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आगम
आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [सू.] / [गाथा-], नियुक्ति: [१४१०] भाष्यं [२२७...]
(४०)
आवश्यकहारिभद्रीया
४ प्रतिक
मणाध्या
प्रत सूत्रांक [सू.]
॥७५८॥
दीप अनुक्रम [२९]
व्याख्या-अभ्यंतरा भूत्रपुरीपादयः, 'तेहिं चेव बाहिरे उवलित्तो न कुणइ, अणुवलित्तो पुण अभितरगतेसुवि तेसु अह अञ्चणं करेइ ॥ १४१० ॥ किं चान्यत्
आउहियाऽवराहं संनिहिया न खमए जहा पडिमा । इह परलोए दंडो पमत्तछलणा इह सिआ उ ॥ १४११।। ___ व्याख्या-जा पडिमा 'सन्निहिय'त्ति देवयाहिट्ठिया सा जइ कोइ अणाढिएण 'आउट्टिय'त्ति जाणतो बाहिरमललित्तो तं पडिमं छिवइ अचणं व से कुणइ तो ण समए-खित्तादि करेइ रोग वा जणेइ मारइ वा, 'इय'ति एवं जो असज्झाइए सज्झायं करेइ तस्स णाणायारविराहणाए कम्मबंधो, एसो से परलोए उ दंडो, इहलोए पमत्तं देवया छलेजा, स्यात् आणाइ विराहणा धुवा चेव ॥१४११ ॥ कोई इमेहिं अप्पसत्थकारणेहिं असज्झाइए सज्झाय करेजारागेण व दोसेण वऽसज्झाए जोकरेह सज्झायं आसायणा व का से? को वा भणिओ अणायारो?॥ १४१२॥
व्याख्या-रागेण वा दोसेण वा करेजा, अहवा दरिसणमोहमोहिओ भणेज्जा-का अमुत्तस्स गाणस्स आसायणा को या तस्स अणायारो, नास्तीत्यर्थः ॥ १४१२ ॥ तेसिमा विभासा
तैरेव बहिरूपकिलो न करोति, अनुपलिया पुनरम्यन्सरगतेपपि सेष्वथार्चना करोति, या प्रतिमा देवताधिषिता सापदि कोऽपि अनादरेण जानानो बारामललिप्ततां प्रतिमा स्पृशति अर्चनं वा तस्याः करोति लाईन क्षमते-क्षिसचित्तादि करोति रोग वा जनयति मारयति वा, एवं योऽस्वाध्याबिके स्वाध्याय परोति तख ज्ञानाचारविराधनया कर्मबन्धः, एष तख पारलौकिकस्तु दण्डः, इहलोके प्रम देवता कहयेत् , माज्ञादि विराधना (वैव । कबिदेमिरप्रशस्तकारगरस्वाध्यापिके साध्यायं कुर्यात् । रामेण बाण का कुर्वान् , अथवा वर्शनमोहमोहितो भणेत्-भमूर्षस्थ ज्ञानस्य काऽऽशातमा ! को वा तयानाचार,तेषामियं विभाषा
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मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति:
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