं जेमति । अन्यदा अनुक्रम [१] aantaini ne ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~833~ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] Jus Educatio आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४२], अध्ययन [ - ], पियेरेण समं उज्जेर्णि गओ, दिट्ठा णयरी, निग्गया पियापुत्ता, पिया से पुणोऽवि अइगओ ठवियगस्स कस्सइ, सोचि सिप्पानईए पुलिणे उज्जेणीणयरीं आलिहइ, तेण णयरी सचच्चरा लिहिया, तओ राया एइ, राया वारिओ, भणइ मा राउलघरस्स मज्झेणं जाहि, तेण कोडहलेण पुच्छिओ- "सचच्चरा कहिया, कहिं वससि ?, गामेत्ति, पिया से आगओ। राइणो य एगूणगाणि पंचमंतिसयाणि, एकं मग्गइ, जो य सवप्पहाणो होजत्ति, तस्स परिक्खणनिमित्तं तं गामं भणावेइ, जहा- तुर्भ गामस्त बहिया महली सिला तीए मंडवं करेह, ते अद्दण्णा, सो दारओ रोहओ छुहाइओ, पिया से अच्छइ गामेण समं, ओसूरे आगओ रोयइ- अम्हे छुहाइया अच्छामो, सो भणइ सुहिओऽसि, किह ?, कहियं, भणड़-वीसत्था अच्छह, | हेडओ खणह खंभे य देह धोवं थोवं भूमी कया, तओ उवलेवणकओवयारे मंडवे कए रण्णो निवेइयं, केण कथं ?, रोहएण | भरहदारएणं। एसा एयरस उपत्तिया बुद्धी। एवं सवेसु जोएज्जा । तओ तेसिं रण्णा मेढओ पेसिओ, भणिया य-एस पक्खेण भाष्यं [ १५१...] 1 पित्रा सममुज्जयिनीं गतः दृष्टा नगरी, निर्गती पितापुत्री, पिता तस्य पुनरपि अतिगतो विस्मृताय कस्मैचित् सोऽपि शिप्रानद्याः पुलिने उनविन नगरीमा लिखति, तेन नगरी स चारा (सान्तःपुरा) आलिखिता, तत राजाऽऽयातः राजा निवारितः, भणति मा राजकुलगृहस्य मध्येन यासीः तेन कौतूहलेन पृष्टः-स चारा कथिता के वससि ?, ग्राम इति, पिता तस्यागतः । राशीकोनानि पञ्चमन्त्रिशतानि एक मार्गयति, यक्ष सर्वप्रधानो भवेदिति, तस्त्र परीक्षनिमितं तं ग्रामं भाणयति यथा युष्माकं ग्रामस बहिष्टात् महती शिला तस्या मण्डपं कुरुत, तेऽष्टतिमुपगताः, स दारको रोहकः क्षुधितः पिता तस्य तिष्ठति ग्रामेण समं, उत्सूर्ये आगतो रोदिति वयं क्षुधितासिष्ठामः स भगति सुखितोऽसि कथं ? कथितं भणति विश्वस्तासिष्ठत, अधस्तात् सनत सम्भो | दत्त स्तोकं स्तोकं भूमिः कृता, ततः कृतोपलेपनोपचारे मण्डपे कृते राज्ञे निवेदितं केन कृतं ?, रोहकेण भरतदारकेन । एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः । एवं सर्वेषु योजयेत् । ततस्तेषां राज्ञा मेषः प्रेषितः, भणिताश्च-एप पक्षेणे किमेयं तर आडिहिये? किंवा राडलं ?, तेण णगरी (प्रत्य० अधिक ) For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~834~ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) 10 प्रत -56 सूत्राक 56 आवश्यक एत्तिओ चेव पञ्चप्पिणेयवो ण दुबलयरो नावि बलिगयरोत्ति, तेहिं भरहो पुच्छिओ-तेण विरूवेण समं बंधाविओनमस्कार० जवसं दिन्नं तं चरन्तस्स ण हायइ बलं विरूवं च पेच्छंतस्स भएण ण वडइ । एवं कुकडओ अदाएण समं जुज्झाविओ। वि०१ द्रीया ४ तिलसमं तेलं दायबंति तिला अदाएण मविया । बालुगावरहओ-पडिच्छंद देह । हथिमि जुन्नहत्थी गामे छुढो, हत्थी अप्पाउओ मरिहितित्ति अप्पिओ मउत्तिण निवेझ्यवं, दिवसदेवसिया य से पउत्ती दायवत्ति, अदाणेवि निग्गहो, सो मओ, ॥४१६॥ ते अद्दण्णा, भरहसुयवयणेण निवेइयं जहा-सो अज हत्थी ण उद्वेइ न णिसीयइ ण आहारेइ ण णीहारेइ ण ऊससइ ण नीससइ 18 एवमाई, रण्णा भणियं-किं मओ, तुन्भे भणहत्ति । अगडे आरण्णओ आगंतु ण तीरइ नागरं देह । वणसंडे पुर्व पासं गओ है गामो । परमन्नं करीसओण्हाए पलालुण्हाए यत्ति । तओ रण्णा एवं परिक्खिऊण पच्छा समाइई, जहा तेणेव दारएणागंतवं, |तं पुण ण सुक्तपक्खे ण कण्हपक्खे ण राई न दिवसे ण छायाए ण उण्हेणं ण छत्तेणं ण आगासेणं ण पाएहिं ण जाणेणं ण १. यन्मान एवं प्रत्यर्पणीयो न दुर्बलतरो नापि बलिष्ठ इति, तैर्भारतः पृष्टः-तेन विरूपेण (वृकेण ) समं दन्धितो यबसं दत्तं, तं चरतो न हीयते ४ बलं वृकं च पश्यतो भयेन न वर्धते । एवं कुर्कुट आदर्शन समं योधितः । तिकसम तैलं दातन्यमिति तिला आदर्शन मापिताः । बालुकादवरकः-प्रतिश्छन्द दस । हस्तिनि-जीर्णहस्ती ग्रामे क्षिप्तः, हस्ती अपायुरिति मरिष्यतीत्यर्पितः मृत इति न निवेदितव्यं, दिवसदेवसिकी च तस्य प्रवृत्तिदातम्येति, मदानेऽपि निग्रहः, समृतः, ते अप्रतिमुपगताः, भरतसुतवचनेन निवेदितं यथा-सोऽय हस्ती नोत्तिष्ठते न निषीदति नाहारयति न मीहारयति नोच्छवसिति न निःश्वसिति एवमादि, राज्ञा भणित- किंमतः, यूर्य भणतेति । अवट आरपयको नागन्तुं शक्नोति नागरं दत्त । वनखपटे पूर्वस्मिन् पागतो ग्रामः । परमानं करीपोष्मणा | पळालोमणा चेति । ततो राज्ञा एवं परीक्ष्य पश्चात्समाविष्टं यथा-तेनैव दारकेणागन्तव्यं, तत्पुनर्न प्रश्पक्षे न कृष्णपक्षे न रात्री न दिवा न लायचा नोषणेन | न छत्रेण नाकाशेन न पादाम्यां न यानेन न दीप CSC4OCEACREOGRes अनुक्रम कस ॥४१॥ wwsaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~835~ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) SEAR 'पंथेणं ण उप्पहेणं ण ण्हाएणं ण मलिणेणंति, तओ तस्स निवेइयं, पच्छा अंगोहलिं काऊण चकमज्झभूमीए एडगारूढो चालणीनिमिउत्तिमंगो, अण्णे भणति-सगडलट्टणीपएसबद्धओ छाइयपडगेणं संझासमयंमि अमावासाए सन्धीए आगओ नरिंदपासं, रण्णा पूइओ, आसन्नो य सो ठिओ, पढमजामविबुद्धेण य रण्णा सद्दाविओ, भणिओ य-सुत्तो ? जग्गसि ?, भणइ-सामि! जग्गामि, किं चिंतेसि, भणइ-असोत्थपत्ताणं किं दंडो महलो उयाहु से सिहत्ति ? रण्णा चिंतियं-साहु, एवं पच्छा पुच्छिओ भणइ-दोवि समाणि, एवं बीयजामे छगलियाओ लेंडियाओ वाएण, ततिए खाडहिल्लाए जत्तिया |पंडरारेहा तत्तिया कालगा जत्तियं पुच्छं तद्दहमित्तं सरीरं, चउत्थे जामे सद्दाविओ वायं न देइ, तेण कंबियाए छिक्को, उडिओ, राया भणइ-जग्गसि सुयसि ?, भणइ-जग्गामि, किं करेसि!, चिंतेमि, कि?, कइहिं सि जाओ, कइहिं ?, पंचहि, केण केण?, रण्णा वेसमणेणं चंडालेणं रयएणं विच्छुएणं, मायाए निबंधेण पुच्छिए कहियं, सो पुच्छिओ भणइ-यथा न्यायेन अनुक्रम [१] पथा नोरपथेन न मातेन न मलिनेनेति, ततस्तस्मै निवेदितं, पश्चादहरूक्षणं (देशनानं) कृत्वा चक्रमभ्यभूमावेडकारूढचाखनी निर्मितोत्तमाः , अन्ये भणन्ति-शाकटहनी (कट) प्रदेशबद्धः छादितः पटेन संध्यासमयेऽमावास्यायाः सम्यायामागतो नरेन्द्रपा, राज्ञा पूजितः, भासनश्च स स्थितः, प्रथमयाम विबुद्धेन च राज्ञा शब्दितः, भणितच-सुलो जागर्षि ?, भणति-स्वामिन् ! जागर्मि, किंचिन्तयसि ?, भपाति-अश्वत्थपत्राणां किं दपडो महान् उत तस्व शिखेति, राज्ञा चिन्तितं-साधु, एवं पश्चास्पृष्टो भणति-हे अपि समे, एवं द्वितीययामेछागलिका लिन्डिका वातेन, तृतीये खाढहिल्लाया यावत्यः पाण्डुरारेखाः तावत्यः कृष्णा यावन्मानं पुच्छं तावन्मानं शरीरं, चतुर्थे यामे शब्दितो चाचं न ददाति, तेन कम्बिकया हतः, इस्थितो, राजा भणति-जागर्षि स्वपिषि!, भणतिजागर्मि, किं करोषि!, चिन्तयामि, किं ?, कतिभिजातोऽसि ?, कतिभिः!, पञ्चभिः, केन केन ?, राज्ञा वैश्रमणेन चाण्डालेन रजकेन वृश्चिकेन, मात्रा निबन्धेन पृष्टया कथितं, स पृष्टो भणति-पथा न्यायेन JABERatantinational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~836~ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया वि०१ D ॥४१॥ राज्यं पालयसि तो गज्जसि जहा रायपुत्तोत्ति, वेसमणो दाणेणं, रोसेणं चंडालो, सबस्सहरणेणं रयओ, जं च वीसत्थ- नमस्कार० सुत्तपि कवियाए उट्वेसि तेण विच्छुओत्ति, तुठो राया, सधेसि उवरि ठविओ, भोगा य से दिण्णा । एयस्स उप्पत्तिया बुद्धित्ति ॥ पणियए दोहिं पणियगं बर्द्ध, एगो भणइ-जो एयाओ लोमसियाओ खाइ तस्स तुमं किं करेसि', इयरो भणइ|जो णयरदारेण मोयगो ण णीति तं देमि, तेण चक्खिय चक्खिय सवाओ मुकाओ, जिओ मग्गइ, इयरो स्वगं देइ, सो | नेच्छइ, दोन्नि य जाव सएणऽवि ण तूसइ, तेण जूयारा ओलग्गिया, दिना बुद्धी, एगं पुषियावणे मोयगं गहाय इंदखीले ठवेहि, पच्छा भणेजासि-निग्गच्छ भो मोयगा! णिगच्छ, सो ण णिगच्छिहिति, तहा कयं पडिजिओ सो । एसा जुडूकराणमुप्पत्तिया बुद्धी । रुक्खे फलाणि मक्कडा न देंति, पाहाणेहिं हया अम्बया दिन्ना, एसावि लेलुगधेत्तयाणमुष्पत्तियत्ति ॥ खुड्डगे पसेणई राया सुओ से सेणिओ रायलक्खणसंपुष्णो, तस्स किंचिविण देइ मा मारिजिहित्ति, अद्धितीए राज्यं पालयसि ततो ज्ञायसे यथा राजपुत्र इति, वैश्रमणो दानेन, रोषेण चाण्डालः, सर्वस्वहरणेन रजकः, यच्च विश्वस्त सुप्तमपि कम्बिकथा (अग्रण) प्ररथापयसि तेन वृश्चिक इति, तुटो राजा, सर्वेषामुपरि स्थापितः, भोगाश्च तस्मै दत्ताः । एषोत्पत्तिकी बुद्धिरिति । पणो-दाभ्यां पणो बदः, एको भणति य एता-IN विभटिकाः खादति तस्मैवं किं करोपि?, इतरो भणति-यो नगरद्वारेण मोदको न निर्गच्छति तं ददामि, तेन वष्वा दहा सर्वा मुक्काः, जितो मार्गयति, इतरो रूप्यकं ददाति, स मेच्छति, पयावच्छतेनापि न तुष्यति, तेन घृतकास अवलगिताः, दत्ता बुद्धिः, एक कान्दविकापणामोदकं गृहीत्वा इन्दकीले स्था-IN ४१७॥ पय, पश्चाद् भणे:-निर्गच्छ भो मोदक ! निर्माच्छ, सन निर्गमिष्यति, तथा कृतं, प्रतिजितः सः । एषा घृतकराणामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ वृक्षे फलानि मर्कटा न वदति, पाषाणहंता आना दचाः, पुपापि ले एकक्षेपकायामौत्पत्तिकीति । मुदारने-प्रसेनजित् राजा मुतस्तस्य श्रेणिको राजलक्षणसंपूर्णः, तसै न किश्चिदपि ददाति मा मीमरत (मार्यंत ) इति, अत्या अनुक्रम [१] JABERatinintamational www.jandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~837~ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४२], अध्ययन [ - ], निग्गओ चेन्नायडमागओ कइवयसहाओ, खीणविभवसेद्विस्स वीहीए उवविट्ठो, तस्स य तप्पुण्णपच्चर्यं तद्दिवसं वासदेयभंडाणं विक्कओ जाओ खद्धं खद्धं विद्वत्तं, अन्ने भणति सेट्टिणा रयणायरो सुमिणंमि घरमागओ निवकण्णं परिणतगो दिट्ठो, तओऽणेण चिंतियं एईए पसाएण महई विभूई भविस्सति, पच्छा सो वीहीए उबविडो, तेण तमणण्णसरिसाए आगईए दहूण चिंतियं एसो सो रयणायरो भविस्सइ, तप्पहावेण याणेण मिलक्खुहत्थाओ अणग्घेज्जा रयणा पत्ता, पच्छा पुच्छिओकस्स तुब्भे पाहुणगा ?, तेण भणियं तुज्झंति, घरं णीओ, कालेण धूया से दिण्णा, भोगे भुंजइ, कालेण य नंदाए सुमिणमि धवलगयपासणं, आवण्णसत्ता जाया, पच्छा रण्णा से उट्टवामा विसज्जिया, सिग्धं एहित्ति, आपुच्छर, अम्हे रायगिहे पंडरकुड्डुगा पसिद्धा गोवाला, जइ कज्जं एहित्ति, गओ, तीए दोहलओ देवलोगचुयगन्भाणुभावेण वरहत्थिखंधगया अभयं सुणेज्जामित्ति, सेठ्ठी दबं गहाय रण्णो उवडिओ, रायाणएण गहियं, उग्धोसावियं च, जाओ, अभयओ णामं कर्य, पुच्छइ भाष्यं [ १५१...] १ निर्गतः हातमागतः कतिपयसहायः क्षीणविभवश्रेष्ठिनो वीथ्यामुपविष्टः तख च तत्पुण्यप्रत्ययं तदिवसे वर्षदेयभाण्डानां विक्रयो जातः प्रचुरं प्रचुरम जितं, अन्ये भणन्ति श्रेष्ठिना रजाकरः खमे गृहमागतो निजकन्यां परिणयन् दृष्टः, ततोऽनेन चिन्तितम् एतस्याः प्रसादेन महती विभूतिर्भविष्यति पश्चात् स वीध्यामुपविष्टः तेन तमनन्यसदृशयाऽऽकृत्या दृष्ट्वा चिन्तितं एप स रत्नाकरो भविष्यति, तत्प्रभावेण चानेन महात् अनयणि रत्नानि प्राप्तानि पश्चारदृष्टः कस्य यूर्य प्राचूर्णकाः?, तेन भणितं युष्माकमिति, गृहं नीतः कालेन दुहिता तसे दत्ता, भोगान् भुनक्ति, कालेन च नन्दया स्वप्ने धवलगजदर्शनं, आपन्नसच्चा जाता, पश्चात् राम्रा तस्तै राष्ट्री प्रेषिता, शीघ्रमेहीति, आपृच्छति, वयं राजगृहे पाण्डुरकुड्याः प्रसिद्धा गोपालाः, यदि कार्यमागच्छेरिति गतः, तस्या दोहदो देवलोकयुतगर्भानुभावेन वरहस्तिस्कन्धगता अभयं शृणोमीति श्रेष्ठी व्यं गृहीत्वा राज्ञ उपस्थितः राज्ञा गृहीतं, उद्घोषितं च जातः श्रभयो नाम कृतं पृच्छति For Parts Only ~838~ andibray org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥४१॥ प्रत सुत्रांक मम पिया कहिंति ?, कहियं तीए, तत्थ वच्चामोत्ति सत्थेण सम (१०५००) वचंति, रायगिहस्स बहिया ठियाणि, गवेसओ नमस्कार गओ, राया मती मग्गइ, कूवे खुड्ड (खंड) गं पाडियं, जो गेहइ हत्थेण तडे संतो तस्स राया वित्तिं देइ, अभएण दिई, वि०१ छाणेण आहयं, सुके पाणियं मुकं, तडे संतएण गहियं, रायाए समीवं गओ, पुच्छिओ-को तुमं?, भणइ-तुज्य पुत्तो, किह व किंवा ?, सर्व परिकहियं, तुट्टो उच्छंगे कओ, माया पवेसिजंती मंडेई, वारिया, अमचो जाओ, एसा एतस्स उप्प-15 त्तिया बुद्धी ।। पडे-दो जणा पहायंति, एगस्स दढो एगस्स जुन्नो, जुन्नइत्तो दढे गहाय पटिओ, इयरो मग्गेइ, ण देइ,राउले ववहारो, महिलाओ कत्तावियाओ, 'दिन्नो जस्स सो, अण्णे भणंति-सीसाणि ओलिहियाणि, एगस्स उन्नामओ एगस्स सोतिओ। कारणियाणमुष्पत्तिया बुद्धी ॥ सरडो-सन्नं वोसिरंतस्त सरडाणभंडताण एगो तस्स अहिहाणस्स हेट्ठा बिलं पविठ्ठो ४ पुंछेण य छिको, घरं गओ, अद्धिईए दुबलो जाओ, विज्जो पुच्छिओ, जइ सयं देह, घडए सरडो छूढो लक्खाए मम पिता केति, कथितं तया, तत्र प्रजाम इति सार्थेन समं ब्रजन्ति, राजगृहस्य बहिः स्थिता नि, गवेषको गतः, राजा मन्त्रिणं मार्गयति, पे मुद्रिका पातिता, यो गृह्णाति हस्तेन तटे सन् तस्मै राजा वृत्तिं ददाति, अभयेन दृष्टं, छगणेन (गोमयेन) आहतं, गुपके पानीयं मुक्तं, नटे सता गृहीतं राज्ञः समीपं गतः, पृष्टः-करवं!, भपति-सब पुत्रः, कथं वा किंवा , सबै परिकयितं, तुष्ट उत्सङ्गे कृतः, माता प्रविशन्ती मण्डयति, वारिता, अमाल्यो जातः, एषैतस्वीरपातिकी बुद्धिः ॥ पटा-दी जनी सातः, एकस हड एकस्य जीर्णः, जीर्णवान् इदं गृहीत्वा प्रस्थितः, इतरो मार्गयति, न ददाति, राजकुले ॥४१८॥ व्यवहारः, महिलाभ्यां कर्त्तनं कारितं, दत्तो यस्य यः, अन्ये भणस्ति-शीर्षे अवलिखिते, एकस्यो मय एकस सौत्रिकः । कारणिकाणामौरपतिकी उद्धिः । सरटः-संज्ञा ब्युत्सृजतः सरटयोः कलहायमानयोः एकस्तस्वाधिष्ठानस्याधस्लात् चिलं प्रविष्टः, पुच्छेन च स्पृष्टः, गृहं गतः, अमत्या दुर्बलो जातः, वैद्यः पृष्टः, पदि शतं ददासि, घटे सरदः क्षिप्तः लाक्षया युत्ताणुसारेग जो जस्स पदो सो तस्स दिग्णो (प्र. अधि)। जस्प इण्णामो पडो तस्स सीसा उपणातन्तू विणिगया जस्स सोत्तिओ तस्स सुचतन्तू (प्र. अधिक) दीप * अनुक्रम [१] CROR-00* JanEaa-MIRom Maitra मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~839~ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] Jus Educate आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९४२], अध्ययन [ - ], विलिंपित्ता, विरेयणं दिनं, वोसिरियं, लट्ठो हुओ, वेजस्स उ पत्तिया बुद्धी ॥ बितिओ सरडो - भिक्खुणा खुड्डगो पुच्छिओएस किं सीसं चालेइ, सो भणइ किं भिक्खू भिक्खुणी वा १, खुड्डुगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ कागे तच्चण्णिएण चेहओ पुच्छिओ-अरहंता संद्दण्णू ?, बाढं, केत्तिया इहं काका १, 'सहि काकसहस्साई जाई बेन्नायडे परिवसंति । जइ ऊणगा पवसिया अम्भहिया पाहुणा आया ॥ १ ॥' खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ बितिओ-वाणियओ निहिंमि दिट्ठे महिलं परिक्खइ रहस्सं धरेइ न वत्ति, सो भणइ-पंडुरओ मम काको अहिद्वाणं पविट्ठो, ताए सहज्जियाण कहियं, जाव रायाए सुर्य, पुच्छिओ, कहियं, रन्ना से मुक्कं मंती य निउतो, एयरस उप्पत्तिया बुद्धी ॥ ततिओ-विट्ठे विक्खरइ काओ, भागवओ खुड्डगं पुच्छ किं कागो विक्खरइ ?, सो भणइ-एस चिंतेति किं एत्थ विण्डू अस्थि नत्थित्ति ?, खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ उच्चारे - धिजाइयस्स भज्जा तरुणी गामंतरं निजमाणी धुत्तेण समं संपलग्गा, गामे ववहारो, विभत्ताणि भाष्यं [ १५१...] विलय, विरेचनं दध्युत्लो जातः वेदस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ द्वितीयः सरः- भिक्षुकः पृष्टः एष किं शीपं चालयति ?, स भणतिकिं भिक्षु भिक्षुकी वा ?, कस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ काकः- तञ्चनीकेन तरुः पृष्टः- आर्हताः सर्वज्ञाः १, बाई, किषन्त द्र काका: ?, 'पष्टिः काकसहसा ये चेन्नातटे परिवसन्ति यदि न्यूमाः प्रोषिता अभ्यधिकाः प्राचूर्णका आायाताः ॥ १ ॥ कस्योत्पत्तिकी बुद्धिः । द्वितीयो वणिकू निधी टष्टे महिलां परीक्षतेरहस्यं विभर्त्ति नवेति, स भणति श्वेतः मम काकोऽधिष्ठाने प्रविष्टः, तथा सखीनां कथितं यावद्राज्ञा श्रुतं पृष्टः कथितं राज्ञा तस्मै अर्पितः मन्त्री च नियुक्तः, एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ तृतीयः विष्टां विकिरति काकः, भागवतः शुलके पृच्छति किं काको विकिरति ?, स भगति एष चिन्तयति-किमत्र विष्णुरति नास्तीति, शुकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ उचारः चिग्जातीयख भार्या तरुणी ग्रामान्तरं नीयमाना पूर्वेन समं संता ग्रामे व्यवहारः, विभक्ती For Parts Only ~840~ www.janbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभ वि०१ द्रीया प्रत ॥४१॥ सुत्रांक 460 पुच्छियाणि आहारं, विरेयणं दिणं, तिलमोयगा, इयरो धाडिओ, कारणियाण उप्पत्तिया बुद्धी ॥ गए-वसंतपुरे राया-४ नमस्कार मिति मग्गइ, पायओ लंबिओ-जो हत्थिं महइमहालय तोलेइ तस्स य सयसहस्सं देमि, सो एगेणं णावाए छोढुं अस्थग्घे । जले धरिओ जेण छिद्देण तीसे णावाए पाणियं तत्थ रेहा कहिया, उत्तारिओ हत्थी, कठ्ठपाहाणाइणा भरिया णावा जाव रेखा, उत्तारेउं तोलियाणि, पूजिओ मन्ती कओ, एयस्स उपत्तिया बुद्धी। अण्णे भणंति-गाविमग्गो सिलाएणड्डो, पेढे(पोहोपडिएण |णीणिओ, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ घयणो-भंडो सघरहस्सिओ, राया देवीए गुणे लएइ निरामयत्ति, सो भणइ-न भव इत्ति, किह ?, जया पुप्फाणि केसराणि वा ढोएइ, तं तहत्ति विण्णासियं, णाए हसियं, निब्बंधे कहिय, निविसओ आणत्तो, |उवाहणाणं भारेणं उवढिओ, उड्डाहभीयाए रुद्धो, धयणस्स उप्पत्तिया बुद्धी । गोलगो नकं पविहो, सलागाए तावेत्ता जउमओ कहिओ, कह॒तस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ खंभे-राया मंतिं गवसइ,पायओलंपिओ, खंभोतडागमशे, जोतडे संतओ बंधद। पृष्टी आहार, विरेचनं दत्त, तिलमोदकाः, इतरो निर्धाटितः, कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ गजः-वसन्तपुरे राजा मन्त्रि मार्गयत्ति, घोषणा कारिता-यो हस्तिनं महातिमहालयं तोलयति तस्मै च शतसहस्र ददामि, स एकेन नावि क्षिरुवा अस्ताये जले तो यस्मिन् भागे तस्था नावः पानीयं तत्र रेखा कृष्टा, उत्तारितो हस्ती, काठपाषाणादिना भूता नीर्यावोखा, उचार्य तोचितानि, पूजितो मन्त्री कृतः, एतस्पोत्पत्तिकी बुद्धिः । अन्ये भणन्ति-गोमार्गः शिलया नष्टः, पीठे पतितेन नीतः, एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ भूतानः-सर्वराहसिको भाण्डो, राजा देव्या गुणान् काति-निरामयेति, स भव्यतिन भवतीति कधी, पदा|४|| ॥४१९॥ पुष्पाणि केशराणि वा ढोकयति, तत्तयेति जिज्ञासितं, शाते इसितं, निर्मधे कथितं, निर्विषय आज्ञप्तः, उपानहाँ भारेणोपस्थितः, अनाभीतथा रुवा, घृता-1 स्पोत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ गोलका मासिको प्रविष्टः, शलाकया तापयित्वा जनुमयः कषितः, कर्षत औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ सम्भाराजा मन्त्रिण गवेषयति, घोषणा कारिता, स्तम्भस्तटाकमध्ये, यस्तटे सन् वाति दीप अनुक्रम [१] %E5%259- 2 Manmiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~841~ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४२], अध्ययन [ - ], Education intimational तस्स सयसहरसं दिज्जइ, तडे खीलगं बंधिऊण परिवेढेण बद्धो जिओ, मंती कओ, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ खुड्डुएपरिवाइया भणइ-जो जं करेइ तं मए कायर्व कुसलकम्मं, खड्गो भिक्खद्वियओ सुणेइ, पडहओ वारिओ, गओ राउलं, दिट्ठो, सा भणइ-कओ गिलामि ?, तेण सागारिथं दाइयं, जिया, काइयाए य पढमं लिहियं, सा न तरइ, जिया, खुडगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ मग्गित्थी एगो भजं गहाय पवहणेण गामंतरं वञ्चर, सा सरीरचिंताए उन्ना, तीसे रूवेण वाणमंतरी विलग्गा, इयरी पच्छा आगया रडइ, बबहारो, हत्थो दूरं पसारिओ, णायं वंतरित्ति, कारणियाणमुप्पत्तियत्ति ॥ मग्गे-मूलदेवो कंडरिओ य पंथे वचंति, इओ एगो पुरिसो समहिलो दिट्ठो, कंडरिओ तीसे रूषेण मुच्छिओ, मूलदेवेण भणियं अहं ते घडेमि, तओ मूलदेवो तं एगंमि वणनिरंजे ठविऊण पंथे अच्छइ, जाव सो पुरिसो समहिलो आगओ, मूलदेवेण भणिओ-एत्थ मम महिला पसवइ, एयं महिलं विसज्जेहि, तेण विसज्जिया, सा तेण समं अच्छिकण आगया १ तस्मै शतसहस्रं दीयते, तदे कीलकं बङ्गा परिवेष्टेन बद्धो जितः मन्त्री कृतः, एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ झुलकः-परिव्राजिका भगतियो यत् करोति तन्मया कर्त्तव्यं कुशलकर्म, क्षुद्धको भिक्षार्थिकः शृणोति, पटहको वारितः, गतो राजकुलं, दृष्टः, सा भणति कुतो गिलामि ?, तेन सागारिक (मेहनं ) दर्शितं, जिता, कायिक्या च पद्मं लिखितं सा न शक्नोति, जिता, क्षुल्लकस्वीत्पत्तिकी बुद्धिः । मार्गखीएको भार्यां गृहीत्वा प्रवहणेन ( वानेन ) ग्रामान्तरं ब्रजति, सा शरीर चिन्ता उत्तीर्ण तस्या रूपेण व्यन्तरी विलना, इतरा पञ्चादागता रोदिति व्यवहारः हस्तो दूरं प्रसारितः ज्ञातं व्यन्तरीति, कारणिकानामौत्पतिकीति ॥ मार्ग:- मूलदेवः कण्डरीकश्च पथि व्रजतः, इन एकः पुरुषः समहिलो दृष्टः कण्डरीकः तखा रूपेण मूर्जितो, मूलदेवेन भणितं अहं तव घटयामि ततो मूलदेवतं एकस्मिन् वननिकुजे स्थापयित्वा तिष्ठति यावत्स पुरुषः समद्दिल आगतः, मूलदेवेन भणितः अत्र मम महिला प्रसूते एतां महिलां विसृज तेन विसृष्टा, सा तेन समं स्थित्वाऽऽगता भाष्यं [ १५१...] For Fans at Use Only ~842~ Janibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभ- द्रीया MS ॥४२०॥ आगंतूण य तत्तो पडयं घेत्तूण मूलदेवस्स धुत्ती भणइ हसंती-पियं खुणे दारओ जाओ, दोण्हवि उप्पत्तिया ॥ पइत्ति नमस्कार दोण्हं भाउगाण एगा भज्जा, लोगे कोडं दोण्हवि समा, रायाए सुर्य, परं विम्हयं गओ, अमञ्चो भणइ-कओ एवं होति, वि०१ अवस्सं विसेसो अस्थि, तेण तीसे महिलाए लेहो दिन्नो जहा-एएहिं दोहिवि गाम गंतवं, एगो पुवेण अवरो अघरेण, तद्दिवसं चेव आगंतर्ष, ताए महिलाए एगो पुषेण पेसिओ, एगो अवरेण जो वेस्सो, तस्स पुषेण एतस्सवि जंतस्सवि निडाले सूरो, एवं णाय, असद्दहंतेसु पुणोऽवि पडविऊण समर्ग पुरिसा से पेसिया, ते भणंति-ते दर्द अपडुगा, एसो मंदसंघयणोत्ति भणियं, तं चेव पवण्णा, पच्छा सवगयं, मंतिस्स उप्पत्तिया बुद्धी । पुत्ते-एगो वणियगो दोहि भजाहि समास अण्णरज गओ, तत्थ मओ, तस्स एगाए भजाए पुत्तो, सो विसेस ण जाणइ, एगा भणइ-मम पुचो, बिइया भणइमम, ववहारो न छिजइ, अमञ्चो भणइ-दवं विरिविऊण दारगं दोभागे करेह करकयेण, माया भणइ-एतीसे पुत्तो मा आगत्य च ततः पटं गृहीत्वा मूलदेवस्य पूर्ता भणति हसन्ती-प्रियं नो दारको जातः, योरप्योत्पत्तिकी । पतिरिति-द्वयोभांबोरेको भार्या, लोके स्फुट बयोरपि समा, राशा श्रुतं, पर विस्मयं गतः, अमात्यो भणति-कुत एवं भवति, अवश्यं विशेषोऽस्ति, तेन तस्यै महिलाये लेखो दसो यथा-एताभ्यां द्वाभ्यामपि ग्रामं गन्तव्यं, एकः पूर्वेणापरः पश्चिमेन, तदिवस एवागन्तव्यं, तया महिलयकः पूर्वेण प्रेषितोऽपरोपरेण यो रोष्यः, तख पूर्वेण मागच्छतोऽपि गच्छतोऽपि H ॥४२०॥ ललाटे सूर्यः, एवं ज्ञातं, अश्रदधत्सु पुनरपि प्रस्थाप्य समकं (युगपत् ) पुरुषो तस्यै प्रेषिती, तौ भणत:-तौ हदमपटुकी, एष मन्दसंहनन इति भणितंदी (भणित्वा) तमेव अपमा, पश्रादुपगतं, मन्त्रिग औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ पुत्रः-एको वणिग् दाभ्यां भार्याभ्यां सममन्धराज्यं गतः, तत्र मतः, तस्यै कस्या भार्थायाः | पुत्रः, स विशेष न जानाति, एका भणति-मम पुत्रः, द्वितीया भणति-मम, व्यवहारोन छियते, अमात्यो भणति-द्रव्यं विभज्य दारक द्वी भागी कुरुत ककचेन, माता भपति-पतस्याः पुत्रो मा अनुक्रम [१] Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~843~ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत मारिजउ, दिण्णो तीसे चेव, मंतिस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ महुसित्थे-सित्थगकरो, कोलगिणी उम्भामिया, तीए य जालीए निहुवणहियाए उवरिं भामरं पडुप्पाइयं, पच्छा भत्तारो किणतो वारिओ-मा किणिहिसि, अहं ते भामर दंसेमि, गयाणि जालिं, न दीसइ, तओ तंतुवायपुत्तीए तेणेव विहिणा ठाइऊण दरिसियं, णाया यऽणेण जहा-उन्भामियत्ति, कहमन्नहे| यमेवं भवइत्ति, तस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ मुद्दिया-पुरोहिओ निक्खेवए घेत्तूण अन्नेसिं देइ, अन्नया दमएण ठवियं, |पडिआगयस्स ण देइ, पिसाओ जाओ, अमचो विहीए जाइ, भणइ-देहि भो पुरोहिया! ते मम सहस्संति, तस्स किवा जाया, रण्णो कहिय, राइणा पुरोहिओ भणिओ-देहि, भणइ-न देमी, न गेण्हामि, रण्णा दमगो सबं सपञ्चयं दिवसमुहुत्तठवणपासपरिवत्तिमाइ पुच्छिमओ, अन्नया जूयं रमइ रायाए समं, णाममुद्दागहणं, रायाए अलक्खं गहाय मणुस्सस्स हत्थे दिण्णा, अमुगंमि काले साहस्सो नउलगो दमगेण ठविओ तं देहि, इमं अभिन्नाण, दिनो आणिओ. अन्नेसिं| सूत्राक दीप SC अनुक्रम - [१] मारयत, दत्तरतस्या एव, मत्रिण औत्पत्तिकी बुद्धिः । मधुसिक्यम्-सिक्थकरः, कोलिकी उहामिका, तया च जाल्यो निधुवनस्थितयोपरि नाम जातं, पश्चाजर्चा कीणन् वारितः-मा क्रीणाहीति, अहं ते नामरं दर्शयामि, गतौ जाल्या, न दृश्यते, ततः तन्तुवायपुध्या तेनैव विधिना स्थित्वा दर्शितं, ज्ञाता चानेन पयोहामिकेति, कथमन्यथा एतदेवं भवेदिति, तस्मात्पत्तिकी बुद्धिः । मुद्रिका-पुरोहितो न्यासान् गृहीत्वाऽन्येषां न ददाति, अन्यदा नमकेण स्थापित, मत्यागताय न वदाति, विह्वलो जातः, अमात्यो चीथ्यां याति, भणति-दापय भोः ! पुरोहितात्तन्मम सहसमिति, तस्य कृपा जाता, राज्ञे कथितं, राज्ञा पुरोहितो भणितः-देहि, भणति-न ददामि, न गृशामि, राज्ञा दमकः सर्व सप्रत्ययं दिवसमुहूर्तस्थापनापाचवादि पृष्टः, अन्यदा यूतं रमते राज्ञा समं, नाममुद्राप्रदणे, राज्ञाऽलक्षं गृहीवा मनुष्यस्य हस्ते या अमुमिन् काले साहस्रो नकलको प्रमण स्थापितसं देहि हदमभिज्ञान. दत्त मानीतः, अन्येषां C tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 844~ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया नमस्का वि०१ ॥४२॥ % %% नउलगाणं मझे कओ, सदाविओ, पञ्चभिन्नाओ, पुरोहियस्स जिम्मा छिन्ना, रण्णो उप्पत्तिया बुद्धी । अंके-तहेव एगेण निक्खित्ते लंछेऊण उस्सीवेत्ता कूडरूवगाण भरिओ तहेब सिबियं, आगयस्स अल्लिविओ, सा मुद्दा उग्घाडिया, कूडरूवगा, ववहारो, पुच्छिओ-कित्तिय?, सहस्सं, गणेऊण गंठी तडिओ, तओ न तीरइ सिधे, कारणिगाणमुप्पत्तिया बुद्धी णाणए-तहेव निक्खेवओ पणा छूढा, आगयस्स नउलओ दिण्णो, पणे पुच्छा, राउले ववहारो, कालो को आसि ?, अमुगो, अहुणोत्तणा पणा, सो चिराणओ कालो, इंडिओ, कारणिगाणमुप्पत्तिया ॥ भिक्खुमि-तहेव निक्खेवओ, सो न देइ. जूतिकरा ओलग्गिया, तेहिं पुच्छिपण य सम्भावो कहिओ, ते रत्तपडवेसेण भिक्खुसगास गया सुवण्णस्सखोडीओ गहाय, अम्हे वच्चामो चेइयवंदगा, इमं अच्छउ, सोय पुर्व भणिओ, एयंमि अंतरे आगएणं मग्गिय, तीए लोलयाए दिण्णं, अन्नेविय भिक्खंतगा एताए मंजूसाए कजिहित्ति निग्गया, जूइकाराणमुप्पत्तिया बुद्धी ॥ चेडगणिहाणे-दो मित्ता, तेहिं निहाणगं नकुलकानां मध्ये कृतः, शब्दितः, प्रत्यभिज्ञातः, पुरोहितस्य जिता लिमा, राज्ञ भौत्पत्तिकी बुद्धिः । भा-तथैवैकेन निक्षिप्ते लाकथित्वोत्सीय कूटरूपकैर्भूतः तव सीविता, भागतायार्पितः, सा मुद्रोधाटिता, कूटरूप्यकाः, व्यवहारः, पृष्टा-कियत्', सहवं, गणयित्वा अन्थिबंदः, ततो न शक्यते सीवितुं, कारणिकाणामोत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ माणके-तथैव निक्षेपः पणा (बम्माः) क्षिप्ताः, मागताय नकुलको दत्तः, पणविषये पृच्छा, राजकुळे व्यवहार कालः क आसीत् । अमुका, अधुनावमाः पणाः, स चिरन्तनः कालः, दण्डितः, कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ भिक्षौ-तवैव निक्षेपः, स न ददाति, धूतकारा अवकगिताः, तैः पृष्टेन च सद्भावः कविता, ते रक्तपटवेपण भिक्षुसकाशं गताः सुवर्णखोरकान् गृहीत्वा, वयं प्रजामवन्दकाः, इदं तिष्ठत, सच पूर्व भणितः, पतभिनवसरे आगतेन मार्गितं, तया कोलतया दर्श, मन्येऽपि च मिक्षमाणा पुतण्या मचायां करिष्यन्तीति निर्गताः, यूसकाराणामीत्पत्तिकी इद्धिः॥ चेटकनिधाने-रे मित्रे, ताभ्यो निधानं अनुक्रम % [१] % ॥४२॥ Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~845~ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक क दिई', कल्ले सुनक्खत्ते णेहामो, एगेण हरिऊण इंगाला छूढा, बीयदिवसे इंगाला पेच्छइ, सो धुत्तो भणइ-अहो मंदपुन्ना अम्हे किह ता इंगाला जाया ?, तेण णार्य, हिययं ण दरिसेइ, तस्स पडिम करेइ, दो मक्कडे लएइ, तस्स उवरि भत्तं देइ, ते छुहाइया तं पडिमं चडंति । अन्नया भोयणं सजिय दारगों णीया, संगोविया न देइ, भणइ-मकडा जाया, आगओ, तत्थ लेप्पणहाणे ठाविओ, मक्कडगा मुक्का, किलिकिलिंता विलग्गा, भणिओ-एए ते तव पुत्ता, सो भणइ-कहं दारगा मक्कडा भवंति !, सो भणइ-जहा दिनारा इंगाला जाया तहा दारगावि, एवं णाए दिण्णो भागो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ | सिक्खासत्थे धणुवेओ, तंमि एगो कुलपुत्तगो धणुबेयकुसलो, सो य कहिपि हिंडतो एगत्थ ईसरपत्तए सिक्खावेत. दो विद्वत्तं, तेसिपि तिमिस्सयावेऍइ-बहुगं दर्ष दिन्नं, जइया जाहि तइया मारिजिहितित्ति, गेहाओ य नीसरणं केणवि उवाएण न देति, तेण णायं, संचारियं सन्नायगाणं जहा अहं रत्तिं छाणपिंडए णईए छभिस्सामि, ते लएजह, तेण गोलगा। दृष्टं, कल्ये सुनक्षत्रे नेतास्वहे, एकेन हत्वाकाराः शिताः, द्वितीयदिवसेऽङ्गारान् पश्यति, स धूर्तो भणति-अहो मन्दपुण्यावावा कथं तावदमाराजाताः, तेन हातं, हृदयं न दर्शयति, तस्य प्रतिमां करोति, द्वौ मकटौ छाति, तस्योपरि भक्तं ददाति, तौ क्षुधातौं तां प्रतिमा चटतः । अन्यदा भोजनं सजवित्वा दारको नीती, संगोपितौ न ददाति, भणति-मर्कटी जाती, मागतः, तत्र ठेप्यस्थाने स्थापितः, मर्कटी मुक्ती, किलकिलायमानौ विकलौ, माणितः एतौ तौ ते पुत्रौ, स भणति-कर्य दारको मर्कटौ भवतः स भणति-यथा दीनारा अङ्गारा जातास्तथा दारकावधि, एवं ज्ञाते दत्तो भागः, एतस्यौरपतिकी बुद्धिः॥ शिक्षाशास्त्र-धनुर्वेदः, तस्सिोकः कुलपुत्रको धनुर्वेदकुशलः, स च कचिदपि हिण्डमान एकत्रेश्वरपुत्रान् शिक्षयति, द्रव्यं वपार्जितं, तेषामपि शस्यायते बहु बच्यं दर्त, यदा यास्पति तदा मारविष्याम इति, गृहाच निःसरणं केनाप्युपायेन न ददति, तेन ज्ञातं, संदिष्टं संज्ञातकानां यथाई रात्री छगण (गोमय) विद्वान् नद्या क्षेप्यामि तान् आददीचं, तेन मोजका * तिमिस्सिया चिंतति प्र. दीप अनुक्रम [१] JanEai Handiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~846~ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४२], भाष्यं [ १५१...] Jus Educals अध्ययन [ - ], आवश्यक हारिभ देवेण समं वालिया, एसा अम्हं चिह्नित्ति तिहिपबणीसु तेहिं दारएहिं समं णईए छूहइ, एवं निबाहेऊण नहो, एयस्स उपत्तिया ॥ अत्थसत्थे एगो पुत्तो दो सवत्तिणीओ, बबहारो न छिज्जइ, देवीए भणियं मम पुत्तो जाहिति, सो एयरस द्वीया ४ असोगपायवरस हेट्ठा ठिओ वबहारं छिंदिहिति, ताव दोवि अविसेसेण खाह पिवत्ति, जीसे ण पुतो सा चिंतेइ - एत्तिओ ॥४२२॥ ताव काठो लद्धो, पच्छा न याणामो किं भविस्सइति पडिस्सुयं, देवीए णायं ण एसा पुत्तमायत्ति, देवीए उप्पत्तिया ॥ इच्छाए- एगो भत्तारो मओ, वह्निप्पउत्तं न उग्गमइ, तीए पतिमित्तो भणिओ-उग्गमेहि, सो भणइ-जइ मम विभागं देहि, तीए भणियं-जं इच्छसि तं मम भागं देजासि, तेण उग्गमेडं तीसे तुच्छयं देइ, सा नेच्छइ, ववहारो, आणावियं, दो पुंजा कया, कयरं तुमं इच्छसि ?, महंतं रासिं भणइ, भणिओ-एयं चैव देहित्ति, दवाविओ, कारणियाणमुप्पत्तिया ॥ सय सहस्से -- एगो परिभओ, तस्स सयसहस्सो खोरो, सो भणइ-जो ममं अपुर्व सुणावेइ तस्स एयं देमि, तत्थ सिद्धपुत्तेण सुर्य, १ द्रव्येण समं वाहिताः, एषोऽस्माकं विधिरिति तिथिपर्वसु वैदरिकैः समं नयां क्षिपति एवं निर्वाध नष्टः एतस्योत्पत्तिकी बुद्धिः अर्थशास्त्रे - एकः पुत्रः द्वे सपथी, व्यवहारो न छियते देव्या भणितं मम पुत्रो भविष्यति स एतखाशोकपादपस्यास्तात्स्थितो व्यवहारं उत्पति, तावद्वे अध्यविशेषेण खादतं पिवतमिति यस्या न पुत्रः सा चिन्तयति एतावान् तावत् कालोध, पान जाने किं भविष्यतीति प्रतिश्रुतं देव्या ज्ञातम् चैषा पुत्रमातेति देव्या औत्पत्तिकी ॥ इच्छाएको मत मृतः, वृद्धिप्रयुक्तं नागच्छति तथा पतिमित्रं भणितं वद्राहय स भणति यदि मदां विभागं ददासि तथा भणितं यदिच्छसि तं मां भागं दद्या:, तेनोहाच ती तुच्छं दीयते सा नेच्छति, व्यवहारः, भानावितं, द्वौ पुन कृतौ कतरं स्वमिच्छसि ? महान्तं राशि भणति भणितः एनमेव देहीति, दापि ४ ॥४२२॥ तः कारणिकानामीत्पतिकी ॥ शतसहखे एकः परिभ्रष्टः, तस्य शतसाहखिकं खवरकं स भणति यो महामपूर्व श्रावयति त एतत् ददामि तत्र सिद्धपुत्रेण श्रुतं, For Fasten नमस्कार० वि० १ Library big मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~847~ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४२], भाष्यं [१५१...] (४०) । प्रत सूत्राक तेण भण्णइ-'तुझ पिया मज्झ पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुर्व दिजउ अह ण सुर्य खोरगं देहि ॥१॥ दाजिओ, सिद्धपुत्तस्स उप्पत्तियत्ति गाथात्रयार्थः । उकौत्पत्तिकी, अधुना वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयनाह भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेआला । उभओ लोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥ ९४३॥ | व्याख्या-इहातिगुरु कार्य दुर्निवहत्वादर इव भरः, तन्निस्तरणे समर्था भरनिस्तरणसमर्था, त्रयो वर्गाः त्रिवर्गमिति लोकरूढेधर्मार्थकामाः, तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिबन्धनं सूत्रं तदन्वाख्यानं तदर्थः पेयालं-प्रमाण सारः, त्रिवर्गसूत्रार्थयोहीतं प्रमाण सारो यया सा तथाविधा, अथवा त्रिवर्ग: त्रैलोक्यम् ॥ आह-नन्द्यध्ययनेऽश्रुतनिसृताऽऽभिनिबोधिकाधिकारे औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयोपन्यासः, त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे च सत्य श्रुतनिःसृतत्वमुक्त विरुध्यत इति,81 न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं सम्भवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्या श्रुतनिसृतत्वमुक्तम् । अतः स्वल्पश्रुतनिसृतभावेऽप्यदोष इति । 'उभयलोकफलवती' ऐहिकामुष्किकफलवती 'विनयसमुत्था' विनयोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयन्नाह निमित्ते १ अत्थसत्थे २ अलेहे ३ गणिए अ४ कूव ५ अस्से अ६। गद्दह ७ लक्खण ८ गंठी ९ अगए १० गणिआ य रहिओ अ११॥९४४ ॥ सीआ साडी दीहं च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स १२।निव्वोदए अ१३ गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ१४॥९४५॥ तेन भण्यते-'तव पिता मम पितुर्धारणत्यनूनं शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्व ददास्वध न श्रुतपूर्व खोरकं दवातु ॥ १॥ जितः, सिद्धपुत्रस्योत्पत्तिकीति ॥ दीप अनुक्रम JABERai ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | वैनयिकीबुद्धिः विषयक विविध-दृष्टांता: ~848~ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यकहारिमद्रीया ॥४२३॥ व्याख्या-गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्य एवावसेयः, तानि चामूनि-तत्थ निमित्तेत्ति, एगस्स सिद्धपुत्तस्स दो सीसगा। नमस्कार निमित्तं सिक्खिया, अन्नया तणकट्ठस्स बच्चति, तेहिं हस्थिपाया दिवा, एगो भणइ-हत्थिणियाए पाया, कहं !, काइएण, वि०१ साय हस्थिणी काणा, कहं ?, एगपासेण तणाई खाइयाई, तेण काइएणेव णायं जहा इत्थी पुरिसो य विलग्गाणि, सा य| गुधिणित्ति, कहं १, हत्थाणि थंभेत्ता उडिया, दारगो से भविस्सइ, जेण दक्षिणो पाओ गरुओ, रत्तपोत्सा, जेण रत्ता दसिया | रुक्खे लग्गा॥णईतीरे एगाए वुड्डीए पुत्तो पविसियओ, तस्सागमणं पुच्छिया, तीसे य घडओ भिन्नो, तत्थेगो भणइ-1 'तजाएण य तज्जाय' सिलोगो मओत्ति परिणामेइ, वितिओ भणइ-जाहि वुढे! सो घरे आगओ, सा गया, दिछो पुवागओ. जुवलग रूवगे य गहाय आगया, सकारिओ, वितिओ आपुच्छइ-सम्भावं मम न कहेसि, तेण पुच्छिया, तेहिं| जहाभयं परिकहिये, एगो भणइ-विवत्ती मरणं, एगो भूमीओ उठिओ सो भूमीए चेव मिलिओ, एवं सोवि दारओ. अनुक्रम [१] निमित्तमिति-एकस्य सिद्धपुत्रख दी शिष्यी निमित्त शिक्षिती, अन्यदा तृणकाष्ठाय बजतः, साभ्यां हस्तिपादाः दृष्टा, एको भणति-हस्तिन्याः पादाः, की, काविया, सा च हस्तिनी काणा, कथं , एकपार्थेन तृणानि खादितानि, तेन कायियैव ज्ञातं यथा श्री पुरुषक्ष विलगी, सा च गुर्विणीति, कर्थ !, हसौ स्तम्भयित्वोरिषता, दारकस्तस्था भविष्यति, बेन दक्षिणः पादो गुरुः, रक्तपोता, येन रक्का दया वृक्षे सना । नदीतीरे एकस्वा वृद्धायाः पुत्रः प्रोषितः, तस्यागमनं पृष्टी, तस्यात्र घटो भित्रः, सबैको भणति-तजातेन च तजातं (लोकः) मृत इति कथयति, द्वितीयो भणति-याहि वृद्ध ! स गृहे आगतः, मागताः पूर्वागतः, युग्मं रुप्यकाब गृहीत्वाऽऽगता, सत्कारिता, द्वितीय भागृच्छति-सजावं मधंन कथयसि, तेन पूरी, ताभ्यां यथाभूतं परिकषिर्त, |एको भणति-ज्यापत्तिमरणं, एको भूमेरुस्थितः स भूमावेव मिलितः, एवं सोऽपि दारकः, * कहेइ. ॥४२॥ www.janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~849~ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक भणियं च-तजाएण य तज्जाय'सिलोगो, गुरुणा भणियं-को मम दोसो, ण तुमं सम्मं परिणामेसि, एगस्स बेणगी बडी अस्थसत्थे-कप्पओ दहिकुंडगउच्छुकलावओ य, एयस्स घेणगी । लेहे जहा-अट्ठारसलिविजाणगो, एवं गणि-| एवि । अण्णे भणति-कुमारा व हिं रमन्ता अक्खराणि सिक्खाविया गणियं च, एसाऽवेयस्स घेणइगी । कूवे-खायजागएण भणियं जहा-एड्रे पाणियंति, तेहिं खयं, तं वोलीणं, तस्स कहियं, पासे आहणहत्ति भणिया, घोसगसद्देणं जलमुद्धाइयं, एयस्स वेणइगी । आसो-आसवाणियगा बारवई गया, सबे कुमारा थुल्ले बड्डे य गेण्हंति, वासुदेवेण दुबलओ लक्खणजत्तो जो सो गहिओ, कजनिबाही अणगेआसावहोय जाओ, वासुदेवस्स वेणइगी॥ गद्दमे-राया तरुणप्पिओ, सोओधाइओ, अडवीए तिसाए पीडिओ खंधारो, थेरं पुच्छइ, घोसावियं, एगेण पिइभत्तेणाणीओ, तेण कहियं-गद्दभाणं उसिंघणा, तस्स सिरापासणं, अन्ने भणति-उसिंघणाए चेव जलासयगमणं, थेरस्स वेणगी ॥ लक्षणे-पारसविसए। मणिसं च-'तजातेन च तज्जासं' लोकः, गुरुणा भणितं-को मम दोपः १, न त्वं सम्यक परिणमयसि, एकस्य वैनयिकी बुद्धिः ॥ अर्थशास्त्रे-कल्पक दधिमाजनमिक्षुकलापका, एतस्य वैनविकी । लेखे यथाअष्टादशलिपिविज्ञायका, एवं गणितेऽपि, अन्ये भणन्ति-पाजकुमारा बतुलै रममाणा अक्षराणि शिक्षिताः गणितं च, एषाऽप्येतख वैनयिकी । कूपे-सातज्ञायकेन भषितं-पथेयारे पानीयमिति, सेः खातं, तम्यतिकान्त, तथा कथितं, पार्थे ासनतेति भणिताः, घोषकशब्देन जलमुहावितं, एतख वैनयिकी । अश्वः-अश्ववणिजो द्वारिकां गताः, सर्वे कुमाराः स्थूलान् वृहतब गृहन्ति, वासुदेवेन दुर्बलो लक्षणयुक्तो यः स गृहीतः, कार्यनिर्वाही अनेकाश्वावहश्च जातः, वासुदेवस्य वैनविकी ॥ गईभा-राजा तरुणप्रियः सोऽवधावितः, अदम्यां तृषा पीढितः स्कन्धावारः, स्थविरं पृच्छति, घोषितं, एकेन पितृभक्केनानीतः, तेन कथितं-भाणामुनाणं, तस्य शिरादर्शनं, अन्ये भणन्ति-उद्घाणेनैव जलाशययमनं, स्थविरस्य वैमयिकी । लक्षणे-पारसविषये दीप अनुक्रम [१] DindiDram.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~850~ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥४२४॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४५], भाष्यं [ १५१...] अध्ययन [ - ], आसरक्खओ, धीयाएतस्स समं संसग्गी, तीए भणिओ-वीसत्थाणं घोडाणं चम्मं पहाणाण भरेऊण रुक्खाओ मुयाहि, तत्थ जो ण उत्तरसइ तं लएहि, पडहयं च वाएहि, बुज्झावेहिय खक्खरएणं, सो वेयणकाले भणइ-मम दो देहि, अमुगं २ च, तेण भणिओ सबै गेण्हाहि, किं ते एएहिं सो नेच्छइ, भज्जाए कहियं धीया दिज्जउ, भज्जा से नेच्छइ, सो तीसे बइ, दारयं कहे (रे) इ, लक्खणजुत्तेण कुटुंबं परिवइति ॥ एगस्स माडलगेण धीया दिन्ना, कम्मं न करेइ, भज्जाए चोदिओ दिषे दिवे अडवीओ रित्तहत्थो एइ, छड्डे मासे लद्धं कई कुलओ कओ, सयसहस्सेण सेट्ठिणा लइओ, अक्खयाणिमित्तं, आससामिस्स वेणइगी || गंठिमि पाडलिपुत्ते मुरुंडो राया, पालिता आयरिया, तत्थ जाणएहिं इमाणि विसज्जियाणि-सुत्तं मोहिययं लट्टी समा समुग्गकोत्ति, केणवि ण णायाणि, पालित्तायरिया सद्दाविया, तुम्भे जाणह भगवंति ?, बाढं जाणामि, सुतं उण्होदर छूढं मयणं विरायं दिहाणि अग्गग्गाणि दंडओ पाणिए छूढो, मूलं गुरुयं, समुग्गओ जडणा घोलिओ १ अवरक्षकः, दुहितैकेन समं संसृष्टा तथा भणितः विश्वस्तानां घोटकानां चर्म पाषाणैर्भूत्वा वृक्षारमुख, तत्र यो नोचस्पति तं खायाः पटहं च चादय, बोधय च खर्खरकेण स चेतनकाले भणति-मम द्वौ देहि, अमुकममुकं च तेन भणितः सर्वान् गृहाण, किं ते आभ्यां ?, स नेच्छति, भार्यायै कथितं दुहिता दीयतां भार्या तस्य नेच्छति स तथा सह कलहयति, दारकं कथय (रो) ति लक्षणयुक्तेन कुटुम्बं परिवर्धत इति । एकस्य मातुलकेन दुहिता दत्ता, कर्म न करोति, भार्यया चोदितो दिवसे दिवसेऽटवीतो रिकहस्त आयाति षष्ठे मासे उच्धं काएं कूलतः (कुडवः कृतः शतसहस्रेण श्रेष्ठिना गृहीतः अक्षततानिमित्तं, अश्वस्वामिनो वैनयिकी ॥ प्रन्थी-पाटलीपुत्रे गुरुण्डो राजा, पादलिप्सा आचार्याः, तत्र शातृभिरिमानि प्रेषितानि सूत्रं मोहितकं यष्टिः समः समुङ्गक इति, केनापि न ज्ञातानि, पादलिताचायोः शब्दिताः, यूयं जानीय भगवन्निति?, बाढं जानामीति, सूत्रमुष्णोदके क्षिप्तं मदनं पितं दृष्टान्यप्राप्राणि, दण्डः पानीये क्षिप्तः, मूर्ख गुरु, समुद्रको जनुना वेष्टित For Fans Only नमस्कार० वि० १ ~ 851~ ॥४२४॥ janbar org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...] (४०) उण्होदए कहिओ उग्याडिओ य, तेण विय ओहियं सयलग राइल्लेऊण रयणाणि छुढाणि, तेण सीवणीए सीविऊण विसजिय अम्भिदेत्ता निप्फेडेह, ण सक्कियं, पादलित्तयस्स वेणइगी। अगए-परवलं णयरं रोहेउ एइत्ति रायाए पाणीयाणि विणासेयवाणित्ति विसकरो पाडिओ, पुंजा कया, वेज्जो जवमेत्तं गहाय आगओ, राया रुठो, वेजो भणइ-सयसहस्सवेधी, कही, खीणाऊ हत्थी आणीओ, पुंछवालो उप्पाडिओ, तेणं चेव वालेणं तत्थ विसं दिण्णं, विवणं करिय तं चरतं दीसइ, एस सबोवि विस, जोवि एवं खायइ सोवि विसं, एयं सयसहस्सवेधी, अत्थि निवारणाविही?,बाढं अस्थि, तहेव अगओ दिनो, पसमितो जाइ, वेज्जस्स वेणइगी। जं किं बहुणा?, असारेण पडिवक्खदरिसणेण य आयोवायकुसलत्तदसणत्ति ॥ रहिओ गणियायएक चेव, पाडलिपुत्ते दो गणियाओ-कोसा उवकोसा य,कोसाए समं थूलभद्दसामी अच्छइओ आसि पत्रइओ, जं वरिसारत्तो तत्थेव को तओ साविया जाया, पञ्चक्खाइ अबभस्स अण्णत्थ रायणिओगेण, रहिएण| उष्णोदके क्षिप्त उद्घाटिता, तेनापि भौष्टिक शकलं रालालिप्तं (संधित) कृत्वा रखानि क्षिप्लानि, तेन सीवन्या सीवित्वा विकृष्ट अभिया निष्काशयस. नशकितं, पादलिप्तस्त्र पैनयिकी। अगदा-परवलं नगर रोदुमायातीति राज्ञा पानीयानि विनाशयितध्यानीति विपकरः पातितः, पुमाः कृताः, वैद्यो यवमार्ग गृहीत्वाऽऽगतः, राजा रुष्टः, वैद्यो मणति-शतसहस्रवेधि, कथी, क्षीणायुईस्ती मानीतः, पुच्छवालः सविधीकृतः (स्पाटितः), तेनैव वालेन तन्त्र विष दर्त, विपत्र कृत्वा तवरत् दश्यते, एष सर्वोऽपि विषं, योऽप्येनं खादति सोऽपि विष, एतत् शतसहसवेधि, मस्ति निवारणाविधिः !, बाढमस्ति, तवैवागदो दत्तः, प्रशामबन याति, वैद्यख बनविकी । यत् किंबहुना, असारेण प्रतिपक्षदर्शनेन च भायोपावकुषालदर्शन मिति ॥ रयिका गणिका पैकमेव, पाटलीपुत्रे गणिकेकोशोपकोशा च, कोशया समं स्थूलभद्रस्वामी स्थित मासीत् प्रत्रजितः, पद् वर्षाराप्रसव कृतः ततः श्राविका जावा, प्रत्याश्याति अबझणः अन्यत्र राजनियोगात्, रथिकेन* दोट्टियं. अनुक्रम [१] Manmintarmom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~852~ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यकहारिभ• द्रीया ॥४२५॥ Jus Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४५], भाष्यं [ १५१...] अध्ययन [ - ], आराहिओ, सा दिण्णा, थूलभद्सामिणो अभिक्खणं २ गुणग्गहणं करेइ, न तहा तं उवयर, सो तीए अप्पणो विन्नार्ण दरिसेकामो असोगवणियाए णेइ, भूमीगएण अंचपिंडी तोडिया, कंडपोंखे अण्णोष्णं लायंतेण हत्थन्भासं आणेत्ता अद्धचंद्रेण छिन्ना गहिया य, तहावि पण तूसइ, भाइ-किं सिक्खियस्स दुकरी, सा भणइ - पिच्छ मर्मति सिद्धत्थयरासिंमि णच्चिया सूईण अग्गयंमि य कणियार कुसुमपोइयासु य, सो आउट्टो, सा भणड्-'न दुक्करं छोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करं सिक्खिउ नचियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभावं, जं सो मुणी पमदवणंमि वुच्छो ॥ १ ॥' तओ तस्स संतिगो वृत्तंतो ४ सिट्टो, पच्छा जवसंतो रहिओ, दोपहवि वेणइगी ॥ सीया साडी दीहं च तणं कोंचयस्स अवसवयं एक चेव, रायपुत्ता आयरिएण सिक्खाविया, दधलोभी य सो रायाणओ तं मारेडमिच्छर, ते दारगा चिंतेंति-एएण अम्हं विज्जा दिण्णा, उवाएण नित्थारेमो, जाहे सो जेमओ एइ ताहे ण्हाणसाडियं मग्गइ, ते सुक्कियं भणति अहो सीया साडी, बारसंमुहं तणं १ राजा, खा दत्ता, स्थूलभद्रस्वामिनोऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं गुणग्रहणं करोति, न तथा तमुपचरति, स तस्यै आत्मनो विज्ञानं दर्शयितुकामोऽशोकवनिकायां नयति, भूमिगतेनानपिण्डी घोटिता, शरपुङ्खान् अन्योऽन्यं छाता हस्ताभ्यासमानीयार्धचन्द्रेण छिन्ना गृहीता च, तथापि न तुष्यति, भणति कि शिक्षितस्य दुष्करं ?, सा भणति पश्य ममेति सिद्धार्थकराशौ नर्त्तिता सूचीनामप्रे च कर्णिकारकुसुमप्रोतानां च स आवर्जितः सा भगति न दुष्करमानपि ण्डिनोटनं न दुष्करं शिक्षितस्य नर्तने ( शिक्षितायां नृतौ ) । तदुष्करं तच महानुभार्थ, यत्स मुनिः प्रमदावने उधितः ॥ १ ॥ ततस्तरको वृत्तान्तः शिष्टः, ४ पश्चादुपशान्तो रथिकः, द्वयोरपि वैनयिकी ॥ शीता शाटी दीर्घ च तृणं चकस्यापसव्यमेकमेव, राजपुत्रा आचार्येण शिक्षिताः, द्रव्यलोभी च स राजा तं मारवितुमिच्छति, ते दारकान्तियन्ति एवेनास्माकं विद्या दत्ता, उपायेन निस्तारयामः, यदा स जेमिमायाति तदा खानशार्टी मार्गयति ते शुष्क मणन्तिअहो शीता शादी, द्वारसंमुखं तृणं ||४२५॥ For Funny नमस्कार० वि० १ ~853~ Janibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...] (४०) 'देति, भणंति-अहो दीहं तणं, पुर्व कुंचएण पयाहिणीकजइ, तद्दियसं अपयाहिणीकओ, परिगयं जहा विरताणि, पंथोर शादीहो सीयाणं ममं काउं मग्गइ, नहो, दोण्हवि वेणइगी ॥ निधोदए-वाणियगभजा चिरपउत्थे पइम्मि दासीए सम्भावं कहेइ-पाहुणयं आणेहित्ति भणिया, तीए पाहुणओ आणीओ, आवस्सयं च से कारिय, रत्तिं पवेसिओ, तिसाइओ निवोदयं | दिन्नं, मओ, देउलियाए उझिओ, पहाविया पुच्छिया, केण कारियं ?, दासीए, सा पहया, कहिय, वाणिगिणी पुच्छिया, साहइ सम्भावं, पलोइयं, तयाविसो घोणसोत्ति दिहो य, णयरमयहराणं वेणइगी ॥ गोणे घोडगपडंण च रुकखाओ एक, एगो अकयपुष्णो जज करेइ तं तं से विवज्जइ, मित्तस्स जाइतएहिं बइलेहिं हलं वाहेइ, वियाले आणिया. वाडे छढा.|| Mसो जेमेइ, मित्तो सोइ, लज्जाए ण दुक्को, तेणवि दिडा, ते णिप्फिडिया वाडाओ हरिया, गहिओ, देहित्ति राउलं निजइ। पडिपंथेणं घोडएणं एइ पुरिसो, सो तेण पाडिओआसएण, पलायंतो तेण भणिओ-आहणहत्ति, मम्मे आहओ, मओ, तेणवि| 2 * अनुक्रम [१] वदति, भणन्ति-अहो दीर्घ तृणं, पूर्व क्रोधेन प्रदक्षिणीकियते, नदिवसमप्रदक्षिणीकृतः, परिगतं यथा विरक्तानि, पन्या दीर्घः शीतत्राणं (गमन)। मम का मार्गयति, नष्टः, द्वयोरपि वैनयिकी । नीबोदके-वाणिग्भार्या चिरप्नोषिते पत्यो दास्यै सनावं कथयति-प्राघूर्णकमानयेति भणिता, तया प्राघूर्णक आनीतः, भद्रंप तस्य कारितं, रात्रौ प्रवेशितः, तृषितो नीमोदक दर्ग, मृतः, देवकुळिकावामुग्मितः, नापिताः पृष्टाः, केन कारितं?, दास्या, सा प्रहता, कधितं, वणिग्जाया पृष्टा, कथयति सद्भाव, प्रकोकितं, त्वग्विषः सर्प इति दृष्टा, नगरमहत्तराणां वैनयिकी। गौः घोटक पंतनं घृक्षात् चैकमेव, एकोअकृतपुण्यो यद्यत्करोति तत्त्रस्य विपद्यते, मित्रस्य याचिताभ्यां बनीवाभ्यां इदं वाहयति, विकाले आनीती, वाटके त्यको, स जेमति, मित्रं स्वपिति, लजया न समीपमागतः, तेगापि ष्टी, ती निष्काशिती चाटकाद् हतो, गृहीतः, देहीति राजकुलं नीयते । प्रतिपथेन घोटफेनैति पुरुषः, सतेन पातितः सवेभ, पकायमानः सेन भणित-भाजहीति, मर्मण्याहतः, मृतः, तेनापि * मित्तो सो सजाए णवि दिडो प्र. Langtaram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~854~ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४५], भाष्यं [१५१...] (४०) ། हारिभद्रीया प्रत ॥४२६॥ सुत्रांक ACCROGRACT लइओ, वियाले णयरिवाहिरियाए युत्था, तत्थ लोमंथिया सुत्ता, इमेवि तहिं चेव, सो चिंतेइ-जावजीवबंधणो कीरि-13 जस्सामि, वरं मे अप्पा उब्बंधो, सुत्तेसु दंडिखंडेण तमि वडरुक्खे अप्पाणं उक्कलंबेइ, सा दुब्बला, तुट्टा, पडिएण लोमंधि यमयहरओ मारिओ, तेहिवि गहिओ, करणं णीओ, तीहिवि कहिये जहावुत्तं, सो पुच्छिओ भणइ-आम, कुमारामञ्चो भणइ-एसो बलद्दे दे तुम्भ पुण अक्खीणि ओक्खमंतु, एसो आसं देउ, तुम्झ जीहा उप्पाडिज्जइ, एसो हेडा ठाउ तुम्भ एगो उवज्झाओ उक्कलंबिजउ, णिप्पडिभोत्ति काउं मंतिणा मुको, मंतिस्स वेणइगित्ति गाथाद्वयार्थः ॥ उक्का वैनयिकी, साम्प्रतं कर्मजाया बुद्धलक्षणं प्रतिपादयन्नाह|उवओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुकारफलवई कम्मसमुत्था हवइ बुडी ॥९४६ ॥ ब्याख्या-उपयोजनमुपयोगः-विवक्षिते कर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सारः-तस्यैव कर्मणः परमार्थः उपयोगेन दृष्टः सारो ययेति समासः अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्थेत्यर्थः, कर्मणि प्रसङ्गः-अभ्यासः परिघोलन-विचारः कर्मप्रसङ्गपरिघोलनाभ्यां |विशाला कर्मप्रसङ्गपरिघोलनविशाला अभ्यासविचारविस्तीर्णेति भावार्थः, साधुकृतं-मुष्ठ कृतमिति विद्वद्धः प्रशंसाद लगितः (सोऽपि लामः), विकाले नगरीबाहिरिकामामुषिता, तन्न मलाः सुप्ताः, इमेऽपि तत्रैव, सचिन्तयति-यावजीचबन्धनः कारयिष्ये, वरं दी ममामोदरः, सुलेषु दण्डीखग्देन तमिम्वटवृक्षे आत्मानमवलम्बपति, सा दुर्बला, त्रुटिता, पतितेन मलमहत्तरको मारितः, तैरपि गृहीतः, करणं नीतः, विभिरपि कथितं यथावृत्तं स पृष्टो भणति-ओम्, कुमारामात्यो भणति-पुष बलीवदाँ ददाति स्वं पुनरक्षिणी निष्काशय, एषोऽयं ददातु, तव निहोत्पाव्यते, एषोऽभस्लासिहत युष्माकमेक उपाध्यायोऽवलम्बयान, निष्पतिभ इतिकृत्वा मत्रिणा मोचितः, मन्त्रिणो पैनविकी। दीप अनुक्रम ॥४२६॥ K andioraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~855~ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९४६], भाष्यं [१५१...] (४०) साधुकारस्तेन फलवतीति समासः, साधुकारेण वा शेषमपि फलं यस्याः सा तथा, 'कर्मसमुत्था' कर्मोद्भवा भवति बुद्धिरिति गाथार्थः ॥ अस्या अपि विनेयवर्गानुकम्पयोदाहरणैः स्वरूपमुपदर्शयन्नाह हेरनिए १ करिसए २ कोलिअ ३ डोवे अ ४ मुत्ति ५ घय ६ पवए ७। तुन्नाग ८ वहुई ९ पूइए अ१.घड ११ चित्तकारे अ१२॥९४७॥ व्याख्या-हेरेण्णिओ अभिक्खजोएण अंधकारेवि रूवयं जाणइ हत्थामोसेणं, करिसओ अभिक्खजोएण जाणइ फलनिष्फत्ति, तत्थ उदाहरण-एगेण चोरेण खत्तं पउमाकारं खयं, सो जणवायं निसामेइ, करिसओ भणइ-कि सिक्खियस्त दुक्करं ?, चोरेण सुयं, पुच्छिओ गंतूण, छुरियं अंच्छिऊण मारेमि, तेण पडयं पत्थरेत्ता वीहियाण मुट्ठी भरित्ता किं परमुहा पडतु उरंमुहा पासेल्लिया (वा), तहेब कर्य, तुहो। कोलिओ मुहिणा गहाय तंतू जाणइ-एत्तिएहिं वा कंडएहिं बुज्झ-IN इत्ति । डोए बहुइ जाणइ एत्तियं माई । मोत्तियं आइण्णतो आगासे उक्खिवित्ता तहा णिक्खिवइ जहा कोलवाले पडइ अनुक्रम [१] सुवर्णकारोऽभीषणयोगेनाम्धकारेऽपि रूप्यकं जानाति हस्तामर्शन, कर्षकोऽभीक्ष्णयोगेन जानाति फलनिष्पति, तोदाहरण-एकेन चौरेण सात्रं पद्माकारं खातं, स जनवादं निशामपति, कर्षको भणति-किं शिक्षितस्य दुष्कर, चौरेण श्रुतं, पृष्टो गवा, क्षुरिकामाकृष्य मारयामि, तेन पटं प्रस्तीर्य बीहीणों मुष्टिं मृत्वा किं पराङ्मुखाः पतन्तु अर्वाहमुखाः पार्श्वगा (वा!), तथैव कृतं, तुष्टः । कोलिको मुष्टिना गृहीत्वा तन्तुन जानाति-इयद्भिर्वा कण्डकैरूयते इति । होवे (कुण्डिकायां) वर्धकिर्जानातीयन्माति । मौक्तिकानि प्रोतयन् आकाशे उरिक्षप्य तथा निक्षिपति वथा कोकवाले (दवरके) पतति । | अपिदिऊण आणतो कोलवाडे Mandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | कर्मजाबुद्धिः विषयक विविध-दृष्टांता: ~856~ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ द्रीया ||४२७|| आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्ति: [९४७], भाष्यं [ १५१...] अध्ययन [ - ], Education tamati घये घयविकिणओ सगडे संतओ जइ रुञ्चइ कुंडियानालए छुभइ । पवयो आगासे ठियाई को (क) रणाणि करेइ । तुष्णाओ पुर्वि थहाणि पच्छा जहा ण णजइ सूइए तइयं गेण्हइ जहा समप्पइ जहा सामिसंतर्ग तं दूसं धियारेण कारियं । वहुईअमवेऊण देवउलरहाणं पमाणं जाणइ । घडकारो पमाणेण मट्टियं गेण्हर, भाणस्सवि पमाणं अमिणित्ता करेइ । पूविओवि पुणो पलप्पमाणममबेऊण करेइ । चित्तकरोवि अमवेऊणवि पमाणजुतं करेइ, ततियं वा वन्नयं करेइ जत्तिएणं समप्पइ । सबेसिं कम्मजत्ति गाथार्थः ॥ उक्ता कर्मजा, साम्प्रतं पारिणामिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह - अणुमाणहेउदितसाहिया वयविवागपरिणामा । हिअनिस्सेअसफलवई बुडी परिणामिआ नाम ॥ ९४८ ॥ व्याख्या - अनुमानहेतुदृष्टान्तैः साध्यमर्थं साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिङ्गात् ज्ञानमनुमानं स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रतिपादकं वचो हेतुः परार्थमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमानं कारको हेतुः दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः । आह-अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तस्य गतत्वादलमुपन्यासेन, न, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वात्, उकं च-“अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? । नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् १ ॥ १ ॥ इत्यादि । साध्यो ३ घृते घृत विकासकः शकटे सन् यदि रोचते कुण्डिकानाळके क्षिपति युवक आकाशे स्थितानि (तः) करणानि करोति तन्तुवायः पूर्वं स्थूलान् पायथा न यते सूच्यां तावद्धाति यथा ( यावता ) समाप्यते यथा स्वामिसत्कं तद्दृष्यं अधिकारेण ( तद्यसन्धिकारेण ) कारितं वर्धकः अमापयित्वा देवकुलस्थानां प्रमाणं जानाति घटकार प्रमाणेन मृत्तिकां गृह्णाति भाजनस्यापि प्रमाणममापयित्वा करोति। आपूपिकोऽपि पुनः पलप्रमाणममापयित्वा करोति । चित्रकारोऽपि अमापयित्वाऽपि प्रमाणयुक्तं करोति तावन्तं वा वर्णकं करोति यावता समाप्यते । सर्वेषां कर्मजेति घरे पवओ चूहाणि सामिसंगतं For P नमस्कार० वि० १ ~857~ ॥४२७| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः by org Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९४८], भाष्यं [ १५१...] पमाभूतस्तु दृष्टान्तः, उक्तं च- "यतः साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते" कालकृतो देहावस्थाविशेषो वय इत्युच्यते, तद्विपाके परिणामः - पुष्टता यस्याः सा तथाविधा, हितम् अभ्युदयस्तत्कारणं वा, निःश्रेयसं-मोक्षस्तन्निबन्धनं वा हितनिःश्रेयसाभ्यां फलवती हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकी नामेति गाथार्थः ॥ अस्या अपि शिष्यगण| हितायोदाहरणैः स्वरूपं दर्शयन्नाह - अभए ? सिट्टि २ कुमारे ३ देवी ४ उदिओदए हवइ राया ५ । साहू अ नंदिसेणे ६ धणदन्ते ६ सावग ८ अमचे ९ ।। ९४९ ।। aaगे १० अमचपुते ११ चाणके १२ चैव थूलभद्दे अ १३ | नासिक सुंदरी नंदे १४ बहरे १५ परिणामिआ बुद्धी ॥ ९५० ॥ चलणाय १६ आमंडे १७ मणी अ १८ सप्पे अ १९ खग्गि २० थूभि २१ दे २२ । परिणामिअबुडीए एवमाई उदाहरणा ॥ ९५९ ॥ व्याख्या - आसामर्थः कथानकेभ्य एवावसेयः तानि चामूनि - अभयस्स कहं परिणामिया बुद्धी ?, जया पजोओ रायगिहं ओरोहति णयरं, पच्छा तेण पुवं निक्खित्ता खंधावारनिवेसजाणएणं, कहिए णहो, एसा अहवा जाहे १ अभयस्य कथं पारिणामिकी बुद्धिः, यदा प्रयोतो राजगृहमवरुध्यते नगरं पञ्चातेन पूर्व निक्षिप्ताः (दीनाराः ) स्कन्धावारज्ञायकेन कथिते नष्टः, एषा अथवा यदायः साध्य ओरोहतिय For Parts Only Jabra org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः पारिणामिकीबुद्धिः विषयक विविध दृष्टांता: ~858~ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक | गणियाए छलेण णीओ बद्धो जाव तोसिओ चत्तारि वरा, चिंतियं चऽणेण-भोयावेमि अप्पगं, वरो मग्गिओ-अग्गी अइ-| हारिभ मित्ति, मुक्को भणइ-अहं छलेण आणीओ, अहं तं दिवसओ पज्जोओ हीरइत्ति कदंतं नेमि, गओ य रायगिह, दासो उम्मद्रीया लओ, वाणियदारियाओ, गहिओ, रडतो हिओ, एवमाइयाओ बहुयाओ अभयस्स परिणामियाओ बुद्धीओ ॥ सेवित्ति, ॥४२८॥ ४ कठो णाम सेट्ठी एगत्थ णयरे वसइ, तस्स बज्जा नाम भज्जा, तस्स नेच्चइलो देवसंमो णाम बंभणो, सेट्ठी दिसाजत्ताए गओ, भज्जा से तेण समं संपलग्गा, तस्स य घरे तिन्नि पक्खी-सुओ य मयणसलागा कुकुडगो यत्ति, सो ताणि उवणिक्विवित्ता गओ, सोऽवि धिज्जाइओ रत्ती अईइ, मयणसलागा भणइ-को तायस्स न वीहेइ ?, सुयओ वारेइ-जो अंबि8 याए दइओ अम्हंपि तायओ होइ, सा मयणा अणहियासीया धिज्जाइयं परिवसइ, मारिया तीए, सुयओ ण मारिओली | अण्णया साहू भिक्खस्स तं गिहं अइयया, कुक्कुडयं पेच्छिऊण एगो साहू दिसालोय काऊण भणइ-जो एयस्स सीसं अनुक्रम [१] गणिकया एलेन नीतो बद्धो थावत्तोपितः चत्वारो वरा, चिन्तितं चानेन-मोचयामि आत्मानं, परा मार्गिता:-अग्नी प्रविशामीति, मुक्तो भणतिअई छलेनानीतोऽहं त्वां दिवसे प्रथोतो हियते इति क्रन्दन्तं नेष्यामि, गतव राजगृहं, दास उन्मत्तो, वणिग्दारिकाः, गृहीतः, रटन हतः, एवमादिका बयोउभयस्ख पारिणामिक्यो बुद्धयः । श्रेष्ठीति-काष्ठो माम श्रेष्ठी एकत्र नगरे वसति, तस्य बत्रा नाम भार्या, तख नैत्यिको देवशर्मा नाम प्राह्मणा, श्रेष्ठी दिग्याबायै गतः, भार्या तस तेन सम संपलमा, तस्य च गृहे प्रयः पक्षिण:-शुकच मदनशलाका कुकुरकोति, स तान् उपनिक्षिप्य गतः, सोऽपि धिरजातीयो रात्रावायाति, मदनपालाका भणति-कस्तातान बिभेति', शुको वारयति, योउम्बाया दवितोऽस्माकमपि (स) तातो भवति, सा मदनाऽनध्यासिनी धिग्जातीयं परिवासयति (आकोशति), मारिता तया, शुको न मारितः । अन्यदा साधू भिक्षार्थ तदू गृहमतिगती, फुटकं प्रेपैकः साधुर्दिगालोक कृत्वा भणति-य एतस्य शीर्ष ४२८॥ tram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~859~ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९५१], अध्ययन [ - ], खाइ सो राया होइति, तं किहवि तेणं धिजाइएणं अंतरिएण सुर्य, तं भणइ-मारेहि खामि, सा भणइ-अन्नं आणिजइ, मा पुत्तभंडं संवट्टियं, निबंधे कए मारिओ जाव ण्हाउं गओ, ताव तीसे पुत्तो लेहसालाओ आगओ, तं च सिद्धं तम्मंसे, सो रोवइ, सीसं दिण्णं, सो आगओ, भाणए छूटं, सीसं मग्गइ, भणइ चेडस्स दिण्णं, सो रुढो, एयस्स कज्जे भए माराविओ, जइ परं एयस्स सीसं खाएजा तो राया होज, कयं णिन्बंधे ववसिया, दासीय सुयं, तओ चैव दारयं गहाय पलाया, अण्णं णयरं गयाणि, तत्थ अपुत्तो राया मओ, आसेण परिक्खिओ, सो राया जाओ। इओ य कट्टो आगओ, णिययघरं सडियपडियं पासइ, सा पुच्छिया, ण कहेइ, सुयएणं पंजरमुकेण कहियं वंभणाइसंबन्धो सो तहेब, अलं संसारववहारेणं, अहं एतीसे करण किलेसमणुहवामि एसावि एवंविहति पवइओ, इयराणि तं चैव णयरं गयाणि जत्थ सो दारओ राया जाओ, साहूचि विहरंतो तत्थेव गओ, तीए पञ्चभिन्नाओ, भिक्खाए समं सुवण्णं दिवणं, कूवियं, भाष्यं [ १५१...] 1 खादति स राजा भवतीति तत्कथमपि तेन धिग्जातीयेनान्तरितेन श्रुतं तां भणति मारय खादामि सा भणति अन्य आनीयते, मा पुत्रभाण्डं संवर्त्तयतु निन्थे कृते मारितः यावत् स्नातुं गतः, तावत्तस्याः पुत्रो लेखशालाया आगतः तच सिद्धं तन्मांसं स रोदिति, शीर्ष दत्तं स भागतः, भाजने क्षिप्तं, शीर्ष मार्गयति, भगति चेटकाय दत्तं स रुष्टः, एतस्यार्थाय मया मारितः, यदि परमेतस्य शीर्ष खादेयं तदा राजा भवेयं कृतं ( मनसि ) नियंन्धे व्यवसिता ( क ), दास्याश्रुतं तत एव दारकं गृहीत्वा पलायिता, अन्यन्नगरं गतौ तत्रापुत्रो राजा मृतः, अश्वेन परीक्षितः (परिषिन्तः ), स राजा जातः । इतश्च काष्ठ आगतः, निजकं गृहं शटितपतितं पश्यति सा पृष्टा, न कथयति, शुकेन पञ्जरमुकेन व्याहतः ब्राह्मणादिसंबन्धः स तथैवाल संसारम्यवहारेण, अहमेशस्थाः कृते क्लेशमनुभवानि एषा त्वेवंविधेति प्रब्रजितः इतरौ अपि तदेव नगरं गतौ यत्र स दारको राजा जातः, साधुरपि विहरन् तत्रैव गतः, तया प्रत्यभिज्ञातः, भिक्षया समं स्वर्ण दत्तं, कूजितं, For Prints at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~860~ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) R नमस्कार. आवश्यक हारिभद्रीया वि०१ AM ॥४२९॥ गहिओ, रायाए मूल णीओ, धाबीए णाओ, ताणि निविसयाणि आणत्ताणि, पिया भोगेहिं निमंतिओ, नेच्छइ, राया सट्ठो कओ, वरिसारत्ते पुण्णे वयंतस्स अकिरियाणिमित्तं धिज्जाइएहिं दुवक्खरियाए उवविआ, परिभट्ठियारूवं कयं, सा गुविणीया अणुवयइ,तीए गहिओ,मा पवयणस्स उड्डाहो होउत्ति भणइ-जइ मए तो जोणीए णीउ अहण मए ता पोट्टे भिंदित्ता णीउ, एवं भणिए भिन्नं पोह, मया, वन्नो य जाओ, सेहिस्स पारिणामिगी इयं, जीए वा पवइओत्ति ।। कुमारो-खुड्डगकुमारो, सो जहा जोगसंगहेहि, तस्सवि परिणामिगी । देवी-पुप्फभद्दे णयरे पुष्फसेणो राया पुष्फवई देवी, तीसे दो पुत्तभंडाणि-पुष्फचूलो पुष्फचूला य, ताणि अणुरत्ताणि भोगे भुंजति, देवी पवइया, देवलोगे देवो उववण्णो, सो चिंतेइजइ एयाणि एवं मरंति तो नरयतिरिएसु उववज्जिहिंति सुविणए सो तीसे नेरइए दरिसेइ, सा भीया पुच्छइ पासंडिणो, तेन याणंति, अन्नियपुत्ता तत्थ आयरिया, ते सद्दाविया, ताहे सुत्तं कहुंति, सा भणइ-किं तुम्हेहिवि सुविणओ दिछो?, सो गृहीतः, राज्ञो मूलं नीतः, धान्या शातः, ती निविषयावाज्ञप्ती, पिता भोगैनिमन्त्रितः, नेच्छति, राजा श्रादः कृतः, वर्षाराने पूर्ण प्रजतोऽक्रिया(अवर्ण) निमित्तं चिजातीपैयक्षरिका उपस्थापिता, परिभ्रष्टाया रूपं कृतं, सा गुर्विणी अनुव्रजति, तया गृहीतः, मा प्रवचनस्योडाहो भूदिति भणति-यदि मया तदा योन्या निर्यात भय न मथा तदोदरं निश्वा निर्गच्छतु, एवं भणिते भिडमुदरं, मुता, वर्णन जातः, श्रेष्ठिनः पारिणामिकीयं, यया या प्रबजित इति । कुमार:-समारा, स यथा योगसंग्रहेषु, तथापि पारिणामिकी । देवी-पुषभो नगरे पुष्पसेनो राजा पुष्पवती देवी, तस्सा हे पुत्रभाण्डे-पुष्पल: पुष्पचूला च, तो अनुरक्तौ भोगान् भुभाते, देवी प्रबजिता, देवलोके देव उत्पनर,सचिन्तयति-यदि एतावेवं खियेयातां सदा नरकतिपंधु उत्पयेयातामिति स्वमे स तस्ये नारकान् पर्शयति, सा भीता पृष्ठति-पापग्निः , ते न जानन्ति, अर्णिकापुत्रास्तत्राचार्याः, ते शब्दिताः, तदा सूर्य कथयन्ति, सा भणति-कि युष्माभिरपि स्वप्नो दृष्टः, स अनुक्रम [१] ॥४२९॥ AMEail one Gaminayam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~861~ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) भणइ-सुत्ते अम्ह परिसं दिई, पुणोऽवि देवलोए दरिसेइ, तेऽवि से अन्नियापुत्तेहिं कहिया, पवइया, देवस्स पारिणामिया बुद्धी ॥ उदिओदए-पुरिमयाले णयरे ओदिओदओ राया सिरिता देवी, सावगाणि दोण्णिवि, परिवाइया पराजिया दासीहिं मुहमक्कडियाहि वेलविया निछूढा, पओसमावण्णा, वाणारसीए धम्मरुई राया, तत्थ गया, फलयपट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दाएइ धम्मरुइस्स रण्णो, सो अज्झोववन्नो, दूर्य विसज्जेइ, पडिहओ अवमाणिओ निच्छूढो, ताहे सबबलेणागओ, णयरं रोहेइ, उदिओदओ चिंतेइ-किं एवड्डेण जणक्खएण कएण?, उववासं करेइ, वेसमणेण देवेण सणयरं साहरिओ। उदिओदयस्स पारिणामिया बुद्धी ॥ साहू य नंदिसेणोत्ति, सेणियपुत्तो नंदिसेणो, सीस्सो तस्स ओहाणुप्पेही, तस्स चिंता(जाया)-भगवं जइ रायगिह जाएज तो देवीओ अन्ने य पिच्छिऊण साइसए जइ थिरो होजत्ति, भट्टारओ य गओ,18|| सेणीओ उण णीति संतेपुरो, अन्ने य कुमारा सअंतेउरा, णदिसेणस्स अंतेउर सेतंबरवसणं पउमिणिमज्झे हंसीओ वा भणति-सूत्रेऽस्माकमी दृष्ट, पुनरपि देवलोकान् दर्शयति, तेऽप्यर्णिकापुत्रैः तस्यै कथिताः, प्रनजिता, देवस्य पारिणामिकी बुद्धिः ॥ उदितोदयःपुस्मिताले नगरे उदितोदयो राजा श्रीकान्ता देवी, दे भपि श्रावको, परिवाजिका पराजिता दासीभिमुखमकटिकाभिविंडम्बिता निष्काशिता, प्रवेषमापना, वाराणस्यां धर्मरुची राजा, तत्र गता, फलपटिकायां श्रीकान्ताया रूप लिखित्वा दर्शयति धर्मरुचे राज्ञः, सोऽयुपपन्नः, दूतं विसर्जयति, प्रतिहत्तोऽपमानितो | निष्काशितः, तहा सर्वबलेनागतः, नगर रोधयति, उदितोदयश्चिन्तयति-कितावता जनायेण कृतेन ?, उपवासं करोति, वैश्रवणेन देवेन सनगरः संहृतः। | उदितोदयख पारिणा मिकी बुद्धिः ॥ साधुश्च नन्दिपेण इति, श्रेणिकपुत्रो नन्दिपेणः, शिष्यत्तस्वावधावनोत्प्रेक्षी, तस्य चिन्ता (जाता) भगवान् यदि | राजगृहं यायात् तहिं देवीरन्यांश्च सातिशयान् प्रेक्ष्क्ष यदि स्थिरो भवेदिति, भद्दारकच गतः, श्रेणिकः पुनर्निर्गच्छति सान्तःपुरः, अन्ये च कुमाराः साम्तःपुराः, | नन्दिषेणख अन्तःपुरं वेताम्बरबसनं पमिनीमध्ये हस्य इव * सेतं परवरणं अनुक्रम [१] S ajanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~862~ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) द्रीया प्रत आवश्यक- मुकाभरणाओ सबासि छायं हरति, सो ताओ दहण चिंतेइ-जइ भट्टारएण मम आयरिएण एरिसियाओ मुक्काओ किमंग नमस्कार० हारिभ पुण मज्झ मंदपुन्नस्स असंताण परिचईय ? तबियाणइ, णिवेयमावण्णो आलोइयपडिकतो थिरो जाओ । दोण्हवि परि- वि०१ णामिगी बुद्धी । धणदत्तो सुसुमाए पिया परिणामेइ-जइ एयं न खामो तो अंतरा मरामोत्ति, तस्स पारिणामिगी बुद्धी॥ ॥४३०॥ सावओ मुच्छिओ अग्झोववण्णो सावियाए वयंसियाए, तीसे परिणामो-मा मरिहित्ति अट्टवसट्टो नरएसु तिरिएसु वा (मा)उववजिहित्ति तीसे आभरणेहिं विणीओ, संवेगो, कहणं च, तीए पारिणामिया बुद्धी ।। अमञ्चो-वरघणुपिया जउघरे कए चिंतेइ-मा मारिओ होइ एस कुमारो, कहिंपीरक्खिज्जइ, सुरंगाए नीणिओ, पलाओ, एयस्सवि पारिणामिया बुद्धी। अन्ने भणंति-एगो राया देवी से अइप्पिया कालगया,सोय मुद्धो, सो तीए वियोगदुक्खिओन सरीरठिई करेइ, मंतीहिं भिणिओ-देव! एरिसी संसारहिइत्ति किं कीरइ, सो भणइ-नाह देवीए सरीरहिई अकरेंतीए करेमि, मंतीहि परिचिंतियं-द सूत्राक दीप अनुक्रम ॥४३०॥ मुक्ताभरणाः सर्वासा छायां हरति, सता रहा चिन्तयति-यदि भट्टारकेण ममाचार्येणेदश्यो मुक्ताः किमा पुनर्मम मन्दपुण्यस्य असतीनां प्रार्थनया (मन्दपुण्येनासतीनां परित्यक्त) तद्विजानाति, निर्वेदमापनः भालोचितप्रतिक्रान्तः स्थिरो जातः । हूयोरपि पारिणामिकी बुद्धिः॥ धनवत्तः सुसुमायाः पिता | परिणमयति-योनां न खादेम सदाऽन्तरा नियेमहि इति, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः ॥ श्रावको मूर्णितः अायुपपन्नः श्राविकाया वयस्यायो, तस्याः परिणाम:मा मृतेत्यावशा? नरकेषु निर्यक्षु वा (मा) उत्पादीति तथा भाभरणैर्विनीतः (अभिलाषः), संवेगः, कथनं च, तस्याः पारिणामिकी बुद्धिः। भमामःवरधनुपिता जनुगृहे कृते चिन्तयति-मा मारितो भविष्यति एष कुमारः, कथमपि रक्ष्यते, सुरङ्गया निष्काशितः, पलायितः, एतस्यापि पारिणामिकी बुद्धिः । अन्ये | भगन्ति-एको राजा देवी तस्वातिप्रिया कालगता, स च मुग्धः, स तथा वियोगेन दुःखितो न शारीरस्थिति करोति, मन्त्रिभिर्भणितः-देव! एतादृशी संसारस्थितिरिति किं क्रियते', स भणति-नाई देयो शरीरस्थितिमकुर्वतयां करोमि, मन्त्रिभिः परिचिन्तितं-* परिषयइ + तबियाणति K andiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~863~ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत न अन्नो उवाओत्ति, पच्छा भणिय-देव ! देवी सरगं गया तं तत्थलिइयाए चेव से सब पेसिजउ, लद्धकयदेवीडिईपउत्तीए पच्छा करेजसुत्ति, रन्ना पडिस्सुयं, माइठाणेण एगो पेसिओ, रयणो आगंतूण साहइ-कया सरीरहिई देवीए, पच्छा राया करेइ, एवं पइदिणं करेंताण कालो बच्चा, देवीपेसणववएसेण बहुं कडिसुत्तगाइ खज्जइ राया, एगेण चिंतियं अहंपि खत्तिं करेमि, पच्छा राया दिट्ठो, तेण भणिओ-कुतो तुम?, भणइ-देव? सग्गाओ, रण्णा भणियं-देवी दित्ति,12 18 सो भणइ-तीए चेव पेसिओ कडिसुत्तगाइनिमित्तंति, दवावियं से जहिच्छियं, किंपि ण संपडइ, रण्णा भणियं-कया गमि-18 स्ससि !, तेण भणियं-कलं, रण्णा भणियं-कल्लं ते संपाडेसं, मंती आदिवा-सिग्ध संपाडेह, तेहिं चिंतियं-विनई कज, को एत्थ उवाओत्ति विसण्णा, एगेण भणियं-धीरा होह अहं भलिस्सामि, तेण तं संपाडिऊण राया भणिओ-देव! एस कहं जाहित्ति !, रण्णा भणियं-अन्ने कहं जंतगा?, तेण भणियं-अम्हे जं पहवेता तं जलणप्पवेसेणं, न अण्णहा सग्गं सूत्राक SEASE 2-6001 दीप अनुक्रम [१] नान्य उपाय इति, पश्चाद्भणितं-देव! देवी स्वर्ग गला तत्तत्र स्थितायायेव तस्यै सर्व प्रेष्यतां, लब्धायां देवीकृतस्थितिप्रवृत्तौ पश्वास्क्रियतामिति, राज्ञा प्रतिश्रुतं, मातुस्थानेनैकः प्रेषितः, राज्ञे भागत्य कथयति-कृता शरीरस्पितिर्देन्या, पश्चात् राजा करोति, एवं प्रतिदिनं कुर्वतां कालो ब्रजति, देवीप्रेषणव्यप| देशेन बहु कटीसूत्रादि खाद्यते राज्ञः, एकेन चिन्तितं-अहमपि खादितिं करोमि, पश्चादाजा रटः, तेन भणित:-कुतस्त्वं , भणति-देव! स्वर्गात् , राज्ञा |भणित-देवी दृष्टेति, स भणति-तथैव प्रेषितः कटीसूत्रादिनिमित्तमिति, दापितं तस्मै यथेष्ट, किमपि म संपद्यते, राज्ञा भणित-कदा गमिष्यसि ।, तेन भणित कल्ये, राज्ञा भणितं-कश्ये ते संपादयिष्यामि, मन्त्रिण आदिष्टाः-शीनं संपादयत, तैश्विन्तित-विनष्ट कार्य, कोनोपाय इति विषण्णाः, एकेन भणितं-धीरा | भवत अहं मेलवियामि, तेन तत् संपाच राजा भणितः-देव! एष कथं गमिष्यतीति !, राज्ञा भणि-अन्ये कथं याताः, तेन भणित-पर्य यं प्रास्थापयिष्य ज्वलनप्रवेशेन, नान्यथा स्वर्ग andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~864~ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९५१], Educato अध्ययन [ - ], आवश्यक -गमिस्सइ, रण्णां भणियं तहेव पेसेह, तहा आढत्ता, सो विसण्णो, अण्णो व धुत्तो वायालो रण्णो समक्ख बहुं उवहसइ हारिभ• जहा- देविं भणिज्जसि-सिणेहवंतो ते राया, पुणोवि जं कज्जं तं संदिसेज्जासि, अण्णं च इमं च इमं च बहुविहं भणेज्जासि, द्वीया ४ तेण भणियं देव ! णाहमेत्तिगं अविगलं भणिडं जाणामि, एसो चेव लट्ठो पेसिज्जउ, रण्णा पडिसुयं, सो तहेव णिज्जिउमाढतो, इयरो मुक्को, अवरस्स माणुसाणि, से विसण्णाणि पलवंति-हा ! देव ! अम्हेहिं किं करेजामो?, तेण भणियंनियतुंडं रक्खेजह, पच्छा मंतीहिं खरंडिय मुको, मडगं दहूं, मंतिस्स पारिणामिया ॥ खमएत्ति, खमओ चेल्लएण समं भिक्खं हिंडंइ, तेण मंडुकलिया मारिया, आलोयणवेलाए णालोएड, खुट्टएणं भणियं-आलोएहित्ति, रुट्ठो आहणामित्ति थंभे अब्भडिओ मओ, एगत्थ विराहियसामण्णाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो जाओ, जाणंति परोप्परं, रत्तिं चरंति मा जीवे मारेहामित्ति, फासुगं आहारेमित्ति । अण्णया रण्णो पुत्तो अहिणा खइओ मओ य, राया पउसमावण्णो, जो सप्पं मारेइ ॥४३१॥ भाष्यं [ १५१...] १ गमिष्यति, राजा भणितं तथैव पयत, तथा आरब्धवन्तः (मेषयितुं ) स विषण्णः, अन्यश्च धूतों वाचालो राज्ञः समक्षं बहुपहसति यथा - देवीं भणेः खेइवान् त्वयि राजा, पुनरपि येन कार्यं तत् संदिशेः, अन्यञ्च इदं चेदं च बहुविधं भणे:, तेन भणितं देव ! नाहमेतावदविकलं भणितुं जाने, एष एव रुष्टः प्रेष्यतां राज्ञा प्रतिश्रुतं स तथैव नेतुमारब्धः, इतरो मुक्तः, अपरस्य मनुष्याः, ते विषण्णाः प्रलपति- हा देव ! अस्माभिः किं कार्यं ?, तेन भणितं - निजतुण्डं रक्षत, पश्चान्मनिभिः संतज्ये ( निर्भर्त्य ) युक्तः, सृतकं दग्धं, मन्त्रिणः पारिणामिकी || क्षपक इति, क्षपकः शैक्षण समं भिक्षां हिण्डते, तेन मण्डूकिका मारिता, आलोचनावेलायां नालोचयति, धुडकेन भणितं आलोचयेति, रुष्ट आहन्मीति खम्भे आहतो मृतः, एकत्र विराद्धनामध्यानां कुले दृष्टिविष ४सप जातः, जानन्ति परस्परं, रात्री चरन्ति मा जीवान् मीमरामेति, प्रासुकमाहारयाम इति अम्पदा राज्ञः पुत्रोऽहिना दष्टः सृतश्च राजा प्रद्वेषमापन्नः, ४ यः सर्प मारयति For Fans Only ~ 865~ नमस्कार० वि० १ ॥४३१॥ Tanirrorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत तस्स दीणारं देइ, अण्णया आहिँडिएणं ताणं रेक्काओ दिहाओ, तं बिलं ओसहीहिं धमति, सीसाणि णिताणि छिंदइ, सो अभिमुद्दो न णीइ, मा मारेहामि किंचित्ति जाइस्सरणतणेण, तं निग्गय निग्गय छिदइ, तेण पच्छा रायाए उवहाणीयाणि, सो राया णागदेवयाए बोहिज्जइ, वरो दिण्णो-कुमारो होहित्ति, सो खमगसप्पो मओ समाणो तत्थ राणियाए Mणागदत्तो पत्तो जाओ, उम्मुकबालभावो साहुं दडे जाई संभरित्ता पवइओ । सो य छहालगो अभिग्गहं गेण्हइ-मए ण रूसियति, दोसीणस्स हिंडइ, तस्स य आयरियस्स गच्छे चत्तारि खमगा-मासिओ दोमासिओ तिमासिओ चउमासिओ, रत्तिं देवया आगया, ते सबे खमए अइक्कमित्ता खुड्यं बंदइ, खमएण निग्गच्छंती हत्थे गहिया, भणिया य&ाकडगपूयणे । एवं तिकालभोइयं वंदसि, इमे महातवस्सी न वंदसित्ति, सा भणइ-भावखमर्ग बंदामि न दबखमएत्ति, गया, पभाए दोसीणगस्स गओ, निमंतेति, एगेण गहाय पाए खेलो छूढो, भणइ-मिच्छामि दुक्कडं खेलमल्लो तुन्भ सूत्राक दीप अनुक्रम [१] १ सी दीनार वषाति, भम्पदाऽऽहिण्डकेन तेषां रेखा दृष्टाः, तद्विलमोषधीभिर्धमति, शीर्षाणि निर्गच्छन्ति छिनति, सोऽभिमुखो न नियांति, मा मीमरं किञ्चिदपि जातिस्मरत्वेन, तं निर्गतं निर्गतं छिनत्ति, तेन पश्चाबाइ उपनीतानि, स राजा नागदेवतथा बोध्यते, घरो दत्तः-कुमारो भविष्यतीति, स8 क्षपकसो गतः सन् सन्न राश्या नागदाः पुत्रो जातः, उन्मुक्तचालभावः साधु वा जाति संस्मृत्य प्रबजितः । स च क्षुधालुरभिप्रहं गृहाति-मया म रुपितव्यमिति, पर्युषिताय हिण्डते, तरूप चाचार्यस्य गच्छे चत्वारः क्षपका:-मासिको द्विमासिकरिखमासिकः चतुर्मासिकः, रात्री देवता मागता, तान् सर्वान अतिक्रम्य । क्षुल्लकं वन्दते, आपकेण निर्गच्छन्ती हस्ते गृहीता, भणिता च-कटपूतने ! एनं त्रिकालभोजिनं वन्दसे, इमान् महातपस्विनो न बन्दस इति, सा भणतिभावक्षपकं वन्दे न अध्यक्षपकान इति, गता, प्रभाते पर्युषिताय गतः, निमन्त्रयति, एकेन गृहीत्वा श्लेष्म क्षिसं, भणति-मिथ्या मे दुष्कृतं श्लेष्ममहक युष्मभ्यं ता JABERatane मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~866~ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया ४३२॥ णोवणीओ, एवं सेसेहिवि, जेमेउमारद्धो, तेहिं वारिओ, निवेगमावण्णो, पंचवि सिद्धा, विभासा, सवेसि पारि- नमस्कार. णामिया बुद्धी ॥ अमच्चपुत्तो वरधणू, तस्स तेसु तेसु पओयणेसु पारिणामिया, जहा माया मोयाविया, सो पलाइओ, वि०१ एवमाइ सबं विभासियवं । अण्णे भणति-एगो मंतिपुत्तो कप्पडियरायकुमारेण समं हिंडइ, अण्णया निमित्तिओ घडिओ, रत्तिं देवकुंडिसंठियाणं सिवा रडइ, कुमारेण नेमित्तिओ पुच्छिओ-कि एसा भणइत्ति, तेण भणियं-इमं भणइ-इमंसि नदितित्थंमि पुराणियं कलेवर चिट्ठइ, एयस्स कडीए सतं पायंकाण, कुमार! तुम गिण्हाहि, तुझ पार्यका मम य कडे-13 वरंति, मुद्दियं पुण न सकुणोमित्ति, कुमारस्स कोर्नु जायं, ते वंचिय एगागी गओ, तहेव जायं, पायंके घेत्तूण पञ्चागओ, पुणो रडइ, पुणो पुच्छिओ, सो भणइ-चप्फलिगाइयं कहेइ, एसा भणइ-कुमार! तुज्झवि पायकसयं जाय मज्झवि कलेवरंति, कुमारो तुसिणीओ जाओ, अमच्चपुत्तण चिंतिय, पेच्छामि से सत्तं किं किवणतणेण गहियं आउ सोंडीरयाए?,18 नापित, एवं शेपैरपि, जिभितुमारब्धः, सेवारितः, निर्वेदमापनः, पञ्चापि सिद्धाः, विभाषा, सर्वेषां पारिणामिकी बुद्धिः ।। अमात्य पुत्रो वरधनुः, तस्य तेषु तेषु प्रयोजनेषु पारिणामिकी, बधा माता मोचिता, स पलायितः, एवमादि सर्व विभाषितव्यं । अन्ये भणन्ति-एको मत्रिपुत्रः कार्पटिकराजकुमाअरेण समं हिण्डते, अन्पदा नैमित्तिको घटितः (मीलितः), रात्री देवकुलिकासंस्थितेषु शिवा स्टति, कुमारेण नैमित्तिकः पृष्टः-किमेषा भणतीति, तेन भणितइदं भणति-अस्मिनदीतीर्थे पौराणिक कलेवरं विधति, एतस्य कब्यां शतं पादाकाना (मुद्राविशेषाणां), कुमार ! वं गृहाण, तब पादाका मम च कलेवरमितिल ॥४३२॥ मुदितं पुनर्न शक्रोमीति, कुमारस्य कौतुकं जातं, तान् वञ्चयित्वा एकाकी गतः, तथैव जातं, पाहातान् गृहीत्वा प्रत्यागतः, पुना रटति, पुनः पृष्टः, स भणतिचपफलिकादिकं (कौतूहलिक) कथयति, एषा भणति-कुमार! सवापि पादानुशतं जातं ममापि कलेचरमिति, कुमारस्तूष्णीको जातः, अमात्य पुत्रेण चिन्तितं, पश्याम्यस्य सत्वं किं कृपणत्वेन गृहीतमातः नौण्डीर्येण!, अनुक्रम [१] JABERatinintamational Hansorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~867~ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [१ / गाथा-], निर्युक्तिः [९५१], जैइ किवणतणेण कथं न एयरस रज्जति नियत्तामि, पञ्चसे भणइ वच्चह तुम्भे, मम पुण सूलं कज्जइ न सकुणामि गंतु, कुमारेण भणियं-न जुत्तं तुमं मोनूण गंतुं, किं तु मा कोइ एत्थ मे जाणेहित्ति तेण वच्चामो, पच्छा कुलपुत्तगघरं णीओ समप्पिओ, तं च सर्व पेज्जामोलं दिन्नं, मंतिपुत्तस्स जवगयं जहा- सोंडीरयाएत्ति, भणियं चडणेण-अस्थि मे विसेसो अओ गच्छामि, पच्छा गओ, कुमारेण रज्जं पत्तं, भोगावि से दिण्णा, एयरस पारिणामिगी बुद्धी | चाणको गोह्रविसए चणयभ्गामो, तत्थ य चणगो माहणो, सोय सावओ, तस्स घरे साहू ठिया, पुत्तो से जाओ सह दाढाहिं, साहूण पाएस पाडिओ, कहियं च-राया भविस्सइत्ति, मा दुग्गई जाइस्सइति दंता घडा, पुणोऽवि आयरियाणं कहियं, भणइ-किं कज्जउ ?, एत्ताहे बिंबंतरिओ भविस्सइ, उम्मुक्तबालभावेण चोदस विजाद्वाणाणि आगमियाणि, सो य सावओ संतुझे, एगाओ भद्दमाहणकुलाओ भज्जा से आणिया । अण्णया कहिवि कोउते माइघरं भज्जा से गया, केइ भांति-भाइविवाहे गया, भाष्यं [ १५१...] ३ यदि कृपणत्वेन कृतं नैतस्य राज्यमिति निवर्चे, प्रत्यूषसि भणति प्रजत यूयं मम पुनः शूलं क्रियते ( पीडयति ) न शक्नोमि गन्तुं कुमारेण भणितं - न युक्तं त्वमुक्त्यारान्तुं किन्तु मा कोऽप्यत्र मां शासीत् तेन प्रभावः, पश्चात्कुलपुत्रकगृहं नीतः समर्पितः तच सर्व पेया (पोषण) मूल्यं दतं मन्त्रिपुत्रस्योपगतं यथा-शौण्डीर्येणेति भणितं चानेन अस्ति मे विशेषः अतो गच्छामि, पश्चागतः, कुमारेण राज्यं प्राप्तं, भोगा अपि तस्मै दत्ताः, एतस्य पारिणामिकी बुद्धिः । चाणक्य:-गोहविषये चणकग्रामः, तत्र च चणको ब्राह्मणः, स च श्रावकः, तस्य गृहे साधवः स्थिताः, पुत्रस्तस्य जातः सह वंशभिः साधूनां पादयोः पातितः, कथितं च राजा भविष्यतीति मा दुर्गतिं यासीदिति दस्ता दृष्टाः पुनरप्याचार्येभ्यः कथितं भगति किं क्रियतां, अधुना ( अतः ) बिम्बाम्तरितो (राजा) ॐ भविष्यति, जम्मुक्तबालभावेन चतुर्दश विद्यास्थानाम्यागभितानि ( प्राप्तानि ), स च आवक: संतुष्टः, एकस्साद भट्टब्राह्मणकुलात् भार्या तस्यानीता । अन्यदा * कस्मिंशदपि कौतुके मातृगृहं भायां तस्य गता, केचिन्ति भ्रातृविवाहे गता, एगहाणे Forsy मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~868~ bray org Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) % % आवश्यक- IIतीसे य भगिणीओ अण्णेसिं खद्धादाणियाणं दिण्णेलियाओ, ताओ अलंकियविहूसियाओ आगयाओ, सपोऽपि परि- नमस्कार हारिभ यणो ताहि सम संलवएति, सा एगते अच्छइ, अद्धिई जाया, घर आगया, ससोगा, निर्धधे सिहं, तेण चिंतिय-नंदो पाड- वि०१ द्रीया लिपत्ते देइ तत्थ वचामि, तओ कत्तियपुण्णिमाए पुषण्णत्थे आसणे पढमे णिसण्णो, तं च तस्स सालीपतियस्स सयार ॥४३॥ ठविजाइ, सिद्धपुत्तो य णंदेण समं तत्थ आगओ भणइ-एस बंभणो णंदवंसस्स छायं अक्कमिऊण ठिओ, भणिओ दासीए-IN भगवं ! बितीए आसणे णिवेसाहि, अरथु, वितिए आसणे कुंडियं ठवेइ, एवं ततिए दंडये, चउत्थे गणित्तिय, पंचमे जण्णो-13 वइयं, धिहोत्ति निच्छूढो, पाओ* उक्खित्तो, अण्णया य भणइ-कोशेन भृत्यैश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशाखम् । Pउत्पाव्य नन्दं परिवर्तयामि, महामं वायुरियोग्रवेगः ॥१॥ निग्गओ मग्गइ पुरिसं, सुर्य चणेण वितरिओ राओ। ४ होहामित्ति, नंदस्स मोरपोसगा, तेसिं गार्म गओ परिवायगलिंगणं, तेसिं च महत्तरधूयाए चंदपियणे दोहलो, सो % %A5-% 25AR अनुक्रम [१] तयात्रा भगिन्योऽन्येषां प्रचुरादानीयांना (धनायेभ्यः ) बचाः, ता अलंकृतविभूषिता आगताः, सर्वोऽपि परिजनस्ताभिः समं संलपति, सैकान्ते तिष्ठति, अतिर्जाता, गृहमागता, सशोका, निर्बन्धे शिर्ट, तेन चिन्तितं-नन्दः पाटलीपुत्रे ददाति तन्त्र बजामि, ततः (तत्र) कार्तिकपूर्णिमाया पूर्वन्यस्ते आसने प्रथमे निषण्णः, सच तस्य शल्लीपतेः (मन्दस्य) सदा स्थाप्यते, सिद्धपुत्रश्च नग्देन समं तथागतो भणति-एप मामणः नन्दवंशस्य छायामाकम्प खिता, भणितो | दास्या-भगवन् ! द्वितीय आसने उपविश, अस्तु, द्वितीये आसने कुण्डिका स्थापयति, एवं तृतीये दण्डक, चतुर्थे माला, पञ्चमे यज्ञोपवीतं, एट इति निष्का-8 शितः, पादः (प्रतिज्ञा ) उरिक्षप्तः (मनसि स्थापिता), अन्यदा च भणति-निर्गतो मार्गयति पुरुषं, श्रुतं चानेन विम्यान्तरितो राजा भविष्यामीति | नन्दस्य मयूरपोपकाः, तेषां ग्रामं गतः परिमाजकयेपेण, तेषां च महत्तरस्य दुहितुः चन्द्रपाने दोहदः, स* पाओ पनमो JAMERR Bara kinarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~869~ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक समुदाणितो गओ, पुच्छंति, सो भणइ-जइ इमं मे दारगं देह तो णं पाएमि चंद, पडिसुणेति, पडमंडबे कए तदिवस पुणिमा, माझे छिई कर्य, मज्झगए चंदे सबरसालूहिंदवेहिं संजोएत्ता दुद्धस्स थालं भरियं, सद्दाविया पेच्छइ पिबह य, उवार | परिसो अच्छाडेर अवणीए जाओ पुत्तो, चंदगुत्तो से नाम कयं, सोऽवि ताव संवहइ, चाणको य धाउबिलाणि मग्गड ।। सो य दारगेहि समं रमइ रायणीईए, विभासा, चाणक्को पडिएइ, पेच्छइ, तेणवि मग्गिओ--अम्हवि दिजउ, भणइगावीओ लएहिमा मारेजा कोई, भणइ-वीरभोजा पुहवी, णातं जहा विण्णाणपि से अस्थि, पुच्छिओ-कस्सत्ति !,TRI दारएहिं कहियं-परिवायगपुत्तो एसो, अहं सो परिवायगो, जामु जा ते रायाणं करेमि, पलाओ, लोगो मिलिओ, पाड-12 लिपुतं रोहियं । णंदेण भग्गो परिचायगो, आसेहिं पिट्टीओ लग्गो, चंदगुत्तो पउमसरे निब्बुडो, इमो उपस्पृशति, सण्णाए भणइ-बोलीणोत्ति, अन्ने भणन्ति-चंदगुत्तं परमिणीसरे छुभित्ता रयओ जाओ, पच्छा एगेण जच्चवल्हीककिसोरगएणआसवारेण पुच्छिओ भणइ-एस पउमसरे निविट्ठो, तओ आसवारेण दिट्ठो, तओऽणेण घोडगो चाणकस्स अलितो; | भिक्षयन् गतः, पृच्छन्ति, स भणति-यदि इस दारकं मी दत्त तदैनां पाययामि चन्द्र, प्रति मृण्वन्ति, पटमण्डपे कृते तदिवसे पूर्णिमा, मध्ये छिदं कृतं' मध्यगते चन्द्रे सर्वरसाईव्यैः संयोज्य दुग्धस्य स्थालो भूतः, शब्दिता पश्यति पिबति च, उपरि पुरुष आच्छादयति, अपनीते (दोहदे) जातः पुत्रः, चन्द्रगुप्तस्तस्य नाम कृतं, सोऽपि तावत्संवर्धते, चाणक्यश्च धातुवादान् (स्वर्णरसादिकान्) मार्गपति । स च वारकैः समं रमते राजनीत्या, विभाषा, चाणक्यः प्रत्येति, प्रेक्षते. तेनापि मागित:-मधमपि देहि. भणति हाहिमा मारिषि केनचित्, भणति-पीरभोग्या वसुन्धरा, ज्ञातं यथा विज्ञानमप्यस्ति तस्थ, पृष्टा-1 | कस्येति!, दारकैः कथितं-परिवाजकपुत्र एषः, अहंस परिव्राजकः, यावो यावत्वां राजानं करोमि, पलायितः, लोको मीलितः, पाटलीपुत्र रुवं । नन्देन भञ्जितः परिवाजकः, अभीः पृथ्तो लमा, चन्द्रगुप्तः पासरसि दूडितः, अयमुपस्पृशति, संशया भणति-(अश्ववारान्) व्यतिक्रान्त इति ॥ अम्ये भणन्ति-चन्द्रगुप्त पद्मिनीसरसि क्षित्वा रजको जाता, पादेकेन जात्यवाहीककिशोरगतेनाश्ववारेण पृष्टो भणति-एप पझसरसि बृद्धितः, ततोऽश्ववारेण दृष्टः, ततोऽनेन घोटकचाणक्यायापितः, दीप अनुक्रम [१] Santaintamailo Panmiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~870~ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ श्रीया ॥ ४३४ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९५१], अध्ययन [ - ], खग्गं मुकं, जब निगुडिडं जलोयरणयाए कंचुगं मिलर, ताबडणेण खग्गं घेत्तूण दुहाकओ, पच्छा चंदगुत्तोहकारिय चडाविओ, पुणो पलाया, पुच्छिभोऽणेण चंदगुत्तो-जं वेलं तंसि सिद्धो तं वेलं किं तुमे चिंतियं ?, तेण भणियं-धुवं एवमेव सोहणं भवइ, अज्जो चेव जाणइत्ति, तओऽणेण चिंतियं-जोगो एस न विपरिणमइति । पच्छा चंदगुप्तो छुहाइओ, चाणको तं वेत्ता भत्तस्स अइगओ, बीहेइ य-मा एत्थ नज्जेज्जा मी डोडस्स बाहिं निग्गयस्स पोई फालियं, दहिकूरं गहाय गओ, जिमिओ दारओ। अण्णया अण्णत्थ गामे रतिं समुयाणेइ, थेरीए पुत्तगभंडाणं विलेवी वट्टिया, एक्केण मज्झे हत्थो छूढो, दो रोवइ, ताए भण्णइ-चाणक्कमंगलयं, पुच्छियं, भणइ-पासाणि पढमं घेप्यंति, गआ हिमवंतकूडं, पबइओ राया, तेण समं मित्तया जाया, भणइ- समं समेण विभजामो रजं, उपवेंताणं एत्थ णयरं न पडइ, पविठ्ठो तिदंडी, वत्थूणि जोएइ, इंदकुमारियाओ दिट्ठाओ, तासिं तणपण ण पडइ, मायाए णीणावियाओ, पडियं णयरं, पाडलिपुत्तं En भाष्यं [ १५१...] १ ख : यावत् शेषं वा जलावतरणार्थाय कञ्चुकं ( अधःपरिधानं ) मुञ्चति, तावदनेन गृहीत्वा द्विधाकृतः, पञ्चाचन्द्रगुप्त आहूयारोहितः पुनः पलायिती, पृष्टोऽनेन चन्द्रगुप्तः यस्यां वेलायां स्वमसि शिष्टस्तस्यां वेलायां किं त्वया चिन्तितं ? तेन भणितं ध्रुवमेवमेव शोभनं भविष्यति, आर्य एव जानातीति ततोऽनेन चिन्तितं योग्य एप न विपरिणमत इति पश्चात् चन्द्रगुप्तः क्षुधार्त्तः, चाणक्यस्तं स्थापयित्वा भक्तायातिगतः, विमेति च मात्र ज्ञाविष्महि महोदरस्य ( भट्टस्य ) बहिर्निर्गतस्योदरं पाटितं दधिकूरं गृहीत्वा गतः, जेमितो दारकः । अम्यदा अन्यत्र ग्रामे रात्री भिक्षयति, स्थविरया पुत्रादीनां रच्या ४ परिवेषिता, एकेन मध्ये इखः क्षिप्तः, दुग्धो रोदिति, तथा भण्यते- चाणक्याख्यानकं (चाणक्यसर), पृष्टं भणति वाचः प्रथमं ग्राह्याः, गतो हिमवत्कूटं, * पार्वतिको राजा, तेन समं मैत्री जाता, भणति सबै समेन विभजायो राज्यं, उपागच्छतो (लुण्टतो) रेकन नगरं न पतति प्रविष्टखिदण्डी, वस्तुनि पश्यति, इन्द्रकुमाय दृष्टाः, तासां सत्केन (प्रभावेण ) न पतति, मायया अपनायिताः पतितं नगरं, पाटलीपुत्रं मोडोइस्स ॥४३४॥ For Purina Pts Use Only tartarum arg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः नमस्कार० वि० १ ~871~ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक रोहियं', नंदो धम्मवारं मग्गइ, एगेण रहेण जं तरसि तं नीणाहि, दो भजाओ एगा कण्णा दवं च णीणेइ, कण्णा चंदगुत्तं पलोएइ, भणिया-जाहित्ति, ताहे विलग्गंतीए चंदगुत्तरहे णव अरगा भग्गा, तिदंडी भणइ-मा वारेहि, नवपुरिसजुगाणि तुज्झ वसो होहित्ति, अइयओ, दोभागीकयं रजं । एगा कण्णगा विसभाविया, तत्थ पवयगस्स इच्छा जाया, सा तस्स दिष्णा, अग्गिपरियंचणे विसपरिगओ मरिउमारद्धो भणइ-वयंस! मरिजइ, चंदगुत्तो रंभामित्ति घवसिओ, चाणक्केण [भिउडी कया, णियत्तो, दोवि रजाणि तस्स जायाणि । नंदमणुसा चोरियाए जीवंति, चोरग्गाहं मग्गइ, तिदंडी बाहिरियाए नलदामं मुइंगमारणे दई आगओ, रण्णा सद्दाविओ, आरक्खं दिण्णं, वीसस्था कया, भत्तदाणेण सकुडंबा मारिया। आणाए-वंसीहिं अंबगा परिक्खिता, विवरीए रहो, पलीविओ सबो गामो, तेहिं गामील्लएहिं कप्पडियचे भत्तं न दिण्णंतिकाउं। कोसनिमित्तं पारिणामिया बुद्धी-जूयं रमइ कूडपासएहिं, सोवणं थालं दीणाराणं भरियं, जो जिणइ तस्स | एय, अहं जीणामि एगो दीणारो दायबो । अइचिरंति अन्नं उवायं चिंतेइ, णागराण भत्तं देइ मजपाणं च, मत्तेसु स्वं, नन्दो धर्मद्वारं मार्गयति, एकेन रथेन यत् शक्रोषि तवय, द्वे भाथै एका कन्या द्रव्यं च नयति, कन्या चन्द्रगुप्तं प्रलोकयति, भणितावाहीति, तदा विलगन्त्यां चन्द्रगुप्तरथे नवारका भग्नाः, त्रिदण्डी भणति-मा निवारी, नव पुरुपयुगानि तव वंशो भविष्यतीति, अतिगतः, द्विभागीकृतं राज्यं । एका कन्या विषभाविता, तत्र पर्वतकस्वेच्छा जाता, सातमै दचा, अग्निप्रदक्षिणायां परिगतविषो ममारब्धो भणति-वयस्य ! मरामि, चन्द्रगुप्तो रुणमि इति व्यवसितः, चाणक्येन भृकुटीकृता, निवृत्तः, द्वे भपि राज्ये तख जाते। नन्वमनुष्याचीरिकया जीवन्ति, चौरमाई मार्गयति, त्रिदण्डी शाखापुरेनलदाम मरकोटकमारकं दृष्ट्वाऽऽगतः, राज्ञा शब्दितः, आरक्ष्यं दर्स, विश्वस्ताः कृताः, मतदानेन सकुटुंबा मारिताः । आज्ञायां-वंशीभिराधाः परिक्षेतव्याः, विपरीते रुष्टः, प्रदीपितो मामः समनः, तैमियकैः कार्पटिकवे भक्तं न दत्तमितिकृत्वा । कोशनिमित्रं पारिणामिकी बुदि-बूतं रमते कूट पाशकः, सौवर्णः स्थालो दीनारनृतः, यो जयति तस्वैषः, भई जयामि एको दीनारो दातव्यः । भतिचिरमिति अन्यमुपायं चिन्तयति, नागरेभ्यो भक्तं ददाति मद्यपानं च, मतेषु 95S दीप अनुक्रम [१] कल andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~872 ~ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) RCACA नमस्कार० वि०१ प्रत सूत्राक आवश्यक-विचिओ,भणइ-दो मझधाउरत्ता कंचणकुंडिया तिदंडं च रायावि य वसवत्ती एत्थवि ता मे होलं वाएहि' अपणो असह- हारिभ-1 |माणो भणति-गयपोययस्स मत्तस्स उप्पइयस्स जोअणसहस्सं पए पए सयसहस्सं पत्थवि ता मे होलं वारहि। अन्नो भणइद्रीया तिलआढयस्स वुत्तस्स निष्फण्णस्स बहुसइयस्स तिले तिले सयसहस्सं ता मे हालं वाएहि अण्णो भणइ-नवपाउसंमि ॥४३५॥ पुण्णाए गिरिणईयाए सिग्घवेगाए एगाहमहियमेत्तेण नवणीएण पालि बंधामि एस्थवि ता मे होलं पाएहि, अन्नो |भणइ-जवाण नवकिसोराण तद्दिवसेण जायमेत्ताण केसेहिं नहं छाएमि एत्थवि ता मे होलं बाएहि, अन्नो भणइ-दो मज्झ अस्थि रयणा सालि पसूई य गद्दभिया य छिन्ना छिन्नावि रुहंति एत्थवि ता मे होलं वाएहि, अन्नो भणह-"सयसुक्किलनिच्चसुयंधो भज अणुवय नत्थि पवासो निरिणो य दुपंचसओ एत्थवि तामे होल वाएहिं, एवं णाऊण रयणाणि मन्गि-13 ऊण कोठाराणि सालीण भरियाणि, गद्दभियाए पुच्छिओ छिन्नाणि २ पुणो पुणो जायंति, आसा एगदिवस जाया मग्गिया| एगदिवसियं णवणीयं, एस पारिणामिया चाणक्कस्स बुद्धी ॥ थूलभद्दस्स पारिणामिया-पिइम्मि मारिए गंदेण भणिओ प्रणर्तितः, भणति-दे मम धातुरते काचनकुण्डिका त्रिदण्डं च राजाऽपिच वशवी अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्योऽसहमानो भणति-गजपोतस्य मत्स्योत्पतितस्य योजनसहस्रं पदे पदे शतसहसं अत्रापि तन्मे मतरी वादय, अन्यो भणति-उप्तस्य तिलाटकस्य निष्पमस्ख बहुशतिकस्य तिले लिले शतसहनं तन्मे झळ वादय, अन्यो भणति-नवप्रावृषि पूर्णावा गिरिनद्याः शीघ्रवेगाया एकाहमथितमात्रेण नवनीतेन पाली बनामि अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्यो भणतिजात्यानां नव किशोराणां तदिवसजातमात्राणां के सैनमश्कादयामि अत्रापि तन्मे झल्लरी वादय, अन्यो भणति-हे ममास्ति शालिर-प्रसूतिश्च गर्दभिका च, छिना| छिन्ना अपि रोहन्ति, अवापि तन्मे झालरी वादव, अन्यो भणति-सदाक्लो नि त्यसुगन्धो भार्या अनुवर्तिनी मास्ति प्रवासो निणश्च द्विपञ्चशतिकः अत्रापि तन्मम झलरी वादय, एवं ज्ञात्वा रखानि मार्गयित्वा कोष्ठागाराणि शालीमि तानि गर्दभिकया पुच्छिको (धान्यभाजनविशेषः) छिन्ना छिना पुनः पुनर्जायन्ते इति, अश्वा एकदिवसजाता मार्गिताः, एकदिवसज नवनीतं, एषा पारिणामिकी चाणक्यख बुद्धिः। स्थूलभद्रख पारिशामिकी-पितरि मृते नन्देन भणितः-*सुय०प्र० दीप अनुक्रम ४३५॥ andjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~873~ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक || अमञ्चो होहित्ति, असोगवणियाए चिंतेइ-केरिसा भोगा वाउलाणति पचइओ । रण्णा भणिया-पेच्छह मा कवडेण गणियाघरं जाएजा, नितस्स सुणगमडेण वावण्णेण णासं ण गेण्हइ, पुरिसेहिं रण्णो कहियं, विरत्तभोगोत्ति सिरिओ ठविओ, धूलभद्दसामिस्स पारिणामिया रण्णो य । णासिकं णयरं, णंदो वाणियगो, सुंदरी से भज्जा, सुंदरिनंदो से नाम कयं, तस्स भाया पवइयओ, सो सुणेइ-जहा सो तीए अज्झोववन्नो, पाहुणओ आगओ, पडिलाभिओ, भाणं तेणं गहियं, "इह | पत्थवियउत्ति उज्जाणं नीणिओ, लोगेण य भायणहत्थो दिछो, तओ णं उवहसंति-पबइओ सुंदरीनंदो, तओ सो तहवि गओ उज्जाणं, साहुणा से देसणा कया, उकडरागोत्ति न तीरइ मग्गे लाइउं, वेउधियलद्धिमं च भगवं साह, तओऽणेण चिंतियं| न अण्णो उवाओत्ति अहिगयरेणं उवलोभेमि, पच्छा मेरू पयट्टाविओ, न इच्छइ, अविओगिओ, मुहुत्तेण आणेमि, पडिसुए पयट्टो, मक्कडजुयलं विउवियं, अन्ने भणंति-सच्चकं चेव दिई, साहुणा भणिओ-सुंदरीए वानरीओ य का लट्ठयरी?; अमात्यो भवेति, अशोकवनिकायां चिन्तयति-कीच्या भोगा व्याक्षिप्तानामिति प्रबजितः । राशा भणिता: (पुरुषाः)-पश्यत मा कपटेन गणिका| गृई यासीत्, निर्गच्छन् समसकेन पापनेन नासिका न कूणयति, पुरुषे राज्ञः कथितं, विरक्तभोग इति श्रीयकः स्थापितः, स्थूलभाववामिनः पारिणामिकी | राज्ञश्च ॥ नासिक्यं नगर, नन्दो वणिग, सुन्दरी तस्य भार्या, सुन्दरीनन्दस्तस्य नाम कृतं, तस आता प्रवजितः, स ऋणोति-यथा स सस्थामध्युपपन्नः, माघूर्णकः (साधुः) भागतः, प्रतिलम्भिसः, भाजनं तेन ग्राहितं, एहि मन प्रस्थापयेत्युखानं नीतः, लोकेन च भाजनहस्तो रष्टः, ततस्तं उपहसन्ति-प्रबजितः सुन्दरीनन्दः, ततः स तथापि गत व्यानं, साधुना सम देशमा कृता, उत्कटराग इति न शक्यते मार्गे आनेतुं, वैक्रियसब्धिका भगवान् साधुः, ततोऽनेन चिन्तित-नान्य उपाय इति अधिकतरेणोपलोभयामि, पश्चात् मेरुः प्रवर्तितः, नेच्छति, अवियोगिकः, मुहसेनानयामि, प्रतिश्रुते प्रवृत्तः, मकंटयुगलं विकुर्वित, अन्ये भणन्ति| सत्यमेव राई, साधुना भणित:-सुन्दरीवानों का कष्टतरा, अप्पणा समं चालिओ सो जाण एध विसजेहिति भिविवेगिमो दीप अनुक्रम [१] R amipramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~874~ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार वि०१ प्रत आवश्यक सो भणइ-भगवं! अपडती सरिसब मेरूवमत्ति, पच्छा विजाहरमिहुणं दिह, तत्थ पुच्छिओ भणइ-तुल्ला चेव, पच्छा हारमा देवमिहुणगं दिह, तत्थवि पुच्छिओ भणति-भगवं! एईए अग्गओ वानरी सुंदरित्ति, साहुणा भणियं-थोवेण धम्मेण द्रीया एसा पाविजइत्ति, तओ से उवगर्य, पच्छा पवइओ। साहुस्स परिणामिया बुद्धी ॥ वइरसामिस्स पारिणामिया-माया ॥४३॥ जणाणुवत्तिया, मा संघो अवमन्निजिहितित्ति, पुणो देवेहिं उज्जेणीए वेउबियलद्धी दिन्ना, पाडलिपुत्ते मा परिभविहित्ति उबियं कयं, पुरियाए पबयणओहावणा मा होहितित्ति सर्व कहेययं ॥ चलणाहए-राया तरुणेहिं बुग्गाहिजइ, जहा थेरा कुमारमचा अवणिज्जंतु, सो तेसिं परिक्खणणिमित्तं भणइ-जो रायं सीसे पाएण आहणइ तस्स को दंडो, तरुणा भणति-तिलं तिलं छिदियवओ, थेरा पुच्छिया-चिंतेमोत्ति ओसरिया, चिंतेंति-नूर्ण देवीए को अण्णो आहणइत्ति आगया भणति-सकारेययो । रण्णो तेसिं च पारिणामिया ॥ आमंडेत्ति-आमलगं, कित्तिमं एगेण णायं अइकढिणं सूत्राक GRkRRANGE दीप अनुक्रम [१] १स भणति-भगवन् ! अघटमाना सर्पप दब मेरूपमेति, पश्चाद्विद्याधरमिधुर्म दृष्ट, तत्र पृष्टो भणति-नुल्यैव, पश्चादेवमिथुनं राष्ट्र, तत्रापि पृष्ठो भणति| भगवन् ! एतस्या अप्रतो बानरी सुन्दरीति, साधुना भणितं-सोकेन धर्मेणैषा प्राप्यत इति, सतम्तेनोपगतं, पश्चात्मनजितः । साधोः पारिण्यामिकी बुद्धिः। बजस्वामिनः पारिणामिकी-माता नानुवर्तिता, मा सोऽधमानीति, पुनर्देवैरुजयिन्यां वैक्रियलब्धिदत्ता, पाटलीपुत्र मा पराभूदिति वैक्रियं कृतं, पुरिकायां प्रवचनापभाजना मा भूदिति सर्व कथयितव्यं ॥ चरणाइतौ-राजा तरुयैर्युतायते, यथा स्थविराः कुमारामात्या अपनीयन्ता, स तेषां परीक्षानिमित्र भगतियो राजानं शीर्षे पादेन भान्ति तस्य को दण्डः, तरुणा भणन्ति-तिलशरछेत्तच्यः; स्थविराः पृष्टाः-चिन्तयाम इत्पपस्ताः, चिन्तयन्ति-नूनं को देव्या अन्य भादन्ति इत्यागता भणन्ति-सत्कारयितव्यः । राज्ञस्तेषां च पारिणामि की । आम्लकमिति आमलक, कृत्रिममेकेन ज्ञातमतिकठिनं, ॥४३॥ AMIndiDraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~875~ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) अकाले थियो होइत्ति । तस्सवि पारिणामिया ॥ मणित्ति-सप्पो पक्षिण अंडगाणि खाइ रुक्खे विलग्गित्ता, तत्थ गिद्धेण आलयं विलग्गिय मारिओ, मणी तत्थ पडिओ, हेहा कुवो, तस्स पाणियं रत्तिभूयं, णीणियं कूवाओ साभावियं होइ, दारएण थेरस्स कहियं, तेण विलग्गिऊण गहिओ। थेरस परिणामिया ॥ सप्पो-चंडकोसिओ चिंतेइ-एरिसो महप्पा इच्चाइ विभासा, एयस्स पारिणामिगी ॥ खग्गीति-सावयपुत्तो जोवणवलुम्मत्तोधम्म न गिण्हइ, मरिऊण खग्गिसु उववण्णो, पिहिस्स दोहिंवि पासेहिं जहा पक्खरा तहा चंमाणि लंबंति, अडवीए च उप्पहे जणं मारेइ, साहुणो य तेणेव पहेण अइ-18 लकमंति, वेगेण आगओ, तेएण ण तरइ अलिउं, चिंतेइ, जाई संभरिया, पञ्चक्खाणं, देवलोगगमनं । एयरस पारिणाVामिगी। थूमे-पेसालाए णयरीए णाभीए मुणिमुबयस्त धूभो, तस्स गुणेण कृणियस्स ण पडइ, देवया आगासे कृणियं| भणइ-'समणो जइ कूलवालए मागहियं गणिय लभिस्सति । लाया य असोगचंदए बेसालि नगरिं गहेस्सइ ॥१॥ सो| अकालेऽत्वाम्लं भवतीति । तस्यापि पारिणामिकी ॥ मणिरिति-सर्पः पक्षिणामण्डानि खादति वृक्ष विलाय, सन्त्र गृधेणालयं विलय मारितः, मणिस्तत्र पतितः, अधस्तारकूपः, तस्य पानीयं रतीभूतं, निष्काशितं कूषात् स्वाभाविक भवति, द्वारकेण स्थविराय कथितं, तेन विलम्य गृहीतः । स्थविरस पारिणा| मिकी ॥ सर्पः-चण्डकी शिकश्चिन्तयति-ईशो महात्मा इत्यादि निभाषा, एतस्य पारिणामिकी । खड्गी-श्रावकपुत्रो बीवनमलोन्मत्तो धर्म न गृह्णाति, मृत्वा | खनिषूत्पन्नः, पृहेऽस्य द्वयोरपि पार्श्वयोः यथा पक्षी तथा चर्मणी लम्बेते, अटव्यां चोरपथे जनं मारयति, साधवश्व तेनैव पथा व्यतिक्रमन्ति, वेगेनागतः, | तेजसा न शक्नोति अभिगो, चिन्तयति, जातिः स्मृता, प्रत्याख्यानं, देवलोकगमनं । एतस्य पारिणामिकी ॥ स्तूपः-विशालायां नगर्थी मध्ये मुनिसुन| तस्य स्तूपः, तख गुणेन कूपिकस्य (श्यमेऽपि)न पतति, देवताऽऽकाशे कूणिकं भगति-'श्रमणो वदा कूलवालको मागधिकां गणिका लप्स्यते (गमिष्यति)। | राजा च अशोकचन्द्रः (कौणिकः) वैशाली नगरी ग्रहीयति ॥1॥स अनुक्रम [१] JanEaia n d HUMIDramom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~876~ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५१], भाष्यं [१५१...] (४०) वि १ प्रत सूत्राक - आवश्यकतामग्गिज्जइ । तस्स का उप्पत्ती?-एगस्स आयरियस्स चेलओ अविणीओ, तं आयरिओ अंबाडेइ, सो वेरै वहइ । अन्नया हारिभ आयरिया सिद्धसिलं तेण समं वंदगा विलग्गा, उत्तरंताण वधाए सिला मुक्का, दिछा आयरिएण, पाया ओसारिया द्रीया इहरा मारिओ होतो, सावो दिण्णो-दुरात्मन् ! इत्थीओ विणस्सिहिसित्ति, मिच्छावाई एसो भवउत्तिकाउं तावसासमे अच्छइ, नईए कूले आयावेइ, पंथभासे जो सत्थो एइ तओ आहारो होइ, णईए कूले आयावेमाणस्स सा गई अण्ण॥४३७॥ ओ पवूढा, तेण कूलवारओ नाम जाय, तत्थ अच्छतो आगमिओ, गणियाओ सद्दावियाओ, एगा भणइ-अहं आणेमि, कवडसाविया जाया, सत्येण गया, वंदइ उद्दाणे होइयम्मि चेइयाई वदामि तुम्भे य सुया, आगयामि, पारणगे मोदगा संजोइया दिना, अइसारो जाओ, पओगेण ठविओ, उवत्तणाईहिं संभिन्न चितं, आणिओ, भणिओ-रणो वयणं करेहि, कहं !, जहा वेसाली घेप्पइ, थूभो नीणाविओ, गहिया । गणियाकूलवालगाणं दोण्हवि पारिणामिगी। इंदपाउयाओ चाणकेण पुषभणियाओ, एसा पारिणामिया ॥ उक्तोऽभिप्रायसिद्धः, साम्प्रतं तपःसिद्धप्रतिपिपादयिषयाऽs: मार्यते । तस्य कोत्पत्तिः -एकस्याचार्यस्य क्षुल्लकः (शिष्यः) अविनीतः, तमाचार्यों निर्भसयति, स वैरं वहति । अन्यदा भाचार्याः सिद्धयौलं तेन समं वन्दितुं विलमाः, भवतरतां वधाय शिला मुक्ता, दृष्टाऽऽचार्येण, पादौ प्रसारिती इतरथा मृता अभनिष्यन् , शापो दत्तः-दुरात्मन् ! सीतो विनयसीति,8 | मिथ्यावादी एष भववितिकृत्वा तापसाश्रमे तिष्ठति, नद्याः कूले आतापयति, पन्याभ्यासे यः सार्थ आयाति तत आहारो भवति, नद्याः कूले आतापयतः सा ४ानधन्यतो न्यूढा, तेन कूलचारको नाम जातं, तत्र तिष्ठन् आगमितः, गणिकाः शब्दिताः, एका भणति-भहमानयामि, कपटश्राविका ज्ञाता, सार्थेन गता, पन्यते || | विधवायो जातायां चेत्यानि वन्दे यूर्य च श्रुताः, आगताऽस्मि, पारणके मोदकाः सांयोगिका दत्ताः, अतिसारो जातः, प्रयोगेण स्थापितः (नीरोगीकृतः), हर्तनादिभिः संभिन्नं चितं, आनीतः, भणितः-राज्ञो वचनं कुरु, कर्थ ?-यथा वैशाली गृह्यते, स्तूपो बिकाशितः (पातितः), गृहीता । गणिकाकूलवालकयोईयोरपि पारिणा मिकी । इन्द्रपादुकाः (हन्दकुमार्यः) चाणक्येन पूर्वभणिताः, एषा पारिणामिकी॥ उदाणे दीप अनुक्रम [१] ॥४३७॥ andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~877~ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५२], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो ढप्पहारिव । सो कम्मकूखयसिद्धो जो सव्वक्खीणकम्मंसो ॥९५२ । व्याख्या-'न क्लामति' न लमं गच्छति यः सत्वस्तपसा-बाह्याभ्यन्तरेण स एवंभूतस्तपःसिद्धः, अग्लानित्वाद्, दृढप्रहारिवदिति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एगो धिज्जाइयओ दुईतो अविणयं करेइ, सो ताओ थाणाओ नीणिओ हिंडतो चोरपलिमल्लिणो, सेणावइणा पुत्तो गहिओ, संमि मयंमि सोचेव सेणावई जाओ, निकिवं |पहणइत्ति दढप्पहारी से णामं कयं । सो अन्नया सेणाए समं एगं गार्म हतुं गओ, तत्थ य एगो दरिद्दो, तेण पुत्तभंडाण मगंताणं दुद्धं जाएत्ता पायसो सिद्धो, सो य हाइड गओ, चोरा य तत्थ पडिया, एगेण सो तस्स पायसो दिहो, छुहियत्ति | गहाय पहाविओ, ताणि खुड्डुगरूवाणि रोवंताणि पिउमूलं गयाणि, हिओ पायसोत्ति, सो रोसेणं मारेमित्ति पहाविओ, महिला अवयासेउं अच्छइ, तहवि जाइ जहिं सो चेव चोरसेणावई गाममज्झे अच्छइ, तेण गंतूण महासंगामो कओ.2 | सेणावइणा चिंतियं-एएण मम चोरा परिभविजन्ति, तओ असिं गहाय नियं छिण्णो, महिला से भणइ-हा णिकिव ! _ एको धिग्जातीयो दुर्दान्तोऽविनयं करोति, स ततः स्थानात् निष्काशितो हिन्डमान चौरपहीमाश्रितः, सेनापतिना पुत्रो गृहीतः, तस्मिन् मृते स एव सेनापतिजातः, निष्कृपं महन्तीति दृढप्रहारी तस्य नाम कृतं । सोऽन्यदा सेनया समं एक प्रामं हन्तुं गतः, तत्र धैको दरिद्रः, तेन पुत्रपौत्रेभ्यो मार्गयङ्ग्यः दुग्धं याचिरवा पायस साधितं, स च नातुं गतः, चौराश्च तत्र पतिताः, एकेन तस्य तत्पायसं दृष्ट, क्षुधाः इति तद्गृहीत्वा प्रधावितः, तानि क्षुहरूपाणि रुदन्ति । पितृमूलं गतानि, हृतं पायसमिति, स रोपेण मारवामीति प्रभावितः, महिला निवारयितुं तिष्टति, तथापि याति यत्र स एव चौरसेनापत्तिाममध्ये तिष्ठति, तेन गत्वा महासंमामः कृतः, सेनापतिना चिन्तितं-एतेन मम चौराः परिभूयन्ते, ततोऽसिं गृहीत्वा निर्दयं छिना, महिला तस्य भगति-हा निष्कृप! SHARERAKAR दीप अनुक्रम [१] A mioran.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~878~ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५२], भाष्यं [१५१...] (४०) -- नमस्कार आवश्यक- किमयं कयंति?, पच्छा सावि मारिया, गम्भोऽवि दोभाए कओ फुरफुरेइ, तस्स किवा जाया-अहम्मो कओ, चेडरूवेहारिभ- हिंतो दरिद्दत्ति पउत्ती उवलद्धा, दढयरं निवेयं गओ, को उवाओत्ति, साहू दिवा, पुच्छिया यऽणेण-भगवं! को एत्थ द्रीया उवाओ!, तेहिं धम्मो कहिओ, सो य से उवगओ, पच्छा चारित्तं पडिवजिय कम्माण समुग्घायणढाए घोरं खंतिअभि॥४३८॥ ग्गहं गिहिय तत्थेव विहरइ, तओ हीलिजइ हम्मति य, सो समं अहियासेइ, घोराकारं च कायकिलेसं करेइ, असणाइ व अलंभतो सम्म अहियासेइ, जावऽणेण कम्मं निग्याइयं, केवलं से उप्पण्णं, पच्छा सो सिद्धत्ति ॥ उक्तस्तपःसिद्धा, साम्प्रतं कर्मक्षयसिद्धप्रतिपादनाय गाथाचरमदलमाह-'सो कम्म' इत्यादि, स कर्मक्षयसिद्धः, यः किंविशिष्ट इत्यत आह'सर्वक्षीणकर्माशः' सर्वे-निरवशेषाः क्षीणाः कौशाः-कर्मभेदा यस्य स तथाविध इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुतविधिना प्रतिपादयन्नाह दीहकालरय जंतु कम्मं से सिअमहहा । सिधंतंति सिद्धस्स सिद्धत्तमुवजायइ ॥ ९५३ ॥ व्याख्या-दीर्घः सन्तानापेक्षयाऽनादित्वात् स्थितिबन्धकालो यस्य तद्दीर्घकालं, निसर्गनिर्मलजीवानुरञ्जनाच्च कमव 5:45 अनुक्रम किमेताकृतमिति, पश्चात्ताऽपि मारिता, गाँऽपि विधाकृतः स्फुरति, तस्य कृपा जाता-अधर्मः कृतः, चेटरूपेभ्यो दरिब इति प्रवृत्तिरुपलब्धा, रस- 11 ॥४३८॥ तरं निवेदं गतः, क उपाय इति, साधवो दृष्टाः, पृष्टाश्चानेन-भगवन् ! कोऽत्रोपायः!, तैर्धर्मः कथितः, स च तस्योपगतः, पश्चाचारित्रं प्रतिपय कर्मणां समुद्धातनार्थाय धोरं शान्यभिप्रहं गृहीत्वा तव विहरति, ततो हीयते हन्यते च, स सम्बन अध्यासयति घोराकारं च कायक्लेश करोति, भवानादि वाऽलभमानः सम्यगव्यास्ते, यावनेन कर्म निर्धातितं (निहतं), केवलं तस्योत्पक्ष, पश्चास सिख इति । samlanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ कर्मक्षयसिद्धस्य स्वरुपम् वर्णयति ~879~ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५३], भाष्यं [१५१...] (४०) SASSASSASALAR RESS भण्यते ततश्च दीर्घकालं च तद्रजश्चेति दीर्घकालरजः, यच्छन्दः सर्वनामत्वादुद्देशवचनः, यत्कर्मत्थंप्रकार, तुशब्दो भव्यकर्मविशेषणार्थः, यतो नाभव्यकर्म सर्वथा ध्मायत इति, ततश्च यद्भव्यकर्मेति शेषितम्' इति शेषं कृतं शेषितं-स्थित्यादिभिः प्रभूतं सत् स्थितिसङ्ख्यानुभावापेक्षयैवानाभोगसद्दर्शनज्ञानचरणाधुपायतः शेषम्-अल्पं कृतमिति भावः, प्राक् किंभूतं सच्छेषितम् ? इत्याह-'अष्टधा सितम्' अष्टप्रकार ज्ञानावरणादिभेदेन सितं 'सित वर्णबन्धनयो रिति वचनात् सितंबद्धमुच्यते । इदानीं निरुक्तिमुपदर्शयति-तच्छेषितं सितं कर्म ध्मातं, 'ध्मा शब्दाग्निसंयोगयो रिति वचनात् ध्यानानलेन दग्धं महाग्निना लोहमलवदस्येति सिद्ध इति, एवं कर्मदहनानन्तरं सिद्धस्यैव सतः किं -सिद्धत्वमुपजायते, नासिद्धस्य, 18 'भव्योऽसिद्धो न सिध्यतीति वचनाद्, उपजायत इत्यपि तदात्मनः स्वाभाविकमेव सदनादिकर्मावृतं तदावरणविगमेनाऽऽविर्भवति तत्त्वतः तथाऽपि लौकिकवाचोयुक्त्या व्यवहारदेशनयोपजायत इत्युच्यते, अथवा सिद्धस्य सिद्धत्वं भावरूपमुपजायते, न तु प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपमिति नयमतान्तरव्यवच्छेदार्थमेतत् , तथा चाऽऽहुरेके-'दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिर्श न काश्चिद्विदिशं न काचित् , स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् | ॥१॥ इत्यादि, एवंविधसिद्धत्वभावे दीक्षादिप्रयासवैयात् निरन्वयक्षणभङ्गस्य चायुज्यमानत्वात् , प्रदीपदृष्टान्तस्याप्यसिद्धत्वात् , तथाहि-तत्र त एव पुद्गला भास्वरं रूपं परित्यज्य तामसं रूपान्तरमासादयन्तीत्यलं विस्तरेण, अथवा|ऽन्यथा व्याख्यायते 'दीर्घकालरयं' इति रया-वेगः चेष्टाऽनुभवः फलमित्यनान्तरं, ततश्च दीर्घकालो रयोऽस्येति १ भवे-संसारे भवो भव्यः अभव्य इत्यर्थः अनुक्रम [१] dainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~880~ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५३], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सुत्रांक आवश्यक-दीर्घकालरयं, सन्तानोपभोग्यत्वादिति भावनां, यदव्यकर्म 'सेसित' मिति श्लेषितमिति संश्लिष्टं लेश्यानुभावात् अष्टधा। नमस्कार हारिभ- सितमित्यादि पूर्ववत्, अथवाऽन्यथा व्याख्यायते-दीर्घकालरज इति, तत्र रज इव रजः सूक्ष्मतया स्नेहबन्धनयोग्यत्वाद्वा। वि०१ द्रीया रज इत्युच्यते, यशव्यकर्मेति च नैवं व्याख्यायते, साक्षात्कमाभिधानेन सर्वनाम्नो निरर्थकत्वात्, प्रकरणादेव भव्यस्याव॥४३९॥ गम्यमानत्वाद, अभव्यस्य सिद्धत्वानुपपत्तेः, ततश्च जन्तुकर्म इति व्याख्यायते, जन्तुः-जीवस्तस्य कर्म जन्तुकर्म, अनेनाव-I कर्मव्यवच्छेदमाह, तच्च से' तस्य जन्तोः 'असितम्' असितमिति कृष्णमशुभं संसारानुबन्धित्वात, एवंविधस्यैव च क्षयः श्रेयानिति, न तु शुभस्य स्वरूपस्येति भावना, अष्टधा सितमिति पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ प्रथमव्याख्यापक्षमधि-15 कृत्य सम्बन्धमाह-तत्कर्मशेषं तस्य समस्थित्यसमस्थिति वा स्यात्, न तावत् समस्थिति विषमनिबन्धनत्वात् , नाप्यस-14 मस्थिति चरमसमये युगपत् क्षयासम्भवादिति, एतदयुक्तम्, उभयथाऽप्यदोषात्, तथाहि-विषमनिवन्धनत्वे सत्यपि विचित्रक्षयसम्भवात् कालतः समस्थितित्वाविरोध एव, चरमपक्षेऽपि समुद्घातगमनेन समस्थितिकरणभावाददोषः, न चैतत् स्वमनीषिकयैवोच्यते, यत आह नियुक्तिकारःनाऊण वेअणिज्ज अहबहुअं आउअं च थोवागं । गंतूण समुग्धाय खवंति कम्मं निरवसेसं ॥ ९५४॥ व्याख्या-'ज्ञात्वा' केवलेनावगम्य, किं ?-वेदनीय कर्म, किंभूतं ?-'अतिबहु' शेषभवोपग्राहिकर्मापेक्षयाऽतिप्रभूतमि-IX४३९॥ त्यर्थः, तथाऽऽयुष्कं च कर्म 'स्तोकम्' अल्पं, तदपेक्षयैव ज्ञात्वेति वर्तते, अत्रान्तरे गत्वा' प्राप्य 'समुद्घातम्' इति सम्यग्अपुनर्भावेनोत्-प्रावल्येन कर्मणो हननं घात:-प्रलयो यस्मिन् प्रयत्नविशेषेऽसौ समुद्घात इति तम्, 'क्षपयन्ति' विनाश दीप अनुक्रम [१] wjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'समुद्घातः, तस्य व्याख्या एवं स्वरुपम् इत्यादि ~881~ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५४], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक सायन्ति कर्म वेदनीयादि निरवशेषम्' इति निरवशेषमिव निरवशेष प्रभूततमक्षपणाच्छेषस्य चान्तर्महर्शमात्रकालावधिद्रावात. किचिच्छेषत्वादसत्कल्पनेति भावना, अत्राऽऽह-'ज्ञात्वा वेदनीयमतिवहि'त्यत्र को नियमः ? येन तदेव बह # .११०००) तथाऽऽयुष्कर्मवाल्पमिति, अनोच्यते, वेदनीयस्य सर्वकर्मभ्यो बन्धकालबहत्वात् केवलिनोऽपि तद्वन्ध कस्वादायुष्कस्य चाल्पत्वात्, उक्तं च-जाव णं अयं जीवे एयइ यइ चलइ फंदद ताव णं अवविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहवंधए वा णो णं अबंधए' आयुष्कस्य त्वान्तर्मुहर्तिक एवं बन्धकाल इति उक्तंच-"सिर्य तिभागे सिय तिभागतिभागे" इत्याद्यलं प्रसनेनेति गाथार्थः ॥९५४ ॥ इदानी समददातादिखरूपप्रतिपादनायैवाऽऽह-- दंड कवाडे मधंतरे अ साहरणया सरीरत्थे । भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझणा चेव ॥ ९५५ ॥ व्याख्या हसमुद्घातं प्रारभमाणः प्रथममेवावजीकरणमभ्येति, आन्तमौहर्तिकमुदीरणावलिकायां कर्मपुद्गलप्रक्षेपव्यापाररूपमित्यर्थः, ततः समुद्घातं गच्छति, तस्य चायं क्रमः-इह प्रथमसमय एव स्वदेहविष्कम्भतुल्यविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चाऽऽयतमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं जीवप्रदेशसङ्घातं दण्डं दण्डस्थानीयं केवली ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिगद्वयप्रसारणात् पाश्वेतो लोकान्तगामिनं कपाटमिव कपाट करोति, तृतीयसमये तदेव कपाट दक्षिणोत्तर| यावदर्य जीव एजते ग्वेजते चलति स्पन्दते तावदष्टविधबन्धको चा सप्तविधचन्धको वा पविधयन्धको वा एकविधवधिको वा भाबन्धकः । २ स्या|विभागे स्वाघ्रिभागनिभागे दीप अनुक्रम SESSAGAR Khandinraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~882~ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५५], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया वि०१ प्रत ॥४४॥ सूत्राक CCCCCCCESSTORY दिग्द्वयप्रसारणान्मन्धसदृशं मन्यानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव, एवं च लोकस्य प्रायो बहु परिपूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति, अनुश्रेणिगमनात्, चतुर्थे तु समये तान्यपि मन्धान्तराणि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवतीति, तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्कक्रमात् प्रतिलोम मन्थान्तराणि संहरति-जीवप्रदेशान सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति धनतरसङ्कोचात् , सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति दण्डात्मनि सङ्कोचात्, अष्टमसमये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति । अमुमवार्थं चेतसि निधायोक्तं दण्डकपाट मन्थान्तराणि संहरणता प्रतिलोममिति गम्यते, शरीरस्थ इति वचनात् , न चैतत् स्वमनीषिकाव्याख्यानं, यत उक्तम्-प्रथमे समये दण्डं कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ १॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाट संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥२॥” इति । तस्येदानी समुद्घातगतस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते-योगाश्चमनोवाकायाः, अत्रैषां कः कदा व्याप्रियते ?, तत्र हि मनोवाग्योगयोरव्यापार एव, प्रयोजनाभावात् , काययोगस्यैव केवलस्य व्यापारः, तत्रापि प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककायप्राधान्यादौदारिकयोग एव, द्वितीयषष्ठसप्तमे समये पुनरौदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणे वीर्यपरिस्पन्दादौदारिककार्मणमिश्रः, त्रिचतुर्थपञ्चमेषु तु बहिरेवौदारिकात् बहुतरप्रदेशव्यापारादसहायः कार्मणयोग एव, तन्मात्रचेष्टनादिति, अन्यत्राप्युक्तम्-"औदारिकप्रयोका प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रौदारिकयोका सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पश्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भव-18 त्यनाहारको नियमादू ॥२॥” इति, कृतं प्रसङ्गेन । भाषायोगनिरोध इति, कोऽर्थः १-परित्यकसमुद्घातः कारणवशाद | दीप अनुक्रम [१] ॥४४०॥ __ Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~883~ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५५], भाष्यं [१५१...] (४०) % प्रत सूत्राक योगत्रयमपि व्यापारयेत् , तदर्थ मध्यवर्तिनं योगमाह-भाषेति, अत्रान्तरेऽनुत्तरसुरपृष्टो मनोयोग सत्यं वाऽसत्यामृर्ष वा प्रयुक्ते, एवमामन्त्रणादौ वाग्योगमपि, नेतरौ द्वौ भेदी द्वयोरपि, काययोगमप्यौदारिकं फलकप्रत्यर्पणादाविति, ततोन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव कालेन योगनिरोधं करोति, अत्र केचिद् व्याचक्षते-जघन्येनैतावता कालेन उत्कृष्टतस्तु पनिमांसैरिति, एतच्चायुक्तं, 'क्षपयन्ति कर्म निरवशेष'मिति वचनात् फलकादीनां च प्रज्ञापनायां प्रत्यर्पणस्यैवोक्तत्वात्, एवं च सति || ग्रहणमपि स्याद्, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः स हि योगनिरोधं कुर्वन् प्रथममेव याऽसौ प्रथममेव शरीरप्रदेशसम्बद्धा मनःपर्याप्तिनिवृत्तिर्यया पूर्व मनोद्रव्यग्रहणं कृत्वा भावमनः प्रयुक्तवान् तत्कर्मसंयोगविघटनाय मन्त्रसामर्थेन विषमिव स भगवाननुत्तरेणाचिन्त्येन निरावरणेन करणवीर्येण तव्यापार निरुध्य च 'पजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदवाई तबावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए २ निरुंभमायो सो । मणसो सबनिरोहं करेजsसंखेजसमएहिं ॥२॥पज्जत्तमेत्तवेदियजहन्नवयजोगपज्जया जे या तदसंखगुणविहीणे समए समए निरुभतो ॥ ३ ॥ सबवइजोगरोहं संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहमपणगस्स पढमसमयोववन्नस्स ॥४॥ जो किर जोगो तद-1 संखेजगुणहीणमेकिके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुंचंतो॥५॥ रंभइ स कायजोगं संखाईएहि चेव समएहि । DI .पर्याप्तमात्रसंझिनो यावन्ति जपन्ययोगस्य । भवन्ति मनोद्रग्याणि तबलापारश्च यावन्मावः ॥1॥ तसंस्थगुणविहीनं समये समये निरुन्धन् सः। मनसः सर्व निरोधं कुर्यादसण्येयसमयः ॥ २॥ पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियस्य जघन्यवचःपर्यवा यावन्तः । तदसण्येयगुणविहीनान् समये समये निरुन्धन् ॥ ३॥ Mसर्ववचोयोगरोधं संरुपातीतः करोति समयः । ततमा सूक्ष्मपनकस प्रथमसमयोत्पनख ॥४॥ यः किल जपम्पो बोगसदसक्ष्येयगुणहीनमेंककस्मिन् । समये निरुन्धन् देहविभागं च मुवन् ॥ ५॥ रुणद्धि स काययोर्ग संख्यातीतैरेव समयैः। दीप अनुक्रम [१] N ATOR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~884 ~ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यकहारिभद्वीया ॥४४१॥ Educa आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्ति: [९५५], अध्ययन [ - ], तो कयजोगनिरोहो सेलेसी भावणांमेइ ॥ ६ ॥ त्ति' ततः शैलेशीं प्रतिपद्यते, तत्र शिलाभिनिर्वृत्तः शिलानां वाsयमित्यणू शैल:- पर्वतस्तेषामीशः प्रभुः शैलेशः, स च मेरुः, तस्येवेयं स्थिरतासाम्यादवस्थेति शैलेशी, अथवा अशैलेशः २४ सन्नभूततद्भावाच्छै लेशवदाचरति शैलेशीभवतीत्यध्याहारः, अथवा सर्वसंवरः शीलं तस्येशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधावस्थेति शैलेशी, इयं च मध्यमप्रतिपच्या इस्वपञ्चाक्षरोहिरणमात्रं कालं भवति, स च काययोगनिरोधारम्भात् प्रभृति ध्यायति सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिध्यानं, ततः सर्वनिरोधं कृत्वा शैलेश्यवस्थायां व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपातीति, ततो भवोपग्राहिकर्मजालं क्षपयित्वा ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः अस्पृशद्गत्या सिध्यतीति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ ९५५ ॥ अनन्तरगाथोपन्यस्तसमुद्घातमात्रापेक्षः संबन्धः । आह-समुद्घातगतानां विशिष्टकर्मक्षयो भवतीति काऽत्रोपपत्तिरिति, उच्यते, प्रयत्नविशेषः, किं निदर्शनम् ? इत्यत आह भाष्यं [ १५१...] जह उल्ला साडीआ आसुं सुक्कद विरल्लिआ संती । तह कम्मलहुअ समए वर्च्चति जिणा समुग्धायं ॥ ९५६ ॥ व्याख्या—'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, आर्द्रा शाटिका, जलेनेति गम्यते, 'आशु' शीघ्रं 'शुप्यति' शोषमुपयाति, 'विरहिता' विस्तारिता सती भवति, तथा तेऽपि प्रयत्नविशेषात् कर्मोदकमधिकृत्य शुध्यन्तीति शेषः, यतश्चैवमतः 'कर्मलघुतासमये ब्रजन्ति जिनाः समुद्घात' मिति तत्र कर्मण - आयुष्कस्य लघुता कर्मलघुता, लघोर्भावो लघुता स्तोकतेत्यर्थः, | तस्याः समयः - कालः कर्मलघुतासमयः, स च भिन्नमुहूर्तप्रमाणस्तस्मिन्, अथवा कर्मभिर्लघुता कर्मलघुता, जीवस्येति १ ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशी भावनामेति ॥ ६ ॥ For Parts Only ~885~ नमस्कार० वि० १ ॥४४१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९५६], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक दाहदयं, सा च समुदघातानन्तरभाविन्येव भूतोपचारं कृत्वाऽनागतैव गृह्यते, तस्याः समयस्तस्मिन् , भिन्नमुहूर्त एवेत्यर्थः, Mवजन्ति-च्छन्ति जिना:-केवलिनः 'समुद्घात' प्राक्प्ररूपितस्वरूपमिति गाथार्थः ॥९५६ ॥ साम्प्रतं यदुक्तं शैलेशी का प्रतिपद्यते सिध्यति 'ति, तत्रासावेकसमयेन लोकान्ते सिध्यतीत्यागमः, इह च कर्ममुक्तस्य तदेशनियमेन गतिनोपपद्यते । इति मा भूदव्युत्पन्न विभ्रम इत्यतस्तन्निरासेनेष्टार्थसिद्ध्यर्थमिदमाहMI लाउअ एरंडफले अग्गी घूमे उसू धणुविमुक्के । गइपुब्वपओगेणं एवं सिद्धाणवि गईओ ॥ ९५७ ॥ व्याख्या-अलाबु एरण्डफलम् , अग्निधूमी, इषुधेनुर्विमुक्तः, अमीषां यथा तथा गमनकाले स्वभावतस्तन्निवन्धनाभावेऽपि देशादिनिवतैव गतिः पूर्वप्रयोगेण प्रवतेते, एवमेव व्यवहिततुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् सिद्धानामपि गतिरित्यक्षरार्थः ॥ ९५७ ॥ अधुना भावार्थः प्रयोगैर्निदश्यते-तत्र कर्मविमुक्तो जीवः सकृदू मेवाऽऽलोकाद्गच्छति, असङ्गत्वेन तथाविधपरिणामत्वादष्टमृत्तिकालेपलिताधोनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधालाबुवत् तथा छिन्नबन्धनत्वेन तथाविधपरिणतेस्तद्विधैरण्डफलवत तथा स्वाभाविकपरिणामत्वादग्निधूमवत् तथा पूर्वप्रयुक्ततक्रियातथाविधसामर्थ्यानुम्पयलेरितेषुवद्, इषुः-शर इति गाथार्थः ॥ ९५७ ॥ एवं प्रतिपादिते सत्याह-- कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइडिया । कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई १ ॥ ९५८ ॥ व्याख्या-कप्रतिहता'क्व प्रतिस्खलिता इत्यर्थः 'सिद्धा'मुक्काः, तथा 'क्क सिद्धाः प्रतिष्ठिताः'क्व व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा 'क बोन्दि त्यक्त्वा' क तर्नु परित्यज्येत्यर्थः, इह बोन्दिः तनुः शरीरमित्यनर्थान्तरं, तथा व मत्वा 'सिध्यन्ति' निष्ठितार्था दीप 555553 अनुक्रम [१] Sawwwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | सिद्ध-जीवानाम् गति, स्थिति, स्थान आदिनाम् वर्णनं ~886~ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [?] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४४२ ॥ Jus Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्ति: [९५८], सिद्धशीलायाः वर्णनं भवन्ति इत्यनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, अथवैकवचनतोऽप्येवमुपन्यासः सूत्रशैल्याऽविरुद्ध एव यतोऽन्यत्रापि प्रयोगः'वत्थगंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जेण भुंजंति ण से चाइति बुच्चई ॥ १ ॥ इत्यादि गाथार्थः ॥ ९५८ ॥ इत्थं चोदकपक्षमधिकृत्याऽऽह- भाष्यं [ १५१...] अलोए पहिया सिडा, लोअग्गे अ पट्टिभ । इहं बोंदिं वहता णं, तत्थ मंतॄण सिज्झई ॥ ९५९ ॥ व्याख्या- 'अलोके' केवलाकाशास्तिकाये 'प्रतिहताः' प्रतिस्खलिताः सिद्धा इति, इह च तत्र धर्मास्तिकायाद्यभावात् तदानन्तर्यवृत्तिरेव प्रतिस्खलनं, न तु सम्बन्धिविधातः, प्रदेशानां निष्प्रदेशत्वादिति सूक्ष्मधिया भावनीयं, तथा 'लोकाग्रे च' पञ्चास्तिकायात्मक लोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिताः, अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा 'इह' अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तः 'बोन्दि' तनुं 'त्यक्त्वा' परित्यज्य सर्वथा किम् ? ' तत्र' लोकार्थं 'गत्वा' अस्पृशद्गत्या समयप्रदेशान्तरमस्पृशन्नित्यर्थः, 'सिध्यन्ति' निष्ठितार्था भवन्ति सिद्ध्यति वेति गाथार्थः ॥ ९५९ ॥ तत्र 'लोकाम्रे च प्रतिष्ठिता' इति यदुक्तं तदङ्गीकृत्याssह-क पुनर्लोकान्त इत्यत्रान्तरमाह ईसीप भाराए सीआए जोअणमि लोगंतो । बारसहिं जोअणेहिं सिद्धी सब्बहसिद्धाओ ।। ९६० ॥ व्याख्या – ईषत्प्राग्भारा-सिद्धिभूमिस्तस्याः 'सीताया' इति द्वितीयं भूमेर्नामधेयं योजने लोकान्त ऊर्ध्वमिति गम्यते, अध १] [लोकान्ता लोकायोः संगतत्वात् सिद्धानां च लोकान्तावस्थाननियमात् अलोकप्रदेशेष्वंशेन गत्वा निवर्त्तनरूपं स्खलनं प्रदेशानां निष्प्रदेशत्वाच संगतम्, अमे तु धर्माद्यभावात्र स्वादेव गमनं * संबन्धे विधातः For Parts Only ~887~ नमस्का ० वि० १ १४४२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः www.lancibrary.org Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९६०], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक स्तिर्यक् चैतावति क्षेत्रे तदसम्भवात् , तथा चाऽऽह-द्वादशभिर्योजनैः सिद्धिः ऊर्व भवति, कुतः सर्वार्थसिद्धाद् । विमानवरात्, अन्ये तु 'सिद्धि' लोकान्तक्षेत्रलक्षणामेव व्याचक्षते, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः ॥ ९६० ॥ साम्प्रतमस्या एव स्वरूपव्यावर्णनायाहनिम्मलदगरयवण्णा तुसारगोखीरहारसरिवन्ना । उत्ताणयछत्सयसंठिआ य भणिया जिणवरेहिं ॥ ९६१॥ __ व्याख्या-निर्मलदगरजोवर्णाः, तत्र दगरजः-इलक्ष्णोदककणिकाः, तुषारगोक्षीरहारतुल्यवर्णाः, तुषारः-हिम, गोक्षी-13 रादयः प्रकटार्थाः । संस्थानमुपदर्शयन्नाह-उत्तानच्छत्रसंस्थिता च भणिता जिनवरैरिति, उत्तानच्छत्रवत् संस्थितेति | गाधार्थः ॥ ९६१ ॥ अधुना परिधिप्रतिपादनेनास्या एवोपायतः प्रमाणमभिधित्सुराहएगा जोअणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई। तीसं चेव सहस्सा दो चेव सया अउणवन्ना ॥ ९६२ ।। व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरं पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणक्षेत्रस्याल्पमन्यत् परिध्याधिक्यं प्रज्ञापनातोऽवसेयम्, इहौधत इदमिति ॥९६२॥ इदानीमस्या एव बाहुल्य प्रतिपादयन्नाह बहुमज्झदेसभागे अद्वेव य जोअणाणि बाहल्लं । चरमंतेसु अतणुई अंगुलऽसंखिजईभागं ॥ ९६३ ॥ व्याख्या-मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशभागस्तस्मिन्नष्टैव योजनानि बाहुल्यम्-उच्चैस्त्वं 'चरिमान्तेषु' पश्चिमान्तेषु तन्वी, कियता तनुत्वेन ? इत्यत्राह-अङ्गुलासययभार्ग यावत् तन्वीति गाथार्थः ॥ ९६३ ॥ सा पुनरनेन क्रमेणेत्थं । तन्वीति दर्शयति दीप अनुक्रम Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~888~ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९६४], भाष्यं [१५१...] (४०) नमस्कार वि०१ द्रीया प्रत सुत्रांक 564 आवश्यक- गंतण जोअणं जोअणं तु परिहाइ अंगुलपुहत्तं । तीसेऽविअ परंता मच्छिअपत्ताउ तणुअयरा ॥ ९६४॥ हारिभ Pा व्याख्या-गत्वा योजनं योजनं तु वीप्सा परिहायईत्ति परिहीयते 'अङ्गुलपृथक्त्वं' पृथक्त्वं पूर्ववत्, 'एवम्' अनेन प्रकारेण हानिभावे सति तस्या अपि च पर्यन्ताः, किं-मक्षिकापत्रात् तनुतरा घृतपूर्णतथाविधकरोटिकाकारेति माथार्थः ॥९॥ ॥४४३|| स्थापना चेयं । अस्थाश्चोपरि योजनचतुर्विशतिभागे सिद्धा भवन्तीति ।। अत एवाऽऽह ईसीपन्भाराए सीआए जोअणमि जो कोसो। कोसस्स य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ॥ ९६५ ॥ व्याख्या-ईषत्प्रारभारायाः सीताया इति पूर्ववत्, 'योजने' उपरिवर्तिनि यः क्रोश उपरिवत्येव, क्रोशस्य च तस्य पडूभागे' उपरिवर्तिन्येव सिद्धानामवगाहना भणिता, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता इति वचनाद्, अयं माथार्थः ॥ ९६५॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह तिनि सया तित्तीसा धणुत्तिभामो अ कोसछम्भाओ। परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छभाए ॥९६६॥ दिव्याख्या-त्रीणि शतानि धनुषां त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुस्त्रिभागश्च क्रोशषडूभागो वर्तते 'यत्' यस्मात् परमावगा होऽयं सिद्धानामिति वर्तते, ततस्ते कोशस्य षड्भाग इति गाथार्थः ॥ ९६६ ॥ अथ कथं पुनस्तत्र तेषामुपपातोऽव गाहना वेत्यत्रोच्यतेदाउत्ताणउच्च पासिल्लउच्च अहवा निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं सो तह उववजए सिहो ॥९३७॥ व्याख्या-उत्तानको वा पृष्ठतो वा अर्धावनतादिस्थानतः पार्थस्थितो वा तिर्यस्थितो वा, अथवा निष्पन्न(षण्ण)कश्चैव दीप अनुक्रम 40 ॥४४॥ JABERainine S andiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~889~ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] Jus Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९६७], भाष्यं [ १५१...] अध्ययन [ - ], इति प्रकटार्थ, किंबहुना ?, यो 'यथा' येन प्रकारेणावस्थितः सन् करोति कालं स ' तथा ' तेन प्रकारेणोपपद्यते सिद्ध इति गाथार्थः ॥ ९६७ ॥ किमित्येतदेवम् १ इत्यत आहइहभवभिन्नागारो कम्मवसाओ भवंतरे होइ । न य तं सिद्धस्स जओ तंमी तो सो तयागारो ॥ ९६८ ॥ व्याख्या - इहभवभिन्नाकारः 'कर्मवशात्' कर्मवशेन 'भवान्तरे' स्वर्गादौ भवति, तदाकारभेदस्य कर्मनिबन्धनत्वात्, न च कर्म सिद्धस्य, यतः 'तस्मिन्' अपवर्गे ततोऽसौ सिद्धः 'तदाकार:' पूर्वभवाकार इति गाथार्थः ॥ ९६८ ॥ तथा किं चजं ठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरमसमयंमि । आसी अ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥ ९६९ ॥ व्याख्या - यत् संस्थानमत्रैव 'भवं' संसारं मनुष्यभवं वा त्यजतः सतश्चरमसमये आसीत् प्रदेशघनं तदेव संस्थानं तत्र तस्य भवति, त्रिभागेन रन्ध्रापूरणादिति गाथार्थः ॥ ९६९ ॥ तथा चाऽऽह |दीहं वा हस्तं वा जं चरमभवे हविज्ज संठाणं । तत्तो विभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिआ ॥ ९७० ॥ व्याख्या- 'दीर्घ वा' पञ्चधनुःशतप्रमाणं 'हवं वा' हस्तद्वयप्रमाणं, वाशब्दात् मध्यमं वा विचित्रं यत् 'चरमभवे' पश्चिमभवे भवेत् संस्थानं 'ततः' तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना, कुतः ? - त्रिभागेन शुषिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्तेऽस्यामवस्थायामित्यवगाहना – स्वावस्यैवेति भावः, 'भणिता' उक्ता तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः ॥ ९७० ॥ साम्प्रतमुत्कृष्टादिभेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुराह- तिन्नि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो अ होइ बोद्धव्वो । एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिआ ॥ ९७९ ॥ For Parent acibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~890~ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७१], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक-चत्तारिअ रयणीओ रयणितिभागणिआ य बोद्धव्वा । एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिआ॥९७२॥ नमस्कार हारिभ- एगा य होइ रयणी अट्ठेव य अंगुलाइ साहीआ। एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ ॥ ९७३ ॥ वि०१ द्रीया व्याख्या-एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धाः, नवरमाक्षेपपरिहारौ भाष्यकृतोती, ती चेमी-'किह मरुदेवीमाणं? नाभीओ ॥४४॥ जेण किंचिदूणा सा । तो किर पंचसयं चिय अहवा संकोयओ सिद्धा॥१॥ सत्तूसिएसु सिद्धी जहन्नओ किहमिहं बिह त्थेसु । सा किर तित्थकरेसुं सेसाणं सिज्ममाणाणं ॥२॥ ते पुण होज बिहत्था कुम्मापुत्तादओ जहन्ने] । अन्ने संवट्टियसत्तहत्थसिद्धस्स हीणत्ति ॥३॥ बाहुल्लतो य सुत्तमि सत्त पंच य जहन्नमुक्कोस । इहरा हीणन्भहियं होजंगुलधणुपु-18 हुत्तेहिं ॥४॥ अच्छेरयाइ किंचिवि सामन्नसुए ण देसियं सर्व । होज व अणिबद्धं चिय पंचसयादेसवयणं व ॥५॥ इत्यादि कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानामभिधातुकाम आह ओगाहणाइ सिद्धा भवतिभागेण हुँति परिहीणा । संठाणमणित्वंत्थं जरामरणविप्पमुक्काणं ॥ ९७४ ॥ अनुक्रम [१] ॥४४४॥ कथं मरुदेवीमान ?, नाभितो बेन किजिदूना सा। ततः किल पञ्चशतमेव अथवा संकोचतः सिद्धा ॥ १॥ सप्लोचिटतेषु सिद्धिः जघन्यतः कथमिद दिवसेषु । सा किल तीर्थकराणां शेषाणां सिध्यताम् ॥ २॥ ते पुनर्भवेयुर्विहस्ताः कूर्मापुनादयो जघन्वेन । अन्ये संवर्तितसप्तहस्तसिदस्य हीनेति ॥ ३ ॥ बाहुल्यतश्च सूत्रे सप्त पञ्च (भतानि) च जघन्या उस्कृष्टा (प) इतरया हीनमभ्यधिक (क्रमशः) भवेदखलधनुःषक्तवैः ।। ४॥ आनर्यादि (मावर्यतया) किश्चिदपि सामान्धभुते न देशितं सर्वम् । भवेद्वाऽनियमेव पञ्चशतानादेववचनवत् ॥ ५॥ Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~891~ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७४], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरम् 'अनित्थंस्थम्' इतीदंप्रकारमापन्नमित्वम् इत्थं तिष्ठतीति इत्थस्थं न इत्यस्य अनिस्थस्थमिति केनचित् प्रकारेण लौकिकेनास्थितमित्यर्थः ॥ ९७४॥ आह-ओषत एते किं देशभेदेन स्थिता ? उत नेति !, नेत्याह-कुत इति ?, अत्रोच्यते, यस्मात् जस्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नन्नसमोगाढा पुड्डा सब्वे अ लोगते ॥ ९७५॥ व्याख्या-यत्रैव देशे चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् एकः 'सिद्धः निर्वृतः, तत्रानन्ताः किं ?,-'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयण विमुक्काः भवक्षयविमुक्ताः, अनेन पुनः खेच्छया भवावतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह, अन्योऽन्यसमवगाढा, तथाविधाचिन्त्यपरिणामवत्त्वात्, धर्मास्तिकायादिवत् , 'पुडा सबे य लोगते'त्ति स्पृष्टाः-लग्नाः सर्वे च लोकान्ते, अथवा स्पृष्टः सर्वैश्च लोकान्त इति, लोकाने च प्रतिष्ठिता इति वचनाद्, अयं गाथार्थः ॥ ९७५ ॥ तथाफुसइ अणंते सिद्धे सब्बपएसेहि निअमसो सिद्धो। तेऽवि असंखिजगुणा देसपएसेहिं जे पुठा ॥ ९७६ ॥ व्याख्या-स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैः आत्मसम्बन्धिभिः 'नियमात्' नियमेन सिद्ध इति, तथा तेऽप्यस यगुणा वर्तन्ते देशप्रदेशैयें स्पृष्टाः, तेभ्यः सर्वदेशप्रदेशस्पृष्टभ्यः, कर्थ:-सर्वात्मप्रदेशैरनन्ताः स्पृष्टाः, तथैकैकप्रदेशेना-13 [प्यनन्ता एव, स चासङ्ख्येयप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलानन्तकं सकलजीवप्रदेशासोयानन्सकैर्गुणितं यथोक्तमेव भवतीति गाथा॥९७६ ॥ स्थापना चेयं- साम्प्रतं सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयशाह दीप अनुक्रम [१] P anorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~892 ~ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७७], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया नमस्कार वि०१ ॥४४५|| असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे अ नाणे । सागारमणागारं लक्खणमेअं तु सिद्धाणं ॥ ९७७ ॥ । व्याख्या-अविद्यमानशरीराः, औदारिकादिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः, जीवाश्चेति घनाश्चेति विग्रहः, घनग्रहणं शुपिरापूरणाद्, उपयुक्ताः, क ?, 'दर्शने च' केवलदर्शने 'ज्ञाने च' केवल एवेति, इह च सामान्यसिद्धलक्षणमेतदिति ज्ञापनार्थं सामान्यालम्बनदर्शनाभिधानमादावदुष्टमिति, तथा च सामान्यविषयं दर्शनं विशेषविषयं ज्ञानमिति, ततश्च साकारानाकारं सामान्यविशेषरूपमित्यर्थः, 'लक्षणं' तदन्यव्यावृत्तं स्वरूपमित्यर्थः 'एतद् अनन्तरोत, तुशब्दो वक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थः, 'सिद्धानां' निष्ठितार्थानामिति गाथार्थः ॥ ९७७ ॥ साम्प्रतं केवलज्ञानदर्शनयोरशेषविषयतामुपदर्शयति|केवलनाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवल दिडीहिणताहि ॥ ९७८ ॥ व्याख्या-केवलज्ञानेनोपयुक्ताः केवलज्ञानोपयुक्ताः न त्वन्तःकरणेन, तदभावादिति,किं ?, 'जानन्ति' अवगच्छन्ति सर्व|भावगुणभावान्' सर्वपदार्थगुणपर्यायानित्यर्थः, प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनः द्वितीयः पर्यायवचन इति, गुणपर्यायभेदस्तु सहवर्तिनो गुणाः क्रमवर्तिनः पर्याया इति, तथा 'पश्यन्ति सर्वतः खलु' खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव, केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः' केवलदर्शनैरनन्तैरित्यर्थः, अनन्तत्वात सिद्धानामिति, इह चाऽऽदौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिद्धान्तीति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ९७८ ॥ आह-किमेते युगपज्जानन्ति पश्यन्ति च ? इत्याहोश्विदयुगपदिति, अत्रोच्यते, अयुगपत् , कथमवसीयते ?, यत आह अनुक्रम [१] ॥४४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~893~ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९७९], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक नाणंमि दसणमि अ इत्तो एगयरयंमि उवउत्ता । सव्यस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा ॥९७९ ॥ | व्याख्या-ज्ञाने दर्शने च एत्तो'त्ति अनयोरेकतरस्मिन्नुपयुक्ताः, किमिति ?, यतः सर्वस्य केवलिनः सत्त्वस्य 'युगपत् एकPस्मिन् काले द्वौ न स्तः उपयोगी, तत्स्वाभाव्यात्, क्षायोपशमिकसंवेदने तथादर्शनात् , अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥९७९ ॥ साम्पतं निरुपमसुखभाजश्च त इत्येतदुपदर्शयन्नाहनवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सब्बदेवाणं । सिहाणं सुक्खं अब्बाबाहं उचगयाणं ॥९८० ॥ व्याख्या नैवास्ति 'मानुषाणां' चक्रवर्त्यादीनामपि तत् सौख्य, नैव 'सर्वदेवानाम्' अनुत्तरसुरपर्यन्तानामपि, यत् सिद्धानां सौख्यम् , 'अन्याबाधामुपगताना मिति तत्र विविधा आबाधा व्याबाधा न व्याबाधा अव्यावाधा तामुपसामीप्येन गतानां प्राप्तानामिति गाथार्थः ॥ ९८० ॥ यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति सुरगणसुहं समत्तं सब्बद्धापिंडिअं अर्णतगुणं । न य पावइ मुत्तिसुहंऽणताहिवि वग्गवरगर्हि ॥ ९८१ ॥ व्याख्या-'सुरगणसुखं' देवसङ्घातसुखं 'समस्त' सम्पूर्णम् अतीतानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः, पुनश्च 'सबद्धापिंडिअं' सर्वकालसमयगुणितं, तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवंप्रमाणं किलासद्भावकल्पनयैकैकाकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं | सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्तं भवति, न च प्रामोति तथाप्रकर्षगतमपि 'मुक्तिसुखं' सिद्धिसुखम् , अन|न्तैरपि वर्गवगैगितमिति गाथार्थः ॥ ९८१॥ तथा चैतदभिहितार्थानुवाद्येवाऽऽह ग्रन्थकार:सिद्धस्स सुहो रासी सब्बद्धापिंडिओ जइ हविज्जा । सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासे न माइजा ॥ ९८२॥ दीप अनुक्रम [१] JAMERatnana Hindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~894 ~ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९८२], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- व्याख्या-सिद्धस्य सम्बन्धिभूतः सुखराशिः, सुखसात इत्यर्थः, 'सर्वाद्धापिण्डितः' सर्वकालसमयगुणितः यदि हारिभ भिवेदित्यनेन कल्पनामात्रतामाह, सः 'अनन्तवर्गभक्तः अनन्तवर्गापवर्गितः सन् समीभूत एवेति भावार्थः, 'सर्वाकाशे द्रीया लोकालोकाकाशे न मायात्, अयमत्र भावार्थ:-इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं गृह्यते, ततश्च यत आरभ्य शिष्टानां ॥४४६॥ सुखशब्दप्रवृत्तिः तमाहादमवधीकृत्यैकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशेष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशय गुणनिष्ठां गतः, ततश्चासावत्यन्तोपमातीतैकान्तौत्सुक्यविनिवृत्तिस्तिमिततमकल्पश्चरमाहाद एव सदा सिद्धानामिति, तस्माचारतः प्रथमाञ्चोर्ध्वमपान्तरालवर्तिनो ये गुणतारतम्येनाहादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशादिभ्योऽपि भूयांस इत्यतः किलोक्त-सबागासे ण माएज्जत्तीत्यादि, अन्यथा नियतदेशावस्थितिः तेषां कथमिति सूरयोऽभिदधतीति, तथा चैतत्संवाद्यार्षवेदेऽप्युक्तम् , इत्यलं व्यासङ्गनेति गाथार्थः ॥९८२॥ साम्प्रतमस्यैवंभावस्यापि सतः निरुपमतां प्रतिपादयन्नाहजह नाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे विआणतो । न चएइ परिकहेउं उवमाइ तहिं असंतीए ॥९८३ ।। व्याख्या-यथा नाम कश्चित् म्लेच्छ: 'नगरगुणान् सद्गृहनिवासादीन् 'बहुविधान्' अनेकप्रकारान् विजानन्नरण्यगतः सन्नन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुं, कुतो निमित्तात् , इत्यत आह-उपमायां तत्रासत्यामिति गाधाक्षरार्थः ॥ ९८३ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एगो महारण्णवासी मिच्छो रणे चिइ, इओ य एगो राया आसेण| | अवहरिवं तं अडविं पवेसिओ, तेण दिहो, सकारेऊण जणवयं णीओ, रण्णावि सो णयर, पच्छा उवयारित्ति गाढमुवचरिओ 1एको महारण्यबासी म्लेच्छोरण्ये तिष्ठति, इतको राजाश्वेनापत्य तामटवीं प्रवेशितः, तेन दृष्टः, सरकार्य जनपदं नीतः, राज्ञाऽपि स नगर, 8 ॥४४६॥ पश्चादुपकारीति गावमुपचारिता, % 44ERECX अनुक्रम 25 JABERatinintamational manorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~895~ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९८३], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक जहा राया तहा चिहइ धवलघराईभोगेणं, विभासा,कालेण रणं सरिउमारद्धो, रण्णा विसजिओ गओ, रण्णिगा पुच्छंतिकेरिसं णयरंति !, सो विआणतोऽवि तत्थोवमाऽभावा ण सक्कइणयरगुणे परिकहिउँ । एस दिहतो, अयमत्थोवणओत्ति इअ सिद्धाणं सुक्खं अणोवम नत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणित्तोसारिक्खमिणं सुणह वुच्छं ॥९८४॥ व्याख्या-'इय' एवं सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते, किमित्यत आह-यतो नास्ति तस्यौपम्यमिति, तथाऽपि बालजनप्रतिपत्तये किश्चिद्विशेषेण 'एत्तो'त्ति आर्षत्वादस्य सादृश्यमिदं वक्ष्यमाणलक्षणं शृणुत, वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ जह सब्चकामगुणिअं पुरिसो भोत्तूण भोअणं कोइ । तोहाबुहाविमुक्को अच्छिज्ज जहा अमिअतित्तो॥९८५॥ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'सर्वकामगुणितं' सकलसौन्दर्यसंस्कृतं पुरुषो भुक्त्वा भोजनं कश्चित्, भुज्यत इति भोजन, तक्षुद्विमुक्तः सन् आसीत यथाऽमृततृप्तः, अबाधारहितत्वाद् इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्यौत्सुक्यविनिवृत्त्या सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावाप्याऽशेषौत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा वाधान्तरसम्भवात् सुखाभाव इति, उक्तं च-"वेणुवीणामृदङ्गादिनादयुक्तेन हारिणा । श्लाघ्यस्मरकथाबद्धगीतेन स्तिमितः सदा ॥१॥ कुट्टिमादौ विचित्राणि, रष्टा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनानन्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अम्बरागुरुकपूरधूपगन्धानि- तस्ततः। पटवासादिगन्धांश्च, व्यक्तमाघ्राय निःस्पृहः॥३॥ नानारससमायुक्तं, भुक्त्वाऽनमिह मात्रया। पीत्वोदकं च १ यथा राजा तथा तिष्ठति धवलगृहादिभोगेन, विभाषा, कालेनारग्यं सत्मारधः, राज्ञा विसृष्टो गतः, भारण्यकाः पृच्छन्ति-कीदर्श नगरमिति', स विजानमपि तत्रोपमाऽभावान शनोति नगरगुणान् परिकवयितुं । एष ष्टान्ता, भयमत्रोपमय इति । दीप अनुक्रम Plandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~896~ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] Educa आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा - ], निर्युक्तिः [९८५], anil अध्ययन [ - ], आवश्यक तृष्वात्मा, खादयन् स्वादिमं शुभम् ॥ ४ ॥ मृदुतूली समाक्रान्तदिव्यपर्यङ्कसंस्थितः । सहसाऽम्भोदसंशब्दश्रुतेर्भयघनं हारिभ- * भृशम् ॥ ५ ॥ इष्टभार्यापरिष्वक्तस्तद्रतान्तेऽथवा नरः । सर्वेन्द्रियार्थसम्प्राध्या, सर्ववाधानिवृत्तिअम् ॥ ६ ॥ यद्वेदयति द्रीया शं हृद्यं, प्रशान्तेनान्तरात्मना । मुक्तात्मनस्ततोऽनन्तं सुखमा हुर्मनीषिणः ॥ ७ ॥” इति गाथार्थः ॥ ९८५ ॥ ||४४७ ॥ ४ इअ सव्वकालतित्ता अडलं निव्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमव्याबाहं चिर्हति सुही सुहं पत्ता ॥ ९८३ ॥ व्याख्या- 'इअ' एवं सर्वकालतृप्ताः स्वस्वभावावस्थितत्वात्, अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः, सर्वदा सकलौत्सुक्य विनिवृत्ते, यतश्चैवमतः 'शाश्वतं ' सर्वकालभावि 'अय्याबाधं' व्यावाधापरिवर्जितं सुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्तीति योगः । सुखं प्राप्ता इत्युक्ते सुखिन इत्यनर्थकं, न, दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तवसुखप्रतिपादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्याबाधं सुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तस्तिष्ठन्ति न तु दुःखाभावमात्रान्विता एवेति गाथार्थः ॥ ९८६ ॥ साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह सिद्धत्ति अ बुद्धत्ति अ पारगयत्ति अ परंपरगयत्ति । उम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥ ९८७ ॥ व्याख्या- 'सिद्धा इति च' कृतकृत्यत्वात् 'बुद्धा इति च' केवलेन विश्वावगमात् 'पारगता इति च' भवार्णवपारगमनात् 'परम्परागता इति च' पुण्यवीजसम्यक्त्वज्ञान चरणक्रमप्रतिपत्त्युपायमुक्तत्वात् परम्परया गताः परम्परागता उच्यन्ते, * परिव्यक० + प्रतिपत्योपाय ० For Parts Only भाष्यं [ १५१...] ~897~ नमस्कार० वि० १ ॥४४७॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९८७], भाष्यं [१५१...] (४०) उन्मुक्तकर्मकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात् , तथा अजरा वयसोऽभावात् , अमरा आयुषोऽभावात् , असङ्गाश्च सकलले | शाभावादिति गाथार्थः ॥ ९८७ ॥ साम्प्रतमुपसंहरन्नाहनिच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबाहं सुक्खं अणुहुंती सासर्य सिद्धा ॥९८८ ॥ व्याख्या-वस्तुतो व्याख्यातैवेति न प्रतन्यते ॥ सिद्धाण नमोकारो जीवं० ॥ ९८९ ।। सिद्धाण नमुक्कारो धन्नाण०॥९९०॥सिद्धाण नमुक्कारो एवं० ॥ ९९१॥ सिद्धाण नमुक्कारो सव. विइ होइ मंगलं ॥९९२ ॥ ___ गाथासमूहः सामान्यतोऽर्हन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषतस्तु सुगम एवेति ॥ उक्तः सिद्धनमस्काराधिकारः, साम्प्रतमाचार्यनमस्कारः, तत्राचार्य इति कः शब्दार्थः, उच्यते,-'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य ( चरेः) आङि वा गुरा (पा० ३१-१०० वार्तिके ) विति ण्यति आचार्य इति भवति, आचर्यतेऽसावित्याचार्यः, कार्यार्थिभिः सेव्यत इत्यर्थः, अयं च नामादिभेदाच्चतुर्विधः, तथा चाऽऽहनामंठवणादविए भावमि चउव्विहो उ आयरिओ। दबंमि एगभविआई लोइए सिप्पसस्थाई ॥९९३ ॥ व्याख्या नामाचार्यः स्थापनाचार्यः द्रव्याचार्यो भावाचार्य इति, तत्र नामस्थापनाचायौं सुगमौ, द्रव्याचार्यमागमनोआगमादिभेदं प्रायः सर्वत्र तुल्यविचारत्वादनादृत्य ज्ञशरीरादिव्यतिरिक्त द्रव्याचार्यमभिधातुकाम आह'द्रव्य' इति द्रव्याचार्यः, 'एकभविकादिः' एकभविकः बद्धायुष्कः अभिमुखनामगोत्रश्चेति, अथवा आदिशब्दाद् अनुक्रम [१] SANEairaula मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'आचार्य' अर्थ, चतुर्विध-भेदाः, स्वरुपम्, तस्य नमस्कारस्य फलम् ~898~ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [8] आवश्यक हारिभ द्वीया In૪૪૮ની आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ १ / गाथा-], निर्युक्तिः [९९३], अध्ययन [ - ], द्रव्यभूत आचार्य द्रव्याचार्यः, भूतशब्द उपमावाची, द्रव्यनिमित्तं वा य आचारवानित्यादि, भावाचार्यः - लौकिको लोकोत्तरश्च तत्र लौकिकः शिल्पशास्त्रादिः, तत्परिज्ञानात् तदभेदोपचारेणैवमुच्यते, अन्यथा शिल्पादिग्राहको गृह्यते, अन्ये त्वेवं भेदमकृत्वोघत एवैनमपि द्रव्याचार्य व्याचक्षत इति गाथार्थः ॥ ९९३ ॥ अधुना लोकोत्तरान् भावाचार्यान् प्रतिपादयन्नाह - Education intemational पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता । आधारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥ ९९४ ॥ व्याख्या - 'पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यभेदात्, 'आचार' मिति आइ मर्यादायां चरणं चार:मर्यादया कालनियमादिलक्षणया चार आचार इति उक्तं च- 'काले विणए बहुमाणे' इत्यादि, तमाचरन्तः सन्तः अनुछानरूपेण, तथा प्रभाषमाणाः अर्थाद् व्याख्यानेन, तथाऽऽचारं दर्शयन्तः सन्तः प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्वारेण, मुमुक्षुभिः सेव्यन्ते येन कारणेनाचार्यास्तेनोच्यन्त इति गाथार्थः ॥ ९९४ ॥ अमुमेवार्थे स्पष्टयन्नाह भाष्यं [ १५१...] आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणाओ वा । जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य ॥ ९९५ ॥ व्याख्या- 'आचारः' पूर्ववत् ज्ञानादिपञ्चप्रकारः, तस्य आचारस्याऽऽचरणात् प्रभाषणाद्वा, वाशब्दाद् दर्शनाद्वा हेतोयें मुमुक्षुभिर्गुणैर्वा ज्ञानादिभिराचर्यन्ते ते भावाचार्या उच्यन्ते, एतञ्चाऽऽचरणाद्यनुपयोगतोऽपि सम्भवति यतः अत आह'भावाचारोपयुक्ताश्च' भावार्थमाचारो भावाचारः तदुपयुक्ताश्चेति गाथार्थः ॥ ९९५ ॥ आयरियणमोकारो ४ इत्यादिगाथाप्रपश्चः सामान्येनाईनमस्कारवदवसेयः विशेषतस्तु सुगम एवेति ॥ For PrintPesa ~899~ नमस्कार • वि० १ ||४४८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९९५], भाष्यं [१५१...] (४०) उक्त आचार्यनमस्काराधिकारः ॥ साम्प्रतमुपाध्यायनमस्काराधिकारः, तत्रोपाध्याय इति कः शब्दार्थ; ?, उच्यते-'इङ् अध्ययने' इत्यस्य 'इडश्चेति (पा० ३-३-२१) पञ् उपाध्यायः, उपेत्याधीयतेऽस्मात् साधवः सूत्रमित्युपाध्यायः, सच || नामादिभेदाच्चतुर्विध इति, आह चIM नामंठवणादविए भावमि चउव्विहो उवज्झाओ। वे लोइअ सिप्पाइ निण्हगा वा इमे भावे ॥ ९९६ ॥ | व्याख्या-इयं हि तत्त्वत आचार्यगाथातुल्ययोगक्षेमेवेति न प्रतन्यते, नवरं निहवा वेति यदुक्तं तत्र ते घभिनिवे शदोषेणैकमपि पदार्थमन्यथा प्ररूपयन्तो मिथ्यादृष्टय एव इत्यतो द्रव्योपाध्याया इति ॥ | बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ कहिओ बुहेहिं । तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वुचंति ॥ ९९७ ॥ व्याख्या-द्वादशाङ्ग आचारादिभेदात् 'जिनाख्यातः' अर्हत्प्रणीतः स्वाध्यायः वाचनानिबन्धनत्वात् इह सूत्रमेव गृह्यते, कथितः 'बुधैः' गणधरादिभिः, य इति गम्यते, 'त' स्वाध्यायमुपदिशन्ति वाचनारूपेण यस्मात् कारणादुपाध्यायास्तेनोच्यन्ते, उपेत्याधीयतेऽस्मादित्यन्वर्थोपपत्तेरिति गाथार्थः ॥ ९९७ ॥ साम्प्रतमागमशैल्याऽक्षरार्थमधिकृत्योपाध्यायशब्दार्थ निरूपयन्नाहउत्ति उचओगकरणे ज्झत्ति अ झाणस्स होइ निदेसे । एएण हुँति उज्झा एसो अन्नोऽवि पजाओ ॥ ९९८ ॥ । व्याख्या-उ इत्येतदक्षरं उपयोगकरणे वर्तते, ज्झ इति चेदं ध्यानस्य भवति निर्देशे, ततश्च प्राकृतशैल्या एतेन कार-| णेन भवति उज्झा, उपयोगपुरस्सरं ध्यानकर्तार इत्यर्थः, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ ९९८॥ अथवा * अनुक्रम [१] wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'उपाध्याय- अर्थ, विविध-व्याख्या:, चतुर्विध-भेदा:, इत्यादि ~900~ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [९९९], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया ॥४४९॥ उत्ति उवओगकरणे वत्तिभ पावपरिवजणे होइ । झत्ति अ झाणस्स कए उत्ति अ ओसकणा कम्मे ॥ ९९९ ॥ नमस्कार वि०१ __व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरमुपयोगपूर्वकं पापपरिवर्जनतो ध्यानारोहणेन कर्माण्यपनयन्तीत्युपाध्याया इत्यक्षरार्थः, अक्षरार्थाभावे च पदाथाभावप्रसङ्गात्पदस्य तत्समुदायरूपत्वादक्षरार्थः प्रतिपत्तव्य इत्यलं विस्तरेण ||९९९॥'उपज्झायनमोकारों' ४ इत्यादिगाधापूगः सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषस्तु सुगम एवेति ॥ | उक्त उपाध्यायनमस्काराधिकारः ॥ साम्प्रतं साधुनमस्काराधिकारः, तत्र 'राध साध संसिद्धा' वित्यस्य उणूप्रत्ययान्तस्य | साधुरिति भवति, अभिलषितमर्थ साधयतीति साधुः, स च नामादिभेदतः, तथा चाऽऽहनामं १ ठवणासाहू २ दश्वसाहू अ ३ भावसाहू अ ४। व्बंमि लोइआई भावंमि अ संजओ साहू ॥१०००॥ व्याख्या-वस्तुतो गताथैवेति न विवियते ।। द्रव्यसाधून प्रतिपादयन्नाहघडपडरहमाईणि उ साहंता हुँति दब्बसाहुत्ति । अहवावि ब्वमूआ ते हुंती व्वसाहुत्ति ॥१००१॥ व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरमथवाऽपि 'द्रव्यभूता' इति भावपर्यायशून्याः ।। भावसाधून प्रतिपादयन्नाहनिव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहति साहुणो । समा य सब्बभूएमु, तम्हा ते भावसाहुणो ॥१००२ ॥ ॥४४९॥ व्याख्या-निर्वाणसाधकान् 'योगान्' सम्यग्दर्शनादिप्रधानव्यापारान् यस्मात् साधयन्ति साधवः विहितानुष्ठानपर-14 त्वात् , तथा समाश्च सर्वभूतेष्विति योगप्राधान्यख्यापनार्थमेतत् , तस्मात्ते भावसाधव इति गाथार्थः ॥ १००२ ।। अनुक्रम [१] JABERatinintamational Ansarayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'साधु'- अर्थ, विविध-व्याख्या:, चतुर्विध-भेदाः, इत्यादि ~901~ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००३], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक किं पिच्छसि साहणं तवं व निअम व संजमगुणं वा । तो वंदसि साहूणं? एअं मे पुच्छिओ साह ॥१००३ ॥ व्याख्या-निगदसिद्धा॥ विसयसुहनिअत्ताणं विसुद्धचारित्तनिअमजुत्ताणं । तच्चगुणसाहयाणं सदीयकिचजयाण नमो॥१००४॥ व्याख्या-निगदसिद्धैव, असहाइ सहायत्तं करंति मे संजर्म करितस्स । एएण कारणेणं नमामिऽहं सव्वसाहणं ॥१००५॥ व्याख्या-परमार्थसाधनप्रवृत्तौ सत्यां जगत्यसहाये सति माकृतशैल्या वाऽसहायस्य सहायत्वं कुर्वन्ति मम संयम ४ कुर्वतः सतः, अनेन प्रकारेण नमाम्यहं सर्वसाधुभ्य इति गाथार्थः ।। १००५ ॥ 'साहूण नमोकारो४ इत्यादिगाथाविस्तरः सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयः, विशेषस्तु सुखोन्नेय इति कृतं प्रसङ्गेन । उक्तं वस्तुद्वारम् , अधुनाऽऽक्षेपद्वारावयवार्थप्रचिकटिषयेदमाह नेवि संखेवो व वित्थारु संखेवो दुविहु सिद्धसाहूणं । वित्थारओऽणेगविहो पंचविहो न जुज्जई तम्हा ॥१००६॥ व्याख्या-इहास्या गाथाया अंशकक्रमनियमाच्छन्दोविचितौ लक्षणमनेन पाठेन विरुध्यते 'न संखेवो' इत्यादिना, यत इहाद्य एवं पञ्चमानोऽशकः इत्यतोऽपपाठोऽयमिति, ततश्चापिशब्द एवात्र विद्यमानार्थों द्रष्टव्यः, 'णवि संखेको इत्यादि, इह किल सूत्रं संक्षेपविस्तरद्वयमतीत्य न वर्तते, तत्र संक्षेपवत् सामायिकसूत्रं, विस्तरवञ्चतुर्दश पूर्वाणि, इदं १ सय २ साहण ३ इतः प्राक् एसो पंचममुकारो' इत्यादिश्लोकः पुस्तकादशेषु, न च वृती व्याययातः पूचितो वा सः। दीप अनुक्रम [१] AREaintimintinuational dancinary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~902~ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००६], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक- हारिभ द्रीया प्रत * ॥४५०॥ सुत्रांक पुनर्नमस्कारसूत्रमुभयातीतं, यतोऽत्र न संक्षेपो नापि विस्तर इत्यपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धा, 'संक्षेपो द्विविध' इति | नमस्कार | यद्ययं संक्षेपः स्यात् ततस्तस्मिन् सति द्विविध इति-द्विविध एव नमस्कारो भवेत् , सिद्धसाधुभ्यामिति, कथं !, परिनिर्व- वि०१ तार्हदादीनां सिद्धशब्देन प्रहणात् संसारिणां च साधुशब्देनेति, तथा च नेते संसारिणः सर्वे एवं साधुखमतिलक्ष्य वर्तन्त इति, तदभावे शेषगुणाभावात् , अतस्तन्नमस्कार एवेतरनमस्कारभावात् , अधायं विस्तरः, इत्येतदप्यचारु, यस्माद् विस्तरतोऽनेकविधः प्रामोति, तथा चऋपभाजितसम्भवाभिनन्दनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभेत्यादिमहावीरवर्द्धमानस्वामिपर्यन्तेभ्यश्चतुर्विशत्यर्हद्रयः, तथा सिद्धेभ्योऽपि विस्तरेण-अनन्तरसिद्धेभ्यः परम्परसिद्धेभ्यः प्रथमसमयसिद्धेभ्यः द्वितीयतृतीयसमयादिसङ्ख्येयासक्येयानन्तसमयसिद्धेभ्यः, तथा तीर्थलिङ्गचारित्रप्रत्येकबुद्धादिविशेषणविशिष्टेभ्यः तीर्थकर|सिद्धेभ्यः अतीर्थकरसिद्धेभ्यः तीर्थसिद्धेभ्यः इत्येवमादिरनन्तशो विस्तरः, यतश्चैवमत आह-पक्षद्वयमप्यङ्गीकृत्य पञ्चविधः-पञ्चप्रकारो न युज्यते यस्मान्नमस्कार इति गाथार्थः ॥ १००६ ॥गतमाक्षेपद्वारम् , अधुना प्रसिद्धिद्वारावयवार्थ उच्यते-तत्र यत्तावदुक्तं 'न संक्षेप' इति, तन्न, संक्षेपात्मकत्वात् , ननु स कारणवशात् कृतार्थाकृतार्थापरिग्रहेण सिद्धसाधुमात्रक एवोक्तः, सत्यमुक्तोऽयुक्तस्त्वसौ, कारणान्तरस्यापि भावात् , तच्चोक्तमेव, अथवा वक्ष्यामः 'हेतुनिमित्त'मित्या-18 दिना, सति च वैविध्ये सकलगुणनमस्कारासम्भवादेकपक्षस्य व्यभिचारित्वात् , तथा चाऽऽह अरहताई निअमा साहू साहू अ तेसु भइअब्बा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवा सिद्धो॥१००७॥ व्याख्या-इहाईदादयो नियमात् साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात् , साधवस्तु 'तेषु' अर्हदादिषु 'भक्तव्याः विकल्प दीप 5454 अनुक्रम [१] ॥४५॥ mamibraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~903~ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००७], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक नीयाः, यतस्ते न सर्वेऽहंदादयः, किं तर्हि १, केचिदहन्त एव ये केवलिनः, केचिदाचार्याः सम्यक् सूत्रार्थविदः, केचिदुपाध्यायाः सूत्रविद एव, केचिदेतव्यतिरिकाः शिष्यकाः साधव एव, नार्हदादय इति, ततश्चैकपदव्यभिचारान्न तुल्या भिधानता, तन्नमस्करणे च नेतरनमस्कारफलमिति, प्रयोगश्च-साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टाहदादिगुणनमस्कृतिफलप्राप-10 इणसमर्थो न भवति, तत्सामान्याभिधाननमस्कारत्वात्, मनुष्यमात्रनमस्कारवत् जीवमात्रनमस्कारवद्वेति, तस्मात् पश्च विध एव नमस्कारः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, विस्तरेण च व्यक्त्यपेक्षया कर्तुमशक्यत्वात्, तथा-हेतुनिमित्त भवति सिद्ध' इति, तत्र हेतुर्नमस्कारार्हत्वे य उक्तः 'मग्गे अविप्पणासो'त्ति इत्यादि तन्निमित्तं चोपाधिभेदाद्भवति सिद्धः पश्चविध इति गाथार्थः ॥ १००७ ॥ गतं प्रसिद्धिद्वारम् , अधुना क्रमद्वारावयवार्थे प्रतिपादयन्नाहपुव्वाणुपुब्बि न कमो नेव य पच्छाणुपुब्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई ॥१००८ ॥ व्याख्या-इह क्रमस्तावद् द्विविधः-पूर्वानुपूर्वी च पश्चानुपूर्वी चेति, अनानुपूर्वी तु क्रम एव न भवति, असमञ्जसत्वात्, तत्रायमहँदादिक्रमः पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धाद्यनभिधानादू, एकान्तकृतकृत्यत्वेनाहन्नमस्कार्यत्वेन च सिद्धानां प्रधानत्वात्, प्रधानस्य चाभ्यर्हितत्वेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः, तथा नैव च पश्चानुपूर्येष क्रमो भवेत, साध्याद्यनभिधानात्, इह सर्वपाश्चात्याः अप्रधानत्वात् साधवः, ततश्च तानभिधाय यदि पर्यन्ते सिद्धाभिधानं स्यात् स्यात् पश्चानुपूवीति, तथा चामुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह-सिद्धाद्या प्रथमा-पूर्वानुपूर्वी, भावना प्रतिपादितैव, 'द्वितीयायां' पश्चानुपूया साधव आदी, युक्तिः पुनरप्यत्राभिहितैवेति गाथार्थः ॥ १००८ ॥ साम्प्रतं पूर्वानुपूर्वी त्वमेव प्रतिपादयन्नाह दीप RAO अनुक्रम [१] IDraryou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~904 ~ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१००९], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४५॥ अरहंतुवएसेणं सिडा नजंति तेण अरिहाई । नवि कोई परिसाए पणमित्ता पणमई रण्णो ॥ १००९॥ नमस्कार वि०१ व्याख्या-इह 'अहंदुपदेशेन' आगमेन सिद्धाः 'ज्ञायन्ते' अवगम्यन्ते प्रत्यक्षादिगोचरातिक्रान्ताः सन्तो यतस्तेनाहेदा-IPI दिपूर्वानुपूर्वी क्रम इति गम्यते, अत एव चाहतामभ्यर्हितत्वं, कृतकृत्यत्वं चाल्पकालव्यवहितत्वात् प्रायः समानमेव, तथा अर्हन्नमस्कार्यत्वमप्यसाधनम् , अर्हन्नमस्कारपूर्वकसिद्धत्वयोगेनार्हतामपि वस्तुतः सिद्धनमस्कार्यत्वात् प्रधानत्वादिति भावना, आह-यद्येवमाचार्यादिस्तहि क्रमः प्राप्तः, अर्हतामपि तदुपदेशेन संवित्तेरिति, अत्रोच्यते, न, इहाइसिद्धयोरेवाय वस्तुतस्तुल्यबलयोर्विचारः श्रेयान्, परमनायकभूतत्वाद, आचार्यास्त तत्परिपत्कल्पा वर्तन्ते, नापि कश्चित् परिषद 'प्रणम्य' प्रणामं कृत्वा ततः प्रणमति राज्ञ इत्यतोऽचोद्यमेतदिति गाथार्थः ॥ १००९ ॥ उक्तं क्रमद्वारम् , अधुना प्रयोजनफलप्रदर्शनायेदमाहइत्थ य पोअणमिणं कम्मखओ मंगलागमो चेव । इहलोअपारलोइअ दुविह फलं तस्य दिटुंता ॥ १.१०॥ ___ व्याख्या-'अत्र च' नमस्कारकरणे प्रयोजनमिदं-यदुत करणकाल एवाक्षेपण 'कर्मक्षयः' ज्ञानावरणीयादिकमोप|गमः, अनन्तपुद्गलापगममन्तरेण भावतो नकारमात्रस्याप्यप्राप्तेरित्यादिभावितं, तथा मङ्गलागमश्चैव यःकरणकालभावीति, तथा कालान्तरभावि पुनरैहलौकिकपारलौकिकभेदभिन्न 'द्विविधं फलं' द्विपकारं फलं, 'तत्र दृष्टान्ताः' वक्ष्यमाणल-|| ॥४५॥ क्षणा इति गाथार्थः ॥ १०१०॥ इह लोइ अत्थकामारआरुग्गंअभिरई अनिष्फत्तीपा सिद्धी असग्गसुकुलप्पञ्चायाई८अ परलोए॥१०१२॥ 9% अनुक्रम [१] + AmEaintimX M onary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~905~ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] (४०) व्याख्या-इह लोकेऽर्थकामौ भवतः, तथाऽऽरोग्यं भवति नीरुजत्वमित्यर्थः, एते चार्थादयः शुभविपाकिनोऽस्य भवन्ति, तथा चाह-अभिरतिश्च भवति, आभिमुख्येन रतिः-अभिरतिः इह लोकेऽर्थादिभ्यो भवति, परलोके च तेभ्य एवं शुभानुबन्धित्वान्निष्पत्तिः, पुण्यस्येति गम्यते, अथवाऽभिरतेश्च निष्पत्तिरित्येकवाक्यतैव, तथा 'सिद्धिश्च' मुक्तिश्च, तथा स्वर्गःसुकुलप्रत्यायातिश्च परलोक इत्यामुष्मिकं फलं ॥ इह च सिद्धिश्चेत्यादिक्रमः प्रधानफलापेक्ष्युपायख्यापनश्च (नार्थः), तथाहि-विरला एवैकभवेन सिद्धिमासादयन्ति, अनासादयन्तश्चाविराधकाः स्वर्गसुकुलोत्पत्तिमन्तरेण नावस्थान्तरमनुभवन्तीति गाथार्थः ॥१०११॥ साम्प्रतं यथाक्रममेवादीनधिकृत्योदाहरणानि प्रतिपादयन्नाह इहलोगंमि तिदंडी सादिव्वं २ माउलिंगवण ३ मेव । परलोइ चंडपिंगल ४ इंडिअजकखो ५ अदिता।१०१२।। FI व्याख्या-अक्षरगमनिका सुज्ञेया, भावार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि नमोकारो अस्थावहो, कहति?, उदा-18/ हरणं-जहा एगस्स सावगस्स पुत्तो धर्म न लएइ, सोऽवि सावओ कालगओ, सो विवहाराहओ एवं चेव विहरइ। अन्नया तोर्स घरसमीवे परिवायओ आवासिओ, सो तेण सम मित्तिं करेइ, अन्नया भणइ-आणेहि निरुवयं अणाहम-| Cडयं जओ ते ईसरं करेमि, तेण मग्गिओ लद्धो उबद्धओ मणुस्सो, सो मसाणं णीओ, जं च तत्थ पाउग्गं । सो य दारओ। अनुक्रम [१] नमस्कारोऽर्थावहः, कथमिति !, उदाहरणम्-यथैकस्य श्रावकस्य पुत्रो धर्म नाश्रयति, सोऽपि श्रावकः कालगतः, स व्यवहाराइत एवमेव विहरति । अन्यदा तेषां (श्रावकजनानां) गृहसमीपे परिवाजक आवासितः, स तेन समं मैत्री करोति, अन्यदा भणति-भानष निरुपहतं अनाथमृतक यतस्यां ईश्वर करोति, तेन मार्गितं लब्ध उबदो मनुष्यः, स श्मशानं नीतः, यत्र तत्र प्रायोग्यं । स च दारक: * ०ऽवि बाहिराहो (व्यसनोपहतः)। JanEaiatime मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~906~ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक आवश्यक- पियरिं नमोकार सिक्खाविओ, भणिओ य-जाहे बीहेजसि ताहे एवं पढिजसि, विजा एसा, सो तस्स मयगस्स पुरओ18 हारिभ- ठविओ, तस्स य मयगस्स हत्थे असी दिन्नो, परिवायओ विजं परियत्तेइ, उडिउमारद्धो वेयालो, सो दारओ भीओ हियएला वि०१ द्रीया नमोक्कारं परियट्टेइ, सो वेयालोपडिओ, पुणोऽवि जवेइ, पुणोवि उडिओ, सुडतरार्ग परियट्टेइ, पुणोऽवि पडिओ,तिदंडी भणइ॥४५२॥ [किंचि जाणसि!, भणइ-नत्थि, पुणोऽवि जवइ, ततियवारा, पुणोऽवि पुच्छिओ, पुणो णवकारं करेइ, ताहे वाणमंतरण रुसिएण तं खम्गं गहाय सो तिदंडी दो खंडीकओ, सुवन्नकोडी जाओ, अंगोवंगाणि य से जुत्तजुत्ताणि काउं सवरतिंबूढ़ इसरो जाओ नमोक्कारफलेणं, जइ ण होन्तो नमोकारो तो वेयालेण मारिजंतो, सो सुवन्नं होतो॥ कामनिष्फत्ती,-कह ! एगा साविगा तीसे भत्ता मिच्छादिही अन्नं भर्ज आणे मग्गइ, तीसे तणएणन लहह से सवत्तगंति, चिंतेइ-किह मारेमि?, अण्णया कण्हसप्पो घडए छुभित्ता आणीओ, संगोविओ, जिमिओ भणइ-आणेहि पुष्पाणि अमुगे घडए ठवियाणि, सा पित्रा शिक्षितो नमस्कार, भणितब-यदा बिभीवास्तदैनं पठेः, विद्यैषा, स तस्य मृतकस्य पुरतः स्थापितः, तस्य च मृतकस्य हस्तेऽसिदत्तः, परिमाजको विद्या परिवर्तयति, स्थातुमारब्धो वैतालः, सदारको भीतोहदि नमस्कार परावर्तयति, स वैतालः पतितः, पुनरपि जपति, पुनरप्युत्थितः, मुटुतरं परिवर्तयति. पुनरपि पतितः, त्रिदण्डी भणति-कित्रित् जानीये?, भणति-न, पुनरपि जपति, तृतीयवारं, पुनरपि पृष्टः, पुनर्नमस्कारं करोति (परावयति), तदा व्यन्तरेण रुष्टेन संखङ्गं गृहीत्वा स त्रिदण्दी द्विस्खण्डीकृतः, सुवर्णकोटिकः (सुवर्णपुरुषः) जातः, भङ्गोपाङ्गानि च तस्य युक्तयुक्तानि (पृथक पृथक) करवा सर्वरात्रौ न्यूड ईश्वरो | जातो नमस्कारफलेन, यदि नाभविष्यनमस्कारस्तदा वैवालेनामारिष्यत् स (च) सौवर्णोऽभविष्यत् ॥ कामनिष्पतिः, कथम् !, एका भाविका तस्या भर्ता | | मिष्याष्टिरन्यां भायौं आनेतुं मार्गयति, तस्याः सम्बन्धेन न कभते तस्याः सापत्न्यामिति, चिन्तयति-कथं मास्यामि , अन्यदा कृष्णसो घटे क्षित्वाऽनीतः, ॥४५२॥ | संगोपित्तः, जिभितो भणति-भानव पुष्पाणि अमुकमिन् घटे स्थापितानि, सा* बोडी + जाया छिर्ड दीप अनुक्रम andiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~907~ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक पविठ्ठा, अंधकारंति नमोकार करेइ, जइवि मे कोइ खाएजा तोवि मे मरंतीए नमोकारो ण नस्सहिति, हत्थो छूढो, सप्पो देवयाए अवहिओ, पुष्पमाला कया, सा गहिया, दिना य से, सो संभतो चिंतेइ-अन्नाणि, कहियं, गओ पेच्छइ घडगं पुप्फगंधं च, णवि इत्थ कोइ सप्पो, आउट्टो पायपडिओ सर्व कहेइ खामेइ य, पच्छा सा चेव घरसामिणी जाया, 18 एवं कामावहो ॥ आरोग्गाभिरई-एगं णयरं, णईए तडे खरकम्मिएण सरीरचिंताए निग्गएणं णईए वुझंतं माउलिंग दिई, हरायाए उवणीयं, सूयस्स हत्थे दिन्नं, जिमियस्स उवणीयं, पमाणणं अइरित्तं वन्नेण गंधेणं अइरितं, तस्स मणुसस्स तुट्ठो, भोगो दिण्णो, राया भणइ-अणुणईए मग्गह, जाव लद्धं, पत्थयणं गहाय पुरिसा गया, दिडो वणसंडो, जो गेण्हइ फलाणि सो मरइ, रण्णो कहियं, भणइ-अवस्सं आणेयवाणि, अक्खपडिया वच्चंतु, एवं गया आणेन्ति, एगो पविडो सो बाहिं टूि उच्छुन्भइ, अन्ने आणति, सो मरइ, एवं काले वच्चंते सावगस्स परिवाडी जाया, गओ तत्थ, चिंतेइ-मा विराहियसामन्नो | प्रविष्टा, अन्धकारमिति नमस्कार करोति (गुणयति), यद्यपि मां कोऽपि खादेव नापि मम नियमाणाया नमस्कारो न नक्ष्यतीति, हस्तः क्षिप्त, सपों देवतयापहृतः, पुष्पमाला कृता, सा गृहीता, दत्ता च तम, स संभ्रान्तश्चिन्तयति-अन्यानि, कथितं, गतः पश्यति घट पुष्पगन्धं च, नैवात्र कोऽपि सर्पः, भावजिंतः पादपतितः सर्व कथयति क्षमयति च, पश्चात्सैव गृहस्वामिनी जाता, एवं कामावहः ॥ आरोग्याभिरति:-एकं नगर, नद्यास्तीरे खरकर्मिकेण करीरचिन्तायै | निर्गतेन नचामुद्यमानं बीजपूरकंट, राज अपनीतं, सूदस्य हस्ते दस, जिमत उपनीतं, प्रमाणेनातिरिकं वर्णेन गन्धेनातिरिक्तं तसै मनुष्याय तुष्टः, भोयो दत्तः, | राजा भणति-अनुनदि मार्गयत पावलम्ब (भवति), पध्वदनं गृहीत्वा पुरुषा गताः, दृष्टो वनखण्डः, यो गृहाति फलानि स म्रियते, राज्ञे कथितं, भणतिअवश्यमानेतव्यानि, अक्षपतिताः (अक्षपातनिकषा)बजन्तु, एवं गता आनयन्ति, एकः प्रविष्टः स बहिनिक्षिपति, मन्ये भारयन्ति, सनियते, एवं काले जति वाचकस्ख परिपाटी जाता, गतस्तत्र, चिन्तयति-मा विराधितश्रामण्यः दीप अनुक्रम lanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~908~ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४५३॥ आवश्यक'- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ - ], मूलं [१/ गाथा-], निर्युक्तिः [१०११), Educationa | कोड होज्जत्ति निसीहिया नमोकारं च करेंतो दुक्कइ, वाणमंतरस्स चिंता, संबुद्धो, बंदर, भणइ अहं तत्थेव साहरामि, गओ, रण्णो कहियं, संपूइओ, तस्स ओसीसे दिणे दिणे ठवेइ, एवं तेण अभिरई भोगा य लद्धा, जीवयाओ य, किं अन्नं आरोग्गं ?, रायावि तुट्ठो ॥ परलोए नमोकारफलं - वसंतपुरे णयरे जियसत्तू राया, तस्स गणिया साविया, सा चंडपिंगलेण चोरेण समं वसइ । अन्नया कयाइ तेण रण्णो घरं हयं, हारो णीणिओ, भीएहिं संगोविज्जइ । अन्नया उज्जाणियागमणं, सबाओ विभूसियाओ गणियाओ वञ्चंति, तीए सबाओ अइस्यामित्ति सो हारो आविद्धो, जीसे देवीए सो हारो तीसे दासीए सो नाओ, कहियं रण्णो, सा केण समं वसइ ?, कहिए चंडपिंगलो गहिओ, सूले भिन्नो, तीए चिंतियं-मम दोसेण मारि ओत्ति सा से नमोकारं देइ, भणइ य-नीयाणं करेहि जहा एयस्सरण्णो पुत्ती आयामित्ति, कयं, अग्गमहिसीए उदरे उववण्णो, दारओ जाओ, सा साविया कीलावणधावीया जाया । अन्नया चिंतेइ कालो समो गम्भस्स व मरणस्स य, 3 कश्चित् भूदिति नैषेधिक नमस्कारं च कुर्वन् गच्छति, व्यन्तरस्र चिन्ता, संबुदः, बन्दते, भणति महं तत्रैवानेष्ये, गतः राज्ञः कथितं संपूजितः तस्य अच्छी दिने दिने स्थापयति, एवं तेनाभिरतिर्भोगाख लब्धाः, जीवितवांश्ध, किमन्यद् आरोग्यं ?, राजापि तुष्टः ॥ परलोके नमस्कारफलं वसन्तपुरे मगरे जितशत्रू राजा, तस्य गणिका श्राविका सा चण्डपिलेन चौरेण समं वसति । अन्यदा कदाचित् तेन राज्ञो गृहं इतं, हार आनीतः भीताभ्यां संगोप्यते । अन्यदोजानिकागमनं सर्वा विभूषिता गणिका व्रजन्ति, तथा सर्वाभ्योऽतिशायिनी स्वामिति ( सर्वा अतिशये इति ) स हार आदिः यस्था देव्याः स हारस्वया दाया स ज्ञातः कथितं राज्ञे सा केन समं वसति ? कथिते चण्डपिङ्गलो गृहीतः, झूले भिन्नः, तया चिन्तितं मम दोषेण मारित इति सा तमै नमस्कारं ददाति, भणति च निदानं कुरु यथा एतस्य राज्ञः पुत्र उत्पद्य इति कृतं, अग्रमहिष्या उदरे उत्पन्नः, दारको जातः, सा श्राविका कीढनधात्री जाता। अम्यदा चिन्तयति-कालः समो गर्भस्य च मरणस्ख च, आयं [१५१...]] For Funny ------ ~909~ नमस्कार० वि० १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥४५३॥ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [१/गाथा-], नियुक्ति: [१०११], भाष्यं [१५१...] (४०) प्रत सूत्राक होजे कयाइ, रमावेती भणइ-मा रोव चंडपिंगलत्ति, संबुद्धो, राया मओ, सोराया जाओ, सुचिरेण कालेण दोवि पधइयाणि, एवं सुकुलपच्चायाई तम्मूलागं च सिद्धिगमणं ॥ अहवा बितियं उदाहरणं-महुराए णयरीए जिणदत्तो सावओ, तत्थ हुंडिओ चोरो, णयरं मुसइ, सो कयाइ गहिओ सूले भिन्नो, पडिचरह वितिज्जयावि से नजिहिति, मणूसा पडिचरंति, सो सावओ तस्स नाइदूरेण वीईवयइ, सो भणइ-सावय ! तुमंसि अणुकंपओ तिसाइओऽहं, देह मम पाणियं जा मरामि, सावओ भणइ-इम नमोकारं पढ जा ते आणेमि पाणियं, जइ विस्सारेहिसि तो आणीयपि ण देमि, सो ताए लोलयाए पढइ, सावओवि पाणियं गहाय आगओ, एबेलं पाहामोत्ति नमोक्कारं घोसंतस्सेव निग्गओ जीवो, जक्खो आयाओ। सावओ तेहिं माणुस्सेहिं गहिओ चोरभत्तदायगोत्ति, रण्णो निवेइयं, भणइ-एयपि सूले भिंदह, आघायणं निजइ, जक्खो ओहिं पउँजइ, पेच्छइ सावयं, अप्पणो य सरीरयं, पवयं उप्पाडेऊण णयरस्स उवरिं ठाऊण भणइ-सावयं भट्टारयं न भदेकदाचित, रमयन्ती भगति-मा रोदीः चण्डापिङ्गल इति, संबुद्धो, राजा मृतः, स राजा जातः, सुचिरेण काम द्वावपि प्रमजिती । एवं मुकुलप्रत्यायातिः तन्मूलं च सिद्विगमनं ॥ अथवा द्वितीयमुदाहरणं-मथुरायां नगर्यो जिनदत्तः श्रावकः, तत्र हुण्डिकऔरः, नगरं मुष्णाति, स कदाचित् गृहीतः शूले भिना, प्रतिचरत सहाया अपि तख ज्ञायत इति मनुष्याः प्रतिचरन्ति, स श्रावकस्तस्य नातिदूरेण व्यतिब्रजति, स भणति-धावक ! त्वमसि अनुकम्पकः तृषितोऽई देहि मह्यं पानीयं यन्निये, श्रावको भणति-दमं नमस्कारं पठ यावत्तम्यमानयामि पानीयं, यदि विस्मरिष्यसि तदानीतमपि न दास्यामि, स तया लोलुपतया | पठति श्रावकोऽपि पानीयं गृहीत्वाऽगतः, अधुना पास्वामीति नमस्कार घोषयत एवं निर्गतो जीवः, यक्ष आषातः । श्रावकसैर्मनुष्यगृहीतचौरभक्तदायक | इति, राजे निवेदितं, भणति-एनमपि शूले भिन्त, आघात नीयते, यक्षोऽवधि प्रयुक्ते, पश्यति श्रावकमात्मनश्च शारीरक, पर्वतमुपाय नगरस्योपरि स्थित्वा भणति-श्राव भहारकं न -% दीप अनुक्रम [१] --- AMERIEN ama Randiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~910~ Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०१३], भाष्यं [१५१...] ॥४५४ ॥ * आवश्यक-यांणेह ?, खामेह, मा भे सबे चूरेहामि, देवणिम्मिँयस्स पुवेण से आययणं कथं, एवं फलं लब्भइ नमोकारेणेति गाथार्थः ॥ हारिभ- ५ ॥१०१२॥ उक्ता नमस्कारनिर्युक्तिः, साम्प्रतं सूत्रोपन्यासार्थं प्रत्यासत्तियोगाद् वस्तुतः सूत्रस्पर्शनिर्युक्तिगतामेव गाथामाह - द्रीया *★ नंदिअणुओगदारं विहिवदुबुग्धाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगल आरंभो होइ सुत्तस्स ॥ १०१३ ॥ व्याख्या - नन्दिश्चानुयोगद्वाराणि चेत्येकवद्भावाद् नन्दिअनुयोगद्वारं, 'विधिवद्' यथावद् 'उपोद्घातं च' उद्देसे इत्या'दिलक्षणं 'ज्ञात्वा' विज्ञाय, भणित्वेति वा पाठान्तरं तथा कृत्वा 'पञ्चमङ्गलानि' नमस्कारमित्यर्थः किम् ?, आरम्भो भवति * सूत्रस्य, इह च पुनर्नन्द्याद्युपन्यासः किल विधिनियमख्यापनार्थः, नन्द्यादि ज्ञात्वैव भणित्वैव वा, नान्यथेति, उपोद्घा तभेदोपन्यासोऽपि सकलप्रवचनसाधारणत्वेन तस्य प्रधानत्वात्, प्रधानस्य च सामान्यग्रहणेऽपि भेदेनाभिधानदर्शनाद्, यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽध्यायात इति कृतं चसूर्येति गाथार्थः ॥ १०१३ ॥ सम्बन्धान्तरप्रतिपादनायैवाऽऽहकयपंचनमुकारो करेह सामाइयंति सोऽभिहिओ । सामाइअंगमेव य जं सो सेसं तओ वुच्छं ॥ १०१४ ॥ Educato व्याख्या - कृतः पञ्चनमस्कारो येन स तथाविधः शिष्यः सामायिकं करोतीत्यागमः सोऽभिहितः पञ्चनमस्कारः, सामायिकाङ्गमेव च यदसौ, सामायिकाङ्गता च प्रागुक्ता, 'शेष' सूत्रं 'ततः' तस्माद्वक्ष्यत इति गाथार्थः ॥ १०१४ ॥ तच्चेदम्करेमि भंते! सामाइयं, सव्वं सावज्जं जोगं पचक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करे. मिन कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि १३ जानीयाँ, क्षामयत, मा भवतः सर्वाश्रयुरं देवनिर्मितेन ( तात् चैत्यात्) पूर्वस्य तस्यायतनं कृतं । पूर्व फलं लभ्यते नमस्कारेणेति । * मयरस्स For Parts Only *** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अत्र अध्ययनं -१ - 'सामायिकं' आरभ्यते ~911~ नमस्कार० वि० १ *** ॥४५४॥ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Jus Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [१०१४...], भाष्यं [१५१ ...] इह च सूत्रानुगम एव (सूत्र) अहीनाक्षरादिगुणोपेतमुच्चारणीयं तद्यथा-अहीनाक्षरमन त्यक्षरमव्याविद्धाक्षरमस्खलितममिलितमव्यत्यास्म्रेडितं प्रतिपूर्ण परिपूर्णघोषं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं वाचनोपगतम्, इत्यमूनि प्रागू व्याख्यातत्वान्न व्याख्यायन्ते, ततस्तस्मिन्नुञ्चरिते सति केषाञ्चिद्भगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता भवन्ति केचन त्वनधिगताः, ततश्चानधिगताधिगमनाय व्याख्या प्रवर्तत इति, तलक्षणं चेदं 'संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥ १ ॥ इति, तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, अथवा-परः सन्निकर्षः संहिता, यथा करेमि | भंते! सामाइयमित्यादि जाव वोसिरामित्ति । पदं च पञ्चधा, तद्यथा-नामिकं नैपातिकम् औपसर्गिकम् आख्यातिकं मिश्र चेति, तत्र अश्व इति नामिकं खल्विति नैपातिकं परीत्यौपसर्गिकं धावतीत्याख्यातिकं संयत इति मिश्रम्, अथवा सुबन्तं तिङन्तं च 'सुप्तिङ्न्तं पद' ( पा० १-४ -१४ ) मिति वचनात् तत्र करोमि भयान्त । सामायिकं, सर्व सावधं योगं प्रत्याख्यामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यम्यं न समनुजाने, तस्य भयान्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामीति पदानि । अधुना पदार्थ:- स च चतुर्विधः, तद्यथा - कारक विषयः समासविषयस्तद्धितविषयो निरुक्तिविषयश्च तत्र कारकविषयः पचतीति पाचकः, समासविषय:राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इति, तद्धितविषयः - वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः, निरुक्तिविषयः - भ्रमति चरौति च भ्रमरः, अत्रापि, 'डुकृञ् करण' इत्यस्य लट्प्रत्ययान्तस्य 'तनादिकृञ्भ्य उ ( पा० ३-१-७९) रिति उच्चे गुणे रपरत्वे च कृते करोमीति भवति अभ्युपगमञ्चास्यार्थः, एवं प्रकृतिप्रत्ययविभागः सर्वत्र वक्तव्यः, इह तु ग्रन्थविस्तरभयान्नोक्त इति, भयं प्रतीतं, तथा For Print Use Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अथ 'करेमि भंते' सूत्रस्य विशद् व्याख्या आरभ्यते ~912~ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१४...], भाष्यं [१५१...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया ॥४५५0 प्रत सूत्रांक (१) वक्ष्यामश्चोपरिष्टादिति, अन्तो-विनाशः, भयस्यान्त इत्ययमेव पदविग्रहः, पदपृथक्करण पदविग्रह इति, सामायिकपदार्थः पूर्ववत्, सर्वमित्यपरिशेषवाची शब्दः, अवयं-पापं सहावद्येन सावद्यः-सपाप इत्यर्थः, युज्यत इति योगः च्यापारस्तं, वि०१ प्रत्याख्यामीति, प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङ्क आभिमुख्ये ख्या प्रकथने, ततश्च प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं सावद्ययोगस्य करोमि। प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्ष इति 'चक्षिा व्यक्तायां वाचि' अस्य प्रत्यापूर्वस्यायमर्थः प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमि प्रत्याचक्षे, 'यावज्जीवये त्यत्र यावच्छन्दः परिमाणमर्यादावधारणवचनः, तत्र परिमाणे यावत् मम जीवनपरिमाणं तावत् प्रत्याख्यामीति, मर्यादायां यावज्जीवनमिति, मरणमर्यादाया आरान्न मरणकालमात्र एवेति, अवधारणे यावजीवनमेव तावत् प्रत्याख्यामि, न तस्मात् परत इत्यर्थः, जीवनं जीवेत्ययं क्रियाशब्दः परिगृह्यते तया, अथवा प्रत्याख्यानक्रिया गृह्यते, यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीवा तया, 'त्रिविध मिति तिम्रो विधा यस्य सावद्ययोगस्य स त्रिविधः, स च प्रत्याख्येयत्वेन कर्म संपद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, अतस्तं त्रिविधं योग-मनोवाक्कायव्यापारलक्षणं, 'कायवाङानः कर्मयोगः' (तत्वा० अ०६सू०१) इति वचनात, त्रिविधेनेति करणे तृतीया, 'मनसा वाचा कायेन' तत्र |'मन ज्ञाने' मननं मन्यते वाऽनेनेति असुनप्रत्यये मनः, तच्चतुर्की-नामस्थापनाद्रव्यभावः, द्रव्यमनस्तद्योग्यपुद्गलमयं, भावमनो मन्ता जीव एव, 'वच परिभाषणे वचनम् उच्यते वाऽनयेति वाक्, साऽपि चतुर्विधैव नामादिभिः, तत्र द्रव्यवाकू शब्दपरिणामयोग्यपुद्गला जीवपरिगृहीता भाववाकू पुनस्त एव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापन्नाः, 'चिञ् चयने' चयनं ५ चीयते वाऽनेनेति "निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः" (पा०३-३-४१) इति कायः, जीवस्य निवासात् पुग 56 दीप अनुक्रम JABERan Wrwajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~913~ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१४...], भाष्यं [१५१...] (४०) - प्रत सूत्रांक लानां चितेः पुद्गलानामेव केषाशित् शरणात् तेषामेवावयवसमाधानात् काय:-शरीरं, सोऽपि चतुर्की नामादिभिः, तत्र द्रव्यकायो ये शरीरत्वयोग्याः अगृहीतास्तत्स्वामिना च जीबेन ये मुक्ता यावत्तं परिणाम न मुञ्चन्ति तावद् द्रव्यकायः, भावकायस्तु तत्परिणामपरिणता जीवबद्धा जीवसम्प्रयुक्ताश्च, अनेन त्रिविधेन करणभूतेन, त्रिविधं पूर्वाधिकृतं सावध योग न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि-नानुमन्येऽहमिति, तस्येत्यधिकृतो योगः संबध्यते, भयान्त इति पूर्ववत् , प्रतिक्रमामि-निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति, निन्दामीति जुगुप्से इत्यर्थः, गर्हामीति च स एवार्थः, किन्त्वात्मसाक्षिकी || निन्दा गुरुसाक्षिकी गहेंति, किं जगुप्से ?-'आत्मानम् अतीतसावधयोगकारिणं, 'व्युत्सृजामीति विविधार्थों विशेषाथों वा विशब्दः उच्छन्दो भृशार्थः सृजामि-त्यजामीत्यर्थः, विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामि, एवं तावत्पदार्थपदविग्रही यथासम्भवमुक्तौ, अधुना चालनाप्रत्यवस्थाने वक्तव्ये, तदत्रान्तरे सूत्रस्पर्शनियुक्तिरुच्यते, स्वस्थानत्वात्, आह च नियुक्तिकार:अक्खलिअसंहिआई वक्खाणचउक्कए दरिसिअंमि । सुत्तप्फासिअनिजुत्तिवित्थरत्यो इमो होह ॥ १०१५॥ व्याख्या-'अक्खलिआइत्ति अस्खलितादी सूत्र उच्चरिते, तथा संहितादौ व्याख्यानचतुष्टये दर्शिते सति, किं:सूत्रस्पर्शनियुक्तिविस्तरार्थः अयं भवतीति गाथार्थः ॥ १०१५ ॥ करणे १ भए अ २ अंते ३ सामाइअ ४ सव्वए अ५ बज्ने अ६। जोगे ७ पञ्चक्खाणे ८ जावज्जीवाइ ९तिविहेणं १०॥१०१६ ॥ --54- दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~914~ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६], भाष्यं [१५२] (४०) नि पदानि, वि०१ प्रत सूत्रांक (१) आवश्यकता व्याख्या-करणं भयं च अन्तः सामायिक सर्व च वर्जच योगः प्रत्याख्यानं यावजीवया त्रिविधेनेति पदानि, सूत्रस्पर्श हारिभ- पदार्थ तु भाष्यगाथाभिन्यक्षेण प्रतिपादयिष्यतीति गाथासमासार्थः ॥ १०१६ ॥ साम्प्रतं करणनिक्षेपं प्रदर्शयन्नाहद्रीया नामं १ ठवणा २ दविए ३ खित्ते ४ काले ५ तहेव भावे अ६। ॥४५६॥ एसो खलु करणस्सा निक्खेवो छब्विहो होइ ॥ १५२॥ (भा०) व्याख्या-अक्षरगतं पदार्थमात्रमधिकृत्य निगदसिद्धा, साम्प्रतं द्रव्यकरणप्रतिपादनायाऽऽहजाणगभविअहरितं सन्ना नोसन्नओ भवे करणं । सन्ना कडकरणाई नोसन्ना वीससपओगे ॥ १५३ ॥ (भा०) व्याख्या-इह यथासम्भवं द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं द्रव्यकरणं, तच्च नोआगमतो ज्ञभव्यातिरिक्तं संज्ञा नोसंज्ञातो भवेत् करणं, एतदुक्तं भवति-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यकरणं द्विधा-संज्ञाकरणं नोसंज्ञाकरणं च, तत्र संज्ञाकरणं कटकरणादि, आदिशब्दात् पेलुकरणादिपरिग्रहः, पेलुशब्देन रुतपूणिकोच्यते, अयमत्र भावार्थः-कटनिर्वर्तकमयोमयं चित्रसंदास्थानं पोल्लकादि तथा रुतपूणिकानिवर्तकं शलाकाशल्यकाङ्गरुहादि संज्ञाद्रव्यकरणमन्वर्थोपपत्तेरिति, आह-इदं नाम-IX करणमेव पर्यायमात्रतः संज्ञाकरणमिति न कश्चिद्विशेष इति, उच्यते, इह नामकरणमभिधानमात्रं गृह्यते, संज्ञाकरणं त्वन्व-|| ||४५६॥ थेतः संज्ञायाः करणं २, द्रव्यस्य संज्ञया निर्दिश्यमानत्वात् , तथा च भाष्यकारेणाप्येतदेवाभ्यधायि-"सन्ना णामति मई15 **EASISAASAASAASA दीप अनुक्रम [२] संज्ञा नामेति मतिः। + नियुक्किगाथा इत्यपि * पाइछकादिः । Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: करण द्वार, कारणस्य षड् निक्षेपाः ~ 915~ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१५३] (४०) प्रत सूत्रांक 6452-564*4%25-25% तणो णामं जमभिधाणं ॥१॥ वा तदत्धविकले कीरइ दर्ष तु दवणपरिणाम | पेलुक्करणाइ न हितं तयत्थसुण्णं ण वा सद्दो ॥ २॥ जइ ण तदत्थविहीणं तो किं दबकरणं । जओ तेणं । दवं कीरइ सण्णाकरणति य करणरूढिओ ॥३॥" 'नोसंज्ञेति नोसंज्ञाद्रव्यकरणं, तच्च द्विधा-प्रयोगतो विश्रसातश्च, अत एवाह-वीससपओगेत्ति गाथार्थः ॥ तत्र विश्रसाकरणं द्विप्रकार-साधनादिभेदात् , अत एवाह'अन्धकारःचीससकरणमणाई धम्माईण परपच्चयाजो(यजो)गा।साई चक्खुप्फासिअमम्भाइमचक्खुमणुमाई॥१५४॥ भा० | व्याख्या-विश्रसा स्वभावो भण्यते तेन करणं विश्नसाकरणम् , इह च 'कृत्यलुटो बहुल' (पा० ३-३-११३) मिति वचनात् करणादिषु यथाप्रयोगमनुरूपार्थः करणशब्दोऽवसेय इति, 'अनादि' आदिरहितं 'धर्मादीना'मिति धर्माधर्माका शास्तिकायानामन्योऽन्यसमाधानं करणमिति गम्यते, आह-करणशब्दस्तावदपूर्वप्रादुर्भावे वर्तते, ततश्च करणं चानादि x|चेति विरुद्धम्, उच्यते, नावश्यमपूर्वप्रादुर्भाव एव, किं तर्हि !, अन्योऽन्यसमाधानेऽपीति न दोषः, अथवा 'परप्रत्यययो-12 गादिति परवस्तुप्रत्ययभावाद्धर्मास्तिकायादीनां तथा तथा योग्यताकरणमिति, एवमप्यनादित्वं विरुध्यत इति चेत्, न, अनन्तशक्तिप्रचितद्रव्यपर्यायोभयरूपत्वे सति वस्तुनो द्रव्यादेशेनाविरोधादित्यत्र बह वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, गमनिकामा-10 त्रत्वात् प्रारम्भस्येति, अथवा परप्रत्यययोगात् तत्तत्पर्यायभवनं सायेव करणं, देवदत्तादिसंयोगाद्धमादीनां विशिष्ट तनो नाम यदभिधानम् ॥१॥ यद्वा तदर्थ विकले क्रियते द्रव्यं तु द्रवणपरिणामः । पेलुकरणादि न हि तत्तदर्थशून्यं न वा शब्दः ॥२॥ यदि न तदर्थविहीनं तदा दिव्यकरणं । यतस्तेन । द्रव्यं क्रियते संज्ञाकरणमिति च करणरूढः ॥३॥ दीप अनुक्रम 6960-6 rajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~916~ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१५४] (४०) E5% सूत्रस्पर्शक वि०१ 5 द्रीया प्रत सूत्रांक -56- (१) 25 आवश्यक पर्याय इत्यर्थः, एवमरूपिद्रव्याण्यधिकृत्योक्तं साद्यमनायं च विश्रसाकरणम् , अधुना रूपिद्रव्याण्यधिकृत्य साद्येव चाक्षु- हारिभ- तरभेदमाह-सादि चक्षुःस्पर्श चाक्षुषमित्यर्थः, अभ्रादि, आदिशब्दात् शक्रचापादिपरिग्रहः, 'अचक्षुत्ति अचाक्षुषम- दण्वादि, आदिशब्दात् वणुकादिपरिग्रहः, करणता चेह कृतिः करणमितिकृत्वा, अन्यथा वा स्वयं बुद्धया योजनीयेति गाथार्थः ॥ चाक्षुषाचाक्षुषभेदमेव विशेषेण प्रतिपादयन्नाह॥४५७|| संघायमेतदुभयकरणं इंदाउहाइ पञ्चक्खं । दुअअणुमाईणं पुण छउमत्थाईणऽपच्चक्खं ॥१५५ ॥ (भा.) 6 व्याख्या-सङ्घातभेदतदुभयैः करणं संघातभेदतदुभयकरणम् इन्द्रायुधादिस्थूलमनन्तपुद्गलात्मकं प्रत्यक्षं, चाक्षुषमित्यर्थः, व्यणुकादीनाम्, आदिशब्दात्तथाविधानन्ताणुकान्तानां पुनः करणमिति वर्तते, किं ?, छद्मस्थादीनाम् ? आदिशब्दः स्वगतानेकभेदप्रतिपादनार्थ इति, अप्रत्यक्षम्-अचाक्षुषमिति गाथार्थः । उक्तं विश्रसाकरणम्, अधुना प्रयोगकरणं प्रतिपादयन्नाहजीवमजीवे पाओगिअंच चरमं कुसुंभरागाई । जीवप्पओगकरणं मूले तह उत्तरगुणे अ॥१५६ ॥ (भा०) | व्याख्या-यह प्रायोगिकं द्वधा-जीवप्रायोगिकमजीवप्रायोगिकंच, प्रयोगेन निर्वृत्तं प्रायोगिकं, चरमम्-अजीवप्रयो|गकरणं कुसुम्भरागादि, आदिशब्दाच्छेषवर्णादिपरिग्रहः ॥ एवं तावदल्पवक्तव्यत्वादभिहितमोघतोऽजीवप्रयोगकरणमिति, अधुना जीवप्रयोगकरणमाह-जीवप्रयोगकरणं द्विप्रकार-'मूल' इति मूलगुणकरणं, तथा 'उत्तरगुणे तिच' उत्तरगुणकरणं करणता २ छमस्वगताना -- दीप अनुक्रम X ॥४५७॥ Swlanmiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~917~ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Jus Educatio “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [१०१६...], भाष्यं [१५६ ] चेति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं तु ग्रन्थकार एव वक्ष्यति, तत्राल्पवक्तव्यत्वादेवाजीवप्रयोगकरणमादावेवाभिधित्सुराहजं जं निजीवाणं कीरइ जीवप्पओगओ तं तं । वन्नाइ रुवकम्माह वावि अज्जीवकरणं तु ॥ १५७ ॥ ( भा० ) व्याख्या- यद् यन्निर्जीवानां पदार्थानां क्रियते निर्वर्त्यते 'जीवप्रयोगतो' जीवप्रयोगेण तत्तद्वर्णादि कुसुम्भादेः रूपकर्मादि वा कुट्टिमादा अजीवविषयत्वात्तदजीवकरणमिति गाथार्थः ॥ जीवप्पओगकरणं दुविहं मूलप्पओगकरणं च । उत्तरपओगकरणं पंच सरीराई पढमंमि ॥ १५८ ॥ ( भा० ) व्याख्या -- जीवप्रयोगकरणं 'द्विविधं' द्विप्रकारं मूलप्रयोगकरणमुत्तरप्रयोगकरणं च चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, पञ्च शरीराणि 'प्रथमं मूलप्रयोगकरणमिति गाथार्थः ॥ ओरालियाइआई ओहेणिअरं पओगओ जमिह । निष्फण्णा निष्फल आइल्लाणं च तं तिन्हं ॥ १५९ ॥ (भा० ) व्याख्या - औदारिकादीनि, आदिशब्दाद्वैक्रियाहारकतैजसकार्मणशरीरपरिग्रहः, 'ओघेन' इति सामान्येन, 'इतरत्' उत्तरप्रयोगकरणं गृह्यते, तल्लक्षणं चेदं 'प्रयोगतः' प्रयोगेणैव यद् 'इह लोके निष्पन्नाः, मूलप्रयोगेण निष्पद्यत इति 'तद्' उत्तरकरणं, आद्यानां च तत् त्रयाणाम्, एतदुक्तं ( नं ११५०० ) भवति पञ्चानामौदारिकादिशरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूलप्रयोगकरणमुच्यते, अङ्गोपाङ्गादिकरणं तूत्तरकरणमीदारिकादीनां त्रयाणां न तु तैजसकार्मणयोः, तदसम्भवादिति गाथार्थः ॥ १५९ ॥ तत्रैौदारिकादीनामष्टाङ्गानि मूलकरणानि तानि चामूनि For Parts Use Only www.joncibrary.o मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~918~ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६०] (४०) सूत्रस्पर्श वि०१ प्रत सूत्रांक (१) आवश्यक-४ 'सीस १ मुरो २ अर ३ पिट्ठी ४ दो बार ६ ऊरुआ य ८ अहंगा। हारिभ अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाणि सेसाणि ॥१६०॥ (भाष्यम् ) द्रीया व्याख्या-निगदसिद्धा, नवरमङ्गोपाङ्गानि 'शेषाणि' करपादादीनि गृह्यन्ते ॥ किश्च॥४५८॥ केसाईउवरयणं उराल बिउब्धि उत्तरं करणं । ओरालिए विसेसो कन्नाइविणहसंठवणं ॥ ११॥ (भा०) व्याख्या-'केशाापरचन' केशादिनिर्माणसंस्कारी, आदिशब्दान्नखदन्ततद्रागादिपरिग्रहः औदारिकवैक्रिययोरुत्तरकरणं, यथासम्भवं चेह योजना कार्येति, तथौदारिके विशेष उत्तरकरणे इति, कर्णादिविनष्टसंस्थापन, नेदं वैक्रियादी, विनाशाभावाद, विनष्टस्य च सर्वथा विनाशेन संस्थापनाभावादिति गाथार्थः ॥ इत्थंभूतमुत्तरकरणमाहारके नास्ति, गमनागमनादि तु भवति, अथवेदमन्याटक त्रिविधं करणं, तद्यथा-सातकरण परिशाटकरणं सातपरिशाटकरणं च, तत्राऽऽद्यानां शरीराणां तैजसकार्मणरहितानां त्रिविधमप्यस्ति, द्वयोस्तु चरमद्वयमेवेति, आह चआइल्लाणं तिण्हं संघाओ साडणं तदुभयं च । तेआकम्मे संघायसाडणं साडणं वावि ॥१६२ ॥ (भा०) व्याख्या-वस्तुतो व्याख्यातैवेति न व्याख्यायते ॥ साम्प्रतमौदारिकमधिकृत्य सङ्घातादिकालमानमभिधित्सुराहसंघायमेगसमयं तहेव परिसाडणं उरालंमि । संघायणपरिसाडण खुड्डागभवं तिसमऊणं ॥१६३ ॥ (भा०) व्याख्या-सहातम्' इति सर्वसङ्घातकरणमेकसमयं भवति, एकान्तादानस्यैकसामयिकत्वात् , घृतपूपदृष्टान्तोऽत्र, यथा-घृतपूर्णप्रतक्षायां तापिकायां सम्पानकप्रक्षेपात् स पूपः प्रथमसमय एवैकान्तेन स्नेहपुद्गलानां ग्रहणमेव करोति, दीप अनुक्रम SONGS ॥४५८॥ andiorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~919~ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६३] (४०) - - प्रत सूत्रांक न त्यागम् , अभावाद्, द्वितीयादिषु तु ग्रहणमोक्षी, तथाविधसामर्थ्ययुक्तत्वात् , पुद्गलानां च सङ्घातभेदधर्मत्वात् , एवं जीवोऽपि तत्प्रथमतयोत्पद्यमानः सन्नाद्यसमये औदारिकशरीरप्रायोग्याणां द्रव्याणां ग्रहणमेव करोति, न तु मुञ्चति, अभावाद्, द्वितीयादिषु तु ग्रहणमोक्षी, युक्तिः पूर्ववत्, अतः सङ्घातमेकसमयमिति स्थितं, तथैव 'परिशाटन मिति परिशाटनाकरणमेकसमयमिति वर्तते, सर्वपरिशाटस्याप्येकसामयिकत्वादेवेति, औदारिक' इत्यौदारिकशरीरे 'संघायणपरिसाडण'त्ति सङ्घातनपरिशाटनकरणं तु क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, तत् पुनरेवं भावनीयं-जघन्यकालस्य प्रतिपादयितुमभिप्रेतत्वात् विग्रहेणोत्पाद्यते, ततश्च द्वौ विग्रहसमयावेकः सङ्घातसमय इति, तैyनं, तथा चोक्तम्-'दो विग्गहमि समया समयो संघायणाएं तेहूणं । खुडागभवग्गहणं सबजहन्नो ठिई कालो ॥१॥ इह च सर्वजघन्यमायुष्कं क्षुल्लकभ-18 है वग्रहणं प्राणापानकालस्यैकस्य सप्तदशभाग इति, उक्तं च भाष्यकारेण-'खुड्डागभवग्गहणा सत्तरस हवंति आण पाचूंमि'त्ति गाथार्थः॥ दाण्यं जहन्नमुक्कोसयं तु पलिअत्तिअं तु समऊणं । विरहो अंतरकालो ओराले तस्सिमो होइ ॥ १६४ ॥ (भा०) ___ व्याख्या-इदं जघन्य सातादिकालमानम् उत्कृष्टं तु सङ्घातपरिशाटकरणकालमानमौदारिकमाश्रित्य पल्योपमत्रितय| मेव समयोनम् , इयमत्र भावना-इहोत्कृष्ट कालस्य प्रतिपाद्यत्वादयमविग्रहसमापन्नः इह भवात् परभवं गच्छन्निहभवशरीरशादं कृत्वा परभवायुषत्रिपल्योपमकालस्य प्रथमसमये शरीरसहनतं करोति, ततो द्वितीयसमयादारभ्य सङ्घातपरि द्वौ विग्रहे समयौ समयञ्च संघातनायाः तैरूनम् । शुकभवप्रहणं सर्वजधन्यः स्थितिकालः ॥ १२ क्षुलकभवग्रहणालि सप्तदश भवन्ति आनप्राणे । दीप अनुक्रम ब JAMERatunintimational Manmiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~920~ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६४] (४०) आवश्यकहारिभ- द्रीया ॥४५९॥ प्रत शाटोभयकाल इति, तेन सङ्घातनासमयेन ऊनं पल्योपमत्रयमिति, उक्तं च-"उकोसो समऊणो जो सो संघातणासम- सत्रस्पर्श यहीणो । चोयग-किह न दुसमयविहूणो साडणसमएऽवणीयंमि ॥१॥ भण्णइ भवचरिमंमिवि समये संघातसाडणाला वि०१ |चेव । परभवपढमे साडणमओ तदूणो ण कालोत्ति ॥२॥ चो०-जइ परपढमे साडो णिविग्गहदो य तंमि संघातो। णणु सबसाडसंघातणाओं समए विरुद्धाओ ॥ ३॥ आ०-जम्हा विगच्छमाणं विगयं उप्पज्जमाणमुप्पण्णं । तो परभवाइ-18 समए मोक्खादाणाणमविरोहो ॥४॥ चुइसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खओ जहातीए । जइ परभवोवि ण तहिं तो सो को होउ संसारी॥५॥णणु जह विग्गहकाले देहाभावेऽवि परभवग्गहणं। तह देहाभामिवि होजेहभवोऽवि को दोसो ॥६॥ आ०-जंचिय विग्गहकालो देहाभावि तो परभवो सो । चुइसमएऽवि ण देहो न विग्गहो जइ स को होइ8 पा" एवमौदारिके जघन्येतरभेदः सङ्घातपरिशाटकाल उक्तः। सङ्घातपरिशाटयोस्त्येक एव (समयः), द्वितीयस्यासम्भवाद, सूत्रांक (१) दीप अनुक्रम -NCROSCARSCARA उत्कृष्टः समयोनो यः स संघातनासमयहीनः । चोदकः-कथं न द्विसमयविहीनः शाटनसमयेअनीते ? ॥ १॥ भण्यते भवचरमेऽपि समयं संघातशाटने एव । परभवप्रथमे शाटनमतस्तदूनो न काल इति ॥ २॥ चोदका-यदि परभवप्रथमे शाटो निर्चिग्रहतश्च तस्मिन् संघातः । ननु सर्वशाटसंघातने समये | | विरुवे ॥३॥ आचार्यः-यस्माद्विगच्छत् विगतमुस्पद्यमानमुत्पन्नम् । ततः परभवादिसमये मोक्षादानयोनं विरोधः ॥ ४॥ च्युतिसमये नेहमव इहदेह-18 विमोक्षतो यथाऽतीते । यदि परभवोऽपि न तत्र तदा स को भवतु संसारी ? ॥ ५॥ ननु यथा विग्रहकाले देहाभावेऽपि परभवप्रहणम् । तथा देहामावेऽपि भवेदिह मोऽपि को दोषः। ॥६॥ २ आक-यसादेव विग्रहकालो देहाभावेऽपि ततः (एष) परभवः सः । च्युतिसमयेऽपि न देहो न विग्रहो | यदि स को भवेत् ॥७॥ ॥४५९॥ JAIMERator andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~921 ~ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६४] (४०) 564%ॐRY प्रत सूत्रांक अधुना सातादिविरहो जघन्येतरभेदोऽभिधीयते, तथा चाऽऽह-विरहः कः?, उच्यते, अन्तरकालः, औदारिके तस्य । सङ्घातादेरयं भवतीति गाथार्थः ॥ जातिसमयहीणं खुर्यु होइ भवं सब्यबंधसाडाणं । उक्कोस पुब्बकोडी समओ उअही अतित्तीसं ॥१६॥ (भा०) | व्याख्या-त्रिसमयहीन भुलं भवति, 'भवम्' इति भवग्रहणं, सर्वबन्धशाटयोरन्तरकाल इति, तत्र बिसमयहीनं सर्वतबन्धस्य क्षुलं तु सम्पूर्ण सर्वशाटस्येति, उत्कृष्टः पूर्वकोटिसमयः, तथा 'उदधीनि च (धयश्च) सागरोपमाणि च त्रयस्त्रिंशत् सर्वबन्धस्य, समयोनस्त्वयमेव शाटस्येति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु भाष्यगाथाभ्योऽवसेयस्ताश्चेमा:-"संघायंतरकालो जहन्नओ खुड्यं तिसमऊणं । दो विग्गमि समया तइओ संघायणासमओ ॥१॥ तेहणं खुड्भवं धरिउ परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघाययओस विण्णेओ॥२॥ उक्कोस तेत्तीसं समयाहियपुवकोडिअहिआई। सो सागरोवमाई अविग्गहेणेह संघायं ॥३॥ काऊण पुवकोडिं धरि सुरजेठमाउयं तत्तो। भोत्तूण इहं तइए समए संघाययंतस्स ॥४॥ इदं पुनः सर्वशाटान्तरं जघन्यं क्षुल्लकभवमानं, कथम् ?, इहानन्तरातीतभवचरमसमये कश्चिदौदारिकशरीरी सर्वशाट कृत्वा वनस्पतिप्वागत्य सर्वजघन्य क्षुल्लकभवग्रहणायुष्कमनुपाल्य पर्यन्ते सर्वशाट करोति, ततश्च क्षुलकभवग्रहणमेव भवति, संघातान्तरकालो जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं त्रिसमयोनम् । द्वौ विग्रहे समयौ तृतीयः संघातनासमयः ॥1॥ तैरूनं क्षुलकभवं घरवा परभवमविग्रहेणैव । गत्या प्रथमसमये संघातयतः स विज्ञेयः ॥२॥ उत्कृष्टः अयविंशत् समयाधिकपूर्वकोटवधिकानि । स सागरोपमाणि अविग्रहेणेह संघातम् ॥ ३॥ कृत्वा पूर्वकोटी इवा सुरज्येष्ठमायुष्कं ततः। भुक्त्वा इह तृतीये समये संघातयतः॥४॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~922~ Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६५] (४०) आवश्यक- उत्कृष्टं तु त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणे पूर्वकोट्याऽधिकानि, कथम् ?, इह कश्चित् संयतमनुष्य औदारिकसर्वशार्ट कृत्वा- सूत्रस्पर्श हारिभ- 1नुत्तरसुरेषु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यतिवाह्य पुनर्मनुष्येष्वौदारिकसर्वसङ्घातं कृत्वा पूर्वकोट्यन्ते औदारिकसर्वशाट करो-IX वि०१ द्रीया | तीति, उक्तं च भाष्यकारेण-"खुड्डागभवग्गणं जहन्नमुक्कोसयं च तित्तीसं। तं सागरोवमाई संपुन्ना पुषकोडी उ ॥ १॥ गुरवस्तु ब्याचक्षते-तदारम्भसमयस्य पूर्वभवशाटेनावरुद्धत्वात् समयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यं शाटान्तरमिति, तथा |च किलेवमक्षराणि नीयन्ते-त्रिसमयहीन क्षुल्लकमित्येतदपि न्याय्यमेवास्माकं प्रतिभाति, किन्त्वतिगम्भीरधिया भाष्यकृता सह विरुध्यत इति गाथार्थः ॥ इदानीं सङ्घातपरिशाटान्तरमुभयरूपमष्यभिधित्सुराहअंतरमेगं समयं जहन्नमोरालगहणसाउस्स । सतिसमया उक्कोसं तित्तीसं सागरा हुंति ॥ १६६ ॥ (भा०) ___ व्याख्या-'अन्तरम्' अन्तरालम् , कं समयं 'जघन्य' सर्वस्तोकम् औदारिकग्रहणशाटयोरिति, सत्रिसमयान्युत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि भवन्तीति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु भाष्यगाथाभ्यामवसेयः, ते चेमे-"उभयंतरं| जहणं समओ निविग्गहेण संघाए । परमं सतिसमयाई तित्तीसं उदहिनामाई ॥१॥ अणुभवि देवाइसु तेत्तीसमिहा-18 गयस्स तइयंमी । समए संघायतओ नेयाई समयकुसलेहिं ॥२॥” उक्तौदारिकमधिकृत्य सर्वसङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतं का॥४६० विक्रियमधिकृत्योच्यते, तत्रेयं गाथा शुलकभवमहणं जघन्यमुस्कृष्टं च वनिशत् । तत् सागरोपमाणि संपूर्णानि पूर्वकोटीत ॥२ त्रिभिरून सर्वबन्धस्य समयोनं सर्वशाटोति भावार्थः । ३ उभयान्तर जघन्य समयो विधिप्रहेण संचाते । परमं सत्रिसमयानि त्रयस्त्रिंशत् अदधिनामानि ॥२॥ अनुभूप देवादिषु प्रयधिशतमिहागतस्य तृतीये । समये संघातयत एवं सेवानि समयकुशलैः ॥ २॥* संवाययओ दुविहं साढत्तरं योच्छ (इति वि. भा.) SACROCEROSSSSSS अनुक्रम [२] JABERatunintamatana Sarwajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~923~ Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६७] (४०) %95% 4 प्रत सूत्रांक 4 वेउबिअसंघाओ जहन्नु समओउ दुसमउकोसो। साड़ो पुण समयं चिअविउव्वणाए विणिदिडो॥१६७॥(भा०) । अस्या व्याख्या-वैक्रियसनातः कालतो 'जघन्यः' सर्वस्तोकः समय एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वादू, अयं चौदारिकशरीरिणां क्रियलब्धिमतां विकुर्वणारम्भे देवनारकाणां च तत्प्रथमतया शरीरग्रहण इति, तथा 'द्विसमय' इति द्विसमयमान उत्कृष्टः वैक्रियसङ्घात इति वर्तते कालश्चेति गम्यते, स पुनरौदारिकशरीरिणो वैक्रियलब्धिमतस्तद्विकुर्वाणारम्भ एव वैक्रियसङ्घातं समयेन कृत्वाऽऽयुष्कक्षयात् मृतस्याविग्रहगत्या देवेषूपपद्यमानस्य वैक्रियमेव सङ्घातयतोऽवसेय इति भावना, शाटः पुनः समयमेव कालतः 'विकुर्वणायां' वैक्रियशरीरविषयो विनिर्दिष्ट इति गाथाक्षराङ्कः । अधुना सङ्घातपरिशाटकालमानमभिधित्सुराहसंघायणपरिसाडो जहन्नओ एगसमइओ होइ । उक्कोसं तित्तीसं सायरणामाई समऊणा ॥ १६८ ॥ ( भा०) __व्याख्या-इह वैक्रियस्यैव सङ्घातपरिशाटः खलूभयरूपः कालतो जघन्य एकसामयिको भवति, उत्कृष्टस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि सागरनामानि समयोनानीति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम्--उभयं जहण्ण समओ सो पुण दुसमयविउ-IC बियमयस्स । परमतराई संघातसमयहीणाई तेत्तीसं ॥१॥ इदानीं वैक्रियमेवाधिकृत्य सङ्घाताधन्तरमभिधित्सुराह-17 सव्वग्गहोभयाणं साडस्स य अंतरं विउविस्स । समओ अंतमुहुत्तं उक्कोसं रुक्खकालीअं॥१६९॥(भा०)15 भवखिन् जघन्यः समयः स पुनर्दिसमयक्रियमृतस्य । परमतराणि संधाससमयदीनानि प्रयस्त्रिंशत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम 56456-4-94544- watanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~924~ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१६९] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥४६॥ सूत्रांक (१) *3GRORROR व्याख्या-इह 'सर्वग्रहोभययोः' सङ्घातसंघातपरिशाटयोरित्यर्थः, शाटस्य च 'अन्तरं' विरहकालः 'वैक्रियस्य' वैक्रियशरी सूत्रस्पर्श |रसम्बन्धिनः समयः सङ्घातस्योभयस्य च, अन्तर्मुहूर्त शाटस्य, इदं तावजघन्य त्रयाणामपि कथं ज्ञायत इति चेत् ? यतकरणस्व० आह-उत्कृष्टं 'वृक्षकालिक' वृक्षकालेनानन्तेन निवृत्तं वृक्षकालिकमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्त्वयं-'संघातंतर समयो8 वि०१ दुसमयविउधियमयस्स तइयंमि । सो दिवि संघातयतो तइए व मयस्स तइयंमि ॥१॥ अविग्रहेण सङ्घातयतः द्वितीय| सङ्घातपरिशाटस्य समय एवान्तरमिति, 'उभयस्स चिरविउवियमयस्स देवे सविग्गह गयस्स । साडसंतोमुहत्तं तिण्हषि | तरुकालमुक्कोसं ॥१॥ उक्ता क्रियशरीरमधिकृत्य सङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतमाहारकमधिकृत्यैनां प्रतिपादयन्नाहआहारे संघाओ परिसाडो अ समयं समं होइ । उभयं जहन्नमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तं तु ॥ १७० ॥ (भा०) व्याख्या-'आहार' इत्याहारकशरीरे सङ्घातः-प्राथमिको ग्रहः परिशाटश्च-पर्यन्ते मोक्षश्च, कालतः 'समय' कालविशेष 'सम' तुल्यं भवति, सङ्घातोऽपि समयं शाटोऽपि समयमित्यर्थः, 'उभयं' सङ्घातपरिशाटोभयं गृह्यते, तजघन्यत उत्कृटतश्चान्तर्मुहूर्तमेव भवतीति वर्तते, अन्तर्मुहूर्तमात्रकालावस्थायित्वादस्येति गर्भार्थः, उत्कृष्टानु जघन्यो लघुतरो वेदितव्य | इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमाहारकमेवाधिकृत्य सङ्घाताद्यन्तरमभिधातुकाम आहबंधणसाडुभयाणं जहन्नमंतोमुत्तमंतरणं । उक्कोसेण अवहूं पुग्गलपरिअड्देसूणं ॥ १७१॥ (भा०) | ॥४६॥ 1 संघातान्तरं समयो द्विसमयक्रियमृतस्य तृतीये । स दिवि संघातयतः तृतीये या मृतस्य तृतीये ॥ १ ॥ २ उभयस्य चिरविकुर्वितमृतस्य देवे सविप्रहं गतस्य । शाटस्थान्तर्मुहुर्त प्रयाणामपि तहकालमुस्कृष्टम् ॥1॥ दीप अनुक्रम JAMEaintuk ara मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~925~ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१७१] (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-बन्धन-सहगतः शाटः-शाट एव उभयं सनातशाटी अमीषा बन्धनशाटोभयानां 'जघन्यं सर्वस्तोकम् |'अन्तर्मुहर्तमन्तरणम्' अन्तर्मुहूर्तविरहकालः, सकृत्परित्यागानन्तरमन्तर्मुहुर्तेनैव तदारम्भादिति भावना, उत्कर्षतः | अर्द्धपुद्गलपरावर्तों देशोनोऽन्तरमिति, सम्यग्दृष्टिकालस्योत्कृष्टस्याप्येतावत्परिमाणत्वादिति गाधार्थः । उक्ताऽऽहारकश|रीरमधिकृत्य सङ्घातादिवक्तव्यता, इदानीं तैजसकार्मणे अधिकृत्याऽऽह|तेआकम्माणं पुण संताणाणाइओ न संघाओ। भब्वाण हुज साडो सेलेसीचरमसमयंमि ॥ १७२॥ (भा०) Rो व्याख्या-तैजसकार्मणयोः पुनयोः शरीरयोः सन्तानानादितः कारणात् , किं ?, न सङ्घातः-न तत्प्रथमतया ग्रहण, प्रागेव सिद्धिप्रसङ्गात् , भव्यानां भवेत् शाटः केपाञ्चित् , कदेति ?, अत आह-शैलेशीचरमसमये, स चैकसामायिक एवेति गाथार्थः ॥ उभयं अणाइनिहणं संतं भव्वाण हुन्ज केसिंचि । अंतरमणाइभावा अचंतविओगओ नेसिं ॥ १७३ ॥ (भा०) HI व्याख्या-उभयम्' इति सङ्घातपरिशाटोभयं प्रवाहमङ्गीकृत्य सामान्येन 'अनाद्यनिधनम्' अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः, 'सान्तं' सपर्यवसानमुभयं भव्यानां भवेत केषाञ्चित, न तु सर्वेषामिति, अन्तरमनादिभावादत्यन्तवियोगतश्च नानयोरिति गाथार्थः ॥ १७३ ॥ अथवेदमन्यजीवप्रयोगनिवृत्तं चतुर्विध करणमिति, आह चअहवासंघाओ?साडणं चउभयं३ तहोभयनिसेहो ४।पड़ १ संखरसगड २ थूणा ४ जीवपओगे जहासंखं १७४३ दीप अनुक्रम KAR स REainm मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~926~ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०१६...], भाष्यं [१७४] (४०) सूत्रस्पर्श करणस्व० वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक- व्याख्या-अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः, 'सङ्घात' इति सङ्घातकरणं, 'सातनं च' शातनकरणं च 'उभयं' सवाहारिभ- | तशातनकरणं 'तथोभयनिषेध' इति सङ्घातपरिशाटशून्यम् । अमीषामेवोदाहरणानि दर्शयन्नाह-पटः शङ्खः शकटं स्थूणा, द्रीया ‘जीवप्रयोग' इति जीवप्रयोगकरणे तत्कायव्यापारमाश्रित्य यथासङ्ख्यमेतान्युदाहरणानि समवसेयानि, तथाहि-पटस्तन्तु४६२॥ सङ्घातात्मकत्वात् सङ्घातकरणं शङ्खस्त्वेकान्तसाटकरणादेव शाटकरणं शकटं तक्षणकीलिकादियोगादुभयकरणं स्थूणा पुनरूधतियकरणयोगात् संघातशाटविरहादुभयशून्या इति गाथार्थः॥ उक्तं जीवप्रयोगकरणम् , आह-जंजं निज्जीवाणं कीरइ |जीवप्पओगओ तं ते इत्यादिनाऽस्याजीवकरणतैव युक्तियुक्तेति, अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, इहादावेवाथवा| शब्दप्रयोगतःप्रकारान्तरमात्रप्रदर्शनार्थमेतदुक्तं, ततश्चात्र व्युत्पत्तिभेदमात्रमाश्रीयते, जीवप्रयोगात् करणं जीवप्रयोग करणमिति, ज्यायांश्चान्यर्थ इत्यलं प्रसङ्गेन । उक्तं द्रव्यकरणं, साम्प्रतं क्षेत्रकरणस्यावसरः, तत्रेयं नियुक्तिगाथाहाखित्तस्स नत्थि करणं आगासं जं अकित्तिमो भावो। वंजणपरिआवन्नं तहावि पुण उच्छुकरणाई॥१०१७ ॥ | अस्या व्याख्या-इह 'क्षेत्रस्य' नभसः 'नास्ति करणं' निर्वृत्तिकारणाभावान्न विद्यते करणं मुख्यवृत्त्या 'आकाश' क्षेत्रं कायद्' यस्मात् 'अकृत्रिमो भावः' अकृतकः पदार्थः, अकृतकस्य च सतो नित्यत्वात् करणानुपपत्तिरिति भावः । आह-I यद्येवं किमिति नियुक्तिकारेण निक्षेपगाथायामुपन्यस्तमिति !, अत्रोच्यते, व्यञ्जनपर्यायापन्नं तथापि पुनरिक्षुकरणाद्यरत्येवेति, इह व्यञ्जनशब्देन क्षेत्राभिव्यञ्जकत्वात् पुद्गलाः गृह्यन्ते, तत्सम्बन्धात् पर्यायः कथञ्चित् प्रागवस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिरित्यर्थः, तमापन्नं पुनस्तथाऽपि यदा विवक्ष्यते तदा पर्यायो द्रव्यादनन्य इति पर्यायद्वारेण क्षेत्रकरण -9-2-56-455 (१) दीप अनुक्रम I ४६२॥ 121 intaint a ma Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 927~ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१७], भाष्यं [१७४...] (४०) C+ C%EOC* प्रत सूत्रांक -* मस्तीति सभावार्थाऽक्षरगमनिका ॥ उपचारमात्राद्वेक्षुकरणादि, यथेषुक्षेत्रकरणं शालिक्षेत्रकरणम् , अथवाऽऽदिशब्दाद् । यत्र प्ररूप्यते क्रियते वेति गाथार्थः ॥ १०१७ ॥ उक्त क्षेत्रकरणम् , इदानीं कालकरणस्यावसरः, तत्रेयं गाथाXकालेवि नस्थि करणं तहावि पुण बंजणप्पमाणेणं । बवबालवाइकरणेहिंडणेगहा होड ववहारो॥१०१८॥ अस्या व्याख्या-कलनं कालः कलासमूहो वा कालस्तस्मिन् कालेऽपि, न केवलं क्षेत्रस्य, किं ?, नास्ति करणंन विद्यते कृतिः, कुतः ?-तस्य वर्तनादिरूपत्वाद्, वर्तनादीनां च स्वयमेव भावात् , समयाद्यपेक्षायां च परोपादानत्वा दिति भावना, आह-यद्येवं किमिति नियुक्तिकृतोपन्यस्तमिति ?, अत्रोच्यते, तथाऽपि पुनर्व्यञ्जनप्रमाणेन भवतीति शेषः, दाइह व्यञ्जनशब्देन विवक्षया वर्तनाद्यभिव्यञ्जकत्वाद् द्रव्याणि गृह्यन्ते, तत्प्रमाणेन-तन्त्रीत्या तद्वलेन भवतीति, तथाहि-1 वर्तनादयस्तद्वतां कथश्चिदभिन्ना एव, ततश्च तद्वता करणे तेषामपि करणमेवेति भावना, समयादिकालापेक्षायामपि व्यवहारनयादस्ति कालकरणमिति, आह च-बक्वालवादिकरणैरनेकधा भवति व्यवहार इति, अत्रादिशब्दात् कौलवादीनि गृह्यन्ते, उक्तं च-'बवं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोयणं । गराइ वणियं चेव, विही भवइ सत्तमा ॥१॥ एयाणि सत्त करणाणि चलाणि बटुंति, अवराणि सउणिमाईणि चत्तारि थिराणि, उक्तं च-सउणि चउप्पय गागं किंछुग्धं च करणं ४ थिरं चउहा । बहुलचउद्दसिरत्ती सउणी सेसं तियं कमसो॥१॥ एस एस्थ भावणा-बहुलचउद्दसिराईए सउणी हवति, बब च बालवं चैव कौलवं स्त्रीविलोचनम् । गरादि वणिक् चैव विधिर्भवति सप्तमी ॥1॥ एतानि सप्त करणानि चलानि वर्तन्ते, अपराणि शकुन्यादीनि चत्वारि स्थिराणि,-शकुनिश्चतुष्पदं नागः किंस्तुम्नं च करणानि स्थिराणि चतुधी । कृष्णचतुर्दशीरात्रौ शकुनिः दोषं त्रिकं क्रमशः ॥ १॥ एषाऽन्न भावना-कृष्णचतुदशीरात्रौ शकुनिर्भवति दीप अनुक्रम SEatml Nangionary.com मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~928~ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१८], भाष्यं [१७४...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया सूत्रस्पर्श. करणस्व० वि०१ ॥४६शा प्रत सूत्रांक (१) 'सेसं तियं चउप्पयाई करणं अमावासाए दिया राओ य तो पडिवयदियाय, तओ सुद्धपडिवयणिसादी बवाईणि हवंति, एएसिं च परिजाणणोवाओ-पक्खतिहओ दुगुणिया दुरूवहीणा य सुक्कपक्खमि । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाधियं रतिं ॥१॥ एसेत्थ भावणा-अहिगयदिणंमि करणजाणणत्थं पक्खतिहिओ दुगुणियत्ति-अहिगयतिहिं पडुच्च अइगआ। |दुगुणा कजंति, जहा सुद्धचउत्थीए दुगुणा अह हवंति 'दुरूवहीण'त्ति तओ दोण्णि रूवाणि पाडिति, सेसाणि छ सत्तहिं भागे देवसियं करणं भवइ, एत्थ य भागाभावा छच्चेव, तओ बवाइकमेण चादुप्पहरिगकरणभोगेणं चउत्थीए दिवसओ वणियं हवइ, 'तं चिय रूवाहियं रत्ति'ति रत्तीए विठ्ठी, कण्हपक्खे पुणो दो रूवा ण पाडिजंति, एवं सवत्थ भावणा कायवा, भणियं च-'किण्हनिसि तइय दसमी सत्तमी चाउद्दसीय अह विट्ठी। सुक्कचउत्थेकारसि निसि अट्टमि पुन्निमा य दिवा 8/॥१॥ सुद्धस्स पडिवयनिसि पंचमिदिण अहमीए रत्तिं तु । दिवसस्स बारसी पुन्निमा य रत्तिं बर्व होइ ॥२॥ शेषं त्रयं चतुष्पदादिकरणं अमावास्याचा दिवा रामौ च ततः प्रतिपदिवसे च, ततः शुचप्रतिपनिशादी बवादीनि भवन्ति, एतेषां च परिज्ञानोपायः-पक्षतिथयो द्विगुणिता द्विरूपहीनाब शुक्रपक्षे । सप्तहते देवसिकं तदेव रूपाधिक रात्रौ ॥१॥ एषाश्च भावना-अधिकृतदिने करणज्ञानाथै पक्षतिथयो द्विगुणिता हा इति अधिकृततिधि प्रतील अतिगता द्विगुणाः शिवन्ते, यथा शुकचतुथ्यों द्विगुणा अष्ट भवन्ति, द्विरूपहीना इति ततो दे रूपे पात्येते, शेषाणि पद सप्तभिर्भागे। देवसिकं करणं भवति, मनसभागाभावात् पदेव, ततो बवादिक्रमेण चातुमाहरिककरणभोगेन चतुया दिवसे वणिक भवति, तदेव रूपाधि रात्रा' विति। रात्रौ विष्टिः, कृष्णपक्षे पुन रूपे न पायेते, एवं सर्वत्र भावना कर्तव्या, भणितं च-कृष्णे निशि तृतीयायां दशम्यां सप्तम्यां चतुर्दश्यां अति विष्टिः । शुले चतुया एकादश्यां निशि अष्टम्यां पूर्णिमायां च दिवा ॥1॥ शुक्लस्य प्रतिपनिशि पञ्चमीदिने अष्टम्या रात्री तु । द्वादश्या दिवसे पूर्णिमायाश्च रात्रौ बर्व भवति ॥ २॥ दीप अनुक्रम ॥४६॥ dancinnaryam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~929~ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०१८], भाष्यं [१७४...] (४०) प्रत सूत्रांक बहुलस्स चउत्थीए दिवा य तह सत्तमीइ रतिमि । एक्कारसीय उ दिवा बवकरणं होइ नायचं ॥३॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १०१८ ॥ उक्तं कालकरणम् , अधुना भावकरणमभिधीयते, तत्र भावः पर्याय उच्यते, तस्य च जीवाजीवोपाधिभेदेन द्विभेदत्वात् तत्करणमप्योघतो द्विविधमेवेति, अत आहजीवमजीवे भावे अजीवकरणं तु तत्व वन्नाई। जीवकरणं तु दुविहं सुअकरणं नो असुअकरणं ॥१०१९ ॥ व्याख्या-इहानुस्वारस्यालाक्षणिकत्वाजीवाजीवयोः सम्बन्धि 'भाव' इति भावविषयं करणमवसेयमिति, अल्पवक्तध्यत्वादजीवभावकरणमेवादावुपदर्शयति- अजीवकरणं तु' तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादजीवभावकरणं परिगृह्यते, 'तत्र' तयोर्मध्ये वर्णादि, इह परप्रयोगमन्तरेणानादेनानावर्णान्तरगमनं तदजीवभावकरणम्, आदिशब्दाद् गन्धादिपरिग्रहः, तत्राऽऽह-ननु च द्रव्यकरणमपि विनसाविषयमित्थंप्रकारमेवोकं, को न्वत्र भावकरणे विशेष इति ?, उच्यते, इह भावाधिकारात् पर्यायप्राधान्यमाश्रीयते तत्र तु द्रव्यप्राधान्यमिति विशेषः, जीवकरणं तु पुनः द्विविध' द्विप्रकार-श्रुतकरणं नोचतकरणं च, श्रुतकरणमिति श्रुतस्य जीवभावत्वाच्छुतभावकरणं, नोश्रुतभावकरणं च गुणकरणादि, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्ध इति गाथार्थः ॥ १०१९ ॥ साम्प्रतं जीवभावकरणेनाधिकार इदि तदेव यथोद्दिष्टं तथैव भेदतः प्रतिपिपादयिषुराह| बद्धमबद्धं तु सुअं बडं तु दुवालसंग निदिई । तश्विवरीअमवद्धं निसीहमनिसीह बद्धं तु ॥१०२० ॥ कृष्णस्य चतुर्थ्या दिवसे च तथा सप्तम्या रात्रौ । एकादश्यास्तु दिवसे यवकरणं भवति ज्ञातव्यम् ॥ ३॥ दीप अनुक्रम JABERatin intimational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~930~ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभद्रीया ॥४६४॥ Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [ १०२० ], भाष्यं [ १७४...] व्याख्या-इह बज्रमबद्धं तु श्रुतं, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ? - लौकिकलोकोत्तरभेदमिदमेवमिति, तत्र पद्यगद्यबन्धनाद् बद्धं शास्त्रोपदेशवत्, अत एवाह-बद्धं तु द्वादशाङ्गम्-आचारादि गणिपिटकं निर्दिष्टं, तुशब्दस्य विशेपणार्थत्वालोकोत्तरमिदं, लौकिकं तु भारतादि विज्ञेयमिति, तद्विपरीतमबद्धम् लौकिक लोकोत्तर भेदमेवावसेयमिति, 'निसीहमनिसीह बद्धं तु'त्ति इह बद्धश्रुतं निषीथमनिषीथं च, तुशब्दः पूर्ववत्, तत्र रहस्ये पाठाद् रहस्योपदेशाच्च प्रच्छन्नं निषीथमुच्यते, प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशत्वाच्चानिषीधमिति गाथार्थः ॥ १०२० ॥ साम्प्रतमनिषीथनिषीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनायाह भूपरिणयविगए सद्दकरणं तहेव न निसीहं । पच्छन्नं तु निसीहं निसीहह्नामं जहऽज्झणं ॥। १०२१ ॥ व्याख्या - भूतम् - उत्पन्नम् अपरिणतं नित्यं विगतं विनष्टं, ततश्च भूतापरिणतविगतानि, एतदुक्तं भवति- 'उप्पण्णे इ वा विगए इ वा धुवे इ वा' इत्यादि, शब्दकरणमित्यनेनोक्तिमाह, तथा चोक्तम्-'उत्ती तु सद्दकरणे' इत्यादि, तदेवं भूतादिशब्दकरणं 'न निषीय मिति निषीयं न भवति, प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशत्वाच्च प्रच्छन्नं तु निषीथं रहस्यपाठाद् रहस्योपदेशाच्च निषीथनाम यथाऽध्ययनमिति गाथार्थः ॥ १०२१ ॥ अथवा निषीर्थ गुप्तार्थमुच्यते, “जहा-अग्गाणीए विरिए अस्थिनत्थिष्पवाय पुढे य पाठो जत्थेगो दीवायणो भुंजइ तत्थ दीवायणसयं भुंजइ जत्थ दीवायणसयं भुंजइ तस्थ १ बतिस्तु शब्दकरणे २ यथाऽग्रामणीये वी अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वे च पाठः यत्रको द्वीपायनो भुक्के तत्र द्वीपायनशतं भुङ्क्ते यत्र द्वीपायनशतं भुक्ते तत्रैको For Parts Only सूत्रस्पर्श० करणस्व ० वि० १ ~ 931~ ॥४६४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ibrary org Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [ १०२१], भाष्यं [ १७४...] एगो दीवायणो भुजइ, एवं हम्मइ वि जाव जत्थ दीवायणसयं हम्मइ तत्थेगो दीवायणो हम्मइ,” तथा चामुमेवार्थमभिधातुकाम आह- अग्गेणीअंमि य जहा दीवायण जत्थ एग तत्थ सयं । जत्थ सयं तत्थेगो हम्म वा भुंजए बावि ॥ १०२२ ।। व्याख्या -सम्प्रदायाभावान्न प्रतन्यत इति ॥ एवं बद्धमबद्धं आएसाणं हवंति पंचसया । जह एगा मरुदेवी अचंतत्थावरा सिद्धा ।। १०२३ ॥ व्याख्या- 'एवम्' इत्यनन्तरोक्तप्रकारं 'बर्द्ध' लोकोत्तरं, लौकिकं त्वत्रारण्यकादि द्रष्टव्यम्, अबद्धं पुनरादेशानां भवन्ति पञ्च शतानि किम्भूतानि ?, अत आह-यथैका-तस्मिन् समयेऽद्वितीया 'मरुदेवी' ऋषभजननी 'अत्यन्तस्थावरा' इत्यनादिवनस्पतिकायादुद्वृत्त्य 'सिद्धा' निष्ठितार्था सञ्जातेति, उपलक्षणमेतदन्येषामपि स्वयम्भूरमणजलधिमत्स्यपद्मपत्राणां वलयव्यतिरिक्त सकलसंस्थानसम्भवादीनामिति, लौकिकमप्य डिकाप्रत्यडिकादिकरणं ग्रन्थानिवद्धं वेदितव्यमिति गाथार्थः ।। १०२३ ॥ अत्र वृद्धसम्प्रदायः- आरुहए पवयणे पंच आएससयाणि जाणि अणिवद्धाणि, तत्थेगं मरुदेवा जवि अंगे ण उवंगे पाठो अस्थि जहा-अचंतं थावरा होइऊण सिद्धति, बिइयं सयंभुरमणे समुद्दे मच्छाणं पउमपत्ताण व सबसंठाणाणि 1 द्वीपायनो भुंके, एवं हन्यतेऽपि यावत् यत्र द्वीपायनशतं हन्यते तत्रैको द्वीपायनो हन्यते २ आई प्रवचने पञ्चादेशशतानि यान्यनिवदानि सन्नैकं मरुदेवा नैवाङ्गे नोपाङ्गे पाठोऽस्ति यथा-अत्यन्तं स्वावरा (इ) भूत्या (अनादिवनस्पतेरागत्य ) सिद्धेति द्वितीयं स्वयम्भूरमणे समुद्रे मत्स्यानां पद्मपत्राणां सर्वसंस्थानानि For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मरुदेवी मातर: कथानकं ~932~ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२३], भाष्यं [१७४...] (४०) IMI सूत्रस्पर्श दीया करणस्व० वि०१ प्रत सूत्रांक आवश्यक 18 अस्थि वलयसंठाणं मोत्तुं, तइयं विण्हुस्स सातिरेगजोयणसयसहस्सविउवणं, चउत्थं करडओकुरुडा 'दोसष्ट्रियरुवझाया, हारिभ कुणालाणयरीए निद्धमणमूले वसही, वरिसासु देवयाणुकंपणं, नागरेहि निच्छुहणं, करडेणरूसिपण वुत्तं-'परिस देव! कुणा लाए,' उकुरुडेण भणियं-'दस दिवसाणि पंच य' पुणरवि करडेण भणियं-'मुहिमेत्ताहिं धाराहिं' उकुरुडेण भणियं॥४६५॥ 'जहा रत्विं तहा दिवं' एवं वोत्तूणमवकता, कुणालाएवि पण्णरसदिवसअणुबद्धवरिसणेणं सजाणवया (सा) जलेण उर्फता तओ ते तइयवरिसे साएए णयरे दोऽवि कालं काऊण अहे सत्तमाए पुढवीए काले णरगे बावीससागरोवमहिईआणेरइया संवुत्ता । कुणालाणयरीविणासकालाओ तेरसमे वरिसे महावीरस्स केवलणाणसमुप्पत्ती । एवं अनिबर्द्ध, एवमाइ |पंचाएससयाणि अबद्धाणि ॥ एवं लोइयं अबद्धकरणं बत्तीसं अड्डियाओ बत्तीस पञ्चड्डियाओ सोलस करणाणि, लोगप्पवाहे पंचट्ठाणाणि तंजहा-आलीढं पच्चालीढं वइसाहं मंडल समपयं, तत्थालीढं दाहिणं पार्य अग्गओहत्तं का? दीप अनुक्रम सन्ति बलयसंस्थानं मुक्त्वा, तृतीयं विष्णोः सातिरेकयोजनातसहस्रं वैक्रिय, चतुथै कुटो कुटी दोषाःतरोपाध्यायौ कुणालायां नगर्यो। | निधमन (जलनिर्गमनमार्ग) मूले वसतिः (तयोः), वर्षासु (वर्षावासे) देवतानुकम्पनं, नागरैर्निष्काशनं, करटेन रुष्टेनोक्त-वर्ष देव! कुणालायां,' उत्कुरटेन माणितं-'दशा दिवसान् पञ्चच' पुनरपि करटेन भणितं-मुष्टिमात्राभिर्धाराभिः' उत्कुरुटेन भणितं-'यथा रानी तथा दिवा' एवमुक्त्वाऽपक्रान्ती, कुणालायामपि पत्रदशदिवसानुबद्धवर्षणेन सजनपदा (कुणाला) जलेनापकान्ता, ततस्तौ तृतीय वर्षे साकेते नगरे दावपि कालं कृत्वाऽधः सप्तम्यां पृथिव्यां काले नरके द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिको नैरयिको संवृत्तौ । कुणालानगरीविनाशकालात्रयोदशे वर्षे महावीरस्य केवलज्ञानसमुत्पत्तिः । एतदनिववं, एवमादीनि पञ्चादेशशतानि भबद्धानि । एवं लौकिकमबद्धकरण द्वात्रिंधादडिकाः द्वात्रिंशत्प्रत्याड्किाः पोडश करणानि, लोकप्रवाहे पञ्च स्थानानि, तबधा-भालीई प्रत्यालीदं वैशास्त्र मण्डलं समपाद, तत्रालीढं दक्षिणं पादमप्रतीभूतं कृत्वा * दोसढियहवा. ॥४६५|| JAMEainmentatana R iorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~933~ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२३], भाष्यं [१७४...] (४०) प्रत सूत्रांक AGRICARROCRACK वामपायं पच्छओहत्तं ओसारेइ, अंतरं दोण्हवि पायाणं पंचपाया, एवं चेव विवरीयं पञ्चालीढं, वइसाहं पण्हीओ अभितराहुत्तीओ समसेढीए करेइ, अग्गिमयलो बहिराहुत्तो, मंडलं दोवि पाए दाहिणवामहुत्ता ओसारेत्ता ऊरुणोवि आउँटावेइ जहा मंडलं भवइ, अंतरं चत्तारि पया, समपायं दोवि पाए समं निरंतरं ठवेइ, एयाणि पंचट्ठाणाणि, लोगप्पवाए(हे) सयणकरणं छठं ठाणं, इत्यलं विस्तरेण ॥ उक्तं श्रुतकरणम् , अधुना नोश्रुतकरणमभिधित्सुराहनोसुअकरणं दुविहं गुणकरणं तह य झुंजणाकरणं । गुणकरणं पुण दुविहं तवकरणे संजमे अ तहा ॥१०२४॥ व्याख्या-श्रुतकरणं न भवतीति नोश्रुतकरणम्, 'अमानोनाः प्रतिषेधवाचका' इति वचनात् , 'द्विविधं द्विप्रकार |'गुणकरणम्' इति गुणानां करणं गुणकरणं, गुणानां कृतिरित्यर्थः, तथा' इति निर्देशे 'च' समुच्चये व्यवहितश्चास्य योगः, कथं ?, 'योजनाकरणं च मनाप्रभृतीनां व्यापारकृतिश्चेत्यर्थः, गुणकरणं पुनः 'द्विविधं' द्विप्रकारं, कथं !, 'तपकरणम्' इति तपसः अनशनादेर्बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नस्य करणं तपःकरणं, तपःकृतिरिति हृदय, तथा 'संजमे अति संयमविषय |च पञ्चाश्रवविरमणादिकरणमिति भाव इत्ययं गाथार्थः ॥ १०२४ ॥ इदानीं योजनाकरणं व्याचिख्यासुराहझुंजणकरणं तिविहंमण १ वयरकाए अश्मणसि सच्चाई । सहाणि तेसिभेओचउरचउहारसत्तहा ३ चेव १०२५ दीप अनुक्रम वामपाद पत्रान्कृत्याफ्सारयति, अन्तरं द्वयोरपि पादयोः पञ्च पादाः, एवमेव विपरीतं प्रत्यालीढं, वैशाख पार्णी अभ्यन्तरे समश्रेण्या करोति, अग्रतलौ बाह्यतः, मण्डल द्वावपि पादौ दक्षिणवामतः अपसार्थ करू अपि आकुजति यथा मण्डलं भवति, अन्तरं चत्वारः पादाः, समपाद द्वावपि पादौ समं निरन्तरं स्थापयति, एतानि पञ्च स्थानानि, कोकणवादे (8) शबनकरणं पष्ट खानम् । ACANCE allanioraryan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~934~ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२५], भाष्यं [१७४...] (४०) आवश्यकहारिभ-1 द्रीया ॥४६६॥ *-564 व्याख्या-योजनाकरण 'त्रिविधं त्रिप्रकारं 'मणवइकाए यत्ति मनोवाकायविषय, तत्र 'मनसि सत्यादि' मनोविषय सूत्रस्पर्श सत्यादियोजनाकरणं तद्यथा-सत्यमनोयोजनाकरणम् , असत्यमनोयोजनाकरणं, सत्यमृषामनोयोजनाकरणम् , असत्या-14 करणस्व० मृषामनोयोजनाकरणमिति, 'स्वस्थाने प्रत्येकं मनोवाकायलक्षणे 'तेषां' योजनाकरणानां 'भेदः' विभागः 'चउ चउहा सत्तहा। वि०१ चेवत्ति अयमत्र भावार्थ:-मनोयोजनाकरणं चतुर्भेदं सत्यमनोयोजनाकरणादि दर्शितमेव, एवं वाम्योजनाकरणमपि चतुर्भेदमेव द्रष्टव्यं, काययोजनाकरणं तु सप्तभेदं, तद्यथा-औदारिककाययोजनाकरणम् , एवमौदारिकमित्रम् , एवं वक्रियकायः एवं क्रियमिश्रम्, एवमाहारककायः एवमाहारकमिश्रम् , एवं कार्मणकाययोजनाकरणमिति गाथार्थः । १०२५ ॥ इत्थं तावद् व्यावर्णितं यथोद्दिष्टं करणम् , अधुनाऽत्र येनाधिकार इति तद्दर्शनायाऽऽहभावसुअसद्दकरणे अहिगारो इत्थ होइ कायब्यो । नोमुअकरणे गुणझुंजणे अ जहसंभव होइ ॥ १०२६ ॥ व्याख्या-भावश्रुतशब्दकरणे 'अधिकार' अवतारो भवति कर्तव्यः श्रुतसामायिकस्य, न तु चारित्रसामायिकस्य, तस्य अन्ते यथासम्भवाभिधानाद्, इह चभावश्श्रुतं सामाविकोपयोग एव, शब्दकरणमप्यत्र तच्छब्दविशिष्टः श्रुतभाव एव विवक्षितो न तु द्रव्यश्रुतमिति, तत्र वस्तुतोऽस्यानवतारात्, तथा नोश्रुतकरणमधिकृत्य 'गुणझुंजणे यत्ति गुणकरणे I योजनाकरणे च यथासम्भवं भवति, अधिकरणमिति गम्यते, तत्र यथासम्भवमिति गुणकरणे चारित्रसामायिकस्यावतारः, तपःसंयमगुणात्मकत्वाचारित्रस्य, योजनाकरणे च मनोवाग्योजनायां सत्यासत्यामृषाद्धये द्वयस्यापि भावनीयः, काययोज अनुक्रम [२] JAMERIINEMind janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~935~ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२६], भाष्यं [१७४...] (४०) प्रत सूत्रांक -54-05 नायामपि द्वयस्याद्यस्यैवेति गाथार्थः ॥ १०२६ ॥ साम्प्रतं सामायिककरणमेवाव्युत्पन्नविनेयवर्गव्युत्पादनार्थ सप्तभिरनुयोगद्वारैः कृताकृतादिभिः निरूपयन्नाह कयाकयं १ केण कयं २ केसु अव्वेसु कीरई वावि ३ । काहे व कारओ ४ नयओ ५ करणं कइविहं ६ (च) कहं ७१ ॥ १०२७॥ व्याख्या-'कयाकर्य'ति सामायिकस्य करणमिति क्रियां श्रुत्वा चोदक आक्षिपति-एतत्सामायिकमस्याः क्रियायाः प्राक् किं कृतं क्रियते ? आहोश्विदकृतमिति, उभयथाऽपि दोषः, कृतपक्षे भावादेव करणानुपपत्तेः, अकृतपक्षेऽपि वान्ध्येयादेरिव करणानुपपत्तिरेवेति, अत्र निर्वचनं, कृतं चाकृतं च कृताकृत, नयमतभेदेन भावना कार्या, केन कृतमिति वक्तव्यं, तथा केषु द्रव्येष्विष्टादिषु क्रियते !, कदा वा कारकोऽस्य भवतीति वक्तव्यं, 'नयत' इति केनालोचनादिना नयेनेति, तथा करणं 'कइविहं' कतिभेदं 'कथं' केन प्रकारेण लभ्यत इति वक्तव्यमयं गाथासमासाथैः ॥१०२७ ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वार भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहउप्पन्नाणुप्पन्नं कयाकयं इत्थ जह नमुक्कारे। दा०१केणंति अत्यओतं जिणेहिं सुत्तंगणहरेहि॥१७॥(दा०२)भा० व्याख्या-इहोत्पन्नानुत्पन्नं कृताकृतमभिधीयते, सर्वमेव च वस्तूत्पन्नानुत्पन्नं क्रियते, द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वाद्वस्तुन इति, अत्र नैगमादिनयैर्भावना कार्येति, अत एवाऽऽह-अत्र यथा नमस्कारे नयभावना कृता तथैव कर्तव्येति गम्यते, SAGAR R दीप अनुक्रम [२] AMERAHIMALone Mandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सामायिककारणस्य सप्त अनुयोगद्वारैः निरूपणं ~ 936~ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥४६७॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [१०२७], भाष्यं [ १७५] सा पुनर्नमस्कारानुसारेणैव भावनीयेति द्वारम् । सा पुण भावणा - इह केइ उप्पन्नं इच्छंति, केइ अणुत्पन्नं इच्छंति, ते य णेगमाई सत्त मूलणया, तत्थ णेगमोऽणेगविहो, तत्थाइणेगमस्स अणुप्पन्नं कीरइ णो उप्पण्णं, * कम्हा ?, जहा पंच अत्थिकाया णिच्चा एवं सामाईयंपि ण कयाइ णासि ण कयाइ ण भवदि ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ, धुवे णिइए अक्खए अबए अवट्ठिए णिच्चे ण एस भावे केणइ उप्पाइएत्तिकट्टु, जदाचि भरहेरवएहिं वासेहिं बोच्छिज्जइ तयावि महाविदेहे वासे अधोच्छिती तम्हा अणुष्पन्नं । सेसाणं णेगमाणं छण्ह य संगहाईण नयाणं उत्पन्नं कीरइ, जेणं पण्णरससुवि कम्मभूमीस पुरिसं पडुच्च उप्पजइ, जइ उत्पन्नं कहं उप्पन्नं १, तिविहेण सामित्तेण उप्पत्ती भवइ, तंजहा-समुट्ठाणेणं वायणाए लद्धीए, तत्थ को णओ कं उप्पत्तिं इच्छइ ?, तत्थ जे पढमवजा णेगमा संगहववहारा य ते तिविहंपि उप्पत्तिं इच्छंति, समुद्राणेणं जहा तित्थगरस्स सएणं उवहाणेणं, वायणाए वायणायरियणिस्साए जहा भगवया गोयमसामी वाइओ, लद्धीए वा अभवियस्स १ सा पुनभवना-इइ केचिदुत्पन्नमिच्छन्ति केचिदनुत्पन्नमिच्छन्ति, ते च नैगमादयः सप्त मूलनयाः, तत्र नैगमोऽनेकविधः, तन्त्रादिनैगमल्यानुत्प क्रियते नोत्पन्नं कस्मात् यथा पञ्चास्तिकाया नित्या एवं सामायिकमपि न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचित भविष्यति, भूतं च भवति च भविध्यति, ध्रुवं नैत्विकं अक्षयमव्ययं अवस्थितं नित्यं नैष भावः केनचिदुत्पादित इति कृत्वा, पदापि भरतैरवत्तेषु वर्षेषु व्युच्छियते तदाऽपि महा विदेहेषु वर्षेषु अव्यवच्छित्तिः तस्मादनुत्पन्नं दोषाणां नैगमानां पण्णां च संग्रहादीनां नयानामुत्पन्नं क्रियते, यतः पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु पुरुपं प्रतीत्योत्पद्यते, यद्युत्पन्नं कथमुत्पन्नं?, त्रिविधेन स्वामिश्वेनोत्यत्तिर्भवति, तद्यथा समुत्थानेन वाचनया लब्ध्या, तत्र को नयः कामुत्पत्तिमिच्छति ?, तत्र वे प्रथमवज नैगमाः संग्रहम्यवहारौ च ते त्रिविधामप्युत्पतिमिच्छन्ति, ससुत्थानेन यथा तीर्थंकरस्य स्वकेनोत्थानेन, वाचनया वाचनाचार्य निश्रया यथा भगवता गौतमस्वामी वाचितः या वाऽभव्यस्व Education intemational For Final Pen सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~937~ ॥४६७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः crayo Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७५] (४०) प्रत सूत्रांक स्थि, भवियस्स पुण उवएसगमंतरेणावि पडिमाइ दणं सामाइयावरणिजाण कम्माण खओवसमेणं सामाइयलद्धी समुप्पज्जा, जहा सयंभूरमणे समुद्दे पडिमासंठिया य मच्छा पउमपत्तावि पडिमासंठिदा साहुसंठिया य, सवाणि किर तित्थ संठाणाणि अस्थि मोत्तूण वलयसंठाणं, एरिसंणस्थि जीवसंठाणंति, ताणि संठाणाणि दट्टण कस्सइ संमत्तसुयचरित्ताचति रित्तसामाइयाइ उप्पजेज्जा । उज्जुसुओ पढमं समुठ्ठाणेणं नेच्छइ, किं कारणं, भगवं चेव उहाणं, स एव वायणाय रिओ गोयमप्पभिईणं, तेण दुविह-वायणासामित्तं लद्धिसामित्तं च, जं भणियं-बायणायरियणिस्साए सामाइयलद्धी जस्स उपजइ, तिणि सद्दणया लद्धिमिच्छंति, जेण उठाणे घायणायरिए य विजमाणेवि अभवियस्स ण उप्पजइ, लब्धेरभावात् , एवं उप्यण्णं अणुप्पण्णं वा सामाइयं कजइ, कयाकयंति दारं गतं, अधुना द्वितीयद्वारमधिकृत्याऽऽह-'केन' इति, केन कृतमित्यत्र निर्वचनम्, 'अर्थतः' अर्थमङ्गीकृत्य 'तत् सामायिक GAS* दीप अनुक्रम नास्ति, भम्यस्य पुनरुपदेशकमन्तरेणापि प्रतिमादि दृष्ट्वा सामायिकावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन सामायिकलब्धिः समुत्पद्यते, यथा स्वयम्भूरमणे समुने प्रतिमासंस्थिताश्च मत्स्याः पद्मपत्राण्यपि प्रतिमासंस्थितानि साधुसंस्थितानि च, सर्वाणि किल तत्र संस्थानानि सन्ति मुक्त्वा वलयसंस्थान, इंटश है नास्ति जीवसंस्थानमिति, तानि संस्थानानि दृष्ट्वा कस्यचित्सम्यक्त्वश्रुतचारित्राचारित्रसामायिकादिरूपयेत । जुसूत्रः प्रधा समुत्थानेन (इति) नेच्छति, किं कारण ?, भगवानेवोत्थाम, स एव वाचनाचार्यों गौतमप्रभृतीना, तेन द्विविधं वाचनास्वामित्व लब्धिस्वामिव च, याणित-याचनाचार्यनिश्रया सामायिकलब्धिय॑स्योत्पयते, त्रयः शब्दनया लब्धिमिच्छन्ति, येन उत्थाने वाचनाचार्य च विद्यमानेऽपि अभव्यस्य मोत्पद्यते, एवमुत्पन्न अनुत्पन्न वा सामायिक क्रियते, कृताकृतमिति द्वारं गतं । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~938~ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [ १७५ ] आवश्यक हारिभद्वीया 'जिनैः' तीर्थकरैः, सूत्रं त्वङ्गीकृत्य गणधरैरिति, व्यवहारमतमेतत्, निश्चयमतं तु व्यक्त्यपेक्षया यो यत्स्वामी तत्तेनैवेति, व्यक्त्यपेक्षश्चेह तीर्थकरगणधरयोरुपन्यासो वेदितव्यः, प्रधानव्यक्तित्वाद्, अन्यथा पुनरुक्तदोषप्रसङ्ग इति, उक्तं च ५. भाष्यकारेण-'णणु णिग्गमे गयं चिय केण कयंति त्ति का पुणो पुच्छा । भण्णइ स वज्झकत्ता इहंतरंगो विसेसोऽयं ॥ १ ॥” बाह्यकर्ता सामान्येनान्तरङ्गस्तु व्यक्त्यपेक्षयेति भावना, अयं गाथार्थः ॥ साम्प्रतं केषु द्रव्येषु क्रियत इत्येतद् विवृण्वन्नाह - तं केसु कीरई तत्थ नेगमो भणइ इहदव्वेसु । सेसाण सम्वदव्वेसु पज्जवेसुं न सव्र्व्वसुं ॥१७६॥ (दा० ३) (भा० ) ||४६८ ॥ Jus Educate व्याख्या—'तत्' सामायिकं ‘केषु' द्रव्येषु स्थितस्य सतः 'क्रियते' निर्वर्त्यत इति द्रव्येषु प्रश्नः, नयप्रविभागेनेह निर्वचनं तत्र 'गमो भणइ' नैगमनयो भाषते - 'इष्टद्रव्येषु' इति मनोज्ञपरिणामकारणत्वान्मनोज्ञेष्वेव शयनाशनादिद्रव्येष्विति, तथाहि-मैणुष्णं भोयणं भोच्चा, मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणी ॥ १ ॥ इत्यागमः, 'शेषाणां' सङ्ग्रहादीनां सर्वद्रव्येषु शेषनया हि परिणामविशेषात् कस्यचित् किञ्चिन्मनोज्ञमिति व्यभिचारात्, सर्वद्रव्येषु स्थितस्य क्रियते यत्र मनोज्ञः परिणाम इति मन्यन्ते, पर्यायेषु न सर्वेष्ववस्थानाभावात्, तथाहि यो यत्र निपद्यादौ स्थितः न स तत्र तत्सर्व पर्यायेषु, एकभाग एव स्थितत्वात् इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा पुनरुक्तदोषप्रसङ्गः, तथा चोकं ३ ननु निर्गमे गतमेव केन कृतमितीति का पुनः पृच्छा । भण्यते स बाइकर्त्ता दहान्तरको विशेषोऽयम् ॥ १ ॥ २ मनोहं भोजनं मुक्त्वा मनोरं शयनासनम् मनोज्ञेारे मनोज्ञं ध्यायति मुनिः ॥ १ ॥ For Parts Only सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~939~ www ॥४६८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१७६] (४०) प्रत सूत्रांक CALCOCKCARDC भाष्यकारेण-"णणु भणियमुवग्धाए केसुत्ति इहं कओ पुणो पुच्छा ? । केसुत्ति तत्थ विसओ इह केसु ठियस्स तल्लाहो ॥१॥ तो किह सबद्दबावत्थाणं ? णणु जाइमेत्तवयणाओ। धम्माइसबदबाहारो सयो जणोऽवस्सं ॥२॥" अथवोपोद्घाते सर्वद्रव्याणि विषयः सामायिकस्य, इह तान्येव सर्वव्याणि सामायिकस्य हेतुः, श्रद्धेयज्ञेयक्रियानिवन्धनत्वात् , अथवा-18 न्यथा पुनरुक्तपरिहारः-कृताकृतादिगाथायां कृतमकृतं वा सामायिक कार्य कर्म, कर्तु रीप्सिततमत्वात्, केन कृतमिति कतुः प्रश्नः, केषु द्रव्येष्विति साधकतमकरणप्रश्नः, प्राकृते तृतीयाबहुवचनं सप्तमीबहुवचनतुल्यं तृतीयार्थे वा सप्तमी कृत्वा निर्देशः, न चैतदपि स्वमनीषिकाव्याख्यान, यतो भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि-"विसओवि उवग्घाए केसुत्तीहं स एव ४ हेउत्ति । सद्धेयणेयकिरियाणिबंधणं जेण सामइयं ॥१॥' अहवा कयाकयाइसु कर्ज केण व कयं च कत्तत्ति । केसुत्ति करणभावो ततियत्थे सत्तमी काउं॥२॥ इत्यलं प्रसङ्ग्रेनेति गाथार्थः ॥ १७६ ॥द्वारं ॥ साम्प्रतं कदा कारकोऽस्य भवतीत्येतन्नयैर्निरूपयन्नाहकाहु ! उदिखे नेगम उवहिए संगहो अ ववहारो। उजुसुओ अकमंते सद्दु समत्तमि उवउत्तो॥१७७॥(दा०४/भा०) | व्याख्या-कदाऽसौ सामायिकस्य कारको भवतीति प्रश्नः, इह नयनिर्वचनं 'उदिहे णेगम'त्ति उद्दिष्टे सति नैगमो मनु भणितमुपोदवाते के विसीह कृतः पुनः पृच्छा । केविति तत्र विषय हह केषु खितस्य तामः ॥1॥ तदा कथं सर्वव्यावस्थानं । ननु हाजातिमात्रवचनात् । धर्मादिसर्वदन्याधार सों जनोऽवश्यम् ॥२॥२ विषयोऽप्यु (यो वो) पोद्घाते केवितीद स एव हेतुरिति । अयज्ञेयक्रियानिवन्धनं बेन सामायिकम् ॥ 1 ॥ अथवा कृताकृतादिषु कार्य केन वा कृते च कति । केष्विति करणभावः तृतीयार्थे सप्तमी कृत्वा ॥२॥ दीप अनुक्रम Handiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~940~ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४६९ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [१७७] १ मन्यते इयमत्र भावना-सामान्यग्राहिणो नैगमनयस्योद्दिष्टमात्र एव सामायिके गुरुणा शिष्योऽनधीयानोऽपि तत्क्रियाऽननुष्ठायी सन् सामायिकस्य कर्ता वनगमनप्रस्थितप्रस्थककर्तृवत् यस्मादुद्देशोऽपि तस्य कारणं सामायिकस्य, तस्मिंश्च कारणे कार्योपचारः, 'उवडिए संगहो य ववहारो'ति सङ्घहो व्यवहारश्च मन्यते उपस्थितः सन् कारको भवतीति, इयमत्र भावना - इहोद्देशानन्तरं वाचनाप्रार्थनाय यदा वन्दनं दत्त्वोपस्थितो भवति तदा प्रत्यासन्नतरकारणत्वात् सग्रहव्यवहारयोः कारक इति, ऋजुसूत्र आक्रामन् कारको भवतीति मन्यते, एतदुक्तं भवति - उद्देशानन्तरं गुरुपादमूले वन्दित्वोपस्थितः - सामायिकं पठितुमारब्धः कारकः, वृद्धास्तु व्याचक्षते न पठन्नेव, किन्तु समाप्तेः कारक इति सामायिकत्रियां वा प्रतिपद्यमानस्तदुपयोगरहितोऽपि कारकः, यस्मात् सामायिकार्थस्य सामायिकशब्दक्रिये असाधारण कारणम्, असाधारणकारणेन च व्यपदेश इति, 'सह समत्तंमि उवउत्तोत्ति शब्दादयो नया मन्यन्ते -समाप्ते सत्युपयुक्त एव कारको भवति, त्रयाणां च शब्दादीनां नयानां शब्द क्रियावियुक्तोऽपि सामायिकोपयुक्तः कारकः, मनोज्ञतथापरिणामरूपत्वात् सामायिकस्येति भावना, अयं गाथार्थः ॥ १७७ ॥ कदा कारक इति गतं, नयतो-नयप्रपञ्चत इत्यर्थः, अथवा कदा कारक इत्येतावद् द्वारं गतं, नयत इत्येतत्सु द्वारान्तरमेव, अतस्तदभिधित्सयाऽऽह आलोअणा य १ विणए २ खित्त ३ दिसाऽभिग्गहे अ ४ काले ५ । रिक्ख ६ गुणसंपया वि अ ७ अभिवाहारे अ ८ अट्ठमए ॥। १७८ ॥ ( दा० ५ ) ( भा० ) व्याख्या - इहाऽऽभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनम् - आलोचनानयः, तथा विनयश्च पदधावनानुरागादिः, तथा For Parts Only सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~941~ ॥४६९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Ja Educal “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [ १७८ ] 'क्षेत्रम्' इक्षुक्षेत्रादि, तथा दिगभिग्रहश्च वक्ष्यमाणलक्षणः, कालश्चाहरादिः, तथा रिक्षसम्पत्-नक्षत्रसंपत् गुणसंपञ्च गुणाः- प्रियधर्मादयः, अभिव्याहरणम् अभिव्याहारश्चाष्टमो नय इति गाथासमासार्थः ॥ १७८ ॥ व्यासार्थं तु प्रतिपदं भाष्यकार एवं सम्यग् न्यक्षेण वक्ष्यति, तथा चाऽऽयद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह फबजाए जुग्गं तावई आलोअणं गिहत्थेसुं । उवसंपयाइ साहुसु सुत्ते अत्थे तदुभए अ ॥ १७९ ॥ (१०१) (भा०) व्याख्या—प्रत्रज्यायाः- निष्क्रमणस्य यत् प्राणिजातं स्त्रीपुरुषनपुंसकभेदं 'योग्यम्' अनुरूपं तदन्वेषणं यदिति वाक्यशेषः, तावत्येवाऽऽलोचनाऽवलोकना वा, केषु ? - 'गृहस्थेषु' गृहस्थविषय इति एतदुक्तं भवति-योग्यं हि सर्वोपाधिशुद्धमेव भवति, ततश्च तदन्वेषणेन सर्वस्यैव विधेः कस्त्वं १ को वा ते निर्वेदः ? इत्यादिप्रश्नादेराक्षेप इति, ततश्च प्रयुक्तालोचनस्य योग्यताऽवधारणानन्तरं सामायिकं दद्यात्, न शेषाणां प्रतिषिद्धदीक्षाणामिति नयः । एवं तावद् गृहस्थस्या| कृतसामायिकस्य सामायिकार्थमालोचनोचा, साम्प्रतं कृतसामायिकस्य यतेः प्रतिपादयन्नाह - उपसम्पदि साधुषु आलोचनेति वर्तते, सूत्रे अर्थे तदुभये च, इयमंत्र भावना - सामायिकसूत्राद्यर्थं यदा कश्चिदुपसम्पदं प्रयच्छति यतिस्तदाऽसावालोचनां ददाति, अत्र विधिः सामाचार्यामुक्त एव, आह- अल्पं सामायिकसूत्रं, तत्कथं तदर्थमपि यतेरुपसम्पत्?, तदभावे वा कथं यतिः ? कथं वा प्रतिक्रमणमन्तरेण शुद्धिरिति ?, अत्रोच्यते, मन्दग्लानादिव्याघाताद् विस्मृतसूत्रस्य १४ यतेः सूत्रार्थमप्युपसम्पदविरुद्धैव, एष्यत्कालं वा दुष्पमान्तमा लो क्यानागतामर्षकं सूत्रमिति, तदभावेऽपि च तदा चारित्रपरि For Funny www.laincibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~942~ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक - हारिभ द्वीया ॥४७० ॥ Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [१७९] णामोपेतत्वादसौ यतिरेव शुद्धिश्चास्य यावत् सूत्रमधीतं तावत् तेनैव प्रतिक्रमणं कुर्वत इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ॥ १७९ ॥ द्वारम् ॥ अधुनैकगाथयैव विनयादिद्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह- आलोइए विणीअस्स दिए तं ( पडि २) पसत्थखित्तंमि । ( प० ३ ) अभिग दो दिसाओ चरंतिअं वा जहाकमसो ॥ १८० ॥ ( प० ४ ) ( भा०) व्याख्या-आलोचिते सति विनीतस्य, पादधावनानुरागादिविनयवत इत्यर्थः, उक्तं च भाष्यकारेण - 'अणुरत्तो भत्तिगओ अमुई अणुयत्तओ विसेसण्णू । उज्जुत्तगऽपरितंतो इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥ १ ॥' दीयते 'तत्' सामायिकं, तस्यापि न यत्र तत्र कचित् किं तर्हि ?, 'प्रशस्तक्षेत्रे' इक्षुक्षेत्रादाविति, अत्राप्युक्तं- 'उच्छुवणे सालिवणे पउमसरे कुसुमिए य वणसंडे । गंभीरसाणुणाए पयाहिणजले जिणघरे वा ॥ १ ॥ देज ण उ भग्गझामियसुसाणसुण्णासु सैण्णगेहेसु । छारंगारकथारामेज्झाईदधदुडे वा ॥ २ ॥ ' तथा 'अभिगृह्य' अङ्गीकृत्य द्वे 'दिशा' पूर्वा वोत्तरां वा दीयत इति वर्तते, तथा चरन्तीं वा, तत्र चरन्ती नाम यस्यां दिशि तीर्थकरकेवलिमनःपर्यायज्ञाम्यवधिज्ञानि चतुर्दशपूर्वधरादयो यावद् युगप्रधाना इति विहरन्ति, यथाक्रमश इति गुणापेक्षया तासु दिक्षु यथाक्रमेण दीयत इति, उक्तं च- पुद्याभिमुहो उत्तरमुहो व देज्जाऽहवा पडिच्छिना । १ अनुरक्तो भक्तिगतोऽमोची अनुवर्त्तको विशेषज्ञः । उद्यतको ऽपरितान्त इष्टमर्थं लभते साधुः ॥ १ ॥ २ वने शालीवने पद्मसरसि कुसुमिते च वनखण्डे । गम्भीरसानुनादे प्रदक्षिणजले जिनगृहे वा ॥ १ ॥ दद्यात् न तु भद्मध्यामितश्मशानशून्येषु संज्ञागदेषु क्षाराङ्गारकचवरामेध्यादिव्यदुष्टे वा ॥२॥ ३ पूर्वाभिमुख उत्तरमुखो वा दद्यादथवा प्रतीच्छेत्। ष्णामणुण्ण० प्र. For Purina Pts Use Only सूत्रस्पर्श करणस्व० वि० १ ~943~ ॥४७०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०२७...], भाष्यं [१८०] (४०) प्रत सूत्रांक SECRESSAGARCAMER जाएं जिणादओ वा दिसाएँ जिणचेइयाई वा ॥१॥ इति गाथार्थः ॥१०॥ द्वारत्रयं गतम् , अधुना कालादिद्वारत्रयमेकगाथयैवाभिधित्सुराह पडिकुछदिणे वजिअ रिक्खेसु अ मिगसिराइभणिएसुं। पियधम्माई गुणसंपयासुतं होइ दायव्वं॥१८॥भा०) XI व्याख्या-प्रतिष्टानि-प्रतिषिद्धानि दिनानि-वासराः, प्रतिष्टानि च तानि दिनानि चेति विग्रहः, तानि चतुर्ददश्यादीनि वर्जयित्वाऽप्रतिकुष्टेष्वेव पञ्चम्यादिषु दातव्यमिति योगः, उक्तं च-"चाउद्देसिं पण्णरसिं वजेज्जा अमिं च नवमिं च । छडिं च चउत्थिं वारसिं च दोहंपि पक्खाणं ॥१॥" एतेष्वपि दिनेषु प्रशस्तेषु मुहूर्तेषु दीयते, नाप्रशस्तेषु, तथा 'ऋक्षेषु' नक्षत्रेषु च मृगशिरादिषु, 'उक्तेषु' ग्रन्थान्तराभिहितेषु, न तु प्रतिषिद्धेषु, उक्कं च-"मियसिरअद्दापूसो तिण्णि य पुबाइ मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा दह वुहिकराई णाणस्स ॥१॥" तथा-संझागयं रविगयं विड्डरं |सग्गहं विलंपिं च । राहुयं गहभिन्न च वजए सत्त नक्खत्ते ॥ २॥ तथा प्रियधर्मादिगुणसम्पत्सु सतीषु 'तत् सामायिक भवति दातव्यमिति, उक्तं च-"पियुधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवजभीरु असढो य । खतो दंतो गुत्तो थिरवय जिइंदिओ उजू ॥१॥"विनीतस्याप्येता गुणसम्पदोऽन्वेष्टव्या इति गाथार्थः॥१८१॥(प.५-६-७)साम्प्रतं चरमद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह यस्यां जिनादयो वा दिशि जिनचैत्यानि पा ॥ १ ॥२ चतुर्दशी पञ्चदशी वर्जयेत् अष्टमी च नवमी च । पहीं च चतुर्थी द्वादशीं च योरपि पक्षयोः । ॥ ॥ ३ मृगशिरः आदी पुष्पं विखश्च पूर्वा मूलमश्लेषा । इसश्चित्रा च तथा दश वृद्धिकराणि हानख ॥ ॥ संध्यागतं रविगतं विड्वर सग्रहं विलम्बि च। राहहतं ग्रहभिन्नं च वर्जयेत् सप्त नक्षत्राणि ॥1॥ प्रिवधा रखधर्मा संविनोऽवद्यभीमराठश्च । क्षान्तो दान्तो गुप्तः स्थिरबवो जितेन्द्रिय ऋः दीप अनुक्रम Matangibrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~944 ~ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥४७१॥ Jus Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०२७...], भाष्यं [१८२ ] अभिवाहारो कालिअसुअंमि सुत्तत्थतदुभएणं ति । द्व्वगुणपज्जवेहि अ दिठीवायंमि बोद्धव्वो ॥१८२॥ (१०८) भा०| व्याख्या – 'अभिव्याहरणम्' आचार्यशिष्ययोर्वचनप्रतिवचने अभिव्याहारः, स च 'कालिकश्रुते' आचारादौ 'सुत्तत्थतदुभएणं ति सूत्रतः अर्थतस्तदुभयतश्चेति, इयमत्र भावना- शिष्येणेच्छाकारेणेदमङ्गाद्युद्दिशत इत्युक्ते सतीच्छापुर४ सरमाचार्यवचनम् - अहमस्य साधोरिदमङ्गमध्ययनमुद्देशं वोद्दिशामि - वाचयामीत्यर्थः, आप्तोपदशपारम्पर्य ख्यापनार्थं क्षमाश्रमणानां हस्तेन, न स्वोत्प्रेक्षया, सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो वाऽस्मिन् कालिकश्रुते अ(त) थोत्कालिके, दृष्टिवादे कथमिति ?, तदुच्यते- 'दवगुणपज्जवेहि य दिडीवायंमि बोद्धवो' द्रव्यगुणपर्यायैश्च 'दृष्टिवादे' भूतवादे बोद्धव्योऽभिव्याहार इति एतदुक्तं भवति - शिष्यवचनानन्तरमाचार्यवचनमुद्दिशामि सूत्रतोऽर्थतश्च द्रव्यगुणपर्यायैः अनन्तगम सहितैरिति, एवं गुरुणा समादिष्टेऽभिव्याहारे शिष्याभिव्याहारः- ब्रवीति शिष्यः- उद्दिष्टमिदं मम, इच्छाम्यनुशासनं क्रियमाणं पूज्यैरिति, एवमभिव्याहारद्वारमष्टमं नीतिविशेषैर्नयेर्गतमिति गाथार्थः ॥ १८२ ॥ व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, साम्प्रतमधि कृतमूलद्वारगाथायामेव करणं कतिविधमिति व्याचिख्यासुराह उद्देस१ समुद्दे से श्वायण मणुजाणणं च ४ आयरिए। सीसम्मि उद्दिसिज्जतमाइ एअं तुजं कइहा ॥१८३॥ भा०दा०६ व्याख्या - इह गुरुशिष्ययोः सामायिकक्रियाव्यापारणं करणं, तच्चतुर्द्धा 'उद्देस समुद्दे से 'ति उद्देशकरणं समुद्देशकरणं 'वायणमणुजाणणं चत्ति वाचनाकरणमनुज्ञाकरणं च छन्दोभङ्गभयादिह वाचनाकरणमत्रोपन्यस्तम्, अन्यथाऽमुना क्रमेण इह उद्देशो वाचना समुद्देशोऽनुज्ञा चेति गुरोर्व्यापारः, 'आयरिए'त्ति गुराविदं करणं गुरुविषयमित्यर्थः, 'सीसम्मि For Parts Use Only सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~945~ ॥४७१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः org Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२८], भाष्यं [१८३] (४०) प्रत सूत्रांक उद्दिसिजंतमाई' शिष्ये-शिष्यविषयम् उद्दिश्यमानादि-उद्दिश्यमानकरणं वाच्यमानकरणं समुद्दिश्यमानकरणम् अनुज्ञायमानकरणं च, 'एयं तुजं कइह'त्ति एतदेव चतुर्विधं तद् यदुक्तं कतिविधमिति गाथार्थः ॥ १८३ ॥ आह-पूर्वमने| कविधं नामादिकरणमभिहितमेव, इह पुनः किमिति प्रश्नः', उच्यते, तत् पूर्वगृहीतस्य करणमनेकविधमुक्तम् , इह पुनर| स्मिन् गुरुशिष्यदानग्रहणकाले चतुर्विधं करणमिति, पूर्व वा करणमविशेषेणोकम् , इह गुरुशिष्यक्रियाविशेषाद् विशेषि तमिति न पुनरुक्तम् , अथवाऽयमेव करणस्यावसरः, पूर्वत्रानेकान्तद्योतनार्थ विन्यासः कृत इति विचित्रा सूत्रस्य कृति|रित्यलं विस्तरेण, द्वारं ६ । कथमिति द्वारमिदानी, तत्रेय गाथाकह सामाइअलंभो? तस्सब्वविघाइदेसवाघाई। देसविघाईफड्डगअणंतवुड्डीविसुद्धस्स ॥१०२८ ॥ एवं ककारलंभो सेसाणवि एवमेव कमलंभो(दा०)। एअंतु भावकरणं करणे अ भए अजं भणिअं॥१०२९॥ | अस्या व्याख्या-'कथं' केन प्रकारेण सामायिकलाभ इति प्रश्नः, अस्योत्तरं-तस्य-सामायिकस्य सर्वविधातीनि देशविघातीनि च स्पर्द्धकानि भवन्ति, इह सामायिकावरणं-ज्ञानावरणं दर्शनावरणं [मिथ्यात्व] मोहनीयं च, अमीषां द्विविधानि स्पर्द्धकानि-देशघातीनि सर्वघातीनि च, तत्र सर्वघातिषु सर्वेषूद्घातितेषु सत्सु देशघातिस्पर्द्धकानामप्यनन्तेषूदूघातितेष्वनन्तगुणवृद्ध्या प्रतिसमयं विशुस्वमानः शुभशुभतरपरिणामो भावतः ककारं लभते, तदनन्तगुणवृद्ध्यैव प्रति|समयं विशुद्धमानः सन् रेफमित्येवं शेषाण्यपि, अत एवाऽऽह-देशघातिस्पर्धकानन्तवृद्ध्या विशुद्धस्य सतः॥ किं?'एव'मित्यादि,-पूर्वार्द्ध गतार्थम् , आह-उपक्रमद्वारेऽभिहितमेतत्-क्षयोपशमात् जायते, पुनश्चोपोद्घातेऽभिहितमेतत् दीप अनुक्रम s ataniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 946~ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्ति: [ १०२९], भाष्यं [१८३...] आवश्यक हारिभ दीया कथं लभ्यत इति तत्रोक्तम्, इह किमर्थ प्रश्न इति पुनरुक्तता, उच्यते, त्रयमध्येतदपुनरुक्तं, कुतः ?, यस्मादुपक्रमे क्षयोपशमात् सामायिकं लभ्यत इत्युक्तम्, उपोद्घाते स एव क्षयोपशमस्तत्कारणभूतः कथं लभ्यत इति प्रश्नः इह पुनर्विशेपित तरः प्रश्नः - केषां पुनः कर्मणां स क्षयोपशम इति प्रत्यासन्नतरकारणप्रश्न इत्यलं प्रसङ्गेन । द्वारमेवोपसंहरन्नाह - एतदेव- अनन्तरोदितं सामायिक करणं यत्तद्भावकरणं 'करणेय'त्ति उपन्यस्त द्वारपरामर्शः । 'भए य'त्ति भयमपि 'यद् भणितं ' ॐ यदुक्तमिति गाधाद्वयार्थः ॥ १०२८-२९ ॥ मूलद्वारगाथायां करणमित्येतद् द्वारं व्याख्यातम्, एतद्व्याख्यानाच्च सूत्रेऽपि करोमीत्ययमवयव इति, अधुना द्वितीयावयवव्याचिख्यासयाऽऽह ॥४७२ ।। होइ भयंतो भयअंतगो अ रयणा भयस्स छन्भेआ । सव्वंमि वन्निएऽणुकमेण अंतेवि छन्भेआ ॥ १८४॥ (भा०) व्याख्या - भवति भदन्त इत्यत्र 'भदि कल्याणे सुखे च' अर्थद्वये धातुः 'जविशिभ्यां शत्रू' (उ. पा. ४१३ ) औणादिकप्रत्ययो दृष्टः, तं दृष्ट्वा प्रकृतिरुह्यते, भदि कल्याण इति अनुनासिकलोपश्चेति, तस्यौणादिकविधानात्, ततश्च भदन्त इति भवति, भदन्तः- कल्याणः सुखश्चेत्यर्थः, प्राकृतशैल्या वा भवति भवान्त इति, अत्र भवस्य - संसारस्यान्तस्तेनाऽऽचार्येण क्रियत इति भवान्तकरत्वाद् भवान्त इति, तथा - भयान्तश्चेत्यत्र भयं - त्रासः तमाचार्य प्राप्य भयस्यान्तो भवतीति भयान्तो- गुरुः, भयस्य वाऽन्तको भयान्तक इति, तस्याऽऽमन्त्रणं, 'रचना' नामादिविन्यासलक्षणा, भयस्य 'पड्भेदाः' पटूप्रकाराः -नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नाः, तत्र पश्च प्रकाराः प्रसिद्धाः परं भावभयं सप्तधा - इहलोकभयं परलोकभयमादानभयमकस्माद्भयमश्लोकभयमाजीविकाभयं मरणभयं चेति, तत्रापीहलोके भयं स्वभवाद् यत् प्राप्यते Forsy सूत्रस्पर्श० करणस्व० वि० १ ~947~ ॥४७२॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२९...], भाष्यं [१८४] (४०) प्रत सूत्रांक परलोकभयं परभवात् , किश्चनद्रव्यजातमादानं तस्य नाशहरणादिभ्यो भयम् आदानभयं, यत्तु बाह्यनिमित्तमन्तरेणाहेतुकं भयम् अकस्माद् भवति तदाकस्मिक, श्लोक श्लाघायां' श्लोकनं श्लोकः श्लाघा-प्रशंसा तदूविपर्ययोऽश्लोकस्तस्माद् भयमश्लोकभयम् , आजीविकाभयं-दुर्जीविकाभयं, प्राणपरित्यागभयं मरणभयमिति, एवं सर्वस्मिन् वर्णिते 'अनुक्रमेण | उक्तलक्षणेनान्तेऽपि षडू भेदा इति, तत्र 'अम गत्यादिषु' अमनमन्तः-अवसानमित्यर्थः, अस्मिन्नपि षडू भेदाः, तद्यथा नामान्तः स्थापनान्तः द्रव्यान्तः क्षेत्रान्तः कालान्तः भावान्तश्चेति, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यान्तो घटाद्यन्तः, |क्षेत्रान्त ऊर्ध्वलोकादिक्षेत्रान्तः, कालान्तः समयाद्यन्तः, भावान्तः औदयिकादिभावान्तः॥ एवं सव्वंमिऽवि वन्निमि इत्थं तु होइ अहिगारो । सत्तभयविप्पमुक्के तहा भवंते भयंते अ॥१८५॥ (भा०) व्याख्या-'एवम् उक्केन प्रकारेण 'सर्वस्मिन् अनेकभेदभिन्ने भयादौ वर्णिते सति 'अत्र तु' प्रकृते भवत्यधिकार:प्रकृतयोजना सप्तभयविप्रमुक्तो यस्तेन, तथा भवान्तो यः भदन्तश्चेति, पश्चानुपूर्व्या ग्रन्थ इति गाथाद्वयार्थः ॥ १८५॥ मूलद्वारगाथायां व्याख्यातं भयान्तद्वारद्वयं, तद्व्याख्यानाच्च भदन्तभवान्तभयान्त इति गुर्वामन्त्रणार्थः सूत्रावयव इति, उक्तं च -भाष्यकारेण 'आमतेइ करेमी भदंत! सामाइयंति सीसोऽयं । आहामंतणवयणं गुरुणो किंकारणमिणंति? ॥॥ भण्णइ-गुरुकुलवासोवसंगहत्थं जहा गुणत्थीह । णिचं गुरुकुलबासी हवेज सीसो जओऽभिहियं ॥२॥ नाणस्स होइ भागी आमन्त्रयति करोमि भदन्त ! सामायिकमिति शिष्योऽयम् । आह आमन्त्रणवचनं गुरोः किंकारणमिदमिति ! ॥1॥ भण्यते-गुरुकुलवासोपसंप्र| हार्थ वथा गुणार्थीह । नित्यं गुरुकुलवासी भवेत् शिष्यो यतोऽभिहितम् ॥ २॥ ज्ञानस्य भवति भागी दीप अनुक्रम JHNEainial ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~948~ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०२९...], भाष्यं [१८५] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया ॥४७॥ |थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलयासं न मुंचति ॥ ३ ॥ आवस्सयपि णिचं गुरुपामूलंमि देसियंसूत्रस्पर्श होइ । वीसुपि हि संवसओ कारणओ जयइ सेजाए ॥४॥ एवं चिय सवावस्सयाइ आपुच्छिऊण कजाई । जाणाविय- करणस्व० मामंतणवयणाओ जेण सबेसि ॥५॥ सामाइयमाईयं भदंतसद्दो यजं तयाईए । तेणाणुवत्तइ तओ करेमि भंतेत्ति सबेसुध वि०१ ॥६॥ किच्चाकिच्चं गुरुवो विदंति विणयपडिवत्तिहेर्ड च । ऊसासाइ पमोतुं तयणापुच्छाय पडिसिद्धं ॥ ७ ।। गुरुविरहमिवि ठवणागुरूवि सेवोदसणत्थं च । जिणविरहमिऽवि जिणबिंबसेवणामंतणं सफलं ॥८॥ रन्नो व परोक्खस्सवि जह सेवा मंतदेवयाए वा । तह चेव परोक्खस्सवि गुरुणो सेवा विणयहेर्ड ॥९॥" इत्यादि, कृतं विस्तरेण ॥ साम्प्रतं सामायिकद्वारव्याचिख्यासयाऽऽहसामं १ समं च रसम्म ३ हग ४ मवि सामाइअस्स एगट्ठा। नामंठवणा दविए भावंमि अ तेसि निक्खेवो॥१०३० महुरपरिणाम सामं १ समं तुला २ संम खीरखंडजुई ३ । दोरे हारस्स चिई इग ४ मेआई तु दव्बंमि ॥१०३२।। AACAR अनुक्रम [२] स्थिरतरो दबाने पारिने च। धन्या यावत्वर्थ गुरुकुलवासं न मुवन्ति ॥३॥ आवश्यकमपि नित्यं गुरुपादमूले देशितं भवति । विष्वपि हि संवसतः कारणतो यतते शव्यायाम् ॥४॥ एवमेव सर्वावश्यकानि आपूग्णय कार्याणि । ज्ञापितमामत्रणवचनात् येन सर्वेषाम् ॥ ५॥ सामायिकमादौ भदन्तशब्दश यत्तदापी । तेनानुवर्तते ततः करोमि भदन्त इति सर्वेषु ॥ ॥ कृयाकृत्यं गुरबो विदन्ति विनवप्रतिपत्तिहेतवे वा उमासादि प्रमुच्य तदनापळया प्रति-I पिद्धम् ॥ ॥ गुरुविरहेऽपि स्थापनागुरुरपि सेवोपदर्शनार्धं च । जिनविरहेऽपि जिनबिम्बसेवनामन्त्रणं सफलम् ॥ ८॥राज्ञ इव परोक्षस्थापि यथा सेवा-6 मन्त्रदेवताया वा। तथैव परोक्षस्थापि गुरोः सेवा विनयहेतवे ॥५॥ रूबदेसोवई(वि.) Ans P AKOF JABERatinintamational Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'साम' शब्दस्य एकार्थका: शब्दा: ~949~ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “आवश्यक"- मूलसूत्र अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३१], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-इह सामं समं च सम्यक् 'इगमवि' देशीदै कापि प्रदेशार्थे वर्तते, सम्पूर्णशब्दावयवमेवाधिकृत्याऽऽहसामायिकस्यकार्थिकानि । अमीषां निक्षेपमुपदर्शयन्नाह-नामस्थापनाद्रव्येषु भावे च नामादिविषय इत्यर्थः, । तेषा' सामप्रभृतीनां निक्षेपः, कार्य इति गम्यते, स चाय-नामसाम स्थापनासाम द्रव्यसाम भावसाम च, एवं समसम्यक्पदयोरपि द्रष्टव्यः ॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एव, द्रव्यसामप्रभृतींश्च प्रतिपादयन्नाह• महुरे'त्यादि, इहौघतो मधुरपरिणामं द्रव्यं-शर्करादि द्रव्यसाम समं 'तुला' इति भूतार्थालोचनायां समं तुलाद्रव्यं, सम्यकू क्षीरखण्डयुक्तिः क्षीरखण्डयोजनं द्रव्यसम्यगिति, तथा 'दोरे' इति सूत्रदवरके मौक्तिकान्येवाधिकृत्य भाविपर्यायापेक्षया 'हारस्य' मुक्ताकलापस्य चयनं चितिः-प्रवेशनं द्रव्येकम्, अत एवाह-'एयाई तु दवमित्ति एतान्युदाहरणानि | द्रव्यविषयाणीति गाथाद्वयार्थः ॥ १०३१ ॥ साम्प्रतं भावसामादि प्रतिपादयन्नाहआओवमाइ परदुक्खमकरणं १ रागदोसमज्झत्थं नाणाइतिग ३ तस्साइ पोअणं ४ भावसामाई ॥१०३२।। । व्याख्या-आत्मोपमया-आत्मोपमानेन परदुःखाकरणं भावसामेति गम्यते, इह चानुस्वारोऽलाक्षणिकः, एतदुक्तं भवति-11 आरमनीव परदुःखाकरणपरिणामो भावसाम, तथा 'रागद्वेषमाध्यस्थ्यम् अनासेवनया रागद्वेषमध्यवर्तित्वं समं, सर्वत्राऽsत्मनस्तुल्यरूपेण वर्तनमित्यर्थः, तथा ज्ञानादित्रयमेकत्र सम्यगिति गम्यते, तथाहि-ज्ञानदर्शनचारित्रयोजनं सम्यगेव, मोक्ष-18 प्रसाधकत्वादिति भावना, तस्य' इति सामादि सम्बध्यते, आत्मनिप्रोतनम् आत्मनि प्रवेशनम् इकमुच्यते, अत एवाऽऽहा + देशीपदे "परदुःखाकरणं प० । इत्यत एवाह-'भावसामाई' भावसामादीनि प्रतिपत्तव्यामीति प्र. दीप अनुक्रम wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 950~ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ द्वीया १४७४ ॥ %% “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [ १ ], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्तिः [१०३२], भाष्यं [१८५...] 'भावसामाई' भावसामादावेतान्युदाहरणानीति गाथार्थः ॥ १०३२ ॥ सामायिकशब्दयोजना चैवं द्रष्टव्या - इहाऽत्मन्येव सान इकं निरुक्तनिपातनात् [ यद् यलक्षणेनानुपपन्नं तत् सर्वं निपातनात् सिद्धमिति ] सानो नकारस्याऽऽय आदेशः, ततश्च सामायिकम् एवं समशब्दस्याऽऽयादेशः, समस्य वा आयः समायः स एव सामायिकमिति, एवमन्यत्रापि भावना कार्येति कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं सामायिकपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह | समया सम्मत पसत्थ संति सुविहिअ सुहं अनिंदं च । अदुगुंछिअमगरिहिअं अणवल्लमिमेऽवि एगडा || १०३३ व्याख्या - निगदसिद्धैव । आह-अस्य निरुक्तावेव 'सामाइयं समइय' मित्यादिना पर्यायशब्दाः प्रतिपादिता एव तत् पुनः किमर्थमभिधानमिति, उच्यते, तत्र पर्यायशब्दमात्रता, इह तु वाक्यान्तरेणार्थनिरूपणमिति, एवं प्रतिशब्दमधभेदतोऽनन्ता गमा अनन्ताः पर्याया इति चैकस्य सूत्रस्येति ज्ञापितं भवति, अथवाऽसम्मोहार्थं तत्रोक्तावप्य| भिधानमदुष्टमेव इत्यत एवोक्तम्- 'इमेऽवि एगति एतेऽपि तेऽपीत्यदोषः ॥ साम्प्रतं कण्ठतः स्वयमेव चालनां प्रतिपादयन्नाह ग्रन्थकारः को कार ओ ?, करंतो किं कम्म ?, जं तु कीरई तेण । किं कारयकरणाणय अन्नमणन्नं च अक्खेवो ॥ १०३४ ॥ व्याख्या - इह 'करोमि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यत्र कर्तृकर्मकरणव्यवस्था वक्तव्या, यथा करोमि राजन् ! घटमित्युक्ते कुलालः कर्ता घट एव कर्म दण्डादि करणमिति, एवमत्र कः कारकः कुलालसंस्थानीयः ? इत्यत आह-'करतो' ति तत् कुर्वन्नात्मैव, अथ किं कर्म घटादिसंस्थानीयम् ? इत्यत्राऽऽह-यतु 'क्रियते' निर्वर्त्यते 'तेन' कर्त्रा तच्च तद्गुणरूपं सामा Education intemational For Parts Only करणस्व० सूत्रस्पर्श० वि० १ ~951~ ॥४७४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३४], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक यिकमेव, तुशब्दः करणप्रश्ननिर्वचनसङ्ग्रहार्थः, यथा कर्म निर्दिष्टमेव किं करणमित्युद्देशादिचतुर्विधमिति निर्वचनम् , एवं व्यवस्थिते सत्याह-'किं कारगकरणाण यति किं कारककरणयोः, चशब्दात् कर्मणश्च परस्परतः कुलालघटदण्डादी-14 नामिवाम्यत्वम् , आहोश्विदनन्यत्वमेवेति', उभयथाऽपि दोषः, कथम् ?, अन्यत्वे सामायिकवतोऽपि तत्फलस्य मोक्षस्याभावः, तदन्यत्वाद्, मिथ्यादृष्टेरिव, अनन्यत्वे तु तस्योत्पत्तिविनाशाभ्यामात्मनोऽप्युत्पत्तिविनाशप्रसङ्ग इति, अनिष्टं चैतत् , तस्यानादिमत्त्वाभ्युपगमादित्याक्षेपश्चालनेति गाथार्थः ॥ १०३४ ॥ विजम्भितं चात्र भाष्यकारेण-"अन्नत्ते समभावा भावाओ तप्पओयणाभावो । पावइ मिच्छस्स व से सम्मामिच्छाऽविसेसोय ॥१॥ अह व मई-भिन्नेणवि धणेण सध-18 लिणोत्ति होइ ववएसो। सधणों य धणाभागी जह तह सामाइयस्सामी ॥२॥ण जओ जीवगुणो सामइयं तेण विफ-16 लता तस्स । अन्नत्तणओ जुत्ता परसामइयस्स वाऽफलता ॥३॥ जइ भिन्नं तब्भावेऽवि नो तओ तस्सभावरहिओत्ति ।। अण्णाणिञ्चिय णिचं अंधो व समं पईवेणं ॥४॥ एगत्ते तन्नासे नासो जीवस्स संभवे भवणं । कारगसंकरदोसो तदेकया-18 कप्पणा वावि ॥५॥" इत्यादि, इत्थं चालनामभिधायाधुना प्रत्यवस्थानं प्रतिपादयन्नाह दीप अनुक्रम अन्यत्वे समभावाभावात् तत्प्रयोजनाभावः । प्रामोति मिथ्यारष्टेरिव तस्य सम्यक्त्वमिथ्यात्वावियोषश्च ॥ १॥ अथ च मतिः-मिनेनापि धनेन सधन इति भवति व्यपदेशः । सधनच धनाभागी यथा तथा सामायिकस्वामी ॥ २॥ तन्न यतो जीवगुणः सामायिकं तेन बिकलता तस्य । अन्यत्वात् युक्ता परसा मायिकख वाऽ (सोवा) फळता ॥ ३॥ यदि भिवं तनावेऽपि न स (सामायिकयुक्ता) तत्वभावरहित इति । अज्ञान्येव निस्य अन्धो यथा समं प्रदीपेन IHI ॥ एकरचे तबादो नाशो जीवस संभवे भवनम् । कारकसंकरदोपसदेकताकल्पना पापि ॥ ५ ॥ K aran मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~952 ~ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३५], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक आया हु कारओ मे सामाइय कम्म करणमाया य । परिणामे सइ आया सामाइयमेव उ पसिद्धी ॥१०३५॥ सामायिकहारिभ निक्षेपनि व्याख्या-ईहाऽऽत्मैव कारको मम, तस्य स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तेः, तथा सामायिक कर्म तद्गुणत्वात् , करणं चोद्देशादिल वि०१ द्रीया क्षणं तत्क्रियत्वादात्मैव, तथाऽपि यथोक्तदोषाणामसम्भव एव, कुत इत्याह-यस्मात् परिणामे सत्यात्मा सामायिक, परि-17 ॥४७५॥ णमन-परिणामः कथञ्चित् पूर्वरूपापरित्यागेनोत्तररूपापत्तिरिति, उक्तं च-"नार्थान्तरगमो यस्मात् , सर्वथैव न चाऽगमः । परिणामः प्रमासिद्ध, इष्टश्च खलु पण्डितैः॥१॥” इत्यादि, तस्मिन् परिणामे सति, अयमत्र भावार्थः-परिणामे सति तस्य नित्यानित्याद्यनेकरूपत्वाद् द्रव्यगुणपर्यायाणामपि भेदाभेदसिद्धेः, अन्यथा सकलसंव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गाद्, एकान्तपक्षेणान्यत्वानन्यत्ययोरनभ्युपगमाद्, इत्थं चैकत्वानेकत्वपक्षयोः कर्तृकर्मकरणब्यवस्थासिद्धेः 'आत्मा' जीवः सामायिकमेव तु प्रसिद्धिः, तथाहि-न तदेकान्तेन अन्यत् तिद्गुणत्वान्न चानन्य(त्तद्गुणत्वादेवेति, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , अन्यथा गुणगु|णिनोरेकान्तभेदे विप्रकृष्टगुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषय एव संशयो न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात् , दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि शुक्ल पश्यति तदा किमियं पताका किंवा बलामत्येवं प्रतिनियतगुणिविषय इति, अभेदपक्षे तु संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि गृहीतत्वादित्यलं विस्तरेणेति ॥४७५॥ गाथार्थः ॥ १०३५ ॥ भाष्यकारदूषणानि त्वमूनि-"आया हु कारओ मे सामाइय कम्म करणमाआ य । तम्हा आया -* दीप अनुक्रम (२) आत्मैव कारको मै सामायिक कर्म करणमास्मैव । तस्मादामैप * इहात्मनैव । तणस्वा. ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~953~ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३५], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक OGRESSE सामाइयं च परिणामओ एक ॥१॥ णाणाइसहावं सामाइय जोगमाइकरणं च । उभयं च स परिणामो परिणामाणण्णया जं च ॥२॥ तेणाया सामइयं करणं च चसद्दओ अभिण्णाई । णणु भणियमणण्णत्ते तण्णासे जीवणासोत्ति ॥३॥ जइ तप्पज्जयनासो को दोसो होउ ? सबहानस्थि। सो उप्पायवयधुवधम्माणंतपज्जाओ॥४॥ सर्व चिय पइसमयं उप्पज्जइ3 णासए य णिचं च । एवं चेव य सुहदुक्खबंधमोक्खाइसम्भावो ॥५॥ एगं चेव य वत्थु परिणामवसेण कारगंतरयं । पावइ तेणादोसो विवक्खया कारगं जं च ॥६॥ कुंभोऽवि सज्जमाणो कत्ता कम्म स एव करणं च । णाणाकारगभावं लहइ जहेगो विवक्खाए ॥७॥जह वा नाणाणण्णो नाणी नियओवओगकालंमि । एगोऽवि तस्सभावो सामाइयकारगो चे ॥८॥" साम्प्रतं परिणामपक्षे सत्येकत्वानेकत्वपक्षयोरविरोधेन कर्तृकर्मकरणव्यवस्थामुपदर्शयन्नाह एगत्ते जह मुढि करेइ अत्यंतरे घडाईणि । वत्यंतरभावे गुणस्स किं केण संबद्धं ॥ १०३६ ॥ व्याख्या-'एकत्वे' कर्तृकर्मकरणाभेदे कर्तृकर्मकरणभावो दृष्टः, यथा मुष्टिं करोति, अत्र देवदत्तः कर्ता तद्धस्त एव सामायिकं च परिणामत ऐक्यम् ॥ १॥ यम्माज्ञानादिखभावं सामायिक योगादि (कांह) करणं च । नभयं बस परिणामः परिणामानन्यता। यच्च ॥ २ ॥ तेनारमा सामायिक करणं च चशब्दतोऽभिन्नानि । ननु भणितमनन्यावे तमाशे जीवनाश इति ॥३॥ यदि तपोयनाशः (सामाविकरूपप.) को दोषो भवतु ? सर्वथा नास्ति । बासा (आत्मा) उत्पादन्ययध्रौव्यधर्माऽमन्तफ्यायः ॥ ५॥ सर्वमेव प्रतिसमयमुपयते नश्यति च नित्यं । च । एवमेव मुखदुःखबन्धमोक्षादिसजावः ॥ ६॥ एकमेव च वस्तु परिणामवशेन कारकाम्तरताम् । पामोति तेनादोपः--विवक्षया कारकाणि यत् ॥ ६॥5 कुम्भोऽपि सषमानः कर्ता कर्म च स एव करणं च । नामाकारकभावं लभते यफको विवक्षया ॥ ७॥ यथा वा ज्ञानानन्यो ज्ञानी निनोपयोगकाले । एको. | ऽपि तरस्यभावः सामायिककारकश्चैवम् ॥ ८॥ दीप अनुक्रम B oaroo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~954~ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३६], भाष्यं [१८५...] (४०) प्रत सूत्रांक 155 आवश्यक- कर्म तस्यैव च प्रयत्लविशेषः करणमिति, तथाऽर्थान्तरे-कर्तृकर्मकरणानां भेदे दृष्ट एव तनावः, तथा चाऽऽह-घटा-18सामायिकहारिभ- दीनि यथा करोतीति वर्तते, तत्रापि कुलालः कर्ता घटः कर्म दण्डादि करणमिति । इह च सामायिक गुणो वर्तते, स च निक्षेपनि द्रीया गुणिनः कथश्चिदेव भिन्न इति । विपक्षे बाधामुपदर्शयति-द्रव्यात् सकाशाद्, गुणिन इत्यर्थः, एकान्तेनैवार्थान्तरभावे-भेदे वि०१ दसति, कस्य-गुणस्य, किं केन सम्बद्धमिति?,न किश्चित् केनचित् सम्बद्धं, ज्ञानादीनामपि गुणत्वात्तेषामपि चाऽऽत्मादिगुणिभ्य ॥४७६॥ एकान्तभिन्नत्वात् , संवेदनाभावतः सर्वव्यवस्थानुपपत्तेरिति भावना, एवमेकान्तेनानान्तरभावेऽपि दोषा अभ्यूह्या इति गाथार्थः ॥ १०३६ ॥ कण्ठतस्तावदुक्ते चालनाप्रत्यवस्थाने, अत एव चात्र पुनरुक्तदोषोऽपि नास्ति, अनुवादद्वारेण चालनाप्रत्यवस्थानप्रवृत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र सर्वसावा योगमित्याद्यवशिष्यते, तदिह सर्वशब्दनिरूपणायाऽऽह[नामं १ ठवणा २ दविए ३ आएसे ४ निरवसेसए ५ चेव । तह सवधत्तसब्वं च ६ भावसव्वं च सत्समयं७॥ | व्याख्या-इह सर्वमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, स गतौ' इत्यस्य औणादिको वप्रत्ययः सर्वशब्दो वा निपात्यते म्रियते स इति श्रियते वाऽनेनेति सर्वः, तदिदं च नामसर्व स्थापनासर्व द्रव्यसर्वम् आदेशसर्व निरवशेषसर्व, तथा सर्वधत्तसर्वं च भावसर्वं च सप्तममिति समासार्थः ॥ १०३७ ॥ व्यासार्थं तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदच्याचिख्यासया पुनराहदविए चउरो भंगा सव्वरमसब्वे अरव १ देसे अ॥आएस सब्वगामोनीसेसे सव्वगं दुविह।।१८५॥(भा०) ||४७६॥ व्याख्या-'द्रव्य' इति द्रव्यसर्वे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, तानेव सूचयन्नाह-सवमसवे अ दब देसे यत्ति-अयमत्र दीप SCARECORG अनुक्रम AMERICA Mandinrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'सर्व' शब्दस्य निरूपणं ~ 955~ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०३७...], भाष्यं [१८५] - (४०) 4 प्रत सूत्रांक भावार्थः-इह यद्विवक्षितं द्रव्यमङ्गुल्यादि तत् कृत्स्नं-परिपूर्णम् अनूनं स्वैरवयवैः सर्वमुच्यते, सकलमित्यर्थः, एवं तस्यैव | द्रव्यस्य कश्चित्स्वावयवो देशः कृत्स्नतया-स्वावयवपरिपूर्णतया यदा सकलो विवक्ष्यते तदा देशोऽपि सर्वः, एवमुभयस्मिन् द्रव्ये तद्देशे च सर्वत्वं, तयोरेव यथास्वमपरिपूर्णतायामसर्वत्वं, ततश्चतुर्भङ्गी-द्रव्यं सर्व देशोऽपि सर्वः १ द्रव्यं सर्व | देशोऽसर्वः २ देशः सर्वः द्रव्यमसर्व ३ देशोऽसर्वः द्रव्यमप्यसर्वम् ४, अत्र यथाक्रममुदाहरणं-सम्पूर्णमङ्गलि द्रव्यसर्व 13 तदेव देशोनं द्रव्यमसर्व, तथा देश:-पर्व तत्सम्पूर्ण देशसर्वम् पर्वैकदेशः देशासर्वम् , एवं द्रव्यसर्वम् । अथाऽऽदेशसर्वमुच्यते-आदेशनम् आदेश उपचारो व्यवहारः, स च बहुतरे प्रधाने वाऽऽदिश्यते देशेऽपि, यथा विवक्षितं घृतमभिसमीक्ष्य बहुतरे भुक्ते स्तोके च शेषे उपचारः क्रियते-सर्वं घृतं भुक्तं भकं वा, प्रधानेऽप्युपचारः, यथा ग्रामप्रधानेषु पुरुषेषु ४ गतेषु ग्रामो गत इति व्यपदिश्यते, तत्र प्रधानपक्षमेवाधिकृत्याऽऽह ग्रन्थकार:-'आएस सबगामो'त्ति आदेशसर्व सवों ग्रामो गत इत्यायात इति वेति क्रियाभावनोक्तैव । एवमादेशसर्वमुक्तम्, अथ निरवशेषसर्वमभिधीयते, तत्राऽऽहI'निस्सेसे सवर्ग दुविहति निरवशेषसर्व 'द्विविधं द्विप्रकारं (ग्रन्याप्रम्० १२०००) सर्वोपरिशेषसर्व तद्देशापरिशेषसर्व 8 चेति गाथार्थः ॥ १८५ ।। अत्रोदाहरणमाह, तत्रअणिमिसिणो सव्वसुरा सव्वापरिसेससब्वगं ए तद्देसापरिसेसं सब्वे काला जहा असुरा २॥१८६॥(भा०) व्याख्या-'अनिमेषिणः सर्वसुराः' अनिमिषनयनाः सर्वे देवा इत्यर्थः, सर्वोपरिशेषसर्वमेतत्, यस्मान्न कश्चिद्देवानां मध्येऽनिमिषत्वं व्यभिचरतीति, तथा तद्देशापरिशेषमिति-तद्देशपरिषसर्व सर्वे काला यथा असुरा इति, इयमत्र भावना दीप अनुक्रम ROCAROGRMERS JABERatinintamational ५ MiDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | . अत्र मूल संपादकस्य मुद्रणशुद्धि-स्खलनत्वात् भाष्य क्रमांक -१८५ द्विवारान् मुद्रितं दृश्यते ~956~ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३७...], भाष्यं [१८६] (४०) आवश्यक- हारिभ सामायिकनिक्षेपनि वि०१ द्रीया प्रत सूत्रांक ॥४७॥ (१) तेषामेव देवानां देश एको निकायः असुराः, ते चसर्वएवासितवर्णा इति गाथार्थः ॥१८॥ सर्वधत्तसर्वप्रतिपादनायाऽऽह- सा हवह सव्वधत्ता दुपडोआरा जिआ य अजिआ य । ब्वे सब्वघडाई सव्वद्धत्ता पुणो कसिण।।१८७॥(भा० | व्याख्या-सा भवति 'सबधत्ता' इत्यत्र सर्व-जीवाजीवाख्यं वस्तु धत्तं-निहितमस्यां विवक्षायामिति सर्वधत्ता, ननु 'दधातेही (पा०७-४-४२) ति हिशब्दादेशाद्धितमिति भवितव्यं कथं धत्तमिति !, उच्यते, प्राकृते देशीपदस्याविरुद्धत्वान्न दोषः, अथवा धत्त इति डिस्थवदव्युत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः, अथवा सर्व दधातीति सर्वध-निरवशेषवचनं सर्वधमात्तं-आगृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधात्ता, एवमपि निष्ठान्तस्य पूर्वनिपातः, 'जातिकालसुखादिभ्यः परवचन(पा०६-२-१७०) मिति परनिपात एव, अथवा सर्वधेन आत्ता सर्वधात्ता तया यत् सर्वं तत् सर्वधात्तासर्वमिति, सा च भवति सर्वधात्ता 'दुपडोयार'त्ति द्विप्रकारा-जीवाश्चाजीवाश्च, यस्मात् यत् किश्चनेह लोकेऽस्ति तत् सर्व जीवाश्चाजीवाश्च, न ह्येतद्व्यतिरिक्तमन्यदस्ति, अत्राऽऽह-द्रव्यसर्वस्य सर्वधत्तासर्वस्य च को विशेष इति?, अयमभिप्रायः-द्रव्यसर्वमपि विवक्षयाऽशेषद्रव्यविषयमेव, अत्रोच्यते, 'दये सघघडाई इह द्रव्यसर्वे सर्वे घटादयो गृह्यन्ते, आदिशब्दादगुल्यादिपरिग्रहः, सर्वधत्ता पुनः कृत्स्नं वस्तु व्याप्य व्यवस्थितेति विशेष इत्ययं गाथार्थः ॥ १८७ ।। अधुना भावसर्वमुच्यतेभावे सव्वोदइओयलक्खणओ जहेव तह सेसा । इत्थ उ खओबसमिए अहिगारोऽसेससब्वे ॥१८८॥(भा०) व्याख्या-'भाव' इति द्वारपरामर्शः, सर्वो द्विप्रकारोऽपि शुभाशुभभेदेन औदयिका-उदयलक्षणः कर्मोदयनिष्पन्न | इत्यर्थः यथैवायमुक्तस्तथा शेषा अपि स्वलक्षणतो वाच्या इति वाक्यशेषः, तत्र मोहनीयकर्मोपशमस्वभावतः शुभः सर्व दीप अनुक्रम ॥४७७॥ AREastumaatana Saniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~957~ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३८], भाष्यं [१८८] (४०) प्रत सूत्रांक 4 (१) - एवौपशमिकः, कर्मणां क्षयादेव शुभः सर्वः क्षायिकः, शुभाशुभश्च मिश्रः सर्वः क्षायोपशमिकः, परिणतिस्वभावः सर्वः शुभा-18 शुभश्च पारिणामिका एवं व्युत्पत्त्यर्थप्ररूपणां कृत्वा प्रकृतयोजनामुपदर्शयन्नाह-एत्थ उ'इत्यादि, अत्र तु 'क्षायोपशमिक' इति क्षायोपशमिकभावसर्वेण अधिकारः, अवतार उपयोग इत्यर्थः, 'अशेषसर्वेण च' निरवशेषसर्वेण चेति गाथार्थः ॥१८८ ॥ व्याख्यातः सौत्रः सर्वावयवः, साम्प्रतं सावद्यावयवव्याचिख्यासयाऽऽहकम्ममवजं जंगरिहिअंति कोहाइणो व चत्तारि । सह तेण जो उ जोगो पचक्खाणं इवइ तस्स ॥१०३८॥ | व्याख्या-'कर्म' अनुष्ठानमवयं भण्यते, किमविशेषेण ?, नेत्याह-'यद् गहितम्' इति यन्निन्द्यमित्यर्थः, क्रोधादयो हवा चत्वारः, अवद्यमिति वर्तते, सर्वावद्यहेतुत्वात् तेषां कारणे कार्योपचारात्, सह तेन-अवधन 'यस्तु योग य एवं व्यापारः असौ सावध इत्युच्यते, 'प्रत्याख्यान' निषेधलक्षणं भवति 'तस्य' सावद्ययोगस्य, पाठान्तरं वा-'कम्मं वजं जं गरहियति इह तु 'बृजी वर्जने' इत्यस्य वर्जनीयं वयं त्यजनीयमित्यर्थः, शेषं पूर्ववत्, नवरं सह वज्येन सवर्व्यः प्राकृते सकारस्य दीर्घादेशात् सावजमिति गाथार्थः।।१०३८॥अधुना योगोऽभिधीयते, स च द्विधा-द्रव्ययोगो भावयोगश्च,तथा चाऽऽह दवे मणवयकाए जोगा दव्वा दुहाउ भावमि । जोगा सम्मत्ताई पसत्य इअरो उ विवरीओ ॥ १०३९ ॥ __व्याख्या-द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, 'मणवइकाए जोगा दवेति मनोवाकाययोग्यानि द्रव्याणि द्रव्ययोगः, एतदुक्तं भवति-जीवेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्वव्यापाराप्रवृत्तानि द्रव्ययोग इति, द्रव्याणां वा हरीतक्यादीनां योगो द्रव्ययोगः, 'दुहा उ भावमित्ति द्विधैव द्विप्रकार एव, 'भाव' इति भावविषयः 'जोगो त्ति योगोऽधि दीप अनुक्रम JABERatinintamational Imandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'सावद्य' शब्दस्य व्याख्यानं क्रियते ~958~ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०३९], भाष्यं [१८८...] (४०) आवश्यक हारिभ सामायिकनिक्षेपनि० वि०१ द्रीया प्रत सूत्रांक ॥४७८॥ कृतः-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र 'सम्मत्ताई पसत्य'त्ति सम्यक्त्वादीनाम्, आदिशब्दाद ज्ञानचरणपरिग्रहः, प्रशस्तः युज्य- तेऽनेन करणभूतेनाऽऽत्माऽपवर्गेणेतिकृत्वा, 'इयरो उ विवरीओत्ति इतरस्तु मिथ्यात्वादियोगः, 'विपरीत' इत्यप्रशस्तो वर्तते, युज्यतेऽनेनाऽऽत्माऽष्टविधेन कर्मेणेतिकृत्वाऽयं गाथार्थः ॥ १०३९ ।। सावा योगमिति ब्याख्यातौ सूत्रावयवाविति, अधुना प्रत्याख्यामीत्यवयवप्रस्तावात् प्रत्याख्यानं निरूप्यते, इह प्रत्याख्यामीति वा प्रत्याचक्षे इति वा उत्तमपुरुपैकवचने द्विधा शब्दौ, तत्राऽऽद्यः प्रत्याख्यामीति, प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङ् आभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपं आभिमुख्येन ख्यापनं सावद्ययोगस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा 'चक्षिा व्यक्तायां वाचि' प्रतिषेधस्याऽऽदरेणाभिधानं करोमि प्रत्याचक्षे, प्रतिषेधस्याख्यानं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः, इदं च षट्प्रकारं नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रातीच्छाभावभेद|भिन्नमिति, 'तत्र च नामस्थापने क्षुण्णत्वादनाहत्य द्रव्यप्रत्याख्यानादि प्रतिपादयन्नाहदव्वंमि निण्हगाई ३ निव्विसयाई अहोइ खित्तंमि४ाभिक्खाईणमदाणे अइच्छ ५ भावे पुणो दुविहं ६॥१०४०॥ व्याख्या-द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः, 'निहगाईत्ति निवादिप्रत्याख्यानम् , आदिशब्दाद् द्रव्ययोर्द्रव्याणां द्रव्यभूतस्य द्रव्यहेतोर्वा यत् प्रत्याख्यानं तद् द्रव्यप्रत्याख्यानमिति, 'निविसयाई य होइ खित्तमित्ति निर्विषयादि च भवति | क्षेत्र इति, तत्र निर्विपयस्याऽऽदिष्टस्य क्षेत्रप्रत्याख्यानम् , आदिशब्दान्नगरादिप्रतिषिद्धपरिग्रहः, 'भिक्षादीनामदानेऽति[ग]| च्छे'ति भिक्षणं-भिक्षा प्राभृतिकोच्यते, आदिशब्दाद् वस्त्रादिपरिग्रहः, तेषामदाने सत्यतिगच्छेति वचनमतीच्छेति वेति * तथा चाइ-नाम ढवणा दविए खितमदिच्छा व भावभो तं च । नामाभिहाणमुत्तं ठवणागारखनिक्लेवो ॥ १ ॥ इति गाया कचित् ॥ दिच्छेति वा | गतिगच्छपत्या दीप अनुक्रम (२) सा॥४७८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 959~ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४०], भाष्यं [१८८...] (४०) प्रत सूत्रांक प्रत्याख्यान, 'भावे पुणो दुविहति भाव इति द्वारपरामर्शः, भावप्रत्याख्यानं पुनर्द्विविधं, तत्र भावप्रत्याख्यानमिति भा-17 वस्य-सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं भावतो वा-शुभात् परिणामोत्पादाद् भावहेतोर्वा-निर्वाणार्थ वा भाव एव वा-सावद्ययोगविरतिलक्षणः प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ १०४०॥ साम्प्रतं द्वैविध्यमेवोपदर्शयन्नाहसुअ णोसुअ सुअ दुविहं पुष्व १मपुव्वं २ तु होइ नायब्वं । नोसुअपचक्खाणं मूले १ तह उत्तरगुणे अ२॥१०४१॥ | व्याख्या-'सुयणोसुयत्ति श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च, 'सुयं दुविहंति श्रुतप्रत्याख्यानं द्विविधं, द्वैविध्यमेव दर्शयति-'पुवमपुवं तु होइ णाययंति पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानमपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च भवति ज्ञातव्यमिति, तत्र पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानसंज्ञितं पूर्वमेव, अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं त्वातुरप्रत्याख्यानादिकमिति, तथा 'नोसुयपञ्चक्खाणंति नोश्रुतप्रत्याख्यानं श्रुतप्रत्याख्यानादन्यदित्यर्थः, 'मूले तह उत्तरगुणे यत्ति मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं च, तत्र मूलगुणप्रत्याख्यानं देशसर्वभेदं, देशतः श्रावकाणां सर्वतस्तु संयतानामिति, इहाधिकृतं सर्व, सामायिकानन्तरं सर्वशब्दोपादानादिति गाथार्थः॥१०४१।। इह च वृद्धसम्प्रदायः 'पञ्चक्खाणे उदाहरणं रायधूयाए-वरिसं मंसं न खाइय, पारणए अणेगाणं जीवाणं घाओ कओ,साहहिं संबोहिया, पवइया, पुर्व दवपञ्चक्खाणं पच्छा भावपच्चक्खाणं जातमिति कृतं प्रसझेन।प्रत्याख्यामीति व्याख्यातः सूत्रावयवः, अधुना यावज्जीवतयेति व्याख्यायते-इह चाऽऽदौ भावार्थमेवाभिधित्सुराह प्रत्याख्याने उदाहरणं राजदुहितुः-वर्ष मांस न खादितं, पारणकेऽनेकेषां जीवानां धातः कृतः, साधुभिः संबोधिता, प्रनजिता, पूर्व द्रव्यप्रत्यासयानं, पश्चाहावप्रत्याख्यानं जातं । दीप अनुक्रम RSS JABERatani OPandiarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~960~ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४२], भाष्यं [१८८...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥४७९॥ सूत्रांक 125* (१) जावद्वधारणमि जीवणमवि पाणधारणे भणिों । आपाणधारणाओ पावनिवित्ती इहं अत्थो॥ १०४२ ॥ सामायिकव्याख्या-यावद् इत्ययं शब्दोऽवधारणे वर्तते, जीवनमपि प्राणधारणे भणितं, 'जीव प्राणधारण' इति वचनात् , निक्षेपनि ततश्चाप्राणधारणात्-प्र.गधारणं यावत् पापनिवृत्तिरित्यर्थः, परतस्तु न विधिर्नापि प्रतिषेधो, विधावाशंसादोषप्रसङ्गात् || वि०१ प्रतिषेधे तु सुरादिपूत्पन्नस्य भङ्गप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥१०४२॥ इह च जीवन जीव इति क्रियाशब्दोऽयं, नजीवतीति जीव || आत्मपदार्थः, जीवनं तुप्राणधारणं, जीवन जीवितं चेत्येकोऽर्थः, तत्र जीवितं दशधा वर्तते, तदेव तावदादी निरूपयन्नाह नामं १ ठवणा २ दविए ३ ओहे ४ भव ५ तम्भवे अ६ भोगे अ७॥ संजम ८ जस ९ कित्तीजीविअंच १० तं भण्णई दसहा ।। १०४३।। व्याख्या-नामजीवितं स्थापनाजीवितं द्रव्यजीवितम् ओघजीवितं भवजीवितं तद्भवजीवितं भोगजीवितं च तथा संयमजीवितं यशोजीवितं कीर्तिजीवितं च तदण्यते दशधेति गाधासमासाथैः ॥१०४३ ।। अवयवाचे तु भाष्यकार: स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदव्याचिख्यासयाऽऽहव्वे सच्चित्ताई ३ आउअसद्दव्वया भवे ओहे ४ । नेरझ्याईण भवे५ तब्भव तत्थेव उववत्ती ६॥१८९॥(भा०) ॥४७९॥ | व्याख्या-'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यजीवितं सञ्चित्तादि, आदिशब्दान्मिश्राचित्तपरिग्रहः, इह च कारणे कार्यो-IKI पचाराद् येन द्रव्येण सचित्ताचित्तमिनभेदेन पुत्रहिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीवितमायत्तं तस्य तथा तद्न्यजीवित दीप अनुक्रम [२] %20-25 wlanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~961~ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४३], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक मिति, "द्विपदादिद्रव्यस्य चान्ये, उक्तं द्रव्यजीवितं, 'आउयसद्दबया भवे ओहे'त्ति आयुरिति प्रदेशकर्म तद्र्व्यसहचरितं जीवस्य प्राणधारणं सदैव संसारे भवेदोघ इति द्वारपरामर्शः ओघजीवितं, सामान्यजीवितमित्यर्थः, इदं चाङ्गीकृत्य । यदि परं सिद्धा मृताः, न पुनरन्ये कदाचन इत्युक्तमोघजीवितं, जेरहयाईण भवे'त्ति नारकादीनामिति, आदिशब्दात तिर्यनरामरपरिग्रहः, भव इति द्वारपरामर्शः, स्वभवे स्थितिर्भवजीवितमिति, उक्कं भवजीवितं, 'तम्भव तत्थेव उववत्तित्ति तस्मिन् भवे जीवितम् तद्भवजीवितं, इदं चौदारिकशरीरिणामेव भवति, यत आह-तत्रैवोपपत्तिः, तत्रैवोपपात इत्यर्थः, भवश्च तदायुष्कबन्धस्य प्रथमसमयादारभ्य यावच्चरमसमयानुभवः, स चौदारिकशरीरिणां तिर्यामनुष्याणां,तगयोपपत्तिमागतानां तद्भवजीवितं भवति, ननु च भवजीवितमनन्तरं चतुर्की वर्णित नारकादिगतिसमापनानां याऽवस्था, तत्र स्वायुष्कबन्धकालात् प्रभृति सर्वैव भवस्थितिः यथास्वमवाधासहिता भवजीवितम् , इह तु तद्भवजीविते आवाधोनिका कर्मस्थितिः, तद्भवोदयात् प्रभृति कर्मनिषकः तद्भवजीवितमिति महान विशेषः, तत् किमर्थमौदारिकाणामेव?, उच्यते !, तेषां हि गर्भकालव्यवहितं योनिनिःसरणं जन्मोच्यते, तेन च गर्भकालेन सहैव तद्भवजीवितं, वैक्रियशरीरिणां तूपपातादेव कालान्तराव्यवहितं जन्मेति जीवितं स्वाबाधाकालसहितमितिकृत्वा तद्भवजीवितमौदारिकाणामेव सुप्रतिपादमिति, तेषां चेदं स्वकायस्थित्यनुसारतो विज्ञेयमिति गाथार्थः ।। १८९ ॥ उक्तं तद्भवजीवितं, 18|भोगमि चकिमाई ७ संजमजीअंतु संजयजणस्साजस९कित्ती अभगवओ१०संजमनरजीव अहिगारो१०४४ा ___ व्याख्या-भोगमिति द्वारपरामर्शः, भोगजीवितं च चक्रवादीनाम् , आदिशब्दार्लदेववासुदेवादिपरिग्रहः, उक्तं च पारदादिद्वन्यावस्थेत्यन्ये. दीप अनुक्रम JABERatinintamational rajaniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~962~ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४४], भाष्यं [१८९...] (४०) आवश्यकहारिभदीया वि०१ प्रत सूत्रांक 4-04 (१) | भोगजीवितं, 'संजमजीयं तु संजयजणस्सति संयमजीवितं तु 'संयतजनस्य' साधुलोकस्य, उक्तं संयमजीवितं, 'जस- सामायिक| कित्ती य भगवओत्ति यशोजीवितं भगवतो महावीरस्य, कीर्तिजीवितमपि तस्यैव, अयं चानयोविंशेषः-दानपुण्यफलानिक्षेपनिक कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः' इति, अन्येत्विदमेकमेवाभिदधति, असंयमजीवितं चाविरतिगतं संयमप्रतिपक्षतो गृहन्तीति, 'संजमनरजीव अहिगारो'त्ति-संयमनरजीवितेनेहाधिकार इति गाथार्थः ॥ १०४४ ॥ यावज्जीवता चेह 'जीव प्राणधारण' इत्यस्याव्ययीभाव समासे 'यावदवधारण' (पा०२-१-८) इत्यनेन निवृत्ते भावप्रत्यय उत्पादिते यावज्जीवं भावः | षष्ठ्या अव्ययादाप्सुपः (पा०२-४-८२) इति सुपलुक, तस्य 'भावस्त्वतला' (पा०५-१-११९) विति तलि स्त्रीलि-18 ङ्गता यावज्जीवता तया यावजीवतया, तत्रालाक्षणिकवर्णलोपात् 'जावज्जीवाए' इति सिद्धम् , अथवा प्रत्याख्यानक्रिया अन्यपदार्थ इति तामभिसमीक्ष्य समासो बहुव्रीहिः, यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीवा तयेत्यलं प्रसङ्गेन, तिम्रो विधा यस्य योगस्य स त्रिविधः सावद्ययोगः, स च प्रत्याख्येय इति कर्म संपद्यते, कर्मणि चद्वितीया विभक्तिः, तं त्रिविध योग, त्रिविधेनैव करणेन, करणे तृतीयेति, मनसा वाचा कायेन चेति, अत्र मनाप्रभृतीनां पूर्व स्वरूपं दर्शितमेवेति न प्रतन्यते, नवरं भावार्थ उच्यते-तत्र 'त्रिविधं त्रिविधेने त्यत्रानन्तरस्य करणस्य विवरणसूत्रमेवेदं, यदुत-मनसा वाचा कायेनेति ॥४८॥ तस्य च करणस्य कर्म प्रत्याख्येयो योगस्तमपि सूत्र एव विवृणोति-न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि-नानुमन्येऽहमिति । अत्राऽऽह-किं पुनः कारणमुद्देशकममतिलक्ष्य व्यत्यासेन निर्देशः कृत इति?, अत्रोच्यते, योगस्य करणतन्त्रो(ब्रतो)पदेशनार्थ, तथाहि-योगः करणवश एव, करणानां भावे योगस्यापि भावादभावे चाभावादिति, करणाना दीप अनुक्रम AmEaaRISM Alanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~963~ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४४], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक 454544545 मेव तथा क्रियारूपेण परिणतेरित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, अपरस्त्वाह-न करोमि न कार-16 यामि कुर्वन्तं न समनुजानामीत्येतावता ग्रन्थेन गतेऽन्यमपीत्यतिरिच्यते, तथा चातिरिक्तेन सूत्रेण नार्थः, उच्यते, साभिप्रायकमिदम् , अनुक्तस्याप्यर्थस्य सङ्ग्रहार्थ, यस्मात् सम्भावनेऽपिशब्दोऽयं, सोऽयमपिशब्द: उभयशब्दमध्यस्थ एतत् । करोति-यथा कुर्वन्तं नानुजानामि एवं कारयन्तमप्यनुज्ञापयन्तमप्यन्यं नानुजानामि, तथा यथा वर्तमानकाले कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामीति एवमपिशब्दादतीतकाले कृतवन्तमपि कारितवन्तमपि तथाऽनागतेऽपि काले करिष्यन्तमपि कारयिष्यन्तमपीति त्रिकालोपसङ्ग्रहो वेदितव्य इति, न क्रियाक्रियावतोभद एव अतो न केवला क्रिया सम्भवतीति ख्यापनार्थमन्यग्रहणम्, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते मा भूत् मुग्धमतिविनेयसम्मोह इति, किश्चित्तु सूत्रस्पर्शनियुंक्ती वक्ष्याम इति । एवं तावदिदमेतावत् सूत्रस्य व्याख्यातम् ॥ इह च सर्व सावर्य योर्ग प्रत्याख्यामीत्यत्र प्रत्याख्यानं गृहस्थान साधूंश्चाधिकृत्य भेदपरिणामतो निरूपयन्नाहसीआलं भंगसयं तिविहं तिविहेण समिइगुत्तीहिं । सुत्तफासिअनिजुत्तिवित्थरत्यो गओ एवं ॥१०४५ ॥ | व्याख्या-गुरवस्तु व्याचक्षते-तदिदमेतावत् सूत्रस्य व्याख्यातं, साम्प्रतं त्रिविधं त्रिविधेनेत्येतदेव किल व्याचष्टे, तत्र त्रिविधं सावध योग प्रत्याख्येयं कृतकारितानुमतिभेदभिन्नं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेनेति करणेन प्रत्याख्याति यतः अतस्त| दोपदर्शनार्यवाऽऽह-सिआलं भंगसर्य गाहा ।। अत्राऽऽह-यद्येवमिह सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानाधिकारात् सप्तचत्वारिंशद|धिकशतं प्रत्याख्यानभेदानां गृहस्थप्रत्याख्यानभेदत्वादयुक्तमेतदिति, अत्रोच्यते, न, प्रत्याख्यानसामान्यतो गृहस्थप्रत्या दीप अनुक्रम [२] TEMibrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'प्रत्याख्यान'स्य निरूपणं ~964~ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) सूत्रस्पर्शि प्रत आवश्यक-इख्यानभेदाभिधानेऽप्यदोषत्वादित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र 'सीयालं भंगसर्य'ति-एतद्भाव्यते, 'सीयालं भंगसय हारिभ- गिहिपञ्चक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयवं पयत्तेणं ॥१॥तिन्नि तिया तिन्नि दुगा तिन्निकिका य होति कनि द्रीया योगेसुं । तिदुएक तिदुएक तिदुएक चेव करणाई ॥२॥ पढमे लब्भइ एगो सेसेसु पएसु तिय तिय तियं च । दो नववि०१ तिय दो नवगा तिगुणिय सीयालभंगसयं ॥३॥' का पुनरत्र भावना ?, उच्यते-ण करेइ ण कारवेइ करेंतमपि अण्णं ॥४८॥ ण समणुजाणइ मणेणं वायाए कारणं एस एको भेओ १ । चो०-न करेईञ्चाइतिगं गिहिणो कह होइ देसविरअस्स ? || आ०-भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईएवि ॥४॥ केई भणंति गिहिणो तिविहंतिविहेण नत्थि संवरणं । तं णजओ णिद्दि पन्नत्तीए विसेसेजे ॥ ५ ॥ तो कह निजुत्तीएऽणुमइणिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामण्णेणं नस्थि उ तिविहं तिवि-12 हेण को दोसो ? ॥६॥ पुत्ताईसंतइणिमित्तमित्तमेक्कारसिं पवण्णस्स । जंपंति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि॥७॥ SA4 सूत्रांक %* दीप अनुक्रम ष्ट्र ___ 1 सप्तचत्वारिंशं शतं भङ्गानां गृहिमत्याख्यानभेदपरिमाणम् । तच्च विधिनतेन भावयितव्यं प्रयत्नेन ॥ १॥ यस्निकासयो हिकाय एककाश्च भवन्ति योगेषु । बयो द्वायकत्रयो द्वाचेकसयो द्वावेकाव करणानि ॥२॥ प्रथमे लम्यते एका दोषेषु पदेष वित्रिक त्रिकं चाद्वी नषको त्रिकद्वी नवको त्रिगुणिते सप्त-1 चत्वारिंश भङ्गशतम् ॥ ३॥ न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति मनसा वाचया कायनेष एको भेदः । चोदका-न करोतीत्यादित्रिक गृहिण कथं भवति देशविरतस्यौ । आचार्य आह-भण्यते विषयाइदिःप्रतिषेधोऽनुमतेरपि ॥ ४ ॥ केचिद भणन्ति गृहिणविविधंनिविधेन नास्ति संवरणम् । तत्र यतो निर्दिष्टं प्रज्ञप्तौ विशिष्य ॥ ५ ॥ तत्कथं नियुक्तको अनुमतिनिषेधः इति?, स स्वविषये । सामान्येन नास्त्येव त्रिविधंत्रिविधन को दोषः॥ 4 ॥ पुत्रादिसंततिनिमित्तमाग्रेशकादशी अपञ्जस्य । जल्पन्ति केचिद्गृहिणो दीक्षाभिमुखस्य निविधमपि ॥ ७॥ ॥४८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~965~ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [3] Education Ind आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [१], मूलं [२] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१०४५] आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमईय। जह वयतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥ ८ ॥ तदहीणत्ता वइतणुकरणाईणं अहव मणकरणं । सावज्जजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ ९ ॥ कारवणं पुण मणसा चिंतेइ य करेउ एस सावज्जं । चिंतेई य कए पुण सुड्डु कथं अणुमई होइ ॥ १० ॥ एस एको भेओ गओ ॥ इयाणि वितिओ भेओ-ण करेइ ण कारवेइ करेंतंपि अण्णं पण समणुजाणइ मणेण वायाए एस एक्को १, तहा मणेर्ण कारण य बितिओ २, तहा वायाए कारण य ततिओ ३, एस बितिओ मूलभेओ गओ ॥ इयाणिं तइओ-ण करेइ न कारवेइ करेंतंपि अण्णं ण समणुजाणइ मणेण एको १ वायाए वितिओ २ काएण ततिओ ३ एस तइओ मूलभेओ गओ । इयाणि उत्थो करेइ ण कारवेड मणेण वायाए कारणं एको १ ण करेइ करेंतंपि णाणुजाणइ बितीओ २ ण कारवेइ करेंतं णाणुजाणइ ३ तइओ एस चउत्थो मूलभेओ, इयाणिं पंचमोण करेइ ण कारवेइ मणेर्ण वायाए एस एको १ ण करेइ करेंतं भाष्यं [ १८९...]] १] आह-कथं पुनर्मनसा करणं कारणमनुमतिश्च । यथा वाक्तनुयोगाभ्यां करणादयस्तथा भवेयुमनसा ॥ ८ ॥ तदधीनत्वात् वाक्तनुकरणादीनामथवा मनःकरणं । सावधयोगमननं प्रज्ञ वीतरागः ॥ ९ ॥ कारणं पुनर्मनसा चिन्तयति च करोत्येष सावयम् । चिन्तयति च कृते पुनः सुष्ठु कृतमनु मतिर्भवति ॥ १० ॥ एष एको भेदो गतः । इदानीं द्वितीयो भेदः न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति मनसा वाचा पुष एकः तथा मनसा कायेन च द्वितीयः २ तथा वाचा कायेन च तृतीयः ३ एष द्वितीयो मूलभेदो गतः २ इदानीं तृतीयः न करोति न कारयति कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजानाति मनसैकः १ वाचा द्वितीयः २ कामेन तृतीयः ३ एष तृतीयो मूलभेदो गतः ३ । इदानीं चतुर्थो न करोति न कारयति मनसा वाचा कायेनैकः 1 न करोति कुर्वन्तमपि नानुजानाति द्वितीयो २ न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति तृतीयः ३ एष चतुर्थी मूलभेदः ४ इदानीं पञ्चमः न करोति न कारयतिः मनसा वाचा एप एक न करोति कुर्वन्तं For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 966~ org Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) सूत्रस्पर्शि कनि वि०१ प्रत सूत्रांक भावश्यक-४ाणाणुजाणइ एस वितिओ२ण कारवेति णाणुजाणइ एस तइओ ३ एए तिन्नि भंगामणेण वायाए लद्धा, अन्नेऽवि तिन्नि, मणेणं हारिभ- कारण य एमेव लन्भंति ३, तहाऽवरेवि वायाए कारण य लन्भंति तिन्नि तिन्नि ३, एवमेव एए सवे णव, एवं पञ्चमोऽप्युक्तो मूलद्रीया भेद इति।इयाणिं छहो-ण करेइ ण कारवेइमण एस एको, तह य ण करेइ करेंतं णाणुजाणइ मणेणं एस बितिओ, ण कारवेइ करेंतं णाणुजाणइ मणसैव तृतीयः, एवं वायाएकाएणवि तिन्नि तिष्णि भंगालभंति, उक्तःषष्ठोऽपि मूलभेदः, अधुना सप्तमो-18 ॥४८॥ भिधीयते इति-ण करेइमणेणं वायाए कारण य एक्को, एवंण कारवेइमणादीहिं एस वितिओ, करेंतंणाणुजाणइत्ति तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेद इति । इदानीमष्टमः-ण करेइ मणेणं वायाए एको तहा मणेण कारण य एस बितिओ, तहा |वायाए कारण य एस तइओ, एवं ण कारवेइ एरथवि तिन्नि भंगा एवमेव लन्भंति, करतं णाणुजाणइ एत्व वि तिण्णि, X एष उक्कोऽष्टमः। इदानीं नवमः-न करेइ मणेण एक्को १ण कारवेइ बितिओ २ करेंतं णाणुजाणइ एस तइओ, एवं वायाए ARC दीप अनुक्रम नानुजानाति एष द्वितीयः २ न कारयति नानुजानाति एष तृतीयः ३ एते त्रयो, भङ्गा मनसा वाचा लब्धाः अन्येऽपि यो, मनसा कायेन चैवमेव | लभ्यन्ते ३तथाऽपरेऽपि वाचा कायेन च लभ्यन्ते त्रयः २, ३, एवमेते सर्वे नव, एवं पञ्चमोऽप्युक्तो मूलभेदः ५ इति । इदानी पाठो-न करोति न कारयति । मनसा एष एकः, तथैव न करोति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा एष द्वितीयः, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसैव तृतीयः, एवं बाचा कायेनापि 8 त्रयस्त्रयो भङ्गा लभ्यन्ते ६ । न करोति मनसा वाचा कायेन चैकः, एवं न कारयति मनादिभिरेष द्वितीयः, कुर्वन्तं नानुजानातीति तृतीयः ७ । न करोति मनसा वाचा एकः तथा मनसा कायेन च एष द्वितीयः तथा वाचा कायेन च एष तृतीयः, एवं न कारयति भत्रापि त्रयो भङ्गा एवमेव लभ्यन्ते, कुर्वन्तं - मानुजानाति अवापिया न करोति मनसा एक न कारवति द्वितीयः कुर्वन्तं नानुजानाति एष तृतीयः, पूर्व वाचा ॥४८२॥ Natorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~967~ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक वितिय कारणवि होइ तितयमेव, नमोऽप्युक्तः इदानीमागतगुणनं क्रियते-लद्धफलमाणमेअं भंगा उ हवंति अउण-11 |पण्णास । तीयाणागयसंपइगुणियं कालेण होइ इमं ॥१॥सीयालं भंगसयं कह ? कालतिएण होइ गुणणाओ । तीयस्स पडिक्कमणं पञ्चप्पन्नस्स संवरण ॥२॥पञ्चक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एव गुणणाओ। कालतिएणं भणियं जिणगणहरवायएहिं च ॥३॥ एवं तावद् गृहस्थप्रत्याख्यानभेदाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं साधुपत्याख्यानभेदान सूचयन्नाह'तिविहं तिविहेणं ति अयमत्र भावार्थ:-त्रिविधं त्रिविधेनेत्यनेन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानादर्थतः सप्तविंशतिभेदानाहते चैवं भवन्ति-इह सावद्ययोगः प्रसिद्ध एव हिंसादिः, तं स्वयं सर्व न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एकैकं करणत्रिकेन-मनसा वाचा कायेनेति नव भेदाः, अतीतानागतवर्तमानकालत्रयसम्बद्धाश्च सप्तविंशतिरिति, इदं च प्रत्याख्याने भेदजालं 'समिइगुत्तीहिँति समितिगुप्तिषु सतीषु भवति, समितिगुप्तिभिर्वा निष्पद्यते, तत्रेर्यासमि-18 तिममुखाः प्रवीचाररूपाः समितयः पञ्च गुप्तयश्च प्रवीचाराप्रवीचाररूपा मनोगुप्याद्यास्तिस्र इति, उक्तं च समिओ नियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयो । कुसलवइमुदीरंतो जं वइगुत्तोऽवि समिओऽवि ॥१॥ अन्ये तु व्याचक्षते द्वितीयं कायेनापि भवति त्रितयमेव ९ । लब्धफलमानमेतत् भङ्गास्तु भवन्त्येकोनपञ्चाशत् । अतीतानागतसम्प्रतिगुणितं कालेन भवतीदम् ॥ १॥ सप्तचत्वारिंशं भगशतं, कथं १ कालनिकेण भवति गुणनात् । अतीतस्य प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नख संवरणम् ॥ २॥ प्रत्याख्यानं च तथा भवति वैष्यस्य एवं गुणनात् । कालविकेन भणितं ( सप्तचत्वारिंशं शतं ) जिनगणधरवाचःश्च ॥ ३ ॥२ समितो नियमानुसो गुप्तः समितत्वे भक्तव्यः । कुशलं बच उदीरयन् यहचोगुप्तोऽपि समितोऽपि ॥१॥ दीप अनुक्रम andnainrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~968~ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४५], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-द| किलैता अष्टौ प्रवचनमातरः सामायिकसूत्रसङ्ग्रहः, तत्र 'करेमि भंते ! सामाइय'ति पंच समिईओ गहिआओ, 'सब सूत्रस्पर्शिहारिभ- सावज जोग पञ्चक्खामित्ति तिण्णि गुत्तीओ गहियाओ, एत्थ समिईओ पवत्तणे निग्गहे य गुत्तीओत्ति, एयाओ अह। कनिक द्रीया | पवयणमायाओ जाहिं सामाइयं चोद्दसय पुढाणि मायाणि, माउगाओत्ति मूलं भणियंति होइ ॥ इहैव प्रायः सूत्रस्पर्शनि-1 वि०१ ॥४८३॥ युक्तिवक्तव्यताया उक्तत्वात् मध्यग्रहणे च तुलादण्डन्यायेनाऽऽद्यन्तयोरप्याक्षेपादिदमाह 'सुत्तफासियणिज्जुत्तिवित्थरत्थो गओ एवं'ति सूत्रस्पर्शनियुक्तिविस्तरार्थो गतः, 'एवम् उक्तेन प्रकारेणेति गाथार्थः ॥ १०४५ ॥ साम्प्रतं सूत्र एवातीतादिकालग्रहणं त्रिविधमुक्तमिति दर्शयन्नाह सामाइअं करेमी पञ्चक्खामी पडिक्कमामित्ति । पञ्चप्पन्नमणागयअईअकालाण गहणं तु ॥१०४६॥ व्याख्या-सामायिकं करोमि तथा प्रत्याख्यामि सावध योगमिति, तथा प्रतिक्रमामीति प्राकृतस्य, इदं हि यथासत्यमेव प्रत्युत्पन्नानागतातीतकालानां ग्रहणमिति, उक्तं च-अईयं जिंदइ पडुप्पन्नं संवरेइ अणागयं पञ्चक्खाइति गाथार्थः ॥ १०४६ ॥ साम्प्रतं तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामीत्येतद् व्याख्यायते-तत्र 'तस्ये' त्यधिकृतो योगः संवध्यते, ननु च प्रतिक्रमामीत्यस्याः क्रियायाः सोऽधिकृतो योगः कर्म, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरतस्तमित्यभिधेये तस्येत्यभिधीयते १ करोमि भदन्त ! सामायिकमिति पञ्च समितयो गृहीताः, सर्व सावधं योगं प्रत्याचक्ष इति तिम्रो गुप्तयो गृहीताः, अत्र समितयः प्रवने निग्रहे है च गुप्तय इति, एता अष्ट प्रवचनमाससे याभिः (यासु वा) सामायिक चतुर्दश च पूर्वाणि मातानि, मातर इति मूलं इति भणितं भवति । २ मतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोति अनागतं प्रत्याख्याति % दीप अनुक्रम [२] -42-% % 4 JanEaine andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~969~ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४६], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक किमर्थमिति !, आह-प्रयोजनार्थ षष्ठी विवक्षातः प्रयुक्ता सम्बन्धलक्षणाऽवयवलक्षणा वा, योऽसौ योगस्त्रिकालविषयस्तस्यातीतं सावद्यमंशमवयवं प्रतिक्रमामि न शेषं वर्तमानमनागतं वा, केचित् पुनरविभागज्ञाः अविशिष्टमेव सामान्य योग सम्बन्धयन्ति, तन्न युज्यते, अविशिष्टस्य त्रिकालविषयस्य प्रतिक्रमणप्रयोजनाभावात् , ग्रन्थगुरुत्वापत्तेश्च, अविशिटमपि संवध्य पुनर्विशेषेऽवस्थापनीयस्तच्छब्द इति ग्रन्धगुरुता, यदेतत् प्रतिक्रमणमेतत् प्रायश्चित्तमध्ये पठितमतः प्रायश्चित्तमासेवितेऽतीतविषयमिति गतत्वादतीतप्रतिक्रमणमिति न वक्तव्यम् , इह पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात् , यस्मादस्य प्रतिकKIमामीतिशब्दस्य कर्मणा भवितव्यमवश्यं, तच्च भूतं सावद्ययोगं मुक्त्वा नान्यत् कमें भवितुमर्हति, तस्मात्तस्येत्यवयवलक्ष-15 प्रणया षष्ठ्या सम्बन्धः ॥ आह-यद्येवं पुनरुक्तादिभयादभिधीयते तत इदमपरमाशङ्कापदमिति दर्शयतितिविहेणंति न जुत्तं पडिपयविहिणा समाहि जेण । अत्थविगप्पणयाए गुणभावणयत्तिको दोसो?॥१०४७॥ व्याख्या-'त्रिविधं त्रिविधेने त्यत्र त्रिविधेनेत्ययुक्तमिति, अत आह-'प्रतिपदविधिना समाहितं येन' यस्मात् प्रतिपदमभिहितमेव, मनसा वाचा कायेने'ति, अत्रोच्यते, अर्थविकल्पनया गुणभावनयेति वा को दोषः, एतदुक्तं भवति-18 | अर्थविकल्पसङ्ग्रहार्थ न पुनरुक्तम् , अथवा गुणभावना पुनः पुनरभिधानाभवतीति न दोषः, अथवा मनसा वाचा कायेनेत्यभिहिते प्रतिपदं न करोमि न कारयामि नानुजानामीति 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाना मिति यथासङ्ख्यकमनिष्टं मा प्रापदिति त्रिविधेनैकैकमुच्यते, त्रिविधमित्यत्राप्ययमेव प्रायः परिहार इति गाथार्थः ॥ १०४७ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, 'तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामी'त्यत्र भदन्तः पूर्ववद् अतिचारनिवृत्तिक्रियाभिमुखश्च तद्विशुद्ध्यर्थमामन्त्रयत इति दीप अनुक्रम ॐ JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~970~ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०४७], भाष्यं [१८९...] (४०) सूत्रस्पर्शि ० आवश्यकहारिभद्रीया स वि०१ प्रत सूत्रांक A525A5%25-30 (१) अत्राऽऽह-ननु पूर्वमुक्त एव भदन्तः स एवानुवर्तिष्यते, एवमधु चादी प्रयुक्त इत्यतः किं पुनरनेनेतिी, अनोच्यते, अनुवर्तनाथमेव अयं पुनरनुस्मरणाय प्रयुक्तः, यतः परिभाषा-अनुवर्तन्ते च नाम विधयो, न चानुवर्तनादेव भवन्ति, किं, तहि !, यत्नाद्भवन्ति, 'स चायं यत्नः पुनरुच्चारण'मिति, अथवा सामायिकक्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः, अनेन चैतत् ज्ञापितं भवति-सर्वक्रियावसाने गुरोःप्रत्यर्पणं कार्यमिति, उक्तं च भाष्यकारण-'सामाइयपच्चप्पणवयणो वाडयं भदंतसहोत्ति । सबकिरियावसाणे भणियं पञ्चप्पणमणेणं ॥१॥” इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रतिक्रमामीत्यत्र प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतमभिधीयते, तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तथा चाह नियुक्तिकार: व्वंमि निण्हगाई कुलालमिच्छंति तत्थुदाहरणं । भावंमि तदुवउत्तो मिआवई तत्थुदाहरणं ॥१०४८॥ | व्याख्या-द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यप्रतिक्रमणं तदभेदोपचारात् तद्वदेवोच्यते, अत एवाह-निवादि, आदिशब्दादनुपयुक्तादिपरिग्रहः, कुलालमिथ्यादुष्कृतं तत्रोदाहरणं, तच्चेदम्-ऐगस्स कुंभकाररस कुडीए साहुणो ठिया, तत्थेगो चेल्लओ तस्स कुंभगारस्स कोलालाणि अंगुलिधणुहएणं पाहाणएहिं विधइ, कुंभगारेण पडिजग्गिडं दिवो, भणिओ य-कीस मे कोलालाणि काणेसि ?, खुड्डुओ भणइ-मिच्छामि दुक्कडंति, एवं सो पुणोऽवि विधिऊण मिच्छामिदुक्कडंति, सामायिकप्रत्यर्पणवचनो वाऽयं भदन्तशब्द इति । सर्वक्रियावसाने भणितं प्रत्यर्पणमनेन ॥१॥ २ एकस्य कुम्भकारस्य कुम्यां (गृहे) साधवः स्थिताः, तत्रैकः धुतकस्तस्य कुम्भकारस्थ भाजनानि भहुनधनुषा पाषाणैः काणीकरोति, कुम्भकारेण प्रतिजागचं दृष्टः, भणितश-कथं मम भाजनानि काणयसि?, धुलको मणति-मिथ्या मे दुष्कृतमिति, एवं स पुनरपि काणयित्वा मिथ्या मे दुष्कृत मिति (करोति), दीप अनुक्रम ||४८४ा 5 CAMERast aajaneiorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'मिथ्यादुष्कृतं' पदस्य द्रव्य तथा भाव-भेदेन प्ररुपणा ~971~ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४८], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक पिच्छा कुंभगारेण तरस खुडगस्स कन्नामोडओ दिन्नो, सो भणइ-दुक्खाविओऽहं, कुंभगारो भणइ-मिच्छामि दुक्कड, नाएवं सो पुणो पुणो कन्नामोडियं दाऊण मिच्छादुक्कडंति करेइ, पच्छा चेलओ भणइ-अहो सुंदरं मिच्छामिदुकंडति, |कुंभगारो भणइ-तुज्झवि एरिसं चेव मिच्छा दुक्कडंति, पच्छा टिओ विधियवस्स । 'जं दुक्कडंति मिच्छा तं चेव णिसेवई पुणो पावं । पच्चक्खमुसाबाई मायाणियडिप्पसंगो य ॥१॥ एवं दवपडिक्कमणं ॥ भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति-भाव इति द्वारपरामर्श एव, 'तदुपयुक्त एव' तस्मिन्-अधिकृते शुभव्यापारे उपयुक्तस्तदुपयुक्तो यत् करोति, मृगापतिः। | तत्रोदाहरणं, तच्चेदम्-भगवं वद्धमाणसामी को संबीए समोसरिओ, तत्थ चंदसूरा भगवंतं बंदगा सविमाणा ओइण्णा, तत्थ मियावई अजा उदयणमाया दिवसोत्तिका चिरं ठिया, सेसाओ साहणीओ तिस्थयरं वंदिऊण सनिलयं गयाओ, चंदसूरावि तित्थयरं वंदिऊण पडिगया, सिग्यमेव वियालीभूयं, मियावई संभंता, गया अज्जचंदणासगास ।। CONSTRA दीप अनुक्रम पश्चात् कुम्भकारेण तस्य क्षुछकस्य कर्णामोटको दत्तः, स भगति-दुःखितोऽई, कुम्भकारो भणति-मिथ्या मे दुष्कृतं, एवं स पुनः पुनः कर्णामोटके | दरवा मिथ्यादुष्कृतमिति करोति, पश्चाक्षुलको भणति-महो सुन्दरं मिथ्यामेदुष्कृतमिति, कुम्भकारो भणति-तथापि ईशमेव मिथ्यामेदुष्कृतमिति, पश्चा-18 स्थितः काणनात्-1 यहष्कृतमिति मिथ्या (कृत्वा) तदेव निषेवते पुनः पापम् । प्रत्यक्षमषावादी मायानिकृतिप्रसाच ॥ एतद्र्व्यप्रतिक्रमण । २ भग-1 वान् वर्धमानस्वामी कौशाम्न्यां समवसतः, सत्र चन्द्रसूयौँ भगवन्तं वन्दिर सविमानाववतीणी, तब मृगावती आर्योदयनमाता दिवस इतिकृया चिरं स्थिता, शेषाः साध्व्य सीधकरं चन्दिया स्वनिलयं गताः, चन्द्रसूर्यावपि तीर्थकर बन्दिरवा प्रतिगतो, शीघ्रमेव विकालीभूतं, सगावती संभ्रान्ता, गता आर्यचन्दनासकाशं । JABERatinintamational Antarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~972 ~ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४८], भाष्यं [१८९...] (४०) पाएमु कनि० प्रत सूत्रांक आवश्यक लताओ य ताव पडिकंताओ, मियावई आलोएउं पवत्ता, अज्जचंदणाए भण्णइ-कीस अजे ! चिरं ठियासि !, न जुत्तं सूत्रस्पर्शिहारिभ- INIनाम तुम उत्तमकुलप्पसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छिउंति, सा सम्भावेण मिच्छामिदुकडंति भणमाणी अजचंदणाए पाएम। द्रीया |पडिया, अजचंदणा य ताए वेलाए संथारं गया, ताहे निद्दा आगया, पसुत्ता, मियावईएवि तिवसंवेगमावण्णाए पाय-18 वि०१ पडियाए चेव केवलणाणं समुप्पण्णं । सप्पो य तेणतेणमुवागओ, अज्जचंदणाए य संथारगाओ हत्थो ओलंबिओ, मियावईए मा खजिहितित्ति सो हत्थो संधारगं चडाविओ, सा विउद्धा भणइ-किमेयंति?, अज्जवि तुम अच्छसित्ति मिच्छामि दुक्कड, निद्दप्पमाएणं ण उहावियासि, मियावई भणइ-एस सप्पो मा भे खाहिइत्ति अतो हत्थो चडाविओ, सा भगइकहिं सो, सा दाएइ, अजचंदणा अपेच्छमाणी भणइ-अजे! किं ते अइसओ, सा भण-आम, तो कि छाउमस्थिओ केवलिओत्ति १, भणइ-केवलिओ, पच्छा अजचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ-मिच्छामि दुकडंति, (१) दीप अनुक्रम (२) ताश्च तावत्प्रतिकान्ताः, सगावत्यालोधितुं प्रवृत्ता, आर्यचन्दगया भण्यते-कथमायें ! चिरं स्थिताऽसि ?, म युकं नाम तब उत्तमकुलप्रसूताया एका४ किन्याः चिर स्थानुमिति, सा सद्भावेन मिथ्या मे दुष्कृतमिति भणन्ती र्यचन्दनायाः पादयोः पतिता, आर्यचन्दना च तस्यां वेलायां संसारके स्थिता, तदा निद्रा| sगता, प्रसुप्ता, सृगावत्या अपि तीमसंवेगमापनायाः पादपतिताया एवं केवलज्ञानं समुत्पन्न । सर्पश्च तेन मार्गेणोपागतः, आर्थचन्दनायाश्च हस्तः संस्तारकादवलम्बितः, मृगावत्या मा खादीदिति स हस्तः संस्तारके चटापितः, साविबुद्धा भगति-किमेतदिति, अद्यापि त्वं तिष्ठसीति मिथ्यामेदुष्कृतं, निद्राप्रमादेन नोत्थापिताऽसि, मृगावती भगति-एप सो मा भवन्त खादीदिति भावत्को (अतो)हस्तश्चटापितः, सा भणति-क स!, सा दर्शयति, आर्यचन्दना अपश्यन्ती भणति-आयें कितवातिशयः १, सा भगति-ओम् , तर्हि किं छानषिकः कैवलिक इति?, भणति-विलिका, पश्चावार्यचन्दना पादयोः पतित्वा भणति-मिथ्या मे दुष्कृत मिति ४८५|| MEAN S niorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~973~ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०४८], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक (१) | केवली आसाइओत्ति, इयं भावपडिक्कमणं । एत्थ गाहा-'जइ य पडिकमियवं अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चेव न| काय तो होइ पए पडिकंतो ॥१॥ त्ति गाथार्थः ॥ १०४८ ॥ इह च प्रतिक्रमामीति भूतात् सावधयोगाग्निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति, तस्साच निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति, तथा निन्दामीति गाँति, अन निन्दामीति जुगुप्सेत्यर्थः गर्हामीति च तदेवोक्तं भवति, एवं तर्हि को भेद एकार्थत्वे ?, उच्यते, सामान्यार्थाभेदेऽपीष्टविशेषार्थो गहाशब्दः, यथा सामान्ये गमनाथें गच्छत्तीति गौः, सर्पतीति सर्पः, तथाऽपि गमनविशेषोऽवगम्यते, शब्दार्थादेव, एवमिहापि निन्दागहयोरिति ॥ तं चार्थविशेष दर्शयति सचरित्तपच्छयावो निंदा तीए चउक्कनिक्खेवो । दवे चित्तयरसुआ भावेसु बहू उदाहरणा ॥ १०४९॥ व्याख्या-सचरित्रस्य सत्त्वस्य पश्चात्तापो निन्दा, स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सेत्यर्थः, उक्तं च-"आत्मसाक्षिकी निन्दा""तीए चउक्कनिक्लेवो'त्ति तस्यां तस्या वा नामादिभेदचतुष्को निक्षेप इति, तत्र नामस्थापने अनाहत्याऽऽह-'दवे चित्तकरसुया भावेसु बहु उदाहरण'त्ति द्रव्य निन्दायां चित्रकरसुतोदाहरणं, सा जहा रण्णा परिणीया अप्पाणं किंदियाइयत्ति, भावनिन्दायां सुबहून्युदाहरणानि योगसङ्ग्रहेषु वक्ष्यन्ते, लक्षणं पुनरिदं-हा! दुछु कयं हा ! दुहु कारियं दुहु अणुमयं इति । अंतो अंतो डज्झइ पच्छातावेण वेवंतो ॥१॥त्ति गाथार्थः ॥१०४९ ॥ -- दीप अनुक्रम [२] %-- 4 केवल्याशातित इति, इदै भावप्रतिक्रमण । अन्न गाथा-यदि च प्रतिक्रान्तव्यमवश्यं कृत्वा पाप कर्म । तदेव न कर्तव्यं तदा भवति पदे प्रतिकान्तः |॥१॥इति २ सा यथा राज्ञा परिणीताऽऽत्मानं निन्दितवतीति ।३हादु कृतं हा दुष्ठ कारितं दुष्ट नुमत इति । अन्तरन्तर्दशाते पश्चाचापेन चैवान्तः (वेस्न्)॥१॥इति । CAMERural Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: निन्दा तथा गर्दा शब्दस्य अर्थविशेष कथयते ~974 ~ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥४८६ ॥ गरहावि तहाजाई अमेव नवरं परप्यगासणया । दव्वंमि मरुअनार्य भावेसु बहू उदाहरणा ॥ १०५० ।। व्याख्या - गडपि 'तथाजातीयैवे 'ति निन्दाजातीयैव, नवरमेतावान् विशेषः - परप्रकाशनया गर्हा भवति, या गुरोः प्रत्यक्षं जुगुप्सा सा गर्हति, 'परसाक्षिकी गर्हेति वचनाद्, असावपि चतुर्विधैव तत्र नामस्थापने अनादृत्यैवाह-'दबंमि मैं मरुअणायं भावेसु बहू उदाहरणत्ति । तत्र द्रव्यगर्हायां मरुकोदाहरणं तच्चेदम् - आनंदपुरे मरुओ पहुसाए समं संवासं काऊण उवज्झायरस कहेइ जहा सुविणए पहुसाए समं संवासं गओमित्ति । भावगर्हाए साधू उदाहरणं- 'गंतूण गुरुसगासे काऊण व अंजलिं विणयमूलं । जह अप्पणो तह परे जाणावण एस गरहा उ ॥ १ ॥ त्ति गाथार्थः || १०४९ ॥ तत्र निन्दामि गर्हामीत्यत्र गर्हा जुगुप्सोच्यते, तत्र किं जुगुप्से ?, 'आत्मानम्' अतीतसावद्ययोगकारिणमश्लाघ्यम्, अथवाऽत्राणम् - अतीत सावद्ययोगत्राणविरहितं जुगुप्से, सामायिकेनाधुना त्राणमिति, अथवा 'अत सातत्यगमने' अतनमतीतंसावद्ययोगं सततभवनप्रवृत्तं निवर्तयामीति, 'व्युत्सृजामी'ति विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः उच्छन्दो भृशार्थः सृजामि त्यजामीत्यर्थः, विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामि, अतीतसावद्ययोगं व्युत्सृजामीति वा, अवशब्दोऽधः शब्दस्यार्थे विशेषेणाधः सृजामीत्यर्थः नन्वेवं सावद्ययोगपरित्यागात् करोमि भदन्त ! सामायिकमिति सावद्ययोगनिवृत्तिरुच्यते, तस्य व्यवसृजामि शब्दप्रयोगे वैपरीत्यमापद्यते, तन्न, यस्मात् मांसादिविरमणक्रियानन्तरं व्यवसृजामीति प्रयुक्ते तद्विपक्षत्यागो मांसभक्षणनि वृत्तिरभिधीयते, एवं सामायिकानन्तरमपि प्रयुक्ते व्यवसृजामिशब्दे तद्विपक्ष आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०५० ], भाष्यं [१८९...] आनन्दपुरे मस्कः खुषया समं संवासं कृत्या उपाध्यायाय कथयति यथा स्वमे सुपया समं संवासं गतोऽस्त्रीति भावगयां साधुरुदाहरणम्गरबा गुरुसकाशं कृत्वा चालि विनयमूलम् । यथाऽअमनस्तथा परेषां ज्ञापनमेषा गर्दा तु ॥ १ ॥ Education intimational For Parts Only 67-% ~975~ सूत्रस्पर्शिकनि० वि० १ ॥४८६ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः cibrary.org Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] Eucal आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०५१], भाष्यं [१८९...] त्यागोऽवगम्यते, स च तद्विपक्षः सुगम एवेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयादू, गमनिकामात्रप्रधानत्वात् प्रारम्भस्य | साम्प्रतं व्युत्सर्गप्रतिपादनायाऽऽह ग्रन्थकारः दविसग्गे खलु पसन्नचंदो हवे उदाहरणं । पडिआगयसंवेगो भावंमिवि होइ सो चेव ॥ १०५१ ॥ व्याख्या--इह द्रव्यन्युत्सर्गः - गणोपधिशरीरान्नपानादिव्युत्सर्गः, अथवा द्रव्यव्युत्सर्गः आर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्ग इति, अत एवाऽऽह - द्रव्यव्युत्सर्गे खलु प्रसन्नचन्द्रो भवत्युदाहरणं, भावभ्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्यागः, अथवा धर्मशुक्लध्यायिनः कायोत्सर्ग एव, तथा चाssह- प्रत्यागतसंवेगो 'भावेऽपि' भावव्युत्सर्गेऽपि भवति स एव प्रसन्नचन्द्र उदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १०५१ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् — खिंइपइट्टिए णयरे पसन्नचंदो राया, तत्थ भगवं महावीरो समोसढो, तओ राया धम्मं सोऊण संजाय संवेगो पचइओ, गीयत्थो जाओ । अण्णया जिणकपं पडिवज्जिका मो सत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ, तेणं कालेणं रायगिहे णयरे मसाणे पडिमं पडिवन्नो, भगवं च महावीरो तत्थेव समोसढो, लोगोऽवि बंदगो णीइ, दुवे य वाणियगा खिइपइट्ठियाओ तत्थेव आयाया, पसन्नचंदं पासिकण एगेण भणियं| एस अम्हाणं सामी रायलच्छ परिचय तवसिरिं पडिवन्नो, अहो से धन्नया, चितिएण भणियं कुओ एयस्स घण्णया ?, 1 क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे प्रसन्नचन्दो राजा, तत्र भगवान् महावीरः समवसूतः, ततो राजा धर्म श्रुत्वा संजातसंवेगः प्रमजितः, गीतार्थो जातः । अन्यदा जिनकरूपं प्रतिपशुकामः सध्वभावनयाऽऽत्मानं भावयति, तस्मिन् काले राजगृहे नगरे श्मशाने प्रतिमां प्रतिपन्नः, भगवांश्च महावीरस्तत्रैव समवतः लोकोऽपि बन्दको निर्गच्छति, द्वौ च वणिजौ क्षितिमतिष्ठितात् तत्रैवागतौ प्रसन्नचन्त्रं दृष्ट्वा एकेन भणितं - एषोऽस्माकं स्वामी राज्यलक्ष्मीं परित्यज्य तपः श्रियं प्रतिपक्षः, अहो अस्य धन्यता द्वितीयेन भणितं कुत एतख धम्यता ?, For Farina Prsteny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'व्युत्सर्ग' पदस्य प्रतिपादनम् ~976~ ip Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५१], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक (१) आवश्यक- जो असंजायबलं पुत्तं रज्जे ठविऊण पवइओ, सो तबस्सी दाइगेहिं परिभविजइ, णयरं च उत्तिमक्खयं पवणं ताब, एव-1 सूत्रस्पर्शिहारिभ- मणेण बहुओ लोगो दुक्खे ठविओत्ति अदयो एसो, तस्स तं सोऊण कोवो जाओ, चिंतियं चऽणेण-को मम पुत्तस्स कनिक द्रीया वि०१ अवकरे इत्ति, नूणममुगो, ता किं तेण!, एयावत्थगओ णं वावाएमि, माणससंगामेण रोद्दझाणं पवनो, हस्थिणा ॥४८७॥ हत्थिं विवाएइत्ति, विभासा । एत्यंतरे सेणिओ भगवं वंदओ णीइ, तेणवि दिडो वंदिओ य, अणेण ईसिपि न य निज्झाईहतओ, सेणिएण चिंतियं-सुक्कज्झाणोवगओ एस भगवं, ता एरिसमि झाणे कालगयस्स का गइ भवइत्ति भगवंतं पुच्छि सं, तओ गओ वंदिऊण पुच्छिओऽणेण भगवं-जंमि झाणे ठिओमए वंदिओ पसन्नचंदो तंमि मयस्स कहिं उपवाओ भवइ?.IN भगवया भणियं-अहे सत्तमाए पुढवीए, तओ सेणिएण चिंतियं-हा! किमेयंति?, पुणो पुच्छिस्सं । एत्थंतरंमि अपसन्नचंदस्स माणसे संगामे पहाणनायगेण सहावडियस्स असिसत्तिचक्ककप्पणिप्पमुहाई खयं गयाई पहरणाई, तओऽणेण सिरत्ताणेणं| योऽसंजातवलं पुत्रं राध्ये स्थापयित्वा प्रबजिता, स तपस्वी दायादैः परिभूयते, नगरं चोत्तम क्षयं अपनं तावत्, एवमनेन बहुको लोको दुःसे स्थापित इत्याष्टव्य एषः, तस्य तत् श्रुत्वा कोपो जाता, चिन्तितं चानेन-को मम पुत्रमपकरोतीति , नूनममुकः, तत् किं तेन', एतदवस्थागतो (अपि) व्यापादयामि, मानससंग्रामेण रौद्रं ध्यानं प्रपन्ना, हस्तिना तिनं व्यापादयतीति विभाषा । अन्नान्तरे श्रेणिको भगवन्तं वन्दितुं निर्गच्छति, तेनापि दृष्टो बन्दि-18 तश्र, अनेनेषदपि न च नितिः , श्रेणिकेन चिन्तित-शुक्लध्यानोपगत एष भगवान्, हदीशे ध्याने कालगतस्य का गतिर्भवतीति भगवम्तं प्रक्ष्यामि, ततो ॥४८७॥ गतो बन्दित्वा पृटोऽनेन भगवान्-यस्मिन् ध्याने स्थितो मया वन्दितः प्रसन्नचन्द्रस्तस्मिन्मुतव कोपपातो भवति ?, भगवता भणितं-अधः सप्तम्यां पृथिव्यां, | ततः श्रेणिकेन चिन्तितं-हा किमेतदिति, पुनः प्रक्ष्यामि । अत्रान्तरे च प्रसनचन्द्रख मानसे संग्रामे प्रधाननायकेन सहापतितस्वासिशक्तिचकल्पनीप्रमुखानि क्षयं गतानि प्रहरणानि, ततोऽनेन शिरखाणेन दीप अनुक्रम JABERatinintamational Swanniorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~977~ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५१], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक विवाएमित्ति परामुसियमुत्तिमंग, जाहे लोयं कयंति, तओ संवेगमावण्णो महया विसुज्झमाणपरिणामेण अत्ताणं निंदिउँ| जापयत्तो, समाहियं चणेण पुणरवि सुकं झाणं । एत्यंतरंमि सेणिएणवि पुणोऽवि भगवं पुच्छिओ-भगवं! जारिसे झाणे संपइ पसन्नचंदो वट्टइ तारिसे मयस्स कहिं उववाओ?, भगवया भणियं-अणुत्तरसुरसुति, तओ सेणिएण भणियं-पुत्र दकिमन्नहा परूवियं उआह मया अन्नहा अवगच्छियंति, भगवया भणियं-न अन्नहा परूपियं, सेणिएण भणियं-किं। वा कई वत्ति ?, तओ भगवया सबो वुत्ततो साहिओ । एत्थंतरंमि य पसन्नचंदसमीवे दिवो देवदुंदुहिसणाहो महन्तो कलसायलो उद्धाओ. तओ सेणिएण भणियं-भगवं! किमयंति, भगवया भणियं-तस्सेव विसुज्झमाणपरिणामस्स केवलणाणं| समुप्पण्णं, तओ से देवा महिमं करेंति । एस एव दयविउस्सग्गभावविउस्सग्गेसु उदाहरणं ॥ साम्प्रतं समाप्तौ यथाभूतो|ऽस्य कर्ता भवति सामायिकस्य तथाभूतं संक्षेपतोऽभिधित्सुराहसावजजोगविरओ तिविहं तिविहेण वोसिरिअ पावं । सामाइअमाईए एसोऽणुगमो परिसमत्तो ॥ १०५२॥ | व्यापादयामीति परामष्टमुत्तमाङ्ग, यदा लोचः कृत इति, ततः संवेगमापनः महता विशुध्यमानपरिणामेनात्मानं निन्दितुं प्रवृत्तः, समाहित चानेन पुनरपि शुक्र ध्यानं । अन्नान्तरे अणिमापि पुनरपि भगवान् पृष्टः-भगवन् ! यादृशे ध्याने सम्प्रति प्रसनचयो वर्तते ताशे मृतस्य कोपपातः ।, भगवता भणितं-अनुत्तरसुरेविति, ततः श्रेणिकेन भणित-पूर्व किमन्यथा प्ररूपितमुताहो मयाऽन्यथाऽवगतमिति !, भगवता भणितं-नान्यथा प्ररूपित, श्रेणिकेन भणित-किं वा कथं चेति । ततो भगवता सर्वो वृत्तान्तः कथितः । अत्रान्तरे च प्रसन्नचन्द्रसमीपे दिव्यो देवदुन्दुभिसनाथो महान् कलकल उस्थितः, ततः श्रेणिकेन भणित-भगवन् ! किमेतदिति, भगवता भणितं-तस्यैव विशुध्यमानपरिणामस्य केवलज्ञानं समुत्पन्न, ततसय देवा महिमानं कुर्वन्ति । एष एच दव्यब्युत्सर्गभाषव्युत्सर्गयोरुदाहरणं ।। 2- 64k SC दीप अनुक्रम JABERatinintamational wraniorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~978~ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५१], भाष्यं [१८९...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया ॥४८८॥ प्रत सूत्रांक (१) व्याख्या-सावद्ययोगविरतः, कथमित्याह-त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृज्य पापं न तु सापेक्ष एवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा सावद्य-13 सूत्रस्पाश योगविरतः सन् त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृजति पापमेध्यं, 'सामायिकादौ'सामायिकारम्भसमये एषोऽनुगमः परिसमाप्तः, अथवा कनिक सामायिकादौ सूत्र इति, आदिशब्दात् सर्वमित्याद्यवयवपरिग्रह इति गाथार्थः॥१०५२।।उक्तोऽनुगमः, सम्पति नयाः, ते च नैग वि०१ मसहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूडैवम्भूतभेदभिन्नाः खल्वोधतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेपामधः सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तथा चाऽऽहविजाचरणनएK सेससमोआरणं तु कायब्वं । सामाइअनिलुसी सुभासिअत्था परिसमता ॥१०५३ ॥ ब्याण्या-'विजाचरणनएK'ति विद्याचरणनययोः ज्ञानक्रियानययोरित्यर्थः, 'सेससमोयारण तु काय'ति शेषनयसमवतारः कर्तव्यः, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि !-तौ च वक्तन्यौ, सामायिकनियुक्तिः सुभाषितार्था परिसमाप्तेति प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥ १०५३ ॥ साम्प्रतं स्वद्वार एवं शेषनयान्तर्भावेनाधिकृतमहिमानौ अनन्तरोपन्यस्तगाथागततुशब्देन चावश्यवक्तव्यतया विहितौ ज्ञानचरणनयात्रुच्येते, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुमिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चाऽऽह ॥४८८॥ नायंमि गिहिअब्वे अगिहिअचमि चेव अत्थंमि । जइअव्वमेव इअ जो उवएसो सो नओ नाम ॥१०५४॥ व्याख्या-'नायमित्ति ज्ञाते सम्यक्परिच्छिन्ने 'गिहियवेत्ति ग्रहीतव्ये उपादेये 'अगिहियबमित्ति अग्रहीतव्ये अनु । दीप अनुक्रम [२] CRED SHREa t inal walanmitrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~979~ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], निर्युक्ति: [ १०५४], भाष्यं [१८९...] पादेये हेय इत्यर्थः शब्दः खल्लूभयोर्ग्रहीतव्या ग्रहीतव्ययोर्ज्ञातत्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः- ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये व ज्ञात एव नाज्ञाते 'अत्थमिति अर्थ ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिकः ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिरुपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति, तस्मिन्नर्थे 'जइअब मेव'ति अनुखारलोपाद् यतितव्यम् 'एवम्' अनेन क्रमेणैहिकामुष्मिक फलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन यतितव्यमेव, प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं सम्यगज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्- "विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात् ॥ १ ॥” तथाऽऽमुष्मिक फलप्राप्यर्थिनाऽपि ज्ञात एव यतितव्यं, तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्- “पढमं णाणं तओ दया, एवं चिहइ सबसंजए । अन्नाणी किं काहिति किं वा णाहिति छेय पावगं ? ॥ १ ॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात्तीर्थकर गणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः - "गीयैत्थो य विहारो वितिओ गीयत्थमीसओ भणिओ । एत्तो तइयविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥ १ ॥” न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्धानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृष्ट तपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजा ३ प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतः अज्ञानी किं करिष्यति ? किंवा ज्ञास्यति छेकं पापकं (वा) १ ॥ ३ ॥ २ गीतार्थच बिहारो द्वितीयो गीतार्थमिश्रको भणितः । नाभ्यां तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥ १ ॥ For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~980~ ibay.org Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] आवश्यकहारिभद्रीया ॥४८९॥ Jus Educate आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१०५४], भाष्यं [१८९...] यते यावज्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधान मैहिकामुष्मिकफलप्राप्ति कारणमिति स्थितम् । 'इति जो उवएसो सो नयो नामं'ति 'इति' एवमुक्तेन न्यायेन यः उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः । अयं च चतुर्विधे सम्यक्त्वादिसामायिके सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिकद्वयमेवेच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, देशविरतिसर्वविरतिसामायिके तु तत्कार्यत्वात् तदायत्तत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ॥ १०५४ ॥ उक्तो ज्ञाननयः, अधुना क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं चेदं - क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राधिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह - 'णायंमि गिव्हिय वे' त्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्याज्ञाते ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिक फलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिर्दृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तम्- "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिना क्रियैव कर्तव्या, तथा च मुनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितं यत उक्तम्- "चेइयकुलगणसंघ आयरिआणं च पचयण सुए य । सधेसुवि तेण कथं तवसंजममुज्जमंतेणं ॥ १ ॥ इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात् तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तं, तथा चाऽऽगमः-- "सुबहुपि सुयमहीयं किं काहि चरणविप्पमुक्करस ? । अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥ १ ॥” १ चैत्यकुलगणसंधेषु आचायें प्रवचने श्रुते च सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंयमे उद्यच्छता ॥ १ ॥ २ सुवपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति विप्रमुक्तचरणस्य है। अन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहख कोट्यपि ॥ १ ॥ For Parts Only नयविचार. वि० १ ~981~ ॥४८९ ॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५४], भाष्यं [१८९...] (४०) प्रत सूत्रांक दशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत् क्षायोपशमिक चारित्रम ङ्गीकृत्योक्तं, चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्या एव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवल ज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावा- 10 ति, तस्मात् क्रियैव प्रधाना ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्, 'इति जो उवएसो सो नओ नामति इति।४ एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च सम्यक्त्वादी चतु-11 विधे सामायिके देशविरतिसर्वविरतिसामायिकद्वयमेवेच्छति क्रियात्मकत्वादस्य, सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वानेच्छति, गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः ॥ १०५४ ॥ उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रि-10 यानयस्वरूपं ज्ञात्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं १, पक्षद्धयेऽपि युक्तिसम्भवात्, आचार्यः पुनराह-सब्वेसिपि गाहा, अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह सव्वेसिपि नयाणं बहुविवत्तव्बयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणठिओ साहू ॥१०५५॥ व्याख्या-सर्वेषामपि मूलनयानाम् , अपिशब्दात् तद्भेदानां च 'नयानां' द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यता र सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम् अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छत्तीत्यादिरूपां दीप अनुक्रम AAS wwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 982 ~ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [१], मूलं [२] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५५], भाष्यं [१८९...] (४०) नयविचार. भावश्यक-'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्ध' सर्वनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात् सर्वनया एव भावनिक्षेप- हारिभ-18 मिच्छन्तीति गाथार्थः ॥१०५५॥ इत्याचार्यहरिभद्रकृतौ शिष्यहितायामावश्यकटीकायां सामायिकाध्ययनं समाप्तम् ॥ द्रीया सामायिकस्य विवृतिं कृत्वा यदवाप्तमिह मया कुशलम् । तेन खलु सर्पलोको लभतां सामायिक परमम् ॥१॥ ॥४९॥ यस्माजगाद भगवान् सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥ ग्रन्थानम् १२३४३ ॥ आवस्सयपुबद्धं सम्मत्तं ॥ प्रत सूत्रांक SACARE दीप अनुक्रम इति याकिनीमहत्तरासूनुभवविरहश्रीमद्हरिभद्राचार्यविरचितवृत्या कलितं सभाष्यनियुक्तिकमावश्यकपूर्वार्ध समाप्तम् ॥ ॥सामायिकाध्ययनमयः प्रथमो विभागः समाप्तः।। 4%25%-31 FLUO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र अध्ययनं -१- 'सामायिकं' परिसमाप्त ~ 983~ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५५], भाष्यं [१८९...] (४०) अथ श्वलुपातिस्तवाख्यं द्वितीयमध्ययनम्. प्रत सूत्रांक [...] दीप अनुक्रम २..] साम्प्रतं सामायिकाध्ययनानन्तरं चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनमारभ्यते, इह चाध्ययनोद्देशसूत्रारम्भे' सर्वेष्वेव कारणांऽभि-3 सम्बन्धी वाच्याविति वृद्धवादः, यतश्चैवमतः कारणमुच्यते, तच्चेदम् -जात्यादिगुणसम्पत्समन्वितेभ्यो विनयेभ्यो गुरु-द रावश्यकश्रुतस्कन्धं प्रयच्छति सूत्रतोऽर्थतश्च, स च अध्ययनसमुदायरूपो वर्तते, यत उक्तम्-'एत्तो एकेक पुण, द अज्झयणं कित्तइस्सामि' प्रथमाध्ययनं च सामायिकमुपदर्शितम् , इदानीं द्वितीयावयवत्वाद् द्वितीयावयवत्वस्य बाधि-18 कारोपन्यासेन सिद्धिः आचार्यवचनप्रामाण्याद्, उक्तं च-'सावज्जजोगविरई उक्त्तिणे' त्यादि, अतो द्वितीयमुपदर्यते, यथा हि किल युगपदशक्योपलम्भपुरुषस्य दिदृक्षोः क्रमेणा झावयवानि दयन्ते एवमत्रापि श्रुतस्कन्धपुरुषस्येति कारणम्, द इदमेव चोद्देशसूत्रेष्वपि योजनीयम् , इदमेव सर्वाध्ययनेष्वपि कारणं द्रष्टव्यं, न पुन देन वक्ष्याम इत्यलं विस्तरेण । सम्बन्ध उच्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने सावद्ययोगविरतिलक्षणं सामायिकमुपदिष्टम् , इह तु तदुपदेष्टणामहंतामुत्कीर्तनं कर्तव्यमिति प्रतिपाद्यते, यद्वा सामायिकाध्ययने तदासेवनात्कर्मक्षय उक्तः, यत उक्तं निरुक्तिद्वारे'सम्मद्दिहि अमोहो सोही सन्भाव दंसणं बोही । अविषजओ सुदिहित्ति एवमाई निरुत्ताई॥१॥ति, इहापि चतुर्विंशतिस्तवेऽहंद्गुणोत्कीर्तनरूपाया भत्तेस्तत्त्वतोऽसावेव प्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च-भत्ती' जिणवराणं खिजती पुबर्सचिया अतोऽनन्तरमै केक पुनरम्पयन कीर्तयिष्यामि । २ उपदयते इत्यनेन संबन्धः २ सावधयोगविरतिरुत्कीर्तनं भवान्तरावयवमतेमसम्मानित मोहः शोधिः सहायो दर्शनं बोधिः । अविपर्ययः सुदृष्टिरिति एवमादीनि निरुक्तानि 11 कर्मक्षयः, . भक्तेर्जिनवराणां क्षीयन्ते पूर्वसंचितानि कर्माणि वास मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: • अत्र अध्ययनं -२- 'चतुर्विंशति:' आरभ्यते ~984 ~ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [२..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [ १०५५ ], भाष्यं [१८९...] २ चतुर्वि आवश्यक कम्म' तीत्यादि, एवमनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्य सतोऽस्य चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपचं वक्तहारिभ-व्यानि तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनमिति । इह चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनशब्दाः प्ररूप्याः, तथा चाहद्वीया ५ चडवी सइत्ययस्स उणिक्खेवो होइ णामणिप्फण्णो । चडवीसइस्स छक्को धयस्स उ चन्विहो होइ ॥ १०५६॥। १ चतुर्विंश शतिस्तवा तिनिo" ॥४९१ ॥ व्याख्या - चतुर्विंशतिस्तवस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः क इत्यन्यस्याश्रुतत्वादयमेव यदुत - चतुर्विंशतिस्तव इति, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादिदमित्थमवसेयं तत्रापि चतुर्विंशतेः षट्कः स्तवस्य चतुर्विधो भवति, तुशब्दादध्ययनस्य चेति गाथासमासार्थः ॥ १०५६ || अवयवार्थं तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यावयवमधिकृत्य निक्षेपोपदर्शनायाहनामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । चञ्चीसइस्स एसो निक्खेवो छव्बिहो होइ ॥ १९०॥ ( भा० ) व्याख्या -तत्र नामचतुर्विंशतिजवा देश्चतुर्विंशतिरिति नाम चतुर्विंशतिशब्दो वा स्थापनाचतुर्विंशति चतुर्विंशतीनां केपाचित्स्थापनेति द्रव्यचतुर्विंशति चतुर्विंशतिर्द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नानि, सचित्तानि द्विपदचतुष्प (दाप) दभेदभि-ज्ञानि, अचित्तानि कार्षापणादीनि मिश्राणि द्विपदादीन्येव कटकाद्यलङ्कृतानि, क्षेत्रचतुर्विंशतिर्विवक्षया चतुर्विंशतिः क्षेत्राणि भरतादीनि क्षेत्र प्रदेशा वा चतुर्विंशतिप्रदेशावगाढं वा द्रव्यमिति, कालचतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिसमयादय इति एतावत्कालस्थिति वा द्रव्यमिति, भावचतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिभावसंयोगाश्चतुर्विंशतिगुणकृष्णं वा द्रव्यमिति, चतुर्विंशतेरेष निक्षेपः 'षडिधो भवति' पद्मकारो भवति, इह च सचित्तद्विपदमनुष्यचतुर्विंशत्याऽधिकार इति गाथार्थः ॥ १९० ॥ उक्ता चतुर्विंशतिरिति, साम्प्रतं स्तवः प्रतिपाद्यते, तत्र ॥४९१ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'चतुर्विंशति' शब्दस्य षड् निक्षेपाः ~985 ~ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा- ], नियुक्ति: [१०५६], भाष्यं [१९१] (४०) प्रत सूत्रांक [...] नामं ठवणा दविए भावे अ धयस्स होइ निक्खेवो । व्वथओ पुप्फाई संतगुणुकित्सणा भावे ॥१९॥(भा) | व्याख्या-तत्र 'नामे ति नामस्तवः 'स्थापनेति स्थापनास्तवः 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयोः द्रव्यस्तवः, 'भावे चेति भावदि विषयश्च भावस्तव इत्यर्थः, इत्थं स्तवस्य भवति 'निक्षेपों' न्यासः, तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यस्तवभावस्तव-18 स्वरूपमेवाह-'द्रव्यस्तवः पुष्पादि'रिति, आदिशब्दाद् गन्धधुपादिपरिग्रहः, कारणे कार्योपचाराचैवमाह, अन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पादिभिः समभ्यर्चन मिति, तथा 'सद्गुणोत्कीर्तना भाव' इति सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः, अनेनासद्गुणोत्कीर्तना निषेधमाह, करणे च मृपावाद इति, सद्गुणानामुत्कीतना उत्-प्रावल्येन परया भक्त्या कीर्तना-संशब्दना यथा-"प्रका-14 शशितं यथैकेन, त्वया सम्यग् जगत्रयम् । समप्रैरपि नो नाथ !, परतीर्थाधिपैस्तथा ॥१॥ विद्योतयति वा लोकं, यथैको-IN sपि निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि, किं तथा तारकागणः ॥२॥" इत्यादिलक्षणो, 'भाव' इति द्वारपरामर्शो भावस्तव इति गाथार्थः॥ १९१॥ इह चालितप्रतिष्ठापितोऽर्थः सम्यग्ज्ञानायालमिति, चालनां च कदाचिद्विनेयः करोति कदाचित्स्वयमेव गुरुरिति, उक्तं च-कथइ पुच्छइ सीसो कहिंचऽपुवा कहेंति आयरिया इत्यादि, यतश्चात्र वित्तपरित्यागादिना द्रव्यस्तव एव ज्यायान् भविष्यतीत्यल्पबुद्धीनामाशङ्कासम्भव इत्यतस्तव्युदासार्थ तदनुवादपुरस्सरमाहदब्वधओभावधओ ब्यथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ। अनिउणमइवयणमिणं छज्जीवहिअंजिणाविति॥१९२॥ व्याख्या-द्रव्यस्तयो भावस्तव इत्यत्र द्रव्यस्तवो 'बहुगुणः' प्रभूततरगुण 'इति' एवं बुद्धिः स्यादू, एवं चेत् मन्यसे चिरपृच्छति शिष्यः कुश्नचिदपृष्टाः कथयन्त्याचार्याः दीप अनुक्रम [२..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~986~ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [२..] आवश्यक हारिभद्रीया ॥४९२॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [ १०५६..], भाष्यं [१९२] इत्यर्थः तथाहि किलास्मिन् क्रियमाणे वित्तपरित्यागाच्छुभ एवाध्यवसायस्तीर्थस्य चोन्नतिकरणं दृष्ट्वा च तं क्रियमाणमन्येऽपि प्रतिबुद्धयन्त इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं सप्रतिपक्षमिति चेतसि निधाय 'द्रव्यस्तवो बहुगुण' इत्यस्यासारताख्यापनायाऽऽह - 'अनिपुणमतिवचनमिदमिति, अनिपुणमतेर्वचनं अनिपुणमतिवचनम्, 'इदमिति यद् द्रव्यस्तवो बहुगुण इति, किमित्यत आह-'षड्जीवहितं जिना ब्रुवते' पण्णां पृथिवीकायादीनां हितं जिना:- तीर्थकरा ब्रुवते, प्रधानं मोक्षसाधनमिति गम्यते । किं च षड्जीवहितमित्यत आह छजीवका संजमुदव्यथए सो विरुज्झई कसिणो । तो कसिणसंजमविऊ पुष्फाईअं न इच्छति ॥ १९३॥ (भा०) व्याख्या- 'पजीवकायसंयम' इति षण्णां जीवनिकायानां पृथिव्यादिलक्षणानां संयमः-सङ्घट्टनादिपरित्यागः षड्जीवकायसंयमः असौ हितं यदि नामैवं ततः किमित्यत आह-'द्रव्यस्तवे' पुष्पादिसमभ्यर्चनलक्षणे 'स' पड्जीवकायसंयमः, किं ? - 'विरुध्यते' न सम्यकू संपद्यते, 'कृत्स्नः' सम्पूर्ण इति, पुष्पादिसंलुञ्चनसङ्घट्टनादिना कृत्स्नसंयमानुपपत्तेः, यतश्चैवं 'ततः' तस्मात् 'कृत्स्नसंयमविद्वांस' इति कृत्स्नसंयमप्रधाना विद्वांसस्तत्त्वतः साधव उच्यन्ते, कृत्स्नसंयमग्रहणमकृत्स्नसंयमविदुषां श्रावकाणां व्यपोहार्थे, ते किम् ?, अत आह-'पुष्पादिक' द्रव्यस्तवं 'नेच्छन्ति' न बहु मन्यन्ते, यच्चोकं- 'द्रव्यस्तवे क्रियमाणे वित्तपरित्यागाच्छुभ एवाध्यवसाय' इत्यादि, तदपि यत्किञ्चिद्, व्यभिचारात्, कस्यचिदल्पसत्त्व| स्याविवेकिनो वा शुभाध्यवसायानुपपत्तेः, दृश्यते च कीर्त्याद्यर्थमपि सत्त्वानां द्रव्यस्तवे प्रवृत्तिरिति शुभाध्यवसायभावेऽपि तस्यैव भावस्तवत्वादितरस्य च तत्कारणत्वेनाप्रधानत्वमेव, 'फलप्रधानारसमारम्भा' इति न्यायात् भावस्तव एव २ चतुावशतिस्तवास्तवनिक्षेपः ~987 ~ ॥४९२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१०५६..], भाष्यं [१९३] (४०) प्रत सूत्रांक [...] Tीच सति तत्त्वतस्तीर्थस्योन्नतिकरणं, भावस्तव एव तस्य सम्यगमरादिभिरपि पूज्यत्वमेन (वात्तमेव च) दृष्ट्वा क्रियमाणमन्ये sपि सुतरां प्रतिबुध्यन्ते शिष्टा इति खपरानुग्रहोऽपीहैवेति गाथार्थः ॥१९३॥ आह-ययेवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्तत एव हेयो वर्तते ? आहोस्विदुपादेयोऽपि ?, उच्यते, साधूनां हेय एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि, तथा चाह भाष्यकार:अकसिणपवत्तगाणं चिरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणो ब्यथए कूवदिढतो ॥१९४।। (भा०) | व्याख्या-अकृत्स्नं प्रवर्तयतीति संयममिति सामर्थ्याद्गम्यते अकृत्स्नप्रवर्तकास्तेषां, 'विरताविरतानाम्' इति श्रावका-IN णाम् एष खलु युक्तः एष-द्रव्यस्तवः खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् युक्त एन, किम्भूतोऽयमित्याह-संसारप्रतनुकरणः' संसारक्षयकारक इत्यर्थः, द्रव्यस्तवः, आह-यः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपि युक्त इत्यत्र कूपदृष्टान्त इति, जहा णवणयराइसन्निवेसे केइ पभूयजलाभावओ तण्हाइपरिगया तदपनोदाई कूपं खणति, तेसिं च जइवि तण्हादिया वहुंति मट्टिकाकद्दमाईहि य मलिणिजन्ति तहावि तदुम्भवेणं चेव पाणिएणं तेसिं ते तण्हाइया सो य मलो पुषओ य | फिटइ, सेसकालं च ते तदण्णे य लोगा सुहभागिणो हवंति । एवं दबथए जइवि असंजमो तहावि तओ चेव सा परिणामसुद्धी हवइ जाए असंजमोवज्जिय अण्णं च णिरवसेसं खवेइति । तम्हा विरयाविरएहिं एस दवत्थओ काययो, यथा नवनगरादिसनिवेशे केचिप्रभूतज लाभावात् तृष्णाविपरिगतास्तदपनोदाथ कूपं सनन्ति, तेषां च यद्यपि तृष्णाविका वर्धन्ते मृतिकाकर्दमादिभित्र मलिनीयन्ते (पखादीनि) तथापि तवजनन पानीयेन तेषां ते तृष्णादिकाः सच मलः पूर्वका स्फिटति, कोषकालं च ते तदन्ये चलोका सुखभागिनो भवन्ति । एवं व्यस्त थे यद्यपि असंयमाथापि तत एवं सा परिणामशुद्धिर्भवति ययाऽसंयमोपार्जितं भव्यञ्च निरवशेष क्षपयति । तसाद्विरताविरतरेप इव्यस्तवः कर्तव्यः, भावभववत एवं दीप अनुक्रम [२..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~988~ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [२...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१०५६..], भाष्यं [१९४] (४०) प्रत सूत्रांक [१..] आवश्यक-IYसभाणबंधी पभूयतरणिजराफलो यत्ति काऊणमिति गाधार्थः ॥ १९४ ॥ उक्तः स्तवः, अत्रान्तरे अध्ययनशब्दार्थों निरू- २चतुर्विहारिभ- पणीयः, स चानुयोगदारेषु म्यक्षेण निरूपित एवेति नेह प्रतन्यते । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकनि-1 शतिस्तवाद्रीया | पन्नस्य निक्षेपस्यावसरा, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं चानुगमे, स च द्विधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र नियु-1॥ ध्यस्तवा. क्त्यनुगमखिविधा, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनि धिकार ॥४९॥ युक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यति च, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामवगन्तव्यः, तद्यथा-'उद्देसे निदेसे'इत्यादि। 'किं कइविह' मित्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इति स चावसरप्राप्त एव, युगपञ्च सूत्रादयो ब्रजन्ति, तथा चोकम्-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावयकओ य णिक्खेवो । सुत्तष्फासियणिजुत्ति गया| य समगं तु वञ्चति ॥१॥" विषयविभागः पुनरमीषामयं वेदितव्य:-"होई कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो। सुत्तालावयणासो णामाइण्णासविणिओगं ॥१॥ सुत्तप्फासियणिज्जुत्तिणिओगो सेसओ पयत्थाई । पायं सोच्चिय णेगमणयाइमयगोयरो भणिओ॥२॥" अत्राऽऽक्षेपपरिहारा न्यक्षेण सामायिकाध्ययने निरूपिता एव नेह वितन्यत इत्यलं विस्तरेण, तावद् यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तश्चेदं सूत्रम् 5-%EO दीप अनुक्रम [२..] शुभपरिणामानुयम्धी प्रभूततर निर्जराफल खेतिकृन्वा । २ सूत्र सूत्रानुगमः सूबालापककृतब निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुकि नवान युगपदेव ब्रजन्ति | सा॥४९॥ ॥३ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेद सूत्र सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥१॥ सूत्रस्पर्शिकनियुंक्तिनियोगः शेषः पदार्थाविना प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भणितः ॥२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 989~ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा - १], निर्युक्तिः [ १०५६..], भाष्यं [१९४...] लोगस्सुजोगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहन्ते कित्तइस्सं, चडवीसंपि केवली ॥ १ ॥ ( सूत्रम् ) व्याख्या अस्य, तलक्षणं चेदं 'संहिता चेत्यादि पूर्ववत्, तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, यद्वा परः संनिकर्ष इति, सा चेयं - 'लोगस्सुज्जोय गरे' इत्यादि पाठः । अधुना पदानि, लोकस्य उद्योतकरान् धर्मतीर्थकरान् जिनान् अर्हतः कीर्तयि प्यामि चतुर्विंशतिमपि केवलिनः । अधुना पदार्थ:-लोक्यत इति लोकः, लोक्यते-प्रमाणेन दृश्यत इति भावः, अयं चेह | तावत्पश्चास्तिकायात्मको गृह्यते, तस्य लोकस्य किं १ - उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान, केवलालोकेन तत्पूर्वकप्रवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः, तथा दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः उक्तं च- "दुर्गतिप्रसृतान् जीवा" नित्यादि, तथा तीर्यतेऽनेनेति तीर्थं धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थं धर्मतीर्थं तत्करणशीलाः धर्मतीर्थकरास्तान्, तथा रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गाष्टप्रकारकर्मजेतृत्वाजिनास्तान्, तथा अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामईन्तीत्यर्हन्तस्तानर्हतः, कीर्तयिष्यामीति स्वनामभिः स्तोप्य इत्यर्थः, चतुर्विंशतिरिति सङ्ख्या, अपिशब्दो भावतस्तदन्यसमुच्चयार्थः, केवलज्ञानमेषां विद्यत इति केवलिनस्तान् केवलिन इति । उक्तः पदार्थः, पदविग्रहोऽपि यथावसरं यानि समासभाजि पदानि तेषु दर्शित एवं साम्प्रतं चालनावसरः, तत्र तिष्ठतु तावत्सा, सूत्रस्पर्शिका निर्युक्तिरेवोच्यते, स्वस्थानत्वाद्, उक्तं च- "अक्ख लियसंहियाई वक्खाणचडकए दरिसियंमि । सुत्तप्फासियणिज्जुत्तिवित्थरत्थो इमो होइ ॥ १ ॥ चालनामपि चात्रैव वक्ष्यामः, तत्र लोकस्योद्योतकरानिति यदुक्तं तत्र लोकनिरूपणायाऽऽह— १] अवलितसंहितादी व्याख्यानचतुष्के दर्शिते । सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिजिस्तरार्थोऽयं भवति ॥ १ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित मूलसूत्र 'लोगस्स' स्य आरम्भः, तस्य प्रथम-गाथायाः पद-व्याख्या: आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~990~ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यकहारिभ श्रीया ॥४९४ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [ गाथा- १], निर्युक्ति: [१०५७], भाष्यं [१९५] णामं १ ठवणा २ दविए ३ खिते ४ काले ५ भवे अ ६ भावे अ ७ । पज्जवलोगे अ ८ तहा अडविहो लोगणिक्खेवो ॥ १०५७ ॥ व्याख्या - नामलोकः स्थापनालोकः द्रव्यलोकः क्षेत्रलोकः काललोकः भवलो को भावलोकश्च पर्यायलोकश्च तथा, एवमष्टविधो लोकनिक्षेप इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराहजीवमजीवे स्वमरूवी सपएसमप्पए से अ । जाणाहि दव्वलोगं णिच्चमणिचं च जं दव्वं ॥ १९५ ॥ ( भा० ) व्याख्या - जीवाजीवावित्यन्त्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः, एतौ च द्विभेदौ- रूप्यरूपिभेदाद्, आह च- 'रूप्यरूपिणाविति, तत्रानादिकर्मसन्तानपरिगता रूपिणः- संसारिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहिताः सिद्धा इति, अजीवास्त्वरूपिणो धर्माधर्माकाशास्तिकायाः रूपिणस्तु परमाण्वादय इति एतौ च जीवाजीवावोघतः सप्रदेशाप्रदेशाववगन्तव्यों, तथा चाह-'सप्रदेशाप्रदेशाविति, तत्र सामान्यविशेषरूपत्वात्परमाणुव्यतिरेकेण सप्र| देशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेव भावनीयं, परमाणवस्त्वप्रदेशा एव, अन्ये तु व्याचक्षते-जीवः किल कालादेशेन नियमात् सप्रदेशः, लब्ध्यादेशेन तु सप्रदेशो वाऽप्रदेशो वेति, एवं धर्मास्तिकायादिष्वपि त्रिष्वस्तिकायेषु परापरनिमित्तं पक्षद्वयं वाच्यं, पुद्गलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपेक्षया चिन्त्यः, यथा द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशो द्व्यणुकादयः सप्रदेशाः, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढोऽप्रदेशो यादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशाः, एवं कालतोऽप्येकानेक समय स्थितिर्भावतोऽप्येकानेक गुणकृष्णादिरिति कृतं विस्तरेण, प्रकृतमुच्यते- इदमेवम्भूतं जीवाजीवनातं जानीहि द्रव्यलोकं, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोक इतिकृत्वा, २ चतुर्वि शतिस्तवाध्यलोकनिक्षेपः ~991~ ||४९४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'लोक' शब्दस्य अष्टविध निक्षेपा: Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७...], भाष्यं [१९६] (४०) प्रत सूत्राक ॥९॥ अस्यैव शेषधर्मोपदर्शनायाऽऽह-नित्यानित्यं च यदू द्रव्यं, चशब्दादभिलाध्यानभिलाप्यादिसमुच्चय इति गाथार्थः ॥१९५॥ साम्प्रतं जीवाजीवयोर्नित्यानित्यतामेवोपदर्शयन्नाह गह १ सिद्धा २ भविआया ३ अभविअ ४-१ पुग्गल १ अणागयद्धा य २। तीअद्ध ३ तिति काया ४-२ जीवा १जीव २ हिई चउहा ॥ १९६ ।। (भाष्यम् ) | व्याख्या-अस्याः सामायिकवद् च्याख्या कार्येति, भगकास्तु सादिसपर्यवसानाः सायपर्यवसानाः अनादिसपर्यव-| साना अनाथपर्यवसानाः, एवमजीवेषु जीवाजीवयोरष्टौ भङ्गाः । द्वारम् ॥ अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते, तत्र४ आगासस्स पएसा उहुं च अहे अतिरियलोए अ।जाणाहि खित्तलोगं अर्णत जिणदेसि सम्मं ॥१९७॥(भा०) | व्याख्या-आकाशस्य प्रदेशा-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तान 'ऊर्वं च इत्यूर्वलोके च 'अधश्च' इत्यधोलोके च तिर्यग्लोके च, किं ?-जानीहि क्षेत्रलोकं, क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोक इतिकृत्वा, लोक्यत इति च लोक इति, अवादिलोक|विभागस्तु सुज्ञेयः, 'अनन्त' मित्यलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चानन्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, 'जिनदेशितम्' इति | जिनकथितं 'सम्यक्' शोभनेन विधिनेति गाथार्थः ॥ १९७ ।। साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनायाहसमयावलिअमुहसा दिवसमहोरत्तपक्खमासा यासंबच्छरजुगपलिआ सागरओसप्पिपरिअट्टा ॥१९८(भा०) | व्याख्या-इह परमनिकृष्टः कालः समयोऽभिधीयते असङ्ख्येयसमयमाना स्वावलिका द्विघटिको मुहूर्तः पोडश मुहूर्ता टिदिवसः द्वात्रिंशदहोरात्रं पञ्चदशाहोरात्राणि पक्षः द्वौ पक्षी मासःद्वादश मासाः संवत्सरमिति पञ्चसंवत्सरं युगं पल्यो दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~992 ~ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७...], भाष्यं [१९८] (४०) आवश्यकहारिभ द्रीया ॥४९५॥ प्रत सूत्रांक ॥१॥ पममुद्धारादिभेदं यथाऽनुयोगदारेषु तथाऽवसेयं, सागरोपमं तद्वदेव, दशसागरोपमकोटाकोटिपरिमाणोत्सर्पिणी, एवम-18 चतुर्विवसपिण्यपि द्रष्टव्या, 'परावर्तः पुद्गलपरावर्तः, सचानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः, तेऽनन्ता अतीतकालः शतिस्तवाअनन्त एवैष्यन्निति गाथार्थः ॥ १९८॥ उक्तः काललोका, लोकयोजना पूर्ववद् । अधुना भावलोकमभिधित्सुराह- II ध्यलोकरइअदेवमणुआ तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता । तंमि भवे वहता भवलोग तं विआणाहि॥१९९॥(भा०) निक्षेपः | व्याख्या-नारकदेवमनुष्यास्तथा तिर्यग्योनिगताश्च ये 'सत्त्वाः' प्राणिनः 'तमित्ति तस्मिन् भवे वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति भवलोकं तं विजानीहि, लोक योजना पूर्ववदिति गाथार्थः॥ १९९ ॥ साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयति ओदइए १ ओवसमिए २ खइए अ ३ तहा खओवसमिए अ४।। परिणामि ५ सन्निवाए अ६ छविहो भावलोगो उ ॥२०० ।। (भाष्यम् ) . व्याख्या-उदयेन निवृत्त औदयिकः, कर्मण इति गम्यते, तथोपशमेन निवृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः, एवं शेषेष्वपि वाच्यं, ततश्च क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च पारिणामिकश्च सान्निपातिकश्च, एवं षड्विधो भावलोकस्तु, तत्र सान्निपातिक ओघतोऽनेकभेदोऽवसेयः, अविरुद्धस्तु पञ्चदशभेद इति,उक्तंच-"ओदइअखओवसमे परिणामेकेको (क)) गइचउकेऽवि । खयजोगेणवि चउरो तदभावे उवसमेणंपि॥१॥ उसमसेढी एक्को केवलिणोऽवि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइयभेया एमेव पण्णरस ॥ २॥"त्ति गाथार्थः ॥ २०॥ ॥४९५॥ भीषिकः क्षायोपशामिकः पारिणामिक एकैको गतिचतुष्कोऽपि । क्षययोगेनापि चत्वारः तदभावे उपपमेनापि ॥1॥ अपरामश्रेणाचेक: केवलिनोऽपि च तथैव सिद्धस्य । अविरुवसामिपातिकमेदा एवमेव पञ्चदश ॥२॥ दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~993~ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५७...], भाष्यं [२०१] (४०) प्रत सूत्राक ॥९॥ तिब्बो रागो अदोसो अ, उन्ना जस्स जंतुणो। जाणा हि भावलोअं, अणंतजिणदेसिसम्म ॥२०१॥ (भा०) व्याख्या-'तीन' उत्कटः रागश्च द्वेषश्च, तत्राभिष्वङ्गालक्षणो रागः अप्रीतिलक्षणो द्वेष इति, एताबुदीौँ 'यस्य जन्तोः यस्य प्राणिन इत्यर्थः, तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्यत्वाजानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितम्-एकवाक्यतयाऽदनन्तजिनकथितं 'सम्यग्' इति क्रियाविशेषणम् , अयं गाथार्थः ॥ २०१॥ द्वारं, साम्प्रतं पर्यायलोक उच्यते, तत्रौषतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, इह तु किल नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं वाऽधिकृत्य चतुर्विध पर्यायलोकमाहव्वगुण १ खित्तपज्जव २ भवाणुभावे अभावपरिणामे ४ा जाण चउब्विहमेअं, पज्जवलोगं समासेणं २०२ (भा०) व्याख्या-द्रव्यस्य गुणा:-रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्याया:-अगुरुलघवः भरतादिभेदा एव चान्ये, भवस्य च नारकादेरनुभावः-तीव्रतमदुश्खादिः, यथोक्तम्-"अच्छिणिमिलीयमेतं णत्थि सुहं दुक्खमेव अणुवंधं । णरए रइआणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥१॥ असुभा उवियणिज्जा सहरसा स्वगंधफासा य । णरए णेरइआणं दुक्कयकम्मोवलित्ताणं ॥२॥" इत्यादि, एवं शेषानुभावोऽपि वाच्यः, तथा भावस्य जीवाजीवसम्बन्धिनः परिणामस्तेन तेन अज्ञानाद् ज्ञानं नीलालोहितमित्यादिप्रकारेण भवनमित्यर्थः, 'जानीहि' अवबुध्यस्व चतुर्विधमेनमोघतः पर्यायलोकं 'समासेन' संक्षेपेणेति | गाथार्थः ।। २०२ ॥ तत्र यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदुपदर्शनेन निगमयन्नाह अक्षिनिमीलनमानं नास्ति सुखं दुःखमेवानुवचम् । नरके नैरयिकाणामनिशं पच्यमानानाम् ॥ १॥ शुभा उजनीयाः शब्दरसा रूपगन्धस्पयत्र । नरके नैरयिकाणां दुष्कृतकोपलिमानाम् ॥२॥ दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~994 ~ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) __अध्ययन [२], मूलं [-] / [ गाथा- १], निर्युक्तिः [१०५७...], भाष्यं [२०३] आवश्यकहारिभद्रीया ॥४९६ ॥ वन्नरसगंधसंठाणफासद्वाणगइवन्नभेए अ । परिणामे अ बहुविहे पज्जवलोगं विभणाहि ॥ २०३ ॥ ( भा० ) व्याख्या -- वर्णरसगन्धसंस्थानस्पर्शस्थानगतिवर्णभेदाश्च चशब्दाद् रसादिभेदपरिग्रहः, अयमत्र भावार्थ:-वर्णादयः * सभेदा गृह्यन्ते, तत्र वर्णः कृष्णादिभेदात् पञ्चधा, रसोऽपि तिक्तादिभेदात्पखधा, गन्धः सुरभिरित्यादिभेदाद् द्विधा, संस्थानं परिमण्डलादिभेदात्पञ्चधैव, स्पर्शः कर्कशादिभेदादष्ट धा, स्थानमवगाहनालक्षणं तदाश्रयभेदादनेकधा, गतिः स्पर्शवगतिरित्यादिभेदा द्विधा, चशब्द उक्तार्थ एव अथवा कृष्णादिवर्णादीनां स्वभेदापेक्षया एकगुणकृष्णाद्यनेकभेदोपसच-४ हार्थ इति, अनेन किल द्रव्यगुणा इत्येतद्व्याख्यातं । परिणामांश्च बहुविधानित्यनेन तु चरमद्वारं, शेषं द्वारद्वयं स्वयमेव भावनीयं तच्च भाविंतमेवेत्यक्षरगमनिका । भावार्थस्वयम् - परिणामांश्च बहुविधान् जीवाजीवभावगोचरान् किं ?--पर्यायलोकं विजानीहि इति गाधार्थः ॥ २०३ || अक्षरयोजना पूर्ववदिति द्वारं, साम्प्रतं लोकपर्यायशब्दान्निरूपयन्नाह - आलुक्कइ अ पलुकइ लुकइ संलुकई अ एगठ्ठा । लोगो अट्ठविहो खलु तेणेसो बुच्चई लोगो ।। १०५८ ।। व्याख्या - आलोक्यत इत्यालोकः, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति लोकः, संठोकूयत इति च संलोकः, एते एकार्थिकाः शब्दाः, लोकः अष्टविधः खल्वित्यत्र आलोक्यत इत्यादि योजनीयम्, अत एवाऽऽह तेनैष उच्यते लोको येनाssलोक्यत इत्यादि भावनीयं, गाथार्थः ॥ १०५८ ॥ व्याख्यातो लोकः, इदानीमुद्योत उच्यते, तत्राहदुविहो खलु उज्जोओ नायव्वो दव्वभावसंजुत्तो । अग्गी जोओ चंदो सूरो मणी विजू ॥ १०५९ ॥ व्याख्या- 'द्विविधः' द्विप्रकारः खलूद्योतः खलुशब्दो मूलभेदापेक्षया न तु व्यक्त्यपेक्षयेति विशेषणार्थः, उद्योत्यते २ चतुर्थीशतिस्तवाध्यलोक निक्षेपः ~995~ ॥४९६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'उद्योत' पदस्य व्याख्या Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०५९], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक प्रकाश्यतेऽनेनेत्युद्योतः, 'ज्ञातव्यः' विज्ञेयो, द्रव्यभावसंयुक्त इति-द्रव्योद्योतो भावोद्योतश्चेत्यर्थः, तवाग्निच्योद्योतः घटाद्युद्योतनेऽपि तदतायाः सम्यक्प्रतिपत्तेरैभावात्सकलवस्तुधर्मानुद्योतनाच, न हि धर्मास्तिकायादयः सदसन्नित्यानित्याधनन्तधर्मात्मकस्य च वस्तुनः सर्व एव धर्मा अग्निना उद्योत्यन्त इत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, ततश्च स्थितमिदम्-अग्निद्रव्योद्योतः, तथा चन्द्रः सूर्यों मणिविंद्युदिति, तत्र मणिः-चन्द्रकान्तादिलक्षण परिगृह्यत इति गाधार्थः ॥१०५९॥ नाणं भावुज्जोओ जह भणियं सव्वभावदंसीहिं । तस्स उचओगकरणे भावुलो विआणाहि ॥१०६० ॥ व्याख्या-ज्ञायतेऽनेन यथावस्थितं वस्त्विति ज्ञानं तज्ज्ञानं भावोद्योतः, घटाद्युद्योतनेन तद्गतायाः सम्यक्प्रतिपत्ते|विश्वप्रतिपत्तेश्च भावात् , तस्य तदात्मकत्वादेवेति भावना, एतावता चाविशेषेणैव ज्ञानं भावोद्योत इति प्राप्तम् , अत आह-यथा भणितं सर्वभावदर्शिनिस्तथा यज्ज्ञानं, सम्यगज्ञानमित्यर्थः, पाठान्तरं वा 'यगणितं सर्वभावदर्शिभि'रिति, तदपि नाविशेषेणोद्योतः, किन्तु तस्य-ज्ञानस्योपयोगकरणे सति, किं?, भावोद्योतं विजानीहि, नान्यदा, तदैव तस्य वस्तुतः ज्ञानत्वसिद्धेरिति गाथार्थः ॥ १०६० ॥ इत्थमुद्योतस्वरूपमभिधाय साम्प्रतं येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जिनास्तेनैव युक्तानुपदर्शयन्नाहलोगस्सुज्जोअगरा दवुजोएण न हु जिणा हुंति । भावुजोअगरा पुण हुँति जिणवरा चउब्बीसं ॥१०६१ ।। * मिः सं जानाति नवा नियमेन सम्यक्प्रतिपत्तिमष्णा सर्वपर्यावाणमप्रकाशात स्थूलदम्पपर्यायप्रकाशनादर RAIGERA ||१|| दीप अनुक्रम A8 [३] ॐ4% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~996~ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०६१], भाष्यं [२०३...] (४०) २चतुर्वि आवश्यक हारिभद्रीया प्रत निक्षेपः ॥४९७॥ सूत्राक ॥१॥ AXISTIHARAA*** व्याख्या-लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव जिना भवन्ति, तीर्थकरनामानुकर्मोदयतोऽतुलसत्त्वार्थकरणात् भावो- द्योतकराः पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशतिरिति, अत्र पुनःशब्दो विशेषणार्थः, आत्मानमेवाधिकृत्योद्योतकरास्तथा लोक-1 प्रकाशकवचनप्रदीपापेक्षया च शेषभब्यविशेषानधिकृत्यैवेति, अत एवोक्तं भवन्ति' न तु भवन्त्येव, कांचन प्राणिनोऽधि-४ कृत्योद्योतकरत्वस्यासम्भवादिति,चतुर्विंशतिग्रहणं चाधिकृतावसर्पिणीगततीर्थकरसङ्ख्याप्रतिपादनार्थमिति गाथार्थः॥१०६१॥ उद्योताधिकार एव द्रव्योद्योतभावोद्योतयोर्विशेषप्रतिपादनायाऽऽह---- दव्वुजोउज्जोओ पगासई परिमियंमि खित्तमि । भावुजोउजोओ लोगालोग पगासेइ ॥ १०६२॥ व्याख्या-द्रव्योद्योतोद्योतः द्रव्योद्योतप्रकाश उक्तलक्षण एवेत्यर्थः, पुद्गलात्मकत्वात्तथाविधपरिणामयुक्तत्वाच | प्रकाशयति प्रभासते या परिमिते क्षेत्रे, अन यदा प्रकाशयति तदा प्रकाश्यं वस्त्वध्याहियते, यदा तु प्रभासते तदा स एव दीप्यत इति गृह्यते, 'भावोद्योतोद्योतो लोकालोकं प्रकाशयति' प्रकटार्थम्, अयं गाथार्थः ॥ १०६२॥ उक्त उद्योतः, साम्प्रतं करमवसरमाप्तमपि धर्मतीर्थकरानित्यत्र वक्ष्यमाणत्वाद्विहायेह धर्म प्रतिपादयन्नाहदुह व्वभावधम्मो दब्वे व्वस्स ब्वमेवऽहवा । तित्ताइसभावो वा गम्माइत्थी कुलिंगो वा ॥ १०६३ ॥ 3 व्याख्या-धर्मो द्विविधः-द्रव्यधर्मो भावधर्मश्च, 'दवे दधस्स दबमेवऽहव'त्ति द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रन्यस्येति, द्रव्यस्य धर्मो द्रव्यधर्मः, अनुपयुक्तस्य मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानमित्यर्थः, इहानुपयुको द्रव्यमुच्यते, द्रव्यमेव वा धर्मों द्रव्यधर्मः धर्मास्तिकायः, 'तित्ताइसहावो वत्ति तिकादिर्वा द्रव्यस्वभावो द्रव्यधर्म इति, 'गम्माइत्थी कुलिंगो वत्ति गम्या दीप अनुक्रम [३] ॥४९७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'धर्म' शब्दस्य प्रतिपादनम् ~997~ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०६३], भाष्यं [२०३...] (४०) OM प्रत सूत्राक ||१|| दिधर्मः 'स्त्री'ति स्त्रीविषयः, केषाञ्चिन्मातुलदुहिता गम्या केषाञ्चिदगम्येत्यादि, तथा 'कुलिङ्गो वा' कुतीर्थिकधर्मो वा द्रव्यधर्म इति गाथार्थः ॥१०६३ ॥ दुह होइ भावधम्मो सुअचरणे आ सुअंमि सज्झाओ। चरणमि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसहा ॥१०६४॥ व्याख्या-द्वेधा भवति भावधर्मः, 'सुअचरणे य'त्ति श्रुतविषयश्चरणविषयश्च, एतदुक्तं भवति-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, 'सुअंमि सज्झाओ'त्ति श्रुत इति द्वारपरामर्शः, स्वाध्यायो-वाचनादिः श्रुतधर्म इत्यर्थः, 'चरणमि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसह'त्ति तत्र चरण इति परामर्शः, श्रमणधर्मो दशविधः क्षान्त्यादिश्चरणधर्म इति गाथार्थः ॥१०६४ ॥ पक्को धर्म, साम्प्रतं तीर्थनिरूपणायाह नाम ठवणातित्थं व्यत्तित्वं च भावतित्थं च । एककपि अ इत्तोऽोगविहं होइ णायध्वं ॥ १०६५ ॥ व्याख्या-निगदसिद्धा ॥ नवरं द्रव्यतीर्थ व्याचिख्यासुरिदमाहदाहोवसमं तण्हाइछेअणं मलपवाहणं चेव । तिहि अत्येहि निउत्तं तम्हा तं व्यओ तित्थं ॥१०६६॥ व्याख्या-इह द्रव्यतीर्थ मागधवरदामादि परिगृह्यते, बाह्यदाहादेरेव तत उपशमसद्भावात् , तथा चाह-दाहोपशममिति तत्र दाहो-बाह्यसन्तापस्तस्योपशमो यस्मिन् तद्दाहोपशमनं, 'तण्हाइछेअर्ण ति तृषः-पिपासायाश्छेदन, जलसङ्घातेन तदपनयनात्, 'मलप्रवाहणं चैवे'त्यत्र मलः बाह्य एवाङ्गसमुत्थोऽभिगृह्यते तत्प्रवाहणं, जलेनैव तत्प्रवाहणात्, ततः प्रक्षालनादिति भावः, एवं त्रिभिरथैः करणभूतैत्रिषु वाऽर्थेषु 'नियुक्तं' निश्चयेन युक्तं नियुक्त प्रथमव्युत्पत्तिपक्षे प्ररूपितं दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'तीर्थ' पदस्य निरुपणा ~998~ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०६६], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत निक्षेपः सूत्रांक ||१|| आवश्यक-द्वितीये तु नियोजितं, यस्मादेवं बाह्यदाहादिविषयमेव तस्मात्तन्मागधादि द्रव्यतस्तीर्थ, मोक्षासाधकत्वादिति गाथार्थःश्चतुर्विहारिभ- ४॥ १०६६ ॥ भावतीर्थमधिकृत्याह शतिस्तवाद्रीया लाध्यतीर्थकोहंमि उ निग्गहिए दाहस्स पसमणं हवइ तत्थं । लोहंमि उ निग्गहिए तहाए छेअणं होई ॥१०६७ ॥ ॥४९८॥ व्याख्या-इह भावतीर्थ क्रोधादिनिग्रहसमर्थ प्रवचनमेव गृह्यते, तथा चाह-क्रोध एव निगृहीते 'दाहस्य' द्वेषानल जातस्यान्तः प्रशमनं भवति, तथ्य निरुपचरितं, नान्यथा, लोभ एव निगृहीते सति, किं-'तण्हाए छेअणं होईत्ति तृपःअभिष्वङ्गलक्षणायाः किं ?-'छेदनं भवति' व्यपगमो भवतीति गाथार्थः ।। १०६७ ॥ अवविहं कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचि जम्हा । तवसंजमेण धुब्बइ तम्हा तं भावओ तिस्थं ॥ १०६८ ॥ ध्याख्या-'अष्टविधम्' अष्टप्रकार, किंकरजः' कमैंव जीवानुरञ्जनाजा कर्मरज इति, बहुभिर्भवैः सश्चितं यस्मा|त्तपःसंयमेन 'धाव्यते' शोध्यते, तस्मात्तत्-प्रवचन भावतः तीर्थ, मोक्षसाधनत्वादिति गाथार्थः ॥ १०६८॥ दसणनाणचरित्तेसु निउत्तं जिणवरेहि सब्वेहिं । तिसु अत्थेसु निउत्तं तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ १०६९ ॥ व्याख्या-दर्शनज्ञानचारित्रेषु नियुक्त नियोजितं 'जिनवरैः' तीर्थकृद्धिः सर्वैः' ऋषभादिभिरिति, यस्माचेत्यम्भू- ॥४९८॥ तेषु त्रिष्वर्थेषु नियुक्तं तस्मात्तत्प्रवचनं भावतः तीर्थ, मोक्षसाधकत्वादिति गाथार्थः ॥ १०६९ ।। उक्तं तीर्थम्, अधुना कर उच्यते, तत्रेयं गाधा दीप अनुक्रम RSS20%ART [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~999~ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७०], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत SSAGAR सूत्राक ||१|| णामकरो १ ठवणकरो २ दब्वकरो ३ खित्त ४ काल ५'भावकरो । एसो खलु करगस्स उणिक्खेवो छविहो होइ ॥ १०७० ।। व्याख्या-निगदसिद्धा ॥ नवरं द्रव्यकरमभिधित्सुराहगोमहिसट्टिपणं छगलीणपि अकरा मुणेयब्बा । तत्सो अतणपलाले भुसकंगारपलले य ॥१०७१॥ सिवरेजघाए पलिवकर अ चम्मे । चुलगकरे अ भणिए अद्वारसमाकरुपत्ती ॥२०७२ ॥ व्याख्या-गोकरस्तथाभूतमेव तद्वारेण वा रूपकाणामित्येवं सर्वत्र भावना कार्येति, नवरं शीताकरो-भोगः क्षेत्रपरिमाणोद्भव इति चान्ये, उत्पत्तिकरस्तु स्वकल्पनाशिल्पनिर्मितः शतरूपकादिः, शेष प्रकटार्थमिति गाथाद्वयार्थः ॥ १०७१|१०७२ ॥ उक्को द्रव्यकर इति, क्षेत्रकराधभिधित्सुराह| खितमि जंमि खित्ते काले जो जंमि होह कालंमि । दुविहो अ होइ भावे पसत्थु तह अप्पसत्यो अ॥१०७३।। व्याख्या-क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, एतदुक्तं भवति-क्षेत्रकरो यो यस्मिन् क्षेत्रे शुल्कादि । काल इति द्वारपरामर्श एव, कालकरो यो यस्मिन् भवति काले कुटिकादानादिः, द्विविधश्च भवति भावे, द्वैविध्यमेव दर्शयति-प्रशस्तस्तथाऽप्रशस्तहाति गाथार्थः ॥ १०७३ ॥ तत्राप्रशस्तपरित्यागेन प्रशस्तसद्भावादप्रशस्तमेवादावभिधित्सुराह कलहकरो डमरकरो असमाहिकरो अनिव्वुइकरो अ । एसो उ अप्पसस्थो एवमाई मुणेयव्वो ॥ १०७४ ॥ दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'कर शब्दस्य षड् निक्षेपा:' ~ 1000 ~ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७४], भाष्यं [२०३...] (४०) हारिभ चतुर्किशतिस्तवाध्य. करनिक्षेपः प्रत सूत्राक ॥१॥ आवश्यक- II व्याख्या-आह-उक्तप्रयोजनसद्भावादुपन्यासोऽप्येवमेव किमिति न कृत इति, अनोच्यते, आसेवनयाऽयमेव प्रथ- मस्थाने कार्य इति ज्ञापनार्थ, तत्र कलहो-भण्डनं, ततश्चाप्रशस्तः कोपाद्यौदयिकभावंतः, तत्करणशीलः कलहकर इति, द्रीया एवं डमरादिष्वपि भावनीयं, नवरं वाचिकः कलहः, कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनं डमर, समाधान-समाधिः स्वास्थ्य न समाधिरसमाधिः-अस्वास्थ्यनिबन्धना सा सा कायादिचेष्टेत्यर्थः, अनेनैव प्रकारेणानिवृतिरिति, एषोऽप्रशस्तः, तुशब्द-1 ॥४९९॥ स्थावधारणार्थत्वादेष एव जात्यपेक्षया न तु व्यक्त्यपेक्षयेति, अत एवाह-एवमादिविज्ञातव्यः व्यक्त्यपेक्षयाऽप्रशस्तभावकर इति गाथार्थः ॥ १०७४ ॥ साम्प्रतं प्रशस्तभावकरमभिधातुकाम आहअत्थकरो अहिअकरो कित्तिकरो गुणकरो जसकरो अ। अभयकर निव्वुइकरो कुलगर तित्थंकरतकरो॥१०७५ व्याख्या-तन्त्रौषत एव विद्यादिरर्थः, उक्त च-विद्याऽपूर्व धनार्जनं शुभमर्थ इति, ततश्च प्रशस्तविचित्रकर्मक्षयोपशमादिभावतः, तत्करणशीलोऽर्थकरः, एवं हितादिष्वपि भावनीय, नवरं हितं-परिणामपथ्यं कुशलानुबन्धि यत्किञ्चित्, कीर्तिः-दानपुण्यफला, गुणाः-ज्ञानादयः, यशः-पराक्रमकृतं गृह्यते, तदुत्थसाधुवाद इत्यर्थः, अभयादय प्रकटार्थो,4 नवरमन्तः कर्मणः परिगृह्यते, तत्फलभूतस्य वा संसारस्येति गाथार्थः ॥ १०७५ ॥ उको भावकरः, अधुना जिनादिप्रतिपादनायाऽऽह अनादिभवाभ्यासादासेवनमप्रशस्तस्यैवादौ भवति, प्रशस्तस्य तु पश्चादेवेति २ यतोऽसाविति ३ व्यक्किसमुदायरूपत्वात् जातेस्तस्थाः प्राशुदेशात भित्र व्यक्त्यपेक्षयेति 4 दीप % अनुक्रम % [३] -% ४९९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1001 ~ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७६], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक ||१|| जियकोहमाणमाया जियलोहा तेण ते जिणा हुँति । अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण बुचंति ॥ १०७६ ॥ व्याख्या-जितक्रोधमानमाया जितलोभा येन कारणेन तेन ते भगवन्त:, किं:-जिना भवन्ति, 'अरिणो हंता रयं हिते'त्यादिगाथादलं यथा नमस्कारनियुक्ती प्रतिपादितं तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥ १०७६ ।। कीर्तयिष्यामीत्यादिव्याचिख्यासया साम्प्रतमिदमाहकित्तेमि कित्तणिजे सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स । दसणनाणचरित्ते तवविणओ दंसिओ जेहिं ।। १०७७ ॥ व्याख्या कीर्तयिष्यामि नामभिर्गुणैश्च, किम्भूतान् ?-कीर्तनीयान, स्तवाानित्यर्थः, कस्येत्यत्राह-सदेवमनुष्यासुरलोकस्य, त्रैलोक्यस्येति भावः, गुणानुपदर्शयति-'दर्शनज्ञानचारित्राणि' मोक्षहेतूनि (निति), तथा 'तपोविनयः' दर्शितो यैः, तत्र तप एवं कर्मविनयाद् विनयः, इति गाथार्थः ॥ १०७७॥ चउवीसंति य संखा उसभाईआ उ भण्णमाणा उ । अविसहग्गहणा पुण एरवयमहाविदेहेसुं॥१०७८॥ व्याख्या-चतुर्विंशतिरिति सञ्जया, ऋषभादयस्ते वक्ष्यमाणा एव, अपिशब्दग्रहणात्पुनः ऐवतमहाविदेहेषु ये तहोऽपि वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ १०७८ ॥ कसिणं केवलकप्पं लोग जाणति तह य पासंति । केबलचरित्तनाणी तम्हा ते केवली हति ।। १०७९॥ 3 व्याख्या-कृत्स्नं सम्पूर्ण 'केवल कल्प' केवलोपमम्, इह कल्पशब्द औपम्ये गृह्यते, उक्तं च-"सामर्थे वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥१॥" 'लोक' पश्चास्तिकायात्मकं जानन्ति विशे-18 दीप 5+ अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अरिहंत, कीर्तयिष्यामि, चतुर्विशति, अपि केवलि आदि शब्दानाम् व्याख्या: ~ 1002~ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥५०॥ सुत्राक ॥१॥ MSRCESS परूपतया, तथैव सम्पूर्णमेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् पश्यन्ति सामान्यरूपतया, इह च ज्ञानदर्शनयोः सम्पूर्णलोकविष कावपःचतुर्कि यत्वे च बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति, नवरं-"निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते । विशिष्टग्रहणं है शतिस्तवा. ज्ञानमेवं सर्वत्रगं द्वयम् ॥१॥" इत्यनया दिशा स्वयमेवाभ्यूह्यमिति, यतश्चैवं केवलचारित्रिणः केवलज्ञानिनश्च तस्मात्ते केवलिकेवलिनो भवन्ति, केवलमेषां विद्यत इति केवलिन इतिकृत्वा । आह-इहाकाण्ड एवं केवलचारित्रिण इति किमर्थम् व्याख्या. उच्यते, केवलचारित्रप्राप्तिपूर्विकैव नियमतः केवलज्ञानावाप्तिरिति न्यायप्रदर्शनेन नेदमकाण्डमिति गाथार्थः ॥ १०७९ ॥ व्याख्याता तावल्लोकस्वेत्यादिरूपा प्रथमसूत्रगाथेति, अत्रैव चालनाप्रत्यवस्थाने विशेषतो निर्दिश्य(श्ये)ते-तत्र लोकस्योद्योतकरानित्यायुक्तम्, अत्राऽऽह-अशोभनमिदं लोकस्येति, कुतः ?, लोकस्य चतुर्दशरज्वात्मकत्वेन परिमितत्वात् , केवलो-18 द्योतस्य चापरिमितत्वेनैव लोकालोकव्यापकत्वाद्, वक्ष्यति च-केवलियणाणलंभो लोगालोग पगासेइ'त्ति, ततश्चौधत एवोद्योतकरान लोकालोकयोति वाच्यमिति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह लोकशब्देन पञ्चास्तिकाया एव गृह्यन्ते, ततश्चाकाशास्तिकायभेद एषालोक इति न पृथगुक्तः, न चैतदनार्ष, यत उक्तम्-'पंचस्थिकायमइओ लोगो' इत्यादि । अपरस्त्वाह-लोकस्योद्योतकरानित्येतावदेव साधु, धर्मतीर्थकरान् इति न वक्तव्यं, गतार्थत्वात् , तथाहि-ये लोकस्योयोतकरास्ते धर्मतीर्थकरा एवेति, अत्रोच्यते, इह लोकैकदेशेऽपि ग्रामैकदेशे ग्रामवल्लोकशब्दप्रवृत्तेर्मा भूत्तदुद्योतकरेष्ववघिविभङ्गज्ञानिष्वर्कचन्द्रादिषु वा सम्प्रत्ययः, तथ्यवच्छेदार्थ धर्मतीर्थकरानित्याह । आह-यद्येवं धर्मतीर्थकरानित्येतावदे-! कैवल्यज्ञानलाभो लोकालोकं प्रकाशयति २ पनास्तिकावमयो लोक दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1003~ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-१], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] (४०) - -2- प्रत 2- सूत्राक ||१|| वास्तु लोकस्योद्योतकरानिति न वाच्यमिति, अबोच्यते, इह लोकेऽपि नद्यादिविषमस्थानेषु मुधिकया(ये)धर्मार्थमवतरण-| दातीर्थकरणशीलास्तेऽपि धर्मतीर्थकरा एवोच्यन्ते, तन्मा भूदतिमुग्धबुद्धीनां तेषु सम्प्रत्ययः, तदपनोदाय लोक स्योद्योतकरान-1 प्याहेति । अपरस्त्वाह-जिनानित्यतिरिच्यते, तथाहि-यथोक्तप्रकारा जिना एव भवन्तीति, अत्रोच्यते, मा भूत्कुनयम तानुसारिपरिकल्पितेषु यथोक्तप्रकारेषु सम्प्रत्यय इत्यतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-जिनानिति, श्रूयते च कुनयदर्शनेदूज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः॥१॥' इत्यादि, तन्नून न ते रागादिजेतार इति, अन्यथा कुतो निकारतः पुनरिह भवाकरप्रभवो , बीजाभावात् , तथा चान्यैरप्युक्तम्-"अज्ञान पांसुपिहितं पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं मुञ्चति जन्माङ्करं जन्तोः ॥१॥" तथा-"दग्धे बीजे | द्विा यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाधरः ॥१॥” इति । आह-ययेवं जिनानित्येता-13 देवदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्याचतिरिच्यते इति, अत्रोच्यते, इह प्रवचने सामान्यतो विशिष्ट श्रुतधरादयोऽपि जिना एवोच्यन्ते, तद्यथा-श्रुतजिना अवधिजिना मनःपर्यायज्ञानजिनाः छद्मस्थवीतरागाच, तन्मा भूत्तेषु सम्प्रत्यय इति तदप-12 नोदार्थ लोकस्योद्योतकरानित्याद्यप्यदुष्टमेव । अपरस्त्वाह-अर्हत इति न वाच्यं, न ह्यनन्तरोदितस्वरूपा अहव्यतिरेकेणापरे भवन्तीति, अत्रोच्यते, अर्हतामेव विशेष्यत्वान्न दोष इति । आह-यद्येवं हन्त । ताईत एवेत्येतावदेवास्तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि पुनरपार्थक, न, तस्य विशेषणसाफल्यस्य च प्रतिपादितत्वात् । अपरस्त्वाह-केवलिन इति न वाच्यं, यथोक्तस्वरूपाणामहतां केवलित्वाव्यभिचारात्, सति च व्यभिचारसम्भवे विशेषणोपादानसाफल्यात्, तथा च-सम्भवे दीप अनुक्रम [३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1004 ~ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-२], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] (४०) चतुर्विशतिस्तवा. विशेषण| साफल्यं. प्रत सूत्राक *-ORM ||२|| आवश्यक-3 व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति, यथा नीलोत्पलमिति, व्यभिचाराभावे तु तदुपादीयमानमपि यथा कृष्णो भ्रमरः हारिभ- शुक्ला वलाका इत्यादि(वत्) ऋते प्रयासात् कमर्थ पुष्णातीति, तस्मात्केवलिन इत्यतिरिच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, इह द्रीया केवलिन एव यथोक्तस्वरूपा अर्हन्तो नान्य इति नियमनार्थत्वेन स्वरूपज्ञानार्थमेवेदं विशेषणमित्यनवयं, न चैकान्ततो| व्यभिचारसम्भव एव विशेषणोपादानसाफल्यम् , उभयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे स्वरूपज्ञापने च शिष्टोक्तिषु तत्म॥५०॥ योगदर्शनात् , तत्रोभयपदव्यभिचारे यथा नीलोत्पलमिति, तथैकपदव्यभिचारे यथा आपो द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, तथा स्वरूपज्ञापने यथा परमाणुरप्रदेश इत्यादि, यतश्चैवमतः केवलिन इति न दुष्टम् । आह-यद्येवं केवलिन इत्येतदेव सुन्दरं, शेष तु लोकस्योद्योतकरानित्यादिकमनर्थकमिति, अत्रोच्यते, इह श्रुतकेवलिप्रभृतयोऽन्येऽपि विद्यन्त एव केव-| लिनः, तस्मान्मा भूतेषु सम्प्रत्यय इति तत्प्रतिक्षेपार्थं लोकस्योद्योतकरानित्याद्यपि वाच्यमिति । एवं व्यादिसंयोगापेक्ष याऽपि विचित्रनयमताभिज्ञेन स्वधिया विशेषणसाफल्यं वाच्यम्, इत्यलं विस्तरेण, गमनिकामात्रमेतदिति । तत्र यदुक्तं लकीर्तयिष्यामीति' तत्कीर्तनं कुर्वन्नाह उसभमजिअंच वंदे संभवमभिणंदणं व समईच । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पर वंदे ॥२॥ सुविहिं। च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस बासुपुजं च । विमलमणतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंधुं अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि पासं तह बद्धमाणं च ॥ ४ ॥ (सूत्राणि) एतानिस्रोऽपि सूत्रगाथा इति, आसां व्याख्या-हाईतां नामानि अन्वर्थमधिकृत्य सामान्यलक्षणतो विशेषलक्षणतश्च दीप अनुक्रम [४] ॥५०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मूलसूत्रस्य गाथा २, ३ एवं व्याख्या ~ 1005~ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०७९], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत CAMANACANCYCL सूत्राक वाच्यानि, तत्र सामान्यलक्षणमिदं-'वृष उद्वहने समग्रसंयमभारोद्वहनादू वृषभः, सर्व एव च भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषहेतुप्रतिपादनायाऽऽह ऊरूसु उसमलंछण उसमें सुमिणमि तेण उसभजिणो। पुंबद्धं । जेण भगवओ दोसुवि ऊरूसु उसभा उप्पराहुत्ता जेणं च मरुदेवाए भगवईए चोदसण्हं महासुमिणाणं पढमो| | उसभो सुमिणे दिहोत्ति, तेण तस्स उसभोत्ति णामं कयं, सेसतित्थगराणं मायरो पढमं गयं तओ वसई एवं चोद्दस, उसभोत्ति वा बसहोत्ति वा एगई । इयाणिं अजिओ-तस्य सामान्येनाभिधाननिबन्धन परीपहोपसर्गादिभिर्न जितोऽजितः, सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषनिबन्धनाभिधित्सयाऽऽह अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तम्हा ॥१०८०॥ व्याख्या-पच्छद्धं । भगवओ अम्मापियरो जूयं रमंति, पढमो राया जिणियाइओ, जाहे भगवंतो आयाया ताहे ण राया, देवी जिणइ, तत्तो अक्खेमु कुमारप्राधान्यात् देवी अजिएति अजिओ से णामं कयति गाथार्थः ॥ १०८०॥ पूर्व । येन भगवतो योरप्यरुणीषभावपरीभूती येन च मरुदेवया भगवस्था चतुर्दवान महास्वप्नानां प्रथमं वृषभो रहा स्वम इति, तेन तस्य | वृषभ इति नाम कृतं, शेषतीर्थकराणां मातरः प्रथमं गजं ततो वृषभं एवं चतुर्दश, मपम इति वा वृषभ इति वैकार्थों । इदानीमजित:-१ पनार्धे । भगवतो मातापितरी पूर्व रमेते, प्रथम राजा जितवान् , यवा भगवन्त भायातास्तदा न राजा, देवी जयति, ततोऽशेषु कुमारमाथान्यात् देवी अजितेति अजितस्तख नाम कृतमिति। ||४|| दीप अनुक्रम [६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ऋषभ आदि २४ तिर्थकराणाम् नामानां व्युत्पत्ति: ~1006~ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [&] आवश्यकहारिभ ब्रीया ॥५०२ ॥ কেভ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [ २ ], मूलं [-] / [गाथा-४ ], निर्युक्तिः [ १०८० ], भाष्यं [२०३...] इदानीं सम्भवो - तस्यघतोऽभिधाननिबन्धनं संभवन्ति प्रकर्षेण भवन्ति चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा अस्मिन्निति सम्भवः, सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषबीजाभिधित्सयाऽऽहअभिभूआ सासत्ति संभवो तेण दुबई भयवं । भगए जेण अमहिया सरसणिष्कत्ती जाया तेण संभवो ॥ इयाणिं अभिनंदणो, तस्य सामान्येनाभिधानान्वर्थःअभिनन्द्यते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दनः सर्व एव यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेष हेतुप्रतिपादनायाऽऽह अभिनंदई अभिक्खं सको अभिनंदणो तेण ।। १०८१ ॥ व्याख्या—पंच्छद्धं ॥ गन्भप्पभिर्इ अभिक्खणं सक्को अभिनंदियाइओत्ति, तेण से अभिनंदणोति णामं कथं, गाथार्थः ॥। १०८१ ॥ इदानीं सुमतिः, तस्य सामान्येनाभिधाननिबन्धनं शोभना मतिरस्येति सुमतिः, सर्व एव च सुमतयो भगवन्त इत्यतो विशेषनिबन्धनाभिधानायाह- जणणी सव्वत्थ विणिच्छएस सुमहत्ति तेण सुमइजिणो । गाह । जणणी गभगए सवत्थ विणिच्छपसु अईव महसंपण्णा जाया, दोन्हं सवतीणं मयपइयाणं वबहारो छिन्नो, १] गर्भगते वेनाभ्यधिका शस्य निष्पत्तिर्वाता तेन संभवः । इदानीमभिनन्दनः २ पार्थं ॥ गर्भात्प्रभृतिरभीक्ष्णं शोभनन्दितवानिति तेन तस अभिनन्दन इति नाम कृतं । ३ गाथार्थ जननी गर्भगते सर्वत्र विनम्रयेषु अतीव मतिसंपक्षा जाता, द्वयोरपि तपत्योः सपत्योहार, २ चतुि शतिस्तवा. तीर्थकृशामार्थः ~1007~ ||५०२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८१], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक ताओ भणिआओ-मम पुत्तो भविस्सइ सो जोषणत्यो एयस्सऽसोगवरपायवस्स अहे ववहारं तुम्भ छिदिहि, ताव एगा-121 श्याओ भवह, इयरी भणइ-एवं भवतु, पुत्तमाया णेच्छइ, ववहारो छिजउत्ति भणइ, णाऊण तीए दिण्णो, एवमाईगभगुणेणंति सुमई ॥ इयाणि पउमप्पहो-तस्य सामान्यतोऽभिधानकारणम्-इह निष्पकतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्यासी पद्मप्रभः, सर्व एव जिना यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषकारणमाह पउमसयणमि जणणीद डोहलो तेण पउमाभो ॥१०८२॥ ___ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ गम्भगए देवीए पउमसयणमि डोहलो जाओ, तं च से देवयाए सज्जिय, पउमवण्णो य भगवं, तेण पउमप्पहोत्ति गाधार्थः ॥ १०८२ ॥ इदानी सुपासो, तस्यौपतो नामान्वर्थः-शोभनानि पार्थान्यस्येति सुपार्श्वः, सर्व एव च अर्हन्त एवम्भूता इत्यतो विशेषेण नामान्वर्थमभिधित्सुराह गम्भगए जंजणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो। व्याख्या-गम्भगए जणणीए तित्थगराणुभावेण सोभणा पासा जायत्ति, ता सुपासोत्ति। एवं सर्वत्र सामान्याभिधानं ||४|| दीप अनुक्रम [६] ते भणिते-मम पुत्रो भविष्यति स यौवनस्थ एतस्याशोकवरपादपस्यायो व्यवहारं युवयोः त्यति तावदेकत्र भवतं, इतरा भणति-एवं भवतु, पुत्रमाता नेच्छति, व्यवहारपिछयतामिति भणति, ज्ञात्वा तदै वचः, एवमादिगर्भगुणेनेति सुमतिः । इदानी पञ्चप्रभः २ पश्वा । गर्भगते देव्याः पद्मशयने दोहदो जाता, तब तस्यै देवतया समितं, पदापर्ण भगवान् , तेन पद्मप्रभ इति । इदाची सुपार्थ:-गर्भयते जनभ्यातीर्थकरानुभावेन शोभनौ पाश्वी माताविति, | ततः सुपाचे इति। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1008~ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८१], भाष्यं [२०३...] (४०) % तीर्थक प्रत सुत्राक % ||४|| आवश्यक- विशेषाभिधानं चाधिकृत्यार्थाभिधानविस्तरो द्रष्टव्यः,इह पुनः सुज्ञानत्वात् ग्रन्थविस्तरभयाच्च नाभिधीयत इति कृतं विस्तरेण, २चतुर्विहारिभ- इयाणि चंदप्पहो-चन्द्रस्येव प्रभा-ज्योत्स्ना सौम्याऽस्पेति चन्द्रप्रभः, तत्थ सबेऽवि तित्थगरा चंद इव सोमलेसा, विसेसोशतिस्तवा. द्रीया जणणीऍ चंपियणमि डोहलो तेण चंदाभो ॥१०८३ ॥ नामाः 1५०३॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ देवीए चंदपियणमि डोहलो चंदसरिसवण्णो य भगवं तेण चंदप्पभोत्ति गाथार्थः ॥ १०८३ ॥ इदानीं सुविहित्ति, तत्र शोभनो विधिरस्पेति सुविधिः, इह च सर्वत्र कौशल्य विधिरुच्यते, तस्थ सवेऽपि एरिसा, विसेसो पुण सम्वविहीसु अ कुसला गभगए तेण होइ सुविहिजिणो। व्याख्या-गाहद्धं ॥ भगवंते गम्भगए सबविहीसु चेव विसेसओ कुसला जणणित्ति जेण तेण सुविहित्ति णामं कर्य इयाणि सीयलो, तत्र सकलसत्त्वसन्तापकरणविरहादाबादजनकत्वाच्च शीतल इति, तत्थ सवेऽवि अरिस्स मित्तस्स वा उवरिं सीयलघरसमाणा, विसेसो उण पिउणो दाहोवसमो गम्भगए सीयलो तेणं ॥ १०८४ ॥ इदानी चन्नप्रभा, तत्र सर्वेऽपि तीर्थकराचन्द्र इच सौम्यठेश्याः, विशेष:-पश्चार्थे । देण्याचन्द्रपाने दोहदः चन्द्रसरशवर्णश्च भगवान् तेन चन्द्रप्रभः । श्वानी मुनिधिरिति, तत्र सर्वेऽपि ईरशाः, विशेषः पुनः-माथा । भगवत्ति गर्भगते सर्वविधिष्वेव विशेषतः कुशला जननीति येन तेन सुविधिरिति नामा ॥५०॥ कृतं । हवानी शीतला-तत्र सर्वेऽपि अरीणां मित्राणां वोपरि शीतलगृहसमानाः, विशेषः पुना CROSSSSSSC % दीप अनुक्रम [६] *-45%8- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1009~ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८४], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक ||४|| व्याख्या-पच्छद्धं ॥ पिउणो पित्तदाहो पुन्बुप्पण्णो ओसहेहिं ण पउणति, गभगए भगवंते देवीए परामुट्ठस्स पउणो, तेण सीयलोत्ति गाथार्थः ॥१०८४॥ इयाणि सेजंसो, तत्र श्रेयान्-समस्तभुवनस्यैव हितकरः, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच श्रेयांस इत्युच्यते, तत्थ सबेऽवि तेलोगस्स सेया, विसेसो उण महरिहसिज्जारुहर्णमि डोहलो तेण होह सिजसो। व्याख्या-गाहर्छ । तस्स रनो परंपरागया सेज्जा देवतापरिग्गहिता अचिजइ, जो तं अल्लियइ तस्स देवया उवसगं करेति, गम्भत्थे व देवीए डोहलो उवविडा अकंता य, आरसिउं देवया अवकंता, तित्थगरनिमित्तं देवया परिक्खिया, देवीए गन्भपहावेण एवं सेयं आय, तेण से णामं कयं सेज्जंसोत्ति ॥ इयाणि वसुपुजो, तत्र वसूनां पूज्यो वसुपूज्यः, वसवो- देवाः, तत्थ सवेऽवि तित्थगरा इंदाईणं पुजा, विसेसो उण पूह वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुज्जो ॥१०८५॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ वासवो देवराया, तस्स गन्भगयस्स अभिक्खणं अभिक्खणं जणणीए पूर्य करे इ, तेण वासुपुज्जोत्ति, पश्चार्थ ॥ पितुः पित्तदादः पूर्वोत्पन भौषधैन प्रगुण्यते, गर्भगते भगवति देव्या परामृष्टः प्रगुणः, तेन शीतल इति । इदानीं श्रेयांसः, तत्र सर्वेऽपि प्रैलोक्यस्य श्रेयस्कराः, विशेषः पुनः गाया । तस्य राज्ञः परम्परागता शय्या देवतापरिगृहीताऽच्यते, यस्तामानामति तख देवतोपसर्ग करोति, गर्भस्य च (भगवति) देश्या दोदव उपविष्टाऽऽकान्ता च, देवताऽऽरस्थापकान्ता, तीर्थकरनिमित्तं देवता परीक्षिता, देण्या गर्भमभाषेणैवं श्रेयो जातं, तेन तस्य नाम कृतं श्रेयांस इति । इदानीं भामुपूज्यः, तत्र सर्वेऽपि तीर्थकरा इन्द्रादीनां पूषाः, विशेषः पुनः-पश्चा) । वासबो देवराजा, तख गर्भगतस्थाभीषणमभीषणं| जनन्याः पूजां करोति तेन वासुपूज्य इति, दीप अनुक्रम 5453 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1010~ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |18|| दीप अनुक्रम [६] आवश्यक हारिभजीया ॥ ५०४ ॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [२] मूलं [-] / [गाथा-४] निर्युक्तिः [१०८५], आष्यं [२०३...] अहवा वसूणि रयणाणि वासवो-वेसमणो सो गन्भगए अभिक्खणं अभिक्खणं तं रायकुलं रयणेहिं पूरेइत्ति वासुपूज्जो ॥ गाथार्थः ॥ १०८५ ॥ इयाणिं विमलो, तत्र विगतमठो विमलः, विमलानि वा ज्ञानादीनि यस्य, सामण्णलक्खणं सवेसिंपि विमलाणि णाणदंसणाणि सरीरं च विसेसलक्खणं विमल बुद्धि जणणी गन्भगए तेण होइ विमलजिणो । व्याख्या - पुबद्धं । गन्भगए मातृए सरीरं बुद्धी य अतीव विमला जाया तेण विमठोत्ति ॥ इयाणिं अणतो- तत्रानन्त कमशजयादनन्तः, अनन्तानि वा ज्ञानादीन्यस्येति, तत्थ सबेहिंपि अनंता कम्मंसा जिया सबेसिं च अणतानि णाणाईणि, विसेसो पुण रयणविचित्तमर्णतं दानं सुमिणे तओऽणंतो ॥। १०८६ ॥ व्याख्या—गाहापच्छद्धं ॥ 'रयणविचित्तं' रयणखचियं 'अनंत' अइमहप्पमाणं दानं सुमिणे जणणीए दिडं, तओ अणतोति गाथार्थः । १०८६ ॥ इयाणिं धम्मो, तत्र दुर्गती प्रपतन्तं सत्त्वसङ्घातं धारयतीति धर्मः, तत्थ सवेवि एवंविहत्ति, विसेसो पुण 1 १ अथवा वसूनि रत्नानि वासवो वैश्रमणः स गर्भगतेऽभीक्ष्णमभीक्ष्णं तत् राजकुलं रतैः पूरयतीति वासुपूज्यः । इदानीं विमलः, सामान्यलक्षणं सर्वेषामपि विमले ज्ञानदर्शने शरीरं च विशेषलक्षणं-पूर्वाध गर्भगते मातुः शरीरं बुद्धितीय विमला जाता तेन विमल इति । इदानीमनन्तः, तत्र सर्वैरपि अनन्ताः कमशा जिताः सर्वेषां चानन्तानि ज्ञानादीनि विशेषः पुनः-गाथापश्चार्थे ॥ रत्नविचित्रं रत्तचितमनन्तम्- अंतिमहत्प्रमाणं दाम स्वप्ने जनन्या दृष्टं ततोऽनन्त इति । इदानीं धर्मः, तत्र सर्वेऽपि एवंविधा इति, विशेषः पुनः शतिस्तवा. तीर्थकृनामार्थः ~1011~ ॥ ५०४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८७], भाष्यं [२०३...] (४०) 135 प्रत सूत्रांक ||४|| 15% गन्भगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो । व्याख्या-गाहद्धं ॥ गम्भगए भगवंते विसेसओ से जणणी दाणदयाइएहिं अहिगारेहिं जाया सुधम्मत्ति तेण धम्म-| |जिणो भगवं । इयाणिं संती, तत्र शान्तियोगात्तदात्मकत्वात्तत्कर्तृत्वाद्वा शान्तिरिति, इदं सामण्णं, विसेसो पुण जाओ असिवोवसमो गम्भगए तेण संतिजिणो ॥१०८७ ॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ महंत असिवं आसि, भगवंते गम्भमागए उवसंतति गाथार्थः ॥ १०८७ ॥ इदानी कुंथू, सत्र कु:-पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुस्थः, सामण्णं सवेवि एवंविहा, विसेसो पुण धूह रयणविचित्तं कुंथु सुमिणमि तेण कुंथुजिणो । व्याख्या-गाहद्धं । मणहरे अब्भुण्णए महप्पएसे थूह रयणविचित्तं सुमिणे दई पडिबुद्धा तेण से कुंथुत्ति णाम कयं। | इदानीं अरो, तत्र-'सर्वोत्तमे महासत्त्वकुले य उपजायते । तस्याभिवृद्धये वृद्धैरसावर उदाहृतः ॥१॥' तस्थ सघऽवि सब्वुत्तमे कुले विद्धिकरा एव जायंति, विसेसो पुण गाथार्थ । गर्भगते भगवति विशेषतस्तस्य जननी दानदयादिकेचधिकारेषु जाता सुधर्मेति तेन धर्मजिनो भगवान् । इदानीं शान्तिा एवं सामान्य | विशेषः पुनः-पन्नाधं ॥ महदशिवमासीत्, भगवति गर्भमागत अपशान्तमिति । इदानी कुन्थुः, सामान्य सर्वेऽप्येवंविधाः, विशेषः पुनः । गायाध । मनोहरे:भ्युनते महाप्रदेशे स्तूपं रत्नविचित्रं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुबा तेन तस्य कुन्थुरिति नाम कृतं । इदानीमरः-तत्र सर्वेऽपि सर्वोचसे ले वृद्धिकरा एव: जायन्ते, विशेषः पुनः दीप % अनुक्रम [६] CASSESSACROS 695%25% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1012~ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०८८], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया CASSASA २चतुर्विशतिस्तवाध्य. नामान्वर्थः जिन प्रत ॥५०५॥ सूत्रांक ||४|| सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा ॥१०८८॥ व्याख्या-पच्छद्धं ॥ गन्भगए मायाए सुमिणे सबरयणमओ अइसुंदरो अइप्पमाणो य जम्हा अरओ दिवो तम्हा अरोत्ति से णामं कयंति गाथार्थः ॥ १०८८ ॥ इदानीं मल्लित्ति, इह परीपहादिमल्लजयात्प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच मलिः, तस्थ सवेहिपि परीसहमल्ल रागदोसा य णियत्ति सामण्णं, विसेसो " वरसुरहिमल्लसयणमि डोहलो तेण होह मल्लिजिणो व्याख्या-गाहर्ब)गम्भगए माऊए सबोउगवरसुरहिकुसुममल्लसयणिजे दोहलो जाओ, सो य देवयाए पडिसंभाणिओ दोहलो, तेण से मल्लित्ति णामं कयं । इदानीं मुणिसुबयोत्ति-तत्र मन्यते जगतखिकालावस्थामिति मुनिः तथा शोभनानि |ब्रतान्यस्येति सुनतः मुनिश्चासौ सुव्रतश्चेति मुनिसुव्रतः, सधे सुमुणियसबभावा सुवया यत्ति सामण्णं, विसेसो जाया जणणी जं सुब्वयत्ति मुणिसुव्वओ तम्हा ॥१०८९ ॥ व्याख्या-(पच्छद)गम्भगएणं माया अईव सुवया जायत्ति तेण मुणिसुबओत्ति णाम, गाथार्थः॥१०८९॥ इयाणी णमित्ति 4 ॥ गभंगते मात्रा स्वप्ने सरानमयोऽतिमुन्दरोऽतिप्रमाणश्च यस्मादरको इष्टतमादर इति तख नाम कृतमिति । महिरिति, तत्र सर्वरपि परीषाहमला रागदोपान निहता इति सामान्य विशेषा-(गाथा) गर्भगते मातुः सर्वतुकवस्सुरभिकुसुममायशयनीवे दोहदो आतः, सच देवतया प्रतिसन्मानीतो | दोहदः, तेन तस्य महिरिति नाम कृतं । इदानी मुनिसुव्रत इति-सर्वे सुमुभितसर्वभावाः सुनतामेति सामान्य, विशेषा-(पञ्चा)। गर्मगते माताऽतीव सुव्रता जातेति तेन मुनिसुव्रत इति नाम । इदानी नमिरिति दीप अनुक्रम [६] Xxe ५०५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1013~ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥४॥ दीप अनुक्रम [६] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा -४], निर्युक्तिः [१०८९], भाष्यं [२०३...] तंत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्वालक्षणान्तरसम्भवाच परीषहोपसर्गादिनमनान्न मिरिति । तथा चाष्टौ व्याकरणान्यैन्द्रादीनि लोकेऽपि साम्प्रतमभिधानमात्रेण प्रतीतान्येव, अतः कतिपयशब्दविषयलक्षणाभिधानतुच्छे पाणिनिमत एव नाग्रहः कार्य इति व्यासादिप्रयुक्त शब्दानामपि तेनासिद्धेः न च ते ततोऽपि शब्दशास्त्रानभिज्ञा इति, कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः - तत्थ सधेहिंदि परीसहोवसग्गा णामिया कसाय (याय) त्ति सामण्णं, विसेसोपणया पचंतनिव्या दंसियमिते जिणंमि तेण नमी । व्याख्या - (गाहद्धं) उल्ललिएहिं पञ्चंत पत्थिवेहिं णयरे रोहिजमाणे अण्णराईहिं देवीए कुच्छिए णमी उबवण्णो, ताहे देवीए गन्भस्त पुण्णसत्तीचोइयाए अड्डालमारोढुं सद्धा समुप्पण्णा, आरूढा य दिट्ठा परपस्थिवेहिं, गब्भप्पभावेण य पणया सामंतपत्थिवा, तेण से णमित्ति णामं कयं । इदाणीं णेमी, तत्र धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः, सबेवि धम्मचकस्स णेमीभूयत्ति सामण्णं, विसेसो रिहरयणं च नेमिं उपयमाणं तओ नेमी ॥। १०९० ।। व्याख्या - (पच्छ) गम्भगए तस्स मायाए रिडरयणामओ महइमहालओ गेमी उप्पयमाणो सुमिणे दिठ्ठोत्ति, तेण १ रात्र सर्वैरपि परीषदोपस नामिताः कषायाच इति सामान्यं, विशेष: (गाथार्थ) - दुहितैः प्रत्यन्तपार्थिवंनंगरे रुज्यमानेऽभ्यराजभिः देण्याः कुक्षी नमिरुत्पन्नः सदा देव्या गर्भस्य पुण्यशक्तिचोदिताया अट्टालकमारो श्रद्धा समुत्यन्ना, आरूढा च दृष्टा परपार्थिवैः, गर्भप्रभावेण च प्रणताः सामन्तपार्थिवाः, तेन सस्य नमिरिति नाम कृतं । इदानीं नेमिः सर्वेऽपि धर्मचकस्य नेमीभूता इति सामान्यं विशेष:- (पश्चार्थ ) गर्भगते तत्र मात्राऽरिष्टस्लमषो महातिमहालयो नेमिरूपतन् वने दृष्ट इति तेन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1014~ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-४], नियुक्ति: [१०९०], भाष्यं [२०३...] (४०) हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५०६॥ से रिहणेमित्ति णाम कयं, गाथार्थः ॥ १०९० ॥ इदाणी पासोत्ति, तत्र पूर्वोत्तयुक्तिकलापादेव पश्यति सर्वभावानिति १२ चतुर्विपार्वः, पश्यक इति चान्ये, तत्थ सवेऽवि सधभावाणं जाणगा पासगा यत्ति सामण्णं, विसेसो पुण शतिस्तवासप्पं सपणे जणणी ते पासह तमसि तेण पासजिणो। ध्य.जिनना मान्वर्थः व्याख्या-(गाहर्द्ध) गभगए भगवते तेलोकबंधवे सत्तसिरं णार्ग सयणिज्जे णिविजणे माया से सुविणे दित्ति, तहा अंधकारे सयणिज्जगयाए गम्भप्पभावेण य एतं सप्पं पासिऊणं रणो सयणिजे णिग्गया बाहा चडाविया भणिओ य-एस सप्पो वच्चइ, रण्णा भणियं-कहं जाणसि ?, भणइ-पेच्छामि, दीवएण पलोइओ, दिहो य सप्पो, रण्णा चिंता गम्भस्स एसो अइसयपहावो जेण एरिसे तिमिरांधयारे पासइ, तेण पासोत्ति णामं कयं । इदाणी वखमाणो, तत्रोत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिर्द्धत इति वर्द्धमानः, तत्थ सधेवि णाणाइगुणेहिं बहुइत्ति, विसेसो वुण बहुइ नायकुलंति अ तेण जिणो बद्धमाणुत्ति ॥१०९१ ॥ ||४|| दीप अनुक्रम [६] सस्मारिने मिरिति नाम कृतं । इदानी पार्भ इति-तत्र सर्वेऽपि सर्वभारानां ज्ञायका पक्ष्यकाति सामान्य, विशेषः पुन:-(गाथा)गभंगते भगवतिभैलोक्यवान्धवे सतशिरसं नागं शायनीये सिर्विनने माखा रष्टवती तस्य स्वम इति तथाऽन्धकारे शयनीयगतबा गर्भप्रभावेण चागच्छन्तं सपै ट्वा राज्ञःसवनीवालि गतो बबटापितो भणितज-एष सो प्रजति, राज्ञा भणित-कथं जानासि !, भणति-पश्यामि, दीपेन प्रलोकितः पा सर्पः, राजचिन्तामार्थस्य एषोठी |तिशवप्रभाची वेनेशे तिमिरान्धकारे पश्यति, वेव पार्थ इति नाम कृतं । इदानी वर्धमानः, तत्र सर्वेऽपि ज्ञानाविगुणवन्त इति विशेषः पुनः प्स मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1015~ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-५], नियुक्ति: [१०९१], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक ||५|| व्याख्या-गम्भगएण भगवया णायकुलं विसेसेण धणेण वड्डियाइयं तेण से णाम कथं वद्धमाणेत्ति, गाथार्थ।।१०९१॥ एवमेतावता पन्थेन तिम्रोऽपि मूलसूत्रगाथा व्याख्याता इति ॥ अधुना सूत्रगाथैवएवं मए अभिधुआ विहुयरयमला पहीणजरमरणा । चउचीसपि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ । अस्या व्याख्या-'एवम् अनन्तरोक्केन प्रकारेण 'मए' इत्यात्मनिर्देशमाह, 'अभिष्टुता' इति आभिमुख्येन स्तुता अभिष्टुता इति, स्वनामभिः कीर्तिता इत्यर्थः, किंविशिष्टास्ते ?-'विधूतरजोमला' तत्र रजश्च मलश्च रजोमली विधूती-प्रकम्पिती अनेकार्थत्वाद्धा अपनीती रजोमली यैस्ते तथाविधाः, तत्र बध्यमानं कमें रजो भण्यते पूर्ववद्धं तु मल इति, अथवा बर्द्ध रजः निकाचितं मलः, अथवेर्यापथं रजः साम्परायिकं मल इति, यत एवैवम्भूता अत एवं प्रक्षीणजरामरणाः, कारणाभावादित्यर्थः, तत्र जरा-बयोहानिलक्षणा मरणं तु-माणत्यागलक्षणं, प्रक्षीणे जरामरणे येषां ते तथाविधाश्चतुर्विशतिरपि, अपिशब्दासदन्येऽपि, 'जिनवराः' श्रुतादिजिनप्रधानाः, ते च सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति अत आह-तीर्थकरा इति, एतत्समानं पूर्वेण, 'मे' मम, किं ?-'प्रसीदन्तु' प्रसादपरा भवन्तु, स्यात्-क्षीणक्लेशरवान्न पूजकानां प्रसाददास्ते हि । तच|४|| न यस्मात्तेन पूज्याः क्लेशक्षयादेव ॥१॥ यो वस्तुतः प्रसीदति रोपमवश्यं स याति निन्दायाम् । सर्वत्रासमचित्तश्च सर्वहितदः कथं स भवेत् ॥२॥ तीर्थकरास्विह यस्माद्रागद्वेषक्षयात्रिलोकविदः । स्वात्मपरतुल्यचित्ताश्चातः सद्भिः सदा पूज्याः॥३॥ शीतार्दितेषु च यथा द्वेष वहिन याति रागं वा। नाऽऽहयति वा तथाऽपि च तमाश्रिताः स्वेष्टमश्नुवते॥४॥ गर्भगतेन भगवता शाकुलं विशेषेण धनेन वर्धितं तेन तस्स नाम संपर्धमान इति । दीप अनुक्रम [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मूलसूत्रस्य गाथा- ५ एवं तस्या व्याख्या ~ 1016~ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं - [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९१], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया चतुर्विशतिस्तवाध्य. प्रत ॥५०७॥ सूत्राक ||६|| तद्वत्तीर्थकरान् ये त्रिभुवनभावप्रभावकान् भक्त्या । समुपाश्चिता जनास्ते भवशीतमपास्य यान्ति शिवम् ॥५॥” एत- दुक्तं भवति-यद्यपि ते रागादिरहितत्वान्न प्रसीदन्ति तथापि तानुद्दिश्याचिन्त्यचिन्तामणिकल्पानन्तःकरणशुद्ध्या अभि- |ष्टवकर्तृणां तत्पूर्विकैवाभिलपितफलावाप्तिर्भवतीति गाथार्थः । तथा। कित्तियचंदियमहिआ जेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्गयोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु ॥६॥ इयमपि सूत्रगाथैव, अस्या व्याख्या-कीर्तिताः-स्वनामभिः प्रोक्ताः बन्दिताः-त्रिविधयोगेन सम्यकूस्तुताः मयेत्यात्मनिर्देशे, महिता इति वा पाठान्तरमिदं च, महिता:-पुष्पादिभिः पूजिताः, क एत इत्यत आह-य एते 'लोकस्य' प्राणिलोकस्य मिथ्यात्वादिकर्ममलकलाभावेनोत्तमा:-प्रधानाः, ऊर्ध्वं वा तमस इत्युत्तमसः, 'उत्प्राबल्योर्ध्वगमनोच्छेदनेविति वचनात, प्राकृतशैल्या पुनरुत्तमा उच्यन्ते, 'सिद्धा' इति सितं मातमेषामिति सिद्धाः-कृतकृत्या इत्यर्थः, अरोगस्य भाव आरोग्य-सिद्धत्वं तदर्थं बोधिलाभ:-प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तिर्वाधिलाभोऽभिधीयते तं, स चानिदानो मोक्षायैव प्रशस्यत इति, तदर्थमेव च तावत्किं , तत आह-समाधान-समाधिः, स च द्रव्यभावभेदावू द्विविधः, तत्र द्रव्यसमाधिर्यदुपयोगस्वास्थ्यं भवति येषां वाऽविरोध इति, भावसमाधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययोगादिति, यतश्चायमित्थं द्विधाऽतो द्रव्यसमाधिव्यवच्छेदार्थमाह-वर-प्रधानं भावसमाधिमित्यर्थः, असावपि तारतम्यभेदादनेक- धैव अत आह-उत्तम-सर्वोत्कृष्टं ददतु-प्रयच्छन्तु, आह-किं तेषां प्रदानसामर्थ्यमस्ति ,न, किमर्थमेवमभिधीयत इति? उच्यते, भक्त्या, वक्ष्यति च-भासा असचमोसा' इत्यादि, नवरं तद्भक्त्या स्वयमेव तत्प्राप्तिरुपजायत इति कृतं विस्त दीप अनुक्रम RSSkGAR ५०७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मूलसूत्रस्य गाथा-६ एवं तस्या व्याख्या ~ 1017~ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९२], भाष्यं [२०३...] (४०) 50 प्रत सुत्रांक रणेति गाथार्थः ॥ ६ ॥ व्याख्यातं लेशत इदं सूत्रगाथाद्वयम् , अधुना सूत्रस्पर्शिकया प्रतन्यते, तत्राभिष्टवकीर्तनकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाहथुइधुणणदणनमंसणाणि एगडिआणि एयाणि । कित्तण पसंसणावि अविणयपणामे अ एगट्ठा ॥ १०९२॥ ___ व्याख्या-स्तुतिः स्तवनं वन्दनं नमस्करणम् एकाधिकान्येतानि, तथा कीर्तनं प्रशंसैव विनयप्रणामौ च एकार्थिकानीति गाथार्थः ॥ १०९२ ॥ साम्प्रतं यदुक्तम् 'उत्तमा' इति तयाचिख्यासुरिदमाहमिच्छत्तमोहणिज्जा नाणावरणा चरित्तमोहाओ । तिविहतमा उम्मुक्का तम्हा ते उत्तमा हुंति ॥ १०९३ ।। व्याख्या-मिथ्यात्वमोहनीयात् तथा ज्ञानावरणात्तथा चारित्रमोहाद् इति, अत्र मिथ्यात्वमोहनीयग्रहणेन दर्शनसप्तकं गृह्यते, तत्रानन्तानुबन्धिनश्चत्वारः कषायास्तथा मिथ्यात्वादित्रयं च, ज्ञानावरणं मतिज्ञानाद्यावरणभेदात् पञ्चविधं, चारित्रमोहनीयं पुनरेकविंशतिभेदं, तच्चानन्तानुवन्धिरहिता द्वादश कषायास्तथा नव नोकषाया इति, अस्मादेव यतस्त्रिबिधतमसः, किम् ?-उन्मुक्ताः-प्राबल्येन मुक्ताः, पृथग्भूता इत्यर्थः, तस्मात्ते भगवन्तः, किम् ?, उत्तमा भवन्ति, ऊर्थ तमोवृत्तेरिति गाथार्थः॥१०९३।। साम्प्रतं यदुक्तं 'आरोग्यबोधिलाभ'मित्यादि, अत्र भावार्थमविपरीतमनवगच्छन्नाहआरुग्गयोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं च मे दितु । किं नु हुनिआणमेअंति', विभासा इत्थ कायब्बा ॥१०९४॥ | व्याख्या-आरोग्याय बोधिलाभः आरोग्यबोधिलाभस्तं, भावार्थः प्रागुक्त एव, तथा समाधिवरमुत्तमं च में मम ददत्विति यदुक्तम् , अत्र काका पृच्छति-'किं नु हुणियाणमेति तत्र किमिति परप्रश्ने, नु इति वितर्के, हु तत्समर्थने, दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1018~ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९४], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्राक ||६|| आवश्यक- निदानमेतदिति?, यदुक्तमारोग्यादि ददतु, यदि निदानमलमनेन, सूत्रे प्रतिषिद्धत्वात्, न चेद् व्यर्थमेवोच्चारणमिति, २ चतुर्विहारिभ- गुरुराह-विभासा एत्थ काय'त्ति विविधा भाषा विभाषा-विषयविभागव्यवस्थापनेन व्याख्येत्यर्थः, अत्र कर्तव्या, इय- शतिस्तद्रीया है मिह भावना-नेदं निदानं, कर्मबन्धहेतुत्वाभावात् , तथाहि-मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः, न च बाध्य. ॥५०८॥ मुक्तिप्रार्थनायाममीषामन्यतरस्यापि सम्भव इति, न च व्यर्थमेव तदुच्चारणमिति, ततोऽन्तःकरणशुद्धेरिति गाथार्थः K॥ १०९४ ॥ आह-न नामेदमित्थं निदानं, तथापि तु दुष्टमेव, कथम् , इह स्तुत्या, आरोग्यादिप्रदातारः स्युर्ने वााट्र यद्याद्यः पक्षस्तेषां रागादिमत्यप्रसङ्गः, अथ चरमः तत आरोग्यादिप्रदानविकला इति जानानस्यापि प्रार्थनायां मृपाबाददोषप्रसङ्गः इति, न, इत्थं प्रार्थनायां मृषावादायोगात्, तथा चाह|भासा असच्चमोसा नवरं भत्तीइ भासिआ एसा । न हु खीणपिज्जदोसा दिति समाहिं च योहिं च ॥१०९५॥ | व्याख्या-भाषा असत्यामुषेयं वर्तते, सा चामन्त्रण्यादिभेदादनेकविधा, तथा चोक्तम्-"आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी य पन्नवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥१॥ अणभिग्गहिया भासा भासा य अभिग्गइंमि | बोद्धबा । संसयकरणी भासा बोयड अबोयडा चेव ॥२॥" इत्यादि, तत्रेह याचन्याऽधिकार इति, यतो याञ्चायां वर्तते, यदुत-'आरुग्गवोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितुति। आह-रागादिरहितत्वादारोग्यादिप्रदानविकलास्ते, ततश्च किमनयेति | ॥५०८॥ आमन्त्रणी आज्ञापनी याचनी तथा प्रच्छनी च प्रज्ञापनी । प्रत्याश्यानी भाषा भाषेच्छानुलोमा च ॥ १ ॥ अनभिगृहीता भाषा भाषा चाभिनदे | बोन्या। संथकरणी भाषा व्याकृतायाकूतव ॥२॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1019~ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [4] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [ गाथा-६ ], निर्युक्तिः [१०९५], भाष्यं [२०३...] उच्यते, सत्यमेतत्, नवरं भक्त्या भाषितैषा, अन्यथा नैव 'क्षीणप्रेमद्वेषाः' क्षीणरागद्वेषा इत्यर्थः, 'ददति' प्रयच्छन्ति, किं न प्रयच्छन्ति ?, अत आह-समाधिं च बोधिं चेति गाथार्थः ॥ १०९५ ॥ किंच जं तेहिं दावं तं दिनं जिणवरेहिं सम्वेहिं । दंसणनाणचरित्तस्स एस तिविहस्स उवएसो ॥ १०९६ ॥ व्याख्या - यत्तैर्दातव्यं तद्दत्तं जिनवरैः 'सर्वैः' ऋषभादिभिः पूर्वमेव, किं च दातव्यं ? - दर्शनज्ञान चारित्रस्य सम्बन्धिभूतः आरोग्यादिप्रसाधर्क एप त्रिविधस्योपदेशः, इह च दर्शनज्ञानचारित्रस्येत्युक्तं मा भूदिदमेकमेव कस्यचित्सम्प्रत्यय इत्यतस्तद्व्युदासार्थं त्रिविधस्येत्याहेति गाथार्थः ॥ १०९६ ॥ आह-यदि नाम दत्तं ततः किं साम्प्रतमभिलषितार्थप्रसाधनसामर्थ्यरहितास्ते ?, ततश्च तद्भक्तिः कोपयुज्यते इति ?, अत्रोच्यते भत्तीइ जिणवराणं विजंती पुत्र्वसंचिआ कम्मा | आयरिअनमुकारेण विज्जा मंता य सिज्यंति ॥ १०९७ ॥ व्याख्या- 'भक्त्या' अन्तःकरणप्रणिधानलक्षणया 'जिनवराणां' तीर्थकराणां सम्बन्धिन्या हेतुभूतया, किं ?, 'क्षीयन्ते' क्षयं प्रतिपद्यन्ते 'पूर्वसञ्चितानि' अनेकभवोपात्तानि 'कर्माणि ज्ञानावरणादीनि इत्थंस्वभावत्वादेव तत्र फेरिति, अस्मि - नेवार्थे दृष्टान्तमाह-तथाहि - आचार्यनमस्कारण विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति तद्भक्तिमतस्तत्त्वस्य शुभपरिणामत्वात्तत्सिद्धिप्रतिबन्धककर्मक्षयादिति भावनीयं, गाथार्थः ॥ १०९७ ॥ अतस्साध्वी तद्भक्तिः, वस्तुतोऽभिलषितार्थप्रसाधकत्वाद्, आरोग्यबोधिलाभादेरपि तन्निर्वर्त्यत्वात् तथा चाऽऽह * मोक्षमार्गकारणमिति ज्ञानविषयः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1020~ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६], नियुक्ति: [१०९८], भाष्यं [२०३...] (४०) २ चतुर्वि आवश्यकहारिभद्रीया ॥५०॥ 52 वाध्य. प्रत सुत्रांक ||६|| भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं । आरुग्गबोहिलार्भ समाहिमरणं च पार्वति ॥ १०९८ ॥ ___ व्याख्या-भक्त्या जिनवराणां, किंविशिष्टया ?-'परमया' प्रधानया भावभक्त्येत्यर्थः, 'क्षीणप्रेमद्वेषाणां' जिनाना, किम् !, आरोग्यबोधिलाभं समाधिमरणं च प्राप्नुवन्ति प्राणिन इति, इयमत्र भावना-जिनभक्त्या कर्मक्षयस्ततः सकलकल्याणावाप्तिरिति, अत्र समाधिमरणं च प्राप्नुवन्तीत्येतदारोग्यबोधिलाभस्य हेतुत्वेन द्रष्टव्यं, समाधिमरणप्राप्तौ नियमत एव तत्प्राप्तिरिति गाथार्थः ।। १०९८ ॥ साम्प्रतं बोधिलाभप्राप्तावपि जिनभक्तिमात्रादेव पुनवोंधिलाभो भविष्यत्येव, | किमनेन वर्तमानकालदुष्करेणानुष्ठानेने त्येवंवादिनमनुष्ठानप्रमादिनं सत्त्वमधिकृत्यौपदेशिकमिदं गाथाद्वयमाहलद्धिल्लिअंच बोहिं अकरितोऽणागयं च पत्तो । दच्छिसि जह तं विम्भल!इमं च अन्नं च चुफिहिसि ॥१०९९॥ लडिल्लिअंच घोहिं अकरितोऽणागयं च पत्थंतो । अन्नंदाई योहिं लम्भिसि कयरेण मुल्लेण! ॥ ११००॥ व्याख्या-लद्धेलियं चत्ति लब्धां च-प्राप्तां च वर्तमानकाले, कां!, 'बोधि' जिनधर्मप्राप्तिम् , 'अकुर्वन्' इति कर्मपराधीनतया सदनुष्ठानेन सफलामकुर्वन् 'अनागतां च' आयत्यामन्यां च प्रार्थयन् , किम् ?, द्रक्ष्यसि यथा त्वं हे विह्वल!जडप्रकृते ! इमां चान्यां बोधिमधिकृत्य, किं, 'चुक्किहिसि' देशीवचनतः चश्यसि, न भविष्यतीत्यर्थः ।। तथा लब्धां च बोधिमकुर्वन्ननागतां च प्रार्थयन्, अन्नंदाइंति निपातः असूयायाम् , अन्ये तु व्याचक्षते-अन्यामिदानी बोधिं| लप्स्यसि, किं , कतरेण मूल्येन ?, इयमत्र भावना-बोधिलाभे सति तपःसंयमानुष्ठानपरस्य प्रेत्य वासनावशात्तत्तत्प्रवृत्तिरेव बोधिलाभोऽभिधीयते, तदनुष्ठानरहितस्य पुनर्वासनाऽभावात्तत्कथं तत्प्रवृत्तिरिति बोधिलाभानुपपत्तिः, दीप अनुक्रम ५०९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1021~ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [<] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-६], निर्युक्तिः [११०० ], भाष्यं [ २०३...] स्यादेतद् एवं सत्याद्यस्य बोधिलाभस्यासम्भव एवोपन्यस्तः, वासनाऽभावात् न, अनादिसं सारे राधावेधोपमानेनानाभोगत एव कथञ्चित्कर्मक्षयतस्तदवाप्तेरित्येतदावेदितमेवोपोद्घात इत्यलं विस्तरेणेति गाथाद्वयार्थः ॥ १०९९-११००॥ तस्मात्सति बोधिलाभे तपस्संयमानुष्ठानपरेण भवितव्यं, न यत्किञ्चि चैत्याद्यालम्बनं चेतस्याधाय प्रमादिना भवितव्यमिति, तपस्संयमोद्यमवतश्चैत्यादिषु कृत्याविराधकत्वात्, तथा चाऽऽह || चेहयकुलगणसंघ आयरिआणं च पवयण सुए अ । सव्वेसृवि तेण कयं तवसंजममुज्जमंतेणं ॥ ११०१ ॥ व्याख्या— चैत्यकुलगणसङ्गेषु तथाऽऽचार्याणां च तथा प्रवचनश्रुतयोश्च किं ?, सर्वेष्वपि तेन कृतं कृत्यमिति गम्यते, केन ?, तपःसंयमोद्यमत्रता साधुनेति, तत्र चैत्यानि - अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि, कुलं- विद्याधरादि, गणः - कुलसमुदायः सङ्घः- समस्त एव साध्वादिसङ्घातः, आचार्याः प्रतीताः चशब्दा दुपाध्यायादिपरिग्रहः, भेदाभिधानं च प्राधान्यख्यापनार्थम् एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं प्रवचनं द्वादशाङ्गमपि सूत्रार्थतदुभयरूपं श्रुतं सूत्रमेव, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु तेन कृतं कृत्यं यस्तपःसंयमोद्यमवान् वर्तते, इयमत्र भावना अयं हि नियमात् ज्ञानदर्शनसम्पन्नो भवति अयमेव च गुरुलाघवमालोच्य चैत्यादिकृत्येषु सम्यक् प्रवर्तते यथैहिकामुष्मिक गुणवृद्धिर्भवति, विपरीतस्तु कृत्येऽपि प्रवर्तमानोऽप्यविवेकादकृत्यमेव संपादयति, अत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः ॥ ११०१ ॥ एवं तावद्गतं सूत्रमूल 'एवं मए अभिथुए'त्यादि गाथाद्वयं, साम्प्रतं चंदे निम्मलयरा आइश्चेसु अहिअं पयासपरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ७ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः मूलसूत्रस्य गाथा ७ एवं तस्या व्याख्या ~ 1022 ~ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं [-] / [गाथा-७], नियुक्ति: [११०२], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया २चतुविशतिस्त वाध्य. प्रत ॥५१०॥ सूत्राक ||७|| अस्य व्याख्या-इह प्राकृतशैल्या आषत्वाच्च पञ्चम्यर्थे सप्तमी द्रष्टव्येति, चन्द्रेभ्यो निर्मलतराः, पाठान्तरं वा 'चंदेहि निम्मलयर'त्ति, तत्र सकलकर्ममलापगमाञ्चन्द्रेभ्यो निर्मलतरा इति, तथा आदित्येभ्योऽधिकप्रभासकराः प्रकाशकरा वा, केवलोद्योतेन विश्वप्रकाशनादिति, वक्ष्यति च नियुक्तिकार:-'चंदाइञ्चगहाण'मित्यादि, तथा सागरवरादपि गम्भीरतराः, तत्र सागरवर:-स्वयम्भूरमणोऽभिधीयते परीपहोपसर्गाद्यक्षोभ्यत्वात् तस्मादपि गम्भीरतरा इति भावना, सितं-धमातमेतेषामिति सिद्धाः, कर्मविगमात् कृतकृत्या इत्यर्थः, सिद्धिं-परमपदप्राप्तिं 'मम दिसंतु'मम प्रयच्छस्त्विति सूत्रगाथार्थः18 ॥ ७॥ साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यैनामेव गाथा लेशतो व्याख्यानयन्नाह चंदाइचगहाण पहा पयासेइ परिमिअं खितं । केवलिअनाणलंभो लोगालोग पगासेह ॥ ११०२॥ व्याख्या-चन्द्रादित्यग्रहाणा'मिति, अत्र ग्रहा अङ्गारकादयो गृह्यन्ते, 'प्रभा' ज्योत्स्ना 'प्रकाशयति' उद्योतयति परिमितं क्षेत्रमित्यत्र तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशा, यथा मश्चाः क्रोशन्तीति, क्षेत्रस्यामूर्तत्वेन मूर्तप्रभया प्रकाशनायोगादिति भावना, केवलज्ञानलाभस्तु लोकालोक 'प्रकाशयति' सर्वधर्मेरुद्योतयतीति गाथार्थः ॥ ११०२॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः सामायिकबद् द्रष्टच्याः ॥ इति चतुर्विशतिस्तवटीका समाप्तेति ॥ व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया तेन । जन्मप्रवाहहतये कुर्वन्तु जिनस्तवं भव्याः॥१॥ इति श्रीचतुर्विंशतिस्तवाध्ययनं सभाष्यनियुक्तिवृत्तिकै समाप्तम् ।। दीप अनुक्रम ॥५१०॥ DSCARS - - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र अध्ययनं -२- 'चर्विंशति:' परिसमाप्तं ~1023~ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०२...], भाष्यं [२०३...] (४०) अथ तृतीयं वन्दनाध्ययनम् - -00-000 -- प्रत सूत्रांक ||७..|| साम्प्रतं चतुर्विंशतिस्तवानन्तरं वन्दनाध्ययनं, तस्य चायमभिसम्बन्धः, अनन्तराध्य यने सावद्ययोगविरतिलक्षणसामा-15 दायिकोपदेष्टणामहतामुत्कीर्तनं कृतम्, इह त्वहंदुपदिष्टसामायिकगुणवत एवं चन्दनलक्षणा प्रतिपत्तिः कार्येति प्रतिपाद्यते, यद्वा-चतुर्विंशतिस्तवेऽहंद्गुणोत्कीर्तनरूपाया भक्तेः कर्मक्षय उक्तः, यथोक्तम्-'भत्तीऐं जिणवराणं खिजंती पुवसंचिआ कम्मत्ति, वन्दनाध्ययनेऽपि कृतिकर्मरूपायाः साधुभक्तेस्तद्वतोऽसावेव प्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च-"विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्सू । तित्थगराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया ॥१॥" अथवा सामायिके चारित्रमुपवणितं, चतुर्विंशतिस्तवे त्वहतां गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा एवमिदं त्रितयमुक्तम् , अस्य च वितथासेवनायामै हिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षणा गुरोनिवेदनीयं, तच्च वन्दनपूर्वमित्यतस्तन्निरूप्यते, इत्थमनेनानेकप्रकारेण सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि समपञ्चं वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे वन्दनाध्ययनमिति (नाम) तत्र वन्दनं निरू-| प्यते-वदि अभिवादनस्तुत्योः' इत्यस्य करणाधिकरणयोश्चे (पा०३-३-११७)ति ल्युट् 'युवोरनाकावि'(पा०७-१-१)त्यनादेशः, द'इदितो नुम् धातोरिति (पा०७-१-५८)नुमागमः, ततश्च वन्द्यते-स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाकायव्यापारजालेनेति वन्दनम्, |अस्थाधुना पयोयशब्दान् प्रतिपादयन्निदं गाथाशकलमाह नियुक्तिकार: बंदणचिइकिइकम्मं पूयाकर्म च विणयकम्मं च। विनयोपचारः मानव भजना पूजना गुरुजनस्य । तीर्थकराणां चाज्ञा श्रुतधाराधनाऽक्रिया ॥१॥ दीप BROADCASS अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: • अत्र अध्ययनं -३- 'वन्दनं' आरभ्यते ~ 1024 ~ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०२...], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया ३ वन्दना ध्ययने वन्दनपयोया प्रत सूत्रांक ॥५१ ॥ ||७..|| वन्दनं-निरूपितमेव, 'चिञ् चयने अस्य 'त्रियां किन्' (पा. ३-३-९४ ) कुशलकर्मणश्च चयनं चितिः, कारणे कार्योपचाराद्रजोहरणायुपधिसंहतिरित्यर्थः, चीयते असाविति वा चितिः, भावार्थः पूर्ववत् , 'डुकृञ् | करणे' अस्यापि तिन्प्रत्ययान्तस्य करणं कृतिः अवनामादिकरणमित्यर्थः, क्रियतेऽसाविति वा कृतिः-मोक्षायावनामादिचेटिव, वन्दनं च चितिश्च कृतिश्च वन्दनचितिकृतयः ता एव तासां वा कर्म बन्दनचितिकृतिकर्म, कर्मशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अनेकार्थश्चार्य, कचित्कारकयाचकः 'कर्तुरीप्सिततमं कर्मे ( पा० १-४-४९) ति वचनात्, क्वचित् ज्ञानावरणीयादिवाचकः, 'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्ष' (तत्त्वा० अ० १० सू० ३) इति वचनात्, कचित् क्रियावाचकः, 'गन्धर्वा रजिताः सर्वे, समामे भीमकर्मणे ति वचनात् , इह क्रियावचनः परिगृह्यते, ततश्च वन्दनकर्म चितिकर्म कृतिकर्म इति, इह च पुनः क्रियाऽभिधानं विशिष्टावनामादिक्रियाप्रतिपादनार्थमदुष्टमेवेति, 'पूज पूजायाम्' अस्य 'गुरोश हल'(पा०३-३-१०३) इत्यप्रत्ययान्तस्य पूजनं पूजा-प्रशस्तमनोवाकायचेष्टेत्यर्थः, पूजायाः कर्म पूजाकर्म पूजाक्रियेत्यर्थः, पूजैव वा कर्म पूजाकर्म, चशब्दःपूजाक्रियाया वन्दनादिक्रियासाम्यप्रदर्शनार्थः,'णीज् प्रापणे' इत्यस्य एरचि(पा०३-३-५६) ति अचमत्यये गुणे अयादेशे सति विपूर्वस्य विनयनं विनयः, कर्मापनयनमित्यर्थः, विनीयते वाऽनेनाष्टप्रकार कर्मेति विनयस्तस्य कर्मविनयकर्म, चः पूर्ववदेव, अयं गाथार्द्धसंक्षेपार्थः ॥ आहकायर्ष कस्स व केण बावि काहे व कइखुत्तो॥११०२ ॥ कइओणयं कइसिरं कइहिं च आवस्सएहि परिसुद्धं ।। कइदोसविप्पमुकं किइकम्मं कीस कीरइ वा ॥११०३ ॥ दीप अनुक्रम [९..] SHOCIA4SEX ॥५१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'वन्दन'कृतिकर्मादि भेदानाम व्याख्या कथानकसहितं ~ 1025~ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०३], भाष्यं [२०३...] (४०) र 2055 % E प्रत सूत्रांक ||७..|| । इदं वन्दनं कर्तव्य कस्य वा केन वाऽपि 'कदा वा' कस्मिन् वा काले 'कतिकृत्वो वा' कियत्यो वा वाराः। अवनति-अवनतं, कत्यवनतं तद्वन्दनं कर्तव्यं ?, कतिशिरः कति शिरांसि तत्र भवन्तीत्यर्थः, कतिभिरावश्यकैःआवर्तादिभिः परिशुद्ध, कतिदोषविप्रमुक्त, टोलगत्यादयो दोषाः, 'कृतिकर्म' बन्दनकर्म 'कीस कीरइ'त्ति किमिति वा क्रियत इति गाथाद्वयसंक्षेपार्थः॥ अवयवार्थ उच्यते, तत्र वन्दनकर्म द्विधा-द्रव्यतो भावतच, द्रव्यतो मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तसम्यग्दृप्टेच, भावतः सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्य, चितिकर्मापि द्विधैव-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतस्तापसादिलिङ्गग्रहणकर्मानुपयुक्तसम्यग्दृष्टे रजोहरणादिकर्म च, भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्का रजोहरणाद्युपधिक्रियेति, कृतिकर्मापि द्विधा-द्रव्यतः कृतिकर्म निहवादीनामवनामादिकरणमनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावतः सम्यग्दृष्युपयुक्तानामिति, पूजाकापि द्विधाद्रव्यतो निहवादीनां मनोवाकायक्रिया अनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावतः सम्यग्दृष्ट्युपयुक्तानामिति, विनयकर्मापि द्विधा-द्रव्यतो निहवादीनामनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां च, भावत उपयुक्तसम्यग्दृष्टीनां विनयक्रियेति ॥ साम्प्रतं वन्दनादिषु द्रव्यभावभेदप्रचिकटविषया दृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाह सीयले खुदुए कण्हे, सेवए पालए तहा। पंचेते दिढता किइकम्मे होति णायब्वा ।। ११०४॥ व्याख्या-सीतलः क्षुलकः कृष्णः सेवकः पालकस्तथा पञ्चैते दृष्टान्ताः कृतिकर्मणि भवन्ति ज्ञातव्या इति । कः पुनः शीतलः, तत्र कथानकम्-ऐगस्स रण्णो पुत्तो सीयलो णाम, सो य णिविष्णकामभोगो पबतिओ, तस्स य भगिणी एकस राज्ञः पुत्रः शीतलो नाम, स च निर्विष्णकामभोगः प्रश्नजितः, तस्य च भगिनी दीप %2544-45645%C अनुक्रम [९..] *% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1026~ Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत आवश्यक- अण्णस्स रणो दिण्णा, तीसे चत्तारि पुत्ता, सा तेर्सि कहतरेसु कहं कहेइ, जहा तुझ मातुलओ पुषपषइओ, एवं कालो वन्दनाहारिभ- बच्चइ । तेऽवि अन्नया तहारूवाणं थेराणं अंतिए पवइया चत्तारि, बहुस्सुया जाया, आयरियं पुच्छिर माउलगं वंदगा जैति। ध्ययने द्रीया |एगंमि णयरे सुओ, तत्थ गया, वियालो जाउत्तिकाउं बाहिरियाए ठिया, सावगो य णयरं पवेसिउकामो सो भणिओ- वन्दनादि | सीयलायरियाणं कहेहि-जे तुझं भाइणिज्जा ते आगया वियालोत्ति न पविहा, तेणं कहियं, तुहो, इमेसिपि रतिं सुहेण || ॥५१२॥ दृष्टान्ता | अज्झवसाणेण चण्हवि केवलणाणं समुप्पणं । पभाए आयरिया दिसाउ पलोएइ, एत्ताहे मुहुत्तेणं एहिंति, पोरिसिमुत्तं मण्णे करेंति अच्छंति, उग्घाडाए अस्थपोरिसित्ति, अइचिराविए य ते देवकुलियं गया, ते वीयरागा न आढायंति, डंडओऽणेण ठविओ, पडिकतो, आलोइए भणइ-कओ वंदामि भणंति-जओ भे पडिहायइ, सो चिंतेइ-अहो दुइसेहा निलज्जत्ति, * तहवि रोसेण चंदर, चउसुधि बंदिएसु, केवली किर पुषपउत्तं उपयारं न भंजइ जाव न पडिभिज्जइ, एस जीयकप्पो, सूत्रांक ||७..|| KA4%A दीप अनुक्रम [९..] ५१२। १ सम्ममै राशे दत्ता, तस्यात्वारः पुत्राः, सा तेभ्यः कथान्तरेषु (कथावसरेषु) कथा कथयति-पधा युष्माकं मातुलः पूर्व प्रमजितः, एवं काको बजति । तेऽपि भन्यदा तथारूपाणां स्थविराणामम्तिके प्रवनिताश्चत्वारः, बधुता जाता, आचार्य पृष्टा मातुखं वन्दितं यान्ति । एकस्मिन्नगरे श्रुतः, तत्र लगताः, विकालो जान इतिकृत्वा बाहिरिकायां खिताः, आवश्च नगर प्रबेष्टु कामः स भणिता-शीतलाचार्येभ्यः कथये:-ये युष्माकं भागिनेयाले भागता] विकाल इति न प्रविष्टाः, तेन कथितं, तुष्टः, एषामपि रात्री शुभेनाप्यवसायेन चतुर्णामपि केवलज्ञानं समुत्पन्न । प्रभाते आचार्या दिशः प्रलोकयति, अधुना मुहमैच्यन्ति, सूत्रपौरुषी कुर्वन्तः (इति)मन्ये तिष्ठन्ति, उद्घाटायामर्थपौरुपीमिति, अतिचिराविते च ते देवकुलिकां गताः, ते वीतरागा नाब्रियन्ते, दण्डकोऽनेन स्थापिता, प्रतिफास्तः, आलोचिते भणति-कुतो बन्दे?, भणन्ति-यतो भवतां प्रतिभासते, सचिन्तयति-अहो दुष्टपीक्षा निजा इति, तथापि दिरोषेण वन्दते, चतुरुयपि पन्दितेगु, केवली किल पूर्वप्रयुक्त उपचार न भनक्ति यावा प्रतिभियते (शायते), एष जीतकपा, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1027~ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] (४०) %20% 645 प्रत सूत्रांक ||७..|| तेसु नत्थि पुत्रपवत्तो उवयारोत्ति, भणंति-दबवंदणएणं वंदिया भाववंदणएणं वदाहि, तं च किर बंदतं कसायकंडपहि छट्ठाणपडियं पेच्छंति, सो भणइ-एयपि नजइ, भणंति-बादं, किं अइसओ अस्थि , आम, किंछाउमस्थिओ केवलिओ!, केवलि भणंति-केवलीओ, सो किर तहेव उद्धसियरोमकूवो अहो मए मंदभग्गेण केवली आसातियत्ति संवेगमागओ, तेहिं चेव कंडगठाणेहिं नियत्तोत्ति जाव अपुवकरणं अणुपविठो, केवलणाणं समुप्पण्णं, चउत्थं वदंतस्स समत्ती । सा चेव काइया चिवा एगमि बंधाए एगंमि मोक्खाय । पुर्व दबवंदणं आसि पच्छा भाववंदणं जायं १॥ इदानी क्षुल्लकः, तत्रापि कथानकम्-एगो खुडगो आयरिएण कालं. करमाणेण लक्खणजुत्तो आयरिओ ठविओ, ते सधे पबइया तस्स खुबुगस्स 18 आणाणिदेसे वर्दृति, तेसिं च कडादीणं थेराण मूले पढइ । अण्णया मोहणिजेण वाहिजंतो भिक्खाए गएम साहुसु वितिज्जएण सण्णापाणयं आणावेत्ता मत्तयं गहाय उवयपरिणामो वच्चइ एगदिसाए, परिस्संतो एक्कहिं वणसंडे वीसमइ, तेषु नासि पूर्वपत्त उपचार इति, भणन्ति-दच्यचन्दगकेन यन्दिता भाववन्दनकेन बन्दस्व, संच किल बन्दमानं कायकायक पदस्थागपतितं पश्यन्ति, स भणति-एतरपि ज्ञायते', भणन्ति-बाई, किमतिशयोऽस्ति?, ओम् , किं छायस्थिका कैवाहिका, केलिनो भणन्ति-कैवलिकासकिल तथैवोवृषितरोमकूपः अहो मया मन्दभाग्येन केयहिन आशातिता इति संवेगमागतः, तैरेव कण्डकस्थाननित्त इति बावदपूर्वकरणमनुपविष्टः, केवलज्ञानं समुत्पन्न, चनुप वन्दमानस्थ समाहिः । सेब कायिकी चेष्टा एकस्मिन् वधायकस्मिन् मोक्षाय । पूर्व इयचन्दनमासीत् पश्चादाववन्दनं जातं । एका धुक्षक भाचार्येण कालं फुर्यता लक्षणयुक्त आचार्यः स्थापितः, से सर्व प्रमजितालय शुद्धमस्याशानिर्देशे वर्तन्ते, ते च कृतादीनां स्थविराणा मूले पठति । अन्यदा मोहनीयेन वाथ्यमानो भिक्षाय गतेषु साधुषु द्वितीयेन संज्ञापानीयमादाय्य मात्र गृहीत्वोपहतपरिणामो व्रजति एकदिशा परिश्रान्त एकमिन् वनखण्डे विश्राम्यति, 1595 दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1028~ Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०४], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक- ध्ययने द्रीया प्रत सूत्रांक ||७..|| तस्स य पुफियफलियस्स मज्झे समीझुक्खरस्स पेढे बद्धं, लोगो तत्थ पूर्व करेइ, तिलगबउलाईणं न किंचिवि, सो ३वन्दना चिंतेइ-(ण)एयरस पेढस्स गुणेण एई से पूजा किजइ, चिईनिमित्तं, सो भणइ-एए किंण अचेह, ते भणंति-पुबिल्लएहिंद वन्दनादिकएलयं एयं, तं च जणो वंदइ, तस्सवि चिंता जाया, पेच्छह, जारिस समिझुक्खरं तारिसो मि अहं, अन्नेवि तत्थ बहु दृष्टान्ताः | सुया रायपुत्ता इन्भपुत्ता पवइया अत्थि, ते ण ठविया, अहं ठविओ, ममं पूएइ, कओ मज्झ समणत्तणं, रयहरणणिमित्तं चितीगुणेण वंदंति, पडिनियत्तो । इयरेवि भिक्खाओ आगया मग्गति, न लहंति मुर्ति वा पवित्तिं वा, सो आगओ आलोएड्| जहाऽहं सण्णाभूमि गओ,मूला य उद्धाइओ, तत्थ पडिओ अच्छिओ, इयाणि उपसंते आगओमि, ते तुहा, पच्छा कडाईणं आलोएति, पायच्छित्तं च पडिवज्जइ । तस्स पुचिं दबचिई पच्छा भावचिई जाया २॥ इदानी कृष्णसूत्रकथानक-बारवईए वासुदेवो वीरिओ कोलिओ, सो वासुदेवभत्तो, सो य किर वासुदेवो वासारते बहवे जीवा वहिजतित्ति णो णीति, सो तस्य च पुष्पितफलितस्य मध्ये शमीशाखाया। पीठ पर्व, लोकस्तच पूजां करोति, तिलकबकुलादीनां न किचिदपि, स चिन्तपति-(4)एतस्य पीठस गुणेनेयत्ती मस्य पूजा क्रियते, चितिनिमित्तं, स भणति-एतान् कि भावत', ते भणन्ति-पुरातनैः कृतमेतत् तं च जनो पन्दते, सखापि चिन्ता जाता, पश्यत, याशी शमीशाखा तारशोऽस्मि अहं, अन्येऽपि तत्र बचता राजपुत्रा इभ्यपुत्राः प्रमजिताः सन्ति, ते न स्थापिताः, अहं स्थापितः, मां पूजबति, कुतो मम श्रामण्यं १, रजोहरणमात्रचितिगुणेन वन्दम्ते, प्रतिनिसृतः। इतरेऽपि भिक्षात भागता मार्गयन्ति, म लभन्ते श्रुति वा प्रवृत्ति बा, स आगत आलोचयतियथाऽहं संज्ञाभूमि गतः, मूलाचावधावितः, तत्र पतितः स्थितः, इदानीमुपशान्त भागतोऽसिम, ते तुष्टाः, पचात् कृतादिन्य आकोचयति प्राथमिसं च प्रतिप ॥५१३॥ चते । तस्य पूर्व इयचितिः पश्चादायचितिर्जाता ॥ द्वारिकायां वासुदेवो चीरका कोटिका, स वासुदेवभक्तः, सच किल वासुदेवो वर्षाराने बहवो जीवा बध्यन्त इति न निर्गच्छति, स दीप अनुक्रम [९..] CAKACE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1029~ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| वीरओ वारं अलभंतो पुष्फछजियाए अचणं काऊण बच्चइ दिणे दिणे, न य जेमेइ, परूढमंसू जाओ, वत्ते वरिसारत्ते नीति राया, सबेवि रायाणो उवडिया, वीरओ पाएसु पडिओ, राया पुच्छइ-वीरओ दुबलोत्ति, बारवालेहिं कहियं जहावरी, रणो अणुकंपा जाया, अवारियपवेसो कओ वीरगस्स । वासुदेवो य किर सवाउ धूयाउ जाहे विवाहकाले पायदियाओ एंति ताहे पुच्छइ-किं पुत्ती! दासी होहिसि उदाहु सामिणित्ति, ताओ भणति-सामिणीओ होहामुत्ति, राया। भणइ-तो खायं पवयह भट्टारगरस पायमूले, पच्छा महया णिक्खमणसकारेण सक्कारियाओ पधयंति, एवं वचाइ कालो। अण्णया एगाए देवीए धूया, सा चिंतेइ-सबाओ पवाविज्जती, तीए धूया सिक्खाविया-भणाहि दासी होमित्ति, ताहेर सवालंकियविभूसिया उवणीया पुरिछया भणइ-दासी होमित्ति, वासुदेवो चिंतेइ-मम धूयाओ संसारं आहिंडंति तह य8 अण्णेहिं अवमाणिज्जति तो न लट्ठयं, एत्थं को उवाओ, जेण अण्णावि एवं न करेहित्ति चिंतेइ, लद्धो उवाओ, वीरगं । १वीरको कामलभमानः पुष्पछजिकया (द्वारपाखायाः) अर्चनं कृत्वा मजति दिने दिने, न च जेमति, प्रदश्मभुर्जातः, इसे पाराग्ने निर्गछति राजा, सर्वेऽपि राजान उपस्थिताः, वीरकः पादयोः पतिता, राजा पृच्छति-वीरक! दुषंठ इति, द्वारपालैः कथितं यथावृत्त, राशोऽनुकम्पा जाता, अवारितप्रवेशः तो धीरकप । वासुदेवश्च किल सर्या दुमितयंदा विवाहकाले पादवन्दका आयान्ति तदा पछति-किं पुत्रि! दासी भविष्यसि उताहो स्वामिनीति, ता भणन्ति-स्वामिन्यो भविष्याम इति, राजा भणति-तंदा स्वातं (प्रसिद) प्रबजत भट्टारकस्य पादभूले, पश्चान्महता निजमणसरकारेण 2 सत्कृताः प्रमजन्ति, एवं ब्रजति कालः । अन्यौकया देच्या दुहिता, सा चिन्तयति-सर्वाः प्रमाज्यन्ते, तया दुहिता शिक्षिता-भणेदासी भवामीति, तदा सर्वा लारविभूषितोपनीता पृष्टा भणति-वासी भवामीति, वासुदेवचिन्तयति-मम दुहितरः संसारं आहिण्डन्ते तथा चान्दै अचमन्यन्ते तदान कटं, मन्त्र क उपायो?, येनाम्या अपि एवं न कुर्युरिति चिन्तयति, कब्ध उपायः, वीरक दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1030~ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०४], भाष्यं [२०३...] (४०) दीया प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक कापच्छह-अस्थि ते किंचि कयपुवयं ? भणइ-पत्थि, राया भगइ-चिंतेहि, तओ सुचिरं चिंतेत्ता भणइ-अस्थि, बयरीए वन्दनाहारिभ स्वीरें सरडो सो पाहाणेण आहणेत्ता पाडिओ मओ य, सगडवट्टाए पाणियं वहतं वामपाएण धारियं उबेलाए गयं, पज-४ा ध्ययने णपडियाए मच्छियाओ पविठाओ हत्थेण ओहाडिया व सुमुंगुमंतीउ होउत्ति । बीए दिवसे अत्थाणीए सोलसण्ह रायसह वन्दना दृष्टान्ता ॥५१४ स्साणं मझे भणइ-मुणह भो! एयस्स वीरगस्स कुलुप्पत्ती सुया कम्माणि य, काणि कम्माणि ?, वासुदेवो भणइ-जेण रत्तसिरो नागो, वसंतो बयरीवणे । पाडिओ पुढविसत्थेण वेमई नाम खत्तिओ ॥१॥ जेण चकुक्खया गंगा, वहंती कलु-४ सोदयं । धारिया वामपाएणं वेमई नाम खत्तिओ॥२॥ जेण घोसवई सेणा, वसंती कलसीपुरे । धारिया वामहत्थेण, मई नाम खत्तिओ॥३॥ एयस्स धूयं देमित्ति, सो भणिओ-धूयं ते देमित्ति, नेच्छद, भिउडीकया, दिण्णा नीया य घरं, सयणिजे अच्छइ, इमो से सर्व करेइ, अण्णया राया पुच्छइ-किह ते वयणं करेइ, वीरओ भणइ-अहं सामिणीए पूछति-अस्ति तव किधिकृतपूर्ण, भणति-मालि, राजा भणति-चिन्तय, ततः सुचिरं चिन्तयित्वा भणति-अस्ति, पदाँ उपरि सरदास पाषाणे। नाहत्व पातितो मृतभ, अकटवाया पानीयं वहन् वामपादेन भने उद्देख्या गतं, पायनपटिकायां मक्षिकाः प्रविष्टा इमोनोट्टापिता गुमगुमायमाना भवनिवति । द्वितीये विचसे भास्थान्या पोशानो राजसहसाणा मध्ये भणति-गणुत भो एतस्य वीरकस्य कुलोपत्तिः श्रुता कर्माणि च, कानि कर्माणि, वासुदेवो भणति-वेन रक्तधिारा नागो वसन बदरीयने । पातितः पृथ्वीशस्त्रेण वै मतिर्नाम (स पत्कृष्टः) क्षत्रियः ॥ १॥ वेन चकोरक्षता गङ्गा बदन्ती कलुषोदकम् ।। ॥५१४॥ वामपादेन एता वै मतिम क्षत्रियः ॥ २ ॥ येन घोषवती सेना वसन्ती कलशीपुरे । धृता वामहस्तेन वै मतिर्नाम अत्रियः ॥ ३॥ एतमै दुहितरं ददामि | इति, स भणिता-दुहितर ते बदामीति, मेच्छति, भूटी कृता, दत्ता नीता च गृहं, पायनीये तिष्ठति, अर्थ वसा सर्व करोति, सम्पदा राजा पृच्छति-कते वचनं करोति, वीरको भणति-अहं स्वामिन्या भो गुमुगुमंतीओ 545 दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1031~ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [३] मूलं [-] / [गाथा ...] निर्युक्तिः [ ११०४] भाष्यं [ २०३...]] दासोत्ति, राया भणइ- सर्व जह ण करावेसि तो ते णत्थि शिष्फेडओ, तेण रण्णो आकूयं णाकणं घरगएणं भणिया-जहा पज्जणं करेहित्ति, सा रुहा, कोलिया ! अप्पयं ण याणसि ?, तेण उट्ठेऊण रज्जुएण आहया, कूवंती रनो मूलं गया, पायवडिया भणइ-जहा तेणाहं कोलिएण आहया, राया भणइ तेणं चेवसि मए भणिया-सामिणी होहित्ति, तो दासी तणं मग्गसि, अहं एत्ताहे न सामि, सा भणइ सामिणी होमि, राया भणइ-वीरओ जइ स मण्णिहिति, मोइया य पवइया । अरिडणेमिसामी समोसरिओ, राया णिग्गओ, सबै साहू बारसावत्तेण वंदइ, रायाणो परिस्संता ठिया, वीरओ वासुदेवाणुवत्तीए वंदइ, कण्हो आवद्धसेओ जाओ, भट्टारओ पुच्छिओ-तिहिं सट्टेहिं सएहिं संगामाणं न एवं परिस्संतोमि भगवं!, भगवया भणियं कण्हा ! खाइगं ते सम्मत्तमुप्पाडियं तित्थगरनामगोत्तं च । जया किर पाए विद्धो तदा निंदणगरणाए सत्तमाए पुढवीए बद्धेलयं आउयं उबेढंतेण तच्चपुढविमाणियं, जइ आउयं धरंतो पढमपुढविमार्णेतो, १ दास इति, राजा भगति सबै यदि न कारयसि तदा तच नास्ति निस्फेटः तेन राज्ञ आकूतं ज्ञात्वा गृहगतेन भणिता यथा पायनं कुर्विति सा रुष्टा, कोलिक ! आत्मानं न जानीथे? तेनोत्थाय रज्ज्वाऽऽहता, कूजन्ती राज्ञो मूलं गता, पादपतिता भणति यथा तेनाहं कोलिकेनाहता, राजा भणति तेनैवासि मया भणिता-स्वामिनी भवेति, तदा त्वं दासत्वं मार्गयसि, अहमधुना न वसामि (त्वां शास्त्रि), सा भणति स्वामिनी भवामि, राजा भणति वीरको यदि स संस्पति, मोचिता प्रमजिता च । अरिष्टनेमिवामी समवसृतः राजा निर्गतः सर्वान् साधून द्वादशावन बन्दते राजानः परिश्रान्ताः स्थिताः, वीरको वासुदे यानुवृरया वन्दते कृष्ण आवद्धस्वेदो जातः, महारकः पृष्ट:-त्रिभिः पायधिकैः शतैः संग्रामः नैवं परिभ्रान्तोऽसि भगवन्!, भगवता भणितं कृष्ण ! क्षायिक रवा सम्ययमुत्पादितं तीर्थकरनामगोत्रं च यदा किक पादे विद्धस्तदा निन्दनगभ्यां सप्तम्यां पृथ्यां बद्धमायुरुद्वेष्टयता तृतीयपृथ्वीमानीतं यथायुरधारविध्यः प्रथमपृथ्वीमानेध्यः, "साखामि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1032~ ~ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [R.]] आवश्यकहारिभद्वीया ॥५१५॥ आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [३] मूलं [-] / [गाथा ...] निर्युक्तिः [ ११०४] भाष्यं [ २०३...]] अण्णे भणति इहेव वदतेर्णति । भावकिइकम्मं वासुदेवस्स, दबकिइकम्मं वीरयस्स ३ ॥ इदानीं सेवकः, तत्र कथानकम्एगस्स रण्णो दो सेवया, तेसिं अहीणा गामा, तेसिं सीमानिमित्तेण भंडणं जायं, रायकुलं पहाविया, साहू दिट्ठो, एगो भणइ-भावेण 'साधुं दृष्ट्वा ध्रुवा सिद्धिः' पयाहिणीकाउं वंदित्ता गओ, बितिओ तस्स किर उग्घडयं करेइ, सोऽवि बंदर, तहेव भणइ, ववहारो आबद्धो, जिओ, तस्स दवपूया, इयरस्स भावपूया ४॥ इदानीं पालकः, तत्र कथानकम् - चारवईए वासुदेवो राया, पालयसंवादओ से पुत्ता, णेमी समोसढो, वासुदेवो भणइ-जो कलं सामिं पढमं बंदर तस्स अहं जं मग्गइ तं देमि, संवेण सर्याणिजाओ उट्ठेत्ता वंदिओ, पालएण रज्जलोभेण सिग्घेण आसरयणेण गंतूण बंदिओ, सो किर अभवसिद्धिओ बंदर हियएण अक्कोसइ, वासुदेवो निग्गओ पुच्छरकेण तुझे अज पढमं बंदिया ?, सामी भणइ-दबओ पालएणं भावओ संवेणं, संबस्स तं दिष्णं ५ ॥ एवं तावद्वन्दनं पर्यायशब्दद्वारेण निरूपितम्, अधुना यदुक्तं 'कर्तव्यं कस्य वेति स निरूप्यते, तत्र येषां न कर्तव्यं तानभिधित्सुराह १ अन्ये भणन्ति इहैव वन्दमानेनेति । भावकृतिकर्म वासुदेवस्य दृस्यकृतिकर्म वीरकस्य ॥ एकस्य राज्ञो हौ सेवकों, तयोरासभी प्रामौ तयोः सीमानिमित्तं भण्डनं जातं, राजकुलं प्रधावितो, साधुर्दष्टः, एको भणति भावेन प्रदक्षिणीकृत्य वन्दिवा गतः, द्वितीयसस्य किलानुवर्त्तनं करोति, सोऽपि बन्दते, तथैव भणति, व्यवहार आवदः, जितः, तस्य द्रव्यपूजा इतरस्य भावपूजा । द्वारिकायां वासुदेवो राजा, पालकशाम्वादयस्तस्य पुत्राः, नेमिः समवसृतः वासुदे यो भणति यः कस्ये स्वामिनं प्रथमं वन्देते तस्मायहं यन्मार्गयति सद्ददामि शाम्बेन शयनीयादुरथाय वन्दिता, पालकेन राज्यलोभेन शीणा गवा वन्दितः स किला भव्यसिद्धिको बन्दते हृदयेनाक्रोशति, वासुदेवो निर्गतः पृच्छति केन यूयमच प्रथमं वन्दिताः ?, खामी भणति दम्पतः पालकेन भावतः शाम्बेन शाम्बाय त । ३ बन्दनाध्ययने वन्दनादि दृष्टान्ताः ~1033~ ॥५१५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०५], भाष्यं [२०३...] (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| असंजयं न वंदिजा, मायरं पिपरं गुरुं । सेणावई पसत्यारं, रायाणं देवयाणि य ॥ ११०५॥ व्याख्यान संयता असंयताः, अविरता इत्यर्थः, तान्न वन्देत, के-'मातरं जननी तथा 'पितरं' जनकम् , असंयतमिति वर्तते, प्राकृत्यशैल्या चाऽसंयतशब्दो लिङ्गत्रयेऽपि यथायोगमभिसंबध्यते, तथा 'गुरु' पितामहादिलक्षणम् , असं-| | यतत्वं सर्वत्र योजनीयं, तथा हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणा सेना तस्याः पतिः सेनापतिः-गणराजेत्यर्थः, तं सेनापति, 'प्रशस्तार' प्रकर्षण शास्ता प्रशास्ता तं-धर्मपाठकादिलक्षणं, तथा बद्धमुकुटो राजाऽभिधीयते तं राजानं, दैवतानि च न वन्देत, देवदेवीसङ्ग्रहार्थं दैवतग्रहणं, चशब्दालेखाचार्यादिग्रहो वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ ११०५॥ इदानीं यस्य वन्दनं कर्तव्यं स उच्यते समणं वंदिन मेहावी, संजयं सुसमाहियं । पंचसमिय तिगुतं, अस्संजमदुगुंछगं ॥ ११०६ ॥ व्याख्या-श्रमणः-प्राग्निरूपितशब्दार्थः तं श्रमणं 'वन्देत' नमस्कुर्यात्, का?-'मेधावी' न्यायावस्थितः, स खलु दाश्रमणः नामस्थापनादिभेदभिन्नोऽपि भवति, अत आह-संयत सम्-एकीभावेन यतः संयतः, क्रियां प्रति यलवानित्यर्थः, असावपि च व्यवहारनयाभिप्रायतो लग्ध्यादिनिमित्तमसम्पूर्णदर्शनादिरपि संभाव्यते, अत आह-'सुसमाहितं' दर्शनादिषु ४ सुष्टु-सम्यगाहितः सुसमाहितस्तं, सुसमाहितत्वमेव दयते-पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिः समितिभिः समितः पञ्चसमितस्तं तिसृभिर्मनोगुस्यादिभिर्गुप्तिभिर्गुप्तस्तं त्रिगुप्त, प्राणातिपातादिलक्षणोऽसंयमः असंयम गर्हति-जुगुप्सतीत्यसंयमजुगुप्सका स्तम्, अनेन दृढधर्मता तस्यावेदिता भवतीति गाथार्थः ॥११०६ ॥ आह-किमिति यस्य कर्तव्यं वन्दनं स एवादी दीप अनुक्रम [९..] ACChitth मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1034 ~ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति : [११०६], भाष्यं [२०३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया वन्दनाध्ययने वन्द्यावन्धविचारः प्रत सूत्रांक ॥५१६॥ ||७..|| 2544564654 नोक्तः, येन येषां न कर्तव्य मात्रादीनां तेऽप्युक्ता इति, उच्यते, सर्वपार्षद हीदं शास्त्र, त्रिविधाश्च विनेया भवन्ति केचि- दुद्घटितज्ञाः केचिन्मध्यमबुद्धयः केचित्मपश्चितज्ञा इति, तत्र मा भूत्पपश्चितज्ञानां मतिः-उक्तलक्षणस्य श्रमणस्य कर्तव्य मात्रादीनां तु न विधिर्न प्रतिषेध इत्यतस्तेऽप्युक्ता इति, यद्येवं किमिति येषां न कर्तव्यं त एवादा उक्का इति?, अत्रोच्यते, [हिताप्रवृत्तेरहितप्रवृत्तिगुरु संसारकारणमिति दर्शनार्थमित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-श्रमणं वन्देत मेधावी संयतमि-| त्युक्तं, तवेत्थम्भूतमेव वन्देत, न तु पार्थस्थादीन् , तथा चाहपंचण्हं किनकम्मं मालामरुएण होह दिलुतो। वेरुलियनाणदसणणीयावासे य जे दोसा ॥ ११०७ ॥ व्याख्या-'पश्चानां पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दानां 'कृतिकर्म' वन्दनकर्म, न कर्तव्यमिति वाक्यशेषः, अयं च वाक्यशेषः 'श्रमणं वन्देत मेधावी संयत' मित्यादि ग्रन्थादवगम्यते, पावस्थादीनां यथोक्तश्चमणगुणविकलत्वात् , यथा संयतानामपि ये पार्थस्थादिभिः सार्द्ध संसर्ग कुर्वन्ति तेषामपि कृतिकर्म न कर्तव्यं, आह-कुतोऽयमर्थोऽवगम्यते ?, उच्यते, मालामरुकाभ्यां भवति दृष्टान्त इति वचनात्, वक्ष्यते च-'असुइठाणे पडिया' इत्यादि, तथा 'पक्कणकुले' इत्यादि |'वेरुलियत्ति संसर्गजदोषनिराकरणाय वैडूर्यदृष्टान्तो भविष्यति, वक्ष्यति च-'सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ' इत्यादि, तत्प्रत्यवस्थानं च 'अंबरस य निंबस्स येत्यादिना सप्रपञ्चं वक्ष्यते, 'णाण'ति दर्शनचारित्रासेवनसामध्ये विकला ज्ञानन दीप - अनुक्रम [९..] ५१६॥ - -- १ अशुचिस्याने पतिता २ वषाफले ३ सुचिरमपि तिष्ठत् वैडूर्य ४ आग्रस्य च निम्बस्य च मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1035~ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [-11 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०७], भाष्यं [२०३...], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक 62-5600-47 ||७..|| यप्रधाना एवमाहुः-ज्ञानिन एव कृतिकर्म कर्तव्यं, वक्ष्यते च-कामं चरणं भावो तं पुण णाणसहिओ समाणेइ । ण य नाणं तु न भावो तेण र णाणी पणिवयामो॥१॥' इत्यादि, 'दंसण'त्ति ज्ञानचरणधर्मविकलाः स्वल्पसवा एवमाहुदर्शनिन एव कृतिकर्म कर्तव्यं, वक्ष्यते च-जह णाणेणं ण विणा चरणं णादसणिस्स इय नाणं । न य दंसणं न भावो तेण र दिहिं पणिवयामो ॥१॥ इत्यादि, तथाऽन्ये सम्पूर्णचरणधर्मानुपालनासमर्था नित्यवासादि प्रशंसन्ति सङ्गमस्थविरोदाहरणेन, अपरे चैत्याधालम्बनं कुर्वन्ति, वक्ष्यते च-जाहेऽविय परितंता गामागरनगरपट्टणमडंता । तो केइ नीयवासी |संगमथेरं ववइसति ॥ १॥ इत्यादि, तदत्र नित्यवासे च ये दोषाः चशब्दात् केवलज्ञानदर्शनपक्षे च चैत्यभक्त्याऽऽर्यि कालाभविकृतिपरिभोगपक्षे च ते वक्तव्या इति वाक्यशेषः, एष तावद्गाथासंक्षेपार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तं 'पञ्चानां कृतिकर्म: हैन कर्तव्यम्' अथ क एते पञ्च ?, तान् स्वरूपतो निदर्शयन्नाह पासत्थो ओसन्नो होइ कुसीलो तहेव संसत्तो। अहछेदोऽविय एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥१॥ (प्र०) । | व्याख्या-किलेयमन्यकर्तृकी गाथा तथाऽपि सोपयोगा चेति व्याख्यायते । तत्र पार्श्वस्थः दर्शनादीनां पार्षे तिष्ठ-N तीति पाश्वस्थः, अथवा मिथ्यावादयो बन्धहेतवः पाशाः पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्था,-'सो पासस्थो दुविहो सवे देसे य कामं चरणं भावसत् पुननिसहितः संपूरयति । न च ज्ञान नैव भावतस्मात् ज्ञानिनः प्रणिपतामि ॥३॥ यथा ज्ञानेन न विना चरणं बनायोनिन इति शानम् नच दर्शनं न भावसमात् ! दृष्टिमत्तः प्रमिषतामि ॥१॥ ३ पदापि च परितान्ता मामाकरनगरपसनमन्तः । ततः केचित् नित्यवासिनः संगमस्थविर व्यपदिशान्ति ॥100)स पार्थस्थो द्विविधा-सर्वमिन् देशे च SASARGAMANAKAMAL दीप अनुक्रम [९..] -6246 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: पासत्था आदि पञ्चानां वक्तव्यता ~10364 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [R.]] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५१७॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ३ ], मूलं [-] / [गाथा ...] निर्बुक्तिः [११०७...], आष्यं [ २०३ ...] प्रक्षेप [१] होई णायो । सर्वमि णाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥ १ ॥ देसंमि य पासत्थो सिज्जायरऽभिड रायपिंडं वा । णिययं च अग्गपिंडं भुंजति णिकारणं च ॥ २ ॥ कुलणिस्साए विहरइ उवणकुलाणि य अकारणे विसइ । संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणई ॥ ३ ॥' अवसन्नः - सामाचार्यासेवने अवसन्नवदवसन्नः, 'ओसन्नोऽवि य दुविहो सबे देसे य तत्थ सर्वमि । उउबद्धपीढफलगो ठवियगभोई य णायवो ॥ १ ॥' देशावसन्नस्तु - 'आवस्सगसज्झाए पडिलेहणझाणभिक्खऽभतट्ठे । आगमणे णिग्गमणे ठाणे य णिसीयणतुयट्टे ||१|| आवस्सयाइयाई ण करे करेइ अहवावि हीणमधियाई । गुरुवयणबलाइ तथा भणिओ एसो य ओसन्नो ॥ २ ॥ गोणो जहा वलंतो भंजइ समिलं तु सोऽवि एमेव । गुरुवयणं अकरेंतो बलाइ कुणई व उस्सूष्णो ॥ ३ ॥' 'भवति कुशीलः कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः, -तिविहो होइ कुसीलो णाणे तह दंसणे चरिते य । एसो अवदणिज्जो पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ १ ॥ णाणे णाणायारं जो उ विराहेइ काठमाईयं । दंसणे १] भवति ज्ञातव्यः । सर्वस्मिन् ज्ञानदर्शनचरणानां वस्तु पार्श्वे ॥ १ ॥ देशे च पार्श्वस्यः शय्यातराभ्याहते राजपिण्डं या नित्यं चाप्रपिण्डं मुमकि निष्कारणेन च ॥ २ ॥ कुलनिश्रया विहरति स्थापनाकुलानि चाकारणे विशति । संसदीप्रलोकनया गच्छति तथा संस्तयं करोति ॥ ३ ॥ २ अवसन्नोऽपि च द्विविधः सर्वस्मिन् देशे च तत्र सर्वस्मिन् । ऋतुबद्धपीठफलकः स्थापितभोगी च ज्ञातव्यः ॥१॥ आवश्यकस्वाध्याययोः प्रतिलेखनायां ध्याने भिक्षायामभक्तायें । आगमने निगमने स्थाने निषीदने त्वग्वर्त्तने ॥ १॥ आवश्यकादीनि न करोति अथवाऽपि करोति हीनाधिकानि (या)। गुरुवचनबलात्तथा भणित एष चावसः ॥ २ ॥ गौर्यया बलान् भनक्ति समिलां तु सोऽप्येवमेव । गुरुवचनमकुर्वन् बलात् करोति वाससः ॥ ३ ॥ त्रिविधो भवति कुशीलो ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च एषोऽयन्दनीयः प्रसो वीतरागैः ॥ १ ॥ ज्ञाने ज्ञानाचारं यस्तु विराधयति कालादिकम्। दर्शने विप्र. सो ३ वन्दनाध्ययने अवन्धस्वरूपं M ~ 1037 ~ ॥५१७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०७...], भाष्यं [२०३...], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक दसणायारं चरणकुसीलो इमो होइ ॥२॥ कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे णिमित्तमाजीवे । कककुरुए य लक्खण उव|जीवइ विजमताई ॥३॥ सोभग्गाइणिमित्तं परेसि ण्हवणाइ कोउयं भणियं । जरियाइ भूइदाणं भूईकर्म विणिदिई ॥४॥ सुविणयविज्जाकहियं आईखणिघंटियाइकहियं वा । जं सासइ अन्नेसि पसिणापसिण हवइ एयं ॥५॥तीयाइभा|वकहणं होइ णिमित्तं इमं तु आजीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥ ६॥ कककुरुगा य माया णियडीए जं भणति तं भणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामताइया पयडा ॥७॥' 'तथैव संसक्त' इति यथा पार्श्वस्थादयोऽव-| न्यास्तथाऽयमपि संसक्तवत् संसक्तः, तं पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वाऽऽसाद्य सन्निहितदोषगुण इत्यर्थः, आह च-'संसत्तो य इदाणी सो पुण गोभत्तलंदए चेव । उचिमणुच्चि जं किंची छुन्भई सबं ॥१॥ एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिया केइ । ते तम्मिवि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ॥२॥ रायविदूसगमाई अहवावि णडो जहा उ बहुरूवो। ||७..|| दीप अनुक्रम दर्शनाचार परणकशीलोऽयं भवति ॥ ३॥ कौतुकं भूतिकर्म प्रश्नाप्रश्नं निमित्तमाजीव । काकाका लक्षणं उपजीवति विद्यामबादीन् ॥३॥ | सौभाग्यादिनिमिर्त परेषां सपनादि कौतुकं मणितम् । ज्वरितादये भूतिदानं भूतिकर्म विनिर्दिष्टम् ॥ ४॥ स्वमविद्याकथितमाइदिनीपष्टिकादिकथितं वा । यत शास्ति बन्येभ्यः प्रमाण भवस्येतत् ॥ ५॥ अतीतादिभावकथनं भवति निमित्तमिदं त्याजीवनम् । जातिकुल शिल्पकर्माणि तपोगणसूत्राणि सप्तविधम् ॥ ६ ॥ कल्ककुहुका च माया निकृत्या बनमन्ति तमणितम् । खीलक्षणादि लक्षणं विद्यामन्त्रादिकाः भकटाः ॥ ७॥ संसक्तवेदानी स पुनगोभक्तलन्दके चैव । इच्छिटमनुच्छिष्टं यत्किञ्चित् क्षिप्यते सर्वम् ॥ ३ ॥ एवमेव च मूलोत्तरदोषान गुणाश्च यावन्तः केचित् । ते तस्मिन् सनिहिताः संसको भण्वते तसात् ॥ २॥ राजविदूषकादयोऽयवापि नटो यथा तु बहुरूपः । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1038~ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [R.]] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५१८॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ३ ], मूलं [-] / [गाथा ...] निर्बुक्तिः [११०७...], आष्यं [ २०३ ...] प्रक्षेप [१] अहवा वि मेलगो जो हलिद्दरागाइ बहुवण्णो ॥ ३ ॥ एमेव जारिसेणं सुद्धममुद्धेण वाऽवि संमिलइ । तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ॥ ४ ॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिडो असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥ ५ ॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो । इत्थिगिहिसंकिलिडो संसत्तो किलिडो उ ॥ ६ ॥ पासस्थाईए संविग्गेसुं च जत्थ मिलती उ । तहि तारिसओ भवई वियधम्मो अहव इयरो उ ॥ ७ ॥ एषोऽसंक्लिष्टः, 'यथाछन्दोऽपि च' यथाछन्दः - यथेच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्तते यः स यथाच्छन्दोऽभिधीयते, उक्तं च- "उस्सुत्तमायरंतो उस्मुत्तं चैव पद्मवेमाणो । एसो उ अहाछंदो इच्छा छंदोत्ति एगडा ॥ १ ॥ उस्मुत्तमणुवदि सच्छेदविगप्पियं अणणुवाइ । परतति पवर्त्तिति णेओ इणमो अहाछंदो ||२|| सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसायबिगइपडिबद्धो । तिहिगार बेहिं मज्जइ तं जाणाही अहार्छदं ॥ ३ ॥ एते पार्श्वस्यादयोऽवन्दनीयाः, क ? - जिनमते, न तु लोक इति गाथार्थः ॥ अथ पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य को दोष इति ?, उच्यते- 3 अथवाऽपि मेलको यो हरिद्वरागादिः बहुवर्णः ॥ ३ ॥ एवमेव पाशेन शुद्धेनाशुद्धेन वाऽपि संवसति । तादृश एव भवति संसको भण्यते तात् ॥ ४ ॥ स द्विविकल्प भणितो जिनैर्जितरागद्वेषमोहैः । एकस्तु संतिष्टोऽसंष्टिस्तथाऽन्यः ॥ ५ ॥ पञ्चाश्रवप्रवृत्तो यः सतु विभिगौरवैः प्रतिबद्धः स्त्रीगृहि भिः संसिंका संष्टिः स तु ॥ ६॥ पार्थस्यादिकेषु संविशेषु च यत्र मिलति तु तत्र तादृशो भवति धिमी अथवा इतरस्तु ॥ ७ ॥ २ सूत्रमाचरन् उत्सूत्रमेव प्रज्ञापयत्। एष तु यथाच्छन्द इच्छाउन्द इति एकार्थों ॥ १ ॥ उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वच्छन्दविकल्पितमननुपाति । परतसिं प्रवर्त्तयति शेयोऽयं यथाच्छन्दः ॥ २ ॥ स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित्सुखात विकृतिप्रतिबद्धः । त्रिभिगौरवमद्यति तं जानाहि यथाच्छन्दम् ॥ ३ ॥ ३ वन्दना ध्ययने M ~ 1039 ~ अवन्द्यस्वरूपं ॥ ५१८॥. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [९..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११०८], भाष्यं [ २०३...], पासस्थाई बंमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेस एमेव कुणई तह कम्मबंधं च ॥ ११०८ ॥ व्याख्या- 'पार्श्वस्थादीन' उक्तलक्षणान् 'वन्दमानस्य' नमस्कुर्वतो नैव कीर्तिर्न निर्जरा भवति, तत्र कीर्तिः- अहो अयं पुण्यभागित्येवंलक्षणा सा भवति, अपि त्वकीर्तिर्भवति, नूनमय मध्येवस्वरूपो येनैषां वन्दनं करोति, तथा निर्जरणं निर्जरा- कर्मक्षयलक्षणा सा न भवति, तीर्थंकराज्ञाविराधनाद्वारेण निर्गुणत्वात्तेषामिति, चीयत इति कायः- देह| स्तस्य क्लेशः- अवनामादिलक्षणः कायक्लेशस्तं कायक्लेशम् 'एवमेव' मुधैव 'करोति' निर्वर्तयति, तथा क्रियत इति कर्म--- ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तस्य बन्धो- विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापनं तेन वा आत्मनो बन्धः-स्वस्वरूपतिरस्करणलक्षणः | कर्मबन्धस्तं कर्मबन्धं च करोतीति वर्तते, चशब्दादाज्ञाभङ्गादींश्च दोषानवामुते, कथं ? -भगवत्प्रतिक्रुष्टवन्दने आज्ञाभङ्गः, तं दृष्ट्राऽन्येऽपि वन्दन्तीत्यनवस्था, तान् वन्दमानान् दृष्ट्वाऽन्येषां मिथ्यात्वं, कायक्लेशतो देवताभ्यो वाऽऽत्मविराधना, तद्वन्दनेन तत्कृतासंयमानुमोदनात्संयमविराधनेति गाथार्थः ॥ ११०८ ॥ एवं तावत्पार्श्वस्थादीन् वन्दमानस्य दोषा उक्ताः, साम्प्रतं पार्श्वस्थानामेव गुणाधिकवन्दनप्रतिषेधमकुर्वतामपायान् प्रदर्शयन्नाह - जे भचेर भट्ठा पाए उडुंति बंभयारीणं । ते होंति कुंटमंदा बोही य सुदुलहा तेसिं ॥। ११०९ ॥ व्याख्या - ये पार्श्वस्थादयो भ्रष्टब्रह्मचर्या अपगतं ब्रह्मचर्या इत्यर्थः, ब्रह्मचर्यशब्दो मैथुनविरतिवाचकः, तथौघतः संयमवाचकच, 'पाए उडिंति बंभवारीणं' पादावभिमानतो व्यवस्थापयन्ति ब्रह्मचारिणां वन्दमानानामिति, न तद्वन्दननिषेधं कुर्वन्तीत्यर्थः, ते तदुपात्तकर्मजं नारकत्वादिलक्षणं विपाकमासाद्य यदा कथथित्कृच्छ्रेण मानुषत्वमासादयन्ति - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1040~ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११०९], भाष्यं [२०३...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया |३ वन्दना| ध्ययने अवन्द्यवन्दनेदोषाः प्रत ॥५१९|| सूत्रांक ||७..|| तदाऽपि भवन्ति कोटमण्टाः 'बोधिश्च' जिनशासनावबोधलक्षणा सकलदुःखविरेकभूता सुदुर्लभा तेषां, सकृत्प्राप्ती सत्या | मप्यनन्तसंसारित्वादिति गाथार्थः ॥ ११०९ ॥ तथा-- सुङ्गुतरं नासंती अप्पाणं जे चरित्तपन्भट्ठा । गुरुजण वंदाविती सुसमण जहुत्तकारिं च ॥ १११०॥ दारं ॥ | व्याख्या-'सुहृत'ति सुतरां नाशयन्त्यात्मानं सन्मार्गात् , के ?-ये चारित्रात्-प्राग्निरूपितशब्दार्थात् प्रकर्षण भ्रष्टाःअपेताः सन्तः 'गुरुजन' गुणस्थसुसाधुवर्ग 'वन्दयन्ति' कृतिकर्म कारयन्ति, किम्भूतं गुरुजनं ?-शोभनाः श्रमणा यस्मिन् स सुश्चमणस्तं, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, तथा यथोक्त क्रियाकलापं कर्तुं शीलमस्येति यथोक्तकारी तं यथोक्तकारिणं | चेति गाथार्थः॥१११० ॥ एवं वन्दकवन्द्यदोषसम्भवात्पार्थस्थादयो न वन्दनीयाः, तथा गुणवन्तोऽपि ये तैः सार्द्ध संसर्ग कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, किमित्यत आह असुइटाणे पडिया चंपगमाला न कीरई सीसे । पासस्थाईठाणेसु बमाणा तह अपुजा ॥ ११११ ॥ व्याख्या-यथा 'अशुचिस्थाने' विट्प्रधाने स्थाने पतिता चम्पकमाला स्वरूपतः शोभनाऽपि सत्यशुचिस्थानसंसर्गान्न | [क्रियते शिरसि, पार्श्वस्थादिस्थानेषु वर्तमानाः साधवस्तथा 'अपूज्याः' अवन्दनीयाः, पार्श्वस्थादीनां स्थानानि-वसतिनिगेमभूम्यादीनि परिगृह्यन्ते, अन्ये तु शय्यातरपिण्डाद्युपभोगलक्षणानि व्याचक्षते यत्संसर्गात्पार्श्वस्थादयो भवन्ति, न चैतानि सुष्टु घटन्ते, तेषामपि तद्भावापत्तेः, चम्पकमालोदाहरणोपनयस्य च सम्यगघटमानत्वादिति । अत्र कथानक दीप अनुक्रम [९..] |३५१९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1041~ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११११], भाष्यं [२०३...], (४०) % P4 2-% %20% प्रत सूत्रांक %% ||७..|| एगो चंपकप्पिओ कुमारो पगमालाए सिरे कयाए आसगओ बच्चइ, आसेण उब्यस्स सा चंपगमाला अमेज्झे पडिया, गिण्हामित्ति अमिग्झं दहण मुका, सो य चंपएहिं विणाधितिं न लभइ, तहावि ठाणदोसेण मुका । एवं चंपगमालस्थाणीया साह अमिग्झस्थाणिया पासस्थादयो, जो विसुद्धो तेहिं समं मिलइ संवसइ वा सोऽवि परिहरणिज्जो ॥ अधिकृ-I तार्थप्रसाधनायैव दृष्टान्तान्तरमाहपकणकुले वसंतो सउणीपारोऽवि गरहिओ होइ । इय गरहिया सुविहिया मज्झि वसंता कुसीलाणं॥१११२।। व्याख्या-पकणकुल-गहित कुल तस्मिन् पकणकुले बसन् सन् , पारङ्गतवानिति पारगः, शकुन्याः पारगः, असावपि । 'गर्हितो भवति' निन्द्यो भवति, शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि परिगृह्यन्ते, “अङ्गानि चतुरो वेदा, मीमांसा न्यायविस्तरः । पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्याहुश्चतुर्दश ॥१॥ तत्राङ्गानि षट्, तद्यथा-'शिक्षा कल्पो व्याकरणं, छन्दो ज्योतिनिरुक्तयः' इति, 'इय' एवं गर्हिताः 'सुविहिताः' साधयो मध्ये वसन्तः 'कुशीलानां' पार्श्वस्थादीनाम् । अत्र कथानकम्-एंगस्स धिज्जाइयरस पंच पुत्ता सउणीपारगा, तस्थेगो मरुगो एगाए दासीए संपलग्गो, सा मज पिचड, इमोन % दीप -2-% 2 अनुक्रम [९..] एकाम्पफपियः कुमार चम्पकमालायां शिरसि तायामश्वगतो मजति, अश्वनोदते सा चापकमालामेध्ये पतिता, गृहामीति अमेय हा मुक्ता, स च चम्पकैर्चिना प्रति न समते, तथापि स्वानदोषेण मुक्का । एवं चम्पकमालाखानीयाः साधवः अमेभ्यस्थानीयाः पार्थस्थादयः, यो विशुबसैः समं मिलति संघसति वा सोअपि परिदरणीयः । २ एकस्य धिग्जातीय पञ्च पुत्राः शकुनीपारगा।, तन्त्रको माग एकस्पा दावा संपलमा, सा मथं पिचति, अर्थन १४ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1042~ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥५२०॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [३] मूलं [-] / [गाथा...], निर्युक्तिः [१११२] भाष्यं [२०३.... पिबंड, तीए भण्णइ-जइ तुमं ण पिवसि तो ण हो, सो (सा) भइ-रत्ती होजा, इयरहा विसरिसो संजोगुत्ति, एवं सो बहुसो भणंतीए पाइतो, सो पढमं पच्छण्णं पिवइ, पच्छा पायपि पिबिउमाढत्तो, पच्छा अइपसंगेण मज्जमंसासी जाओ, पकणेहिं सह छोट्टेउमाढतो, तेहिं चैव सह पिवइ लाइ संवसइ य, पच्छा सो पितुणा सयणेण य सबबज्झो अप्पवेसो कओ, अण्णया सो पडिभग्गो, बितिओ से भाया सिणेहेण तं कुडिं पविसिऊण पुच्छइ देइ य से किंचि, सो पितुणा उवलंभिऊण णिच्छूढो, तइओ बाहिरपाडए ठिओ पुच्छर विसज्जेइ से किंचि, सोवि णिच्छूढो, चउत्थो परंपरएण दवावेइ, सोवि णिच्छूढो, पंचमो गंधपि ण इच्छइ, तेण मरुगेण करणं चडिऊण सवरस घरस्स सो सामीकओ, इयरे चत्तारिवि बाहिरा कया लोगगरहिया जाया। एस दिहंतो उवणओ से इमो-जारिसा पक्कणा तारिसा पासत्थाई जारिसो धिज्जाइओ तारिसो आयरिओ जारिसा पुत्ता तारिसा साहू जहा ते णिच्छूढा एवं णिच्छुभंति कुसीलसंसगिं करिंता गरहिया य १ पियति सा भव्यते-यदिन पसिन ः स (सा) भणति - रात्री ( रतिः) भवेद इतरथा विसदृशः संयोग इति एवं स बहुशो भणम्या तया पावितः स प्रथमं प्रच्छन्नं पिवति, पात्मकमपि पातुमारब्धः पश्चात् अतिप्रसङ्गेन मद्यमांसाशी जातः श्रपाकैः सह अमितुमारब्धः तैः सहैव खादति पिवति संवसति च पश्चात् स पित्रा स्वजनेन च सर्ववाचः अप्रवेशः कृतः, अम्बदा स प्रतिभशः, द्वितीयस्तस्य भ्राता जेहेन तो कुर्ती प्रविश्य पृच्छति ददाति च तसै किञ्चित् स उपलभ्य पित्रा निष्काशितः, तृतीयो बाह्यपाटके स्थितः पृच्छति विसृजति च तस्तै किञ्चित् सोऽपि निष्काशितः, चतुर्थः परम्परकेण दापयति, सोऽपि निष्काशितः, पञ्चमो गन्धमपि नेच्छति, तेन मरुकेण न्यायालये गत्वा सर्वस्य गृहस्य स स्वामीकृतः इतरे चत्वारोऽपि बाह्याः कृता लोकगर्हिता जाताः एप दृष्टान्तः, उपनयोऽस्यायं पादशाखान्दालालादृशाः पार्श्वस्यादयो वा चिजातीयताहगाचार्यः वादृशः पुत्रास्तादृशः साधवः यथा ते निष्काशिता एवं निष्काश्यन्ते कुशीलसंसर्गं कुर्वन्तः गर्हिताच ------ ३ वन्दना ध्ययने संसर्गजा दोषगुणाः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः M ~ 1043~ 1142011 Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१११३], भाष्यं [२०३...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| पवयणे भवति, जो पुण परिहरइ सो पुज्जो साइयं अपजवसियं च णेवाणं पावइ, एवं संसग्गी विणासिया कुसीलेहिं । उक्त च-'जो जारिसेण मित्तिं करेइ अचिरेण(सो)तारिसो होइ ! कुसुमेहिं सह वसंता तिलावि तम्गंधया होंति ॥१॥' मरुदाएत्ति दिईतो गओ, व्याख्यातं द्वारगाथाशकलम् , अधुना वैडूर्यपदव्याख्या, अस्य चायमभिसम्बन्धः-पार्श्वस्थादिसंसर्ग दोषादवन्दनीयाः साधवोऽप्युक्ताः, अत्राह चोदकः-कः पार्थस्थादिसंसर्गमात्राद्गुणवतो दोषः, तथा चाह| सुचिरंपि अच्छमाणो बेरुलिओ कायमणीयउम्मीसो । नोवेइ कायभावं पाहण्णगुणेण नियएणं ॥ १११३ ॥ | व्याख्या-'सुचिरमपि प्रभूतमपि कालं तिष्ठन् वैडूर्यः-मणिविशेषः, काचाश्च ते मणयश्च काचमणयः कुत्सिताः काचमणयः काचमणिकास्तैरुत्-पावल्येन मिश्रः काचमणिकोन्मिश्रः 'नोपैति' न याति 'काचभावं' काचधर्म 'प्राधान्यगुणेन' वैमल्यगुणेन 'निजेन आत्मीयेन, एवं सुसाधुरपि पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध संवसन्नपि शीलगुणेनात्मीयेन न पार्श्वस्थादिभा-1 यमुपैति, अयं भावार्थ इति गाथार्थः ॥ १११३ ॥ अत्राहाऽऽचार्य-यत्किविदेतत्, न हि दृष्टान्तमात्रादेवाभिलपिताथसिद्धिः संजायते, यतःभावुगअभावुगाणि य लोए दुविहाणि होति दव्याणि । बेरुलिओ तत्थ मणी अभावुगो अन्नदब्वेहि ॥१११४॥ | व्याख्या-भाव्यन्ते प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापाद्यन्त इति भाव्यानि-कवेलुकादीनि,प्राकृतशैल्या भावुकान्युच्यन्ते, अथवा प्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया तथाभवनशीलानि भावुकानि, लपपतपदस्थाभूपेत्यादावुकञ् (पा. ३-२-१५४) तस्य प्रवचने भवन्ति, यः पुनः परिहरति स पाया साचपर्यवसानं च निर्वाण प्रामोति, एवं संसगी विनाशिका कुशीतः । पारदोन मैत्री करोति अधिरण (स.) तापो भवति । सुमैः सह वसन्तः तिला अपि तवूगन्धिका भवन्ति । 11मरुक इति स्टांतो गतः स्यादा दिः 'यो प्रक दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1044 ~ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [९..] आवश्यकहारिभद्रीया ॥५२१॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१११४], भाष्यं [ २०३...], ताच्छीलिकत्वादिति, तद्विपरीतानि अभाव्यानि च नलादीनि लोके 'द्विविधानि' द्विप्रकाराणि भवन्ति 'द्रव्याणि' वस्तूनि, वैडूर्यस्तत्र मणिरभाव्यः 'अन्यद्रव्यैः' काचादिभिरिति गाथार्थः ॥ १११४ ॥ स्यान्मतिः- जीवोऽप्येवम्भूत एव भविष्यति न पार्श्वस्थादिसंसर्गेण तद्भावं यास्यति, एतच्चासत्, यतः --- जीवो अणाइनिहणो तन्भावणभाविओ य संसारे । विष्पं सो भाविज्जर मेलणदोसाणुभावेणं ॥ १११५ ।। व्याख्या- 'जीवः' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स हि अनादिनिधनः अनाद्यपर्यन्त इत्यर्थः, 'तद्भावनाभावितश्च' पार्श्वस्थाखाश्चरितप्रमादादिभावनाभावितश्च 'संसारे' तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे, ततश्च तद्भावनाभावितत्वात् 'क्षिप्रं शीघ्रं स 'भाव्यते' प्रमादादिभावनयाऽऽत्मीक्रियते 'मीलनदोषानुभावेन' संसर्गदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ १११५ ॥ अथ भवतो दृष्टान्तमात्रेण परितोषः ततो मद्विवक्षितार्थप्रतिपादकोऽपि दृष्टान्तोऽस्त्येव, शृणु अंबरस य निंबस्स य दुण्हंपि समागयाई मूलाई । संसग्गीह विणडो अंबो नित्तणं पत्तो ॥ १११६ ।। व्याख्या - चिरपतिततिक्क निम्बोदकवासितायां भूमौ आम्रवृक्षः समुत्पन्नः पुनस्तत्राऽऽम्रस्य च निम्बस्य च द्वयोरपि 'समागते' एकीभूते मूले, ततश्च 'संसर्ग्य' सङ्गत्या विनष्ट आम्रो निम्बत्वं प्राप्तः- तिक्कफलः संवृत्त इति गाथार्थः ॥ १११६ ॥ तदेवं संसर्गिदोषदर्शनात्त्याज्या पार्श्वस्थादिसंसर्गिरिति । पुनरप्याह चोदकः- नन्वेतदपि सप्रतिपक्षं, तथाहि[सुचिरंषि अच्छमाणो नलथंभो उच्छुवाडमज्झमि । कीस न जाय महुरो ? जइ संसग्गी पमाणं ते ॥ १११७ ॥ व्याख्या- 'सुचिरमपि' प्रभूतकालमपि तिष्ठन् 'नलस्तम्बः' वृक्षविशेषः 'दक्षुवाटमध्ये' इक्षुसंसर्ग्या किमिति न जायते ‍वन्दनाध्ययने संसर्गजा दोषगुणाः ~ 1045~ ॥५२१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक” मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [१११७], भाष्यं [२०३...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| मधुरः ?, यदि संसर्गी प्रमाणं तवेति गाथार्थः ॥ १११७ ॥ आहाचार्यः-ननु विहितोत्तरमेतत् 'भावुग अभावुगाणि या इत्यादिग्रन्थेन, अत्रापि च केवली अभाव्यः पार्श्वस्थादिभिः, सरागास्तु भाव्या इति । आह-तैः सहाऽऽलापमात्रतायां संसग्याँ क इव दोष इति ?, उच्यते| ऊणगसयभागेणं चिंचाई परिणमंति तभावं । लवणागराइसु जहा बजेह कुसीलसंसगिंग ॥ १११८ ॥ व्याख्या-ऊनश्चासौ शतभागश्चोनशतभागोऽपि न पूर्यत इत्यर्थः, तेन तावताशेन प्रतियोगिना सह सम्बद्धानीति प्रक्रमाद्गम्यते 'बिम्बानि' रूपाणि 'परिणमन्ति' तद्भावमासादयन्ति लवणीभवन्तीत्यर्थः, लवणागरादिषु यथा, आदि-1 शब्दाद्भाण्डखादिकारसादिग्रहः, तत्र किल लोहमपि तद्भावमासादयति, तथा पार्श्वस्थाद्यालापमात्रसंसाऽपि सुविहि-ह तास्तमेव भावं यान्ति, अतः 'बजेह कुसीलसंसरिंग' त्यजत कुशीलसंसर्गिमिति गाथार्थः ॥ १११८ ॥ पुनरपि संसगिदोपप्रतिपादनायैवाऽऽह जह नाम महुरसलिलं सायरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं मेलणदोसाणुभावेणं ॥ १११९ ।। व्याख्या-'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः 'नामेति निपातः 'मधुरसलिल' नदीपयः तल्लवणसमुद्र 'क्रमेण' परिपाट्या ४ सम्प्राप्तं सत् 'पावेइ लोणभावं' प्राप्नोति-आसादयति लवणभाव-क्षारभावं मधुरमपि सन्, मीलनदोषानुभावेनेति दिगाथार्थः ॥१११९ ॥ एवं खु सीलवतो असीलवतेहिं मीलिओ संतो। पावइ गुणपरिहाणि मेलणदोसाणुभावेणं ॥ ११२० ।। दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~10464 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक हारिभद्रीया ॥५२२ ॥ % आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११२०], भाष्यं [ २०३...], व्याख्या - खुशब्दोऽवधारणे, एवमेव शीलमस्यास्तीति शीलवान् स खलु 'अशीलवद्भिः पार्श्वस्थादिभिः सार्द्धं मीलितः सन् 'प्राप्नोति' आसादयति गुणा-मूलोत्तरगुणलक्षणास्तेषां परिहाणिः - अपचयः गुणपरिहाणिः तां तथैहिकांश्चापायांस्तस्कृतदोषसमुत्थानिति, मीलनदोषानुभावेनेति गाथार्थः ॥ ११२० ॥ यतश्चैवमतः स्वणमवि न खमं काउं अणाययण सेवणं सुविहियाणं। हंदि समुद्दमइगयं उदयं लवणसणमुवेइ ॥ ११२१ ॥ व्याख्या - लोचननिमेषमात्रः कालः क्षणोऽभिधीयते, तं क्षणमपि, आस्तां तावन्मुहूर्तोऽन्यो वा कालविशेषः, 'न क्षमं' न योग्यं किं ?- 'काउं अणाययणसेवणं' ति कर्तुं निष्पादयितुम् अनायतनं- पार्श्वस्याद्यायतनं तस्य सेवनं-भजनम् अनाय तनसेवनं, केषां ?-- 'सुविहितानां साधूनां किमित्यत आह- 'हन्दि' इत्युपदर्शने, समुद्रमतिगतं लवणजलधिं प्राप्तम् 'उदकं' मधुरमपि सत् 'लवणस्त्रमुपैति' क्षारभावं याति, एवं सुविहितोऽपि पार्श्वस्थादिदोषसमुद्रं प्राप्तस्तद्भावमामोति, अतः पर लोकार्थिना तत्संसर्गिरत्याज्येति, ततश्च व्यवस्थितमिदं येऽपि पार्श्वस्थादिभिः सार्द्ध संसांगं कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, सुविहिता एव वन्दनीया इति ॥ अत्राऽऽह- सुविहिय दुब्बिहियं वा नाहं जाणामि हं खु छउमत्थो । लिंगं तु पूययामी तिगरणमुद्धेण भावेणं ॥ ११२२ ।। व्याख्या - शोभनं विहितम् - अनुष्ठानं यस्यासौ सुविहितस्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, दुर्विहितस्तु पार्श्वस्थादिस्तं दुर्विहितं वा 'नाहं जानामि नाहं वेद्मि, यतः अन्तःकरणशुद्ध्यशुद्धिकृतं सुविहितदुर्विहितत्वं, परभावस्तु तत्स्वतः सर्व २ वन्दनाध्ययने संसर्गजा दोषगुणाः ~ 1047~ ||५२२ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११२२], भाष्यं [२०३...], (४०) KAMANG प्रत सूत्रांक ||७..|| ज्ञविषयः, 'अहं खु छउमत्थी'त्ति अहं पुनश्छद्मस्था, अतो 'लिङ्गमेव' रजोहरणगोच्छप्रतिग्रहधरणलक्षणं 'पूजयामि' वन्दे इत्यर्थः, 'त्रिकरणशुद्धेन भावेन' वाकायशुद्धेन मनसेति गाथार्थः ॥ ११२२ ॥ अत्राचार्य आह| जह ते लिंग पमाण वंदाही निण्हवे तुमे सब्वे । एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते ॥११२३ ॥ । व्याख्या-'यदी'त्ययमभ्युपगमप्रदर्शनार्थः 'ते' तव लिङ्ग-द्रव्यलिङ्गम् , अनुस्वारोऽत्र च लुप्तो वेदितव्यः, प्रमाणकारणं वन्दनकरणे, इत्थं तर्हि 'वन्दस्व' नमस्य 'निहवान्' जमालिप्रभृतीन् त्वं 'सर्वान्' निरवशेषान् , द्रव्यलिङ्गयुक्तत्वात् तेषामिति, अर्थतान् मिथ्यादृष्टित्वान्न वन्दसे तत् ननु 'एतान् द्रव्यलिङ्गयुक्तानपि 'अवन्दमानस्य अप्रणमतः लिङ्गमप्यप्रमाणं तव बन्दनप्रवृत्ताविति गाथार्थः ॥ ११२३ ॥ इत्थं लिङ्गमात्रस्य वन्दनप्रवृत्तावप्रमाणतायां प्रतिपादितायां सत्यामनभिनिविष्टमेव सामाचारिजिज्ञासयाऽऽह चोदकःजइ लिंगमप्पमाणं न नजई निच्छएण को भावो । दहण समलिंगं किं कायब्वं तु समणेणं ॥ ११२४ ॥ 12 व्याख्या-यदि 'लिङ्गं द्रव्यलिङ्गम् 'अप्रमाणम्' अकारण वन्दनप्रवृत्ती, इत्थं तर्हि 'न ज्ञायते' नावगम्यते 'निश्चयेन' परमार्थेन छद्मस्थेन जन्तुना कस्य को भावः ?, यतोऽसंयता अपि लब्ध्यादिनिमित्तं संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि च कार| णतोऽसंयतवदिति, तदेवं व्यवस्थिते 'दृष्ट्वा' अवलोक्य 'श्रमणलिङ्गं साधुलिङ्गं किं पुनः कर्तव्यं श्रमणेन' साधुना , पुनःशब्दार्थस्तुशब्दो व्यवहितश्चोको गाथानुलोम्यादिति गाथार्थः ॥ ११२४ ॥ एवं चोदकेन पृष्टः सन्नाहाचार्य: अप्पुब्बं दणं अब्भुटाणं तु होइ कायव्वं । साहुम्मि दिछपुब्वे जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥ ११२५ ॥ दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1048~ Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं -1 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११२५], भाष्यं [२०३...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया CREA प्रत ॥५२३॥ सूत्रांक ||७..|| ब्याख्या-'अपूर्वम्' अदृष्टपूर्व, साधुमिति गम्यते, 'दृष्ट्वा' अवलोक्य, आभिमुख्येनोस्थानमभ्युत्थानम्-आसनत्याग-1 वन्दनालक्षणं, तुशब्दाद्दण्डकादिग्रहणं च भवति कर्त्तव्यं, किमिति ?, कदाचिदसौ कश्चिदाचार्यादिविद्याद्यतिशयसम्पन्नः तत्प- ध्ययने दानायवाऽऽगतो भवेत् , प्रशिध्यसकाशमाचार्यकालकवत् , स खल्यविनीतं सम्भाव्य न तत्प्रयच्छतीति, तथा दृष्टपूर्वास्तु द्विप्रकारा-उद्यतविहारिणः शीतलविहारिणश्च, तत्रोद्यतबिहारिणि साधौ ‘दृष्टपूर्वे' उपलब्धपूर्वे 'यथाई' यथायोग्यमभ्युत्थानवन्दनादि 'यस्य' बहुश्रुतादेर्यद् योग्यं तत्कर्तव्यं भवति, यः पुनः शीतलविहारी न तस्याभ्युत्थानवन्दनाद्युत्सगतः किश्चित्कर्तव्यमिति गाथार्थः ॥११२५॥ साम्प्रतं कारणतः शीतलविहारिगतविधिप्रतिपादनाय सम्बन्धगाथामाह मुकधुरासंपागडसेवीचरणकरणपठभट्टे । लिंगावसेसमित्ते जं कीरइ तं पुणो वोच्छ ॥११२६ ॥ व्याख्या-धूः-संयमधूः परिगृह्यते, मुक्ता-परित्यक्ता धूर्येनेति समासः, सम्प्रकट-प्रवचनोपघातनिरपेक्षमेव मूलो-13 चरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्मकटसेवी, मुक्तधूश्चासौ सम्प्रकटसेवी चेति विग्रहः, तथा पर्यत इति चरण-प्रतादिलक्षणं क्रियत इति करणं-पिण्डविशुद्धयादिलक्षणं चरणकरणाभ्यां प्रकर्षेण भ्रष्टा-अपेतश्चरणकरणप्रभ्रष्टः, मुकधूः स-1 प्रकटसेषी पासी चरणकरणप्रभ्रष्टश्चेति समासस्तस्मिन्, प्राकृत शैल्या अकारेकारयोदीर्घत्वम् , इत्थम्भूते 'लिङ्गावशेष- | ॥५२॥ मात्रे' केवलद्रव्यलिङ्गयुक्ते यत्क्रियते किमपि तत्पुनर्वक्ष्ये, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशेषयति ?-कारणापेक्ष-कारण-1 मानित्य यत्क्रियते तद्वक्ष्ये-अभिधास्ये, कारणाभावपक्षे तु प्रतिषेधः कृत एव, विशेषणसाफल्यं तु मुक्तधूरपि कदाचि दीप अनुक्रम [९..] S REESAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1049~ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११२६], भाष्यं [ २०३...], त्सम्प्रकटसेवी न भवत्यपि अतस्तग्रहणं, संप्रकटसेवी चरणकरणप्रभ्रष्ट एवेति स्वरूपकथनमिति गाथार्थः ॥ ११२६ ॥ किं तत्क्रियत इत्यत आह--- वायाइ नमोकारो हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं बंदणं वावि ॥ ११२७ ॥ व्याख्या- 'वाया'ति निर्गमभूम्यादौ दृष्टस्य वाचाऽभिलापः क्रियते हे देवदत्त ! कीदृशस्त्वमित्यादिलक्षणः, गुरुतरपुरुषकार्यापेक्षं वा तस्यैव 'नमोकारो' ति नमस्कारः क्रियते हे देवदत्त ! नमस्ते, एवं सर्वत्रोत्तरविशेषकरणे पुरुषकार्यभेदः प्राक्तनोपचारानुवृत्तिश्च द्रष्टव्या, 'हत्थुस्सेहो य'त्ति अभिलापनमस्कारगर्भः हस्तोच्छ्रयश्च क्रियते, 'सीसनमणं च' शिरसाउत्तमाङ्गेन नमनं शिरोनमनं च क्रियते, तथा 'सम्प्रच्छनं' कुशलं भवत इत्यादि, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, 'अच्छणं 'ति[हुमानस्त ]त्सन्निधावासनं कञ्चित्कालमिति, एष तावद्वहिर्दृष्टस्य विधिः, कारणविशेषतः पुनस्तत्प्रतिश्रयमपि गम्यते, तत्राप्येष एव विधिः, नवरं 'छोभवंदणं'ति आरभट्या छोभवन्दनं क्रियते, 'वन्दणं वाऽवि' परिशुद्धं वा वन्दनमिति गाथार्थः ॥ ११२७ ॥ एतच वाङ्मस्कारादि नाविशेषेण क्रियते, किं तर्हि ? परिया परिपुरिसे विन्तं कालं च आगमं नच्चा । कारणजाए जाए जहारिहं जस्स जं जुग्गं ।। ११२८ ॥ व्याख्या - पर्यायश्च परिषच्च पुरुषश्च पर्यायपरिषत्पुरुषास्तान्, तथा क्षेत्रं कालं च आगमं 'णच्च'ति ज्ञात्वा - विज्ञाय 'कारणजाते' प्रयोजनप्रकारे 'जाते' उत्पन्ने सति 'यथाह' यथानुकूलं 'यस्य' पर्यायादिसमन्वितस्य यद् 'योग्यं' समनुरूपं वाङ मस्कारादि तत्तस्य क्रियत इति वाक्यशेषः, अयं गाथासमासार्थः ॥ ११२८ ॥ साम्प्रतमवयवार्थे प्रतिपादयन्नाह भाष्यकार: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'छोभवंदनस्य स्वरुपम् वर्ण्यते ~ 1050 ~ Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११२८], भाष्यं [२०४], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५२४॥ ||७..|| AASAIASCASARESCUE परियाय पंभचेर परिस विणीया सि पुरिस गया था। कुलकज्जादायत्ता आघवउ गुणागमसुयं वा ॥२०४॥ (भा) वन्दना। व्याख्या–पर्यायः' ब्रह्मचर्यमुच्यते, तत्मभूतं कालमनुपालितं येन, परिषद्विनीता वा-तत्प्रतिबद्धा साधुसंहतिः शोभना । ध्ययने 'से' अस्य 'पुरिस णच्या वत्ति पुरुषं ज्ञात्वा चा, अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, कथं ज्ञात्वा ?-कुलकार्यादीन्यनेनायत्तानि, लिङ्गेकाआदिशब्दाद्गणसङ्घकार्यपरिग्रहः, आघव'त्ति आख्यातः तस्मिन् क्षेत्रे प्रसिद्धस्तद्बलेन तत्रास्यत इति क्षेत्रद्वारार्थः, 'गुणा-18 रणिक वऽऽगमसुर्य बत्ति गुणा-अवमप्रतिजागरणादय इति कालद्वारावयवार्थः, आगमः-सूत्रार्थोभयरूपः, श्रुतं-सूवमेव, गुणाश्चा-1 ऽऽगमश्च श्रुतं चेत्येकवद्भावस्तद्वाऽस्य विद्यत इत्येवं ज्ञात्येति गाथार्थः ॥ २०४॥ एताई अकुव्वंतो जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । न भवद पवयणभत्ती अभत्तिमंतादओ दोसा ॥११२९॥ व्याख्या-'एतानि' वाङ्नमस्कारादीनि कपायोत्कटतयाऽकुर्वतः, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः, 'यथार्ह' यथायोगमईदर्शिते मार्गे न भवति प्रवचनभक्तिः, ततः किमित्यत आह-अभत्तिमतादओ दोसा' प्राकृतशैस्याऽभक्त्यादयो दोषाः, आदिशब्दात् स्वार्थअंशबन्धनादय इति गाथार्थः ॥११२९॥ एवमुद्यतेतरविहारिंगते विधी प्रतिपादिते सत्याह चोदकाकि नोऽनेन पर्यायाद्यन्वेषणेन १, सर्वथा भावशुद्धया कर्मापनयनाय जिनप्रणीतलिङ्गनमनमेव युक्त, तद्गतगुणविचारस्य |निष्फलत्वात् , न हि तद्गुणप्रभवा नमस्कर्तुनिर्जरा, अपि त्वात्मीयाध्यात्मशुद्धिप्रभवा, तथाहि ॥५२४॥ तित्थयरगुणा पडिमासु नत्थि निस्संसयं वियाणतो। तित्थयरेत्ति नमंतो सो पावह निजरं विउलं ॥११३०॥8॥ । व्याख्या-तीर्थकरस्य गुणा-ज्ञानादयस्तीर्थकरगुणाः ते 'प्रतिमासु विम्बलक्षणासु 'णस्थि' न सन्ति 'निःसंशयं' संश दीप अनुक्रम [९..] R-59424 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1051~ Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं -1 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३०], भाष्यं [२०४..., (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| यरहितं 'विजानन्' अवबुध्यमानः तथाऽपि तीर्थकरोऽयमित्येवं भावशुभया 'नमन्' प्रणमन् 'स' प्रणामकर्ता 'प्रामोति' आसादयति 'निर्जरां' कर्मक्षयलक्षणां 'विपुलां' विस्तीर्णामिति गाधार्थः ॥ ११३० ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयःलिंगं जिणपण्णत्तं एव नमंतस्स निजरा विउला । जइवि गुणविप्पहीणं वंदइ अज्झप्पसोहीए ॥ ११३१॥ व्याख्या-लिजयते साधुरनेनेति लिङ्ग-रजोहरणादिधरणलक्षणं जिनैः-अर्हनिः प्रज्ञप्त-प्रणीतम् एवं' यथा प्रतिमा इति 'नमस्कुर्षतः' प्रणमतो निर्जरा विपुला, यद्यपि गुणैः-मूलोत्तरगुणैर्विविधम्-अनेकधा प्रकर्षण हीनं-रहितं गुणविप्रहीणं, 'वन्दते' नमस्करोति 'अध्यात्मशुद्ध्या' चेतःशुवेति गाथार्थः ॥ ११३१॥ इत्थं चोदकेनोक्त दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यमुपदर्शयन्नाचार्य आहसंता तिस्थयरगुणा तित्थयरे तेसिमं तु अज्झप्पं । न य सावजा किरिया इयरेसु धुवा समणुमन्ना ॥ ११३२ ।। | व्याख्या-'सन्तः' विद्यमानाः शोभना वा तीर्थकरस्य गुणास्तीर्थकरगुणा-ज्ञानादयः, व?-'तीर्थकरें' अर्हति भगवति इयं च प्रतिमा तस्य भगवतः 'तेसिमं तु अझप्पं तेषां-नमस्कुर्वतामिदमध्यात्मम्-इदं चेतः, तथा न च तासु 'सावद्या' सपापा 'क्रिया' चेष्टा प्रतिमासु, 'इतरेषु' पार्श्वस्थादिषु 'धुवा' अवश्यंभाषिनी सावद्या क्रिया प्रणमतः, तत्र किमित्यत आह-समणुमण्णा' समनुज्ञा सावधक्रियायुक्तपावस्थादिप्रणमनात् सावधक्रियानुमतिरिति हृदयम् , अथवा सन्तस्तीर्थकर|गुणाः तीर्थकरे तान् वयं प्रणमामा तेषामिदमध्यात्मम्-इदं चेतः, ततोऽर्हद्गुणाध्यारोपेण चेष्टप्रतिमाप्रणामानमस्कःन च दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1052~ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३२], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक FAGAN हारिभ प्रत सूत्रांक ||७..|| सावद्या क्रिया-परिस्पन्दनलक्षणा, इतरेषु-पार्श्वस्थादिषु पूज्यमानेष्वशुभक्रियोपेतत्वात्तेषां नमस्कर्तुर्भुवा समनुज्ञेति ३ वन्दनागाथार्थः ॥ ११३२ ।। पुनरप्याह चोदकः ध्ययने द्रीया जह सावजा किरिया नस्थि य पडिमासु एवमियराऽपि ।तपभावे नस्थि फलं अह होह अहेउगं होइ॥११३३॥लिङ्गमात्र ॥५२५॥ | व्याख्या-यथा सायद्या क्रिया-सपापा क्रिया 'नारत्येव न विद्यत एवं प्रतिमासु, एवमितराऽपि-निरवद्याऽपि नास्त्येव, ततश्च 'तदभावे' निरवद्यक्रियाऽभावे नास्ति 'फलं' पुण्यलक्षणम् , अथ भवति 'अहेतुकं भवति' निष्कारणं च भवति, प्रणम्यवस्तुगतक्रियाहेतुकत्वा(भावा)त्फलस्येत्यभिप्रायः, अहेतुकत्वे चाकस्मिककर्मसम्भवान्मोक्षाद्यभाव इति गाथार्थः॥११३३॥ इत्थं चोदकेनोके सत्याहाचार्यःकामं उभयाभावो तहवि फलं अत्धि मणविसुद्धीए । तीह पुण मणविसुद्धीइ कारणं होति पडिमाउ ॥११३४॥ व्याख्या-कामम्' अनुमतमिदं, यदुत 'उभयाभावः' सावधेतरक्रियाऽभावः प्रतिमासु, तथाऽपि 'फलं' पुण्यलक्षणम् 'अस्ति' विद्यते, मनसो विशुद्धिर्मनोविशुद्धिस्तस्या मनोविशुद्धः सकाशात , तथाहि-स्वगता मनोविशुद्धिरेव नमस्कर्तुः18 पुण्यकारणं, न नमस्करणीयवस्तुगता क्रिया, आत्मान्तरे फलाभावात् , यद्येवं किं प्रतिमाभिरिति?, उच्यते, तस्याः पुनर्म नोविशुद्धेः 'कारणं' निमित्तं भवन्ति प्रतिमा, तहारेण तस्याः सम्भूतिदर्शनादिति गाथार्थः ।। ११३४ ॥ आह-एवं लिङ्ग-IN 18 मपि प्रतिमावन्मनोविशुद्धिकारणं भवत्येवेति, उच्यते ॥५२५॥ जइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग। उभयमवि अस्थि लिंगे न य पडिमासूभयं अत्थि॥११३५॥ दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1053~ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११३५], भाष्यं [ २०४...], व्याख्या - यद्यपि च प्रतिमा यथा मुनीनां गुणा मुनिगुणा - व्रतादयस्तेषु सङ्कल्पः- अध्यवसायः मुनिगुणसङ्कल्पस्तस्य कारणं निमित्तं मुनिगुणसङ्कल्प कारणं 'लिङ्गं' द्रव्यलिङ्गं, तथाऽपि प्रतिमाभिः सह वैधर्म्यमेव, यत उभयमप्यस्ति लिनेसावधकर्म निरवद्यकर्म च तत्र निरवद्यकर्मयुक्त एव यो मुनिगुणसङ्कल्पः स सम्यक्सङ्कल्पः, स एव च पुण्यफलः, यः पुनः सावद्यकर्मयुक्तेऽपि मुनिगुणसङ्कल्पः स विपर्याससङ्कल्पः क्लेशफलवासी, विपर्यासरूपत्वादेव, न च प्रतिमासूभयमस्ति, चेष्टारहितत्वात्, ततश्च तासु जिनगुणविषयस्य क्लेशफलस्य विपर्याससङ्कल्पस्याभावः, सावद्य कर्मरहितत्वात् प्रतिमानाम्, आह-इत्थं तर्हि निरवद्यकर्मरहितत्वात् सम्यक्सङ्कल्पस्यापि पुण्यफलस्याभाव एव प्राप्त इति उच्यते, तस्य तीर्थकरगुणाध्यारोपेण प्रवृत्तेर्नाभाव इति गाथार्थः ॥ ११३५ ॥ तथा चाऽऽह नियमा जिणेसु उ गुणा पडिमाओ दिस्स जे मणे कुणइ । अगुणे उ विद्याणतो कं नमउ मणे गुणं काउं ॥ ११३६ ॥ व्याख्या—'नियमादि'ति नियमेनावश्यंतथा 'जिनेष्वेव' तीर्थंकरेष्वेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'गुणाः' ज्ञानादयः, न प्रतिमासु, प्रतिमा दृष्ट्वा तास्वध्यारोपद्वारेण यान् 'मनसि करोति' 'चेतसि स्थापयति पुनर्नमस्करोति, अत एवासी तासु शुभः पुण्यफलो जिनगुणसङ्कल्पः, सावधकर्मरहितत्वात् न चायं तासु निरवद्यकर्माभावमात्राद्विपर्याससङ्कल्पः, सावयकर्मोपेतवस्तुविषयत्वात्तस्य, ततश्चोभय विकल एवाऽऽकारमात्रतुल्ये कतिपयगुणान्विते चाध्यारोपोऽपि युक्तियुक्तः, 'अगुणे उ' इत्यादि अगुणानेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् अविद्यमानगुणानेव 'विजानन्' अवबुध्यमानः पार्श्वस्थादीन् 'के नमउ भणे गुणं कार्ड' कं मनसि गुणं कृत्वा नमस्करोतु तानिति, स्थादेतत्-अन्यसाधुसम्बन्धिनं तेष्यध्यारो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1054~ Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक हारिभद्रीया ॥५२६॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११३६ ], भाष्यं [ २०४...], पद्वारेण मनसि कृत्वा नमस्करोतु, न, तेषां सावद्यकर्मयुक्ततयाऽध्यारोपविषयलक्षणविकलत्वात्, अविषये चाभ्यारोपं | कृत्वा नमस्कुर्वतो दोपदर्शनाद् ॥ ११३६ ॥ आह च "जह लंबगलिंगं जाणंतस्स नमओ हवइ दोसो । निद्र्धसमिय नाऊण वंदमाणे धुवो दोसो ॥ ११३७ ॥ व्याख्या -- यथा 'विडम्बकलिङ्गं' भाण्डादिकृतं 'जानतः' अवबुध्यमानस्य 'नमतः ' नमस्कुर्वतः सतोऽस्य भवति 'दोष' प्रवचनहीलनादिलक्षणः, 'निद्धन्धसं' प्रवचनोपघातनिरपेक्षं पार्श्वस्थादिकम् 'इय' एवं 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'चन्दमाणे धुवो दोसो' वन्दति नमस्कुर्वति सति नमस्कर्तरि ध्रुवः - अवश्यंभावी दोषः - आज्ञाविराधनादिलक्षणः, पाठान्तरं वा- 'निद्धंध संपि णाऊणं वंदमाणस्स दोसा उ' इदं प्रकटार्थमेवेति गाथार्थः ॥ ११३७ ॥ एवं न लिङ्गमात्र मकारणतोऽवगतसावद्यक्रियं नमस्क्रियत इति स्थापितं, भावलिङ्गमपि द्रव्यलिङ्गरहितमित्थमेवावगन्तव्यं भावलिङ्गगर्भ तु द्रव्यलिङ्गं नमस्क्रियते, तस्यैवाभिलषितार्थक्रियाप्रसाधकत्वात्, रूपकदृष्टान्तश्चात्र, आह च रुपं टंकं विसमाहयक्खरं नवि रूवओ छेओ । दुपहंपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवे ।। ११३८ ।। व्याख्या - अत्र तावच्चतुर्भङ्गी-रूपम् अशुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरमित्येकः, रूपमशुद्धं टङ्कं समाहताक्षर मिति द्वितीयः, रूपं शुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरमिति तृतीयः रूपं शुद्धं टङ्कं समाहताक्षर मिति चतुर्थः, अत्र च रूपकल्पं भावलिङ्गं टङ्कल्पं द्रव्यलिङ्गम्, इह च प्रथमभङ्गतुल्याश्चर कादयः, अशुद्धोभयलिङ्गत्वात्, द्वितीयभङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, अशुद्धभावलिङ्गत्वात् तृतीयभङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा अन्तर्मुहूर्तमात्रं कालम गृहीतद्रव्यलिङ्गाः, चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवः शीलयुक्ताः ३ वन्दनाध्ययने लिङ्मात्र नती दोषाः ~ 1055~ ||५२६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३८], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| गच्छगता निर्गताश्च जिनकल्पिकादयः, यथा रूपको भङ्गत्रयान्तर्गतः 'अच्छेक' इत्यविकल इति तदर्थक्रियार्थिना नोपादीयते, चतुर्थभङ्गनिरूपित एवोपादीयते, एवं भङ्गत्रयनिदर्शिताः पुरुषा अपि परलोकाधिनो यतो न नमस्करणीयाः, चरमभङ्गकनिदर्शिता एव नमस्करणीया इति भावना, अक्षराणि त्वेवं नीयन्ते-रूपं शुद्धाशुद्धभेदं, टङ्क विषमाहताक्षरंविपर्यस्तनिविष्टाक्षरं, नैव रूपकः छेकः, असांव्यवहारिक इत्यर्थः, द्वयोरपि शुद्धरूपसमाहताक्षरटकन्योः समायोगे सति |रूपकश्छेकत्वमुपैतीति गाथार्थः॥ ११३८ । रूपकदृष्टान्ते दान्तिकयोजना निदर्शयन्नाहरुप्पं पत्तेयबुहा टंक जे लिंगधारिणो समणा व्वस्स य भावस्स य छेओ समणो समाओगो ॥११३९॥ दारं ॥ । व्याख्या-रूपं प्रत्येकवुद्धा इत्यनेन तृतीयभङ्गाक्षेपः, टङ्क ये लिङ्गधारिणः श्रमणा इत्यनेन तु द्वितीयस्य, अनेनवाशुद्धशुद्धोभयात्मकस्यापि प्रथमचरमभङ्गद्वयस्येति, तत्र द्रव्यस्य च भावस्य च छेकः श्रमणः समायोगे-समाहताक्षरटङ्कशुद्धरूपकल्पद्रव्यभावलिङ्गसंयोगे शोभनः साधुरिति गाथार्थः ॥११३९॥ व्याख्यातं सप्रपञ्चं वैडूर्यद्वारं, ज्ञानद्वारमधुना, इह कश्चिज्ज्ञानमेव प्रधानमपवर्गबीजमिच्छति, यतः किल एवमागमः-'जं' अण्णाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। तं णाणी तिहि गुत्तो खवेद उसासमित्तेणं ॥१॥ तथा-'सुई जहा ससुत्ता ण णासई कयवरंमि पडियावि । जीवो तहा ससुत्तो ण णस्सइ गओऽपि संसारे ॥२॥ तथा-'णाणं गिण्हइ णाणं गुणेइ णाणेण कुणइ किच्चाई । भवसंसारसमुई यदज्ञानी कर्म क्षपयति बटुकाभिवर्षकोटीभिः । तज्ञानी त्रिनिर्गतः अपषस्युच्छ्वासमानेन || सूचिधा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिवाऽपि। जीवसथा ससूत्रो न नश्यति गतोऽपि संसारे ॥२॥ ज्ञानं गृहाति ज्ञानं गुणयति ज्ञानेन करोति कृयानि । भवसंसारसमुद्रं ज्ञानी ज्ञाने स्थितस्तरति ॥३॥ KEBAAR दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1056~ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं -1 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११३९], भाष्यं [२०४..., (४०) ज्ञानिद्वार प्रत सोत्तरं सूत्रांक ||७..|| . आवश्यक-दणाणी णाणे ठिओ तरइ ॥३॥ तस्माज्ञानमेव प्रधानमपवर्गप्राप्तिकारणम् , अतो ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यम् , आह-IM| वन्दनाहारिभ- अनन्तरगाथायामेव द्रव्यभावसमायोगे श्रमण उक्तः तस्य च कृतिकर्म कार्यमित्युक्तं, चरणं च भावो वर्तत इत्युक्ते सत्याहद्रीया कामं चरणं भावो तं पुण नाणसहिओ समाणेई । न य नाणं तु न भावो तेण र णाणिं पणिवयामो॥११४०॥ | व्याख्या-'कामम्' अनुमतमिदं, यदुत 'चरणं' चारित्रं 'भावः' भावशब्दो भावलिङ्गोपलक्षणार्थः, तत्पुनः 'ज्ञान॥५२७॥ सहितः' ज्ञानयुक्तः 'समापयति' निष्ठां नयति, यत इदमित्थमासेवनीयमिति ज्ञानादेवावगम्यते, तस्मात्तदेव प्रधान, न च । ज्ञानं तु न भावा, भाव एव, भावलि शान्तर्गतमिति भावना, तेन कारणेन र इति निपातः पूरणार्थ, ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी|2 हातं ज्ञानिनं 'प्रणमामः पूजयाम इति गाथार्थः ॥११४० ॥ यतश्च बाह्यकरणसहितस्याप्यज्ञानिनश्चरणाभाव एवोक्ता- 1 तम्हा ण बज्झकरणं मज्झपमाणं न यावि चारित्तं।माणं मज्झ पमाणं नाणे अ ठिअंजओ तित्थं ॥११४१॥ ___ व्याख्या-तस्मान्न 'बाह्यकरणं' पिण्डविशुद्धयादिकं मम प्रमाणं, न चापि 'चारित्र' ब्रतलक्षणं, तज्ज्ञानाभावे तस्याप्यभावात् , अतो ज्ञानं मम प्रमाण, सति तस्मिन् चरणस्यापि भावात्, ज्ञाने च स्थितं यतस्तीर्थ, तस्यागमरूपत्वादिति गाथार्थः ॥ ११४१ ॥ किं चान्यद्-दर्शनं भाव इष्यते, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति ( तत्त्वार्थे अ०१ सू०१) वचनात् , तत्र दर्शनं द्विधा-अधिगमजं नैसर्गिकं च, इदमपि च ज्ञानायत्तोदयमेव वर्तते, तथा चाहनाऊण य सम्भावं अहिगमसंमंपि होइ जीवस्स । जाईसरणनिसग्गुग्गयाविन निरागमा दिट्ठी॥११४२॥ | व्याख्या-'ज्ञात्वा च अवगम्य 'सद्भावं' सतां भावः सद्भावस्त, सन्तो जीवादयः, किम् ?-अधिगमात्-जीवादि-1 दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1057~ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| पदार्थपरिच्छेदलक्षणात् सम्यक्त्वं-श्रद्धानलक्षणमधिगमसम्यक्त्वम्, इदमधिगमसम्यक्त्वमपि, अपिशब्दाचारित्रमपि, |'भवति जीवस्य जायते आत्मन इत्यर्थः, नैसर्गिकमाश्रित्याह-जातिस्मरणात् सकाशात् निसर्गेण-स्वभावेनोद्गता-सम्भूता जातिस्मरणनिसर्गोद्गता, असावपि न 'निरागमा आगमरहिता 'दृष्टिः' दर्शनं दृष्टिरिति, यतः स्वयम्भूरमणमत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदर्शनाजातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोचनपरिणाममेव नैसर्गिकसम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्थालोचनं च ज्ञानं तस्मादिदमपि ज्ञानायत्तोदयमितिकृत्वा ज्ञानस्य प्राधान्यात् ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यमिति स्थितम् , अयं गाथाथैः ।। ११४२ ॥ इत्थं ज्ञानवादिनोके सत्याहाचायें:| नाणं सविसयनिययं न नाणमित्रोण कन्जनिप्फत्ती । मग्गण्णू दिईतो होइ सचिट्टो अचिहो य ॥११४३ ॥ व्याख्या-'ज्ञान' प्रकान्तं, स्वविषये नियतं स्वविषयनियतं, स्वविषयः पुनरस्य प्रकाशनमेव, यतश्चैवमतः न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः, मात्रशब्दः क्रियाप्रतिषेधवाचकः, अत्रार्थे मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति, 'सचेष्टः सव्यापारः 'अचेष्टश्च अप्रतिपद्यमानचेष्टश्च, एतदुक्तं भवति-यथा कश्चित्पाटलिपुत्रादिमार्गज्ञो जिगमिषुश्चेष्टदेशप्राप्तिलक्षणं कार्य गमनचेष्टोद्यत एव साधयति, न चेष्टाविकलो भूयसाऽपि कालेन, तत्प्रभावादेव, एवं ज्ञानी शिवमार्गमविपरीतमवगच्छन्नपि संयमक्रियोद्यत एव तत्प्राप्तिलक्षणं कार्य साधयति, नानुद्यतो, ज्ञानप्रभावादेव, तस्मादलं संयमरहितेन ज्ञानेनेति गाथाहृदयार्थः ॥११४३ ॥ प्रस्तुतार्थप्रतिपादकमेव दृष्टान्तान्तरमभिधित्सुराह आउज्जनदृकुसलाचि नहिया तं जणं न तोसेइ । जोगं अर्जुजमाणी निंदं खिसं च सा लहर ॥११४४॥ दीप 645445 अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1058~ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [९..] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥ ५२८ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११४४] भाष्यं [ २०४...], व्याख्या - आतोद्यानि - मृदङ्गादीनि नृत्तं-करचरणनयनादिपरिस्पन्द विशेषलक्षणम् आतोद्यैः करणभूतैर्नृत्तम् आतोद्यनृत्तं तस्मिन् कुशला- निपुणा आतोद्यनृत्तकुशला, असावपि नर्तकी, अपिशब्दात् रङ्गजनपरिवृताऽपि 'तं जनं' रङ्गजनं 'न तोषयति' न हर्ष नयतीत्यर्थः किम्भूता सती !-'योगमयुञ्जन्ती' कायादिव्यापारमकुर्वती, ततश्चापरितुष्टाद् रङ्गजनान्न किञ्चिदू द्रव्यजातं लभत इति गम्यते, अपि तु निन्दां खिंसां च सा लभते रङ्गजनादिति, तत्समक्षमेव या हीलना सा निन्दा, परोक्षे तु सा खिंसेति गाथार्थः । ११४४ ॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजनां प्रदर्शयन्नाह - इय लिंगनाणसहिओ काइयजोगं न जुंजई जो उन लहइ स मुक्खसुक्खं लहइ य निंद सपक्खाओ ।। ११४५ ॥ व्याख्या – 'इय' एवं लिङ्गज्ञानाभ्यां सहितो युक्तो लिङ्गज्ञानसहितः 'काययोगं' कायव्यापारं 'न युङ्क्ते' न प्रवर्तयति, यस्तु 'न लभते' न प्राप्नोति 'स' इत्थम्भूतः किं १-'मोक्षसौख्यं' सिद्धिमुखमित्यर्थः, लभते तु निन्दां स्वपक्षात् चशब्दाविसांच, इह च नर्तकीतुल्यः साधुः, आतोद्यतुल्यं द्रव्यलिङ्गं, नृत्तज्ञानतुल्यं ज्ञानं, योगव्यापारतुल्यं चरणं, रङ्गपरितोषतुल्यः सङ्घपरितोषः, दानलाभतुल्यः सिद्धिमुखलाभः, शेषं सुगमं, यत एवमतो ज्ञानचरणसहितस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभावार्थः । ११४५ ॥ चरणरहितं ज्ञानमकिञ्चित्करमित्यस्यार्थस्य साधका बहवो दृष्टान्ताः सन्तीति प्रदर्शनाय पुनरपि दृष्टान्तमाह जाणतोऽवि य तरिडं काइयजोगं न जुंजइ नईए । सो बुज्झइ सोएर्ण एवं नाणी चरणहीणो ।। ११४६ ॥ व्याख्या - जानन्नपि च तरीतुं यः 'काययोगं' कायव्यापारं न युङ्क्ते नद्यां स पुमान् 'उद्यते' हियते 'श्रोतसा' पयः ‍वन्दनाध्ययने ज्ञानिद्वारं सोत्तरं ~ 1059~ ॥५२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११४६], भाष्यं [ २०४...], प्रवाहेण, एवं ज्ञानी चरणहीनः संसारनद्यां प्रमादश्रोतसोह्यत इत्युपनयः, तस्माच्चरणविकलस्य ज्ञानस्य किञ्चित्करत्वादुभययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभिप्रायार्थः ॥ १९४६ ॥ एवमसहायज्ञानपक्षे निराकृते ज्ञानचरणोभयपक्षे च समर्थिते सत्यपरस्वाह गुणाहिए वंदrयं छमत्थो गुणागुणे अयाणंतो । वंदिला गुणहीणं गुणाहियं वावि वंदावे ।। ११४७ ॥ व्याख्या -- इहोत्सर्गतः गुणाधिके साधौ वन्दनं कर्तव्यमिति वाक्यशेषः, अयं चार्थः श्रमणं वन्देतेत्यादिप्रन्यात्सिद्धः, गुणहीने तु प्रतिषेधः पञ्चानां कृतिकर्मेत्यादिग्रन्थाद्, इदं च गुणाधिकत्वं गुणहीनत्वं च तत्त्वतो दुर्विज्ञेयम्, अतश्छद्मस्थस्तस्वतो गुणागुणान् आत्मान्तरवर्तिनः 'अजानन्' अनवगच्छन् किं कुर्यात् ?, वन्देत वा गुणहीनं कश्चित् गुणाधिकं चापि वन्दापयेत् उभयथाऽपि च दोषः, एकत्रागुणानुज्ञाप्रत्ययः अन्यत्र तु विनयत्यागप्रत्ययः, तस्मात्तूष्णीभाव एव श्रेयान् अलं वन्दनेनेति गाथाभिप्रायः ।। ११४७ ॥ इत्थं चोदकेनोके सति व्यवहारनयमत्तमधिकृत्य गुणाधिकत्वपरिज्ञानकारणानि प्रतिपादयन्नाचार्य आह आलएणं विहारेणं ठाणाचंकमणेण य । सको सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य ॥ ११४८ ॥ व्याख्या— आलयः- वसतिः सुप्रमार्जितादिलक्षणाऽधवा स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितेति, तेनाऽऽलयेन, नागुणवत एवंविधः खल्वालयो भवति, विहारः- मासकल्पादिस्तेन विहारेण, स्थानम् ऊर्ध्वस्थानं, चङ्क्रमणं - गमनं स्थानं च चङ्क्रमणं चेत्येकवद्भावस्तेन च, अविरुद्ध देश कायोत्सर्गकरणेन च युगमात्रावनिप्रलोकनपुरस्सराद्भुतगमनेन चेत्यर्थः शक्यः सुवि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1060~ Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११४८], भाष्यं [२०४...], (४०) ३ वन्दना| ध्ययने सुविहित प्रत सूत्रांक ॥५२९॥ त्वज्ञानं ||७..|| आवश्यक-IN हितो ज्ञातुं, 'भाषावैनयिकेन च' विनय एव वैनयिक समालोच्य भाषणेन आचार्यादिविनयकरणेन चेति भावना, हारिभ नतान्येवम्भूतानि प्रायशोऽसुविहितानां भवन्तीति गाथार्थः ॥ ११४८ ॥ इत्थमभिहिते सत्याह चोदकःद्रीया ___ आलएणं विहारेणं ठाणेचंकमणेण य । न सक्को सुविहिओ नाउँ भासावेणइएण य ॥ ११४९ ॥ व्याख्या-आलयेन विहारेण स्थानचङ्क्रमणेन (स्थानेन चक्रमणेन) चेत्यर्थः, न शक्यः सुविहितो ज्ञातुं भाषावैनयिकेन च, उदायिनृपमारकमाथुरकोइल्लादिभिर्व्यभिचारात्, तथा च प्रतीतमिदम्-असंयता अपि हीनसत्या लब्ध्यादिनिमित्तं |संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि च कारणतोऽसंयतवदिति गाथार्थः ॥ ११४९ ॥ किंच भरहो पसन्नचंदो सम्भितरबाहिरं उदाहरणं । दोसुप्पत्तिगुणकरं न तेसि बज्झं भवे करणं ॥ ११५०॥ व्याख्या-भरतः प्रसन्नचन्द्रः साभ्यन्तरवाह्यमुदाहरणम् , आभ्यन्तरं भरतः, यतस्तस्य बाह्यकरणरहितस्यापि विभूपितस्यैवाऽऽदर्शकगृहप्रविष्टस्य विशिष्टभावनापरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं, बाह्यं प्रसन्नचन्द्रः, यतस्तस्योत्कृष्टबाह्यकरणवतोऽप्यन्तःकरणविकलस्याधः सप्तमनरकप्रायोग्यकर्मवन्धो बभूव, तदेवं दोषोत्पत्तिगुणकरं न तयोर्भरतप्रसन्नचन्द्रयोः 'बझं भवे करण'ति छान्दसत्वादभूत्करणं दोषोत्पत्तिकारकं भरतस्य नाभूदशोभनं बाह्यं करणं गुणकारकं प्रसन्नचन्द्रस्य है नाभूच्छोभनमपीति, तस्मादान्तरमेव करणं प्रधानं, न च तदालयादिनाऽवगन्तुं शक्यते, गुणाधिके च बन्दनमुक्तमिति तृष्णीभाव एव ज्यायान् इति स्थितम् , इत्ययं गाथाभिप्रायः ॥ ११५० ॥ इत्थं तीर्थाङ्गभूतव्यवहारनयनिरपेक्षं चोदकमवगम्यान्येषां पारलौकिकापायदर्शनायाहाचार्य: **%824NEX दीप अनुक्रम [९..] ॥५२९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~10614 Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५०], भाष्यं [२०४...], (४०) Citte प्रत सूत्रांक % A % ||७..|| पत्तेयबुद्धकरणे चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । आहञ्चभावकहणे पंचहि ठाणेहि पासस्था ॥ ११५१॥ व्याख्या प्रत्येकबुद्धाः-पूर्वभवाभ्यस्तोभयकरणा भरतादयस्तेषां करणं तस्मिन्नान्तर एव फलसाधके सति मन्दमतयश्चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां च, पाठान्तरं वा 'बोधि नासिंति जिणवरिंदाणं' कथं :'आहच्चभावकहणे त्ति कादाचित्कभावकथने-बाह्यकरणरहितैरेव भरतादिभिः केवलमुत्पादितमित्यादिलक्षणे, कथं नाशयन्ति !-पञ्चभिः 'स्थानः प्राणातिपातादिभिः पारम्पर्येण करणभूतैः 'पार्श्वस्था' उक्तलक्षणा इति गाथार्थः ॥११५१॥ यतश्च उम्मग्गदेसणाए चरर्ण नासिति जिणवरिंदाणं । बावन्नदंसणा खलु न टु लम्भा तारिसा दई ॥११५२शादा। 8. व्याख्या-उन्मार्गदेशनया अनयाऽनन्तराभिहितं चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतमात्मनोऽन्येषां च, अतः 'व्यापनदर्शनाः खलु' विनष्टसम्यग्दर्शना निश्चयतः, खस्वित्यपिशब्दार्थों निपातः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धस्त-13 मुपरिष्टात् प्रदर्शयिष्यामः, 'न हु लम्भा तारिसा दहूं'ति नैव कल्पन्ते तादृशा द्रष्टुमपीति, किं पुनर्ज्ञानादिना प्रतिलाभ४ायितुमिति गाथार्थः ॥ ११५२ ॥ सप्रसङ्गं गतं ज्ञानद्वारम् , दर्शनद्वारमधुना, तत्र दर्शननयमतावलम्बी कृतिकर्मा|धिकार एवावगतज्ञाननयमत इदमाहजह नाणेणं न विणा चरणं नादसणिस्स इय नाणं।न य दंसणं न भावो तेन र दिहि पणिवयामो ॥११५३ ॥ | व्याख्या-यथा ज्ञानेन विना न चरणं, किन्तु सहैव, नादर्शनिन एवं ज्ञानं, किन्तु दर्शनिन एव, 'सम्यग्दृष्टानं । टू मिथ्यादृष्टेविपर्यास' इति वचनात् , तथा न च दर्शनं न भावः, किन्तु भाव एव, भावलिङ्गान्तर्गतमित्यर्थः, तेन कारणेन ज्ञानस्य % दीप अनुक्रम [९..] % 584% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~10624 Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११५३], भाष्यं [ २०४...], आवश्यक-तद्भावभावित्वादर्शनस्य ज्ञानोपकारकत्वाद् रेति प्राग्वत् 'दिट्ठिन्ति प्राकृतशैल्या दर्शनमस्यास्तीति दर्शनी तं दर्शनिनं, 'प्रणमामः' पूजयाम इति गाथार्थः ॥ ११५३ ॥ स्यादेतत् सम्यक्त्वज्ञानयोर्युगपद्भावादुपकार्योपकारकभावानुपपत्तिरिति, * एतच्चासद्, यतः- हारिभ द्रीया ॥५३०॥ गपि समुपनं सम्मत्तं अहिगमं चिसोहेइ । जह कायगमंजणाई जलदिडीओ विसोहति ॥ ११५४ ॥ व्याख्या- 'युगपदपि' तुल्यकालमपि 'समुत्पन्नं' सञ्जातं सम्यक्त्वं ज्ञानेन सह 'अधिगमं विशोधयति' अधिगम्यन्तेपरिच्छिद्यन्ते पदार्था येन सोऽधिगमः- ज्ञानमेवोच्यते, तमधिगमं विशोधयति ज्ञानं विमलीकरोतीत्यर्थः, अत्रार्थे दृष्टान्तमाह-यथा काचकाञ्जने जलदृष्टी विशोधयत इति, कवको वृक्षस्तस्येदं काचकं फलम्, अञ्जनं-सौवीरादि, काचकं चाञ्जनं च काचकाञ्जने, अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः, जलम् उदकं दृष्टिः स्वविषये लोचनप्रसारणलक्षणा, जलं च दृष्टिश्च जलदृष्टी ते विशोधयत इति गाथार्थः ॥ ११५४ ॥ साम्प्रतमुपन्यस्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिकेनांशतः भावनिकां प्रतिपादयन्नाह ३ वन्दना ध्ययने ज्ञानशोध जह २ सुज्झइ सलिलं तह २ रुवाई पासई दिट्ठी । इय जह जह ततरुई तह तह तत्तागमो होइ ।। ११५५ ॥ ४ ॥ ५३० ॥ व्याख्या- यथा २ शुद्ध्यति सलिलं काचक फलसंयोगात् तथा तथा 'रूपाणि' तद्गतानि पश्यति द्रष्टा, 'इय' एवं यथा यथा 'तत्त्वरुचिः' सम्यक्त्वलक्षणा, संजायत इति क्रिया, तथा तथा 'तत्त्वागमः' तत्त्वपरिच्छेदो भवतीति, एवमुपकारकं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1063~ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [२], मूलं 11 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५५], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| सम्यक्त्वं ज्ञानस्येति गाधार्थः ॥ ११५५ ॥ स्यादेतत्-निश्चयतः कार्यकारणभाव एवोपकार्योपकारकभावः, स चासम्भवी युगपद्धाविनोरिति, अत्रीच्यते- कारणकजविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुप्पन्नंपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥ ११५६ ॥ व्याख्या-यथेह कारणकार्यविभागो दीपप्रकाशयोः 'युगपजन्मन्यपि' युगपदुत्पादेऽपीत्यर्थः, युगपदुत्पन्नमपि तथा 'हेतुः' कारणं ज्ञानस्य सम्यक्त्वं, यस्मादेवं तस्मात्सकलगुणमूलत्वाद्दर्शनस्य दर्शनिन एव कृतिकर्म कार्यम्, आत्मनाऽपि तत्रैव यत्नः कार्यः, सकलगुणमूलत्वादेवेति, उक्तं च-"द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः । धर्महेतोर्द्विपदस्य, सम्यग्दर्शनमिष्यते ॥१॥" अयं गाथाभिप्रायार्थः ॥ ११५६ ॥ इत्थं नोदकेनोक्ते सत्याहाचार्यःनाणस्स जइवि हेऊ सविसपनिययं तहावि सम्मत्तं । तम्हा फलसंपत्ती न जुज्जए नाणपक्खे व ॥१॥(प्र०) जह तिक्खरुईवि नरो गंतु देसंतरं नयविहणो । पावेह न तं देसं नयजुत्तो चेव पाउणइ ॥२॥ (प्र.) इय नाणचरणहीणो सम्मद्दिष्ठीवि मुक्खदेस तु । पाउणइ नेय नाणाइसंजुओ चेव पाउणइ ॥३॥ (प्र.) व्याख्या-दमन्यकर्तृक गाथात्रयं सोपयोगमितिकृत्वा व्याख्यायते, ज्ञानस्य यद्यपि 'हेतुः' कारणं सम्यक्त्वमिति योगः, अपिशब्दोऽभ्युपगमवादसंसूचका, अभ्युपगम्यापि ब्रमः, तत्त्वतस्तु कारणमेव न भवति, उभयोरपि विशिष्टक्षयोपशमकार्यत्वात् , स्वविषयनियतमितिकृत्वा, स्वविषयश्चास्य तत्त्वेषु रुचिरेव, तथाऽपि 'तस्मात् सम्यक्त्वात् 'फलसंपत्ती ण जुज्जए' फलसम्प्राप्तिर्न युज्यते, मोक्षसुखप्राप्तिन घटत इत्यर्थः, स्वविषयनियतत्वादेव, असहायत्वादित्यर्थः, ज्ञानपक्ष %2525-51555 दीप अनुक्रम [९..] A 4% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1064 Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक इव, अनेन तत्प्रतिपादितसकलदृष्टान्तसङ्ग्रहमाह-यथा ज्ञानपक्षे मार्गज्ञादिभिर्दृष्टान्तैरसहायस्य ज्ञानस्यैहिकामुष्मिकफलाहारिभ-साधकत्वमुक्तम्, एवमत्रापि दर्शनाभिलापेन द्रष्टव्यं, दिमात्रं तु प्रदर्श्यते यथा 'तीक्ष्णरुचिरपि नरः' तीव्रश्रद्धोऽपि पुरुषः, क्क :- गन्तुं देशान्तर देशान्तरगमन इत्यर्थः 'नयविहीनो' ज्ञानगमनक्रियालक्षणनयशून्य इत्यर्थः प्राप्नोति न तं देशं गन्तुमिष्टं तद्विषयश्रद्धायुक्तोऽपि, नययुक्त एव प्राप्नोति, 'इय' एवं ज्ञानचरणरहितः सम्यग्दृष्टिरपि तत्त्वश्रद्धानयुक्तोऽपि मोक्षदेशं तु न प्राप्नोति, नैव सम्यक्त्वप्रभावादेव, किन्तु ज्ञानादिसंयुक्त एव प्राप्नोति तस्मात्रितयं प्रधानम्, अतत्रितययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्य, त्रितयं चाऽऽत्मनाऽऽसेवनीयं, 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' (तत्त्वा.अ. १सू. १) इति वचनादयं गाथात्रितयार्थः॥१-२-३॥ एवमपि तत्त्वे समाख्याते ये खल्वधर्मभूयिष्ठा यानि चासदालम्बनानि प्रतिपादयन्ति तदभिधित्सुराह धम्मनियत्तमईया परलोगपरम्हा विसयगिद्धा । चरणकरणे असत्ता सेणिधरायं ववइति ॥ ११५७ ।। व्याख्या - धर्मः - चारित्रधर्मः परिगृह्यते तस्मान्निवृत्ता मतिर्येषां ते धर्मनिवृत्तमतयः, परः- प्रधानो लोकः परलोको - मोक्षस्तत्पराङ्मुखाः 'विषयगृद्धाः शब्दादिविषयानुरक्ताः, ते एवम्भूताश्चरणकरणे 'अशक्ताः' असमर्थाः सन्तः श्रेणिकराज व्यपदिशन्त्यालम्बन मिति गाथार्थः ॥ ११५७ ॥ कथं १ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं [-] / [ गाथा- ७...], निर्युक्तिः [१९५६ ], भाष्यं [ २०४...], प्रक्षेप [१-३] द्रीया ॥ ५३१ ॥ सेणिओ आसि तथा बहुस्सुओ, न यावि पन्नतिधरो न वायगो । सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सह, समिक्ख पन्नाइ वरं खु दंसणं ।। ११५८ ॥ व्याख्यान 'श्रेणिकः' नरपतिरासीत् 'तदा' तस्मिन् काले 'बहुश्रुतः' बह्रागमः महाकल्पादिश्रुतधर इत्यर्थः, 'न २ वन्दना ध्ययने सम्युक्रम्यां मोक्षः ~1065~ ॥५३१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११५८], भाष्यं [२०४...], (४०) * * * % % - प्रत सूत्रांक ||७..|| चापि प्रज्ञप्तिधरः' न चापि भगवतीवेत्ता 'न वाचकः' न पूर्वधरः, तथाऽप्यसावसहायदर्शनप्रभावादेव 'आगमिस्साए'त्ति आयत्यामागामिनि काले 'जिनो भविष्यति' तीर्थकरो भविष्यति, यतश्चैवमतः 'समीक्ष्य दृष्ट्वा 'प्रज्ञया' बुझ्या दर्शनविपाक तीर्थकराख्यफलप्रसाधकं वरं खुदंसणन्ति खुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् वरं दर्शनमेवाङ्गीकृतमिति वाक्यशेषः, अयं वृत्तार्थः ॥११५८॥ किंच-शक्य एयोपाये प्रेक्षावतःप्रवृत्तियुज्यते, न पुनरशक्ये शिरःशूलशमनाय तक्षकफणालङ्कारग्रहणकल्पे चारित्रे, चारित्रं च तत्त्वतः मोक्षोपायत्वे सत्यप्यशक्यासेवन, सूक्ष्मापराधेऽपि अनुपयुक्तगमनागमनादिभिर्विराध्यमानवादायासरूपत्वाच्च, नियमेन च छद्मस्थस्य तभंश उपजायते सर्वस्यैवातः भटेण चरित्ताओ सुहुपरं दंसणं गहेयव्वं । सिज्झति चरणरहिया दंसणरहिया न सिझंति ॥ ११५९॥ व्याख्या-'भ्रष्टेन' युतेन, कुतः१-चारित्रात्, सुतरां दर्शनं ग्रहीतव्यं, पुनर्वाधिलाभानुबन्धिशक्यमोक्षोपायत्वात् । तथा च-सिद्ध्यन्ति चरणरहिताः प्राणिनः-दीक्षाप्रवृत्त्यनन्तरमृतान्तकृत्केवलिनः, दर्शनरहितास्तु न सिद्ध्यन्ति, अतो दर्शनमेव प्रधानं सिद्धिकारणं, तद्भावभाविवादित्ययं गाथार्थः ॥११५९ ॥ इत्थं चोदकाभिप्राय उक्तः, साम्पतमसहायदर्शनपक्षे दोषा उच्यन्ते, यदुक्तं-'न श्रेणिक आसीत्तदा बहुश्रुत' इत्यादि, तन्न, तत एवासी नरकमगमत् , असहायदर्शनयुक्तत्वात् , अन्येऽप्येवंविधा दशारसिंहादयो नरकमेव गता इति, आह च दसारसीहस्स य सेणियस्सा, पेढालपुत्सस्स य सच्चइस्स। अणुत्तरा दसणसंपया तया, विणा चरित्तेणऽहरं गई गया ॥ ११६०॥ दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~10664 Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५३२॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११६० ], भाष्यं [ २०४...], व्याख्या- 'दशारसिंहस्य' अरिष्टनेमिपितृव्यपुत्रस्य 'श्रेणिकस्य च' प्रसेनजित्पुत्रस्य पेढालपुत्रस्य च सत्यकिनः 'अनुतरा' प्रधाना क्षायिकेति यदुक्तं भवति, का ?-दर्शनसम्पत् 'तदा' तस्मिन् काले, तथाऽपि बिना चारित्रेण 'अधरां गतिं गता' नरकगतिं प्राप्ता इति वृत्तार्थः ॥ ११६० ॥ किं च- सयाओवि गईओ अविरहिया नाणदंसणघरेहिं । ता मा कासि पमायं नाणेण चरितरहिएणं ॥। ११६१ ॥ व्याख्या- 'सर्वा अपि' नारकतिर्यनरामरगतयः 'अविरहिताः' अविमुक्ताः, कै: ?-ज्ञानदर्शनधरैस्सच्चैः, यतः - सर्वा स्वेव सम्यक्त्व श्रुतसामायिकद्वयमस्त्येव, न च नरकगतिव्यतिरेकेणान्यासु मुक्तिः, चारित्राभावात्, तस्माचारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणं, तद्भावभावित्वादिति यस्मादेवं 'तं मा कासि पमायं'ति तत् तस्मान्मा कार्षीः प्रमादं, ज्ञानेन चारित्ररहितेन तस्येष्टफलासाधकत्वात्, ज्ञानग्रहणं च दर्शनोपलक्षणार्थमिति गाथार्थः । ११६१ ॥ इतश्च चारित्रमेव प्रधानं, निय मेन चारित्रयुक्त एव सम्यक्त्वसद्भावाद्, आह च सम्मतं अचरितस्स हुज भगणाइ नियमसो नस्थि । जो पुण चरितजुत्तो तस्स उ नियमेण सम्मसं ॥ ११३२ ॥ व्याख्या---' सम्यक्त्वं' प्राग्वर्णितस्वरूपम् 'अचारित्रस्य चारित्ररहितस्य प्राणिनो भवेत् 'भजनया' विकल्पनया-कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति, 'नियमशो नास्ति' नियमेन न विद्यते, प्रभूतानां चारित्ररहितानां मिथ्यादृष्टित्वात् यः पुनश्चारित्रयुक्तः सत्त्वस्तस्यैव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'नियमेन' अवश्यतया सम्यक्त्वम्, अतः सम्यक्त्वस्यापि निय मतश्चारित्रयुक्त एव भावात्प्राधान्यमिति गाथार्थः । ११६२ ॥ किं च---- ३ वन्दनाध्ययने दर्शनपक्षः ~ 1067 ~ ||५३२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११६३], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| जिणवयणयाहिरा भाषणाहिं उव्वट्टणं अयाणता । नेरइयतिरियएगिदिएहि जह सिझई जीवो ॥ ११६३ ।। व्याख्या-'जिनवचनवाह्या' यथावस्थितागमपरिज्ञानरहिताः प्रत्येकं ज्ञानदर्शननयावलम्बिनः 'भावणाहिँति उक्तेन न्यायेन ज्ञानदर्शनभावनाभ्यां सकाशात् , मोक्षमिच्छन्तीति वाक्यशेषः, 'उद्वर्तनामजानाना' नारकतिर्यगेकेन्द्रियेभ्यो यथा सिद्धयति जीवस्तथोद्वर्तनामजानाना इति योगः, इयमत्र भावना-ज्ञानदर्शनभावेऽपि न नारकादिभ्योऽनन्तरं मनुष्यभावमप्राप्य सिद्ध्यति कश्चित् , चरणाभावात् , तेनानयोः केवलयोरहेतुत्वं मोक्षं प्रति, तेभ्य एवैकेन्द्रियेभ्यश्च ज्ञानादिरहितेभ्योऽप्युद्वत्ता मनुष्यत्वमपि प्राप्य चारित्रपरिणामयुक्त एव सिद्ध्यति, नायुक्तोऽकर्मभूमिकादिः, अत इयमुद्धर्तना कारणवैकल्यं सूचयतीति गाथार्थः ॥ ११६३ ।। पुनरपि चारित्रपक्षमेव समर्थयन्नाह सुमुवि सम्मट्टिी न सिझई चरणकरणपरिहीणो। जं चेव सिद्धिमूलं मूढो तं चेव नासेइ ॥ ११६४ ॥ व्याख्या-'सुष्टुपि' अतिशयेनापि सम्यग्दृष्टिन सिस्यति, किम्भूतः १-चरणकरणपरिहीणः, तद्बादमेव च समर्थयन् , किमिति ?-'यदेव सिद्धिमूलं' यदेव मोक्षकारणं सम्यक्त्वं मूढस्तदेव नाशयति, केवलतद्वादसमर्थनेन, 'एकपि असद्दहतो मिच्छंति वचनात , अथवा सुतृपि सम्यग्दृष्टिः क्षायिकसम्यग्दृष्टिरपीत्यर्थः, न सियति चरणकरणपरिहीणा, श्रेणिकादिवत्, किमिति ?-यदेव सिद्धिमूल-चरणकरणं मूढस्तदेव नाशयत्यनासेवनयेति गाथार्थः ॥ ११६४ ॥ किं च-अयं केवलदर्शनपक्षो न भवत्येवागमविदः सुसाधो, कस्य तहि भवति !, अत आह दसणपक्खो सावय चरित्तभडे य मंदधम्मे य । दसणचरित्तपक्खो समणे परलोगकंखिम्मि ॥११६५ ॥ दीप अनुक्रम [९..] SCRNAMA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1068~ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं -11 [गाथा-७...], नियुक्ति: [११६५], भाष्यं २०४...], (४०) आवश्यकहारिभ- द्रीया सत्रयीयो प्रत सूत्रांक ॥५३ ॥ % ||७..|| व्याख्या-दर्शनपक्ष'श्रावके' अप्रत्याख्यानकषायोदयवति भवति 'चारित्रभ्रष्टे च' कस्मिश्चिंदव्यवस्थितपुराणे 'मन्द-IX वन्दनाधौ च' पार्श्वस्थादी, दर्शनचारित्रपक्षः श्रमणे भवति, किम्भूते ?-परलोकाकाङ्गिणि, सुसाधावित्यर्थः, प्राकृतशैल्या चेह सप्तमी षष्ठन्धर्थ एव द्रष्टव्या, दर्शनग्रहणाच ज्ञानमपि गृहीतमेव द्रष्टव्यम् , अतो दर्शनादिपक्षस्त्रिरूपो वेदितव्य इति गाथार्थः ॥ ११६५ ॥ अपरस्त्वाह-यद्येवं बह्वीभिरुपपत्तिभिश्चारित्रं प्रधानमुपवण्यते भवता ततस्तदेवास्तु, अलं ज्ञानदर्श-| नाभ्यामिति, न, तस्यैव तयतिरेकेणासम्भवाद्, आह पारंपरप्पसिद्धी दसणनाणेहिं होइ चरणस्स । पारंपरप्पसिद्धी जह होइ तहऽन्नपाणाणं ॥ १११६ ॥ व्याख्या-पारम्पर्येण प्रसिद्धिः पारम्पर्यप्रसिद्धिः-स्वरूपसत्ता, एतदुकं भवति-दर्शनाज्ज्ञानं, ज्ञानाचारित्रम् , एवं पारम्पर्येण चरणस्वरूपसत्ता, सा दर्शनज्ञानाभ्यां सकाशाद्भवति चरणस्य, अतस्तद्भावभावित्वाचरणस्य त्रितयमप्यस्तु, लौकिकं न्यायमाह-पारम्पर्यप्रसिद्धिर्यथा भवति तथाऽन्नपानयोलोंकेऽपि प्रतीतैवेति क्रिया, तथा चान्नार्थी स्थालीन्धनाद्यपि गृह्णाति पानार्थी च द्राक्षाद्यपि, अतखितयमपि प्रधानमिति गाथार्थः ॥ ११६६ ।। आह-योषमतस्तुल्यबलत्वे सति ज्ञानादीनां किमित्य स्थानपक्षपातमाश्रित्य चारित्रं प्रशस्यते भवतेति !, अत्रोच्यतेजम्हा सणनाणा संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं । चारित्तजुया दिति उ विसिस्सए तेण चारिसं ॥११६७।। । व्याख्या-यस्माद्दर्शनज्ञाने 'सम्पूर्णफलं' मोक्षलक्षणं 'न ददतः' न प्रयच्छतः प्रत्येकं, चारित्रयुक्त दत्ते एव, विशेष्यते ॥५३३॥ तेन चारित्रं, तस्मिन्सति फलभावादिति गाथार्थः ॥ ११६७ ॥ आह-विशिष्यतां चारित्रं, किन्तु दीप अनुक्रम [९..] 40 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1069~ Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११६८], भाष्यं [२०४...], (४०) 15 प्रत सूत्रांक ||७..|| उज्जममाणस्स गुणा जह हुँति ससत्तिओ तवसुएसुं । एमेव जहासत्ती संजममाणे कहं न गुणा ॥ ११३८॥ व्याख्या-'उज्जममाणस्स'त्ति उद्यच्छतः-उद्यम कुर्वतः साधो, क-तपःश्रुतयोरिति योगः, 'गुणाः' तपोज्ञानावाप्तिनिर्जरादयो यथा भवन्ति 'स्वशक्तितः' स्वशक्त्योद्यच्छतः, एवमेव 'यथाशक्ति' शक्त्यनुरूपमित्यर्थः, संजममाणे कहं न गुण'त्ति संयच्छमाने-संयम पृथिव्यादिसंरक्षणादिलक्षणं कुर्वति सति साधी कथं न गुणाः ?, गुणा एवेत्यर्थः, अथवा कथं न गुणा येनाविकलसंयमानुष्ठानरहितो विराधकः प्रतिपद्यत इति ?, अन्रोच्यतेअणिगुहंतो विरियं न बिराहेद चरणं तवसुएसुं । जइ संजमेऽवि पिरियं न निगूहिज्जा न हाविजा ॥ ११६९ ।। व्याख्या-'अनिगूहन् वीर्य' प्रकटयन् सामर्थ्य यथाशक्त्या, की-तपःश्रुतयोरिति योगः, किं?'न विराधयति चरणं' न खण्डयति चारित्रं ?, यदि 'संयमेऽपि' पृथिव्यादिसंरक्षणादिलक्षणे 'वीर्य' सामर्थ्यमुपयोगादिरूपतया 'न निगूहयेत्' न प्रच्छादयेन्मातृस्थानेन 'न हाविज'त्ति ततो न हापयेत् संयम न खण्डेत् , स्यादेव संयमगुणा इति गाथार्थः ॥११६९॥ संजमजोएसु सया जे पुण संतचिरियावि सीयति । कह ते विसुद्धचरणा बाहिरकरणालसा हंति ॥११७०॥ व्याख्या-'संयमयोगेषु' पृथिव्यादिसंरक्षणादिव्यापारेषु 'सदा सर्वकालं ये पुनः प्राणिनः 'संतविरियावि सीयंति'त्ति विद्यमानसामर्थ्या अपि नोत्सहन्ते, कथं ते विशुद्धचरणा भवन्तीति योगः?, नैवेत्यर्थः, वाह्यकरणालसाः सन्तः-प्रत्युपेक्षणादिबाह्यचेष्टारहिता इति गाथार्थः॥११७०||आह-ये पुनरालम्बनमाश्रित्य बाह्यकरणालसा भवन्ति तेषु का वातेति ?, उच्यते आलंबणेण केण जे मने संयम पमायति । न हुतं होइ पमाणं भूपस्थगवेसणं कुजा ॥११७१॥ दीप अनुक्रम RX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1070~ Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७१], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५३४॥ ||७..|| व्याख्या-आलम्ब्यत इत्यालम्पन-अपततां साधारणस्थानं तेनालम्बनेन 'केनचित्' अव्यवच्छित्यादिना ये प्राणिनः । वन्दनामन्य' इति एवमहं मन्ये 'संयमम्' उक्तलक्षणे 'प्रमादयन्ति' परित्यजन्ति, 'न हु तं होइ पमाण' नैव तदालम्बनमात्रं ध्ययने भवति प्रमाणम्-आदेयं, किन्तु ? 'भूतार्थगवेषणं कुर्यात्' तत्त्वार्थान्वेषणं कुर्यात्-किमिदं पुष्टमालम्बनम् ? आहोस्विन्नेति, सालम्बन सेवा यद्यपुष्टमविशुद्धचरणा एव ते, अथ पुष्टं विशुद्धचरणा इति गाथार्थः ॥ ११७१ ॥ अपरस्त्वाह-आलम्बनात्को विशेष उप-] जायते । येन विशुद्धचरणा भवन्तीति, अत्र दृष्टान्तमाह सालंबणो पडतो अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंयणसेवा धारेइ जई असढभावं ॥ ११७२॥ व्याख्या-इहालम्बनं द्विविधं भवति-द्रव्यालम्बनं भावालम्बनं च, द्रव्यालम्बनं गादी प्रपतता यदालम्ब्यते द्रव्यं, तदपि द्विविधम्-पुष्टमपुष्टं च, तत्रापुष्टं दुर्बलं कुशवञ्चकादि, पुष्टं तु बलवत्कठिनवल्यादि, भावालम्बनमपि पुष्टापुष्टभेदेन | द्विधैव, तत्रापुष्टं ज्ञानाद्यपकारक, तद्विपरीतं तु पुष्टमिति, तच्छेद-'कहिं अछित्ति अदुवा अहीहं, तबोवहाणेसु य उज्जमिस्स। गणं व णीईइ व हु सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं ॥१॥" तदेवं व्यवस्थिते सति सहालम्बनेन वर्तत इति सालम्बना, असौ पतन्नपि आरमानं 'दुर्गमेऽपि' गर्तादौ धारयति, पुष्टालम्बनप्रभावादिति, 'इय' एवं सेवन सेवा प्रतिसेवनेत्यर्थः सालम्बना चासौ सेवा च सालम्बनसेवा सा संसारगर्ते प्रपतन्तं धारयति यतिमशउभावं-मातृस्थानरहितमित्येष गुण ॥५३४॥ इति गाथार्थः ॥ ११७२ ॥ साम्प्रतं सिसाधयिषितार्थव्यतिरेकं दर्शयन्नाह करिष्याम्पत्युञ्छिन्तिमथवाऽभ्येष्ये तपउपधानयोरुषस्यामि । गणं वा नीवैव सारविष्यामि सालम्बसेवी समुपैति मोक्षम् ॥३॥ दीप अनुक्रम ९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1071~ Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११७३], भाष्यं [ २०४...], आलंबहीण पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुन्तारे । इय निक्कारणसेवी पडद् भवोहे अगाहंमि ।। ११७३ ।। व्याख्या-आलम्बनहीनः पुनर्निपतति स्खलितः, क ? -'अहे दुरुत्तारे'ति गर्तायां दुरुत्तारायाम्, 'इय' एवं 'निष्कारणसेवी' साधुः पुष्टालम्बनरहित इत्यर्थः, 'पतति भवौघे अगाधे' पतति भवगर्तायामगाधायाम्, अगाधत्वं पुनरस्या दुःखेनोत्तारणसम्भवादिति गाथार्थः ॥ ११७३ ॥ गतं सप्रसङ्गं दर्शनद्वारम्, इदानीं 'नियावासे'त्ति अस्यावसरः, अस्य च सम्बन्धो व्याख्यात एव गाथाक्षरगमनिकाय, स एव लेशतः स्मार्यते-इह यथा चरणविकला असहायज्ञानदर्शनपक्षमालम्बन्ति एवं नित्यवासाद्यपि, आइ च " जे जत्थ जया भग्गा ओगासं ते परं अविदंता । गंतुं तत्थऽचयंता इमं पहाणंति घोसंति ॥ ११७४ ॥ व्याख्या- 'ये' साधवः शीतलविहारिणः 'यत्र' अनित्यवासादी 'यदा' यस्मिन् काले 'भग्ना' निर्विण्णाः 'अवकाशे' स्थानं ते 'परम्' अन्यत् 'अविदंत'त्ति अलभमाना गन्तुं 'तत्र' शोभने स्थाने अशक्नुवन्तः किं कुर्वन्ति ? - इमं पहाणंति घोसन्ति'त्ति यदस्माभिरङ्गीकृतं साम्प्रतं कालमाश्रित्येदमेव प्रधानमित्येवं घोषयन्ति दितो इत्थ सत्थेणं जहा कोइ सत्थो पविरलोदगरुकलच्छाय मद्भाणं पवण्णो, तत्थ केइ पुरिसा परिस्संता पविरलासु छायासु जेहिं तेहिं वा पाणिएहिं पडिबद्धा अच्छंति, अण्णे य सद्दाविंति एह इम ं चैव पहाणंति, तंमि सत्ये केइ तेसिं पडिसुणंति, केइ ण दृष्टान्तो सार्थेन यथा कोऽपि साथैः प्रमिरको क्षमायमध्यानं प्रपद्मः तत्र केचित्पुरुषाः परिश्रान्ताः प्रविरला छायासु वैस्तैर्वा पानीयैः प्रतिबद्धातिष्ठन्ति अभ्यां शब्दयन्ति-भायातेदमेव प्रधानमिति तस्मिन् सायें केचितेषां प्रतिशृण्वन्ति केचिन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1072~ Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७५], भाष्यं [२०४...], (४०) ३बन्दना प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक-IPSणंति, जे मुणिति ते छुहातण्हाइयाणं दुक्खाणं आभागी जाया, जे न सुणंति ते खिप्पमेव अपडिबद्धा अद्धाण सीस हारिभ- गंतु उदयस्स सीयलस्स छायाणं च आभागी जाया। जहा ते पुरिसा विसीयंति तहा पासत्थाई, जहा ते णिच्छिण्णा ध्ययने द्रीया |तहा सुसाहू । अयं गाथार्थः ॥ ११७४ ॥ साम्प्रतं यदुकमिदं प्रधानमिति घोषयन्ति तदर्शयति (नित्यवा| नीयावासविहारं चेइयभत्तिं च अज्जियालाभं । विगईसु य पडिबंधं निहोसं चोइया विति॥ ११७५ ॥ ॥५३५।। साद्या लम्ब० व्याख्या-नित्यवासेन विहारं, नित्यवासकल्पमित्यर्थः, चैत्येषु भक्तिश्चैत्यभकिस्तां च, चशब्दात्कुलकार्यादिपरिग्रहः। आर्यिकाभ्यो लाभस्तं, क्षीराद्या विगतयोऽभिधीयन्ते तासु विगतिषु च 'प्रतिबन्धम् आसङ्गं निर्दोषं चोदिताः अन्येनोद्यतविहारिणा 'ब्रुवते' भणन्तीति गाथार्थः ॥ ११७५ ॥ तत्र नित्यावासविहारे सदोषं चोदिताः सन्तस्तदा कथं वा निर्दोष बुवत इत्याह जाहेवि य परितंता गामागरनगरपट्टणमडता । तो केइ नीयवासी संगमथेरं बवासंति ॥ ११७६ ॥ व्याख्या-यदाऽपि च 'परितान्ताः सर्वथा श्रान्ता इत्यर्थः, किं कुर्वन्तः सन्तः ?-ग्रामाकरनगरपत्तनान्यटन्तस्सन्तः, ग्रामादीनां खरूपं प्रसिद्धमेव, अतः केचन' नष्टनाशका नित्यवासिनः, न तु सर्व एव, किं?-सङ्गमस्थविरमाचार्य व्यप- ५३५॥ दिशन्त्यालम्बनत्वेन इति गाथार्थः ॥ ११७६ ॥ कथं ? भृण्वन्ति, ये ऋण्वन्ति ते क्षुधातृष्णादिकानां दुःखानामामागिनो जाताः, ये न शृण्वन्ति ते क्षिप्रमेवाप्रतिबद्धा अध्वनः शीर्ष गत्वोदकस्य शीतहालस छायानां चाभागिनो जाताः । यथा ते पुरुषा विषीदन्ति तथा पास्वादयः, यथा से निस्तीमा क्षया सुसाधवः । दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1073~ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७७], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| संगमधेरायरिओ सुड तवस्सी तहेव गीयत्यो । पेहित्ता गुणदोसं नीयावासे पवत्तो उ ॥ १९७७॥ व्याख्या-निगदसिद्धा, कः पुनः सङ्गमस्थविर इत्यत्र कथानकं-कोईलणयरे संगमथेरा, दुम्भिक्खे तेण साहुणो विसज्जिया, ते तं णयरं णव भागे काऊण जंघाबलपरिहीणा विहरंति, णयरदेवया किर तेसिं उवसंता, तेसिं सीसो दत्तो णाम अहिंडओ चिरेण कालेणोदंतवाहगो आगओ, सो तेसिं पडिस्सए ण पविसइ णिययावासित्ति कार्ड, भिक्खवेलाए उग्गाहियं हिंडताणं संकिलिस्सइ-को डोऽयं सहकुलाणि ण दाएइत्ति, एगत्व सेठियाकुले रोवणियाए गहियओ दारओ, |छम्मासा रोवंतगरस, आयरिएहिं चप्पुडिया कया-मा रोव, वाणमंतरीए मुको, तेहिं तुढेहिं पडिलाहिया जधिच्छिएण, सो विसजिओ, एताणि ताणि कुलाणित्ति, आयरिया सुइरं हिंडिऊण अंतं पंतं गहाय आगया, समुद्दिडा, आवस्सयआलोयणाए आयरिया भणति-आलोएहि सो भणइ-तुम्भेहिं समं हिंडिओत्ति, ते भणति-धाइपिंडो ते भुत्तोत्ति, भणइ-अइसुहुमाणित्ति बइटो, देवयाए अहरचे वासं अंघयारं च विउवियं एस हीलेइत्ति, आयरिएहिं भणिओ-अतीहि, कोसेरनगरे संगमस्थविराः, दुर्भिक्षे तः साधयो विमाने तमगर नव भागान् कृत्वा परिक्षीणणसाबला विहरन्ति, मगर देवता किल तेषामुप-। शान्ता, तेषां शिप्यो दत्तो नामाविण्यकविरेण कालेगोदन्तवाहक आगतः, स तेषां प्रतिश्रयेन प्राविक्षत् नियवासीतिकरवा, भिक्षावेकायामापप्रहिकं हिपहमानयोः संहिश्यति, वृद्धोऽयं श्राद्धकुलानि न दर्शयतीति, एकत्र श्रेष्टिकुले रोदिन्या गृहीतो दारकः, पषमासी रुदति, आचार्यश्चप्पुटिका कृता मा रोदी, व्या मुक्तः, तैस्तुष्टैः प्रतिकाभिता पारच्छिकेन, स विमृष्टः, एतानि तानि कुलानीति, आचार्याः सुचिरं हिण्डयित्वा अन्तप्रान्तं गृहीत्वाऽऽआताः, समुदिष्टाः, आवश्षकालोचनावामाचार्या भणन्ति-आलोचय, स भणति-युष्माभिः समं हिण्डित इति, ते भणन्ति-धाबीपिण्डस्चया भुक्क इति, भणति-अतिसूक्ष्मतराण्येतानीति अपविष्टः, देवतयाऽधरा वर्षा अन्धकारश्च विकुक्तिी एपहीलतीति, आचार्भणितः-मागच्छ.* कोलबरे + नव दा. दो य. कुण्टोऽयं, दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: संगमस्थावीरस्य दृष्टांत ~1074~ Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११७७], भाष्यं [२०४...], (४०) वन्दना आवश्यक- हारिभद्रीया चत्यभ प्रत त्यालम्ब० सूत्रांक ॥५३६॥ ||७..|| सो भणइ-अंधयारोत्ति, आयरिएहिं अंगुली पदाइया, सा पजलिया, आउट्टो आलोएइ, आयरियाविणव भागे परिक- हंति, एवमयं पुडालवणो ण होइ सबेसि मंदधम्माणमालंबणन्ति ।। ११७७ ।। आह च ओमे सीसपवासं अप्पडिबंधं अजंगमत्तं च । न गणंति एगखित्ते गणति वासं निययवासी ॥११७८॥ व्याख्या-ओमे' दुर्भिक्षे 'शिष्यप्रवास' शिष्यगमनं, तथा तस्यैव 'अप्रतिबन्धम् अनभिष्वङ्गम् 'अजङ्गमत्वं' वृद्धत्वं च, चशब्दात्तत्रैव क्षेत्रे विभागभजनं च, इदमालम्बनजालं 'न गणयन्ति' न प्रेक्षन्ते, नालोचयन्तीत्यर्थः, किन्तु एकक्षेत्रे|8| गणयन्ति वासं 'नित्यवासिनः' मन्दधिय इति गाथार्थः॥११७८ ॥ नित्यावासविहारद्वारं गतं, चैत्यभक्तिद्वारमधुना चेदयकुलगणसंघे अन्नं वा किंचि काउ निस्साणं । अहवावि अञ्जवयरं तो सेवंती अकरणिज्नं ।। ११७९ ॥ ___ व्याख्या-चैत्यकुलगणसवान , अन्यद्वा 'किञ्चिद् अपुष्टमव्यवच्छित्यादि 'कृत्वा निश्रा' कृत्वाऽऽलम्बनमित्यर्थः, कथं -नास्ति कश्चिदिह चैत्यादिप्रतिजागरकः अतोऽस्माभिरसंयमोऽङ्गीकृतः, मा भूचैत्यादिग्यवच्छेद इति, अथवाऽप्यायवैरं कृत्वा निश्रां ततः सेवन्ते 'अकृत्यम्' असंयमं मन्दधर्माण इति गाथार्थः ॥११७९ ॥ चेइयपूया किं वयरसामिणा मुणियपुव्वसारेणं । न कया पुरियाइ? तओ मुक्खंगं सावि साहूणं ॥ ११८०॥ दीप अनुक्रम सभणति-अन्धकार इत्ति, आचारली प्रदर्शिता, सा प्रज्वलिता, आवृत्त आलोचवति, आचार्या अपि नव भागान् परिकथयन्ति, एवमयं पुष्टाललम्बनो न भवति सर्वेषां मन्दधर्माणामालम्बन मिति । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1075~ Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [s..] 69%%*%* % % % आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [ ३ ], मूलं [-] / [गाथा ७...], निर्युक्तिः [ ११८१], भाष्यं [ २०४...], व्याख्या— अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थः कथानकादव सेयः, तचाधः कथितमेव, तत्र वैरस्वामिनमालम्बनं कुर्वाणा इदं नेक्षन्ते मन्दधियः किमित्याह- ओहावणं परेसिं सतित्थउन्भाषणं च वच्छलं । न गणंति गणेमाणा पुथ्वचियपुप्फ महिमं च ॥ ११८१ ॥ • व्याख्या- 'अपभ्राजना' लाञ्छनां 'परेषां' शाक्यादीनां स्वतीर्थोद्भावनां च दिव्यपूजाकरणेन तथा 'वात्सल्य' श्रावकाणां, एतन्न गणयन्त्यालम्बनानि गणयन्तः सन्तः, तथा पूर्वावचितपुष्पमहिमानं च न गणयन्तीति - पूर्वावचितैः प्राग्गृहीतैः पुष्पैः कुसुमैर्महिमा - यात्रा तामिति गाथार्थः ।। ११८१ ॥ चैत्यभक्तिद्वारं गतम्, अधुनाऽऽर्यिकाला भद्वारं, तत्रेयं गाथा - अजयलाभे गिद्धा सरण लाभेण जे असंतुद्वा । भिक्खायरियाभग्गा अन्नियपुत्तं ववइति ॥ ११८२ ॥ व्याख्या - आर्यिकाभ्यो लाभ आर्यिकालाभस्तस्मिन् 'गृद्धाः' आसक्ताः 'स्वकीयेन' आत्मीयेन लाभेन येऽसन्तुष्टा मन्दधर्माण: भिक्षाचर्यया भन्ना भिक्षाचर्याभग्नाः, भिक्षाटनेन निर्विण्णा इत्यर्थः, ते हि सुसाधुना चोदिताः सन्तोऽभक्ष्योऽयं तपस्विनामिति 'अन्निकापुत्रम् आचार्य व्यपदिशन्त्यालम्बनत्वेनेति गाथार्थः ॥ ११८२ ॥ कथम् १ अन्नियपुत्तापरिओ भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए । उचणीयं भुंजतो तेणेव भवेण अंतगडो ॥ ११८३ ॥ व्याख्या - अक्षरार्थी निगदसिद्धः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्च योगसङ्ग्रहेषु वक्ष्यते । ते च मन्दमतय इदमालम्बनं कुर्वन्तः सन्तः इदमपरं नेक्षन्ते, किम् ?, अत आह— सीसगणं ओमे भिक्खायरिया अपचलं थेरं । न गणंति सहावि सडा अजियलाहं गवेसंता ॥। १९८४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1076~ Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१९८४], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक-४ व्याख्या-गतः शिष्यगणोऽस्येति समासस्तम् 'ओमे' दुर्भिक्षे भिक्षाचर्यायाम् अपश्चल:-असमर्थः भिक्षाचर्याऽपञ्च- ३ वन्दनाहारिभ- लस्तं 'स्थविरं' वृद्धम् एवंगुणयुक्तं 'न गणयन्ति' नालोचयन्ति 'सहावि' समर्थाः, अपिशब्दात्सहायादिगुणयुक्ता अपि, ध्ययन द्रीया शठा-मायाविनः आर्यिकाला 'गवेसतित्ति अन्विपन्त इति गाथार्थः ॥ ११८४ ॥ गतमार्यिकालाभद्वारं, विगति | आर्यिकाद्वारमधुना, तत्रेयं गाथा | लाभादि॥५३७॥ द्वाराणि भत्तं वा पाणं वा भुत्तूणं लावलवियमविसुद्धं । तो अवजपडिच्छन्ना उदायणरिसिं बवासंति ॥११८५ ॥ - | व्याख्या-'भक्तं वा' ओदनादि 'पानं वा' द्राक्षापानादि भुक्त्वा' उपभुज्य 'लावलवियन्ति लोख्योपेतम् 'अविशुद्धं ४ विगतिसम्पर्कदोषात्, तथा च-निष्कारणे प्रतिषिद्ध एव विगतिपरिभोगः, उक्तं च-"विगईविगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बलाणेइ॥१॥"त्ति, ततः केनचित्साधुना चोदिताः सन्तः 'अवधपतिच्छन्नाः' पापप्रच्छादिताः 'उदायणरिसिं' उदायनऋषि व्यपदिशन्त्यालम्बनत्वेनेति गाथार्थः ।। ११८५ ।। अत्र कथानकं वीतभए णयरे उदायणो राया जाव पवइओ, तस्स भिक्खाहारस्स वाही जाओ, सो विजेहिं भणिओ-दधिणा भुंजह, दसो किर भट्टारओवइयाएसु अच्छिओ, अण्णया वीयभयं गओ, तत्थ तस्स भगिणिजो केसी राया, तेणं चेव रजे ठाविओ, ॥५३७॥ विगतिविकृतिमीतो विकृतिगतं यस्तु भुकेसापुः । विकृतिर्विकृतिखभावा विकृतिबिंगति बलासयति ॥॥बीतभये नगरे उदायनो राजा यावाप्र-1 जितः, तसा भिक्षाहारस्य व्याधितिः, स वैर्मणिता-दमा भुत, स किल महारको अजिकासु स्थितः, अन्यदा बीतभयं गतः, तत्र तख भागिनेयः केशी राजा, तेनैव राज्ये स्थापितः. दीप अनुक्रम ९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1077~ Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं - [गाथा-७...], नियुक्ति: [११८५], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| केसीकुमारोऽमचेहि भणिओ-एस परीसहपराजिओ रजं मखाइ, सो भणइ-देमि, ते भणंति-ण एस रायधम्मोत्ति वुग्गाहेइ, चिरेण पडिस्सुयं, किं कजाउ ?, विसं तस्स दिजउ, एगाए पसुपालीए घरे पयुत्त-दधिणा सह देहित्ति, सा पदिण्णा, देवयाए अवहियं, भणिओ य-महरिसि! तुज्झ विसं दिपणं, परिहराहि दहिं, सो परिहरिओ, रोगो वॉघिउमारद्धो, पुणो पगहिओ, पुणो पउत्तं विस, पुणो देवयाए अवहरियं, तइयं वारं देवयाए बुच्चइ-पुणोवि दिण्णं, तंपि अवहिये, सा तस्स पच्छओ पहिंडिया, अण्णया पमत्ताए देवयाए दिन्नं, कालगओ, तस्स य सेजातरो कुंभगारो, तंमि कालगए देवयाए, पंसुवरिसं पाडियं, सो अवहिओ अणवराहित्तिकार्ड सिणवल्लीए कुंभकारुक्लेवो णाम पट्टणं तस्स णामेण जायं जत्थ सो दाअवहरि ठविओ, वीतभयं च सर्व पंसुणा पेल्लियं, अज्जवि पुंसुओ अच्छंति, एस कारणिगोत्तिकगुन होइ सोसिमालं|वणंति ॥ आह चसीयललुक्खाऽणुचियं वएसु विगईगएण जाविता हट्टावि भणंति सढा किमासि उदायणो न मुणी? ॥११८६॥ केशिकुमारोऽमात्यणितः एष परीपापराजितः राज्यं मार्गपति, स भणति-ददामि, से भणन्ति नैप राजधर्म इति प्युदाहयति, चिरेण प्रतिश्रुतं, कि क्रियतां!, विषं तम दवातु, एकस्याः पशुपाल्या गृहे प्रबुतं दक्षासह देहीति, सा प्रदत्तवती, देवतयाऽपहतं, भणितश्च-महर्षे ! तुभ्यं विषं दस, परिहर दधि, स परिहतवान् , रोगो वर्धितुमारब्धा, पुनः प्रगृहीतं, पुनः प्रयुक्तं विषं, पुनर्देवतयाऽपहतं, तृतीयवार देवतयोच्यते, पुनरपि दर्ग, तदपि अपहृतं, सा तस पृष्ठतः अहिण्डिता, अन्यदा प्रमत्तायां देवत्तायां दतं, कालगतः, तस्य च शय्यातरः कुम्भकारः, तस्मिन् कालगते देवतया पांचवर्षा पतिता, सोऽपहतोऽनपराधीतिकावा सेनापल्या कुम्भकारोरक्षेपो नाम पत्तनं तस्य नाझा जावं यत्र स्रोऽपहृत्य स्थापितः, वीतभयं च सबै पांसुना प्रेरितं, अयापि पशिवसिष्ठन्ति, एष कारणिक इति कृत्वा न भवति सर्वेषामालम्बनमिति. * सो परिदिण्णा. + पवि CCCCRACK दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1078~ Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [..] आवश्यक हारिभ• द्रीया ॥ ५३८ ॥ ****** आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११८६], भाष्यं [ २०४...], ३ वन्दना ध्ययने व्याख्या-— शीतलं च तत् रूक्षं च शीतलरूक्षम्, अन्नमिति गम्यते, तस्यानुचितः - अननुरूपः, नरेन्द्रप्रत्र जितत्वाद्रोंगा - भिभूतत्वाच्च शीतलरूक्षानुचितस्तं, 'व्रजेषु' गोकुलेषु 'बिगतिगतेन' विगतिजातेन यापयन्तं सन्तं 'हठ्ठावित्ति समर्था अपि | भणन्ति शठाः किमासीदुदायनो न मुनिः ?, मुनिरेव विगतिपरिभोगे सत्यपि तस्मान्निर्दोष एवायमिति ॥ ११८६ ॥ ॐ विकृतिद्वार एवं नित्यवासादिषु मन्दधर्माः सङ्गमस्थविरादीन्यालम्बनान्याश्रित्य सीदन्ति, अन्ये पुनः सूत्रादीन्येवाधिकृत्य, तथा चाह सुत्तत्थबालवडे य असहुदन्वाइ आवईओ या । निस्साणपयं कार्ड संघरमाणावि सीयंति ॥ ११८७ ॥ व्याख्या - सूत्रं च अर्थश्च बालश्च वृद्धश्च सूत्रार्थबालवृद्धास्तान्, तथाऽसहश्च द्रव्याद्यापदश्च असहद्रव्याद्यापदस्ताँश्च, निश्राणाम्-आलम्बनानां पदं कृत्वा 'संस्तरन्तोऽपि संयमानुपरोधेन वर्तमाना अपि सन्तः सीदन्ति एतदुक्तं भवतिसूत्रं निश्रापदं कृत्वा यथाऽहं पठामि तावत्किं ममान्येन ?, एवमर्थं निश्रापदं कृत्वा शृणोमि तावत्, एवं बालत्वं वृद्धत्वं असहम् - असमर्थत्वमित्यर्थः, एवं द्रव्यापदं दुर्लभमिदं द्रव्यं, तथा क्षेत्रापदं धुलकमिदं क्षेत्रं, तथा कालापदं-दुर्भिक्षं वर्तते, तथा भावापदं ग्लानोऽहमित्यादि निश्रापदं कृत्वा संस्तरन्तोऽपि सीदन्त्यल्पसत्त्वा इति गाथार्थः ॥ ११८७॥ एवम् आलंबणाण लोगो भरिओ जीवस्स अजउकामस्स । जं जं पिच्छद लोए तं तं आलंवणं कुणइ ॥ ११८८ ।। व्याख्या – 'आलम्बनानां' प्राग्निरूपितशब्दार्थानां 'लोकः' मनुष्यलोकः 'भृतः' पूर्णो जीवस्य 'अजडकामस्स' त्ति अय ॥५३८ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1079~ Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११८८], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक CANAS ||७..|| CCCCCC पातितुकामस्य, तथा च-अयतितुकामो यद् यत्पश्यति लोके नित्यवासादि तत् तदालम्बनं करोतीति गाथार्थः ॥११८८॥ किं| च-द्विधा भवन्ति प्राणिनः-मन्दश्रद्धास्तीवनद्धाश्च, तत्रान्यन्मन्दश्रद्धानामालम्बनम् अन्यच्च तीव्रश्रद्धानामिति, आह च जे जत्थ जया जइया बहुस्सुया चरणकरणपन्भट्टा । जं ते समायरंती आलंवण मंदसड्डाणं ।। ११८९॥ AI व्याख्या-'ये' केचन साधवः 'यत्र' ग्रामनगरादौ 'यदा' यस्मिन् काले सुषमदुष्षमादौ 'जइय'त्ति यदा च दुर्भिक्षादौ बहुश्रुताश्चरणकरणप्रभ्रष्टाः सन्तो यत्ते समाचरन्ति पार्श्वस्थादिरूपं तदालम्बनं मन्दश्रद्धानां, भवतीति वाक्यशेषः, तथा६ हि-आचायों मधुरायां मङ्गः सुभिक्षेऽप्याहारादिप्रतिबन्धापरित्यागात् पायस्थतामभजत्, तदेवमपि नूनं जिनर्धो दृष्ट एवेति गाधाभिप्रायः ॥ ११८९ ॥ जे जस्थ जया जइया बहुस्सुया चरणकरणसंपन्ना । जं ते समायरंती आलंबण तिव्वसड्डाणं ॥ ११९० ॥ व्याख्या-'ये' केचन 'यत्र' ग्रामनगरादौ 'यदा' सुषमदुष्पमादौ 'जइयत्ति यदा च दुर्भिक्षादौ बहुश्रुताश्चरणकरणसम्पन्नाः, यत्ते समाचरन्ति भिक्षुप्रतिमादि तदालम्बनं तीव्रश्रद्धानां भवतीति गाथार्थः ॥ ११९० ।। अवसितमानुषङ्गिक, तस्मात् स्थितमिदं-पञ्चानां कृतिकर्म न कर्तव्यं, तथा च निगमयन्नाह दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालपासस्था । एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ॥ ११९१ ।। ८ व्याख्या-'दसणनाणचरित्तेत्ति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च दर्शनज्ञानचारित्राणां तथा तपोविनययोः 'निच्चकालपासत्थ' त्ति सर्वकालं पार्थे तिष्ठन्तीति सर्वकालपार्श्वस्थाः, नित्यकालग्रहणमित्वरप्रमादब्यवच्छेदार्थ, तथा च-इत्वरप्रमादान्निश्च दीप अनुक्रम [९..] 584- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1080 ~ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक - हारिभ• द्रीया ||५३९|| आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११९१], भाष्यं [ २०४...], यतो ज्ञानाद्यपगमेऽपि व्यवहारतस्तु साधव एवेति, 'एते' प्रस्तुता अवन्दनीयाः, ये किंभूताः १- 'यशोघातिनः' यशोऽभि नाशकाः, कस्य ? - प्रवचनस्य, कथं यशोघातिनः १, श्रमणगुणोपात्तं यद् यशस्तत्तद्गुणवितथासेवनतो घातयन्तीति गाथार्थः ॥ ११९१ ॥ पार्श्वस्थादिवन्दने चापायान्निगमयन्नाह- किकम्मं च पसंसा सुहसीलजणम्मि कम्मबंधाय । जे जे पमायठाणा ते ते उबबूहिया हुंति ॥ ११९२ ॥ व्याख्या – 'कृतिकर्म' वन्दनं 'प्रशंसा च' बहुश्रुतो विनीतो वाऽयमित्यादिलक्षणा 'सुखशीखजने' पार्श्वस्थजने कर्मबन्धाय, कथं ? - यतस्ते पूज्या एव वयमिति निरपेक्षतरा भवन्ति, एवं यानि यानि प्रमादस्थानानि येषु विषीदन्ति पार्श्व | स्थादयस्तानि तानि 'उपबृंहिनानि भवन्ति' समर्थितानि भवन्ति - अनुमतानि भवन्ति, तत्प्रत्ययश्च बन्ध इति गाथार्थः ॥ ११९२ ॥ यस्मादेतेऽपायास्तस्मात् पार्श्वस्थादयो न वन्दनीयाः साधव एव वन्दनीया इति निगमयन्नाह - दंसणनाणचरिते तबविणए निञ्चकालमुज्जुत्ता । एए उ वंदणिज्या जे जसकारी पवयणस्स ॥ ११९३ ॥ व्याख्या - दर्शनज्ञान चारित्रेषु तथा तपोविनययोः 'नित्यकाल' सर्वकालम् 'उद्युक्ता' उद्यता एत एव वन्दनीयाः, ये विशुद्ध मार्गप्रभावनया यशःकारिणः प्रवचनस्येति गाथार्थः ॥ ११९३ ॥ अधुना सुसाधुवन्दने गुणमुपदर्शयन्नाह - किकम्मं च पसंसा संविग्गजणंमि निज्जरहाए। जे जे विरईठाणा ते ते उबवूहिया हुंति ॥ ११९४ ॥ व्याख्या – 'कृतिकर्म' वन्दनं 'प्रशंसा च' बहुश्रुतो विनीतः पुण्यभागित्यादिलक्षणा संविग्नजने 'निर्जरार्थाय' कर्मक्षयाय कथं ?--यानि (यानि ) विरतिस्थानानि येषु वर्तन्ते संविघ्नास्तानि तानि 'उपबृंहितानि भवन्ति' अनुमतानि भवन्ति, तद ३ वन्दनाध्ययने योग्यायो ग्यवन्दने गुणदोषाः ~1081~ ||५३९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः पार्श्वस्थादि वन्दने दोषाः वर्ण्यते Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९५], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| नुमत्या च निर्जरा, संविघ्नाः पुनर्दिधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यसंविना मृगाः पत्रेऽपि चलति सदोत्रस्तचेतसः, भावसविनास्तु साधवस्तैरिहाधिकार इति गाथार्थः ॥ ११९४ ॥ गतं सप्रसङ्गं नित्यवासद्वारमिति व्याख्याता सप्रपञ्च पञ्चानां कृतिकर्म इत्यादिद्वारगाथा, निगमयतोक्तमोघतो दर्शनाद्युपयुक्ता एव वन्दनीया इति, अधुना तानेवाऽऽचार्यादिभेद-1 तोऽभिधित्सुराह___आयरिय एवज्झाए पवत्ति थेरे तहेव रायणिए । एएसिं किइकम्मं कायब्वं निजरठाए ॥ ११९५ ॥ | व्याख्या-आचार्य उपाध्यायः प्रवर्तकः स्थविरस्तथैव रत्नाधिकः, एतेषां कृतिकर्म कर्तव्य निर्जरार्थ, तत्र चाऽऽचार्यः। सूत्रार्थोभयवेत्ता लक्षणादियुक्तश्च, उक्तं च-मुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छरस मेढिभूओ य । गणतत्तिविप्पमुको अत्थं भासेइ आयरिओ ॥१॥ न तु सूत्र, यत उक्तम्-'एक्कग्गया य झाणे वुही तित्थयरअणुकिती गरुआ । आणाहिज्जमिइ गुरू कयरिणमुक्खा न वाएइ ॥१॥ अस्य हि सर्वेरेवोपाध्यायादिभिः कृतिकर्म कार्य पर्यायहीनस्यापि, उपाध्यायः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सचेत्थम्भूतः-'सम्मत्तणाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिनू । आयरियठाणजुग्गो सुत्तं वाएउवज्झाओ ॥१॥ किं निमित्तं ?-'सुत्तत्थेसु घिरतं रिणमुक्खो आयतीयऽपडिबंधो । पाडिच्छामोहजओ । सूत्राथमित् लक्षणयुक्तो गचस्प मैटीभूतन । गणतप्तिविषमुक्तोऽर्थे वाघयत्वाचार्यः ॥ १॥ एकाग्रता च पाने वृद्धिस्तीर्थकरानुक्रतिषी । भाज्ञायै यमिति गुरवः कृतऋणमोक्षा न वाचयन्ति ॥१॥ सम्यमयज्ञानसंबमयुक्ता सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आचार्यस्थानयोग्यः सूर्व वाचयति उपाध्यायः ॥३॥ प्रार्थयोः स्थिरत्वं काणमोक्ष आयत्यां चाप्रतिबन्धः । प्रातीच्छकमोहनयः (प्रतीच्छमारमोहजपा) *.पने विचलति. दीप AKSHA अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | आचार्य-आदीनाम वन्दने लाभ: वर्ण्यते ~ 1082 ~ Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ॥७..॥ दीप अनुक्रम [s..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [११९५ ], भाष्यं [ २०४...], द्रीया ॥५४०॥ आवश्यक है सुत्तं वाएउवज्झाओ ॥ १ ॥ तस्यापि तैर्विनेयैः पर्यायहीनस्यापि कृतिकर्म कार्य, यथोचितं प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्तहारिभ- यतीति प्रवर्तकः, उक्तं च- 'तवसंजम जोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ । असहुं च नियत्तेई गणत तिल्लो पवती उ ॥ १ ॥ अस्यापि कृतिकर्म कार्य हीनपर्यायस्यापि, सीदतः साधूनैहिकामुष्मिकापायदर्शनतो मोक्षमार्ग एव स्थिरीकरो* तीति स्थविरः, उतं च- 'थिरकरणा पुण थेरो पत्तिवावारिपसु अत्थेसुं। जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ १ ॥ अस्याप्यूनपर्यायस्यापि कृतिकर्म कार्य, गणावच्छेदकोऽप्यत्रानुपात्तोऽपि मूलग्रन्थे । नावगन्तव्यः, साहचर्यादिति, स चेत्थम्भूतः - 'उद्घार्वणापहावणखित्तोवधिमग्गणासु अविसाई। सुत्तत्थतदुभयविक गणवच्छो परिसो होइ ॥ १ ॥' अस्थाप्यूनपर्यायस्यापि कृतिकर्म कर्तव्यं, रलाधिकः- पर्यायज्येष्ठः, एतेषामुक्तक्रमेणैव कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जरार्थम्, अन्ये तु भणन्ति-प्रथममालोचयद्भिः सर्वैराचार्यस्य कृतिकर्म कार्य, पश्चाद् यथारलाधिकतया, आचार्येणापि मध्यमे क्षामणानन्तरे कृतिकर्मणि ज्येष्ठस्य कृतिकर्म कार्यमिति गाथार्थः ॥ ११९५ ॥ प्रथमद्वारगाथायां गतं 'कस्ये'ति द्वारम् अधुना 'केने 'ति द्वारं, केन कृतिकर्म कर्तव्यं ? केन वा न कर्तव्यं ?, कः पुनरस्य कारणोचितः अनुचितो वेत्यर्थः, तत्र मातापित्रादिरनुचितो गणः, तथा चाह ग्रन्थकारः ---- मायरं पियरं वावि जिगं बावि भायरं । किइकम्मं न कारिजा सव्वे राइणिए तहा ।। ११९६ ।। १ सूत्रं वाचयति उपाध्यायः ॥ १ ॥ तपःसंयमयोगेषु यो योग्यस्तन्न तं प्रवर्त्तयति । असहिष्णुं च निवर्त्तयति गणचिन्तकः प्रवर्त्ति (क) स्तु ॥ ३ ॥ स्थिरकरणात्पुनः स्थावरः प्रवर्त्तकव्यापारितेष्वर्थेषु । यो यत्र सीदत्ति यतिस्तं स्थिरं करोति ॥ ४ ॥ सीमानान् + मूलमन्येऽवगन्तयः । अभिद्धति. २ उद्भावनप्रभावना क्षेत्रोपधिमार्गेणास्त्रविषादी । सूत्रार्थं तदुभयविद् गणावच्छेदक ईदशो भवति ॥ १ ॥ ३ वन्दनाध्ययने वन्यः ~1083~ ॥५४०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९६], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| व्याख्या-मातरं पितरं वाऽपि ज्येष्ठकं वाऽपि भ्रातरम् , अपिशब्दान्मातामहपितामहादिपरिग्रहः, कृतिकर्म' अभ्यु-18 स्थितवन्दनमित्यर्थः, न कारयेत् सर्वान् रलाधिकाँस्तथा, पर्यायव्येष्ठानित्यर्थः, किमिति, मात्रादीन् वन्दनं कारयतः | लोकगोपजायते, तेषां च कदाचिद्विपरिणामो भवति, आलोचनप्रत्याख्यानसूत्रार्थेषु तु कारयेत्, सागारिकाध्यक्षे तु यतनया कारयेद्, एष प्रत्रग्याप्रतिपन्नानां विधिः, गृहस्थास्तु कारयेदिति गाथार्थः ॥ ११९६ ॥ साम्प्रतं कृतिकर्मकरणोचितं प्रतिपादयन्नाह पंचमहब्बयजुत्तो अणलस माणपरिवजियमईओ । संविग्गनिज्जरही किहकम्मकरो हवइ साहू॥११९७ ।। व्याख्या-पश्च महानतानि-प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि तैयुक्तः 'अणलस'त्ति आलस्यरहितः 'मानपरिवर्जितमतिः' जात्यादिमानपराङ्मुखमतिः 'संविग्नः प्राग्व्याख्यात एव 'निर्जरार्थी' कर्मक्षयाथीं, एवम्भूतः कृतिकर्मकारको भवति साधुः, एवम्भूतेन साधुना कृतिकर्म कर्तव्यमिति गाथार्थः॥११९७ ।। गतं केनेति द्वारं, साम्प्रतं 'कदे' त्यायात, |कदा कृतिकर्म कर्तव्यं कदा वा न कर्तव्यं , तत्र वक्खित्तपराहुत्ते अ पमत्ते मा कया हु बंदिजा । आहारं च करितो नीहारं वा जइ करेइ ।। ११९८॥ व्याख्या-व्याक्षिप्तं धर्मकथादिना 'पराहुत्ते य' पराड्मुखं, चशब्दादुद्भू(स्थि)तादिपरिग्रहः, प्रमत्तं क्रोधादिप्रमादेन मा कदाचिद्वन्देत, आहारं वा पुर्वन्तं नीहारं वा यदि करोति, इह च-धर्मान्तरायानवधारणप्रकोपाहारान्तरायपुरीरा-18 निर्गमनादयो दोषाः प्रपश्चन वक्तव्या इति गाथार्थः ॥ ११९८ ।। कदा तर्हि पन्देतेत्यत आह CREASEKACCIENCE दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1084 ~ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [११९९], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत ॥५४॥ सूत्रांक - ||७..|| पसंते आसणत्थे य, उपसंते उवहिए । अणुन्नबित्तु मेहावी, किडकम्म पउंजए ॥ ११९९ ॥ |३ वन्दनाव्याख्या-प्रशान्त व्याख्यानादिव्याक्षेपरहितम् आसनस्थं निषद्यागतम् 'उपशान्त क्रोधादिप्रमादरहितम् 'उपस्थित ध्ययने छन्देनेत्याद्यभिधानेन प्रत्युद्यतम्, एवम्भूतं सन्तमनुज्ञाप्य मेधावी ततः कृतिको प्रयुञ्जीत,वन्दनकं कुर्यादित्यर्थः,अनुज्ञापनायांका वन्दने यो च आदेशद्वयं, यानि ध्रुववन्दनानि तेषु प्रतिक्रमणादौ नानुज्ञापयति, यानि पुनरौत्पत्तिकानि तेष्वनुज्ञापयतीति गाथार्थःलारणानि च ॥११९९ ॥ गतं कदेति द्वारं, कतिकृत्वोद्वारमधुना, कतिकृत्वा कृतिकर्म कार्य ?, कियत्यो वारा इत्यर्थः, तत्र प्रत्यहं | नियतान्यनियतानि च वन्दनानि भवन्त्यत उभयस्थाननिदर्शनायाऽऽह नियुक्तिकार: पडिकमणे समझाए काउस्सरंगावराहपाहुणए । आलोयणसंवरणे उत्तमढे य चंदणयं ॥ १२००॥ I व्याख्या-प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम् , अपराधस्थानेभ्यो गुणस्थानेषु वर्तनमित्यर्थः, तस्मिन् सामान्यतो वन्दनं भवति, तथा 'स्वाध्यायें' वाचनादिलक्षणे, 'कायोत्सर्गे' यो हि विगतिपरिभोगायाऽऽचाम्लविसर्जनार्थ क्रियते, 'अपराधे' गुरुविनयलङ्घनरूपे, यतस्तं वन्दित्वा क्षामयति, पाक्षिकवन्दनान्यपराधे पतन्ति, 'प्राघूर्णके' ज्येष्ठे समागते सति वन्दनं भवति, इतरस्मिन्नपि प्रतीच्छितव्यम् , अत्र चायं विधिः-'संभोईय अण्णसंभोइया य दुविहा हवंति पाहुणया । संभोइय ॥५४॥ आयरिय आपुच्छित्ता उ वंदेह ॥ १॥ इयरे पुण आयरियं वंदित्ता संदिसावि तह य । पच्छा चंदेह जई गयमोहा ___ १ सांभोगिका मन्यसांभोगिकाश्च द्विविधा भवन्ति माघूर्णकाः । सांभोषिकान् आचार्य भाव तु वन्दते ॥ १॥ इतरान् पुनराचार्य वन्दिरका संदिश्व तथा च । पश्चात् वन्दन्ते यतयो यतमोहा दीप - 9-964-964-१० - - अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रतिक्रमण-आदि कारणे वन्दनं अवश्य करणीयं ~ 1085~ Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२००], भाष्यं [२०४...], (४०) % प्रत सूत्रांक ||७..|| % अहव वंदावे ॥२॥" तथाऽऽलोचनायां विहारापराधभेदभिन्नायां 'संवरण' भुक्तः प्रत्याख्यानम् , अथवा कृतनमस्कारसहितादिप्रत्याख्यानस्यापि पुनरजीर्णादिकारणतोऽभतार्थ गृहृतः संवरणं तस्मिन् वन्दनं भवति, 'उत्तमार्थे वा अन शनसंलेखनायां वन्दनमित्येतेषु प्रतिक्रमणादिषु स्थानेषु वन्दनं भवतीति गाथार्थः ॥ १२०० ॥ इत्थं सामान्येन नियतादनियतस्थानानि बन्दनानि प्रदर्शितानि, साम्प्रतं नियतवन्दनस्थानसङ्गयांप्रदर्शनायाऽऽह |चत्तारि पडिकमणे किइकम्मा तिनि हुँति सज्झाए । पुवण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति ॥१२०१ ।। I व्याख्या-चत्वारि प्रतिक्रमणे कृतिकर्माणि त्रीणि भवन्ति, स्वाध्याये पूर्वाहे-प्रत्युपसि, कथं ?, गुरु पुवसंझाए वंदित्ता दिआलोपइत्ति एवं एक, अन्मुठियावसाणे जं पुणो वंदति गुरुं एवं बिइयं, एत्थ य बिही-पच्छा जहण्णेण तिणि मझिम |पंच वा सत्त वा उकोसं सबेवि वंदियबा, जइ वाउला वक्खेवो वा तो इक्केण ऊणगा जाव तिण्णि अवस्सं वंदियवा, एवं| देव सिए, पक्खिए पंच अवस्स, चाउम्मासिए संवच्छरिएवि सत्त अवरसंति, ते वंदिऊणं जं पुणो आयरियस्स अल्लिविज्जइ तं तइयं, पञ्चक्खाणे चउत्थं, सज्झाए पुण वंदित्ता पडवेइ पढ़मं, पढविए पवेदयंतस्स बितियं, पच्छा उदिडं समुद्दिड पढइ, | उद्देससमुद्देसवंदणाणमिहेवांतम्भावो, तओ जाहे चउभागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडिलेहेइ,जइण पदिउकामो तो बंदइ, अधवा बन्दयेयुः ॥ २ गुरु पूर्वसन्ध्यायां वन्दित्वालोचयतीति एतदेक, अम्युत्थित्तावसाने बखुनर्षन्दन्ते गुरुमेतद्वितीयं, अन्न च विधिः-पश्चाजघन्येन यो मध्यमेन पा वा सप्त वा स्कृप्टेन सर्वेऽपि वन्दितम्याः, यदि व्याकुला व्याक्षेपो वा तदैकेनोना वाचन प्रयोज्यश्यं वन्दित्तभ्याः, एवं देवसिके, पाक्षिके पशावश्य, चातुर्मासिके साँवरसरिकेऽपि सप्लावक्ष्यमिति, तानू बन्दिरचा यत्पुनराचार्यायाश्रवणाय दीयते सतुतीयं, प्रत्याश्याने चतुर्थ, स्वाध्याये पुनर्वन्दित्वा प्रस्थापयति प्रथम, प्रस्थापिते प्रवेदयतो द्वितीय, पवादुदिउसमुदिष्टं पठति, उद्देशसमुदेशवन्दनानामिदैवान्तभावः, ततो यदा चतुर्भागावशेषा पौरुषी तदा पात्राणि प्रतिसयति, यदिन पठितुकामस्तदा वन्दते. SCREENA % % दीप अनुक्रम [९..] K-4-% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: १४ स्थाने 'नियत वन्दन'स्य वक्तव्यता ~ 1086~ Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२०१], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया वन्दनाध्ययने आवत्तार प्रत सूत्रांक ॥५४२॥ ||७..|| अह पढिउकामो तो अवंदित्ता पाए पडिलेहेइ, पडिलेहिता पच्छा पढाइ, कालवेलाए वंदिउँ पडिकमइ, एवं तइयं ।। एवं पूर्वाहे सप्त, अपराहेऽपि सप्तैव भवन्ति, अनुज्ञावन्दनानां स्वाध्यायवन्दनेष्वेवान्तर्भावात्, प्रातिक्रमणिकानि तु| चत्वारि प्रसिद्धानि, एवमेतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं कृतिकर्माणि चतुर्दश भवन्त्यभक्तार्थिकस्य, इतरस्य तु प्रत्याख्यानवन्दनेनाधिकानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ १२०१॥ गतं कतिकृत्वोद्वारं, व्याख्याता वन्दनमित्यादिप्रथमा द्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीया व्याख्यायते, तत्र कत्यवनतमित्याचं द्वार, तदर्थप्रतिपादनायाह दोओणयं अहाजायं, किहकम्मं चारसावयं। अस्य व्याख्या-अवनतिः-अवनतम् , उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तद् व्यवनतम्, एकं यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउँ जावणिजाए निस्सीहियाए'त्ति अभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायावनमति, द्वितीय पुनर्यदा कृतावों निष्क्रान्तः 'इच्छामी'त्यादिसूत्रमभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायैवावनमति, यथाजातं श्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च, तत्र रजोहरणमुखवत्रिकाचोलपट्टमात्रया श्रमणो जाता, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवम्भूत एवं वन्दते, तदव्यतिरेकाञ्च यथाजातं भण्यते कृतिकर्मवन्दनं, 'बारसावयं'ति द्वादशावर्ताः-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषा यस्मिन्निति समासस्तद् द्वादशावर्तम् , इह च प्रथमप्रविष्टस्य षडावर्ता भवन्ति, 'अहोकायं कायसंफासं खम|णिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइकतो, जत्ता में जवणिजं च भे' एतत्सूत्रगर्भा गुरुचरण अथ पठितुकामस्तदाऽवन्दित्वा पात्राणि प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य पश्चात्पठति, कालबेलायां वन्दिरवा प्रतिकाम ति, एतत्तृतीयं, *गाथाशकलमाह. 44 दीप अनुक्रम [९..] ॥५४२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: वन्दनस्य २५ द्वाराणि वर्णयते ~1087~ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||..|| दीप अनुक्रम [९..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा - ७...], निर्युक्तिः [१२०१], भाष्यं [ २०४...], न्यस्तहस्त शिरः स्थापनारूपाः, निष्क्रम्य पुनः प्रविष्टस्याप्येत एव पडिति एतच्चापान्तरालद्वारद्वयमाद्यद्वारोपलक्षितमवगन्तव्यं गतं कत्यवनतद्वारं, साम्प्रतं 'कतिशिर' इत्येतद्वारं व्याचिख्यासुरिदमपरं गाथाशकलमाहचउसिरं तिगुप्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ।। १२०२ ।। व्याख्या - चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तच्चतुः शिरः, प्रथमप्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना, द्वारं । तिम्रो गुप्तयो यस्मिंस्तत्रिगुप्तं, मनसा सम्यक्प्रणिहितः वाचाऽस्खलिताक्षराण्युच्चारयन् कायेनावर्तान विराधयन् वन्दनं करोति यतः चशब्दोऽवधारणार्थः, द्वौ प्रवेशौ यस्मिंस्तद्विप्रवेशं प्रथमोऽनुज्ञाप्य प्रविशतः, द्वितीयः पुनर्निर्गतस्य प्रविशत इति, एकनिष्क्रमणमावश्यक्या निर्गच्छतः, एतच्चापान्तरालद्वारत्रयं कतिशिरोद्वारेणैवोपलक्षितमवगन्तव्यमिति गाथार्थः ।। १२०२ ।। साम्प्रतं कतिभिर्वाऽऽवश्यकैः परिशुद्धमिति द्वारार्थोऽभिधीयते, तथा चाऽऽह अवणामा दुन्नहाजायं, आवत्ता बारसेव उ । सीसा चत्तारि गुत्तीओ, तिन्नि दो य पवेसणा ॥ १२०३ ॥ एनिक्मणं चेव, पणवीसं विग्राहिया। आवस्सगेहिं परिसुद्धं, किहकम्मं जेहि कीरई ।। १२०४ ॥ व्याख्या - गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव, एभिर्गाथाद्वयोक्तेः पञ्चविंशतिभिरावश्यकैः परिशुद्धं कृतिकर्म कर्तव्यम्, अन्यथा द्रव्यकृतिकर्म भवति ॥ १२०३ - १२०४ ॥ आह च * Peter. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1088~ Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२०५], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभ द्रीया ॥५४॥ प्रत सूत्रांक किइकम्मपि करितो न होइ किइकम्मनिजराभागी। पणवीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहिंतो ॥१२०५ ॥ ५३वन्दनाव्याख्या-कृतिकर्मापि कुर्वन्' वन्दनमपि कुर्वन् न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी 'पञ्चविंशतीनाम् आवश्यकानाम ध्ययने शुद्धवन्दन्यतरत् साधुः स्थानं विराधयन् , विद्यादृष्टान्तोऽत्र, यथा हि विद्या विकलानुष्ठाना फलदा न भवति, एवं कृतिकर्मापि नफलं दोनिर्जराफल न भवति, विकलरवादेवेति गाथार्थः ॥ १२०५ ॥ अधुनाऽविराधकगुणोपदर्शनायाऽऽह पाश्च ३२ पणवीसा[आवस्सग]परिसुद्धं किइकम्मं जो पउंजइ गुरूणं ।सोपावइ निव्वाणं अचिरेण विमाणवासं वा ॥१२०६॥ व्याख्या-पञ्चविंशतिः आवश्यकानि-अवनतादीनि प्रतिपादितान्येव तच्छुड़-तदविकलं कृतिकर्म यः कश्चित् 'प्रयु । करोतीत्यर्थः, कस्मै ?-'गुरवे' आचार्याय, अन्यस्मै वा गुणयुक्ताय, स प्रामोति 'निर्वाण' मोक्षम् 'अचिरेण' स्वल्पकालेन 'विमानवासं चा' सुरलोक ति गाथार्थः ॥ १२०६ ॥ द्वारं । 'कतिदोषविप्रमुक्त'मिति यदुक्तं तत्र द्वात्रिंशद्दोषविप्रमुक्त कर्तव्यं, तद्दोषदर्शनायाह अणाढियं च धद्धं च, पविद्धं परिपिडियं । टोलगइ अंकुसं चेच, तहा कालभरिंगिपं ॥१२०७॥ व्याख्या-'अनाहतम्' अनादरं सम्भ्रमरहितं वन्दते १'स्तब्ध' जात्यादिमदस्तब्धो वन्दते २ 'प्रविर्द्ध' वन्दनकं दददेव का॥५४३॥ नश्यति ३ 'परिपिण्डितं' प्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते आवर्तान् व्यञ्जनाभिलापान् वा ब्यवच्छिन्नान् कुर्वन् ४ 'टोलगति |तिडवदुरप्लुत्य २ विसंस्थुलं वन्दते ५ 'अनुशं' रजोहरणमङ्कुशवत्करद्वयेन गृहीत्वा वन्दते ६ 'कच्छभरिंगिय कच्छपवत् । रिणितं कच्छपवत् रिङ्गन् वन्दत इति गाथार्थः ७ ॥१२०७ ।। । ||७..|| दीप अनुक्रम [९..] M मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1089~ Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं -11 [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२०८], भाष्यं २०४...], (४०) सब -%+ प्रत सूत्रांक ||७..|| मच्छुथ्वतं मणसा पउहं तह य वेड्यावई । भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥१२०८॥ व्याख्या-मत्स्योद्वत्तम् एकं वन्दित्वा मत्स्यवद् द्रुतं द्वितीयं साधु द्वितीयपार्थेन रेचकावर्तेन परावर्तते ८ मनसा प्रदुष्ट, वन्द्यो हीनः केनचिद्गुणेन, तमेव च मनसि कृत्वा सासूयो वन्दते ९ तथा च वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ | निवेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एक वा जानुं करद्वयान्तः कृत्वा वन्दते १० 'भयसा चेव'त्ति भयेन वन्दते, मा भूद्गच्छादिभ्यो निर्धाटनमिति ११, 'भयंत ति भजमानं वन्दते 'भजत्ययं मामतो भक्त भजस्वेति तदार्यवृत्तं इति १२, 'मेत्तित्ति मैत्रीनिमित्तं प्रीतिमिच्छन् वन्दते १३ 'गारवित्ति गौरवनिमित्तं वन्दते, विदन्तु मां यथा सामाचारीकुशलोऽयं १४, 'कारण'त्ति ज्ञानादिव्यतिरिक्त कारणमाश्रित्य वन्दते, वस्त्रादि मे दास्यतीति १५, अयं गाथार्थः ॥ १२०८॥ तेणियं पडिणियं चेव, रुई तजियमेव य । सदं च हीलियं चेच, तहा विपलिउंचियं ।। १२०९ ॥ व्याख्या-न्य मिति परेभ्यः खल्वात्मानं गृहयन् स्तेनक इव वन्दते, मा मे लाघवं भविष्यति १५, 'प्रत्यनीकम्' आहारादिकाले वन्दते १७, 'रुष्टं' क्रोधाध्मातं वन्दते क्रोधाध्मातो वा १८, 'तर्जितं' न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव इवेत्यादि तर्जयन्-निर्भसयन् धन्दते, अङ्गुल्यादिभिवा तजैयन् १९, 'शटं' शाठोन विश्रम्भार्थ वन्दते, ग्लानादिव्यपदेश वा कृत्वा न सम्यग् वन्दते २०, हीलितं हे गणिन् ! वाचक ! किं भवता वन्दितेनेत्यादि हीलयिस्खा बन्दते| २१, तथा 'विपलिकुश्चितम्' अर्द्धवन्दित एव देशादिकथाः करोति २२, इति गाथार्थः ॥ १२०९ ॥ दिहमदिढच तहा, सिंगं च करमोअणं । आलिहमणालिहूं, ऊणं उत्तरचूलियं ॥ १२१०॥ दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1090~ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२१०], भाष्यं [२०४...], (४०) ध्ययने प्रत सूत्रांक ||७..|| आवश्यक- व्याख्या दृष्टादृष्टं तमसि व्यवहितो वा न वन्दते २३ 'शृङ्गम्' उत्तमाङ्गैकदेशेन वन्दते २४ 'करमोचन कर मन्य। |३वन्दनाहारिभ-G मानो वन्दते न निर्जरा, तहा मोयणं नाम न अन्नहा मुक्खो, एएण पुण दिनेण मुच्चेमित्ति बंदणगं देइ २५-२६ आश्लिद्रीया प्टानाश्लिष्ट'मित्यत्र चतुर्भङ्गका-रजोहरणं कराभ्यामाश्लिष्यति शिरश्च १ रजोहरणं न शिरः २ शिरो न रजोहरणं ३ न दोषाः ॥५४॥ रजोहरणं नापि शिरः ४, अत्र प्रथमभङ्गः शोभनः शेषेषु प्रकृतवन्दनावतारः २७, 'ऊन व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्ण दावन्दते २८, 'उत्तरचूई' चन्दनं कृत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन बन्द इति भणतीति गाथार्थः २९ ॥ १२१०॥ __ मूर्य च ढहरं चेष, पुलिं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्ध, किइकम्म पउंजई ॥ १२११॥ व्याख्या-'मूकम्' आलापकाननुच्चारयन् वन्दते २० 'बहुरं' महता शब्देनोचारयन वन्दते ३१ 'चुडुली ति उल्कामिव | दापर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् वन्दते ३२ 'अपश्चिमम्' इदं चरममित्यर्थः, एते द्वात्रिंशद्दोषाः, एभिः परिशुद्ध कृतिकर्म कार्य, तथा चाह-द्वात्रिंशद्दोपपरिशुद्ध 'कृतिकर्म' वन्दनं 'प्रयुञ्जीत' कुयोंदिति गाथार्थः ॥ १२११ ॥ यदि पुनरन्यतमदोषदुष्टमपि करोति ततो न तत्फलमासादयतीति, आह चकिइकम्मपि करितो न होइ किइकम्मनिज्जराभागी । बत्तीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहिंतो ॥१२१२॥ ॥५४४॥ व्याख्या-कृतिकर्मापि कुर्वन्न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी, द्वात्रिंशद्दोषाणामन्यतरत्साधुः स्थान विराधयन्निति गाथार्थः ॥ १२१२ ॥ दोषविप्रमुक्तकृतिकर्मकरणे गुणमुपदर्शयन्नाहबत्तीसदोसपरिसुद्धं किहकम्मं जो पउंजइ गुरूणं । सो पावइ निव्वाणं अचिरेण विमाणवास वा ॥१२१३॥ दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1091~ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं I [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२१३], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ||७..|| ध्याण्या-द्वात्रिंशद्दोपपरिशुद्धं कृतिकर्म यः 'प्रयुते करोति गुरवे स प्राप्नोति निर्वाणम् अचिरेण विमानवास बेति | गाथार्थः ।। १२१३ ॥ आह-दोपपरिशुद्धाद्वन्दनात्को गुणः । येन तत एव निर्वाणप्राप्तिः प्रतिपाद्यत इति, उच्यतेआवस्सएम जह जह कुणइ पयत्तं अहीणमइरित्तं । तिविहकरणोवउत्तो तह तह से निजरा होह ॥ १२१४ ।। व्याख्या-'आवश्यकेषु' अवनतादिषु दोपत्यागलक्षणेषु च यथार करोति प्रयलम् 'अहीनातिरिक्तं' न हीनं नाप्यधिक, किम्भूतः सन् ?-त्रिविधकरणोपयुक्तः, मनोवाकार्यरुपयुक्त इत्यर्थः, तथा २'से' तस्य वन्दनकर्तुनिर्जरा भवति-कर्मक्ष-12 यो भवति, तस्माच्च निर्वाणप्राप्तिरिति, अतो दोषपरिशुद्धादेव फलावाप्तिरिति गाथार्थः ॥ १२१४ ॥ गतं सप्रसङ्गं दोषविमुक्तद्वारम् , अधुना किमिति क्रियत इति द्वारं, तत्र वन्दनकरणकारणानि प्रतिपादयन्नाहमाविणओवचार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स।तिस्थयराण य आणा सुअधम्माराहणाऽकिरिया ॥१२१५॥ ___ व्याख्या-विनय एवोपचारो विनयोपचारः कृतो भवति, स एव किमर्थ इत्याह-'मानस्य अहङ्कारस्य 'भञ्जना' | विनाशः, तदर्थः, मानेन च भग्नेन पूजना गुरुजनस्य कृता भवति, तीर्थकराणां चाऽऽज्ञाऽनुपालिता भवति, यतो भगवद्भिर्विनयमूल एवोपदिष्टो धर्मः, स च वन्दनादिलक्षण एव विनय इति, तथा श्रुतधर्माराधना कृता भवति, यतो वन्दनपूर्व श्रुतग्रहणं, 'अकिरिय'त्ति पारम्पर्येणाक्रिया भवति, यतोऽक्रियः सिद्धः, असावपि पारम्पर्येण वन्दनलक्षणाद् विनयादेव भवतीति, उक्तं च परमर्षिभिः-तहारूवं गंभंते ! समणं वा माहणं वा वंदमाणस्स पजुवासमाणस्स किंफला तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा बन्दमानस पर्युपासीनस्य किंफला दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1092~ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [-] / [गाथा-७...], नियुक्ति: [१२१५], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत ॥५४५॥ सूत्रांक ||७..|| वंदणपज्जुबासणया, गोयमा ! सवणफला, सवणे णाणफले, णाणे विण्णाणफले, विण्णाणे पञ्चक्खाणफले, पञ्चक्खाणे वन्दनासंजमफले, संजमे अणण्हयफले, अणहए तवफले, तवे वोदाणफले, वोदाणे अकिरियाफले, अकिरिया सिद्धिगइगमण- ध्ययने फला । तथा वाचकमुखेनाप्युक्तम्-'विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफल वन्दनकर करणकारणं चानवनिरोधः ॥ १॥ संवरफलं तपोवलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्माक्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥२॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥३॥ इति गाथार्थः ॥ १२१५ ॥ किंच विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो?॥१२१६॥ व्याख्या-शास्यन्तेऽनेन जीवा इति शासनं-द्वादशाङ्गं तस्मिन् विनयो मूलं, यत उक्तम्-'मूलोउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा विरुहंति साला (हा)। साहप्पसाहा विरुवं(ह)ति पत्ता, ततो सि पुष्पं च फलं रसोय ॥१॥एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्ती सुर्य सिग्धं निस्सेसमधिगच्छइ ॥२॥" अतो विनीतः संयतो भवेत् , M५४५॥ वन्दनपर्युपासना , गौतम ! श्रवणफला, श्रवणं ज्ञानफलं, ज्ञान विज्ञानफलं, विज्ञान प्रत्याख्यानफलं, प्रत्याख्यानं संयमफलं, संयमोऽनानवककः । अनाश्रवस्तपःफलः, तपो व्यवदानफलं, म्यवदानं अक्रियाकलं, अक्रिया सिद्धिगतिगमनकला । २ मूलात् स्कन्धप्रभवो दुमय स्कन्धात् पश्चात् प्रभवति शाखा । शास्त्रायाः प्रशाखा विरोहन्ति (ततः) पनाणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं रस एवं धर्मस बिनयो मूलं परमस्तस्य मोक्षः । येन कीति श्रुवं शीनं निःश्रेयसं चाधिगच्छति ॥२॥ दीप अनुक्रम [९..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'विनय'स्य महत्व-प्रतिपादनं ~1093~ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१६], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक विनयाद्विपमुक्तस्य कुतो धर्मः कुतस्तप इति गाथार्थः ॥ १२१६ ॥ अतो विनयोपचारार्थ कृतिकर्म कियत इति स्थितम् । आह-विनय इति कः शब्दार्थ इति, उच्यतेजम्हा विणयइ कम्मं अहविहं चाउरंतमुक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ॥ १२१७॥ व्याख्या-यस्माद्विनयति कर्म-नाशयति कर्माष्टविध, किमर्थं:-चतुरन्तमोक्षाय, संसारविनाशायेत्यर्थः, तस्मादेव वदन्ति विद्वांसः 'विनय इति' विनयनाद्विनयः 'विलीनसंसाराः' क्षीणसंसारा अथवा विनीतसंसाराः, नष्टसंसारा इत्यर्थः, यथा | विनीता गौनष्टक्षीराऽभिधीयते इति गाथार्थः ॥ १२१७ ॥ किमिति क्रियत इति द्वारं गतं, व्याख्याता द्वितीया कत्यवनत मित्यादिद्वारगाथा । अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दाथों निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेहाधिकृतः, गतो नामनिष्पन्नो| दिनिक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चतो वक्तव्यं यावत्तच्चेदं सूत्रन 'इच्छामि खमासमणो वंदिउँ जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि, अहोकायं कायसंफासं, खमणिज्जो मे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुमुभेण भे दिवसो वइकतो, जत्ता भे? जवणिजं च भे? खामेमि खमासमणो! देवसियं वइक्कम, आवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाणं देवसिआए आसारायणाए तित्तीसण्णयराए जंकिंचिमिच्छाए मणदुक्कड़ाए वयदुकडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: वन्दन अध्ययने मूल्सूस्य कथनं ~1094~ Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२१७...], भाष्यं [२०४...], (४०) बन्दना सूत्रब्याख्या प्रत सूत्रांक आवश्यक- लोभाए सव्वकालियाए सव्वमिच्छोक्याराए सव्वधम्माइकमणाए आसायणाए जो मेअइयारो को तस्स हारिभ- खमासमणोपडिकमामि निन्दामि गरिहामि अपाणं वोसिरामि ॥ (सूत्रम् ) द्रीया अस्य व्याख्या-तलक्षणं चेद-'संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य ॥५४६॥ विधा ॥१॥ तत्रास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा च-इच्छामि खमासमणो वंदिउँ जावणिजाए निसीहिआए' इत्येवंसूत्रोच्चारणरूपा, तानि चामूनि सर्वसूत्राणि-इच्छामि खमासमणो! वंदिलं जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणह मे। मिउग्गह निसीहि, अहोकायं कायसंफासं, खमणिजो मे किलामो अप्पकिलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइकतो, जत्ता है ? जवणिज च भे?, खामेमि खमासमणो! देवसियं वइकम आवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाणं देवसियाए आसायणाए तित्तीसण्णयराए जंकिंचिमिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए कोहाए माणाए मायाए लोभाए। ४ सघकालियाए सबमिच्छोवयाराए सबधम्माइकमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स खमासमणो! पडिकमामि | लानिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। अधुना पदविभागः-इच्छामि क्षमाश्रमण! वन्दितुं यापनीयया नषेधिक्या अनुजानीत मम मितावग्रहं नषेधिकी अधःकार्य कायसंस्पर्श क्षमणीयो भवता लमः अल्पकान्तानां बहुशुभेन भवतां दिवसो व्यतिक्रान्तः ?, यात्रा भवतां ? यापनीयं च भवतां ?,क्षमयामि क्षमाश्रमण! दैवसिकं व्यतिक्रमं आवश्यिक्या प्रतिकमामि क्षमाश्न-5 मणानां दैवसिक्या आशातनया त्रयस्त्रिंशदन्यतरया यत्किञ्चिन्मिथ्यया मनोदुष्कृतया वचनदुष्कृतया कायदुष्कृतया क्रोधया मानया मायया लोभया सर्वकालिक्या सर्वमिथ्योपचारया सर्वधमोतिक्रमणया आशातनया यो मयाऽतिचारः कृतस्तस्य दीप अनुक्रम ॥५४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1095~ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], (४०) 25 5% प्रत सूत्रांक क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामि, एतावन्ति सर्वसूत्रपदानि । साम्प्रतं पदार्थः पदविनहश्च यथासम्भवं प्रतिपाद्यते-तत्र 'इषु इच्छायाम्' इत्यस्योत्तमपुरुषैकवचनान्तस्य इच्छामीति भवति, 'क्षमूषु सहने इत्यस्याङन्तस्य क्षमा, 'श्रमु तपसि खेदे च' अस्य कर्तरि ल्युट् श्राम्यत्यसाविति श्रमणः क्षमाप्रधानः श्रमणः क्षमाश्रमणः तस्याऽऽमन्त्रण, वन्देस्तुमन्प्रत्ययान्तस्य वन्दितुं, 'या प्रापणे' अस्य प्यन्तस्य कतैयनीय, यापयतीति यापनीया तया, Vा पिध गत्याम' अस्य निपूर्वस्य पनि निषेधन निषेधः निषेधेन निर्वृत्ता नषेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद्वा नषेधिकेस्युच्यते, एवं शेषपदार्थोऽपि प्रकृतिप्रत्ययब्युत्पत्त्या वक्तव्यः, विनेयासम्मोहार्थे तु न बमः, अयं च प्रकृतसूत्रार्थ:-अवग्रहादहिःस्थितो विनेयोऽर्दावनतकायः करद्वयगृहीतरजोहरणो वन्दनायोद्यत एवमाह-'इच्छामि अभिलपामि हे क्षमाश्र-18 |मण ! 'वन्दितुं नमस्कारं कर्तु, भवन्तमिति गम्यते, यापनीयया-यथाशक्तियुक्तया नैषेधिक्या-प्राणातिपातादिनिवृत्तयार तन्वा-शरीरेणेत्यर्थः, अत्रान्तरे गुरुाक्षेपादियुक्तः 'त्रिविधेने ति भणति, ततः शिष्यः संक्षेपवन्दनं करोति, व्याक्षेपादि विकलस्तु'छन्दसे'ति भणति, ततो विनेयस्तत्रस्थ एवमाह- अनुजानीत' अनुजानीचं अनुज्ञा प्रयच्छथ, 'मम'इत्यात्मनिर्देशे, टक-मितश्चासावयग्रहश्चेति मितावग्रहस्तं, चतुर्दिशमिहामार्यस्यात्मप्रमाणं क्षेत्रमवग्रहस्तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टन कल्पते, ततो गुरुर्भणति-अनुजानामि, ततः शिष्यो नैषेधिक्या प्रविश्य गुरुपादान्तिक निधाय तत्र रजोहरणं तातलाट च कराभ्यां है संस्पृशन्निदं भणति-अधस्तात्कायः अधःकायः-पादलक्षणस्तमधःकार्य प्रति कायेन-निजदेहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्तं करोमि, एतच्चानुजानीत, तथा क्षमणीयः-सह्यो भवताम् अधुना 'क्लमों देहग्लानिरूपः, तथा अल्प-स्तोतं क्वान्त-कमो %A4%95-256456-54-5 दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1096~ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२१७...], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया वन्दनाध्ययने सूत्रन्याख्या प्रत सूत्रांक ॥५४७॥ येषां तेऽल्पवान्तास्तेषामरूपक्कान्तानां, बहु च तच्छुभं च बहुशुभं तेन बहुशुभेन, प्रभूतसुखेनेत्यर्थः, भवतां दिवसो व्यति- कान्तो?, युष्माकमहर्गतमित्यर्थः, अत्रान्तरे गुरुर्भणति-तथेति,यथा भवान् ब्रवीति, पुनराह विनेयः-'यात्रा' तपोनियमादिलक्षणा क्षायिकमिश्रीपशमिकभावलक्षणा वा उत्सर्पति भवताम् ?, अत्रान्तरे गुरुर्भणति-युष्माकमपि वर्तते , मम तावदुसर्पति भवतोऽप्युरसर्पतीत्यर्थः, पुनरप्याह विनेयो-यापनीयं चेन्द्रियनोइन्द्रियोपशमादिना प्रकारेण भवतां?, शरीरमिति गम्यते, अवान्तरे गुरुराह-एवमाम, यापनीयमित्यर्थः, पुनराह विनेयः-'क्षमयामि' मर्पयामि क्षमाश्रमणेति पूर्ववत् दिवसेन निर्वृत्तो दैवसिकस्तं व्यतिक्रमम्-अपराध, देवसिकग्रहणं रात्रिकाद्युपलक्षणार्थम् , अत्रान्तरे गुरुर्भणति-अहमपि क्षमयामि देवसिक व्यतिक्रमं प्रमादोद्भवमित्यर्थः, ततो विनेयः प्रणम्यैवं क्षामयित्वाऽऽलोचनाहेण प्रतिक्रमणाhण च प्रायश्चित्तेनारमानं शोधयन्नत्रान्तरेऽकरणतयोत्थायावग्रहानिर्गच्छन् यथा अर्थों व्यवस्थितस्तथा क्रियया प्रदर्शयन्नावश्यिक्येत्यादि दण्डकसूत्र भणति, अवश्यकर्तव्यैश्चरणकरणयोगैर्निर्वृत्ता आवश्यकी तयाऽऽसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यद-14 |साध्वनुष्ठितं तस्य प्रतिक्रामामि, विनिवर्तयामीत्यर्थः, इत्थं सामान्येनाभिधाय विशेषेण भणति-क्षमाश्रमणानां व्यावर्णितस्वरूपाणां सम्बन्धिन्या 'देवसिक्या' दिवसेन निवृत्तया ज्ञानाद्यायस्य शातना आशातना तया, किंविशिष्टया-त्रयस्त्रिंशदन्यतरया, आशातनाश्च यथा दशासु, अत्रैव वाऽनन्तराध्ययने तथा द्रष्टव्या, 'ताओ पुण तित्तीसपि आसायणाओ इमासु चउसु मूलासायणासु समोयरंति दबासायणाए ४, दबासायणा राइणिएण समं भुंजंतो मणुण्णं अप्पणा भुंजइ ताः पुनस्त्रयस्त्रिंशदपि भाषावनाः मासु चतसा मूलाशातनासु समवतरन्ति व्याशातनायां , अभ्याशातना राखिकेन समं भुजानो मनोशमारमना भुके दीप अनुक्रम ५४७॥ [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1097~ Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२१७...], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक पत्र एवं उपहिसंथारगाइसु विभासा, खित्तासायणा आसन्नं गंता भवइ राइणियस्स, कालासायणा राओ वा वियाले वा वाहरमाणस्स तुसिणीए चिहइ, भावासायणा आयरियं तुम तुमंति वत्ता भवइ, एवं तित्तीसपि चउसु दवाइसु समोयरंति'। 'यत्किश्चिन्मिभ्यया' यत्किश्चिदाश्रित्य मिथ्यया, मनसा दुष्कृता मनोदुष्कृता तया प्रद्वेषनिमित्तयेत्यर्थः, 'वाग्दुष्कृतया' असाधुवचननिमित्तया, 'कायदुष्कृतया' आसन्नगमनादिनिमित्तया, 'क्रोधयेति क्रोधवत्येति प्राप्ते अादेराकृतिगणत्वात् अच्प्रत्ययान्तत्वात् 'क्रोधया' क्रोधानुगतया, 'मानया' मानानुगतया, 'मायया' मायानुगतया, 'लोभया' लोभानुगतया, अयं भावार्थ:-क्रोधाद्यनुगतेन या काचिद्विनयभ्रंशादिलक्षणा आशातना कृता तयेति, एवं दैवसिकी भणिता, अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागतकालसङ्ग्रहार्थमाह-सर्वकालेन-अतीतादिना निर्वृत्ता सार्वकालिकी तया, सर्व एव मिथ्योपचारा:-मातृस्थानगर्भाः क्रियाविशेषा यस्यामिति समासस्तया, सर्वधर्मा:-अष्टौ प्रवचनमातरः तेषामतिक्रमणं-लखनं यस्यां सा सर्वधर्मातिक्रमणा तया, एवम्भूतयाऽऽशातनयेति, निगमयति-यो मयाऽतिचारः-अपराधः 'कृतो' निर्वर्तितः 'तस्य' अतिचारस्थ हे क्षमाश्रमण ! युष्मत्साक्षिक प्रतिकामामि-अपुनःकरणतया निवर्तयामीत्यर्थः, तथा दुष्टकर्मकारिणं निन्दाम्यात्मानं प्रशान्तेन भवोद्विनेन चेतसा, तथा गाम्यात्मानं युष्मत्साक्षिक व्युत्सृजाम्यात्मानं दुष्टकर्मकारिणं तदनुमतित्यागेन, सामायिकानुसारेण च निन्दादिपदार्थो न्यक्षेण वक्तव्यः, एवं क्षामयित्वा पुनस्तत्रस्थ एवार्डोवनतकाय एव १एवमुपधिसंसारकाविषु विभाषा, क्षेत्राशासनाऽऽसन गन्ता भपति रानिकस, कालाशातना रात्री वा विकाले वा ब्याहरतस्तूष्णीकसिटति, भावाशातना आचार्य वं खमिति पक्का भवति, एवं त्रयस्त्रिंशदपि चतसृष्वपि दन्यादिषु समवसरन्ति. क दीप अनुक्रम [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1098~ Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२१७...], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक भणति-'इच्छामि खमासमणो' इत्यादि सर्व द्रष्टव्यमित्येवं, नवरमयं विशेषः-'खामेमि खमासमणों' इत्यादि सर्व सूत्रमाव-:३वन्दनाहारिभ श्यिक्या विरहितं तत् पादपतित एव भणति, शिष्यासम्मोहाथै सूत्रस्पर्शिकगाथाः स्वस्थाने खल्वनादृत्य लेशतस्तदर्थकधनयैव ध्ययने द्रीया पदार्थों निदर्शितः, साम्प्रतं सूत्रसर्शिकगाथया निदर्शयन्नाह वन्दन स्थानानि इच्छा य अणुनवणा अब्बावाहं च जत्त जवणा य । अवराहखामणावि य छट्ठाणा हुँति बंदणए ॥ १२१८॥ ॥५४८॥ | व्याख्या-इच्छा च अनुज्ञापना अभ्याबाधं च यात्रा यापनाच अपराधक्षामणाऽपि च पद स्थानानि भवन्ति बन्द-1 नके ॥ तत्रेच्छा पविधा, यथोक्तम् णामं ठवणादविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु इच्छाए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ॥ १२१९॥ व्याख्या--नामस्थापने गतार्थे, द्रव्येच्छा सचित्तादिद्रव्याभिलाषः, अनुपयुक्तस्य वेच्छामीत्यादि भणतः, क्षेत्रेच्छा मगधादिक्षेत्राभिलाषः, कालेच्छा रजन्यादिकालाभिलाषा-रयणिमहिसारिया उ चोरा परदारिया य इच्छति । तालायरा सुभिक्खं बहुधण्णा केइ दुम्भिक्ख ॥१॥ भावेच्छा प्रशस्तेतरभेदा, प्रशस्ता ज्ञानाद्यभिलाषः, अप्रशस्ता सयाद्यभिलाष इति, ते अत्र तु विनेयभावेच्छयाऽधिकारः, क्षमादीनां तु पदानां गाथायामनुपन्यस्तानां यथासम्भवं निक्षेपादि वक्तव्यं, क्षुण्ण ॥५४८ वाजून्थविस्तरभयाच नेहोक्तमिति । उक्ता इच्छा, इदानीमनुज्ञा, सा च पविधानाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ अणुण्णाए णिक्खेयो एग्विहो होह ॥१२२०॥ १ रजनीमभिसारिकास्तु चौराः पारदारिकाश्येच्छन्ति । तालाचराः सुभिक्ष बहुधान्याः केचिदुर्भिशम् ॥1॥ दीप अनुक्रम CieIESGARL मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1099~ Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२२०], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यानुज्ञा लौकिकी लोकोत्तरा कुप्रावचनिकी च, लौकिकी सचित्तादिद्रव्यभेदात्रिविधा, अश्वभूषितयुवतिवैडूर्याद्यनुज्ञेत्यर्थः, लोकोत्तराऽपि त्रिविधा-केवलशिष्यसोपकरणशिष्यवस्खाद्यनुज्ञा, एवं कुपावचनिकी वक्तव्या, क्षेत्रानुज्ञा या यस्य यावतः क्षेत्रस्य यत्र वा क्षेत्रे व्याख्यायते क्रियते वा, एवं कालानुज्ञाऽपि वक्तव्या, भावानुज्ञा आचाराद्यनुज्ञा, भावानुज्ञयाऽधिकारः, अत्रान्तरे गाथायामनुपात्तस्याप्यक्षुण्णत्वादवग्रहस्य निक्षेपः| णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ उग्गहस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ॥१२२१ ॥ व्याख्या-सचित्तादिद्रच्यावग्रहणं व्यावग्रहः, क्षेत्रावग्रहो यो यत्क्षेत्रमवगृह्णाति, तत्र च समन्ततः सक्रोश योजनं, कालावग्रहो यो यं कालमवगृह्णाति, वर्षासु चतुरो मासान् ऋतुबद्धे मासं, भावावग्रहः प्रशस्तेतरभेदः, प्रशस्तो ज्ञानाद्यवग्रहः, इतरस्तु क्रोधाद्यवग्रह इति, अथवाऽवग्रहः पञ्चधा-"देविंदरायगिहवइ सागरिसाधम्मिउग्गहो तह य । पंचविहो पण्णत्तो अवग्गहो वीयरागेहिं ॥१॥' अत्र भावावग्रहेण साधर्मिकावग्रहेण चाधिकारः-'आयप्पमाणमित्तो चउद्दिसिं होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुण्णातस्स सया ण कप्पए तत्थ पइसरि ॥१॥ ततश्च तमनुज्ञाप्य प्रविशति, आह च नियुक्तिकारःबाहिरखितमि ठिओ अणुन्नवित्ता मिजग्गहं फासे । उग्गहखेत्तं पविसे जाव सिरेणं फुसइ पाए ।। १२२२ ।। देवेन्द्रराजगृहपतिसागारिकसाधर्मिकायमहसथैव । पञ्चविधः प्रज्ञप्तोऽवग्रहो वीतरागैः ॥ २ मारमप्रमाणमाप्रश्चतुर्दिशं भवत्यवग्रहो गुरोः । मननुज्ञातव सदा न कल्पते तत्र प्रवेष्टम् ॥२॥ दीप अनुक्रम [१०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1100~ Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [1] दीप अनुक्रम [१०] आवश्यक- ४ हारिभ ह्रीया ॥५४९ ॥ ४ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१२२२], भाष्यं [ २०४...], ब्याख्या — बहिःक्षेत्रे स्थितः अनुज्ञाप्य मितावग्रहं स्पृशेत् रजोहरणेन, पुनश्चावग्रहक्षेत्रं प्रविशेत्, कियद्दूरं यावदित्याह-यावच्छिरसा स्पृशेत् पादाविति गाथार्थः ॥ १२२२ ।। अध्याबाधं द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतः खङ्गाद्याघातव्याचाधाकारणचिकलस्य भावतः सम्यग्टष्टेश्चारित्रयतः, अत्रापि कायादिनिक्षेपादि यथासम्भवं स्वबुद्ध्या वक्तव्यं, यात्रा द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतस्तापसादीनां स्वक्रियोत्सर्पण भावतः साधूनामिति, यापना द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यत औषधा दिना कायस्य, भावतस्त्विन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन शरीरस्य, क्षामणा द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतः कलुषाशयस्यैहिकापायभीरोः भावतः संवेगापन्नस्य सम्यग्टटेरिति, आह च अब्बावाहं दुविहं दव्वे भावे य जत्त जवणा य । अवराहखामणावि य सवित्थरत्थं विभासिना । १२२३ ॥ एवं शेषपदेष्वपि निक्षेपादि वक्तव्यम् इत्थं सूत्रे प्रायशो वन्दमानस्य विधिरुक्तः निर्युक्तिकृताऽपि स एव व्याख्यातः, अधुना वन्द्यगतविधिप्रतिपादनायाह नियुक्तिकारः जाणामि तत्त तुझंपि वहई एवं । अहमवि खामेमि तुमे वयणाई वंदणरिहस्त || १२२४ ॥ व्याख्या - छन्दसा अनुजानामि तथेति युष्माकमपि वर्तते एवमहमपि क्षमयामि त्वां वचनानि 'चन्दनार्हस्य' वन्दनयोग्यस्य, विषयविभागस्तु पदार्थनिरूपणायां निदर्शित एवेति गाथार्थः ॥ १२२४ ॥ तेवि पडिच्छियव्वं गारवरहिएण सुद्धहियएण । किइकम्मकारगस्सा संवेगं संजणंतेणं ।। १२२५ ॥ व्याख्या- 'तेन' बन्दनार्हेण एवं प्रत्येष्टव्यम्, अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वादृज्यादिगौरवरहितेन, 'शुद्धहृदयेन' कषायवि ३ वन्दनाध्ययने ~ 1101 ~ चन्दनस्थानानि ॥५४९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२२५], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक प्रमुक्तेन, 'कृतिकर्मकारकस्य' बन्दनकर्तुः संवेग जनयता, संवेगः-शरीरादिपृथग्भावो मोक्षौत्सुक्यं वेति गाथार्थः ॥१२२५॥ | इत्थं सूत्रस्पर्शनियुक्त्या व्याख्यातं सूत्रम् , उक्तः पदार्थः पदविग्रहश्शेति, साम्प्रतं चालना, तथा चाहआवत्ताइस जुगचं इह भणिओ कायवायचावारो। दुण्हेगया थकिरिया जओ निसिद्धा अउ अजुत्तो ॥१२२६।। व्याख्या-इहाऽऽवर्तादिषु, आदिशब्दादावश्यिक्यादिपरिग्रहः, 'युगपत् एकदा 'भणितः' उक्का कायवाग्व्यापारः, द तथा च सत्येकदा क्रियाद्वयप्रसङ्गः, द्वयोरेकदा च क्रिया यतो निषिद्धाऽन्यत्र,उपयोगद्वयाभावाद्, अतोऽयुक्तः स व्यापार इति, ततश्च सूत्रं पठित्वा कायव्यापारः कार्य इति, उच्यतेभिन्नविसयं निसिद्ध किरियाद्गमेगयाण एगंमि । जोगतिगस्स वि भंगिय सुत्ते किरिया जओभणिया ॥१२२७॥ व्याख्या-ह विलक्षणवस्तुविषयं क्रियाद्वयं निषिद्धम् एकदा यथोत्प्रेक्षते सूत्रार्थं नयादिगोचरमटति च, तत्रोत्नेक्षायां यदोपयुक्तो न तदाऽटने यदा चाटने न तदोत्प्रेक्षायामिति, कालस्य सूक्ष्मत्वाद, विलक्षणविषया तु योगत्रयक्रियाऽप्यवि|रुद्धा, यथोक्तम्-भंगियसुयं गुणंतो वइ तिविहेऽपि जोगंमी त्यादि, गतं प्रत्ययस्थान, सीसो पढमपवेसे वंदिउमावस्सिाएँ पडिक्कमि। वितियपवेसंमि पुणो वंदद किं? चालणा अहवा॥१२२८॥ जह दूओ रायाणं णमि कजं निवेइ पच्छां । वीसजिओवि वंदिय गच्छा साहवि एमेव ॥ १२२९ ।। भरिक श्रुतं गुणयन् वर्तते त्रिविधेऽपि योगे। शिष्या प्रथममवेयो पन्दितमावश्यिक्या प्रतिक्रम्प । द्वितीयको पुनन्दिते कि चालनाऽथवा ॥१॥ पधादूतो रामानं गत्वा कार्य निवेद्य । पश्चात् । विषयोऽपि वन्दित्वा गच्छति एवमेच साधयोऽपि ॥२॥ ACANAGAAAAAAAAD दीप अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1102~ Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [३], मूलं [१] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२२९], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया व्याख्या-इदं प्रत्यवस्थान, उक्तमानुषङ्गिक, साम्प्रतं कृतिकर्मविधिसंसेवनाफलं समाप्तावुपदर्शयन्नाह ३वन्दना एवं किइकम्मविहिं जुजता चरणकरणमुव उत्ता । साहू खवंति कम्मं अणेगभवसंचिपमणतं ॥१२३०॥ | ध्ययने व्याख्या-'एवम् अनन्तरदर्शित 'कृतिकर्मविधि' वन्दनविधि युञ्जानाश्चरणकरणोपयुक्ताः साधवः क्षपयन्ति कर्मात्यवस्थाने चालनाम'अनेकभवसश्चित' प्रभूतभवोपात्तमित्यर्थः, कियद् ?-अनन्तमिति गाधार्थः ॥ १२३० ॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः सामायिकनिर्युक्ताविव द्रष्टव्याः ।। इत्याचार्यश्रीहरिभद्रकृती शिष्यहितायामावश्यकटीकार्या वन्दनाध्ययनं समाप्तमिति । कृत्वा | वन्दनविवृति प्राप्तं यत्कुशलमिह मया तेन । साधुजनवन्दनमलं सत्त्वा मोक्षाय सेवन्तु ॥१॥ प्रत ॥५५०॥ सूत्रांक १) दीप अनुक्रम व्याख्यातं वन्दनाध्ययनम्, अधुना प्रतिक्रमणाध्ययनमारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः, अनन्तराध्ययनेऽहंदुपदिष्ट-1 सामायिकगुणवत एव वन्दनलक्षणा प्रतिपत्तिः कार्येति प्रतिपादितम् , इह पुनस्तदकरणता दिनैव स्खलितस्रव निन्दा प्रतिपा|घते, यद्वावन्दनाध्ययने कृतिकर्मरूपायाः साधुभक्तस्तत्त्वतः कर्मक्षय उक्तः, यथोक्तम्-'विणओवयार माणस्स भंजणा पूयणा || गुरुजणस्स। तित्थयराण य आणा सुअधम्माऽऽराहणाऽकिरिया।।शाप्रतिक्रमणाध्ययने तु मिथ्यात्वादिप्रतिक्रमणद्वारेण कर्मनिदाननिषेधःप्रतिपाद्यते, वक्ष्यति च-"मिछत्तपडिकमणं तहेव अस्संजमेवि पडिक्कमणं । कस्सायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसस्थाणं॥शा" अथवा सामायिके चारित्रमुपवर्णितं, चतुर्विंशतिस्तवे वर्हतां गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा, एवमिदं पृष्ट ५४५ गाया 1५1५२ मिष्वास्वप्रतिवमणं तवैवासंयमेऽपि प्रतिकमणम् । कपायाणां प्रतिक्रमणं योगानां चामलखानाम् ॥१॥ ASS ॥५५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र अध्ययनं -३- 'वन्दनं' परिसमाप्तं • अत्र अध्ययनं -४- 'प्रतिक्रमणं' आरभ्यते ~1103~ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [ गाथा - ], निर्युक्तिः [१२३०...], भाष्यं [ २०४...], त्रितयमुक्तम्, अस्य च वितथासेवन मैहिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षुणा गुरोर्निवेदनीयं तच्च वन्दनापूर्वमित्यतोऽनन्तराध्ययने तन्निरूपितम्, इह तु निवेद्य भूयः शुभेष्वेव स्थानेषु प्रतीपं क्रमणमासेवनीयमित्येतत् प्रतिपाद्यते, इत्थमनेनानेकरूपेण सम्बन्धेनाऽऽया तस्यास्य प्रतिक्रमणाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्चं वक्तव्यानि, तत्र च नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रतिक्रमणाध्ययनमिति, तत्र प्रतिक्रमणं निरूप्यते 'प्रति' इत्ययमुपसर्गः प्रतीपाद्यर्थे वर्तते, 'क्रमु पादविक्षेपे' अस्य ल्युडन्तस्य प्रतीपं प्रतिकूलं वा क्रमणं प्रतिक्रमण मिति भवति, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकूलं वा क्रमणं प्रतिक्रमणमिति, उक्तं च- "स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ १ ॥ क्षायोपशमिकाद्भावा दौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ॥ २ ॥ प्रति प्रति क्रमणं वा प्रतिक्रमणं, शुभयोगेषु प्रति प्रति वर्तनमित्यर्थः, उक्तं च- " प्रति प्रति वर्तनं वा शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यसद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ॥ १ ॥" इह च यथा करणात् कर्मकत्रः सिद्धिः, तद्व्यतिरेकेण करणत्वानुपपत्तेः, एवं प्रतिक्रमणादपि प्रतिक्रामक प्रतिक्रान्सध्यसिद्धिरित्यत स्त्रितयमप्यभिधित्सुराह नियुक्तिकार : किमणं पडिकमओ पडिकमियच्वं च आणुपुच्चीए । तीए पचप्पन्ने अणागए चेव कालंमि ॥ १२३१ ॥ ब्याख्या – 'प्रतिक्रमणं' निरूपित्तशब्दार्थ, तत्र प्रतिक्रामतीति प्रतिक्रमकः कर्ता, प्रतिक्रान्तव्यं च कर्म-अशुभयोगलक्षणम्, 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या, 'अतीते' अतिक्रान्ते 'प्रत्युत्पन्ने' वर्तमाने 'अनागते चैव' एप्ये चैव काले, प्रतिक्रमणादि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'प्रतिक्रमण' शब्दस्य अर्थ व्याख्या ~ 1104~ Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [१२३१], भाष्यं [२०४...], आवश्यक योज्यमिति वाक्यशेषः । आह-प्रतिक्रमणमतीतविषयं यत उक्तम्- 'अतीतं पडिकमामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चहारिभक्खामि त्ति तत्कथमिह कालत्रये योज्यते इति ?, उच्यते, प्रतिक्रमणशब्दो ह्यत्राशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः सामान्यः द्वीया परिगृह्यते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरेवेति प्रत्युत्पन्नविषयमपि संवरणद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरेव, अनागतविषयमपि प्रत्याख्यानद्वारेणाशुभयोगनिवृत्तिरेवेति न दोष इति गाथाक्षरार्थः ॥ १२१ ॥ साम्प्रतं प्रतिक्रामकस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह— ॥५५१॥ जीवो उ पडिकमओ असुहाणं पावकम्मजोगाणं। झाणपसत्था जोगा जे ते ण पडिक्कमे साहू ।। १२३२ ।। व्याख्या- 'जीवः' प्राग्निरूपित शब्दार्थः, तत्र प्रतिक्रामतीति प्रतिक्रामकः, तुशब्दो विशेषणार्थः, न सर्व एव जीवः प्रतिक्रामकः, किं तर्हि ?- सम्यग्दृष्टिरुपयुक्तः, केषां प्रतिक्रमकः ?- 'अशुभानां पापकर्मयोगानाम्' अशोभनानां पापकर्मव्यापाराणामित्यर्थः, आह- पापकर्मयोगा अशुभा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यं, न, स्वरूपान्वाख्यानपरत्वादस्य, प्रशस्तौ च ती योगौ च प्रशस्तयोगी, ध्यानं च प्रशस्तयोगौ च ध्यानप्रशस्तयोगा ये तानधिकृत्य 'न प्रतिक्रमेत' न प्रतीपं वर्तेत साधुः, अपि तु तान् सेवेत, मनोयोगप्राधान्यख्यापनार्थ पृथग् ध्यानग्रहणं, प्रशस्तयोगोपादानाश्च ध्यानमपि धर्मशुक्लभेदं प्रशस्तमवगन्तव्यम्, आह-'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमुहस्य किमिति प्रतिक्रमणमनभिधाय प्रतिक्रामक उक्तः ?, तथाऽऽद्यगाथागत मानुपूर्वीग्रहणं चातिरिष्यत इति, उच्यते, प्रतिक्रमकस्याल्पवक्तव्यत्वात् कर्त्रधीनत्वाच्च क्रियाया इत्य १] अती प्रतिक्रमामि प्रत्युत्पन्नं संवृणोमि अनागतं प्रत्याख्यामि. ४ प्रतिक्र मणाध्ययने प्रतिक्रमणादि स्वरूपं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1105~ ॥५५१॥ Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. दोषः, श्रथमेवोपन्यासः कस्मान्न कृत इति चेत् प्रतिक्रमणाध्ययननामनिष्पक्षनिक्षेपप्रधानत्वात्तस्येत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १२३२ ॥ उक्तः प्रतिक्रमका, साम्प्रतं प्रतिक्रमणस्यावसरः, तच्छब्दार्थपर्यायाचिख्यासुरिदमाहपडिकमणं पडियरणा परिहरणा वारणा नियत्ती य । निंदा गरिहा सोही पडिकमणं अहहा होई ॥१२३३ ॥ व्याख्या-'प्रतिक्रमण तत्त्वतो निरूपितमेव, अधुना भेदतो निरूप्यते, तत्पुनर्नामादिभेदतः षोढा भवति, तथा चाऽऽहणाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडिकमणस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२३४ ॥ | व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यप्रतिक्रमणमनुपयुक्तसम्यग्दृष्टेलेब्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहस्य पुस्तकादिन्यस्तं वा, क्षेत्रप्रतिक्रमणं यस्मिन् क्षेत्रे व्यावयेते क्रियते वा यतो वा प्रतिक्रम्यते खिलादेरिति, कालप्रतिक्रमण वेधा-भुवं अधुवं च, तत्र ध्रुवं भरतैरावतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेष्वपराधो भवतु मा वा ध्रुवमुभयकालं प्रतिक्रम्यते,12 विमध्यमतीर्थकरतीर्थेषु वधुवं-कारणजाते प्रतिक्रमणमिति, भावप्रतिक्रमणं द्विधा-प्रशस्तमप्रशस्त च, प्रशस्त मिथ्यात्वादे, अप्रशस्तं सम्यक्त्वादेरिति, अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरिति, प्रशस्तेनानाधिकारः॥ प्रतिचरणा व्याख्यायते-'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य प्रतिपूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रतिचरणेति भवति, प्रति प्रति तेषु तेष्वर्थेषु चरण-गमनं तेन तेनाऽऽसेवनाप्रकारेणेति प्रतिचरणा, सा च पद्विधा, तथा चाहणामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडियरणाए णिक्खेवो छबिहो होइ ॥ १२३५ ॥ व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यप्रतिचरणा अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेस्तेषु तेष्वर्थेष्वाचरणीयेषु चरण-गमन दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'प्रतिक्रमण' शब्दस्य अष्ट पर्यायाः, तेषाम् व्याख्या एवं कथा: ~1106~ Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३५], भाष्यं [२०४...], (४०) Ke प्रत सूत्रांक १.. आवश्यकतेन तेन प्रकारेण लन्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहवस्य सचित्तादिद्रव्यस्य वेति, क्षेत्रप्रतिचरणा यत्र प्रतिचरणाप्रतिकहारिभ- व्याख्यायते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा. प्रतिचरणा, यथा शालिगोपिकाद्याः शालिक्षेत्रादीनि प्रतिचरन्ति, कालप्रतिचरणा मणाध्यद्रीया यस्मिन् काले प्रतिचरणा व्याख्यायते कियते वा कालस्य वा प्रतिचरणम, यथा साधवः पादोषिक वा प्राभातिकं वा कालं| यने प्रतिप्रतिचरन्ति, भावप्रतिचरणा द्वेधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, अप्रशस्ता मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिप्रतिचरणा, प्रशस्ता सम्यग्दर्शन- क्रमणादि५५२॥ ज्ञानचारित्रप्रतिचरणा, अथवीपत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्या यतः शुभयोगेषु स्वरूप प्रतीपं क्रमण-प्रवर्तनं प्रतिक्रमणमुक्तं, प्रतिचरणाऽप्येवम्भूतैव वस्तुत इति गाधार्थः ॥ १२३५ ॥ इदानी परिहरणा, 'हुन्। हरणे' अस्य परिपूर्वस्यैव ल्युडन्तस्यैव परिहरणा, सर्वप्रकारैर्वजनेत्यर्थः, सा च अष्टविधा, तथा चाहणाम ठवणा दविए परिरय परिहार वजणाए य । अणुगह भावे य तहा अट्टविहा होइ परिहरणा ॥१२३६।। व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यपरिहरणा हेयं विषयमधिकृत्य अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेर्लब्ध्यादिनिमित्तं वा उपआयुक्तस्य वा निहवस्य कण्टकादिपरिहरणा वेति, परिरयपरिहरणा गिरिसरित्परिरयपरिहरणा, परिहारपरिहरणा लौकिक-12 लोकोत्तरभेदभिन्ना, लौकिकी मात्रादिपरिहरणा, लोकोत्तरा पार्श्वस्थादिपरिहरणा, वर्जनापरिहरणाऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदैव, लौकिका इत्वरा यावत्कथिका च, इत्वरा प्रसूतसूतकादिपरिहरणा, यावत्कथिका डोम्बादिपरिहरणा, लोकोत्तरा पुनरित्वरा शय्यातरपिण्डादिपरिहरणा, यावत्कथिका तु राजपिण्डादिपरिहरणा, अनुग्रहपरिहरणा अक्खोडभंगपरिहरणा, ॥५५२॥ * आरकोटकानां यो भनस्तस्य परिहरणा प्रतिलेखनादिविधिविराधनापरिबरणेल्यर्थः. KOK दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1107~ Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३६], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. ROCESCCESCOR भावपरिहरणाप्रशस्ता अप्रशस्ता च,अप्रशस्ता ज्ञानादिपरिहरणा,प्रशस्ता क्रोधादिपरिहरणा,अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः प्रतिक्रमणमप्यशुभयोगपरिहारेणैवेति, वारणेदानीं, 'वृल वरणे' इत्यस्य ण्यन्तस्य । ल्युडि वारणा भवति, वारणं वारणा निषेध इत्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोढा भवति, तथा चाह__णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ वारणाए णिकखेवो छब्बिहो होइ ॥१२३७॥ I व्याख्या-तत्र नामस्थापने गताथें, द्रव्यवारणा तापसादीनां हलकृष्टादिपरिभोगवारणा, अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेवों देशनायां उपयुक्तस्य वा निवस्यापथ्यस्य वा रोगिण इतीयं चोदनारूपा, क्षेत्रवारणा तु यत्र क्षेत्रे व्यावय॑ते क्रियते वा क्षेत्रस्य वाऽनार्यस्येति, कालवारणा यस्मिन् व्यावर्ण्यते क्रियते वा कालस्य वा विकालादेवर्षासु वा विहारस्येति, भाववाकरणेदानी, सा च द्विविधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, प्रशस्ता प्रमादवारणा, अप्रशस्ता संयमादिवारणा, अथवौषत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दष्टेरिति, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः स्फुटा, निवृत्तिरधुना, 'वृत वर्तने' इत्यस्य निपूर्वस्य क्तिनि निवर्तन निवृत्तिः, सा च पोढा, यत आह नाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो य नियत्तीए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ।। १२३८॥ व्याख्या-नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यनिवृत्तिस्तापसादीनां हलकृष्टादिनिवृत्तिरित्याद्यखिलो भावार्थः स्वबुद्ध्या वक्तव्यः, यावत् प्रशस्तभावनिवृत्त्येहाधिकारः । निन्देदानी, तत्र 'णिदि कुत्सायाम् अस्य 'गुरोश्च हलः' (पा०३-३-१०३)16 इत्यकार: दाप् , निन्दनं निन्दा, आत्माऽध्यक्षमात्मकुत्सेत्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोढा भवति, तथा चाह दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1108~ Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२३९], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. आवश्यक- णाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु निंदाए णिक्खेवो छब्बिहो होइ ॥१२३९॥ प्रतिक्रमहारिभ- व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यनिन्दा तापसादीनाम् अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टोपयुक्तस्य वा निवस्या साणाध्य०प्रद्रीया & तिक्रमणाशोभनद्रव्यस्य वेति, क्षेत्रनिन्दा यत्र व्याख्यायते क्रियते वा संसक्तस्य वेति, कालनिन्दा यस्मिन्निन्दा व्याख्यायते क्रियते | |दिस्व० वा दुर्भिक्षादेर्वा कालस्य, भावनिन्दा प्रशस्तेतरभेदा, अप्रशस्ता संयमाद्याचरणविषया, प्रशस्ता पुनरसंयमाद्याचरणविहपयेति, 'हो ! दुहु कयं हा! दुडु कारियं दुहु अणुमयं हत्ति । अंतो २ उज्झइ झुसिरुव दुमो वणवेणं ॥१॥' अथवी घत एवोपयुक्तसम्यग्दृष्टेरिति, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता स्फुटेति गाथार्थः ॥ १२३९ ॥ गहेंदानी, तत्र 'गई| कुत्साया' मस्य 'गुरोश्च हल' इत्यकारः टापू, गर्हणं गर्हा-परसाक्षिकी कुस्सैवेति भावार्थः, सा च नामादिभेदतः पोटैवेति, दतथा चाह नाम ठवणा दबिए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु गरिहाए निक्खेवो छब्बिहो होइ ॥ १२४० ॥ | व्याख्या नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यगहरे तापसादीनामेव स्वगुर्वालोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्दष्टेवोपयुक्तस्य वा निह्नवस्येत्यादिभावार्थो वक्तव्यः, यावत्प्रशस्तयेहाधिकारः इदानीं शुद्धिः 'शुध शौचे' अस्य खियां क्तिन् , शोधनं शुद्धिः, 1५५३॥ विमलीकरणमित्यर्थः, सा च नामादिभेदतः पोव, तथा चाहनाम ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु सुद्धीए निक्खेको छब्बिहो होइ ॥१२४१ ॥ १६ दुष्ट कृतं हा दुष्ठ कारित दुष्टनुमतं हेति । अन्तरन्तदाते शुपिर इव दुमो बनदवेन ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1109~ Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४१], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. व्याख्या-तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यशुद्धिस्तापसादीनां स्वगुर्वालोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरुपयुक्तस्य वा निवस्य वस्त्रसुवर्णादेर्वा जलक्षारादिभिरिति, क्षेत्रशुद्धियंत्र व्यावण्यते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा कुलिकादिनाऽस्थ्यादिशख्योद्धरणमिति, कालशुद्धिर्यत्र ब्यावयेते क्रियते वा शक्वादिभिर्वा कालस्य शुद्धिः क्रियत इति, भावशुद्धिर्दिषा-प्रश|स्ताऽप्रशस्ता च, प्रशस्ता ज्ञानादेरप्रशस्ता चाशुद्धस्य सतः क्रोधादेवैमख्याधानं स्पष्टतापादनमित्यर्थः, अथवौघत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः प्रशस्ता, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपोयता चास्याः स्फुटा, एवं प्रतिक्रमणमष्टधा भवतीति गाथार्थः ।। १२४१ ॥ साम्प्रतं विनेयानुग्रहाय प्रतिक्रमणादिपदानां यथाक्रम दृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाह___ अाणे पासाए दुद्धकाय विसभोयणतलाएँ । दो कन्नाओ पइमारियाँ य वत्थे य अगएं य ॥१२४२ ॥ व्याख्या-अध्यानः प्रासादः दुग्धकायः विषभोजनं तडाग द्वे कन्ये पतिमारिका च वस्त्रं चागदश्च, तत्थ पडिकमणे अद्धाणदिहतो-जहा एगो राया गयरबाहिं पासायं काउकामो सोभणे दिणे सुत्ताणि पाडियाणि, रक्खगा णि उत्ता भणिया य-जइ कोइ इत्थ परिसिज्ज सो मारेयवो, जइ पुण ताणि चेव पयाणि अकमंतो पडिओसरइ सो मोयचो, तओ तेसिं| रक्खगाण बक्खित्तचित्ताणं कालहया दो गामिल्लया पुरिसा पविट्ठा, ते णाइदूरं गया रक्खगेहिं दिहा, उकरिसियखग्गेहि य पत्र प्रतिक्रमणेऽध्वन्यायाता, यथा एको राजा नगरादहिः प्रासादं कर्तुकामः शोभने दिने सूत्राणि पातितवान्, रक्षका नियुका भनिताश-पदि। कश्चित् अत्र प्रविशेष समारयितव्यः, यदि पुनस्तानेच पादान आक्राम्यन् प्रत्यवसपंति स मोक्तव्यः, ततस्तेषां रक्षकाणां व्याक्षिप्तचिचानां कालहती द्वौ ग्रामेबकौ पुरुषो प्रविष्टौ, सौ नातिदूरं गतौ रक्षकैटौ, आकृष्ट सत्र दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1110~ Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक हारिभद्रीया ॥५५॥ लत्ता-हा दासा! कहिं एत्थ पविद्या ?, तत्थेगो काकघहो भणइ-को एत्थ दोसोत्ति इओ तओ पहाविओ, सो तेहिं ४ प्रतिक्रतत्थेव मारिओ, वितिओ भीओ तेसु चेव पएसु ठिओ भणइ-सामि ! अयाणतो अहं पविडो, मा में मारेह, ज भणहतं मणाध्य० करेमित्ति, तेहिं भण्णइ-जई अण्णओ अणकमतो तेहिं चेव पएहिं पडिओसरसि तओ मुञ्चसि, सो भीओ परेण जत्तेण* प्रतिक्रमतेहिं चेव पएहिं पडिनियत्तो, सो मुक्को, इहलोइयाणं भोगाणं आभागीजाओ, इयरो चुक्को, एतं दवपडिक्कमणं, भावे णेऽध्व न्योदा० दिवंतस्स उवणओ-रायस्थाणीएहिं तित्थयरेहिं पासायत्थाणीओ संजमो रक्खियथोत्ति आणतं, सो य गामिलगवाणीएण एगेण साहुणा अइफमिओ, सो रागद्दोसरक्खगम्भाहओ सुचिरं कालं संसारे जाइयवमरियवाणि पाविहिति, जो पुण किहवि पमाएण अस्संजमं गओ तो पडिनियत्तो अपुणकरणाए पडिकमए सो णिवाणभागी भवइ, पडिकमणे अद्धाण| दिहतो गतो १ । इयाणि पडिचरणाए पासाएण दिछतो भण्णइ-एगम्मि णयरे धणसमिद्धो वाणियओ, तस्स अहुणुडिओ [१..] दीप अनुक्रम [१०..] संलप्ली-हा दाखौ ! कात्र प्रविष्टी, सका काकपाटो भणति-कोऽय दोष इति इतमतः प्रभाविता, स तसवव मारिता, द्वितीयो भीतस्तयोरेव पदीः । थितो भणति-स्वामिन् ! मजानानोऽहं प्रविष्टा मा मा भीमरा, बजाय तस्करोमी ति, ते ण्यते-वचन्यतोऽभाकाम्यन् तैरेव पनि प्रत्यवसपंसि ततो मुच्यसे, स भीतः परेण यसेन तैरेव पनि प्रतिनिवृत्तः, स मुक्ता, ऐरलाकिकाना भोगानामाभागीजातः, इतरो भ्रष्टः, एतद् म्यातिक्रमण, भाये स्टान्तस्योपनयः-राजस्थानीयतीर्थकरः प्रासादस्थानीयः संघमो रक्षयितव्य इत्याज्ञवं, सच प्रामेषस्थानीयेनकेन साधुनाऽतिक्रान्तः, स रागद्वेषरक्षकाभ्याइतः सुचिर कालं | संसारे जन्ममरणानि प्रारस्थति, यः पुनः कथमपि प्रमादेनासंयम गतस्ततः प्रतिनिवृत्तोपुन:करणतया प्रतिकाम्यति स निर्माणभागी भवति, प्रतिक्रमणेऽवम्यदृष्टान्तः गतः । इदानीं प्रतिवरणायां प्रासादेन दृष्टान्तो भण्यते-एकस्मिन् नगरे धनसमजो वणिग, तस्याधुनोस्थितः ॥५५४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1111~ Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [१..] पांसाओ रयणभरिओ, सो तं भज्जाए उवणिक्खिविडं दिसाजचाए गओ, सा अप्पए लग्गिया, मंडणपसाहणादिवावडा दान तस्स पासायस्स अवलोयणं करेइ, तओ तस्स एग खंड पडियं, सा चिंतेइ-किं एत्तिलयं करेहिइत्ति, अण्णया पिप्प लपोतगो जाओ, किं एत्तिओ करेहित्ति णावणीओ तीए, तेण वहृतेण सो पासाओ भग्गो, वाणियगो आगओ, पिच्छा 8. विण पासायं, तेण सा णिच्ढा, अण्णो पासाओ कारिओ, अण्णा भज्जा आणीया, भणिया य-अति एस पासाओ लाविणस्सइ तो ते अहं णत्थि, एवं भणिऊण दिसाजत्ताए गओ, साऽवि से महिला तं पासायं सबादरेण तिसझं अवलोएति, जं किंचि तत्थ कढकम्मे लेप्पकम्मे चित्तकम्मे पासाए वा उत्तुडियाँइ पासइ तं संठवावति किंचि दाऊण, तओ सोपासाओ| तारिसो चेव अच्छइ, वाणियगेण आगएण दिहो, तुट्टेण सबस्स घरस्स सामिणी कया, विउलभोगसमण्णागया जाया, इयरा असणवसणरहिया अचंतदुक्खभागिणी जाया, एसा दवपडिचरणा, भावे दिलुतस्स उवणओ-वाणियगत्थाणीएणाऽऽयरिएण| दीप अनुक्रम [१०..] समासादो रनभृतः, स तं भार्यायामुपनिक्षिप्य दिग्यात्रायै गतः, सा शरीरे लमा, मण्डनप्रसाधनादिभ्यापूता न तस्य प्रासादस्यावलोकन करोति, तससाखौको भागः पतितः, सा चिन्तपति-किमेतावत् करिष्यति , अन्यदा पिप्पलपोतको जातः, पतितः, किमेतावान् करिष्यतीति नापनीतः तथा, तेन वर्षमानेन स प्रासादो भन्नः, वणि आगतः, प्रेक्षते विनष्टं प्रासाद, तेन सा निष्काशिता, अन्यः प्रासादः कारितः, अन्या भायोऽनीता, भणिता च-वषेष प्रासादो विनवाक्यति तदा तेऽहं नास्ति, एवं भणित्वा विग्याप्राय गतः, साऽपि तस्य महिला तं प्रासाचे सर्वावरेण निसमध्यमवलोकयति, परिकनित्तत्र काटकर्मणि लेप्यककामणि चित्रकर्मणि प्रासादे वा सम्यादि पश्यति सत् संस्थापयति किश्चिदवा, सत्तः स प्रासादः तादश एप तिहति, पणिजाऽऽगतेन रहा, तुटेन मर्षख गृहस्थ स्वामिहामीकृता, विपुलभोगसमन्यागता जाता, इत्तराऽवानवसनरहिताअत्यन्तदुःखमागिनी जाता, एषा इष्पपरिचरणा, भाचे दृष्टान्तस्योपनयः-वणिस्थानीयेनाचार्येण मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1112~ Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक हारिभ द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५५५॥ CSSAGECTOR [१..] |पासायत्थाणीओ संजमो पडिचरियथोत्ति आणत्तो, एगेण साहुणा सातासुक्खबहुलेण ण पडिचरिओ, सो बाणिगिणीव ४ प्रतिकसंसारे दुक्खभायणं जाओ, जेण पडिचरिओ अक्खओ संजमपासाओ धरिओसो वाणसुहभागी जाओ २।इयाणि परि- मणा० प्रहरणाए दुद्धकाएण दिलुतो भण्णइ-दुद्धकाओ नाम दुद्धघडगस्सकाबोडी, एगो कुलपुत्तो, तस्स दुवे भगिणीओ अण्णगामेसु ातिचरणावसंति, तस्स धूया जाया, भगिणीण पुत्ता तेसु वयपत्तेसु ताओ दोवि भगिणीओतस्स समगं चेव वरियाओ आगयाओ, सोयाशासादर भणइ-दुण्ह अस्थीण कयरं पियं करेमि?, बच्चेह पुत्ते पेसह, जो खेयष्णो तस्स दाहामित्ति, गयाओ, पेसिया, तेण तेसिं दोण्हवि परिहरणाघडगा समप्पिया, वञ्चह गोउलाओ दुर्च आणेह, ते कावोडीओ गहाय गा, ते दुद्धघडए भरिऊण कायोडीओ गहाय यां दुग्ध घटः पडिनियत्ता, तत्थ दोषिण पंथा-एगो परिहारेण सो य समो, वितिओ उज्जुएण, सो पुण विसमखाणुकंटगबहुलो, तेसिं एगो उ एण पटिओ, तस्स अक्खुडियस्स एगो घडो भिण्णो, तेण पडतेण बिइओवि भिषणो, सो विरिको गओ प्रासादस्थानीयः संयमः प्रतिपरितम्य इवाशप्ता, एकेन साधुना सातासौख्यपटुलेन न प्रतिवरिता, स वणिग्नावेब संसारे दुःखभाजनं जातः, येन प्रतिचरितोऽक्षतः संयमप्रासादो प्रतः स निर्वाणमुखभागी जाता २ । इदानी परिहरणायाँ दुग्धकायेन एटान्तो भव्यते-दुग्धकायो नाम दुग्धघटकस कापोती. एकः कुलपुत्रः, सस्प है भगिन्यी अन्यमामयोर्वसतः, तस दुहिता जाता, भगिन्योः पुत्री तयोः वयः प्राप्तयोः ते हे अपि भगिन्यौ तेन समभेष परिके भागते, स . ५५५ भणति-दयोरपिनोः कतरं प्रियं करोमि , बजतं पुत्री प्रेषयत, या खेदजसम्म वास्वामीति, गते, प्रेषिती, तेन ताभ्यो द्वाभ्यामपि घटी समर्पिती, मजतं गोकुला-IN हुग्धमानयत, सौ कापोस्यो गृहीत्वा गती, तौ दुग्धवटी भूत्वा कापोस्यो गृहीत्या प्रतिनिवृत्ती, तत्र द्वौ पन्धानौ-एकः परिहारेण (प्रमणेन), सच समः, द्वितीय मजुकेन, स पुनर्विषमस्थाणुकण्टकबहुलः, तयोरेक ऋजुना प्रस्थितः, तस्यास्फालितस्य (स्व स्वलितख)एको घटो भिलः, तेन पतता द्वितीयोऽपि भित्रः स विरिको गतो दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1113~ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक माउलगसगासं, बिइओ समेण पंथेण सणियं २ आगओ अक्खुयाए दुद्धकावोडीए, एयरस तुडो, इयरो भणिओ-न मप भणियं को चिरेण लहुं वा एहित्ति, मए भणियं-दुद्धं आणेहत्ति, जेण आणीयं तस्स दिण्णा, इयरो धाडिओ, एसा दवपरिहणा, भावे दिइंतस्स उवणओ-कुलपुत्तत्थाणीएहिं तित्थगरेहिं आणतं दुद्धत्थाणीयं चारित्तं अविराहतेहिं कण्णगत्थाणीया सिद्धी पावियवत्ति, गोउलत्थाणीओ मणूसभवो, तओ चरित्तरस मग्गो उजुओ जिणकप्पियाण, ते भगवतो संघयणधिइसंपण्णा दवखित्तकालभावावइविसमंपि उस्सग्गेणं वचंति, वंको धेरकप्पियाण सउस्सग्गाववओऽसमो मग्गो, जो अजोग्गो जिणकप्पस्स तं मागं पडिवजाइ सो दुद्धघडठ्ठाणियं चारित्तं विराहिऊण कण्णगत्थाणीयाए सिद्धीए अणाभागी भवइ, जो पुण गीयत्थो दवखित्तकालभावावईसु जयणाए जयइ सो संजमं अविराषित्ता अचिरेण सिद्धि पावेइ ३ । इयाणिं वारणाए विसभोयणतलाएण दिहतो-जहा एगो राया परचकागर्म अदूरागयं च जाणेत्ता गामेसु १.. SELCALAMOROSCSSACROCES दीप अनुक्रम [१०..] मातुलसकाश, द्वितीयः समेग पधा कानैः १ आगतोऽक्षतया दुग्धकापोल्या, एतसै तुष्टः, इतरो भणित:- मया भणिसं कक्षिरेण बघु वाऽऽयातीति, मया भणित-दुग्धमानयतमिति, बेनानीतं तस्मै दया, इतरो घाटितः, एषा द्रव्यपरिहरणा, भावे दृष्टान्तस्योपनया-फुलपुत्रस्थानीय तीर्थकरैराशसं दुग्धस्थानीयं चारित्रमनिराधपजिः कम्यकारखानीया सिद्धिः प्राप्तम्येति, गोकुलस्थानीयो मनुष्यभवः, सतश्चरित्रस्य मार्ग अजुको जिनकल्पिकाना, ते भगवन्तः संहननतिसंपला दग्यक्षेत्रकाकभावापद्विपममपि उत्सर्गेण बनन्ति, चकः स्थविरकल्पिकानां सोत्सर्गापवादः असमरे मार्गः, योध्योम्यो जिनकल्पख सं मार्ग प्रतिपयते स दुग्धघटस्थानीय चारित्रं विराध्य कन्यकास्थानीयायाः सिझरनाभागी भवति, यः पुनीतार्थों सम्यक्षेत्रकालभावापामु बतनया यतते स संयम अविराभ्याचिरेण | सिदि प्रामोति ३ । इदानीं वारणायां विषभोजनतटाकेन दृष्टान्तः-वथैको राजा परचक्रागममदूरागतं च ज्ञात्वा प्रामेषु मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1114~ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत आवश्यक-18|दुद्धदधिभक्खभोजाइसु विस पक्खिवावेर, जाणि य मिङपाणियाणि वावितलागाईणि तेसु य जे य रुक्खा पुष्फफलोवगा ४ प्रतिकहारिभ- ताणिवि विसेण संजोएऊण अवकतो, इयरो राया आगओ, सो त विसभावियं जाणिऊण घोसावेइ खंधावारे- जोमणा. द्रीया एयाणि भक्खभोज्जाणि तलागाईसु य मिहाणि पाणियाणि एएसु य रुक्षेसु पुष्फफलाणि मिहाणि उवभुंजइ सो मरइ, जाणिवारणाया | एयाणि खारकडयाणि दुणापाणियाणि उव जेह, जे तं घोसणं सुणित्ता विरया ते जीविया, इयरे मता, एसा दषवारणा विषभोजन ॥५५६॥ निवृत्ती |भावधारणा (ए)दिईतस्स उवणओ-एवमेव रायस्थाणीएहिं तित्थगरेहिं विसन्नपाणसरिसा विसयत्ति काऊण पारिया, तेसु कन्या जे पसत्ता ते बहूणि जम्मणमरणाणि पाविहिंति, इयरे संसाराओ उत्तरंति ४ । इयाणिं णियत्तीए दोण्हं कण्णयाणं पढमाए कोलियकण्णाए दिहतो कीरइ-एगम्मि णयरे कोलिओ, तस्स सालाए धुत्ता वुर्णति, तत्थेगो धुत्तो महुरेण सरेण गायइ, |तस्स कोलियस्स धूया तेण सम संपलग्गा, तेणं भण्णइ-नस्सामो जाव ण णज्जामुत्ति, सा भणइ-मम पयंसिया रायकण्णगा, सूत्रांक १.. दीप अनुक्रम [१०..] दुग्धदधिभक्ष्यभोज्यादिषु विष प्रक्षेपयति, यानि च मिष्टपानीयानि पापीतटाकादीनि तेषु च ये पक्षाः पुष्पफलोपगास्तान्यपि विषेण संयोज्याप|क्रान्तः, इतरो राजाऽऽगसः, स तं विषभावितं शात्या घोषयति स्कन्धाबारे-य पुतानि भक्ष्यभोग्यानि सहाकाविषुप मिष्टानि पानीयानि एतेषु च वक्षेप | पुष्पफलानि मिष्टानि अपमुकेस नियते, यान्येतानि क्षारकटुका नि दुर्गन्धपानीयानि (तानि) उपभर दे तां घोषणं श्रुत्वा विरतास्ते जीविताः, इतरे मृताः, एषा दृष्यवारणा, भाषवारणा, दृष्टान्तस्योपनय:-पचमेव राजस्थानीयस्तीर्थकोर्षिपानपानसदशा विषया इतिकृत्वा वारिताः, तेषु ये प्रसकाते बहूनि जन्ममरणानि प्राप्स्यन्ति, इतरे संसारात उत्सरन्ति । इदानी निवृत्ती यो कम्ययोः प्रथमया कोलिककन्यया दृष्टान्तः क्रियते-एकस्मिनगरे कोलिका, तस्य शालायां पूती वयन्ति, को पूर्ती मधुरेण स्वरेण गायति, तस्य कोलिका दुहिता तेन समं संपकना, तेन भण्यते-नश्यायो यावा शायापहे इति, सा| भणतिम वयस्या राजकन्या. ॥५५६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1115~ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. तीए सम संगारो जहा दोहिवि एकभजाहि होयचंति, तोऽहं तीए विणा ण वच्चामि, सो भणइ-सावि आणिजउ, तीए कहिय, पडिस्सुयं चऽणाए, पहाविया महलए पचूसे, तत्थ केणवि उग्गीयं-'जइ फुल्ला कणियारया चूयय ! अहिमाMसमयंमि घुमि । तुह न खमं फुल्ले जइ पचंता करिति डमराई ॥१॥ रूपकम् , अस्य व्याख्या यदि पुष्पिताः के ?-कुत्सिताः कर्णिकाराः-वृक्षविशेषाः कर्णिकारकाः चूत एव चूतका, संज्ञायां कन्, तस्यामन्त्रणं हे चूतक ! अधिकमासे 'घोषिते' शब्दिते सति तव 'न क्षम' न समर्थ न युक्तं पुष्पितुं, यदि 'प्रत्यन्तका' नीचकाः 'कुत्सायामेव कन्' कुर्वन्ति 'डमरकानि' अशोभनानि, ततः किं त्वयाऽपि कर्तव्यानि ?, नैष सतांन्याय इति भावार्थः ॥१॥ एवं च सोउं रायकण्णा चिंतेइ-एस चूओ वसंतेण उबालद्धो, जइ कणियारो रुक्खाण अंतिमो पुल्फिओततो तव किं पुप्फिएण उत्तिमस्स ?, ण तुमे अहियमासघोसणा सुया?, अहो ! सुङ भणियं-जह कोलिगिणी एवं करेइ तो किंमएवि काय ?, रयणकरंडओ वीसरिउत्ति एएण छलेण पडिनियत्ता, तद्दिवसं च सामंतरायपुत्तो दाइयविप्परतो तं रायाणं सरणमुवगओ, रण्णा य से सा दिण्णा, इहा जाया, तेण ससुरसमग्गेण दाइए णिजिऊण रजं लद्धं, सा से महादेवी जाया, एसा दबणियत्ती, भाव तया समं संकेतो यथा द्वाम्यामप्येकमार्थाभ्यां भवितव्यमिति, तदहं तया बिना न ब्रजामि, स भण्यति-साउथानीयता, तथा कथितं, प्रतिश्रुतं चानवा, प्रचापिता महति प्रत्यूपे, ता केनाप्युगीत-1 एवं च श्रुत्वा राजकन्या चिन्तयति-एप चूतो बसन्तेनोपालब्धा, यदि कर्णिकारी वृक्षाणामन्यः पुषितततस्तव किं पुष्पितेनोत्तमसन स्वयाधिकमासघोषणा श्रुता', अहो सुटु भणितं यदि कोकिकी एवं करोति तदा किंमयाऽपि कर्मव्यंी, रखकरण्डको विस्मृत इत्येतेन छलेन प्रतिनिवृत्ता, तदिवसे च सामन्तराजपुत्रो दायादयाटितस्तं राजानं शरणमुपगतः, राशा च ती सा दमा, इष्टा जाता, तेन चारसमण दायादान निर्जित्व राज्यं लब्धं, सा तस्म महादेवी जाता, एषा ब्रम्यनिवृत्तिः । दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1116~ Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत ॥५५७॥ सूत्रांक [१..] आवश्यक-णियत्तीए दिइंतस्स उवणओ-कण्णगत्थाणीया साह धुत्तस्थाणीएसु विसएसु आसज्जमाणा गीतस्थाणीएण आयरिएणप्रतिक्रहारिभ जे समणुसिहा णियत्ता ते सुगई गया, इयरे दुग्गइं गया । बितियं उदाहरणं दधभावणियत्तणे-एगंमि गच्छे एगो तरुणो मणा द्रीया गहणधारणासमत्थोत्तिकांउ तं आयरिया बट्टाविंति, अण्णया सो असुहकम्मोदएण पडिगच्छामित्ति पहाविओ, णिगच्छतो य गीतं सुणेइ, तेण मंगलनिमित्तं उवओगो दिन्नो, तत्थ य तरुणा सूरजुवाणा इमं साहिणियं गायंति-'तरि कन्या यवा य पइणिया मरियवं वा समरे समथएणं । असरिसजणउल्लावा न हु सहियबा कुलपसूयएणं ॥१॥ अस्याक्षरगमनिका 'तरितव्या वा' निवाढव्या वा प्रतिज्ञा मर्तव्यं वा समरे समर्थेन, असदृशजनोलापा नैव सोढव्याः कुले प्रसूतेन, तथा केनचिन्महात्मनैतत्संवाद्युक्तं-लज्जां गुणौषजननी जननीमिवाऽऽर्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ १॥ गीतियाए भावत्यो जहा केइ लद्धजसा सामिसंमाणिया सुभडा रणे पहारओ विरया भजमाणा एगेण सपक्खजसावलंबिणा अफालिया-ण सोहिस्सह पडिग्यहरा गच्छमाणत्ति, तं सोउं पडिनियत्ता, ते य पट्ठिया पडिया पराणीए, भग्गं च तेहिं पराणीयं, सम्माणिया य पहुणा, पच्छा ॥५५७॥ भावनिवत्ती हटान्तस्योपनया-कन्यारवानीयाः साधवा पूर्तस्थानीयेषु विषयेषु भासजमाना गीतहानीयेनाचार्येण ये समनुविधा निवृत्तास्ते मुगति | गताः, इतरे दुर्गतिं गताः । द्वितीयमुदाहरणं म्यभावनिवर्त्तने-एकस्मिन् गच्छे एकरहरुणो ग्रहणधारणासमर्थ इतिकृया तमाचार्या चर्तयन्ति, अन्यदा सोऽशुभकर्मोदयेन प्रतिगच्छामीति प्रधावितः, निर्गच्छंच गीतं गुणोति, तेन मङ्गकनिमित्रमुपयोगो दाः, तत्र च तरुणाः शूरवुवान इमां गीतिका गायन्ति-गीतिकाषा भावार्थों यथा-केचिलब्धयवासः स्वामिसम्मानिताः सुभटा रणे प्रहारतो चिरता नश्यन्त एफेन स्वपक्षयशोऽवलम्बना स्वलिता:- शोभिव्यय प्रतिप्रहार गच्छन्त इति, तत्वा प्रतिनिवृत्ताः, ते च प्रस्थिताः पतिताः परानीके, भझं च तैः परानीकं, सम्मानिता प्रभुणा, पश्चात. *पया. 9455 दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1117~ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक सुभडवायं सोभंति बहमाणा, एतं गीयत्थं सोउं तस्स साहुणो चिंता जाया-एमेव संगामत्थाणीया पबजा, जइ तओ पराभजामि तो असरिसजणेण हीलिस्सामि-एस समणगो पच्चोगलिओत्ति, पडिनियत्तो आलोइयपडिकतेण आयरियाण। इच्छा पडिपूरिया ५ । इयाणिं जिंदाए दोण्हं कणगाणं विझ्या कण्णगा चित्तकरदारिया उदाहरणं कीरइ-एर्गमि णयरे राया, अण्णेसिं राइणं चित्तसभा अस्थि मम णस्थिति जाणिऊण महइमहालियं चित्तसभ कारेऊण चित्तकरसेणीए समप्पेइ, ते चित्तेन्ति, तत्थेगस्स चित्तगरस्स धूया भतं आणेइ, राया य रायमग्गेण आसेण वेगप्पमुक्केण एइ, सा भीया पलाया किहमवि फिडिया गया, पियावि से ताहे सरीरचिंताए गओ, तीए तत्थ कोट्टिमे यण्णएहिं मोरपिच्छ लिहियं, रायावि तत्व एगाणिओ चंकमणियाओ करेति, सावि अण्णचित्तेण अच्छइ, राइणो तत्थ दिही गया, गिहामित्ति हत्थो पसारिओ, णहा दुक्खाविया, तीए हसियं, भणियं चऽणाए-तिहि पाएहिं आसंदओ ण ठाइ जाब चउत्थं पायं १.. दीप अनुक्रम [१०..] कोभन्ते सुभटवाई वामानाः, एनं गीतिकार्य शुस्वा तस्य साधोखिम्ता जाता-एवमेव संग्रामस्थानीया प्रवज्या, यदि ततः पराभग्ये सदासदशजनेन हीवे-एष भ्रमणकः प्रत्यवगलित इति, प्रतिनिवृत्त आलोचितप्रतिकान्तेनाचार्याणामिडा प्रतिपूरिता ५। इदानी निन्दायर्यादयोः कन्ययोदितीया कन्यका चित्रकरवारिकोदाहरणं क्रियते-एकस्मिन् नगरे राजा, अन्येषां राज्ञां चिनसभाऽस्ति मम नास्तीति हावा महातिमहालया चित्रसभा कारविल्या चित्रकरण्यै समर्पयति, से चित्रयन्ति, तबैकस्य चित्रकरण दुहिता भक्कमानषति, राजा च राजमार्गेणाश्वेन धावता याति, सा भीता पलायिता कथमपि छुटिता गता, पिताऽपि तस्यासदा पारीरचिन्तायै गतः, तथा तत्र कुहिमे वर्णकैर्मयूरपिच्छं लिखितं, राजाऽपि तकाकी चङ्गमणिकाः करोति, साप्यन्यचित्तेन तिष्ठति, राज्ञमात्र दृष्टिगता, गृहामीति हसः प्रसारितः, नखा दुःखिताः, तया हसितं, भणितं चानया-त्रिभिः पादरासन्दको न तिष्ठति यावचतुर्थ पाई, * गयागयाई प्र०. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1118~ Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०]] आवश्यक हारिभ द्रीया ||५५८॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [...]/ [गाथा-], निर्बुक्ति: [ १२४२ ] भष्यं [२०४...], मंगांतीए तुमंसि लद्धो, राया पुच्छइ-किहन्ति, साभणइ-अहं च पिउणो भत्तं आणेमि, एगो य पुरिसो रायमग्गे आसेण वेगप्पमुक्केण एइ, ण से विण्णाणं किहवि कंचि मारिज्जामित्ति, तत्थाहं सएहिं पुण्णेहिं जीविया, एस एगो पाओ, बिइओ पाओ राया, तेण चित्तकराणं चित्तसभा विरिक्का, तत्थ इकिके कुटुंबे बहुआ चित्तकरा मम पिया इक्कओ, तस्सवि तत्तिओ चेव भागो दिनो, तइओ पाओ मम पिया, तेण राउलियं चित्तसभं चित्तंतेण पुत्रविदत्तं द्विवियं, संपइ जो वा सो वा आहारो सो य सीयलो केरिसो होइ ?, तो आणीए सरीरचिंताए जाइ, राया भणइ-अहं किह चउरथो पाओ ?, सा भणइ सबोवि ताव चिंतेइ कुतो इत्थ आगमो मोराणं ?, जइवि ताव आणितिलयं होज तोवि ताव दिट्ठीए गिरि विखज्जइ, सो भणइ सच्चयं मुक्खो, राया गओ, पिडणा जिमिए सा घरं गता, रण्णा वरगा पेसिया, तीए पियामाया भणिया- देह ममंति, भण्णइ य अम्हे दरिद्दाणि किह रण्णो सपरिवारस्स पूर्व काहामो ? दवरस से रण्णाघरं भरियं, दासी १ मार्गयन्त्या त्वमसि बन्धः, राजा पृच्छति कथमिति १, सा भणति अहं च पित्रे भक्तमानयामि ( यन्त्यभूत् तदा ) एक पुरुषो राजमार्गेऽश्वेन धावताऽऽयासि ( वानभूत् ), न तस्य विज्ञानं कथमपि कञ्चित् मारयिष्यामीति, तत्राएं स्वकैः पुण्यैर्जीविता, एष एकः पादः, द्वितीय: पादो राजा, तेन चित्रकरेभ्यश्चित्रसभा विरिक्ता, तत्रैकैकस्मिन् कुटुम्बे बहुकाभित्रकरा मम पितैकाकी, तस्मायपि तावानेव भागो दत्तः तृतीयः पादो मम पिता, तेन राजकुलीनां चित्रसभां चित्रयता पूर्वार्जितं निष्ठितं सम्प्रति यो वा स वाऽऽहारः स च शीतलः कीदृशो भवति ? त ( ब ) दाऽऽनीते शरीरचिन्तायै याति, राजा भणति-अहं कथं चतुर्थः पादः, सा भणति सर्वोऽपि तावश्चिन्तयति कुवोऽश्रागमो मयूराणां है, यद्यपि तावदानीतो भवेत् तदापि तावद्दृष्टया निरीक्ष्यते स भणति सवं मूर्ख, राजा गतः, पितरि जिनिते सा गृहं गता, राज्ञा वरकाः प्रेषिताः, तस्याः मातापितरौ भणिती दतं मामिति भणितवन्ती-वयं दरिद्राः कथं राज्ञः सपरिवारस्य पूजां कुर्मः प्रम्येण तस्य राज्ञा गृहं भूतं दासी ४ प्रतिक मणा० निन्दायांचित्रकूहसुता ~ 1119 ~ ।। ५५८।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०]] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [...]/ [गाथा-], निर्बुक्ति: [ १२४२ ] भष्यं [२०४...], asणाए सिक्खाविया ममं रायाणं संवाहिंती अक्खाणयं पुच्छि जासि जाहे राया सोडकामो, जा सामिणी राया पवट्टइ किंचि ताव अक्खाणयं कहेहि, भणइ, कहेमि, एगस्स धूया, अलंघणिज्जा य जुगवं तिन्नि वरगा आगया, दक्खिण्णेणं मातिभातिपितीहि तिण्हवि दिण्णा, जणत्ताओ आगयाओ, सा य रतिं अहिणा खइया मया, एगो तीए समं दहो, एगो अणसणं वईंडो, एगेण देवो आराहिओ, तेण संजीवणो मंतो दिण्णो, उज्जीवाविया, ते तिष्णिवि उचडिया, कस्स दायवा १, किं सका एका दोण्हं तिन्हं वा दाउँ ? तो अक्खाहत्ति, भणइ निद्दाइया सुवामि, कलं कहेहामि, तस्स अक्खाणयस्स कोउलेणं चितियदिवसे तीसे चैव वारो आणत्तो, ताहे सा पुणो पुच्छइ, भणइ-जेण उज्जियाबिया सो पिया, जेण समं उज्जीवाविया सो भाया, जो अणसणं बट्टो तस्स दायवति सा भणइ अण्णं कहेहि, सा भणइ एगस्स राइणो सुवण्णकारा भूमिधरे मणिरयणकउज्जोया अणिग्गच्छंता अंतेउरस्स आभरणगाणि घडाविजंति, एगो भणइ का उण बेला बट्टइ ?, १ चानया शिक्षिता-मां राजानं संवाहयन्ती पृथवंदा राजा स्वपितुकामः यावत्स्यामिनि! राजा प्रवर्तते किञ्चित्तावदाख्यानकं कथय भजति-कथ यामि एक दुहिता, अलहूनीयाश्च युगपत्रयो वरका आगताः, दाक्षिण्येन मातृभ्रातृपितृभनिभ्योऽपि दत्ता, जनता आगताः, सा च रात्रावहिना दष्टा सृता एकला समं दग्धः, एकोऽमशनमुपविष्टः, एकेन देव आरादः तेन संजीवनी मन्त्रो दुतः, उजीविता, ते प्रयोऽपि उपस्थिताः, कसे दातम्या ?, किं शक्या एका द्वाभ्यां विभ्यो वा दातुं तदाख्याहि, भणति निद्राणा स्वपीमि, कस्ये कथविष्यामि तत्वाख्यानिकस्य कौतूहलेन द्वितीयदिवसे तस्यायेव वा दुखः, तदा सा पुनः पृच्छति भणति येनोजीवितास पिता, येन सममुजीविता स भ्राता थोऽनशनं प्रविष्टस्तो दातव्येति सा भणति-अभ्यद् कथय, सा भगति एक राज्ञः सुवर्णकारा भूमिगृहे मणिरवतोयोता अनिच्छन्तोऽन्तःपुरात् आभरणानि कुर्वन्ति, एको भगति का पुनका पर्वते ? * जगाओ प्र + पट्टो प्र०. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1120 ~ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत i५५९॥ एगो भणइ-रत्ती वट्टइ, सो कहं जाणइ ?, जो ण चंदं ण सूरं पिच्छइ, तो अक्खाहि, सा भणइ-णिद्दाइया, वितियदिणे प्रतिक्रमकहेइ-सो रत्तिअंधत्तणेण जाणइ, अण्णं अक्खाहित्ति, भणइ-एगो राया तस्स दुवे चोरा उवडिया, तेण मंजसाए पक्खि-रणा०६निविऊण समुद्दे छूढा, ते किञ्चिरस्सवि उच्छलिया, एगेण दिहा मंजूसा, गहिया, विहाडिया, मणुस्से पेच्छइ, ताहे पुच्छिया- न्दायां चिकइत्यो दिवसो छूढाणं', एगो भणइ-चउत्थो दिवसो, सो कह जाणइ !, तहेव बीयदिणे कहेइ-तस्स चाउत्थजरो तेण| त्रकृत्युच्युजाणेइ, अण्णं कहेइ दो सवत्तिणीओ, एक्काए रयणाणि अस्थि, सा इयरीए ण विस्संभइ मा हरेजा, तओऽणाए जत्थ दाहरणं णिक्खमंती पविसंती य पिच्छइ तत्थ घडए छोटूण ठवियाणि, ओलित्तो घडओ, इयरीए विरहं गाउँ हरिउ रयणाणि तहेव य घडओ ओलित्तो, इयरीए णायं हरियाणित्ति, तो कहं जाणइ, उलित्तए हरिताणित्ति !, बिइए दिवसे भणइ-सो कायमओ घडओ, तस्थ ताणि पडिभासंति हरिएसु णत्थि, अण्णं कहेहि, भणइ-एगस्स रपणो चत्तारि पुरिसरयणाणि सूत्रांक [१..] NCREASSACREAS दीप अनुक्रम [१०..] एको भपति-राजिवते, स कथं जानातिन बन्न सूर्य मेक्षते, सदास्याहि, सा भगति-निहिता, द्वितीय दिवसे फायति-स राज्यन्धरवेन जानाति, अन्यदात्याहीति, भणति-एको राजा तसै द्वौ चौराबुपस्थापितो, तेन मञ्जूषायां प्रक्षिप्य समुद्र क्षिप्तौ, तौ किचिरेणाप्युच्छलिती, एकेन रटा मञ्जूषा, | गृहीता, उद्घाटिता, मनुप्या प्रेक्षते, तदा यष्टौ कतिथो दिवसः क्षिप्तयोः !, एको भणति-चतुर्थो दिवसः, स कथं जानाति, तथैव द्वितीयदिने कथयति-तस्य । चातुर्भग्वरसेन जानाति, अन्यत् कथयति- सपरभ्यी, एकखा रखानि सन्ति, सा इतरस्यै न विश्वम्भति मा हाति, ततोऽनया यत्र निष्कामन्ती प्रविशन्ती | | प्रेक्षते तत्र घटे क्षिया स्थापितानि, अवलिसो घटका, इतरवाऽपि रहो ज्ञात्वा हत्या रत्नानि तथैव च पटकोऽवलिया, इतरया ज्ञातं हतानीति, तत् कथ४॥ जानाति ? अवलिले हतामीति, द्वितीयदिवसे कधपति-स काचमयो घटकः, सन्न सानि प्रतिभासम्ते हतेषु न सन्ति, अम्बत् कथय-एकस्य राज नावारि | पुरुषरतानि. *कहेहि प्र.. ॥२५९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1121~ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक दाता-निमित्ती रहकारो सहस्सजोही तहेव विजो य । दिण्णा चउण्ह कण्णा परिणीया नवरमेकेण ॥१॥ कथं ?, तस्स रण्णो अइसुंदरा धूया, सा केणवि विजाहरेण हडा, ण णजइ कुओऽवि पिक्खिया, रण्णा भणियं-जो कण्णगं आणेइ तस्सेव सा, तओ णेमित्तिएण कहिय--अमुगं दिसं णीया, रहकारेण आगासगमणो रहो कमओ, तओ चत्तारिवि तं विलगिऊण पहाविया, अम्मि(भि)ओ विजाहरो, सहस्सजोहिणा सो मारिओ, तेणवि मारिजंतेण दारियाए सीस छिन्नं, विजेण संजीवणोसहीहिं उज्जियाविया, आणीया घरं, राइणा चउण्हवि दिण्णा, दारिया भणइ-किह अहं चउण्हवि होमि !, तो अहं अग्गि पबिसामि, जो मए समं पविसइ तस्साह, एवं होउत्ति, तीए समं को अग्गिं पविसइ, कस्स दायबा!, वितियदिणे भणइ-णिमित्तिणा णिमित्तेण णायं जहा एसा ण मरइत्ति तेण अग्भुवगर्य, इयरेहिं णिच्छियं, दारियाए चियहाणस्स हेढा सुरंगा खाणिया, तत्थ ताणि चियगाएणुवण्णाणि कट्ठाणि दिण्णाणि, अग्गी रहओ जाहे ताहे. ERE १.. दीप अनुक्रम 5-5-% [१०..] तथा-मितिको विकास सहयोधी तथैव वैद्यक्ष । रचा चतुभ्यः कन्या परिणीता नवरमेकेन ॥१॥ कथं स राज्ञोऽतिसुन्दरा दुहिता, सा| | केनापि विद्याधरेण हता, न ज्ञायते कुतोऽपीक्षिता, राजा भणित-पः कम्बकामानयति तवैव सा, सतो नैमिचिकेन कथितं-अ विसं गीता, स्वकारेण आकाशगमनो रथः कृतः, सतनस्वारोऽपि तं बिलग्य प्रभाविताः, अभ्यागतो विद्याधर, सहस्रबोधिना स मारितः, सेनापि मार्यमाणेन दारिकायाः शीर्ष | छिन्नं, वैोन संजीवम्योपयोजीविता, आनीता गृहं, राज्ञा चतुभ्योऽपि दत्ता, दारिका भणति-कथमई चतुभ्योऽपि भवामि , वहमग्नि प्रनिशामि, यो मया समं प्रविशति तस्याहं, एवं भवस्थिति, त्या समं कोऽमि प्रविशति', कमी दातम्या ', द्वितीयदिने भणति-नैमिनिफेन निमितेन शातं यथैषा न मरिष्यतीकति तेनाभ्युपगतं, इतरनेष्टे, दारिकया चिवास्थानयाधमा सुरक्षा खागिता, तन्त्र तानि चितिकानुरूपवर्णानि काठानि दत्तानि, अग्नी रचितो यदा तदा | *सा कपणा दायका प्र०. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1122~ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०]] आवश्यकहारिभ श्रीया ॥५६०॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [...]/ [गाथा-], निर्बुक्ति: [ १२४२ ] भष्यं [२०४...], ताणि सुरंगाए णिस्सरियाणि, तस्स दिण्णा, अण्णं कहेहि, सा भणइ एक्काए अविरइयाए पगयं जंतिआए कडगा मग्गिया, ताहे रुवएहिं बंघरण दिना, इयरीए धूयाए आविद्धा, बत्ते पगए ण चैव अलिवेइ, एवं कश्वयाणि वरिसाणि गयाणि, कडइत्तएहिं मग्गिया, सा भणइ देमित्ति, जाव दारिया महंती भूया ण सक्केति अवणे, ताहे ताए कडइन्तिया भणियाअण्णेवि रुपए देमि, मुयह, ते णिच्छंति, तो किं सका हत्था छिंदिउँ ?, ताहे भणियं-अण्णे एरिसए चैव कडए घडावे देमो, तेऽवि णिच्छन्ति, तेच्चैव दायचा, कहं संठवेयथा?, जहा य दारियाए हत्था ण छिंदिज्जति, कहं तेसिमुत्तरं दायवं १, आह-ते भणियवा-अम्हवि जइ ते चैव स्वए देह तो अम्हेवि ते चैव कडए देमो, एरिसाणि अक्खाणगाणि कहतीए दिवसे २ राया छम्मासे आणीओ, सवत्तिणीओ से छिद्दाणि मग्गति, सा य चित्तकरदारिया ओवरणं पविसिऊण एक्काजिया चिराणए मणियए चीराणि य पुरओ कार्ड आप्पाणं जिंदइ-तुमं चित्तयरधूया सिया, एयाणि ते पितिसंतियाणि 3 तौ सुरा निती दशा अन्यत्कथय, सा भणति एकपाऽविरतिकथा प्रकरणं याम्या कटकी मार्गिती, तदा रूप्यकैर्बन्धेन दत्ती (लब्धी) इतरस्या दुद्दिश्राऽऽविडी, वृत्ते प्रकरणे नैव ददाति, एवं कतिपयानि वर्षाणि गतानि कटकस्वामियां मार्गिती, सा भणति ददामीति यावद्दारिका महती भूता, न शक्येते निष्काशयितुं तदा तथा कटकस्वामिनी भणिती अन्यानपि रूप्यकान् ददामि मुतं, ती नेच्छतः तत् किं शक्य हस्ती छेतुं ? तदा (तया) भणितंअन्यों शौचैव कटकी कारथित्वा ददामि तावपि नेच्छतः तावेव दातव्य, कथं संस्थापवितव्यौ ?, यथा च दारिकाया दस्तौ न छियेते, कथं ताभ्यामुत्तरं दातव्यं, आइ-तौ भणितथ्यो- अस्माकमपि यदि तानेव रूप्यकान् दत्तं तदा वयमपि तावेव कटकी दयः, इंशान्यायानकानि कथयन्त्या दिवसे दिवसे राजा पण्मासान् आनीतः, सपन्यस्तस्याचिद्वाणि मार्गयन्ति सा किरदारिका अपवरके प्रविश्वैकाकिनी चिरन्तनानि मणियुक्तानि च चीवराणि पुरतः कृत्वा मानं निन्दति खं चित्रकरदुहिताऽसीः, एतानि कानि ४प्रतिक्रम णा० ६ निन्दायां चित्रकृद्दारिकोदा० ~ 1123 ~ ॥५६०। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत ROADCASTEGORS AACSC सूत्रांक १.. वत्थाणि आभरणाणि य, इमा सिरी रायसिरी, अण्णाओ उदिओदियकुलवंसप्पसूयाओ रायधूयाओ मोत्तुं राया तुम अणु-IN बत्तइ ता गर्व मा काहिसि, एवं दिवसे २ दारं ढकेउं करेइ, सवित्तीहिं से कहवि णायं, ताओ रायाणं पायपडियाओ| |विण्णविंति-मारिजिहिसि एयाए कम्मणकारियाए, एसा उबरए पविसिड कम्मणं करेति, रणा जोइयं सुयं च, तुढेण| से महादेविपट्टो बद्धो, एसा दवणिंदा, भावणिंदाए साहुणा अप्पा शिंदियवो-जीव! तुमे संसारं हिंडतेणं निरयतिरियगईसुं कहमवि माणुसत्तेसम्मत्तणाणचरित्ताणि लद्धाणि, जेसिं पसाएण सबलोयमाणणिज्जो पूयणिज्जो य, ता मा गई का| हिसि-जहा अहं बहुस्सुओ उत्तिमचरित्तो बत्ति ६ दवगरिहाए पइमारियाए दिहतो-एगो मरुओ अज्झावओ, तस्स तरुणी महिला, सा बलिषइसदेवं करिती भणइ-अहंकाकाणं विभेमित्ति, तओ उवज्झायनिउत्ता वट्टा दिवसे २ घणुगेहिं गहिएहिं । रक्खंति बलिवइसदेवं करेंतिं, तत्थेगो बट्टो चिंतेइ-ण एस मुद्धा जा कागाण विभेद, असडिया एसा, सो तं पडिचरइ, सा - -- -- - वखापयाभरणानि च, इयं श्री राम्यश्री, अन्या उदितोदितकुलवंशप्रसूता राजसुता मुक्वा राजा वामनुपर्यते तद् गर्ने मा कृथाः, एवं दिवसे २ द्वारं स्थगविना करोति, सपनीभिस्तस्याः तत् कथमपि ज्ञातं, साराशे पादपतिता विज्ञपयस्ति-मासे एतथा कार्मणकारिण्या, एषाऽपपरके प्रविश्य कार्ममं करोति, राशा इष्टं श्रुतं च, तुटेन सस्था महादेवीपट्टो बदः, एषा व्यनिन्दा, भावनिन्दायां साधुनामा निन्दितव्यः-जीव ! खया संसारं हिन्दमानेन नरकतिर्यगतिपु कथमपि मनुष्याचे सम्यक्त्वज्ञानाचारित्राणि लब्धानि, येषां प्रसादेन सबैलोकानां माननीयः पूजनीया, सम्मा गर्व था, वधाई बहुश्रुत उत्तमचारियो णोऽध्यापकः, तस्य तरुणा महेला, सा पैश्वदेवबाक कुर्ववी भणति-अईकाभ्यो विभीति, तत उपाध्यायनिबुताकाचा दिवसे २ धनुर्भिः गृहीतः रक्षन्ति वैश्वदेवबकि कुर्वती, तत्रैकश्छावचिन्तयति-नैषा मुग्धा था काकेभ्यो बिम्पति, अशहिलेषा सितां प्रतिधरति-सा दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1124 ~ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०]] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥५६१॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [...]/ [गाथा-], निर्बुक्ति: [ १२४२ ] भष्यं [२०४...], ये णम्मताए परकूले पिंडारो, तेण समं संपलग्गिया, अण्णया सं घडवणं णम्मयं तरंती पिंडारसगासं वच्चइ, चोरा य उत्तरंति, तेसिमेगो सुंसुमारेण गहिओ, सो रडइ, ताए भण्णइ अच्छि ढोकेहित्ति, ढोक्किए मुक्को, तीए भणिओ-किं स्थ कुतिस्थेण उत्तिण्णा ?, सो खंडिओ तं मुणितो चेव णियत्तो, सा य वितियदिवसे बलिं करेइ, तस्स य वट्टस्स रक्खणवारओ, तेण भण्णइ- 'दिया कागाण बीहेसि, रत्तिं तरसि णम्मयं । कुतित्थाणि य जाणासि, अच्छिढोकणियाणि य ॥ १ ॥' तीए भण्णइ किं करेमि ?, तुम्हारिसा मे णिच्छति सा तं जवयरइ, भणइ-ममं इच्छत्ति, सो भणइ कहं उवज्झायरस पुरओ ठाइस्संति ?, तीए चिंतियं-मारेमि एवं अज्झावयं तो मे एस भत्ता भविस्सइति मारिओ, पेडियाए छुभेऊण अडवीए उज्झिमारद्धा, वाणमंतरीए थंभिया, अडवीए भमित्तमारद्धा, छुहं ण सक्केइ अहिया सिउं तं च से कुणिमं गलति उवरिं, लोगेण हीलिज्जइ-पइमारिया हिंडइत्ति, तीसे पुणरावत्ती जाया, ताहे सा भणइ-देह अम्मो ! पइमारियाए १ च नर्मदायाः परकूले पिण्डारखेन समं संप्रलमा, अन्यदा तां घटकेन नर्मदां वरन्ती पिण्डार सकाशं ब्रजति चौराश्रोतरन्ति तेषामेकः शिशुमारेण गृहीतः, स स्टति तथा भण्यते-अक्षिणी छादयेति छादिते मुक्तः, तथा भणितः किं कुतीर्थेनोत्तीर्णाः १ स छात्र जागा (सवन्नेव) एवं निवृत्तः सा च द्वितीयदिवसे बलिं करोति तस्य च छान्नस्य रक्षणवारकः, तेन भण्यते दिवा काकेभ्यो विभेषि रात्रौ तरसि नर्मदाम् । कुतीयांनि च जानासि अक्षिच्छादनानि च ॥ तया भण्यते किं करोमि ?, खादशा मां नेच्छन्ति सा तमुपचरति, भणति मामिच्छेति स भगति कथमुपाध्यायस्य पुरतः स्थास्वामीति? तया चिन्तितं मारयाम्येनमध्यापकं तदा ममैष भी भविष्यतीति मारितः, पेटिका ( मजूर ) यांशिवामुवितुमारख्या, ध्यम्त सम्भिता अटयां भ्रमितुमारब्धा, खुपं न शक्नोत्यध्यासितुं वचस्य रुधिरं गिलत्युपरि ठोकेन हील्यते पतिमारिका हिण्डते इति, तस्याः पुनरावृत्तिजीता, तदा सा भगति दत्ताम्बाः ! पतिमारिकायै पंडारो प्र०. ४४ प्रतिर णा०७१ द्धी पतिम रिकोदार ~ 1125 ~ ॥५६१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. भिक्खंति, एवं बहुकालो गओ, अण्णया साहुणीणं पाएसु पडतीए पडिया पेडिया, पवइया, एव गरहियवं जं दुचरिया इयाणिं सोहीए वत्थागया दोषिण दिहता, तत्थ बत्थदितो-रायगिहे सेणिओ राया, तेण खोमजुगलं णिलेवैगस्स समपियं, कोमुदियवारो य वइ, तेण दोण्हं भजाणं अणुचरंतेण दिपणं, सेणिओ अभओ य कोमुदीए पछण्णं हिंडति, दिई, तंबोटेण सितं, आगयाओ, रयगेण अंबाडियाओ, तेण खारेण सोहियाणि, गोसे आणावियाणि, सम्भावं पुच्छिएण कहियं रयएण, एस दवविसोही, एवं साहुणावि अहीणकालमायरियस्स आलोएयचं, तेण विसोही काययत्ति, अगओ जहा णमोकारे, एवं साहुणाऽवि जिंदाऽगएण अतिचारविसं ओसारेयचं, एसा विसुद्धी । उक्तान्येकाथिकानि, साम्प्रतं प्रत्यहं यथा श्रमणेनेयं कर्तव्या, तथा मालाकारदृष्टान्तं चेतसि निधाय प्रतिपादयन्नाह आलोवणमालुंचन वियडीकरणं च भाचसोही य । आलोइयंमि आराहणा अणालोइए भयणा ॥ १२४३॥ ___ व्याख्या-अवलोचनम् आलुश्चनं विकटीकरणं च भावशुद्धिश्च, यथेह कश्चिन्निपुणो मालाकारः स्वस्यारामस्य सदा द्विसन्ध्यमवलोकनं करोति, किं कुसुमानि सन्ति । उत नेति, दृष्ट्वा तेषामालुवनं करोति, ग्रहणमित्यर्थः, ततो विकटी भिक्षामिति, एवं बहुः कालो गतः, अन्यथा साध्वीना पादयोः पतन्याः पतिता पेटा, प्रबजिता, गहं बितष्य एवं परितं । इदानी शुद्धौ वन्वागदी दो रटान्ती, तन्त्र पसरात:-राजगृहे श्रेणिको राजा, सेन क्षौमयुगलं रजकाव समर्पितं, कौमुदीमहनवते, तेन इयोभायपोरनुधरता दरी, निकोऽभवत्र कौमुयां प्रच्छन्नं हिण्डेते, दर्य, वाम्बूलेन सिर्फ, आगते, रजकेण निर्भसिते, तेन क्षारेण शोधिते, प्रत्यूपे आनायिते, सजावः पृष्टेन कथितः रजकेन, एषा इव्यविशुद्धिः, एवं साधुनाऽप्पहीनकालमाचार्याथालोचयितम्यं तेन विशुद्धिः कर्तव्येति, अगदो यथा नमस्कारे, एवं साधुनाऽपि निन्दाङ्गदेनातिचारविष| मपसारयितव्यम् । एषा विशुद्धिः॥ वगरस प्रा. दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1126~ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०] आवश्यक हारिभद्रीया ॥५६२॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१२४३], भाष्यं [२०४...], णा०माला करणं, विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदेन विभजनमित्यर्थः चशब्दात्पश्चाहून्थनं करोति, ततो ग्राहका गृहन्ति, प्रतिक्रमततोऽस्याभिलषितार्थलाभो भवति, शुद्धिश्च चित्तप्रसादलक्षणा, अस्या एव विवक्षितत्वाद्, अन्यस्तु विपरीतकारी मालाकारस्तस्य न भवति, एवं साधुरपि कृतोपधिप्रत्युपेक्षणादिव्यापारः उच्चारादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य व्यापाररहितः कायोत्सर्ग-कारोदाहस्थोऽनुप्रेक्षते सूत्रं, गुरौ तु स्थिते देवसिकावश्यकस्य मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादेः कायोत्सर्गान्तस्यावलोकनं करोति, पश्चारणमालोचनायां दालुखनं स्पष्टबुद्ध्याऽपराधग्रहणं, ततो विकटीकरणं गुरुलधूनामपराधानां विभजनं चशब्दादालोचनाप्रतिसेवनाऽनुलोमेन ग्रन्थनं, ततो यथाक्रमं गुरोर्निवेदनं करोति, एवं कुर्वतो भावशुद्धिरुपजायते, औदयिकभावात् क्षायोपशमिकप्राप्तिरित्यर्थः इत्थमुकेन प्रकारेण 'आलोचिते' गुरोरपराधजाले निवेदिते 'आराधना' मोक्षमार्गाखण्डना भवति, 'अनालोचिते' अनिवेदिते 'भजना' विकल्पना कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवति, तत्रेत्थं भवति- 'आठोयणापरिणओ सम्मं संपडिओ गुरुसगासं । जइ अंतरावि कालं करिज आराहओ तहवि ॥ १ ॥' एवं तु न भवति 'इडीए गारवेणं बहुस्सुबमएण वावि दुश्चरियं । जो ण कहेइ गुरूणं न हु सो आराहओ भणिओ ॥ १ ॥' चि गाथार्थः । १२४३ ॥ इथं चाटोचनादिप्रकारेणोभयकालं नियमत एव प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थे सातिचारेण निरतिचारेण वा साधुना शुद्धिः कर्तव्या, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनर्नैवं किन्वतिचारवत एव शुद्धिः क्रियत इति, आह च १] आलोचनापरिणतः सम्ब संस्थितो गुरुखकाशम् । यद्यन्तराऽपि काळं कुर्यादाराधकस्तथापि ॥ १ ॥ का गौरवेण बहुश्रुतमदेन वाऽपि तुखरितम् । यो न कथयति गुरुभ्यो नैव स आराधको भणितः ॥ ॥ ॥५६२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1127 ~ Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४४], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. सपडिक्कमणोधम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥१२४४ ॥ Ni व्याख्या-सप्रतिक्रमणो धर्मः पुरिमस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, तत्तीर्थसाधुना र्यापथागतेनोचारादिविवेके उभय-10 कालं चापराधो भवतु मा वा नियमतः प्रतिक्रान्तव्यं, शठत्वात्प्रमादबहुलत्वाच, एतेष्वेव स्थानेषु 'मध्यमानां जिनानाम् || अजितादीनां पार्थपर्यन्तानां 'कारणजाते' अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, अशठत्वात्प्रमादरहितत्वाञ्चेति गाथार्धः ॥ १२४४ ॥ तथा चाह ग्रन्धकारः जो जाहे आवन्नो साहू अन्नयरयंमि ठाणमि । सो ताहे पडिक्कमई मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२४५ ॥ व्याख्या-'यः साधुरिति योगः 'यदा' यस्मिन् काले पूर्वाह्लादौ 'आपन्नः' प्राप्तः 'अन्यतरस्मिन् स्थाने प्राणातिपातादौ स तदैव तस्य स्थानस्य, एकाक्येव गुरुप्रत्यक्ष वा प्रतिक्रामति मध्यमानां जिनवराणामिति गाथार्थः ॥ १२४५॥ आह-किमयमेवं भेदः प्रतिक्रमणकृतः ? आहोश्विदन्योऽप्यस्ति !, अस्तीत्याह, यतःबावीसं तित्थयरा सामाइयसंजम उवासंति । छेओवट्ठावणयं पुण वयन्ति उसभो य वीरोय ॥१२४६॥ व्याख्या-द्वाविंशतिस्तीर्थकरा' मध्यमाः सामायिक संयममुपदिशन्ति, यदैव सामायिकमुच्चार्यते तदैव व्रतेषु स्थाप्यते, छेदोपस्थापनिकं वदतः ऋषभश्च वीरश्च, एतदुक्तं भवति-प्रथमतीर्थकरचरमतीर्थकरतीर्थेषु हि प्रनजितमात्रः सामायिकसंयतो भवति तावद् यावच्छत्रपरिज्ञाऽवगमः, एवं हि पूर्वमासीत् , अधुना तु षड्जीवनिकायावगमं यावत् तया पुनः सूत्रतोऽर्थतश्चावगतया सम्यगपराधस्थानानि परिहरन् व्रतेषु स्थाप्यत इत्येवं निरतिचारः, सातिचारः पुनर्मूलस्थान प्राप्त दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | प्रतिक्रमणस्य नित्यतादि विधानं ~1128~ Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8..] दीप अनुक्रम [१०..] आवश्यक - हारिभ दीया ॥५६३ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१२४६], भाष्यं [२०४...], उपस्थाप्यत इति गाथार्थः || १२४६ || अयं च विशेषः- 'आचेलुक्कोद्देसिय सिज्जातररायपिंड कि इकम्मे । वयजिद्वपडिक्कमणे मासं पज्जो सयणकप्पे ॥ १ ॥ एतद्द्वाथानुसारतोऽवसेयः, इयं च सामायिके व्याख्यातैवेति गतं प्रासङ्गिकम्, अधुना यदुक्तं 'समतिक्रमणो धर्म' इत्यादि, तत्प्रतिक्रमणं दैवसिकादिभेदेन निरूपयन्नाह - पडिकमणं देसिय राइयं च इसरियमावकहियं च । पक्खियचाउम्मासिय संचच्छर उत्तिमद्वे य ।। १२४७ ॥ व्याख्या- 'प्रतिक्रमण' प्राग्निरूपितशब्दार्थ, 'दैवसिक' दिवस निर्वृत्तं 'रात्रिक' रजनिनिर्वृत्तम्, इत्वरं तु अल्पकालिकं दैवसिकाद्येव 'यावत्कथिक' यावज्जीविक व्रतादिलक्षणं 'पाक्षिक' पक्षातिचारनिर्वृत्तम्, आह-दैवसिकेनैव शोधिते सत्यात्मनि पाक्षिकादि किमर्थम् ?, उच्यते, गृहदृष्टान्तोऽत्र 'जहं गेहं पइदियपि सोहियं तहवि पक्खसंधीए । सोहिजइ सवि| सेस एवं इहयंपि णायचं ॥ १ ॥ एवं चातुर्मासिकं सांवत्सरिकम् एतानि हि प्रतीतान्येव, 'उत्तमार्थे च' भक्तप्रत्याख्याने प्रतिक्रमणं भवति, निवृत्तिरूपत्वात्तस्येति गाथासमुदायार्थः ॥ १२४७ ॥ साम्प्रतं यावत्कथिकं प्रतिक्रमणमुपदर्शयन्नाह - पंचमहल्वाई राईडाइ चाउजामो य । भन्तपरिण्णा य तहा दुपहंपि य आवकहियाई ॥। १२४८ ॥ व्याख्या - पञ्च महाव्रतानि - प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि 'राईछडाई' ति उपलक्षणत्वाद रात्रिभोजन निवृत्तिष ठानि पुरिम पश्चिमतीर्थकर योस्तीर्थ इति, 'चातुर्यामश्च' निर्वृत्तिधर्म एवं भक्तपरिज्ञा च तथा, चशब्दादिङ्गिनीमरणादि १] आक्यमदेशिकं शय्यातरराजपिण्डकृतिकर्माणि । प्रतानि ज्येष्ठः प्रतिक्रमणं मासः पर्युपणकल्पः ॥ १ ॥ २ यथा गृहं प्रतिदिवसमपि शोधितं तथापि पक्षसन्धी शोध्यते सविशेषमेवमिहापि ज्ञातव्यम् ॥ १ ॥ प्रतिक्रमणा०प्रतिक्र मणसंख्या ~ 1129~ ॥५६३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः 'प्रतिक्रमण'स्य दैवसिक आदि षड्भेदाः, प्रतिक्रमण करणस्य कारणानि Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४८], भाष्यं [२०४...], (४०) -RANA प्रत सूत्रांक परिग्रहः, 'द्वयोरपि' पुरिमपश्चिमयोः, चशब्दाद् मध्यमानां च यावत्कथिकान्येतानीति गाथार्थः ॥ १२४८ ॥ इत्थं यावकथिकमनेकभेदभिन्न प्रतिपादितम्, इत्वरमपि दैवसिकादिभेदं प्रतिपादितमेव, पुनरपीवरप्रतिपादनार्यवाह उचारे पासवणे खेले सिंघाणए पडिकमणं । आभोगमणाभोगे सहस्सकारे पडिकमणं ॥१२४९॥ व्याख्या-'उच्चारे' पुरीषे 'प्रस्रवणे' मूत्रे 'खेले' श्लेष्मणि 'सिवानके नासिकोद्भवे श्लेष्मणि व्युत्सृष्टे सति सामान्येन प्रतिक्रमणं भवति, अयं पुनर्विशेष:-"उच्चारं पासवर्ण भूमीए वोसिरितु उवउत्तो । बोसरिऊण य तत्तो इरियावहि पडि-12 कमइ ॥१॥ वोसिरह मत्तगे जइ तो न पडिकमइ मत्तगं जो उ । साहू परिहवेई णियमेण पडिकमे सो उ ॥२॥ खेलें सिंघाणं वाऽपडिलेहिय अप्पमन्जिङ तह य । बोसिरिय पडिकमई तं पिय मिच्छुक्कडं देइ ॥३॥ प्रत्युपेक्षितादिविधिविवेके तु न ददाति, तथाऽऽभोगेऽनाभोगे सहसात्कारे सति योऽतिचारस्तस्य प्रतिक्रमणम्-'आभोगे जाणंतेण जोऽइयारो कओ पुणो तस्स । जायम्मिवि अणुतावे पडिकमणेऽजाणया इयरो ॥१॥ अनाभोगसहसात्कारे इत्थंलक्षणे-'पुविं अपासिऊणं छुढे पायंमि जं पुणो पासे । ण य तरह णियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥१॥' अस्मिंश्च सति प्रतिक्रमणम् , १.. दीप अनुक्रम [१०..] उचारं प्रश्रवणं भूमौ व्युत्सम्योपयुक्तः । ब्युसम्म च तत ईयांपथिकी प्रतिकामति ॥ ॥ प्युत्सृजति मात्रके यदि तदान प्रतिकाम्यति मात्र यस्तु । साधुः परिधापयति नियमेन प्रतिकाम्पति स एव ॥२॥सेप्माण सिद्धानं वाऽअतिलिण्याप्रमाश्य तथा चा पुरयग्य प्रतिकाम्पति तत्रापि च मिथ्यादुष्कृतं ददाति ॥ ३ ॥ आभोगे जागता योऽतिचारः कृतः पुनस्तस्य । जातेऽपि चानुतापे प्रतिक्रमणेऽजानतेतरः ।।।। पूर्वमा क्षिप्ते पादेयत् पुनः पश्येत् । न च शनोति निवर्तितुं पावं सहसाकरणमेतत् ॥1॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1130~ Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४९], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिकम आवश्यक- हारिभ- द्रीया ॥५६४ा क्रमणस्थानानि प्रत सूत्रांक १..] अर्य गाथाक्षरार्थः ॥ १२४९ ॥ इदं पुनः प्राकरणिक-पडिलेहेङ पमजिय भत्तं पाणं च बोसिरेऊणं । यसहीकयवरमेव उणियमेण पडिक्कमे साहू ॥१॥ हत्यसया आगंतुंगंतुं च मुहुत्सगं जहिं चिढे । पंथे वा बच्चंतोणदिसंतरणे पडिकमइ ॥२॥ गतं प्रतिक्रमणद्वारम् , अधुना प्रतिक्रान्तब्यमुच्यते, तत्पुनरोषतः पञ्चधा भवतीति, आह च नियुक्तिकार:| मिकछत्तपदिकमणं तहेव अस्संजमे पडिकमणं । कसायाण पडिकमणं जोगाण य अप्पसस्थाणं ॥ १२५०॥ संसारपडिकमणं चउब्विहं होइ आणुपुब्बीए । भावपडिक्कमणं पुण तिविहं तिबिहेण नेयव्वं ॥ १२५१॥ व्याख्या-मिथ्यात्वमोहनीयकर्म पुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो मिथ्यात्वं तस्य प्रतिक्रमणं तत्प्रतिक्रान्तव्यं वर्तते, यदाभोगानाभोगसहसात्कारैमिथ्यात्वं गतस्तत्प्रतिक्रान्तव्यमित्यर्थः, तथैव 'असंयमें' असंयमविषये प्रतिक्रमणम् , असंयमः-प्राणातिपातादिलक्षणः प्रतिक्रान्तव्यो वर्तते, 'कपायाणां' प्राग्निरुपितशब्दार्थानां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं, कषायाः प्रतिक्रान्तव्याः, योगानां च मनोवाकायलक्षणानाम् 'अप्रशस्तानाम् अशोभनानां प्रतिक्रमणं, ते च प्रतिक्रान्तव्या इति गाथार्थः ॥ १२५० ॥ संसरणं संसार:-तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणस्तस्य प्रतिक्रमणं 'चतुर्विध चतुष्प्रकारं भवति 'आनुपूर्त्या' परिपाट्या, एतदुक्तं भवति-नारकायुषो ये हेतवो महारम्भादयस्तेषां (पामा) भोगानाभोगसहसात्कारैर्यद्वतितमन्यथा या प्ररूपितं तस्य प्रतिक्रान्तव्यम्, एवं तिर्यग्नरामरेप्यपि विभाषा, नवरं शुभनरामरायुहेतुभ्यो मायाद्यनासेव प्रतिलिय प्रमृज्य भक्तं पानं च ध्युत्भूज्य । वसतिकचपरमेच तु नियमेन प्रतिकाम्मेत् साधुः ॥1॥हनशतादायत्व गरवा च मुहूर्तकं यत्र तिहत् । पथि वा मजन नदीसंतरणे प्रतिकाम्यति ॥ २॥ दीप अनुक्रम [१०..] %AAS ॥५६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1131~ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५१], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक १.. नादिलक्षणेभ्यो निराशंसेनैवापवर्गाभिलाषिणाऽपि न प्रतिक्रान्तव्यं, 'भावपडिकमणं पुण तिविहं तिविहेण णेय,' तदेतदनन्तरोदितं भावप्रतिक्रमणं पुनत्रिविधं त्रिविधेनैव नेतन्यं, पुनःशब्दस्यैवकारार्थत्वात् , एतदुक्तं भवति-मिच्छत्ताइ न | गच्छद ण य गच्छावेइ णाणुजाणेई । जं मणवइकाएहिं तं भणियं भावपडिकमणं ॥१॥'मनसा न गच्छति' न चिन्त-13 यति यथा शोभनः शाक्यादिधर्मः, वाचा नाभिधत्ते, कायेन न तैः सह निष्प्रयोजनं संसर्ग करोति, तथा 'न य गच्छावे मनसा न चिन्तयति-कथमेष तच्च निकादिः स्यात्, वाचा न प्रवर्तयति यथा तञ्चनिकादिर्भव, कायेन न तच्चनिकादीनामर्पयति, 'णाणुजाणई' कश्चित्तचनिकादिर्भवति न तं मनसाऽनुमोदयति तूष्णीं वाऽऽस्ते, वाचा न सुवारब्धं कृतं वेति भणति, कायेन नखच्छोटिकादि प्रयच्छति, एवमसंयमादिष्वपि विभाषा कार्येति गाथार्थः ॥ १२५१ ॥ इत्थं मिथ्यात्वादिगोचरं भावप्रतिक्रमणमुक्तम् , इह च भवमूलं कषायाः, तथा चोक्तम्-'कोहो' य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोहो| य पवहुमाणा । चत्वारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१॥' अतः कषायप्रतिक्रमण एवोदाहरण मुच्यते-कई दो संजया संगारं काऊण देवलोयं गया, इओ य एगंमि णयरे एगस्स सिद्विस्स भारिया पुत्तणिमित्तं Mणागदेवयाए उववासेण ठिया, ताए भणियं-होहिति ते पुत्तो देवलोयचुओत्ति, तेसिमेगो चइत्ता तीए पुत्तो जाओ, क्रोधश्च मानव अनिगृहीती माया च होमत्र परिवर्धमानी । चत्वार एते कृत्याः कषायाः सिन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥1॥२ कौचित् द्वी संयती। संकेतं कृत्वा देवलोकं गती, इतकसिनगरे एकरस बेष्ठिनो भाया पुननिमित्तं नागदेवतायै उपचासेन स्थिता, तथा भणित-भविष्यति ते पुत्रो देवलोकयुत इति, योरेकयुवा तस्याः पुत्रो जातः. दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'कषायप्रतिक्रमण" तस्य व्याख्या, कारणानि, तद् विषये नागदत्तकथा ~1132~ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५१], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्यनागदत्तो प्रत सूत्रांक दाहरणं ॥५६५ नागदत्तोत्ति से णामं कर्य, बावत्तरिकलाविसारओ जाओ, गंधवं च से अइप्पियं, तेण गंधषणागदत्तो भण्णइ, तओ सो |मित्तजणपरिवारिओ सोक्खमणुभवइ, देवो य गं बहुसो बहुसो बोहेइ, सो णसंबुज्झइ, ताहे सो देवो अपत्तलिंगेणं ण णजइ जहेस पपइयगो, जेण से रजोहरणाइ उवगरणं णस्थि, सप्पे चत्तारि करंडयहत्थो गहऊण तस्स उजाणियागयस्स य अदूरसामंतेण वीईवयइ, मित्तेहिं से कहियं-पस सप्पखेल्लावगोत्ति, गओ तस्स मूलं, पुच्छह-किमेत्थं ?, देवो भणइसप्पा, गंधवणागदत्तो भणइ-रमामो, तुम ममच्चएहि अहं तुहच्चएहिं, देवो तस्सच्चएहिं रमति, खइओवि ण मरइ, गंधवणागदत्तो अमरिसिओ भणइ-अहंपि रमामि तव संतिपहिं सप्पेहि, देवो भणइ-मरसि जइ खज्जसि, जाहे णिबंधेण लग्गो ताहे मंडलं आलिहित्ता देवेण चउद्दिसिंपि करंडगा ठविता, पच्छा से सर्व सयणमित्तपरियणं मेलिऊण तस्स समक्खं इमं भणियाइओ [१..] - %E दीप अनुक्रम [१०..] - ॥५६५॥ नागवत इति तस्य नाम कृतं, द्वासप्ततिकलाविशारदो जातः, गान्धर्व वास्थातिप्रियं, तेन गन्धर्षनागदसो भव्यते, ततः स मित्रजनपरिया रितः सौख्यमनुभवति, देवश्वनं बहुयाः २ बोधयति, सन सम्बुध्यते, तदास देवोऽयक्तलिलेन न ज्ञायते यथैष प्रनजितकः, येन रजोहरणाघुपकरणं तस्य नास्ति, सपाश्चतुरः करण्डकदस्तो गृहीत्वा तस्योद्यानिकागते स्वादूरसामीप्येन व्यतिनजाति, मिन्नस्तस्य कथितं-एष सर्पकीडक इति, गतस्तस्य मूलं, पृच्छति-किमत्र , देवो भणति-सर्पाः, गन्धर्षनागदत्तो भणति-माबहे, त्वं मामकीनरहं तावकीनैः, देवत्सरकैः रमते, खादितोऽपि न नियते, गन्धर्वनागदत्तोऽमर्षितो भणति-अहमपि तव सत्कैः सः रमे देवो भणति-मरिष्यसि यदि भझियसे, यदा निबन्धेन लामस्तदा मण्डलमालिरुप देवेन चतस्यपि दिक्षु करण्टकाः स्थापिता, पश्चात्तस्य सर्व स्वजनमित्रपरिजनं मेलयित्या तख समक्षं इदं भणितचान् 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1133~ Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५२], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [१..] दीप अनुक्रम [१०..] गंधब्वनागदत्तो इच्छह सप्पेहि खिल्लिई इहयं । तं जइ कहिंवि खज्जा इत्य हु दोसो न कायब्वो ॥१२५२॥ व्याख्या-गन्धर्वनागदत्त' इति नामा 'इच्छति' अभिलपति सर्पः साई क्रीडितुम्, अत्र स खलु-अयं यदि 'कथश्चित्' केनचित्प्रकारेण 'खाद्यते' भक्ष्यते 'इत्थ हु' अस्मिन् वृत्तान्ते न दोषः कर्तव्यो मम भवद्भिरिति गाथार्थः ॥ १२५२ ॥ यथा चतसृष्वपि दिक्षु स्थापितानां सर्पाणां माहात्म्यमसावकथयत् तथा प्रतिपादयन्नाहतरुणदिवायरनयणो विजुलयाचंचलग्गजीहालो । घोरमहाविसदाढो उक्का इव पज्जलियरोसो ॥ १२५३ ।।। व्याख्या-तरुणदिवाकरवद्-अभिनवोदितादित्यवन्नयने-लोचने यस्य स तरुणदिवाकरनयनः, रक्ताक्ष इत्यर्थः, विद्युल्लतेच चञ्चलाऽप्रजिह्वा यस्य स विद्युल्लताचञ्चलाप्रजिह्याकः घोरा-रौद्रा महाविषा:-प्रधानविषयुक्ता दंष्ट्रा-आस्यो यस्य स घोरमहाविषदंष्ट्रः, उल्केव-चुडुलीव प्रज्वलितो रोषो यस्य स तथोच्यत इति गाथार्थः ॥ १२५३॥ डको जेण मणूसो कयमकयं न याणई सुबहुयंपि । अहिस्समाणमछु कह घिच्छसि तं महानागं? ॥१२५४॥ व्याख्या 'डको' दष्टः 'येन' सर्पण मनुष्यः स कृतं किश्चिदकृतं वा न जानाति सुबहपि, 'अदृश्यमानमृत्युम्' अहश्यमानोऽयं करण्डकस्थो मृत्युर्वर्तते, मृत्युहेतुत्वान्मृत्युः, यतश्चैवमतः कथं ग्रहीष्यसि त्वं 'महानागं' प्रधानसर्पम् १, इति गाथार्थः॥१२५४ ॥ अयं चक्रोधसर्पः, पुरुषे संयोजना स्वबुद्ध्या कार्या, क्रोधसमन्वितस्तरुणदिवाकरनयन एव भवतीत्यादि । मेरुगिरितुंगसरिसो अहफणो जमलजुगलजीहालो । दाहिणपासंमि ठिओ माणेण वियट्टई नागो ॥१२५५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1134 ~ Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५५], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [१..] व्याख्या-मेरुगिरेस्तुङ्गानि-उच्छ्रितानि तैः सदृशः मेरुगिरितुङ्गसदृशः, उच्छ्रित इत्यर्थः, अष्टौ फणा यस्य सोऽष्टफणः | 18 प्रतिक्रमजातिकुलरूपबललाभबुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतानि द्रष्टव्यानि, तत्त्वतो यमो-मृत्युसृत्युहेतुत्वात् 'ला आदाने' यमं लान्ती-| राणा क्रोधाति-आददतीति यमला, यमला युग्मजिह्वा यस्य स यमलयुग्मजिहः, करण्डकन्यासमधिकृत्याऽऽह-दक्षिणपाचे दिनागस्व. |स्थितः, दक्षिणदिग्यासस्तु दाक्षिण्यवत उपरोधतो मानप्रवृत्तः, अत एवाह-मानेन' हेतुभूतेन व्यावर्तते 'नाग' सर्प इति गाथार्थः ॥ १२५५॥ डको जेण मणूसो धहो न गणेइ देवरायमवि । तं मेरुपब्वय निभं कह घिच्छसि तं महानागं ॥१२५६ ॥ व्याख्या 'डको' दष्टः 'येन' सर्पण मनुष्यः स्तब्धः सन्न गायति 'देवराजानमपि' इन्द्रमपि, 'तम्' इत्थम्भूतं मेरुप-13 वैतनिभं कथं गृहीष्यसि त्वं 'महानागं' प्रधानसर्पमिति गाथार्थः ।। १२५६ ॥ अयं च मानसर्पः॥ सललियविल्लहलगई सस्थिअलंछणफणंकिअपडागा।मायामइआ नागी नियडिकवडवचणाकुसला ॥१२५७॥ व्याख्या-सललिता-मृद्धी वेल्लहला-स्फीता गतिर्यस्याः सा सललितवेल्लहलगतिः, स्वस्तिकलाञ्छनेनाङ्किता फणापताका यस्याः सा स्वस्तिकलाग्छनातिफणापताकेति वक्तव्ये गाथाभङ्गभयादन्यथा पाठः, मायात्मिका नागी 'निकृति- I n५॥ कपटवञ्चनाकुशला' निकृतिः-आन्तरो विकारः कपट-वेषपरावर्तादिबाह्यः आभ्यां या वञ्चना तस्यां कुशला-निपुणेति गाथार्थः॥ १२५७॥ दीप अनुक्रम [१०..] खत प्रक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1135~ Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२५८], भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [१..] तं च सि वालग्गाही अणोसहिबलोअ अपरिहत्थोय।सा य चिरसंचियविसा गहणंमि वणे वसइ नागी१२५८ व्याख्या-इयमेवम्भूता नागी रौद्रा, त्वं च 'व्यालग्राही' सर्पग्रहणशीला 'अनौषधिवलच' औषधिबलरहितः 'अप-18 रिहत्यश्च अदक्षश्च, सा च चिरसश्चितविषा 'गहने सङ्घले 'वने कार्यजाले वसति नागीति गाथार्थः ॥ १२५८॥ होही ते विणिवाओ तीसे दादंतरं उवगपस्स । अप्पोसहिमंतबलो न हु अप्पाणं चिगिच्छिहिसि ॥१२५९॥ व्याख्या-भविष्यति ते विनिपातः तस्या दंष्ट्रान्तरम् 'उपगतस्य प्राप्तस्म, अल्प-स्तोक औषधिमन्त्रबलं यस्य तव स त्वं अल्पौषधिमन्त्रबलः, यतश्चैवमतो नैवाऽऽत्मानं चिकित्सिध्यसीति गाथार्थः ।। १२५९ ॥ इयं च मायानागी ॥ उत्थरमाणो सव्वं महालओ पुन्नमेहनिग्घोसो। उत्तरपासंमि ठिओ लोहेण वियहई नागो ॥१२६०॥ व्याख्या-उत्थरमाणो'त्ति अभिभवन् 'सर्व' वस्तु, महानालयोऽस्येति महालयः, सर्वत्रानिवारितत्वात्, पूर्णः पुष्क-1 रावतस्येव निर्घोषो यस्य स तथोच्यते, करण्डकन्यासमधिकृत्याह-उत्तरपाचे स्थितः, उत्तरदिग्यासस्तु सर्वोत्तरो लोभ इति ख्यापनार्थम्, अत एव लोभेन हेतुभूतेन 'वियदृईत्ति व्यावर्तते रुष्यति वा नागः' सर्प इति गाथार्थः॥१२६०॥ डको जेण मणुसो होइ महासागरुब्ब दुप्पूरो । तं सव्वविससमुदयं कह घिच्छसि तं महानागं ॥ १२६१ ॥ व्याख्या-दष्टो येन मनुष्यो भवति 'महासागर इव' स्वयम्भूरमण इव दुष्पूरः 'तम्' इत्थम्भूतं 'सर्वविषसमुदयं सर्वव्यसनकराजमार्ग कथं प्रहीष्यसि खं 'महामार्ग प्रधानसर्पमिति गाथार्थः ॥ १२५१॥ अयं तु लोभसर्पः ॥ एए ते पाचाही चत्तारिवि कोहमाणमयलोभा । जेहि सया संतत्तं जरियमिव जयं कलकलेइ ॥ १२६२ ॥ दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~11364 Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२६२], भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५६७॥ ___ व्याख्या-एते ते 'पापाहयः' पापसर्पाश्चत्वारोऽपि क्रोधमानमायालोभा यैः सदा सन्तप्तं सत् ज्वरितमिव 'जगद प्रतिक्रमभुवन 'कलकलायति' भवजलधौ क्वथयतीति गाथार्थः ॥ १२॥२॥ राणा क्रोधाएहिं जो खज्जइ चउहिवि आसीविसेहि पावेहिं । अवसस्स नरयपडणं णथि सि आलवणं किंचि ॥१२६३॥ यहिपतीव्याख्या-एभिर्य एव खाद्यते चतुर्भिरपि 'आशीविषैः भुजङ्गैः 'पापैः' अशोभनः तस्य अवशस्य सतः नरकपतन | कार भवति, 'नास्ति' न विद्यते 'से' तस्यालम्बनं किञ्चिदू येन न पततीति गाथार्थः ॥ १२६३ ॥ एवमभिधायेते मुक्ताःसो खइओ पडिओ मओ य, पच्छा देवो भणइ-किह जायं !, ण ठाइहत्ति वारिर्जतो, पुवभणिया य ते मित्ता अगदे छुभंति ओसहाणि य, ण किंचि गुणं करेंति, पच्छा तस्स सयणो पाएहिं पडिओ-जिआवेहत्ति, देवो भणइ-एवं चेव अहंपि खइयो, जइ एरिसिं चरिय अणुचरइ तो जीवइ, जइ णाणुपालेइतो उज्जीविओऽवि पुणो मरइ, तं च चरियं गाथाहिं कहेहएएहिं अहं खइओ चउहिवि आसीविसेहि पावेहिं । विसनिग्घायण चरामि विविहं तवोकम्मं ॥१२६४॥ व्याख्या-एभिरह 'खइओ'ति भक्षितचतुर्भिरपि 'आशीविषैः' भुजङ्ग घोर-रौद्रा 'विपनिर्घातनहेतः' विषनिर्घातन-I |निमित्तं 'चरामि' आसेवयामि "विविध विचित्रं चतुर्थषष्ठाष्टमादिभेदं 'तपःकर्म' तपःक्रियामिति गाथार्थः ॥ १२॥४॥ ५६७॥ स खादितः पतितो मृतश्च, पश्चाद्देवो भगति-कथं जातं !, न स्थास्यसि दार्यमाणः, पूर्वभाणितानि च तानि मित्राणि अगदान क्षिपन्ति औषधानि च, न कविणं कुर्वन्ति, पक्षातस्य खजनः पादयोः पतितः-जीववति, देवो भणति-एक्मेवाइमपि खादितः, वदीरयां चर्यामनुचरति तदा जीवति, यदि मानुपालयति तदोजीवितोऽपि पुनर्षियते, तां च चया गावामिः कथयति । 4-9-5455 दीप अनुक्रम [१०..] - - * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1137~ Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] दीप अनुक्रम [१०..] 643640 आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१२६५], भाष्यं [२०४...], सेवामि सेलकाणणसाणसुन्नघररुक्खमूलाई । पावाहीणं तेसिं खणमवि न उबेमि वीसंभं ॥। १२६५ ॥ व्याख्या- 'सेवामि' भजामि शैलकाननश्मशानशून्यगृह वृक्षमूलानि शैलाः पर्वताः काननानि दूरवर्तिवनानि शैलाश्च काननानि चेत्यादि द्वन्द्वः, 'पापाहीनां' पापसर्पाणां तेषां क्षणमपि 'नोपैमि' न यामि 'विश्रम्भ' विश्वासमिति गाथार्थः ।। १२६५ ॥ अचाहारो न सहे अइनिडेण विसया उइज्जति । जायामायाहारो तंपि पकामं न इच्छामि ॥ १२६६ ॥ व्याख्या- 'अत्याहारः' प्रभूताहारः 'न सहे'त्ति प्राकृतशैल्या न सहते-न क्षमते, मम स्निग्धमल्पं च भोजनं भविष्यत्येतदपि नास्ति, यतः - अतिस्निग्धेन हविःप्रचुरेण 'विषयाः' शब्दादयः 'उदीर्यन्ते' उद्रेकावस्थां नीयन्ते, ततश्च यात्रामात्राहारो यावता संयमयात्रोत्सर्पति तावन्तं भक्षयामि, तमपि प्रकामं पुनर्नेच्छामीति गाथार्थः ।। १२६६ ।। उस्सन्नकयाहारो अहवा विगईविवज्जियाहारो। जं किंचि कयाहारो अवउज्झियथोवमाहारो ॥। १२६७ ॥ व्याख्या- 'उस्सन्नं' प्रायशोऽकृताहारः, तिष्ठामीति क्रिया, अथवा विगतिभिर्वर्जित आहारो यस्य मम सोऽहं विगतिविवर्जिताहारः, यत्किञ्चिच्छोभनमशोभनं बौदनादि कृतमाहारो येन मया सोऽहं तथाविधः, 'अवउज्जियथोत्रमाहारो ति उज्झित-उज्झितधर्मा स्तोकः स्वल्पः आहारो यस्य मम सोऽहमुज्झितस्तोकाहार इति गाथार्थः ॥ १२६७ ॥ एवं क्रियायुतस्य क्रियान्तरयोगाच्च गुणानुपदर्शयति धोवाहारो धोवभणिओ य जो होड़ धोवनिदो य । धोवोवहिउवगरणो तस्स हु देवावि पणमति ॥ १२६८ ॥ **** मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1138~ Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२६८] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [१..] आवश्यक __व्याख्या--स्तोकाहारः स्तोकभणितश्च यो भवति स्तोकनिद्रश्च स्तोकोपध्युपकरणः, उपधिरेवोपकरणं, तस्य चेत्यम्भूतस्याप्रतिक्रम देवा अपि प्रणमन्तीति गाथार्थः ॥ १२६८ ॥ एवं जइ अणुपालेइ तओ उद्देइ, भणंति-वरं एवंपि जीवंतो, पच्छा सोणा क्रोधाद्रीया पुषाभिमुहो ठिो किरियं पउंजिउकामो देवो भणइ द्यहिपती॥५६॥ सिद्धे नमंसिऊणं संसारस्था य जे महाविजा । वोच्छामि दंडकिरिय सव्वविसनिवारणिं विज्नं ॥ १२६९ ॥ कारः व्याख्या-'सिद्धान्' मुक्तान् नमस्कृत्य संसारस्थाश्च ये 'महावैद्याः' केवलिचतुर्दशपूर्ववित्प्रभृतयस्ताँश्च नमस्कृत्य वक्ष्ये | दण्डक्रियां सर्वविपनिवारिणी विद्यामिति गाथार्थः ॥ १२६९ ॥ सा चेयं सव्वं पाणहवायं पञ्चक्खाई मि अलियवयणं च । सब्वमदत्तादाणं अव्वंभ परिग्गई स्वाहा ॥१२७० ।। व्याख्या-'सर्व' सम्पूर्ण प्राणातिपातं 'प्रत्याख्याति' प्रत्याचष्टे एष महात्मेति, अनृतवचनं च, सर्व चादत्तादानम् , अब्रह्म परिग्रहं च प्रत्याचष्टे स्वाहेति गाथार्थः॥ १२७० ॥ एवं भणिए उडिओ, अम्मापिईहिं से कहियं, न सदइ, पच्छा पहाविओ पडिओ, पुणोवि देवेण तहेव उडविओ, पुणोवि पहाविओ, पडिओ, तइयाए वेलाए देवो णिच्छइ, पसादिओ, उविओ, पडिस्सुयं, अम्मापियरं पुच्छित्ता सेण समं पहाविओ, एगंमि वणसंडे पुवभवे कहेइ, संबुद्धो पत्तेयबुद्धो जाओ, ५५॥ एवं यधनुषालयति तदोत्तिष्ठति, भणन्ति-वरमेवमपि जीवन् , पश्चात् स पूर्वाभिमुखः स्थितः कियाँ प्रयोक्कामो देवो भणति-1 एवं भणिते उरिपतो मातापितम्यां तस्मै कवितं, म अधाति, पश्चात प्रभावितः पतितः, पुनरपि देवन नयेच सत्यापितः, पुनरपि प्रभाविता, पतितः, तृतीयायां वेलायां देवो १४ नेच्छति, प्रसादिता, उत्थापितः, प्रतिक्षुतं, मातापितराबापूच्य तेन समं प्रधावितः, एकमिन् वनपण्डे पूर्वभवान् कथयति, संवदा प्रत्येकबुद्धो जातः, दीप अनुक्रम [१०..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1139~ Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [१...] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०] भाष्यं [२०४...], (४०) -9454 प्रत सूत्रांक [१..] देवोऽवि पडिगओ, एवं सो ते कसाए नाए सरीरकरंडए छोटूण कओऽवि संचरिण देइ, एवं सो ओदइयस्स भावस्स अकरणयाए अभुडिओ पडिकतो होइ, दीहेण सामन्नपरियाएण सिद्धो, एवं भावपडिक्कमणं । आह-किंणिमित्तं पुणो २ पडिक्कमिजइ , जहा मज्झिमयाणं तहा कीस ण कजे पडिकमिज्जइ, आयरिओ आह-इत्थ विजण दिईतो-एगस्स | रण्णो पुत्तो अईव पिओ, तेण चिंतियं-मा से रोगो भविस्सइ, किरियं करावेमि, तेण विजा सद्दाविया, मम पुत्तस्स तिगिच्छं करेह जेण णिरुओ होइ, ते भणंति-करेमो, राया भणइ-केरिसा तुज्झ जोगा?, एगो भणइ-जइ रोगो अस्थि तो उवसामेति, अह नत्थितं चेव जीरता मारंति, बिइओ भणइ-जइ रोगो अस्थि तो उवसामिति, अह णत्थि ण गुणं ण दोसं करिति, तइओ भणइ-जइ रोगो अत्थि तो उवसामिति, अह णस्थि षण्णरूवजोवणलावण्णताए परिणमंति, बिइओ विधी अणागयपरित्ताणे भावियबो, तइएण रण्णा कारिया किरिया, एवमिमंपि पडिक्कमणं जइ दोसा अस्थि तो दीप अनुक्रम [१०..] देवोऽपि प्रतिगतः, एवं स तान् कपायान् शातान् पारीरकरणडके क्षित्वा कुतोऽपि संचरितुं न ददाति, एवं सभीदविकस भावस्थाकरणतयाऽभ्युस्थितः प्रतिकान्तो भवति, दीर्घेण श्रामण्यपर्यायेण सिखः, एवं भावप्रतिक्रमणं । किनिमिषं पुनः पुनः प्रतिगम्यते ।, यथा मध्यमकानां तथा कथं न कार्ये प्रतिकम्यते !, आचार्य भाइ-अत्र वैधेन दृष्टान्त:-एकस्य राज्ञः पुत्रोऽतीच भिषः, तेन चिन्तितं-माऽस्य रोगो भूत, कियां कास्यामि, तेन वैद्याः शान्दिताः-मम पुत्रस्य चिकित्सा कुरुत येन नीरोगो भवति, ते भणन्ति-कुर्मः, राजा भणति-कीडशा युष्माकं योगाः ! एको भणति-यदि रोगोऽति तदोपशमयन्ति, मथG | नास्ति व पब जीर्यन्तो मारयन्ति, द्वितीयो भणति-यदि रोगोऽस्ति तदोपशामयन्ति अथ नास्ति न गुणं न दोषं कुर्षन्ति, तृतीयो भणति-यदि रोगोऽस्ति तदोपसमयन्ति, अब नासि वर्णरूप यौवन लावण्यतया परिणमन्ति, द्वितीयो विधिरनायतपरिवाणे भावयितभ्यः, सूतीयेन राज्ञा कारिता किया, एवमिदमपि प्रतिकमयं बदिदोषाः सन्ति तदा 25-25 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1140~ Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक विसोहिजति, जइ णत्थि तो सोही चरित्तस्स सुद्धतरिया भवइ । उक्तं सप्रसङ्गं प्रतिक्रमणम् , अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थो प्रतिक्रमहारिभ निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण प्ररूपितत्वान्नेहाधिक्रियते, गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षे- णा०चतुर्मद्रीया ठापस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादि प्रपञ्चो वक्तव्यः, यावत्तचेदं सूत्रं करेमि भन्ते! जाव चोसिरामिलाख्यान ॥५६९॥ ___ अस्य व्याख्या-तलक्षणं चेदं-'संहिता च पदं चैत्यादि, अधिकृतसूत्रस्य व्याख्यालक्षणयोजना च सामायिकवद् : द्रष्टव्या, आह-इदं स्वस्थान एव सामायिकाध्ययने उक्तं सूत्रं, पुनः किमभिधीयते ?, पुनरुक्तदोषप्रसङ्गात् , उच्यते, प्रति४ पिद्धासेवितादि समभावस्थेनैव प्रतिक्रान्तव्यमिति ज्ञापनार्थम् , अथवा 'यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति । दातद्वद् रागविषनं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥१॥ रागविषनं चेदं, यतश्च मङ्गलपूर्व प्रतिक्रान्तव्यम् अतः सूत्रकार एव तदभिधिरसुराह चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थ, तत्र चत्वारः पदार्था मङ्गलमिति, क एते चत्वारः, तानुपदर्शय नाह-'अरिहंता मंगल'-1 मित्यादि, अशोकायष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेऽर्हन्तो मङ्गल, सितं ध्मातं येषां ते सिद्धाः, ते च सिद्धा मङ्गलं, निर्वाणसाधकान् योगान् साधयन्तीति साधवः, ते च मङ्गलं, साधुग्रहणादाचार्योपाध्याया गृहीता एव द्रष्टव्याः, ५६९॥ यतो न हि ते न साधवः, धारयतीति धर्मः, केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः, केवलिभिः-सर्वज्ञैः प्रज्ञप्तः-प्ररूपितः केव विशोधयन्ति यदि न सन्ति तदा शुद्धिश्चारित्रस्य शुद्धतरा भवति । 4%A3%E5 दीप अनुक्रम [१२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहणं एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं ...मूलसूत्र - (१) "नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है | मू. (११) करेमि भंते सामाइयं ...........जाव.........वोसिरामि | [ यह पूरा सूत्र अध्ययन-१ 'सामायिक पृष्ठ- ९११ अनुसार समझ लेना ] *** यहां मैने उपर हेडिंग में मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~1141~ Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] लिप्रज्ञप्तः, कोऽसौ ?-धर्म:-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च मङ्गलम् , अनेन कपिलादिप्रज्ञप्तधर्मव्यवच्छेदमाह । अर्हदादीनां च मङ्गलता तेभ्य एव हितमङ्गलात् सुखप्राप्तेः, अत एव च लोकोत्तमत्वमेषामिति, आह च चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साह लोगुतमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो अथवा कुतः पुनरहंदादीनां मङ्गलता?, लोकोत्तमत्वात् , तथा चाऽऽह-चत्तारि लोगुत्तमा' चत्वारः-खल्वनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणा या लोकस्य-भावलोकादेरुत्तमाः-प्रधाना लोकोत्तमाः, क एते चत्वारस्तानुपदर्शयन्नाह-'अरहंता लोगुत्तमा, इत्यादि, अर्हन्तः-प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, लोकस्य-भावलोकस्य उत्तमाः-प्रधानाः, तथा चोक्तम्-अरिहंता ताव तहिं उत्तमा हुन्ती उ भावलोयस्स । कम्हा ?, जं सबासि कम्मपयडीपसस्थाणं ॥१॥ अणुभावं तु पडुच्चा वेअणियाऊण णामगोयस्स । भावस्सोदइयस्सा णियमा ते उत्तमा होति ॥२॥ एवं चेव य भूओ उत्तरपगईविसेसणविसिटुं । भण्णइ हु उत्तमत्तं समासओ से णिसामेह ॥३॥ साय मणुयाउ दोण्णी णामप्पगई समा पसस्था य । मणुगइ पणिदिजाई ओरालियतेयकम्मं च ॥४॥ ओरालियंगुवंगा समचउरंसं तहेव संठाणं । वइरोसभसंघयणं वण्णरसगंधफासा य ॥५॥ अगुरुलहुं अन्तसावत्तमोत्तमा भूवम्त्येव भावलोकरस । कस्मात् । यसर्वासा कर्मप्रकृतीनां प्रशस्तानाम् ॥1॥अनुभावं तु प्रतीत्य वेदनीयायुषोनामगोत्रयोः भाव औदायिक नियमात ते उत्तमा भवन्ति ॥ २ ॥ एवमेव च भूय उत्तरप्रकृतिविशेषणविशिष्टम् । भण्यते उत्तमत्वं समासतस्तस्य निशामयत ॥ ३॥ सातम नुजा युधी भाभप्रकृतयस्तस्येमाः समाः प्रशस्लाजामनुजगतिः पोन्द्रियजातिरीदारिक तैजसं कामण च ॥४॥ श्रीदारिकालोपाकानि समचतुरखं तथैव संस्थानम् ववर्षभसंहननं वर्णा रसगन्धस्पशांश्च ॥ ५॥ अगुरुलघु दीप अनुक्रम [१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है । • अरिहंत आदि चत्वारः मंगलत्वं, उत्तमत्वं एवं शरणत्वस्य सकारणानि वर्णयते ~1142~ Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५७०॥ उघघायं परघाऊसासविहगइ पसत्था । तसवायरपजत्तग पत्तेयथिराथिराई च ॥६॥ मुंभमुज्जोयं सुभगं सुसरं आदेज प्रतिक्रमतह य जसकित्ती । तत्तो णिम्भिणतित्थगर णामपगई समेयाई॥७॥ तत्तो उच्चागोयं चोत्तीसेहिं सह उदय- सणा०चतुभावहिं । ते उत्तमा पहाणा अणण्णतुला भवंतीह ॥ ८॥ उपसमिए पुण भावो अरहताणं ण बिजाई सो हु। खाइग-| द लोकोत्तमा. भावस्स पुणो आवरणाणं दुवेण्हंपि ॥ ९॥ तह मोहअंतराई णिस्सेसखयं पडुच्च एएसिं । भावखए लोगस्स उ भवंति ते उत्तमा णियमा ॥१०॥ हवाइ पुण सन्निवाए उदयभावे हु जे भणियपुध । अरहताणं ताणं जे भणिया खाइगा भावा ॥११॥ तेहि सया जोगेणं णिप्फजइ सण्णिवाइओ भावो । तस्सवि य भावलोगस्स उत्तमा हुति णियमेणं ॥१२॥ सिद्धाः-प्राग्निरूपितशब्दार्था एव, तेऽपि च क्षेत्रलोकस्य क्षायिकभावलोकस्य वोत्तमा:-प्रधानाः लोकोत्तमाः, तथा चोक्तम्-'लोउत्तमत्ति सिद्धा ते उत्तमा होति खित्तलोगस्स । तेलोकमत्थयत्था जं भणियं होइ ते णियमा ॥१॥ [सू.] दीप अनुक्रम [१३] 545645464546430 ||५७०॥ उपचातं पराधातोच्चासौ विहायोगतिः प्रास्ता । ब्रसवादरपर्याप्तकाः प्रत्येकस्थिरास्थिराणि ॥६॥ शुभमुधोतं सुभगं सुखरं चादे यंतथाच प्रभवति यशःकीर्चिः । ततो निर्माण तीबैंकरस्वं नामप्रकृवयस्तस्यैताः ॥ ७॥ तत उच्चैगोंधे चतुस्त्रिंशता सहायिकभावैः । ते उत्तमाः प्रधाना अनन्यतुल्या | भवन्तीह ॥ ८॥ श्रीपश मिकः पुनर्भावोऽईतां न विद्यते सः । क्षायिकभावस्य पुनरावरणायोईयोरपि ॥९॥ तथा मोदान्तरायौ निःशेषक्षयं प्रतीत्येतेषाम् । भावे क्षायिके लोकस्य तु भवन्ति ते ३त्तमा नियमात् ॥ १०॥ भवति पुनः सानिपातिके औदायिकमाये ये भणितपूर्वाः । आईतां तेषां ये भणिताः क्षायिका | भावाः ॥1॥ः सदा योगेन निष्पचते सामिपातिको भावः । तस्यापि च भावलोकस्योत्तमा भवन्ति नियमेन ॥ १२॥ कोकोसमा हति सिद्धासे उत्तमा भवन्ति क्षेत्रलोकस्य । जैलोक्यमस्तकस्था यद्भणितं भवति ते नियमात् ॥१॥ *सुभभगमुस्खरं वा प्र०. %-25 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1143~ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक । [सू.] दीप अनुक्रम [१४] हिस्सेसकम्मपगडीण वावि जो होइ खाइगो भावो । तस्सवि हु उत्तमा ते सवपयडिवजिया जम्हा ॥२॥साधवः-प्रारनिरूपितशब्दार्था एव, ते च दर्शनज्ञानचारित्रभावलोकस्य उत्तमाः-प्रधाना लोकोत्तमाः, तथा चोक्तम्-'लोगुत्तमत्ति साहू पडुच्च ते भावलोगमेयं तु । दसणनाणचरित्ताणि तिण्णि जिणइंदभणियाणि ॥१॥ केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः-प्राग्निरूपितशब्दार्थः, सच क्षायोपशमिकोपशमिकक्षायिकभावलोकस्योत्तमः-प्रधानः लोकोत्तमः, तथा चोक्तम्-'धम्मो सुत चरणे या दुहावि लोगुत्तमोत्ति णायचो । खओवसमिओवसमियं खइयं च पडुच्च लोग तु ॥१॥ यत एव लोकोत्तमा अत एव शरण्या:, तथा चाऽऽह-'चत्तारि सरणं पवजामि' अथवा कथं पुनलोंकोत्तमत्वम् !, आश्रयणीयत्वात् , आश्रयणीयत्वमुपदर्शयन्नाह चत्तारि सरणं पवनामि अरिहन्ते सरणं पवजामि सिद्धे सरणं पवजामि साह सरणं पवजामि केव-16 लिपपणतं धम्म सरणं पवज्जामि'। (सू०) चत्या(तुरः संसारभयपरित्राणाय 'शरणं प्रपद्ये आश्रयं गच्छामि, भेदेन तानुपदर्शयन्नाह-अरिहंते' त्यादि, अर्हतः। 'शरणं प्रपद्ये सांसारिकदुःखशरणायाहत आश्रयं गच्छामि, भक्तिं करोमीत्यथः, एवं सिद्धान् शरणं प्रपद्ये, साधून शरणं प्रपद्ये, केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये। इत्थं कृतमङ्गलोपचारःप्रकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमाह'इच्छामि पडिक्कमि जो मे देवसिओ अइआरो कओ, काइओ वाइओ माणसिओ, उस्सुत्तो उम्मग्गो निश्शेषकर्मप्रकृतीनां वापि यो भवति माविको भावः । तखाप्युतमारते सर्वप्रकृतिविजिता यमात् ॥१॥२लोकोतमा इति साधवः प्रतीष ते भावलोकमेन तु । दर्शन ज्ञानचारित्राणि श्रीणि जिनेन्द्रणितानि ॥१॥३ धर्मः श्रुतं चरणं च द्विधापि लोकोत्तम इति ज्ञातव्यः । क्षायोपशमि कीपशमिको क्षायिक च प्रतीक्षष होकम् ॥1॥ त्राणाय प्र.. ___... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। * दैवसिक अतिचार संबंधी प्रतिक्रमणसूत्र तथा तस्य विशद व्याख्या ~1144 ~ Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया अतिक्रमणाध्य. प्रत सूत्रांक [सू.] ॥५७१॥ - अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियब्यो असमणपाउग्गो नाणे दंसणे चरिते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउहं कसायाणं पंचण्डं महब्वयार्ण छहं जीवणिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अहण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीर्ण दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडिअं| जं चिराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं। (सू०) इच्छामि प्रतिक्रमितुं यो मया देवसिकोऽतिचारः कृत इत्येवं पदानि वक्तव्यानि, अधुना पदार्थः-इच्छामि-अभिलपामि प्रतिक्रमितुं-निवर्तितुं, कस्य य इत्यतिचारमाह-मयेत्यात्मनिर्देशः, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः, अतिक्रम इत्यर्थः, कृतो-निर्वर्तितः, तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, मिच्छामि दुकर्ड' अनेन | तु निष्ठाकालमिति भावना, स पुनरतिचारः उपाधिभेदेनानेकधा भवति, अत एवाह-कायेन-शरीरेण निवृत्तः कायिकः कायकृत इत्यर्थः, वाचा निर्वृत्तो वाचिकः-वाकृत इत्यर्थः, मनसा निवृत्तो मानसः, स एव 'मानसि'त्ति मनाकृत इत्यर्थःऊर्व सूत्रादुरसूत्रः सूत्रानुक्त इत्यर्थः, मार्गःक्षायोपशमिको भावः, ऊर्च मार्गादुम्मार्गः, क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिक, भावसङ्कम इत्यर्थः, कल्पनीयः न्यायः कल्पो विधिः आचारः कल्प्यः-चरणकरणब्यापारः न कल्प्यः-अकल्प्यः, अतः दूप इत्यर्थः, करणीयः सामान्येन कर्तव्यः न करणीयः-अकरणीयः, हेतुहेतुमद्भावश्चात्र, यत एवोत्सूत्रः अत एवोन्मार्ग इत्यादि, उक्तस्तावत्कायिको वाचिकश्च, अधुना मानसमाह-दुष्टो ध्यातो दुर्ध्यातः-आतरौद्रलक्षण एकाग्रचित्ततया, दुष्टो विचिन्तितो दुर्विचिन्तितः-अशुभएव चलचित्तया, यत एवेत्थम्भूतः अत एवासी न श्रमणप्रायोग्यः अश्रमणप्रायोग्यः तप दीप अनुक्रम [१५] 2-56RX - ॥५७१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~1145~ Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [१५] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७० ...] भाष्यं [ २०४...], स्व्यनुचित इत्यर्थः यत एवाश्रमणप्रायोग्योऽत एवानाचारः, आचरणीयः आचारः न आचारः अनाचारः - साधूनामनाचरणीयः, यत एव साधूनामनाचरणीयः अत एवानेष्टव्यः - मनागपि मनसाऽपि न प्रार्थनीय इति, किं विषयोऽयमतिचार इत्याह'णाणे दंसणे चरिते' ज्ञानदर्शनचारित्रविषयः, अधुना भेदेन व्याचष्टे - 'सुए 'त्ति श्रुतविषयः, श्रुतग्रहणं मत्यादिज्ञानोपलक्षणं, तत्र विपरीतप्ररूपणाऽकालस्वाध्यायादिरतिचारः 'सामाइय (ए) त्ति सामायिकविषयः, सामायिकग्रहणात् सम्यक्त्वसा| मायिकचारित्र सामायिकग्रहणं, तत्र सम्यक्त्व सामायिकातिचारः शङ्कादिः, चारित्रसामायिका तिचारं तु भेदेनाह- 'तिन्हं गुत्तीणमित्यादि, तिसृणां गुप्तीनां तत्र प्रविचाराप्रविचाररूपा गुप्तयः, चतुर्णां कषायाणां - क्रोधमानमाया लोभानां, पञ्चानां महात्रतानां प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानां षण्णां जीवनिकायानां पृथिवीकायिकादीनां सप्तानां पिण्डेषणानां - असंसृष्टादीनां ताश्चेमाः 'संसद्धमसंसट्टा उद्धड तह होइ अप्पलेवा य। उग्गहिआ पग्गेहिआ उज्झिय तह होइ सत्तमिआ ॥ १ ॥' व्याख्या— तत्रासंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्त्या, ''असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मत्ते, अखरडियमिति वृत्तं भवइ' एवं गृह्णतः प्रथमा भवति, गाथायां सुखमुखोच्चारणार्थमन्यथा पाठः, संसृष्टा ताभ्यामेव चिन्त्या, 'संसङ्के हत्थे संसठ्ठे मत्ते, खरडिइत्ति वृत्तं होइ, एवं गृह्णतो द्वितीया, उद्धृता नाम स्थालादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धृतं, ततः 'असंसट्टे हत्थे असंस मत्ते असंसट्टे वा मते संसद्वे हत्थे' एवं गृह्णतस्तृतीया, अल्पलेपा नाम अल्पशब्दोऽभाववाचकः निर्लेप-पृथुकादि गृहत १ असंसृष्टशे हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं अखरष्टितं इत्युक्तं भवति. २ संसृष्टो हतो संसृष्टं मात्र खरण्डितं इत्युक्तं भवति. ३ असंसृष्टो इस्तो असंसृष्टं मात्रं असंसृष्टं वा मात्र संसृष्टो हतो नेन प्र०. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1146 ~ Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७०...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्य. प्रत सूत्रांक [सू.] ॥५७२॥ चतुर्थी, अवगृहीता नाम भोजनकाले शरावादिपूपहितमेव भोजनजातं ततो गृहृतः पञ्चमी, प्रगृहीता नाम भोजन- लायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीतं योजनजातं भो(भुक्त्वा वा स्वहस्तादिना तद्गृहत इति भावना पष्ठी, उज्झित- धर्मा नाम यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्गन्ति तदर्द्धत्यक्तं वा गृहत इति हृदयं सप्तमी, एष खलु समासार्थः, व्यासार्थस्तु ग्रन्थान्तरादवसेयः, सप्तानां पानैषणानां केचित् पठन्ति, ता अपि चैवम्भूता एव, नवरं चतुझं नानात्वं, तत्राप्यायामसौवीरादि निलेपं विज्ञेयमिति, अष्टानां प्रवचनमात्रणां, ताश्चाष्टौ प्रवचनमातर:-तिम्रो गुप्तयः तथा पञ्च समितयः, तत्र प्रवीचाराप्रवीचाररूपा गुप्तयः, समितयः प्रवीचाररूपा एव, तथा चोक्तम्-“समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणमि भइयो । कुसलवइमुदीरितो जं वयगुत्तोऽपि समिओऽवि॥१॥" नवानां ब्रह्मचर्यगुप्तीना-वसतिकथादीनाम्, आसां स्वरूपमुपरिष्टावक्ष्यामः, दशविधे-दशप्रकारे श्रमणधर्मे-साधुधर्मे क्षान्त्यादिके, अस्यापि | स्वरूपमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः, अस्मिन् गुस्यादिषु च ये श्रामणा योगा:-श्रमणानामेते श्रामणास्तेषां श्रामणानां योगाना-व्यापा-| राणां सम्यक्प्रतिसेवनश्रद्धानप्ररूपणालक्षणानां यत् खण्डितं-देशतो भग्नं यद्विराधित-सुतरां भग्नं, न पुनरेकान्ततोऽभा-1 वमापादितं, तस्य खण्डनविराधनद्वाराऽऽयातस्य चारित्रातिचारस्यैतद्गोचरस्य ज्ञानादिगोचरस्य च दैवसिकातिचारस्य, एतावता क्रियाकालमाह, तस्यैव 'मिच्छामि दुक्कडं' इत्यनेन तु निष्ठाकालमाह, मिथ्येति-प्रतिक्रमामि दुष्कृतमेतदकर्तव्यमित्यर्थः, अत्रेयं सूत्रस्पर्शिकगाथा समितो नियमालो गुप्तः समितत्वे भक्तव्यः । कुशलवाचमुदीरयन् याचोगुप्तोऽपि समितोऽपि ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५] ARYANA ५७२।। 4440-40 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1147~ Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक पडिसिद्धार्ण करणे किचाणमकरणे य पडिकमणं । असद्दहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य ॥१२७१ ॥ व्याख्या-'प्रतिषिद्धानां निवारितानामकालस्वाध्यायादीनामतिचाराणां 'करणे निष्पादने आसेवन इत्यर्थः, किंप्रतिक्रमणमिति योगः, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणमिति व्युत्पत्तेः, 'कृत्यानाम् आसेवनीयानां कालस्वाध्यायादीनां योगानाम् 'अकरणे' अनिष्पादनेऽनासेवने प्रतिक्रमणम् , अश्रद्धाने च तथा केवलिप्ररूपितानां पदार्थानां प्रतिक्रमणमिति वर्तते, विपरीतप्ररूपणायां च अन्यथा पदार्थकथनायां च प्रतिक्रमणमिति गाथार्थः ॥ १२७१ ॥ अनया च गाथया यथायोग सर्वसूत्राण्यनुगन्तव्यानि, तद्यथा-सामायिकसूत्रे प्रतिषिद्धी रागद्वेषौ तयोः करणे कृत्यस्तु तन्निग्रहस्तस्याकरणे सामा[यिकं मोक्षकारणमित्यश्रद्धाने असमभावलक्षणं सामायिकमिति विपरीतप्ररूपणायां च प्रतिक्रमणमिति, एवं मङ्गलादिसूत्रेयप्यायोग्य, चत्वारो मङ्गलमित्यत्र प्रतिषिद्धोऽमङ्गलाध्यवसायस्तत्करण इत्यादिना प्रकारेण, एवमोघातिचारस्य समासेन प्रतिक्रमणमुक्तं, साम्प्रतमस्यैव विभागेनोच्यते, तत्रापि गमनागमनातिचारमधिकृत्याऽऽह| इच्छामि पडिकमि इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे पाणकमणे धीयक्कमणे हरिपकमणे ओसा-13 उत्तिंगपणगदगमहिमकडासंताणासंकमणे जे मे जीवा विराहिया एगिदिया बेईदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचिंदिआ अभिहआ वत्तिआ लेसिआ संघाइआ संघट्टिआ परिआविआ किलामिआ उद्दविआ ठाणाओ। ठाणं संकामिआ जीविआओ ववरोविआ तस्स मिच्छामि दुकाई ॥ (सू०) अस्य व्याख्या-इच्छामि-अभिलपामि प्रतिक्रमितुं-निवर्तितुम् , ईर्यापथिकायां विराधनायां योऽतिचार इति गम्यते, 59-2-5628450566 दीप अनुक्रम [१६] ACIRCASESAX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ** "ईर्यापथ-प्रतिक्रमण" मूलसूत्र एवं तस्य विशद् व्याख्या ~1148~ Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝ྄མྦྷོཡྻ [सू.] अनुक्रम [१६] आवश्यकहारिभद्रीया ॥५७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, 'मिच्छामि दुकडे' इत्यनेन तु निष्ठाकालमिति, तत्रेरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः तत्र भवर्यापथिकी तस्यां कस्यामित्यत आह-विराध्यन्ते-दुःखं स्थाप्यन्ते प्राणिनोऽनयेति विराधनाक्रिया तस्यां विराधनायां सत्यां योऽतिचार इति वाक्यशेषः, तस्येति योगः, विषयमुपदर्शयन्नाह-गमनं चागमनं चेत्येकवद्भावस्तस्मिन् तत्र गमनं स्वाध्यायादिनिमित्तं वसतेरिति, आगमनं प्रयोजन परिसमाप्तौ पुनर्वस तिमेवेति तत्रापि यः कथं जातोऽतिचार इत्यत आह-'पाणकमणे' प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयस्त्रसा गृह्यन्ते तेषामाक्रमणं - पादेन पीडनं प्राण्याक्रमणं, तस्मिन्निति, तथा बीजाक्रमणे, अनेन बीजानां जीवत्वमाह, हरिताक्रमणे, अनेन तु सकलवनस्पतेरेव, तथाऽवश्यायोत्तिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानसङ्क्रमणे सति तत्रावश्यायः- जलविशेषः, इह चावश्यायग्रहणमतिशयतः शेषजलसम्भोगपरिवारणार्थमिति, एवमन्यत्रापि भावनीयं, उत्तिङ्गा-गर्दभाकृतयो जीवाः कीटिकानगराणि वा पनकः - फुल्लि दगमृत्तिकाचिक्खलम्, अथवा दकग्रहणादष्कायः मृत्तिकाग्रहणात् पृथ्वीकायः, मर्कटसन्तानः कोलिकजालमुच्यते, ततश्चावश्यायश्रोत्तिङ्गश्चेत्यादि द्वन्द्वः, अवश्यायोतिङ्गपनकदगमृत्तिकामर्कटसन्तानास्तेषां सङ्क्रमणं - आक्रमणं तस्मिन् किं बहुना !, कियन्तो भेदेनाऽऽख्यास्यन्ते ?, सर्वे ये मया जीवा विराधिता - दुःखेन स्थापिताः, एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः, द्वीन्द्रिया:- कृम्यादयः, त्रीन्द्रियाः- पिपीलिकादयः, चतुरिन्द्रिया-भ्रमरादयः, पञ्चेन्द्रिया- मूषिकादयः, अभिहता-अभिमुख्येन हताः, चरणेन घट्टिताः, उत्क्षिप्य क्षिप्ता वा, वर्तिताः-पुञ्जीकृताः, धूल्या वा स्थगिता इति, श्लेषिताः- पिष्टाः, भूम्यादिषु वा लगिताः, *किंविशिष्टाया प्र० + अभिमुखागता. ४प्रतिक्रमणाध्य. ~ 1149~ ॥५७३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक -9602562-%%* 11 [सू.] सङ्घातिता-अन्योऽन्यं गात्रैरेकत्र लगिताः, सङ्घट्टिता-मनाक् स्पृष्टाः, परितापिताः-समन्ततः पीडिताः, क्लामिता:-समुद्घातं नीताः ग्लानिमापादिता इत्यर्थः, अवद्राविता-उत्रासिताः स्थानात् स्थानान्तरं सङ्गमिताः स्वस्थानात् परं स्थानं नीताः, जीविताद् व्यपरोपिताः, व्यापादिता इत्यर्थः, एवं यो जातोऽतिचारस्तस्य, एतावता क्रियाकालमाह, तस्यैव 'मिच्छामि दुकर्ड' इत्यनेन निष्ठाकालमाह, मिथ्या दुष्कृतं पूर्ववद्, एवं तस्येत्युभययोजना सर्वत्र कार्यो । इत्थं गमनातिचारप्रतिक्रमणमुक्तम्, अधुना त्वग्वर्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्ताह इच्छामि पडिकमिङ पगामसिज्जाए निगामसिजाए संथाराउब्वट्टणाए परिवहणाए आउंटणपसारणाए छप्पइसंघट्टणाए कहए कक्कराइए छिइए जंभाइए आमोसेससरक्खामोसे आउलमाउलाए सोअणवत्तिआए इत्धीविपरिआसिआए दिट्टीविपरिआसिआए मणविपरिआसिआए पाणभोयणविप्परिआसिआए जो मे देवसिओ अइआरो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ (मू०) ___ अस्य व्याख्या-इच्छामि प्रतिक्रमितुं पूर्ववत्, कस्येत्याह-प्रकामशय्यया हेतुभूतया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमाह, 'मिच्छामि दुक्कड' इत्यनेन तु निष्ठाकालमेवेति भावना, एवं सर्वत्र योजना कार्येति, काशीइ स्वप्ने अस्य यप्रत्ययान्तस्य 'कृत्यल्युटो बहुल'(पा०३-३-११३)मिति वचनात् शयनं शय्या प्रकाम-चातुर्यामं शयन | प्रकामशय्या शेरतेऽस्यामिति वा शय्या-संस्तारकादिलक्षणा प्रकामा-उत्कटा शय्या प्रकामशय्या-संस्तारोत्तरपट्टकातिरिक्ता प्रावरणमधिकृत्य कल्पत्रयातिरिक्ता वा तया हेतुभूतया, स्वाध्यायाधकरणतश्चेहातिचारः,प्रतिदिवसं प्रकामशय्यैव निकाम दीप अनुक्रम [१७] 5:45 - 12- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है । • मूल प्रतिक्रमणसूत्र “पगामसज्झाय" मूल एवं तस्य अति विषद् व्याख्या ~1150~ Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [१७] आवश्यकहारिभद्रीया १५७४॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], शय्योच्यते तया हेतुभूतया, अत्राप्यतिचारः पूर्ववत्, उद्वर्तनं तत्प्रथमतया वामपार्श्वेन सुप्तस्य दक्षिणपार्श्वेन वर्तनमुद्वर्तनमुद्वर्तनमेवोद्वर्तना तथा परिवर्तनं पुनर्वामपार्श्वेनैव वर्तनं तदेव परिवर्तना तथा अत्राप्यप्रमृज्य कुर्वतोऽतिचारः, आकुञ्चनं- ४ गात्रसङ्कोच लक्षणं तदेवाकुञ्चना तथा प्रसारणम्-अङ्गानां विक्षेपः तदेव प्रसारणा तथा, अत्र च कुकुट्टिदृष्टान्तप्रतिपा- * | दितं विधिमकुर्वतोऽतिचारः, तथा चोक्तम्- 'कुक्कुडिपायपसारे जह आगासे पुणोवि आउंटे । एवं पसारिकणं आगासि पुणोवि आउंटे ॥ १ ॥ अइकुंडिय सिय ताहे जहियं पायरस पहिया ठाइ । तहिथं पमजिऊणं आगासेणं तु णेऊणं ॥ २ ॥ पार्य ठावितु तहिं आगासे चेव पुणोवि आउंटे । एवं विहिमकरेंते अइयारो तस्थ से होइ ॥ ३ ॥ पट्र्पदिकानां - यूकानां सङ्घट्टनम् - अविधिना स्पर्शनं षट्पदिका सङ्घट्टनं तदेव षट्पदिका सङ्घट्टना तथा, तथा 'कूइए' ति कूजिते सति योऽतिचारः, कूजितं कासितं तस्मिन् अविधिना मुखवत्रिकां करं वा मुखेऽनाधाय कृत इत्यर्थः, विषमा धर्मवतीत्यादिशय्यादोषो चारणं सकर्करायितमुच्यते तस्मिन् सति योऽतिचारः, इह चाऽऽर्तध्यानजोऽतिचारः, श्रुते-अविधिना जृम्भितेऽविधिनैव आमर्पणम् आमर्षः- अप्रसृज्य करेण स्पर्शनमित्यर्थः तस्मिन् सरजस्कामर्षे सति, सह पृथिव्यादिरजसा यद्वस्तु स्पृष्टं तत्संस्पर्श सतीत्यर्थः एवं जाग्रतोऽतिवारसम्भवमधिकृत्योत्कम्, अधुना सुप्तस्योच्यते- 'आउल माउलाए 'त्ति आकुलाकुलया-ख्यादिपरिभोगविवाहयुद्धादिसंस्पर्शननानाप्रकारया स्वमप्रत्ययया-स्वप्ननिमित्तया, विराधनयेति गम्यते सा पुनर्मू कुकुटी पादौ प्रसारयेत् यथाऽऽकाशे पुनरप्याकुञ्चयेत्। एवं प्रसार्यांकाशे पुनरप्याशयेत् ॥ १ ॥ अतिवाधितं स्यात्तदा यत्र पादस्य पाणिका तिष्ठति । तत्र प्रमाकाशे तु नीत्वा ॥ २ ॥ पाई स्थापयित्वा तत्राकाश एवं पुनरप्याकुचयेत्। एवं विधिमकुर्वत्यविचारस्तत्र तस्य भवति ॥ ३ ॥ ४प्रतिक्रम णाध्य. ~ 1151 ~ ॥५७४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम लोत्तरगुणातिचारविषया भवत्यतो भेदेन तां दर्शयन्नाह-'इत्थीविपरियासियाए'त्ति खिया विपर्यासः खीविपर्यासः-अ-1 ब्रह्मासेवनं तस्मिन् भवा स्त्रीवैपर्यासिकी तया, स्त्रीदर्शनानुरागतस्तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् भवा दृष्टिवैपर्यासिकी तया, एवं मनसाऽध्युपपातो मनोविपर्यासः तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी तया, एवं पानभोजनवैपर्या सिक्या, | रात्री पानभोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः, अनया हेतुभूतया य इत्यतिचारमाह, मयेत्यात्मनिर्देशः, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः अतिक्रम इत्यर्थः, कृतो-निवर्तितः 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' पूर्ववत्, दाआह-दिवा शयनस्य निषिद्धत्वादसम्भव एवास्यातिचारस्य, न, अपवादविषयत्वादस्य, तथाहि-अपवादतः सुष्यत एव दिवा अध्वानखेदादी, इदमेव वचनं ज्ञापकम् ॥ एवं त्वग्वर्तनास्थानातिचारप्रतिक्रमणमभिधायेदानी गोचरातिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाऽऽह| पडिक्कमामि गोयरचरियाए भिक्खायरियाए उग्घाडकवाडउग्घाडणाए साणावच्छादारासंघहणाए मंडीपाहुडिआए पलिपाहुडिआए ठवणापाहुडिआए संकिए सहसागारिए अणेसणाए पाणभोषणाए बीयभोयणाए हरियभोयणाए पच्छेकम्मियाए पुरेकम्मियाए अदिङहडाए दगसंसहहडाए रयसंसट्ठहडाए पारिसाडणियाए पारिठावणिआए ओहासणभिक्खाए जं उग्गमेणं उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं परिगहियं परिभुतं चा जं न परिविअं तस्स मिच्छामि दुकाडं ॥ (स०) अस्य व्याख्या-प्रतिक्रमामि-निवर्तयामि, कस्य !-गोचरचर्यायां-भिक्षाचर्यायां, योऽतिचार इति गम्यते, तस्येति [१८] --94 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग में मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है । .. "गौचरी" गोचरचर्या विषयक अतिचारस्य प्रतिक्रमण-वर्णनं ~1152~ Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रमणाध्य. हारिभ. द्रीया प्रत सूत्रांक ॥५७५|| योगः, गोश्चरणं गोचरः चरण-चर्या गोचर इव चर्या गोचरचर्या तस्यां गोचरचर्यायां, कस्यां !-भिक्षार्थं चर्या भिक्षा- चर्या तस्यां, तथाहि-लाभालाभनिरपेक्षः खल्वदीनचित्तो मुनिरुत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विष्टानिष्टेषु वस्तुषु रागद्वेषावगच्छन् भिक्षामटतीति, कथं पुनस्तस्यामतिचार इत्याह-'उग्घाडकवाड उम्घाडणाए' उद्घाटम्-अदत्तार्गलमीषतस्थगितं वा किं तत् -कपाट तस्योद्घाटनं-सुतरां प्रेरणम् उद्घाटकपाटोद्घाटनम् इदमेवोद्घाटकपाटोद्घाटना तया हेतुभूतया, | इह चाप्रमार्जनादिभ्योऽतिचारः, तथा श्वानवत्सदारकसहनयेति प्रकटार्थ, मण्डीमाभृतिकया बलिप्राभृतिकया स्थाप-1 नाप्राभूतिकया, आसां स्वरूप-'मंडीपाहुडिया साहुमि आगए अम्गकूरमंडीए । अण्णमि भायणमि व काउं तो देइ साहुस्स ॥१॥ तत्थ पवत्तणदोसो ण कप्पए तारिसा सुविहियाण । बलिपाहुडिया भण्णइ चउद्दिसि काउ अचणियं ॥२॥ |अग्गिमि व छोणं सित्थे तो देइ साहुणो भिक्खं । सावि ण कप्पड ठवणा (जा) भिक्खायरियाण ठविया उ ॥३॥ |आधाकर्मादीनाम्-उद्गमादिदोषाणामन्यतमेन शढ़िते गृहीते सति योऽतिचारः, सहसाकारे वा सत्यकल्पनीये गृहीत इति, अन च तमपरित्यजतोऽविधिना वा परित्यजतो योऽतिचारः, अनेन प्रकारेणानेषणया हेतुभूतया, तथा 'पाणभो-| यणाए'त्ति प्राणिनो-रसजादयः भोजने-दध्योदनादौ सचन्ते-विराध्यन्ते ब्यापाद्यन्ते वा यस्यां प्राभूतिकायां सा| दीप अनुक्रम [१८] CSCIRSAGAR ॥५७५|| मण्डिमाभूत्तिका साधावागते प्ररमण्यै । अपमिन भाजने वा कृत्वा ततो ददाति साधये ॥1॥ प्रवर्तनदोषो न कल्पते ताशी सुविहितानाम् । बलियाभूतिका भव्यते चतुर्दिशं कृत्वाऽनिकाम् ॥ ३ ॥ अनौ वा क्षिया सिक्थान ततो पदाति साधचे भिक्षाम् । साऽपि न कल्पते स्थापना(या). भिक्षाचरेभ्यः स्थापिता ॥ ३ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1153~ Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] प्राणिभोजना तया, तेषां च सङ्घटनादि दातृग्राहकप्रभवं विज्ञेयम्, अत एवातिचारः, एवं 'बीयभोयणाए' वीजानि भोजने यस्यां सा बीजभोजना तया, एवं हरितभोजनया, 'पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मियाए' पश्चात् कर्म यस्यां पश्चाज-12 दलोज्झनकर्म भवति पुरःकर्म यस्यामादाविति, 'अदिहिडाएत्ति अदृष्टाहृतया-अदृष्टोत्क्षेपमानीतयेत्यर्थः, तत्र च सत्त्व सहाहनादिनाऽतिचारसम्भवो, दगसंसृष्टाहृतया-उदकसम्बद्धानीतया हस्तमात्रगतोदकसंसृष्टया वा भावना, एवं रजः संसृष्टाहतया, नवरं रजः पृथिवीरजोऽभिगृह्यते, 'पारिसाडणियाए'त्ति परिशाटः-उज्झनलक्षणः प्रतीत एव तस्मिन् भवा पारिशाटनिका तया, 'पारिष्ठावणियाए'त्ति परिस्थापन-प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्झनलक्षणं तेन निवृत्ता पारिस्थाप|निका तया, एतदुक्तं भवति-'पारिठावणिया खलु जेण भाणेण देइ भिक्खं तु । तमि पडिओयणाई जातं सहसा परिङवियं ॥१॥ 'ओहासणभिक्खाएत्ति विशिष्टद्रव्ययाचनं समयपरिभाषया 'ओहासणंति भण्णई' तत्प्रधाना या भिक्षा तया, कियदत्र भणिष्यामो ?, भेदानामेवंप्रकाराणां बहुत्वात् , ते च सर्वेऽपि यस्मादुद्गमोत्पादनैषणास्ववतरन्त्यत आहIN उग्गमेण' मित्यादि, यत्किञ्चिदशनाद्युद्गमेन-आधाकर्मादिलक्षणेन उत्पादनया-धाच्यादिलक्षणया एपणया-शविता दिलक्षणया अपरिशुद्धम्-अयुक्तियुक्तं प्रतिगृहीतं वा परिभुक्तं वा यन्न परिछापित, कथश्चित् प्रतिगृहीतमपि यन्नोज्झितं परिभुक्तमपि च भावतोऽपुनःकरणादिना प्रकारेण यन्नोज्झितम् , एवमनेन प्रकारेण यो जातोऽतिचारस्तस्य मिध्या |दुष्कृतमिति पूर्ववत् ॥ एवं गोचरातिचारप्रतिक्रमणमभिधायाधुना स्वाध्यायाधतिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाऽऽह पारिस्थापनिका खलु येन भाजनेन ददाति भिक्षा तु । तस्मिन् पतितौदनादि जासं सहसा परिस्थापितम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1154~ Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [१९] *** ** आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], आवश्यक - * पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए उभओकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणयाए दुप्पडिलेहारिभ- हणयाए अप्पमजणार दुप्पमलणाए अइकमे वइक्कमे अइयारे अणायारे जो मे देवसिओ अइआरो कओ तस्स मिच्छामि दुकडं ॥ (सू० ). द्वीया ॥४५७६॥ अस्य व्याख्या -- प्रतिक्रमामि पूर्ववत् कस्य ? - चतुष्कालं दिवसरजनी प्रथमचरमप्रहरेष्वित्यर्थः, स्वाध्यायस्य-सूत्रपौरुषीलक्षणस्य, अकरणतया अनासेवनया हेतुभूतयेत्यर्थः, यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्येति योगः, तथोभयकाल- प्रथमपश्चिमपौरुपीलक्षणं भाण्डोपकरणस्य पात्रवखादेः 'अप्रत्युपेक्षणया दुष्प्रत्युपेक्षणया' तत्राप्रत्युपेक्षणा-मूलत एव चक्षुपाऽनिरीक्षणा दुष्प्रत्युपेक्षणा- दुर्निरीक्षणा तया, 'अप्रमार्जनया दुष्प्रमार्जनया' तत्राप्रमार्जना मूलत एव रजोहरणादिनाऽस्पर्शना दुष्प्रमार्जना त्वविधिना प्रमार्जनेति, तथा अतिक्रमे व्यतिक्रमे अतिचारे अनाचारे यो मया दैवसिकोडतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमित्येतत्प्राग्वत्, नवरमतिक्रमादीनां स्वरूपमुच्यते- 'आधाकम्मनिमंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइकम गहिए तइएयरो गिलिए ॥ १ ॥ अस्य व्याख्या - आधाकर्मनिमन्त्रणे गृहीध्ये एवं प्रतिशृण्वति सति साधावतिक्रमः साधुक्रियोलङ्घनरूपो भवति, यत एवम्भूतं वचः श्रोतुमपि न कल्पते, किं पुनः प्रतिपत्तुं ?, ततःप्रभृति भाजनोद्रहणादौ तावदतिक्रमो यावदुपयोगकरणं, ततः कृते उपयोगे गच्छतः पदभेदादिर्व्यतिक्रमस्तावद् यावदुत्क्षितं भोजनं दात्रेति, ततो गृहीते सति तस्मिंस्तृतीयः, अतिचार इत्यर्थः तावद् यावद्वसतिं गत्वेर्यापथ 1 आधा कर्मनिमन्त्रणे प्रतिशृण्वति अतिक्रमो भवति । पद्भेदादि व्यतिक्रमरे गृहीते तृतीय इतरो गिलिते ॥ १ ॥ ४ प्रतिक्रम णाध्य. ~ 1155 ~ ॥ ५७६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ४० ], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः यहां मैने उपर हेडिंग मे मूलं के साथ [काँस मे] 'सू' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोइ क्रम नहि दिया है । चतुष्काल स्वाध्यायस्य अकरणं आदेः अतिचारस्य प्रतिक्रमणं Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] AMRORG दीप अनुक्रम [२०] प्रतिक्रमणाद्युत्तरकालं लम्बनोत्क्षेपः, तत उत्तरकालमनाचारः, तथा चाह-इतरो गिलिए'त्ति प्रक्षिप्ते सति कवले अनाचार इति गाथार्थः ॥ इदं चाधाकर्मोदाहरणेन सुखप्रतिपत्त्यर्थमतिक्रमादीनां स्वरूपमुक्तम् , अन्यत्राप्यनेनैवानु सारेण विज्ञेयमिति । अयं चातिचारः संक्षेपत एकविधः, संक्षेपविस्तरतस्तु द्विविधः त्रिविधो यावदसवयेयविधः, संक्षेप-13 दाविस्तरता पुनदि विधः त्रिविधं प्रति संक्षेप, एकविधं प्रति विस्तर इति, एवमन्यत्रापि योज्यं, विस्तरतस्त्वनन्तविधः, तत्रैक-16 विधादिभेदप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाह पडिकमामि एगविहे असंजमे। पडिकमामि दोहिं बन्धणेहि-रागबंधणणं दोसबन्धणेणं । पतिहिं दण्डहिंमणदंडेणं वपदंडेणं कायदंडेणं । प० तिहिं गुत्तीहि-मणगुत्तीए वयगुत्तीए कायगुत्तीए ॥ (सूत्रम् ) | प्रतिक्रमामि पर्ववत्, एकविधे-एकप्रकारे असंयम-अविरतिलक्षणे सति प्रतिपिद्धकरणादिना यो मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते, तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति सम्बन्धः, वक्ष्यते च-'सज्झाए ण सज्झाइयं तस्स मिच्छामि दुकर्ड' एवमन्यत्रापि योजना कर्तव्या, प्रतिक्रामामि द्वाभ्यां बन्धनाभ्यां हेतुभूताभ्यां योऽतिचारः, वयतेऽष्टविधेन कर्मणा येन | हेतुभूतेन तद्वन्धनमिति, तद्वन्धनद्वयं दर्शयति-रागबन्धनं च द्वेषबन्धनं च, रागद्वेषयोस्तु स्वरूपं यथा नमस्कारे, बन्धनत्वं चानयोः प्रतीतं, यथोक्तम्-स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य रेणुना लिप्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषाक्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥१॥'प्रतिक्रमामि त्रिभिर्दण्डैः' दण्ड्यते-चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रच्यभावभेद-पटू |भिन्नाः, भावदण्डैरिहाधिकारः, तैर्हेतुभूतैर्योऽतिचारः, भेदेन दर्शयति-मनोदण्डेन वाग्दण्डेन कायदण्डेन, मनःप्रभृति 956056 % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग में मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है । .. एकविध आदि भेदानां त्रयस्त्रिंशत् पर्यंतानां प्रतिक्रमणं ~1156~ Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२०] आवश्यक हारिभद्रीया ॥५७७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], भिश्च दुष्प्रयुक्तैर्दण्ड्यते आत्मेति, अत्र चोदाहरणानि तत्थं मणदंडे उदाहरणं - कोंकणगखमणओ, सो उद्दजाणू अहो - सिरो चिंतितो अच्छा, साहूणो अहो संतो सुहज्झाणोवगओत्ति वंदंति, चिरेण संलावं देवमारद्धो, साहूहिं पुच्छिओ, भणइ-खरो वाओ वायति, जइ ते मम पुत्ता संपयं बहराणि पलीविजा तो तेसिं वरिसारत्ते सरसाए भूमीए सुबह सालिसंपया होज्जा, एवं चिंतियं मे, आयरिएण वारिओ ठिओ, तो एवमाइ जं असुहं मणेण चिंतेइ सो मणदंडो १ ॥ बइदंडे उदाहरणं-साहू सण्णाभूमीओ आगओ, अविहीए आलोएइ-जहा सूयरवंदं दिति, पुरिसेहिं गंतुं मारियं २ ॥ | इयाणि कायदंडे उदाहरणं-चंडरुदो आयरिओ, उज्जेणि बाहिरगामाओ अणुजाणपेक्खओ आगओ, सो य अईव रोसणो, तत्थ समोसरणे गणियाघरविहेडिओ जाइकुलाइसंपण्णो इन्भदारओ सेहो उबडिओ, तत्थ अण्णेहिं असद्दहंतेहिं चंडरुदस्स | पास पेसिओ, कठिणा कली घस्सउत्ति, सो तस्स उबडिओ, तेण सो तहेब लोयं कार्ड पद्याविओ, पच्चूसे गामं वचंताणं तन्त्र मनोदण्डे उदाहरण-कोणकक्षपकः, स जानुरथः शिराश्रिन्तयन् तिष्ठति साधवः अहो वृद्धः शुभध्यानोपगत इति वन्दते, चिरेण संहा दातुमारब्धः साधुभिः पृष्टः भणति खरो बातो याति यदि ते मम पुत्राः साम्प्रतं वृणादीनि प्रदीपयेयुः तदा तेपां वर्षांरात्रे सरसावां भूमी सुबही शालीसंपत् भवेत् एवं चितितं मया, आचार्येण वारितः स्थितः, तदेवमादि शुभं मनसा चिन्तयति स मनोदण्डः ॥ वाग्दण्डे उदाहरणं साधुः संज्ञाभूमेरागतः, अविधिनाऽऽलोचयति यथा शूकरवृन्दं दृष्टमिति, पुरुषैश्वा मारितं २॥ इदानीं कायदण्डे उदाहरणम् चण्डरुद्र आचार्यः उज्जयिनीं बहिश्रमादनुवनप्रेक्षक आगतः स चातीव रोषणः, तत्र समवसरणे गणिकागृहविनिर्गतो जातिकुलादिसंपन इम्पदारकः प्रभैक्ष उपस्थितः, तनान्यैरभिश्रण्डस्य पार्श्व प्रेषितः, कठिना पृष्यतां कलिरिति, स तखोपस्थितः तेन स तथैव हो कृत्यामाजितः प्रत्यूषे ग्रामं व्रजतोः ४प्रतिक्रम OIT. ~ 1157 ~ ॥५७७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) -र 5 प्रत सूत्रांक 8% A पुरओ सेहो पिडओ चंडरुद्दो, आवडिओ रुडो सेहं दंडेण मत्थए हणइ, कहं ते पत्थरो ण दिहोत्ति , सेहो सम्म सहइ, आवस्सयवेलाए रुहिरावलित्तो दिडो, चंडरुद्दस्स तं पासिऊण मिच्छामि दुकडत्ति वेरग्गेण केवलणाणं उप्पण्णं, सेहस्सवि कालेण केवलणाणमुप्पण्णं शा 'पडिकमामि तिहिं गुत्तीहि-मणगुत्तीए वयगुत्तीए कायगुत्तीए' प्रतिक्रमामि तिसृभिर्गुप्तिभिः करणभूताभियोऽतिचारः कृत इति, तद्यथा-मनोगुप्त्या वाग्गुप्त्या कायगुप्या, गुप्तीनां च करणता अतिचारं प्रति प्रतिषिद्धकरणकृत्याकरणाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणादिना प्रकारेण, शब्दार्थस्त्वासां सामायिकवद् द्रष्टव्यः, यथासङ्घमुदाहरणानि-1 'मणगुत्तीए तहियं जिणदासो सावओ य सेहिसुओ । सो सबराइपडिम पडिवण्णो जाणसालाए ॥१॥ भजुम्भामिग पलंक घेत्तुं खीलजुत्तमागया तत्थ । तस्सेव पायमुवरि मंचगपायं ठवेऊणं ॥२॥ अणायारमायरंती पाओ विद्धो य मंचकीलेणं । सो ता महई वेदण अहियासेई तहिं सम्मं ॥३॥ण य मणदुकडमुप्पणं तस्सज्झामि निच्चलमणस्स । दद्दू णवि विलीयं इय मणगुत्ती करेयवा ॥ ४॥ वइगुत्तीए साहू सण्णातगपल्लिगच्छए दई। चोरग्गह सेणावइविमोइओ [सू.] दीप अनुक्रम [२०] -%50-50444 पुरतः शैक्षकः पृष्ठतबारुदः, आपतितो रुटः शिष्यं ददेन मस्तके हन्ति, कथं त्वया प्रस्तरोन र इति', शैक्षः सम्पर सहते, आवश्यकवेलायां रुधिरावलिप्तो रटः, चण्डजस तहटा मिथ्या मे दुष्कृतमिति वैराग्येण केवलज्ञानमुत्पन्न, शैक्षवापि काठन केवलज्ञानमुत्पनं। २ मनोगुप्ती तत्र जिनदासः भानका डिसुतः । स सरात्रिकीमतिमा प्रतिपक्षो धानशालायाम् ॥ १॥ भार्या उहामिका पक्ष्या गुदीवा कीलकयुक्तमायाता तन्त्र । तस्यैव पादस्थोपरि माकपादं स्थापविश्वा ॥२॥ मनाचारमाचरम्वी पादो विच मत्रकीलकेन । स तावत् महती बेपनामप्यासयति तत्र सम्पन्॥३॥ न च मनोदुष्कृतमु. पचं तस्स ध्याने निबलमनसः । वापि पलीक एवं मनोगुप्तिः कर्तव्या ॥४॥ वागणुप्तौ साधून संज्ञावीयपली गच्छतो दृष्ट्वा चीरमहा सेनापतिना विमोचितो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~11584 Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रम प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यकभणइ मा साह ॥१॥ चलिया य जपणजत्ता सम्णायग मिलिय अंतरा चेव । मायपियभायमाई सोवि णियत्तो समं तेहिं हारिभ- २॥ तेणेहि गहिय मुसिया दिहो ते चिंति सो इमो साहू । अम्हेहि गहियमुको तो वेंती अम्मया तस्स ॥३॥ तुझेहि द्रीया गहियमुक्को ? आम आणेह बेइ तो छुरियं जा छिंदामि थणती किंति सेणावई भणइ ॥ ४॥ दुजम्मजात एसो दिठ्ठा तुम्हे तहावि णवि सिह । किह पुत्तोत्ति ? अह मम किह णवि सिंहति ? धम्मकहा ।।५।। आउट्टो उवसंतो मुक्का मझं पियसि ॥५७८|| | मायत्ति । सर्व समप्पियं से धइगुत्ती एव कायबा ॥ ६॥ काइयगुत्ताहरणं अशाणपवण्णगो जहा साहू । आवासियंमि सत्थे ण लहइ तहिं थंडिलं किंचि ॥१॥ लद्धं चणेण कहवी एगो पाओ जहिं पइहाइ । तहियं ठिएगपओ सर्व राई तहिं थद्धो ॥२॥ण ठविय किंचि अस्थंडिलंमि होयबमेव गुत्तेणं । सुमहन्मएवि अहया साहुण भिंदे गई एगो ॥३॥ | सकपसंसा अस्सद्दहाण देवागमो विउबद य । मंडुक्कलिया साहू जयणा सो संकमे सणियं ॥ ४ ॥ हत्थी विउविओ जो भणति मा चीकथः ॥ १॥ पलितान यज्ञयानाय सज्ञातीषा मिलिता अन्तरैष । मातापिनमात्रायः सोऽपि निवृत्तः समं तैः ॥२॥ सेनेहीता मुपिता रटते मुक्ते सोऽयं साधुः । अस्माभिदीत्या मुक्तस्तवा अत्रीत्यम्बा तस्थ ॥ ३॥ युष्माभिहीतमुक्ता ओम् मानयत बूते ततः क्षुरिकाम् । यच्छिननि सनमिति किमिति सेनापतिर्भणति ॥४॥ दुर्जन्मजात एष रष्टा यूर्य तथापि नैव शिवम् । कथं पुत्र इति भव मयं क व शिष्टमिति' धर्मकथा ॥ ५॥ G आवृत्त उपशान्तो मुक्ता मम मियाऽसि मातरिति । सबै समर्पितं तथा बचोगुप्तिरेवं कर्तव्या ॥६॥ काविक गुरुवाहरणं अध्यापनको यथा साधुः । आवालासिते सार्धे न लभते तत्र स्खण्डिलं कथित् ॥१॥ सम्धं चागेन कथमपि एकः पादो यत्र प्रतिष्ठति । तत्र स्थितेकपादः सा राग्नि तत्र सन्धः (स्थितः) ॥२॥ न स्थापित किचिवस्थाण्डिले भवितव्यमेवं गुप्लेन । मुमहाभयेऽप्यधमा साधुन भिन्नति गतिमेकः ॥ ३ ॥ शक्रपशंसा अनवानं देवागमो विकुर्वति च । मण्डू किकाः साधुर्यतनवा स संकामति यानैः ॥ ४ ॥ हस्ती विकृर्वितो यः दीप अनुक्रम [२०] ५७८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1159~ Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक 4-9542525 [सू.] आगच्छह मग्गओ गुलगुलिंतो। ण य गइभेयं कुणई गएण हत्थेण उच्छूढो ॥५॥ बेइ पडतो मिच्छामिदुकडं जिय | विराहिया मेत्ति । ण य अप्पाणे चिंता देवो तुट्टो णमसइ य ॥६॥ पडिकमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं नियाणसल्लेणं मिच्छादसणसल्लेणं । पटिकमामि तिहिं गारवेहि-दहीगारवेणं रसगारवेणं सायागारवेणं । पडिकमामि तिहिं विराहणाहिं-णाणविराहणाए दंसणविराहणाए चरित्तचिराहणाए। पडिकमामि चाहिं कसाएहिं-कोहकसाएणं माणकसाएणं मायाकसाएणं लोहकसाएणं। पडिकमामि |चउहिं सण्णाहि-आहारसण्णाए भयसपणाए मेहुणसंणाए परिग्गहसण्णाए। पडिकमामि चाहिं विकहाहिइत्थीकहाए भत्तकहाए देसकहाए रायकहाए। पडिकमामि चरहिं झाणेहिं-अट्टेणं झाणेणं रुदेणं०धम्मेणं० सुक्केणं० प्रतिक्रामामि त्रिभिः शल्यैः करणभूतैर्योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-मायाशल्येन निदानशल्येन मिथ्यादर्शनशल्येन, शल्यतेऽनेनेति शल्यं-द्रव्यभावभेदभिन्न, द्रव्यशल्य कण्टकादि, भावशल्यमिदमेय, माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यम् , इयं भावना-यो यदाऽतिचारमासाथ मायया नालोचयत्यन्यथा वा निवेदयत्यभ्याख्यानं वा यच्छति तदा सैष शल्यमशुभकर्मबन्धनेनात्मशल्यनात् तेन, निदानं-दिव्यूमानुषर्द्धिसंदर्शनश्रवणाभ्यां तदभिलाषानुधानं तदेव शल्यमधिकरणानुमोदनेनात्मशल्यनात् तेन, मिध्या-विपरीतं दर्शनं मिथ्यादर्शनं मोहकर्मोदयजमित्यर्थः, तदेव शल्यं तत्प्रत्ययकादानेनात्मशल्यनात्, तत्पुनरभिनिवेशमतिभेदान्यसंस्तवोपाधितो भवति,इह चोदाहरणानि-मायाशल्ये रुद्रो वक्ष्यमाणः पण्डरायो आगच्छति पृष्ठतो गुलगुलायमानः । न च गतिभेदं करोति गजेन हस्तेनोक्षिप्तः ॥ ५॥ ब्रूते पतन् मिथ्यामेदुष्कृतं जीवा निराहा मवेति । न चात्मनि |चिन्ता देवस्तुष्टो नमस्यति च ॥६॥ दीप अनुक्रम [२१] CARROTERSARO -0-0- -54- - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ... यहां मैने उपर हेडिंग में मूलं के साथ [कौंस मे] 'सू.' ऐसा सूत्र का संक्षेप लिखा है, क्यों की मूल संपादकने यहां कोई क्रम नहि दिया है। ~1160~ Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रम आवश्यक हारिभद्रीया ॥५७९॥ प्रत सूत्रांक चोक्ता, निदानशल्ये ब्रह्मदत्तकथानकं यथा तचरिते, मिथ्यादर्शनशस्ये गोष्ठामाहिल जमालिभिक्षुपचरकश्रावका अभिनि- वेशमतिभेदान्यसंस्तवेभ्यो मिथ्यात्वमुपागताः, तत्र गोष्ठामाहिल जमालिकथानकद्वयं सामायिके उक्त, भिक्षूपचरकश्रावककथानकं तूपरिष्टाद्वक्ष्यामः। प्रतिक्रमामि त्रिभिगौरवैः करणभूतैर्योऽतिचारः कृतः,तद्यधा-ऋद्धिगौरवेण रसगौरवेण सातगौरवेण, तत्र गुरोर्भावो गौरवं, तच्च द्रव्यभावभेदभिन्नं, द्रव्यगौरवं वज्रादेः भावगौरवमभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशु|भभावगौरवं संसारचक्रवालपरिभ्रमणहेतुः कर्मनिदानमिति भावार्थः, तत्र ऋक्या-नरेन्द्रादिपूज्याचार्यादित्वाभिलाषलक्षणया गौरव-ऋद्धिप्राप्त्याभिमानाप्राप्तिसम्प्रार्थनद्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवम्-इष्टरस-5 प्रात्यभिमानाप्राप्तिमार्थनद्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवं तेन, सात-सुखं तेन गौरवं सातप्रात्यभिमानाप्राप्तप्रार्थनद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवं तेन, इह च त्रिवप्युदाहरणं मङ्गः-मथुराएँ अजमंगू आयरिया सुबहुसड्डा (हुया य ) तहियं च । इरसवरथसयणासणाइ अहियं पयच्छति ॥१॥ सो तिहिषि गारवेहिं पडिबद्धो अईव तत्थ काल|गओ । महुराए निद्धमणे जक्खो य तहिं समुप्पण्णो ॥२॥ जक्खायतणअदूरेण तत्थ साहूण वचमाणाणं । सणाभूमि ताहे अणुपविसइ जक्खपडिमाए ॥३॥ जिल्लालेउं जीहं णिफेडिऊण तं गवक्खेणं । दसेइ एव बहुसो पुट्ठो य| कयाइ साहहिं ॥४॥ किमिदं? तो सो वयई जीहादुट्ठो अहं तु सो मंगू । इत्थुववष्णो तम्हा तुम्भेवि एवं करे कोई ॥ मधुरायामार्थमनच भाचार्याः, सुबहवः श्रावासाचा परसपनायनासनादि अधिक प्रयच्छन्ति ॥1॥स प्रिभिरपि गौरवैः प्रतिबद्धोऽतीय तत्र कालगतः । मथुरायां निर्धमने यक्षश्च तत्र समुत्पनः ॥ २॥ यक्षायतनस्यातू रेण तत्र साधूनां बजताम् । संज्ञाभूमि सदाउनुप्रविश्य वक्षप्रतिमायाम् ॥३॥ निलाल्य जिहां निष्काश्य तो गवाक्षेण । दर्शयति एवं बहुशः पृष्टा कदाचित् साधुभिः ॥ ॥ किमिदं तदा स वदति जिहादुष्टोऽहं तु स मनुः । अत्रोपपत्रस्तस्वायुष्माकमप्येवं कुर्यास्कोऽपि ॥५॥ दीप अनुक्रम [२१] ५७९॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1161 Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२१] हामा सोवि एवं होहिति जीहादोसेण जीह दाएमि । दहण तयं साहू सुहृतरमगारवा जाया ॥६॥प्रतिकमामि तिसृभि विराधनाभिर्योऽतिचार इत्यादि पूर्ववत्, तद्यथा-ज्ञानविराधनयेत्यादि, तत्र विराधनं-कस्यचिवस्तुनः खण्डनं तदेव विराधना ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना-ज्ञानप्रत्यनीकतादिलक्षणा तया, उक्त च-णाणपडिणीय णिण्हव अच्चासायण| तदंतराय च । कुणमाणस्सऽइयारो णाणविसंवादजोगं च ॥१॥ तत्र प्रत्यनीकता पञ्चविधज्ञाननिन्दया, तद्यथा-आभि-: निबोधिकज्ञानमशोभनं, यतस्तदवगतं कदाचित्तथा भवति कदाचिदन्यथेति, श्रुतज्ञानमपि शीलविकलस्याकिञ्चित्करत्वादशोभनमेव, अवधिज्ञानमध्यरूपिद्रव्यागोचरत्वादसाधु, मनःपर्यायज्ञानमपि मनुष्यलोकावधिपरिच्छिन्नंगोचरत्वादशोभन, केवलज्ञानमपि समयभेदेन दर्शन ज्ञानप्रवृत्तेरेकसमयेऽकेवलस्वादशोभनमिति, नियो-व्यपलापः, अभ्यसकाशेऽधीतमन्य व्यपदिशति, अच्चासायणा-'काया वया य तेचिय ते चेव पमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारिगाणं जोइसजोणीहि कि में 8 कजं ॥१॥' इत्यादि, अन्तरायमसङ्खडास्वाध्यायिकादिभिः करोति, ज्ञानविसंवादयोगः अकालस्वाध्यायादिना, दर्शनं-13 सम्यग्दर्शनं तस्य विराधना दर्शनविराधना तया, असावप्येवमेव पञ्चभेदा, तत्र दर्शनप्रत्यनीकता क्षायिकदर्शनिनोऽपि श्रेणिकादयो नरकमुपगता इति निन्दया, निवः-दर्शनप्रभावनीयशास्त्रापेक्षया प्राग्वद् द्रष्टव्यः, अत्याशातना-किमेभिः 8 कलशास्वरिति ?, अन्तरायं प्राग्वत्, दर्शनविसंवादयोगः शङ्कादिना, चारित्रं प्राग्निरूपितशब्दार्थ तस्य विराधना चारि मा सोऽप्येवं भविष्यति जिहादोषेण जिहां दर्शयामि । दृष्ट्वा तकत् साधवः सुष्टुतरमगौरवा जाताः ॥६॥ २ काथा मतानि च तान्येव त एव प्रमादा दिअप्रमादाश्च । मोक्षाधिकारिण्या ज्योतियोनिभिः किं कार्यम् ॥१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1162~ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥५८०॥ [सू.] विराधना तया-व्रतादिखण्डनलक्षणया।प्रतिकमामि चतुर्भिः कपायोऽतिचारः कृतः, तद्यथा-क्रोधकषायेण मानकषायेण प्रतिक्रममायाकषायेण लोभकषायण, कषायस्वरूपं सोदाहरणं यथा नमस्कार इति । प्रतिक्रमामि चतसृभिः संज्ञा भिर्योऽतिचारःणा . कृतः, तद्यथा-आहारसंज्ञयेत्यादि ४, तत्र संज्ञानं संज्ञा, सा पुनः सामान्येन झायोपशमिकी औदयिकी च, तत्राऽऽद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजा मतिभेदरूपा, न तयेहाधिकारः, द्वितीया सामान्येन चतुर्विधाऽऽहारसंज्ञादिलक्षणा, तत्राहारसंज्ञा-आहाराभिलापः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्यात्मपरिणाम इत्यर्थः, सा पुनश्चतुर्भिः स्थानैः समुत्पद्यते, तद्यथा-'ओम| कोहयाए १ छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्सोदएणं २ मईए ३ तदोवजोगेण' तत्र मतिराहारश्रवणादिभ्यो भवति, तदर्थोपयोगस्त्वाहारमेवानवरतं चिन्तयतः, तयाऽऽहारसंज्ञया, भयसंज्ञा-भयाभिनिवेश:-भयमोहोदयजो जीवपरिणाम एव, इयमपि चतुर्भिः स्थानः समुत्पद्यते, तद्यथा-'हीणसत्तयाए १ भयमोहणिज्जोदएणं २ मइए । तयहोवओगेणं' तया, मैथुनसंज्ञा-1 मैथुनाभिलाषः वेदमोहोदयजो जीवपरिणाम एव, इयमपि चतुर्भिः स्थानैः समुत्पद्यते, तद्यथा-'चियमंससोणियत्ताए १ वेदमोहणिजोदएणं २ मईए ३ तयटोवओगेणं ४' तया, तथा परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलापस्तीत्रलोभोदयप्रभव आत्मपरिणामः, इयमपि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, तद्यथा-'अविवित्तयाए १ लोहोदएणं २ मईए ३ तदहोवओगेणं . तया ।। प्रतिक्रमामि चतसृभिर्विकथाभिः करणभूताभिर्योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-'स्त्रीकथयेति विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा, सा च ॥५८०॥ भवमकोष्टतया शुधा वेदनीयस्य कर्मण उदयेन मया तदर्थोपयोगेन. २ हीनसत्त्वतया भयमोहनीयोदयेन मत्वा तदर्थोपयोगेन. ३ चितमांसशोणिततया घेदमोहनीयोदयेन मत्या तदर्योपयोगेन. " अविविक्ततया लोभोदयेन मत्या तदर्थोपयोगेन, दीप अनुक्रम [२१] COLORORSCRCESS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1163~ Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२१] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... स्त्रीकथादिलक्षणा, तत्र स्त्रीणां कथा स्त्रीकथा तया, सा चतुर्विधा जातिकथा कुलकथा रूपकथा नेपथ्यकथा, तत्र जातिकथा ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमां प्रशंसति द्वेष्टि या, कुलकथा उग्रादिकुलप्रसूतानामन्यतमां, रूपकथा अन्धिप्रभृतीनामन्यतमाया रूपं प्रशंसति- 'अन्ध्रीणां च ध्रुवं लीळाचलित धूलते मुखे । आसज्य राज्यभारं स्वं सुखं स्वपिति मन्मथः ॥ १ ॥ इत्यादिना द्वेष्टि वाऽन्यथा, नेपथ्यकथा अन्ध्रीप्रभृतीनामेवान्यतमायाः कच्छटादिनेपथ्यं प्रशंसति द्वेष्टि वा, तथा भक्तम्ओदनादि तस्य कथा भक्तकथा तया, सा चतुर्विधाऽऽवापादिभेदतः यथोक्तम्- 'भर्त्तकहावि चउद्धा आवावकहा तहेव णिद्यावे | आरंभकहा य तहा मिट्ठाणकहा चउत्थी उ ॥ १ ॥ आवावित्तियदत्वा सागघयादी य एत्थ उवउत्ता । दसपंचरूवइत्तियवंजणभेयाइ णिवावे ॥ २ ॥ आरंभ छागतित्तिरम हिसारण्णादिया वधित एत्थ । स्वगसयपंचसया णिद्वाणं जा सयसहर्स ॥ ३ ॥ देश:- जनपदस्तस्य कथा देशकथा तया, इयमपि छन्दादिभेदादिना चतुर्दैव, यथोक्तम् - देसस्स कहा भण्णइ देसकहा देस जणवओ होति । सावि चउद्धा छंदो विही विगप्पो य वत्थं ॥ १ ॥ छंदो गम्भागम्मं जह माउलदुहियमंगलाष्डाणं । अण्णेसिं सा भगिणी गोलाईणं अगम्मा उ ॥ २ ॥ मातिसवत्तिउदिचाण गम्म अण्णेसि एग पंच । १] भक्तापि चतुर्थी आवापकथा तथैव निर्वा आरम्भकथाघ तथा निष्ठानकथा चतुर्थी च ॥१॥ आधाप ईयद्रव्या शाकादिश्राश्रोपयुक्ताः । दश पञ्चरूप्यका इयद्यनभेदादिर्निवा ॥ २ ॥ आरम्भे छागतितिरमहिपारण्यादिका हता अत्र । शतपञ्चशतरूपका निष्ठानं यावत् शतसहस्रम् ॥ ३ ॥ देशस्य कथा भव्यते देशकथा देशो जनपदो भवति । साऽपि चतुध छन्दो विधिर्विकल्प नेपथ्यम् ॥ १ ॥ छन्दो गम्यागम्यं यथा मातुलदुहिताऽङ्गलाटानाम् । अन्येषां सा भगिनी गोहादीनामयम्या तु ॥ २ ॥ मातृसपली तु उदीच्यानां गया अन्येषामेका पञ्चानाम् । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ------ ~ 1164 ~ Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२१] आवश्यकहारिभ• द्रीया ॥५८१ ॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... ऍमाइ देसछंदो देसविहीविरयणा होइ ॥ ३ ॥ भोयणविरयणमणिभूसियाइ जं वावि भुज्जए पढमं । वीवाहविरयणाऽविय चरंतगमाइया होई ॥ ४ ॥ एमाई देसविही देसविगप्पं च सासनिष्पत्ती । जह वप्यकूवसारणिनइरेल्लगसालिरोप्पाई ॥ ५ ॥ घरदेवकुलविगप्पा तह विनिवेसा य गामनयराई। एमाइ विगप्पकहा नेवत्थकहा इमा होइ ॥ ६ ॥ इत्थी पुरिसाणंपि य साभाविय तहय होइ बेडवी । भेडिगजालिगमाई देसकहा एस भणिएवं ॥ ७ ॥ राज्ञः कथा राजकथा तथा इयमपि नरेन्द्रनिर्गमादिभेदेन चतुर्विधैव यथोक्तम् - रायकह चउह निग्गम अइगमण बले य कोसकोद्वारे । निजाइ अज्ज राया एरिस इीविभूईए ॥ १ ॥ चामीयरसूरतणू हत्थीसंधंमि सोहए एवं एमेव य अइयाई इंदो अल्याडरी चैव ॥ २ ॥ एवइय आसहत्थी रहपायलबलवाहण कहेसा । एवइ कोडी कोसा कोडागारा व एवइया ॥ २ ॥" प्रतिक्रमामि चतुर्भि यनैः करणभूतैरश्रद्धेयादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-आर्तध्यानेन ४, तत्र ध्यातिर्ध्यानमिति भावसाधनः, १ एवमादि देशच्छन्दो देशविधिविरचना भवति ॥ ३ ॥ भोजनविरचनमणिभूषणानि यद्वापि भुज्यते प्रथमम् । विवाहविरचनापि च चतुरन्त गमा दिका (शारिहादिका) भवति ॥ ४ ॥ एवमादि देशविधिर्देश विकल्पश्च शस्त्रनिष्पत्तिः । यथा वप्रपसारिणीनदीपूरादिना शालीपादि ॥ ५ ॥ गृहदेवकुलविकल्पा तथा विनिवेशाथ ग्रामनगरादीनाम् एवमादिविकल्पकथा नेपथ्यकथेषा भवति ॥ ६ ॥ स्त्रीणां पुरुषाणामपि च स्वाभाविकतथा भवति विकुर्थी । मेडिकजालिकादि (भीलनादि ) देशकबेपा भवितैयं ॥ ७ ॥ राजकथा चतुर्था निमोऽतिगमो वलंच कोशकोष्टागारे निर्यालय राजा इटाि भूत्वा ॥ १ ॥ चामीकरसूरतनुर्हस्तिस्कन्धे शोभते एवम्। एवमेव चातियाति इन्द्रोऽलकामि ॥ २ ॥ एतावन्तोऽश्वा हस्तिनो स्थाः पादातं बलवाहनानि कथैपा इत्यः कोयः कोशाः कोष्ठागाराणि चैवन्ति ॥ ३ ॥ ४प्रतिक्रमUIT. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1165 ~ ।।५८१ ॥ Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] तत्पुनः कालतोऽन्तर्मुहर्तमात्र, भेदतस्तु चतुष्प्रकारमार्तादिभेदेन, ध्येयप्रकारास्त्वमनोज्ञविषयसंप्रयोगादयः, तत्र शोकाक्र-1 न्दनविलपनादिलक्षणमात तेन, उत्सन्नवधादिलक्षणं रौद्रं तेन, जिनप्रणीतभावश्रद्धानादिलक्षणं धयं तेन, अवधासम्मोहादिलक्षण शुक्लं तेन, फलं पुनस्तेषां हि तिर्यग्नरकदेवगत्यादिमोक्षाख्यमिति क्रमेण, अयं ध्यानसमासार्थः। व्यासार्थस्तु ध्यानशतकाद्वसेयः, तच्चेदम्-ध्यानशतकस्य च महायंत्यावस्तुतः शास्त्रान्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये | मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह धीर सुकमाणगिदसम्मिधर्ण पणमिजणं । जोईसर सरपणे झाणज्झयण पनपत्रामि ॥१॥ व्याख्या-वीर-शुक्लध्यानाग्निदग्धकमेन्धनं प्रणम्य ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, तत्र 'ईर गतिप्रेरणयोः' इत्यस्य | विपूर्वस्याजन्तस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति वेह शिवमिति वीरस्त वीर, किंविशिष्टं तमित्यत आह-शुचं क्लम४ यतीति शुक्ल, शोकं ग्लपयतीत्यर्थः, ध्यायते-चिन्त्यतेऽनेन तत्त्वमिति ध्यानम् , एकाग्रचित्तनिरोध इत्यर्थः, शुक्ल च तद् ध्यानं च तदेव कर्मेन्धनदहनादग्निः शुक्लध्यानाग्निः तथा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगैः क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि तदेवातितीब्रदुःखानलनिबन्धनत्वादिन्धनं कर्मेन्धनं ततश्च शुक्लध्यानामिना दुग्धं-स्वस्वभावापनयनेन | भस्मीकृतं कर्मेन्धनं येन स तथाविधस्तं, 'प्रणम्य' प्रकर्षेण मनोवाकाययोगैर्नत्वेत्यर्थः, समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानाद् ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीति योगः, सत्राधीयत इत्यध्ययनं, 'कर्मणि ल्युट्' पठ्यत इत्यर्थः, ध्यानप्रतिपादकमध्ययनं २ तद् याथात्म्यमङ्गीकृत्य प्रकर्षण वक्ष्ये-अभिधास्ये इति, किंविशिष्टं वीर प्रणम्येत्यत आह- योगेश्वरं योगी SAR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ ध्यानशतक- मूल गाथा एवं तस्य वृत्ति: प्रकाश्यते ~ 1166~ Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू...] ॥५८२।। श्वरं वा' तत्र युज्यन्त इति योगा:-मनोवाकायच्यापारलक्षणाः तैरीश्वर:-प्रधानस्तं, तथाहि-अनुत्तरा एव भगवतो मनो- प्रतिक्रमबाकायच्यापारा इति, यथोकमू-दवमणोजोएणं मणणाणीणं अणुत्तरार्ण च । संसयवोच्छित्तिं केवलेण नाऊण साकणाणाध्यान ॥रिभियपयक्खरसरला मिच्छितरतिरिच्छसगिरपरिणामा । मणणिवाणी वाणी जोयणनिहारिणी जं च ॥२॥ एका य अणेगेसिं संसयवोच्छेयणे अपडिभूया । न य णिविजइ सोया तिप्पड़ सबाउएणपि ॥३॥ सबसुरेहिंतोविह अहिंगो तो य कायजोगो से । तहवि य पसंतरूवे कुणइ सया पाणिसंघाए ॥ ४॥ इत्यादि, युज्यते वाऽनेन केवल-| ज्ञानादिना आरमेति योग:--धर्मशुक्लध्यानलक्षणः स येषां विद्यत इति योगिनः-साधवस्तरीश्वरः, तनुपदेशेन तेषां प्रवृत्तेस्तत्सम्बन्धादिति, तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः, ईश्वरः प्रभुः स्वामीत्यनर्थान्तरं, योगीश्वरम् , अथवा योगिस्मर्य-योगिचिन्त्य ध्येयमित्यर्थः, पुनरपि स एव विशेष्यते-शरण्यं,तत्र शरणे साधुः शरण्यस्तं-रागादिपरिभूताश्रितसत्त्ववत्सलं रक्षकमित्यर्थः, ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्यामीत्येतद् व्याख्यातमेव । अनाऽऽह-यः शुक्लध्यानाग्निना दग्धकर्मेन्धनः स योगेश्वर एव यश्च योगे-| श्वरःस शरण्य एवेति गतार्थे विशेषणे, न,अभिप्रायापरिज्ञानाद् इह शुक्ध्यानाग्निना दग्धकर्मेन्धनः सामान्यकेवल्यपि भवति, नत्वसौ योगेश्वरः, वाकायातिशयाभावात् , स एव च तत्त्वतः शरण्य इति ज्ञापनार्थमेवादुष्टमेतदपि, तथा चोभयपदव्य ॥५८२॥ यमनोयोगेन मनोशानिनामनुत्तराणां च । संशयन्युविधति केवलेन ज्ञाया सदा करोति ॥॥ रिभितपदाक्षरसरला ग्लेकोतरतियफवगी-1 परियामा । मनोनि पिणी वाणी योजनच्यापनी यस ॥२॥ एका चानेकेषो संपायच्युच्छेदनी अपरिभूतानि च निर्विद्यते भोता तृष्यति सायुपाऽपि ॥२॥ सर्वसुरेभ्योऽपि अधिकः कान्तश्च काययोगस्तस्य । तथापि च प्रशान्तरूपान् करोति सदा प्राणिसंघातान् ॥ ४॥ दीप अनुक्रम [२१..] RECEN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1167~ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] ब्ल आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], भिचारेऽज्ञातज्ञापनार्थे च शास्त्रे विशेषणाभिधानमनुज्ञातमेव पूर्वमुनिभिरित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १ ॥ साम्प्रतं ध्यानलक्षणप्रतिपादनायाऽऽह- रिमाणं तं झाणं जं चलं तवं चित्तं तं होज भावणा वा अणुपेहा वा अव चिंता ॥ २ ॥ व्याख्या- 'यदि'त्युद्देशः स्थिरं निश्चलम् अध्यवसानं मन एकाग्रतालम्बनमित्यर्थः, 'तदिति निर्देशे, 'ध्यानं' प्रागनिरूपितशब्दार्थ, ततश्चैतदुक्तं भवति यत् स्थिरमध्यवसानं तद्ध्यानमभिधीयते, 'यश्चल' मिति यत्पुनरनवस्थितं तच्चित्तं तथ्यौषत स्त्रिधा भवतीति दर्शयति- 'तद्भवेद्भावना वेति तच्चित्तं भवेद्भावना, भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यास क्रियेत्यर्थः, वा विभाषायाम्, 'अनुप्रेक्षा वेति' अनु-पश्चाद्भावे प्रेक्षणं प्रेक्षा, सा च स्मृतिध्यानाद् भ्रष्टस्य चित्तचेष्टेत्यर्थः, वा पूर्ववत् ' अथवा चिन्ते' ति अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः चिन्तेति या खलुक्तप्रकारद्वयरहिता चिन्तामनेश्वष्टा सा चिन्तेति गाथार्थः २ ॥ इत्थं ध्यानलक्षणमोघतोऽभिधायाधुना ध्यानमेव कालस्वामिभ्यां निरूपयन्नाह - अंतमुत्तमेतं पित्तावस्थाभगवत्युंमि । उमराणं शाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ ३ ॥ व्याख्या - इह मुहूर्त :- सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो भण्यते, उक्तं च- 'कोलो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखेज्जा भवंति ऊसासनीसासा ॥ १ ॥ ट्ठस्स अणवगलस्स, णिरुव किस्स जंतुणो । एगे 1 कालः परमनिरुद्धोऽविभाज्यतमेव जानीहि समयं तु । समयामासंख्येया भवत इच्छासनिः वासौ ॥ हृष्टस्यानवकल्पस्थ निरुपखि जन्तोः । एक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1168~ Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) हारिभ प्रत सूत्रांक ॥५८३॥ [स...] आवश्यक-18ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति बुच्चइ ॥२॥ सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्तेप्रतिक्रमयियाहिए ॥३॥' अन्तर्मध्यकरणे, ततश्चान्तर्मुहूर्तमानं कालमिति गम्यते, मात्रशब्दस्तदधिककालव्यवच्छेदार्थः, ततश्च णाध्यानद्रीया शतकं भिन्नमुहूर्तमेव कालं, कि-चित्तावस्थान'मिति चित्तस्य-मनसः अवस्थानं चित्तावस्थानम्, अवस्थितिः-अवस्थान, निष्पकम्पतया वृत्तिरित्यर्थः, क?-' एकवस्तुनि' एकम्-अद्वितीयं वसन्स्यस्मिन् गुणपर्याया इति वस्तु-चेतनादि एक च तद्वस्तु एकवस्तु तस्मिन् २ 'छमस्थानां ध्यान मिति, तत्र छादयतीति छद्म-पिधानं तच्च ज्ञानादीनां गुणानामावारकत्वाहै ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म, छद्मनि स्थिताश्छदास्था अकेवलिन इत्यर्थः, तेषां छद्मस्थानां, 'ध्यान' प्राग्वत् , ततश्चा-4 यं समुदायार्थ:-अन्तर्मुहर्तकालं यचित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छद्मस्थानां ध्यानमिति, 'योगनिरोधो जिनानां साविति तत्र योगा:-तत्त्वत औदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषब्यापारा एव, यथोक्तम्-"औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽस्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवारद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवब्यापारो मनोयोगः" ५८३२॥ इति, अमीषां निरोधो योगनिरोधः, निरोधनं निरोधा, प्रलयकरणमित्यर्थः, केषां ?-'जिनानां' केवलिना, तुशब्द एव-13 कारार्थः स चावधारणे, योगनिरोध एव न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावाद, अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं अचासनिधास एष प्राण इत्युच्यते ॥ २ ॥ सप्त प्राणास्ते सोके सप्त स्तोकास्ते लवे । लवानां सप्तसप्तत्वा एष माता व्याख्यातः ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1169~ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] भाष्यं [२०४...], नान्येषाम् अशक्यत्वादिश्यलं विस्तरेण, यथा चायं योगनिरोधो जिनानां ध्यानं यावन्तं च कालमेतद्भवत्येतदुपरिष्टाक्ष्याम इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्तात् परतो यद्भवति तदुपदर्शयन्नाह - अंतमुत्तर चिंता झानंतर प होजाहि सुचिरंषि होज बहुवत्युकमे शाणताणो ॥ ७ ॥ व्याख्या--' अन्तर्मुहूर्तात् परत' इति भिन्नमुहूर्तादूर्ध्व 'चिन्ता' प्रागुक्तस्वरूपा तथा ध्यानान्तरं वा भवेत्, तत्रेह न ध्यानादन्यद् ध्यानं ध्यानान्तरं परिगृह्यते, किं तर्हि ? - भावनानुप्रेक्षात्मकं चेत इति इदं च ध्यानान्तरं तदुत्तरकाल भावि नि ध्याने सति भवति, तत्राप्ययमेव न्याय इतिकृत्वा ध्यानसन्तानप्राप्तिर्यतः अतस्तमेव कालमानं वस्तुसङ्गमद्वारेण निरूपयन्नाह - 'सुचिरमपि' प्रभूतमपि, कालमिति गम्यते भवेत् बहुवस्तुसङ्क्रमे सति ध्यानसन्तानः' ध्यानप्रवाह इति, तत्र बहूनि च तानि वस्तूनि २ आत्मगतपरगतानि गृह्यन्ते, तत्रात्मगतानि मनःप्रभृतीनि परगतानि द्रव्यादीनीति, तेषु सङ्क्रमः | सञ्चरणमिति गाथार्थः ॥ ४ ॥ इत्थं तावत् सप्रसङ्गं ध्यानस्य सामान्येन लक्षणमुक्तम्, अधुना विशेषलक्षणाभिधित्सया ध्यानोद्देशं विशिष्टफलभावं च संक्षेपतः प्रदर्शयन्नाह अहं रुदं धम्मं सुकं शाणाइ तत्थ अंसाई निर्मााणसाहणाई भवकारणमहरुदाई ॥ ५ ॥ व्याख्या-- आर्त रौद्रं धर्म्य शुक्कं तत्र ऋतं दुःखं तन्निमित्तो दृढाध्यवसायः, ऋते भवमार्त क्लिष्टमित्यर्थः, हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रं श्रुतचरणधर्मानुगतं धर्म्यं, शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा कुमयतीति शुक्लम्, अमूनि ध्यानानि वर्तन्ते, अधुना फलहेतुत्वमुपदर्शयति- 'तत्र' ध्यानचतुष्टये 'अन्त्ये' चरमे सूत्रक्रमप्रामाण्याद्धर्मशुक्ले इत्यर्थः, किं १ - 'निर्वा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1170~ Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥५८४॥ [सू...] साधने इह निवृतिः निर्वाणं-सामान्येन सुखमभिधीयते तस्य साधने-करणे इत्यर्थः, ततश्च-'अट्टेणं तिरिक्खगई कि रुद्दज्झाणेण गम्मती नरयं । धम्मेण देवलोयं सिद्धिगई सुक्कझाणेणं ॥१॥ति यदुक्तं तदपि न विरुध्यते, देवगतिसिद्धि-IMणाध्यानगत्योः सामान्येन सुखसिद्धेरिति, अथापि निर्वाणं मोक्षस्तथापि पारम्पर्येण धर्मध्यानस्यापि तत्साधनत्वादविरोध इति, शतकं तथा 'भवकारणमातरौद्रे' इति तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः-संसार एव, तथाऽप्यन्त्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः(तः)तिर्यग्नरकभवग्रह इति गाथार्थः ॥ ५॥ साम्प्रतं 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायादार्तध्यानस्य स्वरूपाभिधानावसरः, तच्च स्वविषयलक्षणभेदतश्चतुर्दा, उक्तं च भगवता वाचकमुख्येन-"आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे| तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारी ॥ वेदनायाश्च ॥ विपरीतं मनोज्ञादीनां ॥ निदानं च ॥ (तत्वा० अ०९ सू०३१-३२-1 ३३-३४) इत्यादि, तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाह मणुषणाणं सदाइविसववरण दोसमहलस्स । धाणिय विमोचिंतणमसंपोगाणुसरणं च ॥६॥ व्याख्या-'अमनोज्ञाना'मिति मनसोऽनुकूलानि मनोज्ञानि इष्टानीत्यर्थःन मनोज्ञानि अमनोज्ञानि तेषां, केषामित्यत आह-'शब्दादिविषयवस्तूना मिति शब्दादयश्च ते विषयाश्च, आदिग्रहणाद्वर्णादिपरिग्रहः, विषीदन्ति एतेषु सक्काः प्राणिन इति विषया इन्द्रियगोचरा वा, वस्तूनि तु तदाधारभूतानि रासभादीनि, ततश्च-शब्दादिविषयाश्च वस्तूनि चेति | विग्रहस्तेषां, किं-प्तम्प्राप्तानां सतां 'धणियं' अत्यर्थं 'वियोगचिन्तन' विप्रयोगचिन्तेति योगः, कथं नु नाम ममैभिर्वि | ॥५८४॥ आरोन तिर्यगतिः रौद्र्ध्यानेन गम्यते नरकः । धर्मेण देवलोकः सिद्धिगतिः शुक्नध्यानेन ॥1॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1171~ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] योगः स्यादिति भावः १, अनेन वर्तमानकालग्रहः, तथा सति च वियोगेऽसम्प्रयोगानुस्मरण, कथमेभिः सदैव सम्पयोगाभाव इति ?, अनेन चानागतकालग्रहः, चशब्दात् पूर्वमपि वियुक्तासम्प्रयुक्तयोर्बहुमतत्वेनातीतकालग्रह इति, किंविशिष्टस्य |सत इदं वियोगचिन्तनाद्यत आह-द्वेषमलिनस्य' जन्तोरिति गम्यते, तत्राप्रीतिलक्षणो द्वेषस्तेन मलिनस्य-तदाक्रान्तमूर्ते-1 रिति गाथार्थः॥६॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह ता सूलसीसरोगाइवेषणाए (लि) जोगपणिहाणं । तदसंपभोगविता तप्पडियाराग्लमणरस ॥ ७॥ . व्याख्या-तथेति धणियम्-अत्यर्थमेव, शूलशिरोरोगवेदनाया इत्यत्र शूलशिरोरोगी प्रसिद्धी, आदिशब्दाच्छेषरोमातङ्कपरिग्रहः, ततश्च शूलशिरोरोगादिभ्यो वेदना २, वेद्यत इति वेदना तस्याः, किं-वियोगप्रणिधान' वियोगे दृढाध्यवसाय इत्यर्थः, अनेन वर्तमानकालग्रहः, अनागतमधिकृत्याह-तदसम्प्रयोगचिन्ते'ति तस्याः-वेदनायाः कथञ्चिदभावे सत्यसम्प्रयोगचिन्ता, कथं पुनर्ममानया आयत्यां सम्प्रयोगो न स्यादिति ?, चिन्ता चात्र ध्यानमेव गृह्यते, अनेन च वर्तमानानागतकालग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि त एव वेदितव्यः, तत्र च भावनाऽनन्तरगाथायां कृतैव, किंविशिष्टस्य |सत इदं वियोगप्राणिधानाधत आह-तत्यतिकारे-वेदनाप्रतिकारे चिकित्सायामाकुल-ध्ययं मनः-अन्तःकरणं यस्य स तथाविधस्तस्य, वियोगप्रणिधानाचार्तध्यानमिति गाथार्थः ॥७॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयन्नाह इहाणं विसयाईण वेयणाए य रागरचरस । अवियोगमयसाणं तह संजोगाभिलासोय ॥८॥ व्याख्या-'इष्टानां' मनोज्ञानां विषयादीनामिति विषयाः-पूर्वोक्ताः आदिशब्दाद् वस्तुपरिग्रहः, तथा 'वेदनायाश्च मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1172~ Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू...] Iષ૮ दीप अनुक्रम [२१..] SSC-CGACASSA इष्टाया इति वर्तते, किम् ?-अबियोगाध्यवसानमिति योगः, अविप्रयोगहढाध्यवसाय इति भावः, अनेन वर्तमानकाल- प्रतिक्रमग्रहः, तथा संयोगाभिलापश्चेति, तत्र 'तथेति' धणियमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः, संयोगाभिलापः-कथं ममैभिर्विषया-1 | णाध्यानदिभिरायत्या सम्बन्ध इतीच्छा, अनेन किलानागतकालग्रह इति वृद्धा व्याचक्षते, चशब्दात् पूर्ववदतीतकालग्रह इति,II शतकं किंविशिष्टस्य सत इदमवियोगाध्यवसानाद्यत आह-रागरक्तस्य, जन्तोरिति गम्यते, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागस्तेन रक्तस्यतद्भावितमूर्तेरिति गाथार्थः ॥ ८॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सुराह देविदचकाचट्टित्तणाई गुणरिद्धिपत्यमईयं । अहम नियाचित्रणमण्णाणाणुगयमचंतं ॥५॥ व्याख्या-दीव्यन्तीति देवाः-भवनवास्थादयस्तेषामिन्द्राः-प्रभवो देवेन्द्राः-चमरादयः तथा चक्र-प्रहरणं तेन विज-I याधिपत्ये वर्तितुं शीलमेषामिति चक्रवर्तिनो-भरतादयः, आदिशब्दावलदेवादिपरिग्रहः अमीषां गुणऋद्धयः देवेन्द्रचक्र-18 वादिगुणर्द्धयः, तत्र गुणाः-सुरूपादयः ऋद्धिस्तु विभूतिः, तत्प्रार्थनात्मकं तद्याञ्चामयमित्यर्थः, किं तद्-अधर्म'जघन्य | 'निदानचिंतन' निदानाध्यवसायः, अहमनेन तपस्त्यागादिना देवेन्द्रः स्यामित्यादिरूपः, आह-किमितीदमधमम् ?, उच्यते, यस्मादज्ञानानुगतमत्यन्तं, तथा च नाज्ञानिनो विहाय सांसारिकेषु सुखेष्वन्येषामभिलाष उपजायते, उक्तं च-'अज्ञाना-18 न्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सतिं दधति विभवाभोगतुङ्गाजने वा । विद्वञ्चित्तं भवति च महत् मोक्षकाङ्क्षक- ५८५॥ तानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यसभित्तिं गजेन्द्रः॥ १॥ इति गाथार्थः ॥ ९॥ उक्तश्चतुर्थों भेदः, साम्प्रतमिदं यथाभूतस्य भवति यद्बर्द्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आह मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1173~ Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], एयं चरागोसमोएंकियस्स जीवस्स अहाणं संसारवणं तिरियइमुलं ॥ १० ॥ व्याख्या–‘एतद्’ अनन्तरोदितं 'चतुर्विधं चतुष्प्रकारं 'रागद्वेषमोहाङ्कितस्य' रागादिलाञ्छितस्येत्यर्थः, कस्य ?'जीवस्य' आत्मनः, किम् ? - आर्तध्यानमिति तथा च इयं चतुष्टयस्यापि क्रिया, किंविशिष्टमित्यत आह-संसारवर्द्धनमोघतः, तिर्यग्गतिमूलं विशेषत इति गाथार्थः ॥ १० ॥ आह साधोरपि शूलवेदनाभिभूतस्यासमाधानात् तत्प्रतिकारकरणे च तद्विप्रयोगप्रणिधानापत्तेः तथा तपःसंयमासेवने च नियमतः सांसारिकदुःखवियोगप्रणिधानादार्तध्यानप्राप्तिरिति, अत्रोच्यते, रागादिवशवर्तिनो भवत्येव, न पुनरन्यस्येति, आह च ग्रन्थकारः मत्थस्स व मुणिणो सम्मपरिणामणियमेयति । वधुस्वभावचितणपरस्य समं सतस्स ॥ ११ ॥ व्याख्या - मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, रागद्वेषयोरिति गम्यते, तस्य मध्यस्थस्य, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, मध्यस्थस्यैव नेतरस्य मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तस्य मुनेः, साधोरित्यर्थः, स्वकर्मपरिणामजनितमेतत्-शूलादि, यच्च प्राकर्मविपरिणामिदैवादशुभमापतति न तत्र परितापाय भवन्ति सन्तः, उक्तं च परममुनिभिः - 'पुबिं खलु भो! कडाणं कम्माणं दुचिष्णाणं दुप्पडिकंताणं वेत्ता मोक्खो, नत्थि अवेदइत्ता, तवसा वा झोसइत्ते'त्यादि, एवं वस्तुस्वभावचिन्तनपरस्य 'सम्यक्' शोभनाध्यवसायेन सहमानस्य सतः कुतोऽसमाधानम् ?, अपि तु धर्म्यमनिदानमिति वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥ ११ ॥ परिहृत आशङ्कागतः प्रथमपक्षः, द्वितीयतृतीयावधिकृत्याह 3 पूर्व खलु भोः कृतानां कर्म दुखीणांनां दुष्यतिक्रान्तानां वेदवित्वा मोक्षो नास्त्यत्वा तपसा या क्षपयित्वा. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1174~ Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यककुणनो व पसस्थालंचणस्स पडियारमप्पसावज । तबसंजमपडियार व सेवओ धम्ममणियार्ण ॥ १२ ॥ प्रतिक्रमहारिभ- व्याख्या-कुर्वतो वा, कस्य ?-प्रशस्तं-ज्ञानाद्युपकारकम् आलम्च्यत इत्यालम्बन-प्रवृत्तिनिमित्तं शुभमध्यवसानमि- णाध्यानद्रीया दत्यर्थः, उक्तं च-काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं च णीती अणुसारवेरसं, सालंयसेवी समुवेइ शतकं ॥५८६॥ मोक्वं ॥१॥ इत्यादि, यस्थासौ प्रशस्तालम्बनस्तस्य, किं कुर्वत इत्यत आह-प्रतीकारं चिकित्सालक्षणं, किंविशिष्टम् - 'अल्पसावधम्' अवयं-पापं सहावोन सावद्यम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः स्तोकवचनो वा, अल्पं सावधं यस्मिन्नसावल्प& सावधस्तं, धर्नामनिदानमेवति योगः, कुतः ?-निर्दोषत्वात् , निर्दोषत्वं च वचनप्रामाण्याद्, उक्तं च-गीयस्थो जयणाए कडजोगी कारणमि निद्दोसो'त्तीत्याद्यागमस्योत्सर्गापवादरूपत्वाद्, अन्यथा परलोकस्य साधयितुमशक्यत्वात्, साधु चैतदिति, तथा 'तपःसंयमप्रतिकारं च सेवमानस्येति तपःसंयमावेव प्रतिकारस्तपःसंयमप्रतिकारः, सांसारिकदुःखानामिति गम्यते, तं च सेवमानस्य, चशब्दात्पूर्वोकप्रतिकारं च, किं ?-'धौ धर्मध्यानमेव भवति, कथं सेवमानस्य ?-'अनिदान मिति क्रियाविशेषणं, देवेन्द्रादिनिदानरहितमित्यर्थः, आह-कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षो भवत्वितीदमपि निदानमेव, उच्यते, सत्यमेतदपि निश्चयतः प्रतिषिद्धमेव, कधं !-मोक्षे भवे च सर्वत्र, निस्पृहो मुनिसत्तमः । प्रकृत्याऽभ्यासयोगेन, यत उक्तो । जिनागमे ॥१॥ इति, तथापि तु भावनायामपरिणतं सत्त्वमङ्गीकृत्य व्यवहारत इदमदुष्टमेव, अनेनैव प्रकारेण तस्य । करिष्याम्यवित्तिमथवाध्येश्ये तपापधानयोश्चोधंस्थामि । गणं च नीत्या सारयिष्यामि सालम्ब सेवी समुपैति मोक्षम् ॥1॥ गीतार्थों यतनया | कृतयोगी कारणे निर्दोषः. दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1175~ Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] चित्तशुद्धेः क्रियाप्रवृत्तियोगाचेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ अन्ये पुनरिद 18 गाथाद्वयं चतुर्भेदमप्यार्तध्यानमधिकृत्य साधोः प्रतिषेधरूपतया व्याचक्षते, न च तदत्यन्तसुन्दरं, प्रथमतृतीयपक्षद्वये दिसम्यगाशङ्काया एवानुपपत्तेरिति । आह-उक्तं भवताऽऽर्तध्यानं संसारवर्द्धनमिति, तत्कथम् , उच्यते-बीजत्वात् , बीज-14 त्वमेव दर्शयन्नाह रागो दोसो मोहो व जेण संसारहेववो भणिया । अहमि य ते तिमिणवि तो त संसारतरुवीय ॥ १३ ॥ व्याख्या-रागो द्वेषो मोहश्च येन कारणेन 'संसारहेतवः' संसारकारणानि 'भणिता' उक्काः परममुनिभिरिति गम्यते, NI'आतें च' आर्तध्याने च ते 'त्रयोऽपि' रागादयः संभवन्ति, यत एवं ततस्तत् 'संसारतरुवीजं भववृक्षकारणमित्यर्थः। आह 3 यद्येवमोघत एव संसारतरुवीज ततश्च तिर्यग्गतिमूलमिति किमर्थमभिधीयते ?, उच्यते, तिर्यग्गतिगमननिवन्धनत्वेनैव दिसंसारतरुवीजमिति, अन्ये तु ध्याचक्षते--तिर्यग्गतावेव प्रभूतसत्त्वसम्भवात् स्थितिबहुत्वाच संसारोपचार इति गाथार्थ: H॥१३॥ इदानीमार्तध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते कारोवनीक्षकालालेस्साओ पाइसंकिकिटाओ । महमाणोगियरस कमापरिणामजणिभाभो ॥ १४॥ __ व्याख्या-कापोतनीलकृष्णलेश्याः, किम्भूताः-नातिसंक्लिष्टा रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया नातीवाशुभानुभावा भवन्तीति क्रिया, कस्येत्यत आह-आर्तध्यानोपगतस्य, जन्तोरिति गम्यते, किंनिवन्धना एता इत्यत आह-कर्मपरिणामजनिता, तत्र-'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १॥ एताः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1176~ Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रतिक्रम णाध्यानशतक प्रत सूत्रांक ॥५८७॥ [सू...] कर्मोदयायत्ता इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ आह-कथं पुनरोघत एवाऽऽर्तध्याता ज्ञायत इति ?, उच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवो- पदर्शयन्नाह तस्सवणसोषणपरिदेवणताहणाई किंगाई । इहाणि विओगाविभोगवियणानिमित्ताई ॥ १५ ॥ व्याख्या-तस्य' आर्तध्यायिनः आक्रन्दनादीनि लिङ्गानि, तत्राऽऽक्रन्दनं-महता शब्देन विरवर्ण, शोचनं त्वचुपरिपूर्णनयनस्य दैन्यं परिदेवनं-पुनः२ क्लिष्टभाषणं ताडनम्-उरःशिरकुट्टनकेशलुञ्चनादि, एतानि 'लिङ्गानि' चिहानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगावियोगवेदनानिमित्तानि, तवेष्टवियोगनिमित्तानि तथाऽनिष्टावियोगनिमित्तानि तथा वेदना-18 निमित्तानि चेति गाथार्थः ॥ १५ ॥ किं चान्यत् निंदा व निवकयाई पलंसह सजिम्हभो विभूईओ । पायेइ तासु रजह तयाणपरायणो होह ॥५॥ व्याख्या-निन्दति च' कुत्सति च 'निजकृतानि' आरमकृतानि अल्पफलविफलानि कर्मशिल्पकलावाणिज्यादीन्ये-11 तद्गम्यते, तथा 'प्रशंसति' स्तौति बहुमन्यते 'सविस्मयः' साश्चर्यः 'विभूती' परसम्पद इत्यर्थः, तथा 'प्रार्थयते' अभिलपति परविभूतीरिति, 'तासु रज्यते' तास्थिति प्राप्तासु विभूतिषुरागं गच्छति, तथा 'तदर्जनपरायणो भवति' तासां-विभूतीनामर्जने-उपादाने परायण-उद्युक्तः तदर्जनपरायण इति, ततश्चैवम्भूतो भवति, असावयार्तध्यायीति गाथार्थः ॥१६॥ किं च साइविसथगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमाणपरो । जिणमयमणवेक्संतो वहह अहमि हामि ॥ १७ ॥ व्याख्या-शब्दादयश्च ते विषयाश्च तेषु गृद्धो-मूच्छितः कामावानित्यर्थः, तथा सद्धर्मपराङ्मुखः प्रमादपरः, तत्र दीप अनुक्रम [२१..] ५८७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1177~ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः सँश्चासौ धर्मश्च सद्धर्म:-क्षान्त्यादिकश्चरणधों गृह्यते ततः पराङ्मुखः, 'प्रमादपर' मद्यादिप्रमादासता, 'जिनमतमनपेक्षमाणो वर्तते आर्तध्याने' इति तत्र जिना:-तीर्थकरास्तेषां मतम्-आगमरूपं प्रवचनमित्यर्थः तदनपेक्षमाणः-तनिरपेक्ष इत्यर्थः, किम् ?-वर्त्तते आर्तध्याने इति गाथार्थः ॥१७॥ साम्प्रतमिदमार्तध्यान सम्भवमधिकृत्य यदनुगतं यदनह वर्तते तदेतदभिधित्सुराह तविश्वदेसपिरषा पमायपरसंजयाणुगं झाण । सञ्चप्पमायमूलं वजेय जइजणेणे ॥ १८ ॥ व्याख्या-'तद्' आर्तध्यानमिति योगः, 'अविरतदेशविरतप्रमादपरसंयतानुग'मिति तत्राविरता-मिथ्यादृष्टयः सम्य४ दृष्टयश्च देशविरता:-एकवाद्यणुव्रतधरभेदाः श्रावकाः प्रमादपरा:-प्रमादनिष्ठाश्च ते संयताश्च २ ताननुगच्छतीति विग्रहः, नवाप्रमत्तसंयतानिति भावः, इदं च स्वरूपतः सर्वप्रमादमूलं वर्तते, यतश्चैवमतो 'वर्जयितव्य' परित्यजनीयं, केन ?-'यतिजनेन' साधुलोकेन, उपलक्षणत्वात् श्रावकजनेन, परित्यागाईत्वादेवास्येति गाथार्थः ॥ १८ ॥ उक्तमार्तध्यानं, साम्प्रतं रौद्रध्यानावसरः, तदपि चतुर्विधमेव, तद्यथा-हिंसानुबन्धि मृषानुबन्धि स्तेयानुबन्धि विषयसंरक्षणानुबन्धि च, उक्कं चोमाखातिवाचकेन-"हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्र"मित्यादि ( तत्त्वार्थे अ०९-सू०३६)॥ तत्राऽऽयभेद-12 प्रतिपादनायाह सत्तबहवेहबंधणउहणंकणमारणाइपणिहानं । अइकोहगावरचं निग्विणमशसोऽहमदिवागं ॥ १९॥ व्याख्या-सया-एकेन्द्रियादयः तेषां वधवेधवन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणिधानं तत्र वध:-ताडनं करकशखतादिभिः दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1178~ Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक - -- - आवश्यक- वेधस्तु नासिकादिवेधन कीलिकादिभिः बन्धन-संयमनं रज्जुनिगडादिभिः दहनं-प्रतीतमुल्मुकादिभिः अङ्कन लाञ्छनं ४ प्रतिक्रमहारिभ- श्वगालचरणादिभिः मारणं-प्राणवियोजनमसिशक्तिकुन्तादिभिः, आदिशब्दादागाढपरितापनपाटनादिपरिग्रहा, एतेषु णाध्यानद्रीया प्रणिधानम् अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्यवसानमित्यर्थः, प्रकरणाद् रौद्रध्यानमिति गम्यते, किंविशिष्टं प्रणिधानम् ?- शतक 'अतिक्रोधग्रहास्तम्' अतीवोत्कटो यः क्रोधः-रोषः स एवापायहेतुत्वादह इच ग्रहस्तेन ग्रस्तम्-अभिभूत, क्रोधग्रहणाच ॥५८८॥ मानादयो गृह्यन्ते, किंविशिष्टस्य सत इदमित्यत आह-निघृणमनसः' निघृण-निर्गतदयं मनः-चित्तमन्तःकरणं यस्य स निघृणमनास्तस्य, तदेव विशेष्यते-'अधमविपाक'मिति अधमः-जघन्यो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाकः-परिणामो यस्य तत्तथाविधमिति गाथार्थः ॥ १९ ॥ उक्तः प्रथमो भेदः, साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह पिखुणासम्भासम्भूपभूपधायाइवषणपणिहाणं । मायाविणोऽहसंधणपररस पच्छाधावस्स ॥ २० ॥ व्याख्या-'पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधान'मित्यत्रानिष्टस्य सूचकं पिशुनं पिशुनमनिष्टसूचकं 'पिशुनं सूचकं विदु'रिति वचनात्, सभायां साधु सभ्यं न सभ्यमसभ्य-जकारमकारादिन सजूतमसद्भूतमनृतमित्यर्थः, तच्च व्यवहारमयदर्शनेनोपाधिभेदतनिधा, तद्यथा-अभूतोद्भावनं भूतनिहवोऽर्थान्तराभिधानं चेति, तत्राभूतोभावनं यथा-1 सर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिहवस्तु नास्त्येवात्मेत्यादि, गामश्वमित्यादि अवतोऽर्थान्तराभिधानमिति, भूतानां-सत्वाना-IF५८८॥ है मुपधातो यस्मिन् तद्भूतोपघातं, छिन्द्धि भिन्द्धि व्यापादय इत्यादि, आदिशब्दः प्रतिभेदं स्वगतानेकभेदप्रर्शनार्थः, यथा पिशुनमनेकधाऽनिष्टसूचकमित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं-दृढाध्यवसानलक्षणं, दीप अनुक्रम [२१..] १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1179~ Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], रौद्रध्यानमिति प्रकरणाद्गम्यते, किंविशिष्टस्य सत इत्यत आह-माया निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मायाविनोवणिजादेः, तथा 'अतिसन्धानपरस्य' परवञ्चनाप्रवृत्तस्य, अनेनाशेषेष्वपि प्रवृत्तिमध्या (स्या) ह, तथा 'प्रच्छन्नपापस्य' कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, अथवा धिग्जातिककुतीर्थिकादेरसद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापयतः तथाहि गुणरहितमप्यात्मानं यो गुणवन्तं ख्यापयति न तस्मादपरः प्रच्छन्नपापोऽस्तीति गाथार्थः ॥ २० ॥ उक्तो द्वितीयो भेदः, साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयति-तह कोहाट भूवषायणमनं परदवहरणचित्तं परलोयावाय निरवेक्त्रं ॥ २१ ॥ व्याख्या -- तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकार सादृश्योपदर्शनार्थः, तीव्रौ-उत्कट तो क्रोधलोभी च २ ताभ्यामाकुल:अभिभूतस्तस्य जन्तोरिति गम्यते, किं ? - 'भूतो पहननमनार्य' मिति हन्यतेऽनेनेति हननम् उप-सामीप्येन हननम् उपहननं भूतानामुपहतनं भूतोपहननम्, आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य नाऽऽर्यमनायें, किं तदेवंविधमित्यत आह-परद्रव्यहरणचिसं रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं २ सचित्तादि तद्विषयं हरणचित्तं २ परद्रव्यहरणचित्तं, तदेव विशेष्यतेकिम्भूतं तदित्यत आह- 'परलोकापायनिरपेक्ष' मिति, तत्र परलोकापायाः- नरकगमनादयस्तनिरपेक्षमिति गाथार्थः ॥ २१ ॥ उक्तस्तृतीयो भेदः, साम्प्रतं चतुर्थ भेदमुपदर्शयन्नाह - सद्दाद्दविसयसाद्दणघणसारणपरायणमनि । सङ्घाभिसं कणपरोवधाय कसाव चितं ॥ १२ ॥ व्याख्या - शब्दादयश्च ते विपयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनं कारणं शब्दादिविषयसाधनं च ( तच्च तद्धनं च शब्दा दिविषयसाधनधनं तत्संरक्षणे- तत्परिपालने परायणम् - उद्युक्तमिति विग्रहः, तथाऽनिष्टं - सतामनभिलषणीयमित्यर्थः, इदमेव मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1180~ Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक- विशेष्यते-सर्वेषामभिशङ्कनेनाकुलमिति संबध्यते-न विनः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात्सर्वेषां यथाशक्त्यो प्रतिक्रमहारिभ पघात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा कलुषयन्त्यात्मानमिति कलुषा:-कषायास्तैराकुलं-व्याप्तं यत् तत् तथोच्यते, णाध्यानद्रीया चित्तम्-अन्तःकरणं, प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति गम्यते, इह च शब्दादिविषयसाधनं धनविशेषणं किल 'श्रावकस्य चैत्यध-टू शतक ॥५८९||नसंरक्षणे न रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ २२॥ साम्प्रतं विशेषणाभिधानगर्भमुपसंहरन्नाह इब करणकारणाणुमा बिसयमशुचितणं भयम्भेयं । अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहष्ण ॥ २३॥ व्याख्या-'इय' एवं करणं स्वयमेव कारणमन्यैः कृतानुमोदनमनुमतिः करणं च कारणं चानुमतिश्च करणकारणा-13 नुमतयः एता एव विषयः-गोचरो यस्य तस्करणकारणानुमतिविषयं, किमिदमित्यत आह-'अनुचिन्तन' पर्यालोचनमि-16) त्यर्थः, 'चतुर्भेद' इति हिंसानुबन्ध्यादि चतुष्प्रकारं, रौद्रध्यानमिति गम्यते, अधुनेदमेव स्वामिद्वारेण निरूपयति-अविदरताः-सम्यग्दृष्टयः, इतरे च देशासंयता:-श्रावकाः, अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह, अविरतदेशासंयता एव जनाः २ तेषां मनांसि-चित्तानि तैः संसेवितं, सञ्चिन्तितमित्यर्थः, मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रधानाङ्गख्यापनार्थम्, 'अधन्य'मित्यश्रेयस्कर पापं निन्द्यमिति गाथार्थः ॥२३॥ अधुनेदं यथाभूतस्य भवति यद्वर्द्धनं चेदमिति तदेतदभिधातुकाम आह ॥५८९॥ एवं पावि रागदोसयोहाउकस्स जीवरस । रोइज्माण संसारखवणं गरमगामूलं ॥ २४ ॥ व्याख्या-'एतद्' अनन्तरोक 'चतुर्विध चतुष्प्रकार रागद्वेषमोहाङ्कितस्य आकुलस्य वेति पाठान्तरं, कस्य ?-'जीवस्य' मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1181~ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक 4--04 [सू...] आत्मनः, किं-रौद्रध्यानमिति, इयमत्र चतुष्टयस्यापि क्रिया, किंविशिष्टमिदमित्यत आह-'संसारवर्द्धनम्' ओषतः 'नर-1 कगतिमूलं' विशेषत इति गाथार्थः ॥ २४ ॥ साम्प्रतं रौद्रध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते कायोपनीलकाला लेसाभो तिवसंकिलिहाओ। रोहझागोवगयस्स कम्मपरिणामजाणियाओ ॥२५॥ व्याख्या-पूर्ववद् व्याख्येया, एतावाँस्तु विशेषः-तीनसंक्लिष्टाः-अतिसंक्लिष्टा एता इति, आह-कथं पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति !, उच्यते, लिङ्गेभ्यः, तान्येवोपदर्शयति लिंगाई तस्स असण्णपालनाणाविहामरणदोसा । वेसि चिय हिंसादसु बाहिरकरणोयउत्तरस ॥ २६ ॥ व्याख्या-लिङ्गानि' चिह्नानि 'तस्य' रौद्रध्यायिनः, 'उत्सन्नबहुलनानाविधामरणदोषा' इत्यत्र दोषशब्दः प्रत्येकम| भिसंबध्यते, उत्सन्नदोषः बहुलदोषः नानाविधदोषः आमरणदोषश्चेति, तत्र हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रवर्तमान उत्सन्नम्-अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इत्युत्सन्नदोषः, सर्वेष्वपि चैवमेव प्रवर्तत इति बहुलदोषः, नानाविधेषु त्वक्त्वक्षणनयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्तत इति नानाविधदोषः, महदापद्गतोऽपि स्वतः महदापद्गतेऽपि च परे| आमरणादसञ्जातानुतापः कालसौकरिकवद् अपि त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष इति तेष्वेव हिंसादिषु, आदिशब्दान्मृषावादादिपरिग्रहः, ततश्च तेष्वेव हिंसानुबन्ध्यादिषु चतुर्भेदेषु, किं ? बाह्यकरणोपयुक्तस्य सत उत्सनादिदोषलिशानीति, बाह्यकरणशब्देनेह वाकायौ गृह्यते, ततश्च ताभ्यामपि तीव्रमुपयुक्तस्येति गाथार्थः ॥ किंच परपसणं महिनंदह निरवेषसो निहो निरणुतायो । हरिसिजा कयपायो रोइज्माणोवगवितो ॥ २७ ॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1182~ Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रमणाध्यान 5A5-05 प्रत सूत्रांक [सू...] शतक दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक- व्याख्या-इहाऽऽत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य व्यसनम्-आपत् परब्यसनं तद् 'अभिनन्दति' अतिक्लिष्टचित्त-18 नन्दात' अतिलिष्टाचत्त- हारिभ- दत्वाद्वहु मन्यत इत्यर्थः, शोभनमिदं यदेतदित्थं संवृत्तमिति, तथा 'निरपेक्ष' इहान्यभविकापायभयरहितः, तथा निर्गत-10 द्रीया दयो नियः, परानुकम्पाशून्य इत्यर्थः, तथा निर्गतानुतापो निरनुतापः, पश्चात्तापरहित इति भावः, तथा किंच-'हृष्यते ॥५९०॥ तुष्यति 'कृतपापः' निर्वर्तितपापः सिंहमारकवत्, क इत्यत आह-रौद्रध्यानोपगचित्त इति, अमूनि च लिङ्गानि वर्तन्त ४ इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ उक्तं रौद्रध्यानं, साम्प्रतं धर्मध्यानावसरः, तत्र तदभिधित्सयवादाविदं द्वारगाथाद्वयमाह माणस भावणाभो देख कालं तहाऽऽखणबिसेसं । मालंबणं कर्म झाइयवयं ने य सायारो ॥ २८ ॥ ततोऽणुप्पदामो लेस्सा लिग फलं च नाकणं । धम्म प्राइज मुणी तगयज्ञोगो तभी मुकं ॥ २९ ॥ व्याख्या-'ध्यानस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, कि?-भावना ज्ञानाद्याः, ज्ञात्वेति योगः, किंच-'देशं तदुचितं, काला तथा आसनविशेषं तदुचितमिति, 'आलम्बनं' वाचनादि, 'क्रम' मनोनिरोधादि, तथा 'ध्यातव्यं ध्येयमाज्ञादि, तथा ये| |च 'ध्यातार!' अप्रमादादियुक्ताः, ततः 'अनुप्रेक्षा' ध्यानोपरमकालभाविन्योऽनित्यत्वाद्यालोचनारूपाः, तथा 'लेश्या' शुद्धा एव, तथा 'लिङ्गं श्रद्धानादि, तथा 'फलं' सुरलोकादि, चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनपरः, एतद् ज्ञात्वा, किं'धर्म्यम्' इति धर्मध्यानं ध्यायेन्मुनिरिति, 'तत्कृतयोगः' धर्मध्यानकृताभ्यासः, 'ततः' पश्चात् शुक्लध्यानमिति गाथाद्वयसमासार्थः ॥ २८-२९ ॥ व्यासार्थं तु प्रतिद्वारं ग्रन्धकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह कषवभासो भावणादि शायरस जोग्गयमुवेइ । ताओ य नाणसण परित्तवेरगजणियामओ ॥३०॥ ॐ5%%E5%2 AGAR ॥५९०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1183~ Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] व्याख्या-पूर्व-ध्यानात् प्रथमं कृता-निर्वतितोऽभ्यासः-आसेवनालक्षणो येन स तथाविधः, काभिः पूर्वकृताभ्यासः -'भावनाभिः' करणभूताभिः भावनासु वा-भावनाविषये पश्चादू 'ध्यानस्य' अधिकृतस्य 'योग्यताम्' अनुरूपताम् 'उपैति' यातीत्यर्थः, 'ताश्च' भावना ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यनियता वर्तन्ते, नियताः-परिच्छिन्नाः पाठान्तरं वा । जनिता इति गाथार्थः ॥ ३०॥ साम्प्रतं ज्ञानभावनास्वरूपगुणदर्शनायेदमाह णाणे विचम्भासो कुणद मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो साद सुनिश्चलमईयो ॥३१॥ व्याख्या-'ज्ञाने' श्रुतज्ञाने, नित्य-सदा अभ्यास:-आसेवनालक्षणः 'करोति' निर्वर्तयति, किं ?-मनसः--अन्तःकर-| णस्य, चेतस इत्यर्थः, धारणम्-अशुभव्यापारनिरोधेनावस्थानमिति भावना, तथा 'विशुद्धिं च तत्र विशोधनं विशुद्धिः, सूत्रार्थयोरिति गम्यते, तां, चशब्दाद्भवनिर्वेदं च, एवं 'ज्ञानगुणमुणितसार' इति ज्ञानेन गुणानां-जीवाजीवाश्रितानां 'गुणपर्यायवत् द्रव्य मिति (तत्त्वा० अ०५ सू० ३७) वचनात् पर्यायाणां च तदविनाभाविना मुणित:-ज्ञातः सार:परमार्थों येन स तथोच्यते, ज्ञानगुणेन वा-ज्ञानमाहात्म्येनेति भावः ज्ञातः सारो येन, विश्वस्येति गम्यते, स तथाविधः, ततश्च पश्चाद् ध्यायति' चिन्तयति, किंविशिष्टः सन् १-सुष्टु-अतिशयेन निश्चला-निष्पकम्पा सम्यग्ज्ञानतोऽन्यथाप्रबृत्तिकम्परहितेति भावः मतिः-युद्धिर्यस्य स तथाविध इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ उक्ता ज्ञानभावना, साम्पतं दर्शनभावना-1 स्वरूपगुणदर्शनार्थमिदमाह संकाइदोसरदिभो पसमथेजाइगुणगणोवेभो । होइ असमूहमणो दंसणसुदी झाण मि ॥ ३२ ॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1184 ~ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक हारिभ द्रीया शतकं प्रत सूत्रांक ॥५९॥ [सू...] व्याख्या-'शङ्कादिदोषरहितः' शङ्कन-शङ्का, आदिशब्दात् काङ्गादिपरिग्रहः, उक्तं च-'शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्य- प्रतिक्रमदृष्टिप्रशंसापरपाषण्डसंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ( तत्वा० अ०१सू०१८)इति, एतेषां च स्वरूपं प्रत्याख्यानाध्ययनेणाध्यानन्यक्षेण वक्ष्यामः, तत्र शङ्कादय एव सम्यक्त्वाख्यप्रथमगुणातिचारत्वात् दोषाः शङ्कादिदोषास्तैः रहितः-त्यक्ता, उक्तदोपरहितत्वादेव, किं -'प्रश(श्र)मस्थैर्यादिगुणगणोपेतः' तत्र प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमः-खेदः, स च स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः, | स्थैर्य तु जिनशासने निष्पकम्पता, आदिशब्दात्प्रभावनादिपरिग्रहः, उक्तं च-सपरसमयकोसलं थिरया जिणसासणे' पभावणया । आययणसेव भत्ती देसणदीवा गुणा पंच ॥१॥' प्रश्रमस्थयोदय एव गुणास्तेषां गणः-समूहस्तेनोपेतो-युक्तो यः स तथाविधा, अथवा प्रशमादिना स्थैर्यादिना च गुणगणेनोपेतः २, तत्र प्रशमादिगुणगणः-प्रशमर्सवेगनिर्वेदानुक-1 म्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणः, स्थैर्यादिस्तु दर्शित एव, य इत्थम्भूतः असौ भवति 'असम्मूढमनाः' तत्त्वान्तरेऽभ्रान्तचित्त इत्यर्थः, 'दर्शनशुद्ध्या' उक्तलक्षणया हेतुभूतया, क?-ध्यान इति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ उक्ता दर्शनभावना, साम्प्रतं चारित्रभावनास्वरूपगुणदर्शनायेदमाह नवकम्माणायाणं पोराणविणिज सुभावार्ण । चारित्तभाषणाए माणमयत्तेना व समेच ॥ ३३ ॥ व्याख्या-नवकर्मणामनादान'मिति नवानि-उपचीयमानानि प्रत्यग्राणि भण्यन्ते, क्रियन्त इति कर्माणि-ज्ञानाव-17 ||५९२॥ रणीयादीनि तेषामनादानम्-अग्रहणं चारित्रभावनया 'समेति' गच्छतीति योगः, तथा 'पुराणविनिर्जरां' चिरन्तनक्षपणा खपरसमयकौशल स्थिरता जिनकासने प्रभावना । आयतनसेवा भक्तिः दर्शनदीपका गुणाः पञ्च ॥1॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1185~ Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], मित्यर्थः, तथा 'शुभादान' मिति शुभं पुण्यं सातसम्यक्त्वहास्यरति पुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्रात्मकं तस्याऽऽदानं-ग्रहणं, किं ?-'चारित्रभावनया' हेतुभूतया ध्यानं च चशब्दान्नवकर्मानादानादि च 'अयलेन' अक्लेशेन 'समेति' गच्छति प्राप्तोतीत्यर्थः । तत्र चारित्रभावनयेति कोऽर्थः !-'चर गतिभक्षणयोः' इत्यस्य 'अर्तिलूधूसूखनिसहिचर इत्रन्' (पा० ३-२१८४ ) इतीन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रम् एतदुक्तं भवति - इहाम्यजन्मोपात्ताष्टविध कर्मसञ्चयापचयाय चरणभावश्चारित्रमिति, सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपा क्रिया इत्यर्थः, तस्य भावना - अभ्यासश्चारित्र भावनेति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ उक्ता चारित्रभावना, साम्प्रतं वैराग्यभावनास्वरूपगुणदर्शनार्थमाह- सुविदियजगरसभावो निस्संयो निभो निरासो य । रम्भावियमणो शाणंमि सुनिश्चलो होइ ॥ २४ ॥ व्याख्या- सुष्ठु - अतीव विदितः ज्ञातो जगतः - चराचरस्य, यथोक्तं- 'जगन्ति जङ्गमान्याहुर्जगद् ज्ञेयं चराचरम्' खो भावः स्वभावः,- 'जन्म मरणाय नियतं बन्धुर्दुःखाय धनमनिर्वृतये । तन्नास्ति यन्न विपदे तथापि लोको निरालोकः ॥ १ ॥ इत्यादिलक्षणो येन स तथाविधः कदाचिदेवम्भूतोऽपि कर्मपरिणतिवशात्ससङ्गो भवत्यत आह-'निःसङ्गः' विषयजस्नेहसङ्गरहितः, एवम्भूतोऽपि च कदाचित्सभयो भवत्यत आह- 'निर्भयः' इहलोकादिसप्त भयविप्रमुक्तः, कदाचिदेवम्भूतोऽपि विशिष्टपरिणत्यभावात्परलोकमधिकृत्य साशंसो भवत्यत आह- 'निराशंसश्च' इहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तः, चशब्दात्तथाविधक्रोधादिरहितश्च य एवंविधो वैराग्यभावितमना भवति स खस्वज्ञानाद्युपद्रवरहितत्वाद् ध्याने सुनिश्चलो भवतीति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~1186~ Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रमणाध्यानशतक प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक-|| गाथार्थः ॥ ३४ ॥ उक्ता वैराग्यभावना । मूलद्वारगाथाद्वये ध्यानस्य भावना इति व्याख्यातम् , अधुना देशद्वारव्याचि- हारिभ ख्यासयाऽऽहद्रीया निचं पिय जवापसूनसगकुसीलवजिपं जहणो । ठाणं वियर्ण भणिय विसेसओ माणकालंमि ॥ ३५ ॥ ॥५९२॥ व्याख्या-'नित्यमेव' सर्वकालमेष, न केवलं ध्यानकाल इति, किं ?-'युवतिपशुनपुंसककुशीलपरिवर्जितं यतेः स्थान विजनं भणित'मिति, तत्र युवतिशब्देन मनुष्यत्री देवी च परिगृह्यते, पशुशब्देन तु तिर्यस्त्रीति नपुंसक-प्रतीतं कुत्सित-निन्दितं शील-वृत्तं येषां ते कुशीलाः, ते च तथाविधा द्यूतकारादयः, उक्तं च-'जूायरसोलमेंठा बट्टा उम्भायगादिणो जे य । एए होति कुसीला वजेयवा पयत्तेणं ॥१॥ युवतिश्च पशुश्चेत्यादि द्वन्द्वः, युवत्यादिभिः परि-समन्तात् वर्जित-रहितमिति विग्रहः, यतेः-तपस्विनः साधो, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति साव्याश्च योग्यं यतिनपुंसकस्य भाच, किं-स्थानम्-अवकाशलक्षणं, तदेव विशेष्यते-युवत्यादिव्यतिरिक्तशेषजनापेक्षया विगतजनं विजन भणितम्-उक्तं तीर्थकरैर्गणधरैश्चेदमेवम्भूतं नित्यमेव, अन्यत्र प्रवचनोकदोषसम्भवात् , विशेषतो ध्यानकाल इत्यपरिणतयोगादिनाऽन्यत्र ध्यानस्याऽऽराधयितुमशक्यत्वादिति गाधार्थः ॥ ३५ ।। इत्थं तावदपरिणतयोगादीनां स्थानमुक्तम् , अधुना परिणतयोगादीनधिकृत्य विशेषमाह धिरकषजोगाणे पुण मुणीण माणे सुनिचलमणाणं । गाममि जणाइण्णे सुष्णे रणे पण विसेसो ॥३॥ १ घूतकाराः कलाला मेण्टाभट्टा उहागका इत्यादयो ये च । एते भवन्ति शीला वर्गवितव्याः प्रयोग ॥३॥ दीप अनुक्रम [२१..] ॥५९२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1187~ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] व्याख्या-तत्र स्थिरा:-संहननधृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता-निर्वतिता अभ्यस्ता इतियावत्, के ?-युज्यन्त इति योगा:-ज्ञानादिभावनाव्यापाराः सत्त्वसूत्रतपःप्रभृतयो वा यैस्ते कृतयोगाः, स्थिराश्च ते कृतयोगाश्चेति विग्रहस्तेषाम् , द अत्र च स्थिरकृतयोगयोश्चतुर्भङ्गी भवति, तद्यथा-थिरे णामेगे णो कयजोगे'इत्यादि, स्थिरावा-पौनःपुन्यकरणेन परिचि ताः कृता योगा यैस्ते तथाविधास्तेषां, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि!-तृतीयभङ्गवतां न शेषाणां, स्वभ्यस्तयोगाना वा मुनीनामिति, मन्यन्ते जीवादीन् पदार्थानिति मुनयो-विपश्चित्साधवस्तेषां च, तथा ध्याने अधिकृत एव धर्मध्याने सुष्टु-अतिशयेन निश्चलं-निष्प्रकम्पं मनो येषां ते तथाविधास्तेषाम् , एवंविधानां स्थानं प्रति ग्राम जनाकीणे शून्येऽरण्ये वा न विशेष इति, तत्र असति बुझ्यादीन गुणान् गम्यो वा करादीनामिति ग्रामः-सन्निवेशविशेषः, इह 'एकग्रहणे तज्जाINIतीयग्रहणा'नगरखेटकर्षटादिपरिग्रह इति, जनाकीणे-जनाकुले ग्राम एवोद्यानादी वा, तथा शून्ये तस्मिन्नेवारण्ये वा कान्तारे वेति, वा विकल्पे, न विशेषो-न भेदः, सर्वत्र तुल्यभावत्वात्परिणतत्वात्तेषामिति गाथार्थः ॥ ३६॥ यतश्चैव-10 जो (तो) जस्य समाहाणं होज मणोययणकायजोगाणं । भूओवरोहरहिमओ सो देसो झायमाणस ॥३॥ ___ व्याख्या-यत एव तदुक्तं 'ततः तस्मारकारणाद् 'यत्र' ग्रामादौ स्थाने 'समाधान' स्वास्थ्य भवति' जायते, केषा-14 | मित्यत आह-'मनोवाकाययोगानां' प्राग्निरूपितस्वरूपाणामिति, आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाकाययोगसमाधानं तत्र कोपयुज्यते !, न हि तन्मयं ध्यानं भवति, अत्रोच्यते, तत्समाधानं तावन्मनोयोगोपकारकं, ध्यानमपि च तदात्मकं भव-13 दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1188~ Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रम शतकं प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक-दत्येव, यथोक्तम्-एवंविहा गिरा मे वत्तवा एरिसी न वत्तथा । इय वेयालियवकरस भासओ वाइगं झाणं ॥१॥ तथा- हारिभ- 'सुसमाहियकरपायस्स अकजे कारणंमि जयणाए । किरियाकरणं जं तं काइयझाणं भवे जइणो ॥२॥ न चात्र समा-17 द्रीया धानमात्रकारित्वमेव गृह्यते, किन्तु भूतोपरोधरहितः, तत्र भूतानि-पृथिव्यादीनि उपरोधः-तत्सकहनादिलक्षणः तेन ॥५९३॥ रहितः-परित्यक्तो यः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणाद' अनृतादत्तादानमैथुनपरिग्रहाद्युपरोधरहितश्च स देशो 'ध्यायतः' चिन्तयता, उचित इति शेषः, अयं गाथार्थः ॥ ३७ ॥ गतं देशद्वारम् , अधुना कालद्वारमभिधित्सुराह कालोऽवि सोचिय जदि जोगसमाहाणमुत्तमं लहछ । न उ दिवसनिसावेलाइनियमणं सादगो भणियं ॥ ३८ ॥ व्याख्या-कलनं कालः कलासमूहो वा कालः, स चार्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यगतिक्रियोपलक्षितो दिवसादिरवसेयः, अपिशब्दो देशानियमेन तुल्यत्वसम्भावनार्थः, तथा चाह-कालोऽपि स एव, ध्यानोचित इति गम्यते, 'यत्र' काले 'योगसमाधान' मनोयोगादिस्वास्थ्यम् 'उत्तम प्रधानं 'लभते' प्राप्नोति, 'नतुन पुनर्नेव च, तुशब्दस्य पुनःशब्दा-1 र्थत्वादेवकारार्थत्वादा, किं-दिवसनिशावेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितमिति, दिवसनिशे प्रतीते, वेला सामान्यत एव, तदेकदेशो मुहुर्तादिः, आदिशब्दात् पूर्वाहापराहादि वा, एतनियमनं दिवैवेत्यादिलक्षणं, ध्यायिनः-सत्वस्य भणितम्-1 उक्त तीर्थकरगणधरैनैवेति गाथाः ॥ ३८॥ गतं कालद्वारं, साम्प्रतमासनविशेषद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽह एवंविधाः गीर्मया वक्तव्येप्पी न बक्तम्या । इति विचारितवाक्यस्य भाषमाणस्थ बाचिकं भयानम् ॥1॥सुसमाहितकरपादस्याकार्ये कारणे यतनया। कियाकरणं यतकायिक भवेत् पतेः ध्यान ॥२॥ दीप अनुक्रम [२१..] %A5 ॥५९३॥ k%E5 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1189~ Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] *%*** आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], विदेहावस्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ। झाइया तदवस्यो ठिओो मिसण्णो नियण्णो वा ॥ ३९ ॥ व्याख्या - इहैव या काचिद् 'देहावस्था' शरीरावस्था निषण्णादिरूपा, किं ?-'जिता' इत्यभ्यस्ता उचिता वा, तथाऽनुष्ठीयमाना 'न ध्यानोपरोधिनी भवति' नाधिकृत धर्मध्यामपीडाकरी भवतीत्यर्थः, 'ध्यायेत् तदवस्थ' इति सैवावस्था यस्य स तदवस्थः, तामेव विशेषतः प्राह- 'स्थितः' कायोत्सर्गेणेपन्नतादिना 'निषण्णः' उपविष्टो वीरासनादिना 'निर्विण्णः सन्नि विष्टो दण्डायतादिना 'वा' विभाषायामिति गाथार्थः ॥ ३९॥ आह-किं पुनरयं देशकालासनानामनियम इति ?, अत्रोच्यते, • माणा गुण जं देसकालचेद्वासु परकेवढाइला पत्ता बहुसो समिपावा ॥ ४० ॥ व्याख्या- 'सर्वासु' इत्यशेषासु, देशकालचेष्टासु इति योगः, चेष्टा देहावस्था, किं ?- वर्तमानाः' अवस्थिताः, के ?'मुनयः' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः 'यद्' यस्मात्कारणात् किं ? -वरः- प्रधानश्वासी केवलादिलाभश्च २ तं प्राप्ता इति, आदिशब्दान्मनः पर्याय ज्ञानादिपरिग्रहः, किं सकृदेव प्राप्ताः १, न केवल वर्ज 'बहुशः' अनेकशः, किंविशिष्टाः :- 'शान्तपापाः' तत्र पातयति नरकादिष्विति पापं शान्तम्-उपशमं नीतं पापं यैस्ते तथाविधा इति गाथार्थः ॥ ४० ॥ तो देसकालचेानियमो झाणस्स नत्थि समर्थमि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा (१) ॥ ७१ ॥ व्याख्या - यस्मादिति पूर्वगाथायामुक्तं तेन सहास्याभिसम्बन्धः, तस्माद्देशकालचेष्टानियमो ध्यानस्य 'नास्ति' न विद्यते, क :-'समये' आगमे, किन्तु 'योगानां' मनःप्रभृतीनां 'समाधान' पूर्वोक्तं यथा भवति तथा (प्र) 'यतितव्यं' (प्र)यतः कार्य इत्यत्र नियम एवेति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ गतमासनद्वारम् अधुनाऽऽ लम्बन द्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~ 1190~ Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [स...] आवश्यकआलंबणा चायणपुष्णपरिवहणाणुचिताओ । सामाझ्याइयाई सबम्मावस्सयाई च ॥ ४ ॥ प्रतिक्रमहारिभ- व्याख्या-इहधर्मध्यानारोहणार्थमालम्ब्यन्त इत्यालम्बनानि वाचनाप्रश्नपरावर्तनानुचिन्ता' इति तत्र वाचनं वाचना, णाध्यानद्रीया विनेयाय निर्जरायै सूत्रादिदानमित्यर्थः, शङ्किते सूत्रादौ संशयापनोदाय गुरुप्रच्छनं प्रश्न इति, परावर्तनं तु पूर्वाधीतस्यैव शतकं सूत्रादेरविस्मरणनिर्जरानिमित्तमभ्यासकरणमिति, अनुचिन्तनम् अनुचिन्ता मनसैवाविस्मरणादिनिमित्तं सूत्रानुस्मरण- ॥५९४॥ ४ मित्यर्थः, वाचना च प्रश्नश्चेत्यादि द्वन्द्वः, एतानि च श्रुतधर्मानुगतानि वर्तन्ते, तथा सामायिकादीनि सद्धर्मावश्यकानि3 चेति, अमूनि तु चरणधर्मानुगतानि वर्तन्ते, सामायिकमादौ येषां तानि सामायिकादीनि, तब सामायिक प्रतीतम् , आदिशब्दान्मुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादिलक्षणसकलचक्रवालसामाचारीपरिग्रहो यावत् पुनरपि सामायिकमिति, एतान्येव विधिवदासेव्यमानानि सन्ति-शोभनानि सन्ति च तानि चारित्रधर्मावश्यकानि चेति विग्रहः, आवश्यकानि-नियमतः करणीयानि, चः समुच्चये इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ साम्प्रतममीषामेवाऽऽलम्बनत्वे निवन्धनमाह विसमंमि समारोहह दवदवालंपणो जहा पुरिसो । सुत्ताहकवाल यो सहशाणवर समारद ॥॥ व्याख्या-'विषमे निम्ने दुस्सबरे 'समारोहति' सम्यगपरिक्लेशेनोय याति, कः-दृढ़-पलवद्रव्यं रज्ज्वाद्यालम्बनं यस्य स तथाविधः, यथा 'पुरुषः पुमान् कश्चित् , सूत्रादिकृतालम्बनः' वाचनादिकृतालम्बन इत्यर्थः, 'तथा' तेनैव प्रका-18५९४॥ रेण 'ध्यानवर' धर्मध्यानमित्यर्थः, समारोहतीति गाथार्थः॥४३॥ गतमालम्बनद्वारम्, अधुना क्रमद्वारावसरः, तत्र लापवार्थ धर्मस्य शुक्लस्य च (तं) प्रतिपादयन्नाह दीप अनुक्रम [२१..] 465 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1191~ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] ************ 96% आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], झापविकिमो होइ मनोजोगनिहाईयो। भवकाले केवलिनो सेसाण जहासमाहीए ॥ ७४ ॥ व्याख्या - ध्यानं प्राग्निरूपितशब्दार्थ तस्य प्रतिपत्तिक्रम इति समासः, प्रतिपत्तिक्रमः - प्रतिपत्तिपरिपाठ्यभिधीयते, स च भवति मनोयोगनिग्रहादिः, तत्र प्रथमं मनोयोगनिग्रहः ततो वाग्योगनिग्रहः ततः काययोगनिग्रह इति, किमयं सामान्येन सर्वथैवेत्थम्भूतः क्रमो १, न, किन्तु भवकाले केवलिनः, अन्त्र भवकालशब्देन मोक्षगमनप्रत्यासन्नः अन्तर्मुहर्तप्रमाण एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिगृह्यते, केवलमस्यास्तीति केवली तस्य, शुलध्यान एवायं क्रमः, शेषस्यान्यस्य धर्मध्यानप्रतिपत्तुर्योगकालावाश्रित्य किं ? - यथासमाधिने'ति यथैव स्वास्थ्यं भवति तथैव प्रतिपत्तिरिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ गतं क्रमद्वारम् इदानीं ध्यातव्यमुच्यते तचतुर्भेदमाज्ञादिः, उक्तं च- "आज्ञाऽपाय विपाकसंस्थानविचयाय धर्म्य' (तत्त्वामें अ० ९ सू० ३७ ) मित्यादि, तत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाह सुनिज्मणाइगिणं भूषहियं भूषभावणमहन्यं । अभिषमजियं महत्वं महाणुभावं महाविसवं ॥ ४५ ॥ व्याख्या - सुष्ठु - अतीव निपुणा-कुशला सुनिपुणा ताम्र, आज्ञामिति योगः, नैपुण्यं पुनः सूक्ष्मद्रव्याद्युपदर्शकत्वातथा मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च, उक्तं च- 'सुयनाणंमि नेउण्णं, केवले तयणंतरं । अप्पणो सेसगाणं च, जम्हा तं परिभा वगं ॥ १ ॥ इत्यादि, इत्थं सुनिपुणां ध्यायेत् तथा 'अनाद्यनिधनाम्' अनुत्पन्नशाश्वतामित्यर्थः, अनाद्यनिधनत्वं च द्रव्याद्यपेक्षयेति, उक्तं च- " द्रव्यार्थादेशादित्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीदित्यादि, तथा 'भूतहिता' मिति इह भूत • श्रुताने नैपुण्यं केवळे हनन्तरम् । भात्मनः शेषकाणां च यक्षाचत् परिभाषकम् (प्रकाशकम् ॥१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1192 ~ Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक हारिभद्वीया ॥५९५॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... शब्देन प्राणिन उपय्यन्ते तेषां हितां पश्यामिति भावः, हितत्वं पुनस्तदनुपरोधिनीत्वात्तथा हितकारिणीत्वाच्च, उक्त च 'सर्वे जीवा न हन्तव्या' इत्यादि, एतत्प्रभावाच्च भूयांसः सिद्धा इति 'भूतभावनाम्' इत्यत्र भूतं सत्यं भाव्यतेऽनयेति भूतस्य वा भावना भूतभावना, अनेकान्तपरिच्छेदात्मिकेत्यर्थः, भूतानां वा-सत्त्वानां भावना भूतभावना, भावना वास सनेत्यनर्थान्तरम्, उक्तं च- 'कुरावि सहावेणं रागविसवसाणुगावि होऊणं । भावियजिणवयणमणा तेलुकसुहावहा होंति ॥ १ ॥ श्रूयन्ते च चिलातीपुत्रादय एवंविधा बहव इति, तथा 'अनर्घ्यम्' इति सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्यामिति भावः, उक्तं च- " संबेऽवि य सिद्धंता सदवरयणासया सतेलोका । जिणवयणस्स भगवओ न मुहमित्तं अणग्घेणं ॥ १ ॥ तथा स्तुतिकारेणाप्युक्तम्- "कल्पद्रुमः कल्पितमात्रदायी, चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते जिनेन्द्रधर्मातिशयं विचिन्त्य, द्वयेऽपि लोको लघुतामवैति ॥ १ ॥" इत्यादि, अथवा 'ऋणमा 'मित्यत्र ऋणं कर्म तद्भामिति, उक्तं च--"जं अंन्नाणी कम्मं खवेइ चहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिँ गुत्तो खबेइ ऊसासमित्तेणं ॥ १ ॥ इत्यादि, तथा 'अमिताम्' इत्यपरिमिताम्, उक्तं च- " सघनदीणं जा होज्ज वालुया सचउदहीण जं उदयं । एत्तोषि अनंतगुणो अत्थो एगस्स सुत्तस्स ॥ १ ॥" अमृतां वा मृष्टां वा पथ्यां वा, तथा चोक्तम्- “जिंणैवयणमोदगस्स उ रतिं च दिवा य खजमाणस्स । तित्तिं वुहो न गच्छइ 1 कुरा अपि स्वभावेन रागविषवशानुगा अपि भूत्वा । भावित जिनवचनमनस बैलोक्यसुखावहा भवन्ति ॥ ॥ २ सर्वेऽपि च सिद्धान्ताः सन्परखाश्रयाः सत्रैलोक्या: । जिनवचनस्य भगवतो न मूल्यमात्रमनर्घेण ( ईत्वेन ) ॥ १ ॥ ३ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्यकोटीभिः । तत् ज्ञानी त्रिभिर्गुतः क्षपयत्युतासमात्रेण ॥ १ ॥ सर्वनदीनां या भवेयुः वालुकाः सर्वोदधीनां यदुदकम् । अशोप्यऽनन्तगुणोऽयं एकस्य सूत्रस्य ॥३॥ ५ जिनवचनमोदकस्य तु रात्रौ दिवा च खाद्यमानख वृद्धिं बुधो न गच्छति ४प्रतिक्रम णाध्यानशतकं ~ 1193 ~ ॥५९५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक RC-RE5%AC%EOSRec [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] | हेउसहस्सोवगूढस्स ॥१॥ नरनरयतिरियसुरगणसंसारियसञ्चदुक्खरोगाणं । जिणवयणमेगमोसहमपवग्गसुहक्खयंफलयं |॥२॥" सजीवां वाऽमृतामुपपत्तिक्षमत्वेन सार्थिकामिति भावः, न तु यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदविन्दुभिः। मावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥' इत्यादिवन्मृतामिति, तथा 'अजिता मिति शेषप्रवचनाज्ञाभिरपराजितामित्यर्थः, उक्तं च-'जीवाइवत्थुचिंतणकोसल्लगुणेणऽणण्णसरिसेणं । सेसवयणेहिं अजियं जिणिंदवयणं महाविसयं ॥१॥ तथा 'महार्था'मिति महान् प्रधानोऽथों यस्याः सा तथाविधा तां, तत्र पूर्वापराविरोधित्वादनुयोगद्वारात्मकत्वान्नयगर्भत्वाच्च प्रधानां, महत्स्था वा अत्र महान्तः-सम्यग्दृष्टयो भव्या एवोच्यन्ते ततश्च महत्सु स्थिता महत्स्था तां च, प्रधानप्राणिस्थितामित्यर्थः, महास्थां घेत्यत्र महा पूजोच्यते तस्यां स्थिता महास्था तां, तथा चोक्तम्-सबसुरासुरमाणुसजोइसवंतरसुपूइयं णाणं । जेणेह गणहराणं छुहंति चुण्णे सुरिंदावि ॥१॥' तथा 'महानुभावा मिति तत्र महान्-प्रधानः प्रभूतो। वाऽनुभावः-सामादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्राधान्यं चास्याश्चतुर्दशपूर्वविदः सर्वलम्धिसम्पन्नत्वात्, प्रभूतत्वं च प्रभूतकार्यकरणाद् , उक्तं च-'भू णं चोद्दसपुबी घडाओ घडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, एवमिहलोके, परत्र तु जघन्यतोऽपि वैमानिकोपपातः, उक्तं च-'जैववाओलंतर्गमि चोदसपुवीरस होइ उ जहण्णो।उकोसो सबढे सिद्धिगमो वा अकम्मरस ॥१॥ हेतुसहस्रोपगूलरूप ॥ १ ॥ नरनारकतिर्यकसुरगणसांसारिकसर्वदुःखरोगाणाम् । जिनवचनमेकमौषधमपवर्गसुखाक्षसफलदम् ॥ २ ॥ २ जीवाविवस्तुचिन्तनकौशल्यगुणेनानन्यसरशेन । शेषवचनैरजितं जिनेन्द्रवचनं महाविषयम् ॥1॥३ सर्वसुरासुरमनुष्यज्योतिकरूपान्तरमुपूजितं ज्ञानम् । येनेह गणधराणां (पी) क्षिपन्ति पूर्णानि देवेन्दा अपि ॥१॥ ४ प्रभुनातुर्दशपूर्वी धटात् घटसहवं क. ५ पपातो लान्तके चतुर्दशपूर्विां भवति तु जघन्यः । वाकृष्टः सर्वार्थ सिद्धिगमनं वाऽकर्मणः॥॥ k मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1194 ~ Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) णाध्यानशतकं प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक-8 तथा 'महाविषया'मिति महद्विषयत्वं तु सकलद्रव्यादिविषयत्वाद्, उक्तं च-'देवओ सुयनाणी उपउत्ते सबदवाई जाणई-18 हारिभ- त्यादि कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ द्रीया माइजा निरवज जिणाणमाणं जगप्पईचाणं । अणितणजणदुष्णेयं नयभंगपमाणगमगाणं ॥४॥ | व्याख्या-ध्यायेत्' चिन्तयेदिति सर्वपदक्रिया, 'निरवद्या मिति अवयं-पापमुच्यते निर्गतमवयं यस्याः सा तथा ॥५९६॥ ताम् , अनृतादिद्वात्रिंशदोषावधरहितत्वात् , क्रियाविशेषणं वा, कथं ध्यायेत् ?-निरवद्यम्-इहलोकाद्याशंसारहितमित्यर्थः, उक्तं च-'नो इहलोगठ्याए नो परलोगट्टयाए नो परपरिभवओ अहं नाणी'त्यादिकं निरवयं ध्यायेत् , 'जिनानां प्राग्निरूपितशब्दार्थानाम् 'आज्ञा' वचनलक्षणां कुशलकर्मण्याज्ञाप्यन्तेऽनया प्राणिन इत्याज्ञा तां, किंविशिष्टां -जिनानांकेवलालोकेनाशेषसंशयतिमिरनाशनाज्जगत्प्रदीपानामिति, आजैव विशेष्यते-'अनिपुणजनदु यां' न निपुणः अनिपुणः अकुशल इत्यर्थः जनः-लोकस्तेन दुर्जेयामिति-दुरवगा, तथा 'नयभङ्गप्रमाणगमगहनाम्' इत्यत्र नयाश्च भङ्गाश्च प्रमाणानि च गमाश्चेति विग्रहस्तर्गहना-गहरा तां, तत्र नैगमादयो नयास्ते चानेकभेदार, तथा भङ्गाः क्रमस्थानभेदभिन्नाः, तत्र क्रमभङ्गा यथा एको जीव एक एवाजीव इत्यादि, स्थापना || स्थानभङ्गास्तु यथा प्रियधर्मा नामैकः नो दृढधर्मेत्यादि । तथा प्रमीयते ज्ञेयमेभिरिति प्रमाणानि-द्रव्यादीनि, यथा-नुयोगद्वारेषु गमाः-चतुर्विंशतिदण्डकादयः, कारणवशतो वा किश्चिद्विसदृशाः सूत्रमार्गा यथा षड्जीवनिका-ऽऽ दाविति कृतं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥४६॥ ननु , दिव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वव्याणि जानाति. २ नो ददलोकार्थाय नो परलोकार्थाय नो परपरिभावकोऽहं शानी. दीप अनुक्रम [२१..] ॥५९६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1195~ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], प्राप्त सूत्रांच [ससू..] या एवं विशेषणविशिष्टा सा बोहुमपि न शक्यते मन्दधीभिः, आस्तां तावद्भयातुं, ततश्च यदि कथचिन्नावबुध्यते तत्र का वार्तेत्यत आह तस्थ व महदोव्वलेणं तनिहायरिणविरहको मावि । यगणक्षणेण य णाणावरणोपएणं च ॥ ४ ॥ व्याख्या-तत्र' तस्यामाज्ञायां, चशब्दः प्रस्तुतप्रकरणानुकर्षणार्थः, किं-जडतया चलत्वेन वा मतिदौर्बल्येन-युद्धेः |सम्यगर्थानवधारणेनेत्यर्थः, तथा 'तद्विधाचार्यविरहतोऽपि' तत्र तद्विधः-सम्यगविपरीततत्त्वप्रतिपादनकुशलः आचयतेऽसावित्याचार्यः सूत्रार्थावगमार्थ मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः तद्विधश्चासावाचार्यश्च २ तद्विरहतः-तदभावतश्च, चशब्दः अबोधे द्वितीयकारणसमुच्चयार्थः, अपिशब्दः कचिदुभयवस्तूपपत्तिसम्भावनार्थः, तथा 'ज्ञेयगहनत्वेन च तत्र ज्ञायत | इति ज्ञेयं-धर्मास्तिकायादि तद्गहनत्वेन-गह्वरत्वेन, चशब्दोऽवोध एव तृतीयकारणसमुचयार्थः, तथा 'ज्ञानावरणोदयेन च' तत्र ज्ञानावरणं प्रसिद्धं तदुदयेन तत्काले तद्विपाकेन, चशब्दश्चतुर्थाबोधकारणसमुच्चयार्थः, अत्राह-ननु ज्ञानावर णोदयादेव मतिदौर्बल्यं तथा तद्विधाचार्यविरहो ज्ञेयगहनाप्रतिपत्तिश्च, ततश्च तदभिधाने न युक्तममीषामभिधानमिति, दान, तत्कार्यस्यैव संक्षेपविस्तरत उपाधिभेदेनाभिधानादिति गाथार्थः॥४७॥ तथा हेकदाहरणासंभवे य सह सुद्ध जं न बुजोजा । सजण्णुमयमवितह तहावि तं चिंतए मइमं ॥ ८ ॥ व्याख्या-तत्र हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतु:-कारको व्यञ्जकच, उदाहरणं-चरितकल्पि-10 तभेद, हेतुश्चोदाहरणं च हेतूदाहरणे तयोरसम्भवः, कञ्चन पदार्थ प्रति हेतूदाहरणासम्भवात्, तस्मिंश्च, चशब्दः पञ्चम-18 द्वीप अनुकुनाम [२१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1196~ Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक - ॐ हारिभ द्रीय ॥५९७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], षष्ठकारणसमुच्चयार्थः, 'सति' विद्यमाने, किं ? -'यद्' वस्तुजातं 'न सुष्ठु बुद्ध्येत' नातीवावगच्छेत् 'सर्वज्ञमतमवितथं तथापि ५ ४प्रतिक्रमतश्चिन्तयेन्मतिमा' निति तत्र सर्वज्ञाः - तीर्थंकरास्तेषां मतं सर्वज्ञमतं वचनं, किं ? - वितथम्--अनृतं न वितथम् - अवितथं णाध्यानसत्यमित्यर्थः, 'तथापि' तदबोधकारणे सत्यनवगच्छन्नपि 'तत्' मतं वस्तु वा 'चिन्तयेत्' पर्यालोचयेत् 'मतिमान्' बुद्धिमानिति गाथार्थः ॥ ४८ ॥ किमित्येतदेवमित्यत आह- शतकं अणुवयपराणुमाहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागोसमोहा व गणाचादिष्णो तेणं ॥ ४९ ॥ व्याख्या - अनुपकृते - परैरवर्तिते सति परानुग्रहपरायणा - धर्मोपदेशादिना परानुग्रहोचुका इति समासः, 'यद्' यस्मात् कारणात् के ? - 'जिना' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः, त एवं विशेष्यन्ते-'जगत्प्रवराः' चराचरश्रेष्ठा इत्यर्थ, एवंविधा अपि कदाचिद रागादिभावाद्वितथवादिनो भवन्त्यत आह-जिता- निरस्ता रागद्वेषमोहा यैस्ते तथाविधाः, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो रागः अप्रीतिलक्षणो द्वेषः अज्ञानलक्षणश्च मोहः, चशब्द एतदभावगुणसमुच्चयार्थः, नान्यथावादिनः 'तेने 'ति तेन कारणेन ते नान्यथावादिन इति उक्तं च- "रागाद्वा द्वेषाद्वे" त्यादि गाथार्थः ॥ ४९ ॥ उक्तस्तावद्ध्यातव्यप्रथमो भेदः, अधुना द्वितीय उच्यते रागोसकसायासवादि किरियासु यट्टमाणाणं । इहपरलोयावाओ साइजा बजपरिवजी ॥ ५० ॥ व्याख्या - रागद्वेष कषायाश्रवादिक्रियासु प्रवर्तमानानामिहपरलोकापायान् ध्यायेत्, यथा रागादिक्रिया ऐहिकामु| ष्मिकविरोधिनी, उक्तं च- "रागः सम्पद्यमानोऽपि, दुःखदो दुष्टगोचरः । महाव्याध्यभिभूतस्य, कुपथ्यान्नाभिलाषवत् ॥ १ ॥” ॥५९७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1197 ~ Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक MC-CRECRACT तथा-'द्वेषः सम्पद्यमानोऽपि, तापयत्येव देहिनम् । कोटरस्थो ज्वलन्नाशु, दावानल इव दुमम् ॥२॥ तथा-'दृष्ट्यादिभेदभिन्नस्थ, रागस्थामुष्मिकं फलम् । दीर्घः संसार एवोक्तः, सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः ॥३॥' इत्यादि, तथा-दोसानलसंसत्तो इह लोए चेव दुक्खिओ जीवो । परलोगंमि य पावो पावइ निरयानलं तत्तो ॥१॥ इत्यादि, तथा कपाया:-क्रोधादयः, तदपायाः पुनः-'को हो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोहो य पवड्डमाणा । चत्तारि एए कसिणो कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१॥ तथाऽऽश्रवाः-कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वादयः, तदपायः पुनः-'मिच्छेत्तमोहियमई जीवो इहलोग एव दुक्खाई । निरओवमाई पावो पावइ पसमाइगुणहीणो॥१॥' तथा-'अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं या न वेत्ति येनावृतो लोकः॥१॥ तथा-'जीवा पाविति इह पाणवहादविरईए पावाए। नियम| यघायणमाई दोसे जणगरहिए पावा ॥१॥ परलोगंमिवि एवं आसवकिरियाहि अजिए कम्मे ।जीवाण चिरमवाया निर| याइगई भमंताणं ॥ २॥ इत्यादि, आदिशब्दः स्वगतानेकभेदख्यापकः, प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशवग्धभेदग्राहक इत्यन्ये, [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] द्वेषानलसंतप्त हहलोक एव दुःखितो जीवः । परलोके च पापः प्रामोति निरवानलं ततः ॥१॥२ कोधश्च मानचा निगृहीती माया च लोभश्च प्रवर्धमानौ । चत्वार एते कृत्स्नाः कपायाः सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्व ॥ १॥ कोहो पोई पणासह माणो विणयणासणो । माया मित्राणि नासेइ लोहो सञ्चवि-18 Nणासणो ॥1॥ (प्रत्यन्तरेऽधिकं प्राक्). ३ मिथ्यात्वमोहितमतिर्जीव इहलोक एव दुःखानि । निरयोपमाणि पापः प्रामोति प्रशमादिगुणहीनः ॥१॥ ४ जीयाः प्रामवन्तीह प्राणवधाथविस्तेः पापिकायाः। निजसुतघातादिदोषान् जनहितान् पापाः परलोकेऽप्येवमाश्रवक्रियाभिरजिते कर्मणि । जीवानां चिरमपाया निरयादिगतिधु भ्रमताम् ॥२॥ SXCCCC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1198~ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रमणाभ्यानशतक प्रत सूत्रांक [सू...] ४ आवश्यक- क्रियास्तु कायिक्यादिभेदाः पञ्च, एताः पुनरुत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः, विपाकः पुन:-'किरियासु वट्टमाणा काइगमाईसु हारिभ- 8 दुक्खिया जीवा । इह चेव य परलोए संसारपवडया भणिया ॥१॥ ततश्चैवं रागादिक्रियासु वर्तमानानामपायान् द्रीया ध्यायेत् , किंविशिष्टः सन्नित्याह-वय॑परिवर्जी' तत्र वर्जनीयं वय॑म्-अकृत्यं परिगृह्यते तत्परिवीं-अप्रमत्त इति गाधार्थः ॥५९८॥ ॥५०॥ उक्तः खलु द्वितीयो ध्यातव्यभेदः, अधुना तृतीय उच्यते, तत्र पबहन्दिपएखाणुभावभिन्न सुहासुहविहो । जोगाणुभावजाणियं कम्म विवागं विवितेजा ॥ ५ ॥ व्याख्या-'प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभिन्नं शुभाशुभविभक्त'मिति अत्र प्रकृतिशब्देनाष्टौ कर्मप्रकृतयोऽभिधीयन्ते ज्ञानावरणीयादिभेदा इति, प्रकृतिरंशो भेद इति पर्यायाः, स्थितिः-तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं, प्रदेशशब्देन जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसम्बन्धोऽभिधीयते, अनुभावशब्देन तु विपाकः, एते च प्रकृत्यादयः शुभाशुभभेदभिन्ना भवन्ति, ततचैतदुक्तं भवति-प्रकृत्यादिभेदभिन्नं शुभाशुभविभक्त 'योगानुभावजनित' मनोयोगादिगुणप्रभवं कर्मविपाकं विचिन्तयेदिति गाथार्थः॥५१॥ भावार्थः पुनद्धविवरणादवसेयः, तच्चेद-इह पयइभिन्नं सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचिंतेज्जा, तत्थ ४ दापयईउत्ति कम्मणो भेया अंसा णाणावरणिज्जाइणो अड, तेहिं भिन्नं विहत्तं सुहं पुण्णं सायाइयं असुहं पावं तेहिं विहत्तंविभिन्नविपाक जहा कम्मपकडीए तहा विसेसेण चिंतिजा, किं च-ठिइविभिन्नं च सुहासुहविहत्तं कम्मविवागं विचिंतेज्जा, कियास वर्चमानाः कायिक्याविष दाखिता जीवाः । इहैव परलोके च संसारमवर्षका भणिताः ॥७॥ इह प्रकृतिभित्र शुभाशुभविभक कर्मविपाक से विचिन्तयेत् , सत्र प्रकृतथ इति कर्मणो भेदा अंशा ज्ञानाचरणादयोऽष्ट, भिवं विभई शुभं पुण्यं सातादिकं अशुभं पापं विभक्त. विभिन्न विपार्क यथा कर्मत्र कती तथा विशेषेण चिन्तयेत् । किंच-स्थितिविभक्तं च शुभाशुभबिभ कर्मविपाकं विचिन्तयेव, दीप अनुक्रम [२१..] ५९८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1199~ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] ठिइत्ति तासिं चेव अहण्हं पयडीणं जहण्णमझिमुकोसा कालावत्था जहा कम्मपयडीए, किं च-पएसभिन्नं शुभाशुभ। पायावत्-'कृत्वा पूर्व विधानं पदयोस्तावेव पूर्ववद् वग्यौं । वर्गपनी कुर्यातां तृतीयराशेस्ततः प्राग्वत् ॥१॥" कृत्वा विधान' मिति २५५, अस्य राशेः पूर्वपदस्य धनादि करवा तस्यैव वर्गादि ततः द्वितीयपदस्वेदमेव विपरीतं क्रियते, तत एतावेव वयेते, ततस्तृतीयपदस्य वर्गधनौ क्रियते, एवमनेन क्रमेणायं राशिः १६७७७२१६ चिंतेजा पएसोत्ति जीवपएसाणं कम्म पएसेहिं सुहुमेहिं एगखेत्तावगादेहिं पुट्ठोगाढअणंतरअणुवायरउद्धाइभेएहिं बद्धाणं वित्थरओ कम्मपयडीए भणियाणं ₹ कम्मविवागं विचिंतेजा, किंच-अणुभावभिन्नं सुहासुहविहतं कम्मविवागं विचिंतेज्जा, तस्थ अणुभावोत्ति तासिं वऽहंद |पयडीणं पुढबद्धनिकाइयाणं उदयाउ अणुभवणं, तं च कम्मविवागं जोगाणुभावजणियं विचिंतेज्जा, तत्थ जोगा मणवयणकाया, अणुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपायाः, तेहिं अणुभावेण य जणियमुप्पाइयं जीवस्स कम्मं | जं तस्स विवागं उदयं विचिंतिज्जइ । उक्तस्तृतीयो ध्यातव्यभेदः, साम्प्रतं चतुर्थ उच्यते, तत्र जिणदेसिया एवणसंढाणाखणविहाणमाणाई। उपायहरभंगाइ पजवा जे व पाणं ॥ ५२ ॥ दीप अनुक्रम [२१..] R-56 स्थितिरिति तासामेवामा प्रकृतीनो जघन्यमध्यमोस्कृष्टाः कालावस्था यथा कर्मप्रकृती । किंच-प्रवेशभि-चिन्तयेत्, प्रदेश इति जीवप्रदेशानां कर्मप्रदेश। सूक्ष्मरेकोषाधगावः स्पृष्टावगाढानन्तराणुवादरोनादिभेदैवंदानां विसरतः कर्मप्रकृती भणितानां कर्मविपाक विचिन्तयेत् , जिनुभावभिनं शुभाशुभविभक्तं कर्मविपाक विचिन्तयेत् , तमानुभाव इति तासामेवाष्टानां प्रकृतीनां स्पृष्टबद्ध निकाचितानामुदयावनुभवनम् , संच कर्मविपाकं योगानुभावजनितं विचिन्तयेत् , तत्र योगा मनोवचनकाया, अनुभावो जीवगुण एब, वरनुभावेन च अनितम्-तस्पादितं जीवस कर्म यत् तथा पिपार्क-पदयो विचिन्त्यते । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1200 Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभ- द्रीया प्रतिक्रमणाध्यानशतकं R प्रत सूत्रांक ॥५९९॥ [सू...] व्याख्या-जिनाः-प्राग्निरूपितशब्दार्थास्तीर्थकरास्तैर्देशितानि-कथितानि जिनदेशितानि, कान्यत आह-लक्षणसंस्था- नासनविधानमानानि, किं-विचिन्तयेदिति पर्यन्ते वक्ष्यति षष्ठ्यां गाथायामिति, तत्र लक्षणादीनि विचिन्तयेत् , अत्रापि गाथान्ते द्रव्याणामित्युक्तं तत्प्रतिपदमायोजनीयमिति, तत्र लक्षणं धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादि, तथा संस्थानं मुख्यवृत्त्या पुद्गलरचनाकारलक्षणं परिमण्डलायजीवानां, यथोक्तम्-'परिमंडले य पट्टे तसे चरस आयते चेव' जीवश-| रीराणां च समचतुरस्रादि, यथोक्तम्-'समैचउरंसे नग्गोहमंडले साइ वामणे खुजे । हुंडेवि य संठाणे जीवाणं छ मुणेयवा ॥१॥' तथा धर्माधर्मयोरपि लोकक्षेत्रापेक्षया भावनीयमिति, उक्त च-हेढा मज्झे उवरि छपीझलरिमुइंगसंठाणे । लोगो अद्धागारो अद्धाखेत्तागिई नेओ ॥१॥' तथाऽऽसनानि-आधारलक्षणानि धर्मास्तिकायादीनां लोकाकाशादीनि | स्वस्वरूपाणि वा, तथा विधानानि धर्मास्तिकायादीनामेव भेदानित्यर्थः, यथा-धम्मत्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसे' इत्यादि, तथा मानानि-प्रमाणानि धर्मास्तिकायादीनामेवात्मीयानि, तथोत्पादस्थितिभङ्गादिपर्याया ये च 'द्रव्याणां' धर्मास्तिकायादीनां तान् विचिन्तयेदिति, तत्रोत्पादादिपर्यायसिद्धिः 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति (तत्त्वार्थे अ०५सू०२९)वचनाद, युक्तिः पुनरत्र-'घटमौलीसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं, जनो याति सहेतुकम् ॥१॥पयोव्रतो न दयत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥२॥ ACARD दीप अनुक्रम [२१..] - C ५९९॥ परिमण्डलं वृर्त म्यवं चतुरसमायतमेच. २ समचतुरस्र न्यग्रोधमण्डलं सादि वामनं कुलं । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां पद ज्ञातम्यानि ॥१॥ ३ मधस्तामध्ये अपरि वेत्रासनमारीएवासंस्थानः।कोको वैशाखाकारो वैशाखक्षेत्राकृतिज्ञेयः ॥३॥धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्व देशः धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1201~ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) ॐEG प्रत सूत्रांक [सू...] ततश्च धर्मास्तिकायो विवक्षितसमयसम्बन्धरूपापेक्षयोत्पद्यते तदनन्तरातीतसमयसम्बन्धरूपापेक्षया तु विनश्यति धर्मास्तिकायद्रव्यात्मना तु नित्य इति, उक्तं च-'सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ चन विशेषः। सत्योश्चित्यपचित्योरा|कृतिजातिव्यवस्थानात् ॥१॥' आदिशब्दादगुरुलध्वादिपयायपरिग्रहः, चशब्दः समुच्चयार्थे इति गाथार्थः ॥५२॥ किं च-- पंचस्थिकायमइयं लोगमणाइणिरुणं जिणवसायं । णामाइभेयविहियं तिविहमहोलोषभेयाई ॥ ५३ ॥ व्याख्या-'पश्चास्तिकायमयं लोकमनाद्यनिधनं जिनाख्यात'मिति, क्रिया पूर्ववत्, तत्रास्तयः-प्रदेशास्तेषां काया अस्तिकायाः पञ्च च ते अस्तिकायाश्चेति विग्रहः, एते च धर्मास्तिकायादयो गत्याद्युपग्रहकरा ज्ञेया इति, उक्तं च-"जीवानां पुद्गलानां च, गत्युपग्रहकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥१॥ जीवानां पुद्गलानां च, स्थित्युपनहकारणम् । अधर्मः पुरुषस्येव, तिष्ठासोरवनिर्यथा ॥२॥ जीवानां पुद्गलानां च, धर्माधर्मास्तिकाययोः । बदराणां घटो यद्बदाकाशमवकाशदम् ॥ ३ ॥ ज्ञानात्मा सर्वभावज्ञो, भोका कर्ता च कर्मणाम् । नानासंसारिमुक्ताख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनागमे ॥४॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्वभावकाः । सङ्घातभेदनिष्पन्नाः, पुद्गला जिनदेशिताः॥५॥" तन्मयं-तदास्मक, लोक्यत इति लोकस्तं, कालतः किम्भूतमित्यत आह–'अनाद्यनिधनम् अनाद्यपर्यवसितमित्यर्थः, अनेनेश्वरादिकृतव्यवच्छेदमाह, असावपि दर्शनभेदाच्चित्र एवेत्यत आह-'जिनाख्यातं' तीर्थकरप्रणीतम् , आह-'जिनदेशितानित्यस्माजिनप्रणीताधिकारोऽनुवर्तत एव, ततश्च जिनाख्यातमित्यतिरिच्यते, न, अस्याऽऽदरख्यापनार्थत्वात् , आदरख्यापनादौ च पुनरुक्तदोषानुपपत्तेः, तथा चोक्तम्-"अनुवादादरवीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्म दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1202 ~ Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) द्रीया प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक-IN करणेष्वपुनरुक्तम् ॥१॥" तथा हि 'नामादिभेदविहितं' भेदतो नामादिभेदावस्थापितमित्यर्थः, उक्त च-नाम ठवणारा प्रतिक्रमहारिभ- दविए खित्ते काले तहेव भावे य । पजवलोगो य तहा अहविहो लोगमि (ग) निक्खेवो॥१॥ भावार्थश्चतुर्विशतिस्तवविवर- णाध्यान णादवसेयः, साम्प्रतं क्षेत्रलोकमधिकृत्याह-त्रिविधं त्रिप्रकारम् 'अधोलोकभेदादि इति प्राकृतशैल्याऽधोलोकादिभेदम् , शतकं ॥६०० आदिशब्दात्तिर्यगूप्रलोकपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ ५३॥ किं च-तस्मिन्नेव क्षेत्रलोके इदं चेदं च विचिन्तयेदिति प्रतिपादयन्नाह लिहलपदीवसागरनरबविमाणभवणाइसठाणं । वोमाइपाहाणं निवर्थ लोगविरविहाण ॥ ५५ ॥ व्याख्या-'क्षितिवलयद्वीपसागरनिरयविमानभवनादिसंस्थान' तत्र क्षितयः खलु धर्माद्या ईषत्प्राग्भारावसाना अष्टौ । भूमयः परिगृह्यन्ते, वलयानि-घनोदधिधनवाततनुवातात्मकानि धर्मादिसप्तपृथिवीपरिक्षेपीण्येकविंशतिः, द्वीपा:-जम्बू-12 द्वीपादयः स्वयम्भूरमणद्वीपान्ता असोयाः, सागरा-लवणसागरादयः स्वयम्भूरमणसागरपर्यन्ता असल्येया एव, निरया:सीमन्तकाद्या अप्रतिष्ठानावसानाः सजोयाः, यत उक्तम्-'तीसा य पन्नवीसा पनरस दसेव सयसहस्साई । तिन्नेगं पंचूर्ण |पंच य नरगा जहाकमसो ॥१॥' विमानानि-ज्योतिष्कादिसम्बन्धीन्यनुत्तरविमानान्तान्यसोयानि, ज्योतिष्कविमानानामसंख्येयत्वात् , भवनानि-भवनवास्यालयलक्षणानि असुरादिदशनिकायसंबन्धीनि असंख्येयानि, उक्तं च- ०॥ नामस्थापनयोः हम्ये क्षेत्रे च काले तथंच भावे च । पर्यवलोक तथाऽष्टविधो लोके निक्षेपः ॥ त्रिंशत् पञ्चविंशति पञ्चदश दीव शतसहसाणि । त्रीणि एकं पजोनं पजच नरका यथाक्रमम् ॥.. दीप अनुक्रम [२१..] 55-45-45 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1203~ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] "सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरि सयसहस्सा । एसो भवणसमासो भवणवईणं बियाणेजा ॥१॥" आदिशब्दादसक्वेयव्यन्तरनगरपरिग्रहः, उक्तं च-"हेहोवरिजोयणसयरहिए रयणाए जोयणसहस्से । पढमे वंतरियाणं भोमा नयरा असंखेजा [॥१॥" ततश्च क्षितयश्च वलयानि चेत्यादिद्वन्द्वः, एतेषां संस्थानम्-आकारविशेषलक्षणं विचिन्तयेदिति, तथा 'व्योमादिप्रतिष्ठानम्' इत्यत्र प्रतिष्ठितिः प्रतिष्ठानं, भावे ल्युट्, व्योम-आकाशम् , आदिशब्दाद्वारवादिपरिग्रहः, व्योमादौ प्रतिछानमस्येति व्योमादिप्रतिष्ठान, लोकस्थितिविधानमिति योगः, विधिः-विधानं प्रकार इत्यर्थः, लोकस्य स्थितिः २, स्थितिः व्यवस्था मर्यादा इत्यनान्तरं, तद्विधानं, किम्भूतं :-'नियतं नित्यं शाश्वतं, क्रिया पर्ववदिति गाथार्थः॥५४॥किंच मोगलाणमणाइनिदणमधंतर सरीरामओ । जीवमरूवि कारि भोयं च सयस कम्मरस ॥ ५५॥ व्याख्या-उपयुज्यतेऽनेनेत्युपयोगः-साकारानाकारादिः, उक्तं च-स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेदः' (तत्वार्थे अ०२ सू०९) स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणस्तं, जीवमिति वक्ष्यति, तथा 'अनाद्यनिधनम् अनावपर्यवसितं, भवापवर्गप्रवाहापेक्षया नित्यमित्यर्थः, तथा 'अर्थान्तरं' पृथग्भूतं, कुतः-शरीरात्, जातावेकवचनं, शरीरेभ्यः-औदारिकादिभ्य इति, किमित्यत आह-जीवति जीविष्यति जीवितवान् वा जीव इति तं, किम्भूतमित्यत आह-'अरूपिणम्' अमूर्तमित्यर्थः, तथा 'कोर' निर्वर्तक, कर्मण इति गम्यते, तथा 'भोक्तारम् उपभोक्तारं, कस्य ?-स्वकर्मण:-आत्मीयस्य कर्मणः, ज्ञानावरणीयादेरिति गाथार्थः ॥ ५५॥ सक्षैव च कोयो भवम्ति द्वासप्ततिः शतसहस्राणि । एष भवनसमासो भवनपतीनां (इति) विजानीयात् ॥१॥ अधस्तादुपरि योजनातरहिते रवाया योजनसहने । प्रथमे ज्यवराणां भौमानि नगराप्यसंश्येवानि ॥३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1204 ~ Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) % प्रत सूत्रांक आवश्यकतस्स प सकम्मणियं जम्माइजकं कसावपायाझं । वसणसयतावचमण मोहावतं महाभीमं ॥ ५ ॥ प्रतिक्रमहारिभ व्याख्या-तस्य च जीवस्य 'स्वकर्मजनितम्' आत्मीयकर्मनिर्वर्तितं, क-संसारसागरमिति वक्ष्यति तं. किम्भूतमित्यताणाध्यानद्रीया आह-'जन्मादिजले' जन्म-प्रतीतम्, आदिशब्दाजरामरणपरिग्रहः, एतान्येवातिबहुत्वाजलमिव जलं यस्मिन् स तथावि शतकम् ॥६०१॥ |धस्तं, तथा 'कषायपातालं' कषायाः-पूर्वोक्तास्त एवागाधभवजननसाम्येन पातालमिव पातालं यस्मिन् स तथाविधस्तं, तथा 'व्यसनशतश्वापदवन्त' व्यसनानि-दुःखानि द्यूतादीनि वा तच्छतान्येव पीडाहेतुत्वात् श्वापदानि तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वन्तं 'मणं ति देशीशब्दो मत्वर्थीयः, उक्तं च “मतुयत्थंमि मुणिजह आलं इलं मणं च मणुयं चे"ति, तथा 'मोहावर्त' मोहा-मोहनीयं कर्म तदेव तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वादावर्तो यस्मिन् स तथाविधस्तं, तथा 'महाभीमम्' अतिभयानकमिति गाथार्थः ॥५६॥ किं च अण्णाणमारुएरिवसंजोगविजोगवीइसंताणं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचितेजा ॥ ५७॥ व्याख्या-'अज्ञानं ज्ञानावरणकर्मोदयजनित आत्मपरिणामः स एव तत्प्रेरकत्वान्मारुतः वायुस्तेनेरितः प्रेरितः, का?-संयोगवियोगवीचिसन्तानो यस्मिन् स तथाविधस्तं, तत्र संयोगः केनचित् सह सम्बन्धः वियोगः-तेनैव विप्र ॥६०१॥ योगः एतावेव सन्ततप्रवृत्तत्वात् वीचयः-ऊर्मयस्तत्प्रवाहः सन्तान इति भावना, संसरणं संसारः (स) सागर इव संसारसा गरस्तं, किम्भूतम् ? 'अनोरपारम्' अनाद्यपर्यवसितम् 'अशुभम्' अशोभनं विचिन्तयेत्तस्य गुणरहितस्य जीवस्येति ट्रगाथार्थः ॥ ५७ ॥ 1525 1982 दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1205~ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] तरस व संतरणसह सम्मासणसुबंधणमणग्वं । गाणमयकपणधार चारित्तमपं मदापोयं ॥ ५ ॥ व्याख्या-'तस्य च' संसारसागरस्य 'संतरणसह' सन्तरणसमर्थ, पोतमिति वक्ष्यति, किंविशिष्टं ?-सम्यग्दर्शनमेव शोभनं बन्धनं यस्य स तथाविधस्तम्, 'अनघम् अपार्प, ज्ञान-प्रतीतं तन्मयः-तदात्मकः कर्णधार:-निर्यामकविशेषो| यस्य यस्मिन् वा स तथाविधस्तं, चारित्रं-प्रतीतं तदात्मकं 'महापोतम्' इति महाबोहित्थं, क्रिया पूर्ववदिति गाथार्थः॥५८॥ संवरकनिधिकई तपवणाहबजाजतरवेगं । वेस्गमगपडियं विसोतिषाचीहनिक्सोमं ॥ ५९॥ . | व्याख्या-इहाऽऽश्रवनिरोधः संवरस्तेन कृतं निश्छिद्रं-स्थगितरन्ध्रमित्यर्थः, अनशनादिलक्षणं तपः तदेवेष्टपुरं प्रति प्रेरकत्वात् पवन इव तपःपवनस्तेनाऽऽविद्धस्य-प्रेरितस्य जवनतर:-शीघ्रतरो वेगः-रयो यस्य स तथाविधस्तं, तथा विरागस्य भावो वैराग्य, तदेवेष्टपुरप्रापकत्वान्मार्ग इव वैराग्यमार्गस्तस्मिन् पतितः-गतस्तं, तथा विस्रोतसिका-अपध्यानानि एता एवेष्टपुरप्राप्तिविघ्नहेतुत्वाद्वीचय इव विस्रोतसिकाचीचयः ताभिर्निक्षोभ्य:-निष्पकम्पस्तमिति गाथाथैः ॥ ५९॥ एवम्भूतं पोतं किं - भारोदु मुणिवणिया महन्धसोलंगरयणपडिपुर । जह तं निशाणपुरं सिग्धमविषेण पार्वति ॥ १०॥ व्याख्या-'आरोढुं' इत्यारुह्य, के ?-'मुनिवणिजः' मन्यन्ते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनयः त एवातिनिपुणमायव्ययपूर्वक प्रवृत्तेर्वणिज इव मुनिवणिजः, पोत एव विशेष्यते-महा_णि शीलाङ्गानि-पृथिवीकायसंरम्भपरित्यागादीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि तान्येवैकान्तिकात्यन्तिकसुखहेतुत्वाद्रनानि २ तैः परिपूर्णः-भृतस्तं, येन प्रकारेण यथा 'तत्' प्रक्रान्त दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1206~ Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकनिर्वाणपुरं' सिद्धिपत्तनं परिनिर्वाणपुरं वेति पाठान्तरं 'शीघ्रम् आशु स्वल्पेन कालेनेत्यर्थः, 'अविघ्नेन' अन्तरायमन्तरेणी | णाध्यान हारिभ- दामामुवन्ति' आसादयन्ति, तथा विचिन्तयेदिति वर्तत इत्यर्य गाथार्थः ॥१०॥ द्रीया तय व तिरषणविणिमोगमय मेगतिवं निराबाई । सामाविषं निरुवमं जद सोपवं अक्षय मुति ॥1॥ शतकम् व्याख्या-'तत्र च' परिनिर्वाणपुरे 'त्रिरत्नविनियोगात्मक मिति त्रीणि रत्नानि-ज्ञानादीनि विनियोगश्चैषां क्रियाकरणं, ॥६०२॥ ततः प्रसूतेस्तदात्मकमुच्यते, तथा 'एकान्तिकम्' इत्येकान्तभावि 'निराबाधम्' इत्याबाधारहितं, 'स्वाभाविक' न कृत्रिम 'निरुपमम्' उपमातीतमिति, उक्तं च-नवि अस्थि माणुसाणं तं सोक्ख'मित्यादि 'यथा' येन प्रकारेण 'सौख्यं प्रतीतम् | 'अक्षयम्' अपर्यवसानम् 'उपयाम्ति' सामीप्येन प्रामुवन्ति, क्रिया प्राग्वदिति गाथार्थः॥६१॥ किंबहुणा ? सर्व चित्र जीवाइपपत्थविरघरोवेयं । सधनयसमूहमय सापुमा समयसभा ॥१७॥ व्याख्या-किंबहुना भाषितेन', 'सर्वमेव' निरवशेषमेव 'जीवादिपदार्थविस्तरोपेतं' जीवाजीवानववन्धसंवर निर्जरामोक्षाण्यपदार्थप्रपञ्चसमन्वितं समयसद्भावमिति योगः, किंविशिष्टं ?-'सर्वनयसमूहात्मक' द्रव्यास्तिकादिनयसवातमयमित्यर्थः, 'ध्यायेत् विचिन्तयेदिति भावना, 'समयसद्भाव' सिद्धान्तार्थमिति हृदयम् , अयं गाथार्थः ॥ १२॥ गतं ध्यातव्यद्वारं, साम्प्रतं येऽस्य ध्यातारस्तान् प्रतिपादयन्नाह X ॥१०॥ सप्पमायरहिया मुणो खीणोवसंतमोहा य । शायारो माणधणा धम्मज्ञाणस निदिवा ॥१॥ वास्ति मनुष्याणां तत्सौपयं.. . CASSETTE दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1207~ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] व्याख्या-प्रमादा-मद्यादयः, यथोक्तम्-'मज विसयकसाया निद्दा विकहा य पंचमी भणिया' सर्वप्रमाद रहिताः सर्वप्रमादरहिताः, अप्रमादवन्त इत्यर्थः, 'मुनयः' साधवः 'क्षीणोपशान्तमोहाच' इति क्षीणमोहा:-क्षपकनिर्घन्धाः उपशान्त मोहा-उपशामकनिन्थाः , चशब्दादन्ये वाऽप्रमादिनः, 'ध्यातार चिन्तकाः, धर्मध्यानस्येति सम्बन्धः, ध्यातार एव विशेष्यन्ते-'ज्ञानधनाः' ज्ञानवित्ता, विपश्चित इत्यर्थः, निर्दिष्टाः' प्रतिपादितास्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः ॥६३॥ उक्का धर्मध्यानस्य ध्यातारः, साम्प्रतं शुक्लध्यानस्याप्याद्यभेदद्वयस्याविशेषेण एत एव यतो ध्यातार इत्यतो मा भूत्पुनरभिघेया भविष्यन्तीति लाघवार्थ चरमभेदद्वयस्य प्रसङ्गत एव तानेवाभिधित्सुराह एएचिय पुषाणं पुत्रधरा सुप्पसत्यसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुशाण पराण केवलिणी ॥४॥ व्याख्या 'एत एवं' येऽनन्तरमेव धर्मध्यानध्यातार उक्ताः 'पूर्वयोः' इत्याद्ययोद्धयोः शुक्लध्यानभेदयोः पृथक्त्ववितकसविचारमेकत्ववितर्कमविचारमित्यनयोः ध्यातार इति गम्यते, अयं पुनर्विशेषः-'पूर्वधराः' चतुर्दशपूर्वविदस्तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषणमप्रमादवतामेव वेदितव्यं, न निम्रन्थानां, माषतुषमरुदेव्यादीनामपूर्वधराणामपि तदुपपत्तेः, 'सुप्रशस्तसंहनना' इत्याद्यसंहननयुक्ताः, इदं पुनरोघत एव विशेषणमिति, तथा 'द्वयोः' शुक्लयोः परयोः-उत्तरकालभाविनोः प्रधानयोर्चा सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिव्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिलक्षणयोर्यथासङ्घर्ष सयोगायोगकेवलिनो ध्यातार इति योगः, दीप अनुक्रम [२१..] मर्थ विषयाः कपाया निद्रा विकथा च पञ्चमी भणिता. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1208~ Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] - आपदा एवं च गम्मए-मुकझाणाइदुर्ग बोलीण्णस्स ततियमप्पत्तस्स एयाए झाणंतरियाए वट्टमाणस्स केवलणाणमुप्पजड. केवली प्रतिक्रमहारिभ- य सुकलेसोऽज्झाणी य जाव सुहुमकिरियमनियट्टित्ति गाथार्थः ॥६५॥ उकमानुषङ्गिकम् , इदानीमवसरमाप्तमनुप्रेक्षा कणाध्यानद्रीया द्वारं व्याचिख्यासुरिदमाह शतकम् ॥१०॥ शाणोवरमेऽवि गुणी णिश्चमणिचाइभावणापरमो । होइ सुभाविवचिंतो धम्मज्जाणेण जो पुष्टि ॥ १५ ॥ ___ व्याख्या-इह ध्यानं धर्मध्यानमभिगृह्यते, तदुपरमेऽपि-तद्विगमेऽपि 'मुनिः' साधुः 'नित्यं' सर्वकालमनित्यादिचिन्तनापरमो भवति, आदिशब्दादशरणैकत्वसंसारपरिग्रहः, एताश्च द्वादशानुप्रेक्षा भावयितव्याः, “इष्टजनसम्प्रयोगड़िविषयसुखसम्पदः" (प्रशमरतौ १५१-१६३) इत्यादिना ग्रन्थेन, फलं चासां सचित्तादिष्वनभिष्वङ्गभवनिर्वेदाविति | भावनीयम् , अथ किंविशिष्टोऽनित्यादिचिन्तनापरमो भवतीत्यत आह-'सुभावितचित्तः सुभाषितान्तःकरणः, केन -धर्मध्यानेन' प्राग्निरूपितशब्दार्थेन 'यः' कश्चित् 'पूर्वम् आदाविति गाथार्थः ॥ १५ ॥ गतमनुप्रेक्षाद्वारम् , अधुना लेश्याद्वारप्रतिपादनायाहहोति कमविसुदामो साओ पीयपम्हमुकायो । धम्ममाणोवायरस तिववाहभेयायो ॥ ५५ ॥ ॥६० ब्याख्या-इह 'भवन्ति' संजायन्ते 'क्रमविशुद्धाः' परिपाटिविशुद्धाः, काः-लेश्याः, ताश्च पीतपद्मशुक्ला, एतदुक्तं एवं च गम्यते-सुलभ्यानाविद्वयं व्यतिकान्तस्य तृतीयममाप्तस्य एतस्यां ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य केवलज्ञानमुपद्यते, केवकी च शुकलेश्योऽध्यानी च यावत् सूक्ष्मक्रियमनिवृत्तीति. दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1209~ Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] *** आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], भवति - पीतलेश्यायाः पद्मलेश्या विशुद्धा तस्या अपि शुकुलेश्येति क्रमः कस्यैता भवन्त्यत आह- 'धर्मध्यानोपगतस्य' धर्मध्यान युक्तस्येत्यर्थः, किंविशिष्टाश्चैता भवन्त्यत आह- 'तीनमन्दादिभेदा' इति तत्र तीव्रभेदाः पीतादिखरूपेष्वन्त्याः, मन्दभेदास्त्वाद्याः, आदिशब्दान्मध्यमपक्षपरिग्रहः, अथवौघत एव परिणामविशेषा तीव्रमन्दभेदा इति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ उक्तं लेश्याद्वारम् इदानीं लिङ्गद्वारं विवृण्वन्नाह आगमणाणिसग्गओ जं विणप्पणीयाणं । भावाणं सद्द्दणं धम्मज्झाणस्स तं लिंगं ॥ ६७ ॥ व्याख्या - इहागमोपदेशाज्ञा निसर्गतो यद् 'जिनप्रणीतानां' तीर्थकरमरूपितानां द्रव्यादिपदार्थानां 'श्रद्धानम्' अवितथा एत इत्यादिलक्षणं धर्मध्यानस्य तलिङ्गं तत्त्वश्रद्धानेन लिङ्ग्यते धर्मध्यायीति, इह चागमः - सूत्रमेव तदनुसारेण कथनम्-उपदेश: आज्ञा स्वर्थः निसर्गः स्वभाव इति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ किं च जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणाविणयाण संपण्णी । सुभसील संजमरभो धम्मज्झाणी मुणेयवो ॥ ६८ ॥ व्याख्या- 'जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसाविनयदानसम्पन्नः इह जिनसाधवः प्रतीताः, तद्गुणाश्च निरतिचारसम्यग्दर्शनादयस्तेषामुत्कीर्तनं - सामान्येन संशब्दनमुच्यते, प्रशंसा स्वहोश्लाघ्यतया भक्तिपूर्विका स्तुतिः, विनयः - अभ्युत्थानादि, दानम्-अशनादिप्रदानम्, एतत्सम्पन्नः एतत्समन्वितः तथा श्रुतशीलसंयमरतः, तत्र श्रुतं सामायिकादिविन्दुसारान्तं शीलं - त्रतादिसमाधानलक्षणं संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः, यथोक्तं पञ्चाश्रवा' दित्यादि, एतेषु भावतो रतः, किं ? - धर्मध्यानीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ गतं लिङ्गद्वारम् अधुना फलद्वारावसरः, तंच्च लाघवार्थं शुकुध्यान मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1210~ Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभ प्रत सूत्रांक द्रीया ॥६०४॥ [सू...] फलाधिकारे वक्ष्यतीत्युक्तं धर्मध्यानम् , इदानीं शुक्लध्यानावसर इत्यस्य चान्वर्थः प्राग्निरूपित एव, इहापि च भावनादीनि पतिक्रमफलान्तानि तान्येव द्वादश द्वाराणि भवन्ति, तत्र भावनादेशकालासनविशेषेषु (धर्म)ध्यानादस्थाविशेष एवेत्यत एतान्यना-जाणाध्यानत्याऽऽलम्बनान्यभिधित्सुराह शतकम् मह वंतिमवजवमुचीओ शिणमयप्पहाणाभो । मलंबणा जेहिं सुकाक्षाण समारदह ॥१९॥ व्याख्या-'अथे' त्यासनविशेषानन्तये, 'क्षान्तिमाईचार्जवमुक्तया' क्रोधमानमायालोभपरित्यागरूपाः, परित्यागश्च कोनिवर्तनमुदयनिरोधः उदीर्णस्य वा विफलीकरणमिति, एवं मानादिष्वपि भावनीयम् , एतर एव क्षान्तिमाईवार्जवमुक्तयो विशेष्यन्ते-'जिनमतप्रधाना' इति जिनमते-तीर्थकरदर्शने कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य प्रधानाः २, प्राधान्यं चासामकषायं चारित्रं चारित्राच नियमतो मुक्तिरितिकृत्वा, ततश्चैता आलम्बनानि-प्राग्निरूपितशब्दार्थानि, पैरालम्पनैः करणभूतैः शुक्लध्यानं समारोहति, तथा च क्षान्त्याद्यालम्बना एव शुकध्यानं समासादयन्ति, नान्य इति गाथार्थः॥६९॥ व्याख्यातं शुक्लध्यानमधिकृत्याऽऽलम्बनद्वारं, साम्प्रतं क्रमद्वारावसरः, क्रमश्चाऽऽधयोधर्मध्यान एवोक्का, इह पुनरयं विशेषः तिदुपणविसर्थ कमसो संखिविड मणी भणुमि धामरयो । सायद मुनिप्पकंपो साणं अमणो जिणो हो। ॥ ७॥ व्याख्या-त्रिभुवनम्-अधस्तिर्यगूर्वलोकभेदं तद्विषयः-गोचरः आलम्बनं यस्य मनस इति इति योगः, तत्रिभुवन + ९०४॥ |विषयं 'क्रमशः' क्रमेण परिपाव्या-प्रतिवस्तुपरित्यागलक्षणया 'संक्षिप्य' सङ्कोच्य, कि-'मनः' अन्तःकरणं, क-'अणौ * कोथे न वनं प्र. 14-CHAR दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1211~ Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] परमाणौ, निधायेति शेषः, कः ?-'छद्मस्थः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, 'ध्यायति चिन्तयति 'सुनिष्पकम्पः' अतीव निश्चल इत्यर्थः, 'ध्यान' शुक्, ततोऽपि प्रयलविशेषान्मनोऽपनीय 'अमनाः' अविद्यमानान्तःकरणः 'जिनो भवति' अईन् भवति, चरमयोईयोातेति वाक्यशेषः, तत्राच्याद्यस्यान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीमप्राप्तः, तस्यां च द्वितीयस्येति गाथार्थः ॥७॥ आह-कथं पुनश्छद्मस्थत्रिभुवनविषयं मनः संक्षिप्याणी धारयति ?, केवली वा ततोऽप्यपनयतीति !, अत्रोच्यते जह सासरीरगय मंतेण विसं निरुभए डंके । तत्तो पुणोऽवाणिजह पहाणयरमंतजोगेणं ॥४॥ ध्याख्या-'यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'सर्वशरीरगत' सर्वदेहव्यापकं 'मन्त्रेण विशिष्टवर्णानुपूर्वीलक्षणेन 'विष8 मारणात्मक द्रव्य 'निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, क-'डङ्के भक्षणदेशे, 'ततः' डङ्कास्पुनरपनीयते, केनेत्यत आह-'प्रधानतरमन्त्रयोगेन' श्रेष्ठतरमन्त्रयोगेनेत्यर्थः, मन्त्रयोगाभ्यामिति च पाठान्तरं वा, अत्र पुनर्योगशब्देनागदः परिगृह्यते इति गाथार्थः ॥७१ ॥ एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः तह तितुषणतणुविसर्व गणोविस जोगमंतजल जुत्तो । परमाणु मि निरुभाइ भवणेद मोवि जिणचेजो ॥ ४२ ॥ व्याख्या तथा 'त्रिभुवनतनुविषय' त्रिभुवनशरीरालम्बनमित्यर्थः, मन एव भवमरणनिवन्धनत्वाद्विष मन्त्रयोगवलयुक्त:-जिनवचनध्यानसामथ्र्यसम्पन्नः परमाणी निरुणद्धि, तथाऽचिन्त्यप्रयत्नाच्चापनयति 'ततोऽपि' तस्मादपि परमाणोः, का?-'जिनवैद्यः' जिनभिषग्वर इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमभिधातुकाम आहे अस्सारिधणभरो जह परिहाद कमसो हुयासुन्न । थोविंधणावसेसो निहाइ तओऽवणीओ व ॥५॥ दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1212~ Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक व्याख्या उत्सारितेन्धनभरः' अपनीतदाह्यसङ्घातः यथा 'परिहीयते' हानि प्रतिपद्यते 'क्रमशः' क्रमेण 'हुताश प्रतिक्रमहारिभ- वहिः, 'वा' विकल्पार्थः, स्तोकेन्धनावशेषः हुताशमात्रं भवति, तथा निर्वाति' विध्यायति 'ततः स्तोकेन्धनादपनीतश्चेतिणाध्यानद्रीया गाथार्थः ॥ ७३ ॥ अस्यैव दृष्टान्तोपनयमाह शतकम् तह विसधणहीणो मणोपासो कमेण तणुवंमि । विसईधणे निरंभ निबाद तमोऽवणीलो ५ ॥४॥ ॥६०५॥ व्याख्या-तथा 'विषयेन्धनहीनः' गोचरेन्धनरहित इत्यर्थः, मन एव दुःखदाहकारणत्वाद् हुताशी मनोहुताश, II "क्रमेण' परिपाट्या 'तनुके' कृशे, क-विषयेन्धने' अणावित्यर्थः, किं ?-निरुध्यते' निश्चयेन ध्रियते, तथा निर्वाति | ततः तस्मादणोरपनीतक्षेति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ पुनरप्यस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तोपनयावाह सोयमिप नालियाए सत्तायसभायणोदररथं या। परिहाइ कमेण जहा सह जोगिमणोजलं जाण ॥ ७५ ॥ व्याख्या-'तोयमिव उदकमिव 'नालिकाया' घटिकायाः, तथा तसं च तदायसभाजन-लोहभाजनं च तसायसभाजनं तदुदरस्थ, वा विकल्पार्थः, परिहीयते क्रमेण यथा, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-'तथा' तेनैव प्रकारेण योगिमन एवाविकलत्वाजलं २ 'जानीहि अवबुध्यस्व, तथाऽप्रमादानलतप्तजीवभाजनस्थं मनोजलं परिहीयत इति भावना, अल मतिविस्तरेणेति गाधार्थः ॥ ७५ ॥ 'अपनयति ततोऽपि जिनवैद्य' इतिवचनाद् एवं तावत् केवली मनोयोग निरुणद्धीतात्युक्तम् , अधुना शेषयोगनियोगविधिमभिधातुकाम आह एवं चिय वजोगं निरुभइ कमैण कायजोगंपि । तो सेलेसोच थिरो सेलेसी केवली होइ । । दीप अनुक्रम [२१..] R६०५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1213~ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] STORIEOSKKRAM व्याख्या-एवमेव' एभिरेव विषादिदृष्टान्तः, किं १-वाग्योग निरुणद्धि, तथा क्रमेण काययोगमपि निरुणद्धीति वर्तते, ततः 'शैलेश इव' मेरुरिव स्थिरः सन् शैलेशी केवली भवतीति गाधार्थः ॥ ७६ ॥ इह च भावार्थो नमस्कारनियुक्ती प्रतिपादित एव, तथाऽपि स्थानाशून्यार्थं स एव लेशतः प्रतिपाद्यते, तत्र योगानामिदं स्वरूपम्-औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतवारद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरच्यापाराहतमनोव्यसाचिव्याजीवव्यापारो मनोयोग इति, स चामीयां निरोधं कुर्वन् कालतोऽन्तर्मुहर्तभाविनि परमपदे भवोपनाहिकर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा 4 समस्थितिषु सत्स्वेतस्मिन् काले करोति, परिमाणतोऽपि-पजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स । होति मणोदबाई तबावारी य जम्मत्तो॥१॥ तदससगुणविहीणे समए २ निरंभमाणो सो। मणसो सबनिरोहं कुणइ असंखेजसमएहिं ॥ २॥ पजत्तमित्तबिंदियजहष्णवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए २ निरुभंतो॥३॥ सबवइजोगरोह संखाईएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स ॥४॥ जो किर जहण्णजोओ तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुचंतो॥५॥रंभइ स कायजोगं संखाईएहिं चेव समएहिं । तो पर्याप्तमात्रसंझिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोन्याणि सयापारब यन्मात्रः ॥1॥ तदसंख्यगुणविदीनान् समये २ निहन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं करोल्पसंख्येयसमधैः ॥२॥ पर्याक्षमात्रहीन्द्रियरूप जघन्यवचोयोगिनः पर्याया ये तु । तवसंख्यगुणविहीनान् समये २ निरुधन् ॥ ३ ॥ सर्वबचोयोगरोध संख्यातीतः करोति समयैः । ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोत्पत्रस्य ॥४॥ यः किल जघन्यो योगदसंख्येयगुणहीनमेककसिन् । समये २ निरुन्धन् देहविभागं च मुञ्चन् ॥ ५॥ रुणद्विस काययोग संख्यातीतरेव समर्थः । ततः दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1214 ~ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक प्रतिक्रम हारिभद्रीया शतकम्. प्रत सूत्रांक [सू...] ॥६०६॥ CASSACARACES कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेइ ॥६॥ सेलेसो किर मेरू सेलेसो होइ जा तहाऽचलया। हो च असेलेसो सेलेसी-1 होइ थिरयाए ॥ ७॥ अहवा सेलुब इसी सेलेसी होइ सो उ बिरयाए । सेव अलेसीहोई सेलेसीहोअलोवाओ॥८॥ सीलं व समाहाणं निच्छयओ सबसंवरो सो य । तस्सेसो सीलेसो सीलेसी होइ तयवस्थो ॥९॥ हस्सक्खराइ मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओं तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥१०॥ तणुरोहारंभाओ झायइ सुहुमकिरिया|णियहि सो । वोच्छिन्न किरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥११॥ तयसंखेजगुणाए गुणसेढीऍ रइयं पुरा कर्म । समए २ खवयं कमसो सेलेसिकालेणं ॥ १२॥ सर्व खवेइ तं पुण निल्लेवं किंचि दुचरिमे समए । किंचिच होति चरमे सेलेसीए तयं वोच्छे ॥ १३॥ मणुयगइजाइतसबादरं च पज्जत्तसुभगमाएजं । अन्नयरवेयणिज नराउमुच जसो नामं ॥ १४ ॥ संभवओ जिणणाम नराणुपुवी य चरिमसमयंमि । सेसा जिणसंताओ दुचरिमसमयमि निति ॥ १५॥ ओरालियाहिं दीप अनुक्रम [२१..] कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावनामेति ॥ ६॥ पोलेशः किल मेरुः शैलेशी भवति या तथाऽचलता । भूत्वा चाशैलेषाः बालेशीभवति स्थिरतया ॥ ७॥ अथवा शैल इवर्षिः पीलभिवति स एव स्थिरता । सैवालेश्यीभवति सैलेशीभवत्वकोपात् ॥८॥ शीलं वा समाधान निश्चयतः सर्वसंवरः स च । सस्पेशः IVशीलेशःशैलेशीभवति तदवस्खा ॥॥खाक्षराणि मध्येन बेन काढेन पज मण्यन्ते । तिष्ठति शैलेशीगततावन्माकं ततः कालम् ॥10॥ तनुरोधार-12 म्भात् ध्यायति सूक्ष्मक्रियानिवृति सः । ब्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शैलेशीकाले ॥७॥ तदसंख्यगुणवा गुणश्रेण्या रचितं पुरा कर्म । समये २ रुपयन् क्रमशः बैलेशीकालेन ॥ १२ ॥ सबै अपयति तत् पुनर्निर्लेप किचिद्धिचरमे समये । किञ्जिच भवति चरमे लेश्यास्ताक्ये ॥ ३॥ मनुजगतिजाती असं बावरे च (पर्याप्तसुभगादेयं च । अन्यतरवेदनीयं गरायुरुगौत्रं यशोनाम ॥ 1 ॥ संभवतो जिननाम नराजुपूर्वीच चरमसमये । शेषा जिनसरकाः द्विचरमसमवे निस्तिहन्ति ॥ १५॥ औदारिकाभिः ॥६०६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1215~ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) SC प्रत सूत्रांक [सू...] सवाहिं चयइ विष्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेस तहा न जहा देसच्चाएण सो पुर्व ॥ १६ ॥ तस्सोदश्याभावा भवत्वं च विणियत्तए समयं । सम्मत्तणाणदंसणसुहसिद्धत्ताणि मोत्तूणं ॥ १७ ॥ उजुसेटिं पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥ १८॥' अलमतिप्रसङ्ग्रेनेति गाथार्थः ॥७६ । उक्त क्रमद्वारम्, इदानीं ध्यातव्यद्वारं विवृण्वन्नाह उपायतिइभंगाइपजयाणं जमेगवस्थुमि । नाणानयाणुसरणं पुञ्चगयसुशाणुसारेणं ॥ ७ ॥ व्याख्या-'उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्यायाणाम्' उत्पादादयः प्रतीताः, आदिशब्दान्मूर्तामूर्तग्रहः, अमीषां पर्यायाणां यदेकस्मिन् द्रव्ये-अण्वात्मादी, किं नानानयैः-द्रव्यास्तिकादिभिरनुस्मरण-चिन्तन, कथं ?-पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदा, मरुदेव्यादीनां वन्यथा । तत्किमित्याह सविधारमावर्षमणजोगतरभो तयं पदमसुकं । होइ पुर्त्तवितक सविधारमरागभावस्म ॥ ७० ॥ व्याख्या-'सविचारं' सह विचारेण वर्तत इति २, विचारः-अर्थव्यञ्जनयोगसङ्कम इति, आह च-'अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः-अर्थ:-द्रव्यं व्यजन-शब्दः योग:-मनःप्रभृति एतदन्तरतः-एतावद्भेदेन सविचारम् , अर्थाद्यञ्जनं सङ्कामतीति विभाषा, 'तकम् एतत् 'प्रथमं शुक्म् आद्यक्त भवति, किनामेत्यत आह-'पृथक्त्ववितर्क सविचारं' पृथक्त्वेन साभित्यजति विप्रजहणाभिः वणिराम् । निशेषत्यारोन तथा न यया देशालागेन स पूर्वम् ॥१५॥ तसोदविकाभावात् भव्यत्वं च विनिवर्तते समकम् । सम्बक्रवज्ञानदर्शनसिबत्वानि मुक्त्वा ॥१०॥ ऋजुश्रेणि प्रतिपक्षः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् । एकसम येन सिध्यति भय सागारोपयुक्तः सः ॥ १८॥ दीप अनुक्रम [२१..] -- -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12164 Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) ४प्रतिक्रमः णाध्यानशतकम् हारिभ प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक- भेदेन विस्तीर्णभावेनान्ये वितर्क:-श्रुतं यस्मिन् तत्तथा, कस्येदं भवतीत्यत आह-'अरागभावस्य' रागपरिणामरहित दिस्येति गाथार्थः ।। ७८ ॥ द्रीया पुण मुणिपक निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पाचतिहभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ ७९ ॥ ॥६०७॥ व्याख्या-यत्पुनः 'मुनिष्पकम्प' विक्षेपरहितं 'नियातशरणप्रदीप इव' निर्गतवातगृहैकदेशस्थदीप इव 'चित्तम्' अन्तःकरण, क-उत्पादस्थितिभङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ ७९ ॥ ततः किमत आह भविषारमस्थर्वजणजोगतरभो तयं बितियमुकं । पुनगयसुवालंबणमेगनवितधामनियार ॥ ८ ॥ व्यख्या-अविचारम्-असङ्कम, कुतः१-अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः इति पूर्ववत्, तमेवंविधं द्वितीयं शुक भवति, किम-1 |भिधानमित्यत आह-'एकत्ववितर्कमविचारम्' एकत्वेन-अभेदेन वितर्क:-व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा, इदमपि |च पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति, अविचारादि पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ ८॥ निश्चाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्य । मुहमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकाकिरियरस ॥ ८ ॥ | व्याख्या-'निर्वाणगमनकाले' मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये 'केवलिनः' सर्वज्ञस्य मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सति अर्द्धनिरुद्धकाययोगस्य, किं ?-'सूक्ष्मक्रियाऽनिवतिः सूक्ष्मा क्रिया यस्य तत्तथा सूक्ष्मक्रियं च तदनिवर्ति चेति नाम, निवर्तित शीलमस्येति निवर्ति प्रबर्द्धमानतरपरिणामात् न निवर्ति अनिवर्ति तृतीय, ध्यानमिति गम्यते, 'तनुकायक्रियस्येति 15 तन्वी उच्छासनिःश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येति गाथार्थः॥८१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1217~ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) MA प्रत सूत्रांक [सू...] वस्सैव य सेलेसीगयस्स सेलोव णिष्पकंपस्स । बोरिछन्नकिरियमप्पडिवाइ मागं परमसुकं ॥ ४२ ॥ व्याख्या-'तस्यैव च केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलेशी-प्राग्वर्णिता तां प्राप्तस्य, किंविशिष्टस्य !-निरुद्धयोगत्वात् 'शैलेश इव निष्पकम्पस्य' मेरोरिव स्थिरस्थेत्यर्थः, किं ?-व्यवच्छिन्नक्रिय योगाभावात् तद् 'अप्रतिपाति' अनुपरतस्वभावमिति, एतदेव चास्य नाम ध्यानं परमशुकुं-प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ इत्थं चतुर्विध ध्यानमभिधायाधुनैतत्प्रति|वद्धमेव वक्तव्यताशेषमभिधित्सुराह पदम जोगे जोगेसु वा मयं वितियमेव जोगमि । तइयं च कायजोगे सुकमजोगंमि य चवस्थं ॥ ८३ ॥ व्याख्या-'प्रथम' पृथक्त्ववितर्कसविचारं 'योगे' मनआदौ योगेषु वा सर्वेषु 'मतम्' इष्टं, तच्चागमिकश्रुतपाठिनः, है 'द्वितीयम्' एकत्ववितर्कमविचारं तदेकयोग एव, अन्यतरस्मिन् सङ्कमाभावात् , तृतीयं च सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति काययोगे, न योगान्तरे, शुकम् 'अयोगिनि च' शैलेशीकेवलिनि 'चतुर्थ व्युपरतक्रियाऽप्रतिपातीति गाथार्थः॥८शा आह-शुक्लध्यानोपरिमभेदद्वये मनो नास्त्येव, अमनस्कत्वात् केवलिनः,ध्यानं च मनोविशेषः 'ध्यै चिन्तायां मिति पाठात्, तदेतत्कथम् ?, उच्यते जह कदमत्थरस मणो शाणं भण्णह सुनिचलो सत्तो । तह केवलियो काओ सुनिघतो भलए माणं ॥ ४॥ ___ व्याख्या-यथा छद्मस्थस्य मनः, किं-ध्यान भण्यते सुनिश्चलं सत्, 'तथा' तेनैव प्रकारेण योगत्वाव्यभिचारात्के| वलिनः कायः सुनिश्चलो भण्यते ध्यानमिति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ आह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपि न भवति, तथाविधभादावेऽपि च सर्वभावप्रसङ्गः, तत्र का वातेति !, उच्यते दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1218~ Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रम णाध्यान शतकम् प्रत सूत्रांक [सू...] आवश्यक पुषप्पभोगनो थिय कम्मचिणिजरणहेततो याति । सत्यबहुनाओ तह जिणचंदागमामी व ॥ ४५ ॥ हारिभ चिचामावेवि सपा सुहमोवरपकिरिया भण्यति । जीवोवोगसम्भावभो भवत्थस्स झाणाई ॥६॥ द्रीया 19 व्याख्या-काययोगनिरोधिनो योगिनोऽयोगिनोऽपिचित्ताभावेऽपि सूक्ष्मोपरतक्रियो भण्यते,सूक्ष्मग्रहणात् सूक्ष्मक्रियाऽ-1 निवर्तिनो ग्रहणम् , उपरतग्रहणाब्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिन इति, पूर्वप्रयोगादिति हेतुः, कुलालचक्रभ्रमणवदिति दृष्टान्तोऽ॥६०८॥ भ्यूद्यः, यथा चक्रं भ्रमणनिमित्तदण्डादिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमति तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतः। भावमनसो भावात् भवस्थस्य ध्थाने इति, अपिशब्दश्चोदनानिर्णयप्रथमहेतुसम्भावनार्थः, पशब्दस्तु प्रस्तुतहेत्वनुकर्षणार्थ, एवं शेषहेतवोऽप्यनया गाथया योजनीयाः, विशेषस्तूच्यते-'कर्मविनिर्जरणहेतुतश्चापि कर्मविनिर्जरणहेतुत्वात् क्षपकश्रेणिवत्, भवति च क्षपकश्रेण्यामिवास्य भवोपमाहिकर्मनिर्जरेति भावः, चशब्दः प्रस्तुतहेतुत्वनुकर्षणार्थः, अपिशब्दस्तु द्वितीयहेतुसम्भावनार्थ इति, 'तथा शब्दार्थबहुत्वात् यथैकस्यैव हरिशब्दस्य शक्रशाखामृगादयोऽनेकार्थाः एवं ध्यानशब्दस्यापि न विरोधः, 'ध्यै चिन्तायां' 'ध्यै कायनिरोधे 'ध्यै अयोगित्वे' इत्यादि, तथा जिनचन्द्रागमाचतदेवमिति, उक्त । च-आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ इत्यादि गाथाद्वयार्थः ॥८५-८६ ।। उकं ध्यातव्यद्वार, ध्यातारस्तु धर्मध्यानाधिकार एवोक्ताः, अधुनाऽनुप्रेक्षाद्वारमुच्यते सुकमाणसुभाविधचित्तो चिंतेइ माणविरमेऽपि । णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्तसंपनो ॥ ७॥ ध्याख्या-शुक्लध्यानसुभावितचित्तश्चिन्तयति ध्यानविरमेऽपि नियतमनुप्रेक्षाश्चतस्रश्चारित्रसम्पन्नः, तत्परिणामरहितस्य तदभावादिति गाधार्थः।। ८७ ॥ ताश्चैताः दीप अनुक्रम [२१..] SAX ॥६०८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1219~ Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक TRACTRESCRECE भासपदाराचाए तब संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणन्तं वत्थूर्ण विपरिणामं च ॥ ८ ॥ व्याख्या-आश्रवद्वाराणि-मिथ्यात्वादीनि तदपायान्-दुःखलक्षणान्, तथा संसारानुभावं च, 'धी संसारों' इत्यादि, भवसन्तानमनन्तं भाविनं नारकाद्यपेक्षया, वस्तूनां विपरिणामं च सचेतनाचेतनानां 'सबढाणाणि असासयाणी त्यादि, एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्तविपरिणामानुप्रेक्षा आद्यद्वयभेदसङ्गता एव द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥ ८८ ॥ उक्तमनुप्रेक्षाद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वाराभिधित्सयाऽऽह सुकाए लेखाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए । घिरयाजियसेलेसिं लेखाईर्ष परमसुकं ॥ ८९ ॥ व्याख्या सामान्येन शुक्लायां लेश्यायां 'द्वे' आये उक्तलक्षणे 'तृतीयम्' उक्तलक्षणमेव, परमशक्कुलेश्यायां 'स्थिरता जितशैलेशं' मेरोरपि निष्पकम्पतरमित्यर्थः, लेश्यातीतं 'परमशुक्ल चतुर्थमिति गाथार्थः ॥ ८९॥ उक्तं लेश्याद्वारम् , अधुना लिङ्गद्वार विवरीषुस्तेषां नामप्रमाणस्वरूपगुणभावनार्धमाह अपहासमोहविवेगविक्षसम्मा तरस होति लिंगाई । लिंगिजह जेहिं मुणी सुकाप्रमाणोषणयवितो ॥२०॥ व्याख्या-अवधासम्मोहविवेकव्युत्सर्गाः 'तस्य' शुक्लध्यानस्य भवन्ति लिङ्गानि, लिङ्गबते' गम्यते थैर्मुनिः शुक्लध्यानो-8 तापगतचित्त इति गाथाक्षरार्थः ॥९०॥ अधुना भावार्थमाह चालिज बीभेद व धीरो न परीसहोवसरोहिं । मुहमेसु ग संमुशा भावेसुन देवमाषाम् ॥ ११ ॥ व्याख्या-चाल्यते ध्यानात् न परीषहोपसगैर्बिभेति वा 'धीरः' बुद्धिमान स्थिरो वा न तेभ्य इत्यवधलिड, 'सूक्ष्मेषु' [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1220~ Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया णाध्यानशतकम् प्रत सूत्रांक [सू...] ॥६०९॥ 5 अत्यन्तगहनेषु 'न समुह्यते' न सम्मोहमुपगच्छति, 'भावेषु' पदार्थेषु न देवमायासु अनेकरूपास्वित्यसम्मोहलिङ्गमिति गावाक्षरार्थः ॥ ९१॥ देहविवि पेच्छह गप्पाणं तह य सहसंजोगे । देहोवहिलोसग निस्संगो समहा कुणः ॥ १२ ॥ व्याख्या-देहविविक्तं पश्यत्यात्मानं तथा च सर्वसंयोगानिति विवेकलिङ्गा, देहोपधिव्युत्सर्ग निःसङ्गाः सर्वथा करोति व्युत्सर्गलिङ्गमिति गाथार्थः ॥ ९२ ।। गत लिङ्गद्वारं, साम्प्रतं फलद्वारमुच्यते, इह च लाघवार्थं प्रथमोपन्यस्तं धर्मफलमभिधाय शुक्लध्यानफलमाह, धर्मफलानामेव शुद्धतराणामाघशुक्लद्वयफलवाद्, अत आह होति सुदासबसवरविणिजरामरमुहाई विवलाई । झाणवरस्स फलाई मुहाणुबंधीणि अम्मरस ॥ १३ ॥ व्याख्या-भवन्ति 'शुभाश्रवसंवरविनिर्जरामरसुखानि' शुभानवः-पुण्याश्रयः संवरः-अशुभकर्मागमनिरोधः विनिर्जराकर्मक्षयः अमरसुखानि-देवसुखानि, एतानि च दीर्घस्थितिविशुद्धयुपपाताभ्यां 'विपुलानि विस्तीर्णानि, 'ध्यानवरस्य ध्यानप्रधानस्य फलानि 'शुभानुबन्धीनि' मुकुलप्रत्यायातिपुनर्बोधिलाभभोगप्रवज्याकेवलशैलेश्यपवर्गानुवन्धीनि 'धर्मस्य ध्यान-13 स्येति गाथार्थः॥ ९३ ॥ उक्तानि धर्मफलानि, अधुना शुक्मधिकृत्याह ते य विसेसैण सुभाषवादोऽणुतरामरसुदं च । दोन्हं सुशाण फलं परिनिशाण परिहाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या-ते च विशेषेण 'शुभाश्रवादयः' अनन्तरोदिताः, अनुत्तरामरसुखं च द्वयोः शुक्लयोः फलमाद्ययोः परिनिणि मोक्षगमनं परिल्लाण'ति चरमयोर्द्धयोरिति गथार्थः॥९४ ॥अथवा सामान्येनैव संसारप्रतिपक्षभूते एते इति दर्शयति दीप अनुक्रम [२१..] ॥६०९॥ S मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1221 ~ Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] %% % % % %% आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], आसवदारा संसारयो जंण धम्मसु । संसारकारणाएं तओ धुवं धम्मसुकाई ॥ ९५ ॥ व्याख्या—आश्रवद्वाराणि संसारहेतवो वर्तन्ते तानि च यस्मान्न शुक्लधर्मयोर्भवन्ति संसारकारणानि तस्माद् 'ध्रुव' नियमेन धर्मशुक्के इति गाथार्थः ॥ ९५ ॥ संसारप्रतिपक्षतया च मोक्षहेतुर्ध्यानमित्यावेदयन्नाह - संरवजिरा मोक्सस्स पहो तवो पहले वार्सि झाणं च पहाणं तवस्त्र तो मोक्खयं ॥ ९६ ॥ व्याख्या - संवरनिर्जरे 'मोक्षस्य पन्थाः' अपवर्गस्य मार्गः, तपः 'पन्धाः मार्गः 'तयोः' संवरनिर्जरयोः ध्यानं च प्रधा नाङ्गं तपसः आन्तरकारणत्वात्, ततो मोक्षहेतुस्तद्ध्यानमिति गाथार्थः ॥ ९६ ॥ अमुमेवार्थं सुखप्रतिपत्तये दृष्टान्तैः प्रतिपादयन्नाह अंबरलोमीण कमो जह मलकलंकका सोझायणवणसोसे साइति जलागलाया ॥ ९७ ॥ व्याख्या- 'अम्बर लोहमहीनां' वखलोहार्द्र क्षितीनां 'क्रमशः क्रमेण यथा मूलकलङ्कपङ्कानां यथासङ्ख्यं शोध्या (ध्य) पनयनशोषान् यथासामेव 'साधयन्ति' निर्वर्तयन्ति जलानलादित्या इति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ तद सोझा समस्या जीवंवरलोहमे इणिगयाणं । झाणजलाणलसूरा कम्ममलकककाणं ॥ ९८ ॥ व्याख्या -- तथा शोध्यादिसमर्था जीवाम्बरलोहमेदिनीगतानां ध्यानमेव जलानलसूर्याः कर्मैव मलकलङ्कपङ्कास्तेषामिति गाथार्थः ॥ ९८ ॥ किं च तापो सोसो भेभो जोगाणं झालो जहानिय तह सावसोसभेया कम्मस्थवि शाइणो नियमा ९९ ॥ এ এড় অর এএ%% % ছ% e मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1222 ~ Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रतिक्रमणाध्यानसतकम् प्रत सूत्रांक [स...] आवश्यक व्याख्या-तापः शोषो भेदो योगानां 'ध्यानतः' ध्यानात् यथा 'नियतम्' अवश्य, तत्र ताप:-दुःखं तत एव शोषः- हारिभ- 18 दौर्बल्यं तत एव भेदः-विदारणं योगानां-बागादीनां, 'तथा' तेनैव प्रकारेण तापशोषभेदाः कर्मणोऽपि भवन्ति, कस्य :द्रीया 'ध्यायिन' न यहछया नियमेनेति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ किं च॥६१०॥ जब रोगासयसमणं विसोसणाविरेषणोसहविदीहि । तह कम्मामयसमणं माणाणसणाहजोगेहि ॥ १०॥ व्याख्या-यथा 'रोगाशयशमन' रोगनिदानचिकित्सा 'विशोषणविरेचनौषधविधिभिः' अभोजनविरेकोषधप्रकारः, तथा 'कर्मामयशमन' कर्मरोगचिकित्सा ध्यानानशनादिभिर्योगैः, आदिशब्दाद् ध्यानवृद्धिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति गाथार्थः॥ १०० ।। किं च जद विरसंचिमिंधणमनको पक्षणपहिलो पुष वहह । तह कम्मेधणममियं खणेण झाणाणलो दहह ॥ १.१॥ व्याख्या-यथा 'चिरसञ्चितं' प्रभूतकालसश्चितम् इन्धन' काष्ठादि 'अनलः' अग्निः 'पवनसहितः' वायुसमन्वितः 'दूत' शीघ्रं च 'दहति भस्मीकरोति, तथा दुःखतापहेतुत्वात् कर्मवेन्धनं कर्मेन्धनम् 'अमितम्' अनेकभवोपात्तमनन्तं 'क्षणेन' समयेन ध्यानमनल इव ध्यानानल: असौ 'दहति' भैमीकरोतीति गाधार्थः ।। १०१॥ जह पा घणसंधाया गणेण पचणाहया पिलिजति । झाणपवणावहूया सह कम्मघणा विलिजति ॥ १०॥ व्याख्या-यथा वा 'घनसहाता" मेघौघाः क्षणेन 'पवनाहताः' वायुप्रेरिता विलय-विनाशं यान्ति-गच्छन्ति, 'ध्यान| पवनावधूता' ध्यानवायुविक्षिप्ताः तथा कमैव जीवस्वभावावरणाद् घनाः २, उक्तं च-"स्थितः शीतांशुवजीवः, प्रकृत्या दीप अनुक्रम [२१..] ॥६१०॥ -25 * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1223~ Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू...] दीप अनुक्रम [२१..] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], भावशुद्धया । चन्द्रिकायच्च विज्ञानं तदावरणमस्ववदू ॥ १ ॥ इत्यादि, 'विलीयन्ते' विनाशमुपयान्तीति गाथार्थः ॥ १०२ ॥ किं वेदमन्यद् १, इहलोकप्रतीतमेव ध्यानफलमिति दर्शयति न कसाबसमुत्येहि व वाहिज माणसेहिं दुक्खेहिं ईसाविसायसोगाइएहिं साणोवगयचित्तो ॥ १०३ ॥ व्याख्या- 'न कपायसमुत्थैश्च' न क्रोधाद्युद्भवैश्च 'बाध्यते' पीड्यते मानसेदुःखैः, मानसग्रहणात्ताप इत्याद्यपि यदुक्तं तन्न बाध्यते 'ईर्ष्याविशदशोकादिभिः तत्र प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मत्सर विशेष ईर्ष्या विषाद:- बैकुव्यं शोक:दैन्यम्, आदिशब्दाद् हर्षादिपरिग्रहः, ध्यानोपगतचित्त इति प्रकटार्थमयं गाथार्थः ॥ १०३ ॥ सीयायवाहिय सारीरेदिं सुबहुप्पगारेहिं झाणसुनिश्चलचितो न पहिला निरापेही ॥ १०४ ॥ व्याख्या - इह कारणे कार्योपचारात् शीतातपादिभिश्च, आदिशब्दात् क्षुदादिपरिग्रहः, शारीरैः 'सुबहुप्रकारैः' अनेक भेदैः 'ध्यानसुनिश्चलचित्तः ध्यानभावितमतिर्न बाध्यते, ध्यानसुखादिति गम्यते, अथवा न शक्यते चालयितुं तत एव 'निर्जरापेक्षी' कर्मक्षयापेक्षक इति गाथार्थः ॥ १०४ ॥ उक्तं फलद्वारम् अधुनोपसंहरन्नाह इय गुणाधाणं दिहादिसुहसाहणं झाणं खुपसत्यं सदेयं यं यं च निपि ॥ १०५ ॥ व्याख्या--' इय' एवमुक्तेन प्रकारेण 'सर्वगुणाधानम्' अशेषगुणस्थानं दृष्टादृष्टसुखसाधनं ध्यानमुक्तन्यायात् सुठु प्रशस्तं २, तीर्थकरगणधरादिभिरासेवितत्वात्, यतश्चैवमतः श्रद्धेयं नान्यथैतदिति भावनया 'ज्ञेयं' ज्ञातव्यं स्वरूपतः 'ध्येयम्' अनुचिन्तनीयं क्रियया, एवं च सति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्या सेवितानि भवन्ति, 'नित्यमपि' सर्वकालमपि, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1224 ~ Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक आह-एवं तर्हि सर्वक्रियालोपः प्रायोति, न, तदासेवनस्यापि तत्त्वतो ध्यानत्वात् , नास्ति काचिदसौ क्रिया यया साधूनां प्रतिक्रमहारिभ-1ध्यानं न भवतीति गाथार्थः ॥ १०५ ॥ ग्रन्थागं १५६९६ ॥ समाप्तं ध्यानशतकं ।।। णा.क्रियाद्रीया धिकारः पडिकमामि पंचहि किरियाहि काइयाए अहिगरणियाए पाउसियाए पारितावणियाए पाणाइवायकिरियाए ॥६११॥ (सूत्रम्) प्रतिक्रमामि पञ्चभिः क्रियाभिः-व्यापारलक्षणाभियोऽतिचारः कृतः, तद्यथा--काइयाए' इत्यादि, चीयत इति कायः, कायेन निवृत्ता कायिकी तया,सा पुनस्त्रिधा-अविरतकायिकी दुष्प्रणिहितकायिकी उपरतकायिकी,(च) तत्र मिथ्याहटेरविरतसम्यग्दृष्टेश्चाऽऽद्या अविरतस्य कायिकी-उत्क्षेपणादिलक्षणा क्रिया कर्मबन्धनिबन्धनाऽविरतकायिकी, एवमन्यत्रापि षष्ठीसमासो योग्यः, द्वितीया दुष्पणिहितकायिकी प्रमत्तसंयतस्य,सा पुनर्विधा-इन्द्रियदुष्पणिहितकायिकी नोइन्द्रियदुष्प-1 णिहितकायिकी च, तत्राऽऽद्येन्द्रियैः-श्रोत्रादिभिर्दुष्प्रणिहितस्य-इष्टानिष्ट विषयप्राप्ती मनाक्सङ्गनिर्वेदद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्व्यवस्थितस्य कायिकी, एवं नोइन्द्रियेण-मनसा दुष्पणिहितस्याशुभसङ्कल्पद्वारेण दुर्व्यवस्थितस्य कायिकी, तृती याऽप्रमत्तसंयतस्य-उपरतस्य-सावधयोगेभ्यो निवृत्तस्य कायिकी, गता कायिकी १, अधिक्रियत आत्मा नरकादिषु येन मतदधिकरणम्-अनुष्ठानं बाह्यं वा वस्तु चक्रमहादि तेन निवृत्ता-अधिकरणिकी तया, सा पुनर्द्विधा-अधिकरणप्रवर्तिनी निर्वर्तिनी च, तत्र प्रवर्तिनी चक्रमहापशुबन्धादिप्रवर्तिनी, निर्वर्तिनी खड्गादिनिर्वर्तिनी, अलमन्यैरुदाहरणैः, अनयोरेवान्तःपातित्वात्तेषां, गताऽऽधिकरणिकी २, प्रद्वेषः-मत्स रस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी, असावपि द्विधा-जीवप्राद्वेषिक्यजीधर प्रद्धेपिकी च, आद्या जीवे प्रद्वेषं गच्छतः, द्वितीया पुनरजीवे, तथाहि-पाषाणादौ प्रस्खलितस्तत्प्रद्वेषमावहति गता तृतीया ३, SESSINGER -60 दीप अनुक्रम [२२] स. ॥११॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | .. क्रियाया: अधिकारः - ५ क्रिया: तथा २५ क्रिया: सविस्तरवर्णनं ~ 1225~ Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२२] परितापन-ताडनादिवुःख विशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी तया, असावपि द्विधैव-स्वदेहपारितापनिकी परदेहपारितापनिकी च, आद्या स्वदेहे परितापनं कुर्वतो द्वितीया परदेहे परितापनमिति, तथा च अन्यरुष्टोऽपि स्वदेहपरितापन करोत्येव कश्चिजडः, अथवा वहस्तपारितापनिकी परहस्तपारितापनिकी च, आद्या स्वहस्तेन परितापनं कुर्वतः द्वितीया परहस्तेन कारयतः, गता चतुर्थी ४,प्राणातिपातः-प्रतीतः, तद्विषया क्रिया प्राणातिपातक्रिया तया, असावपि द्विधा-स्व-| प्राणातिपातक्रिया परमाणातिपातक्रिया च, तत्राऽऽद्याऽऽत्मीयप्राणातिपातं कुर्वतः द्वितीया परप्राणातिपातमिति, तथा च कश्चिन्निर्वेदतः स्वर्गाद्यर्थ वा गिरिपतनादिना स्वप्राणातिपातं करोति, तथा क्रोधमानमायालोभमोहवशाच्च परमाणातिपातमिति, क्रोधेनाऽऽकुष्टः रुष्टो वा व्यापादयति, मानेन जात्यादिभिहींलितः, माययाऽपकारिणं विश्वासेन, लोभेन शौकरिकः, मोहेन संसारमोचकःस्माों वा याग इति, गता पञ्चमी ५। क्रियाऽधिकाराच्च शिष्यहितायानुपासा अपि सूत्रे अन्या अपि विंशतिः क्रियाः प्रदर्श्यन्ते, तंजहा-आरंभिया१परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ मिच्छादसणवत्तिया ४ अपचक्खाणकिरिया ५ दिठिया ६ पुढ़िया ७ पाडुच्चिया८ सामंतोवणिवाइया ९नेसस्थिया १० साहत्थिया ११ आणमणिया १२ वियारणिया १३ अणाभोगवत्तिया १४ अणवकखवत्तिया १५ पओगकिरिया १६ समुयाणकिरिया १७ पेजवत्तिया १८ दोसवित्तिया १९ ईरियावहिया २० चेति, तत्थारंभिया दुविहा-जीवारंभिया य अजीवारंभिया य जीवारंभियाजं जीवे तपथा-आरम्भिकी पारिग्रहिकी मायाप्रत्यविकी मिथ्यादर्शनप्रत्यविकी समस्याख्यान क्रिया दृष्टिना पूष्टिना प्रातीत्यिकी सामन्तोपनिपातिकी नैःशखिकी वहसिकी आज्ञापनी विदारणी अनाभोगप्रत्ययिकी भनक्कारक्षामयिकी प्रयोगक्रिया समुदान क्रिया प्रेमप्रत्यायिकी कैपप्रत्यायिकी ऐयापथिकी चेति । |तन्त्रारम्भिकी विविधा-जीवारम्भिकी अजीवारम्भिकी च, जीपारम्भिकी यजीवान् मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1226~ Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२२] आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७१...] भाष्यं [ २०४...], द्रीया आवश्यक - * आरंभइ अजीवारंभिया - अजीवे आरंभइ १, पारिग्गहिया किरिया दुबिहा- जीवपारिग्गहिया अजीवपारिग्गहिया य, जीवपाहारिभ- रिग्गहिया- जीवे परिगिण्हइ, अजीवपारिग्गहिया-अजीवे परिगिण्हइ २, मायावत्तिया किरिया दुविहा- आयभाववंचणा य परभाववचणा य, आयभाववंचणा अष्पणोच्चयं भावं गूहइ नियडीमंतो उज्जुयभावं दंसेइ, संजमाइसिढिलो वा करण* फडाडोवं दरिसेइ, परभाववंचणया तं तं आयरति जेण परो वंचिज्जइ कूडलेहकरणाईहिं ३, मिच्छादंसणवत्तिया किरिया दुबिहा- अणभिग्ग हियमिच्छादंसणवत्तिया य अभिग्ग हियमिच्छादंसणवत्तिया य, अणभिग्गहियमिच्छादंसणवत्तिया असंणीण संणीणवि जेहिं न किंचि कुतिस्थियमयं पडिवण्णं, अभिग्गहियमिच्छादंसणवत्तिया किरिया दुविहा - हीणा इरित्तदंसणे य तबइरितदंसणे य, हीणा जहा-अंगुट्टपबमेत्तो अप्पा जबमेत्तो सामागतंदुलमेत्तो वालग्गमेत्तो परमाणुमेत्तो हृदये जाज्वल्यमानस्तिष्ठति ललाटमध्ये वा, इत्येवमादि, अहिगा जहा पंचधणुसइगो अप्पा सबगओ अकत्ता अचेयणो ॥६१२॥ १] आरम्भयति, अजीवारम्भिकी अजीवानारम्भयति, पारिप्रहिकी क्रिया द्विविधा जीवपारिमहिकी अजीवपारिग्रहिकी च जीवपारिग्रहिकी जीवान् परिगृह्णाति अजीवपारिग्रहिकी अजीवान् परिगृह्णाति मायाप्रत्यविकी क्रिया द्विविधा आत्मभाववचनता च परभाववचनता च, आत्मभाववचनता आत्मीयं भावं निगूहति निकृतिमान् ऋभावं दर्शयति, संयमादिशिथिलो वा करणस्फटाटोपं दर्शयति, परभाववचनता तसदाचरति येन परो यते कूट करणादिभिः मिथ्यादर्शनप्रत्पथिकी क्रिया द्विविधा अनभिगृहीतमिथ्यादर्शनप्रत्यविकीच अभिगृहीतमिथ्यादर्शनप्रत्ययकीच अनभिगृहीतमिथ्यादर्शनप्रत्यधिकी असंज्ञिनां संहिनामपि चैनं किञ्चित् कृतीर्थिकमतं प्रतिपक्षं, अभिगृहीतमिथ्यादर्शनप्रत्यधिकी क्रिया द्विविधा हीनातिरिकदर्शने च तव्यतिरिक्तदर्शने च, हीना यथा अनुपमात्र आत्मा यवमात्रः श्यामाकन्दुडमात्र वाळाप्रमात्रः परमाणुमात्रः । अधिका यथा पञ्चधनुःशतिक भारमा सर्वो कती अचेतनः ४ प्रतिक्रमणा. क्रियाधिकारः ~1227 ~ ॥ ६१२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] इत्येवमादि, एवं हीणाइरित्तदसणं, तबइरित्तदसणं नास्त्येवाऽऽत्माऽऽत्मीयो वा भावः नास्त्ययं लोक न परलोकः असत्स्वभावाः सर्वभावा इत्येवमादि, अपञ्चक्खाणकिरिया अविरतानामेव, तेषां न किञ्चिदूविरतिर(तम)स्ति, सा दुविहाजीवअपञ्चक्खाणकिरिया अजीवऽपञ्चक्खाणकिरिया य, न केसुइ जीवेसु अजीवेमु य वा विरती अथिति ५, दिडिया किरिया दुविहा, तंजहा-जीवदिठिया य अजीवदिट्ठीया य, जीवदिट्ठीया आसाईणं चक्खुदंसणवत्तियाए गच्छइ, अजीवदिछिया चित्तकम्माईणं ६, पुठिया किरिया दुविहा पण्णत्ता-जीवपुठिया अजीवपुछिया य, जीवछिया जा जीवाहियार पुच्छइ रागेण वा दोसेण वा, अजीवाहिगार वा, अहवा पुछियत्ति फरिसणकिरिया, तत्थ जीवफरिसणकिरिया इत्थी पुरिस नपुंसगं वा स्पृशति, संघट्टेइत्ति भणिय होइ, अजीवेसु सुहनिमित्तं मियलोमाइ वत्थजायं मोत्तिगादि वा रयणजार्य स्पृशति ७, पाडुच्चिया किरिया दुविहा-जीवपाडुच्चिया अजीवपाडुचिया य, जीवं पडुच जो बंधो सा जीवपाडुच्चिया, |जो पुण अजीव पडुच्च रागदोसुम्भवो सा अजीवपाडुचिया ८, सामंतोषणिवाइया समन्तादनुपततीति सामंतोवणिवाइया एवं हीनातिरिक्तदर्शनं, तब्यतिरिक्तदर्शन, अप्रत्याश्यामकिपा-सा द्विविधा जीवाप्रत्याख्यान किपा अजीवाप्रत्याख्यानकिया च, न केषुचिनीचेषु भजीवेषु च वा विरतिरतीति, दृष्टिजा फिया द्विविधा, नवधा-जीवष्टिया व अजीवष्टिनाच, जीपष्टिका अनादीनां चक्षुदर्शन प्रत्ययाय गच्छति, अजीवष्टिला साचित्रकर्मादीना, प्राधिकी, पृष्टिजा क्रिया द्विविधा प्रामा-जीवानिकी अजीवानिकी च, जीवानिकी या जीवाधिकार पश्यति राम्गेण वा द्वेषेण या, अणीनवाधिकार वा, अथवा स्पृष्टिजेति स्पर्मनक्रिया, तत्र जीवस्पर्शन क्रिया खिवं पुरुष नपुंसक संवठ्ठपतीति भणितं भवति, मजीयेषु सुखनि मिचं मृगकोमावि वनजातं मौक्तिकादि वा रखजातं, प्रानी विकी किया द्विविधा-जीवनातीयिकी अजीचप्राचीस्यिकी च, जीवं प्रतीत्य यो बन्धः सा जीवमातीत्यिकी, यः पुनरजीचं दिमतीत्य समझेपोजवा साजीवमातीखिकी, सामन्तोपनिपातिकी-सामन्तोपनिपातिकी 3929.MARALES दीप अनुक्रम [२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1228~ Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२२] आवश्यक. हारिभ• द्रीया ॥६१३॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... सो दुविहा- जीवसामंतोवणिवाइया य अजीवसामंतोवणिवाइया य, जीवसामंतोवणिवाइया जहा एगस्स संडो तं जणो जहा जहा पलोपर पसंसइ य तहा तहा सो हरिसं गच्छइ, अजीवेवि रहकम्माई, अहवा सामंतोवणिवाइया दुबिहादेससामंतोवणिवाइया य सबसामंतोवणिवाइया य, देससामंतोवणिवाइया प्रेक्षकान् प्रति यंत्रक देशेनाऽऽगमो भवत्यसंयतानां सा देससामंतोवणिवाइया, सबसामंतोवणिवाइया य यत्र सर्वतः समन्तात् प्रेक्षकाणामागमो भवति सा सबसामंतोवणिवाइया, अहवा समन्तादनुपतन्ति प्रमत्तसंजयाणं अन्नपाणं प्रति अवगुरिते संपातिमा सत्ता विणस्संति ८, नेसस्थिया किरिया दुविहा- जीवनेसत्थिया अजीवनेसत्थिया य, जीवने सत्थिया रायाइसंदेसाउ जहा उदगस्स जंतादीहिं, अजीवनेसत्थिया जहा पहाणकंडाईण गोफणधणुहमाइहिं निसिरइ, अहवा नेसत्थिया जीवे जीवं निसिरइ पुतं सीसं वा, | अजीवे सूत्रव्यपेतं निसिरइ वस्त्रं पात्रं धा, सृज विसर्ग इति १०, साहत्थिया किरिया दुविहा- जीवसाहत्थिया अजीव साहस्थिया १] सा द्विविधा - जीवसामन्तोपनिपातिकी बाजी वसामन्तोपनिपातिकी च जीवसामम्तोपनिपातिकी यथा एकस्य चण्टस्तं जनो यथा यथा प्रलोकते प्रशंसति च तथा तथा सह गच्छति, अभीयानपि रथकमादीनि अथवा सामन्तोपनिपातिकी द्विविधा देशसामन्तोपनिपातिकी च सर्वसामन्तोपनिपाति की घ, देशसामन्तोपनिपातकी-सा देशसामन्तोपनिपातिकी, सर्वसामन्तोपनिपातिकी च सा सर्वसामन्तोपनिपासिकी, अथवा प्रमत्तसंयतानामनपानं प्रति अनाच्छा दिते संपातिमा सरदा विनश्यन्ति नैःशखिकी क्रिया द्विविधा- जीवनैः शत्रिकी अजीवनैःशखिकी, जीवनैः शत्रिकी यथा राजादि संदेशात् यथा यत्रादिभि रुदकस्य, अजीवनैः शत्रिकी यथा पाषाणकाण्डादीनि गोफण धनुरादिभिर्निसृज्यन्ते, अथवा नैःकनिकी जीवे जीवं निसृजति पुत्रं शिष्यं वा, अजीये निसृजति, स्वास्तिकी क्रिया द्विविधा- जीवस्वाहसिकी अजीववाहसिकी च. ४प्रतिक्रमणा. क्रि. याधि० ~1229~ ॥६१३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक य, जीवसाहत्थिया जं जीवेण जीवं मारेइ, अजीवसाहस्थिया जहा-असिमाईहिं, अहवा जीवसाहस्थिया जं जीवं सहस्थेण तालेइ, अजीवसाहस्थिया अजीवं सहत्थेण तालेइ वत्थं पत्तं वा ११, आणमणिया किरिया दुविहा-जीवआणम-18 णिया अजीवआणमणिया य, जीवाणमणी जीवं आज्ञापयति परेण, अजीवं वा आणवायेइ १२, वेयारणिया दुविहाजीववेयारणिया य अजीववेयारणिया य, जीववेयारणिया जीवं विदारेइ, स्फोटयतीत्यर्थः, एवमजीवमपि, अहवा जीवम-12 जीव वा आभासिएम विकमाणो दो भासिउ वा विदारेइ परियच्छावेइत्ति भणिय होइ, अहवाजीवं वियारेइ असंतगुणेहिं ४ एरिसो तारिसो तुमंति,अजीवं वा वेतारणबुद्धीए भणइ-एरिसं एयंति १३, अणाभोगवत्तिया किरिया दुविहा-अणाभोगआदियणा य अणाभोगणिक्खेवणा य, अणाभोगो-अन्नाणं आदियणआ-हणं निक्खिवण-ठवर्ण, तं गहणं निक्खिवणं वा अणाभोगेण अपमजियाइ गिण्हह निक्खिवइत्ति वा, अहवा अणाभोगकिरिया दुविहा-आयाणनिक्खिवणाभोगकिरिया य कनCHORSRX [सू.] दीप अनुक्रम [२२] जीवखादस्ति की बजीवेन जीवं मारपति, मजीवसाहतिकी यथाऽस्यादिभिः, अथवा श्रीववाहसिकी पनीवं सहसेन सादयति, अजीयवाहसिकी। अजीवं स्वहस्तेन ताब्यति पात्रं चा, आज्ञापनी क्रिया द्विविधा-जीवाशापनिकी अजीवाशापनिकी च, जीधाज्ञापनी जीवमाशापयति परेण अजीचं वा5-13 ज्ञापयति, विक्रीणानो द्विविधा, जीवपिदारणिकी च अजीव विदारणिकी च, जीव चिदारणिकी जीवं विदारयति, एपमजीवमपि, अथवा जीवमजीथं वा अभाषिकेषु विक्रीणानो द्वैभाषिको वा विदारयति, प्रपा विधत्ते इति भणितं भवति, अमवा जीवं विचारयति असभिर्गुणैरीरासायास्यमिति, अजीवं वा विप्रतारगबुमा भणति-ईसमेतदिति, मनाभोगप्रत्यायिकी क्रिया द्विविधा-अनाभोगादानजा अनाभोगनिक्षेषजा च, मनाभोगोझानं आदान प्रहर्ष निक्षेपणं स्थापन, | तदू महणं स्थापनं वानाभोगेनाप्रमार्जितादि गृहाति निशिपति वा, अथवा भनाभोगक्रिया द्विविधा-भादाननिक्षेपामाभोगक्रिया च मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1230~ Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकताकमणअणाभोगकिरिया य, तत्थादाणनिक्खिवणअणाभोगकिरिया रओहरणेण अपमजियाइ पत्तचीवराणं आदाणाप्रतिक्रमहारिभ- दाणिक्खेवं वा करेइ, उक्कमणअणाभोगकिरिया लंघणपवणधावणअसमिक्खगमणागमणाइ १४, अणवखवत्तिया किरियाणा . किद्रीया दुविहा-इहलोइयअणवखवत्तिया य परलोइयअणवखवत्तिया य, इहलोयअणवखवत्तिया लोयविरुद्धाई चोरिकाईणियाधिकारः करेइ जेहिं वहबंधणाणि इह चेव पावेइ, परलोयअणवखवत्तिया हिंसाईणि कम्माणि करेमाणो परलोयं नावकंखइ १५, ॥६१४॥ पओयकिरिया तिविहा पण्णत्ता तं०-मणप्पओयकिरिया वइप्पओयकिरिया कायप्पओयकिरिया य, तत्थ मणप्पओयकिरिया अट्टरुद्दज्झाई इन्द्रियप्रसृतौ अनियमियमण इति, वइपोगो-मायाजोगो जो तित्थगरेहिं सावज्जाई गरहिओ तं सेच्छाए भासइ, कायप्पओयकिरिया कायप्पमत्तस्स गमणागमणकुंचणपसारणाइचेवा कायस्स १६, समुदाणकिरिया समग्गमुपादाण समुदाणं, समुदाओ अट्ठ कम्माई, तेसिं जाए उवायाणं कजई सा समुदाणकिरिया, सा दुविहा-देसोवघाय [सू.] दीप अनुक्रम Chects [२२] रमणानाभोगक्रिया च, तनादान निक्षेपानाभोगकिया रजोदरणेनाममाज्य पात्रचीवरादीनामादान निक्षेपं वा करोति, उक्रमणानाभोगक्रिया - नप्लवनधावनासमीक्ष्यगमनागमनावि, अनवकागप्रत्ययिकी क्रिया द्विविधा-ऐहलौकिकानप कागप्रत्यधिकी च पारलौकिकामवकालाप्रत्यषिकी च, ऐडकौकिका| नवकालगप्रत्यविकी कोकविनद्धानि चौर्यादीनि करोति यैवैधवन्धनानि इदैव प्रामोति, परलोकानवकालापत्यविकी हिंसादीनि कर्माणि कुर्वन् परलोक नावकाकृते, प्रयोगक्रिया विविधा प्राप्ता, तयथा-मनःप्रयोगक्रिया वाक्प्रयोगकिषा कायप्रयोगक्रिया च, सत्र मनःप्रयोगक्रिया प्रारीनभ्याधीन्द्रियमयतो अनिष- | मितमना इति, वारूपयोगा-वाग्योगः यस्तीर्थकरैः सावधादिर्गदितसं खेपा भाषते, कायप्रयोगकिपा कायेन प्रमत्तस्य गमनागमनाकुचनप्रसारणादिः चेष्टा कायत, सारानक्रिया समममुपादानं समुदानं, समुदायोऽष्ट कर्माणि, तेषां ययोगदान कियते सा समुदान किया, सा द्विविधा-देशोपधात ॥१४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1231~ Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२२] समुदाणकिरिया सपोवधायसमुदाणकिरिया, तत्थ देसोवघारण समुदाणकिरिया कज्जइ कोइ कस्सइ इंदियदेसोवघायं 8 करेइ, सबोवपायसमुदाणकिरिया सवपयारेण इंदियविणासं करेइ १७, पेजवत्तिया पेम्म राग इत्यर्थः, सा दुविहामायानिस्सिया लोभनिस्सिया य, अहवा तं वयणं उदाहरइ जेण परस्स रागो भवइ १८, दोसवत्तिया अप्रीतिकारिका |सा दुविहा-कोहनिस्सिया य माणनिस्सिया य, कोहनिस्सिया अप्पणा कुप्पइ, परस्स वा कोहमुपादेइ, माणणिस्सिया दूसयं पमज्जा परस्स वा माणमुप्पाएइ, इरियावहिया किरिया दुविहा-कजमाणा वेइजमाणा य, सा अप्पमत्तसंजयस्स वीय रायछउमत्थस्स केवलिस्स वा आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं निसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स आउ भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स निक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवायमवि सुहुमा किरिया इरियावहिया कजइ, सा पढमसमए बद्धा विइयसमए वेइया सा बद्धा पुवा वेइया निजिण्णा सेअकाले अर्कमसे यावि भवइ । एयाओ पंचवीस किरियाओ॥ समुपानकिया सौंपचालसमुवानकिया, तत्र देशोपपातेन समुदानक्रिया क्रियते कश्चित् कस्यचित् इन्द्रियदेशोपपातं करोति, सर्वोपधातसमुदानकिया सर्वप्रकारेणेन्द्रियविनाशं करोति, प्रेमप्र त्यधिकी-सा द्विविधा-मायामिश्रिता कोभनिश्रिता च, अथवा तवचनमुनाइरति पेन परस्य रागो भवति, प्रेषप्रत्यषिकी, सा द्विविधा-कोपनिनिता च माननिश्रिता च, कोधमिश्रिता आत्मना कुप्यति परस्थ वा क्रोधमुत्पादयति, माननिश्रिता स्वयं मावति परस्य या मानमुपादयति, ४ाईयोपथिकी क्रिया द्विविधा-कियमाणा च पेचमानाच,साअप्रमत्तसंपतस्थ वीतरागच्छन्नस्थख केवलिनो वायुकं गच्छत आयुकं तिष्ठत आयुकं निषीदत आयुक्तं स्वग्यसंचत आयुकं भुझानस्थायुर्क भाषमाणस्यायुकं वस्त्रं पात्रं कम्बलं पादप्रोग्छनं गृङ्गतो निक्षिपतो वा यावचक्षुःपदमनिपातमपि (तः) सूक्ष्मा किया पथिवी क्रियते, सा प्रयमे समये बद्धा द्वितीयसमये वेदिता सा बद्धा स्पृष्टा वेदिता निजीगो एप्परकाले अकमांशश्वापि भवति, पताः पविशतिः क्रियाः । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1232~ Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया णा. समित्यधिक प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६१५॥ पडिकमामि पंचहिं कामगुणहिं-सद्देणं रूवेणं रसेणं गंधेणं फासेणं । पडिकमामि पंचहिं महब्वएहिं, -पाणाइवायाओ वेरमणं मुसाबायाओ वेरमणं अदिण्णादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ रमणं परिग्गहाओ वेरमणं । पडिकमामि पंचहिं समिईहि-ईरियासमिइए भासासमिइए एसणासमिइए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिइए उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्टाचणियासमिइए ॥ सूत्रं ॥ प्रतिक्रमामि पञ्चभिः कामगुणैः, प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतेन योऽतिचारः कृतः, तद्यथा-शब्देनेत्यादि, तत्र काम्यन्त इति कामाः-शब्दादयस्त एव स्वस्वरूपगुणबन्धहेतुत्वाद्गुणा इति, तथाहि-शब्दाद्यासक्तः कर्मणा वझ्यत इति भावना ।। प्रतिक्रमामि पञ्चभिर्महानतः करणभूतैोऽतिचारः कृतः, औदयिकभावगमनेन यत्खण्डनं कृतमित्यर्थः, कथं पुनः करणता महाव्रतानामतिचारं प्रति ?, उच्यते, प्रतिषिद्धकरणादिनैव, किंविशिष्टानि पुनस्तानि ?, तत्स्वरूपाभिधित्सयाssह-प्राणातिपाताद्विरमणमित्यादीनि क्षुण्णत्वान्न विनियन्ते, प्रतिक्रमामि पञ्चभिः समितिभिः करणभूताभिर्योsतिचारः कृतः, तद्यथा-ईर्यासमित्या भाषासमित्येत्यादि, तत्र संपूर्वस्य 'इण् गता' वित्यस्य क्तिन्प्रत्ययान्तस्य समि- तिर्भवति, सम्-एकीभावेनेतिः समितिः, शोभनकायपरिणामचेष्टेत्यर्थः, ईर्यायां समितिरीर्यासमितिस्तया, ईविषये एकीभावेन चेष्टनमित्यर्थः, तथा च-ईर्यासमिति म रथशकटयानवाहनाकान्तेषु मार्गेषु सूर्यरश्मिप्रतापितेषु प्रासुकविविक्तेषु पथिषु युगमात्रदृष्टिना भूत्वा गमनागमनं कर्तव्यमिति, भाषणं भाषा तद्विषया समितिर्भापासमि दीप अनुक्रम [२३] ॥१५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1233~ Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) S प्रत सूत्रांक [सू.] तिया, उक्त च-"भाषासमिति म हितमितासन्दिग्धार्थभाषणं" एषणा गवेषणादिभेदा शङ्कादिलक्षणा वा तस्यां समितिरेषणासमितिस्तया, उक्तं च-"एषणासमिति म गोचरगतेन मुनिना सम्यगुपयुक्तेन नवकोटीपरिशुद्धं ग्राह्य'मिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समितिः, भाण्डमात्रे आदाननिक्षेपविषया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, तया, इह च सप्त भङ्गा, भवन्ति-पत्ताइ न पडिलेहइ ण पमज्जइ, चउभंगो, तत्थ चउत्थे चत्तारि गमा-दुष्पडिलेहियं दुप्पमजियं चउभंगो, आइला छ अप्पसत्था, चरिमो पसत्थो, उच्चारप्रश्रवणखेलसिंघाणजल्लानां परिस्थापनिका तद्विषया समितिः सुन्दरचेष्टेत्यर्थः, तया, उच्चार:-पुरीष, प्रश्नवर्ण-मूत्रं, खेला-श्लेष्मा, सिवानं-नासिकोद्भवः श्लेष्मा, जल:-मला, अत्रापि त एव सप्त भङ्गा इति, इह च उदाहरणानि, ईरियासमिईए उदाहरणं| ऐगो साह ईरियासमिईए जुत्तो, सकरस आसणं चलियं, सकेण देवमग्शे पसंसिओ मिच्छादिही देवो असदहतो।। |आगओ मच्छियप्पमाणाओ मंडुकलियाओ विउबइ पच्छओ य हत्थी, गई ण भिंदर, हस्थिणा उक्खिविय पाडिओ, न सरीरं पेहइ, सत्ता मे मारियजीवदयापरिणओ। अहवा ईरियासमिईए अरहण्णओ, देवयाए पाओ छिण्णो, अण्णाए पानादिन प्रतिलिखति न प्रमार्जयति, चतुर्भलिका, तत्र चतुर्थे चत्वारो गमा:-दुष्पतिले खितं दुष्यमार्जितं चतुर्भडी, आधाः पद अप्रशसाः, चरमः प्रशस्तः, २ एक साधुरीसिमित्या युक्तः, शक्रस्यासनं चलितं, शकेण देवमध्ये प्रशंसितः, मिथ्यादृष्टिदेचोऽश्रद्दधान आगतो मक्षिकाममाणा मण्डकिका चिकुवैति पृष्टतश्च इसी, गति न भिनत्ति, इलिनोरिक्षय पातिता, न शरीराय स्पृहयति, सावा मया मारिता इति जीवदयापरिणतः ॥ अथवेयांस मित्तावरदनका, देवतया पादश्विनः, अन्यथा दीप अनुक्रम [२३] EX मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | पञ्च समितिनाम् सविस्तर-वर्णनं ~1234~ Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) + आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६१६॥ [सू.] AASKARKARSA संधिओ ॥ भासासमिईए-साडू, भिक्खडा नयररोहए कोइ निग्गंथो बाहिं कडए हिडंतो केणइ पुडो-केवइय आसहत्थी प्रतिक्रमतह निचयोदारुधनमाईणं । णिविण्णाऽनिविण्णा नागरया बेंति में समिओ॥१॥ बेइ ण जाणामोत्ति सज्झायझाणजोग- णा. समिवक्खित्ता। हिंडता न वि पेच्छह ? नविसुणह किह हु तो बेंति ॥ २॥-बहुं सुणेइ कण्णेहीत्यादि-वसुदेवपुषजम्मं आह- त्यधिक रणं एसणाए समिईए। मगहा मंदिग्गामो गोयमधिज्जाइचक्कयरो॥१॥ तस्स य धारिणी भज्जा गम्भो तीए कयाइ आहूओ। घिजाइ मओ छम्मास गम्भ धिज्जाइणी जाए ॥ २॥ माउलसंवडणकम्मकरणवेयारणा य लोएणं । नस्थि तुह एत्थ किंचिवि तो चेती माउलो तं च ॥३॥ मा सुण लोयस्स तुमं धूयाओ तिणि तेसि जेट्टयरं । दाहामि करे कम पकओ पत्तो य वीवाहो ॥४॥ सा नेच्छई विसण्णो माउलओ बेइ बिय दाहामि । सावि य तहेव निच्छद तइयत्ती निच्छए सावि ॥५॥ निविष्णनंदिवद्धणआयरियाणं सगासि निक्खंतो । जाओ छहखमओ गिण्हइयमभिग्गहमिमं तु ॥६॥ 1 संहितः ॥ भाषासमिती-साधुः, भिक्षार्थ नगररोधे कोऽपि निर्धन्धो बहिः कट के हिन्धमानः केनचित् पृष्टः-कियन्तोऽधा हलिनस्तपा निचयो दाय एवं समिताः॥1॥पुति च जानाम इति स्वाध्यायध्यानयोगबाक्षिताः। हिण्डमाना नैव प्रेक्षवं जैवशृणुथ कथं नु तदा युवति ॥ २ ॥ बहु ऋणोति कर्णाभ्यामित्यादि । वसुदेवपूर्वजन्माइरर्ण एषगायां समिती । मग नन्दीग्रामो गौतमो विग्जातीयश्रकरः ॥१॥ तस्य च धारिणीभार्या गर्भस्तखाः कदाचिजातः । धिग्जातीवो मृतः पण्मासय विग्जातीषा जाते ॥२॥ मातुलसंवर्धन कर्मकरण विचारणा | W६१६॥ कोकेन । नास्ति तवात्र विचिदपि तदा मबीति मातुलतं ॥३॥मा लोकस्य स्वं दुहितरस्तिखतासां ज्येष्तरी । दास्यामि कुरु कर्म प्रकृतः प्रामक विवाहः ॥ ॥सा नेच्छवि विषण्णो मातुको ब्रवीति द्वितीयां दास्यामि । सापि च तथैव नेति तृतीयेति नेति सापि ॥ ५॥ निविपणो नन्दिवर्धनाचार्याणां सकायो निएकान्तः । जातः षडाष्टक्षपको गृहाति चामिमहमिमं तु॥६॥ दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1235~ Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... बालगिलाणाईयं वेयावचं मए उ कायवं । तं कुणइ तिवसद्धो खायजसो सक्कगुणकित्ती ॥ ७ ॥ असदहेण देवरस आगमो कुणइ दो समणरुवे । अतिसारगहियमेगो अडविडिओ अइगओ बीओ ॥ ८ ॥ वेति गिलाणो पडिओ वेयावचं तु सदहे जो उ । सो उट्ठेऊ खिधं सुर्य च तं नंदिसेणेणं ॥ ९ ॥ छट्ठोववासपारणयमाणियं कवल घेतुकामेण । तं सुयमेत्तं रहसु डिओ य भण केण कर्ज्जति ॥ १० ॥ पाणगदवं च तहिं जं णत्थि तेण बेइ कजं तु । निग्गय हिंडतो कुणइ अणेसणं नविय पेलेइ ॥ ११ ॥ इय एकवारबितियं च हिंडिओ लद्ध ततियवारंमि । अणुकंपाए तरंतो तओ गओ तस्सगासं तु ॥ १२ ॥ खरफहसनिहुरेहिं अकोसइ सो गिलाणओ रुहो। हे मंदभग्ग ! फुकिय तूससि तं नाममेत्तेणं ॥१३॥ साहुवगारित्ति अह समुद्दिसिउमाओ । एयाएऽवत्थाए तं अच्छसि भत्तलोभिल्लो ॥ १४ ॥ अमियमिव मण्णमाणो तं फरुसगिरं तु सो उ संभंतो चलणगओ खामेइ धुवइ य तं असुइमललित्तं ॥ १५ ॥ उद्वेह वयामोत्ती तह काहामी जहा हु अचिरेणं । 1 बालानादीनां वैयावृत्यं मया कर्त्तव्यमेव तस्करोति तस्याः शक्रगुणकीर्तिः ॥ ७ ॥ अश्रद्धानेन देवखागमः करोति द्वे भ्रमणरूपे । अतिसारगृहीत एकोटम्यां स्थितोऽतिगतो द्वितीयः ॥८॥ वीति स्वानः पतितो वैयावृत्यं तु श्रद्धाति यस्तु स चितिं च तनन्दिषेणेन ॥९॥ पोपवासपारण कमानीतं कवान् गृहीतुकामेन । तष्छ्रुतमात्रे रभसोत्थितश्च भण केन कांवमिति १ ॥ १०॥ पानकटुभ्यं च तत्र यनास्ति तेन प्रवीति कार्य तु । निर्गतो हिण्डमाने करोत्यनेषणां न च प्रेरयति ॥ १३ ॥ एवमेकवारं द्वितीयं च हिन्द्रित तृतीयवारे अनुकम्पया स्वरयन् ततो गतका ॥ १२ ॥ खरपरुषनिहुराक्रोशति स ग्लानो रुष्टः । हे मन्दभाग्य ! वृथैव तुष्यसि स्वं नाममात्रेण ॥ १३ ॥ साधूपकार्थममिति नामाथ समुद्दिश्याथायातः । एतश मवस्थायां स्वं तिष्ठति भक्तलोलुपः ॥ १४ ॥ अमृतमिव मन्यमानस्तां परुषगिरं तु स तु संभ्रान्तः । चरणगतः क्षमवति प्रज्ञालयति च तमनुचिमलिम् ॥ ३५ ॥ उहि बाब इति तथा करिष्यामि यथाऽचिरेणैव । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1236 ~ Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक SACROSS *HRE-400-5 त्यधिक [सू.] आवश्यकता होहिह निरुआ तुम्भे बेती न वएमि गंतुं जे ॥१६॥ आरुहया पिट्टीए आरुढो ताहे तो पयारं च । परमासुइदुग्गंधपतिक्रममुबई पट्ठीए फरुसं च ॥१७॥ बेइ गिरं धिम्मुंडिय!, वेगविधाओ कओत्ति दुक्खविओ। इय बहुविहम कोसइ पए पए सोऽवि |णा. समिद्रीया भगवं तु ॥ १८ ॥ण गणेई फरुसगिरं णयावित दुसइ तारिसं गंधं । चंदणमिव मण्णतो मिच्छामिह दुकडं भणइ ॥१९॥ ॥६१७॥ चिंतेइ किह करेमी किह हु समाही हविज्ज साहुस्स। इय बहुविहप्पयारं नवि तिपणो जाहे खोहे ॥२०॥ ताहे अभिरथुणतो सुरो गओ आगओ य इयरो य । आलोएइ गुरूहि य धन्नोत्ति तओ अणुसहो ॥ २१ ॥ जह तेणं नवि|पेलिय एसण इय एसणाइ जइयवं । अहवावि इमं अण्णं आहरणं दिद्विवादीयं ॥ २२ ॥ जह केइ पंच संजय तण्हछुहकिलंत सुमहमद्धाणं । उत्तिणा बेयालि य पत्ता गामं च ते एगं ।। २३ ॥ मग्गंति पाणगं ते लोगो य तहिं अणेसणं कुणाई। न गहिय न लद्धमियरं कालगया तिसाभिभूया य ॥२४॥ चउत्थीए उदाहरण-आयरिएण साहू भणिओ-गामं वच्चामो, भविष्यसि नीरोगस्वं मचीति शमोमिन गर्नु । आरोह पृष्टौ आरूढसदा ततः प्रचारं (विटा)। परमाशुचिदुर्गन्य मुवति पृष्टी परुषां च ॥ १७॥ अवीति गिरी धिम् मुण्डित ! वेगविषातः कृत इति दुःखापितः । इति बहुविधमाकोशति पदे पदे सोऽपि भगवांस्तु ॥ १८॥ न गणयति परुपगिर न चापि तं दूषयति तारशं गन्धम् । चन्दनमिष मन्यमानो मिथ्या मे इह दुष्कृतं भणति ॥१५॥ चिन्तयति कयं कुर्वे कथं च समाधिर्भवेत् साधोः।। | इति बहुविधप्रकार व शक्तो यदा क्षोभयितुम् ॥ २० ॥ तदाऽभिष्टुचन सुरो गत आगतश्तरश्च । आकोचयति गुरुभिश्च धन्य इति ततोऽमुशिष्टः ॥ २१॥ यभा 14॥१७॥ तेन नैवोलाविषयमेषणायो यतितम्यं । अथवापीदमन्यदाहारण दृष्टिवादिकम् ॥ २२ ॥ यथा केचित्पञ्च संग्रतास्तुष्णाक्षुधाभ्यां विश्यन्तो सुमहान्तमKवानम । इसी विकाले च प्रामा प्रामं च ते एकम् ॥ २५॥ मार्गयन्ति पानकं ते कोकम तत्रानेषणां करोति । नगृहीत नकधामितरत् कालगतास्तूषा पहा भिभूताच ॥ २४॥ चतुर्थ्यामुदाहरण-आचार्येण साधुर्भणित :-प्रामं व्रजामः, दीप अनुक्रम [२३] -५५५% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1237~ Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] है। उग्गाहिए संते केणइ कारणेण ठिया, एको एत्ताहे पडिलेहियाणित्ति काउं ठवेउमारद्धो, साहहिं चोहो भणह-किमित्थ | सप्पो अच्छइ १, सन्निहियाए देवयाए सप्पो विउविओ, एस जहण्णओऽसमिओ, अण्णो तेणेव विहिणा पडिलेहिता ठवेइ. सो उकोसो समिओ, एत्थ उदाहरणं-एकरस आयरियस्स पंच सीससयाई, तेसिमेगो से हिसुओ पम्याइओ, सो जो जो साहू एइ तस्स तस्स दंडगं निक्खिवइ, एवं तस्स उडियस्स अन्नो एइ अन्नो जाइ, तहावि सो भगवं अतुरियं अचवलं उरि हेडा य पमज्जिय ठवेइ, एवं बहुएणवि कालेण न परितम्मइ-चरिमाए समिईए पण्णत्तमिणं तु वीयरापहिं । आहरणं| धम्मरूई परिठावणसमिइउवउत्तो ॥१॥काइयसमाहिपरिछावणे य गहिओ अभिग्गहो तेणं । सकप्पसंसा अस्सद्दहणे | देवागमविउद्ये ॥ २॥ सुबहुं पिवीलियाओ बाहा जवावि काइयसमाही । अन्नो य उहिओ हूँ साहू बेती तओ गाढं ॥३॥ अहयं च काइयाओ बेई अच्छसु परिहवेमित्ति । निग्गए निसिरे जहियं पिवीलिया ओसरे तत्थ ।। ४ ॥ साहू य उवाहिते सति केनचित्कारणेन स्थिताः, एकोऽभुना प्रतिलिखितानीतिकृत्या स्थापयितुमारब्धः, साधुभिनॉदिनो भगति-किमन्न सतिष्ठति !, सनि हितया देयतया सपो विकुर्विता, एष जघन्योऽसमितः, अन्य स्तेनैव विधिना प्रतिलिख्य स्थापयति, सबकटता समितः, प्रोदाहरण-एक स्थाचार्यख पक्ष शिष्य शतानि, तेम्बेका श्रेष्ठिभुतः प्रमजितः, स यो यः साधुः आयाति तस्य तस्य दण्ड निक्षिपति, एवं समिधिसेम्य भावाति अभ्यो चाति, तथापि स भगवान अस्परितम चपतमुपर्यवसाचप्रमज्य स्थापयति, एवं बहनापि कालेन न परिताम्यति । घरमाया समिती प्रज्ञप्तमिदं तु वीतरागः । भाहरणं धर्मरुचिः। पारिधापनिकीसमित्युपयुक्तः ॥1॥ काविकीसमाधिपारिष्टापनिकायां च गृहीतोऽभिप्रहस्तेन । शक्रप्रशंसा अथवाने देवागमो चिकुर्वति ॥ २ ॥ सुबहयः पीपिलिका बाधा जवादपि काविकीसमाथे पम्प स्थितः साधुर्मचीति ततो गाहम् ॥ ३॥ अहं च काविया मबीसि तिष्ठ परिष्ठापयामीति । निर्गतो म्युस्मजति यत्र पिपीलिका अवसपंन्त्रि तत्र ॥ ॥ साधुश्व मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1238~ Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥६१८॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... किलामिज्जइ पपिए ता वारिओ य देवेणं । सामाइए निसिद्धो मा पिय देवो य आउट्टो || ५ || वंदितु गओ चितियं तु दिवाइयं खुड्डुए उ एको। तेण ण पहिय थंडिल काइया लोभओ राओ ॥ ६ ॥ थंडिलं न पेहियंती न बोसिरे देवयाएँ। उज्जोओ। अणुरूपाऍ कओ से दिट्ठा भूमित्ति वोसिरियं ॥ ७ ॥ एसो समिओ भणिओ अण्णो पुण असमिओ इमो भणिओ । सो काइयभोमाई एक्केकं नवरि पडिलेहे ॥ ८ ॥ नवि तिष्णि तिणि पेहे बेइ किमित्थं निविडो होज्जुहो । काऊण उट्टरूवं च निविडा देवया तत्थ ॥ ९ ॥ सो उडिओ य राओ तत्थ गओ नवरि पेच्छए उई । वितियं च गओ तत्थवि ततियंपि य तत्थवि णिविडो ॥ १० ॥ तो अण्णो उट्टविओ तेसुंपि तहेव देवया भणिओ । कीस न वि सत्तावीसं पेहिसी ! सम्मं पडिवण्णो ॥ ११ ॥ उच्चाराई एसा परिद्वावण वण्णिया समासेणं । बेइ किमेत्तियं चिय परिठप्पमुआहु अपि १ ॥ १२ ॥ भण्णा अण्णंपत्थी किह तं किह वा परिद्ववेयवं । संबंधेणेएणं परिठावणिजुत्तिमायाया ॥ १३ ॥ १] शाम्यते प्रपीतवान् तदा वारितश्च देवेन । सामायिके निषिद्धो मा पा देवावर्जितः ॥ ५ ॥ वन्दित्वा गतः द्वितीयं दृष्टियादिकं कस्बेकः । तेन न प्रेक्षितं कायिकीकं लोभतो रात्री ॥ ६ ॥ खण्डितं न प्रेक्षितमिति न व्युरसृजति देवतयोयोतः अनुकम्पया कृतः तख दृष्टा भूमिरिति व्युत्सम् ॥ ७ ॥ एष समितो भणितोऽन्यः पुनरसमितोऽयं भणितः स कायिकभूम्यादि एकैकं परं प्रतिविखति ॥ ८ ॥ नैव त्रीणि त्रीणि प्रत्युपेक्षते प्रवीति किमिहोपविष्टो भवेदुद्रः १ कृत्वोद्ररूपं दोषविद्या देवता तत्र ॥ ९ ॥ स उत्थितच रात्रौ तत्र गतः परं प्रेक्षते उग्रम्। द्वितीयं च गतस्तत्रापि तृतीयमपि तत्राप्युपविष्टः ॥ १० ॥ ततोऽन्य उत्थापितस्तेष्वपि तथैव देवतया भणितः । कथं नैव सप्तविंशतिं प्रत्युपेक्षसे ? सम्यक प्रतिपसः ॥ ११ ॥ उच्चारादीनामेषः पारिष्ठापनिकी वर्णिता समासेन वीति किमेतावदेव पारिष्ठाप्यमुताहो अन्यदपि ।। १२ ।। भण्यतेऽन्यदुष्यति कथं तत् कवा परिद्वातिथ्यम् । संबन्धेनैतेन पारिष्ठाप निकी नियुकिराया ॥ १३ ॥ ४ प्रतिक्रम णा. समि त्यधि० ~ 1239 ~ ॥६१८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पारिद्वावणियविहिं चोच्छामि धीरपुरिसपण्णतं । जणाऊण सुचिहिया परयणसार जबलइंति ॥१॥ व्याख्या-परितै:-सर्वैः प्रकारः स्थापन परिस्थापनम्-अपुनर्ग्रहणतया न्यास इत्यर्थः, तेन निवृत्ता पारिस्थापनिकी तस्या विधि:-प्रकार: पारिस्थापनिकाविधिस्तं 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, किं स्वबुद्ध्योत्प्रेक्ष्य , नेत्याह-धीरपुरुषप्रज्ञप्तम्' अर्थ-18 सूत्राभ्यां तीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः, तत्रैकान्ततो वीर्यान्तरायापगमाद्धीरपुरुषः-तीर्थकरो गणधरस्तु धी:-बुद्धिस्तया विराजत इति धीरः ।आह-यद्ययं पारिस्थापनिकाविधिधीरपुरुषाभ्यां ग्ररूपित एव किमर्थं प्रतिपाद्यत इत्युच्यते-धीरपुरुपाभ्यां प्रपञ्चेन प्रज्ञप्तः स एव संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहायेह सङ्ग्रेषेणोच्यत इत्यदोषः, किंविशिष्टं विधिमत आह-य 'ज्ञात्वा' विज्ञाय 'सुविहिताः' शोभनं विहितम्-अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, साधव इत्यर्थः, किं ?-प्रवचनस्य सारः प्रवचनस-* जान्दोहस्तम् 'उपलभन्ति' जानन्तीत्यर्थः ॥ सा पुनः पारिस्थापनिक्योघतः एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपरिस्थाध्यवस्तुभेदेन द्विधा भवति, आह पदियनोएगेंदिवपारितावणिया समासओ दुविहा । एएसि तु पयाण पतेष परुवर्ण घोळ ॥ १॥ व्याख्या-एकेन्द्रिया:-पृथिव्यादयः, नोएकेन्द्रियाः प्रसादयस्तेषां पारिस्थापनिकी-एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपारिस्थाप-18 |निकी, 'समासतः संक्षेपेण 'द्विधा' द्विप्रकारा प्रज्ञप्तोकेनैव प्रकारेण, 'एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवर्ण वोच्छं' अनयोः । पदयोरेकेन्द्रियनोएकेन्द्रियलक्षणयोः 'प्रत्येक' पृथक् पृथक् 'प्ररूपणां स्वरूपकथनां वक्ष्ये-अभिधास्य इति गाथार्थः ॥२॥ तत्रैकेन्द्रियपारिस्थापनिकीप्रतिपिपादयिषया तत्स्वरूपमेवादी प्रतिपादयन्नाह पुढची आज्काए तेक वाऊ वपस्सई चेव । पदिय पंचविहा सजाय तहा व अतजाय ॥३॥ दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12404 Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- व्याख्या-पृथिव्यप्कायस्तेजो वायुर्वनस्पतिश्चैव एवमेकेन्द्रियाः पञ्चविधाः, एक त्वगिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः 'पश्च- अतिक्रमहारिभ 13 विधाः' पञ्चप्रकाराः, एतेषां चैकेन्द्रियाणां पारिस्थापनिकी द्विविधा भवति,कथमित्याह-तज्जाय तहा य अतजाय' तज्जात- गा. परिद्रीया पारिस्थापनिकी अतज्जातपारिस्थापनिकी च, अनयोभावार्थमुपरिष्टादश्यतीति गाथार्थः ॥३॥ आह-सति ग्रहणसम्भ-1 ष्ठापनि वेऽतिरिक्तस्य परिस्थापन भवति, तत्र पृथिव्यादीनां कथं ग्रहणमित्यत आह॥१९॥ क्यधिक दुविहं च होइ गहणं भाषसमुस्थं च परसमुत्थं च । एको कपि व दुविहं आभोगे सह भणाभोगे ॥१॥ व्याख्या-द्विविधं तु द्विप्रकारं च भवति 'ग्रहण' पृथिव्यादीनां, कथम् ?-'आत्मसमुत्थं च परसमुत्थं च' आत्मसमुत्थं च स्वयमेव गृह्णतः परसमुत्थं परस्माद्तः , पुनरेकैकमपि द्विविधं भवति, कथमित्याह-'आभोए तह अणाभोए' |आभोगनम् आभोगः, उपयोगविशेष इत्यर्थः, तस्मिन्नाभोगे सति, तथाऽनाभोगे, अनुपयोग इत्यर्थः, अयं गाथाक्षरार्थः। ॥४॥ अयं पुनर्भावार्थो वर्तते-तस्थ ताव आयसमुत्थं कहं च आभोएण होज, साहू अहिणा खइओ विसं वा खइयं विसष्फोडिया वा उठिया, तत्थ जो अचित्तो पुढविकाओ केणइ आणिओ सो मग्गिजइ, णस्थि आणिलओ, ताहे अप्प णावि आणिजइ, तत्थवि ण होज अचित्तो ताहे मीसो, अंतो हलखणणकुडमाईसु आणिजइ, ण होज ताहे अडवीओ| शपथे वंमिए या दवदहुए वा, ण होज पच्छा सचित्तोवि घेप्पइ, आसुकारी वा कर्ज होजा जो लद्धो सो आणिज्जइ, एवं|| १ सन्न तावदात्मसमुत्थं कथं चाभोगेन भवेत् , साधुरहिमा दष्टो विषं वा खादितं विषस्फोटिका वोत्थिता, तत्र योऽचित्ता पृथ्वीकायः केनचिदानीतःस माम्यते, नास्त्यानीतसदारमनाऽप्यानीयते, तत्रापि न भवेदचित्तस्तदा मिश्रा, अन्तशो हलखननकुख्यादिभ्य मानीयते, न भवेचदाटवीतः पधि वल्मीकात् | दवदग्धाद्वा, न भवेत् पश्चात्सचित्तोऽपि गृझते, आशुकारि वा कार्य भवेत् यो लन्धः स भानीयते, एवं दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: पृथिकायिकादि षड् जीवनिकायस्य सविस्तर-वर्णनं ~1241~ Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... होणंपि जाणतो, अणाभोइएण तेण लोणं मग्गियं अचित्तंति काऊणं मी सचित्तं वा घेत्तूण आगओ, पच्छा णायं तत्थेव छड्डेयचं, खंडे वा मग्गिए एयं खंडंति लोणं दिन्नं, तंपि तहिं चैव विगंचियवं, पण देजा ताहे तं अप्पणा विगिंचियवं, एवं आयसमुत्थं दुधिपि । परसमुत्थं आभोगेण ताव सच्चित्तदेसमट्टिया लोणं वा कज्जनिमित्तेण दिष्णं, मग्गिएण अणाभोगेण खंडं मग्गियं खोणं देज तस्सेव दायचं, नेच्छेज ताहे पुच्छिजइ-कओ तुम्भेहिं आणियं १, जत्थ साहइ तत्थ विगिंचिज्जइ, न साहेज न जाणामोति वा भणेजा ताहे उवलक्वेयवं वण्णगंधरसफासेहिं, तत्थ आगरे परिहविज्जइ, नस्थि आगरी पंथे वा वईति विगालो वा जाओ ताहे सुक्कगं महुरगं कप्परं मग्गिज्जइ, ण होज कप्परं ताहे घडपत्ते पिप्पलपत्ते वा काऊण परिहविज्जइ १ । आउकाए दुबिई गहणं आयाए णायं अणायं च एवं परेणवि णायं अणायं च, आयाए जाणंतस्स विसकुंभो हणियो बिसफोडिया वा सिंचियवा विसं वा खइयं मुच्छाए वा पडिओ गिठाणो वा, एवमाइसु (कज्जेसु ) ३ लवणमपि जानन् । अनाभोगिकेन तेन वर्ण मार्गितमचित्तमितिकृत्वा मिश्रं सचितं वा गृहीत्वाऽतः पश्चात् ज्ञातं तत्रैव त्यक्तव्यं खण्डायां वा मार्गितायामेषा खण्डेति लवणं दुतं तदपि तत्रैव व्यक्तव्यं न दद्यात्तदाऽऽत्मना वक्तव्यं एतदात्मसमुत्थं द्विविधमपि परसमुत्यमाभोगेन तावत् सचित्तदेशा मृत्तिका व या कार्याय दक्षं मार्गिते अनाभोगेन खण्डायां मार्गितायां लवणं दद्यात् तस्यायेव दातव्यं, नेच्छेत् तदा पृच्छयते कुतस्त्वयाऽनीतं ? यतः कथयति तत्र यज्यते, न कथयेत्र जानाम इति वा भणेतदोपलक्षितव्यं वर्णगन्धरसस्पर्शः, तत्राकरे परिद्वाप्यते नास्याकरः पथि वा वर्त्तन्ते विकालो वा जातस्तदा शुष्कं मधुरं कर्परं मार्गेयते न भवेकरं तदा बदपत्रे पिप्पलपत्रे वा कृत्वा परिष्ाप्यते । अकाये द्विविधं ग्रहणमात्मना ज्ञातमज्ञातं च एवं परेणापि ज्ञातमज्ञातं च आत्मना जानानस्य विपकुम्भो हन्तव्यो विपस्फोटिका वा सेकण्या विपं वा खादितं मूर्च्छयापि वा पतितो मानो वा एवमादिषु कार्येषु.) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1242 ~ Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) आवश्यक श्यक हारिभद्रीया प्रतिक्रमः णा. परिछापनिक्यधिक प्रत सूत्रांक ॥२०॥ पुबमचित्तं पच्छा मीसं अहुणाधोयं तंदुलोदयाइ आउरे कजे सचित्तं पि, कए कजे सेसं तत्थेव परिठविजइ, न देज ताहे| पुच्छिज्जइ-कओ आणीयं ?, जइ साहेइ तत्थ परिठवेयचं आगरे, न साहेजा न वा जाणेजा पच्छा वण्णाईहिं उबलक्खेड तत्थ परिवेइ, अणाभोगा कोंकणेसु पाणियं अंबिलं च एगत्थ वेतियाए अच्छइ, अविरइया मग्गिया भणइ-एत्तो मिण्हाहि, तेण अंबिलंति पाणियं गहियं, णाए तत्थेव छुभेजा, अह ण देइ ताहे आगरे, एवं अणाभोगा आयसमुत्थं, परसमुत्थं जाणंती अणुकंपाए देइ, ण एते भगवंतो पाणियस्सरसं जाणंति हरदोदगं दिजा, पडिणीययाए वा देजा, एयाणि से वयाणि भजतुत्ति, णाए तस्थेव साहरियव्यं, न देज जओ आणियं तं ठाणं पुच्छिजइ, तत्थ नेऊ परिढविजइ, न जाणेज्जा वण्णाईहिं लक्खिज्जइ, ताहे णइपाणियं णईए विगिचेज्जा एवं तलागपाणियं तलाए अगडवाविसरमाइसु सहाणेसु विगिंचिजइ, जइ सुकं तडागपाणियं घडपत्तं पिप्पलपर्त वा अढेऊण सणियं विगिंचा, जह उज्जरा न जायंति, पत्ताणं| [सू.] * * दीप अनुक्रम [२३] * १ पूर्वमधि पश्चान्मित्रं अधुनाधीतं तन्दुलोदकादि आतुरे कार्य सचिचमपि, कृते कार्ये शेषं तत्रैच परिणाप्यते, न दद्याचदा पृच्छयते-कुत आनीतं ?, यदि कयवेत्तन्त्र परिधापषितम्धमाकरे, न कथ येन वा जानाति पश्चाद्वर्णादिमिरपलक्ष्य तय परिष्ठापयति, अनाभोगात् कोणे पानीषमम्लं चैकन वेदिकायां तिहतः, भपिरतिका मार्गिता भणति-अतो गृहाण, तेनाम्लमिति पानीयं गृहीतं, ज्ञाते तत्रैव क्षिपेत् , अथ न दद्याचदाऽऽकरे, एषमनाभोगादात्मसमुत्थं, परसमुत्थं जागानाऽनुकम्पया दद्यातले भगवन्तः पानीयस्य रसे जानन्ति दोदकं वद्यात् , प्रत्पनीकतया वा दद्यात् पताम्यस्य बलानि भजस्थिति, ज्ञाते तत्रैव संहतम्य, न दचायत आनीतं तस्स्थानं पृष्यते तत्र भीत्या परिछाप्यते, न जानीयाहूर्णादिमिलक्ष्यते तवा नदीपानीयं नां त्यज्यते एवं तटाक- पानीयं तटाके भवटवापीसरआदिषु स्वस्थानेषु त्यज्यते, यदि शुष्क तटाकपानीयं वटपत्रं पिपलपत्रं वाऽवष्टम्य शनैस्त्यश्यते यया प्रवाहा न जायन्ते, पत्राणा ॥२०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1243~ Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक असईए भायणस्स कण्णा जाव हेहा सणियं उदयं अल्लियाविजइ ताहे विगिंचिजइ, अह कूओदयं ताहे जइ कूवतडा दउला तत्थ सणिय निसिरह, अणुलसिओ सुकतडा होज्जा उल्लगं च ठाणं नस्थि ताहे भाणं सिकरण जडिजइ, मूले दोरो वज्झइ, उसकावेउ पाणियं ईसिमसंपत्तं मूलदोरो उक्खिप्पइ, ताहे पलोट्टइ, नस्थि कूबो दूरे वा तेणसावयभयं होज्जा । ताहे सीयलए महुररुक्खस्स चा हेठा सपडिग्गहं वोसिरइ, न होज पायं ता उल्लियं पुहविकायं मग्गिता तेण परिहवेइ, असइ सुकंपि उण्होदएण उालेत्ता पच्छा परिहविजइ, निवाघाए चिक्खड़े खड़े खणिऊण पत्तपणालेण विगिंचइ, सोहि |च करेंति, एसा विही, जं पडिनियत्ताए आउकारण मीसे दिण्णं तं विगिंचेइ, संजयस्स पुवगहिए पाणिए आउक्काओ अणाभोगेण दिण्णो जइ परिणओ भुंजइ, नवि परिणमइ जेण कालेण थंडिलं पावइ विगिंचियचं, जत्थ हरतणुया पडेजा हतं कालं पडिच्छित्ता विगिचिजइ शतेउकाओ तहेव आयसमुत्थो आहोएण संजयस्स अगणिकाएण कजं जायं-अहिडको [सू.] दीप अनुक्रम [२३] मसति भाजनस्व कर्णा वावधस्तात् (पश्चात् ) वानरूदक सिष्यन्ति तदा सयपते, अथ कूपोदक तदा यदि पतट पाईन निसज्यते, भसिच्चमानः शुष्कतटो भवेत् आईच स्थानं नास्ति तदा भाजनं सिककेन बध्यते, मूले दूवरको वध्यते, उध्यक्य पानीयमीषदसंग्राले मूलदवरक उत्क्षिप्यते, बदा प्रलोव्यते, नास्ति पो दूरे वा स्तेन मापदभवं भवेत् तदा शीतले मधुरवृक्षस्याधस्तान सप्रतिग्रहं ब्युरसत्यते, न भवेरपात्रं सदा पृथ्वीकार्य मार्गयित्वा तेन x परिष्ठापयति, असति शुष्कमप्युष्योदकेना बित्या पश्चात् परिष्ठाप्यते, निळधाते कर्दमे बटुं न नित्वा पत्रप्रणालिकया स्पज्यते, शुदि च कुर्वन्ति, एष। विधिः, यत् मत्यनीकतयाऽकायेन मिश्रयित्वा एतं तद्विविच्यते, यदि संयतेन पूर्व गृहीते पानीयेऽकायोऽनाभोगेन दत्तो यदि परिणतो भुश्यते, न परिणमति चिन कालम स्पण्डिलं प्राप्यते खकम्प पत्र रतनुकाः पवेबुलं कालं प्रतीच्छय पक्यते । तेजरकायसवात्मसमुष्य भाभोयेन संयतयाशिकायेन कार्य । जातं-अहिदष्टो मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12444 Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥६२१॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [२०४.... वा 'डंभिज्जइ फोडिया वा वायगंठी वा अन्त्रवृद्धिर्वा, बसहीए दीहजाईओ पविडो पोट्टसूलं वा तावेयवं, एवमाईहिं आणिए कज्जे कए तत्थेव पडिब्रुग्भइ, पण देति तो तेहिं कट्ठेहिं जो अगणी तज्जाइओ तत्थेव विगिंचिज्जइ, न होज सोवि न देज वा ताहे तज्जाएण छारेण उच्छाइजर, पच्छा अण्णजाइएणवि, दीवएसु तेलं गालिज्जड़ बत्ती य निप्पीलिजइ महगसंपुडए कीरइ पच्छा अहा उगं पालेइ, भत्तपञ्चक्खायगाइसु मल्लगसंपुडए काऊण अच्छत्ति, सारक्खिजइ, कए कज्जे तहेब विवेगो, अणाभोगेण खेलमलगालोयच्छारादिसु तद्देव परो आभोपण छारेण दिज्ज वसहीए अगणिं जोइक्खं वा करेज तहेव विवेगो, अणाभोएणवि एए चैव पूयलियं वा सगालं देजा, तहेव विवेगो ३ । वाउक्काए आयसमुत्थं आभोएण, कहं ?, वस्थिणा दिइएण वा कजं, सो कयाइ सचित्तो अचित्तो वा मीसो वा भवइ, कालो दुविहो- निद्धो लुक्खो य, णिद्धो तिविहो-उकोसाइ, लुक्खोव तिविहो-उकोसाइ, उक्कोसए सीए जाहे धंतो भवइ ताहे जाब पढमपोरिसी १ वा दाते स्फोटिका वा दातप्रन्धिर्वा अन्नवृद्धियों, वसती दीर्घजातीयः प्रविष्टः उदरशूलं वा तापवितव्यं एवमादिभिरानीते कार्ये कृते तत्रैव प्रतिक्षिप्यते न दद्यासदा तैः काऽद्विजातीय तत्रैव यज्यते, न भवेत् सोऽपि न दयाद्वा तदा राज्ञातेन क्षारेणाच्छाद्यते पचदन्यजातीयेनापि दीपेभ्यः तैलं गायते वर्णिनिंष्पीयते महपुढे क्रियते पश्चाचचायुकं पालयति, भक्तप्रत्याख्यानादिषु महकसंपुटे कृत्वा तिष्ठति, संरक्ष्यते कृते कार्ये तथैव विवेका, अनाभोगेन श्लेष्ममललोचक्षारादिषु तथैव पर आभोगेन दद्यात् वसती अभि ज्योतियां कुर्यात् तथैव विवेकः। अनाभोगेनापि एते चैव पतिको वा सादा तथैव विवेकः ॥ वायुकाय आत्मसमुख्यमाभोगेन, कथं ?, यतिना या वा कार्य स कदाचित् सचित्तोऽचिसो वा मिश्रो वा भवति, कालो द्विविधःखिग्धो रुक्ष, विविधः-उत्कृष्टादि, रुक्षोऽपि त्रिविध:-उत्कृष्टादिः उत्कृष्टे शीते यदा ध्यातो भवति तदा यावत् प्रथमपोस्पी ४प्रतिक्रम णा. परिष्ठापनिक्वधि० ~ 1245 ~ ॥६२१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०४...], (४०) प्रत सूत्रांक ताव अचित्तो वितियाए मीसो ततियाए सचित्तो, मज्झिमए सीए वितियाए आरद्धो चउत्थीए सचित्तो भवर, मंदसीए तइयाए आरडो पंचमाए पोरिसीए सचित्तो, उहकाले मंदउण्हे मज्झे उक्कोसे दिवसा नवरि दो तिणि पसारि पंच य एवं वस्थिरस दझ्यस्स पुषद्धंतस्स एसेव कालविभागो, जो पुण ताहे चेव धमित्ता पाणियं उत्तारिजइ, तस्स य पढमे हत्थसए अचित्तो वितिए मीसो तइए सचित्तो, कालविभागो नत्थि, जेण पाणियं पगतीए सीयलं, पुर्ष अचित्तो मग्गिजइ पच्छा मीसो पच्छा सचित्तोत्ति । अणाभोएण एस अचित्तोत्ति मीसगसचित्ता गहिया, परोवि एवं चेव जाणतो वा देजा अजाणतो वा, णाए तस्सेव अणिच्छते उबरगं सकवार्ड पविसित्ता सणियं मुंचइ, पच्छा सालाएवि, पच्छा वणणिगुंजे महुरे, पच्छा संघाडियाउवि जयणाए, एवं दइयस्सवि, सचित्तो वा अचित्तो वा मीसो वा होउ सबस्सवि एस विही, मा अण्णं विराहेहित्ति ४ । वणस्सइकाइयस्सवि आयसमुत्थं आभोएणं गिलाणाइकजे मूलाईण गहण होजा, अणाभोएण [सू.] दीप अनुक्रम [२३] तावदचित्तो दिदीवाषां मिधरतूतीपाषां सचित्तः, मध्यमे शीते द्वितीयाया आरभ्य धनुध्याँ सचिसो भपति, मन्वशीते तृतीयसा आरम्य पाम्या पौरष्या सचित्तः, उष्णकाले मन्योष्णे मध्ये उत्कृष्ट दिवसाः परं ही श्रीन चतुरः पन च, एवं बस्नेदेतेः, पूर्वध्मातस्वैप एव कालविभागः, यः पुनस्तदैव ध्माया पानीय उचायते, तस्य च प्रथमे हस्तपाते अचित्तो द्वितीये मिश्रस्तृतीये सचित्तः, कालविभागो नाति, येन पानीयं प्रकृया पीतल, पूर्वमचित्तो मायते पश्चामिश्रा पश्चात्यविध इति । अनाभोगेन एषोऽचित्त इति मिश्रसचित्तौ गृहीती, परोऽप्येवमेव जानम्बा दयाहनानम्बा, हाते ती एव अनियति अपवरर्फ सकपाटं प्रविश्य शनैर्मुच्यते, पक्षात पाहायामपि, पवाङ्कननिकुञ्ज मधुरे, पश्चात् माटिकायामपि यतनया, एवं दृतेरपि, सचिचो वाऽचित्तो वा मिश्रो चा भवन्तु सर्वस्याप्येष विधिमान्यं विरासीदिति । वनस्पतिकाधिकला आत्मसमुत्थमाभोगेन क्लानादिकार्याय मूलादीनां ग्रहणं भवान, भनाभोगेन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1246~ Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५], (४०) प्रतिक्रमणा. परिछापनिक्यधिक E: प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- गहियं भत्ते वा लोहो पडिओ पिढगं वा कुक्कुसा वा, सो चेव पोरिसिविभागो, दुकुडिओ चिरपि होजा, परो आलगेण ५ मिसियगं चबलगमीसियाणि वा पीलूणि कूरओडियाए वा अंतो छोटूर्ण करमदएहिं वा समं कंजिओ अन्नयरो बीय- काओ पडिओ होजा, तिलाण वा एवं गहणं होज्जा, निबं तिलमाइसु होजा, जइ आभोगगहियं आभोगेण वा दिनं ॥६२२॥ विवेगो, अणाभोगगहिए अणाभोगदिपणे वा जइ तरह विगिंचिउँ पढम परपाए, सपाए, संथारए लडीए वा पणओ हवेजा ताहे उहं सीयं व णाऊण विगिंचणा, एसोवि वणस्सइकाओ पच्छा अंतोकाए एसि विगिंचणविही, अल्लगं अल्लुहै गखेत्ते सेसाणी आगरे, असइ आगरस्स निवाघाए महुराए भूमीए, अंतो वा कप्परे वा पत्ते वा, एस विहित्ति ॥ अत्र तजातातज्जातपारिस्थापनिकी प्रत्येकं पृथिव्यादीनां प्रदर्शितैव, भाष्यकारः सामान्येन तलक्षणप्रतिपादनायाहवृतजायपरिषणा आगरमाईसु होइ बोद्धव्वा । अतजायपरिट्ठवणा कप्परमाईसु योद्धब्बा ॥ २०५ ॥ (भा०) व्याख्या-तजाते-तुल्यजातीये पारिस्थापनिका २ सा आगरादिषु परिस्थापनं कुर्वतो भवति ज्ञातव्या, आकरा: गृहीतं भक्त वा लोः पतित:पिष्टं वा +फुकसावा, स एव पौरुषीविभागः, दुष्कटः चिरमपि भवेत् , पर माई केण मिश्रित चपलकमिश्रितानि वा | पीवनि कूरकोटिकाया (क्षिप्रचटिकायो) वाऽन्तः क्षित्वा करमः समं वा काजिकः सम्पतरो वा बीजकायः पतितो भवेर, तिलानां चैवं ग्रहणं भवेत् । | निम्बं तैलादिषु भवेत् , बधाभोगगृहीतमाभोगेन वा दत्तं विवेकः, अनाभोगगृहीतेऽमाभोगदत्ते वा यदि शक्यते स्पर्कु प्रथम परपाने खपाचे, संस्तारके लायां | | वा पनको भवेत् तदोष्णं शीतं वा ज्ञात्वा त्यागः, एषोऽपि वनस्पतिकाधिकः, पश्चादन्तःकाय एषां विकविधिः, आईमाई कक्षेत्रे शेषाणि आकरे, असल्याकारे निबांधाते मधुरायाँ भूमौ, भन्तर्वा कपरस्य वा पात्रस या एष विधिरिति। * टुक, + कणिका. 40-5% दीप अनुक्रम [२३] ॥२२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1247~ Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पृथिव्याद्याकराः प्रदर्शिता एव, अतजातीये-भिन्नजातीये परिस्थापनिका २ सा पुनः कर्परादिषु यथा (योग) परिस्थापन ४ कुर्वतो बोद्धव्येति गाधार्थः॥ गतेकेन्द्रियपरिस्थापनिका, अधुना नोएकेन्द्रियपारिस्थापनिका प्रतिपादयन्नाह __णोएगिदिएहि जा सा सा दुविहा बोट आणुपुत्रीए । तसपाणे मुबिहिया ! नायचा नोतसेदि च ॥५॥ व्याख्या-एकेन्द्रिया न भवन्तीति नोएकेन्द्रियाः-वसादयस्तैः करणभूतैरिति तृतीया, अथवा तेषु सत्सु तद्विषया वेति सप्तमी, एषमन्यत्रापि योज्यं, याऽसौ पारिस्थापनिका सा 'द्वि(वि)धा' द्विप्रकारा भवति 'आनुपूयो' परिपाव्या, द्वैविध्यमेव दर्शयति-तसपाणेहिं सुविहिया णायबा णोतसेहिं च' वसन्तीति त्रसाः साश्च ते प्राणिनश्चेति समासस्तैः18 करणभूतैः सुविहितेति सुशिष्यामन्त्रणम् , अनेन कुशिष्याय न देयमिति दर्शयति, ज्ञातव्या-विज्ञेया 'नोतसेहिं च' असा हान भवन्तीति नोत्रसा-आहारादयस्तैः करणभूतैरिति गाथार्थः ॥५॥ तलपाणेहिं जा सा सा दुविदा होह माणुपुत्रीए । वियलिदियतसेहि जाणे पश्चिदिएहिं च ॥६॥ व्याख्या-वसपाणिभिर्याऽसौ सा द्वि(वि)धा भवति आनुपूा, 'विकलेन्द्रिया' द्वीन्द्रियादयश्चतुरिन्द्रियपर्यन्तास्तैश्च, 'जाणि'त्ति जानीहि पञ्चेन्द्रियैश्चेति गाथार्थः ॥६॥ विगलिदिएहि जा सा सा तिविहा बोद आणुपुडीए । वियतिवचउरो बावि व सजाया तहा अतजाया ॥ ७ ॥ व्याख्या-विकलेन्द्रियोऽसौ सा त्रिविधा भवति आनुपूर्व्या, वियतियचउरो याविय' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाँवाधिकृत्य, सा च प्रत्येक विभेदा, तथा चाह-तजाय तहा अतज्जाया' तज्जाते-तुल्य जातीये या क्रियते सा तजाता, दीप अनुक्रम [२३] ACANCCCEKAN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12484 Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक तथा अतज्जाता-अतजाते या क्रियत इति गाथार्थः ॥७॥॥ भावार्थस्त्वयं-बेइंदियाणं आयसमुत्थं जलुगा गंडाइसु आवश्यक कजेसु गहिया तस्थेव विगिंचिजह, सत्तुया वा आलेबणनिमित्तं ऊरणियासंसत्ता गहिया विसोहित्ता आयरे विगिचेति, णा. परि द्रीया हा असइ आगरस्स सत्तुएहि समं निवाघाए, संसत्तदेसे वा कत्थइ होज अणाभोगगहणं तं देसं चेव न गंतवं, असिवाईहिंधापनि लगमेजा जत्थ सत्तुया तत्थ कूरं मग्गइ (पं० १६०००), न लहइ तद्देवसिए सत्तुए मग्गइ, असईए वितिए जाव ततिए, क्यधिक ॥२३॥ असइ पडिलेहिय २ गिण्हइ, वेला वा अइकमइ अद्धाणं वा, संकिया बा मते घेप्पंति, बाहिं उज्जाणे देउले पडिसयरस वा। बाहिं रयत्ताणं पत्थरिऊर्ण उवरि एक घणमसिणं पडलं तत्थ पल्लच्छिंजति, तिन्नि ऊरणयपडिलेहणाओ, नस्थि जइ ताहे पुणो पडिलेहणाओ, तिणि मुडिओ गहाय जइ सुद्धा परिभुजंति, एगमि दिहे पुणोवि मूलाओ पडिले हिजंति, जे तत्थ पाणा ते मल्लए सत्तुएहि समं ठविति, आगराइसु विगिंचइ, नत्थि बीयरहिएसु विगिंचाइ, एवं जत्थ पाणयंपि बीयपाए दीप अनुक्रम [२३] VI दीबियाणामात्मसमुत्थं जलौका गण्डाविपु कार्येषु गृहीता सवैध खज्यते, सक्तका वा मालेपननिमितं कणिका संसक्का गृहीता विशोभ्याकरे खजति,असत्याकारे। ४सकैः समं निम्यांचाते, संसकदेशे वा कुलचित् भवेदनाभोगग्रहण से देश मेवन गाठेव , अशिवादिभिर्गपछेन बन सकुकाममा रो मायंते, म लभ्यते तदेवसिकान सक्तुकान् मार्गयति, असति देतीविकान् पावचाविकान् , असति प्रतिलिख्य २ गृह्णाति, पेला वाऽतिकामति अध्वानं वा (प्रतिपत्रा), शङ्किता। ||६२शा वा मानके गृहाति, बहिरुथानात् देवकुले प्रतिश्रयस्य वा बहिः रजवाणं प्रतीर्य उपकं घनममृणं पटलं तत्र प्रच्छादयति, विकृत्व करणिकाप्रतिलेखना. नास्ति यदि तदा पुनः प्रति लेखना, तिम्रो मुष्टीहीखा यदि शुद्धा परिभुज्यन्ते, एकनां रष्टायां पुनरपि मूलात् प्रतिलेखपति, ये तब प्राणिनो महफे सक्क र समं स्थापते, भाकरादिषु त्वज्यन्ते, न सन्ति बीजरहितेषु त्यजति, एवं पत्र पानीयमपि द्वितीययावे. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1249~ Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) COM प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] पंडिलेहित्ता जग्गाहिए छुब्भइ, संसत्तं जायं रसरहिं ताहे सपडिग्गई वोसिरउ, नस्थि पार्य ताहे अंबिलिं पाडिहारिय। मग्गज, णो लहेज सुक्यं अंबिलिं उल्लेऊणं असइ अण्णांमेवि अंबिलिवीयाणि छोहण विगिंचइ, नस्थि बीयरहिएस विगिंचाइ, परछा पहिस्सए पाटिहारिए वा अपाडिहारियं वा तिकालं पडिलेहेइ दिणे दिणे, जया परिणयं तहा विगिंचइ, भायणं च पडिअपिज्जा, नस्थि भायणं ताहे अडवीए अणागमणपहे छाहीए जो चिक्खालोतस्थ खई खणिऊण निच्छिई। लिंपित्ता पत्तणालेणं जयणाए छुभइ, एकसि पाणएणं भमाडेइ, तंपि तत्थेव छुटभइ, एवं तिनि वारे, पच्छा कप्पेइ सहकठेहि य मालं करेंति चिक्खिल्लेणं लिंपइ कंटयछायाए य उच्छाएइ, तेण य भाणएणं सीयलपाणयं ण लयइ, अवसावणेण कूरेण य भाविजइ, एवं दो तिणि वा दिवसे, संसत्तगं च पाणयं असंतत्तगं च एगो न घरे, गंधेण विसंसिज्जइ, संसत्तं च गहाय न हिंडिज्जइ, विराहणा होज, संसत्तं गहाय न समुद्दिसिज्जइ, जइ परिस्संता जे ण हिंडंति ते लिंति, जे प्रतिलियोहाहि के शिष्यते, संसक्तं जातं रसजैलदा सप्रतिग्रहं व्युत्सृजत, नासि पात्रं तदा चिनिणिको प्रातिहारिकी मार्गयतु, न लभेत शुष्का चिचिणिका आईवित्वा असति भन्यमिमपि चिजिणिकाबीनानि क्षिस्वा बिवियते, मास्ति बीजरहितेषु सम्यते, पवार प्रतिभये प्रातिहारिके वा अप्राति हारिक वा त्रिकाल प्रतिलिखति दिने दिने, बदा परिणतं तदा विविधते, भाजनं च प्रत्यर्पते, नास्ति भाजनं तदाऽटण्यामनागमनपधे पायाषा या कर्दमता गतै खनित्या निश्छिनं लिया पानाहेन यतनया क्षिपत्ति, एकशः पानीपेनादयति, तदपि तत्रैव क्षिपति, एवं बीन् बारान्, पक्षात कापयति लक्ष्णकाटेश्व मातं करोति कर्दमेन लिम्पति कण्टकपछायया चाण्डादयति, तेन च भाजनेन शीतलपानीयं न लाति, अवनावणेन करेण च भाव्यते, एवं डी ग्रीन पा दिव| सान्, संसक्तं च पामकमसंसकं चैको न धारयेत्, गन्धेन विशवते, संखच गृहीत्वा न हिणवते, विराधना भवेत, संसकं गृहीत्वा न भुज्यते, यदि परिश्रान्ताहि ये न हिण्डन्ते ते कान्ति, बे C+ + M मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1250~ Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥६२४॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [ २०१...], ये पाणा दिला ते मया होज्जा, एगेण पडिलेहियं बीएण ततिएणं, सुद्धं परिभुंजंति, एवं चैव महियस्सवि गालियदहियस्स नवणीयरस य का विही ?, महीए एगा उडी छुब्भइ, तत्थ तत्थ दीसंति, असइ महियरस का वही १, गोरसधोवणे, पच्छा उण्होदयं सिथलाबिज्जर, पच्छा महुरे चाउलोदए, तेसु सुद्धं परिभुज्जइ, अमुद्धे तहेव विवेगो दहियस्त, पच्छओ जयन्ता णियत्ते पडिलेहिजइ तीराए सुत्तेसुवि एस विही, परोवि आभोयणाभोयाए ताणि दिजा ॥ तेइंदियाण गहणं सत्तुयपाणाण पुवभणिओ विही, तिलकीडयावि तहेव दहिए वा रल्ला तहेव छगण किमिओवि तहेव संधारगो वा गहिओ घुणाइणा णाए तहेब तारिसए कडे संकामिज्जइ, उद्देहियाहिं गहिए पोते णत्थि तस्स विगिंचणया, ताहे तेर्सिंवि लोढाइजइ, तत्थ अईति लोए, छप्पइयाउ विसामिज्जति सत्तदिवसे, कारणगमणं ताहे सीयलए निधायाए, एवमाईणं तहेव आगरे निवाघाए विवेगो, कीडियाहिं संसत्ते पाणए जइ जीवंति खिप्पं गलिजइ, अहे पडिया लेवाडेणेव हत्थेण उद्धरेयवा १ च प्राणिनो दृष्टाले मृता भवेयुः एकेन प्रतिलेखितं द्वितीयेन तृतीयेन शुद्धं परिभुञ्जन्ति एवमेव गोरथस्यापि गाडितस्य दक्षो नवनीतख च कोविधिः १ तस्यैकाष्टा क्षिप्यते तत्र तत्र दृश्यन्ते असतितके की विधिः १, गोरसधावनं, पश्चादुष्णोदकं शीतलीयते पश्चात् मधुरं तलोदकं तेषु शुद्धं परि भुज्यते, अशुद्धे तथैव विवेको दमः पश्चात् गच्छन्त आगच्छन्तः प्रतिलेखयन्ति (उदयादेः ) तीरादिषु सुतेष्वपि एष विधिः, परोऽध्याभोगानाभोगाभ्यां तानि दद्यात् ॥ त्रीन्द्रियाणां ग्रहणं सक्नुप्राणिनां पूर्व भणितो विधिः तिलकीटका अपि तथैव दक्षि था रखा तबैव गोमयमयोऽपि तथैव संस्तारको वा गृहीतो घुणादिभिः हाते तचैव ताशे का संकाम्यन्ते, उद्देहिकाभिगृहीते पोते नास्ति तस्य विवेकः, तदा तासामपि अवतारणं कियते, तत्रापयान्ति स्वस्थाने, पदपदिका विश्वाम्यन्ते सप्त दिवसान् कारणे गमनं तदा शीतले निव्यधाते, एवमादीनां तथैवाकरे निर्व्याघाते विवेका, कीटिकाभिः संसके पानीये यदि जीवन्ति क्षिप्रं गायते, अधः पतिता लेपतेव इस्तेनोः ४ प्रतिक्रमणा. परिछापनिक्यधि० ~1251~ ॥ ६२४ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक | अलेवडयं चेव पाणयं होइ, एवं मक्खियावि, संघाडएण पुण एगो भत्तं गेण्हइ मा चेव छुन्भइ, बीओ पाणयं, हत्थो। अलेवाडओ चेव, जइवि कीडियाउ मझ्याउ तहवि गलिज्जति, इहरहा मेहं उवणंति मच्छियाहि वमी हवइ, जइ तंदुलोयगमाइसु पूयरओ ताहे पगासे भायणे छुहित्ता पोत्तेण दद्दरओ कीरइ, ताहे कोसएणं खोरएण वा उक्कहिजइ, धोवएण पाणएण समं विगिंचिजइ, आउकार्य गमित्ता कडेण गहाय उदयस्स ढोइजइ, ताहे अप्पणा चेव तत्थ पडइ, एबमाइ तेइंदियाणं, पूयलिया कीडियाहिं संसत्तिया होज्जा, सुकओ वा कूरो, ताहे झुसिरे विक्खिरिजइ, तहेव तत्थ ताओ पविसंति, मुहुसयं च रक्खिज्जइ जाव विषसरियाओ। चरिंदियार्ण आसमक्खिया अखिंमि अक्खरा उकहिजइत्ति घेषइ, परहत्थे भत्ते पाणए वा जइ मच्छिया तं अणेसणिज, संजयहत्थे उद्धरिजइ, नेहे पडिया छारेण गुंडिजाइ, कोत्थलगारिया वा वच्छत्थे पाए वा घरं करेजा सबविवेगो, असइ छिंदित्ता, अह अन्नंमि य घरए संकामिजंति, संथारए मंकुणाणं [सू.] दीप अनुक्रम [२३] अलेपकदेव पानीयं भवति, एवं मक्षिका अपि, संघाटकेन पुनरेको भकं गृहाति, मैव पप्तन् , द्वितीयः पानीयं, हलो लेपलदेव, यद्यपि कीटिका मृतास्तथापि गाड्यन्ते, इतरथा मेधामुपहन्युः मक्षिकाभिरान्तिर्भवति, यदि तन्दुलोद कादिपु पूतरकास्तदा प्रकाशे भाजने विस्वा पोतेनाच्छादनं क्रियते, ततः कोशेन क्षौरकेण वा निष्काश्यन्ते, लोकेन पानी येन समं त्वज्यन्ते, अकार्य प्रापथ्य काडेन गृहीत्वोदकाये नियन्ते, तदात्मनैव तत्र पतन्ति, एवमादिश्रीन्द्रियाणा, |पूलिका कीटिकाभिः संसका भये, शुष्को वा क्रः, सदा सुषिरे विकीर्यते, तयैव ताः प्रविशन्ति, मह च रपन्ते यावद्विमस्ताः । चतुरिनियाणा म मधमक्षिका अदणः पुचिपको निष्काशयन्ति इति गृह्यन्ते, परहमते भक्त पानी वा यदि मक्षिकातदनेषणीयं, संपवह अनियन्ते, जे हे पतिताः क्षारेणावगुण्ड्यन्ते कोस्थलकारिका वा बने पाने वा गृहं कुर्यात् सर्वविवेकः, असति छित्त्वा, अयान्वस्मिन् गृहे वा संक्राम्यन्ते, संसारके मरणानां मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1252~ Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] मावश्यक पुचगहिए तहेव घेप्पमाणे पायपुछणे वा, जइ तिन्नि वेलाउ पडिलेहिजतो दिवसे २ संसजा ताहे तारिसएहिं चेव कहेहि प्रतिक्रमहारिभ संकामिति, दंडए एवं चेव, भमरस्सवि तहेव विवेगो, सअंडए सकट्ठो विवेगो, पूतरयस्स पुषभणिओ विवेगो, एवमाइ द्रीया | जहासंभवं विभासा कायवा । गता विकलेन्द्रियत्रसपारिस्थापनिका, अधुना पश्चेन्द्रियत्रसपारिस्थापनिका विवृण्वन्नाह परिस्थाप निका ॥६२५॥ पंचिदिएहिं जा सा सा दुविधा होइ माणुपुशीए । मणुहि च सुविहिया, नायमा मोषमणुएदि ॥ ८॥ व्याख्या-पश्च स्पर्शादीनीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः-मनुष्यादयस्तैः करणभूतस्तेषु वा सत्सु तद्विषयाऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवत्यानुपूर्व्या, मनुष्यैस्तु सुविहिता! ज्ञातव्या, 'नोमनुष्यैश्च' तियेग्भिः, चशब्दस्य व्यवहितः। सम्बन्ध इति गाथाक्षरार्थः, ॥८॥ भावार्थ तूपरिष्टावक्ष्यामः ॥-. मशुपछि खलु जा सा सा दुविहा होइ आणुपुत्रीए । संजयमणुएदि तह नायबामसंजएहिं च ॥९॥ व्याख्या-मनुष्यैः खलुः याऽसौ सा द्विविधा भवति आनुपूर्ध्या संयतमनुष्यैस्तथा ज्ञातव्याऽसंयतैश्चेति गाथार्थः ॥९॥ भावार्थ तूपरिष्टाद्वक्ष्यामःसंजयमणुएहिं जा सा सा सुविधा होद माणुपुत्रीए । सचित्तीं सुपिहिया ! अधिरोहिं च नायक ॥10॥ દાદરા व्याख्या-'संयतमनुष्यैः' साधुभिः करणभूतैर्याऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवत्यानुपूा, सह चित्तेन वर्तन्त | पूर्वगृहीते तथैव गृह्यमाणे पादप्रोम्छने वा यदि तिम्रो बाराः प्रतिलिण्यमानो दिवसे दिवसे संसृज्यते तदा तादृशैरेव का?ः संकाम्यन्ते, दण्डकेऽप्येकाबमेव, अमरस्यापि विवेकसधैव विवेकः, साण्डे सकाराव विवेकः, पूतरकस्य पूर्वभाणितो विवेकः, एवमादि वासंभवं विभाषा कर्तव्या। दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1253~ Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) - प्रत सूत्रांक -X [सू.] इति सचित्तास्तैः-जीवद्भिरित्यर्थः, सुविहितेति पूर्ववत् 'अच्चित्तेहिं च णायवत्ति अविद्यमानचित्तैश्च-मृतरित्यर्थः, ज्ञातव्या-विज्ञेयेति गाथाक्षराधः ॥ १०॥ इत्थं तावदुद्देशः कृतः, अधुना भावार्थः प्रतिपाद्यते, तत्र यथा सचित्तसंयताना ग्रहणपारिस्थापनिकासम्भवस्तथा प्रतिपादयन्नाह ___अणभोग कारणेण च नपुंसमाईसु होइ सञ्चित्ता । वोसिरणं तु नपुंसे सेसे कालं पढिक्खिजा 1॥ व्याख्या-आभोगनमाभोगः-उपयोगविशेषः न आभोगः अनाभोगस्तेन 'कारणेन वा' अशिवादिलक्षणेन 'नपुंसका|दिषु' दीक्षितेषु सत्सु भवति 'सचित्ता' इति व्यवहारतः सचित्तमनुष्यसंयतपरिस्थापनिकेति भावना, आदिशब्दाज्जड्डा| दिपरिग्रहः, तत्र चायं विधिः-योऽनाभोगेन दीक्षितः स आभोगित्वे सति व्युत्सृज्यते, तथा चाह-वोसिरणं तु नपुंसे'त्ति व्युत्सृजन-परित्यागरूपं नपुंसके, कर्तव्यमिति वाक्य शेषः, तुशब्दोऽनाभोगदीक्षित इति विशेषयति, 'सेसे कालं पडिक्खिजत्ति शेषः कारणदीक्षितो जहादिर्वा, तत्र 'कालन्ति यावता कालेन कारणसमाप्तिर्भवत्येतावन्तं कालं जड्डादी वक्ष्य-14 माणं च प्रतीक्ष्येत, न तावद्धुत्सृजेत् इति गाथाक्षरार्थः ॥ ११ ॥ अथ किं तत्कारणं येनासी दीक्ष्यत इति ?, तत्रानेकभेदं| कारणमुपदर्शयन्नाह असिषे मोमोयरिए रापबुढे भए व भागाढे । गेलने तिमो नाणे बदसणचरिते ॥१२॥ व्याख्या-'अशिर्व' व्यन्तरकृतं व्यसनम् 'अवमौदर्य दुर्भिक्षं 'राजद्विष्ट' राजा द्विष्ट इति 'भयं' प्रत्यनीकेभ्यः 'आगाद' भृशम, अयं चागाडशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते अशिवादिषु 'ग्लानत्वं' ग्लानभावः 'उत्तमार्थी' कालधर्मः, दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1254~ Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] 'ज्ञान' श्रतादि तथा 'दर्शन' तत्प्रभावकशास्खलक्षणं 'चारित्र' प्रतीतम्, एतेष्वशिवादिषूपकुरुते यो नपुंसकादिरसी|8 हारिभ- दिदीक्ष्यत इति, उक्तं च-रायदुभएK ताण णिवस्स वाऽभिगमणहा । वेजो व सयं तस्स व तप्पिस्सइ वा गिलाणस्स णाध्य. द्रीया ॥१॥ गुरुणोच अप्पणो वा णाणाई गिण्हमाणि तप्पिहिई । अचरणदेसा णिन्ते तप्पे ओमासिवेहिं वा ॥२॥ एएहिं कार- परिस्थाप॥६२६॥ राणेहिं आगाढेहिं तु जो उ पञ्चावे। पंडाई सोलसयं कए उ कजे विगिचणया॥३॥' जो सो असिवाइकारणेहिं पबाविज्जइ नपुं. | निका सगो सो दुविहो-जाणओ य अजाणओ य, जाणओ जाणइ जह साहूर्ण न वट्टइ नपुंसओ पवावेडं, अयाणओ न जाणइल तत्व जाणओ पण्णविजइ जह ण वर तुझ पवजा, णाणाइमग्गविराहणा ते भविस्सइ, ता घरत्थो चेव साहूर्ण वट्टम |तो ते विउला निजरा भविस्सइ, जइ इच्छइ लहं, अह न इच्छद तो तस्त अयाणयस्स य कारणे पवाविजमाणाणं है इमा जयणा कीरइ कडिपए य छिहली कत्तरिया भंड लोय पाडे य । धम्मकहसचिराउल बबहारविकिंवणं कुजा ॥ दार ॥ १५॥ व्याख्या-कडिपट्टगं चास्य कुर्यात् , शिखां चानिच्छतः कर्तरिकया केशापनयनं 'भंडु'त्ति मुण्डनं वा लोच वा पार्ट राजविष्टभयेषु वाणार्याय नृपस्य चाऽभिगमनार्थम् । वैद्यो चा स्वयं तस्य चाप्रति जागरिष्यति वा ग्लानम् ॥१॥ गुरोर्चाऽमनोचा ज्ञानावि गृह्णतस्तप्स्यति । भचरणदेशानिर्गच्छतः तप्स्यति अवमाशिषेषु पा ॥ २ ॥ एतेष्वागाडेपु कारणेषु तु यस्तु प्रमाजयति । पपडादि पोशाकं कृते तु कायें विवेकः ॥ ३ ॥ यः सोऽशिवादिकारणैः प्रत्राज्यते नपुंसकः स विविधः-ज्ञायकोजायकल, जावको जानाति यथा साधूनां न कापते नपुंसकः प्रचाजयितुं अज्ञायको न जानाति, तत्र ज्ञायकः प्रज्ञाप्यते यथा न पर्वते तव प्रवज्या, ज्ञानादिमार्गविराधना ते भविष्यति, तहे स्थित एवं साधूनां (अनुग्रहे) बर्तन सतसे विपुला २ ६॥ | निर्जरा भविष्यति, यदीरति लाएं, मथ नेच्छति तदा तस्थाज्ञायकस्य च कारणे प्रवाश्यमानानामियं वतना क्रियते । ACEBOX LAX दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1255~ Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक च विवरीयं धर्मकथां संज्ञिनः कथयेत् राजकुले व्यवहारम् , इत्थं विगिश्चनं कुर्यादिति गाथाक्षरार्थः ॥१।। भावार्थस्त्वयं-1 पवयंतस्स कडिपट्टओ से कीरइ, भणइ य-अम्हाण पचयंताण एवं चेव कर्य, सिहली नाम सिहा सा न मुंडिज्जइ, लोओ ण कीरह, कत्तरीए से केसा कपिजंति, छुरेण वा मुंडिजइ, नेच्छमाणे लोओवि कीरइ, जो नजइ जणेण जहा एस नपुंसगो, अनजतेवि एवं चेव कीरइ जणपञ्चयनिमित्त, वरं जणो जाणतो जा एस गिहत्थो चेव । पाढरगहणेण दुविहा सिक्खा-हणसिक्खा आसेवणसिक्खा य, तत्थ गहणसिक्खाए भिक्खुमाईणं मयाई सिक्खविनंति, अणिच्छमाणे जाणि ससमए परतिस्थियमयाई ताणि पाढिजति, तंपि अणिच्छते ससमयवत्तवयाएथि अन्नाभिहाणेहिं अत्थविसंवादणाणि पाढि जति, अहवा कमेणं जालस्थपलस्था से आलावया दिजंति, एसा गहणसिक्खा, आसेवणसिक्खाए चरणकरणं ण गाहिजइ, किंतु-वीयारगोयरे घरसंजुओ रत्तिं दूरे तरुणाणं । गाहेह ममंपि तो थेरा गाहिंति जत्तेण ॥१॥रगकहा [सू.] RECORECASSOCK दीप अनुक्रम [२३] प्रमजतः कटिपहालस्य क्रियते, भगति -प्रमाकं प्रबजतामेवमेव कृतं, सिहली नाम शिखा सा म मुख्यते, कोचो न क्रियते, कर्तयां तख केशा करप्षन्ते, क्षुरप्रेण वा मुण्मयते, अनिच्छति होचोपि क्रियते, यो ज्ञायते जनेन ययैष नपुंसका, अज्ञायमानेअपि एवमेव क्रियते जनप्रत्ययनिमित, वरं जनो जानानु यथैप गृहस्थ एव । पाठप्रहणेन द्विविधा शिक्षा ग्रहणशिक्षा आसेवनाशिक्षा च, सन ग्रहणशिक्षायां भिक्षुकादीनां मतानि शिक्ष्यन्ते, अनिच्छति यानि खसमये परतीर्षिकमतानि तानि पाठ्यन्ते, सदपि अनिच्छति खसमयरक्तव्यतामपि कन्यानिधानरर्थविसंवादनानि पाख्यन्ते, अथवा क्रमेण विपर्यस्तास्ती भालापका दीयन्ते, एषा ग्रहणशिक्षा, भासेवनशिक्षायां चरणकरण न माझते, किन्तु विचारगोचरा, स्थविरसंधुतो रात्री दूरे तरुणानां, पाठय मामपि (यदा भणति) तदा स्थविरा ग्राहयन्ति यनेन ॥१॥ वैराग्यकथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12564 Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) आवश्यक- Tणाध्य. द्रीया प्रत सूत्रांक ॥६२७॥ विसयाण य जिंदा उडणिसियणे गुत्ता चुकखलिए य बहुसो सरोसमिव तज्जए तरुणा ॥२॥ सरोसं तजिजइ वर प्रतिक्रम|विप्परिणमंतो,-'धम्मकहा पाहिँति व, कयकज्जा वा से धम्ममक्खंति-मा हण परंपि लोयं अणुवया दिक्ख णो तुझं ॥१॥ सन्नित्ति दारं ॥ एवं पन्नविओ जाहे नेच्छइ ताहे-'संनि खरकंमिया वा भेसिति, कओ इहेस संविग्गो? निवसङ्के वा परिस्थाप निका. दिक्खिओं एएहिं अनाएँ पडिसेहो ॥१॥ सण्णी-सावओ खरकमिओ अभद्दओ वा पुवगमिओ तं भेसेइ-कओ एस४ तुज्झ मज्झे नपुंसओ?, सिग्धं नासउ, मा णं ववरोवेहामोत्ति, साहुणोवि तं नपुंसर्ग वयंति-हरे एस अणारिओ मा ववरोविजिहिसि, सिग्धं नस्ससु, जइ नहो लई, अह कयाइ सो रायउलं उवहावेजा-एए ममं दिक्खिऊण धाडति एवं, सो, |य ववहारं करेजा 'अन्नाए' इति जइ रायउलेणं ण णाओ एएहिं चेव दिक्खिओ अन्ने वा जार्णतया नस्थि ताहे भण्णइ-17 [सू.] दीप अनुक्रम [२३] SCOOLSSCRACK विषयाणां च निन्दा, साथान निषीदने पक्षा, स्थकिते च बहुशः सरोचमिव तर्मयन्ति सरुणाः ॥ २॥ सरोपं तपते पर विपरिणमन्-'धर्मकथाः पाठ | यन्ति वा, कृतकार्या वा ती धर्ममाक्यान्ति-मा जहि परमपि लोकं अनुक्तानि दीक्षा न तब ॥१॥ संज्ञीति द्वार ॥ एवं प्रशापितो यहा नेच्छति तदा संझिनः परकर्मिका वा भापन्ति, कुत इष संविप्नः १ नृपशि दीक्षित्वा वा एतैरहाते प्रतिषेधः॥1॥ संशी-श्रावकः खारकर्मिको यथाभनको वा पूर्वश-IX२७॥ पितस्तं भापयति-कृत एष युष्माकं मध्ये नपुंसका', की नश्यतु, मा तं व्यपरोपिष, साधचोऽपि तं नपुंसकं वदन्ति-हंडो मेषोऽनार्यो व्यपरोपीदिति शीनं नश्य, यदि मष्टो लाई, भय कदाचित् स राजकुलमुपतिष्ठेत-पते मोदीक्षयित्वा निवांटयन्ति एवं, सच ज्यवहारं कारयेत, अशात इति यदि राजकुलेन न ज्ञातमेतैरेव दीक्षितोऽन्ये वा शायका न सन्ति सदा भणन्ति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1257~ Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) CA प्रत सूत्रांक [सू.] हैन एस समणो पेच्छह से नेवत्थं चोलपट्टकाइ, किं अम्ह एरिस नेवत्थंति ?, अह तेण पुर्व चेव ताणि नेच्छियाणि ताहे भण्णइ-एस सयंगिहीयलिंगी, ताहे सो भणइ ममाविमो मि एएहिं चेत्र पढिसेहो, किंचाहीतं !, तो । छळियकदाई कह करथ नई काथ छलियाई १॥४॥ पुग्नावरसंजु चेरणाकरं सर्ततमविरुद्ध । पोराणमद्धमागहमासानिययं हवा सुतं ॥ १५ ॥ जे सुतगुणा कुत्ता सविपरीयाणि गाहए पुधि । निच्छिपणकारणाणं सा पेप विनिधणे जयणा | 100 गाथात्रयं सूत्रसिद्धं, अह कयाई सो बहुसयणो रायवल्लहो वा न सका विगिंचिउँ तत्थ इमा जयणा काबालिए सरक्खे ताणियवसहलिंगरूवेणं । वेढुंबगपाइए काय विदीय बोसिरणं ॥ १७ ॥ | व्याख्या-कावालिएति वृथाभागीत्यर्थः, कापालिकलिङ्गरूपेण तेन सह भवति, 'सरक्खो'त्ति सरजस्कलित रूपेण, भौतलिङ्गरूपेणेत्यर्थः, 'तबपिणपत्ति रक्तपट्टलिङ्गरूपेण इत्थं 'वेडुंबगपचइए नरेन्द्रादिविशिष्टकुलोद्गतो वेडुम्बगो भण्यते, तस्मिन् प्रत्रजिते सति कर्तव्यं 'विधिना' अक्कलक्षणेन 'व्युत्सृजन' परित्याग इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ भावार्थस्स्वयं दीप अनुक्रम [२३] नैय श्रमणः प्रेक्षय तस्य नेपथ्य बोलपट्टकादि, किम साकमीशं नेपथ्यामिति?, अथ तेन पूर्वमेव तानि नेष्टानि तदा भण्यते-एप स्वयंगृहीतलिक, तदा स भणति-अध्यापितोऽस्म्येतिरेव प्रतिषेधः, किंवाधीत?, ततः उलितकथादि कथयति यतिः क ()लितादि ॥१॥ वापर संयुक्तं वैराग्यकर खतन्त्रमविरुद्धम् । पौराणमर्धमागधभाषानियतं भवति सूत्रम् ॥ २ ॥ ये सूत्रगुणा उक्कासाद्विपरीतानि ग्राहयेत् पूर्वम् । निस्तीर्णकारण्यानो सैव त्यागे यतना ॥३॥ अब कदाचित स बहुखजनो राजपालभो वा न शक्यते विवेक सपा यतना. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1258~ Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥६२८|| आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७१...] आयं [ २०१...], नवभबहुपक्मिवावि तरुणवसहामिणं वेति । भिन्नकहाओ भट्ठाण घडह इह वच परतिथी ॥ १८ ॥ तुम समगं आमंति निम्गओ भिक्खमाइलक्खेणं । नासइ भिक्खुकमाइसु छोटून तमोबि विपलाइ ॥ १९ ॥ गाधाद्वयं निगदसिद्धं, ऐसा नपुंसगविचिणा भणिया, इयाणिं जडुबत्तधया तिविहो य होइ जो भासा सरीरे व करणजङ्को य भासाजडो तिविशे जलमम्मण एलओ य ॥ २० ॥ व्याख्या- तत्थ जलमूयओ जहा जले बुड्डो भासमाणो बुडबुडेइ, न से किंश्चिषि परियच्छिजइ एरिसो जस्त सद्दो सो जलमूओ, एलओ जहा बुबुएइ एलगमूओ, मम्मणो जस्स वायाउ खंचिज्जइ, एसो कयाइ पचावेजा मेहावित्तिकाउं जलमूयएलम्या न कप्पंति पद्यावे, किं कारणं १ नाणपरिचेतयेय समिकरणजोए य दिपि न गेन्हइ जलमूओ एलमूलोय ॥ २१ ॥ गाणाया दिवसा भासाजङ्को अपचलो तस्स । सो व बहिरो य नियमा ग्राहण उड्डाह अहिगरणे ॥ २२ ॥ तिविहो सरीरजडो पंथे भिक्से य होह बंदए। एएदि कारणेहिं जस्स न कप्पई दिखा ॥ २३ ॥ अदाणे पहिमंथो भिक्खायरियाए अपरिहल्यो य दोसा सरीरजङ्कं गच्छे पुण सो अणुण्णाओ ॥ २४ ॥ गाथाचतुष्कं सूत्रसिद्धं, कारणंतरेण तत्थ य अण्णेवि इमे भवे दोसा १ एप नपुंसकचिबेको भणितः, इदानीं जबकम्पता तंत्र जमूको यथा जले ब्रूढितो भाषमाणः डबूदायते, न तत्र किञ्चिदपि परीक्ष्यते ईशो यस्य शब्दः स जलमूकः एडको यथा उपते एडकसूकः, मन्मनो यस्य वाचः स्वजन्ति, एप कदाचित् प्रजापते मेधावीतिकृत्वा जलमूलैडकको न कल्प्येते प्राजयितुं किं कारणम्- कारणान्तरेण तत्र चान्येऽपी मे भवेयुदोषा १४ प्रतिकम णाध्य० परिस्थापनिका ~ 1259 ~ ॥६२८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७१...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] नमस्सासो अपरकमो बगेछन्नलाधवग्गिा हिन्दए । जडरस य आगाढे गेलण असमाहिमरणं च ॥ २५॥ सेएक कक्षमाई कुच्छे ण धुवणुप्पिलावणा पाणा । नत्थि गलयो य चोरो निदिय मुंटाइवाए य ॥२६॥ इरियासमिई मासेसणा य आयाणसमिइगुत्तीसु। नदि ठाइ चरणकरणे कम्मुदपणं करणडो॥ २७॥ एसोचिन दिक्खिन जस्सगेणमह दिविखओ होजा । कारणगएण केण तत्य विहिं उपरि धोक्छामि ॥ २८॥ गाथाचतुष्कं निगदसिद्धं, तत्थ जो सो मम्मणो सो पधाविजइ, तत्थ विही भणइ मोर्चे गिलाणकर्ज तुम्मेई पडियरह जाव छम्मासा । एकेके छम्मासा जस्स व वई विागचणया ॥ २९॥ एकेकेसु कुले गणे संघे छम्मासा पडिचरिजइ जस्स व दई बिगिचणया जडुत्तणस्स भवइ तस्सेव सो अहवा जस्सेव दहुँ लट्ठो भवइ तस्स सो होइन होइ तओ विगिंचणया, सरीरजडो जावज्जीवपि परियरिजइ जो पुण करणे जडो कोसं तस्प होति छम्मासा । कुल्लाणसंघनिवेषण एवं तु विहितहि कुजा ॥ ३०॥ इयं प्रकटार्थेव, एसा सचित्तमणुयसंजयविगिंचणया, इयाणिं अचित्तसंजयाणं पारिछावणविही भणइ, ते पुण एवं होज्जा आसुकारगिलाणे पम्पसाए व आणुपुतौए। अचित्तसंजयाणं बोय्हामि बिहीद पोसिरणं ॥21॥ दीप अनुक्रम [२३] तत्र यः स मन्मनः स प्रवाज्यते, रात्र विधिर्भग्यते-एकैकेषु कुले गणे सङ्के षण्मासान् परिचर्यते 'यस वा दृष्ट्वा विवेकः जड (मूक) त्वस्य भवति तस्यैव सः, अथवा यसैव वालटो भवति तख स (आभापो) भवति न भवत्ति विवेकः, पारीरजडो यावजीवमपि परिचर्यते । एपा सचिसमनुष्यसंथत विवेचना, इदानीमचित्तसंवताना पारिजापनविधिर्भण् पत्ते, ते पुनरेवं भवेयु: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1260~ Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७२] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रतिक्रमणाध्यक परिस्थापनिका - प्रत - सूत्रांक * आवश्यक व्याख्या-करणं-कारः, अचित्तीकरणं गृह्यते, आशु-शीघ्र कार आशुकारः, तद्धेतुत्वादहिविषविशूचिकादयो गृह्यन्ते, हारिभ- तैयः खल्वचित्तीभूतः, 'गिलाणे'त्ति ग्लान:-मन्दश्च सन् य इति, 'प्रत्याख्याते वाऽऽनुपूा' करणशरीरपरिकर्मकरणानुद्रीया क्रमेण भक्के वा प्रत्याख्याते सति योऽचित्तीभूत इति भावार्थः, एतेषामचित्तसंयतानां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'विधिना ॥६२९॥ | जिनोकेन प्रकारेण 'व्युत्सृजन' परित्यागमिति गाथार्थः ॥३१॥ एव व कालगभी मुणिणा सुत्तत्वगहिवतारेणं । न दु कायन विसामो काया विहीर पोसिरणं ॥३२॥ व्याख्या एवं च एतेन प्रकारेण 'कालगते' साधी मृते सति 'मुनिना' अन्येन साधुना, किम्भूतेन ?-'सूत्रार्थगृहीतसारेण' गीतार्थनेत्यर्थः, 'नहु' नैव कर्तव्यः 'विषादः स्नेहादिसमुत्थः सम्मोह इत्यर्थः, कर्तव्यं किन्तु 'विधिना' प्रवचनोक्तेन प्रकारेण 'ध्युत्सृजन' परित्यागरूपमिति गाथार्थः ॥ ३२ ।। अधुनाऽधिकृतविधिप्रतिपादनाय द्वारगाथाद्वयमाह | नियुक्तिकार:पडिलेहणा दिसा गंतएं य काले दिया यराओय। कुसपडिमा पाणगणियत्तणे यतर्णसीसेउवगैरणे ॥१२७२॥ उहाणणामगैहणे पोहिणे काउसंग्गकरणे य । खमणे य असज्झाए तत्तो अवलोयणे चेव ॥१२७३।। दारं ॥ | व्याख्या-'पडिलेहण'त्ति प्रत्युपेक्षणा महास्थाण्डिल्यस्य कार्या 'दिसत्ति दिग्विभागनिरूपणा च णतए यत्ति गच्छसमपेक्ष्य सदौपग्रहिक नन्तक-मृताच्छादनसमर्थ वस्त्रं धारणीय, जातिपरश्च निर्देशोऽयं, यतो जघन्यतस्त्रीणि धारणीयानि, चशब्दात्तथाविधं काष्ठं च प्राचं, 'काले दिया य राओ यत्ति काले दिवा च रात्री मृते सति यथोचितं लाञ्छनादि कर्तव्यं | दीप अनुक्रम [२३] * * | ॥६२था मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ प्रतिलेखना, दिशा इत्यादि १६ द्वारानाम् वर्णनं क्रियते ~ 1261~ Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १२७३ ] भाष्यं [ २०५...], प्रक्षेप [१] | कुसपडिम'त्ति नक्षत्राण्यालोच्य कुशपडिमाद्वयमेकं वा कार्य न वेति 'पाणगि'त्ति उपघातरक्षार्थं पानकं गृह्यते, 'नियत्तणे यत्ति कथचित्स्थाण्डिल्यातिक्रमे भ्रमित्वाऽऽगन्तव्यं न तेनैव पथा, 'तणे'त्ति समानि तृणानि दातव्यानि, 'सीसं'ति ग्रामं यतः शिरः कार्य 'उवगरणे'ति चिह्नार्थ रजोहरणाद्युपकरणं मुध्यते, गाथासमासार्थः ॥ १२७२ ॥ 'उडाणे' त्ति उत्थाने सति शवस्य ग्रामत्यागादि कार्य 'णामग्गहणे'त्ति यदि कस्यचित् सर्वेषां वा नाम गृह्णाति ततो लोचादि कार्य 'पयाहिणे' त्ति परिस्थाप्य प्रदक्षिणा न कार्या, स्वस्थानादेव निवर्तितव्यं, 'काउसग्गकरणे त्ति परिस्थापिते वसती आगम्य कायोत्सर्गकरणं चासेवनीयं 'खमणे य असम्झाए' रत्नाधिकादौ मृते क्षपणं चास्वाध्यायश्च कार्यः, न सर्वस्मिन्, 'तत्तो अबलोयणे चेव' ततोऽम्यदिने पूरिज्ञानार्थमवलोकनं व कार्य, गाथासमासार्थः ॥ १२७३॥ अधुना प्रतिद्वारमवयवार्थः प्रतिपाद्यते, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह् जहियं तु मासकप्पं वासावासं च संवसे साहू । गीयत्था पढमं चिय तत्थ महाथंडिले पेहे ॥ १ ॥ ( प्र० ) ॥ व्याख्या- 'यत्रैव' प्रामादी मासकल्पं 'वासावासे च' वर्षाकपं संवसन्ति 'साधवः' गीतार्थाः प्रथममेव तत्र 'महास्थाण्डिल्यानि' मृतोज्झनस्थानानि 'पेहे'ति प्रत्युपेक्षेत त्रीणि, एप विधिरित्ययं गाथार्थः ॥ इयं चान्यकर्तृकी गाथा, दिग्द्वारनिरूपणायाह परन्नपाणपक्ष्मा बीवाए भतपाण ण लहंति पंचमियाएँ अछिट्टीए गणविभेषणं ज्ञान दिसा अवरदक्षिणा दक्षिणा व अवरा य दक्खिणा पुन्हा । अवस्तरा य पुडा उत्तरपुङ्गतराचेव ॥ २२ ॥ तयाएँ उडीमाई नत्थी झाओ ॥ ३४ ॥ सत्तमिए गेलनं मरणं पुण अमी विंति ॥ ३५ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1262 ~ Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६३०॥ ईमीणं वक्खाणं-अवरदक्षिणाए दिसाए महायंडिलं पहियवं, एतीसे इमे गुणा भवंति-भत्तपाणउवगरणसमाही प्रतिक्रम. भवइ, एयाए दिसाए तिणि महाथंडिलाणि पडिलेहिजंति, तंजहा-आसण्णे मज्झे दूरे, किं कारणं तिणि पडिलेहिजति !,Aणाध्य. वाघाओ होज्जा, खेत्तं किटं, उदएण वा पलावियं, हरियकाओ वा जाओ, पाणेहि वा संसतं, गामो वा निविडो सत्थो। परिस्थापवा आवासिओ, पढमदिसाए विजमाणीए जइ दक्षिणदिसाए पडिलेहिंति तो इमे दोसा-भत्तपाणे न लहंति, अलहंते निका. संजमविराहणं पावंति, एसणं वा पेल्लंति, जं वा भिक्खं अलभमाणा मासकप्पं भंजंति, वच्चंताण य पंथे विराहणा दुविहासंजमायाए तं पावेंति, तम्हा पढमा पडिलेहेयबा, जया पुण पढमाए असई वाघाओ वा उदगं तेणा बाला तया बिइया पडिले हिज्जति, बिइयाए विजमाणीए जइ तइयं पडिलेहेइ तो उवगरणं न लहंति, तेण विणा जं पावंति, चउत्था दक्खिणपुवा तत्थ पुण सम्झायं न कुर्णति, पंचमीया अवरुत्तरा, पताए कलहो संजयनिहत्थअण्णउत्थेहिं सद्धिं, तस्थ उड्डाहो। [सू.] RECCC दीप अनुक्रम [२३] 1 आसां व्याख्यान-अपरदक्षिणा दिशि महासन्द्रिले प्रत्युपेक्षित यं, अस्या इमे गुणा भवन्ति-भक्तवानोपकरणसमाधिर्भवति, एतस्यां दिशि प्रीणि स्थण्डिलानि प्रतिलिस्यन्ते, तथथा-आसने मध्ये दूरे, किं कारणं त्रीणि स्थग्लिानि प्रतिलिस्यन्ते', व्याधातो भवेत् क्षेत्र वा पृष्टं उदकेन वा प्लावितं हरिसकायो या जातः प्राणिमिवां संसकं ग्रामो घोपितः सार्थों वाऽऽवासितः, प्रथमदिशि विद्यमानायो यदि दक्षिणदिशि प्रतिलिसन्ति तदेमे दोषा:-भक्तपानं | न लभन्ते, भलभमाने संयमविराधना प्रामवन्ति एषणां चा प्रेरयन्ति, बङ्का भिक्षामलभमाना मासका भजन्ति मजतां च पथि विराधना द्विविधा-संषमस्या मनः तां प्रामुवन्ति, सम्मान, प्रथमा प्रतिलेखितम्या, बदा पुनः प्रथमायामसत्यां व्याघातो वा बद सेना पालाः सदा द्वितीया प्रतिलिस्यते,द्वितीयस्थां विद्यमानायां यदि तुतीयाँ प्रतिलिसति तदोपकरणं न लभन्ते, तेन विना यत् प्रानुवन्ति, चतुर्थी दक्षिणपूर्ण तन्त्र पुनः स्वाध्यायं न कुर्षन्ति, पचमी अपरोत्तरा, एसपी कलाहः संपतगृहस्थाम्बतीथि सार्थ, तनोड्डाहः ॥६३०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1263~ Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक 480-% विराहणा य, छडी पुवा, ताए गणभेओ चारित्तभेओ वा, सत्तमिया उत्तरा, तत्थ गेलण्णं जं च परियावणाइ, पुश्रुत्तरा अर्णपि मारेति, एए दोसा तम्हा पढमाए दिसाए पडिलेहेयचं, तीए असइ बिइयाए पडिलेहेयवं, तीए सो चेव गुणो जो पढमाए, बिइयाए विजमाणीए जइ तइयाए पडिलेहेइ सो चेव दोसो जो तइयाए, एवं जाव चरिमाए पडिलेहे-11 | माणस्स जो चरिमाए दोसो सो भवइ, विइयाए दिसाए अबिजमाणीए तझ्याए दिसाए पडिलेहेयर्थ, तीए सो चेव गुणो जो पढमाए, तइयाए दिसाए बिजमाणीए जइ चउत्थं पडिलेहेइ सो चेव दोसो जो चउत्थीए, एवं जाव चरिमाए दोसो सो भवइ, एवं सेसाओवि दिसाओ नेयवाओ । दिसित्ति बिइयं दारं गयं, इयाणि 'णतए'त्ति, वित्थारायामेणं जं पमाणं भणियं तओ विधारणवि आयामेणवि जं अइरेगं लहइ चोक्खसुइयं सेयं च जत्थ मलो नस्थि चित्तलं वा न भवइ सुइयं सुगंधि ताणि गच्छे जीविजयकमणनिमित्तं धारेयवाणि जहन्नेण तिन्नि, एमं पत्थरिजइ एगेण पाउणीओ बझंति, तइयं १ निराधना च, पट्टी पूर्वा, तस्यां गणभेदश्चारित्रभेदो चा, सप्तम्वुत्तरा, तत्र ग्लान बच परितापनादि, पूर्वोत्तराऽन्यमपि मारपति, पते दोषासम्मान | प्रथमायाँ दिशि प्रति लेखितम्ब, तस्याममयां द्वितीयखां प्रतिलेखितव्यं, तस्यां स एवं गुणो यः प्रथमायो, द्वितीयस्यां विद्यमानायो यदि तृतीयस्यां प्रतिक्षित सति स एवं दोषो बस्तृतीयस्या, एवं यावच्चारमायो प्रतिलिखतो पधारमा दोषः स भवति, द्वितीयायां दिशि विद्यमानायां तृतीयस्था दिशि प्रतिसि. तव्यं, तस्यां स एव गुणो वः प्रथमाया, तृतीयखां दिशि विरामानायां यदि चतुर्थी प्रतिलिखति स एव दोषो यश्रतुथ्यो, एवं बावच्चरमाया दोषः स भवति, एवं शेपा भपि विशो नेतन्या, दिगिति हिलीयं द्वारं गतं । इदानीमनन्तकमिति-विस्तारायामाभ्यां यत्प्रमाणं भणितं ततो विसारेणापि भाषामेनापि यदतिरे। कवन भते चोक्षं शुचितं च यत्र मको नास्ति चित्रयुक्तानि वा न भवन्ति शुचीनि सुगन्धीनि तानि गच्छे जीवितोपक्रमानिमित्तं धारषितम्यानि जपम्येन । श्रोणि, एकं प्रस्तीयंते एकेन प्राप्तो बध्यते तृतीय likcharitr [सू.] * दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1264 ~ Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यकवरिं पाणिजंति, एयाणि तिष्णि जहण्णेण उकोसेण गच्छं णाऊण बहुयाणवि पिप्पंति, जइ ण गेण्हइ पच्छित्तै पावेद, प्रतिक्रमहारिभ- आणा विराहणा दुविहा, मइलकुले णिजते दडे लोगो भगइ-इहलोए चेव एसा अवस्था परलोप पावतरिया, चोक्खु-। | णाध्य द्रीया सुइपहिं पसंसति लोओ-अहो लछो धम्मोत्ति पबजमुवगच्छति सावयधम्म पडिवजंति, अहबा णत्थि णतयंति रयणीय अचित्तसं. नीहामित्ति अच्छावेइ तत्थ उड्डाणाई दोसो, तत्थ विराहणा णामं कस्सइ गिण्हेज्जा तत्थ विराहणा, तम्हा घेत्तवाणियतमनु॥३ ॥ णतयाणि, ताणि पुण वसहा सारवेंति, पक्खियचाउम्मासियसंवच्छरिए पडिले हिजति, इहरहा मइलिजति दिवसे दिवसे पडिलेहिजताणि, एत्थ गाहा पुत्रं दधाकोयण पुश्विं गहणं च णतकहस्स । गच्छमि एस कप्पो अनिमि ते होउयकमणं ॥ ३५॥ इमीसे अक्खरगमणिया-पुर्व ठायंता चेव तणडगलछाराइ दवमालोएंति, पुषिं गहणं च कहस्स तत्थ अन्नत्थ वा, तत्थ : कस्स गहणे को विही ? वसहीए ठायंतओ चेव सागारियसंतयं वहणकई पलोएं ति, किंनिमित्तं वहणकई अवलोइज्जइ?,18 सुपरि प्रानियते (प्राचार्यते), एतानि वीणि जयन्येन जाकर्षण गच्छं ज्ञात्वा चहुकाम्यपि गुमन्ते, बदिन गृह्णाति प्रायश्चित्तं प्रामोति-आशा विराधना द्विविधा, मलिनकुचेलान् नीयमानान् दृष्ट्वा कोको भणति-इहलोक एषाप्रथा परलोके पापतरा, शुचिचोक्षः प्रशंसति कोका-अहो कष्टो धर्म इति | प्रवम्यामुपगछन्ति श्रावकधर्म प्रतिपद्यन्ते, अथवा नास्त्यनन्तकमिति रजन्यो नेष्यामीति स्थापयति तत्रोथानादिदोषः, तब विराधना नाम कजिद्गलीयान ॥६३२॥ तत्र चिराधना, तमाद प्रदीतष्पान्यनन्तकानि, सानि पुनर्वृषभा रक्षन्ति, पाक्षिकचातुर्मासिकांवत्सरिकेषु प्रतिलिस्यन्ते, इतरथा मसिनश्यन्ते दिवसे दिवसे | प्रतिलिण्यमानानि, अव गाथा-अस्खा अक्षरगम निका-पूर्व तिष्ठन्त एव तुगलक्षारादि द्रव्यमालोकयन्ति, पूर्वग्रहणं च काख तनापत्र वा, तत्र काष्ठख प्रहणे को विधिः-बसती तिनेव सागारिकसर बहनकाष्ठं प्रलोकयति, किं निमित्तं वइनकाई अवलोक्यते !,. दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1265~ Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] कोइ अनिमित्तमरणेण काल करेज राओ ताहे जइ सागारियं वहणकट्ठ अणुण्णवणवाए त उहवेति ता 'आउज्जोओ'12 आउज्जोयणाई अहिगरणदोसो तम्हा उ न उडवेयबो, जइ एगो साहू समत्थो तं नीणे ताहे कई न घेप्पड़, अह न तरह तो जत्तिया सके। तो तेण पुर्वपहिलेहिएण कडेग नीणेति, तं च कई तस्थेव जइ परिठवेंति तो अपणेण गहिए अहिंगरणं, सागारिओ वा तं अपेच्छतो एएहिं नीणियंति पदुओबोच्छेयं कडगमदाई करेजा तम्हा आणेय, जइ पुण आणेत्ता तहेब पवेसंति तो सागारिओ दट्टणा मिच्छत्तं गच्छेजा, एए भणंति जहा अम्ह अदिण्णं न कप्पइ इमं चणेहिं गहि-18 यति, अहवा भणेज-समणा ! पुणोवि तं चेव आणेहत्ति, अहो णेहि हदुसरक्खावि जिया, दुगुंछेजमयगं वहिऊण मम | घरं आणेन्ति उड्डाहं करेजा वोच्छेयं वा करेजा, जम्हा एए दोसा तम्हा आणेत्ता एक्को तं घेत्तूण बाहिं अच्छंति, सेसा अइन्ति, जइ ताव सागारिओ ण उठेइ ताहे आणित्ता तहेव ठवेंति जह आसी, अह उडिओ ताहे साहेति-तुन्भे पासुतेल्लया टू कबिदनिमित्तमरणेन कालं कुर्यात रात्री तदा यदि सागारिक वाहनम्माष्टस्य अनुज्ञापनाय तमुस्थापयन्ति तदा अकायोद्योती अकायोथोतादयोऽधिकरणदोषास्तमायोत्थापयितव्या, ययेकः साधुः समर्थस नेतुं तदा काई न गृह्यते, अब न पाकोति तदा यावन्तः शकुवन्ति ततः तेन पूर्वमतिलिखितेन कानुन नयन्ति, तथ काई सबै यदि परिक्षापयन्ति ततोऽन्येन गृहीतेऽधिकरणं, सागारिको वा तपश्यन् पुतैनीतमिति प्रद्विष्टो न्युदं कटकमदादि कुर्यात् तस्मा ज्य, यदि पुनरानीय तथैव प्रवेशयन्ति तदा सागारिको हरा मिथ्यावं गच्छेत् , एते भणन्ति यथाऽस्माकमदन करूपते इदं चैभिगृहीतभिति, अथवा भणेत-श्रमणाः! पुनरपि तदेवानवतेति, अहो अनी भिर्विट्सरजस्का अभिजिता, जापनीयस्त के वहित्वा मम गृह मानयन्तीयुडाई कुर्षात म्युच्छेवं वा कुर्यात्, | यम देते दोषास्तस्मादानीय एकतासीरवा बहितिष्ठति, शेषा भायाम्ति, यदि ताचसापारिको नोत्तिष्ठति (नोस्थितः) तदानीय तधैव स्थापयन्ति पधाऽऽसीत् , भयोस्थितस्तदा कथयन्ति-यूयं प्रसुप्ता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1266~ Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) आवश्यक- प्रतिक्रमणाध्य० अचित्तसं द्रीया प्रत सूत्रांक अम्हेंहिं न उठविया, रत्तिं चेव कालगो साह, सो तुम्भच्चयाए वहणीए णीणिओ, सा कि परिठविजउ आणिजउ, जं सो भणइ तं कीरइ, अह तेहिं अजाणिजंतेहिं ठविए पच्छा सागारिएण णायं जहा एएहिं एयाए वहणीए परिठ्ठविरं परिहवियन्ति, तत्थ उद्धरुठ्ठो अणुणेयबो, आयरिया कइयवेण पुच्छंति-केणइ कर्य, अमुएणंति, किं पुण अणापुच्छाए करेसि , सो सागारियपुरओ अंबाडे ऊण निच्छुडभइ कइयवेण, जइ सागारिओ भणइ-मा निच्छुडभउ, मा पुणो एवं कुज्जा, तो लई, अह भणइ-मा अच्छउ पच्छा सो अण्णाए वसहीए ठाइ, चितिजिओ से दिजउ, माइडाणेण कोइ साहू भणइ-मम एस नियओ जइ निच्छुभइ तो अहपि गच्छामि, अहवा सागारिएणं समं कोइ कलहेइ, सोवि निच्छुन्भइ सो से बितिजओ होइ, जइ बहिया पञ्चवाओ बसही वा नस्थि ताहे सधे गति । गंतकहदारं गये इयाणिं कालेत्ति दारं, सो य दिवसओ कालं करेज राओ वा- -" । व्यपारिक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] अशाभिनथापिताः, रामायेच कालगतः साधु, स त्वदीयया बहन्या नीतः, सा किं परिहाध्यतामानीयता (वा), पत् स भणति तत् क्रियते, अथ तैरज्ञायमानः स्थापिते पश्चात् सागारिकेण ज्ञातं ययौरेतया बहम्या परिष्टाप्य परिस्थापितमित्ति, तत्र तीबरोषोऽनुनेतम्या, भाचार्याः केतवेन पृच्छन्तिकेन कृतं १, अमुफेनेति, कि पुनरनाळया करोपि, ससागारिकस्य पुरतो निभस्य जिसकाश्यते कैसवेन, यदि सागारिको भणे-मा निष्कापी, मा पुनरेवं कुर्याः, सदा कर, अथ भणति-मा तिहत पश्चात् सोन्यसा वसती तिष्ठति, द्वितीयतस्य दीयते, मातृस्थानेन कश्चित् साधुभणति-ममैच निजको परि। निष्काश्यते तदादमपि ग.मि, अथवा सागारिकेण सह कश्चित् कलहयति, सोऽपि निष्काश्यते, स त द्वितीयो भवति, यदि बहिः प्रस्थपायो वसतियार नास्ति सदा सर्व निर्गठन्ति । अनन्तकाकारद्वारं गतं, इदानीं काल इति द्वार, सच दिवसतः काल कुर्यात् रात्रौ या - 20 ॥३२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~12674 Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) % प्रत सूत्रांक सहसा कालगर्थमी मुगिणा सुत्तस्थगहियसारेण । न विसाओ कायञ्चो काय जिद्दीइ बोसिरणं ॥२०॥ सहसा कालगर्यमित्ति आसुक्कारिणा जपेतं कालगो निकारण कारणे भवे निरोहो । उयणबंधणजमगणकाइयमते य हायरडे ॥३८॥ भाविहुसरीरे पंता वा देवया उडेजा । काइयं हव्यहत्थेष मा बढे बुज्म गुज्झया! ॥३१॥ वितासेज हसेज व भीमं वा अट्टहास मुंचेजा । भीएणं तत्थ उ कायश्च विही बोखिरण ॥ ४० ॥ इमीणं वक्खाणं-'जं वेलं कालगओ'त्ति जाए बेलाए कालगओ दिया वा राओ वा सो ताहे वेलाए नेयबो 'निकार'त्ति एवं ताव निकारणे 'कारणे भवे निरोहो त्ति कारणे पुणो भवे निरोहो नाम-अच्छाविजइ, किं च कारणं, रत्ति ताव आरक्खिय तेणयसावयभयाइ वारं वा ताव न उग्घाडिज्जइ महाजणणाओ वा सो तमि गामे णयरे वा दंडिगाईहिं वा आयरिओ वा सो तमि जयरे सहेसु वा लोगविक्खाओ वा भत्तपच्चक्खाओ या सण्णायगा वा से भणति-जहा अहं अपुच्छाए ण णीणेयधोत्ति, अहवा तंमि लोगस्स एस ठवणा-जहा रतिं न नीणियबो, एएण कारणेण रत्तीए ण णीणिज्जइ, सहसा कालगते इखाशुकारिणा. आसां व्याख्यानं-'वस्था बेलायो कालगतः' इति यस्या बेकायो कालगतो दिवा वा रात्री पास तथा बेलायां नेतन्यः "निष्कारण' इति एवं तावनिष्कारणे 'कारणे भवेविरोधः' इति कारणे भवेत् निरोधो नाम स्थाप्यते, किंच कारणं ?, रात्रौ तावत् आरक्षकाः सोन बापदभयानि हार वा सावरायते महाजनम्यायो वा स समिन् प्रामे नगरे वा दण्डिकादिभिवाऽऽहतो या सतमिनगरे आवेषु वा कुलेषु लोक| विख्यातो वा प्रत्याख्यातभक्तो वा सज्ञातीया वा तस्स भणन्ति-यवस्माकमनापृच्छया न नेतथ्य इति, अथवा तमिन् लोकस्यैषा स्थापना यथा रात्री न नेतण्या, एतेन कारणेन रात्रौ न नीयते. 456-06+0-8% [सू.] दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1268~ Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकहारिभद्रीया ॥६ ॥ दिवस ओवि चोक्खाणं तयाणं असईए दंडिओवा एइ नीइ वा तेण दिवसओ संविक्खाविजइ, एवं कारणेण निरुद्धस्स ४४ प्रतिक्रमइमा विही 'छेयण बंधण' इत्यादि, जो सो मओ सो लंछिजइ, 'बंधण'न्ति अंगुहाइ बझंति, संथारो वा परिवणनि णाध्य मित्तं दोरोहिं उग्गाहिजइ, 'जग्गण'न्ति जे सेहा बाला अपरिणया य ते ओसारिजंति, जे गीयस्था अभीरू जियनिद्दा अचित्तसं यतमनुउवायकुसला आसुकारिणो महाबलपरकमा महासत्ता दुद्धरिसा कयकरणा अप्पमाइणो एरिसा ते जागरंति, 'काइयमत्ते यत्ति जागरंतेहिं काझ्यामत्तो न परिविजह हत्थउडे'त्ति जइ उठेइ तो ताओ काइयमत्ताओ हत्वउडेणं काइयं गहाय | सिंचंति, जइ पुण जागरंता अञ्छिदिय अवंधिय तं सरीरं जागरंति सुर्वेति वा आणाई दोसा, कहं ?-'अण्णाइडसरीरे' अन्याविष्टशरीरं सामान्येन तावद् व्यन्तराधिष्ठितमाख्यायते विसेसे पुण पंता वा देवया वा उडेजा, पंता नाम पडणीया, सा पंता देवया छलेजा कलेवरे पविसि उठेज वा पणचए वा आहाविज वा, जम्हा एए दोसा तम्हा छिदिउंबंधिउं वा प्यपारि [सू.] दीप अनुक्रम [२३] CCCC दिवसेऽपि चोक्षाणामनन्तकानामसरखे दधिको वाऽध्याति गच्छति पा तेन दिवसे प्रतीक्ष्यते, एवं कारणेन निरुद्धखैष विधिः-छेदनबन्धने 'त्यादि। यः स मृतः स लाध्यते, बन्धनमिति अहुष्टी बभ्येते, संसारको वा पारिठापनिकीनिमिचं दवरकैरुहाझते, जागरण मिति ये शैक्षा बाला अपरिणताब तेऽपसार्यन्ते, ये गीतायां अभीरयो जितनिधा उपायकुशला आशुकारिणो महावलपराक्रमा महासचा दुर्धर्षाः कृतकरणा अप्रमादिनः इदशास्ते जान्नति, काविकीमात्रं चेति जाग्रद्धिः काषिकीमात्रकं न परिष्ठाप्यते, इनपुटश्रेति ययुत्तिष्ठति तवा ततः काविकीमात्रकात् इस्तपुटेन काषिी गृहीत्वा सिञ्चन्ति, यदि पुनजामतोच्छिावाऽबङ्गा तत् शारीर जाग्रति स्वपन्ति वा माज्ञादयो दोषाः, कथम् -'अन्धाविष्टशरीरं-विशेषे पुनः प्रान्ता वा देवता वोत्तित् , प्रान्ता दानाम प्रत्पनीका, सा प्रान्ता देवता छलेत् कडेवरे प्रविश्योत्तिष्ठेत् अन्त्येवाऽधायदा, यम्मावते दोषास्तम्मात् छिरपा बङ्गा वा ॥३३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1269~ Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७३...] भाष्यं [ २०५...], जोगरेयवं, अह कयाइ जागरंताणवि उहिजा ताहे इमा विही 'काइयं वहत्येणं' जो सो काइयमत्तओ ताओ काइयंपासवणं 'डच्चेण (हत्थे णे 'ति वामहत्थेण वा, इमं च बुचइ-'मा उठे बुझ गुज्झगा' मा संवाराओ उड्डेहित्ति, बुम्झ मा पमत्तो भव, गुम्झगा इति देवा, तहा जागरंताणं जइ कहंचि इमे दोसा भवंति 'वित्तासेज्ज हसेज व भीमं वा अट्टहास मुंचेजा' तत्थ वित्तासणं-विगरालरूवाइदरिसणं हसणं-साभावियहासं चैव भीमं बीहावणयं अट्टहासं भीसणो रोमहरिसजणणो सदो तं मुंचेज्ज वा, तत्थ किं काय !-'अभीएणं' अवीर्हतेणं 'तत्थ' वित्तासणाईमि 'काय' करेयवं विहीए पुवृत्ताए पडिवज्जमाणाए वा 'वोसिरणं' ति परिद्ववणं, तत्थ जाहे एव कालगओ ताहे चैव हत्थपाया उज्जुया कज्जति, पच्छा थद्धा न तीरंति उज्जुया करे, अच्छीण सेसं मीलिज्र्ज्जति, तुंडे व से मुहपोत्तियाए बज्झइ, जाणि संघाणाणि अंगुलि अंतराणं तत्थ ईसिं १] जागरितयं, अम कदाचित् आमतामपि उचिछेत् तदेव विधिः-काधिक वामहस्तेन यः स कायिकीपतस्तस्मात् कायिकी प्रश्रवणं 'बेणं' वामहस्तेन या इदं चोच्यते-मोचिष्ठ बुध्यस्व गुझक, मा संसारकाचिद्वेति यस्व मा प्रमतो भूः, युद्धका इति देवाः, तथा जामतां जदि कथञ्चिदिने दोषा भवन्ति-वित्रासयेत् हवेद्वा भीमं या अट्टहास सुभेद, तत्र विप्राणं विकरूपादिदर्शनं हसनं स्वाभाविकदास्यमेव भयानकं भीमं अट्टहास भीषणो रोमहर्षजननः शब्दतं मुझे तत्र किं कर्तव्यं ? अभीतेन- अरिभ्यता तत्र विवासने कर्तव्यं विधिमा पूर्वकेन प्रतिपाद्यमानेन व्युत्सर्जनमिति परिष्ठापनं तत्र यंदेव कालगतस्तदैव हस्तपादौ को क्रियेते, पश्चात् सम्धीनी ऋको विधातुं, अक्षिभ्यः शेषं निमीलति, तुण्डे वा तख मुखशेतिका बध्यते यानि संघानानि अनुज्यन्तराणां सत् मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1270~ Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) साषश्यकहारिभद्रीया 4%255 -* प्रत सूत्रांक णाध्य. अचित्तसंयतमनुध्यप * ॥६३४॥ *- फालिज्जइ, पायगुडेसु हत्थंगुढएसु य बज्झइ, आहरणमाईणि कहिजति, एवं जागरंति, एसा विही कायबा । कालेत्ति दार सप्पसंग गयं, इयाणि कुसपडिमत्ति दारं, तत्थ गाहा दोनि य दिवखे दम्भमया पुसका उ कायजा । समस्खेतमि त एको अवउभीए ण कायनो ॥ ४ ॥ द्वौ च सार्द्धक्षेत्रे, नक्षत्र इति गम्यते, दर्भमयौ पुत्तलको कार्यों, समक्षेत्रे च एकः, 'अवहऽभीए ण कायबो'त्ति उपार्द्धभोगिष्वभीचिनक्षत्रे च न कर्तव्यः पुत्चलक इति गाथाक्षरार्थः॥४१॥ एवमन्यासामपि स्ववुझ्याऽक्षरगमनिका कार्या, भावार्थ तु वक्ष्यामः, प्रकृतगाथाभावार्थः-कालगए समणे णक्खत्तं पलोइज्जइ, जइ न पलोएति असमाचारी, पलोइए पणयालीसमुहुत्तेसु नक्खत्तेसु दोषिण कजति, अकरणे अन्ने दो कहेइ, काणि पुण पणयालीसमुहुत्ताणि ?, उच्यते विष्णेच उतराई पुष्पवासू रोहिणी विसाहा व । एए छ नक्सत्ता पणयालमुहमसंजोगा ॥ ४२ ॥ तीसमुहुत्तेसु पुण पण्णरससु एगो कीरइ, अकरणे एगं चेव कहइ, तीसमुहुत्तियाणि पुण इमाणि अस्त्रिणिकित्तियमियतिर पुस्लो मह फग्गु हत्य चित्ता य । अणुराइ मूल सादा सवणवाणिहा प भइवया ॥३॥ तह रेवइति एए पारस हवंति तीसहमुहुत्ता । नक्वत्ता नायचा परिवणविहीय कुसलेणं ॥ ४ ॥ *- दीप अनुक्रम [२३] ॥६३४॥ ACANCY पाठ्यते, पादाकुरेषु इस्ताङ्गुष्ठेषु च वध्यते, आहरणादीनि कम्यन्ते, एवं जाप्रति, एष विधिः कर्तव्यः । काल इति द्वारं सप्रसङ्गं गतं, इदानी कुशपतिमेति द्वार, तत्र गाथा-काकगते श्रमणे नक्षत्रं प्रकोयते, यदि न प्रलोक्यतेऽसमाचारी, प्रकोकिते पञ्चचत्वारिंशन्मुहर्षेषु नक्षत्रेषु कियेते, अकरणे अन्यौ | द्वी मारवति, कानि पुनः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि ?, त्रिंशन्गुहूर्वेषु पुनः पञ्चदशसु एकः क्रियते, अकरणे एक मारयस्येव, त्रिंशन्मुहूर्षिकाचि पुनरिमानि. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1271 ~ Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पनरसमुहुत्तिएमु पुण अभीइंमि य एकोविन कीरइ, ताणि पुण एयाणि सयभिसया भरणीओ भदा अस्सेस साइ जेहा य । एए छ नक्सत्ता पनरसमुदत्तसंजोगा ॥ ४५ ॥ कुसपडिमत्ति दारं गर्य, इयाणि पाणयंति दारं मुत्तस्थतदुभयविक पुरको घेतूण पाणय कुसे य । गच्छद य जादो परिङयेऊण आवमणं ॥ ४६॥ इमाए वक्खाणं-आगमविहिष्णू मत्तएण सम असंसठ्ठपाणयं कुसा य समच्छेया अवरोप्परमसंबद्धा हत्थचउरंगुलप्प-13 माणा घेत्तुं पुरओ (पिट्टओ) अणवयक्खंतो गच्छइथंडिलाभिमुहो जेण पुर्व थंडिल्लं दिई, दन्भासइ केसराणि चुणाणि वा घिपति, जइ सागारियं तो परिवेत्ता हत्थपाए सोएंति य आयमंति य जेहिं बूढो, आयमणग्गहणेणं जहा जहा उड्डाहो| न होइ तहा तहा सूयणति गाथार्थः ॥ ॥ इयाणिं नियत्तणित्ति दारं चंदिलवाषाएणं भवावि अणिच्छिए अणाभोगा । भमिऊण वागळे तेणेब पहेण न नियते ॥ १७ ॥ ___एवं निजमाणे थंडिलस्स वाघाएण, वाघाओ पुण तं उदयहरियसंमीसं होज्जा अणाभोगेण वा अनिच्छिय थंडिलं तो| पबदामुद्दतिकेषु पुनरभिजिति चैकोऽपि न कियते, तानि पुनरेतानि । कुशप्रतिमेति द्वारं गतं, इवानों पानीयमिति द्वारं, अस्या व्याख्यानभागमविधिशो मात्रकेण समम संखएपानीयं कृशाश्व समच्छेदान् परस्परमसंवद्वान् हस्तचतुरनुलप्रमाणान् गृहीत्या पुरतः पृष्ठतोऽपश्यन् गच्छति स्पण्टिका णानि या गृशम्ते, यदि सागारिक सदा परिहाय हस्तपादयोः शौर्यन्ति आचामन्ति च वैयूँटा, आचमनग्रहणेन यथा यथोट्टाहो न भवति तया सूचनामिति । इदानी निवर्जनमिति द्वारं, एवं नीयमाने स्थण्डिलस्य व्याघातेन, व्याघातः पुनस्तत् उवकहरितसंमिदं भवेत् अनाभोगेन वाऽनिष्ट स्थापिटलं तदा दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1272 ~ Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६३५॥ ACTRE मिऊण पयाहिणं अकरेंतेहिं उवागच्छियब, जइ तेणेव मग्गेण नियत्तंति तो असमायारी, कयाइ उडेजा, सो य जओ ४ प्रतिक्रमचव रहेइ तओ चेव पहावेइ, पच्छा जो चेव उठेइ तओ चेव पहावेइ, जओ गामो तओ पहावेज्जा, तम्हा भमिऊण __णाध्य. जओ थंडिलं उवहारिय तत्थ गंतवं, न तेणेव पहेणं, नियत्तणित्ति दार अचित्तसंकुसमुही एगाए भोच्छिषणाइ एस्थ धाराए । संथारं संघरेजा सत्य समोर कायनी ॥१८॥ यतमनु व्याख्या-जाहे थंडिलं पमज्जियं भवई ताहे कुसमुट्ठीए एगाए अबोच्छिष्णाए धाराए संथारो संथरिजइ, सो य| व्यपारिक ४ सपथ समो कायबो, विसमंमि इमे दोसा विसमा जह दोज तणा अवारि माझे व हेहओ वापि । मरणं गेळपणे वा तिण्हपि । निहिसे तस्थ ॥१५॥ अपरि भावरियाणं मजो वसहाण हेडि भिक्खूर्ण । तिहंपि रक्रमणका सनस्थ समाज कायदा ॥५०॥ गाथाद्वयमपि पाठसिद्धं, जइ पुण तणा ण होज्जा तो इमो विही जत्थ य नस्थि तणाई शुष्णेहिं तस्य केनरेहिं ना । कामचोऽस्य कमारो देह तकार च बंधेजा ॥ ५॥ दीप अनुक्रम [२३] आस्वा प्रदक्षिणमकुर्वनिरूपागन्तव्यं, यदि तेनैव मार्गेण निवर्तन्ते तदाऽसामाचारी, कदाचिदुतिछेत्, सच यौनोत्तित् तत एवं प्रधावति, | पश्चायत एवं उत्तिष्ठति तत एवं प्रधावति, यतो प्रामस्लत एवं प्रधावेत, तस्मात् प्रामथा यत्र स्थाण्डिलमवधारितं तत्र गन्तव्यं, न तेनैव पधा, निवर्सनेति द्वार । बदा स्वधिक प्रमाणितं भवति तदा कुशमुश्कयाअयुक्छिनया धारया संस्तारकः संस्तीर्यते, सच सर्वत्र समः कर्मयः, विषमे इमे पोषाः । यदि पुनस्तृणानि न भवेयुलदैव विधिः ॥६३५॥ SS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1273~ Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-जस्थ तणा न विजंति तत्थ चुण्णेहिं नागकेसरेहिं वा अबोच्छिन्नाए धाराए ककारो काययो हेवा य तकारो। बंधेययो, असइ चुण्णाणं केसराणं वा पलेवयाईहिंवि किरइ । तणत्ति दारं गयं, इयाणिं सीसत्ति दारं, तत्थ जाए दिखाएँ गामो तत्तो सीस तु होह कायन । उद्धेतरक्खणहा एस विही से समासेणे ॥ ५२ ॥ इमीए वक्खाणं-जाए दिसाए गामो परिहविजतस्स तओ सीसं कायब, पडिस्सयाओऽवि णीणंतेहिं पुर्व पाया णीणेयवा पच्छा सीसं, किंनिमित्तं-?, 'उहेंतरक्खणडा' जओ उडेइ तओ चेव गच्छइ सपडिहुत्ते गच्छंते अमंगलंतिकट्ठ । सीसत्ति दारं, इयाणि उवगरणेत्ति दारं विडा अवगरण दोसा स भवे अधिधकरणमि । मिच्छच सो व राया व कुणा गामाग बहकरणं ॥ ५३॥ इमीए वक्खाणं-परिहाविजते अहाजायमुवगरणं ठवेयवं-मुहपोतिया रयहरणं चोलपट्टओ य, जई एवं न ठवेंति | असमाचारी आणाविराहणा, तत्थ दिवे जणेण दंडिओ सोचा कुविओ कोवि उदविओत्ति गामवहणं करेज मिच्छत्तं [सू.] दीप अनुक्रम [२३] CERRC यत्र तृणानि न विद्यन्ते तत्र चूर्णेनोगकेशौर्वाऽव्युश्छिन्नया धारया ककारः कर्तव्यः अधस्ताच तकारो बन्यः, असरसु चूर्णेषु के शरेषु वा प्रलेपादिभिरपि क्रियते । तृणानीति द्वारं गतं, इदानीं शीर्षमिति द्वार, सन-अस्या व्याख्यानं यस्यां दिशि प्रामः परिष्ठापयतस्तस्त्रां शीर्ष कम्य, प्रतिश्रयादपि नीयमानः पूर्व पादी निष्कापावितम्यौ पश्चाच्छी, किनिमिर्च !, अत्तिछतो रक्षार्थ, यत उत्तिष्ठति तत एवं गच्छति समविपक्षे (परावृत्य ) गच्छत्व मालमितिकृत्वा । शीर्ष मिति द्वारं, इदानीमुपकरणमिति प्रारं, भस्था व्यासपानं-परिवाषमाने यथाजातमुपकरणं स्थावं मुखपत्रिका रजोहरणं चोलपटकन, योन स्थापभावन्ति असामाचारी आज्ञाविराधना, तत्र दृष्टे जनेन दद्धिकः श्रुत्वा कुपितः कोऽध्युपत्रावित इति नामवधं कुर्यात मिवावं 56 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1274~ Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०५...], (४०) - - हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥३६॥ CANCERTA [सू.] वा गच्छेजा, जहा उजेणयस्स तपणियलिंगेणं कालगयरस मिच्छत्तं जायं तपणियपरिसेवणाए , पच्छा आयरिएहिं प्रतिक्रम|पडिबोहिओ, जस्स वा गामस्स सगासे परिविओ सो गामो कालेण पडिवहरं दवाविजइ दंडिएण, एए दोसा जम्हा | णाध्य अचिन्धकरणे । खबगरणेत्ति दारं गये, इयाणि उहाणेत्ति दारं, तत्थ गाहाओ अचित्तसंवसहि निवेसण साही गाममझे व गामदारे य । अंतरजवाशंतर निसी हिया वहिए बोच्छ ॥ ५४॥ वसहि निवेसणसाही गामदं व गाम मोत्तहो । मंडलकंदुरेसे निसीरिया घेव रज तु ॥ ५५ ॥ इमीणं वक्खाणं-कलेवरं नीणेजमाणं वसहीए चेव उठेइ वसही मोत्तवा, निवेसणे उद्देइ निवेसणं मोत्तर्ष, निवेसणंति एगद्दारं वइपरिक्खित्तं अणेगघरं फलिहियं, साहीए उठेइ साही मोत्तबा, साही घराण पंती, गाममझे उढेइ गामद्धं मोत्त, गामदारे उद्देइ गामो मोत्तबो, गामस्स उज्जाणस्स य अंतरा उहेइ मंडलं मोतवं, मंडलंति विसयमंडलं, उजाणे | उद्देइ कंड मोत्तवं, कंडंति देसखंड मंडलाओ महल्लतरं भण्णइ, उज्जाणस्स य निसीहियाए य अंतरा उद्देइ देसो मोत्तबो, वा गच्छत् , यथोजयिनीकस्य तवष्णिक (तर्णिक) लिलेन कागतख मिश्यावं जातं तच्चनिकपरिषेवणया, पञ्चावाचायः प्रतिबोधितः, यस्य वा | ग्रामस्य सकाशे परिछापितः स प्रामः कालेन प्रतिवैरं दाप्यते दण्डिकेन, एते दोषा यस्मादचिहकरणे। पकरणमिति द्वारं गतं, इदानीमुस्थानमिति द्वार, दातन्त्र गाथे-अनयोपांख्यानं कलेचरं निष्काश्यमानं बसताचेवोत्तिपति वसतिक्किथा, निवेशने उत्तिष्ठति निवेशनं मोक्तन्यं निवेशनमिति एकद्वारा वृतिपरिक्षिप्ताउनेकगृह फलहिका, पाटके इतिहति पाटको मोकव्यः, पाटको (शाखा) गृहाणां पक्किम, ग्राममध्ये उत्तिष्ठति मामा मोक्तवर्ष, ग्रामद्वारे उत्ति-15 [इति प्रामो मोक्तम्या, मामखोचानख चान्तरोसिष्ठति मण्डल मोकप, मण्डलमिति विषयमण्डलं (देशख लघुतमो विभागा), ज्याने प्रतिष्ठति कापलं सा(लघुतरो भाग!) मोक्तार्थ, काममिति देशाखण्ड मण्डलावृहत्तर भण्यते, उद्यानस्य नैषेधियावान्तरोत्तिष्ठति देशो (पु) मोक्तव्या. दीप अनुक्रम [२३] RXX ॥६६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1275~ Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] निसीहियाए उदइ रज मोत्तवं, एवं ता निजतस्स विही, तमि परिछविए गीयत्था एगपासं मुहुत्तं संविक्खंति, कयावि | परिद्वविओवि उडेज्जा, तत्थ निसीहियाए जइ उठेइ तत्थेव पडिओ उवस्सओ मोत्तबो, निसीहियाए उजाणस्स य अंतरा जइ पडइ निवेसणं मोत्तवं, उज्जाणे पडद साही मोत्तवा, उजाणस्स गामस्स य अंतरा जइ पडइ गामद्धं मोत्सवं, गामदारे पडइ गामो मोत्तवो, गाममझे पडद मंडलं मोत्तवं, साहीए पडइ कंडो मोत्तयो, निवेसणे पडद देसो मोत्तबो, बसहीए पडइ रज मोत्तवं, तथा चाह भाष्यकार:वचंते जो उ कमो कलेवर पवेसणंमि वोचत्यो । णवरं पुण णाणत्तं गामदारंमि बोव्वं ॥२०६॥ (भा०)॥ अत्र विपर्यस्तक्रमेऽङ्गीकृते तुल्यतैव नानात्वं, तथा च निर्गमनेऽपि ग्रामद्वारोत्थाने ग्रामपरित्याग उक्तः, इहापि स | एवेति तुल्यता, निजूढो जइ बिइयं वारं एत्ति दो रजाणि मोत्तवाणि, तइयाए तिणि रज्जाणि, तेण परं बहुसोऽवि वारे | पविसते तिष्णि चेव रजाणि मोत्तवाणि असिवाइकारणेहि सत्य वसंताण जस जो उ तवो । अभिगहियाणभिगहिमओ सा तस्स उ जोगपरिखुट्टी ॥ ५६ ॥ धिक्यामुनिष्ठति राज्य मोक्तव्यं, एवं तावत् नीयमाने विधिः, तस्मिन् परिष्ठापिते गीतार्धा एकपा मुहू प्रतीक्षन्ते, कदाचित् परिष्ठापितोऽप्युत्तिCछन्, तन भैपेधिक्यामुत्तियति यदि सत्रैव पतित उपाश्रयो मोक्तव्यः, नषेधिस्या उद्यानस्य चान्तरा यदि पतति निवेशनं मोकव्यं, उद्याने पतति शाखा पाटको) मोकव्याः, उद्यानख ग्रामस्स चान्तरा यदि पतति यामाधैं मोक्तव्यं, ग्रामद्वारे पतति मामो मो कम्यः, प्राममध्ये पतति मण्डल मोक्तव्यं, शासनायो | पतनि कापडं मोक्तव्यं, निवेशने पतति देशो मोक्तव्यः, वसती पतति राज्यं भोक्तव्यं । नियूदो यदि द्वितीयमपि वारमायाति के राज्ये मोकव्ये तृतीयस्यो प्रीणि राज्यानि, ततः परं बहुशोऽपि वारा प्रविशति त्रीण्येच राज्यानि मोक्तव्यानि. दीप अनुक्रम [२३] REACH मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1276~ Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-* | ईमीए बक्खाणं-जइ पहिया असिवाईहिं कारणेहिं न निग्गच्छति ताहे तत्व वसंता जोगबुष्टुिं करेंति, नमोकारइत्ता प्रतिक्रहारिभ- पोरिसिं करेंति, पोरिसित्ता पुरिमहूं, सइ सामत्थे आयंबिलं पारेइ, असइ निवीयं, असमत्थो जइ तो एक्कासणयं, एवं | |मणा० द्रीया | सबिइयं, पुरिमहतित्ता चउत्थं, चउत्थाइत्ता छई, एवं विभासा । उहाणेत्ति गयं, इयाणिं णामगहणेत्ति दारं परिष्ठापपिण्डद णार्म एगस्स दोण्हमहवापि होज मधेसि । विप्पं तु लोयकरणं परिष्णगणभेषवारसम ॥ ५ ॥ ॥६३७॥ नासमितिः इमीए वक्खाणं-जावइयाणं णामं गेहद तावझ्याणं खिप्पं लोयकरणं 'परिण'ति बारसमं च दिजइ, अतरंतस्स दसम | अहम छ चउत्थाइ बा, गणभेओ य कीरइ, ते गणाओ य णिन्ति । णामग्गहणेत्ति दारं गयं, इयाणि पयाहिणेत्ति दारं जो जहियं सो तसो नियत्तइ पवाहिणं न कायचं । वडाणाई दोसा बिराहणा बालबुद्राई ॥ ५ ॥ इमीए वक्खाणं-परिवेत्ता जो जओ सो तओ चेव नियत्तति, पयाहिणं न करेइ, जइ करिति उठेइ विराहणा बालघुडाईणं, जओ सो जदहिमुहो ठविओ तओ चेव धावइ । पयाहिणेत्ति पयं गयं, इयाणिं काउस्सग्गकरणेत्ति दारं गाहा असा ग्यास्थान-पदि बहिरशिवादिभिः कारण निर्गपछन्ति तवा तत्रैव वसन्तो योगविं कुर्वन्ति, नमस्कारीयाः पौरुषर्षी कुर्वन्ति, पौरुषीथाः पुरि-IN |माध, सति सामर्थे आचामान्ल पारयति, मसति निर्विकृतिक, समर्थों यदि तदैकाशमक, एवं साहितीय, पूर्वा यातुध, चतुर्थीयाः षष्ठ, एवं विभाषा।। ॥६३७॥ उस्थाममिति गतं, इदानीं नामग्रहणमिति द्वार, अम्या व्याख्यान-धावतां नाम गृहाति तावतां क्षिप्रं लोचकरण परिज्ञा' मिति द्वादशमन दीयते, अशक्यतो | दशमोऽष्टमः षष्ठः चतुर्थादिर्वा, गणभेदन क्रियते, ते गणाच नियोन्ति । नामप्रहणमिति द्वारं गतं, इदानी प्रदक्षिणेतिद्वार-अस्था व्याख्यान-परिहाय यो यत्र सतत एव निवर्तते प्रदक्षिणां न करोति, यदि कुर्धन्युखिष्ट्रति निराधना बालवृद्धादीनां, यतः स यदभिमुखः स्थापितमात एवं धावति । प्रदक्षिणेति पदं गतं, इवानी कायोत्सर्गकरणमिति द्वार गाथा. दीप अनुक्रम [२३] SCREENCHARACCC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1277~ Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] गहाणाई दोसा व होति तस्येव कासगंमि । आगम्मुवस्सयं गुस्सगासे विही परसम्मो ॥ ५९॥ इमीए वक्खाणं-कोइ भणेजा-तत्थेव किमिति काउस्सग्गो न कीरइ?, भण्णंति-उठाणाई दोसा हवंति, तओ आगम्म ६ |चेइहरं गच्छंति, चेइयाई वंदित्ता संतिनिमित्तं अजियसतित्थयं पढ़ति, तिण्णि वा थुइओ परिहायमाणाओ कहिजति, तओ आगंतु आयरियसगासे अविहिपारिद्वावणियाए काउस्सग्गो कीरइ, पतावान् वृद्धसम्प्रदायः, आयरणा पुण ओमच्छगरयहरणेण गमणागमणं किर आलोइज्जइ, तओ जाव इरिया पडिकमिजइ तओ चेइयाई बंदित्तेत्यादि सिवे विही, असिवे न कीरइ, जो पडिस्सए अच्छा सो उच्चारपासवणखेलमत्तगे विगिंचइ वसहिं पमजइत्ति काउस्सग्गदारं गयं इयाणिं खमणासज्झायस्स दारा भण्णंति मणे व असहाय राहणिय महाणिणाय निवगा था। सेसेसु माथि प्रमण नेव असाहय हो ॥ ६॥ व्याख्या-क्षपणं अस्वाध्यायश्च जइ 'राइणिओं'त्ति आयरिओत्ति 'महाणिणाओ'त्ति महाजणणाओ नियगा वा SEARCH दीप अनुक्रम [२३] १ अस्या पास्थानं कवि भणेन्-तत्रैव किमिति कायोत्सगों न कियते ?, भन्यते-उत्थानादयो दोषा भवन्ति, तत आगम्य चैत्यगृहं गच्छन्ति, चैत्यानि पन्दित्या शान्तिनिमित्तमजितशान्तिसवं पठन्ति, तिसो पा स्तुतीः परिहीयमानाः कथयन्ति, तत आगाचार्यसकाशेऽविधिपरिष्ठापनित्य कायोत्सर्गः फियते। आचरणा पुनरुन्मतकरजोहरणेन गमनागमनं किलाकोच्यते, ततो यावदीयाँ प्रतिक्रम्यते सतीत्यानि पन्दिस्वेत्यादि शिवे विधिः, अशिये न फियते, यः प्रतिअये तिपति स उच्चारप्रश्रवणक्षेममात्रकाणि शोधयति वसति प्रमाणपति इति कायोत्सर्गद्वार गतं, इदानी सपणास्वाध्याययोरि भण्येते-यदि रातिक इति भाचार्य इति महानिनाद इति महाजनज्ञातो निजका वा. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1278~ Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यकहारिभ द्वीया ॥६३८|| आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], सण्णीयगा वा से अस्थि, तेसिं अधितित्ति कीरइ, 'सेसेसु नत्थि खमणं' सेसेसु साहुसु न कीरइ खमणं, णेव असझाइयं होइ, सज्झाओवि कीरइन्ति भणियं, एवं ताव सिबे, असिवे खमणं नत्थि जोगबुडी कीरइ, काउस्सग्गो अविह्निविचिणियाए ण कीरइ, पडिस्सए मुहुत्तयं संचिक्खाविज्जइ जाव उवउत्तो तत्थ अहाजायं न कीरइ, तत्थ जेण संधारण णीणिओ सो विकरणो कीरइ, जइ न करेंति असमाचारी पवडइ, अहिगरणं आणेज्ज वा देवया पंता तम्हा विकरणो कायदो, खमणासज्झाइगदारा गया, अवलोयणेत्ति दारं अवरजयस्स रातो सुतव्थविसार िधिरएहिं । अवलोयण काया सुहासुहगइनिमिता ॥ ६१ ॥ जं दिसि विडियंस सरीश्यं अक्तुयं तु संविक्ले । तं दिसि सिवं वयंती सुतत्थविसारया धीरा ॥ ६२ ॥ एएसिं वक्खाणं- 'अवरुज्ज ( रज्ज) यस्स 'त्ति बिइयदिणंमि अवलोयणं च काय, सुहासुहजाणणत्थं गइजाणणत्थं च, पुण कस्स घेप्पइ ?-आयरियस्स महिडियस्स भत्तपच्चक्वाइयरस अण्णो वा जो महातवस्सी, जं दिसं तं सरीरं कहिये तं तं १] सज्ञातीया वा तख सन्ति तेषामतिरिति क्रियते, 'शेषेषु नास्ति झपणं' शेपेसु साधुषु न क्रियते क्षपणं नैवास्वाध्याविकं भवति, स्वाध्यावोऽपि क्रियते इति भणितं एवं तावत् शिवे, अशिवे क्षणं नाति योगवृद्धिः क्रियते, कायोत्ऽविधिपारिष्ठापनि न क्रियते, प्रतिश्रये मुहूर्त्त प्रतीक्ष्यते यावदुपयुक्तः, तत्र यथाजात न क्रियते, तत्र येन संस्तारकेण निष्काशितः सोऽविकल्प्यः क्रियते, यदि न कुर्वन्ति असामाचारी प्रवर्धते अधिकरणमानयेद्वा देवता प्रान्ता, सम्माकिरणः कर्त्तव्यः क्षपणाखाध्यायद्वारे गते, अवलोकनमिति द्वारे एतयोर्व्याख्यानं द्वितीय दिनेऽवलोकतं च कर्त्तव्यं शुभाशुभज्ञानार्थं गतिज्ञानार्थं च तत् पुनः कख गृह्यते ?, आचार्यस्य महर्षिकस्य प्रत्याख्यातमस्य भन्यो वा यो महातपस्त्री, यस्यां दिशि तच्छरीरकं कृष्टं ४ प्रतिक्र मणा० परिष्ठापनासमितिः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1279 ~ ||६३८ ॥ Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) *SA- प्रत सूत्रांक [सू.] कर दिसं सुभिक्खं सुहविहारं च वदंति, अह तत्व संविक्खियं अक्खुर्य ताहे तमि देसे सिर्व सुभिक्खं सुहविहारं च भवइ, जइदिवसे अच्छइ तइवरिसाणि सुभिक्खं, एयं सुहासुह, इयाणि ववहारओ गई भणार्मि एस्थ व धतकरणे विमाणिको जोइसिओ वाणभंतर समंमि । गट्टाए भवणवासी एस गई से समासेण ॥ ५३॥ निगदसिद्धेय, व्याख्यातं द्वारगाथाद्वयं, साम्प्रतं तस्मिन्नेव द्वारगाथाद्वितये यो विधिरुक्तः स सर्वः क कर्तव्यःक वा न कर्तव्य इति प्रतिपादयन्नाह एसा व विही सच्चा कापमा सिमि जो जहि वसइ । असिवे खमण विवली फारसा प वजेजा ॥ १४ ॥ व्याख्या-एसेति अर्णतरवक्खायविही मेरा सीमा आयरणा इति एगहा, 'कायदा' करेयवा तुशब्दोऽवधारणे ववहियसंबंधओ कायवो एवं, कमि ? "सिर्वमित्ति प्रान्तदेवताकृतोपसर्गवर्जिते काले 'जो' साहू 'जहिं खेत्ते वसइ, असिवे | कह ? असिवे खमणं विवज्जइ, किं पुण, जोगवियही कीरइ, 'काउस्सग्गं च बजेजा' काउस्सग्गो पन कीरइ ।। साम्प्रतमुक्तार्थोपसंहारार्थ गाथामाह एसो दिसाविभागो नायबो दुविहदवहरणं च । गोसिरणं अवलोषण सुहासुहगई विसेसो थ ॥१५॥ तस्यां दिशि मुभिक्षं मुखविहारच वदन्ति, यदि तच तत् कृष्टं अक्षुपणं तदा तस्मिन् देशे विशवं सुभिक्षं सुख विहारश्च भवति, यतिदिवसान् तिष्ठति ततिवर्षाणि सुभिक्षं, एतत् शुभाशुभ, इवानी व्यवहारतो गतिं भजामि-अनन्तरो व्याख्यातविधिः मर्यादा सीमा आचरणेपेकार्थाः, कर्तव्या, व्यवहितः संबन्धः कर्तव्य एन, कस्मिन् ?,-पः साधुर्यत्र क्षेत्रे वसति, अशिवे कथं ?-अशिवे क्षपणं विकायते, किंपुनः, योगविवृद्धिः क्रियते, 'कायोत्सर्ग च चर्जयेत्' कायोतत्सर्गश्च न क्रियते। दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1280 ~ Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- व्याख्या-'एसो' इति अणंतरदारगाहादुयस्सऽत्यो कि ?-'दिसाविभागो णायवों दिसिविभागो नाम अचित्तसंज-18|४प्रतिकहारिभजयपरिहायणियविहिं पइ दिसिप्पदरिसणं संखेवेण दिसिपडिबजावणंति भणिय होइ, अहवा दिसिविभागो मूलदारगहणं, मणा द्रीया परिष्ठाप| सेसदारोवलक्षणं चेयं दहवं, अचित्तसंजयपारिद्वावणियं पइ एसो दारविवेओ णायबोत्ति भणियं होइ, 'दुविहदवहरणं नासमितिः ॥६३९॥ चे'ति दुधिहदयं णाम पुवकालगहियं कुसाइ णायचमिति अणुवहए, 'वोसिरण ति संजयसरीरस्स परिवर्ण 'अवलोयणं विझ्यदिणे निरिक्खणंति 'सुहासुहगइविसेसो यति सुहासुहगतिविससो वंतराइसु उववायभेया यत्ति भणियं होइ, एसा अचित्तसंजयपारिहापणिया भणिया, इयाणिं असंजयमणुस्साणं भण्णइ, तत्थ गाहा भरसंजयमणुएहि जा सा दुविधा व आणुपुरीए । सचित्तेहिं सुविहिया ! अश्चित्तेहिं च नाया ॥ ५५॥ इयं निगदसिद्धव, तत्थ सचित्तेहिं भण्णइ, कहं पुण तीए संभवोत्ति , आह कपडगरूयस्सर बोसिरणं संजयाण बसहीए । उदयपद बहुसमागम विपजाहालोषण कुजा ॥६॥ दीप अनुक्रम [२३] ॥६३९॥ अनन्तरगाधाद्विकस्वार्थः, कि, 'दिविभागो ज्ञातम्या' दिग्विभागो नामाचित्तसंयतपारितापनिकी विधि प्रति दिकपदर्शनं संक्षेपेण विषयतिपाद नमिति भणितं भवति, अथवा दिग्विभाग इति मूलद्वारप्रह, शेषद्वारोपलक्षणं पैतत् द्रष्टव्य, अचित्तसंयतपारिष्ठापनिकी प्रति एष द्वारविवेको ज्ञातव्य इति भनितं भवति, द्विविधद्रव्यहरणं चेति द्विविधान्यं नाम पूर्वकालगृहीतं कुशादि ज्ञातव्यमिति अनुवर्तते, प्युसर्जनमिति संयतपारीरस्य परिकापन, भवVलोकनं द्वितीय दिवसे निरीक्षणमिति शुभाशुभगतिविशेषो व्यन्तरादिपूपपातमेदाश्चेति भणितं भवति । एषाऽपितसंपतपारिकापनिकी भणिता, बदामीम संयत मनुष्याणां भव्यते, तन्त्र गाधा-तन्त्र सचिमण्यते, कथं पुनस्तस्याः संभव इति !, भाह. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1281~ Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], व्याख्या - काइ अविरइया संजयाण वसहीए कप्पट्ठगरुवं साहरेजा, सा तिहिं कारणेहिं हुन्भेजा, किं ? -एएसिं उड्डाहो भवउत्ति छुहेजा पडिणीययाए, काइ साहम्मिणी लिंगरथी एएहिं मम लिंग हरियंति एएण पडिणिवेसेण कप्पट्टगरुवं पडियस्सयसमीधे साहरेजा, अहवा चरिया तवणिगिणी बोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ तओ संजओवस्सगसमीवे ठवेज्जा एएसिं उड्डाहो होउत्ति, अणुकंपाए काइ दुकाले दारयरूवं छडिउंकामा चिंतेइ एए भगवंतो सतहियाए उबडिया, एतेसिं वसहीए साहरामि, एए सिं भत्तं पाणं वा दाहिंति, अहवा कहिंबि सेज्जायरेसु वा इयरघरेसु वा छुभिस्संति, अओ साहुवस्सए परिवेजा, भएण काइ य रंडा पडत्थवइया साहरेजा, एए अणुकंपिइहिंति, तत्थ का विही ?-दिवसे २ वसही वसहेहिं चत्तारि वारा परियंचियचा, पशुसे पओसे अधरण्हे अङ्कुरते, मा मा एए दोसा होहिंति, जइ विगिंचती दिट्ठा ताहे बोलो कीरइ एसा इत्थिया दारयरुवं छड्डेऊण पलाया, ताहे लोगो एइ पेच्छइ य तं 3] काचिदविरतिका संयतानां वसतौ पश्यरूपं संहरेत् सा त्रिभिः कारणैः क्षिपेत् किं १ एतेषाहो भवत्विति क्षिपेत् प्रत्यनीकृतथा काचित् साधर्मिणी विज्ञार्थिनी एतैर्मम लिनं हतमिति एतेन प्रतिनिवेदन कल्पकस्थकरूपं प्रतिभ्रयसमीपे संहरेत्, अथवा घरिका तद्वर्णिकी ब्राह्मणी प्राभुतिका वाऽस्माकमयशो मा भूत्ततः संयतोपायसमीपे स्थापयेत् एतेषां उादो भवत्विति, अनुकम्पया काचिदुष्काले दारकरूपं त्यक्तुकामा चिन्तयति ते भगवन्तः सावहितार्थायोपस्थिताः एतेषां बसती संहरामि एतेऽमै भक्तं पानं या दास्यन्ति, अथवा कुत्रचित् शय्यातरेषु वा इतरगृहेषु वा निक्षेप्स्यन्ति, अतः साधूपाश्रये परिस्थापयेत् भवेन काचिच रण्डा प्रोषितपतिका संहरेत् एतेऽनुकम्पविष्यन्ति तत्र को विधिः?, दिवसे दिवसे वसतिषतुः कृत्यः पर्येतस्या- प्रत्यूषसि प्रदोपे अपराह्न अर्धरात्रे मा मा एते दोषा भूवन् यदि त्यजन्ती दृष्टा तदा वः क्रियते एषा श्री दारकरूपं त्वत्तचा पाविता, तदा छोक पुति पृच्छति चतां. 3 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1282 ~ Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रतिक्रमणा० परिठापनासमितिः प्रत सूत्रांक ॥६४०॥ [सू.] तोहे सो लोगो जं जाणउ तं करेउ, अह न दिहा ताहे विगिंचिजइ, उदयपहे जणो वा जत्थ पएसे पए निग्गओ अच्छा तस्थ ठवेसा पडिचरइ अण्णओमुहो जहा लोगो न जाणइ जहा किंचि पडिक्खंतो अच्छइ, जहा तं सुणएण कारण वा मज्जारेण वा न मारिजइ, जाहे केणइ दिई ताहे सो ओसरह । सचित्तासंजयमणुयपरिडावणिया गया, इयाणिं अचि|त्तासंजयमणुयपरिहावणिया भण्णइ पक्षिणीयसरीरहणे वणीमगाईसु होइ अचिता । तोचेक्खकालकरणं विष्पजहविर्गिचर्ण कुजा ॥ १८ ॥ । व्याख्या-पडिणीओ कोइ वणीमगसरीरं छुहेज जहा एएसिं उड्डाहो भवउत्ति, वणीमगो या तरथ गंतृण मओ, केणइ वा मारेऊण एत्थ निदोसति छडिओ, अविरदयाए मणुस्सेण वा उक्कलंबियं होजा, तत्थ तहेव बोल करेंति, लोगस्स कहिज्जइ, एसो पाहोत्ति, उकलंबिए निविण्णेण वारेताणं रडताणं मारिओ अप्पा होजा ताहे दिवेण कालक्खेवो कायचो, पडिलेहिऊण जइ कोइ नस्थि ताहे जत्थ कस्सइ निवेसणं न होइ तत्थ विगिंचिजइ उपेक्खेज वा, पओसो वइ संचरइ तदास लोको यमानानु सस्करोतु, अथ न दृष्टा तदा त्यज्यते, उदकपधे जमो था पत्र प्रवेशे प्रगे निर्गतस्तिति तत्र स्थापयित्वा प्रतिचरति अन्यतोमुखो यथा लोको न जानाति यथा किजित् प्रतीक्षमाणस्तिष्टति, यथा तत् शुना काकेन वा मानारेण वाम मार्पते, यदा केनचिदृष्टं तदा सोऽपसरति । सचित्तासंयतमनुष्यपरिठापना गता, इदानीमचिसासंयतमनुजपरिष्ठापना भव्यते-प्रत्वनीकः कश्चित् बनीपकशरीरं क्षिपेत् पतेषामहारो भवविति, वनीपको वा तवागत्य मृता, केनचिट्ठा मारयित्वानिदोषमिति स्यक्ता, अविरतिकया मनुष्येण वोजचं भवेत् तत्र तथैव पं कुर्वन्ति, लोकाय कथ्यते-एष नष्ट इति, अब निविष्णेन वारयत्सु रटासुमारित आस्मा भवेत् तदा रटेन काल-क्षेपः कवयः, प्रतिलिस्य यदि कोऽपि नासिवरा यत्र कस्यचिनिवेशनं न भवति तत्र त्यज्यते उपेक्ष्यते वा, प्रदोषो वर्त्तते संचरति दीप अनुक्रम [२३] ECOROSCORRECE ॥६४०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1283~ Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] लोगो ताहे निस्संचरे विवेगो जहा एत्थ आएसे ण उवेक्खेयवो ताहे चेव विगिंचिजइ अइपहाए संचिक्खावेत्ता अप्पसागारिए विगिंचिजइ, जइ नत्थि कोइ पडियरइ, अह कोइ पडियरइ तस्सेव उवरि छुम्भइ, एवं विष्पजहणा, विगिचणा णामं जं तत्थ तस्स भंडोवगरणं तस्स विवेगो, जइ रुहिरं ताहे न छड्डेजइ, एकहा वा विहा वा मग्गो नजिहित्ति, ताहे || बोलकरणविभासा । अचित्तासंजयमणुयपारिद्वावणिया गया, इयाणिं णोमणुयपारिठावणिया भण्णइ- . जोमणएहिं जा सा तिरिएहि सा प होइ दुविहा उ । सचित्तेहि सुधिहिया ! अधिरोहिं च गायचा ॥ ५५॥ र निगदसिद्धा, दुविहंपि एगगाहाए भषणइ चावलोषगमाईहिं जलचरमाईण होइ सचित्ता । जलथलबहकालगए अचिसे विगिंधर्ण कुजा ॥ ७० ॥ 18 इमीए वक्खाणं-णोमणुस्सा २ सचित्ता अचित्ता य, सचित्ता चाउलोदयमाइसु, चाउलोदयगहणं जहा ओघनिजुत्तीए तत्थ निवुजुओ आसि मच्छओ मंडुक्कलिया वा, तं घेतूण थेवेण पाणिएण सह निजइ, पाणियमंडुक्को पाणिय ठी लोकः सदा निस्सञ्चारे विवेको यथाऽनादेशे नोपेक्षितम्यस्तदैव त्यज्यते अतिप्रमाते प्रतीक्षवापसागारिके त्यज्यते, यदि नाति कोऽपि प्रसिचरति, अथ | कोऽपि प्रतिवरति तस्यैवोपरि क्षिप्यते, एवं विग्रहानं, विवेको नाम यतन्त्र तख भाण्डोपकरणं तख खागा, यदि रविरं तदा न खज्यते, एकधा विधा वा मार्गों ज्ञास्यते इति, तदा बोलकरणविभाषा । अचिचासयतमनुजपारिष्ठापनिकी गता, इदानीं नोमनुजपारिठापनिकी भण्यते-द्विविधमप्येकगाथया मण्यने-अस्सा व्याख्यान-नोमनुष्या (विधा) सचिता अचित्ता च, सचित्ता तन्दुलोदकाविध, सन्दुलोदकग्रहणं यथा ओधनियुको तत्र द्धित मासीत् मत्स्यो मण्डूकिका वा, हां गृहीत्वा लोकेन पानी येन सह नीयते, पानीषमण्डूको जलं दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1284 ~ Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-दादण उद्वेइ, मच्छओ बला छुम्भइ, आइग्गहणेण संसहपाणएण वा गोरसकुंडए वा तेल्लभायणे वा एवं सच्चित्ता, अश्चित्तालाप्रतिकहारिभ- अणिमिसओ केणइ आणीओ पक्खिणा पडिणीएण वा, धलयरो उंदुरो घरकोइलो एवमाई, खहचरो हंसवायसमयूराई, मणा० द्रीया जत्थ सदोस तत्थ विवेगो अप्पसागारिए बोलकरणं वा, निद्दोसे जाहे रुच्चइ ताहे विगिंचइ । तसपाणपारिहावणिया परिष्ठाप नासमितिः ॥६४१॥ गया, इयाणि णोतसपाणपारिडावणिया भण्णइ गोतसपाणेहिं जा सा दुधिहा होइ आणुपुचीए । आहारंभि सुविहिना ! नाषक्षा नोमनाहारे ॥1॥ णोतस निगदसिद्धा, नवरं नोआहारो उवगरणाइ, तत्थ आहारमि उजा सा सा तु विहा होइ आणुपुत्रीए । जाया व मुबिहिया ! नायजा तह अजाया व ॥ २ ॥ 'आहारे' आहारविषये याऽसौ पारिस्थापनिका सा 'द्विविधा' द्विप्रकारा भवति 'आनुपूा परिपाच्या, द्वैविध्यं दर्शयति-'जाया चेव सुविहिया ! णायचा तह अजाया य तत्र दोषात् परित्यागार्हाहारविषया या सा जाता, ततश्च जाता दचिव 'सुविहिता' इत्यामन्त्रणं प्राग्वत् , ज्ञातव्या, तथाऽजाता च, तत्रातिरिक्तनिरवद्याहारपरित्यागविषयाऽजातोच्यत इति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ तत्र जातां स्वयमेव प्रतिपादयन्नाह ॥६४१॥ दीप अनुक्रम [२३] 256056455 ट्रोत्तिष्ठति, मत्स्यो क्लारिक्षप्यते, आदिमहणेन संपृष्टपानीवेन वा गोरसकुण्डे वा तैल भाजने वा एवं सचिसा, अचिता-अनिमेषः केनचिदानीतः ४ पक्षिणा प्रत्यनीकेन वा, स्वलचरो मूषको गृहकोकिला एवमादि, खेचरः हंसवायसमयूरादि, यत्र सदोषस्तत्र विवेकोऽल्पसागारिके रावकरण का, निषि यदा रोचति तदा स्वायते । बसमापपारिष्ठापनिकी गता, इदानी नोत्रसप्राणपारिष्ठापनिकी भण्यते. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1285~ Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) * % % प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२३] माहाको प तहा लोहविले आभिगोगिए गहिए । एएण होइ जाया वोच्छ से विहीऐं वोसिरणं ॥ ३॥ व्याख्या-आधाकर्म-प्रतीतं तस्मिन्नाधाकर्मणि च तथा 'लोहविसे आभिओगिए गहिए'त्ति लोभावहीते 'विसे'त्ति। विषकृते गृहीते 'आभिओगिए'त्ति वशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति कथश्चिन्मक्षिकाव्यापत्तिचेतोऽन्यथात्वादिलिअतश्च ज्ञाते सति 'एतेन' आधाकर्मादिना दोषेण भवति 'जाता' पारिस्थापनिका दोषात्परित्यागार्हाहारविषयेत्यर्थः, 'वोच्छं से विहीए वोसिरणं'ति वक्ष्येऽस्या विधिना-जिनोक्तेन ब्युत्सर्जन-परित्यागमित्यर्थः, ॥७३॥ एगंतमणादाए अहिले विहे गुरुवइहे । छारेण अकमित्ता निहाणं सावर्ण पुजा ॥ ४ ॥ व्याख्या-एकान्ते 'अनापाते' ख्याधापातरहिते 'अचेतने चेतनाविकले 'स्थाण्डिल्ये भूभागे 'गुरूपदिष्टे' गुरुणा व्याख्याते, अनेनाविधिज्ञेन परिस्थापनं न कार्यमिति दर्शयति, 'छारेण अक्कमित्ता' भस्मना सम्मिश्य 'तिहाणं सावणं कुजत्ति सामान्येन तिस्रो धाराः श्रावणं कुर्यात्-अमुकदोषदुष्टमिदं व्युत्सृजामि एवं, विशेषतस्तु विषकृताभियोगिकादेरेवापकारकस्यैष विधिः, न स्वाधाकर्मादेः, तद्गतं प्रसङ्गेनेहैव भणिष्याम इति गाथार्थः ॥ ७४ ॥ अजातपारिस्थापनिकी प्रतिपादयन्नाह भायरिए व गिलाणे पाहुणए दुहहे सहसलाहे । एसा खलु अजाया बोछे से विहीएँ पोखिरणं ॥ ७५ ॥ 8 व्याख्या-आचार्य सत्यधिक गृहीतं किञ्चिद्, एवं ग्लाने प्राघूर्णके दुर्लभे वा विशिष्टद्रव्ये सति सहसलाभे-विशिष्टस्य ४ दाकथशिलाभे सति अतिरिक्तग्रहणसम्भवः, तस्य च या पारिस्थापनिका एषा खलु 'अजाता' अदुष्टाधिकाहारपरित्यागवि पयेत्यर्थः, 'वोच्छं से विहीऍ बोसिरणं प्राग्वदिति गाथार्थः । ७५ ।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1286~ Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक्रमणा० परिष्ठापनासमितिः प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६४२॥ एप्तमणावाए अचित्ते पंडिले गुरुवइडे । आलोए तिषिय पुंजे तिहाण साधणं फुजा ॥ ६ ॥ व्याख्या-पूर्वार्द्ध प्राग्वत् 'आलोए'त्ति प्रकाशे त्रीन् पुञ्जान् कुर्यात् , अत एव मूलगुणदुष्टे त्वेकमुत्तरगुणदुष्टे तु द्वाविति प्रसङ्गः, तथा 'तिडाणं सावणं कुजत्ति पूर्ववदयं गाथार्थः ॥ ७६ ।। गताऽऽहारपारिस्थापनिका, अधुना नोआ- हारपारिस्थापनिका प्रतिपादयति जोनाहारंमी जा सा सा दुरिहा होइ आणुपुत्रीए । उपवरणमि सुविहिया ! नायचा नोपयगरणे ॥ ७ ॥ निगदसिद्धा, नवरं नोउपकरणं श्लेष्मादि गृह्यते, उपगरण मि जजा सा सा दुरिहा होइ आणुप्रचौए । जाया येव सुविहिया ! नायब तह अजाया य ॥ ७ ॥ निगदसिद्धैव, नवरमुपकरणं वस्त्रादि, आया व बायपाए का पाए व चीवर कुजा । अजायवस्थपाए वोचत्थे तुच्छपाए य॥1॥(प्र.)॥ व्याख्या-जाता च वस्त्रे पात्रे च वक्तव्या, चोदनाभिप्रायस्तावद्वखे मूलगुणादिदुष्टे वङ्कानि पात्रे च चीवरं कुर्यात्, अजाता च वक्तव्या-वखे पात्रे च 'वोचत्थे तुच्छपाए य' चोदनाभिप्रायो वस्त्रं विपर्यस्त-ऋजु स्थाप्यते पात्रं च ऋजु स्थाप्यत इति, सिद्धान्तं तु वक्ष्यामः, एष तावदू गाथार्थः॥ इयं चान्यकर्तृकी गाथा। दुखिहा जापमजाया अभियोगपिसे व सुखसुद्धा य । पुगं च दोणि तिणि य मूलत्तरमबजाणा ॥ ५ ॥ व्याख्या-द्विविधा जाताअजातापारिस्थापनिका-आभिओगिकी विषे च अशुद्धा शुद्धा च, तत्र शुद्धा अजाता भवि दीप अनुक्रम [२३] ॥६४२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1287~ Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२३] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], व्यति, अयं च प्राग्निर्दिष्टः सिद्धान्तः-'एगं च दोष्णि तिष्णि य मूलुत्तरसुद्धि जाणाहि' मूलगुणाऽसुद्धे एको ग्रन्थिः पात्रे च रेखा, उत्तरगुणासुद्धे द्वौ, शुद्धे त्रय इति गाथार्थः ॥ अवयवार्थस्तु गाथाद्वयस्याप्ययं सामाचार्यभिज्ञेगांत इति-वगरणे गोडबगरणे य, उवगरणे जाया अजाया य, जाया वत्थे पाए य, अजायावि वत्थे पत्ते य, जाया णाम वत्थपायं मूलगुणअसुद्धं उत्तरगुणअसुद्धं वा अभिओगेण वा विसेण था, जइ विसेण अभिओगियं वा वत्थं पायं वा खंडाखंडिं काऊण विगिंश्वियव, सावणा य तहेब, जाणि अइरिताणि वत्थपायाणि काठगए वा पडिभग्गे वा साहारणगहिए या जाएज एत्थ का विचिणविही ?, चोयओ भणइ-आभिओगविसाणं तहेव खंडाखंडिं काऊण त्रिचिणं मूलगुणअसुद्धवत्थस्स एकं वंकं कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धस्स दोण्णि वंकाणि, सुद्धं उज्जुयं विगिंचिज्जइ, पाए मूलगुणसुद्धे एगं चीरं दिजइ, उत्तरगुणअमुद्धे दोन्नि चीरखंडाणि पाए छुम्भंति, सुद्धं तुच्छं कीरइ रित्तयंति भणियं होइ, आयरिया भणंति एवं सुद्धपि असुद्धं कहं १, उज्जुयं ठवियं, एगेण वंकेण मूलगुणअसुद्धं जायं, दोहिं उत्तरगुणअसुद्धं, एकबंकं दुबंकं वा होज्जा दुर्वकं भवइ, १] उपकरणे नोडपकरणे च उपकरणे जाता जाता च, जाता व पात्रे च, अजाताऽपि बस्ने पात्रे च जाता नाम बत्रपार्थ मूख्गुणाशुदमुत्तरगुणाशुद्धं या अभियोगेन वा विषेण वा यदि विषेणाभियोगिकं वा व पात्रे या खण्डशः कृत्वा परिधापनीयं रेखान तथैव, यान्यतिरिकानि वखपात्राणि कालगते वा प्रतिभ या साधारणगृहीते वा याचेत, अत्र कः परिष्ठापनविधिः १-चोदको मणदि-आभियोगिक विषयोः तथैव खण्डशः कृत्वा विवेक: मूलगुणा एकं व क्रियते, उत्तरगुणाशुद्धस्य द्वे बफे, शुद्ध ते पात्रे मूलगुणामुळे एकं चीधरं दीयते, उत्तरगुणाशुद्धे द्वे चीवरखण्डे पात्रे क्षिप्येते, शुवं तुच्छं क्रियते रिकमिति भणितं भवति, आचार्या भणन्ति एवं शुद्धमध्यशुद्धं भवति कथं ?, कडकं स्थापितं एकेन वज्रेण मूलगुणाशुद्धं जातं द्वाभ्यामुतरगुणाशुद्धं एक द्विवकं वा भवेत् विर्क मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1288 ~ Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक प्रतिक्रपारिष्ठापनिकी प्रत सूत्रांक एकवक वा होजा, एवं मूलगुणे उत्तरगुणो होजा उत्तरगुणे वा मूलगुणो होजा, एवं चेव पाएवि होजा, एगं चीवरं निग्गय मूलगुणासुद्धं जायं, दोहिं विणिग्गएहिं सुद्धं जायं, जे य तेहिं वत्थपाएहिं परिभुजिएहिं दोसा तेसिं आवत्ती| | भवइ, तम्हा जं भणियं ते तं न जुत्तं, तओ कह दाई विगिंचियवं?, आयरिया भणंति-मूलगुणे असुद्धे वत्थे एगो गंठी कीरइ उत्तरगुणअसुद्धे दोपिण सुद्धे तिष्णि एवं वत्थे, पाए मूलगुणअसुद्धे अंतो अहए एगसण्डिया रेहा कीरइ, उत्तरगु असुद्धे दोषिण, सुद्धे तिणि रेहाओ, एवं णायं होइ, जाणएण कायवाणि, कहिं परिडवेययाणि ?-एगंतमणावाए सह पत्ताधरयत्नाणेण, असइ पडिलेहणियाए दोरेण मुहे बज्झइ, उद्धमुहाणि उविजंति, असइ ठाणस्स पासलियं उविजइ, जओ वा आगमो तओ पुष्फर्य कीरइ, एयाए विहीए विगिंचिजइ, जइ कोइ आगारो पावद तहावि बोसडाऽहिगरणा द्रीया ॥६४३॥ IE% R दीप अनुक्रम [२३] वैकवक भवेत् , एवं मूलगुण बन्चरगुणो भवेत् उत्तरगुणे वा मूलगुणो भवेत् , एवमेव पात्रेऽपि भवेत् , एक चीवर निर्गतं मूलगुणाशुई जातं, योविनिर्ग तबो शुदं जातं, ये च तेषु वसपात्रेषु परिभुम्यमानेषु दोषालेपामापत्तिभवति, तस्मात् यद् भणितं स्वया सन युक्त, ततः कथं दचा (चिर) विवेतम्या, भाचायो भणन्ति-मूलगुणाशुद्ध चक्षे एको प्रन्धिः क्रियते उत्तरगुणाशुद्धौ शुद्ध त्रयः एवं वने, पाने मूलगुणाशुद्ध अन्तरसले एका लक्षणा रेषा कियते उत्तरगुणाशुद्ध दे मुद्दे तिस्रो रेसाः, एवं ज्ञातं भवति, जानानेन कर्तव्यानिक परिष्ठापनीयानि !, एकान्तेऽनापाते सह पात्रवन्धरजस्त्राणाम्या, असत्या पात्रमतिलेख निकाया दवरकेण मुलं वध्यते, अर्ध्वमुखानि स्थाप्यन्ते, असति स्थाने पाचवर्ति स्थाप्यते, यतो वाऽऽगमनं ततः (तस्यां दिशि) पुष्पकं (छ) किषते, एतेन विधिना खज्यते, यदि कनिदपवादः प्राप्नोति तथापि व्युत्पधारः अधिकरणमाश्रित्य ६४॥ CROADCAST मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1289~ Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] सुद्धा साहुणो, जेहिं अण्णेहिं साहहिं गहियाणि जइ कारणे गहियाणि ताणि य सुद्धा जावजीवाए परिभुंजंति, मूलगुणउत्तरगुणेसु उप्पण्णे ते विगिंचइ, गतोपकरणपारिस्थापनिका, अधुना नोउपकरणपारिस्थापनिका प्रतिपाद्यते, आह च नोश्वगरणे जा साचाविदा होइ आणुपुरीए । उचारे पासपणे खेले सिंघाणए येव ॥ ८॥ व्याख्या-निगदसिद्धैव, विधि भणति बचारं कुरंतो कार्य तसपाणरक्षणहाए । कायदुवदिसाभिग्गहे य दो चेवऽभिगिण्हे ॥ १ ॥ पुर्वि तसपाणसमुहिएहि परवं तु होइ चाभंगो। पठमपर्य पसव्वं सेसानि उ अप्पसस्थाणि ॥ २॥ इमीणं वक्खाणं-जस्स गहणी संसज्जइ तेण छायाए बोसिरियवं, केरिसियाए छायाए ?-जोताव लोगस्स उवभोगरुक्खो तत्थ नवोसिरिजइ, निरुवभोगेवोसिरिजइ, तत्थविजा सयाओ पमाणाओ निग्गया तत्थेव बोसिरिजइ, असइ पुण निग्गयाए तस्थेव वोसिरिजइ असति रुक्खाणं कारण छाया कीरइ तेसुपरिणएसु वच्चइ, काया दोषिण-तसकाओथावरकाओय,जइ पडि-1 लेहेइविपमजावि तो एगिदियाविरक्खिया तसावि, अह पडिलेहेइन पमजद तो थावरा रक्खिया तसा परिच्चत्ता, अह न शुद्धाः साधनः, चैरन्यैः साधुभिहीतानि यदि कारणे गृहीतानि तानि च शुखानि यावजीवं परिभुञ्जन्ति, मूलगुणोत्तरगुणेषु (शुढेष) वत्पनेषु तानि विविच्यन्ते-अनयोच्यांख्यान-यख ग्रहणी संसज्यते तेच छायायां व्युत्वष्टव्यं, कीडश्यां छायायां ?, वस्तावल्लोकस्योपभोगवृक्षरतत्र न ब्युस्मृज्यते, निरुपमोगे व्युत्सृज्यते, तत्रापि या स्वकीयात् प्रमाणात् निर्गता तत्रैव खुवायते, असत्या पुनर्निर्गतायां तत्रैव ध्युत्ज्यते असत्सु क्षेषु कायेन छाया किपते वेषु परिणतेषु अन्यते, कायौ डौ-बसका यः स्थावरकायच, यदि प्रतिलेखथत्यपि प्रमार्जयत्यपि तदैकेन्द्रिया अपि रक्षिताखसा अपि, अथ प्रतिलेखपति न प्रमायति तदा स्थावरा रक्षिताः, साः परित्यक्ताः, अथ में दीप अनुक्रम [२३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1290~ Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) हारिभ प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पडिलेहेइ पमजइ थावरा परिचत्ता तसा रक्खिया, इयरत्थ दोवि परिचत्ता, सुप्पडिलेहियसुष्पमजिएसुवि पढमं पयंप्रतिक्र तपसत्थं, बिइयतइए एकेकेण चउरथं दोहिवि अप्पसत्थं, पढमं आयरियवं सेसा परिहरियबा, दिसाभिग्गहे-'उभे मूत्र- मणाध्य. द्रीया पुरीषे च, दिवा कुर्यादुदमुखः।रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तस्य आयुर्न हीयते ॥ १॥ दो चेव एयाउ अभिगेण्हंति, डगलगहणे 31 पारिष्ठाप निकी० तहेब चउभंगो, सूरिये गामे एबमाइ विभासा कायवा जहासंभवं ॥ अधुना शिष्यानुशास्तिपरां परिसमाप्तिगाथामाह॥६४४॥ गुरुमूलेवि वसंता अनुकूला जे न होति गुरूर्ण । एएसि तु पयाण दूररेण से होलि ॥४॥ व्याख्या-'शुरुमूले' गुर्वन्तिकेऽपि 'वसन्तः' निवसमानाः अनुकूला ये न भवन्त्येव गुरूणाम् , एतेषां 'पदानां' उक्त-12 लक्षणानां, तुशब्दादन्येषां च दूरंदूरेण ते भवन्ति, अविनीतत्वात्तेषां श्रुतापरिणतेरिति गाथार्थः ॥ पारिस्थापनिकेयं समाप्तेति ॥ पडिफमामि छहिं जीवनिकाएहिं-पुढविकाएणं आउकाएक तेउकाएणं वाउकारणं चणस्सइकाएक तसकाएणं । पडिकमामि छहिं लेसाहि-किण्हलेसाए नीललेसाए काउलेसाए तेउलेसाए पम्हलेसाए सुक्कलेसाए ॥ पटिकमामि सत्तहिं भयवाणेहिं । अहहिं मयहाणेहिं । नवहिं बंभचेरेगुत्तीहिं । दसविहे समणधम्मे ।। एक्कारसहि उवासगपडिमाहिं । वारसहिं भिक्खुपडिमाहिं । तेरसहिं किरिपाठाणेहिं का॥४४॥ प्रतिलेखपति प्रमार्जयति स्थावराः परिल्यकाः सा रक्षिताः, इतरत्र येऽपि परित्यक्ता, सुमत्युपेक्षितसुप्रमानितयोरपि प्रथमं पदं प्रशन। Disतीयतृतीयपोरेककेन चतुर्थ द्वाभ्यामपि प्रयास, प्रथममाचरितम्य शेषाः परिहयाः , दिगभिरहे- एपेते अभिगृहोते, दगलकमाणे तव चतुर्भजी, र सूर्ये प्रामे एवमादि विभाषा कर्तकमा यथासंभवं । दीप अनुक्रम [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1291~ Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) - - प्रत सूत्रांक 1-96456 प्रतिक्रमामि पद्मिजीवनिकायैःप्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतैर्यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतः, तद्यथा-पृथिवीकायेCIनेत्यादि । प्रतिक्रमामि पहिश्याभिः करणभूताभियों मया दैवसिकोऽतिचार: कृतः, तद्यथा-कृष्णलेश्ययेत्यादि-कृष्णा-1 दिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥ कृष्णादिद्रव्याणि तु सकलप्रकृतिनिष्यन्दभूतानि, आसां च स्वरूपं जम्धूखादकदृष्टान्तेन ग्रामघातकदृष्टान्तेन च प्रतिपाद्यते-जह जंबुतरुवरेगो सुपरफलभरियनमियसालग्गो। दिहो छहिं पुरिसेहिं ते बिती जंबु भक्खेमो ॥१॥ किह पुण! ते बेंतेको आरुहमाणाण जीवसंदेहो । तो छिंदिऊण मूले पाडे, साहे भक्खेमो ॥२॥ बितिआह एदहेणं किं छिण्णेणं तरूण अम्हंति । साहा महल छिंदह तइओ बेंती पसाहाओ॥३॥ गोच्छे चउत्थओ उण पंचमओ बेति गेण्हह फलाई। छहो बेंती पडिया एएचिय खाह घेत्तुं जे॥४॥ दिहतस्सोवणओ जो बेति तरूवि छिन्न मूलाओ। सो वट्टइ किण्हाए सालमहला उ नीलाए ॥५॥ हवाइ पसाहा काऊ गोच्छा तेऊ फला य पम्हाए । पडियाए सुकलेसा अहवा अण्णं उदाहरणं ॥६॥ - [सू.] -१५4- दीप अनुक्रम [२४] बघा जम्मूतवर एका मुपकालभारनमशालामः I दृष्टः पतिः पुरुषैसे बुनते जम्मूः भक्षयामः ॥1॥ पुनः तेषामेको पवीति भारुहता | जीवसंदेहः । स युधिय मूला पातयामस्ततो भक्षयामः ॥ २ ॥ द्वितीय माह-एतावता तरुणा छिसेनामाकं किम् ।। शाखा महती किस तूतीयो पवीति प्रशाखाम् ॥ ३॥ गुच्छान् चतुर्थः पुनः पक्षमो प्रवीति गृहीत फलानि । यो अदीति पतितानि एतान्येव सादामो गृहीत्वा ॥४॥टान्तस्योपनयो-यो अधीति तरुमपि छिन्न्त मूलात् । स वर्गते कृष्णाषा शाखां महती तु नीलायाम् ॥५॥ भवति प्रशाखा कापोती गुण्डान् लैजसी फलानि च पनाथाम् । पतितानि | शुकलेश्या अथवाऽन्यदुदाहरणम् ॥६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: षड् लेश्याया: वर्णनं ~ 1292~ Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६४५॥ [सू.] ROSCARRORA चोरा गामवहत्थं विणिग्गया एगो बेति पाएह । जपेच्छह सर्व दुपयं च चप्पयं वाधि ॥७॥ बिइओ माणुस पुरिसे य ४प्रतिकतइओ साउहे चउरथे य । पंचमओ जुझंते छडो पुण तस्थिमं भणइ ॥८॥ एक ता हरह धणं बीयं मारेह मा कुणह एवं। मणाध्यक केवल हरह धणंती उपसंहारो इमो तेसिं ॥९॥ सवे मारेहत्ती वा सो किण्हलेसपरिणामो । एवं कमेण सेसा जा चरमो सुकलेसाए ॥१०॥ आदिलतिणि एत्थं अपसत्था उवरिमा पसस्था उ । अपसत्थासुं वट्टिय न वट्टियं जं पस-1 स्थासु ॥११॥ एसऽइयारो एयासु होइ तस्स य पडिकमामित्ति । पडिकूल बट्टामी जं भणियं पुणो न सेबेमि ॥ १२॥४ प्रतिक्रमामि सप्तभिर्भयस्थानः करणभूतों मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति, तत्र भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थानानि-आश्रया भयस्थानानि-इहलोकादीनि, तथा चाह सङ्ग्रहणिकार: इहपरलोबादाणमकहाबाजीवमरणमसिलोए'ति अस्य गाथाशकलस्य व्याख्या-'इहपरलोअत्ति इहलोकभयं परलोकभयं, तत्र मनुष्यादिसजातीयादन्यस्मान्मनु दीप अनुक्रम [२४] 65***OCACCORDC चौरा ग्रामवधाथै विनिर्गता एको पीति पातयत । वं पश्यत तं सर्व द्विपदं च चतुष्पदं वापि ॥ ७॥ द्वितीयो मनुष्यान् पुरुषांश तृतीया सायु|धान चतुर्थन । पञ्चमो युध्यमानान् षष्ठः पुनमसनेदं भगति ॥ ६॥ एकं तावद्वरत धनं द्वितीयं मारयतमा कुरुत्वम् । केवलं हरत धनं उपसंहारोऽयं तस्य ॥९॥ | सर्वान् मारयतेति वर्तते स कृष्णलेश्यापरिणामः । एवं क्रमेण शेषाः यावचरमः शुक्ललेश्यायाम् ॥10॥ आचास्तिोश्याप्रशस्ता उपरितनाः प्रशस्तास्तु । | अप्रपास्तासु उत्तं न वृत्तं प्रशस्तासु यत् ॥1॥ एषोऽतिचार एतासु भवति तस्माच प्रतिकाम्यामि । प्रतिकूल पणे पगणितं पुनर्न सेचे ॥॥ ॥६४५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सप्त भय, अष्ट मद आदीनां वर्णनं ~1293~ Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] 20CTRES दीप अनुक्रम [२४] प्यादेरेव सकाशात् भयमिहलोकभयं, विजातीयात्तु तिर्यग्देवादेः सकाशाद्य परलोकभयम्, आदीयत इत्यादान-धन | तदर्थं चौरादिभ्यो यद्यं तदादानभयम् , अकस्मादेव-बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेवावस्थितस्य राध्यादौ भयम् अकस्माद्यं, 'आजीवे' ति आजीविकाभयं निर्धनः कथं दुर्भिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीत्याजीविकाभयं, मरणाद्यं मरणभयं प्रतीतमेव, 'असिलोगोत्ति अश्लाघाभयम्-अयशोभयमित्यर्थः, एवं क्रियमाणे महदयशो भवतीति तनयान प्रवतत इति गाथाशकलाक्षरार्थः ॥ मदः-मान [ग्रन्थाग्रं० १६५००] स्तस्य स्थानानि-पर्याया भेदामदस्थानानि, इह च प्रतिक्रमामीति वर्तते, अष्टभिर्मदस्थानः करणभूतैयों मया दैवसिकोऽतिचारः कृत इति, एवमन्येष्वपि सूत्रेवायोग्य, कानि पुनरष्टौ मदस्थानानि ?, अत आह सहणिकार: जाईकुलबलरूवे तवईसरिए सुए लाहे ॥१॥ अस्य व्याख्या-कश्चिन्नरेन्द्रादिः प्रत्रजितो जातिमदं करोति, एवं कुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभेष्वपि योज्यमिति ॥ नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिः, शेषं पूर्ववत्, ताश्चेमाः वसहिकहनिसिजिदिये कुईतरपुर्वकीलियर्पणीए । मामायाहरिविभूसणा य नव बंभगुतीयो ॥१॥ व्याख्या-ब्रह्मचारिणा तद्गुप्त्यनुपालनपरेण न स्त्रीपशुपण्डकसंसक्ता वसतिरासेवनीया, न स्त्रीणामेकाकिनां कथा कथनीया, न स्त्रीणां निषद्या सेवनीया, उत्थितानां तदासने नोपवेष्टव्यं, न स्त्रीणामिन्द्रियाण्यवलोकनीयानि, न स्त्रीणां कुख्यान्तरितानां मोहनसंसक्कानां क्वणितध्वनिराकर्णयितव्यः, न पूर्वक्रीडितानुस्मरणं कर्तव्यं, न प्रणीतं भोक्तव्यं, 456 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1294 ~ Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रतिक्रममणाध्य दीया प्रत सूत्रांक [सू.] *CRIC आवश्यक-1 स्निग्धमित्यर्थः, नातिमात्राहारोपभोगः कार्यः, न विभूषा कार्या, एता नव ब्रह्मचर्यगुप्तय इति गाथार्थः ॥ श्रमणःहारिभ- प्राग्निरूपितशब्दार्थस्तस्य धर्मः-क्षान्त्यादिलक्षणस्तस्मिन् दशविधे-दशप्रकारे श्रमणधर्मे सति तद्विषये वा प्रतिषिद्धकरणा दिना यो मयाऽतिचारः कृत इति भावना । दशविधधर्मस्वरूपप्रतिपादनायाह सत्रहणिकार:॥६४६॥ खंती व मरवजय मुत्ती तव संजमे य योद्धछ । सर्च स्रोयं भाकिंधणं च च च जएधम्मो ॥१॥ क्षान्तिः श्रमणधर्मः, क्रोधविवेक इत्यर्थः, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, मृदोर्भावः मार्दवं मानपरित्यागेन वर्तनमित्यर्थः, तथा ऋजुभाव आर्जव-मायापरित्यागः, मोचनं मुक्तिः, लोभपरित्याग इति भावना, तपो द्वादशविधमनशनादि, संयमश्चाश्रवविरतिलक्षणः 'बोद्धव्यः' विज्ञेयः श्रमणधर्मतया, सत्यं प्रतीतं, शौचं संयम प्रति निरुपलेपता, आकिचन्यं च, कनकादिरहिततेत्यर्थः, ब्रह्मचर्य च, एष यतिधर्मः, अयं गाथाक्षरार्थः ॥ अन्ये वेवं वदन्ति-खंती मुत्ती अज्जव मद्दव तह लाघवे तवे चेव । संयम चियागऽकिंचण बोद्धधे बंभचेरे य ॥१॥ तत्र लाघवम्-अप्रतिबद्धता, त्यागःसंयतेभ्यो वस्त्रादिदानं, शेषं प्राग्वत् , गुप्त्यादीनां चाऽऽद्यदण्डकोकानामपीहोपन्यासोऽन्यविशेषाभिधानाददुष्ट इति ॥ एकादशभिरुपासकप्रतिमाभिः करणभूताभिर्योऽतिचार इति, उपासकाः-श्रावकास्तेषां प्रतिमा:-प्रतिज्ञा दर्शनादिगुणयुक्ताः कार्या इत्यर्थः, उपासकप्रतिमाः, ताश्चैता एकादशेति दसणवयसामाय पोसहपटिमा मबंभ सचित्ते । पारमपेसहित गजए समणभूए य॥१॥ दीप अनुक्रम [२४] ॥६४६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: दशविध-श्रमणधर्मस्य वर्णनं ~ 1295~ Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-दर्शनप्रतिमा, एवं व्रतसामायिकपौषधप्रतिमा अब्रह्मसचित्तआरम्भप्रेष्यउद्दिष्टवर्जकः श्रमणभूतश्चेति, अयमासां भावार्थ:-सम्मईसणसंकाइसलपामुक्कसंजुओ जो उ । सेसगुणविप्पमुक्को एसा खलु होति पडिमा ॥१॥ |बिझ्या पुण वयधारी सामाइयकडो य तइयया होइ । होइ चउत्थी चउद्दसि अहमिमाईसु दियहेसु ॥२॥ पोसह चउ|विहंपी पडिपुण्णं सम्म जो उ अणुपाले । पंचमि पोसहकाले पडिमं कुणएगराईयं ॥३॥ असिणाणवियडभोई पगासभोइत्ति जं भणिय होइ । दिवसऔं न रत्ति भुंजे मउलिकडो कच्छ णवि रोहे ॥४॥ दिय बंभयारि राई परिमाणकडे अपोसहीएस । पोसहिए रतिमि य नियमेणं बंभयारी य॥५॥ इय जाव पंच मासा विहरइ हु पंचमा भवे पडिमा । छट्टीए बंभयारी ता विहरे जाव छम्मासा ॥६॥ सत्तम सत्त उ मासे णवि आहारे सचित्तमाहारं । जं जं हेछिल्लाण तं तो परिमाण सबंपि॥७॥ आरंभसयंकरणं अहमिया अहमास बजेइ । नवमा णव मासे पुण पेसारंभे विवजेइ ॥८॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२४] १ शङ्काविदोषशल्यामुक्तसम्बस्व संयुतो यस्तु । शेषगुणविषमुक्त एषा खलु भवति प्रतिमा ॥ ॥ द्वितीया पुनर्वतधारी कृतसामायिका तृतीया भवति । भवति चसुर्थी चतुर्दश्यष्टम्यादिषु दिवसेषु ॥ २ ॥ पोषधं चतुर्विधमपि प्रतिपूर्ण सम्यग् यस्तु अनुपालयति । पञ्चमी पोषधकाले प्रतिमा करोयेकरात्रिकीम् ॥ ३ ॥ बखानो दिवसभोजी प्रकाशभोजीति यज्ञाणितं भवति । दिवसे न रात्री मुझे कृतमुकुलः कपर्छ नैव बध्नाति ॥ १ ॥ दिवा अझचारी | रात्री कृतपरिमाणोऽपोषधिकेषु । पोषधिको रात्रौ च नियमेन ब्रह्मचारी च ॥ ५॥ इति पावन पञ्च मासान् विहरति पञ्चमी भवेत् प्रतिमा । षायां ब्रह्मचारी | तावत् विहरेत् यावत् षण्मासाः॥६॥ सप्तमी सव मासान् नैवाहारयेत् सचिशमाहारम् । यद्यधस्तनीनां तदुपरितनासु सर्वमपि ॥ ७॥धारलाभख खर्यकरणं अष्टम्यां बट मासान दर्जयति । नवमी नव मासान पुन: प्रेपारम्भान् विवर्जयति ॥6॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: एकादश-श्रावकप्रतिज्ञाया: वर्णनं ~1296~ Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२४] आवश्यक हारिभ श्रीया ॥६४७॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], देसमा पुण दस मासे उद्दिकपि भत्त नवि भुंजे । सो होई छुरमुंडो छिहलिं वा धारए जाहिं ॥ ९ ॥ जं निहियमत्थजायं पुच्छंति नियाण नवरि सो आह । जइ जाणे तो साहे अह नवि तो वेति नवि जाणे ॥ १० ॥ खुरमुंडो लोओ वा स्यहरण पडिग्गहं च गेण्हित्ता । समणभूओ विहरे णवरिं सण्णायगा उवरिं ॥ ११ ॥ ममिकार अवोच्छिन्ने बच्चइ सण्णायपलि दहुंजे । तत्थवि साहुब जहा गिण्हइ फासुं तु आहारं ॥ १२ ॥ एसा एकारसमा इक्कारसमासियासु एयासु । पण्णवणवितह असहाणभावार अइयारो ॥ १३ ॥ द्वादशभिर्भिक्षुप्रतिमाभिः प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रिया प्राग्वत्, तत्रोद्गमोत्पादनेषणादिशुद्धभिक्षाशिनो भिक्षवः- साघवस्तेषां प्रतिमाः- प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमाः, ताश्चेमा द्वादश मासाई सत्ता पदमावितिसत ( स ) राइदिणा । अहराई एतराई भिक्खूप डिमाण बारसगं ॥ १ ॥ मासाद्याः सप्तान्ताः प्रथमाद्वित्रिसप्त ( सप्त ) रात्रिदिवा' प्रथमा सप्तरात्रिकी, द्वितीया सतरात्रिकी, तृतीया १ दशमी पुनर्दश मासान् उद्दिष्टकृतमपि भ नैव शुद्धे स भवति झुरमुण्डः शिखां वा धारयति यस्याम् ॥ ९ ॥ निहितमा पृच्छतां निजानां परं स ब्रवीति । यदि जानाति तदा कथयति अथ नैव प्रवीति नैव जाने ॥ १० ॥ झुरमुण्डो होचो वा रजोहरणं पतइहं च गृहीत्वा । भ्रमणभूतो विहरति नगरं ज्ञातीयानामुपरि ॥ ११ ॥ मभीकारेऽच्युच्चे यजति सज्ञातीयपहीं द्रष्टुम् । तत्रापि साधुवत् यथा गृह्णाति प्रासुकं स्वाहारम् ॥ १२ ॥ पैकादशी एकादशमासिकी एतासु । वित्तधमज्ञापनाऽश्रद्धानभावात्वत्तिचारः ॥ १३ ॥ मासायाः सप्तान्ताः प्रथमा द्वितीया तृतीया सप्तरात्रिन्दिवमाया । अहोरात्रिकी एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकम् ॥ १ ॥ ------ ४ प्रतिकमणाध्य० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः द्वादश- भिक्षुप्रतिज्ञायाः वर्णनं ~ 1297 ~ ॥६४७॥ Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक | सप्तरात्रिकी, अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी, इदं भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकमिति । अयमासां भावार्थ:-पंडिवजाइ संपुष्णो संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाउ जिणमयंमी संमं गुरुणा अणुण्णाओ ॥१॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइयवत्थु होइ जहष्णो सुयाभिगमो ॥२॥ वोसहचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहीया भत्तं च अलेवयं तस्स ॥३॥ गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवजे मासियं महापडिमं । दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सबि एग जा मासं ॥४॥ पच्छा गच्छमईए एव दुमासि तिमासि जा सत्त । नवरं दत्तीवुडी जा सत्त उ सत्तमासीए ॥ ५॥ तत्तो य अहमीया हवइ हूँ पढमसत्तराईदी। तीय चउत्थचउत्थेणऽपाणएणं अह विसेसो ॥६॥ तथा चाऽऽगमः-“पढमसत्तराईदियाणं भिक्खूपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पड से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वे"त्यादि, उत्ताणगपासल्लीणसज्जीवावि ठाणे ठाइत्ता । सहउवसग्गे घोरे दिवाई तत्थ अविकंपो ॥७॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२४] प्रतिपयते एता। संपूर्णः संहनगपतियुतो महासत्वः । प्रतिमा जिनमते सम्म गुरुणाऽनुशातः॥1॥ एवं निष्णातो थावत् पूर्वाणि वश भवेयुरसंपूर्णानि । नवमस्य तृतीयं बरतु भवति जयन्यः श्रुताधिगमः ॥२॥ ब्युस्सृष्टस्यक्तदेहः उपसर्गसहो यथते जिनकपी । एषणा अभिगृहीता भक्त चालेपक्रत्तसगच्छाद्विनिष्कम्य प्रतिपयले मासिकी महाप्रतिमाम् । दत्तिरेका भोजन पानस्याप्येका यावन्मासः॥४॥पबाद गच्छमाय हिमासिकी निमासिकी बावत सप्तमासिकी । नवरं दत्तिवृद्धिः यावत् सप्तव सप्तमाथाम् ॥ ५॥ सतनामी भवति प्रथमसराबिन्दिया । तखो चतुर्थचतथैनापानकेनासी विशेषः ॥प्रथमा सतरानिन्दिवां भिक्षुपतिमा प्रतिपन्न स्थानमारस्य कल्पतेऽथ चतुग भनापानकेन महिनामस्य चैत्यादि, उत्तानः पार्वती नैपधिको वाऽपि स्थान स्थित्वा । सहते उपसर्गान् घोरान् दिव्यादीन् तनाविकम्पः ॥ ७॥ CAMERISESEREC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1298~ Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक दोच्चावि एरिसश्चिय बहिया गामाझ्याण णवरं तु । उक्कुडलगंडसाई इंडाइतिउच ठाइत्ता ॥८॥ तच्चाएवि एवं णवरं प्रतिकहारिभ- ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमवावी ठाइज व अंबखुजो वा ॥९॥ एमेव अहोराई छई भत्तं अपाणयं णवरं। द्रीया गामणयराण बहिया वग्धारियपाणिए ठाणं ॥ १०॥ एमेव एगराई अहमभत्तेण ठाण बाहिरओ। ईसीपन्भारगए अणि-M ॥६४८॥ मिसनयणेगदिहीए ॥३॥ साहहु दोवि पाए वग्धारियपाणि ठायई ठाणं । वाघारि लंबियभुओ सेस दसासु जहा भणियं ॥४॥ 11 त्रयोदशभिः क्रियास्थानः प्रतिपिद्धकरणादिना प्रकारेण हेतुभूतैर्योऽतिचारः कृत इति, क्रिया पूर्ववत्, करणं किया, कर्मबन्धनिवन्धना चेष्टेत्यर्थः, तस्याः स्थानानि-भेदाः पर्याया अर्थायानोंयेत्यादयः क्रियास्थानानि, तानि पुनत्रयोदश| भवन्तीति, आह च सङ्घहणिकार: महाहा दिसाऽकम्हा दिवी घे मोर्सऽदिग्णे व । मभयमाणमैने मायोलोहे "रियांहिया ॥३॥ ध्याख्या-अर्थाय क्रिया, अनर्थाय क्रिया, हिंसाय क्रिया, अकस्मात् क्रिया, 'दिडिय' त्ति दृष्टिविपर्यासक्रिया च सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा, मृषाक्रियाऽदत्तादानक्रिया च, अध्यात्मक्रिया, मानक्रिया, मित्रदोषक्रिया, मायाक्रिया, लोभक्रिया द्वितीयाऽपीटश्येव यहिनामादीनां परं तु । उत्तुडुकासनो चक्रकाष्ठशायी चा दण्डायतिको वा स्थित्वा ॥ ८॥ तृतीयस्यामप्येवं परं स्थानं तु तत्र | ॥६४८॥ | गोदोहिका । बीरासनमथवाऽपि विटेवाऽनकुम्लो वा ॥ ९॥ एवमेवाहोरात्रिकी षष्ठं भक्कमपानकं परम् । प्रामनगरयोपैहिस्तार प्रलम्मभुजस्तिष्ठति स्थानम् - "१० ॥ एवमेकरात्रिकी अष्टमभक्तेन स्थान बहिः । ईषत्प्रारभारगतो निमिषनयन एकदृष्टिकः ॥1॥ संहृत्य द्वावपि पादौ प्रलम्बितभुजतिष्ठति स्थानम् । 'भाधारि' लम्बितभुजः शेषं दशासु यथा भणितम् ॥ १२ ॥ दीप अनुक्रम [२४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | त्रयोदश-क्रियास्थानानाम् वर्णनं ~ 1299~ Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक पिथक्रिया, अयमासां भावार्थ:-तसथावरभूएहिं जो दंड निसिरई हु कजंमि । आय परस्स व अहा अट्ठादंड तयं ति ॥१॥ जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयाईयं । मारेत्तुं छिंदिऊण व छडे एसो अणहाए ॥२॥ अहिमाइ दि वेरियस्स व हिसिसु हिंसइव हिंसिहिई । जो दंडं आरब्भइ हिंसादंडो भवे एसो ॥३॥ अन्नहाए निसिरइ कंडाइ अन्नमाणे जो उ । जो व नियंतो सस्सं छिंदिजा सालिमाई य ॥४॥ एस अकम्हादंडो दिद्विविवज्जासओ इमो होइ। जो मित्तममित्तती का घाएइ अहवावि ॥ ५॥ गामाईघाएसु व अतेण तेणेति वावि घाएज्जा । दिहिविवज्जासे सो किरि याठाणं तु पंचमयं ॥ ६॥ आया णायगाइण वावि अट्ठाएँ जो मुसं वयइ । सो मोसपचईओ दंडो छटो हवइ एसो &॥७॥ एमेव आयणायगअट्ठा जो गेण्हइ अदिन्नं तु । एसो अदिश्नवत्ती अज्झस्थीओ इमो होइ ॥ ८॥ नवि कोवि किंचि भणई तहविहु हियएण दुम्मणो किंपि । तस्सऽज्झत्थी संसइ चउरो ठाणा इमे तस्स ॥९॥ कोहो माणो माया %A4%r %16) [सू.] ick h दीप अनुक्रम [२४] सस्थावरभूतेषु यो निसृजति कार्वे । आत्मनः परस्य वार्धाय अर्थदण्ड से बुवते ॥1॥ यः पुनः सरटादिकं स्थावरकायं च वनलतादिकम् । मारा विरवा हिचा वा त्यजति एषोऽनाय ॥ २ ॥ अनादेरिणो वा महसीत् हिनाक्षि वा हिसिष्यति । यो पदमारमते हिंसादण्डो मवेदेषः ॥ ३ ॥ अन्यापर्याय निसृजति कण्डादि अन्यमाहन्ति यस्तु । यो वा गच्छन् श छिन्यात् शाल्यादीं ॥ ४ ॥ एषोऽकमाण्डो रष्टिविपर्यासतोऽयं भवति । यो मित्रममिश्रमितिकृत्वा धातयत्यथवाऽपि ॥ ५॥ मामाविधातेषु वा अस्तेनं तेनमिति वाऽपि घातयेत् । इष्टिविपर्यासात् स क्रियास्थानं तु पश्चमम् ॥ ६॥ आमाथै शातीयादीनां वाऽध्याय यो मृषा वदति । स मृपाप्रत्यथिको दण्डो भवत्येपः षष्ठः ॥ ७॥ एवमेवारमझातीषार्थ यो गृह्वात्यदत्तं तु । एषोऽदत्तप्रत्ययोऽध्यारमस्थोऽयं भवति ॥4॥ नैव कोऽपि किश्चित्रणति सथापि हदये दुर्मना किमपि । तस्याध्यात्मस्थः घोप्सति पवारि स्थानानीमानि तस्य ॥ ९॥ क्रोधो मानो माय. Met मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1300~ Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) 4 % प्रत सूत्रांक [सू.] 4-04- % आवश्यकलोहो अज्झस्थकिरिय एवेसो । जो पुण जाइमयाई अढविहेणं तु माणेणं ॥ १०॥ मत्तो हीलेइ परं सिंसइ परिभवइ ४प्रतिकहारिभमाणवत्तेसा । मायपिइनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥ ११॥ तिथं दंडं करेइ डहणंकणबंधतालणाईयं । तं मित्त मणाध्यक द्रीया दोसवत्ती किरियाठाणं हवइ दसमं ॥ १२ ॥ एकारसमं माया अण्णं हिययंमि अण्ण वायाए । अण्णं आयरई या स क॥६४९॥ |म्मुणा गूढसामत्थो ॥ १३ ॥ मायावत्ती एसा तत्तो पुण लोहवत्तिया इणमो । सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु ॥१४॥ तह इत्थी कामेसु गिद्धो अप्पाणयं च रक्खंतो। अण्णेसि सत्ताणं वहबंधणमारणे कुणइ ॥१५॥ एसो उ लोहवित्ती इरियावहियं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स ॥ १६ ॥ सययं तु अप्पमत्तस्स भगवओ &ाजाव चक्खुपम्हंपि । निवयइ ता सुहुमा विहु इरियावहिया किरिय एसा ॥ १७॥ चोहसहि भूयगामेहिं पन्नरसहि परमाहंमिएहिं सोलसहिं गाहासोलसएहिं सत्तरसविहे संजमे अट्ठारस[विहे अचंभे एगूणवीसाए णायज्झयणेहिं बीसाए असमाहिठाणेहि ॥ सोमोऽध्यात्मकिय एषः । यः पुनजातिमदादिनाअष्टविधेन तु मानेन ॥10॥ मत्तो हीलयति पर निन्दति परिभवति मानप्रस्थयिकी एपा । माता| पितृजातीयानां यः पुनररूपेऽष्यपराये ॥11॥तीनं करोति दण्डं दहनानवम्धतासनादिकम् । तत् मित्रद्वेषप्रत्यधिक क्रियास्वानं भवति दशमम् ॥ १२ ॥ | एकादशमं माया अन्यत् हृदये अन्याचि । अन्यदाचरति स कर्मणा गूढसामभ्यः ॥ १३॥ मायानत्वविक्वेषा ततः पुनर्लोभमस्यविषयेषा । सायद्यारम्भपरि-16॥४९॥ प्रदेव सक्को महासु ॥ 1 ॥ तथा श्रीकामेषु गृढ भारमानं च रक्षन् । अन्येषां सवानां वधमारणाकनबन्धनानि करोति ॥ १५॥ एष तुलोमपत्यधिक ईर्या | पथिकमतः प्रवक्ष्यामि । इद खश्चनगारस्य समितिगुप्तिसुगुप्तस ॥ १६ ॥ सततं त्यामतस्य भगवतो यायचक्षु-पक्ष्मापि । विपतति तावत् सूक्ष्मा ईयोपथिकी कियेषा ॥१७॥ दीप अनुक्रम [२५]] *94984-%%% -% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1301~ Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] चतुर्दशभिर्भूतप्रामैः, क्रिया पूर्ववत् , भूतानि-जीवास्तेषां ग्रामाः-समूहा भूतग्रामास्तैः, ते चैवं चतुर्दश भवन्ति एगिदियमुटुमियरा सणियर पणिदिया व समीतिचऊ । पजत्तापज्जता भेएणं चोदसणामा ॥३॥ व्याख्या-एकेन्द्रियाः-पृथिव्यादयः सूक्ष्मेतरा भवन्ति, सूक्ष्मा बादरावेत्यर्थः, संज्ञीतराः पश्चेन्द्रियाश्च, संझिनोऽसंज्ञिनश्चेति भावना, 'सबीतिच'त्ति सह द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियैः, एते हि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन चतुर्दश भूतग्रामा भवान्त, स्थापना यसअप | सपाबाद पापा एवं चतुदेशप्रकारो भूतग्रामः प्रदर्शितः, अधुनाऽमुमेव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाहऽप | बेपसनहणिकार: ते उप | ते प चपाचप| उसे प संप सं संप । मिच्छविही सामायणे य तह सम्ममिच्छदिही व अविरसम्मदिही विस्थाविरए पमचे ॥1॥ तत्तो य अप्पमतो नियंहिअनियहिवायरे सुहमे । उवसंतस्त्रीणमोदे छोइ संजोगी जोगी य॥२॥ गाथाद्वयस्य व्याख्या-कश्चिद्भूतग्रामो मिथ्यादृष्टिः, तथा सास्वादनश्चान्यः, सहैव तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः, कणघण्टालालान्यायेन प्रायः परित्यक्तसम्यक्त्वः, तदुत्तरकालं पडावलिकाः, तथा चोकम्-"उवसमसंमत्तातो चयतो मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥१॥" तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च अपरामसम्यक्रवात् व्यवमानस्य मिथ्यात्वमप्रामुवतः। सास्वादनसम्यक्त्वं तदन्तराळे पदावलिकाः॥1॥ दीप अनुक्रम [२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: जीवानाम् १४ भेदानां वर्णनं ~ 1302 ~ Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक -4-40% [सू.] % आवश्यक- सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमानः प्रायः सञ्जाततत्त्वरुचिरित्यर्थः, तथाऽविरतसम्यग्दृष्टि:-देशविरतिरहितः सम्यग्दृष्टिः, विरता- प्रतिक्रविरत:-श्रावकग्रामः, अमत्तश्च प्रकरणात्ममत्तसंयतग्रामो गृह्यते, ततश्चाप्रमत्तसंयतग्राम एव, 'णियट्टिअणियट्टिवायरो' तिमणाध्यक द्रीया निवृत्तिबादरोऽनिवृत्तिवादरश्च, तत्र क्षपकश्रेण्यन्तर्गतो जीवग्रामः क्षीणदर्शनसप्तकः निवृत्तिवादरो भण्यते, तत ऊर्च ॥६५०॥ लोभाणुवेदनं यावदनिवृत्तिवादरः, 'सुहुमेत्ति लोभाणून वेदयन् सूक्ष्मो भण्यते, सूक्ष्मसम्पराय इत्यर्थः, उपशान्तक्षीणमोहः श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहूर्त यावदुपशान्तवीतरागः क्षीणवीतरागश्च भवति, सयोगी अनिरुद्धयोगः भवस्थकेवलि ग्राम इत्यर्थः, अयोगी च निरुद्धयोगः शैलेश्यां गतो इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालं यावत् इति गाथाद्वयसमासार्थः॥ दिव्यासार्थस्तु प्रज्ञापनादिभ्योऽयसेयः॥ पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैः, क्रिया पूर्ववत्, परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च २, संक्लिष्टप-| रिणामत्वात्परमाधार्मिकाः, तानभिधित्सुराह सङ्ग्रहणिकार: भने संवैरिसी चेव, सामे म सबले हय । रुद्दोवेकाले य, महाकौलेत्ति आवरे ॥१॥ असिपेते णकुंभे", पौल वेयरणी इय । खसरे महायोसे," एए पचरसाहिया ॥ २ ॥ इदं गाथाद्वयं सूत्रकृन्नियुक्तिगाथाभिरेव प्रकटार्थाभियाख्यायते-धाडेंति पहावेंति य हणंति बंधंति (विधतिविध्यन्ति) तह निसुंभंति । मुंचंति अंबरतले अंबा खलु तत्थ नेरइया ॥ १॥ ओह्यहए य तहियं निरसण्णे कप्पणीहिं ॥६५०॥ धाटयन्ति (प्रेरयन्ति ) प्रधावयन्ति (भ्रमयस्ति) च मन्ति अनन्ति तथा भूमौ पातयन्ति । मुश्चन्ति मम्बरतळात् मम्बाः खलु वा नैरविकान् । ॥ उपहतहतान् तन्त्र च निःसंज्ञान् कल्पनीभिः दीप अनुक्रम [२५] 47 text मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: परमाधार्मिकानां १५ भेदानां वर्णनं ~ 1303~ Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक SACCORRECRet [सू.] दीप अनुक्रम [२५] कप्पति । बिदलियचटुण्यछिन्ने अंबरिसा तत्थ नेरइए ॥२॥ साडणपाडणतुन्नण (तोदण) विंधण (बंधण) रज्जूतल(लय)प्पहारेहिं । सामानेरइयाणं पवचयंती अपुण्णाणं ॥३॥ अंतगयफेफ (यकीक) साणि य हियर्य कालेजफुप्फुसे चुण्णे। सबला नेरइयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ॥४॥ असिसत्तिकुंततोमरसूलतिसूलेसु सूइचिइयासु । पोएंति रुद्दकम्मा नरयपाला तहिं रोद्दा ॥ ५॥ भंजंति अंगमंगाणि ऊरू बाहू सिराणि करचरणे । कप्पंति कप्पणीहिं उवरुद्दा पावकम्मरए ॥६॥ मीरासु सुंडएम य कंडूसु पर्यणगेसु य पयंति । कुंभीसु य लोहीसु य पयंति काला उनेरझ्या ॥७॥ कम्पिति कागिणीमसगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि । खायति य नेरइए महाकाला पावकम्मरए ॥८॥हत्थे पाए ऊरू पाहू य सिरंच अंगुवंगाणि । छिंदंति पगामं तु असिनेरइया उ नेरइए ॥ ९॥ कण्णोहनासकरचरणदसणथणपूअऊरुवाहूर्ण । छेयणभेयणसाडण असिपत्तधणूहिं पाडिंति ॥ १०॥ कुंभीसु य पइणीसु य लोहीसु कंडुलोहकुंभीसु । कुंभी उ नरयपाला हणंति पन्ते । विदधत तिमिान अम्बषयमन्त्र नैरविकान् (कुर्वन्ति)॥२॥ शासनपातमवयनप्पभनानि रजुलतामहाः । श्यामा नैरविकाणी प्रवर्तयन्ति मण्यानाम् ॥ ३॥ मन्त्रगतकीकसानि हवयं कालेषकफुप्फुसानि चूर्णवन्ति । पावला भैरविकाणां प्रवयम्य पुण्यानाम् ॥ ४ ॥ असिशक्तिकुन्ततोमरपुल विशुदिषु मूपिचितिकाम् । प्रोतबन्ति गजकर्माणस्त नरकपालास्तत्र रोजाः ॥ ५॥ भजन्ति अझोपाळानि अरुणी बाहू शिर। करी चरणी । कापन्ते | कल्पनीभिः उपरुमाः पापकर्मरताः ॥ ६॥ दीर्घचुलीषु शुण्ठकेषु च मुम्भीषु च कन्दूपु प्रचनकेषु (प्रचण्देषु)च पचन्ति । कुम्भीषु च कीदीषु च पचन्ति | कालास्तु नारकान् ॥ ७॥ कल्पन्ते काकिणी (अक्षण) मांसानि छिन्दन्ति सिंहपुच्छान् (पृष्ठिान ) बायन्ति च रविकान् महाकालाः पापकर्मरतान् ॥ ८॥ इसी पादौ ऊरुणी बाहूच शिरः अशोषाङ्गानि । छिन्दन्ति प्रकाममेव असिनरकपाका नैरविकान् ॥९॥ कर्णोधनासिकाकरचरणदशनसनपूलोवाहूनाम् । छेदनभेदनशातनानि भसिपत्रधनुर्मिः पातयन्ति ॥ १०॥ कुम्भीषु च पचनीषु च छोहीपु कन्तूलोहकुम्भीषु । कृम्भिकास्तु नरकपाळा मन्ति 24* मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1304 ~ Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) मणाध्य प्रत सूत्रांक ॥६५॥ [सू.] पाइति नरएसु ॥ ११॥ तडतडतडस्स भुंजति भजणे कलंबुवालुयापहे । वालुयगा नेरइया लोलेंति अंबरतलमि ॥१२॥ हारिभ जवसपूयरुहिरफेसडिवाहिणी कलकलंतज उसोतं । वेयरणिनिरयपाला नेरइए ऊ पवाहति ॥ १३ ॥ कप्पति करगतेहिं द्रीया कप्पति परोप्परं परसुएहिं । संबलियमारुहती खरस्सरा तत्थ नेरइए ॥ १४ ॥ भीए य पलायंते समंतओ तत्थ ते निरुभंति । पसुणो जहा पसुबहे महधोसा तत्थ नेरइए ॥ १५ ॥ षोडशभिगोंथापोडशैः सूत्रकृताशायश्रुतस्कन्धाध्ययनैरित्यर्थः, क्रिया पूर्ववत्, तानि पुनरमून्यध्ययनानि समयो थालीय उपसम्मपरिग्णधीपरिष्णा य । निरयविभेतीवीरत्वो ये कुक्षीला परिहासा ॥1॥ बीरियधमांसमोही मग्गासमोसरण महतई "गंभो । जमईवं तह गावासोले समं होह मझयण ॥ २ ॥ गाधाद्वयं निगदसिद्धमेव, सप्तदशविधे संयमे, सप्तदशविधे-सप्तदशप्रकारे संयमे सति, तद्विषयो वा प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रियायोजना पूर्ववत् , सप्तदशविधसंयमप्रतिपादनायाह पाचयन्ति नरकेषु ॥11॥ तडतडतडकुर्वन्तो भूजन्ति घाटे कदम्बवालुकापूष्ठे । वालुका नैरपिकपालाः कोलयन्त्यम्बरतले ॥१२॥ वसापूषधि-४ कारकेशास्षिवाहिनी कलकलजलश्रोतसम् । बैतरणीनरकपाला नैरपिकांस्तु प्रयाहयन्ति ॥३॥ कश्यन्ते ककचैः पयन्ति परस्परं परशुभिः । शामलीXमारोहपन्ति खरखरामा नैरविकान् ॥ १४॥ भीतान पलायमानान् समन्ततसत्र ताशिरुन्धन्ति । पशून् यथा पशुपधे महाघोषाला नैरविकान् ॥१५॥ SHRESS दीप अनुक्रम [२५] ॥१५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1305~ Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२५] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], प्येमजणे परिमेो ॥ १ ॥ 1 दविदअगर्थिमारुयैवणस्स "भिति" चरणिदिजीवो" व्याख्या - पुढवाइयाण जाव य पंचेंदियसंजमो भवे तेसिं संघट्टणाइ न करे तिविहेणं करणजोएणं ॥ १ ॥ अज्जीबेहिवि जेहिं गहिएहिं असंजमो हवइ जइणो । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए य ॥ २ ॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी य। एवं पोत्ययपणयं पण्णत्तं वीयराएहिं ॥ ३ ॥ बाहल हुतेहिं गंडीपोत्थो उ तुलगो दीहो । कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयवो ॥ ४ ॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिइ मुट्ठिपोत्थओ अहवा । चउरंगुलदीहोच्चिय चउरस्सो वावि विष्णेओ ॥ ५ ॥ संपुडओ दुगमाई फलगावोच्छं छिपाडिता हे । तणुपत्तूसियरूवो होइ छिवाडी बुहा बेति ॥ ६ ॥ दीहो वा इस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहुले । तं मुणिय समयसारा छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ७ ॥ दुविहं च दूसपणयं समासओ तंपि होइ नायचं । अप्पडिलेहियपणयं दुष्पडिलेहं च विष्णेयं ॥ ८ ॥ अध्पडिले हियदूसे १ पृध्यादयो यावच पञ्चेन्द्रियाः संयमो भवेतेषाम् संघनादि न करोति त्रिविधेन करणयोगेन ॥ १ ॥ अनीवेष्वपि येषु गृहीतेषु असंयमो भवति यतेः यथा पुस्तकदूष्यपचके तृणपञ्चके धर्मपथके च ॥ २ ॥ गण्डी कच्छपी मुष्टि: संपुटफलकस्तथा सूपरटिका च एतत् पुस्तकपञ्चकं प्रसे वीतरागैः ३ ॥ बाल्यष्टकवर्गण्डीपुस्तकं तु तुल्यं दीर्घम् । कच्छपी अन्ते तनुकं मध्ये पृथु मुणितव्यम् ॥ ४ ॥ चतर दीर्घ वा वृताकृति मुष्टिपुस्तकमथवा । चतुरदीर्घमेव चतुरसं वाऽपि विशेयं ॥ ५ ॥ संपुटः फलकानि द्विकादीनि पश्ये पाटिकामधुना । तनुपत्रोच्छ्रितरूपं भवति पाटिका बुधावते ॥ ६ ॥ दीर्घो वा वो वा यः प्रभुर्भवत्यल्पवाद्दल्यः । तं ज्ञातसमयसाराः पाटिकापुस्तकं भणन्तीह ॥ ७ ॥ द्विविधं च दूष्यपञ्चकं समासतस्तदपि भवति ज्ञातम्पम् । अप्रतिलेखितपञ्चकं दुष्प्रतिलेखं च विज्ञेयम् ॥ ८ ॥ अमतिले खितदूष्यपचके मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः संयमस्य १७ भेदानां वर्णनं ~ 1306 ~ Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रतिक्रम Aमणाध्य प्रत सूत्रांक [सू.] यावश्यक- हारिभ- द्रीया ॥६५२॥ तूली उवहाणगं च नायब । गंडुवहाणालिंगणि मसूरए चेष पोत्तमए ॥९॥ पल्हवि कोयवि पावार णवयए तहा य दाढि- गालीओ। दुप्पडिलेहियदूसे एयं बीयं भवे पणयं ॥ १०॥ पल्हवि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूयपूरिओ पडओ । दढिगालि धोयपोत्ती सेस पसिद्धा भवे भेया ॥ ११॥ तणपणयं पुण भणियं जिणेहिं जियरायदोसमोहेहिं । साली वीही कोदवरालग रण्णेतणाई च ॥ १२ ॥ अलएलगाविमहिसी मिगाणमइणंच पंचमं होइ । तलिगा खल्लग बज्झे कोसग कत्ती य बीयं तु ॥ १३ ॥ अह वियडहिरन्नाई ताइ न गिण्हइ असंजमो साहू । ठाणाइ जत्थ चेते पेहपमजित्तु तत्थ करे ॥१४॥ एसा पेहुवपेहा पुणो य दुविहा उ होइ नायबा । वावारावावारे वावारे जह उ गामस्स ॥ १५ ॥ एसो उविक्खगोह अवावारे जहा विणस्संतं । किं एयं नु उवेक्खसि दुविहाए वेत्थ अहिगारो ॥१६॥ वावारुवेक्ख तहियं संभोइय सीयमाण चोपड। चोएई इयरंपी पावयणीयंमि कजंमि ।। १७ ।। अबावार उपेक्खा नवि चोएइ गिहिं तु सीयंते । कम्मेसुं तूली उपधानकं च ज्ञातव्यम् । गण्डोपधाममालिशिनी मसूरकश्चैव पोतमयः ॥ ९ ॥ पल्हवी (मण्डत्तिः) कौतपी भावारो नववक तथा दैद्रागाली तु । दुष्प्रतिलिखितष्ये एतद्वितीयं भवेत् पथकम् ॥ १०॥ पल्हवी हसासरणं कौतपो रूतपूरितः पदः । वंद्रागाली धौतपोतं शेषौ प्रसिधौ भवेता भेदौ ॥1॥ तृणपत्र पुनर्भणितं जिनैर्जितरागद्वेषमोहैः । शालिनीहिः कोइवः रालकोअपयतमानि ॥१२॥ भोटकगोमहिषाणां मुगाणामजिनं च पभम भवति । तलिका खलको वः कोशः कर्तरी च द्वितीयं तु ॥ १३॥ अथ हिरण्यविकटादीनि (अजीयाः) तानि न गृहाति असंघमः (मत्वाव) साधुः। स्थानादि यत्र चिकीत् प्रेक्ष्य प्रमाधय सत्र कुर्यात् ॥१४॥ एषा प्रेक्षा उपेक्षा पुनर्द्विविधा तु भवति ज्ञातव्या । व्यापारेऽण्यापारे व्यापारे यथैव (इलिय) ग्रामस्थ ॥ १५ ॥ एष उपेक्षका मध्यापारे यथा विनश्यत् । किमेततूपेक्षसे द्विविधयाऽप्यत्राधिकारः ॥१६॥ व्यापारोपेक्षा तत्र सांभोगिकान् सीइतनोदयति । चोदयति इतरमपि भावचनीये कायें ॥१७॥ अन्यापासेपेक्षा नैव चोदयति गृहिणं तु सीदन्तम् । कर्मसु दीप अनुक्रम [२५]] ॥६५२।। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1307~ Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक * % [सू.] % % बहुविहेसुं संजम एसो उक्साए ॥ १८ ॥ पाए सागारिएK अपमजित्तावि संजमो होइ । ते चेव पमजते असागारिए संजमो होइ ॥ १९ ॥ पाणेहिं संसत्तं भत्तं पाणमहवावि अविसुद्धं । उवगरणपत्तमाई जं वा अइरित्त होजाहि ॥२०॥ तं परिठवणविहीए अवहटु संजमो भवे एसो । अकुसलमणवइरोहे कुसलाण उदीरणं जं तु ॥२१॥ मणवइसंजम एसो काए पुण जं अवस्सकजमि । गमणागमणं भवई तओवउत्तो कुणइ संमं ॥ २२ ॥ तवज कुम्मस्सव सुसमाहियपाणिपायकायरस । हवई य कायसंजमो चिहतस्सेव साहुस्स ॥ २३ ॥ अष्टादशप्रकारे अब्रह्मणि-अब्रह्मचर्ये सति तद्विपयो वा प्रतिषिद्धकरणादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृत इति, क्रिया पूर्ववत् , तत्राष्टादशविधाब्रह्मप्रतिपादनायाह सत्रहणिकार: मोरालियं च दिवं मणवरकाएण करणजोएर्ण । अणुभोषण कारपणे करणेणहारसा ॥१॥ व्याख्या-इह मूलतो द्विधाऽब्रह्म भवति-औदारिक तिर्यग्मनुष्याणां दिव्यं च भवनवास्यादीनां, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, मनोवाकायाः करणं विधा, योगेन त्रिविधेनैवानुमोदनकारापणकरणेन निरूपितं, पश्चानुपूर्योपन्यासः, बहुविधेषु संयम एष उपेक्षायाः ॥ १८॥ पादौ सागारिकेषु भामाज्यापि (अप्रभूजत्यपि) संयमो भवति । तायेव प्रमार्जयति असागारिके सवमा मवति ॥ १९ ॥ प्राणिभिः संसक्तं भकं पानमथवाऽप्यविशुद्धम् । उपकरणपात्रादि बहाऽतिरिक्तं भवेत् ॥ २०॥ तत् परिठापनविधिनाइपहत्यसपमा मवेदेषः । भकुशलमनोवाचोरोघे कुशलयोरुदीरयं बनु ॥ २१ ॥ मनोवाइसंथमावती काये पुनयंदवश्यकायें । गमनागमनं भवति बदुपयुक्तः करोति सम्यक् ॥ २२ ॥ तदर्ज कूर्मवेव सुसमाहितपाणिपादकावस्य । भवति च कायसंयमस्तिष्ठत एव साधोः ॥ २३ ॥ % दीप अनुक्रम [२५] 09-04% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अब्रह्मचर्यस्य १८ भेदानां वर्णनं ~ 1308~ Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) 96 प्रतिक आवश्यक- हारिभद्रीया ॥५॥ % प्रत सूत्रांक % [सू.] -% अब्रह्माष्टादशविधं भवति, इयं भावना-औदारिक स्वयं न करोति मनसा ३, नान्येन कारयति मनसा ३, कुर्वन्तं नानु- |मोदते मनसा ३, एवं वैक्रियमपि । प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचैकोनविंशतिभिर्जाताध्ययनैरिति वेदितव्यं, पाठान्तरं | वा-'एगूणवीसाहिं णायज्झयणेहिति' एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, क्रिया पूर्ववत् , ज्ञाताध्ययनानि ज्ञाताधर्मकथान्तर्वर्तीनि, तान्येकोनविंशति अभिधानतः प्रतिपादयन्नाह साहणिकारः उक्सित्तणोए संधारे, 'भो मे व सेलेए । तु व रोहिणी माली, मोगदी "दिमा इय ॥ १॥ दावेदवे उदगणाएं, मधुके तेली इय । नंदि फैले अवरैःका, ओयो" म डरिया ॥ २ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्ध, विंशतिभिरसमाधिस्थानः, क्रिया प्राग्वदेव, तानि चामूनि-देवदवचारऽपमंजिय दुप-४ मजियऽइरित्तसिजासणिए । राइणियपरिभासिय थेरबभूओवघाई य ॥ १ ॥ संजेलणकोहणो पिढिमंसिएँ'ऽभिक्खऽभिक्लमोहारी । अहिकरणकरोईरण अकाल सम्झायकारी या ॥ २॥ ससरखेपाणिपाए सईकरो कलह झंझंकारी य । सूरैप्पमाणभोती वीसइमे एसांसमिए ॥३॥ गाथात्रयम् , अस्य व्याख्या-समाधानं समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः, न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि-आश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानान्युच्यन्ते, देवदवचारि दुयं दुयं निरवेक्खो वञ्चतो इहेव अप्पाणं पडणादिणा असमाहीए जोएइ, अन्ने य सत्ते बाधते -र दीप अनुक्रम [२५] ॥६५॥ -CAC%* -04 सततचारी दुतं दुतं निरपेक्षो वजन देवात्मानं पतनादिनाऽसमाधिना योजयति अन्याय सत्यान् बापमानान् 16 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | असमाधिस्थानानां २० भेदानां वर्णनं ~1309~ Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक | असमाहीए जोएइ, सत्तवहजणिएण य कंमुणा परलोएवि अप्पाणं असमाहीए जोएइ, अतो द्वत २गन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम्, एवमन्यत्रापि यथायोग स्वबुद्ध्याऽक्षरगमनिका कार्येति, अपमजिए ठाणे निसीयणतुयट्टणाइ आयरतो अप्पाणं विग्छुगडंकादिणा सत्ते य संघट्टणादिणा असमाहीए जोएइ, एवं दुपमजिएवि आयरतो, अइरित्ते सेज्जाआसणिएत्ति अइरित्ताए सेजाए घंघसालाए अण्णेवि आवासेंति अहिगरणाइणा अप्पाणं परे य असमाहीए जोएइ आसण-पीढफलगाइ तंपि अइरित्तमसमाहीए जोपड, रायणियपरिभासी राइणिओ-आयरिओ अण्णो वा जो महल्लो जाइसुयपरियायादीहिं तस्स परिभासी परिभवकारी असुद्धचित्तत्तणओ अप्पाणं परे य असमाहीए जोयइ, थेरोवघाई थेरा-आयरिया गुरवो ते आयारदोसेण सीलदोसेण य णाणाईहिं उवहणति, उवहणतो दुइचित्तत्तणओ अप्पाणमण्णे य असमाहीए जोएइ, भूयाणि एगिंदिया ते अणद्वाए उवणइ उवहणतो असमाहीए जोएइ, संजलणोत्ति मुहुत्ते २ रूसइ [सू.] *% 4 दीप अनुक्रम [२५] %ry समाधिना योजयति, समयधजनितेन च कर्मणा परलोकेऽपि आत्मानमसमाधिना योजयति , अप्रमाणिते स्थाने निषीदनवम्वर्तनाचाचरन् । [आमान निकषादिना सत्याल संघहनादिनाऽसमाधिना योजयति २, एवं दुष्पमाणिते याचरन् ३, अतिरिक्तशय्यासनिक इति मतिरिकायां शय्यायां धन(वृहत) शालायां मन्येऽस्यावासयन्ति अधिकरणादिनात्मानं परांश्वासमाधिना योजयति, भासनं-पीठफलकादि सदष्यतिरिकमसमाधिना योजयति । रालिकपरिभाषी रात्रिकः-आचार्यः भन्यो वा यो महान् जातिश्रुतपर्यायादिभिः तस्य परिभाषी-पराभवकारी अशुद्धचित्तत्वात् आत्मानं परांबासमाधिना योज यति ५, स्थविरोधाती स्थचिरा:-आचार्याः गुरवः तान् आचारदोपेग शीलदोषेण च ज्ञानादिभिरुपहन्ति, उपनन् दुष्टचित्तस्वादास्मानं परांश्च असमाधिना प्रायोजयति , भूता एकेन्द्रियाः तान् मनायोपहन्ति उपमन् अलमाधिना योजयति, संज्वलन इति मुहू २ रुष्यति G) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1310~ Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रतिक्रमणाध्य. प्रत सूत्रांक आवश्यक हारिभ. द्रीया १६५४॥ संतो अप्पाणमण्णे य असमाहीए जोएइ, कोहणोत्ति सइ कुद्धो अच्चंतकुद्धो भवइ, सो य परमप्पाणं च असमाहीए जोएइ, एवं क्रिया वक्तव्या, पिडिमंसिएत्ति परंमुहस्स अवण्णं भगइ, अभिक्खभिक्खमोहारीति अभिक्षणमोहारिणी भासं भासइ जहा दासो तुमं चोरो वत्ति जं वा संकियं तं निस्संकियं भणइ एवं चेवत्ति, अहिगरणकरोदीरण अहिगरणाई करेति अण्णेसिं कलहेइत्ति भणियं होति यन्त्रादीनि वा उदीरति, उपसंताणि पुणो उदीरेति, अकालसज्झायकारी य कालियसुयं उग्घाडापोरिसीए पढइ, पंतदेवया असमाहीए जोएइ, ससरक्खपाणिपाओ भवइ ससरक्षपाणिपाए सह सरक्खेण ससरक्खे अथंडिल्ला थंडिल्लं संकमंतो न पमज्जइ धंडिल्लाओवि अथंडिलं कण्हभोमाइसु विभासा ससरक्खपाणिपाए ससरक्खेहिं हत्थेहिं भिक्खं गेण्हइ अहवा अणंतरहियाए पुढवीए निसीयणाइ करेंतो ससरक्खपाणिपाओ भवति,सई करेइ लं असंखडबोलं करेइ विगालेवि महया सद्देण र वएइ वेरत्तियं वा गारस्थिय भासं भासइ, कलहकरेत्ति अप्पणा कलह करे। [सू.] दीप अनुक्रम [२५] पा रुष्यन् सामानमम्यांमासमाधिना बोजवति कोधन इति सकृत् कुदः अत्यन्तकुरो भवति, सच परमात्मानं चासमाधिना योजयति५, पृष्ठमांसाद इति पराक्मुखखावण भणति१०,अभीक्षणमभीक्षणमणधारक इति अभीक्ष्णमवधारिणी भाषा भाषते वधा दासस्त्वं चोरोति यहा शातितं तत् निःशहितं भणति एवमे देति, मधिकरणकर उदीरका अधिकरणानि करोति मन्येषां कलायतीति भणितं भवति, यन्त्रादीनि वोदीरपति, उपशान्तानि पुनरुदीरयति 11-13,मकाल- स्वाध्यायकारीच कातिकश्रुतं चोटपाटपौरुष्यां पठति, मान्तदेवताऽसमाधिना योजयेत् १४, सशस्वपाणिपादो भवति सरजस्कपाणिपादः सहरजसा सरजस्कः अवडिलात् स्थण्डिकं संक्रामन् न प्रमार्जयति स्थग्लिादपि अस्पपिडलं कृष्णभूमादिषु विभाषा ससरजस्कपाणिपादः ससरजस्काभ्यां हस्ताभ्यो भिक्षा ग्रहाति अययाऽनन्तहितायां पृथ्वयां निषीदनादि कुर्वन् ससरजस्कपाणिपादो भवति १५, शब्दं करोति-कलहबोलं करोति विकालेऽपि महता पादेव वदति वैरात्रिक या गाईस्थभाषां भाषते १६, कलहकर इति आरमना कलई करोति *SHA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1311~ Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दात करेइ जेण कलहो भवइ, झंझकारी य जेण २ गणरस भेओ भवइ सबो वा गणो झंझविओ अच्छइ तारिसं भासइ करेइ वा, सूरप्पमाणभोइत्ति सूर एव पमाणं तस्स उदियमेत्ते आरद्धो जाव न अस्थमेइ ताव भुंजइ सम्झायमाई ण करेति. पडिचोइओ रूसइ, अजीरगाई य असमाहि उपजइ, एसणाऽसमिएत्ति अणेसणं न परिहरइ पडिचोइओ साहि दासम भंडइ, अपरिहरंतो य कायाणमुबरोहे वट्टइ, बटुंतो अप्पाणं असमाहीए जोएइत्ति गाथात्रयसमासार्थः ॥ विस्तरस्तु दशाख्याद् अन्धान्तरादवसेय इति, एकवीसाए सबलेहिं बावीसाए परीसहेहिं तेवीसाए सूयगडजायणेहिं चउचीसाए देवेहिं पंचवीसाए भावणाहिं छब्बीसाए दसाकप्पवयहाराणं उद्देसणकाले हिं सत्तावीसविहे अणगारचरिते अहाबीसविहे आपारकप्पे एगणतीसाए पावसुयपसंगेहिं तीसाए मोहणियठाणेहिं एगतीसाइ सिद्धाइगुणेहिं बत्तीसाए जोगसंगहेहि (सूत्रं) । एकविंशतिभिः शबलैः क्रिया प्राग्वत्, तत्र शबलं चित्रमाख्यायते, शबलचारित्रनिमित्तस्वात् करकर्मकरणादयः क्रियाविशेषाः शवला भण्यन्ते, तथा चोक्त-अवराहमि पयणुए जेण र मूलं न वच्चई साहू । सबलेंति तं चरित्तं तम्हा सबलत्तणं ति ॥१॥ तानि चैकविंशतिशबलस्थानानि दर्शयन्नाह तरकरोति येन कलहो भवति १५, मध्यकारी च वेन येन गणरूप भेदो भवति सनों वा गणोशक्षितो वर्तते तारशं भापते करोति वा 1, सूर्यप्रमाणभोजीति सूर्य एवं प्रमाणं तसोदयमानादारब्धा यावत् नासमपति तावत् भुनकि स्वाध्यायादि न करोति, प्रतिचोदितो रुष्यति, अजीर्णस्वादि चासमाधिस्त्पद्यते१९, INएपणाऽसमित इखनेषणा न परिहरति प्रतियोदितः साधुभिः समं कलयति,अपरिहरेश्व काथानासुपरोधेपति, पर्तमान आत्मानमसमाधिना योजयति २०अप-| दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: २१ शबल-दोषाणां स्वरुपम् एवं व्याख्या: ~ 1312~ Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝམྦྷོཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्रीया ॥६५५॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२७३...] आयं [ २०६...], तंज व हत्थकम् कुते मेणं च सेवते । राई च मुंनमाणे आहाकमंच झुंजते ॥ १ ॥ तत्तो य रोयर्थि की पानित अनि छे । मुंजते सबले के पचवित्रयभिक्समुंद व ॥ २ ॥ छम्मासभंतरओ गणा गणं संकर्म करेंते थे । मासभंतर तिणि इलेवा करेगो ॥ २ ॥ मासभंतरओ वा माइयाणा विनि करेमाणे पाणावायवर्हि ते मुसं वयंते ॥ ४ ॥ हिंते य आणिं हि तद अनंतरहिया पुढवीय ठाणसे निसीहिय बाबि चेतेइ ॥ ५ ॥ एवं ससनिदाए ससरखाचितमंत सिलले कोलावासहा कोल घुणा तेसि आवासो ॥ ६ ॥ वभ जाव उ संताण भवे तहिये ठाणाइ चेयमानो सबले आट्टिएव ॥ ७ ॥ वट्टि मूलकंदे पुष्फे य फले व श्रीहरिए । मुंजते सबए तहेव संवरतो ॥ ८ ॥ दे दगडे माहाण दस प रिसम्तो आवश्य सीद म्यारियहत्थमन्ते य ॥ ९ ॥ दीए भाषण व दीयतं भतपण घेतूनं मुंबइ सबो एसो इगवीसो होइनौयो ॥ १० ॥ 1 आसां व्याख्या - हत्थकम्मं सयं करेंति परेण वा करेंते सबले १, मेहुणं च दिवाइ २ अइकमाइसु तिसु साबणे य सेवते सबले २, राई च भुंजमाणेत्ति, एत्थ चडभंगो दिया गेण्हइ दिया भुंजइ हा [४] अतिकमाइस ४ सबले, सालंबणे 1 राधे मनुके येन तु न मूलं व्रजति साधुः । शबलयति तत् चारित्रं तस्मात् शयनं मुक्ते ॥ ३ ॥ यथा तु हस्तकर्म कुर्वति मैथुनं च सेवमाने रात्रौ च भुझाने आधाकर्म च भुञ्जने ॥ ततख राजपिण्डं क्रीतं प्रामित्यं अभितमाच्छेयम्। सुजाने वस्तु प्रत्याख्यायाभीक्ष्णं भुनक्ति ॥ २॥ पण्मास्यभ्यन्तरतो गणाद् गणं संक्रमं कुर्वन मासाभ्यन्तरे श्रींश्च दकलेपास्तु कुर्वन् ॥३॥ मासाभ्यन्तरतो वा मातृस्यानानि प्रीणि कुर्वन् प्राणातिपातमा कृथा कुर्वन् मुषा वच || ७ || गृहति चादचं आकुडवा तथाऽनन्तर्हितायां पृथ्यां स्थानं शय्यां नैधिकीं वाऽपि करोति ॥ ५ ॥ एवं सखिग्धायां सरजस्कचित्तवलिन कोलावासप्रतिष्ठा कोला घुणास्तेषामावासः ॥ ६ ॥ साण्डसप्राणसबीको यावत् ससंतानको भवेत् तत्र स्थानादि कुर्वन्सल आकुनैव ॥ ७ ॥ आवा मूलकन्दान् पुष्पाणि च फलानि च वीजहरितानि च भुञ्जानः शयल एप तथैव संवत्सरखान्तः ॥ ८॥ दू दकलेपान् कुर्वन् तथा दश मातृस्थानानि च वर्षान्तः । आकुवा शीतोदकं प्रलम्बिते (अल्पपुष्टी ) इतमात्रेण च ॥ ९ ॥ दय भाजनेन वा ( उदकार्येण ) दीपमा भक्तपाने गृहीत्वा भुनक्ति पावल एप एकविंशतितमो भवति ज्ञातव्यः ॥ १० ॥ इसकर्म स्वयं करोति परेण वा कारयति शवलो मैथुनं च दिव्यादि अतिक्रमादिनिविभिः साम्ब सेवमानः रात्रौ च भुञ्जाने, अत्र चतुर्भङ्गी-दिवा गृह्णाति दिया मुझे अतिक्रमादिषु शवः साम्ब ४ प्रतिक्र मणाध्य० २१शबलाः ~ 1313 ~ ॥६५५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक पुण जयणाए, संनिहिमाईसु पडिसेवणाए चेव, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं ३, आहामं च भुंजते' प्रकटार्थ ४ रायपिंड ५ कीयम् । दापामिव ७ अभिहड ८ अच्छेज ९ पसिद्धा 'पञ्चक्खियभिक्ख भुंजइ य असई पञ्चक्खिय २ भुंजए सबले १०, अंतो छण्हें । मासाणं गणाओ गणसंकर्म करेंते सबले अण्णत्व णाणदंसणचरित्तट्टयाए ११, 'मासम्भंतर तिण्णि य दगलेवे ऊ करेमाणे लेवोत्ति नाभिप्पमाणमुदगं, भणियं च-"जंघद्धा संघट्टो णाभी लेवो परेण लेवुवरि"त्ति, अंतो मासस्स तिनि उदगलेवे | द उत्तरते सवले१२,तिण्णि य माइहाणाई पच्छायणाईणि कुणमाणे सवले १३,आउट्टिआए-उपेत्य पुढवाइ पाणाइवार्य कुणमाणे सबले१४, मुसं वयंते सबले१५, अदिण्णं च गिण्हमाणे सबले १६, अर्णतरहियाए सचित्तपुढवीए ठाणं काउस्सग सेज सयणं निसीहियं च कुणमाणे सबले, ससणिद्धे दगेण ससरक्खा पुढविरएण, चित्तमंतसिला सचेयणा सिलत्ति भणियं होति, दालेलू लेख, कोला-धुणा तेसिमावासो धुणखइयं कई, तत्थ ठाणाई करेमाणे सवले, एवं सह अंडाईहिं जं तत्थपि ठाणाइ| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] पुनर्थतनया, सबिध्यादेः प्रतिषेवगाया मेव, आधाकर्मणि च भुझाने, राजपिण्डं शीतं प्रामिसं अभिहतं आच्छेचं प्रसिद्धानि प्रत्यारस्यावाभीषणं भुनक्ति च-असकृत् प्रत्याश्याय २ मुले शबलः, अन्तः पण मासानां गणार गणसंक्रमं कुर्वन् सबलः अन्यत्र ज्ञानवर्षानचारित्रार्थात्, मासाभ्यन्तरे त्रीबोदकलेपान कुर्वन् , लेप इति नाभिममाणमुदक, भाणितं च-जडा संघटो नाभिर्लेपः परतो हेपोपरीति, अन्तः मासस्य वीनुदकलेपानुत्तरन् शबलः, त्रीणि च मातस्थानानि प्रच्छावनादीनि कुर्वन् शबलः, ज्ञावा पृश्यादिप्राणातिपातं कुर्वन् शाबलः, एष पदन् शबला, अदत्तं च गृहन् शबला, अनन्तहितायां सचित्त-13 पृथ्षा स्थान कायोरसग शय्या (वसति) शायन पेषिकी च कुर्वन् चाबलः, सस्निग्धोदकेन सरजस्क: पृथ्वीरजसा चितमती शिला सचेतना शिलेति । | भणितं भवति, लेलु-लेछुः, कोला:-धुणाः तेषामावासो घुणसादितं काई, तत्र स्थानावि कुर्वन् शवलः, एवं सहाण्डादिभिः यत् तत्रापि स्थानादि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1314~ Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) 6- आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक्रमणाध्यक २१शबला - प्रत सूत्रांक ॥६५६॥ [सू.] |चएमाणो सबले १७,आउट्टिआए मूलाई भुंजते सबले१८,वरिसस्संतो दस दगलेवे य माइहाणाई कुबते सबले,१९-२०सीओदगवग्धारिय हत्थमत्तेण गलतेणंति भणिय होइ,एवं दबीए गलतीए भायणेण य दिजंतं घेत्तूण भुंजमाणे सबले२१अयं च समासार्थः ब्यासार्थस्तु दशाख्यग्रन्थान्तरादवसेयः,एवमसम्मोहाथै दशानुसारेण सबलस्वरूपमभिहितं, सङ्ग्रहणिकारस्त्वेवमाह परिसंतो बस मासस 'तिमि दावमाइलाणोई । भाउडिया करेंतो बेहालियर्यादिपमेहुण्णणे ॥१॥ निसिभकामे नियपिंद कीयमाई मंभिक्खेसंवरिए । कंदाई भुजंते उदग्लहरथाइ महणं ॥२॥ लसिलाकोले परविनियाई ससिणि संसरक्यो । छम्मासंतो गणसंकर्म च कर कममिह सबले ॥३॥ अस्य गाथात्रयस्यापि व्याख्या प्राग्निरूपितसवलानुसारेण कार्या । द्वाविंशतिभिः परीषहै।, क्रिया पूर्ववत् , तत्र "मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः" (तत्त्वा० अ०९सू०८) सम्यग्दर्शनादिमार्गाच्यवनार्थ ज्ञानावरणीयादिकर्मनिर्जरार्थं च परि-समन्तादापतन्तः क्षुत्पिपासादयो द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षाः सोढव्या:-सहितव्या इत्यर्थः, परीषहाँस्तान स्वरूपेणाभिधित्सुराह खुदा पिकासो सीषणहं दसायलाधिओ। चरियानिसीहियों से जो कोसजावणी 0-%AX दीप अनुक्रम [२६] ॥६५६॥ कुर्वन् मामला, शाया मूलादि भुझानः शबला, वर्षखाम्तश दकलेपान् वा च मातृस्थानानि पुर्षन् शामला, शीतोदकार्यहस्तमात्राभ्यो गलदम्यामिति । भणितं भवति, एवं दयां गलन्या भाजनेन च दीयमानं गृहीत्या भजामः पायल: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: २२ परिषहाः, तेषां स्वरुपम् एवं व्याख्या: ~1315~ Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] अलाभ रोम तणफासा मकसकारपरीसहा । णा औषणाणसमत्तं इह बावीस परीसहा ॥२॥ व्याख्या-पुत्परीपहा-शुद्धेदनामुदितामशेषवेदनातिशायिनी सम्यग्विषहमाणस्य जठरान्त्रविदाहिनीमागमविहितेनान्धसा शमयतोऽनेषणीयं च परिहरतः क्षुत्परीषहजयो भवति, अनेषणीयग्रहणे तु न विजितः स्यात् क्षुत्परीपहः, १, एवं पिपासापरीषहोऽपि द्रष्टव्यः २, 'सीय'ति शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः परित्राणवर्जितो नाकल्प्यानि वासांसि परिगृह्णीयात् परिभुञ्जीत वा, नापि शीतार्तोऽग्निं ज्वालयेत् अन्यज्चालितं वा नाऽऽसेवयेत् , एवमनुतिष्ठता शीतपरीप|हजयः कृतो भवति ३, 'उण्हं' उष्णपरितप्तोऽपि न जलावगाहनस्तानव्यजनवातादि वाञ्छयेत्, नैवातपत्रायुष्णत्राणायाऽऽददीतेति, उष्णमापतितं सम्यक् सहेत, एवमनुतिष्ठतोष्णपरीपहजयः कृतो भवति ४, 'दंस'त्ति दंशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छेत् , न च तदपनयनाथै धूमादिना यतेत, न च व्यजनादिना निवारयेदिति, एवम नुतिष्ठता देशपरिषहजयः कृतो भवति ५, एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या, 'अचेल'त्ति अमहाधनमूल्यानि खण्डितानि जीर्णाXIनि च वासांसि धारयेत् न च तथाविधो दैन्यं गच्छेत् , तथा चागमः- परिजुण्णेहिं वत्थेहि, होक्खामित्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्ख, इति भिक्खू न चिंतए ॥१॥' इत्यादि ६, 'अरतित्ति विहरतस्तिष्ठतो वा यद्यरतिरुत्पद्यते तत्री पन्नारतिनाऽपि सम्यग्धर्मारामरतेनैव संसारस्वभावमालोच्य भवितव्यं, 'इत्थी'त्ति न खीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानहसितल४ालितनयनविभ्रमादिचेष्टां चिन्तयेत्, न जातुचिच्चक्षुरपि तासु निवेशयेत् मोक्षमार्गार्गलासु कामबुद्धयेति ८, 'चरिय'त्ति । परिजीर्णेषु वनेषु भविष्याम्यवेक्षकः । अथवा सचेलको भविष्यामीति भिक्षु चिन्तयेत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [२६] CAMSC-G मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1316~ Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभदीया ॥ ६५७ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७३...] भाष्यं [ २०६...], वर्जितालस्यो ग्रामनगरकुलादिष्यनियतवसतिर्निर्ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेदिति ९, 'निसीहिय'त्ति निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या-स्थानं तत् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसतिं सेवेत पश्चाद्भाविनस्त्विष्टानिष्टोपसर्गान् सम्यगधिसहेत १०, 'सेज्जत्ति शय्या संस्तारकः - चम्पकादिपट्टो मृदुकठिनादिभेदेनोच्चावचः प्रतिश्रयो वा पांशुत्करमचुरः शिशिरो बहुधर्मको वा तत्र नोद्विजेत ११, 'अकोस' त्ति आक्रोशः अनिष्टवचनं तच्छ्रुत्वा सत्येतरालोचनया न कुप्येत १२, 'वह'त्ति वधः - ताडनं पाणिपाणिलताकशादिभिः, तदपि शरीरमवश्यंतया विध्वंसत एवेति मत्वा सम्यकू सहेत, स्वकृतकर्मफलमुपनतमित्येवमभिसंचिन्तयेत् १३, 'आयण'त्ति याचनं-मार्गणं, भिक्षोहिं वस्त्रपात्रान्नपानप्रतिश्रयादि परतो लब्धव्यं सर्वमेव, शाली-नतया च न याज्यां प्रत्याद्रियते, साधुना तु प्रागल्भ्यभाजा सजाते कार्ये स्वधर्मकायपरिपालनाय याचनमवश्यं कार्यमिति, एवमनुतिष्ठता याज्यापरीपहजयः कृतो भवति १४, 'अलाभ'त्ति याचितालाभेऽपि प्रसन्नचेतसैवाविकृतवदनेन भवितव्यं १५, 'रोग'त्ति रोगः - ज्वरातिसार कासश्वासादिस्तस्य प्रादुर्भावे सत्यपि न गच्छनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्तन्ते, गच्छवा सिनस्वल्पबहुत्वालोचनया सम्यकू सहन्ते, प्रवचनोक्तविधिना प्रतिक्रियामाचरन्तीति एवमनुतिष्ठता रोगपरी हजयः कृतो भवति १६, 'तणफास'त्ति अशुपिरतृणस्य दर्भादेः परिभोगोऽनुज्ञातो गच्छनिर्गतानां गच्छनिवासिनां च, तत्र येषां शयनमनुज्ञातं निष्पन्नानां ते तान् दर्भान् भूमावास्तीर्य संस्तारोत्तरपट्टकी च दर्भाणामुपरि विधाय शेरते, चौरापहृतोपकरणा वा प्रतनुसंस्तारपट्टकावत्यन्त जीर्णत्वात्, तथाऽपि तं परुपकुशदर्भादितृणस्पर्श सम्यक् सहेत १७, ४ प्रतिक मणाध्य० २२ परि पहा ~ 1317 ~ ॥६५७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) - - प्रत सूत्रांक - [सू.] 'मल'त्ति स्वेदवारिसम्पत्किठिनीभूतं रजो मलोऽभिधीयते, स वपुषि स्थिरतामितो ग्रीष्मोप्मसन्तापजनितधर्मजलादादातां गतो दुर्गन्धिमहान्तमुद्वेगमापादयति, तदपनयनाय न कदाचिदभिलषेत्-अभिलाषं कुर्यात् १८, 'सकारपरीसहे'त्ति | सत्कारो-भक्तपानवलपात्रादीनां परतो लाभः पुरस्कार:-सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च, तत्रासत्कारितोऽपुरस्कृतो वा न द्वेष यायात् १९, 'पण्ण'त्ति प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा-बुद्ध्यतिशयः, तत्प्राप्तौ न गर्वमुद्ध&ात् २०, 'अण्णाणं ति कर्मविपाकजादज्ञानान्नोद्विजेत २१, 'असंमत्त'ति असम्यक्त्वपरीपहः, सर्वपापस्थानेभ्यो विरतः प्रकृष्टतपोऽनुष्ठायी निःसङ्गाश्चाहं तथापि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिभावान्नेक्षे अतो मृषा समस्तमेतदिति असम्यक्त्वपरीषहः, तत्रैवमालोचयेत्-धर्माधर्मों पुण्यपापलक्षणी यदि कर्मरूपौ पुद्गलात्मको ततस्तयोः कार्यदर्शनानुमानसमधिगम्यत्वं, अथ क्षमाक्रोधादिकी धर्माधौं ततः स्वानुभवत्वादात्मपरिणामरूपत्वात् प्रत्यक्षविरोधा, देवारस्वत्यन्तसुखासक्तवान्मनुष्य|लोके कार्याभावात् दुषमानुभावाच न दर्शनगोचरमायान्ति, नारकास्तु तीनवेदनाताः पूर्वकृतकमादयनिगडबन्धनव-| | शीकृतत्वादस्वतन्त्राः कथमायान्तीत्येवमालोचयतोऽसम्यक्त्वपरीषहजयो भवति, 'बावीस परीसह'त्ति एते द्वाविंशतिपरीषहा इति गाथाद्वयार्थः ॥त्रयोविंशतिभिः सूत्रकृताध्ययनैः, क्रिया पूर्ववत् , तानि पुनरमूनि ___पुंडरीयकिरियाणं माहारपरिण्यैपचक्वाणकिरियाँ थ । अणगौर इनालंद सोलसाई च तेषीसं ॥ १ ॥ गाथा निगदसिद्धव ॥ चतुर्विंशतिभिर्देवैः, क्रिया पूर्ववत्, तानुपदर्शयन्नाह दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1318~ Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) EX आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक्रममणाध्य २५भावनाः प्रत सूत्रांक [सू.] भवणपणजोहोमाणिया व सभापंचएगविहा । इद चयीसं देवा केह पुण ति मरईता ॥ १ ॥ इयमपि निगदसिद्धैव ॥ पञ्चविंशतिभिर्भावनाभिः, क्रिया पूर्ववत् , प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाव्रतसंरक्षणाय | भाव्यन्त इति भावनाः, ताश्चेमाः____इरिषासमिए सवा जए, उबेह भुंगेज व पाणभोवर्ण । आयाणनिस्खेवदुगुंठ संजए, समाहिए संजमए मणोवई ॥३॥ अहस्ससचे अणुपीइ भासएः | जे कोहलोहभयमेव चजए । स दोहरा समुपेहिया सिया, मुणी हु मोसं परिवजए सथा ॥ २ ॥ सयमेव व उगहजायणे; पदे मतिमं निसम्म सद सबम्यहं । भाषणविय भुजिज पाणभोयणं, जाइत्ता साइंमियाण माहं ॥३॥ आहारगुचे भविभूसियप्पा, हरिथ न निमाइ म संथपेजा दो गुणी खड़कह न कुमा, धम्माणुपही संधए बंभचेरं ॥ ४ ॥ जे सदस्वरसगंधमागर, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गिहीपदोस न करेज पंदिए, स होई दंते विरए अकिंचणे ॥५॥ गाथाः पञ्च, आसां व्याख्या-ईरणम् ईर्या, गमनमित्यर्थः, तस्यां समितः-सम्यगित ईर्यासमितः, ईर्यासमितता प्रथमभावना यतोऽसमितःप्राणिनो हिंसेदतः सदा यता-सर्वकालमुपयुक्तः सन् 'उवेह भुंजेज व पाणभोयण"उवेह'त्ति अवलोक्य भुञ्जीत पानभोजनं, अनवलोक्य भुञ्जानः प्राणिनो हिंसेत, अवलोक्य भोक्तव्यं द्वितीयभावना, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या, आदाननिक्षेपी-पात्रादेग्रहणमोक्षौ आगमप्रसिद्धौ जुगुप्सति-करोत्यादाननिक्षेपजुगुप्सका,अजुगुप्सन् प्राणिनो हिंस्थात् तृतीयभावना, संयतः-साधुः समाहितः सन् संयमे 'मणोवईत्ति अदुष्टं मनः प्रवर्तयेत् , दुष्टं प्रवर्तयन् प्राणिनो हिंसेत् चतुर्थी | भावना, एवं वाचमपि पश्चमी भावना, गताः प्रथमन्नतभावनाः। द्वितीयवतभावनाः प्रोच्यन्ते-'अहस्ससचे ति अहास्यात् *-*-- दीप अनुक्रम [२६] ॥६५८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: पञ्च महाव्रतानां २५ भावनाया; वर्णनं ~ 1319~ Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक सत्यः, हास्यपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतमपि ब्रूयात् , अतो हास्यपरित्यागः प्रथमभावना, अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य भाषेत, अन्यथाऽनृतमपि ब्रूयात् द्वितीयभावना, यः क्रोधं लोभ भयमेव वा त्यजेत् , स इत्थम्भूतो दीर्घरात्रं-मोक्षं समुपेक्ष्य-सामीप्येन द्रष्टा (दृष्ट्वा) सिया' स्यात् मुनिरेव मृषां परिवर्जेत सदा, क्रोधादिभ्योऽनृतभाषणादिति भावनात्रयं, गता द्वितीयत्रतभावनाः । तृतीयवतभावनाः प्रोच्यन्ते-'स्वयमेव' आत्मनैव प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वाऽधिकृत्य अवग्रहयाबायां प्रव|तते अनुविचिन्त्यान्यथाऽदत्तं गृह्णीयात् प्रथमभावना, 'घडे मइमं निसम्म'त्ति तत्रैव तृणाद्यनुज्ञापनायां चेष्टेत मतिमान निशम्य-आकर्ण्य प्रतिग्रहदातृवचनमन्यथा तददत्तं गृह्णीयात्, परिभोग इति द्वितीया भावना, 'सइ भिक्खु उग्गह'ति सदा भिक्षुरषग्रहं स्पष्टमर्यादयाऽनुज्ञाप्य भजेत, अन्यथाऽदत्तं संगृह्णीयात्, तृतीया भावना, अनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनम् , अन्यथाऽदत्तं गृह्णीयात् चतुर्थी भावना, याचित्वा साधर्मिकाणामवग्रहं स्थानादि कार्यमन्यथा तृतीयव्रतविराधनेति पञ्चमी भावना, उक्तास्तृतीयत्रतभावनाः । साम्प्रतं चतुर्थव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-आहारगुत्ते'त्ति आहारगुप्तः स्यात् नातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात् प्रथमा भावना, अविभूषितात्मा स्थादू-विभूषां न कुर्याद्, अन्यथा ब्रह्मव्रतविराधकः स्यात् द्वितीया भावना, खियं न निरीक्षेत तदव्यतिरेकादिन्द्रियाणि नाऽऽलोकयेद् , अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात् तृतीया भावना, 'न संथवेज'त्ति न ख्यादिसंसक्ता वसति सेवेत, | अन्यथा प्राविराधकः स्यात् चतुर्थी भावना, बुद्धः-अवगततत्त्वः मुनिः-साधुः क्षुद्रकथां न कुर्यात् स्त्रीकथा स्त्रीणां | वेति, अन्यथा ब्रह्मविराधकः स्यात् पञ्चमी भावना, धम्म (धम्माणु) पेही संधए बंभचेर ति निगदसिद्धम् , उक्ताश्चतुर्थन %A4% AE% [सू.] दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1320~ Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक है तभावनाः । पञ्चमव्रतभावनाः प्रोच्यन्ते-यः शब्दरूपरसगन्धानागतान, प्राकृतशैल्याऽलाक्षणिकोऽनुस्वारः, स्पर्शाश्वप्रतिकहारिभ संप्राप्य मनोज्ञपापकान्-इष्टानिष्टानित्यर्थः, गृद्धिम्-अभिष्वङ्गालक्षणां, प्रद्वेषः प्रकटस्तं न कुर्यात् पण्डितः, स भवति । मणाध्य द्रीया दान्तो विरतोऽकिञ्चन इति, अन्यथाऽभिष्वङ्गादेः पञ्चममहाव्रतविराधना स्यात् , पश्चापि भावनाः, उक्ताः पञ्चमहाव्रतभा २५भावनाः ॥६५९॥ वनाः, अथवाऽसम्मोहार्थं यथाक्रमं प्रकदार्थाभिरेव भाष्यगाथाभिः प्रोच्यन्ते-"पणवीस भावणाओ पंचण्ह महबयाणमे याओ। भणियाओ जिणगणहरपुजेहिं नवर सुत्तमि ॥१॥ इरियासमिइ पढमा आलोइयभत्तपाणभोई य । आयाणभंडनिक्खेवणा य समिई भवे तइया ॥२॥ मणसमिई बयसमिई पाणइवायमि होंति पंचेव । हासपरिहारअणुवीइ. भासणा कोहलोहभयपरिण्णा ॥३॥ एस मुसावायरस अदिन्नदाणस्स होतिमा पंच । पहुसंदिट्ट पहू वा पढमोग्गह जाएँ अणुवीई ॥ ४॥ उग्गहणसील विइया तत्थोग्गेण्हेज उग्गहं जहियं । तणडगलमल्लगाई अणुण्णवेजा तहिं तहियं ॥५॥ तमि उग्गहं तू अणुण्णवे सारिउग्गहे जा उ । तावश्य मेर काउंन कप्पई बाहिरा तस्स ॥६॥ भावण चउत्थ साईमियाण सामण्णमण्णपाणं तु । संघाडगमाईणं भुजेज्ज अणुण्णवियए उ॥७॥ पंचमियं गंतूणं साहम्मियउग्गहं अणुण्ण|विया । ठाणाई चेएज्जा पंचेव अदिण्णदाणस्स ॥ ८॥ वंभवयभावणाओणो अइमायापणीयमाहारे । दोच्च अविभूसणा ऊ विभूसवत्ती न उ हवेजा ॥९॥ तच्चा भावण इत्थीण इंदिया मणहरा ण णिज्झाए । सयणासणा विचित्ता इस्थि- | ॥६५९॥ पसुविवजिया सेजा ॥१०।। एस चउत्था ण कहे इत्थीण कहं तु पंचमा एसा । सद्दा रूवा गंधा रसफासा पंचमी एए ॥ ११ ॥ रागद्दोसविवजण अपरिग्गहभावणाउ पंचेव । सबा पणवीसेया एयासु न बट्टियं जं तु ॥ १२ ॥" दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1321 ~ Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] ला पनिंशतिभिर्दशाकल्पव्यवहाराणामुद्देशन कालः, क्रिया पूर्ववत् , तानेवोद्देशनकालान्-श्रुतोपचारान् दर्शयन्नाह सनहणिकार दस उदेसणकाला बखाण कप्पस्स होंति छच्चेव । दस चेव ववहाररस बहोति सोधि यीसं ॥३॥ निगदसिद्धा । सप्तविंशतिप्रकारेऽनगारचारित्रे सति-साधुचारित्रे सति तद्विषयो वा प्रतिषिद्धादिना प्रकारेण योऽ- | तिचारः कृत इति प्राग्वत् , सप्तविंशतिभेदान् प्रतिपादयन्नाह सग्रहणिकार: वामिवियाणं च निगहो भावकरणसचं च । खमयाविराणायाधिय मणमाईणं गिरोहो य॥१॥ कायाण छोगाण उत्तया वेषणाऽहियासणया । तइ मारपंतियऽहियासणा व एएणमारगुणा ॥२॥ गाथाद्वयम्, अस्य व्याख्या-त्रतषटुं-प्राणातिपातादिविरतिलक्षणं रात्रिभोजनविरतिपर्यवसानम्, इन्द्रियाणां च श्रोत्रादीनां निग्रहः-दष्टेतरेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणमित्यर्थः, भावसत्यं-भावलिङ्गम् अन्तःशुद्धिः, करणसत्यं च बाह्य प्रत्युपेक्षणादिकरणसत्यं भण्यते, क्षमा क्रोधनिग्रहः, विरागता लोभनिग्रहः, मनोवाकायानामकुशलानामकरणं कुशला-1 नामनिरोधश्च, कायानां-पृथिव्यादीनां पर्दू सम्यगनुपालनविषयतयाऽनगारगुणा इति, संयमयोगयुक्तता, वेदनाशीतादिलक्षणा तदभिसहना था, तथा मारणान्तिकाऽभिसहना च-कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमित्यर्थः एतेनगारगुणा इति गाथाद्वयार्थः । अष्टाविंशतिविध आचार एवाऽऽचारप्रकल्पः, क्रिया पूर्ववत् , अष्टाविंशतिभेदान् दर्शयति सत्धपरिष्णा कीगो विजो य सीबोसेणिज संमतं । आवंति (वविमोहो हाणमुच महापरियों व ॥१॥ पिंडेसंगसिजि रियों भासजाया व वैयपाएसा । उहपडिमा सरोकासयं भीषणपिसीओ॥२॥ अग्यमणुग्यो भाणा तिविहमो जिसीह तु । इय अठ्ठावीसविहो आयारपकप्पणामोऽयं ॥३॥ CSCRICA0AMARCalk दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अनगार (साधु) चारित्राणां २७ भेदानां वर्णनं ~1322~ Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्रीया ॥६६०॥ आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा ], निर्युक्तिः [१२७३...] भाष्यं [ २०६...], गाथात्रयं निगदसिद्धमेव, एकोनत्रिंशद्भिः पापश्रुतप्रसङ्गः, क्रिया पूर्ववत्, पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषां प्रसङ्गाः- तथाssसेवनारूपा इति, पापश्रुतानि दर्शयन्नाह सग्रहणिकारः गैरलक्खणैर्वजणं च तिविहं पुणोकेकं ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ अनिशिंगाई दिप्ातलिस मोमं च "वित्ती] तह शियं च पावसूय अडणवीसविहं गाथाद्वयम् अस्य व्याख्या-अष्ट निमित्ताङ्गानि दिव्यं व्यन्तराचट्टट्टहासादिविषयम्, उत्पातं सहजरुधिरवृष्ट्यादिविषयम्, अन्तरिक्षं ग्रहभेदादिविषयं भौमं भूमिविकारदर्शनादेवास्मादिदं भवतीत्यादिविषयम् अङ्गम् अङ्गविषयं | स्वरं स्वरविषयं व्यञ्जनं-मषादि तद्विषयं तथा च-अङ्गादिदर्शनतस्तद्विदो भाविनं सुखादि जानन्त्येध, त्रिविधं पुनरे| कैकं दिव्यादि सूत्रं वृत्तिः तथा वार्तिकं च इत्यनेन भेदेन - दिवाईण सरूवं अंगविवजाण होंति सत्तण्हं । सुत्तं सहस्स लक्खो य विसी तह कोडि वक्खाणं ॥ १ ॥ अंगस्स सयसहस्सं सुत्तं वित्तीय कोडि विज्ञेया । वक्खाणं अपरिमियं इय| मेव य वत्तियं जाण ॥ २ ॥' पापश्रुतमेकोनत्रिंशद्विधं कथम् ?, अष्टौ मूलभेदाः सूत्रादिभेदेन त्रिगुणिताश्चतुर्विंशतिः गन्धर्वादिसंयुक्ता एकोनत्रिंशद्भवन्ति, 'ब'ति वास्तुविद्या 'आउ'न्ति वैद्यकं शेषं प्रकटार्थं ॥ १ दिव्यादीनां स्वरूपमङ्गविवर्जितानां भवति सप्तानाम् । सूत्रं सहस्रं लक्षं च वृचिस्तथा कोटी व्याख्यानम् ॥ १ ॥ अङ्गस्य शतसहस्रं सूर्य वृत्ति कोटी विशेषा व्याख्यानमपरिमितं इदमेष वाचिकं जानीहि ॥ २ ॥ ४ प्रतिक्र मणाध्य० २९ पापश्रुतानि ~ 1323 ~ ॥६६०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः पापश्रुत-प्रसङ्गानां २९ भेदानां वर्णनं Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) कर % प्रत सूत्रांक [सू.] SSSODEOSSSS त्रिंशभिर्मोहनीयस्थानः, क्रिया पूर्ववत्, सामान्येनैकप्रकृतिकर्म मोहनीयमुच्यते, उक्त च-अहविहंपि य कम्म भणिय मोहोत्ति जं समासेण'मित्यादि, विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिर्मोहनीयं तस्य स्थानानि-निमित्तानि भेदाः पर्याया मोहनीयस्थानानि, तान्यभिधित्सुराह सबहणिकार: बारिमाशेवगाहिता, तसे पाणे विदिसई । हाएर मुई इत्येणं, अंतोनार्य गलेवं ॥1॥सीसावेडेग वेवित्ता, संकिलेसेण मारए । सीसंमि जे व टाईट हुदमारेण हिंसई ॥२॥ बहुजणस्स नेवार, दीयं ताणं च पाणिण । साहारणे मिलाणमि, पहू कि कुई ॥३॥ साहू नकाम पम्मान, भंसह पहिए। णेवाग्यस्स ममास, भवणारंमि वहई ॥४॥ जिणाणं गंतपाणीर्ण, अवणं जो मासई । भापरिवानग्याए, बिसई मंदची ॥५॥ तेसिमेवपणाणीण, संमं नो पडितप्पई। पुणो पुणो अहिगरण, उपाए विस्थभेयए ॥ ॥जाणं माइंमिए जोए, पजद पुणो पुणो"। कामे पमित्ता पत्थेद, अमविए इथ ॥ ७॥ भिक्पूर्ण बहुसुपऽईति, जो भासहबहुस्सुरे। तहा व सतपस्सी ब, जो तवस्सिपिई वएँ ॥८॥जायतेएण बहुजणं, तोपमेण सिं। अकिचामप्पणा कार्य, कयमेएण भासेई ॥१॥ निबद्धवहिपणिहीए, पलिये" साहजोगज" य । घेई सर्व मुसं वसि, मक्खीणझंझए। सयों ॥10॥ भवार्णमि पवेसित्ता जो, धर्ण हरा पागिण" । बीसभित्ता उपाएणं, पारे तस्सेव लुम्भई ॥1॥अभिक्रमकुमारवि, मारेझंति | पास। एवं अभयारीति, भवारिसिहं च ॥२॥जेणेविस्सरियं गोए, विचे तस्सेव लुम्बई । तपमाहिए पावि, अंतराय करेए से" m सेणावई पसत्थार, भत्तार वानि हिंसई । रहस्स बावि निगमस्स, नायगं सेडिमेव वो ॥४॥ अपस्खमाणो पस्सामि, महं देवेत्ति वा वए । अवष्णेच देवाणं, महामोहं पकुबह ॥१५॥ %4 दीप अनुक्रम [२६] 494%%*& अष्टविधमपि च कर्म भाणितं मोद इति यत् समासेन । %% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मोहनियस्थानानां ३० भेदानां सविस्तर वर्णनं ~ 1324 ~ Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] भावश्यक- हारिभ द्रीया ॥६६॥ -R गाथाः पञ्चदश, आसां व्याख्या-'वारिमझे' पाणियमज्झे 'अवगाहित्त'त्ति तिघेण मणसा पाएण अकमित्ता तसे प्रतिक्रमपाणे-इस्थिमाई विहिसइ, 'से' तस्स महामोहमुप्पाएमाणे संकिलिङ्कचित्तत्तणो य भवसयदुहवेयणिज: अप्पणो महा-IPाणाध्य पणा महात्रिंशन्मोहमोह पकुबड, एवं सर्वत्र क्रिया वाच्या १, तथा 'छाएन' दंकिउं मुहं 'हत्थेण'ति उवलक्षणमिदमन्नाणि य कन्नाईणिSTHAT 'अंतोनदंति हिदए सदुक्खमारसंतं 'गलेरवं' गलएण अञ्चंत रडति हिंसति २, 'सीसावेढण' अल्लचंमाइणा कएणाभिक्खणं वेढेत्ता 'संकिले सेण' तिवासुहपरिणामेण 'मारए' हिंसइ जीवंति ३, सीसंमि जे य आहेतु-मोग्गराइणा विभिंदिय सीसं 'दुहमारेण महामोहजणगेण हिंसइत्ति ४, बहुजणस्स नेयारंति-पहुं सामित्ति भणिय होइ, दीवं समुद्दमिव बुज्झमाणाणं संसारे आसासथाणभूयं तार्ण च-अण्णपाणाइणा ताणकारिणं 'पाणिण' जीवाणं तं च हिंसइ, से तं विह-14 संते बहुजणसंमोहकारणेण महामोहं पकुछइ ५, साहारणे-सामण्णे गिलाणंमि पहू-समत्थो उपएसेण सइकरणेण वा तप्पिउं तहवि 'किञ्च' ओसहजायणाइ महाघोरपरिणामो न कुबइ सेऽवि महामोहं पकुबइ, सवसामण्णो य गिलाणो | भवइ, तथाजिनोपदेशाद्, उक्कं च-कि भंते ! जो गिलाणं पडियरह से धण्णे उदाहु जे तुम दसणेण पडिवाइ, गोयमा जे गिलाणं पडियरइ, से केणडेणं भंते ! एवं वुश्चइ, गोयमा! जे गिलाणं पडियरइ से में दसणेणं पडिवजइ ॥६६॥ किं भवन्त बोकानं प्रतिपरति स धन्य ताहो यो युष्मान दर्शनेन प्रतिपद्यते', गौतम ! यो मकानं प्रतिधरति, तर फेनान भवन्तैच मुच्यते , गौतम ! यो बलानं प्रतिचरति स मां दर्शनेन प्रतिपयते, यो मो दर्यानेन प्रतिपद्यते दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1325~ Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक | मंदसणेण पडिवाइसे गिलाण पडियरइत्ति,आणाकरणसारं खु अरहताणं दसणं,से तेणड्डेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जे गिलाण पडियरइ से मै पडिवजाइ, जे में पडिवजह से गिलाणं पडिवजईत्यादि ६, तहा 'साहुं तवस्सिं अकम्म-बलात्कारेण धम्मा ओ-सुयचरित्तभेयाओ जे महामोहपरिणामे भंसेतित्ति-विनिवारेइ उवद्वियं-सामीप्येन स्थितं ७, नेयाज्यस्स-जयनशीलस्य । मग्गस्स-णाणादिलक्खणस्स दूसणपगारेण अप्पाणं परं च विपरिणामंतो अवगारंमि वट्टइ, णाणे-काया पया य तेचिय'। एवमाइणा, दंसणे ऐते जीवाणता कहमसंखेज्जपएसियंमि लोयंमि ठाएजा , एवमाइणा, चारित्ते 'जीवबहुत्ताउ कहमहिंसगत्तति चरणाभाव' इत्यादिना ८, तथा जिणाणं-तित्थगराणं अणतणाणीणं-केवलीणं अवनं-निंदं जो महाघोरपरिणामो 'पभासई' भणति, कथं ?, ज्ञेयाऽनन्तत्वात्सर्वार्थज्ञानस्याभाव एच, तथा च-'अजैवि धावति णाणं अज्जवि लोओ अणंतओ होइ। अज्जविन तुहं कोई पावइ सवण्णुर्य जीवो ॥१॥ एवमाइ पभासइ, न पुणजाणति जहा-खीणावरणो जुगवं लोगमलोग जिणो पगासेइ । ववगयघणपडलो इव परिमिययं देसमाइश्चो ॥१॥९, आयरियउवज्झाए [सू.] RECENTRANCE दीप अनुक्रम [२६] सरकानं प्रतिवरतीति, माझाकरणसारमेवाईसा वर्शनं, तवेतेनार्थेन गौतमैवमुच्यते-पोग्लानं प्रतिवरति स मा प्रतिपद्यते पो मा प्रतिपयते स लानं प्रतिपयते (प्रतिचरति)। काया ब्रतानि च तान्येच । ३ एते जीवा भनन्ताः कथमसंस्वेयप्रवेशिके लोके तिछेयुः। जीचबहुवात् कथमहिसकावमिति चरणाभावः ५ भद्यापि धावति शानमद्यापि लोकोऽनन्तको भवति । अद्यापि न तव कोऽपि मानोति सर्वत्रता जीवा ॥१॥ क्षीणावरणो युगपद खोकमलोक जिनः प्रकाशयति । व्यपगतधनपटल इव परिमितं देशमादित्यः॥ १॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1326~ Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६६२॥ नानि पसिद्धे 'विसई' निंदइ जचाईहिं, अबहुस्सुया वा एए तहावि अम्हेवि एएसिं तु सगासे किंपि कहंचि अवहारियति 'मंदबुद्धीए' प्रतिक्रमबालेत्तिभणिय होइ १०, तेसिमेव'य आयरिओवज्झायाणं परमबंधूणं परमोचगारीण णाणीण'न्ति गुणोवलक्षणं गुणेहिं पभा- णाध्यक विए पुणो तेसिव कजे समुपपणे 'समैन पडितप्पई' आहारोवगरणाईहिं णोवजुजेइ ११, 'पुणो पुणो त्ति असई 'अहिगरण' त्रिंशन्मोहजो तिस्साइ 'उप्पाए' कहेइ निवजत्ताइ 'तित्थभेयए' गाणाइमग्गविराहणत्यति भणिय होइ १२, जाणं आहमिए जोए-वसी- नीयस्थाकरणाइलक्खणे पउंजइ 'पुणो पुणों' असइत्ति१३, कामें इच्छामयणभेयभिण्णे 'वमेत्ता' चइऊण, पषजमन्भुवगम्म 'पत्थे | अभिलसइ इहभविए-माणुस्से चेव अण्णभविए-दिवे १४, 'अभिक्खणं' पुणो २ बहुस्सुएऽहंति जो भासए, बहुस्सुए। (बहुस्सुएण) अण्णेण वा पुट्ठोस तुम बहुस्सुओ?,आमंति भणइ तुहिको वा अच्छइ, साहवो चेव बहुस्सुएत्ति भणति १५ अतवस्सी तवस्सित्ति विभासा १६, 'जायतेएण' अग्गिणा बहुजणं घरे छोढुं 'अंतो धूमेण' अभितरे धूमं काऊण हिंसइ १७, 'अकिञ्च' पाणाइवायाइ अप्पणा कार्ड कयमेएण भासइ-अण्णस्स उत्योभं देइ १८,'नियडुवहिपणिहीए पलिउंचई' नियडीअण्णहाकरणलक्खणा माया उवहीतं करेइ जेण तं पच्छाइजइ अण्णहाकयं पणिही एवंभूत एव (च) रइ, अनेन प्रकारेण| 'पलिउंचई' बंचेइत्ति भणिय होइ १९, साइजोगजुत्ते य-अशुभमनोयोगयुक्तश्च २०, बेति' भणइ सब मुसं बयइ सभाए २१॥ ६२॥ 'अक्खीणझंझए सया' अक्षीणकलह इत्यर्थः, झंझा-कलहो २२, 'अद्धाणमि' पंथे 'पवेसेत्ता' नेऊण विसंभेण जो धर्ण-1 सुवण्णाई हरर पाणिण-अछिदइ २३, जीवाणं, विसंभेत्ता-उवाएण केणइ अतुल पीई काऊण पुणो दारे-कलते |'तरसेव' जेण समं पीई कया तत्थ लुभइ २४, 'अभिक्खण' पुणो २ अकुमारे संते कुमारेऽहंति भासइ २५, एवमब-13 दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1327~ Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] %25%54564584%9645 भयारिंमि विभासा २६, जेणेविस्सरिय नीए-ऐश्वर्य प्रापित इत्यर्थः, 'वित्चे' धणे तस्सेब संतिए लुभइ २७, तप्पभावुडिए वावि-लोगसंमयत्तणं पत्ते तस्सेव केणइ पगारेण अंतराय करेइ २८ सेणावई रायाणुन्नायं वा चाउरंतसामि पसस्थारंलेहारियमाइ भत्तारं वा विहिंसइ रहस्स वावि निगमस्स जहासंखं नायगं सेडिमेव वा, निगमो-वणिसंघाओ २९, अप्प स्समाणो माइहाणेण पासामि अहं देवत्ति वा वए ३०, 'अवनेणं च देवाणं जह किं तेहिं कामगद्दहेहिं जे अम्हं न उवदाकरेंति, महामोहं पकुबइ कलुसियचित्तत्तणओ ३१, अयमधिकृतगाथानामर्थः। एकत्रिंशभिः सिद्धादिगुणैः, क्रिया पूर्ववत्. सितं मातमस्येति सिद्धः आदौ गुणा आदिगुणाः सिद्धस्यादिगुणाः सिद्धादिगुणाः, युगपद्भाविनो न क्रमभाविनर इत्यर्थः, तानेबोपदर्शयन्नाह सनहणिकार: पदिसेदेण संढाणवण्णापंधरसफासवेए य । पणपणदुपण इतिहा इगतीसमकायसंगरुडा ॥१॥ अस्या व्याख्या-प्रतिषेधेन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां, कियझेदानां ?-पञ्चपञ्चद्विपश्चाष्टत्रिभेदानामिति, किम् - एगत्रिंशत्सिद्धादिगुणा भवन्ति, 'अकायसंगरुहत्ति अकायः-अशरीरः असङ्गः-सङ्गवर्जितः अरुहः-अजन्मा, एभिः सहै-18 कत्रिंशद्भवन्ति, तथा चोक्त-"से ण दीहे ण हस्से ण बट्टे न तंसे न चउरसे न परिमंडले ५ न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुकिले ५ न सुब्भिगंधे न दुन्भिगंधे २ न तिचे न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे ५ न कक्खडे न मउए सन दीर्घः न इखो न वृत्तो न यो म चतुरस्रो न परिमण्डलो न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारियो न शुक्लो न सुरभिन दुर्गन्धो न तिको न कटुको न कषायो नाम्लो न मधुरोग कर्कयो न सूदुर्न. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सिद्धादिना ३१ भेदानां वर्णनं ~1328~ Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७३...] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रतिक मणाध्यक ३१ सिद्धा| दिगुणाः प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६६॥ न गरुए न लहुए न सीए न उण्हे न निद्धे न लुक्खे न काए ण संगे न रुहे न इत्थी न पुरिसे न नपुंसए," प्रकारान्तरेण | सिद्धादिगुणान् प्रदर्शयन्नाह महवा को णव दरिममि चत्तारि बातए पंच । आइम अंते सेसे दोदो श्रीणभिलाषेण इगतीसं ॥३॥ व्याख्या-'अथवे ति व्याख्यान्तरप्रदर्शनार्थः, 'कर्मणि' कर्मविषया क्षीणाभिलापेनकविंशद्गुणा भवन्ति, तत्र नव दर्शनावरणीये, नवभेदा इति-क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणः ४ क्षीणनिद्रः ५, चत्वार आयुष्के-क्षीणनरकायुष्कः ४ 'पंच आइमे'त्ति आये ज्ञानावरणीयाख्ये कर्मणि पञ्च-क्षीणाभिनिबोधिकज्ञानावरणः ५ 'अंते'त्ति अन्त्ये-अन्तराये कर्मणि पञ्चैव क्षीणदानान्तरायः ५ शेषकर्मणि-वेदनीयमोहनीयनामगोत्रलक्षणे द्वौ द्वौ भेदौ भवतः, क्षीणसातावेदनीयः क्षीणासातावेदनीयः क्षीणदर्शनमोहनीयः क्षीणचारित्रमोहनीयः क्षीणाशुभनाम क्षीणशुभनाम क्षीणनीचैगोत्रः क्षीणोश्चर्गोत्र इति गाथार्थः॥ द्वात्रिंशनियोगसङ्ग्रहैः, क्रिया पूर्ववत्, इह युज्यन्त इति योगा:-मनोवाकायब्यापाराः, ते चाशुभप्रतिक्रमणाधिकारात्प्रशस्ता एव गृह्यन्ते, तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहणानि योगसङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शनायाह नियुक्तिकारःआलोयणा निरवलावे, आवईसु दधम्मया। अणिस्सिओवहाणे ये, सिक्खों णिप्पडिकम्मया ॥१२७४ ॥ गुरुर्न लघुन शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रूक्षो न कायवान् न सङ्ग्यान न रहो न श्री न पुरुषो न नपुंसक % दीप अनुक्रम [२६] 0- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: योगसंग्रहानां ३२ भेदानां विस्तृत-वर्णनं कथानक-सहितं ~ 1329~ Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७५] भाष्यं [२०६...], (४०) F प्रत सूत्रांक ASANSAR [सू.] अण्णार्यया अलोहे य, तितिक्खा अजवे सुई। सैम्मदिही सैमाही य, आयारे विणओवए ॥ १२७५ ॥ "पिई मई य "संवेगे, पणिही सुविहि "संधेरै । अत्तदोसोवसंहारो, सव्वकामविरतिया ॥१२७६ ।। पचखाणों विजस्सग्गे, अप्पौए लबालवे । झाणसंवरजोगे य, उद्दए मारणंतिए ॥१२७७॥ ४|संगाणं च परिणा, पायच्छित्तकरणे इय । आराहणा य मैरणते, बसीसं जोगसंगहा ।।१२७८ ॥ आसां व्याख्या-'आलोयण'त्ति प्रशस्तमोक्षसाधकयोगसनहाय शिष्येणाऽऽचार्याय सम्बगालोचना दातव्या१, निरवलावे'त्ति आचार्योऽपि प्रशस्तमोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात् , नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः, एकारान्तश्च प्राकृते प्रथमान्तो भवतीत्यसकृदावेदितं यथा-'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे'इत्यादि २, आवतीसु दढधम्मत'त्ति तथा योगसनहायैव सर्वेण साधुनाऽऽपत्सु द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या, आपत्सु सुतरां दृढधर्मेण भवितव्यमित्यर्थः,३, 'अणिस्सिओवहाणे'त्ति प्रशस्तयोगसञ्चहायैवानिश्रितोपधानं च कार्यम्, अथवाऽनिश्रित उपधाने च यत्ला कार्य, उपद धातीत्युपधान-तपः न निश्रितमनिश्रितम्-ऐहिकामुष्मिकापेक्षाविकलमित्यर्थः, अनिश्रितं च तदुपधानं चेति समासः४,। दू'सिक्ख'त्ति प्रशस्तयोगसञ्चहायैव शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च द्विप्रकारा भवति-ग्रहणशिक्षाऽऽसेवनाशिक्षा च ५, 'निष्पडिक म्मय'त्ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहायैव निष्पतिकर्मशरीरता सेवनीया, न पुनर्नागदत्तवदन्यथा वर्तितव्यमिति ६ प्रथमगाथासमा-11 18 सार्थः॥ 'अन्नाययत्ति तपस्यज्ञातता कार्या, यथाऽन्यो न जानाति तथा तपः कार्य, प्रशस्तयोगाः सगृहीता भवन्तीत्य-15 | तत् सर्वत्र योज्यं ७,'अलोहेत्ति अलोभश्च कार्यः, अथवाऽलोभे यत्नः कार्यः८, 'तितिक्पत्ति तितिक्षा कार्या, परीपहादि दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1330~ Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७८] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रतिक्रममणाध्य. दात्रिंशद्योगसंग्रहार प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक जय इत्यर्थः९, अज्जवेत्ति ऋजुभावः-आर्जवं तच्च कर्तव्यं१०, सुइ'त्ति शुचिना भवितव्यं, संयमवतेत्यर्थः११, सम्महिहित्ति हरिभ सिम्यग्-अविपरीता दृष्टिः कार्या, सम्यग्दर्शनशुद्धरित्यर्थः १२, समाधिश्च कार्यः, समाधान समाधिः-चेतसः स्वास्थ्यं १३, द्रीया |'आचारे विणओवपत्ति द्वारख्यम्, आचारोपगः स्यात्, न मायां कुर्यादित्यर्थः १४, तथा विनयोपगः स्यात्, न मानं कुर्यादि- त्यर्थः१५, द्वितीयगाथासमासार्थः ॥'धिई मई यत्ति धृतिर्मतिश्च कार्या,प्रतिप्रधाना मतिरित्यर्थः१५, संवेगेति संवेगः कार्यः ॥६६४॥ १७, 'पणिहित्ति प्रणिधिस्त्याज्या, माया न कार्येत्यर्थः१८, सुविहित्ति सुविधिः कार्यः१९, 'संवरे'त्ति संवरः कार्यः, न तु न कार्य इति व्यतिरेकोदाहरणमत्र भावि २०, अत्तदोसोवसंहारे ति आत्मदोषोपसंहारः कार्य:२१, 'सबकामविरत्तय'त्ति सर्वकामविरक्तता भावनीया २२, इति तृतीयगाथासमासाथैः ।। 'पञ्चक्खाणेत्ति मूलगुणउत्तरगुणविषयं प्रत्याख्यानं कार्यमिति | द्वारद्वयं२३-२४, बिउस्सग्गे'त्ति विविध उत्सर्गो व्युत्सर्गः स च कार्य इति द्रव्यभावभेदभिन्ना, २५ अप्पमाएत्ति न प्रमादोऽप्रमादः, अप्रमादः कार्यः २६, 'लवालवे'त्ति कालोपलक्षणं क्षणे २ सामाचार्यनुष्ठान कार्य २७, 'झाणसंवरजोगे'त्ति | ध्यानसंबरयोगश्च कार्यः, ध्यानमेव संवरयोगः, २८, उदये मारणंतिए'त्ति वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न क्षोभः कार्य इति २९ चतुर्थगाथासमासार्थः॥ 'संगाणं च परिणति सङ्गानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभावेन परिज्ञा कार्या ३०, पायच्छित्तकरणे इय' प्रायश्चित्तकरणं च कार्य ३१ 'आराहणा य मरणंति'त्ति आराधना च मरणान्ते कार्या, मरणकाल 18इत्यर्थः, ३२ एते द्वात्रिंशद् योगसङ्घहा इति पञ्चमगाथासमासार्थः॥ ॥आद्यद्वाराभिधित्सयाऽऽह उज्जेणि अढणे खलु सीहगिरिसोपारए य पुहइवई । मच्छियमल्ले दूरल्लकूविए फलिहमल्ले य ॥ १२७९ ॥ दीप अनुक्रम [२६] ॥६६४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1331~ Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७९] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक जेणित्ति णयरी, तीए जियसत्तूरण्णो अट्टणो मल्लो अतीय बलवं, सोपारए पट्टणे पुहइबई राया सिंहगिरी नाम मल्लबल्लहो, पतिवरिसमहणजओहाभिएण अणेण मच्छियमले कए जिएण अट्टणेण भरुगच्छाहरणीए दूरुलकूवियाए गामे फलिहमले कएत्ति । एवमक्षरगमनिकाऽन्यासामपि स्वबुझ्या कार्या, कथानकान्येव कथयिष्यामः, अधिकृतगाथा प्रतिबद्धकथानकमपि विनेयजनहितायोच्यते-उजेणीणयरीए जियसत्तू राया, तस्स अट्टणो मल्लो सपरजेसु अजेओ 8|इओ य समुद्दतीरे सोपारयं णयरं, तस्थ सीहगिरी राया, सो य मल्लाणं जो जिणइ तरस बहुं दवं देइ, सो य अट्टणो तत्थ गंतूण वरिसे २ पडायं गिण्हइ, राया चिंतेइ-एस अन्नाओ रजाओ आगंतूण पडायं हरइ, एस मम ओहावणत्ति पडिमलं मग्गइ, तेण एगो मच्छिओ दिडो वसं पिवंतो, बलं च से विज्ञासियं, नाऊण पोसिओ, पुणरवि अट्टणो आगओ, ४ सो य किर महो होहितित्ति अणागयं चेव सयाओ जयराओ अप्पणो पत्थयणस्स अवल्लं भरिऊण अवाबाहेणं एइ, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] मज्जयिनी नगरी, सस्था जिसपुरानोभाणो महोतीब बलवान्, सोपारके पत्तने पृथ्वीपती राजा सिंदगिरिम महासभा, प्रतिवर्षमनजयापभाजितेनानेन मारिस्यकम कृते जितेनाइनेन भृगुकच्छदारण्यां दूरीयकूपिकामामे कार्यासिकमनः कृत इति । उजधिनीनगयो जिता राजा, तवाहनो मलः सर्वराज्येषु अजेयः, इसब समुद्रतीरे सोपारकं नगरं, तब सिंहगिरी राजा, सच मलाना यो जयति तरी बहुवर्य ददाति, स चाहनस्तत्र गल्या वर्षे २ xपताको हरति (गृह्णाति), राजा चिन्तयति-एपोऽन्यस्मात् राज्यादागत्य पताकां हरति, एषा ममापभाजनेति प्रतिमई मार्गपति, तेनैको मारिस्थको दृष्टो सां पिचन् , बलं च तस्य परीक्षित, शास्वा पोषितः, पुनरबहन भागतः, सच किल मद्दो भविष्यतीति बनागत एव व स्मात् नगरात् बात्मनः पथ्यदनस्य गोणी भूत्वाऽन्यायाधेनावाति, %25 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1332~ Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२७९] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक- संपत्तो य सोपारय, जुद्धे पराजिओ मच्छियमल्लेणं, गओ य सयं आवासं चिंतेइ, एयरस वुड्ढी तरुणयस्स मम हाणी, ४प्रतिकहारिभ- अण्णं मलं मग्गइ, सुणइ य-सुरद्वाए अस्थित्ति, एएण भरुयच्छाहरणीए गामे दूरुलकूवियाए करिसगो दिहो-एगेण, मणाध्य द्रीया हत्थेण हलं वाहेइ एगेण फलहिओ उप्पाडेइ, तं च दडूण ठिओ पेच्छामि से आहारंति, आवछा मुका, भज्जा य से भत्तं १ आलोचा योग अट्टगहाय आगया, पत्थिया, कूरस्स उज्झमजीए घडओ पेच्छाइ, जिमिओ सण्णाभूमि गओ, तत्थवि पेच्छइ सर्व वत्तियं, ॥६६५॥ नमल्लोदा वेगालिओ वसहिं तस्स य घरे मग्गइ, दिना, ठिओ, संकहाए पुच्छइ, का जीविया, तेण कहिए भणइ-अहं अट्टणो तुम ईसरं करेमित्ति, तीसे भजाए से कप्पासमोल्लं दिन्नं, अवल्ला य, सा सवलद्धा उणि गया, वमणविरेयणाणि कियाणि पोसिओ निजुद्धं च सिक्खाविओ, पुणरवि महिमाकाले तेणेव विहिणा आगओ, पढमदिवसे फलहियमल्लो मच्छियमल्लो य जुद्धे एगोवि न पराजिओ, राया विइयदिवसे होहितित्ति अइगओ, इमेवि सए सए आलए गया, संभात सोपारक, बुद्दे पराजितो मारिखकमलेन, गत खकमावासं चिन्तयति, एतस्य वृद्धिसारुणस्य मम हानि।, अम्यं मलं मार्गवति, शृणोति च-सुराष्ट्रावामतीति, एतेन भूगुफपछारियां प्रामे दूरीयकृषिकायो कर्षको दर:-एकेन हस्तेन हल वाहयाति एफेन कर्पासमुत्पादयति तं च दृष्ट्वा स्थितः | तापश्यामि अस्थाहारमिति बलीपदी मुक्की, भार्या च तसभ गृहीत्वाऽाता, प्रस्थिता, पारने करस्य घट पेक्षते, निमितः संज्ञाभूमि गता. तत्रापिः | प्रेक्षते सर्व वर्तितं, कालिको वसति तसेच गृहे मार्गवति, दत्ता, स्वितः, संकथायां पृच्छति-काजीविका , न कथिते भणति-महमहनस्वामीकर करोमीति, तस्य भार्यायै तेन कासमूल्यं दत्तं बलीवदीच, सा सबलीयदायिनीं गता (साऽऽश्वस्ता, तो अपिनी गती), चमनविरेचनानि कृतानि, पोपितो | निघुवं च शिक्षिता, पुनरपि महिमकाले सेनैव विधिनाऽऽगता, प्रथमविवसे कांसमझो मास्पिकमल युद्ध एकोऽपि न पराजिता, द्वितीयदिपसे भविष्य-16 नीति राजातिगतः, इमावपि खक भालये गती, ॥६६५॥ स्वकार मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1333~ Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२७९] भाष्यं [२०६...], (४०) CASSAG प्रत सूत्रांक अट्टणेण फलहियमलो भणिो -कहेहि पुत्ता ! जं ते दुक्खावियं, तेण कहियं, मक्खित्ताऽक्खेवेणं पुणण्णवीकर्य, मच्छि-1 यस्सवि रण्णा संमदगा पेसिया, भणइ-अहं तस्स पिउपि ण बिभेमि, को सो धराओ!, वितियदिवसे समजण्या, ततियदिवसे अंबियपहारो वइसाहं ठिओ मच्छिओ, अट्टणेण भणिओ फलिहित्ति, तेण फलहिग्गाहेण गहिओ सीसे, तं कुंडियनालगंपिव एगते पडियं, सक्कारिओ गओ उजाण, पंचलक्खणाण भोगाण आभागी जाओ, इयरो मओ, एवं जहा पडागा तहा आराहणपडागा, जहा अट्टणो तहा आयरिओ, जहा मल्लो तहा साहू, पहारा अवराहा, जो ते गुरुणो आलोएइ सो निस्सल्लो निधाणपडागं तेलोकरंगमज्झे हरइ, एवं आलोयणं प्रति योगसङ्घहो भवति । एए सीस गुणा, निरवलावस्स जो अन्नस्स न कहेइ एरिसमेतेण पडिसेवियंति, एत्थ उदाहरणगाहा दंतपुरदन्तचके सवदी दोहले य वणयरए । धणमित्त धणसिरी य पउमसिरी चेव दढमित्तो॥१२८॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२६] अहनेन कांसमझो भणित:-कथय पुष यो दुःखितं, तेन कथितं, म्रक्षित्वा अक्षेपेण पुनर्नवीकृतं, माल्सिकायापि राज्ञा संमर्दकाः पिता। मपति-मई तस पितुरपि न विमेमि, कास धराका, द्वितीयविवसे समयुद्धौ तृतीयादिबसे प्रहारा! बैशाख स्थितो मात्स्यिकः, अङ्कनेन भणित:-लिहीति, तेन फलाहिमाण गृहीतः शीर्ष, तत् कुण्डिकाचालमिवैकान्ते पतितं, सरकारितो गत उज्जयिनी, पसलक्षणानां भोगानामाभागीजातः, इसरो मृतः, एवं यथा पताका तथाऽराधनापताका, पथानाधा भाचार्यः, यथा मल्लस्तथा साधुः, प्रहार अपराधाः, यतस्तान् गुरूणामालोचयति स निश्वास्यो नियोGणपताको प्रैलोक्यसमध्ये हरति, एपमालोचना प्रति योगसंग्रहो भवति । एते शिष्यगुणाः, निरपलापस्य-पोयमौ न कथयति-शामेतेन प्रति सेवितमिति, भत्रोदाहरणगाया। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1334~ Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८०] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६६६॥ अस्या व्याख्या-कथानकादवसेया, तच्चेद-दंतपुरे णयरे दंतचको राया, सच्चबई देवी, तीसे दोहलो-कह दतमए ४ प्रतिक्रपासाए अभिरमिजइ ?, रायाए पुच्छियं, दंतनिामेत्तं घोसावियं रण्णा जहा-उचियं मोल्लं देमि, जो न देह तस्स राया मणाध्य. सरीरनिग्गहं करेइ, तत्थेव णयरे धणमित्तो वाणियओ, तस्स दो भारियाओ, धणसिरी महती पउमसिरी तु डहरिया निरपळापीययरी यत्ति, अण्णया सवत्तीणं भंडणं, धणसिरी भणइ-किंतुमं एवं गबिया ? किं तुझ महाओ अहियं, जहा सच्च-14 पयोग०दृढ वईए सहा ते किं पासाओ कीरजा ?, सा भणइ-जइन कीरइ तो अहं नेवत्ति उवगरए (वरए) बार बंधित्ता ठिया, | मित्रोदा. हावाणियो आगओ पुच्छा-कहिं पउमसिरी १, दासीहिं कहियं, तस्थेव अइयओ, पसाएइ, न पसीयइत्ति, जइ नत्थि न जीवामि, तस्स मित्तो दहृमित्तो नाम, सो आगओ, तेण पुच्छिय, सर्व कहेइ, भणइ-कीरज, मा इमाए मरतीए तुर्मपि मरिजासि, तुममि मरते अहं, रायाए य घोसावियं, तो पच्छन्नं काय ताहे सो दवमित्तो पुलिंदगपाउग्गाणि | SAX दीप अनुक्रम [२६] वन्तपुरे नगरे दन्तचक्रो राक्षा, सत्यवती देवी, तथा दोहदः कथं दन्तमये प्रासादेभिरमे, राज्ञा पूर्व, दसनिमितं घोषितं राशा यथा उचित | मूल्यं ददामि, यो म दास्पति तख राजा परीरनिमहं करोति, तत्रैव नगरे धनमित्रो वणिक, तस्य भाषे, धनश्रीमहती पाधीस्तु लवी पियतरा चेति, अन्पदा | सपापोभण्डन, धनश्रीभणति-किसमेवं गर्थिता कितव मत् अधिकी, यथा सत्यत्रत्यास्तव किं प्रासादः क्रियते , सा भणति-पदिन क्रियते सदाऽहं मेये. स्वपवर के द्वारं बड़ा स्थिता, पणिगायतः पृच्छति-क पद्मश्री, पासीभिः कधित, नत्रैचाभिगतः, प्रसादयति, न प्रसीदतीति, यदि नास्ति न जीवामि, तस्व | मित्रं बटमित्रो नाम, स भागतः, तेन पृष्ठं, सर्व कथयति, भगति-क्रियता, मास्यां ब्रियमाणायां स्वमपि मृथाः, स्वयि नियमाणेई, राज्ञा च धोपितं, ततः प्रच्छन्नं कर्तव्यं, तदा स दृढ मित्रः पुलिभप्रायोग्याणि ॥६६६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1335~ Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८०] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक मणीयमलत्तगं कंकणं च गहाय अडविं गओ, दंता लद्धा पुंजो कओ, तेण तणपिं डिगाण मझे बधित्ता सगड भरेत्ता आणीया, णयरे पवेसिज्जतेसु वसहेण तणपिंडगा कहिया, तओ खडत्ति दंतो पडिओ, नगरगोत्तिएहिं दिहो गहियो रायाए उवणीओ, बज्झो णीणिजइ, धणमित्तो सोऊण आगओ, रायाए पायवडिओ विन्नवेइ, जहा एएमए आणाविया, सो पुच्छिओ भणइ-अहमेयं न याणामि कोत्ति, एवं ते अवरोप्परं भर्णति, रायाए सवहसाविया पुच्छिया, अभओ दिण्णो, परिकहियं, पूएत्ता विसज्जिया, एवं निरवलावेण होयचं आयरिएणं । वितिओ-एगेण एगस्स हत्थे भाणं| वा किंचि पणामियं, अंतरा पडियं, तस्थ भाणियब-मम दोसो इयरेणावि ममंति । निरवलावेत्ति गयं । इयाणिं आवईसु दढधम्मत्तणं कायर्ष, एवं जोगा संगहिया भवंति, ताओ य आवइओ चत्तारि, तं०-दबाबई ४, उदाहरणगाहा| राजेणीए धणवसु अणगारे धम्मघोस चंपाए । अडवीए सत्यविन्भम बोसिरणं सिज्झणा चेव ॥ १२८१ ॥1 [सू.] दीप अनुक्रम [२६] मणिको बलत कणानि च गृहीत्वाची गतः, दन्ता लब्धाः पुजाकृतः, तेन तृणपिण्डीमा मध्ये बधा शक भूत्वाऽनीताः, नगरे प्रविश्यमा, | नेपभेण तृणपिण्यः इटा, ततः पटदिति दम्तः पतिता, जगरगुप्तिकदृष्टो गृहीता, राज्ञ उपनीता, वभ्यो निष्काश्यते, धनमितः श्रुत्वाऽगतः, रक्षः लादयो। पतितो विशपयति-यथा मौते भानापिता, स प्रष्टो भणति-महमेनं न जानामिक इति, ए सी परस्परं भणता, राशा शपयशली पृथी, अभयं दर्ग, परिकथितं, पूजयित्वा पिस्तौ । एवं निरपसापेन भक्तिमय भाचायण । द्वितीयः-एकेनैकस्य इसे भाजनं वा किधिर, अन्तरा पतितं, सत्र भणित-मम दोषः, इतरेणापि ममेति । निरपलापमिति गतम् । इदानीमापस रखधर्मता कसंख्या, एवं योगाः संगृहीता भवन्ति, ताबापवतन्त्रः, तद्यथा-इम्यापद्, | उदाहरणगाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13364 Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८१] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६६७॥ CARE -%AXChd [सू.] अस्या व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-उज्जेणी णयरी, तत्थ वसू पाणियओ, सो चर्प जातकामो उग्घोसणं कारेहता प्रतिक्रम ४ाणाध्यक जह [नाए] धन्नो, एवं अणुनवेइ धम्मघोसो नामणगारो, तेसु दूरं अडविमइगएसु पुलिदेहिं विलोलिओ सत्थो इओ योगसंग तइओ नहो, सो अणगारो अण्णेण लोएण समं अडविं पविट्ठो, ते मूलाणि खायंति पाणियं च पियंति, सो निमंतिज्जइ, नेच्छा आहारज्जाए, एगत्थ सिलायले भत्तं पच्चक्खायं, अदीणस्स अहियासेमाणस्स केवलणाणमुप्पण्णं सिद्धो, दढधम्मयाएट दृढधर्मजोगा संगहिया, एसा दधावई, खेत्ताबई खेसाणं असईए कालावई ओमोदरियाइ, भावावईए उदाहरणगाहा तायां महुराए जउण राया जउणाचंकेण दंडमणगारे । वहणं च कालकरणं सकागमणं च पध्वजा ॥१२८२॥ 18 | धर्मघो० व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-महुराए णयरीए जउणो राया, जउणायक उज्जाणं अवरेण, तत्थ जउणाए कोप्परोटापदण्डादा. दिण्णो, तत्थ दंडो अणगारो आयावेइ, सो रायाए नितेण दिछो, तेण रोसेण असिणा सीसं छिन्नं, अन्ने भणति-फलेण आहओ, सहिवि मणुस्सेहिं पत्थररासी कओ, कोवोदयं पइ तस्स आवई, कालगओ सिद्धो, देवागमणं महिमाकरण । १ उज्जयिनी नगरी, तन्त्र वसुपिफ, स चम्पा यातुकाम उधोपणां कास्यति, यथा धन्यः, एसमनुज्ञापयति धर्मधोषो नामानगारः, तेषु दूरमटवीम. तिगतेषु पुलिम्रैकिलोलितः साथैः इतसतो नष्टः, सोनगारोअन्येन लोकेन सममटवीं प्रविष्टः, ते मूलानि शान्ति पानीयं च पिबन्ति, स निमम्म्यते, नेच्छति आहारजातं, एकत्र शिलातले भर्फ प्रत्याख्यातं, अदीनस्वाध्यासीनस्थ केवलज्ञानमुत्पनं सिद्धः, धर्मतया योगाः संगृहीताः, एषा व्यापद्, क्षेत्रापत् क्षेत्राणामसति कालापत् अरमोदस्किादि भावापधुदाहरणगाथा । २ मधुरायां मगर्यो धमुनो राजा यमुनावकमुखानमपरखा, तन यमुनायां स्कन्धाबारो दत्त, ॥६६७॥ तत्र दण्डोऽनगार आतापयति, स राज्ञा निर्गच्छता दृष्टः, तेन रोषेणाखिना शीर्ष छिन्नं, अन्ये भणन्ति-बीजपूरेगाइतः, सर्वैरपि मनुष्यैः प्रस्तरराशिः कृतः, काकोपोदयं प्रति तस्य आपत्, कालगतः सिद्धः, देवागमन महिमकरणं दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1337~ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८२] भाष्यं [२०६...], (४०) -- प्रत सूत्रांक |संकागमणं पालएणं विमाणेण, तस्सवि य रण्णो अधिती जाया, बजेण भेसिओ सकेण-जइ पवइसितो मुच्चसि, पबइओ, थिराण अंतिए अभिग्गहं गेण्हइ-जइ भिक्खागओ संभरामिण जेमेमि, जइ दरजिमिओ ता सेसर्ग विगिंचामि, एवं तेण किर भगवया एगमवि दिवसं नाऽऽहारियं, तस्सवि दबावई, दंडस्स भावावई, आवईसु दधम्मतत्ति गयं ३ ॥ इयाणिं अणिस्सिओवहाणेत्ति, न निश्रितमनिश्रितं, द्रव्योपधानं उपधानकमेव भावोपधानं तपः, सो किर अणिस्सिओ कायवो इह परस्थ य, जहा केण कओ, एत्थोदाहरणगाहापाइलिपुत्त महागिरि अजसुहत्थी य सेहि वसुती । वइदिस उज्जेणीए जियपडिमा एलकच्छच ॥१२८३ ॥3 इमीए वक्खाण-अजधूलभद्दस्स दो सीसा-अज्जमहागिरी अज्जमहत्थी य, महागिरी अज्जसुहत्थिस्स उवज्झाया, महा| गिरी गणं सुहस्थिस्स दाऊण पोच्छिण्णो जिणकप्पोत्ति, तहवि अपडिबद्धया होउत्ति गच्छपडिबद्धा जिणकप्पपरिकम्म [सू.] दीप अनुक्रम [२६] ACCORCASGARCASEX कागमनं पालकेन विमानेन, तखापि च राशोऽतिजांता, वनेण भापितः पाकेण-यदि प्रमजसि तर्हि मुख्यसे, प्रजिता, स्थनिराणामन्सिकेऽभि. ग्रहं गृह्णाति-यदि भिक्षागतः स्मरामि न जेमामि, यदि अर्धजिमितत्तदा शेयं त्यजामि, एवं तेन किस भगवतैकसिमपि दिवसे नाहतं, सस्थापि इण्यापन, दण्डस्य भावापत् , आपत्सु वधर्मतेति गतं३ । इदानीममिश्रितोपवानमिति, सत् किलानिधितं कर्तव्यं इह परन्त्र च, यथा केन कृतं , अत्रोदाहरणगाथा२ अस्या व्याख्यान-आवस्थूलभवस्य ही शिष्यो-आर्यमहागिरिरायसुहन्ती च, महागिरिरायसुहस्तिन उपाध्यायः, महागिरिगणं मुशलिने वाला ब्युच्छियो जिनकल्प एति, तथाप्यप्रतिबद्धता भवचिति गच्छप्रतिबद्धाः जिनकल्पपरिकर्मणां मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13384 Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ द्रीया ॥६६॥ करेंति, ते विहरता पाडलिपुत्तं गया, तत्थ वसुभूती सेट्ठी, तेसिं अंतियं धम्म सोच्चा सावगो जाओ, सो अण्णया भण प्रतिक्रमअजसुहत्थिं-भयवं! मग्झ दिन्नो संसारनित्थरणोवाओ, मए सयणस्स परिकहियं तं न तहा लग्गई, तुम्भेवि ता अण- णाध्य भिजोएणं गंतूर्ण कहेहित्ति, सो गंतूण पकहिओ, तत्थ य महागिरी पविछो, ते दद्दूण सहसा उहिओ, बसुभूती भणइ- योगसं० तुभवि अन्ने आयरिया, ताहे सुहस्थी तेसिं गुणसंथवं करेइ, जहा-जिणकप्पो अतीतो तहावि एए एवं परिकम करेंति, अनिश्नि|एवं तेसिं चिरं कहिचा अणुवयाणि य दाऊण गओ सुहत्थी, तेण वसुभूइणा जेमित्ता ते भणिया-जइ एरिसो साहू एज्जतपसिआतो से तुम्भे उज्झंतगाणि एवं करेज, एवं दिण्णे महाफलं भविस्सइ, बीयदिवसे महागिरी भिक्खस्स पविठ्ठा, तं अपुध- महागिकरणं दट्टण चिंतेइ-दवओ४, णायं जहा णाओ अहति तहेब अब्भमिते नियत्ता भणंति-अजो! अणेसणा कया, टुंदा केणं? तुमे जेणसि कलं अभुडिओ, दोवि जणा वतिदिसं गया, तत्थ जियपडिमं वंदित्ता अजमहागिरी एलकच्छं गया कुर्वन्ति, ते (मुहस्तिनः) विहरन्तः पाटलीपुत्रं गताः, तत्र चसुभूतिः श्रेष्ठी, तेषामन्तिके धर्म श्रुत्वा श्रावको जाता, सोऽन्यदा भगति मार्यमुद। | तिनं-भगवन ! मह्यं दत्तः संसारनिस्तरणोपायः, मया स्वजनाय परिकथितं तक तथा लगति, यूयमपि तत् अनभियोगेन गत्या कषयतेति, स गत्वा प्रकषितः । ॥६६॥ तत्र च महागिरिः प्रविष्टः, सान् दृष्ट्वा सहसोधितः, वसुभूतिभणति-युष्माकमप्यन्ये आचार्याः, तदा सुहस्तिनस्तेषां गुणसंस्तवं कुर्वन्ति, यथा जिनकत्सोऽतीतम्तयाप्येते एवं परिकर्म कुर्वन्ति, एवं तेभ्यश्चिरं कथयित्वाऽनुसतानि च दत्वा गतः सुहस्ती, तेन वसुभूतिना जिमिष्या ते भणिता: यद्येवादशः साधुराया तु तदा ती ययमक्षितकान्य कुर्यातएवं दसे महाफत भविष्यति, द्वितीय दिवसे महागिरिभिक्षावै प्रविष्टः, तदपूर्वकरणं हटा चिन्तयति-न्यतः अज्ञातं यथा हातोहमिति तथैवाभ्रास्ता निर्गता भणन्ति-आर्य ! भनेषणा कृता, कथं 1, वं येनासि कल्येऽम्युस्थितः, दावपि बनौ विदेशं गतौ, नत्र जीवप्रतिमा वन्दित्वा भार्यमहागिरव एकाक्षं गता दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1339~ Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] गयग्गपदगं वंदया, तस्स कह एलगच्छ नाम ?, तं पुर्व दसण्णपुरं नगरमासी, तस्थ साविया एगस्स मिच्छदिहिस्स दिण्णा, बेयालियं आवस्सयं करेति पचक्खाइ य, सो भणइ-किं रत्ति उहित्ता कोइ जेमेइ , एवं उवहसइ, अण्णया सो भणइअहपि पच्चक्खामि, सा भणइ-भंजिहिसि, सो भणइ-कि अण्णयाचि अहं रति उद्वेत्ता जेमेमि, दिन्न, देवया चिंतेइ-I सावियं उचासेइ अज्ज पं उबालभामि, तस्स भगिणी तत्थेव वसइ, तीसे स्वेण रत्तिं पहेणयं गहाय आगया, पञ्चक्खइओ, सावियाए वारिओ भणइ-तुम्भच्चएहिं आलपालेहि किं ?, देवयाए पहारो दिष्णो, दोवि अच्छिगोलगा भूमीए पडिया, सा मम अयसो होहित्ति काउस्सग्गं ठिया, अहरत्ते देवया आगया भणइ-किं साविए !, सा भणइ-मम एस अजसोत्ति ताहे अण्णस्स एलगस्स अच्छीणि सप्पएसाणि तक्खणमारियस्स आणेत्ता लाइयाणि, तओ से सयणो भणइ-तुभं अच्छीणि एलगस्स जारिसाणित्ति, तेण सर्व कहिय, सहो जाओ, जणो कोउहल्लेण एति पेच्छगो, सबरजे फुड भण्णइ गजाप्रपदकवादका, तस्य कथमेडकाक्षं नाम, तत् पूर्व दशाणपुर नगरमासीत् तत्र श्राविका एकौ मिस्वारश्ये दत्ता, विकाले भावश्यक करोति प्रत्यास्वातिच, स भणति-किरात्राबुत्थाय कोऽपि जेमति , एनमुपहसति, अन्यदास भणति-अहमपि प्रत्याख्यामि, सा भणति-भालपसि, स भणति-किमन्यदाऽप्य रात्राबुधाय जेमामि, वर्स, देवता चिन्तयति-श्राविकामुहाजते अचैनमुपासने, तप भगिनी तच वसति, तस्या रूपेण रात्री आहेणकं गृहीत्वाऽऽगता, प्रत्यास्वायकः श्राविकया चारितो भणति-त्वदीयैः प्रलापैः किं १, देवतया प्रहारो दत्तः, द्वावप्यक्षिगोलको भूमौ पतिती, सा ममायको भविष्यतीति कायोरसमें स्थिता, मधुराने देवताऽऽगता भणति--कि श्राविके ?, सा भणति-ममैतदयश इति, तदाऽन्यस्वेटकस्याक्षिणी सप्रदेशे तरक्षणमारितस्थानीय योजितानि, ततसतस्य स्वजनो भणति-सवाक्षिणी पदकस्य पारशे इति, तेन सर्व कधित, भादो जाता, जनः कुतूहलेनायाति प्रेक्षका, सर्वराज्ये फुट भषयते दीप अनुक्रम [२६] ACCORDARSA + मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13404 Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक % ॥६६॥ [सू.] 4-4-58- - को एसि , जत्थ सो एलकच्छओ, अण्णे भणति-सो चेव राया, ताहे दसण्णपुरस्स एलकच्छ नार्म जाय, तत्थ गयग्गपयओ परओ, तस्स उप्पत्ती, तस्थेव दसण्णपुरे दसण्णभद्दो राया, तस्स पंचसयाणि देवीणोरोहो, एवं सो जोवणेण|8 दमणाध्य. रूवेण य पडिबद्धो परिसं अण्णस्स नत्थित्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवओ महावीरस्स दसण्णकूडे समोसरणं, ताहे SIMa योगसं० सो चिंतेइ-तहा कले वंदामि जहा केणइन अण्णेण वंदियपुबो, तं च अज्झत्थियं सको णाऊण एइ, इमोवि महया इडीए| तपसि आ अनिश्रितनिग्गओ वंदिओ य सबिड्डीए, सकोवि एरावणं विलग्गो, तत्थ अह दंते विउबेइ, एकेके दंते अडवावीओ एकेकाए यावीए यमुहागिअहह पउमाई एकेक पउमं अपत्तं पत्ते व २ बत्तीसइबद्धनाडगं, एवं सो सबिड्डीए एरावणविलग्गो आयाहिणं पयाहिणं युदा० करेइ, ताहे तस्स हस्थिस्स दसण्णकूडे पथए य पयाणि देवप्पहावेण उद्वियाणि, तेण णाम कयं गयग्गपदग्गोत्ति, ताहे सो| दसन्नभद्दो तं पेच्छिकण एरिसा कओ अम्हारिसाणमिद्धी?, अहो कएलओऽणेण धम्मो, अहमवि करेमि, ताहे सो पचयइ, कुत भावासि, यत्र स एडकाक्षः, अन्ये भणन्ति-स एव राजा, तदा दशाणपुरस्मैडकाक्षं नाम जातं, तत्र गजानपदः पर्वतः, तस्योत्पत्तिः-दशाण-४ परे दशाणभद्रो राजा, तस्य पञ्चशतानि देवीनामवरोधा, एवं स बावनेन रूपेण च प्रतिबद्धोऽन्यखेडयां नास्तीति, तस्मिन् काले तमिान् समये भगवतो महावीरस्य दयार्णकूटे समवसरण, सदास चिन्तयति तथा कन्ये वन्दिताहे यथा केनचिनान्येन वन्दितपूर्व: सध्यसितंशको शावाध्याति, अधमपि ॥६६९॥ महत्या का निर्गतो बन्दिता सर्वा, शोऽवरावणं विसमा तत्राट दन्तान् बिकुर्वति, एकैमिन पन्ते अशष्ट बापी। एकैकयां वाच्यामा पद्मानि पुकैक पद्ममष्टपन पत्रे पोपहाविशद नाटकं, एवं स सर्वया ऐरावणविला आदक्षिणं प्रदक्षिणं करोति, तदा तस्य इतिनो शारे पर्वते च पादा देवताप्रभावेनोस्थिताः, तेन नाम कृतं गजाप्रपदक (वाम) इति, तदा स दशाणभवता प्रेक्ष्य इंदशी कुतोऽस्माकमृद्धिः, अहो कृतोऽनेन धर्मः, अहमपि। करोमि, सदा स प्रबजहि, दीप अनुक्रम [२६] 6 - R मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1341~ Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], (४०) । KAROSA प्रत सूत्रांक [सू.] 4900-56 एसा गयग्गपयरस उष्पत्ती, तरथ महागिरीहिं भत्तं पञ्चक्खायं देवत्तं गया, सुहत्थीवि उज्जेणिं जियपडिम वंदया गया उजाणे ठिया, भणिया य साहुणो-वसहिं मग्गहत्ति, तत्थ एगो संघाडगो सुभद्दाए सिटिभजाए घरं भिक्खस्स अइगओ पुच्छिया ताए-कओ भगवंतो, तेहिं भणियं-सुहथिस्स, वसहिं मग्गामो, जाणसालाउ दरि सियाउ, तत्थ ठिया, अन्नया पओसकाले आयरिया नलिणिगुम्म अज्झयणं परियटृति, तीसे पुत्तो अवंतिसुकुमालो सत्ततले पासाए बत्तीसाहि भजाहिं समं उवललइ, तेण सुत्तविबुद्धेण सुयं, न एयं नाडगंति भूमीओ भूमीयं सुणतो २ उदिण्णो, बाहिं निग्गओ, कत्थ एरिसंति जाई सरिया, तेसि मूलं गओ, साहइ-अहं अवंतिसुकुमालोत्ति नलिणिगुम्मे देवो आसि, तस्स उस्सुग्गो पवयामि, असमत्थो य अहं सामनपरियागं पालेर्ड, इंगिणिं साहेमि, तेवि मोयावित्ता, तेणं पुच्छियत्ति, नेच्छति, सयमेव लोयं करेंति, मा सयंगिहीयलिंगो हबउत्ति लिंगं दिण्णं, मसाणे कंथरे कुंडगं, तत्थ भत्तं पञ्चक्खायं, सुकुमालपहि एषा गजाप्रपदकस्य उत्पतिः, तत्र महागिविभिभक्तं प्रत्याख्यातं देवत्वं गताः, सुह शिमोऽपि अपिनी जीवमतिमावन्दका गताः, अयाने पिता माणितश्च साधवः वसति मार्गयनेति, तत्रैकः संघाटकः सुभद्रायाः श्रेष्ठिभायांया गृई भिक्षायातिगतः, पृष्टास्तया-कुतो भगवन्तः ?, तैभणितं-सुहस्तिनः, वसति मार्गयामः, यानशाला दर्शिताः, नत्र स्थिताः, अम्बदा प्रदोषकाले आचार्या नलिनीगुरुममध्ययनं परिवर्तयन्ति, तस्याः, पुत्रोऽवन्तीसुकुमालः सप्ततले प्रासादे द्वात्रिंशता भायांभिः सममुपललति, तेन सुप्तायझेन श्रुतं, नैतन्नाटकमिति भूमेभूमिमुत्तीर्णः शृण्वन् , अहि निर्गतः, दशमिति जातिः स्मृता, ते मूलं गतः, कथयति-अहं अवन्तिसुकुमाल इति नलिनीगुस्मे देवोऽभवं, समायुस्सुका प्रजामि, असमर्थवाहं श्रामण्यं पालयितुं इङ्गिनी करोमि, तेऽपि (भणन्ति-)मातुमा चयित्वा, तेन पृष्टेति, नेच्छति, स्वयमेव लोचं करोति, मा खयंगृहीतलिको भूविति लिङ्ग वत्तं श्मशाने कंधेरकुटा, तत्र भक्तं प्रत्याख्यातं, सुकुमालयोः ARE दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1342~ Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८३] भाष्यं [२०६...], (४०) भावश्यक- हारिभ द्रीया ॥६७०॥ प्रत सूत्रांक [सू.] पाएहिं लोहियगंधेण सिवाए सपेल्लियाए आगमणं, सिवा एगं पायं खायइ, एग चिल्लगाणि, पढमे जामे जणुयाणि बीए प्रतिक्रमऊरू तइए पोर्ट्स कालगओ, गंधोदगपुप्फवासं, आयरियाणं आलोयणा, भज्जाणं परंपरं पुच्छा, आयरिएहिं कहियं, सबि-IAमणाध्य. हीए सुण्हाहिं समं गया मसाणं, पवइयाओ य, एगा गुचिणी नियत्ता, तेसिं पुत्तो तस्थ देवकुलं करेइ, तं श्याणि महा योगसं. ५ शिक्षायां कालं जायं, लोएण परिग्गहियं, उत्तरचूलियाए भणिय पाडलिपुत्तेति, समत्तं अणिस्सियतवो महागिरीणं ४ । इयाणिं सि-INTENT क्खत्ति पर्य, सा दुविहा-गहणसिक्खा आसेवणासिक्खा य, तत्थ म्युदा० खितिवणउसभकुसग्गं रायगिहं चंपपाडलीपुत्तं । नंदे सगडाले थूलभद्दसिरिए वररुची य॥१२८४ ॥ एईए वक्खाणं-अतीतअद्धाए खिइपइट्ठियं णयर, जियसत्तू राया, तस्स णयरस्स बत्थूणि उस्सण्णाणि, अण्णं णयरहाणं वत्थुपाढएहिं मग्गावेइ, तेहिं एग चणयक्खेतं अतीव पुष्फेहिं फलेहि य उववेयं दहूं, चणयणयरं निवेसियं, दीप अनुक्रम [२६] nellt ACAKACRORS-06* पादयोः रधिरगन्धेन शिवायाः सशिशुकाया नायमनं, एकं पादं शिवा खादति, एक शिशवः, प्रथमे यामे जानुनी द्वितीथे अरुची तृतीये बदरं कालगतः, | गन्धोदकपुष्पवर्ष, आचार्येभ्य आलोचना, भार्याणां परम्परकेण पृच्छा, आचार्यैः कथितं, सर्वध्या पाभिः समं गता श्मशान, प्रबजिताब, एका गर्भिणी निवृत्ता, तेषां पुत्रतत्र देव करोति, तदिदानी महाकालं जातं, लोकेन परिगृहीतं, उत्तरचूलिकायां भणितं पाटलिपुत्रमिति, समान अनिधितोपधा महागिरीणां । इदानी शिक्षेति पर्व, सा द्विविधा-प्रहणशिक्षाआसेवनाशिक्षा च, तन-मस्या व्याख्यान-अतीताद्वायां शितिप्रतिष्ठितं नगरं, जितशबू राजा, तस्य नगरस्य पस्तुत्युवमानि, सम्पनगरस्थानं वास्तुपाठकमार्गवति, तैरेकं चणकक्षेत्र अतीव पुष्पैः फलश्रोपपेतं रष्ट्रा वणकनगर निवेषितं, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13434 Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक"- मलसूत्र-१ (मलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक कालेण तस्स वत्थूणि खीणाणि, पुणोवि वत्थु मग्गिजइ, तत्थ एगो वसहो अण्णेहिं पारद्धो एगमि रण्णे अच्छइ, नग तीरइ अन्नेहिं वसहेहिं पराजिणिउं, तत्थ उसमपुरं निवेसियं, पुणरवि कालेण उच्छन्नं, पुणोवि मग्गति, कुसथंबो दिहो अतीवपमाणाकितिविसिहो, तरथ कुसग्गपुरं जायं, तमि य काले पसेणई राया, तं च णयरं पुणो २ अग्गिणा डज्झइ, ताहे लोगभयजणणनिमित्तं घोसावेइ-जस्स घरे अग्गी उद्देइ सो णगराओ निच्छुब्भइ, तत्थ महाणसियाण पमाएण रण्णो चेव घराओ अग्गी उहिओ, ते सच्चपइण्णा रायाणो-जइ अप्पगं ण सासयामि तो कई अन्नंति निग्गओ जयराओ, तस्स गाउयमित्ते ठिओ, ताहे दंडभडभोइया वाणियगाय तत्थ वच्चंति भणति-कहिं बच्चही, आह-रायगिहंति, कओएह ? रायगिहाओ, एवं णयरं रायगिहं जायं, जया य राइणो गिहे अग्गी उडिओ तओ कुमाराजं जस्स पियं आसो हत्थी वा तं तेण णीणिए सेणिएण भंभा णीणिया, राया पुच्छइ-केण किं णीणियंति !, अण्णो भणइ-मए हत्थी आसो एवमाइ, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] कालेन तस्व वस्तूनि क्षीणानि, पुनरपि वास्तु मार्गयति, तत्रैको वृषभोमयः प्रारब्ध एकस्मितारण्ये तिएति, न शक्यतेऽन्फवृषभैः पराजेतुं, तत्र वृषभपुर निवेशितं, पुनरपि कालेनोच्छिन्न, पुनरपि मार्गबन्ति, कुशस्तम्बो रोऽतीवप्रमाणाकृतिविशिष्टः, तब कुशाप्रपुरं जातं, तमिश्च काले प्रसेनजित् राजा, वच नगरं पुनः २ अग्निना दाते, तदा होकभवजनन निमिछ घोषयति-यस्थ गृहेऽभिरुतिष्ठति स नगरात् निष्काश्यते, तत्र महानसिकानां प्रमादेन राज्ञ एवं गृहात अग्निरुस्थितः, ते सत्यप्रतिज्ञा राजानः-बधात्मानं न शामि तदा कथमन्यमिति निर्गतो नगरात्, तस्मात् गन्यूतमात्रे स्थितः, सदा दण्डिकभटभोजिका चणिजश्व तत्र प्रजन्तः भणन्ति-कवजय, भाइ राजगृहमिति, कुन भाषाथ , राजगृहात, एवं नगरे राजगृहं जातं, यदाच राज्ञो गृहेऽग्निरुस्थितस्ततः कुमारा यमस्य प्रियमवो हसी वा सत्तेन निष्काशिते श्रेणिकेन दा नीता, राजा पृच्छति-केन किं भीतमिति, अन्यो भवति-यथा इसी अश्वः एवमादि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13444 Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥६७१।। आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६..... 'सेणिओ पुच्छिओ-भंभा, ताहे राया भणइ सेणियं एस ते तत्थ सारो भित्ति ?, सेणिओ भणइ-आमं, सो य रण्णो अच्चंत पिओ, तेण से णामं कथं भंभिसारोत्ति, सो रष्णो पिओ लक्खणजुत्तोत्ति, मा अष्णेहिं मारिज्जिहित्ति न किंचिवि देइ, सेसा कुमारा भडचडगरेण निंति, सेणिओ ते दहूण अधितिं करेति, सो तओ निष्फिडिओ वेण्णायडं गओ, जहा नमोकारे अधियत्त भोगऽदाणं निग्गम बिण्णायडे य कासवए । लाभ घरनयण नत्तुग धूया सुस्सूसिया दिण्णा ॥ १ ॥ पेसण आपुच्छणया पंडरकुङ्कुत्ति गमणमभिसेओ । दोहल णाम णिरुती कहं पिया मेति रायगिहे ॥ २ ॥ आगमणऽमच्चमम्गण खुडुग छगणे य कस्स तं ? तुझं कहणं माऊआणण विभूषणा वारणा माऊ ॥ ३ ॥ तं च सेणियं उज्जेणिओ पज्जोओ रोहओ जाइ, सो य उइण्णो, सेणिओ बीहेर, अभओ भणइ मा संकह, नासेमि से वायंति, तेण खंधावारणिवेस जाणपण भूमीगया दिणारा लोहसंघाडएस निक्खाया दंडवासत्थाणेसु, सो आगओ रोहइ, जुज्झिया कईवि दिवसे, - श्रेणिकः पृष्टः- भम्भा, तदा राजा भणति श्रेणिक-एष ते सारो भम्भेति ?, श्रेणिको भणति ओम् स च राशोऽयन्तप्रियः तेन तस्य नाम कृतं अम्भसार इति, स राज्ञः प्रियो लक्षणयुक्त इति मा अन्यैर्मारीति न किचिदपि ददाति शेषाः कुमारा भटसमूहेन निर्गच्छन्ति श्रेणिकस्तान दृष्ट करोति स ततः निर्गतो पेटं गतः, यथा नमस्कारे अभीतिर्भोगादानं निर्गमो बैवातटे च लेखहार: लाभो गृहनयनं नसा दुहिता शुश्रूषिका दत्ता ॥ १ ॥ प्रेषणं पृच्छा पाण्डुरकुब्वा इति गमनमभिषेकः । दौहृदः नाम निरुक्तिः क पिता मे इति राजगृहे ॥ २ ॥ आगमनं अमात्यमार्गणं मुद्रिका गोमयं च कस्प स्वं ? तव कथनं मातुरानयनं विभूषणं वारणं मातुः ॥ ३ ॥ तं श्रेणियिनीतः प्रोतो रोधक आयाति स चोदितः श्रेणिको विभेति, अभयो भणति मा शङ्कध्वं नाशयामि तस्य वादमिति, तेन स्कन्धावारनिवेशज्ञायकेन भूमिगता दीनारा कोह शृङ्गाटकेषु निखाता दण्डावासस्थानेषु स आगतो रुणद्धि, योषिताः कतिचिदिवसान् ४ प्रतिक्र मणाध्य० संयोग० शिक्षायां वज्रस्वाम्युदः ~ 1345 ~ ॥६७१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक 6- 24 पच्छा अभओ लोह देह, जहा तव दंडिया सधे सेणिएण भिण्णा णास माऽप्पिहिसि, अहव ण पञ्चओ अमुगस्स दंडस्स। अमुर्ग पएस खणह, तेण खयं, दिहो, नहो य, पच्छा सेणिएण बलं विलोलियं, ते य रायाणो सबे पकहिंति-न एयरस कारी अम्हे, अभएण एसा माया कया, तेण पत्तीयं । अण्णया सो अत्थाणीए भणइ-सो मम नत्थि ? जो तं आणेज,५ अण्णया एगा गणिया भणइ-अहं आणेमि, नवरं मम वितिजिगा दिजंतु, दिण्णाओ से सत्त वितिजिगाओ जाओ से रुच्चंति मज्झिमवयाओ, मणुस्सावि थेरा, तेहिं समं पचहणेसु बहुएण य भत्तपाणेण य पुर्व व संजइमूले कवडसहत्तणं गहेऊण गयाओ, अन्नेसु य गामणयरेसु जत्थ संजया सड्डा य तहिं २ अइंतिओ सुहृयरं बहुसुयाओ जायाओ, रायगिहं| गयाओ, बाहिं उजाणे ठियाउ चेइयाणि बंदंतीउ घरचेइयपरिवाडीए अभयघरमइगयाओ निसीहियत्ति, अभओ दणं उम्मुकभूसणाउ उडिओ सागयं निसीहियापत्तिः, चेइयाणि दरिसियाणि वंदियाणि य, अभयं वंदिऊण निविट्ठाओ, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] पवादभयो लेख वदाति, यथा तव दण्डिकाः सर्वे श्रेणिकेम भेदिता नश्य माऽर्येथाः, अथ च न प्रत्ययोऽमुकस्य दण्डिकखामुकं प्रदेश खन, तेन | हैसास, दृष्टो, नष्टचा, पमाणिवेन पर विलोलितं, ते च राजानः सर्वे प्रकथयन्ति-मैतख कत्तीरो वयं, अभयेनेचा भाया कृता, तेन प्रस्थापितं । अम्बदास आस्थाच्या भगति-स मम नास्ति? यस्तमानयेत, अन्यदेका गणिका भाति-महमानयामि, नवरं मम साहारियका दीपम्ता, दत्तास्तथाः सप्त बैतीयिका यास्तस्यै रोचन्ते मध्यवयसः, मनुष्या अपि स्थविराः, तैः समं प्रवहणेषु च बहुकेन भकपानेन च पूर्वमेव संयतीमूले कपटश्नाद्धर्व गृहीत्वा गताः, अन्येषु च ग्रामनगरेषु : यत्र संयताः श्राद्वान तालिगम्यः सुष्टुतरं बहुश्रुता जाता, राजगृहं गताः, बहिरुयाने स्थितात्रैत्यानि वन्दमाना गृहचैत्यपरिपापाऽभयगृहमतिगता नैषेधिकीति (भणितवन्त्यः), अभयो प्वोन्मुतभूषणा उत्थितः स्वागतं भषेधिकीनामिति, त्यानि दर्शितानि बन्दितानि च अभयं वन्दित्वा निविष्टाः, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13464 Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक हारिभद्रीया CAR ॥६७२॥ जम्मभूमीउ णिक्खमणणाणणिवाणभूमीओ वंदावेति, पुच्छइ-कओ ?, ताओ कहेंति-उज्जेणीए अमुगो वाणियपुत्तो तस्स। प्रतिक्रय भज्जा, सो कालगओ, तस्स भजाओ अम्हे पवइउंकामाओ, न तीरंति पवइएहिं चेइयाहिं वंदिउँ पछियवए, भणियाओ पाहुणियाउ होइ, भणंति-अभत्तढ़ियाओ अम्हे, सुचिरं अच्छित्ता गयाओ, वितियदिवसे अभओ एकगो आसेणं पगे| योगसंग्र० पगओ, एह मम घरे पारेधत्ति, भणंति-इम पारगं तुम्भे पारेह, चिंतेइ-मा मम घरं न जाहिंति भणइ-एवं होउ, पजि शिक्षायां | वज्रस्वामिओ, संजोइ महुँ पाइओ सुत्तो, ताहे आसरहेण पलाविओ, अंतरा अण्णेवि रहा पुबडिया, एवं परंपरेण उजेणि म्युदा० पाविओ, उवणीओ पज्जोयस्स, भणिओ-कहिं ते पंडिच्चं?, धम्मच्छलेण वंचिओ, बद्धो, पुवाणीया से भज्जा सा उवणीया, तीसे का उप्पत्ती-सेणियस्स विज्जाहरो मित्तो तेण मित्तया थिरा होउत्ति सेणिएण से सेणा नाम भगिणी दिना निबंधे। कए, साविय विजाहरस्स इहा, एसा धरणिगोयरा अम्हं पवहाएत्ति विजाहरिहिं मारिया, तीसे धूया सा तेण मा एसावि दीप अनुक्रम [२६] - जन्मभूमीनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणभूमीन्दियति, पृच्छति-कुतः, ताः कथयन्ति-जविन्याममुको वणिपुत्रः तस्य च भार्याः, स कालपतः, तस्य भार्या वयं प्रबजितुकामाः, न शक्यते प्रबजिताभिश्चैत्यानि वन्दितुं प्रस्थातुं, भाषिताः-प्रापूर्णिका भवत, भणन्ति-भभक्कार्थिन्यो वयं, सुचिरं स्थित्वा गताः, द्वितीय दिवसे अभयः एकाकी अश्वन प्रभाते प्रगतः, आयात मम गृहे पारवतेति, भणन्ति-इदं पारणकं यूयं पारयत, चिन्तयति-मा मम गृहं नायासिष्ट, भणति-एवं भवतु, प्रजिमितः, सांयोगिकं मधु पाययित्वा स्वपितः, तदाऽवरथेन परिमापितः, अन्तरा अन्येऽपि रमाः पूर्वस्थापिताः, एवं परम्परफेणोनायिनी प्रापित्तः, प्रद्योतायोपनीतः, भणित:-क ते पाण्डित्य, धर्मच्चलेन वञ्चितो, बद्धः, पूर्वानीता तख भार्या स्रोपनीता, तस्याः कोत्पत्तिः, मेणिक व विद्याधरी मित्र, ततो मैत्री स्थिरा भमस्थिति श्रेणिकेन तमै सेनानानी भगिनी दत्ता निन्धं कृत्वा, सापिच विद्याधरस्पेष्टा, एषा धरणीगोचराउमाकं प्रवधायेति विधान धरीभिमारिता, तस्था दुहिता सा तेन मैयापि ॥६७२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1347~ Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) -5% प्रत सूत्रांक Ch [सू.] - दीप अनुक्रम [२६] मारिजिहितित्ति सेणियस्स उवणीया खिजिओ (उझिया) य, सा जोवणस्था अभयस्स दिण्णा, सा विज्जाहरी अभ-I यस्स इट्ठा, सेसाहिं महिलाहिं मायंगी उलग्गिया, ताहिं विजाहिं जहा नमोक्कारे चक्खिदिय उदाहरणे जाव पञ्चंतेहिं उज्झिया तायसेहिं दिवा पुच्छिया कओसित्ति, तीए कहियं, ते य सेणियस्स पचया तावसा, तेहिं अम्ह नत्तुगित्ति सारविया, अन्नया पविया सिवाए उजेणी नेऊण दिण्णा, एवं तीए समं अभओ वसइ, तस्स पज्जोयस्स चत्तारि रयणाणिलोहजंघो लेहारओ अग्गिभीरुरहोऽनलगिरी हत्थि सिवा देवित्ति, अन्नया सो लोहजंघो भरुयच्छं विसजिओ, ते लोका य चिंतेन्ति-एस एगदिवसेण एइ पंचवीसजोयणाणि, पुणो २ सदाविजामो, एयं मारेमो, जो अण्णो होहिति सो गणिएहिं दिवसेहिं एहिति, एचिरंपि कालं सुहिया होमो, तस्स संबलं पदिपणं, सो नेच्छइ, ताहे विहीए से दवावियं, तत्थवि से विससंजोइया मोयगा दिण्णा, सेसगं संबलं हरियं, सो कइवि जोयणाणि गंतुं नदीतीरे खामित्ति जाव सउणो वारेइ, मार्यतामिति श्रेणिकायोपनीता, रुएका (भवरोधाय), सा यौवन स्थाऽभयाय दत्ता, सा बियाधर्षभयोटा, कोषाभिर्महेलाभिमांतकी भयलगिता, ताभिर्विधाभिषया नमस्कारे चक्षुरिन्द्रियोदाहरणे यावत् प्रत्यन्तै पिसता तापसष्टा पृष्टा-कुतोऽसीति', तथा कथितं, तेच श्रेणिकस्य पर्वगामापस, सैरसाकं नसेति संरक्षिता, अभ्यदा प्रस्थापिता सजयिनी नीवा शिवायै दसा, एवं तथा समम भयो वसति, तस्य प्रयोतष पवारि जानि-लोहजो देखहारकोऽग्निभीरू रथोऽनलगिरिईसी शिवा देवीति, मन्यदा स लोहजहो भृगुक प्रति विसृष्टः, ते कोकान चिन्तयन्ति-एष एफदिवसेनायाति पञ्चविंशतियोजनानि, पुनः पुनः नाम्दापविश्यामह, एनं माश्यामा, बोम्यो भविष्यति स बहभिर्दिनरावास्यति इयचिर पाई सुखिनी भविष्यामः, तसे सम्पर्क प्रदर्ग, स नेच्छति, तदा विधिना (बीच्या) तम दापित, वनापि विषसंयुका मोदकासास्मै दत्ताः, यो शम्बई इतं, स कतिचिद्योजनानि गत्वा नदीतीरे खादामीति थावच्छकुनो वारयति, - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1348~ Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) -- आवश्यक- हारिभद्रीया - शिक्षायां प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६७३॥ KE% उद्वेत्ता पहाविओ, पुणो दूरं गंतुं पक्खाइओ, तत्थवि वारिओ तइयंपि वारिओ, तेण चिंतियं-भविय कारणेणंति पजो- प्रतिक्रमयस्स मूलं गओ, निवेइयं रायकजं, तं च से परिकहिय, अभओ वियक्खणोत्ति सहाविओ, तं च से परिकहियं, अभोणाध्य. तं अग्बाइ संबलं भणइ-एत्थ दषसंजोएण दिट्ठीविसो सप्पो सम्मुच्छिमो जाओ, जइ उग्घाडियं होतं तो दिहीविसेण सप्पेण: खाइओ होइ(न्तो), तो किं कजा, वणनिउंजे मुएजह, परंमुहो मुको, वणाणि दहाणि, सो अन्तोमुत्तेण मओ, तुडोटी राया,भणिओ-पंधणविमोक्खवजं वरं वरेहित्ति, भणइ-तुन्भं चेव हत्थे अच्छत, अण्णयाऽनलगिरी वियट्टो न तीरद घेत्तुं,ILA वज्रस्वा म्यु० अभअभओ पुच्छिओ, भणइ-उदायणो गायउत्ति, तो उदायणो कहं बद्धोत्ति-तस्स य पज्जोयस्स धूया वासवदत्ता नाम, योदन्तः सा बहुयाउ कलाउ सिक्खाविया, गंधवेण उदयणो पहाणो सो घेप्पउत्ति, केण उवाएणंति ?, सो किर जं हतिथं पेच्छा तस्थ गायइ जाव बंधपि न याणइ, एवं कालो वच्चइ, इमेण जंतमओ हत्थी काराविओ, तं सिक्खावेइ, तस्स विसयए अध्याय प्रचापिता, पुनरं गत्वा प्रवादितस्तत्रापि वारितः तृतीयमपि चारितः, तेन चिन्तित-भवितव्य कारणेनेति प्रयोतस्य मूले गतो, निवेदितं राज्यकार्य, तश्च तस्मै परिकथितं, अभयो विचक्षण इति शब्दितः, सच तमै परिकधितं, अभयस्तत् आप्राय वाम्बर्क भणति-अत्र इम्पसंयोगेन रहिविषा सर्पः संमूछिमो जातः, यधुपाटितमभविष्यत्तदा दृष्टिविषेण सर्पज खादितोऽभविष्यद, तत् किं क्रियता , वननिकले मुञ्चत, पराबमुखो मुक्तः, वनानि दग्धानि, सोऽन्तर्मुहूर्तेन मृतः, वो राजा, भणिता-धनविमोक्षवर्ज बरं वृशुश्चेति, भणति-युप्माकमेव हसे तिष्ठत, अन्यदाऽनलगिरिविकको न शक्यते प्रदीत, अभयः पृष्टः, भणति- ॥६७३॥ उदायनो गायस्थिति, तत् उदायनः कथं बब इति, तस्य च प्रयोतम दुहिता वासवदत्ता नानी, सा बहुकाः कलाः शिक्षिता, गान्धर्वणोदाथमः प्रधाना स गृक्षतामिति, केनोपाबेनेति, सकिल इतिनं प्रेक्षते तत्र गायति यावद् बन्ध (वय) मपि न जानाति, एवं कालो मजति, मनेन यन्त्रमयो हनी कारितः | त शिक्षयति, तस्य विषये % दीप अनुक्रम [२६] % CA % मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1349~ Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक चारिजइ, तस्स वणचरेण कहियं, सो गओ तत्थ, खंधावारो पेरतेहिं अच्छइ, सो गायइ हत्थी ठिओ दुको गहिओ य आणिो य, भणिओ-मम धूया काणा तं सिक्खावेहि मा तं पेच्छसु मा सा तुम दहण लजिहिति, तीसेवि कहियेउवज्झाओ कोटिउत्ति मा दच्छिहिसित्ति, सो य जवणियंतरिओ तं सिक्खाबेइ, सा तस्स सरेण हीरइ कोढिओत्ति न जोएति, अण्णया चिंतेइ-जइ पेच्छामि, तं चिंतेन्ती अण्णहा पढइ, तेण रुद्वेण भणिया-किं काणेविणासेहि ?, सा भणइ-कोढिया!न याणसि अप्पाणयं, तेण चिंतियं जारिसो अहं कोढिओतारिसा एसाविकाणत्ति, जवणिया फालिया, दिवा, अवरोप्परं संजोगो जाओ, नवरं कंधणमाला दासी जाणइ अम्मधाई य सा चेव, अण्णया आलाणखंभाओऽनलगिरी फिडिओ, रायाए अभओ पुच्छिओ-उदायणो निगायउत्ति, ताहे उदायणो भणिओ, सो भणइ-भद्दवति हस्थिणि आरुहिऊर्ण अहं दारिगा य गायामो, जबणियंतरियाणि गाणिं गीयंति, हत्थी गेएण अक्खित्तो गहिओ, इमाणिवि पलायाणि, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] चार्यते, तसै वनचीः कवित, स गताप, स्कन्धाचारः पर्षन्तेषु तिष्ठति, स गायति हस्ती बिता भासपीभूतो गृहीतवानीतच, भणितो-मम दुहिता काणा तो विक्षय मा तं दाक्षीः मा सास्वो हटाउलजीदिति, तस्मायपि कधित-जपाध्यायः कुष्टीति मा द्राक्षीरिति, सपथ यवनिकान्तरितां शिक्षयति, सा तस स्वरेणापत्तीभूता कुष्ठीति पश्यति, अन्वदा चिन्तयति-यदि पश्यामि, सचिन्तयन्ती भन्यथा पठति, सेन कोन भणिता-कि काणे ! विनाशयसि , सा| भणति-कुष्ठिन् ! न जानास्वामान, तेन चिन्तित-बादशोऽई कही ताशी एपापि काणेति, यवनिका पाटिता दृष्टा, परस्पर संयोगो जातः, नवरं काञ्चनमाला दाखी आनाति, अम्बधानी यसैव, अन्यदाऽऽलानस्तम्भावनलगिरिवछुटितः, राशाऽभयः पृष्टः-उदायनो निगीयतामिति, तदोवायनो भणितः, सभणति-भत्रवर्ती हसिनीमारुमाई दारिका च गायावा, यवनिकान्तरिते गानं गायतः, इसी गेयेनाक्षिप्तो गृहीतः, इमे अपि पलायित्ते, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1350 Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥६७४॥ एस बीओ वरो, अभएण भणियं-एसोवि तुम्भं चेव पासे अच्छउ, अण्णे भणंति-उज्जाणियागओ पजोओ इमा दारिया प्रतिक्रम|णिम्माया तत्थ गाविजिहित्ति, तस्स व जोगंधरायाणो अमच्चो, सो उम्मत्तगवेसेण पढइ-यदि तां चैव तां चैव, तां चैवा-गणाध्य. यतलोचनाम् । न हरामि नृपस्यार्थे, नाहं योगंधरायणः ॥१॥ सोय पज्जोएण दिहो, ठिओ काइयं पयोसरिज, णाय- योगसं०. रोय कओ पिसाउत्ति, सा य कंचणमाला विभिन्नरहस्सा, वसंतमेंठेणवि चत्तारि मुत्तपडियाओ विलइयाओ घोसवती ५शिक्षायां वज्रस्वावीणा, कच्छाए बझंतीए सक्कुरओ नाम मंतीए अंधलो भणइ-कक्षायां वध्यमानायां, यथा रसति हस्तिनी। योजनानां म्यु. अभ शतं गत्वा, प्राणत्यागं करिष्यति ॥१॥ताहे सवजणसमुदओ, मञ्झे उदयणो, भणइ-एष प्रयाति सार्थः काञ्चनमाला योदन्तः ठा वसन्तकश्चैव । भद्रवती घोषयती यासवदत्ता उदयनश्च ॥१॥ पहाविया हस्थिणी, अनलगिरी जाव संनझइ ताव पणवीस जोयणाणि गयाणि संनहो, मग्गलगो, अदूरागए घडिया भग्गा, जाव त उरिसंघइ ताव अण्णाणिवि पंचवीसं, एवं तिषिणवि, दीप अनुक्रम [२६] KARNECX ॥६७४॥ एप द्वितीयो वरः, अभयेन माणितं-एपोऽपि युष्माकमेव पायें तिष्ठतु, अन्ये भणन्ति-उद्यानिकागतः प्रद्योत इयं च दारिका निष्णाता तब गायनीतिः तस्य च योगन्धरायणोऽमास्यः, स उन्मत्तक येषेण पठति-१ च प्रद्योतेन रष्टः, स्थितः कायिकी प्रध्युरखष्ट्र, नागरच कुतः पिशाच इति, सा च काञ्चनमाला | विभिन्नरहवा, वसन्तमेण्टेनापि चतलो मूत्रटिका विलगिताः, घोषवती वीणा, कक्षायां वध्यमानायां सकुरवो नाम मन्धी (सत्कोरको रखो नाम), मन्त्रिगा-1 न्धो भश्यते,-तदा सर्वजनसमुदयो, मध्ये उदायनो वर्चते, भपति-प्रधाविता हस्तिनी अनलगिरियावत् संनयते सावत् पञ्चविंशति योजनानां गतः नष्टः, मार्गलमा, भदूरागते घटिका भना, यावत्ता मुजिननि तावदन्यान्यपि पञ्चविंशति, एवं श्रीन वारान् , मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13514 Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१२८४] भाष्यं [ २०६...]. नगरं च अइगओ। अण्णया उज्जेणीए अग्गी उद्विओ, णयरं डज्झइ, अभओ पुच्छिओ, सो भणइ-विषस्य विषमौषधं अग्नेरग्निरेव ताहे अग्गीड अण्णो अग्गी कओ, ताहे ठिओ, तइओ वरो, एसवि अच्छउ । अण्णया उज्जेणीए असिवं उहियं, अभओ पुच्छिओ भणइ-अम्भितरियाए अस्थाणीए देवीओ विहसियाओ एजंतु, जा तुम्भे रायालंकारविभूसिए जिणइ तं मम कहेज्जह, तहेव कर्य, राया पलोएति, सधा हेहाहुत्ती ठायंति, सिवाए राया जिओ, कहियं तव चुलमाउगाए, भणइ - रात्तं अवसण्णा कुंभबलिए अच्चणियं करेड, जं भूयं उडेइ तस्स मुद्दे कूरं छुटभई, तहेव कयंति, तियचडके अट्टालए य जाहे सा देवया सिवारूवेणं वासह ताहे कूरं छुम्भइ, भणइ य- अहं सिवा गोपालगमायत्ति, एवं सवाणिवि निज्जियाणि, संती जाया, तत्थ चडत्थो बरो ताहे अभओ चिंतेइ केचिरं अच्छामो ?, जामोत्ति, भणइ-भट्टारगा ! वरा दिज्जंतु, वरेहि पुत्ता !, भणइ नलगिरिंमि हरिथमि तुम्भेहिं मिण्ठेहिं सिवाए उच्छंगे निवन्नो (अगिंसामि) अग्गिभीरुस्स रहस्स १ नगरं चातिगतः । अन्यदोजविन्यास निरुत्थितः, नगरं दाते, अभयः पृष्टः स भणति तदाऽभैरन्योऽभिः कृतस्तदा स्थितः तृतीयो वरः एषोऽपि तिष्ठतु । अन्यदोजविन्यामशिवमुत्थितं अभयः पृष्टो भणति अभ्यन्तरिकायामास्थान्यां देम्यो विभूषिता भषान्तु या युष्मान् राजालङ्कारविभूषितान् जयति तां मां कथयत तथैव कृतं राजा प्रलोकयति, सर्वा अधस्तात् तिष्ठन्ति ( हीना दृश्यन्ते), शिवया राजा जितः कथितं तव लघुमात्रा, भणति शत्रायद सचाः कुम्भवानि कुर्वन्तु यो भूत उत्तिष्टति तस्य मुखे कूरं क्षिप्यते तथैव कृतमिति चिके चतुष्केाके च यदा सा देवता शिवारूपेण रटति सदा कूरः क्षिप्यते, भणति च-हं शिवा गोपालकमातेति एवं सर्वेऽपि निर्जिताः शान्तिर्जाता, तत्र चतुर्थो वरः तदाऽभयश्विन्तयति कियचिरं तिष्ठामः १, याम इति भणति भट्टारकाः वरान् ददतु वृणुष्व पुत्र, भणति अनलगिरी हस्तिनि युध्मासु मेण्ठेषु शिवाया उसने निषण्णो प्रविशामि, अभिभीरुरथस्थ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1352 ~ Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] योगसंग आवश्यक- दारुएहिं चियगा कीरउ, तत्थ पविसामि, राया विसन्नो, तुढो सक्कारेउं विसजिओ, ताहे अभओ भणइ-अहं तुम्भेहि छलेणं आणिओ, तुम्भे दिवसओ आइचं दीवियं काऊण रडतं णयरमझेण जइन हरामि तो अग्गिं अतीमित्ति, तं द्रीया भज गहाय गओ, किंचि कालं रायगिहे अच्छित्ता दो गणियादारियाओ अप्पडिरूवाओ गहाय वाणियगवेसेण उज्जे- जणीए रायमग्गोगाढं आवारिं गेण्हइ, अण्णया दिवाउ पज्जोएण, ताहिं विसविलासाहिं दिट्ठीहिं निन्भाइओ अंजली य से कया, अइयओ नियगभवर्ण, दूतीं पेसेइ, ताहिं परिकुवियाहिं धाडिया, भणइ-राया ण होहित्ति, बीयदिवसे सणियगं आरुसियाउ, तइयदिवसे भणिया-सत्तमे दिवसे देवकुले अम्ह देवजण्णगो तत्थ विरहो, इयरहा भाया रक्खइ, तेण य सरिसगो मणूसो पज्जोउत्ति नाम काऊण उम्मत्तओ कओ, भणइ-मम एस भाया सारवेमि णं, किं करेमि एरिसो भाइहणेहो, सो रुटो रुटो नासइ, पुणो हक्कविऊण रडतो पुणो २ आणिज्जइ उद्वेह रे अमुगा अमुगा अहं पज्जोओ हीरामित्ति, प्रतिक मणाध्य. योगस० शिक्षायां | वजस्वा म्यु० अभ योदन्तः दीप अनुक्रम [२६] %45 ७सा . दारुमिश्चितिका क्रिया, तन्त्र प्रविशामि, राजा विषण्णः, तुष्टः साकला बिसृष्टः, सदाऽभयो भणनि-अई युष्माभिश्छलेदानीतः, युष्मान दिवस आदित्यं दीपिका कृत्वा रटन्तं नगरमध्येन हरामि न यदि तदानि प्रविशामीति, तां भायाँ गृहीत्वा गतः, कचिरकालं राजगृहे स्थित्वा हे गणिकादारिके गाडीखा वजिम्वेषणोजविन्या राजमार्गावगाडमास्पदं ग्रहाति, अन्वदा प्रयोतेन, ताभ्यां विषविकासाभिष्टिभिनिध्यात: अलिश तम कृतः, I अतिगतो निमभवन, दूर्ती प्रेषते, ताभ्यां परिकुपिताभ्यां धादिता, भणति-राजा न भवतीति, द्वितीयदिवसे शनैरारुष्टे, तृतीयदिची भणिता-सप्तमे दिवसे देवकुले सार्क देवयज्ञस्तान विरहः, इतस्था भ्राता रक्षति, तेन च सदशो मनुष्यः प्रद्योत इति नाम कृत्वोन्मत्तः कृतः, भणति-ममैष प्राता रक्षामि एनं, [किकरोमि भातृस्नेह ईशः स कष्टो रुष्टो नश्यति, पुनः हकारविरचा रटन् पुनः २ आनीयते उत्तिष्ठत रे अमुकाः ! २ अई प्रयोतो हिये इति, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13534 Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६..... तेण सत्तमे दिवसे दूती पेसिया एउ एकलउत्ति भणिओ आगओ, गवक्लए विलग्गो, मणुस्सेहिं पडिबद्धो पलंकेण समं, हीरइ दिवसओ णयरमज्झेण, विहीकरणमूलेण पुच्छिज्जइ, भणइ-विज्जघरं णेज्जइ, अग्गओ आसरहेहिं उक्खित्तो पाविओ रायगिहं, सेणियस्स कहिये, असिं अछित्ता आगओ, अभएण वारिओ, किं कज्जर १, सकारिता विसज्जिओ, पीई जाया परोप्परं एवं ताव अभयस्स उहाणपरियावणिया, तस्स सेणियस्स चेहणा देवी, तीसे उडाणपारियावणिया कहिज्जइ, तत्थ रायगिहे पसेणइसंतिओ नागनामा रहिओ, तस्स सुलसा भज्जा, सो अपुत्तओ इंदक्खंदादी णमंसइ, सा साविया नेच्छइ, अन्नं परिणेहि, सो भणइ-तब पुत्तो तेण कज्जं, तेण वेजोवएसेण तिहिं सयसहस्सेहिं तिष्णि तेलकुलवा पक्का, सक्कालए संलाबो- एरिसा सुलसा सावियत्ति, देवो आगओ साहू, तज्जातियरूपेण निसीहिया कया, उडित्ता वंदइ, भणइ - किमागमणं तुझं ?, सयसहस्सपायते ं तं देहि, वेज्जेण उवइ, देमित्ति अतिगया, उत्तारंतीए भिन्नं, 1 तेन सप्तमे दिवसे तूती प्रेषिता, एकाकी आयात्विति भणित आगतः, गवाक्षे विलझः, मनुष्यैः प्रतिबद्धः पत्यङ्गेन समं हियते दिवसे नगरमध्येन, वीथिकरणमूलेन पृच्छयते, भगति वैचगृहं नीयते, अतोऽश्वर मेरुरिक्षतः प्रापितो राजगृहं श्रेणिकाय कथितं असिमाकृष्यागतः, अभयेन वारितः, किं कि ?, सत्कारवियाविष्टः प्रीतिर्माता परस्परं एवं तावत् अभयस्वोय्यागपर्यापणिका, तस्य वेणिकस्य विणादेवी, तस्या उत्थानपर्यापनिका कथ्यते तत्र राजगृहे प्रसेनजित्सरको नागनामा रधिकः, तस्य भार्या सुलसा, सोऽपुत्र इन्द्रस्कन्दादीन् नमस्यति सा अविका नेच्छति, अन्यां परिणय, स भणतितब पुत्रस्तेन कार्ये, तेन वैद्योपदेशेन त्रिभिः शतसहस्रैस्त्रयः तैलकुख्याः पकाः, एकदा शकालये संलापः इदशी सुलखा श्राविकेति देव आगतः साधुः, त जातीयरूपेण नैयेधिकी कृता, उत्थाय वन्दते, भणति किमर्थमागमनं युष्माकं ?, शतसहख पातेलं तदेहि, वैद्येनोपदिष्टं ददामीत्यतिमता, अश्वारयन्त्या भि मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1354 ~ Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६७६॥ [सू.] 4.-- | अन्नपक्कं गहाय निग्गया, तंपि भिण्णं, तइयपि भिण्णं, तुठ्ठो य साहइ, जहाविहिं बत्तीसंगुलियाउ देइ, कमेण खाहि, प्रतिक्रमबत्तीसं पुत्ता होहिन्ति, जया य ते किंचि पओयणं ताहे संभरिजासि एहामित्ति, ताए चिंतियं-केचिरं बालरूवाणं असु- मणाध्य. इयं मल्लेस्सामि, एयाहिं सबाहिवि एगो पुत्तो हुज्जा, खइयाओ, तओ णाहूया बत्तीस, पोट्ट वहुइ, अद्धितीए काउस्सग्गं | योगसं० ठिया, देवो आगओ, पुच्छइ, साहइ-सबाओ खइयाओ, सो भणइ-दुहु ते कयं, एगाउया होहिंति, देवेण उवसामियं शिक्षाया उ असायं, कालेणं बत्तीसं पुत्ता जाया, सेणियस्स सरिसबया वहुंति, तेऽविरहिया जाया, देवदिन्नत्ति विक्खाया। इओ वज्रस्वा म्यु०अभ य वेसालिओ चेडओ हेहय कुलसंभूओ तस्स देवीर्ण अन्नमन्नाणं सत्त धूयाओ, तंजहा-पभावई पउमावई मियावई सिवा दायोदन्तः जेठा सुजेहा चेल्लणत्ति सो चेडओ सावओ परविवाहकारणस्स पञ्चक्खायं (ति) धूयाओ कस्सइ न देइ, ताओ मादि| मिस्सग्गाहिं रायाणि पुच्छित्ता अन्नेसि इच्छियाणं सरिसयाणं देइ, पभावती वीईभए णयरे उदायणस्स दिण्णा पउमावई | अम्बपर्क गृहीचा निर्गता, तदापि भिक्ष, सूतीपमपि भिक, तुम कथयति, यथाविधि विकटिका ददाति, कमेण खादयः, द्वाविंधात् पुत्रा भवि. त्यम्तीति, यथा च से किजिन प्रयोजनं तदा संस्मरेः आयास्वामीति, क्या चिन्तित-कियश्चिरं बालरूपाणामाचि मयिष्यामि, एताभिः सांभिरपि एका पुनो भवतु, खादिताः, तत त्पना द्वाविंशत, उदरं वर्धते, अश्या कायोरस, स्थिता, देव आगतः, पृच्छति, कथयति, सर्वाः सादिताः, स भणसिदांचया। कृतं, एकायुष्का भविष्यन्ति, देवेनोपयामितं बसात, कालेन द्वात्रिंशत् पुत्राः जाताः, श्रेणिकस सटग्ययसो वर्धन्ते, तेउविरहिता जाता देवदत्ता इति वि ॥६७६॥ nam. शाळिकोटको यकलसंभो तस्य देवीनामन्याभ्यास सक्ष दहितरः, तथधा-प्रभावती पद्मावती गगावती शिवा ज्येष्ठा सुज्येष्ठा पक्षणेति, ह स चेटकः श्रायकः परवीवाहकरणस्य प्रत्याख्यातमिति दुहितः कचित् न दवाति, ता मातृमिश्रकादिभिः राजानं पृष्टाम्येभ्य इष्टेभ्यः सोम्यो दीयन्ते, प्रभावती बीतभये प्रदायनाय दत्ता पद्मावती -- दीप अनुक्रम [२६] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13554 Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक 44 [सू.] पाए दहिवायणस्स मियावई कोसंबीए सयाणियस्स सिवा उज्जेणीए पजोयस्स जेहा कुंडग्गामे वद्धमाणसामिणो जेस्स 2 णदिवद्धणस्स दिण्णा, सुजेडा चेल्लणा य कण्णयाओ अच्छंति, तं अंतेउरं परिवायगा अइगया ससमयं तासिं कहेइ, सुजे| हाए निप्पिपसिणवागरणा कया मुहमक्कडियाहिं निच्छूढा पओसमावण्णा निग्गया, अमरिसेण सुजेडारूवं चित्तफलहे| काऊण सेणिधरमागया, दिहा सेणिएण, पुच्छिया, कहियं, अधिति करेइ, दूओ विसजिओ वरगो, तं भणइ चेडगो-12 १ किहहं वाहियकुले देमित्ति पडिसिद्धो, घोरतरा अधिती जाया, अभयागमो जहा णाए, पुच्छिए कहियं-अच्छह वीसत्था, आणेमित्ति, अतिगओ निययभवणं उवायं चिंतेंतो वाणियरूवं करेइ, सरभेयवण्णभेयाउ काऊण वेसालि गओ, कपणंतेPउरसमीचे आवणं गिण्हइ, चित्तपडए सेणियस्स रूवं लिहइ, जाहे ताओ कण्णंतेउरवासीओ केजगस्स एइ ताहे सुबहु 12 देइ, ताओवि य दाणमाणसंगहियाओ करेइ, पुच्छति-किमेयं चित्तपट्टए ?, भणइ-सेणिओ अम्ह सामी, किं एरिसं तस्स8 चम्पायां वधिवाहमाय मृगावती कौशाम्यां शतानीकाय शिवोजयिन्या प्रयोताव ज्येष्ठा कुण्डनामे वर्धमानस्वामिगो ज्येष्टस्य नन्दिवर्धनस्य दत्ता, सुज्येष्ठा चेलणा च कन्ये तिष्ठतः, सदन्तःपुरै प्रनामिकाऽसिगता खसमयं ताभ्यां कथयति, सुज्येष्या निस्पृष्टप्रभम्याकरणा कृता मुखमकटिकाभिनिष्काशिता प्रद्वेषमापन्ना निर्गना, अमर्पण सुज्येष्ठारूपं चित्रफलके कृत्वा श्रेणिकगृहमागता, दृष्टा श्रेणिकेन, गृधा, कथितं, अति करोति, दूतो विसृष्टो बरका, तं भणति चेटक:-कथमहं वाहिकालाय ददामीति प्रतिपिडा, घोरतराऽतिः जाता, अभयागमो यथा ज्ञाते, पृटे कधितं-तिष्ठत विधमाः, आनयामीति अतिगत | निजभवन, अपार्य चिन्तयन् पणिमूष मोति, स्वरभेदवर्णभेदी कृत्वा विधातां गतः, कम्या:पुरसमीपे आपणं गृहाति, चित्रपट श्रेपिाकस्य रूप लिलति, वायदा ता अन्तापुरवासिन्या करवायायान्ति तदा सुबह वाति, ता अपिच दानमानसंगृहीताः करोति, पृच्छन्ति-किमेतत् चित्रपरक, मणति-णिकाऽस्माक स्वामी, किमीशं तस्स दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13564 Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-155वं, अभओ भणइ-को समथो तस्स रूवं काउं?, जं वा तं वा लिहियं, दासचेडीहिं कण्णतेउरे कहियं, ताो भणि- ४ प्रतिकहारिभ- याओ-आणेह ताव तं पट्टगं, दासीहि मग्गिओ न देइ, मा मज्झ सामिए अवन्नं काहिहि, बहयाहि जायणियाहिं दिण्णो, INIमणाध्य. द्रीया पच्छण्णं पवेसिओ, दिडो सुजेट्टाए, दासीओ विभिण्णरहस्साओ कयाओ, सो वाणियओभणिओ-कहं सेणिओ भत्ता भवि योगसं० 14शिक्षायां जइ, सो भणइ-जइ एवं तो इहं चेव सेणियं आणेमि, आणिओ सेणिओ, पच्छन्ना सुरंगा खया, जाव कण्णतेउरं, ॥६७७॥ वजवा. सुजेठा चेल्लणं आपुच्छइ-जामि सेणिएण समंति, दोवि पहावियाओ, जाव सुजेडा आभरणाणं गया ताव मणुस्सा सुरु- कोणगाए उब्बुडा चेल्लणं गहाय गया, सुजेठाए आराडी मुक्का, चेडगो संनद्धो, वीरंगओ रहिओ भणइ-भट्टारगा! मा तुम्भे उमाकोदन्तः विचेह, अहं आणमित्ति निग्गओ, पच्छओ लग्गइ, तत्थ दरीए एगो रहमग्गो, तत्थ ते बत्तीसपि सुलसापुता ठिता, ते वीरंगएण एकेण सरेण मारिया, जाव सो ते रहे ओसारेइ ताव सेणिओ पलाओ, सोवि नियत्तो, सेणिओ सुजेठं संलवइ, रूपं ?, अभयो भणति-कः समर्थस्तस्य रूपं का, बदा तदा लिखितं, दासचेटीभिः कन्याऽन्तःपुरे कथितं, ता भणिता:-आनबत तावत् तं पट्टक, (दासीभिर्मानितो न ददाति, मा मम स्वामिनोश्वशां कात् , बहुकाभिर्याचनाभितः, प्रच्छन्नं प्रवेशितः, दृष्टः सुज्येष्ठया, दास्यो विभिडरहखाः कृताः, स वणिग भणितः-कथं श्रेणिको भनी भवेत् १, स भणति-पयेथे तदेहव श्रेणिकमानमामि, मानीतः श्रेणिकः, प्रच्छना सुरङ्गा खाता, यावरकन्याऽन्तःपुरं, सुज्येष्ठा चेल्लणामापृश्छति-पामि श्रेणिकेन सममिति, २ अपि प्रधाबिते, यावत् सुज्येष्ठा आभरणेभ्यो गता तावत् मनुष्याः सुरझायां उद्यातालणां गृहीत्वा |गताः, सुज्येष्ठयावाटिमुक्ता, चेटका सनद, बीराजदो रथिको भणति भधारका ! मा यूवं अजिष्ट, बहमानवामीति निर्माता, पृछतो काति, तत्र पूर्वामेको ॥६७७॥ रथमार्गः, तत्र ते द्वात्रिंशदपि सुलसापुत्राः स्थिताः, ते वीराङ्गदेनैकेन शरेण मारिताः, स यावान् स्थान् अपसारयति तावत् श्रेणिकः पलायितः, सोऽपि निवृत्तः श्रेणिकः सुज्येष्ठां संलपति, दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1357~ Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६..... सा भणइ-अहं चेहणा, सेणिओ भणइ-सुजेतुरिया तुमं चेव, सेणियस्स हरिसोवि बिसाओवि विसाओ रहियमारणेण हरिसो चेहणालंभेण चेहणाएवि हरिसो तस्स रूवेणं विसादो भगिणीवंचणेण, सुजिहावि घिरत्थु कामभोगाणंति पथतिया, चेहणाएव पुत्तो जाओ कोणिओ नाम, तस्स का उप्पत्ती ?, एगं पञ्चंतणयरं, तत्थ जियसत्तुरण्णो पुत्तो सुमंगलो, अमञ्चपुत्तो सेणगोत्ति पोट्टिओ, सो हसिज्जइ, पाणिए उच्चीलएहिं मारिज्जइ सो दुक्खाविज्जइ सुमंगलेण, सो तेण निवेएण बाउतवस्सी पवइओ, सुमंगलोवि राया जाओ, अण्णया सो तेण ओगासेण वोलेंतो पेच्छइ तं बालतवरिंस, रण्णा पुच्छियं को एसत्ति ?, लोगो भणइ एस एरिसं तवं करेति, रायाए अणुकंपा जाया, पुषिं दुक्खावियगो, निमंतिओ, मम घरे पारेहित्ति, मासक्खमणे पुण्णे गओ, राया पडिलग्गो न दिष्णं दारपालेहिं दारं पुणोषि उट्ठियं पचिट्ठो, संभरिओ, पुणो गओ निमंते, आगओ, पुणोवि पडिलग्गो राया, पुणोवि उट्ठियं पविडो पुणोवि निमंतेइ तइयं, सो तश्याए १ सा भणति अहं चेहणा, श्रेणिको भणति-मुज्येष्ठायास्वरिता त्वमेव श्रेणिकस्य हर्षोऽपि विपादोऽपि विषादो रधिकमारणेन बेहालाभेन, चेहजाया अपि हर्षस्तस्य रूपेण विषादो भगिनीयञ्चनेन, सुज्येष्ठापि विगस्तु कामभोगानिति प्राजिता चेहणाया अपि पुत्रो जातः कोणिकनामा, तस्य कोत्पत्ति ! एकं प्रयन्तनगरं तत्र जितशत्रुराजस्य पुत्रः सुमङ्गलः, अमात्यपुत्रः सैनक इति महोदरः, स हस्ते पाणिभ्यां उमुलुकमयते स दुःरायते सुमङ्गलेन, स तेन निर्वेदेन बालतपस्वी प्रजितः सुमङ्गलोऽपि राजा जातः, अम्यदा स तेनावकाशे व्यतिभजन पश्यति तं वाढतपस्विनं राज्ञा पृष्टं क एष इति ?, छोको भगति एप ईरशं तपः करोति राहोऽनुकम्पा जाता, पूर्व दुःखितो, निमन्त्रितः मम गृहे पारयेति, मासक्षपणे पूर्णे गतः राजा प्रतिकः (लामो जात), न द द्वारपालेोरं पुनरभ्युत्थितं ( प्युट्रिक) प्रविष्टः संस्सृतः पुनर्गतो निमन्त्रयति, आगतः पुनरपि प्रतिमनो राजा, पुनरप्युट्रिको प्रविष्टः, पुनरपि निमन्त्रयति तृतीयवारं स तृतीयबारे मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1358 ~ Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- आगओ दुवारपालेहिं पिट्टिओ, जइवारा पद तइवारा राया पडिलग्गइ, सो निग्गओ, अह अधितीए निग्गओ४ प्रतिक्रहारिभ- पबइओ एइणा धरिसिओ, नियाणं करेइ-एयस्स बहाए उबवज्जामिति, कालगओ, अप्पिडिओ वाणमंतरोमणाध्य. द्रीया जाओ, सोऽवि राया तावसभत्तो तावसो पबइओ सोवि वाणमंतरो जाओ, पुर्वि राया सेणिो जाओ, कुंडी- योगसं. ॥६७८॥ समणो कोणिओ, जं चेव चेलणाए पोट्टे उववण्णो तं चेव चिंतेइ-कहरायाणं अक्खीहिन पेक्खेज्जा५शिक्षायां तीए चिंतिय-एयस्स गम्भस्स दोसोत्ति गभ, साडणेहिवि न पडइ, डोहलकाले दोहलो, किह', सेणियस्स वज्रवाहै उदरवलिमंसाणि खायज्जा, अपूरते परिहायइ, न य अक्खाइ, णिबंधे सवहसाषियाए कहिये, तो अभयस्सम्यु०कोणि कहिये, ससगचंमेण समं मंस कप्पेत्ता बलीए उवरिं दिन्नं, तीसे ओलोयणगयाए पिच्छमाणीए दिजइ, राया अलियप-1 कोदन्तः मुच्छियाणि करेइ, चेलणा जाहे सेणियं चिंतेइ ताहे अद्धितीय उप्पजइ, जाहे गर्भ चिंतेइ ताहे कहं सर्व खाएजत्ति, एवं विणीओ दोहलो, णवहिं मासेहिं दारगो जाओ, रपणो णिवेइयं, तुडो, दासीए छड्डाविओ असोगवणियाए, कहियं भागतो द्वारपाल पिशिता, पतिवारा आयाति सतिवारा राजा प्रतिभज्यते, स निर्गता, अखापस्या निर्गतः प्रमजित एतेन धर्षिता, निदानं करोति-10 |एतस्य वधायोपपये इति, कालगतः, अल्पविको व्यन्तरो जाता, सोऽपि राजा तापसभक्तः, तापसः मनजितः सोऽपि व्यन्तरो जाता, पूर्व राजा श्रेणिको जात्तः, कुण्डीश्रमणा कोणिका, पदेव घेखणाया उपरे पासव चिन्तयति-कथं राजानमक्षिभ्यो न प्रेक्षेष, तथा चिन्तितं-एतस्य गर्भस्य दोष इति गर्भ, शासनैरपि न पचति, दोहदकाले दोहदः, कथं', श्रेणिकसयोदरवलिमांसानि खादेयं, अपूर्वमाणे परिहीवते, न चाख्याति, निर्बन्धे शपयशापितया कधित, ततोऽभयाय कधितं, पाकचर्मणा समं मांस कल्पयित्वा वल्या उपरि दत्तं, तस्थायवलोकनयताये प्रेक्षमाणावै दीयते, राजा अलीकप्रमूछनानि करोति, ॥६७८॥ वेक्षणा बदा श्रेणिकं चिन्तयति तदाऽतिरुत्पचते, बदा गर्भ चिन्तयति यदा कथं सर्व खादेयमिति, एवं ग्यपनीतो दीईवा, नवमु मासेषु दारको जातः, राजे | निवेदितं, तुमः, दास्या याजितोऽशोकच निकायो, कधितं दीप अनुक्रम [२६] 8XXRAKAR %ECAS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1359~ Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ལྐུལླཱཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६..... 'सेणियस्स, आगओ, अंबाडिया, किं से पढमपुत्तो उज्झिओत्ति १, गओ असोगवणियं, तेणं सो उज्जीविओ, असोगचंदो से नामं कथं, तत्थवि कुक्कुडिपिंडणं कोणंगुलीऽहिविद्धा, सुकुमालिया सा न पडणइ, कूणिया जाया, ताहे से दारएहि नाम कथं कृणिओन्ति, जाहे य तं अंगुलिं पूइ गलंति सेणिओ मुहे करेइ ताहे ठाति, इयरहा रोवइ, सो य संवइ, इओ य अण्णे दो पुस्ता चेहणाए जाया हो विहलो य, अण्णे सेणियस्स बहवे पुत्ता अण्णासिं देवीणं, जाहे य किर उज्जाणियांखंधावारो जाओ, ताहे चेहणा कोणियस्स गुलमोयए पेसेइ हलविहलाणं खंडकए, तेण वेरेण कोणिओ चिंतएए सेणिओ मम देइति पओसं वहइ, अण्णया कोणियस्स अहहिं रायकन्नाहिं समं विवाहो जाओ, जाव उपिं पासा - यवरगओ बिहरइ, एसा कोणियस्स उप्पत्ती परिकहिया । सेणियस्स किर रण्णो जावतियं रजस्स मोडं तावतियं देवदिनस्स हारस्स सेयणगस्स गंधहत्थिस्स, एएसिं उद्वाणं परिकहेयवं, हारस्स का उत्पत्ती कोसंबीए णारी विजाइणी १] श्रेणिकाय, भागतः उपालब्धा, किं तया प्रथमपुत्र उज्झित इति? गलोज्योकवनिकां तेन स उज्जीवितः, अशोकचन्द्रस्तस्य नाम कृतं तत्रापि 'कुकुटपिच्छेन कोणे अंगुलिरभिविदा, सुकुमालिका सा न प्रगुणीभवति, वका जाता, तदा तस्य दारकैर्नाम कृतं कूणिक इति यदा च तस्था अज्याः पूतिः खपति श्रेणिको मुझे करोति सदा उपरतरुदितो भवति इतरथा रोदिति स च संवर्धते इतान्यो हो पुत्री चेहणाया जातो, इहो विलय, अन्ये श्रेणिक बहवः पुत्रा अभ्यासां देवीनां यदाच किल उद्यानकास्कन्धावारो जातस्तदा चेहणा कोणिकाय गुरुमोदकान् प्रेषते विहाय खण्डाकृतान् तेन वैरेण कोणिकचिन्तयति एतान् श्रेणिको मां ददातीति मद्वेषं यद्दति सम्पदा कोणिकस्याष्टभिः राजकन्याभिः समं विवाहो जातः यावत् उपरि प्रासादवरस्य गतो विहरति पुषा कोणिकस्योत्पत्तिः परिकथिता । श्रेणिक किक यावत् राज्यस्य मूल्यं तावत् देवदत्तस्य द्वारस्य सेचनकस्य गन्धदखिनः, एतयोरुत्थानं परिकथथितम्यं हारस्य कोत्पतिः १-कोशाम्यां विजातीया मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1360 ~ Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-लगुविणी पई भणइ-धयमोल विढवेहि, के मग्गामि !, भणइ-रायाणं पुप्फेहि ओलग्गाहि, न य वारिजिहिसि, सो यमाप्रतिक्रमहारिभ उलग्गिओ पुष्फफलादीहि, एवं कालो पञ्चइ, पज्जोओ य कोसंबिं आगच्छद, सो य सयाणिो तस्स भएण जउणाए द्रीया दाहिणं कूलं उडवित्ता उत्तरकूल एइ, सो य पजोओ न तरइ जउणं उत्तरि, कोसंबीए दक्खिणपासे खंधावारं निवे-13 ॥६७९॥ सित्ता चिठ्ठइ, ता वेइ-जे य तस्स तणहारिंगाई तेसिं वायस्सिओ गहियओ कन्ननासादि छिंदइ सयाणि य मणुस्सा एवं परिखीणा, एगाए रत्तए पलाओ, तं च तेण पुप्फपुडियागएण दिई, रण्णो य निवेइयं, राया तुह्रो भणइ-किं देमि?, भणति-चंभणि पुच्छामि, पुच्छित्ता भणइ-अग्गासणे कूरं मग्गाहित्ति, एवं सो जेमेइ दिवसे २ दीणारं देइ दक्खिणं एवं ते कुमारामच्या चिंतेति-एस रण्णो अग्गासणिओ दाणमाणग्गिहीओ कीरउत्ति ते दीणारा देंति, खद्धादाणिओ| जाओ, पुत्तावि से जाया, सो तं बहुयं जेमेयवं, न तीरइ, ताहे दक्खिणालोभेण बमेउं २ जिमिओ, पच्छा से कोढो युषी पत्ति भणति-पूतमूल्यमुपाय, मार्गचामि ?, भणति-नाजानमधला पुष्पैः पवार्यसे, स चावलाः पुरुषफलादिभिः, एवं कालो ब्रजति, प्रद्योवश्व कीशाम्बीमागमति, स च शतानीकलस्य भयेन यमुनाया दक्षिण कूल उत्थाप्योत्तरकूलं गच्छति, सच प्रद्योतो न तरति यमुनामुत्तरीतुं, कौशाम्ध्या दक्षिणपा स्कन्धाचार निवेश्व तिष्ठति, तदा प्रवीति-ये च तस्य तूणहारकादयस्तेषां धागानितो गृहीतः कर्णनासादि छिनत्ति शतानि च मनुष्याणां एवं परि क्षीणानि, एकस्वां रात्री पलायितः, तच तेन पुष्पपुटिकागतेन ई, राजेच निवेदितं, राजा सुटो भगति- िददामि, भगति-माझणीं पृच्छामि, पृष्ट्वा] | भगति-भग्रासनेन सह कूर मार्ग येति, एवं स जेमति दिवसे २ ददाति दीनारं दक्षिणां, एवं ते कुमारामात्याश्चिन्तयन्ति- एष राज्ञोऽग्रासनिको दानमानगृहीत: दाक्रियतामिति दीनारान् ददति, बहुदानीयो जाता, पुत्रा अपि तस्य जाताः, स तर बहुकं जेमितम्यं, न शक्यते, तदा दक्षिणालोभेन वाम्वा २ णिमितः, पश्चात्तस कुष्ठ दीप अनुक्रम [२६] -*-* मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1361~ Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६...]. जाओ, अभिग्रस्तस्तेन, ताहे कुमारामच्चा भणति पुत्ते ! विसज्जेह, ताहे से पुत्ता जेमेइ, ताणवि तहेब, संतती कालंतरेण पिडणा लज्जितमारद्धा, पच्छिमे से निलओ कओ, ताओवि से सुण्हाओ न तहा वट्टिउमारद्धाओ, पुत्तावि नाढायंति, तेण चिंतियं एयाणि मम दषेण बहियाणि मम चैव नाढायंति, तहा करेमि जहेयाणिवि वसणं पार्श्विति, अन्नया तेण पुत्ता सदाविया, भणइ पुत्ता ! किं मम जीविएणं ?, अम्ह कुलपरंपरागओ पसुबहो तं करोमि, तो अणसणं काहामि, तेहिं से कालगओ छगलओ दिण्णो, सो तेण अप्पगं उलिहावेद, उहोलियाओ य खवावेइ, जाहे नायं सुगहिओ एस कोडेणंति ताहे लोमाणि उप्पाडे फुसित्ति एन्ति, ताहे मारेता भणइ-तुम्भेहिं चेत्र एस खाएयवो, तेहिं खइओ, कोढेण गहियाणि, सोवि उट्ठेत्ता नहो, एगत्थ अडवीए पवयदरीए णाणाविहाणं रुक्खाणं तयापत्तफलाणि पडताणि तिफला य पडिया, सो सारएण उण्हेण कक्को जाओ, तं निविष्णो पियइ, तेणं पोहं भिण्णं, सोहिए सज्जो जाओ, आगओ सहिं, जातं, तदा कुमारामात्या भणन्ति पुत्रान् विसृज, तदा तस्य पुत्रा जेमन्ति तेषामपि तथैव, संततिः कालान्तरे पितुर्हजितुमारब्धा, पश्चिमेतस्य निलयः कृतः, सा अपि तस्य स्नुषा न तथा वतुमारब्धाः पुत्रा अपि नाहियन्ते तेन चिन्तितं एते मम द्रव्येण वृद्धा मामेव माद्रियन्ते तथा करोमि चैतेऽपि व्यसनं प्रामुवन्ति, अन्यदा तेन पुत्राः शब्दिताः, भणति पुत्राः ! मम किं जीवितेन ?, अस्माकं कुरुपरम्परागतः पशुवधः तं करोमि ततोऽनशनं करिष्यामि, तैस्तसै कृष्णगो दक्षः, स तेनात्मीयं (तनुं ) चुम्बयति, मलगुटिकाथ खादयति यदा ज्ञातं सुगृहीत एष कुठेनेति तदा रोमान्युत्पाटयति झटित्या यान्ति तदा मारयिष्या भणति युष्माभिरेवैष खादितव्यः तैः खादितः कुठेन गृहीताः सोऽप्युत्थाय मष्टः, एकत्र अटव्यां पर्वतदय नानाविधानां वृक्षाणां स्वपत्रफलानि सन्ति त्रिफला च पतिता, स शारदेन उष्णेन कस्को जातः, ततो निर्विण्णतं पिवति, तेनोदरं भिन्नं, शुद्धी सभो जातः आगतः स्वगृह मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ------ ~ 1362 ~ Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.-] दीप अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभ द्रीया ||६८०॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [ २०६...]. अणो भणइ किह ते नई, भणइ-देवेहि मे नासियं, ताणि पेच्छइ-सडसडिंताणि, किह तो तुम्भेवि मम खिंसह ?, ताहे ताणि भांति किं तुमे पावियाणि १, भणइ – वाढंति, सो जणेण खिंसिओ, ताहे नहो गओ रायगिहं दारवालिएण समं दारे वसद्द, तत्थ बारजक्खणीए सो मरुओ भुंजइ, अण्णया बहू उंडेरया खइया, सामिस्स समोसरणं, सो बारवालिओ तं वेत्ता भगवओ वंदओ एइ, सो बारं न छड्डेड, तिसाइओ मओ बावीए मंडुको जाओ, पुवभवं संभरइ, उत्तिष्णो बाबीए पहाइओ सामिबंदओ, सेणिओ य नीति, तत्थेगेण वारवालिओ किसोरेण अकंतो मओ देवो जाओ, सको सेणियं पसंसइ, सो समोसरणे सेणियस्स मूले कोढियरूवेणं निविट्टो तं चिरिका फोडित्ता सिंचाइ, तत्थ सामिणा छियं, भणइ-मर, सेणियं जीव, अभयं जीव वा मर वा, कालसोरियं मा मर मा जीव, सेणिओ कुविओ भट्टारओ मर भणिओ, मणुस्सा सण्णिया, उडिए समोसरणे फ्लोइओ, न तीरइ जाउं देवोति, गओ घरं, बिइयदिवसे पर आगओ, पुच्छइ-सो कोत्ति ?, १ जनो भणति कथं तव नष्टं भणति देवेंमें नाशितं ते पश्यन्ति-शतिशटितानि ( पूतीनि स्वाङ्गानि ), कथं तत् यूयमपि मां निन्दती, तदा ते भगन्ति किं वया प्रापिताः १, भणति बाढमिति, स जनेन निर्मतिः, तदा नष्टो तो राजगृहं द्वारपालकेन समं द्वारे वसति तत्र द्वारपक्षावाले सम रुको मुझे अन्यदा बहवो वटका भुक्ताः, स्वामिनः समवसरणं, स द्वारपालस्तं स्थापयित्वा भगवान्को गतः स द्वारं न त्यजति तुषादितो मृतोपाध्यां मण्टुको जातः पूर्वभवं सारति अवतीर्णो वाप्याः प्रधावितः स्वामियन्दकः, श्रेणिक निर्गच्छति द्वारपालः तत्रैकेन किशोरेणा कान्तो तो देवो जातः शक्रः श्रेणिकं प्रशंसति स समवसरणे श्रेणिकख मूले ( अन्तिके) कुष्ठिरूपेण निविष्टः तं स्फोटकान् स्फोटविल्या सिद्धति, तत्र स्वामिना सुतं भणति-त्रिषस्व, ब्रेकिं जीव, अभयं जीव या प्रियस्व वा, कालशोकारिकं मा त्रियन मा ओव, बेणिकः कुपितः भट्टारकं (प्रति ) त्रियखेति भणितं मनुष्याः संशिताः स्थिते समवसरणे प्रलोकितः, न मया देव इति गतो गुदं द्वितीयदिवसे मगे आगतः पृच्छति स क इति, ४ प्रतिक्रमयोग० ५शि शायां वज्रस्वाम्यु० सेडु कवृत्तान्तः ~ 1363 ~ ॥ ६८० ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) 2- % 4 प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] तओ सेडुगवत्तंत सामी कहेइ, जाब देवो जाओ, ता तुन्भेहिं छीए किं एवं भणइ, भगवं मम भणइ-किं संसारे अकलह निषाणं गच्छेति, तुमं पुण जाव जीवसि ताव सुहं मओ नरयं जाहिसित्ति, अभओ इहवि पेश्यसाहुपूयाए पुण्णं समजिणइ मओ देवलोग जाहिति, कालो जह जीवद दिवसे २ पंच महिससयाई वावाएइ मओ मरए गच्छा, राया भणइ-अहं तुन्भेहिं नाहेहिं कीस नरयं जामि ? केण उवाएण वा न गच्छेजा, सामी भणइ-जइ कपिलं माहणि भिक्खं दावेसि कालसूरिय सूर्ण मोएसि तो न गच्छसि नरयं, वीमंसियाणि सवप्पगारेण नेच्छंति, सोय किर अभवसिद्धीओ कालो, पिज्जाइयाणिया कविला न पडिवजा जिणवयणं, सेणिएण धिज्जाइणी भणिया सामेण-साह बंदाहि, सा नेच्छा, मारेमि ते, तहावि नेच्छइ, कालोवि नेच्छइत्ति, भणइ-मम गुणेण एत्तिओ जणो सुहिओ नगरं च, एत्थ को दोसो, तस्स पुत्तो पालगो नाम सो अभएण उवसामिओ, कालो मरिउमारतो, तस्स पंचमहिसगसयघातेहिं से ऊर्ण अहे सत्तमया ततः सेटुकवृत्तान्त स्वामी कधयति, याबद्देवो जाता, सहि युष्माभिः ते किमेवं भणति', भाइ भगवान् मा भणति-कि संसारे तिष्ठत निर्वाण गच्छतेति, त्वं पुनर्यावजीवसि तावत्सुखितो मृतो नरकं यायसीति, अभय ददापि वैश्यसाधुपूजया पुण्यं समुपार्जयति मृतो देवकोकं यास्थति, कालिको यदि जीवेत् दिवसे २ महिषपञ्चशती न्यापादयति मतो नरकं गमिष्यति, राजा भणति-अहं युष्मासु नाथेषु कथं नरकं गमिष्यामि १, केन घोपायेग न गच्छे !, स्वामी भणति-यदि कपिलां प्राह्मणी भिक्षा दापयसि कालशौकरिकात् सूनो मोचयसि तदान गच्छसि मरकं, प्रज्ञापितो सर्वप्रकारेण नेपछता, स किसाभव्य सिद्धिका कालिका, विजातीया कपिला न प्रतिपयते जिनवचनं, श्रेणिकेन घिमातीया भणिता साना-साधून वन्दस्ख, सा नेपछति, मारयामि त्वां, तथापिन प्रतिपद्यते, कालिकोऽपि नेष्यतीति, भणति-मम गुणेनेषान् जनः सुखी नगरं च, भन्न को दोषः, तसा पुत्रः पाळको नामाभयेन स उपामितः, कालिको मतुंमारब्धः, तस्य महिषपञ्चशत्या धातेनाथोनमधः सप्तमी 94256 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1364 Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝཙྪེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्रीया ॥६८१ ॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [ २०६...]. पाउग्गं, अण्णया महिससयाणि पंच पुत्त्रेण से पलावियाणि, तेण विभंगेण दिहाणि मारियाणि य, सोलस य रोगायंका पाउन्भूया विवरीया इंदियस्था जाया जं दुग्गंधं तं सुगंधं मन्नइ, पुत्रेण य से अभयस्स कहिये, ताहे चंदणिउदगं दिज्जइ, भणइ-अहो मिट्ठं विद्वेण आलिप्पइ पूइमंसं आहारो, एवं किसिऊण मओ अहे सत्तमं गओ, ताहे सयणेण पुत्तो से उवि - जइ सो नेच्छइ मा नरगं जाइस्सामित्ति सो नेच्छा, ताई भणति अम्हे विगिंचित्सामो तुमं नवरं एक मारेहि सेसए सबै परियणो मारेहिति, इत्थीए महिसओ बिइए कुहाडो य रत्तचंदणेणं रत्तकणवीरेहिं, दोवि डंडीया मा तेण कुहाडएग अप्पा हओ पडिओ बिलवर, सवणं भणइ एयं दुक्खं अवणेह, भणंती-न तीरंति, तो कहं भणह-अम्हे विगिंचामोत्ति ?, एयं पसंगेण भणियं, तेण देवेणं सेणियस्स तुहेण अट्ठारसको हारो दिण्णो दोणि य अक्खलिययट्टा दिण्णा, सो हारो चेहजाए दिण्णो पियति काउं, वट्टा नंदाए, ताए रुहाए किमहं चेडरूवत्तिकाऊण अनिरक्खिया खंभे आवडिया भग्गा, 1 प्रायोग्यं अन्यदा महिपतीपुत्रेण तस्य पलायिता तेन विभङ्गेन दृष्टा मारिता च षोडश रोगाता प्रादुर्भूताः विपरीता इन्द्रियार्थी जाता यत् दुर्गन्धं तत्सुगन्धि मन्यते पुत्रेण च तस्याभयाय कथितं तदा वचगृहोदकं दीयते, भणति अहो मिष्टं विष्ठयोपलिप्यते पूतिमांसमाहारः एवं तो अधः सप्तम्यां गतः, तदा स्वजनेन तस्य पुत्रः स्वाध्यते स नेच्छति मा नरकं गममिति स नेच्छति, ते भणन्ति वयं विभक्ष्यामस्वं परमेकं मास्य शेषान् सर्वान् परिजनो मारयिष्यति, खिया महिषो द्वितीयया कुठारो रकचन्दनेन स्ककणवीरैः (मण्डिती), द्वावपि मा दण्डिता भूव तेन कुठारेणात्मा हतः पतितो विलपति, स्वजनं मणति एतदुःखमपनयत, भणन्ति न शक्यते तत् कथं भगत वर्ष विभश्याम इति ? एतप्रसङ्गेन भणितं तेन देवेन श्रेणिकाय तुष्टेनाष्टादशसरिको हारो दय: ही चाकाश्यवृत्ती दत्त स हार बेहणायै दत्तः प्रतिकृया वृशी नावे, तथा रुया किमहं चेटरूपेतिकृत्वा दूरं क्षिप्तौ सम्भे आपतितौ भी, ४ प्रतिकयोग० ५शि शायां वज्रस्वाम्यु० कालिकशौकरिका. ~ 1365 ~ ॥ ६८१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] तत्थ एगंमि कुंडलजुयलं एगमि देवदूसजुयलं, तुट्टाए गहियाणि, एवं हारस्स उप्पत्ती । सेयणगस्स का उप्पत्ती ?, एगत्थ वणे हथिजुहं परिवसइ, तंमि जूहे एगो हत्धी जाए जाए हथिचेलए मारेइ, एगा गुबिगी हस्थिणिगा, सा य ओसरिता एकल्लिया चरइ, अण्णया कयाइ तणपिडियं सीसे काऊण तावसासमं गया, तेसिं तावसाणं पाएमु पडिया, तेहिं णायंसरणागया वराई, अण्णया तत्थ चरंती वियाया पुत्तं, हथिजूहेण समं चरंती छिद्देण आगंतूण थर्ण देइ, एवं संबड्डइ, तत्थ तावसपुत्ता पुष्फजाईओ सिंचंति, सोवि सोडाए पाणियं नेऊण सिंचाइ, ताहे नाम कयं सेवणओत्ति, संवहिओ मयगलो जाओ, ताहे णेण जूहबई मारिओ, अप्पणा जुहं पडिवण्णो, अण्णया तेहिं ताबसेहिं राया गाम दाहितित्ति मोयगेहि लोभित्ता रायगिहं नीओ, णयर पवेसेत्ता बद्धो सालाए, अण्णया कुलवती तेण व पुवन्भासेण दुको किं पुत्ता! सेयणग ओच्छगं च से पणामेइ, तेण सो मारिओ, अण्णे भणंति-जूहवइत्तणे ठिएणं मा अण्णावि वियातित्ति ते तकस्मिन् कुन्दलयुगलमेकस्मिन् देवतुष्ययुगलं, तुष्टया गृहीतानि, एवं हारस्योत्पत्तिः। सेचनकस्य कोपतित, एकत्र बने हस्तिपूर्ण परिक्सति, तस्मिन् पूणे एको हस्ती जातान् गातान् हस्तिकलभान मारयति, एका गुची हस्तिनी, सा चापपत्यकाकिनी चरति, भग्यदा कदाचित् तृणपिण्टिको शीर्षे कृत्वा तापसाश्रमं गता, तेषां तापसाई पादयोः पतिता, सेशोतं-शरणागता वराकी, अन्यदा तत्र चरन्ती प्रजनितवती पुत्रं, हस्तियूयेन समं चरन्ती जबसरे आगत्य सनं ददाति, एवं संवर्धते, सत्र तापसपुत्राः पुष्पजातीः सिञ्चन्ति, सोऽपि शुण्डपा पानीषमानीय सिमति, तदा नाम कृतं सेचनक इति, संवृद्धो मदकलो जातः, तदाऽनेन यूथपतिर्मारितः, आत्मना यूथं प्रतिपनं, अन्य दा सापस राजा प्रामं दास्यतीति लोभयित्वा मोदक राजगृहं नीतः, नगरं प्रवेश्य बद्धः शालायां, मन्बदा कुलपतिस्तेनैव पूर्वाभ्यासेनागतः, किं पुत्र सेचनक ! वस्त्रं च तमे क्षिपति, लेन स मारिता, अन्ये भणस्ति-यूथपतित्वे खितेन माऽन्यापि प्रजीजगदिति ते **%A60-4 दीप अनुक्रम [२६] -% R-50 % 4-% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13664 Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝཡྻཱཔྤ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभदीया ॥६८२ ॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४ ] भष्यं [ २०६...]. तावसउडया भग्गा तेहिं तावसेहिं रुहेहिं सेणियस्स रण्णो कहियं, ताहे सेणिएण गहिओ, एसा सेयणगस्स उप्पत्ती । पुवभवो तस्स- एगो धिज्जाइओ अन्नं जयइ, तस्स दासो तेण जन्नवाडे ठबिओ, सो भणइ-जइ सेसं मम देहि तो ठामि इयरहा ण, एवं होउत्ति सोवि ठिओ, सेसं साहूण देइ, देवाउयं निबद्धं देवलोगाओ चुओ सेणियस्स पुत्तो नंदिसेणो जाओ, धिजाइओऽवि संसारं हिंडित्ता सेयणगो जाओ, जाहे किर नंदिसेणो विलम्बइ ताहे ओहयमणसंकप्पो भवइ, विमणो होइ, ओहिणा जाणइ, सामी पुच्छिओ, एवं सर्व कहेइ, एस सेयणगस्त पुढभवो अभओ किर सामिं पुच्छइको अपच्छिमो रायरिसित्ति १, सामिणा उदायणो वागरिओ, अभ परं बद्धमवडा न पवयंति, ताहे अभएण रज्जं दिजमाणं न इच्छियं, पच्छा सेणिओ चिंतेइ-कोणियस्स रज्जं दिजिहित्ति हलस्स हत्थी दिनो विहलस्स देवदिनो हारो, अभएण पचयंतेण नंदाए य खोमजुयलं कुंडलजुयलं हलविल्लाणं दिण्णाणि, महया विभवेण अभओ समाऊओ पवइओ, अण्णया 1 तापसोटजा भनासैखापसे स्टे श्रेणिकस्य राशः कथितं तदा श्रेणिकेन गृहीतः, एषा सेचनकस्योत्पत्तिः । तस्त्र पूर्वभवः- एको धिग्जातीयो यज्ञं यजते, तख दासो यज्ञपाटे तेन स्थापितः स भगति-यदि शेषं मां दास्यसि तर्हि तिष्ठामि इतरथा न, एवं भवत्विति सोऽपि स्थितः शेषं साधुभ्यो ददाति देवायुर्निबद्धं देवलोकाच्युतः श्रेणिका पुत्रो नन्दिषेण जातः धिग्जातीयोऽपि संसारं हिण्डित्वा सेचनको जातः, यदा किल नन्दिषेण आरोदति तदोपहतमनः संकल्पो भवति विमनस्को भवति, अवधिना (विभङ्गेन ) जानाति, स्वामी पृष्टः पतत् सर्वे कथयति एष सेचनकस्य पूर्वभवः । अभयः किल स्वामिनंपृच्छति कोऽपश्चिमो राजर्षिरिति ?, स्वामिनोदायनो व्याकृतः, अतः परं बद्धमुकुटा न प्रवजिष्यन्ति तदाऽभयेन राज्यं दीयमानं नेष्टं पश्चात् श्रेणिकश्चितपति-कोणिकाय राज्यं दास्यते इति हल्लाय हस्ती दत्तः विलाय देवदत्तो हारो दत्तः, अभयेन प्रब्रजता नन्दायाः श्रीमयुगलं कुण्डलयुगलं चाम्यां दत्ते महता विभवेनाभवः समातृकः प्रवजितः, अन्यदा ------ प्रतिक्रम. योग० ५शि क्षायां वज्र स्वाम्यु० सेचनक पूर्वभवः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1367 ~ ।।६८२|| Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] कोणिओ कालादीहि दसहिं कुमारेहिं समं मंतेइ-सेणियं बंधेत्ता एक्कारसभाए रजं करेमोत्ति, तेहिं पडिसुयं, सेणिओ बद्धो, पुषण्हे अवरण्हे य कससयं दवावेइ, चेलणाइ कयाइ ढोयं न देइ, भत्तं वारियं, पाणियं न देइ, ताहे चेल्लणा कहवि कुम्मासे बालेहिं बंधित्ता सयाउं च सुरं पवेसेइ, सा किर धोवइ सयवारे सुरा पाणियं सर्व होइ । अण्णया तस्स पउमावईए देवीए पुत्तो उदायितकुमारो जेमतस्स उच्छंगे ठिओ, सो थाले मुत्तेति, न चालेइ मा दुमिजिहित्ति (जत्तिए) मुत्तियं तत्तियं कूरै अवणेइ, मार्य भणति-अम्मो ! अण्णस्सबि कस्सवि पुत्तो एप्पिओ अस्थि', मायाए सो भणिओदुरात्मन् तव अंगुली किमिए वर्मती पिया मुहे काऊण अच्छियाइओ, इयरहा तुम रोवतो अच्छियाइओ, ताहे चित्तं मउयं जाय, भणइ-किह , तो खाइ पुण मम गुलमोयए पेसेह, देवी भणइ-मए ते कया, जं तुम सदा पिइवेरिओ उदरे आरतोत्ति सर्व कहेइ, तहावि तुज्झ पिया न विरजइ, सो तुमे पिया एवं वसणं पाविओ, तस्स अरती जाया, कोणिक कालादिभिर्दशभिः कुमारः समं मन्त्रयति-जिक बङ्गा एकादश भागान राज्यस्य पुमै इति, सेः प्रतिश्रुतं, श्रेणिको बखा, पूर्वाहे अपराहे च कशाशते दापयति, चेलणायाः कदाचियपि गमनं (क)म ददाति, भक्त बारितं, पानीयं न ददाति, तदा चेलणा कथमपि कुष्माघान् वालेषु बट्टा स्वयं च सुरो प्रवेशयति, सा किक प्रक्षालयति शासकृत्यः सुरा पानीयं सर्व भवति । भम्बदा तख पावत्या देव्याः पुत्र बदाविकमारो जेमत उत्सले स्थित्तः, स स्थाले मूत्रपति, न चालयति मा दोषीदिति (यावति) मूधित तावन्तं चरमपनयति, मासरं भणति-अम्ब! अन्यथापि कस्यापि पुत्र इयस्मियोऽस्ति , || मात्रा स भणिता-सयाली कमीन पमन्ती पिता (तब) मुखे कृत्वा स्थितवान् , इतरथा त्वं रुदन् खितवान्, तदा चित्त मृदु जाते, भणति-कथा कपुर मझ गुरमोदकान् अप्रैषीत् ', देवी भणति-मया ते कृताः, यवं सदा पितृवैरिका, उपरे (आगमनान) भारभ्येति सर्व कथिसं, सथापि तव पिता न पर हीत, स स्वया पितैष व्यसनं भापितः, तस्वारतिर्जाता, दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13684 Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-15 सुणेतओ चेव उहाय लोहदंडं गहाय नियलाणि भंजामित्ति पहाविओ, रक्खबालगा नेहेणं भणति-एस सो पावो लोह- ४ प्रतिकहारिभ- दंड गहाय एइत्ति, सेणिएण चिंतियं-न नज्जइ कुमारेण मारेहितित्ति तालउडं विसं खइयं जाव एइ ताव मओ, सुहृयर है। योगसं० द्रीया अधिती जाया ताहे डहिऊण घरमागओ रज्जधुरामुकतत्तीओ तं चेव चिंततो अच्छइ, कुमारामञ्चेहिं चिंतिय-नई रज शिक्षायां होइत्ति तंबिए सासणे लिहिता अक्खराणि जुण्णं काऊण राइणो उवणीयं, एवं पिउणो कीरद पिंडदाणादी, णित्वारि॥६८३॥ वजस्वाम्यु. जइ, तप्पभिति पिंडनिवेयणा पत्ता, एवं कालेण विसोगो जाओ, पुणरवि सयणपरिभोए य पियसैतिए दळूण अद्धितीचेटककोहोहित्ति तओ निग्गओ चंपारायहाणी करेइ, ते हलविहल्ला सेयणएण गंधहत्थिणा समं सभवणेसु य उज्जाणेसु य पुक्ख- णिकयुद्ध रिणीएस अभिरमंति, सोवि हत्थी अंतेउरियाए अभिरमावेइ, ते य पउमावई पेच्छाइ,णयरमझेण य ते हलविहला हारण कुंडलेहि य देवदुसेण विभूसिया हस्थिखंधवरगया दहूण अद्धितिं पगया कोणियं विष्णवेइ, सो नेच्छइ पिउणा दिण्णंति, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] R पवनेयोत्थाय खोडद गृहीत्वा निगवान् भनज्मि इति प्रधावित्तः, खेडेन रक्षपालका: भणन्ति-एप सपापो सोहप गृहीत्वाऽध्याति, श्रेणिकेन चिन्तितन ज्ञायते (फेन) कुमरणेन मारविष्यतीति तालपुर विषं खावितं यावदेति तावन्मृतः, सुपुलरातिांता, सदा दावा गृहमागतो मुक्ताज्यधूनप्तिस्तदेव | चिन्तयन् तिष्ठति, कुमारामास्वैलिम्ति-नायं मलयतीति तान्त्रिक शासनं लिनिस्वाऽक्षराशि मीणानि कृत्वा राजपनीतं, एवं पितुः क्रियते पिण्डदानादि, निस्तार्यते, तत्मभूति पिण्ड निवेदना प्रवृत्ता, एवं कालेन विशोको जातः, पुनरपि स्वजनपरिभोगांव पितृसत्कान् दृष्ट्वाऽतिर्भविष्यतीति निर्गतसातम्या राजधानी करोति, लौ हलविहली सेचनकेन हस्तिना समं स्वभवनेषु ज्यानेषु पुष्करिणीषु चाभिरमंते, सोऽपि इसी अन्तःपुरिका अभिरमवते, तीच पद्मावती प्रेक्षते, नगरमध्येन च ती हलविहलो हारेण कुण्डलान्या देवतुष्येण च विभूषिती वरहस्तिस्कन्धगती राष्ट्राधृति प्रगता कोणिक विज्ञपयति, स नेति पित्रा दत्तमिति, ॥६८३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1369~ Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) R प्रत सूत्रांक [सू.] ker- एवं बहसो २ भणतीए चित्तं उप्पण्णं, अण्णया हल्लविहल्ले भणइ-रजं अद्धं अद्धेण विगिंचामो सेयणगं मम देह, ते हि मा सुरक्खं चिंतियं देमोत्ति भणंति गया सभवर्ण, एकाए रत्तीए सअंतेउरपरिवारा वेसालिं अज्जमूलं गया, कोणियस्स। कहियं-नहा कुमारा, तेण चिंतियं-तेवि न जाया हत्थीवि नस्थि, चेडयरस दुयं पेसइ, अमरिसिओ, जइ गया कुमारा गया नाम, हरिथ पेसेह, चेडगो भणइ-जहा तुम मम नत्तुओ तहा एएवि, कह इयाणि सरणागयाण हरामि, न देमित्ति दूओ पडिगओ, कहियं च, पुणोवि दुयं पट्टवेइ-देह, न देह तो जुझसज्जा होह एमित्ति, भणइ-जहा ते रुचइ, ताहे कोणिएण कालाइया कुमारा दसवि आवाहिया, तत्थेक्केकरस तिन्नि २ हत्थिसहस्सा तिन्नि २ आससहस्सा तिन्नि २ रहसहस्सा तिन्नि २ मणुस्सकोडिओ कोणियस्सवि एत्तियं सवाणिवि तित्तीसं ३३, तं सोऊण चेडएण अट्ठारसगणरायाणो. मेलिया, एवं ते चेडएण सम एगूणषीसं रायाणो, तेसिपि तिन्नि २ हस्थिसहस्साणि तह चेव नवरं सर्व संखेवेण एवं बहुशोर भणमया चित्तमुस्पादितं, अन्यदा हलविहली भणति-राज्यमर्धम विभजामः सेचनकं मयं दत्त, नौ तु मा सुरक्षं चिन्तितं दावेति प्ररपरिधारी वैशाध्यामार्य (मातामह) पादम गती. कोणिकाव कवितं-नटी कुमारी, तेन चिन्तितं-सावपिट न जाती हस्त्यपि नास्ति, चेटकाय दूतं प्रेषयति, अमर्पितो, यदि गतौ कुमारौ गतौ नाम हस्तिनं प्रेषय, चेटको भणति- यथा स्वं मप्ता तवैतावपि, कवभिदानी शशरणागतयोहरामि, ग ददामीति दूतः प्रतिगतः, कथितं च पुनरपि दूतं प्रस्थापयति-देहि, न दयालदा युद्धसनो भवैमीति, भणति-यथा ते रोचते, तदा कोणिकेन कालादिकाः कुमारा दशायाहूताः, तपैकैकस्य श्रीणि २ स्तिसहस्राणि श्रीणि १ अवसहस्त्राणि श्रीणि २ रथसहस्राणि तिस्रो २ मनुष्य कोटयः कोणिकवाध्येतावत् सर्वाण्यपि प्रयविंशत् तत् श्रुत्वा पेटकनाशदया गणराजा मेलिसाः, एवं से चेटकेन सममेकोनविंशती राजाना, तेषामपि हसिना निसहस्त्री २ तथैव नवरं सवै संक्षेपेण दीप अनुक्रम [२६] -- 563 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1370~ Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८४॥ सत्तावणं, ताहे जुद्ध संपलग्गं, कोणियस्स कालो दंडणायगो, दो वूहा काया, कोणियस्स गरुडवूहो चेडगस्स सागर- प्रतिकहो, सो जुझंतो कालो ताव गओ जाव चेडगो, चेडएण य एगस्स य सरस्स अभिग्गहो कओ, सो य अमोहो, तेण मणाध्य. सो कालो मारिओ, भग्गं कोणियबलं, पडिनियत्ता सए २ आवासे गया, एवं दसहि दिवसेहिं दसवि मारिया चेडएण योगसं० IP५शिक्षायां कालादीया, एक्कारसमे दिवसे कोणिओ अहमभत्तं गिण्हइ, सक्कचमरा आगया, सको भणइ-चेडगो सावगोत्ति अहं न वनस्वाम्यु. पहरामि नवरं सारक्खामि, एरथ दो संगामा महासिलाकंडओ रहमुसलो भाणियवो जहा पण्णत्तीए, ते किर चमरेण चेटककोविउविया, ताहे चेडगस्स सरो वइरपडिरूवगे अप्फिडिओ, गणरायाणो नद्या सणयरेसु गया, चेडगोवि वेसालि गओ, णिकयुद्ध रोहगसज्जो ठिओ, एवं बारस वरिसा जाया रोहिजंतस्स, एत्थ य रोहए हल्लविहल्ला सेयणएण निग्गया बलं मारेंति दिवे दिवे, कोणिोषि परिखिज्जा हस्थिणा, चिंतेइ-को उवाओ जेण मारिजेजा, कुमारामच्चा भणंति-जइ नवरं हस्थी| दीप अनुक्रम [२६] सप्तपश्चाशत्, तवा युद्ध प्रवृत्तं, कोणिकरण काको दण्डनायकः द्वौ म्यूही कृती, कोणिकस्स गरुडम्यूहवेटकस्य सागरम्यूदः, स युध्यमानः कालस्ताबहनो यावधेटकः, चेटकेन चैकस्य शरस्याभिप्रहः कृतः, स चामोषः, तेन स कालो मारितः, भर्म कोणिकवलं, प्रतिलिचाः स्वके २ मावासे गताः, एवं | दशभिर्दिवसर्दशापि मारिताटकेन काकादयः, एकादशे दिवसे कोणिकोऽष्टमभक्त गृहाति, शऋचमरावागती, पाको भणति-धेटकः श्रावक इसाई न प्रहरामि गवर संरक्षयामि, अन्न द्वौ संमामी महाधिलाकण्टकरथमुपाली भणितम्पी वथा प्रशली, तौ किक चमरेण विकुर्विती, तवा पेटकस शारो वनप्रतिरूपके रस |लितः, गणराजा नष्टाः स्वनगरेषु गताः, चेटकोऽपि पैशाची गता, रोधकसजा स्थितः, एवं द्वावधा वर्षाणि जातानि बध्यमाने, मत्र परोधके दलनिकली सेचनकेन लिगेसी वर्क मारयतः विषसे दिवसे, कोणिकोऽपि परिसिधते हस्तिना, चिन्तयति- पायो येन मार्यते, मारामाल्या भान्ति-पवि नवरं इस्ती ॥६८४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1371~ Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] मरिजा अमरिसिओ भणइ-मारिजउ, ताहे इंगालखड्डा कया, ताहे सेयणओ ओहिणा पेच्छह न वोलेह खड़, कुमारा भणंतिता निमित्तं इमं आवई पत्ता तोषि निच्छसि', ताहे सेयणएण खंधाओ ओयारिया, सो य ताए खडाए पडिओ मओ रयणप्पहाए नेरइओ उववष्णो, तेवि कुमारा सामिस्स सीसत्ति बोसिरंति देवयाए साहरिया जत्थ| भयवं तित्थयरो विहरइ, तहवि णयरी न पडइ, कोणियस्स चिंता, ताहे कूलवालगस्स रुहा देवया आगासे भणइ|'समणे जइ कूलवालए मागहियं गणियं लगेहिती । लाया य असोगर्चदए, वेसालिं नगरि गहिस्सइ ॥१॥सुणेतओ४ चेव चपं गओ कूलवालय पुरुछा, कहियं, मागहिया सद्दाविया विडसाविया जाया, पहाविया, का तीसे उप्पत्ती जहा णमोकारे पारिणामियबुद्धीए थूभेत्ति-'सिद्धसिलायलगमणं खुड्डगसिललोहणा य विक्खंभो । सावो मिच्छावाइत्ति| |निग्गओ कुलचालतवो ॥१॥ तायसपाली नइवारणं च कोहे य कोणिए कहणं । मागहिगमणं बंदण मोदगअइसार| मात, अपितो भणति-मार्यता, तदाकारगा कृता, तदा सेचनकोऽवधिना पश्यति, नातिकामति गती, कुमारी भणत: तब निमिपार्मिषमापतिः प्राप्ता समापि नेपासि, सदा सेचनफेन स्कन्धादयतारिती, स प तस्यां गायो पतितो मृतो रसप्रभायो नैरपिक जापाः, तावपि कुमारी स्वामिनः लाशिष्याविति प्रमजन्ती देवतया संहतो यन्त्र भगवान् सीकरी विहरति, तथापि भणति-धमणः कूलवालको यदि मागधिका वेश्यां सगियति । राजा पाशोकचन्दो वैशाली नगरी महीव्यति ॥ ॥ ध्वमेव चम्पां गतः कूलवालक पृच्छति, कथितं, मागधिका शब्दिता विश्रानिका जाता, प्रथापिता, का तथा उत्पत्तियथा नमस्कारे पारिणामिकीवुद्धी स्तूप इति, सिद्धशिलासहगमनं दुखकेन शिलालोहनं च विकम्भः (पादप्रसारिका)माणे मिथ्यावादीति निर्गतः फूलपालकतपः ॥1॥ तापसपली नदीवारणं च कोधे कोणिकाय (देवतया) कथितं । मायधिकागमनं वन्दनं मोदकाः भत्तीसारः दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1372~ Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८५॥ [सू.] आणणया ॥२॥ पडिचरणोभासणया कोणियगणियत्ति गमणनिग्गमणं । बेसालि जहा घेप्पड उदिक्ष जो गवे- प्रतिक्रमसामि ॥ ३॥ बेसालिगमण मग्गण साईकारावणे य आउट्टा । थूभ नरिंदनिवारण इट्टगनिकालणविणासो ॥४॥ पडि-IN यागमणे रोहण गद्दभहलवाहणापइण्णाय । चेडगनिग्गम बहपरिणओ य माया वालद्धो ॥५॥" कोणिओ भणइ प्रयोग०५शि क्षायां वज्रचेडग ? किं करेमि !, जाव पुक्खरिणीओ उड्डेमि ताव मा नगरी अतीहि, तेण पडिवणं, चेडगो सबलोहियं पडिर्म गलए स्वाम्य वै. अंधिऊण उइण्णो, धरणेण सभवणं नीओ कालगओ देवलोग गओ, वेसालिजणो सबो महेसरेण नीलवंतंमि साहरिओशालीग्रहः को महेसरोत्ति ?, तस्सेव चेडगस्स घूया सुजेहा वेरग्गा पवइया, साउवस्सयस्संतो आयावेइ, इओय पेढालगो नाम परिवायओ विजासिलो विजाउ दाउकामो पुरिसं मग्गइ, जइ बंभचारिणीए पुत्तो होज्जा तो समस्थो होजा, तं आयावतीं दहणं धूमिगावामोहं काऊण विजाविवज्जासो तत्थ सेरितु काले जाए गम्भे अतिसयणाणीहिं कहियं-न एयाए| मानयनं ॥१॥ प्रविचरणमवभासनं कोगिकगणिकेति गमनं निर्गमनं । वैशाली यथा गृह्यते बद्धीक्षख प्रयतो गवेषधामि ॥२॥ वैशालीगमनं मार्गणं | सस्पधारकारणेनावर्जिता । सपः नरेन्द्रनिवारण इष्टिकानिष्काशनं विनायाः ॥ ४॥ पतिते गमनं रोषः (पूर्तिः) गर्दभहलवाहनप्रतिझायाः । चेटकनिनमो वश्वपरिणतब मात्रीपालन्धः ॥ ५॥ कोणिको भणगि-चेटक! किं करोमि', यावत् पुष्करिथया मागच्छामि तावम्मा नगरी वासीः, तेन प्रतिपर्व, चेटकः सकललोहमयी प्रतिमां गले बा अवतीर्णः, धरणेन स्वभवनं नीतः कालगतो देवडोकं गतः, वैशालीजन: सर्वो महेश्वरेण नीलयति संहतः । को महेबर | ॥६८५॥ इति , तस्वैव चेटकख दुहिता सुम्येष्ठा वैराग्याप्रमजिता, सोपाश्रयस्यान्तरातापयति, इस पेढालको नाम परिबाद विद्यासिद्धो विद्या दातुकामः पुरुष | मार्गयति, यदि ब्रह्मचारिण्याः पुत्रो भवेत् सहि समर्थों भवेत् , तामाताफ्यम्ती टष्टा भूमिकाम्यामोई कृत्या विद्याविपर्यासः तत्र व्युत्मज्य (ततः) काले जाते गतिशयज्ञानिभिः कथितं-तस्याः -. - - दीप अनुक्रम [२६] . 4 - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1373~ Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) C प्रत सूत्रांक [सू.] CRAC कामविकारो जाओ, सहयकुले वडाविओ, समोसरणं गओ साहुणीहिं सह, तत्थ य कालसंदीवो चंदित्ता सामि पुच्छइकओ मे भयं ?, सामिणा भणियं-एयाओ सच्चतीओ, ताहे तस्स मूलं गओ, अवण्णाए भणइ-अरे तुम मम मारेहिसित्ति पाएसु बला पाडिओ, संवडिओ, परिवायगेण तेण संजतीण हिओ, विजाओ सिक्खाविओ, महारोहिणिं च साहेइ, इमं सत्तमं भवं, पंचसु मारिओ, छट्टे छम्मासावसेसाउएण नेच्छिया, अह साहेत्तुमारद्धो अणाहमडए चितियं काऊण उज्जालेता अल्लचम वियडित्ता वामेण अंगुहएण ताव चंकमइ जाव कहाणि जलंति, एत्थंतरे कालसंदीवो आगओ कहाणि छुन्भइ, सत्तरत्ते गए देवया सयं उवडिया-मा विग्धं करेहि, अहं एयस्स सिज्झिउकामा, सिद्धा भणइ-एगं अंग परिचय जेण पबिसामि सरीरं, तेण निलाडेण पडिच्छिया, तेण अइयया, तत्थ बिलं जायं, देवयाए से तुहाए तइयं अपिंछ कयं, तेण पेढालो मारिओ, कीसणेणं मम माया रायधूयत्ति विद्धंसिया, तेण से रुद्दो नामं जायं, पच्छा कालसंदीवं आभोएइ, कामविकारो जातः, श्राद्धकुले वर्धितः, समवसरणं गतः साध्वीभिस्सद, च कालसंदीपको बन्दिया स्वामिनं पूच्छति-पतो मै भयं', खामिना भणित-एतमाद सपके, सदा तस्य पार्थ गत!, अवशया भणति-अरे मां मारयिष्यसीति पादयोबलान पातितः, संजूदा परिनाजफेन तेन संयतीनां | पार्थात् इतः, विद्याः शिक्षिता, महारोहिणींच साधयति, अयं सप्तमो भवः, पत्रसु मारितः, षष्ठे पपमासाचशेषायुष्कतया नेष्टा, अथ साविमुभारम्धः अनाभमृतकेन चितिको कृपा प्रज्वास्य माधर्म प्रावृल बामेनानुष्ठेन तावत् चाम्यति यावत् काहानिश्वसन्ति, अनान्तरे कालसंदीपक आगतः काष्ठानि क्षिपति, सप्तररात्रे गते देवता स्वयमुपस्थिता-मा विसं कार्षीः, महमेतख सेचिनुकामा, सिद्धा भणति-एकम परिवत्र येन प्रविशामि भारीरं, तेन कलाटेन प्रतीष्टा, | तेनालिगता, तत्र बिलं जातं, देवतया ती तुझ्या तृतीचमक्षि करा, तेन पेढालो मारितः, कथं मम माता राजदुदितेति विश्वसा, तेन तस्य रुदो नाम मातं, पश्चात् काळसंदीपमाभोगयति, दीप अनुक्रम [२६] % BE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1374~ Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-दादिडो, पलाओ, मग्गओ लग्गइ, एवं हेहा उवरिं च नासइ, कालसंदीवेण तिन्नि पुराणि विउविता, सामिपायमले प्रतिक्रमहारिभ- अच्छइ, ताणि देवयाणि पहओ, ताहे ताणि भणंति-अम्हे विजाओ, सो भट्टारगपायमूलं गोसि तत्थ गओ. एकमेकाशमणाध्याः द्रीया खामिओ, अण्णे भणति-लवणे महापायाले मारिओ, पच्छा सो विजाचकवट्टी तिसंझ सबतित्थगरे वंदिता ण च | योग०५शि दाइत्ता पच्छा अभिरमइ, तेण इंदण नाम कयं महेसरोत्ति, सोवि किर धेजाइयाण पओसमावण्णो धिज्जाइयकन्नगाण क्षायां वन॥६८६॥ वाम्यु.महे सय २ विणासेइ, अन्नेसु अंतेउरेसु अभिरमद, तस्स य भणंति दो सीसा-नंदीसरो नंदी य, एवं पुष्फएण विमाणेण अभि- रोत्पदा रमइ, एवं कालो वचाइ, अन्नया उजेणीए पज्जोयरस अंतेउरे सिवं मोतूर्ण सेसाओ विद्धंसेइ, पजोओ चिंतेइ-को उवाओ होजा जेण एसो विणासेज्जा, तत्थेगा उमा नाम गणिया रूवस्सिणी, साकिर धूवग्गहर्ण गेण्हइ जाहे तेणंतेण एइ, एवं बच्चइ काले उइण्णो, ताए दोणि पुष्पाणि वियसियं मउलियं च, मउलियं पणामियं, महेसरेण वियसियस्स हत्थो पसारिओ, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] 645-45645 E, पलायिता, पृष्ठतो लगति, एवमधस्तादुपरि घनश्यति, कालसंदीपेन श्रीणि पुराणि विकृर्षितानि, स्वामिपुरविपति, ता देवताः प्रहता, तदाता। भणन्ति-वर्य विद्या, स भहारकपादमूलं गत इति गता, सत्र एककेन अमिता, अन्ये भणन्ति-सपणे महापाताले मारितः, पश्चात् स विथाचावी निसाध्यं सर्व तीर्थकरान बन्दिया भूप्यं च विवा पवादभिरमते, तेनेगेण नाम कृतं महेश्वर इति, सोऽपि किक धिरजातीयानां प्रवेषमापनो विजातीयकम्पकानां शतं | बिनाशयति, मन्येप्यन्तापुरेषु अभिरमते, तस्य च भण्येते ही शिष्यो-मन्दीभरो नन्दीच, एवं पुष्प कण विमानेन अभिरमते, एवं कालो प्रजाति, अन्यदोजबिन्यो प्रथोतवान्तापुरे विवो मुनषा भेषा विध्वंसयति, प्रयोतबिन्तयति-क उपायो भवेत् येन एष विनाश्येत १. तत्रैकोमानाशी गणिका कपिणी, साहिल पूप-ल महर्ण गृहाति यदा तेन मार्गे गैति, एवं प्रगति काले अवतीर्णः, सपा हे पुणे विकसितं मुकूलितं च, मुकुलितमर्पयति, महेभरेण विकसित्ताय इतः प्रसारितः, ॥६८६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1375~ Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) -- - प्रत सूत्रांक सो मउलं पणामेइ एयस्स तुझे अरसित्ति, कह , ताहे भणइ-परिसिओ कण्णाओ ममं तावपेच्छह, तीए सह संवसह हियहियओ कओ, एवं वच्चइ कालो, सा पुच्छइ-काए वेलाए देवयाओ ओसरंति ?, तेण सिह-जाहे मेहुणं सेवामि, तीए रणो सिह मा ममं मारेहित्ति, पुरिसेहिं अंगस्स उवरि जोगा दरिसिया, एवं रक्खामो, ते य पज्जोएण भणिया-सह एयाए मारेह मा य दुरारद्धं करेहिह, ताहे मणुस्सा पच्छण्णं गया, तेहिं संसद्यो मारिओ सह तीए, ताहे नंदीसरो ताहि | विजाहिं अहिटिओ आगासे सिलं विउवित्ता भणइ-हा दास ! मओसित्ति, ताहे सनगरो राया उलपडसाडगो खमाहि एगावराहंति, सो भणइ-एयरस जइ तवरथं अचेह तो मुयामि, एयं च णयरे २ एवं अवाउडियं ठावेहत्ति तो। मुयामि, तो पडिवण्णो, ताहे आययणाणि कारावियाणि, एसा महेसरस्स उप्पत्ती । ताहे नगरि सुणियं कोणिओ अइगओ गद्दभनंगलेण गाहाविया, एस्धंतरे सेणियभजाओ कालियादिमादियाओ पुच्छंति भगवं तित्थयर-अम्हें पुत्ता | [सू.] दीप अनुक्रम [२६] सासुकुलमर्पयत्येतस्य स्वमहंसीति, कथं १, सदा भणति-इंश्यः कन्या मां तावत् प्रेक्षख, तया सह संचसति हतहदयः कृतः, एवं मजति कालः, सा पृक्छति-कस्यां येलायां देवता अपसरन्ति, नोक-पदा मैथुन सेवे, सया राजे कथितं मा मां मारयतेति, पुरुषैरङ्गस्योपरि योगा दर्शिताः, एवं रक्षयामः, ते च प्रद्योतेन भणिता-सहतया मारयत मा दुरारब्धं काई, तदा मनुष्याः प्रश्छवं गताः, तैः संश्लिष्ठो मारितः सह तया, तदागन्दीश्वरस्ताभिषिचाभिरधिष्ठित आकाशे शिला विकुळ भणति-हा दास!मृतोऽसीति, तदा सनागरो राजा शाटिकापटः क्षमस्कमपराधमिति, स भणति यदि एनमेतदवस्थं भर्चवत, तदा मुजामि, पुनं च नगरे २ एवमप्रावृतं स्थापयतेति तदा मुशामि, वदा प्रतिपनः, तदाऽऽयतनानि कारितानि, एषा महेश्वरस्वोपतिः । तदा नगरी न्यो कोणिकोऽतिगतः गईभलालेन कृष्टा, अत्रान्तरे श्रेणिकभार्याः कालिकादिका पृष्ठन्ति भगवन्त तीर्थकर-असा पुत्राः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1376~ Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६८७॥ [सू.] संगमाओ (पं० १७५००) एंति नवत्ति जहा निरयावलियाए ताहे पवइयाओ, ताहे कोणिओ चंपं आगओ, तत्थ प्रतिकसामी समोसढो, ताहे कोणिओ चिंतेइ-पहुया मम हत्थी चकवडीओ एवं आसरहाओ जामि पुच्छामि सामी अहं चकवट्टी मणाध्यक होमि नहोमित्ति निग्गओ सब्बबलसमुदएण, वंदित्ता भणइ-केवइया चकबट्टी एस्सा, सामी भणइ-सबे अतीता, पुणो| भणइ-कहिं उववजिस्सामि?, छडीए पुढवीए, तमसदहतो सथाणि एगिंदियाणि लोहमयाणि रयणाणि करेइ, ताहे सबबलेणं तिमिसगुहं गओ अहमेणं भत्तेणं, भणइ कयमालगो-अतीता बारस चकवट्टिको जाहित्ति, नेच्छइ, हस्थिविलग्गोस्वाम्युका मणी हस्थिमधए काऊण दंडेण दुवारं आहणइ, ताहे कयमालगेण आहओ मओ छडिं गओ, ताहे रायाणो उदाई ठावंति, उदाइस्स चिंता जाया-त्थ णयरे मम पिया आसि, अद्धितीए अण्णं णयरं कारावेइ, मग्गह वत्थुति पेसिया, तेवि एगाए पाडलाए उवरिं अवदारिएण तुंडेण चासं पासंति, कीडगा से अप्पणा चेव मुहं अतिति, किह सा पाडलित्ति, संग्रामात् आगमिष्यन्ति भवेति !, यथा निरयावसिकायो तदा प्रमजिताः, तदा कोणिकश्चम्पामागतः, नत्र स्वामी समवस्तः, तदा कोणिकमिन्तयति-बहवो मम हस्तिनचक्रवर्तिनः (यथा) एवमयरथा: यामि पृच्छामि स्वामिनं बाई पक्रवर्ती भवामि न भवामीति ! निर्गतः सर्ववलसमुदवेन, बन्दिया | भणति-कियन्तश्चक्रवर्तिन एण्याः १, खामी भणति-सर्वेऽतीताः, पुनर्भणति-कोपरखे, षष्टया पुण्या, तबधानः सीपये केन्द्रियाणि रक्षानि कोहमयानि करोति, सदा सर्वबलेन तमिश्रगुहां गतः अष्टमभक्तेन, भणति कृतमालका-भसीता द्वादशा चक्रवर्तिमो याहीति, नेच्छति, इस्तिविलमो मणि इस्तिमस्तके कृत्वा | दम्झेन द्वारमाहन्ति, तदा कृतमाळकेनाहतो गृतः वहीं गतः, सदा राजान बदायिन स्थापयन्ति, उदाधिनचिन्ता जाता-भत्र नगरे मम पिताऽऽसीत् , ब| त्याउन्यसागरं कारयति, मार्गयत वास्तु इति प्रेषिताः, तेऽध्ये कयाः पाटकायाः उपर्यवदारितेन तुण्डेन चार्ष पश्यन्ति, कीटिकास्वस्थात्मजैन मुखमायान्ति, कथं सा पाटले ति, दीप अनुक्रम [२६] M६८७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1377~ Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] | दो महुराओ-दक्खिणा उत्तरा य, उत्तरमहुराओ वाणिगदारगो दक्षिणमहुरं दिसाजत्ताएगओ, तस्स तत्थ एगेण वाणियदागेण सह मित्तया, तस्स भगिणी अग्णिया, तेण भत्तं कयं, सा य जेमंतस्स वीयणगं धरेइ, सो तं पाएसु आरंभ |णिवण्णेति अज्झोववो, मग्गाविया, ताणि भणति-जइ इहं चेव अच्छसि जाव एकंपिता दारगरुवं जायं तो देमो, पडि४वणं, दिण्णा, एवं कालो वच्चइ, अण्णया तस्स दारगस्स अंमापितीहि लेहो विसज्जिओ-अम्हे अंधलीभूयाणि जइ जीवंताणि पेच्छसि तो एहि, सो लेहो उवणीओ, सो तं वाएइ अंसूणि मुयमाणो, तीए दिडो, पुच्छइ, न किंचि साहइ, तीए लेहो गहिओ, वाइत्ता भणइ-मा अधितिं करेहि, आपुच्छामि, ताए कहियं सर्व अम्हापिऊणं, कहिए विसजि४ याणि, निग्गयाणि दक्षिणमहुराओ, सा य अपिणया गुधिणी, सा अंतरा पंथे वियाया, सो चिंतेइ-अम्मापियरो नाम कहिंतित्ति न कर्य, ताहे रमा।तो परियणो भणेइ-अण्णियाए पुत्तोत्ति, कालेण पत्ताणि, तेहिवि से तं चेव नाम कयं अण्णं मधुरे-दक्षिणा उसरा च, उत्तरमधुराया वणिन्दारको दक्षिणमधुरां दिग्यात्रायै गतः, सब तस्य एकेन वणिजा सह मैत्री, तस्य भगिनी अर्णिका, तेन भक्तं कृतं, सा च जेमतो भ्यजनकं धारयति, स तां पादादारम्प पश्यति अध्युपपला, मार्गिता, ते भणन्ति-यदी हैव स्थास्यसि यावदेकमपि तावत् वारकरूप जातं ( भवेत्) तवा वमः, प्रतिपर्व, दत्ता, एवं कालो बजाति, अन्यदा तस्स दारकस्य मातापितृभ्यां लेसो विमृष्टः वयमन्धीभूती यदि जीवन्तौ प्रेक्षितुमियसि तदाऽध्या, स लेख अपनीतः, स तं वाचवति मुखमणि, तया टा, पृच्छति, न किश्चिदपि कथयति, तया लेखो गृहीतो, वाचविस्वा भणतिमाउधृति कार्षीः, भापृष्ठ, तथा कथितं सर्व मातापितृभ्यां, कधिते विसष्टी, निर्गती दक्षिणमधुशतः, सा चाणिका गुर्वी, साउतरा पथः प्रजनितवती, स चिन्तयति-मातरपितरं नाम करिश्वतीति न कृतं, तदा रमयन् परिजनो भणति-मणिकायाः पुत्र इति, कालेन प्रासी, ताभ्यामपि तस्य तदेव नाम दीप अनुक्रम [२६] TRACK कृतमन्यत् मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1378~ Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६८८॥ न पाइष्टिहित्ति, ताहे सो अण्णियपुत्तो उम्मुक्कबालभावो भोगे अवहाय पचइओ, धेरत्तणे विहरमाणो गंगायडे पुष्फभई प्रतिक्रमनाम णयर गओ ससीसपरिवारो, पुष्फकेऊ राया पुष्फवती देवी, तीसे जमलगाणि दारगो दारिगा य जाया- मणाध्य. |णि पुष्फचूलो पुष्फचूला य अण्णमण्णमणुरत्ताणि, तेण रायाए चिंतियं-जइ विओइति तो मरंति, ता एयाणि योग०५शि चेव मिहुणगं करेमि, मेलित्ता नागरा पुच्छिया-एत्थं जं रयणमुप्पजइ तस्स को ववसाइ राया णयरे वा अंतेउरे वा!, एवं|K क्षायां वन स्वाम्यु पत्तियावेइ, मायाए वारंतीए संजोगो धडाविओ, अभिरमंति, सा देवी साविया तेण निबेएण पबइया, देवो जाओ, ओहिणा पाटलावृत्त पेच्छा धूयं, तओ से अज्झहिओ नेहो, मा नरगं गच्छिहित्ति सुमिणए नरए दंसेइ, सा भीया रायाण अवयासेइ, एवं| रति २, ताहे पासंडिणो सद्दाबिया, कहेह केरिसा नरया,ते कहिंति, ते अण्णारिसगा, पच्छा अग्णियपुत्ता पुच्छिया, ते कहेउमारद्धा-निच्चंधयारतमसा०, सा भणइ-किं तुन्भेहिवि सुमिणओ दिहो', आयरिया भणंति-तित्थयरोवएसोत्ति, दीप अनुक्रम [२६] नप्रसास्थतीति, तदा सोर्णिकापुष वाकवाकभावो भोगानपहाय प्रवजितः, स्थविर विचरन् गजातरे पुष्पम नाम मगरं गतः सशिष्यपरीवारः, | पुष्पकेतू राजा पुष्पवती देवी, तस्या युग्मं दारको दारिका च जाते- पुष्प चूलः पुष्पचूला चान्योऽग्यमनुरक्त, तेन राज्ञा चिन्तित-पदि वियोग्येते ताई। नियेते, तदेवायेव मिधुनं करोमि, मेलबिया नागराः पृष्टाः-अत्र यसमुत्पद्यते तस्य को व्यवस्पति राजा नगरं वा अन्तःपुरं वा एवं प्रत्याययति, मातरि वास्य-| म्त्यां संयोगो पटितः, अभिरमेते, सा देवी श्राविका तेन निदेन प्रनजिता, देवो बाता, अवधिना प्रेक्षते दुहितरं, ततास्वाम्यधिकः नेहः, मा नरकं गादिति | | स्व मे नरकान दर्शयति, सा भीता राजानं कथयति, पर्व रात्री रात्री, तदा पाषण्डिकाः धाब्दिताः कथयत कीदशा नरकाः ', ते कथयन्ति, तेऽम्बारशः, पखा| पर्णिकानाः पृष्टाः, ते कथयितुमारब्धा:-नित्यान्धकारतमिस्राः, सा भणति-कि युष्माभिरपि स्वमोदष्टः, आचार्या भणन्ति-तीर्थकरोपदेश इनि, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1379~ Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) 2- 53 प्रत सूत्रांक [सू.] एवं गओ, कालेणं देवो देवलोयं दरिसेइ, तत्थवि तहेव पासंडिको पुच्छिया जाहे न याति ताहे अण्णियपुत्ता पुच्छिथा, तेहिं कहिया देवलोगा, सा भणइ-किह नरगा न गमंति?, तेण साहुधम्मो कहिओ, रायाणं च आपुच्छइ, तेण | भणियं-मुएमि जइ इह चेव मम गिहे भिक्खं गिण्हइत्ति, तीए पडिस्मुर्य, पपइया, तत्थ य ते आयरिया जंघाबलपरि-८ हीणा ओमे पबइयगे विसज्जेत्ता तत्थेव विहरंति, ताहे सा भिक्खं अंतेउराओ आणेइ, एवं कालो वचाइ, अण्णया तीसे भगवईए सोभणेणऽझवसाणेण केवलणाणमुप्पणं, केवली किर पुवपउत्तं विणयं न लंघेद, अण्णया जं आयरियाण हियइच्छियं तं आणेइ, सिंभकाले य जेण सिंभो ण उप्पज्जइ, एवं सेसेहिवि, ताहे ते भणंति-जं मए चिंतियं तं चेव आणीयं, भणइ-जाणामि, किह ?, अइसएण, केण?, केवलेण, केवली आसाइओत्ति खामिओ, अण्णे भणंति-वासे पडते आणियं, ताहे| भणंति-किह अजे ! वासे पडते आणेसि , सा भणइ-जेण २ अंतेण अचित्तो तेण २ अन्तेण आगया, कह जाणासि ?, एर्ष गतः, कालेन देचो देवलोक दर्शयति, तत्रापि तवैव पापविद्धनः पृष्टा यदा न जामति सदाचायो पृष्टाःतिः कथिता देवलोकाः, सा भणति-कथं नरका न गम्पन्ते , तेन साधुधर्मः कथितः, राजानं चापृश्यते, तेन भणित-मुच्चामि यदीव मम गृहे भिक्षां गृहासि, सया प्रतिश्रुतं, प्रश्नजिता, सत्र च ते आचार्याः परिहीणाबला अवमे मनजितान् विसृज्य तत्रैव विहरन्ति, तदा सा भिक्षामन्तःपुरापानयति, एवं कालो बजति, अन्यदा नस्था भगवत्याः शोभनेनाध्यवसानेन केवलज्ञानमुत्पन्नं, केवली किल पूर्वप्रवृत्तं विनयं न लक्ष्यति, अन्यदा यदाचार्याणां दीप्सितं तदानयति, श्लेष्मकाले च सेन शेष्मा नोत्पचते, एवं शेषेरपि, सदा ते भगन्ति-यन्मया चिन्तितं तदेवानीतं, भणति-जानामि, कथं , मतिश्चयेन, केन', केवलेन, क्षमितः केवपाशातित इति, अन्ये भणन्ति-वर्षायां परानयां भामीतं, तदा भणन्ति-कथमाई ! वर्षायां पतन्त्यामानयसि, सा भण ति-थेन येन मार्गेणाचित्तस्तेन २ मार्गेज्यागता, कथं जानी, दीप अनुक्रम [२६] 2-0 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1380 ~ Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६८९॥ अइसएण, खामेइ, अद्धितिं पगओ, ताहे सो केवली भणइ-तुभवि चरमसरीरा सिज्झिहिह गंगं उत्तरंता, तो ताहे चेव ४ प्रतिक्रपउत्तिण्णो, णावावि जेण २ पासेणऽवलम्गइ तं तं निबुडइ मझे उडिया सवावि निबुड्डा, तेहिं पाणीए छूढो, नाणं उप | मणाध्य० पणं, देवेहि महिमा कया, पयागं तस्थ तित्थं पवत्तं, से सीसकरोडी मच्छकच्छभेहिं खज्जती एगस्थ उच्छलिया पुलिणे, सा2 योगसं० इओ तओ छुम्भमाणा एगत्थ लग्गा, तत्थ पाडलिवीयं कहषि पविडं, दाहिणाओ हणुगाओ करोडि भिंदतो पायगो ५ शिक्षायां वनखाम्यु. उहिमो, विसालो पायवो जाओ, तत्थ तं चासं पासंति, चिंतेति-एस्थ णयरे रायस्स सयमेव रयणाणि एहिंति तं जयरं | पाटलीनिवेसिति, तत्थ सुत्ताणि पसारिजंति, नेमित्तिओ भणइ-ताव जाहि जाच सिवा वासेंति तओ नियत्तेज्जासित्ति, ताहे| पुत्रोत्प पुवाओ अंताओ अवरामुहो गओ तत्थ सिवा उडिया नियत्तो, उत्तराहुत्तो तत्थवि, पुणोवि पुषाहुत्तो गओ तत्थवि, दक्खिणहुत्तो तत्थवि सिवाए वासियं, तं किर वीयणगसंठियं नयरं, णयरणाभिए य उदाइणा चेइहरं कारावियं, एसा दीप अनुक्रम [२६] अतिशयेन, क्षमयसि, अति प्रगतः, वदास केवही भणति-यूयमपि चरमशरीरा: सेरपथ गलामुखरता, सतस्सदैव प्रोत्तीर्णः, नौरपि यस्मिन् २॥ पाऽवलगति तेग २ मूति मध्ये उपस्थापिताः सर्यापि बुद्धिता, तैः पानीये क्षिसः, ज्ञानमुत्पने, देवमहिमा कृतः, प्रयाग तत्र तीर्थ जातं, तख पीकरोटिका मत्स्यकच्छपैः खाद्यमानेकत्रोच्छलिता पुलिने, सेतसतः क्षिप्यमाणका लमा, तत्र पाटकाबीज कथमपि प्रविध, दक्षिणायनोः करोटि भिन्वन् पादप स्थितः। पादपो विशालो जातः, तत्र तं चापं पश्यन्ति, चिन्तयन्ति-मन्त्र नगरे राज्ञः स्वयमेव रवान्यष्यन्ति तत्र नगरं नियेशित मिति, तत्र सूत्राणि प्रसार्यन्ते, नैमितिको । | भणति-तावद्यात यायपिछवा वासयति ततो निवर्तयध्यमिति, तदा पूर्वमादन्तादपराभिमुखो गतस्तन्न विवा रसिता निवृत्तः, उत्तराभिमुखस्तत्रापि, पुनरपि । | पूर्वाभिमुखो गतस्तत्रापि, दक्षिणामुखस्तत्रापि शिवया बासितं, तकिक व्यजनकसंस्थितं मगर, नगरमानी चोदाविना पैत्यगई कारितं, एषा ६८९॥ 2-6 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1381~ Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६...]. पीडलिपुत्तस्स उप्पत्ती । सो उदाई तत्थ ठिओ रजं भुजद्द, सो य राया ते डंडे अभिक्खणं ओलम्गावे, ते चिंतेंतिकहमहो एयाए घाडीए मुश्चिजामो 2, इओ य एगस्स रायाणस्स कम्हिवि अवराहे रज्जं हियं, सो राया नहीं, तस्स पुत्तो भमंतो उज्जेणिमागओ, एगं रायायं ओलग्गइ सो य बहुसो २ परिभवइ उदाइम्स, ताहे सो रायपुत्तो पायवडिओ विष्णवेइ-अहं तस्स पीइं पिवामि नवरं मम वितिजिओ होजासि, तेण पडिस्सुर्य, गओ पाटलिपुत्तं, बाहिरिगमज्झमि गपरिसासु ओलग्गिऊण छिद्दमलभमाणो साहूणो अतिंति, ते अतीतमाणे पेच्छइ, ताहे एगस्स आयरियस्स मूले पञ्चइओ, सबा परिसा आराहिया तस्स पजाया, सो राया अहमिचउदसीसु पोसहं करेइ, तत्थायरिया अर्तिति धम्मकहानिमित्तं, अण्णया वैयालियं, आयरिया भणति गेण्हह उबगरणं राउलमतीमो, ताहे सो झडिति उडिओ, गहियं उवगरणं, पुत्रसंगोविया कंकलोहकत्तिया सावि गहिया, पच्छण्णं कया, अतिगया राजलं, चिरं धम्मो कहिओ, आयरिया पसुत्ता, १ पाटलिपुत्रस्योत्पत्तिः स उदायी तत्र स्थितो राज्यं भुनक्ति, स च राजा तानू ( लोकान् ) दण्डान् अभीक्ष्णं अवलगपति, ते चिन्तयन्ति कथमहो तस्या धाट्या मुच्येमहि इतकस्य राज्ञः कसिंचिदपि अपराधे राज्यं हृतं स राजा नष्टः, तस्य पुत्रो भ्राम्यन् उनिमागतः, एकं राजानमवलगयति, स च बहुशः २ परिभूयते उदाविना, तदा स राजपुत्रः पादपतितो विज्ञपयति-अहं तस्य जीवितं पिवामि परं मम द्वितीयो भव तेन प्रतिश्रुतं गतः पाटलिपुत्रं, बाह्यमध्यमृगपत्सु अवलग्य मिलभमानः साधव आयान्ति ताम् भयातः प्रेक्षते, तदेकस्याचार्यस्य मूले प्राजितः, सर्वां पर्वत् आरादा तस्य प्रजाता, स राजाऽष्टमीचतुर्दश्योः पोषधं करोति, तत्राचार्या आषान्ति धर्मकयानिमित्तं, अन्यदा बैकालिकं, आचार्या भणन्ति गृहाणोपकरणं राजकुलमतिगच्छामः, तदा स टिति उत्थितः, गृहीतमुपकरणं पूर्वसंगोपिता कटोकरिका सापि गृहीता, प्रच्छन्ना कृता, अतिगती राजकुलं, चिरं धर्मः कथितः, अचार्याः प्रसा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1382 ~ Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६९०॥ रायावि पसुत्तो, तेण उद्वित्ता रणो सीसे निवेसिया, तत्थेव अहिलग्गो निग्गओ, थाणइल्लगावि न वारिंति पवइओत्ति, ४ प्रतिक्र रुहिरेण आयरिया पच्चालिया, उडिया, पेच्छंति रायाणगं वावाइयं, मा पबयणस्स उड्डाहो होहिइत्ति आलोइयपडिकतोमणाध्य० ट्र अपणो सीसं छिदेइ, कालगओ सो एवं । इओ य पहावियसालिगए नाषियदुयक्खरओ उवज्झायस्स कहेह-जहा योगसं० ममऽजतेण जयरं वेढियं, पहाए दिह, सो सुमिणसत्थं जाणइ, ताहे घर नेऊण मत्थओ घोओ धूया य से दिण्णा, शिक्षायां [दिप्पिउमारद्धो, सीयाए णयरं हिंडाविजइ, सोवि राया अंतेउरसेज्जावलीहि दिडो सहसा, कुवियं, नायओ, वज्रस्वाम्यु. अउत्तोत्ति अण्णेण दारेणं नीणिओ सकारिओ, आसो अहियासिओ, अभितरा हिंडाविओ माझे हिंडाविओ बाहिं उदायिवृत्त निग्गओ रायकुलाओ तस्स पहावियदासस्स पडिं अडेइ पेच्छइ य णं तेयसा जलंत, रायाभिसेएण अहिसित्तो राया। नन्दराज्य जाओ, ते य डंडभडभोड्या दासोत्ति तहा विणयं न करेंति, सो चिंतेइ जइ विणयं ण करेंति कस्स अहं रायत्ति दीप अनुक्रम [२६] राजाऽपि प्रमुप्तः, तेनोत्थाय राज्ञः शी निवेशिता, तत्रैव जनमुष्टिः (१) निर्गतः, प्रातीहारिका अपि न वारयन्ति प्रबजित इति, रुधिरेणाचायोः प्रत्याहिताः, उस्थिताः, प्रेक्षन्ते राजानं च्यापादितं, मा प्रवचनस्योडाहो मूदिखाकोचितप्रतिक्रान्ता, आत्मनः शी छिन्दन्ति, कालगतास एवं । इतन नापित शाळायो नापितदास उपाध्यायाय कवपति-यथा ममायाप्रेण नगरं येथितं, प्रभाते रष्ट, स स्वमशास्त्रं जानाति, तदा गृहं नीरवा मसक धीतं दुहिता 18च ती दत्ता, दीपितुमारब्धः, शिविकया नगरं हिणवते, सोऽपि राजा अन्तःपुरिकाशपापालिका निर्दष्टः सहसा, जित, शातः, अन्न इवन्येन द्वारेण नीतः सरकारिता, अश्वोऽधिवासितः, अभ्यन्तरे दिनितो मध्ये हिविडतः बहिनिंगतो राजकुकात् नापितदारकं पृष्ठौ लगवति प्रेक्षते च तं तेजसा ज्वकम्तं, राज्याभिषेकेगाभिषिक्तो राजा जातः, ते च दधिकसुभटभोजिका दास इति तथा विनयं न कुर्वन्ति, सचिन्तयति-यदि विनयं ग कुर्वन्ति कमाई राजेति ॥६९०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1383~ Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक अस्थाणीओ उद्वित्ता निग्गओ, पुणो पविठो, ते ण उट्टेति, तेण भणियं-गेण्हह एए गोहेत्ति, ते अवरोप्परं दहण हसति, तेण अमरिसेण अत्थाणिमंडलियाए लिप्पकम्मनिम्मियं पडिहारजुयलं पलोइयं, ताहे तेण सरभसुद्धाइएण असिहत्थेण मारिया केइ नहा, पच्छा विणयं उपठिया, स्वामिओ राया, तस्स कुमारामच्चा नत्थि, सो मग्गइ । इओ य कविलो नाम भणो णयरवाहिरियाए वसइ, वेयालियं च साहुणो आगया दुक्खं वियाले अतियंतुमित्ति तस्स अग्गिहोत्तस्स घरए। ठिया, सो भणो चिंतेइ-पुच्छामि ता णे किंचि जाणंति नवत्ति !, पुच्छिया, परिकहियं आयरिएहि, सहो जाओ तं वाव रयणिं, एवं काले वच्चंते अण्णया अण्णे साहुणो तस्स घरे वासारत्तिं ठिया, तस्स य पुत्तो जायमेत्तओ अंबारेवईहिं Kगहिओ, सो साहूण भायणाणि कप्ताणं हेट्ठा ठविओ, नहा वाणमंतरी, तीसे पया धिरा जाया, कप्पओत्ति से नाम कयं, ताणि दोषि कालगयाणि, इमोवि चोदसम विजाहाणेसु सुपरिणिडिओ णाम लभ पाडलिपुत्ते, सो य संतोसेण दाणं [सू.] KK CAREERANCE दीप अनुक्रम [२६] आस्था निकाया उत्थाय निर्गतः पुनः प्रविष्टः, ते मोत्तिष्ठन्ति, तेन भणितं-गृहीततान् मधमानिति, ते परस्परं एटा हसन्ति, तेनामर्पणास्थानमण्डपिकायां लेष्यकर्मनिर्मितं प्रतीहारयुगलं प्रलोकितं, तदा तेन सरभ सोदावितेन असिइस्तेन मारिताः केविनष्टाः, पनाद्विनयमुपस्थिताः, क्षामितो राजा, तख कुमारामात्यान सन्ति, समायति । इत्ता कपिलो नाम प्राह्मणो नगरबाहिरिकार्या वसति, विकाले च साधव भागता दुःखं विकालेऽत्तिगन्तुमिति तस्याशिहोत्ररूप गृहे स्थिताः, समायणचिन्तयति-पृच्छामि तावत् एते किजिजानन्ति नवेति !, पृष्टाः, परिकथितमाचार्यैः, आलो जातस्तस्वामेव रजन्यां, पुर्व ब्रजति काले अन्यदाये साधयस्तस्य गृदेवाराने स्थिताः, तस्य च पुनः जातमात्रोऽम्बारेवतीभ्यां गृहीतः, स साधुषु कल्पयासु भाजनानामधात् स्थापिता, नष्टे म्यन्तौं, तस्याः प्रजा स्थिरा जाता, कवपक इति तस्य नाम कृतं, तो द्वावपि कालगती, अयमपि चतुर्दशसु विधास्थानेषु सुपरिनिष्ठितो नाम (रेखा)लभने पाटलीपुत्रे, स च संतोषेण डानं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1384 ~ Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-लने इच्छइ, दारियाओ लभमाणीओ नेच्छइ, अणेगेहिं खंडिगसएहिं परिवारिओ हिंडइ, इओ य तस्स अइगमणनिग्गमणपहेप्रतिकहारिभद्रीया माएगो मरुओ, तस्स धूया जायूसतवाहिणा गहिया, लाघवं सरीरस्स नत्थि अतीवरूपिणित्ति न कोइ वरेइ, महती जाया, मणाध्य रुहिरं से आगयं, तस्स कहियं मायाए, सो चिंतेइ-बंभवज्झा एसा, कप्पगो सनसंधो तस्स उवाएण देमि, तेण दारे योगसं० ॥६९१॥ अगडे खओ, तस्थ ठविया, तेणंतेण य कप्पगोऽतीति, मया सद्देण पकुविओ-भो भो कविला! अगडे पडिया जो ट्र ५ शिक्षायां नित्थारेइ तस्सेवेसा, तं सोऊण कप्पगो किवाए धाविओ उत्तारिया यऽणेण, भणिओ य-सञ्चसंधो होजासि पुत्तगत्ति, कल्पकवंसे ताहे तेण जणवायभएण पडिवण्णा, तेण पच्छा ओसहसंजोएण लट्ठी कया, रायाए सुर्य-कप्पओ पंडिओत्ति, सदाविओ स्थूलभद्र|विण्णविओ य रायाणं भणइ-अहं ग्रासाच्छादनं विनिर्मुच्य परिग्रहं न करेमि, कह इमं किचं संपडिवजामि, न तीरइ |निरवराहस्स किंची काउं, ताहे सो राया छिदाइ मग्गइ, अण्णया रायाए जायाए साहीए निल्लेवगो सो सद्दाविओ, तुम | [सू.] दीप अनुक्रम [२६] RE-%EX नेपछति, दारिका लभ्यमाना नेच्छति, अनेक छात्रशतैः परिचूतो हिण्हते, इतस तस्य प्रवेशनिर्गमपचे एको महका, तस्य दुहिता जलोदरय्याधिना गृहीता, साधर्व शरीरस नास्तीति अतीवरूपिणीति न कोऽपि वृशुते, महती जाता, मनुस्तस्या जातः, सथी कथितं मात्रा, सचिन्तयति-महादस्पेषा, कम्पका | सत्यसन्धसमी पायेन ददामि, सेन जारि भवटा खाता, तत्र स्थापिता, तेनावना च कल्पक आषाति, महता पाल्देन प्रकूजितः-भो भोः! कपिल अपरे पतिता यो निस्तारयति तस्वैपा, ताया कल्पकः कृपया धाविता, सारिता चानेन, भणिता सत्यसम्धो भव पुत्रक इति, तदा सेन जमापवादभीतेन प्रतिपना, तेन |पवादोषधसंयोगेन छधा ता, राज्ञा श्रुतं-कल्पकः पण्डित हति, पावितो विजाब राजानं भणति न करोमि, कथमिदं हवं संप्रतिपरसो, न वाक्यते निरपराध किक्षित् कर्त, तदा स राजा छिद्राणि मार्गयति, अन्यदा राज्ञा पाटके (तस्य) जायाया निपका सशब्दिता, स्वं W॥६९१॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1385~ Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक कैप्पगस्स पोत्ताई धोबसि नवत्ति ?, भणइ-धोवामि, ताहे रायाए भणिओ-जइ एत्ताहे अप्पेइ तो मा दिजासित्ति, अण्णया इंदमहे से भणइ भजा-से ममवेताई पोत्ताई रयाविहि, सो नेच्छइ, सा अभिक्खणं बढेइ, तेण पडिवणं, तेण णीयाणि रयगहरं, सो भणइ-अहं विणा मोल्लेण रयामि, सो छणदिवसे पमग्गिओ, अज्जहिजोत्ति कालं हरइ, सो छणो वोलीणो, तहवि न देइ, बीए वरिसे न दिण्णाणि, तइएवि वरिसे दिवे २ मग्गइ न देइ, तस्स रोसो जाओ, भणइ-कप्पगो न होमि जइ तव रुहिरेण न रयामि, अग्गिं पविसामि, अण्णदिवसे गओ छुरियं घेत्तूण, सो रयओ भज्ज भणइ-आणेहित्ति, दिण्णाणि, तस्स पोर्ट फालित्ता रुहिरेण रयाणि, रयगमज्जा भणइ-रायाए एसो वारिओ किमेएण अवरद्धं ?, कप्पस्स चिंता जाया-एस रणो माया, तया मए कुमारामञ्चत्तर्ण नेच्छियंति, जइ पवइओ होतो किमयं होयंति, वञ्चामि सयं ६ मा गोहेहि नेजीहामित्ति गओ रायकुलं, राया उडिओ, भणइ-संदिसह किं करेमि!,तं मम वितप्पं चिंतियति, सो - [सू.] - -- दीप अनुक्रम [२६] - कापकस्य वखाणि प्रक्षालयसि भवेति', भणति-प्रक्षालयामि, तदा राज्ञा भणित:-अयानार्षयति ताई मा दया इति, अन्य देन्बमहे तं भणति भार्था-अथ मम तानि वखाणि रजयत, सनेच्छति, साउभीर्ण कलहपति, तेन प्रतिपक्ष, तेन नीतानि स्वगृहं, स भणति-महं विना मूल्येन रजामि, सक्षणदिवसे प्रमार्गितः, अधमा (स.) इति कालमुलाते, स क्षणो यतिकाम्तः, तथापि न ददाति, द्वितीय वर्षे न बचानि, तृतीयेऽपि वर्षे दिवसे २ मार्गयति न ददाति, तप रोषो गातः, भणति-मस्पको न भवामि यदि सब रुधिरेण न रजामि, अनि प्रविशामि, अन्यदिवसे गतः क्षुरिको गृहीवा, सरसको भायौं भणति-आनयेति, दत्तानि, तसोदरं पाटयित्वा रुधिरेण रक्कानि, रजकमा भणति-जैव पारितः किमेतेनापरावं, कल्पस्य चिन्ता जाता एषा राजो माया, तदा मया कुमारामात्याय नेष्टमिति, यदि प्रमजिसो भविष्य किमिदमभविष्यदिति, मजामि स्वयं मा दण्डिकै नांविधि इति गतो राजकुलं, राजोरिधता, भणति-- संविश किं करोमि, तं मम विकल्पं चिन्तितं, स CAR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~13864 Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥६९२॥ [सू.] भणइ-महाराय ! जं भणसि तं करेमि, रयगसेणी आगया, रायाए समं उल्लवेंतं दहूण नहा, कुमारामच्चो ठिओ, एवं सर्व प्रतिक्रारजं तदायत्तं ठियं, पुत्तावि से जाया, तीसे अण्णाणं च ईसरधूयाणं, अण्णया कप्पगपुत्तस्स विवाहो, तेण चिंतिय-संते- मणाध्या उरस्स रण्णो भत्तं दायब, आहरणाणि रण्णो निजोगो घडिजइ, जो नंदेण कुमारामच्चो फेडिओ सो तस्स छिद्दाणि योगसं. मग्गइ, कप्पगदासी दाणमाणसंगहिया कया, जो य तव सामिस्स दिवसोदंतोतं कहेह दिवे २, तीए पडिवणं, अण्णया ट्र५शिक्षायां |भणइ-रण्णो निज्जोगो घडिजाइ, पुवामच्चो य जो फेडिओ तेण छिदं लद्ध, रायाए पायवडिओ विष्णवेइ-जइवि अम्हेकल्पकवंश तुम्ह अविगणिया तहावि तुभ संतिगाणि सित्थाणि धरति अज्जवि तेण अवस्सं कहेयवं जहा किर कप्पओ तुझं अहियं स्थूलभद्रचिंतितो पुत्तं रज्जे ठविउकामो, रजनिज्जोगो सजिजइ, पेसविया रायपुरिसा, सकुद्दुचो कूवे छूढो, कोद्दवोदणसेइया दीक्षा पाणियगलंतिया य दिजइ, सर्व ताहे सो भणइ-एएण सबेहिंवि मारियवं, जो णे एगो कुलद्धारयं करेइ वेरनिजायणं च भणति-महाराज ! बजणसि तत् करोमि, रजकनेणिरायता, राज्ञा सम मुखापयतं दृष्ट्वा नष्टा, कुमारामात्यःस्थितः, एवं सर्व राज्यं तदापत्तं स्थितं, पुत्रा अपि तस जागाः, तथा अन्यानां चेवरदुहिणाड, अन्यदा कल्पकपुत्रस्य विवाहो (जातः), तेन चिन्तितं-सान्तःपुरस्य राज्ञो भक्तं दातव्यं, पाभरणानिx राज्ञो नियोंगो धाते, यो नन्देन कुमारामालाः स्फेटितः स तख द्विाणि मार्गपति, कल्पकदास्यो दाममानसंगृहीताः कृताः, यश्च तव स्वामिनो विचसोदन्ती | कथयेः दिवा दिवा, तथा प्रतिपक्ष, सम्पदा भणति-राजो निषोंगो पाते, पूर्वामानश्च यः स्फेटितस्तेन लिमय, राजे पापतितो विशपषति-पथपि वयं *अच्माकमस्मितास्तथापि युष्मत्सत्कानि सिक्यूनिधियतयापि तेगाव कवितध्वं यधा किलकारको बुधमाकमहितं चिन्तयन् पुर्व राज्य स्थापयितुकामः,IRIDEen राज्यनियोगः प्रगुणीक्रियते, प्रेषिता राजपुरुषार, सकडम्बः कूपे क्षिप्तः, कोद्यौवनसेतिका पानीवस्य गतिका (गगरी) दीपते, सर्वान् सरसभणति-18 | एतेन सर्वेऽपि मारपितब्याः, योऽस्माकमेकः कुलोवारं करोति परनिर्यातनं च दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1387~ Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक सो जेमेज, ताणि भणति-अम्हे असमत्थाणि, भत्तं पच्चक्खामो, पञ्चक्खाय, गयाणि देवलोग, कप्पगो जेमेइ, पच्चंतरा-8 तीहि य सुर्य जहा कप्पगो विणासिओ, जामो गेण्हामोत्ति, आगएहिं पाडलिपुत्तं रोहिये, नंदो चिंतेइ-जा कप्पगो होतो |न एवं अभिवतो, पुच्छिया बारवाला-अस्थि तत्थ कोइ भत्तं पडिच्छड 1, जो तस्स दासो सोवि महामंतित्ति, तेहिं| भणियं-अस्थि, ताहे आसंदएण उक्खित्ता नीणि भो, पिक्किओ विजेहिं संधुकिओ आउसे कारिए पागारे दरिसिओगडू कप्पगो, दरिसिओ कप्पगोत्ति ते भीया दंडा सासंकिया जाया, नंदं परिहीणं णाऊण सुडतरं अभिवंति, ताहे लेहो विसज्जिओ, जो तुझ सबैसिं अभिमओ सो एउ तो संधी वा जंतुन्भे भणिहिह तं करेहित्ति, तेहिं दूओ विसजिओ, कप्पओ विनिग्गओ, नदीमझे मिलिया, कप्पगो नावाए हत्थसण्णाहिं लवइ, उच्छुकलावस्स हेटा उबरिं च छिन्नस्स मज्झे किं होहि, दहिकुंडस्स हेडा उवरिंच छिनस्स धसत्ति पडियस्त किं होहिइत्ति, एवं भणिता तं पयाहिणं करेंतो [सू.] दीप अनुक्रम [२६] OSSASS- १स जेमत, ते भणन्ति-पयमसमर्थाः, भक्तं प्रत्याश्यामा, प्रत्याख्यातं, गता देवलोकं, कल्पको जेमति, प्रत्यन्तराजभित्र श्रुतं यथा कल्पको विनाशितः, यामो गृहीम इति, आगतः पाटलिपुत्रं रुई, नन्दचिन्तयति यदि कल्पको भविष्यत्तदा नैवमभ्यगोच्य, पृष्टा द्वारपाला:-अस्ति तन्त्र कश्चित् ?, भक्तं प्रतीच्छति ? | यस्तख दासा सोऽपि महामन्त्रीति, तैर्भणित-अस्ति, तदाऽऽस्सन्दकेनोरिक्षप्य निष्काशितः, पूरकतो वैः (भीतिमाम्वितः), पटी जाते प्राकारे दर्शित। कल्पकः, इर्शितः सन् कम्पक इति ते भीताः दण्डाः साशहा जाताः, नन्द परिहीणं ज्ञात्वा सुप्तुतरामभिवन्ति, सहा लेस्रो विसष्टः-यो युष्माकं सर्वेषामभिमतः सभायात, ततः सन्धि वायपूर्व भणियच तत् करिष्याम इति, तेवूतो विसृष्टः, कल्पको विनिर्गतः, नदीमध्ये मिलिताः, कल्पको गाविससंज्ञाभिसंपति, दक्ष कलापखालापरिच जिस मध्ये किं भवति', वधिकुण्डयाधस्तादुपरि च छिन्नस्य धसमिति पतितस्य किं भवतीति, एवं माणिवा तान् प्रदक्षिणां कुर्वन + 60% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1388~ Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक-पडिनियत्तो, इयरोवि विलक्खो नियत्तो पुच्छिओ लज्जइ अक्खिळ, पलबइ बडुगोत्ति अक्खायं, नहा, नंदोवि कप्पएणप्रतिकहारिभ- भणिओ-सण्णह, पच्छा आसहत्थी य गहिया, पुणोवि ठविओ तंमि ठाणे, सो य निओगामच्चो विणासिओ, तस्स कप्प-3 मणाध्य द्रीया गस्स बंसो गंदवंसेण सम अणुवत्तइ, नवमए नंदे कप्पगवंसपसूओ सगडालो, थूलभद्दो से पुत्तो सिरिओ य, सत्त धीवरील योगसं० ॥६९३॥ दाय जक्खा जक्खदिन्ना भूया भूयदिण्णा सेणा वेणा रेणा, इओ य वररुइ धिज्जाइओ नंदं अट्ठसएणं सिलोगाणमोलग्गइ. ५ शिक्षायां सो राया तुट्टो सगडालमुहं पलोएइ, सो मिच्छतंतिकार्ड न पसंसेइ, तेण भज्जा से ओलग्गिया, पुच्छिओ भणइ-भत्ता कल्पकवंशे ते ण पसंसइ, तीए भणियं-अहं पसंसावेमि, तओ सो तीए भणिओ, पच्छा भणइ-किह मिच्छत्तं पसंसामित्ति !, एवं लालमत्र दिवसे २ महिलाए करणिं कारिओ अण्णया भणइ-सुभासियंति, ताहे दीणाराणं अहसयं दिपणं, पच्छा दिणे २ पदिण्णो दीक्षा |सगडालो चिंतेइ-निविओ रायकोसोत्ति, नंद भणइ-भट्टारगा! किं तुम्भे एयस्स देह १, तुन्भे पसंसिओत्ति, भणइ-अहे | प्रतिनिवृत्तः, इसरोऽपि विलक्षी निवृत्तः पृशे सजते आगया, प्रलपति बटुक इति भाग्यात, मष्टा, नन्दोऽपि कल्पकेन भणितः-समध्य, पश्चादश्या [हमिलना गृहीता, पुनरपि स्थापित सस्मिन् स्थाने, स च नियोगामाखो विनाशितः, तस्य कल्पकस्य वंशो नन्दवंशेन सममभुपते, नबमे नन्दे कल्पकवंशप्रसूतः शकटालः, स्थूलमजस्तस्य पुत्रः श्रीयकक्ष, सप्त दुहितरच यक्षा यक्षवत्ता भूता भूतदत्ता सेना वेणा रेणा, इतश्च वररुचिर्षिजातीयो नम्बमष्टशतेन झो W६९३॥ कानां सेवते, स राजा तुष्टः शकटासमुखं प्रलोकयति, स मिथ्यात्वमितिकृत्वा न प्रशंसति, तेन भार्या तखाराहा, पृष्टो भणति-भत्तो सच न प्रशंसति, तथा भणितं-अहं प्रशंसयामि, तत्तः स तया भगितः, पश्चात् भणति-कथं मिथ्या प्रवासामि इति, एवं दिवसे दिवसे महिलया वार्च (प्रशंसाक्रिया) प्राहितोऽन्यवा भणति-सुभाषितमिति, सदा दीनाराणामष्टतं दत्तं, पश्चाहिने दिने प्रदातुमारब्धः, शकटालचिन्तयति-निष्ठितो राजकोषा इति, नन्द भणति-महा|स्काः! किं यूपमेती दत्त या प्रशंसित इति, भणति-आई मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1389~ Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पसंसामि लोइयकवाणि अनहाणि पढाइ, राया भणइ-कहं लोइयकवाणि ?. सगडालो भणइ-मम धूयाओवि पदति, | किमंग पुण अण्णो लोगो, जक्खा एगंपि सुयं गिण्हइ, वितिया दोहि तइया तिहि वाराहि, ताओ अण्णया पविसंति अंतेउरं, जवणियंतरियाओ ठवियाओ, वररुई आगओ धुणइ, पच्छा जक्खाए पढियं बितियाए दोणि तइयाए तिण्णि | वारा सुर्य पढियं एवं सत्तहिवि, रायाए पत्तियं, वररुईस दाणं वारियं, पच्छा सो ते दीणारे रतिं गंगाजले जंते ठवेइ, लासाहे दिवसओ धुणइ गंगं, पच्छा पाएण आहणइ, गंगा देइत्ति एवं लोगो भणइ, कालंतरेण रायाए सुर्य, सगडालस्स | कहेइ-तस्स किर गंगा देइ, सगडालो भणइ-जइ मए गए देइ तो देइ, कल्लं वच्चामि, तेण पञ्चाइगो पुरिसो पेसिओ |विगाले पच्छन्नं अच्छसु जं वररुई ठवेइतं आणेज्जासि, गएण आणिया पोलिया सगडालस्स दिण्णा, गोसे नंदोवि गओ, पिच्छइ थुर्णत, थुए निबुडो, हत्थेहि पाएहि य जंतं मग्गइ, नस्थि, विलक्खो जाओ, ताहे सगडालो पोलियं रणो 1 प्रशंसामि लौकिककाम्यानि अनर्थकानि पठति, राजा भणति-कथं लौकिककाथ्यानि ?, शकटाको भणति-मम दुहितरोऽपि पठन्ति किमा पुनरम्यो लोका, यक्षा एकशः श्रुतं गृहाति द्वितीया रिकाः ललीया त्रिः, ता अभ्यदा प्रधेशयति अन्तःपुर, यवनिकान्तरिताः स्थापिताः, वररुचिरागतः सीति । पक्षात् यक्षषा एकाः द्वितीया हिरवस्तृतीयथा त्रिः श्रुतं पठितं एवं सप्तभिरपि, राज्ञा प्रत्ययितं, वररुचये दानं चारितं, पवारस तान् दीनारान् रात्री गङ्गाजले यन्त्र स्थापयति, तदा दिवसे सौति गङ्गा पश्चात्पादेमाहन्ति, गङ्गाददातीत्येवं लोको भवति, कालान्तरेण राज्ञा श्रुतं, शकटालाय कथयति-तौ किल गया। ववाति, पाकटालो भणति-पदि मवि गते ववाति तर्हि ददाति, कल्ये बजावः, तेन प्रत्यथितः पुरुषः प्रेषितो विकाले प्रच्छ तिष्ठ यद्वररुचिः स्थापयति तदानये, गतेनानीता पोहलिका शटालाय यचा, प्रत्यूपति नन्दोऽपि गता, प्रेक्षते स्तुवन्त, स्तुत्वा ममः दसाभ्यां पादाभ्यां च यन्त्र मार्गवति, नास्ति, विलक्षो जाता, | तदा शकटाकः पोहलिका राशे दीप अनुक्रम [२६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1390 ~ Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) मणाध्य प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ- द्रीया १६९४॥ 546434560% दीप अनुक्रम [२६] दरिसेइ, ओहामिओ गओ, पुणोवि छिद्दाणि मग्गइ सगडालस्स एएण सर्व खोडियति, अण्णया सिरीषस्स विवाहो, रणो प्रतिक्रअणुओगो सजिज्जइ, वररुइणा तस्स दासी ओलग्गिया, तीए कहियं-रण्णो भत्तं सजिज्जइ आजोगो य, ताहे तेण चिंतियं-एयं छिर्नु, डिंभरुवाणि मोयगे दाऊण इमं पाढेइ-रायनंदु नवि जाणइ जे सगडालो काहिइ । रायनंदं मारेत्ता योगसं० तो सिरियं रज्जे ठवेहित्ति ॥१॥' ताइ पढ़ति, रायाए सुर्य, गवेसामि, तं दिव, कुविओ राया, जओ जओ सगडालो ५शिक्षायां पाएसु पडइ तओ तओ पराहुत्तो ठाइ, सगडालो घरं गओ, सिरिओ नंदस्स पडिहारो, तं भणइ-किमहं मरामि सबा कल्पकवंशे |णिवि मरंतु, तुम मम रपणो पायवडियं मारेहि, सो कन्ने ठएइ, सगडालो भणइ-अहं तालउड विसं खामि, पायवडिओ दीक्षा |य पमओ, तुम ममं पायवडियं मारेहिसि, तेण पडिस्सुयं, ताहे मारिओ, राया उडिओ, हाहा अकजं1, सिरियत्ति, भणइ-जो तुझ पावो सो अम्हवि पावो, सकारिओ सिरियओ, भणिओ, कुमारामश्चत्तणं पडिवजसु, सो भणइ-मम जेहो। वर्शयति, अपभाजितो गता, पुनरपि छियाणि मार्ग यति शकटालस्य एतेन सर्व विनाशितमिति, अन्यदा श्रीयकस्य विवाहा, राज्ञो नियोगः सज्यते, वररुचिना तस्य दासी भवलगिता, तया कधितं-राज्ञो भक्तं सज्ज्यते आयोगम, तदा तेन चिन्तितं-एतत् छिवं, दिम्मान मोदकान् पवैतत् पाठयति-नन्दो राजा नैव जानाति यत् वाकटाल: करिष्यति। मन्दराज मारयित्वा ततः श्रीवर्क राज्य स्थापयिष्यनीति, ते पठन्ति, राशा श्रुतं, गवेषयामि, सदृष्ट, कुपितोराजा. यतो यतः शकटालापादयोः पतति ततस्ततः परामुखस्तिष्ठति, शकटालो गृहं गतः, श्रीवको नन्दप प्रतीहारः, तं भणति-किमई खिये सर्वेऽपि नियन्तां !, वं मां राज्ञः पदोः पतितं मारय, स कौँ स्थगयति, शकटाको भणति-भई तालपुटं विषं खादामि, पादपतितः प्रमृतः, वं मां पादपतितं मारयः, वेन प्रतिश्रुतं, | ॥६९४॥ तदा मारिता, राजोरिथता-दादा अकार्य श्रीचक इति, भपति-यस्त्वय्येव पापः सोडमाकमपि पापः, सस्कृत श्रीयका, भगिता-हुमारामाखावं प्रतिपयख, स| भणति-मम ज्येष्ठ 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1391 ~ Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) SC0% प्रत सूत्रांक 4% AR [सू.] दीप अनुक्रम [२६] भाया थूलभद्दो बारसम परिसं गणियाए घरं पविट्ठस्स, सो सहाविओ भणइ-चिंतेमि, सो भणइ-असोगवणियाए चिंतेहि, सो तत्थ अइयओ चिंतेइ-केरिसया भोगा रजवक्खित्ताणं !, पुणरवि णरय जाइवं होहितित्ति, एते णामेरिसया भोगा तओ पंचमुद्वियं लोयं काऊण कंवलरयणं छिंदित्ता रयहरणं करेता रण्णो पासमागओ धम्मेण बहाहि एवं चिंतियं, राया भणइ-सुचिंतिय, निग्गओ, राया भणइ-पेच्छह कवडत्तणेण गणियाघरं पविसइ नवित्ति, आगासतलगओ पेच्छइ, जहा मतकडेवरस्स जणो अवसरइ मुहाणि य ठएइ, सो भगवं तहेव जाइ, राया भणइ-निविणकामभोगो भगवंति, सिरिओ ठविओ, सो संभूयविजयस्स पासे पधइओ, सिरियओवि किर भाइनेहेण कोसाए गणियाए घरं अलियड़, सा य अणुरत्ता थूलभद्दे अण्णं मणुस्सं नेच्छइ, तीसे कोसाए डहरिया भगिणी उवकोसा, तीए सह वररुई चिडइ, सो सिरिओ तस्स छिद्दाणि मग्गइ, भाउजायाए मूले भणइ-एयस्त निमित्तेण अम्हे पितिमरणं पत्ता, भाइविओर्ग च पत्ता, तुझ विओओ आता स्थूलभा द्वादशं वर्ष गणिकागृहं प्रविष्य, स शब्दितो भणति-चिन्तयामि, स भवति-अशोकवनिकायां चिन्तय, सतवातिगतबिम्सथति कीदशा भोगा राज्यव्याक्षिसाना ? पुनरपि नरके यातब्ध भविष्यतीति, एते नामेहशा भोगावतः पजमुष्टिकं सोचं कृष्वा कम्बहरलं छिपवारजोहरणं कृत्वा राशः पाचमागत्य धर्मेण ववैवं चिन्तितं, राजा भणति-सुचिन्तितं, निर्गतो, राजा भणति-पश्यामि कपटेन गणिकागृहं प्रविशति नति, भाकाशतलगतः प्रेक्षते, यथा मृतकलेवरात् जनोऽपसरति मुखानि च स्थगवति स भगवान् तथैव यात्ति, राजा भणति-निविणकामभोगो भगवानिति, श्रीयकः स्थापितः, स संभूतिविजयस्य पा प्रवजितः, श्रीवकोऽपि किल भ्रातृस्नेहेन कोशाया गृहमाश्रयति, सा चानुरक्ता स्थूलभदेऽम्यं मनुष्य नेच्छति, तस्याः कोशाया लम्ची भगिन्युपकोशा, तया सह वररुचिस्तिति, स श्रीयकरतब विापि मार्गयति, भ्रातृजायाया मूले भणति-पतख निमित्तेन अम्मा पिता मरणं प्राप्तः, भ्रातृवियोगं (वयं) भाप्ताः, तब वियोगो +- 6 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1392 ~ Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝམྦྷོཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभ श्रीया ॥ ६९५|| आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६..... जाओ, एवं सुरं पाएहि, तीए भगिणी भणिया-तुमं मत्तिया एस अमत्तओ जं वा तं वा भणिहिसि, एयंपि पाएहि, सा पपाइया, सो नेच्छइ, अलाहि ममं तुमे, ताहे सो तीए अविओगं मग्गंतो चंदप्पभं सुरं पियइ, लोगो जाणाइ खीरंति, कोसाए सिरियस्स कहियं, राया सिरियं भणइ एरिसो मम हिओ तब पियाssसी, सिरिओ भणइ-सचं सामी !, एएण मत्तवालपण एवं अम्ह कथं, राया भणइ किं मज्जं पियइ ?, पियइ, कहं १, तो पेच्छ, सो रावलं गओ, तेणुप्पलं भावियं मनुस्सहत्थे दिण्णं, एवं वररुइस्स दिजाहि, इमाणि अण्णेसिं, सो अत्थाणीए पहाइओ, तं वररुइस्स दिन्नं, तेणुर्रिसघियं, भिंगारेण आगयं निच्छूढं, चाडवेज्जेण पायच्छित्तं से तत्तं तदयं पेज्जाविओ, मओ । थूलभद्दसामीवि संभूयविजयाणं सगासे घोराकारं तवं करेइ, विहरतो पाडलिपुत्तमागओ, तिष्णि अणगारा अभिग्गहं गिति - एगो सीहगुहाए, तं पेच्छतो सीहो उवसंतो, अण्णो सप्पवसहीए, सोवि दिट्ठीविसो उवसंतो, अण्णो कूत्रफलए, थूलभद्दो कोसाए घरं, सा . १ जातः, एवं सुरां पापय, तथा भगिनी भणिता त्वं मत्ता एषोऽमचो यद्वा तद्वा भणिष्यसि पुनमपि पायय, साप्रपायिता, स नेच्छति, अहं मम स्वयं तदा स तस्या अवियोगं मृगयमाणञ्चन्द्रप्रभां सुरां पिवति, लोको जानाति क्षीरमिति, कोशया श्रीयकाय कवितं, राजा श्रीयकं भणति ईशो मम हितस्तव पिताऽऽसीत्, श्रीयको भणति सत्यं स्वामिन्! एतेन पुनर्भवपायिना एतदस्माकं कृतं राजा भणति किं मयं पिवति ? पिवति कथं ?, सा प्रेक्ष, स राजकुलं गतः तेनोत्पलं भावितं मनुष्यहस्ते दत्तं एतत् वररुचये दद्याः, इमाम्यन्येभ्यः स भवान्यां मधावितः, तत् वररुवये दतं तेनाघ्रातं, कलोनाग समुद्री, चातुर्वैयेन प्रायसि तप्तं वपुः पावितः सृतः । स्थूलभद्रस्वाम्यपि संभूतिविजयानां सकाशे घोराकारं तपः करोति, विहरन् पाटलिपुत्रमागतः, योनगारा अभिग्रहं गृह्णन्ति एक: सिंहगुहा, तं प्रेक्षमाणः सिंह उपशान्तः अन्यः सर्पचसती, सोऽपि दृष्टिविष उपशान्तः अन्यः कूपफलके, स्थूलभद्रः कोशाया गुरे, सा. ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० ५ शिक्षायां कल्पक वंशे स्थूलभद्रदीक्षा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1393 ~ ।।६९५॥ Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) %4545 प्रत सूत्रांक [सू.] -- दीप अनुक्रम [२६] तुठ्ठा परीसहपराजिओ आगओत्ति, भणइ-किं करेमि !, उजाण घरे ठाणं देहि, दिण्णो, रत्तिं सघालंकारविहूसिया आगया, चाडुयं पकया, सो मंदरो इव निकंपो न सकए खोहे, ताहे धर्म पडिसुणइ, साविया जाया, भणइ-जइ रायावसेणं अण्णेण समं बसेज्जा इयरहा बंभचारिणियावयं सा गिण्हइ, ताहे सीहगुहाओ आगओ चत्तारि मासे उपवास काऊण, आयरिएहि ईसित्ति अभुडिओ, भणियं-सागयं दुक्करकारगस्सत्ति?, एवं सप्पइत्तो कूवफलइत्तोवि, थूलभद्दसामीवि तत्थेव गणियाघरे भिक्खं गेण्हइ, सोवि चउमासेसु पुण्णेसु आगओ, आयरिया संभमेण अब्भुटिया, भणियंसागयं ते अइदुक्कर २ कारगत्ति ?, ते भकति तिषिणवि-पेच्छह आयरिया रागं वहति अमच्चपुत्तोत्ति, बितियवरिसारते। सीहगुहाखमओ गणियाघरं वच्चामि अभिग्गहं गेण्हइ, आयरिया उवउत्ता, वारिओ, अपडिसुणेतो गओ, वसही मग्गिया, दिन्ना, सा सभावेणं उरालियसरीरा विभूसिया अविभूसियावि, धम्म सुणेइ, तीसे सरीरे सो अज्झोववन्नो, ओभासइ, सा तुष्टा परीपहपराजित भागत इति, भणति-कि करोमि ?, उद्याने गृहे स्थानं देहि, दत्तं, रात्रौ सालधारविभूषिता आगसा, चाटु प्रकृता, स मेरुरिव | निष्प्रकापो न शक्यते क्षोभयित, तदा धर्म शुणोति, श्राविका जाता, भणति-पदि राजबशेनाम्येन सम वसामि इतरथा ब्रह्मचारिणीवतं सा गृह्णाति, तदा | सिंहगुहाया भागतातुरोमासानुपवास कृत्वा, भाचारीपदिति अभ्युस्थितः, भणित-स्वागतं दुष्करकारकस्येति', एवं सर्पविकसका रूपफळफसाकोऽपि, स्थूलभद्रोऽपि स्वामी सत्रैव गणिकागृहे भिक्षा गृहाति, सोऽपि चतुर्मास्यां पूर्मायामागतः, आचार्याः संभमेणोस्थिताः, भणितं-स्वागतं वेऽसिदुष्करदुष्करकार| कस्येति !, ते भवन्ति योऽपि-पश्यत प्राचार्या रागं वहन्ति अमात्यपुत्र इति, द्वित्तीयवाराचे सिंहगुदाक्षपको गणिकागदं बजामी ति अभिप्रहं गृहाति, |श्राचार्या उपयुकाा, चारितोऽमतिपयन् गतः, वसतिमागिता, दत्ता, सा खभावेनोदारशरीरा विभूपिता अविभूषितापि, धर्म प्राणोति, समाः शारीरे। सोऽध्युपपमः, याचते, सा - -- - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1394 ~ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक NEX ॥६९६॥ [सू.] दीप अनुक्रम [२६] नेच्छा, भणइ-जइ नवरि किंचि देसि, किं देमि ?, सयसहस्सं, सो मग्गिउमारतो, नेपालविसए सावगो राया, जो तहिं ४ प्रतिकजाइ तस्स सयसहस्समोलं कंबलं देइ, सो तं गओ, दिन्नो रायाणएण, पद, एगत्थ चोरोहिं पंथो बद्धो, सउणो वासइ- मणाध्य. सयसहस्सं एइ, सो चोरसेणावई जाणइ, नवरं एजंतं संजयं पेच्छइ, वोलीणो, पुणोवि वासइ-सयसहस्सं गयं, तेण योगसं०. सेणावइणा गंतूण पलोइओ, भणइ-अस्थि कंबलो गणियाए नेमि, मुक्को, गओ, तीसे दिनो, ताए चंदणियाए छूढो, सो | शिक्षायां वारेइ-मा विणासेहि, सा भणइ-तुम एवं सोयसि अप्पयं न सोयसि, तुमंपि एरिसो चेव होहिसि, उवसामिओ, लद्धा कल्पकवंशे स्थूलभद्रबुद्धी, इच्छामित्ति मिच्छामिदुकडं, गओ, पुणोषि आलोएत्ता विहरइ, आयरिएण भणियं-एवं अइदुकरदुकरकारगो|MIN थूलभदो, पुषपरिचिया असाविया य थूलभद्देण अहियासिया य, इयाणि सहा तुमे अदिदोसा पस्थियत्ति उवालद्धो, एवं ते विहरंति, एवं सा गणिया रहियस्स दिण्णा नंदेण, थूलभद्दसामिणो अभिक्खणं गुणगहणं करेइ, न तहा उबचरइ, नेच्छति, भणति-यदिपर किजिददासि, कि परामि, पतसहसं, स मार्गितुमारब्धः, नेपालविषये धावको राजा, यः तन्त्र वाति सम्म वातसहस्त्रमूल्य कम्बलं ददाति, स तं गतः, दसो राजा, भावाति, एकच चारैः स्थानं बवं, शकुनो रति-शतसहसमायाति, स चौरसेनापतिजानाति, नवरमायान्तं संयतं पश्यति, पश्चाङ्गतः, पुनरपि रति-शतसहस्त्रं गतं, तेन सेनापतिना गत्वा प्रलोकितः, भणति-अस्ति कम्बको गणिकायै नयामि, मुको, गतः, तरी दत्तः, तया वर्षागृहे क्षिप्तः, सवारयति-मा बिनापाय, सा भणति-स्वमेनं शोचसे आस्मानं न शोचसे, खमपीसो भविष्यसि चैव, उपशाम्तः, कब्धा बुद्धि, इछामी- ६९६॥ तिमे मिष्यादुष्कृतमिति, गतः, पुनरपि आलोच्य विहरति, भाचार्येण माणित-चमतिदुष्करदुष्करकारकः स्थूलमदः, पूर्वपरिचिता अभाविका च स्थूलभद्रेण अभ्यासिता च, वानी भाडा खयामदोषा प्रार्धितेति उपालन्धः, एवं ते विहरन्ति, एवं सागणिका रधिकाय सा नन्देन, स्थूलभद्स्वामिनोभीक्षणं गुणग्रहणं करोति, न वयोपचरति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1395~ Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८४] भाष्यं [ २०६...]. सो तीए अप्पणो विष्णाणं दरिसिङकामो असोगवणियं नेइ, भूमीगएण अंगपिंडी पाडिया, कंडपुंखे अण्णोष्णं लायंतेण हत्थ भासं आणेत्ता अद्धचंदेण छिन्ना गहिया, तहवि न तूसइ, भणइ किं सिक्खियस्स दुकरं १, सा भणइ इ-पेच्छ ममंति, सिद्धत्थगरासिंमि नच्चिया सूईणं अग्गमि य, सो आउट्टो, सा भाइ- 'न दुकरं तोडिय अंबलुंबिया न दुकरं नचिउ सिक्खियाए। तं दुकरं तं च महाणुभावं जं सो मुणी पमयवर्णमि बुच्छो ॥ १ ॥ तीए सोवि सावओ कओ तंमि य काले बारवरिसिओ दुक्कालो जाओ, संजयाइ तओ समुद्दतीरे अच्छित्ता पुणरवि पाडलिपुत्ते मिलिया, तेसिं अण्णस्स उद्देसो अण्णस्स खंड एवं संघातंतेहिं एकारस अंगाणि संघाइयाणि, दिट्टिवाओ नस्थि, नेपालवत्तिणीए य भद्दवाहू अच्छंति चोदसपुवी, तेर्सि संघेण संघाडओ पडविओ दिडिवार्य बाएहित्ति, गंतूण निवेइयं संघकर्ज, ते भणं ति-दुक्कालनिमित्तं महापाणं न पविडोमि, इयाणिं पविट्ठो, तो ण जाइ वायणं दाडं, पडिणियत्तेहिं संघस्स अक्खायं, तेहिं 5 स तस्याथात्मनो विज्ञानं दर्शवितुकामोऽशोकवनिकां नयति भूमिगतेनास्म्रपिण्डी पातिता, पाणडेऽन्योऽन्यं खाता हस्तेनानीयान्द्रेण छित्वा गृहीता, तथापि न तुष्यति, भगति किं शिक्षितख दुष्करं ?, सा भजति पश्य ममेति, सिद्धार्थ कराशी नर्तिता सूचीनां चाग्रे स आवर्जितः, सा भणति न दुष्करं प्रोटितानामाश्रपिण्ड्यां न दुष्करं सपनने (शिक्षितायाः) । तदुष्करं तच महानुभावं यत्स मुनिः प्रमदावने उचितः ॥ ३॥ तथा सोऽपि श्रावकः कृतः । तसि काले द्वादशवार्षिक दुष्काळो जातः संयतादिकाः ततः समुद्रतीरे स्वात्वा पुनरपि पाटलिपुत्रे मिलिताः तेषामम्बस्वोदेशोऽन्यस्य खण्डमेवं संघात पद्भिरेकादशाज्ञान संपातितानि दृष्टिवादो नाति, नेपालदेशे च भद्रवाहवस्तिष्ठन्ति चतुर्दशपूर्वराः तेषां सन संपादकः प्रेषितो दृष्टिवाद वाचयेति गत्वा निवेदितं संघकार्य, ते भणन्ति दुष्कालनिमित्तं महाप्राणं न प्रविष्टोऽस्मि इदानीं प्रविष्टस्ततो न वाचनां दातुं समर्थः, प्रतिनिवृत्तेः संघावाख्यातं, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ------ 4 36 496 43 436536 ~ 1396 ~ Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥६९७|| अन्नो सिंघाडओ विसजिओ, जो संघस्स आणं वइकमइ तस्स को दंडो,ते गया, कहिय, भणइ-ओघाडिजइ, ते भणंति,राप्रतिक|मा उग्घाडेह पेसेह मेहावी सत्त पडियाओ देमि, भिक्खायरियाए आगओ१ कालवेलाए २ सण्णाए आगओ ३ वेयालियाए । योगसं० |पडिपुच्छा आवस्सए तिणि ७, महापाणं किर जया अइयओ होइ तया उप्पण्णे कज्जे अंतोमुहत्तेण चउद्दस पुधाणि अणुपेहइ,18 |शिक्षायां | उकाइओवक्कइयाणि करेइ, ताहे थूलभद्दष्पमुहाणं पंच मेहावीणं सयाणि गयाणि, ते प (प)ढिया चायणं, मासेणं एगेणं | भद्रबाहु० |दोहिं तिहिं सधे ऊसरिया न तरंति पडिपुच्छएण पढिलं, नवरं थूलभद्दसामी ठिओ, थेवावसेसे महापाणे पुच्छिओ-न हु| | किलंमसि ?, भणइ-न किलामामि, खमाहि कंचि कालं तो दिवसं सर्च वायणं देमि, पुच्छइ-किं पढियं कित्तिय या सेस ।। आयरिया भणंति-अवासी य सुत्ताणि, सिद्धत्थगमंदरे उवमाणं भणिओ, एत्तो ऊणतरेणं कालेणं पढिहिसि मा विसायं। |वच, समत्ते महापाणे पढियाणि नव पुवाणि दसमं च दोहिं बथहिं ऊर्ण, एयंमि अंतरे विहरता गया पाडालपुत्त, दीप अनुक्रम [२६] -र -5600AMA -र तैरन्यः संघारको विमएः, या संपखाजामतिकाम्पति तख को दण्डः, ते गताः, कचित, भगति-अवाश्यते, ते भणन्ति, मा लजीघटः पयत मेधाविनः सप्त वाचना ददामि, मिक्षाचर्यायामागता कालवेलायो संज्ञाया मागतो बिकाले आवपके कृते लिखा, महामार्ण किल यदातिगतो भवति तदापत्र | कान्तमुहलन चतुर्दश पूर्वाणि अनुपश्यते, उसकमिकापतिकानि करोति, तदा स्थूलभदपमुखाण पत्र मेधाविनां शतानि गतानि, ते वाचनाः पठितुमा. | रब्धाः, मासेनकेन द्वाभ्यां त्रिभिः सर्वेऽपस्तान शान्ति प्रतिष्उकेन (विना) पठित, नवरं स्थूलभद्रस्वामी स्थितः, स्लोकाचशेपे महापाणे पृष्टः-मैव काम्यति !, भणति-न साम्यानि, प्रतीक्षख कचित् कालं ततो दिवसं सर्व वाचना दास्यामि, पूछति-किं पहिलं कियत् शेष 7, आचार्या भणन्ति-अष्टाशीतिः सूत्राणि, सिदार्थकमन्दरोपमान भणित, इस कमतरेण कालेन पठिप्पतिमा विपाई बाली, समाले महापाणे पहितानि नव पूर्वाणि दशम चाम्या | वस्तुभ्यामून, एतस्मिन्नन्तरे विहरन्तो गताः पाटलिपुत्र,. --562 - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1397~ Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) 6 0- K. प्रत सूत्रांक थूलभद्दस्स य ताओ सत्तवि भगिणीओ पवइयाओ, आयरिए भाउगं च वंदिउं निग्गयाओ, उज्जाणे किर ठपिएल्लगा आयरिया, वंदित्ता पुच्छंति-कहिं जेद्वज्जो ?, एयाए देउलियाए गुणेइत्ति, तेणं ताओ दिवाओ, तेण चिंतियं-भगिणीणं| इहिं दरिसेमित्ति सीहरूवं विउचाइ, ताओ सीहं पेच्छति, ताओ नहाओ, भणंति-सीहेण खइओ, आयरिया भणंति-न सो| सीहो थूलभद्दो सो, ता जाह एत्ताहे, आगयाओ वंदिओ, खेमं कुसलं पुच्छइ, जहा सिरियओ पबइओ अभत्तडेण कालगओ, महाविदेहे य पुच्छिया तित्थयरा, देवयाए नीया, अज्जा ! दो अज्झयणाणि भावणाविमुसी आणिवाणि, एवं वंदित्ता गयाओ, बिइयदिवसे उद्देसकाले उवडिओ, न उद्दिसंति, किं कारणं ?, उवउत्तो, तेण जाणियं, कल्लत्तणगेणा, भणइ,-न पुणो काहामि, ते भणंति-न तुमं काहिसि, अन्ने काहिंति, पच्छा महया किलेसेण पडिवण्णा, उवरिल्हाणि चत्तारि | पुवाणि पढाहि, मा पुण अण्णस्स दाहिसि, ते चत्तारि तओ वोच्छिषणा, दसमस्स दो पच्छिमाणि वत्थूणि योच्छिण्णाणि, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] स्थूलभद्रस च ताः समापि भगिन्यः प्रनजिताः, आचार्यान् प्रातरं च वन्दितुं नियंता, उखाने किल स्थिता आचार्याः, पन्दित्वा पूछन्तिज्येार्य, एतस्यां देवकुक्षिका गुणयत्ति, तेन सा दृष्टाः, सेन चिन्तितं-भगिनीनां ऋदि दर्शयामीति सिंहरूपं पिकवंति, ताः सिंह पश्यन्ति, ता नष्टाः, भणन्ति-सिंहेन खादितः, आचार्या भणन्ति-नस सिंहः स्थूलभाःसातत् याताना, आगताः वन्दितः, क्षेमं कुशलं च पृष्ठति, यथा श्रीयकः प्रवजितोऽभक्का धन कालगता, महाविदेदेषु च पृटामतीर्थकराः, देवतया नीता, आर्य! अध्ययने भावनाविमुकी आनीते, एवं वन्दित्वा गते, द्वितीयविवसे उद्देसकाले उपस्थितः, गोदिशान्ति, किं कारण !, उपयुक्तः, तेन ज्ञान, बस्तनीवेन, भणति-न पुनः करिष्यामि, ते भणन्ति-नवं करिष्यखि, मम्धे करिष्यन्ति, पश्चात् महता के शेनप्रतिपसवन्ता, परितनानि चत्वारि पूर्वाणि पङमा पुनरन्पी दाः, तानि चत्वारि ततो खुच्छिमानि, दशमसो पत्रिमे वस्तुनी व्यवछिने, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1398~ Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभ. द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥३९८॥ OSH 2564 का दस पुवाणि अणुसजति ॥ एवं शिक्षा प्रति योगाः सङ्ग्रहीता भवन्ति यथा स्थूलभद्रस्वामिनः । शिक्षेति गतं ५ । इयाणि |४प्रतिकनिप्पडिकमयत्ति, निप्पडिकम्मत्तणेण योगाः सङ्गृह्यन्ते, तत्र वैधोदाहरणमाह मणाध्य • पठाणे नागवम् नागसिरी नागदत्त पवजा । एगविहा सहाणे देवय साहू य बिल्लगिरे ॥ १२८५ ॥ योगसं० अस्याश्चार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-पइवाणे णयरे नागवसू सेही णागसिरी भज्जा, सहाणि दोवि, तेसिं पुत्तो||६ निष्प्रति नागदत्तो निविण्णकामभोगो पबइओ, सो य पेच्छइ जिणकप्पियाण पूयासकारे, विभासा जहा ववहारे पडिमापडिव | कमेता नाण य पडिनियत्ताणं पूयाविभासा, सो भणइ-अहपि जिणकप्पं पडिवज्जामि, आयरिएहिं वारिओ, न ठाइ, सर्व चेवपडिवजइ, निग्गओ, एगस्थ वाणमंतरघरे पडिम ठिओ, देवयाए सम्मदिहियाए मा विणिस्सिाहितित्ति इत्थिरूपेण उवहारं| गहाय आगया, वाणमंतरं अचित्ता भणइ-गिण्ह खवणत्ति, पललभूवं कूरं भक्खरूवाणि नाणापगाररूवाणि गहियाणि, खाइत्ता रत्तिं पडिमं ठिओ, जिणकप्पियत्तं न मुंचति, पोट्टसरणी जाया, देवयाए आयरियाण कहियं, सो सीसो अमुगत्थ, दश पूर्वाणि अनुप्सम्यन्ते । प्रतिष्टाने नगरे नागवसुः श्रेष्ठी नागश्रीभार्या, श्राद्ध है अपि, तयोः पुत्रो नागदत्तो निर्विणकाम भोगः प्रबजितः, सच | प्रेक्षते जिनकलिपकानां पूजासकारी, विभाषा यथा व्यवहारे प्रतिमाप्रतिपन्नानां च प्रतिनिवृत्तानां पूजाविभाषा, स भणति-महमपि जिनकल्यं प्रतिपये, आचावारितः, न तिति, स्वयमेव प्रतिपचते, निर्गतः, एका म्यन्तरगृहे प्रतिमया स्थितः, देवता सम्पष्टिः मा विन-दिति बीरूपेयोपहार गृहीत्वा ॥६९८॥ गता, व्यन्तरमविस्वा भणति-गृहाण अपक हति, पललभूतं (मिष्ट)रं भक्ष्यरूपाणि नानाप्रकारवरूपाणि गृहीतानि, सादिया रात्री प्रतिमा खितः, जिमकल्पिको ग मुमति, अतिसारो जातः, देवतयाऽचार्याणां कथित, स शिष्योमुत्र, दीप अनुक्रम [२६] 5 456 5305- 0 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1399~ Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८५ ] भष्यं [ २०६...]. साहू पेसिया, आणिओ, देवयाए भणियं बिलगिरं दिज्जहित्ति दिन्नं, ठियं, सिक्खविओ य-न य एवं कायवं । निष्पडि कंमत्ति गयं ६ । इयाणिं अन्नायएत्ति, कोऽर्थः १-पुत्रिं परीसहसमत्थाणं जं उवहाणं कीरइ तं जहा लोगो न याणाइ तहा कायर्धति, नायं वा कयं न नजेज्जा पच्छन्नं वा कथं नज्जेज्जा, तत्रोदाहरणगाहा— कोसंघिय जियसेणे धम्मवसू धम्मघोस धम्मजसे । विगयभया विणयवई इहिविवसाय परिकम्मे ।। १२८६ ।। इमीए वक्खाणं- कोसंबीए अजियसेणो राया, धारिणी तस्स देवी, तत्थवि धम्मवसू आयरिया, ताणं दो सीसा-धम्मघोसो धम्मजसो य, विणयमई मयहरिया, विगयभया तीए सिस्मिणीया, तीए भत्तं पञ्चवखायं, संघेण महया इहिसकारेण निजामिया, विभासा, ते धम्मवसुसीसा दोषि परिकम्मं करेंति, इओ य उज्जेणिवंतिवद्धणपालगसुपरवडणे चेव । धारिय(णि) अवंतिसेणे मणिष्पभा बच्छगातीरे ॥। १२८७ ।। व्याख्या - उज्जेणीए पज्जोयसुया दो भायरो पालगो गोपालओ य, गोपालओ पवइओ, पालगस्स दो पुत्ता-अवंतिवद्धणो १] साधवः प्रेषिताः आनीता देवतया भणिताः-पीजपुरगर्भ दत्त, दत्तः स्थितः शिक्षितथन चैवं कर्त्तव्यं निष्यतिकर्मेति गतं इदानीमात इति पूर्व परीपदसमदुपधानं क्रियते तत् यथा लोको न जानाति तथा कर्त्तव्यमिति ज्ञानं वा कृतं न ज्ञायेत मच्छ वा कृतं ज्ञायेत अव्या व्याख्यानंकोशाम्यामजितसेनो राजा धारिणी तस्य देवी, तत्रापि धर्मवसव भार्याः तेषां ही शिव-धर्मघोषो धर्मपशाच, विनयमतिर्महरिका, विगतमा तस्याः शिया तथा भक्तं प्रत्याख्यातं सङ्केन महता ऋद्विसरकारेण नियमिता, विभाषा, तो धर्मवशिष्यो द्वावपि परिकर्म कुर्वतः तय उज्जयिस्यां प्रयोत सुतौ द्वौ भ्रातरौ - पालको गोपालक, गोपालकः प्रत्रजितः, पालकस्य द्वौ पुत्रौ अवन्तीवर्धनो ~1400~ Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८७] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक छवद्धणो य, पालगो अचंतिबद्धणं रायाणं रहयद्धणं जुवरायाण ठवित्ता पवइओ, रहवद्धणस्स भजा धारिणी, तीसे हारिभ-नापुत्तो अवंतिसेणो । अन्नया उजाणे राइणा धारिणी सवंगे वीसत्ता अच्छती दिवा, अज्झोववन्नो, दूती पेसिया, सा|| मणाध्य द्रीया नेच्छइ, पुणो २ पेसइ, तीए अधोभावेण भणियं-भाउस्सवि न लज्जसि ?, ताहे तेण सो मारिओ, विभासा, तंमि वियाले योगसं०७ अज्ञातके |सयाणि आभरणगाणि गहाय कोसंविं सत्थो वच्चइ, तत्थ एगस्स वुहस्स बाणियगस्स उवल्लीणा, गया कोसंधि, संजइओ ॥६९९॥ पुच्छित्ता रणो जाणसालाए ठियाओ तत्थ गया, बंदित्ता साविया पबइया, तीए गम्भो अहुणोववन्नो साहुणो माण पजाविहिति(त्ति) तं न अक्खिय, पच्छा णाए मयहरियाए पुच्छिया-सभावेण कहिओ जहा रहवद्धणभज्जाऽहं, संजतीमाझेऽसागारियं अच्छाविया, वियाया रति, मा साहूर्ण उड्डाहो होहितित्ति णाममुद्दा आभरणाणि य उक्खिणित्ता रणो| अंगणए ठवित्ता पच्छन्ना अच्छा, अजियसेणेणागासतलगएणं पभा मणीण दिवा दिडा, दिहो य, गहिओ, णेण| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] राष्ट्रवर्धनन, पालकोऽवन्तीवर्धन राजाम राप्रवर्धनं युवराज खापचिस्या प्रबजितः, राष्ट्रवर्धनस्य भाषी धारिणी, तस्याः पुत्रोऽयम्तीपेणः । अन्यदोयाने राज्ञा धारिणी सङ्गेिषु विनम्ता तिष्ठन्ती दृष्टा, अभ्युपपन्नः, बूती प्रेषिता, सा नेच्छति, पुनः २ प्रेषते, तवा तिरस्कारजमा मणिधातुरपि न लजले, | तदा तेन स मारिता, विभाषा, तसिन् विकाले खकायाभरणानि गृहीत्वा कौशाम्यां सार्थों मजति सबैकस वृदय पणिजः पार्थमाश्रिता, गता कौशाम्बी, | संयत्यः पृष्ट्वा राज्ञो यानशालायां स्थिताः तत्र गता, बन्वित्ता प्राविका प्रबजिता, त्या गोंधुनोत्पन्नः साधवो मा प्रविनमन्निति समापातं, पनात् ज्ञाते महत्चरिकया पृष्टः-सदावा कथितः यथा राष्ट्रवर्धनस्य भाषांई, संयतीमध्येऽसागारिक स्थापिता, प्रजनितवती रात्री, मा साधूनामुम्हो भूदिति नाममुद्रामाभरणानि चोरिक्षप्य राशीकाणे स्थापयित्वा प्रच्छना तिष्ठति, अजितसेनेनाकाशतलगतेन मणीनां प्रभा दिव्या एer, CEN, गृहीतः, मनेन |॥६९९॥ RAMES ~1401~ Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८७] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक | अम्गमहिसीए दिन्नो अपुत्ताए, सो य पुत्तो, सा य संजतीहिं पुच्छिया भणइ-उद्दाणगं जायं तं मए विगिंचियं, खइयं | होहिति, ताहे अंतेउरणीइ अतीद य, अंतेउरियाहिं समं मित्तिया जाया, तस्स मणिप्पहोत्ति णामं कयं, सो राया मओ, मणिप्पभो राया जाओ, सो य तीए संजईए निरायं अणुरत्तो, सो य अवंतिवद्धणो पच्छायावेण भायावि मारिओ सावि देवीण जायत्ति भाउनेहेण अवंतिसेणस्स रज्जं दाऊण पबइओ, सो य मणिप्पहं कप्पागं मग्गइ, सो न देइ, ताहे सच-| वलेण कोसर्वि पहाविओ। ते य दोवि अणगारा परिकम्मे समत्ते एगो भणइ-जहा विणयवतीए इड्डी तहा ममवि होउ, णयरे भत्तं पञ्चक्खायं, बीओ धम्मजसो विभूसं नेच्छंतो कोसंबीए उज्जेणीए य अंतरा वच्छगातीरे पत्यकंदराए भत्तं पञ्चक्खायं । ताहे तेण अवंतिसेणेण कोसंबी रोहिया, तत्थ जणो अपणो अद्दण्णो, न कोइ धम्मघोसस्स समीवं अल्लियइ,x है सो य चिंतियमस्थमलभमाणो कालगओ, बारेण निप्फेडो न लब्भइ पागाररस उवरिएण अहिक्खित्तो । सा पवइय [सू.] दीप अनुक्रम [२६] - अप्रमाहिर अप्राय वचा, स च पुनः, सा च संयतीभिः पृष्टा भणति-गृतं जातं सम्ममा स्थप्रसिद्ध (विगष्ट !) भविष्यतीति, सदावापुरं गच्छत्यायाति च, अन्तःपुरिकाभिः समं मैत्री जाता, तस्य मणिप्रभ इति नाम कृत, स राजा सुतः, मणिप्रभो राजा जाता, सच तस्यां संयत्वां नितरामनुरक्तः | स चावन्तिवर्धनः पश्चातापेन भाताऽपि मारिता साऽपि देवीभ प्राप्त प्रानुनेहेनावन्तीपेणख राज्यं दवा प्राजिता, सच मणिप्रभं दण्डं मार्गपति, स म ददाति, तदा सर्वदलेन कौशाम्बी प्रधावितः । तौ च द्वावपि अनगारौ परिकर्मणि समाप्ते (अनशनोवती)एको भणति-वधा विनयवल्या कविसमा ममापि भवतु, नगरे भक्तं प्रत्याश्यात, दितीयो धर्ममा विभूषामनिध्छन्। कौशम्ब्या अथिम्पानाम्तरा वसकातीरे पर्वतकन्दरायो भक्त प्रत्यास्यातवान् । त। तेनावन्तीपेणेन कौशाम्बी रुवा, तत्र स्वयं जनः पीडितः, न कविवर्मयोपस्य समीपमागच्छति, स च चिन्तितमर्थमलभमानः कालगता द्वारेण निष्काशन न लभ्यते (इति) प्राकारस्योपरिकया बहिः क्षिप्तः । सा प्रवजिता -- 40-5600-%25 - ~1402 ~ Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२८७] भाष्यं [२०६...], (४०) RECENT द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] भावश्यक-चिंतेई-मा जणक्खओ होउत्ति रहस्सं भिंदामि, अंतेउरमइगया, मणिप्पह ओसारेत्ता भणइ-कि भाउगेण समं कलहेसि प्र तिकहारिभ-18 सो भणइ-कहन्ति, ताहे तं सर्व संबंध अक्खायं, जइन पत्तियसि तो मायरं पुच्छाहि, पुच्छइ, तीए णायं अवस्सं रह- मणाध्य० सभेओ, कहियं जहावत्तं रहवद्धणसंतगाणि आभरणगाणि नाममुद्दाइ दाइयाई, पत्तीओ भणइ-जह एत्ताहे ओसरामि तो योगसं० अज्ञातक७ ममं अयसो, अज्जा भणइ-अहं त पडिबोहेमि, एवं होउत्ति, निग्गया, अवंतिसेणस्स निवेइयं, पवइया दहमिच्छा, अइ-18 ७००॥ यया, पाए दहण णाया अंगपाडिहारियाहि, पायवडियाओ परुन्नाओ, कहियं तस्स तव मायत्ति, सो य पायवडिओ परुनो, तस्सवि कहेइ-एस भे भाया, दोवि बाहिं मिलिया, अवरोप्परमवयासेऊणं परुण्णा, किंचि कालं कोसंबीए| अच्छित्ता दोवि उज्जेणि पाविया, मायावि सह मयहारियाए पणीया, जाहे य बच्छयातीरे पवयं पत्ता, ताहे जे तमि जणवए साहुणो ते पचए ओरुभंते चईते य दङ्ग पुच्छिया, ताहे ताओवि वंदिउं गयाओ, वितियदिवसे राया पहाविओ, चिन्तयति-मा जनभयो भूदिति रहवं भिनधि, अन्तःपुरम तिगता, मणिप्रभमपसार्य भणति-कि प्रात्रा समं कलहसि , स भगति-कथमिति, INIer सम्बन्धमापातवती, यदिन प्रवेषिसहि मातरं पृच्छ, पति, तया ज्ञातं सायं रहसभेदा, कथितं यथावृतं राहवर्धनसत्वानि आमरणानि नाममुदादीनि दर्शितानि, प्रत्यवितो भणति-यद्यधुनापसरामि तर्हि मेश्यशः, आर्या भणति-अईले प्रतिबोधयामि, एवं भवरिवति, निर्गता, अवन्तीपेणाध निवेदितं, प्रमजिता दष्टुमिच्छति, अतियता, पादौ दृष्ट्वा ज्ञातान्तःपुरमविहारिणीभिः, पादपतिताः प्ररुदिताः, कथितं तस्य तर मातेति, सच पादपतितः प्ररूदितः, तस्यापि कथयति, एप तव भ्राता, द्वावपि वहिमिलिती परस्परमालिनय प्ररुदिती, कश्चित्काळ कौशाम्ब्या विवाहापजयिनी प्राप्ती, मातापि | ॥७०० सह महत्तरिकया नीता, यदा च वसकातीरे पर्वतं मासा तदा ये तमिन् जनपदे साधतान् पर्वतादवतरत आरोहतब ट्रा पृष्टवती, तदाता अपि वन्दितुं गताः, द्वितीय दिवसे राजा प्रस्थितः BCin दीप अनुक्रम [२६] 4 ~1403~ Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२८७ ] भष्यं [ २०६..... ताओ भांति-भतं पञ्चक्खायओ एस्थं साहू अम्हे अच्छामो, दोवि रायाणो ठिया, दिवसे २ महिमं करेंति, काठगओ, एवं ते य गया रायाणो, एवं तस्स अनिच्छमाणस्सवि जाओ इयरस्त इच्छमाणस्सवि न जाओ पूयासक्कारो, जहा धम्मजसेण तहा कायवं । अण्णाययत्तिगयं ७। इयाणिं अलोभेत्ति, लोभविवेगवाए जोगा संगहिया भवंति अलोभया तेण कायद्या, कहे ? तत्थोदाहरणमाह साएए पुंडरीए कंडरिए चैव देविजसभदा । सावस्थिअजियसेणे कित्तिमई खुडुगकुमारो ॥ १२८८ ॥ जसभद्दे सिरिकंता जयसंघी चेव कण्णपाले य । नद्यविही परिओसे दाणं पुच्छा य पव्वज्जा ॥ १२८९ ॥ सु वाइयं सुद्द गाइयं सुदु नचियं साम सुंदरि ।। अणुपालिय दीहराइयओ सुमिणते मा पमाय ॥ १२९०॥ द्वारगाथात्रयम् अस्य व्याख्या कथानकादयसेया, तच्चेदं-सागेयं णयरं, पुंडरिओ राया, कंडरिओ जुवराया, जुबरन्नो देवी जसभदा, तं पुंडरीओ चंकमंती दहूण अज्झोववन्नो, नेच्छइ, तहेव जुवराया मारिओ, सावि सत्थेण समं पलाया, अहुगोबबन्नगभा पत्ता य सावस्थि, तत्थ य सावत्थीए अजियसेणो आयरिओ, कित्तिमती मयहरिया, सा 3 १ ता भणन्ति प्रत्याख्यातभन्कोऽत्र साधुः ततो वयं तिष्ठामः द्वावपि राजानी स्थिती दिवसे २ महिमानं कुरुतः कालगतः एवं ते राजानी च गताः । एवं तस्यानिच्छतोऽपि जात सरकारः इतरस्येच्छतोऽपि न जातः पूजासत्कारः यथा धर्मवशता तथा कर्त्तव्यं अज्ञातकमिति गतं इदानीं अलोम इति लोभविवेकितया योगाः संगृहीता भवन्ति, भडोभता तेन कर्चेच्या कथं?, तत्रोदाहरणमाह । साकेतं नगरं पुण्डरीको राजा, कण्डरीको युवराजः, युवराजस्य देवी यशोभद्रा, तो चमन्ती दृष्ट्रा पुण्डरीकोऽभ्युपपन्नः नेच्छति, तथैव युवराजो मारितः, साऽपि सार्थेन समं पलायिता, अधुनोयगभ प्राप्ता च श्रावस्ती, तत्र च श्रावस्यामजितसेन आचार्यः कीर्तिमतिर्महतरिका, सा. ~1404~ Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝལླཱཡྻ अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्रीया ॥७०१ ॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १२९० ] भाष्यं [ २०६...]. तीए मूले तेणेव कमेण पञ्चइया जहा धारिणी तहा विभासियवा, नवरं तीए दारओ न हड्डिओ खुड्डुगकुमारोति से नामं कथं, सो जोबणत्थो जाओ, चिंतेइ पवज्जं न तरामि कार्ड, मायरं आपुच्छइ-जामि, सा अणुसासर तहवि न ठाइ, सा भणइ तो खाइ मन्निमित्तं वारस वरिसाणि करेहि, भणइ-करेमि, पुत्रेसु आपुच्छइ, सा भणइ-मयहरियं आपुच्छामि, तीसेवि वारस वरिसाणि, ताहे आयरियस्सवि वयणेण वारस, उवज्झायस्त वारस, एवं अडयालीसं वरिसाणि अच्छाविओ तह वि न ठाइ, विसज्जिओ, पच्छा मायाए भण्णूइ मा जहिं वा तर्हि वा वच्चाहि, महलपिया तुज्झ पुंडरीओ राया, इमा ते पितिसंतिया मुद्दिया कंबलरयणं च मए निंतीए नोणीयं एयाणि गहाय बच्चाहित्ति, गओणयरं, रण्णो जाणसालाए आवासिओ कल्ले रायाणं पेच्छिहामित्ति, अन्तरपरिसाए पेच्छणयं पेच्छइ, सा नट्टिया सवरत्तिं नच्चिऊण पभायकाले निद्दाइया, ताहे सा धोरिगिणी चिंतेइ-तोसिया एरिसा बहुगं च लद्धं जइ एत्थ विग्रहइ तो घरिसियामोति, ताहे इमं गीतियं पगाइया- 'मुहू गाइयं सुडू नच्चियं सुद्द्वाइयं साम सुंदरि । अणुपालिय दीहराइयओ सुमिणते मा पमाय ॥ १ ॥ [१] तथा मूखे तेनैव क्रमेण प्रवजिता यथा धारिणी तथा विभावितव्या नवरे तथा दारको न त्यक्तः ककुमार इति तस्य नाम कृतं स यौवनस्यो जातः, चिन्तयति प्रभ्यां न शक्रोमिकं मातरमापृच्छते धामि सा अनुशास्ति तथापि न तिष्ठति सा भणति तदा मन्निमित्तं द्वादश वर्षाणि कुरु, भणति करोमि, पूर्णेषु आपृच्छते सा भणति महत्सरिकामापृच्छे तथा अपि द्वादश वर्षाणि तत आचार्यस्यापि वचनेन द्वादश उपाध्यायस्य द्वादश, एवमष्टचत्वारिंशत् वर्षाणि स्थापितस्तथापि न तिष्ठति, विसृष्टः पञ्चाद् मात्रा भण्वते मा यन्त्र वा तन्त्र वा वाजीः, पितृल्यस्य पुण्डरीको राजा, इयं च ते पितृसका मुद्रिका कम्बर या निर्गच्छन्त्यानीतं एते गृहीत्वा व्रज, गतो नगरं राज्ञो बानशालायामुषितः कल्ये राजानं प्रेक्षिष्य इति, अभ्यन्तरपर्वदि प्रेक्षणकं प्रेक्षते, सा नटी सर्व नवा प्रभातकाले निद्रादिता तदा सा वर्त्तकी विन्तयति तोषिता पत् बहु च यद्यधुना प्रमाद्यति तर्हि अपचाजिताः स इति तदेम गीतिकां प्रगीतवती-सुष्ठु गीतं मुटु नर्त्तितं सुषुवादितं श्यामायां सुन्दरि ! अनुपादितं दीर्घरात्रं स्वप्नान्ते मा प्रमादः ॥ १ ॥ ~ 1405 ~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० अलोभता० ॥७०१ ॥ Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९०] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक CCCAR- 4-80-17 [सू.] दीप अनुक्रम [२६] इयं निगदसिद्धैव, एरवंतरे खुडुएण कंबलरयणं छूढ़, जसभद्देण जुवराइणा कुंडलं सयसहस्समोलं, सिरिकताए सस्थवाहिणीए हारो सयसहस्समोलो, जयसंधिणा अमच्चेण कडगो सयसहस्समोल्लो, कण्णवालो मिठो तेण अंकुसो सयसहस्सो, कंबलं कुंडल ( काडय) हारेगावलि अंकुसोत्ति एयाइ सयसहस्समोल्लाइ, जो य फिर तत्थ तूसाइ वा देह वा सो सरो। लिखिज्जइ, जइ जाणइ तो तुडो अहन याणइ तो दंडो तेसिंति सधे लिहिया, पभाए सधे सदाविया, पुरिछया, खुङगो! तम्भे कीस दिन्नं ?, सो जहा पियामारिओ तं सर्व परिकहेइ जाव न समत्थो संजममणुपालेड, तुभ मूलमागओरज अहि-12 लसामित्ति, सोभणइ-देमि, सो खुडगो भणइ-अलाहि,सुमिर्णतयं वट्टइ, मरिजा, पुवकओवि संजमो नासिहित्ति, जुवराया? भणइ-तुम मारेउं मग्गामि थेरो राया रजं न देइत्ति, सोवि दिजंतं नेच्छइ, सत्यवाहभजा भणइ-वारस वरिसाणि पउत्थस्स, पहे वट्टइ, अन्नं पवेसेमि वीमंसा वट्टइ, अमच्चो-अण्णरायाणएहिं समं घडामि, पच्चंतरायाणो हत्थिमेंठं भणंति-हत्थिं आणेहि अनान्तरे छलककुमारेण कम्बकरतं क्षिप्त, यशोभAण युवराजेन कुण्डलं शतसहसमूल्यं, श्रीकान्तया सार्थवामा हारा मातसहसमूल्यः, जयसम्धिना-1 मात्येन कटक पातसहसमूल्यं, कर्णपालो मेण्टमोनाकुशः शतसहस्त्रमूल्यः, कम्बलं कुण्डलं (कटक) हार एकावलिका भश इत्येतानि शतसहसमूल्यानि, यस |किल तन्त्र तुषति पवाति पास सों लिख्यते, यदि जानाति तदा तुरः अथ न जानाति तदा दण्टस्तेषामिति स लिरिषताः, प्रभाते सर्वे शब्दिताः पृष्टाः। शुक! या कि , सपथा पिता मारितः तत् सर्व परिकापति थापा समर्थः संयममनुपालयितुं, थुप्मा पाश्रमागतः राज्यमभिलपामीति, स भणति-ददामि, सालको भणति भलं, समाम्तो पाते, निवे, पूर्वकृतोऽपि संयमो नश्वेदिति, युवराजो भणति-या मारयितुं मुगये स्थविरो राजा राज्य ददातीति सोऽपि दीयमानं नेति, सार्थवाहभार्या भणति-द्वादश वर्षाणि प्रोपिता, पधि पर्वते, अन्धं प्रवेशयामीति विमोऽभून अमात्य:अन्यराजभिः समं मन्त्रवामि, मसान्तराजानो हसिमेण्ठं भगन्ति-हस्तिनमानय २-१० ~1406~ Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९०] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [२६] आवश्यक- मारेह वत्ति, भणति ते तहा करेहित्ति भणिया नेच्छंति, खुड्डुगकुमारस्स मग्गेण लग्गा पवइया, सबेहिं लोभो परिचत्तो, ४ प्रतिक्रहारिभ- एवं अलोभया कायबा, अलोभेत्ति गयं ८ । इयाणिं तितिक्खत्ति दारं, तितिक्खा कायवा-परीसहोवसग्गाणं अतिसणं मणाध्य. द्रीया भिणियं होइ, तत्रोदाहरणगाथाद्वयम् योगसं० तितिक्षा १७०२॥ इंदपुर इंददत्ते पाबीस सुया सुरिंदत्ते य । महुराए जियस सयंवरो निब्युईए उ ॥१२९१ ॥ अग्गियए पव्वयए बहुली तह सागरे य बोद्धव्वे । एगदिवसेण जाया तस्थेव सुरिंददत्ते य॥ १२९२ ॥ अस्य व्याख्या कथानकादवसेया, तञ्चेदम्-इंदपुरं णयर, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाण बराण देवीणं बावीसं पुत्तार | अण्णे भणंति-एगाए देवीए, ते सवे रण्णो पाणसमा, अहेगा धूया अमच्चस्स, सा जं परं परिणतेण दिवा, सा अण्णया। कयाइ पहाया समाणी अच्छइ, ताहे रायाए दिहा, कस्सेसा ?, तेहिं भणियं-तुम्भ देवी, ताहे सो ताए सम एक रतिं वुच्छो, सा य रितुण्हाया, तीसे गब्भो लग्गो, सा अमच्चेण भणिएलिया-जधा तुम्भ गम्भो लग्गइ तया ममं साहेजाहि, मारय वेति, भगन्ति ते तथा कुर्विति, भणिता नेच्छन्ति, क्षुल्लककुमारस मार्गेण वनाः भवजिताः, सलोभा परित्यकः, एवमलोभता कर्तव्या, अलोभ इति गतं । इदानी तितिक्षेतिद्वार, तितिक्षा कर्तव्या-परीषहोपसर्गाणां अधिसहनं भणितं भवति । इन्द्रपुर नगरं, इन्द्रदत्तो राजा, तखेधानां बराणां देवीनां वाविंशतिः पुत्राः, अम्बे भणन्ति-एकस्या देव्याः, ते सर्व राज्ञः प्राणसमाः, अथैकाठमात्यस दुहिता, सा यत्परं परिणपता रष्टा, सा अम्पदा ऋतुस्वाता ॥७०२॥ ससी तिष्ठति, तदा राज्ञा रथा, कस्पा, तेर्भणितं-युष्मा देवी, तदा स तथा सम मेका रानिमुषितः, सा चकवाना, तथा गर्भो लमः, साध्मात्येन | भणितपूना-पदा तब गर्भो भवेतदा माझं कथयेः,. ~1407~ Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], (४०) CAX प्रत सूत्रांक [सू.] ताए सो दिवसो सिहो मुहुत्तो वेला जंच राएण उल्लवियं साइतकारो तेण ते पत्तए लिहियं, सो य सारवेइ, नवण्डै | मासाणं दारओ जाओ, तस्स दासचेडाणि तदिवस जायाणि, तं०-अग्गियओ पवयओ बहुलिगो सागरगो, ताणि सहजायाणि, तेण कलायरियस्स उवणीओ, तेण लेहाइयाओ बावत्तरि कलाओ गहियाओ, जाहे साओ गाहेइ आयरिओ ताहे ताणि कुटुंति विकटुंति य, पुषपरिचएण ताणि रोडंति सोवि ताणि न गणेइ, गहियाओ कलाओ, ते अन्ने गाहिजंति बावीसपि कुमारा, जस्स अप्पिजति आयरियस्स तं पिट्टति मत्थएहि य हणंति, अह उवज्झाओ तें पिट्टेड अपढ़ते ताहे साहेति माइमिस्सिगाणं, ताहे ताओ भणंति-किं सुलभाणि पुत्तजम्माणि ?, ताहे न सिक्खियाई। इओ य महुराए जियसनू राया, तस्स सुया निधुई नाम कण्णया, सा अलंकिया रणो उवणीया, राया भणइ-जो रोयह सो ते भत्ता, ताहे ताए णार्य-जो सूरो वीरो विकतो सो पुण रजं दिज्जा, ताहे सा य बलं वाहणं गहाय गया इंदपुरं| णयर, रायस्स बहवे पुचा सुएलिआ, दूओ पयट्टो, ताहे आवाहिया सबे रायाणो, ताहे तेण रायाणएण सुर्य तया स दिवसो मुहतो वेला यच राजोलतं सत्पङ्कारः (तत् सर्वमुक्क) तेन तत् पत्रके लिखितं, स च संरक्षति, नवसु मासेषु दारको जातः, तस्य दासदासहिपसे जाताः, तथा अग्निः पर्वतका पालिका सागरा, ते सहजाता, तेन फलापार्यायोपनीता, तेन लेखादिका दासप्ततिः कका गृधीता, मैयदा ता मादयस्थाचालान् तदा ते हयन्ति विकर्षयन्ति च, पूर्वपरिचयेन ते लुठन्ति, सोऽपि तान गणयति, गृहीताः कला, तेऽम्ये प्रान्ते द्वाविंशतिरपि कुमारा, वी मध्यन्ते भाचार्याय तं पिहयन्ति मस्तकेनपान्ति, अधोपाध्यायस्वान् पियति अपठतः तदाकथयन्ति मातृप्रभृतीना, तदा वा भणन्ति-कि सुलभानि पुत्रजम्मानि, तदा(त) मशिक्षिताः । इतनमधरायां जितशर राजा. तसा सता लितिनाम कन्या, सावता राक्ष अपनीता, राजा भणति-यो रोचते स ते भो, तदा तया शातं यः शूरो वीरो विक्रान्तः स पुना राज्यं दधात, तदा सा बलं वाहनं च गृहीत्वा गतेबपुर नगर, राहो बहवः सुवाः श्रुतपूर्वाः, दूतःप्रवर्तितः, तदाऽहता असिका राजानः, तदा तेन राज्ञा श्रुतं. सरकार दीप अनुक्रम [२६] AM ~1408~ Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-गाजहा सा एइ, हहतुट्ठो, उस्सियपडाग णयर कयं, रंगो कओ, तत्थ चर्क, एच एगमि अक्स अट्ट चकाणि, तेर्सि पुरओ४ प्रतिक्रहारिभ- धीया उबिया, सा पुण विधियबा, राया सन्नद्धो निग्गओ सह पुत्तेहि, ताहे सा कण्णा सबालंकारविहूसिया एगंमि पासे द्रीया & अच्छड, सो रंगो रायाणो य ते य डंडभडभोइया जारिसो दोवतीए, तत्थ रणो जेडपुत्तो सिरिमाली कुमारो, एसा|| योगसं०९ दारिया रजच भोत्तवं, सो तुह्रो, अहं नूर्ण अण्णेहितो राईहिं अभहिमओ, ताहे सो भणिओ-बिंधहत्ति, ताहे सो तितिक्षायां ॥७०३॥ अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्झे तं धj घेतूण चेव न चाएइ, किवि अणेण गहिय, तेण जत्तो बचइ तत्तो वच्चइत्ति | कंडे मुकं, एवं कस्सइ एगं अरय बोलियं कस्स दो तिणि अण्णेसिं बाहिरेण चेव निंति, तेणवि अमञ्चेण सो नत्तुगो पसाहि तदिवसमाणीओ तत्थऽच्छा, ताहे सो राया ओहयमणसंकप्पो करयलपल्हत्थमुहो-अहो अहं पुत्तेहिं लोगमञ्झे । विगोविओत्ति अच्छद, ताहे सो अमच्चो पुच्छइ-किं तुन्भे देवाणुप्पिया ओहय जाव झियायह, ताहे सो भणइ ESCENER [सू.] दीप अनुक्रम [२६] 6236*RACE%ACe ॥७०३॥ बधा सेति, हटतुष्टः, बतिपताकं नगर कृत, रन कृतः, तत्र चर्क, अकम्मिन् चकेट काणि तेषां पुरतः पुसलिका स्थापिता, सा पुनर्वतम्या, लाराणा सादो निर्गतः सह पुत्र, तदा सा कन्या सर्वाशकारविभूषिता एकमिन् पा तिष्ठति, स रका ते राजानो दण्डिकभटभोजिका बादशो द्रौपचाः, शत्र राजो ज्येष्ठः पुत्रः श्रीमाकी कुमारः, एका दारिका राज्यं च भोक्तव्यं, स तुष्टः, अनूनमन्यराजभ्योऽभ्यधिकः, सदा स भणिता-विध्येति, तदा सोऽकृतकर-IN गतस समूहस्य मध्ये तद्धनुर्महीतुमेव न घामोति, कथमप्यनेन गृहीतं, सेन यतो नजति ततो व्रजरिवति काई मुक्त, एवं कस्यचिदेकमरकंम्पतिकान्त कसचिड़े। |श्रीणि अन्येचा बहिरेव निर्गठति, तेनाध्यमात्येन स नप्ता प्रसाध्य तदिवसमानीतस्तत्र तिष्ठति, तदा स राजोपडतमनःसंकल्पः करतलस्थापितमुखः बहो| बनेकोंकमध्ये विगोपित इति तिष्ठति, तदा सोऽमायः पृपछति-किं यूयं देवासुप्रिया उपदत्तमनःसंकल्पा यावत् ध्यायत, उदास भणति Xट ~1409~ Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], (४०) HERA प्रत सूत्रांक [सू.] एएहिं अहं लहुईकओ, ताहे भणइ-अस्थि पुत्तो तुभ अण्णोवि, कहिं , सुरिंददत्तो नाम कुमारो, तं सोवि ता विण्णासउ मे, ताहे.तं राया पुच्छह-कओ मम एस पुत्तो ?, ताहे ताणि सिठ्ठाणि रहस्साणि, ताहे राया तुहो भणइ-सेयं तव पुत्ता ! एए अह चके भेत्तूण रजसोक्खं नियुत्तिदारियं पावित्तए, ताहे सो कुमारो ठाणं आलीढं ठाइऊण गिण्हइ धणू, लक्खाभिमुहं सरं संधेइ, ताणि चेडरूवाणि ते य कुमारा सबओ रोडंति, अण्णे य दोषिण पुरिसा असिव्यग्रहस्तौ, ताहे सो पणाम रण्णो उवज्झायस्स य करेइ, सोवि से उवम्झाओ भयं दावेइ-एए दोषिण पुरिसा जइ फिडिसि सीसं ते फिट्ट (हिस्सति) तेसिं दोण्हवि पुरिसाण ते य चत्तारि ते य बावीसं अगणंतो ताण अहण्हं रहचक्काणं छिदं जाणिऊण एगमि छिड्डे नाऊण | अप्फिडियाए दिहीए तमि लक्खे तेणं अण्णमि य मणं अकुणमाणेण सा धीतीगा अञ्छिमि विद्धा, तत्थ उकुडिसीहनायसाहुकारो दिण्णो, एसा दयतितिक्खा, एसा चेव विभासा भावे, उपसंहारो जहा कुमारो तहा साहू जहा ते चत्तारि तहा एतैरह लपूलतः, तथा भणति-अस्ति पुनो युष्माकमन्योऽपि,क?, सुरेन्ददत्तो नाम कुमारः, तत् सोऽपि तावत् परीक्ष्यतां मम, सदा त राजा पृच्छतितो मम पुत्र एषः, तदा तानि शिष्टानि रहस्यानि, तदा राजा तुष्टो भणति-प्रेयसव पुत्र! एतानि अष्ट चक्रःनि भिवा राज्यसौम्यं निति दारिकां च प्राप्तुं, तदास कुमारः स्थानमाकीटं स्थित्वा गृहाति धनुः, सल्याभिमुखं शरं संदधाति, ते चेटास्ते च कुमाराः सर्वतो बोले कुर्वन्ति, सम्वौपदी पुरुषी, तदा स प्रणामं राश उपाध्यायस्य च करोति, सोऽपि तस्योपाध्यायो भयं दर्शयति-पतौ द्वौ पुरुषौ यदि स्खालसि शीर्ष ते पातयिष्यत्तः, तौ द्वावपि पुरुषौ तांत्र चतुरस्तांश्च द्वाविंशति वगणयन् तेषामधामो रथचकागो हिन शास्वैकमिभिने ज्ञात्वाऽपतितया या तस्मालक्ष्वात् अन्यस्मिन् मनोऽकुर्वता तेन सा पुतलिकाऽक्षिण विद्धा, तत्रोत्कृरिसिंहनादपुरस्साधुकारो दचः, एषा व्यतितिक्षा, एषैव विभाषा भावे, उपसंहारो यथा कुमारस्तथा साधुः यथा ते चत्वारस्तथा दीप अनुक्रम [२६] SCAM DONk 4-0- ~1410~ Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९२] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ४प्रतिक्रमणाध्य. योगसं० १.आर्ज कार्षि 8C ॥७०४॥ % 5 44546434 चत्तारि कसाया जहा ते बावीस कुमारा तहा बावीसं परीसहा जहा ते दो मणूसा तहा रागद्दोसा जहा घितिगा विधेयषा तहा आराहणा जहा निवृत्तीदारिया तहा सिद्धी । तितिक्खत्ति गयं ९, इयाणि अज्जवत्ति, अज्जवं नाम उअयत्तणं, तत्थुदाहरणगाहा चंपाए कोसियजो अंगरिसी सहए य आणते । पंधग जोइजसाविय अभक्खाणे य संबोही ॥१२९३॥ इमीए वक्खाणं-पाए कोसिअजो नाम उवज्झाओ, तस्स दो सीसा-अंगरिसी रुद्दओ य, अंगओ भद्दओ, तेण से अंगरिसी नाम कयं, रुद्दओ सो गंठिछेदओ, ते दोवि तेण उवज्झाएण दारुगाणं पट्टविया, अंगरिसी अडवीओ |भारं गहाय पडिएति, रुद्दओ दिवसे रमित्ता वियाले संभरिय ताहे पहाविओ अडविं, तं च पेच्छाइ दारुगभारएण एन्तर्ग, चिंतेइ य-निन्दोमि सपझाएणंति, इओ य जोइजसा नाम बच्छवाली पुत्तस्स पंथगस्स भत्र्त नेऊण दारुगभार-1 एण एइ, रुद्दएण सा एगाए खड्डाए मारिया, तं दारुगभारं गहाय अण्णेण मग्गेण पुरओ आगओ उवज्झायस्स हत्थे चरवारः कषाया यथा ते द्वाविंशतिः कुमाराशया द्वाविंशतिः परीषदा यथा ती द्वौ पुरुषी तथा रागद्वेषौ यथा पुतलिका पेडया तथाऽऽराधना यथा | निभृतिवारिका तथा सिद्धिः । तितिक्षेति गतं, इदानीमार्णवमिति, मार्जवं नाम ऋजुत्वं, तत्रोदाहरणयाथा, अस्खा व्याख्यानं-चम्पायां कोशिकाओं नामोपा वायः, तस्प वी शिष्यो-आर्षिः रुजल, अङ्गको भड़कलेन तखाङ्गार्षिः नाम कृतं, रुजः स प्रन्थिपएका, तौ द्वावपि तेनोपाध्यायेन दारकेभ्यः प्रस्थापिती, | अकर्षिरटवीतो भारं गृहीरचा प्रस्येति, रुद्रको दिवसे या विकाले स्मृतं बड़ा तदा प्रधावितोऽठवीं, संप प्रेक्षते दारुकभारेणायान्तं, चितपति च निकाशितोऽसि उपाध्यायेनेति, इसा क्योतिषशा नाम यसपालिका पुत्रस्य पन्यास भनीरवा दायभारकेणाबाति, सा बनकेणेकस्यो गर्माया मारिता, तं दारुक|भारं गृहीत्वाऽन्येच भार्गेण पुरत भागत उपाध्यायस्य इसे %E 4 दीप अनुक्रम [२६] ७०४॥ ~1411~ Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९३] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] धुणमाणो कहेह-जहा गेण तुझ सुंदरसीसेण जोइजसा मारिया, रमणविभासा, सो आगओ, धाडिओ वणसंडे चिंतेइ-सुहझवसाणेण जाती सरिया संजमो केवलनाणं देवा महिम करेंति, देवेहिं कहियं, जहा एएण अभक्खार्ण दिन्नं, रुद्दगो लोगेण | हीलिज्जइ, सो चिंतेइ-सच्च मए अम्भक्खाणं दिन्नं, सो चिंतेंतो संबुद्धो पत्तेयबुद्धो, इयरो बंभणो बंभणी य दोवि पवइयाणि, उप्पण्णणाणाणि सिद्धाणि चत्तारिवि, एवं काय वा न काय वेति १० । अज्जवत्ति गर्य, इयाणि सुइत्ति, सुई। नाम सच्चं, सच्चं च संजमो, सो चेव सोय, सत्यं प्रति योगाः सहीता भवन्ति, तत्रोदाहरणगाथासोरिअ मुरंपरेवि अ सिट्ठी अ धणंजए सुभद्दा य । वीरे अ धम्मघोसे धम्मजसेऽसोगपुच्छा य ॥१२९४ ॥ ... सोरियपुरं णयरं, तब सुरवरो जक्खो, तत्थ सेट्ठी धणंजओ नाम, तस्स भज्जा सुभद्दा, तेहिं सुरवरो नमंसिओ, पुत्तकामेहि उवाइयं सुरवरस्स कयं-जइ पुत्तो जायइ तो महिससएणं जण्ण करेमि, ताणं संपत्ती जाया, ताणि संबुझेहिन्ति सामी समोसदो, सेट्टी निग्गओ, संबुद्धो, अणुषयाणि गिण्हामित्ति जइ जक्खो अणुजाणइ, सोवि जक्खो उबसामिओ, । रक्त कथयति यथाऽनेन तव सुन्दर शिष्येण ज्योतिर्यशा मारिता, रमणविभाषा, व भागतः, निर्धाढितो पनपने चिन्तयनि-शुभाध्यवसानेन जातिः स्मृता संवमः केवलशान महिमानं देवाः कुर्वन्ति, देवैः कधितं यधतेनाम्याख्यान दचं, नको डोकेन दीयते, स चिन्तयति-सवं मयाऽभ्यालयाने दत्तं, सचिन्तयन् संयुद्धः प्रत्येकबुद्धः इतरो मानणो माहाणी चढे अपि प्रमजिते, उत्पाज्ञानाभस्वारोऽपि सिद्धाः । एवं कम्यं वा न कर्तग्यं वेति । भावामति गतं, हवामी शुचिरिति. चिर्नाम सयं. सखसंयमः स पर शौचं, शौर्यपुर नगर, तसरवरो यक्षा, तनही धनञ्जयो नाम, तस्स भायों सुभदा, ताभ्यां सुरवसे नमरकता, पुत्रकामाभ्यामपयाचितं पश्वर कृतं-पवि पत्रो भविष्यति त महिषशन यचं करिष्यामि, सयो। संपत्तिांता, सानि संभोसन्ते इति स्वामी समयमतः, श्रेष्ठी निर्गतः, संमुखः, अनुनतानि गृहामीति यदि यक्षोऽनुजानीते, सोऽपि यक्ष अपशान्ता दीप अनुक्रम [२६] ~ 1412~ Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक ४ प्रतिकामणाध्य योगस १३ शुचौ धनञ्जयो नारदश्च % [सू.] % आवश्यक- अण्णे भणंति-वएहिं संपिणहिएहि मग्गिओ, दयाए न देइ, नियसरीरसयखंडपवज्जणेण कतिवयखंडेसु कएसु सेही चिंतेइ-18 हारिभ-८ अहोऽहं धण्णो ! जेण इमाए वेयणाए पाणिणो ण जोइयत्ति, सत्तं परिक्खिऊण सुरवरो सर्य चेव पडिबुद्धो, पिडमया वा द्रीया कया, एष देशशुचिः श्रावकत्वं, सर्वशुची सामिस्स दो सीसा-धम्मघोसो धम्मजसो य, एगस्स असोगवरपायवस्स हेडा, गुणेति, ते पुषण्हे ठिया अवरण्हेवि छाया ण परावत्तइ, एगो भणइ-तुझ सिद्धी, बीओ भणइ-तुझ लजी, एगो काइग-1 ॥७०५॥ भूमीए गओ, पितिओवि तहेव, नार्य जहा एगस्सवि न होइ एस लद्धी, पुच्छिओ सामी-कहेइ तस्स उप्पत्ती सोरियसमुद्दविजए जन्नजसे चेव जन्नदत्ते य । सोमित्ता सोमजसा उंछविही नारदुप्पत्ती ॥१२९५ ॥ अणुकंपा वेयड्डो मणिकंचण वासुदेव पुच्छा य । सीमधरजुगवाह जुर्गधरे व महवाहू ॥१२९६ ॥ गाथा द्वितयम्, अस्य व्याख्या-सोरियपुरे समुद्दविजओ जया राया आसि तया अण्णजसो तावसो आसी, तस्स भजा | सोमित्ता, तीसे पुत्तो जन्नदत्तो, सोमजसा मुण्हा, ताण पुत्तो नारदो, ताणि उछवित्तीणि, एगदिवसं जेमेति एगदिवस अन्ये भणन्ति तेषु सचिहितेषु मार्गितः, दपया न ददाति, निजशरीरशतषपदैः प्रपथमाने कतिपयेषु खपदेषु कृतेषु श्रेष्ठी चिन्तयति-भदो माह धन्यो येन मयाऽनया वेदनया प्राणिनी नबोभिता इति, सर्व परीक्ष्य सुरवरः स्वयमेव प्रतिबुबा, पिटमया या कृताः । स्वामिनो द्वी शिष्यी-धर्मघोषी धर्मयशाच, एकस्य वराशोकपादपस्थापना गुणयन्ती तो पूर्वाद्धे स्थिती अपरावपि छाया न परावर्तते, एको भणति-तव सिद्धिः, द्वितीयो भणति-तव लब्धिः, एकः कायिकी भूमि गतः, द्वितीयोऽपि तपैव, शातं यथा नैकस्याप्येषा लब्धिरस्ति, पृष्टः खामी कथयति तस्योत्पति । शौर्यपुरे नगरे समुद्र विजयो बदा राजाऽऽसीत् तदा यज्ञयशातापस माखीद, तख भार्या सौमित्री मासीत्तस्याः पुत्रो यज्ञदत्तः, सोमयशाः शुषा, सयो। पुत्रो नारद, सानुमती, एक|सिन् दिवसे जेमत एकस्मिन् । २ गइपहि % दीप अनुक्रम [२६] % ||७०५॥ % ~1413~ Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१२९६] भाष्यं [२०६...], (४०) । प्रत सूत्रांक ६ उवासं करेंति, ताणि तं नारद असोगरुक्खहेहे पुवण्हे ठविऊण दिवस उंछति, इओ य वेयहाए पेसमणकाइया देवा | जंभगा तेणं २ वीतीवयंति, पेच्छति दारगं, ओहिणा आभोएंति, सो ताणं देवनिकायाओ चुओ तो तं अणुकंपाए छाहिं धंति-दुक्खं उण्हे अच्छइत्ति, पडिनियत्तेहिं नीसीहिओ सिक्खाविओ य-प्रद्युम्नवत् , केइ भणंति-एसा असोगपुच्छा, नारदुप्पत्ती य, सो उम्मुकबालभावो तेहिं देवेहिं पुषभवपिययाए विजाभएहि पन्नत्तिमादियाओ सिक्खाविओ, | सो मणिपाउआहिं कंचणकुंडियाए आगासेण हिंडइ, अण्णया बारवइमागओ, वासुदेवेण पुच्छिओ-किं शौचं इति ?, सो | ण तरति णिवेढेऊ, वक्खेवो कओ, अण्णाए कहाए उद्देत्ता पुवधिदेहे सीमंधरसामि जुगवाहवासुदेवो पुच्छइ-किं शौचं ?, तित्थगरो भणइ-सचे सोयंति, तेण एगेण पएण सच्चं पजाएहि ओवहारियं, पुणो अवरविदेहं गओ, जुगंधरतित्थगरं महाबाहू नाम वासुदेवो पुच्छड तं चेव, तस्सवि सक्खं उवगयं, पच्छा बारवइमागओ वासुदेवं भणइ-किं ते तया पुछियं, [सू.] CCEShe दीप अनुक्रम [२६] दिवसे उपवासं कुरुतः, तौ तं नारदमशोकवृक्षस्थावस्तात् पूर्वाहे स्थापयित्वोच्छतः, इतन्त्र वैताब्ये वैश्रमणकाविका देवा जृम्भकास्तेनावना व्यति| बजन्ति, प्रेक्षन्ते दारकं, अवधिनाऽऽभोगवन्ति, स तेषां देवनिकायायुतः, ततस्तदनुकम्पया तो छायां सम्भयन्ति-दुःखमुष्णे तिष्ठतीति, प्रतिनिवृत्तैः निशीभ्यः (गुप्ता विद्याः) शिक्षितः केचिद भणन्ति-एषाअशोकच्छा नारदोत्पत्तित्रा, सवन्मुक्तबालभावतः पूर्वभवप्रियतया विद्याजुम्भकैः प्रज्ञप्त्यादिकाः | शिक्षितः, स मणिपादुकाभ्यां काञ्चनकुण्टिकयाऽऽकाशेन हिण्डते, मन्पदा द्वारवतीमागतो, वासुदेवेन पृष्टः-सन शक्रोत्युत्तरं दातुं, उरक्षेपः कृतः, अन्यथा कथयोत्थाय पूर्वविदेदेषु सीमन्धरस्वामिनं युगबाहुचासुदेवः पृच्छति- तीर्थकरो भणति-सल्यं शौचमिति, तेनैकेन पदेन सय पर्यायैरवधारितं, | पुनरपरषिदेदेषु थुगन्धरतीर्थकर महाबाहुर्नाम वासुदेवः पृच्चति तदेव, तस्मादपि साक्षादुपगतं, पश्चातू द्वारवतीमागतो वासुदेवं भणति-किं त्वया तदा प्रष्टी, 2-424 ~1414~ Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९६] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रतिक योगसं० प्रत सूत्रांक १२ सम्यग्दृष्टौ प्रभासोदा० [सू.] भावश्यकताहे सो त भणइ-सोयति, भणइ-सच्चंति, पुच्छिओ कि सच्च, पुणो ओहासइ, वासुदेवेण भणियं-जहिं ते एयं पुच्छिय हारिभ- तिहिं एयपि पुच्छियं होतंति खिंसिओ, तेण भणियं-सच्चं भट्टारओ न पुच्छिओ, विचिंतेउमारद्धो, जाई सरिया, पच्छा| द्रीया अतीव सोयवंतो पत्तेयबुद्धो जाओ, पढममायणं सो चेव वदइ, एवं सोपण जोगा समाहिया भवंति ११ । सोएत्ति गये, ॥७०६॥ इयाणि सम्मदिवित्ति, संमईसणविसुद्धीएवि किल योगाः सह्यन्ते, तस्थ उदाहरणगाहासागेयम्मि महाबल विमलपहे चेव चित्तकम्मे य । निष्फत्ति छठुमासे भुमीकम्मस्स करणं च ।। १२९७ ॥ | अस्या व्याख्या कथानकादवसेया, साएए महबलो राया, अत्थाणीए दूओ पुच्छिओ-किं नस्थि मम जे अन्नेसि | रायाण अस्थित्ति , चित्तसभत्ति, कारिया, तत्थ दोवि चित्तकरावप्रतिमौ विख्याती विमलः प्रभाकरच, तेसिं अखद्धेणं| | अपिया, जवणियंतरिया चित्तेइ, एगेण निम्मवियं, एगेण भूमी कया, राया तस्स तुट्ठो, पूइयो य पुच्छिओ य, प्रभाकरो पुच्छिओ भणइ-भूमी कया, न ताव चित्तेमित्ति,रायाभणइ-केरिसयाभूमी कयत्ति?,जवणिया अवणीया, इयरं चित्तकम तदा स तं भगति-शौचमिति, भणति समिति, पृष्टः किं सत्यंपुनरपभाजते, वासुदेवेन भणित-पत्र पतन, पूलं सौतदपि पृष्मभविष्यदिति | नि भैसिता, तेन भणित-सस्यं भवारको न पृष्टः, विचिन्तयितुमारन्धः, जातिः स्मृता, पश्चादतीय शौचवान मवेकयुद्धो जातः, प्रथममध्ययन स एष (तदेव) वदति । एवं शौचन योगाः संगृहीता भवन्ति । शौचमिति गतं, इवानी सम्यग्दृष्टिरिति, सम्यग्दर्शनविशुजापि, तत्रोदाहरणगाथा । साकेते महाबलो राजा, आस्थान्यां दूतः पृष्टः-किनास्ति मम पदन्येषां राज्ञो अति !, चिन्नसमेति, कारिता, तत्र द्वौ चित्रकरी, ताभ्यामर्धामा भर्पितवान् , यवनिकान्तरितो x चित्रचता, एकेन निर्मितं, एकेन भूमी कृता, रामा तीता, पूजितब पृच प्रमाकरः पशे भणति-भूमीता, न तावत् चित्रयामीति. राजा भणति कीशी भूमिः कृतेति, यवनिकाउपनीता, हसरचित्रकर्म दीप अनुक्रम [२६] ॥७०६॥ ~1415~ Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९७] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] निम्मलयरं दीसइ, राया कुविओ, विनविओ-पभा एस्थ संकंतत्ति, ते छाइय, नवरं कुटुं, तुडेण एवं चेव अच्छउत्ति भणिओ, एवं संमत्तं विसुद्धं कायवं, तेनैव योगाः सनहीता भवन्ति १२ । सम्यग्दृष्टिरिति गते, इयाणिं समाहित्ति समाधानं, तत्थोदाहरणगाडाणयरं सुदंसणपुरं सुसुणाए सुजस सुन्वए चेव । पध्वज सिक्खमादी एगविहारे य फासणया ॥१२९८ ॥ व्याख्या-कथानकादवसेया, तच्चेदम्-सुदसणपुरे सुसुनागो गाहावई, सुजसा से भजा, सड्ढाणि, ताण पुत्तो सुवओ नाम सुहेण गम्भे अरिछओ सुहेण वहिओ एवं जाव जोवणत्यो संबुद्धो आपुग्छित्ता पचाइओ पदिओ, एकलविहारपडिमापडिवणो, सकपसंसा, देवेहिं परिक्खिओ अणुकूलेण, धण्णो कुमारवंभचारी एगेण, बीएण को एयाओ कुलसंताणच्छेदगाओ अधण्णोति !, सो भगवं समो, एवं मायावित्ताणि सविसयपसत्ताणि दंसियाणि, पच्छा मारिजंतगाणि, कलुणं कूवेंति, तहावि समो, पच्छा सवेवि उऊ बिउबिता दिवाए इत्थियाए सविन्भमं पलोइयं मुक्कदीहनीसासमवगूढो, तहावि निर्मकतर रयते, राजा कुपितः, विशाल प्रभाउप संक्रान्तेति, तच्छादितं, नवरं कुल्यं, तुष्टेनैवमेव तिष्ठस्थिति भणितः, एवं सम्बा विशुद्ध कर्तव्यं । इदानीं समाधिरिति, तम्रोदाहरणगाथा । सुदर्शनपुरे शिशुनागः श्रेष्ठी, सुषशास्तस्य भार्या, बादी, तयोः पुत्रः सुनतो नाम मुखेन गर्ने स्थितः सुखेन वृद्धः एवं यावत् यौवनस्थः संबुद्धः, भापृच्छय प्रवजितः पठितः, एकाकिबिहारमतिमा प्रतिपयः, वाकप्रसा, देवैः परीक्षितोऽनुकलेन, धन्यः कुमारप्रमचारी एकेन, द्वितीयेन क एतमात् कुलसन्तानच्छेदकावधम्य इति स भगवान् समः, एवं मातापितरी खविषयासक्ती दर्शिती, पश्चात् मार्यमाणी, करुर्म कूमता, तथाऽपि समः, पश्चात् सयौ कतवो विकुर्विता दिश्यया खिया सविनमं प्रलोकितं मुक्तीनिधासमुपगूढः तथाऽपि. दीप अनुक्रम [२६] ~ 1416~ Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९८] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक हारिभद्रीया ॥७०७॥ संजमे समाहिततरो जाओ, णाणमुप्पण्णं, जाव सिद्धो १३ । समाहित्ति गर्य, आयारेत्ति इयाणिं, आयारउवगच्छणयाए ४ प्रतिकयोगाः सङ्गुह्यन्ते, एत्थोदाहरणगाहा मणाध्यक योगसं० पाडलिपुत्त हुयासण जलणसिहा चेव जलणडहणे य । सोहम्मपलियपणए आमलकप्पाइ णट्टविही ॥ १२९९॥1 १३ समा___ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-पाडलिपुत्ते हुयासणो माहणो, तस्स भज्जा जलणसिहा, सावगाणि, तेसिं दो पुत्ता-13 धी सुव्रतः जलणो डहणो य, चत्तारिवि पबइयाणि, जलणो उज्जुसंपण्णो, डहणो मायाबहुलो, पहित्ति वच्चइ, वच्चाहि एइ, सो तस्स १४आचारे ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालगओ, दोवि सोधम्मे उववन्ना सकस्स अभितरपरिसाए, पंच पलिओवमाति ठिती, सामी ज्वलनदसमोसढो आमलकप्पाए अंबसालवणे चेइए, दोवि देवा आगया, नट्टविहिं दाएंति दोवि जणा, एगो उजुगं विउविस्सामित्ति | उजुगं बिउबइ, इमस्स विवरीय, तं च दद्दूण गोयमसामिणा सामी पुच्छिओ, ताहे सामी तेसिं पुषभवं कहेइ-मायादोसोत्ति, [सू.] दीप अनुक्रम [२६] %ी ॥७०७॥ संयमे समाहिततरो जातः, ज्ञानमुत्पनं यावत् सिद्धः। समाधिरिति गतं, आचार इतीदानी, भाचारोपगततया योगाः, भत्रोदाहरणगाया । पाटलिपुत्रे हुताशनो ब्राझणः, तस्य भार्या ज्वलनशिस्त्रा, श्रावको, तयोगी पुत्री-ज्वलनो दहनश्च, चम्बारोऽपि प्रमजिताः, ज्वलन ऋजुतासंभवः, दानो मायाबहुला, आयाहीति मजति मजेत्यायाति, स तस्य स्थानखानालोचितप्रतिकातः कालगतः, द्वावपि सौधर्मे अपनी पाकस्वाभ्यन्तरपति, पत्र पक्योपमानि स्थितिः, स्वामी समवस्तः श्रामलकल्पायामात्रशालबने थैलो, द्वावपि देवावागती नृत्यविधि दर्शयतः द्वावपि जनौ, एक ऋतु विकुर्वविष्यामीति आजक विकुर्वति, अख विपरीतं, सच दृष्टा गौतमस्वामिना स्वामी पृष्टः, तदा स्वामी तयोः पूर्वभवं कभपति-मायादोष इति. 1% 82- ~1417~ Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२९९] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक 80-5% एवं आयारोपगयसणेण जोगा संगहिया भवति १४ । आयारोवगेत्ति गये, इयाणि विणओवगयत्तणेण जोगा संगहिया भवंति, तत्थ उदाहरणगाहाउज्जेणी अंबरिसी मालुग तह निधए य पच्चज्जा । संकमणं च परगणे अविणय विणए य पडिवत्ती॥ १३००।। ___व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-उज्जेणीए अंबरिसी माहणो, मालुगा से भज्जा, सहाणि, निंबगो पुत्तो, मालुगा कालगया, सो पुत्तेण समं पवइओ, सो दुषिणीओ काइयभूमीए कंटए निविखवइ सज्झायं पढविन्तार्ण छीयइ, असज्झायं करेइ, सर्व च सामायारी वितहं करेइ, कालं उवणइ, ताहे पवइया आयरिय भणंति-अथवा एसो अच्छउ | अहवा अम्हेत्ति, निच्छूढो, पियावि से पिडओ जाइ, अन्नस्स आयरियस्स मूलं गओ, तत्थवि निच्छुढो, एवं किर: | उज्जेणीए पंच पडिस्सगसयाणि सवाणि हिंडियाणि, निच्छूढो य सो खंतो सन्नाभूमीए रोवइ, सो भणइ-किं खंता! रोवसित्ति , तुमं नाम कयं निंबओत्ति एवं न अण्णहत्ति, एएहिमणभागेहिं आयारेहि तुझंतेण पण्डिं च अहंपि ठायं [सू.] -% -10 दीप अनुक्रम [२६] RECERABAR - 4- एक्माचारोपगततया योगा। संगृहीता भवन्ति । भाचारोपण इति गतं, इदानी विनयोपगलरचेन योगाः संगृहीता भवन्ति, तसोदाहरणगाथा ।। | नविम्यामम्बार्षिक्षक्षणः, मालुका तसा भार्या, श्रादी, निम्बकः पुत्रः, मालुका कालगता, स पुत्रेण सम प्रमजितः, स दुनिीतः कायिकीभूमी कष्टकान् निक्षिपति स्वाध्याय प्रस्थापयास (साधुषु)ौति, अस्वाध्यायं करोति, सर्वा च सामाचारी बितों करोति, कालमुपहन्ति, तदा प्रमजिता आचार्य भणन्तिअश्व वैष तितु अथवा पथमिति, निकाशितः, पिताऽपि तस्य पृष्ठे याति, भम्यस्थाचार्यस्य मूलं गतः, तत्रापि निष्काशितः, एवं किलोमाथियों पर प्रतिअयशतानि सर्वाणि हिदिती, निष्काशितब स नृद्धः संज्ञाभूमौ रोदिति, स भणति-किं नृत् ! रोदिपीति !, तव नाम कृतं निम्बक इति एतश्चान्यथेति, एतैरभाग्वैराचारैस्वदीयैरधुनाऽहमपि स्थिति 1-%ANCER- ~ 1418~ Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝམྦྷོཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभ• द्वीया h૭૦૮ ) आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३०० ] भष्यं [ २०६...]. ने उभामि, न य वट्टइ उप्पधइवं, तस्सवि अधिती जाया, भणइ खंता ! एकसिं कहिंचि ठाहिं मग्गाहि, भणइ-मग्गामि जइ विणीओ होसि एकसि नवरं जइ, पवइयाणं मूलं गया, पचइयगा खुहिया, सो भणइ-न करेहित्ति, तहवि निच्छंति, आयरिया भणति मा अजो ! एवं होह, पाहुणगा भवे, अज्जकलं जाहिंति, ठिया, ताहे खुलओ तिण्णि २ उच्चारपास वणाणं वारस भूमीओ पडिलेहित्ता सवा सामायारी, विभासियवा अवितहा, साहू तुट्टा, सो निंबओ अमयखुडुगो जाओ, तरतमजोगेण पंचवि पडिस्सगसयाणि ताणि मंमाणियाणि आराहियाणि, निग्गंतुं न दिंति एवं पच्छा सो बिणओवगो जाओ एवं काय १५ । विणओवपत्ति गयं, इयाणिं धिइमई यत्ति, धितीए जो मतिं करेह तस्य योगाः सङ्गृहीता भवन्ति, तत्थोदाहरणगाहा नयरी य पंडुमरा पंडववंसे मई य सुमईथ। वारीवसभारुहणे उप्पाइय सुहियविभासा ॥। १३०१ ॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तचेदं जयरी य पंडुमडुरा, तत्थ पंच पंडवा, तेहिं पवयंतेहिं पुत्तो रज्जे ठविभो, १ न लभे न च ववजितुं तस्याप्यष्टतिजांता, भणति वृद्ध !, एकशः कुत्रापि स्थितिमन्वेषय, भणति-मार्गयामि यदि विनीतो भवस्येकशः, परं यदि प्रबजितानां मूलं गतौ प्रमजिताः शुब्धाः, स भजति न करिष्यतीति, तथापि नेच्छन्ति, भाषायां भणन्ति मैवं भवतार्याः, प्रापूर्णको भवतां भद्य कल्ये वास्वत इति स्थितौ तदा कः तिस्रः २ उचारप्रश्रवणयोर्द्वादश भूमी: प्रतिक्रिष्य सर्वाः समाचारी (करोति ), विभाषितम्याः अवितथाः, साथवस्तुष्टाः स निम्बको क्षुद्धको जातः, तरतमयोगेन पञ्चापि प्रतिश्रवशतानि तानि ममीकृतानि आराद्वानि, निर्गन्तुं न ददति, एवं स पश्चात् स विनयो. पयो जातः, एवं कर्त्तव्यं विनयोपग इति गतं इदानीं प्रतिमतिरिति यो मत करोति तस्य तत्रोदाहरणयाथा। नगरी च पाण्डुमथुरा, तत्र पच पाण्डवाः, तैः प्रमद्भिः पुत्रो राज्ये स्थापितः ~ 1419 ~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० विनयोपगे १५ निम्बकः १६ धृतिम्मती मति सुमत्यौ ॥७०८ || Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०१] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक ते अरिहनेमिस्स पायमूले पडिया, हत्थकप्पे भिक्खं हिंडिता सुणेति-जहा सामी कालगओ, गहियं भत्तपाणं विगिंचित्ता सेत्तंजे पथए भत्तपञ्चक्खायं करेंति, णाणुप्पत्ती, सिद्धा या ताण बंसे अण्णो राया पंडुसेणो नाम, तस्स दो धूयाओ-मई सुमई य ताओ उजते चेइयवंदियाओ सुरई वारिवसभेण [वारिवसभो नाम वहणं तेण ] समुद्देण पइ, उप्पाइयं उठियं, लोगो खंदरुद्दे नमसइ, इमाहि धणियतराग अप्पा संजमे जोइओ, एसो सो कालोत्ति, भिन्नं वहणं, संजयत्तंपि सिणायगत्तंपि कालगयाओ सिद्धाओ, एगस्थ सरीराणि उच्छलियाणि, सुङिएण लवणाहिवइणा महिमा कया, देवुजोए ताहे तं पभास तित्थं जायं, दोहिवि ताहे धीतीए मतिं करेंतीहि जोगा संगहिया, पिइमई यत्ति गयं १६, इयाणिं संवेगेत्ति, सम्यग वेगः। संवेगः तेण संवेगेण जोगा संगहिया भवति, तत्रोदाहरणगाथाद्वयंचंपाए मित्तपमेधणमित्ते धणसिरी सुजाते या पियंगू धम्मघोसे य अरक्खुरी चेव चंदघोसे य॥ १३०२॥ चंदजसा रायगिहे वारत्तपुरे अभयसेण चारत्ते । सुसुमार धुंधुमारे अंगारवई य पजोए ॥ १३०३ ॥ [सू.] AGARSHANKARICHECK.. दीप अनुक्रम [२६] तेरियनेमे पादमूर्व प्रस्थिताः, इस्तिकसे हिण्डमानाः शृण्वन्ति-यथा स्वामी कालगतः, गृहीत भक्तपानं यतवा शत्रुजवे पर्वते भक्तमत्वाख्यान कुर्वन्ति, शानोत्पत्तिः सिखाम । तेषां दो अन्यो राजा पाण्डषेणो नाम, तस्व है दुहितरी-मतिः सुमतिच, ते उजयन्ते चैलाबन्दिके सुराई वाहनेन समुझे. गायातः सत्पात बस्थिता, कोकः स्कन्दरुद्री नमखति, भाभ्यां चाइतरमारमा संयमे योजितः, एष स काल इति, भिनं प्रवहणं, संपतत्वमपि स्नातकमपि काळगते सिबे, एकत्र शरीरे उच्छळिते, सुस्थितेन वणाधिपतिमा महिमा कृतः, देवोचोते तत्र प्रभासाक्यं तत् तीर्थं जातं, द्वाभ्यामपि तवा ती मति उर्वतीभ्यो घोगाः संगृहीताः । तिमतिरिति गतं, इदानीं संवेग इति, तेन संवेगेन योगाः संगृहीता भवन्ति । ~1420 ~ Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक | १७ संवेगे ॥७०९॥ अस्या व्याख्या कथानकादवसेया तचेदं-चंपाए मित्तप्पभो राया, धारिणी देवी, धणमित्तो सत्यवाहो. धणसिरीप्रतिक भजा, तीसे ओवाइयलद्धओ पुत्तो जाओ, लोगो भणइ-जो पत्थ धणसमिद्धे सत्यवाहकुले जाओ तस्स सुजायंति, निवित्ते मणाप योगसं० वारसाहे सुजाओत्ति से नाम कर्य, सो य किर देवकुमारो जारिसो तस्स ललियमण्णे अणुसिखंति, ताणि य सावगाणि, तत्थेव णयरे धम्मघोसो अमच्यो, तस्स पियंगू भज्जा, सा मुणेइ-जहा एरिसो सुजाओत्ति, अण्णया दासीओ भणइ-जाहे|टावारत्रकर्षि सुजाओ इओ वोलेज्जा ताहे मम कहेजह जाव तं गं पेच्छेज्जामित्ति, अण्णया सो मित्तवंदपरिवारिओ तेणंतेण एति, कथा दासीए पियंगूए कहियं, सा निग्गया, अण्णाहि य सबत्तीहि दिह्रो, ताप भण्णइ-धण्णा सा जीसे भागावडिओ, अपणया ताओ परोप्परं भणंति-अहो लीला तस्स, पियंगू सुजायस्स वेसं करेइ, आभरणविभूसणेहिं विभूसिया रमइ, एवं वचइ सविलासं, एवं हत्थसोहा विभासा, एवं मित्तेहि समपि भासद, अमच्चो अइगओ, नीस? अंतेउरंति पाए सणियं निक्खिवंती -54%ASALA दीप अनुक्रम [२६] ॐॐ 1 चम्पाया मित्रप्रभो राजा, भारिणी देवी धनमित्रा सार्थवाहः, धनश्री यो, तस्या स्पयाचितलबधः पुत्रो जाता, कोको भणतियोऽा धनसमझे सार्थवाहकुले जातस्तस्य सुजातमिति, निवृत्ते द्वादशाहे सुजात इति तस्य नाम कृतं, सच किल देवकुमारो वामाः तस्य ललितमन्येऽनुशिक्षन्ते, ते श्रावका तत्रैव नगरे धर्मघोषोऽमायः, तस्य प्रियङ्क: भार्या, सा शृणोति योदशः सुजात इति, अन्यदा वासीमणति-पदा सुजातोऽनेन वर्मना व्यतिकाम्येत् सदाट मम कथयेत यावर्त प्रेक्षयिष्ये इति, अन्यदास मित्रवृन्दपरिवारितसेनाध्वना याति, दास्या प्रियाचे कथितं, सा निर्गसा, अन्याभिन सपनीभिः , तथा ★भण्यते-चन्या सा यस्या भाग्ये आपतितः, अन्यदा ताः परस्परं भवन्ति-अहो कीला तस्य, भियतः सुजातस्य वेषं करोति, बाभरणविभूषणैर्षिभूषिता रमते, एवं मजति सबिलासं, एवं इलशोभा विभाषा, एवं मित्रैः सममपि भाषते, अमात्योऽतिगतः, विनष्टमन्तःपुरमिति पादौ पानेः निक्षिपन् ७०९॥ ~1421~ Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) FRESONSGREGAO प्रत सूत्रांक बारछिद्देणं पलोपइ, दिहा विखुडुती, सो चिंतेइ-विनई अंतेउरंति, भणइ-पच्छण्णं होउ, मा भिण्णे रहस्से सइरा-1 याराउ होहिंति, मारे मग्गइ सुजाय, बीहेइ य, पिया य से रण्णो निरायं अच्छिओ,मा तओ विणासं होहित्ति, उवायं 3 चिंतेइ, लद्धो उवाओत्ति, अण्णया कूडलेहेहिं पुरिसा कया, जो मित्तप्पहस्स विवक्खो, तेण लेहा विसज्जिया तेणति, सुजाओ वत्तबो-मित्तप्पभरायाणं मारेहि, तुमं पगओ राउले, तो अद्धरजियं करेमि, तेण ते लेहा रणो पुरओ वाइया, जहा तुम मारेयवोत्ति, राया कुविओ, तेवि लेहारिया वज्झा आणत्ता, तेणं ते पच्छण्णा कया, मित्सप्पभो चिंतेइ-जइ लोगनायं कजिहि तो पउरे खोभो होहित्ति, ममं च तस्स रण्णो अयसो दिज, तओ उवाएण मारेमि, तस्स मित्तप्पहस्स एगं पर्वतणयरं अरक्खुरी नाम, तत्थ तस्स मणूसो चंदण्झओ नाम, तस्स लेहं देह (०१९०००)जहा सुजाय पेसेमितं | मारेहित्ति, पेसिओ, सुजायं सहावेत्ता भणइ-पच अरक्खुरी, तत्थ रायकज्जाणि पेच्छाहि गओतं णयरिं अरक्षुरिं नाम, दिहो| [सू.] दीप अनुक्रम [२६] द्वारणि प्रकोष्यति, स्टा कीडन्ती, स चिन्तयति-विनष्टमन्तःपुरमिति, भणति-प्रच्छ भवतु, मा भिले हसे खैराचारा भूपमिति, मारयितुं मार्गपति सुमातं, बिभेति च, पिता च तस्य राहो नितरां स्थितः, मा ततो विनाशो भूदिति, उपायं चिन्तयति, लब्ध पाव इति, अन्यदा कूटलेख: (युक्ताः) पुरुषाः कृताः, यो मित्रप्रभस्य विपक्षः तेन लेख विसष्टास्तौ इति, सुजातो वक्तव्या-मित्रप्रभराज मारय, वं प्रगतो राजकुले, तत बाधराजिक करोमि, तेन ते लेखा राज्ञः पुरतो वाचिता यथा वं मारपितष इति, राजा कुपितः, ते लेखहारका बच्या आज्ञप्ताः, तेन ते प्रमाः कृताः, मित्रप्रभचिन्तयतियवि कोकज्ञातं क्रियते तदा पुरे क्षोभो भविष्यतीति, मयं च तस्स राशोऽयशो दाखति, सत पायेन मारवामि, तस्व मित्रमभक अत्यन्तनगरमारारं नाम, तत्र तसा मनुष्यचन्द्रध्वजो नाम, तमौ लेखं ददाति-पथा सुजातं मेधयामि तं मारबेरिति, प्रेषितः, सुजातं शब्दयित्वा भणति-समारतुरं, तन्त्र राज्यकार्याणि प्रेक्षस, गतः तो नगरीमारक्षुरी नाम, दयः **-964-5542 * ~ 1422 ~ Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) RHI आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] | 'अच्छा वीसत्थो मारिजिहितित्ति दिणे २ एगा अभिरमंति, तस्स रूवं सील समुदायारं दणं चिंतेइ-नवरं अंतेउरियाहिं | समं विणडोत्ति तेण मारिजइ, किह वा एरिसं रूवं विणासेमित्ति उस्सारित्ता सर्व परिकहेइ, लेहं च दरिसेइ, तेण सुजाएण भण्णइ-जं जाणसि तं करेइ, तेण भणियं-तुम न मारेमित्ति, नवरं पच्छण्णं अच्छाहि, तेण चंदजसा भगिणी दिण्णा, |सा य तज्जाइणी तीए सह अच्छइ, परिभोगदोसेण तं वदृइ सुजायस्स ईसि संकेत, सावि तेण साविया कया, चिंतेइ-मम कएण एसो विणहोत्ति संवेगमावण्णा भत्तं पञ्चक्खाइ, तेणं चेव निजामिया, देवो जाओ, ओहिं पउंजइ, दङ्गागओ, वंदिता भणइ-किं करेमि!, सोवि संवेगमावण्णो चिंतेइ-जहा अम्मापियरो पेच्छिज्जामि तो पधयामि, तेण देवेण सिला विउबिया नगरस्सुवरिं, नागरा राया य धूवपडिग्गहहत्था पायवडिया विण्णवेंति, देवो तासेइ-हा! दासत्ति सुजाओ समणोवासओ अमच्चेण अकजे दूसिओ, अज भे चूरेमि, तो नवरि मुयामि जइ तं आणेह पसादेह णं, कहिं !, सो भणइ-एस ४प्रतिकमणाव्य. योगस० १७ संवेगे वारत्रकर्षि कथा ॥७१०॥ 13 दीप अनुक्रम [२६] - तिष्ठतु विश्वस्तो मार्यते इति दिने २ एकस्यौ अभिरमेते, तस्य रूपं शीलं समुदाचारं दृष्टा चिन्तयति-नबरमन्तःपुरिकाभिः समं बिना इति तेन मायंते, कथं वेशं रूपं विनाशयामीति !, बत्सार्य सर्व परिकथयति, लेखं च दर्शयति, तेन सुजातेन भण्यते-बजानासि तत् कुरू, तेन भनितं-स्वां न मार. यामीति, नवरं प्राछवं विष्ट, तेन चन्द्रया भगिनी दत्ता, सा च वजातीषा (स्वग्दोषदुष्टा) तया सह तिष्ठति, परिभोगदोषण तत् वर्चते सुजात स्पेषत् संक्रान्तं, साऽपि तेन श्राविकीकृता, चिन्तयति मम कृतेष विनष्ट इति संवेगमापना भकं प्रस्थाख्याति, तेनैव नियामिता, देबो जातः, अबधि प्रयुणकि, दृष्ट्वा पागतः, वन्दित्वा भणति- करोमि !, सोऽपि संवेगमापनश्चिन्तयति-यथा मातापितरौ प्रेक्षेयं तदा प्रमजेयं, तेन देवेन शिला विकृर्षिता नगरस्योपरि, नागरा राजा च धूपप्रतिग्रहहस्ताः पादपतिता विज्ञपयन्ति, देवनासयति-हा दासा इति, सुजातः श्रमणोपासकोऽमास्येनाकार्ये दूषितः, भय भवनबूस्वामि, लिहिं पर मुश्वामि यदि तमानयत प्रसादयतेनं, क', स भणति-एच. | ॥७१०॥ ~1423~ Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] उजाणे, सणायरो राया निग्गओ खामिओ, अम्मापियरो रायाणच आपुच्छित्ता पबइओ, अम्मापियरोवि अणुपपइयाणि, ताणि सिद्धाणि, सोऽवि धम्मघोसो निविसओ आणत्तो जेणं तस्स गुणा लोए पयरंति, यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथाऽऽर्जवम् । यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः॥१॥ अथवा-विषमसमैविषमसमाः, विषमैर्विपमाः समैः समाचाराः । करचरणकर्णनासिकदन्तोष्ठनिरीक्षणैः पुरुषाः॥२॥ पच्छा सो य नियमावण्णो सच्चं मए भोगलोभेण विणासिभोत्ति निग्गओ, हिंडतो रायगिहे णयरे थेराणं अंतिए पवइओ, विहरंतो बहुस्सुओ वारत्तपुरं गओ, तत्थ अभ-1 यसेणो राया, वारत्तो अमच्चो, भिक्खं हिंडतो वरत्तगस्स घरं गओ धम्मघोसो, तत्थ महुघयसंजुत्तं पायसथालं नीणीयं, तओ विंदू पडिओ, सो पारिसाडित्ति निच्छइ, वारत्तओ ओलोयणगओ पेच्छइ, किं मन्ने नेच्छद, एवं चिंतेइ जाव (ताव ) तत्थ मच्छिया उलीणा, ताओ घरकोइलिया पेच्छा, तंपि सरडो, सरडंपि मज्जारो, तंपि पचंतियसुणओ, तंपि वत्थवगसुणओ, ते दोवि भंडणं लग्गा, सुणयसामी उपठिया, भंडणं जायं, मारामारी, बाहिं निग्गया पाहुणगा वलं| उद्याने, सनागरो राजा निर्गतः क्षामितः, मातापितरौ राजानं चापपछ्य प्राजिलः, मातापितरावपि अनुषवजिती,ते सिद्धाः । सोऽपि धर्मघोषो निर्विषय आज्ञप्तो येन तस्य गुणा लोके प्रचरन्ति, पश्चात् स च निर्वेदमापनः सत्यं मया भोगलोभेन विनाशित इति निर्गतः, हिन्धमानो राजगृहे नगरे स्थविराणामन्तिके प्रनजितः, विहरन् बहुश्रुतो वारकपुरं गतः, तत्रामयसेगो राजा, वारत्रकोऽमात्यः, भिक्षा हिण्डमानो वास्त्रकख गई गतो धर्मयोषा, तत्र पूनमधु संयुक्त पायसवालभानीस, ततो विन्दुः पतिता, स परिशारिरिवि नेच्छति, पारतकोश्यलोकनगतः पश्यति, किं मन्ये नेपछति, एवं बावचिन्तयति तावत्र मक्षिक भागवाः ततो (ता.) गृहकोकिला तामपि सरटः सरटमपि मार्जारः तमपि प्रन्तिका तमपि वास्तव्यः था, तौ द्वावपि भन्दयितुं कमी, वखा मिना पस्थिती, युवं जातं, दण्डादण्ड्यादि, बहिनिमंताः मापूर्णकाः बलं दीप अनुक्रम [२६] ~1424 ~ Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-18'पिंडेसा आगया, महासमरसंघाओ जाऔ, पच्छा वारत्तगो चिंतेइ-एएण कारणेण भगवं नेच्छइत्ति, सोहर्ण अग्झवसाणं| ४प्रतिकहारिभ- उवगओ, जाई संभरिया, संबुद्धो, देवयाए भंडगं उवणीयं, सो वारत्तरिसी विहरंतो सुसुमारपुरं गओ, तत्थ धुंधुमारोमणाध्य० द्रीया राया, तस्स अंगारवई धूया, साविया, तत्थ परिवायगा उवागया, वाए पराजिया, पदोसमावन्ना से सावत्तए पाडेमित्ति योगर्स० चित्तं फलए लिहिता उजेणीए पज्जोयस्स दंसेइ, पज्जोएण पुच्छियं, कहियं चणाए, पज्जोओ तस्स दूर्य पेसइ, सो धुंधुमा७१२॥ १७ संवेगे रेण असफारिओ निच्छूढो, भणइ पिवासाए-विणएणं वरिजइ, दूएण पडियागएण बहुतरगं पज्जोयस्स कहिये, आसु वारत्रकर्षि कथा रुत्तो, सबबलेणं निग्गओ, सुसुमारपुरं वेदेइ, धुंधुमारो अंतो अच्छद, सोय वारत्तगरिसी एगस्थ नागघरे चचरमूले ठिएलगो, सो राया भीओ एस महाबलवगोत्ति, नेमित्तगं पुच्छइ, सो भणइ-जाह-जाप नेमित्तं गेण्हामि, चेडगरूवाणि रमति ताणि भेसावियाणि, तस्स वारत्तगस्स मूल आगयाणि रोवंताणि, ताणि भणियाणि-मा बीहेहित्ति, सो आगंतूण भणइ-मा [सू.] दीप अनुक्रम [२६] पिण्डविया भागताः, महासमरसंघातो जातः, पश्चाद्वारप्रकश्चिन्तयति-एतेन कारणेन भगवानेषीदिति, शोभनमध्यवसानमुपगता, जातिः स्मृता, संबुद्धः, देवतयोपकरणमुपनीतं, सवारत्रकारषिविद्यारन् शिशुमारपुरं गतः, तत्र धुन्धुमारो राजा, तस्याकारवती दुनिता, भाविका, तन्न परिवाजिका भागता. वादे (नया) पराजिता, तस्याः प्रद्वेषमापना सापश्ये पातयामीति चित्रं फलके लिखित्वोजयिन्यां प्रद्योताव दर्शयति, प्रयोतेन पृष्ट, कथितं चानया, प्रयोतसमी पूर्व प्रेषयति, स शुन्धुमारेणासकृतो निष्काशितः, भणितः विपासपा-विनयेन जियते, तेन प्रत्यागतेन हुतरं प्रयोतख कपितं, कुदः, सर्ववढेन C निर्गतः, शिशुमारपुरं वेष्टयति, धुन्धुमारोऽम्तः तिष्ठति, सच वारत्रकर्षिरेका चत्वरमूले स्थितोऽस्ति, स राजा भीत एष महावस इति, नेमितिकं पृच्छति. स भणति-यात वावनिमित्तं गृहामि, पेटा रमन्ते ते भापितास्तस्य वारसकस पार्थमागता रुवन्तः, ते भणिता-मा भैप्टेति, सभागस्य भणति-मा ७११॥ CCCC ~1425~ Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०३] भाष्यं [२०६...], (४०) 5 प्रत सूत्रांक [सू.] ASA % % बीहेहित्ति, तुझं जओ, ताहे मज्झण्हे ओसण्णद्धार्ण उवरि पडिओ, पज्जोओ वेढित्ता गहिओ, णयरिं आणिओ, बाराणि बद्धाणि, पज्जोओ भणिओ-कओमुहो ते वाओ वाइ1, भणइ-जं जाणसि तं करेह, भणइ-किं तुमे महासासणेण वहिएण', ताहे से महाविभूईए अंगारवई पदिष्णा, दाराणि मुक्काणि, तस्थ अच्छइ, अण्णे भर्णति-तेण धुंधुमारेण देवयाए उपवासो कओ, तीए चेडरूवाणि विउबिया णिमित्तं गहियंति, ताहे पजोओ णयरे हिंडइ, पेच्छा अप्पसाहणं रायाणं, अंगारवतिं पुच्छह-कहं अहं गहिओ ?, सा साधुवयणं कहेइ, सो तस्स मूलं गओ, वदामि निमित्तिगखमणंति, सो उवउत्तो जाव पबज्जाउ, चेडरूवाणि संभरियाणि । चंदजसाए सुजायस्स धम्मघोसस्स वारत्तगस्स सबेर्सि संवेगेणं जोगा संगहिया भवंति, केई तु सुस्वरं जाव मियावई पवइया परंपरओ एयंपि कहेइ १७ । संवेगत्ति गर्य, हयाणि पणिहित्ति, पणिही नाम माया, सा दुविहा-दवपणिही य भावपणिही य, दबपणिहीए उदाहरणगाहा मनि, तव जया, तदा मध्याहे सन्नदानागुपरि पतितः, प्रयोतो वेष्टवित्वा गृहीतः, नगरीमानीता, द्वाराणि बद्धानि, प्रयोतो भणितः कुतोमुरते वातो वाति, भणति-पजानासि ताकुर, भणति-कित्वमा महाशासनेन विनाशितेन'. सदानीका तन, सदा तो सुन्धुमारेण महाविभूस्थामारवती ता.रालि मलितादि। तत्र तिति, भन्ये भणन्ति-तेन धुन्धुमारेण देवतायै उपवासः कृतः, तया चेदा विकुर्विता निमित्तं गृहीतमिति, तदा प्रद्योतो नगरे हिण्डमानः प्रेक्षते राजानमपसाधन, भङ्गारवती पृच्छति-अहं कथं गृहीतः, सा साधुवचनं कथयति, स. तस्य पागतः, वन्दे नैमित्तिकक्षपणकमिति, स उपयुको पावत् प्रवज्या चेटाः स्मृताः । चन्द्रयशसः सुजाता धर्मघोषस्य वारत्रकस्य सर्वेषां संवेगेन योगा: संगृहीता भवन्ति, केचितु सुरवरं यावत् मृगापतिः प्रनजिता (एषः) परम्परकः एनमपि कथयन्ति । संवेग इति गतं, इदानीं प्रणिधिरिति, प्रणिधिर्माया, साहिविधा-वन्यप्रणिधिन भाषमणिधिव, यमणिधाउदाहरणगाथा - दीप अनुक्रम [२६] ~ 1426~ Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०४] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रतिक मणाध्य योगसं० प्रत सूत्रांक ॥७१२॥ भरुयच्छे जिणदेवो भयंतमिच्छे कुलाण भिक्खू या पठाण सालवाहण गुग्गुल भगवं च णहवाणे ॥१३०४॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-भरुयच्छे णयरे नहवाहणो राया कोससमिद्धो, इओ य पइड्डाणे सालवाहणो राया | चलसमिद्धो, सो नहवाणं रोहेइ, सो कोससमिद्धो जो हत्थं वा सीसं वा आणेइ तस्स सयसहस्सगं वित्तं देइ, ताहे तेण नहवाहणमणूसा दिवे २ मारंति, सालवाहणमणुस्साधि केवि मारित्ता आणेति, सो तेसिं न किंचि देइ, सो खीण जणो |पडिजाइ, नासित्ता पुणोवि वितियवरिसे पद, तत्थवि तहेव नासइ, एवं कालो बच्चा, अण्णया अमबो भणइ-ममं अव-1 राहेत्ता निविसयं आणवेह माणुसगांणि य बंधाहि, तेण तहेव कयं, सोवि निग्गंतूण गुग्गुलभारं गहाय भरुयच्छमागओ, एगस्थ देवउले अच्छइ,.सामंतरजेसु फुहूं-सालवाहणेणं अमच्चो निच्छूढो, भरुयच्छे णाओ, केणति पुच्छिओ को सोत्ति, |भणइ-गुग्गुलभग नाम अहंति, जेहिंणाओ ताण कहेइ जेण बिहाणेण निच्छूढो, अहा लहु से गणत्ति, पच्छा नहवाहणेण जिनदेवो [सू.] दीप अनुक्रम [२६] NACANCCOUSTOCK 5-25%2582-% भूगुकच्छे नगरे नभोवाहनो राजा कोषासमब, इतथा प्रतिष्ठाने शालवाहनो राजा बकसमखः, सनभोवाहनं रुणदि, स कोशसमको यो या | शीर्ष वाऽऽमपति तमे वातसहस्सहयं ददाति, तदा तेन नभोवाहनमनुष्या दिवसे २ मास्यन्ति, पालवाहनमनुष्या अपि कश्चिनापि मारयित्वाऽऽनयन्ति, स| [तेभ्यः किचिदपि न ददाति, स क्षीणजनः प्रतियाति, नंदा पुनरपि द्वितीयवर्षे मायाति, तत्रापि सच नश्यति, एवं कालो जति, अन्यदाध्मात्यो भणति-12 मामपराध्य निर्विषयमापयत मनुष्यांग बधान, तेन तथैव कृतं, सोऽपि निर्गला गुग्गुकभार गृहीत्वा भूनकरणमागतः, एकत्र देवकुळे तिति, सामन्तराजेषु ||७१२॥ वितं-शामवाहनेनामावो निष्काशितः, भृगुको ज्ञातः, केनचित् पृष्टः, कास इति, भणति-गुग्गुलभगवान् नामाहमिति, पैशावतान् कथयति येन विधिना निष्काशितः, यथा By (अपराध) ते गणयन्ति, पनासभोवादनेन ~1427~ Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३०४] भाष्यं [ २०६..... सुर्य, मणुस्सा विसज्जिया नेच्छइ कुमारामञ्चत्तणस्स गंधपि सोडं, सो य राया सयं आगओ, टविओ अमथो, वीसंभं जाणिऊण भणड़-पुण्णेण रज्जं लब्भइ, पुणोवि अण्णस्स जम्मस्स पत्थयणं करेहि, ताहे देवकुलाणि धूभत लागवावीण खणावणादिएहिं दवं खइयं, सालवाहणो आवाहिओ, पुणोवि ताविज्जर, अमचं भणइ-तुमं पंडिओत्ति, सो भणइघडामि अंतेउरियाण आभरणेणंति, पुणो गओ पट्टाणंति, पच्छा पुणो संतेरिओ णिबाहेइ, तम्मि णिहिए सालवाहणो आवाहिओ, नत्थि दायवं, सो विणडो, नहं नयरंपि गहियं, एसा दबपणिही भावपणिहीए उदाहरणं- भरुयच्छे जिणदेवो नाम आयरिओ, भदंतमित्तो कुणालो य तच्चण्णिया दोवि भायरो वाई, तेहिं पडओ निकालिओ, जिणदेवो चेइयवंदगो गओ सुणेइ, वारिओ, राउळे वादो जाओ, पराजिया दोवि, पच्छा ते विचिंते विणा एएसिं सिद्धंतेण न तीरह एएसिं उत्तरं दार्ड, पच्छा माइठाणेण ताण मूले पवइया, विभासा गोविन्दवत्, पच्छा पढताण उवगयं, भावओ पडिवन्ना, १ मनुष्याविष्टा नेच्छति कुमारामाखगन्धमपि श्रोतुं स च राजा स्वयमागतः स्थापितोऽमाखः, विश्रम्भं ज्ञात्वा भणति पुण्येन राज्यं लभ्यते, पुनरप्यन्यस्य जन्मनः पम्पदनं कुरु तदा देवकुलानि स्तूपतटाकवापीनां खाननादिभिः सवै द्रव्यं खादितं शाकवाहन बाहूतः पुनरपि ताप्यते, अमात्यं भणति एवं पण्डितोऽसि स भगति घटयाम्यन्तः पुरिकाणामाभरणानि, पुनर्गतः प्रतिष्ठानमिति पश्चात् पुनः सान्तःपुरिको निर्वाहयति तस्मिन्निद्विवे शाळवादन] आहूतः नास्ति दातव्यं स विनष्टः महं नगरमपि गृहीतं पुषा इवप्रणिधिः । भावप्रणिधावुदाहरणं भृगुकच्छे जिनदेवो नामाचार्यः, भद न्तमित्रः कुणातचनिको द्वावपि भ्रातरौ वादिनौ, ताभ्यां पटको निष्काशितः, जिनदेवः चैत्यवन्दनार्थं गतः श्रगोति वारितः, राजकुले वादो जातः, परा जिती द्वावपि पश्चात्तौ विचिन्तयतः विनैतेषां सिद्धान्तेन न एतेषामुत्तरं दातुं शक्यते पश्चात् मातृस्यानेन तेषां पार्श्वे प्रवजितो, विभाषा पश्चात् पठतोरपगतं भावतः प्रतिपेशी, २ सालिवाइणो खदिमोति ~ 1428 ~ Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०४] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यकता साद जाया, एसा भावपणिहिसि । पणिहित्ति गर्य १८।जहा इयाणि सुविहित्ति, सुविहीए जोगा संगहिया, विधिरनुज्ञादा प्रतिक हारिभ- विधी जस्स इहा, शोभनो विधिः सुविधिः, तत्रोदाहरणं जहा सामाइयनिनुत्तीए अणुकपाए अक्खाणर्ग मणाध्यक द्रीया बारवई वेयरणी धन्वंतरि भविय अभविए विजे । कहणा य पुच्छियमिय गइनिइसे य संयोही॥१३०५॥ योगसं० ॥७१शा सो वानरजूहबई कतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरबोंदिधरो देवो माणिओ जाओ (८४७) ॥१३०६॥ १९सुविधी जाव साहू साहरिओ साहूण समीवं । सुविहित्ति गयं १९ । इयाणि संवरेत्ति, संवरेण जोगा संगहिति, तस्थ वैतरणी क धा२०संवपडिवक्खेणं उदाहरणगाहा रेनन्दश्री वाणारसी य कोढे पासे गोवालभइसेणे य । नंदसिरी पउमसिरी रायगिहे सेणिए वीरो ॥ १३०७॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-रायगिहे सेणिएण बदमाणसामी पुच्छिओ, एगा देवी णट्टविहिं उवदसेत्ता गया है का एसा, सामी भणइ-वाणारसीए भदसेणो जुन्नसेट्ठी, तस्स भज्जा नंदा, तीए धूया नंदसिरी वरगविवज्जिया, सापू जाती, एषा भावप्रणिधिरिति । प्रणिधिरिति गतं, हवानी सुविधिरिति, सुविभिना योगाः संगृमन्ते, विधिर्यथा यस्पेष्टः, मथा सामायिकनियुको अनुकम्पावामाख्यान-धारवती वैतरणिः धन्वन्तरिभवोऽमण्यन वैयौ । कमर्म र पृष्टे च गतिनिर्देशन संबोधिः ॥ 1 ॥ स वानरयूथपतिः ॥७१शा कान्तारे सुविहितानुकम्पया। भासुरवरबोन्दीधरो देवो वैमानिको जातः ॥ २ ॥ यावत् साधुः संहृतः साधूनां समीपं सुविधिरिति गतं । इदानी संवर इति, संवरेण योगाः संगृह्यन्ते, तत्र प्रतिपक्षेणोदाहरणयाथा । राजगृहे श्रेणिकेन वर्धमानस्वामी प्रष्टः, एका देवी नृत्यविधिमुपदय गता कैषा , स्वामी भणति-वाराणस्या भवसेनो जीर्णश्रेष्ठी, सस्य भार्या नन्दा, तस्या दुहिता नन्दधीरिति, वरविवर्जिता दीप अनुक्रम [२६] ~1429~ Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०७] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक RECE [सू.] दीप अनुक्रम [२६] तस्थ कोहए चेइए पासस्सामी समोसढो, नंदसिरी पवइया, गोवालीए सिस्सिणिया दिण्णा, पुष उग्गेण विहरित्ता |पच्छा ओसन्ना जाया, हत्थे पाए धोवेइ, जहा दोवती विभासा, वारिजंती उढेऊणं विभत्ताए वसहीते ठिया, तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकता चुलहिमवंते पजमदहे सिरी जाया देवगणिया, एतीए संवरो न कओ, पडिवक्खो सो न काययो, अण्णे भणंति-हस्थिणियारूवेण वाउकाएइ, ताहे सेणिएण पुच्छिओ, संवरेत्ति गयं २०। इयार्णि 'अत्तदोसोव|सहारे'त्ति अत्तदोसोवसंहारो कायबो, जइ किंचि कहामि तो दुगुणो बंधो होहिति, तत्थ उदाहरणगाहा बारव अरहमित्ते अणुद्धरी चेव तहय जिणदेवो । रोगस्स य उप्पत्ती पडिसेहो अससंहारो॥१३०८॥ ___व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं-बारवतीए अरहमित्तो सेट्ठी, अणुद्धरी भजा, सावयाणि, जिणदेवो पुत्तो, तस्स रोगा उप्पण्णा, न तीर तिर्गिच्छिउँ, वेजो भणइ-मसं खाहि, नेच्छा, सयणपरियणो अम्मापियरो य पुत्तणेहेणाणुजा-1 ति, निबंधेवि कह सुचिरं रक्खियं वयं भंजामि, उक्तं च-"वरं प्रवेष्टुं ज्वलित हुताशन, न चापि भग्नं चिरसञ्चितं व्रतम्" तत्र कोरके चैये पास्वामी समरमत्तः, नन्दश्रीः प्रबजिता, गोपाक्यै शिष्या पता, पूर्वमुमेण विहत्य पदिवसना जाता, इसी पादौ प्रक्षाक्षपति, यथा द्रौपदी विभाषा, वार्यमाणोत्थाय विभक्तायां वसतौ खिता, तस स्थानस्थानालोचितप्रतिक्रान्ता शुलकहिमवति पदे श्रीजोता देवगणिका, पतषा संवरो न कृतः, प्रतिपक्षासन कर्तव्यः, अन्ये भणन्ति-दस्तिनीरूपेण बातमुनिरति, (रावान् करोति), तदा श्रेणिकेन पृष्ठः, संवर इति गतं, इदानीमात्मदोषोपसंहारेति भारमदोषोपसंहारः कर्तव्यः, यदि किमित् करिष्यामि तहि द्विगुणो बन्धो भविष्यतीति, सनोदाहरणगाथा-द्वारवस्या भई मित्रः श्रेष्ठी, मनुवरी, भायों, भावकी, जिनदेवः पुत्रः, तख रोगा अपमान पाक्यन्ते चिकित्सितुं, वैयो भणति-मांस खादय, मेछाति, खजनपरिजनो मातापितरौ च पुत्रसोईनानुजानन्ति, निम्धेऽपि कथं सुचिरं रक्षितं प्रतं भनज्मि, REA%E5% %Ekat ~1430~ Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ལླཡྻཱཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक हारिभद्वीया ॥७१४ ॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३०८] भष्यं [ २०६..... अत्तदोसोवसंहारो कभ, मरामित्ति सर्व सावज्जं पञ्चक्खार्थ, कवि कम्मक्खओवसमेणं पउणो, तहावि पश्चक्खायं चेव, पधज्जं कयाइओ, सुहज्झवसाणस्स णाणमुप्पण्णं जाव सिद्धो । अत्तदोसोव संहारोत्ति गयं, २१ । इयाणिं सबकामविरत्तयत्ति, सबकामेसु विरंचिय, तत्रोदाहरणगाथा - उज्जेणिदेवलासुय अणुरता लोषणा य पउमरहो। संगयओ मणुमइया असियगिरी अद्धसंकासा ॥। १३०९ ॥ व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेदं—उज्जेणीए नयरीए देवलासुओ राया, तस्स भज्जा अणुरत्ता लोयणा नाम, अन्नया सो राया सेज्जाए अच्छ, देवी वाले बीयरेइ, पलियं दिडं, भणइ-भट्टारगा ! दूओ आगओ, सो ससंभमं भयहरिसाइओ उडिओ, कहिं सो ?, पच्छा सा भणइ धम्मदूओत्ति, सणियं अंगुलीए वेढित्ता उक्खयं, सोवण्णे थाले खोमजुयलेण वेढित्ता णयरे हिंडाविओ, पच्छा अधितिं करेइ-अजाए पलिए अम्ह पुषया पवयंति, अहं पुण न पवइओ, पउमरहं रज्जे ठवेऊण पवइओ, देवीवि, संगओ दासो मणुमइया दासी ताणिवि अणुरागेण पवइयाणि, सबाणिवि असियगिरितावसासमं तत्थ आमदोषोपसंहारः कृतः, त्रिय इति सर्वं साधं प्रत्याख्यातं कथमपि कर्मक्षयोपशमेन प्रगुणः तथापि प्रत्याख्यातमेव प्रवज्यां कृतवान् शुभाय वसायस्य ज्ञानमुत्पन्नं यावत् सिद्धः आत्मदोषोपसंहार इति गतं इदानीं सर्वकामविश्कतेति, सर्वकामेषु विरक्तन्यं । उज्जयिन्यां नगर्यो देवखासुतो राजा तस्य भार्याऽनुरक्ता छोचना नानी, अन्यदा स राजा शय्यायां तिष्ठति देवी वाला वीणयति ( शोधयति ), देव्या वाले पछितं दएं, भणति भट्टारक ! दूत आगतः, स ससंभ्रमं भयहर्षवान् उत्थितः क सः १, पश्चात् सा भणति-धर्मदूत इति, शनैरकुल्या ष्टथिवोच्खा, सौवर्णे स्थाले श्रीमयुगलेन वेष्टविश्वा नगरे दिण्डितः पचादपतिं करोति-जाते पलितेऽसाकं पूर्वजाः प्रानजिषुः भई पुन प्रवजितः पचरथं राज्ये स्थापयित्वा प्रवजितः, देव्यपि, संगतो दासो मनुमतिका दासी तावप्यनुरागेण प्रमजिती, सर्वेऽप्यसित गिरिता साश्रमस्तत्र ~ 1431 ~ ४ प्रतिक्रमणाध्य० योगसं० २१ आत्मदो पोप जिनदेबो० २२सर्व काम० ॥७१४ ॥ Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३०९] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक गयाणि, संगयओ मणुमतिगा य केणइ कालंतरेण उप्पबइयाणि, देवीएवि गब्भो नक्खाओ पुर्व रण्णो, वहिउमारद्धो, राया अधिति पगओ-अयसो जाओत्ति अहं, तावसओ पच्छन्नं सारवेइ, सुकुमाला देवी वियायंती मया, तीए दारिया जाया, सा अन्नाणं तावसीणं धणयं पियइ, संवडिया, ताहे से अद्धसंकासत्ति नाम कयं, सा जोषणस्था जाया, सा पियरं | अडवीओ आगयं विस्सामेइ, सो तीए जोवणे अज्झोववन्नो, अजं हिजो लएमित्ति अच्छइ, अण्णया पहाविभो गिहामित्ति उडगकडे आवडिओ, पडिओ चिंतेइ-धिद्धी इहलोए फलं परलोए न नज्जइ कि होतित्ति संबुद्धो, ओहिनाणं, भगइभवियब भो खलु सबकामविरतेणं अज्झयणं भासइ, धूया विरत्तेण संजतीण दिण्णा, सोवि सिद्धो । एवं सबकामविरजिएण जोगा संगहिया भवति । सबकामविरत्तयत्ति गयं २२, इयाणि पच्चक्खाणित्ति, पच्चक्खाणं च दुविह-मूलगुणपञ्चक्खाणं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं च, मूलगुणपञ्चक्खाणे उदाहरणगाहा [सू.] दीप अनुक्रम [२६] CE- OF गताः, संगतो मनुमतिका च केनचिकालान्तरेणोप्रवजिती, देव्याऽपि गों नासपातः पूर्व राशः, वर्षितुमारब्धः, राजाऽपति प्रगतः अयशा जातोऽई तापसात् प्रच्छवं संरक्षति, सुकुमाला देवी प्रजनवन्ती हता, तथा दारिका जाता, साऽन्यास तापसीनो सनं पिथति, संवर्धिता, तदा तथा अर्थसंकाशेति नाम कृतं, सा यौवनस्या जाता, सा पितरमटवीत आगतं विनमयति, स तथा यौवनेऽभयुपपन्ना, अव श्वो लास्वामीति तिष्ठति, सम्पदा प्रभावितो गृहामीति उटजकाठे | भापतितः, पतितचिन्तयति-विग् विग इहलोके फलं परलोके न ज्ञायते किं भविष्यतीति संवृदः, अवधिज्ञान, भणति-भवितम्ब भोः खलु सर्वकाम वि रतन अध्ययन भाषते, दुहिता विरकेन संयतीम्यो दचा, सोऽपि सिवः । एवं सर्वकामविरकेन योगा: संगृहीता भवन्ति । सर्वकामविरकतेति गर्स, सादानी प्रस्थाण्यानमिति, प्रत्याख्यानं च द्विविध-मूलगुणप्रत्याख्यानमुखरगुणप्रत्याख्यानं च मूलगुणप्रपाण्याने उदाहरणगाथा ~14324 Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१०] भाष्यं [२०६...], (४०) आवश्यकहारिभ दीया प्रत सूत्रांक ॥७१५| कोडीवरिसचिलाए जिणदेवे रयणपुच्छ कहणा य । साएए सत्तुंजे वीरकहणा य संवोही ॥१३१०॥ प्रति मणाध्य व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-साएए सर्नुजए राया, जिणदेवो सावगो, सो दिसाजत्ताए गओ कोडीवरिसं, ते मिच्छा, तत्थ चिलाओ राया, तेण तस्स रयणाणि अण्णागारे पोत्ताणि मणी य जाणि तत्थ नस्थि ताणि ढोइयाणि, सो| प्रत्याचिलाओ पुच्छइ-अहो रयणाणि रूवियाणि, कहिं एयाणि रयणाणि?, साहइ-अम्ह रजे, चिंतेइ-जइ नाम संबुझेजा, ख्यानं सो राया भणइ-अहंपि जामि रयणाणि पेच्छामि, तुझं तणगस्स रण्णो बीहेमि, जिणदेवो भणइ-मा बीहेहि, ताहे तस्स रणो लेह पेसेइ, तेण भणिओ-एउत्ति, आणिओ सावगेण, सामी समोसढो, सेर्नुजओ निग्गओ सपरिवारो महया इडीए, सयणसमूहो निग्गओ, चिलाओ पुच्छइ-जिणदेवो! कहिं जणो जाइ !, सो भणइ-एस सो रयणवाणियओ, भणह-तो।। जामो पेच्छामोत्ति, दोवि जणा निग्गया, पेच्छति सामिस्स छत्ताइछत्तं सीहासणं, विभासा, पुच्छइ-कह रयणाई, ताहे| 4 % दीप अनुक्रम [२६] ७१५॥ साकेते पात्रुजयो राजा, जिमदेवः श्रावका, सदिग्यात्रया गतः कोटीवर्ष, ते म्लेच्छाः, सचिलातो राजा, तेन तमै रत्नानि विचित्राकाराणि वनागि मणवा यानि तन न सन्ति तानि बौकितानि, सचिलातः पृच्छति-अहो रनानि शुरूपाणि, कैतानि खानि !, कथयति-अस्माकं राग्य, चिन्तयति-पदि नाम संयुध्येत, स राजा भणति-अहमध्यावामि रखानि प्रेक्षे, परं त्वदीयात् राज्ञो विमेमि, जिनदेवो भणति-मा भैषीः, तदा तस्मै राजे लेखं ददाति, तेन भणितंआयारिवति, नीतः पावकेण, स्वामी समवमृतः, पात्रुजयो निर्गतः सपरीवारो महत्या का, स्वजनसमूहो निर्गतः, जिलातः पृच्छति-जिनदेव ! जनो याति , स भणति-पप रणवणिक सा, भणति-साह वावः प्रेक्षावहे, हावपि जनी निर्गती, प्रेक्षेते-खामिनभवातिच्छवं सिंहासनं, विभापा, पृच्छति-कथं। खानि', तदा ~14334 Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१०] भाष्यं [२०६...], (४०) प्रत सूत्रांक सामी भावरयणाणि दबरयणाणि य पण्णवेइ, चिलाओ भणइ-मम भावरयणाणि देहित्ति भणिओ रयहरणगोच्छगाइ तसाहिति, पबइओ, एयं मूलगुणपच्चक्खाणं, इयाणिं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं, तत्रोदाहरणगाहा चाणारसी य णयरी अणगारे धम्मघोस धम्मजसे । मासस्स य पारणए गोउलगंगा व अणुकंपा ।। १३११॥ | व्याख्या कथानकादवसेया, तच्चेद-वाणारसीए दुवे अणगारा वासावासं ठिया-धम्मघोसो धम्मजसोय, ते मासं खमणेण अच्छति, चउत्थपारणाए मा णियावासो होहितित्ति पढमाए सज्झायं बीयाए अत्थपोरिसी तइयाए उग्गाहेत्ता पहाविया, सारइएणं उण्हेणं अज्झाया तिसाइया गंगं उत्तरंता मणसावि पाणियं न पत्थेति, उत्तिण्णा, गंगादेवया आउद्या, गोउलाणि विउवित्ता सपाणीया गोवग्गा दधिविभासा, ताहे सद्दावेइ-एह साहू भिक्खं गेण्ह, ते उवउत्ता दळूण ताण रूवं, सा तेहिं पडिसिद्धा पहाविया, पच्छा ताए अणुकंपाए वासवद्दल विउधियं, भूमी उला, सियलेण वारण अप्पाइया गार्म [सू.] FACANCY दीप अनुक्रम [२६] स्वामी भावरतानि इन्वरनानि च प्रज्ञापयति, चिलातो भणति-मम भावरखान्यर्पयत इति भणितो रजोहरणगोच्छकादि दर्शयन्ति, प्रत्नजितः, एतत् मूलगुणप्रत्यास्यानं, इदानीमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, तश्रोदाहरणगाथा-वाराणस्यां हावनगारौ वर्षावासं स्थिती-धर्मघोषो धर्मयशाच, तो मासक्षपणमासक्षपणेन | तिष्ठतः, पतुर्थपारणके मा नित्यवासिनी भूचेति प्रथमायां स्वाध्यायं द्वितीयस्थामर्थपौरुषी (कृत्वा) तृतीयस्पामुद्राम प्रधाविती, शारदिकेनौप्य येनाभ्याता तृषादितौ गङ्गामुत्तरन्तौ मनसाऽपि पानीयं न प्रार्थयतः, उत्तीणी, गङ्गादेवताऽऽवर्जिता, गोकुलानि निकुयं सपानीयान् गोवर्यान् दधि विभाषा, तदा शब्दयति-आयातं साधू ! भिक्षा गृहीतं, ताजुपयुक्तौ दृष्ट्वा तेषां रूप, सा ताभ्यां प्रतिपिछा प्रधाविता, पश्चात् तयाऽनुकम्पया वर्षददलकं विकुर्वित, भूमिराह (जाता), शीतलेन वायुनाऽऽप्याषितौ ग्राम ~1434 Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०५], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पत्ता, भिक्खं गहियं, एवं उत्तरगुणा न भग्गा । एयं उत्तरगुणपञ्चक्खाणं २३, पचक्खाणित्ति गयं २३ । इयाणिं विउस्स । हारिभ. ग्गेत्ति, विउस्सग्गो दुविहो-दवओ भावओ य, तत्थ दबविउस्सग्गे करकंडादओ उदाहरणं, तथाऽऽह भाष्यकार: मणाध्य द्रीया करकंट कलिंगेस, पंचालेसु य दुम्मुहो। नमीरापा विदेहेसु, गंधारेसु य णग्गती ॥ २०५॥ (भा०)॥ योगसं० वसभे य इंदके वलए अंबे य पुप्फिए योही। करकंडुदुम्मुहस्सा, नमिस्त गंधाररन्नो य ।। २०६॥ (भा०)॥ २३ प्रत्या॥७१६॥ इमीए वक्खाणं-चंपाए दहिवाहणो राया, चेडगधूया पउमावई देवी, तीसे डोहलो-किहऽहं रायनेवरथेण नेवस्थियाख्यानं २४ उज्जाणकाणणाणि विहरेजा', ओलुग्गा, रायापुच्छा, ताहे राया य सा य देवी जयहस्थिमि, राया छत्तं घरेइ, गया|व्युत्सर्गे कउज्जाणं, पदमपाउसो य वट्टइ, सो हत्थी सीयलपण मट्टियागंण अन्भाहओ वर्ण संभरिऊण वियट्टो वणाभिमुहो पयाओ. रकझाया। जणो न तरइ ओलग्गिउं, दोवि अडविं पवेसियाणि, राया वडरुक्खं पासिऊण देवि भणइ-एयस्स वडस्स हेतुण जाहिति तो है तुमं सालं गेण्हिज्जासित्ति, सुसंजुत्ता अच्छ, तहत्ति पडिसुणेइ, राया दच्छो तेण साला गहिया, इदरी हिया, सो उइण्णो, प्राप्ती, मै गृहीतं, एवमुत्तरगुणा न भन्ना, एतदुत्तरगुणप्रत्याल्पानं । प्रत्याख्यानमिति गतं, इदानी व्युत्सर्ग इति, म्युल्सो द्विविधः-द्रव्यतो GIभावतक, सत्र न्यायुत्सर्ग करकण्डादय उदाहरणं, तबाह-अनयोख्यिान-चम्पायां दधिचाहनो राजा, चेटकहिता पद्मावती देवी, तसा दीड-कपमा रामनेपथ्येन नेपश्यितोयानकाननानि विहरेयं, क्षीणा, राजपृच्छा, तदा राजा सा च देवी जयहस्लिनि, राजा छत्रं धारयति, गतोधानं, प्रथमप्राब्द च वर्तते, दास हस्ती कीतलेन मृतिकागम्धेनाभ्याहतो वन स्मृत्वा मत्तो वनाभिमुखं प्रयातः, जनो न शकल्यपलगित, द्वावपि अटवीं प्रवेशिती, राजा वटवृक्ष पर देवी भणत्ति-एतस्य वटस्थापनात यास्यति ततस्वं शाळा गृतीया इति, सुसंयुक्ता तिष्ठ, तथेति प्रति ऋणोति, राजा दक्षसेन शाला गृहीता, इतरा बता ॥७१६॥ सोऽवतीर्णः, दीप अनुक्रम [२६] 45454%95% | मूल संपादने मुद्रणदोष संभवात् अत्र भाष्य क्रम २०५ एवं २०६ द्विवारान् मुद्रितं ~14354 Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१९...] भाष्यं [२०६], (४०) * *- प्रत सूत्रांक निराणंदो गओ चंपं णयरिं, सावि इथिगा नीया णिम्माणुस अडविं जाव तिसाइओ पेच्छइ दहं महइमहालयं, तस्थ उइण्णो, अभिरमइ हत्थी, इमावि सणिइमोइत्ता उत्तिष्णा, दहाओ दिसा अयाणंती एगाए दिसाए सागार भत्तं पच्चक्खाइत्ता पहाविया, जाव दूरं पत्ता ताव तावसो दिडो, तस्स मूलं गया, अभिवादिओ, तत्थ गच्छद, तेण पुच्छियाकओ अम्मो! इहागया ,ताहे कहेइ सन्भावं, चेडगस्स धूया, जाब हस्थिणा आणिया, सो य तावसो चेडगस्स नियलओतेण आसासिया-माबीहिहित्ति, ताहे वणफलाई देइ, अच्छावेचा कइवि दियहे अडवीए निष्फेडित्ता एत्तोहिंतो अम्हाणं अगइविसओ, एत्तो बरं हलवाहिया भूमी, तं न कप्पइ मम अतिक्कमिङ, जाहि एस दंतपुरस्स विसओ, दंतचको राया, निग्गया तओ अडवीओ, दंतपुरे अजाण मूले पवइया, पुच्छियाए गम्भो नाइक्खिओ, पच्छा नाए मयहारियाए आलोदावेद, सा वियाता समाणी सह णाममुद्दियाए कंबलरयणेण य वेढि सुसाणे उज्झेइ, पच्छा मसाणपालो पाणो, तेण गहिओ, [सू.] +-** दीप अनुक्रम [२६] 4 1-3 निरानन्दो गतलम्पो नगरी, साऽपि स्त्री नीता निर्मानुपामटवी यावषादितः प्रेक्षते दूर्द महातिमहालयं, तत्रावतीर्णः, अभिरमते हस्सी, इयमपि शनैर्षिमुच्योत्तीणा, दश दिशोऽजानन्ती एकस्यो दिशि साकार भक्त प्रत्याख्याय प्रधाविता, यावरं गता तावतापसो दृष्टः, तस्य मूलं गता, अभिवादितः, तत्र ग छति, तेन पृष्टा-कृतोय! दागता, तदा कथयति सजावं, चेटकस्य दुहिता, बावस्तिनाऽऽनीता, सप तापसटकस्य निजका, तेनास्वसिता-मा भैषीरिति तदा वनफलानि ददाति, स्थापयित्वा कतिचिदिवसान अध्वीतो निष्काश्येतोऽस्माकमविषयो गतेः अतः परं हलकृष्टा भूमिः, तत् न कल्पतेऽस्माकमतिकान्तुं याहि दन्तपुरख विषय एषः, दन्तवा रामा, निर्गता ततोऽटम्याः, दन्तपुरे आर्याणां मूले प्रनजिता, पृष्टया गों नाल्याता, जाते पश्चान्महतरिकाया आलो. यति, सा अजनयन्ती सन्ती सह नाममुदया रजकम्बलेन च बेष्टयित्वा श्मशाने उशति, पश्चात् श्मशानपालः पाणसेन गृहीतः, | मूल संपादने मुद्रणदोष संभवात् अत्र भाष्य क्रम २०५ एवं २०६ द्विवारान् मुद्रितं ~14364 Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], (४०) द्रीया | प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- तेण अप्पणो भजाए समपिओ, सा अजा तीए पाणीए सह मेत्तियं घडेइ, साय अजा संजतीहिं पुच्छिया-किं गम्भो?, प्रतिकहारिभ-1 भणइ-मयगो जाओ, तो मए उज्झिओत्ति, सोवि संवडइ, ताहे दारगेहिं समं रमतो डिंभाणि भणइ-अहं तुभं राया। मम तुम्भे कर देह, सो सुक्ककच्छूए गहिए, ताणि भणइ-ममं कंडुयह, ताहे करकंडुत्ति नामं कयं, सो य तीए संजतीए योगसं० अणुरत्तो, सा से मोदगे देइ, जं वा भिक्ख लहइ, संवडिओ मसाणं रक्खइ, तत्थ य दो संजया केणइ कारणेण तं मसाणं २४व्युत्सर्गे ७१७॥ IN करकट्ठाद्या गया, जाव एगस्थ वंसीकुडंगे दंडगं पेच्छंति, तत्थेगो दंडलक्षणं जाणइ, सो भणइ-जो एवं दंडगं गेण्हइ सो राया हवई,X किंतु पडिच्छियबो जाव अण्णाणि चत्तारि अंगुलाणि वडइ, ताहे जोगोत्ति, तेण मायंगेण एगेण य धिज्जाइएण सुर्य, ताहे | सो मरुगो अप्पसागारिए तं चउरंगुलं खणिऊण छिदइ, तेण य चेडेण दिहो, उद्दालिओ, सो तेण मरुएण करणं णीओ, भणइ-देहि मे दंडगे, सो भणइ-न देमि, मम मसाणे, पिज्जाइओ भणइ-अण्णं गिण्ह, सो नेच्छइ, मम एएण कर्ज, सोर नात्मनो भार्यायै समर्पितः, सा भार्थी तथा पापया सह मैत्री घटषति, सा चायाँ संयतीभिः पृष्टा-क गर्भ, भणति-पतको जातस्ततो मयो-18 | शित इति, सोऽपि संवर्धते, तदा दारकैः समं रममाणो डिम्भान् भणति-अई भवतो राजा मा यूयं कर दत्त, स शुष्ककण्डा गृहीतः, तान् मणति-मां कण्डू| यत, तदा करकडूरिति नाम कृतं, स च तस्यां संपल्यां अनुरकः, सा तमै मोदकान् ददाति, यांचा भिक्षा लभते, संतृतः श्मशानं रक्षति, तत्र च ही साथ ||७१७॥ केनचित्कारणेन तत् श्मशानं गती, यावदेकत्र बंशीकुडझे दाई प्रेक्षेते, तत्रैको दण्डलक्षणं जानाति, स भणति-च एनं दण्डकं गृहाति - ताजा भवति, किंतु प्रतीक्षितव्यो यावदन्यान् चतुरोऽनुलान् वर्धते, सवा योग्य इति, तरोन माराङ्गेनफेन च धिरजातीयेन श्रुतं, सदा स मामणोल्पसागारिके तं चतुरगुलं खनिवा |छिनत्ति, तेन च चेटेन दृष्टः, उदाक्षित: स तेन प्रामणेन करणं (न्यायालय) नीतः, भणति-देहि मय इण्डकं, स भणति- ददामि, मम श्मशाने, धिम्जातीयो भणति-मन्यं गृहाण, स नेच्छति, ममतेन कार्य, स दीप अनुक्रम [२६] SEARC ~1437~ Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३११..] भष्यं [२०६]. दारओ पुच्छिओ-किं न देसि ?, भणइ अहं एयस्स दंडगस्स पहावेणं राया भविस्सामि, ताहे कारणिया हसिऊण भणंति-जया तुमं राया भविज्जासि तया एयस्स मध्यस्थ गामं देजाहि, पडिवण्णं तेण, मरुएण अण्णे मरुया चितिजा गहिया जहा मारेमो तं तरस पिउणा सुर्य, ताणि तिष्णिवि नडाणि जाव कंचणपुरं गयाणि, तरथ राया मरइ, रज्जारिहो अण्णो नत्थि, आसो अहिवासिओ, सो तस्स सुत्तगस्स मूलमागओ पयाहिणं काऊण ठिओ, जाव लक्खणपाढएहि दिट्ठो लक्खणजुत्तोति जयसद्दो कओ, नंदितूराणि आयाणि, इमोबि वियंभंतो वीसत्थो उडिओ, आसे विलग्गो, मायंगोत्ति धिज्जाइया न देति पवेसं, ताहे तेण दंडरयणं गहियं जलिउमारजं, भीया ठिया, ताहे तेण वाडहाणगा हरिएसा घिज्जाइया कया, उक्तं च-दधिवाहनपुत्रेण राज्ञा तु करकण्डुना । वाटहानकवास्तव्याचाण्डाला ब्राह्मणीकृताः ॥ १ ॥ तस्स पिइधरनामं अवइन्नगोत्ति, पच्छा से तं चेडगरूवकयं नामं पइट्ठियं, करकंडुत्ति, ताहे सो मरुगो आगओ, भणइ-देह 5 दारकः पृष्टः किं न ददासि ?, भयति-अमेत्तस्य दण्डकस्य प्रभावेण राजा भविष्यामि तदा कारणिका हसित्वा भगन्ति यदा त्वं राजा भवेस्तदैती ब्राह्मणाय आमं दया, प्रतिपन्नं तेन मरुकेण अन्ये ब्राह्मणा साहाय्यका गृहीता वथा मारयामस्तं तस्य पित्रा भुतं, ते प्रयोऽपि नष्टाः यावत् काञ्चनपुरं गताः तत्र राजा मृतः राज्याऽन्यो नास्ति, अश्वोऽधिवासितः स तख सुतख पार्श्वमागतः प्रदक्षिणां कृत्वा स्थितो, यावलक्षणपाठको लक्षणयुक्त इति जयशब्दः कृतः, नन्दीतूंपण्याहतानि, अयमपि विजृम्भमाणो विश्वस्त उत्थितः अबे बिलग्नः मात इति विजातीया न ददति प्रवेशं तदा तेन दण्डरवं गृहीतं, ज्वलितुमारब्धं भीताः स्थिताः, तदा तेन वाटधानवास्वम्या हरिकेशा विजातीयाः कृताः । तस्य पितृगृहनामावकीर्णक इति पश्चात्तस्य तद् चेटककृतं नाम प्रतिष्ठितं करकण्डूरिति तदा स ब्राह्मण आगता, भणति देहि ~ 1438 ~ Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ७१८॥ मम गामंति, भणइ-जं ते रुच्चइ तं गेण्ह, सो भणइ-ममं चंपाए घरं तहिं देहि, ताहे दहिवाहणस्स लेहं देइ, देहि मम प्र तिक एगं गाम अहं तुज्झजं रुच्चइ गामं वाणयरं वा तं देमि, सो रुडो-दुहमायंगो न जाणइ अप्पयं तो मम लेह देइत्ति, दूएणमणाध्य. पडियागएण कहियं, करकंडुओ रुडो, गओ रोहिजइ, जुद्धं च वट्टइ, तीए संजतीए सुयं, मा जणक्खओ होउत्ति कर- योगसं० | कंडु ओसारेत्ता रहस्सं भिंदइ-एस तव पियत्ति, तेण ताणि अम्मापियराणि पुच्छियाणि, तेहिं सम्भावो कहिओ, नाम- २४९ मुद्दा कंबलरयणं च दावियं, भणइ, माणेण-ण ओसरामि, ताहे सा चंपं अइगया, रण्णो घरमतेंती णाया, पायवडियाओ करकंडाद्याः दासीओ परुण्णाओ, रायाएवि सुर्य, सोवि आगओ वंदित्ता आसणं दाऊण तं गम्भं पुच्छइ, सा भणइ-एस तुम जेण | रोहिओत्ति, तुट्ठो निग्गओ, मिलिओ, दोवि रजाई दहिवाहणो तस्स दाऊण पबइओ, करकंडू महासासणो जाओ, सो य किर गोउलप्पिओ, तस्स अणेगाणि गोउलाणि, अण्णया सरयकाले एगं गोवच्छगं गोरगत्तं सयं पेच्छह, भणइ-एयस्स दीप अनुक्रम [२६] मर्श प्राममिति, भणति-यस्तै रोचते तं गृहाण, स भणति-मम चम्पायां गृहं तत्र देहि, तदा वधिवाहनाय लेखं ददाति, देहि मे एक ग्राम अहं तव यो रोचते प्रामो वा नगर चा तं ददामि, स रुष्ट:-दुष्टमातङ्गो न जानाति आत्मानं ततो मझ लेख ददातीति, दूतेन प्रत्यागतेन कथितं, करकण्डू रुष्टः, गतो रोधषति, बुर्द चवते, तपा संवस्या श्रुतं, मा जनक्षयो भूदिति करकण्डूमपसार्य रहस्यं भिनत्ति-एप तय पितेति, तेन तौ मातापितरौ पृष्टी, ताभ्यां सजावः | कथितः, नाममुद्रा कम्बलरख च दक्षिते, भणति मानेच-नापसरामि, तदा सा चम्पामतियता, राज्ञो गृहमावान्ती ज्ञाता, पादपतिता दास्यो रोवितुं लन्नाः, | राज्ञाऽपि श्रुतं, सोऽपि आगतो वन्दित्वासनं दवा तं गर्भ पुच्छति, सा भणति-पुष खं येन रुबा इति, तुष्टो निर्गतः, मिलितो, हे अपि राज्ये दधिवाइनसमै दावा प्रबजितः, करकर्महाशासनो जातः, स च किल गोकुलमिया, तस्यानेकानि गोकुलानि, अन्यदा शरस्काले एक गोवरसकं गौरगानं स्वयं प्रेक्षते, भणति-पुरास ॥७१८॥ ~1439~ Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०६], (४०) प्रत सूत्रांक -t5X [सू.] मायरं मा दुहेजह, जया बहिओ होइ तया अन्नाणं गावीणं दुद्धं पाएजह, तो गोबाला पडिसुर्णेति, सोवि उच्चत्तविसाणो खंधवसहो जाओ, राया पेच्छइ, सो जुद्धिकओ कओ, पुणो कालेण आगओ पेच्छइ महाकायं वसह पडएहिं घडिजतं, गोवे पुच्छइ-कहिं सो वसहोत्ति ?, तेहिं दाविओ, पेच्छंतो तओ विसपणो चिंतेतो संबुद्धो, तथा चाह भाष्यकार: सेयं सुजायं सुविभत्ससिंग, जो पासिया वसभं गोट्टमज्झे। रिद्धिं अरुद्धिं समुपेहिया णं, कलिंगरायावि समिक्ख धम्मं । २०७॥ (भा०)॥ गोटुंगणस्समझे टेक्कियसद्देण जस्स भज्जति। दित्तावि दरियवसहा सुतिक्खसिंगा सरीरेण ॥२०८॥ (भा०)। पोराणयगयदप्पो गलंतनयणो चलंतवसभोहो। सो चेव इमो वसहो पञ्यपरिघट्टणं सहइ ॥२०९॥ (भा०)॥ | गाथात्रयस्य व्याख्या-श्वेत-शुक्ल सुजातं-गर्भदोषविकलं (सुविभक्त ) शृङ्ख-विभागस्थसमशृङ्गं यं राजा दृष्ट्वाअभिसमीक्ष्य वृषभ-प्रतीतं गोष्ठमध्ये-गोकुलान्तः पुनश्च तेनैवानुमानेन ऋद्धिं-समृद्धिं सम्पदं विभूतिमित्यर्थः, तद्विपरीतां चाऋद्धिं च संप्रेक्ष्य-असारतयाऽऽलोच्य कलिङ्गा-जनपदास्तेषु राजा कलिङ्गराजा, असावपि समीक्ष्य धर्म-पर्यालोच्य धर्म सम्बुद्ध इति वाक्यशेषः। किं चिन्तयन् ?-'गोडंगणस्त मझें त्ति गोष्ठाङ्गणस्यान्तः ढेकितशब्दस्य यस्य भग्न मातरं मा दोग्ध, यदा वर्धितो भवेत् तदाऽभ्यासां गर्वा दुग्धं पाययेत, ततो गोपालाः प्रतिशृण्वन्ति, सोऽप्युनतमविषाणः स्वन्धवृषभो जातः, राजा प्रेक्षते, स युद्धीयः कृतः, पुनः कालेनागतः प्रेक्षते महाकार्य वृषभं महिषीयासैधंधमान, गोपान पृच्छति-कस तृषभ इति, तैईर्शितः, प्रेक्षमाणस्ततो विष. पणचिन्तयन् संबुद्धः।" समस्या प्र. 82-* दीप अनुक्रम [२६] -% KANA ~1440~ Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२०९], (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ७१९॥ [सू.] वन्तः, के ?-दीप्ता अपि-रोषणा अपीत्यर्थः, दर्पितवृषभा-बलोन्मत्तबलीवर्दा इत्यर्थः, सुतीक्ष्णशृङ्गा अपि शारीरेण ४ प्रतिकबलेन । पौराणः गतदर्पः गलन्नयनः चलदृषभोष्ठः, स एवायं वृषभोऽधुना पडुगपरिघट्टणं सहइ, धिगसारः संसार इति, मणाध्य सर्वप्राणभृतां चैवेयं वातेति तस्मादलमनेनेति, एवं सम्बुद्धो, जातीसरणं, निग्गओ, विहरइ । इओ पंचालेसु जणवएसु योगसं० कपिले णयरे दुम्मुहो राया, सोवि इंदकेडं पासइ लोएण महिजंत अणेयकुडभीसहस्सपडिमंडियाभिरामं, पुणोवि लुप्पंत, द्वा करकंडाद्या पडियं च अमेग्झमुत्ताणमुवरिं, सो संयुद्धो, तथाऽऽह भाष्यकार: जो इंदकें समलंकियं त. दट्ट पडतं पविलुप्पमाणं। रिद्धिं अरिद्धिं समुपहिया णं, पंचालराया वि समिक्ख धर्म ॥ २१॥ (भा०) निगदसिद्धैव, विहरइ । इओ य विदेहाजणवए महिलाए णयरीए नमी राया, गिलाणो जाओ, देवीओ चंदणं घसंति | | तस्स दाहपसमणनिमित्तं, वलयाणि खलखलंति, सो भणइ-कन्नाधाओ, न सहामि, एकेके अवणीए जाव एकेको अच्छइ. | ॥७१९॥ एवं संजुबः, जातेः मरणं, निर्गतः, विहरति । इतश्च पाजालेषु जनपदेषु काम्पील्ये नगरे दुर्मुखो राजा, सोऽपि इन्दकेतुं पश्यति लोकेन मामानं अनेकलापताकासहस्रपरिमण्डिताभिरामं, पुनरपि लुप्यमानं, पतितं चामेश्यमूत्राणामुपरि, स संदः, विहरति। इतन्त्र विदेहजनपये मिथिलायां नगर्यो नमी राजा, ग्लानो जातः, देण्यश्चन्दनं धर्षयन्ति तस्य दाहप्रशमन निमित्त, वलयानि शब्दयन्ति, स मणति-कर्णाघातः, न सहे, एककस्मिकपनीते याव-18 कैकस्तिष्ठति, दीप अनुक्रम [२६] ~1441~ Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२१०], (४०) % % प्रत सूत्रांक द्र 75 [सू.] सदो नस्थि, राया भणइ-ताणि वलयाणि न खलखलेंति , अवणीयाणि, सो तेण दुक्खेण अब्भाहओ परलोगाभिमुहो चिंतेइ-पहुयाण दोसो एगस्स न दोसो, संबुद्धो, तथा चाहपहुयाण सहयं सोचा, एगस्स य असहयं । वलयाणं नमीराया, निक्खंतो मिहिलाहियो ॥ २११ ॥ (भा.)13 कण्ठया, विहरइ । इओ य गंधारविसए पुरिमपुरे णयरे नग्गई राया, सो अन्नया अणुजतं निग्गओ, पेच्छा | कुसुमियं, तेण एगा मंजरी गहिया, एवं खंधावारेण लयंतेण कट्ठावसेसो कओ, पडिनियत्तो पुच्छइ-कहिं सो चूयरुक्खो, अमच्चेण कहियं-एस सोत्ति, कह कहाणि कओ!, तओ भणइ-जं तुम्भेहिं मंजरी गहिया पच्छा सबेण खंधावारेण गहिया, सो चिंतेइ-एवं रजसिरित्ति, जाव ऋद्धी ताव सोहेइ, अलाहि एयाए, संबुद्धो । तथा चाह जो चूपरुक्खं तु मणाहिराम, समंजरिं पल्लवपुष्फचित्तं । रिबि अरिद्धिं समुपेहिया णं, गंधाररायावि समिक्ख धम्मं ॥ २१२ । (भा०)॥ र-- दीप अनुक्रम [२६] शब्दो नालि, राजा भणति-तानि बलपानि न शब्दयन्ति , अपनीतानि, सतेन दुःखेनाभ्याइतः परलोकाभिमुखश्चिन्तयति-बहूनां दोषो मकस दोषा, संयुद्धः । विहरति, इतना गान्धारविषये पुरिमपुरे नगरे नगती राजा, सोऽन्यदानुयात्रा निर्गता, प्रेक्षते पूर्व कुसुमितं, तेनेका मञ्जरी गृहीता. एवं स्कन्धाचारेण गृहवा काष्ठावशेषः कृतः, प्रतिनिवृत्तः पृच्छति-कस चूतवृक्षः, अमालयन कथितं-स एष इनि, कथं काष्ठीकृतः, १, ततो भणति-यावया मारी गृहीता पश्चात् सर्वेण स्कन्धाचारेण गृहीता, स चिन्तयति-एवं राज्यश्रीरिति, यावदिसावत् शोभते, भलमनया, संयुद्धः। F ~1442~ Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३११...] भाष्यं [२१२], (४०) हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ।७२०॥ %25E5% दीप अनुक्रम [२६] | कण्ठ्या । एवं सो विहरइ। ते चत्तारि विहरमाणा खिइपइडियणयरमझे चउद्दारं देवउलं, पुषेण करकंडू पविडो, दक्खि- ४ प्रतिकणं दुम्मुहो, एवं सेसावि, किह साहुस्स अन्नहामहो अच्छामित्ति तेण दक्षिणेणावि मुहं कयं, नमी अवरेण, तओ- मणाध्य. योगसं० वि मुह, गंधारो उत्तरेण, तओ वि मुहं कयंति । तस्स य करकंडुस्स बहुसो कंडू, सा अस्थि चेव तेण कंडूयणगं गहाय २४व्युत्सर्गे मसिणं मसिणं कण्णो कंडूइओ, तं तेण एगस्थ संगोवियं, तं दुम्मुहो पेच्छइ,-'जया रजं च रहेंच, पुरं अंतेउरं तहा। करकंडाद्या | सबमेयं परिचज, संचयं किं करेसिमं ॥१॥ सिलोगो कंठो जाव करकंडू पडिवयर्ण न देइ ताव नमी बयणमिमं भणइजया ते पेइए रजे,कया किच्चकरा बहू । तेसिं किच्चं परिचज, अन्नकिच्चकरो भवं? ॥२॥ सिलोगो कठो, किं तुम एयस्स। आउत्तिगोत्ति । गंधारो भणइ-जया सर्व परिचज मोक्खाय घडसी भवं । परं गरिहसी कीस?, अत्तनीसेसकारए ॥३॥ ४सिलोगो कंठो,तं करकंडू भणइ-मोक्खमम्गं पवण्णाणं, साहूणं बंभयारिणं । अहियत्थं निवारन्ते, न दोसं वसुमरिहसि ॥४॥ सासिलोगो-रूसउ वा परो मा वा, विसं वा परिअत्तउ । भासियवा हिया भासा, सपक्खगुणकारिणी ॥ ५॥ सिलोगो, श्लोकद्वयमपि कण्ठ्यं । तथाएवं स विहरति । ते चत्वारो विहरम्तः क्षितिप्रतिष्ठित्तनगरमध्ये चतुरि देवकुकं (तन्त्र) पूर्वेण करकण्डः प्रविष्टः, दक्षिणेन दुर्मुखः, एवं शेषा ॥७२०॥ वषि, कर्ष साधोरन्यतोमुखस्तिष्टामीति तेन दक्षिणस्यामपि मुखं कृतं, नमिरपरेण, तस्यामपि मुख, गाधार उत्तरेग, तस्यामपि मुखं कृतमिति । तस्य च करकण्टोबद्धी कण्डूः, सारत्येज, तेन कण्डूयनं गृहीत्वा मसूणं मसणं कर्णः कयितः, यत् तेनैका संगोषितं, तत् दुर्मुखः प्रेक्षते, श्लोकः काव्यः यावत् । करकण्डू प्रतिवचनं न ददाति तावत् नमिर्वचनाभिवं भणति । श्लोका कपडया, किंवमेतखाऽऽयुक्तक इति', गान्धारो भणति-कोकः काब्यः, तं करकदुर्भपति-झोका, श्लोक, R ~14434 Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१२] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] जहा जलंताइ(त) कढ़ाई, उयेहा: न चिरंजले । घटिया घट्टिया झत्ति, तम्हा सहह घट्टणं ॥१३१२ ॥ मुचिरंपि वंकुडाई होहिंति अणुपमजमाणाई । करमदिदारुयाई गर्यकुसागारवेंटाई ॥१३१३॥ . KI इदमपि गाथाद्वयं कण्ठयमेव, ताणं सपाण दवविउस्सग्गो, जं रजाणि उझियाणि, भावविउस्सग्गो कोहादीणं, विउ-13 |स्सग्गेत्ति गयं २५, इयाणिं अप्पमाएत्ति, ण पमाओ अप्पमाओ, तत्थोदाहरणगाहारायगिहमगहसुंदरि मगहसिरी पउमसत्थपक्खेवो। परिहरियअप्पमत्ता नहूँ गीय नवि य चुका ॥ १३१४ ॥10 | इमीए वक्खाणं-रायगिहे णयरे जरासंधो राया, तस्स सबप्पहाणाओ दो गणियाओ-मगहसुंदरी मगहसिरी य, मगहासिरी चिंतेइ-जइ एस न होजा ता मम अन्नो माणं न खंडेजा, राया य करयलत्यो होजत्ति, सा य तीसे छिद्दाणि | मग्गइ, ताहे मगहासिरी नदिवसंमि कणियारेसु सोवनियाओ संवलियाओ विसधूवियाओ सूचीओ केसरसरिसियाओ (खित्ताओ, ताओ पुण तीसे मगहसुंदरीए मयहरियाए अहियाओ, कह भमरा कणियाराणि न अल्लियंति चूएस निलंति ?, दीप अनुक्रम [२६] १ तेषां सर्वेषां हयग्युसर्गः, यत् राज्यान्युमितानि, भावध्युत्सर्गः क्रोधादीनां । पुत्सर्ग इति गतं, इदानीमप्रमाद इति, न प्रमादोभमाद, बनो। दाहरणगाथा । अस्या व्याख्यान-राजगृहे नगरे जरासन्धो राजा, तस्य सर्वप्रधाने द्वे गणिके-मगधसुन्दरी मगधीन, मगधश्नीशिन्तयति, वषा न भवन सदा मम नान्यो मार्न खण्डवेन् , राजा च करतलस्थो भवेदिति, सा च तस्यामिहाणि मार्गयति, तदा मगधनीखदिवसे कर्णिकारेषु सावणिका मञ्जयः विषका सिताः सूचयः केशरसदशाः क्षेपितवती, ताः पुनमस्या मगधसुन्दा महत्तरिकया ज्ञाताः, क श्रमराः कर्णिकारेषु नागच्छन्ति ? चूतेषु गम्ति ~1444 ~ Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ལླཡྻཱཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२६] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७२१॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३१४] भाष्यं [ २१२.... नूणं सदोसाणि पुष्पाणि, जइ य भणीहामि एएहिं पुप्फेहिं अच्चणिया अचोक्खा विसभावियाणि वा ता गामेलगत्तणं होहित्ति उवाएणं वारेमित्ति, सा व रंगओइण्णिया, अण्णया मंगलं गिज्जइ, सा इमं गीतियं पगीयापत्ते वसंतमासे आमोअ पमोअए पवत्तंमि । मुत्तृण कण्णिआरए भमरा सेवंति चूअकुसुमाई ॥ १३१५ गीति, इमा निगदसिद्धैव, सो चिंतेइ अदुवा गीतिया, तीए णायं-सदोसा कणियारति परिहरंतीए गीयं नच्चियं च सविलासं न य तत्थ डलिया, परिहरिय अध्पमत्ता नहं गीयं न कीर चुका, एवं साहुणावि पंचविहे पमाए रक्खतेणं जोगा संगहिया २६ । इयाणिं लवालवेत्ति, सो व अप्पमाओ लवे अद्धलवे या पमायं न जाइयचं, तत्थोदाहरणगाहाभरुयच्छंमि य विजए नडपिडए वासवासनागधरे । ठवणा आयरियस्स (उ) सामायारीपजणया ॥१३१६ ॥ इमीए वक्खाणं- भरुअच्छे णयरे एगो आवरिओ, तेण विजओ नाम सीसो उज्जेणी कज्जेण पेसिओ, सो जाइ, तस्स गिलाणकज्जेण केणइ वक्खेवो, सो अंतरा अकालवासेण रुद्धो, अंडगतणउज्झियंति नडपिडए गामे वासावासं ठिओ, सो १ जूनं सदोषाणि पुष्याणि यदि चामणिष्यं एतैः पुष्पैरचैनिकाऽपोक्षा विषभावितानि वा तदा प्रामेयकायमभविष्यदिति उपायेन वारयामि इति, साच रनावतीर्णाऽम्पदा मङ्गलं गायति, सेमां गीतिं प्रगीतवती गीतिः इयं स चिन्तयति अपूर्वा गीतिः तथा ज्ञातं सदोषाणि कर्णिकाराणि इति परिहरत्या गीतं नर्तितं च सविलासं न च तत्र छहिता, परिहत्य (तानि), अप्रमत्ता नृत्ये गीते च न कि स्वहिता, एवं साधुनाऽपि पञ्चविधा प्रमादान् रक्षयता योगाः संगृहीताः । इदानीं लबालब इति स चाप्रमादः येऽर्धये वा प्रमाद न दातव्यं तत्रोदाहरणगाथा-अस्या व्याख्यानं गुकच्छे नगरे एक आचार्य:, तेन विजयो नाम शिष्य उज्जयिनीं कार्येण प्रेषितः, स याति तस्स ग्लानकार्येण केनचिद् व्याक्षेपः सोऽन्तराऽकालवर्षेण रुदः, अण्डको ज्झितमिति नटपेटके ग्रामे वर्षावास स्थितः स ~ 1445 ~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० योगसं० २६ अप्रमा दः २७ - बालवः ॥७२१॥ Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१६] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२६] चिंतेइ-गुरुकुलवासो न जाओ, इहंपि करेमि जो उवएसो, तेण ठवणायरिओ कओ, एवमावासगमादीचकवालसामायारी सबा विभासियवा, एवं किल सो सबत्थ न चुको, खणे २ उवजुजइ-किं मे कयं, एवं किर साहुणा काय, एवं तेण जोगा संगहिया भवंति २७ । लबालवेत्ति गर्य, इयाणिं झाणसंवरजोगेत्ति, झाणेण जोगा संगहिया, तत्थोदाहरणं_णपरं च सिंववरण मुंडिम्बयअन्नपूसभूई य । आयाणपूसमित्ते सुहुमे झाणे विवादो य ।। १३१७ ।। इमीए वक्खाणं-सिंबवणे गयरे मुंडिम्बगो राया, तत्थ पूसभूई आयरिया बहुस्सुया, तेहिं सो राया उवसामिओ सड्डो जाओ, ताण सीसो पूसमित्तो बहुस्सुओ ओसण्णो अपणत्थ अच्छइ, अण्णया तेर्सि आयरियाणं चिंता-सुहुमं झाणं पविस्सामि,तं महापाणसम, तं पुण जाहे पविसइ ताहे एवं जोगसंनिरोहं करेइ ज न किंचिह चेएइ, तेसिंच जे मूले ते अगीयस्था, तसि पूसमित्तो सदाविओ, आगओ, कहियं, स तेण पडिवनं, ताहे एगथ उवयरए निवाघाए झाएंति, सो तेसिं ढोर्य न चिन्तयति-गुरुकुशवासो न जातः, इहापि करोमि व उपदेशः, तेन स्थापनाचार्यः कृतः, एकमावश्यकादिचवालसामाचारी सर्वा विभाषितव्या, एवं |किल स सर्वत्र न स्वलितः, क्षणे क्षणे उपयुज्यते-कि मे कृतं !, एवं किल साधुना कर्तव्यं, एवं तेन योगाः संगृहीता भवन्ति । लपाकव इति गतं, इदानीं पानसंवरयोग इति, पानेन योगाः संगृहीताः, तत्रोदाहरणं । अस्खा वाख्यान-शिम्बावने नगरे मुण्डिकानको राजा, तब पुष्पभूतय आचार्या बहुश्रुताः, वः स राजोपशमितः श्राजो जातः, तेषां शिष्यः पुष्पमित्रो बटुक्षुतोऽवसत्रोऽन्यत्र तिति, अन्यदा तेपामाचार्याणां चिन्ता-सूक्ष्म ध्यानं प्रविशामि, सत् महामाणसम, सत् पुनर्यदा प्रविशति तवं योगसंनिरोधः क्रियते यथा न किश्चित् जियते तेषां च ये पार्क तेऽगीतार्थाः,तैः पुष्यमित्रः शब्दितः, आगतः, कथितं, स (तत्) तेन प्रतिपन्न, तदैकत्रापपरके नियांधासे ध्यायन्ति, स सेवामागन्न 45605425 ~14464 Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१७] भाष्यं [२१२...], (४०) P प्रत सूत्रांक आवश्यक- दई, भणइ-पत्तो ठियगा वंदह, आयरिया वाउला, अण्णया ते अवरोप्परं मंतंति-किं मण्णे होजा गवेसामोत्ति, एगो ४ प्रतिकहारिभ- ओवरगबारे ठिओ निवन्नेइ, चिरं च ठिओ, आयरिओ न चलइ न भासइ न फंदा ऊसासनिस्सासोवि नस्थि, सुहमो किरमणाध्य. द्रीया तेसि भवइ, सो गंतूण कहेइ अण्णसिं, ते रुहा, अजो! तुम आयरिए कालगएवि न कहेसि ?, सो भणइ-न कालग- योगसे० ॥७२२॥ है यत्ति, झाणं झायइत्ति, मा वाघायं करेहित्ति, अण्णे भणंति-पवइओ एसो लिंगी मन्ने बेयालं साहेउकामो लक्खणजुत्ता २८व्याना आयरिया तेण ण कहेइ, अज्ज रत्तिं पेच्छहिह, ते आरद्धा तेण सम भंडिलं, तेण वारिया, ताहे ते राया ऊस्सारेऊण | संवरयोगः कहित्ता आणीओ, आयरिया कालगया सो लिंगी न देइ नीणेऊ, सोवि राया पिच्छा, तेणवि पत्तीयं कालगओत्ति, पूसमित्तस्स ण पत्तियइ, सीया सज्जीया, ताहे णिच्छयोणायो, विणासिया होहिंति, पुर्व भणिओ सो आयरिएहिं-जाहे अगणी अन्नो वा अच्चओ होजत्ति ताहे मम अंगुढए छिवेजाहि, छिन्नो, पडिबुद्धो भणइ-कि अज्जो ! वाघाओ कओ?, पिच्छह ददाति, भणति-भत्र स्थिता बन्दध्वं, भाचार्या न्यायुताः, अन्पदा ते परस्परं मनयन्ते-कि मन्ये भवेद् गवेषयाम इति, एकोऽपवरकद्वारे स्थितो निभाळयति, चिरं च स्थितः, आचार्यों न चलति न भाषते न सन्दते उरासनिःश्वासाबपि न स्तः, सूक्ष्मौ किल तेषां भवतः, स गत्वा कथति अन्येषां, ते IDIटा, माथ! समाचार्यान् कालंगवानपिन कथयसि, स भगति-कालगता हति, ध्यान पायन्ति, मा भगति-नकालगता इति, ध्यान पायन्ति, मा बाधात काति, अन्यान् भवन्ति-प्रमजित एष ........ ७२२॥ लिङ्गी मन्ये वैतालं साधयितुकामो लक्षणयुक्ता भाचास्तेिन न स्थति, अद्य रात्री प्रेक्षवं, ते मारब्धाम्तेन सम भण्डयितुं, तेन चारिताः, तदा ते राजानमपसार्थ कथायित्वाऽऽगीतवन्तः, भाचार्याः कालगताः स लिङ्गी न ददाति निष्काशयितुं, सोऽपि राजा प्रेक्षते, तेनापि प्रत्ययितं कालगत इति, पुरुषमित्राय न प्रत्यापति शिक्षिका सजिता, तदा निश्चयो ज्ञातो, विनाशिना भविष्यन्ति, पूर्व मपितः स आचार्य:-पदामिन्यो वाऽत्ययो भवेद् सदा ममाष्टः स्पष्टम्यः, स्पृष्टः, प्रतिबो भणति-किमार्य ! पायातः कृतः,प्रेक्षध्यमेवै दीप अनुक्रम [२६] ~1447~ Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१८] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक 65656 Cी [सू.] एएहिं सीसेहिं तुझ कति, अंबाडिया, एरिसय किर झाणं पविसियवं, तो जोगा संगहिया भवति २८ । झाणसंवरजोगे| | यत्ति गयं, श्याणि उदए मारणंतिएत्ति, उदए जइ किर उदओ मारणतिओ मारणती बेयणा वा तो अहियासेयवं, तत्थोदाहरणगाहारोहीडगं च नयरं ललिआ गुट्ठी अरोहिणी गणिआ।धम्मरुद कडुअबुद्धियदाणाययणे अ कंमुदए ॥१३१८॥ | इमीए वक्खाणं-रोहिडए णयरे ललियागोडी रोहिणी जुण्णगणिया अण्ण जीवणिउवायं अलभंती तीसे गोहीए भत्तं | परंधिया, एवं कालो बच्चाइ, अण्णया तीए कडुयदोद्धियं गहियं, तं च बहुसंभारसंभियं उवक्खडियं विष्णस्सइ जाव मुहे ण तीरइ काउं, तीए चिंतियं-खिंसीया होमि गोहीएत्ति अण्णं उवक्खडेइ, एवं भिक्खचराण दिजहित्ति, मा दवमेवं चेव णासउ, जाव धम्मरुई णाम अण गारो मासक्खमणपारणए पविठो, तस्स दिनं, सो गओ उवस्सर्य, आलोएड गुरूणं, तेहि भायणं गहियं, खारगंधो य णाओ, अंगुलिए विण्यासियं, तेहि चिंतियं-जो एयं आहारेर सो मरई, भणिओ बुष्माकं शिष्यैः कृतमिति, निर्भसिताः, ईशं किल ध्यानं प्रवेटव्यं, ततो योगाः संगृहीता भवन्ति । ध्यान संचरयोगा इति गतं, इदानीमुदयो मारणान्तिक इति, यदि किलोदयो मारणास्तिको मारणान्तिकी वेदना वा तदाऽध्यासितव्वं तत्रोदाहरणगाथा । अखा व्याख्यान-मोहिरके नगरे ललितागोडी रोहिणी जीर्णगणिका अन्य भाजीविकोपायमलभमाना तथा गोष्ठया भकं प्राइवती, एवं कालो नाति, अन्यथा तथा कर्फ दाग्धिकं गृहीतं, तच बहुसंभारसंभूतमुपस्कृतं विनश्यति यावत मुखे न पापयते की, तया चिन्तितं-निन्दिता भविष्यामि गोष्ठया इति, भम्पदुपस्करोति, एतन् भिक्षाचरेभ्यो दीयते इति, सदस्यमयभव विनोद, यावत् धर्मचिनिगारो मासक्षपषपारणके प्रविष्टः, ती दतं, सगत पाश्रय, भाकोषयति गुरून्, भोजनं गृहीतं, विषयन्ध, ज्ञातः, अङ्गुल्या जिशासितं, तैचिन्तितं-य एनमाहास्यति स म्रियते, भाषितः-- दीप अनुक्रम [२६] 2-% ~1448~ Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१८] भाष्यं [२१२...', (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] RECACCCC ॥७२३॥ 'विगिंचेहित्ति, सो तं गहाय अडविं गओ, एगत्व रुक्खदहरछायाए विगिंचामि, पत्ताबंध मुयंतस्स हत्थो लित्तो, सो तेण प्रतिक्रएगथ फुसिओ, तेण गंधेण कीडियाओ आगयाओ, जा जा खाइ सा सा मरइ, तेण चिंतियं-मए एगेण समप्पउ मा मणाध्य. जीवघाओ होउत्ति एगत्थ थंडिले आलोइयपडिकतेणं मुहाणंतर्ग पडिलेहिता अणिंदतेण आहारियं, वेयणा य तिवाद योगसं० जाया अहियासिया, सिद्धो, एवं अहियासेय, उदए मारणंतियत्तिगयं २९ । इयाणि संगाणं च परिहरणंति, संगो नाम मारणान्ति'पञ्जी सझे भावतोऽभिष्वङ्गः स्नेहगुणतो रागः भावो उ अभिसंगो येनास्य सङ्ग्रेन भयमुत्पद्यते तं जाणणापरिणाए| का ३०सणाऊण पचक्खाणपरिणाए पञ्चक्खाएयवं, तस्थोदाहरणगाहा परिज्ञा नयरी य चंपनामा जिणदेवो सत्यवाहअहिछत्ता । अडवी य तेण अगणी सावषसंगाण चोसिरणा ॥१३१९॥ ___ इमीए वक्खाणं-चपाए जिणदेवो नाम सावगो सस्थवाहो उग्रोसेत्ता अहिछत्तं बच्चइ, सो सत्थो पुलिंदएहिं विलोलिओ, सो सावगो नासतो अडविं पविहो जाव पुरओ अग्गिभयं मग्गओ वग्धभयं दुहओ पवायं, सो भीओ, असरणं बजेति, स तं गृहीत्वा गता, एका दग्धवृक्षावायां त्यजामीति, पात्रवन्ध मुजतो इसो लिया, स तेने का प्रया, तेन गन्धेन कीटिका आगताः, या या खादति सा सा नियते, तेन चिन्तितं-मयकेन समाप्यत मा जीवयातो भूदिति एकत्र स्थगिद्धले मुखानन्तकं प्रतिलिण्य आलोचितप्रतिकान्तेनानिन्दयसाहारितं, वेदना च तीना जाताऽध्यासिता, सिद्धः, एपमध्यासितयं, उदयो मारणान्तिक इति गतं, इदानीं सकानां च परिहरणमिति, सङ्गो नाम, भावस्व ७२३॥ भिव्यङ्गः स ज्ञानपरिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया प्रत्यास्वातपः, सोदाहरणगाथा । अस्खा क्यारुपान-सम्पायर्या जिनदेवो नाम श्रावका सार्थवाद उद्बोप्याहिच्छत्रा मजति, स सार्थः पुहिन्द्रविलोकितः, सावको नश्यन् अटवीं प्रविधो यावत् पुरतोऽग्निभयं पृष्ठतो ध्यानभवं विधातः प्रवातं, स भीतः, अधारणं दीप अनुक्रम [२६] ~1449~ Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३१९] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पाऊण सयमेव भावलिंग पडिवजित्ता कयसामाइओ पडिमं ठिओ, सावहिं खइओ, सिद्धो, एवं संगपरिणाए जोगा ल संगहिया भवंति ३०। संगाणं च परिणत्ति गयं, इयाणि पायच्छित्तकरणन्ति, जहाविहीए दत्तस्स, विही नाम जहा सुत्ते भणियं जो जित्तिएण सुझाइ तं सुतु उवउँजि देंतेण जोगा संगहिया भवंति दोण्हवि करेंतदेंतयाणं, तत्थोदाहरणं प्रति गाथापूर्वार्धमाह पायच्छित्तपरूवण आहरणं तत्थ होइ धणगुत्सा। इमरस वक्खाणं--एगस्थ णयरे धणगुत्ता आयरिया, ते किर पायच्छित्तं जाणंति दाउं छजमस्थगावि होतगा जहा एत्तिएण सुज्झइ वा नवत्ति, इगिएण जाणइ, जो ताण मूले वहइ ताहे सो सुहेण णित्थरइ तं चाइयारं ठिओ य सो होइ अम्भहियं च निजरं पावेइ, तहा कायषं, एवं दाणे य करणे य जोगा संगहिया भवंति, पायच्छित्तकरणेत्ति गयं ३१ । इयाणि आराहणा य मारणंतित्ति, आराहणाए मरणकाले योगाः सङ्गुह्यन्ते, तत्रोदाहरणं प्रति गाथापश्चार्धमाह-- ज्ञात्वा स्वयमेव भावलिङ्ग प्रतिपद्य कृतसामायिक प्रतिमा स्थित्तः, श्वापदैः खादितः, सिद्धा, एवं सापरिज्ञया योगाः संगृहीता भवन्ति । सझाना | च परिशेति गरां । इदानी प्रायश्चित्तकरण मिति यथाविधि दत्तस्प, विधिनाम यथा सूवे भणितं यो वायता शुध्यति तं सुष्छु उपयुत्य वदता योगाः संगृहीता भवन्ति योरपि कुषददतो, बनोदाहरणं । भस्म व्याख्यान-एकत्र नगरे धनगुप्ता आचार्याः, ते कि प्रायशिसं जामन्ति दातुं छमस्या अपि सम्तो यथेयता। शुभपति वा नवेति, इहितेन जानाति, यसेषो मूले पति तदा स सुखेन निस्तरति तं चातिचार, स्थिर भपति सा अभ्यधिको चप्राप्नोति निर्जरी, तथा कर्तव्यं, एवं दाने करणे च योगाः संगृहीता भवन्ति, प्रायश्चित्तकरणमिति गतं । इदानीमाराधना च मारणान्तिकीति, आराधनया मरणकाले योगाः संगृह्यन्ते, दीप अनुक्रम [२६] ACAKAC4%AXASAKAR SX-- - ~1450~ Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०] भाष्यं [२१२...], (४०) भावश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ७२४॥ आराहणाऍ मरुदेवा ओसप्पिणीए पढम सिद्धो ॥ १३२० ।। ४प्रतिक अस्य व्याख्या-विणीयाए णयरीए भरहो राया, उसहसामिणो समोसरण, प्राकारादिः सर्वः समवसरणवर्णकोऽभिधा-111 | मणाध्य | योगसं० तथ्यो यथा कल्पे,-सा मरुदेवा भरहं विभूसियं दहण भणइ-तुज्झ पिया एरिसिं विभूतिं चइत्ता एगो समणो हिंडइ, भरहो || ३१ प्रायभणइ-कत्तो मम तारिसा विभूई जारिसा तातस्स?, जइ न पत्तियसि तो एहि पेच्छामो, भरहो निग्गओ सबवलेण, मरुदे [श्चित्तं ३२ वावि निग्गया, एगंमि हस्थिमि बिलग्गा, जाव पेच्छइ छत्ताइछत्तं सुरसमूहं च ओवयंत, भरहस्स वत्थाभरणाणि ओमिलायं| ताणि दिवाणि, दिवा पुत्तविभूई ? कओ मम एरिसत्ति, सा तोसेण चिंतिउमारद्धा, अपुष्करणमणुपविडा, जाती नत्थि, जेण बणस्सइकाएहितो उवट्टित्ता, तत्थेव हस्थिवरगयाए केवलनाणं उप्पण, सिद्धा, इमीए ओसप्पिणीए पढमसिद्धो । एवमाराधनां प्रति योगसङ्ग्रहः कर्तव्य इति ३२ । दीप अनुक्रम [२६] ॥७२४॥ विनीतायां नगीं भरतो राजा, ऋषभवामिनः समवसरणं, सा मरुदेवी भरत विभूपितं दृष्ट्वा भणति-तब पितेरी विभूति यतकः श्रमणो हिण्डते, भरतो भणति-कृतो मम ताशी विभूतियोदशी सातस्य , बदिन प्रत्येषि सदेहि प्रेक्षावहे, भरतो निर्गतः सर्वपलेन, मरुदेण्यपि निर्गता, एकस्मिन् हस्तिनि | विकमा, पावर प्रेक्षते नातिच्छ सुरसमूर चारपतन्तं, भरतस वस्त्राभरणाम्यवम्कायमानानि सानि, या पुत्रविभूतिः कुतो ममेकी इति, सा तोपेण चिन्तयितुमारब्धा, अपूर्वकरणमनुपविष्टा, जातिस्मृतिनाति येन बनस्पतिकाविकादुत्ता, तत्रैव बरहसिस्कम्भयतायाः केवलज्ञानमुत्पर्य, सिद्धा, अखामचसर्पियो प्रथमः सिद्धः। ~1451 Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝལླཱཡྻ [सू.] अनुक्रम [२७] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १३२०...] भाष्यं [ २१२...], तेत्तीस आसायणहिं (सूत्रं ) त्रयस्त्रिंशनिराशातनाभिः क्रिया पूर्ववत्, आयः-समृग्दर्शनाद्यवासिलक्षणः तस्या शातना, तदुपदर्शनायाह सङ्ग्रह णिकारः भागं चणनिसीयणायम आटोयपढिसुणणा पुालवणे व आहो ॥१॥ तद निमंत्रण खाईया यह अपढिसुणणे सति व सरम गए किं तुम सजाइ णो सुमणे ॥ २ ॥ जो सरसि कई ऐसा परिसं मिता अणुद्धिवाद कहे। संवारपायघडण विद्वे उच्चासणासु ॥ ३ ॥ आसां व्याख्या - इहाकारणे रत्नाधिकस्याऽऽचार्यादेः शिक्षकेणाऽऽशातनाभीरुणा सामान्येन पुरतो गमनादि न कार्य, कारणे तु मार्गादिपरिज्ञानादौ ध्यामलदर्शनादौ च विपर्ययः अत्र सामाचार्यनुसारेण स्वबुद्ध्याऽऽलोचनीयः, तत्र पुरतः - अग्रतो गन्ताऽऽशात नावानेय, तथाहि अग्रतो न गन्तव्यमेव, विनयभङ्गादिदोषात्, 'पक्ख'ति पक्षाभ्यामपि गन्ताऽऽशातनावानेव, अतः पक्षाभ्यामपि न गन्तव्य मुक्तदोषप्रसङ्गादेव, आसन्नः पृष्ठतोऽप्यासन्नं गतैवमेव वक्तव्यः, तत्र निःश्वासक्षुतश्लेष्मकणपातादयो दोषाः, ततश्च यावता भूभागेन गच्छत एते न भवन्ति तावता गन्तव्यमिति, एवमक्षरगमनिका कार्या, असम्मोहार्थं तु दशासूत्रैरेव प्रकटार्थव्याख्यायन्ते, तद्यथा - 'पुरओ'त्ति सेहे रायणियस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स १, पक्खति सेहे राइणियस्स पक्खे गंता भवइ आसायणा सेहस्स २, आसण्णति सेहे राइणियस्स णिसीययस्स 3 पुश्त इति शैक्षो रानिकस्य पुरतो गन्ता भवत्याशातना शैक्षस्य पक्षेति भैक्षो रामिक पक्षपोगंन्ता भवत्याशावना शैक्षस्य २ बसतमिति शैक्षो रत्नाधिकस्य निषीदत अथ आशातनायाः ३३ भेदा: सविस्तर वर्णयते ~ 1452~ Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२..., (४०) आवश्यक हारिभदीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७२५॥ 95%24 आसन्नं गंता भवाइ आसायणा सेहस्स ३, चित्ति सेहे रायणियस्स पुरओ चिरेत्ता भवाइ आसायणा सेहस्स ४, सेहे राइणि- प्रतिकयस्स पक्वं चित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ५, सेहे राइणियस्स आसणं चिद्वेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स ६, निसीयणत्ति सेहे| मणाध्य रायणियस्स पुरओ निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स ७, सेहे राइणियस्स सपक्खं निसीइत्ता भवइ आसायणा सेहस्स ८,8 तनाः सेहेराइणियस्स आसण्णं निसीयित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ९, 'आयमणे'त्ति सेहे राइणिएणं सद्धिं चहिया विचारभूमी निक्खंते समाणे तत्थ सेहे पुषतरायं आयामति पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स १०, 'आलोयणे'त्ति सेहे रायणिएणं| सद्धिं बहिया विचारभूमी निक्वंते समाणे तत्थ सेहं पुवतरायं आलोएइ आसायणा सेहस्स, 'गमणागमणे'सि भावणा ११ 'अपडिमुणणे ति सेहे राइणियस्स राओ वा बियाले वा बाहरमाणस्स अजो ! के सुत्ते के जागरद, तत्थ सेहे | जागरमाणे रायणियस्स अपडिसुणेत्ता भवइ आसायणा सेहस्त १२, 'पुबालवणे'त्ति केइ रायणियस्त पुवसंलत्तए |सिया तं सेहे पुचतरायं आलबद पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स १३, आलोएइत्ति असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं भासमं गन्ता भवति भाशातना शैक्षस ३, 'चितुति शिक्षा रखाधिक पुस्तः स्थाता भवति आशातना शैक्षस, शैक्षो खाधिकस्य पार्ने स्थाता, | भवत्याशातना शैक्षस ५, शैक्षो रवाधिकस्यासनं स्थाता भवत्याशातना शैक्षय ६, 'निषदन मिति शैक्षो खाधिकख पुरतो निषीदयिता भयत्याशातना औक्षस्य , शैक्षो रखाधिकस पार्थे निषीदविता भवत्याशातना शैक्षय, क्षो खाधिकस्यास निषीदयिता भवत्याशातना शैक्षस्य ९, भाचमन मिति शैक्षो| | रत्नाधिकेन साधु बहिर्विचारभूमि निरकान्तः सन् ता शैक्षः पूर्वमेवाचामति पश्चाद् रानिकः आशातना पोक्षस्य 10, 'आलोचनेति शैक्षो रालिकेन सा२ ५॥ यहि विचारभूमि निष्कान्तः सम् तव शैक्षः पूर्वमेवालोचपति आशातना शैक्षस, गमनागमन मिति भावना 1, अप्रतिश्रवणमिति शैक्षो खाधिके रात्री का विकाले वा म्याहरति आर्य! सुप्तो का जागर्ति, तत्र शैक्षो जागरन राखिकस्वाप्रति श्रोता भवत्यागारमा क्षय १२, "पूर्वालपम'मिति कनिन् स्त्राधिका पूर्वसंहसः स्यात् तीक्षः पूर्ष मेवालपति पश्चात् रात्रिका आशातना शैक्षख १३. 'मालोचयती'ति अधानं वा प्रतिग्रह्य तत दीप अनुक्रम [२७] ~14534 Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पुवामेव सेहतरागस्स आलोएति पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स १४, 'उवदंसे'त्ति सेहे असणं वा पडिग्गाहेत्ता ते दापयामेव सेहतरागरस उचदंसेइ पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स १५, निमंतणेत्ति सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता पचामेव || मासेहतरार्ग निर्मतेइ पच्छा राइणियं आसायणा सेहस्स १६, खद्धत्ति सेहे राइणिएण सद्धि असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तंत राइणियं अणापुरिछत्ता जस्स जस्स इच्छह तस्स २ खद्धं खद्ध दलयद आसायणा सेहस्स १७, 'आइयण'त्ति सेहे असणं दावा ४ पडिगाहित्ता राइणिएण सद्धिं भुंजमाणे तस्थ सेहे खर्च २ दार्य २ ऊसई २ रसियं २ मणुण्णं २ मणामं २ णि २ |लक्खं २ आहरेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इह च खर्द्धति बडबडेणं लंबणेण डायं डायति पत्रशाकः वाइंगणचिभड-। गपत्तिगादि सदंति वन्नगंधरसफरिसोववेयं रसियंति रसालं रसियं दाडिमवादि 'मणुपणं ति मणसो इह, 'मणाम'ति २ मणसामण्णं मणामं 'निद्धंति २ नेहाक्गाद 'लुक्खंति नेहवज्जियं १८, अप्पडिसुणणे'त्ति सेहे राइणियस्स बाहरमाणस्सअपडिसुणेत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, सामान्येन दिवसओ अपडिसुणेत्ता भवइ १९ 'खद्धति यत्ति सेहे राइणियस्स खद्धं । पूर्वमेयायमरात्रिफल भालीचपति पवादानिकस्याकातना क्षख १४, 'उपदर्शन मिति शैक्षोऽशन वा प्रतिमा तत् पूर्वमेवावमरानिकायोपदर्शयति पश्चादात्रिकायाशातना वक्षस्य १५, निमन्त्रणमिति दीक्षोऽशानं वा ४ प्रतिगृह्या पूर्वमेवावमरासिकं निमत्रवते पश्चाद् रालिकं आशातना शैक्षय बद्ध'मिति क्षो रालिकेन सार्धमशनं वा प्रतिगृह तत् रानिकमनागृच्छय यो य इच्छति तं तं प्रचुरे प्रचुरं वदाति आयातना शैक्षस्य १७, 'अदन'मिति शैक्षोऽयानं वा प्रतिगृह्य राविकेन साधं भुञानसत्र शैक्षः प्रचुर २ कार्कर संस्कृतं रस्यं मनो मनमपं स्निग्धं रूकंर बाहारविता भवति |आपातना भीक्षण, एचपति बहता वृहता लम्बनेन जसरमिति वर्णगन्धरसस्पशॉपेतं रसितमिति रसयुक्तं दादिमानादि मनोज मिति भनस इथं |'मनोऽममिति मनसा मभ्यं मनाम, बिग्धमिति हावगाई सक्षमिति सेहवर्जितं, १८ अप्रतिश्रवणमिति शैक्षक रात्रिके व्याहरति अप्रतिश्रोता भवति भाशातना शैक्षकस्य, सामाग्येन दिवसे प्रति श्रोता भवति १९, स्वदेति चेति पौधो रासिकं सई दीप अनुक्रम [२७] SAROCARSALA ~1454 Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७२६॥ [सू.] खद्धं वत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इमं च खळू-बडुसदेणं खरककसनिहुरं भणइ २०, तत्थ गए'त्ति सेहे राइणिए वाहरिए ४४ प्रतिकजत्थ गए सुणइ तस्थ गए चेव उालावं देह आसायणा सेहस्स २१, 'किंति'त्ति सेहे राइणिपण आहए किंति बत्ता भवइमणाध्य. आसायणा सेहस्त, किंति-किं भणसित्ति भणइ, मत्थएण वंदामोत्ति भणिय २२, तुमति सेहेराइणियं तुमंति वत्ता भवइ आसायणा सेहस्स, को तुमंति चोएत्तए, २३ 'तजाए'त्ति सेहे राइणियं तज्जाएणं पडिहणिचा भवति आसायणा सेहस्स, तना तज्जाएणं ति कीस अज्जो ! गिलाणस्स न करेसि ?, भणइ-तुमं कीस न करेसि, आयरिओ भणइ-तुम आलसिओ, सो भणइ-तुम चेव आलसिओ इत्यादि२४, 'णो सुमणो'त्ति सेहे राइणियस्स कहं कहेमाणस्त नो सुमणसो भवइ आसायणा | सेहस्स, इह नो सुमणसेत्ति ओहयमणसंकप्पे अच्छा न अणुबूहइ कह अहो सोहणं कहियंति २५, 'णो सरसि'त्ति सेहे राइ|णियस्स कहं कहेमाणस्स णो समरसित्ति वत्ता भवई आसायणा सेहस्स, इह चणो सुमरसि'त्ति न सुमरसि तुर्म एवं अस्थं, बद्धं वक्ता भवति आयातना शैक्षरूप, इवं च खळ-हच्छन्देन खरकांवनिएर भणति २०, तत्र गते' इति शैक्षो राषिकेन पाहतो यत्र गतः शृणोति तत्र गत एवोलापं यदाति भाशालना शैक्षस २१, 'कि' मितीति शैक्षो राखिकेनाहूतः किमिति वक्ता भवत्याशासना शैक्षय, किमिति किं भणसीति भणति, ७२६॥ मसकेन बन्द इति भणितव्य २२, ''मिति क्षो राखिक स्वमिति वका भवति आशातना शैक्षय, कस्वमिति नोदयिता २३, रानात' इति सैरालिका तन्मातेन प्रतिहन्ता भवपाशातना शैक्षस्य, तमातेने ति कथमाय लानख न करोपि!, भणति-स्वं कथं न करोपि', भाचायों भगति-बमलसः, स भगतिस्वमे वालम इत्यादि २४, न सुमना' इति शैक्षो रालिके को कथयति नो खुमना भवत्याशातना शैक्षस्थ, इन सुमना इति उपहतमनःसंकल्पास्तिष्ठति नानुसि कथा हो शोभनं कधितमिति २५, न समरसीति शैक्षो रातिके कयां कथयति म भरसीतिवक्ता भवति भाशातना पीक्षख, इडचन सारसीति न सारसि त्वमेनमार्थ दीप अनुक्रम [२७] 5 -6-4-58- ~14554 Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) OCT प्रत सूत्रांक %- [सू.] CAC-AA-%% दीप अनुक्रम [२७] दान एस एवं भवइ २६, कहं छेत्त'त्ति रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तं कह अछिदित्ता भवइ आसायणा सेहस्स, अच्छि दित्ता भवइत्ति भणइ अहं कहेमि २७, 'परिसं भेत्तेति रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति आसायणा सेहस्स, इह च परिसं भेत्तत्ति एवं भणइ-भिक्खावेला समुद्दिसणवेला सुत्तत्थपोरिसिवेला, भिंदइ वा परिसं २८, 'अणुछियाए कहेइ' राइणियस्स कहं कहेमाणस्स तीए परिसाए अणुट्टियाए अबोच्छिन्नाए अबोगडाए दोचंपि तच्चंपि कह कहेता भवइ आसायणा सेहस्स, इह तीसे परिसाए अणुट्टियाएत्ति-निविद्वाए चेव अवोच्छिनाएत्ति-जावेगोवि अच्छा अचोगडाएत्ति अविसंसारियत्ति भणिय होइ, दोचंपि तच्चंपि-विहिं तिहिं चाहिं तमेवत्ति जो आयरिएण कहिओ अत्थो तमेवाहिगारं विगप्पइ, अयमवि पगारो अयमवि पगारोतस्सेवेगस्त सुत्तस्स २९, 'संथारपायघट्टण'ति सेज्जासंधारगं पाएण संघट्टेत्ता हस्येण ण अणुण्णवित्ता भवइ आसायणा सेहस्स, इह च सेजा-सवंगिया संथारो अट्ठाइजहत्थो जत्थ वा नैष एवं भवति २५, कथा तेति राखिके को कषयति तो का छेदयति आशातना क्षय, भाळेता भपतीति भणति-हं कथयामि २७, पर्षद भेचेति राषिके कथा कथयति पर्षदो भेत्ता भवति भाशातना शैक्षप, रबर पर्षदो भेति एवं भणवि-भिक्षावेला भोजनवेला सूत्रार्थपौरुषीबेला, [भिनत्ति वा पर्षदं २८, मनुरिधतायां कथयति रात्रिक कथा कथयति तस्यां पदि अनुस्थितायामभ्युछिन्नापामध्यातायो (भसंविप्रकीर्णायौ) द्विरपि निरपि कथायाः कथयिता भवत्याशासमा पक्षसह तखा पर्षदि अनरियतावामिति निविटापामेव अन्यच्छिमायामिति बावदेकोऽपि तिति, अध्यातायामिति अविसंमताचामिति भणितं भवति, द्विरपि निरपि-विकृत्यनिकृत्या चतुर्भिः तमेवेति य आचार्येण कथितोलमेवाधिकार विकस्पयति, अयमपि प्रकारा भयमपि प्रकारः तसंचेकख सूत्रस्य २९, संस्तारपावघनमिति वारपासंसारको पादेन संबधित्वा दोन नानुज्ञापविता भवति आशातना भीक्षण, इह च शाच्या-सर्षानिकी संसारक:-अतृतीयहरूः बत्र वा -00-450*5 t e le ~14564 Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝཡྻཱཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२७] आवश्यकहारिभदीया ॥७२७॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ४ ], मूलं [स्] / [गाथा-] निर्मुक्तिः [ १३२०...] भष्यं [ २१२..... ठाणे अच्छइ संथारो विदलकडमओ वा अहवा सेज्जा एव संथारओ तं पाएण संघट्टेइ, णाणुजाणावेइ-न खामेइ, भणियं च 'संघट्टेत्ताण कापणे' त्यादि ३०, 'चेड'त्ति सेहे राइणियस्स सेजाए संथारे वा चिट्ठित्ता वा निसिइत्ता वा तुय ट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स ३१, 'उच्च'त्ति सेहे राइणियस्स उच्चासणं चिट्ठित्ता वा निसिहत्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स ३२, 'समासणे यावित्ति सेहे राइणियस्स समासणं चिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्सत्ति ३३ गाथात्रितयार्थः ॥ ॥ सूत्रो काशातनासम्बन्धाभिधित्सयाह सङ्ग्रहणिकारः अवा-अरहंताणं आसायनादि सज्झाएँ किंचिणाहीये जा कंसमुद्दिद्वा तेत्तीसासायणा एया ॥ प्रतिक्रमणसङ्कणी समाप्ता ॥ व्याख्या -अथवा - अयमन्यः प्रकारः, 'अर्हतां' तीर्थकृतामाशातना, आदिशब्दात्सिद्धादिग्रहः यावत्स्वाध्याये किश्चिनाधीतं 'सज्झाए ण सज्झाइयंति वृत्तं भवइ,' एताः 'कण्ठसिद्धाः' निगदसिद्धा एवेत्यर्थः, त्रयस्त्रिंशदाशातना इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं सूत्रोक्ता एव त्रयस्त्रिंशत्याख्यायन्ते तत्र १ स्थाने तिष्ठति संस्तारको द्विदलकाष्ठमयो वा, अथवा शय्येव संस्तारकः तं पादेन संघट्टपति नानुज्ञापयति-न क्षमयति, भणितं च 'कावेन संचि खेत्यादि ३०, स्थानेति शैक्षो रात्रिकस्य शय्यायां संखारके वा स्याता वा निषीदयिता वा त्वग्वर्त्तयिता वा भवल्याशातना शैक्षस्य ३१, उस इति शैक्षो विकासनात् उच्च आसने स्थाता निषीदयिता वा भवत्याशातना शैक्षस्य ३२, समासने चापीति शैक्षो राजिकासनस्य सम आसने स्थाता वा निषीदद्वित्ता वा स्वग्वर्त्तयिता वा भवत्याशातना भैक्षखेति । ~ 1457 ~ ४ प्रतिक्र मणाध्य० २३ आशातनाः ॥७२७॥ Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२..., (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] अरिहताणं आसायणाए सिद्धाण आसायणाए आयरियाणं आसायणाए उवज्झायाणं आसायणाए। साहूणमासायणाए साहुणीणं आसायणाए सावगाणं आसायणाए सावियाणं आसायणाए देवाणं आसायणाए देवीणं आसायणाए इहलोगस्सासायणाए परलोगस्स आसायणाए केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स आसायणाए सब्वपाणभूयजीवसत्ताणं आसायणाए कालस्स आसापणाए सुयस्स आसायणाए सुयदेवयाए आसायणाए वायणायरियस्स आसायणाए (सूत्रं) अर्हता-प्राग्निरूपितशब्दार्थानां सम्बन्धिन्याऽऽशातनया यो मया देवसिकोऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति तक्रिया, एवं सिद्धादिपदेष्वपि योज्यते, इत्थं चाभिदधतोऽर्हतामाशातना भवति-नत्थी अरहंतत्ती जाणतो कीस है जई भोए । पाहुडियं उवजीवे एव वयंतुत्तरं इणमो ॥१॥ भोगफलं निवत्तिय पुण्णपगडीणमुदयवाहल्ला । भुंजइ ८ | भोए एवं पाहुडियाए इम सुणसु ॥२॥णाणाइअणवरोहकअघातिमुहपायवस्स बेयाए । तिस्थंकरनामाए उदया तह | वीयरायत्ता ॥ ३ ॥ सिद्धानामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्-सिद्धाणं आसायण एव भणंतस्स होइ मूढस्स । नत्थी निच्चेठा दीप अनुक्रम [૨૮] न सन्ति महन्त इति जानानो या कथं भुनक्ति भोगान् । माभूतिका (समवसरणादिक) पजीवति कधी एवं गवत उतरमिदम् ॥1॥ नियं. तिमोगफलपुण्यप्रकृतीनामुवयबाहुल्यात् । भुनक्ति भोगान् एवं प्राभुतिकायां इदं ऋणु ॥ २ ॥ शनाथनवरोधकाघातिसुखपादपस्य वेदनाय । तीर्थकरनान्न उपचात् तथा वीतरागस्वात् ॥ ३॥ सिद्धानामाशातना एवं भणसो भवति मूढय । न सन्ति निवेष्टा सूत्रोक्त अरिहंत आदि ३३ आशातनाया: व्याख्यानं ~1458~ Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ।।७२८॥ वा सइवावी अहव उवओगे ॥१॥ रागहोसधुवत्ता तहेव अण्णन्नकालमुवओगो । दसणणाणाणं तू होई असवण्णुयाल चेव ॥ २॥ अण्णोण्णावरणभ(ता)वा एगत्तं वावि णाणदंसणओ । भण्णइ नवि एएसिं दोसो एगोवि संभव ॥३॥ मणाध्य अथिति नियम सिद्धा सदाओ चेव गम्मए एवं । निच्चिद्वावि भवंती वीरियक्खयओ न दोसो हु ॥४॥ रागदोसो न भवे अहंदाद्यासबकसायाण निरवसेसखया । जियसाभवा ण जुगवमुवओगो नयमयाओ य ॥ ५॥ न पिहूआवरणाओ दवहिनयस्सशातना:१९ वा मयेणं तु । एगतं वा भवई दसणणाणाण दोण्हपि ॥६॥णाणणय दसणणए पडुच्च गाणं तु सबमेवेयं । सबं च दंस-11 गंती एवमसवण्णुया काज॥७॥पासणर्य व पडुच्चा जुगर्व उवओग होइ दोण्हपि । एवमसवण्णुत्ता एसो दोसोन संभ-1 वइ ॥८॥ आचार्याणामाशातना, क्रिया पूर्ववत्, आशातना तु-डहरो अकुलीणोत्ति य दुम्मेहो दमगमंदबुद्धित्ति । अवियप्पलाभलद्धी सीसो परिभवइ आयरिए ॥१॥ अहवावि वए एवं उवएस परस्स देंति एवं तु । दसविहवेयावच्चे कायवे [सू.] दीप अनुक्रम [૨૮] वा सदा वाऽपि उपयोगेऽधना ॥1॥ भुपरागद्वेषावात्तथैवान्यान्यकाल उपयोगात, । दर्शनज्ञानयोस्तु भवस्वसर्वशतव ॥ ३ ॥ अन्योन्यावारकता वा का एकस्वं वाऽपि ज्ञानदर्शनयो।। भण्यते भवतेपो दोष एकोऽपि संभवति ॥ ३॥ सन्तीति निषमतः सिद्धाः शब्दादेव गम्पन्ते एवम् । निश्रेष्टा अपि भवन्ति वीर्यक्षयतो नैव दोषः ॥ ४॥ सगोपीन स्मातां सर्वकषायाणां निरवशेषक्ष यात् । जीवस्वाभाब्यात् नोपयोगयोगप नषमताच ॥ ५॥ न पृथगावरणात (ऐक्य) अध्यार्थिवनवस्य धा मतेन तु । एकत्वं वा भवति ज्ञानवर्षानयोपोरपि ॥ ॥ज्ञाननयं प्रतीत्व सर्वमेवेदं ज्ञानं वर्षाननयं प्रतीला सर्वमेयेर वर्शन-III७२८॥ ४ मिति एवमसर्वज्ञता कानु? ॥ ७॥ पश्यतो वा प्रतीब युगपदुपयोगो भवति द्वयोरपि । एवमसर्वज्ञता एष दोषो न संभवति ॥ ८ ॥ वालोऽकुलीन इति च दुर्मेधा इमको मन्दबुद्धिरिति । अपि चारमलामब्धिः शिष्यः परिभवत्याचार्यान् ॥ १॥ अथवाऽपि बदत्येवं-उपदेशं परमै ददति एवं तु । पचविध वैयावृत्यं कर्तव्य | 25 ~1459~ Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] 12%44 सयं न कुर्वति ॥ २ ॥ डहरोवि णाणबुड्डो अकुलीणोत्ति य गुणालओ किह णु! । दुम्मेहाईणिवि एवं भर्णतऽसताइ दुम्मेहो ॥ ३ ॥ जाणंति नविय एवं निद्धम्मा मोक्खकारणं णाणं । निच्चं पगासयंता बेयावच्चाइ कुवंति ॥ ४ ॥ उपाध्यायानामा|शातनया, क्रिया पूर्ववत्, आशातनाऽपि साक्षेपपरिहारा यथाऽऽचार्याणां नवरं सूत्रप्रदा उपाध्याया इति, साधूनामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्,-जोऽमुणियसमयसारो साहुसमुदिस्स भासए एवं। अविसहणातुरियगई भंडणमामुंडणा चेव ॥१॥ पाणसुगया व भुंजंति एगओ तह विरूवनवत्था । एमाइ वयदवणं मूढो न मुणेइ एवं तु ॥२॥ अविसहणादिसमेया | संसारसहायजाणणा चेव । साहू चेवऽकसाया जओ प जंति ते तहवि ॥३॥ साध्वीनामाशातनया, क्रिया पूर्ववत्,| कलहणिया बहुउवही अहवावि समणुवद्दवो समणी । गणियाण पुत्तभण्डा दुमवेलि जलस्स सेवालो ॥१॥ अत्रोत्तरं| कलहंति नेव नाऊण कसाए कम्मबंधवीए उ । संजलणाणमुदय ओ ईसिं कलहेवि को दोसो? ॥२॥ उवही य बहुविगप्पो बंभषयरक्षणथमेयार्सि । भणिओ जिणेहि जम्हा तम्हा उवहिमि नो दोसो ॥३॥ समणाण नेय एया उवहवो स्वयं न कुर्वन्ति ॥ २ ॥ बालोऽपि ज्ञानबोकुलीन इति गुणाळपः कथं नु? | तुर्मवादीम्यपि एवं भणति भसन्ति दुर्मेधः ॥३॥ जानन्ति नापि विवंच निधर्माणो मोक्षकारणं ज्ञान । नित्यं प्रकाशयस्तो वैवावृप्यादि कुर्वन्ति ॥४॥ योऽज्ञातसमयसार । साधून समुदिश्य भाषते एकदा भविषहणा अवारतात भण्डनमामुण्डनं व ॥१॥ पाणा व श्वान इव भुजन्ति एकजस्तथा विरूपनेपथ्याः । एवमादि वदत्यवर्ण मूढो न जानात्येतत्तु ॥२॥ अविषहणा दिसमेताः संसारखभावज्ञानादेव । साधव एवाकवाया पतोऽतः प्रभजन्ति तवैव ॥1॥कलहकारिका बावधिका अथवाऽपि श्रमणोपड़वा श्रमणी । गणिकाना, पुत्रभाषदा तुमसा वही जल शैवालः ॥1॥ कषायान् कर्मवन्धवीजानि शारया नैर कलयन्ति । संचलनानामुदपात् ईपत् कलहेऽपि को दोषः ॥२॥ उपचिन बहुविकल्पो महामतरक्षणार्थ मेतासाम् । भणितो जिनर्यस्मात् तस्मादुपधी न दोषः ॥५॥श्रमणानां नेता पावः दीप अनुक्रम [२८] ~1460~ Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक सम्ममणुसरंताणं । आगमविहिं महत्थं जिणवयणसमाहियप्पाणं ॥४॥ श्रावकाणामाशातनया, क्रिया तथैव, जिनशासन-181 प्रतिकहारिभद भक्का गृहस्थाः श्रावका उच्यन्ते, आशातना तु-लण माणुसतं नाऊणवि जिणमय न जे विरई। पडिवजंति कहं ते | मणाध्य द्रीया धण्णा वुचंति लोगंमि? ॥१॥ सावगसुत्तासायणमत्थुत्तरं कम्मपरिणइवसाओ । जइवि पवजति न तंतहावि धपणत्ति अहेदाधा मग्गठिया ॥२॥ सम्यग्दर्शनमार्गस्थितत्वेन गुणयुक्तत्वादित्यर्थः, श्राविकाणामाशातनया, क्रियाऽऽक्षेपपरिहारी पूर्ववत्, शातनाः१९ ॥७२९॥ देवानामाशातनया, क्रिया तथैव, आशातना तु-कामपसत्ता विरईए वज्जिया अणिमिसया (३)निचिट्ठा। देवा सामर्थमिवि न य तित्थस्सुन्नइकरा य ॥ १॥ एत्य पसिद्धी मोहणियसायवेयणियकम्मउदयाओ । कामपसत्ता विरई कम्मोदयउ चिय न तेर्सि ॥२॥ अणिमिस देवसहावा णिचिट्ठाणुत्तरा उ कयकिच्चा । कालाणुभावा तित्थुन्नईवि अन्नत्य कुर्वति ॥३॥ देवीनामाशातनया, क्रियाक्षेपपरिहारौ प्राग्वत् । इहलोकस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत् । इहलोको-मनुष्यलोका, आशा|तना तस्य वितथप्ररूपणादिना, परलोकस्याऽऽशातनया, प्राग्वत् , परलोकः-नारकतिर्यगमराः, आशातना तस्य वितथपरूपणादिनक, द्वितयेऽप्याक्षेपपरिहारौ स्वमत्या कार्यों । केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत्, स च धर्मो | R ७२९॥ R दीप अनुक्रम [२८] ASAN सम्बगनुसरतात आगमविधि महार्थ जिनवचनसमाहिता मना ॥ ४ ॥ लकवा मानुष्यं ज्ञात्वाऽपि जिनवचन ये विरति । प्रतिपद्यन्ते कथं ते धन्या उच्यन्ते लोके ॥ १॥ श्रावकाशातमासूत्रमत्रोत्तरं कर्मपरिणतिवशात् । यद्यपि न तो प्रतिपद्यन्ते तथापि धन्या मार्गस्थिता इति ॥२॥ कामप्रसका विस्त्या | पर्जिता अनिमेषा निश्रेष्टा । देवाः सामऽपि न व तीर्थोनतिकारकाश्च ॥ १ ॥ अनोचरं मोहनीयसातवेचनीयकोवयात् । कामप्रसक्ता चिरतिश्च कर्मोदयत एव न तेषाम् ॥ २ ॥ अनिमेषा देवस्वाभाब्यात् निश्रेया अनुचरास्तु कृतकृत्याः । कालानुभावात् तीनितिमपि अन्यत्र कुर्वन्ति ॥३॥ ~1461 Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२८] आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३२०...] भाष्यं [२१३], द्विविधः - श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, आशातना तु-पाययसुत्तनिबद्धं को वा जाणेड़ पणीय केणेयं १ । किं वा चरणेणं तू दाणेण विणा व हवइन्ति ॥ १ ॥ उत्तरं - " बाल स्त्रीमूढ (मन्द) मूर्खाणां नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम्। अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥" निपुणधर्मप्रतिपादकत्वाच्च सर्वज्ञप्रणीतत्वमिति, चरणमाश्रित्याह- 'दानमौर विकेणापि, चाण्डालेनापि दीयते । येन वा तेन वा शीलं न शक्यमभिरक्षितम् ॥ १ ॥ दानेन भोगानाप्नोति, यत्र यत्रोपपद्यते । शीलेन भोगान् स्वर्ग च, निर्वाणं चाधिगच्छति ॥ २ ॥ तथाऽभयदानदाता चारित्रवान्नियत एवेति । सदेवमनुष्यासुरस्य लोकस्याऽऽशातनया, क्रिया प्राग्वत्, आशातना तु वितथप्ररूपणादिना, आह च भाष्यकारः | देवादीयं लोयं विवरीयं भगद् सत्तदीबुदही । तह कह पयावईणं पयईपुरिसाण जोगो वा ॥ २१३ ॥ उत्तरं सत्तसु परिमियसत्ता मोक्खो सुण्णत्तणं पयावह य । केण कउत्तणवत्था पयडीएँ कहं पवित्तित्ति १ ॥ २१४ || जमचेयणन्ति पुरिसत्थनिमित्तं किल पबन्तती साय। तीसे च्चिय अपवित्ती परोत्ति सव्वं चिय विरुद्धं ॥ २१५॥ (भा० ) सर्वप्राणभूत जीवसत्त्वानामाशातनया, क्रिया प्राग्वत्, तत्र प्राणिनः - द्वीन्द्रियादयः व्यक्तोच्छ्रासनिःश्वासा अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि - पृथिव्यादयः जीवन्ति जीवा - आयुः कर्मानुभवयुक्ताः सर्व एवेत्यर्थः सत्त्वाः- सांसारिकसंसा १ प्राकृतः सूचनिबन्ध इति को ना जानाति केनेदं प्रणीतमिति । किं वा पारित्रेणैव दानेन विना भवति तु ॥ १ ॥ देवादिकं लोकं विपरीतं वदति सप्त द्वीपोधनः । तथा कृतिः प्रजापतेः प्रकृतिपुरुषयोः संयोगो वा ॥ १ ॥ उत्तरं सप्तसु परिमिताः सच्चा अमोक्षः शुन्यत्वं वा प्रजापतिश्च । केन कृत इत्यन प्रकृतेः कथं प्रवृत्तिरिति ? ॥ २ ॥ यदचेतनेति पुरुषार्थनिमित्तं किल प्रवर्तते सा च । तस्था एवाप्रवृत्ता वितरोऽपि सर्वमेवैवं विरुद्धम् ॥ ३ ॥ ~1462~ Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१५], (४०) IN प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-रातीतभेदाः, एकाथिका वा ध्वनय इति, आशातना तु विपरीतप्ररूपणादिनैव, तथाहि-अङ्गष्ठपर्वमात्रो द्वीन्द्रियाद्यात्मेति, प्रतिक हारिभ-18 पृथिव्यादयस्त्वजीवा एव, स्पन्दनादिचैतन्यकार्यानुपलब्धेः, जीवाः क्षणिका इति, सत्त्वाः संसारिणोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रा एव | मणाध्य. द्रीया भवन्ति, संसारातीता न सन्त्येव, अपि तु प्रध्यातदीपकल्पोपमो मोक्ष इति, उत्तर-देहमात्र एवात्मा, तत्रैव सुखदुःखा- अहेदाथादितत्का>पलब्धेः, पूधिव्यादीनां त्वरूपचैतन्यत्वात् कार्यानुपलब्धि जीवत्वादिति, जीवा अप्पेकान्तक्षणिका न भवन्ति, हाशातनाः१९ ॥७३०॥ निरन्वयनाशे उत्तरक्षणस्यानुसत्तेनिहतुकत्वादेकान्तनष्टस्यासदविशेषत्वात् , सत्वाःसंसारिणः (देहप्रमाणाः), प्रत्युक्ता एव | संसारातीता अपि विद्यम्त एवेति, जीवस्य सर्वथा विनाशाभावात् , तथाऽन्यैरप्युक्तं-"नासतो विद्यते भावो, नाभावो| विद्यते सतः । उभयोरपि रष्टोऽम्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥१॥" इत्यादि । कालस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्ववत् , आशातना तु नास्त्येव काल इति कालपरिणतिर्वा विश्वमिति, तथा च दुर्नयः-"कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः कालः सुप्तेषु जागति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१॥” इत्यादि, उत्सरं-कालोऽस्ति, तमन्तरेण बकुलचम्पकादीनां नियतः पुष्पादिप्रदानभावो न स्यात्, न च तत्परिणतिर्विश्वं, एकान्तनित्यस्य परिणामानुपपत्तेः। श्रुतस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्ववत्, आशातना तु-को आउरस्स कालो? मइलंबरपोवणे य को कालो । जइ मोक्खहेज नाणं को कालो ॥७ ॥ तस्सऽकालो वा ॥१॥ इत्यादि, उत्तरं-जोगो जोरंगो जिणसासणमि दुक्खक्खया परजंतो। अण्णोष्णमबाहाए दीप अनुक्रम [૨૮] क भातुरा (औषधादाने) कालो मसिनाम्बरप्रक्षालने चकः कालः । यदि मोक्ष देतज्ञांनं कमास कालोऽकालो पा, प्रयुज्यमानो योगो जिनचासने योग्यः । अन्योऽन्याचाधया दुःखक्षयकारणात + C4 ~14634 Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२०...] भाष्यं [२१५], (४०) % प्रत सूत्रांक %9455 [सू.] असवत्तो होइ कायवो ॥२॥ प्राग् धर्मद्वारेण श्रुताशातनोक्ता इह तु स्वतन्त्रविषयेति न पुनरुक्तं । श्रुतदेवताया आशाजातनया, क्रिया पूर्ववत, आशातना तु श्रुतदेवता न विद्यतेऽकिश्चित्करी वा, उत्तरंज ह्यनधिष्ठितो मौनीन्द्रः खल्वागमन अतोऽसावस्ति, न चाकिञ्चित्करी, तामालम्ब्य प्रशस्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात् । वाचनाचार्यस्याऽऽशातनया, क्रिया पूर्ववत्, तत्र वाचनाचार्यों छुपाध्यायसंदिष्टो य उद्देशादि करोति, आशातना स्वियं-निर्दुःखसुखः प्रभूतान् वारान् वन्दनं दापयति, उत्तरं-श्रुतोपचार एषः क इव तस्यात्र दोष इतिOजं वाइद्धं बच्चामेलियं हीणक्खरियं अञ्चक्खरियं पयहीणं विणयहीणं घोसहीणं जोगहीणं मुहुदिन्नं दुहु। पडिच्छियं अकाले कओ सज्झाओ काले न कओ सज्झाओ असज्झाए सज्झाइयं सज्झाए न सज्झाइयं तस्स मिच्छामि दुकर्ड (सूत्रं) एए चोदस सुत्ता पुबिलिया य एगूणवीसंति एए तेत्तीसमासायणसुत्तत्ति । एतानि चतुर्दश सूत्राणि श्रुतक्रियाकालगोचरत्वान्न पुनरुक्तभाजीति, तथा दोषदुष्टपदं श्रुतं यदधीतं, तद्यथा-व्याविद्धं विपर्यस्तरत्नमालावद्, अनेन प्रकारेण 8याऽऽशातना तया हेतुभूतया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति क्रिया, एवमन्यत्रापि योज्या, व्यत्याम्बेडितं | कोलिकपायसवत् , हीनाक्षरम्-अक्षरन्यूनम्, अत्यक्षरम्-अधिकाक्षरं, पदहीन-पदेनैवोनं, विनयहीनम्-अकृतोचितविनयं, घोषहीनम्-उदात्तादिघोषरहितं, योगरहित-सम्यगकृतयोगोपचार, सुदत्तं गुरुणा दुष्ट प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मनेति, अकाले कृतः स्वाध्यायो-यो यस्य श्रुतस्य कालिकादेरकाल इति, काले न कृतः स्वाध्यायः-यो यस्याऽऽत्मीयोs. असपनो भवति कर्तव्यः ॥ ६॥ एतानि चतुर्दश सूत्राणि पूर्वाणि चैकानविंशतिः, एतानि प्रयधिशदाशातनायूत्राणि दीप अनुक्रम [२९] % -25 CAR 4 4 4- श्रुत संबंधी तथा श्रुतकाल संबंधी दोषा: वर्णयते ~14644 Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२१] भाष्यं [२१५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- ध्ययनकाल उक्त इति, अस्वाध्यायिक स्वाध्यायित ॥ किमिदमस्वाध्यायिकमित्यनेन प्रस्तावेनाऽऽयाताऽस्वाध्यायिकनियु-10 प्रतिक हारिभ-18 तिरित्यस्यामेवाऽऽद्यद्वारगाथा मणाध्य दीया | असज्झाइयनिजुत्ती बुच्छामी धीरपुरिसपण्णत्तं । जनाऊण सुविहिया पवयणसारं उचलहंति ॥ १३२१ ।। अस्वाध्या असजझायं तु दुविहं आयसमुत्थं च परसमुत्थं च । जं तत्थ परसमुत्थं तं पंचविहं तु नायरवं ॥१३२२॥ । ॥७३॥ व्याख्या-आ अध्ययनमाध्ययनमाध्यायः शोभन आध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यापिकंन स्थाध्यायिकमस्वाध्यायिक | तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् अस्वाध्यायिकमुच्यते, तदस्वाध्यायिक द्विविध-द्विप्रकारं, मूलभेदापेक्षया द्विविधमेव, द्वैविध्यं प्रदर्शयति-'आयसमुत्थं च परसमुत्थं च' आत्मनः समुत्थं-स्वव्रणोनवं रुधिरादि, चशब्दः| स्वगतानेकभेदप्रदर्शका, परसमुत्थं-संयमघातकादि, चः पूर्ववत्, तत्थ जं परसमुत्थं-परोजवं तं पञ्चविधं तु-पश्चप्रकार 'मुणेयर्थ' ज्ञातव्यमिति गाथार्थः॥ १३२१-१३२२ ।। तत्र बहुवक्तव्यत्वात् परसमुत्थमेव पश्चविधमादावुपदर्शयति संजमघाउबघाए सादिब्वे बुग्गहे य सारीरे । घोसणयमिच्छरण्णो कोई छलिओ पमाएणं ॥ १३२३ ॥ | व्याख्या-'संयमघातक' संयमविनाशकमित्यर्थः, तच्च महिकादि, उत्पातेन निवृत्तमौरपातिकं, तच्च पांशुपातादि, सह दिव्यैः सादिव्यं तच गन्धर्वनगरादि दिव्यकृतं सदिव्यं वेत्यर्थः, व्युग्रहश्चेति व्युद्हः-सामः, असावप्यस्वाध्यायिकनि- ॥७३१॥ मित्तत्वात् तथोच्यते, शारीरं तिर्यग्मनुष्यपुगलादि, एयंमि पंचविहे असज्झाए सज्झायं करेंतस्स आयसंजमविराहणा, १ एतस्मिन् पाविधेऽस्याध्यामिक स्वाध्याय कुर्वत आत्मसंयमविराधना, करक दीप अनुक्रम [२९]] | अथ अस्वाध्याय नियुक्ति: प्रस्तुयते ~1465~ Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्बुक्तिः [ ९३२३] भाष्यं [ २१५...], तत्थ दिहंतो, घोसणयमिच्छ इत्यादेर्गाथाशकलस्यार्थः कथानकादवसेय इति गाथासमुदायार्थः, अधुना गाथापश्चार्थाव|यवार्थप्रतिपादनायाह मिच्छभयघोसण निवे हियसेसा ले उ दंडिया रण्णा । एवं दुहओ दंडो सुरपच्छिते इह परे य ।। १३२४ ॥ व्याख्या - खिइपइडियं णयरं जियसत्तू राया, तेण सविसए घोसावियं जहा मेच्छो राया आगच्छइ, तो गामकूलगयराणि मोत्तुं समासन्ने दुग्गे ठायह, मा विणस्सिहिह, जे ठिया रण्णो वयणेण दुग्गादिसु ते ण विणड़ा, जे पुण ण ठिया ते मिच्छया (पाई) हि विलुत्ता, ते पुणो रण्णा आणाभंगो मम कओत्ति जंपि कंपि हियसेस तंपि दंडिया, एवमसज्झाए सज्झायं करेंतस्स उभओ दंडो, सुरत्ति देवया पछलड़ पच्छित्तेत्ति-पायच्छित्तं च पावइ 'इह'त्ति इहलोए 'परे'त्ति परलोए णाणादि विफलति गाथार्थः ॥ १३२४ ।। ( १९५०० ) इमो दितोवणओ राया इह तिस्थयरो जाणवया साहू घोसणं सुतं । मेच्छो य असज्झाओ रणधणाई च नाणाई ॥ १३२५ ।। व्याख्या- जहा राया तहा तित्थयरो, जहा जाणवया तहा साहू, जहा घोसणं तहा सुत्तं- असज्झाइए सज्झायपडि 5 तत्र दृष्टान्तः । क्षितिप्रतिष्ठितं नगरं जितशत्रू राजा, तेन स्वविषये घोषितं यथा म्लेच्छो राजा आगच्छति ततो ग्रामकुलनगरादीनि मुक्तवा समासचे दुर्गे तिष्ठत मा विनङ्गत ये स्थिता राज्ञो वचनेन दुर्गादिषु तेन विनष्टाः ये पुनर्न स्थितास्ते म्लेच्छपतिभिर्विताः ते पुना राज्ञा आज्ञामो मम कृत इति यदपि किमपि इतशेषं तदपि दण्डिताः एवमस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कुर्वत उभयतो दण्डः, सुर इति देवता प्रच्छति प्रायवित्तमिति प्रायश्रियं च प्राप्नोति, इहेति इहलोके पर इति परलोके ज्ञानादीनि बिफलानीति । अयं दृष्टान्तोपनयः यथा राजा तथा तीर्थंकरो यथा जानपदास्तथा साधवो यथा घोषर्ण तथा सूत्रं अस्वाध्यापिके स्वाध्यायप्रति ~ 1466 ~ Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२५] भाष्यं [२१५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- सेहंगति, जहा मेच्छो तहा असज्झाओ महिगादि, जहा रयणधणाइ तहा णाणादीणि महिगादीहि अविहीकारिणो १४ प्रतिक्रहारिभ- हीरति गाथार्थः॥ १३२५ ॥ मणाध्य दीया अस्वाध्याथोचावसेसपोरिसिमज्झयणं वावि जो कुणइ सो उ । णाणाइसाररहियस्स तस्स छलणा उ संसारो ॥१३२६॥ यिकनि. ॥७३२॥ व्याख्या-थोवावसेसपोरिसिं कालवेलत्ति जं भणियं होइ, एवं सो उत्ति संबंधो, अज्झयण-पाठो अविसदाओ| वक्खाणं वावि जो कुणइ आणादिलंघणे णाणाइसाररहियस्स तस्स छलणा उ संसारोत्ति-णाणादिवेफलत्तणओ चेव | गाधार्थः ॥ १३२६ ॥ तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहमहिया य भिन्नवासे सञ्चित्तरए य संजमे तिविहं । व्वे खित्ते काले जहियं वा जचिरं सव्वं ॥ १३२७ ॥ व्याख्या-'मह्यि'त्ति धूमिगा 'भिन्नवासे यत्ति बुझदादौ 'सचित्तरए'त्ति अरपणे वारद्धयपुढविरएत्ति भणियं होइ, संजमघाइयं एवं तिविहं होइ, इमं च 'दवेत्ति तं चेव दई महिगादि 'खेत्ते काले जहिं वेति जहिं खेत्ते महिगादि पडइ दीप अनुक्रम [२९] ॥७३२॥ पेपकमिति, यथा लेखसधासाध्यायो महिकादि।, यथा रखधनादि तथा ज्ञानादीनि महिकादिभिरविधिकारिणो नियन्ते । सोकावशेषा पीस|पीति कालवेलेति यज्ञणितं भवति, एवं स स्थितिसम्बन्धः, अध्ययन पाठः अपिशब्दात् पाण्यानं वापि यः करोति नाज्ञाघुलाने ज्ञानादिसाररहितस तस्यउळना तु संसार इति ज्ञानादेकल्यादेव । महिकेवि धूमिका भिनवर्षमिति नहुदादौ सति सचिन रज इति भरण्ये वासोबूतं पृथ्वीरज इति भणितं भवति, संथमघातकमे त्रिविधं भवति, इदं व इत्य इति तदेव अन्य महि कादि क्षेत्रे काले यत्रैवेति-यत्र क्षेत्रे महिकादि पतति ~14674 Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२७] भाष्यं [२१५...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] हजचिरं कालं 'सर्च'ति भावओ ठाणभासादि परिहरिजइ इति गाथासमुदायार्थः ॥ १३२७ ॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार: स्वयमेव व्याचष्टे, इह पञ्चविधासम्झाइयस्स, तं कह परिहरियषमिति !, तप्पसाहगो इमो दिढतोदुग्गाइतोसियनिवो पंचण्हं देह इच्छियपयारं । गहिए य देइ मुल्लं जणस्स आहारवस्थाई ॥१३२८॥ | व्याख्या-एगस्स रण्णो पंच पुरिसा, ते बहुसमरलद्धविजया, अण्णया तेहिं अञ्चंतषिसमं दुग्गं गहियं, तेर्सि तुट्ठो राया इच्छिय नगरे पयारं देइ, जं ते किंचि असणाइ वा वधाइगं च जणस्स गिहति तस्स वेयणय सर्व राया पय-12 च्छइ इति गाथार्थः ॥ १३२८ ॥ इकेण तोसियतरोगिहमगिहे तस्स सबहिं वियरे। रत्थाईसुचउण्हं एवं परमं तु सव्वस्थ ॥ १३२९ ॥ PI व्याख्या-तेसिं पंचण्डं पुरिसाणं एगेण तोसिययरो तस्स गिहावणद्वाणेसु सवरथ इच्छियपयारं पयच्छइ, जो एते |दिण्णपयारे आसाएजा तस्स राया दंड करेइ, एस दिहतो, इमो उवसंहारो-जहा पंच पुरिसा तहा पंचविहासज्झाइयं, जहा सो एगो अन्भहिततरो पुरिसो एवं पढम संजमोवघाइयं सर्व तत्थ ठाणासणादि, तंमि बट्टमाणे ण सज्झाओ नेव यावन्त कार्य (वा पतति) सर्वमिति भावतः स्थानमाचादि परिहियते । इह पञ्चविधास्वाध्यापिकस, सत् कथं परिहर्गम्यमिति , सध्यसाधकोऽयं दृष्टान्तः-एकस्य राज्ञः पत्र पुरुषाः, ते बटुसमरलब्धविजयाः, अन्पदा तैरत्वन्तविपमो दुर्गो गृहीतः, तेभ्वसाटो राजा ईप्सितं नगरे प्रचार ददाति, यचे किनिदशनादि या वचाविक वा जनस्य गृहन्ति तस्य वेतनं सर्व राजा प्रयच्छति । तेषां पन्जानां पुरुषाणामेकेन तोपिरातः, तम गृहापणस्थानेषु सर्वप्सितं प्रचार प्रयच्छति, व एनाभू दत्तप्रचारान् आशातयेत् तस्य राजा वदं करोति, पुष हटान्तोऽयमुपसंहार:-यथा पत्र पुरुषास्तधा पञ्चविधास्वाध्याथिक, यथा स एकोऽयधिकतरः पुरुष एवं प्रथम संयमोषपाति सवै तत्र स्थानासनादि, तस्मिन् वर्तमाने न स्वाध्यायो नैव ASSAMASTI दीप अनुक्रम [२९] ~14684 Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२९] भाष्यं [२१६], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-स पडिलेहणादिकावि चेट्ठा कीरइ, इयरे चउसु असज्झाइएसु जहा ते चउरो पुरिसा रत्थाइसु चेव अणासाइणिज्जा तहा४ प्रतिक्रहारिभ- तेसु सम्झाओ चेव न कीरइ, सेसा सवा चेहा कीरइ आवस्सगादि उकालियं च पढिजद । महियाइतिविहस्स संजमोव-17 मणाध्य. द्रीया घाइस्स इमं वक्खाणं पञ्चविधामहिया उ गन्भमासे सचित्तरओ अ ईसिआयंबो। वासे तिन्नि पयारा बुन्बुअ तब्बज फुसिए य ॥२१६॥(भा०) स्वाध्यायिक ॥७३॥ । व्याख्या-'महिय'त्ति धूमिया, सा य कत्तियमग्गसिराइसु गम्भमासेसु हवइ, सा य पडणसमकालं चेव सुहुमत्तिणओ सर्व आउकायभावियं करेति, तत्थ तकालसमयं चेव सबचेट्ठा निरंभति, ववहारसश्चित्तो पुढविकाओ अरणो वाउम्भूओ आगओ रओ भन्नइ, तस्स सचित्तलक्खणं वण्णओ ईसि आयंबो दिसंतरे दीसइ, सोषि निरंतरपारण तिण्हं-तिदिणाणं परओ सर्व पुढवीकायभावियं करेति, तत्रोत्पातशङ्कासंभवश्च । भिन्नवासं तिविहं-बुद्दादि, जत्थ वासे पडमाणे उदगे बुद्बुदा भवन्ति तं बुद्धयवरिस, तेहिं वज्जियं तवज, सुहुमफुसारेहिं पडमाणेहि फुसियवरिसं, एतेसिं जहासंख प्रतिलेखनादिकाऽपि चेष्टा क्रियते, इतरेषु चतुएं अस्वाध्यापिकेषु यथा ते चत्वारः पुरुषा रण्यादिवेवानाशाननीयास्तथा तेषु स्वाध्याय एवं न कियते | INIशेषा सर्वा चेष्टा क्रियते आवश्यकादि कालिकच पक्ष्यते । महिकादिधिनिधस्य संयमोपघातिकखेद व्याख्यान-मदिति भूमिका, सा च कार्तिकमार्गशिर-IN२शा आदिषु गर्भमासेषु भवति, सा च पतनसमकालमेव सूक्ष्मवात् सर्वमकायभावितं करोति, तत्र तत्काल समयमेव सर्वा चेष्टा निरुणदि, पवहारसविता पृथ्वीकाप मारण्यं चायूतं आगतं रजो भपते, तस्य सचित्तलक्षणं वर्णत ईषदातानं दिगन्तरे रश्यते, तदपि निरन्तरपातेन विदिम्याः परतः सर्व पृथ्वीकापभावितं करोति । भिन्नवर्षः विविधः, यत्र वर्षे पतति उदके बहदा भवन्ति स बुहुदवः, जितः तदर्जः, सूक्ष्मैबिन्दुभिः पतद्भिः बिन्दुवर्षः। एतेषां यथासंख्यं दीप अनुक्रम [२९] पञ्चविध: अस्वाध्यायिकम् दर्शयते ~1469~ Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३२९] भाष्यं [२१७], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] तिहपंचसत्तदिणपरओ सर्व आउकायभावियं भवइ ॥ १३२९ ॥ संजमघायस्स सबभेदाणं इमो चउविहो परिहारोदिवे खेत्ते' पच्छद्धं, अस्य व्याख्यादव्ये तं चिय दवं खिंते जहियं तु जचिरं कालं । ठाणाइभास भावे मुनु उस्सासउम्मेसे ॥२१७॥ (भा०) व्याख्या--दवओ तं चेव दर्व महिया सचित्तरओ भिण्णवास वा परिहरिजइ। खेत्ते जहिं पडइत्ति-जहिं खेत्ते तमहिना याइ पडइ तर्हि चेव परिहरिजइ, 'जच्चिरं काल'न्ति पडणकालाओ आरम्भ जच्चिरं कालं भवति 'ठाणाइभास भावे'त्ति भावओ 'ठाणे'त्ति काउस्सरगं न करेति, न य भासइ, आइसद्दाओ गमणपडिलेहणसज्झायादि न करेति, 'मोनुं उस्सासउम्मेसे'त्ति 'मोत्तुं ति ण पडिसिझंति उस्सासादिया, अशक्यत्वात् जीवितव्याघातकत्वाच्च, शेषाः क्रियाः सर्वा| निषिध्यन्ते, एस उस्सग्गपरिहारो, आइण्णं पुण सश्चित्तरए तिणि भिण्णवासे तिपिण पंच सत्त दिणा, अओ परं सम्झायादि दीप अनुक्रम [२९] SACXCXCX विपत्रसप्तदिनेभ्यः परतः सर्व मायभावितं भवति, संयमघातकानां सर्वभेदानामयं चतुर्विधः परिहार:-प्रयतसादेव द्रव्यं महिका सचिचरनो भिनवर्षों या परिट्रिपते, क्षेचे वत्र पतति-पत्र क्षेत्रे तत् महिकादि पतति तत्रैव परिट्रियते, यावचिरं कालमिति पतनकालादारभ्य यावचिरं कालं भवति, खानादिभाषा भाव इति भावतः स्थानमिति कायोत्सर्ग न करोति, न च भाषते, आदिवादात् गमनप्रतिलेखनास्वाध्यायादि न करोति, मुक्योच्छ्रासोन्मेषा[मिति मुग्वेति न प्रतिषिध्यन्ते उपहासादयः । एष आसर्गपरिहार, आचरणा पुनः सचित्तरमसि श्रीणि भिमवर्षे त्रीणि पा सप्त दिनानि, अतः परं खाध्यायादि। *"ले जहि पा जधिरं काढ़" इत्यपि पुस्तकान्तरे। +"मोतु उस्सासम्मेस" इति पाठान्तरं । CAMANNAA% ~1470~ Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३०] भाष्यं [२१७], (४०) आवश्यक- हारिभपीया प्रत सूत्रांक प्रतिक्र| मणाध्य. | पञ्चविधास्वाध्यायिक ७३४॥ सव्वं न करेति, अण्णे भणति-बुब्बुयवरिसे बुब्बुयवजिए य अहोरत्ता पंच, फुसियवरिसे सत्त, अओ परं आउक्काय- भाविए सबा चेहा निरंभंतित्ति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ कह ?चासत्ताणावरिया निकारण ठंति कजि जयणाए। हत्यत्धंगुलिसन्ना पुत्तावरिया व भासंति ॥ १३३० ।। व्याख्या-निकारणे वासाकर्ष-कंबली(ता)ए पाउया निहुया सबभतरे चिट्ठति, अवस्सकायचे वत्त वा कजे इमा जयणा-हत्येण भमुहादिअच्छिवियारेण अंगुलीए वा सन्नत्ति-इमं करेहित्ति, अह एवं णावगच्छद, मुहपोत्तीयअंतरियाए जयणाए भासंति, गिलाणादिकज्जे वासाकप्पपाउया गच्छंति ति ॥ १३३०॥ संजमघाएत्ति दारं गयं । इयाणिं | उप्याएत्ति, तत्थ पंसू अ मंसरुहिरे केससिलावुद्धि तह रउग्धाए । मंसरुहिरे अहोरत्त अवसेसे जचिरं सुत्तं ॥ १३३१॥ व्याख्या---धूलीवरिसं मंसवरिसं रुहिरवरिसं 'केस'त्ति केसवरिसं करगादि सिलावरिसं रयुग्घायपडणं च, एएसिं इमो| दीप अनुक्रम [२९] ॥७३४॥ सबै न करोति, मन्ये भणन्ति-बहुवर्षे बहुववर्जिते च महोरात्राणि पत्र बिन्दुवर्षे सप्त, अतः परमकायमाविसवान सविधा निरुणादिक । निष्कारणे वर्षाकपा-कम्बलः तेन प्रावृता निभूताः सर्वाभ्यन्तरे चिन्ति, अवश्यकर्तव्ये अवश्यवक्ताम्ये पा का हवं यतना-हस्तेन प्रकुल्यायक्षिविकारेणाकुल्या पा संशयन्ति कृषिति, अधेि नावति मुखचखिकयाऽन्तरितया यतन या भाषन्ते, ग्लानादिकार्ये वर्षाकल्पमाता गच्छन्तीति । संघमघातक इति । द्वार गर्ने । इदानीमोल्पातिकमिति, नत्र लिवर्षों मासवर्षों रुधिरवर्षः केशेति केशवर्षः करकादि। शिलावा रजातपातपतनं च, एतेषामर्य ~1471~ Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३१] भाष्यं [२१७], (४०) -4-95 6 प्रत सूत्रांक [सू.] परिहारो-मंसरुहिरे अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, अवसेसा पंसुमाइया जच्चिरं कालं पडंति तत्तियं कालं सुत्तं नंदिमाइयं न पतित्ति गाथार्थः ॥ १३३१ ॥ पंसुरयुग्धायाण इमं वक्खाणेपंसू अचित्तरओ रयस्सिलाओ दिसा रउग्घाओ । तत्थ सवाए निब्वायए य सुत्तं परिहरति ।। १३३२॥ व्याख्या-धूमागारो आपंडुरो रओ अञ्चिचो य पंसू भणइ, महास्कन्धावारगमनसमुदत इव विक्षसापरिणामतः | समन्ताद्रेणुपतनं रजउद्घातो भण्यते, अहवा एस रओ उग्घाडउ पुण पंसुरिया भण्णइ । एपसु वायसहिएसु निवाएसु वा सुत्तपोरिसिं न करेतित्ति गाथार्थः॥ १३३२ ॥ किं चाभ्यत्-... साभाविय तिति दिणा सुगिम्हए निक्खिचंति जइ जोगं तो तंमि पडतंमी करंति संवच्छरजनायं ॥१३३३॥ व्याख्या-एए पंसुरउउग्घाया साभाविया हवेजा असाभाविया वा, तत्थ असम्भाविया जे णिग्धायभूमिकंपचदोपरागादिदिवसहिया, एरिसेसु असाभाविएसु कएवि उस्सग्गे न करेंति सज्झायं, 'सुगिम्हए'त्ति यदि पुण चित्तसुद्धपक्खदसमीए अबरण्हे जोगं निखिवंति दसमीओ परेण जाव पुण्णिमा एत्वंतरे तिण्णि दिणा उवरुवरि अचित्तरउग्घाडावर्ण परिहारः मांसरुधिरयोरहोरात्र खापायो न क्रियते, अवशेषाः पाश्वादिका यावचिरं कालं पतन्ति तापत काल सूत्र-नन्यादिकं न पठन्तीति । पांशुरजजद्धातबोरिदं व्याख्यान-भूमाकार आपाण्टुब रजः अचित्तश्च पांशु ण्यते अथष व उबातस्तु पुनः पांगुरिका मण्यते, एतेषु धातसहितेषु निवातेषु बा सूत्रपौरुषी न करोतीति । एतौ पांसुरजउद्धाती स्वाभाविको भवेतामस्वाभाविको बा, तत्रास्वाभाविको यो निर्धातभूमिकम्पचन्द्रोपरागादिदिव्यसहिती, ईशयोरस्वाभाविकयोः कृतेऽपि कायोत्सर्गे न कुर्नन्ति स्वाध्याय, सुग्रीष्मक इति यदि पुनश्त्रशुद्धपक्षदशम्या अपराङ्के योग निक्षिपति दमामीतः परतः यावत् पूर्णिमा अत्रान्तरे बीन् दिवसान उपर्युपरि अचित्तरजतदातना दीप अनुक्रम [२९] ~1472~ Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३३] भाष्यं [२१७...], (४०) हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥७३५॥ है [सू.] दीप अनुक्रम [२९] काउस्सगं करेंति तेरसिमादीसु वा तिसु दिणेसु तो साभाविगे पडतेऽवि संवच्छर सम्झायं करेति, अह उस्सग्गं न सपना४प्रतिककरेंति तो साभाविए य पड़ते सम्झायं न करेतित्ति गाथार्थः ।। १३३३ ।। उप्पाएत्ति गयं, इदाणिं सादिवेत्ति दारं, तच्च- मणाध्य० गंधब्बदिसाविजुकगजिए जूअजक्खआलित्ते । इकिक पोरिसी गजियं तु दो पोरसी हणइ ॥१३३४॥ पञ्चविधा व्याख्या-धर्व-नगरविउवणं, दिसादाहकरणं विजुभवणं उक्कापडणं गजियकरणं, जूवगो वक्खमाणलक्षणो, जक्खा-स्वाध्यायिक |दित्तं-जक्खुदितं आगासे भवइ । तत्थ गंधवनगरं जक्खुदितं च एए नियमा दिवकया, सेसा भयणिजा, जेण फुडं न नजति तेण तेसिं परिहारो, एए पुण गंधवाइया सबे एकेक पोरिसिं उवहणंति, गजियं तु दो पोरिसी उवहण इत्ति गाथार्थः॥ १३३४ ॥ मादिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो उ जवओ सुकि दिण तिन्नि ॥ १३३५ ।। व्याख्या-अन्यतमदिगन्तरविभागे महानगरप्रदीप्तमिवोद्योतः किन्तूपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकारः इंटक छिन्न-| मूलो दिग्दाहा, उकालक्खणं-सदेहवणं रेहं करेंती जा पडइ सा उक्का, रेहविरहिया वा उज्जोयं करेंती पडइ सावि उका।। कायोत्सर्ग कुर्वन्ति त्रयोदश्यादिषु वा त्रिषु दिवसेषु तदा स्वाभाविकयोः पततोरपि संवत्सर स्वाध्यायं कुर्वन्ति, अयोसगै न कुर्वन्ति तदा ससाभाविक ||७३५॥ पतति स्वाध्यायं न करोति । औत्पातिकमिति गतं, इदानी साविब्यमिति द्वार, तथा-गान्धर्व नगरविकुर्वणं दिम्बाइकरणं विद्युभवनं उरकापतनं गर्जितकरणं यूपको-वक्ष्यमाणलक्षणः यक्षादीक्ष-यशोदीप्तमाकाशे भवति, तत्र गान्धर्वनगर यशोहीप्तं च एते नियमात् देवकृते, शेषाणि भजनीयानि, येन स्फुट न ज्ञायन्ते तेन तेषां परिहारः । एते गान्धर्वादिकाः पुनः सबै एकैकां पौरुषीमुपान्ति, गर्जितं तुटे पौभायात्रुपहन्ति । उकालक्षण-खदेहपर्णी रेखां कुर्वन्ती या पतति । सोक्का रेखानिरहिता बोधोतं कुर्वन्ती पतति साप्युल्का । ~1473~ Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३५] भाष्यं [२१७...], (४०) - प्रत सूत्रांक [सू.] जवगोत्ति संझप्पहा चंदप्पहा य जेणं जुगवं भवंति तेण जूवगो, सा य संझप्पहा चंदप्पभावरिया णिप्फिडती न नजइ सुक्कपक्लपडिवगादिसु दिणेसु, संझाछेयए अणजमाणे कालवेलं न मुणंति तो तिन्नि दिणे पाउसियं कालं न ४| गण्डंति-तिसु दिणेसु पाउसियसुत्तपोरिसिं न करेंति त्ति गाथार्थः ॥ १३३५॥ केसिंचि हुंतिऽमोहाउ जुवओ ता य हुंति आइन्ना । जेसिं तु अणाइना तेसिं किर पोरिसी तिन्नि ॥ १३३६ ॥ व्याख्या-जगस्स सुभासुभकम्मनिमित्तुष्पाओ अमोहो-आइच्चकिरणविकारजणिओ, आइचमुदयत्थमआयतो(बो)। किण्हसामो वा सगडुद्धिसंठिओ दंडो अमोहत्ति स एव जुबगो, सेसं कंठ ॥१३३६ ॥ किं चाम्यत्चंदिमसूरुवरागे निग्घाए गुंजिए अहोरत्तं । संझा चउ पाडिएया जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥ १३३७ ॥ व्याख्या-चंदसूरूवरागो गहणं भन्नइ-एयं वक्खमाणं, साने निरभ्र वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितसमो ध्वनिनिर्घातः, तस्यैव वा विकारो गुञ्जावद्गुञ्जितो महाध्वनिगुञ्जितं । सामण्ण ओ एएसु चउसुवि अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, निग्धायगुंजिपसु विसेसो-वितियदिणे जाव सा वेला णो अहोरत्तछेएण छिज्जइ जहा अन्नेसु असज्झाएसु, 'संझा चउत्ति _ यूपक इति सन्ध्याममा चन्द्रप्रभा च येन युगपद् भवतलेन यूपका, सा च सन्ध्याममा चन्द्रप्रभावृता गच्छन्ती न ज्ञायते शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु, ४ दिनेषु, सन्ध्यादेज्ञायमाने काल वेलां न जानन्ति ततस्त्रीन् दिवसान प्रादोषिर्क कालं न गृह्णन्ति त्रिषु दिवसेषु प्रादोषिकसूत्रपरिषीं न कुर्वन्तीति । जगतः शुभाशुभकर्म निमित्त उत्पातोऽमोवा-आदिल्यकिरण विकारजनितः आदित्योद्गमनास्लमयने आताम्रः कृष्णश्यामो वा शकटोदिसंस्थितो दण्डोऽमोष इति स एव चूपक हति, शेषं कण्यं । चन्द्रसूर्योपरागो प्रहणं भव्यते, एतत् वषमाण, सामान्यत एतेषु चतुष्यपि अहोरात्र खाण्यायो ग क्रियते, निपीतगुणितयोषि| शेष:-द्वितीयदिने यावत् सा वेला नाहोरात्रच्छेदेन छियते यथाऽन्येवस्वाध्यापिके', 'सध्याचतुष्कमिति दीप अनुक्रम [२९] MCCRICS ~1474~ Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३७] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक प्रतिकमणाध्य. पश्चविधास्वाध्यायिक दीप अनुक्रम [२९]] आवश्यक- अणुदिए सूरिए मज्झण्हे अस्थमणे अहुरत्ते य, एयासु चउसु सज्झायं न करेंति पुचुत्तं, 'पाडिवएत्ति चउहं महामहाणं हारिभ चउसु पाडिवएसु सज्झाय न करेंतित्ति, एवं अन्नपि जंति-महं जाणेज्जा जहिंति-गामनगरादिसु तपि तत्थ बज्जेजा, द्रीया सुगिम्हए पुण सवत्थ नियमा असज्झाओ भवति, एत्थ अणागाढजोगा निक्खिवंति नियमा आगाढा न निक्खिवंति,न ७३६॥ भापतित्ति गाथार्थः ॥ १३३७ ॥ के य ते पुण महामहाः १, उच्यन्ते आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोडव्वे । एए महामहा खलु एएसिं चेव पाडिवया ॥ १३३८॥ व्याख्या-आसाढी-आसाढपुन्निमा, इह लाडाण सावणपुतिमाए भवति, इंदमहो आसोयपुन्निमाए भवति, 'कत्तियत्ति कत्तियपुन्निमाए चेव सुगिम्हओ-चेत्तपुण्णिमा, एए अंतिमदिवसा गहिया, आई उ पुण जत्थ जत्थ विसए जओ | ४ दिवसाओ महमहा पवतंति तओ दिवसाओ आरभ जाव अंतदिवसो ताव साझाओ न काययो, एएसिं चेव पुण्णिमाणतरं जे बहुलपडिवया चउरो तेवि वज्जियत्ति गाथार्थः ॥ १३३८ ॥ पडिसिद्धकाले करेंतस्स इमे दोसा अनुदिते सू मध्याहे असमबने अधराने च, एतासु घतमषु स्वाध्यायं न कुर्वन्ति पूति, प्रविपद' इति चतुणा महामहानो चतम् प्रतिपस्सु स्वाध्याय न फुर्वन्तीति, एवमन्यमपि यमिति मह जानीयात् यत्रेति ग्रामनगरादिषु तमपि तन वर्जयेत्, सुधीष्मके पुनः सर्वत्र निषमादखायायो। भवति, अनानागादयोगा निक्षिप्यन्ते नियमान भागाडान् न निक्षिपति, न पठन्तीति । के च पुनस्ते महामहाः', अच्यन्ते-आषाढीभाषापूर्णिमा इद लाटान | श्रावणापूर्णिमायाँ भवति, इन्दमद अश्श्युपूर्णिमायां भवति, कार्तिक इति कार्तिकपूर्णिमायामेच सुग्रीष्मका-चैत्र पूर्णिमा, एतेऽन्यदिवसा गृहीताः भादिस्त पुनर्यत्र यत्र देशे यतो दिवसात महामहाः प्रवर्तन्ते ततो दिवसादारभ्य यावदन्त्यो दिवसमतावत् स्वाध्यायो न कर्तव्या, एतासामेव पूर्णिमानामनन्तरा वाः कृष्णमसिएवजवनस्ता अपि वर्जिता इति । प्रतिषिकाले कृर्षत हमे दोषाः ||७३६॥ CSS ~1475~ Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३३९] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] काम मुओवओगो तयोवहाणं अणुत्तरं भणियं । पडिसेहियंमि काले तहावि खलु कम्मबंधाय ।। १३३९ ॥ छलया व सेसएणं पाडियएसुंछणाणुसजंति । महवाउलत्तणेणं असारिआणं च संमाणो ॥ १३४० ॥ अन्नयरपमायजुयं छलिज अप्पिढिओन उण जुत्तं । अहोदहिडिइ पुण छलिज जयणोवउत्तंपि ॥१३४१॥ | व्याख्या सरागसंजओ सरागसंजयत्तणओ इंदियविसयाअन्नयरपमायजुत्तो हविज स विसेसओ महामहेसु त पमायजुत्तं पडणीया देवया छलेज । अप्पिडिया खेत्तादि छलणं करेज, जयणाजुत्तं पुण साहुं जो अप्पिहिओ देवो| अद्धोदहीओ ऊणठिईओ न चए छलेड, अद्धसागरोवमठितीओ पुण जयणाजुत्तंपिछलेज्जा । अस्थि से सामत्थं जं तंपि पुवावरसंबंधसरणओ कोइ छलेजत्ति गाधार्थः॥ १३३९-१३४०-१३४१॥'चंदिमसूरुवरागत्ति अस्या व्याख्या उकोसेण दुवालस चंदु जहन्मेण पोरिसी अट्ठ । सुरो जहन्न वारस पोरिसिउकोस दो अह ॥१३४२॥ व्याख्या-चंदो उदयकाले गहिओ संदूसियराईए चउरो अण्णं च अहोरत्तं एवं दुवालस, अहवा उप्पायगहणे सवराइयं गहणं, सग्गहो चेव निबुड्डो संदूसियराईए चउरो अण्णं च अहोरत्तं एवं बारस । अहवा अजाणओ, सरागसंयतः सरागसंवतत्वादिभिवविषवाद्यन्यतरनमाबुतो भवेत् स विशेषतो महामहेषु तं प्रमादयुतं प्रत्यनीका घेवता छलेन अस्पर्दिका लिप्तादिच्छलनी कुर्यात् , यतनायुक्त पुनः साधु योऽपाईको देवोऽधोदधित अनस्थितिको न शक्नोति उलपित, अर्धसागरोपमस्थितिका पुनर्वतनायुक्कमपि उलेन , भस्ति तख सामय यत्तमपि पूर्यापरसम्बन्धस्मरणतः कश्चित् छलेदिति । चन्द्र उदयकाले गृहीतः संदूपितरनेश्नःवारः अन्यच्चाहोरात्रमेचं द्वादश, अथवा उत्पातमहणे सरात्रिक ग्रहणं, सग्रह एव भूद्धितः संदूषितरानेश्वरवारः अन्यवाहोरानमेव द्वादश, अधवा भजानतः ~1476~ Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४२] भाष्यं [२१७...], (४०) हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७३७॥ अभछण्णे संकाए न नजइ, केवलं ग्रहणं, परिहरिया राई पहाए दि8 सग्गहो निबुडो अण्णं च अहोरत्तं एवं दुवालस। ४ प्रतिकएवं चंदस्स, सूरस्स अस्थमणगहणे सग्गहनिब्बुडो, उवहयरादीए चउरो अण्णं च अहोरत्तं एवं बारस । अह उदयंतोमणाध्यक गहिओ तो संदूसिए अहोरते अह अण्णं च अहोरत्तं परिहरइ एवं सोलस, अहवा उदयवेलाए गहिओ उप्पाइयगह- (पश्चविधाणेण सर्व दिणं गहणं होउं सग्गहो चेव निबुडो, संदूसियस्स अहोरत्तस्स अट्ट अण्णं च अहोरत्तं एवं सोलस । अहवास्वाध्यायिक अन्भच्छन्ने न नजइ, केवलं होहिति गहणं, दिवसओ संकाए न पढियं, अत्थमणवेलाए दिढ गहणं सग्गहो निम्बुडो, संदूसियरस अह अण्णं च अहोरत्तं एवं सोलसत्ति गाथार्थः॥१३४२॥ सग्गहनिब्बुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन दिणमुक्के सुचिय दिवसो अ राई य॥१३४३ ।। व्याख्या-सग्गहनिबुढे एग अहोरत्तं उवयं, कहं , उच्यते, सूरादी जेण होतिऽहोरत्तं, सूरउदयकालाओ जेण अहो-R रत्तस्स आदी भवति तं परिहरितुं संदूसिअं अण्णपि अहोरत्तं परिहरिया । इमं पुण आइन्नं-चंदो रातीए गहिओ राई अनन्छने पाणायां न ज्ञायते, केवळ ग्रहणं, परिहता रात्रिः, प्रभाते ए, सग्रहो बुद्धितः, अभ्यच्चाहोरात्रमेव द्वादश, एवं चन्द्रख, सूर्यस्य तु अस्तमयनग्रहणे साहो भूद्धितः, उपहतराभ्याश्चत्वारोऽम्बवाहोरात्रमेव द्वावा, अयोद्च्छन् गृहीतः ततः संदूषिताहोरात्रस्याष्टौ अन्यच्चाहोरात्र परिधियते एवं षोडश, अथवोदयवेलायां गृहीतः औत्पातिकग्रहणेन, सवै दिन ग्रहणं भूत्वा सग्रह एव मूढिता, संदूषितस्याहोरात्रस्याष्टौ अन्षचाहोरात्रमेवं षोडश, ||७३७॥ अथवाऽनच्छन्ने म ज्ञायते केवलं भविष्यति ग्रहण, दिवसे सड़या न पठितं, अलमवनवेलायां हार्ट ग्रहणं सग्रहो बृद्धितः, संदूषितस्याष्ट अन्य चाहोरात्रमेचं पोटोति । सग्रहे महिते एकमहोरात्रमुपहन, कथं ? उच्यते, सूर्यादीनि बेन भवनवहोरामाणि-सूर्योदयकालात् येनाहोरात्रस्यादिर्भवति, तत् परिहत्य | संदूषितमन्यदप्यहोरात्रं परिहर्ष, इदं पुनराचीन-चन्द्रो रात्री गृहीतो रात्रा दीप अनुक्रम [२९] KI ~1477~ Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४३] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक 646 चेवं मुक्को तीसे राईइ सेसं वजणीयं, जम्हा आगामिसूरुदए अहोरत्तस मत्ती, सूरस्सवि दियागहिओ दिया चेव मुक्को तस्सेव दिवसस्स मुक्कसेसं राई य वजणिज्जा । अहवा सग्गहनिब्बुडे एवं विही भणि ओ, तओ सी सो पुच्छइ-कह चंदे दुवालस सूरे सोलस जामा ?, आचार्य आह-सूरादी जेण होतिऽहोरत्ता, चंदस्त नियमा अहोरत्तद्धे गए गहणसंभवो, अण्णं च अहोरत्तं, एवं दुवालस, सूरस्स पुण अहोरत्तादीए संदूसिएयर अहोरत्तं परिहरिजइ एए सोल सत्ति गाथार्थः ॥१३४३॥ सादेवत्ति गये, इयाणि बुग्गहेत्ति दारं, तत्थवोग्गह दंडियमादी संखोभे दंडिए य कालगए । अणरायए य सभए जचिर निहोचऽहोरत्तं ॥१३४४ ॥ अस्या एव व्याख्यानान्तरगाथासेणाहिई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुढे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥१३४५ ॥ इमाण दोण्हवि वक्खाणं-इंडियस्स चुग्गहो, आदिसहाओ सेणाहिबस्स, दोण्ह भोइयाणं दोहं मयहराणं दोण्ह C5%95%-733 [सू.] R दीप अनुक्रम [२९] वेव मुक्तस्तस्था रात्रेः शेषं वर्जनीयं, यस्मादागामिनि सूर्योदयेहोरात्रसमातिः, सूर्यस्यापि दिया गृहीतो दिव मुक्तस्तस्यैव दिवसस्य मुक्तशेष रात्रिश्च वर्जनीया । अथवा साहेबूद्धिते एवं विधिर्भणितः, ततः शिष्यः पृच्छति-कथं चन्द्रे द्वादश सूर्य षोडश यामाः?, सूर्यादीनि येनाहोरामाणि भवन्ति, चन्द्रस्य [नियमावहोराने गते प्रहणसंभवः भन्यवाहोरात्र मेवं द्वादश, सूर्यस्ख पुनरहोरानादित्वात् संदूषितेतरे अहोराले परिणयेते, एते पोडया । सादिन्यमिति ४ गतं, इदानीं व्युद्धद इति द्वारं, तत्र-अनयोईयोरपि व्याण्यानं दण्डिकस्य व्युहवः, आदिशब्दात् सेनाधिपतेः, द्वयोमाजिकयोईयोमहत्तरयोयोः AE%ECRE5-7-5-7-% ~1478~ Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४५] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक-४ पुरिसाणं दोण्हं इत्थियाणं दोण्हं मल्लाणं वा जुद्धं, पिट्टायगलोहभंडणे वा, आदिसद्दाओ विसयपसिद्धासु भंसलासु प्रतिक है विग्रहाः प्रायो व्यन्तरबहुलाः । तस्थ पमत्तं देवया छलेज्जा, उड्डाहो निहुक्खत्ति, जणो भणेज्जा-अम्हं आवइपत्तार्ण इमेमणाध्य. दीया | सज्झायं करेंति, अचियचं हवेजा, विसहसंखोहो परचक्कागमे, दंडिओ कालगओ भवति, 'अणरायए'त्ति रण्णा कालगए पञ्चविधानिभएवि जाव अन्नो राया न ठविजइ, 'सभए'त्ति जीवंतस्सवि रणो वोहिगेहिं समंतओ अभिदुर्य, जचिरं भयं तत्तियं कास्वाध्यायिक ॥७३८॥ कालं सज्झायं न करेंति, जद्दिवसं सुयं निद्दोच्चं तस्स परओ अहोरत्तं परिहरइ।एस दंडिए कालगए विहित्ति गाथार्थः ॥१३४५।। सेसेसु इमो विहीतद्दिवसभोइआई अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ। अणहस्स य हत्थसयं दिहि विवित्तमि सुद्धं तु ॥१३४६ ।। अस्या एव व्याख्यानगाथामयहरपगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतरमए वा निहुक्रवत्तिय गरिहा न पढंति सणीयगं वावि ॥१३४७॥ इमीण दोण्हषि वक्खाणं-गामभोइए कालगए तदिवसंति-अहोर परिहरंति, आदिसद्दाओ गामरहमयहरो अहिगार ॥७३८॥ पुरुषयोहयोः स्त्रियोईयोमडयोर्वा युद्ध, पृष्ठायतलोडभण्डने वा, आदिशब्दाद्विषयप्रसिद्धासु भैसलासु (कलहविशेषेषु) । तत्र प्रमत्तं देवता उलबेत् । यहाहो निर्युःया इति, जनो भणेत्-अस्मासु आपरप्राप्तेषु इमे खाध्यायं कुर्वन्ति, अभीतिकं भवेत् , वृषभसंक्षोभः परचकागमे, दणिक कालगती पाप्यते, सभव इति जीवतोऽपि राज्ञो बोधिः समन्ततोऽभिदुतं, यावचिरं भयं तावन्तं कालं | स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, पदिवसे एतं नित्यं तमापरतोऽदोरानं परिहियते । एष दण्डिके कालगते विधिः । शेपेच विधिः । भगयोहयोपल्यानं-ग्रामभोजिके कालगते शदिवसमिति अहोरात्रं परिहरन्ति, मादिशब्दात् प्रामराष्ट्रमहत्तरोऽधिकार 4%264%A* ~1479~ Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४७] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक निउत्तो बहुसम्मओ य पगो वहुपक्खिउत्ति-बहुसयणो, याडगरहिए अहिवे सेजायरे अण्णं मि वा अण्णयरघराओ आरम्भ जाव सत्तघरंतरं एएसु मएसु अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, अह करेंति निढुक्खत्तिकाऊ जणो गरहत्ति अकोसेज वा निच्छुम्भेज वा, अप्पसद्देण वा सणियं करेंति अणुपेहति वा, जो पुण अणाहो मरति तं जइ उम्भिण्णं हत्थसब वजेयवं, अणुभिन्नं असज्झायं न हवइ तहवि कुच्छियंतिका आयरणाओऽवडियं हत्यसयं यजिजइ । विवित्तंमिपरिद्ववियंमि 'सुद्धं तु' तं ठाणं सुद्धं भवइ, तत्थ सज्झाओ कीरइ, जइ य तस्स न कोइ परिठवेंतओ ताहे ॥ १३४७ ॥ सागारियाइ कर्ण अणिच्छ रत्तिं वसहा विगिंचति । विकिन्ने व समंता जं दिड सढेयरे सुद्धा ॥१३४८ ।। व्याख्या-जदि नस्थि परिहवेंतओ ताहे सागारियरस आइसदाओ पुराणसहस्स अहाभद्दगस्स इमं छड्डेह अम्ह [सू.] दीप अनुक्रम [२९] नियुको बहुसंमतच प्रकृतः, बहुपाक्षिक इति बहुस्वजनो, वाडकरहितेऽधिपे वा शय्यातरे अम्बस्मिन् वा अम्मानस्वादारभ्य यावत् सप्तमृदाम्तरं भएतेषु सतेषु महोरानं स्वाध्यायो न क्रियते, अथ कुर्वन्ति निःला इविकृत्वा जनो गईते भाकोशेट्टा निष्काशेवा, भल्पपादेन वा पानः कुर्वन्ति अनुप्रेक्षन्ते । वा, यः पुनरनाथो नियते तस्य यदि पुनरुजिन हस्तशतं वर्जवितव्यं, अनुनि अस्थाध्यापिकं न भवति तथापि कृषिवमितिकृया आचरणातोऽवस्थितं हस्त शता बयितब्ध, विविके-परिछापिते शुदमिति तत् स्थान शुद्ध भवति-तत्र स्वाध्यायः क्रियते, यदि च तस्य च कोऽपि परिठापकस्तदा-पदि नाति का परिष्ठापकतरा सागारिकस्य भादिशब्दात पुराणनादख यथाभगकरयेम खज अमार्क ~1480~ Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३४८] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- सज्झाओ न सुज्झइ, जदि तेहिं छडिओ सुद्धो, अह न छहुँति ताहे अण्णं वसहि मग्गति, अह अण्णा वसही न लभडा हारिभ- ताहे वसहा अप्पसागारिए विर्गिचंति । एस अभिण्णे विही, अह भिन्न हंकमादिएहि समंता विकिपणं दिमि विवि-II द्रीया सामि मडा. अदिताव गवेसेंतेहिं जं दिहतं सवं विवित्तति छड्डिये, इयरंमि अदिमि तत्थस्थेवि सद्धा-सम्मायं करें-11 अस्वाध्या॥७३॥ IN ताणविन परिछत्त, एस्थ एवं पसंगओ भणियति गाथाधेः ॥ १३४८॥ बुग्गहेत्ति गयं, इयाणिं सारीरेत्ति दारं, तत्थ- यिकनि.शा सारीरपिय दुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेणं । तेरिच्छं तत्थ तिहा जलथलखहर्ज चउद्धा उ॥१३४९ ॥ रीरास्वा० । व्याण्या-सारीरमवि असज्झाइयं दुविहं-माणुससरीररुहिरादि तेरिच्छ असज्झाइयं च । एत्थ माणुसं ताव चिढउ, तेरिन्छ ताव भणामि, तं तिविह-मच्छादियाण जलजं गवाइयाण थल मयूराइयाण खहयरं । एएसिं एकेक दवाइयं । चउबिह, एकेकस्स वा दवादिओ इमो चउद्धा परिहारोत्ति गाथार्थः ॥ १२४९॥ पंचिंदियाण ब्वे खेत्ते सहिहत्य पुग्गलाइन्नं । तिकुरत्य महंतेगा नगरे याहिं तु गामस्स ॥१३५०॥ खाण्यायो मध्यति, यदि स्त्यिक्तः शुद्धः, अथ न खजन्ति तदाऽन्यो पसति मार्गचम्ति, अथान्या वसतिने सभ्यते तथा पुषमा अल्पसागारिके। | त्यजन्ति, एपोऽभिविधिा, भय मिर्च कादिभिः समन्तात विकीर्ण रहे विविक्त शुद्धाः अहटे तावत् गधेषयमियदृष्टं तत् सर्व परिष्ठापितं, इतरयान्-अर ॥७३९॥ तत्रोऽपि शुदा स्वाध्यायं कुर्वतामपि न पायनित, अतत् प्रसङ्गातो भणितं । व्युह इति गतं, पानी शारीरमिति द्वार तत्र-शारीरमपि भस्वाध्यायिक द्विविध-मानुष्यशारीररुधिरादि तैरथमखाध्यायं च, अन मानुष्यं तावत्तिष्टतु तैरतावनणामि-तप्रिविध-सरसादीनां जल गयादीनां स्थानं मयूरादीनां सखचरज, एतेषामेक इन्यादिकं चनुर्षिध, एकैकस्य का द्रव्यादिकोऽयं चतुर्था परिहार इति । दीप अनुक्रम [२९] सलाद ~1481~ Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५०] भाष्यं [२१७...], (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या-पचिंदियाण रुहिराइदषं असज्झाइयं, खेत्तओ सहित्थभंतरे असज्झाइयं, परओ न भवइ, अहवा खेत्तओ। iपोग्गलादिणं-पोग्गलं मंसं तेण सई आकिर्ण-व्याप्तं, तस्सिमो परिहारो-तिहिं कुरत्याहिं अंतरिय सुझाइ, आरओ न ब त हरद्वियं न मुझइ। महंतररथा-रायमग्गो जेण राया बलसमग्गो गच्छद देवजाणरहो वा विविहा य आसवाहणा गच्छंति, सेसा कुरस्था, एसा नगरे विही, गामस्स नियमा बाहि, एत्थ गामो अविसुद्धणेगमनयदरिसणेण सीमापजतो, परगामे सीमाए सुज्झइत्ति गाथार्थः ॥ १३५०॥ काले तिपोरसिऽढ व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्म अट्ठी विय हुंति चत्तारि ॥१३५१॥ व्याख्या-तिरियमसज्झायं संभवकालाओ जाव तइया पोरुसी ताप असज्झाइयं परओ सुझइ, अहवा अड जामा असञ्झाइयंति-ते जत्थाघायणहाणं तत्थ भवंति । भावओ पुण परिहरति सुतं, तं च नंदिमणुओगदारं तंदुल [सू.] CACASSACRBTALK दीप अनुक्रम [२९] पञ्चेन्द्रियाणां रुधिरादिगम्यं अस्वाध्यायिक, क्षेत्रतः पटिहस्साम्यन्तरेऽस्वाध्यायिक, परतो न भवति, अथवा क्षेत्रतः पुदलाकीर्ण-पुद्गल-मांस तेन सर्वमाकीर्ण, तस्यायं परिहार:-तिराभिः करण्याभिरन्तरितं शुध्यति, आरात् न शुध्यति, अनन्तरं दूरवितेऽपि न शुध्यति, महदश्या-राजमार्गः येन राजा पलसममो गच्छति देवयानरथो वा विविधान्यश्ववाहनानि गच्छन्ति, शेपाः कुरथ्याः, एष नगरे विधिः, प्रामात् नियमतो बहिः, अत्र प्रामोऽविशुन्दनगमनवदर्शनेन सीमापर्यन्तः, परनामे सीमनि शुध्यति । तैरश्नमस्वाध्यायिक संभवकालात् यावतृतीया पौरुषी साववस्वाध्यापिकं परतः शुभ्यत्ति, अथवा मन चामान् अस्वाध्यापिकमिति-से बनायासस्थानं तत्र भवन्ति, भावतः पुनः परिहरन्ति सूर्य, सच नन्दी अनुयोगहाराणि सन्दुल ~1482~ Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५१] भाष्यं [२१७...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] प्रतिक्रमणाध्य अस्वाध्यायिनि-शा शरीरास्वा० ॥७४०॥ वेयालियं चंदगविज्झयं पोरुसिमंडलमादी, अहवा असज्झायं चउधिहं इम-मंसं सोणियं चम्म अछि यत्ति गाथार्थः ॥१३५१ ॥ मसासिणा उक्खित्ते मंसे इमा विही__ अंतो बहिं च धो सट्ठीहत्थाउ पोरिसी तिन्नि । महकाएँ अहोरत्तं रद्धे वुढे अ सुद्धं तु ॥ १३५२॥ व्याख्यानगाथाबहिघोयरद्धपक्के अंतो धोए उ अवयवा हुंति । महकाय बिरालाई अविभिन्ने केह इच्छति ॥ १३५३ ॥ इमीणं वक्खाणं-साहु बसहीओ सहीहस्थाण अंतो बहिं च धोअन्ति भंगदर्शनमेतत् , अंतोधोय अंतो पर्क, अंतोधोयं वहिपर्क बाहिं धोयं अंतो पर्क, अंतग्गहणाउ पढमबितिया भंगा वहीग्गहणाउ ततिओभंगो, एएसु तिसुवि असज्झाइयं, जमि पएसे | धोयं आणेत्तु वा रद्धं सोपएसो सहिहत्थेहिं परिहरियबो, कालओ तिन्नि पोरुसिओ। तथा द्वितीयगाथायां पूर्वार्द्धन यदुक्तं 'वहिधोयरद्धपके एस चउत्थभंगो, एरिसं जइ सट्ठीए हत्थाणं अभंतरे आणीयं तहावितं असझाइयंन भवइ, पढमवितियभंगे %A64045 दीप अनुक्रम [२९] ७४०॥ 4 पैचारिक चबायेयक पौरुषीमण्डलादि, मधवा अस्वाभ्यायिक चतुर्विधमिद-मांसं शोणितं धर्म परिथ चेति । मांसाविशनोरिक्ष मासेऽयं विधिः, अनयोम्पोक्यान-साधु घसतेः परिहानामन्त दिव पौत मिति, अन्तधात अम्तःपर्क मन्तधात बहि: पर्क पहिौतमतः पक, अन्तहणात् प्रथमाहितीयौ महो गृहीती बहिर्षहणातु सूतीयो भाः । एतेषु विवष्यस्वाध्यापिकं, यमिन् प्रदेशे चौतं आनीय वा राईस प्रदेशः पविताभ्यन्तरे परिहर्सम्या, काश्तस्तिषः पौरुषीः, पहिचाँतपर्क, पुष चतुर्थी भगः, ईद यदि पष्टेईस्तेम्पोछन्तरमानीतं तथाऽपि तदस्वाध्यापिकं न भवति, प्रथमद्वियीयभार ~1483~ Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५३] भाष्यं [२१७...], (४०) REACH प्रत सूत्रांक C24XCCANCY अंतो धोविनु तीए रद्धे या संमि ठाणे अवयवा पडंति तेण असज्झाइयं, तइयभंगे बहिं धोविनु अंतो पणीए मंसमेव | असज्झाइयंति, तं च उक्खित्तमंसं आइण्णपोग्गलं न भवइ, जं कालसाणादीहिं अणिवारियविष्पइन्ने निजातं आइन्नपोग्गलं भाणिवपं । 'महाकाए'त्ति, अस्या व्याख्या-जो पंचिंदिओ जत्थ हओ त आघायठाणं वज्जेयवं, खेत्तओ सहिहत्था, कालओ अहोरत्त, एस्थ अहोरसओ सूरुदएण,रद्धं पक्कं वा मंसं असम्झाइयं न हबइ, जस्थ य धोर्य तेण पएसेण| | महंतो उदगवाहो बूढो तं तिपोरिसिकाले अपुनेवि सुद्ध, आघायणं न सुज्झइ, 'महाकाए'त्ति अस्य व्याख्या-महा|काएत्ति पच्छा, मूसगादि महाकाओ सोऽवि बिरालाइणा आहओ, जदि तं अभिन्नं चेव गलिज घेतुं वा सठ्ठीए हत्थाणं बाहिं गच्छद तं केइ आयरिया असम्झाइयं नेच्छति । गाथायां तु यदुक्कं केइ इच्छति, तत्र स्वाध्यायोऽभिसंबध्यते, थेरपक्सो पुण असम्झाइयं वत्ति गाथार्थः॥ १३५३ ॥ अस्यैवार्थस्य प्रकटनार्थमाह भाष्यकार: [सू.] दीप अनुक्रम [२९] घोरता प्रक्षाल्य तत्र राबे वा तमिन् स्थानेऽवयवा। पतन्ति तेगास्वाध्याबिक, तृतीयभने बदि। प्रक्षास्यान्तराजीते मांसभेवास्वाध्यापिकमिति, तचोरिक्षप्तमसिं भाकीजपुरलं न भवति, यत् कालवादिभिरनिवारितं विप्रकीर्ण नीयते तत् भाकीर्णपुरल मनितव्यं । महाकाय इति, यः पहियो यन्त्र इतस्तत् भाघातस्थानं वर्जवितब्ध, क्षेत्रतः पष्टेभ्या काळतोहोरात्र, अत्राहोरात्रच्छेद। सूबोनमेन, रायं पर्क वा मांस अखाध्यापिकं न भवति, वन च धोतं तेन प्रदेशेन महान् उदकप्रवाहो न्यूटलाई त्रिपौरुषीकाले पूर्णेऽपि शुदं, आघातनं न शुभपति, महाकाय इत्यस्य व्याख्या महाकाय इति पना, मूष | कादिर्महाकायः सोऽपि माजोरादिनाऽइतः परितमभिन्नामेव गृहीत्वा गिहिया वा पटेई सेभ्यो बहिर्गच्छति तत् केविदाचार्या अस्वाभ्यायिक नेन्ति । केचिदिन्ति स्थविरपक्षः पुनरस्वाध्यायिकमेवेति । ~1484 ~ Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५३] भाष्यं [२१८], (४०) C हारिभ % प्रत सूत्रांक प्रतिकमणाध्य अस्वाध्यायिकनि.शा रीरावा. AC -% दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक- मूसाइ महाकायं मज्जाराईहयाघयण केई । अविभिन्ने गिण्हेउं पढंति एगे जइऽपलोओ ॥ २१८ ॥ (भा०) गतार्थेवेयं ॥ 'तिरियमसज्झाइयाहियागार एवं इमं भन्नइद्रीया अंतो बहिं च भिन्न अंग विंदूतहा विआया य । रायपह बूढ सुद्धे परवयणे साणमादीणं ॥१३५४ ॥ दारं ॥ १७४१॥ । व्याख्या त्वस्या भाष्यकार एवं प्रतिपदं करिष्यति । लाघवार्थ विह न व्याख्यायते 'अंतो वहिं च भिन्नं अंडग बिंदु'त्ति अस्य गाथाशकलस्य व्याख्याअंडगमुज्यिकप्पे न य भूमि खणंति इहरहा तिनि । असज्झाइयपमाणे मच्छियपाओ जहि न बुड्ढे ॥२१९॥ (भा०) | साहुवसहीए सकीए हस्थाणतो भिन्ने अंडए असज्झाइयं बहिभिन्ने न भवइ । अहवा साहुस्स वसहिए अंतो बहिं च अंडयं भिन्नंति वा उज्झियंति वा एगई, तं च कप्पे वा उज्झियं भूमीए वा, जइ कप्पे तो कप्पं सट्ठीए हस्थाणं बाहिं नीणेऊण धोवंति तओ सुद्धं, अह भूमीए भिन्नं तो भूमी खणे ण छडिजइ, न शुध्यतीत्यर्धः। 'इयरह'त्ति तत्थरथे सहिहत्या तिन्नि य पोरुसीओ परिहरिजइ, 'असन्झाइयस्स पमाण'ति, किंबिंदुपरिमाणमेत्तेण हीणेण अहिययरेण वा असज्झाओ। भवइ ?, पुच्छा, उच्यते, मच्छियाए पाओ जहिं [न] बुड्डुइ तं असल्झाइयपमाणं । 'इयाणि वियायत्ति' तस्थ रश्चास्वाध्यायिकाधिकार एवेई भण्यते । साधुवसतेः पोईस्तेभ्योऽर्वाग मिनेपदेऽस्वाध्याधिकं वहिभिनेन भवति, मधवा साधोर्वसतेरमतबंहिता तोड भिनमिति चोमिकाथों, वच कल्पे योशिसतं भूमी वा, यदि कल्पे व कापं पठेहोण्यो बहिनीवा धोवन्ति तसः शबं. अब भमौ भिम भूमिः बनियान वज्यते । इतरवेति सबस्थे पहिलाः तिमश्च पौराव्यः परिहियन्ते, अस्वाभ्यायिकस्य प्रमाणमिति-कि बिन्दुमात्रपरिमाणेग होनेनाधिकतरेण | वास्वाध्यायो भवति', पृच्छा, उच्यते, मक्षिकायाः पादो यत्र न अडते तदखाध्यायिकप्रमाण । इदानी प्रसूतेति, तत्र । ARMACOCKROCAL+ ७४१॥ ~1485~ Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५४] भाष्यं [२२०], (४०) प्रत सूत्रांक EXA4%%* अजराउ तिन्नि पोरिसि जराउआणं जरे पडे तिन्निरायपह बिंदु पडिए कप्पड बूढे पुणऽन्नत्थ॥२२०॥(भा) व्याख्या-जर जेसि न भवति तेसिं पसूयाणं वग्गुलिमाइयाणं, तासिं पसूइकालाओ आरम्भ तिणि पोरुसीओ। असमझाओ मुत्तुमहोरत्तं छेदं, आसन्नपसूयाएवि अहोरत्तछेदेण सुज्झइ, गोमादिभराउजाणं पुण जाव जरूं लंबइ ताव असमझाइयं 'जरे पडिए'त्ति जाहे जरूं पडियं भवइ ताहे ताओ पडणकालाओ आरम्भ तिन्नि पहरा परिहरिजंति । 'राय-1 पह बूढ सुद्धे'त्ति अस्या व्याख्या-रायपह बिंदु' पच्छद्धं साहुवसही आसपणेण गच्छमाणस्स तिरियस्स जदि रुहिरबिंदु । गलिया ते जइ रायपहंतरिया तो सुद्धा, अह रायपहे चेय बिंदू पडिओ तहावि सज्झाओ कप्पतित्तिकाउं, अह अण्णपहे अपणस्थ वा पडियं तो जइ उदगवुहबाहेण हियं तो सुद्धो, 'पुणो'त्ति विशेषार्थप्रतिपादकः, पलीवणगेण वा दढे सुज्झ| इत्ति गाथार्थः ॥ २२० ।। मूल गाथायां परवयर्ण साणमादीणि'त्ति परोत्ति चोयगो तस्स वयणं जइ साणो पोग्गलं समुदिसित्ता जाव साहुवसहीसमीबे चिइ ताव असञ्झाइयं, आदिसहाओ मंजारादी। आचार्य आह [सू.] दीप अनुक्रम [२९] जरायुर्वेषां न भवति तेषां प्रभूताना वाल्यादीना, सासा प्रसूतिकालात् आरभ्य तिसः पौरुषीरस्वाध्यायः, मुक्याम्होरावच्छे-माखनमसूतानामपि भदो| रात्रच्छेदेन शुभवति, गवादीनां जरायुनान पुगोवत् जरायुलंबते तावदस्वाभ्यायिक जरायो पतिते इति यदा जरायुः पतितो भवति सदा तस्मात् पसनकासात् । | भारभ्य प्रयः प्रहरा। परियन्ते । राजपचन्यूटे शुद्धमिति राजपथे बिन्दवः । पश्चाध । साधुवसतेरासनेन गच्छसिरमो यदि रुधिरबिन्दयो गलिता यदि। | राजपथान्तरिताम्साहि शुद्धाः अथ राजपथ एब बिन्दुः पतितः तथापि स्वाध्यायः कल्पते इतिकृत्वा, अधान्यपथेऽन्यत्र चापतितः सहि यधुदकवेगेन ब्यूई तर्हि शुखः प्रदीपनके न वा दग्धे शुध्यतीति । पर इति नोड़कः तस्य वचनं बाद मा पुल भुक्त्वा यावत् साधुवसतिसमीपे तिष्ठति तावदखाध्याथिकं, आदिशाब्दात् मातारादयः । ~ 1486~ Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཀྑཱུདྡྷེཡྻ [स्.-] अनुक्रम [२९] आवश्यकहारिभ द्रीया १७४२॥ आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्मुक्तिः [१३५४ ] भष्यं [ २२१ जइ फुसइ तहिं तुंडे अहवा लिच्छारिएण संचिकखे । इहरा न होइ चोयग ! वतं वा परिणयं जम्हा ॥ २२१ ॥ ( भा० ) व्याख्या - साणो भोतुं मंसं लिच्छारिएण मुहेण वसहिआसणेण गच्छंतो तस्स जड़ तोंडं रुहिरेण लित्तं खोडादिसु | फुसति तो असम्झाइयं, अहया लेच्छारियतुंडो वसहिआसन्ने चिह्न तहवि असज्झाइयं, 'इयरह'त्ति आहारिएण चोयग ! असम्झाइयं ण भवति, जम्हा तं आहारियं वंतं अवंतं वा आहारपरिणामेण परिणयं, आहारपरिणयं च असज्झाइयं न भवइ, अण्णपरिणामओ, मुत्तपुरीसादिवत्ति गाथार्थः ॥ २२१ ॥ तेरिच्छारीरयं गयं, इयाणिं माणुससरीरं, तत्थमाणुस चउद्धा अट्ठि मुत्तूण सयमहोरतं । परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसन्त अहेव ।। १३५५ || व्याख्यातं माणुस्ससरीरं असज्झाइयं चउविहं चमं मंसं रुहिरं अद्विपं च ( तस्थ अडियं ) मोतुं सेसस्स तिविहस्स इमो परिहारो-खेत्तओ हत्थसवं, कालओ अहोरतं, अं पुण सरीराओ चैव वणादिसु आगच्छ परियावणं विवण्णं वा १ वा मुक्या मांसं लिप्तेन मुखेन वसव्यासन्नेन गच्छन् (स्यात्), तस्य मुनं यदि रुधिरेण लिप्तं सम्भकोणादिषु स्पृशति तदाऽस्वाध्याधिकं, अथवा लिप्तमुखो वसल्यास तिष्ठति तथापि स्वाध्यायः इतरथेति आहारितेन चोदक! अस्वाध्याविकं न भवति यस्मात् तदाहारितं वान्तमवान्तं चाऽऽहारपरि णामेन परिणतं आहारपरिणामपरिणतं चास्वाध्यायिकं न भवति, अन्यपरिणामात् सूत्रपुरीषादिवत् । तैरवं शारीरं गतं इदानीं मानुषशरीरं तत्र तद् मानुषशारीरमस्वाध्याविकं चतुविधं धर्म मांसं रुधिरं अस्थि च तत्रास्थि युवा शेपस्य त्रिविधस्यायं परिहारः- क्षेत्रो हस्वशतं कालतोऽहोरात्रं यत् पुनः शरीरादेव प्रणादिष्वागच्छति पर्यापनं विवर्ण पर ~ 1487 ~ ४प्रतिक्र मणाध्य० अस्वाध्या विकनि.शा रीराखा० ॥७४२॥ Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन] [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्मुक्तिः [१३५५] भष्यं [ २२१ 'तं असम्झाइयं न होति, परियावण्णं जहा रुहिरं चैव पूयपरिणामेणं ठियं विवण्णं खइरककसमाणं रसिगाइयं, सेसं असज्झाइयं हवइ । अहवा सेसं अगारीड संभवति तिण्णि दिया, वियाए वा जो सावो सो सत्त वा अट्ठ वा दि असज्झाओ भवतित्ति । पुरुसपसूयाए सत्त, जेण सुक्कुकडा तेण तस्स सत्त, जं पुण इत्थीए अट्ठ एत्थ उच्यते ॥ १३५५ ॥ रतुकडा उ इत्थी अट्ठ दिणा तेण सत्त सुकहिए। तिन्नि दिणाण परेणं अणोउग्रं तं महोरन्तं ॥ १३५६ ॥ व्याख्या - निसेगकाले रतुकडयाए इत्थि पसवइ, तेण तस्स अड दिणा परिहरणिजा, सुकाहियत्तणओ पुरुसं पसवइ तेण तस्स सत्त दिणा । जं पुण इत्थीए तिन्हं रिउदिणाणं परओ भवइ तं सरोगजोणित्थीए अणोउयं तं महोरतं परओ भण्णइ, तस्सुस्सग्गं काउं सझायं करेंति । एस रुहिरे विह्नित्ति गाथार्थः ॥ १३५६ ॥ जं पुत्तं ' अहिं मोत्तूर्ण' ति तस्सेदाणीं विही भण्णइ दंते दिवि विचिण सेसट्ठी बारसेव वासाई । झामिय वूढे सीआण पाणरुद्दे य मायहरे ।। १३५७ ॥ व्याख्या - जइ दंतो पडिओ सो पयत्तओ गवेसियबो, जइ दिट्ठो तो हत्थसया उपरि विगिंचिज्जइ, अह न दिट्ठो तत् अस्वाध्यायिकं न भवति, पर्यापनं यथा रुधिरं धूपपरिणामेन स्थितं विवर्णं खदिरकएकसमानं रसिकादिकं शेषमस्वाध्यायिकं भवति अथवा शेषमगारिणीतः संभवति श्रीन् दिवसान् प्रसूतायां वा वः श्रादः स सप्ताष्टी वा दिनान् अस्वाध्यादिकं (करोतीति । पुरुषे प्रसूते सप्त, येन शुक्रोका तेन तस्य सप्त, यत् पुनः स्त्रिया अष्ट, अत्रोच्यते-निषेककाले रकोत्कटतायां चि मसूते, तेन तथा अष्टी दिनाः परिहियन्ते, शुक्राधिकत्वात् पुरुषं प्रसूते तेन तस्य सप्त दिनाः । यत् पुनः खिवाखिभ्यः तुदिनेभ्यः परतो भवति तत् सरोगयो निकायाः खिया अनृतुकं तत् अहोरात्रं परतो भव्यते तस्योत्सर्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति, ए रुधिरे विधिरिति । यत्पूर्वमुकं 'अस्थि मुक्तचे 'ति तखेदानीं विधिः- यदि दन्तः पतितः स प्रयलेन गणीयो यदि टाइलशतात् उपरि त्यज्यते, अथ न दृष्ट ~ 1488 ~ Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཝལླཱཡྻ [सू.] अनुक्रम [२९] आवश्यक हारिभद्रीया ॥७४३ ॥ %%%%% और * आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१३५७] भाष्यं [२२२], तो उघाड काउस्सगं कार्ड सझायं करेंति । सेसट्टिएस जीवमुकदिणाऽऽरम्भ उ हत्थसतम्भंतरठिएसु बारसचरिसे असज्झाइयं, गाथापूर्वार्द्ध, पश्चार्द्धस्य तु भाष्यकार एव व्याख्यां कुर्वन्नाह - सीयाणे जं दिहं तं तं मुत्तूण नाहनिहयाणि । आडंबरे य रुद्दे माहस हिडिया बारे ॥ २२२ ॥ ( भा० ) । व्याख्या- 'सीयाणे'त्ति सुसाणे जाणिऽट्टियाणि दाणि उदगवाहेण बूढाणि न ताणि अडियाणि असज्झाइयं करेंति, जाणि पुण तत्थ णत्थ वा अणाहकडेवराणि परिडवियाणि सणाहाणि वा इंधणादिअभावे 'नियति निक्खित्ताणि ते असज्झाइयं करेंति । पाणत्ति मायंगा, तेसिं आडंबरो जक्खो हिरिमेकोऽवि भण्णइ, तस्स हेट्ठा सज्जोमयहीणि ठविजंति, एवं रुदघरे मादिघरे य, ते कालओ बारस वरिसा, खेत्तओ हत्थसयं परिहरणिजा इति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ आवासिय च वूढं सेसे दिडंमि मग्गण विवेगो । सारीरगाम वाडग साहीइ न नीणियं जाव ॥ १३५८ ॥ एताए पुबद्धस्स इमा विभासाअसिवोमाघयणेसुं वारस अविसोहियंमिन करंति । झामिय बूढे कीरइ आवासिय सोहिए चेव ।। १३५९ । १ स्तदोद्घाटकायोत्सर्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति । शेषास्थिषु जीवमोचनदिनादारभ्य तु इस्तशताभ्यन्तरस्थितेषु द्वादश वर्षाण्यस्वाध्याथिर्क, सीवाणमिति श्मशाने याम्यस्थीले दग्धानि उदकवाहेन व्यूढानि न तान्यस्थीनि अस्वाध्यायिकं कुर्वन्ति, यानि पुनस्तन्नान्यत्र यानायकलेवराणि परिष्ठापितानि सनाधानि या इन्धनाद्यभावे निक्षिताले सान्यस्वाध्यायिकं कुर्वन्ति । पाणा इति मातङ्गास्तेषामाडम्बरो यक्षो ड्रीमकोऽपि भण्यते तखास्तात् सो मृतास्थीनि स्वाप्यन्ते एवं रुद्रगृहे मातृगृहे च तानि कालो द्वादश वर्षाणि, क्षेत्रतो हस्तशतं परिहरणीयानि । एतस्याः पूर्वार्धस्येयं विभाषा । ~1489~ ४ प्रतिक मणाध्य० अस्वाध्यायिकनि.शा रीरास्था० ॥७४३॥ Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५९] भाष्यं [२२२], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] अस्य गाथाद्वयस्य व्याख्या- सीयाणं जत्थ वा असिवोमे मताणि बहूणि छड्डियाणि, आघातणेति जत्थ वा महासंगामे मया बहू, एएसु ठाणेसु अविसोहिएम कालओ बारस वरिसे, खेत्तओ हत्यसयं परिहरंति, सम्झायं न करतीत्यर्थः । अह एए ठाणा दवग्गिमाइणा दड्डा उदगवाहो वा तेणंतेण बूढो गामनगरेण वा आवासंतेण अप्पणो घरहाणा सोहिया, सेपि जे गिहीहिं न सोहियं, पच्छा तत्थ साहू ठिया अप्पणो वसही समतेण मग्गिन्ता जं दिडं तं विर्गिचित्ता अदिढे वा तिणि दिणा उग्पाडणकाउस्सगं करेत्ता असढभावा सज्झायं करेंति । 'सारीरगाम' पच्छद्धं, इमा विभासा सरीरेत्ति मयस्स सरीरयं जाव डहरग्गामे ण निम्फिडियं ताव सज्झायं ण करेंति, अह नगरे महंते वा गामे तत्थ वाड|गसाहीउ जाव न निष्फेडियं ताव सज्झायं परिहरंति, मा लोगो निहुक्खत्ति भणेजा ॥ तथा चाह भाष्यकार:डहरगगाममए वा न करेंति जाव ण नीणियं होइ। पुरगामे व महंते वाडगसाही परिहरंती ॥२२३॥ (भा०) यत् श्मशानं यन्त्र धाऽशिवावमयोर्मुतकानि बहूनि त्यक्तानि, आघातन मिति यत्र वा महासङ्गामे मृतानि बहू नि, एतेषु स्थानेश्वविशोधितेषु काळतो द्वादश वर्षाणि क्षेत्रको हस्तशतं परिहरन्ति-स्वाध्यायं न कुर्वन्तीत्यर्थः । अवैतानि स्थानानि दयाझ्यादिना दानि उदकवाहो वा तेनाभ्यना न्यूडः ग्रामनगरेण वाऽऽवसत्ताऽस्मनो गृहस्थानानि शोधितानि शेषमपि यौन शोधितं पश्चात् तत्र साधवः स्थिताः, आत्मनो वसतिः समन्तात् मार्गयन्तो यदृष्टं तत् यतवाडष्टे वा श्रीन दिवसान् उद्घाटनकायोत्सर्ग कृत्वाध्याउभायाः स्वाध्यायं कुर्वन्ति । शारीरग्राम पार्थ, इचं विभाषा-शरीरमिति मृतस्य शरीरं यावल| धुमामे न निष्काशितं तावत् स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, अथ नगरे महति वा प्रामे तन्त्र वाटकात शाखाया वा यावत्र निष्काशितं तावत् स्वाध्यायं परिहरन्ति, मा लोको निर्तुःखा इति भणेत् । ~14904 Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३५९] भाष्यं [२२३], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७४४॥ उक्तार्थेय, चोदक आह-साहुवसहिसमीवेण मयसरीरस्स निजमाणस्स जइ पुष्फवत्यादि पडइ असज्झाइयं, १४ प्रतिक्रआचार्य आह लमणाध्य. निर्जतं मुत्तूणं परवयणे पुष्फमाइपडिसेहो । जम्हा चउप्पगारं सारीरमओ न वजंति ॥१३६० ॥ अस्वाध्या यिकनि.शा व्याख्या-मयसरीरं उभओ वसहीए हत्थसतम्भंतरं जाव निजइ ताव तं असज्झाइयं, सेसा परवयणभणिया पुष्काई जारीरास्वा० पडिसेहियबा-असज्झाइयं न भवति, जम्हा सारीरमसज्झाइयं चउबिह-सोणिय मंसं चम्म अद्वियं च तओ तेसु सज्झाओ न बजणिज्जो इति गाथार्थः ॥ १३६०॥ एसो उ असज्झाओ तव्वजिउऽझाउ तत्थिमा मेरा । कालपडिलेहणाए गंडगमरुएहिं दिलुतो ॥ १३६१॥ व्याख्या-एसो संजमघाताइओ पंचविहो असज्झाओ भणिओ, तेहिं चेव पंचहिं वजिओ सज्झाओ भवति, 'तत्थति तमि सज्झायकाले 'एमा' वक्ष्यमाणा 'मेर'त्ति सामाचारी-पडिकमित्तु जाव वेला न भवति ताव कालपडिलेहणाए कयाए -१ दीप अनुक्रम [२९] साधुवसतेः समीपे मुन्नकशरीरस्य नीयमानस्य यदि पुष्पववादि पते अस्वाध्यायिक, मृतकशरीरं बसतेरुभवतः हस्तशताभ्यन्तरं बावन्नीयते साव- K७४४॥ चदस्थाध्यायिक, शेषाः परवचनभणिताः पुष्पादयः प्रतिषेवग्या:-अस्यास्यायिकं न भवति, यस्मात् शरीरमस्वाभ्यायिकं चतुर्विषं-शोणितं मांसं चर्म अस्थि च, सतस्तेषु स्वाभ्यायो न वर्जनीयः । एतत् संयमप्रातादिकं पञ्चविषमस्वाभ्यायिकं भणितं, तैरेव पञ्चभिर्जितः स्वाध्यायो भवति, वेति तस्मिन् स्वाध्यायकाले इ-वक्ष्यमाणा मेरेति-समाचारी-प्रतिक्रम्य यावला न भवति तावत् कालप्रतिलेखनायो कृतायो ~1491~ Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [४] मूलं [स्] / [गाथा-], निर्बुक्तिः [ १३६.१] भाष्यं [ २२३...]., महणकाले पत्ते गंडगदितो भविस्सर, गहिए सुद्धे काले पठवणवेलाए मरुयगदितो भविस्सतित्ति गाथार्थः ॥ १३६१ ॥ स्वादुद्धि: - किमर्थं कालग्रहणम् १, अत्रोच्यते पंचविह असज्ज्ञाचस्स जाणणद्वाय पेहए कालं । चरिमा बडभागवसेसिवाह भूमिं तओ पेहे ॥ १३६२ ।। व्याख्या - पंचविधः संयमघातादिकोऽस्वाध्यायः तत्परिज्ञानार्थ प्रेक्षते (काल) कालवेलां, निरूपयतीत्यर्थः । कालो निरूपणीयः, कालनिरूपणमन्तरेण न ज्ञायते पञ्चविधसंयमघातादिकं । जइ अग्धेनुं करेंति ता घडलहुगा, तम्हा कालपडि लेहणाए इमा सामाचारी दिवसचरिमपोरिसीए चउभागावसेसाए काउग्गहणभूमिओ ततो पडिलेहियवा, अहवा तओ उच्चारपासवणकालभूमीयत्ति गाथार्थः ॥ १३६२ ॥ अहियासिपाई अंतो आसने चेव मज्झि दूरे प । तिन्नेव अणहियासी अंतो छ उच्च बाहिरओ ।। १३६३ ॥ व्याख्या--'अंतोत्ति निवेसणस्स तिन्नि-उच्चारअहियासियथंडिले आसण्णे मज्झे दूरे य पडिलेहेइ, अणहियासियाथंडिलेवि अंतो एवं चैव तिष्णिपडिलेहेति, एवं अंतो थंडिल्ला छ, बाहिं पि निवेसणस्स एवं चेव छ भवंति, एत्थ अहियासिया दूरयरे अणहिया सिया आसन्नयरे कायवा ॥ १३६३ ।। १] ग्रहणकाले माझे गण्डकशन्तो भविष्यति, गृहीते शुद्धे च काले प्रस्थापनवेलायां महद्दष्टान्तो भविष्यतीति ययगृहीला कुर्वन्ति तर्हि तुर्क धुकं, तस्मात् कालप्रतिलेखमायामियं सामाचारी दिवसचरमपौरुप्यां चतुर्भागावशेषायां कालग्रहण भूमयस्तिस्रः प्रतिलेखितम्याः, अथवा तिखः-उच्चारप्रश्रवणकाळ भूमयः । अन्तरिति निवेशनस्य त्रीणि उच्चारस्याध्यासितस्थण्डिलानि आसने मध्ये दूरे च प्रतिलेखयति, अनन्यासितस्याम्यपि अन्यरेवमेव त्रीणि प्रतिलेखयन्ति एवमन्तःस्थण्डिलानि षट् बहिरषि निवेशनादेवमेव पटू भवन्ति, अत्राप्यासितानि दूरतरे अनयासितानि आसनतरे कर्त्तव्यानि। ~ 1492 ~ Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३६४] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- एमेच य पासवणे बारस चउचीसतिं तु पेहेत्ता । कालस्स य तिन्नि भवे अह सूरो अस्थमुवयाई ॥१३६४ ॥ ४ प्रतिकहारिभ- व्याख्या-पासवणे एएणेव कमेणं बारस एवं चउवीसं अतुरियमसंभंत उवउत्तो पडिलेहेत्ता पच्छा तिन्नि काल-श्रमणाध्य. द्रीया गहणथंडिले पडिलेहेति । जहण्णेणं हत्थंतरिए, 'अहत्ति अनंतर थंडिलपडिलेहाजोगाणंतरमेव सूरो अस्थमेति, ततो। दा अस्वाध्या यकनियुआवस्सगं करेइ ॥ १३६४ ॥ तस्सिमो बिही॥७४५॥ अह पुण निवाघाओ आवासं तो करंति सब्वेऽवि । सहाइकहणवाधाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥ १३६५॥ तौ काल हविधिः व्याख्या-अधेत्यानन्तये सूरथमणाणंतरमेव आवस्सयं करेंति, पुनर्विशेषणे, दुविहमावस्सगकरणं विसेसेइ-निधाVघायं वाघाइमं च, जदि निवाघायं ततो सबे गुरुसहिया आवस्सयं करेंति, अह गुरू सढेसु धम्मै कहेंति तो आवस्सगस्स |साहहिं सह करणिजस्स वाघाओ भवति, जंमि वा काले तं करणिज त हासेंतस्स वाघाओ भन्नइ, तओ गुरू निसिज्जहरो य पच्छा चरित्तातियारजाणणट्ठा काउस्सग्गं ठाहिति ।। १३६५ ॥ दीप अनुक्रम [२९] 5%ACKGRECror प्रश्रवणेऽनेनैव कमेण द्वादश, एवं चतुर्विशतिमचरितम संन्नममुपयुक्तः प्रतिलिण्य पक्षात पीणि कालग्रहणस्थाण्डिलागि प्रतिलेखयन्ति, जघन्येन हमतासरिते, भत्खनन्तर खण्डिलपतिले बनायोगानन्तरमेव मूर्वोऽस्तमे ति, तत आवश्यकं कुर्वन्ति । तस्यायं विधिः-सूर्यासमवनानन्तरमेवावश्यकं कुर्वन्ति, द्विविधमावश्यककरण विशेषयति-नियापातं व्याघातबच, यदि नियाघातं ततः सर्वे गुरुसहिताः आवश्यकं कुर्वन्ति, अप गुरुः श्राद्वानां धर्म कथयति । ॥७४५| तदाऽवश्वकस्य साधुभिः सह करणीयस्य व्याघातो भवति, यस्मिन् वा काले तत् कर्त्तव्यं तं हासयतो व्याधातो भषयते, ततो गुरुनिषद्याधरच पश्चात् चारि-II वातिचारज्ञानार्थ कायोत्सर्ग स्थास्वतः । काल ग्रहण संबंधे शास्त्रिय विधि: ~1493~ Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३६६] भाष्यं [२२३...., (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [२९] सेसा उ जहासत्ति आपुच्छित्ताण ठंति सहाणे । सुत्तत्वकरणहेउं आयरिऍ ठियंमि देवसियं ॥ १३६६ ॥ | व्याख्या-सेसा साहु गुरु आपुरिछत्ता गुरुगणस्स मग्गओ आसन्ने दूरे आधाराइणियाए जं जस्स ठाणं तं सठाण, तत्थ पडिकमंताणं इमा ठवणा । गुरू पच्छा ठायंतो मज्झेण गंतुं सठाणे ठायइ, जे वामओ ते अणंतर सवेण गंतुं सठाणे ठायन्ति, जे दाहिणओ अणंतरसदेण गंतुं ठायंति, तं च अणागयं ठायति सुत्तत्यसरणहेर्ड, तत्थ य पुवामेव ठायंता* करेमि भंते ! सामाइयमिति सुत्तं करेंति, पच्छा जाहे गुरू सामाइयं करेत्ता बोसिरामित्ति भणित्ता ठिया उस्सगं, ताहे| देवसियाइयारं चिंतति, अन्ने भणति-जाहे गुरू सामाइयं करेंति ताहे पुवडियावि तं सामाइयं करेंति, सेस कंठं ॥ १३६६॥। जो हुज्ज उ असमत्थो बालो चुहो गिलाण परितंतो। सो विकहाइ विरहिओ अच्छिज्जा निजरापही ॥१३६७॥ | व्याख्या-परिस्संतो-पाहुणगादि सोवि सज्झायशाणपरो अच्छति, जाहे गुरू ठंति ताहे तेवि बालादिया ठायंति एएण विहिणा ॥ १३६७ ॥ शेषाः साथको गुरुमालय गुरुस्थानस्य पृछत आसको दूरे बधारातिकतया यस्य यत् स्थानं तत् स्वस्थान, तत्र प्रतिकाम्पताभियं स्थापना-गुरुः पश्चात तिष्ठन मध्येन गत्वा स्वस्थाने तिष्ठति, ये बाभतोऽनन्तर सध्येन गत्वा खस्थाने तिष्ठन्ति, ये दक्षिणतोऽनन्तरापसम्यग गरवा तिष्ठन्ति, तत्र चानागतं तिरान्ति सूत्राधस्मरणहतो, नत्र च पूर्वमेय तिष्ठन्तः करोमि भदन्त ! सामायिकमिति सूर्य कर्षयन्ति, पशायदा गुरवः सामायिक कृष्ट्वा व्युत्पजामीति | भणित्वा स्थिता उस तदा दैयासिकातिचारं चिन्तयन्ति, अम्बे भणन्ति-यदा गुरवः सामायिकं कुर्वन्ति तदा पूर्व स्थिता अपि तत् सामायिक कुर्वन्ति |शेष कारुपम् । परिवान्तामापूर्णकादिः सोऽपि स्वाध्यायध्यानपरस्तिष्ठति, यदा गुरवस्तिष्ठन्ति सहा तेऽपि बालाचासिन्ति एतेन विधिना । ~1494 ~ Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३६८] भाष्यं [२२३...], (४०) A५मति प्रत सूत्रांक - [सू.] आवश्यकता आवासगं तु काउं जिणोवइडं गुरुवएसेणं । तिपिण थुई पडिलेहा कालस्स हमा विही तत्थ ॥१३६८ ॥ हारिभ. व्याख्या-जिणेहिं गणहराणं उवइ ततो परंपरपण जाव अम्हं गुरूवएसेण आगयं तं कार्ड आवस्सयं अण्णे तिष्णि IXIT मणाध्य द्रीया थुतीओ करिति, अहवा एगा एगसिलोगिया, वितिया बिसिलोझ्या ततिया [त] तियसिलोगिया, तेसिं समत्तीए कालप-लायकनिर्य11७४६॥ 18 डिलेहणविही कायथा ॥१३६८ ॥ अच्छर ताव विही इमो, कालभेओ ताव वुच्चइ कौ कालदुविहो उ होइ कालो वाघाइम एतरो य नायब्बो । वाधातो घंघसालाएँ घट्टणं सहकहणं वा ॥ १३६९ ॥ ग्रहविधिः व्याख्या-पुषद्ध केलं, पच्छद्धस्स व्याख्या-जा अतिरित्ता वसही कप्पडिगसेविया य सा घंघसाला, ताए अतिताणं घट्टणपडणाइ वाघायदोसो, सहकहणेण व वेलाइकमणदोसोत्ति । एवमादि ॥ १३६९ ॥ वाघाए तइओ सिं दिजद तस्सेव ते निषेएंति । इयरे पुच्छंति दुवे जोगं कालस्स घेच्छामो ॥ १३७॥ व्याख्या-तमि वाघातिमे दोषिण जे कालपडियरगा ते निगच्छति, तेसिं ततिओ पवझायादि दिजा, ते काल - दीप अनुक्रम [२९] मिर्गणधरेग्य उपविर कसा परम्परफेण वाचदमा गुरूपदेशेन आगतं सत् हत्याऽऽष अग्ये तिखः खलीः कुर्षन्ति, अथवा एका एकश्लोकिका H७४६॥ द्वितीया दिलोकिका तृतीया त्रिलोकिका, ताखा समरसी कालपतिलेखनाविधिः कम्मर । लिन्त सापन विधियकाकोरलाचाप्यते । पूर्वाध कण्य। पचास्य व्याया-पासिरिता वतिः कर्मरिकारिता पसाबमाला लायो बाबपवादियोधातोपा, भावाने पेलातिकमणदोष इति, ममादि । तसि मावासपति की कासाविचार ती निकता, ओमवीय सहाध्यायावियते, की - ~1495~ Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७०] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] गाहिणो आपुच्छण संदिसाषण कालपवेयणं च सर्व तस्सेव करेंति, पत्थ गंडगदिहतो न भवाइ, इयरे उवउत्ता चिहति. सुद्धे काले तत्थेव उवज्झायस्स पवेएंति । ताहे दंडधरो बाहिं कालपडिचरगो चिहाइ, इयरे दुयगावि अंतो पविसति. ताहे उबझायस्स सभीवे सये जुगवं पट्टाति, पच्छा एगो नीति दंडधरो अतीति, तेण पडविए समायं करेंति,18 ॥ १३७० ।। निवाघाए पच्छद्धं अस्यार्थ:आपुच्छण किहकम्मे आवासिय पडियरिय वाघाते। इंदिय दिसा य तारा चासमसज्झाइयं च ॥१३७१॥ व्याख्या-निषाघाते दोभि जणा गुरुं आपुच्छंति कालं घेच्छामो, गुरुणा अणुपणाया 'कितिकम्म'ति वंदर्ण काउं दंडगं घेत्तुं उवउत्ता आवासियमासज्जं करेन्ता पमज्जन्ता य निग्गच्छंति, अंतरे य जइ पक्खलंति पहंति वा वत्थादि है वा विलग्गति कितिकम्मादि किंचि वितह करेंति ततो कालवाघाओ, इमा काल भूमीपडियरणविही, इंदिएहिं उवउत्ता |पडियरंति, 'दिस'त्ति जत्थ परोवि दिसा दीसंति, उडुमि जइ तिनि तारा दीसंति, जइ पुण न उवउत्ता अणिहो| माहिणी आपृच्छासंदिशनकामप्रवेपनानि सर्व तमै एवं कुरुतः, अत्र गण्डगष्टान्तो न भवति, इतरे उपयुकास्तिष्ठन्ति, शुतने काले तत्रैवोपाध्यायाय प्रवेदवतः, तदा दण्डधरो बहिः कालं प्रतिवरन् तिति, इतरी द्वावपि अन्तः प्रविशतः, तदोपाध्यायस्थ समीपे सर्व युगपत् प्रस्थापयन्ति, पश्चादेको निर्गच्छति दण्डधर आगच्छति, तेन प्रस्थापिते खाध्यायं कुर्वन्ति । नियाघाते द्वौ जदौ मुरुमापूच्छेते कार प्रहीष्यावः, गुरुणाऽनुज्ञाती कतिफर्मति वदनं कृाचा दण्ड गृहीत्वोपयुक्ती आपश्यिकीमा वाय्यां कुर्वन्तो प्रमार्जयन्तौ च निर्गच्छतः, अन्तश च यदि प्रस्खलतः पततो वा वखादि वा विलगति कृतिकर्मादि चा किनिद्वितधं कुरुतस्तदा काल व्याघातः, अयं कालभूमिप्रतिचरणविधिः, इन्द्रियेपूपयुक्तौ प्रतिचरतः, दिश इति या पतलोऽपि दिशो रश्यन्ते, मती यदि | तिखस्तारका रश्यन्ते, यदि पुनर्नोपयुक्तौ अनिष्टो दीप अनुक्रम [२९] ~1496~ Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७१] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] k आवश्यक-दावा दियविसओ 'दिसत्ति दिसामोहो दिसाओ वा तारगाओ वा न दीसंति वासं या पडह, असझाइयं वा जाय तो प्रतिक हारिभकालवहोत्ति गाथार्थः ॥ १३७१ ॥ किं च मणाध्य० द्रीया जह पुण गछताणं छीर्य जोई ततो नियत्तेति । निब्वाघाए दोषिण उ अच्छंति दिसा निरिक्वंता ॥ १३७२।। | अस्वाध्या| व्याख्या-तेसिं चेव गुरुसमीवा कालभूमी गच्छंताणं अंतरे जइ छीतं जोति वा फुसइ तो नियतंति । एवमाइका यकनियु७४७|| तो कालकारणेहिं अबाहया ते दोवि निवाघाएण कालभूमी गया, संडासगादिविहीए पमजित्ता निसन्ना उद्धठिया वा एकेको दो| ग्रहविधिः दिसाओ निरिक्खंतो अच्छइत्ति गाथाथैः ॥ १३७२ ।। किं च-तत्थ कालभूमिए ठिया सझायमर्चितंता कणगं दद्दण पडिनियत्तंति । पत्ते य दंडधारी मा बोलं गंडए उवमा ॥१३७३ ।। व्याख्या-तत्थ सम्झायं (अ) करेंता अच्छन्ति, कालवेलं च पडियरेइ, जइ गिम्हे तिणि सिसिरे पंच वासासु सत्त कणगारति (पडति) पेच्छेज तहा विनियतंति, अह निषाघाएणं पत्ता काल गणवेला ताहे जो दंडधारी सो अंतो पविसित्ता | भणइ-बहुपडिपुण्णा कालवेला मा बोलं करेह, एत्थ गंडगोवमा पुषभणिया कज्जइत्ति गाथार्थः ॥ १३७३ ।। नियविषयो दिगिति दिग्मोहो दिशो या तारका वान श्यन्ते वर्षा वा पतति अखाध्यापिकंपा जातं तर्हि कालवधः । तयोरेव गुरुसमीपात् कालभूमि गच्छतोरन्तरा यदि क्षुतं ज्योतिवां स्पृशति तदा निवते, एवमादिकारणरम्याहती तो हावपि नियोधातेन कालभूमि गती संदंशकादिविधिना प्रमज्य A७४७॥ विषण्णी स्थिती वा एकको विी निरीक्षमाणमिति, तन कालभूमौ स्थिती । तन्न स्वाध्यायं कुर्वती तिष्ठतः कालवेलां च प्रतिचरतः, यदि ग्रीष्मे । त्रीन् शिशिरे पन्न वर्षाम् सप्त कणकान् पश्येतां पततस्तदा विनिवर्तेते, अथ नियाधातेन प्राप्ता कालग्रहणवेला तदा यो दण्डधरः सोऽन्तः प्रविश्य भगतिबहुप्रतिपूर्णा कालवेला मा बोलं कुरुत, अत्र गण्डकोपमा पूर्वभाषिता क्रियते । R दीप अनुक्रम [२९] S ~1497~ Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७४] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आघोसिए बहहिं सुर्यमि सेसेसु निवष्टए दंडो । अह तं बहहिं न सुयं दंडिजा गंडओ ताहे ॥ १३७४ ।। व्याख्या-जहा लोए गामादिदंडगेण आघोसिए बहूहिं सुए थेवेहिं असुए गामादिठिई अकरेंतस्स दंडो भवति. बहहिं असुए गंडस्स दंडो भवति, तहा इहपि उपसंहारेयम् । ततो दंडधरे निग्गए कालग्गही उ इत्ति गाथार्थः ॥१३७४।। सो य इमेरिसो पियधम्मो ददधम्मो संविग्गो चेव वजभीरू य । खेअण्णो य अभीरू कालं पडिलेहए साह ॥ १३७९ ॥ । व्याख्या-पियधम्मो दढधम्मो य, एत्थ चउभंगो, तस्थिमो पढमभंगो, निच्चं संसारभउबिग्गो संविग्गो, बज-पावं तस्स भीरू-जहा तं न भवति तहा जयइ, एत्थ कालविहीजाणगो खेदण्णो, सत्तवंतो अभीरू । एरिसो साह कालपडि-Ig लेहओ, प्रतिजागरकच ग्राहकश्चेति गाथार्थः ॥ १३७५ ॥ ते य तं वेलं पडियरंता इमेरिसं कालं तुलेति कालो संझा य तहा दोवि समप्पंति जह समं चेव । तह तं तुलेंति कालं चरिमं च दिसं असझाए॥१३७६॥ व्याख्या-संझाए धरतीए कालग्गहणमाढतं तं कालग्गहणं सध्झाए य जं सेसं एते दोवि समं जहा समपति तहा तं दीप अनुक्रम [२९] AMROKASSCOM यथा खोके प्रामापिदण्डनायोपिते बहुभिः भुते लोकरभुते प्रामादिस्थितिमकुर्वतो दण्डो भवति, बहुभिरथुते गण्डकप पो भवति तथे-18 हायुपसंहारवितव्य, ततो दण्डधरे निति कालमायुत्तिति । स च ऐसा नियधर्मा इवधी चभत्र पस्यारो भA, तप्राय प्रथमो भना, निखं संसारभयोद्विमः संविधा, वर्ग-पापं तम्मान भीर:-यथा वन्न भवति तथा यतते, अन्न काल विधिज्ञायकः खेदशः, सत्यवान भीका, इंसः साधुः कालप्रति चरकः, तीच ता बेला प्रतिवरम्तौ ईयां कालं सोलयतः, सन्ध्यायां विद्यमानायो काठमणमाइतं, तत् कालग्रहणं सन्ध्यायाश्च यत् शेष एते हेअपि समं यथा समामृतस्तथा तां ~1498~ Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७६] भाष्यं [२२३...], (४०) दीया प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- कालबेलं तुलति, अहवा तिसु उत्तरादियासु संझाए गिण्हंति 'चरिमति अवराए अवगयसंझाएवि गेहति तहावि न प्रतिक्रहारिभ18|दोसोत्ति गाथार्थः ॥ १३७६ ॥ सो कालग्गाही बेलं तुलेत्ता कालभूमीओ संदिसावणनिमित्तं गुरुपायमूलं गच्छति । मणाध्य० सातत्थेमा विही अस्वाध्या७४८॥ आउत्तपुथ्वभणियं अणपुच्छा खलियपडियवाघाओ।भासत मूढसंकिय इंदियविसए तु अमणुण्णे ॥ १३७७ ॥ व्याख्या-जहा निग्गच्छमाणो आउत्तो निम्गतो तहा पविसंतोषि आउत्तो पविसति, पुषनिग्गओ पेव जइ अणा-II को कालपुच्छाए कालं गेहति, पविसंतोवि जइ खलइ पडइ जम्हा एत्थवि कालुद उग्धाओ, अहवा घाउत्ति लेहुईगालादिणा। 'भासत मूढसंकिय इंदियविसए अमणुण्णे इत्यादि पच्छद्धं सांग्यासिकमुपरि वस्यमाणं । अहवा इत्थवि इमो अत्यो| भाणियबो-चंदणं देतो असं भासंतो देह वंदणदुर्ग उवओगेण उ न ददाति किरियासु वा मूढो आवत्तादीसु वा संका कया न कयत्ति बंदर्ण देतस्स इंदियविसओ वा अमणुण्णमागओ ।। १३७७ ॥ ग्रहविधिः दीप अनुक्रम [२९] कालवेला तोकयता, अधोतराषिषु लिम सम्पयायो गृहन्ति चरमामिति अपरस्यामपगतसम्व्यायामपि गृहन्ति, तथापि न दोष हति । स काल-II मादी वेला तोमयित्वाकालभूमिमंदिशनानिमित्तं गुरुपादमूले गच्छति, तत्रायं विधिः यथा निर्गमायुक्तो निर्गतसपा प्रविशपि भायुक्तः प्रविशति, पूर्वनिर्गत एव पचनाप का पहाति प्रविपि परिस्खलति पतति बनावनापि काळ इवोधाता, अपना धात इति नारादिना, भाषमाणेखावि, मवानाप्वयमों भणितम्या-बदन पर भन्यत् भाषमाणो वाति बम्नलिकापयोगेन नदाति किवासु वा सूर धावतांविषमा मताभ कृता वेति | वन्यनं वषतोऽमनोशो देवियविषण भागतः ~1499~ Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३७८] भाष्यं [२२३...', (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] 56444CX मिसीहिया नमुकारे काउस्सग्गे य पंचमंगलए। किहकम्मं च करिता बीओ कालं तु पडियरइ ॥१३७८ ॥ व्याख्या-पविसंतो तिणि निसीहियाओ करेइ नमोखमासमणाणं च नमुक्कार करेइ, इरियावहियाए पंचउस्सासकालियं उस्सग्गं करेइ, उस्सारिए नमोअरहताणं पंचमंगलं चेव कहइ, ताहे 'कितिकम्मति यारसावत्तं बंदणं देह, भणइ य-संदिसह पाउसियं कालं गेण्हामो, गुरुवयणं गेण्हहत्ति, एवं जाव कालग्गाही संदिसावेत्ता आगच्छद ताव वितिओ दंडधरो सो कालं पडियरइ, गाथार्थः ॥ १३७८ ॥ पुणो पुवुत्तेण विहिणा निग्गओ कालग्गाही थोवावसेसियाए संझाए ठाति उत्सराहुसो । चउवीसगदुमपुफियपुष्पगमेकेकि अ दिसाए ॥१३७९॥ व्याख्या-उत्तराहुत्तो' उत्तरामुखः दंडधारीवि वामपासे ऋजुतिरियदंडधारी पुवाभिमुहो ठाति, कालगहणनिमित्तं च अहुस्सासकालियं काउस्सर्ग करेइ, अण्णे पंचुस्सासियं करेइ, उस्सारिते चउवीसत्थयं दुमपुष्फियं सामण्णपुर्व च, एते तिण्णि अक्खलिए अणुपेहेत्ता पच्छा पुवाए एते चेव अणुपेहेति, एवं दक्खिणाए अवराप इति गाथार्थः ॥१३७९ ॥ गण्हंतस्स इमे, उवधाया जाणियथा प्रविशन् तिम्रो नैपेधिकीः करोति क्षमाश्रमणां नमस्करोति ईयोपधिक्यां पञ्चोझासकालिकमुसगं करोति, प्रसारिते नमोईजयः (कथयित्वा) पञ्चमझकमेव कथयति, सदा कृतिकर्मेति द्वादशावतं वन्दनं ददाति, भणति -संदिशत मादोषिकं कालं गृक्षामि, गुरुवचनं गृहाणेति, एवं यावत् कालमाही संदिश्यागच्छति ताबद्वितीयो दण्डधरः स कालं प्रतिचरति, पुनः पूर्वोकेन विधिना निर्गतः कालपाही । दण्दधार्थपि वामपा अजुतिर्यगूदण्डधारी पूर्वाभिमुखः तिष्ठति, कासग्रहणनिमिचमष्टोच्चासकालिकं कायोत्सर्ग करोति, अन्ये (भणन्ति)-पञ्चोच्छ्रासिकं करोति, उत्सारिते चतुर्विंशतिस्तवं दुमपुष्पिका श्रामण्यपूर्वकं च एतानि श्रीण्यस्वलितान्यनुमेश्य पश्चात् पूर्वस्यामेतान्येकानुप्रेक्षते एवं दक्षिणस्यामपरस्त्रां । गृहत इमे उपचाता ज्ञातव्या SAXXX दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1500~ Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८०] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक -34-- [सू.] 30 आवश्यक- विंद्छीए[य] परिणय सगणे वा संकिए भवे तिण्हं । भासत मूढ संकिय इंदियविसए य अमणुपणे ॥१३८० प्रतिकहारिभ मणाध्य व्याख्या-गेहतस्स अंगे जइ उदगविंदू पडेजा, अहया अंगे पासओ वा रुधिरबिंदू, अपणा परेण वा जदि छीया। द्रीया अस्वाध्याअज्झयणं वा करेंतस्स जइ अन्नओ भावो परिणओ, अनुपयुक्त इत्यर्थः, 'सगणे'त्ति सगच्छे तिण्हं साहूर्ण गजिए संका, यकनियु॥७४९॥ एवं विजुच्छीयाइसुवि, ।। १३८० ॥ 'भासंत' पच्छद्धस्स पूर्वन्यस्तस्य वा विभासा क्ती कालमूढो व दिसिज्झयणे भासंतो यावि गिण्हति न सुजले । अन्नं च दिसझयणे संकतोऽनिट्ठषिसए वा ॥१३८१॥ । अग्रहविधिः | व्याख्या-दिसामोहो से जामो अहवा मूढो दिसं पडुच अज्झयणं वा, कहं , उच्यते, पढमे उत्तराहतेण ठाय। सो पुण पुवहुत्तो ठायति, अजायणेसुवि पढमं चतुवीसत्थओ सो पुण मूढत्तणओ दुमपुफियं सामण्णपुवयं कहति । ४ फुडमेव बंजणाभिलावेण भासंतोवा कहुति, वुडबुडेतो वा गिण्हइ, एवं न सुज्झति, 'संकेतो'त्ति पुर्व उत्तराहुत्तेण ठातिय, है ततो पुबहुत्तेण ठातवं, सो पुण उत्तराउ अवराहुत्तो ठायति, अज्झयणेसु चि चउवीसस्थयाउ अन्नं चेव खुड्डियायारगादि गृहनोऽने ययुदकविन्दुः पतेत् अथवाजे पायो रुधिरविन्नुः, आमना परेण वा यदि शुतं, अध्ययनं वा कपडो यद्यम्यतो भावः | १ ॥७४९॥ परिणतः, स्वगच्छे प्रयाणां साधूनां गर्जिते शा, एवं विद्युक्षुतादिष्वपि, भाषमाण-पश्चाधव विभाषा । दिग्मोहस्तला जातोऽथवा मूढो दिशं प्रतीत्याध्ययन वा, कथं ?, उच्यते, प्रथममुत्तरोन्मुखेन स्थातव्यं स पुनः पूर्वोन्मुखस्तिष्ठति, अध्ययनेम्वपि प्रथमं चतुर्विंशतिस्तवः स पुनर्मूढत्वात् दुमपुपिकं श्रामण्यपूर्वकं वा कथयति । स्फुटमेव व्यसनाभिलापेन भाषमाणो वा कथयत्ति, भूलभूडायमानो पा गृह्णाति, एवं न शुभ्यति, ग्रहमान इति पूर्व| मुत्तरोन्मुखेन स्वातण्यं ततः पूर्वोन्मुखेन स्थातव्यं स पुनरुत्तरखा अपरोन्मुखतिपति, अध्ययनेष्वपि चतुर्विशतिम्तवादन्यदेव क्षुलाचारादि दीप अनुक्रम [२९] * -* -47 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1501~ Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१३८१] भाष्यं [२२३...], प्रक्षेप: [१] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] अज्झयणं संकमाइ, अहवा संकइ किं अमुगिए दिसाए ठिओ ण वत्ति, अज्झयणेवि किं कडियं णवित्ति । 'इदियविसए य अमणुण्णे'त्ति अणिडो पत्तो, जहा सोईदिएण रुइयं वंतरेण चा अट्टहासं कयं, रुवे विभीसिगादि विकृतरूपं | दृष्ट, गंधे कलेवरादिगन्धो रसस्तत्रैव सर्योऽग्निज्वालादि, अह्वा इडेसु रागं गच्छइ, अणिडेसु इंदियविसएसु दोसन्ति । गाथार्थः ॥ १३८१ ॥ एवमादिउवघायवजिय कालं घेत्तुं कालनिवेयणाए गुरुसमीवं गच्छंतस्स इमं भण्णइ जो गकछतमि विही आगच्छंतमि होइ सो चेव । जे एत्थं णाणत्तं तमहं वोच्छं समासेणं ॥ १३८२ ॥ व्याख्या-एसा भड्याहुकया गाहा-तीसे अतिदेसे करवि सिद्धसेणखमासमणो पुबद्धभणियं अतिदेस वक्खाणेइ निसीहिआ आसवं अकरणे खलिय पडिय वाघाए। अपमजिय भीए वा छीए छिन्ने व कालवहो ॥१॥ (1०सिद्ध)॥ व्याख्या-जदि णितो आवस्सियं न करेइ, पविसंतो निसीहियं करेइ अहवा करणमिति (आसज्ज अकरणे इति) अध्ययन संक्राम्यति, अथवा गळते किममुकस्वां दिशि स्थितो नवेति, अध्ययनेऽपि कि कृष्ट नवेति, इन्द्रियविषयश्चामनोज्ञ इत्यनिष्टः प्राप्तः यथा श्रोग्रेग्विषेण हदितं व्यन्तरेण वाऽहासं कृतं रूपे विभीषिकादि विकृतं रूपं रष्ट गन्धे कलेवरदिगन्धः । अथवेष्टेषु राग गपछति अनिविन्दियविषयेषु द्वेषमिति । एवमायुपधातवर्जितं कालं गृहीत्वा कालनिवेदनाय गुरुसमीपं गच्छत इदं भण्यते । एपा भावाहुकता गाया एतस्यां अतिदेशे कृतेऽपि सिद्धसेन-1 पक्षमाश्रमणः पूर्वार्धमाणितं अतिदेशं व्याख्यानयति । यदि निर्गच्छन्त आवश्यक न कुर्वन्ति प्रविशन्तो नैषेधिी (न) कुर्वन्ति अघवासस्यमकरणे दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1502~ Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८२] भाष्यं [२२३...], प्रक्षेप: [२] (४०) प्रतिक मणाध्य हारिभ प्रत सूत्रांक [सू.] भामज न करो । कालभूमीप गुरुसमीवं पट्टवियस्स(पडियस) जइ अंतरेण साणमज्जाराई दिति, सेसपदा पुषभणिया, दिएम सबेसु कालबधो भवति ॥ १॥ द्रीया गोणाई कालभूमीइ हुन संसप्पगा व खडिजा। ।७५०॥ कविहसिन विजुयंमी गल्जिय उकाइ कालवहो ॥२॥(प्र.सिद्ध०)॥ व्याख्या-पढमयाए आपुच्छित्ता गुरू कालभूमि गओ, जइ कालभूमिए गोणं निसर्ग संसष्पगादि वा उडि(हियादि पेच्छेज तो नियत्तए, जह कालं पहिलेइंतस्स गिण्हंतस्स वा निवेषणाए वा गच्छंतस्स कविहसियादि, तेहिं कालवहो भवति, कविहसियं नाम आगासे विकृतं मुखं वानरसरिसं हासं करेजा । सेसा पया गतार्धा इति गाधार्थः ॥२॥ कालगाही णिवाघातेण गुरुसमीवमागतोइरियाबहिया इत्थंतरेऽवि मंगल निवेयणा दारे । सव्वेहि वि पट्टबिए पच्छा करणं अकरणं वा ॥ १३८३ ॥ व्यास्यादिवि गुरुस्स हत्थंतरमेते कालो गहिमओ तहावि कालपवेयणाए इरियावहिया पडिकमियबा, पंचुस्सास महविधिः दीप अनुक्रम [२९] १७५०॥ 1-आशाम्यं न करोति कालमरणभूमे। प्रस्थितस्स गुरुसमीपं यद्यम्तरा समाजारादि हिन्दति, शेषाणि पदानि पूर्व अणितानि, पते सकाळचमो भवति । प्रथमतया आपूछय गुरु काळभूमिगतः यदि काकभूमी गो निषण्णं संसर्पकादिवा वस्थिता(डादि पश्वेत् तहिनिवत, यदि का प्रतिक्षिततो ग्रतः निवेरने वा गणता पितसितादि, सैः कालवधो भवति, कपिद्दसितं नामाकाशे वागरसदशं विकृतं मुझं हासे हुयात , शेषाणि पदानि गतानि । काममाही गुरुवमीये निब्वाचातेकागतः । मद्यपि गुरोलान्तरमाचे कालो गृहीतवथापि कासावेदने र्यापथिकी प्रतिकातण्या, पञ्चोकास मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1503~ Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८३] भाष्यं [२२३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] मेत्तकालं उस्सगं करेंति, उस्सारिएऽवि पंचमंगलयं कहृति, ताहे बंदणं दाउं निवेएंति-सुद्धो पाओसिओ कालोत्ति, ताहे दंडधरं मोनुं सेसा सचे जुगवं पडवेंति, किं कारणम् ?, उच्यते, पुवुत्तं जं मरुगदिद्वतोत्ति ।। १५८३ ॥ सन्निहियाण घडारो पट्टविय पमादि णो दए कालं । बाहि ठिए पडियरए विसई ताएऽवि दंडधरो॥१३८४ ॥ व्याख्या-वडो बंटगो विभागो एगई, आरिओ आगारिओ सारिओ वा एगढ़, बडेण आरिओ बडारो, जहा सो वडारो सन्निहियाण मरुगाण लब्भइ न परोक्खस्स तहा देसकहादिपमादिस्स पच्छा कालं न देंति, 'दारे'ति अस्य व्याख्या 'बाहि ठिए' पच्छद्धं कंठं ॥ १३८४ ॥ सबेहिवि पच्छद्धं अस्य व्याख्याX/पविय वंदिए वा ताहे पुच्छंति किं सुयं? भंते ! तेवि य कहें ति सव्वं जं जेण सुर्य व दिहं वा ॥ १३८५॥ व्याख्या-दंडधरेण पट्टविए वैदिए, एवं सबेहि वि पहविए वंदिए पुच्छा भवइ-अजो ! केण किं दिहं सुयं वा ? दीप अनुक्रम [२९]] मात्रकालमुसगै कुर्वन्ति, वत्सारितेऽपि पचमङ्गलं कथयन्ति, ततो वन्दनं वचा निवेदयतः-भादोपिकः कालः शुद्ध इति, तदा दण्वधरं मुच्या शेषाः सर्वे युगपत् स्वाध्याय प्रतापयन्ति, किकारण ', उच्यते, पूर्वमुक्तं यमात् मरुकरात इति । बाटो बण्टको विभागः एकार्थाः, आरिक भागारिक: कासारिक इति एकार्थाः । वाटेनारिको बाटारा, बया स वाटारः सनिहितमसहभ्यते न परोक्षेण, तथा देशादिविधाप्रमादवतः पश्चात् काल म ददति । - मित्यख म्याण्या-बाहास्थितः पार्थ, कण्वं । सवैरपि पा दायरेण प्रस्थापिते वन्दिते, एवं संरपि प्रस्थापिले वन्दिते पृण्ठा भवति-आर्य ! केनचित | किचिद् र श्रुतं चा!, 456 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15044 Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८५] भाष्यं [२२३...], (४०) आवश्यकहारिभद्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] १७५१॥ है दंडधरो पुच्छइ अण्णो वा, तेवि सच्च(ई)कहेंति, जति सबेहिवि भणियं-न किंचि सुयं दिई वा, तो सुद्धे करेंति सज्झायं । अहा प्रतिक|एगेणवि किंचि विजुमादि फुडं दिई गजियादि वा सुयं तो असुद्धे न करेंतित्ति गाथार्थः ॥ १३८५ ॥ अह संकियं- मणाध्य. इक्कस्स दोण्ह व संकियंमि कीरइ न कीरती तिण्हं । सगणमि संकिए परगण तु गंतुं न पुच्छति ॥१३८६ ॥ अस्वाध्याव्याख्या--जदि एगेण संदिद्ध-दिई सुयं वा, तो कीरइ सज्झाओ, दोण्हवि संदिद्धे कीरति, तिण्हं बिजमादि एग-18" दयनियुक्तिः संदेहे ण कीरइ सञ्झाओ, तिण्हं अण्णाण्णसंदेहे कीरइ, सगणमि संकिए परवयणाओऽसज्झाओ न कीरइ । खेत्तविभागण तेसिं चेव असम्झाइयसंभवो ॥ १३८६ ॥ एत्थं णाणत्तं तमहं वोच्छ समासेणं'ति-अस्यार्थः कालचउक्के णाणत्सगं तु पाओसियंमि सब्वेवि । समयं पटवयंती सेसेसु समं च विसमं वा ॥ १३८७॥ व्याख्या-एयं सर्व पाओसियकाले भणियं, इयाणि च उसु कालेसु किंचि सामण्णं किंचि विसेसियं भणामि || दीप अनुक्रम [२९] दण्डधरः पृषति भन्यो वा, तेऽपि सत्यं कथयन्ति, यदि सवैरपि भणित-न किञ्चिन् पं श्रुतं चा, तदा शुद्ध कुर्वन्ति स्वाध्याय, अथैकेनापि किनिद्रियदादि। स्फुट रष्टं गर्जितादि वा श्रुतं तदाऽशुद्ध न कुर्वन्ति । अथ शक्कितं-बयेकेन संदिग्ध-रई श्रुतं वा, तहि क्रियते स्वाध्यायः, चोरपि संदेहे क्रियते, त्रयाणां [विखुदादिके एक (समान) संदेहे न कियते खाप्पाषा, त्रयाणामन्यान्यसंदेहे क्रियते, स्थगणे शहिते परवचनात् अखाध्यायो न कियते, क्षेत्रविभागेन तेषामे-। |वास्वाध्यायिकसंभवः । यदन्न नानात्वं तदहं वक्ष्ये समासेनेति । एतत् सर्व प्रादोषिककाले भणिसं, इदानी चतुर्वपि कालेषु किचिन सामान्य किनिन् । विशेषितं भणामि SAUR ||७५२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1505~ Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३८७] भाष्यं [२२३...], (४०) CAS प्रत सूत्रांक [सू.] पाओसिय दंडधरं एक मोत्तुं सेसा सवे जुगर्व पट्टति, सेसेसु तिसु अद्धरत्त वेरत्तिय पाभाइए व समं वा विसमं वा पट्ठति ॥ १३८७ ॥ किं चान्यत्इंदियमाउत्ताणं हणंति कणगा उ तिन्नि उकोसं । पासासु य तिन्नि दिसा उउबद्ध तारगा तिन्नि ॥ १३८८ ॥ | व्याख्या-सुङ इंदियउवओगउवउत्तेहिं सबकाला पडिजागरियवा-घेत्तवा, कणगेसु कालसंखाको विसेसो भण्णइ-Y तिणि गिम्हे उवहणंतित्ति, तेण उक्कोस भण्णइ,चिरेण उवघाउत्ति, तेण सत्त(तिमिजणं सेसं मज्झिमं, अस्य व्याख्याकणगा हणंति कालं ति पंच सत्तेव गिम्हि सिसिरवासे । उक्का उ सरेहागा रेहारहितो भवे कणओ॥ १३८९॥ I व्याख्या-कणगा गिम्हे तिन्नि सिसिरे पंच वासासु सत्त उवहणंति, उक्का पुणेगावि, अयं चासिं विसेसो-कणगो सण्हरेहो पगासरहिओ य, उका महतरेहा पकासकारिणी य, अहवा रेहारहिओ विष्फुलिंगो पभाकरो उक्का चेव ॥१३८९॥ 'वासासु तिपिण दिसा' अस्य व्याख्यावासासु य तिन्नि दिसा हवंति पाभाइयंमि कालंमि।सेसेसु तीमु चउरो उटुंमि चउरो चउदिसिपि ॥१३९०॥ दीप अनुक्रम [२९] प्रादोषिक दण्डधरमेक मुफ्वा शेषाः सर्वे युगपत् प्रस्थापयन्ति, शेषेषु त्रिषु अर्धरात्रिके वैरात्रिके प्रामातिके च समं वा वियुका वा प्रस्थापयन्ति । | सुषु इन्द्रियोपयोगोषयुतिः स कालाः प्रतिजागरितम्या-भहीतव्याः, कनकविषये कामकृतः संकबाविशेषो भगवते-त्रयो ग्रीमे उपान्तीति तेनोकृष्ट मण्यते | चिरेणोपधात इति, तेन सप्त धन्यतः शेषं मध्यम । कनका भीमे प्रयः शिशिरे पन वर्षासु सप्तोपतन्ति, का पुनरेकापि, भयं चानयोपिशेषः-कनकः | अषणरेखा प्रकाशरदितत्र महदेखा प्रकाशकारिणी च, अथवा रेखारहितो विस्फुलिङ्गः प्रभाकर वर्षामुतिसो दिशः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15064 Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९०] भाष्यं [२२३...', (४०) आवश्यकहारिभ. द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७५२॥ व्याख्या-जत्थ ठिओ वासाकाले तिन्निवि दिसा पेक्खइ तत्थ ठिओ पाभाइयं कालं गेहइ, सेसेसु तिसुवि कालेसु है। वासासु (उडुबद्धे सबेसु) जत्थ ठिओ चउरोवि दिसाभागे पेच्छइ तत्थ ठिओऽवि गेण्हइ ॥१३९०॥ 'उडुबड़े तारगा तिनि । प्रतिक्र जिमणाध्य. अस्य व्याख्या अस्वाध्यातिम तिन्नि तारगाओ उर्दुमि पाभातिए अदिवि । वासासु [य] तारगाओ चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि ॥१३९१॥ व्याख्या-तिसु कालेसु पाओसिए अडरत्तिए वेरत्तिए, जति तिन्नि ताराओ जहण्णेण पेच्छंति तो गिण्डंति, उडुबद्धे चेव अम्भादिसंबडे जइवि एकंपि तारं न पिच्छंति तहावि पाभाइयं कालं गेण्हंति, बासाकाले पुण चउरोवि काला अम्भाइसंघटे तारासु अदीसंतासुवि गेण्हति ॥ १३९१ ॥ 'छन्ने निविहोत्ति अस्य व्याख्याठाणासइ बिंदृसु अ गिण्हं चिट्ठोवि पच्छिमं कालं । पडियरह बहिं एको एको [व] अंतहिओ गिण्हे ॥१३९२॥ व्याख्या-जदिवि वसहिस्स बाहिं कालरंगाहिस्स ठाओ नत्थि ताहे अंतो छण्णे उद्धडिओ गेण्हति, अह उद्धहियस्सवि. अंतो ठाओ नस्थि ताहे छपणे चेव निविडो गिण्हइ, बाहिडिओवि एको पडियरइ, वासविंदुसु पडतीसु नियमा अंतोठिओर यत्र स्थितो वारात्रिकाले तिम्रोऽपि दिशः प्रेक्षते तत्र स्थितः प्राभातिक कालं गृहाते, शेपेषु विध्वपि कालेषु वर्षासु या स्थितनतुरो दिग्विभागान् प्रेक्षते तत्र स्थितोऽपि गृहाति । तुमने तारकातिनः । त्रिषु कालेषु प्रादोषिके अर्धरात्रिके वैरात्रिके यदि विखसारका जयन्येन प्रेक्षेत तदा गलीयात् ॥५२॥ क्लब एव अनायायादिते पचपि एकामपि तारिका न पश्यन्ति तथापि प्राभाति का गृहम्ति, वर्षाकाले पुनश्चत्वारोऽपिकाला अनायाळादिते तारास्वदृश्यमानास्त्रपि गृहन्ति । उ निविष्ट इति । यद्यपि वसत्तेहिः कालग्राहिणः स्थानं नास्ति तदाऽन्तझउने अचंस्थितो गृहरति, अयोध्यस्थितस्याभ्यन्तः स्थानं | नास्ति तदा बने एवं निविष्टो गृहाति, बहिःस्थितोऽप्येकः प्रतिचरति, वर्षाबिन्दुपु पतरसु निषमादन्तःस्थितो. दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1507~ Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९२] भाष्यं [२२३...., (४०) प्रत सूत्रांक गिण्हइ, तत्थवि उद्धडिओ निसण्णो वा, नवरं पडियरगोबि अंतो ठिओ चेव पडियरइ, एस पाभाइए गच्छुबग्गहा अववायविही, सेसा काला ठाणासति न घेत्तवा, आइण्णतो वा जाणियचं ॥ १३९२ ॥ कस्स कालस्स कं दिसमभिमुहेहिं ठायबमिति भाष्यतेपाओसि अट्ठरत्ते उत्तरदिसि पुब्व पेहए कालं । बेरत्तिपंमि भयणा पुवदिसा पच्छिमे काले ॥ १३९३ ॥ व्याख्या-पाओसिए अहरत्तिए नियमा उत्तराभिमुहो ठाइ, 'वेरत्तिए भयण'त्ति इच्छा उत्तराभिमुहो पुषाभिमुहो वा, पाभाइए नियमा पुषा मुहो॥ १३९३ ॥ इयाणिं कालग्गहणपरिमाणं भण्णइ कालचउर्क उफोसएण जहन्न तियं तु पोडव्वं । बीयपएणं तु दुर्ग मायामयविप्पमुकाणं ॥ १३९४ ॥ II व्याख्या-उस्सग्गे उकोसेणं चत्तारि काला घेति, उस्सग्गे चेव जहष्णेण तिगं भवति, 'बितियपए'त्ति अववाओ, तेण कालदुगं भवति, अमायाविनः कारणे अगृह्यमाणस्वेत्यर्थः, अहवा उकोसेणं चउकं भवति, जहण्णेण हाणिपदे तिगं 4%ACANCHK [सू.] दीप अनुक्रम [२९] गृहाति, तवायूर्वस्थितो निषाको पा, नवरं प्रतिवरकोऽपि अन्त:स्थित एक प्रतिवाति, एष प्राभातिके गोपग्रहार्थाबापवादविधिः, पोषा। काकाः | स्थानेऽयति न महीतव्याः, आचरणानो वा हातव्यं । कमिन् काले कां दिशमभिमुखः स्वातम्यामिति । प्रादोपिके अर्धरापिके नियमादुचरोम्मुखलिष्ठति, वैरात्रिके भनेति इच्छा जतराभिमुखः पूर्वाभिमुस्रो वा, प्राभातिके नियमात् पूर्वोन्मुखः । इदानी कालपदणपरिमाणं भव्यते-जसमें उत्कृष्टतषत्वारः काला गृह्यन्ते, उत्सर्गे एव जघन्येन त्रिकं भवति, द्वितीयपदमिति अपवादः, तेन कालद्विकं भवति । अथवोत्कृष्टतचतुष्कं भवति, जघन्येन हानिपदे निक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1508~ Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [स्.-] दीप अनुक्रम [२९] आवश्यकहारिभद्रीया ।। ७५३ ।। आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १३९४] भाष्यं [ २२३ ...] भवति, एक्कमि अगहिए इत्यर्थः, बितिए हाणिपदे कए दुगं भवति, द्वयोरग्रहणत इत्यर्थः एवममायाविणो तिन्नि वा अगिण्हुतस्स एको भवति, अहवा मायाविमुक्तस्य कारणे एकमपि कालमगृहतो न दोषः प्रायश्चित्तं न भवतीति गाथार्थः ॥ १३९४ ॥ कहं पुण कालचक्कं १, उच्यते फिडियम अहरते कालं वित्तुं सुवंनि जागरिया । ताहे गुरू गुणंती चउत्थि सन्वे गुरू सुअइ ।। १३९५ ।। व्याख्या - पादोसियं कालं घेत्तुं सबै सुत्तपोरिसिं कार्ड पुन्नपोरिसीए सुतपाढी सुवंति, अत्थचिंतया उकालियपाढिणो य जागरंति, जात्र अङ्कुरतो, ततो फिडिए अट्टरते कालं घेत्तुं जागरिया सुयंति, ताहे गुरु उट्ठेत्ता गुणेंति, जाव चरिमो पत्तो, चरिमजामे सवे उट्टित्ता वेरत्तियं घेत्तुं सज्झायं करेंति, ताहे गुरु सुवंति । पत्ते पाभाइयकाले जो पाभाइयं कालं घेच्छिहिति सो कालस्स पडिक्कमिडं पाभाइयकालं गेण्डर, सेसा कालवेलाए पाभाइयकालस्स पडिक्कमंति, ततो आवस् करेंति, एवं चउरो काला भवति ।। १३९५ ।। तिष्णि कहूं ?, उच्यते, पाभाइए अगहिए सेसा तिन्नि, अहवागहियंमि अङ्कुरते घेरतिय अगहिए भवइ तिन्नि । बेरतिय अहरते अइ उबओगा भवे दुणि ॥। १३९६ ।। १] भवति, एकगृहीते। द्वितीयस्मिन् हानिपदे कृते द्विकं भवति एवममायाविनखीन् बागृत एको भवति, अथवा कथं पुनः का? प्रदोषिकं कालं गृहीत्वा सर्वे सूत्रपरूषों कृत्वा पूर्णायां पौरुण्यां सूत्रपाठिनः स्वपन्ति, अर्थचिन्तका उत्कालिकपाटका जागरन्ति यावदत्रः, ततः स्फिटिकेऽधेरा कालं गृहीत्वा जागरिताः स्वपन्ति तदा गुरव उत्थाय गुणयन्ति वावचरमः प्राप्तः, चरमे यामे सर्वे उत्थाय वैशत्रिकं गृहीत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति तदा गुरवः स्वपन्ति प्राप्ते प्राभातिककाले यः प्राभातिकं कालं महीष्यति स का प्रतिक्रम्य प्राभातिककालं गृह्णाति शेषाः कालवेलायां प्राभातिककालस्य प्रतिक्राम्यन्ति तत आवश्यकं कुर्वन्ति एवं चत्वारः काला भवन्ति त्रयः कथं ?, उच्यते, प्राभातिकेऽगृहीते शेषाखयः, अथवा ४ प्रतिक मणाध्य० अस्वाध्या यनियुक्तिः ~ 1509~ ॥ ७५३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९७] भाष्यं [२२३...] (४०) प्रत सूत्रांक * [सू.] पडिजग्गिमि पढमे बीयविवजा हवंति तिन्नेव । पाओसिय रत्तिय अहउवओगा उ दुण्णि भवे ॥१३९७ ।। गाथाद्वयस्यापि च्याख्या-रत्तिए अगहिए सेसेसु तिसु गहिएम तिण्णि, अहरत्तिए वा अगहिए तिण्णि, दोणि कई १, उच्यते, पाउसियअडरत्तिएसु गहिएसु सेसेसु अगहिएसु दोष्णि भवे, अहया पाउसियवेरत्तिए गहिए य दोन्नि, अहवापारसियपाभाइएसु अगहिएसु दोषिण, एत्थवि कप्पे पाउसिए चेव अणुवहएण उवओगओ सुपडियग्गिएणसमकालेण पदति न दोसो, अहवा वेरतिय अहुरत्तियेऽगहिए दोषिण अहवा अडरत्तियपाभाइयगहिपसु दोण्णि अहवा वेरत्तियपाभाइ |एसु गहिरासु, जदा एको तदा अण्णतरंगेहइ । कालचउक्ककारणा इमे कालचउक्के गहणं उस्सग्गविही चेव, अहवा पाओसिए गहिए उवहए अहुरत्तं घेत्तुं सम्झायं करेंति, पाभाइओ दिवसहा घेतबो चेव, एवं कालचउकं दिखें, अणुबहए पाओसिए सुपडिय गिए सब राई पति, अडरत्तिएणवि वेरत्तियं पहंति, वेरत्तिएणवि अणुवहएण सुपडियग्गिएण पाभाइय असुद्धे उद्दिई दिवस. Fओवि पडंति। कालचउके अग्गहणकारणा इमे-पाउसिब न गिण्हंति असिवादिकारणओन सुज्झति वा, अडरत्तियं नगिण्हंति 1 वैरात्रिकेऽगृहीते शेषेषु त्रिषु गृहीतेषु त्रयः, अर्धरात्रिके वाऽगृहीते त्रयः, ही कथं ?, उच्यते, प्रादोषिकार्धरात्रियोहीतयोः शेषयोरगृहीतयोड़ी भवतः, अथवा प्रादोपिकपैरात्रिकयोग्दीतयोद्री ५ अथवा प्रादोषिकप्राभातिकयोस्गृहीतबोही अवापि कल्पे प्रादोपिकणानुपहतेनैवोपयोगतः सुमतिजागरितेन सर्वकालेषु पठति न दोषः, अथवा पैराविक अर्धरात्रिकेऽगृहीते हो अथवा अर्धराविकमाभातिकवोहीतयोडी, अधवा बैरात्रिकमाभातिकयोही. तयोडौं, मौकस्तादाम्पतरं गृहाति । कालचतुककारणानीमानि-काल चतुष्कारहणं गत्सर्गविधिरेच, अथवा प्रादोपिके गृहीते अपहतेऽधरात्रं गृहीत्वा स्वाध्याय कुर्वन्ति, प्राभातिको दिवसाथै महोतम्य एव, एवं कालचतुष्कं इष्ट, अनुपहते प्रादोपिके सुप्रति जागरिते सर्वा रात्रि पठन्ति, अर्धरात्रिकेणापि वैरात्रिके पठन्ति, वैराविकणायनपाइनेन सुपतिनागरितेन प्राभातिके कालेशुद्ध उद्दिष्ट विवसतोऽपि पठन्ति । कालचतुम्के ग्रहणकारणानीमानि-प्रादोपिक न। गृहन्ति अशिवादिकारणतः न शुध्यति चा, अर्धरात्रिकन गृहन्ति दीप अनुक्रम [२९] KRIC मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1510~ Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९७] भाष्यं [२२३...] (४०) प्रत सूत्रांक ४प्रतिकमणाध्य अस्वाध्यायनियुक्तिः भावश्यक- कारणतो ण सुज्झति वा पाओसिएण वा सुपडियग्गिएण पढंति न गेण्हंति, बेरत्तियं कारणओ न गिण्हति न सज्झइ | हारिभ-18वा, पाओसिय अहरत्तेण वा पढेति, तिन्नि वा णो गेण्हंति, पाभाइयं कारणओ न गिण्हइ न सुज्झइ वा बेरत्तिएणेव दिव-1 द्रीया सओ पढंति ॥ १३९७ ॥ इयाणि पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामि७५४|| पाभाइयकालंमि उ संचिक्खे तिन्नि छीयकनाणि । परवयणे खरमाई पावासुय एवमादीणि ॥ १३९८ ॥ व्याख्या वस्था भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति । तत्थ पाभाइयंमि काले गहणविही पडवणविही य, तत्थ गहणविही इमानवकालवेलसेसे उबग्गहियअट्ठया पडिक्कमह । न पडिकमइ वेगो नववारहए धुवमसज्झाओ! (भा०२२४)। व्याख्या-दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभवव जणहा मेहावीतराण य पलिभंगवजणवा, एवं सवेसिमणुग्गहहा नवकालग्गहणकाला पाभाइए अणुण्णाया, अओ नवकालग्गहणवेलाहिं सेसाहिं पाभाइयकालग्गाही दीप अनुक्रम [२९] ॥५४॥ कारणतो न शुध्यति वा, पादोषिकेण वा सुपतिजागरितेन पठन्ति न गृह्णन्ति, वैरात्रिक कारणतो न गृहन्धिान शुभपति वा, प्रादोविकारात्रिकाभ्यामेव पठन्ति, श्रीन् वा न गृहन्ति, प्राभातिक कारणतो न गृहाति न शुध्यति बा, बैरात्रिकेणव दिवसे पठस्ति । इदानीं प्राभातिककानप्रहणविधि पृथक भगामि-त्र प्राभातिके काले प्रहणविधिः प्रस्थापनविचित्र-तत्र महणविपिरयं-दिवसे खाध्याय विरहितानां देशादिकथासंभववर्जनाय मेधाविनाभितरेषां काचविपर्जनार्थ, एवं सर्वेषामनुमहापांच नवकालप्राणकालाः प्राभातिकेऽनुज्ञाताः, अतो नवकासपाहणबेलामु शेषासु प्राभातिककासपाही मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1511~ Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९८] भाष्यं [२२४] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] कालस्स पडिक्कमति, सेसावि तं वेलं पडिक्कमति वा न वा, एगो नियमा न पडिक्कमइ, जइ छीयरुदिदादीहिं न सुल्झइ तो सो चेव वेरत्तिओ सुपडियग्गिओ होहितित्ति । सोवि पडिकतेसु गुरुणो कालं निवेदित्ता अणुदिए सूरिए कालस्स |पडिकमति, जइ घेप्पंतो नववारे उवहओ कालो तो नजइ धुवमसज्झाइयमस्थित्ति न करेंति सज्झायं ।। २२४ ॥ नववारगहणविही इमो-'संचिक्खे तिण्णि छीतरुण्णाणि'त्ति अस्य व्याख्या इक्किक तिन्नि वारे छीयाइहयंमि गिण्हए कालं। चोएइ खरो वारस अणिट्ठविसए अ कालवहो ॥ २२५ ॥ (भा०)॥ व्याख्या-एकस्स गिण्हओ छीयरुदादिहए संचिक्खइत्ति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिण्हइ, एवं तिण्णि वारा, तओ परं अपणो अण्णमि धंडिले तिणि वाराउ, तस्सवि उवहए अण्णो अण्णंमि थंडिले तिण्णि वारा, तिण्डं असई|8 दोण्णि जणा णव वाराओ पूरेइ, दोण्हवि असतीए एको चेव णववाराओ पूरेइ, थंडिलेसुवि अववाओ, तिसु दोसु वा| कालख प्रतियाम्यति, पोषास्तु तथा बेलायो प्रतिकाम्यन्ति वा न वा, एको नियमान प्रतिकाम्पति, यदि शुतरोदनादिभिर्न शुध्यति सदास एवं | वैरात्रिकः सुप्रतिजागरितो भविष्यतीति । सोऽपि प्रतिकाम्य गुरोः कालं निवेद्यानुदिते सूर्ये कालात् प्रतिकाम्पति, यदि गृनमाणो नवचारानुपहतः कालताई ज्ञायते ध्रुवमखाध्यायिकमस्ति इति न कुर्वन्ति खाध्याय। नववारग्रहणविधिरयं-एकस्मिन् गृहति क्षुतरुदितादिभिहते प्रतीक्षते । पुनरांकाति, एवं बीन् वारान् , ततः परमभ्योऽम्पमिान् स्थण्डिले श्रीन पारान् , तस्याप्युपहतेऽन्योन्यस्मिन् स्थण्डिले बीन् वारान् , निवासस्म दी जनी नब पारान् परवतः, स्योरप्पसतोरेक एव गव वारान् पूरवति, स्थष्टिलेवयससु अपवादः, विषु योवा to4544 दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1512~ Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९८...] भाष्यं [२२५] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभद्रीया ॥७५५॥ एकमि वा गिण्हतीति ॥२२५॥ परवयणे खरमाई' अस्य व्याख्या'चोपइ खरो पच्छद्ध' चोदक आह-जदि रुदतिमणिढे काल- प्रतिक्रवहो ततो खरेणरडिते चारह वरिसे उवहमउ, अण्णेसुवि अणिइंदियविसएसु एवं चेव कालवहो भवतु?, आचार्य आह- तामणाध्य चोअग माणुसऽणिढे कालवहो सेसगाण उपहारो। पावासुआइ पुब्धि पन्नवणमणिच्छ उग्घाडे ॥२२६(भा०)। अस्वाध्याव्याख्या-माणुससरे अणिढे कालवहो 'सेसग'त्ति तिरिया तेसिं जइ अणिको पहारसद्दो सुबइ तो कालवधो, 'पावा यनियुक्तिः सिय'त्ति मूलगाथायां योऽवयवः अस्य व्याख्या-पावासुयाय' पच्छद्धं, जइ पाभाइयकालग्गहणवेलाए पावासियभज्जा पइणो गुणे संभरंती दिवे दिवे रोएती, रुवणवेलाए पुषयरो कालो घेत्तबो, अहवा सावि पचुसे रोवेजा ताहे दिवा गंतुं पण्णविजइ, पण्णवणमनिच्छाए उग्घाडणकाउस्सग्गो कीरइ ॥ २२६ ॥ एवमादीणि'त्ति अस्यावयवस्य व्याख्या वीसरसहअंते अब्बत्तगडिंभगमि मा गिण्हे । गोसे दपट्टबिए छीए छीए तिगी पेहे ॥ २२७ (भा०)॥ व्याख्या-अच्चायासेण रुयंत वीरसं भन्नइ, तं उवहणए, जं पुण महुरसदं घोलमाणं च तं न उवहणति, जावमपिरं [सू.] दीप अनुक्रम [२९] ७५५॥ एकस्मिन् वा गृहन्ति । चोपयति खरः पनार्थ, यदि रोदत्यनिटे कालबधो रटिते ततः खरेण द्वादश वर्षाण्युपहव्यता,(काल) म्येष्यपि अनिटेन्द्रियविषये प्वयेवमेव कालवधी भवतु । मनुष्यस्वरेऽनिटे कालवधः शेषा:-तिर्थशास्तेषां यदि अनिष्टः प्रहारशब्दः भूयते तर्हि कालपधा, यदि प्राभातिककालमहणवेखायो। मोचितपतिका बी परयुगंणान् भारती दिवसे ३ रोदिति, रोदनवेलाषा: पूर्वमेव कालो ग्रहीतव्यः, अथ च साऽपि प्रत्युषसि स्थान सदा दिवसे गरबा प्रज्ञाप्यते, प्रज्ञापनामनियां उद्घाटनकायोत्सर्ग: फियते । अत्यावासेन रोदनं तत् विरस भण्यते, सदुपदन्ति, यत् पुनकिमानं मधुरशाद च तमोपहन्ति यावशल्पा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15134 Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९८...] भाष्यं [२२७] (४०) प्रत सूत्रांक तामबत्तं, ते अप्पेणवि वीसरेण उवहणइ, महतं उस्सुंभरोवणेण उवहणइ, पाभाइयकालग्गहणविही गया, इयाणि पाभाइयपढवणविही, 'गोसे दर पच्छद्धं, 'गोसि'त्ति, उदितमादिचे, दिसालोय करेत्ता पट्टति, 'दरपट्टविए'त्ति अद्ध-IX पद्धविए जा छीतादिणा भग्गं पढवणं अण्णो दिसालोयं करेत्ता तत्थेव पट्टवेति, एवं ततियवाराए । दिसावलोयकरणे। इमं कारणंआइन्न पिसिय महिया पेहित्ता तिन्नि तिन्नि ठाणाई। नववारहए काले हउत्ति पदमाइ न पदंति ॥ १३९९ ॥ व्याख्या-'आइण्णा पिसिय'ति आइण्णं-पोग्गलं तं कागमादीहिं आणियं होजा, महिया वा पडिउमारद्धा, एवमाई| एगठाणे ततो चारा उवहए हत्थसयबाहिं अण्णं ठाणं गंतुं पेहति-पडिलेहेंति, पढविंतित्ति वुत्तं भवति, तत्थवि पुबुत्तविहिणा तिन्नि यारा पट्टयेंति, एवं वितियठाणेवि असुद्धे तओवि हत्थसयं अन्नं ठाणं गतुं तिन्नि वारा पुयुत्तविहाणेण [सू.] दीप अनुक्रम [२९] तावदपक, तदपेनापि विसरेणोपहम्ति, महान् अपश्रुभररोदनेनोपहन्ति, प्रामातिककालमहणविधिर्यतः, इदानी प्राभातिकप्रस्थापन विधिःउदिने आदित्य दिगवलोकं कृत्वा प्रस्थापयन्ति, अर्धप्रस्थापिते यदि क्षुतादिना भनं प्रस्थापनं अन्यो दिगवलोकं कृत्वा तत्रैव प्रस्थापति, एवं तृतीयवारायामपि, दिगवलोककरणे इदं पुनः कारण । आकीर्ण-पुरतं तत् काकादिभिरानीतं भवेत् महिका वा पतितुमारब्धा, एबमादिमिरेक स्थाने उपहते त्रीन् बारान् इस्तशतान पहिरन्यस्मिन् स्थाने गत्वा प्रतिलेखयन्ति प्रस्थापयन्ति इत्युक्तं भवति, तत्रापि पूर्वोक्तविधिना तिखो बारा: प्रस्थापयन्ति, एवं द्वितीयस्थाने. |वशुद्ध तनोऽपि हसपासात्परतोऽन्यस्मिन् स्थाने गया बीन वारान पूर्वोक्तविधानेन मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15144 Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१३९९] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-पति, जइ सुद्धं तो करेंति सज्झायं, नववारहए खुताइणा णियमा हओ, (ततो)पदमाए पोरिसीए न करेंति सज्झायमिति ४ प्रतिक्रहारिभ- गाथार्थः ॥ १३९९ ॥ मणाध्य. द्रीया पट्टविघमि सिलोगे छीए पडिलेह तिन्नि अन्नस्थ । सोणिय मुसपुरीसे घाणालोअं परिहरिजा ॥ १४००॥ । अस्वाध्याव्याख्या-जदा पठ्ठवणाए तिन्नि अज्झयणा समत्ता, तदा उवरिमेगो सिलोगो कलियबो, तमि समत्ते पट्टवर्ण सम-II ॥७५६॥ यनियुक्ति प्पड़, वितियपादो गयस्थो 'सोणिय'त्ति अस्य व्याख्या| आलोअंमि चिलमिणी गंधे अन्नस्थ गंतु पकरंति । वाघाइयकालंमी दंडग मरुआ नवरि नस्थि ॥ १४०१॥ | व्याख्या-जस्थ सज्झायं करेंतेहिं सोणियवञ्चिगा दीसंति तत्थ न करेंति सज्झाय, कडगं चिलिमिलिं वा अंतरे दातुं करेंति, जत्थ पुण सज्झायं चेव करेन्ताण मुत्तपुरीसकलेवरादीयाण गंधे अण्णमि वा असुभगंधे आगच्छंते तत्थ सज्झायं न करेंति, अण्णापि बंधणसेहणादिआलोयं परिहरेजा, एवं सर्व निवाघाए काले भणियं ॥ वाघाइमकालोऽपि एवं चेव, नवरं गंडगमरुगदिता न संभवंति ॥ १४०१॥ KI||७५६॥ 1 प्रस्थापयन्ति, यदि शुई तहि कुर्वन्ति स्वाध्याय, नववारहते क्षुतादिना नियमात् इतस्ततः प्रथमायां पौरुभ्यां न कुर्वन्ति स्वाध्यायं । यदि प्रस्थापने बीयध्ययनानि समाप्तानि तदोपका सोका कवितव्यः, सस्मिन समाप्त प्रस्थापनं समाप्यते, द्वितीयपादो गताथैः, यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिः मोणितपर्चिका श्यन्ते तत्र न कुर्वन्ति स्वाध्याय, कडकं चिलिमिाल वान्तरा दत्त्वा कुर्वन्ति, वत्र पुनः स्वाध्यायमेव कुर्वतो भूत्रारीपादिकलेवरादिकाना गन्धोऽन्यो वा गन्धोऽशुभ मागच्छति रात्र स्वाध्यायं न कुर्वन्ति, अन्यमपि बम्धनसेधनायालोकं परिहरेत् , एतत् सर्व नियोधाते काले भणितं, याचातकालोऽप्येव| मेय, नवरं गण्डगमरुकष्टान्तौ म संभवतः । दीप अनुक्रम [२९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15154 Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४०२] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक एएसामनपरेऽसज्झाए जो करेह सजझायं । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्त विराहणं पाये ॥१४०२॥ व्याख्या-निगसिद्धा ॥ १४०२ ॥ 'असज्झाइयं तु दुविहं' इत्यादिमूलद्वारगाथायां परसमुत्थमस्वाध्यायिकद्वार सप्रपञ्चं गतं, इदानीमात्मसमुस्थास्वाध्यायिकद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह|आपसमुत्थमसज्झाइयं तु एगविध होइ दुविहं वा । एगविहं समणाणं दविहं पुण होइ समणीणं ॥१४०३।। | व्याख्या पूर्वार्द्ध कण्ठ, पश्चाईव्याख्या त्वियं-ऐगविहं समणाणं तच व्रणे भवति, समणीर्ण दुविहन्त्रणे फतुसंभवे चेति गाथार्थः ।। १४०३ ॥ एवं व्रणे विधानधोयंमि उ निप्पगले बंधा तिनेच हुँति उकोसं । परिगलमाणे जयणा दुविहमि य होइ कायब्वा ॥ १४०४॥ द्रा व्याख्या-पढम चिय वणो हत्थसय बाहिं धोवित्तु निप्पगलो कओ, ततो परिगलते तिण्णि बंधा जाव उकोसेणं गालंतो वाएइ, तत्थ जयणा वक्खमाणलक्खणा, 'दुविह'मिति दुविहं वणसंभवं उउयं च । दुविहेऽषि एवं पगजयणा कायथा ॥ १४०४॥ समणो उ वणिब्द भगंदरिब्व बंधं करित वाएड । तहवि गलते छारं दाउं दो तिनि बंधा उ ॥ १४०५ ॥ । [सू.] दीप अनुक्रम [२९] एकविध श्रमणानां तपणे भवति, श्रमणीनां दिविध । एवं मणे विधान-प्रथममेव अणो दखतात् बहिः प्रक्षाल्य निष्प्रगतः कृतः, ततः परिगति प्रयो बन्धाः बाबुकोन गलनान्वितो वाचयति, तत्र यतना अपमाणलक्षणा, द्विविध बणसंभवमातवंग, विविधेऽप्येवं पहकयतना करीया, # मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1516~ Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४०५] भाष्यं [२२७...] (४०) भावश्यकहारिभदीया प्रत सूत्रांक [सू.] ७५७|| व्याख्या-वणे धोवंमि निष्पगले हत्थसय बाहिरओ पट्टगं दाउं चाएइ, परिगलमाणेण भिन्ने तमि पट्टगे तस्स उवरिं ४प्रतिक्रछारं दाउं पुणो पट्टगं देह वाएइ य, एवं तइयपि पट्टगं बंधेज वायणं देजा, तओ परं गलमाणे हत्थसय बाहिर गंतुं व्रण- मणाध्य. पट्टगे य धोविय पुनरनेनैव क्रमेण वाएइ । अहवा अण्णस्थ पढंति ॥ १४०५॥ एमेव य समणीणं वर्णमि इअरंमि सत्त बंधा उ । तहविय अठायमाणे धोएउं अहव अन्नस्थ ॥ १४०६॥ व्याख्या-इयरं तु-उतुतं, तत्थवि एवं चेव नवरं सत्त बंधा उक्कोसेणं कायवा, तहवि अहार्यते हत्थसय बाहिरओ घोवेउ पुणो वाएति । अहवा अण्णत्व पटंति ॥ १४०६॥ एएसामन्नयरेऽसज्झाए अप्पणो उ सज्झायं । जो कुणइ अजयणाए सो पाचइ आणमाईणि ।। १४०७॥ व्याख्या-निगदसिद्धा ॥ १४०७॥ न केवलमाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति, इमे यसुअनाणमि अभत्ती लोअविरुद्धं पमत्तछलणा य । विजासाहणवइगुन्नधम्मया एव मा कुणम् ॥१४०८।। व्याख्या-सुयणाणे अणुपयारओ अभत्ती भवति, अहवा सुयणाणभत्तिरापण असमझाइए सज्झायं मा कुणसु, . व्रणे धौते निष्प्रगले हस्तशतात् बहिः पट्टकं दत्त्वा वाचयति, परिगलता मिले तस्मिन् पट्टके तस्योपरि भम वखा पुनः पट्टकं ददाति वाचयति च, C७५७॥ एवं तृतीयमपि पार्क बानीयार पाचन पदयात. ततः परं गलति हसशतान् बहिर्गरवा मण पहकांश धाविश्वा वाचवति, अथवाऽन्यत्र पठन्ति । इतरत्त्वावं, तत्राप्येतदेव नवरं सल बन्धाः उत्कृष्टेन कर्तव्याः, तथाप्यतिप्रति इन्तपाताइहि विस्वा पुनर्वाचयति, अथवाऽन्यत्र पठन्ति, इमे च। श्रुतज्ञानेऽनुपचारतोऽभक्तिर्भवति, अथवा श्रुतशानभक्तिरामेणास्वाध्यायिके खाप्यायं मा का, *%ACCOIESSER- दीप अनुक्रम [२९] ल मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1517~ Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४०८] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] उवएसो एस, जपि लोयधम्मविरुद्धं च तं न कायवं, अविहीए पमत्तो लन्भइ, तं देवया छलेज्जा, जहा विजासाहणवइगुण्णयाए विजा न सिज्झइ तहा इहपि कम्मक्खओ न होइ । वैगुण्य-वैधयं विपरीतभाव इत्यर्थः । धम्मयाते सुयधम्मस्स एस धम्मो जं असमझाइए सम्झाइयवज्जणं, करंतो य सुयणाणायारं विराहेद, तम्हा मा कुणसु ॥ १४०८ ॥ चोदक आह-जइ दंतमंससोणियाए असाझाओ नणु देहो एयमओ एव, कहं तेण सज्झायं कुणह ?, आचार्य आह| कामं देहावयवा दंताई अवज्जुआ तहवि वजा । अणवजुआ न वजा लोए तह उत्तरे चेव ॥ १४०९॥ व्याख्या-काम चोदकाभिप्रायअणुमयत्थे सच्चं तम्मओ देहो, तहवि जे सरीराओ अवजुत्तत्ति-पृथग्भूताः ते वजणिज्जा । जे पुण अणवजुत्ता-तत्थत्वा ते नो बजणिजा, इत्युपदर्शने। एवं लोके दृष्ट लोकोत्तरेऽप्येवमेवेत्यर्थः ॥१४०९॥ किं चान्यत्अभितरमललित्तोवि कुणइ देवाण अञ्चणं लोए।बाहिरमललित्तो पुण न कुणइ अवणेइ य तओणं ॥१४१०॥ दीप अनुक्रम [२९] उपदेश एषः, यदपि लोकधर्मविरुद्धं च तन कर्तव्यं, अविधी प्रमत्तो जायते, तं देवता उलयेत्, यथा विद्यासाधनवैगुण्यतया विद्या न सिध्यति तयेदापि फर्मक्षयो न भवति । धर्मतवा-धुतधर्मवैष धमों पदस्वाध्यापिके स्वाध्यायस्य वर्जन, कुवश्च सुतज्ञानाचार विराधयति, तस्मात्मा का । यदि इन्तमांसयोणितादिवसाध्याविक ननु देह एतन्मय एव, कथं तेन स्वाध्यायं कुरुत, चोदकाभिप्रायानुमता, सत्यं तन्मयो देहः, तथापि ये शरीरात पृथग्भूताले । वर्जनीयाः, ये पुनः तत्रस्थास्ते ग वर्जनीयाः। मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1518~ Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१०] भाष्यं [२२७...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया ४ प्रतिक मणाध्या प्रत सूत्रांक [सू.] ॥७५८॥ दीप अनुक्रम [२९] व्याख्या-अभ्यंतरा भूत्रपुरीपादयः, 'तेहिं चेव बाहिरे उवलित्तो न कुणइ, अणुवलित्तो पुण अभितरगतेसुवि तेसु अह अञ्चणं करेइ ॥ १४१० ॥ किं चान्यत् आउहियाऽवराहं संनिहिया न खमए जहा पडिमा । इह परलोए दंडो पमत्तछलणा इह सिआ उ ॥ १४११।। ___ व्याख्या-जा पडिमा 'सन्निहिय'त्ति देवयाहिट्ठिया सा जइ कोइ अणाढिएण 'आउट्टिय'त्ति जाणतो बाहिरमललित्तो तं पडिमं छिवइ अचणं व से कुणइ तो ण समए-खित्तादि करेइ रोग वा जणेइ मारइ वा, 'इय'ति एवं जो असज्झाइए सज्झायं करेइ तस्स णाणायारविराहणाए कम्मबंधो, एसो से परलोए उ दंडो, इहलोए पमत्तं देवया छलेजा, स्यात् आणाइ विराहणा धुवा चेव ॥१४११ ॥ कोई इमेहिं अप्पसत्थकारणेहिं असज्झाइए सज्झाय करेजारागेण व दोसेण वऽसज्झाए जोकरेह सज्झायं आसायणा व का से? को वा भणिओ अणायारो?॥ १४१२॥ व्याख्या-रागेण वा दोसेण वा करेजा, अहवा दरिसणमोहमोहिओ भणेज्जा-का अमुत्तस्स गाणस्स आसायणा को या तस्स अणायारो, नास्तीत्यर्थः ॥ १४१२ ॥ तेसिमा विभासा तैरेव बहिरूपकिलो न करोति, अनुपलिया पुनरम्यन्सरगतेपपि सेष्वथार्चना करोति, या प्रतिमा देवताधिषिता सापदि कोऽपि अनादरेण जानानो बारामललिप्ततां प्रतिमा स्पृशति अर्चनं वा तस्याः करोति लाईन क्षमते-क्षिसचित्तादि करोति रोग वा जनयति मारयति वा, एवं योऽस्वाध्याबिके स्वाध्याय परोति तख ज्ञानाचारविराधनया कर्मबन्धः, एष तख पारलौकिकस्तु दण्डः, इहलोके प्रम देवता कहयेत् , माज्ञादि विराधना (वैव । कबिदेमिरप्रशस्तकारगरस्वाध्यापिके साध्यायं कुर्यात् । रामेण बाण का कुर्वान् , अथवा वर्शनमोहमोहितो भणेत्-भमूर्षस्थ ज्ञानस्य काऽऽशातमा ! को वा तयानाचार,तेषामियं विभाषा onal मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1519~ Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१३] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] गणिसहमाइमहिओ रागे दोसंमि न सहए सई । सव्वमसज्झायमयं एमाई हुंति मोहाओ॥ १४१३ ।। व्याख्या-महितो'त्ति दृष्टस्तुष्टो नन्दितो वा परेण गणिवायगो वाहरिजंतो वा भवति, तदभिलापी असल्झाइएवि सज्झायं करेइ, एवं रागे, दोसे किं वा गणी वाहरिजति वायगो वा, अहंपि अहिजामि जेण एयस्स पडिसवत्तीभूओ | भवामि, जम्हा जीवसरीरावयवो असल्झाइयं तम्हा असज्झाइयमयं-न श्रद्दधातीत्यर्थः ॥ १४१३ ॥ इमे य दोसा उम्मायं च लभेजा रोगायकं च पाउणे दीहं । तित्थयरभासियाओ भस्सइ सो संजमाओ वा ॥१४१४ ॥ | व्याख्या-खेत्तादिगो उम्माओ चिरकालिओ रोगो, आसुघाती आयको, एतेण वा पावेजा, धम्माओ भंसेज्जा-मिच्छदिही वा भवति, चरित्ताओ वा परिवडइ ॥१४१४ ॥ इहलोए फलमेय परलोऍ फलं न दिति विजाओ। आसायणा सुयस्स उ कुन्वइ दीहं च संसारं ॥ १४१५॥ __ व्याख्या-सुयणाणायारविवरीयकारी जो सो णाणावरणिज कम्मं बंधति, तदुदया य विजाओ कओवयाराओवि फलं न देति, न सिध्यन्ति इत्यर्थः । विहीए अकरणं परिभवो, एवं सुवासायणा, अविहीए वहतो नियमा अह परेण गणी वाचको प्याट्रियमाणो वा भवति। अस्वाभ्यायिकेऽपि स्वाध्यायं करोति, एवं रामे, किं वा गणी यानियले बाचको वा, अहमध्यध्येय येनेतस्थ प्रतिसपनीभूतो भवामि, यस्मात् जीवशरीरावययोऽस्वाध्यामिक तमादस्वाभ्यायिकमयं । इमे च दोषा:-क्षिप्तचित्तादिक उम्माद: चिरकालिको रोग आशुधाती आता, एतेन वा प्राप्नुयात्, धर्मान् अश्येन्-मिथ्याष्टिची भवेत् , चारित्राहा परिपतेत् । श्रुतज्ञानाचारविपरीतकारी यः स हानावरणीय कर्म वनाति, तदुदयाच विधाः कृतोपचारा भपि फलं न वदति, विधेरकरणं परिभवः एवं श्रुताशातना, अविधी वर्तमानो नियमात् अष्ट दीप अनुक्रम [२९] Co मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1520~ Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१५] भाष्यं [२२७...] (४०) % + + प्रत सूत्रांक [सू.] &ापगडीओ बंधति हस्सठितियाओ य दीठितियाओ करेइ मंदाणुभावा य तिवाणुभावाओ करेइ, अप्पपदेसाओ[] हारिभ- बहुपदेसाओ करेइ । एवंकारी य नियमा दीहकालं संसारं निवत्तेइ । अहवा नाणायारविराहणाए दसणविराहणा, णाण मणाध्य. द्रीया दिसणविराहणाहिं नियमा चरणविराहणा, एवं तिह विराहणाए अमोक्खे, अमोक्खे नियमा संसारो, तम्हा असज्झाइए| ॥७५९॥ ताण सज्झाइवमिति गाथार्थः ।। १४१५ ॥ असज्झाइयनिजुत्ती कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमतबगाणं निग्गंधाणं महरिसीणं ॥ १४१६ ॥ असज्झाइयनिज्जुतिं जुजंता चरणकरणमाउत्ता । साहू खवेंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ॥१४१७ ॥ असज्झाइयनिजुत्ती समत्ता ॥ व्याख्या-गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ १४१६-१४१७ ।। अखाध्यापिकनियुक्तिः समाप्ता॥ तथा सज्झाए न सज्झाइयं तस्स मिच्छामिदुक्कड' तथा स्वाध्यायिके-अस्वाध्यायिकविपर्ययलक्षणे न स्वाध्यायितं । इत्थमाशातनया योऽतिचारः कृतस्तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति पूर्ववत् । एयं सुत्तनिबद्धं अत्थेणऽपणपि होति विष्णेयं । तं पुण अब्बामोहत्यमोहओ संपवक्खामि ॥१॥ तेत्तीसाए उचरिं| चोत्तीस बुद्धवयणअतिसेसा । पणतीस वयणअतिसय छत्तीस उत्तरज्झयणा ॥२॥ एवं जह समवाए जा सयभिसरिक्ख8 प्रकृतीक्षाति इस्वस्थितिकामा दीपस्थितिका करोति मन्दानुभावाश्च तीलानुभावाः करोति अल्पप्रदेशामा बहुप्रदेशामाः करोति, एवंकारी च ७५९॥ नियमात दीर्घकालिकं संसारं नियति, अथवा ज्ञानाचारविराधनायां दर्शनविराधना ज्ञानदर्शनविराधनयोर्नियमाचरणनिराधना, एवं त्रयाणां निराधनषाऽमोक्षा, अमोक्षे नियमान संसारः, समावस्वाध्यायिकेन खध्येयमिति -CASEARC दीप अनुक्रम [२९] L A मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1521~ Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] होइ सततारं । तथा चोतं-सयभिसया नक्खते सएगतारे तहेव पण्णत्ते ॥श्य संखअसंखेहिं तहय अणंतेहिं ठाणेहिं ॥ ३ ॥ संजममसंजमस्स य पडिसिद्धादिकरणाइयारस्स । होति पडिकमर्ण तू तेत्तीसेहिं तु ताई पुण ॥४॥ अवराहपदे सुतं अंतग्गय होति णियम सबेवि । सम्बो वऽइयारगणो दुगसंजोगादि जो एस ॥५॥ एगविहस्सासंजमस्सऽहव दीहपज्जवसमूहो । एवऽतियारविसोहि कार्ड कुणती णमोकारं ॥६॥ णमो चवीसाए इत्यादि, अथवा प्राक्तनाशुभसेवनायाः प्रतिक्रान्तः अपुनःकारणाय प्रतिक्रामन् नमस्कारपूर्वकं | प्रतिक्रमन्नाहनमो चउवीसाए तित्धगराण उसमादिमहावीरपज्जवसाणाणं (सूत्रम् ) नमश्चतुर्विंशतितीर्थकरेभ्य ऋषभादिमहावीरपर्यवसानेभ्यः, प्राकृते षष्ठी चतुर्थ्यर्थ एव भवति, तथा चोक्त"बहुवयणेण दुवयणं छट्विविभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी । जह हस्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥ १॥" इत्थं नमस्कृतस्य प्रस्तुतस्य व्यावर्णनायाहPइणमेव निग्गथं पावयणं सचं अणुसरं केवलियं पडिपुषण नेआउयं संसुङ सल्लगत्तर्ण सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निव्वाणमग्गं निस्वाणमग्गं अवितहमविसंधिं सचदुक्खप्पहीणमग्गं, इत्थं ठिया जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिनिब्वायति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति (सूत्रं) बहुवोन द्विवचनं पीविभक्त्या भन्यते चतुर्थी । यथा हस्ती तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेन्यः ॥1॥ दीप अनुक्रम [३०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ निर्ग्रन्थप्रवचनस्य महत्ता वर्णयते ~1522~ Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रतिक मणाध्य प्रत सूत्रांक SAXY [सू.] SAX थावश्यक इदमेवेति सामायिकादि प्रत्याख्यानपर्यन्तं द्वादशाङ्गं वा गणिपिटकं, निम्रन्थाः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः । हारिभ निर्ग्रन्थानामिदं नम्रन्थ्यं 'प्रावचन मिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्वावचनम् , इदमेव नम्रन्थ्य द्रीया प्रावचनं किमत आह-सतां हितं सत्यं, सन्तो-मुनयो गुणाः पदार्था वा सबूतं वा सत्यमिति, नयदर्शनमपि स्वविषये सत्यं भवत्यत आह-'अणुत्तरंति नास्योत्तरं विद्यत इत्यनुत्तरं, यथावस्थितसमस्तवस्तुप्रतिपादकत्वात् उत्तममित्यर्थः, यदि नामेदमीत्थम्भूतमन्यदप्येवम्भूतं भविष्यतीत्यत आह-केवलियं केवलमद्वितीयं नापरट्र मित्थंभूतमित्यर्थः यदि नामेदमित्थभूतं तथाप्यन्यस्याप्यसंभवादपवर्गप्रापकैर्गुणैः प्रतिपूर्ण न भविष्यतीत्यत । आह-पडिपुन ति प्रतिपूर्णमपवर्गप्रापकैगुणै तमित्यर्थः, भृतमपि कदाचिदात्मभरितया न तन्नयनशीलं भविप्यतीत्यत आह-'नेयाउयति नयनशीलं नैयायिकं, मोक्षगमकमित्यर्थः, नैयायिकमप्यसंशुद्धं-सकीर्ण नाक्षेपेण नैयायिकं भविष्यति इत्यत आह-संसुद्धं ति सामस्त्येन शुद्धं संशुद्ध, एकान्ताकलङ्कमित्यर्थः, एवंभूतमपि कथञ्चित्तथास्वाभाव्यान्नालंभवति बन्धननिकृन्तनाय (इदमपि तथा) भविष्यतीत्यत आह-सल्लगत्तणं ति कृन्ततीति कर्त्तनं शल्यानि-मायादीनि तेषां कर्त्तनं, भवनिवन्धनमायादिशल्यच्छेदकमित्यर्थः, परमतनिषेधार्थ त्वाह-A७६०॥ |'सिद्धिमग्गं मुत्तिमगं' सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्तिः सिद्धार्गः सिद्धिमार्गः, मोचन मुक्ति:-अहितार्थकर्मविच्युतिस्तस्या मार्गो मुक्तिमार्ग इति, मुक्तिमार्ग-केवलज्ञानादिहितार्थप्राप्तिद्वारेणाहितकर्मविच्युतिद्वारेण च मोक्षसाधकमिति भावना, अनेन च केवलज्ञानादिविकलाः सकर्मकाच मुक्ता इति दुर्नयनिरासमाह, विप्रतिपत्तिनिरा दीप अनुक्रम [३१]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1523~ Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] ४ सार्थमाह-निजाणमगं निवाणमर्ग' यान्ति तदिति यानं 'कृत्यल्युटो बहुलं' (पा०३-३-११३ ) इति वचनात् कर्मणि ल्युट्, निरुपम यानं निर्यान, ईषत्प्राग्भाराख्यं मोक्षपदमित्यर्थः, तस्य मार्गो निर्याणमार्ग इति, निर्याणमार्गः-विशिष्टनिवाणप्राप्तिकारणमित्यर्थः, अनेनानियतसिद्धिक्षेत्रप्रतिपादनपरदुर्णयनिरासमाह, नितिनिर्वाणं-सकलकर्मक्षयज-13 मात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः, निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति, निर्वाणमार्गः परमनिर्वृतिकारणमिति हृदयं, अनेन च निःसुखदुःखा मुक्तात्मान इति प्रतिपादनपरदुर्णयनिरासमाह, निगमयन्नाह-इदं च "अवितहमविसंधि सबदुक्खप्पहीणमग्गं' अवितध-सत्यं अविसन्धि-अव्यवरिछन्नं, सर्वदा अवरविदेहादिषु भावात् , सर्वदुःखमहीणमार्ग-सर्वदुःखप्रहीणो-मोक्षस्तत्कारणमित्यर्थः, साम्प्रतं परार्थकरणद्वारेणास्य चिन्तामणित्वमुपदर्शयन्नाह-"एत्थहि (इत्थंडि) या जीवा |' सिझंति'त्ति 'अत्र' नैनन्धे प्रवचने स्थिता जीवाः सिध्यन्तीत्यणिमादिसंयमफलं प्रामुवन्ति बुझती'ति बुध्यन्ते केवलिनो भवन्ति 'मुचंति'त्ति मुच्यन्ते भवोपग्राहिकर्मणा 'परिनिव्वायंति'त्ति परि-समन्तात् निर्वान्ति, किमुक्तं भवति ?-'सब-18 |दुक्खाणमंत करितित्ति सर्वदुःखानां शारीरमानसभेदानां अन्त-विनाशं कुर्वन्ति-निवर्तयन्ति । इत्थमभिधायाधुनाऽत्र चिन्तामणिकल्पे कर्ममलप्रक्षालनसलिलौघं श्रद्धानमाविष्कुर्वन्नाह तं धम्म सद्दहामि पत्तियामि रोएमि फासेमि अणुपालेमि, तं धम्म सहतो पत्तिअंतो रोपंतो फासंतो अणुपालतो तस्स धम्मस्स अन्भुढिओमि आराहणाए विरओमि विराहणाए असंजमं परिआणामि संजमं उपसंपज्जामि अभं परिआणामि बंभ उवसंपज्जामि अकप्पं परियाणामि कप्पं उचसंपज्जामि ORIESARKARI NAA5 दीप अनुक्रम [३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: निर्ग्रन्थप्रवचन लक्षण धर्मस्य श्रद्धा, रुचि आदेः कथनं ~ 1524 ~ Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) हारिभ- सम्मतपत मणाध्य० प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-अण्णाणं परिआणामि नाणं उवसंपजामि अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपजामि मिच्छत्तं परियाणामिप्रतिक्र सम्मत्तं उवसंपज्जामि अचोहिं परियाणामि योहिं उचसंपज्जामि अमग्गं परियाणामि मग्गं उवसंपज्जामि (सूत्र) द्रीया य एष नर्गन्थ्यप्रावचनलक्षणो धर्म उक्तः तं धर्म श्रद्दध्महे (धे) सामान्येनैवमयमिति 'पत्तियामि'त्ति प्रतिप॥७६१॥ द्यामहे (2) प्रीतिकरणद्वारेण 'रोएमित्ति रोचयामि, अभिलाषातिरेकेणासेवनाभिमुखतया, तथा प्रीती रुचिश्च | भिन्ने एव, यतः कचिद्दध्यादौ प्रीतिसद्भावेऽपि न सर्वदा रुचिः, 'फासेमिति स्पृशामि आसेवनाद्वारेणेति 'अणुपालेमि' अनुपालयामि पौनःपुन्यकरणेन 'तं धम्म सद्दहंतो' इत्यादि, तं धर्म अद्दधानः प्रतिपद्यमानः रोचयन् स्पृशन् अनुपालयन् 'तस्स धम्मस्स अम्भुट्टिओमि आराधनाए'त्ति तस्य धर्मस्य प्रागुक्तस्य अभ्युस्थितोऽस्मि आराधनायाम्-आराधनविषये 'विरतोमि विराधनाए'त्ति बिरतोऽस्मि-निवृत्तोऽस्मि विराधनायां-विराधनाविषये, एतदेव भेदेनाह-'असंजमं परियाणामि, संजमं उवसंपज्जामि' असंयम-प्राणातिपातादिरूपं प्रतिजानामीति ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्यामीत्यर्थः, तथा संयम-प्रागुक्तस्वरूप उपसंपद्यामहे(ये),प्रतिपद्याम(हे)इत्यर्थः, तथा 'अभंपरियाणामि बंभं उवसंपज्जामि' अब्रह्म-वस्त्यनियमलक्षणं विपरीतं ब्रह्म, शेषं पूर्ववत् , प्रधानासंयमाङ्गत्वाचाब्रह्मणो ॥६ ॥ निदानपरिहारार्थमनन्तरमिदमाह, असंयमाङ्गत्वादेवाह-'अकप्पं परियाणामि कप्पं उपसंपज्जामि' अकल्पोऽकृत्यमाख्यायते कल्पस्तु कृत्यं इति, इदानी द्वितीयं बन्धकारणमाश्रित्याह, यत उक्तं च "अस्संजमो य एको अण्णाणं अविरई य दुबिह" इत्यादि । 'अण्णाणं परियाणामि नाणं उवसंपज्जामि' अज्ञानं सम्यगूज्ञानादन्यत् ज्ञानं तु भगवद्वचनजं, दीप अनुक्रम [३२] CCASE मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1525~ Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] अज्ञानभेदपरिहरणार्यवाह-'अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि' अक्रिया-नास्तिवादः क्रिया-सम्यगवादः। तृतीयं बन्धकारणमाश्रित्याह-'मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपजामि' मिथ्यात्वं-पूर्वोक्त सम्यक्त्वमपि,एतदङ्गत्वादेवाहIPI'अबोहिं परियाणामि बोहिं उवसंपज्जामि' अबोधिः-मिथ्यात्वकार्य बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति, इदानीं सामान्येनाह-'अमग्गं | परियाणामि मग्ग उवसंपज्जामि' अमागों-मिथ्यात्वादिःमार्गस्तु सम्यग्दर्शनादिरिति । इदानी छद्मस्थत्वादशेषशुद्ध्यर्थमाह-18 Oजं संभरामि जंचन संभरामिजं पडिकमामिजं च न पडिकमामि तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडि समामि समणोऽहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो अनियाणो दिहिसंपण्णो मायामोसविवजिओ।(सूत्रा १ यत् किञ्चित् स्मरामि यच्च छद्मस्थानाभोगान्नेति, तथा 'जं पडिकमामि जं च न पडिकमामि' यत् प्रतिक्रमामि आभोगादिविदितं यच न प्रतिक्रमामि सूक्ष्ममविदितं, अनेन प्रकारेण यः कश्चिदतिचारः कृतः 'तस्स सबस्स देवसियस्स अतियारस्स पडिकमामि'त्ति कण्ठ्यं, इत्थं प्रतिक्रम्य पुनरकुशलप्रवृत्तिपरिहारायात्मानमालोचयन्नाह-'समणोऽहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो अणियाणो दिहिसंपन्नो मायामोसविवजिओ'त्ति श्रमणोऽहं तत्रापि न चरकादिः, किं तर्हि १, संयतः सामस्त्येन यतः इदानी, विरतो-निवृत्तः अतीतस्यैष्यस्य च निन्दासंवरणद्वारेणअत एवाह-प्रतिहत-- प्रत्याख्यातपापकर्मा, प्रतिहतम्-इदानीमकरणतया प्रत्याख्यातमतीतं निन्दया एष्यमकरणतयेति, प्रधानोऽयं दोष इतिकृत्वा ततशुन्यतामात्मनो भेदेन प्रतिपादयन्नाह-'अनिदानो' निदानरहितः, सकलगुणमूलभूतगुणयुक्ततां दर्शयनाह-दृष्टिसंपन्नः' सम्यग्दर्शनयुक्त इत्यर्थः । वक्ष्यमाणद्रव्यवन्दनपरिहारायाह-मायामृषाविवर्जकः (विवर्जितः)मायागभमूपो वादपरिहारीत्युक्तं भवति । एवंभूतः सन् किं दीप अनुक्रम [३३] ACCORESCARE-%E मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अतिचार-प्रतिक्रमण अनन्तर आत्मानां आलोचना ~15264 Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) आवश्यक श्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥७६२॥ [सू.] अहाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पनरससु कम्मभूमीसु जावंति केइ साडू रपहरणगुच्छपडिग्गहधारा पंचमह-8 प्रतिकब्वयधारा । अहारसहस्ससीलंगधारा अक्खयायारचरित्ता ते सव्वे सिरसा मणसा मधएण वंदामि । (सूत्रंमणाध्य. अद्धतृतीयेषु द्वीपसमुदेषु-जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्कराद्धेषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु-पश्चभरतपश्चरावतपञ्चविदेहाभिधानासु यावन्तः केचन साधवः रजोहरणगुच्छप्रतिग्रहधारिणः, निझवादिव्यवच्छेदायाह-पञ्चमहाव्रतधारिणः, पञ्च महानतानि-प्रतीतानि, अतस्तदेकाङ्गविकलप्रत्येकबुद्धसङ्ग्रहायाह-अष्टादशशीलासहस्रधारिणः, तथाहि केचिद् भगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि, तानि चाष्टादशशीलासहस्राणि दयन्ते, तत्रेयं करणगाथा-जोए करणे सना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निष्फत्ती ॥१॥ स्थापना स्वियं इयं भावना-मणेण ण करेइ आहारम० व. का. णक०ण का०ण अ० सण्णाविप्पजढो सोतिदियसंवुडो खंतिसंपन्नो आ० भ० मै० पुढवीकायसंरक्खओ १, मणेण ण करेइ आ-| सो० च० घा० र० फा हारसण्णाविष्पजढो सोतिंदियसंवुडो खंति-से पु० आ ते० तेच.पं० अ०संपन्नो आउक्कायसंरक्खओ २ एवं तेउ ३ वाउ ख० मा० आ० | मु० त० स० स० सी० आ० | ०४ वणस्सति ५ वि०६ ति०७च०८५०९ जे नो करिति मणसा निजियाहारसन्नसोइदि पुढबीकायारंभे खंतिजुआ ते मुणि वन्दे ॥१॥ दीप अनुक्रम [३४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: १८००० शिलांगरथस्य वर्णनं ~1527~ Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-२], नियुक्ति : [१४१७...] भाष्यं [२२७...] (४०) प्रत सूत्रांक ||१२|| अजीयेसु दस भेदा, एते खंतिपयं अमुर्यतेण लद्धा । एवं मद्दवादिसु एकेके दस २ लभति, एवं सतं, एते सोतिंदियममुर्यतेण लद्धा, एवं चक्खिदियादियेसुवि एकेके सयं २ जाता सता ५००, एतेवि आहारसण्णाऽपरिचायगेण लद्धा, भयादिसपणादिसुवि पत्तेयं २ पंच सया, जाता दो सहस्सा, एते न करेंतित्ति एतेण लद्धा न कारवेदिएतेणवि दो करते णाणुजाणति एतेणवि दो सहस्सा २०००,जाता ६ सहस्सा, एते मणेण लद्धा ६०००,वायाएवि ६०००, काएणवि छत्ति ६०००, जाता अट्ठारसत्ति १८०००। 'अक्षताचारचारित्रिणः' अक्षताचार एव चारित्रं, तान् ‘सर्वान्' गच्छगतनिर्गतभेदान् 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन मनसा-अन्तःकरणेन मस्तकेन बन्दत(पन्दे) इति वाचा, इत्थमभिवन्द्य साधून पुनरोपतः सकलसत्त्वक्षामणमैत्रीपदर्शनायाह खामेमि सच जीचे, सब्वे जीवा खमंतु मे । मेत्ती मे सव्वभूएसु, धेरै मज्झं न केणइ ॥१॥ एचमहं आलोइय निन्दिय गरहिय दुगंछियं सम्मं । तिविहेण पडिकंतो वंदामि जिणे चउबीसं ॥२॥ (सत्र) निगदसिद्धा एवेयं, सबे जीवा खमंतु मेत्ति, मा तेषामध्यक्षान्तिप्रत्ययः कर्मवन्धो भवत्विति करुणयेदमाह । समाप्ती स्वरूपप्रदर्शनपुरःसरं मङ्गलगाहा-एवेत्यादि निगदसिद्धा, एवं दैवसिकं प्रतिक्रमणमुक्त, रात्रिकमप्येवम्भूतमेव, नवरं यत्रव देवसिकातिचारोऽभिहितस्तत्र रात्रिकातिचारो वक्तव्यः । आह-यद्येवं 'इच्छामि पडिक्कमिडं गोयरचरियाए' इत्यादि सूत्रमनर्थक, रात्रावस्य असंभवादिति, उच्यते, स्वमादौ संभवादित्यदोषः । इत्युक्तोऽनुगमः, नयाः प्राग्वत् ॥ इत्याचार्यश्रीमद्धरिभद्रसूरिशकविहितायां आवश्यकवृत्तौ शिष्यहितायां प्रतिक्रमणाध्ययनं समाप्तं ॥ दीप अनुक्रम [३५,३६] BAE%ACASHARESHES मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र अध्ययनं -४- 'प्रतिक्रमण' परिसमाप्त ~ 1528~ Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६..] Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४१८] भाष्यं [२२७...] अथ कायोत्सर्गाध्ययनं व्याख्यात प्रतिक्रमणाध्ययनमधुना कायोत्सर्गाध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने वन्दनाथकरणादिना स्खलितस्य निन्दा प्रतिपादिता, इह तु स्खलित विशेषतोऽपराधत्रणविशेषसंभवादेतावताऽशुद्धस्य सतः प्रायश्चित्तभेषजेनापराधत्रण चिकित्सा प्रतिपाद्यते, यद्वा प्रतिक्रमणाध्ययने मिथ्यात्वादिप्रतिक्रमणद्वारेण कर्मनिदानप्रतिषेधः प्रतिपादितः, यथोक्तं- 'मिच्छत्तपडिक्कमण' मित्यादि, इह तु कायोत्सर्गकरणतः प्रागुपात्तकर्मक्षयः प्रतिपाद्यते, वश्यते च - "जर्ह करगओ निकतर दारं जंतो पुणोऽवि बच्चेतो। इय किंतंति सुविद्दिया काउस्सग्गेण कम्माई ॥ १ ॥ काउरसग्गे : जह मुट्ठियस्स भजंति अंगमंगाई । हूय । सुवि अि कम्मसंघायं ॥ २ ॥" इत्यादि, अथवा सामायि चारित्रमुपवर्णितं, सा च ज्ञानदर्शन एवमिदं त्रितयमुक्तं, अस्य च वितथा सेवनमैहिक हकामुष्मिकापातस्तव वहत वन्दनपूर्वकमित्यतस्तन्निरूपितं निवेद्य च भूयः शुभे वर्हतां ध्वेव स्थानेषु । प्रतीपं क्रमणमासेवनीयमित्यनन्तराभ्य तन्निरूपितं, इह तु तथाप्यशुद्धस्यापराधत्रणचिकित्सा प्रायश्चित्त भषजात् (प्रतिपाद्यते, तत्र प्रायश्चित्त भैषजमेव तावद्विचित्रं प्रतिपादयन्नाह - आलोयण पडिक्कम मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे । तब क्रेय मूल अणवद्वया य पारंचिए चेव ।। १४९८ ॥ 'आलोयणं'ति आलोचना प्रयोजनतो हस्तशताद् बहिर्गमनागमनादौ गुरोर्विकटना, 'पडिकमणे'त्ति प्रतीपं क्रमणं १ यथा वो निकृन्तति दारु या पुनरपि जन्। एवं कृत्यन्ति सुविहिताः कायोत्सर्गेण कर्माणि ॥ १ ॥ कायोत्सर्गे यथा सुस्थित भज्यन्ते भङ्गोपाङ्गानि एवं भिन्दन्ति सुविहिता अष्टविधं कर्मसंघातम् ॥ २ ॥ For Fasten যেতল জ64 ~ 1529~ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः • अत्र अध्ययनं -५- 'कायोत्सर्ग' आरभ्यते प्रायश्चित्तस्य दशविधत्वं प्रकाश्यते Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१८] भाष्यं [२२७...] (४०) ५ कायो प्रत आवश्यक प्रतिक्रमणे, सहसाऽसमितादौ मिथ्यादुष्कृतकरणमित्यर्थः, 'मीस'त्ति मिश्र शब्दादिषु रागादिकरणे, विकटना मिथ्यादुष्कता। हारिभ- चेत्यर्थः, 'विवेगे'त्ति विवेकः अनेषणीयस्य भक्तादेः कश्चित् गृहीतस्य परित्याग इत्यर्थः, तथा 'विउस्सग्गे'त्ति तथात्सर्गाध्ययद्रीया | व्युत्सर्गः कुस्वप्नादौ कायोत्सर्ग इति भावना, 'त'त्ति कर्म तापयतीति तपः-पृथिव्यादिसंघटनादी निर्विग(कृ)तिकादिन कायनि 'छेदे'त्ति तपसा दुर्दमस्य श्रमणपर्यायच्छेदनमिति हृदयं, 'मूल'त्ति प्राणातिपातादौ पुनर्वतारोपणमित्यर्थः, अणवठ्ठया य'त्ति क्षेपः ॥७६४।। हस्ततालादिप्रदानदोषात् दुष्टतरपरिणामत्वाद् तेषु नावस्थाप्यते इत्यनवस्थाप्यः तद्भावोऽनवस्थाप्यता, 'पारंचिए चेव'ति| पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्गराजपच्याद्यासेबनायां पारधिकं भवति, पारं-प्रायश्चित्तान्तमश्चति-गच्छतीति पारश्चिक, न तत ऊर्दू प्रायश्चित्तमस्तीति गाथार्थः ।। १४१८ ॥ एवं प्रायश्चित्तभैषजमुक्त, साम्प्रतं व्रणः प्रतिपाद्यते, स च द्विभेदः-द्रव्यत्रणो भावत्रणव, द्रव्यत्रणः शरीरक्षतलक्षणः, असावपि द्विविध एव, तथा चाहदुविहो कायंमि वणो तदुम्भवागंतुओ अ णायब्बो । आगंतुयस्स कारइ सलुद्धरणं न इयरस्स ॥१४१९॥ तणुओ अतिक्खतुंडो असोणिओ केवलं तए लग्गो । अवउज्झत्ति सल्लो सल्लो न मलिजाइ वणो उ॥१४२०॥ लग्गुद्धिघमि बीए मलिजाइ परं अदूरगे सल्ले । उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए तइयगंमि ॥ १४२१॥ ॥७६४॥ मा चेअणा उ तो उद्धरित्तु गालंति सोणिय चउत्थे । रुज्झइ लहुति चिट्ठा वारिजइ पंचमे वणिणो ॥१४२२॥ दारोहेइ वर्ण छट्टे हियमियभोई अभुंजमाणो वा । तित्तिअमित्तं छिजह सत्तमए पूइमसाई ॥ १४२३ ॥ तहविय अठायमाणो गोणसखइयाइ रुप्फए वावि । कीरइ तयंगछेओ सअहिओ सेसरक्खट्टा ॥१४२४ ॥ 56-05 दीप अनुक्रम [३६..] M arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'व्रण"स्य भेद-प्रभेदानां कथनं ~15304 Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] Jus Educa आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १४२४] भाष्यं [ २२७...], प्रक्षेप [१] मूलत्तरगुणरूवरस ताइणो परमचरणपुरिसस्स । अवराहसल्लपभवो भाववणो होइ नायव्वो ॥ १ ॥ ( प्र० ) ॥ भिक्खायरियाइ सुज्झइ अइआरो कोइ बिघडणाए उ । बीओ असमिओमिति कीस सहसा अगुतो वा १ ।। १४२५सद्दाइएस रागं दोसं च मणा गओ तइयगंमि । नाउं अणेसणिजं भत्ता विचिण चत्थे || १४२६ ।। उस्सग्गेणवि सुज्झइ अइआरो कोइ कोइ उ तवेणं । तेणवि असुज्झमाणं छेपविसेसा विसोहिंति ॥ १४२७ ॥ द्विविधो द्विप्रकार: 'कार्यमि वणो त्ति धीयत इति कायः शरीरमित्यर्थः तस्मिन् त्रणः - क्षतलक्षणः, दैविध्यं दर्शयतितस्मादुद्भवोऽस्येति तदुद्भवो गण्डादिः आगन्तुकश्च ज्ञातव्यः, आगन्तुकः कण्टकादिप्रभवः, तत्रागन्तुकस्य क्रियते शल्योद्धरणं नेतरस्य तदुद्भवस्येति गाथार्थः ॥ यद्यस्य यथोद्भियते-उत्तरपरिकर्म क्रियते द्रव्यत्रण एव तदेतदभिधित्सुराह-'तणुओ अतिक्खतुंडो' इति तनुरेव तनुकं कृशमित्यर्थः, न तीक्ष्णतुण्डमतीक्ष्णमुखमिति भावना, नास्मिन् शोणितं विद्यत इत्यशोणितं केवलं नवरं स्वगूलग्नं उद्धृत्य 'अवउज्झत्ति सहो'त्ति परित्यज्यते शल्यं प्राकृतशैल्या तु पुहिङ्गनिर्देशः, 'सलो न मलिज‍ वणो य' न च मृद्यते व्रणः, अल्पत्वात् शल्यस्येति गाथार्थः ॥ प्रथमशस्यजे अयं विधिः, द्वितीयादिशल्य जे पुनरथं-'लग्युद्वियं मि लग्नमुद्धृतं लग्नोद्धृतं तस्मिन् द्वितीये कस्मिन् ? - अदूरगते शल्य इति योग; मनाग् दृढलग्न इति भावना, अत्र 'मलिजाइ परं 'ति मृद्यते यदि परं त्रण इति उद्धरणं शल्यस्य, मर्द्दनं श्रणस्य, पूरणं कर्णमलादिना तस्यैवैतानि क्रियन्ते दूरगते तृतीये शल्य इति गाथार्थः ॥ 'मा वेयणा उ तो उद्धरेत्तु गार्हति सोणिय उत्थे । रुज्झ हुंति चिट्ठा वारिज' इति मा वेदना भविष्यतीति तत उद्धृत्य शल्यं गालयन्ति शोणितं चतुर्थे शल्य इति, तथा रुह्यतां शीघ्रमिति चेष्टा-परि For Fans Only janibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1531 ~ Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४२७] भाष्यं [२२७...], (४०) प्रत CAKAC+ HEISS आवश्यक स्पन्दनादिलक्षणा वार्यते-निषिध्यते, पशमे शल्ये उद्धृते व्रणोऽस्यास्तीति वणी तस्य प्रणिनः रौद्रतरत्वाच्छल्यस्येति गाथार्थः॥ ५कायोरोहेइ वणं छठे' इति रोहयति व्रणं षष्ठे शल्ये उद्धृते सति हितमितभोजी हितं-पय मितं-स्तोकं अभुञ्जन्वेति, याव तत्सगोध्ययद्रीया च्छल्येन दूषितं 'तत्तियमित्तंति तावन्मात्र छिद्यते, सप्तमे शल्य उद्धृते किं-पूतिमांसादीति गाथार्थः ।। 'तहविय अठा नं कायनि क्षेपः येति तथापि च 'अट्ठायमाणे त्ति अतिष्ठति सति विसर्पतीत्यर्थः, गोनसभक्षितादी रक(रुम्फ)कैवापि क्रियते, तदङ्गछेदः ७६५॥ निसहास्थिकः, शेपरक्षार्थमिति गाधार्थः ॥ एवं तावद् द्रव्यव्रणस्तञ्चिकिरसा च प्रतिपादिता, अधुना भावत्रणः प्रतिपाद्यते ___ 'मुलूत्तरगुणरूवस्स' गाहा,इयमन्यकर्तृकी सोपयोगा चेति व्याख्यायते, मूलगुणा:-प्राणातिपातादिविरमणलक्षणाः पिण्डविशुद्ध्यादयस्तु उत्तरगुणाः, एते एव रूपं यस्य स मूलगुणोत्तरगुणरूपस्तस्य, तायिनः, परमश्वासौ चरणपुरुपश्चेति समासः तस्य अपराधा:-गोचरादिगोचराः त एव शल्यानि तेभ्यः प्रभवः-सम्भवो यस्य स तथाविधः भावत्रणो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमस्थानेकभेदभिन्नस्य भावत्रणस्य विचित्रप्रायश्चित्तभैषजेन चिकित्सा प्रतिपाद्यते, तत्र| "भिक्खायरियाई' भिक्षाचर्यादिः शुध्यत्यतिचारः कश्चिद्विकटनयैव-आलोचनयैवेत्यर्थः, आदिशब्दाद् विचारभूम्यादिगमनजो गृह्यते, इह चातिचार एवं व्रणः २, एवं सर्वत्र योज्यं, 'वितिज'त्ति द्वितीयो प्रणः अप्रत्युपेक्षिते खेलविवेकादी-18 हा असमितोऽस्मीति सहसा अगुप्तो वा मिथ्यादुष्कृतमिति विचिकित्सेत्ययं गाथार्थः ॥ 'शब्दादिषु इष्टानिष्टेषु राग द्वेषं वा ॥७६५॥ मनसा(मनाक) गतः अत्र 'तइओ' तृतीयो व्रणः मिश्रभैषज्यचिकित्स्यः, आलोचनाप्रतिक्रमणशोध्य इत्या, ज्ञात्वा अनेषणीयं भक्कादि विगिश्चना चतुर्थ इति गाथार्थः ॥ 'उस्सग्गेणवि सुज्झइ' कायोत्सर्गेणापि शुद्ध्यति अतिचारः कश्चित् , कश्चित् दीप अनुक्रम टर [३६..] कन्नड ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15324 Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४२७] भाष्यं [२२७...], (४०) प्रत दीप अनुक्रम तपसा पृथिव्यादिसंघटनादिजन्यो निविंगतिकादिना पण्मासान्तेन, तेनाप्यशुद्ध्यमानस्तथाभूतं गुरुतरं छेदविशेषा विशोधयन्तीति गाथार्थः ॥ १४१९-१४२७ ।। एवं सप्त प्रकारभावव्रणचिकित्सापि प्रदर्शिता, मूलादीनि तु विषयनिरूपणद्वारेण स्वस्थानादवसेयानि, नेह वितन्यन्ते, इत्युक्तमानुषङ्गिक, प्रस्तुतं प्रस्तुमः-एवमनेनानेकस्वरूपेण-सम्बन्धेनायातस्य | कायोत्सर्गाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपञ्चानि वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे कायोत्सर्गाध्ययनमिति | *कायोत्सर्गः अध्ययनं च, तत्र कायोत्सर्गमधिकृत्य द्वारगाथामाह नियुक्तिकार: निक्खेवे १ गह२विहाणमग्गणा ३ काल ४ मेयपरिमाणे ५। असद ६ सढे ७ विहि ८ दोसा ९ कस्सत्ति १० फलं च ११ दाराई॥१४२८ ।। 'निक्खेवेगढविहाण' निक्खेवेति कायोत्सर्गस्य नामादिलक्षणो निक्षेपः कार्यः 'एगढ'त्ति एकाधिकानि वक्तव्यानि । विहाणमग्गण' ति विधानं भेदोऽभिधीयते भेदमार्गणा कार्या 'कालभेदपरिमाणेत्ति कालपरिमाणमभिभवकायोत्सर्गादीनां वक्तव्यं, भेदपरिमाणमुत्सृतादिकायोत्सर्गभेदानां वक्तव्यं यावन्तस्त इति, 'असढसढे'त्ति अशठः शठश्च कायोत्सर्गकत्ता वक्तव्यः 'विहि'त्ति कायोत्सर्गकरणविधिर्वाच्यः 'दोस'त्ति कायोत्सर्गदोपा वक्तव्याः 'कस्सत्ति' कस्य कायोत्सर्ग इति वक्तव्यं 'फल'त्ति ऐहिकामुष्मिकभेदं फलं वक्तव्यं 'दाराईति एतावन्ति द्वाराणीति गाथासमासार्थः॥ १४२८ ॥ व्यासाथै | तु प्रतिद्वारं भाष्यकृदेवाभिधास्यति । तत्र कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्ग इति द्विपदं नामेतिकृत्वा कायस्य उत्सर्गस्य च निक्षेपः कार्य इति । तथा चाह भाष्यकार: [३६..] Jaintaintml Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कायोत्सर्गम् अधिकृत्य निक्षेप आदि ११ द्वाराणि वर्णयते ~15334 Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४२८] भाष्यं [२२८], (४०) प्रत आवश्यक-काए उस्सग्गंमि य निक्खेवे हुंति दुन्नि उ विगप्पा । एएसि दुण्हंपी पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥ २२८ ॥ (भा०५ कायो 'काए उस्सग्गमि य' काये कायविषयः उत्सर्गे च-उत्सर्गविषयश्च एवं निक्षेपे-निक्षेपविषयौ भवतः द्वौ एव विकल्पी- सगांध्ययद्रीया निकायनिदावेव भेदी, अनयोद्धयोरपि कायोत्सर्गविकल्पयोः प्रत्येक प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ २२८ ॥ ॥७६६॥ कायस्स उ निक्खेवो बारसओ छओ अ उस्सग्गे । एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं बुच्छं ॥१४२९ ॥ नाम ठवर्णसरीरे गई निकायत्थिकार्य दविए य । माउय संगह पजर्व भारे तह भावकोंए य ॥ १४३०॥ काओ कस्सह नाम कीरह देहोवि चुचई काओ। कायमणिओवि बुञ्चइ बद्धमवि निकायमाहंसु ॥१४३१॥ अक्खे घराडए वा कडे पुत्थे म चित्तकम्मे य । सम्भावमसम्भावं ठवणाकार्य बियाणाहि ॥ १४३२ ॥3 लिप्पगहत्थी हत्यित्ति एस सम्भाविया भवे ठवणा । होइ असम्भावे पुण हवित्तिनिरागिई अक्खो ॥१४३३॥ ओरालियवेब्वियआहारगतेयकम्मए चेव । एसो पंचविहो खलु सरीरकाओ मुणेयब्वो ॥ १४३४ ॥ चउमुवि गईसु देहो नेरहयाईण जो स गइकाओ । एसो सरीरकाओ विसेसणा होइ गइकाओ ॥शा(प्र.) जेणुवगहिओ बचइ भवंतरं जचिरेण कालेण । एसो खलु गइकाओ सतेयगं कम्मगसरीरं ॥ १४३५ ।। ॥७६६॥ |निययमहिओ व काओ जीवनिकाओ निकायकाओया अस्थित्तिबहपएसा तेणं पंचत्थिकाया उ॥१४३६॥ जंतु पुरक्खडभावं दवियं पच्छाकडं व भावाओ । तं होइ व्वदबियंजह भविओ दव्वदेवाई ॥२२९॥ (भा०) जइ अस्थिकायभावो अपएसो हुज्ज अस्थिकायाणं । पच्छाकडुव्व तोते हविज दव्वत्थिकाया व ॥२३०॥ (भा०)॥ दीप अनुक्रम [३६..] SINEarami मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1534 Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४३७] भाष्यं [२३०], (४०) - प्रत - तीयमणागयभाव जमस्थिकायाण नस्थि अस्थित्तं । तेन र केवलएK नत्थी व्वस्थिकापतं ॥ १४३७ ।।। कामं भवियसुराइसु भावो सो चेव जस्ध वहति । एस्सो न ताव जायइ तेन र ते दव्यदेवुसि ॥ १४३८ ॥1 दुहओऽणंतररहिया जइ एवं तो 'भवा अणंतगुणा । एगस्स एगकाले भवा न जुज्जति उ अणेगा ॥१४३९॥ दुहओऽणंतरभवियं जह चिट्टइ आउअं तु जं बई । हुन्जियरेसुवि जइ तं दब्वभवा हुज्ज तो तेऽवि ॥ १४४०॥ संझासु दोसु सूरो अदिस्समाणोऽवि पप्प समईयं । जह ओभासह खित्तं तहेव एयंपि नायब्वं ॥१४४१॥ माउयपयंति नेयं नवरं अन्नोवि जो पयसमूहो । सो पयकाओ भन्नइ जे एगपए बहू अस्था २३१॥ (भा०) संगहकाओऽणेगावि जत्थ एगवयण धिप्पंति । जह सालिगामसेणा जाओ वसही (ति) निविट्टत्ति ॥१४४२॥ पज्जवकाओ पुण हुंति पजचा जत्थ पिंडिया बहवे । परमाणुंमिविकंमिचि जह चन्नाई अगंतगुणा ॥१४४३ ॥ एगो काओ दुहाजाओ एगो चिट्ठइ एगो मारिओ।जीवंतो अमएण मारिओतं लवमाणव! केण हेउणा ॥१४४४॥ दुगतिग चउरो पंच व भावा पहुआ व जत्थ वदति । सो होइ भावकाओ जीवमजीवे विभासा उ॥१४४५ ॥ काए सरीर देहे बुंदी य चय उवचए य संघाए । उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू ॥१४४६॥ तत्र 'कायस्स उ निक्खेवो' कायस्य तु निक्षेपः कार्य इति 'वारस'त्ति द्वादशप्रकारः । 'छक्कओ य उस्सग्गे' षट्कश्चोत्सर्गविषयः षट्प्रकार इत्यर्थः, पश्चार्द्ध निगदसिद्धं तत्र कायनिक्षेपप्रतिपादनायाह-नाम ठवणा' नामकायः स्थापनाकायः शरीरकायः गतिकायः निकायकायः अस्तिकायः द्रव्यकायश्च मातृकायः संग्रहकायः पर्यायकायः भार दीप अनुक्रम [३६..] JAMEainturda ANDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15354 Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) आवश्यक- हारिभ प्रत द्रीया ॥७६७॥ दीप अनुक्रम कायः तथा भावकायश्चेति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्धं तु प्रतिद्वारमेव व्याख्यास्यामः, तत्र नामकायप्रतिपादनायाह ५कायोकाओ कस्सवित्ति कायः कस्यचित् पदार्थस्य सचेतनाचेतनस्य वा नाम क्रियते स नामकायः, नामाश्रित्य कायो नाम-त्सर्गाध्ययकायः, तथा देहोऽपि-शरीरसमुच्छ्रयोऽपि उच्यते कायः, तथा काचमणिरपि कायो भण्यते, प्राकृते तु कायः । तथा बद्ध- नकायनिमपि किचिल्लेखादि 'निकायमासु'त्ति निकाचितमाख्यातवन्तः, प्राकृतशैल्या निकायेति गाथार्थः, गतं नामद्वार, अधुना स्थापनाद्वारं व्याख्यायते-'अक्खे वराडए' अक्षे-चन्दनके वराटके वा-कपके वा काठे-कुट्टिी पुस्ते वावस्त्रकृते चित्रकर्मणि वाप्रतीते, किमित्याह-सतो भावःसद्भावः तथ्य इत्यर्थः तमाश्रित्य तथा असतोभावः असद्भावः अतथ्य इत्यर्थः, तं चाश्रित्य, किं ?-स्थापनाकायं विजानाहीति गाथार्थ ॥ १४३१॥ सामान्येन सभावासद्भावस्थापनोदाहरणमाह-लेप्पगहत्थी' यदिह लेप्यकहस्ती हस्तीति स्थापनायां निवेश्यते 'एस सब्भाविया भवे ठवणत्ति एषा सद्भावस्थापना भवतीति, भवत्य सद्भावे पुनहस्तीति निराकृतिः-हस्त्या कृतिशून्य एव चतुरङ्गादाविति । तदेवं स्थापनाकायोऽपि भावनीय इति गाथार्थः ।। १४३२ ॥ शरीरकायप्रतिपादनायाह-ओरालियवेउधिय' उदारैः पुद्गलैंनिवृत्तमौदारिक विविधा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रिय प्रयोजनाधिना आहियत इत्याहारकं तेजोमयं तैजसं कर्मणा निवृत्तं कार्मणं, औदारिक वैक्रिय आहारक तैजसं कार्मणं चैव एष पञ्चविधः खलु शीर्यन्त इति शरीराणि शरीराण्येव पुद्गलसङ्घातरूपत्वात् कायः शरीरकायः विज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ गतिकायप्रतिपादनायाह'चउसुवि गई' इयमप्यन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगेति च व्याख्यायते-चतसृष्वपि गतिषु-नारकतिर्यग्नरामरलक्षणासु [३६..] ७६७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15364 Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] Education t आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१४४६] भाष्यं [२३१], 'देहो'त्ति शरीरसमुच्छ्रयो नारकादीनां यः स गतौ काय इतिकृत्वा गतिकायो भण्यते, अत्रान्तरे आह चोदक:- 'एसो सरीरकाउ 'ति नम्येष शरीरकाय उक्तः, तथाहि नौदारिकादिव्यतिरिक्ता नारकतिर्यगादिदेहा इति, आचार्य आह- 'विसे | सणा होति गतिकाओ विशेषणाद्-विशेषणसामर्थ्याद् भवति गतिकायः, विशेषणं चात्र गतौ कायो गतिकायः, यथा द्विवि धाः संसारिणः- त्रसाः स्थावराश्च पुनस्त एव स्त्रीपुंनपुंसकविशेषेण भिद्यन्त इत्येवमत्रापीति गाथार्थः । अथवा सर्वसत्त्वानामपान्तरालगत यः कायः स गतिकायो भण्यते, तथा चाह' जेणुवगहिओ' येनोपगृहीत उपकृतो व्रजति-गच्छति भवादन्यो भवः भवान्तरं तत्, एतदुक्तं भवति मनुष्यादिर्मनुष्य भवात् च्युतः येनाश्रयेणा (श्रितोऽ) पान्तराले देवादिभवं गच्छति स गतिकायो भण्यते, तं कालमानतो दर्शयति-यचिरेण 'कालेणं'ति स च यावता कालेन समयादिना व्रजति तावन्तमेव कालमसौ गतिकायो भव्यते एष खलु गतिकायः, स्वरूपेणैव दर्शयन्नाह-'सतेयगं कम्मगसरीरं' कार्मणस्य प्राधान्यात् सह तैजसेन वर्तत इति सतैजसं कार्मणशरीरं गतिकायस्तदाश्रयेणापान्तरालगती जीवगतेरिति भावनी (यम) यं गाधार्थः ॥ निकायकायः प्रतिपाद्यते तत्र-'नियय'त्ति गाथार्द्ध व्याख्यायते 'निययमहिओ व काओ जीवनिकाय 'ति नियतो नित्यः कायो निकायः, नित्यता चास्य त्रिष्वपि कालेषुभावात् अधिको वा कायो निकायः, यथा अधिको दाहो निदाह इति, आधिक्यं चास्य धर्माधर्मास्तिकायापेक्षया स्वभेदापेक्षया वा, तथाहि एकादयो यावदसज्ञेयाः पृथिवी कायिकास्तावत् कायस्त एव स्वजातीयान्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इति, एवमन्येष्वपि विभाषेत्येवं जीवनिकायसामान्येन निकायकायो भण्यते, अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः पद्विधोऽपि निकायो भण्यते तत्समुदायः एवं च निकायकाय इति, गर्त निकायकायद्वारं । अधुनाऽस्तिकायः प्रतिपाद्यते, For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1537 ~ Dig Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) म प्रत ॥७६८॥ दीप अनुक्रम आवश्यक तत्रेदं गाथाशकलं 'अस्थित्तिबहुपदसा तेणं पंचत्थिकाया उ' अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति ५ कायोहारिभ- भविष्यन्ति चेति भावना, बहुप्रदेशास्तु यतस्तेन पञ्चैवास्तिकायाः तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्न न्यूना नाप्यधिका इति, अनेन त्सगोध्ययद्रीया च धर्माधर्माकाशानामेकद्रव्यत्यादस्तिकायत्वानुपपत्तिरद्धासमयस्य च ए (अने)कत्वादस्तिकायत्वापत्तिरित्येतत् परिहृतमवग-2 धन्तव्यं, ते चामी पञ्च, तद्यथा-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायः जीवास्तिकायः बुद्गलास्तिकायश्चेत्यस्ति काया इति हृदयमय गाथार्थः ॥ साम्प्रतं द्रव्यकायावसरस्ततस्तत्प्रतिपादनायाह| जं तु पुरक्खड'त्ति यद् द्रव्यमिति योगः तुशब्दो विशेषणार्थः किं विशिनष्टि ?-जीवपुद्गलद्रव्यं, न धर्मास्तिकायादि, ततश्चैतदुक्तं भवति यद् द्रव्यं यदू वस्तु पुरस्कृतभावमिति-पुर:-अग्रतः कृतो भावो येनेति समासः, भाविनी भावस्या योग्यमभिमुखमित्यर्थः। 'पच्छाकडं व भावाओ'त्ति घाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, ततश्चैवं प्रयोगः पश्चात्कृतभावं, वाशब्दो विकल्पवचनः पश्चात् कृतः प्रायोज्झितो भावः-पर्यायविशेषलक्षणो येन स तथोच्यते, एतदुक्तं भवति-यस्मिन् भावे वर्तते से द्रव्यं ततो यः पूर्वमासीद् भावः तस्मादपेतं पश्चात्कृतभावमुच्यते, 'तं होति दबदवियं तदित्थंभूतं द्विप्रकारमपि भाविनो| भूतस्य च भावस्य योग्यं 'दई ति वस्तु वस्तुवचनो ह्येको द्रव्यशब्दः, किं?-भवति द्रव्यं, भवतिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, इत्थं द्रव्यलक्षणमभिधायाधुनोदाहरणमाह-'जह भविओ दबदेवादि' यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः भन्यो-योग्यः द्रव्यदेवा ७६८॥ दिरिति, श्यमत्र भावना-यो हि पुरूपादिम॒त्वा देवत्वं प्राप्स्यति बद्धायुष्कः अभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वात् द्रव्य-13 देवोऽभिधीयते, एवमनुभूतदेवभावोऽपि, आदिशब्दाद् द्रव्यनारकादिग्रहः परमाणुग्रहश्य, तथाहि-असावपि व्यणुकादि-1 [३६..] RECEMESTE% JAMERatinik मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15384 Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) प्रत काययोग्यो भवत्येव, ततश्चेत्थंभूतं द्रव्यं कायो भण्यत इति गाथार्थः ॥१४२६ ॥ आह-किमिति तुशब्दविशेषणाजीवपुदगल द्रव्यमहरीकृत्य धर्मास्तिकायादीनामिह व्यवच्छेदः कृत इति ?, अत्रोच्यते, तेषां यथोक्तप्रकारद्रव्यलक्षणायोगात्, सर्वदेवास्तिकायत्वलक्षणभावोपेतत्वाद् , आह च भाष्यकार:-'जइ अस्थिकायभावो' यद्यस्तिकाय भावः अस्तिकायत्वलक्षणः, 'इय एसो होज अस्थिकायाणं' 'इय' एवं यथा जीवपुद्गलद्रव्ये विशिष्टपर्याय इति । जाएष्यन्-आगामी भवेत, केषाम् !-अस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनामिति, व्याख्याना विशेषप्रतिपत्तिः, तथा पश्चात्कृतो वा यदि भवेत् 'तो ते हविज दबस्थिकाय'त्ति ततस्ते भवेयुरिति द्रव्यास्तिकाया इति गाथार्थः यतश्च'तीयमणागय' अतीतम्-अतिक्रान्तमनागतं भावं यद्-यस्मात् कारणादस्तिकायानां-धर्मास्तिकायादीनां नास्ति-न विद्यते अस्तित्व-विद्यमानत्वं, कायत्वापेक्षया सदैव योगादिति हृदयं, 'तेण रत्ति तेन किल केवलं-शुद्धं 'तेषु' धर्मास्तिकायादिषु नास्ति-न विद्यते, किं ?-'दबस्थिकाय'त्ति द्रव्यास्तिकायत्वं, सदैव तद्भावयोगादिति गाथार्थः ॥ १४३७ ॥ आह-यद्येवं द्रव्यदेवायुदाहरणोक्तमपि द्रव्यं न प्राप्नोति, सदैव सद्भावयोगात्, तथाहि-स एव तस्य भावो यस्मिन् वर्तते इति । अत्र गुरुराह-कामं भवियसुरादि' काममित्य नुमतं यथा भवियसुरादिषु' भव्याश्च ते सुरादयश्चेति विग्रहः आदिशब्दात द्रव्यना" रकादिग्रहः तेषु-तद्विषये विचारे भावः स एव यत्र वर्तते तदानीं मनुष्यादिभाव इनि, किंतु एष्यो-भावी न तावजायते तदा, 'तेण र ते दवदेव'त्ति तेन ते किल द्रव्यदेवा इति, योग्यत्वाद्, योग्यस्य च द्रव्यत्वात् ,न चैतद् धर्मास्तिकायादीनामस्ति, एष्यकालेऽपि तद्भावयुक्तत्वादेवेति गाथार्थः॥१४३८॥यथोक्तं द्रव्यलक्षणमवगम्य तद्भावेऽतिप्रसर च मनस्याधा दीप अनुक्रम [३६..] Lik%20% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1539~ Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया -% प्रत 6 ॥७६९॥ याह चोदकः-'दुहओऽणंतररहिया दुहत्ति वर्तमानभावस्थितस्य उभयत एध्यकालेऽती तकाले च अणंतररहियत्ति अन- कायोत्सर्गन्तरौ एष्यातीतौ अनन्तरौ च तौरहितौ च वर्तमानभवभावेनेति प्रकरणादू गम्यते अनन्तररहितौ तावपि 'जइ'त्ति यदि तस्यो- निक्षेपः च्यते 'एवं तो भवा अणंतगुण'त्ति एवं सति ततो भवा अनन्तगुणाः, तद्भवद्वयव्यतिरिक्ता वर्तमानभवभावेन रहिता एथ्या अतिक्रान्ताश्च तेऽप्युग्येरंस्ततश्च तदपेक्षयापि द्रव्यत्वकल्पना स्यात्, अधोच्येत-भवत्वेवमेव का नो हानिरिति ?, उच्यते, एकस्य-पुरुषादेरेककाले-पुरुषादिकाले भवा न युज्यन्ते-न घटन्ते अनेकेन्बय इति गाथाथैः ॥१४३९॥ इत्थं चोदकेनोक्ते ।। गुरुराह-'दुहओऽणतरभवियं"दुहउ'त्ति वर्तमानभवे वर्तमानस्य उभयतः एष्येऽतीते चानन्तरभविक,पुरस्कृतपश्चात्कृतभव-18 सम्बन्धीत्युक्तं भवति,यथा तिष्ठति आयुष्कमेव तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्,न शेषं कर्म विवक्षितं यद् बदमयं गाथार्थः॥१४४०॥ पुरस्कृतभवसम्बन्धि त्रिभागावशेषायुष्कः सामान्येन तस्मिन्नेव भवे वर्तमानो बनाति, पश्चात्कृतसम्बन्धि पुनस्तस्मिन् व भवे वेदयति । अतिप्रसङ्गानिवृत्त्यर्थमाह-होजियरेसुवि जइ तं दवभवा होज ता तेऽवि' भवेत् इतरेष्वपि-प्रभूतेष्वतीतेषु।। यद् बद्धमनागतेषु च यद् भोक्ष्यते यदि तस्मिन्नेव भवे वर्तमानस्य द्रव्यभवा भवेरंस्ततस्तेऽपि, तदायुष्कर्मसम्बन्धादिति साहदयं, न चैतदस्ति, तस्मादसच्चोदकवचनमिति गाधार्थः॥१४४१॥ अस्यैवार्थस्य प्रसाधकं लोकप्रतीतं निदर्शनमभिधातुकाम | आह–'संझासु दोसु सूरो' सन्ध्या च सम्ध्या च सन्ध्ये तयोः सन्ध्ययोर्द्वयोः प्रत्यूषप्रदोषप्रतिबद्धयोः सूर्य-आदित्यः अदृश्य-1811७६९॥ मानोऽपि-अनुपलभ्यमानोऽपि प्रापणीयं-प्राप्यं समतिकान्तं-समतीतं च यथाऽवभासते-प्रकाशयति क्षेत्रं, तद्यथा-प्रत्युष|सन्ध्यायां पूर्वविदेह भरतं च, प्रदोषसन्ध्यायां तु भरतमपरविदेहं च, तथैव-यथा सूर्यः इदमपि प्रक्रान्त ज्ञातव्य-विज्ञे-1 दीप अनुक्रम [३६..] - % C46 -- HINDraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1540~ Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) प्रत 94544-5% * यमिति, एतदुक्तं भवति-वर्तमानभवे स्थितः पुरस्कृतभवं पश्चात्कृतभवं च आयुष्ककर्म सद्रव्यतया स्पृशति,प्रकाशेनादित्यवदिति गाथार्थः ॥ १४४२ ॥ अधुना मातृकाकायः प्रतिपाद्यते, [ मातृकेऽपि ] मातृकापदानि 'उप्पण्णेति वे' त्या-13 दीनि तत्समूहो मातृकाकायः, अन्योऽपि तथाविधपदसमूहो बहथं इति, तथाचाह भाष्यकार:-'माउ- यपर्य'ति मातकापदमिति 'जेम' 'जेम'ति चिहं, नवरमन्योऽपि यः पदसमूहः-पदसवातः स पदकायो भण्यते | मातृकापदकाय इति भावना, विशिष्टः पदसमूहः, किं०-'जे एगपए बहू अत्था' यस्मिन्नेकपदे बहवः अर्थास्तेषां पदानां यः समूह इति, पाठान्तरं वा 'जस्सेकपदे बहू अत्यत्ति गाथार्थः ॥ १४४३ ॥ संग्रहकायप्रतिपादनायाह'संगहकाओ णेगा' संग्रहणं संग्रहः स एव कायः, स किंविशिष्ट ? इत्याह-'णेगावि जत्थ एगवयणेण घेप्पति'त्ति प्रभूता अपि यत्रैकवचनेन दिश्यन्तो गृह्यन्ते, यथा शालिग्रामः सेना जातो वसति निवित्ति, यथासङ्घर्ष, प्रभूतेष्वपि स्तम्बेषु | |सत्सु जातः शालिरिति व्यपदेशः, प्रभूतेष्वपि पुरुषविलयादिषु वसति प्रामः, प्रभूतेष्वपि हत्यादिषु निविष्टा सेनेति, अयं शाल्यादिरर्थः सङ्ग्रहकायो भण्यते इति गाथार्थः ॥ १४४४ ॥ साम्प्रतं पर्याय कार्य दर्शयति 'पज्जवकाओ' पर्यायकायः पुनर्भवति, पर्याया-वस्तुधर्मा यत्र-परमाण्यादौ पिण्डिता बहवः, तथा च परमाणावपि कस्मिंश्चित् सांव्यवहारिके यथा वर्णगन्धरसस्पर्शा अनन्तगुणाः अन्यापेक्षया, तथा चोकम्-"कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥" स चैकस्तिकादिरसस्तदन्यापेक्षया तिक्ततरतिक्ततमादिभेदादानन्त्यं प्रतिपद्यते, पञ्चवर्णादिष्वपि विभाषेत्ययं गाथार्थः ॥ अधुना भारकायस्तत्र गाथा-1 % दीप अनुक्रम 2-%94% [३६..] %31-25% 5% Ninrary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1541~ Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४४६] भाष्यं [२३१], (४०) कायोत्सर्गनिक्षेपः प्रत X आवश्यकएको काओ वुहा जाओ' एकः काय:-क्षीरकायः द्विधा जातः, घटद्वये न्यासात, तत्र एकस्तिष्ठति, एको मारितः, हारिभ- जीवन मृतेन मारितस्तदेतालवेति-ब्रूहि हे मानव ! केन कारणेन , कथानकं यथा प्रतिक्रमणाध्ययने परिहरणायामिति द्रीया गाथार्थ, भारकायश्चात्र क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती भण्यते, भारश्चासौ कायश्च भारकायः, अण्णे भणंति॥७७०॥ भारकायः कापोत्येयोच्यते इति ॥ १४४५ ॥ भावकामप्रतिपादनायाह 'दुगतिगचउरों' द्वौ यश्चत्वारः पञ्च वा भावा-औदयिकादयः प्रभूता वाऽन्येऽपि 'यत्र' सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते स भवति भावकायः, भावानां कायो भावकाय इति, 'जीवमजीवे विभासा ' जीवाजीवयोर्विभाषा खल्यागमानुसारेण कार्येति गाथार्थः ॥ १४४६ ॥ मूलद्वारगाथायां कायमधिकृत्य गतं निक्षेपद्वारम् , अधुनैकार्थिकान्युच्यन्ते, तत्र गाथाकायः शरीरं देहः बोन्दी चय उपचयश्च सहात उच्छ्रयः समुच्छ्यश्च कडेवरं भत्रा तनुः पाणुरिति गाथार्थः ॥ २३१ ॥ मूलद्वारगाथायाँ कायमधिकृत्योक्तान्येकाथिकानि, अधुना उत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपः एकार्थिकानि चोच्यन्ते, तत्र निक्षेपमधिकृत्याहनामंठवणादविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उस्सग्गस्स उ निक्वेवो छविहो होइ ॥ १४४७ ॥1 दब्बुज्मणा उ जंजेण जत्थ अवकिरह दब्बभूओ वाजं जत्थ वावि खित्ते जंजचिर जंमि वा काले ॥१४४८॥ भावे पसत्यमियरं जेण व भावेण अवकिरह जंतु । अस्संजमं पसत्थे अपसत्थे संजमं चयइ ॥१४४९॥ वरफरुसाइसचेयणमचेयणं दुरभिगंधविरसाई । दवियमवि चयइ दोसेण जेण भाबुज्झणा सा उ ॥ १४५० ॥ दीप अनुक्रम [३६..] ७७०॥ AnEaadme Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | उत्सर्ग अधिकृत्य षड् निक्षेपा: ~1542~ Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४५१] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत उस्सग्ग विउस्सरणुज्झणा य अवगिरण छडण विवेगो। सज्जण चयणुम्मुअणा परिसाडण साडणाचेव ॥१४५१॥ उस्सगे निक्खेवो चउक्कओ छक्कओ अ कायब्बो । निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायब्वा ॥१॥ सो उस्सग्गो दुविहो चिट्टाए अभिभवे य नायव्यो। भिक्वायरियाइ पढमो उवसग्गभिर्जुजणे चिइओ ॥१४५२॥ नामंठवणादविए' अर्थमधिकृत्य निगदसिद्धा, विशेषार्थ तु प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः, तत्रापि नामस्थापने गतार्थे. द्रव्योत्सर्गाभिधित्सया पुनराह-'दबुझणा उजं जेण' द्रव्योज्झना तु द्रव्योत्सर्गः स्वयमेव 'जन्ति यद् द्रव्यमनेषणीयं | 'अवकिरतित्ति योगः अवकिरति-उत्सृजति 'जेणे ति येन करणभूतेन पात्रादिनोत्सृजति,'जस्थत्ति यत्र द्रव्ये उत्सृजति द्रव्यभूतो वा-अनुपयुक्तो वा उत्सृजति एप द्रव्योत्सर्गोऽभिधीयते । क्षेत्रोत्सर्ग उच्यते 'जं जत्थ बावि खेत्ते'त्ति यत्क्षेत्रं | दक्षिणदेशाधुत्सृजति यत्र वाऽपि क्षेत्रे उत्सर्गो व्यावय॑ते एष क्षेत्रोत्सर्गः, कालोत्सर्ग उच्यते-'जं अच्चिर जम्मि वा काले'त्ति यत्कालमुत्सृजति यथा भोजनमधिकृत्य रजनी साधवः 'जचिरति यावन्तं कालमुत्सर्गः, यस्मिन् वा काले उत्सर्गो ब्यावयेते एप कालोत्सर्ग इति गाथार्थः ॥ १४४८ ॥ भावोत्सर्गप्रतिपादनायाह भावे पसत्यमियर' 'भाचे'ति द्वारपरामर्शः, भावोत्सर्गों द्विधा-प्रशस्त-शोभनं वस्त्यधिकृत्य 'इतरंति अप्रशस्तमशो-|| भनं च, तथा येन भावेनोत्सर्जनीयवस्तुगतेन खरादिना 'अवकिरति जन्तु' उत्सृजति यत् तत्र भावेनोत्सर्ग इति तृतीयासमासः, तत्र असंयम प्रशस्ते भावोत्सर्गे त्यजति, अप्रशस्ते तु संयम त्यजतीति गाथार्थः ॥ १४४९॥ यदुक्तं येन वा दीप अनुक्रम [३६..] JAMERatin A NDraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1543~ Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं - [गाथा-], नियुक्ति: [१४५२] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) कायोत्सर्गनिक्षेपः प्रत आवश्यक- भावेनोत्सृजति तत्प्रकटयन्नाह-'खरफरुसाइसचेयण' खरपरुषादिसचेतनं खरं-कठिनं परुष-दुभाषणोपेतं अचेतनं हारिभ-14 दुरभिगन्धविरसादि यद् द्रव्यमपि त्यजति दोषेण येन खरादिनैव 'भावुझणा सा उ' भावनोत्सर्ग इति गाथार्थः द्रीया ॥ १४५० ॥ गतं मूलद्वारगाथायामुत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपद्वारम्, अधुन कार्थिकान्युच्यन्ते, तत्रेय गाथा 'उस्सग्ग विउस्सरणु' उत्सर्गः ब्युत्सर्जना उज्झना च अवकिरणं छर्दनं विवेकः वर्जनं त्यजन उन्मोचना परिशातना ॥७७१॥ शातना चैवेति गाथार्थः ॥१४५१ ॥ मूलद्वारगाथायामुक्तान्युत्सगैकार्थिकानि, ततश्च कायोत्सर्ग इति स्थितं, कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः । इदानी मूलद्वारगाथागतविधानमार्गणाद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह--'सो उस्सग्गो दुविहों' स कायोत्सर्गो द्विविधः, 'चेट्टाए अभिभवे य नायवो' चेष्टायामभिभवे च ज्ञातव्यः, तत्र 'भिक्खायरियादि पढमो' भिक्षाचर्यादौ विषये प्रथमः कायोत्सर्गः, तथाहि-चेष्टाविषय एवासी भवति, 'उवसम्गऽभिजणे बिइओ'त्ति उपसर्गादिव्यादयस्तैरभियोजनमुपसगाभियोजनं तस्मिन्नुपसर्गाभियोजने द्वितीयः-अभिभवकायोत्सर्ग इत्यर्थः, दिव्याभिभूत एवं महामुनिस्तदेवार्य करोतीति हृदयम्, अथवोपसर्गाणामभियोजनं-सोढव्या मयोपसर्गास्तभयं न कार्यमित्येवंभूतं तस्मिन् द्वितीय इत्यर्थः । इत्थं प्रतिपादिते सत्याह चोदकः, कायोत्सर्गे हि साधुना नोपसर्गाभियोजनं कार्यइयरहवि ता न जुज्जइ अभिगो किं पुणाइ उस्सग्गे? नणु गब्वेण परपुरं अभिरुज्झइ एवमेयंति(पि)॥१४५३ ४|मोहपयडीभयं अभिभवितु जो कुणइ काउस्सग्गंतु भयकारणे घ तिविहे णाभिभवो नेव पडिसेहो ॥१४५४|| दाआगारेऊण पर रणिक जइ सो करिब उस्सग्ग। जुजिज अभिभवो तो तदभावे अभिभवो कस्स ? ॥१४५५॥ दीप अनुक्रम [३६..] ७७१॥ Moran.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15444 Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४५६] भाष्यं [२३१..., (४०) ****%A प्रत अट्ठविहंपि य कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयहाए । अन्भुडिया उ तवसंजमंमि कुवंति निग्गंथा ॥ १४५६ ॥ तस्स कसाया चत्तारि नायगा कम्मसत्तुसिन्नस्स । काउस्सग्गमभग्गं करंति तो तजयहाए ॥१४५७ ॥ संवच्छरमुक्कोसं अंतमुहृत्तं च (त) अभिभवुस्सग्गे । चिहाउस्सग्गस्स उ कालपमाणं उवरि बुच्छं ॥ १४५८ ॥ 'इयरहवि ताण' इतरथापि-सामान्यकार्येऽपि तावत् क्वचिदनवस्थानादौ न युज्यतेऽभियोगः कस्यचित् कर्तु, "किं पुणाइ उस्सम्गे' किं पुनः कायोत्सर्गे कर्मक्षयाय क्रियमाणे?, स हि सुतरां गवरहितेन कार्यः, अभियोगश्च गर्यो वर्तते, नन्वित्यसूयायां गर्वेण-अभियोगेन परपुर-शत्रुनगरमभिरुध्यते, यथा तद्गर्वकरणमसाधु एवमेतदपि कायोत्सर्गाभियोजनमशोभनमेवेति गाथार्थः ॥ एवं चोदकेनोक्त सत्याहाचार्य:-'मोहपयडीभयं' मोहप्रकृती भयं २ अथवा मोहप्रकृतिश्चासी भयं चेति समासः, मोहनीयकर्मभेद इत्यर्थः, तथाहि-हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्साषट्क मोहनीयभेदतया प्रतीतं, तत् अभिभवतु अभिभूय यः कश्चित् करोति कायोत्सर्ग तुशब्दो विशेषणा): नान्यं कश्चन बाह्यमभिभूयेति, 'भयकारणे तु तिविहे' बाह्ये भयकारणे त्रिविधे द्रव्यमनुष्यतिर्यग्भेदभिन्ने सति तस्य नाभिभवः, अर्थत्थंभूतोऽप्यभियोग इत्यत्रोच्यते-'नेव पडिसेहो' इत्थंभूतस्याभियोगस्य नैव प्रतिषेध इति गाथार्थः ॥१४५४॥ किन्तु 'आगारेऊण परं' 'आगारेऊण'त्ति आकार्य रे रे क यास्यसि इदानी एवं परम्-अन्य कञ्चन 'रणेष' संग्रामे इव यदि टूस कुर्यात् कायोत्सर्ग युज्येत अभिभवः, तदभावे-पराभिभवाभावेऽभिभवः कस्य, न कस्यचिदिति गाथार्थः ॥ १४५५ ॥ तत्रैतत् स्यात्-भयमपि कर्माशो वर्त्तते, कर्मणोऽपि चाभिभवः खल्वेकान्तेन नैव कार्य इत्येतचायुक्तम्, यतः दीप अनुक्रम KALAK**** [३६..] 72-% Winnary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1545~ Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [ १४५६] भाष्यं [२३१...], आवश्यक- 'अविहंपि य कम्मं' अष्टविधं - अष्टप्रकारमपि चशन्दो विशेषणार्थः तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, अडविपि य कम्मं हारिभ- अरिभूतं च ततश्चायमर्थः- यस्मात् ज्ञानावरणीयादि अरिभूतं शत्रुभूतं वर्त्तते भवनिबन्धनत्वाच्चशब्दादचेतनं च तेन दीया x कारणेन तज्जयार्थ- कर्मजयनिमित्तं 'अब्भुट्टिया उत्ति आभिमुख्येन उत्थिता एव एकान्तगर्वविकला अपि तपो द्वादश १७७२॥ Educator प्रकारं संयमं च सप्तदशप्रकारं कुर्वन्ति निर्ग्रन्थाः - साधव इत्यतः कर्मक्षयार्थमेव तदभिभवनाय कायोत्सर्गः कार्य एवेति गाथार्थः ॥ १४५६ ॥ तथा चाह— तस्स कसाया इति 'तस्य' प्रकान्तशत्रुसैन्यस्य कषायाः प्रागूनिरूपितशब्दार्थाश्चत्वारः क्रोधादयो नायकाः- प्रधानाः, 'काउस्सग्गमभागं करेंति तो तज्जयद्वापत्ति काउस्सग्र्गअभिभवकायोत्सर्ग अभनं- अपीडितं कुर्वन्ति साधवस्ततस्तज्जयार्थे - कर्मजयनिमित्तं तपःसंयमवदिति गाथार्थः ॥ १४५७ ॥ गतं मूलद्वारगाथायां विधानमार्गणाद्वारम् अधुना कालपरिमाणद्वारावसरः, तत्रेयं गाथा - संवत्सरमुत्कृष्टं कालप्रमाणं, तथा च बाहुबलिना संवत्सरं कायोत्सर्गः कृत इति, 'अन्तोमुहुत्तं च' अभिभवकायोत्सर्गे अन्त्यं जघन्यं कालपरिमाणं, चेष्टाकायोत्सर्गस्य तु कालपरिमाणमनेकभेदभिन्नं 'उवरि वोच्छति उपरिष्टाद् वक्ष्याम इति गाथार्थः ॥ १४५८ ॥ उक्तं तावदोघतः कालपरिमाणद्वारं, अधुना भेदपरिमाणद्वारमधिकृत्याह---- उसिउस्सिओ अ तह उस्सिओ अ उस्सियनिसन्नओ चेव । निसनुस्सिओ निसन्नो निस्सन्नगनि सन्नओ चेच १४५९ ।। निवणुस्सिओ निवन्नो निवन्ननिवन्नगो अनायच्वो । एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥ १४६० ।। उस्सिनिसन्नग निवन्नगे य इकिकगंमि उपयंमि । दव्वेण य भावेण य चउक्कभयणा उ कायव्वा ।। १४६१ ।। For Parts Only कायोत्सर्गनिक्षेपः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1546~ ॥७७२॥ Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४६१] भाष्यं [२३१...], (४०) 4555AC% %A4%AESH प्रत |'उस्सिउस्सिओं' उच्छ्रितोच्छ्रितः उत्सृतश्च उत्सृतनिषण्णश्चैव निषण्णोत्सृतः निषण्णो निषण्णनिषण्णश्चैवेति गाथार्थः॥ | निसणुस्सिओ निवन्नो' निषण्णोत्सृतः निप(व)ण्णः निषण्ण निषण्णश्च ज्ञातव्यः, एतेषां तु पदानां प्रत्येकं प्ररूपणां वक्ष्य इति । | गाथासमासाः , अवयवार्थ तु उपरिष्टाद्वक्ष्यामः 'उस्सिय' उत्सृतो निषण्णः निषण्णनिपण्णेषु एकैकस्मिन्नेव पदे 'दबेण य| भावेण य चउपभयणा उ कायबा' द्रव्यत उत्सृत ऊद्वेस्थानस्थःभावत उत्सृत धर्मध्यानशुक्लध्यायी, अभ्यस्तु द्रव्यत उत्सृतः | ऊर्द्धस्थानस्थः न भावतः उत्सृतः ध्यानचतुष्टयरहितः कृष्णादिलेश्यागतपरिणाम इत्यर्थः, अन्यस्तु न द्रव्यत उत्सृतः नोर्द्ध-18 स्थानस्थः भावत उत्सृतः, शुक्लध्यायी अन्यस्तु न द्रव्यतो नापि भावत इत्ययं प्रतीतार्थ एवमन्यपद चतुर्भङ्गिका अपि वक्तव्याः ॥१४५९-१४६१॥ इत्थं सामान्येन भेदपरिमाणे दर्शिते सत्याह चोदका, ननु कार्योत्सर्गकरणे कः पुनर्गुण इत्याहाचार्य:देहमइजडसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं एयग्गो काउसग्गंमि ॥ १४६२ ।। अंतोमुहु त्तकालं चित्तस्सेगग्गया हबइ झाणं । तं पुण अहूं रुई धम्म सुकं च नायब्वं ॥ १४६३ ॥ 13 तत्थ य दो आइल्ला झाणा संसारवडणा भणिया। दुन्नि य विमुक्खहेऊ तेसिऽहिगारो न इयरेसिं ॥१४६४ ॥ संवरियासबदारा अव्वाबाहे अकंटए देसे । काऊण धिरं ठाणं ठिओ निसन्नों निवन्नो वा ॥ १४६५॥ चेयणमचेषणं चा वधु अवलंपिउं घणं मणसा । झायइ सुअमत्थं वा दधियं तप्पज्जए बावि ॥ १४१६॥ तत्थ उ भणिज्ज कोई झाणं जो माणसो परीणामो । तं न हवइ जिणदिढ झाणं तिविहेवि जोगंमि ॥१४६७॥ दीप अनुक्रम 1%CE [३६..] SRCASSES Natoraryom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1547~ Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं ] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४६८] भाष्यं [२३१...], (४०) कायोत्सर्गनिक्षेपः प्रत आवश्यक- वायाईधाऊणं जो जाहे होइ उक्कडो धाऊ । कुविओत्ति सो पञ्चह न य इअरे तत्थ दो नत्थि ॥१४६८॥ हारिभ- एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडो जोगो। तस्स तहिं निद्देसो इअरे तत्थिक्क दो व नवा ॥१४६९॥ द्रीया काएविय अज्झप्पं चायाइ मणस्स चेव जह होइ । कायवयमणोजुत्तं तिविहं अजनप्पमासु ॥१४७०॥ जह एगग्गं चित्तं धारयओ वा निमओ वावि । झाणं होइ नणु तहा इअरेसुवि दोसु एमेव ॥१४७१॥ ७७३॥ देसियदंसियमग्गो वचंतो नरवई लहइ सई । रायत्ति एस बच्चइ सेसा अणुगामिणो तस्स ॥ १४७२ ॥ पढमिल्लुअस्स उदए कोहस्सिअरे वि तिन्नि तत्वन्थि । नय ते ण संति तहियं न य पाहन्नं तहेयंमि ॥१४७३ ।। मा मे एजउ काउत्ति अचलओ काइअं हवइ झाणं । एमेव य माणसियं निरुद्धमणसो हवइ झाणं ॥ १४७४ ॥ वजह कायमणनिरोहे झाणं वायाइ जुन्नइ न एवं । तम्हा वई उ झाणं न होइ को वा विसेसुत्थ? ॥१४७५॥ मा मे चलउत्ति तणू जह तं झाणं निरेइणो होइ । अजयाभासविवजस्स वाइअं झाणमेवं तु ॥ १४७६ ॥ एवंविहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसा न वत्तब्वा । इय वेयालियवकस्स भासओ वाइयं झाणं ॥ १४७७ ॥ मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो। भंगिअसुअं गुणतो बइ तिबिहेवि झामि ॥ १४७८॥ 'देहमतिजडुसुद्धीति देहजायशुद्धिः-श्लेष्मादिप्रहाणतः मतिजाज्यशुद्धिः तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः, सुहृदुक्खतितिक्खय'त्ति सुखदुःखतितिक्षा सुखदुःखातिसहनमित्यर्थः, 'अणुप्पेहा' अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा च तथाऽवस्थितस्य भवति, तथा| शायद य सुहं झाणं ध्यायति च शुभं ध्यान धर्मशुक्ललक्षणं, एकाग्रा-एकचित्तः शेषव्यापाराभावात् कायोत्सर्ग इति, दीप अनुक्रम [३६..] A 625 Drary au मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'ध्यान' शब्दस्य अर्थ, भेद-आदीनाम वर्णनं ~1548~ Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत माइहानुप्रेक्षा ध्यानादौ ध्यानोपरमे भवतीतिकृत्वा भेदेनोपन्यस्तेति गाथार्थः ॥ १४६२ ॥ इह ध्यायति च शुभं ध्यानमिAत्युकं, तत्र किमिदं ध्यानमित्यत आह-'अंतोमुहुत्तकालं' द्विघटिको मुहूतः भिन्नो मुहर्तोऽन्तर्मुहूर्त इत्युच्यते, अन्तर्मु हर्तकालं चित्तस्यैकाग्रता भवति ध्यानं एकाग्रचित्तनिरोधो ध्यान (तत्त्वार्थे अ० सूत्र ९२७) मितिकृत्वा, तत् पुनरात रौद्रं धर्म शुक्लं च ज्ञातव्यमित्येषां च स्वरूपं यथा प्रतिक्रमणाध्ययने प्रतिपादितं तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥१४६२-१४६३॥ तत्थ उदो आइल्ला' गाथा निगदसिद्धा । साम्प्रतं यथाभूतो यत्र यथावस्थितो यच ध्यायति तदेतदभिधित्सुराहसंवरियासवदार'त्ति संवृतानि-स्थगितानि आश्रवद्वाराणि-प्राणातिपातादीनि येन स तथाविधः, क ध्यायति ?अन्यावाधे अकंटए देसे त्ति' अव्यावाधे-गान्धर्वादिलक्षणभावव्यावाधाविकले अकण्टके-पाषाणकण्टकादिद्रव्यकण्टकविकले 'देशे' भूभागे, कथं व्यवस्थितो ध्यायति ?-'काऊण धिरं ठाणं ठितो निसपणो निवन्नो वा कृत्वा स्थिर-निष्कम्प अव] स्थान-अवस्थितिविशेषलक्षणं स्थितो निषण्णो निवष्णो वेति प्रकटाथै, चेतन-पुरुषादि अचेतनं-प्रतिमादि वस्तु अवलम्ब्य-विषयीत्या (त्य) धन-ददं मनसा-अन्तःकरणेन यत् ध्यायति, किं तदाह-झायति सुयमत्थं वा ध्यायतीति सम्बध्यते, सूत्र-गणधरादिभिर्वजं अर्थ वा-तदूगोचरं, किंभूतमर्थमत आह-'दविय तप्पज्जवे यावि' द्रध्यं तत्पर्यायान| वा, इह च यदा सूत्रं ध्यायति तदा तदेव स्वगतधमैरालोचयति, न त्वर्थ, यदा स्वर्थं न तदा सूत्रमिति गाथार्थः ॥ १४६४-१४६६ ॥ अधुना प्रागुक्तचोद्यपरिहारायाह-तत्र भणेत्-ब्रूयात् कश्चित्, किं ब्रूयादित्याह-'झाणं जो माणसो परीणामो' ध्यान यो मानसः परीणामः, 'ध्यै चिन्ताया मित्यस्य चिन्तार्थत्वात् , इत्थमाशयोत्तरमाह-तं दीप अनुक्रम -- %-- [३६..] A - A - % Jantas 4 anmitrary.om und मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1549~ Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [ १४७८] भाष्यं [२३१...], ॥७७४॥ आवश्यक - ॐ न भवति जिणदिहं शाणं तिविहेवि जोगंमि' तदेतन्न भवति यत् परेणाभ्यधायि, कुतः १, यस्माज्जिहारिभ- नैर्दृष्टं ध्यानं त्रिविधेऽपि योगे-मनोवाक्कायव्यापारलक्षण इति गाथार्थः ॥ १४६७ ॥ किं तु १, कस्यचित् द्रीया कदाचित् प्राधान्यमाश्रित्य भेदेन व्यपदेशः प्रवर्त्तते, तथा चामुमेव न्यायं प्रदर्शयन्नाह - 'वायाई घाऊणं' वातादिधातूनां आदिशब्दात् पित्तश्लेष्मणोर्यो यदा भवत्युत्कटः- प्रचुरो धातुः कुपित इति स प्रोच्यते उत्कटत्वेन प्राधान्यात्, 'न य इतरे तत्थ दो नस्थिति न चेतरौ तत्र द्वौ न स्त इति गाथार्थः ॥ १४६८ ॥ 'एमेव य जोगाणं' एवमेव च योगानां मनोवाक्कायानां त्रयाणामपि यो यदा उत्कटो योगस्तस्य योगस्य तदा तस्मिन् काले निर्देशः, 'इयरे तत्थेक दो व णवा' इतरस्तत्रैको भवति द्वौ वा भवतः, न वा भवत्येव, इयमत्र भावना केवलिनः वाचि उत्कटायां कायोऽप्यस्ति अस्मदादीनां तु मनः कायो न वेति, केवलिनः शैलेश्यवस्थायां काययोगनिरोधकाले स एव केवल इति, अनेन च शुभयोगोत्कटत्वं तथा निरोधश्च द्वयमिति (मपि) ध्यानमित्यावेदित [व्य]मिति गाथार्थः ।। १४६९ ॥ इत्थं य उत्कटो योगः तस्यैवेतर सद्भावेऽपि प्राधान्यात् सामान्येन ध्यान [त्व]मभिधायाधुना विशेषेण त्रिप्रकारमध्युपदर्शयन्नाह - 'काएवि य' कायेऽपि च अध्यात्मं अघि आत्मनि वर्त्तत इति अध्यात्मं ध्यानमित्यर्थः, एकाग्रतया एजनादिनिरोधात्, 'वायाए 'ति तथा वाचि अध्यात्मं एकाग्रतयैवायतभाषानिरोधात्, 'मणस्स चैव जह होइ' त्ति मनसश्चैव यथा भवत्यध्यात्मं एवं कायेऽपि वाचि चेत्यर्थः एवं भेदनाभिधायाधुनैकादावपि दर्शयन्नाह - काय वामनोयुक्तं त्रिविधं अध्यात्ममाख्यातवन्त Education For Paint Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1550 ~ कायोत्सर्ग निक्षेपः १७७४॥ ibrary.org Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [७], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत - C दीप अनुक्रम है स्तीर्थकरा गणधराश्च, वक्ष्यते च-भंगिअसुतं गुणतो वहृति तिबिहेवि झाणमित्ति गाथार्थः॥ १४७० ॥ पराभ्युपगतध्या नसाम्यप्रदर्शनेनानभ्युपगतयोरपि ध्यानतां प्रदर्शयन्नाह-'जइ एगग्गं' गाहा, हे आयुष्मन् ! यदप्येकाग्रं चित्तं क्वचिद् वस्तुनि धारयतो वा स्थिरतया देहव्यापिविषवत् डंक इति 'निरंभओ वावित्ति निरुन्धानस्य वा तदपि योगनिरोध इव केवलिनः किमित्याह-ध्यानं भवति मानसं यथा ननु तथा इतरयोरपि योर्वाहकाययोः, एवमेव-एकामधारणादिनैव प्रकारेण तल्लक्षणयोगाद् ध्यानं भवतीति गाथार्थः ॥ १४७१ ॥ इत्थं त्रिविधे ध्याने सति यस्य यदोत्कटत्वं तस्य तदेतरसद्भावेऽपि प्राधान्याद् व्यपदेश इति, लोकलोकोत्तरानुगतश्चार्य न्यायो वत्तेते, तथा चाह-'देसिय' गाहा, देशयतीति देशिका-अग्रयायी देशिकेन दर्शितो मार्गः-पन्था यस्य स तथोच्यते प्रजन्-गच्छन् नरपती-राजा लभते शब्द-ग्रामोति शब्द, किंभूतमित्याह-रायत्ति एस वञ्चति' राजा एष व्रजतीति, न चासी केवलः, प्रभूतलोकानुगतत्वात्, न च तदन्यव्यपदेशः, तेपामप्राधान्यात, तथा चाह- सेसा अणुगामिणो तस्स'त्ति शेषाः-अमात्यादयः अनुगामिनःअनुयातारस्तस्य-राज्ञ इत्यतःप्राधान्याद्राजेतिव्यपदेश इति गाथार्थः॥१४७२।। अयं लोकानुगतो न्यायः, अयं पुनर्लोकोत्तरानुगतः-'पढमिल्लु'प्रथम एव प्रथमिछुकः,प्राथम्यं चास्य सम्यग्दर्शनाख्यप्रथमगुणघातित्वात् तस्य प्रथमिल्लुकस्य उदये, कस्या, क्रोधस्य अनन्तानुवन्धिन इत्यर्थः 'इतरेवि तिणि तत्थत्थि' शेषा अपि त्रयः-अप्रत्याख्यानमत्याख्यानावरणसञ्चलनादय-1 स्तत्र-जीवद्रव्ये सन्ति, न चातीताद्यपेक्षया तत्सद्भावः प्रतिपाद्यते, यत आह-नय तेण संति तहियं न च ते-अप-IN त्याख्यानप्रत्याख्यानावरणादयो न सन्ति, किंतु सन्त्येव, न च प्राधान्यं तेषामतो न व्यपदेशः, आद्यस्यैव व्यपदेश,-151 [३६..] ARRC andiDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15514 Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत आवश्यक-ट्रातहेयंपि' तथा एतदपि अधिकृतं वेदितव्यमिति गाथार्थः ॥ १४७३ ॥ अधुना स्वरूपतः कायिक मानसं च ध्यानमावेदय- ५ कायोत्स नाह-'मा मे एजउ काउत्ति एजतु-कम्पता कायो' देह इति, एवं अचलत एकाग्रतया स्थितस्येति भावना, किं, कायेन गाभ्यः द्रीया। निवृत्तं कायिक भवति ध्यान, एवमेव मानसं निरुद्धमनसो भवति ध्यानमिति गाथार्थः॥ १४७४ ॥ इत्थं प्रतिपादिते ध्या ध्यं योगवत् ॥७७५॥ सत्याह चोदकः-जह कायमणनिरोहे' ननु यथा कायमनसोनिरोघे ध्यानं प्रतिपादितं भवता 'वायाइ जुज्जइन एवं'ति वाचि युज्यते नैवेति, कदाचिदप्रवृत्त्यैव निरोधाभावात् , तथाहि-न कायमनसी यथा सदा प्रवृत्ते तथा वागिति 'तम्हा वती उ झाणं न होई तस्माद् वागू ध्यानं न भवत्येव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् व्यवहितप्रयोगाच, 'को वा विसेसोऽस्थति को वा विशेषोऽत्र ? येनेत्थमपि व्यवस्थिते सति वाग ध्यानं भवतीति गाथार्थः ॥ १४७५ ॥ इत्थं चोदकेनोक्त सत्याह गुरुः-६ 'मा मे चलउ'त्ति मा मे चलतु-कम्पतामितिशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगः तं च दर्शयिष्यामः, तनु:-शरीरमिति एवं चलन| क्रियानिरोधेन यथा तदू ध्यान कायिक 'निरेइणो' निरेजिनो-निष्पकम्पस्य भवति 'अजताभासविवजिस्स वाइयं झाणमेवं तु' अयताभाषाविवर्जिनो-दुष्टवाक्परिह रित्यर्थः, वाचिक ध्यानमेव यथा कायिक, तुशब्दोऽवधारणार्थ इति गाथार्थः४ ॥ १४७६ ॥ साम्प्रतं स्वरूपत एवं वाचिकध्यानमुपदर्शयन्नाह एवंविहा गिरा' एवंविधेति निरवद्या गी:-वागुच्यते । 'मे'त्ति मया वक्तच्या 'एरिस'त्ति ईटशी सावद्या न वक्तव्या, एवमेकाग्रतया विचारितवाक्यस्य सतो भाषमाणस्य वाचिका ध्यानमिति गाथार्थः ॥ १४७७॥ एवं तावद् व्यवहारतो भेदेन त्रिविधमपि ध्यानमावेदितं, अधुनकदैव एकत्रैव त्रिवि-18 धमपि दश्यते-'मणसा वावारंतो' मनसा-अन्तःकरणेनोपयुक्तः सन् व्यापारयन् कार्य-देहं वाचं-भारती च 'तप्परी दीप अनुक्रम CR594- 5 [३६..] INDrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1552~ Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [७], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४७८] भाष्यं [२३१...], (४०) ANCE प्रत दीप अनुक्रम णामो' तत्परिणामो विवक्षितश्रुतपरीणामः, अथवा तत्परिणामो-योगत्रयपरिणामः स तथाविधः शान्तो योगत्रयपरिणामो! यस्यासी तत्परिणामः, भङ्गिकश्रुतं-दृष्टिवादान्तर्गतमन्यद् वा तथाविधं 'गुणंतो'त्ति गुणयन् वर्तते त्रिविधेऽपि ध्याने मनोवाक्कायव्यापारलक्षणे इति गाथार्थः ॥१४७८ ॥ अवसितमानुषङ्गिक, साम्प्रतं भेदपरिमाणं प्रतिपादयताऽध 3 उत्सृतोच्छ्रितादिभेदो यो नवधा कायोत्सर्ग उपन्यस्तः स यथायोगं व्याख्यायत इति, तत्रधम्म सुफ च दुवे झायइ झाणा: जो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो उसिउसिओ होइ नायब्बो ॥१४७९॥ धम्म सुकं च दुवे नवि झायइ नविय अहरुद्दाई । एसो काउस्सग्गो दवुसिओ होइ नायब्वो ॥१४८०॥ पयलायंत सुसुत्तो नेव सुहं झाइ झाणमसुहं वा । अव्वावारियचित्तो जागरमाणोवि एमेव ॥ १४८१॥ अचिरोववन्नगाणं मुच्छियअव्वत्तमत्तसुत्साणं । ओहाडियमव्वत्तं च होइ पाएण चित्तंति ॥ १४८२॥ गाढालवणलग्गं चित्तं वुत्तं निरयणं झाणं । सेसं न होइ झाणं मउअमवत्तं भमतं वा ॥१४८३ ॥ |उम्हासेसोवि सिही होउं लद्धिंधणो पुणो जलइ । इय अवत्तं चित्तं होउं वत्तं पुणो होइ ॥ १४८४ ॥ पुव्वं च जं तदुत्तं चित्तस्सेगग्गया हवह झाणं । आवन्नमणेगग्गं चित्तं चिय तं न तं झाणं ॥ १४८५॥ आ० मणसहिएण उ कारण कुणइ वायाइ भासई जं च। एयं च भावकरणं मणरहियं दव्वकरणं च ॥१४८६॥ चो. जइते चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावन्नं । तेन र चित्तं झाणं अह नेवं झाणमन्नं ते ॥१४८७॥ आ०नियमा चितं झाणं झाणं चित्तं न यावि भइयव्वं ।जह खइरो होइ दुमो दुमो पखइरो अखयरो वा ॥१४८८ 545-4560459456--%* [३६..] JanEaintinen REparorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15534 Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७७६। Jus Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा - ], निर्युक्तिः [ १४८९] भाष्यं [२३१...], अहं रुदं च दुवे शायर झाणाई जो ठिओ संतो । एसो काउस्सग्गो दब्बुसिओ भावज निसन्नो ॥ १४८९ ॥ धम्मं सुकं च दुबे झाप झाणाई जो निसन्नो अ । एसो काउस्सग्गो निससिओ होइ नायव्वो ।। १४९० ॥ धम्मं सुकं च दुवे नवि झाय नवि य अहरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो निसण्णओ होइ नायव्वो । १४९१ ।। अहं रुदं च दुबे झायह झाणाएँ जो निसन्नो य । एसो काउस्सग्गो निसन्नगनिसन्नओ नामं ।। १४९२ ।। धम्मं सुकं च दुवे शायद झाणाइँ जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवनुसिओ होइ णायन्चो ।। १४९३ ।। ४ धम्मं सुकं च दुबे नवि झाय नवि य अहरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो निवण्णओ होइ नायव्वो ।। १४९४ ।। अहं रुदं च दुबे झायह झाणाइँ जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवन्नगनिवन्नओ नाम ।। १४९५ ॥ अतरंतो उ निसन्नो करिन तहवि यासह निवन्नो । संबाहुवस्सए वा कारणियसगवि य निसन्नो ।। १४९६ ।। उ धर्मे च शुकं च प्राकूप्रतिपादितस्वरूपे ते एव द्वे ध्यायति ध्याने यः कश्चित् स्थितः सन् एष कायोत्सर्ग उत्सृतोत्सृतो भवति ज्ञातव्यः यस्मादिह शरीरमुत्सृतं भावोऽपि धर्मशुक्लध्यायित्वादुत्सृत एवेति गाथार्थः ॥ गतः खल्वेको भेदोऽधुना द्वितीयः प्रतिपाद्यते- 'धम्मं सुकं' धर्म शुक्लं च द्वे नापि ध्यायति नापि आर्त्तरौद्रे एष कायोत्सर्गो द्रव्योत्सृतो भवतीति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ १४७९-१४८० ॥ आह- कस्यां पुनरवस्थायां न शुभं ध्यानं ध्यायति नाप्यशुभमिति १, अत्रोच्यते- 'पयलायंत' प्रचलायमान ईषत् स्वपन्नित्यर्थः, 'सुसुत्त'त्ति सुष्ठु सुप्तः स खलु नैव शुभं ध्यायति ध्यानं धर्मशुद्धलक्षणं अशुभं वा आर्चरीद्वलक्षणं न व्यापारितं क्वचिद् वस्तुनि चित्तं येन सोऽव्यापारितचित्तः जाग्रदपि एवमेव-नैव For Fans Only कायोत्स गध्य०त्सृतादि काः कायोत्सर्गभेदाः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1554 ~ ॥७७६ ॥ ebay.org Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] Educati आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [गाथा - ], निर्युक्ति: [ १४९६] भाष्यं [२३१...], शुभं ध्यायति ध्यानं नाशुभमिति गाथार्थः ॥ १४८१ ॥ किंच- 'अचिरोववन्नगाणं' 'न चिरोपपन्नका अचिरोपपन्नकाः तेषामचिरोपपन्न कानामचिरजातानामित्यर्थः, मूच्छिताच्य क्तमत्तसुतानां मूर्च्छितानामभिघातादिना अव्यक्तानाम् - अव्यक्तचेतसां मत्तानां मदिरादिना सुप्तानां निद्रया, इहाव्यक्तानामिति यदुक्तं तत्राव्यक्तचेतसः अव्यक्ताः, तत् पुनरव्यक्तं कीदृगित्याह- 'ओहाडियमवत्तं च होइ पाएण चित्तं तु' 'ओहाडिय'न्ति स्थगितं विषादिना तिरस्कृतस्वभावं अव्यक्तं च-अव्यक्तमेव चशब्दोऽवधारणे भवति प्रायश्चित्तमपि, प्रायोग्रहणादन्यथाऽपि सम्भवमाहेति गाथार्थः ॥ १४८२ ॥ स्यादेतत्-एवंभूतस्यापि चेतसो ध्यानताऽस्तु को विरोध इति ?, अत्रोच्यते, नैतदेवं यस्मात् - आलम्बने लग्नं २ गाढमालम्बने लग्नं २ एकालम्बने स्थिरतया व्यवस्थितमित्यर्थः, चित्तं - अन्तःकरणं उक्तं भणितं निरेजनं- निष्प्रकम्पं ध्यानं, यतश्चैवमतः शेषं यदस्मादन्यत् तन्न भवति ध्यानं, किंभूतं ? -'मदुयमवत्तं भमन्तं वा मृदु-भावनायामकठोरं अव्यक्तं पूर्वोक्तं खमन्या- अनवस्थितं वेति गाथार्थः । १४८३ ॥ आह-यदि मृद्वादि चित्तं ध्यानं न भवति वस्तुतः अव्यक्तत्वात् तत् कथमस्य पश्चादपि व्यक्ततेति ?, अत्रोच्यते — 'उम्हासेसोवि' उष्मावशेषो मनागपि उष्णमात्र इत्यर्थः शिखी - अग्निर्भूत्वा लब्धेन्धनः- प्राप्तकाष्ठादिः सन् पुनर्ज्वलति 'इय' एवं अव्यक्तं चित्तं मदिरादिसम्पर्कादिना भूत्वा व्यक्तं पुनर्भवत्यग्निवदिति गाथार्थः ॥ १४८४ ॥ इत्थं प्रासङ्गिकं कियदप्युक्तं, अधुना प्रक्रान्तवस्तुशुद्धिः क्रियते, किंच प्रक्रान्ती, कायिकादि त्रिविधं ध्यानं, यत उक्तं- 'भंगियसुयं गुणतो वहइ तिविहेऽवि सामि' इत्यादि, एवं च व्यवस्थिते 'अन्तोमुहुत्तकालं चित्तस्संगगया भवति झाणं यदुक्तमस्माद् विनेयस्य विरोधशङ्कया सम्मोहः स्यादतस्तदपनोदाय शङ्कामाह - 'पुवं च जं तदुतं ननु For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1555~ brary.org Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं I [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत दीप अनुक्रम आवश्यक-त्रिविधे ध्याने सति पूर्व यदुक्तं चित्तस्यैकाग्रता भवति ध्यानं 'अन्तोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया भवति झाणं ति वचनात् ५कायोत्सहारिभ-16 चशब्दाद्यच्च तदूर्वमुक्तं-'भंगियसुयं गुणंतो वट्टइ तिविहेवि झाणमि तदेतत् परस्परविरुद्धं कथयतस्त्रिबिधे ध्याने सति गोध्य० उद्रीया आपन्नमनेकविषयं ध्यानमिति, तथा च मनसा किश्चिद्ध्यायति वाचाऽभिधत्ते कायेन क्रियां करोतीति अनेकाग्रता | त्सृतादि 18काः कायो॥७७७॥ आचार्य इदमनात्य सामान्येनैकाग्रं चित्तं हृदि कृत्वा काकाऽऽह-चित्तं चिय तं न तं झाणं यदनेका तच्चित्तमेव न निसर्गभेदाः ध्यानमिति गाथार्थः ॥१४८५ ॥ आह-उक्तन्यायादनेकामं त्रिविधं ध्यानं तस्य तर्हि ध्यानत्यानुपपत्तिः, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि-आ०-'मणसहिएण' मनःसहितेनैव कायेन करोति, यदिति सम्बध्यते, उपयुक्तको यत् करोतीत्यर्थः वाचा भाषते यच मनःसहितया, तदेव भावकरणं वत्तेते, भावकरणं च ध्यानं, मनोरहितं तु द्रव्यकरणं भवति, ततश्चैतदुक्तं भवति--इहानेकाग्रतैव नास्ति सर्वेषामेव मनःप्रभृतीनामेकविषयत्वात्, तथाहि-स यत् मनसा ध्यायति तदेव वाचाऽभिधत्ते तत्रैव च कायक्रियेति गाथार्थः ॥१४८६॥ इत्थं प्रतिपादिते सत्यपरस्वाह-जह ते चित्तं झाणं'यदि ते-तव चित्तं ध्यानं 'अन्तोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झार्ण ति वचनात् , एवं ध्यानमपि चित्तमापन्नं, ततश्च कायिकवाचिकध्यानासम्भव इत्यभिप्रायः, तेन किल चित्तमेव ध्यानं नान्यदिति हृदयं, अथ नैवमिष्यते-मा भूत, कायिकवाधिके ध्यानेन भविष्यत इति, इत्थं तर्हि ध्यानमन्यत्ते-तव चित्तादिति गम्यते, यस्मान्नावश्यं ध्यानं चित्तमिति गाथार्थः॥१४८७॥अत्र चाचार्य/७७७॥ आह-अभ्युपगमाददोषः, तथाहि-नियमा चित्तं झाणं' नियमात्-नियमेन उक्तलक्षणं चित्तं ध्यानमेव, 'झाणं चित्तं न यावि भइयवं' ध्यानं तु चित्तं न चाप्येवं भक्तव्यं-विकल्पनीयं, अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह-'जह खइरो होइ दुमो दुमो य खइरो [३६..] 18Tarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15564 Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [३६.. ] Educator आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / [ गाथा -], निर्युक्ति: [ १४९६] भाष्यं [२३१...], अखइरो वा' यथा खदिरो भवति द्रुम एव द्रुमस्तु खदिरः अखदिरो वाधवादित्ययं गाथार्थः ॥ १४८८ ॥ अन्ये पुनरिदं गाथाद्वयमतिक्रान्तगाथावयवाक्षेपद्वारेणान्यथा व्याचक्षते, यदुक्तं 'चित्तं चिय तं न तं झाणंती' त्येतदसत् कथं ?, यदि ते 'चित्तं झाणं एवं झाणमवि चित्तमावनं सामान्येन 'तेन र चित्तं झाणं' किमुच्यते 'चित्तं चित्तं न झाणं ति 'अह नेयं झाणमन्नं ते' चित्तात्, अत्र पाठान्तरेणोत्तरगाथा 'नियमा चित्तं झाणं झाणं चित्तं न यावि भइयवं' यतोऽव्यक्तादिचित्तं न ध्यानमिति, 'जह खदिरो' इत्यादि निदर्शनं पूर्व, अलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, प्रकृतश्च द्वितीयः उच्छ्रिताभिधानः कायोत्सर्गभेद इति, स च व्याख्यात एव, नवरं तत्र ध्यानचतुष्टयाध्यायी लेश्यापरिगतो वेदितव्य इति, अथेदानीं तृतीयः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते - निगदसिद्धैव, अधुना चतुर्थः कायोत्सर्गभेदः प्रदर्श्यते तत्रेयं गाथा - निगदसिद्धैव, नवरं कारणिक एव ग्लानस्थविरादिर्निषण्णकारी वेदितव्यः, वक्ष्यते च - 'अतरंतो उ' इत्यादि, अधुना पश्चमः कायोत्सगंभेदः प्रदर्श्यते, तत्रेयं गाथा - निगदसिद्धा, नवरं प्रकरणान्निषण्णः स धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यम्, अधुना षष्ठः कायोत्सर्गभेदः प्रदर्श्यते, तत्रेयं गाथा - निगदसिद्धा, अधुना सप्तमः कायोत्सर्गभेदः प्रतिपाद्यते, इह च-निगदसिद्धा, नवरं कारणिक एव ग्लानस्थविरादियों निषण्णोऽपि कर्त्तुमसमर्थः स निष(व)ष्णकारी गृह्यते, साम्प्रतमष्टमः कायोत्सर्गभेदः प्रदर्श्यते, निगदसिद्धा, इहापि च प्रकरणान्निष (व)ण्णः, स च धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यम्, अधुना नवमः कायोत्सर्गभेदः प्रदर्श्यते, इह च ' अहं रुदं च दुवै' गाहा निगदसिद्धा । 'अतरतो' गाहा निगदसिद्धैव, नवरं 'कारणियसहूविय निसण्णोति यो हि गुरुवैयावृत्यादिना व्यापृतः कारणिकः स समर्थोऽपि निषण्णः करोतीति ॥१४९५-१४९६ ॥ इत्थं तावत् कायोत्सर्ग उक्तः, For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1557 ~ bay.org Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक व्याख्या [सू.] दीप अनुक्रम [३७] आवश्यक- अन्नान्तरे अध्ययनशब्दार्थो निरूपणीयः, सचान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेहाधिकृतः, गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं कायोत्सहारिभ सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादिप्रपश्चो वक्तव्यः यावत् तच्चेदं | ध्य० इद्रीया सूत्र-करेमि भंते ! सामाइयमित्यादि यावत् अप्पाणं वोसिरामि' अस्य संहितादिलक्षणा व्याख्या यथा सामायिकाध्ययने च्छामिठाइ ७७८॥ तथा मन्तब्या पुनरभिधाने च प्रयोजनं वक्ष्यामः, इदमपरं सूत्रbइच्छामि ठाइर्ड काउस्सग्गं जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्मुत्तो| उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुन्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छिअव्वो असमणपाउग्गो नाणे दसणे चरिते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महब्वयाणं छहं जीवनिकायाणं सत्तण्ह पिंडेसणाणं अहं पवयणमाऊणं नवहं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडि द विराहिअं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ (सूत्रम् ) IPI अस्य व्याख्या-तलक्षणं चेदं-संहितेत्यादि, तत्र इच्छामि स्थातुं कायोत्सर्ग यो मे दैवसिकोऽतिचारः कृत इत्यादि संहिता, पदानि तु इच्छामि स्थातुं कायोत्सर्ग मया दैवसिकोऽतिचारः कृत इत्यादीनि, पदार्थस्तु 'इषु इच्छाया मित्यस्योत्तमपुरुषस्यैकवचनान्तस्य 'इपुगमिष्यमा छ' इति (पा०७-३-७७) छत्वे इच्छामि भवति, इच्छामि-अभिलपामि स्थातुमिति ॥७७८॥ ठा गतिनिवृत्ती' इत्यस्य तुम्प्रत्ययान्तस्य स्थातुमिति भवति, कायोत्सर्गमिति 'चि चयने अस्य घअन्तस्य 'निवासस-1 मिति(चिति)शरीरोपसमाधानेष्वादेश्च क इति (पा० ३-३-४१) चीयते इति कायः देह इत्यर्थः 'सृज विसर्गे' इत्यस्य उत्पूर्वस्य RECS Dharam IA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कायोत्सर्गस्थापना सूत्र-अर्थ, व्याख्यादि ~1558~ Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९६...] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] 56-56-CEOCTO SAC पनि उत्सर्ग इति भवति, शेषपदार्थों यथा प्रतिकमणे तथैव, पदविग्रहस्तु यानि समासभाजि पदानि तेषामेव भवति || नान्येषामिति, तत्र इच्छामि स्थातुं, कं?-कायोत्सर्ग-कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः तमिति, शेषपदविग्रहो यथा प्रति क्रमणे, एवं चालना प्रत्यवस्थानं च यथासम्भवमुपरिष्टाद् वक्ष्यामः । तथेदमन्यत्तु सूत्रbतस्मुत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणढाए ठामि काउस्सग्गं अन्नत्य ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उडुएणं वायनिसग्गेणं भमलिए |पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुहुमेहिं खेलसंचालहि मुहुमेहिं दिहिसंचालहिं एवमाइपहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताच कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं चोसिरामि ॥ (सूत्रम्)॥ ___ अस्य व्याख्या-'तस्योत्तरीकरणेन तस्येति तस्य-अनन्तरं प्रस्तुतस्य श्रामण्ययोगसङ्घातस्य कथञ्चित् प्रमादात् खण्डि-13 तस्य विराधितस्य बोत्तरीकरणेन हेतुभूतेन 'ठामि काउस्तग्ग मिति योगः, तत्रोत्तरकरणं पुनः संस्कारद्वारेणोपरिकरण-| है। मुच्यते, उत्तरं च तत् करणं च इत्युत्तरकरणं अनुत्तरमुत्तरं क्रियत इत्युत्तरीकरणं, कृतिः-करणमिति, तच्च प्रायश्चित्तद्वारेण | | भवति अत आह-पायच्छित्तकरणेणं' प्रायश्चित्तशब्दार्थ वक्ष्यामः तस्य करणं प्रायश्चित्तकरणं तेन, अथवा सामायिकादीनि प्रतिक्रमणावसानानि विशुद्धौ कर्तव्यायां मूलकरणं, इदं पुनरुत्तरकरणमतस्तेनोत्तरकरणेन-प्रायश्चित्तकरणेनेति, क्रिया पूर्ववत्, पायश्चित्तकरणं च विशुद्धिद्वारेण भवत्यत आह-'विसोहीकरणेणं'विशोधनं विशुद्धिः अपराधमलिनस्यात्मनःप्रक्षालन दीप अनुक्रम [३८] %AC-RRAN JAMERatinE N arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | तस्य 'उत्तरीकरण' आदि तथा 'अन्नत्थ' मूलसूत्र एवं तयोः व्याख्या ~1559~ Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९६...] भाष्यं [२३१...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया न्यत्रोच्छु प्रत सूत्रांक ॥७७९|| [सू.] मित्यर्थः तस्याः करणं तेन हेतुभूतेन, विशुद्धिकरणं च विशल्यकरणद्वारेण भवत्यत आह-'विसल्लीकरणेणं' विगतानिकायोत्सशल्यानि-मायादीनि यस्यासी विशल्यस्तस्य करणं विशल्यकरणं तेन हेतुभूतेन, 'पावाणं कम्माणं णिग्घायणवाए ठामि गोध्य० अकाउस्सग्गं' पापानां संसारनिबन्धनानां कर्मणां-ज्ञानावरणीयादीनां निर्घातार्थ-निर्घातननिमित्तं ब्यापत्तिनिमित्तमित्यर्थः, नामतामल किं ?-तिष्ठामि कायोत्सर्ग' कायस्योत्सर्ग:-कायपरित्याग इत्यर्थः तं, एतदुक्तं भवति-अनेकार्थत्वाद् धातूनां तिष्ठामीति सित. करोमि कायोत्सर्ग, व्यापारवतः कायस्य परित्यागमिति भावना, किं सर्वथा नेत्याह-'अन्नत्थूससिएणं'ति अन्यत्रोच्छ|सितेन, उच्छुसितं मुक्ता योऽन्यो व्यापारस्तेन ब्यापारवत इत्यर्थः, एवं सर्वत्र भावनीयं, तत्रोष प्रबलं वाश्वसितमुच्छृसितं तेन,'नीससिएण'ति अधःश्वसितं निःश्वसितं तेन निःश्वसितेन, 'खासिएण'ति कासितं प्रतीतं, 'छीएणं'ति क्षुतं प्रतीतमेव तेनैतदपि, 'जभाइएणति जृम्भितेन, विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमो जृम्भितमुच्यते, उद्दएण'ति उद्गारितं प्रतीतं, वायनिसग्गेणति अपानेन पवननिर्गमो वातनिसर्गो भण्यते तेन, भमलीए'त्तिभ्रमल्या,इयमाकस्मिकी शरीरभ्रमिलक्षणा प्रतीतैव पित्तसंमूर्छया' पित्तमूर्च्छयाऽपि, पित्तप्राबल्यात् मनाग मूर्छा भवति, 'सुहुमेहिं अंगसंचालेहि सूक्ष्मैरङ्गसञ्चारैर्लक्ष्यालक्ष्यैात्रविचलनप्रकारै रोमोद्गमादिभिः, 'सुहुमेहिं खेलसंचालेहि सूक्ष्मः खेलसञ्चारैर्यस्मात् सयोगिवीर्यसद्व्यतया ते खस्यन्तर्भवन्ति 'सुहुमेहिं दिहिसंचालेहि' सूक्ष्मदृष्टिसञ्चारैः-निमेषादिभिः, 'एषमाइपहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ होज मे काउस्सग्गों ७७९॥ एवमादिभिरित्यादिशब्दं वक्ष्यामः, आक्रियन्त इत्याकारा आगृह्यन्त इति भावना, सर्वथा कायोत्सर्गापवादप्रकारा इत्यर्थः, तैराकारैर्विद्यमानैरपि न भग्नोऽभग्नः, भग्नः सर्वथा नाशितः, न विराधितोऽविराधितो, बिराधितो देशभग्नोऽभिधीयते, भवेत्। दीप अनुक्रम [३९]] 0-940-54295 9 JAMERatop Janmiarary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1560~ Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९६...] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] मम कायोत्सर्गः, कियन्तं कालं यावदित्याह-जाव अरहताणं भगवंताणं नमोकारेणं न पारेमि' यावदर्हतां भगवतो नमस्कारेण न पारयामि, यावदिति कालावधारण, अशोकाधष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेषामहेता भगः-ऐश्वर्यादिलक्षणः स विद्यते येषां ते भगवन्तस्तेषां भगवतां सम्बन्धिना नमस्कारेण 'नमो अरहताण'इत्यनेन न पारयामि-न| पारं गच्छामि, तावत् किमित्याह-'ताव कार्य ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अपाणं वोसिरामि'त्ति तावच्छब्देन कालनिर्देश-18 माह, कार्य-देहं स्थानेन-उर्ध्वस्थानेन तथा मौनेन-वागनिरोधलक्षणेन, तथा ध्यानेन शुभेन, 'अप्पाण'ति प्राकृतशैल्या आत्मीयं, अन्ये न पठन्त्येवनमालापक, व्युत्सृजामि-परित्यजामि, इयमत्र भावना-कार्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासद्वारेण ब्युत्सृजामि, नमस्कारपाठं यावत् प्रलम्बभुजो निरुद्धवाक्प्रसरः प्रशस्तध्यानानुगतस्तिष्ठामीति, तथाच कायोत्सर्गपरिसमाप्ती नमस्कारमपठतस्तद्भङ्ग एव द्रष्टव्य इत्येष तावत् समासार्थः, अवयवार्थं तु भाष्यकारो वक्ष्यति, तत्रेच्छामि स्थातुं कायोत्सर्गमित्याचं सूत्रावयवमधिकृत्याह-कायोत्सर्गस्थानं न कार्य, प्रयोजनरहितत्वात् , | तथाविधपर्यटनवदिति, अत्रीच्यते, प्रयोजनरहितत्वमसिद्धं, यतःकाउस्सग्गमि ठिओ निरेयकाओ निरुद्धवइपसरो । जाणइ सुहमेगमणो मुणि देवसियाइअइयारं॥१॥ (प्रकार परिजाणिऊणय जओ संमं गुरुजणपगासणेणं तु। सोहेइ अप्पगं सो,जम्हा य जिणेहिं सो भणिओ॥२॥(प्र०) काउस्सर्ग मुक्खपहदेसियं जाणिऊण तो धीरा । दिवसाइयारजाणणट्ठयाइ ठायंति उस्सगं ॥ १४९७ ।।।। व्याख्या-दह च सम्बद्धगाथाद्वयमन्यकर्तृकं तथापि सोपयोगमितिकृत्या व्याख्यायते, कायोत्सर्गे उक्तस्वरूपे स्थितः | दीप अनुक्रम [३९] Sainrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1561 Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१४९७] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रक्षेप [१-२] द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- सन् निरेजकायो-निष्पकम्पदेह इति भावना, निरुद्धवाक्पसरः-मौनव्यवस्थितः सन् जानीते सुखमेकमना-एकाग्रचित्त, ४५कायोत्सहारिभ- हसन कोऽसौ ?-मुनिः-साधुः, किं ?-दैवसिकातिचारं आदिशब्दादात्रिकग्रह इति गाथार्थः । ततः किमित्याह-यस्मात् गांध्य कारणात् सम्यग-अशठभावेन गुरुजनप्रकाशनेन-गुरुजननिवेदनेनेति हृदयं, तुशब्दात् तदादिअष्टप्रायश्चित्तकरणेन चः। कायोत्सर्ग प्रयोजनं शोधयत्यात्मानमसी, अतिचारमलिनं क्षालयतीत्यर्थः, तच्चातिचारपरिज्ञानमविकलं कायोत्सर्गव्यवस्थितस्य भवत्यतः कायो-131 ॥७८०॥ दिसर्गस्थानं कार्यमिति, किंच-यस्माजिनभगवद्भिरय कायोत्सर्गो भणित-उक्तः, तस्मात् कायोत्सर्गस्थानं कार्यमिति गाथार्थः ॥१-२॥ यतश्चैवमतः 'काउस्सर्ग मुक्खपहदेसिय'ति मोक्षपन्थास्तीर्थकर एष भण्यते तत्प्रदर्शकत्वात्। कारणे कार्योपचारात् , तेन मोक्षपथेन देशितः-उपदिष्टः मोक्षपथदेशितस्तं, 'जाणिऊण ति दिवसाद्यतिचारपरिज्ञानो-| पायतया विज्ञाय ततो धीराः-साधवः, दिवसातिचारज्ञानार्थमित्युपलक्षणं रायतिचारज्ञानार्थमपि, 'ठायति उस्सग्गं'ति तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमित्यर्थः, ततश्च कायोत्सर्गस्थानं कार्यमेव, सप्रयोजनत्वात् , तथाविधवैयावृत्यवदिति गाथार्थः ॥१४९७॥ साम्प्रतं यदुक्तं 'दिवसातिचारज्ञानार्थ मिति, तत्रौघतो विषयद्वारेण तमतिचारमुपदर्शयन्नाह सयणासणण्णपाणे चेइय जइ सेन्ज काय उच्चारे । समितीभावणगुत्ती वितहायरणमि अइयारो॥१४९८ ॥ व्याख्या-शयनीयवितथाचरणे सत्यतिचारः, एतदुक्तं भवति-संस्तारकादेरविधिना ग्रहणादौ अतिचार इति, आसण'त्ति साता ॥७८०॥ आसनवितथाचरणे सत्यतिचारः पीठकादेरविधिना ग्रहणादतिचार इति भावना, 'अण्णपाण'त्ति अन्नपानवितथाचरणे सत्यतिचारः अन्नपानस्याविधिना ग्रहणादावतिचार इत्यर्थः, 'चेतियत्ति चैत्यवितथाचरणे सत्यतिचारः, चैत्यविषयं दीप अनुक्रम [३९] JABER Al- ionary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | शयन, आसन आदीनाम् अतिचाराणां वर्णनं ~ 1562 ~ Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४९८] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक SANSAR 5A4 [सू.] वितथाचरणमविधिना वन्दन अकरणे चेत्यादि, जइत्ति यतिवितथाचरणे सत्यतिचारः, यतिविषयं च वितथाचरणं यथाहै | विनयाद्यकरणमिति, 'सेज'त्ति शय्यावितथाचरणे सत्यतिचारः, शय्या वसतिरुच्यते, तद्विपयं वितधाचरणमविधिना ४ प्रमार्जनादौ ख्यादिसंसक्तायां वा बसत इत्यादि, 'काय' इति कायिकवितथाचरणे सत्यतिचारः, वितथाचरणं चास्थण्डिले कायिक व्युत्सृजतः स्थण्डिले वाऽप्रत्युपेक्षितादावित्यादि, 'उच्चारे'त्ति उच्चारवितधाचरणे सत्यतिचारः उच्चारः-पुरीषं | भण्यते वितथाचरणं चैतविषयं यथा कायिकायां, 'समिति'त्ति समितिवितथाचरणे सत्यतिचारः, समितयश्चर्यासमिति-18 प्रमुखाः पञ्च यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणं चासामविधिनाऽऽसेवनेऽनासेवने चेत्यादि, 'भावनेति भावनावितथाचरणे18 सत्यतिचारः, भावनाश्चानित्यत्वादिगोचरा द्वादश, तथा चोक्तम्-'भावयितव्यमनित्यत्वमशरणत्वं तथैकतान्यत्वे । अशुचित्वं संसारः कर्मानवसंवरविधिश्च ॥१॥ निर्जरणलोकविस्तरधर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ताश्च । बोधेः सुदुर्लभस्वं च भावना द्वादश 8 विशुद्धाः॥२॥ अथवा पञ्चविंशतिभावना यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणं चासामविधिसेवनेनेत्यादि, 'गुत्तिति गुप्तिवितधाचरणे सत्यतिचारः, तत्र मनोगुप्तिप्रमुखास्तिस्रो गुप्तयः यथा प्रतिक्रमणे, वितथाचरणमपि गुप्तिविषयं यथा समितिविति गाथार्थः॥१४९८॥ इत्थं सामान्येन विषयद्वारेणातिचारमभिधायाधुना कायोत्सर्गगतस्य मुनेः क्रियामभिधिरमुराह-14 गोसमुहणंतगाई आलोए देसिए य अइयारे । सव्वे समाणइत्ता हियए दोसे ठविजाहि ॥१४९९ ॥ दकाउं हिअए दोसे जहरूमं जा न ताव पारे । ताव सुहमाणुपाणू धर्म सुकं च शाइज्जा ॥ १५००॥ गोपः प्रत्यूषो भण्यते, 'मुहणंतर्ग' मुखवस्त्रिका आदिशब्दापछेपोपकरणग्रहः, ततश्चैतदुक्तं भवति-गोपादारभ्य मुखवखि % दीप अनुक्रम [३९] AAS मा०1३१॥ myou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1563~ Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५००] भाष्यं [२३१...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया कायोत्सगोंध्य अतिचारकायोत्स० प्रत सूत्रांक ॥७८१॥ -%5CROLX [सू.] दीप अनुक्रम [३९] कादौ विषये आलोए देसिए य अतिचारे'त्ति अवलोकयेत्-निरीक्षेत दैवसिकानतिचारान्-अविधिप्रत्युपेक्षिताप्रत्युपेक्षिता- दीनिति, ततः 'सबे समणाइत्ता' सर्वानतिचारान मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादारभ्य यावत् कायोत्सर्गावस्थानमत्रान्तरे य इति समाण इत्ता' समाप्य बुद्ध्यवलोकनेन समाप्तिं नीत्वा एतावन्त एत इति, नातः परमतिचारोऽस्ति ततो 'हृदये' चेतसि दोषान्प्रतिषिद्धकरणादिलक्षणान् आलोचनीयानित्यर्थः, स्थापयेदिति गाधार्थः ॥ १४९९ ॥ कृत्वा हृदये दोषान् यथाक्रममिति प्रतिसेवनानुलोम्येन आलोचनानुलोम्येन च, प्रतिसेवनानुलोम्यं नाम ये यथाऽऽसेविता इति, आलोचनानुलोम्यं तु पूर्व | लघव आलोच्यन्ते पश्चाद् गुरव इति, 'जा न ताव पारेति त्ति यावन्न तावत् पारयति गुरुर्नमस्कारेण, 'ताव सुहुमाणु-8 पाणु'त्ति तावदिति कालावधारणं, सूक्ष्मप्राणापानः, सूक्ष्मोच्छासनिश्वास इत्यर्थः, किं ?-'धम्म सुकं च झापज्जा' धर्मध्यानं| प्रतिक्रमणाध्ययनोक्तस्वरूपं शुक्कै ध्यानं च ध्यायेदिति गाथार्थः ॥ १५००॥ एवंदेसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे तहेव वरिसे य । इकिक्के तिन्नि गमा नायव्वा पंचसेएसु ॥१५०१॥ | व्याख्या-'देवसिय'त्ति देवसिके प्रतिक्रमणे दिवसेन निवृत्तं देवसिक, 'राइय'त्ति रात्रिके, 'पक्खिए'त्ति पाक्षिके : 'चाउम्मासे'त्ति चातुर्मासिके तथैव 'वरिसि'त्ति तथैव वार्षिके च, वर्षेण निवृत्तं वार्षिक-सांवत्सरिकमिति भावना, एकैकस्मिन् प्रतिक्रमणे देवसिकादौ त्रयो गमा ज्ञातव्याः, पञ्चस्वेतेषु दैवसिकादिषु, कथं त्रयो गमाः, सामायिकं कृत्वा कायोत्सर्गकरणं, सामायिकमेव कृत्वा प्रतिक्रमणं, सामायिकमेव कृत्वा पुनः कायोत्सर्गम् , इह च यस्माद् दिवसादि तीर्थ | दिवसप्रधानं च तस्माद् दैवसिकमादाविति गाथार्थः ॥ १५०१॥ अत्राह चोदकः CR5RECECARE ॥७८१॥ JanEaati || Anatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15644 Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५०२] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आइमकाउस्सग्गे पडिकमणे ताव काउ सामइयं । तो किं करेह बीयं तइ च पुणोऽवि उस्सग्गे? ॥ १५०२॥1 समभावमि ठियप्पा उस्सग्गं करिय तो पडिक्कमइ । एमेच य समभावे ठियस्स तइयं तु उस्सग्गे ॥१५०३ ॥ सज्झायझाणतवओसहेसु उपएसथुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणेसु अ न हुंति पुणरुत्सदोसा उ ॥ १५०४।। ____ व्याख्या-'आदिमकायोत्सर्ग इति प्रथमकायोत्सर्ग कृत्वा सामायिकमिति योगः 'पडिकमणे ताव बितियं का सामाइय'ति योगः, ता किं करेह तइयं च सामाइयं पुणोऽवि उस्सग्गो' यः प्रतिक्रान्तोपरीति गाथार्थः॥ १५०२॥ चालना चेयम्, अत्रोच्यते-'समभावंमि' गाहा व्याख्या-इह समभावस्थितस्य भावप्रतिक्रमणं भवति नान्यथा, ततश्च सम-18 भावे-रागद्वेषमध्यवर्तिनि स्थित आत्मा यस्यासौ स्थितात्मा, 'उस्सग्गं काउ (करिय) तो पडिक्कमति' दिवसातिचारपरिज्ञानाय कायोत्सर्ग कृत्वा गुरोरतिचारं निवेद्य तत्पदत्तप्रायश्चित्तं समभावपूर्वकमेव प्रपद्य ततः प्रतिकामति, 'एमेव य समभावे | | ठितस्स ततियं तु उस्सग्गे' एवमेव च समभावे व्यवस्थितस्य सतश्चारित्रशुद्धिरपि भवतीतिकृत्वा तृतीयं सामायिकं कायो-| त्सर्गे प्रतिक्रान्तोत्तरकालभाविनि क्रियत इति गाथार्थः ॥ १५०३ ॥ प्रत्यवस्थानमिदम्-'सज्झायझाण' गाहा व्याख्या निगदसिद्धा, इदानीं 'जो मे देवसिओ अइयारो कओं' इत्यादि सूत्रमधो व्याख्यातत्वादनादृत्य 'तस्स मिच्छामि दुकडंति सूत्रावयवं व्याचिख्यासुराहमित्ति मिउमद्दवत्ते छत्ति अ दोसाण छायणे होइ।मित्ति य मेराइ ठिओ दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥ १५०५ ॥ कत्ति कहं मे पावं इत्तिय डेवेमि तं उसमेणं । एसो मिच्छाउकडपयक्खरस्थो समासेणं ॥१५०६॥ दीप अनुक्रम [३९] JAMERRIMa V ibrary bu मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | 'मिच्छामिदुक्कडं' शब्दस्य नियुक्ति तथा व्याख्या ~1565~ Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५०६] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-x इत्थं(द) गाथायुगलं यथा सामायिकाध्ययने व्याख्यातं तथैव द्रष्टव्यमिति, साम्प्रतं 'तस्योत्तरीकरणेने ति सूत्रावय कायोत्सहारिभ- विवृण्वन्नाह र्गाध्य० द्रीया पाखंडियविराहियाणं मूलगुणार्ण सउत्तरगुणाणं । उत्तरकरणं कीरइजह सगडरहंगगेहाणं ॥ १५०७॥ अतिचार | कायोत्स० |पावं छिदइ जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नई तेणं । पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ।। १५०८॥ ७८२ दब्वे भावे य दुहा सोही सल्लं च इक्कमिकं तु । सव्वं पावं कर्म भामिजइ जेण संसारे ॥१५०९॥ ___ व्याख्या-'खण्डितविराधितानां' खण्डिताः-सर्वथा भग्ना विराधिता:-देशतो भग्ना मूलगुणानां-प्राणातिपातादिवि-18 हा निवृत्तिरूपाणां सह उत्तरगुणैः-पिण्डविशुध्ध्यादिभिर्वर्तत इति सोत्तरगुणास्तेषामुत्तरकरणं क्रियते, आलोचनादिना पुनः। संस्करणमित्यर्थः, दृष्टान्तमाह-यथा शकटरथाङ्गेहानां-गन्त्रीचक्रगृहाणामित्यर्थः, तथा च शकटानां खण्डितविराधितानां अक्षावलकादिनोत्तरकरणं क्रियत इति गाथार्थः ॥ १५०७ ॥ अधुना 'प्रायश्चित्तकरणेनेति सूत्रावयवं व्याचिख्यासुराह-'पावं' गाहा, व्याख्या-पापं-कर्मोच्यते तत् पापं छिनत्ति यस्मात् कारणात् प्राकृतशैल्या 'पायच्छित्तति भण्यते, तेन ॥७८२॥ कारणेन, संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पापच्छिदुच्यते, प्रायसो वा चित्तं-जीवं शोधयति-कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन कारणेन प्रायश्चित्तमुच्यते, प्रायो वा-बाहुल्येन चित्तं खेन स्वरूपेण अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तं, प्रायोग्रहणं संवरादेरपि | तथाविधचित्तसभावादिति गाथार्थः ॥१५०८॥ अधुना विशोधिकरणे त्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह-दवे भावे य दुहा सोही' गाहा-द्रव्यतो भावतश्च द्विविधा विशुद्धिः, शल्यं च, 'एकमेकं तु'त्ति एकै शुद्धिरपि द्रव्यभावभेदेन दीप अनुक्रम [३९] JAMERatnR Mhataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1566~ Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५०९] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] द्विधा, शल्यमपीत्यर्थः । तत्र द्रव्यशुद्धिः रूपादिना वस्त्रादेर्भावशुद्धिः प्रायश्चित्तादिनाऽऽत्मन एव, द्रव्यशल्यं कण्टकशिलीमुखफलादि, भावशल्यं तु मायादि, सर्व ज्ञानावरणीयादि कर्म पापं वर्तते, किमिति -भ्राम्यते येन कारणेन तेन कर्मणा जीवः संसारे-तिर्यग्नारकामरभवानुभवलक्षणे, तथा च दग्धरजुकल्पेन भवोपग्राहिणाऽल्पेनापि सता केवलिनो|ऽपि न मुक्तिमासादयन्तीति दारुणं संसारभ्रमणनिमित्तं कर्मेति गाथार्थः ॥ १५०९ ॥ साम्प्रतम् 'अन्यत्रोच्छ्रसितेने'| त्यवयवं विवृणोतिहै| उस्सासं न निरंभइ आभिग्गहिओवि किमुअचिट्ठा उसजमरणं निरोहे सुहुमुस्सासंतु जयणाए॥१५१०॥ कासखुअजंभिए माहु सत्यमणिलोऽनिलस्स तिब्बुहो। असमाहीय निरोहेमा मसगाई अतो हत्थो॥१५१२॥ 18चायनिसरगुडोए जयणासहस्स नेव य निरोहो । उड्डोए वा हत्थो भमलीमुच्छासु अ निवेसो ॥१५१२॥ वीरियसजोगयाए संचारा मुहुमबायरा देहे । बाहिं रोमंचाई अंतो खेलाणिलाईया ॥ १५१३ ॥ आ(अव)लोअचलं चक्खू मणुव्व तं दुकरं थिरं काउं । स्वेहिं तयं खिप्पड सभावओ वा सयं चलइ ॥१५१४॥ दिन कुणइ निमेसजुत्तं तस्थुवओगेण झाण झाइजा। एगनिसिंतु पवनो झायइ साह अणिमिसच्छोऽवि ॥१५१५॥ अगणीओ छिदिज व बोहियखोभाइ दीहडको वा । आगारेहिँ अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ॥१५१६ ॥ ऊर्व प्रबलः श्वास उच्च्टासः तं 'न निरुभइत्ति न निरुणद्धि, 'आभिम्गहिओवि' अभिगृह्यत इति अभिग्रहः अभिग्रहेण निर्वृत्त आभिग्रहिकः-कायोत्सर्गस्तदव्यतिरेकात् तत्कर्ताऽप्याभिग्रहिको भण्यते, असावप्यभिभवकायोत्सर्गकार्य दीप अनुक्रम [३९]] JABERatini मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1567~ Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५१६] भाष्यं [२३१...], (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥७८॥ [सू.] पीत्यर्थः, 'किमुत चेढा उत्ति किं पुनश्चेष्टाकायोत्सर्गकारी, स तु सुतरां न निरुणद्धि इत्यर्थः, किमित्यत आह-'सज्जमरणं कायोत्सनिरोहे'त्ति सद्योमरणं निरोधे उच्छासस्य, ततश्च 'सुहुमुस्सासं तु जयणाए'त्ति सूक्ष्मोच्छासमेव यतनया मुञ्चति, नोल्वणं, गाध्य. मा भूत् सत्त्वघात इति गाथार्थः ॥ १५१० ॥ अधुना 'कासिते त्यादिसूत्रार्थप्रचिकटिपयेदमाह-कासखुयजंभिए' अतिचारगाहा व्याख्या-इह कायोत्सर्गे कासक्षुतजम्भितादीनि यतनया क्रियन्ते, किमिति !-'मा हु सत्थमणिलोऽणिलस्स कायोत्स० तिवुण्हो'त्ति मा शस्त्रं भविष्यति कासितादिसमुद्भवोऽनिलो-वायुरनिलस्य-बाह्यस्य वायोः, किंभूतः?-तीब्रोष्णः, बाह्यानिलापेक्षया अत्युष्ण इत्यर्थः । न च न क्रियन्ते न च निरुध्यन्त एव न 'असमाही य निरोहे 'त्ति (सर्वधारोधे) असमाधिश्च चशब्दात् मरणमपि सम्भाव्यते कासितादिनिरोधे सति, 'मा मसगाई 'त्ति मा मसकादयश्च कासितादिसमुद्भवपधनश्लेमाभिहतामरिष्यन्ति जम्भिते च वदनप्रवेश करिष्यन्ति ततो हस्तोऽग्रतो दीयत इति यतनेयमिति गाथार्थः ॥१५११॥ आह-निःश्वसितेनेति सूत्रावयवो न व्याख्यायते इति किमत्र कारणम् , उच्यते, उच्छुसितेन तुल्ययोगक्षेमत्वादिति, इदानीम् 'उद्गारितेने त्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह-वातनिसर्गः-उक्तस्वरूप उद्गारोऽपि, तत्रायं विधिः-यतना शब्दस्य क्रियते न निसृष्टं मुच्यत इति, 'नेव य निरोहोत्ति नैव च निरोधः क्रियते, असमाधिभावादेव, उद्गारे या हस्तोऽन्तरे दीयत इति 'भमलीमुच्छासु य निवेसो' मा सहसापतितस्यात्मविराधना भविष्यतीति गाथार्थः ॥ १५१२॥18॥७८३॥ साम्प्रतं 'सूक्ष्मैरङ्गसखारै रित्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाऽऽह-वीर्यसयोगतया कारणेन संचाराः सूक्ष्मवादरा देहे | अवश्यंभाविनो, वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमक्षयर्ज खल्वात्मपरिणामो भण्यते योगास्तु-मनोवाक्कायास्तत्र वीर्यसयोग दीप अनुक्रम [३९]] AN JAMERatin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1568~ Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५१६] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] तयैवातिचाराः सूक्ष्मवादरा भवन्ति न केवलात् वीर्यादिति देह एव च भवति नादेहस्य, तत्र वही रोमश्चादय आदि-15 शब्दादुत्कम्पग्रहः 'अन्तो खेलानिलादीया' अन्तः-मध्ये श्लेष्मानिलादयो विचरन्तीत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥१५१३।। अधुना | 'सूक्ष्मदृष्टिसञ्चारै रिति सूत्रावयवं व्याख्यानयति-अवलोकनमालोकस्तस्मिन्नवलोके चलं अवलोकचलं दर्शनलालसमि त्यर्थः, किं ?-चक्षुः-नयनं, यतश्चैवमतो मनोवद्-अन्तःकरणमिव तच्चक्षुर्दुष्करं स्थिरं कर्तुं न शक्यत इत्यर्थः, यतो रूपैतस्तदाक्षिप्यते स्वभावतो वा-स्वभावेन वा नैसर्गिकेण स्वयं चलति, आत्मनैव चलतीति गाथार्थः॥१५१४॥ यस्मादेवं तस्मात् न करोति निमेष(रोध)यल कायोत्सर्गकारी, किमिति', 'तत्थुवओगेण झाण झाएजत्ति तत्र-निर्निमेषयले य उपयोगस्तेन सता मा न ध्यानं ध्यायेत् अभिप्रेतमिति, 'एगनिसं तु पयानो झायइ साहू अणि मिसच्छोऽवि' एकरात्रिकी तु प्रतिमा प्रतिपन्नो महासत्वोध्यायति समर्थः अनिमेषाक्षोऽपि-अनिमिषे अक्षिणी यस्य सः अनिमिषाक्षः निश्चलनयन इति गाथार्थः ॥१५१५॥ अधुना एवमादिभिराकाररित्यादिसूत्रावयवव्याचिख्यासयाह-'अगणि'त्ति यदा ज्योतिः स्पृशति तदा प्रावरविणाय कल्पग्रहणं कुर्वतोन कायोत्सर्गभङ्गः, आह-नमस्कारमेवाभिधाय किमिति तद्ग्रहण न करोति येन तद्भङ्गो न भवति, उच्यते, नात्र नमस्कारपारणमेवाविशिष्टं कायोत्सर्गमानं क्रियते, किं तु यो यत्परिमाणो यत्र कायोत्सर्ग उक्तस्तत ऊर्य परिसमाप्तेऽपि तस्मिन्नमस्कारमपठतो भङ्ग इत्यादि, अपरिसमाप्तेऽपि च पठतो भङ्ग एव, स चात्र न भवतीति, एवं सर्वत्र दभावनीयं, 'छिदिज वत्ति मार्जारीमूपकादिभिवा पुरतो यायात् , अत्राप्यग्रतः सरतो न कायोसर्गभङ्गः, 'बोहियखोभाइ'सिर बोधिका:-स्तेनकास्तेभ्यः क्षोभः-संभ्रमः, आदिशब्दाद्राजादिक्षोभः परिगृह्यते, तत्रास्थानेऽप्युच्चारयतो(ऽनुच्चारयतो)वान दीप अनुक्रम [३९]] AMERIAL D ancinrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1569~ Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५१६] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- कायोत्सर्गभङ्गो 'दीहडको वेति सर्पदष्टे चात्मनि परे वा सहसा-अकाण्ड एवोच्चार यतः, तथैव आक्रियन्त इत्याकारा- कायोत्सहारिभ- स्तैराकारैरभन्नः स्यात् कायोत्सर्ग एवमादिभिरिति गाथार्थः॥१५१६ ॥ अधुनौषतः कायोत्सर्गविधिप्रतिपादनायाह- गोध्य. द्रीया ते पुण ससूरिए चिय पासवणुचारकालभूमीओ । पेहित्ता अस्थमिए ठंतुस्सग्गं सए ठाणे ॥ १५१७॥ अतिचार | कायोत्स० ॥७८४॥ जइ पुण निब्वाधाए आवासं तो करिति सब्वेवि । सडाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥ १५१८॥ बसेसा उ जहासति आपुछित्ताण ठंति सहाणे । सुत्तत्थसरणहे आयरिऐं ठियंमि देवसियं ॥ १५१९॥ हजो हुज उ असमत्थो बालो वुहो गिलाण परितंतो। सो विकहाइविरहिओ झाइजा जा गुरू ठति ॥ १५२०॥ जा देवसिझं दुगुणं चिंतइ गुरू अहिंडओऽनिहूँ । बहवाबारा इअरे एगगुणं ताव चिंतंति ॥ १५२१ ॥ | पब्वइयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू बटुं बहुविही। कालेण तदचिएणं पारेई थोवचिट्ठोऽपि ॥ (प्र०१) नमुकारचवीसगकिइकम्मालोअणं पडिकमणं । किइकम्मदुरालोइअ दुप्पटिकते य उस्सग्गो ॥ १५२२ ॥ एस चरितुस्सग्गो दसणसुद्धीइ तइयओ होइ । सुअनाणस्स चउत्थो सिहाण थुई अ किइकम्मं ॥ १५२३ ॥ | व्याख्या-ते पुन:-कायोत्सर्गकारः ससूर्य एव दिवसे प्रश्रवणोच्चारकालभूमयः (मीः) प्रत्युपेक्षन्ते, द्वादश प्रश्रवण-18 भूमयः आलयपरिभोगान्तः पटू पटू पहिः, एवमुच्चारभूमयो द्वादश, प्रमाणं चासां तियर जपन्येन हस्तमात्रमधश्चत्वार्य-16 लानि यावत् अचेतनं, उत्कृष्टतस्तु स्थण्डिलं द्वादश योजनमानं, न च तेनेहाधिकारः, तिनस्तु कालभूमया-कालमण्डलाख्याः, ॥७८४॥ यावश्चैनमन्यं च श्रमणयोगं कुर्वन्ति कालवेलायां तावत् प्रायसोऽस्त मुपयात्येव सविता ततश्च 'अस्थमिए ठंति उस्सग्गं 244564% 84% दीप अनुक्रम [३९]] Jantastimam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कायोत्सर्गस्य विधि: प्रतिपादयते ~ 1570 ~ Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) * * प्रत सूत्रांक [सू.] सए ठाणे ति उक्तमन्यथा यस्य यदैव व्यापारपरिसमाप्तिर्भवति स तदैव सामयिकं कृत्वा तिष्ठतीति गाथार्थः ॥१५१७॥ | अयं च विधिः केनचित् कारणान्तरेण गुरोयाघाते सति। 'जइ पुण निवाघाओं व्याख्या-यदि पुनर्नियाघात एव सर्वे-| पामावश्यक-प्रतिकमणं ततः कुर्वन्ति सर्वेऽपि सहैव गुरुणा 'सड्डादिकहणवापाते पच्छा गुरू ठंति'त्ति निगदसिद्धमिति गाधार्थः ॥ १५१८॥ यदा च पश्चाद् गुरवस्तिष्ठन्ति तदा-'सेसा उ जहासत्ती' गाहा व्याख्या-शेषास्तु साधवो यथाशक्ति-शक्त्यनुरूपं यो हि यावन्तं कालं स्थातुं समर्थः 'आपुछित्ता गुरू ठंति सट्टाणे सामायिकं काऊण, किंनिमित्तं ?-'सुत्तस्थसरणहे सूत्रार्थस्मरणनिमित्तं-'आयरिए ठियंमि देवसिय आयरिए पुरओ ठिए तरस सामाझ्यावसाणे देवसियं अइयारं चिंतेति, अण्णे भणंति-जाहे आयरिओ सामाइयं कहइ ताहे तेवि तयडिया चेव सामाइयसुत्तमणुपेहंति गुरुणा सह पच्छा देवसिय'ति गाथार्थः ॥ १५१९ ॥ शेषाश्च यथा शक्तिरित्युक्त, यस्य कायोत्सर्गेण स्थातुं शक्तिरेव नास्ति स किं कुर्यादिति तद्गतं विधिमभिधित्सुराह-'जो हुज उ असमत्थों' गाहा व्याख्या-यः कश्चित् साधु वेदसमर्थः कायोदात्सर्गेण स्थातुं, स किंभूत इत्याह-वालो वृद्धो ग्लानः 'परितंतो'त्ति परिश्रान्तो गुरुवयावृत्यकरणादिना असावपि विकथादिविरहितः सन् ध्यायेत् सूत्रार्थ 'जा गुरू ठति'त्ति यावद् गुरवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमिति गाथार्थः ॥ १५२०॥ दीप अनुक्रम [३९]] आपृच्छय गुरून तिष्ठन्ति स्वस्थाने सामायिक कृपा, किनिमित, सूत्रार्थस्मरणहेतोः । भाचार्य स्थिते देवक्षिक-आचार्य पुरतः स्थिते तस्य सामा-1 यिकावसाने देवसिकमतिचारं चिन्तयन्ति, अम्बे भणन्ति-बदाऽऽचार्याः सामायिक कथयन्ति तदा तेऽपि तदवस्थिता एवं सामायिकसूत्रमनुप्रेक्षन्ते गुरुणा सह पश्चावसिक, JAINEaamana niorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1571~ Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया A प्रत सूत्रांक 18न्तिविधिः ॥७८५॥ [सू.] दीप अनुक्रम [३९]] आचार्य स्थिते दैवसिकमित्युक्तं तद्गतं विधिमभिधित्सुराह-जा देवसियं दुगुणं चिंतई' गाहा व्याख्या-निगदसिद्धा, कायोत्सनवरंचेष्टा व्यापाररूपाऽवगन्तव्या ॥१५२१॥ नमोकारचवीसग' गाहा व्याख्या-'नमोक्कारे'ति कोउस्सग्गसमत्तीए नमोका-18 गाध्यक रेण पारेंति नमो अरहंताणंति, 'चउवीसग'त्ति पुणो जेहिं इमं तित्थं देसियं तेसिं तित्थगराणं उसभादीणं चवीसत्थएणं, प्रतिकाउक्त्तिर्ण करेंति, लोगस्सुजोयगरेणंति भणियं होति, "कितिकम्मे ति तओ वंदिउकामा गुरुं संडासयं पडिलेहिता उववि-12 संति, ताहे मुहणंतगं पडिलेहिय ससीसोवरियं कार्य पमजति, पमजित्ता परेण विणएण तिकरणविसुद्धं कितिकम्मं करेंति, वन्दनकमित्यर्थः, उक्तं च-"आलोयणवागरणासंपुच्छणपूयणाए सज्झाए । अवराहे य गुरूणं विणओमूलं च बंदणग॥शा" मित्यादि 'आलोयणे ति एवं च वंदित्ता उत्थाय उभयकरगहियरओहरणाद्धावणयकाया पुवपरिचिंतिए दोसे जहारायणियाए संजयभासाए जहा गुरू सुणेइ तहा पवहमाणसंवेगा भयविप्पमुक्का अप्पणो विशुद्धिनिमित्तमालोयंति, उक्कं च"विणएण विणयमूलं गंतूणायरियपायमूलंमि । जाणाविज सुविहिओ जह अप्पाणं तह परंपि॥१॥ कयपावोवि मणुस्सो . १कागोरखगसमाप्ती नमस्कारेण पारयति नमोहंजय इति, चतुर्विंशतिति, पुनरित तीर्थ देशितं तेषां तीर्थकराणामुपमादीनां चतुर्विंशतिस्तनोकी-1 सनं कुर्वन्ति, लोकस्योद्योतकरेणेति भणितं भवति, कृतिकर्मेति ततो बन्दितुकामा गुरु संबंशकान् प्रमाण्यापविशन्ति, ततो मुखामस्तक प्रतिलिरुष सशीमु- परितर्न कार्य प्रमार्जपन्ति, प्रसूम परेण विनयेन त्रिकरणविशुद्ध कृतिकर्म कुर्वन्ति । भालोचनाम्याकरणसंप्रभपूजनासु स्वाध्याये । अपराधे च गुरूणां विनयो ॥७८५|| मूलं च वन्दनकं । एवं च वन्दित्वोत्यायोभयकरगृहीतरजोहरणा अर्धावनतकायाः पूर्वपरिचिन्तितान् दोषान् वधारवाधिक संवतभाषषा यथा गुरुः शृणोति तथा प्रवर्धमानसंवेगा भयविषमुका मारमनो विशुद्धिनिमित्तमालोचन्ति-विनयेन विनयमूलं गत्वाचायपादमूले । शापयेत् सुविहितो यथाश्रमानं तथा परमपि ॥१॥ कृतपापोऽपि मनुष्य 6-0345-X Tinataram.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1572~ Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक आलोइजनिंदित गुरुसयासे । होइ अइरेगलहूओ ओहरियभरोब भारवहो ॥२॥ तथा-उष्पण्णाणुप्पन्ना माया अणुम-16 ग्गओ निहतषा । आलोयणनिंदणगरहणाहिं ण पुणो सिया वितिथं ॥३॥ तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरू उव-14 इसति । तं तह अणुचरियवं अणवत्थपसंगभीएणं ॥ ४॥ 'पडिकमण'ति-'आलोइऊण दोसे गुरुणा पडिदिण्णपायच्छित्ता उ । सामाइयपुवगं समभा(वा)वठिया पडिकमंति ॥१॥ सम्ममुवउत्ता पयंपएण पडिक्कमणं कठेति, अणवस्थपसंगभीया, अणवत्थाए पुण उदाहरणं तिलहारगकप्पडगोत्ति, 'कितिकम्मति तओ पडिकमित्ता खामणानिमित्तं पडितायवत्तनिवेयणत्थं च वंदंति, तओ आयरियमादी पडिकमणत्यमेव दंसेमाणा खाति, उक्तं च-आयरिउवझाए सीसे साहमिए कुलगणे य । जे मे केऽवि कसाया सबे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सबस्स समणसंघस्त भगवओ अंजलिं करिय सीसे । सबं: समावइत्ता खमामि सबस्स अपि ॥२॥ सबस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहियनियचित्तो । सर्व खमावइत्ता ४ [सू.] CE दीप अनुक्रम [३९]] PRACROR भालोप निन्दित्वा गुरुसकायो । भवत्यतिशयेन लघुरुदतभर इव भारवाहः ॥२॥ अपनाउनुपजा माया प्रतिमार्ग निहन्तया । मालोचना निम्दना-४ गहनाभिन खान द्वितीयवारम् ॥३॥ तस्य चप्रायश्रितं यन्मार्गविदो गुरव उपदिशन्तिा तत्तथाऽनुचरितव्यमनवस्थाप्रसहभीतेन ॥४॥ आलोग्य दोषान् गुरुया प्रतिदासायश्रित्तास्तु । सामाविकपूर्व समभावावस्थिताः प्रतिकाम्यन्ति ॥१॥ सम्यगुपयुक्ताः पदंपदेन प्रतिक्रमणसूत्रं कधयन्त्वनवस्थामसमभीताः, अन-T वस्थायां पुनसदाहरणं तिलहारकशिशुरिति । ततः प्रतिक्रम्य क्षामणानिमिर्च प्रतिकान्ताआत्मवृत्तनिवनाथ चवन्दन्ते, तत भाचार्यादीन् प्रतिक्रमणार्थमेष दर्श वन्तः क्षमयन्ति । आचार्योपाध्यान् शिष्यान् सार्मिकान् कुलगणांश्च । ये मया केऽपि कथायिताः सर्वान् विविधेन अमयामि ॥1॥सर्वत्रमणस तस्य भगवते कृत्वा शीर्षे । सर्व क्षमविवा क्षमे सर्वस्वाहमपि ॥२॥ सर्वस्मिन् जीवराशी भावतो धर्म निहितनिचितः । सर्व क्षमयित्वा Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1573~ Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१५२३] भाष्यं [२३१...], प्रक्षेप [१] (४०) द्रीया प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- खमामि सबस्स अयपि ॥३॥” इत्यादि 'दुरालोइयदुप्पडिकंते य उस्सग्गे'त्ति एवं खामित्ता आयरियमादी ततो दुरालो- कायोत्सहारिभ- इयं वा होजा तुपडिकतं वा होजा अणाभोगादिकारणेण ततो पुणोवि कयसामाझ्या चरित्तविसोहणत्यमेव काउस्सगंगाध्य० ठाकरेंतित्ति गाथार्थः ॥ १५२२ । 'एस चरितुस्सग्गो' गाहा व्याख्या-एस चरित्तुसग्गोत्ति चरित्तातियारविसुद्धिनिमि-11 प्रतिका |न्तिविधिः हात्तोत्ति भणिय होइ, अयं च पंचासुस्सासपरिमाणो॥१५२३॥ ततो नमोकारेण पारेत्ता विशद्धचरित्ता विशुद्धदेसयाणं दसण-12 ॥७८६॥ विसुद्धिनिमित्तं नामुक्त्तिर्ण करेंति, चरित्तं विसोहियमियाणि दसणं विसोहिज्जतित्तिकट्ट, तं पुण णामुकित्तणमेवं करति, Kलोगस्मुज्जोयगरे त्यादि, अयं चतुर्विंशतिस्तये न्यक्षेण व्याख्यात इति नेह पुनर्व्याख्यायते, चतुर्विंशतिस्तवं चाभिधाय मूलसूत्र - लोगस्स दर्शनविशुद्धिनिमित्तमेव कायोत्सर्ग चिकीर्षवः पुनरिदं सूत्रं पठन्ति Oसब्बलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं बंदणवत्तियाए पूअणवत्तियाए सकारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए बोहिलाभवत्तियाए निरुवसग्गवत्तियाए साए मेहाए धिइए धारणाए अणुप्पहाए बहमाणीए ठामि| काउस्सगं (सूत्रं)॥ क्षमे सर्वस्याहमपि ॥ ३ ॥ एवं क्षमयित्वाऽऽचाबांदीन ततो दुरालोचितं वा भवेत् दुष्प्रतिकान्त वा भवेत् अनाभोगादिकारणेन ततः पुनरपि कृत ७८६॥ सामाबिकाश्चारित्रपिशोधनामेव कायोत्सग कुर्वन्ति । एष चारित्रोत्सर्ग इति चारित्रातिचारविशुद्धिनिमित्त इति भन्वितं भवति, अयं च पञ्चाशदुशासपरिमाणः, ततो नमस्कारेण पारयित्वा विशुद्धचारित्रा विशुद्धदेशकानां दर्शनशुद्धिनिमित्तं नामोरकीर्तनं कुर्वन्ति, चारित्रं विशोधितमिदानी दर्शनं विशुष्यस्वितिकृत्वा, तायुननामोत्कीर्तनमेवं कुर्वन्ति । दीप अनुक्रम [४०-४६] JAMERam A natorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सर्वलोके स्थित अर्हत्चैत्य-आश्रित कायोत्सर्ग: ~1574~ Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [४७] आ० १३२ Jus Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], निर्युक्ति: [ १५२३ ...] भाष्यं [ २३१... ], अस्य व्याख्या - सर्वलोकेऽर्हचैत्यानां करोमि कायोत्सर्गमिति, तत्र लोक्यते दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति लोकः चतु दशरज्ज्वात्मकः परिगृह्यते इति उक्तं च- "धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥ १ ॥” सर्वः खल्वधस्तिर्यगूर्ध्वभेदभिन्नः, सर्वश्वासौ लोकश्च २ तस्मिन् सर्वलोके, त्रैलोक्ये इत्यर्थः, तथाहि अधोलोके चमरादिभवनेषु तिर्यगूलोके द्वीपाचलज्योतिष्कविमानादिषु सन्त्येवार्हचैत्यानि ऊर्द्धलोके सौधर्मादिषु सन्त्येवाईचैत्यानि, तत्राशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः- तीर्थकरास्तेषां चैत्यानि - प्रतिमालक्षणानि अर्हचैत्यानि, इयमत्र भावना-चित्तम्-अन्तःकरणं तस्य भावे कर्मणि वा वर्णदृढादिलक्षणे व्यत्रि कृते चैत्यं भवति, तत्रार्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादनादर्हच्चैत्यानि भण्यन्ते तेषां किं ?-करोमीत्युत्तमपुरुषैकवचननिर्देशेनात्माऽभ्युपगमं दर्शयति, किमित्याह - कायः शरीरं तस्योत्सर्ग :- कृताकारस्य स्थानमीनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य परित्याग इत्यर्थः तं कायोत्सर्ग, आह-कायस्योत्सर्ग इति षष्ठ्या समासः कृतः, अर्हचैत्यानामिति प्रागुक्तं, तत् किमई चैत्यानां कायोत्सर्ग करोति ?, नेत्युच्यते, षष्ठीनिर्दिष्टं तत्पदं पदद्वयमतिक्रम्य मण्डूकप्लुत्या वन्दनप्रत्ययमित्यादिभिः सम्बध्यते, ततोऽर्हचैत्यानां वन्दनप्रत्ययं करोमि कायोत्सर्गमिति द्रष्टव्यम्, तत्र वन्दनम्-अभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्तिरित्यर्थः, तत्प्रत्ययं तन्निमित्तं, तत्फलं मे कथं नाम कायोत्सर्गादित्यतोऽर्थमित्येवं सर्वत्र भावना कार्या, तथा 'पूयणवत्तियाए' त्ति पूजनप्रत्ययं - पूजानिमित्तं, तत्र पूजनं - गन्धमास्यादिभिरभ्यर्चनं, तथा 'सकारवत्तियाए' त्ति सत्कारप्रत्ययं - सत्कारनिमित्तं तत्र प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यचैनं सरकारः, आह-यदि पूजनसत्कारप्रत्ययः कायोत्सर्गः क्रियते For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1575 ~ by org Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-७], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३९...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- हारिभ द्रीया १७८७॥ विधिः [सू.] % ततस्तावेव कस्मान्न क्रियेते ?, उच्यते, द्रव्यस्तववादप्रधानत्वाद्, उक्त च-दवत्थउ भावत्थर' इत्यादि, अतः श्रावकाः पूज- कायोत्सनसत्कारावपि कुर्वन्त्येव,साधवस्तु प्रशस्ताध्यवसायनिमित्तमेवमभिदधति,तथा सम्माणवत्तियाए'त्ति सन्मानप्रत्ययं-सम्मान-IN प्रतिक्रमण|निमितं, तत्र स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरण सन्मानः, तथा मानसः प्रीतिविशेष इत्यन्ये, अथ वन्दनपूजनसत्कारसन्माना एप किंनिमित्तमित्यत आह-'बोहिलाभवत्तियाएं बोधिलाभप्रत्ययं-बोधिलाभनिमित्त प्रेत्य जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिबोंधिलाभो भण्यते, अथ बोधिलाभ एव किंनिमित्तमित्यत आह 'निरुवसग्गवत्तियाए' निरुपसर्गप्रत्ययं-निरुपसर्गनिमित्त, निरुपसर्गो-मोक्षः, अयं च कायोत्सर्गः क्रियमाणोऽपि श्रद्धा(दि)विकलस्य नाभिलषितार्थप्रसाधनायालमित्यत आह-'सद्धाए मेहाए घिईए धारणाए अणुप्पेहाए बद्धमाणीप ठामि काउस्सगं'ति श्रद्धया हेतुभूतया तिष्ठामि कायोत्सर्ग न बलाभियोगादिना श्रद्धा-निजोऽभिलाषः, एवं मेधया-पटुत्वेन, न जडतया, अन्ये तु व्याचक्षते-मेधयेति मर्यादावर्तित्वेन नासमञ्जसतयेति, एवं धृत्या-मनःप्रणिधानलक्षणया न पुना रागद्वेषाकुलतया, धारणया-अर्हद्गुणाविष्करणरूपया न तच्छून्यतया, अनुप्रेक्षया-अर्हद्गुणानामेव मुहुर्मुहुरविच्युतिरूपेणानुचिन्तनया न तवैकल्येन, बर्द्धमानयेति प्रत्येकमभिसम्बध्यते, श्रद्धया वर्द्धमानया एवं मेधयेत्यादि, एवं तिष्ठामि कायोत्सर्गम् , आह-उक्तमेव प्राकरोभि कायोत्सर्ग साम्प्रतं तिष्ठामीति किमर्थमिति', उच्यते, 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा (पा०३-३-१३१) इति कृत्वा करोमि करिष्यामीति क्रियाभिमुख्यमुक्तमिदानी वासन्नतरत्वात् क्रियाकालनिष्ठाकालयोः कथचिदभेदात् तिष्ठाम्येव, आह-किं सर्वथा ?, नेत्याह-'अन्नत्थूससिएणमित्यादि पूर्ववत् यावद्वोसिरामि'त्ति, एयं च सुसं पढित्ता पणवीसूसासपरिमाणं काउस्सग्गं करेंति, 'दंसणविसुद्धीय तइउत्ति, दीप अनुक्रम [४७] CANC15-25 Saintain मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15764 Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३९...], (४०) प्रत सूत्रांक ||गा.|| तृतीयत्वं चास्यातीचारालोचनविषयप्रथमकायोत्सर्गापेक्षयेति, तओनमोकारेण पारेत्ता सुयणाणपरिचुहिनिमित्तं अतियारवि सोहणत्थं च सुयधम्मस्स भगवओ पराए भत्तीए तप्परूवगनमोकारपुवयं थुई पति, तंजहाkbपुक्खरवरदीवड्डे धायइसंडे य जंबुद्दीवे य । भरहेरवयक्देिहे धम्माइगरे नमसामि ॥१॥ तमतिमिरपडल-18 विडंसणस्स सुरगणनरिंदमहिअस्स । सीमाधरस्स वंदे पप्फोडियमोहजालस्स ॥२॥ जाईजरामरणसोगप णासणस्स, कल्लाणपुक्खल विसालमुहावहस्स । को देवदानवनरिंदगणञ्चिअस्स, धम्मस्स सारमुचलब्भ करे दीपमायं ॥३॥ सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे, देवनागसुवण्णकिण्णरगणस्सन्भूअभाव |चिए । लोगो जत्थ पइट्टिओ जगमिणं तेलुकमचासुरं, धम्मो बहुउ सासओ विजयऊ धम्मुत्तरं बहउ ॥४॥ 18सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदण अन्नत्य (सूत्रम्) | अस्य व्याख्या-पुष्कराणि-पद्मानि तैर्वरः-प्रधानः पुष्करवरः २ श्चासौ द्वीपश्चेति समासः,तस्याधैं मानुषोत्तराचलार्वाग्वर्ति तस्मिन, तथा धातकीनां खण्डानि यस्मिन् स धातकीखण्डो द्वीपस्तस्मिंश्च, तथा जम्बोपलक्षितस्तरप्रधानो वा द्वीपो। जम्बदीपस्तस्मिथ, एतेवतृतीयेषु द्वीपेषु महत्तरक्षेत्रप्राधान्याङ्गीकरणतः पश्चानुपूर्योपन्यस्तेषु यानि भरतैरावतविदेहानि प्राकृतशैल्या वेकवचननिर्देश द्वन्द्वैकवद्भावाद् भरतैरावतषिदेह इत्यपि भवति, तत्र धर्मादिकरणान्नमस्यामि-'दुर्गति-18 प्रसृतान् जीवान्, यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभस्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥१॥ स च विभेदःश्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, श्रुतधर्मेणेहाधिकारः, तस्य भरतादिष्यादी करणशीलास्तीर्थकरा एवातस्तेषां स्तुतिरुक्का, साम्प्रतं दीप अनुक्रम [४८-५२] JanEaintinA Mamtarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: श्रुतस्तव रूप 'पुष्करवरद्वीप' सूत्र, मूल एवं व्याख्या ~1577~ Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया ॥७ ॥ कायोत्सगोंध्य. पतिक्रमणविधः प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप अनुक्रम [४८-५२] श्रुतधर्मस्य प्रोच्यते-'तमतिमिरपडलविद्धसणस्स सुरगणे त्यादि, तमः-अज्ञानं तदेव तिमिरं अथवा तमः-बद्धस्पृष्टनि- | धत्तं ज्ञानावरणीयं निकाचितं तिमिरं तस्य पटलं-वृन्दं तमस्तिमिरपटलं तद् विध्वंसयति नाशयतीति तमस्तिमिरपट- लविध्वंसनः तस्य, तथा चाज्ञाननिरासेनैवास्य प्रवृत्तिः, तथा सुरगणनरेन्द्रमहितस्य, तथा चागममहिमानं कुर्वन्त्येव सुरादयः, तथा सीमां-मर्यादां धारयतीति सीमाधरः, सीम्नि वा धारयतीति तस्येति, तृतीयाथै षष्ठी, तं वन्दे, तस्य वा यत् माहात्म्यं तद् वन्दे, अथवा तस्य वन्द इति वन्दनं करोमि, तथाहि-आगमवन्त एवं मर्यादां धारयन्ति, किंभूतस्य ?-प्रकर्षण स्फोटितं मोहजालं-मिथ्यात्वादि येन स तथोच्यते तस्य, तथा चास्मिन् सति विवेकिनो मोहजालं विलयमुपयास्येव, इत्थं श्रुतधर्ममभिवन्द्याधुना तस्यैव गुणोपदर्शनद्वारेण प्रमादागोचरतां प्रतिपादयन्नाह-'जाईजरामरणे त्यादि, जाति:-उत्पत्तिः जरा-क्योहानिः मरण-प्राणत्यागः शोकः-मानसो दुःखविशेषः, जातिश्च जरा च मरणं च शोकश्वेति द्वन्द्वः, जातिजरामरणशोकान् प्रणाशयति-अपनयति जातिजरामरणशोकप्रणाशनस्तस्य, तथा च श्रुतधर्मो कानुछानाज्जात्यादयः प्रणश्यन्त्येव, अनेन चास्यानर्थप्रतिघातित्वमाह, कल्यम्-आरोग्यं कल्यमणतीति कल्याणं, कल्यं शब्दयतीत्यर्थः, पुष्कलं-सम्पूर्ण न च तदल्पं किं तु विशालं-विस्तीर्ण सुख-प्रतीतं कल्याणं पुष्कलं विशालं सुखमावहतिप्रापयतीति कल्याणपुष्कलविशालसुखावहस्तस्य, तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानादुक्तलक्षणमपवर्गसुखमवाप्यत एव, अनेन चास्य विशिष्टार्थप्रसाधकत्वमाह, कःपाणी देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्य श्रुतधर्मस्य सारं-सामर्थ्यमुपलभ्य-दृष्ट्वा विज्ञाय कुर्यात् प्रमाद, सचेतनमः१ चारित्रधर्म प्रमादः कर्तुं न युक्त इति हृदयम्, आह-सुरगणनरेन्द्रमहितस्येत्युक्तं पुनर्देवदानवनरेन्द्रगणार्चि ७८८ andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1578~ Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा १-४], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...], (४०) 4-059-4 प्रत सूत्रांक ||गा.|| तस्येति किमर्थमिति !, अत्रोच्यते, तनिगमनत्वाददोषः, तस्यैवंगुणस्य धर्मस्य सारमुपलभ्य कासकर्णः प्रमादी भवेच्चारित्रधर्म इति, यतश्चैवमतः 'सिद्धे भो पयओ नमो जिणमये इत्यादि, सिद्धे-प्रतिष्ठिते प्रख्याते भो इत्येतदतिशयिनामामन्त्रर्ण पश्यन्तु भवन्तः प्रयतोऽहं-यथाशक्योधतःप्रकर्षेण यतः, इत्थं परसाक्षिकं भू(क)त्वा पुनर्नमस्करोति-नमो जिनमते' अर्थाद विभ-| [क्तिपरिणामो नमो जिनमताय, तथा चास्मिन् सति जिनमते नन्दिः-समृद्धिः सदा-सर्वकालं, क ?-संयमे-चारित्रे, | यथोक्तं-पढम णाणं तओ दये'त्यादि, किंभूते संयमे -देवनागसुवर्णकिन्नरगणैः सद्भूतभावेनाचिंते, तथा च संयम वन्तः अय॑न्त एव देवादिभिः, किंभूते जिनमते ?-लोक्यतेऽनेनेति लोकः-ज्ञानमेव स यत्र प्रतिष्ठितः, तथा जगदिदं Pाज्ञयतया, केचित् मनुष्यलोकमेव जगत् मन्यन्ते इत्यत आह-त्रैलोक्यमनुष्यासुर, आधाराधेयरूपमित्यर्थः, अयमिस्थंभूतः। श्रुतधर्मों वर्द्धता-वृद्धिमुपयातु शाश्वतः-द्रव्यार्थादेशान्नित्यः, तथा चोक्तं-'द्रव्यार्थादेशात् इत्येषा द्वादशाही न कदाचिद् | नासीदित्यादि, अन्ये पठन्ति-धर्मों बर्बतां शाश्वतं इति, अस्मिन् पक्षे क्रियाविशेषणमेतत्, शाश्वतं वर्द्धता अप्रयु-1 त्येति भावना, विजयतां कर्मपरप्रवादिविजयेनेति हृदयं, तथा धर्मोत्तर-चारित्रधर्मोत्सरं वर्द्धतु, पुनर्पवयभिधानं मोक्षार्थिना प्रत्यहं ज्ञानवृद्धिः कार्येति प्रदर्शनार्थ, तथा च तीर्थकरनामकर्महेतून प्रतिपादयतोतं-"अप्पुबणाणगहणे"त्ति, 'सुयस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं बंदणवत्तियाए' इत्यादि प्रागवत् , यावद्वोसिरामि । एयं सुर्त पढित्ता पणुवी|सुस्सासमेव काउस्सर्ग करेमि, आह च-'सुयणाणस्स चउत्थोत्ति, तओ नमोकारेण पारिता विसुद्धचरणदसणसुयाइयारा मंगलनिमित्तं चरणदसणसुयदेसगाणं सिद्धाणं थुई कहुँति, भणियं च-'सिद्धाण थुई यत्ति, सा चेयं स्तुतिः दीप अनुक्रम [४८-५२] + +KP JAMERIES Morayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1579~ Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप अनुक्रम [५३-५७] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥७८९ ॥ Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], निर्युक्ति: [ १५२३ ...] भाष्यं [ २३१ ... ], ● सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं । लोयग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥ १ ॥ जो देवावि देवो जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहिअं सिरसा वंदे महावीरं ॥ २ ॥ इकोsवि नमुकारो जिण| वरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥ ३ ॥ उर्जित सेलसिहरे दिखा नाणं निसीहिआ जस्स । तं धम्मचकवहिं अरिद्वनेमिं नम॑सामि ॥ ॥ यसारि अट्ट दस दो य वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं । परमट्टनिडिअट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ५ ॥ ( सूत्र ) अस्य व्याख्या — सितं मातमेषामिति सिद्धा निर्दग्धकर्मेन्धना इत्यर्थस्तेभ्यः सिद्धेभ्यः, ते च सामान्यतो विद्यासिद्धा अपि भवन्त्यत आह- वुद्धेभ्यः, तत्रावगताशेषाविपरीततत्त्वा बुद्धा उच्यन्ते तत्र कैश्चित् स्वतन्त्रतयैव तेऽपि स्वतीर्थोज्ज्वलनाय इहागच्छन्ति इत्यभ्युपगम्यन्ते अत आह-'पारगतेभ्यः पारं पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनत्रातस्य च गताः पारगताः तेभ्यः, तेऽपि चानादिसिद्धैकजगत्पतीच्छावशात् कैश्चित् तथाऽभ्युपगम्यन्ते अत आह— 'परम्परगतेभ्यः' परम्परया एकेनाभिव्य8 कार्यादागमात् (कश्चित्) प्रवृत्तोऽन्येनाभिव्यक्तादर्थादन्योऽन्येनाप्यन्य इत्येवंभूतया गताः परंपरगतास्तेभ्यः, आह-प्रथमएक केनाभिव्य कार्थादागमात् प्रवृत्त इति ?, उच्यते, अनादित्वात् सिद्धानां प्रथमत्वानुपपत्तिरिति, अथवा कथचित् कर्मक्षयोपशमात् दर्शनं दर्शनात् ज्ञानं ज्ञानाच्चारित्रमित्येवंभूतया परम्परया गतास्तेभ्यः, तेऽपि च कैश्चित् सर्वलोकापना एवेष्यन्त इत्यत आह- 'लोकाप्रमुपगतेभ्यः' लोकाग्रम् - ईषत्प्राग्भाराख्यं तमुपगताः तेभ्यः, आह-कथं पुनरिह सकलकर्मविप्रमुक्तानां लोकाग्रं यावद्गतिर्भवति ?, भावे वा सर्वदैव कस्मान्न भवतीति ?, अत्रोच्यते, पूर्वावेधवशाद् दण्डादिच For Fans Only ५कायोत्सगोध्य प्रतिक्रमणविधिः ~ 1580~ ॥७८९ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः सिद्धस्तव रूप 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र एवं तस्य व्याख्या brayog Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [9], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२३...] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक ||गा.|| भ्रमणवत् समयमेवैकमवसेयेति, नमः सर्वदा-सर्वकालं 'सर्वसिद्धेभ्यः' तीर्थसिद्धादिभेदभिन्नेभ्यः, अथवा सर्व साध्यं सिद्ध येषां ते तथा तेभ्यः, इत्थं सामाग्येन सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा पुनरासन्नोपकारित्वाद् वर्तमानतीर्थाधिपतेः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिनः स्तुतिं कुर्वन्ति-'जो देवाणवि देवो जं देवा पंजली'त्यादि, यो भगवान् महावीरः देवानामपि-भवन-1 वास्यादीनां देवः, पूज्यत्वात् , तथा चाह-यं देवाः प्राञ्जलयो नमस्यन्ति-विनयरचितकरपुटाः सन्तः प्रणमन्ति, तं 'देवद देवमहिय' देवदेवाः शक्रादयः तैः महितं-पूजितं शिरसा उत्तमाङ्गेनेत्यादरमदर्शनार्थमाह, वन्दे, तं के ?-'महावीर' 'ईर गतिप्रेरणयो रित्यस्य विपूर्वस्य विशेषेण ईरयति-कर्म गमयति याति वा शिवमिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः तं, इत्थं |स्तुतिं कृत्वा पुनः फलप्रदर्शनार्थमिदं पठति-'एकोऽवि नमोकारो जिणवरवसहस्से'त्यादि, एकोऽपि नमस्कारो जिनवर-12 वृषभस्य वर्द्धमानस्य संसारसागरात्तारयति नरं वा नारी वा, इयमत्र भावना-सति सम्यग्दर्शने परया भावनया क्रिय-18 माण एकोऽपि नमस्कारः तथाभूताध्यवसायहेतुर्भवति यथाभूताच्छ्रेणिमवाप्य निस्तरति भवोदधिमित्यतः कारणे कार्योपचारादेतदेवमुच्यते, अन्यथा चारित्रादिवैफल्यं स्यात् । एतास्तिस्रः स्तुतयो नियमेनोच्यन्ते, केचिदन्या अपि ४ पठन्ति, न च तत्र नियमः, 'कितिकम' पुणो संडसयं पडिले हिय उवविसंति, मुहपोत्तियं पडिलेहंति ससीसोवरिय कार्य पडिलेहित्ता आयरियस्स वंदणं करेंति'त्ति गाथार्थः ॥ १५२३ ॥ आह-किनिमित्तमिदं वन्दनकमिति !, उच्यतेसुकयं आणत्तिं पिव लोगे काऊण सुकयकिइकम्मं । वहृतिया थुईओ गुरुथुइगहणे कए तिनि ॥ १५२४ ॥ दीप अनुक्रम [५३-५७]] JAMEainik Drayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15814 Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप अनुक्रम [५३-५७] आवश्यक हारिभद्रीया ॥७९०॥ Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], निर्युक्तिः [ १५२४ ] भाष्यं [२३१...], 'सुकयं आणसिंपित लोए काऊणं'ति जहा रण्णो मणुस्सा आणत्तिगाए पेसिया पणामं काऊण गच्छति, तं च काऊण पुणो पणामपुवगं निवेदेति, एवं साहुणोऽवि सामाइयगुरुवंदणपुवगं चरितादिविसोहिं काऊण पुणो सुकयकितिकम्मा संतो गुरुणो निवेदंति-भगवं । कयं ते पेसणं आयविसोहिकारगंति, चंदणं च काऊण पुणो उक्कडुया आयरियाभिमुहा विणयरतियंजलिपुडा चिति, जाव गुरू थुइगहणं करेंति, ततो पच्छा समत्ताए पढमथुतीए थुई कर्हिति विणउत्ति, तओ थुई वहुतियाओ कहुंति तिण्णि, अहवा वतिया थुइओ गुरुथुतिगहणे कए तिणित्ति गाथार्थः ॥ १५२४ ॥ तओ पाउसियं करेंति, एवं ताव देवसियं करेंति, गतं देवसियं, राइयं इदाणिं, तत्थिमा विही, पढमं चिय सामाइयं कहिऊण चरित्तविमुद्धिनिमित्तं पणुवीसुस्सासमित्तं काजस्सग्गं करेंति, तओ नमोक्कारेण पारित्ता दंसणविसुद्धीनिमित्तं चउवीसत्थयं पदंति, पणुवीसुस्तासमेत्तमेव काउस्सगं करेंति, एत्थवि नमोकारेण पारेता मुयणाणविमुद्धीनिमित्तं सुयणाणत्थयं, 1 यथा राज्ञा मनुष्या भाज्ञस्या प्रेषिताः प्रणामं कृत्वा गच्छन्ति, तब कृत्वा पुनः प्रणामपूर्वकं निवेदयन्ति एवं साधवोऽपि सामायिकगुरुवन्दनपूर्व चारित्रादिविशुद्धिं कृत्वा पुनः सुकृतकृतिकर्माणः सन्तो गुरुभ्यो निवेदयन्ति भगवन् ! कृतं तव प्रेषणमात्मविशुद्धिकारकमिति, बन्दनं च कृत्वा पुनका आचार्याभिमुखा विनयरचिताञ्जलिपुटास्तिष्ठन्ति यावद्वस्वः स्तुतिग्रहणं कुन्ति, ततः पश्चात् समाप्तायां प्रथमस्तुती स्तुतीः कथयन्ति विनय इति, ततः स्तुतीर्वर्धमानाः कथयन्ति विक्षोऽथवा वर्धमानाः स्तुत्तयः । ततः प्रादोषिकं कालं कुर्वन्ति एवं तावद्देवसिकं कुर्वन्ति, गतं देवसिकं, रात्रिकमिदानीं तत्रायं विधिः- प्रथममेव सामायिकं कथयित्वा चारित्रविद्युद्धिनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्छ्रासमानं कायोत्सर्गं कुर्वन्ति ततो नमस्कारेण पारथित्वा दर्शन विशुद्धिनिमित्तं चतुर्विंशतिस्तवं पठन्ति पञ्चविंशत्युच्छ्वासमात्रमेव कायोत्सर्गं कुर्वन्ति, अत्रापि नमस्कारेण पारवित्वा श्रुतज्ञानविशुद्धिनिमित्तं श्रुतशानस्तचं. For Fans Only ५कायोत्सगोध्य० प्रतिक्रमणविधिः ~ 1582~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ॥७९० ॥ nirg Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति: [१५२५] भाष्यं [२३१...., (४०) प्रत सूत्रांक ||गा.|| दीप अनुक्रम [५३-५७]] कट्ठति, काउस्सग्गं च तस्सुद्धिनिमित्तं करेंति, तत्थ य पाओसियथुइमादीयं अधिकयकाजस्सग्गपजतमइयारं चिंतेइ, आह-किंनिमित्तं पढमकाउस्सग्गे एव राइयाइयार ण चिंतेति ?, उच्यते, निहामत्तो न सरह अइआरं मा य घट्टणं ऽणोऽन्नं । किइअकरणदोसा वा गोसाई तिन्नि उस्सग्गा ॥१५२५॥ हा निद्दामत्तो-निहाभिभूओन सरह-न संभरद मुष्ठ अइयारं मा घट्टणं णोऽण्णं अंधयारे बंदतयाणं, कितिअकरणहैदोसा वा, अंधयारे अदसणाओ मंदसद्धा न वंदंति, एएण कारणेणं गोसे-पचूसे आइए तिणि काउस्सग्गा भवन्ति, न पुण पाओसिए जहा एक्कोत्ति ॥ १५२५ ॥ एत्य पढ़मो चरित्ते दसणसुडीऍ बीयओ होइ । सुपनाणस्स य ततिभो नवरं चिंतंति तत्व इमं ॥१५२६ ॥ दतइए निसाइयारं चिंतइ चरमंमि किं तवं काहं । छम्मासा एगदिणाइहाणि जा पोरिसि नमो वा ॥१५२७॥ अहमवि भे खामेमी तुम्भेहि सम अहं च वंदामि।आयरियसंतियं नित्थारगाउ गुरुणो अ वयणाई॥१५२८॥ I ततो चिंतिऊण अइयारं नमोकारेण पारेत्ता सिद्धाण थुई काऊण पुषभणिएण विहिणा वंदित्ता आलोएति, तओ-2 कर्षयन्ति, कायोत्सर्ग च सादिनिमित्त कुर्वन्ति, तत्र च प्रादोषिकस्तुत्यादिक अधिकृतकायोत्सर्गपर्यन्तमतिचार चिन्तयन्ति । बाह-किनिमित्तं प्रथदमकायोत्सर्ग एवं रात्रिकातिचारं न चिन्तयन्ति !,-निद्रामत्त:-निजाभिभूतो न समरति मुद्दतिचारं मा घट्टनमन्योऽम्प बन्दमानानामन्धकारे कृतिकमाकरण दोपा वा-मकारेश्दर्शमात् मन्दश्रद्धा म वन्दन्ते, एतेन कारणेन प्रत्यूचे भादी प्रयः कायोत्सगा भवन्ति, न पुनः प्रादोपिके यक इति, सतश्चिन्तयित्वा मातिचारान् नमस्कारेण पारयित्या सिद्धाणमिति स्तुतिं कृत्वा पूर्वभणितेन विधिना वन्दित्वाऽलोचन्ति, ततः AmEaintim IndiDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15834 Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति : [१५२८] भाष्यं [२३१...], प्रत सूत्रांक ||गा.|| आवश्यक- सामाइयपुवर्य पडिक्कमति, तओ वंदणापुवयं खाति, वंदर्ण काऊणं तओ सामाइयपुवयं काउस्सगं करेंति, तत्थ कायोत्सहारिभ- चिंतयंति-कम्मि य निउत्ता वयं गुरुहिं !, तो तारिसयं तवं पवजामो जारिसेण तस्स हाणि न भवति, तओ चिंतेति-18 गाध्य दीया छम्मासखमणं करेमो, न सकेमो, एगदिवसेण ऊणं, तहवि न सकेमो, एवं जाव पंच मासा, तओचत्तारि तओं तिन्नि प्रतिक्रमण विधिः ॥७९॥ तओ दोन्नि, ततो एक ततो अद्धमासं चउत्थं आयंबिलं एगठाणयं पुरिमहूं निविगइयं, नमोकारसहियं वत्ति, उक्तं च चरिमे किं तर्व काह'ति, चरिमे काउस्सग्गे छम्मासमेगूण (दिणादि ) हाणी जाव पोरिसि नमो वा, एवं जं समत्था कार्ड है तमसढभावा हिअए करेंति, पच्छा वंदित्ता गुरुसक्खयं पवजंति, सबे य नमोकारइत्तगा समर्ग उडेति वोसिरावेंति निसीयंति य, एवं पोरिसिमादिसु विभासा, तओ तिण्णि थुई जहा पुर्व, नवरमप्पसदगं देति जहा घरकोइलादी सत्ता न उडेति, तओ देवे वंदंति, तओ बहुवेलं संदिसावेंति, ततो रयहरणं पडिलेहंति, ततो उवधि संदिसावेंति पडिलेहंति य, COCCASKAR दीप अनुक्रम [५३-५७]] सामायिकपूर्वक प्रतिकाम्यन्ति, सती बन्दनकपूर्व क्षमयन्ति, वन्दनं कृत्वा ततः सामायिकपूर्वकं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, तत्र चियम्ति-कसिलिदायुक्ताह वयं गुरुभिः ततमाशं तपः प्रपद्यामहे यादोन तस्स हानिन भवति, तश्चिन्तयन्ति-पण्मासक्षपर्ण कुर्मः १, मामा, एकदिवसेनोनं ,यापिन सशक्नुमः, एवं यावत् पञ्च मासाः, ततधतुरा, ततस्त्रीन् ततो दी तत एक ततोऽईमासं चतुर्थभक्तमाचामाम्ल एकस्थानक पूर्वाध निर्विकृतिक नमस्कारसहितं वैति, चरमे कायोत्सर्गे षण्मासा एकदिनादिहानियांवत् पौरुषी नमस्कारसहितं वा, एवं यत् समर्थाः कतु तदशमभावा हदि कुर्वन्ति, पश्चात् वन्दित्वा गुरुसाक्षिक प्रतिपयन्ते, सर्वे च नमस्कारसहिते पारकाः समकमुनिहन्ति म्युत्सृजन्ति निषीदन्ति च, एवं पौरुष्यादिषु विभाषा, सतस्तिस्रः स्तुतीर्यथा पूर्व, नवरमरुपशब्द दति यथा गृहकोकिलायाः सवा नोतिष्ठन्ति, सतो देवान् वन्दन्ते, ततो बहुचेलं संदिशन्ति, ततो रजोहरण प्रतिलिसन्ति, तत उपधि संदिशान्ति प्रतिलिसन्ति । ॥७९॥ JABERDunt T imrary/om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15844 Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा १-५], नियुक्ति : [१५२८] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] तो वसहिं पडिलेहिय कालं निवेदेति, अण्णे य भणंति-धुइसमणंतरं कालं निवेएंति, एवं तु पडिकमणकालं तुलेति जहा पडिकमंताणं धुइअवसाणे व पडिलेहणवेला भवति, गय राइयं, इयाणिं पाक्खियं, तस्थिमा विही-जाहे देवसियन पडिकता भवंति निवदृगपडिकमणेणं ताहे गुरू निविसंति, तओ साहू वंदित्ता भणतिROइच्छामि खमासमणो! उवडिओमि अभितरपक्खियं खामेज, पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसह राईणं ज किंचि अपत्तियं परपत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए जं किंचि मज्झ विणयपरिहीणं मुहुमं वा वायरं चा तुम्भे जाणह अहं न याणामि तस्स मिच्छामि दुकडं ( सूत्रं) तै| इदं च निगदसिद्धमेव, नवरमन्तरभाषा-आचार्यस्य भाषमाणस्यान्तरे भाषते, उपरिभाषा तूत्तरकालं तदेव किलाधिक M भाषते, अत्राचार्यों यदभिधत्ते तत् प्रतिपादयन्नाह-'अहमवि खामेमि गाहा व्याख्या-अहमवि खामेमि तुम्भेत्ति दीप अनुक्रम [१८] 15RDOEASE १ ततो वसति प्रतिलिण्य कालं निवेदयन्ति, अन्ये च भणन्ति-स्तुतिसमनन्तरं कार्ल निवेदयन्ति, एवं तु प्रतिक्रमणकालं तोळयन्ति यथा प्रतिकाम्यता सुखवसाग एप प्रतिलेखनावेला भवति । गत रात्रिक वानी पाक्षिकं, तन्नार्य विधिः-पदा देवसि प्रतिकाता भवन्ति निर्वसितप्रतिक्रमणेन तदा पुरयो । निपीदन्ति, ततः साधवो बन्दिया भणन्ति-1 अहमपि क्षमयामि युष्मान् इति भणितं भपति, एवं जघन्येन त्रय फुटतः सर्वे. CAMEainirl Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: 'पाक्षिक क्षमापना' सूत्राणि एवं तेषाम् व्याख्या: ~ 1585~ Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...], (४०) कायोत्स| गोध्य० प्रतिक्रमणविधिः प्रत सूत्रांक आवश्यक- भणियं होति, एवं जहण्णेणं तिणि उक्कोसेणं सबे खामिति,पच्छा गुरू उठेऊणं जहाराइणियाए उद्धडिओ चेव खामेति, हारिभ- इयरेवि जहाराइणियाए सबेवि अवणउत्तमंगा भणंति-देवसियं पडिकंतं पक्खियं खामेमो पण्णरसह दिवसाणमित्यादि द्रीया एवं सेसगावि जहाराइणियाए खाति, पच्छा वंदित्ता भणति-देवसियं पडिकंतं पक्खियं पडिकमावेह, तओ गुरू गुरु- संदिहो वा पक्खियपडिक्कमणं कहुति, सेसगा जहासत्ति काउस्सग्गादिसंठिया धम्मझाणोवगया सुर्णेति, कहिए मुलुत्तर७९२॥ गुणेहिं जं खंडियं तस्स पायच्छित्तनिमित्तं तिणि उसाससयाणि काउस्सगं करेंति, बारसउज्जोयकरेत्ति भणियं होति, पारिए उज्जोयकरे थुई कटुंति, पच्छा उवविद्या मुहर्णतगं पडिलेहित्ता वंदति पच्छा रायाण पूसमाणवा अतिकते मंगलिजे कजे बहुमन्नंति, सनुपरकमेण अखंडियनियबलस्स सोभणो कालो गओ अण्णोऽवि एवं चेव उवडिओ, एवं पक्खियहै विणओवयारं खामेति वितियखामणासुत्तेणं, तञ्चेदं [सू.] दीप अनुक्रम [१८] CERNANCIAC-ASEAN ॥७९ ॥ क्षाम्पन्ते, पश्चात् गुरुत्थाय यथारातिकमूस्थित एव क्षमपति, इतरेऽपि पधारात्रि सत्यवनतोत्तमाना भणन्ति-देवसिकं प्रतिकान्तं पाक्षिक क्षमयामः पञ्चदशसु दिवसेषु, एवं शेषा अपि यधाराति क्षमयन्ति, पश्चाद् वन्दित्वा भणन्ति-देवसिकं प्रतिकात पाक्षिकं प्रतिकामयत, ततो गुरुरुसदिटो वा पाक्षिकप्रतिक्रमणं कथयति, शेषा यथाशक्ति कायोत्सर्गादिसंस्थिता धर्मध्यानोपगताः शुबन्ति, कथिते मूलोत्तरगुणेषु यत् खण्डितं तस्य प्रायश्चित्तनिमित्तं त्रीप्युच्चासशतानि कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, द्वादशोद्योतकरानिति भणितं भवति, पारिते उद्योतकरे स्तुति कथयन्ति, पत्रादुपविष्टा मुखामस्तकं प्रतिलिण्य चन्दन्ते, पश्चात् राजानं पुष्पमाणवा अतिक्रान्ते मालिके का बहुमन्यन्ते-शत्रुपराक्रमणेनासण्डिसनिजबलस्य शोभनः कालो गतः एवमेवान्योऽपि उपस्थिता, एवं पाक्षिकविनयोपचारं क्षमयन्ति द्वितीयक्षामणासूत्रेण, M orayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15864 Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [ ५९ ] OTTO 122 आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५२८...] भाष्यं [२३१...], इच्छामि खमासमणो । पियं च मे जं मे हाणं तुट्टाणं अप्पायंकाणं अभग्गजोगाणं सुसीलाणं सुब्बयाणं सायरिय उवज्झायाणं णाणेणं दंसणेणं चरिणं तवसा अप्पाणं भावेमाणाणं बहुसुभेणं मे दिवसो पोसहो पक्खो वतिकंतो, अण्णो य मे कल्लाणेणं पज्जुबडिओ सिरसा मणसा मत्यरण वंदामि (सूत्रम् ) निगदसिद्धं, आयरिआ भणति साहूहिं समं जमेयं भणियंति, तओ चेइयवंदावणं साधुवंदावणं च निवेदितुंकामा भणन्ति ● इच्छामि खमासमणो! पुच्चि चेहयाई वंदित्ता नमसित्ता तुज्झं पायमूले विहरमाणेणं जे केइ बहुदेवसिया साहुणो दिट्ठा सम (मा)णा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दुइजमाणा वा, राइणिया संपुच्छंति ओमराइणिया बंदंति अज्जा वंदति अजियाओ वंदति सावया वंदति सावियाओ बंदंति अहंपि निस्सल्लो निक साओ (तिकट्ट) सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि । अहमवि वंदावेमि चेहयाई (सूत्रम् ) निगदसिद्धं, नवरं समणो-बुहवासी वसमाणो णवविगप्पविहारी, बुहवासी जंघात्रलपरिहीणो णव विभागे खेचं काऊण विहरति, नवविगप्पविहारी पुण उबद्धे अड मासा मासकप्पेण विहरति, एए अड विगप्पा, वासावासं एगंमि चेव ठाणे १ भाचा भगन्ति-साधुभिः समं यदेतत् भणितमिति, तत्यवन्दनं साधुवन्दनं च निवेदयितुकामा भणन्ति-मदरं श्रमणो वृद्धावासः वैश्रमणो (वसन्) - नवविकल्पविहारः, वृद्धावासः परिक्षीणजङ्घायलो नव विभागान् क्षेत्रं कृत्वा विहरति परिहारः पुनः तुष्ट मासानू मासकल्पेन विहरति, एतेऽह विकल्पाः वर्षांपासमेकस्मिन् स्थाने. For Funny मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1587 ~ Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- करेंति, एस णवविगप्पो, अत्राचार्यो भणति-मत्थएण वंदामि अहंपि तेसिंति, अण्णे भणति-अहमवि वंदावेमित्तिकायोत्सहारिभतओ अप्पगं गुरुणं निवेदंति चउत्थखामणासुत्तेणं, तच्चेद गोंध्या द्रीया KOइच्छामि खमासमणो! उवडिओमि तुन्भण्हं संतियं अहा कप्पं वा वत्थं वा पडिग्गहंवा कंबलं याप्रतिक्रमण M विधिः पायपुच्छणं वा (रयहरणं वा) अक्खरं वा पयं वागाई वा सिलोग वा(सिलोगडं वा)अg वा हे वा पसिणं ॥७९॥ Pावा वागरणं चा तुम्भेहिं (सम्म) चियत्तेण दिपणं मए अविणएण पडिच्छियं तस्स मिच्छामि दुफळ (सूत्रम) F निगदसिद्ध, आयरिआ भणंति-'आयरियसंतिय'ति य अहंकारवजणत्थं, किं ममात्रेति, तओ जं विणइया तमणु सहि बहु मन्नति पंचमखामणासुत्तेण, तच्चेदंPDइच्छामि खमासमणो ! कयाई च मे कितिकम्माई आयारमंतरे विणयमंतरे सेहिओ सेहाविओ संगहिओर ४ उवगहिओ सारिओ वारिओ चोइओ पडिचोइओ अन्भुडिओऽहं तुन्भण्हं तवतेयसिरीए इमाओ चातुरंत-12 संसारकताराओ साहङ नित्थरिस्सामित्तिकद्दु सिरसा मणसा मत्थएण बन्दामि (सूत्र) निगदसिद्धं, संगहिओ-णाणादीहिंसारिओ-हिए पवत्तिओवारिओ-अहियाओनिवत्तिओ चोइओ-खलणाए पडिचोइओ 1 करोति, एष नवमो विकल्पः । मस्तकेन वन्देऽहमपि तेषामिति, अन्ये भजन्ति-अहमपि बन्दयामीति, तत आत्मानं गुरुम्यो निवेदयन्ति चतुर्थक्षामणासूत्रेण, आचार्या भणन्ति-आचार्यसत्कमिति चाहकारवर्जनार्थ, ततो यत् विनायितासामनुशासि बहु मन्यन्ते पजमक्षामणासूोग, संगृहीतः-ज्ञानादिभिः (सारितः-हिते प्रवर्तितः बारितोऽहितात् निवर्तितः चोदितः स्खलनायां प्रतिचोक्तिः दीप अनुक्रम [६०] JanEaintin मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~15884 Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...], (४०) प्रत सूत्रांक पणो २ अवस्थं उवविउत्ति, पच्छा आयरिओ भणइ-'नित्थारगपारगति नित्थारगपारगा होहत्ति, गुरुणोत्ति, एयाई चयणाईति वफसेसमय गाथार्थः ॥ १५२९ ॥ एवं सेसाणवि साहूणं खामणावंदर्ण करेंति, अह वियालो वाघाओ वा ताहे सत्तण्हं पंचण्डं तिण्हं वा, पच्छा देवसिय पडिकमंति, केइ भणंति-सामण्णेणं, अन्ने भणति-खामणाइयं, अण्णे चरितुस्सग्गाइयं, सेजदेवयाए य उस्सग्गं करेंति, पडिकंताणं गुरूसु वंदिपसु वड्डमाणीओ तिण्णि थुइओ आयरिया भणंति, इमेवि अंजलिमउलियग्गहत्था समत्तीए नमोकारं करेंति, पच्छा सेसगावि भणंति, तद्दिवस नवि सुत्तपोरिसी नवि अस्थपोससी ईओ भणति जस्स जत्तियाओ एंति, एसा पक्खियपडिकमणविही मूलटीकाकारेण भणिया, अण्णे पुण आयरणाणुसारेण भणति-देवसिए पडिकंते खामिए य तओ पढ़मं गुरू चेव उहित्ता पक्खियं खामेंति जहाराइणियाए, तओ उवविसंति, एवं सेसगावि जहाराइणिया खामेत्ता उपविसंति, परछा वंदित्ता भणंति-देवसिय पडिकतं पक्खियं [सू.] दीप अनुक्रम [६२] पुनः पुनश्वस्थामुपस्थापितः, पादाचाया भगन्ति-निस्तारकपारगा भवतेति, गुरूणामिति एतानि वचनानीति वाक्यशेषः। एवं शेषाणामपि साधूनां | क्षामणावन्दन कुर्वन्ति, अथ विकालो व्याघातो वा तदा सप्तानो पनानां त्रयाणां वा, पश्चाईवसिकं प्रतिकाम्यन्ति, केचित् भणन्ति-सामान्येन, अन्ये भणन्तिक्षामणादिक, अन्ये चारित्रोत्सगोंदिक, शय्यादेवतायाश्चोत्सर्ग कुर्वन्ति, प्रतिक्राम्पत्सु गुरुषु वन्दितेषु (च) वर्धमानास्तिनः स्तुतीगुरवो भणन्ति, इमेऽपि मजलिमुकुलिताप्रहस्ताः समाप्ती नमस्कारं कुर्वन्ति, पक्षाच्छपा अपि भणन्ति, तदिवसे नैव सूत्रपौरुषी नैवार्थपरिषी, सुतीभणन्ति वेन यादयोऽधीताः, एष पाक्षि कातिकमणविधिमूलटीकाकारेण भाणितः, अन्ये गुनः आचरणानुसारेण भणन्ति-दैवसिके प्रतिकान्ते क्षामिते च ततः प्रथम गुरुरेवोत्थाय पाक्षिक क्षमयन्ति सायथाशनिक, तत उपविशन्ति, एवं शेषा अपि यथाराविक क्षमषित्वोपविशन्ति, पचाइन्दिावा भणन्ति-दैवसिकं प्रतिक्रान्तं पाक्षिक Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1589~ Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५२८...] भाष्यं [२३१...], (४०) कायोत्स ध्य० प्रतिक्रमण प्रत सूत्रांक आवश्यक- पडियमावेह, इत्यादि पूर्ववत्, एवं चाउमासियपि, नवरं काउस्सगे पंचुस्साससयाणि, एवं संवच्छरियपि नवरं काउ- हारिभ- 12स्सग्गो अहसहस्सं उस्सासाणं, चाउमासियसंवच्छरिएम सवेवि मूलगुणउत्तरगुणाणं आलोयणं दाङ पडिकमंति, खेत्तद्रीया द्र देवयाए उस्सग्गं करेंति, केई पुण चाउमासिगे सिजदेवयाएवि उस्सगं करेंति, पभाए य आवस्सए कए पंचकल्लाणगं| रागिण्हंति, पुषगहिए य अभिम्गहे निवेदेति, अभिग्रहा जइ संमं णाणुपालिया तो कुइयककराइयस्स उस्सग करेंति, १७९४|| पुणोऽवि अण्णे गिण्हंति, निरभिग्गहाण न वट्टइ अच्छिउँ, संवच्छरिए य आवस्सए कए पाओसिए पज्जोसवणा कप्पो | कडिजति, सो पुण पुषिं च अणागयं पंचरत्तं कहिजइ य, एसा सामायारित्ति, एनामेव कालतः उपसंहरन्नाह भाष्यकार:|चाउम्मासियवरिसे आलोअण नियमसोहुदायब्बा। गहणं अभिग्गहाण य पुब्वगहिए निवेएउं॥२३२॥ (भा०) चाजम्मासिषवरिसे उस्सग्गो खित्तदेवयाए उ । पक्खिय सिजसुरीए करिति चउमासिए वेगे ॥२३३॥ (भा०) गाथाद्वयं गतार्थ । अधुना नियतकायोत्सर्गप्रतिपादनायाह [सू.] दीप अनुक्रम HNA [६२] ७९४॥ प्रतिकामयत, एवं चातुर्मासिकमपि, पर कायोत्सर्ग पयोमासशतानि, एवं सांवत्सरिकमपि गबरं कायोत्सर्गोऽसहसमुच्छालानां । चातुर्मासिकसांवत्सरिकयोः सर्वेऽपि मूलोत्तरगुणानामालोचना दवा प्रतिकाम्यन्ति क्षेत्रदेवताया ऋत्सर्ग कुर्वन्ति, केचित् पुनश्चातुर्मासिके पापादेवताया अपि कायो- VIसर्ग कुर्वन्ति, प्रभाते चावश्यके कृते पाकल्याणकं गृहन्ति, पूर्वगृहीतांश्चाभिग्रहान् निवेदयन्ति, अभिप्रहा यदि पुनः सम्पम् नानुपालितास्तदा कूजितक रायिततयोत्सर्गन्ति , पुनरपि अन्यान् गृहन्ति, निरभिमहर्न वर्त्तते स्थातुं, सांवत्सरिके चावपके रुते प्रदोपे पर्युषणाकपः कन्यते, स पुनः पूर्वमेवानागते पञ्चरात्रे कथ्यते च, एषा सामाचारीति । htorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1590 ~ Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५२९] भाष्यं [२३३], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] RASC-%ASSAGE देसिय राइय पक्खिय चउमासे या तहेव वरिसे य। एएसु हुंति नियया उस्सग्गा अनिअया सेसा ॥ १५२९॥ साय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खंमि । पंच य चाउम्मासे असहस्सं च वारिसए ॥ १५३० ॥ |चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ताय हुंति उज्जोआ। देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे अ वरिसे य॥१५३१॥ पणवीसमद्धतेरस सिलोग पन्नतरि च बोद्धव्वा । सयमेगं पणवीसं बे बावन्ना य वारिसिए ॥१५३२॥ निगदसिद्धाः, नवरं शेषा-गमनादिविषया इति, साम्प्रतं नियतकायोत्सर्गाणामोघत उच्छासमानं प्रतिपादयन्नाह'सायत्ति सायं-प्रदोषः तत्र शतमुच्छासानां भवति, चतुभिरुद्योतकरैरिति, भावित एवायमर्थः प्राक्, 'गोसद्धति प्रत्यूषे पञ्चाशद्यतस्तत्रोद्योतकरद्वयं भवति, शेष प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥१५३०॥ उच्छासमान चोपरिष्टाद् वक्ष्यामः 'पायसमा उस्सासा' इत्यादिना । साम्प्रतं दैवसिकादिषूद्योतकरमानमभिधित्सुराह-'चत्तारित्तिगाहा भावितार्था ॥१५३१॥ अधुना श्लोकमानमुपदर्शयन्नाह-पणवीसे'तिगाहा निगदसिद्धैव, नवरं चतुर्भिरुच्छासैः श्लोकः परिगृह्यते ॥ १५३२ ॥ इत्युक्ता नियतकायोत्सर्गवक्तव्यता, इदानीमनियतकायोत्सर्गवक्तव्यतावसरः, तत्रेयं गाथागमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदसणे राओ । नावानइसंतारे इरियाव हियापडिकमणं ॥ १५३३ ॥ भत्ते पाणे सयणासणे य अरिहंतसमणसिज्जासु । उच्चारे पासवणे पणवीसं हुंति उस्सासा ॥२३४॥ द्वारम् (भा०) नियआलयाओ गमणं अन्नस्थ उ सुत्तपोरिसिनिमित्तं । होइ विहारो इत्थवि पणवीसं हुंति ऊसासा ॥१॥(प०) उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुन्नवणियाए । अट्ठेव य ऊसासा पट्ठवण पडिकमणमाई ॥ १५३४ ॥ दीप अनुक्रम [६२] 45 Mainrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1591~ Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५३५] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक-18जुला अकालपढियाइएसु दुहु अ पडिच्छियाईसु । समणुनसमुदसे काउस्सग्गस्स करणं तु ॥ १५३५॥॥५कायोत्स जं पुण उदिसमाणा अणइवंतावि कुणह उस्सग्ग। एस अकओवि दोसो परिधिप्पड किं मुहाभंते ! ॥१५३६॥ र्गाध्य. द्रीया पावुग्घाई कीरइ उस्सग्गो मंगलंति उहेसो । अणुवहियमंगलाणं मा हुज कहिंचि णे विग्धं ॥ १५३७ ॥ अनियत कायोत्स० ७९५॥ पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविजाहि ॥ १५३८॥ नावा(ए) उत्तरि वहमाई तह नई च एमेव । संतारेण चलेण व गंतुं पणवीस ऊसासा ॥१॥ (प्र.) का गमण भिक्षादिनिमित्तमन्यग्रामादी, आगमणं तत्तो चेव, इत्थ इरियावहियं पडिकमिऊण पंचवीसुस्सासो काउस्सग्गो काययो॥१५३३॥ तथा चामुमेवावयवं विवृण्वन्नाह भाष्यकार:-भत्ते पाणे सयणासणे' गाहा, भत्तपाणनिमित्तमन्नगामा-1 दिगया जइ न ताव बेलेति ता ईरियावहियं पडिक्कमिऊण अच्छंति । आगयावि पुणोऽवि पडिकमंति, एवं सयणासणनि| मित्तंपि, सयण-संथारगो वसही वा, आसण-पीढगादि, 'अरहंतसमणसेज्जासुत्ति चेइघरं गया पडिक्कमिऊणं अच्छंति, एवं समणसेजभि-साहुवसतिमित्यर्थः, 'उच्चारपासवणे'त्ति उच्चारे वोसिरिए पासवणे य जतिवि हत्यमेत्तं गया RASHASAMS [सू.] 4- दीप अनुक्रम [६२] %-4 ७९५॥ द्र गमनं भिक्षादिनिमित्तमन्यनामादौ आगमनं तत एवात्रेयापधिको प्रतिक्रम्ब पचविंशत्युच्छासः कायोरसर्गः कर्तव्यः, भक्तपान निमित्तमन्यमामादि*गता यदि तावन्न वेलेति तदेर्यापथिकी प्रतिक्रम्य तिष्ठन्ति, आगता अपि पुनरपि प्रति काम्यन्ति, एवं शयनासननिमितमपि, शयनं संस्तारको बखतिवा, आसनं जापीठादि 'बई रमणशय्यास्विति चैत्यगृहं गताः प्रतिक्रम्प तिष्ठन्ति, एवं श्रमणशय्यास्विति साधुवसतौ 'उच्चारप्रश्रवण' इति उचारं व्युत्सृज्य प्रश्रवर्ण च यद्यपि हसमावं गता AmEaatmi UPDrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1592 ~ Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५३८] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक KIतोsवि आगया पतिकमंति, अह मत्तए बोसिरिय होज ताहे जो तं परिठवेति सो पडिकमति, सठाणेसु पुण जइ हत्थPIRIनियत्तस्स बाहिं तो पडिकमंति, अह अंतो न पडिकमंति, एतेसु ठाणेसु काउस्सग्गपरिमाणं पणुवीस होति ऊसा सत्ति गाथार्थः "बिहारे'त्ति विहारं व्याचिख्यासुराह-निययालयाउ गमण'गाहा [गाथा ]ऽन्यकर्तकी सोपयोगा च निगदसिद्धा च । 'सुत्ते वत्ति सूत्रद्वारं व्याचिख्यासुराह-'उद्देससमुद्देसे' गाहा व्याख्या-मुत्तस्स उद्देसे समुद्देसे य जो 8 है काउस्सग्गो कीरइ तत्थ सत्ताबीसमुस्सासा भवंति, अणुण्णवणयाए य, एत्थ जइ असढो सयं चेव पारेइ, अह सढो |ताहे आयरिया अद्वेच ऊसासा, 'पवणपडिकमणमाई' पट्टविओ कजनिमित्तं जइ खलइ अगुस्सासं उस्सग्गं करिय| गच्छइ, वितियवारं जति तो सोलस्सुस्सासं, ततियवारं जइ तो न गच्छति, अण्णो पहविज्जति, अवस्सकज्जे वा देवे वं-18 ६ दिय पुरओ साहू ठवेत्ता अण्णण समं गच्छति, कालपडिक्कमणेवि अहउस्सासा, आदिसहाओ कालगिहण पठ्ठवणे य [सू.] SCRESSURE दीप अनुक्रम [६२] १स्तदाऽपयागताः प्रतिकाम्यन्ति, अर्थ मात्रके व्युत्पष्टं भवेत् तदा यतं परिछापयेत् स प्रतिकाम्येत्, स्वस्थानात् पुनदि हस्तपात निवृत्ताइहिनदा प्रतिकाम्यन्ति, भयातनं प्रतिकाम्यन्ति, एतेषु स्थानेषु कायोत्सर्गपरिमाणं पजविघातिरुच्छ्रासा इति । सूत्रसोदेशे समुदेशे च यः कायोत्सर्गः क्रियते तत्र सप्तविंशतिरुच्यासा भवन्ति, मनुज्ञायां च, अत्र ययातः स्वयमेष पारपति, अथ शउस्तादाचार्या अटैचोच्छवासान् , प्रस्थापनप्रतिक्रमणादी-प्रस्थापितः कार्य| निमित्तं यदि स्खलनि अटोवालमुत्सर्ग कृत्वा गच्छति, द्वितीयवार यदि तवा पोदशोख़ास, तृतीयवार यदि तदा न गच्छति, अन्यः प्रस्थाप्यते, अवश्यकायें | सेवा देवान् बन्दिया पुरतः साधून स्थापयित्वाम्येन सर्म गच्छति, कालपतिक्रमणेऽप्यष्टोक्लासाः, आदिशब्दात् कालपणे प्रस्थापनेच. N arary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1593~ Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५३८] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] (४०) दीया प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- गोवरचरियाए सुयखंधपरियट्टणे अह चेव, केसिंचि परियट्टणे पंचवीस, तथा चाह-'सुयखंधपरियट्टणं मंगलस्थं (उज्जोय कायोत्सहारिभ- काउस्सग्ग काऊण कीरइत्ति गाथार्थः॥१५३४ ॥ अत्राह चोदकः-'जुज्जइ अकालपढियाइ' गाथा, युज्यते-संगच्छते घटतेगाध्य. अकालपठितादिषु कारणेषु सत्सु अकालपठितमादिशब्दात् काले न पठितमित्यादि, दुष्टु च प्रतीच्छितादि-दुष्टविधिना काले तिमिया -ASETITIअनियत | कायोत्स० ७९ प्र तीपिछतं आदिशब्दात् श्रुतहीलनादिपरिग्रहः, 'समणुण्णसमुद्देसे'त्ति समनुज्ञासमुद्देशयोः, समनुज्ञायां च समुदेशे च कायो-2|| दत्सर्गस्य करणं युज्यत एवेति योगः, अतिचारसम्भवादिति गाथार्थः॥१५३५ ॥ यत् पुनरुद्दिश्यमानाः श्रुतमनतिकान्ता अपि निविषयत्वादपराधमप्राप्ता अपि 'कुणह जस्सग्गति कुरुत कायोत्सर्ग एपः अकृतोऽपि दोषः कायोत्सर्गशोध्यः परिगृह्यते । किं मुधा भदन्त !, न चेत् परिगृह्य(ते) न कर्त्तव्यः तयुदेशकायोत्सर्ग इति गाथाभिप्रायः॥१५३६ ॥ अत्राहाचार्यः-'पावुग्धाई कीरई गाहा निगदसिद्धा ॥१५३७॥ सुमिणदसणे राउ'त्ति द्वारं व्याख्यानयन्नाह-'पाणवहमुसावाए' गाहा, सुमिणमि पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव आसेविए समाणे सयमेगं तु अणूणं उस्सासाणं भविजाहि, मेहुणे दिडिविपरियासियाए सयं इत्थीविप्परियासयाए अट्ठसयति ॥ उक्तं च-"दिहीविपरियासे सय मेहुन्नंमि थीविपरियासे । ववहारेणह-13 सयं अणभिरसंगरस साहुस्स ॥१॥"गाथार्थः॥१५३८॥णावाणतिसंतार'त्ति द्वारत्रयं व्याचिख्यासुराह-'नावाए उत्तरि ॥७९६॥ बहगाई गाहा, गाथेयमन्यकर्तृकी सोपयोगा च निगदसिद्धा, इदानीमुच्छ्रासमानप्रतिपादनायाह गोचरचर्यायां धुतस्वग्धपरावर्तनेच, पाकित परावर्तने पञ्चविंशतिः, श्रुतस्कम्पपरानं मनलार्य कायोत्सर्ग कृत्वा कियते । २ स्वमे प्राणवधमृषाबादावनमधुनपरिग्रहेष्वासे वितेषु सत्सु शतमेकमनूनमुच्यासानां भवेत, मधुने दृष्टिविषयांसे शातं खीविपर्यासेजपातमिति. दीप अनुक्रम [६२] P orary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1594 ~ Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५३९] भाष्यं [२३४], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] पायसमा ऊसासा कालपमाणेण हुंति नायव्वा । एवं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायब्वं ॥१५३९॥ 'पायसमा उरसासा काल' गाहा व्याख्या-नवरं पादः-श्लोकपादः ॥ १५३९ ।। व्याख्याता गमनेत्यादिद्वारगाथा, अधुनाऽऽद्यद्वारगाधागतमशठद्वारं व्याख्यायते, इह विज्ञानवता शायरहितेनात्महितमितिकृत्वा स्वबलापेक्षया कार्य होत्सर्गः कार्यः, अन्यथाकरणेऽनेकदोषप्रसङ्गः, तथा चाह भाष्यकार: जो खलु तीसइवरिसोसत्तरिवरिसेण पारणाइसमो। विसमे व कृडवाही निम्विन्नाणेह से जड़े ॥२३५ ॥(भा) समभूमेवि अइभरो उजाणे किमुअ कूडवाहिस्स?| अइभारेणं भजइ तुत्तयघाएहि अमरालो॥२३६॥ (भा०) एमेव बलसमग्गो न कुणइ मायाइ सम्ममुस्सग्गं । मायावडिअं कम्मं पावह उस्सग्गकेसं च ॥१॥(प्र.) |मायाए उस्सग्ग सेसं च तवं अकुवओ सहुणो । को अन्नो अणुहोही सकम्मसेसं अणिज्जरियं ॥१५४०॥ |निकडं सविसेसं चयाणुरूवं बलाणुरूवं च । खाणुव्व उहदेहो काउस्सगं तु ठाइज्जा ॥ १५४१ ।। व्याख्या-यः कश्चित् साधुः, खलुशब्दो विशेषणार्थः, त्रिंशद्वर्षः सन् खलुशब्दाद् बलवानातङ्करहितश्च सप्ततिवर्षेPणान्येन वृद्धेन साधुना पारणाइसमो-कायोत्सर्गप्रारम्भपरिसमाया तुल्य इत्यर्थः । विषम इव-उमुकादाविव कूटवाही बली वई इव निर्विज्ञान एवासौ 'जड' जड़े, स्वहितपरिज्ञानशून्यत्वात् , तथा चात्महितमेव सम्यक्कायोत्सर्गकरणं स्वकर्मक्षयफलत्वादिति गाथार्थः ॥ २३५ ॥ अधुना दृष्टान्तमेव विवृण्वन्नाह-'समभूमेवि अइभरो'गाहा व्याख्या-समभूमा-| वपि अतिभरविषमवाहित्यात् 'उज्जाणे किमुत कूडवाहिस्स'उर्दू यानमस्मिन्नित्युद्यानम्-उदकं तस्मिन्नुद्याने किमुत?, सुत दीप अनुक्रम [६२] 0-5545 X Drary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1595 Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२] आवश्यकहारिभद्रीया ॥७९७॥ Education) ५ * आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५] मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५४१] भाष्यं [ २३६], प्रक्षेप [१] गांध्य० अशठद्वार रामित्यर्थः, कस्य १- कूटवाहिनो बलीवर्दस्य, तस्य च दोषद्वयमित्याह - 'अतिभारणं भजति तुत्तवघाएहि य मराठो ३५कायोत्सत्ति अतिभारेण भज्यते यतो विषमवाहिन एवातिभारो भवति, तुत्तयघातैश्च विषमवाहोऽथ पीड्यते, तुत्तगो- पाइणगो मरालो -गलिरिति गाथार्थः ॥ २३६ ॥ साम्प्रतं दार्शन्तिकयोजनां कुर्वन्नाह - 'एमेव बलसमगो गाहा व्याख्या - इयमन्यकर्तृकी सोपयोगा च व्याख्यायते, 'एमेव 'मरालबलीवर्दवत् बलसमग्रः सन् (यो ) न करोति मायया करणेन सम्यक् - सामर्थ्यानुरूपं कायोत्सर्गे स मूढः मायाप्रत्ययं कर्म प्राप्नोति नियमत एव, तथा कायोत्सर्गक्लेशं च निष्फलं प्राप्नोति, तथाहिनिर्मायस्यापेक्षारहितस्य स्वशक्त्यनुरूपं च कुर्वत एव सर्वमनुष्ठानं सफलं भवतीति गाथार्थः ॥ अधुना मायावतो दोषानुपदर्शयन्नाह - 'मायाए उस्सगं गाहा, मायया कायोत्सर्ग शेषं च तपः-अनशनादि अकुर्वतः 'सहिष्णोः समर्थस्य कश्च तस्मादन्योऽनुभविष्यति ?, किं-स्वकर्म [वि]शेषमनिर्जरितं, शेषता चास्य सम्यक्त्वमात्योत्कृष्टकर्मापेक्षयेति, उक्त च-"सत्तण्हं पगडीणं अभितरओ उ कोडीकोडीए । काऊण सागराणं जइ लहर चउण्हमण्णयरं ॥ १ ॥” अन्ये पठन्ति - 'एमेवय उस्सगं'ति, न चायमतिशोभनः पाठ इति गाधार्थः ॥ १५४० ॥ यतश्चैवमतः - निकूडं सविसेसं' गाहा, 'निष्कूट' मित्यशठं 'सविशेष' मिति समवलादन्यस्मात् सकाशात्, न चाहमहमिकया, किं तु वयोऽनुरूपं, स्थाणुरिवोर्द्धदेहो निष्कम्पः समशत्रु मित्रः कायोत्सर्गे तु तिष्ठेत्, तुशब्दादन्यच्च भिक्षाटनाद्येवंभूतमेवानुतिष्ठत ( छेत् ) इति गाथार्थः ॥ १५४१ ॥ इदानीं वयो बलं चाधिकृत्य कायोत्सर्गकरणविधिमभिधत्ते 3 सप्तानां प्रकृतीनामभ्यन्तरे तु कोटीकोव्याः कृत्वा सागरोपमाणां यदि लभते चतुर्णामन्यतरत् ( तहिं लभते ) ॥ १ ॥ For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1596~ ॥७९७ ॥ Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५४२] भाष्यं [२३६...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] PSACROSORRECK + तरुणो बलवं तरुणो अ सुब्बलो धेरओ बलसमिद्धो। धेरो अबलो चउसुवि भंगेसु जहायलं ठाई ॥१५४२॥ तरुणो बलवान् १ तरुणश्च दुर्बलः २ स्थविरो बलसमृद्धः ३ स्थविरो दुर्बलः ४ चतुर्वपि भङ्गकेषु यथावलं तिष्ठति चलानुरूपमित्यर्थः, न त्वभिमानतः, कथमनेनापि वृद्धेन तुल्य इत्यवलवतापि स्थातव्यम्, उत्तरत्रासमाधानग्लानादावधिकरणसम्भवादिति गाथार्थः ॥ १५४२ ॥ गतं सप्रसङ्गमशठद्वारं, साम्प्रतं शठद्वारावसरस्तत्रेय गाथा पथलायइ पडिपुच्छइ कंटययवियारपासवणधम्मे । नियडी गेलनं वा करेइ कूडं हवइ एयं ॥१५४३ ॥ M कायोत्सर्गकरणबेलायां मायया प्रचलयति--निद्रां गच्छति, प्रतिपृच्छति सूत्रमर्थ वा, कण्टकं अपनयति, 'वियार'त्ति पुरीपोत्सर्गाय गच्छति, 'पासवणे'त्ति कायिका व्युत्सृजति, 'धम्मे'त्ति धर्म कथयति, "निकृत्या' मायया ग्लानत्वं वा करोति कूटं भवत्येतद्-अनुष्ठानमिति गाथार्थः ॥ १५४३ ॥ गतं शठद्वारम्, अधुना विधिद्वारमाख्यायते, तत्रेयं गाथापुवं ठंति य गुरुणो गुरुणा उस्सारियंमि पारेति । ठायंति सविसेसं तरुणा उ अनूणविरिया उ ॥ १५४४ ॥ |चवरंगुल मुहपत्ती उज्जए डब्बहत्य रयहरणं । बोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ १५४५ ॥ घोग लयाइ खंभेकुड़े माले असवरि वह नियले ।लंबुसर थण उद्धी संजय खलि[णे य वायसकविट्टे ॥१५४६ सीमुकंपिय सई अंगुलिभमुहा य वारुणी पहा । नाहीकरयलकुप्पर उस्सारिय पारियंमि थुई ।। १५४७ ॥ दीप अनुक्रम [६२] P aintary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1597~ Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२] आवश्यक हारिभ द्वीया ॥७९८ ॥ Educationt आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५४७ ] भाष्यं [ २३६...], 'ged संतिय गुरुणो' गाहा प्रकटार्थी ॥। १५४४ ॥ 'चउरंगुल'त्ति चत्तारि अंगुलाणि पायाणं अंतरं करेयवं, मुहपोत्तिं ४५कायोत्स'उजुरत्ति दाहिणहत्थेण मुहपोत्तिया घेत्तवा, डब्बहत्थे रयहरणं काय, एतेण विहिणा 'वोसचत्त देहो'त्ति पूर्ववत्, काउस्सगं करिज्जाहित्ति गाथार्थः ॥ १५४५ ॥ गतं विधिद्वारम् अधुना दोषावसरः, तत्रेदं गाथाद्वयं 'घोडगे' त्यादि - गय० कायोत्सर्गदोषाः आमुच विसमपायं गायं ठावितु ठाइ उस्सगे । कंपइ काउस्सगे लयव खरपवणसंगेणं ॥ १ ॥ खंभे वा कुड्डे वां अवठभिय ठाइ काउसम्मगं तु । माले य उत्तमंगं अवरंभिय ठाइ उत्सर्ग ॥ २ ॥ सवरी वसणविरहिया करेहि सागारियं जह ठवेइ। ठड्ऊण गुज्झदेसं करेहि तो कुणइ उस्सगं ॥ ३ ॥ श्रवणामिउत्तमंगो काउस्सगं जहा कुलबहुन्न । निबलियओविव चलणे वित्थरिय अहव मेलविडं || ४ || काऊण चौलपट्ट | अविधीए नाभिगंडलस्सुवरिं । हिट्ठा य जाणुमित्तं चिट्ठई लंबुत्तरस्सगं ॥ ५ ॥ उच्छाईऊण य थणे चोलगपट्टण ठाइ उस्सगं । साइरक्खणडा * अहवा अन्नाणोसेणं || ६ || मेलित्तु पहियाओ चलणे वित्थारिऊण बाहिरओ । ठाउस्सगं एसो बाहिरउद्धी मुणेयच्वो ॥ ७ ॥ अंगुट्टे मेलविडं ४ विस्थारिय पहियाओ बाहिं तु । ठाउस्सगं एसो भणिओ अमितरुद्धिति ॥ ८ ॥ कप्पं वा पट्टे वा पाइणि संजइव्व उस्सगं । ठाइ य खलिणं व जहा रयहरणं अगओ काउं ||१९|| मामेइ तहा दिहिं चलचितो वायसुन्न उस्सगे । छप्पड़आग भएणं कुणई अ पट्ट कवि व ॥ १० ॥ सीसं पंकपमाणो जक्रखाइगुव्व कुणइ उस्सग्गं । मूयव्व हुअहुअंतो तहेब छिज्जतमाई ॥ ११ ॥ अंगुलिममुहाओवि य चालतो तहय कुणइ उस्सगं आलावगगणणा संठवणत्थं च जोगाणं ॥ १२ ॥ काउस्सममि ठिओ सुरा जह बुडबुडे जव्वतं । अणुपेहंतो तह वानरुव्व चाले ओट्टउडे || १३ ॥ एए काउस्समां कुणमाणेण विबुहेण दोसा उ । सम्मं परिहरियन्या जिणपडिकुडचिकाकणं ॥ १४ ॥ 'नाभीकरयलकुप्पर उस्सारे पारियंमि इति नियुक्तिगाथाशकलं लेशतोऽदुष्टकायोत्सर्गाव स्थान प्रदर्शनपरं विध्य For Fast Use Only ॥७९८ ॥ ~ 1598~ Diyo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः कायोत्सर्ग-संबंधी दोषाणां वर्णनं Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२] आ० १३४ आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५४७ ] भाष्यं [ २३६...], न्तरसंग्रहपरं च तत्र 'नाभित्ति नाभीओ हेट्ठो चोलपट्टी कायद्यो, करयलेत्ति सामण्णेणं हेडा पलंबकरयले 'जाव कोप्परे 'त्ति सोऽविय कोप्परेहिं धरेयबो, एवंभूतेन कायोत्सर्गः कार्यः, उस्सारिए य - काउस्सग्गे पारिए नमोकारेण अवसाणे थुई दायवेति गाथार्थः ॥ १५४७ ॥ गतं प्रासङ्गिकं साम्प्रतं कस्येति द्वारं व्याख्यायते, तत्रोक्तदोषरहितोऽपि यस्यायं कायोत्सर्गे यथोकफलो भवति तमुपदर्शयन्नाह - वासीचंदणकप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो । देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स || १५४८ ॥ |तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणूसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो ॥। १५४९ ॥ इहलोगंमि सुभद्दा राया उहओद सिट्टिभज्जा य । सोदासखग्गथंभण सिद्धी सग्गो य परलोए ।। १५५० ।। 'वासीचंद कप्पो' गाहा व्याख्या - वासीचन्दनकल्पः — उपकार्यपकारिणोर्मध्यस्थः, उक्तं च- "जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा व तच्छेइ। संधुणइ जो व निंदइ महरिसिणो तत्थ समभावा ॥ १ ॥ अनेन परं प्रति माध्यस्थ्यमुक्तं भवति, तथा मरणे - प्राणत्यागलक्षणे जीविते च- प्राणसंधारणलक्षणे चशब्दादिहलोकादौ च समसज्ञः तुल्यबुद्धिरित्यर्थः अनेन चात्मानं प्रति माध्यस्थ्यमुक्तं भवति, तथा देहे च शरीरे चाप्रतिवद्धः चशब्दादुपकरणादौ च कायो १ नाभितोऽधस्तात् चोलपट्टकः कर्त्तव्यः करतलेति सामान्येन मधसात् प्रलम्बकरतलः यावत् पराभ्यां सोऽपि च कूपराभ्यां धारयितव्यः, उत्सारितेच कायोत्सर्गे पारित नमस्कारेणावसाने स्तुतिदांतच्या २ यन्दनेन बाहुमालिम्पति वाया वा तक्षयति । संस्तौति यो वा निति महर्षयस्तत्र समभावाः ॥ १ ॥ For Paint Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1599~ by org Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५०] भाष्यं [२३६...], (४०) कायोत्सर्ग प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-18 सगों यथोक्तफलो भवति तस्येति गाथार्थः ॥ १५४८ ॥ तथा-'तिविहाणुवसग्गाण गाहा, त्रिविधानां-त्रिप्रकाराणां कायोत्सहारिभ दाव्याना-ज्यन्तरादिकतानांमानुपाणां-लेच्छादिकृतानां तैरश्चाना-सिंहादिकृतानां सम्यक-मध्यस्थभावेन अतिसहनायो।४। द्रीया सत्यां कायोत्सर्गों भवति शुद्धः-अविपरीत इत्यर्थः। ततश्चोपसर्गसहिष्णोः कायोत्सर्गो भवतीति गाथार्थः॥१५४९॥द्वार। ॥७९॥ साम्प्रतं फलद्वारमभिधीयते, तच्च फलमिहलोकपरलोकापेक्षया द्विधा भवति, तथा चाह अन्धकारः-'इहलोगमि' गाहा दिव्याख्या-इहलोके यत् कायोत्सर्गफलं तत्र सुभद्रोदाहरणं-कथं ,वसंतपुरं नगरं, तत्थ जियसत्तुराया, जिणदत्तो सेट्ठी संजय सहाओ, तस्स सुभदा दारिया धुया, अतीवरूवस्सिणी ओरालियसरीरा साविगा य, सो तं असाहमियाणं न देइ, तच्च-IC नियसहेणं चंपाओ वाणिज्जागएण दिवा, तीए रूवलोभेण कवडसडओ जाओ, धम्म सुणेइ, जिणसाह पूजेइ, अण्णया भावो । समुप्पण्णो, आयरियाणं आलोएड, तेहिवि अणुसासिओ, जिणदत्तेण से भावं नाऊण धूया दिण्णा, वित्तो विवाहो, M केचिरकालस्सवि सो तं गहाय चंपं गओ, नणंदसासुमाइयाओ तवण्णियसहिगाओ तं खिसंति, तओ जुयर्ग घर कयं, tar दीप अनुक्रम [६२] ७९९॥ वसन्तपुर नगर, तत्र जिता राजा, जिनदत्तः श्रेष्ठी संयतश्राद्धः, तस्य सुभद्रा बालिका दुहितानीव रूपिणी बहारशरीरा श्राविका घ, स ताम-18 N साधार्मिकाय न ददाति, तनिकलादेन चम्पासो वाणिज्यागतेन दृष्टा, तस्या रूपलोभेन पटवाखो जातः, धर्म शृणोति, जिनसाधून पूजयति, अन्यदा भावः समुत्पाः, आचार्याणां कथयति, तैरप्यनुशिष्टः, जिनदसेन तस्य भावं ज्ञात्वा दुहिता दत्ता, वृत्तो विवाहः, किबधिरेण कालेन सोऽपि ता गृहीत्वा चम्पां गतः, नमन्वश्वादिकास्तचनिकायला निन्दन्ति, ततः पृथग्गृहं कृतं, 7475% JAMERIES 1- orary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: कायोत्सर्ग-फ़लस्य कथा एवं भावना कथयते ~1600~ Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५०] भाष्यं [२३६...], (४०) प्रत सूत्रांक तत्थाणेगे समणा समणीओ य पाउम्गनिमित्तमागच्छंति, तदण्णिगसहिया भणंति, एसा संजयाणं दर्द रत्तत्ति, भत्तारोह सेन पत्तियइत्ति, अण्णया कोई वण्णरूवाइगुणगणनिष्फणो तरुणभिक्ख पाउग्गनिमित्तं गओ, तस्स य वाउदय अपिछमि कणगं पविई, सुभदाए तं जीहाए लिहिऊण अवणीयं, तस्स निलाडे तिलओ संकेतो, तेणवि वक्खित्तचित्तण ण जाणिओ, सो नीसरति ताव तच्चणिगसहिगाहिं अथक्कागयस्स भत्तारस्स सदसिओ, पेच्छ इमं वीसत्थरमियसंकंतं भजाए। संगतं तिलगंति, तेणवि चिंतिय-किमिदमेवंपि होजा?, अहवा बलवंतो विसया अणेगभवम्भरथगा य किन्न होइत्ति?, मंदनहो जाओ, सुभद्दाए कहवि विदिओ एस वुत्तंतो, चिंतियं च णाए-पावयणीओ एस उडाहो कह फेडिउ (डेमि) ति. पवयणदेवयमभिसंधारिऊण रयणीए काउस्सग्गं ठिया, अहासंनिहिया काइ देवया तीए सीलसमायारं नाऊण आगया, भणियं च तीए-किं ते पियं करेमित्ति, तीए भणिय-उड्डाई फेडेहि, देवयाए भणिय-फेडेमि, पञ्चूसे इमाए नयरीए [सू.] दीप अनुक्रम [६२] तत्रानेके श्रमणाः श्रम यश्च प्रायोग्यानिमितमागच्छन्ति, तनिकनायो भणन्ति-एषा संबतेषु डर्ब रकेति, भत्ता तथा न प्रत्येतीति, अन्पदा कोऽपि वर्णरूपादिगुणगणयुक्तमतरूण भिक्षुः प्रायोग्यनिमित्तं गतः, तस्य च वायूछतं रजोऽक्षिण प्रविष्ट, सुभद्रा तजिहयोतिस्थापनीतं, तस्त्र ललाटे तिलकः संक्राम्तः, हतेनापि ग्याक्षिप्तचिम न शातः, स निस्सरति तावसनिकवादीभिरकाण्डागताय भने स दर्शितः, पश्येदं विश्वस्तरमणसंकान्त भार्यायाः संगतं तिलकमिति, तेनापि चिन्तितं-किमिदमेवमपि भवेत् ।, अथवा बलवन्तो विषया अनेकभवाभ्यस्तकावेति किं न भवतीति, मन्दनेहो जातः, सुभद्या कथमपि ज्ञात एष |वृत्तान्ता, चिन्तितं चानया-भावनिक एष राहः कथं स्फेटयामीति, प्रवचनदेवतामभिसंधार्य रजनी कायोत्सर्गे पिता, यथासनिहिता काचिदेवता। तस्याः शीलसमाचार ज्ञावाऽजाता, माणितं च तया-किं ते प्रियं करोमीति, तथा भणित-उढाई स्फेटय, देवतया भणितं-स्फेटयामि, प्रत्यूषेऽस्या नगाँ JIKEatini M orary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1601 Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [.] दीप अनुक्रम [६२] आवश्यक हारिभ द्रीया ॥८००॥ Educat * आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [५] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५५० ] भाष्यं [ २३६...... दाराणि थंभेमि, तओ आलग्गे (अण्णे) सु नागरेसु आगासस्था भणिस्सामि जाए परपुरिसो मणेणावि न चिंतिओ सा इत्थिया चालणीए पाणियं छोडूणं गंतूणं तिष्णि वारे छंटेडं उघाडाणि भविस्संति, तओ तुमं विष्णासिद्धं सेसनागरिएहिं बाहि पच्छा जाएज्जासि, तओ उग्घाडेहिसि, तओ फिट्टिही उड्डाहो, पसंसं च पाविहिसि, तहेव कथं पसं च पत्ता, एयं ताव इहलोइयं काउस्सग्गफलं, अन्ने भणति-वाणारसीए सुभद्दाए काउस्सग्गो कओ, एलगच्छुप्पत्ती भाणियबा । राया 'उदिओदर'त्ति, उदितोदयस्स रण्णो भज्जा (धम्म) लाभागयं णिबरोहियस्स उवसमाए व समणजायं, कहाणगं जहा नमोक्कारे । 'सेट्ठिभज्जा य'त्ति चंपाए सुदंसणो सेट्ठिपुत्तो, सो सावगो अहमिचाउदसीसु चच्चरे उवासगपडिमं पडिवज्जइ, सो महादेवीए पस्थिनमाणो णिच्छइ, अण्णया वोसहकाओ देवपडिमत्ति वत्थे चेडीए वेढिवं अंतेउरं अतिणीओ, देवीए निव्यंधेवि कए नेच्छइ, पउछाए कोलाहलो कओ, रण्णा वज्झो आणतो, निज्जमाणे भज्जाए से मित्तवतीए सावियाए सुतं, १ द्वाराणि स्थगिष्यामि ततोऽष्टतिमापत्रेषु नागरेषु आकाशस्था भणिष्यामि यथा परपुरुषो मनखाऽपि न चिन्तितः सा श्री चालिन्यामुदकं क्षिया गवा श्रीन् वारान् छष्टयति उद्घाटयनि भविष्यन्ति ततएवं परीक्ष्य शेषनागरैः सह बहिः पचाद्यायाः, तत उद्घाटयिप्यसि ततः स्फेटिच्यायुः प्रशंसांच प्राप्स्यसि तथैव कृतं प्रशंसां प्राप्ता एवत्ताबदेहली किकं कायोत्सर्गफलं अन्ये भजन्ति-वाराणस्यां सुभद्रया कायोत्सर्गः कृतः, एडकाक्षोत्पत्तिर्भणितम्या । राजा उदितोदय इति, उदितोदयस्य राज्ञः भाषां धर्मलाभागतं अन्तःपुररुद्धं श्रमणमुपसर्गयति कथानकं यथा नमस्कारे । श्रेष्ठिभायां चेति चम्पायां सुदर्शनः श्रेष्ठपुत्रः, स श्रावकोऽष्टमीचतुर्दश्योत्वरे उपासकप्रतिमां प्रतिपद्यते स महादेव्या प्रायमानो नेच्छति अन्यदा युत्सृष्टकायो देवप्रतिमेति चेढ्या वतैर्वेष्टयित्वा अन्तःपुरमानीतः, देव्या निर्बन्धे कृतेऽपि नेच्छति, प्रद्विष्टया कोलाहरुः कृतः, राहा बध्य अज्ञतः, नीयमानो भाया तस्य मित्रवत्या श्राचिकया श्रुतः, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... -------- For Fans Use Only ~ ~ 1602 ~ "कायोत्स र्गाध्य० कायोत्सर्गफले कथाः 11cool! ..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०९] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः janesbrary.org Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५०] भाष्यं [२३७], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] CONNOCESCRACTOR सच्चाणजखस्सासवण्णा काउस्सग्गे ठिता, सुदंसणस्सावं अखंडाण कौरंतुत्ति खंध असी वाहितो, सच्चाणजक्खण पुप्फदाम कतो, मुको रक्षा पूइतो, ताधे मित्तवतीए पारियं तथा 'सोदास'त्ति सोदासोराया, जहा नमोकारे, 'खग्गधभणे त्ति कोई विराहियसामण्णो खग्गो समुप्पण्णो, बट्टाए मारेति साहू, पहाविया, तेण दिहा आगओ, इयरवि काउस्सग्गेण |ठिया, न पहवइ, पच्छा तं दङ्गण उपसंतो । एतदैहिकं फलं, 'सिद्धी सम्गो य परलोए सिद्धिः-मोक्षः स्वर्गो-देवलोकः चशब्दात् चक्रवर्तित्वादि च परलोके फलमिति गाथार्थः ॥ १५५० ॥ आह-सिद्धिः सकलकर्मक्षयादेवाप्यते, 'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः' इति वचनात , स कथं कायोत्सर्गफल मिति !, उच्यते, कर्मक्षयस्यैव कायोत्सर्गफलत्वात् , परम्पराकारणस्यैव |विवक्षितत्वात् , कायोत्सर्गफलत्वमेव कर्मक्षयस्य कथं ?, यत आह भाष्यकार:जह करगओ निकितइ दारु इंतो पुणोवि वचंतो। इअ कंतति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई॥२३७॥(भा)। काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स भजति अंगमंगाई। इय भिदंति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं ।। १५५१॥ अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीबुसि एव कयवुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ ॥ १५५२॥ जावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया । इत्तो दुव्विसहतरा नरएम अणोचमा दुक्खा ॥ १५५३ ॥ दीप अनुक्रम [६२] १ सयाणयक्षस्य मानवणाय (असपना) कायोत्सर्ग स्थिता, सुदर्शनस्थाप्यष्ट खण्डा भवन्विति स्कन्धेऽसिः प्रहृतः, सत्वाणयक्षेण पुष्पदामीकृतः, मुक्तो राज्ञा पूजितः, सदा मित्रवत्या पारितः । सीवासेति सौदासो राजा, यथा समस्कारे, खगस्तम्भन मिति, कविशिरावधामध्यः सः समुत्पन्नः, वर्तन्या मारपति साधून, साधयः प्रधाविताः, सेन रष्टा आगतः, इतरेऽपि कायोत्सर्भेग स्थित प्रभवति । पचासदृष्टोपशान्त:, N arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1603~ Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [म.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५४] भाष्यं [२३७], (४०) * प्रत सूत्रांक ५कायोत्सगर्गाध्य कायोत्सर्गे फलं भावनाच [सू.] आवश्यक- तम्हा उ निम्ममेणं मुणिणा उवलडसुत्तसारणं । हारिभ काउस्सग्गो जग्गो कम्मखयट्ठाय कायब्बो ॥ १५५४ ॥ काउस्सग्गनिजुत्ती समत्ता (ग्रन्थान २५३९) । द्रीया व्याख्या-यथा 'करगतो'त्ति करपत्रं निकृन्तति-छिनत्ति विदारयति दारु-काष्ठं, किं कुर्वन् ?-आगच्छन् पुनश्च ॥८०२॥ वजन्नित्यर्थः, 'इय' एवं कृन्तन्ति सुविहिताः-साधवः कायोत्सर्गेण हेतुभूतेन कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि, तथाऽन्यत्राप्युक्तं- "संवरेण भवे गुत्तो, गुत्तीए संजमुत्तमे। संजमाओ तवो होइ, तबाओ होइ निजरा ॥१॥ निजराएऽसुभं कर्म, खिज्जई| कमसोसया। आवस्सग(गेण)जुत्तस्स,काउस्सग्गो विसेसओ॥२॥"इत्यादि, अयं गाथार्थः।।२३७।। अत्राह-किमिदमित्थमित्यत आह-'काउस्सग्गे'गाहा व्याख्या-कायोत्सर्गे सुस्थितस्य सतः यथा भज्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि 'इय' एवं चित्तनिरोधेन 'भिन्दन्ति'। विदारयन्ति मुनिवरा:-साधवः अष्टविध-अष्टप्रकार कर्मसङ्घात-ज्ञानावरणीयादिलक्षणमिति गाथार्थः॥१५५१|आहहै यदि कायोत्सर्गे सुस्थितस्य भज्यन्ते अङ्गोपाङ्गानि ततश्च इष्टापकारत्वादेवालमनेनेति !, अत्रोच्यते, सौम्य ! मैव-'अन्नं इम' गाहा व्याख्या-अन्यदिदं शरीरं निजकर्मोपात्तमालयमात्रमशाश्वतम् , अन्योजीवोऽस्याधिष्ठाता शाश्वतः स्वकृतकर्मफलोद्रपभोक्ता य इदं त्यजत्येव, एवं कृतबुद्धिः सन् दुःखपरिक्लेशकर छिन्द्धि ममत्वं शरीरात्, किंच-पद्यनेनाप्यसारेण कश्चिदर्थे। सम्पद्यते पारलौकिकस्ततः सुतरां यतः कार्य इति गाथार्थः॥१५५२||किं चैवं विभावनीयम्-'जावइया'गाहा व्याख्या-याव- संवरेण भवेगुप्तो गुह्या संयमोत्तमो भवेत् । संयमात्तपो भवति तपसो भवति निर्जरा ॥ ३ ॥ निजरयाऽशुभं कर्म क्षीयते क्रमशः सवा । भावश्यकेन युक्तस्य कायोत्सर्गे विशेषतः ॥२॥ दीप अनुक्रम [६२] ८०१॥ SINEaran IPCANDrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1604 ~ Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५५४] भाष्यं [२३७], (४०) प्रत सूत्रांक नत्यकृतजिनप्रणीतधर्मेण किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः दुःखानि शारीरमानसानि संसारे-तिर्यग्नरनारका-15 मरभवानुभवलक्षणे यानि मयाऽनुभूतानि तत:-तेभ्यो दुर्विषहतराण्यप्रतोऽप्यकृतपुण्यानां नरकेषु-सीमन्तकादिषु अनुप-14 मानि-उपमारहितानि दुःखानि, दुर्विषहत्वमेतेषां शेषगतिसमुत्थदुःखापेक्षयेति गाथार्थः ॥ १५५३ ।। यतश्चैवं 'तम्हा' गाथा, तस्मात् तु निर्ममेन-ममत्वरहितेन मुनिना-साधुना, किंभूतेन !-उपलब्धसूत्रसारण-विज्ञातसूत्रपरमार्थेनेत्यर्थः, किंकायोत्सर्ग:-उक्तस्वरूपः उग्रः--शुभाध्यवसायप्रबलः कर्मक्षयार्थ नतु स्वर्गादिनिमित्तं कर्तव्य इति गाथार्थः॥१५५४॥ उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्ववत् ।। शिष्यहितायां कायोत्सर्गाध्ययनं समाप्तम् । कायोत्सर्गविवरणं कृत्वा यदवातमिह मया पुण्यम् । तेन खलु सर्वसत्त्वाः पञ्चविध कायमुज्झन्तु ॥१॥ [सू.] %ACARE दीप अनुक्रम ആ മായാജാ ॥ इत्याचार्यश्रीहरिभद्रकृतायां शिष्यहिताख्यायामावश्यकवृत्ती कायोत्सर्गाध्ययन समाप्तं ॥ ॥ [६२] MiDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अत्र अध्ययनं -५- 'कायोत्सर्ग परिसमाप्तं ~1605~ Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] आवश्यक हारिभ द्वीया ८०२|| Jus Education জ জ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १५५४ ...] भाष्यं [ २३७.... ॥ अथ प्रत्याख्यानाध्ययनं । sarvari कायोत्सर्गाध्ययनं, अधुना प्रत्याख्यानाध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तराध्ययने स्खलनविशेषतोऽपराधत्रण विशेषसम्भवे निन्दामात्रेणाशुद्धस्यौघतः प्रायश्चित्तभेषजेनापराधत्रणचिकित्सोक्ता, इह तु गुणधारणा प्रतिपाद्यते भूयोऽपि मूलगुणोत्तरगुणधारणा कार्येति, सा च मूलगुणोत्तरगुणप्रत्याख्यानरूपेति तदत्र निरूप्यते, यद्वा कायोत्सर्गाध्ययने कायोत्सर्गकरणद्वारेण प्रागुपातकर्मक्षयः प्रतिपादितः यथोक्तं- 'जह करगओ नियंतई त्यादि, 'काउस्सग्गे जह सुहियरसे त्यादि, इह तु प्रत्याख्यानकरणतः कर्मक्षयोपशमक्षयजं फलं प्रतिपाद्यते, वक्ष्यते च- 'इहलोइयपरलोइय दुविह फलं होइ पञ्चखाणस्स । इहठोए धम्मिलादी दामण्णगमाइ परलोए ॥ १ ॥ पचक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिद्धं । पत्ता अनंतजीवा सासयसोक्खं लहं मोक्खं ॥ २ ॥ इत्यादि, अथवा सामायिके चारित्रमुपवर्णितं, चतुर्विंशतिस्तवेऽर्हतां गुणस्तुतिः, सा च दर्शनज्ञानरूपा, एवमिदं त्रितयमुक्तं, अस्य च वितथा सेवनमैहिकामुष्मिकापायपरिजिहीर्षुणा गुरोर्निवेदनीयं तच्च वन्दनपूर्वकमित्यतस्तन्निरूपितं, निवेद्य च भूयः शुभेष्वेव स्थानेषु प्रतीपं क्रमणमासेवनीयमिति तदपि निरूपितं तथाऽप्यशुद्धस्य सतोऽपराधत्रणस्य चिकित्सा आलोचनादिना कायोत्सर्गपर्यवसानप्रायश्चित्त भेषजेनानन्तराध्ययन उक्ता, इह तु तथाप्यशुद्धस्य प्रत्याख्यानतो भवतीति तन्निरूप्यते, एवमनेकरूपेण सम्बन्धेनायातस्य प्रत्याख्यानाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि सप्रपचं वक्तव्यानि तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रत्याख्यानाअध्ययनमिति प्रत्याख्यानमध्ययनं च तत्र प्रत्याख्यानमधिकृत्य द्वारगाथामाह नियुक्तिकार: For Fast Use Only ५]कायोत्सगांध्य० प्रत्याख्यात्राचाभेदाः ~ 1606~ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अत्र अध्ययनं -६ 'प्रत्याख्यानं' आरभ्यते ॥८०२ ॥ www.ancibrary.org Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५] भाष्यं [२३८], (४०) % % प्रत सूत्रांक [सू.] पच्चक्खाणं पञ्चक्खाओ पच्चक्खेयं च आणुपुच्चीए । परिसा कहणविही या फलं च आईइ छब्भेया॥१५५५॥ PI अस्या व्याख्या-ख्या प्रकथने' इत्यस्य प्रत्यापूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रत्याख्यानं भवति, तत्र प्रत्याख्यायते-निषिध्यते ऽनेन मनोवाकायक्रियाजालेन किञ्चिदनिष्टमिति प्रत्याख्यानं क्रियाक्रियावतोः कथञ्चिदभेदात् प्रत्याख्यानक्रियैव प्रत्यादाख्यानं प्रत्याख्यायतेऽस्मिन् सति या प्रत्याख्यानं "कृत्यल्युटो बहुल"मिति (पा०३-३-१२) वचनादन्यथाऽप्यदोषः। प्रति आख्यानं प्रत्याख्यानमित्यादौ, तथा प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता-गुरुर्विनेयश्च, तथा प्रत्याख्यायत इति प्रत्याख्येय-प्रत्याख्यानगोचरं वस्तु, चशब्दस्त्रयाणामपि तुल्यकक्षतोद्भावनार्थं, आनुपूया-परिपाट्या कथनीयमिति वाक्य-13 |शेषः, तथा परिषद् वक्तव्या, किंभूतायाः परिपदः कथनीयमिति, तथा कथनविधिश्च-कथनप्रकारश्च वक्तव्यः, तथा फलं चैहिकामुष्मिकभेदं कथनीय, आदावेते षड् भेदा इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं तु यथाऽवसरं भाष्यकार एव 8 वक्ष्यति, तत्राद्यावयवव्यासार्थप्रतिपिपादयिषयाह नामंठवणादविए अइच्छ पडिसेहमेच भावे य । एए खलु छन्भेया पञ्चक्खाणंमि नायव्वा ।।२३८ ॥ (भा०) दवनिमित्तं दब्बे दब्वभूओवतस्थ रायसुआ।अइच्छापचक्खाणं बंभणसमणान(अ) इच्छत्ति॥२३९॥ (भा०) अमुगं दिजउ मज्झ नस्थि ममं तं तु होइ पडिसेहो । सेसपयाण य गाहा पचक्खाणस्स भावमि ॥२४०॥(भा०) हतं दुविहं सुअनोसुअ सुयं दुहा पुच्वमेव नोपुव्वं । पुरुवसुय नवमपुवं नोपुब्वसुयं इमं चेव ॥ २४१ ॥(भा०) नोसुअपच्चक्खाणं मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूले सव्वं देसं इत्तरियं आवकहियं च ॥ २४२ ॥ (भा०) दीप अनुक्रम [६२..] 4% AMERatinAX Bharorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | प्रत्याख्यानम् अधिकृत्य द्वाराणि प्रकाश्यते ~1607~ Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] (४०) ६प्रत्याख्या नाध्य. प्रत्याख्यान निक्षेपाः प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक मूलगुणावि यदुविहा समणाणं चेव सावयाणं च । ते पुण विभत्रमाणा पंचविहाहुंति नायव्वा ॥१॥(प्र.) हारिभ- पाणिवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । समणाणं मुलगुणा तिविहंतिविहेण नायब्वा ॥ २४३॥ (भा.) द्रीया व्याख्या-नामप्रत्याख्यानं स्थापनाप्रत्याख्यानं 'दविए'त्ति द्रव्यप्रत्याख्यानं, 'अदिच्छ'त्ति दातुमिच्छा दित्सा न ॥८.३॥ दित्सा अदित्सा सैव प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानं 'पडिसेहे'त्ति प्रतिषेधप्रत्याख्यान, एवं भावे'त्ति एवं भावप्रत्याख्यानं| च, 'एए खलु छन्भेया पञ्चक्खाणंमिनायब'त्ति गाथादलं निगदसिद्धमयं गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थ तु यथावसरं वक्ष्यामः, ४ तब नामस्थापने गतार्थे ।। २३८ ॥अधुना द्रव्यप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाह-दवनिमित्त गाथाशकलम्, अस्य व्याख्या-द्रव्य निमित्तं प्रत्याख्यानं वस्त्रादिद्रव्यार्थमित्यर्थः, यथा केषाञ्चित् साम्प्रतक्षपकाणां, तथा द्रव्ये प्रत्याख्यानं यथा भूम्यादौ व्यवस्थितः करोति, तथा द्रव्यभूतः-अनुपयुक्तः सन् यः करोति तदप्यभीष्टफलरहितत्वात् द्रव्यप्रत्याख्यानमुच्यते, तुशब्दाद् द्रव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैर्द्रव्येष्विति, क्षुण्णश्चार्य मार्गः, 'तत्थ रायसुय'त्ति अत्र कथानक-ऐगस्स रण्णो धूया अण्णस्स हरणो दिण्णा, सो य मओ, ताहे सा पिउणा आणिया, धम्म पुत्त! करेहि त्ति भणिया, सा पासंडीणं दाणं देति, अण्णया कत्तिओ धम्ममासोत्ति मंस न खामित्ति पञ्चक्खाय, तत्थ पारणए अणेगाणि सत्तसहस्साणि मंसत्थाए उवणीयाणि, ताहे हा एकस्य राज्ञो दुहिताऽन्य राशे दत्ता, सच मृतः, तदा सा पित्रानीता, धर्म पुनि ! कुर्विति भपिता, सा पापण्डिभ्यो बानं ददाति, अन्यदा कार्तिको धर्ममास इति मांस न खादामीति प्रत्याख्यातं, तंत्र पारणकेऽनेकाः शतसहखाः (पशवो) मांसाधमुपनीताः, तदा COM दीप अनुक्रम [६२..] JanEaintimal Shasaaroo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: प्रत्याख्यानस्य भेदानाम वर्णनं ~1608~ Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] Educati आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [ गाथा-], निर्युक्तिः [ १५५५...] भाष्यं [ २४३] प्रक्षेप [१] असं दिज्जति, तत्थ साहू अदूरेण वोलेंता निमंतिया तेहिं भन्तं गहियं, मंसं नेच्छति सा य रायभूया भणइ किं तुज्झं न ताव कन्तियमासो पूरी, ते भांति जावज्जीवाए कत्तिउत्ति, किं वा कह वा, ताहे ते धम्मक कहेंति, मंसदों से य परिकहंति, पच्छा संबुद्धा पवतिया, एवं तीसे दवपचक्खाणं, पच्छा भावपच्चक्खाणं जातं, अधुना अदित्साप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, तत्रेदं गाथार्द्ध, अदित्साप्रत्याख्याने 'बंभण समणा अदिच्छत्ति हे ब्राह्मण हे श्रमण अदित्सेति-न मे दातुमिच्छा, न तु नास्ति यद् भवता याचितं, ततश्चादित्यैव वस्तुतः प्रतिषेधात्मिकेति प्रत्याख्यानमिति गाथार्थः ॥ २३९ ॥ अधुना प्रतिषेधप्रत्याख्यानव्याचिख्यासयेदं गाथाशकलमाह-'अमुगं दिज्जउ मज्नं' गाहा व्याख्या अमुकं घृतादि दीयतां मह्यं, इतरस्त्वाह - नास्ति मे तदिति, न तु दातुं नेच्छा, एष इत्थंभूतो भवति प्रतिषेधः, अयमपि वस्तुतः प्रत्याख्यानमेव प्रतिषेध एव प्रत्याख्यानं २ | ।। २४० ॥ इदानीं भावप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते, तत्रेदं गाथार्द्ध 'सेसपयाण य गाहा पञ्चकखाणस्स भावंमि' शेषपदानामागमनोआगमादीनां साक्षादिहानुतानां प्रत्याख्यानस्य सम्बन्धिनां गाथा कार्येति योगवाक्यशेषों, इह गाथा प्रतिष्ठोच्यते, निश्चितिरित्यर्थः, 'गाथु प्रतिष्टालिप्सयोर्ग्रन्थे चे'ति धातुवचनात्, 'भावमिति द्वारपरामर्शः, भावप्रत्याख्यान इति । तदेतद्दर्शयन्नाह 'तं दुविहं सुतणोसुय' गाहा, 'तद्' भावप्रत्याख्यानं द्विविधं द्विप्रकारं 'सुत १ भक्तं दीयते, तत्र साधवोऽतूरे म्यतिव्रजन्तो निमन्त्रिताः, तैर्भकं गृहीतं, मां नेच्छन्ति सा च राजदुहिता भणति किं मा न तावद कार्त्तिकमासः पूर्णः १ ते भक्ति-पावनीवं कार्त्तिक इति किं वा कथं वा ? तदा ते धर्मकथां कथयन्ति मांसदोपांन परिकथयति पश्चात् संबुद्धा प्रमजिता, एवं तस्या द्रव्यस्यास्यानं पश्चाद् भावप्रत्याख्यानं जातं For Parts Only Jaincibrary org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1609~ Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं - / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] आवश्यक- नोसुत'त्ति श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च 'सुयं दुहा पुवमेव नोपुवं' श्रुतप्रत्याख्यानमपि द्विधा भवति-पूर्वश्रुतप्रत्या- प्रत्याख्या हारिभ- ख्यानं नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च, 'पुषसुय नवमपुर्व' पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं नवम पूर्व, 'नोपुषसुयं इमं चेव' नोपूर्षश्रुतप्रत्या- नाध्य. दीया ख्यानमिदमेव-प्रत्याख्यानाध्ययनमित्येतच्चोपलक्षणमन्यचातुरप्रत्याख्यानमहाप्रत्याख्यानादि पूर्ववाद्यमिति गाथार्थः प्रत्याख्या4॥२४१॥ अधुना नोश्रुतप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाह-'नोसुयपञ्चक्खाणं' गाहा 'णोसुयपञ्चक्खाणं'ति श्रुतप्रत्याख्यानं न नभेदा: ॥८०४॥ भवतीति नोश्रुतप्रत्याख्यान, 'मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य' मूलगुणांश्चाधिकृत्योत्तरगुणांश्च, मूलभूता गुणाः २ त एव प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपत्वात् प्रत्याख्यानं वर्तते, उत्तरभूता गुणाः २ त एवाशुद्धपिण्डनिवृत्तिरूपत्वात् प्रत्याख्यानं तद्विषयं वा अनागतादि वा दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, 'सर्व देस'ति मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विधा-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान देशमूलगुणप्रत्याख्यानं च, सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं पञ्च महाव्रतानि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं पशाणुव्रतानि, इदं चोपलक्षणं वर्तते यत उत्तरगुणप्रत्याख्यानमपि द्विधैव-सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं देशोत्तरगुण प्रत्याख्यानं च, तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दशविधमनागतमतिक्रान्तमित्याद्युपरिष्टादू वश्यामा, देशोत्तरगुणप्रत्याटख्यानं सप्तविध-त्रीणि गुणवतानि चत्वारि शिक्षा तानि, एतान्यप्यूर्व वक्ष्यामः, पुनरुत्तरगुणप्रत्याख्यानमोघतो! द्विविध-'इत्तरियमावकहियं च' तत्रेवर-साधूनां किश्चिदभिग्रहादिः श्रावकाणां तु चत्वारि शिक्षाप्रतानि, याव-12 ४ कधिकं तु नियन्त्रितं, यत् कान्तारदुर्भिक्षादिष्वपि न भज्यते, श्रावकाणां तु त्रीणि गुणवतानीति गाथार्थ टा1८०४॥ ॥ २४२ ॥ साम्प्रतं स्वरूपतः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानमुपदर्शयन्नाह-'पाणिवहमुसावाए' गाहा, प्राणा-इन्द्रि 45454546456 JABERatinine Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1610~ Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं - / [गाथा-], नियुक्ति: [१५५५...] भाष्यं [२४३], प्रक्षेप [१] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] % -- यादयः तथा चोक्तम्-'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं वर्ष च, उछासनिश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवनिरुका, एषां । IASवियोगीकरण तु हिंसा ॥१॥" तेषां वधः प्राणवधो [न] जीववधस्तस्मिन् , मृपा वदनं मृपावादस्तस्मिन्, असदभिधान दात्यर्थः, 'अदत्तति उपलक्षणत्वाददत्तादाने परवस्त्वाहरण इत्यर्थः, 'मेहुण'त्ति मैथुने अग्रासेवने यदुक्तं भवति. 'परि गहे चेव'त्ति परिग्रहे चैव, एतेषु विषयभूतेषु श्रमणानां-साधूनां मुलगुणाः त्रिविधत्रिविधेन योगत्रयकरणत्रयेण नेतन्याः-12 अनुसरणीयाः, इयमत्र भावना-श्रमणाः प्राणातिपाताद्विरतास्त्रिविधं त्रिविधेन तत्थ 'तिविधीन्ति न करेति न कारवेइ |३ करतंपि अण्णं णाणुजाणेति, 'तिविहं'ति मणेणं वायाए कापणं, एवमन्यत्रापि योजनीयमिति गाथार्थः ॥ २४३ ॥ इत्थं | तायदुपदर्शितं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, अधुना देशमूलगुणप्रत्याख्यानावसरः, तच्च धावकाणां भवतीतिकृत्वा विनेयानु-| ग्रहाय तद्धर्मविधिमेवौषतः प्रतिपिपादयिषुराहसावयधम्मस्स विहिं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं । जं चरिऊण सुविहिया गिहिणोवि सुहाई पावंति ॥ १५५६ ॥ साभिग्गहा या निरभिग्गहा य ओहेण सावधा दुविहा। ते पुण विभजमाणा अट्टविहाहुँति नायव्वा ॥ १५५७॥ दुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥ १५५८ ॥ एगविहं दुविहेणं इकिकविहेण छट्टओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरयओ चेव अहमओ ॥ १५५९।। पणय चकच तिगं दुगं च एगं च गिण्हा वयाई। अहवाऽवि उत्तरगुणे अहवाऽवि नगिहई किंचि ॥ १५६०॥ || निस्संकियनिफेखिय लिब्वितिगिच्छा अमूढदिट्टी य । वीरवयणमि एए बत्तीसं सावया भणिया ॥१५६१ ॥ दीप अनुक्रम [६२..] A5250-364%AC S मा०१५ Bhatarnou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1611~ Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१] भाष्यं [२४३...], आवश्यक हारिभ द्रीया ॥८०५ ॥ व्याख्या— तत्राभ्युपेत्सम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुत्रतोऽपि प्रतिदिवस यतिभ्यः सकाशात् साधूनामगारिणां च सामाचारी शृणोतीति श्रावक इति, उक्तं च- "यो ह्यभ्युपेतसम्यक्त्वो, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम् । शृणोति धर्मसम्बद्धामसौ श्रावक उच्यते ॥ १ ॥ श्रावकाणां धर्म्मः २ तस्य विधिस्तं वक्ष्ये- अभिधास्ये, किंभूतं !-' धीरपुरुषप्रज्ञतं' महासत्त्वमहाबुद्धितीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः, यं चरित्वा सुविहिता गृहिणोऽपि सुखान्यैहिकामुष्मिकाणि प्राप्नुवन्तीति गाथार्थः ॥ १५५६ ॥ १) तत्र - 'साभिग्गहा य निरभिग्गहा य' गाहा, अभिगृह्यन्त इत्यभिग्रहाः- प्रतिज्ञाविशेषाः सह अभिग्रहैर्वर्त्तन्त इति साभिग्रहाः, ते पुनरनेकभेदा भवन्ति, तथाहि - दर्शनपूर्वकं देशमूलगुणोत्तरगुणेषु सर्वेष्वेकस्मिंश्च (स्मिन्) वा भवन्त्येव तेषामभिग्रहः, निर्गता अपेता अभिग्रहा येभ्यस्ते निरभिग्रहाः, ते च केवलसम्यग्दर्शनन एव, यथा कृष्णसत्यकिश्रेणिकादयः, इत्थं ओधेन- सामान्येन श्रावका द्विधा भवन्ति, ते पुनर्द्विविधा अपि विभज्यमाना अभिग्रहग्रहणविशेषेण निरूप्यमाणा अष्टविधा भवन्ति ज्ञातव्या इति गाथार्थः ॥ १५५७ ॥ तत्र यथाऽष्टविधा भवन्ति तथोपदर्शयन्नाह – 'दुविहतिविहेण' गाहा, इह | योऽसौ कञ्चनाभिग्रहं गृह्णाति स ह्येवं- 'द्विविध' मिति कृतकारितं 'त्रिविधेने 'ति मनसा वाचा कायेनेति, एतदुक्तं भवति -स्थूल| प्राणातिपातं न करोत्यात्मना न कारयत्यन्यैर्मनसा वचसा कायेनेति प्रथमः, अस्यानुमतिरप्रतिषिद्धा, अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात्, तदुच्यापृतिकरणे च तस्यानुमतिप्रसङ्गाद् इतरथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रत्रजिताप्रव्रजितयोरभेदापत्तेरिति भावना, अत्राह - ननु भगवत्यामागमे त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणः, तच्च श्रुतोकत्वादनविद्यमेव तदिह कस्मान्नोक्तं निर्मुक्तिकारेणेति ?, उच्यते, तस्य विशेषविषयत्वात्, तथाहि किल यः प्रवित्रजिषुरेव प्रतिमां Education i For Parts Only ६प्रत्याख्या नाध्य० श्रावकत्रतभङ्गाः ~ 1612~ ॥८०५ ॥ ebay.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः श्रावकव्रतस्य भेदा: उच्यते Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४२...., (४०) 496 प्रत सूत्रांक [सू.] प्रतिपद्यते पुत्रादिसन्ततिपालनाय स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति, तथा विशेष्यं वा किश्चित् वस्तु स्वयम्भूरमणमरस्यादिक तथा स्थूलप्राणातिपातादिकं चेत्यादि, न तु सकलसावधव्यापारविरमणमधिकृत्येति, ननु च नियुक्तिकारेण स्थूलप्राणातिपातादावपि त्रिविधंत्रिविधेनेति नोक्तो विकल्पः, 'वीरवयणमि एए बत्तीस सावया भणिया' इति वचनाद-18|| न्यथा पुनरधिकाः स्युरिति ?, अत्रोच्यते, सत्यमेतत् , किंतु बाहुल्यपक्षमेवाङ्गीकृत्य तियुक्तिकारेणाभ्यधायि, यत् पुनः कचिदवस्थाविशेषे कदाचिदेव समाचर्यते न सुष्टु समाचार्यनुपाति तनोक्त, बाहुल्येन तु द्विविध त्रिविधेनेत्यादिभिरेव पद्दभिर्विकल्पैः सर्वस्यागारिणः सर्वमेव प्रत्याख्यानं भवतीति न कश्चिद् दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, 'दुविह शिविहेण बितियओ होति'त्ति 'द्विविध मिति स्थूलपाणातिपात न करोति न कारयति 'द्विविधेने ति मनसा वाचा, यद्वा मनसा कायेन, यद्वा वाचा कायेन, इह च प्रधानोपसर्जनभावविवक्षया भावार्थोऽवसेयः, तत्र यदा मनसा वाचा दन करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिरहित एव वाचापि हिंसकमब्रुवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टितादिना करोत्यसंज्ञि वत्, यदा तु मनसा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसाभिसन्धिरहित एव कायेन च दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवर अनाभोगाद्वाचैव हिंसकं ब्रूते, यदा तु वाचा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करो तीति, अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रैवास्तीति भावना, एवं शेषविकल्पा अपि भावनीया इति, 'दुविहं एगविहेणं'ति है द्विविधमेकविधेन, 'एकविहं चेव तिविहेणं'ति एकविधं चैव त्रिविधेनेति गाथार्थः ।। १५५८ ॥ 'एगविहं दुविहेणं ति एकविध द्विविधेन 'एकेकविहेण छडओ होइ' एकविधमेकविधेन षष्ठो भवति भेदः, 'उत्तरगुण सत्तमओ'त्ति प्रतिपश्नोत्तरगु दीप अनुक्रम [६२..] R Dayou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16134 Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४२...', (४०) प्रत्याख्या नाध्य. श्रावकनतभङ्गाः प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-बाणः सप्तमः, इह च सम्पूर्णासम्पूर्णोत्तरगुणभेदमनाइत्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षितः, 'अविरयओ चेव अहमओ'त्ति अवि- हारिभ- भरतश्चैवाष्टम इति अविरतसम्यग्दृष्टिरिति गाथार्थः ।। १५५९ ॥ इत्थमेते अष्टौ भेदाः प्रदर्शिताः, एत एव विभज्यमाना द्रीया द्वात्रिंशद् भवन्ति, कथमित्यत आह-'पणग'त्ति पश्चाणुव्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति कश्चित् , तत्रोक्तलक्षणाः षडू भेदा ॥८०६॥ भवन्ति, 'चउकं च'त्ति तथाऽणुनतचतुष्टयं गृह्णात्यपरस्तत्रापि पडेव, 'तिगन्ति एवमणुव्रतत्रयं गृह्णात्यन्यस्तत्रापि षडेव, 'दुर्ग च'त्ति इत्थमणुव्रतद्वयं गृह्णाति, तत्रापि पडेव, 'एक वत्ति तथाऽन्य एकमेवाणुव्रतं गृह्णाति, तत्रापि पडेव, 'गिण्हइ ४ वयाईति इत्थमनेकधा गृह्णाति व्रतानि, विचित्रत्वात् श्रावकधर्मस्य, एवमेते पञ्च पटुकात्रिंशद् भवन्ति, प्रतिपन्नोत्तर|गुणेन सहैकत्रिंशत् , तथा चाह-'अबावि (य) उत्तरगुणे'त्ति अथवोत्तरगुणान्-गुणवतादिलक्षणान् गृह्णाति, समुदितान्येव | गृह्णाति, केवलसम्यग्दर्शनिना सह द्वात्रिंशद् भवन्ति, तथा चाह-'अह्वावि न गिण्हती किंचित्ति अथवा न गृह्णाति || तानप्युत्तरगुणानिति, केवलं सम्यगहृष्टिरेवेति गाथार्थः ॥ १५६०॥ इह पुनर्मूलगुणोत्तरगुणानामाधारः सम्यक्त्वं वर्त्तते तथा चाह-'निस्संकियनिकखिय'गाहा, शङ्कादिस्वरूपमुदाहरणद्वारेणोपरिष्टाद वक्ष्यामः 'वीरवचने' महावीरवर्द्धमानस्वामिप्रवचने 'एते' अनन्तरोक्ता द्वात्रिंशदुपासका:-श्रावका भणिताः-उक्ता इति गाथार्थः ॥ १५६१ ॥ एते चेव बत्तीसतिविहा करणतियजोगतियकालतिएणं विसेसेजमाणासीयालं समणोवासगसयं भवति, कह, पाणाइवायं न करेति मणेणं, अथवा पाणातिपातं न करेइ वायाए, अहवा पाणातिपातं न करेइ कारणं ३, अथवा पाणातिवातं न करेतिमणेणं पायाए य, अथवा पाणातिवायं न करेति मणेणं काएण य, अथवा पाणातिपातं न करेति वायाए कारण य ६, अथवा पाणातिपातं न करेति दीप अनुक्रम [६२..] JAMERatna R atorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1614 Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं - [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] ४मणेणं पायाए कारण य', एते सत्त भगा करणेणं, एवं कारवणेणवि एए चेव सत्त भंगा १४, एवं अणुमोयणेणवि सत्त भंगा २१, अहवा न करेइ न कारवेइ मणसा १ अहवा न करेइन कारवेइ वचसा, २ अहवान करेइ न कारवेइ कारण। | ३ अहवा न करेइन कारवेइ मणसा वयसा ५ अहवान करेइन कारवेइ मणसा कायेणं ५ अहवा न करेइन कारवेइ वयसा काय-1 सा ६ अहवा न करेइ न कारवेइ मणसा वयसा कायसा ७, एते करणकारावणेहिं सत्तभंगा ७ एवं करणाणुमोयणेहिवि | सत्त भंगा ७, एवं कारावणाणुमोयणेहिवि सत्त भंगा, एवं करणकारावणाणुमोयणेहिवि सत्त भंगा ७, एवेते सत्त सत्तभंगाणं एगणपण्णासं विगप्पा भवन्ति, एत्थ इमो एगूणपन्नासइमो विगप्पो-पाणातिवायं न करे न कारवेद करेंतंपि| अन्न न समणुजाणइ मणेणं वायाए कारणंति, एस अंतिमविगप्पो पडिमापडिवन्नस्स समणोवासगस्स तिविहंतिविहेणं | भवतीति, एवं ताव अतीतकाले पडिक्कमंतस्स एगूणपण्णा भवन्ति, एवं पडुपण्णेवि काले संवरेतस्स एगूणपण्णा भवन्ति, एवं अणागएवि काले पच्चक्खायंतस्त एगूणपन्नासा भवन्ति, एवमेता एगूणपण्णासा तिषिण सीयालं सावयसयं भवति सीयालं भंगसयं जस्स विसोहीऍ होति उबलद्धं । सो खलु पञ्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला उ ॥ १ ॥ एवं पुण पंचहिं अणुचएहिं गुणियं सत्तसयाणि पंचतीसाणि सावयाणं भवन्ति, सीयालं भंगसयं गिहिपञ्चवाणभेयपरिमाणं । जोगत्तियकरणशिवकालतिएणं गुणेयव्व | *॥२॥सीयालं मंगसयं पञ्चक्खाणंमि जस्स उक्लद्ध । सो खलु पञ्चक्खाणे कुसलो सेसा अकुसला य ॥ ३ ॥ सीवालं भंगसयं गिहि पचक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयवं पयत्तेणं ॥ ४ ॥ तिनि तिया तिन्नि दुया तिन्निकिका य हुँति जोगेसुं । तिदुइक दातिदुइ तिदुएगं चेव करणाई ॥ ५॥ पढमे लब्भह एगो सेसेसु पएसु तिय तिय तियंति । दो नव तिय दो नवगा तिगुणिय सीयाल भंग SC- RRORK दीप अनुक्रम [६२..] JanEaintinी मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1615~ Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] आवश्यकहारिभ द्रीया ॥८०७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५६१...] भाष्यं [ २४२...], सयं ॥ ६ ॥ अहवा अणुब्वए चैव पहुच एकगादिसंजगदुवारेण पभूयतरा भेदा निदंसिज्यंति, तत्रेयमेकादिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपराऽन्यकर्तृकी गाथा | पंचमणुवाणं इकगदुगतिगचपणएहिं । पंचगदसदसपणइक्कगे य्र संजोग कायव्वा ॥ १ ॥ ear aai - पंचमणुवयाणं पुवभणियाणं 'एकग दुगतिगचक्कपणएहिं चिंतिजमाणाणं 'पंचगद्सदसपणगएकगो य संजोग णातवा' एक्केण चिंतिजमाणाणं पंच संजोगा, कहं?, पंचसु घरएस एगेण पंचैव भवन्ति, दुगेण चिंतिजमाणाणं दस चेव, कहूं ?, पढमबीयधरेण एको १ पढमततियघरेण २ पदमच उत्थघरेण ३ पढमपंचमघरेण ४ वितियततियघरेण ५ बीयचउत्थघरेण ६ बीयपंचमधरेण ससमो ७ ततियचडत्थघरेण ८ ततियपंचमघरेण ९ चउत्थपंचमघरेण १० ॥ तिगेण चिंतिज्जमाणाणं दस चेव, कहं १, पढमवियततियघरेण एक्को १ पढमवितियच उत्थघरेण २ पढमवितियपंचमघरेण | ३ पढमतईयचडत्थघरेण ४ पढमततियपंचमघरेण ५ पढमच उत्थपंचमघरेण ६ वितियततियच उत्थघरएण ७ वितियततिय| पंचमघरेण ८ वितिय चउत्थपंचमघरेण ९ ततियच उत्थपंचमधरेण १० । उगेण चिंतिज्जमाणाणं पंच हवंति, कहं ?, पढमबि| तियततियचउत्थघरेण एक्को पढमवितियततियपंचमघरेण २ पदमवितियचउत्थपंचमघरेण ३ पढमततियच उत्थपंचमधरेण १४ वितियततियच उत्थपंचमघरेण ५, पंचगेण चिंतिजमाणाण एगो चैव भवतित्तिगाथार्थः ॥ १ ॥ एत्थ य एकगेण य जे पंच संजोगा दुगेण जे दस इत्यादि, एएसिं चारणीयापओगेण आगयफलगाहाओ तिणिarriaोगाण हुंति पंचण्ह तीसई भंगा। दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सट्टा सया हुंति ॥ १ ॥ For at Use Only ६प्रत्याख्या नाध्य० श्रावकत्रतभङ्गाः ~ 1616~ ||८०७ || Typ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] Jus Educati आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५६१...] भाष्यं [ २४३...], प्रक्षेप [१४] संजोगाण दसह भंगसयं इकवीसई सट्टा । चसंजोगाण पुणो उससियाणिऽसीयाणि ॥ २ ॥ सतुत्तरं सपाई सतराई व पंच संजोए । उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सव्वग्गं ॥ ३ ॥ सोलस चेव सहस्सा अट्ठसया चेव होंति अट्टहिया । एसो उवासगाणं वयगहणविही समासेणं ॥ ४ ॥ (प्र०) व्याख्या --- एताश्चतस्रोऽप्यन्यकृताः सोपयोगा इत्युपन्यस्ताः, एतासिं भावणाविही इमा-तत्र तावदियं स्थापना, प्रा०म० अ०म० | १० धूलगपाणातिवातं पञ्चकुखाइ दुबिहं तिविहेण १ दुविहं दुविहेणं २ दुविहं एकविहेणं ३ एगशशश २२ २३ विहं तिविहेणं ४ एगविहं दुबिहेण ५ एगविहं एगविहेण ६, एवं धूलगमुसावाय अदत्तादाण२२२२२२शर शर मेहुणपरिग्गहेसु, एकेके छभेदा, एए सबेवि मिलिया तीसं हवंतित्ति, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'वय२१ २१ २२ २३१ २१ एकगसंजोगाण होती पंचण्ड तीसई भंग'त्ति तद् भावितं, श्याणिं दुगचारणिया- धूलगपाणाइ११२ ११३ १-२ ११३ ११२ वायं थूलगमुसायायं पञ्चकखाति दुविहंतिविहेण १ थूलगपाणाश्वायं दुविहंतिविहेण धूलगमुसा१/२ १२ ११२ ११२ ११२ वायं पुण दुबिहं दुविहेण २ धूलगपाणाइवायं २-३ थूलगमुसावायं पुण दुविहं एगविहेण ३ १११ ११ १११ १११ १११ थूलगपाणाइवायं २-३ थूलगमुसावायं पुण एगविहंतिविहेण ४ थूलगपाणाइवायं २-३ थूलगमुसावार्थ पुण एगविहं दुविहेण ५ थूलगपाणातिवायं २-३ धूलगमुसावायं पुण एगविहंएगविहेण ६, एवं थूलगअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहेसु एकेके छम्भंगा, सबेचि मिलिया घडवीसं, एए य धूलगपाणाश्वायं पढमघरगममुंचमाणेण लद्धा एवं वितियादिधरएस पत्तेयं चउबीस हवंकि, एए य सबेवि मिलिया चोयाल सयं, चालिओ धूलगपाणाश्वाओ, इयाणिं धूलगमुसा For Parts Only incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1617~ Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं -1 / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] (४०) श्रायकत्र प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- वायाइ चिंतिजइ-तत्व थूलगमुसावायं थूलगअदत्तादाणं पञ्चक्खाति दुविहं तिविहेणं १ थूलगमुसावायं दुविहं तिविहेण प्रत्याख्या हारिभ नाध्य० अदत्तादाणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुवकमेण छन्भंगा नायवा, एवं मेहुणपरिग्गहेसु पत्तेयं पत्तेयं छ२, सबेवि मिलिया द्रीया टिअट्ठारस, एते मुसावायं पढमघरगममुंचमाणेण लद्धा १८, एवं बीयादिघरेसुवि पत्तेयं २ अट्ठारस २ भवन्ति, एए। तभङ्गाः 1८०८॥ सवेवि मेलिया अट्टत्तरं सयंति, चारिओ धूलगमुसाबाओ, इयाणिं थूलगादत्तादाणादि चिंतिजति, तत्थ थूलगादत्तादाणं । थूलगमेहुणं वा पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १, थूलगअदत्ताणं २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविई दुविहेण २-२ एवं पुषकमेण छब्भंगा नायवा, एवं थूलगपरिग्गहेणवि छभंगा, मेलिया वारस, एए य धूलगअदत्तादाणं पढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं | बितियाइसुषि पत्तेयं छ २ हवंति, एते सबेवि मेलिया बावत्तरि हवंति, चारितं थूलगादत्तादाणं, इदाणिं धूलगमे थुणादि चिंतिजति, तत्थ थूलगमेहुणं धूलगपरिगहं च पञ्चक्खाति दुविधं तिविधेण १ थूलगमेथुणं थूलगपरिग्गह & पुण दुविधं दुविधेण २ एवं पुषकमेण छन्भंगा, एते थूलगमेधुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं बीयादिसुवि पत्तेयं २ छ २ हवंति, सबेवि मेलिया छत्तीसं, एते य मूलाओ आरम्भ सबेवि चोतालसयं अछुत्तरसयं बावत्तरि छत्तीसं मेलिता द्र तिणि सताणि सहाणि हवंति, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सठ्ठा सता होति'त्ति तदेतद् भावितं, इदाणिं तिगचारणीयाए थूलगपाणातिवातं धूलगमुसावायं 0लगादत्तादाणं पञ्चकूखाति दुविधं तिविधेण १ थूलग-IN ||८०८॥ पाणातिवातं धूलगमुसावादं २-३ थूलगादत्तादाणं पुण दुविधं दुविधेण २ धूलगपाणातिवायं धूलगमुसावार्य २-३ थूलगादत्तादाणं पुण दुविहं एगविहेणं ३ एवं पुवकमेण छन्भंगा, एवं मेहुणपरिग्गहेसुवि पत्तेयं २ छ २, सवेवि मेलिया दीप अनुक्रम [६२..] Saharary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16184 Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...1, प्रक्षेप [१-४] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६२..] अठारस, एते य थूलगमुसावादपढमघरकममुंचमाणेण लद्धा, एवं वीयादिसुवि पत्तेयं २ अट्ठारस २ हवंति, सवि मेलिया अहत्तरं सयं, एवं च थूलगपाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एवं बीयाइसुवि पसेयं २ अइत्तरं २ सयं हवंति, एए य सबेवि | मिलिया छ सयाणि अडयालाणि, एवं थूलगपाणातिवाओ तिगसंजोएण थूलगमुसावारण सह चारिओ, एवं अदत्तादाणेण सह चारिजति, तत्थ थूलगपाणाइवायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १ थूलगपाणाइवायं थूलगादत्तादाणं २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुषकमेण छब्भंगा, एवं धूलगपरिग्गहेणवि छ मेलिया | |दुवालस, एते य अदत्तादाणपढमघरगममुचमाणेण लद्धा, एवं बीयाइसुवि पत्तेयं २ दुवालस २, सबेवि मेलिया यावत्तरिं| हवंति, एते य पाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, एते वितियाइसुवि पत्तेयं बावत्सरि २, सवेऽवि मिलिया चत्तारि | सया बत्तीसा हवंति, एवं थूलगपाणाइवाओ तिगसंजोगेण थूलगादत्तादाणेण सह चारिओ, इंयाणि धूलमेहुणेण परिग्ग हेण सह चारिजइ, तत्थ थूलगपाणाइवायं धूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं २-३ पाणातिवायं मेहुणं २-३ परिग्गडं दुविहं दुविदाहेण २ एवं पुषकमेण छन्भंगा, एए उथूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं रछ छ,सवेऽपि मेलियाली छत्तीस, एते य थूलगपाणातिवायपढमपरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसु पत्तेयं २ छत्तीस, सबेवि मेलिया सोलमुत्तरा दोस-* या। एवं थूलगपाणातिवाओ तिगसंजोएणं मेहणेण सह चारिओ, चारिओ यतिगसंजोएणं पाणातिवाओ, इदाणिं मुसाबाओ। चितिजइ, तत्थ धूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाति दुविहं तिविहेण १ धूलगमुसावायं धूलगा-15 दत्तादाणं २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेण २ एवं पुबक्कमेण छन्भंगा, एवं धूलगपरिग्गहेणवि छ, मेलिया दुवालस, Satarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1619~ Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं -1 / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- एते य थूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं दुवालस २, सोऽवि मेलिया बावत्तरि, एते य प्रत्याख्या हारिभ- धूलगमुसापायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितिषादिसु पत्तेयं बावत्तरि २, सवेवि मेलिया चत्तारि सया बत्तीसा, एवं नाध्य द्रीया साथूलगमुसाबाओ तिगसंजोएण धूलगादत्तादाणेण सह चारिओ इयाणिं थूलगमेहुणेण सह चारिजइ, तत्थ थूलगमुसावायं 4|| |श्रावकत्र तभङ्गाः ॥८.९|| थूलगमेहुर्ण थूलगपरिग्गहं च पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १थूलगमुसावायं धूलगमेहुणं २-३ थूलगपरिग्गहं पुण दुविहंदुविहेण २एवं पुक्षकमेण छन्भंगा, एए थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुषि पत्तेयं रछ २ हवंति, सवेऽवि मेलिदिया छत्तीसं, एते याथूलगमुसावादपढमघरगमच्चमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीसं २ हवंति, सधेऽवि मेलिया दोस-18 या सोलसुत्तरा, चारिओ तिगसंजोएण थूलगमुसाबाओ, इयाणि थूलगादत्तादाणादि चिंतिजइ, तत्थ थूलगादत्तादाण मेहुणं परिग्गहं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं २-३ थूलगपरिग्गई पुण दुविहंदुविहेण २,एवं पुवकमेण छभंगा, एते य थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं छ २,सबेऽवि मेलिया छत्तीस, एते यथूलगादत्तादाणपढमघरगममुचमाणेण लद्धा, वितियाइसु पत्तेयं छत्तीसं २,सधेऽवि मेलिया दोसया सोलसुत्तरा, पते य मूलाओ आरम्भ सोऽविअडयाला छ सया बत्तीसा चउसया सोलसुत्तरा दो सया य बत्तीसा चउसया सोलसुसरा दो सया, एए सवेऽवि मेलिया इगवीससयाई साई भंगाणं भवंति, ततश्च यदुक्तं प्रारतिगसंजोगाण दसण्ह भंगसया एकवीसई सहा तदेतद्भावित, इयाणि . चसकचारणिया, तत्थ थूलगपाणाइवायं थूलगमुसावायं धूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पञ्चक्खाति दुविहंतिविहेण १थूलमपाणातिवायाइ २-३ थूलगमेहुणं पुण दुविहंदुविहेण २, एवं पुवकमेण छभंगा, थूलगपरिग्गहेणवि छ, एएवि मेलिया दीप अनुक्रम [६२..] JAMERatnani R esonamom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1620~ Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [-1 [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] विषालस, एते' य धूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुकि पत्तेयं दुवालस २, सोषि मेलिया पाव-12 तरि, एते उ थूलगमुसाबायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितिधासुवि पत्तेयं बावत्तरि २, सवि मेलिया चत्तारि सया वित्तीसा, एते य धूलगपाणासिवायपढमघरगममुंचमाणेण लहा, वितियादिसुषि पत्तेयं चत्तारि २ सया बत्तीसा, सबेवि। मेलिया दो सहस्सा पंच सया बाणउया, इदाणि अण्णो विगप्पो-थूलगपाणाइवायं धूलगमुसावायं धूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पञ्चकुलाति दुविहं दुबिहेण २, एवं पुवकमेण छन्भंगा, एते उ थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसु पत्तेयं २ छछ सवे मेलिया छत्तीस, पते उ थूलगमुसावायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीस २, सवेवि मेलियां दो सया सोलसुत्तरा, पए धूलगपाणाइवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बितियादिसुवि पत्तेयं २ दो २ सया सोलसुत्तरा, सबेवि मेलिया दुवालस सया छन्नउया, इयाणि अण्णो विगप्पो-थूलगपाणाइवायं थूलगअदत्तादाणं धूलगमेहुणं धूलगपरिग्गहं च पचक्खाति दुविहंतिविहेण १, धूलगपाणातिवातं धूलगादत्तादाणं धूलगमेहुणं २-३ धूलगप-। रिग्गहं च पुण दुविहंदुबिहेण २, एवं पुबक्कमेण छन्भंगा, एते य धूलगमेहुणस्स पढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि दछ २, मेलिया छत्तीसं, एते य धूलगादत्तादाणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छत्तीसं २, सोऽवि मेलिया दोसया सोलसुसरा, एतेय थूलगपाणाइवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुधि पत्तेयं दो दो सया मोलसुत्तरा, सोऽवि मेलिया दुवालस सया छण्णउया, इदाणिमष्णो विगप्पो-थूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं धूलगमेहुणं थूलगपरि: ग्गहं च पच्चक्खाति दुविहंतिविहेणं १थूलगमुसावायाति २-३ थूलगपरिग्गहं पुण दुविहंदुविहेण २, एवं पुषकमेण| दीप अनुक्रम [६२..] N angionary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1621~ Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं -1 / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रक्षेप [१-४] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- छभंगा, एते य थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियादिसुवि पत्तेयं छ २, मेलिया छत्तीर्स, एते य थूलगाद- प्रत्याख्या हारिभ- त्तादाणपढमघरमच्चमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि घरेसु पत्तेयं २ छत्तीसं २, मेलिया दो सया सोलसुत्तरा, एते थूलगमुसा- नाध्य० द्रीया श्रावकत्रवायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं दो दो सया सोलसुत्तरा, सवि मिलिया दुवालस सयाँ छणउया, तभङ्गाः ८१०॥ एए यमूलाओ आरम्भ सवेवि दो सहस्सा पंचसया वाणउया, दुवालससया छण्णउया ३, मिलिया छसहस्सा चत्तारि सया असीया, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'चनसंजोगाण पुण चउसद्धिसयाणऽसीयाणि'त्ति, इयाणि पंचगचारणिया, तत्थ थूलगपाणाइवार्य थूलगमुसावार्य धूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पञ्चक्खाइ दुविहंतिविहेण १ पाणातिवायाति २-३ धूलगपरिगह दुविहं दुविहेण २ एवं पुवकमेण छन्भंगा, एए थूलगमेहुणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बीयाइसुवि पत्तेयं २ छ छ, मेलिया छत्तीसं, एते य थूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, बीयादिसुवि पत्तेयं २ छत्तीसं २, मिलिया दो सया सोलसुत्तरा, एए य धूलगभुसावायपढमघरगममुंचमाणेण लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं २ दो सया सोलमुत्तरा २, मेलिया दुवालस सया छन्नज्या, एए य थूलगपाणातिवायपढमघरममुंचमाणेग लद्धा, वितियाइसुवि पत्तेयं २ दुवालस सया छपणउया, सवेषि मेलिया सत्तसहस्सा सत्तसया छावुत्तरा, ततश्च यदुक्तं प्राक् 'सत्ततरीसयाई छसत्तराई तु पंचसंजोए' एतद् भावितं, 'उत्तरगुणअविरयमेलियाण जाणाहि सबग्ग ति उत्तरगुणगाही एगो चेव भेओ, अविरयसम्मदिवी बितिओ, G८१०॥ Wएएहिं मेलियाण सबेसि पुवभणियाण भेयाण जाणाहि सवग्गं इमं जातं, परूवर्ण पडुच्च तं पुण इम-सोलस चेवेत्यादि दीप अनुक्रम [६२..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1622~ Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] गाथा भाविताऽर्थवेत्यभिहितमानुषङ्गिक, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र यस्मात् श्रावकधर्मस्य तावत् मूलं सम्यक्त्वं तस्माद् तद्गत-1 मेव विधिमभिधातुकाम आह तत्थ समणोवासओ पुब्बामेव मिच्छत्ताओ पडिकमइ, संमत्तं उघसंपज्जा, नो से कप्पद अजप्पभिई अन्नउत्धिए घा अन्नउत्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नमसित्तए वा पुदिव अणालत्तएणं आलवित्तए चा संलवित्तए चा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा 8 साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा, नन्नत्य रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकतारेणं, से य संमत्ते पसत्थसमत्तमोहणियकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते, सम्मत्तस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियच्या न समायरिपब्वा, तंजहा-संका कंखा वितिगिच्छा परपासंडपसंसा परपासंडसंथवे (सूत्रम् ॥ अस्य व्याख्या-श्रमणानामुपासकः श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः, श्रमणोपासकः 'पूर्वमेव' आदावेव श्रमणोपासको भवन मिथ्यात्वातू-तत्त्वार्थानद्धानरूपात् प्रतिक्रामति-निवत्तते, न तन्निवृत्तिमात्रमत्राभिप्रेतं, किं तर्हि १, तन्निवृत्तिद्वारेण सम्यक्त्वं-तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं उप-सामीप्येन प्रतिपद्यते, सम्यक्त्वमुपसम्पन्नस्य सतः न 'से' तस्य 'कल्पते' युज्यते अद्यप्रभृति। सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्य, किं न कल्पते ?-अन्यतीथिकान्-चरकपरित्राजकभिक्षुभौतादीन् अभ्यतीर्थिकदेवतानि दीप अनुक्रम [६३] सा1३९ JanEaintimanm S oamroo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: सम्यक्त्व-प्रतिज्ञाया: सूत्र एवं विवेचनं ~1623~ Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक धिकार ॥८१॥ [सू.] दीप अनुक्रम [६३] रुद्रविष्णुसुगलादीनि अभ्यतीर्थिकपरिगृहीतानि वा(अईत्)चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमालक्षणानि यथा भौतपरिगृहीतानि वीरभ- प्रत्याख्या द्रमहाकालादीनि वन्दितुंचा नमस्कर्तुवा, तत्र वन्दनं-अभिवादनं, नमस्करणं-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं, कोयनाध्य. दोषः स्यात् ?, अन्येषां तद्भक्तानां मिथ्यात्वादिस्थिरीकरणादिरिति, तथा पूर्व-आदी अनालप्तेन सता अन्यतीर्थिकस्ता- सम्यक्त्वानेवालप्तुं वा संलप्तुं वा, तत्र सकृत् सम्भाषणमालपनं पौनःपुन्येन संलपनं, को दोषः स्यात् ?, ते हि तप्ततरायोगोलकल्पाः खल्यासनादिक्रियायां नियुक्ता भवन्ति, तत्प्रत्ययः कर्मबन्धः, तथा तेन वा प्रणयेन गृहागमनं कुर्युः, अथ च श्रावकस्य | स्वजनपरिजनोऽगृहीतसमयसारस्तैः सह सम्बन्धं यायादित्यादि, प्रथमालप्तेन त्वसम्भ्रमं लोकापवादभयात् कीदृशस्वमित्यादि वाच्यमिति, तथा तेपामन्यतीथिकानां अशनं-घृतपूर्णादि पानं-द्राक्षापानादि खादिमंत्रपुषफलादि स्वादिम |ककोठलवङ्गादि दातुं वा अनुप्रदातुं वा न कल्पत इति, तत्र सकृद् दानं पुनः पुनरनुप्रदानमिति, किं सर्वथैव न कल्पत इति ?, न, अन्यथा राजाभियोगेनेति-राजाभियोगं मुक्त्वा बलाभियोग मुक्त्वा देवताभियोग मुक्त्वा गुरुनिग्रहेणगुरुनिग्रहं मुक्त्या वृत्तिकान्तारं मुक्त्वा, एतदुक्तं भवति-राजाभियोगादिना दददपि न धर्ममतिकामति । इह चोदाहरणानि, 'कहं रायाभिओगेण देंतो णातिचरति धम्म ?, तत्रोदाहरणम्-हथिणाउरे नयरे जियसत्तू राया, कत्तिओ सेट्टी नेगमसहस्सपढमासणिओ सावगवण्णगो, एवं कालो बच्चइ, तत्थ य परिचायगो मासंमासेण खमइ. १॥ क राजाभियोगेन दरवातिचरति धर्म हस्तिनापुरे नगरे जितशबू राजा, कार्तिकः श्रेष्टी निगमसहस्रप्रधमासनिकः श्रावकवर्णकः, एवं कालो बजति, तत्र च परिवाजको मासमासेन क्षपयति, Shantaneiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1624 ~ Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] त सबलोगो आढाति, कत्तिओ नाढाति, ताहे से सो गेरुओ पओसमावण्णो छिद्दाणि मग्गति, अण्णया रायाए निम-16 तिओ पारणए नेच्छति, बहुसो २ राया निमंतेइ ताहे भणइ-जइ नवरं मम कत्तिओ परिवेसेइ तो नवरं जेमेमि. राया भणइ-एवं करेमि, राया समणूसो कत्तियस्स घरंगओ, कत्तिओभणइ-संदिसह, राया भणति–ोरुयस्स परिवेसेहि, कत्तिओ भणति-न वह अम्हं, तुम्ह विसयवासित्ति करेमि, चिंतेइ-जइ पपइओ होतो न एवं भवंत, पच्छा णेण परि वेसियं, सो परिवेसेजतो अंगुलिं चालेति, किह ते ?, पच्छा कत्तिओ तेण निधेएण पवइओ नेगमसहस्सपरिवारो। मुणिसुवयसमीये, वारसंगाणि पढिओ, वारस वरिसाणि परियाओ, सोहम्मे कप्पे सको जाओ, सो परिवायओ तेणाभिओगेण आभिओगिओ एरावणो जाओ, पेच्छिय सकं पलाओ, गहि सक्को विलग्गो, दो सीसाणि कयाणि, सक्कावि | दो जाया, एवं जावइयाणि सीसाणि विउबति तावतियाणि सको विउबति सक्करूवाणि, ताहे नासिउमारद्धो, सर्वलोक सादियते, कालिको नायिते, तदा तसौ स गैरिकः प्रदूषमापाभिमागि मार्गपति, अन्यथा राक्षा निमश्रितः पारण छति, यहशोर राजा निमन्त्रयति तदा भणति-यदि पर कार्तिक मा परिवेषयति सहि नवरं जेमाभि, राजा भणति-एनं करोमि, राजा समनुष्यः कार्तिकस्य गृहं गतः। कार्तिको भति-संदिषा, राजा भणति-गरिक परिवेषय, कात्तिको भणति- वर्ततेऽस्माकं, युष्मद्विपवधासीति परोमि, चिन्तयति-यदि प्रमजितोऽभविष्य नवमभविष्यत, पबादनेन परिवेषितं, स परिवेष्यमाणोऽनुलिपालपति, कथं तय, पचात् कार्तिकस्सेन निवेदन प्रमजितो नैगमसहसपरिवारो मुनिसुव्रत, समीपे, द्वादशाकानि पठितः, हाया वर्षाणि पर्यायः, सौधर्मे करूपे पाको जातः, स परिवाद तेनाभियोगेनानियोगिक ऐरावणो जाता, रष्ट्राचा पला. यित्ता गृहीत्वा शको जिलमा शीर्ष कृते, शकौ अपि ही जाती, एवं थावन्ति शीपाणि विकृर्वति तावन्तिः शक्ररूपाणि विकृर्षति भाका, सदानंष्टमारम्भः, दीप अनुक्रम [६३] JABERamARI HALonarrom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1625~ Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकता श्यक-सणाहओ पच्छा ठिओ, एवं रायाभिओगेण देतो नाइक्कमति, केत्तिया एयारिसथा होहिंति जे पवइस्संति, तम्हा न प्रत्याख्या हारिभदायगो । गणाभिओगेण वरुणो रहमुसले निउत्तो, एवं कोऽवि सावगो गणाभिओगेण भत्तं दवाविजा दिवोवि सोय नाध्य द्रीया नाइचरइ धम्म, बलाभिओगोवि एमेव, देवयाभिओगेण जहा एगो निहत्थो सावओ जाओ, तेण वाणमंतराणि चिरपरि- सम्यक्त्वा चियाणि उशियाणि, एगा तत्थ वाणमंतरी पओसमावण्णा, गावीरक्खगो पुत्तो तीए वाणमंतरीए गाबीहिं समं अवहरिओ, धिकरा: ८१२॥ ताहे उइण्णा साहइ तज्जती-किं ममं उज्झसि न वत्ति ?, सावगो भणइ, नवरि मा मम धम्मविराहणा भवतु, सा भणइममं अञ्चेहि, सो भणइ-जिणपडिमाणं अबसाणे ठाहि, आम ठामि, तेण ठविया, ताहे दारगो गावीओ आणीयाओ, एरिसा केत्तिया होहिंति तम्हा न दायचं, दवाविजतो णातिचरति । गुरुनिग्गहेण भिक्खुवासगपुत्तो सावगंधूयं मग्गति, ताणि न देंति, सो कवडसहत्तणेण साधू सेवेति, तरस भावओ उवगर्य, पच्छा साहेइ-एएण कारणेण पुचिं दुक्कोमि, [सू.] दीप अनुक्रम [६३] राणाहता पक्षात् स्थितः, एवं राजाभियोगेन वपत नातिकामति, कियन्त एतादशो भविष्यन्ति ये प्रमजिव्यन्ति तमासा दातम्यः । गणाभियोगेन वरुणो स्थाशले नियुक्का, एवं कोऽपि श्रावको गणाभियोगेन भकं दाप्यते ददपि स नातिधरति धर्म । पहाभियोगोऽप्येवमेव । देवताभियोगेम बंधको। | गृहस्थः श्रावको जाता, तेन अन्यन्तराचिरपरिचिता उक्झिताः, एका कत्र यसरी प्रदेषमापना, गोरक्षका पुस्तया व्यन्त गोभिः सममपहता, तदाऽवतीणों कथयति तर्जयन्ती-कि मामुमति न येति , आपको भणति-नवरं मा मे धर्मनिराधना भूत् , सा भणति-मामचंय, स भणति-जिनप्रतिमान पातिए, ओ तिष्ठामि, तेन स्थापिता, दारको गावातदानीताः, इरशाः कियस्तो भविष्यन्ति तस्मान दातव्यं, चाप्यमानो नातिचरति । गुरु निग्रहेण भिक्षुपास(कपुत्रः श्रावकं दुहितरं याचते न तो दसा, स कपटवाइवषा साधुन सेयते, तस्त्र भावेनोपगतं, पक्षात् कथयति-तेन कारणोन पूर्वमागतोऽसि ८ १शा SINEaintain andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1626~ Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ལླལླཱཡྻ [.] अनुक्रम [ ६३ ] Education आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्मुक्तिः [ १५६१...] आष्यं [ २४३..... ईयाणिं सम्भाव सावओ, सावओ साहू पुच्छइ, तेहिं कहियं, ताहे दिण्णा धूया, सो सावओ जयगं घरं करेइ, अण्णया तस्स मायापियरो भत्तं भिक्खुगाण करेंति, ताई भांति अज्ज एकसिं वच्चाहि, सो गओ, भिक्खुरहिं विज्जाए मंतिऊण फलं दिण्णं, ताए वाणमंतीरए अहिडिओ घरं गओ तं सावयधूयं भणइ भिक्खुगाणं भत्तं देमो, सा नेच्छइ, दासाणि सयणो य आरद्धो सज्जे, साविया आयरियाण गंतुं कहेति, तेहिं जोगपडिभेओ दिण्णो, सो से पाणिएण दिण्णो, सा वाणमंतरी नट्ठा, साभाविओो जाओ पुच्छइ कहं वत्ति ? कहिए पडिसेहेति, अण्णे भणति तीए मयणमिंजाए वमाविओ, सो तो साभाविओ जाओ, भणइ अम्मा पिउछलेण मणा विचिउत्ति, तं किर फासुगं साहूणं दिवणं, एरिसा केत्तिया आयरिया होहिंति तम्हा परिहरेजा । वित्तीकंतारेणं देजा, सोरहो सहओ उज्जेणि वच्चइ दुक्काले तच्चण्णिएहिं समं, तस्स पत्थयणं, खीणं भिक्खुएहिं भण्णइ-अम्हएहिं वहाहि पत्थयणं तो तुज्झवि दिज्जिहित्ति, तेण पडिवणं, इदानीं सद्भावावकः, आचकः साधून पृच्छति ते कथितं तदा दत्ता दुहिता, स आवकः पृथगृहं करोति, अन्यदा तस्य मातापितरी भकं कण कुरुतः, ती भणतः अद्यैकश आगच्छ, स गतः, भिक्षुकैर्विद्यया मन्त्रयित्वा फलं दतं तथा व्यन्तऽधिष्टितो गृहं गतः तां श्रावकदुहितरं भणति भिक्षुकेभ्यो भक्तं दद्दः, सा नेच्छति, दासाः स्वजन आरब्धः सज्जयितुं श्राविकाचार्यान् गत्वा कथयति तैः योगप्रति भेदो दत्तः, स तस्मै पानीयेन दतः सा व्यन्तरी नष्टा, स्वाभाविको जातः पृच्छति कथं वेति ? कथिते प्रतिषेधति अन्ये भणन्ति तथा मदनबीजेन वभितः स ततः स्वाभाविको जातो, भणति मातापितृच्छलेन मनाद धिवञ्चित इति, तक्किल प्रामुकं साधुभ्यो दत्तं ईशाः कियन्त आचार्यां भविष्यन्ति तस्मात् परिहरेत्। वृत्तिकान्तारेण दद्यात् सैाराष्ट्र: आयक उज्जयिनीं व्रजति दुष्काले तचनिकैः समं तस्य पध्यदनं क्षीणं, भिक्षुकैण्यते-अस्मदीयं वह पश्यदनं त ियमपि दीयते इति तेन प्रतिपन्नं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... ********* For Parts Only आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1627 ~ ibrary.org Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३] आवश्यक हारिभद्रीया ॥१३॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५६१...] भाष्यं [ २४३...], अण्णया तस्स पोट्टसरणी जाया, सो चीवरेहिं वेढिओ तेहिं अणुकंपाए, सो महारगाणं नमोकारं करेंतो कालगओ देवो वेमाणिओ जाओ, ओहिणा तच्चणियसरीरं पेच्छइ, ताहे सभूसणेण हत्थेण परिवेसेति, सहाण ओहावणा, आयरियाण आगमणं, कहणं च, तेहिं भणियं-जाह अग्गहत्थं गिव्हिऊण भणह-नमो अरहंताणंति, बुज्झ गुज्झगा २, तेहिं गंतूण भणिओ संबुद्ध वंदित्ता लोगस्स कहेइ-जहा नत्थि एत्थ धम्मो तम्हा परिहरेजा ॥ अत्राह - इह पुनः को दोषः स्याद् येनेत्थं तेषामशनादिप्रतिषेध इति ?, उच्यते, तेषां तद्भक्तानांच मिध्यात्वस्थिरीकरणं, | धर्मबुद्ध्या ददतः सम्यक्त्वलाञ्छना, तथा आरम्भादिदोपश्च, करुणागोचरं पुनरापन्नानामनुकम्पया दद्यादपि, यदुक्तं"सधेहिंपि जिणेहिं दुज्जयजियरागदो समोहेहिं । सत्ताणुकंपणडा दाणं न कहिंचि पडिसिद्धं ॥ १ ॥ तथा च भगवन्तस्तीर्थकरा अपि त्रिभुवनैकनाथाः प्रविवजिषवः सांवत्सरिकमनुकम्पया प्रयच्छन्त्येव दानमित्यलं विस्तरेण । प्रकृतमुच्यते'संमत्तस्स समणोवासएण मित्यादि सूत्र, अस्य व्याख्या 'सम्यक्त्वस्य' प्राग्निरूपित स्वरूपस्य श्रमणोपासकेन - श्रावकेण 'एते' वक्ष्यमाणलक्षणाः अथवाडमी ये प्रक्रान्ताः पश्चेति सङ्ख्यावाचकः अतिचारा मिथ्यात्वमोहनीय कर्मोदयादात्मनोऽशुभाः परि १ अन्यदा उस्पातीसारो जातः, स चीवरैर्वेष्टितस्तैरनुकम्पया स महारकेभ्यो नमस्कारं कुर्वन् कालगतो देवो वैमानिको जातः, अवधिना तथनिकशरीरं प्रेक्षते तदा सभूषणेन हस्तेन परिवेषयति श्राद्धानामपत्राजना, आचार्याणामागमनं कथनं च तैर्भणितं याताप्रहस्तं गृहीत्वा भगत- नमोऽद्रव इति, बुध्यस्व क ! २, तैर्गत्वा भणितः संघुद्धो दिया लोकाय कथयति-यथा नास्त्यत्र धर्मस्तसात्परिहरेत् ॥ २ ॥ सर्वैरपि जिनैर्जित दुर्जयरागद्वेष मोहैः सध्वानुकम्पनार्थं दानं न कुत्रापि प्रतिषिद्धम् ॥ १ ॥ For Farina Pen | ६ प्रत्याख्या नाध्य० सम्यक्तवा धिकारः ~1628~ ॥ ८१३॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Dig Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) 956 2-94- प्रत सूत्रांक 8 [सू.] - णाम विशेषा इत्यर्थः, यैः सम्यक्त्वमतिचरति, ज्ञातव्याः ज्ञपरिज्ञया न समाचरितव्याः, नासेच्या इति भावार्थः । तद्यथे'त्युदाहरणप्रदर्शनार्थः, शङ्का काङ्क्षा विचिकित्सा परपाषण्डप्रशंसा परपापण्डसंस्तवश्चेति, तत्र शङ्कन शङ्का, भगवदर्हत् प्रणीतेषु पदार्थेषु धमोस्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदोल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः, किमेयं स्यात् नैव-12 समिति, संशयकरणं शङ्का, सा पुनर्दिभेदा-देशशङ्का सर्वशङ्का च, देशशङ्का देशविषया, यथा किमयमात्माऽसयेयप्रदे-18 शात्मकः स्यादथ निष्प्रदेशो निरवयवः स्यादिति, सर्वशङ्का पुनः सकलास्तिकायजात एव किमेवं नैवं स्यादिति । मिथ्यादर्शनं च त्रिविधम्-अभिगृहीतानभिगृहीतसंशयभेदात् , तत्र संशयो मिथ्यात्वमेव, यदाह-"पवमक्खरं च एकं जो न रोएइ सुत्तनिदिठं । सेस रोयंतोवि हु मिच्छद्दिडी मुणेयबो ॥१॥" तथा-"सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं हि नःप्रमाणं जिनाज्ञा च(जिनाभिहितं)॥१शा एकस्मिन्नप्यर्थे सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्यात्वदर्शनं तत्संचादिहेतुर्भवगतीनाम् ॥२॥" तस्मात् मुमुक्षुणा व्यपगतशङ्केन सता जिनवचनं सत्यमेव सामन्यतः प्रतिपत्तव्यं, संशयास्पदमपि सत्यं, सर्वज्ञाभिहितत्वात् , तदन्यपदार्थवत् , मतिदौर्बल्यादिदोषातु कात्न सकलपदार्थस्वभावावधारणम शक्यं छद्मस्थेन, यदाह-"न हि नामानाभोग छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरण प्रकृति कर्म ॥१॥" इह चोदाहरणं-जो संकं करेइ सो विणस्तति, जहा सो पेज्जायओ, पेजाए मासा जे परिभज्जमाणा ते छूढा, अंधगारए पदमक्षरं चैकं यो न रोषयति सूयनिर्विष्टम् । शेपं रोचयन्नपि मिष्याटिशांतम्यः ॥ १॥२यः श करोति स विनश्यति वथा स पेयापायी, पेयायो माषा ये परिभृमन्यमानास्ते क्षिप्ताः, अन्धकारे 4 - दीप अनुक्रम [६३] 2 andiDrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1629~ Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- लेहसालाओ आगया दो पुत्ता पियंति, एगो चिंतेति-एयाओ, मच्छियाओ संकाए तस्स बग्गुलो वाउ जाओ, मओय, विहओ प्रत्याख्या हारिभ चिंतेइ-न मम माया मच्छिया देह जीओ, एते दोसा । काङ्गणं काला-सुगतादिप्रणीतदर्शनेषु माहोऽभिलाप इत्यर्थः, नाध्य. द्रीया तथा चोक्तं-कंखा अन्नन्नदसणग्गाहो'सा पुनर्दिभेदा-देशकाडा सर्वकाङ्क्षा च, देशकाङ्घकदेशविपया, एकमेव सौगतं सम्यक्त्वा ॥४१॥ दर्शनं काति, चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितोऽयमेव च प्रधानो मुक्तिहेतुरित्यतो घटमानकमिदं न दूरापेतमिति, सर्वकाङ्क्षा|| |धिकार: |तु सर्वदर्शनान्यवकाति, अहिंसादिप्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिलकणभक्षाक्षपादादिमतानीह लोके च नात्यन्तक्लेशदाप्रतिपादनपराण्यतः शोभनान्येवेति, अर्धयहिकामुष्मिकफलानि काति, प्रतिपिद्धा चेयमहद्भिरतः प्रतिषिद्धानुष्ठानादेना। कुर्वतः सम्यक्त्वातिचारो भवति, तस्मादेकान्तिकमव्याबाधमपवर्ग विहायान्यत्र काला न कार्येति, एत्थोदाहरणं, राया कुमारामच्चो य आसेणावहिया अडविं पविटा, छुहापरद्धा वणफलाणि खायंति, पडिनियत्ताण राया चिंतेइ लग्यपूयलगमादीणि सबाणि खामि, आगया दोवि जणा, रण्णा सूयारा भणिया-जंलोए पयरइ तं सर्व सबे रघेहत्ति, उवद्ववियं च रन्नो, सो राया पेच्छणयदिहतं करेइ, कप्पडिया बलिएहिं धाडिजइ, एवं मिस्स अवगासो होहितित्ति कणकुंडगमंडगादीणिवि लेखशालाया आगती ही पुत्री पिवतः, एकश्चिन्तयति-एता मक्षिकाः, शया तस्स वल्गुलो वायुजातो मतम, द्वितीयश्चितपति-ज मह्यं माता मक्षिका दबान् जीविता, एते दोपाः । ९ मन्त्रोदाहरणं राजा कुमारामात्पश्चाधेनापढ़तावटवीं प्रविधी, क्षुधापरिगती बनफलानि यादता, प्रतिनिवृनयो राजा ॥८१४॥ चिन्तयति कापूपादीनि सर्वाणि खादामि, आगती द्वायपि जना, राज्ञा सूदा भणिया:-यहोके प्रचरति तत् सर्व सर्वे राध्यतेति, उपस्थापितं च राजे, Bास राजा प्रेक्षणकाधान्तं करोति, कार्पटिका बहिभिर्धामन्ते, एवं मिटस्थावकाशो भविष्यतीति कणकुषटकमण्डकादीन्यपि दीप अनुक्रम [६३] CARRACTOR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1630~ Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३] Education I आवश्यक”- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५६१...] भाष्यं [ २४३...]., रेख इयाणि, तेहिं सूलेण मओ, अमचेण वमणविरेयणाणि कयाणि, सो आभागी भोगाण जाओ, इयरो विणट्ठो । चिकित्सा मतिविभ्रमः, युक्तयागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः, किमस्य महतस्तपः क्लेशायासस्य सिकताकणकवलनादेराय त्यां मम फलसम्पद् भविष्यति किं वा नेति, उभयथेह क्रियाः फलवत्यो निष्फलाश्च दृश्यन्ते कृषीवलानां न चेयं शङ्कातो न भिद्यते इत्याशङ्कनीयं शङ्का हि सकलासकलपदार्थभाक्त्वेन द्रव्यगुणविषया इयं तु क्रियाविषयैव तस्यतस्तु सर्व एते प्रायो | मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो भवन्तो जीवपरिणामविशेषाः सम्यक्त्वातिचारा उच्यन्ते, न सूक्ष्मेक्षिकाऽत्र कार्येति, इयमपि न कार्या, यतः सर्वज्ञोक्तकुशलानुष्ठानाद् भवत्येव फलप्राप्तिरिति, अत्र चौरोदाहरणं-सावगो नंदीसरवरगमणं दिवगंधाणं (तं) देवसंघरिसेण मित्तस्स पुच्छणं विजाए दाणं साहणं मसाणे चउप्पार्थ सिकगं, हेडा इंगाला खायरो य सूलो, असयं वारा परिजवित्ता पाओ सिक्कगस्स छिज्जइ एवं चितिओ तइए चउत्थे य छिण्णे आगासेणं वच्चति, तेण विज्जा गहिया, किहचउद्दसिरतिं साहेइ मसाणे, चोरो य नगरार क्खिएहिं परिरम्भमाणो तत्थेव अतियओ, ताहे वेढेउं सुसाणे ठिया खादितानि तैः शूलेन सुतः, अमात्येन वमनविरेचनानि कृतानि स भोगानामाभागी जातः इतरो विनष्टः २ चोरोदाहरणं श्रावको नन्दीश्वरमनं देवसंघ दिव्यगन्धः मित्रस्य पृच्छा विद्याया दानं साधनं श्मशाने चतुष्यादं सिककमधस्ताद्दू भङ्गाराः खादिरश्च स्तम्भः अष्टशतं वारान् परिजय पादः सिकस्य छेद्यते एवं द्वितीयः तृतीये चतुर्थे च दिने आकाशेन गम्यते, तेन विद्या गृहीता, कृष्णचतुर्दशी रात्री सावयति इमशाने, चौर नगरारक्ष के रुभ्यमानस्तत्रैवातिगतलदा वेष्टयित्वा श्मशानं (ते ) खिताः For Funny Entry org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1631~ Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [.] दीप अनुक्रम [ ६३ ] आवश्यकहारिभद्रीया ॥ ८१५॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [स्] / [गाथा-], निर्मुक्तिः [ १५६१...] आष्यं [ २४३..... भाए घिप्पिहितित्ति, सो य भर्मतो तं विज्जासाहयं पेच्छइ, तेण पुच्छिओ भणति-विज्जं साहेमि, चोरो भणति केण दिण्णा ?, सो भणति - सावगेण, चोरेण भणियं-इमं दबं गिण्हाहि, विज्जं देहि, सो सङ्को वितिगिच्छति-सिभ्झेज्जा न वत्ति, तेण दिण्णा, चोरो चिंतेइ सावगो कीडियाएवि पावं नेच्छइ, सचमेयं, सो साहिउमारद्धो, सिद्धा, इयरो सहो गहिओ, तेण आगासगरण लोओ भेसिओ ताहे सो मुको, सहावं दोषि जाया, एवं निवित्तिगिच्छेण होयचं, अथवा विद्वज्जुगुप्सा, विद्वांसः - साधवः विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्त सङ्गाः तेषां जुगुप्सा-निन्दा, तथाहि तेऽस्नानात्, प्रस्वेदजलक्तिन्नमलत्वात् दुर्गन्धिवपुषो भवन्ति तान् निन्दति को दोषः स्यात् यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गक्षालनं कुर्वीरन् भगवन्तः ?, इयमपि न कार्या, देहस्यैव परमार्थतोऽशुचित्वात्, एत्थ उदाहरणं-एको सो पञ्चंते वसति, तस्स धूयाविवाहे कहवि साहवो आगया, सा पिजणा, भणिया-पुत्तग! पडिलाहेहि साहुणो, सा मंडियपसाहिया पडिलाभेति, साहूण जलगंडो तीए अग्घाओ, चिंतेअहो अणवज्जो भट्टारगेहिं धम्मो देसिओ जइ फासुएण व्हाएजा ?, को दोसो होज्जा ?, सा तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता 3 प्रभाते गृहीष्यते इति स च आम्यन्तं विद्यासाधकं प्रेक्षते, तेन पृष्टो भगति-विद्यां सापयामि, चौरो भणति केन दत्ता ?, स भणति-श्रावण, चीरेण भणितं इदं वयं गृहाण विद्यां देहि स श्रादो विचिकित्सति सिध्येन वेति, तेन दवा, चौरचिन्तयति श्रावकः कीटिकाया अपि पापं नेच्छति, सत्यमेतत् साधयितुमारब्धः सिदा, इतरः श्रादो गृहीतः तेनाकाशगतेन छोको भाषितः, तदा स मुक्तः/ अदावती द्वावपि जाती एवं निर्विचिकित्सेन भवितव्यं २ अनोदाहरणं एकः आः प्रयन्ते वसति स्य दुहितुविवाहे कथमपि साधवः आगताः सा पित्रा भणिता-पुत्रिके ! प्रतिलम्भय साधून, सा भण्डितप्रसाधिता प्रतिलम्भयति साधूनां जहगन्धस्लवाऽऽप्रातः चिन्तयति महो अनय भट्टारकैर्धमदेशितः यदि प्रासुकेन प्रायात् को दोषो भवेत् ?, सा तस्य स्थानस्थानालोचितमतिक्रान्ता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... For PP Only ६ प्रत्याख्या नाध्य० सम्यक्त्वाधिकारः आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1632~ ॥ ८१५॥ ibrary.org Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक कालं किच्चा रायगिहे गणियाए पोट्टे उववन्ना, गभगता चेव अरई जणेति, गब्भपाडणेहि य न पडइ, जाया समाणी उज्झिया, सा गंधेण तं वणं वासेति, सेणिओ य तेण पएसेण निग्गच्छइ सामिणो वंदगो, सो खंधावारो तीए गंध न सहइ, रण्णा पुच्छियं-किमेयंति, कहियं दारियाए गंधो, गंतूण दिडा, भणति-एसेव पढमपुच्छति, गओ सेणिओ, पुबुदिडचुत्तंते कहिते भणइ राया-कहिं एसा पच्चणुभविस्सइ सुहं दुक्खं वा!, सामी भणइ-एएण कालेण वेदियं, सा तव चेव भज्जा भविस्सति अग्गमहिसी, अट्ट संवच्छराणि जाव तुझं रममाणस्स पुट्ठीए हंसोवल्लीली काही तं जाणिज्जासि, वंदित्ता गओ, सो य अवहरिओ गंधो, कुलपुत्तएण साहरिया, संवटिया जोवणत्था जाया, कोमुइवारे अम्मयाए समं आगया, अभओसेणिओ (य)पच्छण्णा कोमुइवारं पेच्छंति, तीए दारियाए अंगफासेण अज्झोववण्णो णाममुदं दसियाए तीए बंधति, अभयस्स कहियं-णाममुद्दा हारिया, मग्गाहि, तेण मणुस्ता दारेहिं ठविया, एकेक माणुस्सं पलोएज नीणिज्जइ, सा [सू.] AAAAAAKREASNAL--5 दीप अनुक्रम [६३] 56-k कालं कृया राजगृहे गणिकाया उदरे उत्पन्ना, गर्भगतवारति जनयति, गर्भपातरपि च न पतति, जाता समयुज्झिता, सा गन्धेन तानं बासयति, |श्रेणिकश्च तेन प्रदेशेन निर्गति, स्वामिनो वन्दनाय, स स्कन्धावारतस्था गन्धं न सहते, राज्ञा पृष्टं-किमेतदिति ?, कथितं बारिकाया गन्धः, गत्या दृष्टा, भणति-एव प्रथमपूण्डेति, गतः श्रेणिका, पूर्वोदिऐ वृत्तान्ते कथिते भणति राजा-कैषा प्रत्यनुभविष्यति सुखं दुःखं वा', स्वामी भणति-एतेन कालेन | बेदितं, सा तवैव भार्या भविष्यति अग्रमहिपी, अष्ट संवत्सरान् यावत्तव रममाणस पृष्ठौ हंसोली करिष्यति तो जानीयाः, वन्दित्वा गतः, स चापहतो गन्धः | कलपुत्रकेण सहता संवृद्धा च बीवनश्या जाता, कौमुदीचासरेऽम्बया सममागता, अभवः अणिय प्रच्छनौ कौमुदीवासरं प्रेक्षेते, तसा दारिकाया भनसरोंनाभ्युपपनो नाममुद्रा तस्या दशायां बनाति, अभयाव कवितं-नाममुद्रा हारिता, मार्गव, तेन मनुष्पा हारि स्थापिताः, पकैको मनुष्यः प्रलोक्य निष्काश्यते, सा SA PMIDrayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16334 Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३] आवश्यक- दारिया दिवा चोरोत्ति गहिया, परिणीया य, अण्णया य वझुकेण रमंति, रायाणिउ तेण पोत्तेण वाहेंति, इयरा पोतं प्रत्याख्या हारिभ दादेति, सा विलग्गा, रण्णा सरियं, मुका य पबइया, एयं विउदुगुंछाफलं । परपाषंडानां-सर्वज्ञप्रणीतपापण्डव्यतिरिकानां नाध्य द्रीया प्रशंसा प्रशंसनं प्रशंसा स्तुतिरित्यर्थः । परपापण्डानामोघतस्त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि भवन्ति, यत उक्तम् सम्यत्तवा धिकारः १८१६॥ "असीयसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीती । अण्णाणिय सत्तही वेणइयाणं च बत्तीसं ॥१॥ गाहा", इयमपि गाथा विनेयजनानुग्रहार्थ ग्रन्धान्तरप्रतिबद्धाऽपि लेशतो व्याख्यायते-'असियसंयं किरियाण'ति अशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिनां, तब न कर्तारं विना क्रिया सम्भवति तामात्मसमवायिनी वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिनः, ते पुनरा-11 माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः अनेनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्ख्या विज्ञेयाः, जीवाजीवाश्रववन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्य भेदौ, तयोरयधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्तव्या-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्चायं-विद्यते खल्वयमात्मा स्खेन रूपेण नित्यश्च कालतः, कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्पः ईश्वरवादिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि, नियतिवादिनश्चतुर्थो विकल्पः, ८१६॥ पञ्चमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यत्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्चैव लभ्यन्ते, नित्यत्वा दारिका रहा चौर इति गृहीता परिणीता च, अम्पादा च बानीया रमन्ते, रायतं पोतेन वाहयन्ति, इतराः पोतं ददति, सा विलशा, राज्ञा स्मृतं, मुक्का च प्रनजिता, एतत् विजुगुप्साफलं । Panoingtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1634 Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [६३] परित्यागेन चैते दश विकल्पाः एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एकत्र विंशतिजीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तर क्रियावादिनामिति । 'अकिरियाणं च भवति चुलसीति'त्ति अक्रियावादिनां च भवति चतुरशीतिर्भेदा इति, न हि कस्यचिदवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भाव एवावस्थितेरभावादित्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः, तथा चाहुरेके-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थितानां कुतः क्रिया। भूतियेषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते ॥१॥" इत्यादि, एते चारमादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः, एतेषां हि पुण्यापुण्यवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यभेदी न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, पश्चाद्विकल्पभेदाभिलापः, नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यहच्छावसानैः, सर्वे च षडू विकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति पडेव विकल्पाः, एकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि पटसु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः एकत्र, सप्त द्वादशगुणाश्चतुरशीतिर्विकल्पा नास्तिकानामिति । 'अण्णाणिय सत्तहित्ति अज्ञानिकानां सप्तपष्टिर्भेदा इति, तब कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीति अज्ञानिकाः, नन्वेवं लघुत्वात् प्रकमस्य प्राक् बहुव्रीहिणा भवितव्यं ततश्चाज्ञाना इति स्यात् , नैष दोषः, ज्ञानान्तरमेवाज्ञानं मिथ्यादर्शनसह चारित्वात् , ततश्च जातिशब्दत्वाद गौरखरवदरण्यमित्यादिवदज्ञानिकत्वमिति, अथवा अज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना था अज्ञानिका:-असंचित्य कृतवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणा, अमुनोपायेन सप्तपष्टि ज्ञातव्याः, तत्र जीवादिनवपदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादयः उपन्यसनीयाः, आ० १०। मा०१३७ andiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16354 Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- Iसक्वमसत्त्वं सदसत्त्वं अपाच्यत्वं सहवाय्यत्वं असदवाच्यत्वं सदसदवाय्यत्वमिति चैकख जीपाये। सस ससक्किापत्याख्य हारिभ- एते नव सप्तकाःत्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाचा विकल्पातद्यथा-सस्वमसत्वं सदसवं अपाच्यत्त्वं चेति त्रिषष्टिमध्ये नाध्य. द्रीया । क्षिप्ताः सप्तपष्टिर्भवन्ति, को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः, ज्ञातेम वा किं, एषमसदादयोऽपि वाच्यार, उत्पत्ति- श्राव ताधिक नरपि किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्येति को जानातीति, एतन्न कश्चिदपीत्यभिप्रायः । 'वेणइयाणं च बत्तीसत्ति 1८१७॥ वैनयिकानां च द्वात्रिंशद् भेदाः, विनयेन चरन्ति विनयोचा प्रयोजनमेषामिति वैनयिकाः, एते चानवधृतलिशाचारशास्त्रा लाविनयप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेग द्वात्रिंशदवगन्तव्याः-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममासृपितॄणां प्रत्येक कायेन || वचसा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टसु स्थानकेषु, एकत्र मिलिता । द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्याधिकानि, न चैतत् स्वममीपिकाव्याख्यान, यस्मादन्यैरप्युक्तं"आस्तिकमतमात्माद्या नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः। कालनियतिखभावेश्वरात्मकृताः (तकाः) स्वपरसंस्थाः॥१॥कालय छानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति भावाः स्वपरसंस्थाः ॥२॥ अज्ञानिकवादिमत ४|नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिं सदसद्वैतावाच्यां च को वेत्ति ॥३॥ वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक्कायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु सदा ॥४॥" इत्यलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमा, एतेषां प्रशंसा ८१७॥ न कार्या-पुण्यभाज एते सुलब्धमेभिर्यद् जन्मेत्यादिलक्षणा, एतेषां मिथ्वादृष्टित्वादिति । अत्र चोदाहरणं-पाडलिपुत्ते चाणको, पाटलीपुत्रे चाणक्यः, दीप अनुक्रम [६३] RANarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16364 Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] चंदगुत्तेणं भिक्खुगाणं वित्ती हरिता, ते तस्स धम्म कहेंति, राया तूसति चाणकं पलोएति, ण य पसंसति ण देति. तेण चाणकभजा ओलग्गिठा,ताए सो करणि गाहितो, ताधे कथितेण भणितं तेण-सुभासियंति, रण्णा तं अण्णं च दिण्णं, बिदियदिवसे चाणको भणति-कीस दिन्नं, राया भणइ-तुझेहिं पसंसितं, सो भणइ- मे पसंसितं, सबारंभपवित्ता कई लोग पत्तियाविंतित्ति !, पच्छा ठित्तो, केत्तिया परिसा तम्हा ण कायबा ।परपापण्डै:-अनन्तरोतस्वरूपैः सह संस्त्रवः परपाषण्डसंस्तवः, इह संवासजनितः परिचयःसंवसनभोजनालापादिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तुतिरूपः, तथा च लोके प्रतीत एव संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति, 'असंस्तुतेषु प्रसभ कुलेष्वि'त्यादाविति, अयमपि न समाचरणीयः, तथा हि एकत्र संवासे तत्प्रक्रियाध ,णात् तक्रियादर्शनाच तस्यासकृदभ्यस्तस्वादवाप्तसहकारिकारणात् मिथ्यात्वोदयतो दृष्टिभेदः संजादायते अतोऽतिचारहेतुत्वान्न समाचरणीयोऽयमिति । अत्र चोदाहरण-सोरेसहगो पुषभणितो।एवं शङ्कादिसकलशल्यरहितः सम्यक्त्ववान् शेषाणुव्रतादिप्रतिपत्तियोग्यो भवति, तानि- चाणुव्रतानि स्थूलपाणातिपातादिनिवृत्तिरूपाणि प्राक् लेशतः। सूचितान्येव 'दुविधन्तिविधेण पढमो' इत्यादि(ना) अधुना स्वरूपतस्तान्येवोपदर्शयन्नाह थूलगपाणाइवायं समणोवासओ पचक्खाइ, से पाणाहवाए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-संकप्पओ अ आरंभओ दीप अनुक्रम [६३] चधरान भिक्षुकाणां वृत्तिता, ते तमै धर्म कथयन्ति, राजा तुष्यति, चाणक्य प्रलोकयति, तान् न प्रशंसति न ददाति, वैश्वाणक्यभार्या सेवितुमारब्धा, तथा स करणि प्राहिता, तथा कवितेन भणितं तेन-सुभाषितमिति, राजा तदन्यच दचं, द्वितीयदिवसे चाणक्यो भणति-कथं दत्तं ?, राजा भणनि-युप्माभिः | प्रशंसितं, स भणति- मया प्रांसितं सारम्भमवृत्ताः कथं लोकं प्रत्याययन्ति ?, पश्चात् स्थितः, कियन्त इरशास्तस्मान कर्तध्या। सौराष्ट्रभावकः पूर्वभमितः JAMEainting G orayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ स्थूल प्राणातिपात व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1637~ Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१] आवश्यक- अ, तत्थ समण अ, तस्थ समणोचासओ संकप्पओ जावज्जीवाए पञ्चक्खाइ, नो आरंभओ, धूलगपाणाइवायवेरमणस्स नाध्य. हारिभसमणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियचा, तंजहा-धंधे वहे छविच्छेए अइभारे भत्तपाणवुच्छेए १३ (सूत्रं) श्रावकत्रद्रीया अस्य व्याख्या-स्थूला:-द्वीन्द्रियादयः,स्थूलत्वं चैतेषां सकललौकिकजीवत्वप्रसिद्धे, एतदपेक्षयकेन्द्रियाः (णां) सूक्ष्माधिग मेना(न)जीवत्वसिद्धेरिति, स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणाः-इन्द्रियादयः तेषामतिपातः स्थूलप्राणातिपातः तं श्रमणोपासकः श्रा ताधि० ८१८॥ INवक इत्यर्थः प्रत्याख्याति, तस्माद् विरमत इति भावना । स च प्राणातिपातो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तीर्थकरगणधरैद्धिविधःप्ररूपित इत्यर्थः, 'तद्यथे खुदाहरणोपन्यासार्थः, सङ्कल्पजश्चारम्भजश्च, सङ्कल्पाजातः सङ्कल्पजः, मनसः सङ्कल्पाद् द्वीन्द्रियादिप्राणिनः15 मांसास्थिचर्मनखवालदन्ताद्यर्थ व्यापादयतो भवति, आरम्भाजातः आरम्भजः, तत्रारम्भो-हलदन्तालखननस्तत(लवन)|| प्रकारस्तस्मिन् शचन्दणकपिपीलिकाधान्यगृहकारकादिसट्टनपरितापापद्रावलक्षण इति, तत्र श्रमणोपासका सङ्कल्पतो| यावजीवयापि प्रत्याख्याति, न तु यावज्जीवयव नियमत इति, 'नारम्भज'मिति, तस्यावश्यतयाऽऽरम्भसद्भावादिति, आह-I एवं सङ्कल्पतः किमिति सूक्ष्मप्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति ?, उच्यते, एकेन्द्रिया हि प्रायो दुष्परिहाराः सद्मवासिना | सङ्कल्प्यव सचित्तपृथ्ब्यादिपरिभोगात , तेत्थ पाणातिपाते कजमाणे के दोसा ? अकजंते के गुणा, तत्थ दोसे उदाहरण | कोंकणगी, तस्स भजा मया, पुत्तो य से अस्थि, तस्स दारगस्स दाइयभएण दारियंण लभति, ताघे सो अन्नलक्खेण रमंती|| She१८॥ प्राणातिपाते क्रियमाणे के दोषाः' अभियमाणे च के गुणाः, तत्र दोघे उदाहरणं कोहणका, तस्य भार्या मृता, पुत्रश्च तस्य असि, तस्य वारकर दायादभवेन दारिकां न लभते, तदा सोऽम्पलक्ष्येण रममाणो दीप अनुक्रम [६४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1638~ Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक विधति। गुणे उदाहरणं सत्तवदिओ। विदियं उज्जेणीए दारगो, मालवेहिं हरितो सावगदारगो, सूतेण कीतो, सो तेण भणितो-1 लावगे ऊसासेहि, तेण मुक्का, पुणो भणिओ मारेहित्ति, सोणेच्छति, पच्छा पिद्देत्तुमारद्धो, सो पिट्टिजंतो कूवति, पच्छा रण्णा सुतो, सद्दावेतूण पुच्छितो, ताधे साहति, रण्णावि भणिओ णेच्छति, ताघेहत्थिणा तासितो तथावि णेच्छति, पच्छा रण्णा सीसरक्खो ठवितो, अण्णता थेरा समोसड्डा, तेसिं अंतिए पवइतो। ततियं गुणे उदाहरणं-पाडलिपुत्ते नगरे जियसत्तू राया, खेमो से अमच्चो चउविधाए बुद्धीए संपण्णो समणोवासगो सावगगुणसंपण्णो, सो पुण रण्णो हिउत्तिकाउं अण्णेसि | दिंडभडभोइयाणं अपितो, तस्स विणासणणिमित्तं खेमसंतिए पुरिसे दाणमाणेहिं सकारिंति, रणो अभिमरए पति, गहिता य भणति हम्ममाणा-अम्हे खेमसंगता तेण चेव खेमेण णिउत्ता, खेमो गहितो भणति-अहं सबसत्ताणं खेम | करेमि किं पुण रणो सरीरस्सत्ति, तथावि वज्झो आणत्तो, रपणो य असोगवणियाउ(ए) अगाहा पुक्खरिणीसंछण्णपत्तभि % [सू.१] 4584% दीप अनुक्रम -5 [६४] --- १विध्यति । गुणे उदाहरणं सम्पदिकः द्वितीय, बजयिन्या दारको, मालवहतः श्रावकदारकः, सूतेन कीतः, स तेन भाणितः-सावकान् मारय, तेन मुक्काः, पुनर्भणित:-भारयेति, स नेति, पश्चारिपट्टयितुमारब्धः, स पिवमानः कूजति, पनाच राज्ञा श्रुतः, कादवित्वा पृष्टः, सदा कवयति, राज्ञाऽपि मणितो नेच्छति, तदा हसिना त्रासितस्तथापि नेच्छति, पश्चाद्वाज्ञा शीर्षरक्षकः स्थापितः, अन्यदा स्थविरः समवस्तास्तेषामन्तिके प्रश्रजितः । तृतीयमुदाहरणं गुणे-- पाटलिपुत्रे नगरे जितशत्रू राजा, क्षेमस्तस्य अमात्यचतुर्विधवा बुद्ध्या संपन्नः श्रमणोपासकः श्रावकगुणसंपञ्चः, स पुना राज्ञे हित इति कृत्वाऽन्येषां दण्डभटमोजि| कानामप्रिया, तख विनाशननिमित्त क्षेमसाकान् पुरुषान् दानसन्मानाभ्यां साकारयन्ति, राज्ञोऽभिमरकान् प्रयुजन्ति, गृहीतान भगन्ति हन्यमाना-वयं क्षेमसरकाः तेनैव क्षेमेण नियुक्ताः, क्षेमो गृहीतो भयति-अहं सबसचाना क्षेमं करोमि किं पुना राज्ञः शरीरस्पेति !, तथापि वध्य आज्ञप्तः, राज्ञाशोकवनिकायामगाधा पुष्करिणी संझनपत्रधि JAMERatindi Shorary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1639 Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक-४ द्रीया प्रत सूत्रांक ॥८१९॥ समुणाला उप्पलपउमोपसोभिता, सा य मगरगाहेहिं दुरवगाहा, ण य ताणि उप्पलादीणि कोइ उचिणि समत्थी, जो य|| प्रत्याख्या नाध्य० वझो रण्णा आदिस्सति सो वुच्चति-एत्तो पुक्खरिणीतो पउमाणि आणेहित्ति, ताधे खेमो उद्देऊण नमोऽथु णं अरहंताणं श्रावकत्रभणितु जदिहं निरावराधी तो मे देवता साणेज्झं देंतु, सागार भत्तं पञ्चक्खायितुं ओगाढो, देवदासापणेझेणं मगरपुट्ठी ताधिक ठितो बहूणि उप्पलपउमाणि गेमिहत्तुत्तिण्णो, रण्णा हरिसितेण खामितो उवगूढो य, पडिपक्खणिग्गहं कातूण भणितो-किं| ते वरं देमि?, तेण णिरुंभमाणेणवि पवजा चरिता पवइतो, एते गुणा पाणातिपातवेरमणे । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-'थूलगे'त्यादि, स्थूलकप्राणातिपातविरमणस्य विरतेरित्यर्थः श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचाराः 'जाणियबा' ज्ञपरिज्ञया न समाचरितव्याः न समाचरणीयाः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, तत्र धर्म बन्धः-संयममं रजुदामनकादिभिहेंननं वधः ताडनं कसादिभिः छविः-शरीरं तस्य छेदः-पाटनं करपत्रादिभिः भरणं भारः अतीव भरणं अतिभार:प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठ्यादिष्यारोपणमित्यर्थः, भक्त-अशनमोदनादि पानं-पेयमुदकादि तस्य च व्यवच्छेदः-निरोधोऽदानमित्यर्थः, एतान् समाचरन्नतिचरति प्रथमाणुव्रतं, तदत्रायं तस्य विधिः [सू.१] दीप अनुक्रम [६४] ८१९॥ शमृणाला अत्पलपोपशोभिता, सा च मकरमाहेरवगाहा, नप ताभ्युत्पलादीनि कोऽयुबेतुं समर्थः, यश्च वथ्यो राज्ञाऽऽदिश्यते स उच्यते-हत्तः पुष्करिणीतः पान्यानयेति, तदा क्षेम अस्थाय नमोऽस्तु बनयो भणिया यद्यहं निरपराधलदा मयं देवता सान्निध्य ददानु, साकारं भक्तं प्रत्याख्यायावगाः देवतासानिध्येन मकरपृष्ठिस्थितो बहून्युरपळपमानि गृहीत्वोत्तीर्णः, राज्ञा हटेन क्षामितः उपगूढध, प्रतिपक्षनिग्रहं कृत्वा भणितः-किते वरं ददामि , तेन | निरुध्यमानेनापि प्रवज्या चीर्णा प्रअजितः, एते गुणाः प्राणातिपातविरमणे। IndiDrayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1640~ Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१] दीप अनुक्रम [ ६४ ] आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६] मूलं [सू.-१] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५६१...] भाष्यं [२४३...]. वन्धो दुविधो-दुप्पदाणं चतुप्पदाणं च अट्टाए अणडाए य, अणद्वाए न बहति बंधेत्तुं अट्ठाए दुविधो- निरवेक्खो सावेकखो य, णिरवेक्खो णेञ्चलं घणितं जं बंधति, सावेक्खो जं दामगंठिणो जंव सक्केति पलीवणगादिसुं मुंचितुं छिंदितुं वा तेण संसरपासएण बंधेतयं, एवं ताव चतुष्पदाणं, दुपदाणंपि दासो वा दासी वा चोरो वा पुतो वा ण पढतगादि जति बज्झति तो सावेक्खाणि बंधितवाणि रक्खितवाणि य जधा अग्निभयादिसु ण विणस्संति, ताणि किर दुपदचतुष्पदाणि सायगेण गेण्हितवाणि जाणि अबद्धाणि चैव अच्छंति, वहो तथा चैत्र, वधो णाम तालणा, अणद्वाए णिरवेक्खो शिद्दयं तालेति, सावेक्खो पुण पुवमेव भीतपरिसेण होतबं, मा हणणं कारिज्जा, जति करेज्ज ततो मम्मं मोत्तूर्ण ताधे लताए दोरेण वा एक्कं दो तिष्णि बारे तालेति, छविछेदो अण्डाए तथैव णिरवेक्खो हत्थपादकण्णणकाई निद्यत्ताए छिंदति, सावेक्खो गंडं वा अरुयं वा छिंदेज वा डहेज वा अतिभारो ण आरोवेतथो, पुर्व चेव जा वाहणाए जीविया सा मोत्तबा, १ बम्धो द्विविधोद्विपदानां चतुष्पदानां च अयानर्थाय च अनर्थाय न वर्त्तते बनुं, अर्थाय द्विविधः-निरपेक्षस्सापेक्षश्च निरपेक्षो पनि बत बाट, सापेक्षो यद्दामग्रन्थिमा यच शक्नोति प्रदीपनकादिषु मोधयितुं हुं वा तेन संसरत्पाशकेन बद्धव्यं, एवं तावत् चतुष्पदानां द्विपदानामपि दासो वा दासी वा चौरो वा पुत्रो वाऽपदादिर्यदि बध्यते तदा सापेक्षाणि बद्धम्यानि रक्षितम्यानि च यथाऽभियादिषु न विनश्यन्ति ते किल द्विपदचतु व्याः श्रावकेण ग्रहीतच्या येऽबद्धा एव तिष्ठन्ति, वधोऽपि तथैव बधो नाम ताटनं अनर्थाय निरपेक्षो निर्देचं साक्ष्यति, सापेक्षः पुनः पूर्वमेव भीतपदा भवितम्यं मा घातं कुर्या यदि कुर्यात् ततो मर्म मुक्त्वा तदा खतया दवरकेण वा एकशो द्विरान् ताडयति छविच्छेदोऽनर्थाय तथैव निरपेक्षो हस्तपादकनासिकादि निर्दयता निति, सापेक्षो गण्डं वा अव छिन्याहा दहेद्रा, अतिभारो नारोपयितव्यः पूर्वमेव या वाहनेनाजीविका या मोक्तव्या automa मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... ********* For Parts Only incibrary.org आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः ~1641~ Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत्याख्या नाध्य. श्रावकत्रताधिक प्रत सूत्रांक [सू.१] आवश्यक-ताणहाना अण्णा जावितात होज्जा अण्णा जीविता ताधे दुपदोसयं उक्खिवति उत्तारेति वा भारं एवं वहाविज्जति, बइलाणं जधा साभाविया- हारिभ- ओवि भारातो ऊणओ कीरति, हलसगडे सुवि वेलाए मुयति, आसहत्थीसुवि एस विही, भत्तपाणवोच्छेदो ण कस्सइ द्रीया कातबो, तिबछुद्धो मा मरेज, तधेव अणद्वाए दोसा परिहरेज्जा, सावेक्खो पुण रोगणिमित्तं वा वायाए वा भणेज्जा अज ते ण देमित्ति, संतिणिमित्तं वा उववासं कारावेजा, सबस्थवि जतणा जधा थूलगपाणातिवातस्स अतिचारो ण, 1८२०॥ | भवति तथा पयतितवं, णिरवेक्खबंधादिसु य लोगोवधातादिया दोसा भाणियबा । उक्तं सातिचारं प्रथमाणुव्रतं, अधुना द्वितीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्रNDथूलगमुसावायं समणोवासओ पचक्खाइ, से य मुसावाए पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-कन्नालीए गवालीए भोमालिए नासावहारे कूडसकिग्वजे । थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएक इमे पंच०, जहा-सहस्सदाभक्खाणे रहस्सभक्खाणे सदारमंतभेए मोमुवएसे कूडलेहकरणे २॥ अस्य व्याख्या-मृपावादो हि द्विविधः-स्थूलः सूक्ष्मश्च, तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलो, विपरीत १न भन्या जीविका वदा द्विपदो यं यमुक्षिपति उत्तारयति वा भारं एवं वागते, बलिवानां यथा स्वाभाविकादपि भारावूनः क्रियते, हलशकरे। वपि चेलायां मुञ्चति, अश्वहस्त्यादिवप्येष एवं विधिः, भक्तपानव्यवच्छेदो न कस्यापि कम्पः तीवक्षुम्मा मृत, तथैवानथाप दोषाव (तस्मात्) परिहरेत् R सापेक्षः पुना रोगनिमित्तं वा वाचा वा भणे-अब तुभ्यं न दहामीति, शान्सिनिमित्तं वोपवासं कारयेत् , सर्वत्रापि यतमा यथा स्थूलमायातिप्रातस्याति चारो | न भवति तथा प्रयतितम्ब, निरपेक्षवधादिषु च लोकोपघातादयो दोषा भाषितम्या।। दीप अनुक्रम [६४] ॥८२०॥ JAMERIENE a diorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ स्थूल मृषावाद व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~16424 Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) EREALk प्रत सूत्रांक [सू.२] स्त्वितरः, तत्र रधूल एव स्थूलका २ श्वासौ मृषावादश्चेति समासः, तं श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत्, स च मृपावादः पश्चविधः प्रज्ञप्तः-पञ्चप्रकारः प्ररूपितस्तीर्थंकरगणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, कन्याविषयमनृतं अभिन्नकन्यकामेव भिन्नकन्यकां वक्ति विपर्ययो वा, एवं गवानृतं अल्पक्षीरामेव गां बहुक्षीरां वक्ति विपर्ययो वा, एवं भूम्यनृतं परसत्कामेवात्म सत्का वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोऽनाभवव्यवहारस्यैव कस्यचिद् भागाद्यभिभूतो वक्ति-अस्येयमाभवतीति, न्यस्यते-निक्षिआध्यत इति न्यासारूप्यकाद्यर्पणं तस्थापहरणं न्यासापहारः, अदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृपावादत्वमिति ?, उच्यते, अपल पतो मृषावाद इति, कूटसाक्षित्वं उत्कोचमात्सर्याद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति, अविधवाद्यनृतस्यात्रैवान्तर्भावो वेदितव्यः । मुसावादे के दोसा? अकजते वा के गुणा १, तत्थ दोसा कण्णगं चेव अकण्णगं भणते भोगतरायदोसा पदुडा वा आतघात करेज कारवेज वा, एवं सेसेसुवि भाणियबा । णासावहारे य पुरोहितोदाहरणम्-सो जधा णमोकारे, गुणे उदाहरणं-कोंकणगसावगोमणुस्सेण भणितो, घोडए णासंते आणाहित्ति, तेण आहतोमतो य करणं णीतो, पुच्छितोको ते सक्खी ?, घोडगसामिएण भणिय, एतस्स पुत्तो मे सक्खी, तेण दारएण भणितं-सच्चमेतन्ति, तुहा पूजितो सो, लोगेण सृपावादे के दोषाः ? अक्रियमाणे वा के गुणाः !, तत्र दोषाः कन्यकामेवाकन्यका भणति भोगान्तरायदोषाः प्रविष्टा वापसमधानं कुर्यास्कारयेहा, एवं शेपेयपि भणितम्याः । ग्यासापदारे च पुरोहितोदाहरण-स वथा नमस्कारे, गुणे उदाहरण-कोकणकश्नावको मनुष्येण भणित:-पोटकं नश्यन्तं भाजहि | इति, तेनाइतो मृत करणं नीतः, पृष्टः-कस्लव साक्षी!, घोटकस्वामिकेन भणित-एतस्य पुत्रो मे साक्षी, तेन दारकेण भणित-सत्यमेतदिति, तुष्टाः | है सभ्याः) पूजितः सः, लोकेन दीप अनुक्रम [६५] PCREALHEACH DIMoraryorg मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1643~ Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.२] आवश्यक- IIय पसंसितो, एवमादिया गुणा मुसाचादवेरमणे । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् , तथा चाह-'थूलगमुसावादवेरम- प्रत्याख्या हारिभणस्स' व्याख्या-स्थूलकमृषावादविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः ज्ञपरिज्ञया न समाचरि-18 नाध्य. तव्याः, तद्यथेति पूर्ववत्, सहसा-अनालोच्य अभ्याख्यानं सहसाऽभ्याख्यानं अभिशंसनम्-असदध्यारोपणं, तद्यथा-1 |श्रावकत्र८२२॥ चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि, रह:-एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन् वा अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानं, एतदुक्तं ताधि० भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् वक्ति-एते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ति, स्वदारे मन्त्रभेदः स्वदारमन्त्रभेद:स्वदारमन्त्र[भेदप्रकाशनं स्वकलत्रविश्रन्धविशिष्टावस्थामन्त्रितान्यकथनमित्यर्थः, कूटम्-असद्भूतं लिख्यत इति लेखः तस्य करणं-क्रिया कूटलेखक्रिया-कूटलेखकरणं अन्यमुद्राक्षरबिम्बस्वरूपलेखकरणमित्यर्थः, एतानि समाचरमतिचरति ६ द्वितीयाणुव्रतमिति, तत्रापायाः प्रदर्श्यन्ते, 'सहसऽभक्खाणं खलपुरिसो सुणेजा सो वा इतरोवा मारिजेज वा, एवं गुणो, |वेसित्ति भएणं अप्पाणं तं घा विरोधेजा, एवं रहस्सन्भक्खाणेऽवि, सदारमतभेदे जो अप्पणो भजाए सद्धिं जाणि रहस्से बोलिताणि ताणि अण्णेसिं पगासेति पच्छा सा लजिता अप्पाणं परं वा मारेजा, तत्थ उदाहरणम्-मथुरावाणिगो दिसीयदत्ताए गतो, भज्जा सो जाधे ण एति ताधे बारसमे वरिसे अण्णेण समं घडिता, सो आगतो, रतिं अन्नायवेसेण पाच प्रशंसितः, एवमादिका गुणा मुषावादविरमणे । २ सहसाभ्याख्यान खलपुरुषः शुशुवात स वेतरो वा मारयेत् एवं गुणः, पीति भयेनात्मानं ||२१|| तिं वा विराधयेत्, एवं रहोऽभ्याख्यानेऽपि, स्वबारमबभेदे व भारमनो भाचया समं यानि रहसि उक्तानि तान्यन्येषां प्रकाशयति पश्चात् , सा लज्जियामानं परवा मारयेत् , तत्रोदाहरणं-मधुरामणि दिग्यात्रायै गतः, भार्या तस्य यदा नावाति तदा द्वादशे वर्षेऽन्येन समं स्थिता. स आगतः, रात्री अज्ञातवेषेण RC- R दीप अनुक्रम [६५] JAMEaaura Sandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1644 Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.२] दीप अनुक्रम [६५] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-२] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [२४३...], कंप्पडियत्तणेण पविसति, ताणं तद्दिवसं पगतं, कप्पडिओ य मग्गति, तीए य वहितवगं खज्जगादि, ताधे णियगपतिं वाहेति, अण्णातचज्जाए ताधे पुणरवि गंतुं महता रिद्धीए आगतो सयणाण समं मिलितो, परोवदेसेण वयस्साण सर्व कधेति, ताए अप्पा मारितो मोसुवतेसे परिवायगो मणुस्सं भणति - किं किलिस्सासि ?, अहं ते जदि रुच्चति णिसण्णो चेव दवं विढवावेमि, जाहि किराडयं उच्छिष्णं मग्गाहि, पच्छा कालुदेसेहिं मग्गेज्जासि, जाधे य वाउलो जणदाणगहणेण ताधे भणिज्जासि, सो तधेव भणति, जाधे विसंवदति ताधे ममं सक्खि उद्दिसेज्जन्ति, एवं करणे हारितो जितो (न) दद्यावितो य, कूडलेहकरणे भइरधी अण्णे य उदाहरणा । उक्तं सातिचारं द्वितीयाणुत्रतं, अधुना तृतीयं प्रतिपादयन्नाह थूलगअदत्तादाणं समणो०, से अदिन्नादाणे दुबिहे पन्नन्ते, तंजहा - सचित्तादत्तादाणे अचित्तादत्तादाणे अ । धूलादत्तादाणवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियच्या, तंजहा तेनाहडे तकरपओगे विरुद्धरज्जा इक्कमणे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिबगववहारे ३ ॥ 5 कार्यटिकयेन प्रविशति तयोस्तदिवसे प्रकृतं कार्पटिकच मार्गयति, तस्याश्च वहनीयं खायकादि, तदा निजकपति चाहपति, अज्ञातचर्यया सदा पुनरपि गत्या महत्या का मागतः खजनैः समं मिळति, परोपदेशेन वयस्थानां कथयति सर्व तथाऽमा मारितः । मृषोपदेशे परिवाजको मनुष्यं भणतिकिं काम्यसि ? अहं ते यदि रोचते भिषण एवं द्रव्यमुपार्जयामि याहि किराटकं (इम्यसमूह) उद्यतकं मार्गय, पश्चात् कालोदेशे मासे, यदा च व्याकुलो जनदानग्रहणेन तदा भणेः, स तथैव भणति यदा विसंवदति तदा में साक्षिणमुद्दिशेरिति एवं करणेऽपि पराजितो जितो न दापित, कूटलेखकरणे भगिरथी अन्ये चोदाहरणानि For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अथ स्थूल अदत्तादान व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~ 1645~ bay.org Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ८२२॥ [सू.३] व्याख्या-अदत्तादानं द्विविध-स्थूल सूक्ष्मं च, तत्र परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुखेन प्रतिषिद्धमिति, दुष्टाध्यव-1 प्रत्याख्या | सायपूर्वक स्थूल, विपरीतमितरत् , स्थूलमेव स्थूलकं स्थूलकं च तत् अदत्तादानं चेति समासः, तामणोपासका प्रत्या-| नाध्य ख्यातीति पूर्ववत् , सेशब्दः मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः, तन्नादत्तादानं द्विविधं प्रज्ञप्त--तीर्थकरगणधरैद्धि बाश्रावकत्र ताधिक प्रकार प्ररूपितमित्यर्थः, तद्यथेति पूर्ववत , सह चित्तेन सचित्त-द्विपदादिलक्षणं वस्तु तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्तदुर्व्यस्तविस्मृतस्य | स्वामिनाऽदत्तस्य चीर्यबुद्धयाऽऽदानं सचित्तादत्तादानं,आदानमिति ग्रहणं,अचित्तं वस्त्रकनकरलादि तस्यापि क्षेत्रादी सुन्यस्तदुयस्तविस्मृतस्य स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबुध्ध्याऽऽदानमचिसादत्तादानमिति, अदत्तादाने के दोषाः?, अकर्जते वा के गुणा ?, एत्य इमं योदाहरणम्-जधा एगा गोही, सावगोऽवि ताए गोठ्ठीए, एगस्थ य पगरणं वट्टति, जणे गते गोहील्लएहिं घरं पेल्लितं, थेरीए एकेको मोरपुत्तपाएसु पहंतीए अंकितो, पभाए रण्णो णिवेदितं, राया भणति-कथं ते जाणियबा ?, थेरी भणति-एते पादेसु अंकिता, णगरसमागमे दिहा, दो तिष्णि चत्तारि सबा गोडी गहिता, एगो सावगोभणति-ण हरामिण | लंछितो य, तेहिंवि भणितं-ण एस हरति मुको, इतरे सासिता, अविय सावयेण गोडिंण पविसितवं, किंचिवि पयोयणेण अक्रियमाणे चा के गुणाः १, अदमेवोराहरण-पधका गोटी, श्रावकोऽपि तस्यां गोठया, एकत्र प्रकरण परते, जने गते गोष्टीकडं एण्टितं, ॥८२२॥ स्थविरपैकको मयूरघुत्रपादः प्रतिष्ठन्लयाऽतितः, प्रभात राज्ञो निवेदितं, राजा भणति-कथं ते ज्ञातव्याः, स्थविरा भणति-पुते पादेवदिताः, नगरसमागमे दष्टाः द्वौ त्रयः सर्वा गोष्ठी गृहीता, एकः श्रावको भणति-न मुगामि न च लाजितः, तरपि भणि-मैप मुष्णाति मुक्तः, इतरे शासिताः अपि च श्रावकेण गोष्टयां न प्रयेटम्ब, यत् केनापि प्रयोजनेन दीप अनुक्रम [६६] S anatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16464 Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) 82 % प्रत सूत्रांक *% [सू.३] पिविसति ता ववहारगहिंसादि ण देति, ण य तेसिं आयोगठाणेसु ठाति । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-17 'धूलगे'त्यादि स्थूलकादत्तादानविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातीचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा-स्तेना-8 ६ हृतं, स्तेना:-चौरास्तैराहत-आनीतं किश्चित् कुङ्कमादि देशान्तरात् तेनाहतं तत् समर्पमिति लोभाद् गृहृतोऽतिचारः, तस्कराः-चौरास्तेषां प्रयोगः-हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा तस्करप्रयोगः, तान् प्रयुक्ते-हरत यूयमिति, विरुद्धनृपयोयेंद् राज्यं तस्यातिक्रमः-अतिलहनं विरुद्धराज्यातिक्रमः, न हि ताभ्यां तत्र तदाऽतिक्रमोऽनुज्ञातः, 'कूटतुलाकूटमानं' तुला प्रतीता मान-कुडयादि, कूटत्वं-न्यूनाधिकत्व, न्यूनया ददतोऽधिकया गृहृतोऽतिचारः, तेन-अधिकृतेन प्रतिरूपक-IN &सदृशं तत्पतिरूपक तस्य विविधमवहरणं व्यवहारः-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपको व्यवहारः, यद्यत्र घटते प्रीह्यादि घृतादिषु पलञ्जीवसादि तस्य प्रक्षेप इतियावत् , तत्प्रतिरूपकेण वा वसादिना व्यवहरणं तत्पतिरूपकव्यवहार, एतानि समाचरबन्नतिचरति तृतीयाणुव्रतमिति । दोसा पुण तेणाहडगहिते रायावि हणेज्जा, सामी वा पञ्चभिजाणेज्जा ततो दंडेज वा हमारेज वा इत्यादयः, शेषा अपि वक्तव्याः । उक्तं सातिचारं तृतीयाणवतं, इदानी चतुर्थमुपदर्शयन्नाहMOपरदारगमणं समणो पचवाति सदारसंतोसं वा पडिवजह से य परदारगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-1 दीप अनुक्रम [६६] प्रविशति तदा व्यवहारकादिसादि न ददाति न प सेषामायोगस्थानेषु तिष्ठति । २ दोषाः पुनः रखनाहते गृहीते राजाऽपि हन्यात् , स्वामी वा प्रत्यभिजानीयात् ततो दण्डवेत् मारयेद्रा, भा.१८ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ परदारागमनविरमणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1647~ Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.४] आवश्यक हारिभ- द्रीया ॥४२॥ ओरालियपरदारममणे वेउवियपरदारगमणे, सदारसंतोसस्स समणोवा इमे पंच०तंजहा-अपरिगहि- प्रत्याख्या यागमणे इत्सरियपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा परवीवाहकरणे काममोगतिब्वामिलासे ४॥ (सू०) हैनाध्य श्रावक| आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य दारा:-कलत्रं परदारास्तस्मिन् (वेष)गमन परदारगमनं, गमचमासेवनरूपतया द्रष्टव्यं,श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत्, स्वकीया दारा:-स्वकलत्रमित्यर्थः, तेन (वैः) तस्मिन् (तेषु) वा संतोषः स्वदारसन्तोषः तं वा प्रतिपद्यते, इयमत्र भावना-परदारगमनप्रत्याख्याता यास्वेव परशब्दःप्रवर्तते, स्वदारसन्तुष्टस्त्वेकानेकस्वदारव्यतिरिक्ताभ्यःसर्वाभ्य एवेति, सेशन्दः पूर्ववत्, तच परदारगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथेति पूर्ववत्, औदारिकपरदारगमन-d ख्यादिपरदारगमनं वैक्रियपरदारगमनं-देवाङ्गनागमनं, तथा चउत्थे अणुबते सामण्ण अणियत्तस्स दोसा-मातरमवि | गच्छेज्जा, उदाहरण-गिरिणगरे तिपिण वयंसियाओ, ताओ उज्जेतं यताओ, चोरेहिं गहिताओ, णेत्तुं पारसकूले विकी तातो, ताण पुत्ता डहरगा परेमु उज्झियता, तेवि मित्ता जाता, मातासिणेहेण वाणिजेणं गवा पारसलं, ताओ य गणियाओ सहदेसियाउत्ति भाडि देंति, तेवि संपत्तीए सयाहि सयाहि गया, एगो सावगो, ताहि वऽप्पणीयाहि मालमिस्सियाहिं समं । दीप अनुक्रम [६७]] ८२३॥ चतुर्थेऽणुनते सामान्यनानिवृत्तस्य दोषा मातरमपि गच्छेत् , उदाहरण-गिरिनगरे तिखो वपस्याः, ता उज्जयवं गताऔरहीताः, नीत्वा पारसकूले [विक्रीताः, तासां पुत्राः क्षुलका गृहेषु शिता।, तेऽपि मित्राणि जाताः, मातृबेहेन वाणिज्येन गताः पारसफूल, तात्र गणिकाः सदेशीया इति भार्टी ददति, | वेऽपि भक्तिम्यतया सकीयायाः ३ (मातुः पामे) गताः, एकः श्रावकः, ताभित्रात्मीयाभिमातृमिश्राभिः सम JABERaturdi मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1648~ Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.४] -- - - सेडोणग्छति, पहिला अणिच्छणासुं तुषिणका अच्छति, कातो तुझे आणीता', ताप सिई, तेण भणित-अम्हे चव तुम्हे पुत्ता, इयरेसि सि मोझ्या पचइता, एते अणिवित्ताणं दोसा। विदियं-धूताएवि समं वसेजा, जधा गुबिणीए भजाए। दिसागमणं, पेसितं जधा ते धूता जाता, सोऽवि ता ववहरति जाव जोवणं पत्ता, अण्णा (अण्ण)णगरे दिण्णा सोण याणति जधा दिग्णत्ति, सो पडियंतो तम्मि णगरे मा भंड विणस्सिहितित्ति चरिसारत्तं ठितो, तस्स तीए धूताए समं घडित, तहवि ण याणति, वत्ते वासारते गतो सणगरं, धूतागमणं, दट्टणं विलियाणि, नियतु ताए मारितो अप्पा, इयरोऽवि पतितो। ततियं-गोडीए समं चेडो अच्छति, तस्स सा माता हिंडति, सुण्हा से णियगएत्ति णो साहइ पर्ति, सा तस्स माता देवकुलठितेहिं धुत्तेहिं गच्छंती दिछ, तेहिं परिभुत्ता, मातापुत्ताणं पोत्ताणि परियत्तिताणि, तीए भण्णति-महिलाए कीस ते उवरिल पोत्तं गहितं, हा पाव ! किं ते कतं ?, सो णडो पचइतो। चउत्थं-जमलाणि गणियाए उज्झिताणि, मपिताः, सो नेपछति, महेला अनिच्छा ज्ञात्वा तूगीका तिष्ठति, कुतो यूवमानीता, तयोर्क, तेन भणित-वयमेव युष्माकं पुयाः, इतरेषां शिष्ट, मोषिताप्रमजिताः, एतेऽनिवृत्तानां दोपाः । द्वितीय-दुहिनाऽपि समं बसेन, यथा गर्भिण्या भार्या दिग्गमन, प्रेषितं यथा ते दुहिता जाता, सोऽपि तावत् मबहरति वावचौवनं प्राप्ता, अन्यान्यस्मिन् नगरे दत्ता स न जानाति यथा दति, स प्रत्यागउन् तस्मिन्नगरे मा भादं विनेशदिति पारा स्थितः, तस्य तया दुहित्रा समं संयोगो जातः, तथापि न जानाति, मृत्ते अपाराने गतः स्वनगरं, दुहिवागमन, दृष्ट्वा विलजिती, निवृत्य तया मारित चेटक्षिति, तख सा माता हिपडते, स्नुपरा तथा निजकेति न कथयति पत्य, सा तय माता देवकुलस्थिवैनर्गठम्ती या तैः परिभुक्ता, मातृपुत्रयोषने परावृत्ते, तया भण्पते-महेलायाः कथं स्वयोपरितनं पश्यं गृहीतं , दा पाप ! पिया कृतं ?, स नष्टः प्रवजितः । चतुर्थ-यमलं गणिकयोविझतं, दीप अनुक्रम [६७]] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1649~ Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत्याख्या नाध्या ताधिक प्रत सूत्रांक [सू.४] ॥८२४|| पत्तेहिं मित्तेहिं गहिताणि वति, तेसिं पुवसंठितीए संजोगो कतो, अण्णदा सो दारगो ताए गणियाए पुश्वमाताए सह लग्गो, सा से भगिणी धम्म सोतुं पाइता, ओहीणाणमुप्पण्णं, गणियाघरं गता, तेण गणियाए पुत्तो जातो, अज्जा गहाय परियंदाइ, कह?, पुत्तोऽसि मे भत्तिजओऽसि मे दारगा देवरोऽसि मे भायासि मे, जो तुझ पिता सो मज्झ पिया पती य ससुरो य भाता य मे, जा तुझ माया सा मे माया भाउजाइया सवत्तिणी सासू य, एवं नाऊण दोसे वजेयच । एते इहलोए दोसा परलोए पुण णपुंसगत्तविरूवपियविप्पयोगादिदोसा भवन्ति, णियत्तस्स इहलोए परलोए य गुणा, इहलोए कच्छे कुलपुत्तगाणि सहाणि आणंदपूरे, एगो य धिज्जातिओ दरिदो, सो थूलेसरे उववासेण वरं मग्गति, कोवे (र) चाउवेजभत्तस्स मोल देहि,जा पुण्णं करेमि, तेण वाणमंतरेण भणितं-कच्छे सावगाणि कुलपुत्ताणि भजपतियाणि, एयाणं भत्तं करेहि, ते महष्फलं होहिति, दोषिण वारा भणितो गतो कच्छ, दिण्णं दाणं सावयाणं भत्तं दक्खिणं च, भणति-साहध किं तुझं तवचरणं जेण तुझे | दीप अनुक्रम जिता, भवधिज्ञानमुत्य [६७]] प्राप्तमित्रगृहीतं वर्तते, तयोः पूर्वसंस्थित्या संयोगः कृता, अन्यदा स दारकमाया गणिकया पूर्षमात्रा सहनमा, सा तस्य भगिनी धर्म श्रुत्वा प्रय धज्ञानमुत्पा, गणिकागृहं गता, तेन गणिकायां पुत्रो जाता, भार्थी गृहीत्वा क्रीडयति (ग्लापपति), कथं , पुत्रोऽसि मे भ्रातृश्योऽसि मे दारक! देवाऽसि मे प्रावाऽसि मे, यसव पिता स मम पिता पतिःवशरो प्राता च में, या तव माता सा मे माता भ्रातृजाया का सपनी च, एवं ज्ञात्वा दोषान् वजयितव्यं । एते इहलोक दोपा। परलोके पुनर्नपुंसकत्व विरूपत्वप्रियविषयोगादयो दोषा भवन्ति, निवृत्तसेहकोके परलोके प गुणाः, इहलोके कच्छे कुलपुत्री शाही आनन्दपुरे, एका धिरजाशीयो दरिमः स स्कूलेश्वर (म्यन्तर) उपवासेनाराज्य वरं मार्गयति-कुबेर ! चानुयभक्कम मूल्यं देहि यतः पुण्यं करोमि, तेन च्यन्तरेण कथितं-कच्छे भावकी कुलपुत्री भार्यापती, एताभ्यां भक्त देहि, तव महत्फलं भविष्यति, दिर्भणितो यतः कच्छ, दचं दानं श्रावकाम्यां भक्तं दक्षिणां च, भणति-कथयतं किं युवयोस्तपश्चरणं येन युवा ||८२४॥ 4%9A% Sandiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1650~ Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) ॐ प्रत सूत्रांक [सू.४] देवस्स पुजाणि ?, तेहिं भणित-अम्हे बालभावे एगंतरं मेथुणं पचक्खायं, अण्णदा अम्हाणं किहवि संजोगो जातो, तेच विवरीयं समावड़ियं, जद्दिवसं एगस्स बंभचेरपोसधो तदिवसं विइयस्स पारणगं, एवं अम्ह घरंगताणि चेव कुमारगाणि, धिज्जातितो संबुद्धो । एते इहलोए गुणा, परलोए पधाणपुरिसत्तं देवत्ते पहाणातो अच्छराओ मणुयत्ते पधाणाओ माणुसीतो बिउला य पंचलक्खणा भोगा पियसंपयोगा य आसण्णसिद्धिगमणं चेति । इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-'सदारसंतोसस्स' इत्यादि, स्वदारसन्तोषस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्यास्तद्यथा| इत्वरपरिगृहीतागमनं अपरिगृहीतागमनं अनङ्गक्रीडा परविवाहकरणं कामभोगतीब्राभिलाषः, तत्रेवरकालपरिगृहीता ४ कालशब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, भाटिप्रदानेन कियन्तमपि कालं दिवसमासादिक स्ववशीकृतेत्यर्थः, तस्या गमनम् अभिगमो मैथुनासेवना इत्वरपरिगृहीतागमनं, अपरिगृहीताया गमनं अपरिगृहीतागमनं, अपरिगृहीता नाम वेश्या अभ्य-18 सत्कगृहीतभाटी कुलाङ्गना बाऽनाथेति, अनङ्गानि च-कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु कीडनमनङ्गक्रीडा, अथवाऽनङ्गो मोहो-12 ४दयोद्भूतः तीवो मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो भण्यते तेन तस्मिन् वा क्रीडा कृतकृत्यस्यापि वलिङ्गेन आहायः काष्ठ-12 फलपुस्तकमृत्तिकाचम्मादिघटितप्रजननयोंषिदवाच्यप्रदेशासेवनमित्यर्थः, परविवाहकरणमितीह स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्य देवखापि फूल्यो', साभ्यो भणित-आधाभ्यो बाल्ये एकान्तरित मैथुनं प्रत्यास्वातं, अन्यदाऽऽथयो। कथमपि संयोगो जाता, तब विपरीतमापतितं, | यदिपसे एकस्य ब्रह्मचर्थपोषधः तहिचसे द्वितीयस्थ पारणकमेवमा गृहगताव कुमारी, धिम्जातीयः संबुद्धः । एते ऐहलौकिका गुणाः, परलोके प्रधामपुरुषावं देव प्रधाना असरसो मनुजवे प्रधाना मानुष्यो विपुलाश्च पञ्चलक्षणा भोगाः प्रियसंप्रयोगाभासनसिद्धिगमनं च। दीप अनुक्रम [६७]] R -RS-8896 Pratorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16514 Page #1653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-४] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत्याख्या नाध्य० श्रावकाताधिक प्रत सूत्रांक [सू.४] आवश्यक परशब्देनोच्यते तस्य कन्याफललिप्सया स्नेहबन्धेन वा विवाहकरणमिति, अवि य-उस्तग्गे णियगावच्चाणवि वरणसंवरणं ण करेति किमंग पुण अण्णेसि ?, जो वा जत्तियाण आगारं करेइ, तत्तिया कप्पंति, सेसा ण कप्पति, ण बद्दति महती द्रीया दारिया दिजउ गोधणे वा संडो छुपेज्जेति भणि । काम्यन्त इति कामाः-शब्दरूपगन्धा भुज्यन्त इति भोगा-रसस्पर्शाः। ॥८२५॥ कामभोगेषु तीब्राभिलाषः, तीवाभिलापो नाम तदध्यवसायित्वं, तस्माचेदं करोति-समाप्तरतोऽपि योपिन्मुखोपस्थकर्णकक्षान्तरेवतृप्ततया प्रक्षिप्य लिङ्ग मृत इव आस्ते निश्चलो महती वेलामिति, दन्तनखोपलपत्रकादिभिर्वा मदनमुनेजयति, वाजीकरणानि चोपयुके, योषिदवाच्यदेशं वा मृदुनाति । एतानीत्वरपरिगृहीतगमनादीनि समाचरन्नतिचरति चतुर्थाणुव्रतमिति । एत्थ य आदिला दो अतियारा सदारसंतुहस्स भवंति णो परदारविवज्जगस्स, सेसा पुण दोण्हवि भवन्ति, दोसा पुण इत्तरियपरिगहितागमणे विदिएण सद्धिं वरं होज मारेज तालेज वा इत्यादयः, एवं सेसेसुवि भाणियबा । उकं सातिचार चतुर्थाणुव्रतं । अधुना पञ्चमं प्रतिपाद्यते, तत्रेद सूत्रम्अपरिमियपरिग्गहं समणो० इच्छापरिमाणं उपसंपजह से परिग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सच्चित्तपरिग्गहे अचित्तपरिग्गहे य, इच्छापरिमाणस्स समणोवा इमे पंच०-धणधन्नपमाणाइकमे खित्तवत्थुपमाणाइकमे | पहिरनमुवन्नपमाणाइक्कमे दुपयचउप्पयपमाणाइकमे कुवियपमाणाइकमे ५॥ (सू०) अपि च जसमें निजफापखानामपि घरणसंवरणं न करोति किंपुनरम्येषां ?, यो पा पावतामाकारं करोति तावन्तः कल्पम्ते, शेषा न कापन्ते, ना बुज्यते महती दारिका ददातु गोधने वा पण्डः क्षिपरिवति भणितुं । २ अब चाची हावतिचारी स्वदारसंतुष्टस्य भवतः न परदारविवर्जस्य, शेषाः पुनईयोरपि |भवन्ति, दोषाः पुनरिवरपरिगृहीतागमने द्वितीयेन सार्थ वैर भवेत् मारयेत् ताब्वेदा, एवं शेषेवपि भणितष्पाः, 5549-RX दीप अनुक्रम [६७] | 11८२५॥ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ परिग्रहपरिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~16524 Page #1654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-५] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.५] 'अपरिमितपरिग्गहं समणोवासतो पचक्खाति परिग्रहणं परिग्रहः अपरिमिता-अपरिमाणः तं श्रमणोपासकः। प्रत्याख्याति, सचित्तादेः अपरिमाणात् परिग्रहादू बिरमतीति भावना, इच्छायाः परिमाण २ तदुपसम्पद्यते,सचित्तादिगोचरेछापरिमाणं करोतीत्यर्थः । स च परिग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथेत्येतत् प्राग्वत्, सह चित्तेन सचित्तं-द्विपदचतुष्पदादि तदेव परिग्रहः अचित्त-रत्नवस्त्रकुष्यादि तदेव चाचित्तपरिग्रहः । एत्थ य पंचमअणुषते अणियत्तस्स दोसे नियत्तस्स य गुणे, तत्थोदाहरणम्-लुनंदो कुसीमूलिय लडु विणहो नंदो सावगो पूइतो भंडागारवती ठवितो, अहवावि वाणिणी रतणाणि विकिणति बुद्धाए मरंती, सडेण भणिता-एत्तिअपरिक्खओ णस्थि, अण्णस्स णीताणि, ताए भण्णति-जं जोग्गं तं देहि, सो पत्थं देव, सुभक्खे तीए भत्तारो आगतो, पुच्छति-रतणाणि कहिं , भणति-विकियाणि मए, कह ?, सा भणइ-गोहमसेइयाए एकेक दिन्नं अमुगरस वाणियगस्स, सो वाणियगो तेण भणिओ-रयणा अप्पेह पूरं वा मोल देहि, सो नेच्छा, तो रणो मूलं गतो एरिसे अग्धे वट्टमाणे एतस्स एतेण एत्तियं दिण्णं, सो विणासितो, पढम पुण ताणि १ अन च पञ्चमायुक्ते अनिवृत्तस दोषा निवृत्तस्य च गुणाः, तन्त्रोदाहरण-लोभनन्दः कुशीमूलिका ला विनष्टः, नन्दः श्रावका पूजितो भाण्डागारपतिः | स्थापितः, अथवाऽपि वजिम्माय खानि विक्रीणाति क्षुधा त्रियमाणा, मावेन भण्यते-ऐयस्परीक्षको नाभि, अम्बस्स पार नीतानि, सपा मण्यते-यधोग्यं । तदहि, स प्रस्थं वदातिसुभिक्षे तथा भत्ताडातः, पृच्छति-रखानिक, भणति-बिक्रीतानि मथा, कथं', सा भणति-गोधूमसेतिकर्षक दत्तममुकरमै पणिजे, स पणिक वेन भणिता-रखान्यर्पय पूर्ण वा मूल्यं देहि, स नेपछति, ततो राज्ञो मूलं गतः-देशे वर्तमाने एततेनेवारी, सविनाशितः प्रथमं पुनस्तानि दीप अनुक्रम [६८] O niorartoo मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16534 Page #1655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.५] दीप अनुक्रम [६८] आवश्यक हारिभदीया ८२६ ॥ Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू. ५] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [२४३...], रेतणाणि सावगस्स विकिणियाणि तेण परिग्गहपरिमाणाइरित्ताइंतिकार्ड न गहियाणि, सावगेण णेच्छितं, सो पूइतो । | इदं चातिचाररहितमनुपालनीयं, तथा चाह-'इच्छा परिमाणस्स समणोवासएणं०' इच्छापरिमाणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथेति पूर्ववत्, क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमः तत्र शस्योत्पत्तिभूमिः क्षेत्रं, तञ्च सेतुकेतुभेदाद् द्विभेदं तत्र सेतुक्षेत्रं अरघट्टादिसेक्यं, केतुक्षेत्रं पुनराकाशपतितोदकनिष्पाद्यं, वास्तु-अगारं तदपि त्रिविधंखातमुत्सृतं खातोच्छ्रितं च तत्र खातं भूमिगृहकादि उच्छ्रुतं प्रासादादि, खातोच्छ्रितं भूमिगृहस्योपरि प्रासादः, एतेषां क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः, प्रत्याख्यान कालगृहीतप्रमाणोलङ्घनमित्यर्थः । तथा हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमस्तत्र हिरण्यं - | रजतमघटितं घटितं वा अनेकप्रकारं द्रम्मादिः, सुवर्ण प्रतीतमेव तदपि घटिताघटितं एतद्ग्रहणाच्चेन्द्रनीलमरकताद्युपलग्रहः, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तथा धनधान्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र धनं-गुडशर्करादि, गोमहिष्यजाविकाकरभतुरंगाद्यन्ये, धान्यं त्रीहिकोद्रवमुद्गमापति गोधूमयवादि, अक्षरगमनिका प्राग्वदेव, तथा द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः, तत्र द्विपदादीनि - दासीमयूरहंसादीनि चतुष्पदानि - हस्त्यश्वमहिष्यादीनि, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तथा कुप्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र कुप्यं- आसनशयन भण्ड ककरोटक लोहाद्युपस्करजातमुच्यते, एतद्ग्रहणाच्च वस्त्रकम्बलपरिग्रहः, अक्षरगमनिका पूर्ववदेव, तान् क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमादीन् समाचरन्नतिचरति पञ्चमाणुव्रतमिति । एत्थ य दोसा जीवघातादि भणिता । उक्त सातिचारं पञ्चमाणुव्रतम् इत्युक्तान्यणुव्रतानि, साम्प्रतमेतेषामेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि जानि श्रावकाय विक्रेतुं नीतानि तेन परिमाणातिरिक्तानीतिकृत्या न गृहीतानि श्रावकेण नेष्टं, स पूजितः २ अत्र च दोषा जीवातादयो भणितम्याः For Fast Use Only ६प्रत्याख्या नाध्य० श्रावकताधि० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1654~ ॥८२६॥ ibrary.org Page #1656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.५] दीप अनुक्रम [६८] Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू. ५] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [२४३...], गुणव्रतान्यभिधीयन्ते तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति, तद्यथा - दिगवतं उपभोगपरिमाणं अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति, तत्राद्यगुणन्नतस्वरूपाभिधित्सयाऽऽह दिसिवए तिविहे पनन्ते-उदिसियए अहोदिसिवए तिरियदिसिवए, दिसिवयस्स समणो० इमे पश्च० तंजहाउदिसिपमाणाइकमे अहोदिसिपमाणाइकमे तिरियदिसिपमाणाइक्कमे खितबुद्धी सहअंतरद्धा ६ ॥ ( सूत्र ) दिशो ह्यनेकप्रकाराः शास्त्रे वर्णिताः, तत्र सूर्योपलक्षिता पूर्वा शेषाश्च पूर्वदक्षिणादिकास्तदनुक्रमेण द्रष्टव्याः, तत्र दिशां संबन्धि दिक्षु वा व्रतमेतावत्सु पूर्वादिविभागेषु मया गमनाद्यनुष्ठेयं न परत इत्येवंभूतं दिग्नतं एतचौघतः त्रिविधं प्रज्ञठं तीर्थकर गणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, ऊर्ध्वादिगू ऊर्ध्वं दिग् तत्सम्बन्धि तस्यां वा व्रतं ऊर्ध्वं दिग्नतं एतावती दिगूर्द्ध पर्वताथारोहणादवगाहनीया न परत इत्येवंभूतं इति भावना, अधो दिग् अधोदिक् तत्सम्बन्धि तस्यां वा व्रतं अधोदिग्व्रतं - अर्वाग्दिग्रत्रतम्, एतावती दिगध इन्द्रकूपाद्यवतरणादवगाहनीया न परत इत्येवंभूतमिति हृदयं, तिर्यक् दिशस्तिर्यगूदिशः पूर्वादिकास्तासां सम्बन्धि तासु वा व्रतं तिर्यग्व्रतं एतावती दिगू पूर्वेणावगाहनीया एतावती दक्षिणेनेत्यादि, न परत इत्येवंभूतमिति भावार्थः । अस्मिंश्च सत्यवगृहीतक्षेत्राद् बहिः स्थावरजङ्गमप्राणिगोचरो दण्डः परित्यक्तो भवतीति गुणः । इदमतिचाररहितमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचारानभिधित्सुराह-'दिसिवयस्स समणो० दिग्नतस्य उक्तरूपस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-ऊर्ध्वदिकूपमाणातिक्रमः यावत्प्रमाणं परिगृहीतं तस्यातिलङ्घनमित्यर्थः एवमन्यत्रापि भावना कार्या, अधोदिक्प्रमाणातिक्रमः, तिर्यगूदिकप्रमाणातिक्रमः, क्षेत्रस्य वृद्धिः For Funny 1566 6 ~ 1655~ very g मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अथ दिक्परिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते Page #1657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-६] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) नाध्य ताधि० प्रत सूत्रांक [सू.६] आवश्यक क्षेत्रवृद्धिः [इति]-एकतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो दश योजनानि गृहीतानि तस्यां दिशि समुपने कायें। प्रत्याख्या हारिभ INयोजनशतमध्यादपनीयान्यानि दश योजनानि तत्रेय स्वबुद्ध्या प्रक्षिपति, संवर्द्धयत्येकत इत्यर्थः, स्मृतेश:-अन्तान। द्रीया श्रावकवस्मृत्यन्त नं किं मया परिगृहीतं कया मर्योदया प्रतमित्येवमननुस्मरणमित्यर्थः, स्मृतिमूलं नियमानुष्ठानं, तभ्रंशे तु निय॥८२७॥ मत एव नियमभ्रंश इत्यतिचारः । एत्थ य सामाचारी-उहं जं पमाणं गहितं तस्स उवरि पचतसिहरे रुक्खे बा मकडो पक्खी वा सावयस्स वत्थं आभरणं वा गेण्हितुं पमाणातिरेकं उवरि भूमि बच्चेज्जा, तत्थ से ण कप्पति गंतुं, जाधे तु पडितं अण्णेण वा आणितं ताधे कप्पति, इदं पुण अहावय हेमकुडसम्मेयसुपतिउज्जतचित्तकूडअंजणगमंदरादिसु। पवतेसु भवेजा, एवं अधेवि कूवियादिसु विभासा, तिरियं जंपमाणं गहितं तं तिविधेणवि करणेण णातिक्कमितवं, खेत्तवुड्डी सावगेण ण कायबा, कथं !, सो पुबेण भंडं गहाय गतो जाव तं परिमाणं ततो परेण भंडं अग्पतित्तिकातुं अवरेण आणि जोयणाणि पुबदिसाए संछुभति, एसा खेतवुड्डी से ण कप्पति कातुं, सिय जति वोलीणो होजा णियत्तियवं, विस्तारिते य दीप अनुक्रम recr [६९] ८२७॥ अत्र च सामाचारी ऊर्य यत् प्रमाणं गृहीतं तस्योपरि पर्वतशिखरे वृक्षे वा मर्कटः पक्षी या श्रावकस वसमाभरणं वा गृहीत्वा प्रमाणातिरेकामुपरिभूमि ब्रजेत् , तन्त्र तस्य न कल्पते गन्त, यदा तु पतितं अन्येन वा मानीतं तदा कल्पते, इदं पुनरष्टापदहेमकुण्डसमेतमुप्रतिष्ठोजवन्तचित्रकूटाअनकमन्द || रादिषु पर्वतेषु भवेत्, एवमधोऽपि कूपिकादिषु विभाषा,तिर्यग् यत् प्रमाणं गृहीतं तत् निविधेनापि करणेन तनातिकान्तव्यं, क्षेत्रवृद्धिः श्रावकेण न कर्तपा,11 १ का ?, स पूर्वस्वां भाण्वं गृहीत्वा गतो यावत्तत्प्रमाणं ततः परतो भाण्डमपंतीतिकृत्वाऽपरस्यां यानि योजनानि (तानि) पूर्वस्यां दिशि क्षिपति, एपा क्षेत्र | वृद्धिस्तस्य न कल्पते कर्त, स्थायधतिक्रान्तो भवेत् निपत्तितव्यं, विस्मते च ATiprayam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16564 Page #1658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-६] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.६] Mण गंतवं, अण्णोवि ण विसज्जितयो, अणाणाए कोवि गतो होज जं विसुमरियखेत्तगतेण लद्धं ते ण गेहेजत्ति। [० २१००० ] उक्तं सातिचारं प्रथमं गुणवतं अधुना द्वितीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्र उवभोगपरिभोगवए दुविहे पन्नत्ते तंजहा-भोअणओ कम्मओ अ । भोअणओ समणोचा इमे पञ्चसचित्ताहारे सचित्तपडियद्धाहारे अप्पउलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभ० दुप्पउलिओसहिभक्खणया ७॥ FI उपभुज्यत इत्युपभोगः, उपशब्दः सकृदर्थे वर्तते, सकृद्धोग उपभोगः-अशनपानादि, अथवाऽन्तर्भोगः उपभोगः आहारादि, उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः, परिभुज्यत इति परिभोगः, परिशब्दोऽत्रावृत्तौ वर्त्तते, पुनः पुनर्भोमा बस्खादेः परिभोग: इति, अथवा पहिोगः परिभोग एवमेव वसनालङ्कारादेः, अत्र परिशब्दो बहिर्वाचक इति, एतदूविषयं प्रत-उपभोवपरिभोग-18 व्रतं, एतत् तीर्थकरगणधरैदिविध प्रज्ञप्त, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, भोजनतः कर्मतश्च, तत्र भोजनत उत्सर्गेण निरवद्याहारहा भोजिना भवितव्यं, कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकर्मानुष्ठानयुक्तनेत्यक्षरार्थः ।ह चेवं सामाचारी-भोयेणतो सागो उस्सग्गेण फासुगं आहारं आहारेजा, तस्सासति अफासुगमवि सचित्तयज, तरस असती अर्णतकावबहुवीयमागि परिहरितबाणि, दीप अनुक्रम [६९] न गन्तव्यं, अन्धोऽपि न विसर्जनीयः, अनाज्ञया कोऽपि गतो भवेत् यझिस्मृतक्षेत्रे च गतेन कम्धं तत्र गृतीयात् इति । २ भोजनतः श्रावक उत्सगंण प्रानुक्नाहारमाहरेत् , तमिनासहि मासुकामपि सचितवण, तस्विमसति मनन्तकायमचीजकानि परिरथानि, JAMERating T atorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ उवभोग-परिभोग परिमाणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1657~ Page #1659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) आवश्यक हारिभद्रीया RAKES प्रत सूत्रांक [सू.७] ॥८२८॥ | इमं च अण्णं भोयणतो परिहरति-असणे अणतकार्य अल्लगमूलगादि मंसं च, पाणे मंसरसमज्जादि, खादिमे उदुंबरका- ६प्रत्याख्य उंबरवडपिप्पलपिलखुमादि, सादिमं मधुमादि, अचित्तं च आहारेयचं, जदा किर ण होज अचित्तो तो उस्सग्गेण भत्तं । | नाध्य पच्चक्खातितर्वण तरति ताधे अवधाएण सचित्तं अणंतकायबहुवीयगवज्ज, कम्मतोऽवि अकम्मा ण तरति जीवितुं ताधे| श्रावकत्रद अचंतसावजाणि परिहरिजति । इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमित्यतस्तस्यैवातिचारानभिधित्सुराह-भोयणतो ताधिक समणोवासएण' भोजनतो यदूतमुक्तं तदाश्रित्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा सचित्ताहारः' सचित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोषधानमिति पर्यायाः,सचित्तश्चासौ आहारश्चेति समासः, सचित्तो वा आहारो हायस्य सचित्तमाहारयति इति वा मूलकन्दलीकन्दकाकादिसाधारणप्रत्येकतरुशरीराणि सचित्तानि सचित्तं पृथिव्याद्या हारयतीति भावना । तथा सचित्तप्रतिवद्धाहारो यथा वृक्षे प्रतिबद्धो गुन्दादि पक्कफलानि वा । तथा अपक्कौषधभक्षणत्वमिदं प्रतीतं, सचित्तसंमिश्राहार इति वा पाठान्तरं, सचित्तेन संमिश्र आहारः सचित्तसंमिश्राहारः, वल्यादि पुष्पादि| वा संमिश्र, तथा दुष्पकौषधिभक्षणता दुष्पका:-अस्विन्ना इत्यर्थः तभक्षणता, तथा तुच्छीपधिभक्षणता तुच्छा हि असारा मुद्गफलीप्रभृतयः, अत्र हि महती विराधना अल्पा च तुष्टिः, बहिभिरप्यहिकोऽप्यपायः सम्भाव्यते । ऐस्थ इन चान्यत् भोजनतः परिहरति-अशनेऽनन्तकार्य आईकमूलकादि मांसं च, पाने मांसरसमजादि, खाये उदुम्बरकाकोन्दुवरवपिप्पललक्षादि खाये। मध्वादि, अपित्तं चाहतंय, यदा किल न भवेत् अचित्त उत्सर्येण भक्तं प्रत्याख्यातव्यं न शक्नोति तदाऽपवादेन सचिचं अनन्तकायवहुपीजकन, कर्मतोऽप्य|कर्मा न शक्नोति जीवितुं तदात्यन्तसावधानि परिडियन्ते । २ अत्र दीप अनुक्रम [७०] -IX JAINEairatna Mandiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1658~ Page #1660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.७] दीप अनुक्रम [७०] are s३९ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [२४३...], सिंगाखायकोदाहरणं-खेत्तरक्खगो सिंगातो खाति, राया णिग्गच्छति, मञ्झण्डे पडिगतो, तधावि खायति, रण्णा कोउर्ण पोई फालावितं केत्तियाओ खड़ताओ होजसि, प्यवरि फेणो अन्नं किंचि णत्थि एवं भोजन इति गतं । अधुना कर्मतो यत् व्रतमुक्तं तदप्यतिचाररहितमनुपालनीयं इत्यतोऽस्यातिचारानभिधित्सुराह कम्मओ णं समणोवा० इमाई पन्नरस कम्मादाणाई जा०, तंजहा इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकस्मे, दंतवाणिजे लक्खवाणिजे रसवाणिजे केसवाणिजे विसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे निलंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलाय सोसणया असईपोसणया ७ ॥ ( सूत्र ) ॥ कर्मतो यद् व्रतमुक्तं णमिति वाक्यालङ्कारे तदाश्रित्य श्रमणोपासकेनामूनि प्रस्तुतानि पञ्चदशेतिसङ्ख्या कर्मादानानीत्यसावद्यजीवनोपायाभावेऽपि तेषामुत्कटज्ञानावरणीयादिकर्महेतुत्वादादानानि कर्मादानानि ज्ञातव्यानि न समाचरितव्यानि । तद्यथेत्यादि पूर्ववत्, अङ्गारकर्म-अङ्गारकरणविक्रयक्रिया, एवं वनशकटभाटकस्फोटना दुन्तलाक्षारसविषकेशवाणिज्यं च यंत्रपीडननिभ्छनद वदापनसरोहदादिपरिशोषणासतीपोषणास्वपि द्रष्टव्यमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्वयं- 'ईगालकम्मं'ति, इंगाला निद्दहितुं विकिणति, तत्थ छण्हें कायाणं वधो तं न कप्पति, वणकम्मं जो वर्ण किणति, शिम्बाखादक उदाहरणं क्षेत्ररक्षकः शिम्बाः खादति, राजा निर्गच्छति, मध्याई प्रतिगतः तत्रापि खादति, राज्ञा कौतुकेनोदरं पाटितं किययः खादिता भवेयुरिति, नवरं फेनः, अन्यत्किमपि नास्ति २ अङ्गारकर्मेति-भङ्गाराम निर्देश विकास पण कायानां वचस्तन कल्पते, वनकर्म यो वनं क्रीणाति, For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1659~ Page #1661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-७] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.७] आवश्यक पच्छा रुक्खे किंदित्तुं मुल्लेण जीवति, एवं पणिगादि पडिसिद्धा हवंति, साडीकम्म-सागडीयत्तणेण जीवति, तत्थ बंधवधमाई प्रत्याख्या हारिभ- दोसा, भाडीकम्म-सएण भंडोवक्खरेण भाडएण वहइ, परायगं ण कप्पति, अण्णेसिं वा सगडं बलदेय न देति, एवमादी । नाध्य दीदा कातुंण कप्पति, फोडिकम्म-उदत्तेणं हलेण वा भूमीफोडणं, दंतवाणिज-पुषिं चेव पुलिंदाणं मुलं देति दंते देज्जा बत्ति, श्रावकत्र IN पच्छा पुलिंदा हत्थी घातेंति, अचिरा सो वाणियओ पहिइत्तिकातुं, एवं धीम्मरगाणं संखमुलं देति, एवमादी ण कपति,IM ताधिक ॥८२९॥ पुवाणीतं किणति, लक्खवाणिजेऽवि एते चेव दोसा-तत्थ किमिया होति, रसवाणिज-कल्लालसणं सुरादि तत्थ पाणे बहुदोसा मारणअकोसवधादी तम्हा ण कप्पति, विसवाणिज्ज-विसविकयो से ण कप्पति, तेण बहूण जीवाणं विराधणा, केस-18 वाणिज-दासीओ गहाय अण्णस्थ विकिणति जत्थ अग्घंति, एत्थवि अणेगे दोसा परवसत्तादयो, जैतपीलणकम्म-तेल्लियं जंतं उच्छुजन्तं चकादि तंपि ण कप्पते, णिल्लंछणकम-बोर्ड गोणादि ण कप्पति, दवग्गिदावणताकम–वणदवं देति पश्चाक्षान् विधा मूल्येन जीपति, पूर्व पण्याचा प्रतिषिद्धा भवन्ति, शाकटिककर्म-शाकटिकस्येन जीवति, तन्त्र बन्धपधादिका दोषाः, भाटीकर्म|स्वकीयेन भाण्डोपस्करण भाटकेन वहति परकीयं न कल्पते, अन्येभ्यो वा शकट बलीवदी चन ददाति, एवमादि कर्तुं न कल्पते, स्फोटिकर्म-तुदण हलेनर वा भूमिस्फोटनं, दन्तवाणिज्य-पूर्वमेव पुलिन्द्रेन्यो मूल्यं ददाति, दन्तान् दद्यातेति, पश्चात् पुलिन्दा हस्तिनो घातयन्ति अचिरात् स वणिक् आवास्यतीतिकृत्वा, एवं धीवराणां शङ्खमूल्यं ददाति, एवमादिन कल्पते, पूर्वानीतं कीणाति, लाक्षावाणिज्येऽपि एत एव दोषास्तत्र कृमयो भवन्ति, रखवाणिज्य-कोला ८२९॥ लावं सुरादि तत्र पाने बहवो दोषाः मारणाको शवधादयस्तस्मान्न कल्पते, विषवाणिज्यं विषविक्रयतस्य न कल्पते, तेन बहनो जीवानां विराधना, केशवापाणिज्यं दासीसीरवाऽम्पन्न विक्रीणाति यत्रान्ति, अत्राप्यनेके दोषाः परवशत्वादयः, यन्त्रपीडनकर्म-तैलिक बन्न इक्षुयन्त्र चादि तदपि न कल्पते, निलो छनकर्म-वयितुं गवादीन् न कल्पते, दवाग्निदापनताकर्म वनवं ददाति दीप अनुक्रम [७१] JanEaintin Tarayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16604 Page #1662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) R प्रत सूत्रांक [सू.७] दि छेत्तरक्षणणिमित्तं जधा उत्तरावहे पच्छा दहे तरुणगं तणं उद्वेति, तत्थ सत्ताणं सत्तसहस्साण वधो, सरदहतलागपरिसो-IN सणताकर्म-सरदहतलागादीणि सोसेति पच्छा वाविजंति, एवं ण कप्पति, असदीपोसणताकम्म-असतीओ पोसेति | जधा गोलविसए जोणीपोसगा दासीण भाडि गेण्हेंति, प्रदर्शनं चैतदू बहुसावद्यानां कर्मणां एवंजातीयानां, न पुनः परिगणनमिति भावार्थः । उक्तं सातिचारं द्वितीयं गुणवतं, साम्पतं तृतीयमाह अणत्थडे चउब्बिहे पन्नत्ते, तंजहा-अवज्झाणायरिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोबएसे, अण-16 स्थदंडवेरमणस्स समणोवा० इमे पञ्च० तंजहा-कंदप्पे कुकुइए मोहरिए संजुत्ताहिगरणे उपभोगपरिभोगाइरेगे ८॥ (सूत्रम्). अनर्थदण्डशब्दार्थः, अर्थ:-प्रयोजन, गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनशरीरपरिजनादिविषय तदर्थ आरम्भो-भूतोपमर्दोऽर्थदण्डः, दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पयर्यायाः, अर्थेन-प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः स चैप भूतविषयः उपमईनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, तद्विपरीतोऽनर्थदण्ड:-प्रयोजननिरपेक्षः, अनर्थः अप्रयोजनमनुप-19 योगो निष्कारणतेति पर्यायाः, विनैव कारणेन भूतानि दण्डयति सः, तथा कुठारेण प्रहष्टस्तरुस्कन्धशाखादिषु प्रहरति कृकलासपिपीलिकादीन् व्यापादयति कृतसङ्कल्पः, न च तद्व्यापादने किञ्चिदतिशयोपकारि प्रयोजनं येन विना गार्हस्थ्य है प्रतिपालयितुं न शक्यते, सोऽयमनर्थदण्डः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'अपध्यानाचरित' इति अपध्यानेनाचरितः अप-13/ । क्षेत्ररक्षणनिमित्वं यथोत्तरापथे, पश्चात् दग्धे तरुणं तृणमुत्तिष्ठते, तन्त्र सावानां शतसहस्रागा वधः, सरोदतटाकपरिशोषणताकर्म-सरोहुदत्तटाकादीन् शोषयति, पादुष्यन्ते, एवं न कल्पते, असनीपोषणताकर्म-असतीः पोषयति यथा गौडविपये योनिपोषका दासीनो भा गृहन्ति दीप अनुक्रम ANCECAKACADSAD [७१] R ibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ अनर्थदण्डविरमणं व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1661 Page #1663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.८] | ध्यानाचरितः समासः, अप्रशस्तं ध्यान अपध्यानं, इह देवदत्तश्रावककोणकसाधुप्रभृतयो ज्ञापक, 'प्रमादाचरितः' प्रमाहारिभ- देनाचरित इति विग्रहः, प्रमादस्तु मद्यादिः पञ्चधा, तथा चोक्तम्-"मजं विसयकसाया विकथा णिहा य पंचमी भणिया" नाध्य. द्राया | अनर्थदण्डत्वं चास्योक्तशब्दार्थद्वारेण स्वबुद्ध्या भावनीयं, 'हिंसाप्रदानं' इह हिंसाहेतुत्वादायुधानलविषादयो हिंसोच्यते,81 श्रावकत्रकारणे कार्योपचारात, तेषां प्रदानमन्यस्मै क्रोधाभिभूतायानभिभूताय वा न कल्पते, प्रदाने त्वनर्थदण्ड इति, 'पापकों-13 ताधिक बापदेशः पातयति नरकादाविति पापं तत्प्रधानं कर्म पापकर्म तस्योपदेश इति समासः, यथा-कृष्यादि कुरुत, तथा चोक्त-"छित्ताणि कसध गोणे दमेध इच्चादि सावगजणस्स । णो कप्पति उवदिसि जाणियजिणवयणसारस्स ॥१॥" इदमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यतोऽस्यैवातिचाराभिधित्सयाऽऽह-'अणहदंडे 'त्यादि,अनर्थदण्डविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न समाचरितव्याः, तद्यथा-कन्दर्पः-कामः तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगः कन्दर्प उच्यते, रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो मोहोद्दीपको नर्मेति भावः । इह सामाचारी-सावगस्स अट्टहासो न कप्पति, जति णाम हसिहैयब तो इसिं चेव विहसितवंति। कौकुच्यं-कुत्सितसंकोचनादिक्रियायुक्तः कुचः कुकुचः तद्भावः कौकुच्च-अनेकप्रकारा मुख नयनोष्ठकरचरणधूविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भाण्डादीनामिव विडम्बनक्रियेत्यर्थः । ऐत्थ सामायारी-तारिस-11 गाणि भासितुं ण कप्पति जारिसेहिं लोगस्स हासो उप्पजति, एवं गतीए ठाणेण वा ठातितुन्ति । मौखर्य-धायप्रायमसत्या-16 ८३०॥ क्षेत्राणि कृष गा वमय इत्यादि श्रावकजनस्य । न कल्पते उपदेष्टुं ज्ञातजिनवचनसारस्थ ॥ १ ॥२ श्रावकस्वाहासो न करूपते, यदि नाम हसितव्यं INतर्हि इंपदेव विहसितव्यमिति । ३ भन्न सामाचारी-तादेशि भाषितुं न कश्पते बायीलॉकस हास्वमुत्पखते, एवं गल्या स्थानेन पाखामिति 2-% दीप अनुक्रम [७२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1662~ Page #1664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.८] दीप अनुक्रम [७२] Jus Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [२४३...], सम्बद्धप्रलापित्वमुच्यते, मुँहेण वा अरिमाणेति, जधा कुमारामच्चेणं सो चारभडओ विसज्जितो, रण्णा णिवेदितं, ताए जीविकाए वित्ति दिण्णा, अण्णता रुद्वेण मारितो कुमारामच्चो । संयुक्ताधिकरणं-अधिक्रियते नरकादिध्वनेनेत्यधिकरणंवास्तूदूपल शिलापुत्रक गोधूमयन्त्रकादि संयुक्तं - अर्थक्रियाकरणयोग्यं संयुक्तं च तदधिकरणं चेति समासः । एत्थ समाचारी सावगेण संजुत्ताणि चैव सगडादीनि न धरेतवाणि, एवं वासीपरसुमादिविभासा । 'उपभोगपरिभोगातिरेक' इति उपभोगपरिभोगशब्दार्थो निरूपित एव तदतिरेकः । ऐत्थवि सामायारी - उपभोगातिरितं जदि तेल्लामलए बहुए गेण्हति ततो बहुगा व्हायगा यश्चंति तस्स लोलियाए, अण्हविहायगा व्हायंति, एत्थ पूतरगाआउक्कायवधो, एवं पुष्फलं शेलमादिविभासा, एवं ण वट्टति का विधी सावगस्स उवभोगे पहाणे १, घरे व्हायचं णत्थि ताधे तेल्लामलएहिं सीसं घंसित्ता सवे साडेतूणं ताहे तडागाईतडे निविट्ठो अंजलिहि व्हाति, एवं जेसु य पुष्फेसु पुप्फकुंथुताणि ताणि परिहरति । उक्तं सातिचारं १ मुखेन वारिमानयति यथा कुमारामात्येन स चारभटो विसृष्टः राज्ञो निवेदितं तथा जीविका वृत्तिदेत्ता, अभ्यदा रुटेन मारितः कुमारामात्यः २ अत्र सामाचारी धावकेण संयुक्तानि शकटादीनि न धारणीयानि एवं वासीदिविभाषा । ३ अत्रापि सामाचारी उपभोगातिरिक्तं यदि हामलकादीनि बहूनि गृह्णाति ततो मद्दचः खानकारका यजन्ति तस्य लौल्येन, अन्येऽखायका अपि नान्ति, अत्र पूतरकायप्कायवधः एवं पुष्पतादिविभाषा एवं भ वर्त्तते को विधिः श्रावकस्योपभोगे खाने ? गृहे स्वातव्यं नास्ति तदा तेलामकै शीर्ष ड्डा सर्वाणि शाटयिध्वा ततस्ताकादीनां तटे निवेश्याञ्जलिभिः नाति, एवं येषु पुष्पेषु पुष्पकुन्धस्तानि परिहरति । For Pain Ps Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1663~ ibrary.org Page #1665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-८] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) द्रीया नाध्य श्रावकन प्रत सूत्रांक [सू.८] आवश्यक तृतीयाणुव्रतं, व्याख्यातानि गुणव्रतानि, अधुना शिक्षापदव्रतानि उच्यन्ते, तानि च चत्वारि भवन्ति, तद्यथा-सामा प्रत्याख्या सायिक देशावकाशिक पोषधोपवासः अतिथिसंविभागश्चेति, तत्रायशिक्षापदव्रतप्रतिपादनायाह सामाइ नाम सावजजोगपरिवजणं निरवजजोगपडिसेवणं च । सिक्खा दुविहा गाहा उववायठिई ॥४३॥ गई कसाया या बंधता वेयंता पडिवजाइकमे पंच॥१॥ सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ हवह जम्हा । ताधि० एएण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ॥२॥ सवंति भाणिऊणं बिरई खलु जस्स सब्विया नस्थि । सो सम्वविरइबाई चुक्का देसं च सव्वं च ॥३॥ सामाइयस्स समणो० इमे पश्च०, तंजहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणया सामाइयस्स अणवडियस्स करणया९॥ (सूत्रम् ॥ समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः, समो हिर प्रतिक्षणमपूर्वैर्ज्ञानदर्शनचरणपर्यायैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैयुज्यते, स एव समायः प्रयोजन|मस्य क्रियानुष्ठानस्येति सामायिकं समाय एव सामायिक, नामशब्दोऽलङ्कारार्थः, अवयं-हितं पापं, सहावयेन सावद्यः। है योगी-व्यापारः कायिकादिस्तस्य परिवर्जन-परित्यागः कालावधिनेति गम्यते, तत्र मा भूत् सावद्ययोगपरिवर्जनमात्रमपा पव्यापारासेवनशून्यमित्यत आह-निरवद्ययोगप्रतिसेवनं चेति, अत्र सावद्ययोगपरिवर्जनवनिरवद्ययोगप्रतिसेवनेऽप्यहर्निशं ॥८३शा यत्नः कार्य इति दर्शनार्थ चशब्दः परिवर्जनप्रतिसेवन क्रियाद्वयस्य तुल्यकक्षतोद्भावनार्थः। एत्थ पुण सामाचारी-सामाइयं १ अत्र पुनः सामाचारी सामायिक दीप अनुक्रम [७२] JABERatinine M iDrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | अथ सामायिक व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~16644 Page #1666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] + गाथा ॥१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] Educat आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [स्] / [गाथा १-३], निर्युक्तिः [ १५६१...] आष्यं [२४३...... सावरण कथं कायर्वति १, इह सावगी दुविधो-इहीपत्तो अणिपत्तो य, जो सो अणिपत्तो सो चेतियघरे साधुसमीपे वा घरे वा पोसघसालाए वा जत्थ वा विसमति अच्छते वा निवावारो सवत्थ करेति तत्थ, चउसु ठाणेसु नियमा काय - चेतियघरे साधुमूले पोपधसालाए घरे आवास करेंतोत्ति, तत्थ जति साधुसमासे करेति तत्थ का विधी 2, जति परं परभयं नत्थि जतिवि य केणइ समं विवादो णत्थि जति कस्सइ ण धरेइ मा तेण अंछवियधियं कज्जिहिति, जति य धारणगं दडूण न गेण्हति मा णिज्जिहित्ति, जति वावारं ण वावारेति, ताधे घरे चैव सामायिक कातूणं चच्चति, पंचसमिओ तिगुत्तो ईरियाबजुत्ते जहा साहू भासाए सावज्जं परिहरंतो एसणाए कई लेहुं वा पडिले हिउँ पमज्जेतुं, एवं आदाणे णिक्खेवणे, खेलसिंघाणे ण विगिंचति, विगिंचतो वा पडिलेहेति य पमज्जति य, जत्थ चिट्ठति तत्थवि गुत्तिणिरोध करेति । एताए विधीए गत्ता तिविधेण णमित्तु साधुणो पच्छा सामाइयं करेति, 'करेमि भन्ते ! सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि दुविधं तिविधेणं जाव साधू पज्जुवासामित्ति कातूणं, पच्छा ईरियावहियाए ३] [आायकेण कथं कर्त्तव्यमिति ?, इह आवको द्विविधः सद्विप्रासोऽनृद्धिमाप्तथ यः सोऽवृद्धिप्राप्तः स चैत्यगृहे साधुसमीपे वा गृहे वा पौधशालायां वा यत्र वा विश्राम्यति तिष्ठति वा निपपारः सर्वत्र करोति तत्र चतुर्षु स्थानेषु नियमात् कर्त्तव्यं चैत्यगृहे साधुले पौधशालायां गृहे वा ऽऽवश्यकं कुर्वचिति, तत्र यदि साघुसका करोति तन्त्र को विधिः? यदि परं परभयं नास्ति यदि च केनापि सार्धं विवादो नास्ति यदि कलैचि धारयति मा तेनाकर्षविकर्षं भूदिति, यदि वाधमणं दृष्ट्वा न गृह्येष मा नीयेयेति, यदि व्यापारं न करोति तदा गृह एवं सामायिकं कृत्वा व्रजति पञ्चसमितस्त्रिगुप्त ईयाद्युपयुक्तो यथा साधुः भाषायां सावधं परिहरन् एषणाय हुं काएं वा प्रतितिष्य प्रसृज्य एवमादाने निक्षेपे, मसिने नगति त्यजत् वा प्रतिलिखति च प्रमा च, यत्र तिष्ठति तत्रापि गुप्तिनिरोधं करोति, एतेन विधिना गत्वा त्रिविधेन नाथा साधून् पश्चात् सामायिकं करोति करोमि भदन्त ! सामायिकं सावयं योगं प्रत्याख्यामि द्विविधं विविधेन यावत् साधून् पर्युपासे इतिकृया पश्चात् पथिक For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः -------- ~1665~ ibrary.org Page #1667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा-], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत नाध्य सूत्रांक द्रीया [सू.९] आवश्यक- पंडिकमति, पच्छा आलोएत्ता वंदति आयरियादी जधारातिणिया, पुणोषि गुरुं बंदित्ता पडिलेहिता णिविहो| प्रत्याख्या हारिभ-IIपुच्छति पढति वा, एवं चेतियाइएसुवि, जदा सगिहे पोसधसालाए वा आवासए वा तत्थ णवरि गमणं णस्थि, जो इहीपत्तो(सो) सबिड्डीए एति, तेण जणस्स उच्छाहोवि आडिता य साधुणो सुपुरिसपरिग्गहेणं, जति सो कयसामाइतो एति। ताधिक 11८३२॥ ३शताधे आसहत्थिमादिणा जणेण य अधिकरणं वट्टति, ताधे ण करेति, कयसामाइएण य पादेहिं आगंतवं, तेणं ण करेति, आगतो साधुसमीवे करेति, जति सो सावओ तो ण कोइ उडेति, अह अहाभद्दओ ता पूता कता होतुत्ति भण(ग्ण)ति,8 ताधे पुवरइतं आसणं कीरति, आयरिया उहिता य अच्छंति, तत्थ उडेतमणुढेंते दोसा विभासितवा, पच्छा सो इड्डीपत्तो सामाइयं करेइ अणेण विधिणा-करेमि भन्ते! सामाइयं सावज जोग पञ्चक्खामि दुविधं तिविधेण जाव नियमं पज्जु-| वासामित्ति, एवं सामाइयं काउं पडिकतो वंदित्ता पुच्छति, सो य किर सामाइयं करेंतो मजडं अवणेति कुंडलाणि णाममुई। गाथा ||१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] प्रतिकामति, पश्चात् आलोच्य बन्दले भाचार्यादीन यधारानिक, पुनरपि गुरु वन्दित्वा प्रतिकिल्य निविष्टः पृच्छति पठति पा, एवं चत्वादिष्वपि, यदा खगृहे। | पोपधशालायां चा आपासके वा तदा नवरं गमनं नास्ति, य विमानः स सर्वोऽध्याति, तेन जनस्सोप्साहः अपि च साधव भारताः सुपुरुषपरिप्रदेण, यदि | स कृतसामायिक भायाति तदाऽवहस्त्यादिना जनेन चाधिकरणं वर्चते सतो न करोति, कृतसामायिकेन च पादाभ्यामागन्तव्यं तेन न करोति, भागतः साधु-II | समीपे करोति, यदि स श्रावस्तदान कोऽपि अम्युत्तिष्ठति, भय यथाभनकलवाहतो भवत्विति भण्यते, तदा पूर्वरचितमासनं क्रियते, आचार्याबोस्थिताति-XIIदरसा अस्ति, तनोतिहत्वभूतिहति च दोषा विभाषितम्या, पश्चात् समातिप्राप्तः सामायिक करोयनेन विधिना-करोमि भवन्त ! सामाविक सावध योग प्रस्थाण्यामि निविध विविधेन यावनिषमं पर्युपासे इति, एवं सामायिकं कृत्वा प्रतिकान्तो बन्दित्वा पृच्छत्ति, स किल सामायिकं कुर्वन मुकुट अपनपत्ति कुण्डले नाममुद्रा A ntorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1666 Page #1668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) k प्रत सूत्रांक [सू.९] SSCRORSCORNER गाथा पुष्फतंबोलपावारगमादी वोसिरति। एसा विधी सामाइयस्स। आह-सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपत्वात् सामायिकस्य कृतसा-13 मायिकः श्रावको वस्तुतः साधुरेव, स कस्माद् इत्वरं सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानमेव न करोति त्रिविधं त्रिविधेनेति?, अनोच्यते, ४ सामान्येन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानस्यागारिणोऽसम्भवादारम्भेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात्,कनकादिषु चाऽऽत्मीयपरिग्रहादहै निवृत्तः, अन्यथा सामायिकोत्तरकालमपि तदग्रहणप्रसङ्गात् ,साधुश्रावकयोश्च प्रपश्चन भेदाभिधानात्। तथा चाह ग्रन्धकार: सिक्खा दुविधा गाहा, उपचातठिती गती कसाया य । बंधता वेदेन्ता पडिवजाइक्कमे पंच ॥१॥ इह शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोमहान विशेषः, सा च शिक्षा द्विधा-आसेवनाशिक्षा ग्रहणशिक्षा च, आसेवना-प्रत्युपे-18 क्षणादिक्रियारूपा, शिक्षा-अभ्यासः, तत्रासेवनाशिक्षामधिकृत्य सम्पूर्णामेव चक्रवालसामाचारी सदा पालयति साधुः, श्रावकस्तु न तत्कालमपि सम्पूर्णामपरिज्ञानादसम्भवाच, ग्रहणशिक्षा पुनरधिकृत्य साधुः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टी| 18|प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तं गृह्णातीति, श्रावकस्तु सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टी प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु पडूजीवनिकायां यावदुभयतोऽर्थतस्तु पिण्डैपणां यावत् , नतु तामपि सूत्रतो निरवशेषामर्थत इति । सूत्रप्रामाण्याच विशेषः, तथा चोक्तम्-"सामाइयंमि तु कते समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एतेण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा॥१॥” इति, गाथासूत्रं प्राग् व्याख्यातमेव, लेशतस्तु व्याख्यायते-सामायिके प्रागनिरूपितशब्दार्थे, तुशब्दोऽवधारणार्थः, सामायिकएव कृते न शेषकालं श्रमण इव-साधुरिय श्रावको भवति यस्मात् , एतेन कारणेन बहुशः-अनेकशः सामायिक कुर्यादि १ पुष्पताम्बूलपावारकादि व्युत्सृजति, एष विधिः सामायिकस्य । ||१-३|| SAMROKAR दीप अनुक्रम [७३-७७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: । ~1667~ Page #1669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], प्रत सूत्रांक [सू.९] आवश्यक हारिभद्रीया A-50 नाध्य श्रावकत्रताधिक ॥८३३ ॥ गाथा त्यत्र श्रमण इव चोक्तं न तु श्रमण एवेति यथा समुद्र इव तडागः न तु समुद्र एवेत्यभिप्रायः । तथोपपातो विशेषका | साधुः सर्वार्थसिद्ध उत्पद्यते श्राघकस्त्वच्युते परमोपपातेन जघन्येन तु द्वावपि सौधर्म एवेति, तथा चोक्त-"अविराधित-| सामण्णस्स साधुणो सावगस्स उ जहण्णो । सोधम्मे उववातो भणिओ तेलोकर्दसीहिं ॥१॥” तथा स्थितिभैदिका, साधोरुत्कृष्टा बयखिंशतसागरोपमाणि जघन्या तु पल्योपमपृथक्त्वमिति, श्रावकस्य तूत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागरोपमाणि जघन्या तु पल्योपममिति । तथा गतिदिका, व्यवहारतः साधुः पञ्चस्वपि गच्छति, तथा च कुरटोत्कुरुटी नरकं गैती कुणाला| दृष्टान्तेनेति श्रूयते, श्रावकस्तु चतसृषु न सिद्धगताविति, अन्ये च व्याचक्षते-साधुः सुरगती मोक्षे च, श्रावकस्तु चत| सृष्वपि । तथा कषायाश्च विशेषकाः, साधुः कषायोदयमाश्रित्य सवलनापेक्षया चतुखियेककषायोदयवानकषायोऽपि भवति छद्मस्थवीतरागादिः, श्रावकस्तु द्वादशकपायोदयवान् अष्टकषायोदयवांश्च भवति, यदा द्वादशकपायवांस्तदाऽनन्तानुवन्ध-I वर्जा गृह्यन्ते, एते चाविरतस्य विज्ञेया इति, यदा स्वष्टकषायोदयवान् तदाऽनन्तानुवन्धिअप्रत्याख्यानकषायवर्जा इति, | एते च विरताविरतस्य । तथा बन्धश्च भेदकः, साधुर्मूलप्रकृत्यपेक्षया अष्टविधवन्धको वा सप्तविधवन्धको वा षविधबन्धको वा एकविधबन्धको वा, उक्तं च-"सत्तविधबंधगा हुंति पाणिणो आउवजगाणं तु । तह सुहमसंपरागा छबिहबंधा विणिदिडा ॥१॥ मोहाउयवज्जाणं पगडीणं ते उ बंधगा भणिया । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविधवंधा ॥२॥ ते पुण अविरानामग्यस्य साधोः श्रावकस्थापि अन्यतः साधों पपपातो भणिराबैलोक्यदभिः ॥१॥२ सप्तविधयन्धका भवन्ति प्राणिन वायुजानां तु। तथा सूक्ष्मसंपरायाः पविधयन्धा विनिर्दिष्टाः॥१॥मोहायुर्वजानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः । उपशान्तक्षीणमोही केवलिन एकविधवम्धकाः॥२॥ ते पुन ||१-३|| 11८३३॥ दीप अनुक्रम [७३-७७] JAMERIOR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1668~ Page #1670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-९] / [गाथा १-३], नियुक्ति : [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] ASSACREADS गाथा दुसमयठितीयस्स बंधगा ण पुण संपरागस्स । सेलेसीपडिवण्णा अबंधगा होति विष्णेया ॥३॥" श्रावकस्तु अष्टविधबन्धको वा सप्तविधवन्धको वा । तथा वेदनाकृतो भेदः, साधुरष्टानां सप्तानां चतसृणां वा प्रकृतीनां वेदकः, श्रावकस्तु नियमादष्टानामिति । तथा प्रतिपत्तिकृतो विशेषः, साधुः पश्च महाब्रतानि प्रतिपद्यते,श्रावकस्त्वेकमणुव्रतं द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा, अथवा साधुः सकृत् सामायिक प्रतिपद्य सर्वकालं धारयति, श्रावकस्तु पुनः २ प्रतिपद्यत इति । तथाऽतिक्रमो विशेषकः, साधोरेकवतातिक्रमे पञ्चत्रतातिक्रमः, श्रावकस्य पुनरेकस्यैव, पाठान्तरं वा, किं च-इतरश्च सर्वशब्दं न प्रयुते, मा भूद्देशविरतेरप्यभाव इति, आह् च-'सामाइयंमि उ कए' 'सपंति भाणिकर्ण' गाहा, सर्वमित्यभिधाय-सर्व सावधं योग परित्यजामीत्यभिधाय विरतिः खलु यस्य 'सर्वा निरवशेषा नास्ति, अनुमतेर्नित्यप्रवृत्तत्वादिति भावना, स एवंभूतः सर्वविरतिवादी 'चुकईत्ति भ्रश्यति देशविरतिं सर्वविरतिं च प्रत्यक्षमृषावादित्वादित्यभिप्रायः । पर्याप्त प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । इदमपि च शिक्षापदब्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यत आह-सामाइयस्स समणों' [गाहा], सामायिकस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-मनोदुष्प्रणिधानं, प्रणिधान-प्रयोगः दुष्ट प्रणिधानं दुष्प्रणिधानं मनसो दुष्प्रणिधानं मनोदुष्पणिधान, कृतसामायिकस्य गृहसत्केतिकर्तव्यतासुकृतदुष्कृतपरिचिन्तनमिति, उच-"सामाइयति (तु)कातुं घरचिन्तं जो तु चिंतये सहो । अट्टवसट्टमुवगतो निरत्ययं तस्स सामइयं ॥१॥ हिसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सांपरायिकस्य । शैलेषीप्रतिपना अबन्धका भवन्ति विज्ञेया ॥ ३ ॥२ सामायिक (न) कृत्वा गृहचिन्ता (कार्य) यस्तु चिन्तयेचड़ादः । आर्तवशातमुपगतो निरर्थक तस्य सामायिकम् ॥१॥ ||१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1669~ Page #1671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] + गाथा ||9-3|| दीप अनुक्रम [७३-७७] आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू. -९] / [ गाथा १-३], निर्युक्ति: [ १५६१...] भाष्यं [ २४३...], द्रीया ||८ ३४ ॥ आवश्यक- ५ वागूदुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्यासभ्यनिष्ठुरसावद्यया प्रयोग इति उक्तं च- "कडसामइओ पुषं बुद्धीए पेहितूण भासेजा। हारिभ- | सइ णिरवज्जं वयणं अण्णह सामाइयं ण भवे ॥ २ ॥” कायदुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्याप्रत्युपेक्षितादिभूतलादौ करच| रणादीनां देहावयवानामनिभृतस्थापनमिति, उक्तं च-"अणिरिक्खियापमजिय थंडिले ठाणमादि सेवेन्तो हिंसाभावेवि ण सो कडसामइओ पमादाओ ॥ १ ॥” सामायिकस्य स्मृत्यकरणं-सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मरणा स्मृतिः- उपयोगलक्षणा तस्या अकरणम्-अनासेवनमिति, एतदुक्तं भवति-प्रबलप्रमादवान् नैव स्मरत्यस्यां वेलायां मया यत्सामायिकं कर्तव्यं कृतं न कृतमिति वा, स्मृतिमूलं च मोक्षसाधनानुष्ठानमिति, उक्तं च-" सरह पमादजुत्तो जो सामइयं कदा तु कातवं । कतमकर्त वा तस्स हु कथंपि विफलं तयं णेयं ॥ १ ॥” सामायिकस्यानवस्थितस्य करणं अनवस्थितकरणं, अनवस्थितमल्पकालं वा करणानन्तरमेव त्यजति यथाकथञ्चिद्वाऽनवस्थितं करोतीति, उक्तं च- "कातूण तक्खणं चिय पारेति करेति वा जधिच्छाए । अणवडियं सामइयं अणादरातो न तं सुद्धं ॥ १ ॥” उक्तं सातिचारं प्रथमं शिक्षापदत्रतमधुना द्वितीयं प्रतिपादयन्नाह - ● दिसिव्ययगहियस्स दिसापरिमाणस्स पदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं, देसावगासियस्स समणो० इमे पश्च०, तंजहा आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सहाणुवाए रूवाणुवाए बहिया पुग्गलपक्खेवे ॥ १० ॥ ( सूत्र ) Education कृतसामायिकः पूर्वं युधा प्रेक्ष्य भाषेत सदा निरवद्यं वचनमभ्यथा सामायिकं न भवेत् ॥ १ ॥ २ अनिरीक्ष्याप्रसृज्य स्थण्डिलान् स्थानादि सेवमानः हिंसाभावेऽपि न स कृतसामायिकः प्रमादात् ॥ १ ॥ ३ न स्मरति प्रसादयुक्तो यः सामायिकं तु कदा कर्त्तव्यं कृतमकृतं वा वस्थ हु कृतमपि विफलं तत् ज्ञेयं ॥ ७ ॥ ४ कृत्वा ताक्षणमेव पारयति करोति वा यच्छया। अनवस्थितं सामायिकमनादरात् न तत् शुद्धम् ॥ १ ॥ For Parts Only ६प्रत्याख्या नाध्य० ~1670~ श्रावकत्र ताधि० मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अथ दिशा-व्रतस्य वर्णनं क्रियते ॥ ८३४॥ ebay.org Page #1672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१०] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४३...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१० है। दिगपतं प्रागू व्याख्यातमेव तदूगृहीतस्य दिपरिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीवसंवत्सरचतुर्मासादिभेदस्य योज नशतादिरूपत्वात् प्रत्यहं तावत्परिमाणस्य गन्तुमशक्तत्वात् प्रतिदिन-प्रतिदिवसमित्येतच्च प्रहरमुहर्ताद्युपलक्षणं प्रमाणकरण-दिवसादिगमनयोग्यदेशस्थापन प्रतिदिनप्रमाणकरणं देशावकाशिक, दिगवतगृहीतदिकूपरिमाणस्यैकदेश:-अंशः तस्मिन्नवकाशः-गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निवृत्तं देशावकाशिकं, एतचाणुव्रतादिगृहीतदीर्घतरकालावधिविरतेरपि प्रतिदिनसझेपोपलक्षणमिति पूज्या वर्णयन्ति, अन्यथा तविषयसलेपाभावाद भावे वा पृधशिक्षापदभावप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेण । एत्थ य सप्पदितं आयरिया पण्णवयंति, जधा सप्पस्स पुर्व से बारसजोयणाणि विसओ आसि, पच्छा बिज्जाधादिएण ओसारेंतेण जोयणे दिहिविसओ से ठवितो, एवं सावओवि दिसिबतागारे बहुयं अवरझियाउ, पच्छा देसावगासिएणं तंपि ओसारेति । अथवा विसदिईतो-अगतेण एकाए अंगुलीए ठवितं, एवं विभासा । इदमपि शिक्षाब्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमित्यत आह-'देसा० देशावकाशिकस्य-प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-'आनयनप्रयोगः' इह विशिष्टे देशाधि(दि)के भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं गमनायोगाद्यदन्यः सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयेदमानेयमित्यानयनप्रयोगः, बलात् | विनियोज्यः प्रेष्यः तस्य प्रयोगः यथाऽभिगृहीतपरविचारदेशव्यतिकमभयात् त्वयाऽवश्यमेव गत्वा मम गवाद्यानेयमिदं वा तत्र कर्तव्यमित्येवंभूतः प्रेष्यप्रयोगः। तथा शब्दानुपातः स्वगृहवृत्तिप्राकारकादिव्यवच्छिन्नभूदेशाभिग्रहेऽपि बहिः प्रयोजनो. अनच सर्पदष्टान्तमाचार्या। महापयन्ति, यथा पूर्व तख सर्पस्य द्वादश योजनानि विषय आसीत , पश्चाद्वियावाविनायवारयता योजने तख रष्टिविषयः स्थापितः, एवं श्रावकोऽपि दिग्नताबारे बहपरावान् पश्चात् देशावकाक्षिकेन तदप्यपसारपति । अथवा विषट्टाम्तः-अगदेनैकस्यामगुली स्थापित, एवं विभाषा exeyverter दीप अनुक्रम [७८] %A5% आ niorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1671~ Page #1673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१०] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...., (४०) प्रत्याख्या नाध्य श्रावकत्रताधिक प्रत सूत्रांक [सू.१० आवश्यक त्पत्तौ तत्र स्वयं गमनायोगात् वृत्तिप्राकारप्रत्यासन्नवर्तिनो बुद्धिपूर्वकं क्षुत्कासितादिशब्दकरणेन समवासितकान् बोधयतः हारिभ- शब्दस्यानुपातनम्-उच्चारणं तादृग् येन परकीयश्रवणविवरमनुपतत्यसाविति, तथा रूपानुपात:-अभिगृहीतदेशाद् बहिः| द्रीया प्रयोजनभावे शब्दमनुच्चारयत एव परेषां समीपानयनाथू स्वशरीररूपदर्शनं रूपानुपातः, तथा बहिः पुद्गलप्रक्षेपः अभिगृहीत देशाद् बहिः प्रयोजनभावे परेषां प्रबोधनाय लेष्वादिक्षेपः पुद्गलप्रक्षेप इति भावना, देशावकाशिकमेतदर्थमभिगृह्यतेमा भूद ॥८३५॥ बहिर्गमनागमनादिव्यापारजनितः प्राण्युपमर्द इति, स च स्वयं कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित् फले विशेषः| प्रत्युत गुणः स्वयंगमने ईयोपथविशुद्धेः परस्य पुनरनिपुणत्वादशुद्धिरिति कृतं प्रसङ्गेन ॥ व्याख्यातं सातिचारं द्वितीयं. शिक्षापदव्रतं, अधुना तृतीयमुच्यते, तत्रेदं सूत्रम् पोसहोषवासे चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-आहारपोसहे सरीरसकारपोसहे बंभचेरपोसहे अव्वावारपोसहे, पोसहोववासस्स समणो० इमे पश्च०, तंजहा-अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंधारए अपमजियदुष्पमज्जियसिज्जासंवारए अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमीओ अप्पमजियदुप्पमजियउच्चारपासवण|भूमीओ पोसहोववासस्स सम्म अणणुपाल(ण)या ॥ ११ ॥ (सूत्रं) | इह पौषधशब्दो रूच्या पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व, धर्मोपचयहेतुत्वादित्यर्थः, पौषधे उपव सन पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधानं चेदं पोषधोपवास इति, अयं च पोषधोपवासश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'आहा- भरपोषधः' आहारःप्रतीतः तद्विषयस्तन्निमित्तं पोषध आहारपोषधः, आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना, एवं शरीरसत्कार EXAMPLEASE दीप अनुक्रम [७८] ८३५॥ SamEaurator Finiorayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ पौषधोपवास व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1672~ Page #1674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) R प्रत सूत्रांक [सू.११] 48 पोषधः ब्रह्मचर्यपोषधः, अत्र चरणीयं चर्य 'अवो यदि त्यस्मादधिकारात् 'गदमदचरयमश्चानुपसगात्' (पा०३-१-१००). दाइति यत्, ब्रह्म-कुशलानुष्ठान, यथोक्तं-"ब्रह्म वेदा ब्रह्म तपो, ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम् ।" ब्रह्म च तत् चर्य चेति समासः | माशेष पूर्ववत् । तथा अव्यापारपोपधः । एत्थ पुण भावत्थो एस-आहारपोसधो दुविधो-देसे सबे य, देसे अमुगा विगती आयंबिलं वा एकसि वा दो बा, सबे चतुविधोऽवि आहारो अहोरत्तं पच्चक्खातो, सरीरपोषधो हाणुवणवण्णगविलेवणपुष्फगंधतंबोलाणं वत्थाभरणाणं च परिच्चागो य, सोवि देसे सबे य, देसे अमुगं सरीरसकारं करेमि अमुर्ग न करेमित्ति, सबे अहोरत, बंभचेरपोषधो देसे सबे य, देसे दिवारत्तिं एकसिं दो वा बारेत्ति, सबे अहोरत्तिं बंभयारी भवति, अबावारे पोसधो दुविहो देसे सवे य, देसे अमुगं वावारं ण करेमि, सचे सयलवाबारे हलसगडधरपरकमादीओ ण करेति, एस्थ जो| देसपोस करेति सामाइयं करेति वा ण वा, जो सदपोसधं करेति सो णियमा कयसामाइतो, जति ण करेति तो णियमा |वंचिजति, त कहिं , चेतियघरे साधूमूले वा घरे वा पोसघसालाए वा उम्मुकमणिसुवण्णो पढतो पोत्थगं वा वायतो अन पुनर्भावार्थ एषा-आहारपोषधो द्विविधा-येशतः सर्वतश्न, देशे अमुका विकृतिः आचामाम्लं वा एकको हिवा, सर्वतश्चतुर्विधोऽप्याहारोऽहोरात्रं प्रत्याख्यातः, शरीरपोषधः सानोदर्शनवर्णकविलेपन पुष्पगन्धताम्बूलानां चखाभरणानां च परित्यागात् , सोऽपि देशतः सर्वतश्च देशतोऽमुकं धारीरसत्कार करोम्य मुकं न करोमि, सर्वतोऽहोरात्रं, ब्रह्मचर्यपोषधो देशतः सर्वतश्र, देशतो दिवा रात्री वा एकशो द्विा, सर्वतोऽहोरात्रं ब्रह्मचारी भवति, अध्यापारपोषधो द्विविधा देशसः सर्वतच, देशवोऽमुकं व्यापार न करोमि सर्वतः सकलग्यापारान् हलशकटगृहपराक्रमादिकान् न करोति, अन यो देशपोवध करोति सामायिकं करोति वा नं वा, या सर्वपोष4 करोति स निमात् कृतसामायिका, यदि न करोति तवा नियमान्यते, तत्क, चैत्यगृहे साधुमूले बा गृहे वा पोषधशालायां वा। उन्मुक्तमणिमुवर्णः पठन पुस्तकं वा वाचयन् दीप अनुक्रम [७९] 6458 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1673~ Page #1675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.११] दीप अनुक्रम [७९] आवश्यक- धर्म झाणं झायति, जधा एते साधुगुणा अहं असमत्थो मंदभग्गो धारेतुं विभासा । इदमपि च शिक्षापदब्रतमतिचारर-4 हारिभ- हितमनुपालनीयमित्यत आह-'पोसधोववासस्स समणों पोषधोपवासस्य निरूपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा नाध्य द्रीया ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारी, इह संस्तीयते यः प्रतिपन्नपोषधोपवासेन श्रावकत्र ताधिक ॥८३६॥ विदर्भकुशकम्बलीवस्त्रादिः स संस्तारः शय्या प्रतीता प्रत्युपेक्षणं-गोचरापन्नस्य शय्यादेश्चक्षुषा निरीक्षणं न प्रत्युपेक्षणं अप्रत्यु-| पेक्षणं दुष्टम्-उद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणं दुष्प्रत्युपेक्षणं ततश्चाप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितौ शय्यासंस्तारौ चेति समासः, शय्यैव | वा संस्तारः शय्यासंस्तारः, इत्येवमन्यत्राक्षरगमनिका कार्येति, उपलक्षणं च शय्यासंस्ताराद्युपयोगिनः पीठ(फल)कादेरपि । एत्थे हापुण मायारी-कडपोसधोणो अप्पडिलेहिया सज्ज दुरूहति, संथारगं वा दुरुहड़, पोसहसालं वा सेवइ, दम्भवत्थं वा सुद्धभावस्थं वा भूमीए संघरति, काइयभूमितो वा आगतो पुणरवि पडिलेहति, अण्णधातियारो, एवं पीढगादिसुवि विभासा।। तथा अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंस्तारी, इह प्रमार्जन-शव्यादेरासेवनकाले वखोपान्तादिनेति, दुष्टम्-अविधिना | प्रमार्जनं शेष भाषितमेव, एवं उच्चारप्रश्रवणभूमावपि, उच्चारप्रश्रवणं निष्ठचूतखेलमलाग्रुपलक्षणं, शेष भावितमेव । तथा| पोपधस्य सम्यक्-प्रवचनोक्तेन विधिना निष्पकम्पेन चेतसा अननुपालनम्-अनासेवनम् । एत्) भावना-कतपोसधो| धर्मध्यानं प्यायति, यथा साधुगुणानेतानदं मन्यभाग्योऽसमयों धारयितुं विभाषा । ३ भत्र पुना सामाचारी-कृतपोषधो नाप्रतिलिप शब्यामारोहति ।।दा संस्तारक वारोहति पोषधशाला वा सेवते इर्भवर्ष वा शुद्ध वखं वा भूमी संस्तृणाति, कायिकीभूमित आगतो वा पुनरपि प्रतिलिखति, अन्यथाऽतिचारः, दएवं पीठकादिष्वपि विभाषा। ३ अत्र भावना कृतपोषधो Singtonary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1674~ Page #1676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.११] दीप अनुक्रम [७९] अथिरचित्तो आहारे ताव सर्व देस वा पत्थेति, विदियदिवसे पारणगस्स वा अप्पणो अट्टाए आढत्तिं कारेइ, करेइ वा इम २ वत्ति कहे धणिय बट्टइ, सरीरसकारे सरीरं बट्टेति, दाढियाउ केसे वा रोमराई वा सिंगाराभिप्पायेण संठवेति, दाहे वा सरीरं सिंचति, एवं सवाणि सरीरविभूसाकरणाणि(ण)परिहरति बंभचेरे, इहलोए परलोए वा भोगे पत्थेति संवाधेति वा, अथवा सद्दफरिसरसरूपगंधे वा अहिलसति, कइया बंभचेरपोसहो पूरिहिइ, चइता मो बंभचेरेणंति, अवाबारे | सावजाणि धावारेति कतमकतं वा चिंतेइ, एवं पंचतियारसुद्धो अणुपालेतघोत्ति । उक्तं सातिचारं तृतीयशिक्षापदव्रतं, है अधुना चतुर्धमुच्यते, तत्रेदं सूत्रम् Oअतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं व्वाणं देसकालसद्धासकारकमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं, अतिहिसंविभागस्स समणो० इमे पञ्चतंजहासचित्तनिक्खेवणया सचित्तपिहणया कालइक्कमे परववएसे मच्छरिया य १२॥ (सत्र) इह भोजनार्थ भोजनकालोपस्थाव्यतिथिरुच्यते, तत्रात्मार्थ निष्पादिताहारस्य गृहिनतिनः मुख्यः साधुरेवातिथिस्तस्य स्थिरचित आहारे तावत् सर्व देश धा प्रार्थयते द्वितीयदिवसे वाऽमनः पारणकमा आइति करोति कर वेदमिदं पति कथायामत्य वर्तते, शरीरसाकारे शरीरं वर्तवति इमभुकेशान वा रोमराज वा शाराभिप्रायेण संस्थापयति, निदाये वा शरीर सिथति, एवं सर्वाणि शरीरविभूषाकारणानि न | परिहरति ब्रह्मचर्य पेहली किकान् पारलौकिकान् वा भोगान् प्रार्थयते संबाधयति वा, अथवा शब्दसरसरूपगन्धास्वाभिलष्यति, कदा अह्मचर्यपोपधः पूर|विष्यति खाजिताः को महाचर्येणेति । अव्यापारे सावधान् व्यापारयति कृतमकृतं वा चिम्तयति, एवं पनातिचारशुदोऽनुपालनीयः । AMERatinine Bharorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ अतिथिसंविभाग व्रतस्य वर्णनं क्रियते ~1675~ Page #1677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) 中学中学 प्रत सूत्रांक [सू.१२] आवश्यक-दिसंविभागोऽतिथिसंविभागः, संविभागग्रहणात् पश्चात्कर्मादिदोषपरिहारमाह, नामशब्दः पूर्ववत्, 'न्यायागताना मिति प्रत्याख्या हारिभ- न्यायः द्विजक्षत्रियविशूदाणां स्ववृत्त्यनुष्ठानं स्वस्ववृत्तिश्व प्रसिद्धैव प्रायो लोकहेयो तेन ताहशा न्यायेनागतानां-बाप्तानाम् , नाध्य० द्रीया अनेनान्यायागतानां प्रतिषेधमाह, कल्पनीयानामुद्गमादिदोषपरिवर्जितानामनेमाकल्पनीयानां निषेधमाह, अन्नपानादीनां | श्रावका ताधिक द्रव्याणाम् , आदिग्रहणाद् वखपात्रीपधभेषजादिपरिग्रहः, अनेनापि हिरण्यादिव्यवच्छेदमाह, 'देशकालश्रद्धासत्कार॥८३७॥ क्रमयुक्तं' तत्र नानाव्रीहिकोद्रवकडगोधूमादिनिष्पत्तिभार देशः सुभिक्षदुर्भिक्षादिः कालः विशुद्धश्चित्तपरिणामः श्रद्धा अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुवजनादिः सत्कारः पाकस्य पेयादिपरिपाच्या प्रदानं क्रमः, एभिर्देशादिभिर्युक्तं-समन्वितं, दी अनेनापि विपक्षव्यवच्छेदमाह, 'परया' प्रधानया भक्त्येति, अनेन फलप्राप्ती भक्तिकृतमतिशयमाह, आत्मानुग्रहबुद्ध्या मन पुनयंत्यनुग्रहबुद्धति, तथाहि-आत्मपरानुग्रहपरा एव यतयः संयता मूलगुणोत्सरगुणसम्पन्ना साधवस्तेभ्यो दानमिति | सूत्राक्षरार्थः । एस्थ सामाचारी-सावगेण पोसधं पारेंतेण णियमा साधूणमदातुंण पारेयवं, अन्नदा पुण अनियमो-दातुं वा पारेति पारितो वा देइति, तम्हा पुर्व साधूणं दातुं पच्छा पारेतवं, कधं ?, जाधे देसकालो ताघे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं साधुपडिस्सयं गंतु णिमंतेति, भिक्खं गेहधत्ति, साधूण का पडिवत्ती?, ताधे अण्णो पडलं अण्णो मुहर्णतयं IN८३७॥ अन सामाचारी-धावण पोषधं पारयता नियमात् साधुम्योपचान पारपित्तव्यं अन्यथा पुनरनियमः इत्वा वा पारयति पारविश्वा वा ददातीति, तस्मात् पूर्व साधुभ्यो वा पारवितब्य, कथं !, बदा देशकालमादाऽऽत्मनः शारीरय विभूषां कृत्वा साधुप्रतिश्रवं गत्वा निमन्त्रयते मिक्षा गृहीतेति, साधूनां | का प्रतिपत्तिः -तदाऽन्यः पटलं अन्थो मुखानन्तर्क दीप अनुक्रम [८०] -W*六字K 中六六八十三章 JABERatin ? ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16764 Page #1678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक अण्णो भाणं पडिलेहेति, मा अंतराइयदोसा ठविंतगदोसा य भविस्संति, सो जति पढमाए पोरुसीए णिमंतेति। अत्थि णमोकारसहिताइतो तो गेज्झति, अधव णस्थि ण गेज्झति, ते वहितवयं होति, जति घणं लगेजा ताधे गेन्झति। संचिक्खाविजति, जो वा उग्घाडाए पोरिसिए पारेति पारणइत्तो अण्णो वा तस्स दिजति, पच्छा तेण सावगेण समग गम्मति, संघाडगो बच्चति, एगो ण वदृति पेसितुं, साधू पुरओ सावगो मग्गतो, घरं णेऊण आसणेण उवणिमंतिजति. जति णिविहगा तो लट्ठयं, अध ण णिवेसंति तधावि विणयो पउत्तो, ताधे भत्तं पाणं सयं चेष देति, अथवा भाणं धरेति। भजा देति, अथवा ठितीओ अच्छति जाव दिण्णं, साधूवि सावसेसं दर्ष गेण्हति, पच्छाकम्मपरिहारणहा, दातूण वंदिनु विसज्जेति, विसजेत्ता अणुगच्छति, पच्छा सयं भुंजति, जं च किर साधूण ण दिणं तं सावगेण ण भोत्सर्व, जति पुण साधू णत्थि ता देसकालवेलाए दिसालोगो कातवो, विसुद्धभावेण चिंतिय-जति साधुणो होता तो णिस्थारितो [सू.१२] दीप अनुक्रम [८०] भन्यो भाजन प्रतिलिखति माऽऽन्तरायिका दोषा भूवन् स्थापनादोषान, स यदि प्रथमाषां पौरुषां निमन्वयते अस्ति नमस्कारसदितस्तदा पृथते. थच नातिन गृयते तद्वोदण्यं भवेत, यदि धनं होत तदा गृह्यते संरक्ष्यते, यो बोदूघाटपारुष्यो पारयति पारणवानन्यो वा ती दीपते, पक्षाप्रोन श्रावकेण समं गम्यते संघारको बजति एको भ वर्तते प्रेषित, साधुः पुरतः पावकः पृष्टतः, गुहं नीरवासनेन निमन्त्रयति, यदि लिमिटर कई नाथ निविशम्ति तथापि बिनयः प्रयुक्तो (भवति), तदा भक्तं पानं वा स्वयमेव ददाति अथवा भाजनं धारयति भार्या ददाति, अथवा स्थित एव तिष्ठति बाबरर्स, साधुरपि सापशेष जन्य गृह्णाति पक्षाकर्मपरिहरणार्थाथ, दया पन्दित्वा विसर्जयति विसृज्यानुगति, पचान खयं भुङ, बच किल साधुभ्यो न द न तथापकेग भोक्तब्ध, यदि पुनः साधु ति तदा देशकालवेलायां दिगालोकः कर्त्तव्यः, विशुद्धभावेन चिन्तयित-यदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोऽ. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1677~ Page #1679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) आवश्यक- हारिभ द्रीया 11८३८॥ प्रत सूत्रांक [सू.१२] SEASEARSAGAR होतोत्ति विभासा । इदमपि च शिक्षापदनतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति, अत आह-अतिथिसंविभागस्य-प्रागनिरू- प्रत्याख्या पितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याःन समाचरितव्याः, तद्यथा-'सचित्तनिक्षेपणं' सचित्तेषु-ब्रीह्या-18 नाध्य दिषु निक्षेपणमन्नादेरदानबुद्ध्या मातृस्थानतः, एवं 'सचित्तपिधान' सचित्तेन फलादिना पिधान-स्थगनमिति समासः, श्रावकत्रभावना प्राग्वत् , 'कालातिक्रम' इति कालस्यातिक्रमः कालातिक्रम इति उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रम्यानागतं | ताधिक वा भुलेऽतिक्रान्ते वा, तदा च किं तेन लब्धेनापि कालातिकान्तत्वात् तस्य, उक्तं च-"काले दिण्णस्स पधेयणस्स अग्धो ण तीरते काउं। तस्सेव अकालपणामियस्स गेण्हतया णस्थि ॥१॥" 'परव्यपदेश' इत्यात्मव्यतिरक्को योऽन्यः स परस्तस्य व्यपदेश इति समासः, साधोः पोषधोपवासपारणकाले भिक्षायै समुपस्थितस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्तेपरकीयमिदमिति, नास्माकीनमतो न ददामि, किश्चिद्याचितो वाऽभिधत्ते-विद्यमान एवामुकस्वेदमस्ति, तत्र गत्वा मार्गवत | यूयमिति, 'मात्सर्य' इति याचितः कुप्यति सदपि न ददाति, परोन्नतिवैमनस्यं च मात्सर्य'मिति, एतेन तावद् द्रमकेण याचितेन | दत्तं किमहं ततोऽप्यून इति मात्सर्याद् ददाति, कषायकलुषितेनैव चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति, व्याख्यातं सातिचारं चतुर्थं | | शिक्षापदवतं, अधुना इत्येष श्रमणोपासकधर्मः। आह-कानि पुनरणुप्रतादीनामित्वराणि यावत्कथिकानीति?, अत्रोच्यते Oइत्थं पुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणब्वया आवकहियाई, चत्तारि सिक्खावयाई हत्तरियाई, एयस्स पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं, तंजहा-तं निसग्गेण वा अभिगमेण वा पंच-8 ॥८३८॥ भविष्यदिति विभाषा । २ काले दत्तस्य प्रहेणकस्या! न पाक्यते कर्तुम् । तस्वैचाकालदत्तस्य प्राहका न सन्ति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [८०] *CASA JAMERatinAN Tanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1678~ Page #1680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...., (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१३] अईयारविमुख अणुव्वयगुणब्बयाई च अभिग्गहा अन्नेऽवि पडिमादओ विसेसकरणजोगा, अपसिछमा मारणंतिया संलेहणाझसणाराहणया, इमीए समणोवासएर्ण इमे पश्च०, तंजहा-इहलोगासंसप्पभोगे परलोगासं-| सप्पओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे ॥ १३ ॥ (सूत्रं) अत्र पुनः श्रमणोपासकधर्म पुन शब्दोऽवधारणार्थः, अत्रैव न शाक्यादिश्रमणोपासकधर्मे, सम्यक्त्वाभावेनाणुव्रतायभावादिति, वक्ष्यति च-एत्थ पुण समणोवासगधम्मे मूलवत्धुं संमत्त'मित्यादि, पञ्चाणुव्रतानि प्रतिपादितस्वरूपाणि त्रीणि |गुणव्रतानि उक्तलक्षणान्येव 'यावत्कधिकानी'ति सकृद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनीयानि, चत्वारीति सङ्ख्या 'शिक्षा-18 पदव्रतानी'ति शिक्षा-अभ्यासस्तस्य पदानि-स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापदन्नतानि, 'इत्वराणी'ति तत्र प्रतिदिवसानु-12 ये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुचायें इति भावना, पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयाविति । आह-अस्य श्रमणोपासकधर्मस्य किं पुनर्मूलवस्विति ?, अत्रोच्यते, सम्यक्त्वं, तथा चाह ग्रन्थकार:-'एतस्स पुणो समणोवासग.' अस्य पुनः श्रमणोपासकधर्मस्य, पुनःशब्दोऽवधारणार्थः अस्यैव, शाक्यादिश्रमणोपासकधर्मे सम्यक्त्वाभावात् न मूलवस्तु सम्यक्त्वं, वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु मूलभूतं द्वारभूतं च तद वस्तु च मूलवस्तु, तथा चोक्तम्-"द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजन निधिः। द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं परिकीर्तितम्॥१॥"सम्यक्त्वं-प्रशमादिलक्षणं, उक्तं च-"प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्व"(तत्त्वा० भाष्ये अ०१सू०२)मिति, कथं पुनरिदं भवत्यत आह-'तन्निसम्गेण 'तत्-वस्तुभूतं सम्यक्त्वं निसर्गेण वाऽधिगमेन वा भवतीति नानक दीप अनुक्रम [८१] 450 Narayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1679~ Page #1681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२..., (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१३] आवश्यक-क्रिया, तत्र निसर्गः-स्वभावः अधिगमस्तु यथावस्थितपदार्थपरिच्छेद इति,आह-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षयोपशमादेरिदं भवति प्रत्याख्या हारिभ-18 कथमुच्यते निसर्गेण वेत्यादि ?, उच्यते, स एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमजन्मेति न दोषः, उक्तं च-"ऊसरदेसं दविलय नाध्य द्रीया च बिझाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छस्स अणुदये उवसमसम्म लभति जीवो ॥१॥ जीवादीणमधिगमो मिच्छत्तस्स तु श्रावका ताधिक खयोवसमभावे । अधिगमसम्म जीवो पाइ विसुद्धपरिणामो ॥२॥"त्ति, अलं प्रसङ्गेन, इह भवोदधौ दुष्पापां सम्य॥८३९|| क्वादिभावरलावाप्ति विज्ञायोपलब्धजिनप्रवचनसारेण श्रावकेण नितरामप्रमादपरेणातिचारपरिहारवता भवितव्यमि-15 दत्यस्यार्थस्योक्तस्यैव विशेषख्यापनायानुक्तशेषस्य चाभिधानायेदमाह ग्रन्थकारः 'पञ्चातिचारविसुद्ध'मित्यादि सूत्र, इदं च सम्यक्त्वं प्रागनिरूपितशङ्कादिपश्चातिचारविशुद्धमनुपालनीयमिति शेषः, तथा अणुव्रतगुणत्रतानि-पानिरूपितस्वरूपाणि दृढमतिचाररहितान्येवानुपालनीयानि, तथाऽभिग्रहाः-कृतलोचघृतप्रदानादयः शुद्धा-भगाद्यतिचाररहिता एवानुपालनीयाः, अन्ये च प्रतिमादयो विशेषकरणयोगाः सम्यक्परिपालनीयाः, तत्र प्रतिमा:-पूर्वोक्ताः 'दसणवयसामाइय' इत्यादिना ग्रन्थेन, आदिशब्दादनित्यादिभावनापरिग्रहः, तथा अपश्चिमा मारणान्तिकी संलेखनाजोपणाराधना चातिचाररहिता पालनीयेत्यध्याहारः, तत्रैव पश्चिमैवापश्चिमा मरणं-प्राणत्यागलक्षणं, इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति तथापि ८३९॥ अपरदेश दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य । एवं मिथ्यात्वस्थानुदये औपशमिकसम्पल लभते जीवः॥१॥ जीवादीनामधिगमो मिध्यायस्य || क्षयोपशमभावे । अधिगमसम्बक्तवं जीवः प्रामोति विशुपरिणामः ॥२॥ 16 दीप अनुक्रम [८१] %95%95%4% Morayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1680 Page #1682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-१३] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१३] 81न तद् गृह्यते, किं तर्हि १, सर्वायुष्कक्षयलक्षणमिति मरणमेवान्तो मरणान्तः तत्र भवा मारणान्तिकी बहुच (पूर्वपदात) दाइति ठम् (पा०४-४-६४) संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना-तपोविशेषलक्षणा तस्याः जोपर्ण-सेवनं सातस्याराधना-अखण्डकालस्य करणमित्यर्थः, चशब्दः समुच्चयार्थः। एत्थ सामायारी-आसेवितगिहिधम्मेण किल सावगेण: पच्छा णिक्खमितवं, एवं सावगधम्मो उज्जमितो होति, ण सक्कति ताघे भत्तपञ्चक्खाणकाले संथारसमणेण होतबंति है विभासा । आह उक्तम्-'अपश्चिमा मारणान्तिकी संलेखनाझोषणाऽऽराधना'ऽतिचाररहिता सम्यक् पालनीयेति वाक्यशेषः, अथ के पुनरस्या अतिचारा इति तानुपदर्शयन्नाह-'इमीए समणोवासएणं०' अस्था-अनन्तरोदितसंलेखनासेवनाराध|नायाः श्रमणोपासकेनामी पवातिचारा ज्ञातव्याःन समाचरितव्याः, तद्यथा-दहलोकाशंसाप्रयोगः, इहलोको-मनुष्य लोकस्तस्मिन्नाशंसा-अभिलाषस्तस्याः प्रयोग इति समासः श्रेष्ठी स्याममात्यो वेति, एवं 'परलोकाशंसाप्रयोगः' परलोकेH| देवलोके, एवं जीविताशंसाप्रयोगः, जीवितं-प्राणधारणं तत्राभिलापप्रयोगः-यदि बहुकालं जीवेयमिति, इयं च लवस्त्रमाल्यपुस्तकवाचनादिपूजादर्शनात् बहुपरिवारदर्शनाच, लोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते-जीवितमेव श्रेयः प्रत्याख्या ताशनस्यापि, यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्विद्यत इति, 'मरणाशंसाप्रयोगः' न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं गवेषयति न सपर्ययाऽऽद्रियते नैव कश्चित् श्लाघते, ततस्तस्यैवंविधश्चित्तपरिणामो जायते-यदि शीघ्रं बियेऽहमपुण्यकर्मेति, भोगाशंसाप्रयोगः' जन्मान्तरे चक्रवर्ती स्याम् वासुदेवो महामण्डलिकः शुभरूपवानित्यादि । उक्तः श्रावकधर्मः, व्याख्यातं समभेदं देशो अत्र सामाचारी-मासेवितगृहिधर्मेण किल वाक्केन पश्चानिष्कान्तब्य, एवं श्रावकधर्मों भवत्युवतः, न शक्नोति तदा भक्तप्रत्याख्यानकाले संस्तार-- श्रमणेन भवितव्य, विभाषा। दीप अनुक्रम [८१] SAKACOORDAROGRAPAR AMENarayog मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16814 Page #1683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.१३] दीप अनुक्रम [Page #1684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६५] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक ACCORCAMSACT मनाकारं, परिमाणकृत'मिति दत्त्यादिकृतपरिमाणमिति भावना निरवशेष'मिति समग्राशनादिविषय इति गाथार्थः ॥ १५६४ ॥ 'सङ्केतं चैवेति केत-चिवमङ्गुष्ठादि सह केतेन सङ्केतं सचिह्नमित्यर्थः, 'अद्धा यत्ति कालाख्या, अद्धामाश्रित्य पौरुष्यादिकालमानमपीत्यर्थः, 'प्रत्याख्यानं तु दशविध प्रत्याख्यानशब्दः सर्वत्रानागतादौ सम्बध्यते, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् व्यवहितोपन्यासाद् दशविधमेव, इह चोपाधिभेदात् स्पष्ट एव भेद इति न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयमिति । आह-इदं प्रत्याख्यानं प्राणातिपातादिप्रत्याख्यानवत् किं तावत् स्वयमकरणादिभेदभिन्नमनुपालनीय आहोश्विदन्यथा !, अन्यथैवेत्याह-स्वयमेवानुपालनीयं, न पुनरन्यकारणे अनुमती वा निषेध इति, आह च-दाणुवदेसे जध समाधित्ति अन्याहारदाने यतिप्रदानोपदेशे च 'यथा समाधिः यथा समाधानमात्मनोऽप्यपीडया प्रवर्तितव्यमिति वाक्यशेषः, उक्तं च-भांवितजिणवयणाणं ममत्तरहियाण णस्थि हु विसेसो। अप्पाणमि परंमि य तो वजे पीडमुभओवि॥१॥"त्ति | गाथार्थः ॥ १५६५ ॥ साम्प्रतमनन्तरोपन्यस्तदशविधप्रत्याख्यानाद्यभेदावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह होही पजोसवणा मम य तया अंतराइयं हुना। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए वा ॥ १५६६॥ सो दाइ तवोकम्म पडिबजे तं अणागए काले । एवं पञ्चक्खाणं अणागय होइ नायब्ध ॥१५६७ ।। भविष्यति पर्युषणा मम च तदा अन्तरायं भवेत् , केन हेतुनेत्यत आह-गुरुवयावृत्त्येन तपस्विग्लानतया वेत्युपलक्षणमिदमिति गाथासमासार्थः ॥ १५६६ ॥स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्येत तदनागतकाले तत्प्रत्याख्यानमेवम्भूतमनागत...भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नारत्येव विशेषः । आत्मनि परमिश्च ततो वर्जयेत् पीडाभुभयोरपि ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [८१..] मा०११ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: | दशविध प्रत्याख्यानस्य स्वरुपम् वर्णयते ~16834 Page #1685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [.] दीप अनुक्रम [८१..] आवश्यक शरिभ द्रीया ॥८४१॥ आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६] मूलं [.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [ १५६७ ] भाष्यं [ २४२.... करणादनागतं ज्ञातव्यं भवतीति गाथार्थः ॥ १५६७ ॥ ईमो पुण एत्थ भावत्थों-अणागतं पञ्चक्खाणं, जधा अणागतं तवं करेज्जा, पज्जोसवणाग्रहणं एत्थ विकिद्धं कीरति, सबजहन्नो अट्टमं जधा पज्जोसवणाए, तथा चातुम्मासिए छ पक्खिए अन्भत्त | अण्णेसु य ण्हाणाणुजाणादिसु तहिं ममं अंतराइयं होजा, गुरु-आयरिया तेसिं कातवं, ते किं ण करेंति ?, असह होज्जा, अथवा अण्णा काइ आणत्तिगा होज्जा कायविया गामंतरादि सेहस्स वा आणेयवं सरीरवेयावडिया वा, ताघे सो उववासं करेति गुरुवेयावच्चं च ण सक्केति, जो अण्णो दोहवि समत्यो सो करेतु, जो वा अण्णो समत्थो उववासस्स सो करेति णस्थि ण वा लभेजा न याणेज्ज वा विधिं ताधे सो चेव पुढं उववास कातूर्णं पच्छा तद्दिवसं भुंजेज्जा, तवसी णाम खमओ तस्स कात होज्जा, किं तदा ण करेति ?, सो तीरं पत्तो पज्जोसवणा उस्सारिता, असत्ते वा सयं पारावितो, ताधे सयं हिंडेतुं समत्थो जाणि अब्भासे तत्थ वच्चड, णत्थि ण लहति से जथा गुरूणं विभासा, गेलण्णं-जाणति जथा तहिं अयं पुनरत्र भावार्थ:-अनागतं प्रत्याख्यानं यथाऽनागतं तपः कुर्यात् पर्युषणाग्रहणमंत्र विकृष्टं कियते सर्वजघन्यमष्टमं यथा पर्युषणायां, तथा चतुर्मास्यां षष्ठं पाक्षिके भक्तार्थे, अन्येषु वा खानानुवानादिषु तदा ममान्तरायिकं भविष्यति, गुरवः- आचार्यले कर्तव्यं ते किं न कुर्वन्तिं ?, असहिष्णवो वा स्युः, अथवा अन्या वा काचिदाशतिः कर्तव्या भवेत् ग्रामान्तरगमनादिका शैक्षकस्य वाऽऽनेतव्यं शरीरवैयावृत्यं या, तदा स उपवासं करोति गुरुवैयावृत्यं च न शक्नोति, योऽन्यो द्वयोरपि समर्थः स करोतु, अम्यो वा यः समर्थ उपवासाय स करोति नास्ति न वा खभेत न जानीयाद्वा विधि तदा स चैवोपवासं पूर्वकृत्वा पश्चात् तद् (पर्व) दिवसे भुञ्जीत, तपस्वी नाम क्षपकस्तस्य कर्त्तव्यं भवेत् किं तदा न करोति ?, स तीरं प्राप्तः पर्युपणा उत्सारिता, असहिष्णुत्वाद्वा स्वयं पारितवान् तदा स्वयं हिण्डितुं समर्थो यानि समीपे तत्र ब्रजतु, नास्ति न लभते शेषं यथा गुरूणां विभाषा, ग्लानत्वं जानाति यथा तत्र For Parts Only -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~1684~ प्रत्याख्या नाध्य० १० प्रत्या ख्यानानि ॥ ८४१ ॥ ibrary.org Page #1686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६७] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक दिवसे असर होति, विजेण घा भासितं अमुगं दिवसं कीरहिति, अथवा सयं चेव सो गंडरोगादीहिं तेहिं दिवसेहि असह। भवतित्ति, सेसविभासा जथा गुरुम्मि, कारणा कुलगणसंघे आयरियगच्छे वा तथैव विभासा, पच्छा सो अणागतकाले काऊणं पच्छा सो जेमेज्जा पज्जोसवणातिसु, तस्स जा किर णिजरा पज्जोसवणादीहि तहेव सा अणागते काले भवति । गतमनागतद्वारम् , अधुनाऽतिक्रान्तद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह पजोसवणाइ तवं जो खलु न करेह कारणजाए। गुरुवेयावचेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥१५६८॥ दिसो दाइ तबोकम्म पडिवज्जतं अइच्छिए काले। एवं पञ्चक्खाणं अइकंतं होइ नायब्वं ॥१५६९ ॥ पट्ठवणओ अदिवसोपचक्खाणस्स निट्ठवणओ अ। जहियं समिति दुन्निवि तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ १५७०॥ मासे २ अ तबो अमुगो अमुगे दिणंमि एवइओ । हटेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो ।। १५७१ ॥ दएयं पचक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नतं । जंगिण्हंतणगारा अणि स्सि(भि)अप्पा अपडिबद्धा ॥१५७२ ॥ चउदसपुवी जिणकप्पिएसु पढमंमि चेव संघयणे । एयं विच्छिन्नं खलु धेरावि तया करेसी य ॥१५७३ ।। है। पर्युषणायां तपो यः खलु न करोति कारणजाते सति, तदेव दर्शयति गुरुवैयावृत्त्येन तपस्विग्लानतया घेति गाथासमा दिवसेऽसहिष्णुर्भवति, वैयेन वा भापितं अमुग्मिन् दिवसे करिष्यते, अथवा खयमेव स गण्डरोगादिभिस्तेषु दिवसेषु असहिष्णुभांगीति, शेषविभाषा यथा गुरौ, कारणात् कुलगणस शेष आचायें गच्छे वा तथैव विभाषा, पश्वासोऽनागतकाले कृत्वा पश्चात् स जेमेत् पर्युषणादिषु, तसा था किल निर्जरा पर्युपणादिभिस्तथैव साऽनागते काले भवति । दीप अनुक्रम [८१..] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1685 Page #1687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७३] भाष्यं [२४२...', (४०) - आवश्यकहारिंभ प्रत्याख्या नाध्य १० प्रत्या. ख्यानानि द्रीया प्रत सूत्रांक ॥८४शा [सू.] सार्थः ॥ १५६८ ॥ स इदानी तपाकर्म प्रतिपद्यते तदतिक्रान्ते काले एतत् प्रत्याख्यान-एवंविधमतिक्रान्तकरणादति- क्रान्तं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥१५६९ ॥ भावत्यो पुण पज्जोसवणाए तवं तेहिं चेव कारणेहिं न करेइ, जो वा न समस्थो उधवासस्स गुरुतवस्सिगिलाणकारणेहिं सो अतिकते करेति, तथैव विमासा । व्याख्यातमतिकान्तद्वारं, अधुना कोटीसहितद्वारं विवृण्वन्नाह-प्रस्थापकश्च-प्रारम्भकश्च दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च-समाप्तिदिवसश्च यत्र-प्रत्याख्याने 'समिति' त्ति मिलतः द्वावपि पर्यन्तौ तद् भण्यते कोटीसहितमिति गाथासमासार्थः ॥ १५७॥ भावत्थो पुण जत्थ पञ्चक्खाणस्स कोणो कोणो य मिलति, कधी-गोसे आवस्सए अभत्तहो गहितो अहोरत्तं अच्छिऊण पच्छा पुणरवि अभत्तई करेति, बितियस्स पडवणा पढमस्स निवणा, एते दोऽवि कोणा एगट्ठा मिलिता, अहमादिसु दुहतो कोडिसहितं जो चरिमदिवसे तस्सवि एगा कोडी, एवं आयंबिलनिवीतियएगासणा एगहाणगाणिवि, अथवा इमो अण्णो विही-अभत्तडं कत आयंबिलेण पारित, पुणरवि अभत्तह करेति आयंबिलं च, एवं एगासणगादीहिवि संजोगो कातबो, णिषीतिगादिसु ससु सरिसेसु विसरिसेसु य । गतं कोटिसहितद्वारं, इदानीं नियन्त्रितद्वारं न्यक्षेण निरूपयन्नाह-मासे २ भावार्थः पुनः पर्युषणाय उपसरेव कारण करोति, यो वा न समर्थ उपवासाय गुरुतपखिलानकारणः सोऽतिकात करोति, तथैव विभाषा। |२ भावार्थः पुनयंत्र प्रत्याश्यानस्य कोण कोणा मिलतः, कर्य!, प्रत्यूपे आवश्यकेभिवार्थो गृहीतः अहोरात्रं खिया पक्षात् पुनरपि समकाय करोति, द्वितीयस्य प्रस्थापना प्रथम निष्ठापना, एती द्वावपि कोणी एकत्र मिलिती, अष्टमादिषु विधातः कोटीसहितं यक्षरमदिवसः (स) तथाप्येका कोटी, एवमाचामाम्ल निर्विकृतिककासनकस्थानकाम्यपि, अथवाऽयमन्यो विधि:-अमक्कार्थः कृत आचामाम्लेन पारयति, पुनस्यभकार्य करोति भाषामाम् च, एवं एकासनादिभिरपि संयोगः कर्तव्यः, निर्विकृत्यादिषु सर्वेषु सटशेषु विसदृशेषु च । दीप अनुक्रम [८१..] ॥८४२॥ JAMERumona मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16864 Page #1688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७३] भाष्यं [२४२...., (४०) प्रत सूत्रांक च तपः अमुकं अमुके-अमुकदिवसे एतावत् षष्ठादि हृष्टेन-नीरजेन ग्लानेन वा-अनीरुजेन कर्त्तव्यं यावदुच्छ्रासो यावदायुरिति गाधासमासार्थः ॥ १५७१ ॥ एतत् प्रत्याख्यानमुक्तस्वरूपं नियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्त-तीर्थकरगणधरप्ररूपितं यद् गृह्णन्ति-प्रतिपद्यन्ते अनगारा-साधवः 'अनिभृतात्मानः' अनिदाना अप्रतिवद्धाः क्षेत्रादिष्विति गाथासमासार्थः ॥ १५७२ ॥ इदं चाधिकृतप्रत्याख्यानं न सर्वकालमेव क्रियते, किं तर्हि ?, चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकेषु प्रथम एव वज़क्रषभनाराचसंहनने,(अधुना तु)एतद् व्यवछिन्नमेव, आह-तदा पुनः किं सर्व एव स्थविरादयः कृतवन्तः आहोश्विजिनकल्पिकादय एवेति?, उच्यते, सर्व एव,तथा चाह-स्थविरा अपि तथा(दा-)चतुर्दशपूादिकाले, अपिशव्दादन्ये च कृतवन्त इति गाथासमासार्थः॥१५७३॥ भावत्थो पुण नियंटितं णाम णियमितं, जथा एत्थ कायचं, अथवाऽच्छिण्णं जथा एत्थ अवस्सं कायचंति, मासे २ अमुगेहिं दिवसेहिं चतुत्थादि छहादि अठ्ठमादि एवतिओ छठेण अट्टमेण वा, हठो ताव करेति चेव, जति गिलाणो हवति तथावि करेति चेव, णवरि ऊसासधरो, एतं च पञ्चक्खाणं पढमसंघतणी अपडिबद्धा अणिस्सिता इत्थ य परस्थ य, अवधारणं मम असमस्थस्स अण्णो काहिति, एवं सरीरए अप्पडिबद्धा अण्णिस्सिता कुवंति, एतं पुण चोदसपुवीसु भावार्थः पुननियन्त्रितं नाम नियमित यथाऽन्न कर्तव्यं, अथवाऽपिछन यथावावश्यं कर्तव्य मिति, मासे २ अमुस्मिन् दिवसे चतुयादि षठादि अष्ट मादि एतावत्, षष्ठेनारमेन वा, एसावत् करोत्येच, यदि ग्लानो भवति तथापि करोत्येच, परं पासधर, एसथ प्रवाण्यानं प्रथम संहून निनोऽप्रतिबद्धा अनिलिताः, अन्न चागुन च, अवधारणं ममासमर्थखान्यः करिष्यति, पूर्व शरीरेऽप्रतिपदा अनिश्रिताः कुर्वन्ति, एतत् पुनश्चतुर्दशपूर्षिभिः दीप अनुक्रम [८१..] Anatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16874 Page #1689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७३] भाष्यं [२४२...', (४०) प्रत्याख्या नाध्य० १० प्रत्या ख्यानानि प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- पढमसंघतणेण जिणकप्पेण य समं वोच्छिण्णं, तम्हि पुण काले आयरियपजंता थेरा तदा करेंता आसत्ति । व्याख्यातं हारिभ- नियन्त्रितद्वारं, साम्प्रतं साकारद्वारं व्याचिख्यासुराहद्रीया मयहरगागारेहिं अन्नस्थवि कारणमि जायंमि । जो भत्सपरिचायं करेह सागारकडमेयं ॥ १५७४ ॥ ॥८४३॥ ___ अयं च महानयं च महान् अनयोरतिशयेन महान महत्तरः, आक्रियन्त इत्याकाराः, प्रभूतैवंविधाकारसत्ताख्यापनार्थ दाबहुवचनमतो महत्तराकारैर्हेतुभूतैरन्यत्र वा-अन्यस्मिंश्चानाभोगादी कारणजाते सति भुजिक्रियां करिष्येऽहमित्येवं यो भक्त परित्यागं करोति सागारकृतमेतदिति गाथार्थः ॥१५७४॥ अवयवत्थो पुण सह आगारेहिं सागारं, आगारा उपरि सुत्ताणुगमे भणिहिंति, तस्थ महत्तरागारेहि-महलपयोयणेहिं, तेण अभत्तहो पञ्चक्खातो ताथे आयरिएहि भण्णति-अमुगं गार्म गंतवं, तेण निवेइयं जथा मम अज अब्भत्तहो, जति ताव समत्थो करेतु जातु य, ण तरति अण्णो भत्तहितो अभत्तडिओ वा| जो तरति सो वच्चतु, णस्थि अण्णो तस्स वा कज्जरस असमत्थो ताथे तस्स चेव अभत्तद्वियस्स गुरू विसजयन्ति, एरि४ सस्स तं जेमंतस्स अणभिलासस्स अभत्तहितणिज्जरा जा सा से भवति गुरुणिओएण, एवं उस्सूरलंभेवि विणस्सति अञ्चतं. दीप अनुक्रम [८१..] प्रथमसंहननेन जिनकल्पेन च समं गवच्छि, समिन् पुनः काले भाचायों जिनकलिपकाः खविरासदा कुषन्त बासन् २ अवयवार्थः पुनः सदाकारी V८४॥ साकारं, आकारा उपरि सूत्रानुगमे मणिष्यन्ते, तत्र महाराकार:-महत्वयोजनैः, तेमाभकार्थः प्रत्याख्यातः सदाचार्भपयते-अमुकं प्रामं गम्तयं, तेन निवेदितं यथा ममाचाभकार्थः, यदि तावत्समर्थः करोतु बानु च न शक्नोति बन्यो भक्कार्थोऽभक्ताओं वा यः शक्रोति स बजतु, नास्त्वम्यस्तस्य या कार्यस्य उसमर्थः तदा तमेवाभक्काधिकं गुरवो विस्जन्ति, इटसाप तं जेमतोश्नमिलापखामतार्थ निजरा या सा तस्य भवति गुरुनियोगेन, एवमुस्खूरलाभेऽपि विनरूपति बावन्तं andiDram.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1688 Page #1690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७४] भाष्यं [२४२...], (४०) प्रत सूत्रांक विभासा, जति थोवं ताथे जे णमोकारइत्ता पोरुसिइत्ता वा तेसिं विसजेजा जे ण वा पारणइत्ता जे वा असहू विभासा, एवं गिलाणकजेसु अण्णतरे वा कारणे कुलगणसंघकज्जादिविभासा, एवं जो भत्तपरिचार्ग करेति सागारकडमेतति । गतं | साकारद्वारं, इदानीं निराकारद्वारं व्याचिख्यासुराहनिजायकारणंमी मयहरगा नो करंति आगारं । कतारवित्तिदुभिक्खयाइ एवं निरागारं ॥ १५७५ ॥ निश्चयेन यात-अपगतं कारणं-प्रयोजनं यस्मिन्नसी निर्यातकारणास्तस्मिन् साधी महत्तराः-प्रयोजनविशेषास्तत्फला-18 भावान्न कुर्वन्त्याकारान् कार्याभावादित्यर्थः, को-कान्तारवृत्ती दुर्भिक्षतायां च-दुर्भिक्षभावे चेति भावः, अत्र यत् क्रियते | तदेवभूतं प्रत्याख्यानं निराकारमिति गाथार्थः ॥१५७५ ॥ भावत्थो पुण णिज्जातकारणस्स तस्स जधा णत्थि एत्थ किंचिवि वित्ति ताहे महत्तरगादि आगारे ण करेति, अणाभोगसहसक्कारे करेज, किं निमित्तं !, कहं वा अंगुलिं वा मुधे छुहेज अणाभोगेणं सहसा वा, तेण दो आगारा कजंति, तं कहिं होजा, कंतारे जथा सिणपलिमादीसु, कतारेसु वित्ती ण दीप अनुक्रम [८१..] विभाषा, यदि सोकं तदा ये नमस्कारसहितका पौरुपीयावा तेषां विसर्जयेत् ये न वा पारणवन्तो ये वाऽसहिष्णवाविभाषा:, एवं ग्लान कार्येषु अन्यतरमिन् वा कार्थे कुलगणसंघकार्यादिविभाषा, एवं यो भवपरित्यागं करोति साकारकृतमेतत् । २ भावार्थः पुननियोतकारणस्य तस्य यथा नास्ति पत्र काचित्तिः तदा महतरादीनाकारान् न करोति, अनाभोगसहसाकारी कुर्यात् , किंनिमित्तं ?, काई पाङ्गुलिं वा मुखे क्षिपेत् अनाभोगेन सहसा वा, तेन हावाकारी कियेते, तत् क भवेत् !, कान्तारे यथा शणपक्ष्यादिषु, कान्तारेषु वृधि न RAK-47 SINEara n a F inaryam मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1689~ Page #1691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७५] भाष्यं [२४२..] (४०) प्रत सूत्रांक प्रत्याख्या नाध्य १० प्रत्याख्यानानि [सू.] आवश्यक- लहति, पडिणीएण वा पडिसिद्ध होजा, दुभिक्खं वा वट्टइ हिंडतस्सवि ण लम्भति, अथवा जाणति जथा ण जीवा- || मित्ति ताथे णिरागारं पञ्चक्खाति । व्याख्यातमनाकारद्वारम् , अधुना कृतपरिमाणद्वारमधिकृत्याहद्रीया दत्तीहि उ कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दध्वेहिं । जो भत्तपरिचायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥ १५७६ ॥ ॥८४४॥ है दत्तीभिर्वा कवलैर्वा गृहभिक्षाभिरथवा द्रव्यैः-ओदनादिभिराहारायामितमानयों भक्तपरित्यागं करोति 'परिमाणकडमेत'- ति कृतपरिमाणमेतदिति गाथासमासार्थः ॥ १५७६ ॥ अवयवत्थो पुण दत्तीहिं अज भए एगा दत्ती दो वा ३-४-५ दत्ती, किं वा दत्तीए परिमाणं?, वञ्चगंपि(सित्थगंपि)एकसिं छुब्भति एगा दत्ती, डोवलियंपि जतियाओ वारातो पप्फोडेति तावतियाओ ताओ दचीओ, एवं कवले एकेण २ जाव बत्तीस दोहि ऊणिया कवलेहिं, घरेहिं एगादिएहिं २३४। | भिक्खाओ एगादियाओ२ ३ ४, दबं अमुगं ओदणे खज्जगविही वा आयंबिलं वा अमुर्ग या कुसणं एवमादिविभासा । गतं कृतपरिणामद्वार, अधुना निरवशेषद्वारावयवार्थ अभिधातुकाम आहसव्वं असणं सव्वं पाणगं सब्वखजभुजविहं । वोसिरइ सब्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥ १५७७ ॥ दीप अनुक्रम [८१..] CASSES कभते, प्रत्यनीकेन वा प्रतिपिदं भवेत, दुर्भिक्ष वा वर्चते हिंडमानेनापि न लभ्यते, अथवा जानाति पचा न जीविष्यामीति तदा निराकार प्रत्याख्याति । २ अवयवार्थः पुनतिभिः अद्य मया एका बत्ति बा ३४५ दत्तयः, किं वा दत्तेः परिमाणं , सिक्यकमप्येकाः क्षिपति एका दत्तिः दर्वीमपि यावतो वारान् प्रस्फोटपति तावत्यता दत्तयः, एवं कवठे एकेन यावत् द्वात्रिंश्यता द्वाभ्यामूना कवलाम्यां, गृहरकादिभिः भिक्षा एकादिकाः २३, दम्पम | मुकमोदनः सावकविधिचर्चा भाचामाम्लं वा अमुकं वा द्विवलं एवमादि विभाषा । ॥८४४॥ JAMERatopati मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16904 Page #1692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [मु.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५७७] भाष्यं [२४२..] (४०) प्रत सूत्रांक सर्वमशनं सर्व वा पानकं सर्वखाद्यभोज्यं-विविध खाद्यप्रकार भोज्यप्रकारं च व्युत्सृजति-परित्यजति सर्वभावेन-सर्वप्रकारेण भणितमेतन्निरवशेष तीर्थकरगणधरैरिति गाथासमासार्थः॥ १५७७ ।। विस्थरस्थो पुण जो भोअणस्स सत्तरविधस्स वोसिरति पाणगस्स अणेगविधस्स खंडपाणमादियस्स खाइमस्स अंबाइयस्स सादिमं अणेगविधं मधुमादि एतं सर्व जाव वोसिरति एतं णिरवसेस । गतं निरवशेषद्वारम् , इदानी सङ्केतद्वारविस्तरार्थप्रतिपादनायाहअंगुटमुढिगंठीधरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे । भणियं सकेयमेयं धीरेहिं अर्थतनाणीहि ॥ १५७८ ॥ | अङ्गुष्ठश्च मुष्टिश्चेत्यादिद्वन्द्वः अङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्धिगृहस्वेदोच्छासस्तिबुकज्योतिष्कान् तान् चिहं कृत्वा यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत् भणितम्-उक्तं सङ्केतमेतत् , कैः-धीरैः-अनन्तज्ञानिभिरिति गाधासमासार्थः ॥ १५७८ ॥ अवयवत्थो पुण के नाम चिंध, सह केतेन सङ्केतं, सचिह्नमित्यर्थः, साधू सावगो या पुण्णेवि पचक्खाणे किंचि चिण्हं अभिगिम्हति, जाव एवं तावाधं ण जिमेमित्ति, ताणिमाणि चिह्नानि, अंगुहमुहिगंठिघरसेऊसासथिबुगदीवताणि, तत्थ ताव सावगो पोरुसीपञ्चक्खाइतो ताथे छत्तं गतो, घरे वा ठितो ण ताव जेमेति, ताथे ण किर वद्दति अपचक्खाणस्स अच्छितुं, तदा -24 दीप अनुक्रम [८१..] विस्तरार्थः पुनर्षों भोजनं सप्तदशविध मयुरसजति पानीयमनेकविध सण्टापानीयादि खाधमानादि स्वायमनेकविध मवादि एतत् सर्व यायमुरमजति एतत् निरवशेष । २ अवधार्थः पुनः के नाम चिहं साधुः धावको वा पूर्णेऽपि प्रत्याख्याने किनिधिई अभिगृहाति यावदेवं ताबदई म जेमामि, तानामानि चितानि बहुधा मुष्टिन्धिहं खेदविन्दुरुङ्गासाः बिजुको दीपा, तन्त्र तावत् श्रावकः पौरुषीप्रत्याख्यानवान् तदा क्षेत्रं गतः गृहं या स्थितः न तावत् । जेमति, तदा किक न वर्ततेऽमत्याख्यानेन स्थातुं, तदा AARAKSSAX JAMEastne मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1691~ Page #1693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [.] दीप अनुक्रम [८१..] आवश्यक हारिभद्रीया ॥ ८४५॥ आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५७८] भाष्यं [२४२..] अंगुडचिंधं करेति, जाव ण मुयामि ताव न जेमेमित्ति, जाव वा गंठिंण मुयामि, जात्र घरं ण पविसामि जाव सेओ ण |णस्सति जाव वा एवतिया उसासा पाणियमंचिताए वा जाव एत्तिया धिबुगा उस्साबिंदूधिबुगा वा, जाव एस दीवगो जलति ताव अहं ण भुंजामित्ति, न केवलं भत्ते अण्णेसुवि अभिग्गहविसेसेसु संकेतं भवति, एवं ताव सावयस्स, साधुस्सवि पुण्णे पञ्चक्खाणे किं अपचक्खाणी अच्छउ ? तम्हा तेणवि कातचं सङ्केतमिति । व्याख्यातं सङ्केतद्वारं, साम्प्रतमद्वाद्वारप्रतिपिपादयिषयाह- अद्धा पचवस्त्राणं जं तं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमपोरिसीए मुहुत्तमासमासेहिं ।। १५७९ ।। अजा-काले प्रत्याख्यानं यत् कालप्रमाणच्छेदेन भवति, पुरिमार्द्धपौरुषीभ्यां मुहर्त्तमासार्द्धमासैरिति गाथासङ्क्षेपार्थः ।। १५७९ ॥ अवयवत्थो पुण अद्धा णाम कालो कालो जस्स परिमाणं तं कालेणाववद्धं कालियपच्चक्खाणं, तंजथाणमोकार पोरिसि पुरिम एकासणग अद्धमासमासं, चशब्देन दोणि दिवसा मासा वा जाव छम्मासित्ति पश्ञ्चक्खाणं, एवं अद्धापचक्खाणं । गतमद्धाप्रत्याख्यानं, इदानीं उपसंहरन्नाह - [ ग्रं० २१५०० ] १] अनुचिह्नं करोति यावत्र मुयामि तावन जेमामि यावद्वा ग्रन्थि न सुयामि यापा गृहं न प्रविशामि यावद्वा स्वेदो न नश्यति यावद्वा एतावन्त उवासाः पानीयमञ्चिकाय वा पावदेतावन्तः स्तिका अवश्यायविन्दवो वा यावदेष दीपको ज्वछति तावदहं न भुझे न केवलं भक्तेष्वपि अभिग्रहविशेषेषु संकेतं भवति एवं तावत् श्रावकस्य साधोरपि पूर्ण प्रत्याख्याने किमप्रत्याख्यामी विष्ठतु ? तस्मात् तेनापि कर्त्तव्यं संकेतमिति । २ अवयवार्थः पुनः अद्धा नाम कालः, कालो यस्य परिमाणं तत् कालेनावबद्धं कालिकं प्रत्याख्यानं तद्यथा नमस्कारसहितं परुपी पूर्वधिकाशनार्थमासमासानि चशब्देन हो दिवसी मासी वा बावत् पण्मासाः इति प्रत्याख्यानं एतद्द्वाप्रत्याख्यानं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... ********* For Past Use Only ~ ~ 1692 ~ ६प्रत्याख्या नाध्य० १० प्रत्या ख्यानानि ॥ ८४५|| आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः incibrary.org Page #1694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [मु.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८०] भाष्यं [२४२..] (४०) प्रत सूत्रांक SACSCAR भणियं दसथिहमेयं पञ्चक्खाणं गुरूवएसेणं । कयपचक्खाणविहिं इत्तो वुच्छ समासेणं ॥ १५८०॥ FIआजह जीवघाए पचक्खाए न कारए अन्नं । भंगभयाऽसणदाणे धुव कारवणे य नणु दोसे ॥ १५८१॥ नो कयपञ्चक्वाणो, आयरियाईण दिज असणाई। न य चिरईपालणाओ यावचं पहाणयरं ॥१५८२॥ नोतिविहंतिविहेणं पचक्खा अन्नदाणकारवणं । सुद्धस्स तओ मुणिणो न होह तभंगहेउत्ति ॥ १५८३ ।। सयमेवणुपालणियं दाणुवएसो य नेह पडिसिहो । ता दिज उवइसिज्ज व जहा समाहीइ अन्नेसि ॥१५८५॥ भाकपचक्खाणोऽवि य आयरियगिलाणयालवुहाणं । दिजासणाइ संते लाभे कयबीरियायारो॥१५८५॥ भणितं दशविधमेतत् प्रत्याख्यानं गुरूपदेशेन, कृतं प्रत्याख्यानं येन स तथाविधस्तस्य विधिस्तं 'अतः' ऊर्ध्व वक्ष्ये समासेन' सझेपेणेति गाधार्थः ॥ १५८० ॥ प्रत्याख्यानाधिकार एवाह परः, किमाह ?-यथा जीवघाते-प्राणातिपाते 8 प्रत्याख्याते सत्यसौ प्रत्याख्याता न कारयत्यन्यमिति-न कारयति जीवघातं अन्यप्राणिनमिति, कुतः?-भङ्गभयात् प्रत्याख्यानभङ्गभयादित्यर्थ, भावार्थ:-अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि तस्य दानम्-अशनदानं तस्मिन्नशनदाने,अशनशब्दः पा४ नाथुपलक्षणार्थः, ततश्चैतदुक्तं भवति-कृतप्रत्याख्यानस्य सतः अन्यस्मै अशनादिदाने ध्रुवं कारणमिति-अवश्य भुजिक्रिया कारणं, अशनादिलाभे सति भोक्तु जिक्रियासद्भावात् , ततः किमिति चेत्, ननु दोषः-प्रत्याख्यानभङ्गदोप इति गाथार्थः | M॥१५८१ ॥ अत:-'नो कयपञ्चक्खाणो आयरियाईण दिज असणाई यतश्चैवमतः न कृतप्रत्याख्यानः पुमानाचार्या४ दिभ्य आदिशब्दादुपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानवृद्धादिपरिग्रहः दद्यात् , किम् ? -अशनादि, स्यादेतद्-ददतो वैयावृत्य दीप अनुक्रम [८१..] ACCEC3% Sonamom मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1693~ Page #1695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८५] भाष्यं [२४२..] (४०) आवश्यक हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥८४६॥ [सू.] CATECH दीप अनुक्रम [८१..] लाभ इत्यत आह-न च विरतिपालनाद् वैय्यावृत्यं प्रधानतरमतः सत्यपि च लाभे किं तेनेति गाथार्थः ॥ १५८२ ॥ प्रत्याख्या एवं विनेयजनहिताय पराभिप्रायमाशङ्काय गुरुराह-न 'त्रिविध करणकारणानुमतिभेदभिन्नं 'त्रिविधेन' मनोवाक्काय- नाध्यक योगत्रयेण 'प्रत्याख्याति' प्रत्याचष्टे प्रकान्तमशनादि अतोऽनभ्युपगतोपालम्भश्चोदकमते, यतश्चैवम् अन्यस्मै दानम-| १०प्रत्याशनादेरिति गम्यते, तेन हेतुभूतेन कारणं भुजिक्रियागोचरमन्यदानकरणं तच्छुद्धस्य-आशंसादिदोषरहितस्य ततः लख्यानानि तस्मात् मुनेः-साधोः न भवति तद्भङ्गाहेतु:-प्रक्रान्तप्रत्याख्यानभङ्गाहेतुः, तथाऽनभ्युपगमादिति गाथार्थः ॥१५८ शाकिंच|स्वयमेव-आत्मनवानुपालनीयं प्रत्याख्यानमुक्तं नियुक्तिकारेण, दानोपदेशी य नेह प्रतिषिद्धी, तत्रात्मनाऽऽनीय वितरणं दानं दानश्राद्धकादिकुलाख्यानं तूपदेश इति, यस्माद् एवं तस्माद् दद्यादुपदिशेद्वा, यथासमाधिना वा यथासामर्थेन 'अन्येभ्यो बालादिभ्य इति गाथार्थः ॥ १५८४ ॥ अमुमेवार्थ स्पृष्टयन्नाह 'कय इत्यादि, निगदसिद्धा, एत्थ पुण सामायारी-सयं अ -IK जंतोवि साधूर्ण आणेत्ता भत्तपाणं देजा, संतं वीरियं ण निगृहितचं अप्पणो, संते वीरिए अण्णो णाऽऽणावेयबो, जथा अण्णो | अमुगस्स आणेदु दिति, तम्हा अप्पणो संते वीरिए आयरियगिलाणबालवुडपाहुणगादीण गरछस्स या संणायकुलेहिंतो वा असण्णातएहिं वा लद्धिसंपुण्णो आणेत्ता देज वा दवावेज वा परिचिएसुवा संखडीए वा दवावेज, दाणेत्ति गतं, उपदिसेज |॥८४६॥ १ अन्त्र पुनः सामाचारी-स्वपमभुलानोऽपि साधूभ्य आनीय भक्तपाने दचार सदीयं न निगृहितव्यं आत्मनः, सति वीर्येऽन्यो नाऽजापयितव्यः वधाऽन्यो| मुकमी आनीय ददातु, तस्मात् आत्मनः सति वीर्य आचायग्लानबालवृद्धमापूर्णकादिभ्यो गच्छाय वा सजातीयकुतिभ्यो वाऽसज्ञातीयेभ्यो वा लम्धिसंपूर्ण भानीय दद्यात् दापयेहा, परिचितेभ्यो वा सङ्घच्या वा दापयेत् , वानमिति गतं, उपदिशेट्टा CHANASA%ECAMC -% A Tangtionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1694 ~ Page #1696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८५] भाष्यं [२४४] (४०) प्रत सूत्रांक वा संविग्गअण्णसंभोइयाणं जथा एताणि दाणकुलाणि सदृगकुलाणि वा, अतरंतो संभोइयाणवि उवदिसेज ण दोसो, अह पाणगस्स सण्णाभूमि वा गतेण संखडीभत्तादिगं वा होज ताहे साधूणं अमुगत्थ संलडित्ति एवं उवदिसेज्जा । उवदेसत्ति गतं । जहासमाही णाम दाणे उवदेसे अ जहासामस्थ, जति तरति आणेदुं देति, अह न तरति तो दवावेज वा उवदिसेज वा, जथा जथा साधूणं अपणो वा समाधी तथा तथा पयतित जहासमाधित्ति वक्खाणियं । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह भाष्यकार:संविग्गअण्णसंभोल्याण देसेज सङगकुलाई । अतरंतो वा संभोइयाण देजा जहसमाही ॥२४४॥(भा०) । गतार्थी, णवरमतरतस्स अण्णसंभोइयस्सवि दातबं । साम्प्रतं प्रत्याख्यानशुद्धिः प्रतिपाद्यते, तथा चाह भाष्यकार:सोही पञ्चक्खाणस्स छविहा समणसमयकेहिं । पन्नत्ता तित्थयरेहिं तमहं धुच्छ समासेणं ॥ २४५॥ (भा०) सा पुण सदहणा जाणणा यविणयाणुभासणा चेव । अणुपालणा विसोही भावषिसोही भवे छट्ठा ॥ १५८६ ॥ शोधनं शुद्धिः, सा प्रत्याख्यानस्य-प्रागनिरूपितशब्दार्थस्य पविधा-पट्प्रकाराश्रमणसमयकेतुभिः-साधुसिद्धान्तचिह संविभ्योऽन्यसांभोगिकेभ्यो बयैतानि दानकुलानि भाबककुलानि वा, अशक्नुवन् सांभोगिकेभ्योऽप्युपदिशेन दोषा, अथ पानकस्य संज्ञाभूमि वा गतेन संखडीभक्तादिकं या भवेत् तदा साधुभ्योऽमुकत्र संखडीत्येवमुपदिशेत , उपदेश इति पतं, बधासमाधिनाम दाने उपदेशे च यथासामर्थ्य, पदि शक्नोति मानीव ददाति अथ न पामोति तदा दापयेदोपदिशेद्रा, वथा यथा साधूनामात्मनो वा समाधिस्तथा तथा प्रयतितम्यं वधासमाधीति व्याख्यातं । २ गवरमशावतोऽन्यसांभोशिकावापि दातव्यं दीप अनुक्रम [८१..] मा. ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1695~ Page #1697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६] भाष्यं [२४५] (४०) % प्रत सूत्रांक %25A5% [सू.] आवश्यक भूतैः प्रज्ञप्ता-प्ररूपिता, कैः -तीर्थकरैः-ऋषभादिभिः, तामहं वक्ष्ये, कथं ?-समासेन-सङ्केपेणेति गाथार्थः ॥ २४५ ॥ हारिभ- अधुना पविधत्वमुपदर्शयन्नाह-सा पुनः शुद्धिरेवं पविधा, तद्यथा श्रद्धानशुद्धिः ज्ञानशुद्धिश्च विनयशुद्धिः अनुभाद्रीया पणाशुद्धिश्चैव, तथाऽनुपालनाविशुद्धिश्चैव भावशुद्धिर्भवति षष्ठी, पाठान्तरं वा 'सोहीसदहणे त्यादि, तत्र शुद्धिशब्दो १०प्रत्या ख्यानानि द्वारोपलक्षणार्थः, नियुक्तिगाथा चेयमिति गाथासमासार्थः ॥ १५८६ ॥ अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राद्य-४ ॥८४७॥ द्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहपचक्खाणं सब्वन्नदेसिज जहिं जया काले । तं जो सद्दाइ नरोतं जाणसु सहहणसुद्धं ॥ २४६ ॥ (भा०) पचक्खाणं जाणइ कप्पे जं जंमि होइ कायन्वं । मूलगुणे उत्तरगुणे तंजाणसु जाणणासुद्धं ॥ २४७॥ (भा०)। | प्रत्याख्यानं सर्वज्ञभाषितं-तीर्थकरप्रणीतमित्यर्थः 'य'दिति यत् सप्तविंशतिविधस्यान्यतम, सप्तविंशतिविधं च पञ्चविधं| साधुमूलगुणप्रत्याख्यानं दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्वादशविध श्रावकप्रत्याख्यानं 'यत्र' जिनकल्पे चतुर्यामे पशयामेवा| श्रावकधर्मे वा 'यदा' सुभिक्षे दुर्भिक्षे वा पूर्वाहे पराहे वा काल इति-चरमकाले तत् यः श्रद्धत्ते नरः तत् तदभेदोपचा-18 रात् तस्यैव तथापरिणतत्वाजानीहि श्रद्धानशुद्धमिति गाथार्थः॥२४६ ॥ ज्ञानशुद्ध प्रतिपाद्यते, तत्र-प्रत्याख्यानं जानाति-अवगच्छति कल्पे-जिनकल्पादौ यत् प्रत्याख्यानं यस्मिन् भवति कर्त्तव्यं मूलगुणोत्तरगुणविषय तज्जानीहि ज्ञान& शुद्धमिति गाथार्थः ॥ २४७ ॥ विनयशुद्धमुच्यते, तन्त्रेयं गाथा ॥८४७॥ किइकम्मस्स विसोही पउंजई जो अहीणमइरिसं।मणवयणकायगुत्तोतं जाणसुविणयओ सुद्धं ॥२४८॥ (भा०) दीप अनुक्रम [८१..] R- SCRESSES C JAMERIAL andiprary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~16964 Page #1698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६...] भाष्यं [२४९] (४०) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [८१..] अणुभासइ गुरुवयणं अक्खरपयवंजणेहिं परिसुद्धं । पंजलिउडो अभिमुहोतं जाणणु भासणासुद्धं ॥२४९॥ (भा०) कतारे दुभिक्खे आर्यके वा महई समुप्पन्ने । जं पालियं न भग्गं तं जाणणु पालणासुद्धं ॥ २५० ॥ (भा०) दारागेण व दोसेण व परिणामेण व न दृसियं जं तु।तं खलु पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयब्वं ॥२५१॥ (भा०) एएहिं छहिं ठाणहि पञ्चक्खाणं न दूसियं जंतु । तं सुद्ध नायब्वं तप्पडिवक्खे असुई तु ॥ २५२ ॥ (भा० थंभा कोहा अणाभोगा अणापुच्छा असंतई। परिणामओ असुद्धोअवाउ जम्हा विउ पमाणं ॥ २५३ ।। (भा०) पञ्चकखाणं समतं कृतिकर्मणः-वन्दनकस्येत्यर्थः विशुद्धि-निरवद्यकरणक्रियां प्रयुते यः सः प्रत्याख्यानकाले अन्यूनातिरिक्तां विशुद्धिं मनोवाक्कायगुप्तः सन् प्रत्याख्यानृपरिणामत्वात् प्रत्याख्यानं जानीहि विनयतो-विनयेन शुद्धमिति गाधार्थः ॥ २४०॥ अधुनाऽनुभाषणशुद्ध प्रतिपादयन्नाह-कृतकृतिको प्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनं, लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः, कथमनुभाषते?-अक्षरपदव्यजनैः परिशुद्ध, अनेनानुभाषणायनमाह, णवरं गुरु भणति चोसिरति, इमोवि भणति-योसिरामोत्ति, सेसं गुरुभणितसरिस भाणितवं । किंभूतः सन् , कृतप्राञ्जलिरभिमुखस्तजानीह्यनुभाषणाशुद्धमिति गाथार्थ: |॥ २४९ ।। साम्प्रतमनुपालनाशुद्धमाह-कान्तारे-अरण्ये दुर्भिक्षे-कालविभ्रमे आत वा-वरादी महति समुत्पन्ने सति | यत् पालितं यन्न भग्नं तञानीह्यनुपालनाशुद्धमिति । एत्थ उम्गमदोसा सोलस उप्पादणाएवि दोसा सोलस एसणादोसा GL परं गुरुर्भजाति-युगजति, अवमपि भणति खुसजाम इति, शेषं गुरुभणितसदर्श माणितव्यं । २ असोजमघोषा: पोधश सत्पादनाया अपि दोषाः पोडश एषणादोषा JAMERating M orary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1697~ Page #1699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६...] भाष्यं [२५३] (४०) हारिभद्रीया IA प्रत सूत्रांक ॥८४८॥ [सू.] दीप अनुक्रम [८१..] दस एते सबे बातालीस दोसा णिचपडिसिद्धा, एते कंतारे दुर्भिक्षादिसुण भजतित्ति गाथार्थः ॥ २५० ॥ इदानीं भावशु- प्रत्याख्य अमाह-रागेण वा-अभिष्वङ्गालक्षणेन द्वेषेण वा-अप्रीतिलक्षणेन, परिणामेन च-इहलोकाद्याशंसालक्षणेन स्तम्भादिना वा नाध्य. १०प्रत्या. वक्ष्यमाणेन न दूषित-न कलुषितं यत् तु-यदेव तत् खल्विति-तदेव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् प्रत्याख्यानं भाववि ख्यानानि शुद्धं 'मुणेय'ति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ अवयवत्थो पुण-रागेण एस पूइज्जदित्ति अहंपि एवं करेमि तो पुजिहामि एवं रागेण करेति, दोसेण तहा करेमि जहा लोगो ममहत्तो पडति तेण एतस्स ण अहायति एवं दोसेण, परिणामेण णो इहलोगहताए णो परलोगहयाए नो कित्तिजसवण्णसहहेतुं वा अण्णपाणवत्थलोभेण सयणासणवत्थहेतुं वा, जो एवं करेति तं भावसुद्धं ॥२५१॥ एभिर्निरन्तरव्यावणितैः षभिः स्थानः श्रद्धानादिभिः प्रत्याख्यानं न दूषित-न हाकलुषितं यत् तु-यदेव तत् शुद्धं ज्ञातव्यं । तत्प्रतिपक्षे-अश्रद्धानादौ सति अशुद्ध तु-अशुद्धमेवेति गाथार्थः ॥ २५२॥ परिणामेन वा न प्रदूषितमित्युक्तं तत्र परिणाम प्रतिपादयन्नाह-स्तम्भात्-मानात , क्रोधात्-प्रतीतात्, अनाभोगात्-वि-18 स्मृतः अनापृच्छातः असन्ततेः (तातः)परिणामात् अशुद्धः अपायो वा निमित्तं यस्मादेवं तस्मात् प्रत्याख्यानचिन्तायां विद्वा दश, एते स हिचत्वारिंशत् दोषा नित्य प्रतिपिडा। एते कान्तारदुर्भिक्षादिषु न भज्यन्ते इति । १ अवयवार्थः पुना रागणेष पूज्यते इत्यहमपि एवं करोमि ततः पूजयिष्ये एवं रागेण करोति, रेषण तथा करोमि बया लोको ममावती पतति तेनेनं नाझियते एवं हेपेण, परिणामेन नेहकोकाय न परलोकाथांब न कीर्तिवर्णयशःश बहेतोर्वा अक्षपानवनलोभेन शयनासनवखदेतोवा, व एवं करोति तत् भायशुवं । R ८४८॥ AnEaian VIandiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1698~ Page #1700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६...] भाष्यं [२५३] (४०) प्रत सूत्रांक न प्रमाणं निश्चयनयदर्शनेनेति गाथार्थः ॥ २५३ ॥ थंभेण एसो माणिजति अहंपि पञ्चक्खामि तो माणिजामि, कोघेण पडिचोदणाइ अंबाडिओ णेच्छति जेमेतुं कोहेण अन्भत्तढ करेति, अणाभोगेण ण याणति किं मम पञ्चक्खाणंति जिमिएण संभरितं भर्ग पञ्चक्खाणं, अणापुच्छा णाम अणापुच्छाए चेव भुंजति मा वारिजिहामि जहा तुमे अन्भत्तहो पञ्चक्खादोत्ति, अहवा जेमेमि तो भणिहामि वीसरितंति, 'असंतति'त्ति णस्थि एत्थ किंचि भोत्तवं वरं पञ्चक्वातंति परिणामतोऽशुद्धोत्ति दारं । सो पुववण्णितो इहलोगजसकित्तिमादि, अहवा एसेव थंभादि अवाउत्ति, अहं पञ्चक्खामि, मा णिच्छुभी-1 हामित्ति, अहवा एए ण पञ्चक्खाति । एवं ण कप्पति विदू णाम जाणगो तस्स सुद्धं भवति सो अण्णधा ण करेति जम्हा, कम्हा', जाणगो, तम्हा विदू पमाणं, जाणतो सुह परिहरतित्ति भणितं होति, सो पमाण, तस्य शुद्धं भवतीत्यर्थः । पञ्चहैं खाणं समत्त' मूलद्वारगाधायां प्रत्याख्यानमिति द्वारं व्याख्यातं । शेषाणि तु प्रत्याख्यात्रादीनि पञ्च द्वाराणि नामनिष्पन्न| निक्षेपान्तर्गतान्यपि सूत्रानुगमोपरि व्याख्यास्यामः, किमिति?, अत्रोच्यते, येन प्रत्याख्यानं सूत्रानुगमेन परमार्थतः समाप्ति स्तम्भेनैष मान्यते अहमपि प्रत्याश्यामि ततो मानयिव्ये, कोधेन प्रतिनोदनया निर्भसितो नेच्छति जिमित क्रोधेनाभतार्थ करोति, अनाभोगेन न भानाति किं मम प्रत्याख्यानमिति जिमितेन स्मृतं मा प्रत्याख्यानं, अनाच्छा नाम भनाइव भुमक्ति मा वारिपि यथा त्वयाऽभक्कार्थः प्रयाण्यास इति । अथवा जेमामि ततो भणियामि विस्मृतमिति, असदिति नास्त्यत्र किशि भोक्तष्प वर प्रत्याख्यातमिति परिणामतोऽशुद्ध इति द्वार । स पूर्ववर्णित इहलोकयशः-1 | कीर्तिवर्णादि, मधष एव सम्भादिपाय इति, अहं प्रत्याश्यामि मा निनिकाशिषमिति, अथवैते मप्रवाश्यान्ति, एवं न कल्पते, पितुनाम शायका तस्स शुर्व भवति, सोन्यथा मकरोति यस्मात् , कस्मात् , शावकः, तसाद्विदुः प्रमाण, आनानः सुखं परिहरचीति भणितं भवति, सप्रमाण । दीप अनुक्रम [८१..] Hindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1699~ Page #1701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८६...] भाष्यं [२५३] (४०) प्रत्याख्या नाध्य १०प्रत्याख्यानानि प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक-13 यास्यतीति । अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थों निरूपणीयः, स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नेह प्रतन्यते, गतो नामनिष्पन्नो हारिभ निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्थावसरः, स च सूत्रे सति भवति, सूत्रं चानुगमे, स च बिधा-सूत्रानुगमो द्रीया नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र निर्युच्यनुगमस्त्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्य- ॥८४९।। नुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यते च, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामवगन्तव्यः, तद्यथा-उद्देसे णिसे य' इत्यादि, 'किं कतिविध मित्यादि, सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इति, स चावसरप्राप्त एव, युगपच्च सूत्रादयो ब्रजन्ति, तथा चोक्त-"सुत्तं मुत्ताणुगमो सुत्तालावयगतोय णिक्खेवो। सुत्तफासियनिज्जुत्तिणया य समग तु बच्चंति ॥१॥" अत्राक्षेपपरिहारौ न्यक्षेण सामायिकाध्ययने निरूपितावेव नेह द वितन्येते इत्यलं विस्तरेण । तत्रेदं सूत्रbसूरे उग्गए णमोकारसहितं पञ्चक्खाति चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइम, अण्णत्व अणाभोगेणं सहसाकारेणं वोसिरामि। अस्य व्याख्या-तलक्षणं-'संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थान, व्याख्या तन्त्रस्य षडूविधा ॥१॥ तत्रास्खलितपदोच्चारण संहिता निर्दिष्टैच, अधुना पदानि-सूर्ये उद्गते नमस्कारसहितं प्रत्याख्याति, चतुर्विधमपि आहारं अशनं पानं खादिम स्वादिम, अन्यत्रानाभोगेन सहसाकारेण व्युत्सृजति । अधुना पदार्थ उच्यते-तत्र अशूभोजने' 1 सूत्र सूत्रानुगमः सूत्रालापकगत निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिनयाश्च युगपदेव बजन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [८२] | ८४९ AmEain and ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: अथ नमुक्कारसहितं आदि प्रत्याख्यानानि कथयते ~1700~ Page #1702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८२] आवश्यक”- मूलसूत्र -१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१५८६...] भाष्यं [२५३...] || इत्यस्य स्युडन्तस्य अश्यत इत्यशनं भवति, तथा 'पा पाने' इत्यस्य पीयत इति पानमिति, 'खाद भक्षणे इत्यस्य च वक्तव्यादिमन् प्रत्ययान्तस्य खाद्यत इति खादिमं भवति, एवं 'स्वद स्वर्द आस्वादने' इत्यस्य च स्वाद्यत इति स्वादिमं अथवा खाद्यं स्वाद्यं च, 'अन्यत्रे'ति परिवर्जनार्थ यथा 'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां सर्वे योधाः पराङ्मुखा' इति, तथा आभोगनमाभोगः न आभोगोऽनाभोगः, अत्यन्तविस्मृतिरित्यर्थः, तेन, अनाभोगं मुक्त्वेत्यर्थः, तथा सहसाकरणं सहसाकार:- अति प्रवृत्तियोगादनिवर्त्तनमित्यर्थः तेन तं मुक्त्वा युत्सृजतीत्यर्थः । एष पदार्थः, पदविग्रहस्तु समासभाक्पदविषय इति कचि| देव भवति न सर्वत्र, स च यथासम्भवं प्रदर्शित एव, चालनाप्रत्यवस्थाने च नियुक्तिकारः स्वयमेव दर्शयिष्यतीति सूत्र| समुदायार्थः ॥ अधुना सूत्रस्पर्शिक निर्युक्तत्येदमेव निरूपयन्नाह असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। एसो आहारविही, चउव्विहो होइ नायव्वो ।। १५८७ ॥ आसुं खुहं समेई, असणं पाणाणुवग्गहे पाणं । खे माइ खाइमंति य, साएइ गुणे तओ साई ।। १५८८ ।। अशनं मण्डकौदनादि, पानं चैव द्राक्षापानादि, खादिमं-फलादि तथा स्वादिमं-गुडताम्बूलपूगफलादि, एष आहार| विधिश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ।। १५८७ ॥ साम्प्रतं समयपरिभाषया शब्दार्थनिरूपणायाह - आशु - शीघ्रं क्षुधां बुभुक्षां शमयतीत्यशनं, तथा प्राणानाम्-इन्द्रियादिलक्षणानां उपग्रहे उपकारे यद् वर्त्तत इति गम्यते तत् पानमिति, खमिति-आकाशं तच मुखविवरमेव तस्मिन् मातीति खादिमं, स्वादयति गुणान् रसादीन् संयमगुणान् वा यतस्ततः स्वादिमं, Forest Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1701 ~ big Page #1703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५८८] भाष्यं [२५३...] (४०) आवश्यक- हारिभ- द्रीया प्रत सूत्रांक ॥८५०॥ [सू.] हेतुत्वेन तदेव स्वादयतीत्यर्थः । विचित्र निरुक्तं पाठात्, धमति च रौति च भ्रमर इत्यादिप्रयोगदर्शनात् , साधुरेवायम-IA न्वर्थ इति गाथार्थः ॥ १५८८ ॥ उक्तः पदार्थः, पदविग्रहस्तु समासभाक्पदविषय इति नोक्तः । अधुना चालनामाह नाध्य सब्वोऽविय आहारो असणं सम्वोऽवि बुचई पाणं । सव्वोऽविखाइमतिय सम्वोऽविय साइमं होई ॥१५८९॥ १० प्रत्या यद्यनन्तरोदितपदार्थापेक्षया अशनादीनि ततः सर्वोऽपि चाहारश्चतर्विधोऽपीत्यर्थः अशनं, सर्वोऽपि चोच्यते पानाख्यानानि सर्वोऽपि च खादिमं सर्व एव स्वादिमं भवति, अन्यथा विशेषात् , तथाहि-यथैवाशनमोदनमण्डकादि क्षुधं शमयति तथैव पानक द्राक्षाक्षीरपानादि खादिममपि च फलादि स्वादिममपि ताम्बूलपुगफलादि, यथा च पानं प्राणानामुपग्रहे वर्त्तते एवमशनादीन्यपि, तथा चत्वार्यपि खे मान्ति चत्वार्यपि वा स्वादयन्ति आस्वाद्यन्ते वेति न कश्चिद् विशेषः, तस्मादयु|क्तमेवं भेद इति गाथार्थः ॥ १५८९ ॥ इयं चालना, प्रत्यवस्थानं तु यद्यपि एतदेवं तथापि [तुल्यार्थत्वप्राप्तावपि] रूदितो नीतितः प्रयोजनं संयमोपकारकमस्ति एवं कल्पनायाः, अन्यथा दोषः, तथा चाहजइ असणमेव सब्वं पाणग अविवजणंमि सेसाणं । हवइ य सेसविवेगो तेण विहत्ताणि चउरोऽवि ॥१५९०॥ | यद्यशनमेव सर्वेमाहारजातं गृह्यते ततः शेषापरिभोगेऽपि पानकादिवजने-उदकादिपरित्यागे शेषाणामाहारभेदानां निवृत्तिने कृता भवतीति वाक्यशेषः, ततः का नोहानिरिति चेत् ? भवति शेषविवेकः-अस्ति च शेषाहारभेदपरित्यागः, म्यायोपपत्नत्वात् , प्रेक्षापूर्विकारितया त्यागपालन न्यायः, स चेह सम्भवति, तेन विभक्तानि चत्वार्यपि अशनादीनि, तदेक-16 ॥५०॥ | भावेऽपि तत्तद्भेदपरित्यागे एतदुपपद्यत एवेति चेत्, सत्यमुपपद्यते दुरवसेयं तु भवति, तस्यैव देशस्त्यक्तस्तस्यैव नेति दीप अनुक्रम [८२] CRO4 andiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1702 ~ Page #1704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५९०] भाष्यं [२५३...] (४०) A प्रत सूत्रांक [सू.] 'अर्द्ध कुकुट्टयाः पच्यते अर्द्ध प्रसवाय कल्प्यते' इति, अपरिणतानां श्रद्धानं च न जायते, एवं तु सामान्यविशेषभेदनिरूपणायां सुखावसेयं सुखश्रद्धेयं च भवति इति गाथार्थः ॥ १५९० ॥ तथा चाह असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । एवं परूवियंमी, सद्दहिउँ जे सुहं होइ ॥ १५९१ ।। ८. अशनं पानकं चैव खादिमं स्वादिम तथा, एवं प्ररूपिते-सामान्यविशेषभावेनाख्याते, तथावबोधात् श्रद्धातुं सुखं | भवति, मुखेन श्रद्धा प्रवर्तते, उपलक्षणार्थत्वाद् दीयते पाल्यते च सुखमिति गाथार्थः ॥ १५९१ ॥ आह-मनसाऽन्यथा संप्रधारिते प्रत्याख्याने त्रिविधस्य प्रत्याख्यानं करोमीति वागन्यथा विनिर्गता चतुर्विधस्येति गुरुणाऽपि तथैव दत्तमत्र का प्रमाण, उच्यते, शिष्यस्य मनोगतो भाव इति, आह चअन्नस्थ निवडिए वंजणंमि जो खलु मणोगओ भावो । तं खलु पच्चक्खाणं न पमाणं बंजणच्छलणा ॥१५९२॥ अन्यत्र निपतिते व्यञ्जने-त्रिविधपत्याख्यानचिन्तायां चतुर्विध इत्येवमादौ निपतिते शब्दे यः खलु मनोगतो भावः। प्रत्याख्यातुः खलुशब्दो विशेषणे अधिकतरसंयमयोगकरणापहतचेतसोऽन्यत्र निपतिते न तु तथाविधप्रमादात् यो मनो गतो भावः आद्यः तत् खलु प्रत्याख्यानं प्रमाण, अनेनापान्तरालगतसूक्ष्मविवक्षान्तरप्रतिषेधमाह, आद्याया एव प्रवर्तक४खात्, व्यवहारदर्शनस्य चाधिकृतत्वाद्, अतःन प्रमाण व्यञ्जन-तच्छिष्याचार्ययोर्वचनं, किमिति !, छलनाऽसी व्यञ्ज-18 दानमात्र, तदन्यथाभावसभावादिति गाथार्थः ॥ १५९२ ॥ इदं च प्रत्याख्यानं प्रधान निजराकारणमिति विधिवदनुपा उनीयं, तथा चाह दीप अनुक्रम [८२ R ainrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1703~ Page #1705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५९३] भाष्यं [२५३...] (४०) SSC प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक- फासियं पालियं चेव, सोहियं तीरियं तहा । किहिअमाराहिअंचेच, एरिसयंमी पपइयव्वं ॥ १५९३ ।। प्रत्याख्या हारिभ-18 स्पृष्ट-प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्तं पालितं चैव-पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितं शोभितं-गुर्वादिप्रदा- नाध्य० द्रीया नशेषभोजनासेवनेन तीरित-पूर्णेऽपि कालावधौ किश्चित्कालावस्थानेन कीर्तित-भोजनवेलायाममुकं मया प्रत्याख्यातं १० प्रत्या तत् पूर्णमधुना भोक्ष्य इत्युचारणेन आराधितं-तथैव एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णनिष्ठां नीतं यस्मादेवंभूतमेव तदाज्ञापा-INस्थानान ॥८५१॥ लनादप्रमादाच महत्कर्मक्षयकारणं तस्माद् ईशि प्रयतितव्यमिति एवंभूत एवं प्रत्याख्याने यत्नः कायें इति गाथार्थः ॥ १५९३ ।। साम्प्रतमनन्तरपारम्पर्येण तत्प्रत्याख्यानगुणानाहपचक्खाणंमि कए आसवदाराई हुंति पिहियाई। आसवबुच्छेएण तोहाबुच्छेअणं होइ ।। १५९४ ॥ तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो पञ्चक्खाणं हवइ सुद्धं ।। १५९५ ॥ दितत्तो चरितधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुल्वं तु । तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खो सपासुक्खो ॥ १५९६॥G | प्रत्याख्याने कृते--सम्यग निवृत्ती कृतायां किम् ?-आश्रवद्वाराणि भवन्ति पिहितानि-तविषयप्रतिबद्धानि कर्मबन्ध-14 द्वाराणि भवन्ति स्थगितानि, तत्रावृत्तेः, आश्रवव्यवच्छेदेन च कर्मबन्धद्वारस्थगनेन च संवरणेनेत्यर्थः, किं ?-तृड्व्यवच्छे-10 दनं भवति-तद्विषयाभिलापनिवृत्तिर्भवतीति गाथार्थः ॥१५९४ ॥ तृइन्यवच्छेदेन च तद्विपयाभिलापनिवृत्ती च ||८५१॥ अतुल:-अनन्यसद्दशः उपशमो-मध्यस्थपरिणामो भवति मनुष्याणां-जायते पुरुषाणां, पुरुषप्रणीतः पुरुषप्रधानश्च धौ | इति ख्यापनार्थ मनुष्यग्रहणम् , अन्यथा खीणामपि भवत्येव, अतुलोपशमेन पुनः-अनन्यसदृशमध्यस्थपरिणामेन पुनः -OCALCCASSES दीप अनुक्रम [८२] AREaintin Marayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1704 ~ Page #1706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५९५] भाष्यं [२५३...] (४०) S प्रत सूत्रांक [सू.] - प्रत्याख्यान-उक्तलक्षणं भवति-शुद्धं जायते निष्कलङ्कमिति गाथार्थः ॥ १५९५ ॥ ततः प्रत्याख्यानाच्छुद्धाच्चारित्रधर्मः | स्फुरतीति वाक्यशेषः, कर्मविवेकः कर्मनिर्जरा ततः-चारित्रधर्मात्, ततश्चेति द्विरावय॑ते ततश्च-तस्माच्च कर्मविवेकात् अपूर्व'मिति क्रमेणापूर्वकरणं भवति, ततः-अपूर्वकरणारड्रेणिक्रमेण केवलज्ञानं, ततश्च-केवलज्ञानाद् भवोपग्राहिकर्मक्षयेण मोक्षः सदासौख्यः-अपवों नित्यसुखो भवति, एवमिदं प्रत्याख्यानं सकलकल्याणककारणं अतो यत्नेन कर्त्तव्य६ मिति गाथार्थः ॥ १५९६ ।। इदं च प्रत्याख्यानं महोपाधेर्भेदाद् द्वादशविधं भवति आकारसमन्वितं वा गृह्यते पाल्यते वा, अत इदमभिधित्सुराहनमुकारपोरिसीए पुरिमोगासणेगठाणे य । आयंबिल अभत्तट्टेचरमे य अभिग्गहे विगई ॥१५९७॥ दो छच सत्स अट्ट सत्तट्ठ य पंच छच्च पाणंमि । चउ पंच अट्ट नव य पत्तेयं पिंडए नवए ॥१५९८ ।। टीदोवेव नमुकारे आगारा छच्च पोरिसीए उ । सत्तेव य पुरिमड्ढे एगासणगंमि अढेव ।। १५९९ ॥ सत्तेगट्ठाणस्स उ अटेवायंविलंमि आगारा । पंचेच अभत्तट्टे छप्पाणे चरिमि चत्तारि ॥१६००॥ पंच चउरो अभिग्गहि निव्वीए अट्ठ नव य आगारा । अप्पाउराण पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥१६०१॥ नमस्कार इत्युपलक्षणात् नमस्कारसहिते पौरुष्यां पुरिमार्द्ध एकाशने एकस्थाने आचाम्ले अभक्तार्थे चरमे च अभिग्रहे | विकृती, किं , यथासङ्ख्यमेते आकाराः, द्वौ षट् च सप्त अष्टौ सप्ताष्टौ पश्च षट् पाने चतुः पञ्च अष्टौ नव प्रत्येक पिण्डको | नवक इति गाथाद्वयार्थः॥ १५९७-१५९८ ॥ भावार्थमाह-द्वावेव नमस्कारे आकारी, इह च नमस्कारग्रहणान्नमस्कार दीप अनुक्रम [८२] ८२% JAMEaatana S anmintary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1705~ Page #1707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [३] आवश्यक - हारिभ द्रीया ॥८५२|| आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६०१] भाष्यं [२५३...] सहितं गृह्यते, तत्र द्वावेवाकारौ, आकारो हि नाम प्रत्याख्यानापवादहेतुः, इह च सूत्रं 'सूरे उग्गए णमोक्कारसहितं पच्चक्वाइ' इत्यादि सागारं व्याख्यातमेव, षट् चेति पौरुष्यां तु, इह च पौरुषी नाम- प्रत्याख्यानविशेषस्तस्यां पटू आकारा भवन्ति, इह वेदं सूत्रम् - पोरुसिं पञ्चक्स्वाति, उगते सूरे चउब्बिपि आहारं असणं ४ अण्णत्थऽणा भोगेणं सहसाकारेण पच्छन्न* कालेणं दिसामोहेणं साधुवयणेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेणं वोसिरह । अनाभोगसह साकार संगतिः पूर्ववत्, प्रच्छन्न कालादीनां विदं स्वरूपं पच्छण्णातो दिसा उ रएण रेणुणा पवएण वा ४ अण्णएण वा अंतरिते सूरोण दीसति, पोरुसी पुष्णत्तिकातुं पारितो, पच्छा णातं ताहे ठाइतबं ण भग्गं, जति भुंजति तो भग्गं, एवं सचेहिवि, दिसामोहेण कस्सइ पुरिसस्स कम्हिवि खेत्ते दिसामोहो भवति, सो पुरिमं पच्छिमं दिसं जाणति, एवं सो दिसामोहेण-अइरुग्गदपि सूरं दद्धुं उस्सूरीभूर्तति मण्णति जाते ठाति, साधुणो भगति - उग्धाडपोरुसी ताव सो पजिमितो, पारिता मिणति अन्नो वा मिणइ, तेणं से भुअंतस्स कहितं ण पूरितंति, ताहे ठाइदवं, समाधी णाम तेण य पोरुसी प्रदिशो रजसा रेणुना पर्वतेन वाअम्बेन वाऽन्तरिते सूर्यो न दृश्यते, पौरुषी पूर्वेतिकृत्वा पारितवान् पश्चात् ज्ञातं तदा स्थातव्यं न भन्नं यदि मुळे तदा भन्नं, सर्वैरप्येवं, दिग्मोहेन कस्यचित् पुरुषस्य कस्मिपि क्षेत्रे दिग्मोहो भवति स पूर्वी पश्चिमां दिशं जानाति, एवं स दिग्मोहेन अचिरोद्रत मषि सूर्य दृष्ट्वा सूर्यभूतमिति मन्यते ज्ञाते तिष्ठति साधवो भाषात् स प्रजिमितः पारविला मिनोति अन्यो वा मिनोति, तेन त भुजानाथ कथितं न पूरितमिति सदा स्वातव्यं समाधिर्नाम तेन च पौरुपी For Parts Only %% ~1706~ ६प्रत्याख्या नाध्य० १० प्रत्या ख्यानानि ॥८५२ ॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१...] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक :45 [सू.] पंचक्खाता, आसुकारितं च दुक्खं जातं अण्णस्स बा, ताहे तस्स पसमणणिमित्तं पाराविज्जति ओसह वा दिजति, एत्यंतरा Sणाते तहेब विवेगो, सप्तैव च पुरिमार्द्ध-पुरिमार्द्ध प्रथमप्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते तत्र सप्त आकारा भवन्ति, इह | दाच इदं सूत्र-'सरे जग्गते'इत्यादि, पडाकारा गताओं, नवरं महत्तराकारः सप्तमः, असावपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्याने साकारे| कृताधिकारे अत्रैव व्याख्यात इति न प्रतन्यते, एकाशने अष्टावेव, एकाशनं नाम सकृदुपविष्टपुताचालनेन भोजनं, तत्राटावाकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्र 'एकासण'मित्यादि 'अपणस्थ अणाभोगेणं सहसाकारणं सागारियागारेणं आउंटणपसारणेणं गुरुअन्भुहाणेणं पारिडावणियागारेणं महत्तरागारेणं सब्बसमाहिवत्तियागारेणं चोसिरति । (सूत्र) | अणाभोगसहसाकारा तहेब, सागारियं अद्धसमुद्दिस्त आगतं जति वोलति पडिच्छति, अह धिरं ताहे सज्झायवाघातोत्ति उद्देउं अण्णस्थ गंतूणं समुद्दिसति, हत्थं पादं वा सीसं वा(आउंटेज)पसारेज वाण भजति, अब्भुट्टाणारिहो आय| रिओ पाहुणगो वा आगतो अभुत तस्स, एवं समुद्दिहस्स परिहावणिया जति होज कप्पति, महत्तरागारसमाधि तु दीप अनुक्रम [८४-९२] प्रत्यास्थाता, आशुकारि दुख जातमन्यस्य था, तदा तस्य प्रशमनानिमित्रं पार्यते औषधं वा दीयते, अशाम्तरे शाते तथैव विवेकः । अनाभोग-। सहसाकारी तव, सागारिकोऽधसमुद्दिष्टे आगतः यदि व्यतिकाम्यति प्रतीक्ष्यते अथ स्थिरसदा स्वाध्याययाघात इति उत्थायान्यत्र गवा समुदिश्यते, हल पाई वा कीर्ष वा आकुचयेत् प्रसारयेत् चान भापते, अभ्युत्थाना आचार्यः मापूर्णको वागतोऽभ्युस्थातव्यं तस्य, एवं समुद्दिष्ट पारिछाप निकी यदि भवत् । कल्पते, महत्तराकारसमाधी तु तथैव । 05 था८१५३ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: मू.(८५) एगासणं० मू.(८६) एगहाणं मू.(८७) आयंबिलं० मू.(८८) सूरे उग्गए अभत्तहूं. म.(८९) दिवसचरिमं पच्चक्खाइं चउव्विहंपि असणं पाणं खाईमं साइमं० मू.(९०) भवचरिमं पच्चक्खाइं० मू.(९१) अभिग्गहं पच्चक्खाई० मू,(९२) निव्विगइयं पच्चक्खाई. ~1707~ Page #1709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत्याख्या नाध्य० आकाराः द्रीया प्रत सूत्रांक [सू.] दतहेव'त्ति गाथार्थः ॥ १५९९ ॥ 'सप्लैकस्थानस्य तु' एकस्थानं नाम प्रत्याख्यानं तत्र सप्ताकारा भवन्ति, इह चेदं सूत्रआवश्यक हारिभ- 'एगट्ठाण'मित्यादि एंगहाणगं जहा अंगोवंग ठवितं तेण तहावहितेणेव समुद्दिसियचं, आगारा से सत्त, आउंटणपसारणा णस्थि, सेसं जहा एक्कासणए । अष्टवाचाम्लस्याकारा, इदं च बहुवक्तव्यमितिकृत्वा भेदेन वक्ष्यामः 'गोण्णं णामं तिविध' मित्यादिना ग्रन्धेन, असम्मोहार्थ तु गाथैव व्याख्यायते, 'पञ्चाभक्कार्थस्य तु न भक्तार्थोऽभक्तार्थः, उपवास इत्यर्थः, 11८५३|| तस्य पंचाकारा भवन्ति, इह चेदं घूत्र-सूरे उग्गते'इत्यादि, तस्स पंच आगारा-अणाभोग सहसा पारि० महत्तरा० सबसमाधि० जति तिविधस्स पच्चक्वाति तो विकिंचणिया कप्पति, जति चतुबिधस्स पचक्खात पाणं च णत्थि तदान कम्पति, तत्थ छ आगारा-लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अच्छेण वा बहलेण वा ससित्येण वा असित्थेण वा वोसिरति, युत्तत्था एते छप्पि, एतेन षट् पान इत्येतदपि व्याख्यातमेव, 'चरिमे च चत्वार' इत्येतच्चरिमं दुविधं-दिवसचरिमं भवचरिमं वा, दिवसचरिमस्स चत्तारि, अण्णस्थणाभोगेणं सहसाकारणं महत्तराकारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं, भवचरिमं जावजीवियं तस्सवि एते चत्तारित्ति गाथार्थः॥१६००॥पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे, निर्विकृती अष्टी नव वा आकारा, एकस्थानकं यथा भोपार्टी स्थापितं तेन तथावस्थितेनैव समुऐएम्ब, आकारासमिन सप्त, आकुमनप्रसारणं नालि, शेष यधैकाशनके । तख पळाकारा:-अनाभोग सहसा पारिक महत्तराकार सर्वसमाधि०, यदि त्रिविध प्रत्यावाति तदा पारिष्टापनिकी कल्पते, यदि चतुर्विधख प्रत्याख्यातं पानक |च नाति तदा न कल्पते, तत्र पडाकारा:-हेपकता वा अपहता था अच्छेन वा बहलेन वा ससिम्येन वा असिषयेन वा ब्युग्मजति, उक्ताश्रीः एते पडपि, चरम द्विविध-विषसचरमं भवचरम च, दिवसचरमे चत्वारः अन्यत्राना सहसा महसरा सर्वसमाधि०, भवचरम पावजीविक तस्याप्येते चत्वारः । दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८५३॥ MIndiDrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1708~ Page #1710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] (४०) % प्रत सूत्रांक %25-25 %%%4592-% | अप्रावरण इति-अप्रावरणाभिग्रहे पञ्चैवाकारा भवन्ति,शेषेवभिग्रहेषु दण्डकपमार्जनादिषु चत्वार इति गाथाऽक्षरार्थः१६०१॥ भावार्थस्तु अभिग्गहेसु वाउडसणं कोइ पच्चक्खाति, तस्स पंच-अणाभोग०सहसागार० (महत्तरा०) चोलपट्टगागार० सबसमाहिवत्तियागार०सेसेसु चोलपट्टगागारोणत्थि, निधिगतीए अह नव य आगारा इत्युक्तं, तत्थ दस विगतीओ-खीरं दधि णवणीयं घयं तेलं गुडो मधु मज मंसं ओगाहिमगं च, तत्थ पंच खीराणि गावीणं महिसीणं अजाणं एलियाणं उट्टीणं, उद्दीगं दर्षि णत्थि, णवणीतं घतंपि, ते दधिणा विणा णस्थित्ति, दधिणवणीतघताणि चत्तारि, तेल्लाणि चत्तारिखर (तिल)अदसिकुसुंभसरिसवाणं, एताओ विगतीओ, सेसाणि तेलाणि निविगतीतो, लेवाडाणि पुण होन्ति, दो वियडा-फहणिष्फणं उच्छु|माईपिड्डेण य फाणित्ता, दोणि गुडा दवगुडो पिंडगुडो य, मधूणि तिण्णि, मच्छिय कोन्तियं भामरं, पोग्गलाणि तिण्णि, जलयर थलयर खहयरं, अथवा चम्भ भंसं सोणितं, एयाओ णव विगतीतो, ओगाहिमगं दसम, तावियाए अद्दहियाए। एग ओगाहिमेगं चलचलेंतं पच्चति सफेणं वितियततियं, सेसाणि अ जोगवाहीणं कप्पति, जति जति अह एगेण चेय अभिप्रहेषु प्रावरण कोऽपि प्रत्याख्याति, राख पन-अनाभोग० सहसा महसरा चोलपहाससमाधि०, शेषेषु चोलपहकाकारो नास्ति, निर्षिकृती आदी नव चाकाराः । तत्र विकृतयो दश-क्षीरं दधि नवनीतं घृतं तैलं गुझे मधु मर्च मार्स अवगादिम च, तत्र पक्षीराणि गवां महिषीणां अजाना पडकानामुहीणां, वीणां दधि नास्ति, नवनीत पृतमपि, ते भा जिना (मस इनि) धिनवनीतघृतानि चावारि, सैलानि घरवारि तिलाकसीकुसुम्भसर्पपाणी, एका विकृतया, कोषाणि तैलानि निर्विकृतयः, लेपकारीणि पुनर्भवन्ति, है मये-कानिष्पर्ण इक्ष्वादिपिटेन च फाणपियाही गुडौ-अवगुदः पिण्डगुडा, मभूनि श्रीणमाक्षिक कौन्तिकं भ्रामर, पुतलानि त्रीणि-जहचर स्खलवार सचर च, अथवा चर्म मांसं शोणितं, एता नव विकृतयः, अवगाहिम दशर्म, सापिकावामा भदणे एकमवणादिमं चलचलत् पच्यते सफेणे द्वितीय तृतीयं च, शेषाणि च योगवाहिनां कल्पन्ते, यदि शावते अथेनेया दीप अनुक्रम [८४-९२] R-52% JanEain ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1709~ Page #1711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०१] भाष्यं [२५३...] (४०) आवश्यकहारिभद्रीया नाध्य आकारार्थः प्रत सूत्रांक ॥८५४॥ [सू.] पूअएण सबो चेव तावगो भरितो तो वितियं चेव कप्पति णिविगतियपञ्चक्खाणाइतस्स, लेवार्ड होति, एसा आयरियपरंपरागता सामायारी । अधुना प्रकृतमुच्यते, काष्टौ कवा नवाकारा इति , तन्त्र नवणीओगाहिमए अद्दबदहि (च)पिसियधयगुले चेव । नव आगारा तेसिं सेसवाणं च अडेव ॥ १६०२॥ 'नवणीते ओगाहिमके अदवदवे'निगालित इत्यर्थः, पिसिते-मांसे प्रते गुडे चैव, अद्रवग्रहणं सर्वत्राभिसम्बन्धनीयं नव आकारा अमीषां विकृतिविशेषाणां भवन्ति शेषवाणां-विकृतिशेषाणां अष्टावेवाकारा भवन्ति, उत्क्षिप्तविवे. को न भवतीति गाथार्थः ॥ १६०२ ॥ इह चेदं सूत्र 'णिब्वियतियं पञ्चक्खाती'त्यादि अन्नत्थाणाभोगेणं सहसाकारणं लेवालेवेणं गिहत्यसंसद्वेणं उक्खित्तविवेगेणं पडुचमक्खिएणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सब्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरति । (सूत्र) इदं च प्रायो गतार्थमेव, विशेष तु 'पंचेव य खीराई' इत्यादिना ग्रन्थेन भाष्यकारोपन्यासक्रमप्रामाण्यादुत्तरत्र वक्ष्यामः, अधुना तदुपम्यस्तमेवाचामाम्लमुच्यतेगोनं नामं तिविहं ओअण कुम्मास सत्सुआ चेव । इकिपि य तिविहं जहन्नयं मझिमुकोसं ॥१६०३ ॥ आयामाम्लमिति गोण्णं नाम, आयाम:-अवशायनं आम्ल-चतुर्थरस ताभ्यां निर्वृत्तं आयामाम्लं, इदं चोपाधिभेदात १ पूपकेन सर्व एवं तापकः पूरितस्तदा द्वितीयमेव कल्पते निर्विकृतिकात्यास्पानिनः, लेपकृत् भवति । एषाऽऽचार्थपरम्परागता सामाचारी दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८५४॥ JABERatun ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1710~ Page #1712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०३] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक त्रिविधं भवति, ओदनः कुल्माषाः सक्तवश्चैव, ओदनमधिकृत्य कुल्माषान् सक्तूश्चेति, एकैकमपि चामीषां त्रिविधं भवति-18 जघन्यकं मध्यम उत्कृष्टं चेति । कथमित्यत्राह श्वे रसे गुणे वा जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं । तस्सेव य पाउग्गं छलणा पंचेच य कुडंगा ॥१६०४ ॥ द्रव्ये रसे गुणे चैव द्रव्यमधिकृत्य रसमधिकृत्य गुणं चाधिकृत्येत्यर्थः, किं?-जघन्य मध्यममुत्कृष्ट चेति, तस्यैवाया-18 माम्लस्य प्रायोग्यं वक्तव्यं, तथा आयामाम्लं प्रत्याख्यातमिति दना भुजानस्यादोषः प्राणातिपातप्रत्याख्याने तदनासेवनवदिति छलना वक्तव्या, पञ्चैव कुडङ्गा-बक्रविशेषा इति । तद्यथा लोए थेए समए अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने । एए पंच कुडंगा नायव्वा अंबिलंमि भवे ॥१६०५॥ लोके वेदे समये अज्ञाने खलु तथैव ग्लानत्वे, लोकमङ्गीकृत्य कुडङ्गाः, एवं वेदान् समयान् अज्ञानं ग्लानत्वं च एते है पञ्च कुडझा ज्ञातव्याः, आयामाम्ले भवन्ति, आयामाम्लविषय इति गाथासमासार्थः॥१६०५॥ विस्तरार्थस्तु वृद्धसम्प्रदाय-8 समधिगम्यः, स चायं-पत्थ आयंबिलं च भवति आयंबिलपाउग्गं च, तत्थोदणे आयम्बिलं आयंबिलपाउग्गं च, आयबिला सकूरा, जाणि कूरविहाणाणि आयंबिलपाउग्गं, तंदुलकणियाउ कुडतो पी पिहुगा पिडपोवलियाओ रालगा मंडगादि, कुम्मासा पुर्व पाणिएण कड्डिजति पच्छा उखलीए पीसंति, ते तिविधा-सहा मज्झिमा थूला, एते आयंबिलं, आय अत्राचामाम्लं भवति आचामाम्लपायोग्यं च, तरीदने आचामाम्लमाचामाम्लप्रायोग्यं च, आयामाम्लः सकूराः, यानि कूरविधानानि । PI आचामाम्लप्रायोग्य, सन्दुलकणिका, कुण्डातः पिष्टेन पृथुकीकृताः, पृष्टपोलिका रालगा मण्डकायाः, फुपमाषा: पूर्व पानीयेन कथ्यन्ते पश्चात् उदूखल्या पिष्यमते, ते त्रिविधा:-लक्ष्णा मध्याः स्यूलाः, एते भाचामा, आचा दीप अनुक्रम [८४-९२] XXROCKICS JAMERatinintimathama FATOneinrary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1711~ Page #1713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०५] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] आवश्यक- बिलपाउग्गाणि पुण जे तस्स तुसमीसा कणियाउ कंकडुगा य एवमादि, ससुया जवाणं गोधूमाणं विहिआणं वा, पाउग्गं प्रत्याख्या हारिभ- पुण गोधूमभुजियापिचुगाला य जाव भुञ्जिज्जा, जे य जंतरण ण तीरंति पिसितुं, तस्सेव णिहारो कणिकादि वा, एयाणिनाध्य० द्रीया आयंबिलपाउग्गाणि, तंतिविधपि आयविलं तिविध-उक्कोस मज्झिमं जहन्न, दवतो कलमसालिकूरो उक्कोसं जं वा जस्स आकारायः पत्थं रुञ्चति वा, रालगो सामागो वा जहन्नो, सेसा मज्झिमा, जोसो कलमसालीकूरो सो रस पडुच्च तिविधो उकोसं ३,तं ८५५॥ दाचेव तिविधपि आयंबिलं णिजरागुणं पडुच्च तिविध-उक्कोसो णिजरागुणो मज्झिमोजहष्णोत्ति, कलमसालिकूरो दबतोर उकोसं दवं च उत्थरसिएण समुद्दिसति, रसओवि उकोसं तस्सच्चएणवि आयामेण चकोर्स रसतो गुणतो जहणं थोवा-1 ४ाणिज्जरत्ति भणितं भवति, सो चेव कलमोदणो जदा अण्णेहि आयामेहिं तदा दबतो उक्कोसो रसतो मज्झिमो गुणतीवि : मझिमो चेव, सो व जदा उण्होदएण तदा दबतो उक्कोस रसतो जहणं गुणतो मज्झिम चेव, जेण दबतो उकोसं न मालपायोग्याणि पुनों तख तुपमित्राः कणिका कामहकाय एवमादि, सक्तको यवानां गोधूमानांनीहीणा वा, प्रायोग्यं पुनगाँधमभूएं निर्गलितं बाव भुशीत, वे च यम्बकेण पाश्यन्ते पेई, तस्यैव निर्धारः कणिकादिवा, एतानि आचाम्समायोग्याणि, तत् विविधमप्याचामाझ विविध-उत्कृष्ट मध्यम जघन्य, मम्पसः कलमशालिकूर उत्कृष्ट यहा यस्मै पथ्यं रोचते वा, रालकः श्यामाको बा जवन्यः, शेषा मध्यमाः, यः स कल मशालिकूरः स रस प्रसीला त्रिविधा दरकृष्टः । तदेव त्रिविधमप्पाचामा निरागुणं प्रतीत्य विविध-उत्कृष्टो निरागुणो मध्यमो जघन्य इति, कलमशालिफूरो दम्पत अकृष्ट । दर्थ चतुरसेन भुज्यते, रसतोऽपि तस्य सरकेनाप्याचामाग्लेन कर सतोगुणतो जघन्यं स्तोका निरति भणितं भवति स एव कलमीदनो यदा-1 ॥८५५॥ पैराचामाग्लै मतदा अन्यत उत्कृष्टो रसतो मध्यमो गुणतोऽपि मध्यम एव, स एष यदोष्णोदकेन सदा हव्यत उत्कृष्ट रसतो जघन्य गुणतो मध्यममेव, येन ब्रम्पस उस्कृष्ट न JABERatini ARUITMIDrary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1712~ Page #1714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०५] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक रसतो, इदाणि जे मज्झिमा ते चाउलोदणा ते दबतो मग्झिमा आयंबिलेण रसतो उकोसा गुणतो मज्झिमा, तहेव च उण्होदएण दवतो मज्झं रसतो जद्दण्णं गुणतो मज्झं मज्झिमं दवंतिकाऊणं, रालगतणकूरा दबतो जहणं आयंबिलेण रसतो उकोसं गुणओ मज्झं, ते चेच आयामेण दवओ जहण्णं रसओमझं गुणओ मझ, ते चेव उण्होदएण दवओ जहण्णं | रसओ जहन्नं गुणओ उकोस बहुणिजरति भणितं होति, अहवा उक्कोसे तिणि विभासा-कोसउक्कोसं उकोसमझिम उक्कोसजहण्णं, कंजियआयामउण्होदएहिं जहण्णा मज्झिमा उक्कोसा णिज्जरा, एवं तिसु विभासितबं । छलणा णाम एगेणायंबिलं पञ्चक्खातं, तेण हिंडतेण सुद्धोदणो गहितो, अण्णाणेण य खीरेण निमित्तं घेत्तूण आगतो आलोपत्तुं पजिमितो, गुरूहि भणितो-अज्ज तुझ आयंबिलं पचक्यात, भणइ-सच्चं, तो किं जेमेसि, जेण मए पञ्चक्खातं, जहा दीप अनुक्रम [८४-९२] रसतः । इदानी ये मध्यमारते तखोदनास्ते हव्यतो मध्यमा आचामाम्लेन रसत उत्कृष्ट गुणतो मध्यमाः, तथैवोष्णोदकेन द्रव्यतो मध्यमं रसतो जघन्यं गुणतो मध्यमं मध्यम दम्पमितिकृत्वा, रालगतृणपूरा प्रयतो जयन्यं आचामाग्लेन रसत उत्कृष्ट गुणतो मध्य, त एवाचामाम्लेन प्रग्यतो जयन्य रसतो मध्यं गुणतो मध्यं, त एबोष्णोदकेन व्यतो अधन्वं सतो जघन्य गुणत उत्कृष्ट, बहुनिजेरेति भणितं भवति, अथवा उत्कृष्ट तिखो विभाषा:-उस्कृष्टोस्कृष्ट उत्कृष्टमध्यमं वकृष्टजघन्यं, कालिकाचामाम्सोध्योदकै जघन्या मध्यमोटा निर्जरा, एवं त्रिशु विभाषितव्य । छलमा नाम एकेमाचामाम्लं प्रत्याख्यातं, तेन | हिण्डमानेन शुबीदनो गृहीतः अशानेन च धीरेण नियमितं गृहीत्वाऽगत आलोच्य प्रजिमितः, गुरुभिर्भणित: अव त्वयाऽऽचामाम्ल प्रत्यारयात, भणतिसवंताई किंजेमसि', येन मया प्रत्यारुयात, यथा Ema मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1713~ Page #1715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [.] दीप अनुक्रम [८४-१२ आवश्यकहारिभ द्वीया ॥८५६।। Education आवश्यक- मूलसूत्र - १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्ति: [ १६०५ ] भाष्यं [२५३ ...] पाणातिपाते पच्चक्खाते ण मारिज्जति एवायंबिलेवि पञ्चक्खाते तं ण कीरति, एसा छळणा, परिहारस्तु प्रत्याख्यानं भोजने तन्निवृत्तौ च भवति, भोजने आयामाम्ठप्रायोग्यादन्यत् तत् प्रत्याख्याति आयामले च वर्त्तते, तन्निवृत्तौ चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचक्षाणस्य, तथा लोक एवमेव प्रत्याख्यानार्थः दोसुं अत्थेसु वट्टति भोजने तन्निवृत्तौ च तेण एसच्छलणा णिरत्यया । पंच कुडंगा-लोए वेदे समए अण्णाणे गिलाणे कुडंगोत्ति, एगेणायंबिलस्स पञ्चक्खातं, तेण हिंडतेण संखडी संभाविता, अष्णं वा उक्कोसं लद्धं, आयरियाण दंसेति, भणितं तुज्झ आयंबिलं पच्चक्खातं, सो भणति - खमासमणा ! अम्हें बहूणि लोइयाणि सत्याणि परिमिलिताणि, तत्थ य आयंबिलसद्दो णत्थि, पढमो कुडंगो १, अह्वा वेदेसु चउसु | संगोवंगेसु णत्थि आयंबिलं विदिओ कुडंगो २, अहवा समए चरगचीरियभिक्खुपंडरंगाणं, तत्थवि णस्थि, ण जाणामि एस तुझं कतो आगतो ? तइओ कुडंगो ३, अण्णाणेण भणति-ण जाणामि खमासमणा ! केरिसियं आयंबिलं भवति ?, अहं | जाणामि - कुसणेहिवि जिम्मइत्ति तेण गहितं मिच्छामिदुक्कडं, ण पुणो गच्छामि, चउत्यो कुडंगो गिलाण भणति १] प्राणातिपाते प्रत्याख्याते न मायंते युवमाचामाम्लेऽपि प्रत्याख्याते तत्र क्रियते, पुषा छलना, द्वयोरर्थयोर्वर्त्तते तेनैषा छलना निरर्थिका । पञ्च कुङ्गाः लोके वेदे समये अज्ञाने रहाने कुछ इति, एकेनाचामारहस्य प्रत्याख्यातं तेन हिण्डमानेन संसदी संभाविता, अन्यद्वोकृष्टं कधं, आचार्येभ्यो दर्शयते भणितं स्वयाचामाम्लं प्रत्याश्यातं स भणति क्षमाश्रमण ! अस्माभिवंडूनि लौकिकान शास्त्राणि परिमीलितानि तत्र चाचामाम्डशब्दो नाखि प्रथमः कुङ्गः, अथवा वेदेषु चतुर्षु साङ्गोपाङ्गेषु नास्त्याचामाम्लं द्वितीयः कुः, अथवा समये चरकचीरिक भिक्षुपाण्डुरङ्गाणां तत्रापि नास्ति, न जानामि युष्माकं एष कुत आगतः ?, तृतीयः कुङ्गः, अज्ञानेन भणति न जानामि क्षमाश्रमणाः ! कीदृशमाचामाम् भवति १, अहं जाने कुसणैरपि जेम्यते इति तेन गृहीतं मिथ्या मे दुष्कृतं न पुनर्गमिष्यामि, चतुर्थः कुडो, ग्लानो भगति मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... -------- For Fans Use Only ६प्रत्याख्या नाध्य० आकारार्थः ~ 1714 ~ ||८५६॥ Library or आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१६०५ ] भाष्यं [२५३...] तरामि आयंबिलं काउं सूलं मे उद्धति, अण्णं वा उद्दिसति रोगं, ताहे ण तीरति करेतुं, एस पंचमो कुडंगो। तस्स अट्ठ आगारा-अण्णत्वणाभोगेणं सहस्सागारेणं लेवालेवेणं गिद्दत्थसंसद्वेणं उक्तित्तविवेगेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेणं बोसिरति । अणाभोगसहसकारा तहेब लेवालेवो जति भाणे पुर्व लेवाडगं गहितं समुद्दिद्धं संलिहियं जति तेण आणेति ण भज्जति, उक्खित्तविवेगो जति आयंबिले पतति विगतिमाती उक्खिवित्ता विचितु मा णवरि गठतु अण्णं वा आयंबिलस्स अप्पाउ जति उद्धरितं तीरति उद्धरिते ण उवहम्मति, गिहस्थसंसद्वेवि जति गिहत्थो डोवलियं भाणियं वा लेवाडं कुमणादीहिं तेण ईसित्ति लेवाडं तं भुज्जति, जइ रसो आलिखिजति बहुओ ताहे ण कप्पति, पारिहावणितमहत्तरासमाधीओ तहेव । व्याख्यातमतिगम्भीरबुद्धिना भाष्यकारेणोपन्यस्तक्रममायामाम्लम्, अधुना तदुपन्यासप्रामाण्यादेव निर्विकृतिकाधिकारशेषं व्याख्यायते, तत्रेदं गाधाद्वयम्- पंचैव य खीरा चत्तारि दहीणि सप्पि नवणीता । चत्तारि य तिल्लाई दो बियडे फाणिए दुन्नि ।। १६०६ ॥ महुपुग्गलाई तिनि चलचल ओगाहिमं तु जं पक्कं । एएसिं संसद्धं बुच्छामि अहाणुपुवीए || १६०७ ॥ १ न शक्लोम्याचामाम्लं कर्तुं शूलं मे उतिष्ठते, अन्यं वा रोगं कथयति तत्तो न शक्यते कर्त्तुं एप पञ्चमः कुः स्वष्टवाकाराः अन्यत्राना भोगसहसाकारी तथैव लेपालेपो यदि भाजने पूर्व लेपकृत् गृहीतं समुद्दिष्टं संलिखितं यदि तेनानयति न भज्यते, दक्षिसविवेको याचामाम्ले पद्धति विकृत्यादिरुशिष्य विवेचयतु] मा परं गलावन्या भाचामाम्याप्रायोग्यं यदं शक्यते उद्धते नोपम्यते गृहस्थसं यदि गृहस्थेन इला न्वितं भाजनं कृतं व्यञ्जनादिभियां लेपकृतं तेनेपदिति पकृत् ज्यते, यदि रस आहियते बहुस्तदा न कल्पते । पारिष्ठापनिका महत्तरसमाधयस्तथैव । For Fans Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1715 ~ bra org Page #1717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०७] भाष्यं [२५३...] (४०) आवश्यक- हारिभ दीया प्रत सूत्रांक ॥८५७॥ [सू.] 'पंचेव य खीराई' गाहा 'मधुपोग्गल'त्ति गाथा, इदं विकृतिस्वरूपप्रतिपादकं गाथाद्वयं गतार्थमेव, अधुना एतदाकारा है ६प्रत्याख्या | व्याख्यायन्ते-तत्थ अणाभोगसहसकारा तहेब, लेवालेवो पुण जधा आयंबिले तहेव दट्टयो, गिहत्थसंसट्ठो बहुवत्तवोत्ति नाध्य गाहाहि भण्णति, ताओ पुण इमातो आकाराः खीरदहीवियडाणं चत्तारि उ अंगुलाई संसह । फाणियतिल्लघयाणं अंगुलमेगं तु संसल ॥ १६०८ ॥ मुहपुग्गलरसपाणं अहंगुलयं तु होइ संसह । गुलपुग्गलनवणीए अद्दामलयं तु संसहूं ॥१६०९॥ गिहत्थसंसहस्स इमा विधी-खीरेण जति कुसणातिओ करो लम्भति तस्स जति कुडंगस्स उदणातो चत्तारि अंगुला|णि दुद्धं ताहे णिविगतिगस्स कप्पति पंचमं चारम्भ विगती य, एवं दधिस्सवि वियडस्सवि, केसु विसएसु विअडेण मीसि जति ओदणो ओगाहिमओ वा, फाणितगुडस्स सेल्लघताण य, एतेहिं कुसणिते जति अंगुलं उवरि अच्छति तो पट्टति, परेण न बट्टति, मधुस्स पोग्गलरसयस अद्धंगुलेण संसह होति, पिंडगुलस्स पुग्गलस्स णवणीतस्स य अद्दामलगमेतं दीप अनुक्रम [८४-९२] 45-4564%A6% ८५७॥ तत्रानाभोगसहसाकारी तथैव, लेपालेपः पुनर्यधाऽऽचामाम्ले तथैव नष्टब्धः, गृहस्थसंमष्टो बहुचतन्य इति गाथाभिर्भण्यते, ते पुनरिमे-1 गृहस्थसंसूटस्य पुनस्य विधि:-श्रीरेण यदि कुसणादिका करो सभ्यते तस्मिन् कुठले यद्योदनान पत्यारि अंगुलानि दुग्धं तदा निर्विकृतिक कापते पञ्चमं चारभ्य | | विकृतिश्च, एवं वमोऽपि सुराया भपि, केषुचिपियेषु विकटेग मिष्यते ओदनोऽवगाहिम वा, फाणितगुरुस सैलभूतयोग, एताभ्यां कुसणिते याकुलमुपरि तिष्ठति | सदावते (कापते), परतोन वर्तते, मधुनः पुदलरसस्य वार्धाहुलेन संस्ष्टं भवति, पिण्डगुडस्य पुद्गलस नवनीतख चादामलकमानं Indiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1716~ Page #1718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६०९] भाष्यं [२५३...] (४०) A प्रत सूत्रांक संसह, जदि बहूणि एतप्पमाणाणि कप्पंति, एगंमि बहुए ण कप्पदित्ति गाथार्थः ॥ १६०८-१६०९ ॥ उक्खित्तविवेगो अहा आयंबिले जं उद्धरितुं तीरति, सेसेसु णस्थि, पडुच्चमक्खियं पुण जति अंगुलीए गहाय मक्खेति तेलेण वा घतेण वा ताथे णिविगतियस्स कप्पति, अथ धाराए छुम्भति मणागपि ण कप्पति । इदाणिं पारिद्वावणियागारो, सो पुण एगा सणेगठाणादिसाधारणेत्तिकद्दु विसेसेण परूविज्जति, तन्निरूपणार्थमाह-- Kआयंपिलमणायंबिल चउथा बालवुहसष्टुअसहू । अणहिंडियहिंडियए पाहणयनिमंतणावलिया ॥१६१०॥ 'आयंबिलए' गाथा व्याख्या-यद्वाऽत्रान्तरे प्रबुद्ध इव चोदकः पृच्छति-अहो ताव भगवता एगासणगएगहाणगआयंबिलचउत्थछहमणिधिगतिएसु पारिठ्ठावणियागारो वण्णितो, ण पुण जाणामि केरिसगस्स साधुस्स पारिडावणियं दातवं वा न दातवं वा?, आयरिओ भणइ, 'आयंबिलमणायंबिले' गाथा व्याख्या-पारिद्वावणियभुंजणे जोग्गा साधू ला दुविधा-आयंबिलगा अणायंबिलगा य, अणायंविलिया आयंबिलविरहिया, एकासणेकट्ठाणचउत्थछट्ठहमणिविगतिय संसा, यदि बहून्येतस्ममाणानि सदा कल्पन्ते, एकमिन् वृहति न कल्पते । उत्क्षिप्तविवेको बधाऽऽचामाम्ले बहुदाँ शक्यते, शेषेषु नास्ति । प्रतीत्यनक्षितं पुनर्वचनुल्या गृहीत्वा म्रक्षयति तलेन वा घृतेन या सदा निर्विकृतिकसा कल्पते, अथ धारया क्षिपति मनागपिन कल्पते । इदानी पारिष्ठापनिकाकारः, स पुनरेकासनकस्थानादिसाधारण इतिकृत्वा विशेषेण प्ररूप्यते । अहो तावद् भगवता एकाशनकस्थानाचाम्लचतुर्थषष्ठाष्टम निर्विकृतिकेषु पारिष्टापनिकाकारो वर्णितो, म पुनजानामि कीरास साधो पारिशापनिक दासब्य पान दातव्यं वा ?, आचार्यों भगति-पारिशापनिकभोजने योग्याः साधयो द्विविधा:- आचामाम्सका समाचामाम्लकास, अनाचामाम्लका आचामाम्हविरहिताः, एकासनकस्थानचतुर्थपठाठमनिर्षिकृति दीप अनुक्रम [८४-९२] P orary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1717~ Page #1719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१०] भाष्यं [२५३...] (४०) A प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक पजवसाणा, दसमभत्तियादीणं मंडलीए उद्धरितं पारिठावणियं ण कप्पति दातुं, तेसि पेज उण्हयं वा दिजति, अहि- प्रत्याख्या हारिभ- द्विया य तेसिं देवतावि होज, एगो आयंबिलगो एगो चउत्थभत्तितो होज कस्स दातबं?, चउत्थभत्तियस्स, सो दुविहो- नाध्य. द्रीया बालो वुहो य, बालस्स दातर्ष, वालो दुविहो-सहू असहू य, असहुस्स दातब, असहू दुविहो-हिंडतो अहिंडेंतओ य, आकारार्थः हिंडयरस दातवं, हिंडंतओ दुविधो-वधवगो पाहुणगो य, पाहुणगस्स दातवं, एवं चउत्थभत्तो वालोऽसह हिंडतो पाहु-18 ॥८५८॥ लणगो पारिहावणियं भुंजाविजति, तस्स असति बालो असहू हिंडं तो वत्थबो २ तस्स असति वालो असहू अहिंडतो पाहू णगो ३ तस्स असति बालो असहू अहिंडतो वत्थबो, एवमेतेण करणोवाएण चतुहिवि पदेहिं सोलस आवलियाभंगा विभासितवा, तस्थ पढमभंगिअस्स दातवं, एतस्स असति बितियस्त, तस्सासति तदियस्स, एवं जाव चरिमस्स दातवं, पउरपारिद्वावणियाए वा सबेसि दातयं, एवं आयंविलियस्स छडभत्तियस्स सोलसभंगा विभासा, एवं आयंविलियरस कावसानाः, वशमप्रतिभ्यो मण्डस्यामुश्तं पारितापनि नकाते दातुं, तेभ्यः पेयमुष्णं वा दीयते, अधिष्ठिता च तेषां देवता भवेत् । एक आचाXमालिक एकातुर्थभक्तिको भवेत् की दासय, चतुर्थ भाव, सद्विविधो-यालो वृक्ष, बालाय दाम्प, बासो द्विविधा-सहिष्णुरसहिष्णुध, असहिष्णये। दातयं, असहिष्णुविधा-हिण्डमानोऽहिण्डमानन, हिण्डमानाष दातव्यं, हिण्डमानो द्विविधः-याम्पः प्राघूर्णकन, प्राघूर्णकाय दातव्यं, एवं चतुर्थभको ८५८॥ बालोऽसहो हिपमानः प्रापूर्णक: पारिष्ठापनीयं भोज्पते, तसिशसति बालोऽसहो हिन्टमानो वास्तव्या, तमिजसति वालोऽसहोऽहिण्डमानः प्राघूर्णकः तसिजसति बालोऽसहोऽहिण्डमानो वासाच्या, एवमेतेन करणोपायेन चतुर्भिः पदैः पोशावलिकामा विभाषितम्या, तब प्रथमझिकाय दातम्य, एतस्मिनसति | द्वितीय, तस्मिन्नसति तृतीयसी, एवं यावशरमाय दातम्प, प्रचुस्पारिधापनिकायों वा सबभ्यो दातव्यं, एवमाचामाम्हपाठभकिकयोः पोदश भङ्गाः विभाषा, | पूवमाचामाम्ल -F% दीप अनुक्रम [८४-९२] --- AREaintina D arary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1718~ Page #1720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१०] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक अहमभत्तियस्स सोलस भंगा, एवं आयंबिलियस्स निवितियस्स सोलस भंगा, णवरं आयंविलियस्स दातवं, एवं आय-12 बिलियस्स एक्कासणियस्स सोलस भंगा, एवं आयंबिलियरस एगहाणियस्स सोलस भंगा, एवमेते आयंविलिय उक्खेवगसंजोगेसु सबम्गेण छण्णवति आवलियाभंगा भवन्ति, आयंबिलउक्खेवो गतो, एगो चउत्थभत्तितो एगो छट्ठभत्तितो, एत्थवि सोलस, नवरं छहभत्तियस्स दातवं, एवं चउत्थभत्तियस्स सोलस भंगा, एगो एक्कासणितो एगो एगट्ठाणिओ एगहाणियस्स दातवं, एगो एक्कासणितो एगो णिबीतिओ, एकासणियस्स दातवं, एत्थवि सोलस, एगो एगट्ठाणिओ एगो |णिवीतिओ एगहाणियस्स दातवं, एत्थवि सोलसत्ति गाथार्थः ॥ १६१०॥ तं पुण पारिद्वावणितं जहाविधीए गहितं विधिभुत्तसेसं च तो तेसिं दिजइ, तत्रविहिगहियं विहिभुत्तं उबरियं जं भवे असणमाई । तं गुरुणाऽणुन्नायं कप्पइ आयंबिलाईणं ॥ १६११॥ | (विहिगहिअंबिहिभुत्तं)तह गुरुहिं (जं भवे)अणुनाया ताहे बंदणपुब्वं भुंजह से संदिसावे(पाठान्तरम् )।१६११॥ कामभक्तिकयोः षोडश भङ्गाः, एक्माचामाम्लनिर्विकृतिकयोः पोदशा भङ्गाः, नवरमाचामाळकाय दातव्यं, एवमाचामाम्ल काशनयोः पोदश भंगा, एवमाचामाकरथानकयोः पोडका भङ्गाः, एवमेते आचामाम्लोरक्षेपकसंयोगेन समिण षष्णपतिरावलिकाभङ्गा भवन्ति, भाचामाम्कोरक्षेपो गतः, एकचतु भक्तिक एकः षष्ठभक्तिकः, अत्रापि षोडश, नवरं षष्ठभक्तिकाय दातम्य, एवं चतुर्थभक्तिकस्व पोदश भङ्गाः, एक एकापानिक एक एकस्थानिका एकस्थानिकाय | दातव्यं, एक एकाशनिक एको निर्विकृतिक एकाशनिकाय दातव्यं, अत्रापि पोश, एक एकस्यानिक एको निर्विकृतिका एकस्थानिकाय दातप, अत्रापि पोखमा मनाः । तत् पुनः पारिष्टापनिकं यथाविधि गृहीतं विधिभुक्तशेषं च तदा तेभ्यो दीयते । दीप अनुक्रम [८४-९२] -%A8 मा० १४ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1719~ Page #1721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६११] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यकहारिभ- द्रीया ॥८५९॥ 4-3 'विहिंगहियं विहिभुत्तं' गाहा व्याख्या-विधिगहितं णाम अलुद्धेण उग्गमितं, पच्छा मंडलीए कडपदरगसीहखइदेण प्रत्याख्या वा विधीए भुतं, एवंविधं पारिद्वावणियं, जाहे गुरू भणति-अजो इमं पारिद्वावणियं इच्छाकारेण भुजाहित्ति, ताहेमा सो कप्पति बंदणं दाउं संदिसावेत्ति भोतं, एस्थ चउभंगविभासा|चउरो य हुंति भंगा पढमे भंगमि होइ आवलिया । इत्तो अ तइयभंगो आवलिया होद नायव्वा ॥१६१२।। | 'चउरो य होंति भंगा' गाहा व्याख्या-विधिसहितं विधिभुक्तं विधिगहितं अविधिभुक्तं अविधिगहीतं विहिभुत्तं अविधिगहितं अविधिभुक्त, तत्थ पढमभंगो, साधू भिक्ख हिंडति, तेण य अलुद्धेण बाहिं संजोअणदोसे विष्पजढेण ओहारित भत्तपाणं पच्छा मंडलीए पतरगच्छेदातिसुविधीए समुद्दिई, एवंविधं पुववणियाण आवलियाणं कप्पते समुद्दिसिर, इदाणे बितियभगो तधेव विहीगहितं भुत्तं पुण कागसियालादिदोसदुई, एवं अविधिए भुतं, एत्थ जति उचरति तं| [सू.] -9 दीप अनुक्रम [८४-९२] . चिधिगृहीतं नामालुब्धेनोगामितं, पश्चात् मण्डल्या कटवतरकसिंहखादितेन विधिना भुक्तं एवंविधं पारिठापनिकं, यदा गुरुर्भगति-भाई ! इदं पारि& छापनिक इलाकारेग भुवेति, नदास कल्पते वन्दनं दया संदिशेति भोक्तुं अन चत्वारो भङ्गाः, विभाषा, विधिगृहीतं विधिभुकं विधिगृहीतमविधिमुक्त। अविधिगृहीतं विधिभुक्तं अविधिगृहीतमविधिभुक्तं, तब प्रथमो भङ्गः, साधुर्भिक्षा हिण्डते, तेन पालुब्धेन बहिः संयोजनादोषविप्रहीनेनावर्त भक्तपान पश्चात् मण्डल्या प्रतरकच्छेदादिसुविधिना समुद्दिष्ट, एवंविधं पूर्ववर्णितानामावकिकानां करते समुदेष्टुं, इदानी द्वितीयभङ्गः तयैव विधिगृहीतं भुकं पुनः काकझुगाला विदोषदुष्ट, पुत्रमविधिना भुक्तं, अत्र यदुदरति तत् ॥८५९|| M arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1720 ~ Page #1722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१२] भाष्यं [२५३...] (४०) C प्रत सूत्रांक ockCASS छडिजाति, ण कष्पति, छद्दिमादीदोसा तम्मि, एरिसं जो देति जो य भुंजति दोण्हवि विवेगो कीरति, अपुणकारए वा उव--- हिताण पंचकल्लाणयं दिजति, इदाणि तइयभंगो, तत्थ अविधिगहितं-वीसुं वीसु उक्कोसगाणि दबाणि भायणि पच्छा कच्छपुडगंपिव पडिसुद्धे विरेएति, एतेसिं भोत्तबंति आगतो, पच्छा मंडलिगराइणिएण समरसं कातुं मंडलिए विधीए समुद्दिई, एवंविधे जं उचरितं तं पारिद्वावणियागार आवलियाण विधिभुत्तंतिकाउँ कप्पति, चउत्थभंगो आवलियाण ण कप्पेति भुतं, ते चेव पुवभणिता दोसा, एवमेतं भावपञ्चक्खाणं भणितमिति गाथार्थः॥१६१२॥ व्याख्यातं मूलगायोपन्यस्तै प्रत्याख्यानमधुना प्रत्याख्यातोच्यते, तथा चाहपचक्खाएण कया पचक्वातिएपि सूआए (उ)। उभयमवि जाणगेअर चउभंगे गोणिदिहतो ॥१६१३ ।। 'पच्चक्खाएण' गाहा व्याख्या-प्रत्याख्याता-गुरुस्तेन प्रत्याख्यात्रा कृता प्रत्याख्यापयितर्यपि शिष्ये सूचा-उल्लिङ्गना, न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्यावन्तरेण भवति, अण्णे तु-'पञ्चक्खाणेण कय'त्ति पठन्ति, तत् पुनरयुक्तं, प्रत्या दीप अनुक्रम [८४-९२] त्यम्पते, न कल्पते, छदयो दोषासमिन ईदयां यो ददाति पश्च भुक्के योरपि विवेकः क्रियते, अपुनःकरणतया बोस्थितयोः पञ्चकम्पाणकं ४दीयते, इदानीं तृतीयभगः, तत्राविधिगृहीत-विश्वग विषवम् उस्कृष्टानि ग्याणि भाजने पक्षात्कशापुटमिव प्रतिशुद्ध विरेचयति, एतानि भोक्तव्यानि इत्या गतः, पश्चात् माण्डलिकराक्षिकेन समरसं कृत्वा मण्डल्यां विधिना समुद्दिष्ट, एवंविधे यदुद्धरति तत् पारिष्ठापनिकाकारमावलिकानां विधिभुक्तमितिकृत्वा करपते, चतुर्थो भा भावलिकाना न कल्पते भोक्तुं, त एवं पूर्वभणिता दोषाः, एवमेतत् भावमयान्यानं माणितम् 44442K SEAM N arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1721~ Page #1723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] आवश्यक हारिभद्रीया ॥८६०॥ Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [ गाथा-], निर्युक्ति: [ १६१२] भाष्यं [२५३...] ख्यातुर्नियुक्तिकारेण साक्षादुपन्यस्तत्वात् सुचाऽनुपपत्तेः, प्रत्याख्यापयितुरपि तदनन्तरङ्गत्वादिति, अत्र च ज्ञातर्यज्ञातरि च चत्वारो भेदा भवन्ति, तत्र चतुर्भङ्गे गोणिष्टष्टान्त इति गाथाक्षरार्थः ॥ १६१३ ॥ भावार्थ तु स्वयमेवाह मूलगुणउत्तरगुणे सच्वे देसे य तह सुडीए । पञ्चक्खाणविहिनू पथक्खाया गुरू होइ ॥ १६१४ ॥ 'मूलगुण' गाहा व्याख्या - मूलगुणेषूत्तरगुणेषु च एवं सर्वोत्तरगुणेषु देशोत्तरगुणेषु च तथा च शुद्धी- पद्विधायां श्रद्धानादिलक्षणायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः, अस्मिन् विषये प्रत्याख्यानविधिमाश्रित्येत्यर्थः, प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुः- आचार्यों भवतीति गाथार्थः ॥ १६१४ ॥ किइकम्माविहिन्नू उवओगपरो अ असदभावो अ । संविग्गथिरपनो पचक्वाविंतओ भणिओ ।। १६१५ ।। 'किइकम्मा' गाहा व्याख्या - कृतिकर्मादिविधिज्ञः - बन्दनाकारादिप्रकारज्ञ इत्यर्थः, उपयोगपरश्च प्रत्याख्यान एत्र चोपयोगप्रधानश्च अशठभावश्च शुद्धचित्तश्च संविग्नो-मोक्षार्थी स्थिरप्रतिज्ञः न भाषितमन्यथा करोति प्रत्याख्यापयतीति प्रत्याख्यापयिता- शिष्यः एवंभूतो भणितः तीर्थकर गणधरैरिति गाथार्थः ॥ १६१५ ॥ इत्थं पुण चडभंगो जाणगइअरंभि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अ विभासा ।। १६१६ ।। ' इत्थं पुण' गाथा व्याख्या - एत्थ पुण पञ्चक्खायंतस्स पच्चक्खावेंतस्स य चउभंगो-जाणतो जाणगस्स पञ्चक्खाति शुद्धं अन्त्र पुनः प्रत्याख्यातुः प्रापतु इस सकाशात् प्रत्ययादि शुभं For Parts Only ६प्रत्याख्या नाध्य० ~ 1722 ~ ॥८६०॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१६] भाष्यं [२५३...] (४०) C4%AX प्रत सूत्रांक % पञ्चक्खाणं, जम्हा दोवि जाणंति किमपि पच्चक्खाणं णमोकारसहितं पोरुसिमादियं वा, जाणगो अयाणगस्स जाणावेर्ड पञ्चक्खा(वे)ति, जहा णमोकारसहितादीणं अमुगं ते पचक्खातंति सुद्ध अन्नहाण सुद्धं, अयाणगो जाणगस्स पचक्खाति ण सुद्ध, पभुसंदिट्ठा(ई)सु विभासा, अयाणगो अयाणगस्स पच्चक्खाति, असुद्धमेव, एत्थं दिहतो गावीतो, जति गावीण पमाणं | सामिओवि जाणति, गोवालोवि जाणति, दोण्हपि जाणगाणं भूतीमोहं सुहं सामीओ देति इतरो गेण्हति, एवं लोइयो चउभंगो, एवं जाणगो जाणगेण पञ्चक्खावेति सुद्धं, जाणगो अजाणगेण केणइ कारणेण पञ्चक्खावेन्तो सुद्धो णिकारणे ण सुद्धति, अयाणगो जाणयं पञ्चक्खावेति सुद्धो, अयाणओ अयाणए पञ्चक्खावेति ण सुद्धोत्ति गाथार्थः ॥१६१६ ॥ मूलद्वारगाथायामुक्तः प्रत्याख्याता, साम्प्रतं प्रत्याख्यातव्यमुक्तमप्यध्ययने द्वाराशून्यार्थमाह दरचे भावे य दुहा पचक्खाइब्वयं हवइ दुविहं । दव्यंमि अ असणाई अन्नाणाई य भावंमि ॥१९१७ ॥ 'दबे भावे'गाहा व्याख्या-द्रव्यतो भावतश्च द्विधा प्रत्याख्यातव्यं तु विज्ञेयं, द्रव्यप्रत्याख्यातव्यं अशनादि, अज्ञा प्रत्यास्थान, यमायपि जानीतः किमपि प्रत्याश्यानं नमस्कारसहितं पौरुष्यादिकं वा, शोऽयं शापविस्वा प्रत्यास्यापयति, बधा नमस्कारसहितादिवमुकं त्वया प्रत्यास्थासमिति शुदमम्पधा न शुधे, भज्ञो ज्ञस्य पा प्रत्याश्याति म शुद्ध, प्रभुसंदिष्टादिषु विभाषा, भज्ञोऽज्ञस्य प्रत्याश्याति, शुद्धमेव, अन्न दृष्टान्तो गावः, यदि या प्रमाणं स्वाम्पपि जानाति गोपालोऽपि जानाति, योरपि जानानयो तिमूल्यं सुखं स्वामी ददाति इतरो गृकाति, एवं हौकिकी चतुर्भजी, एवं शो प्रमाणपापयति शुर्व, शोऽशेन केनचित्कारणेन प्रत्याश्यापयन् शुद्धः निष्कारणे व अयति, मजो प्रत्याश्यापयति शुद्धः मज्ञोज प्रत्यास्यापयति न शुद्धः । दीप अनुक्रम [८४-९२] htt * * * % 4 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1723~ Page #1725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१७] भाष्यं [२५३...] (४०) नाध्य. प्रत सूत्रांक आवश्यक नादि तु भावे-भावप्रत्याख्यातव्यमिति गाथार्थः॥ १६१७ ॥ मूलद्वारगाथायां गतं तृतीयं द्वारं, ईदाणि परिसा, साय पुषिप्रत्याख्या हारिभ-विष्णिता सामाइयणिजुत्तीए सेलघणकुडगादी, इत्थ पुण सविसेसं भण्णति-परिसा दुविधा, उवहिता अणुवहिता य, द्रीया उपट्टिताए कहेतवं, अणुवहिताए ण कहेतबं, जा सा उवहिता सा दुविधा-सम्मोवहिता मिच्छोवहिता य, मिच्छोवहिता ॥८॥१॥ जहा अज्जगोविंदा तारिसाए ण वद्दति कहेतुं, सम्मोवहिता दुविधा-भाविता अभाषिता य, अभाविताए ण वट्टति कहेतुं, भाविता दुविधा-विणीता अविणीता य, अविणीताए ण वद्दति, विणीताए कहेतवं, विणीता दुविधा-वक्खित्ता अवविखत्ता य, बक्षित्ता जा सुणेति कम्मं च किंचि करेति खिज्जति वा अण्णं वा वावारं करेति, अवविखत्ता ण अण्णं किंचि करेति | केवल सुणति, अवक्खित्ताए कहेयवं, अबक्खित्ता दुविधा-उपउत्ता अणुवउत्सा य, अणुवउत्ता जा सुणेति अण्णमण्णं वा चिंतेति, उवउत्ता जा निश्चिन्ता, तम्हा उवउत्ताए कहेतवं । तथा चाह [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] दानी पर्वत, सा च पूर्व वर्णिता सामायिकनियुकी पीलधनकुटादिका, अन पुनः सविशेष मण्यते-पर्षद द्विविधा-पस्थिता अनुपस्थिता , अपस्थि| साये कथमितव्यं अनुपस्थितायै म कथयितम्ब, या सोपस्थिता सा द्विविधा-सम्यगुपस्थिता मिथ्योपस्थिता च, मिथ्योपस्थिता बथा भार्यगोविन्दाः, ताश्यै न युज्यते कथयित, सभ्यगुपस्थिता द्विविधा-भाविता प्रभाविता च, अभावितायै न युज्यते कथयितुं, भाविता द्विविधा-विनीता अविनीता च, भविनीतायै म युज्यते कथयितुं, विनीतायै कथयितव्यं, बिनीता द्विविधा-व्याक्षिप्ता अम्पानिप्ता च, ग्याक्षिप्ता या शृणोति कर्म च किचित् करोति विद्यते वा अन्य वाद व्यापार करोति, अभ्याक्षिप्ता नाम्यत् किञ्चित् करोति केवलं गोति, अम्बाक्षिप्तायै कथयितव्यं, अव्याक्षिसा द्विविधा-अपयुक्ता अनुपयुक्ताच, अनुपयुक्ता लाया पुणोति अन्यदन्यद्वा चिन्तयति, उपयुक्ता या निमिन्ता (सोपयुक्ता), तस्मात् उपयुकार्य कवितव्यं । JAMERatina mayou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1724 ~ Page #1726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१८] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक ACCOR सोउं उवटियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए । एवंविहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयव्वं ॥ १६१८ ॥ द्वारम् ॥ 'सो उचहिताए' गाहा व्याख्या-गतार्था, एवमेसा उवहिता सम्मोवद्विता भाविता विणीयाऽवक्खित्ता उवयुत्ता य, पढमपरिसा जोग्गा कहणाए, सेसा उ तेवढी परिसाओ अजोग्गाओ, अज्जोगाण इमा पढमा-वहिता सम्मोवहिता भाविता विणीया अवक्खित्ता अणुवउत्ता, एसा पढमा अजोग्गा, एवं तेवढिपि भाणितवा,-'उवठियसम्मोवडियभावितविणया य होइ वक्खित्ता । उवउत्तिगा य जोग्गा सेस अजोगातो तेवहि ॥१॥ एतं पञ्चक्खाणं पढमपरिसाए कहेजति, तबतिरित्ताए ण कहेतच,केवलं पञ्चक्खाणं सबमवि आवस्सयं सधमवि सुयणाणति । मूलद्वारगाथायां परिषदिति | गतमधुना कथनविधिरुच्यते, तत्रायं वृद्धवादः-काए विधीए कहितवं ?, पढम मूलगुणा कडेति पाणातिपातवेरमणाति, ततो साधुधम्मे कधिते पच्छा असढस्स सावगधम्मो, इहरा कहिज्जति सत्तिहोवि सावयधम्म पढम सोतुं तत्थेव ४ CXCE- MAX-र दीप अनुक्रम [८४-९२] एवमेषा उपस्थिता सम्बगुपस्थिता भाविता विनीताभ्याक्षिप्ता उपयुक्ता च प्रथमा पर्षदू योग्या कयनाथ, शेषा अयोग्या: विषष्टिः पर्षदः, अयोग्यानामियं प्रथमा-उपरिषता सम्बगुपस्थिता भाविता विनीता भण्याक्षिप्ता अनुपयुक्का, एषा प्रथमा भयोग्या, एवं विषष्टिरपि भणितम्या,-पस्थिता सम्बगुपजस्थिता भाविता विनीता च भवत्यव्याक्षिता उपयुक्ता योग्या शेषा अयोग्याविषष्टिः॥१॥ एतत् प्रवाण्यानं प्रथमाय पर्षदेच्यते, सव्यतिरिक्त चिन | xकथयितव्यं, न केवळ प्रत्याख्यानं सर्वमप्यावश्यकं सर्वमपि श्रुतज्ञान मिति । केन विधिना कवितव्य , प्रथम मूलगुणाः कथ्यते माणातिपातविरमणादयः, ततः साधुध कविते पक्षात् भवाठाप श्रावकधर्मः, इतस्था कथ्यमाने सावधानपि श्रावकधर्म प्रथमं धुत्वा तत्रैव w ittary ou मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1725~ Page #1727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६१८] भाष्यं [२५३...] (४०) आवश्यक- हारिभद्रीया प्रत सूत्रांक ॥८६२|| [सू.] वित्ती करेइ, उत्तरेत्ति] उत्तरगुणेसुवि छम्मासियं आदि कार्ड जं जस्स जोग्ग पञ्चक्खाणं तं तस्स असढेण कहेत ।। अथवाऽयं कथनविधिः नाध्य आणागिज्झो अस्थो आणाए चेव सो कहेयब्यो। दिडंतिउ दिढता कहणविहि विराहणा इअरा ॥१६१९॥ बारम् ॥ ___ 'आणागिज्झो अस्थो'गाहा व्याख्या-आज्ञा-आगमस्तग्राह्यः-तविनिश्चेयोऽर्थः, अनागतातिकान्तप्रत्याख्यानादिः आज्ञयैव-आगमेनवासी कथयितव्यो, न दृष्टान्तेन, तथा दान्तिका-दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपातायनिवृत्तानामेते दोषा भवन्तीत्येवमादिर्दष्टान्तात्-दृष्टान्तेन कथयितव्यः, कथनविधिः-एषः कथनप्रकारः प्रत्याख्याने, यद्वा सामान्येनैवाज्ञाग्राह्योऽर्थः-सौधर्मादिः आज्ञयवासी कथयितव्यो न दृष्टान्तेन, तत्र तस्य वस्तुतोऽसत्त्वात् , तथा दार्टान्तिका-उत्पादादिमानात्मा वस्तुत्वाद् घटवदित्येवमादिदृष्टान्तात् कथयितव्यः, एषः कथनविधिः, विराधना इतरथा-विपर्ययोऽन्यथा कथनविधेः अप्रतिपत्तिहेतुत्वाद् अधिकतरसम्मोहादिति गाथार्थः ॥ १६१०. ॥ मूलद्वारगाथोपन्यस्त उक्तः कथनविधिः, साम्प्रतं फलमाहपञ्चक्खाणस्स फलं इहपरलोए अ होइ दुविहं तु । इहलोइ धम्मिलाई दामनगमाई परलोए ॥ १६२० ।। ॥८६॥ __'पञ्चक्खाणस्स'गाहा व्याख्या-प्रत्याख्यानस्य-उक्तलक्षणस्य फलं-कार्य इहलोके परलोके च भवति द्विविध-द्विप्रकारं, तुशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, तथा चाह-इहलोके धम्मिलादय उदाहरणं दामनकादयः परलोके इति | त्ति करोति, उत्तरेति उत्तरगुणेष्वपि पाण्मासिकमादी करवा यद्यख योग्य प्रत्याक्यान तत्तस्मै माडेन कविताब, ACANCIAN दीप अनुक्रम [८४-९२] Jumionary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1726~ Page #1728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक 456-54OCOCCACANCIEOCOM गाथाऽक्षरार्थः । कथानकं तु धम्मिलोदाहरणं धम्मिल्लाहिंडितो णायचं, आदिसद्दातो आमोसधिमादीया घेष्पति । दा-15 मण्णगोदाहरण तु-रायपुरे णगरे एगोकुलपुत्तो जातीतो, तस्स जिणदासो मित्तो, तेण सो साधुसगासं णीतो, तेण मच्छयमंसपञ्चक्खाणं गहितं, दुभिक्खे मच्छाहारो लोगो जातो, इतरोवि सालेहिं महिलाए खिसिजमाणो गतो, उदिण्णे मच्छे दहुँ पुणरावत्ती जाता, एवं तिणि दिवसे तिण्णि वारं गहिता मुक्का य, अणसणं कातुं रायगिहेणगरे मणियारसेद्विपत्तो दामण्णगो णाम जातो, अहवरिसस्स कुलं मारीए उच्छिण्णं, तत्थेव सागरवोदसस्थवाहस्स गिहे चिहाइ, तस्थ य गिहे। भिक्खटुं साधुणो पाइहा, साधुणा संघाडइलस्स कहितं, एतस्स गिहस्स एस दारगो अधिपती भविस्सति, सुतं सस्थवाहेण, पच्छा सत्थवाहेण पच्छन चंडालाण अप्पितो, तेहिं दूरं जेतुं अंगुलिं छेत्तुं भेसि तो णिविसओ कतो, णासंतो तस्सेव गोस-| धिएण गहितो पुत्तोत्ति, जोषणस्थो जातो, अण्णता सागरपोतो तत्थ गतो तं दहूण उवाएण परियणं पुच्छति-कस्स दीप अनुक्रम [८४-९२] धम्मिहहिपिकतो ज्ञातव्यं, गादिशब्दात् मामशापध्याद्या गृधन्ते, दामनकोदाहरण तु राजपुरे नगरे एका कुलपुत्रो आयः, तस्य जिनदासो मित्रं, | तेन स साधुसकाशं नीता, तेन मत्स्यमांसमस्याण्यानं गृहीतं, दुर्भिक्षे मत्स्याहारो लोको जातः, इतरोऽपि श्यालमहिनाभ्यां निन्यमानो गतः, पीडितान् मत्स्थान दृष्ट्वा पुनरावृत्तिांता, पूर्व श्रीन दिवसान् बीन् वारान् गृहीता मुक्ताक्ष, अनशनं कृत्वा रामगृहे नगरे मणिकार सेमिपुत्रो दामनको नाम जातः, अष्टवर्षस्य मार्या कुलमुत्सन, तत्रैच सागरपोतसार्थवाहख गृहे तिति, सत्र च गृहे भिक्षार्थ साधयः प्रविष्टा, साधुना संघाटकीयाय कथिसं-एसस्य गृहखैध दारकोऽधिपतिभावी, श्रुतं सार्थवाहेन, पश्चात् सार्थवाहन असं चाण्डालेभ्योऽपितः, तैर्दूर नीत्वानुषि छिका भापितः निषियः कृतः, नश्यन् सदैव गोसंषिकेन (गोठाधिपतिना) गृहीतः पुत्र इति, यौवनस्थो जासः, अन्यदा सागरपोतस्तत्र गतःोपायेन परिजन पृच्छति-कवैषः, Hinaintary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1727~ Page #1729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] आवश्यक एस?, कथितं अणाधोत्ति इहागतो, इमो सोत्ति, ता लेहं दाऊं घरं पावेहित्ति विसज्जितो, गतो, रायगिहस्स बाहिपरिसरे प्रत्याख्या हारिभ देवउले सुवति, सागरपोतधूता विसा णाम कण्णा तीए अच्चणियवावडाए दिहो, पितुमुद्दमुदितं लेह दई बाएति-एतस्स। नाध्य द्रीया दारगस्स असोइयमक्खितपादस्स विसं दातवं, अणुस्सारफुसणं, कण्णगदाणं, पुणोवि मुद्देति, णगरं पविट्ठो, विसाऽणेण ॥८६३॥ विवाहिता, आगतो सागरपोतो, मातिघरअच्चणियविसज्जणं, सागरपुत्तमरणं सोतुं सागरपोतो हितयफुट्टणेण मतो, रण्णा दामण्णगो घरसामी कतो, भोगसमिद्धी जाता, अण्णया पयण्हे मंगलिएहिं पुरतो से उग्गीय-'अणुपुखमावबंतावि अणस्था तस्स बहुगुणा होति । सुहदुक्खकच्छपुडतोजस्स कतंतो वहद पक्ख ॥१॥' सोतुं सतसहस्सं मंगलियाण देति, एवं तिणि वारा तिणि सतसहस्साणि, रण्णा सुतं, पुच्छितेण सर्व रण्णो सिहं, तुडेण रण्णा सेट्ठी ठावितो, बोधिलाभो, पुणो धम्माणुहार्ण देवलोगगमणं, एवमादि परलोए । अहवा सुद्धेण पञ्चक्खाणेण देवलोगगमर्ण पुणो बोधिलाभो सुकुल कधितमनाथ इति इहागतः, अयं स इति, तसो लेखं बचा गृदं प्रापयेति विमष्टो गतः, राजगृहसा बहिः परिसरे देवकुले सुप्तः, सागरपोतदुहिता [विपानानी कम्पा, तथानिकाम्यापूतथा ए), पिवमुदामुदितं लेखं दृष्टा वाचयति, एती दारकाय अधीतामक्षितपादाय वि दातव्यं, अनुस्वारस्फेटन कन्यादान, पुनरपि मुश्यति, नगरं प्रविष्टः, विषाऽनेन विवाहिता, आगतः सागरपोतः, मातृगृहार्च निकाय विसर्जन, सागरपुषमरणं श्रुत्वा सागरपोतः इवय | 11८६३२॥ स्फोटनेन मृता, राशा दामनको गृहस्वामी कृतः,भोगसमृदिर्जाता, भन्षदा व पादनि माङ्गलिकः पुरतसस्पोट्टीत-श्रेषया भापतम्तोषनर्यास्तस्य बहुगुणा भवन्ति । मुखदुःखकक्षपुटको यस्य कृतान्तो वहति पक्षं ॥॥ श्रुत्वा शतसहस्रं मालिकाय ददाति, एवं बीन् वारान् श्रीणि पातसहस्राणि, राज्ञा श्रुतं, पृष्टेन सर्व शिष्टं राशे, तुष्टेन राज्ञा सेठी स्थापितः, योधिकाभा, पुनर्धमानुष्ठानं देषकोकामन, एवमावि परको के । अथवा बेन अस्यास्यानेन देवलोकगमनं Dपुनर्वाचिलाभः सुकुल दीप अनुक्रम [८४-९२] JABERanis Hindiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1728~ Page #1730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२०] भाष्यं [२५३...] (४०) प्रत सूत्रांक Roar% पञ्चायाती सोक्खपरंपरेण सिद्धिगमणं, केसिंचि पुणो तेणेव भवग्गहणेण सिद्धिगमणं भवतीति । अत एव प्रधानफलोपदर्शनेनोपसंहरन्नाह पञ्चक्खाणमिणं सेविकण भावेण जिणवरुदिह । पत्ता अणंतजीवा सासयसुक्खं लहुं मुक्खं ॥१३२१ ॥ 'पञ्चक्खाणमिण' गाहा व्याख्या-प्रत्याख्यानमिदं-अनन्तरोक्तं आसेव्य भावेन अन्तःकरणेन जिनवरोद्दिष्ट-तीर्थकरकधितं, प्राप्ता अनन्तजीवाः, शाश्वतसौख्यं शीघ्रं मोक्षम् आह-इदं फलं गुणनिरूपणायां 'पचक्खाणम्मि कते' इत्यादिना दर्शितमेव पुनः किमर्थमिति , उच्यते, तत्र वस्तुतः प्रत्याख्यानस्वरूपद्वारेणोक्तं, इह तु लोकनीतित इति न दोषः, यद्वा इत एव द्वारादवतार्य स्वरूपकथनत एव प्रवृत्तिहेतुत्वात् तत्रोक्तं इत्यनपराध एवेत्यलं विस्तरेण । उक्तोऽनुगमः साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतभेदभिन्नाः खल्वौषतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेषामध-15 ४स्तात् सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थ एते ज्ञानक्रियान्तरभावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चाहनायंमि गिण्हियब्वे अगिण्हियव्वंमि चेव अत्थंमि । जइयब्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम ॥ १६२२ ।। प्रत्यायातिः सौरयपरम्परकेण सिद्धिगमनं, केषाचित् पुनस्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धिगमनं भवतीति । दीप अनुक्रम [८४-९२] ASRSEENERSNEKHOLESTER CENTER मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1729~ Page #1731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२३] भाष्यं [२५३...] (४०) - - आवश्यक हारिभद्रीया प्रत्याख्या नाध्यक प्रत सूत्रांक 1८६४॥ [सू.] सम्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तवयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥ १९२३ ॥ ॥ इति पञ्चक्खाणनिजुत्ती समत्ता। श्रीभद्रबाहुवामिविरचितं श्रीमदावश्यकसूत्रं सम्पूर्णम् ॥ 'णातम्मि गेण्हितवे' गाहा व्याख्या-ज्ञाते-सम्यकपरिच्छिन्ने 'गेण्हितबे'ति ग्रहीतव्ये उपादेये 'अगिण्हितबंमित्ति अग्रहीतव्ये अनुपादेये, हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतिस्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थों | वा, एवकारस्ववधारणाथें, तस्यैव च व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः, ज्ञात एवं ग्रहीतव्ये अग्रहीतब्ये तथोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते 'अत्थंमित्ति अर्थ ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः सचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशख कण्टकादिः उपेक्षणीयस्तृणादिः आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिरग्रहीतब्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विपक्षाभ्युदयादिरिति, तस्मिन्न. यतितव्यमेव इति-ऐहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन यतितव्यमेव, प्रवृत्यादिलक्षणः प्रयतः कार्य इत्यर्थः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यग्ज्ञाने वर्तमानस्य फलाविसंवाददर्शनात् , तथा चान्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥११॥" तथाऽऽपुष्मिकफलप्राप्स्यर्थिना हि ज्ञान एव यति-- तव्यं, तथाऽऽगमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्त-"पदमणाणं ततो दया, एवं चिट्ठति सबसंजते । अण्णाणी किं काहिति किंवा णाहिति छेयपावयं ॥१॥" इतश्चतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात् तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रि अधर्म ज्ञानं ततो दया एवं तिइति सर्वसंयतः । अज्ञानी किं करिष्यति किं वा ज्ञास्यसि के पापर्क वा ॥1॥ दीप अनुक्रम [८४-९२] ॥८६॥ Janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~ 1730~ Page #1732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] आ० १४५ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१६२३] भाष्यं [२५३...] याsपि निषिद्धा, तथा चागमः - "गीतत्थो य विहारो बिदितो गीतत्थमीसितो भणितो। एतो ततियविहारो णाणुष्णातो जिणवरेहिं ॥ १ ॥” न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधेस्तटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्य उत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः सखायते [यतो ] यावज्जीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेद्यरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्मात् ज्ञानमेव प्रधान मैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितं ' इति जो उवदेसो सो णओ णाम'त्ति इति एवं उक्तेन भ्यायेन य उपदेशः ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः । अयं च नामादी पविप्रत्याख्याने ज्ञानरूपमेव प्रत्याख्यानमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, क्रियारूपं तु तत्कार्यत्वात् तदायतत्त्वान्नेच्छति, गुणभूतं चेच्छतीति गाथार्थः । उक्को ज्ञाननयोऽधुना क्रियानयावसरः, तदर्शनं चेदं क्रियैव प्रधानं ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह-'णायम्मि गेण्हितच्ये' इत्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैवमर्थ ऐहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात् प्रवृत्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिर्दृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तं- "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिनाऽपि गीतार्थ बिहारो द्वितीय गीतार्थनिश्रितो भणितः । इतस्तृतीयविद्वारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥ १ ॥ Education intimatio For Funny www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः ~ 1731 ~ Page #1733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.] दीप अनुक्रम [८४-९२] आवश्यकहारिभ या ॥८६५॥ Jus Educatio आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+निर्युक्तिः+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], निर्युक्तिः [१६२३] भाष्यं [२५३...] क्रियैव कर्त्तव्या, तथा मुनीन्द्रवचनमप्येवं व्यवस्थितं यत उक्तम् - "चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयण सुए य । सधेसुवि तेण कथं तवसंजममुज्जमंतेणं ॥ १ ॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् - यस्मात् तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवो, तथा चागमः- “बहुपि सुयमहीयं किं काही चरणविष्पहीणस्स ? । 'अंधस्स जह पलित्ता दीघसय सहस्सकोडीवि ॥ १ ॥” इशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तं, चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरं क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादईतोऽपि भगवतः समुपन्न केवलज्ञानस्यापि न तावत् मुक्त्यवाप्तिः सञ्जायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता इस्वपञ्चाक्षरोवू गिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मात् क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिक फलप्राप्तिकारणमिति य उपदेशः - क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः 'नयो नाम क्रियानय इत्यर्थः । अयं च नामादौ षविधे प्रत्याख्याने क्रियारूपमेव प्रत्याख्यानमिच्छति, तदात्मकरवादस्य, ज्ञानं तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूतं चेच्छतीति गाथार्थः । उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तवं १, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवाद्, आचार्यः पुनराह-'सन्वेसिं' गाहा, अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह - 'सव्वेसिंपि' गाहा व्याख्या'सर्वेषामिति मूलनयानां अपिशब्दात् तद्भेदानां च नयानां द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधयकव्यतां - सामान्यमेव विशेषा १ चैत्यकुळगणसङ्के आचार्येषु च प्रवचने श्रुते च सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंयमयोस्वच्छता ॥ १ ॥ २ सुवपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरणविप्रहीण अन्धस्य यथा प्रदीसा दीपशतसहस्रकोयपि ॥ १ ॥ For Patines Use Only ६ प्रत्याख्या नाध्य० ~ 1732~ ॥८६५॥ incibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः Page #1734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [६], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१६२३] भाष्यं [२५३...] (४०) E - प्रत सूत्रांक एव उभयमेवानपेक्षं इत्यादिरूपां अथवा नामादीनां नयानां कः के साधुमिच्छतीत्यादिरूपां निशम्य-श्रुत्वा तत सर्वनय-| विशुद्धं-सर्वनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात् सर्वे नया एव भावनिक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ।।१६२३॥ ॥ इति शिष्यहितायां प्रत्याख्यानविवरणं समाप्तमिति । व्याख्यायाध्ययनमिदं यदवाप्तमिह शुभं मया पुण्यम् । शुद्ध प्रत्या ख्यानं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥१॥ समाप्ता चेयं शिष्यहितानामावश्यकटीका ॥ कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो जाइणीमहत्तरासूनोरल्पमतेराचार्यहरिभद्रस्य । यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद, व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः । क्षन्तव्यं कस्य सम्मोहः, छद्मस्थस्य न जायते ॥१॥ यदर्जित विरच(मंच)यता सुबोध्या पुण्यं मयाऽऽवश्यकशाखटीकाम् ।भवे भवे तेन ममैवमेव,भूयाजिनोक्तानुमते प्रयासः॥२॥ अन्यच्च सन्त्यज्य समस्तसत्त्वा, मात्सर्यदुःखं भवबीजभूतम् । सुखात्मकं मुक्तिपदावहं च, सर्वत्र माध्यस्थमवामुवन्तु ॥३॥ समाप्ता चेयमावश्यकटीका । द्वाविंशतिः सहस्राणि, प्रत्येकाक्षरगणनया(संख्यया)। अनुष्टुप्छन्दसा मानमस्या उद्देशतः | कृतम् ॥१॥ अंकतोऽपि ग्रन्थानं २२००० %AE% E दीप अनुक्रम [८४-९२] RS R arayan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्तिः अत्र अध्ययनं -६- 'प्रत्याख्यानं' परिसमाप्तं ~ 1733~ Page #1735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G Education infamational इत्याचार्यवर्य श्रीमद्धरिभद्रसूरि सूत्रितसंक्षिप्त विवृतियुतं श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसूत्रित निर्युक्तिमूलभाष्य भाष्ययुक्तं श्रीमदावश्यकसूत्रं समाप्तं ॥ For Parts Only मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र ४०) "आवश्यक" परिसमाप्तः ~ 1734~ www.jancibrary.org Page #1736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 140 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / “आवश्यक मूलसूत्र” |मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: + नियुक्ति: + भाष्यं]। (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~1735~